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परख : इन हाथों के बिना (नरेन्द्र पुण्डरीक) वाज़दा ख़ान











वरिष्ठ कवि नरेन्द्र पुण्डरीक का यह पाचवां संग्रह है जिसे बोधि प्रकाशन ने सुरुचि से छापा है. इसकी समीक्षा कवियत्री और चित्रकार वाज़दा ख़ान की कलम से .









इन हाथों के बिना                       
वाज़दा ख़ान





यूंतो किसी भी सृजनशील मन की दुनिया वही होती है जो बाकी सभी लोगों की होती है. परन्तु जो बात सृजनशील व्यक्तित्व या शख्सियत को बाकी लोगों से अलग करती है, खास बनाती है वह है उसका देश, काल, समाज, आसपास की उपेक्षा, दबाव, मजबूरियां व तमाम समस्याओं को देखने समझने और उन्हें महीन ढंग से पकड़ने का नजरिया और शिल्प कौशल. किसी भी सृजनात्मक विधा के लिये चाहे कविता हो, कहानी हो, चित्र हो, के लिये अन्त:करण की सृजनात्मक बुनावट, गहरी सूक्ष्म दृष्टि और उतनी ही गहराई में जाकर महसूस कर पाने की क्षमता अपने में बेहद महत्वपूर्ण कारक है.

दुनिया में जहां व्याप्त क्रूरतायें, कुरीतियां, विषमतायें, भेदभाव, अमानवीय व्यथा से उपजी छटपटाहट, पीड़ा और सब कुछ अच्छे रूप में बदल देने की चाहत रचनाकार को सृजन के कटघरे में खड़ा करती है जहां वह अपने आप को, अपनी आत्मा को पीड़ा से, छटपटाहट से मुक्त करता है. एक तरह से कवितायें कभी कभी मुझे कन्फेशन लगती हैं. कई बार इन्सान कितना विवश होता है कुछ न कर पाने के लिये सिवाय महसूस करने के. तब जैसे ये विधायें एक तरह से कन्फेशन का जरिया बन जाती हैं. ऐसे में नरेन्द्र पुण्डरीक का नया कविता संग्रह "इन हाथों के बिना"निश्चित रूप से पाठकों की चेतना को आन्दोलित करता है. संग्रहीत कवितायें दुनिया, समाज, व्यक्ति और खुद कवि के संघर्ष की आवाज है, आईना हैं, जरूरत हैं. इनमें हर अभिव्यक्ति का रंग बहुत गहरा व असरदार है. कवि की संवेदनशीलता, छटपटाहट और जिजीविषा के रंगों के विविध शेड्स और टोन कविताओं में पूरे अहसास के साथ उभर कर आते हैं. कवितायें कल्पना की उड़ान भर नहीं बल्कि राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं व यथार्थवादी जटिलताओं से बराबर रूबरू होती हैं. जिनसे व्यक्ति की चेतना लगातार उलझती, दरकती और टूटती रहती है.


सृजनशील मन का संघर्ष वैसे बहुत मारक व प्रभावपूर्ण होता है क्योंकि वह अपने भीतर के संसार और बाह्य संसार दोनों स्तर पर तमाम सकारात्मक, नकारात्मक अन्तर्द्वन्दों से जूझता चलता है. कोई भी रचना मानवीय सरोकारों, मूल स्रोतों व प्रश्नों से बावस्ता हुये बगैर अपने वजूद को व अपनी सार्थकता तो रेखांकित नहीं कर पाती. कविताओं में व्यंजित पीड़ा, दुख इत्यादि अनुभूति का पाठक की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित हो जाये और पाठक रचनाओं को पढ़कर बेचैन हो जाये तो कविता अपनी सार्थकता पा लेती है. हर रचनाकार बनी बनायी लीक व परिपाटी को तोड़कर उन्हें नया अर्थ देने की कोशिश करता है. कुछ नया मौलिक रचना चाहता है. रचनाकार हमेशा परिवर्तनकामी भूमिका में होता है. सच्चे रचनाकार के भीतर की दुनिया, उसकी अपनी छटपटाहट, संवेदनायें वाह्य जगत की संवेदना और छटपटाहट बन जाती है. निश्चित रूप से व्यष्टि से समष्टि तक पहुंचने तक की यात्रा होती है यह.

"इन हाथों के बिना"कविता संग्रह की कवितायें जमीन की कठोर सच्चाइयों, फलसफों व संघर्षों से उपजी कवितायें हैं. इन कविताओं में मानवीय अनुभवों, जन सरोकारों का जो वितान है वह उनमें निहित सूक्ष्मतम अर्थों को गहनता से रेखांकित करता है जो नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं की खास विशिष्टता बन जाती है. कवितायें ठहरकर सोचने के लिये विवश करती हैं कि क्या हम वास्तव में इतना संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं कि सम्बन्धों के अर्थ हमारे लिये तभी तक हैं कि जब तक वो हमारे लिये फायदेमन्द हैं. 'मां'पर लिखी कविताओं में दुख, आक्रोश, कटाक्ष और करुण अभिव्यक्ति की रेखायें ऐसे रूप या शबीह का खाका खींचती हैं जो इस लोक समाज की क्रूरतम सच्चाइयों में से एक जान पड़ती है. ये कवितायें जैसे पाठक के मन की अतल गहराइयों में जाकर बस जाती हैं. मां लफ़्ज जिससे सारी कायनात जुड़ी है, जिसके मातृत्व के बगैर ये दुनिया अपूर्ण है. 


मां का निश्छल स्नेह जो सदैव अपनी सन्तानों के साथ बना रहता है सुरक्षा का कवच सा. हर मां चाहती है कि उसकी सन्तान सर्वश्रेष्ठ हो, उसे कभी कोई कष्ट न हो. मां ही एक ऐसा शाश्वत सम्बन्ध है जिसमें किसी भी प्रकार का प्रतिफल पाने की चाह अपने बच्चे से नहीं होती. संसार का ऋण तो चुकाया जा सकता है परन्तु मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता. मां के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही न होता इस दुनिया में. कितनी गम्भीर व गहरी संवेदनशील पंक्तियों से कवि मां के वजूद को बयान करता है-

"हम भाइयों के बीच पुल बनी थी मां
जिसमें आये दिन दौड़ती रहती थी बेधड़क बिना किसी हरी लाल बत्ती के
हम लोगों को छुक छुक पिता के बाद हम भाइयों के बीच पुल बनी मां
अचानक नहीं टूटी धीरे धीरे टूटती रही
हम देखते रहे और मानते रहे कि बुढ़ा रही है मां"

मां का अकेलापन पुत्रों द्वारा किंचित महसूस न कर पाना केवल यह मानना कि आयु बढ़ने के साथ धीरे धीरे बढ़ती उसकी असहायता शारीरिक क्षरण है और मानसिक क्षरण जो उसके अकेलेपन से बढ़ रहा है पर ध्यान न देना. जैसे वृद्ध होना कोई गुनाह की श्रेणी में आता है. यह बताता है कि आज के दौर में सन्तानें किस कदर अपनी अपनी दुनिया में मसरूफ होती जा रही हैं कि मां की भी अपनी कुछ पसन्द या नापसन्द हो सकती है या अपने अकेलेपन को उनके साथ बांटना चाहती है. उनके साथ मिल बैठकर थोड़ी देर बतियाना चाहती है जैसे वे इसे समझना ही नहीं चाहते.

"मुझे ऑफिस से आया देख
बदल जाती थी मां के चेहरे की रंगत."

पुल बनी मां हर भाई के हिस्से में थोड़ा थोड़ा है, जैसे पुल दो हिस्सों को जोड़ता है. इसी तरह जैसे उसका (मां) अपना सम्पूर्ण वजूद ही अब स्वयं अपने लिये नहीं है. वैसे भी मां का वजूद कभी अपने लिये होता ही नहीं है. वह परिवार के सदस्यों के बीच खण्ड खण्ड में बंटी रहती है. उसके संसार के केन्द्र में केवल पति व सन्तानें होती हैं. उनसे इतर और कुछ भी नहीं. मगर जब वही सन्तानें अपने पैरों पर खड़ी हो जाती हैं. जीविकोपार्जन हेतु बाहर की ओर रूख करती हैं. उनकी अपनी दुनिया बनती जाती है, जिसमें मां नामक प्राणी अमा नहीं पाती, वही मां जो कल तक उनका जीवन थी. उनके पंख निकले, फड़फड़ाये, उड़ चले और दुनिया बदल गयी उनकी. मगर मां का संसार नहीं बदलता. बदस्तूर मन, प्राण से अपनी संतानों से जुड़ी रहती है. मां के प्रति कवि ये संवेदनशीलता पाठकों को कितना भावुक बनाती है कि उसके बार बार टूटने पर भी, किसी को कोई एहसास नहीं होता-

"मां टूटती रही
मां का टूटना कभी नहीं देखा हमने
पहली बार मां तब टूटी थी जब
हम प्रवासी पक्षी की तरह आते और लौटते रहे
चौथी बार वह तब टूटी थी जब रहती हुयी हमारे घरों में उसने महसूस किया था बेघर होना."

वृद्धावस्था में अकेलेपन का सन्त्रास झेलती मां की पीड़ा, सन्तानों के भरे पूरे परिवार में उसकी स्थिति को, दर्द को बयान करती कवितायें न केवल गम्भीरता से सोचने को विवश करती हैं वरन् सन्तानों द्वारा अपने वृद्ध माता पिता के प्रति उत्तरदायित्व पर सवाल उठाती है. बानगी देखें-

शीर्षक- "अब रह गयी है मां"

"मां के जेवर इस तरह बिना बांटे बंट गये
अब रह गयी मां जो बांटे नहीं बंटती है
छुटही गाय सी कहीं नहीं अटती है."

जैसे मां मां नहीं घर का कोई फालतू सामान हो गयी हो

"मां चुपचाप धीरे धीरे नि:शब्द जल रही थी
जैसे मां ने कभी अपने दु:खों की भनक
किसी को नहीं लगने दी."

वास्तव में मांयें ऐसी ही होती हैं जो अपनी दुख, तकलीफों, इच्छाओं, ख्वाहिशों की भनक किसी को नहीं लगने देतीं. परन्तु परिवार के हर सदस्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं का बखूबी से ख्याल रखती हैं अपने पूरे समर्पण व मनोयोग से. मां पर लिखी कवितायें अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में भावों की तीव्रता का प्राचुर्य रखती हैं, जो बिना किसी लाग लपेट के कवि की सच्ची व सहज संवेदनशीलता है. मां के अपने दुख को, मां के प्रति दुख को, उसके सम्पूर्ण जीवन में बिंधे दुख को कवि ने जैसे अणु अणु महसूस किया हो जिसमें सम्पूर्ण समाज की एक बदसूरत सच्चाई ध्वनित होती है. निश्चित रूप से मां का हमेशा के लिये जाना एक युग का चला जाना होता है जिसकी ममत्व भरी छांव में हम पले बढ़े, सुरक्षित महसूस करते रहे.

"पहले पिता गये फिर गयी मां
जब गयी मां तो लगा आंगन से उखड़ गयी गुलमेंहदी
मां गयी तो लगा बोली चली गयी
शब्द चले गये
जिनसे रोज बनती थी भाषा
मां गयी तो आंगन में आने वाली चिड़िया चली गयीं."

यह कैसी विडम्बना है मानव मन की, जब इन्सान करीब होता है तो उसका उतना महत्व समझ में नहीं आता जितना कि उनके हमेशा के लिये जीवन से चले जाने के बाद आता है. फिर भी मां तो मां होती है किसी के भी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निश्छल सम्बन्ध. मां का न होना जीवन को कहीं बहुत गहरे से उदास करता है. एक खालीपन सा आ जाता है जिसकी कोई भरपाई नहीं. स्मृति बनती यादों में समाती मां बराबर तमाम बातों के लिये याद आती है-

"पत्नी ने बताया कि पिछले साल होली में मां घर में थी
घर है मां नहीं है घर में
मां बिना घर
घर नहीं लगता."

अपने जीवन में व्यस्त बच्चों से मां को कोई शिकवा शिकायत नहीं होती. चाहे वे उसकी खोज खबर लेते हों या न लेते हों. लेकिन कभी कभार जब वे मिलने आ जाते हैं तो जैसे मुरझाई हुई मां प्राण शक्ति पा जाती हो-

"भूले भटके अक्सर राह पाये सा एक छोटा ही आता मिलने
बहुत खुश हो उठती मां
चूजों के सामने चिड़िया सी चहकती मां
मां का चहकना देख लगता अभी बहुत दिन चलेगी मां."

अपनी वृद्ध अवस्था की अशक्तता के बावजूद भी मां पुत्र को किसी भी विपत्ति में या कठिनाई में पड़ा देखकर ढांढस देती है-

"मां को जितनी मजबूती से मैं थामता
उससे कहीं अधिक मजबूती से मुझे थाम लेती मां
मां का थामना देखकर अक्सर मुझे लगता
अन्त अन्त तक बची रहती है मां में
बेटे को थामने की ताकत."

इसके बावजूद भी माता पिता के वृद्धावस्था की असहाय स्थिति में पहुंचते ही घर के सभी बेटे एकत्र होकर हिस्सा बांट लेने की सुगबुगाहट करने लगते हैं. मानवीय सुभाव का कितना क्रूर पक्ष है ये. जिसकी प्रवृत्ति समाज में निरन्तर बढ़ती जा रही है. यदि इस तरह की बातें कहीं से सुनायी नहीं पड़ती तो कवि को लगता है जैसे दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. जैसे ये कोई परिपाटी या परम्परा हो यानी अब समय कितना बदलता जा रहा है कि यदि घर के सभी सदस्यों में एका, सौहार्द्र, भाईचारा, शान्ति बनी रहती है. और सम्पत्ति, जायदाद के बंटवारे को लेकर कोई विवाद या लोभ-लालच नहीं दिखायी पड़ता तो कवि को ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे कहीं कुछ ठीक नहीं चल रहा है-

"दुनिया भी ऐसी है कि यदि भाई का भाई से बंटवारा न होता
लगता है दुनिया में कहीं कुछ जरूर गड़बड़ सड़बड़ चल रहा है."

आज के युग में जहां अपने अपने स्वार्थ, अपने अपने हित चिन्तन में मनुष्यता इतनी रम चुकी है. किसी घर के भीतर सम्पत्ति को लेकर विवाद न होना, सहिष्णुता बनी रहना सचमुच नयी सी बात लगती है, असहज सी लगती है. निश्चय ही समाज, परिवेश, परिवार के समूचे ढांचे में इस तरह के खुदगर्ज बदलाव ज्यादातर जगहों पर देखा जा सकता है. चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति से सम्बन्ध रखता हो.

उपभोक्तावादी वातावरण के इस दौर में भौतिक वस्तुओं का आकर्षण इस कदर हावी हो चुका है कि इनके बिना इन्सान अब बिल्कुल नहीं रहना चाहता. और इन्हें प्राप्त करने के लिये चाहे उन्हें कोई भी रास्ता अपनाना पड़े. अमूमन सभी परिवारों में इस तरह का दृश्य देखने को मिलता है-

"जेवर के मामले में जो बहू होती है जितनी तेज नज़र की
उसी अनुपात में उसी के हाथ लग जाते हैं
सो एक ने झटक ली थी पहले ही मां के गले की जंजीर
दूसरी ने धीरे धीरे सरका ली मां की अंगूठियां
तीसरी ने अच्छी लगने के बहाने से एक दिन ले लिया मां के टप्स."

भारतीय समाज में अपने ही बच्चों के द्वारा माता पिता के वृद्धावस्था की दशा-दुर्दशा का बड़ा ही कटु और यथार्थ चित्रण इन कविताओं में बड़े महीन ढंग से अभिव्यक्त हुआ है. 

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कविताओं के माध्यम से कवि जो ये तमाम आहट सुन रहा है या महसूस कर रहा है, क्या यही है कलियुग? कि न केवल घर परिवारों में वरन् हर स्थान पर द्वेष, स्वार्थ, हिंसा, अशान्ति का दौर दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. लोगों के बीच असहिष्णुता, हिंसा, मारपीट, मॉब लिन्चिंग आने वाले समय में समाज किस तरह अपनी नींव रखेगा आखिर?

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vazda.artist@gmail.com


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