(फोटो आभार - rehahn )
ज्योति शोभा की कविताएँ टूटे हुए प्रेम की राख से उठती हैं. ‘देख तो दिल कि जाँ से उठता है /ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’बरबस मीर याद आते हैं. तीव्रता तो है पर इसे और सुगढ़ किया जाना चाहिए. उनकी आठ कविताएँ .
ज्योति शोभा की कविताएँ
1)
तुम्हारी शक्ल मुझसे मिलने लगी है कोलकाता
अपनी छोटी सी देह में
मैनें संभाल कर रखी है तुम्हारी नग्न उंगलियां
उनसे झरते शांत स्पर्श
देखो कोलकाता
तुम सुख नहीं दे सकते
मगर मैं नाप सकती हूँ तुम्हारे सभी दुःख
रोबी को दिया तुमने विराट भुवन
मुझे अपना घर
इसी छोटे से गुलदान में
मैंने सजा दी है अपनी वेदना
कविता की तरह
जादू होता है यहाँ रहते
तपने लगती है मेरी पिंडलियाँ
हंसों के रेले छपाके से उड़ते हैं मेरे कपोलों से
दिन, दिन से नहीं बीतते
उनसे आती है एक महीन जलतरंग
रात जमा होती है नाभि पर
एक पर गिरती एक और बूँद
इन्हीं अनगिन पोखरों को पार करते
मछुआरों की छोटी डोंगियों में मिलती है
मुझे तुम्हारी गर्म, तिड़कती सांस
याद आता है मुझे
मेरा प्रेयस बाजुओं की ठंडी जगह पर रखता था अपने लब
कोलकाता, तुम कितना प्यार करते हो
बगैर बारिश के भी रखते हो तर मुझे
मैं चाहती हूँ तुम ले लो अब
मेरे उस बिसरे प्रेमी की जगह.
२)
तुम्हें पता नहीं
कितने मौसम चाह रहे हैं
मुझे ध्वस्त करना
मुझे प्रेम करते हुए ध्वस्त करना
मैं मुस्कुराती हूँ
तुम्हारा शुक्रिया है
तुम ये कर चुके हो पहले ही.
३)
एक लम्बी , कत्थई ट्रेन जाती है यहाँ से
तुम्हारे शहर
मैं नहीं जा सकती
एक नाज़ुक पत्ती , टूट कर
उड़ जाती है तुम्हारी खिड़की की ओर
मैं रह जाती हूँ
मचलकर
ये सांझ , ये पुरवाई
सब लाती है
एक आदिम सी व्यथा
जाने कवि कैसे लिखते हैं इसे
शब्दों से
ढक कर.
४)
मैं चोरी कर लाती हूँ तुम्हारे लिए
अपने गाँव की नदी, महुए का पेड़ और चुप चलती
कच्ची पगडंडियां
तुम चाहते हो मेरी चटकती धूप
मैं तुम में छाँह चाहती हूँ
खोये हुए प्रेम में कलेश जैसा कुछ नहीं होता.
५)
तुम आओगे जब तक
ख़त्म हो जाएंगी नज़्में
फिर ये पत्ते जो उड़ उड़ कर
बिखरे हैं सहन में
किसे आवाज़ देंगे
तुमको कोई और भी पुकारता होगा
मेरे सिवा
एक बार कहो नज़्मों से मेरी
ज़िन्दगी तवील है
मोहब्बत के सिवा
कुछ और भी करें.
६)
समस्त नक्षत्रों की शय्या किये
जो सोया है निर्विघ्न
उसे नहीं गड़ते
मेरी ग्रीवा को चुभते हैं
कुश के कर्णफूल
चंपा के हार खरोंचते हैं मेरा हृदय
मेरे मन को क्षत करते हैं लोकाचार के मन्त्र
मुझ में इतना शोक रहा
कि आ गयी अपनी देह उठाये शमशान तक
कठोर हुए मेरे
शव को अब अग्नि चाहिए
पर कैसा प्रेमी है वो
समस्त अग्नि कंठ में धारे कहता है
आओ प्रिये
सोवो मेरी तरह
कचनार पुष्पों पर , बिल्व पत्रों पर
क्लान्त मेरे चर्म पर
विस्मित सुरभि हो कर.
७)
जब कोई तेज़ी से बजाता है तुरही
मैं जान जाती हूँ
कोई मांगलिक कार्य संपन्न होने वाला है
शायद लौट आने वाला है प्रेमी
शायद खुलने वाली है
अधरों की गिरह
युद्ध का ख्याल नहीं आता
कतई नहीं.
८)
ये कैसे मंदिर हैं
जो स्वप्न में निर्जन द्वीपों की तरह आते हैं
उनकी मूर्तियों पर सिर्फ पत्ते रह गए हैं
मेमनों के मुंह से छूटे हुए
नितम्बों पर लकीरें हैं
कमल नालों की
सिन्दूर की धार बनी पड़ी है स्तनों के मध्य
जिन पर साफ़ दिखाई देते हैं समूचे संसार के जल को ढो रहे
चींटों के झुण्ड
उठो तो , उठो
कौन कसेगा इनके लहंगों की नीवी
कौन बाँधेगा पुष्पों की मेखला कटि पे
कौन तो उँगलियों से सरकते पारिजात के कंगन थामेगा
इनके पुजारी को कौन जगायेगा
जो सो रहा है मद के नशे में चूर
इस मंदिर को किसी दिन खोज निकलेगा कोई पुरातत्वेता
जल्दी उठो
एक खंड गिर गया है देखो
जहाँ से संसार को दिख जायेगी उसकी प्रीति
क्या नहीं हो सकते तुम खड़े उस जगह
अंकपाश के चिन्ह को ढकना नहीं जानते अंकपाश से.
______ज्योति शोभा अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं.
"बिखरे किस्से"पहला कविता संग्रह है. कुछ कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संकलनों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
jyotimodi1977@gmail.com