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मेघ-दूत : नजवान दरवीश की कविताएं (अनुवाद मंगलेश डबराल)


















फिलस्तीन के कवि नजवान दरवीश की कविताएं
अनुवाद: मंगलेश डबराल

आठ दिसम्बर को जन्मे नजवान दरवीश (8 दिसंबर १९७८) को फिलस्तीन के  कवियों की नयी पीढ़ी और समकालीन  अरबी शायरी में सशक्त आवज हैं. महमूद दरवेश के बाद  वे  शायरी में फिलस्तीन के दर्द और संघर्ष के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं. उनका  रचना संसार  बेवतनी का नक्शाहै. वह एक ऐसी जगह की तकलीफ से लबरेज़ है  जो धरती पर नहीं बनी है,सिर्फ अवाम के दिल और दिमाग में ही बसती है. नजवान की कविताओं का मिजाज़ और गठन महमूद दरवेश से काफी फर्क है और उनमें दरवेश के  रूमानी और कुछ हद तक क्लासिकी अंदाज़े-बया से हटकर यथार्थ को विडम्बना की नज़र से देखा गया है.  उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हैं: ‘खोने के लिए और कुछ नहीं’ और ‘गज़ा में सोते हुए’. ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने दो साल पहले उन्हें ‘चालीस वर्ष से कम उम्र का सबसे बड़ा अरबी शायरकहा था. नजवान  लन्दन से प्रकाशित प्रमुख अरबी अखबार ‘अल अरब अल जदीद’ के  सांस्कृतिक सम्पादक हैं और कुछ समय पहले  साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित ‘सबद’ अंतरराष्ट्रीय कविता महोत्सव और रजा फाउंडेशन के एशियाई कविता समारोह ‘वाक्’ में कवितायें पढ़ चुके हैं.


हम कभी रुकते नहीं

मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं
और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं:
एक पेड़ जिसकी जड़ें
बहता हुआ पानी हैं:
अगर वह रुक जाता है तो मर जाता है
और अगर नहीं रुकता
तो मर जाता है.

मैंने अपने सबसे अच्छे दिन बिताये हैं
मौत के गालों और बांहोंमें
और वह ज़मीन जो मैंने हर दिन खोयी है
हर दिन मुझे हासिल हुई फिर से
लोगों के पास थी एक अकेली जमीन
लेकिन मेरी हार मेरी ज़मीन को कई गुना बढाती गयी
हर नुक्सान के साथ नयी होती गयी
मेरी ही तरह उसकी जड़ें पानी की हैं:
अगर वह रुक गया तो सूख जाएगा
अगर वह रुक गया तो मर जाएगा
हम दोनों चल रहे हैं
धूप की शहतीरों की नदी के साथ-साथ
सोने की धूल की नदी के साथ-साथ 
जो प्राचीन ज़ख्मों से उगती है
और हम कभी रुकते नहीं
हम दौड़ते जाते हैं
कभी ठहरने के बारे में नहीं सोचते
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें आपस में

मेरा कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं,
और कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं:
रुकना 
मेरी मौत होगी.



भागो !

एक आवाज मुझे यह कहते हुए सुनाई देती है: भागो
और इस अंग्रेज़ी टापू को छोड़ कर चल दो
तुम यहाँ किसी के नहीं हो इस सजे-धजे रेडियो के सिवा
कॉफी के बर्तन के सिवा
रेशमी आसमान में कतार बांधे पेड़ों के घेरे के सिवा
मुझे आवाजें सुनाई देती हैं उन भाषाओं में जिन्हें मैं जानता हूँ
और उनमें जिन्हें मैं नहीं जानता  
भागो
और इन जर्जर लाल बसों को छोड़ कर चल दो
इन जंग-लगी रेल की पटरियों को
इस मुल्क को जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है 
इस कुनबे को जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाये रहता  है जैसे कि वह उसका अपना पुरखा हो
इस टापू से भाग चलो
तुम्हारे पीछे सिर्फ खिड़कियां हैं
खिडकियां दूर जहाँ तक तुम देख सकते हो
दिन के उजाले में खिड़कियाँ
रात में खिड़कियाँ
रोशन दर्द के धुंधले नज़ारे
धुंधले दर्द के रोशन नज़ारे
और तुम आवाजों को सुनते जाते हो: भागो
शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं अपने बचपन के सपनों से
बस्तियों के निशानों से जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही ज़र्द दस्तखत बन कर रह गयीं  
जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं कि किस चीज से भागे हैं, वे इस क़दर कायर हैं कि सड़क पार नहीं कर सकते
वे अपनी समूची कायरता बटोरते हैं और चीखते हैं:
भागो.


अगर तुम यह जान सको

मैं मौत से अपने दोस्तों को नहीं खरीद सकता
मौत खरीदती है
लेकिन बेचती नहीं है

ज़िंदगी ने कहा मुझसे:
मौत से कुछ मत खरीदो
मौत सिर्फ अपने को बेचती है
वे अब हमेशा के लिए तुम्हारे हैं, हमेशा के लिए
वे अब तुम्हारे साथ हैहमेशा के लिए
अगर तुम सिर्फ यह जान सको
कि खुद से ही 
ज़िन्दगी हैं तुम्हारे दोस्त.


मैं जो कल्पना नहीं कर सकता

ग्रहों के ढेर के बाद जब एक ब्लैक होल
धरती को निगल लेगा
और न इंसान बचेंगे और न परिंदे
और विदा हो चुके होंगे तमाम हिरन और पेड़ 
और तमाम मुल्क और उनके हमलावर भी...
जब सूरज कुछ नहीं
सिर्फ किसी ज़माने के शानदार शोले की राख होगा
और यहां तक कि इतिहास भी चुक जाएगा,
और कोई नहीं बचेगा किस्से का बयान करने के लिए
या इस ग्रह और हमारे जैसे लोगों के
खौफनाक खात्मे पर हैरान रहने के लिए 

मैं कल्पना कर सकता हूं उस अंत की
उसके आगे हार मान सकता हूँ
लेकिन मैं यह कल्पना नहीं कर सकता
कि तब यह होगा
कविता का भी अंत.


तुम जहां भी अपना हाथ रखो

किसी को भी प्रभु का क्रॉस नहीं मिला
जहां तक अवाम के क्रॉस की बात है
तुम्हें मिलेगा सिर्फ उसका एक टुकड़ा
तुम जहां भी अपना हाथ रखो 
(और उसे अपना वतनकह सको)

और मैं अपना क्रॉस बटोरता रहा हूँ
एक हाथ से
दूसरे हाथ तक
और एक अनंत से
दूसरे अनंत तक.


एक कविता समारोह में

हरेक कवि के सामने है उसके वतन का नाम
मेरे नाम के पीछे यरूशलम के अलावा कुछ नहीं है

कितना डरावना है तुम्हारा नाम, मेरे छोटे से वतन
नाम के अलावा तुम्हारा कुछ भी नहीं बचा मेरी खातिर

मैं उसी में सोता हूं उसी में जागता हूं
वह एक नाव का नाम है जिसके पंहुचने या लौटने की
कोई उम्मीद नहीं.
वह न पंहुचती है और न लौटती है
वह न पंहुचती है और न डूबती है.


आलिंगन

परेशान और तरबतर
मेरे हाथ पहाड़ों, घाटियों, मैदानों के आलिंगन की कोशिश में
घायल हुए 
और जिस समुद्र से मुझे प्यार था वह मुझे बार-बार डुबाता रहा
प्रेमी की यह देह एक लाश बन चुकी है
पानी पर उतराती हुई 

परेशान और तरबतर
मेरी लाश भी
अपनी बांहों को फैलाये हुए
मरी जा रही है उस समुद्र को गले लगाने के लिए
जिसने डुबाया है उसे.


बिलम्बित मान्यता

अक्सर मैं एक पत्थर था राजगीरों द्वारा ठुकराया हुआ  
लेकिन विनाश के बाद जब वे आये
थके-मांदे और पछताते हुए
और कहने लगे ‘तुम तो बुनियाद के पत्थर हो’
तब तामीर करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था

उनका ठुकराना कहीं अधिक सहने लायक था 
उनकी विलंबित मान्यता से


नरक में

1.
1930 के दशक में
नात्सियों को यह सूझा
कि पीड़ित लोगों को रखा जाए गैस चैंबरों के भीतर
आज के जल्लाद हैं कहीं अधिक पेशेवर:
उन्होंने गैस चैंबर रख दिए हैं
पीड़ितों के भीतर.

2.
जाओ नरक में... 2010

जालिमो, तुम नरक में जाओ, और तुम्हारी सभी संतानें भी
और पूरी मानव-जाति भी अगर वह तुम्हारे जैसी दिखती हो
नावें और जहाज़, बैंक और विज्ञापन सभी जाएँ नरक में
मैं चीखता हूँ, ‘जाओ नरक में...’
हालंकि मैं जानता हूँ अच्छी तरह
कि अकेला मैं ही हूँ
जो रहता है उधर.


3.
लिहाजा मुझे लेटने दो
और मेरा सर टिका दो नरक के तकियों पर.


‘सुरक्षित’

एक बार मैंने उम्मीद की एक खाली कुर्सी पर
बैठने की कोशिश की
लेकिन वहां पसरा हुआ था एक लकडबग्घे की मानिंद
‘आरक्षित’ नाम का शब्द
(मैं उस पर नहीं बैठा; कोई नहीं बैठ पाया)
उम्मीद की कुर्सियां हमेशा ही होती हैं आरक्षित.


जाल में

जाल में फंसा हुआ चूहा कहता है:
इतिहास मेरे पक्ष में नहीं है
तमाम सरीसृप आदमियों के एजेंट हैं
और समूची मानव जाति मेरे खिलाफ है
और हकीकत भी मेरे खिलाफ है

फिर भी इस सबके बावजूद मुझे यकीन है
मेरी संतानों की ही होगी जीत.


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