‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ को वर्ष २०१८ के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. चित्रा मुद्गल ने मुंबई के उपनगर नाला सोपारा के एक किन्नर (जिन्हें अब एलजीबीटी समुदाय- lesbian, gay, bisexual, and transgender कहा जाता है) के संघर्ष और विडम्बना को इस उपन्यास में चित्रित किया है. पूरा उपन्यास पत्र शैली में है.
वरिष्ठ लेखक सत्यदेव त्रिपाठी इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं.
कल्पित किन्नर जीवन की भावाकुल त्रासदी
सत्यदेव त्रिपाठी
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अपने लेखन-काल से चर्चित हो चुके और अब 2018के लिए ‘साहित्य अकादमी’ सम्मान से नवाजे गये उपन्यास ‘नाला सोपारा’में गज़ब की पठनीयता है- ख़ूबी विरल विषय की और सलीके के रचना-विधान की...!! किन्नर-जीवन पर केन्द्रित होने में विरलता स्वयं सिद्ध है. विधान है पत्र-शैली का, जिसमें घर से बहिष्कृत किन्नर-संतान बिन्नी उर्फ़ विनोद (फिर बिमली) स्वयं अपनी माँ वन्दना को पत्र लिखता है. इससे भोगे-जीये जीवन की निजता के साथ दुनिया के सबसे क़रीबी व संवेदन-सिक्त रिश्ते में मजबूरन छोडने-छूटने की पीडा का दंश भी मिल जाता है. इसे साकार करने के लिए पत्र-शैली अचूक व एकमात्र माध्यम भी बनती है. माँ-बेटे (ख़ासकर बेटे) की एक दूसरे के बारे में जानने की दुर्दमनीय आकांक्षा का फलीभूत हो पाना सम्भव ही हो पाता है डाक-तार विभाग के तकनीकी विधान के ज़रिये, जो उपन्यास के मूल शीर्षक ‘नाला सोपारा’ का अग्रिम पूरक बना है- ‘पोस्ट बॉक्स नम्बर 203’. वरना माँ तो नेटविहीन पुरानी पीढी वाली है और नेट-निपुण विनोद साधनहीन है. दोनो समर्थ होते, तो शायद जीवन में ऐसा मंजर आता ही नहीं, इस सिलसिले के साथ पात्रानुसार कथा की संगति भी सिद्ध है. अस्तु, पता-विहीनता के लिए ख़ास तौर पर बना पोस्टबॉक्स नम्बर का यह प्रावधान परिवार व दुनिया से बचकर माँ-बेटे का संवाद कराता है. और भर उपन्यास यही है– यही उपन्यास है, जिसमें इस द्विपक्षीय आसक्ति से ऐसा भावाकुल परिपाक रच उठा है कि पाठकीयता इसमें सराबोर हुए बिना रह नहीं पाती– गोकि सोच उसे ‘रहा किनारे बैठ’पर रोके भी रहती है....
‘राजनीति में कुछ सुनिश्चित नहीं होता- चालें ही अगली चालों की भूमिका बनती हैं’ (पृष्ठ-158). और दूसरा कथन भी तिवारीजी का ही है, जब मुद्दा खडा करने की राजनीतिक फितरत से आगे जाकर विनोद मुद्दे को हल करने के सीधे उपाय बना-बताकर मंच से उतर चुका है और प्रेस के साथ बातचीत होनी बाकी है – ‘कुछ मिल सकता है तुम्हारी बिरादरी को, तो सरकार से ही- हमारी सरकार से. और ये घर-वापसी के दिमांगी फितूर से क्या मतलब है तुम्हारा? एक गुमशुदा की तलाश तक तो कानून-व्यवस्था कर नहीं पाती- मिल पाती है पटरी पर पडी उसकी लावारिस लाश. उसे भी लावारिस मुर्दे की तरह फूँक-फाँक फेंक देती है पुलिस’ (पृष्ठ-190). और यही हुआ विनोद के साथ, क्योंकि प्रेस से बातचीत में भी उसने वही किया- किन्नरों को भीड व मुद्दा बनाकर रखने के बदले सचमुच ही उनके निस्तार का काम.... और फिर हो गया उसी का काम तमाम.....
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अपने लेखन-काल से चर्चित हो चुके और अब 2018के लिए ‘साहित्य अकादमी’ सम्मान से नवाजे गये उपन्यास ‘नाला सोपारा’में गज़ब की पठनीयता है- ख़ूबी विरल विषय की और सलीके के रचना-विधान की...!! किन्नर-जीवन पर केन्द्रित होने में विरलता स्वयं सिद्ध है. विधान है पत्र-शैली का, जिसमें घर से बहिष्कृत किन्नर-संतान बिन्नी उर्फ़ विनोद (फिर बिमली) स्वयं अपनी माँ वन्दना को पत्र लिखता है. इससे भोगे-जीये जीवन की निजता के साथ दुनिया के सबसे क़रीबी व संवेदन-सिक्त रिश्ते में मजबूरन छोडने-छूटने की पीडा का दंश भी मिल जाता है. इसे साकार करने के लिए पत्र-शैली अचूक व एकमात्र माध्यम भी बनती है. माँ-बेटे (ख़ासकर बेटे) की एक दूसरे के बारे में जानने की दुर्दमनीय आकांक्षा का फलीभूत हो पाना सम्भव ही हो पाता है डाक-तार विभाग के तकनीकी विधान के ज़रिये, जो उपन्यास के मूल शीर्षक ‘नाला सोपारा’ का अग्रिम पूरक बना है- ‘पोस्ट बॉक्स नम्बर 203’. वरना माँ तो नेटविहीन पुरानी पीढी वाली है और नेट-निपुण विनोद साधनहीन है. दोनो समर्थ होते, तो शायद जीवन में ऐसा मंजर आता ही नहीं, इस सिलसिले के साथ पात्रानुसार कथा की संगति भी सिद्ध है. अस्तु, पता-विहीनता के लिए ख़ास तौर पर बना पोस्टबॉक्स नम्बर का यह प्रावधान परिवार व दुनिया से बचकर माँ-बेटे का संवाद कराता है. और भर उपन्यास यही है– यही उपन्यास है, जिसमें इस द्विपक्षीय आसक्ति से ऐसा भावाकुल परिपाक रच उठा है कि पाठकीयता इसमें सराबोर हुए बिना रह नहीं पाती– गोकि सोच उसे ‘रहा किनारे बैठ’पर रोके भी रहती है....
पत्र सिर्फ़ बेटे बिन्नी के हैं. उन्हीं में माँ के पत्रों के हवाले हैं. काश, माँ के भी पत्र होते, तो इक तरफे पत्र-विधान से बनती एकरसता टूटती और भाषा-भाव के वैविध्य भी बनते. पत्राचार के मानक विधान बख़ूबी निभाये जाते हैं, तारीख़, समय के साथ गुजराती-परिवार के सम्बोधन ‘पगे लागूँ बा’...दीकरी, मोठा भाई...आदि भी. लेकिन नवें अध्याय से जब घटनायें फैल जाती हैं, बहुत-बहुत कुछ जल्दी-जल्दी घटित होने लगता है, जिससे पेचीदगियां बढती जाती हैं, तो पत्र का माध्यम लचर पडने लगता है और कहीं-कहीं तो घटनाओं-बातों की रौ में पत्राचारिता विस्मृत हो जाती है- वर्णन-कथन पत्रातीत होकर कथामय हो जाते है, जो उपन्यास की मूल प्रकृति है. लेकिन फिर सोते-सोते जाग उठने की तरह अचानक माँ के सम्बोधन व संवाद की लय आ जाती है- याने सजगता कम नहीं है, पर मूल की सहजता भी कोई चीज़ है...!!
ध्यातव्य है कि कृति का विषय किन्नर-जीवन जरूर है, पर इसका केन्द्रीय कथ्य इस जीवन का वह पक्ष है, जिसमें नर-मादा के अलावा हुए अपने समलिंगी बच्चे को किन्नर-जमात के लोग घर से जबर्दस्ती उठा ले जाते हैं. इसी से आकुल-व्याकुल त्रास उपजा है माँ-बेटे में, जो इस कृति का कारक बना है. और कहना होगा कि कथा के उरोज-स्तर पर जब किसी नेता द्वारा वोट हथियाने के लिए किन्नर-सभा होती है और पढे-लिखे होने के कारण विनोद को मुख्य वक्ता की हैसियत से बोलने का मौका मिलता है, तो इस दंश को भावना-प्रसूत तर्क के आधार देकर वह बख़ूबी स्थापित ही नहीं करता, वरन पूरे किन्नर समाज में बहुत गहरे जाकर डूब चुकी इस भावना को जगा देता है. पूरे समाज की यह मानवीय पीडा आँसुओं-सिसकियों से होते हुए क्रन्दनों तक पहुँचती है और अंतस् में पैठ चुके इस मूल दंश का हाहाकार गूँज उठता है.... इतना भी काफी था इस वेदनाभरे कथ्य को व्यक्त करने के लिए, पर ‘उपक्रमोपसंहार:’ (उठायी गयी समस्या को सम्भावित हल तक ले जाने) की प्राचीन पद्धति को सार्थक करते हुए लेखिका इसे और आगे ले जाती है.
विनोद के पत्रों से संवेदनसिक्त होते-होते रक्तचाप व हृदय रोग से ग्रस्त माँ वन्दना शाह मरने के पहले पति की सहमति के साथ एक वसीयत लिखती हैं, जिसमें तीनो बेटों को पूरी सम्पत्ति में बराबर का हक़दार बनाती है. दूसरे बेटे विनोद को किन्नर होने के कारण लोकापवाद के डर से जबरन उसकी जमात को सौंपने तथा दुर्घटना में उसकी मृत्यु की झूठी घोषणा कर देने जैसे अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा माँगती हैं. इसे वे ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’में सूचनार्थ छपाती हैं, ताकि पढकर विनोद आये और वसीयत के मुताबिक दोनो भाइयों के साथ मुखाग्नि दे. उसके आने तक अपने शव को सुरक्षित रखा जाये.... कहना होगा कि एक दिन बहिष्कृत करने में मजबूरन ही सही, सहयोगी बनने वाली माँ में भी यह बदलाव विनोद के पत्रों को पढने से ही आया है. तो क्या सांकेतिक रूप से यही असर लेखिका अपने पाठकों से भी नहीं चाहती...बल्कि यह भी कि ऐसे बहिष्कार के खात्मे हों...?
विनोद के पत्रों से संवेदनसिक्त होते-होते रक्तचाप व हृदय रोग से ग्रस्त माँ वन्दना शाह मरने के पहले पति की सहमति के साथ एक वसीयत लिखती हैं, जिसमें तीनो बेटों को पूरी सम्पत्ति में बराबर का हक़दार बनाती है. दूसरे बेटे विनोद को किन्नर होने के कारण लोकापवाद के डर से जबरन उसकी जमात को सौंपने तथा दुर्घटना में उसकी मृत्यु की झूठी घोषणा कर देने जैसे अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा माँगती हैं. इसे वे ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’में सूचनार्थ छपाती हैं, ताकि पढकर विनोद आये और वसीयत के मुताबिक दोनो भाइयों के साथ मुखाग्नि दे. उसके आने तक अपने शव को सुरक्षित रखा जाये.... कहना होगा कि एक दिन बहिष्कृत करने में मजबूरन ही सही, सहयोगी बनने वाली माँ में भी यह बदलाव विनोद के पत्रों को पढने से ही आया है. तो क्या सांकेतिक रूप से यही असर लेखिका अपने पाठकों से भी नहीं चाहती...बल्कि यह भी कि ऐसे बहिष्कार के खात्मे हों...?
इस तरह विनोद के भाषण से लेकर इस अंत तक कृति का कारण अपने कार्य में परिणत होता है. बिना लाग-लपेट के भावात्मक स्तर पर मानवीय दृष्टि की प्रतिष्ठा होती है. लेखिका की तरफ से विनोद ने मंच से कहा है- ‘जिनके नवजात शिशुओं को ढूँढ-ढाँढ कर नाचने-गाने-असीसने पहुँचते हैं आप, उन्हीं के घर दूसरे दिन पहुँचकर देखिये, घर का दरवाज़ा आपके मुँह पर भेड दिया जायेगा.... इस अवमानना को झेलने से इनकार कीजिए. कुली बनिये, ईंट-गारा ढोइये...पायेंगे मेहनत के कौर की तृप्ति’. और फिर आप्त वाक्य - ‘मैं ससम्मान आप सबकी घर वापसी चाहता हूँ’ (पृष्ठ-186-87).
दूसरे दिन प्रेस सभा में लोगों के सवालों में लिंग-आधारित वर्गीकरण में किन्नर के स्थान के प्रश्न पर साफ-साफ कहा गया है-‘जहाँ अनुसूचित जनजाति व विकलांग को रखती है सरकार. ये लिंग दोषी नहीं, पर घोर वंचित वर्ग के लोग हैं. लेकिन लिंगदोषी हम स्त्री या पुरुष नहीं हैं, तो क्या मनुष्य नहीं. पेशाब भी करते हैं, पाख़ाने भी जाते हैं. हाँ उन सबकी तरह वीर्य नहीं उगल सकते, मैथुन नहीं कर सकते, तो क्या मनुष्य नहीं हैं? किन्नर बिरादरी का संघर्ष उन्हें मनुष्य माने जाने का संघर्ष है’(पृष्ठ-195).
किन्नर-जीवन को लेकर ये ही विचार व निदान देना इस कृति में चित्राजी का मक़सद रहा.... ‘नाला सोपारा’ के अनुसार समाज का नग्न सत्य यह है कि किन्नर-प्राणी का घर-परिवार के साथ रहना घोषित रूप से समाज में लांछन व बेइज्जती का सबब है. विनोद के बडे भाई के माध्यम से उपन्यास में यह धारणा भी खुली है कि किन्नर-संतान के घर-परिवार में रहने से भावी संतानें भी ऐसी ही होंगी- लेकिन यह उनके अलगाने की योजना का बहाना भी है, जिसमें पारिवारिक पेचीदगियों के कई रूप खुलते हैं. फिर भी ये धारणायें हैं तो सही, जो नितांत अवैज्ञानिक होते हुए भी जनमानस में इतने गहरे पैठी हैं कि ऐसी संतान को बहिष्कृत ही नहीं किया जाता, किसी भी प्रकार के लस्तगे से दूर रखा व रहा जाता है. इनके कहीं होने की ख़बर तक रखना भी ग़वारा नहीं. इन सबको मन से, जीवन से निकाल देना भी इस रचना की सोद्देश्यता है. और मनुष्य-समाज के इस भाग को सामाजिक स्वीकृति मिले, जो चिरकाल में स्पृहणीय है....
किंतु उपन्यास पढकर ख्याल आया कि न किसी किन्नर संतान के घर रहने का हमें पता है, न किसी किन्नर संतान को किन्नरों द्वारा घर से इस तरह ले जाने का. कभी ऐसी ख़बर तक पढने की याद नहीं आती.... अपनी बेख़्याली पर अफ़सोस भी हुआ कि मुम्बई की लोकल गाडियों में प्राय: रोज़ ही इस प्रजाति से पाला पडते हुए भी कभी यह दिमांग में क्यों नहीं आया कि ये आते कहाँ से हैं.... अब पता लगाया, तो शहरों में एक परिवार में किन्नर संतान के रहने का कथित पता चला, लेकिन प्रमाणित नहीं हुआ. नपुंसक संतानों के पते तथा उनके बहुविध सलूक तो उजागर हैं और वाङमय में नियोगादि के कारण रूप में विश्रुत भी. ऐसे में ‘नालासोपारा’ की इस स्थापना और किन्नर-जीवन को लेकर थोडा अध्ययन-अन्वेषण शुरू किया, तो थियेटर के अपने एक बच्चे (यशवीर) के जरिये उस नेहा किन्नर से बात हो गयी, जो मुरैना (म.प्र.) से चुनाव लड चुकी है और कुछ सौ वोटों से रह गयी जीतने से. उसने बताया कि पिछले 15सालों से घर जाकर ऐसे बच्चों को लाना बिल्कुल बन्द हो गया है. वे आम जीवन में खुद को तिरस्कृत होते पाकर खोजते हुए हमारी जमात में स्वयं आते हैं.
इस तरह तीन साल पहले लिखा गया यह उपन्यास 15साल से पहले के यथार्थ पर आधारित है. चित्राजी उन्हें अपनी मर्ज़ी से अपन लिंग-निर्धारण व चयन का अधिकार देने की बात भी उठाती हैं. इस सन्दर्भ में मेरे एसएनडीटी विवि के समाज विज्ञान में किन्नर जीवन पर एम.फिल करने के बाद पीएच.डी. कर रही छात्रा (श्रुति नायर) ने बताया कि स्त्री-पुरुष की तरह विधानत: उनके लिए ‘किन्नर लिंग’ (ट्रांस-जेंडर) तय हो चुका है. काफी समय से इसी लिंग-पहचान से उनके आधार कार्ड व पान कार्ड...आदि जारी हो चुके हैं. हालांकि किन्नर व नपुंसक में बेसिक फर्क़ है, फिर भी संस्कृत और तमाम भाषाओं में नपुंसक लिंग भी कुछ संकेत अवश्य कर सकता है, फिर भी यहाँ इस व्यवस्था व कृति के विचारों के बीच शास्त्रार्थ की सम्भावना बनती है.
इस तरह तीन साल पहले लिखा गया यह उपन्यास 15साल से पहले के यथार्थ पर आधारित है. चित्राजी उन्हें अपनी मर्ज़ी से अपन लिंग-निर्धारण व चयन का अधिकार देने की बात भी उठाती हैं. इस सन्दर्भ में मेरे एसएनडीटी विवि के समाज विज्ञान में किन्नर जीवन पर एम.फिल करने के बाद पीएच.डी. कर रही छात्रा (श्रुति नायर) ने बताया कि स्त्री-पुरुष की तरह विधानत: उनके लिए ‘किन्नर लिंग’ (ट्रांस-जेंडर) तय हो चुका है. काफी समय से इसी लिंग-पहचान से उनके आधार कार्ड व पान कार्ड...आदि जारी हो चुके हैं. हालांकि किन्नर व नपुंसक में बेसिक फर्क़ है, फिर भी संस्कृत और तमाम भाषाओं में नपुंसक लिंग भी कुछ संकेत अवश्य कर सकता है, फिर भी यहाँ इस व्यवस्था व कृति के विचारों के बीच शास्त्रार्थ की सम्भावना बनती है.
इस तरह किन्नर-जीवन के सच और उपन्यास में कुछ दूरियां व अलगाव हैं. उपन्यास में एक सर्जक की कल्पना से सृजित गहन भावात्मक द्वन्द्व व गहरे मानवीय दंश हैं, जो साहित्य की अक्षय निधियां हैं. किंतु किन्नर जीवन का ज्वलंत सच एक दस्तावेज़ है, जिसके बरक्स उद्भावनाओं की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम हो जाती हैं. इसी क्रम में तथ्य की एक बात और...उपन्यास की जानिब से और उपन्यास से सवाल भी करती हुई ...कि विनोद अपने बडे भाई के बच्चे के नूनू को देखकर उसके लिंगत्त्व की पुष्टि करने की बात पत्र में माँ को लिखता है, तो इसी तरह विनोद को मीजते-खूनते माँ कैसे नहीं जान पायी थीं...? फिर उसे रखने-छोडने का कोई रास्ता क्यों नहीं खोजा परिवार ने...? इतना अनिश्चय क्यों रहा कि आकस्मिक घटना की तरह उसे उठाकर ले गये किन्नर...? और इसके बाद यदि दुनिया के सामने हादसे में मौत की कहानी गढी जा सकती है, तो उसे रखकर भी कोई कहानी गढी जा सकती थी – कहानी गढने की कला में आज भी उर्वरता कम नहीं हुई है...!!
इन जाहिरा द्वन्द्वों के अलावा भी किन्नर-जीवन पर लिखी और सरनाम हुई इस रचना में संबद्ध जीवन के प्रामाणिक व्योरे बहुत कम आये हैं – प्राय: ना के बराबर. मुझे कहने की आज्ञा मिले कि यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसान जीवन का महाकाव्य रचने वाले प्रेमचन्द में किसानी की या किसान-कर्म के साधनों-औज़ारों-तरीकों...याने किसानी संस्कृति की बात उस तरह नहीं आतीं..., क्योंकि प्रेमचन्द किसान थे नहीं, तो ओडचा-दोन-ढेकुल-पुरवट, परिहत-हरिस-फार-दाबी-नाधा-पैना, दबेहरा-नौहरा-खुटहरा, हेंगा-बरही-अवाय-सेव-हराई-पहिया...जैसे हजारों कुछ से उनका वास्ता न था.
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(चित्रा मुद्गल) |
इन जाहिरा द्वन्द्वों के अलावा भी किन्नर-जीवन पर लिखी और सरनाम हुई इस रचना में संबद्ध जीवन के प्रामाणिक व्योरे बहुत कम आये हैं – प्राय: ना के बराबर. मुझे कहने की आज्ञा मिले कि यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसान जीवन का महाकाव्य रचने वाले प्रेमचन्द में किसानी की या किसान-कर्म के साधनों-औज़ारों-तरीकों...याने किसानी संस्कृति की बात उस तरह नहीं आतीं..., क्योंकि प्रेमचन्द किसान थे नहीं, तो ओडचा-दोन-ढेकुल-पुरवट, परिहत-हरिस-फार-दाबी-नाधा-पैना, दबेहरा-नौहरा-खुटहरा, हेंगा-बरही-अवाय-सेव-हराई-पहिया...जैसे हजारों कुछ से उनका वास्ता न था.
यह सब बाद में चलकर ‘मैला आंचल’ व ‘अलग-अलग वैतरणी’...आदि में आया.... वैसे ही यहाँ चित्राजी का मामला है. इनसे भी किन्नरों से वैसा वास्ता नहीं है. तभी यहाँ किन्नरों में एक सरदार के होने और बेहद दबंग व भ्रष्ट होने की चर्चा मुखर है, लेकिन सच में तो वहाँ गुरु होते हैं, जो बहुत मानिन्द और सच्चरित्र होते हैं. उन्हीं से सबकुछ संचालित होता है...उनके अपने इलाके निश्चित होते हैं. उसके बाहर जाने वाले को जुर्माना देना होता है. गुरुओं के मरने के बाद 40दिनों का अनुष्ठान सभी शिष्य करते हैं. उस दौरान कमरे में अकेले दिया जलाके बैठते हैं...आदि आदि. बच्चे के जन्म, शादी व किसी त्योहार के अलावा किसी से कुछ माँगने का नियम नहीं उनमें. अपनी कला से अवश्य छूट है पैसा कमाने की...आदि-आदि ऐसा बहुत सब है.
विवेच्य कृति के किन्नर चाहे जितने सच और कल्पना के बीच झूल रहे हों, पर अब आइये इनकी गाथा लेके हम चलें राजनीति की दलदल में, जो अपने खाँटी रूप- याने उसी के उसी स्वार्थी व कुत्सित रूप- में सामने खडी है. आज किन्नर लोग राजनीति में आयें हैं, पर यहाँ राजनीति लेकर आयी है किन्नरों को अपने मतलब के लिए याने उनकी सामुदायिक ताकत के अपने पक्ष में दोहन के लिए. न जाने किस दैवी-दानवी प्रेरणा से लेखिका ने यह मोड दिया, पर जिस तरह विधायकजी विनोद को आगे बढाते हैं, लगता है कि यह भी गोरखपुर व मुरैना की तरह चुनाव लडेगा. लेकिन वह उनके दिये मंच पर अपनी बात कह आता है, जिसकी चर्चा आलेख के पहले पडाव पर हुई. तब लगा कि विनोद के साथ-साथ लेखिका भी राजनीति के मंच का इस्तेमाल करते हुए अपने मूल कथ्य को जगमगाते हुए पेश कर रही है और वह होता भी है. लेकिन वही मंच उसके मंतव्य का हंता भी बन जाता है और किन्नरों को अपने घर वापस लाने की जो भावुक मंशा पूरी हो रही थी, वह होते-होते रह जाती है.... जिस दिन के अख़बार में माँ की घोषणा छपती है, उसी दिन यह ख़बर भी कि खाडी में एक किन्नर की बेशिनाख़्त लाश मिली है. यह हत्या किसने करायी है, को लेकर उपन्यास कुछ कहता नहीं, जो लेखिका का बेवजह मूक पलायन है. लेकिन बार-बार बिलवारकर पढने से दो संकेत मिले, जो शायद लाये नहीं गये हैं, आ गये हैं. एक तो मंच पर जाने के ठीक पहले नेताजी के निजी सचिव तिवारीजी विनोद को फोन पर आगाह करते हैं-
‘राजनीति में कुछ सुनिश्चित नहीं होता- चालें ही अगली चालों की भूमिका बनती हैं’ (पृष्ठ-158). और दूसरा कथन भी तिवारीजी का ही है, जब मुद्दा खडा करने की राजनीतिक फितरत से आगे जाकर विनोद मुद्दे को हल करने के सीधे उपाय बना-बताकर मंच से उतर चुका है और प्रेस के साथ बातचीत होनी बाकी है – ‘कुछ मिल सकता है तुम्हारी बिरादरी को, तो सरकार से ही- हमारी सरकार से. और ये घर-वापसी के दिमांगी फितूर से क्या मतलब है तुम्हारा? एक गुमशुदा की तलाश तक तो कानून-व्यवस्था कर नहीं पाती- मिल पाती है पटरी पर पडी उसकी लावारिस लाश. उसे भी लावारिस मुर्दे की तरह फूँक-फाँक फेंक देती है पुलिस’ (पृष्ठ-190). और यही हुआ विनोद के साथ, क्योंकि प्रेस से बातचीत में भी उसने वही किया- किन्नरों को भीड व मुद्दा बनाकर रखने के बदले सचमुच ही उनके निस्तार का काम.... और फिर हो गया उसी का काम तमाम.....
राजनीति के पुराने, पर आजकल नये तरह से (‘मातृ’, ‘मॉम’ आदि फिल्मों में) उभरे काम को भी लेखिका ने जोड दिया है- उसी विधायक के भतीजे व साथियों द्वारा मज़े-मज़े में किन्नर पूनम जोशी के साथ कुत्सित बलात्कार कराके. बेटे के जन्मदिन पर नाचने के लिए बुलायी गयी पूनम जान छिडकती है परिणीता प्रिया की तरह विनोद पर. उसकी नाच की अदाकारी से जोश में आये और शराब के नशे में उन्मत्त मनबढू युवादल शो के बाद उसके कपडे बदलने की कोठरी में घुसकर उसका जननांग देखने के कुतूहल, फिर उस नन्हें से छिद्र को बडा करने की फौरी रौ में उसे तहस-नहस कर डालते हैं. इस चित्रण में लेखिका के भाषा-विधान का जल्वा देखने ही लायक है- वैसे भावुकतापूर्ण विषय के अनुसार भाषा तो सर्वत्र लाजवाब है- बोल्ड भी और शालीन भी- बजुज एक दो ‘ने’ के प्रयोग एवं ‘उडघा’ व ‘दुरागृही’ जैसे शब्दों के. ख़ैर, पूरा वाक़या जानकर विधायकजी तिवारी के जरिए बच्चों को कहीं भगा-छिपा कर ख़ुद भी जाके फॉर्म हाउस पे बैठ जाते हैं और पुलिस को ख़बर न करके पूनम को अस्पताल भेज देते हैं.
उधर प्रेस की बातचीत से लौटे विनोद को भी तिवारीजी उसी गाडी से अस्पताल भेज देते हैं, जहाँ नीमबेहोशी में भी पूनम ख़बर देती है विनोद को उसकी माँ की गम्भीर बीमारी व उसके बुलावे की.... आनन-फानन में विमान से जाने का इंतजाम होता है और ऑपरेशन के ठीक पहले विनोद को लेटे ही लेटे विदा करती हुई पूनम उसके कान में कहना नहीं भूलती – ‘सुनो, पहली वाली के पास मत चले जाना. उसे तो कोई भी मिल जायेगा. मुझे तुम्हारे अलावा कौन मिलेगा. यह पहली वाली है विनोद की सहपाठिनी ज्योत्स्ना, जिसका राग अंतर्धारा की तरह विनोद के मन से माँ के पत्रों में पूरे उपन्यास बजता रहता है- कोमल गान्धार बनकर. यह सब बताने वाला अंतिम पत्र विनोद बडे हौंस से अपने साथ लेके जा रहा था माँ को रू-ब-रू सुनाने, पर उपन्यास तो पोस्टबॉक्स नम्बर वाला है. सुनाता कैसे – काश, लाश की जेब में पडे पत्र का उल्लेख हो जाता उपसंहार की खबर में...!!
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इस तरह पूरा किन्नर समुदाय पडा रह जाता है वहीं का वहीं, वैसे का वैसा- दलित-स्त्री मुद्दों की तरह ऐसे-ऐसे ढेरों विमर्शों की खान और खाद बनकर...जुगाली बनकर...धन्धा बनकर और इन सबकुछ के लिए दुधारू गाय बनकर...कठपुतली बनकर....
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