मनीष दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध अध्येता हैं, वे वर्तमान में ‘फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में भूमि, जाति एवं राजनीति का अन्तःसंबंध’ विषय पर शोधकार्य कर रहे हैं. यह दिलचस्प आलेख आपके लिए. इसमें उन्होंने यह दिखाया है कि कैसे मैला आँचल के अवमूल्यन की कोशिशें वरिष्ठ आलोचकों द्वारा की गयीं. 'आंचलिकता'शब्द देकर इस उपन्यास को मुख्यधारा से लगभग हटा ही दिया गया था.
गोदान और मैला आँचल : आलोचना के अँधेरे
मनीष
‘मैला आँचल’ का प्रकाशन सन् 1954 में हुआ. यह फणीश्वरनाथ रेणु का पहला उपन्यास है. ‘गोदान’का प्रकाशन सन् 1936 में हुआ और यह प्रेमचन्द का अंतिम उपन्यास है. ‘मैला आँचल’ को प्रकाशित हुए छह दशक से अधिक समय बीत चुका है और इन बीते हुए समय में मैला आँचल के विभिन्न पाठों, अध्ययनों के गहन सर्वेक्षण के बाद यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि रेणु के पहले उपन्यास को कमोबेश वही ख्याति प्राप्त है, जो प्रेमचन्द के अंतिम उपन्यास को; या कम-से-कम यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में ‘गोदान’ के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘मैला आँचल’ है. इन दोनों ही उपन्यासों को ‘हिन्दी जाति’ के जटिल वैशिष्ट्य को दुनिया के सम्मुख लाने का गौरव प्राप्त है. ऐसा कह देने मात्र से न तो प्रेमचन्द के दामन पर रेणु-रूपी कीचड़ उछाला गया न ही रेणु की प्रतिष्ठा में प्रेमचन्द-रूपी चार-चाँद लगा. किन्तु ‘मैला आँचल’ के प्रकाशित होते ही, पहले तो उसके फ्लैप पर और बाद में स्वतंत्र आलोचना के रूप में, जब रेणु के प्रथम आलोचक नलिन विलोचन शर्मा की निम्नांकित सम्मति छपी तो हिन्दी के कई आलोचकों को यह नाग़वार गुज़रा–
“यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है जो लेखक की प्रथम कृति होने पर भी उसे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे तो फिर कुछ भी न लिखे. × × × ‘मैला आँचल’ गत वर्ष का ही श्रेष्ठ उपन्यास नहीं है, वह हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में सहज ही परिगणनीय है. × × × मैंने इसे ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का वैसा दूसरा महान उपन्यास माना है. मुझे संतोष है कि मेरा यह मत दूर-दूर तक प्रतिध्वनित हुआ है.”[1]
इसकी प्रतिक्रिया में कई आलोचकों ने रेणु तथा ‘मैला आँचल’ की आलोचना शुरू कर दी. कई साहित्यकार तथा आलोचक ऐसे भी सामने आए जिन्होंने रेणु, ‘मैला आँचल’ तथा नलिन विलोचन शर्मा के तर्कों का पक्ष लिया. बहस का केन्द्रीय विषय बना– प्रेमचन्द की परम्परा में रेणु का स्थान-निर्धारण. यह बहस प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) तथा परिमल के सर्वविदित साहित्यिक अखाड़े तक भी पहुँचा. ‘फणीश्वरनाथ रेणु और मार्क्सवादी आलोचना’ पुस्तक की भूमिका में इसके सम्पादक मधुरेश ने बहुत ही विस्तार से उक्त बहस से तथा इस बहस की पृष्ठभूमि से हमारा परिचय करवाया है.[2]उक्त बहस की पृष्ठभूमि से इस आलेख का कोई विशेष सरोकार नहीं है; उद्देश्य इस बहस की वस्तुगत गहराइयों तक पहुंचना है, साथ ही रेणु को समझने में इस बहस के योगदान का मूल्यांकन करना भी.
उक्त बहस में जाने से पूर्व ठहर कर ‘प्रेमचन्द की परम्परा’ के मायने को बहुत ही संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है. यद्यपि प्रेमचन्द की परम्परा को समझने के लिए प्रेमचन्द का विशेषज्ञ होना या उनके विशेषज्ञों की शरण में जाना अनिवार्य नहीं है. प्रेमचन्द के साहित्य का अध्ययन उनकी परम्परा को समझने के लिए पर्याप्त है. हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए प्रेमचन्द की परम्परा, उनके कॉमन सेंस अथवा आम समझ का हिस्सा है. तथापि प्रेमचन्द के विशेषज्ञों की राय जानना शोध-आलेख की मज़बूरी है. प्रेमचन्द की परम्परा को समझने के लिए स्वयं प्रेमचन्द की यह मान्यता अत्यधिक सहायक है–
“साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दरजा इतना न गिराइए. वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है. × × × हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते. हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो– जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.”[3]
प्रेमचन्द के कह लेने के बाद मुझे या किसी और को कुछ भी कहने की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती. यहां बस एक आग्रह करूंगा कि उपरोक्त उद्धरण के एक-एक शब्द को ज़हन में बिठा लेने के साथ-साथ ‘सचाई’ शब्द को उसके सन्दर्भ-सहित याद रखें. अब प्रेमचन्द की परम्परा को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैनेजर पाण्डेय का यह कथन द्रष्टव्य है –
“प्रेमचन्द मुख्यतः जन-जीवन की यातना के कथाकार हैं. उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों को जन-जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है, इसलिए वे बाल्जॉक और तॉलस्ताय की परम्परा के कथाकार माने जाते हैं. उन्होंने उर्दू और हिन्दी कथा-साहित्य में किसानों, दलितों और स्त्रियों की यातनाओं की जैसी अभिव्यक्ति की है, वैसी न उनके पहले हुई थी और न उनके बाद हुई है. वे एक ओर ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण तथा दमन और दूसरी ओर देशी सामंतवाद की लूट और पराधीनता से उपजी यातनाओं के कथाकार हैं. प्रेमचन्द की रचनाओं को पढ़कर उस समय के जन-जीवन की यातना का जितना ज्ञान और जैसा अनुभव प्राप्त होता है, वैसा हिन्दी-उर्दू के किसी अन्य लेखक की रचनाओं को पढ़कर नहीं होता.
उपरोक्त उद्धरणों तथा रामविलास शर्मा[5], नामवर सिंह[6]आदि के विविध लेखों, पुस्तकों एवं प्रेमचन्द के साहित्य द्वारा निर्मित आम समझ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द की परम्परा दरअसल सामजिक यथार्थ की परम्परा है. यह यथार्थ ‘यथार्थवाद’ वाला हो, आवश्यक नहीं. प्रेमचन्द के लिए ‘सचाई’ की अभिव्यक्ति का महत्व था चाहे वह ‘यथार्थवाद’ की मदद से हो या ‘अनुभूति की प्रमाणिकता’ से. उनकी परम्परा औपनिवेशिक कृषि-तंत्र की अभिव्यक्ति की परम्परा है. वे मुख्यतः भारतीय ग्रामीण जीवन को रूपायित व मुखरित करने वाले कलाकार थे. प्रेमचन्द ने ग्रामीण भारत को, उसकी समग्रता में तमाम जटिलताओं के साथ, कथा-साहित्य का केन्द्रीय अन्तर्वस्तु बना दिया. इसी के तहत वे यदि एक ओर औपनिवेशिक व सामंती शोषण व दमन को अपने साहित्य में अंकित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर जन-प्रतिरोध को भी दर्ज़ करते हैं जो जनता के जीवित होने का प्रमाण है. यह प्रतिरोध औपनिवेशिक गुलामी से लेकर सामंती जकड़न तथा सामजिक बंधनों तक विस्तृत है. प्रेमचन्द ने साहित्य में सहज अभिव्यक्ति की नींव डाली. आम बोल-चाल की भाषा में, सामान्य जन-जीवन की अभिव्यक्ति, साहित्य का स्वरूप धारण कर सकता है; हिन्दी साहित्य में इस ‘राह के अन्वेषी’ और कोई नहीं प्रेमचन्द ही हैं.
हिन्दी आलोचना में फणीश्वरनाथ रेणु को प्रेमचन्द की इसी परम्परा में रखकर देखने-समझने की कवायद होती रही है. नलिन विलोचन शर्मा ने न केवल इस बहस की शुरुआत की बल्कि प्रेमचन्द की परम्परा के तौर पर ‘समष्टि का चित्रण’[7]को चिन्हित भी किया. नलिन जी हिन्दी साहित्य में रेणु को प्रेमचन्द के बाद समष्टि का चित्रण करने वाला दूसरा कथाकार मानते हैं. नलिन विलोचन शर्मा के इस मत से असहमत होने की कोई गुंजाइश नहीं है. प्रेमचन्द तथा रेणु दोनों ही समष्टि के कथाकार हैं. प्रेमचन्द के यहां व्यक्ति आया भी है तो समाज की अनिवार्य इकाई के तौर पर. रेणु के ‘मैला आँचल’ में तो व्यक्ति ‘मेरीगंज’ गाँव का निवासी होने के कारण ही मौज़ूद है. किन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि डॉ॰ प्रशान्त, लक्ष्मी दासिन, बालदेव, कालीचरण या बावनदास आदि का अपना कोई व्यक्तित्व ही नहीं है. सभी पात्रों का अपना चारित्रिक वैशिष्ट्य तो महत्त्वपूर्ण है ही लेकिन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि ‘मैला आँचल’ के सभी पात्रों का व्यक्तित्व आपस में संघटित होकर मेरीगंज की सामूहिक विशेषता का निर्माण करते हैं. इस अर्थ में ‘गोदान’ तथा ‘मैला आँचल’ और अंततः प्रेमचन्द तथा फणीश्वरनाथ रेणु के बीच समानता से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन हिन्दी साहित्य के कई ख़ास-ओ-आम आलोचकों ने प्रेमचन्द तथा रेणु के इस साम्य को मानने से इनकार कर दिया.
आलोचना में असहमति का सहमति से कम महत्व नहीं है किन्तु रेणु के विरोध में की गई नकारात्मक आलोचना के तर्क संदिग्ध हैं. रेणु विशेषतः ‘मैला आँचल’ की आलोचना का ‘प्रलेस तथा परिमलवादी’ नामक दो खेमों में बँट जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. इनमें से कुछ आलोचना तो आलोचना की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते. उदाहरण के लिए लक्ष्मीनारायण भारतीय का लेख ‘मैला आँचल : एक दृष्टिकोण’[8]को देखा जा सकता है. उनकी नज़र में ‘मैला आँचल’ का प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी से ‘फंसा’ हुआ है. रेणु समाज के इसी पतन से पाठकों को अवगत कराना चाहते थे. लक्ष्मीनारायण भारतीय यहीं नहीं ठहरते, आगे कहते हैं कि साहित्य में इस तरह के अश्लील चित्रण को तवज़्जो नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसे लेखकों को ‘साहित्य की दहलीज’ से ही धकिया देने की ज़रूरत है. लक्ष्मीनारायण भारतीय ही नहीं बल्कि श्री नरोत्तम नागर आदि की इसी श्रेणी की आलोचना का जवाब देने के लिए रेणु ने उसी समय (सुश्री) गौरा एम॰ए॰ के नाम से (अब यह सर्वमान्य तथ्य है) एक लेख लिखा था.[9]इस लेख में गौरा एम॰ए॰ ने रेणु का एक साक्षात्कार भी सम्मिलित किया है. यद्यपि इस लेख में गौरा ने भी कई महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं किन्तु रेणु का निम्नलिखित वक्तव्य इस आलेख के सन्दर्भ में समीचीन है–
“हाँ, परम्परा की यह बात! बहुत लोग लिख देते हैं, अमुक-अमुक की परम्परा में, × × × सद्भाव से लिखा जाने पर भी यह अनुचित है. एक बड़ा सा नाम लेकर हम लेखक की उपलब्धि को झुठला देते हैं, फिर भी, यदि परम्परा से इतना ज्यादा आग्रह हो तो हमें हिन्दी से बाहर की संभावनाओं पर भी विचार करना चाहिए.× × × बंगला के श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय मेरे अति प्रिय लेखक हैं. फिर ‘जागरी’ के लेखक श्री सतीनाथ भादुड़ी का भी गहरा प्रभाव ढूंढा जा सकता है. प्रभाव का कारण है– भादुरी जी मेरे साहित्यिक गुरु हैं. उपन्यास-कला की दीक्षा मैंने उन्हीं के श्रीचरणों में पाई. अतः कहना ही हो तो उन्हीं लोगों की परम्परा का बतलाना अधिक संगत होगा.”[10]
यहां रेणु अव्वल तो किसी भी साहित्यकार की स्वतंत्र व निष्पक्ष मूल्यांकन किये जाने की मांग करते हैं; तिसपर अगर तुलना करनी ही हो तो तुलना के आधार वाज़िब होने चाहिए. रेणु का मानना है कि उनकी तुलना आँचलिक उपन्यासकारों से ही होनी चाहिए भले ही वे हिन्दी के बहार के हों. रेणु का यह तर्क सही है लेकिन यह मान्यता ग़लत है कि उनकी तुलना प्रेमचन्द से नहीं हो सकती. रेणु तथा प्रेमचन्द के मध्य तुलना के विविध पुष्ट आधार हैं, जिसकी चर्चा यथास्थान की जाएगी. फिलहाल महत्व की बात यह जानना है कि रामविलास शर्मा अपने आलेख ‘प्रेमचन्द की परम्परा और आंचलिकता’में एक तो रेणु को साहित्यिक दृष्टि से खारिज़ कर देते हैं, दूसरे वह आंचलिक साहित्य की प्रेमचन्द से तुलना की प्रवृत्ति को अनुचित मानते हैं. रामविलास शर्मा उक्त आलेख में ‘मैला आँचल’ और ‘परती-परिकथा’ दोनों ही उपन्यासों को साहित्यिक दृष्टि से निःसार मानते हुए जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह बहुत ही आपत्तिजनक है जिसपर पुनर्विचार आवश्यक है–
“‘मैला आँचल’ तक प्रेमचन्द की परम्परा के कुछ निशान बाकी थे; ‘परती-परिकथा’ तक आकर वे मिट जाते हैं और रह जाता है इलियट का शुद्ध प्रयोगवादी वेस्टलैंड”[11]
नलिन विलोचन शर्मा से शुरू हुई प्रेमचन्द की परम्परा में फणीश्वरनाथ रेणु को देखने की कवायद रामविलास शर्मा तक आते-आते ख़तरनाक रूप ले लेती है. प्रेमचन्द की परम्परा का हवाला देकर रेणु को स्थापित करने की कोशिश की गई थी. उसी परम्परा के सबसे बड़े पैरोकार ने रेणु को प्रेमचन्द के आस-पास भी नहीं पाया. रामविलास शर्मा के उक्त आलेख पर विचार करना अपने-आप में चुनौतीपूर्ण है. उनसे असहमत होना तो ख़तरनाक भी. उनकी आलोचना पर विचार करने के कई तरीके हो सकते हैं– एक तो यही कि ‘मैला आँचल’ की विशेषताओं को गिनाकर रामविलास शर्मा के मतों को खारिज़ कर दिया जाए; या फिर रामविलास जी की आलोचना को आधार बनाकर उनसे वाद-विवाद किया जाए, और हो सके तो एक संवाद कायम किया जा सके. ‘मैला आँचल’ के विशेष सन्दर्भ में रामविलास शर्मा के उक्त निबन्ध से ‘वाद-विवाद और संवाद’ कायम करना ही इस आलेख का उद्देश्य है.
रामविलास शर्मा अपने निबन्ध में कहीं भी प्रेमचन्द की परम्परा को स्पष्ट नहीं करते. ‘प्रेमचन्द की परम्परा’ से उनका क्या आशय है, इस प्रश्न का उत्तर यह विस्तृत निबन्ध नहीं देता. इस निबन्ध में ‘प्रेमचन्द की परम्परा’ को पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, या यह मान लिया गया है कि प्रेमचन्द की परम्परा से पाठक पहले से ही परिचित है. रामविलास शर्मा या किसी भी लेखक से यह अपेक्षित है कि वह बहस की शुरुआत से पूर्व ‘प्रेमचन्द की परम्परा’ को स्पष्ट करे क्योंकि बहस शुरू होने से पहले उसकी बुनियाद का तय हो जाना आवश्यक है. उदाहरण के लिए नलिन विलोचन शर्मा ने अपने आलेख में संक्षेप में ही सही प्रेमचन्द की परम्परा को स्पष्ट किया है, उनके अनुसार–
“भारतीय उपन्यासकारों में प्रेमचन्द अपवाद स्वरुप थे क्योंकि उन्होंने बिना किसी साहित्येतर सिद्धांत के आग्रह के, ‘गोदान’ जैसा महान समष्टिमूलक उपन्यास लिखा, जिसका मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन.”[12]
किन्तु रामविलास शर्मा संभवतः पूर्वपरिचित प्रेमचन्द की परम्परा को आधार बनाकर प्रेमचन्द एवं रेणु का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हैं. यहां यह ध्यातव्य है कि रामविलास शर्मा के आलेख ‘प्रेमचन्द की परम्परा एवं आंचलिकता’ का पूर्वार्ध ‘मैला आँचल’ से तो उत्तरार्ध ‘परती-परिकथा’ से संबंधित है. रामविलास शर्मा अपने आलेख में सबसे पहले प्रेमचन्द के गाँवों का रेणु के गाँव से भिन्नता का उल्लेख करते हैं–
“प्रेमचन्द ने बनारस जिले के गाँव को लेकर ढेरों कहानियाँ और उपन्यास लिखे. फिर भी उनकी रचनाएँ पढ़ने पर सहसा यह बोध नहीं होता कि हम हिन्दी-भाषी प्रदेश के किसी अंचल विशेष के बारे में ही पढ़ रहे हैं. उनके पात्रों में आंचलिकता से अधिक हिन्दुस्तानीपन अथवा हिन्दीपन है.”[13]
रामविलास जी के अनुसार प्रेमचन्द के यहां आए हुए गाँव भारत के प्रत्येक गाँव का प्रतीक है, प्रेमचन्द का गाँव भारतीय गाँवों का प्रतिनिधि है, गोया ‘मैला आँचल’ का मेरीगंज भारतीय गाँवों का प्रतिनिधित्व नहीं करता. उनके अनुसार मेरीगंज एक विशेष गाँव है जिसका भारत के अन्य गाँवों से सरोकार कम ही है. रामविलास जी की यह धारणा सही नहीं है. मेरीगंज कहीं से भी सेमरी-बेलारी से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. मेरीगंज गाँव के किसानों तथा कृषक-मज़दूरों की समस्या पहले तो सेमरी-बेलारी और फिर पूरे भारत के गाँवों के किसानों से अलहदा नहीं है. किसान, ग़रीबी, जहालत, अशिक्षा, अंधविश्वास, धार्मिक पाखंड, जाति-प्रथा आदि भारतीय गाँवों की विशेषता है. और ये सभी विशेषताएं मेरीगंज में भी मौज़ूद हैं.
मेरीगंज प्रेमचन्द के गाँवों से अलग अवश्य है, किन्तु उन कारणों से नहीं जिनका वर्णन रामविलास जी ने किया है. प्रेमचन्द के लिए गाँव का मतलब है– किसान एवं कृषक-समस्याओं का चित्रण. रेणु स्वयं को यहीं तक सीमित नहीं रखते. वह गाँव को उसकी समग्रता में देखते हैं. रेणु गाँव की प्रत्येक धड़कन को महसूस करते हैं, उस स्पंदन से पाठकों का साक्षात्कार भी कराते हैं. प्रेमचन्द के लिए गाँव का चित्रण साधन है, किसान व कृषक-समस्याओं के वर्णन का साधन. किन्तु, रेणु के लिए गाँव का चित्रण ही साध्य है. किसान-जीवन, ग्रामीण-जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, दोनों एक-दुसरे के पर्याय नहीं हैं. रेणु का गाँव लोक, लोक-संस्कृति, रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार, उत्सव, शोक आदि सभी को समेटे हुए है.[14]गाँवों के वर्णन में रेणु, प्रेमचन्द से अलग नहीं हैं बल्कि उनसे आगे हैं.
रामविलास शर्मा ‘मैला आँचल’ में लोकसंस्कृति के चित्रण का उल्लेख करते हैं. लोकसंस्कृति क्या है, इसके विषय में रामविलास जी कहते हैं–
“मैला आँचल में नई चीज है– लोकसंस्कृति का वर्णन.लोकगीतों और लोकनृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है.”[15]
रामविलास जी ने पूरे आलेख में लोकसंस्कृति के बारे में इससे अधिक एक शब्द भी नहीं कहा है. क्या केवल लोकगीत तथा लोकनृत्य से ही लोकसंस्कृति का पता चलता है? साहित्य में लोकसंस्कृति का स्थान क्या इतना गौण है कि उसे कुल तीन वाक्यों में निपटा दिया जाए? ऐसा नहीं है कि रामविलास शर्मा को लोकसंस्कृति एवं उसके महत्व का ज्ञान नहीं था. फणीश्वरनाथ रेणु ‘मैला आँचल’ तथा ‘परती परिकथा’ दोनों ही उपन्यासों में लोक-मात्र का चित्रण कर रहे थे. लोकसंस्कृति इसी लोक के जीवन-यापन का ढंग है. लोक के खान-पान से लेकर पहनावा-ओढ़ावा, रीति-रिवाज आदि सब लोक-संस्कृति के अंतर्गत ही आते हैं. यहां तक कि लोक की चेतना तथा चिंताएँ चाहे वे सामाजिक हों, राजनीतिक हों या आर्थिक; सब लोकसंस्कृति में समाहित हैं. लोकगीत तथा लोकनृत्य तो इसी व्यापक लोक की कलात्मक अभिव्यक्ति मात्र है जिसमें लोकसंस्कृति अभिव्यक्ति पाता है. रेणु के साहित्य के सन्दर्भ में लोकसंस्कृति वह बिन्दु है जहाँ ठहरने का मतलब है– रेणु तथा ‘मैला आँचल’ की प्रशंसा, और रामविलास शर्मा यह चाहते नहीं थे. लोकसंस्कृति पर ठहराव निश्चय ही उनके उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करता.
लोकसंस्कृति पर ठहरने के कारण ही नेमिचंद्र जैन[16]रेणु की पूरे परिवेश से ‘अपूर्व आत्मीयता’को रेखांकित कर सके हैं. ‘जीवन का सौरभ’भी इसी लोकसंस्कृति में मौज़ूद है. लोकसंस्कृति ही ‘विकृति और विसंगति के पंक के बीच से झांकता-मुस्कुराता कमल’है. यही वह स्थान है जहाँ रेणु की ‘कवित्वपूर्ण दृष्टि’पूर्णतः आभासित होती है. इसे रामविलास शर्मा ने लगभग अनछुआ छोड़ दिया है. ‘मैला आँचल’ में अंचल से पहले लोक उद्भाषित हुआ है. लोक की अभिव्यक्ति के लिए किसी-न-किसी अंचल को आधार बनाना ही पड़ेगा. वह अंचल पूर्णिया का हो या बनारस का, इससे फ़र्क नहीं पड़ता. ‘मैला आँचल’ एक आंचलिक उपन्यास है लेकिन लोकसंस्कृति के चित्रण की वज़ह से नहीं. अन्तर्वस्तु से अधिक उपन्यास का रूप व शिल्प उसकी आंचलिकता को प्रमाणित करता है. अन्तर्वस्तु की सामान्यता तक पहुँचने के लिए रूप व शिल्प की विशिष्टता से पार पाना होगा, अन्यथा रामविलास जी या कोई भी पाठक या आलोचक इस तरह का भ्रांतिपूर्ण निर्णय बार-बार देगा –
“उसकी चित्रण पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतवाद के निकट है. गतिशील यथार्थ में कौन-से तत्व अधिक प्रगतिशील हैं, कौन-से मरणशील, किन पर व्यंग्य करना चाहिए, किनका चित्रण अधिक सहानुभूति से करना चाहिए, वातावरण, घटनाओं आदि के चित्रण और वर्णन में कितनी बातें छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख होना चाहिए –कथाशिल्प की इन विशेषताओं में मैला आँचल का लेखक प्रेमचन्द की परम्परा से दूर जा पड़ा है.”[17]
यद्यपि रामविलास शर्मा ने यथार्थवाद तथा प्रकृतवाद का विवाद ‘मैला आँचल’ के रूप, शिल्प तथा टेकनीक के सन्दर्भ में उठाया है. किन्तु ‘गतिशील यथार्थवाद’के विश्लेषण के क्रम में उसे अन्तर्वस्तु से भी जोड़ते हुए चलते हैं. रामविलास शर्मा के विश्लेषण के इसी बिन्दु से संजीवनी पाकर शिवकुमार मिश्र ‘मैला आँचल’ में यथार्थवाद तथा प्रकृतवाद के विवाद को गहराई तक ले जाते हैं.[18]यहां यथार्थवाद तथा प्रकृतवाद के विवाद की तह तक जाने का अवकाश नहीं है. इसके लिए जॉर्ज लुकाच तथा एमिल जोला के सुप्रसिद्ध विवाद तक पहुंचना होगा. लेकिन चलते-चलते दो बातों की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है. एक तो यही कि जिस जॉर्ज लुकाच ने ‘यथार्थवाद’ जैसे सिद्धांत को निर्मित किया है; जिन्होंने लियो टॉलस्टॉय के ‘वार एंड पीस’ उपन्यास का यथार्थवाद के सन्दर्भ में भूरि-भूरि प्रशंसा की है, यहां तक कि यथार्थवाद के सिद्धांत को गढ़ने में ‘वार एंड पीस’ को मानक की तरह प्रस्तुत किया है. उसी टॉलस्टॉय ने ‘वार एंड पीस’ के ‘सेकंड एपिलॉग’ में लिखा है–
“History is the life of nations and of humanity. To seize and put into words, to describe directly the life of humanity or even of a single nation, appears impossible.”[19]
टॉलस्टॉय यह तो कहते हैं कि इतिहास (तथा इतिहास को दर्ज़ करने वाला साहित्य भी) राष्ट्रों तथा मानवता का जीवन-चरित है. लेकिन इस मानवता या यहां तक कि एक राष्ट्र के जीवन को समग्रता में समेटना तथा उसकी शब्दों में अभिव्यक्ति असंभव प्रतीत होता है. इसीलिए साहित्य में एक विशेष देश-काल व वातावरण की आवश्यकता पड़ती है. अंचल भी एक विशेष देश-काल व वातावरण ही है. अंचल विशेष को साहित्य का आधार बनाए जाने के पीछे प्रायः यही बाध्यता होती है कि पूरे राष्ट्र या पूरी मानवता की अभिव्यक्ति एक साथ संभव नहीं है. ‘मैला आँचल’ का मेरीगंज भी भारत के सभी गाँवों का प्रतिनिधि ही है. रामविलास शर्मा तथा शिवकुमार मिश्र भले ही उसे विशिष्ट गाँव मानते हों.
दूसरी बात, यह विवादास्पद रहा है कि प्रेमचन्द यथार्थवादी साहित्यकार थे या आदर्शवादी या आदर्शोन्मुख यथार्थवादी. यह तो पहले ही बताया जा चुका है कि प्रेमचन्द साहित्य में ‘जीवन की सचाइयों’ की अभिव्यक्ति पर बल देते थे. वह अभिव्यक्ति यथार्थवाद के मानकों पर खरा उतरे, यह आवश्यक नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि प्रेमचन्द ‘यथार्थवाद’ की अवधारणा से अपरिचित थे. अगर प्रकृतवादी मार्ग ‘जीवन की सचाइयों’ को अभिव्यक्त करने में अधिक सक्षम है तो प्रेमचन्द की नज़र में वही वरेण्य है. जॉर्ज लुकाच के ‘गतिशील यथार्थ’ का अभिप्राय भी यही है. रेणु का ‘मैला आँचल’ जीवन की सचाइयों को अभिव्यक्त करता है और इसका प्रमाण स्वयं ‘मैला आँचल’ का कथ्य तथा स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के लगभग सात दशकों का हमारा अनुभव दोनों ही है.
‘मैला आँचल’ की जिस विशेषता को रामविलास शर्मा ने सर्वाधिक महत्व दिया है, वह है– वर्ग-संघर्ष. वह कहते हैं–
“फिर भी मैला आँचल का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो उसे प्रेमचन्द की परम्परा से जोड़ता है. बहुत कम उपन्यासों में पिछड़े हुए गाँवों के वर्ग-संघर्ष, वर्ग शोषण और वर्ग अत्याचारों का ऐसा जीता-जागता चित्रण मिलेगा. यह उसका सबल पक्ष है. कमजोरियों पर ध्यान केन्द्रित करके उसके इस गुण को भूला देना उचित न होगा.”[20]
यह सही है कि ‘मैला आँचल’ में वर्ग-संघर्ष है. लेकिन वर्ग-संघर्ष (Class-conflict) से अधिक महत्त्वपूर्ण जातिगत-संघर्ष (Caste-conflict) है. ‘मैला आँचल’ में जातिवाद को वर्ग-संघर्ष पर वरीयता प्राप्त है. यह भारतीय समाज-व्यवस्था की सचाई भी है. तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद, रामकिरपाल सिंह एवं रामखेलावन यादव तो एक ही वर्ग (जमींदार) से ताल्लुक रखते हैं. यह सर्वविदित है कि मार्क्सवाद के अनुसार वर्ग-हित समान होता है. बावज़ूद इसके भारत में लोग वर्ग के आधार पर एकजूट हों या न हों जाति के आधार पर अवश्य गोलबंद हो जाते हैं, और यह ‘मैला आँचल’ में भी दर्शाया गया है. विश्वनाथ प्रसाद अपने ही वर्ग के रामकिरपाल सिंह तथा रामखेलावन यादव का जमीन षड्यंत्र द्वारा हड़प लेता है. विश्वनाथ प्रसाद जातिगत समीकरण व वैमनस्य का ही फायदा उठता है. इसके अतिरिक्त सभी गरीब किसानों एवं संथालों का वर्ग-हित समान है लेकिन, भूमि के लिए हुए संघर्ष में सभी किसान जाति के आधार पर गोलबंद होकर अपनी-अपनी जाति के जमींदारों का साथ देते हैं और अपने ही वर्ग के संथालों का रक्त बहाते हैं. शोषक और शोषित दोनों जाति के आधार पर एकजूट होकर संथालों का सामूहिक नरसंहार तथा कई संथाल औरतों का बलात्कार करते हैं. गोलबंद होने का यह आधार वर्ग न होकर जाति व समुदाय है.
इस प्रकार रामविलास शर्मा ने जिस वर्ग-संघर्ष को ‘मैला आँचल’ का सबल पक्ष माना, वह इस उपन्यास में लगभग अनुपस्थित है. रेणु ने वर्ग की अपेक्षा जाति पर बल दिया है. इससे यह साबित होता है कि रामविलास शर्मा ‘मैला आँचल’ की आलोचना नहीं कर रहे थे, वह इस उपन्यास में मार्क्सवाद व तथाकथित प्रगतिशीलता की तलाश कर रहे थे. उनके इसी राजनीतिक प्रतिबद्धता के दुराग्रह का परिणाम है कि उन्हें डॉ॰ प्रशान्त क्रांतिकारी नज़र आता है. वह रेणु के ऊपर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि रेणु ने डॉ॰ प्रशान्त को जबरन क्रांतिकारी साबित किया है. जबकि सच यह है कि डॉ॰ प्रशान्त को रेणु नहीं रामविलास शर्मा क्रांतिकारी साबित करने की कोशिश करते हैं ताकि रेणु का मखौल उड़ाया जा सके. डॉ॰ प्रशान्त को क्रांतिकारी साबित करने के लिए रामविलास जी ने जो तर्क व प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, वह हास्यास्पद है. रामविलास जी के एक तर्क पर गौर किया जाए –
“वह (डॉ॰ प्रशान्त) क्रान्ति का भव्य चित्र देखता है, ‘गुलमोहर– आग का फूल! सारी कुरूपता जल रही है! लाल! लाल!’ डॉ॰ क्रांति करता है. जिस कमला का इलाज करता है, उसे पुत्रवती बनाने के बाद उसका वरण करता है. यह भी सहस का काम है - - -”[21]
क्रान्ति की यह अवधारणा हास्यास्पद नहीं तो और क्या है? रेणु ने तो क्रान्ति में सक्रिय रूप से सशरीर भाग लिया था, नेपाल की क्रान्ति में. इसके अतिरिक्त ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से लेकर भारत की आज़ादी तक; भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में हमेशा सक्रिय रहे. उन्होंने केवल पुस्तकों में पढ़कर, क्रान्ति को नहीं समझा था बल्कि सीमित सन्दर्भों में ही सही वह क्रान्ति के साक्षी बने थे. वह क्रांतिकारी थे. उपरोक्त उद्धरण में रामविलास शर्मा जो साबित करना चाहते हैं, वह उनके नियत पर सवालिया निशान लगा देता है. ‘मैला आँचल’ में वर्ग-संघर्ष एवं क्रान्ति का सायास खोज रामविलास जी का राजनीतिक आग्रह नहीं दुराग्रह का द्योतक है. इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि ‘मैला आँचल’ की आलोचना में रामविलास शर्मा ने अपेक्षित तटस्थता व निष्पक्षता का पालन नहीं किया है.
रामविलास शर्मा के अनुसार रेणु ने ‘मैला आँचल’ में तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद का ‘हृदय-परिवर्तन’दिखाया है.[22]यह बिल्कुल गलत है. षड्यंत्रों के माध्यम से हड़पे गए 1000 बीघे जमीन में से 100 बीघा जमीन लौटना गाँधीवादी हृदय-परिवर्तन नहीं है. यह तो ज़मींदार की धूर्तता है. अपने नाती को सामजिक मान्यता दिलाने के लिए समाज को दिए रिश्वत के सामान है. तहसीलदार कहता भी है कि यह जमीन मैं नहीं लौटा रहा हूँ, यह तो नया मालिकअर्थात् नवजात शिशु लौटा रहा है.[23]प्रत्येक परिवार को पाँच-पाँच बीघे जमीन लौटाना जनता का ‘गुडविल’ हासिल करने के निमित्त है. प्रत्येक राजा या शासक को सत्ता प्राप्त करने तथा दीर्घ काल तक अपनी सत्ता कायम रखने के लिए शक्ति (Power) के साथ-साथ जनता के गुडविल (Goodwill) तथा विश्वास (Faith) की भी उतनी ही आवश्यकता होती है. ऐसा मैकियावली कहता है, अपनी रचना ‘द प्रिंस’ में.[24]तहसीलदार का यह प्रयास मैकियावली द्वारा वर्णित उसी फ्रॉड का हिस्सा है जिसके तहत अपनी सत्ता (Power) को कायम (Maintain and Retain) रखने के लिए शासक को धोखे (Deceit) से जनता का विश्वास (Goodwill or Faith) जीतना होता है.
दूसरी बात, महात्मा गाँधी ‘हृदय-परिवर्तन’ को विभिन्न समस्याओं का समाधान मानते थे. ‘मैला आँचल’ में जो समस्याएँ उठाई गई हैं– गरीबी, जहालत, जातिवाद, धर्म का पाखंड, राजनीतिक पतन, जाति का राजनीतिकरण आदि– उनमें से किस समस्या को समाप्त होते हुए दिखाया गया है? रेणु ने ‘मैला आँचल’ में एक तो तहसीलदार का हृदय-परिवर्तन दिखाया ही नहीं है; दूसरा, तहसीलदार द्वारा 100 बीघा जमीन लौटाया जाना, किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. अतः यह हृदय-परिवर्तन भी नहीं है, यह केवल एक षड्यंत्र है जिसका ज़िक्र पहले ही किया जा चुका है.
रामविलास शर्मा ने रेणु पर एक और आरोप लगाया है कि वह जनता को पशु, मूर्ख, अंधविश्वासी, कायर, डरपोक आदि कहते हैं.[25]यह आरोप भी निराधार है. रेणु तो अपने पात्रों से आत्मीय लगाव रखते हैं. ‘मैला आँचल’ के प्रायः सभी पात्र उच्च वर्ग या वर्ण के नहीं हैं, बल्कि समाज के कथित हाशिए के पात्र हैं. प्रेमचन्द के सामान ही रेणु भी हाशिए के पात्रों को अपने कथा-साहित्य में केन्द्रीय भूमिका प्रदान करते हैं. ‘मैला आँचल’ में बावनदास, बालदेव जी, लक्ष्मी दासिन, कालीचरण, डॉ॰ प्रशान्त, कमला आदि का चित्रण उसी आत्मीयता से किया गया है जिस आत्मीयता से प्रेमचन्द ने होरी, धनिया, गोबर आदि के चरित्र को निर्मित किया है. जब रेणु जनता को पशु के सामान कहते हैं तो उनका उद्देश्य जनता की भर्त्सना करना नहीं होता. रेणु तो उस जनता से सहानुभूति व्यक्त करते हुए ऐसा कहते हैं; क्योंकि उनका उद्देश्य जनता की मूर्खता नहीं, उसकी निरीहता को रेखांकित करना है. ऐसा भी नहीं है कि ‘मैला आँचल’ की जनता संघर्ष नहीं करती, तहसीलदार के छल-प्रपंच को नहीं समझती. इतना अवश्य है कि जनता अपने संघर्ष को अंजाम तक नहीं पहुँचा पाती. संथालों के विद्रोह का दमन अवश्य कर दिया जाता है लेकिन वे विद्रोह करते तो हैं, और यही कम महत्त्वपूर्ण नहीं है.
राजनीति का स्थानीयकृत वर्णन ‘मैला आँचल’ की विशेषता है. रेणु ने ग्रामीणों की राजनीतिक सजगता व राजनीति का क्रमशः पतन दिखाया है. रेणु सत्ता-लोलुप राजनीति का भी चित्र खींचते चलते हैं. वह जाति का राजनीतिकरण तथा राजनीति में जातिगत समीकरणों की बढ़ती भूमिका पर चिंता व्यक्त करते हैं. भारतीय राजनीति की यह तस्वीर आज का भी कटु-सत्य है. रामविलास शर्मा के अनुसार इस उपन्यास में ‘राजनीतिक पार्टियों के दोषों को अतिरंजित और गुणों को नज़रअंदाज’ किया गया है.[26]रामविलास जी भारतीय राजनीति में आस्था रखने के लिए स्वतंत्र हैं, किन्तु अपनी आस्था को रेणु पर थोपने का अधिकार नहीं रखते. स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीतिक अवस्था के आज तक के अनुभव के आधार पर यही कहा जा सकता है कि रेणु की राजनीतिक दृष्टि यथार्थ द्वारा संचालित थी; जबकि रामविलास शर्मा की आलोचना में अभिव्यक्त राजनीतिक दृष्टि आदर्श व राजनीतिक मतवाद से प्रेरित है.
अंत में ‘मैला आँचल’ की भाषा व शिल्प का प्रश्न आता है. इस निबंध के प्रारम्भ में ही रामविलास शर्मा इसकी भाषा को ‘अटपटा’ कहते हैं. अंत में यह विवाद खड़ा करते हैं कि ‘मैला आँचल’ के कई पात्र मैथिली के स्थान पर भोजपुरी बोलते हैं.[27]दरअसल रामविलास शर्मा ने इस उपन्यास के मर्म को समझने की कोशिश ही नहीं की. इस उपन्यास की भाषा आंचलिक है. इसमें अंचल विशेष के लोग अपनी मातृभाषा मैथिली का नहीं, मैथिली से प्रभावित खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग करते हैं. ‘मैला आँचल’ के विभिन्न पात्र अपने वर्ग व व्यवसाय सेजुड़ी हुई भाषा का प्रयोग करते हैं. इसमें बिहार का व्याकरण बहुतायत से प्रयुक्त हुआ है. स्थानीय भाषा-शैली एवं लहजे (Tones) को अपनाया गया है. इससे वह परिवेश जीवंत हो गया है. रही बात भोजपुरी से प्रभावित तीन-चार वाक्यों की, तो यह भी स्वाभाविकता का ही परिचायक है. इसका कारण वैवाहिक संबंधों, तीर्थाटन, व्यापार, साधुओं की भ्रमण-वृत्ति आदि द्वारा भाषाई-संक्रमण में निहित है. यह एक आम बात है जिसे रामविलास शर्मा ने रेणु के खिलाफ ‘तुरूप का इक्का’ के रूप में प्रस्तुत किया है.
रेणु ने ‘मैला आँचल’ में फिल्म की टेकनीक अपनाई है. हिन्दी साहित्य में तो शायद यह पहली बार हो रहा था कि फिल्म की टेकनीक को उपन्यास-लेखन में लागू किया गया. इस नवीनता को कमियों के बावज़ूद सराहा जाना चाहिए था, लेकिन सराहना तो दूर रामविलास शर्मा रेणु का मजाक उड़ाते हैं. इस उपन्यास में एक के बाद एक कई प्रसंग आता है और समाप्त हो जाता है. कई बार तो एक ही परिच्छेद में तीन-चार प्रसंग आ गए हैं. विभिन्न प्रसंग कई बार एक-दूसरे से जुड़ते भी हैं और कई बार नहीं भी जुड़ते. इससे प्रभोत्पदकता में कमी आई है.[28]यह विवेचन ठीक नहीं है. एक प्रसंग से ठीक अगला प्रसंग भले न जुड़ता हो, लेकिन आगे जाकर उस प्रसंग का विकास अवश्य होता है. ऐसा नहीं है कि रेणु उसे भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं. उदाहरण के तौर पर प्रशान्त एवं कमला का प्रसंग देखा जा सकता है या किसी भी अन्य प्रसंग को, ये सभी उपन्यास में पूर्णता को प्राप्त करते हैं. पूरा उपन्यास भी एकान्वित होकर प्रभावोत्पादक बन पड़ा है. बकौल रामविलास शर्मा वह (मैला आँचल) ‘गोदान’ की तरह हमारे मानस पर गहरा छाप नहीं छोड़ता! या होरी-धनिया जैसा अमर पात्र ‘मैला आँचल’ में नहीं है! यह मत भी कम विवादास्पद नहीं है जिसपर विस्तार से चर्चा की जा सकती है. किन्तु यहां यही समझ लें कि रेणु का उद्देश्य किसी पात्र की कहानी कहना नहीं था. वे तो मेरीगंज की कहानी कह रहे थे. और मेरीगंज! साहित्य की दुनिया में अमर है.
‘मैला आँचल’ में शिल्प ही नहीं कथ्य की भी कमियाँ हो सकती हैं! लेकिन रामविलास शर्मा ने कमियों को उभारने का जो तरीका अपनाया है वह तरीका सधे हुए आलोचक का नहीं है. रामविलास शर्मा की आलोचना या उस आलोचना के विवेचन से भी कोई निष्कर्ष निकालना संभव नहीं जान पड़ता, क्योंकि ‘मैला आँचल’ की अनेक विशेषताएं ऐसी हैं (यथा– भूमि समस्या, स्वतंत्र भारत के निहितार्थ, जातिवाद, जाति एवं राजनीति का गठजोड़ आदि) जिसकी चर्चा तक नहीं हुई है. रामविलास शर्मा ने ‘मैला आँचल’ की आलोचना नहीं की है, केवल छिद्रान्वेषण किया है, और हम जानते हैं कि छिद्रान्वेषण, आलोचना नहीं होती. जब तक फणीश्वरनाथ रेणु को केवल ‘मैला आँचल’ के लेखक के तौर पर जाना जाएगा, जब तक ‘मैला आँचल’ को महज़ एक आंचलिक उपन्यास माना जाता रहेगा, जब तक रामविलास शर्मा की इस आलोचना के प्रभाव में रेणु के सन्दर्भ में प्रेमचन्द का नाम लिया जाता रहेगा, जब तक आंचलिकता को जातीयता का विलोम माना जाता रहेगा, जब तक रेणु के साहित्य को समझने के लिए हम ‘आंचलिकता’ के अतिरिक्त कोई और मुहावरा नहीं गढ़ लेते– तब तक फणीश्वरनाथ रेणु, ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ आदि भले ही अपनी प्राणवत्ता की बदौलत स्थापित हो गए हों, हिन्दी आलोचना के कंधे पर रेणु के स्थान-निर्धारण का दायित्व ऋण के सामान काबिज़ रहेगा.
मनीष
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[1]नलिन विलोचन शर्मा, ‘मैला आँचल’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), प्रथम पपेरबैक संस्करण, 2006, पृष्ठ 25.
[2]मधुरेश, ‘फणीश्वरनाथ रेणु और मार्क्सवादी आलोचना’ (भूमिका), सम्पादक– मधुरेश, यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2008, पृष्ठ ix-xvii
“लेकिन रामविलास शर्मा सहित मार्क्सवादियों द्वारा रेणु के इस कथित विरोध की पृष्ठभूमि जाने बिना इसकी वास्तविकता को नहीं समझा जा सकता।
रेणु के ‘मैला आँचल’ की जिन लोगों ने बहुत अतिरंजित प्रशंसा की वे अधिकतर लोहिया और उनके समाजवादी विचार दर्शन से जुड़े लोग थे। ×××ये सभी लोग रेणु के प्रसंग में प्रेमचन्द को सामने रख रहे थे और उनके इस उल्लेख का निष्कर्ष यह होता था कि भारतीय ग्राम जीवन के अंकन में रेणु प्रेमचन्द से बड़े लेखक हैं। ×××रामविलास शर्मा का लेख ‘प्रेमचन्द की परम्परा और आंचलिकता’ वस्तुतः प्रगतिवादियों और परिमलियों के बीच चलने वाली लम्बी धारावाहिक बहस का ही एक हिस्सा था। परिमलियों द्वारा प्रेमचन्द के नकार और रेणु के अतिरंजित मूल्यांकन को जो कायदे से मूल्यांकन था ही नहीं, रामविलास शर्मा ने एक में जोड़ दिया। ×××उनका निष्कर्ष यह था कि जिन प्रेमचन्द का ऐसा घनघोर विरोध ये परिमलवादी आलोचक कर रहे हैं, उनके मुक़ाबले रेणु को गाँव की समझ और ज्ञान ज़रा भी नहीं है। इस मामले में न तब प्रेमचन्द का कोई जवाब था, न आज है।
रामविलास शर्मा के इस लेख का सबसे विडम्बनापूर्ण पक्ष यह था कि इसके बाद आगे की पूरी बहस प्रेमचन्द बनाम रेणु पर केन्द्रित हो गई।”
[3]प्रेमचन्द, ‘साहित्य का उद्देश्य’ (आलेख), ‘प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध’, सम्पादक– सत्य प्रकाश मिश्र, ज्योति प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण, 2003, पृष्ठ 95-98
[4]मैनेजर पाण्डेय, ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2013, पृष्ठ 137-138
[5]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचन्द और उनका युग’, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005
[6]नामवर सिंह, ‘प्रेमचन्द और भारतीय कथा साहित्य में भारतीयता की समस्या’ (आलेख), ‘नामवर सिंह : संकलित निबंध’, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 2010
[7]नलिन विलोचन शर्मा, ‘मैला आँचल’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), प्रथम पपेरबैक संस्करण, 2006, पृष्ठ 25
[8]लक्ष्मीनारायण भारतीय, ‘मैला आँचल : एक दृष्टिकोण’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 89-94
[9]गौरा एम॰ए॰, ‘मैला आँचल : स्वस्थ दृष्टियाँ और उचित दृष्टिकोण’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 69-78
[10]वही॰, पृष्ठ 72-73
[11]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 50
[12]नलिन विलोचन शर्मा, मैला आँचल (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 26
[13]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 43
“यह है मैला आँचल, एक आँचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है; इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा-रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन में सन्थाल परगना और पच्छिम में मिथिला की सीमा-रेखाएँ खींच देते हैं। मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को– पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर– इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है।
इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी– मैं किसी से दामन बचाकर निकाल नहीं पाया।
कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।”
[15]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), “मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद”, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 41
[16]नेमिचंद्र जैन, हिन्दी उपन्यास की एक नई दिशा (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), पृष्ठ 55-64
“उसकी विशिष्टता है उस अपूर्व आत्मीयता में जिसके साथ लेखक ने गाँव के जीवन की समस्त कटुता और संगीत को, सरलता और विकृति को, स्वार्थपरता और सामाजिक एकसूत्रता को, अज्ञान और मौलिक नैतिक संस्कार को संजोया है। इतनी तरल भावावेशपूर्ण उत्कटता से शायद ही किसी ने ग्रामीण जीवन को देखा हो- शरद और प्रेमचंद ने भी नहीं, ताराशंकर बनर्जी ने भी नहीं।”
[17]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 44
[18]शिवकुमार मिश्र, ‘यथार्थवाद और आँचलिक उपन्यास’ (आलेख), ‘फणीश्वरनाथ रेणु और मार्क्सवादी आलोचना’, सम्पादक– मधुरेश, यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 13-22
“रेणु में जो कुछ महनीय है, सार्थक है, सारवान है, वह उन्हें प्रेमचन्द और उनकी ग्रामजीवन-केन्द्रित उपन्यास-परंपरा से जोड़ता है और जो कुछ कमजोर, सतही, विवादासपद है, उसका सम्बन्ध आंचलिक उपन्यास से है।जिस प्रकार उनके लेखक और लेखन के सार्थक और सारवान अंश में भी कुछ कमजोर बिन्दु हैं, उसी प्रकार उनके कमजोर, सतही तथा विवादस्पद लेखन तथा लेखक में भी कुछ सशक्त स्थितियां हैं, परन्तु कुल मिलकर प्रतिनिधिक रूप से हमारी उपर्युक्त स्थापना सही है, और हम उसपर कायम हैं। ×××प्रकृतिवाद और रूपवाद उनपर हावी होकर उनके यथार्थवाद को ढक लेते हैं। उनका उपन्यास आंचलिक जरूर बन जाता है पर अपना यथार्थवादी ताप खो देता है। ×××यदि वास्तव में मनुष्य और उसकी समस्याओं को पीछे छोड़ते हुए कोई अंचल हमारी चेतना पर अपनी विशिष्टताओं के साथ छा जाता है, हमें अन-पहचाने को पहचान पाने का सुख देता है, साधारण और समग्र से काटकर हमें अजूबे और विलक्षण के आदिम रस में डुबोता है, तो वह आंचलिक उपन्यास है, अपनी यथार्थ-विरोधी प्रवृत्ति के साथ। यह उत्तम लेखन नहीं, द्वितीय श्रेणी का लेखन है।”
[19]Leo Tolstoy, ‘War and Peace’, The Project Gutenberg E book of War and Peace, WWW.gutenberg.org/files/2600/2600-h/2600-h.htm, Page 1099.
[20]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 44
[21]वही॰, पृष्ठ 46
“इस तहसीलदार के विरुद्ध जनता संघर्ष नहीं करती। संघर्ष क्या करे, लेखक की दृष्टि में वह इतनी मूर्ख है कि तहसीलदार के दांवपेंच समझ भी नहीं पाती। राजनीतिक पार्टियों में सब नेता स्वार्थी हैं, इसलिए जनता का नेतृत्व कौन करे? फिर भी मैला आँचल धुलकर स्वच्छ हो जाता है। एक दिन अकस्मात् तहसीलदार का हृदय-परिवर्तन हो जाता है। हर परिवार को पाँच बीघे जमीन मिल जाएगी। संथालों को भी जमीन मिल जाएगी।”
[23]‘मैला आँचल’, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पेपरबैक संस्करण, 2011, पृष्ठ 309-310
“A Third aspect of Machiavelli’s ideas which can be related to ideology are his considerations on the use of force and fraud in order to get and maintain power.”
[25]रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ (आलेख), ‘मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद’, सम्पादक– भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृष्ठ 46-49
[26]वही॰, पृष्ठ 49
[27]वही॰, पृष्ठ 43-50
[28]वही॰, पृष्ठ 44