नैनीताल से रातीघाट के बीच ट्रेकिंग के लिए कुछ उत्साही लोग इसी बारिश में निकल पड़ते हैं. उनके अनुभव क्या रहे? वे विविधताओं से भरे पहाड़ में क्या कुछ देख पाए?
एकदिवसीय ट्रैकिंग का यह दिलचस्प संस्मरण आपके लिए.
मानसून के बीच वर्षा वन की सैर
(एकदिवसीय पथारोहण का संस्मरण)
भास्कर उप्रेती
22 जुलाई रविवार का दिन, मौसम विभाग की ओर से भारी बारिश का अलर्ट जारी हुआ था. अपवादस्वरूप, अलर्ट सच भी साबित हुआ. कम से कम पहाड़ों पर कई जगह अच्छी बारिश हुई थी. यह दिन पहले से ही एकदिवसीय ट्रैक करने के लिए सोच लिया गया था. आईडिया था कि जंगल में बारिश संग चलेंगे. बारिश में जंगल को और प्रकृति को महसूस करेंगे. खुद को भी इसी प्रकृति का हिस्सा मानते हुए.
प्रकृति के बीच जाने और उसमें शामिल होने का ख़याल ही आपको एक बड़ी दासता से मुक्त कर देता है. हालाँकि, पूरी तरह प्रकृतिस्थ होना संभव नहीं. हमारी चिंताएं, हमारे सरोकार, हमारी भाषा, हमारा बौनापन, हमारा अहंभाव, हमारा तुच्छपना भी यात्राओं में हमारे साथ चला ही आता है. मगर जिस भी परिस्थिति में घूमें, घूमने के अपने फायदे तो हैं ही. महान लेखक अनातोले फ़्रांसकहते हैं; “घूमने से हमें वह मिलता है जो कभी मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच का सीधा-सीधा नाता था”.
प्रकृति के बीच जाने और उसमें शामिल होने का ख़याल ही आपको एक बड़ी दासता से मुक्त कर देता है. हालाँकि, पूरी तरह प्रकृतिस्थ होना संभव नहीं. हमारी चिंताएं, हमारे सरोकार, हमारी भाषा, हमारा बौनापन, हमारा अहंभाव, हमारा तुच्छपना भी यात्राओं में हमारे साथ चला ही आता है. मगर जिस भी परिस्थिति में घूमें, घूमने के अपने फायदे तो हैं ही. महान लेखक अनातोले फ़्रांसकहते हैं; “घूमने से हमें वह मिलता है जो कभी मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच का सीधा-सीधा नाता था”.
तो इस बार हमने अपना मानसून ट्रैक चुना- नैनीताल से रातीघाट का पैदल मार्ग. यह करीब 12 किलोमीटर लंबा ट्रैक है. इस ट्रैक में डांठ से चलकर आप पहले दूनीखाल तक पहुँचते हैं. दूनीखाल से एक रास्ता आपको चौर्सा गाँव के रास्ते रातीघाट पहुंचाता है. दूसरा भवाली गाँव (भवाली नहीं) के श्मशान घाट से पहुँचाता है- निगलाट और कैंची धाम. कहीं-कहीं दुबटीयों-तिबटीयों और चौबटियों पर थोड़ा भ्रम होता है. मगर, सहज बुद्धि से आप सही-सही या तकरीबन सही रास्ते को पा जाते हैं. बने हुए रास्ते दरअसल पुराने यात्रियों के अनुभव और समझदारी का परिणाम होते हैं. जाहिर है वह बहुत सारे जोखिमों के बाद निकाले गए निष्कर्ष होते हैं. एक बार कौसानी से द्योनाई के ट्रैक पर हमें जोखिम उठाने की सूझी. चीड़ वन में यूँ भी पुराने रास्ते खोजना मुश्किल होता है, लेकिन अब उस पर भी मनमाना हो लें तो फिर कोई गुजर नहीं. हुआ यही जैसे-जैसे आसमानी रंग गाढ़ा होता गया हम उतने ही पगलाये पैर पटकते रहे. फिर रात हुई और आधीरात. टॉर्च जो थीं वो बुझा गईं. भटक जाने के अहसास ने हमें चिड़चिड़ा भी बना दिया.
हम चार जन थे और हमारे चार अपने-अपने रास्ते थे. खैर गहरी रात्रि में हमें जंगल के एक कोने से दूर कहीं गाँव की रौशनी दिखाई दी. फिर हम किसी तरह घुटने फोड़-फोड़कर, पिरूल में रगड़-रगड़कर गाँव की सरहद तक पहुँच पाए. सुबह मालूम पड़ा ऊपर देखने पर कि हम रात को एक बेहद खतरनाक कफ्फर (चट्टान) में मंडरा रहे थे. ऐसा ही एक अनुभव हल्द्वानी से भद्यूनी ट्रैक करते हुए जंगल में हुआ. हम अंततः एक आक्रांत भेव (कांठा) में जा अटके, और फिर हमारे पास अँधेरे में उससे फिसलकर नीचे सरकने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. नीचे हम झाड़ियों में उलझ गए, जिसे बाद में किसी ने भालुओं की राजधानी बताया. यात्राओं में जोखिम उठाये जा सकते हैं और उठाए जाने चाहिए, लेकिन तब मन:स्थिति बहुत पक्की होनी चाहिए.
समय की कमी हो और कम बजट में करना हो तो यह (नैनीताल- रातीघाट ट्रैक) हल्द्वानी-रामनगर के करीब में एक बेहतरीन ट्रैक है. यदि इसे नैनीताल के पर्यटन के साथ जोड़ दिया जाता तो शायद नैनीताल पहुँचने वाले पर्यटक जलालत की भावना के साथ नहीं गर्व की भावना से वापस लौटते. नैनीताल के साथ यूँ तो किलबरी-कोटाबाग, वल्दियाखान-बसानी जैसे एकदिवसीय ट्रैक भी जोड़े जा सकते हैं. कुंजखड़क-बेतालघाट भी एक अच्छा आकर्षण हो सकता है.
बारिश की आमद के बीच हम सुबह 9.40 में नैनीताल डांठ से स्नो व्यू के लिए रवाना हुए. करीब 10.30 में हम यहाँ पहुंचे. इस बीच हमने अपने नैनीताल के दिनों को याद किया. नैनीताल की सबकी अपनी-अपनी स्मृति थी. स्मृति-यात्रा में रवि मोहन और विनोद जीना की यादें ही अधिक आयीं. स्नो व्यू पहुंचकर हमें याद आया हममें से किसी ने भी नैनी झील की तरफ नहीं देखा था. पता नहीं ऐसा आत्मज्ञान हमें कहाँ से मिला होगा. स्नो व्यू में बिड़ला बैंड पर हमने चाय पी और कुछ रसद अपने बैगों में भर लिया.
शुरुआत में हमारा सामना स्नो व्यू पर्यटन केंद्र और बिड़ला स्कूल से बहकर आ रही गाद से हुआ. लेकिन, धोबीघाट तक आते-आते प्रकृति का रंग जमने लगा. अंग्रेज बहादुरों ने अपने से जो बेहतरीन ट्रैक बनाया था, वह आज भी हमारे काम आ रहा है. और इस राह से गुजरने वाले भारतवासियों को लज्जित भी करता है कि हम ऐसी कितनी जगहें बना पाए या बनी हुई जगहों को ही कितना सम्मान दे सके.
नैनीताल जलागम क्षेत्र में थोड़ी बहुत बारिश पहले भी हो चुकी थी, हर तरफ हरियाली का राज था. रंग-बिरंगे च्यो (जंगली मशरूम) जगह-जगह से अपनी छतरियां उठाए बैठे थे. बांज और बुरांश के पेड़ों पर गहरी काई जमी थी. कई जगहों पर नम पत्थरों पर जूला (झूला), साँप का मामा हमें मिला, कई ऐसी वनस्पति जिन्हें हम नाम से नहीं जानते. सबसे अधिक हर जगह से फूटते-बहते-निकसते जल श्रोत.
लहरियाकाँटा और बिड़ला स्कूल के बीच के जंगल से एक बेहद दिलकश नदी बहती है. इसे आकाशगंगा जैसा कुछ कहना सार्थक होगा. यह तीखे ढलान से दौड़ती हुई आती है. बाकी मौसम में यह गुमसुम बहती है लेकिन बारिश के दिनों में यह फुफकारती हुई बहती है. इसका पथ सर्पिलाकार है. इससे यह दौड़ते हुए झरने का भी भ्रम पैदा करती है. रास्ते में मिले बटोहियों (ग्रामीणों) से इसके बारे में पूछा तो वह इसका नाम नहीं बता पाए. नीचे भवाली गाँव में कैम्प साइट के मालिक साहजी को भी इसका नाम नहीं मालूम था. शायद इसका कोई नाम है ही नहीं. नदी बाद में गहरे खड्ड में गिरती है और फिर दूनीखाल से पहले किलबरी से आने वाले गदेरे के साथ कहीं नीचे गहराई में संगम करती है. ट्रैक बहुत ऊपर है नदी बहुत नीचे. बस सूसाट-भूभाट ही कानों को नसीब होता है.
यहाँ की वानस्पतिक विविधता अमेजन वर्षावन की भांति महसूस होती है. नम चौड़े पत्ते के वन और वनस्पतियाँ यहाँ इफरात में हैं. अच्छे जंगल के लिए आसमान छूते विशाल वृक्ष ही नहीं उलझी लताएँ, भांति-भांति की घास, कम ऊंचाई वाले झाड़ीनुमा पेड़, मिट्टी पर पत्थर पर काईदार परतें यह सब यहाँ मिलता है. टेरीडोफायटा परिवार की प्रजातियों की (जिस समूह से लिंगूड़ ही एक स्थानीय नाम याद आता है) की यहाँ बहुतायत है. मौस यहाँ खूब हैं, पत्थर में उगने वाली हरिता भी है. पेड़ों में भी तरह-तरह के झूले (शायद इसलिए इन्हें झूला नाम दिया गया हो), पुष्पदार और गैर-पुष्पदार दोनों तरह के, और जल प्रजातियाँ जिन्हें शायद स्परमाटो-फायटा कहते हैं. इतिहास हमें बताता है कि फर्न जाति मनुष्य जाति के विकसित होने से बहुत पहले धरती में आ गए थे और आज भी वह धरती की हरियाली के सबसे बड़े रक्षक हैं. धरती का होना मतलब नमी का होना. नमी नहीं रहेगी तो किसी भी तरह का जीवन अस्तित्वमान नहीं रहेगा.
कुछ समय पहले नैनीताल के वरिष्ठ प्रकृति विद् और वन विभाग के मुलाजिम विनोद पांडेजी ने बताया था कि नैनीताल के जंगलों से जोंक गायब हो गयी हैं. यह नैनीताल के प्राकृतिक स्वास्थ्य के लिए अशुभ सूचक है. हमें भी धोबीघाट से नीचे मिलने वाले पहले पुल तक यही लग रहा था. लेकिन, थोड़ी ही देर में हमारे पैरों में गुदगुदी होने लगी. जब पहली जोक नज़र आई तो हमने जोरो से इसका जश्न मनाया. हममें से प्रत्येक यात्री ने कामना की कि उन्हें अधिक से अधिक जोंक लगें. और हमारी कामना बहुत हद तक पूरी भी हुई. सबको जोंक ने खाया और उधेड़ा. भवाली गाँव की परली धार पार करने पर श्मशान से ठीक पहले हमने अंतिम जोंक के दर्शन का लाभ प्राप्त किया. यानी कि ट्रैक के पूरे नम हिस्से में हमें जोंक मिलती रहीं. यह फ़िलहाल के लिए आश्वस्ति है.
बर्ड वाचिंग के लिहाज से भी यहाँ की वन्यता काफी समृद्ध प्रतीत होता है. चिड़ियों के लिए ख्यात किलबरी वन बायीं तरफ करीब ही है. कोकलाज फीजेंट, पहाड़ी बुलबुल, गौरैया, पहाड़ी मैना (सिटौला) यहाँ आम तौर पर दीख जाती हैं, यह यात्रियों के भाग्य की बात है कि वह कौन सी नयी चिड़िया यहाँ देखते हैं. हमने यहाँ एक अनूठी चिड़ियाँ को दो-तीन जगहों पर देखा, वह जब उड़ती है तो उसके पंखों का निचला रंग पीला और हरा दिखाई देता है. कुछ चिड़ियाँ हमने देखी तो नहीं लेकिन उनकी आवाज हमारे लिए नई थी. छोटे आकार की कई तितलियाँ हमने देखीं, जिनके रंग चटख थे. यदि हम बारिश के थमने का इंतजार करते तो हमें और अधिक तितलियाँ दिखतीं. कैंची धाम की ओर उतरते जंगल में हमें कुलाँचें मारता काकड़ (हिरन प्रजाति, माउंटेन गोट) दिख गया, जो हमारी यात्रा को सफल करने के लिए उद्दीपक बना.
पिछली बार जब हमने नैनीताल से भवाली का ट्रैक किया था भवाली गाँव होते हुए तो यहाँ सड़क कटनी शुरू हुई थी. इस बार सड़क मोटर आने लायक हो गयी है. हालाँकि इसमें अभी बुलडोजर और जेसीबी काम कर ही रहे हैं. दो नेचर रिसॉर्ट्स ‘चौखम्बा’ और ‘वालनट’ नाम से यहाँ खुल गए हैं, जिनका मकसद तो नेचर वाक और बर्ड वाचिंग बगैरा है, लेकिन अभी उसके लिए उनके पास पर्याप्त तैयारी नहीं है. असल मकसद तो नैनीताल-मार्का टूरिस्ट हो ही यहाँ लाना है, ताकि उनका स्वाद बदल सकें. पर्यटन व्यवसाइयों के लिए सरकार की ओर से कोई मार्गदर्शन भी नहीं है. और इन दिनों तो जिस तरह की सरकारें आ रही हैं, उन्हें न ही सुना जाय तो बेहतर.
चौखम्बा में तो होटलकर्मी जोंक को मारने के लिए अपने प्रांगण में नमक का छिड़काव कर रहे थे. यह है हमारी चाहतों का विकास, लेकिन प्रकृति को यह रास आएगा या नहीं भविष्य बताएगा. आज के दिन कोई भी ग्रामीणों को यह कैसे समझा सकेगा कि जिस विकास की चाहत आप पाल रहे हैं, वह आपके विनाश की बुनियाद रख रहा है.
जंगल की सीमा में जब हमारे साथियों को पहली बार बिजली का तार दिखा तो वह जोर-जोर से चिल्लाए विकास-विकास. फिर हमें जहाँ-जहाँ नमकीन के रैपर, बीयर-शराब की बोतलें, पानी की बोतलें दीखती हम ‘विकास-विकास’ चिल्लाने लगते. एक अच्छी-भली जगह में हमें लेंटाना की झाड़ी दिखी तो हम फिर ‘विकास-विकास’ चीखे.
हम लोग नैनीताल (2084 मीटर) से स्नो व्यू (2270 मीटर) होकर कैंची धाम (1400 मीटर) के ट्रैक पर चले. पहले करीब 200 मीटर उठे और फिर 800 मीटर गिरे. बावजूद इसके मार्ग में मिलने वाली दृश्यावलियाँ आपको कहीं पर भी ऊँचाइ बदलने का अहसास नहीं होने देती. कैंची धाम तक की एकदम ढालू उतार में पैरों के नाखून जरूर चुभने लगते हैं. बारिश के कारण हमारे पैर गीले-गलगल हो चुके थे सो यह अहसास कुछ अधिक हो रहा था. फिर अब हम एकरस चीड़-वन में भी थे, जो उदासी पैदा करते हैं और विविधतावादी विचार का भी निषेध करते हैं.
करीब 4.30 बजे हम कैंची के करीब किरौला भोजनालय में थे. यहाँ से हमने वापसी की गाड़ी पकड़ ली. और भीमताल से हल्द्वानी की ओर मुड़ते हुए जब हमने बोहराकून से हल्द्वानी नगर को देखा तो वह भी आज पुरसुकून दिलकश लग रहा था. यह भाव बदला हुआ नजरिया भी हो सकता है. हमारे भीतर का परिवर्तित भाव.
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(यात्राकार- पीयूष जोशी- हल्द्वानी, रवि मोहन-पंतनगर, विनोद जीना-हल्द्वानी, भास्कर-हल्द्वानी)
chebhaskar@gmail.com
मोब- 9456593077