Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

मेघ-दूत : चु चछिंग - पिताजी की पार्श्व-छवि : पंकज मोहन

Image may be NSFW.
Clik here to view.














पिता-पुत्र के रिश्तों पर, उनके बीच के प्रेम और अहम् पर हर भाषा में लिखा गया है. पिता, पुत्र में अपना बेहतर होता हुआ देखना चाहता है, वह अपने पीछे एक बेहतर पिता छोड़ जाना चाहता है. पुत्र जब पिता बन जाता है तब वह अपने पिता को समझ पाता है.

पिता-पुत्र की इसी आत्मीयता पर चीनी भाषा में ‘चु चछिंग’ का एक संस्मरण (निबन्ध) है, ‘पिताजी की पार्श्व-छवि’ जिसका अनुवाद हिंदी में पंकज मोहन ने किया है. इसे पढ़ते हुए अगर आपको अपने पिता की बरबस याद आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.







चु चछिंग

पिताजी की पार्श्व-छवि                        

अनुवाद : पंकज मोहन





आधुनिक चीन के महान कवि  और ललित निबंध लेखक  चु चछिंग (1898-1948)  ने १९२० में  पेकिंग (बीजिंग) विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और तदुपरांत उन्होंने  शांघाई, हांगचौ, निंगबो आदि शहरों में स्कूल शिक्षक का जीवन बिताया. १९२५ में उन्होंने बीजिंग-स्थित छिंगह्वा विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग के प्राध्यापक का पदभार ग्रहण किया. १९३१-३२ में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य और भाषा विज्ञान का अध्ययन किया. जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने चीन  के प्रगतिकामी बौद्धिक समाज के मेरुदंड की भूमिका निभायी. "पिताजी की पार्श्व-छवि"नामक लेख १९२८ में प्रकाशित चु चछिंग के निबंध संग्रह में संकलित है.




पिताजी से मिले दो साल हो गए. मेरे मन में उनकी जो छवि अभी भी तरोताजा है, वह है दूर सड़क पर धीरे-धीरे धुंधली और फिर आँखों से ओझल होती हुयी उनकी पार्श्व छवि.


जाड़े का दिन था. मैं उस समय बीजिंग में था, और पिताजी चीन के शुचौ शहर में थे. मुझे समाचार मिला की दादाजी गुजर गए. और करीब उसी वक्त पिताजी भी अपनी एक अस्थायी सरकारी नौकरी से हाथ धो बैठे. सच ही कहा गया है 'संघचारिणो अनर्था:', अर्थात विपत्ति कभी अकेली नहीं आती, आपदा, विपदा, त्रासदा आदि सखी-सहेलियों को भी साथ ले आती है.दादाजी की मृत्यु और पिताजी की नौकरी छूटने के समाचार को सुनते ही मैं शुचौ के लिए रवाना हुआ. वहां से पिताजी को साथ लेकर गाँव जाने की योजना थी. गाँव में हमलोगों को दादाजी का श्राद्ध जो करना था.


शुचौ पहुँचने पर पिताजी के सरकारी फ्लैट में गया. पिताजी के फ्लैट के अहाते में पहले रंग-रंगीले फूल और हरी सब्जियां मुस्कराती थीं, अब वहां घास-मोथे और बियावान के सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था. पिताजी को देखते ही मुझे दादाजी की याद आ गयी, और मेरी आँखों से आंसू की बूँदें टप-टप ढुलकने लगीं. पिताजी ने कहा, "मन छोटा मत करो. तकलीफ का वक्त है, गम की अंधेरी रात हैं. लेकिन रात ही तो है. सबेरा तो होगा ही.”


घर पंहुंचते ही पिताजी ने घर के कीमती सामानों को संदूक से निकालना शुरू किया-- कुछ सामानों को बेच दिया और कुछ को गिरवी पर रख दिया. परिवार का कर्ज तो इस तरह चुक गया, लेकिन दादाजी के श्राध-संस्कार के लिए उन्हें पैसे उधार लेने पड़े. उस समय पिताजी की बेकारी और श्राद्ध के खर्च के कारण हमारे परिवार की स्थिति सचमुच दयनीय थी. श्राद्ध समाप्त होने पर पिताजी काम खोजने नानजिंग शहर के लिए प्रस्थान हुए, और चूकि मैं भी उस समय पेकिंग यूनिवर्सिटी का छात्र था, बीजिंग की गाड़ी पकड़ने के लिए नानजिंग तक जाना था. मैं भी साथ हो लिया.


नानजिंग के एक संबंधी ने आग्रह किया कि मैं उनके घर एक दिन रूककर वहां के दर्शनीय स्थानों को देखूं और आगे बढूँ. दूसरे दिन दोपहर के समय हमलोग नाव से यांग-च नदी पार कर फुकौ शहर पंहुचे. बीजिंग जाने वाली गाड़ी फुकौ स्टेशन से खुलती थी. पिताजी काम के बोझ से दबे हुए थे और स्टेशन जाकर मुझे छोड़ने और गाड़ी में बैठाने के लिए उनके पास समय नहीं था. स्थानीय होटल का एक कर्मचारी उनके जान-पहचान का आदमी था. उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह मुझे स्टेशन तक पंहुचा दे. उन्होंने उस कर्मचारी को बार-बार हिदायत दी कि वह मुझे बहुत सावधानी से ट्रेन में बैठा दे. फिर भी उनकी चिंता दूर नहीं हुई, और मन के किसी कोने में यह शंका बनी रही कि उस कर्मचारी का भरोसा नहीं, वह उतनी मुस्तैदी से उनके आदेश का पालन नहीं कर पायेगा. कुछ समय तक तो वे दुबिधा में रहे , क्या करें क्या न करें, और अंत में उन्होंने मेरे साथ चलकर खुद मुझे स्टेशन तक छोड़ने का निर्णय लिया. मैं उनसे दो-तीन बार कहा कि उनके पास बहुत-सारे काम हैं, स्टेशन तक आकर सी-ऑफ करने की जरूरत नहीं है. लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने कहा, तुम्हे उस आदमी के हाथ सौंपकर मैं चला जाउंगा, तो मन में चिंता बनी रहेगी.
Image may be NSFW.
Clik here to view.
(Father and Son by Xie Dongming )


नदी को पारकर हम हम स्टेशन पंहुंचे. मैंने टिकट खरीदा और पिताजी सफ़र में सामान की हिफाजत के बारे में सोचने लगे. उन्होंने एक कुली को बुलाया और उससे मोल-मोल्हाई करने लगे. उस समय मैं सोचता था कि पिताजी की देहाती बोली को सुनकर कुली उन्हें ठग लेगा.. मैं शहर में रह चुका हूँ और मुझसे ज्यादा तेज-तर्रार आदमी कौन है? मुझे खीज हुई कि वे क्यों बीच में पड़ते हैं? खैर, बहुत हील-हुज्जत के बाद कुली का भाड़ा तय हुआ, गाड़ी प्लेटफोर्म पर खड़ी थी. वे मेरे साथ गाड़ी तक आये, और आते ही उन्होंने मेरे लिए एक जगह ढूंढ ली. मैंने उस सीट पर अपना कोट डालकर उसे अपने लिए "आरक्षित"कर लिया. उस कोट को पिताजी ने मेरे लिए बनवाया था.


पिताजी ने मुझे हिदायत दी, सफ़र में हमेशा सावधान रहना चाहिए, खासकर रात में और भी सतर्क रहने की जरूरत है. उन्होंने यहाँ तक कि मेरे कम्पार्टमेंट के Attendant से भी आग्रह किया कि सफ़र में वह मेरा ख्याल रखे. मै मन ही मन सोच रहा था कि पिताजी क्या बकवास कर रहें है. Attendant को तो सिर्फ पैसे बनाने से मतलब है, और वे उससे जाकर मेरा ख्याल रखने का अनुरोध कर रहे हैं. और मैं बच्चा थोड़े ही हूँ.. मेरी उम्र बीस साल की हो गयी,क्या मैं अपना देख-भाल खुद नहीं कर सकता हूँ? लेकिन आज जब उन दिनों की याद आती है तो सोचता हूँ कि उन दिनों मैं अपने आप को कुछ ज्यादा हे चतुर समझता था.


मैंने कहा, बाबूजी, अब आप जाइये. उनकी दृष्टि दूसरे प्लेटफोर्म पर गयी जहां सुन्दर, स्वादिष्ट संतरे बिक रहे थे. उस प्लेटफोर्म पर जाने के लिए हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर बीच में बिछी रेलवे की पटरियों को पार करना होता था. और फिर उस प्लेटफोर्म पर चढ़ने के लिए नीचे खड़े होकर प्लेटफोर्म को दोनों हाथों से पकड़ना होता था, और उसके बाद शरीर को ऊपर सरकाना होता था. पिताजी का शरीर भरी-भरकम था, इसलिए उस प्लेटफोर्म पर चढ़ना उनके लिए आसान नहीं था. मैं खुद जाना चाहता था, लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं मानी. मैं गाड़ी की खिड़की से उन्हें देखता रहा. वे काली मिरजई पहने थे, और उनके सर पर भी काली टोपी थी. 


वे किसी तरह हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर पटरी को हौले हौले पार कर आगे बढ़ गए, लेकिन दूसरा प्लेटफोर्म थोड़ा ऊंचा था, और उसपर चढ़ना उनके लिए भारी पड़ रहा था. उन्होंने दोनों हाथों को प्लेटफोर्म के किनारे को मजबूती से पकड़ा, और फिर उन्होंने अपना पैर ऊपर उठाया, और अपने मोटे देह को प्लेटफोर्म के ऊपर सरकाने लगे. बहुत श्रम-साध्य काम था. उनकी इस पार्श्व छवि को देखकर मैं अपने आंसू को थाम न पाया. लेकिन इस डर से कि दूसरे यात्री मेरी नम आँखों को देख न लें, मैंने आंसू पोंछ लिए. मैंने फिर दूसरे प्लेटफोर्म पर नजर दौड़ाई. पिताजी हाथ में संतरों से भरी झोली को हाथ में लटकाए मेरी गाड़ी की और लौट रहे थे. उन्होंने झोली को पहले प्लेटफोर्म के नीचे गिरा दिया, फिर एक हाथ को प्लेटफोर्म पर रखा, और अपने शरीर को थोरा तिरछा करते हुए प्लेटफोर्म से लटकते हुए नीचे सरकना शुरू किये. जब वे संतरे देने मेरे प्लेटफोर्म पर वापस आये और ऊपर चढ़ने लगे, मैंने उनका हाथ थाम लिया, और ऊपर उठा लिया.


उन्होंने संतरे की झोली को मेरे सीट पर पड़े कोट के ऊपर रख दिया. उसके बाद अपने कपड़ो॑ के धूल झाड़ने लग गए. अब वे थोड़ा निश्चिन्त-से लग रहे थे. उसके बाद उन्होंने कहा, 'अब मैं जा रहा हूँ, बीजिंग पहुँचते ही चिठ्ठी लिखना',और वे आगे बढ़ गए, और मैं उन्हें देखता रहा. दो-चार कदम ही आगे गए होंगे कि उन्होंने मुझे मुड़कर देखा, और कहा, अब अपनी सीट पर आराम से बैठ जाओ. आज गाड़ी में भीड़ नहीं है. मैं उन्हें तब तक देखता रहा जबतक आने जाने वाले लोंगों की भीड़ में घुल-मिलकर उनकी आकृति अदृश्य नहीं हो गयी, मैं गाड़ी में जाकर अपनी जगह पर बैठ गया, और मेरी ऑंखें फिर डबडबा गयीं.

पिछले दो वर्षों में पिताजी से मिलने का अवसर नहीं मिला, और इस बीच परिवार संकट भी दिनोदिन गहरा ही होता गया. 

अपने जवानी के दिनों से ही पिताजी ने अपने जीवन का मार्ग स्वयं प्रशस्त किया, और अपने कन्धों पर पूरे परिवार का भार उठाया. यौवन में अच्छी-खासी नौकरी भी की.लेकिन 'सब दिन जात न एक समाना'. उन्होंने कल्पना भी न की होगी कि बुढापे में उन्हें इन विपदाओं का सामना करना होगा. आजकल छोटी-छोटी बातों पर भी वे खीज उठते हैं. और मेरे प्रति उनके व्यवहार में भी कुछ फर्क आ गया है. लेकिन वे दो वर्षों से मुझसे नही मिले हैं, 'अवगुण चित्त न धरौं'वाली बात है. मेरा गुण-दोष नहीं देखते-परखते, सिर्फ मुझे और अपने पोते को आँख भर के देखने के लिए लालायित रहते हैं.



मेरे बीजिंग पहुंचने के कुछ दिन बाद ही, उनकी एक चिठ्ठी मिली जिसमे उन्होंने लिखा था "अपनी सेहत के बारे में क्या लिखूं.  तबीयत ठीक-ठाक ही है, लेकिन इन दिनों बांहों में काफी दर्द रहता है, कलम की तो बात मत पूछो, chopstick उठाने में भी तकलीफ होती है, जिन्दगी के खटाड़े को किसी तरह खींच रहा हूँ-- अपने जीवन की अंतिम साँसे ही गिन रहा हूँ." 



मैं इतना ही पढ़ पाया कि आँखों छलछला उठीं, और अश्रु-विगलित आँखों में कौंध गयी और झलकने लगी मेरे पिता की पार्श्व छवि --काली मिर्जई में लैस, सर पर काली टोपी पहने मुझे सी-ऑफ कर वापस कर लौटते हुए पिताजी. न जाने हम दोनो फिर कब मिलेंगे ....

______________
पंकज मोहन
प्रोफेसर और डीनइतिहास  संकाय
नालंदा विश्वविद्यालयराजगीर
pankaj@nalandauniv.edu.in 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>