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परख : हिंदी आलोचना की सैद्धांतिक (विनोद शाही) : अंकित नरवाल

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हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी

 विनोद शाही
आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य : 250 रुपए









आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘ड्राइंग मास्टर’ थे, बाद में साहित्य के आलोचक हुए, विनोद शाही पेंटर हैं और आलोचक भी. रामचंद्र शुक्ल की ही तरह आलोचना की सैद्धांतिकी में उनकी रूचि है. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नाम से उनकी भी एक किताब प्रकाशित है.  

इधर आधार प्रकाशन से ‘हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी’ नाम से उनकी आलोचना कृति प्रकाशित हुई है जिसमें आलोचना से संदर्भित सिद्धांत आदि पर स्वतंत्र आलेख हैं. एक आलेख रामचंद्र शुक्ल पर भी है.

अंकित नरवाल इस किताब को देख परख रहें हैं. 




हिंदी आलोचना का अपना रास्ता                
अंकित नरवाल






विनोद शाही समकालीन हिन्दी आलोचना का मुखर नाम हैं, क्योंकि तमाम दूसरे बड़े आलोचक अब केवल मंचीय आलोचना तक ही सीमित होकर रह गए हैं.(अब इनके वक्तव्य/व्याख्यान ही संपादित होकर सामने आ रहे हैं.) हालाँकि इससे इत्तर उनके मुखर होने का दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि वे न तो किसी गुरु के आशीर्वाद से पनपी दूसरी परंपरा को खोजने निकले हैं और न ही किसी लेखक की कालजयी परंपरा की शिनाख्त करने, बल्कि वे अधिकतर उन बीज-भूमियों की ही तलाश में रहे हैं, जहाँ से अपनी ज़मीन की आलोचनात्मक आधारभूमितलाश की जा सके. उनकी लेखनी के केन्द्र में उधार की मनोवृत्तिके प्रति एक गहरी खीज़ साफ महसूस की जा सकती है. इसी के बरअक्स जब वे रामकथा : एक पुनर्पाठलिखते हैं, तो अपने मिथकों को नए सृजनात्मक अर्थ देते हैं. आलोचना की ज़मीनका लेखन उन्हें मुख्य अर्थोंके पीछे गौण कर दिए गए अर्थोंको पुनः खोलने के देरीदायी विमर्श से जोड़ता है. उनका वारीस शाहबुल्ले शाहको हिन्दी-दुनिया से रूबरू कराने का प्रयास भी अपनी सांझी विरासत के प्रति एक स्वस्थ नज़रिये का ही प्रमाण माना जा सकता है. हालाँकि यह सूफी परंपरा में जायसी के पीछे गुमराह कर दिए गए इन अदीबों की कुछ चुभती वजहों को भी सामने लाता है.

विनोद शाही

उनकी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक हिन्दी आलोचना की सैद्धान्तिकीभी उनके भीतर अपनी वर्तमान आलोचना को लेकर लगातार उठती कशमकश को सामने लाती है. यह वही बेचैनी है, जो उन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहासलिखते हुए लगातार महसूस की है. उनके यहाँ सवालों की एक लंबी श्रृंखला है, जो इस बात का वाजिब उत्तर नहीं पाती कि आखिर भरतमुनि, भामह, वामन, आनंदवर्द्धन, अभिनवगुप्त, क्षेमेन्द्र, महिमभट्ट, मम्मट और पंडितराज जगन्नाथ के बाद का आलोचना-कर्म मौलिक सिद्धांत तलाशने की बजाय बहस और विवेचन पर ही केन्द्रित होकर क्यों रह गया है? यदि मैलिक आलोचना का कोई आखिरी उछाल दिखाई भी देता है, तो वह शंकराचार्य के द्वैतवाद में ही. हालाँकि बाद के आचार्यों द्वारा उनकी खींची यह लकीर इस कदर पीटी जाती है कि उनकी दार्शनिक महानता ही भारत के मैलिक चिंतन के विकास का गला घोंटने की वजह बनने लगती है. इसके बाद यदि कोई रास्ता रामचन्द्र शुक्ल के लोकमंगल की साधनावस्थामें दिखता भी है, तो वह रस-दर्शन की सुदीर्घ परंपरा के मोह में विलीन हो जाता है. खैर उनके बाद का तो तमाम रास्ता लंदन, न्यूयार्क व मास्कों से बरास्ते हवाई पट्टी पर खुलता है, जिसे अपना कहने की कितनी ही डींगे क्यों न भरी जाएँ, कितु वह बाहरी ही बना रहता है.


शाही इस सारी विवेचना के बीच इस बात के लिए भूमिका तैयार करते हैं कि क्या हम अंतर्ध्वनि-सिद्धांत या नव-रीतिवाद जैसे सिद्धांतों के सहारे अपनी विरासत से कुछ बीज-तत्त्व नहीं प्राप्त कर सकते? अपनी विवेचना के दौरान जब वे इस बात का जिक्र करते हैं कि हिन्दी को अपने मौलिक आलोचना-शास्त्र की जरूरत है, तो इसे हवा में लटकाकर छोड़ नहीं देते, बल्कि उसके वाजिब उत्तर भी देते हैं. उनका मानना है कि आज मानवजाति और उसका समाज उस दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ हर राष्ट्र और उसकी भाषा व संस्कृति को, अपनी जड़ों में लौटकर उन रत्न-हीरों को अपनी खादानों से बटोरकर ज़मीन के ऊपर लाना होगा, जो उसे बहुराष्ट्रवादी, विश्ववादी और सही अर्थों में मानवतावादी बनाएँगे. शाही की चेतना इस बात के लिए भी लगातार बलवती हुई है कि अब वह समय आ गया है, जब हमें अपने संस्कृत काव्यशास्त्र के विखंडन के लिए प्रशस्त होना है.


कुल तीन खंडों आलोचना और सिद्धांत’, ‘आलोचना और विधा-विमर्शआलोचना और आधुनिक युग-धाराओंमें बँटी उनकी पुस्तक हिन्दी आलोचना की सैद्धांतिकीतेईस विभिन्न लेखों से अपनी हो सकने वाली आलोचना को विवेचना का विषय बनाती है. इसके प्रथम खंड में शामिल अधिकतर लेख कथादेशपत्रिका में स्तम्भ की तरह पहले प्रकाशित होकर अपनी छाप छोड़ चुके हैं. इस पुस्तक की भूमिका में वे रामचंद्र शुक्ल को मौलिक चिंतन को विकसित करने वाले पहले आधुनिक आचार्य मानते हैं, किंतु उन्हें इस बात के लिए भी कटघरे में खड़ा करते हैं कि उन्होंने कर्म, ज्ञान व भाव का सिद्धांत खड़ा तो किया, किंतु उसे अपनी मौलिकता में नहीं ला सके. मसलन वहाँ भाव का कोई व्यवस्थित सिद्धांत विवेचित नहीं हो सका, जिसके चलते स्थिति वापस रस-दर्शन की प्रशस्तिपरक ही बनकर रह गयी. बल्कि इसके विपरीत वहाँ से उसके विखंडन का रास्ता निकलना चाहिए था, जो नहीं निकल सका. दूसरी ओर उनके बाद आए आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और नगेन्द्र रस-दर्शन के मोह को और अधिक बढ़ा देते हैं और उसमें गाँधीवादकी भूमिका तक ले आते हैं. यहाँ भी रस-दर्शन के विखंडन की बात फिर ज्यों-की-त्यों रह जाती है. बाद में यही मोह प्रयोगवाद मेंबौद्धिक रसऔर प्रगतिवाद में संघर्ष रसमें परिणत होता है.


वर्तमान के नए विमर्शों (स्त्री-दलित आदि) में भी यही क्रोध रस’, ‘प्रतिशोध रसऔर अस्मिता रसकी भाँति विवेचित होता देखा जा सकता है. हाल के वर्षों तक चला आया यही रास्ता सिद्धांत-निर्माण में परिणत नहीं हो सका है. शाही का मानना है कि अब हमें आवश्यकता है कि हम अपनी दृष्टि को अंतर्दृष्टि में बदलें और जितने अनुपात में प्रासंगिक होने की ओर बढ़ें उसी अनुपात में गहरे भी होते जाएँ.


उनका साहित्य के व्याकरण की भूमिकासंबंधी लेख हमें नव-ध्वनिवादीविकल्प को समझने का अवसर उपलब्ध कराता है. साहित्य की व्याख्या के लिए भाषा-पाठ किन आधारों पर तय होते हैं तथा वह धर्म-अध्यात्म से किन वजहों से से अलहदा बनते हैं? जैसे विभिन्न प्रश्न इस लेख को पढ़कर आसानी से हल होने लगते हैं. शाही मानते हैं कि साहित्य, तभी साहित्य होता है, जब वह भाषा के व्याकरण के भीतर अपने एक अलग व्याकरण की समांतर सृष्टि कर लेता है. वे इसे स्पष्ट करने के लिए पश्चिमी भाषा-चिंतकों अरस्तू, ई.डी. हर्ष, सस्यूर, फ्रेंज ब्रेंताना, एडमंड हर्सल, वर्टेंड रसल, जॉक लाकां व बेंजामिन के संदर्भों का हवाला देते हुए इस तथ्य तक पहुँचते हैं कि शब्दार्थ’, ‘भावार्थऔर दृश्यार्थतक एक लंबी प्रक्रिया हमें विभिन्न चीज़ों के संबंध में अपनी राय निर्मित करने के लिए तैयार करती है. यही हमें भाषा के अंतर्निहित अर्थों के विखंडन का रास्ता भी दिखाती है. हालाँकि शाही यह भी मानते हैं कि पश्चिमी साहित्य-चिंतन में भावार्थ-परंपरा विकसित नहीं हुई. भारतीय साहित्यशास्त्र से वे भरतमुनि, अभिनवगुप्त व रामचंद्र शुक्ल का हवाला देकर दृश्यार्थकी मनोवृत्ति को समझने का रास्ता थोड़ा और आसान कर देते हैं. इसी दृश्यार्थ के अन्यथाकरणऔर आत्मीयकरणके द्वन्द्वात्मक सिद्धांत के सहारे वे स्त्री-दलित विमर्शकी भाषागत विवेचना करते हैं. सृजन-भाषा के साधारणीकरण का विवेचन उन्हें इस निष्कर्ष तक ले आता है कि सृजन-भाषा हमें अन्यथाकृतकरके दृश्य के अन्य से आत्मीयरूप में पुनः जोड़नें में मदद करती है.


वे अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि यदि हम मैंकी तरह आत्मीय होते हैं, तो कविता हो जाती है. तुमकी तरह आत्मीय होते हैं, तो नाटक हो जाता है और वहकी तरह आत्मीय होने का मतलब है कथा. इस तरह हम सृजन-भाषा की मदद से, धर्म-अध्यात्म या दर्शन जैसे अपर्याप्त समाधानों से बचते हुए, सीधे दृश्यार्थ में उतर अपने आप को खोज पाने लायक हो जाते हैं.(पृष्ठ-46)



अपने बाज़ारवादी समय में साहत्यिकतासंबंधी लेख में उनकी इस विषय को लेकर बेचैनी उभरी है कि अब ऐसे हालात पैदा कर दिए गए हैं कि अच्छे और बुरे साहित्य के बीच का फर्क करने का मामला ही संदिग्ध हो गया है. गोया ऐसा होने से एक ऐसी दुनिया पैदा हुई है, जिसे प्रयोजनवादी जनतांत्रिक व्यवस्था और चेतना वाली दुनिया कहा जा सकता है. ऐसा होने से सबके अपने-अपने श्रेष्ठ साहित्य हो गए हैं. यहीं दूसरी ओर उनकी नज़र इस बात पर भी गई है कि जहाँ समाजविज्ञानों से लेकर संस्कृति और मानवविज्ञान तक बेशुमार विमर्श हो रहे हैं, वहीं साहित्यालोचन से साहित्यिकता की व्याख्या करने वाले विमर्श क्यों नदारद हैं? इस चुनौतीपूर्ण भूमिका के साथ जब वे भारतीय और पाश्चात्य साहित्यालोचन की विरासत में उतरते हैं, तो इस उत्तर के साथ पुनः लोटते हैं कि साहित्य की साहित्यिकता या रचनाशीलता को हमें सामाजिक यथार्थ, मनुष्य के इतिहासबोध और प्रकृति के रूपांतर से प्रकट होने वाली विकास और प्रगति की संभावनों के उसके सौंदर्यबोध या आनंदमय होने की ज़रूरत के साथ बनने वाले रिश्ते की मार्फत करनी होगी.(पृष्ठ-49) 


वे इसी विवेचना के दौरान इस बात को भी उठाते हैं कि हिन्दी में साहित्यिक-सिद्धांत के तौर पर जो एक बड़ा मौलिक-विमर्श पैदा हुआ था, वह इस बात पर केन्द्रित था कि साहित्य की व्याख्या ज्ञान के अन्य सामान्य विमर्शों की तरह नहीं करनी चाहिए. यह विमर्श साहित्य के भाषा-पाठ की ही भाँति है, जो विधिवत ढंग से भरतमुनि से लेकर रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध तक चला आता है. यहीं शाही यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि क्या शुक्लजी का आलंबनत्व धर्मही मुक्तिबोध के ज्ञानात्मक संवेदनका रूप नहीं ले लेता? हालाँकि सिद्धांत-निर्माण की वर्तमान चुनौती का उत्तर वे इस बात में पाते हैं कि भारतमुनि से लेकर मुक्तिबोध तक की हमारी साहित्य-सैद्धांतिकी भाव-संवेदनामूलक आधार पर खड़ी नजर आती है, जिसे सामाजिक, लोकमंगलमूलक और जनधर्मी सभ्यातामूलक अंतर्विकास तक ले आना, हमारी समय की चुनौती है, जिसे हमें सामान्य ज्ञान-विमर्श वाले बौद्धिक ढांचों की तरह नहीं, अपितु कृतिमूलक या भाषापाठीय संरचनाओं की भीतरी दुनिया के उपादानों की मार्फत देखने-समझने लायक होना है.(पृष्ठ- 52) यही इस लेख का हासिल है कि हमें उन ज्ञानानुशासनों तक पहुँचना है, जिससे साहित्यालोचन का एक व्यवस्थित सिद्धांत निर्मित हो सके.


उनके आगामी दो लेख- प्रतिक्रियावादी रस से प्रगतिशील ध्वनि तकऔर अंतरअनुशासनात्मक दौर में अंतर्ध्वनि सिद्धांतएक-दूसरे के पूरक की भाँति पढ़े जा सकते हैं. यहीं उनकी यह बेचैनी व्यवस्थित ढंग से रेखांकित होती है कि हम अपनी आलोचना कैसे विकसित करें. वे अपनी पूर्वगत आलोचना के संबंध में लिखते हैं कि रामचंद्र शुक्ल परंपरागत रस-दर्शन करते हैं, किन्तु उस आधार पर किसी नयी आलोचना-पद्धति का गठन नहीं करते. हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचनात्मक चिंतन इस दिशा में कुछ नये सूत्र ज़रूर गढ़ता है, परंतु वह पद्धति-मूलक न होकर, पद्धति-मुक्त पद्धति वाले चिंतन को आगे बढ़ाते हैं. नन्ददुलारे वाजपेयी रस और पाठवादी आलोचना पद्धतियों के परस्पर साहचर्य वाली दिशा में आगे बढ़ते हैं. पाठगत अंतर्विरोधों की समरसता-मूलक (या गाँधीवादी) परिणतियाँ उनके चिंतन की मंजिल लगती हैं, जिनके आधार पर वे एक राष्ट्रीय आलोचना पद्धति के विकास का दावा पेश करते हैं. इस आधार को ग्रहण करते हुए आलोचना का जनतंत्र (अशोक वाजपेयी) और आलोचना के स्वदेश (विजय बहादुर सिंह) की धारणाएँ सामने आयी हैं, परंतु वे अपर्याप्त विमर्श की तरह हैं.(पृष्ठ-54) हालाँकि यहीं वे मुक्तिबोध की आलोचनात्मक पद्धति को अधिक तर्क संगत पाते हैं, किंन्तु उससे वाजिब रास्ते की अनुपलब्धता उन्हें अखरती है.


वर्तमान समय में इस प्रकार की आलोचना पद्धति से संतोषजनक मार्ग न मिलने की वजह से वे वापस ध्वनि सिद्धांत के विखंडन से ही अंतर्ध्वनि सिद्धांत के निर्माण की ओर बढ़ते हैं. उनका मानना रहा है कि हमें ध्वनि सिद्धांत को ही अधिक रचनाशील बनाकर उसे साहित्यालोचन के टूल की तरह प्रयोग में लाना चाहिए. यहीं ध्वनि के इसी पाठगत अर्थ से एक श्रेष्ठ कृति की परिभाषा देते हुए वे लिखते हैं कि श्रेष्ठ कृति हम उसी को कहेंगे, जहाँ अंतर्वस्तु की अंतर्ध्वनि बेरोकटोक, सहज और एकाग्र रूप में, समस्त प्रतिध्वनियों को समेट ले. इस स्थिति के अवरोधक कृति के दोष कहे जाएँगे.(पृष्ठ- 67)


अपने लेख रस की समकालीनतामें वे रस के साधारणीकरण को नए अर्थों के साथ विवेचित करते हैं. भरतमुनि के रस-निष्पत्ति और रस-उत्पत्ति सूत्र में दर्ज मुख्य रस और उनसे निकलने वाले गौण रसों की अभिव्यक्ति वे समाजेतिहासिक दृष्टिकोण से करते हैं, जो हमें अपने इतिहास को नए ढंग से देखने-समझने का अवसर उपलब्ध कराती है. उनका मानना रहा है कि हमारे साहित्य-चिंतन में जिस सिद्धांत को बचाए जाने की ज्यादा जरूरत थी, वह साधारणीकरण का सिद्धांत था. यहीं वे इस सिद्धांत का उत्तरआधुनिक पाठ करने वाली दो पाश्चात्य पुस्तकोंलीज़ा जनशाइन की गैटिंग इनसाइड द माइंड एंड नावल : व्हाई दी रोड फिक्शनव नैंसी वरम्यूल की पुस्तक व्हाई वी केयर अबाउट लिटरेरी कैरेक्टर्जका हवाला देकर यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अब इस बात को पश्चिम भी समझने लगा है, तो हमारे यहाँ इसकी सुदीर्घ परंपरा होने के बावजूद हमें इसे समझने में देर क्यों हो रही है? वे साधारणीकरण की प्रक्रिया में भरतमुनि के अन्तःसूत्रों से अभिनवगुप्त तक की परंपरा तक आते-आते इस बात की शिनाख्त कराते हैं कि जहाँ भरत से यह मार्ग सहज ढंग से चला था, वहीं अभिनवगुप्त तक आते-आते इतना जटिल बना दिया गया कि वह अपने रास्ते से ही भटक गया. हमें अब आश्यकता इस बात की है कि हम गुमराह या भटकाव के मार्गों से बचते हुए वहीं से एक अन्तर्दृष्टि विकसित करें, जो वर्तमान की व्याख्या का एक मौलिक चिंतन बन सके.


लेख विखंडन, व्यंजना और हममें शाही ने देरीदा के विखंडनवाद के आधार पर भाषा-पाठ की संरचना को समझने का प्रयास किया है. हमारे वर्तमान समय के दर्जन-भर विमर्शों के पीछे भाषा का विखंडन क्योंकर काम कर रहा है, यह इस लेख का मुख्य विवेचित विषय है. शाही विखंडन के बारे में मानते हैं कि विखंडन का प्रयोजन अव्यवस्था नहीं है. वह केवल एक के वर्चस्व को हटाकर दूसरे को जगह देने की वैकल्पिक व्यवस्था की ओर आना है. मसलन, जैसे आजकल यूरोप में स्त्री की जगह समलैंगिक व होमोसैक्सुअल को सामने लाया जा रहा है. यहीं उन्होंने इस बात की भी नोटिस लिया है कि हाशिये के समाजों का उभार पश्चिम के लिए फायदेमंद है, क्योंकि वह शेष दुनिया को अंतःविभाजित रखता हुआ अपने वर्चस्वी मुख्यार्थ को नव उपनिवेशवादी अर्थवृत्ति को एक मूर्त-ठोस संभावना बनाए रखता है.


शाही यहीं इस बात की ओर भी हमारा ध्यान ले जाते हैं कि विखंडन के देरीदायी दृष्टिकोण का लिखित पाठ से जोड़ने पर धर्म और आध्यात्मिक ग्रंथों का पाठ संकटों को लेकर उपस्थित हो उठता है. जैसे कुरान का सलमान रुसदी द्वारा किया गया पाठ व भारत में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के पाठ से अलग पाठ करना विखंडन-भय को ही जन्म देता है. यहीं देरिदा को लक्ष्यार्थ संबंधी व्याख्या का हवाला देते हुए शाही की नजर इस बात पर भी रही है कि लक्ष्यार्थ के खेल में केवल अभिधार्थ ही अपदस्थ होते हैं, जो वर्चस्ववादी सत्ता के अनुसार ही होते हैं. जैसे आज पश्चिम मानवाधिकारों का हिमायती बन गया है और एक समय समस्त विश्व के मानवाधिकारों पर उसका शासन था. संक्षेप्ततः कहा जाए तो शाही का यह लेख देरीदा के सहारे हमरे लिए भारतीय भाषा-पाठ की एक नई व समकालीन भूमिका तैयार करता है.


उनका लेख नव-अर्थ मीमांसा’, औचिच्यवाद और हमक्षेमेन्द्र के औचित्यवाद से वर्तमान के लिए रास्ता निकालने की संभावना को सामने लाता है. शाही यहाँ हिन्दी द्वारा पश्चिमी साहित्यिक चिंतन का टूल की तरह प्रयोग करना उसके सांस्कृतिक पतन की तरह देखते हैं. उनका मानना रहा है कि इस आधुनिकता से बंधा हिंदी का हमारा जो नया-आलोचना-विमर्श था, उससे हमारा दोहरा नुकसान हुआ. एक ओर इसने जनसमाज में साहित्य के प्रति घोर अरुचि का माहौल पैदा किया और दूसरी तरफ जो सही मायने में हमारा अपना (सांस्कृतिक धरातल पर बेहद विकसित) साहित्य था, उसे धार्मिक-साम्प्रदायिक रंगत देकर, भिन्न-भिन्न धर्मानुयायी समुदायों की पठन-पाठन की रुचि की बजाय श्रद्धा-प्रेरित रुचियों का हेतु बना दिया. शाही का मानना रहा है कि ऐसा होने की वजह से हमारा साहित्य अपने सांस्कृतिक धरातल से कट गया. साथ ही उसकी आलोचना का टूल भी विदेशी होता चला गया. जिससे कारण आलोचना के स्तर पर हम सांस्कृतिक दृष्टि से लगातार पतन की ओर ही जाते रहे. 

उन्होंने साथ ही इस बात का भी ध्यान हमें दिलाया है कि अब उत्तर औपनिवेशिक, प्राच्यवादी, प्रवासी, सबाल्टर्न या तृतीय विश्ववादी विमर्श अब हमारी मदद बहुत दूर तक नहीं कर सकते. अब हमें अपने यहाँ मौजूद औचित्यवाद में ही नई अर्थ दृष्टियाँ पाने के लिए उतरना होगा, तभी हम आलोचना और साहित्य, दोनों की श्रेष्ठता की ओर बढ़ सकते हैं. क्योंकि श्रेष्ठ साहित्य, वही हो सकता है, जो किसी भी समाज के भीतर से उपजकर उसके सांस्कृतिक चित्त के मानवीय रूपांतर की वजह बनता है. यदि हम अपने टूल विकसित कर सके, तो निश्चित रूप से हम अपनी सांस्कृतिक जमीन से ऐसे सृजनात्मक साहित्य को विकसित करने की स्थिति में आस सकेंगे.


अपने लेख मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और हममें वे इस बात के लिए रास्ता तैयार करते हैं कि हम अपने यहाँ मोजीद ब्रह्म की परंपरा वाले दर्शनों से द्वन्द्वात्मकता के सहारे उक्त दर्शनों जैसा कोई रास्ता निकाल सकते हैं. उनका मानना है कि हमारे यहाँ तत्त्व और माया के बीच का द्वन्द्वात्मक रिश्ता अधिक कुटिल बनाकर छोड़ दिया गया, जिसे अब नये व्यवस्थित नजरिये से समझने की आवश्यकता है. हालाँकि इन पश्चिमी दर्शनों के बारे में वे यह जरूर स्वीकारते हैं कि अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद के रूप में आधुनिक काल के दौरान जो दो दर्शन पश्चिम में प्रकट हुए थे, वे द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नजरिये को केन्द्र में लाने की वजह से अतीत के दर्शनों से बेहतर हैं. वे इसलिए बेहतर हैं, क्योंकि चाहे जो वस्तुस्थिति हो, हमें यहाँ से ज्ञान तथा सत्य की खोज के रास्ता आरंभ करना पड़ता है. शाही ने यहाँ हमारे लिए अपने दर्शनों को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की सुझाव दिया है. उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक पतंजलि : योग दर्शनमें इस रास्ते को विस्तृत ढंग से मुकम्मल शकल भी दी है. 


लेख हिन्दी आलोचना की बीज भूमियाँइस पुस्तक का वह बुनियादी बिन्दु है, जो हमें आलोचना के उस मुहाने तक ले आता है, जहाँ से हम नव-रीतिवाद व अंतर्ध्वनि जैसे मौलिक सिद्धांतों के गठन की भूमि का आधार पा सकते हैं. पश्चिमी साहित्यलोचन की भारतीय मानष पर तारी हो जाने की वजहों को भी यह लेख सार रूप में सामने लाता है. शाही मानते हैं कि हिन्दी आलोचना के पास अपने सृजन सिद्धांत का जो अभाव है, उसकी वजह यही है कि उससे उसकी जमीन छिन गयी है या वह किन्हीं कारणों से खो गई है. पश्चिमी साहित्य-चिंतन में भी अब जो अंतवादी और विखंडनवादी सिद्धांत सामने आये हैं, वे अनिश्चयात्मकता और अराजकता का बढ़ावा दे रहे हैं. यह भी इस बात का सूचक है कि कहीं-न-कहीं वहाँ भी जमीन को खो देने या जाने के हालात सामने आये हैं. अब हमें अपने पूर्व दर्शन की परंपरा में झाँकने की जरूरत है. हमारे यहाँ मौजूद ध्वनि सिद्धांत में पूरी गुंजाइश है कि उसके भीतर से भारतीय जमीन और हालात के मुताबिक कुछ नये विवेचन मार्ग और प्रतिमान सामने आएँ, हमें अब उसी कार्य की ओर बढ़ना है. इसके साथ-साथ क्षेमेन्द्र के औचित्य से भी हम कुछ नवीन मार्ग तलाश सकते हैं, जो न केवल काव्य के आचोतिय तक समीति रहें, बल्कि नव उपनिवेशिक दौर के प्राच्यवाद से हमें निजात दिला सकते हैं.


उत्तर-आधुनिक संस्कृति-विमर्श और आलोचनासंबंधी लेख साहित्य, धर्म और संस्कृति-
विमर्श की जरूरत का सारगर्भित विश्लेषण हमारे सामने लाता है. शाही मानते हैं कि मध्यकाल तक मानवजाति के पास लोक-संस्कृति  तो थी, परंतु धर्म और साहित्य अपनी अलहदगी बनाये रखने के लिए खुद को पवित्र, अद्वितीय और दैवी प्रेरणा से अद्भूत सिद्ध करने में दिलचस्पी रखते थे. हालाँकि तब भी ये बहुसंख्य खपत की वस्तुएँ ही थीं, पर वे खपतवार की पात्रता या योग्यता पर इतना जोर देते थे कि उनकी मौजूदगी संस्कृति की दुनिया के भीतर होते हुए भी अलहदा जान पड़ती थी. यहाँ शाही का मानना रहा है कि हमारे दौर के प्रमुख आलोचक वे ही हैं, जो सह-सामांतर तौर पर संस्कृति-विमर्शकार भी रहे हैं- जैसे लूकाच, एडोर्नो, अल्थूसे, ज्यां लाकां, वाल्टर बेंजाम, मिशेल फूको, हाब्साबाम या टेरी ईगल्टन. यदि इसी मनोवृत्ति को हम हिन्दी आलोचना के परिदृश्य में देखते हैं तो रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नंददुलारे वाजपेयी के पास पुख्ता संस्कृति-भूमि और गहरी अंतर्दृष्टि दिखायी देती है, लेकिन वह मौलिक संस्कृति-चिंतन की शक्ल नहीं ले पायी. बाद में अज्ञेय, मुक्तिबोध व निर्मल वर्मा ने इस संबंध में गहरी नजर का सबूत अवश्य दिया, किंतु वहाँ भी कोई व्यवस्थित सिद्धांत नहीं खड़ा हो सका. शाही माते हैं कि अब हमें विज्ञान और धर्म द्वारा अपने-अपने ढंग से विभ्रम की स्थिति तक पहुँचा दी गई सांस्कृतिक समझ को पुनर्जीवित करने की जरूरत है.


विधापरक मीमांसाऔर कथा का विमर्शनामक लेखों को एक-दूसरे के पूरक की तरह देखा जा सकता है. प्रथम लेख आधुनिक दौर में कथा को वर्तमान की सबसे सशक्त विधा के रूप विवेचित करता है और उसे अपने युग के निष्कर्ष के रूप में देखता है. यहाँ शाही मानते हैं कि अब काव्य परकाया प्रवेश द्वारा खुद को बचाने की कोशिश कर रहा है. यहीं वे मुक्तिबोध और निराला की कविताओं के बीच मौजूद इस कथा-अंश का हवाला देकर उन्हें कथा के विलयन का प्रयोग करने वाले कवियों के रूप में याद करते हैं. कथा-विमर्श के सहारे शाही हमें अपनी स्वयं की सर्वाधिक ऊर्जाशील विधा के शास्त्र को समझने की कुंजी देते हैं. उनका मानना है कि हम कथा को ब्रह्मांड की कथा की शक्ल देकर बचाना चाहत हैं. इस बात में बड़ा बौद्धिक ग्लैमर है जो आकर्षित करता है, परंतु कथा की जो असली जमीन है, वह खुद मनुष्य है और हम मनुष्यों को मनुष्य की कथा तब मिलती है, जब हम अपनी यानी जन का इतिहास खुद लिखने लायक हो जाते हैं. ऐसा कहते हुए शाही का उद्देश्य कथा-विमर्श की अपनी सैद्धांतिकी के लिए पुख्ता जमी तैयार करना है. उनका निबंध एक खोज संबंधी भी इसी भाँति पढ़ा जा सकता है कि वह एक ओर तो निबंध के भविष्य का तर्क आधारित विश्लेषण करता है, वहीं दूसरी ओर उनके आत्मकथात्मक परिचय से भी रूबरू कराता है. यहीं हम यह जानते हैं कि शाही निबंध को अपने रचनाधर्मिता के सर्वाधिक नजदीक पाते हैं.


उनका आत्मकथा : निबन्धोन्मुख जीवन-वृत्तसंबंधी लेख आत्मकथा की सैद्धांतिकी को सामने लाता है. इससे संबंध में शाही का मानना है कि आत्मकथाएँ मनुष्य के निजी संसार को सार्वजनिक बनाने के युगबोधक जरूरतों के दबाव में अपनी रचनाशीलता का नजरिया है. यह कथा और काव्य से अलग निबंध के विखंडन की प्रक्रिया होती है. इसमें मूलतः कथा रचने की बजाय उसके विखंडन की प्रक्रिया को काम में लाया जाता है. यहीं शाही अनेक समकालीन विमर्शपरक आत्मकथाओं को भी अपनी आलोचना का विषय बनाते हैं. उनका साक्षात्कार निबंधोन्मुख संवाद-नाट्य संबंधी लेख साक्षात्कार के रूप में कृति पाठ से उपजने वाले सवालों की संरचना को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया में साक्षात्कार विधा को देखता है. शाही मानते हैं कि कृति जो कहती है, वह तो अहम होना ही चाहिए, पर जितना वह उकसाती है और दूसरों को अपनी बात कहने के लिए मजबूर करती है, अतनी ही वह अहम होने का साथ-साथ महान होने लगती है. शाही मानते हैं कि एक अच्छा साक्षात्कार वही है, जहाँ दोनों ओर से केन्द्रों को छूने लायक सवालों-जवाबों की परीधियों का विस्तार संभव हो पा रहा हो.


उन्होंने अपने इस लेख में साक्षात्कार को संवाद की बहु-व्यवस्थापकों की साक्षी व्यवस्था के रूप में देखा है, जो कृति के लेखक को ऐसे बुनियादी सवालों के रूबरू ले जाती है, जहाँ से उसके पास अपने व्यवस्थित विमर्शों या सोच के पास से बाहर झांकने के सिवाय कोई विकल्प ही न बचे. कोई संवाद यदि ऐसी जमीन तैयार कर पाता है तो वह निश्चित रूप से एक बेहतर साक्षात्कार हो सकता है.यह कहा जा सकता है कि इस आलेख के सहारे साक्षात्कार की अंतःसंरचना को भी हम समझने लायक हो जाते हैं.


शाही के दो लेख हिन्दी आलोचना के तीन स्कूलऔर हिंदी आलोचना की आलोचनाहमारे सामने भारतीय आलचना के परिदृश्य को साफ करते हैं. शाही आलोचना के तीन स्कूलों का विश्लेषण करते हुए पहली तरह की आलोचना में उन्हें रखते हैं, जिनकी निगाह सामाजिक व्यवस्थापनों और उनकी संरचनाओं पर केन्द्रित रहती है. यह आलोचना पद्धति साहित्य की भाषा को यथासंभव सामाजिक व्यवहार वाली जनभाषा के निकट रखने का उद्योग करती है. दूसरी तरह की आलोचना पद्धति में वे उसे रखते हैं, जो साहित्य के भाषा-पाठीय प्रतिसंसार पर केन्द्रित रहती है. उनका मानना है कि यह आलोचना पद्धति हमेशा यह सवाल उठाती है कि साहित्य में साहित्यिकता कहाँ होती है?


जैसे हमारा संस्कृत का शास्त्रीय काव्यशास्त्र है- वह यही खोजता है कि साहित्य की आत्मा क्या है? तीसरी तरह की आलोचना पद्धति को वे साहित्य की आंतरिक ऊर्जा पर केन्द्रित मानते हैं. हालाँकि उनका मानना यह भी है कि इसमें ही अमूर्त्तन व दैवीकरण का खतरा सबसे अधिक रहता है. इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दी आलोचना का हवाला देते हुए उनकी दृष्टि इस बात पर भी गई है कि यहाँ की आलोचना में प्रतिनिधित्वमूलक अर्थविधान वाले स्कूल का ही अभी तक बोलबाला रहा है. इसकी भूमि भारतेन्दु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने निभाई है और रामचन्द्र शुक्ल द्वारा उसे मजबूती प्रदान की गई है. इसी को बाद में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध और मैनेजर पाण्डेय द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इस उपर्युक्त सारी बहस के बीच शाही इस बात के लिए काफी बेचैन नज़र आते हैं कि हिन्दी आलोचना को अब मुद्दों की बहस की ओर मुखातिब होना चाहिए, गुरु-आचार्यों की झंडेबरदारी के प्रति नहीं. दूसरी ओर हिन्दी आलोचना पर उनके विचार मीडियावादी दौर के बीच आलोचना के स्वरूप पर ही मंडराते खतरे के बीच के वास्तविक वजहों को सामने लाता है. उनका मानना है कि अब मीडिया का अच्छा प्रोस्तोता अच्छे आलोचक पर भारी पड़ रहा है, क्योंकि साहित्य को बाजार के नजरिये पर ला खड़ा किया गया है. उनका कहना है कि अब इस बात को ज्यादा गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता है कि आलोचना केवल साहित्य से सुनहरापन ही न ले, बल्कि उसकी रचनाशीलता के शामिल करते हुए उसे पढ़नीय हो सकने के मुहाने तक ले आए.


अपने लेख रचनाकार आलोचकमें उन्होंने रचनाकारों का निरंतर आलोचना की ओर स्थानांतरित होना विवेचित किया है. वे मानते हैं कि रचनाकारों का संकट यह होता है कि वे दरपेश चुनौतियों के समाधान सम्यक भाषिक अभिव्यक्तियों की नयी संभावनाओं को टटोलते हुए खोजना-पाना चाहते हैं. कायदे से यह काम आलोचकों को करना चाहिए था, परंतु हिन्दी आलोचना इस संदर्भ में लगातार इसीलिए अपंग होती जा रही है, क्योंकि अपने समाज की रचनाशीलता की जमीन व सामर्थ्य को समझने के लिए वप पराये विमर्शों व चिंतनधाराओं पर ज्यादा भरोसा करती आई है.(पृष्ठ-235) अब हमें इस बात को पुनः समझने की आवश्यकता है कि इस प्रकार से रचनाकार भी मुख्य वादों के उसी घेरे में सीमटता चला आ रहा है, जिसमें आलोचना अलझी हुई है. दरअसल हमें इससे बाहर निकले की आवश्यकता है.

(विनोद शाही की पेंटिग)

पुस्तक के अंत में उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शिवदान सिंह चौहान व नामवर सिंहके आलोचना कर्म के सहारे हिन्दी आलोचना के मौलिक परिदृश्य को सामने लाने का महती व गंभीर काम किया गया है. यहाँ शुक्ल को शाही हिन्दी आलोचना के अंतिम मौलिक आलोचक की भाँति देखते हुए उनके ज्ञान, कर्म व भाव के सिद्धान्त के पीछे अन्तर्निहित अर्थों को सामने लाते हैं. मुक्तिबोध के आलोचना विवेक के पीछे काम करने वाली विचारधारा, विज्ञान और दर्शन से ताल्लुक रखने वाली ज्ञान-व्यवस्था भी यहाँ रेखांकित हुई है. शाही, मुक्तिबोध की आलोचना के बीज-शब्दों ज्ञान और संवेदना को रामचन्द्र शुक्ल के बोध और भावानुभूति के विस्तार व रूपांतर की तरह देखते हैं.

दूसरी ओर अज्ञेय को वे आलोचक की अपेक्षा साहित्य-चिंतक की तरह परिभाषित करते हैं. उनका मानना है कि अज्ञेय में हमें कहीं भी साहित्य के सिद्धांत-निरूपण वाला व्यवस्थित अनुशासन नजर नहीं आता, बल्कि उनकी प्रतिबद्धता केवल सृजन की बेचैनी के प्रति ही दिखती है. बंधना उनकी नजर में सीमित होना है. शिवदान सिंह चौहान को वे एक व्यवस्थित व संतुलित मार्क्सवादी आलोचक की तरह देखते हैं, जिन्होंने वाम की मौलिक सैद्धान्तिकी के निर्माण का महती काम किया. यही शाही ने मधुरेश के शिवदान सिंह पर किए गए कार्य को भी अपनी विवेचना का विषय बनाया है. नामवर सिंह के संबंध में श्रीप्रकाश शुक्ल की पुस्तक नामवर की धरती के हवाले से उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं के पीछ अलक्षित रह गई आलोचना दृष्टियों को सामने लाने का काम किया गया है. यहाँ इस सारे विवेचन-विश्लेषण के बाद शाही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अब हमें आनन्दवर्धन के साथ खड़े होकर मुख्यार्थ को गौण बनाकर दमित अर्थों के संसार को नयी सैद्धान्तिकी के साथ विवेचित करने की ओर आगे बढ़ना चाहिए.

इस पुस्तक के आधार पर निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि यह अपनी आलोचना की हो सकने वाली सैद्धान्तिकी की एक विस्तृत भूमिका हमारे लिए तैयार करती है, जिससे नव-रीतिवादी व अंतर्ध्वनि जैसे सिद्धांत की एक बानगी हमारे सामने उपलब्ध होती है.यहाँ से हम उन बीज-बिन्दुओं को पकड़र अपनी संस्कृत काव्यशास्त्रीय आलोचना में उतर सकते हैं और अपने मौलिक आलोचना-शास्त्र को गढ़ सकते हैं. 

यदि हम अपनी आलोचना चाहते हैं, तो हम इस रास्ते को नज़रअंदाज नहीं कर सकते, हमें इस ओर ध्यान देना ही होगा.
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ankitnarwal1979@

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