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परख : मुअनजोदड़ो : माधव हाड़ा

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जनसत्ता के संपादक और लेखक ओम थानवी को उनकी यात्रा-विचार पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ के लिए २०१४ के २४ वें बिहारी पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हुई है. क्या है मुअनजोदड़ो ? प्रो. माधव हाड़ा ने इस किताब के माध्यम से भारतीय महाद्वीप के इतिहास और पुरातत्व पर ओम थानवी के नजरिये को देखा - परखा है.   


मुअनजोदड़ो : विवादों की गर्द, कल्पनाका दलदलऔरइतिहासकी गाड़ी

माधव हाड़ा


भी कुछसमय पहले तक हिंदी के साहित्यिकविमर्शका दायरा केवलअपने तक सीमितथा. साहित्य मेंसाहित्येतर अनुशासनों की मौजूदगी घुसपैठकी तरह अवांछनीय थी. समाजविज्ञान, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, संगीत आदिअनुशासनों के साथ संवादऔरअंतर्क्रिया  को इसमें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. अब हालात बदल रहे हैं. हिंदी के साहित्यिकों की समझ अब साहित्य की सीमा लांघ कर ज्ञान के साहित्येतर अनुशासनों तक पहुंच गई है. अब वे ज्ञान के दूसरे अनुशासनों की समझ के साथ साहित्य में हस्तक्षेप कर रहे हैं, जिससे साहित्य की दुनिया पहले की तुलना मेंअधिक समृद्ध ओर बड़ी हुई है. मुअनजोदड़ो विख्यात पत्रकार ओम थानवीकी पहली किताब है. यह एक यात्रा वृत्तांत है जो इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व की गहरी समझ के साथ लिखा गया है. खास बात यह है कि मुअनजोदड़ो को यह किताब ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक के साथ सांस्कृतिक दिलचस्पी के केन्द्र में लाती है.

मुअनजोदड़ो की खोजसेपारंपरिक भारतीय इतिहासका नक्शाबदल गया था. इतिहासकारों औरपुरातत्त्ववेत्ताओं कोइस खोज से अपनी धारणाओं मेंकईउलट-फेर करने पड़े. अबतक सर्वाधिक प्राचीनमानी जाने वाली वैदिक संस्कृतिके साथ इसका तालमेलमुश्किल हो गया. किसी को भीयह समझमें नहींआया कि सुमेरी सभ्यताके समकक्षयह समृद्धसभ्यता खत्मकैसेहो गई. इसकी लिपि अभी तक कोई पढ़ नहीं पाया. इतिहासकार और पुरातत्त्ववेत्ता इस संबंध में केवलकयास लगाते रहे, जिससे विवादों की झड़ी लग गई. लेखकके शब्दों में कहें तो “सिंधु घाटी की सभ्यता को लेकर खुदाईकम हुई है, विवादों की जड़ें ज्यादाखोदी गई हैं.”(पृ.109)  हिंदी के साहित्यिक भी पीछे नहीं रहे. उन्होंने मुअनजोदडो के इतिहास की गाड़ी को कल्पना के दलदल में घसीट लिया. लेखक ने इस वृत्तांत में इन विवादों और कल्पना के दलदल की विस्तार से पड़ताल की है. उसने उन पुनरुत्थानवादी प्रयासों को खारिज किया है, जो इस सभ्यता हिंदू सभ्यता साबित करना चाहते हैं. उसने पूरी तरह देशज इस सभ्यता की वर्तमान में निरंतरता के कुछ व्यावहारिक सूत्रों की भी खोज की है.

यह किताबशुरू यात्रावृत्तांतसेऔरखत्मपुरातात्त्विक विवेचन-विश्लेषण से होती है. किताब के शुरुआती पृष्ठों मेंकराची से मुअनजोदड़ो तक का यात्रा वृत्तांत है. यहां लेखकपाठकों के सिंध संबंधी  ज्ञानऔर समझको कभीपुनर्नवता  तो कभी समृद्धकरता चलता है. वह स्थानीय  सिंधी सहयात्री के सहयोगसे सिंध को उसके अतीत और वर्तमानकी जड़ों में जाकर समझने की कोशिश  करता है. वह देखता है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजबसे पहलेसिंध में कायम हुआ, मगरहिंदू-मुस्लिम फसाद वहां कभी नहींहुए. वह इसके कारणों की तहमें जाता है और पाता है एकतो सदियों पहले यहां कायम बौद्ध मतके सहनशीलता और करुणाकी गहरी जड़े छोड़ जाने से और दूसरे सूफियों के प्रभावके कारण ऐसा हुआ. (पृ.23) बंटवारे और आजादीके बादसिंध में बड़े पैमान पर हुए जातीयदंगों के कारणों की पड़ताल करते हुए वह इस निष्कर्षपहुंचता है कि यह सिंध में सिंधियों के हाशिए पर चले जाने कारण हुए. बंटवारे के बाद सबसे अधिकमुहाजिर उत्तरप्रदेशऔर पाक पंजाब से यहां आए, सिंधी आबादी यहां केवलआठप्रतिशतरह गई और सिंधी भाषाकी जगहउर्दू और अंग्रेजी ने ले ली. सिंध के लोगों ने इसे अपनी पहचानपर हमलासमझा. “जातीय अस्मिता की इस कशमकश में सिंध में ‘सिंधु देश’ के लिए‘जिए सिंध’ आंदोलन उठ खड़ाहुआ.” (पृ.25 ) कराची से मुअनजोदड़ो तक की इस बस यात्रा के दौरान आने वाले दो शहरों के सांस्कृतिकऔर ऐतिहासिक महत्वसे भी लेखक रूबरू करवाता है. उसकी इस यात्रा का पहलापड़ावहै सेवण. रुना लैला, आबिदा परवीन, नुसरत फतह अलीखान और न जाने कितने और गायकों के मुंहसे इस शहर का नामसुना है, लेकिन  इसके महत्व पर रोशनीअबलेखक डालता है. वह बताता है कि सेवण सूफी फकीर शाहबाज कलंदर का स्थान है, जिन्हें मुस्लिम पीर और हिंदू भर्तृहरि का अवतार मानते हैं.(पृ.31)  लरकाणा, जिसे लेखक अपने स्थानीय सहयात्री के आग्रह पर सही लाड़काणा कहता है, के आते ही लेखक उसकी पहचान जुल्फीकार अली भुट्टो के शहर के रूप में करता है. बाद वह इसे सूफी गायिका आबिदा परवीन और फिल्मकार कुमार शाहनी के शहर के रूप में भी याद करता है.(पृ.34)

किताबके आगे के हिस्सेके वृत्तांतमेंविवेचन औरविश्लेषणका पुट आ जाता है. लेखकअबएकशोधार्थी की तरह पहले मुअनजोदड़ो के महत्वपर रोशनीडालता है. उसके अनुसारयहां की खुदाईसे रातों-रात भारत के इतिहासका नक्शाबदल गया.(पृ.38)  यही बात बहुत पहले रोमिला थापरने भी कही थी. उनके अनुसार इस खोज से पारंपरिक भारतीय इतिहास का प्रारंभिक भाग पौराणिक कहानी बनकर रह गया. लेखक के अनुसार “सौ साल पहले भारत का दुनिया में महज दावा था कि उसकी सभ्यता प्राचीन है लेकिन सिंधु घाटी के हड़प्पा और मुअनजोदड़ो की खुदाई ने इस दावे को हकीकत में बदल दिया.”(पृ38.) उसके अनुसार सिंध के मुअनजोदड़ो, पाक-पंजाब के हड़प्पा, राजस्थान के कालीबंगा और गुजरात के लोथल व धौलावीरा की खुदाई में हासिल पुरावशेषों ने यह अच्छी तरह साबित कर दिया कि सिंधु घाटी समृद्ध और व्यवस्थित नागर संस्कृति थी. उसके निवासी उन्नत खेती और दूर-दूर तक व्यवसाय करते थे. वे उपकरणों का इस्तेमाल करते थे, शुद्ध नाप-तौल जानते थे और उनका रहन-सहन और नगर नियोजन उन्नत किस्म का था. लेखक को इस सभ्यता की जो बात सबसे महत्वपूर्णलगती है वो यह कि इसमें साक्षरता, सुरुचि और संपन्नता थी. इस सभ्यता के सौंदर्यबोध से भी वह अभिभूत है. वह इसके लिएयहां मिली बहुचर्चित याजक नरेश और कांसे से निर्मित निर्वसन नर्तकी युवती का विस्तृत वर्णन करता है. लेखक यहीं मोएनजोदड़ो, मोहनजोदड़ो आदिप्रचलित नामों के स्थान पर इस स्थान के असल नाम मुअनजोदड़ो का भाषायी अर्थ भी स्पष्ट करता है. वह लिखता है, “मुआ यानि मृत.. बहुवचन में मुअन, मुआ का सिंधी प्रयोग है. दड़ा माने टीला. मुअन-जो-दड़ो: मुर्दो का टीला.” (पृ.44)  मुअनजोदड़ो का महत्व स्थापित कर देने के बादलेखक इस स्थान की खोज और इसमें लगे लोगों की मेहनत का सिलसिलेवार ब्योरा देता है. 1924 ई. में सामने आए मुअनजोदड़ो की खोज का श्रेय आमतौर परभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शलको दिया जाता है, लेकिन लेखक मानता है कि महानिदेशक के रूप में उन्होंने खुदाई और खोज का नेतृत्व तो किया, लेकिन हड़प्पा और मुअनजोदड़ो की खुदाई का कामभारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ही किया. हड़प्पा मेंयह काम हीरानंद शास्त्रीने 1909ई. में, जबकि मुअनजोदड़ो में यह काम राखालदास बंद्योपाध्यायने 1922-23 ई. में किया. मुअनजोदड़ो में बंद्योपाघ्याय के बाद माधोस्वरुप वत्स और काशीनाथ दीक्षितने भी खुदाई करवाई.

मुअनजोदड़ो का मुआयना लेखकने बहुतबारीकी औरविस्तारसेकिया है. यह एकपुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारके साथ एक साहित्यकार का मुआयना भीहै. वहकहता है कि “मुअनजोदड़ो की खूबी यह है कि इस आदिशहरकी सडककों  और गलियों मेंआप आज भी घूम-फिर सकते हैं. यहां का सभ्यताऔर संस्कृतिका सामानचाहेअजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था अबभी वहीं है. आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठटिका करसुस्ता सकते हैं. वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रखकर सहसासहम जा सकते हैं, जैसेभीतरकोई अब भी रहता है.“ (पृ.50) मुअनजोदड़ो की इमारतों, सड़कों का आदि का विवरणइस किताबमें इस तरह है कि आपको यह जीवंतनगरकी तरह लगता है. यह विवरण इतिहास और पुरातत्त्व की किताबों में भी है, लेकिन यहां एक कृतिकार की आंख से देखा गया विवरण है. उसके अनुसारसिंधु नदी के दाहिने तटपर पांच किलोमीटर के विस्तार में फैलाहुआ यह 2600ई.पू का यह नगर दो भागों में बंटा हुआ है. दुर्गटीले के पश्चिमी भाग में स्थितसार्वजनिक महत्वके भवनों का इलाकागढ़कहलाता है, जिसमें सभाभवन, ज्ञानशाला, अन्नागार और स्नानागार हैं. दुर्ग टीले के सामने आबादी वाला शहर है. नगर नियोजनकी यह पद्धति बाद मेंभी दिखाई पड़ती है. लेखक का माननाहै कि यह रास्तादुनिया को मुअनजोदड़ो ने दिखाया लगता है.(पृ.53)  लेखक इन सभी इमारतों और बस्तियों का जायजा लेता है. 

अपने मूल स्वरूप के बहुत नजदीकतक बचे हुए स्नानागार की पड़ताल लेखक ने अपेक्षाकृत विस्तार से की है. उसके अनुसार यह सिद्ध वास्तुकला का उदाहरण है.(पृ.55)मुअनजोदडो का नगर नियोजन और अवजल निकासी प्रबंध खास तौर पर लेखक का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. मुअनजोदड़ो के आबादी वाले इलाके का कोई घर सड़क पर नहींखुलता. उनके दरवाजे अंदर गलियों में है. लेखक कहता है कि नगर नियोजन यही शैली आधुनिक शहर चंडीगढ़ में ली कार्बूजिए ने इस्तेमाल की है.(पृ.61)मुअनजोदड़ो के घरों से गंदे पानी की निकासी के लिएबनी होदियों और नालियों के जालपर लेखक अमर्त्य  सेनके शब्द उधर लेकर कहता है कि “मुअनजोदड़ो के चार हजारसाल बाद तक अवजल निकासी की ऐसी व्यवस्था देखने में नहीं आई.”(पृ.63)यहां कुंओं की मौजूदगी के संबंध मेंवह इरफान हबीबको उद्घृत करता है जो लिखते है कि “सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञान संस्कृति है, जो कुंए खोदकर भूजल तक पहुंची.”(पृ.63)  बस्ती में घूमते हुए उसका ध्यान इस ओर जाता है कि एक तो कुओं को छोडकर सब कुछ चौकोरया आयताकार है और दूसरे, कमरे आकार में बहुत छोटे हैं और खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जे नहीं है. वह इस संबंध में कयास तो लगाता है, लेकिन किसी निष्कर्षपर नहीं पहुंचता. मुअनजोदड़ो के संग्रहालय का जायजा लेते हुए लेखक का ध्यान कुछ और बातों पर भी जाता है. एक तो वहां प्रदर्शित चीजों में कोई हथियार नहीं है और दूसरे इन चीजों में प्रभुत्व या दिखावे का तेवर नदारद है. हथियार नहीं होने के संबंध में वह विशेषज्ञों की राय को आधार बनाकर निष्कर्ष निकालता है कि वहां अनुशासन शक्ति आधारित नहीं था. दिखावे का तेवर नहीं होने के संबंध में लेखक का मत है कि यह लो-प्रोफाइल सभ्यता थी, जो लघुता में भी महत्ता का अनुभव करती थी.(पृ.75)  

मुअनजोदड़ो से जुड़ी उन दो चर्चित गुत्थ्यिों से लेखक भी रूबरू होता है, जिनसे अब तक सभी पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार रूबरू हो चुके हैं और कोईनिष्कर्ष निकालने में असफल रहे हैं.

पहली गुत्थी यह है कि सिंधु सभ्यता खत्म कैसे हो गई. अत्यधिक भूमि दोहन, भूकंप-बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा, जंगलों का विनाशऔर व्यापार शैथिल्य जैसे कई संभावित कारणों पर विचार के बादलेखक ताजा भूगर्भगीय अध्ययनों के हवाला देते हुए संभावना व्यक्त करता है कि इसका विनाश समुद्र का स्तर ऊपर उठने से हुआ होगा. समुद्र का स्तर ऊपर उठने से सिंधु का प्रवाह धीमा हो गया होगा और उसमें खेतों में गाद भर गई होगी, जिससे क्षार बढ़ गया होगा.(पृ.83)

दूसरी ज्यादा पेचीदा गुत्थी यह है कि वैदिक संस्कृति और सिंधु सभ्यता का संबंध किस तरह का है. दरअसल इस सभ्यता की खोज ने भारतीय इतिहास का ढांचा इस तरह बदला है कि उसके इस आरंभिक चरण को परवर्ती चरणों से जोडना मुश्किल कामहो गया. पुनरुत्थानवादी इतिहासकारों और कल्पनाजीवी साहित्यकारों ने कल्पना की घुड़दोड़ से अर्थ का अनर्थ कर दिया है. लेखक इस संबंध में कोई निष्कर्ष निकालने के बजाय यही कहता है कि “अगर देशज-विदेशज की भावुकता के जंजाल में न पड़ें,तो वैदिक संस्कृति और सिंधु सभ्यता,  दोनों, भारत के इतिहास की शान है.”(पृ.87)

लेखक सिंधु सभ्यता की तीसरी गुत्थी उसकी अबूझ लिपि को समझने के प्रयासों का ब्यौरा भी देता है, लेकिन इस संबंध में उसका मत है कि “लिपि का रहस्य सिंधु सभ्यता की खोज के पहले जहां था, आज भी वहीं है.(पृ.89) वृत्तांत के उत्तरार्द्ध में लेखक ने सिंधु घाटी सभ्यता के साहित्य में इस्तेमाल की भी खोज-खबर ली है. उसका कहना है कि “साहित्य के लोगों ने पुरातत्त्व और इतिहास के लोगों की तुलना मेंइस संबंध में ज्यादा लिखा है लेकिन पुरातत्त्व का लाभ न उठा पाने से हिंदी में सांस्कृतिक इतिहास की चर्चा अप्रामाणिक ही नहीं, कही-कहीं नितांतकाल्पनिकहो गई है.”(पृ.93) लेखक ने वासुदेवशरण अग्रवालकी भारतीय कला संबंधी एकाधिक स्थापनाओं को पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पुष्ट नहीं होने के कारण गलत माना है. रामविलास शर्माद्वारा किए गए सिंधु सभ्यता और वैदिक संस्कृति के बेमेल गठजोड़ की भी उसने जमकर खबर ली है. रामविलास शर्मा की यह धारणा कि वैदिक संस्कृति सिंधु सभ्यता से प्राचीन थी लेखक के अनुसार बलूचिस्तान की पहाड़ियों में मिले लगभग नौहजार साल पहले के सिंधु सभ्यता के शुरुआती दौर के प्रमाण मिलने से निराधारहो जाती है.(पृ.97) डी. डी. कोसांबी और राहुल सांकृत्यायनकी आर्य आक्रमणों से सिंधु सभ्यता के विनाश की धारणा को भी लेखक पुरातत्त्व सम्मत नहीं मानता. उसके अनुसार हमले की परिकल्पना प्रत्यक्ष और पारिस्थितिक साक्ष्य से निर्मूलसाबित हुई है.(पृ.103) साहित्य में हुए सिंधु सभ्यता के इस्तेमाल के संबंध में अंत में यहीं निष्कर्ष निकलता है कि “इतिहास की गाड़ी को कल्पना के घोड़े लगाकार दलदल में फंसाया जा सकता है.”(पृ.104)

कराची सेमुअनजोदड़ों तक की यात्राका वृत्तांतऔरइस बहाने मुअनजोदड़ों और सिंधु सभ्यताकी यह मीमांसा कईमायनों मेंखास है. यह हमारे ज्ञानऔर समझकोपुर्ननवा करती है और उसमें बहुतकुछनया भीजोड़ती है. वृत्तांत के आरंभमें लेखकने हवामें उडने और जमीनपर चलने में फर्क होने की जो बात कही है, वहअंततक उसके जेहन में रही है. उसने आद्यंत हवा में उडने के बजाय अपने पांव पुरातात्त्विक तथ्यों की जमीन पर मजबूती सेटिकाए रखे हैं. साहित्यिकसंस्कारों के बावजूद उसने अपने कल्पनाके घोड़ों को दौडने नहींदिया है. मुअनजोदड़ो और सिंधु सभ्यता संबंधी अपने विवेचन-विश्लेषणमें वह उन सबमत-मतांतरों और संभावनाओं का ब्योरा देता है, जो अबतक सामने आए हैं. खास बात यह है कि वह न तो झटके से किसी खारिजकरता है और न ही जल्दबाजीमें कुछ स्वीकार करता है. इस संबंध में पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों के बीचजो मामले अभी अनिर्णीत हैं, वह उनका केवलब्योरा देकर आगेबढ़ जाता है. 

इस सभ्यता की लिपि और रुपांतरण को लेकर उसकारवैयाऐसा ही है. अपनी तरफ से कोई टिप्पणीकरने में उसने बहुत संयमबरता है. जहां उसने टिप्पणी की है वहां उसका नजरियाएकदमतथ्यपरक है. इस संबंध में उसने अपने पर्यवेक्षणऔर अनुभवके साक्ष्यदिए है. सिंधु सभ्यता और उसके बादविकसित वैदिक संस्कृतिकी सांस्कृतिकसंरचना अलग-अलग है, लेकिन भारतीय जीवन दृष्टिमें सिंधु सभ्यता की निरंतरतासंबंधी कुछ अंतरसूत्र उउसने अपनी तरफ से दिए हैं. ये अंतर्सूत्र उसके अपने पर्यवेक्षण पर आधारित हैं. शांति, अहं का विलय, कला के लघुरूप और प्रकृति सानिध्य, सिंधु सभ्यता की ये कुछ बातें भारतीय जीवन दृष्टि में लेखक अनुसार आज भी है. लेखक इसके कुछ और मुखर और प्रत्यक्षसाक्ष्य भी देता है. वह कहता है कि “हम आज भी ईंटें उसी आकारमें और वैसे हीसेंक कर बरतते है जैसे5जारसाल पहले बरती गई थी. खेत, हल, सिंचाई, फसलें, बैलगाडियां, गहने, घर, कुएं, जलनिकास, कला व शिल्पकी अनेकपरंपराए आज भी वैसी ही चली आती हैं, जैसी तब थीं. मुअनजोदड़ो की ‘नर्तकी’ के बाएं हाथमेंकलाईसे कंधे तक जो ‘चूड़ा’ है वह भारत और पाकिस्तान के थार में औरतों के हाथों पर आज भी इसी रूप में देखा जा सकता है.”(पृ.112) इन अंतर्सूत्रों को आधार बनाकर यह निष्कर्षनिकालनाआसानहै कि यह सभ्यता खत्मनहीं हुई, इसका रुपांतरण हुआ, लेकिन लेखक ऐसी कोई टिप्पणी करने से भी बचता है. नवीनतम अन्वेषणभी यही कहते है कि सिंधु नदी के बहावमें बदलाव के कारणलोगइस कृषिप्रधान सभ्यता के नगरों को छोडकर भोजनकी तलाश यहां-वहां बिखर गए होंगे और उन्होंने ‘कुछ छोडकर और कुछ जोडकर’ जीवन का सिलसिला जारीरखा होगा. लेखक ने एक जगहलिखा भी है कि “संस्कृतियां इसी तरह कुछ छोड़ते और जोड़ते हुए आगे बढ़तीहै.“ (पृ.112)

वैदिक संस्कृतिसेइस सभ्यताकी भिन्नतासंबंध मेंपुरातत्त्ववेत्ता औरइतिहासकारलगभगएकरायहैं. वैदिक संस्कृति में इस सभ्यता की निरंतरतानहींहोनालेखककोभीविस्मितकरता है. लेखक ने अपने पर्यवेक्षणऔर पुरातत्त्ववेत्ताओं के साक्ष्यसे एक संकेतकिया है कि यह सभ्यता समाजपोषित थी.(पृ.78)  कहीं ऐसा तो नहीं कि वैदिक सभ्यता भी समाज पोषित सभ्यता हो और उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों की धुंध में उसका यह रूप दब गया हो. यह तो तथ्य है कि वैदिक सभ्यता की अवधारणा के विकास में पुरातात्त्विक साक्ष्यों के साथ साहित्यिक साक्ष्यों की निर्णायक भूमिका है. साहित्यिक साक्ष्यों में कल्पना और आदर्श का पुट आ ही जाता है, यह लेखक ने भी स्वीकार किया है.(पृ.104 ) ब्राह्मण साहित्यिक साक्ष्य दैनंदिन सामाजिक वास्तविकता से कटे हुए थे, यह भी अब सिद्ध हो गया है. वैदिक सभ्यता को साहित्यिक साक्ष्यों से अलग पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार नए सिरे से देखा-परखा जाए तो शायद उसके समाजपोषित होने के साक्ष्य वहां भी मिले. उपनिवेशकाल से पहले हमारी संस्कृति की जीवंतता में समाजपोषण की सर्वोपरि भूमिका थी, इधर के नए अन्वेषणों का निष्कर्ष भी यही है.

आर्य बाहर सेआए थे, यह धारणाहिंदुत्ववादी मंसूबों के अनुकूलनहींथी, इसलिएहड़प्पा औरमुअनजोदड़ो की खोजसे वे सक्रिय हो गए. उन्होंने ऋग्वैदिक सभ्यताकोखींच- खांचकर हड़प्पा पर लाद दिया. विडंबना यह है कि इस संबंध मेंहिन्दुत्ववादी, मार्क्सवादी और आर्यसमाजी, सबएकहो गए.(पृ.104)  हिंदी में रामविलास शर्माऔर भगवानसिंह के अन्वेषण की दिशा भी कमोबेश यही थी. यह अच्छी बात है कि लेखक ने सजगतापूर्वक अपनी पडताल की दिशा पुनुरुत्थानवादी नहीं होने दी है. उसने बहुत तार्किंग ढंग से इन सभी प्रयासों की निरर्थकता भी सिद्ध की है. हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा सिंधु सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता नाम देने का भी उसने विरोध किया है. उसके अनुसारसरस्वती वेदों में जरूर है पर उसका भौतिक और ऐतिहासिक पक्ष अभी खोज के दायरे में है.(पृ97.) वैदिक सभ्यता को हड़प्पा से भी पहले स्थापित करने की रामविलास शर्मा को धारणा भी उसके अनुसार बहुत काल्पनिक है.(पृ.96)  नए पुरातात्त्विक साक्ष्य उसके अनुसार इस धारणा के एकदमउलट है.

मुअनजोदड़ो के ऐतिहासिक औरपुरातात्त्विक महत्वपर तो विश्वभर के विशेषज्ञों कोध्यानगया है, लेकिन लेखककी खूबी यह है कि उसने उसके सांस्कृतिकमहत्व पर भीरोशनीडाली है. उसके अनुसारयह भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासतहै.(पृ.113)  विभाजन के बादइसका महत्व और बढ़ गया है. यह अलगाव और मतभेदों के बीचभारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सभ्यता के एक होने का सबूत है. लेखक के शब्दों में “हमारी विविधता में यह एक केन्द्रीय सूत्र है.” (पृ.113) लेखक ने इस संबंध में सिंध के एक नेता का बहुत अर्थपूर्ण कथन उद्घृत किया है जो कहता है कि “हम चंद दशकों से पाकिस्तानी हैं, कुछ सदियों से मुसलमान, मगर हजारों साल से सिंधी हैं.” (पृ.113)

वृत्तांतका गद्य शानदारहै. विवेचन-विश्लेषण औरविचारके लिएहिंदी मेंइस्तेमाल किए जानेवाले भारीभरकम और जलेबीदार वाक्यों वाले गद्य सेएकदमअलग, यह छोटे-छोटे वाक्यों वाला, बोलचाल की नाटकीयता से भरपूर  बहता हुआ गद्य है. कुछ अटपटे शब्द प्रयोग, जैसे अनुकूलित वायु, अवजलनिकासी आदि चुभते हैं.  ये इस किताब की भाषा की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं. धर्मेन्द्र पारे के रेखाचित्र वृत्तांत को पढने-समझने बहुत मदद करते हैं, अलबत्ता इनके शीर्षक नहीं होने से कई बार मुश्किल जरूर होती है. पाठक को रुक कर इनके संबंध मेंकयास लगाना पड़ता है.
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प्रो.माधव हाड़ा 
संपर्क: कार्यकारी महिलाछात्रावासके पास, पी.डब्ल्यू. डी. क़ॉलोनी, 
सिरोही 307001 राजस्थान
फोन +91 2972 220428  मो. +91 94143 25302 
e-mail: madhavhada@gmail.com


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