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तुम कहाँ गए थे लुकमान अली : (दो)

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सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है?  उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है ?  किसी विश्वविद्यालय में क्या उनपर कोई लघु शोध भी  पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है.  

स्वदेश दीपक कहा करते थे कि ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है.’  बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष कहते हैं. और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली  लिए यह कहा है “फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है”.

विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं “सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना,बर्दाश्त करना,समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.”

सौमित्र मोहन पर समालोचन के इस दूसरे अंक में आप उनकी पंसद की नौ कविताएँ, लुकमान अली के चार हिस्से और इस कविता पर केदारनाथ अग्रवाल का आलेख पढ़ेंगे.
________________


कवि   ता  एँ


पैटर्न

मेरे पहले आने के पहले वह आएगा।

सूखी घास पर रेंगते कीड़े का कोई अर्थ नहीं है
वह गीली भी हो सकती थी या नहीं भी हो सकती थी

कुर्सी पर बंद पड़ी पत्रिका में किसी की भी कविता हो;
चाय पीते हुए मौसम की याद आ जाए या रविवार या शुक्रवार की
[ट्राम बंद होने की खबर ही तो है]

दीवार पर बच्चों ने कितनी लकीरें खींच दी हैं
                                   उनकी गिनती नहीं है।
सारंगी भी नहीं है, हिरन भी नहीं है, पतंग भी नहीं है
एक दीवार हैउस पर लकीरें हैं : ख्एक कौवा अभी-
अभी उड़ कर गया था अलगनी पर टँगे कपड़ों के ऊपर,

एक पेड़ है; उसकी छाल दिन-ब-दिन उतरती जा रही है
कल कोई आएगा और उसके चिकने हिस्से पर अपना
                      नाम लिख चला जाएगा।
कोई किसी की आँखों में क्यों देखता है स्वीकृति के लिए...
[एक बिस्तर है जो यूँ ही पड़ा रहेगा बिना सलवटों के]

मेरा घरनिबंध पर ब्लेड रख मैं अभी बाहर गया हूँ
बिना उढ़का दरवाजा बिना उढ़का ही है
न उसका रंग उड़ा है, न वह पुराना हुआ है, न गणेश
                     की खुदी तस्वीर खंडित हुई है
एक दरवाज़ा है, एक निबंध है, एक ब्लेड है; है;
[अन्दर से निकल कर कोई बाहर गया है अन्दर आने के लिए]







भागते हुए 
देर तक चलने वाली बातचीत में
एक चुप्पी    घुल गई थी और
उसके चुंबनों में
आने वाले दिनों की उदासी थी।

वह तपते हुए
आलोक में भी   अकेली थी
                       और भविष्य की
अँधेरी सुरंग तक पहुँच कर रुक गई थी।

अपने चारों ओर की तेज़ आवाज़ों में
एक हल्की सरसराहट की तरह
वह आकर्षित कर गई थी।

उसका शरीर संयम-तरंगों पर
झूल रहा था।
स्पर्श की ऊष्मा में       वह
                         अस्थिर खड़ी थी।
निर्वसन होकर भी         वह स्वप्नों से
                              ढंकी हुई थी।

वह उजाले में भी निपट अँधेरा थी;
और लंबी चुप्पी में
          टिकटिकाती घड़ी की
                   सुई थी।

समय के साथ भागते हुए वह थक गई थी।






देशप्रेम-1

लोग बैंडबाजे की इंतज़ार में खिड़कियाँ खोलकर चुपचाप खड़े हैं।
कोई करतब नहीं हो रहा।
देश ठंडी हवा को सूँघ कर उबासियाँ ले रहा है।
भीतर ही भीतर कोई उतर कर खो जाता है कहीं।

हमारे लिए आने वाला कल घिसे हुए उस्तरे की तरह धूप में पड़ा है।
सफर शुरू नहीं होता, खत्म होता है।
एक कमीने आदमी की तलाश में नामों का क्रम बदलता
रहता है और दुखती आँखों में गंदगी भर जाती है।
सिर्फ़ एक अहसास बाकी रह जाता है छलाँग का... कपड़े बदलने
में तारीखें और वार, खरगोश और हिन्दी, पीढ़ी और ढोल
जगह बदलते हुए एक घपला बन जाते हैं। अश्लीलता
सिर्फ़ रह गई है परिवार नियोजन के पोस्टरों में या घरों से
जा कर घरों में घुसते हुए या दल बदलने के साहसपूर्ण कार्यों में।

खाली मनिआर्डर लेकर अवतार आकाश से उतर रहे हैं। उन्हें सेवाएँ
चाहिए सारे देश की। लोग हैं कि चुपचाप खड़े हैं बैंडबाजे की
इंतज़ार में खिड़कियाँ खोल कर।
जुलूस में शामिल होकर एक रेडक्रॉस-गाड़ी उठा रही है :
पत्थर
फटे हुए झंडे
छुटी हुई चप्पलें
और लाशें पिछवाड़े पड़ी हैं; मकानों के दरवाज़ों में दीमकें व्यस्त हैं।






देखना-2                  

एक बहुत लंबी सफेद दीवार के पीछे से आधा दिखता 
वह आदमी       अपनी उपस्थिति को
                                     बेपर्द कर रहा है
साँझ की ताँबई रोशनी में
कठफोड़वे की बेधक गवाही के साथ।

बाल्कनी से दिखता
कपड़े प्रेस करता हुआ धोबी     पत्ते की तरह
                                                   हिलता है।
कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते
                                   मनकों की तरह यहाँ वहाँ
                                   बिखरे हैं
किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए।      

सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में
एक खड्डी मौन खड़ी है अपने परिवेश से
                                                   कट कर।
किसी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी की सीढ़ियाँ
                                                   चढ़ते/उतरते
                                                   दो औरतें
अपनी-अपनी एनजीओ  के बारे में सूचनाओं का  
आदान-प्रदान करते हुए सरकार को कोस रही हैं।

                                                   हिमालय पर छोड़े गए टनों कबाड़ के
इस ऐतिहासिक दौर में      कई दिनों से उदास रहे
                        एक पाठक ने
सज्जा-विहीन सादे कमरे में बैठ कर
कविता-पुस्तक का पन्ना
उँगली पर थूक लगा कर पलटा है।  
कुछ देर पहले तक
वह किलों के परकोटों के साए में
घूम रहा था     पीछे छूटी हुई जिंदगी को
           कोई तरतीब देने के लिए।

दीवार के पीछे से आधा दिखता आदमी
इस आश्चर्य को देख रहा है
कि भीड़ कैसे प्रतीक्षा को भर देती है!








चरागाह

एक सफेद घोड़ा दौड़ता हुआ नदी में कूदता है और पानी की
उछाल लेती झालर में छिप जाता है चरागाह और धोती
सुखाते हुए आदमी का पाँव।

जंगल जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      पाँव हट रहे
हैं जमीन से। बंद मुँह से निकलती हुई आवाज़ में भाषा
बन रही है। आहिस्ता से आदमी घर में घुस रहा है।

नहीं, अभी नहीं बदलना है हमें!एक नारा
फटे हुए झंडे के बीच में से सरक जाता है बिना किसी गुल के।
डर के।

फिर वही दृश्य है। घोड़े के पीछे से दिखता हुआ आदमी है।
दृश्य नहीं है : आदमी है। और प्रेम से खुले
होंठों में मक्खियों की कतार है। शब्द हैं; जिसके लिए
किसी को फिक्र नहीं है।

पानी जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      शरीर-धर्म
भूलता जा रहा है। आपे में नहीं कोई और केवल
एक सूँघ है जानवर के आसपास मँडराने की, जंगल
में खोए हुए आदमी के लिए तलाशी लिए जाने
की।

एक चरागाह और धोती में लिपटे पाँच इंच लंबे पाँव में
ठंड बस गई है।





 उर्फ़ की भाषा :

आज की ख़बरों पर ध्यान करें, न करें;
सेहत का ख्याल रखें : सिद्ध आसन

जब मैंने अपना हाथ परदे के पीछे छिपा लिया था तब
तुमने पान की बेगम मेज़ पर रख दी  थी  और उस
बात के लिए मुस्कराए थे जब हम दोनों कमरे
में हाथों का खेल खेलते रहे थे। आपने जामा
मस्जिद की वह गली नहीं देखी होगी जहाँ धूप
सबसे पहले बाँहों पर पड़ती है : यह अहसास
है। आप नाड़ा ढीला करें तो आपको भी होगा।
या आपको इस अँगूठी पर अभ्यास करना होगा
जिससे जमादार, छिड़काव, दरी का बिछना, दिल्ली
के मेयर का कुर्सी पर बैठना और आपकी पत्नी का
फालतू बाल साफ करते हुए दिखाना होता है।
हमारे लिए आसान है होना






षष्ठि पूर्ति

28मई 1968को दिल्ली में आयोजित
देवेंद्र सत्यार्थी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर


बासी    फल।। फल   में   कीड़ा।। कीड़े में चमक।।
चमक में घोड़ा।। घोड़े  पर  सवार।। सवार  पर  तोप।।
तोप पर सत्यार्थी।। सत्यार्थी का झोला।। झोले में कहानी।।
कहानी का नायक।। नायक की टाँग।। टाँग में जोड़।।
जोड़ में शतरंज।। शतरंज की चाल।। चाल में मात।।
मात में गुस्सा।। गुस्से में खून।। खून में पहलवान।।
पहलवान की चीख।। चीख में अँधेरा।। अँधेरे में गुम।।
बासी फल।।






झील

दिन बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसाकि उसने सोचा था।
वह अपने बेचैन होने के सबब को
घंटों (हाँ, घंटों तक!) आलमारी में ढूँढ़ता रहा था।

क्या तुम उस दृश्य के साक्षी थे
जब पानी झील में बदल रहा था?

यह झील पौराणिक नहीं थी। बल्किनहीं है।
कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं
और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं।

वह अपने दोस्त के आँसू पोंछने लगा है
और अपने पसीने की नमकीन हवा के साथ
कैमरे के सामने खड़ा हो गया है।
खटाखट फोटो उतर रहे हैंहवा के।
वह खुद कहाँ चला गया है?

वह वही है
जो कवि और कविता के दरवाज़ों पर
पहरेदार की तरह खड़ा है...





यथार्थवाद

मैंने सिर्फ देखा था।

एक गंध कई गज के घेरे में बसी हुई है।
तौलिया मुचड़ा हुआ है।
चादर अपने स्थान से हट कर
एक तरफ ज्यादा लटक गई है।
शिथिलता हवा को दबोचे है।

क्या अभी-अभी कोई
कमरे से बाहर गया है?

शायद!
मैंने तो सिर्फ देखा था।









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