Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

रंग- राग : सुई-धागा : सारंग उपाध्याय


























समानांतर फिल्मों के दौर में निम्नमध्यवर्गीय कथानकों को आधार बनाकर निर्मित यथार्थवादी सिनेमा पुरानी पीढ़ी के दर्शकों ने देखा है. आज मुख्यधारा की सिनेमा के बीच ‘ऑफ बीट’ सिनेमा ने भी कुछ सार्थक फ़िल्में प्रस्तुत की हैं. शरत कटारिया द्वारा निर्देशित सुई-धागा मेड इन इंडिया’ इसी तरह की फ़िल्म है.

समस्या यह है कि कस्बों और छोटे शहरों मे  सिनेमा हाल संस्कृति के उजड़ जाने के बाद ये अपने सम्बोधित दर्शकों तक पहुंच नहीं पा रहीं हैं. ऐसे में ये महानगरों के मध्यवर्गीय प्रशंसकों तक सिमट कर रह जा रही हैं, इससे इनके कथ्य और शिल्प पर भी प्रभाव पड़ रहा है. एक सीमा के बाद ये महानगरीय माल कल्चर से बाहर नहीं निकल पातीं.

सारंग उपाध्याय पिछले कई वर्षों से सिनेमा पर लिखते आ रहे हैं. सुई–धागा हमे क्यों देखना चाहिए ? आइये उनकी कलम से पढ़ते हैं.  



सुई-धागा
: व्यवस्था से संघर्ष, जीत और जश्न की कहानी       
सारंग उपाध्याय



Image may be NSFW.
Clik here to view.
(शरत कटारिया)





निर्देशक शरत कटारिया और निर्माता मनीष शर्मा की फिल्म ‘सुई-धागा मेड इन इंडिया’कमियों, तकनीकी खामियों के बीच हाल ही के दिनों में आई एक बेहतर फिल्म है. यह फिल्म शहरी और महानगरीय कोनों में छिपे-दुबके निम्न और गरीब वर्ग के जीवनसंघर्ष की कहानी है. यह उन लोगों की जीवनगाथा है जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में लंबे समय से पिछड़े, बार-बार हाशिए पर धकेले गए हैं और अब इस सिस्टम से जूझकर मुख्यधारा में शामिल होने के लिए दो-दो हाथ कर रहे हैं.


यह फिल्म सम्मान से हक की रोजी-रोटी कमाने निकली नई पीढ़ी की है. उसके व्यवस्थागत और पारिवारिक संघर्ष का लेखा-जोखा है. यह उन जीवट
, जुझारू और ईमानदार व संवदेनशील लोगों की व्यथा है जो अक्सर हमें रुपहले पर्दे पर अपने यथार्थ के साथ छोड़ जाते हैं. लेकिन उनके यथार्थ को बदलने कोई नहीं आता.
इस फिल्म में यथार्थ को बदला गया है और उसे बदलने वाले वे ही लोग हैं.

सुई-धागा,धोखेबाज, जालसाज और क्रूर व्यवस्था से लड़-भिड़कर अपने सम्मान को हासिल करने वालों की दास्तां हैं. बाजार और उसके हथकंडों में पीड़ित, शोषित और ठगे गए तबके का दिलेरी से जगह बनाने का किस्सा है.

इस फिल्म को अस्तित्व की जद्दोजहद के बीच रचती-पगती एक सुंदर कहानी के लिए देखा जाना चाहिए. यह फिल्म औसत से बेहतर स्क्रीन प्ले,  गंभीर पार्श्व गीत-संगीत, अभिनेत्री अनुष्का शर्मारघुवीर यादव के बेजोड़ अभिनय और निर्देशक शरत कटारिया के अच्छे निर्देशन के लिए भी देखी जाने की मांग करती है.

Image may be NSFW.
Clik here to view.




बीते एक दशक में फिल्मी कैमरे ने व्यवस्था के निम्नवर्गीय और हाशिये पर पड़े पीड़ितजन की कहानियों पर फोकस तो किया है लेकिन इसमें केवल त्रासदियां, संघर्ष और शोषण दर्ज हुआ है. ऐसी फिल्में कम बनीं हैं जो इस वर्ग के सपने, आकांक्षा और इच्छाओं को संजोती हों और उन्हें पूरा करने का रास्ता बताती हो.

लेकिन सुई-धागा इस व्यवस्था से जंग, जीत और जश्न की कहानी है.

फिल्म एक ऐसे निम्नवर्गीय परिवार की कहानी है, जिनके पुरखे दर्जी रहे,कपड़ा सिलने, उसके रंग-रोंगन और सिलाई-बुनाई कढाई का काम करते रहे. फिल्म का केंद्रीय पात्र एक युवा दंपती है. पति शहर में एक सिलाई मशीन की दुकान पर काम करता है. यह नौकरी कम गुलामी ज्यादा है. सामंती संस्कारों की जी हुजूरी में मसखरी और मनोरंजन की सेवा. सेठ जलील करता है उसका बेटा भरी दुकान में इज्जत उछालता है.

मौजी (वरुण-धवन)की पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) को भरी शादी में सेठ की नई बहू के मनोरंजन के लिए कुत्ता बने पति का अपमान रास नहीं आता. ममता के कहने पर मौजी यह गुलामी छोड़ देता है. कोशिश स्वरोजगार की होती है.

मौजी खुद भी अच्छा टेलर है, लेकिन पिता की मनाही और अपने पुश्तैनी धंधे के अचानक डूब जाने का डर उसके आड़े आता है. एक ओर पिता का भय है तो दूसरी ओर गरीबी का. पत्नी हिम्मत देती है तो आगे बढ़ता है, लेकिन यह आगे बढ़ना इस व्यवस्था से जूझने, शोषित होने और अपमानित होकर इसमें थककर मिट जाने का उपक्रम है, जिसे फिल्म में खूबसूरती से फिल्माया गया है. 

पूरी फिल्म पात्र मौजी के इस व्यवस्था के आखिरी कोने से मुख्य सड़क तक पहुंचने के संघर्ष की है. सहारा केवल बाजार है और उसके बीच बड़े होते सपने हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया गया तो वह सपने ही उसे निगल जाएंगे. बाजार बलि ले लेगा. मौजी की कहानी इस व्यवस्था से संघर्ष कर थपेड़े झेलने की है.



फिल्म में आपको बुनकर, रंगरेज,कारीगर, ठेला चलाने वाले, ऑटो-रिक्शा वाले और छोटा-मोटा काम कर गुजर-बसर करने वालों की दुनिया दिखाई देती है. वर्ग में बंटी उस सामाजिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं जिसका हम भी हिस्सा हैं और उसे रोज महसूस करते हैं. फिल्मी पर्दे पर ऐसे दृश्य कई बार हमारी अपनी कहानी कहते हैं और जब पूरी फिल्म ही हमारी कहानी कहती है तो ऐसी फिल्में फिल्में भर नहीं रह जातीं, यह अपने दृश्यों, संवादों और कथानक में एक पूरी कविता होती है. हमारे दुखों का गान करती हुई.

फिल्म का स्क्रीन प्ले कसा हुआ है हालांकि कहीं-कहीं फिसलता भी है. लेकिन फिल्म की पृष्ठभूमिपरिदृश्य खामोशी में रचे गए दृश्य मन को छू लेते हैं. छोटी और तंग गलियां, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और कुरूतियों में फंसे मोहल्ले, तांक-झांक करते लोग, दैनंदिन जीवन संघर्षों में उलझे, काम से लौटते, काम तलाशते डरे-सहमे हुए पात्रों के दृश्य,एक लापरवाही के साथ शानदार रूप से बुने गए हैं.
यही दृश्य आपको कहानी के साथ बहा ले जाते हैं.

फिल्म के चुंटीले संवाद खूबसूरत हैं. कहानी इन्हीं से आगे बढ़ती है. विशेष रूप से केंद्रीय किरदारों के आपसी तंज, मनमुटाव, झगड़े, घटनाएं, हास-परिहास, दांपत्य जीवन के भीतर की खींचतान, आपको इस व्यवस्था के साथ एक संषर्घ यात्रा पर ले चलते हैं.
यह फिल्म दृश्यों से कहानी बुनती है और जिंदगी की उधेड़बुन दिखाती चलती है.

सुई-धागा निम्नवर्गीय जीवन की डेली डायरी है, जहां इच्छाओं का गला घोंटती नई ब्याहता है और घर के कामों में खटकर मर जाने वाली अधेड़ महिलाएं. यहां व्यवस्था में तितर-बितर होते युवा हैं और बचे रहने की उम्मीद में आत्मसम्मान का सौदा करने वाले बुजुर्ग.

मृत्यु यहां बेकारी, बेरोजगारी और कामधंधे के आगे बहुत छोटी है जबकि जीवन मांझी का पहाड़. सुई-धागा कस्बाई, ग्रामीण जीवन के संघर्ष का दस्तावेज है, जिसके कई पन्ने हमारी अपनी स्मृतियों में खुलते हैं और लंबे समय तक खुलते रहेंगे.  

ममता (अनुष्का शर्मा) और मौजी (वरुण-धवन) के कुछ दृश्य बेहद सुंदर और संवदेनशील बन पड़े हैं. विशेष रूप से सड़क पर पहली बार बैठकर खाना-खाना, जहां अनुष्का खाना खाते हुए रोने लगती है और रोने का कारण पूछने पर कहती है कि- जब से शादी की तब से पहली बार आज साथ में बैठकर खा रही.अनुष्का और वरुण का बस में चढ़ने वाला दृश्य अंदर कहीं छूकर चले जाता है. यह बेहद सुंदर सीन बन पड़ा है.
(बाबूजी) रघुबीर यादव और यामिनी दास (अम्मा) की कैमिस्ट्री माता-पिता के रूप दिल में उतर जाती है. यामिनी दास कैमरे पर मंझी हुईं नजर आती हैं. यह कलाकार पर्दे पर कम ही दिखी है और इनके बारे में जानकारी भी कम ही है, लेकिन फिल्म में पूरी तरह छाई हुई हैं. ये दोनों ही कलाकार संवादों और शरीर की भाषा से कब आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं आपको पता ही नहीं चलता.
फिल्म हमारे अपने जीवन का विस्तार है. नीचे से ऊपर उठने की कहानी. मुख्यधारा में आने की लड़ाई.

सटे हुए सीलन भरे मकानों और उसमें तंग और छोटे कमरों के बीच घूमता कैमरा आपको अपने गांव, मोहल्ले और कस्बे के भीतर ले जाएगा. लेकिन कुछ जगहों पर निर्देशक का कमर्शियल हो जाने का मोह आपका ध्यान भंग करता है. खासतौर पर दो हिस्से फिल्म की गंभीरता से छेड़छाड़ करते हैं और खटकते हैं.

पहला सीन- दुकान और शादी ब्याह के अवसरों पर नौकर को मालिक द्वारा कुत्ता बनाने का है और दूसरा अस्पताल में अचानक मां की मैक्सी देखकर रोगियों द्वारा भीड़ लगाकर ऑर्डर करने का है,जो फिल्म की कहानी को कमजोर करता है और उसे हल्का करता है. दोनों ही दृश्य फिल्म की लय को धक्का पहुंचाने वाले हैं.

हालांकि दूसरे दृश्य का ट्रीटमेंट ठीक होता तो उसे डाइजेस्ट किया जा सकता था क्योंकि विकासशील पूंजीवादी व्यवस्थाओं में अवसर ऐसे ही अनायास दस्तक देते हैं और जीवन बदल देते हैं. फिर भी बतौर पटकथा लेखक और निर्देशक शरत कटारिया को फिल्म के इन दोनों दृश्यों के बारे में सोचना चाहिए था. उन्हें धैर्य साधना था. इस तरह का ट्रीटमेंट फिल्म की बढ़ती कहानी के प्रति मोह भंग करता है.
फिल्म का संगीत बहुत सुंदर है और मन को छू लेता है. खासतौर पर यह गाना
कभी शीत लागा कभी ताप लागा
तेरे साथ का जो है श्राप लागा मनवा बौराया
तेरा चाव लागा जैसे कोई घाव लागा..!  

यह गाना काफी अच्छा है और सुनने लायक है. पपॉन और रोंकिणी गुप्ता ने इसे बहुत ही खूबसूरती से गाया है. यह जितना अच्छा गाया गया है,उतनी ही अच्छी लिरिक्स है. इस गाने को वरूण ग्रोवर ने लिखा है.
अनु मलिक मुझे दिनों बाद अच्छे लगे हैं. अच्छा संगीत रचने के लिए उन्हें बधाई.

बहरहाल, तमाम तकनीकी खामियों, जल्दबाजी और हल्की फिसलन के बाद सुई-धागा औसत से बेहतर फिल्म है और ऐसी फिल्में बननी चाहिए. यह फिल्म निम्नवर्ग के मुख्यधारा में शामिल होने के संघर्ष की रचना है. आर्थिक स्वतंत्रता चाहते ईमानदार, भोले-भाले और नियति व दुर्भाग्य की चोट से आहत पात्रों की कथा. उनके सम्मान से जीने की आकांक्षाओं, इच्छाओं और सपनों के पूरे होने की गाथा.
सुई-धागा में व्यवस्था अपनी खामियों, कमजोरियों और शोषण की परछाई के साथ मौजूद है. यहां व्यवस्था के कोने उघड़ते हैं और सामने आते हैं, जिन्हें देखकर सरकारें शर्मिंदा होती हैं और खाए-पिए अघाए और कमजोर का हिस्सा मारकर बैठे वर्ग की मोटी चमड़ी पर बल पड़ते हैं.

फिल्म के निर्देशक शरत कटारिया इससे पहले फिल्म दम लगा के हईशाबना चुके हैं,जो प्रभावित करने वाली फिल्म थी. उस फिल्म की कहानी और उसके केंद्रीय पात्र छोटे शहर के उसी मध्यवर्गीय धारा के थे जो कई कुंठाओं,  मानसिक विकृति,  हीन ग्रंथियों में गड्डमड्ड थे और वहीं से अपने जीवन की सुबह खोजते दिखाई दिए. इस लिहाज से यह फिल्म भी काफी अच्छी है.

दिल्ली से आने वाले शरत कटारिया नॉर्थ को बेहतर जानते हैं. वे पटकथा लेखक भी हैं और निर्देशक भी. बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म 10 एम लव थी. उन्होंने फिल्म भेजा फ्राय का लेखन भी किया है. वे सुई-धागा फिल्म के भी स्क्रीन प्ले राइटर हैं.
कमर्शियल और ग्लैमसर स्टार्स वरुण धवन और अनुष्का शर्मा के बीच ऐसी पटकथा के संतुलन को साधना अच्छे निर्देशन के संकेत हैं.

फिल्म में अनुष्का, रघुवीर यादव और यामिनी दास का अभिनय बेहतरीन है. अनुष्का कई किरदारों में खुदको साबित कर चुकी हैं. ममता भाभी का चेहरा आप भूलेंगे नहीं. अनुष्का का रोना, हंसना और उदास होना इस व्यवस्था में दबी, घुटी और बेचैन स्त्री का रोना, हंसना और उदास होना है. उनके चेहरे के सारे रंग एक कस्बाई स्त्री के चेहरे के रंग हैं जिसमें शोषण से उपजी पीड़ा छिपी है. यह किरदार यादगार बन गया है.
वरुण धवन एक कमजोर अभिनेता हैं. डायलॉग एक ही तरह से बोलते हैं. भावभंगिमा, ‘शारीरिक भाषा पर उन्हें बहुत काम करने की जरूरत है. जितनी फिल्में उन्होंनें अब तक की हैं उनमें वे निखरे नहीं हैं. एक्टिंग के लिहाज से फिल्म बदलापुर में उनका काम अच्छा था और उनसे उम्मीद थी कि वे और निखरेंगे लेकिन वे लगातार पीछे ही आए हैं. अभिनय के लिहाज से वे ढलान पर ही हैं. उन्हें बहुत कुछ सीखना है भले ही वे कचरा हिंदी वेबसाइट्स में आज तक फ्लॉप नहीं होने वाले बॉलीवुड स्टारका क्लि बेट हेडिंग लेकर घूमते रहें. वे एक मोनोटोनस अभिनेता हैं और उन्हें एक्टिंग ठीक से सीखना चाहिए.

फिल्म यशराज बैनर के तले निर्मित हुई है और इसके प्रोड्यूसर मनीष शर्मा हैं. वे डायरेक्टर, स्क्रीन प्ले राइटर भी हैं. बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म बैंड बाजा बाराज (2010)थी जिसके लिए उन्हें बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला है. वे शुद्ध देसी रोमांस, फैन और दम लगाके हईशा जैसी फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं. फिल्म दम लगा के हईशा को को नेशनल एवॉर्ड मिला है.
Image may be NSFW.
Clik here to view.
सुई-धागा मेड इन इंडिया फिल्म के लिए पूरी टीम को बधाई. इसे एक बार देखा जा सकता है.
________________ 


सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक 
Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi

sonu.upadhyay@gmail.com 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>