राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा-गाँव’ हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है. उनका उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ भी चर्चित रहा है. शोध छात्र ज़ुबैर आलम इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं.
“राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला”
(विभाजन और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के विशेष संदर्भ में)
ज़ुबैर आलम
राही मासूम रज़ा का नाम उर्दू-हिन्दी दोनों भाषाओं के लिखने वालों में सम्मान के साथ लिया जाता है. उनका जन्म गाज़ीपुर ज़िले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा नदी के किनारे बसे गाज़ीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी. बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एम. ए. करने के बाद उर्दू साहित्य में दास्तान ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा'पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की. पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे. अलीगढ़ में रहते हुये ही राही साम्यवादी विचार धारा से प्रभावित हुये और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गये थे.
लगभग 1967 से राही बम्बई में रहने लगे थे. वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था. राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे. आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आरज़ू, टोपी शुक्ला वगैरह उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं.
राही मासूम रज़ा ने किस आधार पर उर्दू में लिखने के बजाये हिन्दी में लिखना पसंद किया इस बारे में मेरे पास कोई ठोस जानकारी नहीं पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बावजूद देवनागरी लिपि में लिखने के वह अपनी कहानियों में उर्दू के प्रभाव से बच नही सके. शायद यह मामला उनकी शिक्षा दीक्षा के माध्यम से संबंधित है. चूँकि अभी मुझे उनके देवनागरी में लिखे गये उपन्यास “टोपी शुक्ला” पर बात करनी है इसलिये दूसरी बातों को जानबूझ कर छोड़ा जा रहा है.
“टोपी शुक्ला” नाम के इस उपन्यास को पहली बार 1977 में प्रकाशित किया गया. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय को केन्द्र में रख कर लिखे गये इस उपन्यास में उपन्यासकार ने बनारस के रहने वाले बल भद्र नारायण शुक्ला नाम के एक छात्र को उपन्यास का हीरो बनाया है. इस नायक के ज़रिये से उपन्यासकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वातावरण को उभारा है. साथ ही फ्लेश बैक की तकनीक के माध्यम से हीरो के जन्म स्थान, उसके बचपन और लड़कपन के दौरान घटित घटनाओं के माध्यम से आज़ादी से पहले के अविभाजित भारत के पूरे वातावरण को उपन्यास में समेट लिया है.
आइये देखते हैं कि बनारस के रहने वाले बल भद्र नारायण अलीगढ़ पहुँच कर किस प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वातावरण में “टोपी शुक्ला” बनते हैं:
“बात यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय जहाँ मट्टी, मक्खी, मटरी के बिस्कुट, मक्खन और मोलवी के लिये प्रसिद्ध है वहीं तरह तरह के नाम रखने के लिये भी प्रसिद्ध है. एक साहब थे उस्ताद छुवारा (जो किसी निकाह में लुटाये नहीं गये शायद) एक थे इक़बाल हेडेक. एक थे इक़बाल हारामी. एक थे इक़बाल खाली. खाली इसलिये कि बाक़ी तमाम इक़बालों के साथ कुछ ना कुछ लगा हुआ था. अगर इनके नाम के साथ कुछ ना जोड़ा जाता तो यह बुरा मानते. इसलिये यह इक़बाल खाली कहे जाने लगे. भूगोल के एक टीचर का नाम “बहरुल काहल”रख दिया गया. यह टीचर कोई काम तेज़ी से नहीं कर सकते थे. इसलिये उन्हे काहली का सागर कहा गया. भूगोल के ही एक और टीचर सिगार हुसैन जैदी कहे गये कि उन्हे एक जमाने में सिगार का शौक् चर्राया था........बल भद्र नारायण शुक्ला भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थे. यह टोपी कहे जाने लगे.बात यह है कि विश्वविधालय यूनियन में नंगे सर बोलने की परम्परा नहीं है. टोपी को ज़िद कि में तो टोपी नहीं पहनूंगा. इसलिये होता यह है कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते हैं सारा यूनियन हाल एक साथ टोपी टोपी का नारा लगाने लगता है. धीरे धीरे टोपी और बल भद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा. नतीजा यह हुआ कि बल भद्र नारायण को छोड़ दिया गया और उन्हे टोपी शुक्ला कहा जाने लगा. फिर गहरे दोस्तों ने शुक्ला की पंख भी हटा दी और यह सिर्फ टोपी हो गये.” (1)
जीवनी के अंदाज़ में लिखा गया यह उपन्यास विभाजन के कुछ साल पहले से शुरू हो कर विभाजन के बाद की एक दहाई पर फैला हुआ है. कहानी कभी फ्लैश बैक में चलती है तो कभी वर्तमान में, इस प्रकार वर्तमान से भूतकाल और भूतकाल से वर्तमान में आने जाने का सिलसिला चलता रहता है. उपन्यासकार ने उपन्यास के हीरो टोपी के आस-पास की घटनाओं से उपन्यास का सारा ताना बाना बुना है और प्रमुख्ता से हीरो के व्यक्तित्व के विकास में जो कारक ज़िम्मेदार रहे हैं उनको उभारा है. इस प्रयास में उसने हीरो के साथ दूसरे सहायक नायकों को भी उभारा है लेकिन उनकी हैसियत सिर्फ यह है कि वे घटनाओं और डायलाग के ज़रिये हीरो के नज़रिये को उभारें.
दूसरे शब्दो में कह सकते हैं कि बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला तो एक आईना है और आईने का काम यह है कि वह सामने वाले को उसका असली चेहरा दिखा दे. इस उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने इस आईने की तकनीक की सारी संभावनाओ को काम में लाते हुये अपने उद्देश्य की ओर कदम बढ़ाया है.
उपन्यासकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय को केन्द्र क्यों बनाया है? अगर इस सवाल को कुछ देर के लिये छोड़ भी दें तो क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में उस समय एक हिन्दू वह भी ब्राह्मण छात्र को शिक्षा ग्रहण करते हुये दिखाया जाना और उसी को हीरो बनाने के पीछे उपन्यासकार का कोई उद्देश्य काम नहीं कर रहा है?
सच यह है कि उपन्यासकार ने इस के माध्यम से बीसवीं सदी की चौथी दहाई के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय की सारी गतिविधियों को क़ैद करने का प्रयास किया है क्योंकि इसका प्रभाव सीधे भारत की सियासत पर पड़ रहा था. यह कहा जाये तो सही होगा कि उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय एक प्रकार का मिनिच्यर (Miniature) बन गया था जहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले छात्र पूरे देश की नुमाइन्दगी कर रहे थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय से जुड़े हुये लोग अपने अपने स्तर पर देश में हो रही अलग अलग गतविधियों के सन्दर्भ में अपने विचार रख रहे थे और देश भर के आंदोलनों को भी ले कर मुखर थे. उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में मुस्लिम लीग से जुड़े छात्र अधिक थे तो कांग्रेसी छात्र भी मौजूद थे. वामपंथी छात्रो का भी दबदबा था. इसी संदर्भ में उपन्यासकार ने बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला के लड़कपन की और आज़ादी से पहले के भारत की एक और पार्टी का परिचय इस तरह कराया है:
“इन्हीं दिनों वह कुछ नए लोगों से भी मिला. यह लोग सुबह सुबह लड़कों को इकट्ठा करके लकड़ी सिखलाते, कुश्ती लड़वाते,परेड करवाते और उनसे बातें करते. टोपी अचानक उनके पास चला गया. हाथों हाथ लिया गया. फिर जब उसे पता चला कि यह वह पार्टी है जिसने गांधी जी को मारा है तो उसे बड़ा डर लगा. लेकिन वह उन लोगों से मिलता रहा. उन्हीं लोगों से उसे पहले पहल पता चला कि मुसलमानों ने किस तरह देश को सत्यानाश किया है. देश भर में जितनी मस्जिदें हैं वो मंदिरों को तोड़ कर बनाई गयी हैं (टोपी को यह मानने में ज़रा शक था, क्योंकि शहर की दो मस्जिदें तो उसके सामने बनी थीं और कोई मंदिर वंदिर नहीं तोड़ा गया था) गौ हत्या तो मुसलमानों का ख़ास शौक है. फिर उन्होने देश का बटवारा कराया है. पंजाब और बंगाल में लाखों हिन्दू बूढ़ो और बच्चों को बेदर्दी से मारा. औरतों की इज़्ज़त लूटी और क्या क्या नहीं किया इन मुसलमनों ने. यह जब तक देश में हैं देश का कल्याण नहीं हो सकता. इसलिये मुसलमानों को अरब सागर में ढकेल देना हर हिन्दू नव युवक का कर्तब्य है.”(2)
विभाजन से पहले मोहम्मद अली जिन्नाह और दूसरे मुस्लिम लीगी नेता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में बराबर आते रहते थे इसी तरह गांधी जी और दूसरे कांग्रेसी नेता भी लगातार दौरा करते थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वामपंथी लोग भी बराबर जलसा करते थे. इस तरह हम देखते हैं कि उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय का पूरा केम्पस अलग अलग विचार रखने वालों का गढ़ बना हुआ था. उपन्यास का हीरो तो सीधे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में इतिहास विभाग के शिक्षक और उसके बचपन के दोस्त सय्यद ज़र्गाम मुर्तोज़ा आब्दि उर्फ इफ़्फ़्न तथा दूसरे दोस्तों से जुड़ा हुआ था. यह सभी वामपंथ से प्रभावित थे. इन सभी से जुड़ी घटनायें और इनके करनामों से यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि आगे देश में किस प्रकार का परिवर्तन देखने को मिलेगा. राजनैतिक दलों के द्वारा छात्रों के अंदर भरी गयी जागरूकता क्या रंग लायेगी इसका भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
उपन्यासकार ने उठा पटक और अफरा तफरी से भरे वातावरण की शिद्दत को उभारने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के बदलते हुये माहोल के साथ साथ उसने देश में फैली हुयी बेचैनी को प्रमुख्ता से उभारा है. पाकिस्तान के रूप में उठने वाली आवाज़ के साथ देश में किस तरह दंगे होते हैं. सदियों से एक दूसरे के साथ रहते चले आये लोग किस प्रकार एक दूसरे से हर समय डरने लगे इसका भी विवरण दिया गया है. विभाजन से पहले के भारत की हवा में सांप्रदायिक ज़हर फैलने और नौजवानों में नफरत भर जाने के उदाहरण उपन्यास में बहुत जगह मौजूद हैं. यहाँ सिर्फ एक उदाहरण प्रस्तुत है:
“देखिये बात यह है कि पहले ख्वाब सिर्फ तीन तरह के होते थे- बच्चों के ख्वाब,जवानों के ख्वाब और बूढ़ों के ख्वाब. फिर ख्वाबों की इस फेहरिस्त में आज़ादी के ख्वाब भी शामिल हो गये. और फिर ख्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ. माता पिता के ख्वाब बेटे और बेटियों के ख्वाब से टकराने लगे. वालिद बेटे को डाक्टर बनाना चाहते हैं और बेटा वामपंथी पार्टी का होल टाइमर बन कर बैठ जाता है. सिर्फ यही घपला नहीं हुआ. बरसाती कीड़ों की तरह भाँति-भाँति के ख्वाब निकाल आये. कलर्कों के ख्वाब,मज़दूरों के ख्वाब,मिल मालिकों के ख्वाब,फिल्म स्टार बनने के ख्वाब,हिन्दी ख्वाब, उर्दू ख्वाब, हिंदुस्तानी ख्वाब,पाकिस्तानी ख्वाब,हिन्दू ख्वाब,मुसलमान ख्वाब. सारा देश ख्वाबों के दलदल में फंस गया. बच्चों,नोजवानों और बूढ़ों के ख्वाब, ख्वाबों की धक्कम पेल में तितर बितर हो गये. हिन्दू बच्चों,हिन्दू बुज़र्गों और हिन्दू नौजवानों के ख्वाब मुसलमान बच्चों,मुसलमान बूढ़ों और मुसलमान नोजवानों के ख्वाबों से अलग हो गये. ख्वाब बंगाली,पंजाबी और उत्तर प्रदेशी हो गये.” (3)
जैसा कि पहले कहा गया था कि बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला तो हीरो के रूप में उपन्यासकार के हाथ में एक औज़ार है, उपन्यासकार इसी हीरो के दिन रात की गतविधियों से हम लोगों को परिचित करवाता है लेकिन उसका उद्देश्य इतिहास के इस मोड़ पर टोपी शुक्ला के माध्यम से उस वातावरण को उभारना है जिसका अन्त देश के विभाजन के रूप में नज़र आया और अपने साथ दंगे के रूप में मार काट और नफरत के तूफान को हमेशा के लिये हमारी हवा में छोड़ गया. आज भी इसका रौद्र रूप देखने के मिलता है. थोड़ी सी कोई बात सामने आयी और दंगे शुरू हो गये. आज के आधुनिक समय में भी इस तरह की घटनाओं का घटित होना हमारे समाज के लिये एक बड़ा सवाल है. राही मासूम रज़ा ने अपने इस उपन्यास के द्वारा उस समय के वातावरण को पाठकों तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया है.
1-टोपी शुक्ला,राही मासूम रज़ा,राज कमल प्रकाशन,नई दिल्ली,1977,पेज नंबर 12
2-वही पेज नंबर 47
3-वही.पेज नंबर 61-62
ज़ुबैर आलम
(सीनियर रिसर्च फेलो)
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