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(पेंटिग : Ahmed Morsi (Black Bird II) |
कपिलदेव त्रिपाठी के अनुसार ‘सार्वजनिक उपक्रम से सेवा मुक्त होने के बाद इधर कुछ दिनों से जब-तब कविता के शिल्प में अपने को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ.’
प्रचलित साहित्यक आख्यान का एक प्रतिपक्ष भी यहाँ है. कुछ कविताएँ आपके लिए.
कपिलदेव त्रिपाठी की कविताएँ
हर मृत्यु एक हत्या होती है
सोचने से क्या नहीं हो सकता ?
सोचना
एक महत्वपूर्ण राजनीतिक क्रिया है
राजनीति हमें तथ्यों को बदलना, सत्यों को छिपाना
और
गढना भी सिखाती है
नये नये तथ्य और नये नये सत्य
सोचिए तो
हर मृत्यु एक हत्या होती है
और
हत्या की साजिश में वे भी शामिल होते हैं
जो, बचाना चाहते थे हर हाल में
जिसकी मृत्यु हुई
डाक्टर, जो मर्ज पकड नहीं पाया
गरीबी,जिसने समय से पैसे का इंतजाम नहीं होने दिया
दवा, जो सटीक मर्ज के अनुसार न थी
विज्ञान, जो प्रभावी दवा खोज नहीं पाया
सरकार, जिसने इन खामियों को दुरूस्त नहीं किया
यहां तक कि
वह दम्पति
जो स्वास्थ्य और सुरक्षा की व्यवस्थां
सुनिश्चित किए बगैर
मां बाप बनने की हिमाकत कर बैठा
इन सब को हत्यारा ठहराया जा सकता है
मगर कौन नहीं जानता
कि
असली हत्यारा
मुनाफाखोर विश्वपूंजीवाद है और यह सब
उसी का रचा
क्रूर प्रपंच है
ये डाक्टर.. ये अस्प्ताल.. ये दवाइयां .....
सब उसके बिछाए जाल हैं...
आदमी इसमें फंसता है और
मर जाता है
तो हत्या का मुकदमा क्या ‘विश्व पूंजीवाद’ पर चलाएंगे?
किसे फांसी पर लटकते देखना चाहेंगे ?
सरकार को?
अस्पताल को?
डाक्टर को?
दवाइयों को?
मां बाप की गरीबी को?
या खुद मां बाप को ?
इतने सारे हत्यारे जो
पेश किये गये हैं यहां शिनाख्त के लिए
अपनी सोच की दिशा दृष्टि और राजनीति के मुताबिक
उनमे से किसी एक को आप हत्यारा चुन लेते हैं
बिना यह सोचे कि
ऐसा करके
दूसरे हत्यारों को छोड देने का अपराध करने जा रहे हैं
अपराधी यदि डाक्टर है तो
अस्पताल क्यों नहीं?
अस्पताल दोषी है तो
सरकार क्यों नहीं.....?
सरकार यदि दोषी है तो........
तो
यहीं है राजनीति जो
असली हत्यारे को बचाती है
और
जो हत्यारा नहीं है उसे
सजा की सिफारिश करती है
हत्यारा ठहराने की यही राजनीति
आज
फिंजां पर सवार है.
कौन हैं वे लोग जो
यातनाओं का पहाड और
अमानुषिकताओं की कई कई सुरंगें पार कर चुकी है
हिन्दी कविता
तानाशाहों, लोकतंत्र के हत्यारों और प्रलुब्ध बिचौलियों के विरूद्ध
निश्शंक लडाइयो से भरा पडा है
इसका इतिहास
अत्याचारों के तमाम किस्से घट चुके हैं
ऐन इसकी आंखो के सामने
मुक्तिबोध की एक कविता के शब्द हैं--
‘‘कोशिश करो कोशिश करो जीने की
जमीन में गड कर भी”
जमीन में गड कर भी जिन्दा निकल आती रही है हिन्दी कविता
प्रलय या हताशा के दृश्य कम नहीं है
हमारी कविता में
मगर
मुखर भाव तो आशा और उम्मीद का ही रहा है
कामायनी के पहले सर्ग की पृष्ठभूमि में
प्रलय का दृश्य जरूर है लेकिन
कवि नें
इसका नाम ‘आशा सर्ग‘ रखा जो
उषा की सुनहली किरणें के साथ शुरू होता है
राम के थके हारे मन के पीछे छुपा
‘एक और मन‘
खोज ही लिया था महाप्राण निराला की कविता ने
---उम्मीद से भरा हुआ...
ऐसा भी दौर आया जब जीवन और
उम्मीद की खोज में
हिन्दी कविता को दर दर भटकना पडा
याद करें अरूणकमल की कविता ‘उम्मीद‘ और केदारनाथ सिंहं की
‘अकाल में दूब‘...
और भी तमाम कवियों की
तमाम कविताए.......
इमरजेंसी के मुश्किल दौर में जब
अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यंम के लिए
जगह बहुत कम बची थी या
बिलकुल नहीं बची थी
तब भी
जीने की उम्मीद बचा लेने की जिद कविता में
खत्म नहीं हुई थी
मगर अब दृश्य बदल गया है
भय के विरूद्ध अविचल डटी रहने वाली कविता ने
आज उम्मीद और आश्वासन के सबूत खोजना छोड दिया है
अब वह उम्मी्द के बचे होने की नहीं
उम्मीदों के समाप्त हो जाने का नैरेटिव बना रही है जबकि
लोकतंत्र आज भी मरा नहीं है
जीवन भी बचा हुआ है
पत्थर के नीचे दूब आज भी उगती है और
चिडियां अब भी
शाम होने पर घोसलों में लौट आती हैं
‘शासन की बंदूक” अगर
‘इमरजेंसी‘ में
कोयल का कुछ नहीं बिगाड पाई तो
आज भी ठूंठ पर बैठ कर क्यों नही बोल सकती है
कोयल ?
कविता का काम
निराशा का ‘बखान‘ करना नहीं है
यह बात कवि से अधिक
कौन जान सकता है ?
कविता
ऋतु परिवर्तन के साथ बदल जाने वाली शै भी नहीं है
मगर कितना विचित्र है कि
इधर राजनीतिक में जरा ऋतु परिवर्तन आया
उधर कवियों ने
तय कर लिया कि हिन्दी कविता में अब
कोयल नहीं कूकेगी
अब उसे ‘डिस्टोपिया‘ का खौफ ढोने का
अभ्यास कराया जाएगा
आत्म हत्या कर रहे किसानों
साम्प्रादायिक दंगों में हलाक निर्दोंष नागरिकों
और
क्षत विक्षत बलात्कृताओं के शवों की गिनती का काम
लिया जाएगा
दंगों में मार दिये गये
नागरिकों के
साम्प्रदायिक शिनाख्त के इरादे से
कवियों को
मर्चरी घरों के इर्द गिर्द मडराते हुए इससे पहले
कभी नहीं देखा गया
अपने राजनीतिक डर
और
स्वार्थी चिंताओं के अंधकार से
कविता की नैसर्गिकता को निरस्त कर देना चाहते हैं?
नकली कवि
भूख, बीमारी, हत्या और
अन्याय देख
वह आश्चर्य से भर उठता था
जैसे
आज,बिलकुल आज और अभी अभी उतरा हो इतना सारा दुख दैन्य
पृथ्वी पर
पहली पहली बार
ऐन उसकी आंखों के सामने
हत्या और बीमारी की खबरें सुनकर
वह चौंक चौंक जाता था
रोने लगता था बच्चों की तरह
वह कवि था और इतना ज्यादा कवि था कि
उसके जीवन का दो तिहाई कविता में बीत चुका था
और एक तिहाई
कविता की मेज पर बीतने जा रहा था
वह पहला कवि था जो
इस पृथ्वी का अन्न जल ग्रहण करता था बिना संकोच मगर
इस पृथ्वी पर रहने से कतराता था
घिन आती थी उसे इस पृथ्वी से,
पृथ्वी वासियों से कहता था -
मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए--
दुख दैन्यी से दूर
आनन्द से भरपूर
कल्पना की कमठ पीठ पर टिकी और
कविता की धुरी पर थिरकती प्यारी सलोनी
दूसरी पृथ्वी
वह कवि
स्वैर कल्पनाओं से गढी गई
दूसरी पृथ्वी का स्वैर नागरिक बन चुका था
बरस दो बरस में कभी जब
भटक कर हमारी पृथ्वी पर आता है वह कवि तो
मौत के डर से सिहर सिहर जाता है
बच्चों की तरह रोता है
पृथ्वी का दुख् देख
अचरज से भर उठता है
और
घबरा कर अपनी कविता की पृथ्वी में लौट जाता है.
समय जो सबका पिता है
समझाने का नहीं
और समझने का भी नहीं
यह
समझने और समझाने से बाहर निकल जाने का समय है
समय से बाहर
निकल जाने का समय
सूरज नें अपने घोड़ों को कार्यमुक्त कर दिया है
सुबह और शाम की दूरियां अब
पूरी करता है
‘स्वचालित यान‘ से
घोड़ों का हिन-हिन और टापों का शोर
अब नहीं सुनाई देता
किसी मल्टीनेशनल कम्पनी ने सूरज से
घोडों का सौदा कर लिया है
समय की धूपघड़ी
अब किसी सूरज का मुहताज नहीं
सूरज अब किसी धूप घड़ी के लिए नहीं उगता
डूबता भी नहीं किसी कन्या कुमारी के अंतरीप में
घड़ी साजों की आंखों पर चिपका लेंस समय की
किसी इक्कीसवीं तारीख के आस पास
गिर गया है
जो उसके होने की आहट थी
सोचा जो, वह कहा नहीं
कहा नहीं, जो
सोचा
कहने और सोचने के बीच
फंसा है यह समय.
जिद ने तर्क को पीछे ठेल दिया है
वत्सलता को काठ मार गया है
भविष्य का ‘भय’
माताओं की कोख में
भ्रूणों को
इतिहास से आगे निकल जाने का ‘कैप्सूल कोर्स’ करा रहा है
भविष्य और वर्तमान की संधि पर बैठा अबूढा समय
विलाप कर रहा है
कि
बिला गए हैं उसके सपने
कट गई है डोर
पता नहीं कब कहां गिरेगा वह जो
सबका पिता है--
अबूढा समय
खो गया है जिसका प्रमाण-पत्र
पुरखों का दिया.
विचार
ढीला छोड दो
करने दो नृत्य, थक जाने की हद तक
जाने दो दिगन्तों के आर-पार
गुम हो जाने दो निरर्थकता और अनिश्चयता की भूल भुलैया में
मुक्त कर दो अपने प्यार की भवंर से
छोड दो लावारिस
ये विचार हैं,
तुम्हारे बच्चे नहीं
तुम जिसे पृथ्वी कहते हो
वह विचारों के फन पर खडी है
अरबों खरबों तरह के विचारों की मिटटी से बनी है यह पृथ्वी
शोक मत करो यदि मर गये तुम्हारे विचार या
मार दिये गये युद्ध में
युद्धभूमि से विजयी होकर आया है जो विचार
उसका स्वागत करो
और सोचो कि यह भी किसी दिन मारा जाएगा
विचारों की जंग में
यह विजयी विचार भी कोई अंतिम विचार नहीं है
होता भी नहीं है कोई
अंतिम विचार
इस तरह से सोचोगे तो
यह भी सोचोगे कि
विचारों का बंधन ही सबसे बुरा बंधन होता है और
विचारों के मोह से मुक्ति
ही
सच्ची मुक्ति
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ये लोग
ये लोग
जो कभी बदल देना चाहते थे दुनिया
भूमण्डलीय तेजी से भी तेज गति से
बदलती जा रही है
इनकी दुनिया
जरूरत के हिसाब से ये रोज तर्क गढते हैं
इस्तेमाल करते हैं और
बाजार की डस्टबिन में फेंक घर चले जाते हैंं
व्यावहारिक विवेक से इनकी विचारधारा का सम्बन्ध
कब का टूट चुका है
पूर्वजों द्वारा निर्धारित महत् लक्ष्यों को इन्होंने
वाचनालय के ‘आर्काइव‘ में रखवा दिया है
इनके पास ‘एनजीओज‘ को
उपकृत करने के लिये
संस्कृति के उद्योगपतियों द्वारा दिये गये
छोटे छोटे
तमाम’ सांस्कृतिक लक्ष्य हैं
और साहित्यिक लक्ष्य तो ढेरों हैं
इन रास्तों पर चलकर
पुर्वजो द्वारा निर्धारित महान लक्ष्यों को
नही पाया जा सकता
यह बात ये खूब जानते हैं मगर
चुप रहते हैं
चुप्पी के एवज में ये लाखों कमाते हैं और इज्जत में सराबोर रहते हैं
हम इनसे
हमारे भविष्य की बाबत बातें करना चाहते हैं
लकिन ये
तैयार नहीं होते क्योंकि
जानते हैं कि हम
इनसे सवाल कर सकते हैं
अप्रत्याशित
कुछ भी
इन्हें तेज कदमों से चलने वाले
तेज तेज बोलने वाले
तेज तेज प्रहार करने वाले क्रांति विकल
अनुगामी चाहिए
असुविधाजनक सवाल करने वाले
नागरिक नहीं
अपने
प्रस्थान से उच्छिन्न और
परिणति से बेखबर
ये लोग
राजनीति की दौड़ मे हमेशा शामिल दिखते रहना चाहते हैं
चाय की टेबुल, कविता की मेज और
प्रणय के एकांत में भी
खुद को दुनिया का चक्कर लगाते दिखना इनका शगल है
ये लोग
वातानुकूलित कमरे में भी
अपने माथे से
किसी मजदूर का पसीना निचोड कर
दिखा सकते हैं.
कपिलदेव त्रिपाठी
‘अंतर्वस्तु का सौंदर्य’ नाम से 2009में एक आलोचना की किताब आई थी. नौ वर्ष वाद अभी हाल में वियतनामी कहानियों के एक संकलन का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है,संकलन का नाम है. ‘हंसने की चाह में’