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मंगलाचार : प्रतिमा तिवारी












प्रतिमा तिवारी की कवितायेँ      

प्रतिमा तिवारी (इलाहबाद (उत्तर-प्रदेश)की कवितायेँ ध्यान खींचती हैं. शिल्प पर उनकी अच्छी पकड़ है. कविताओं में विविधता है. एक खुदमुख्तार और खुद्दार स्त्री की अनेक मुद्राएँ यहाँ मिलेंगी.


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अजन्मे की पीड़ा सहते हुए

एक प्रश्न, जो हर बार उठने के साथ ही
उतना ही असहनीय और कठोर रहा
उसके तीखेपन को अपने कानों में समेट
शिराओं से दौड़ते हुएदिल पर निचोड़
मन की खटास को इमलियों में लपेट चूसते हुए
अपनी सारी इच्छाओं को बलवती कर उसने
अपनी नाभि पर एक हलचल महसूस की

मन के तूफान थम जाते उसके पहले
हलक में उँगलियाँ डाल कर उसने उल्टियाँ की

ईश्वर के अन्याय को चुनौती समझ
सारी उलाह्नाओं को समेटपोटली बना
अपने सपाट पेट पर बाँध लिया

अपने भीतर पलते हुए सहअस्तित्व को
सारी संवेदनाओं के साथ महसूस करते हुए
अपने आकार को बेडौल सा विस्तार देकर
कमर को कमान बना झुकती रही

समय पर
अपनी कामनाओं को पककर
फूटता हुआ महसूस करने के लिए
नाखूनों से खरोंचकर स्वयं उसने
अपनी देह पर जीवन के चिन्ह उकेरे

और फिर सारी वेदनाओं से बढ़कर
प्रसव-पीड़ा की तीव्रता से भी अधिक
अगाध पीड़ा को सहते हुए उसने एक
अजन्मे शिशु को जन्म दिया !
(इस दर्द के बाद वो आने वाले सारे खुशहाल पलों की माँ है)






जीवन प्रमेय के बागी

मैं
पाईथागोरस के प्रमेय
की तरह मुश्किल हूँ
मगर
मेरा हल है
क्यूंकि सुलझी हुई हूँ
उलझी हुई हूँ उनके लिए
जो खुद सुलझे नहीं हैं
मेरे भीतर कई मोड़ हैं
अपने टेढ़ेपन को छोडकर
सीधा चलते हुए
पहुंचा जा सकता है मुझतक

मैं
अपने वक्त से
कुछ कदम आगे हूँ
इसलिए इस वक्त,
इस घड़ी में
ठहरे हुए लोगों के
दिमाग के सांचे में
बराबर नहीं बैठती

मगर जिस रोज तुम यहाँ पहुंचोगे
तुम जान जाओगे सच
लेकिन फिर मैं कुछ कदम आगे रहूंगी
और हमेशा की तरह बागी
तुम्हारी निगाह में.




सितारों की चाल

वो कौन सी घड़ी थी
जिस घड़ी सितारों ने
अपनी चाल बदल दी

जिस घड़ी मुझे, मेरे नक्षत्र ने
अपने सारे गुणों से सींचकर
मुझसे विदा ले लिया

उस एक क्षण में
जमीन पैरों से निकल गई
अम्बर अपने विस्तार के साथ
मेरी बाहों में सिमट गया

उस एक पल ..जब
तुम टकरा गए मुझसे
और मेरे करीब आकर फुसफुसाकर कहा
"सुनो ! क्या जानती हो तुम
कितनी भाप निकलती है
जब धरती पर पहली बारिश पड़ती है ?"
बस ठीक उसी पल
धरती के तप्त हृदय सी
बारिश की फुहारों से भीगती मैं
सितारों की चाल से मात खा गई

  


मैं ही मैं हूँ

मैंकई किलोमीटर तक फैली हुई हूँ तुममें
मैं ही हूँ, तुम्हारे मन का जंगल, दरिया, पर्वत-वादी
धडकता हुआ पुलउस पर दौड़ती हुई ट्रेन
उसकी खिड़की से पीछे छूटती पेड़ों की कतारें
उनको देखती तुम्हारी आँखें, सब मैं

तुम्हारे पैरों में बंधा चक्कर हूँ मैं
जिसके चलते तुम कभी थकते नहीं
तुम्हारी रगों में दौड़ता गर्म लहू
जो किसी मौसम जमता नहीं
तुम्हारे माथे पे चमकता पसीना भी मैं
मैं खुद ही समन्दर रोपती हूँ
तुम्हारे मन के थार में
जिसकी लहर में डूब कर तुम लगते हो किनारे

मैं ही हूँ वो, जो तुम्हारी आँखों की खिड़की से
दुनियादारी के पर्दे हटाकर मन के भीतर झांकती हूँ
तुम्हारे ज़िस्म में उतरकर तुम्हारे रूह की कुंडी खटखटाती हूँ !

(खोलो ये तिलस्मी दरवाज़े..ज़िस्म उतारकर रख दो यही कहीं )





मुजरा

अपनी आत्मा की सारी सच्चाई पर
रंग-रोगन भरी देह लपेट कर उसने
तबले की थाप पर थिरकना शुरू किया

उसके पाँव में बंधे घुंघुरू दरअसल
रात भर बहती आँखों के पारदर्शी टुकड़े थे
जो पाँव की हर थिरकन के साथ
उसके मन में चुभते रहे, फिर भी
मन के तूफान को रोक वो नाचती रही लगातार

कौन झाँकता उसकी आँखों में
वहां सबकी आँखों में लाल डोरे थे
इसलिए अपने दर्द को
काजल की सीमा रेखा में बाँध,
वो नाचती रही लगातार

तबले की थाप थम गई, मेहमान विदा हुए
उसका थरथराता ज़िस्म भी थिर हुआ फिर भी
ज़हन में उसके पाँव थिरकते रहे अनवरत
कानों में चुभते रहे बीवी दिलजान के बोल और
वो अपनी नींद में भी करती रही मुजरा.




  
मन के बहलावे

पाँव जमीं पे रख
कब तक चले हम ?
कभी हथेली रख
कभी दिल रख
कभी पूरा का पूरा आसमां दे

बोल, आखिर कब तक चले हम ?
कुछ तो सहारा कर
बाहों में उठा ले
कभी अपने पाँव उधार दे

अब और कब तक चले हम ?
हो सके तो रास्तों को समेट

अच्छा मंजिल को ही बुला दे.

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