
जब कोई विचार समय की आवश्यकताओं को अचूक ढंग से अभिव्यक्त करने लगता है तब वह नारे में बदल जाता है जैसे ‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व’, ‘संसार के मजदूरों एक हो’, ‘अंग्रेजों भारत’ छोड़ों आदि. १९७० के आस पास स्त्रीवाद ने एक नारा दिया ‘Personal is political’. यह कैरोल हैनिच के आलेख ‘Notes from the Second Year : Women’s Liberation’ से जुड़ कर सामने आया था. जिसे हम स्त्री–पुरुष का व्यक्तिगत कह कर टाल देते हैं उसके भी गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं.
इस लेख के प्रकाशन के लगभग ३६ साल बाद कैरोल हैनीच ने WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) पर पुनर्विचार करते हुए एक भूमिका (२००६)लिखी थी, जो आज ‘मी–टू’ के इस दौर में प्रासंगिक हो उठी है. फिलहाल इस भूमिका का अनुवाद आपके लिए.
समालोचन में अपर्णा की कविताएँ, कहानियां, लेख और अनुवाद आप पढ़ते रहे हैं. उनके कार्यों में गुणवत्ता रहती है. इस अनुवाद का पुनरीक्षण शिव किशोर तिवारी ने किया है.
व्यक्तिगत भी राजनीतिक है
कैरोल हैनिच
‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ यह लेखपत्र मूलरूप से ‘नोट्स फ्रॉम द सेकंड इयर: विमेंस लिबरेशन इन 1970’ पुस्तिका में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था और बाद में व्यापक रूप से कई सालों तक पुनर्मुद्रित होकर आंदोलन और उसके परे लोगों तक पहुंचा. मैं इस बात से नितांत अनजान थी कि यह कितनी दूर तक पहुँच गया है. गूगल पर सर्च करने के उपरांत ही मुझे पता चला कि इस लेख पर नाना-भाषाओँ में ख़ासी बहस हुई है और यह खूब चर्चित हुआ है.
स्त्री उत्पीड़न के लिए स्त्री को दोषी ठहराने की जगह हमने पुरुष के वर्चस्व के खिलाफ मुहिम छेड़नी जरूरी समझी और इसी वजह से स्त्री के हक़ में खड़े होने वाली विचारधारा सामने आई. इसने उस पुरानी स्त्री-विरोधी विचारधारा को अपने यथार्थ भौतिकवादी विश्लेषण से कि ‘औरतें वैसा क्यों करती हैं जैसा वे करती हैं’ द्वारा चुनौती दी जो स्त्री शोषण के लिए रूहानी, ज़हनी, आध्यात्मिक और छद्म ऐतिहासिक दलीलें पेश करती थी. लेकिन जैसे ही औरतों को यह समझ आने लगा कि “औरतें उत्पीड़न की शिकार हैं और उन्होंने कोई गलती नहीं की है” तब केंद्र बिंदु निज से हटकर वर्ग संघर्ष पर केन्द्रित हो गया, जिसके लिए एक अलहदा स्त्री मुक्ति आन्दोलन की जरूरत महसूस हुई जो पुरुष वर्चस्व से मोर्चा ले सकता.
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(कैरोल) |
‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ यह लेखपत्र मूलरूप से ‘नोट्स फ्रॉम द सेकंड इयर: विमेंस लिबरेशन इन 1970’ पुस्तिका में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था और बाद में व्यापक रूप से कई सालों तक पुनर्मुद्रित होकर आंदोलन और उसके परे लोगों तक पहुंचा. मैं इस बात से नितांत अनजान थी कि यह कितनी दूर तक पहुँच गया है. गूगल पर सर्च करने के उपरांत ही मुझे पता चला कि इस लेख पर नाना-भाषाओँ में ख़ासी बहस हुई है और यह खूब चर्चित हुआ है.
मैं इस बात की तसदीक करना चाहती हूँ कि इस लेख का शीर्षक ‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ मैंने नहीं दिया था. जहाँ तक मेरी जानकारी में है यह शीर्षक ‘नोट्स फ्रॉम द सेकंड इयर’ के संपादकों शूली फायरस्टोन और ऐनी कोट ने उस समय दिया था जब कैथी साराचाइल्ड ने इसे आरंभिक संग्रह में छापने का प्रस्ताव रखा. और ‘राजनीतिक’ शब्द का इस्तेमाल यहाँ व्यापक अर्थों में किया गया था जो शक्ति–सम्बन्धों को इंगित करता था न कि चुनावी राजनीति के संकुचित अर्थ को.
दरअसल यह लेख फरवरी 1969 में फ्लोरिडा के गेन्सवेल में बतौर स्मृतिपत्र की तरह लिखा गया था. यह सदर्न कांफ्रेंस एजुकेशनल फंड की महिला बैठक के लिए भेजा गया था. मैं निर्वाह भत्ता आयोजक के रूप में दक्षिण के इस ग्रुप के लिए स्त्री मुक्ति प्रोजेक्ट हेतु अनुसंधानत्मक काम कर रही थी. विज्ञप्ति का शीर्षक मूलरूप से, “डॉटी के स्त्री मुक्ति संबंधी विचारों की प्रतिक्रिया स्वरुप कुछ विचार”रखा गया था. डॉटी ज़ेलनर जो स्टाफ मेंबर थीं उनकी एक विज्ञप्ति के जवाब में मैंने इसे लिखा था. उनका दावा था कि स्त्री जागृति बस एक तरह की मनोचिकित्सा है और उनका WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) से यह सवाल था कि इस तरह की चेतना क्या वाकई राजनीतिक है?
1969 के शुरूआती दौर में उग्र नारीवादी विचारों के प्रति यह कोई अजीबोगरीब प्रतिक्रिया नहीं थी. सारे देश बल्कि पूरी दुनिया में WLM जैसे संगठन पैदा हो रहे थे. मसलन नागरिक अधिकारों के लिए उग्र आन्दोलन, वियतनाम युद्ध विरोधी और नए-पुराने वामपंथी आंदोलन जिनसे हम जैसे पनपे थे, उन समूहों में भी पुरुषों का बोलबाला था और वे स्त्री मुक्ति को लेकर घबराये हुए थे, ख़ासतौर से कम समय में तेजी से विकसित होते उस स्त्री मुक्ति आन्दोलन की छाया से जिसकी मैं कट्टर हिमायती थी. मिसिसिप्पी नागरिक अधिकार आन्दोलन में दस माह तक हिस्सा लेने के बाद जब मैं न्यूयॉर्क पहुंची तो मैंने पाया कि SCEF कई संस्थाओं के अपेक्षाकृत कहीं अधिक गंभीर और प्रगतिशील संस्था थी.
‘न्यू डील’ के ज़माने से ही इसके नस्लीय, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के कामों से लोग वाकिफ़ थे और इसने अच्छा नाम कमाया था. 1966 में मैं इसके न्यूयॉर्क दफ्तर में बतौर व्यवस्थापक आई थी. SCEF के दफ्तर ने न्यूयॉर्क की उग्र सुधारवादी स्त्रियों को सभा इत्यादि करने की छूट दे रखी थी और मेरी ही गुज़ारिश पर दक्षिण में WLM को स्थापित करने की संभावनाहेतु छान-बीन के लिए राज़ी हो गयी थी. लेकिन बाद में SCEF के कई स्त्री और पुरुष कर्मचारी उन स्त्री जागृति समुदायों की बाल की खाल निकालने लगे, जो अपने शोषण की कहानियां सुनाती थीं. वे उन स्त्रियों के दुखड़े को आत्मकेंद्रित और मनोउपचार की तरह देखते थे– और निश्चित रूप से उसे राजनीतिक नहीं मानते थे.
कभी- कभार वे इस बात से सहमत होते थे कि स्त्रियों पर ज़ुल्म ढहाए जाते हैं (लेकिन केवल व्यवस्था के कारण) और मानते थे कि हमें समान काम के लिए समान वेतन मिलना चाहिए और कुछ अधिकार भी मिलने चाहिए लेकिन अपनी तथाकथित निजी समस्याओं को सार्वजानिक करने के कारण वे हमें दोयम दर्जे का मानते थे- ख़ास तौर से देह संबंधी मसलों– जैसे यौन आकर्षण और गर्भपात आदि उठाने की वजह से. घर के कामों और बच्चों की देखभाल में हाथ बंटाने की मांग को स्त्री-पुरुष का व्यक्तिगत मामला मान लिया गया. हमारे विरोधी दावा करते थे कि यदि औरतें अपने पैरों पर खड़ी हो जाएँ और अपने जीवन की ज़िम्मेदारी स्वयं उठाने लगें तो उन्हें स्वतंत्र स्त्री मुक्ति आंदोलनों की जरूरत नहीं रहेगी. और यह भी कहा गया कि जिन समस्याओं को निजी पहलकदमी दूर न कर सकी उसे अब क्रांति दूर करेगी, ताहम हम अपना मुंह बंद रखें और अपने-अपने दायित्व का निर्वाह करें. ख़ुदा के वास्ते यह ज़ाहिर मत करो कि औरतों के शोषण का लाभ पुरुषों को मिलता है.
स्त्री उत्पीड़न के लिए स्त्री को दोषी ठहराने की जगह हमने पुरुष के वर्चस्व के खिलाफ मुहिम छेड़नी जरूरी समझी और इसी वजह से स्त्री के हक़ में खड़े होने वाली विचारधारा सामने आई. इसने उस पुरानी स्त्री-विरोधी विचारधारा को अपने यथार्थ भौतिकवादी विश्लेषण से कि ‘औरतें वैसा क्यों करती हैं जैसा वे करती हैं’ द्वारा चुनौती दी जो स्त्री शोषण के लिए रूहानी, ज़हनी, आध्यात्मिक और छद्म ऐतिहासिक दलीलें पेश करती थी. लेकिन जैसे ही औरतों को यह समझ आने लगा कि “औरतें उत्पीड़न की शिकार हैं और उन्होंने कोई गलती नहीं की है” तब केंद्र बिंदु निज से हटकर वर्ग संघर्ष पर केन्द्रित हो गया, जिसके लिए एक अलहदा स्त्री मुक्ति आन्दोलन की जरूरत महसूस हुई जो पुरुष वर्चस्व से मोर्चा ले सकता.
इस स्त्री पक्षधर विचारधारा ने ‘लिंग आधारित भूमिका’ की अवधारण को भी चुनौती दी जो यह मानती थी कि स्त्रियाँ वैसा ही व्यवहार करती हैं जैसा समाज उनसे व्यवहार की अपेक्षा रखता है. (हम वैसा ही सोचते हैं जैसा हमें पाठ रटाया गया था. लेकिन जैसे ही वे दबाब हमने अपने ऊपर से हटा दिए तो हमने उस तरह सोचना और करना भी छोड़ दिया, जैसे हम किया करते थे. यह उस जागृति का ही असर था जिससे हमारे निजी अनुभवों के आधार पर वैज्ञानिक समझ वाली स्त्री पक्षीय विचारधारा का जन्म हुआ जो इस बात का अवलोकन करती थी कि स्त्री के दमन से आखिर लाभान्वित कौन होता है? अपनी दमनकारी परिस्थितियों के लिए हम दोषी नहीं हैं और काल के संदर्भ में वे हमारे दिमाग की उपज नहीं हैं– इस समझ ने हमें आत्मविश्वास से भर दिया और हमारी मुक्ति की लड़ाई को ठोस पुख्ता ज़मीन दी.
‘निजी भी राजनीतिक है’ आलेख और उसमें निहित मेरे सिद्धांत SCEF और अन्य कट्टरपंथी आंदोलनों द्वारा हम पर हो रहे हमलों के खिलाफ़ हमारी प्रतिक्रिया थी. मैं समझती हूँ कि यह जान लेना बहुत जरूरी है कि यह आलेख संघर्ष का नतीजा था- इसमें केवल मेरा अपना संघर्ष ही शामिल नहीं था वरन WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) का संघर्ष भी शामिल था जिसे या तो रोकने की कोशिश की जा रही थी या फिर इसकी धार को कुंद करने की कोशिश हो रही थी.
धातव्य है कि यह प्रपत्र और इसमें शामिल सिद्धांत मेरे अकेले के दिमाग की उपज कतई नहीं हैं. इसका आना स्त्री मुक्ति आंदोलन और उसके भी एक ख़ास समूह की वजह से है (न्यूयॉर्क रेडिकल वुमन) और उसके भी भीतर औरतों के ख़ास धड़े की वजह से है, जिसे स्त्री पक्षीय धड़ा कहा जाता है.
निसंदेह, न्यू यॉर्क रेडिकल वीमेन और कुछ बड़े व्यापक आंदोलनों की महिलाओं ने भी आरम्भ से ही स्त्री जागृति की इस चेतना का विरोध किया और वे दावा करती रहीं कि औरतों को हमेशा से इस बात का यकीन दिला दिया गया है कि अपने दमन का वे खुद हथियार हैं और इस तर्क का आधार राजनीतिक न होकर सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक है. स्त्री-पक्षीय विचारधारा के मुकम्मल होने में उनका भी अप्रत्यक्ष हाथ है. हुआ ये कि तत्कालीन मान्यताओं के मापदंडों के कारण जो विरोध हमें मिला, उसने हमें मजबूर किया कि हम अपने मत को और अधिक मजबूती से स्पष्ट करें, उसे बेहतर तरीके से सान पर चढ़ा सकें, ज्यादा विकसित करें ताकि यह नया विचार व्यापक रूप से लोगों तक पहुंचे. अकसर न्यू यॉर्क रेडिकल वीमेन सभाओं के बाद स्त्री पक्षीय गुट की सदस्याएं पास के एक रेस्तरां ‘मितेराज़’ में आ जुटतीं जिसका एप्पल पाई लाज़वाब होता था. वहां हम गए दिन दो-तीन बजे तक चली सभाओं और वहां रखे विचारों पर चर्चा करते. और इस तरह हमारे बीच चुनौतीपूर्ण बहस-मुबाहिसों का शानदार आदान-प्रदान होता.
‘निजी भी राजनीतिक है’ के लिखने से तकरीबन छह माह पूर्व, सितम्बर 1968 में मिस अमेरिका प्रोटेस्ट का आगाज़ हुआ जिससे यह बात लोगों तक पहुंची कि स्त्री पक्षीय विचारधारा का अपने धड़े से बाहर निकलकर काम करना कितना महत्त्वपूर्ण है. अपने अन्य लेख जिसका शीर्षक ‘मिस अमेरिका विरोध की समालोचना’ था में मैंने लिखा था कि कैसे हम इस तरह की प्रतिस्पर्धा का विरोध करते-करते अपने मूल सन्देश से छिटक कर दूर हो गए हैं, कि कैसे सौन्दर्य के इन मानदंडों का खामियाज़ा समस्त स्त्री जाति यहाँ तक कि प्रतिभागियों को भी भुगतना पड़ता है. ‘मिस अमेरिका मुर्दाबाद,’ मिस अमेरिका फरेब है’, जैसे नारों से प्रतियोगी स्त्रियाँ ही हमें दुश्मन की तरह लगने लगीं जबकि वे पुरुष कर्ताधर्ता हमारे असल दुश्मन थे जिन्होंने सौन्दर्य के छद्म पैमाने इन स्त्रियों पर थोपे थे.
एक अच्छी राजनीतिक परिकल्पना की सही टेक उसका असल राजनीतिक संघर्ष और विमर्श है. अन्यथा हर सिद्धांत शब्द –गुच्छ के अतिरिक्त और क्या है; जिस पर विचार करना दिलचस्प लग सकता है; लेकिन जब तक यह आपके असल जीवन को प्रभावित नहीं करता तब तक यह मात्र शब्दाडम्बर है. ऐसे बहुत से सिद्धांत हमें सकारात्मक या नकारात्मक रूप से चकित कर जाते हैं, जब वे व्यावहारिक रूप से जीवन में उतारे जाते हैं.
आज के हालातों को मद्देनज़र रखते हुए यदि मैं अपने लेख ‘निजी भी राजनीतिक है’ को फिर से लिखने बैठूं तो इसमें क्या बदलाव करुँगी – तो यह जानकार मुझे अचरज हुआ कि समय की कसौटी पर यह लेख कितना खरा उतरा. हालांकि कुछ बातें हैं जिन्हें मैं आज और विस्तार से लिखती जैसे कि सामाजिक वर्गों की मेरी सरलीकृत परिभाषा या फिर मेरे अपने ही कुछ बयान जो अधिक स्पष्टता और विस्तार की मांग करते हैं. दो बातें जो मुझे बेतरह कचोटती हैं : “स्त्रियाँ इतनी चतुर सयानी तो हुई हैं कि अब वे संघर्ष का रास्ता अकेले नहीं अपनातीं” और दूसरी बात कि “घर में रहना नौकरी की चूहा-दौड़ से कुछबुरा नहीं हैं.”
पहले वक्तव्य का यह अर्थ नहीं है कि चतुर होने के कारण औरतें संघर्ष में पड़ना ही नहीं चाहतीं जैसा कि हमारी प्रो वुमन लाइन की कई स्त्रियों ने अर्थ लगाया. यह सच है कि औरतें कभी-कभी वाकई चतुरता दिखाती हैं और अकेले की लड़ाई का रास्ता अख्तियार नहीं करतीं. ऐसा तब होता है जब वे जीत की स्थिति में ही नहीं होतीं या फिर प्रतिरोध का रास्ता उत्पीड़न से भी अधिक बदतर होता है. फिर भी निजी संघर्ष आपको कुछ देकर ही जाते हैं. और तब जब WLM बहुत कम सक्रिय है या लगभग मंच से ओझल है तब हम अपने निजी संघर्षों से इसे जिलाए रख सकते हैं. सीमाओं को तोड़ने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए. अगर WLMअपने उरूज़ पर हो तब भी हमें निजी संघर्षों की जरूरत रहेगी क्योंकि हमारा दमन हमारी एकांगी परिस्थितियों से अधिक जुड़ा है. आंदोलन जिन वजहों के लिए खड़ा हुआ है उसमें प्रत्येक की भागीदारी इसे अधिक व्यावहारिक बनाएगी. यद्यपि निजी संघर्ष बहुत सीमित होते हैं; इसलिए हमें पहले से भी अधिक ऐसे मज़बूत आंदोलन की दरकार है जो चलते रहें और पुरुष वर्चस्व को ख़त्म किया जा सके.
जहाँ तक मेरे दूसरे बयान की बात है, मैं सूसन बी एंटोनी से पूरा एतबार रखती हूँ कि “मुक्त होने के लिए स्त्री की अपनी आय होनी चाहिए.” सार्वजानिक कार्य-स्थलों में भागीदारी के बिना वे आत्मनिर्भर नहीं बन सकतीं. इसका अभिप्राय यह भी है कि बच्चों की देखभाल की सार्वजानिक व्यवस्था, स्त्री-समानता को मद्देनज़र रखते हुए कार्य-स्थल की पुनार्निर्मिति के बीच बच्चों की परवरिश और घर के कामकाज में पुरुष की भी भागीदारी रहे ताकि औरत अकेले ही इन सबसे जूझती न रह जाए.
काश हम पहले ही इसे समझ पाते कि इन दो धारणाओं, “निजी भी राजनीतिक है” और “प्रो –वीमेन लाइन” को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है और इनका दुरुपयोग किया जा सकता है. स्त्री-पक्षीय गुट की अवधारणाओं को किस तरह बदल दिया गया, किस तरह पलट दिया गया कि उन्हीं अवधारणाओं का प्रयोग उनके मूल उद्देश्यों के खिलाफ़ हुआ. खैर, यह जरूरी है कि सिद्धांतों को वास्तविक दुनिया की चुनौतियों से भिड़ना पड़ता है ताकि उनकी सार्थकता सिद्ध हो सके. हमने यह भी सीखा कि एक बार कोई परिकल्पना हाथ से छूट निकलती है तो उसके दुरुपयोग और उसकी गलत व्याख्या से उसका बचाव भी जरूरी है.