भारतीय भाषाओँ में हिंदी आलोचना प्रभावशाली और विद्वतापूर्ण नामवर सिंह की वजह से है. आलोचना को अपने समय के साहित्य-सिद्धांत, विचारधारा और अद्यतन सामजिक विमर्श से जोड़कर उन्होंने उसे विस्मयकारी ढंग से लोकप्रिय बना दिया था. अध्यवसाय, स्पष्टता और सौष्ठव के कारण ही साहित्य के मंचों पर एक आलोचक वर्षों-बरस चाव और उत्तेजना के साथ सुना जाता रहा.
साहित्य को बाज़ारवाद और दक्षिणपंथी सोच से बचाने और उसे प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर प्रखरता देने के क्रम में वे कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहे. ‘आलोचना’ पत्रिका ने इस तरह के विमर्श को जगह दी वहीं उनके हिंदी विभाग (जेएनयू) ने विवेकवान शिक्षक समाज को दिए. साहित्य की कई पीढ़ियों को उन्होंने सहेजा और संवारा. एक तरह से यह नामवर-समय है.
आज जब वे नहीं हैं उनकी कृतियाँ यह काम करती रहेंगी. उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनकी परम्परा का विकास हो, आलोचना और जीवंत हो, अपनी सामजिक जिमीदारियों से कभी विमुख न हो तथा एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में वह विश्व में उल्लेखनीय बने.
ना म व र के होने ने होने के बीच