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चिकित्सा का जाल और वीरेन डंगवाल : सदाशिव श्रोत्रिय





















आधुनिक चिकित्सा का तन्त्र कितना जानलेवा है इसे बड़ी कही जाने वाली बिमारियों से जूझते हुए रोगी और उनके परिजन समझते हैं, अब यह तन्त्र एक निर्मम व्यवसाय में बदल गया है. हिंदी के प्यारे कवि वीरेन डंगवाल कैंसर से लड़ते रहे और अंतत: हार गए, उनकी कविताओं में यह यन्त्रणा दर्ज़ है. वह यह भी देखते हैं कि बीमार होने पर इलाज की प्रक्रिया भी किसी यातना से कम नहीं. यमदूत से बचाने की बात करने वाले डॉक्टर मुनाफ़ाखोरों के दूत हो चले हैं.  

सदाशिव श्रोत्रिय ने वीरेन की कविताओं पर यहीं पहले भी लिखा है, उनका यह लगाव इस बीच और प्रगाढ़ हुआ है. यह लेख आपके लिए. कविताओं को समझने का यह एक मार्मिक प्रसंग है.        




चिकित्सा का जाल और वीरेन डंगवाल                        
सदाशिव श्रोत्रिय




मारे आज के समय का वही कवि कोई बड़ा कवि होने का दावा कर सकता है जो हमारे इस आज के समय को वाणी दे सके. जो आज की ठगी और मुनाफ़ाखोरी को, आज की सांस्कृतिक अवनति को, आज की बेईमानियों और भ्रष्टाचार को, सामन्यजन की पीड़ाओं और कष्टों को अपनी कृतियों में अभिव्यक्ति दे सके और साथ ही मानवता के शाश्वत रूप से वरेण्य मूल्यों को जीवित और जागृत रखने में सहयोग कर सके वही अंतत: एक बड़ा कवि साबित हो सकता है. ऐसा कर पाना उसी कवि के लिए सम्भव है जो अपने समय को पूरी सचाई,पूरी संवेदनशीलता और मानवता के प्रति पूरी प्रतिबद्धता के साथ जिए. जिन कवियों का उद्देश्य  केवल तत्कालिक प्रतिष्ठा से सम्भावित लाभ प्राप्त करना है और जो इसके लिए कैसे भी हथकंडे इस्तेमाल कर सकते हैं वे कभी हमारे समय के सच्चे कवि नहीं हो सकते.
आधुनिक चिकित्सातंत्र के मकड़जाल में फंस कर किसी असाध्य रोग के रोगी की आज जो दशा होती है उसके बारे में गद्य में तो हमें काफ़ी कुछ पढ़ने को मिल सकता है पर उस कष्ट को भोगने वाला जिस मनोदशा से गुज़रता है इसका मार्मिक और विचलित कर देने वाला वर्णन मुझे केवल वीरेन डंगवाल की उन कविताओं में देखने को मिला जो अब तक असंकलित रही थीं और जिनका प्रकाशनकविता वीरेन शीर्षक से  अभी नवारुण ने किया है. इस संग्रह के पृष्ठ 397 पर मुद्रित कविता जिसका शीर्षक “दो” है उस कठिन दशा का दिल दहला देने वाला वर्णन करती है जिससे आज शायद आजकल अधिकतर असाध्य रोगों के रोगियों के परिवारों को गुज़रना पड़ता है :

शरणार्थियों की तरह कहीं भी
अपनी पोटली खोल कर खा लेते हैं हम रोटी
हम चले सिवार में दलदल में रेते में गन्ने के धारदार खेतों में चले हम
अपने बच्चों के साथ पूस की भयावनी रातों में
उनके कोमल पैर लहूलुहान

पैसे देकर भी हमने धक्के खाये
तमाम अस्पतालों में
हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया
सिला गया भूंजा गया झुलसाया गया
तोड़ डाली गई हमारी हड्डियां
और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजहद
हमें हिफाजत से रखने की थी.

कवि के रूप में वीरेनजी की विशेषता अपने कष्टदायक अनुभवों के लिए एक सही तरह का वह बिम्ब या बिम्ब-विधान खोज लेना है जो पाठक को भी उस अनुभूति तक ले जा सके. शल्य-चिकित्सा के दौरान जिस तरह मरीज़ की चीर-फाड़ के बाद उसके शरीर में टांके लगते हैं, उसकी हड्डियों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है, उसका कॉटराइज़ेशन किया जाता है,केमोथेरपी और रेडिएशन थेरपी के दौरान उसे जिन पीड़ादायक अनुभवों से गुज़रता होता है वह सब किसी कवि के सम्वेदनशील मन को जिस तरह प्रभावित करता है इसका अनुमान हमें उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ते हुए होता है. रोगी के शारीरिक और भावनात्मक अनुभव का एक और भी अधिक मार्मिक वर्णन मुझे उनकी एक अन्य कविता तिमिर दारण मिहिर( पृष्ठ 367) में  मिला :

बकरी के झीने चमड़े से ज्यों मढ़ी हुई
इस दुर्बल ढ़ांचे पर यह काया
काठ बने हाड़-जोड़
बंधे हुए कच्ची सुतली से जैसे
दर्द पोर-पोर
वाणी अवरुद्ध
करुणा से ज़्यादा जुगुप्सा उपजाती है
खु‌द अपने ऊपर काया अपनी.
फिर भी यह जीवित रहने की चाहना
इच्छा प्रेम की
लिप्सा क्या लिप्सा है घृणायोग्य लिप्सा ?

पाठक स्वयं देख सकता है कि कैंसर जैसे किसी असाध्य रोग का शिकार हो जाने पर व्यक्ति के लिए शरीर भी कैसे एक प्रकार का भार हो जाता है तब वह कैसे जीवन के प्रति अपनी आस्था खोने लगता है.  वीरेनजी की विशिष्टता इस बात में  है कि दारुण शारीरिक कष्ट की दशा में भी उनकी कवि-प्रतिभा उन्हें लगातार ऐसे बिम्ब या बिम्ब-विधान सुझाती रहती थी जो उनकी कविता के पाठकों को उस पीड़ा का आभास दे सके जो उन्हें उस समय झेलनी पड़ रही थी :

अपनी ही मुख गुहा में उतरता हूँ रोज
अधसूखे रक्त और बालू से चिपचिपाती
उस सुर्ख धड़कती हुई भूलभुलैया में
अपने खटारा स्कूटर पर
कई राहें उतरती हैं इधर-उधर
भोजन और सांस की
या कानों की तरफ जातीं

__

दहकती हुई लाल-लाल
दर्द की शिराएं हैं
अधटूटे दांत चीखते हैं
मैं बार-बार ‌‌खु‌द को मुश्किल से खींचकर
स्कूटर समेत अपने ही मुख से बाहर लाता हूँ
इतनी कठिन और रपटन भरी यह डगर है

एक कौर चावल खाना भी
बेहद श्रमसाध्य और दुष्कर
जैसे रेत का फंका निगलना हो
फिर भी जीते चले जाने का यह उपक्रम
क्या यह लिप्सा है घृणास्पद चिपचिपी
लिप्सा तो नहीं है यह ?

अस्वस्थता के कारण जिसका जीवन केवल भार और कष्ट का पर्याय बन गया हो वह अपने आप से अपने जीने की सार्थकता और उद्देश्य के बारे में तरह तरह के प्रश्न करने लगता है. इन प्रश्नों की प्रकृति का  अनुमान हम इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियों से लगा सकते हैं :

मित्रों का संग साथ चाहना
नई योजनाएं
शिशुओं से अंट-शंट बात
करना हिमालय की बहुविध छवियों को याद
और नरेंद्र मोदी की कलाई पर बंधी घड़ियों को
सोचना विनायक सेन कोबाड गांधी
और इरोम शर्मिला सरीखों के बारे में.
समाचार पुस्तकें कविता संगीत आदि
इनमें लिप्तता लिप्सा नहीं है ?

किंतु इस कवि की चेतना का एक ब्रह्मांडीय आयाम सदैव उसे क्षुद्रता से बचाए रखता है और यह उसे अपने मानवीय अस्तित्व को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने में सफल बनाता है  :

बजा रहा है महाकाल
सृष्टि का विलक्षण संगीत
विविध नैसर्गिक-अप्राकृतिक
ध्वनियों-प्रतिध्वनियों
कोलाहल-हाहाकार की पृष्ठभूमि में
उसी सतत गुंजरण के बीच रची है मनुष्य ने
यह अनिर्वचनीय दुनिया


और इसी व्यापक संदर्भ में वह अंतत: अपने अस्तित्व और जीवन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्याख्यायित करता है :

हे महाजीवन, हे महाजीवन
मेरी यह लालसा
वास्तव में अभ्यर्थना है तेरी
अपनी इस चाहना से मैं तेरा अभिषेक करता हूँ.
यह जो सर्वव्यापी हत्यारा कुचक्र
चलता दिखाई देता है भुवन मंडल में
मुनाफे के लिए
मनुष्य की आत्मा को रौंद डालने वाला
रचा जाता है यह जो घमासान
ब्लू फिल्मों वालमार्टों हथियारों धर्मों
और विचारों के माध्यम से
उकसाने वाला युद्धों बलात्कारों और व्यभिचार के लिए
अहर्निश चलते इस महासंग्राम में
हे महाजीवन चल सकूं कम से कम
एक कदम तेरे साथ
___

उन शिशुओं के लिए जिन्होंने चलना सीखा ही है अभी
और बहुराष्ट्रीय पूंजी के कुत्ते
देखो उन्हें चींथने के लिए अभी से घात लगाए हैं

उसी आदमखोर जबड़े को थोड़ा भी टूटता हुआ
देखने के लालच से भरे हुए हैं
मेरे  ये युद्धाहत देह और प्राण !


इस संग्रह की “मेरी निराशा” (पृष्ठ 374), “नीली फाइल”( पृष्ठ 378), “गोली बाबू और दादू (पृष्ठ 372) आदि अन्य कविताओं में भी हम एक असाध्य रोग के साथ संघर्षरत एक जीवट वाले कवि की छवि देख सकते हैं.

पर अंतत: अपने महाप्रयाण के समय को निकट जान कर दिनांक 4.7.2014 को “मैं नहीं तनहा (पृष्ठ 388) शीर्षक जो कविता वीरेन डंगवाल ने लिखी उसके जोड़ की कोई कविता आज तक कहीं मेरे देखने में नहीं आई है. यह  कविता जहाँ एक ओर अपने आप को इस विराट ब्रह्मांड के साथ पूरी निर्भयता के साथ एकाकार कर लेने की तैयारी का एक काव्यत्मक प्रमाण प्रस्तुत करती है वहीं दूसरी ओर उस चिकित्सा-तंत्र को भी पूरी काव्यात्मकता के साथ कोसने का काम करती है जो आजकल अक्सर लोगों को कष्ट में राहत देने के बजाय केवल चिकित्सकों-चिकित्सालयों-निदान केंद्रों–फार्मेसी आदि की साठ-गांठ से कई बार केवल उनके लत्ते छीनने की कोशिश में लगा दिखाई देता है :

मैं नहीं तनहा, सुबह के चांद ओ ठंडी हवाओं
भोर के तारों
तुम्हारे साथ हूँ मैं,
वक्त गाड़ी का चला है हो
मुझे मालूम है ये
बस ज़रा सा नहा ही लूं और कपड़े बदल डालूं रात के ,
चप्पल पहन लूं
साथ रख लूं चार उबले हुए आलू –
हंसो मत तुम इस तरह से,
आसरे इनके हमन ने काट डाली उम्र !
और डाक्टर साहब
अब हटाइये भी अपना ये टिटिम्बा-नलियां और सुइयां
छेद डाला आपने इतने दिनों से
इन्हीं का रुतबा दिखाकर आप
मुनाफ़ाखोरों के बने हैं दूत !
दृष्टव्य है कि उबले हुए आलुओं का ज़िक्र और हमनशब्द का प्रयोग किस तरह इस कविता को एक विशिष्ठ कबीराना आयाम दे देता है.
__________________                  
यह लेख भी पढ़ें : कविता वीरेन




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