हिंदी साहित्य में मीरा के पश्चात लम्बे अंतराल के बाद एक स्त्री अपनी प्रखर चेतना के साथ उपस्थित होती है, उस लेखिका का नाम है महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७—११ सितंबर १९८७) आज हिंदी की इस कालजयी कवयित्री का जन्म दिन है.
उपपनिवेश के ख़िलाफ भारतीयों का संघर्ष आंतरिक घेरेबंदी के खिलाफ भी आत्मसंघर्ष है और अस्मिताओं के उदय का भी यह काल है. ऐसे में महादेवी एक गुलाम, मर्दवादी समाज में स्त्री की स्थिति को देखती हैं, उसे रचती हैं और उससे बाहर निकलने के रास्तों की भी तलाश करती हैं. उनका गद्य उन्हें एक स्त्रीवादी लेखिका सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है.
उनकी कविताओं में यही चेतना है पर चूँकि वह छायावादी मुहावरे में अभिव्यक्त हुई है इसलिए आलोचकों ने उन्हें रहस्यवादी, वेदना और और विरह आदि की कवयित्री कह उनकी धार को कुंद कर दिया है. उनकी कविताओं में ‘नीर भरी दुःख की बदली’ है भी तो इसलिए कि उन्हें इस विडम्बना का तीखा एहसास है कि इस ‘विस्तृत नभ का कोई कोना कभी न अपना होगा’. श्रृंखला की कड़ियाँ अभी भी स्त्री के पैरों में हैं.
अध्येता श्रीधरम ने अपने इस लेख में आलोचकों के महादेवी वर्मा के प्रति इसी मर्दवादी रवैये की पड़ताल की है. आइये देखते हैं कि किस तरह आग को पानी बना दिया जाता है.
महादेवी वर्मा और आलोचना का मर्दवादी जाल
श्रीधरम