Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

संतोष अर्श की कविताएँ

$
0
0
(पेंटिग: लाल रत्नाकर)


युवा संतोष अर्श शोध और आलोचना के क्षेत्र में जहाँ ध्यान खींच रहे हैं वहीँ उनकी कविताएँ भी अपनी पहचान निर्मित कर रहीं हैं. भाव और भाषा को लेकर उनकी काव्य-प्रक्रिया उन्हें सुगठित और संतुलित कर रही है. निम्नवर्गीय प्रसंगों से निर्मित इन कविताओं में सादगी और विचलित करने की शक्ति है.

संतोष अर्श की कुछ नई कविताएँ






संतोष अर्श की कविताएँ                                






वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे

जिन्होंने नहीं निगला बचपन में कोई सिक्का
जलाया नहीं किसी गर्म खाने की चीज़ से अपना तालू
(वो उबला हुआ ज़मीकंद हो या आलू)
नहीं लगवाए कभी चप्पलों में टाँके
छुआ नहीं सुई-डोरा
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने साइकिल खड़ी करने के लिए
कभी नहीं ढूँढी कोई दीवार या टेक
माँग कर पी नहीं बीड़ी एक
नहीं बढ़ी जिनकी हज़ामत
नहीं किया एक तरफ़ का अशरीरी प्रेम
संभाल कर नहीं रखीं कागज़ की पुर्जियाँ और ख़त लंबे
नहीं चूमे किसी साँवली लड़की के होंठ
नहीं ख़रीदी मज़दूरी के पैसों से कोई कविता की क़िताब
जो नहीं रहे कभी भूखे
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने नहीं पिया चुल्लू से पानी
नहीं हिचकिचाए कभी अपना पूरा नाम बताने में
चमकदार चीज़ों से सहमे नहीं
नहीं की बिना टिकट यात्रा
और रही जिनके पास हमेशा
स्कूल की यूनीफ़ार्म,पेंसिलें,कॉपी और टिफिन बॉक्स
जिन्होंने जमा कर दी समय पर अपनी फ़ीस
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने नहीं दिया सूदख़ोर को सूद
बेकार नहीं बैठे रहे दिन भर
किसी गंदी चाय की ढाबली पर
गुजरते नहीं देखा गौर से क्रॉसिंग पर मालगाड़ी को
या एक हाथ से रिक्शा खींचते आदमी को
नहीं पी मुफ़्त की सस्ती शराब
नहीं किया बहुत सा समय यों ही ख़राब
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

और जब नहीं समझ पाएंगे
तो समझने की कोशिश करेंगे
मैं ऐसी ही कविताएँ लिखना चाहता हूँ
जिन्हें मेरे लोग समझने की कोशिश करें.

   





प्रसाद

मेरे गाँव का बूढ़ा पुरोहित
जीवन भर सत्यनारायण की कथा बाँचता रहा
देखता रहा पत्तरा
बिचारता रहा तिथि,चीरता रहा
समय के थान से शुभ महूरत की पट्टियाँ
यज्ञोपवीत,भूमिपूजन,गृह-प्रवेश, दाह-संस्कार
करता रहा संपन्न रुद्राभिषेक,
महामृत्युंजय का जाप कराता रहा.

रक्षा-सूत्र बाँधता रहा,शंख बजाता रहा
घंटी हिला-बजा
नहलाता रहा शालिग्राम को
चरवाहों के ख़ून से
चरणामृत बनवाता रहा
मवेशियों के दूध से.

स्पर्श कराता रहा
ईश्वर से भयभीत लोगों से अपने चरण
बताता रहा स्वयं को ईश्वर का बिचौलिया.  

एक दिन साठे से दस बरस ज़्यादा का
वह पुरा-पुरोहित
अपने पड़ोस के मज़दूर की बच्ची की
अविकसित छातियाँ जब मसल रहा था
मैंने उसे देखा कि,
छातियाँ मसलने के बाद
उसने दिया बच्ची को प्रसाद
दो बताशे
जो वह यजमान से दक्षिणा में लाया था. 







बालमन पिता

पिता ने जब पहली बार  
साइकिल के डंडे पर बिठाया
तो बताया था
कि हैंडल कैसे पकड़ना है
कि न कुचलें ब्रेक की चुटकी में उँगलियाँ.

पिता जब पहली बार
साइकिल पर मुझे बिठा कर निकले थे
तो असाढ़ सावन के महीने थे. 
कच्ची सड़क के दोनों ओर
धान के अवधी खेत डब-डब भरे
मेड़ों के ऊपर से बहता था पानी
पीले-पीले मेढक भये थे राजा
देते थे राहगीरों को निर्देश
बादलों तक पहुँचा दे कोई
उनके गुप्त संदेश.

पिता ने जब पहली बार
झोलाछाप डॉक्टर एज़ाज से
चिराये थे मेरे फोड़े
और लगवाया था इंजेक्शन
तो खिलाये थे पेड़े
पिता का विश्वास था
कि बालमन मिठास से दर्द भूल जाता है.

पिता शक्कर मिल में मजूर थे
और ज़िंदगी में बहुत दर्द था
तो क्या पिता आजीवन बालमन रहे ?



(पेंटिग: लाल रत्नाकर


यक़ीन   

मैं नहीं जानता
कि आसमान में कितने नखत हैं
गिनने की कोशिश ज़रूर की
लेकिन मेरी दादी को सबके नाम याद थे
यद्यपि वह पहनती थी
विधवा चाँदनी-सी झक्क सफ़ेद धोती.

मैं नहीं जानता
समंदरों में कितना पानी है
लेकिन एक ही औरत उसे मथकर
निकाल सकती थी मक्खन
और वो थी मेरी नानी
जिसकी मथानी के मंद्रन को
रोकने को लटक-लटक जूझते थे हरामखोर देवता
और गिर जाते थे दुधहन में.

मैं नहीं जानता
पृथ्वी पर कितनी घास है
लेकिन मुझे अपने गाँव की घसियारिनों पर यक़ीन है
कि वे सारी पृथ्वी की घास काट कर गठरियों में बदल देंगी
उनके लिए यह पृथ्वी
घास की एक गठरी से अधिक कुछ नहीं है.

मुझे यक़ीन है
कि चरवाहे चरा डालेंगे
धरती का प्रत्येक कोना
यदि मिल जाये उनके मवेशियों को छूट
चरवाहे कहते हैं
उन्हें विश्वास है 
यह धरती सबसे पहले एक चरागाह थी
इसलिए मुहे भी विश्वास है
कि आसमान में होती अगर घास
तो चरवाहे वहाँ भी पहुँच जाते.

मुझे यक़ीन है कि मेरा नाना
एक जोड़ी बैल
और लकड़ी-लोहे के हल-जुएँ से
अकेले जोत सकता था पूरी धरती
बो सकता था गन्ना
और उसी में फूटने वाली फुटककड़ियाँ.
मेरा नाना कहता था
उसने भूत-प्रेतों को पिलाई है चिलम
खिलाई है तमाखू
और उजली रातों में जुतवाएँ हैं उनसे खेत
मुझे इस ख़ब्त पर यक़ीन है.

मैं नहीं जानता कि यक़ीन क्या है
और यक़ीन को लोग क्या समझते हैं
लेकिन मुझे यक़ीन है
कि पृथ्वी को
चरवाहे,घसियारिनें,मवेशी
और भूत-प्रेत ही बचाएंगे.   




दुनिया में

मन करता है
कि उबहन से खुल गई
किसी औरत की बाल्टी
कुएँ से निकाल दूँ.

सखियों से पीछे रह गई
अकेली घसियारिन की भारी घास की गठरी
उठवा कर उसके सिर पे रखवा दूँ
ठीक कर दूँ छाती पर उसका आँचल
पकड़ा दूँ एक हाथ में हँसिया-खुरपा.

निकलवा आऊँ किसी दुर्बल की
नाले में फंसी लागर गाय को
लगा आऊँ किसी निपूते दंपति के
छप्पर में काँधा
डाल दूँ किसी बुढ़िया की सुई में डोरा
जो तागती है गाँव भर की
कथरियाँ और रजाइयाँ.

लेकिन न जाने किस दुनिया में रहता हूँ
न कुएँ हैं न घसियारिनें
न मवेशी हैं न छप्पर.
न जाने कैसी दुनिया में रहता हूँ
कि मन बहुत कुछ करता है
लेकिन तन कुछ भी नहीं करता.
____________________________


संतोष अर्श 
(1987, बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.


फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी  
 poetarshbbk@gmail.com  

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>