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सहजि सहजि गुन रमैं : बाबुषा कोहली (लंबी कविता : ब्रेक-अप)

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हिन्दी में प्रेम – कवितायें कम हैं,ब्रेक-अप पर तो नहीं के बराबर. युवा कवयित्री बाबुषा कोहली की लंबी कविता ब्रेक-अपइस कमी को पूरा तो करती ही है,हिन्दी कविता की बदलती संवेदना और उसकी सबलता को भी रेखांकित करती है. प्रेम में होने का नशा और प्रेम से हट जाने की विवशता का समकालीन दृश्य-बंध गहरी अनुभूति लिए हुए है.  बाबुषा इस कविता के लिय याद रहेंगी.
लोग-बाग आपसे पूछगें कि क्या आपने यह कविता पढ़ी ?


लंबी कविता : बाबुषा कोहली

ब्रेक अप                                


1.

वो मिला था जब
उसके मन पर एक ज़िद्दी ताला पड़ा था
मेरा बचपन इतना एकरस कि उसमें आम तक चुराने की कोई घटना नहीं दर्ज
भला किसी तालाबंद भवन में क्या सेंध लगाती
सो यहाँ -वहाँ नज़रें फेर लेती

एक दिन वो मेरा हाथ अपने सीने तक ले गया
और दाएँ हाथ की उँगली से ताला खोल दिया
मेरे मन पर भी रही होगी कोई साँकल शायद
उसने खट खट की और बस !
एक उँगली की ठेल से मन खुल गया

हम दोनों के भीतर कोई तिलिस्मी झरना था
पेड़ों पर इन्द्रधनुष उगता
चिड़िया आँखें बंद किए गाती थी अरदास
सोहनी मटके पे ताल देती
सुबहें थीं कि हँसी हीर की
रात-रात भर चाँद नदी में तैराक़ी करता

हम हर जगह पहुँच जाना चाहते कि जैसे तीरथ पर निकले हों
छूट न जाएँ कोई देव
इष्ट रूठ न जाएँ
हर मंदिर का पंचामृत चखना चाहते
हर गुरद्वारे पर मथ्था टेकना चाहते

पर हाय री ! सड़कें भूलभुलैया

हम दूर से देख सकते थे पानी पर प्यासे रह जाते
हमारे मन के भीतर तन छुपे थे और तन के भीतर और मन
कितने तो तन थे और कितने मन
कितने तो ताले कितने डाके
कितनी तो दौड़ कितने इनाम
कितना लालच
कैसी अँधे कुएँ-सी झोली

हम प्याज़ की परतों जैसे थे
अपने ही झार से आँखें सुजाए बैठे

हम बहुत चले और बहुत चले और बहुत चले

फिर एक दिन अपने-अपने मन की ओर लौट गए
बची हुयी नौ उँगलियों के साथ जीने को

सारा जादू बंद दरवाज़े में है
ताला खुल जाए तो चाबी खो जाती है




2.

जैसे पंखे की ब्लेड काटती है अदृश्य को
अदृश्य के लहू में स्नान कर छूटता है देह का पसीना
ज़िन्दगी के और भी सब सुकून ठीक ऐसे ही भीगे हुए हैं अदृश्य के लहू में

सुस्ताने के लिए नहीं टिकी थी उसके पहले से ही झुके कंधों पर
सुकून ढूँढती थी मगर हथेलियों में गुम जाती थी
लकीरों के जंगल में फँसी हुयी 'एलिस'थी
उसकी हमसफ़र थी पर मैं दर-ब-दर थी

सही बात है कि पहुँचने के लिए चलते रहना चाहिए
पाँव में छाले पड़ जाएँ पर चलते रहना चाहिए
स्वप्न घायल हो तब भी चलते रहना चाहिए
मुख्य सड़कों के साथ लहू की पगडंडियाँ बन जाएँ तब भी चलते रहना चाहिए

कि इतनी दूर तो नहीं होती कोई भी जगह
जहाँ से लौट के आने की गुंजाइश न बचे

मैं चलने से न थकी न डरी कभी
वो तो आस्तीन के छींटे हैं कि पाँव बाँध देते हैं




3.

आज एक सुनी-सुनाई कथा कहूँगी

एक पेड़ के पास से एक बच्चा गुज़रा
धूप से हलाकान था वो, पेड़ ने छाँव दी. अब उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर वो पेड़ के पास आने लगा. पेड़ ने चिड़ियों की चहक दी, मीठे फल दिए. कुछ और बड़ा हुआ तो एक लड़की के प्रेम में पड़ गया. पेड़ ने  अपने सारे फूल उतार कर लड़के को दिए कि वो लड़की की चोटी के लिए वेणी गूँथ ले. कुछ समय बाद लड़की उसकी पत्नी हो गयी. रोज़गार नहीं था. फिर पेड़ के पास गया.  अब की बार पेड़ ने लकड़ियाँ दे दीं. लकड़ियाँ बाज़ार में बेचने का काम शुरू हुआ और जीवन चल पड़ा.

नीति कथाओं की मानें तो देने वाला और घना हो जाता है, और बड़ा हो जाता है. मगर सत्य कथाएँ कुछ और ही कहती हैं. दुनिया देख ली है बहुत, और सचमुच !  देने वाला आख़िर में ठूँठ रह जाता है.

इतना दिया है इस पेड़ ने कि इससे कविता निचोड़ना पाप-सा लगता है.  इस पर कुछ भी कहना ऐसा जैसे आख़िरी बार कुल्हाड़ी चला कर इसे नष्ट कर देना.

'फ़ीनिक्स'सरीखे होते हैं कुछ दुःख
जिस आग में झुलसते हैं उसी से फिर पैदा हो जाते
कुल्हाड़ियों से भी कहाँ मिलती है मुक्ति
जंगल-जंगल प्रेत-सी भटकती हुयी कोई बात
कुछ नहीं नष्ट होता पूरा कभी कि आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता है

पता है खूब मुझे कि इच्छा का ग़ुलाम होना क्या होता है
और ये भी कि हर ग़ुलाम सलामी बजाने नहीं झुकता

कितनी तरह से झुक जाते हैं लोग
होता है कोई जो लालसाओं के बोझ से झुक जाता है
कोई झुक जाता है वक़्त की बेरहम मार के आगे
कोई बेवजह ही झुकने की अदाकारी करता
नाटक पूरा होता और पर्दा झुक जाता
कभी हो जाता है साथ-साथ ही  मंच पर पर्दे का झुकना और आँख के पर्दे का उठना

बड़े ख़ूबसूरत होते हैं आत्मा से झुके हुए लोग
फलों से लदी डाली का झुकना पेड़ की नमाज़ है
झुकी नज़रों के सामने झुक जाते हैं आसमान सातों
भार से झुकना और आभार में झुकना
कि झुकने-झुकने में बड़ा फ़र्क है, पियारे !

कितना भी फेंट लो  ज़िन्दगी को इस उम्मीद में
कि अब कि बार मन-माफ़िक पत्ते आएँगे
कोई तो चाल अपने हक़ में होगी
पर क्या कहें ?
बाज़ियाँ ऐसी भी देखीं जिसमें सारे खिलाड़ी हार जाते हैं

मैं एक बेबस बूढ़े आदमी को पहचानती हूँ
उसका क़िस्सा भी क्या कहना कि वो तो पहले से ही ग़ुलाम था
बहुत आसान था बेग़म की तरह उस पर हुक्म चलाना
पर ये संतानहीन औरतें भी कहाँ-कहाँ औलाद खोज लेती हैं

बूढ़े आदमियों में छुपे चौदह साल के लड़के बहुत तेज़ छलाँग लगाते हैं
इस डाली से उस डाली तक कूदते -फाँदते उम्र को देते पटखनी
औरत फूल सी खिलती, फलों सी उग जाती है
इच्छा के ग़ुलाम को मिल ही जाती बादशाहत
अपने साम्राज्य के झंडे झुका देती है एक औरत
झुकना, अपने आप में बात है पूरी
ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे का खिलखिलाना
और  एक पूरी सदी की प्रार्थना का सफल हो जाना

पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के

खेल के सारे नियम तोड़ कर राज करता है ग़ुलाम
हुकुम के चारों इक्कों पर
वो इच्छा का ग़ुलाम था
औरत उसकी इच्छा पूरी करने की इच्छा की ग़ुलाम

कहते हैं कर्ण ने तो आख़िर में दिए थे
मगर  ये जो ममता होती है न !
सबसे पहले कुंडल-कवच दे कर निहत्थी हो जाती है

और पेड़ आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता है





4.

उसकी कमीज़ से प्रेम करती रही मैं
पसीने की तरह उसकी देह से फूटती रही
बूँद-बूँद माथे पर टपकती रही ऐसे जैसे उसकी गाढ़ी मेहनत की कमाई हूँ
उसके नाखूनों को काटते वक़्त ख़ुद ही काटती रही अपनी बिरहिन रातों के तर्क
उस गली से तक प्रेम करती रही जहाँ से कभी गुज़रना पड़ा हो उसे बारिश या ट्रैफ़िक की मजबूरी में भी

उसकी मजबूरियों को कलेजे से चिपकाए फिरती रही

चिलचिलाती धूप में चलती रही मैं सूर्य से प्रेम करती रही
उसके नाम के हर पर्यायवाची से प्रेम करती रही
उस औरत से प्रेम करती रही जो सोने के पहले उसे चादर ओढ़ा देती है
वक़्त पर उसे दवाइयाँ  देने वाली उस औरत के हाथों से प्रेम करती रही
मैं उस बच्ची से प्रेम करती रही जिसकी मुस्कराहट उसे ज़िंदा रखती
उन तमाम औरतों से प्रेम करती रही जिनका नाम  उसके क़िस्से में आया एक बार भी
उस वक़्त से प्रेम करती रही जब चौदह साल के लड़के ने नवीं जमात की लड़की को लिखी पहली चिठ्ठी
मैं कुछ ज़रूरी तारीख़ों से प्रेम करती रही

फिर एक दिन मैं भी वही हो गयी

बह चुका पसीना
कटा हुआ नाखून
मजबूरी में ली गयी सड़क
खुराक़ पूरी हो चुकी दवा
नवीं जमात में रुक गयी लड़की
बीती हुयी तारीख़
छूटा हुआ वक़्त

उस औरत के गले मिल कर रोना चाहती हूँ एक बार
जो बहुत पढ़ गयी पर नवीं जमात से आगे न बढ़ पायी अब तक
हम सब जो उसकी पूर्व-प्रेमिकाएँ हैं, हम एक सामूहिक विलाप हैं
हम, अपने प्रेम के दाह-संस्कार में आई रुदालियाँ हैं
और मैं उसके प्रेम का अंतिम शोक-संदेश हूँ

इस सारे रूदन के बीच कहीं एक किलकारी है
मैं सुन सकती हूँ
उसके कानों में रुई ठुँसी है

मैं उसके अजन्मे बच्चों से प्रेम करती रही




5.

उसने कहा कि खुद को मेरे हवाले कर दो
मैंने खुद को उसके हवाले कर दिया
मैं उसके हवाले रही वो हवलदार हो गया
अजीब सज़ा है
बिना किसी गुनाह के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ गयीं
ज़िन्दगी की जमानत ली गयी
और फिर सड़कों पर छोड़ दिया गया

मैं जो उसके हवाले रही
'हवा ले'रही हूँ बाहर की
बड़ी ख़राब हवा बहती है इन दिनों
सब कुछ बहा ले जाती है
बाबा भारती ने कहा था कि मत कहना किसी से
वर्ना कोई किसी का भरोसा न करेगा
सो न कहूँगी कुछ

हवा ले रही हूँ बहुरूपिये ज़माने की

हरे रंग से निर्वासित हूँ
बरगद से झरा सूखा पत्ता हूँ
कहाँ उड़ जाऊँ पता नहीं
हवा का रुख पता नहीं

फिर से इन बंजारन हवाओं के हवाले हूँ





6.

वो लम्बी दूरी का यात्री है
हर स्टेशन पर उतर जाता, ठहर लेता है कुछ देर
फिर चल देता है

इतने लम्बे सफ़र की कुछ ख़बर मुझे भी है
वक़्त उसे अपनी अहमियत बताना चाहता और वो वक़्त को इतनी फ़ालतू की चीज़ समझता कि 'टाइमपास'करने लगता
वक़्त बेरहम ने उसे लोहे के चने पेश किये
मगर वक़्त को मुँह चिढ़ाने के लिए उसने मूँगफलियाँ खाईं और हवा में छिल्के उड़ाए
कितनी बार बेस्वाद चाय चखी, छोड़ी
कितने कुल्हड़ फोड़े

टिकट चेकर पूछता है , "कहाँ ?"
"कहीं भी "उसकी आँखें कहतीं
क़ीमत देता है वो चलने की
क़ीमत लेता है साथ चलने की

कुछ शहर उसका नाम पुकारते हैं और अपने भीतर बुला लेते हैं
मनमौजी सा चला जाता है
इन मुसाफ़िरों के कोई घर नहीं होते
सरायों में उम्र काट देते हैं
गुज़र जाते हैं एक बार जिन सरायों को छोड़कर
पलट कर नहीं देखते फिर कभी
किसी-किसी सराय में एक रात की रौनक ही इतनी तेज़ होती है
कि उम्र भर भी कोई घर इतनी रौशनी नहीं उगल सकता

घर कब सराय हो जाते हैं
सराय कब घर, पता भी नहीं चलता
और एक वो ! कि  कहीं नहीं ठहरता
छूट चुके स्टेशन भी कभी मुड़ कर नहीं देखता

वो वक़्त जो गुज़र गया जाने कहाँ गया है
वो वक़्त जो आया नहीं जाने कहाँ रुका हुआ है
मेरी पसलियों में जो जमा है कौन सा वक़्त है
दिल धक् धक् में नहीं टिक टिक में धड़कता है

किसके सम्मोहन के भय से भागा है वो
किसकी प्रीत के तप में जल कर भागा है वो
किसको खोजता है वो स्टेशन-दर-स्टेशन
किससे बचता है वो जीवन-दर-जीवन
क्यों वो चला जाना चाहता है 'कहीं भी'
क्यों नहीं ठहर पाता कहीं भी
पूछना मत कोई, उन बेबस आँखों को पढ़ना
बस ! उन हब्शी इशारों को पढ़ना

वो आदमी जिस ट्रेन में सवार है, क्या वो 'लेट'होती है कभी
चौदह से पचास की उम्र तक में पड़े उसके सफ़र के हर स्टेशन पर मैं खड़ी हूँ

तेज़ दौड़ती घड़ियों को चुनौती हूँ
उस भागते हुए आदमी का मैं एक बेशरम इंतज़ार हूँ





7.

भीड़ भरी सड़क पर बड़े दीवानेपन से एक दिन उसने मेरा नाम पुकारा.  मैं भागती हुयी उसके पास तक गयी और उस पर बेतहाशा चिल्लाने लगी. "तुम एकदम पागल हो क्या ? ऐसे मेरा नाम चिल्लाने का मतलब? सब क्या सोचेंगे?"  उसने मुझे अपने सीने में भींच लिया. "दुनियादारी की बड़ी फिकर तुम्हें ?"
दुनियादारी !
उस के सीने से हटी और उल्टे पाँव से दुनिया को जो 'किक'मारी तो दुनिया सीधे गोल -पोस्ट के बाहर. उसका नाम उठाया मैंने हाथों में, उस पर जमी धूल झाड़ी और सजाया. उसे अपनी दुनिया का अर्थ बताया. मुझ पर लाड़ जताते हुए उसने मेरी दुनिया में कदम रखा और प्रतिज्ञा की कि इस जन्म तो क्या किसी जन्म में भी इस दुनिया से बाहर नहीं हो सकता. मेरी दुनिया उसके नाम से जगमगाने लगी. मगर उस दिन जब तेज़ बुखार की हालत में  मैं उसका नाम बुदबुदा रही थी बहुत धीमे -धीमे, उसके घर की खिड़कियों के शीशे चटक गए. उसने चीख कर कहा  "तुम पागल हो गयी हो क्या ? इस तरह मेरा नाम लेने का मतलब ? घर की खिड़कियाँ !"

घर ? दिल क्या टूटता, साहब ? इतने दिनों बाद उल्टे पाँव की हड्डी टूट गयी.

न मैंने आम तोड़े बचपन में, न खिलौने तोड़े, न जवानी में ताले तोड़े न ही कभी क़समें- वादे ही, मगर मेरे इर्द- गिर्द टूट- फूट का समृद्ध इतिहास है.  माना कि आप साबुत, सही-सलामत, शरीफ़ लोग दुनिया चलाते हैं, मगर ये हम टूटे -फूटे लोग ही हैं, जो दुनिया बचाते  हैं. हमें सुनिए कि हम मोज़ार्ट की धुनों में खनकते हैं, हमें सूंघ लीजिए कि हम गुस्ताव के 'द लास्ट किसमें महकते हैं, हम में भीग जाइये कि हम वांग कार वाई के जादुई पर्दे पर बरसते हैं. हम इज़ा के नृत्य में पनाह पाते हैंमजाज़ के शराब के प्याले में डूबते-उतराते हैं, हुसैन की कूँची में आकार पाते है, अमृता की स्याही में घुल जाते हैं.

छतरियाँ ? हम छतों को उड़ा चुके बारिश में टूट कर भीगे हुए लोग, हम टूटे स्वप्न के टुकड़ों को आँखों में सहेजे हुए लोग, हम टूट कर प्यार करने वाले और बिखर जाने वाले लोग, सनम की टूटी क़समों को खीसों में भरे बेवजह खीसे निपोरते लोग, हम नियम तोड़ कर सड़क के दाहिनी ओर चलने वाले लोग, हम बाँध के टूटने से नदी में बह कर मारे गए लोग !

हमें टूटी खिड़कियों का भय कोई दिखाता है तो हँसी आती है.

हम टूटी हुयी गुरियों को सहेजने वाले लोग हैं. हम टूटे-फूटे लोग साँस टूटने से नहीं डरते. किसी बच्चे की आँख का मोती टूटने से डरते हैं, साहब !




8.

"बरसात में रग्बी खेली है कभी? खेल कर देखना."
"उंहू. मुझे नहीं खेलना."
नीली -नीली नींद में वो मेरी रग्बी ले कर भागता है. मैं उसके पीछे-पीछे..
पेड़-पहाड़, दरख़्त, नदियाँ, चट्टानें सब के सब खेल में शामिल. वो चकमेबाज़ मुझे पर्वतों की नोक पर गिरा देता है. "मुझे नहीं खेलना. पीठ पर घाव हो गया. ऊँचाइयों की नोक चुभती है. नहीं..नहीं. मुझे नहीं चाहिए."
वो मेरे चेहरे पर मिट्टी लपेट देता है. मुझसे लिपट जाता है.
"ले ! रख ले अपनी रग्बी. ये रग्बी तेरी और तू मेरी, और तू मेरी, और तू मेरी ! "
सब बरसात के खेल हैं. नीला-नीला  मौसम गुज़र जाता है.

जैसे बचपन में किसी ने उसका बैट-बॉल छीन लिया हो
तब से आज तक वो हर चीज़ से खेल रहा है
उल्टी हवा से खेल रहा है आग से खेल रहा है
छोटे से छोटे खेल से पूरा कर लेता है बड़े से बड़ा बदला
बड़ी से बड़ी बात को भी किसी खेल से बड़ा नहीं मानता
खेल सा जीता है जीवन वो खेल खेल में मर जाता है
चौसर बिछा लेता है बड़ी बहर की पक्की चालें चलता है
नाज़ुक ग़ज़लों से खेल लेता है
दाँव पर लगा देता है बेंदी-टीका
कान की बाली को कौड़ी कर देता है
अच्छी लगती हैं उसे डब डब सी आँखें
काँच सी आँखों से वो कंचे खेलता है
छुप जाता है कभी कभी उलझी लटों के पीछे
पतंग बना कर आसमान में खूब उड़ाता है ख़्वाबों को
कितना खेला छुपनछुपायी, पकड़मपकड़ी
सही निशाने तीरंदाज़ी
जज़्बातों की कन्ना- दूड़ी कितना खेला
कभी छुपाया, कभी उछाला बेबस मन को गेंद समझकर कितना खेला
दिल गिल्ली पर क्रोधी डंडा कितना खेला
छाती पर उंगली रख कर चिड़िया उड़ और तोता उड़ जी भर कर खेला

फिर एक दिन सारे खेल खत्म हो ही जाते हैं
खेल खेल में पंछी उड़ कर बहुत दूर निकल जाते हैं




9.

कहते हैं हर कथा का नायक वही होता है जिसने कथा लिखी
मेरे एकतरफ़ा बयानों को कोई न सुने
प्रेम तो आँखों में पट्टी बाँधे हुए था
इस लिहाज़ से प्रेम को न्यायप्रिय होना चाहिए
क्या दलील दूँ उसकी ओर से कि क़यामत के दिन उसे माफ़ किया जाए

ये तथ्य है कि मुकदमा उसके ख़िलाफ़ है
ये न्याय है कि उसकी वक़ालत मैं करूँ

उसने प्यार किया था
चाहे पल भर को ही सही
क़त्ल मेरा आख़िर उसका ही तो हक़ था

मी लॉर्ड  ! मेरे हत्यारे को दोषमुक्त किया जाए
क्या इतना काफ़ी नहीं कि उसके पास भी तो एक दिल हुआ करता था

दिल, जिसे डॉक्टर मशीन से पढ़ता है
आड़ी -टेढ़ी लकीरों में पढ़ता है
मैं ठहरी अनपढ़-गँवार !
दिल से दिल पढ़ बैठी
मैं दिल को डूबती-तेज़ होती धड़कनों में पढ़ बैठी
मैं ग़लत पढ़ बैठी, मी लॉर्ड !
उसे दोषमुक्त किया जाए
हमारे हक़ में इतना तो हो कि इस मुकदमे को यहीं छोड़ दिया जाए

तीन बार तलाक़ के उच्चारण से कहीं ज़्यादा कट्टर है उसकी चुप्पी
इतना ही कट्टर प्रेम उसका
ऐसी ही कट्टर घृणा उसकी
इतना ही कट्टर चुम्बन
इतनी ही कट्टर विरक्ति
ऐसी ही कट्टर मुक्ति
सलीब पर टंगी है उसकी मुक्ति कीलों से बिंधी हुयी
सहते- सहते कब्र में ढह जाएगा मगर खुद के बचाव में कभी मुँह  न खोलेगा

ये कमज़ोर लोग इतने कट्टर क्यों हो जाते हैं, मी लॉर्ड !

मैं इस मतलबी संसार में उसकी इकलौती वक़ील हूँ
उसका कोई बयान मैं आपको सुनवा नहीं सकती
उसकी चुप्पी उसके हक़ में सबसे बड़ी दलील है
उसकी बेबस चुप्पी सुनिए, मी लॉर्ड !

पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के
अधूरी बातों के मुकदमे चल जाते हैं

पक्के मकानों के भीतर ढहते कच्चे घरों पर मुकदमे चल जाते हैं

इस क़िस्से को आधा छोड़ दीजिए
हमें अधूरा छोड़ दीजिए
उसे मेरी हत्या के अपराध से दोषमुक्त कीजिए

और कुछ नहीं तो, हमें कोई और तारीख़ दे दीजिए, जनाब !
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बाबुषा की कुछ कवितायें यहाँ भी 
http://samalochan.blogspot.in/2014/02/blog-post_10.html
बाबुषा कोहली
6 फरवरी1979कटनी
पत्र पत्रिकाओं में गद्य-पद्य प्रकाशित 
सम्प्रति : अध्यापन,जबलपुर,  मध्यप्रदेश 
baabusha@gmail.com

परख : पंचकन्या (मनीषा कुलश्रेष्ठ ) : विवेक मिश्र

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सामयिक प्रकाशन, जटवाडा दरियागंज नई दिल्ली -110002
कीमत 395 रुपए




















सतीत्व और मातृत्व से मुक्त-स्त्री की सृजनशीलता : पंचकन्या

विवेक मिश्र


'शिगाफ़'और'शालभंजिका'जैसे उपन्यासों के बाद मनीषा कुलश्रेष्ठ का नया उपन्यास'पंचकन्या'कई पुराणों और मिथकों की अन्तर्धव्नियों को अपने में समेटे वर्तमान की  ज़मीन पर भारतीय स्त्री के जीवन, उसकी अस्मिता, उसके स्वप्नों और भविष्य की संभावनाओं को नए सिरे से देखने की कोशिश में लिखा गया एक प्रयोगात्मक उपन्यास है. वर्तमान समय में आधुनिक स्त्री के जीवन की जटिलताओं के धागे बिलगाती इस कथा के पार्श्व में तारा, कुन्ती, अहिल्या, द्रोपदी, मन्दोदरीजैसे मिथकीय चरित्रों की छाया दिखाई देती है और ऐसा अनायास नहीं है बल्कि मनीषा ने सायास इन मिथकीय चरित्रों को बारीकी से देखते हुए'मॉर्डन फेमेनिज़्म'के सन्दर्भों में बिलकुल नए आयाम जोड़ने की कोशिश की है. इसमें आए पौराणिक तथ्यों और संदर्भों के लिए मनीषा ने प्रदीप भट्टाचार्या के लेखपंचकन्या: स्त्री सारगर्भिताको आधार बनाया है. जिसका अनुवाद उपन्यास में भी दिया गया है.

यह कथा इन पाँच पौराणिक चरित्रों के व्यापक जीवनानुभवों को वर्तमान में उनके समानान्तर चलते आधुनिक चरित्रों के जीवन की घटनाओं के माध्यम से, नए ढ़ग से परिभाषित करती है. यह उनके संघर्षों के पीछे छुपी परिस्थितियों को, उनके पीछे के स्वार्थों और षड़यन्त्रों को उजागर कर वर्तमान को आगाह करती है. यह उन चरित्रों की उस विशेषता को, जिसके कारण बीतते समय के साथ कई संबंधों से गुज़रते हुए भी उनका कौमार्य अक्षुण रहा आया, स्त्री की एक अबूझ रहस्यमय प्राकृतिक शक्ति के रूप में स्थापित करती है. क्या है इन कन्याओं का कौमार्य? क्या है इसका रहस्य? यदि इसे जानने के लिए उपनयास की ही पंक्तियों का सहारा लें तो बात कुछ इस तरह सामने आती है- ‘कन्या पुरुष के अन्दर के स्त्रीत्व को इस्तेमाल कर अपना प्राकृतिक स्वरूप प्राप्त करती है. बर्नार्डशा ने इसे जीवन शक्ति कहा है. वे कहते हैं स्त्रीत्व हर वर्ग से ऊपर है इसलिए यह प्रशंसा पाने के साथ-साथ आरोपित भी होता है. यह स्त्रीत्व केवल जीवन की लालसा से नहीं जाना जाता बल्कि एक रहस्यमय ज्ञान, एक छुपी हुई बुद्धिमत्ता, या फिर कुछ छुपे हुए उद्देश्य जैसा एक उच्चस्तरीय जीवन के नियमों का ज्ञान भी हो सकता है.अर्थात यहाँ द्वन्द्व या टकराव पुरुष से नहीं है बल्कि यह स्त्री की अपनी विकास यात्रा है. इसमें टकराव यदि है तो इस यात्रा में अवरोध पैदा करने वाले, सदियों से चले आ रहे स्त्री विरोधी समय से है जिसे पोषित करने में जाने-अनजाने स्त्रियाँ भी शामिल होती आई हैं. ‘पंचकन्या’ प्रज्ञा, माया या एग्नेस जैसे आधुनिक चरित्रों के माध्यम से यह बताता है कि एक स्त्री कैसे जीवन के खेला में रहते हुए भी अपने को उससे बिलकुल अलग रखने, या सब कुछ देकर भी कुछ बचा ले जाने की कला में माहिर होती है. यह कौमार्य देह से ऊपर उठकर विचारों और अक्षुण रही आई भावनाओं का है जिसमें इन स्त्रियों की अपनी तृप्ती या रिक्तता जीवनभर जस की तस रही आती है.

यह उपन्यास भूत और वर्तमान की घटनाओं तथा भविष्य की संभावनाओं को धर्म, आध्यात्म, कला, विज्ञान आदि के सापेक्ष रखते हुए, उन्हें एक परा स्तर पर ले जाकर अपने स्त्री चरित्रों के माध्यम से पुनरव्याख्यायित करने की कोशिश करता है. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसे प्रयास नहीं हुए परन्तु यहाँ खास ये है कि यह जीवन की उदात्तता एवं उसमें अन्तर्निहित जिजीविषा के उल्लास के साथ-साथ मानव मन-मष्तिस्क की अनजानी पर्तों को स्त्री मन की कोमलता के साथ स्पर्श करता है. यहाँ कथाकार स्त्री को एक तयशुदा खाके में रखकर नहीं देखती बल्कि वह लगातार उस खांके को तोड़ने और स्त्री चरित्रों को धर्म, समाज, सत्ता के बनाए नियमों से, इनके द्वारा आरोपित नैतिकताओं से मुक्त करके, स्त्री-पुरुष संबंधों और मानवीय संवेदनाओं को नए दृष्टिकोण से देखने, परिभाषित करने की कोशिश करती हैं. यह उपन्यास पश्चिमी दुनिया के स्त्री विमर्श से, या कहें कि फेमिनिज़्म से अलग स्त्री विमर्श का अपना एक भारतीय दर्शन विकिसित करने की कोशिश करता भी दिखाई देता है. इसकी कथा बीती सदी से होती हुई वर्तमान तक आती है जिससे हम देख पाते हैं कि सदी में जिस तरह से शिक्षा, तकनीक़ और बाज़ार का हमारे चारों तरफ़ विस्तार हुआ है, उसमें हर वो बात जो पहले से यहा मौज़ूद थी उसका रूप वैसा नहीं रहा जैसा पहले था. या कहें की जीवन से जुड़ी हर चीज़ का स्वरूप बदला है इसलिए आज फेमिनिज़्म भी हमारे सामने एक अलग रूप में ही उपस्थित होता है जिसमें कहीं न कहीं नारी मुक्ती से ज्यादा परस्पर स्पर्धात्मक और पुरुष विरोधी भाव अधिक ध्वनित हुआ है. उपन्यास की भूमिका में मनीषा ने ख़ुद भी यह स्वीकार किया है कि वह फेमिनिज़्म की जगह एलिस वॉकर का दिया शब्द'वुमेनिज़्म'अपने मन के ज्यादा करीब पाती हैं क्योंकि इसमें स्त्रियोचित मुलायमियत है.लेखिका की यह बात इस उपन्यास को स्त्री विमर्श के तयशुदा मानदण्डों पर रखकर देखने के बजाय इसे स्त्री जीवन पर लिखे गए एक प्रयोगात्मक गद्य के रूप में देखे जाने का आग्रह भी प्रतीत होती है.

पंचकन्याके मूलाधार पाँच पौराणिक चरित्रों को यदि हम युग-काल खण्ड के परिपेक्ष में देखें तो हम एक और बात देख पाते हैं कि इन कथाओं में स्त्री चरित्रों के क्रमिक विकास की कथा भी उजागर होती है. सबसे पहले अहिल्या की बात करते हैं जो अपनी सीमाएं लांघकर अपनी इच्छाओं में मुखर होती है और अन्त में एक विदुषी के रूप में, एक ज्ञानी और एक ॠषि के रूप में सामने आती है.उसके बाद तारा है जो बाली की पत्नी है और उसे समय-समय पर राजनैतिक सलाह भी देती है पर बाली अपने अहंकार के कारण पराजित होता है जिसपर तारा सुग्रीव को पति के रूप में स्वीकार कर लेती है. क्योंकि वह अपनी, अपने परिजनों और पुत्रों की सुरक्षा चाहती है. आगे वह कठिन समय में राजनैतिक हस्तक्षेप करती है और सुग्रीव और उसके राज्य को लक्षमण के क्रोध से बचाती है.उसके बाद मन्दोदरी है जो एक रानी होते हुए भी अपने वैवाहिक जीवन में बराबर के हक़ के लिए लड़ती है वह परिवार के भीतर ही पुरुष के अहंकार से लगातार टकराती है.वहीं कुन्ती तक आते-आते ज्ञान अर्जन, राजनैतिक समझ, परिवार में अपना स्थान जैसे बिन्दुओं पर विजयी हो स्त्री इनसे आगे बढ़कर अपने इच्छानुरुप व्यक्तित्व का आहवान कर न केवल पुत्र प्राप्त करती है बल्कि अपने परिवार के अधिकार की लड़ाई के लिए राजनीति में सक्रिय भागीदारी भी करती है और एक प्रशासक की भूमिका में सामने आती है जो अपने पुत्रों की सहायता से समय की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं को संचालित और नियंत्रित करती है.और सबके अन्त में है द्रोपदी जो इन सारे गुणों से लैस तो है पर समय समाज के विरोधाभासों और विद्रुपताओं का शिकार होने पर, अपमानित होने पर, अपने प्रतिशोध के स्वर को मुखर होने देती है और वह स्वर एक महायुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है. पौराणिक टीकाओं में इन पाँच चरित्रों में अहिल्या को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि उस चरित्र में जीवन का एक सहज संतुलन है और वह पुरुष द्वारा आरोपित नहीं है बल्कि वह अपने ज्ञान और संघर्ष से चरित्र द्वारा स्वयं अर्जित किया गया है.परन्तुपंचकन्याकी इस पौराणिक अवधारणा में यह चरित्र इतने अद्वितीय, इतने आलौकिक और ऐसी पराबौद्धिक क्षमताओं से लैस हैं कि इनके जीवन की घटनाओं को बिलकुल लिटेरल सेन्स में अर्थात जस का तस किसी सिद्धान्त रूप में नहीं देखा जा सकता. परन्तु हाँ भारतीय वाङ्मय में इनकी सहायता से स्त्री मन के, उसके जीवन के कुछ एक जटिल पहलुओं को समझा जा सकता है.

इसलिए हम कह सकते हैं कि ‘पंचकन्या’ किसी सिद्धान्त के प्रतिपादन से बचते हुए, हमें स्त्री मन और जीवन के उन अनछुए कोनो में ले जाता है जहाँ स्त्री एक नए रूप में कायान्तरित हो रही होती है. जहाँ पुराने सांचे टूट रहे होते हैं और उसका एक नया रूप सामने आता है जो केवल किसी पुरुष के लिए ही नहीं बल्कि उसके अपने लिए भी विस्मयकारी होता है. ऐसे में वह स्वयं से मिलती है और अपने से ही प्रेम करती है, आनंदित होती है. अपने भीतर दबे-छुपे जीवनांकुरों को फूटने देती है. वह उनके रंग और सुगंध को अपने चारों ओर बिखरा कर अपना एक अलग ही रहस्यलोक रचती है जिसमें पुरुष हो तो सकता है पर उसकी उपस्थिति न आवश्यक है, न आधिकारिक. वह स्त्री की अपनी दुनिया है जिसमें पुरुष आनंद, प्रेम और सहयोग के लिए प्रवेश तो कर सकता है पर उसके हस्तक्षेप और वर्चस्व स्थापना के लिए कोई जगह नहीं है. यह कलाओं के उदगम स्थल से उनके चरम शास्त्रीय रूप तक की यात्रा को बारीकी से देखते हुए मनुष्य के मात्र मनुष्य बने रहने के उद्देश्य को रेखान्कित करती है. यह नारी जीवन के सृजनात्मक कला रूप की व्याख्या करते हुए बताती है कि यह आवश्यक रूप से मातृत्व नहीं है, न ही इसकी व्याख्या सतीत्व, शील, नैतिकता या संबंधों की एक निष्ठता से ही की जा सकती है, यह जीवन प्रवाह में हर क्षण पूरी स्वतन्त्रता से स्त्री मन में विस्तार प्राप्त करती है. स्त्री अपने भीतर सतत सृजनरत रहती है. यह सृजन किसी भी अनाधिकृत हस्तक्षेप से बाधित होता है इसलिए स्त्री चाहती है कि पुरूष भी समाज द्वारा आरोपित नैतिकताओं से, देह की सीमाओं से मुक्त हो उस्के उसके सृजन उत्सव को देखे और उसकी इस सृजनशीलता में भागीदार बने.


अन्त में निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह उपन्यास ‘पंचकन्या’- अतीत और वर्तमान, कल्पना और यथार्थ, रहस्य और विज्ञान, आस्था और तर्क तथा इतिहास और मिथकों के परस्पर विरोधाभाषी बिन्दुओं के बीच से गुज़रते हुए स्त्री चरित्रों की समर्पण और अधिकार, नैतिक और अनैतिक, बंधन और मुक्ति, प्रेम और निष्ठा, आशक्ति और विरक्ति, अवसाद और उत्साह, द्वन्द्व और निश्चय, त्याग और उपल्ब्धियों के बीच सामंजस्य स्थापित करती, अपने जीवन को समझने और उसे नए अर्थ देने की कथा है.
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विवेक मिश्र

दो कहानी संग्रह-हनियाँ तथा अन्य कहानियाँएवं पार उतरना धीरे सेप्रकाशित तीसरा कहानी संग्रह- ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?शीध्र प्रकाश्य.
साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. 'light through a labyrinth'शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित 
संपर्क- 123-सी, पाकेट-सी, मयूर विहार फेज़-2,/दिल्ली-91
मो;-9810853128/vivek_space@yahoo.com

किताब : तरुण भटनागर

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किताब : तरुण भटनागर                                      

(युवा कथाकार तरुण भटनागर की प्रिय किताब)



जब पता चला कि प्रिय किताब पर बोलना है तो एक उहापोह था. प्रिय याने क्या ? कौन सी ? और फिर यह भी कि वह भी एक मात्र हो. एक साथ कई कई किताबें जहन में आईं और लगा कि यह किताबों के साथ ज्यादती है अगर हम कह दें कि कौन सी वह एकमात्र प्रिय है. मुझे किताबों के बारे में इस तरह सोचकर किताबों पर और खुद पर क्षोभ भी हुआ. किताबें इस तरह नहीं हो सकती हैं. बेतरह चाहकर भी मैं कोई एक नहीं निकाल पा रहा था. हां प्रिय थीं. सैंकडों थीं. लेखक के लिए शायद यह और दुरुह है. किसी सुधी पाठक के लिए भी होता हो शायद. वे तमाम किताबें जो हमारे संसार का हिस्सा हो गईं और कई तो इस तरह कि उनके बिना लगता है, कि समय व्यर्थ ही चला जाता अगर वे ना होतीं, वे किसी भी तरह एकमात्र होकर प्रिय नहीं हैं. वे प्रिय हैं, पर एकमात्र नहीं. फिर भी मैंने एक किताब उठाई, उन तमाम में से एक जो प्रिय रही हैं. उसी किताब को उठाने का एक कारण था. पहले मैं संक्षेप में वह कारण बताउंगा और फिर उसके आगे बात करना चाहुंगा, क्योंकी यह बताना मुझे इसलिए लाजमी लगता है, कि इसके बगैर शायद बात पूरी ना हो. आज के समय में सैंकडों प्रिय किताबों में से एक को उठाने के कुछ कारण अवश्य होते होंगे.

मुझे लगता है कि हम किसी कारण से ही किसी विशेष किताब को उठाते हैं. सामान्यतः कोई ऐसा कारण जो समाज के साथ हमारी टकराहट में अनुभवों और महसूस करने के स्तर पर एक साथ जुडता हो. मेरे साथ ऐसा ही है, किसी और के साथ कुछ और हो सकता है. ये अनुभव और महसूस होना एक तरह का विद्रूप रचता है. और सहज तरीके से शायद कह सकें कि कोई वजह जो हमारे अस्तित्व को उसके विद्रूप में हमें समझाती है. सामाजिक कारण वही है, मैं इसे मनुष्य के अस्तित्व की विद्रूपता कहता हूं. कुछ ऐसा जो हमसे अपेक्षित नहीं रहा है और जिसे हम फिर भी करते चले आये या करते रहना चाहते हैं या करते रहना अच्छा लगता है. यू तो मनुष्य का अस्तित्व भी एक विद्रूपता ही है, हम चाहकर वह नहीं हैं, जो हम हैं, हमें बनाया गया है, प्रकृति की ताकतों के विपरीत और समय के तमाम दुराग्रहों के साथ और हम इस तरह आज का मनुष्य बने. यह विद्रूपता कई तरह से गत कुछ महीनों से मुझसे टकराती रही. इस विद्रूपता पर मैं विस्तार से कहना चाहूँगा, क्योंकी यह उस किताब का विषय भी है, जिस पर मुझे बात करनी है और हमारे आज का एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी. कह सकते हैं, कि यह वह तरीका है जिसके माध्यम से यह किताब हमारे आज से संवाद करती है. वह कारण भी जिससे मैंने इसे चुना. तो कुछ बातें कुछ महीनों पहले तक मेरे साथ हुईं, जिसकी वहज से मैंने इस किताब को उठाया.
          
हाल में भुवनेश्वरका शताब्दी वर्ष मना और मीराकांतका लिखा एक नाटक भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर का मंचन कई जगह हुआ. इलाहाबाद के समानांतर ने इसका मंचन किया और मैंने इसे देखा. पहली बार देखा. वहां गोविंद मिश्रजी भी आये थे. मीडियोक्रेसी पर यह एक बेहद मार्मिक नाटक बन पडा है, जिसके प्रभाव से मैं काफी समय तक रहा. एक फिल्म अमेडियसयाद आई जो पश्चिम के प्रसिद्ध कंपोजर वुल्फगैंग अमेडियस मोत्जार्ट पर थी, और मीडियोक्रेसी के शिकार प्रसिद्ध संगीतज्ञ के जीवन के दर्द को बखूबी निभाती है. मीडियोक्रेसी भी वही विद्रूपता है, जिसकी मैंने अभी बात की. मुझे लगा कि इस विद्रूपता पर चर्चा शायद आज का हमारा एक महत्वपूर्ण सरोकार है. ये बात अलग है, कि कुछ अस्तित्ववाद के विरोधी लोगों ने विद्रूपता के विरोध या उसपर लेखन को भी विद्रूप ही कहा. पर यह एक बेहद सकारात्म चीज लगती है. अंगरेजी में इसे द एब्सर्डकहा जाता रहा है और यह उस एब्सर्ड से अलग है, जिसे हम दैनिक बोलचाल में प्रयोग करते हैं. डिक्शनरी में इसका मतलब मनुष्य और समाज के एब्सर्ड आचरण पर लिखा गया साहित्य बताया गया है. हिंदी में मुझे इसके लिए कोई शब्द समझ नहीं आया, सो इसे मैं विद्रूप ही कह रहा हूं. यद्यपि दोनों के अर्थ में अंतर है, एब्सर्ड अर्थ का अनर्थ या उसका वह अर्थ होना है जो उसका अर्थ नहीं है, पर विद्रूप ऐसा नहीं है. विद्रूप में एक तरह की डिफार्मिटी या किसी चीज की शक्ल को बिगाड देने का अर्थ आता है. इस तरह यह अलग लगता है. विद्रूप साहित्य की बहुत सारी विधाओं में है, पर थियेटर आफ द एब्सर्ड में यह ज्यादा करीने से किया गया. यू तो पूरा साहित्य ही विद्रूप है और मनुष्य मात्र का होना और उसका पूरा विकास भी विद्रूप ही है, यह एक ऐसी बात है जिस पर मैं आगे आऊंगा.
           
तो यही वजह थी, विद्रूपता की समस्या, भुवनेश्वर और थियेटर आफ द एब्सर्ड के माध्यम से अपनी बात कहने की इच्छा जो इस किताब को चुनने का कारण बनी. लैसनआयोनेस्कका पहला एब्सर्ड प्लेहै, जिसे मैंने पढा, वह भी हिंदी में, हाल में नरेंद्र जैनने इसका पाठनाम से अनुवाद किया और यह अनुवाद रचना समय ने एक अलग पुस्तिका के रुप में छापा. यूजेन आयोनेस्क जैसा कि आप लोग जानते होंगे, मूलतः रुमानियाईथे और उन्होंने ज्यादार फ्रैंचमें लिखा. मैंने यह भी सुना है कि पेरिस में आयोनेस्क का फैस्टिवल मनाया जाता है, जिसमें यह नाटक हर वर्ष खेला जाता रहा. आयोनेस्क का समय 1909से 1994तकका है और यह प्रहसन उन्होंने 1951के आसपास लिखा था.
         
तो द एब्सर्डहमारे समय का केंद्रीय चरित्र है. और जैसा कि मैंने कहा मैं इसे विद्रूपता ही कह रहा हूं, यद्यपि लगता है यह इतना विरोधाभासी नहीं है. खैर. विद्रूपता कैसे ? एक मजेदार वाकया है. एक सज्जन ने मुझे बताया कि हिंदी फिल्में कितनी विद्रूप हैं. अगर कोई विदेशी  भारत आने के पहले कुछ भारतीय फिल्में देखे और फिर भारतीयों के बारे में अपना नजरिया बनाये और उन्हें फिर वास्तव में देखे तो कितनी हास्यास्पद स्थिती बन जायेगी. उनके  आब्जरवेशन बडे मजेदार थे. उसका कहना था कि फिल्मों में कोई व्यक्ति चेहरे पर एक मस्सा या जरा सी दाढी लगा लेने पर ही बदल जाता है और कोई उसे पहचान नहीं पाता, या कोई पुरुष औरत की वेषभूषा पहरकर लोगों को मूर्ख बनाता रहात है, पर उसे कोई पहचान ही नहीं पाता, एक लडकी सरदार बनके लडकों की क्रिकेट टीम में शामिल हो जाती है, पर किसी को शक ही नहीं होता. ये सब चीजें आम जीवन में हो तो कोई भी इस नाटकीयता को पकड ले. पर फिल्मों में हर दर्शक सबकुछ जानकर भी मूर्ख बनने को तैय्यार बैठा है. फिल्मों में हर वह चीज प्रशंसनीय है, जो आम आदमी के जीवन में हो ही नहीं सकती. फिल्मों का सबसे बडा जोकर कौन है ? उन्होंने बताया कि आम आदमी फिल्मों में जाकर या आमोद प्रमोद की किसी चीज की तरह दिखाया जाता है.

किसी भी फिल्म को देख लीजिये साइकिल पर थैला लटकाये सब्जी ले जाते आदमी पर वही आम आदमी हंसता है, जो खुद यह सब अपने जीवन में रोज करता है और जिस पर उसे हंसी नहीं आती. विलेन के सामने हाथ जोडकर घिघियाते आदमी को भी मजाक का पात्र बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है, जबकि स्वभावतः डरपोक समाज के आम आदमी का चरित्र भी यही है. पर लोगों को यही सब रास आता है. वे उस चीज को अपने से ज्यादा निकट पाते हैं और आनंदित होते हैं, जिससे उनके जीवन की सच्चाई का कोई वास्ता नहीं. जो झूठ है वह बढिया है और जो सच है वह हंसी का पात्र है. फिर कोई आदमी चेहरे पर एक नकली मस्सा ही लगा ले वे उसे ना पहचाने जाने के झूठ का मजा लेने के लिए हमेशा तैयार  हैं. फिल्मों को देखकर समाज का जो चेहरा दीखता है, वह उसका चेहरा नहीं हो सकता है. क्या ऐसा साहित्य में भी है? आप सोच रहे होंगे कि कहीं मैं विषयांतर तो नहीं हो रहा हूं. पर मुझे लगता है, यह बात कि जिसपर हम बात कर रहे हैं, वह हमारे आज में कहां टिकती है, उस पर बात पहले जरुरी है . मुझे यह भी लगता है, कि यह हमारी वह स्थिती है, जो बेतरह है और हमारे आज के साथ साथ हमारे अतीत को भी, इतिहास को भी प्रश्नांकित करती है.

तो क्या साहित्य से भी उस समाज को समझा जा सकता है, जिस समाज के लिए और जिस समाज पर वह लिखा गया है. मुझे लगता है, शायद नहीं और इसका कारण भी वही विद्रूपता है, जो फिल्मों को समाज से अलग करती है. लेखन भी इससे अछूता नहीं. पर यही वह चीज भी है, जो साहित्य को साहित्य बनाती है. और जो मैंने कहा कि विद्रूप के बिना वह संभव नहीं उसका शायद यही आशय भी है. स्वतंत्रता के पहले हिंदी में खासकर कथालेखन में जो कुछ है वह अपने समय से काफी कुछ उसी तरह विमुख है, जिस तरह हिंदी फिल्में. उसमें स्वतंत्रता आंदोलन नहीं, किसानों के आंदोलन नहीं, मजदूर यूनियनों की लडाइयां नहीं, हरिजनों के मंदिर प्रवेश के संघर्ष नहीं,अंगरेजों की सत्ता नहीं, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध नहीं, बीस और चालीस के दशक के अकाल नहीं, आदिवासियों की लडाइयां नहीं,.......अगर हैं भी तो एक बहुसंख्य चरित्र की तरह नहीं. लेखक जिस तरह से समाज को देखता है और देखना चाहता है, क्योंकि एक मोह होता है जिससे विलग होना शायद लेखक के लिए भी संभव नहीं, वह एक तरह का विद्रूपता है, एक आइना जो उससे वह लिखवाता है जो समय से काफी विलग होता है. मध्यमवर्गीय चेतना एक केंद्रीय बात रही, जो एक आइना है, पर सच नहीं, एक नजरिया जो कई कई मामलों में बहुसंख्य चरित्र और वास्तविक समस्या से दूर रह आया. हां वह समाज की करुणा और व्यंग्य को सामने लाता है, पर वह वास्तविक नहीं है. कम से कम असका अर्थ वह नहीं है, जिस अर्थ में वह चीज खुद है. ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचंद के साहित्य और प्रेमचंद के काल के इतिहास में बहुत बडा अंतर है, हम प्रेमचंद को पढकर उसके समय को नहीं समझ सकते. यह प्रेमचंद की महानता को प्रश्नांकित नहीं करना है, मुझे माफ करें, मैं सिर्फ उस विद्रूपता की बात कर रहा हूं जो हर जगह है.....और जो साहित्य के लिए ही क्या शायद हर प्रकार के सृजन के लिए एक सकारात्मक बात रही है.. प्रेमचंद पर मुझे एक बात याद आती है. एक बार मैं शिवपुरी से अशोकनगर लौट रहा था. रात के तीन बजे थे. बेतरह ठण्ड थी. हड्डी गला देने वाली ठण्ड. मैंने देखा फिर भी दूर दूर तक खेतों में कहीं कहीं मचानों पर कुछ किसान डटे थे. हम एक जगह रुके थे. उनमें से किसी से मैंने पूछा था, कि तेज ठण्ड पडने पर क्या वे गर्मी के लालच में अपने खेतों को किसी जानवर के लिए चरने को छोड सकते हैं. वे मेरी बात पर वे हंसने लगे. यह सामन्य चरित्र है, यह वह चरित्र नहीं है जो पूस की रात में है. बहुसंख्य चरित्र वही होगा जो साहित्य में नहीं है. प्रेमचंद के किसान को खेत को जानवरों के चरने के लिए छोडना ही है, वरना वह कहानी होगी ही नहीं, वह एक आम किसान के आचरण का विवरण मात्र रह जायेगा.   
             
आयोनेस्क ने कहा मानव अस्तित्व ही अविचारणीय और अकल्पिनीय है... मैं उसकी बात कर रहा हूं जो हर लेखक को उसके मनुष्य होने के कारण इस विद्रूपता का रचनाकार बनाता है. इसी वजह से यह माना जा सकता है, कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं होता है, क्योंकी उसमें लेखक की दृष्टि होती है और लगता है अंततः वह दृष्टि ही रह जाती है और वह दृष्टि विद्रूप है. वह वह सच नहीं जो समाज में है, वह उस सच के अर्थ में से नया अर्थ निकालना है. जिस तरह से कोई कैमरा फिल्म बनाता है उसी तरह लेखक भी देखता है, वे तमाम चीजें जो आम हैं साहित्य और फिल्म दोनों में ही हंसी हैं और जो अकल्पनीय है, झूठ है वही मान्य है. यह आज का एक ऐसा सच है, जो हमें बार बार सोचने पर विवश करता है और हम हर बार नये विद्रूप बनाते जाते हैं. इस पर बात करना लाजमी भी है और प्रासंगिक भी.

एब्सर्ड वह जगह है, जहां यह तय नहीं कि एक ही बात पर हंसा जाय या रोया जाय . फिल्मों में साइकिल पर सब्जी ले जाने वाला साधारण आदमी. उसी साधारण आदमी की नजर में जोकर है और किसी लेखक याने असाधारण आदमी की नजर में दया या करुणा का विषय भी हो सकता है. एक ही चीज अपने में हजारों भाव लिये है, पर इतना तय है, कि अगर वह देखने समझने वाले के चरित्र जैसा है तो कुछ नहीं और विलग है तभी विशिष्ठ है. इसलिए चीजों को इस तरह से नहीं देखा जा सकता है, कि वे दुःखद हैं या प्रसन्नता का विषय हैं. हंसी दुःख से भी ज्यादा भयावह हो सकती है. मैं फिर आयोनस्क की बात करुंगा. आयोनेस्क की ही क्योंकी उसकी ही किताब पर मैं बात कर रहा हूं. वह कहता है व्यंग्य ट्रेजेडी से ज्यादा भयावह है,क्योंकि नियति और नियमों का उल्लंघन ट्रेजेडी का कारण है, अर्थात ट्रेजेडी सकारण है उसके नियम हैं, पर व्यंग्य या हास्य का कोई नियम नहीं है.यह बात व्यंगय और ट्रेजेडी के बीच की सीमा को नहीं गिराती है, बल्कि उससे भी आगे चली जाती है, जहां व्यंग्य, ट्रेजेडी से ज्यादा भयावह लगने लगता है. बहरहाल यह माना जा सकता है, कि विद्रूप हमारी आज की एक बडी चिंता है, क्योंकी यह मानव मात्र के अस्तित्व को चुनौती देती है और पहचान भी, यह एक ऐसा पारदर्शी रास्ता भी बनाती है जहां से चीजों को ज्यादा सटीक तरीके से देखा जा सकता है. एब्सर्ड वह एकमात्र तरीका लगता है, जो असंभव होते जा रहे मनुष्य और समाज को, उसके मन को, उसके कारण और निहितार्थ को खोलता है. इसलिए इसकी बात करना लाजमी लग रहा है.

यूजेन आयोनेस्क के तमाम एब्सर्ड नाटकों में से एक यह है, लैसन. शायद आपमें से कुछ लोगों ने पढा भी हो. मैं संझेप में इसका कथानक बताना चाहूँगा और वे तमाम प्रश्न भी जो इसे पढने पर उपजते हैं. 
  
वास्तव में यह एक प्रहसन है. इसमें तीन पात्र हैं. एक प्रोफेसर, छात्रा और एक नौकरानी.
Image from Shimer College production
चरित्रों में प्रहसन के दौरान धीरे-धीरे परिवर्तन होता है. प्रहसन के प्रारंभ में ही लेखक ने इस बात को स्पष्ट किया है
, कि वे परिवर्तन क्या हैं. छात्रा एक नम्र और बेहतर ढंग से पली बढी सुसंस्कृत लडकी है, जो प्रहसन के प्रारंभ में बेहद चुस्त दुरुस्त और खुशमिजाज लगती है. फिर वह धीरे- धीरे एक उदास और जड लडकी में तब्दील होने लगती है. अंत आते आते तक वह बेहद उदास और थकानग्रस्त हो जाती है. प्रोफेसर एक कायर, नम्र और शर्मीला आदमी है, जो धीरे-धीरे दृढनिश्चयी, उत्तेजित और आक्रामक होता जाता है. प्रोफेसर के इस तरह से बदलने में कुछ निहितार्थ हैं, हमारे समय के क्रूर निहितार्थ, पर यह प्रहसन उस निहितार्थ से ज्यादा और भी काफी कुछ कहता है. लडकी प्रोफेसर के पास एक पाठ पढने आई है. प्रोफेसर धीरे-धीरे उसे पाठ पढाने के लिए तैयार करता है. वह उसे बडे सलीके से अपनी कायरता और शर्मीलेपन के साथ वह पाठ पढाता है. पर यह सिर्फ पाठ नहीं है. जैसे जैसे प्रहसन आगे बढता है, यह समझ में आने लगता है, कि इस पाठ में कुछ क्रूर और अमानवीय अपेक्षायें भी हैं. वह वास्तव में पाठ के लिए नहीं बल्कि किसी और चीज के लिए लडकी को तैय्यार कर रहा होता है. लडकी भोली है. पाठ के बीच-बीच में नौकरानी कमरे में आती जाती है. उसे प्रोफेसर की तबियत की चिंता है, पर वह चिंता भी धीरे-धीरे किसी और किस्म की चिंता में बदल जाती है. प्रोफसर यह देखकर बडा खुश होता है कि लडकी सीधी सादी है और वह उससे अपने उसी कायराना अंदाज में कहता है - माफ करना मदाम मैं यह कहने ही जा रहा था, लेकिन तुम सीख जाओगी कि हमें किसी भी चीज के लिए तैयार रहना ही चाहिए. बार बार के आग्रह से लगता है कि प्रोफेसर उस लडकी को पटा रहा है, शायद प्रेमालाप के लिए. पर प्रहसन में चीजें एकदम से बदल जाती हैं, और लगता ही नहीं कि प्रोफेसर के निहितार्थ इतने भयंकर हैं.

ऐसे भयंकर निहितार्थ, जिसने दुनिया में लोगों के सबसे बडे नरसंघार का रास्ता तय किया. नौकरानी प्रोफेसर को बीच-बीच में जब भी आती है, कहती है, कि उन्हें सावधान रहना चाहिए और ज्यादा उत्तेजित नहीं होना चाहिए. प्रोफेसर एक बेहद साधारण चीज से पाठ शुरु करता है, वह है अंकगणित. वह पूछता जाता है, कि दो में एक जोडें तो क्या जवाब आयेगा, फिर तीन में एक, फिर चार में एक,...... लडकी जवाब देती जाती है. क्या अंकगणित हमारे समय की सबसे बडी निष्ठुरता का गणित है. कितना अजीब है, पर आयोनेस्क यही करता है, प्रोफेसर और छात्रा के बीच जो सवाल शायद कभी ना होता हो कि तीन और एक को जोडने पर क्या आयेगा, वह वही पूछता है. पहली कक्षा से भी नीचे के प्रश्न, जो वह पीएच.डी. करने के पाठ पढने आई लडकी से पूछता है. नौकरानी बीच में  उसे बडे मार्के की बात चेताती है, कि अंकगणित से किसी का भला नहीं हुआ है. वह आपको थका देता है. अस्तव्यस्त कर देता है.
लडकी जोडने में परफेक्ट है. वह इतनी परफेक्ट है, उसे जोडना इतना अच्छा लगता है, कि वह प्रोफेसर को अपने भोलेपन में कहती है, कि ठीक है सात और एक आठ होते हैं, पर यह नौ भी हो सकते हैं. चीजों को वह जोड से समझती है. जैसे जोडना ही दुनिया हो. जहां चीजें बढती हैं, जहां विपन्नता नहीं, जहां खत्म होने का दर्द नहीं. जोडना एक सकारात्मक काम है. जोडना मतलब मनुष्य के पक्ष में होना. प्रोफेसर उसके जोडने की कला से प्रसन्न तो होता है, पर परेशान भी होने लगता है. वास्तव में वह जो अंकगणित उसे समझाना चाहता है, वह जोडने जैसा मासूम काम नहीं है. वह लडकी को घटाना सीखाना चाहता है. यहीं से सारी समस्या शुरु होती है. प्रोफेसर एक कायर आदमी से धूर्त में और लडकी मासूम से परेशान और भयाक्रांत होती जाती है. लडकी प्रोफेसर के लाख समझाने पर भी नहीं समझ पा रही है कि घटाना क्या होता है. वह गलत जवाब देती जाती है और प्रोफसर झल्लाता जाता है, बदलता जाता है.
  
 ‘नहीं यह सही नहीं है. बिल्कुल भी सही नहीं है. तुम पर संख्याओं को जोडने का फितूर सवार है. लेकिन घटा देना भी जरुरी है. चीजों का एकीकरण ही काफी नहीं है मादाम. उनका विघटन भी जरुरी है. और जिंदगी क्या है. विघटन ही तो है. दर्शनशास्त्र, विज्ञान,प्रगति,सभ्यता सब विघटन ही तो है.

बडे मार्के की बात है, कि ज्ञान और प्रगति विघटन है. फिर बात चलती है गणित के तर्क पर. लडकी को सारे गुणनफल और योग याद हैं. प्रोफेसर पूछता है यह कैसे संभव हुआ भला. लडकी कहती है उसने सारे गुणनफल और योग याद कर लिए हैं. प्रोफेसर फिर से झल्लाता है-
       
याददाश्त तो गणित के लिए एक भयावह दुश्मन है. अंकगणितीय दृष्टि से वह एक बुरी चीज  तुमसे  खुश नहीं हूं. यह सब नहीं चलेगा.

वह याद होने और समृतियों के खिलाफ है. गणित के जोड घटाने के पाठ के साथ साथ यह समझ में आने लगता है, कि प्रोफेसर किस तरह मनुष्यता का विरोधी है. वह स्मृति को एक प्रकार से अच्छा भी कहता है, किस तरह से. एक भयावह बात जो धीरे धीरे खुलती जाती है. लडकी और प्रोफेसर दोनों परेशान हो जाते हैं, लडकी पाठ को और प्रोफेसर के मर्म को समझ नहीं पाती और उसका दांत दर्द करने लगता है और प्रोफेसर काहिलों की भांति चिल्लाता है, कि वह इतनी सी भी बात नहीं समझ सकती.

सबकुछ एब्सर्ड है. ना तो पीएच. डी. करने वाली लडकी को जोड और घटाना समझने की जरुरत है और ना प्रोफेसर को इतना उत्तेजित होने की जरुरत ही है, कि उसका मूल चरित्र ही बदल जाये और ना ही ऐसी बात जो लडकी को परेशान करे. पर यह सब घटित होता है.

फिर वह भाषा शास्त्र पर उतर आता है. जो शायद वह मूल विषय है, जिस पर आने को प्रोफेसर आतुर है. वह बताता है भाषा घ्वनियां हैं, जिन्हें इस बात से सरोकार नहीं कि वे किन्हीं बहरे कानों तक पहुंचे. मतलब यह की अगर आप बहरे हैं तब भी भाषा नंगई कर सकती है. वह हवा में एक काल्पनिक चाकू बनाता है और बताता है कि अलग अलग भाषाओं में चाकुओं को क्या कहते हैं. लडकी उसे सुनना नहीं चाहती है, पर वह बताता जाता है, लडकी के कान में दर्द होता है, पर वह बोलता जाता है, झल्लाता जाता है, कि कितनी सीधी बात यह लडकी समझने को तैयार नहीं. वह उसे बार बार समझाता है, चाकू,चाकू, चाकू..... लडकी उस निर्दयता से घबरा जाती है. नौकरानी प्रोफेसर को कहती है, कि इस तरह ना करें सोचिये इसका हश्र क्या होगा. प्रोफेसर छात्रा को कहता है, कि यह  चाकू किसी को भी मार सकता है. छात्रा डरती हुई घबराती हुई, कहती है हां चाकू हत्या कर सकता है. अंकगणितीय जोड के बाद वह बस इसी बात पर प्रोफेसर से सहमत होती है, कि चाकू हत्या कर सकता है. पाठ कहीं बहुत पीछे छूट जाता है. हवा में बना काल्पनिक चाकू रह जाता है, लगभग विक्षप्त हो चुका प्रोफेसर झुंझलाकर उस काल्पनिक चाकू से छात्रा की हत्या कर देता है. पर उसकी घबराहट खत्म नहीं होती. नौकरानी उसकी घबराहट का एक इलाज ढूंढती है. वह एक कपडे की पट्टी प्रोफेसर के हाथ में बांध देती है. उस पट्टी पर नात्सियों का स्वास्तिक का निशान बना है. उस पट्टी को पहनने  के बाद प्रोफेसर को थोडा आराम मिलता है. दोनेां उस छात्रा की लाश को ठिकाने लगाते हैं. पता चलता है, प्राफेसर ने अब तक कुल चालीस छात्राओं की हत्या की है. तभी घण्टी बजती है और नौकरानी दरवाजा खोलती है, बाहर एक और नई छात्रा है. वह उसे शालीनता से भीतर लाती है, और कहती है, वह इंतजार करे पाठ पढाने के लिए प्रोफेसर आ रहे हैं. यहीं यह प्रहसन समाप्त होता है.

प्रहसन मनुष्य की कई विद्रूपताओं को खोलता है. उसका तरीका भी कई कई विद्रूपताओं से भरा हुआ है. मनुष्य का अस्तित्व और पूरा विकास ही विद्रूपता है. कहते हैं, विद्रूपता की शुरुआत तब हुई जब किसी प्रागैतिहासिक मनुष्य ने आग खोजी. उसने पत्थरों को रगडा. पर उस समय के मनुष्य के लिए पत्थर इसलिए नहीं थे कि उन्हें इस तरह रगडा जाय. उसके लिए पत्थर नदी, पहाडों, जंगलों से भरे प्राकृतिक दृश्य का एक हिस्सा थे. पत्थरों का अर्थ उसके लिए कुछ और था और हाथों में लेकर उन्हें रगडना पत्थरों का वह अर्थ नहीं था. यह क्रिया पत्थरों के मूल अर्थ से विलग होने वाली क्रिया थी. पत्थरों के रगडने से चिंगारी पैदा हुई. चिंगारी पहले भी थी, पर उसका अर्थ और काम कुछ और था. उसका अर्थ था दावानल पैदा करना. वे चिंगारियां दावानल के लिए थीं, पर जो चिंगारी मनुष्य ने पैदा की वह दावानल के लिए नहीं थी, वह चूल्हों की आग के लिए थी, इस प्रकार उसका भी वह अर्थ नहीं था, जो चिंगारी के होने का था, मनुष्य ने उसका नया अर्थ बना लिया. आग मनुष्य का पहला विचार, खोज, सृजन या हम जो भी कह लें वह था, पर वह अपने मूल अर्थ से अलग था और फिर ऐसी तमाम चीजें जुडती गईं, ऐसी तमाम चीजें जो अपने मूल अर्थों से अलग थीं और इस तरह हमारा आज का समाज बनता गया. अर्थ से विलग अर्थ मतलब जिस अर्थ में कोई चीज नहीं है, या जिस चीज का अर्थ कुछ और है, उससे कोई अर्थ निकाल लेना ही मनुष्य का होना है और शायद यही एब्सर्ड भी है, चीजों का वह अर्थ जो उसका अर्थ नहीं है.

यही एब्सर्ड होना साहित्य का निर्माण भी करता है. बेहतर साहित्य वह है जिसमें शब्दों और वाक्यों के वे अर्थ हैं, जो उनके वास्तिविक अर्थ नहीं और यह नया अर्थ जितना विलग होता है, सृजन उतना ही खूबसूरत . लेखक यही करता है, वह शब्दों से वह कहलवाता है, जो वे शब्द नहीं है. किसी अर्थ का सर्वाधिक विरपीत अर्थ उतना ही बडा विद्रूप है और उतना ही महान लेखन भी. विद्रूपता ही मनुष्य का मनुष्य होना है, उसका विकास है और वह ही साहित्य भी है. आयोनेस्क यही कर रहा है. पूरा प्रहसन विद्रूप है, जबरदस्त विद्रूप. ना पीएच.डी. करने वाली छात्रा को यह समझने की जरुरत है कि तीन धन एक कितना होता है और ना उसे यह जानने की जरुरत है कि चाकू को बेहद जानी पहचानी भाषाओं में क्या क्या कहा जाता है, ना हवा में ब्लैक बोर्ड है, ना हवा में लिखा जा सकता है, ना हवा में चाकू हो सकता है, ना हवा के चाकू से हत्या हो सकती है, ना स्वास्तिक के निशान की पट्टी बांह में बांध लेने से तबियत ठीक हो सकती है.....पर वहां सबकुछ घटित होता है और बडी साफगोई से मनुष्य के आचरण को खोलता जाता है, एक ऐसा अर्थ निकालता है, जिसकी वहां होने की संभावना ही नहीं लगती है.

जो लोग कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, वे साहित्य को खत्म करने का मतलब बता रहे होते हैं. साहित्य वह विद्रूप ही तो है, जो समाज का सच ना होकर उस सच का एक विलग अर्थ है, भले उसकी पक्षधरता सच के पक्ष में हो पर उसका अर्थ उसके मायने सच के पक्ष में नहीं होते हैं. अगर अर्थ भी वही हो गया जो वह वास्तव में है, तो फिर साहित्य कैसे हो पायेगा और यही विद्रूप है, अर्थ का बेहद विलग अर्थ जो किसी लेखन को  संभव बनाता है. पर लगता है एक अंतर हमेशा रहेगा शायद कि उस विद्रूप की पक्षधरता क्या है ? फिल्मों का विद्रूप एक बेहद खोखली चीज है, क्योंकी वह सच के पक्ष में नहीं है. साइकिल में सब्जी ढोने वाले आम चरित्र पर आम आदमी की फिल्मी हंसी, इसलिए वाजिब नहीं क्योंकी आज की वह फिल्म उस विद्रूप का उस तरह प्रयोग नहीं करती जिस तरह साहित्य कर लेता है या बेहतर सिनेमा करता है. विद्रूप हमारी सभ्यता का मूल है और यह बहस शायद हमेशा बनी रहे कि हम इसका और बेहतरीन प्रयोग कैसे और कहां कहां करे.
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(दिनांक 06.11.12को संगमन 17’ में मेरी प्रिय किताबविषय पर 
यूजेन आयोनेस्क के नाटक लैसनके हिंदी अनुवाद पाठपर वक्तव्य) 

सबद - भेद : सबदन मारि जगाये रे फकीरवा : सदानन्द शाही

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किसी भी कवि की कविता को समझने के लिए सह्रदयता की आवश्यकता होती है. आम जन सैकड़ो वर्षो से भक्ति-काल के कवियों को इसी औजार से समझते रहे हैं. कबीर की कविता की इस सर्व- संप्रेषणीयता ने ही उन्हें सर्व-स्वीकृति प्रदान की और दीर्घजीवी रखा. प्रो. सदानंद शाही कबीर पर अपने इस व्याख्यान में  उनकी  कविता के पास सहजता से जाते हैं और इस सहज को एक मूल्य के रूप में स्थापित करते हैं.









सबदन मारि जगाये रे फकीरवा               

सदानन्द शाही


कबीर की कविता में ऐसा क्या है जो हमें छ सौ वर्ष बाद भी आमन्त्रित करता है. कबीर की कविता हमें अपनी ओर खींचती है. कबीर के पास पहुँच कर हमें सुकून मिलता है. प्रेमचन्द की कफन कहानी के घीसू-माधो जब चरम उत्सव और उल्लास में होते हैं, ठीक उसी समय उन्हें अभाव की, दैन्य की काली छाया ग्रस लेती हैं. तब वे कबीर की शरण में जाते हैं, ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावै. कबीर से उन्हें ताकत मिलती है. ऐसी ताकत कि वे निहंगता और दयनीयता के बावजूद माया को ललकारने लगते हैं. घीसू माधो को हम इसलिए जान पाये कि प्रेमचन्द ने उनसे हमारा परिचय करा दिया. पर घीसू माधो जैसे हजारों हजार निहंग और असहाय लोग हैं, जिन्हें कबीर की कविता ताकत देती है, सहारा देती है. कबीर की कविता केवल माया के मारे हुओं को नहीं, माया से ऊबे हुए लोगों को भी संबल देती है.

गोरखपुर शहर में मेरी पढ़ाई लिखाई लिखाई हुई है. वह मगहर के पास है. मैंने आसपास के इलाकों से गोरखपुर शहर आने जाने वाले मजदूरों को, कर्मचारियों को देखा है. वे रोज सुबह ट्रेन से गोरखपुर आते हैं. शाम को लौट जाते हैं. इनमें झुन्ड के झुन्ड ऐसे मिल जायेंगे जो आते-जाते कबीर का भजन गा रहे हैं. कबीर का भजन गाते हुए उनका रास्ता कट जाता है. आखिर उनका यह जीवन भी तो एक रास्ता ही है, जो कबीर बानी के सहारे कटता रहता है.

मैं जिस शहर में रहता हूँ- बनारस, वह कबीर की जन्मभूमि भी है कर्मभूमि भी. बनारस में लहरतारा है, जिसके आसपास कबीर पाये गए थे. कबीर का पालन पोषण हुआ था. बनारस में कबीर चैरा है, जहाँ वे रहे. कबीर के जन्म दिन पर मेला लगता है. लाखों की भीड़ जुटती है, जो कबीर की बानी पढ़ती है, सुनती है और गुनती है. लहरतारा तालाब के निकट खुले मैदान में छोटे-छोटे समूह में लोग बैठे हुए हैं. एक कोई बीजक बाच रहा है. अर्थ बता रहा है और बाकी लोग सुन रहे हैं. कबीर की जिन उलटवासियों पर हम विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग सिर पटकते रहते हैं और समझ में नहीं आतीं-वे ही उलटवासियाँ, वही बीजक इस जनता को बखूबी समझ में आ रहा है. वे उसकी चर्चा में मगन हैं. रामचन्द्र शुक्ल हमें बताते हैं कि कबीर की बानी कुछ अनपढ़ लोगों तक ही पहुँचती है. विचार करना चाहिए कि ऐसा क्या है कबीर की कविता में जो अनपढ़ लोगों तक तो पहुँच जाती है. अपने आप! अनायास. लेकिन पढ़े लिखों तक नहीं पहुँच पाती. कबीर की कविता में दोष है या हमारे पढ़ने लिखने की विधि में. कहीं ऐसा तो नहीं कि पढे लिखे होने के गुमान में हम कविता के बगल से निकल जाते हैं. हमें इस पर भी विचार करना चाहिए. 
  


बीर की कविता ऐसी है जिस तक पहुँचने के लिए हमें निहत्थे जाना होगा. निहत्थे जाने का हमारा अभ्यास नहीं है. हमने जो बहुत सारे हथियार इकट्ठा किये हैं आलोचनात्मक पंडिताऊ उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता. कविता के पास हम आनन्द के लिए नहीं जाते. नासेह बनकर जाते हैं. यही मुश्किल है. कविता को जाँचने परखने की जो विधियाँ हमने सीख रखी हैं, उन विधियों को परे रखकर जाना होगा. स्वयं कबीर ने भी इसका संकेत दिया है-       

कबिरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं
सीस उतारे भुइं धरे तब पइसे घर माँहि..

यह प्रेम का घर है. पाण्डित्य के अहंकार को घर के बाहर छोड़ना पड़ेगा. हमारी मुश्किल है कि पाण्डित्य को छोड़ना नहीं चाहते. इस या उस पाण्डित्य के चक्कर में रहते ही है. वेद वाला पाण्डित्य छोड़ते हैं तो लोक वाले पाण्डित्य को पकड़ लेते हैं. वाइजगीरी की ऐसी लत लगी हुई है कि उसके बगैर काम ही नहीं चलता. कबीर तो कह रहे हैं कि न लोक के चक्कर में पड़ो न वेद के-

       पाछे लागा जाइ था लोक वेद के साथ.
       पैड़े में सतगुरु मिला दीपक दीन्हा हाथ.

लोक और वेद के पीछे भागने से काम नहीं चलेगा. अपने हाथ में दिया बारना होगा. यहाँ कबीर न तो लोक की भत्र्सना कर रहे हैं वे न ही वेद की पीछे लागने की आलोचना कर रहे हैं. पिछलग्गूपन की आलोचना कर रहे हैं. हमारी शिक्षा ने, हमारे पाण्डित्य ने, हमारे ज्ञान ने, हमारे अहंकार ने हमें पिछलग्गू बना दिया है. हमारी स्वतन्त्र और उन्मुक्त दृष्टि ही नहीं रह गयी है. कबीर की चिन्ता यही है. यह चिन्ता वैयक्तिक भी है और सामाजिक भी.

       ऐसा कोई ना मिला जासो रहिए लागि
       सब जग जरता देखिया अपनी-अपनी आगि..

सारा संसार अपनी-अपनी आग में जल रहा है. इसे कबीर देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं. पर जग नहीं देख पा रहा है. इन्हीं बंधनों से जग बँधा हुआ है.

       सुखिया सब संसार है, खाये औ सोये
       दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे.

संसार इसलिए सुखी है कि उसे बोध ही नहीं है अपने बंधनों का, वह जहाँ जाता है वहीं छला जाता है. चारों तरफ छल बादल हैं-पानी की उम्मीद में जाते हैं तो आग बरसने लगती है-

       ओनई आई बादरी बरसन लगा अंगार
       उट्ठि कबीरा धाह दे दाझत हैं संसार..

बादलों से अंगार बरस रहा है. जिसमें संसार जलने लगा है. पर उसे जलने का आभास ही नहीं है. लेकिन कबीर को पता है. इसलिए कबीर बेचैन हैं. कैसे इस आग से लोगों को बचाया जाय. कैसे इस ताप से लोगों को बचाया जाय. कबीर आग को बुझाने की बात नहीं कर रहे हैं. आग से लोगों को बचाने की बात कर रहे हैं. क्यों?

क्योंकि अबोध बच्चा है. बरजने से भी नहीं मानता. आग उसे आकृष्ट कर रही है. अपनी ओर खींच रही है. घर के लोग डरे हैं, परेशान हैं. कबीर की परेशानी, कबीर का डर इसी तरह का है. लोगों को समझ आ जाय कि पढ़ गुन कर जहाँ पहुँचे हुए हो, पाण्डित्य की गठरी लिए जहाँ खड़े हो, वहाँ तुम जल रह हो. आग लगी हुई है. इस आग से बचो.

इस चैतरफा आग से, इस दाह से मुक्ति के लिए कबीर क्या उपाय खोजते हैं ? वे किस पर भरोसा करते हैं. उन्हें किसी पर्वत पर भरोसा नहीं है. परबत- परबत घूम आये हैं कबीर. वहाँ कोई बूटी नहीं मिली. वहाँ कोई उपाय नहीं मिला. कोई साधना, कोई सिद्ध नहीं मिला, जिसके पास उपाय हो. कोई बना बनाया पथ नहीं है. इस विकट बेला में कबीर शब्द की सामर्थ्य पर भरोसा करते हैं. कबीर का एक पद है-

       तोहि मोहि लगन लगाये रे फकीरवा.
       सोवत ही मैं अपने मदिर में सबदन मारि जगाये रे फकीरवा..
       बूड़त ही भव के सागर में बहियां पकरि समझाय रे फकीरवा..
       एके वचन  वचन नहि दूजा तुम मोसे बन्द छुड़ाये रे फकीरवा..
       कहे कबीर सुनो भाई साधो, प्रानन प्रान लगाये रे फकीरवा..

ऐ फकीर ! तुमने मेरे भीतर लगन लगा दिया. मैं अपने घर में सोई हुई थी. तुमने शब्दों की मार से मुझे जगा दिया है. मैं तो भवसागर में डूब रही थी, तुमने बांह पकड़ कर मुझे बचा लिया. एक ही वचन से एक ही शब्द से तुमने मेरे बन्धन छुड़ा दिये. फकीर तुमने मेरे प्राणों को प्राणवान बना दिया.

इस पूरे पद की मुख्य बात है- मैं अपने घर में सो रही थी, भवसागर में डूब रही थी, तुमने शब्दों से मारकर जगा दिया ? मुक्ति का उपाय शब्द है. यथास्थिति के मोहपाश में बँधे हुए को मुक्त कराने के लिए और कोई हथियार काम नहीं करेगा. शब्द से ही माया मोह नाना जंजाल मिथ्याचार के बंधन को काटा जा सकता है. शब्द की इस सामथ्र्य पर कबीर को पूरा भरोसा है. वे इस बात को बार-बार कहते हैं-

       सत गुरु सांचा सूरिबा सबद जु बाहा एक.
       लागत ही भुईं मिलि गया, परा करेजे छेंक..

सतगुरू ने शब्द के बाण से मारा. लगते ही मैं धराशायी हो गया. और मेरा कलेजा बिंध गया. गालिब याद आते हैं-

       कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को
       ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता..

तीर कलेजे में आकर धँस गया है, फॅस गया है और टभक रहा है. बिल्कुल यही बात कबीर कह रहे हैं- परा करेजे छेंक. कलेजे को भेदते हुए तीर पार कर जाता तो रात दिन की टभकन नहीं होती. यह निरन्तर टभक रहा है. यह अब सोने नहीं देगा. गाफिल नहीं होने देगा.

यह सारा अनुभव संवेदन एक तरह से व्यक्तित्वान्तरित करने वाला है. कुछ शब्द होते हैं, कुछ कृतियाँ होती हैं, कुछ लोग होते हैं जो मिलते हैं और आपको आमूल बदल कर रख देते हैं. जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता है- शब्द की मार से होने वाले जागरण का अर्थ पूरी तरह बदल जाने से है. शब्द ही वह पारस पत्थर है, जो लोहे को सोना बना सकता है. मनुष्य को मनुष्य बनाता है. मनुष्यता की जिस भूमि पर कबीर ले जाना चाहते हैं, वहाँ जाने का उपाय शब्द ही है. कबीर के लिए शब्द ही प्रज्ञा है और शब्द ही उपाय है. कवि की दुनिया शब्दों पर ही टिकी होती है. कवि का पहला और अन्तिम आसरा शब्द ही होता है. कबीर न केवल शब्द पर भरोसा करते हैं बल्कि हमें भी शब्दों पर भरोसा करना सिखाते हैं. थोड़ा इस सबद साधना पर विचार करें. कवि जब कोई शब्द उठाता है, किसी शब्द से काम लेता है तो उसे नये अर्थ से भर देता है. यह अर्थ जीवन से आता है. जीवन के साथ कवि की संलग्नता से आता है. कबीर के शब्दों की गगरी में अर्थ का पानी जीवन से आता है. कबीर की कविताओं में गहन जीवन राग है.

कबीर की काव्य साधना का उद्देश्य यही जीवन है. यही लोक है. कबीर की बेचैनी किसी बैकुण्ठ के लिए नहीं है. जैसे गालिब को जन्नत की हकीकत मालूम है, बिल्कुल उसी तरह कबीर को बैकुण्ठ की असलियत मालूम है. सब लोग बैकुण्ठ जाने की बात करते हैं. लेकिन बैकुण्ठ कहाँ है यह नहीं जानते. अगले एक योजन की तो खबर ही नहीं हैं. बैकुण्ठ की बात करते हैं. हाके जा रहे हैं- बैकुण्ठ ऐसा है वैसा है. लेकिन कबीर कहते हैं जिस बैकुण्ठ को मैं देख नहीं सकता, जिसमें उठ बैठ नहीं सकता उस पर विश्वास नहीं कर सकता. कबीर यहीं नहीं रुकते. वे आगे बढ़ कर यह भी बता देते हैं कि अगर कहीं बैकुण्ठ है तो वह सत्संगति में ही है.1यह सत्संगति भी गालिब के बज़्म की तरह है. मुद्दत हुई है याद को मेहमां किए हुए, जोशे कदह से बज़्म ए चिरागा किए हुए. फैज ने गालिब की इस प्रसिद्ध गजल की व्याख्या करते हुए बताया है कि इसमें यार से नहीं मिल पाने का दर्द नहीं है. यहाँ बज़्म के उजड़ जाने का दर्द है. हमनवा लोगों के बीच होना ही स्वर्गीय एहसास है. कबीर की सत्संगति भी इसी तरह का एहसास है. समान विचार के लोगों के बीच होना ही बैकुण्ठ है. ऐसा बैकुण्ठ है जिसे जीते जी अनुभव किया जा सकता है, पाया जा सकता है. इसलिए कबीर अपने साधो से जीवत ही आशा करने की बात करते हैं. मुक्ति का अर्थ इस जीवन में ही है.
 
       साधो भाई जीवत ही करो आसा.
       जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा.
       जीवत करम की फाँस न काटी मुए मुक्ति की आसा.

कबीर इस बात को कई तरह से कहते हैं. कबीर जबरर्दस्त कम्यूनिकेटर हैं. इस जीवन सत्य को अनुभव संवेदन को पहुँचाना आसान नहीं है. इसकी कठिनाई से कबीर वाकिफ हैं. कबीरदास इस विलक्षण अनुभव संवेदन को लोगों तक पहुँचाते हैं-

       विरहिन उठि उठि भुईं परै, दरसन कारन राम.
       मुए दरसन देहुगे, सो आवे कवने काम..
                   xx
       मुए पीछे मति मिलौ, कहै कबीरा राम.
       लोहा माटी मिलि गया, तब पारस कौने काम..

राम के दर्शन के लिए विरहिणी तड़प रही है. उसे जीते जी दर्शन चाहिए. मरने के बाद दर्शन का क्या काम. भोजपुरी इलाके में एक मुहाबिरा चलता है. मुअले प बैद अइलें, मुँह लेके घरे गइलैं. मरीज के जीते जी वैद्य आये तो कुछ कर सकता है. मरने के बाद वह आकर क्या करेगा. भले ही वह वैद्य स्वयं राम ही क्यों न हों. मरने के बाद मिलने का आश्वासन व्यर्थ है. लोहा जब तक लोहा है, तभी तक कोई पारस उसे सोना बना सकता है. मिट्टी में मिल जाने के बाद पारस किसी काम का नहीं है. जीते जी मिलें तभी राम का मतलब है. मरने के बाद राम भी किसी काम के नहीं रह जायेंगे.
एक बार फिर गालिब याद आ रहे हैं- मुनहसिर मरने पे हो जिसकी उम्मीद/ना उम्मीदी उसकी देखा चाहिए.मरने के बाद की उम्मीद दिलाना नाउम्मीदी की इन्तहा है. प्रियतम जीते जी आए-

मुंद गयी खोलते ही खोलते आखें, गालिब.
यार लाये मेरी बालीं प  उसे, पर किस वक्त.

कैसा प्रियतम है और कैसे यार हैं जो इतना भी नहीं समझ पाते कि जीवन ही सबकुछ है. कबीर की तड़प और बेचैनी इसी जीवन के लिए है. बिल्कुल गालिब की तरह. इस जीवन की बेहतरी के लिए. कबीर की कविता, कबीर की साधना सबका उद्देश्य इसी जीवन को बेहतर बनाना है. कबीर की बेहतरी का पैमाना आधुनिक तकनीकी विकास, या जी.डी.पी. की तरह का नहीं है. वे उन्नत मनुष्य की रचना करना चाहते हैं. ऐसे मनुष्य की रचना जिससे लग कर रहा जा सके, जो ईर्ष्या के, द्वेष के, अहंकार के, स्वार्थ के आग में न जल रहा हो- कबीर ऐसे की तलाश में हैं. जीवन में कबीर की आस्था का या ललक का स्रोत दरअस्ल जीवन की नश्वरता के बोध में हैं, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जाति/देखत ही छिप जायेगा जस तारा परभाति.नश्वरता का बोध कबीर को बीतराग नहीं करता. बल्कि जीवन के लिए गहरा राग भर देता है. वे नश्वरता या क्षण भंगुरता का बयान इसलिए करते हैं कि जब तक यह जीवन है उसे अच्छी तरह जिया जाये. भरपूर जिया जाये. सार्थक ढंग से जिया जाये.

सोच समझ अभिमानी चादर भई है पुरानी.
टुकड़े टुकड़े जोरि जतन सो, सीके अंग लिपटानी
कर डारी मैली पापन से , लोभ मोह में सानी.
ना यह लागी ज्ञान को साबुन ना धोई भल पानी.
सारी उमर ओढते बीती भली बुरी नहिं जानी
संका मानि जानि जिय अपने, यह है चीज बिरानी
कहत कबीर धरि राखु जतन से, फेर हाथ नहिं आनी.

जीवन की चादर मैली हो गयी है, पुरानी हो गयी है. लोभ और मोह से मैली हुई है. इसे ज्ञान के साबुन और शुद्ध पानी से धोया नहीं. सारी उम्र ओढते रहे हो पर असलियत नहीं जानते. अपने मन में शंका करो. यह जान लो कि यह दूसरे की चीज है. इसे जतन से रखो. यह चादर फिर हाथ नहीं आने वाली. यह पूरा पद इसी अन्तिम वाक्य के लिए उद्धृत किया गया है- फेर हाथ नहीं आनी.जीवन इसलिए अमूल्य है कि दोबारा नहीं मिलने वाला.

निकोलाई चेर्नीसेवस्की का उपन्यास है - How the Steel was Tempered. अमृत राय ने इसका अनुवाद अग्नि दीक्षा नाम से किया है. उपन्यास का नायक पावेल कोर्चागिन कहता है- हमें जो सबसे बहुमूल्य और खूबसूरत चीज मिली हुई है वह है हमारा जीवन. एक छोटी सी दुर्घटना भी इस जीवन को छोटा या समाप्त कर सकती है. इसलिए जीवन ऐसा जियें की अन्तिम समय जब भी आये- हमें किसी बात का अफसोस न हो. कबीरदास यही जतन करने के लिए कहते हैं. जीवन नश्वर है, क्षण भंगुर है दोबारा नहीं मिलने वाला है इसलिए इसे भरपूर जिओ. सार्थक जियो. यह क्षण भंगुरता का बोध दुबारा हाथ न आ पाने का बोध हमारे जीवन राग को सघन करता है. जीवन में जो कुछ हो जाये उसी का अर्थ है. कबीर इसे समझते हैं. जीवन के बाद स्वर्ग मिलेगा कि बैकुण्ठ मिलेगा यह सब बेकार की बात है.

सत्त कहै, सतगुरु का चीन्हें. सत्त नाम विसवासा2. यह सत्त नाम क्या है ? शब्द ही तो है. शब्द पर भरोसा करने का मतलब है मनुष्य पर भरोसा करना. मनुष्यता पर भरोसा करना. मनुष्य के पास ही शब्द हैं. शब्द मनुष्य होने की पहचान है. कबीर की काव्य साधना मनुष्य की इसी पहचान को स्थापित करने की साधना है. कबीरदास का एक प्रिय शब्द है बिगूचन3. बिगूचन माया भी है, विभ्रम भी है. इसी बिगूचन की वजह से हम अपनी मनुष्यता को गवां बैठे हैं. सारी गड़बड़ी इस बिगूचन के कारण है. केदारनाथ सिंह की कविता है बुनाई का गीत’-

उठो
झाड़न में/मोजों में/टाट में/दरियों में दबे हुए
धागों ! उठो !
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर से बुनना होगा
उठो मेरे टूटे हुए धागों
उठो !
कि बुनने का समय हो रहा है.

कहीं कुछ गलत हो गया है दुनिया का समूचा कपड़ा फिर से बुनना होगा. केदारनाथ सिंह की इस कविता में कबीर की अनुगँज सुनायी पड़ती है. यह जो गड़बड़ हुआ वह बिगूचन की वजह से हुआ है, गलत समझ की वजह से हुआ है. कबीर की बेचैनी के मूल में यही बिगूचन है. कबीर की साधना इसी बिगूचन को दूर करने की साधना है. कबीर हमें यह भी बताते हैं कि इसे दूर करने कोई नायक नहीं आयेगा. हम नायकों का इन्तजार करते रहते हैं कि सपनों के देश से कोई नायक आयेगा और सब कुछ ठीक कर देगा. नायक तो हमारे भीतर ही सोया हुआ है. फकीर इस सोये हुए नायक को शब्दों से मारकर जगा रहा है. बुद्ध ने कहा अप्प दीपो भव. इस जागने अर्थ ही दीपक होना है. कबीर की कविता और हमारे बीच यह बिगूचन आ खड़ा होता है. इसीलिए मुझे लगता है कि कबीर की कविता तक पहुँचने के लिए हमें बहुत कुछ भूलना पड़ेगा. सीखे हुए को अनसीखा करना पड़ेगा. ज्ञान के साबुन और साफ पानी से धोकर समझ की स्लेट को साफ करना पड़ेगा. समझ के कम्प्यूटर में वाइरस भर गया है. उसे साफ करना होगा. तभी हम कबीर की कविता तक पहुँच पायेंगे.

कबीर की कविता बे पढ़े लिखे आम आदमी तक पहुँच जाती है, केदारनाथ सिंह जैसे संवेदनशील कवि के पास भी सहजता से पहुँच जाती है. हमारे पास नहीं पहुँचती. क्योंकि कबीर को कवि सिद्ध करने के दंभ में जुटे हुए हैं. कबीर को कवि होने न होने का प्रमाण पत्र देने में लगे हुए हैं. यही बिगूचन है. इस बिगूचन से मुक्त होना यानी स्वयं में कबीर की कविता को समझने की पात्रता अर्जित करना है. इसके लिए जरूरी है कि हम शब्दों से मारकर जगाने वाले इस फकीरवा की आवाज को ध्यान से सुने.
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 1. चलन चलन सब कोइ कह है.
नं जाँनौं बैकुण्ठ कहाँ है.. टेक..
जोजन एक परमिति नहिं जानैं, बातनि ही बैकुण्ठ बखानैं.
जब लग मनि बैकुण्ठ का आसा, तब लग नहिं हरि चरन निवास.
कहे सुने कैसे पतिअइअै, जब लग तहाँ आप नहिं जइअै.
कहै कबीर यह कहिअै काहि, साध संगति बैकुण्ठहि आहि..

2. साधो भाई जीवत ही करो आसा.
जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा.
जीवत करम की फास न काटी मुए मुक्ति की आसा.
अबहूँ मिला तो तबहू मिलेगा नहिं त जमपुरवासा.
सत्त कहे सतगरु का चीन्हें सत्त नाम विसवासा.
कहै कबीर साधन हितकारी हम साधन के दासा.

3.  ऐसा भेद बिगूचनि भारी.
बेद कतेबदीन असदुनिया, कौंन पुरिख कौन नारी.. टेक ..
एक रूधिर एक मल मूतर, एक चांम एक गूदा.
एक बूंद हैं सृष्टि रची है, कौन बांह्यन कौन सूदा
माटी का पिंड सहज उतपनां, नाद अरु बिंद समाना
बिनासी गया तैं का नांव धरि हौ, पढ़ि गुनि मरम न जांना.
रह गन ब्रह्मां तम गुन संकर, सत गुन हरि हैं सांई.
कहै कबीर एक रामं जपहुरे, हिन्दू तरुकन कोई..

(देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर के भाषा विभाग में 24 अक्टूबर 2013 को दिए व्याख्यान का सम्पादित रूप)

__________________
सदानन्द शाही
1958, सिंगहा (कुशीनगर)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग मे प्रोफेसर.
प्रेमचंद साहित्य संस्थान के संस्थापक एवं निदेशक

अपभ्रंश के धार्मिक मुक्तक और हिन्दी संतकाव्य (शोध 1991) लोकभारती प्रकाशन.असीम कुछ भी नहीं (कविता संग्रह 1999) विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, दलित साहित्यकी अवधारणा और प्रेमचंद (2000) प्रेमचन्द साहित्य संस्थान गोरखपुर, स्वयंभू (2002) साहित्य अकादमी नई  दिल्लीहरिऔध  रचनावली  (दस  खंडो  में  2010)  वाणी  प्रकाशन  नई  दिल्लीपरम्परा और  प्रतिरोध (२०१०) हिंदी अकादेमी नयी दिल्ली.
फ्रैंक ई. के. लिखित ए हिस्ट्री आफ हिन्दी लिटरेचर का हिन्दी अनुवाद (1998) प्रकाशित, बांग्ला और अंग्रेजी से हिन्दी में कुछ अनुवाद प्रकाशित, कबीर, रैदास, पलटूदास और प्रेमचंदपर किताबें प्रकाश्य. विवेकानन्द, गांधी, अम्बेडकर और बाबू जगजीवन रामके सामाजिक चितंन पर लेखन जारी. साखी, भोजपुरी जनपद, कर्मभूमि, वीक्षाआदि पत्रिकाओं का सम्पादन।

भारतीय उच्च  अध्ययन संस्थान  शिमला  के  एसोशिएट (2002)जर्मनी  की डाड फेलोशिप (2003) साउथ एशिया इन्स्टीट्यूट हाइडेल बर्ग जर्मनी में फेलो (2003) हम्बोल्ट विश्वविद्यालय बर्लिन  जर्मनी,  Ecole Partique des Hausto Etudesपेरिस फ्रांसतथा  इटली  के तूरिनो   विश्वविद्यालय  में     कबीर  विषयक  व्याख्यान  एवं   काव्य   पाठ।   विश्व  भोजपुरी   सम्मेलन,   मारीशस (2000 और 2009) में शिरकत, ICCRद्वारा विदेशो में हिन्दी चेयर के  लिए चयन 2005।  इंडियन डायस्पोरा सेन्टर मारीशस द्वारा कर्मवीर सम्मान (2009) न्यूयार्क, अमेरिका में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन (2007) में भारत सरकार के प्रतिनिधि विभिन्न विश्वविद्यालयो की पाठ्यक्रम समिति एवं शोध समितियों के सदस्य. महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कार्य परिषद में भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित (2013).

परिप्रेक्ष्य : विष्णु खरे

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लोग थर्रा गए जिस वक़्त मुनादी आयी
आज पैग़ाम नया ज़िल्ले इलाही देंगे.

परवीन शाकिर का यह शेर इधर मुझे बार – बार याद आता है, ख़ासकर जब  विष्णु खरे कुछ कहते हैं.










एक बौखलाए बाबू की मगरमच्छी ब्लर्ब-वेदना               
विष्णु खरे



वो बात उनके फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो  बात  उन्हीं  को बहुत नागवार गुज़री है
(फैज़ अहमद ‘’फ़ैज़’’ का मशहूर शेर,कुछ ग़ुस्ताख़ तरमीम के साथ)


वि एवं काव्य-सक्रियतावादी मिथिलेश श्रीवास्तव को पिछले तीन दशकों से अधिक से जानता आ रहा हूँ. रघुवीर सहाय की नितांत असामयिक,त्रासद और भारतीय कविता का अकूत नुकसान करनेवाली मृत्यु तक अन्य कुछ तत्कालीन युवा कवियों की तरह मिथिलेश भी उनके नज़दीक़ रहे और उनसे कविता लिखने,पढ़ने और पढ़वाने के उस्तादाना गुर हासिल किए. मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले कविता-संग्रह (‘’किसी उम्मीद की तरह’’,1999) की शस्ति (ब्लर्ब) लिखने का फ़ख्र इस लेखक को हासिल है.

लेकिन उसके बाद मिथिलेश, जो ‘’टैंम्परामेंटल’’ और ‘’अन्प्रेडिक्टिबिल’’ भी हैं,एक ऐसी साहित्यिक संस्था के तत्वावधान में सक्रिय हो गए जिसे मैं अब भी संदिग्ध समझता हूँ और दूसरी ओर  ‘लिखावट’ नामक काव्य और विचार की अपनी संस्था के माध्यम से सभी-की कविता के प्रचार-प्रसार में जुटकर करेला और नीम-चढ़ा बन गए और उनके मुझ सरीखे निराश प्रशंसकों को यह लगा कि वह अपनी कविता को भूल गए हैं. लेकिन पिछले दिनों उनसे संपर्क-सूत्र फिर जुड़े और उन्होंने अपना एकदम ताज़ा और नया संग्रह ‘’पुतले पर गुस्सा’’ मुझे दिया और विरक्त-भाव से कहा कि अच्छा लगे तो विमोचन पर आइए. मैं दूसरे-तीसरे दिन ही देख पाया कि उन्होंने संकलन में छाप दिया है कि ‘’मैं यह संग्रह कवि विष्णु खरे को समर्पित करता हूँ’’.मुझे सपने में भी ऐसी आशंका न थी. होती तो यह समर्पण न जाता.

बहरहाल, क़िस्साकोताह,उनके इस संग्रह ने मुझे उम्मीदों से परे, सकारात्मक अचम्भे में डाल दिया. जिस कवि को मैं लगभग बट्टे-खाते में डाल चुका था उसका कृतित्व मानो शेक्सपियर के किसी नायक-प्रेत की तरह मेरे सामने खड़ा ‘’स्लीप नो मोर’’ कहता हुआ अपना हिसाब माँग रहा था. वह सब कभी बाद में. लेकिन जिस चीज़ ने मुझे बेहद मायूस किया वह थी उसकी शस्ति जो बहुत कल्पनाशून्य तथा लुंज-पुंज थी एवं अल्प-बुद्धि और नासमझी से लिखी गई थी. लेखक थे उमेश ठाकुर जिन्हें यदि हिंदी में जानना ही हो तो वह एक चलताऊ, तीसरे दर्जे के ‘’कवि’’ के रूप में ही संभव है.

इन शब्दों में तो नहीं, लेकिन विमोचन के अवसर पर मैंने उस शस्ति पर अपनी गहरी निराशा व्यक्त की क्योंकि वह किसी भी ऐसे बेहतरीन संग्रह को अपाठ्य-सा दिखाने के लिए काफ़ी है. वैसे भी इस ब्लर्बिये की ऐसी ख्याति नहीं है,हो भी नहीं सकती, कि सजग पाठक ललक कर पढ़ना चाहें कि देखें भाई अपने ठाकुर साहब ने ऐसा क्या लिख डाला है. ’’पुतले पर ग़ुस्सा’’ पर उमेश ठाकुर की शस्ति वैसी ही है जैसे डिप्टी कलक्टरी के इंटरव्यू में किसी अभागे उम्मीदवार के पास अपने गाँव के सदाशयी पटवारी-कोटवार का ‘’टैस्टिमोनियल’’.

स्वाभाविक था कि उमेश ठाकुर, जो विमोचन में मौजूद थे, उठकर अपना और शस्ति का कोई कैफियत देकर बचाव करते. उन्होंने मिथिलेश श्रीवास्तव के हवाले से बताया कि संग्रह की पांडुलिपि कई महीने तक एक नामचीन कवि के पास पड़ी रही जिसने कई वादों के बाद भी ब्लर्ब नहीं लिखी सो नहीं लिखी. तब कवि ने ब्लर्बिये से ही निवेदन किया, जिसने कृपापूर्वक इस गुरुतर भार को स्वीकार कर ही लिया. लेकिन यह भी इशारे हुए कि ठाकुर-शस्ति पर भी क़लम-कैंची चले. लिहाज़ा अंतिम रूप में यदि वह विकलांग लगे तो स्वाभाविक ही है.

आश्चर्य यह है कि इस लेखक की आलोचना के बाद भी न उमेश ठाकुर ने न मिथिलेश श्रीवास्तव ने उस ब्लर्ब को दुबारा पढ़ने की ज़हमत उठाई.निजी बातचीत में मिथिलेश ने बताया कि स्वयं उन्हें उमेश ठाकुर की शस्ति में कतरब्योंत करनी पड़ी थी.यानी इस ब्लर्ब में जो स्नायुदौर्बल्य है उसके लिए वैद्यद्वय नीमहकीम ठाकुर-श्रीवास्तव दोनों उत्तरदायी हैं.

एक लोकप्रिय कहावत है,‘’लौंडों की दोस्ती,जी का जंजाल’’. इसमें आप चाहें तो ‘’लौंडों’’ के स्थान पर किसी भी केन्द्रीय या राज्य सेवा के काडर का नाम रख सकते हैं. उमेश ठाकुर आइ.ए.एस. बताए जाते हैं और किसी मंत्रालय में किसी वरिष्ठ कुर्सी पर हैं. अंग्रेज़ी अखबार, विशेषतः टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप, ऐसे अफसरों को लगातार उद्दंडता और मज़ाहिया बेहुर्मती से ‘’बाबू’’ लिखते हैं,और इनके असोसिएशन कुछ कर नहीं पाते, लेकिन उनके हुज़ूर में बहुसंख्यहुडुकलुल्लू हिंदी लेखकों की, ज्ञानरंजन के शब्दों में, लेंडी तर और जहाँ से मानव की दुम झड़ गई है वहाँ गुदगुदी होती रहती है.

इस प्रकरण से मुझ सरीखे निर्लज्ज कुख्यात  ब्लर्बबाज़ के सामने भी यह होशदिलाऊ,त्रासद तथ्य आता है कि ब्लर्ब के लिखने-छपने के बाद न तो ब्लर्बिया पढ़ता है, न ब्लर्बाकांक्षी लेखक, न कोई प्रबुद्ध पाठक. प्रमाण के लिए यू.के.एस. ठाकुर,आइ.ए.एस. के ब्लर्ब का यह अंश देखें :
’’...(हुसैन के घोड़ों से प्रेरित अपनी कविता में) ‘यह गति मोनालिसा की मुस्कान की तरह रहस्यमयी नहीं है’ जैसी बात कह्कर ( मिथिलेश ) यह अहसास जगाने की कोशिश करते हैं कि पिकासो की चित्रकारी भले ही मोहक हो किन्तु वह गूढ़ता से ग्रस्त है...यहाँ एम.एफ़.हुसैन के घोड़ों की गत्यात्मकता और पिकासो की मोनालिसा की मुस्कान की रहस्यात्मकता की तुलना करने के बहाने वे कविता के विभिन्न स्वरूपों पर भी एक तुलनात्मक निगाह डालने का प्रयास करते हैं.’’

मैं यहाँ बाबू उमेश ठाकुर,आइ.ए.एस. की कविता की समझ,चित्रकला की बारीकियों की समझ की बात नहीं करता.मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता हूँ कि जिस आदमी के जनरल नॉलेज का यह हाल है कि उसे पता ही नहीं है कि मोना लीज़ा सरीखी कृति को,जिसे उचित ही अपने ढंग का संसार का महानतम शाहकार माना जाता है,पिकासो ने नहीं बल्कि पिकासो के नगड़दादा लेओनार्दो दा विंची ने बनाया था,उसे आइ.ए.एस. में घुसने किसने दिया ?

सवाल मात्र आइ.ए.एस. का नहीं है और न ठाकुर बाबू की (अ)योग्यता का.यदि मिथिलेश श्रीवास्तव चित्रकला को जानने और इस ब्लर्ब को संशोधित करने का दावा करते हैं तो उनकी निगाह से यह शर्मनाक ग़लती छूटी कैसे ? एक अजीब शक़ होता है कि या तो ठाकुर बाबू ने ‘इन ड्यू कोर्स’ मिथिलेश को ‘एक्सपोज़’ करने के लिए यह ब्लंडर लिखा या मिथिलेश ने उमेश बाबू को ‘पोस्ट फैक्टो’ विवस्त्र करने के लिए उसे जाने दिया.हम यह न भूलें कि बाबू ने Faecesbook (पुरीषंपुस्तक) के अपने ‘’status’’ पर मिथिलेश श्रीवास्तव की एकतरफ़ा निंदा की है.मिथिलेश चुप हैं क्योंकि एक बड़े बाबू के सामने अब गरिमाहीन टेलीफोन डिपार्टमेंट का एक मँझोला अफ़सर और कर भी क्या सकता है.यह कुछ-कुछ ‘’मुग़ले-आज़म’’ में पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के डायलाग की सिचुएशन है.

लेकिन मामला और भी गंभीर है.हिंदी में शस्तियाँ न भी पढ़ी जाएँ,जब ‘पुतले पर ग़ुस्सा’ अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ में जाएगी तो वहाँ के हिन्दीप्रेमी,प्राध्यापक और विद्यार्थी क्या कहेंगे ? कुछ  तो अपनी ठेठ भाषा में पूछेंगे कि क्या हिंदी में ऐसे भी चूतिये काम  होते हैं ? कोई दूसरा,कमतर कविता-संग्रह होता तो मैं इतना तूल न देता – हिंदी-संस्कृति आज देश की पतिततम भाषा-संस्कृति है – लेकिन मैं मिथिलेश श्रीवास्तव के इस उत्कृष्ट  संग्रह को इस तरह संदिग्ध या हास्यास्पद होते नहीं देख सकता.


पता नहीं किससे,लेकिन मैं माँग करता हूँ कि हिंदी कविता और साहित्य की जो भी गरिमा शेष है उसके  लिए, मिथिलेश श्रीवास्तव की प्रतिभा,काव्य-सक्रिय छवि और हित-रक्षा के लिए,प्रकाशक की अपनी इज़्ज़त के लिए और स्वयं बाबू उमेश बी.एस. चौहान आइ.ए.एस. की पद-प्रतिष्ठा,जैसी हैं जहाँ हैं, की हिफ़ाज़त  के लिए इस संग्रह को अविलम्ब बाज़ार से वापिस लिया जाए,इसका वर्तमान कवर नष्ट किया जाए और एक सावधानी से संशोधित ब्लर्ब के साथ उसे पुनर्मुद्रित किया जाए. विमोचन के दिन प्रियदर्शन,लीलाधर मंडलोई और रवीन्द्र त्रिपाठी तीनों  ने उम्दा वक्तव्य दिए थे,उनमें से किसी को भी या तो पूरा या उनमें से दो-दो पैरे भी इस काम के लिए लिए जा सकते हैं.इसमें कोई कोताही न हो.
________________________

(२)सदाशयबाबू का पाखण्ड 

vishnukhare@gmail.com

मंगलाचार : महाभूत चन्दन राय

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पेंटिंग : Mahesh Balasubramanian


महाभूत चन्दन राय (1981, वैशाली, बिहार) पेशे से केमिकल इंजीनियर हैं और कविताएँ लिखते हैं. किसी युवा में जिस तरह के ‘एंटी – स्टेबलिसमेंट’ की हम उम्मीद करते हैं, वह यहाँ है. धर्म-सत्ता और राज्य-सत्ता इस परिवर्तनकामी – चेतना के निशाने पर हैं. ‘यह पानी का आपातकाल है’ कविता में बेहतर रचाव है. तीव्रता और तेवर के साथ अगर तैयारी भी हो तो कवितायेँ असर छोडती हैं. इस युवा के लिए आपका मन्तव्य मायने रखता है.

महाभूत चन्दन राय की कविताएँ                 



हमारे बगैर तुम ईश्वर

क्या खुदा..?
क्या खुदा..??
हमने खोदा
तो खुदा !
हमने  रमाया
तो  राम...राम...राम 
नहीं तो  मरा...मरा...मरा !
हमने तुम्हारी चर्चा की
तो तू चर्चों में
चर्चाओं में रहा
हमारे झुके सर ने ही
गुरु के द्वार को भी
बना दिया एक तीर्थ गुरुद्वारा

तुम्हारे लिए ही ईश्वर
हमने बेझिझक त्यागा मोह
हम सुख से निर्वासित बुद्ध हुए
हाँ तुम्हारे लिए ही
हमने भिक्षुकता को अपनाया
हम तुम्हारी खोज में
भटके है हजारो साल
और तुम लाट साहब की तरह रहे
अपने घर में नजरबन्द

हमारी श्रद्धा ही
तुम्हारा स्वाभिमान है
जब तक हम तुम्हारे भक्त
तभी तक तुम हमारे देव
हमारे होने में ही
तुम्हारा अस्तित्व है प्रभु
और तुम्हारे होने में
समाहित हम  !

हमने तुम्हे आसरा दिया
अपने देवालयों में
और दिया आध्यात्मिक सुख
तुम जो हमे
भौतिक सुख का एक चिथड़ा भी 
दे न पाए

हमने मठों में तुम्हारी अनवरत उपासना की है
हमने लामा होकर तुम्हे चुकाया
अपने इस जन्म का कर्ज
हाँ हमने श्लोकों में तुम्हे जपा है
सहस्त्रो बार !

हम तथागत हैं
तुम्हारे बोध और अभ्यास के बीच
गर इस ज्ञान की धुरी तुम
तो ये भी जान लो परमेश्वर
इस धुरी का भी निर्माण हम ! 

हमारी बंदगी के बगैर
तुम्हारा प्रभुत्व भी कंगाल
एक वीरान उजड़ पार्थक्य अज्ञातवास 
हमारी साधना
तुम्हारे भीतर का प्रकाश है प्रभु
और ये भी गूढ़ सत्य
हमारे भीतर का यथार्थ तुम !

हमारे बगैर तुम ईश्वर
निसंतान !
और तुम्हारे बगैर हम
एक बताह (मूर्ख)
एक दूजे के बगैर
भटकेंगे दोनों भक्त और भगवान्
तुम अपने ब्रह्म लोक में उदास
मै इस मृत्युलोक में कुंठित



अंतिम-इच्छा

मैं  किसी नए जन्म की कामना नहीं करता
मैं चाहता हूँ इसी जीवन में एक वृक्ष की भांति जन्मना
मैं वृक्ष का वेश और वृक्ष की वृति चाहता हूँ
मैं वृक्ष सी उदार विराटता और उसका सहिष्णु धैर्य चाहता हूँ
मैं वृक्ष-चित्त होकर इन शांति-दूतों सा विश्व में  शांति-सन्देश फैलाना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ वृक्षों सा हरित आचरण !

मैं इन उज्जवल हिमशिखाओं से उतरती करुणामयी नदियों की काया चाहता हूँ !
मैं चाहता हूँ इन अविरल बेपरवाह बहती जलधाराओं का स्पंदन
जो किसी सरहद और दायरे को नहीं मानती
मैं नदी सी मानवीय समन्वयता की पोषक प्रवृति चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ नदियों सा संघर्षशील प्रवाहमय जीवन

मैं तपस्यारत पहाड़ों से वैराग्य का इच्छुक हूँ
मैं इन वज्रशिलाओं सी अडिग स्थिरता के सौंदर्य का अभिलाषी हूँ
मैं उन पहाड़ों सी निर्भयता और शौर्य चाहता हूँ !

मैं दरअसल पानी का स्वरूप चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ पानी सी अनाकार सहृदयता
मैं पानी सा साधारण जीवन-स्थिति चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ पानी सी विरक्ति

मैं दरअसल कर्तव्यों, अधिकारों, उत्तरदायित्वों, उपेक्षाओं, असफलताओं, झूठी क्षमाप्राथनाओं, और क्षमाओं की क्षतिपूरक खानपूर्तियों से भरे इस बोझिल जीवन से ऊब चूका हूँ !
मैं लगातार मशीनी होती इस आधुनिक सभ्यता शैली से छुटकारा चाहता हूँ !
मैं मिटटी का यह तन ढोते हुए महज मिटटी नहीं होना चाहता और मरते हुए महज मृत्यु को पाना नहीं चाहता
मैं उस अलक्षित योनि में जन्मना चाहता हूँ….
जिसकी कोई प्रजाति-वर्ण-वर्ग-धर्म न हो
मैं चाहता भोर की मधुरम बेला में छत की मुंडेर पर चहचहाती गौरेया सा उन्मुक्त सा जीवन !
मैं चाहता हूँ किसी अपरिचित कविता के शब्दों में तृप्ति सा जन्म सकूँ !




यह पानी का आपातकाल है

यह पानी का आपातकाल है
जेठ  की एक तपती दुपहरी अपने घर में
बेरोजगार पड़ा है मरियल आकाश
और पानी की कमाई पर निकले मेघ
आज फिर से मायूस खाली हाथ ही लौट आये हैं
पृथ्वी का पानीदार कोठार सूना पड़ा है
प्रकृति बीमार पड़ी है विकास के कोपभवन में

पानी के तलघरों में छिन्न-भिन्न पड़े हैं
पानी के स्वप्नावशेष
पानी की आँखों से विलाप बन कर
झर-झर चू रहा है पानी का दुःख
महज खत्म नहीं हो रही झीलों जलप्रपातों
तालाबों बावड़ियों की जलराशियां
टूट रहे है हिमखंड और पिघल रहे है ग्लेशियर भी
पाताल का नीला सोना विलुप्त हो रहा है
विकास का जलभक्षी दैत्य लील रहा है पानी की दुनिया


समुंद्र के कमजोर पाँव उखड़ रहे है धरती से
नीले जलघरों के बाशिंदे
घुट-घुट कर पी रहे है काला धुँआ
नदियां अपने जलचरों को बाँट रही है झूठी सन्तावना 
चिंताग्रस्त पहाड़ अपनी ठुड्ढी पर हाथ टिकाये
दुःख में उकडू पड़े है !
पानी को प्यासे खग विहग सबकुल जन कर रहे हैं
त्राहिमाम..! त्राहिमाम..!

महज गिर नहीं रहा धरती का  ही  भू-जलस्तर
यह हमारे निर्लज्ज आँखों और ऊसर होते ह्रदयों से भी
रिक्त होते पानी का आपातकाल है !
हर तरफ पसरा हुआ है
पानी का गला सड़ा मांस
पानी की अकाल-मृत्यु पर
शोकमग्न है सम्पूर्ण धरती

यही समय पृथ्वी- वासी दण्डित करे उसे
जिस अघोरी ने पानी का रक्त पीया
आओ पोंछे पानी के आंसू
अन्यथा एक दिन दुनिया में सिर्फ बचेगी प्यास !



गणतंत्र-बोध

हमारे युगनायकों ने अपने क्रान्तिबोध से
पालपोषकर अपने पैरों पर खड़ा किया था जिस गणतंत्र को
वो गणतंत्र किसी अस्वस्थ चौपाये की तरह पछाड़ खा कर गिर पड़ा है
जिसे अब महज नारों आंदोलनों अनशनों और धरना प्रदर्शनों से
खड़ा नहीं किया जा सकता
इस गणतंत्र की रीढ़ टूट चुकी है
पस्त हो चुका है इसका स्वावलंबन

हम जिस लोकधर्मी सर्वहारा गणतंत्र को जानते थे
उस जन-वादी  गणतंत्र को एक वर्गीय निष्ठां का हैजा हो चुका है
विकृत हो चुकी है इस गणतंत्र की परिभाषा
इस गणतंत्र में व्याप्त गण-बोध लगभग मृत हो चुका है
जिसे अब झूठे आदर्शों  अंधे दृष्टिकोणों और खोखली तसल्लियों की
बैसाखियों के सहारे और हांका नहीं जा सकता !

वह गणतंत्र जिसकी सम्मोहक परिभाषा हमारे अंत:करणों को
अपने  नशीले गणतंत्र-बोध से सम्मोहित रखती थी
उसमे स्वभावगत विद्यमान लोक-भाव का नैतिक हास हो  चुका है
यह गणतंत्र अब मुट्ठी भर अभिजात्य और कुलीन समुदायों का
बोझारु खच्चर भर बन कर रहा गया है
गड़बड़ा गए इसमें निहित  सामाजिक  निर्माण के रचनात्मक सूत्र
जिसकी पीठ पर इस बीमार समय को लादकर 
और ढोया नहीं जा सकता !
इस गणतंत्र को जरुरत है
नए सैद्धांतिक पक्षों विरोधाभाषों प्रतिरोधों और नयी  परिभाषाओं की !

बस वही नहीं है गणतंत्र की
संविधान-निर्माण की एक पुण्य-तिथि पर
हमारा गणतांत्रिक दायित्व-बोध सांस्कृतिक जुलूसों और झांकियों से दिग्भ्रमित
बरसाती मेंढकों की तरह कुलांचे भरता है
और लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराते हुए हमारे अभिभाषणों में
जिसका गौरवान्वित जिक्र होता है  
वह भी गणतंत्र है  छूटी हुई अनुगूंजों का कटोरादान
जिसे अपने नन्हे कोमल हाथों में लिए राजपथ पर एक बच्चा भीख मांगता है
वह भी गणतंत्र है संविधान की साख पर झूलती वीभत्स  स्त्री-दशा का  मांस-पिंड
जिसके शोक का मर्सिया हमारे गणतंत्र से अनुपस्थित है
वह भी गणतंत्र है लूट हत्या भूख बेरोजगारी के अर्धसत्यों का संदिग्ध प्रायश्चित बोध
सेकुलरिज्म के तमाम दावों और प्रतिदावों के बीच दंगों को कुरूप यथार्थ  !
वह भी गणतंत्र है हमारे दायित्वों का चोर दरवाजा
जिसकी आड़ में क्रान्ति का मुखौटा पहने  रोज कोई न कोई बहरूपिया
आंदोलनों का स्वांग रच हमे कठपुतलियों की तरह इस्तेमाल करता है 

दरअसल हमारे युग का सारा  गणतंत्र-बोध झूठा है
इस गणतंत्र को नए अधिनायकों की आवश्यकता नहीं है
इस गणतंत्र को जरुरत है नयी पुनर्व्याख्याओं नयी समीक्षाओं नए तथ्यपरक बुनियादों की
इस गणतंत्र के नए खतरे है

इस  गणतंत्र की नयी चुनौतियां हैं !
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 फ्लैटनंबर2557 हाउसिंगबोर्डकालोनीसेक्टर-55 फरीदाबाद-121004,हरियाणा

परिप्रेक्ष्य : लोकमानस के गाँधी : सुशोभित सक्तावत

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‘हम एक जैसे होने के बजाय भिन्न रहते हुए एक दूसरे को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं’. धार्मिक उन्माद और सांस्कृतिक एकीकरण के उफान में गांधी ऐसे नैतिक, मानवीय दृष्टिकोण हैं जो आज भी प्रासंगिक है. उन्हें बार-बार खारिज किया जाता है, पर हर बार उनके विचार खड़े हो उठते हैं. उनकी चेतवनी को सुना जाना चाहिए. ‘सत्य सिर्फ मेरे पास नहीं है, उसका कुछ हिस्सा दूसरे के पास भी हो सकता है’.दूसरे के विचारों और पहचान के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार आज और भी जरूरी है. अन्तत: संवाद ही एक रास्ता बचता है जो वादी और विवादी को बचाएगा.    


गाँधी जयंती के अवसर पर युवा लेखक  सुशोभित सक्तावत की गाँधी को समझने की हमारी परिपाटियों पर एक टिप्पणी.

लोकमानस के गांधी                                             
सुशोभित सक्‍तावत



गांधी को हमेशा किसी द्वैत के आलोक में देखने का हमारे यहां शगल रहा है. गांधी और नेहरू का द्वैत, गांधी और रबींद्रनाथ का द्वैत, गांधी और आंबेडकर का द्वैत, गांधी और मार्क्स का द्वैत, गांधी और भगत सिंह का द्वैत, यहां तक कि स्वयं गांधी और गांधी का द्वैत, 'गांधी बिफोर इंडिया'और 'इंडिया आफ्टर गांधी'की द्वैधा. इन तमाम द्वैतों को अगर हम किसी एक कथानक में सरलीकृत करना चाहें तो कह सकते हैं कि वह 'लोक'और 'जन'का द्वैत है. यही कारण है कि गांधी की प्रासंगिकता का परीक्षण करने के लिए हमें अपने निकट अतीत की उस परिघटना का जायजा लेना होगा, जिसमें हम पहले राष्ट्र-राज्य के नेहरूवादी प्रवर्तन की प्रक्रिया में 'लोक"से 'जन'की चेतना में दाखिल हुए और फिर भूमंडलीकरण के बाद हमने उसको भी अपदस्थ  कर एक 'छद्म-लोक'की प्रतिष्ठा कर डाली.
'लोक'एक बहुत व्यापक पद है. अंग्रेजी का folkउसका सटीक समानार्थी नहीं हो सकता. जर्मन भाषा का volkजरूर काफी हद तक उसके निकट है, जिसमें एक लोकवृत्त में बसे लोगों की साझा नियति होती है. इसकी तुलना में 'जन'की अवधारणा आधुनिक नागरिक चेतना की उपज है. 'लोक'के साथ मिथक जुड़ा है, स्मृति व संस्कृति जुड़ी है, आख्यान जुड़े हैं. 'जन'की केवल 'गणना'की जा सकती है. वह एक सांख्यिकी है. जनांकिकी है. अंग्रेज-बहादुर को इसमें महारत हासिल थी, जिन्होंने हमें जनगणना की तरकीब और आंकड़ों का महत्व सिखलाया. गांधी के परिप्रेक्ष्य में हमें 'जन'और 'लोक'के द्वैत को राष्ट्र-राज्य के बरक्स 'देश', भारतीय गणराज्य के बरक्स 'हिंद स्वराज', वैज्ञानिक चेतना के बरक्स सांस्कृतिक लोकवृत्त, 'आइडिया ऑफ इंडिया'के बरक्स भारत-भावना और विश्व-नागरिकता (कॉस्मोपोलिटनिज्म) के बरक्स लोकचेतना के द्वंद्व में समझना होगा.
गांधी के पास भारतीय लोकमानस की गहरी और दुर्लभ समझ थी, जिसे उनके अधिकतर समकालीन औपनिवेशिक सांचे में ढली अपनी बुद्धिमत्ता से उलीच पाने में विफल रहते थे. आजादी के बाद जब गांधी का पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिशें हुईं तो विभिन्न धाराओं ने अपने-अपने गांधी बांट लिए. गांधी-विचार को लेकर पिछले कुछ दशकों में जो अकादमिक दृष्टियां प्रचलित रही हैं, उनमें से एक उन्हें वेस्टमिंस्टर शैली के लोकतंत्र और राष्ट्र-रूप के समर्थक के रूप में देखती है, जिसके चलते ही उन्होंने इन मूल्यों के प्रतिमान पं. जवाहरलाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुना था. ऐसा समझने वालों में रामचंद्र गुहा प्रमुख हैं.
एक दूसरी दृष्टि मार्क्सवादी इतिहासकारों की है, जो गांधी को लेकर कभी सहज नहीं हो सके. जैसा कि दर्ज किया जा चुका है कि गांधी के प्रति मार्क्सवादियों का प्रेम भी तभी उमड़ा था, जब हाल ही में दिवंगत इतिहासकार बिपन चंद्र ने तथ्यों के सहारे साबित किया कि गांधी अपने परवर्ती सालों में धर्म और राजनीति के औपचारिक अलगाव को ठीक-ठीक उसी तरह स्वीकार कर चुके थे, जैसे कि नेहरू. तब भी गांधी के भीतर का 'धर्मभीरु'उन्हें कभी नहीं सुहाया. गांधी की प्रार्थना-सभाएं और उनका 'वैष्णवजन'उनके 'सेकुलर'स्नायु-तंत्र को क्षति पहुंचाता था. इसके बावजूद जनसाधारण के प्रति हो रहे अन्यायों और अतिचारों के खिलाफ आत्मोत्सर्ग की जिस गहरी चेतना के साथ गांधी ने जमीन पर उतरकर संघर्ष किया था, उसका लेशमात्र भी किसी मार्क्सवादी चिंतक ने नहीं किया है. मार्क्सवादी यह कभी समझ नहीं सकते थे कि अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए किसी देश की जातीय स्मृति और लोकचेतना को तहस-नहस करना अनिवार्य शर्त नहीं है.
इसकी तुलना में गांधी के प्रति एक अधिक सदाशय दृष्टि सीएसडीएस स्कूल के चिंतकों की रही है, जिनमें आशीष नंदी अग्रगण्य हैं. गांधी बनाम नेहरू की बहस को आगे बढ़ाते हुए नंदी ने नेहरू की उस वैज्ञानिक चेतना को प्रश्नांकित किया था, जो कि ग्राम्य-भारत की ज्ञान-परंपरा को ही खारिज करती थी. वहीं मानवविज्ञानी टीएन मदान ने 'नेहरूवादी सेकुलरिज्म'के बरक्स 'गांधीवादी सेकुलरिज्म'की अभ्यर्थना की थी, जो कि धर्मनिरपेक्षता का निर्वाह करने के लिए धार्मिक-आस्था के लोकप्रतीकों को लांछित करना जरूरी नहीं समझता.
इसके बावजूद बार-बार यह लगता है कि बुद्ध और गांधी भारतीय परंपरा में एक 'क्षेपक'की तरह थे. उन्हें एक अवांतर प्रसंग या एक विचलन की तरह ही देखा जाए. यह बुद्ध और गांधी की प्रखर नैतिक और आध्यात्मिक आभा थी, जिसे हमें स्वीकारने को बाध्य होना पड़ा था, जिसके समक्ष हम एक निश्चित कालखंड के लिए नतमस्तक भी हुए, किंतु आत्मत्याग का उनका आग्रह शायद कभी हमारे अनुकूल नहीं हो सकता था. एक समाज के रूप में हमारी मूल वृत्ति परिग्रह और उपभोग की रही है और हमें उसी के अनुरूप एक उपभोगवादी जीवन-दृष्टि भी चाहिए. बुद्ध और गांधी, भारतीय इतिहास पर अपने विराट प्रभाव के बावजूद, अंतत: इसलिए 'क्षेपक'हैं, क्योंकि पहले नौवीं सदी में सनातन परंपरा के शांकरीय प्रवर्तन और फिर बीसवीं सदी के अंतिम चरण में भूमंडलीकरण की लहर में हमने जिस तरह सहर्ष इनकी प्रतिमाओं को विदा किया और फिर इनकी गंध से भी परहेज करने लगे, वह अकारण नहीं था. पर्वों-उत्सवों और जलसों की भोगमूलक परंपरा जहां जनमानस में गहरे पैठी हो, जहां देवता भी लोकप्रबोधक नहीं लोकरंजक हों, जहां हर आयोजन-प्रयोजन अंतत: आत्म-साक्षात् का नहीं, बल्कि आत्म-प्रवंचना का एक और अवसर बनकर रह जाए, उसमें बुद्ध और गांधी को तो अप्रासंगिक हो ही जाना था.

क्या गांधी आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हो सकते हैं? यकीनन! बशर्ते हम अपने 'देश-काल"को पुनराविष्कृत कर लें.
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सुशोभित नई दुनिया के संपादकीय प्रभाग  से जुड़े है. 
 sushobhitsaktawat@gmail.co

परिप्रेक्ष्य : विष्णु खरे (२)

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'देखियो ग़ालिब से उलझे न कोई
है वली पोशीदा और काफ़िरखुला.'

मिथिलेश श्रीवास्तव के कविता संग्रह ‘पुतले पर गुस्सा’ के उमेश चौहान द्वारा लिखित ब्लर्ब पर विष्णु खरे की टिप्पणी पर प्रतिक्रियाओं के क्रम में उमेश चौहान ने प्रतिउत्तर दिया है, विष्णु खरे ने इस प्रतिउत्तर पर अपनी टिप्पणी दी है जो यहाँ प्रकाशित है.

विष्णु खरे हिंदी के वरिष्ठ महत्वपूर्ण कवि हैं, उनकी आलोचना को भी महत्व दिया जाता है इसके आलावा उन्होंने कई भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद किया है. हिंदी में सिनेमा पर कुछ बेहतरीन लिखने वालों में वह हैं.

विष्णु खरे की आलोचना की भाषा और प्रवृत्तियों की जगह व्यक्ति को लेकर उनकी इधर की सक्रियता पर तमाम प्रश्न उठे हैं और उनकी मंशा पर संदेह व्यक्त किया जा रहा हैं. क्या वह एक कुंठित मेधा हैं जो अपनी उपेक्षा के प्रतिउत्तर में तमाम मूर्तियों का भंजन कर रहे हैं, या हिंदी की ऐसी स्थिति बन गयी है जिसमें एक अनभय, स्वाभिमानी और कलम से आजीविका चलाने वाले व्यक्ति अंतत: इसी दशा को प्राप्त होता है.

उम्मीद की जानी चाहिये की विष्णु खरे हिंदी में उम्मीद की तरह अपनी वापसी करेंगे. उनसे बहुत कुछ सार्थक पाना है अभी हिंदी जाति को. 


सदाशयबाबू का पाखण्ड                 
विष्णु खरे

The road to Hell is paved with good intentions.
नरक के रास्ते का खड़ंजा सदाशयता से बना है.

श्री उमेश के.एस.चौहान,आइ.ए.एस. ने ‘’मोना लीज़ा’’को पिकासो की कृति घोषित करने के लिए क्षमा माँग ली है, मिथिलेश श्रीवास्तव के कविता-संग्रह ‘’पुतले पर ग़ुस्सा’की अपनी शोचनीय ब्लर्ब वाले कवर को हटवाने पर राज़ी हो गए हैं, हिंदी साहित्य को यह अभय-दान दे दिया है कि अब वह कभी कोई शस्ति नहीं लिखेंगे, लेकिन उनकी जली हुई दयनीय रस्सी के बल जा नहीं रहे हैं. उन्होंने अभी तक यह नहीं बतलाया है कि Faecesbook पर पहले ही दिन के अपने ‘स्टेटस’ में उन्होंने 20 सितम्बर की सभा के नागवार माजरे को छिपाया क्यों, जिसमें उनकी ब्लर्ब की आलोचना हुई थी और उन्हें उठकर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. उन्होंने अपनी ‘’सच्चे मन से लोगों की और विभाग की सेवा’’ में Suppressio Veri,Suggestio Falsi का बाबू-फ़ॉर्मूला बखूबी सीख लिया है.

लिख चुका हूँ कि मैं मिथिलेश श्रीवास्तव को पिछले तीस से भी अधिक वर्षों से जानता हूँ और उनकी कविता का प्रशंसक हूँ. मुझे पता नहीं कि 1980 के दशक के पूर्वार्ध में ‘शिल्पायन’ प्रकाशन की स्थापना हुई भी थी या नहीं. मिथिलेश का यह संग्रह इतना अच्छा है – उसकी कविता ‘’लाल ब्लाउज़’’ तो इतने अविश्वसनीय ढंग से बेहतरीन है कि इसे ‘शिल्पायन’ तो क्या, कोई काला चोर भी छापता तो उसके विमोचन में जाता. चौहान बाबू यह जानकर और भी बौखला जाएँगे कि उनकी फ़जीहत के अगले ही दिन मैंने राजेंद्र भवन में ही मेरे जामातृतुल्य परवेज़ अहमदके शानदार अरंगेत्रं (debut) उपन्यास ‘’मिर्ज़ावाड़ी’’ पर हुई एक हिंदी-उर्दू गोष्ठी में हिस्सा लिया था और उमेश चौहान की बदक़िस्मती से उसका प्रकाशक भी ‘शिल्पायन’ है. चौहान साहब को चाहिए कि वह ‘शिल्पायन’ के ख़िलाफ़ एक ऑर्डर इशू करें-करवाएँ कि वह विष्णु खरे से सम्बद्ध लेखकों की उम्दा कृतियाँ न छापा करे,छापे तो उन लेखकों को  खरे को दावत न देने का हुक्म दिया  जाए, वर्ना ‘’अंकल पुलिस बुला लेंगे, अंकल पुलिस बुला लेंगे’’.

उमेश चौहान सरीखे औसत से भी नीचे के गद्य-पद्य ‘’लेखक-कवि’’ की कारुणिक कुंठा तो समझ में आती है लेकिन यह समझना मुश्किल है कि वह उन्हीं मिथिलेश श्रीवास्तव पर हमला क्यों कर रहे हैं जो उन्हें ‘’लिखावट’’ में बुलाकर और अपने इतने महत्वपूर्ण संग्रह की ब्लर्ब लिखने का सुनहरी मौक़ा देकर उन्हें हिंदी कविता में एस्टैब्लिश करने की अंततः असफल हो जाने वाली कोशिश कर रहे हैं ? यह श्रीवास्तव-चौहान ‘नैक्सस’ समझ में नहीं आ रहा है. फिर, चौहान कवियों का ‘’छपास-रोग’’ से ग्रस्त होना तो स्वीकार करते हैं किन्तु बहुप्रसवा शूकरी से उनकी किंचित् ‘ग्राफ़िक’ किन्तु ठेठ,रंगारंग तुलना को, जिसे मैं पहले भी इस्तेमाल करता रहा हूँ, आपत्तिजनक मानते हैं. उन्हें ख़ालिस झूठ पर भी आमादा होने से कोई गुरेज़ नहीं. मैं गुलदस्तों और पुष्पहारों के विरुद्ध हूँ, क्योंकि हमारे यहाँ वे कुरुचिपूर्ण और सस्ते  ढंग से बनते हैं, अक्सर वे छोड़ या फेंक दिये जाते हैं, हमारे घरों या ठहरनेवाले कमरों में गुलदान नहीं होते. मैं बेकार शॉलों, नारियलों और भोंडे प्लास्टिकी, क्रोमियमी मेमेंटों का भी दुश्मन हूँ. कई बार उन्हें घटनास्थल पर ही ‘’भूलकर’’, छिपाकर या रास्ते में ‘डंप’ करके चला आता हूँ. इन पर भारत में रोज़ लाखों-करोड़ों रुपए बर्बाद होते हैं. लेकिन 20 सितम्बर की उस शाम मैं उस नक़ली, ग़लत-सलत संस्कृतनिष्ठ, अतिरंजनापूर्ण, गुड़-की-बासी-जलेबीनुमा भिनभिनाती भाषा का विरोध कर रहा था जो अक्सर गीतकार-सम्मेलनों के परिचयों की भोंडी परम्परा में सुनी जाती है. 

अच्छा है कि उमेश चौहान रघुवीर सहायकी ‘हमारी हिंदी’ और कैलाश वाजपेयीतथा श्रीकांत वर्माआदि की ऐसे ही शिरोच्छेदक तेवरों की कविताओं को लेकर सिलपट हैं वर्ना उन्हें आइ.सी.यू. में भर्ती रखना पड़ता. वरिष्ठ बाबूअशोक वाजपेयीका कुख्यात जुमला सुनकर कि ‘साहित्य कसाईबाड़ा है,यहाँ अपनी गर्दन की जोखिम पर ही घुसिए’ तो शायद उन्हें, जो उसे आइ.ए.एस. की तरह ( और उसकी वजह से भी ) महफ़ूज़ समझते होंगे, स्थायी मिर्गी हो जाती.

यह अवश्य है कि मालूम न था वह स्वयं को  पांचाली-सखी-भाव से  देखते हैं वर्ना 20 सितम्बर को ‘’खुले दरबार में द्रौपदी का चीरहरण’’ न होता, किसी अभयारण्य पिकनिक में कोई एकांत, अन्तरंग क्षण तलाशा जाता. लेकिन, ’महाभारत’ के सतही पाठ के आधार पर ही सही, कहा जा सकता है कि पतित दुःशासन और सब कुछ रहा होगा, लूती तो नहीं था (देखें मद्दाह, पृष्ठ 602,’’लू’’के नीचे). हमारे विश्ववन्द्य भारत के महान हिन्दू-आर्यों में लूतियत होती ही नहीं थी.

बाबू यू.के.एस.चौहान, जिन्हें ‘’ठाकुर’’ कहा जाना किन्हीं अज्ञात कारणों से शायद शर्मनाक, आपत्तिजनक और ‘’संकुचित सोच और घोर जातिवादी टिप्पणियों’’ जैसा लगता है, लेकिन ‘’चौहान’’ कुलनाम नहीं, अचानक किसी कबरबिज्जू की तरह गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं और कई महीने की गई रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी मेरी आलोचना की दुहाई देने लगते हैं. मैं दुहराता हूँ कि रवीन्द्रनाथ अब अधिकांशतः अपाठ्य और अप्रासंगिक हो चुके हैं. मुझे डर है कि कहीं बाबू साहब मूर्च्छित न हो जाएँ किन्तु उन्हें मालूम नहीं है कि मैं सार्वजनिक रूप से कहता और लिखता आ रहा हूँ कि शीर्षस्थ दिवंगत दलित कवि नामदेव ढसालमुझे आज विश्व-कविता स्तर पर  रवीन्द्रनाथ से कहीं अधिक सार्थक और श्रेयस्कर लगता है. दुनिया की जो हालत है उसमें आज ठाकुर की अधिकांशतः सैन्टिमेंटल, गुडी-गुडी, आउट-ऑफ़-डेट कृतियों से क्या मिलना है ? प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहायआदि महान लेखक हैं, नामदेव ढसाल जैसे भी, चलिए रवीन्द्रनाथ भी, उनका आदर करना ही चाहिए, उनसे सीखते रहना चाहिए और स्नेह रखना चाहिए, किन्तु उन्हें भगवान या गोमाता तो नहीं समझा जा सकता. हमारा पुंसत्वहीन दास्य-भावकुछ आधुनिक कविता को छोड़कर शेष समूचे हिंदी साहित्य को लगातार बालिश और शाहदौला का चूहा बनाए हुए है. इसमें खड़ी-बोली हिंदी के आदिकाल से ही केंद्रीय शर्मनाक, प्रतिक्रियावादी  भूमिका हमारे घटिया विन्ध्योत्तर  हिंदी विभागों के सवर्ण, जातिवादी, मूलतःअधकचरे  प्राध्यापकों और वहीं अंडज ( spawned ) और पले-पुसे आचार्यों, बाबुओं तथा नामी मैनैजिंग ‘’आलोचकों’’ की रही है.

उमेश चौहान अब खिसियाकर मुझे ‘’मोनालिसा की मुस्कान के मर्म को समझने’’ की सलाह दे रहे हैं. प्रश्न है कि फिर ब्लर्ब में लिखते वक़्त कि ‘’पिकासो की चित्रकारी भले ही मोहक हो किन्तु वह गूढ़ता से ग्रस्त है’’ और ‘’पिकासो की मोनालिसा की मुस्कान (में) रहस्यात्मकता (है)” उन्होंने यह मश्विरा खुद को क्यों नहीं दिया ? जो शख्स यह कह सकता है कि पिकासो/दा विन्ची की कला मोहक किन्तु गूढ़ताग्रस्त है और हुसैन के चित्र गूढ़तामुक्त हैं वह न तो पिकासो को जानता है, न दा विंची को, न हुसैन को. और  कला को लेकर तो वह कुन्द-ए-नातराश हुआ ही.

आगे चौहान बाबू अपनी लज्जास्पद भूल को निरर्थक वाग्जाल में छिपाने ही नहीं बल्कि उसका औचित्य ठहराने के लिए भी मुझे ‘’शब्द-परम्परा में निहित सदाशयता के मर्म को समझ’’ का प्रवचन देते हैं. यानी इस पर न जाइए कि उस दुष्ट राम ने कैसे वनवासी  रावण की पतिव्रता पत्नी सीता का अपहरण किया था और जटायु के सहयोग से लंका उड़ गया, बल्कि शब्द-परम्परा की सदाशयता के मर्म को जानकर समझ जाइए – जो कि आपका उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, गड़बड़रामायणी का नहीं – कि बाबू वाल्मीकि चौहान, आइ.ए.एस. दरअसल कहना क्या  चाहते थे. वह शुरू तो करते हैं कि To err is human...लेकिन अपने अहंकार में इस अंग्रेज़ी सुभाषित को ‘’to forgive, divine’’ से पूरा नहीं करते. किस ग़ैर-बाबू की मजाल कि वह उन्हें divine forgiveness दे दे !

उमेश चौहान स्वयं को ‘’सदाशय’’ कहकर अपनी दयनीय पीठ ठोक रहे हैं जबकि सब जानते हैं कि हमारे समाज में लाखों लोग स्वयं को भोला-भाला, सादा, अनजान और सदाशयी बतलाते घूमते रहते हैं और अपने पाखण्ड, धूर्तता और शातिरी में घृणित-से-घृणित दुष्कर्म करते रहते हैं. हर धर्म में भी  ऐसे बगुला-भगत मिल जाएँगे.आसाराम बापू तो एक उदाहरण है, हर शहर-क़स्बे में ऐसे पतित बाबा तथा गुरु  मौजूद और सक्रिय हैं. हमारे मंदिरों-मस्जिदों-चर्चों-गुरुद्वारों आदि के धर्मगुरु और वहाँ जानेवाले करोड़ों धर्मध्वजी नागरिक  स्वयं को सदाशय कहते नहीं अघाते लेकिन यह सभी को मालूम है कि भारत संसार का आठवां भ्रष्टतम देश है. बाबुओं, पूँजीपतियों और नेताओं की मिलीभगत से ही यह मुल्क बर्बाद हुआ है. रोज़ एफ़.आइ.आर. दर्ज़  हो रही हैं – आइ ए एस और अन्य केन्द्रीय काडरों के अफसरों की भी. अब तो न्यायपालिका और सेना भी संदेह से परे नहीं रहीं. निस्संदेह उमेशजी की नौबत वहाँ तक नहीं आई है न ईश्वर करे कि आए, लेकिन 20 सितम्बर की शाम की वारदात के बाद ब्लर्ब की बात छिपाते हुए सीधे  Faecesbook के नाबदान में कूद पड़ने में, जिससे उन्होंने कई लोगों पर छींटे उड़ाये और उड़ा रहे हैं, कौन-सी सदाशयता थी ?अपनी सदाशयता में यदि वह संतों की तरह मौन रहे होते तो ऐसी सार्वजनिक फ़जीहत तो न होती.

विजयादशमी को असत्य पर सत्य की विजय का पर्व बताया जाता है. हमारी ऐसी तमाम लफ़्फ़ाज़ हिन्दू सदाशयता के बावजूद असत्य लेशमात्र भी पराजित नहीं हो रहा बल्कि चौतरफ़ा  उसकी ऐतिहासिक जीत ही  हुई है. बाबू उमेश के.एस.चौहान,आइ.ए.एस. को चाहिए कि यदि वे सचमुच सदाशय हैं तो आत्मपावन बूर्ज्वा सदाशयता को  छोड़ें और पिकासो/दा विन्ची,हुसैन के घोड़ों और मोना लीज़ा ,मिथिलेश श्रीवास्तव, ’’लिखावट’’, ’शिल्पायन’, देश, मानवता, ब्रह्माण्ड और अपने जीवन के अंतर्संबंधों  की जटिलताओं को पहचानें. और हर किस्म का खराब लेखन और चिंतन तज दें.
विष्णु खरे  (9फरवरी, 1940छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश)

कविता संग्रह
1. विष्णु खरे की बीस कविताएं : पहचान सीरीज : संपादक : अशोक वाजपेयी : 1970-71
2. खुद अपनी आंख से : जयश्री प्रकाशन,दिल्ली : 1978
3. सबकी आवाज के परदे में : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1994, 2000
4. पिछला बाकी : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. काल और अवधि के दरमियान : वाणी प्रकाशन : 2003
6. विष्णु खरे चुनी हुई कविताएं : कवि ने कहा सीरीज : किताबघर, दिल्ली : 2008
7. लालटेन जलाना (कात्यायनी द्वारा चयनित कविताएं) : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008
8. पाठांतर : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008

आलोचना
1. आलोचना की पहली किताब : (दूसरा संस्करण) वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2004
(चार आलोचना पुस्तकें प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली के यहां यंत्रस्थ)

सिने-समीक्षा
1. सिनेमा पढ़ने के तरीके : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2008
2. सिनेमा से संवाद : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009

चुने हुए अनुवाद (हिंदी में)
1. मरु-प्रदेश और अन्य कविताएं (टीएस एलिअट की कविताएं) : प्रफुल्ल चंद्र दास, कटक : 1960
2. यह चाकू समय : (हंगारी कवि ऑत्तिला योजेफ की कविताएं) : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली :1980
3. हम सपने देखते हैं : (हंगारी कवि मिक्लोश रादनोती की कविताएं) : आकंठ, पिपरिया : 1983
4. पियानो बिकाऊ है : (हंगारी नाटककार फेरेंत्स कारिंथी का नाटक) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली: 1983
5. हम चीखते क्यों नहीं : (पश्चिम जर्मन कविता) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1984
6. हम धरती के नमक हैं : (स्विस कविता) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1991
7. दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि :(चेस्वाव मीवोश और विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2001
8. कलेवाला : (फिनलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : दूसरा, संशोधित संस्करण, 1997
9. फाउस्ट : (जर्मन महाकवि गोएठे का काव्य-नाटक) : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
10. अगली कहानी : (डच गल्पकार सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002
11. दो प्रेमियों का अजीब किस्सा : (सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
12. हमला : (डच उपन्यासकार हरी मूलिश का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
13. जीभ दिखाना : (जर्मन नोबेल विजेता गुंटर ग्रास का भारत-यात्रा वृत्तांत) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1994
14. किसी और ठिकाने : (स्विस कवि योखेन केल्टर की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002

हिंदी में विश्व कविता से सैकड़ों और अनुवाद कियेकिंतु वे अभी असंकलित हैं.

अनुवाद (अंग्रेजी में)
1. अदरवाइज एंड अदर पोएम्स : श्रीकांत वर्मा की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1972
2. डिसेक्शंस एंड अदर पोएम्स : भारतभूषण अग्रवाल की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1983
3. दि पीपुल एंड दि सैल्फ : हिंदी कवियों का संग्रह : स्वप्रकाशित, दिल्ली : 1983
4. दि बसाल्ट वूम्ब : स्विस कवि टाडेउस फाइफर की जर्मन कविताएं, पामेला हार्डीमेंट के साथ : जे लैंड्समैन पब्लिशर्स, लंदन : 2004

अनुवाद (जर्मन में)
1. डेअर ओक्सेनकरेन : (लोठार लुत्से के साथ संपादित हिंदी कविताओं के अनुवाद) : वोल्फ मेर्श फेर्लाग, फ्राइबुर्ग, जर्मनी : 1983
2. डी श्पेटर कोमेन : (लोठार लुत्से द्वारा विष्णु खरे की कविताओं के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग, हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006
3. फेल्जेनश्रिफ्टेन : (मोनीका होर्स्टमन के साथ संपादित युवा हिंदी कवियों के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग, हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006

संपादित प्रकाशन
1अपनी स्मृति की धरती : हिंदी अनुवाद में सीताकांत महापात्र की ओड़िया कविताएं : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली : 1980
2. राजेंद्र माथुर संचयन (दो भाग) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1993
3. उसके सपने : (चंद्रकांत देवताले का काव्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1997 [सह-संपादक]
चंद्रकांत पाटिल द्वारा इसी चयन का मराठी अनुवाद तिची स्वप्ने पॉप्युलर प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित
4. जीवंत साहित्य (बार्बरा लोत्स के साथ संपादित बहुभाषीय भारत-जर्मन साहित्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. महाकाव्य विमर्श : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1999
6. पाब्लो नेरूदा विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2006
7. सुदीप बनर्जी स्मृति अंक : उद्भावना, दिल्ली : 2010
8. शमशेर जन्मशती विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2011


सम्मान-पुरस्कार
हंगरी का एंद्रे ऑदी वर्तुलपदक (मिडेल्यन)
हंगरी का अत्तिला योझेफ़ वर्तुलपदक
दिल्ली राज्य सरकार का साहित्य सम्मान
रघुवीर सहाय पुरस्कार
मध्य प्रदेश शिखर सम्मान
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
भवभूति अलंकरण
फिनलैंड का एक सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ दि वाइट रोज ऑफ फिनलैंड
मुंबई की कला-संस्कृति-साहित्य संस्था परिवारका 2011का 
  “हिंदी काव्य सेवापुरस्कार
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निवास : A 703महालक्ष्मी रेसिडेंसी, गेट 8मालवणी म्हाडा, मालाड वैस्ट, मुंबई 400095.
सैलफोन : (0) 9833256060/ ईमेल : vishnukhare@yahoo.com, vishnukhare@gmail.com

परख : दलाल की बीवी (रवि बुले) : राकेश बिहारी

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दलाल की बीवी युवा कथाकार रवि बुले का पहला उपन्यास है. उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित और चर्चित रहे हैं. इसे 'मंदी के दिनों में लव, सेक्स और धोखे की कहानी'कहा गया है. हार्परकालिंस पब्लिशर्स इण्डिया से १५६ पृष्ठों में प्रकाशित १९९ रूपये का यह उपन्यास हिंदी में 'लिटरेचर और पापुलर के बीच की रेखा को मिटाता है'.इसे कथाकार मंटों की परम्परा में रख कर देखने की वकालत की गयी है.इसकी समीक्षा की है  राकेश बिहारी  ने.

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अनदेखे हाशिये का सच                   
राकेश बिहारी

वि बुले का उपन्यास दलाल की बीवी सबसे पहले अपने शीर्षक के कारण हमारा ध्यान खींचता है. कुछ वर्जित और अभेद्य को देखे जाने का सुख और रोमान्च कुछ लोगों के लिये तब और बढ जाता है जब नज़र इस शीर्षक के साथ लगे कैप्शन पर जाती है- ’मन्दी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी.’लेकिन इस कैप्शन में प्रयुक्त शब्द-त्रिकोण तक में ही उपन्यास को रिड्यूस कर दिया जाना इस उपन्यास के साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा, कारण कि यह उपन्यास हमारे समय के एक ऐसे सच को सम्बोधित करता है, जिस पर खुले मन से बात करने के अभ्यस्त हम नहीं रहे हैं. लेकिन इन चिन्ताओं की जड़ें कितनी गहरी हैं उसे समझने के लिये उपन्यास की एक जरूरी पात्र बिल्ली की चिन्ताओं से रूबरू होना बहुत जरूरी है - "बिल्ली सिर से पूंछ तक कांप गई...! बच्चे के मुंह से यह कहानी सुनकर उसकी नींद उड गयी. उसका मन बेचैन हो गया. वह कल स्कूल जा कर ज़रूर प्रिंसिपल से मिलेगी और शिकायत करेगी... क्लास में कैसी अश्लील और हिंसक बातें सीख रहे हैं बच्चे! फ़िर कुछ पल बाद वह सोचने लगी कि उसे जिस कहानी का पता था, वह सच है या जो बच्चे ने सुनाई वह? क्या योगानन्द की कहानी समय के साथ बदल गयी या हमारे समय में अश्लीलता और हिंसा हर तत्व में घुस चुकी है..? बच्चों की कहानी तक में! वह उलझन में पड़ गयी."  उपन्यास का यह आखिरी हिस्सा हमें कई प्रश्नों से घेर देता है. यथार्थ का जो स्वरूप हमें नंगी आंखों से दिखता है और जो दिखने से रह जाता है उनके बीच का फ़ासला कितना लम्बा है? अश्लील और हिंसक व्यवहारों से भरे इस समय में हम अपने भविष्य और अपनी संततियों के लिये कैसी दुनिया सिरज रहे हैं? यह और इन जैसे कई और प्रश्न इस उपन्यास की चिन्ता के केन्द्र में हैं.

रवि बुले की एक बड़ी खासियत यह है कि समय के सच और उसकी भयावहता को प्रकट करने के लिये ये किसी दुरूह और अबूझ रूपक का सहारा नहीं लेते न ही शिल्प के चौंकाऊ प्रयोग में उलझते हैं. उनके पास एक ऐसा पठनीय और रोचक गद्य है जो सीधे पाठक की उंगली थाम कर एक सहज कथानक के सहारे उसे अपने समय के सबसे खतरनाक सच तक पहुंचा देता है. एक ऐसा सच जहां जीवन-व्यापार को चलाये रखने के लिये देह-व्यापार एक खास तरह की मजबूरी हो कर रह गई है. आर्थिक मन्दी के बाद का यह एक ऐसा सच है जिसने हर व्यवसाय को देह तक रिड्यूस कर दिया है या यूं कहें कि देह को ही हर व्यवसाय की सफलता का प्रस्थान बना दिया है. गोकि उपनयास के आवरण पर हबीब कैफी का यह कथन भी चस्पा है कि ’मन्टो अगर आज होते तो निश्चित रूप से कुछ ऐसा ही लिखते’लेकिन सच पूछिये तो रवि बुले के इस उपन्यास पर किसी अन्य नये-पुराने लेखक की कीई कोई छाया नहीं है. इस उपन्यास पर सिर्फ और सिर्फ जिस एक चीज का प्रभाव है, वह है- आज का समय. जिन लोगों को समकालीन कथा-साहित्य से आज के समय के गायब होने की शिकायत रहती है उन्हें यह उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिये.

मुंबई जैसे महानगर में जहां जाने कितने लोग अपनी आंखों के कोर में रोज अनगिन सपनों की दुनिया सजाये आते हैं और कैसे एक दिन उनके वे सपने त्रासदी का रूप लेकर उनके जीवन को एक खास तरह की करुणास्पद विडम्बनाओं का रूपक बना डालते हैं का मर्मस्पर्शी आख्यान है यह उपन्यास. बीवी की हत्या, लडकियों की तस्करी, दैहिक शोषण, उत्पीड़न आदि जैसी क्रूरतम सच्चाइयां कैसे एक शहर के रेशे-रेशे में घुलते हुये आनेवाली पीढ़ियों को स्वप्नविहीन बना रही है या उनके लिये स्वप्न शब्द का अर्थ संकुचन कर रही है, उसे इस उपन्यास को पढते हुये बहुत आसानी से समझा जा सकता है.

समकालीन युवा रचनाकारों की भाषा-शैली में अमूमन तीन वरिष्ठ रचनाकारों- निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल और उदय प्रकाश का एक अजीब-सा कौक्टेल देखने को मिलता है. रवि बुले के इस उपन्यास को पढना इन अर्थों में भी सुखकर है कि इनकी भाषा-शैली इस तरह के हर प्रभावों से मुक्त है. रवि की भाषा में एक खास तरह की मौलिकता है, जो आपको कहीं और नहीं मिल सकती. भाषा और कथ्य के बीच एक ऐसी जुगलबन्दी जो पाठक और समय के बीच की सारी चौहद्दियां कब हटा कर रख देती हैं हमें पता ही नहीं चलता. समकाल और भाषा की इस जुगलबन्दी का एक नमूना आप भी देखिये - "विश्व भर के बाज़ारों में मन्दी किसी जहरीली गैस की तरह फैली हुई थी. लोग नौकरियों को अपने प्राणों की तरह बचाने में जुटे थे. अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार के विशेषज्ञ अपनी-अपनी भाषा में चिल्ला-चिल्ला कर चेता रहे थे... ’लिसन प्लीज... दिस इज फाइनेंशियल हरिकेन. सावधान... यह फ़ाइनेंशियल सुनामी है.’ इस सुनामी में लोगों के आय के स्रोत उजड़े जा रहे थे. चारों दिशाओं में डर था. शंका-आशंका थी. हड़कम्प था. बाज़ार में हर किसी की ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे अटकी थी. इन अटकी सांसों में एक ही शब्द लटक रहा था... पैसा!! अर्थ की नब्ज पढ़ने वाले शास्त्री घबराये हुये लोगों को समझा रहे थे कि धन की तरलता नष्ट हो रही है."आर्थिक मन्दी के बाद के भयावह यथार्थ क्को दिखाने वाली उपन्यास की ये शुरुआती पंक्तियां धन की तरलता नष्ट होने की मुनादी से शुरु होकर धीरे धीरे हमारे भीतर की तरलता के नष्ट होने की बात करते हुये हमारे समय का एक शोकगीत बन कर उभरती है. जब हमारे समय और समाज का लगभग हर आदमी इसी तरह अर्थ की नब्ज पढने वाले शास्त्री में बदल जाये तो फिर समय और सम्बन्धों की तरल उष्मा को बचाये रखने की चिन्ता को प्रकट करने के लिये मनुष्येतर प्राणियों की तरफ़ देखने की जरूरत पडती है. यही कारण है कि उपन्यास के सूत्रधार के रूप में बिल्लियों के एक परिवार की उपस्थिति सिर्फ कथानक को आगे बढ़ाने का उपकरण भर न होकर इस करुण यथार्थ पर एक मारक टिप्पणी भी है.

यह रवि बुले की पारदर्शी भाषा-शैली और परिपक्व कथा-कौशल का नतीजा है कि अवान्तर प्रसंगों में उलझ कर कहीं और बहक जाने की सारी आशंकाओं को झुठलाते हुये हुये वे न सिर्फ कथानक की गम्भीरता को आद्योपान्त बनाये रखते हैं बल्कि एक सार्थक और रचनात्मक हस्तक्षेप के साथ समय से सम्वाद करने में भी सफल होते हैं. प्रोपर्टी की दलाली के देह की दलाली में बदल जाने की त्रासदी का वर्णन करती यह कथाकृति समय-सत्य की कई परतों को उघाडकर देखती-दिखाती है. यहां कुण्डली पढने वाले सुग्गा-पोषकों से लेकर लेकर अकूत ऐश्वर्य के सन्धान में साधनारत बाबाओं तक की कहानियां मौजूद हैं. जब देश और दुनिया के सारे रोजगार मन्डी में बिकने वाले माल की नियति को प्राप्त होने को मजबूर हो चुके हों दलाली का एक सर्वव्यापी पेशे के रूप में नज़र आना कितना सहज हो गया है इसे इस उपन्यास में आसानी से समझा जा सकता है.    

चूंकि रवि बुले पेशे से फिल्म पत्रकार हैं, मुम्बई, फ़िल्म जगत, मीडिया आदि के रेशे से बुने कथानक के साथ वे ज्यादा न्याय कर पाये हैं. हां, कुछेक जगहों पर दृश्यों का अखबारी ब्योरों में बदल जाना जरूर खलता है. पर यह भी सच है कि इस उपन्यास ने मुम्बई के जिस हाशिये से हमारा परिचय कराया है वह अबतक हमारी आंखों के कोरों से अछूता था.   
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राकेश बिहारी 
सम्पर्क : एन एच ३ / सी ७६, एन टी पी सी, विन्ध्यनगर, जिला सिंगरौली ४८६८८५ (म. प्र.)
मो - ०९४२५८२३०३३

कथा - गाथा : लक्ष्मी शर्मा (२) इला न देणी आपणी

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steve mccurry























स्थानीयता से कथा में एक खास तरह की प्रमाणिकता आती है, उसके जमीन से जुड़ाव का अहसास बना रहता है, और कथा-रस  कहानी को पठनीय बनाने में सहायक होता है. लक्ष्मी शर्मा की यह कहानी एक ऐसी स्त्री को लेकर है जिसका संघर्ष अंत तक बांधे रखता है.  



(कहानी)

इला न देणी आपणी                                        

लक्ष्मी शर्मा


मैं एकटक उसे देखे जा रही हूँ, अपलक. राम के पूर्वज निमि अगर इस कलियुग में भी पलकों पर ही रहते हैं तो वो निश्चिन्त ही इस समय स्वयं की पलकें झपकाना भी भूल गए होंगे. सच कह रही हूँ कि मैंने इस के पहले ऐसा सम्पूर्ण सौन्दर्य शायद ही कहीं देखा हो, दर्पण में भी नहीं. झुक कर सब्जी का डोंगा उठाती उस प्रोढा स्त्री का सौन्दर्य विधाता के खुले हाथों लुटाये रंग-रूप में ही नहीं है उसके व्यक्तित्व में ही गुंथा हुआ है. उसकी पतली कलाइयों की लोच में, अकृत्रिम पद-लाघव में, उसकी कमर में खुंसी सस्ती सी सिंथेटिक साड़ी के तोतई हरे पल्लू में, उसकी सुघड़ नाक में पहने बड़े से बुलाक में, जो कदाचित उस का एकमात्र शेष बच रहा आभूषण है, और उसकी अंतर्मुखी सी शालीनता में जो मैं लगातार कल से नोट कर रही हूँ. वो अंतर्मुखता जो न सायास है न ओढ़ी हुई, न उसमे दैन्य है न उदासी. स्वयं के लिए आत्मदया और दुनिया के लिए उपेक्षा तो कतई नहीं, वो एक लय में डूबी है जो रोबोटिक भी नहीं और लौकिक भी नहीं. क्या है इस गरीब, अजनबी, अधेड़, कामगर स्त्री में, मैं समझ भी नही पा रही हूँ और मुक्त भी नहीं हो पा रही हूँ. माँ के जाने के दुःख और उनके गंगभोज की व्यस्तता के बीच भी वो मुझे लगातार अपील कर रही है, या कह लूँ कि हांट कर रही है. उसे मैंने एक बार भी मुस्कराते नहीं देखा पर वो कहीं से भी दुखी नहीं लग रही. हे भगवान, मैं तो इसका विश्लेषण करने बैठ गई, ‘हर जगह कहानीकार बने रह कर चरित्र खोजते रहना ठीक बात नहीं हाँ मालती,’ मैंने खुद को टोका और विदा में दिए जाने वाले भगोनों और मेहमानों का मीज़ान बिठाने लगी, अभी तो कुछ साड़ियाँ भी और मंगवानी होगी और चार-छः भगोने भी.
भाभीमैंने भाभी को आवाज़ दी.
हओ बाई, बोलो.” पीछे भाभी की जगह कोई नई आवाज़ आ खड़ी हुई थी, मेरे लिए अपरिचित. मुड के देखा तो वही किताबी चेहरा जिससे पीछा छुड़ा के मैं यहाँ भंडार में घुसी थी. “नहीं, मैं भाभी को...”
आई बाई सा, वो नसियां वाली काकी सा को छोड़ने गई थी. तू जा सुरसती, बाई सा तुझे नहीं, मुझे बुला रही थी. दरअसल इसे यहाँ सब भाभी ही कहते हैं न तो... कितने भगोने और साड़ी कम पड़ रही है?” मेरी भाभी एक बात में बहुत कुछ निपटा रही है. सुरसती के जाने के बाद हमें बहुत कुछ करना था सो उस समय मैं सब कुछ भूल-भाल गई पर मैंने दिमाग की टू डू लिस्ट में डाल लिया कि जोधपुर लौटने के पहले एक बार सुरसती से बात जरूर करनी है, अगर ये राजी हो गई तो.
गंगभोज की व्यस्तता ओर मेहमानों की गहमागहमी के डेढ़ दिन जब गुजर गए और बच रहे आधा दिन के लिए हम लोग कुछ फ्री हुए तो वो फिर मुझे हांट करने लगी.
सुनो भाभीमैंने उसे पुकारा पर मेरी आवाज़ पे उसने जरा भी तवज्जो नही दी और अपनी आत्मलीनता में डूबी धुले बर्तन पोंछती रही, अब जब उसे मालूम है कि मैं उसे भाभी नहीं बुलाती तो बेकार देखने का भी क्या फायदा. “सुनो ना सुरसती भाभी, मैं तुम्हे ही बुला रही हूँ.” अब मैंने नाम लेके पुकारा और मैं अचंभित रह गई ये देख के कि सुरसती इस सहजता से पास आ खड़ी हुई जैसे वो सदियों से मेरे पुकारे जाने के इंतज़ार में ही खड़ी थी. उसके चेहरे पर सहज चुप्पी के अलावा कुछ नहीं है, न झिझक, न उत्सुकता, न प्रश्न, न उतावली. बस पृथ्वी सी सहजता. “बैठो भाभीमैंने कहा तो उसके मुख पर एक अनिच्छा सी उग आई जो उसने छुपाई भी नहीं, “बोलो बाई, क्या चाहिए, पानी लाऊं या चाय बना दूँ.” उसने गीले हाथों को सिन्दूरी साड़ी के किनारे से पोंछ लिया. “नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस तुमसे बात करने को जी कर रहा है.” उसके सादा और स्ट्रेट फारवर्ड मिजाज़ पर न मेरी कोई चतुराई चलती न ही मैंने कोशिश की, बस सीधे से अपनी बात रख दी. “तो कर लो, पर क्या बात करोगी? मैं तो तुम्हें जानती भी नहीं, और ना तुम मुझेसुरसती शार्प है. “अरे, तो मुझे कौन सा रिश्तेदारी निकालनी है भाभी. बस ऐसे ही तुम अच्छी लगी तो बात करने का मन हो गया, बैठो.”

मेरे नज़दीक चौकी पर बैठी सुरसती को मैंने जरा गौर से देखा, क्या रंग-रूप दिया है विधाता ने इसे... तिलोत्तमा... अपरूपा.. भुवनमोहिनी जैसे शब्द इसी रूप को मिले होंगे ना. “इसी रूप ने आज मुझे तुम्हारे आगे बिठा रखा है बाई.” सुरसती में बुद्धिमानी और स्त्रियोचित अंतर्दृष्टि दोनों है, नज़रों से भाँप लेना उसे शायद इस फुर्तीली देह के साथ ही मिला है तभी तो इस धर्मशाला की सबसे महंगी कर्मचारी है. ”मैं समझी नहीं भाभी, रूप के पुण्य से यहाँ हो या पाप से?”
अब ये तो मालिक ही बताएगा आगे-आगे, मैं तो बस भोग रही हूँ.”
कहाँ की हो भाभी..”
सुरसती ने कुछ क्षण तोलती हुई, चतुर नज़रों से मुझे देखा, पास के हाल में सामान सहेजती भाभी को देखा, अपने आसपास के सूने चौक को देखा और हर तरह से आश्वस्त होके जवाब दिया थी तो होशंगाबाद जिले की, पर अब जहाँ ये पेट ले जाये वहीं की हो जाती हूँ बाई. अब तो ये पेट ही मेरा ठिकाना है और हाथ-पैर मेरे संगी साथी.” सुरसती ने अपनी ओर आते लंगड़े चींटे को तर्जनी के निशाने से बरामदे के नीचे हिट कर दिया. “पढ़ी-लिखी हो?” “हाँ, बारह दर्जे तक स्कूल गई थी, फिर सब छूट-छाट गया.”
भाभी, तुम थोड़ी-बहुत पढ़ी हुई भी हो, रंगरूप से भी अच्छे घर की दिखती हो फिर यहाँ ये काम क्यों...”
कहा ना बाई, ये रंगरूप मुझे नचा रहा है और मैं इसे...”
क्या...क्या कहा इसने आखिर में..ये रंगरूप को नचा रही है, कैसे... अगर ये बात कोई रूपजीवा कहती तो बात थी पर इसके, एक रसोई-चौका करने वाली, अधेड़ औरत के मुँह से ये बात, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा पर मैं चुप रही. कुछ तो है ही इसमें, ऐसे ही तो नहीं हांट कर रही ये मुझे... इस स्त्री के सहज बर्ताव के पीछे भी क्या एक रहस्यमय अतीत है. मुझे खुद की सास-बहु सीरियल मार्का बुद्धिपर हंसी और चिढ दोनों आई. ‘खुद से खुद ही बुनती-उधेड़ती रहोगी या इस से भी कुछ सुनोगीमैंने खुद को चुपाया और सुरसती से मुखातिब हुई. “कितने साल की हो भाभी ?” “अबके नवम्बर छियालीस की हो जाउंगी बाई, 28 नवम्बर लिखी थी स्कूल के कागज में.” अरे हां, ये तो पढ़ी-लिखी भी है ना. मुझे याद आ गया. “स्कूल में क्या विषय पढ़ती थी भाभी तुम?” मैं बात करने को बात कर रही हूँ कि कहीं से तो कोई सूत्र मिलेगा लेकिन जब भाभी ने कहा अंग्रेजी और भूगोलतो मैं  एक बार फिर चौंक गई. सच में कहानियों का पात्र है ये स्त्री. “फिर आगे पढाई क्यों छोड़ दी, यहाँ कैसे आ गई, घर में क्या और कोई नहीं जैसे कितने ही प्रश्न मेरे मन में थे, सच कहूँ तो पूछने का मन भी था, लेकिन इस तिलोत्तमा सुन्दरी में कुछ तो ऐसा है कि मैं ज्यादा सीधे-सीधे कुछ नहीं पूछ पा रही हूँ और कुछ ऊटपटांग भी पूछ ले रही हूँ, जैसे मैंने अचानक पूछ लिया भाभी, तुम्हारी शादी तुम्हारी पसंद से हुई थी?” “नहीं, अब होगी.” भाभी के कोमल रूप पर सुर्खी दौड़ गई, कठोर सी सुर्खीये एक और ट्विस्ट है, समझना मुश्किल है कि ये डायलॉग ख़ुशी में आया है या तंज में, इसकी अब तक शादी ही नहीं हुई है या मनपसंद की नहीं हुई है?
क्या ! शादी या मनपसन्द वाली शादी?” मैं बिना आगे-पीछे सोचे धडाक से बोल गई और अपनी इस बदफैली पर भीतर से सहम भी गई पर घटनी तो घट चुकी थी और... और भाभी अब भी सहज थी. उसकी नाक का फूल स्थिर था. “सादी तो हो गई बाई, अब तो मनपसन्द वाली होनी है.” हे प्रभु, एक और सिक्सर. क्या स्त्री है यार, कैसी तो बेबाक और कैसी तो बेलौस. ये तो डराती है, कहीं गलत नम्बर तो नहीं डायल हो गया मुझ से... कौन जाने कोई आवारा किस्म की ही हो जो अपने बुरे लक्षणों के कारण घर से भाग आई हो. पर ऐसा होता तो धर्मशाला मेनेजमेंट इसे नौकरी पर रखता, इसे भंडार की चाबी रखने का सम्मान देता? चलो मान लिया मेनेजमेंट तो पुरुष वर्चस्व का है लेकिन इस कस्बेनुमा शहर की खाँटी पारम्परिक औरतें भी भाभी की तारीफ़ करती हैं जो ऐसी-वैसी औरतों को देखते ही मुँह नोचने पर उतारू हो जाती हैं.
क्या सोचने लगीं बाई?” सुरसती ने पहली बार अपनी ओर से बात बढाई
तुम बहुत अलग हो सबसे, रूप में भी और बुद्धि में भी.” सुरसती मेरी बात का जवाब दिये बगैर चुप बैठी है, “तुम्हारा पहले वाला पति कैसा था सुरसती भाभी?” लंगड़ा चींटा फिर बरामदे में चढ़ आया है.
था नहीं बाई, अब भी है.” बाप रे... मैं सनाका खा गई, ये बेवा या तलाकशुदा नही, पति को छोड़ कर आई हुई औरत है. ’चालूमेरे मन में पहला रिएक्शन वही उभरा जो मर्दवादी समाज में बुनी गई स्त्री का होना था. उसकी नाक का फूल थरथराया मैं ऐसी वैसी औरत नहीं बाई. होती तो इस पराये पराए देस में चौका-बासन नहीं करती होती.” सुरसती की आवाज भी काँप रही है, ना जाने कौन सा जेस्चर मेरे रिएक्शन की चुगली कर गया जिसने इस मजबूत औरत को रुला दिया. मैं बिना कुछ कहे मुजरिम सी बैठी जाजम पर सरसराते लंगड़े चींटे को देखती रही. “अभी आप घर जाओ बाई, मैं रात को आउंगी. मुकुल भैया का घर जानती हूँ मैं.” सुरसती ने एक टूक फैसला सुनाया, घिसटते लंगड़े चींटे को अपनी चप्पल के आघात से देहमुक्त किया और भंडार में घुस गई.
रात 10 बजे के लगभग, जो  मैंने सोचा था ठीक उसी समय, सुरसती भाभी लान में आ खड़ी हुई और वहीँ बैठने का संकल्प लिए एक कुर्सी पर जम गई. हालाँकि जाती हुई हुई ठंड है पर रात दस बजे लान में बैठना... खैर.
अब पूछो बाई, का पूछने हैं तुमाए लाने. ऐसे तो हम कोनऊ को नईं बताते हैं पर तुम इत्ती बड़ी मास्टर, लिखवे-पढवे वाली दीदी, चार दिन से हमाए चक्कर खा रही हो, हमारे बारे में सोचत हो तो बताने आ गए. तुम हम पे साई एक कहानी लिखई देव बाई.” यहाँ खुल के बुन्देलखंडी में बोलती सुरसती अपने स्वभाव के फुल फार्म में है, फोकस्ड, टू द पॉइंट. मुझे भी इधर-उधर की बात करने का कोई औचित्य नहीं लगा. “कोई नई बात तो है नहीं भाभी, तुम मुझे सबसे बहुत अलग लगी और मेरा तुमसे बात करने का मन किया. और बात करने के बाद तुम मुझे और भी ज्यादा अलग लग रही हो, बताओ न कुछ अपने बारे में.”
बताऊँगी, बतावे तो आये हैं, तुमाओ भरोसा भी है और जा तसल्ली भी के अगर हम मर गए तो जो सच हमाए संग तो ने मरहें न. ऐसे काय देखत हो बाई, हमाई मौत तो हमाए संगे चल रही है. और तुम डरत काय हो, इते अबे कछु ना हुइए.” सुरसती को राम ने कोई भीतरी आंख तो जरूर दी है जो वो सामने वाले की एक-एक साँस को पढ़ लेती है, “तुम भीतर जाओ लाला.” मेरा भतीजा पास आके बैठने लगा था कि सुरसती ने उसे बेहिचक बरज दिया.
हम होशंगाबाद जिले के एक छोटे से गाँव के ठाकुर की मोडी आए. दाल-रोटी खात भये गिरस्थ घर की मोडी. सब मोड़ियों के जैसे घर को काम करत, भईया-बहनों से लडत, मताई से ठुकत-पिटत, स्कूल जाती मोड़ी. सब मोड़ियों में और हम में बस एक ही अंतर हतो कि बिधना ने हमाए लाने ये रंगरूप दियो जो हमाए मताई-बाप के जी की आफत बन गयो. राम कोनऊ को जे रूप ना दे बाई. एइके कारण आज हम दर-दर के हो रहे हैं.”
क्यों भाभी,” शायद इसका अपहरण हुआ हो या बलात्कार के बाद घर से निकाल दी गई हो, मेरे टेलीविजनी प्रीडिक्शन चालू है. शुक्र है सुरसती अपनी यादों में आँखे फेरे हैं, वरना अभी एक तीर आता.
माँ-बाप सारे माँ-बापों जैसे थे, वो गरीब के धन की तरह हमें सम्भाल-सम्भाल के रखते, सारे बखत चौकसी की आँख रखते, अकेले घर से जाने की छुट न घर पे फालतू आदमी आने की रजा. स्कूल भी जाती तो बहन के साथ. उसकी छुट्टी हो तो मुझे भी घर रहना पड़ता. न खेत पे अकेली जा सकती थी ना हाट-बाज़ार. मेले-ठेले, शादी ब्याह का मतलब ही नहीं. जहाँ अम्मा, जिज्जी जाये वहीं जाओ बस. और तो और दिसा-मैदान भी अम्मा के बिना नहीं निकल सकते थे हम.” सुरसती ने यादों की पोटली फैला ली है और खुद भी उसमें उलझ गई है, मैं साफ देख रही हूँ कि अपने रूप का वर्णन करते समय वो जरा भी खुश नहीं बल्कि तिक्त ही हो रही है. “अम्मा अकेले में लाड लड़ाती पर सबके सामने गालियाँ देने के मौके तलाशती. घर में वैसे भी कोई घी-दूध की धार नहीं बहती थी पर जो भी था उसमे से भी मुझे कम से कम दिया जाता कि मेरी देह पहले ही लम्बी-पूरी थी. जिज्जी दो बरस बड़ी हो के भी सूखी पापड़ी सी थी सो वो भाई के साथ घी-दूध खाती, मुझे चिढाती और मैं कक्का के डर से चुप बैठी कुढती रहती.” सुरसती फिर से हिंदी में बोलने लगी है, शायद समझ गई है कि मुझे बुन्देलखंडी कम पल्ले पडती है.
क्या तुम्हारी बहन सुन्दर नहीं थी?”
थी. अम्मा-कक्का दोनों सरूप थे तो हम तीनों बच्चे ही बहुत अच्छे रंग-रूप के थे पर मेरे साथ खड़ी होके तो वो भी उन्नीस पडती थी. वो ही क्या आसपास के गाँव की हर लड़की मुझ से उन्नीसी ठहरती थी, इस कारण मैंने बहुत कुछ झेला सहा भी है बाई, गाँव की लडकियां न मुझसे दोस्ती करती न मुझे अपनी टोली में साथ लेती. इसी कारण मैंने स्कूल में भी बहुत नीचा देखा है.” प्रतिपदा की चांदनी सुरसती की नाक के फूल को छूने के प्रयास में उसकी लम्बी कंटीली बरोंनियों में उलझ गई है और वहाँ से निकलने की कशमकश में उसकी बरोनियों को थरथराने में लगी है. अकम्प बैठा उसका प्रोढ़ सौन्दर्य लॉन में आसक्ति और विरक्ति का मिलाजुला अजीब सा प्रभाव पैदा कर रहा है. अचानक मुझे आज पहली बार ये अनुभव हुआ कि ऐसा रूप विरक्ति के बिना आसक्ति नहीं दे सकता और किशोर उम्र की युवतियाँ इस से खौफ खाती थी तो क्या अनहोनी करती थी. किसी भी युवती को कमतर दिखना नहीं अच्छा लगता. हवा में खुनकी बढ़ गई है सो सुरसती ने अपनी चटख गुलाबी साडी का पल्लू गले में लपेट लिया है और बाउंड्री पर रखे पोधे को गौर से देख रही है.
ये हरसिंगार है ना बाई? हमारे गाँव में नर्मदा मैया की कृपा है, खूब हरियाली और पेड़-पोधे पनपते हैं वहाँ. मुझे बहुत शौक था धरती और पोधों का और इसलिए मैं ने भूगोल लिया था दसवीं के बाद, पर....” सुरसती के बाकी शब्द गले में अटक गये लेकिन उनका अर्थ मुझ तक फिर भी पहुंच गया. तुम भी मेरे देश की उन करोड़ों लड़कियों जैसी हो जिनकी पढने-लिखने की चाह समाज का भय लील जाता है. वो भय जो पिशाच की तरह माँ-बाप के गले में हर समय झूलता रहता है, तब तक जब तक कि ब्याह के मंडप में खड़ा हो कर लडकी के सपनों की बलि ना लेले. इस बेचारी के साथ भी यही हुआ होगा. सुरसती अब जमीन पर लगे छुईमुई के पोधे को छेड़ने में लगी है. “बाई इसे उखाड़ के फैंक दो, ऐसे कमजोर पोधे को घर में रखना ही क्यों जो छूते ही मुरझाए. पोधे मजबूत हो या फिर गुलाब जैसे कंटीले.” और मुझे लंगड़े चींटे को मसलती चप्पल याद आ गई. “छोडो भाभी, तुम अपनी बात बताओ ना.” मैं उसकी तरह टू द पॉइंट हूँ,
हओ बाई. तो, ऐसे करते ही हम दोनों बहने जवान हो गई. मैं दसवीं में और जिज्जी बारहवीं क्लास में थी जब दीदी को लड़के वाले देखने आये. मुझे पहले ही दूसरे गाँव मौसी के घर पहुंचा दिया गया कि कहीं लडके वाले मुझसे  मिलने की इच्छा ना जता दें और मेरे कारण दीदी के नसीब से इत्ता अच्छा घर-बर ना छूट जाए. खैर, पास के गाँव के छोटे ठिकानेदार के बड़े बेटे ने हमारी जिज्जी को पसंद भी कर लिया और उन दोनों का ब्याह भी हो गया. जिज्जी शादी के बाद घर लौटी तो देह सोने, संदल और सिल्क से गमक-दमक रही थी और वो खूब खुश थी. जीजाजी हमसे भी बड़े खुश रहते, कित्ती बार हमे घर भी बुलाया पर न हमे जाना पसंद था न अम्मा-कक्का को भेजना. जीजाजी जब भी घर आते, हम दोनों भाई-बहनों के लिए कपड़ा-मिठाई लाते, हम से खूब बातें करते. बड़ों का मान रखते, अम्मा-कक्का से आंख झुका के बात करते. साल भर में जिज्जी के पांव भारी हो गये, हम सब खुश थे. मेरी पढाई भी अच्छी चल रही थी और कक्का जीजाजी के साथ मिल कर मेरे लिए लड़का भी देख रहे थे.” पुराने दिनों में खोई सुरसती के कुछ साल भी मानों पीछे लौट गये हैं. वो प्रोढ़ा से किशोरी में तब्दील हो गई है. अपने अच्छे दिनों को जीती किशोरी. भाभी दो बार चक्कर काट गई, वो चाहती हैं कि हम कमरे में नहीं तो कम से कम बरांडे में तो बैठ ही जाएँ पर सुरसती अंगद का पैर और मन दोनों रखती है. “तुम चिंता नहीं करो दुलहिनको कुछ नहीं होगा, अब इत्ती ठंड नहीं है.” दरअसल सुरसती भाभी से पहले से ही जरा खुली हुई है तभी तो बेहिचक घर आ जाती है, उसने भाभी को दुल्हिन कहने का अधिकार भी ले रखा है. कोई जरूरत पड़ने पर वो भैया-भाभी के पास ही आती है. और उसकी जरूरतें होती हैं मनी ट्रांसफर करवाना जैसे बैंक के छोटे-मोटे काम या कभी कोई दवा ला देना. “और कक्का को मेरे दुल्हे के लिए ज्यादा खोज भी नहीं करनी पड़ी, जीजाजी की बुआ के लडके से मेरी सगाई हो गई. और आते जेठ का ब्याह भी तय हो गया.”
और लड़का तुम्हें पसंद नहीं था,” मेरा उतावला स्वभाव अपने ही निष्कर्ष खोज रहा है, इसी ने तो बताया था कि अभी मनपसन्द की शादी होनी बाकी है.
उस उम्र में कोई लड़का जल्दी से बुरा नहीं लगता बाई, फिर ये तो माँ-बाप का ढूंढा हुआ लड़का था. बिन बाप का बेटा, घर का गरीब था पर पढने में बहुत तेज था, अच्छा रंगरूप, कॉलेज में बीएससी पढ़ रहा था, तो क्या बुरा लगना था, फिर भी मैं खुश इसलिए नहीं थी क्यूंकि मेरी पढाई छूट रही थी.” सुरसती का ये वाक्य राजनैतिक सा है, लड़का पसंद था या नहीं कुछ स्पष्ट नहीं हुआ. चांदनी भी उसकी पलकों से निकल के नीम के पत्तों से आँखमिचोनी में लग गई है, सो साफ़ दीख भी नहीं रहा कि उसके मन में क्या चल रहा होगा.
मेरे शादी के घोड़ी-बाजे, धर्मशाला सब तय हो गए थे, बुलावे का पहला कार्ड गणेश जी को भेज दिया गया था और अम्मा ने मौत-उठावने में जाना बंद कर दिया था, लेकिन भेमाता को तो कुछ और ही मंजूर था, जिस दिन आंगन में पड़ोसनों ने पहली बरनी गाई उसी रात जिज्जी को जोरदार दर्द उठा, उसे घर पर ही छ्मासा बच्चा हुआ और अस्पताल ले जाने तक चटपट में खेल ख़त्म हो गया.” ओह, वही फेमिली मेलोड्रामा. मुझे आगे की सारी कथा समझ आ गई. अब जीजा से ब्याह और क्या.
सही सोच रही तुम बाईसुरसती ने फिर मेरा मन पढ़ लिया. “मैं हल्दी लगी, पीढ़े चढ़ी, बान-तिलक सब हुआ पर बियाही गई जीजाजी से. मानसिंग, मेरा मंगेतर, जीजाजी का दुःख देख के खुद ही पीछे हट गया तो उसकी माँ ने भी कुछ नहीं कहा और मेरे माँ-बाप की तो औकात ही क्या थी.” सुरसती का मुख और वाणी दोनों निर्विकार है.
तुम्हारी मर्जी के बिना...”
हम तो जिज्जी के शोक और अम्मा के दुख से पगला रहे थे, सो बिना कुछ सोचे सब करते गए.” बहुत सामान्य सा चरित्र है ये औरत तो, मैं एवेंई इसे इतना फुटेज दे रही हूँ? मेरे मन ने पाला बदलना शुरू कर दिया, कौन सी नई और अनोखी कहानी है इसकी, ऐसी गाथा तो लगभग हर दुखी आत्मा के साथ संलग्न मिलती है.
फिर तुम यहाँ कैसे... ?”
बताते हैं बाई, जरा धीरज धरो, आप बहुत उतावली हो, इत्ता उतावलापन ठीक नहींसुरसती पहली बार हंसी है और मैं उसकी बात पर नाराज होने की जगह वाकहीन बनी उसकी हंसी देख रही हूँ, जैसे कोरे घड़े से छलकती मदिरा, और उस पर उसकी हंसी से चमकती काली आँखे... जैसे कांच की प्याली में धरा अफीम. कोई कैसे इससे अछूता रह सकता है. मेरा मन मर्दाना सा होने लगा.
सारे दुख-शोक के बीच सादगी से हमारा ब्याह हुआ और ठाकुर सा ने मुझे राजरानी बना दिया. सातों सुख मेरे आँचल में ला धरे थे उन्होंने. मैं खुश न होकर भी खुश रहती, अम्मा-कक्का भी मेरे सुख में जिज्जी का दुख भूलने की कोशिश कर रहे थे. बियाह के लगभग चार बरस बाद मुझे एक बच्ची हुई, ऐन मेरे जैसी, जैसे विधाता ने मेरा ही रूप दुबारा घड दिया हो. ठाकुर सा ख़ुशी के मारे बावले से हो हो गये थे. राजराजेश्वरी कह के बुलाते थे वो बिटिया को. जिस दिन मैंने कुवा पूजा उस दिन सारे गाँव को न्योता दिया लगा, खाने-पीने दोनों का. ठाकुर सा भी जम के छके. नाच-गाने का भी खूब रंग जमा. जब रात आधी ढल गई, आंगन में शांति हो गई तब ठाकुर सा मेरे पास आए, वो बहुत खुश थे. आते ही बच्ची को गले से लगा के उससे खेलने,बातें करने लगे. नशे की झोंक में कभी हंसते, कभी रोते, कभी उसे लड़ाते तो कभी मुझे दुलारते.
मेरी बेटी, मेरी राजराजेश्वरी, मेरी लाड़ो, तू मेरे जीवन की जोत है, मेरी ख़ुशी है तू. सरो, मैंने आज पांच बीघा जमीन खरीद ली है इसके नाम, और होशंगाबाद में एक प्लाट भी ले लिया. मैं इसे खूब पढ़ाऊंगा-लिखाऊंगा, जीवन के सारे सुख दूंगा और बहुत बड़े ठाकुर घराने में ब्याहुंगा,’ कहते हुए ठाकुर सा ने पंचलडी की मटरमाला जेब से निकाल के मेरे हाथों में धर दी. बेटी की ख़ुशी और ठाकुर सा की बातों से मैं भी खुश थी और इसी भावुकता में कोमल होकर मैं ठाकुर सा के गले लग गई, चार सालों में पहली बार. ‘मेरी सुरो, आखिर मैंने तुझे पा ही लिया, कितने पापड़ बेले मैंने तुझे पाने को, हत्यारा भी बना, पाप भी कमाया पर आज तुझे और लाडो को पाके मैं धन्य हो गया, अब इसकी और तेरी ख़ुशी में ही मेरा स्वर्ग है, अब मर के नरक में भी जाऊं तो कोई गम नहीं होगा मुझे.’ ठाकुर नशे और ख़ुशी में बक गया कि उसी ने जिज्जी को मारा था, मेरे इसी रूपरंग को पाने की खातिर.” सुरसती की आवाज़ नर्क से आ रही है. नारकीय यादों की बदबू के भभके से सडती और कालकूट सी जहरीली, जिसकी लपट मुझ तक आ रही है, मेरा आपा झुलसने लगा. मैंने देखा सुरसती का सर्वांग कस के कठोर हो गया है. उसका गुलाबी आँचल उसके गले में पहले से भी ज्यादा कसा हुआ लग रहा है. नीम के फूलों की कसैली गंध वातावरण में महक रही है और पास के बंगले से किसी बच्चे का रोना और उसकी माँ का बहलाना समवेत स्वर में इधर बह के आ रहा है.
बालक की रुलाई में भी भगवान बसते हैं बाई.” सुरसती उन आवाज़ों पर अभिभूत सी कह उठी. “मेरी बच्ची भी रो पड़ी थी उस छन में और बस, मुझे ईश्वर का इशारा समझ आ गया.”
मार दिया तुमने उसे?” मैंने सबसे नजदीकी कयास लगाया. और सुरसती मेरी और देख के दुबारा हँस दी, एक नादान को देखती सयाने की हँसी.
नहीं बाई, मैं उसे मार देती तो अपना बदला कैसे चुकती, वो राक्षस तो आज भी जिन्दा है. आज इक्कीस साल होते आए, पागलों की तरह डोलता रहता है, मुझे और अपनी बेटी को खोजता रहता है. वो बेटी जो उसकी जान थी, उसके बिछोह में मारा-मारा फिरता है.”
तुम उसे छोड़ आई थी?”
और क्या करती, धोखे से जमीन पे कब्जा करने वाले को फसल नहीं मिलने चाहिए ये मेरा मानना है और मैंने उसे नहीं ही लेने दी. उसने मेरी बहन छीनी, मैंने उसकी ख़ुशी चुरा ली. सुबह मुँह अँधेरे ही अपनी बेटी को लेके घर से निकल गई तो मुड के नहीं देखा. तब से अब तक कितने धक्के खाए, क्या-क्या सहा, पर लौट के नहीं गई.”
सवा महीने की बच्ची को लेके निकल गई, कैसे पाला होगा तुमने अकेले, वो भी नई जगह पर?” मैं अवाक रह गई. “जैसे सब गरीब अकेलियों के बच्चे पलते हैं, मेरी बच्ची भी पल गई. और मैं भावुक जरूर थी बाई, पर मूरख नहीं, मैंने बेटी को लेके घर छोड़ा था तो उसकी चिंता थी मुझे. मेरे पास घर से लिया कुछ पैसा-टका था उस समय, और कुछ गहना-गांठा भी. शुरू के कुछ महीने बैठ के खाया, बाद में ये रसोई का हुनर काम आ गया.” सुरसती के हाथ में अन्नपूर्णा बसती है ये सब जानते हैं.
और उसने तुम्हे ढूँढा नहीं?”
क्या लगता है तुमको बाई, नहीं ढूंढा होगा. पर मैं तो कोसों दूर गोहाटी में जा छुपी थी, मिलती कैसे? तीन साल मैं वहीं रही, कैसे रही या कैसे रहती हूँ ये ना पूछना, फिर वहाँ से दार्जिलिंग चली गई, फिर काठगोदाम, फिर देहरादून. और इसी चक्कर में आज यहाँ, तुम्हारे देस नोहर में बैठी हूँ.”
अपने माँ-बाप से भी नहीं मिली तुम? और तुम्हारी बिटिया राजराजेश्वरी, वो कहाँ है?”
मेरे पास कोई राजराजेश्वरी नहीं रहती बाई. नर्मदा, मेरी बेटी, को मैंने दार्जिलिंग के एक क्रिस्तान (मिशनरी) स्कूल में डाल दिया था. आज वो कलकत्ता में कम्पुटर की पढाई कर रही है. वो खुद भी वहां टूशन पढ़ाती है और अपना खर्चा निकाल लेती है. जरूरत हो तो मुकुल भैया से कह के हम पैसा भिजवा देती हैं. उसको मोबाइल दिला रखा है, कभी-कभी मैं ही बात कर लेती हूँ, कभी मिल भी आती हूँ पर उसे कभी नही बुलाती. अम्मा-कक्का तो अब रहे नहीं पर बेटी की कोसिस से ही पांचेक बरस से भाई-भाभी की खबर है मुझे. वो राक्षस अब भी बेटी के लिए मारा-मारा फिरता है, रातों को रोता-चिल्लाता है, दारू के नशे में सिर फोड़ता है, वोही लोग तो बताते हैं मुझे. और सच्ची कहती हूँ बाई, मेरे कलेजे में हर बार एक नई ठंडक पहुंचती है. सुरसती के गाल चांदनी में भी दहक रहे हैं और खिली चांदनी सी शफ्फाक आँखों की चमक में एक आंच सी कौंध रही है. “उसे भी मालूम पड़ रहा है कि माँ-बाप से उसका बच्चा छीन लेना क्या होता है. उसने मेरे माँ-बाप के बच्चों को छीना मैंने उस की बच्ची. उसने मेरे प्रेम को दरबदर किया, मैंने उस के इस रूप को. मेरी ज़िन्दगी उजाड़ के वो भी राज़ी तो नहीं ही रहा.”
तुम खतरनाक हो भाभी.” मैंने मजाक किया. “लेकिन तुम तो दूसरी शादी भी करने वाली हो न, इस बार अपनी पसंद की. कौन है वो?”
मानसिंग, मेरा मंगेतर.” सुरसती ने एक और स्केम ओपन किया.
लेकिन वो तो उसी समय हट गया था न, या वो तुम्हारे साथ ही... ?” ओह, तो ये माज़रा है. मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगा है.

 “हाँ, हट गया था, कभी नहीं मिला मुझसे. मेरी शादी के बाद ही घर छोड़ के कहीं निकल गया था, तब से किसी को खबर नहीं कि वो कहाँ हैं.” सुरसती ने एक बार फिर मुझे झूठा सिद्ध कर दिया. “पर उस से क्या, कभी तो मिलेगा, आज नहीं तो कल, इस दुनिया में नहीं तो भगवान के घर, मेरी आस में कोई कमी नहीं, जाने वो कब मिल जाए ये सोच के ही मैं कभी फीका कपड़ा नहीं पहनती कि मिलते ही उस से ब्याह कर लूँगी. जिसकी जमीन है उसे तो सौंपनी ही है ना बाई.” धरती, सच ये स्त्री धरती सी सर्वरूप, दृढकोमलांगी और आत्मसंपन्न है, जो देना न चाहे तो कोई माई का लाल इससे कुछ नहीं ले सकता चाहे मर ही क्यों न जाये. ”चलती हूँ बाई, जिन्दगी रही तो जरूर मिलूंगी, सुरसती हाथ जोड़ के उठ गई. “पर कल से से मैं अकाल मौत मर जाऊं तो मेरी कहानी जरूर लिखना. और हाँ, दुख भी नहीं मनाना. बेटी अब बड़ी हो गई है, उसे मैंने खूब पढ़ा-लिखा के मजबूत बना ही दिया है तो क्या दुख-चिंता करनी हुई बाई. चलती हूँ मुकुल भैया.” सुरसती ने बरामदे में खड़े मुकुल भैया को हाथ जोड़े, मेरी और स्नेहसिक्त मुस्कान डाली और निकल गई. चांदनी के धुंधले उजाले में जाती हुई सुरसतिया किसी शापित, निर्वासित देवदूत की आत्मा सी दीख रही है और पिता जी के कमरे के रेडियो से बजते गीत की पंक्तियाँ मानों उसे सलामी दे रही है...’इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय, पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई मांय...’**

**राजस्थानी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रसिद्ध काव्य-पंक्तियाँ जिसमें वीर प्रसूता माँ अपने पुत्र को पालने में झुलाती हुई सीख देती है कि अपनी जमीन किसी को नहीं लेने देनी चाहिए, इस के लिए लड़ते हुए अगर मृत्यु भी मिले तो वह प्रशंसनीय होगी.




लक्ष्मी शर्मा 
व्याख्याता- हिंदीराजकीय महाविद्यालय मालपुरा,
प्रकाशित -'एक हँसी की उम्र' (कथा संग्रह)
'स्त्री होकर सवाल करती है (फेसबुक पर स्त्री सरोकारों की कविताओं के संकलन) का संपादन.
'मोहन राकेश के साहित्य में पात्र संरचना'' (शोध ग्रन्थ)
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानीएकांकीबाल-कथाआलोचनापुस्तक-समीक्षा,आदि प्रकाशित.
अंतर्राष्ट्रीय जयपुर साहित्य-समारोह में सहभागिता,. वर्ष  2012 और वर्ष 2013 में
साहित्यिक पत्रिका 'समय-माजराएवं 'अक्सर के संपादन मंडल से सम्बद
drlakshmisharma25@gmail.com/mobile- 09414322200
१.पूस की एक और रात  (कहानी - लक्ष्मी शर्मा)

सहजि सहजि गुन रमैं : शिरीष कुमार मौर्य

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रात नही कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है.
ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिलें थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं

पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाउँगा
तीन दवाइयाँ, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने हैं.  (रुग्ण पिताजी : वीरेन डंगवाल)

हरदिल अज़ीज़ वीरेन डंगवाल आज खुद बीमार हैं, कैंसर से लड़ रहे हैं. जानता हूँ मिलते ही कहेंगे – ‘चलो कूद पड़ें’ युवा पीढ़ी से उनका जीवंत सम्बन्ध है और वे अक्सर साझे सरोकार खोज़ लेते हैं. शिरीष कुमार मौर्य ने उन्हें गहरे जुड़ाव के साथ स्मरण करते हुए उचित ही कहा है-  ‘ओ नगपति मेरे विशाल’.

एक कविता शमशेर बहादुर सिंह पर है- उनकी शमशेरियत के साथ. रेल पर दो कवितायेँ हैं जो पहाड़ और दिल्ली के अन्तराल पर भी हैं. एक कविता भदेस को कविता में इस तरह बदलती है कि कथ्य का अभिप्राय ही शिल्प में बदल जाता है. ‘बच जाना’ समय से आँख मिलाकर लिखी गयी कविता है- ‘बचाना’ हमारे समय की सबसे जरूरी नैतिकता है. शिरीष की इन कविताओं में संवेदना-सरोकार और शिल्प का  संतुलन है, इन कविताओं का परिसर बहुवर्णी है और उसमें रखरखाव के साथ पूर्वजों की आदमकद उपस्थिति मिलती है.   


शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ                


ओ नगपति मेरे विशाल*
(वीरेन डंगवाल)

कई रातें आंखों में जलती बीतीं
बिन बारिश बीते कई दिन
अस्पतालों की गंध वाले बिस्तरों पर पड़ी रही
कविता की मनुष्य देह


मैं क्रोध करता हूं पर ख़ुद को नष्ट नहीं करता
जीवन से भाग कर कविता में नहीं रो सकता
दु:खी होता हूं
तो रूदनविहीन ये दु:ख
भीतर से काटता है


तुम कब तक दिल्ली के हवाले रहोगे
इधर मैं अचानक अपने भीतर की दिल्ली को बदलने लगा हूं
मस्‍तक झुका के स्‍वीकारता हूं
कि उस निर्मम शहर ने हर बार तुम्हें बचाया है
उसी की बदौलत आज मैं तुम्‍हें देखता हूं


मैं तुम्हें देखता हूं
जैसे शिवालिक का आदमी देखता है हिमालय को
कुछ सहम कर कुछ गर्व के साथ


ओ नगपति मेरे विशाल
मेरे भी जीवन का - कविता का पंथ कराल
स्मृतियां पुरखों की अजब टीसतीं
देखो सामान सब सजा लिया मैंने भी दो-तीन मैले-से बस्तों में


अब मैं भी दिल्ली आता हूं चुपके से
दिखाता कुछ घाव कुछ बेरहम इमारतों को
तुरत लौट भी जाता हूं


हम ऐसे न थे
ऐसा न होना तुम्‍हारी ही सीख रही
कि कविता नहीं ले जाती
ले जा ही नहीं सकती हमें दिल्ली
ज़ख्‍़म ले जाते हैं


ओ दद्दा
हम दिखाई ही नहीं दिए जिस जगह को बरसों-बरस
कैसी मजबूरी हमारी
कि हम वहां अपने ज़ख्‍़म दिखाते हैं.
***
* बचपन से साथ चले आए काव्‍य-शब्‍द,मैंने नगपति के आगे से मेरे हटा दिया.... सबके



अब प्‍यास के पहाड़ों पर कोई नहीं लेटता
(फिर-फिर शमशेर)

ओ मेरे पूर्वज
अब प्‍यास के पहाड़ों पर कोई नहीं लेटता
ज़रा होंट भर सूखने से
लोग नदियां लील जाते हैं

भीतर छटपटाहट रही नहीं
बाहर ग़ुस्‍सा दिखाने का चलन बढ़ा है
बहुत लम्‍बी कविताओं का कवि भी
अब अपनी कविता से आगे खड़ा है

हर कोई बड़ा है
ख़फ़ीफ़ कोई शब्‍द नहीं इक्‍कीसवीं सदी में
हल्‍के हवादार शिल्‍प में नहीं कही जाती बात
ठोस आकार बरसते हैं
मानो
सर पर पत्‍थर बरसते हों
 
प्रात का नभ अब बहुत पीला
वाम दिशा अंधियारी
अपने उद्गाताओं से ही घबराया
समय-साम्यवादी

कुहनियों से ठेलते पहाड़ों को दृश्‍य वे असम्‍भव अब
मारते हैं लात अपने लोग लोगों को

कबूतरों ने गुनगुनाई जो ग़ज़ल अब उसका ख़ून रिसता है झरोखों पर
अम्‍न का हर राग बेमतलब 
न वैसा प्रेम टूटा और बिखरा होते भी
जो कहीं भीतर
सलामत और साबुत था  

ओ मेरे पूर्वज
वो शमशेरियत वो खरापन
प्‍यास के उन पहाड़ों पर
वो एक नाज़ुक और वाजिब-सा
हल्‍का हरापन
अब कहां है
खोजता हूं उजाले में नहीं
समय के सबसे बड़े अंधेरे में
सन्‍नाटे में नहीं
वाम के सबसे बड़े एक हल्‍ले में
मैं खोजता हूं

तुम नहीं हो
तुम सरीखी आहटें
अब भी तुम्‍हारी
हैं  

भाषा और कविता में तुम्‍हारे होने का यह हैंअगर होगा
मैं भी रहूंगा




रेल के बारे में दो निजी प्रलाप

1

हम जैसों के लिए
रेल बहुत रूमानी चीज़ है 

वह हमारे प्रेम और पछतावे का हिस्‍सा रही.

यहां तराई में वह ऐसे चलती है, जैसे पांवों के बीच से सांप सरकते हों
- ऐसा लिखकर मैं आज उस रूमान को तोड़ना चाहता हूं.

बसें जो हमें लादे अचानक सड़क से गिर पड़ती हैं
दरअसल जीवन को यथार्थ में बसाए रखने की आत्‍मघाती कोशिश करती हैं.

उस तैयारी के बारे में अज़ल से सुनते आ रहे हैं
जो पहाड़ों के बीच तक रेलपहुंचा देगी
ऐसा हुआ तो सीने पर रेंगते चंद चमकीले सांप
हमें और हरारतदेंगे.

एक आदमी सुबह-सबुह यह प्रलाप करके आपको परेशान करने की नहीं
नींद की गोलियों के असर के बीच ख़ुद को जगाए रखने की नीयत रखता है.



2

रेलमार्ग की दूरी पर मेरा कोई नहीं रहता
सब सड़क की दूरी पर रहते हैं

अलबत्‍ता पहले कोई रहता था
जिसके लिए दिल्‍ली से रेल पकड़नी पड़ती थी
उसने अब मुझे मुक्‍त कर दिया

प्रेम आज भी मुक्‍त ही करता है

रेल का बढ़ता किराया मैंने एक अरसे से नहीं चुकाया
जो चुकाते आ रहे हैं
एक बार मैं उनके साथ रेल में बैठ कर
उनके घर जाना चाहता हूं




बच जाना

आतताईयों के विरुद्ध विचार कुछ लोगों ने बचाए रखा है
जंगलों में शहद बचा है
उसे बचाने के लिए मधुमक्खियों के दंश भी
बचे हुए हैं

मरुथलों में नखलिस्‍तानों का ख्‍़वाब बचा है
समुद्रों पर बरसते बादलों में
सूखी धरती तक चले आने की ख्‍़वाहिशें बची है
उन्‍हें धकेलती हवाओं का बल
सलामत है

थके हुए दिमाग़ों के लिए कुछ नींद बची है अभी
ज़माने भर की आशंकाओं से कांपते हृदयों के लिए
पनप जाने की गुंजाइश
बची है

निरंकुश मदमस्‍त हाथियों के झगड़ों में
पेड़ भले न बचे हों
कुचली जाकर फिर खड़ी हो जाने वाली घास
बची है
तो पेड़ों के फिर उग आने की
उम्‍मीद भी बच गई है

हालांकि
मनुष्‍यता का उल्‍लेख बहुत करना पड़ता है
पर वह बची है

जीवन बहुत बचा है
और उसके लिए लड़ने वाले भी

बचे हुओं का बचाव करने वाले
बचे गए हैं समाज में

अर्थ के अधिकार
भले धूर्त व्‍याख्‍याकारों के हवाले कर दिए गए हों
पर कवियों की भाषा में
उनके कठोर अभिप्रायों के
शिल्‍प
बचे हैं अभी

जब तक प्रेम और घृणा के पर्याप्‍त शब्‍द बचे हैं
कविता में
तब तक कविता को भी बचा हुआ ही मानें...

जो नहीं बच पाया उसका शोक बचा है
जो बच गया
उसका बचना संयोग नहीं एक सैद्धान्तिक लड़ाई है
बच जाने की हर गुंजाइश
हर दौर में
पृथिवी पर सधे हुए मज़बूत क़दम चलते
कुछ मनुष्‍यों ने बचाई है

और ये जो दैन्‍य बचा है
सामाजिक और वैचारिक दरिद्रता बची है
न हो सके ईश्‍वर के ढकोसले और धर्म के कानफोड़ू बाजे बचे हैं
पूंजी के विकट खेल बचे हैं
एक दिन इनके न बचने का सुन्‍दर दृश्‍य बचेगा

अभी तो जैसा हम देख ही रहे हैं
एक पूरी दुनिया ढह पड़ी है हमारे ऊपर
और ख़ुद हम बाल-बाल बचे हैं

क़ातिलों के हाथों बच कर निकल जाना
और क़ातिलों के विरुद्ध रच कर हालात में बदलाव लाना
एक-दूसरे के पर्याय हैं
अब
हमें कोई बचा-खुचा कहे तो सावधान हो जाना 
वह ज़रूर बचाने का नहीं मारने का
पक्षधर होगा.




भाषा का भदेस

परधान के बेटे की शादी के भोज की पंगत से उठते हुए कहा
उसके पुश्‍तैनी हलवाहे ने
आज तो लेंडी तर हो गइ भइया
पूरी कतार ने समर्थन दिया

इस वाक्‍य को भाषा के भदेस ने नहीं 
अरसे से सूखी आंतों के संतोष ने जन्‍म दिया था
यह अभिप्राय में व्‍यक्‍त हुआ था
अर्थ में नहीं

अब लगता है
यह कविता के जन्‍म से ही जुड़ी हुई

कोई बात है 
____________
शिरीष कुमार मौर्य
चर्चित युवा कवि आलोचक
कविता और आलोचना की कई किताबें प्रकाशित


कथा - गाथा : मनोज कुमार पाण्डेय

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कालजयी फ़िल्म the bicycle Thief का  एक दृश्य


युवा कथाकार मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी – ‘चोरी’, छोटे –छोटे विवरणों शुरू से होकर बड़ी विडम्बनाओं तक पहुंचती है.  बचपन की मासूम चोरियों के दिलचस्प चित्र एक दूसरे से जुड़ते चलते हैं. इस बीच खुद नायक का प्रेंम समाज उससे चुरा लेता है. ‘मोनोलाग’ की शैली में  लिखी यह कहनी अपना प्रभाव छोडती है. मनोज के संवादों की नाटकीयता इस कहनी में एक खास किस्म का दृश्यात्मक आयाम पैदा करती है और इसे रोचक और पठनीय  बनाये रखती है.




चोरी                                
मनोज कुमार पांडेय


(एक)

पहली चोरी आपकी ही तरह मैंने भी बचपन में की थी. सच कहूँ तो पता भी नहीं था तब कि यह चोरी ही है और यह भी कि यह इतनी बुरी चीज है.

एक गुल्लक था जिसमें बहुत सारे पैसे थे. गुल्लक एक झोले में रखा हुआ था. गुल्लक दादी का था. घर में सब चीजें किसी न किसी की थी.

मेरा कुछ नहीं था.

बाहर लालच था जिसे देख कर हम ललचाते थे. चोरी इसी लालच ने सिखाई थी मुझे. और मैं शुरू में ही इस पर जोर देना चाहता हूँ कि यह लालच कोई इतनी बुरी चीज भी नहीं है.

बहुत छोटे छोटे लालच थे. संतरे के स्वाद और उसी के जैसे फांक वाला लेमनचूस था. चटपटी नमकीनें थीं. मछली और साँप की बनावट की कलमें थीं. किताबों पर चढ़ाने के लिए रंगीन कागज थे.

चूरन का लालच था. चूरन डाल कर बने हुए मसालेदार बड़े नीबू का लालच था. चूरन नीबू के रस में खोंप दिया जाता और उसे देख कर मुँह से राल टपकने लगती. जीभ बेचैन होने लगती. जैसे शरीर का पूरा सब कुछ जीभ पर ही आ कर ठहर जाता. और सब कुछ की सक्रियता जीभ अकेली में समा जाती.

हाथ को गुल्लक का रास्ता इसी जीभ ने ही दिखाया था. हाथों ने सूजा ढूँढ़ा था. और सूजे के सहारे गुल्लक के सिक्के एक एक कर बाहर आने लगे थे.

यह एक छोटी सी शुरुआत थी मेरे जीवन की.

हर सही शुरुआत के रास्ते में बाधाएँ आती हैं. यहाँ भी आईं. दादी ने जबर्दस्त रूप से पिटाई की. पिता ने भी पीटा. स्कूल में सबके सामने चोर कहा गया. पिटाई हुई. बिना बात के भी पिटाई हुई. घर और स्कूल दोनों जगहों पर अक्सर अपमानित किया जाता रहा बार बार.

मेरे दोस्त जो मेरे लालच और चोरी के हिस्सेदार थे उन्होंने भी चिढ़ाया मुझे.

वही दिन रहे होंगे जब मेरे भीतर - बहुत भीतर यह बात छुप कर बैठ गई होगी कि मुझे चोर बनना है. तभी यह तय हो गया होगा कि मैं या कोई कितनी भी कोशिश कर के देख ले पर चोर के सिवा मैं कभी कुछ बन ही नहीं पाऊँगा.

भविष्य की इस संभावना ने तभी से आकार लेना शुरू किया होगा. तभी से मेरे भीतर एक चोर की तराश शुरू हो गई होगी. इस तरह से मेरे जीवन की दिशा तभी तय हो गई थी जब मेरे हाथों ने एक सूजा ढूँढ़ा था और गुल्लक में से पहला सिक्का एक चमकदार खनक के साथ बाहर आया था.

या शायद तब जब मेरी चोर के रूप में पहचान पुख्ता की गई. बार बार चोर पुकारा गया. बार बार याद दिलाया गया मुझे कि मैं चोर भी हो सकता हूँ. नहीं तो शायद अपनी चोरी की बात मैं भूल ही जाता.

सब चोर थे पर चोर अकेला मैं कहा जा रहा था. दादी चोर थीं. पिता चोर थे. हमारे अध्यापक चोर थे. सब चोरी में लगे हुए थे. बहुत कुछ तो मेरा ही चुराया हुआ था सबने मिल कर.

चोर भी शायद मैं बना ही इस वजह से था किमेरे चारों तरफ चोर ही चोर थे. जो कुछ और बन सकने की संभावना ही खतम किए दे रहे थे.

दादी के हाथ में डंडा देखते ही मैं काँपने लगता था. काँपना कहाँ से सीखा था मैंने! क्या चुरा लिया था मेरा दादी ने?    

पिता भी दादी से बहुत अलग नहीं थे. पर वह ज्यादा बड़े चोर थे. उन्होंने ईश्वर और उसके किस्से पकड़ाए मुझे. किस्से जो एक साथ डराते और लुभाते. पिता ने क्या चुराया मेरा?

क्या करता मैं उनके ईश्वर का जो डरते हुए ही सही पर झूठी कसमें खाने के अलावा किसी काम का नहीं था.

फिर भी वह मेरा पीछा करता. बार बार करता. मेरी तार्किक-कुतार्किक कल्पनाओं को विस्तार देता हुआ.

कई बार मैं उस ईश्वर का गुलाम बनने के सपने सँजोता. भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव, भक्त अंबरीष... परशुराम... नचिकेता और भी न जाने कौन कौन.

खेल-खिलौनों के सुंदर सपनों की जगह पर यह सपने क्यों आ रहे थे मुझे! सपनों में कृष्ण के हाथों लड़-मर कर कौन सी मुक्ति के सपने देखता था मैं?

पेड़ों, बादलों और घर की दीवारों पर कौन सी आकृतियाँ दिखाई देती थीं मुझे! मुझे डराने के लिए यह आकृतियाँ भला कहाँ से प्रकट हुई थीं?

और अध्यापक मेरे! मैं यह कह कर उनका महत्व कम नहीं करूँगा कि वे स्कूल में हम बच्चों के लिए आने वाली चीजें अपने घर उठा ले जाते थे. कि वह हमारी मेहनत चुरा लेते थे कई बार. कि हमारी मेहनत के अंक उस किसी की कापी में जा कर पनाह पाते थे जो उनके पैर दबा दिया करता था या घर से देशी घी और सब्जियाँ लाया करता था.

यह तो वे करते ही थे. पर यह बहुत ही छोटे अपराध हैं उनके.

वह जीवन चुरा रहे थे हमारा. वह हमारी आँखें चुरा रहे थे. उन्होंने दोस्ती कर सकने की ताकत चुरा ली थी. वह हमारे भीतर का जो कुछ भी शानदार, चमकीला और संभावनाओं से भरा था सब कुछ चुराए जा रहे थे.

फिर भी चोर अकेला मैं था. मैं पकड़ लिया गया था आखिरकार.

मेरे चोर होने का इतना शोर क्यों मचाया गया? इस शोर के बीच क्या छुपाना चाहते थे वे? इससे मेरा भला होने जा रहा था या उन सब का?


मेरे भीतर जो भी घटा हो मैं नहीं जानता. पर धीरे धीरे हाथ कुलबुलाने लगे थे मेरे कई बार. उनमें एक सनसनी उतरने लगी थी जब तब.

फिर तो मैं चाहूँ या न चाहूँ पर मेरे हाथ जब तब अपना कमाल दिखाने लगे थे. और मैं झूठ क्यों बोलूँ अपने इन हाथों के कच्चे पक्के कारनामों से मेरे भीतर एक हरी भरी खुशी लहलहाने लगती थी.

कोई था मेरे भीतर बैठा हुआ जो रोकता भी मुझे. वह मेरा हाथ थाम लेता. उन्हें पकड़ कर मेरी ही जेब में डाल देता. कि एक कोई सींक पकड़ा देता मुझे और मैं कान खोदने लगता अपना.

पर यह सब पल दो पल के लिए होता. फिर मेरे भीतर का चोर उस किसी को
निकाल बाहर करता. इसके बाद मुझे कुछ भी नहीं करना पड़ता. 

सब कुछ अनायास होता. मेरे स्कूली साथियों के बस्तों से उनकी सबसे चमकदार कलमें गायब हो जातीं. उनकी दवातों की स्याहियाँ मेरी दवात में आ जातीं. उनमें जगह न होती तो अक्सर वह किसी दूसरे की दवातों में पहुँच जाती. कलमें कहीं और पहुँच जातीं. कई बार तो अध्यापकों के झोले उनका सबसे सुरक्षित ठिकाना होते.

अध्यापक घर जाते रहे होंगे तो दूसरे सामानों के साथ उन्हें कोई कलम भी मिलती रही होगी. वह चौंक जाते होंगे कि उनके बचपन में खोई हुई कलमें उन्हें एक एक करके अब कैसे मिल रही हैं. वे फिर से अपने बचपन में लौट जाते रहे होंगे.

इस बात का सबूत यह भी है कि किसी अध्यापक के झोले में रखी गई कोई चीज स्कूल में दुबारा लौट कर नहीं आई. जबकि एक दिन पीछे ही उसी चीज के गायब होने की शिकायत उनके पास हुई होती.


और भी खूब चोरियाँ की जिनका सीधा रिश्ता स्कूलों से नहीं था. जैसे करौंदे और नीबू चुराए. आम खजूर और जामुन चुराए. कैथे और खरबूजे चुराए. इनमें से ज्यादातर चीजें मेरे पास नहीं थीं.

पर यह भी कोई जादू ही रहा होगा कि वही चीजें जब ऐसे ही मिल जातीं - मसलन कोई घर पहुँचा जाता तब मुझे उनमें कोई स्वाद नहीं आता था. वे चीजें इतनी बेस्वाद लगती थी मुझे कि मेरी उनमें रुचि ही खतम हो जाती थी.

मेरी रुचि उनमें दुबारा तब पैदा होती जब मेरा कोई भाई या बहन उसी चीज को कहीं छुपा कर रखता और मैं पार कर देता.

खास बात यह है कि अपनी खुलेआम दिखाई गई अरुचि के चलते अक्सर तब मैं संदेह के परे भी रहता.

यह सबक उन्हीं दिनों सीखा होगा कि जिन चीजों में जितनी ज्यादा रुचि हो उनमें उतनी ही ज्यादा अरुचि प्रदर्शित करो. वह सब कुछ जिसे करने का खूब मन करे उसकी भर्त्सना करो खूब खूब. जैसे चोरी.

चोरी का मतलब मेरे लिए थोड़ा अलग था. मेरे लिए हर वह काम चोरी थी जिसे मैं खुलेआम या सबको बता कर नहीं कर सकता था. जिसे छुप कर करना पड़ता था.

उन दोस्तों के साथ खेलना चोरी थी जिनके साथ बात करने की भी मनाही की जाती थी. नहर में नहाना चोरी थी. ईश्वर को गाली बकना चोरी थी. किसी का जूठा खाना चोरी थी. कुत्ता खिलाना चोरी थी.

नंगे हो कर नहाना चोरी थी. खड़े हो कर पेशाब करना चोरी थी. लड़कियों से बात करना चोरी थी. खेल खेल में ही शुरू हो रही समलैंगिकता चोरी थी. घर के बाहर किसी से भी किया गया प्रेम चोरी थी.

मेरी इन सब में रुचि बढ़ती ही गई. बल्कि मेरे खून का हिस्सा बनती गईं यह सब चीजें. इन सबका खुमार मेरी रूह में उतरता गया.

बस अंतर इतना कि एक समय बाद यह सब चीजें चोरी नहीं रहीं. मैं खुलेआम करने लगा यह सब कुछ. सभी वरजने वाले लोगों को ठेंगे पर रखते हुए.

पर उन्हीं दिनों की बात करूँ तो उन दिनों का हमारा लगभग पूरा जीवन चोरी था. किन्हीं दूसरे अर्थों में शायद आज भी हो.



(दो)

हाई स्कूल के दिनों में स्कूल का रास्ता कस्बे के बीचों बीच हो कर जाता था. चारों तरफ चोरी के लिए ललचाने वाली बहुत सारी रंग-बिरंगी चीजें होती थीं.    

मैंने इन दिनों सेब और नासपातियाँ चुराईं और एक बार पकड़ा भी गया. दुकानदार भला था. उसने सारा गुस्सा मेरे कानों पर उतारा और मुझे छोड़ दिया.

यहाँ सिर्फ स्कूली बस्तों से ही नहीं दुकानों से भी बहुत सारी सुंदर सुंदर कलमें चुराईं. जिनमें से बहुत सारी मेरे पास अभी भी सुरक्षित हैं. कुछ का चमकीलापन भले ही उड़ गया हो.

मैं अपने लिखने के लिए उनमें से कोई दो तीन कलमें निकाल लेता हूँ. दस पंद्रह दिन बाद जब उनके भीतर की रोशनाई खतम हो जाती है तो धुल पुँछ कर वे कलमें फिर उसी भंडार में पहुँच जाती हैं और उनकी जगह पर दूसरी दो तीन कलमें निकल आती हैं.

उन दिनों फिल्मी तस्वीरों वाले रंगीन अखबार खूब चुराए. रोज रोज अखबारों को गायब होते देख कर कई दुकान वाले पहचान गए मुझे. जिनकी दुकानों पर समोसा या जलेबी खाने के बहाने जाता था मैं.

इसके बाद वही हुआ जो हो सकता था. दुकान वाले मुझ पर नजर रखने लगे. मुझे दूसरी बहुत सारी दुकानें ढूँढ़नी पड़ीं.

बहुत सारी कक्षाएँ चुराईं और उस समय में चुपचाप जा कर फिल्में देखीं. यानी दोहरी चोरी. यहाँ भी पकड़ा गया एक बार. कर रहा था चोरी और जो फिल्म देखने गया उसका नाम था सच्चाई की ताकत. इसके पहले कितनी फिल्में देखीं पर किसी को कानोंकान खबर भी न लगी.

एक अध्यापक जो किसी जमाने में बहुत घुटे हुए चोर रहे होंगें उन्होंने टाकीज से निकलते ही पकड़ लिया और सरेआम सड़क पर दो तीन हाथ गालों पर मिले और दूसरे दिन सुबह की प्रार्थना के बाद वहीं पर देर तक मुर्गा बन कर रहना पड़ा.

मैं अकेला नहीं था. हम कई थे. और एक ही स्कूल का होने के बावजूद हममें से कई एक दूसरे को जानते भी नहीं थे. एक चोरी ही थी जो हम सब को जोड़ रही  और आगे जोड़े ही रखने वाली थी.

इस तरह इसी चोरी ने बहुत सारे दोस्त भी दिए. सब एक से बढ़ कर एक. बाद में कुछ ने पाला जरूर बदल लिया उसके बावजूद कुछ तो है उनके मेरे बीच. जो अभी भी उनका नाम लेते ही मुँह में कच्चे टिकोरों के स्वाद सा कुछ घुल जाता है.  

इन्हीं दिनों पेड़ों पर बैठ कर दिन दिन भर चिड़ियों से बातें की. उनसे हुई पहचान ने बाद का जीवन बहुत कुछ आसान कर दिया.

उन्होंने मुझे अपनी कुहुक टुहुक सिखाई. ऊँचाई से और दूर दूर तक देखना सिखाया. हवा में उड़ना सिखाया. हवाओं के साथ पेड़ों पर झूलना सिखाया. पतली से पतली डालों पर संतुलन साधना सिखाया.

और सबसे बड़ी बात यह कि पेड़ पानी हवा की इज्जत सिखाई. उन सबके साथ रहना सिखाया जो पेड़ पर हमसे पहले से रहते थे.

उन्हें ऐसी बहुत सारी बातें पता होतीं जो मैं नहीं जानता था. बल्कि हममें से सब से पढ़े लिखे लोग भी शायद नहीं जानते हों.     

उन्हें पता होता था कि बगीचे का सबसे मीठा फल कौन सा है. कई बार तो वे मेरे लिए उन्हें तोड़ भी लातीं. उन्होंने मुझे उनके रखवालों के बारे में भी बताया. उनकी आदतों के बारे में भी और यह भी कि किस तरह से उन्हें धता बता कर चोरी की जा सकती थी.

पर यह सब तो कुछ भी नहीं था. वे और भी मुझे बहुत कुछ बता जातीं जो मेरे काम का होता. आने वाले संकटों से सावधान करतीं मु्झे. वे अपने दुख सुख भी बतातीं मुझे. इसके बावजूद की मैं उनकी कोई मदद शायद ही कभी कर पाता.

चिड़ियों से मेरी दोस्ती फिर कभी नहीं टूटी. बीच बीच में वह मुझसे नाराज जरूर होती रहीं पर यह तो सभी दोस्तों के बीच होता है.


यह इंटर के दिन रहे होंगे जब मैंने कापियों पर उन लड़कियों के चेहरे चुराए जो उन दिनों मुझे पवित्र और उत्तेजक लग रही थीं.

मैं पहली बार प्रेम में पड़ा.

वह एक साँवली सी लड़की थी   जो मुझे मेरी एक चिड़िया दोस्त की याद दिलाती थी. और जिसके चलने में मेरी एक दूसरी दोस्त का फुदकना शामिल था.

मैं किसी भी तरह से उसे खुश करना चाहता था. मैं उसके सामने अपने सबसे सुंदर रूप में जाना चाहता था. संसार की सबसे सुंदर शक्तियों के साथ.

मैंने चाहा कि मुझमें ऐसी अच्छाइयाँ और शक्तियाँ हों कि वह एक एक पर सौ सौ बार मर मिटे.

मैं उसके लिए संसार का अब तक का सबसे सुंदर खत लिखना चाहता था. इसके लिए मुझे सबसे सुंदर शब्दों और उनसे बुनी सुंदर पंक्तियों की जरूरत थी.

संसार की सबसे सुंदर पंक्तियाँ मेरे पास नहीं थीं. या थीं तो वे मेरे इतने भीतर गुम थीं कि बाहर ही नहीं निकल पा रही थीं. बहुत बहुत पुकारने के बाद भी. या किसी और ने चोरी कर ली थी उनकी. उनके मेरे भीतर जन्मनें से पहले ही चुरा ले गया था कोई!

कुछ भी हो, मैं कुछ पंक्तियाँ चुरा कर ले आया. मेरे हिस्से की यह पंक्तियाँ किसी ने बहुत पहले ही लिख रखी थीं. जिन्हें ले कर मैं उस लड़की के सामने जाने वाला था जो मेरे लिए दुनिया की सबसे अनोखी लड़की थी.

तब पहली बार मेरे हाथ काँपे थे. दिल में कुछ मलाल सा हुआ था. जाने क्यों. नहीं तो चोरी करते हुए मेरे हाथ काँपना तो कब का बंद कर चुके थे.

जब चुराई गई पंक्तियों के सहारे उसकी आँखों और गालों पर उतर आई चमक में मैं डूबा हुआ था, उसी समय मेरे भीतर एक नामालूम किस्म का अपराध-बोध भी उतरा था. धीरे धीरे छा गया था मुझ पर.

यह सच नहीं भी हो सकता था पर मुझे बार बार लगता रहा था कि उसकी आँखों की यह चमक मेरी बजाय उन सब के लिए है जिनकी पंक्तियाँ मैंने चुराई हैं.

मैं थोड़ी ही देर में उससे हाथ छुड़ा कर चला आया था.

यह हमारी पहली ही मुलाकात थी. आखिरी भी हो सकती थी.

बाद में मैंने इस पर बहुत सोचा कि ऐसा क्यों हुआ! यह पहली बार था कि मैंने जिनका चुराया था उनका कुछ गया नहीं था. वह पंक्तियाँ वही असर कर रही थीं जिस असर का ख्वाब देखते हुए वह लिखी गई थीं. इससे आखिर उनका क्या बिगड़ रहा था जो मैं उनकी चीजें अपने नाम से पेश किए दे रहा था. एक ऐसी लड़की के सामने जो उन सबको कतई नहीं जानती थी.

जिसके लिए सदियों पुरानी यह पंक्तियाँ इतनी नई थीं और स्थितियों पर इतने अचूक ढंग से खरी उतरती थीं कि मेरी ही हो सकती थीं.
तब भी.

तभी शब्दों को एक निजी तरतीब देना सीखना शुरू किया था शायद. कि गलत ही सही या कि न सही सबसे सुंदर पर शब्द मेरे अपने ही क्यों न हों. हालाँकि शब्द इतने पुराने सब के सब कि उन्हें न जाने कितनी जबानों और कलमों ने सजाया सँवारा. वह रूप दिया कि हम बरत सकें उन्हें.

तो मेरा लिखना सिर्फ नए नए तरह से शब्दों का संयोजन करना हुआ. इसी संयोजन से निकलतीं न जाने कितनी बातें जिनमें से कुछ को मैं पकड़ने की कोशिश कर रहा था.
मैं प्रेम में था. सो मैंने जो कुछ भी लिखा उसकी कम से कम हर दूसरी पंक्ति में प्रेम जरूर आया. बाकी सब कुछ तो हवा पानी और जमीन और चिड़ियों और रंगों के बारे में था.

वह फिदा हुई उन पर. पर उसने चोरी का ही समझा उन्हें और इस पर कोई एतराज न किया. उसकी आँखों की चमक ने बताया मुझे. चमक मुझे भली लगी और मैंने अपनी मौलिकता का कोई दावा नहीं किया.

इस तरह हम जी भर कर एक दूसरे की चोरी में लग गए. यह ऐसी चोरी थी जो सबसे आसानी से पकड़ में आ जाती है. सो पकड़े गए हम.

हम दोनों की हत्या कर दी गई. अपनी हत्या के थोड़े दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गई. और मैं शहर चला आया. दोनों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था.



(तीन)
यह एक संयोग था कि शहर आने के बाद मेरी पहली चोरी एक किताब की हुई. मैं न उस किताब के बारे में कुछ जानता था न ही उसके लेखक के बारे में. दुकान पर खड़े हो कर देर तक किताबें पलटता रहा. फिर दुकानदार ने आजिज आ कर राह लेने का इशारा किया.

मैं बाहर चला आया. आदतन एक किताब पर हाथ साफ कर दिया था मैंने. किताब बहुत दिनों तक यूँ ही पड़ी रही. यह कोई गर्मी और उमस भरी दोपहर थी जब मैंने इस किताब को यूँ ही पलटना शुरू किया.

किताब एक लेखक की आत्मकथा जैसी थी. जिसमें लेखक ने अपने जीवन को शराब की ओट से देखा था. शराब जैसे चोरी. एक चोर ही इतना सच्चा हो सकता था. मुझे उस लेखक से मुहब्ब्त हो गई. यह बहाने से किताबों से मुहब्बत साबित हुई.

मैं अपनी इस नई नई मुहब्बत में इतना डूबा कि कुछ दिन के लिए चोरी जैसी चीज भूल ही गया. या क्या पता यह सब किसी बड़ी चोरी की तैयारी रही हो.

आखिरकार मैं अपना सारा समय दुनिया के सबसे भले पर शातिर चोरों के साथ बिता रहा था. जो बाहर तो क्या आत्मा के भीतर सात तालों में बंद भावनाओं को भी सरेआम उजागर कर देते थे.

वे बहुत ताकतवर थे. वे मर कर भी नहीं मरते थे. बल्कि कई बार वे मरने के बाद और ज्यादा ताकतवर हो जाते. उनसे कुछ भी नहीं छुप सकता था. वे समय और काल के पार आवाजाही करते. समय के सारे षड्यंत्र और साजिशों को वे बेनकाब कर देते थे. सारे डोमाजी उस्ताद उनके यहाँ नंगे नजर आते थे.

पर यह भी था कि अपनी इस बेपनाह ताकत के बावजूद ये बेहद अकेले थे. उनकी आँखों में कई बार एक दार्शनिक सूनापन झाँकता. या कई बार कुछ ऐसी चमकें दिखाई पड़तीं जो किसी पागल की ही आँखों में दिख सकती थीं.

कई बार वे खुद को ही मार रहे होते धीरे धीरे. एक ऊँचाई से उन्होंने छोड़ दिया होता खुद को धीरे धीरे गिरने के लिए. आगे हवा की मर्जी. या धूप की या बारिश की.

वे अपनी सभी हताशाओं और पराजयों के बाद भी मेरे भीतर अपने लिए जगह बना रहे थे धीरे धीरे. वे बेहद खतरनाक थे. उनके हथियार पैने थे. और जब कई बार वह अपने उन हथियारों का प्रयोग अपने पर ही किए ले रहे थे तो वे मेरा क्या करने वाले थे मैं जान ही नहीं सकता था.

मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि मैं उन्हें अपने भीतर रहने दूँ या निकाल फेकूँ! उन्हें प्रणाम करूँ या उन्हें बेइज्जत करूँ और धक्के मार कर बाहर निकाल दूँ. आमना सामना होने पर उनसे नजरें मिलाऊँ या दूर कहीं देखता हुआ आगे बढ़ जाऊँ.

सच कहूँ तो मैं डर गया था.

कई डरे हुए बेचैन दिनों के बाद आखिरकार एक दिन मैंने अपनी सारी चुराई गई और खरीदी गई किताबें कबाड़ वाले को किलो के भाव बेच दी.

किस्सा खतम. मैं फिर से आजाद था. क्या सचमुच!


उन किताब लिखने वाले चोरों की जानलेवा गिरफ्त से आजाद हुआ तो मेरे भीतर सो रहा चोर अपनी नींद पूरी कर उठ बैठा. एक लंबी निर्विघ्न नींद सो कर वह ताजगी और ऊर्जा से भरा हुआ महसूस कर रहा था.

उसने एक लंबी अँगड़ाई ली और अपने चारों तरफ देखा. सब कुछ बहुत चमकदार और सम्मोहक था. हर तरफ ऐसा बहुत कुछ था जो मुझे अपनी तरफ बुलाता सा दिखता.

बावजूद इसके मैंने अपने हाथों को अपनी जेब में ही रखा. चमक ललचाती ही नहीं थी डराती भी थी. उसकी रोशनी अंधा भी करती थी. कई बार तो समझ में ही नहीं आता था कि जो दिख रहा है वह सच भी है कि सिर्फ चमक ही चमक है.

फिर भी कहीं से तो शुरू करना ही था मुझे. और जब मैंने यह किया तो सोच समझ कर नहीं किया. अनायास ही सब कुछ होता गया.

घर से पिताजी का संदेश आया. खेत के मुकदमें की तारीख थी और वह आ नहीं पा रहे थे. मुझे उनकी जगह पर जा कर उपस्थित होना था और वकील जो भी कहे या करे लिख कर पिता जी के पास भेज देना था.

मैं कचहरी में जिस कमरे में हमारा मुकदमा चल रहा था उसके सामने की सीढ़ियों पर देर तक बैठा रहा था. वहाँ लोग आते और कई बार बिना ताला लगाए ही अपनी बारी का पता करने अंदर भागते.

वहाँ से साइकिल उड़ाना बेहद आसान था. जैसे ही मेरा काम वहाँ खतम हुआ मैं बाहर निकला और लगभग अनायास ढंग से एक साइकिल को स्टैंड से उतारा और उस पर बैठ कर आगे बढ़ गया.

यह एक बार ही हो कर नहीं रह गया.

यह बार बार हुआ. न जाने कितनी साइकिलें थीं जिन पर मैं सवार हुआ और चला आया.

उनको ठिकाने लगाने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता. दो तीन साइकिलें किसी भी दुकान पर लेकर जाता और उनके पुर्जे बदल दिए जाते. कई बार नया रंग दे दिया जाता उन्हें. मुझे उनको बेचने के लिए भी न परेशान होना पड़ता. अक्सर दुकानदार ही उन्हें खरीद लेते और उनके लिए ग्राहक तलाशते.

मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास दुबारा वापस लौटने लगा.

इसके बाद तो मैं वह कुछ भी चुरा लिया करता जो कि मैं चुरा सकता था. चाहे मुझे उसकी जरूरत हो या न हो. चाहे उसकी बाजार में कोई कीमत हो या न हो. चाहे मैं उसे एक जगह से चुराऊँ और दूसरी जगह पर बेमतलब ही गिरा दूँ. फिर भी.

मैं अपने इन कारनामों में खोया हुआ था और भरपूर सुखी था कि एक दिन मुझे सरेराह एक संदेशा मिला. किसी ने मुझे मिलने के लिए बुलाया था.

यह संदेशिया एक पुलिस वाला था. मुझे उसके चेहरे के भाव पसंद नहीं आए. मैंने उससे कहा कि अगर मैं न मिलूँ तो! बदले में वह हँसा और उसने कहा कि इसमें तुम्हारा ही फायदा है.

मैंने कहा कि अगर मैं तब भी न मिलूँ तो? बदले में उसने मुझे तमंचा दिखाया. तब तक मैंने तमंचा देखा भी नहीं था. मेरे लिए चोरी एक कला थी. मुझे तमंचे की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. तमंचे जैसी चीज मेरी आजादी खतम कर देती.

मुझे थोड़ा डर लगा और थोड़ी उत्सुकता हुई. मुझे लगा ऐसा कौन है जो मुझसे मिलने के लिए इतना बेकरार है. मैं उस संदेशिए के साथ जाने के लिए तैयार हो गया.




(चार)
यह एक शानदार महल ही था जिसमें मुझे ले जाया गया. आधे घंटे के बाद जो नीचे उतरे उन्हें देख कर मैं खड़ा हो गया. मैंने उनकी तस्वीरें बहुत बार अखबारों में देख रखी थीं. वे शहर के बहुत बड़े वकील और समाजसेवी थे और एक राष्ट्रीय पार्टी के जिला अध्यक्ष थे.

मेरे हाथ नमस्ते की मुद्रा में उठे. उस संदेशिए ने मुझे कड़ी नजर से देखा. उन नजरों में पैर छूने का इशारा था जिसे मैंने अनदेखा किया.

वकील साहब ने मुझे एक तरफ बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया तो उन्होंने मेरे बारे में बहुत कुछ बताना शुरू किया. और बताया कि वह मुझ पर लंबे समय से नजर रख रहे हैं. वे मेरी सारी चोरियों के बारे में जानते थे.

मैं चौंका जरूर पर मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई. मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह मुझसे चाह क्या रहे थे. इसलिए मैं उनके उस महल में नजरें दौड़ाने लगा.

जल्दी ही वे मुद्दे पर आए. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं छोटी छोटी चोरियाँ बंद करूँ और बड़े हाथ मारूँ. चोरी के माल को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी उनकी होगी. और उसकी जो भी कीमत होगी उसका आधा वह रखेंगे. आधा मुझे दे देंगे. बदले में मेरी सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी होगी.

वे बहुत शानदार बाने में थे मगर मुझे बहुत ही घिनौने लगे उस पल. मैंने जो एक एशट्रे इस बीच पार कर ली थी उसे वापस रख दिया. बिना उनके देखने की परवाह किए.

उन्होंने मेरा जवाब मेरे बिना कहे समझ लिया और कहा फिर आज के बाद तुम एक नीबू भी नहीं चुरा सकते. सोच लो. मैंने कुछ नहीं कहा और उठ खड़ा हुआ. उन्होंने मुझे कई धमकियाँ दी और सोच कर बताने को कहा.

अगले दिन मैंने एक नीबू ही चुराया और धर लिया गया.

थाने में मेरा वक्त बहुत बुरा बीता. रात भर में वह सब कुछ किया गया जो पुलिस कर सकती थी. अगर वही थी तो सुबह मुझमें खड़े होने की भी ताकत बची थी. वह एक रात मेरे लिए भयानक रूप से पुनर्विचार की रात थी.

वह वकील और पुलिस वाले अपनी जगह थे. पर मैं उनके बारे में नहीं सोच रहा था. मैं खुद पर पड़ी मार या शारीरिक दुर्दशा के बारे में भी नहीं सोच रहा था.

इस सब से अलग मैं अपने ही भीतर धँस गया था. यह अपने से सवाल करने का समय था. मुझे अपनी सभी चोरियाँ एक एक कर याद आ रहीं थीं. जिनके बारे में मैं सोचता था कि किसी को कुछ भी पता नहीं.

उन सब का हिसाब था उसके पास. तो क्या मैं इस लिए चोरी कर पाया कि उसने ऐसा करने दिया मुझे! या कि वह चाहता तो उसी दम पकड़वा सकता था मुझे. आखिर कैसे जानता था इतना भीतर तक वह मुझे कि उसे मेरे समलैंगिक रहेहोने तक की जानकारी थी. क्या उसकी आँखें ऐसे पलों में भी मुझे देख रही होती थीं.

वह उस लड़की के बारे में भी जानता था जिसकी मेरे साथ साथ हत्या की गई थी. क्या हत्यारे जब हमारी हत्या कर रहे होंगे उस समय भी वह देख रहा होगा. क्या हत्या में उसकी भी सहमति शामिल थी!

कौन था वह आखिर! वह एक साथ इतना सर्वव्यापी और ताकतवर कैसे था?

मेरे भीतर धमाके हो रहे थे. मैं नंगा था उसके सामने. मेरे भीतर का विश्वास खतम हो गया था और मैं उस क्षण मिट्टी का एक निरा लोंदा भर बचा था.

तभी मेरे भीतर यह बात उठी की मैं खुद को खतम कर लूँ. उसी क्षण  आत्महत्या. इतना सार्वजनिक हो कर आखिर कैसे जिया जा सकता था. पर कैसे करूँ यह? हाथ काट लूँ अपना या सीधे गला. साँस लेना बंद कर दूँ. गला घोंट दूँ अपना ही.

और यह गजब था कि उन्हीं आत्महंता क्षणों में मुझे वे किताबें याद आईं जिन्हें मैं रद्दी के भाव बेच आया था. वे किताबें जैसे मुझे नए सिरे से समझ में आने लगीं. उनके लेखक जैसे एक एक कर मेरे बाल सहला रहे थे. उन्होंने मुझे बहुत प्यार किया और अपने साथ चलने को कहा.

मैं रोने लगा. मैं चिल्ला चिल्ला कर रोया.

उसी क्षण मैंने चोरी छोड़ने का फैसला किया.

मुस्कराए सब के सब. बोले अब तुम्हें और बड़ा चोर बनना है. झाँक सको तो झाँको उनके भीतर जो अब तक तुम्हारे भीतर झाँक रहे थे. कर सको तो उन्हें करो नंगा जिनके सामने तुम नंगे थे अभी तक.

पीछा करो उनका उनकी ही तरह. देखो तो थोड़ा सा भी मनुष्य बचा है उनके भीतर या! चुरा ही सकते हो तो उनके भीतर का कुछ चुराओ. चोरी को सिद्ध करो नई तरह से.

हम बताएँगे तुम्हें इसके गुर. इसके बाद तुम्हारा साहस. तुम्हारा अभ्यास. तुम्हारी दुनिया. और उस दुनिया में तुम्हारी पहुँच.

मैं एक बार पहले भी उन लेखकों के झाँसे में आ चुका था. मुझे कायदे से मालुम था कि जो बातें वे कर रहे थे वे खतरनाक थीं. उनके पाले में आते ही मेरा सुकून हमेशा के लिए छिन जाने वाला था.

आगे वही दार्शनिक सूनापन या पागल बेचैनियाँ मेरी आँखों का भविष्य होतीं.
मैंने कहा पहले बाहर निकालो मुझे यहाँ से. मेरे प्रिय लेखकों ने हाथ खड़े कर दिए इस पर. कि निकलना तो तुम्हें खुद से ही पड़ेगा. हम इतना जरूर कर सकते हैं कि तुम्हें यहाँ अकेला न छोड़ें. साथ रहें तुम्हारे.

मैं कई दिनों तक वही वही यातनाएँ फिर फिर भुगतता रहा. कई दिन बाद वही संदेशिया मुझसे मिलने आया. बोला तेवर बदल गए हों तो बाहर आ जाओ.
मैं निकल आया बाहर. मुझे किसी ने भी नहीं रोका. कोई कागजी औपचारिकता भी नहीं निभाई गई मेरे बाहर निकलने की.

साफ था मुझे इतने दिनों तक ऐसे ही बंद रखा गया था. कागजों पर मेरे खिलाफ एक अदना आरोप तक नहीं था. सब कुछ बस जबानी इशारों पर चल रहा था फिर भी इतना व्यवस्थित था कि बाहर की दुनिया में इसकी कहीं कोई खबर नहीं थी.

और उन पागल आँखों वाले लोग मुझसे उम्मीद कर रहे थे कि मैं उन्हें नंगा करूँ. उनके भीतर झाँकू. और उनके भीतर का सब कुछ वैसे ही निकाल लाऊँ बाहर जैसे वह मेरे बारे में सब कुछ....

काँप गया मैं सोच कर ही उन सब के बारे में. वे मेरे सोचे हुए से ज्यादा ताकतवर थे. मैं बाहर आ जरूर गया था पर हर पल उनकी पहुँच में था. उनसे भागना असंभव था.

यही बात मैंने उन लेखकों से कही जो मेरे साथ साथ चल रहे थे.

वे हँसने लगे. उनमें से एक जो नाटे कद का था थोड़ा वह चुहल भरे अंदाज में हँसा. फिर उसने मेरे कंधों पर हाथ रखा और बोला. तुम्हें भागने को कौन कह रहा है?

तुम्हें भागना नहीं पीछा करना है. सिर्फ यही एक तरीका है जिससे तुम बच सकते हो. वह तुम्हारे पीछे लगा हुआ है भूल जाओ यह. उसे करने दो यह काम जिसे करने का अभ्यास है उसका.

वह हमेशा उन्हीं पुराने तरीकों से पीछा करेगा तुम्हारा. तुम्हें नए तरीके खोजने होंगे. बचने के भी और रचने के भी. यही तुम्हारी ताकत होगी.

वह लेखक ही क्या जो बात को उलझाए नहीं. बावजूद इसके मैं उन्हीं पुराने दिनों में लौट रहा था जब मैं अपना सारा समय इन आवारा लेखकों के बीच गुजार रहा था.

और अब सब से पहले मुझे उस संदेशिए से निजात पानी थी. वह लंबा चौड़ा था और बहुत आत्मविश्वास से चल रहा था. उसे मेरे साथ के लोगों के बारे में कुछ भी पता नहीं था शायद.

तब मैंने सबसे आसान बहाना बनाया और एक उँगली दिखाई. उसने एक किनारे हो कर गाड़ी रोकी और नाली की तरफ इशारा किया.

मैं इस हालत में था कि अगर नाली में गिर जाता तो यह हफ्ते भर की मेरी खिदमत का परिणाम माना जाता. मैंने वही किया.

वह अरे अरे करता हुआ नाक सिकोड़ने लगा. उसने खखार कर थूका. मेरे साथ के लोग मुस्करा रहे थे. उसने मुझे दूर एक नल की तरफ इशारा किया कि वहाँ जाओ और साफ करो खुद को. यह कहते हुए वह पान की गुमटी की तरफ बढ़ गया.

मैं नल तक धीरे धीरे चल कर आया. फिर एक सँकरी गली में उतर गया और उस हालत में जितनी तेज भाग सकता था भागा.

उस पुलिस वाले की तेज हँसी की आवाज अभी भी मेरे कानों में गूँजती है. उस हँसी में एक खुली चुनौती थी कि भाग बेटा कब तक भागेगा! उस हँसी में एक अपराजित आत्मविश्वास था.

मैं कुछ कर सकूँगा या नहीं यह इस पर निर्भर करता था कि मैं उसका आत्मविश्वास तोड़ पाता हूँ कि नहीं.

और मैंने यह कर दिखाया. मैं अपने चारों तरफ की भीड़ में शामिल हो गया. बीच बीच में उसके सामने जाता और फिर गायब हो जाता. बाद के दिनों में तो मैं इतना चढ़बाँक हो गया कि उसकी टोपी उछाल देता या उसकी वर्दी में कुछ ततैयाँ या छिंवकियाँ डाल देता और रफूचक्कर हो जाता.

मुझे मजा आता. मुझे इसमें अपनी जीत का एहसास होता. पर यह जीत खोखली थी. मैं यह भी जानता था. मैं जल्दी ही इस सब से थक गया.

तब मैंने ध्यान से अपने चारों तरफ देखना शुरू किया.

मेरे चारों तरफ मुझसे बहुत बड़े बड़े चोर थे.    मैं चाहे जितने जनम लेता पर उनकी बराबरी मुमकिन नहीं थी.

एक और अंतर था उनमें और मुझमें. मैं ऐसे ही झूठ मूठ का चोर था. वे असली के चोर थे. मेरी चोरी में एक कला थी.

उनकी चोरी इतनी खुली थी कि उसे चोरी कहना ही गलत था. यह लूट थी. खुली लूट. इसके लिये कला नहीं ताकत की जरूरत थी.

ऐसी ताकत जो किसी के भी प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त हो. ऐसी ताकत जो न्याय के दूसरी तरफ ही अपना मुँह करके चलती हो. बल्कि न्याय जिसके चरण धोता हो.

मैं उन सबसे नफरत करता. और मुट्ठियाँ भींच भींच कर रह जाता. वे चोरों को बदनाम कर रहे थे.

कहाँ बहराम चोट्टा, चरनदास चोर जैसे लोग थे. जो अपने अपने समय के राजा-रानियों की नाक में दम किए रहे. अभी भी होंगे जो चोरी की कला को बचाए रखने के लिए लड़ रहे होंगे लगातार. आप उनमें से अनेक को जानते होंगे शायद.

यह अलग बात है कि आपने चोरी और चोरी में कोई अंतर न किया हो और उन्हें कोई मामूली चोर समझ लिया हो और आगे बढ़ गए हों.

तभी पहली बार मुझे अपनी भी बहुत सारी चोरियाँ याद आईं. मैं जिनकी साइकिलें चुराया करता था कौन थे वो लोग? उन्हें दूसरी साइकिल खरीदने में कितना वक्त लगा होगा!

उन्हें कैसा लगा होगा जब उनकी मेहनत से कमाई हुई चीजें पल भर में गायब हो जाती रही होंगी. उस समय अगर वह मुझे पकड़ पाते तो मेरे साथ क्या सुलूक करते.

सवाल बहुत थे. मैं जवाब के लिए उन लोगों को तलाशने लगा जो कभी मेरे शिकार रहे थे. यह बहुत मुश्किल था. अनेक की तो मैंने शकल तक नहीं देखी थी. फिर भी मिले कई एक एक कर.

मैंने उन सबको अपने बारे में बताता कि यह मैं था जिसने.... वे हँसने लगते. उन्हें कुछ याद ही न आता. या क्या पता कि याद आता रहा हो पर याद आए तो और भी याद करना पड़े बहुत कुछ इसलिए जानबूझ कर ही भूलने का नाटक करते रहें हो वह.

या कि वे यह तो जाने समझें कि मैं एक चोर हूँ पर पुलिस बनने का मन न करता रहा हो उनका. या कुछ और. कौन जाने वह खुद कभी चोर रहे हों और चोरों के दुख दर्द समझते हों भली भाँति.

सिर्फ एक था जिसने भरपूर मुक्का मारा था मेरे मुँह पर. यह बाईं तरफ के जो दो दाँत गायब हैं उसी की मेहरबानी से. पर जैसे ही मैंने मुँह से खून थूका और खून के साथ दाँत भी बाहर गिरे वह माफी माँगने की मुद्रा में आ गया.

पर पता नहीं क्यों उसके मुक्के ने मुझे दिली सुकून पहुँचाया. उस मुक्के की निशानी बनी रहे इसलिए मैंने आज तक यह दाँत दोबारा नहीं लगवाए.

और अब मैं इस बात के लिए पूरी तरह से तैयार था कि उस रास्ते पर चल पड़ूँ जिस पर चलने के लिए मेरे प्रिय लेखक लगातार मेरे पीछे पड़े हुए थे.

लेकिन जल्दी ही मुझे पता चल गया कि यह तैयारी किसी काम की नहीं थी. अपनी पूरी कोशिश के बाद भी बहुत दिनों तक मैं ऐसा कुछ भी नहीं लिख पाया जिसे लेकर अपने लेखकों के बीच जा सकता.

मैं लिखता और फाड़ता जाता. फिर भी वे मेरे लिखे का एक एक अक्षर पढ़ते और मुस्कराते. मैं इस मुस्कराहट से चिढ़ जाता. और कई बार तो उन्हें अनाप शनाप भी बोल जाता.

एक दिन ऐसे ही झल्लाहट में जब मैं उनके लिए गालियाँ ही बकने वाला था कि उनमें से एक मेरे पास आया. वह मुस्कराया. बोला कि एक तो तुम बहुत ही जल्दबाजी में हो ऊपर से गलत सिरे से कोशिश कर रहे हो.

पहले पीछा करो उनका जिनके बारे में लिखना चाहते हो. जानो उन्हें उससे बहुत ज्यादा जितना तुम्हें वह वकील जानता था. वह सिर्फ तुम्हारे बाहर भर का जानता था. तुम्हारे भीतर तक उसकी पहुँच नहीं थी. तुम अपनी बहादुरी की वजह से उससे नहीं बचे हुए हो. तुम सिर्फ इसी वजह से बचे हुए हो कि तुम्हारे भीतर के बारे में वह कुछ भी नहीं जानता.

तुम्हें बाहर के साथ साथ भीतर का भी जानना है. तब लिख पाओगे कुछ. और सुनो तुम्हारी दूसरी गलती यह भी है कि तुम हमारे लिए लिखना चाह रहे हो. कि जो तुम लिखो वह हमें अच्छा लगे. यह क्यों?

हमें खराब ही लगे तो इससे क्या! लिखो वही जो तुम्हारे समय का सच हो. तुम्हारे लोगों का सच हो. तुम्हारा सच हो.

मुझे लगा कि यह सब अपन के बस की बात नहीं. और मैंने यह कह भी दिया उनसे.
तो जाओ कोई और काम करो. कोई जरूरी है कि यही करो.

मैं तिलमिला कर पैर पटकते हुए चला आया. और एक नाटक देखने चला गया.     

नाटक मस्त था. मैंने खुद से पूछा कर पाओगे यह तुम! आओ यही करते हैं.

यह भी कमबख्त आसान नहीं था. तब मैंने मदद के लिए अपने पुराने दोस्तों को याद करना शुरू किया. जिनसे बहुत दिनों से मेरी मेल मुलाकात सब बंद थी.

वे भी मुझे भूले नहीं थे. वे जब जैसी जरूरत हुई आए. और यह उनकी मदद ही थी कि मैं मंच पर खड़ा हो गया.

दूसरों को जीना. दूसरे चरित्रों की चोरी करना और उन्हें अपने भीतर के बक्से में बंद कर देना. और फिर अपनी ही चोरी करना. अपने को गायब कर देना.

मेरे पास एक भरा-पूरा शरीर होता. वैसा ही जैसे मेरे चरित्रों के पास होता. वैसे ही नाक कान हाथ मुँह चेहरा चमड़ी खून. वैसे ही धड़कने वाला दिल सोचने वाला दिमाग.

वैसी ही भूख प्यास गुस्सा वुस्सा प्यार व्यार घृणा वृणा सब कुछ.

आसान था कि मैं अपने को एक पारदर्शी बर्तन मान कर उन्हें अपने ही भीतर रख लूँ. कि बर्तन दिखे ही नहीं. वही वही दिखें. भले थोड़े धुँधले ही सही.

यह सब कुछ आसानी से हो सके इसके लिए मैं दिन दिन भर रात रात भर गलियों और सड़कों पर आवारा घूमता. उनके जीवन की उनसे भी ज्यादा खबर रखता. उनके सुख दुख और हँसने रोने पर घात लगाता.

कुछ इस कदर कि मेहनत वे करें पसीना टपके मेरे बदन से. कुछ टूटे उनके भीतर तो टूटने की आवाज मेरे भीतर से आए. आँसू आएँ उनकी आँखों में तो गड़ें मेरी आँखों में. टपकें भले ही उन्हीं की आँखों से.

यह कला मुझे किस्सों वाले उस चोर ने सिखाई जो जागती आँखों से सूरमा चुरा लेने का हुनर जानता था.  


और अनायास ही एक दिन मैंने लिखना शुरू कर दिया. मेरे भीतर जैसे एक नई उर्जा भर गई थी जो हर हाल में बाहर आना चाहती थी. मैं जी जान से लग गया की वह बाहर आ सके.

इस मुकाम पर मेरे शरीर ने मेरा साथ छोड़ दिया. यहाँ तो चुराया हुआ माल उसी कलम के सहारे वापस करना था जिसे चुराना कभी मेरा सबसे प्रिय शगल हुआ करता था.

चुराने के साथ वापस करने का खेल मेरे लिए नया नहीं था पर यहाँ वापस करने का जो साधन था मेरे पास वह बहुत नया था मेरे लिए.

मुझे सब कुछ उन्हीं शब्दों के सहारे वापस करना था जो न जाने कितनी बार बरते जा चुके थे. बहुतों ने तो अब तक अपना अर्थ ही बदल लिया था. बहुत थे जो अभी भी वही करने की प्रक्रिया में थे.

अब इन्हीं रूप बदलते शब्दों के सहारे सभी चोरियों का बदला चुकाना है मुझे. जो मैं लगातार करने की कोशिश कर रहा हूँ. जो भी मैं कहता सुनता हूँ पढ़ता लिखता हूँ उसमें मेरे चोरी के अनुभव शामिल ही होते हैं. अब अगर कोई पुलिसिया नजर से इस सब कुछ को देखेगा तो मैं अपराधी ही नजर आऊँगा.

वे पुरखे हमारे अभी भी साथ चलते हैं मेरे. हम अक्सर लड़ते झगड़ते रहते हैं. पर वे हैं कि पीछा ही नहीं छोड़ते मेरा. मैं भी प्यार करता हूँ उनसे.

वे मदद करते हैं मेरी. वे हमसे बहुत पुराने हैं पर हमारी लड़ाई को एक नया संदर्भ देते हैं अक्सर. वे हारे और मारे गए हैं तब भी. उन्होंने समर्पण कर दिया है तब भी.

उनकी तमाम छोटी बड़ी लड़ाइयाँ हमारा इतिहास हैं. और लुटेरे भले इतिहास से मुक्त होने की कोशिश करें. उसे नकार कर भागें. उसके संदर्भ पलट दें और उसे अपनी काँख में दबा कर उस पर इतर छिड़कें पर हम जो मामूली चोर हैं ऐसा कभी नहीं कर पाएँगे.हम करेंगे तो अपना ही पैर काटेंगे.

मैं पीछा करने की अपने प्रिय लेखकों वाली बात भूला नहीं हूँ. मैं दिन रात वही करने की कोशिश कर रहा हूँ.
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मनोज कुमार पांडेय

7अक्टूबर 1977को इलाहाबाद के एक गाँव सिसवाँ में जन्म.  
पिछले तीन साल से वर्धा में रहते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेबसाइट हिंदी समयके लिए कार्य
कहानियों की दो किताबें शहतूतऔर पानीभारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित.
कई किताबों का संपादन. चंदू भाई नाटक करते हैं,’ ‘खाल,’ ‘हँसीआदि कई कहानियों का विभिन्न निर्देशकों द्वारा मंचन. खालपर लघु फिल्म का निर्माण.  
कहानियों के लिए प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान (2006), विजय वर्मा स्मृति सम्मान (2010), मीरा स्मृति पुरस्कार (2011) 

परिप्रेक्ष्य : मोदियानो : गीत चतुर्वेदी

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२०१४ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार की जब घोषणा हुई तब फ्रेंच भाषा के लेखक Patrick Modiano  की भारत जैसे अंग्रेजी के उपनिवेश रह चुके देश में तलाश शुरू हुई. फ्रांस के इस सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक को हम कितना जानते हैं ?
गीत चतुर्वेदी  ने इस अवसर पर  मोदियानो के साहित्य की गम्भीर विवेचना करते हुए उनकी तुलना अनेक लेखकों से की है. साथ ही नोबेल पुरस्कार की अपनी राजनीति पर भी उनकी नजर है. खास आलेख.  

        


प्रूस्‍त, पैट्रिक मोदियानो और नोबेल पुरस्‍कार            

गीत चतुर्वेदी 


फ्रेंच लेखक पैट्रिक मोदियानो को नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा के बाद पुरस्‍कार समिति के पीटर इंग्‍लंड ने उन्‍हें हमारे समय का मार्सल प्रूस्‍तकहा. यह एक बेहद बुनियादी और दिलचस्‍प उद्गार है, जहां से मोदियानो के रचनाकर्म को समझने की शुरुआत हो सकती है. लेकिन उससे पहले उन उद्गारों पर नज़र डाली जाए, जिन्‍हें उनकी विशेषता के रूप में व्‍यक्‍त किया गया : "(यह पुरस्‍कार) स्‍मृति की कला के लिए, जिसके ज़रिए उन्‍होंने मनुष्‍य के प्रारब्‍ध के अनछुए पहलुओं को छुआ और नाज़ी क़ब्‍ज़े के दौरान जिए गए जीवन को वर्तमान समय में प्रस्‍तुत किया.  स्‍मृति,  लोप, मनुष्‍य की पहचान और समय उनकी मुख्‍य थीम हैं.’’

मोदियानो की थीम उन्‍हें प्रूस्‍तके क़रीब खड़ा करती है. जब कोई लेखक स्‍मृति को अपनी रचनाशीलता का मूल आधार बनाता है, लंबे समय तक लिखता है, तो अंत में पाता है कि वह जीवन-भर दरअसल एक ही किताब लिखता रहा, अलग-अलग खंडों में, अलग-अलग शीर्षक से. और यही कारण है कि नोबेल की घोषणा के बाद जब समिति ने मोदियानो से फोन के ज़रिए पहला औपचारिक साक्षात्‍कार लिया, तो उसमें लेखक ने यही कहा- मुझे अब ऐसा लगता है कि पैंतालीस साल से मैं एक ही किताब लिख रहा था.मोदियानो या किसी भी अन्‍य लेखक को यह अहसास अपने रचनाकर्म के मध्‍यांतर में ही हो जाए कि वह दरअसल एक ही किताब लिख रहा, तो वह अपनी धारा बदलने को छटपटा जाए. किंतु यह इस थीम का प्रताप है कि भले लेखक इसे सचेत चुने या अचेत, यह अहसास बहुत लंबे समय बाद आता है.

यही कारण है कि प्रूस्‍त का सारा लेखन भी एक ही किताब की महत्‍वाकांक्षी रचना की अलग-अलग जिल्‍द है. क़रीब पंद्रह लाख शब्‍दों, चार हज़ार पन्‍नों व सात खंडों में फैला उनका उपन्‍यास रिमेबरेंस ऑफ थिंग्‍स पास्‍ट (या उसका नया नाम ‘इन सर्च ऑफ़ लॉस्‍ट टाइम’) स्‍मृति का वृहत् आख्‍यान है. प्रूस्‍त का ज़ोर मनुष्‍य की ऐतिहासिक स्‍मृति से ज़्यादा उसके निजी मानसिक इतिहास पर है. भौतिक बाहरी और अधिभौतिक भीतरी दबावों के बीच स्‍मृति एक पीड़ाधारी देह है, जो कभी नक्षत्रों की तरह चमकती है, तो कभी अंधेरे की किरण की तरह प्रकाश के वृत्‍त को दो-फांक कर देती है. वह बेहद गंभीर, शास्‍त्रीय और चिंतनशील रचनात्‍मकता है, जो न केवल साहित्‍य को, बल्कि मनोविज्ञान को भी नई दिशा देती है. मनोविज्ञान-शास्‍त्र में कई अवधारणाएं प्रूस्‍त के इस उपन्‍यास के कारण ही विकसित हुईं और उनका नामकरण प्रूस्‍त द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍दावलियों में ही किया गया. प्रूस्‍त को नोबेल पुरस्‍कार नहीं दिया गया था, लेकिन मोदियानो को पुरस्‍कार की प्रशस्ति के समय हमारे समय का प्रूस्‍तकहा गया. इसमें नोबेल समिति के प्रायश्चित का भी अंतर्पाठ संभव है.

किंतु क्‍या मोदियानो सच में हमारे समय के प्रूस्‍त हैं यदि सिर्फ़ थीम की बात की जाए, तो ऐसा कहा जा सकता है, लेकिन दोनों के पूरे रचनाकर्म का ध्‍यान रखा जाए, तो यह उद्गार महज़ एक डेकोरेशन है, कम जाने गए एक लेखक की ओर ध्‍यानाकर्षण करने वाला डेकोरेशन. मोदियानो की थीम भी स्‍मृति है, उसका लंबा आलाप व आख्‍यान है, स्‍मृति की विभीषिकाओं से गुज़रते हुए मनुष्‍य की पहचान के संकट को रेखांकित करने का उपक्रम है, निजी स्‍मृति व सामूहिक स्‍मृति के बीच किसी डोर पर नट की तरह चलते रहने का संतुलन है. प्रूस्‍त बेहद बीसवीं सदी थे, मोदियानो उनका संक्षेपित विस्‍तार हैं. तुलना के उस उद्गार के संदर्भ में यही उनकी विशेषता है. एक विस्‍तार, जो कि संक्षिप्‍त हो, संक्षेपित हो. संक्षेपण को विस्‍तार नहीं माना जाता, फिर भी मोदियानो अपनी थीम में, प्रूस्‍त के संक्षेपित विस्‍तार हैं. थीम के प्रति लेखकीय व्‍यवहार, उपन्‍यास-कला, क्राफ़्ट व अन्‍य संरचनागत स्‍तरों पर वह प्रूस्‍त से काफ़ी अलग हैं. उनके उपन्‍यास पचास हज़ार शब्‍दों या डेढ़ सौ पन्‍नों में समाप्‍त हो जाते हैं. (ख़ुद पीटर इंग्‍लंड ने अपनी प्रेसवार्ता में कहा था, आप लंच के बाद उनकी किताब पढ़ना शुरू कीजिए. शाम से पहले ख़त्‍म कर दीजिए. आराम से डिनर कीजिए और उसके बाद नींद आने से पहले उनकी दूसरी किताब भी पढ़कर पूरा कर दीजिए.हल्‍की-फुल्‍की यह टिप्‍पणी उनकी किताबों के भौतिक आकार पर ही थी.) प्रूस्‍त की तरह वह स्‍मृति पर मनोवैज्ञानिक व दार्शनिक मान्‍यताएं स्‍थापित करते नहीं चलते (प्रूस्‍त के बाद के लेखकों में सबसे अच्‍छी तरह यह प्रयोग कुंदेरा ने किया है), बल्कि स्‍मृतियों के स्‍फुलिंग व स्‍मृतियों के विलोप जैसी मान्‍यताओं से जुड़े किसी एक प्रसंग को उठाते हैं, उसके आसपास सहज-योग पद्धति का ध्‍यान करते हैं, फिर उन मान्‍यताओं को ही संकटग्रस्‍त कर देते हैं. प्रूस्‍त के पास स्‍मृति का हठ-योग है, मोदियानो स्‍मृति के सहज-योग में वास करते हैं. यही उनका विस्‍तार भी है. प्रूस्‍त अपने लेखकीय वर्तमान को आधार बनाते हैं, मोदियानो लेखकीय वर्तमान को छोड़कर नज़दीकी इतिहास में चले जाते हैं. व्‍यक्ति की स्‍मृति, समूह द्वारा रचे गए इतिहासों को संदिग्‍ध बनाती है. साहित्‍य, वैयक्तिक व व्‍यक्‍तिगत स्‍मृतियों को सहेजने का काम कहीं ज़्यादा जि़म्‍मेदारी से करता है. इसीलिए दुनिया का सारा इतिहास, साहित्‍य से संकटग्रस्‍त होता आया है. 

मोदियानो के चरित्र याद करने से इंकार कर देते हैं. हिंदी आलोचना की तेवर वाली पदावली का प्रयोग किया किया जाए, तो उनके उपन्‍यास ‘स्‍मरण के खि़लाफ़ विद्रोह’हैं. जब भी कुछ बेहद ज़रूरी याद करने का मौक़ा आता है, वे याद करने के विरुद्ध खड़े होते हैं. इसका सूत्र उस फ्रेंच इतिहास में है, जिसे मोदियानो ने अपनी रचनाओं का प्राकृतिक आवास बनाया है. उनके उपन्‍यास आउट ऑफ़ द डार्कमें नायक साठ के दशक में एक लड़की से प्रेम करता है. दोनों अलग हो जाते हैं. पंद्रह साल बाद दोनों की मुलाक़ात फिर से होती है. इस बीच लड़की अपना नाम, पेशा, पहचान आदि बदल चुकी है. नायक उसे उसके चेहरे से पहचानता है, जिसे वह बदल नहीं पाई है. वह उससे बात करने की कोशिश करता है, लेकिन लड़की हर बात से इंकार करती जाती है. वह पूरे अतीत से इंकार कर देती है. यह ज़ाहिर है कि लड़की को उस अतीत ने इतनी तकलीफ़ दी थी कि उसने अपनी पहचान बदल ली. जब वही अतीत फिर उसके सामने आकर खड़ा हो गया, तो उसने उसे मान्‍यता नहीं दी. उसने अतीत को ठुकरा दिया. अतीत को ठुकराना व्‍यक्ति को ठुकराने से अलग है. यह अपने अ-व्‍यक्ति को ठुकरा देने जैसा है. यह भी स्‍पष्‍ट है कि लड़की को विस्‍मृति नहीं है, फिर भी वह स्‍मृति में लौटना नहीं चाहती. याद न करना भी एक विद्रोहात्‍मक कार्यवाही हो सकती है. यह निजी स्‍मृति का नकार है. पाठक इस ऊहापोह में पड़ जाता है कि लेखक या नायक सही कह रहा है या वह लड़की सही कह रही है. नायक ने पहचानने में भूल की है या लड़की झूठ पर झूठ बोले जा रही. छोटा-सा यह उपन्‍यास इसी द्वंद्व में चलता है. नायक अंत में एक ऐसी जगह को देखता है, जिसे वह पहले जानता था, जहां पहले बहुत सारी राहबत्तियां जलती थीं, लेकिन अब वहां एक भी राहबत्‍ती नहीं जल रही. घुप्‍प अंधेरा है. वहां पहले कॉफ़ी हाउस, थिएटर थे, लेकिन अब नहीं हैं. अब सिर्फ़ उनके साइनबोर्ड बचे हैं. उनमें से एक अब भी दमक रहा है, बेबात ही दमक रहा है. ये सारे साइन बोर्ड स्‍मृति के स्‍फुलिंग हैं. एक ही बोर्ड दमक रहा, बाक़ी कोई नहीं. दमकना बोर्ड की स्‍मृति है. बोर्ड ने अपने दमकने से इंकार कर दिया है. बोर्ड ने अपनी स्‍मृति को नकार दिया है. सिर्फ़ एक बोर्ड दमक रहा है, यानी पूर्ण विस्‍मृति का घटाटोप नहीं है, स्‍मृति कहीं न कहीं उपस्थित है. मोदियानो यही दिखाना भी चाहते थे- भीतर स्‍मृति थी, लेकिन उससे बड़ा उसका नकार था, इसलिए भीतर स्‍मृति का नकार बचा.

एक दूसरे उपन्‍यास में युवाओं का एक समूह अपनी सामूहिक स्‍मृति को नकार देता है. किसी एक घटना से उनकी स्‍मृति जाग जाती है, उन्‍हें एक पूरा इतिहास याद आने लगता हो, लेकिन वह समूह उस इतिहास से मना कर देता है. पिछले उपन्‍यास में निजी स्‍मृति का नकार था, यहां सामूहिक स्‍मृति का नकार है.

प्रूस्‍तने इनवालंटरी मेमरी या अनिच्‍छुक स्‍मृति को अपनी रचनाधर्मिता का आधार बनाया था. मनोविज्ञान की शब्‍दावली में यह शब्‍द भी प्रूस्‍त के ज़रिए ही आया. सरल रूप से इसे इस तरह समझ सकते हैं जब हम कोई चीज़ या घटना देखते-महसूस करते हैं, तब वह हम पर इस तरह प्रभाव पैदा करती है, कि उससे जुड़ी कोई स्‍मृति हमें अपने पाश में ले लेती है. उससे पहले वह स्‍मृति हमारी नियमित स्‍मृति में नहीं होती, लेकिन एक बाह्य उपकरण उसे जगा देता है. उसके बाद, उसके ज़रिए हम कई चीज़ें याद करने लग जाते हैं. स्‍मृतियों की एक कड़ी चल पड़ती है. जैसे चांदी का एक गिलास हमारी नियमित स्‍मृति में नहीं,लेकिन एक दिन उसे देखते ही हमें याद आ जाता है कि एक बार हमने चांदी के गिलास में शरबत पिया था. इसके साथ यह याद आना शुरू होता है कि वह शरबत किसके यहां पिया था, उससे हमारा क्‍या रिश्‍ता था, क्‍या वह व्‍यक्ति अब भी हमारे जीवन में है या खो चुका है. इस तरह एक लंबी कड़ी बननी शुरू होती है. वह जो पहली स्‍मृति है, जो चांदी के गिलास को देखने से जगी, वह अनिच्‍छुक स्‍मृति थी. उसकी अनिच्‍छा ने शेष स्‍मृतियों को इच्छित कर दिया.

ऊपर मैंने मोदियानो के जो उदाहरण दिए हैं, वे दोनों ही प्रूस्‍त की इनवालंटरी मेमरी के प्रतिलोम में खड़े होते हैं. दोनों ही उदाहरणों में इनवालंटरी मेमरी उपस्थित होती है, पहले में निजी, दूसरे में सामूहिक. उसके ज़रिए स्‍मृति की पूरी मेखला जग सकती थी, किंतु मोदियानो ऐसा नहीं करते. वह स्‍मृति की प्रक्रिया को बाधित कर देते हैं. इनवालंटरी का महत्‍व तभी है, जब उसके ज़रिए अन्‍य स्‍मृतियां जागृत हो जाएं. यदि आप जागृत ही न होने दें, तो पूरी प्रक्रिया महत्‍वहीन हो जाती है. यह स्‍मृति की पीड़ा को पुन: आविष्‍ट न होने देने की चेष्‍टा है. एक तरह से स्‍मृति व उसकी पीड़ा का नकार है, तो दूसरी तरफ़ यह नए अर्थों में प्रूस्‍त का परिष्‍कार भी है.

चीनी मूल की अमेरिकी उपन्‍यासकार यियून ली,जिनकी किताबें मुझे बेहद प्रिय हैं, एक साक्षात्‍कार में अपनी किताबों के बारे में कहती हैं, ‘हर किताब किसी दूसरी किताब से संवाद कर रही होती है. हर लेखक अपनी किताब के भीतर अपने प्रिय किसी दूसरे लेखक से बातचीत करता है.यानी किताब सिर्फ़ कहानी नहीं कह रही, वह किसी दूसरी किताब के साथ चर्चा में मशग़ूल भी है. यदि हमने वह किताब पढ़ रखी है, तो तलहटी के स्‍तर पर चल रही उस चर्चा से तारतम्‍य बना सकते हैं. मोदियानो के उपन्‍यास तलहट पर प्रूस्‍त की किताबों के साथ संवाद में मगन रहते हैं. वे कभी प्रूस्‍त को संकट में डालते हैं, कभी ठीक उन्‍हीं के रास्‍ते पर चलते हैं, तो कभी एकदम से उनका मज़ाक़ उड़ाते भी नज़र आते हैं.

लेखक अपने लेखन के ज़रिए आत्‍म की तलाश में रत होता है. जब वह बाहरी दुनिया की कहानी लिखता है, जो किसी तृतीय पुरुष को अपना चरित्र बनाता है, लेकिन जब वह भीतर दुनिया की कहानी की ओर जाता है, तो प्रथम पुरुष की तरफ़ आता है. इस तलाश को और वैयक्तिक बनाते हुए वह तृतीय पुरुष को अलग कर देता है, ख़ुद लेखक को ही प्रथम पुरुष में अभिव्‍यक्‍त करना शुरू करता है. यह एक उत्‍तर-आधुनिक उपकरण है. इसीलिए उत्‍तर-आधुनिक,जिसे मैं आगे पो-मोशब्‍द से संबोधित करूंगा,उपन्‍यासों में आपको अक्‍सर मुख्‍य चरित्र ऐसा मिलेगा,  जो स्‍वयं लेखक है और एक लेखक के रूप में ही अपनी किताब में शामिल भी है. प्राचीन भारतीय साहित्‍य में इसके सबसे अच्‍छे उदाहरण वाल्‍मीकि और वेद व्‍यास हैं. दोनों ही अपनी किताबों में लेखक के साथ-साथ एक चरित्र के रूप में भी उपस्थित होते हैं, हालांकि बेहद कम समय के लिए और आख्‍यान पर अपनी इस उपस्थिति का अधिक प्रभाव नहीं डालते,लेकिन बीसवीं सदी में, ख़ासकर पश्चिमी पो-मो उपन्‍यासों में,  लेखक एक साथ दो स्‍तरों पर अपनी किताब में उपस्थित होता है. आधुनिक साहित्‍य में इस प्रयोग की भव्‍यता मार्सल प्रूस्‍त से शुरू होती है. प्रूस्‍त के पास अपना मार्सल है, काफ़्का के पास मिस्‍टर के. बोर्हेस के पास बोर्हेस है,आयहै. ऑस्‍टर के पास पॉल है. कुत्‍सी के पास जॉन है. फिलिप रॉथ के पास ख़ुद के अलावा टॉर्नोपोल,  ज़ुकरमान और केपेश हैं. कल्‍वीनो के पास अपना रायटरहै, जो जाने कौन-सी किताब लिख रहा है. अमोस ओज़ के पास भी एक अनाम ऑथरहै, जो कॉफी हाउस में बैठता है, किसी वेट्रेस के नितंब देखता है,  और वहीं बैठे-बैठे उसकी कहानी रचने लगता है,  जो कि ख़ुद ऑथर की कहानी बनती जाती है. कुंदेरा के पास भी ऐसा है. बोलान्‍यो के पास  आर्तुरो बेलानो और हुआन गार्सीया मादेर्रो है. ये सब प्रसिद्ध लेखकों के उदाहरण हैं. ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं. आखि़र इनके पास ऐसे चरित्र क्‍यों हैं?  ये सारे चरित्र इस समाज में एक लेखक की नैतिकता व उसकी नियति का संधान करते नज़र आते हैं. ये सारे चरित्र स्‍व की खोज में निकले हुए यात्री हैं. ये सब एक ‘पराए’ स्‍व के ज़रिए ‘अपने’ स्‍व की तलाश में लगे हैं. सारे महान उपन्‍यास अंतत: एक यात्रा-वृत्‍तांत होते हैं- स्‍व की तलाश की यात्रा का वृत्‍तांत. 

मोदियानो इसी परंपरा से जुड़ते हैं. उनके फिक्‍शन को इन सबसे अलग करके नहीं, बल्कि इन्‍हीं की कड़ी में देखना चाहिए. वह फिक्‍शन और ऑटोबायोग्राफ़ी को समाहित कर देते हैं. उनका लेखक जब एक चरित्र के रूप में उपस्थित होता है,  तो वह फ़ैक्‍ट होता है,जबकि उपन्‍यास फिक्‍शन के स्‍तर पर चल ही रहा है. इस फिक्‍शनल ऑटोबायोग्राफ़ी को कई आलोचक ऑटो-फिक्‍शनकहते हैं. मोदियानो को ऑटो-फिक्‍शन का लेखक माना जाता है. वह ख़ुद मानते हैं कि वह विशुद्ध आत्‍मकथा कभी नहीं लिख सकते. वैसे भी, वह अपने उपन्‍यासों में तथ्‍यों का बेहद सटीक प्रयोग करते हैं. एक ऐसी आत्‍मकथा, जिसमें लेखक ने जानते-बूझते आत्‍मकथा के दायरों को भंग किया है,  विधा के रूप में आत्‍मकथा के केंद्रीय विचार को, परिष्‍कृत करते हुए महज़ आत्‍म की घटनात्‍मक कथा कहने के बजाय, आत्‍म का निरूपण करने वाली कथा के रूप में बरता है. सुधी पाठक इस संदर्भ में नबोकफ़की स्‍पीक, मेमरी’, फिलिप रॉथ की द फैक्‍ट्सऔर जे. एम. कुत्‍सी की बॉयहुड’, ‘यूथऔर समरटाइमजैसी त्रयी का स्‍मरण कर सकते हैं. इन सभी किताबों में लेखकों का प्रयास है कि वे आत्‍म की कथा बांचने के बजाय अपने आत्‍म-तत्‍व का निरूपण कर सकें, उसके संधान की दिशा तय कर सकें. 

थीम के स्‍तर पर मोदियनो की जो यात्रा प्रूस्‍त के संसार व प्रति-संसार के पुनर्संधान से शुरू होती है, संरचना के स्‍तर पर वह पो-मो कथाख्‍यान शैली का ग्रहण करती है. स्‍व की तलाश के लिए स्‍व को साधन बनाना. अपने लिए अपना ही एक ‘पराया’ स्‍व गढ़ना. यह प्रतिबिंब देखकर अपना रूप संवारने जैसा है. वह बेहद आत्‍म-चेतस हैं. वह भूलने नहीं देते कि पाठक दरअसल एक किताब पढ़ रहा है,वह ख़ुद भी बीच-बीच में पाठक की तल्‍लीनता को कोंचते रहते हैं, 19वीं सदी के उपन्‍यासों की तरह वह पाठक को पूरी तरह कथा व कथारस के भीतर बह नहीं जाने देते,  बल्कि अपनी संरचना को इस तरह ऊबड़-खाबड़ करते चलते हैं कि पाठक को बीच-बीच में पर्याप्‍त झटके लगते रहें. वह पारंपरिक अर्थों में कथावाचक, कि़स्‍सागो या स्‍टोरीटेलर नहीं हैं. हिंदी में,  और अंग्रेज़ी में भी,  अधिकांश पाठक कि़स्‍सागोई खोजा करते हैं. कि़स्‍सागोई एक छल-आवरण है, एक कि़स्‍म का कैमोफ़्लेज,  जिससे लेखक अपनी दीग़र कमज़ोरियां छिपा ले जाना चाहता है और पाठक जिसके ज़रिए अपना एक विलास-लोक या कंफर्ट-ज़ोन तैयार करता है. पाठक को आसानी होगी, वह तुरंत रचना में प्रवेश कर लेगा, सुविधाजनक आवाजाही करेगा. पो-मो संरचना लेखक की उन दीग़र कमज़ेारियों को उजागर करती है और अपना वितान उन्‍हीं कमज़ोरियों पर रचती भी है, इसीलिए पो-मो कथाख्‍यान शैली को शिरोधार्य करने वाले लेखक पांरपरिक कि़स्‍सागोई को किनारे रख देते हैं. इसी के साथ-साथ वह पाठक को लगातार अलर्ट रहने को भी कहती है. यह अहसास बार-बार दिलाती है कि वह जो कुछ पढ़ रहा है, वह एक पुस्‍तक है,  और इसके साथ उसका व्‍यवहार एक पाठक की तरह होना चाहिए. इसीलिए वह पाठकीय सरलताओं की अवहेलना करती चलती है.

पारंपरिक कि़स्‍सागोई से प्रस्‍थान भी परंपरा में एक हस्‍तक्षेप जैसा है. थीम या विचार के लिए लेखक परंपरा के पास जा सकता है, क्‍योंकि थीम एक सार्वजनीन विषय-वस्‍तु-व्‍यापार है. थीम का वैयक्तिक होना क़तई अनिवार्य नहीं,  लेकिन कोई भी लेखक परंपरा के ज़रिए दृष्टि नहीं पा सकता. साहित्‍य में उधार की दृष्टि लंबे समय तक नहीं चल पाती. हर लेखक को अपनी एक वैयक्तिक दृष्टि तलाशनी होती है,  जैसे हर शरीर के पास अपनी एक जोड़ी निजी आंख होती है. इसीलिए मोदियानो भी अपनी एक दृष्टि की तलाश में पो-मो कथाख्‍यान शैली के पास जाते हैं,  और मुख्‍यत: डिटेक्टिव शैली का प्रयोग करते हैं.

पांरपरिक कि़स्‍सागोई से किनारा कर लिया,  पाठक को सुविधाजनक हिस्‍सा भी नहीं दिया, तो किताब के क्राफ्ट के भीतर उस ‘ब्रीदिंग स्‍पेस’ को कैसे बनाया जाए,  जिसमें कहन और पठन एक साथ चलते रह सकेंइस सवाल से जूझने के बाद ज़्यादातर लेखक कथाख्‍यान के लोकप्रिय उपकरण डिटेक्टिव शैली का प्रयोग करते हैं. पो-मो कथाख्‍यान शैली में रचे गए अधिकांश उपन्‍यासों या कहानियों में यह डिटेक्टिव या मिस्‍ट्री शैली अपनी-अपनी निजी विशेषताओं-कमियों के साथ दिखाई पड़ती है. मुख्‍य पात्र एक आभासी कि़स्‍म के रहस्‍य को खोज निकालने के पीछे पड़ा रहता है. यह पराए आवरण में अपनी बात की पोशीदगी है. कई बार यह रहस्‍य (या मिस्‍ट्री) शुरू में या बीच में ही खुल जाता है, लेकिन लेखक उसकी चिंता नहीं करता, क्‍योंकि उसने सिर्फ़ शैली के रूप में डिटेक्टिव संरचना को अपनाया है,  उसके कथ्‍य की संरचना कुछ और है. इसीलिए रहस्‍यों के खुल जाने के बाद भी वह पेज-टर्नर के रूप में इसका प्रयोग करता चलता है. बोर्हेसकी कहानियां इस शैली का अप्रतिम उदाहरण हैं. उनमें अंत में शरलॉक होम्‍सजैसा कुछ घटित नहीं होता,  कोई ऐसी चीज़ नहीं होती, जिससे पूरी कहानी में चली आ रही अवधारण सिर के बल खड़ी हो जाए, लेकिन फिर भी पूरी कहानी का आवरण किसी मूर्त या अमूर्त चीज़ की तलाश में बुना गया होता है. ओरहन पमुककी द ब्‍लैक बुक’, उम्‍बेर्तो ईकोकी द नेम ऑफ़ द रोज़, ऑस्‍टर की न्‍यूयॉर्क ट्रायलॉजीऔर बोलान्‍यो की द सैवेज डिटेक्टिव्‍सको इसी सिलसिले में रखा जा सकता है.
मोदियानो की सबसे चर्चित कृति है- ‘मिसिंग पर्सन’. नायक एक प्रायवेट जासूस है. उसे स्‍मृतिलोप होता है और वह ख़ुद को ही भूल जाता है. वह अब तक के जीवन में दूसरों की समस्‍याएं सुलझाता आया है,  अब उसके सामने स्‍व एक समस्‍या की तरह है. यह द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान वह ख़ास हिस्‍सा है, जब फ्रांस के एक भाग पर नाज़ी क़ब्‍ज़ा हो जाता है. मोदियानो फ्रांस के इसी दौर को अपनी रचनाओं का बैकड्रॉप बनाते रहे हैं. यह बात बार-बार कही जाती है कि फ्रांसीसी इस दौर को अपनी  स्‍मृति के भंडार से निकाल देना चाहते हैं. मोदियानो इसी दौर की स्‍मृति को जिलाते हुए स्‍मृति के प्रति अनिच्‍छा को अपनी रचनाओं में दिखाते रहे हैं. इस दौर में कई लोगों ने ऐसी करतूतें कीं, जिन्‍हें वे बाद में भूल जाना चाहते थे या जिनके लिए उन्‍हें बाद में सार्वजनिक या निजी माफि़यां मांगनी पड़ीं. उसी दौर में यह नायक अपनी स्‍मृति खो बैठता है. वह अपनी पहचान की तलाश में निकलता है. उसे बेहद कम लोग मिलते हैं, क्‍योंकि उसके साथ के लोग अब खो चुके हैं और अगर हैं भी, तो वह उन्‍हें कैसे पहचान पाएगा. उसे अपने आसपास से बहुत सारे सुराग़ मिलते हैं,  वह उन्‍हें आधार बनाकर अपने होने की एक थ्‍योरी बनाता चलता है. कहीं उसे पता चलता है कि वह किसी हॉलीवुड अभिनेता का सहायक था,  तो कहीं यह कि वह कोई राजदूत था. एक जगह उसे पता चलता है कि वह एक यूनानी दलाल था. एक जगह उसकी थ्‍योरी उसे बताती है कि वह इन सभी व्‍यक्तित्‍वों का मिश्रण था. उसे कहीं भी यह पता नहीं चलता कि स्‍मृति-लोप से पूर्व भी वह एक जासूस ही था. इस थ्‍योरी में कई त्रासद, कई कॉमिक इज़ाफ़े होते रहते हैं.  उसे जो जैसा बोलता है, वह वैसा करने लग जाता है. उसे समझ में आता है कि वह सिर्फ़ स्‍मृति ही नहीं खोया है, बल्कि बहुत कुछ खो बैठा है. बुनियादी बात तो यह है कि वह अपना स्‍व ही खो बैठा है, जिसकी तलाश में उसने यह यात्रा शुरू की थी. ऐसी मिस्‍ट्री का क्‍या अंत हो सकता हैसिवाय इसके कि वह पहचान के संकट की भूलभुलैया में भटकता रह जाता है. जासूसी कथा शैली के अभ्‍यस्‍त पाठकों को अंत में हमेशा एक नतीजे की तलाश होती है. ऐसे पाठकों को झटका लगता है, जब उपन्‍यास उन्‍हें किसी सुपाच्‍य परिणति तक नहीं ले जाता. पूरे उपन्‍यास में नायक को पदचाप की ध्‍वनि सुनाई पड़ती है, कभी रेत से, कभी फ़र्श से. बीच में कहीं आया एक वाक्‍य उपन्‍यास की कुंजी खोलता है : रेत पर हमारे पदचिह्न पड़ते हैं, पर महज़ कुछ पलों के लिए.

मोदियानो इस शैली का प्रयोग तो करते हैं,  लेकिन इस शैली को ही अपूर्ण बता देते हैं. मिस्‍ट्री को वह स्‍व के संधान में समाप्‍त में करते हैं और मिस्‍ट्री शैली को ही अपर्याप्‍त क़रार देते हैं. सिर्फ़ मोदियानो ने ही नहीं,  पिछले पचास साल के कई लेखकों ने मिस्‍ट्री शैली का प्रयोग इस तरह कर इस शैली की अपूर्णताओं को उजागर किया है. आखि़र इन जैसे लेखकों को आत्‍म के संधान के लिए जासूसी शैली की ज़रूरत क्‍यों पड़ती है मैं इस पर हमेशा हैरान होता रहा. मेरे ख्‍़याल से इसका उत्‍तर उसी तलाश में छिपा हुआ है. किसी चीज़ की तलाश करना, उसके खोए हुए को पुष्‍ट करना है. जब कोई चीज़ खोई हुई होगी,  तो उसमें मिस्‍ट्री या रहस्‍य का भाव होगा. उसे खोजने में दस जगह जाना पड़ेगा,  वे दसों जगहें दिलचस्‍प हो सकती हैं, वह दिलचस्‍पी कथासूत्र का विकास करेगी. यानी चोर-हत्‍यारे की खोज करने वाले उपन्‍यासों की शैली का प्रयोग अपने अत्‍यंत निजी आत्‍म या स्‍व की खोज करने में किया जा सकता है. अपराध के सूत्रों की खोज जितनी ही रोचक यात्रा हो सकती है अपने अधिभौतिक सूत्रों की खोज करना. अपने होने का कारण खोजना उतना ही रोमांचक हो सकता है, जितना होम्‍स की कोई यात्रा.

एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आत्‍म की तलाश आखि़र क्‍यों की जाए इसका सभी के पास अपना जवाब है. मैं जिस भाषा में यह लेख लिख रहा हूं, उस भाषा के साहित्यिक माहौल का आलम ऐसा है कि आत्‍म की तलाशजैसा कोई भी शब्‍दबंध इस्‍तेमाल करते ही लेखक पर आध्‍यात्मिक होने का लेबल जड़ दिया जाता है. मनुष्‍य के भौतिक संकटों को स्‍थूल रूप से तरजीह दी जाती है. ऐसी बातें कही जाती हैं,  जिनसे यह लगे कि आत्‍म की तलाश और भौतिक संकट दो अलग-अलग चीज़ें हैं. इस द्वैत को स्‍थापित करते हुए आत्‍मविषयी को निकृष्‍ट और भौतिक संकट-विषयी को श्रेष्‍ठ साबित किया जाता है. यह सोच तथाकथित प्रगतिशील (निश्-)चेतना का पतनशील बाय-प्रोडक्‍ट है. लंबे समय में इसने हिंदी उपन्‍यास-कला को अधोन्‍मुख किया है. अधिक लंबे समय में यह सोच इस कला के लिए और घातक होगी. यह देखना होगा कि आत्‍मचेतना ही मनुष्‍य को भौतिक संकटों के खि़लाफ़ संघर्ष करने की प्रेरणा देती है. समरगाथाके नायक ने यदि आत्‍म-चेतना विकसित न की होती, तो वह संघर्ष नहीं कर पाता. न ही गोर्की की मदरका नायक व मुख्‍य पात्र. बिना आत्‍म-चेतना के वर्ग-चेतना भी नहीं आती. मैं कौन हूंजैसा सवाल ही इस जवाब की ओर ले जाता है कि मैं आदि-शोषित हूं. मुझे क्‍या होना हैजैसा सवाल शोषण के विरुद्ध संघर्ष की ओर ले जाता है. लेकिन यह देख सकने के लिए कुछ लोगों को अपने चश्‍मे उतारने होंगे.

दान्‍ते की एक बात याद आती है : जब भी मनुष्‍य कोई क्रिया करता है, वह चाहता है कि उस क्रिया के ज़रिए उसकी छवि या अक्‍स परावर्तित हो सके.जो छवि परावर्तित होती है, उसमें वह मनुष्‍य कहीं नहीं दिखाई देता. क्रिया और छवि के बीच यह संघर्ष चलता रहता है. दोनों के बीच का यह विरोधाभास ही उपन्‍यास-कला का मूल बिंदु है. कविता में एक छवि,  एक क्रिया तक रुका जा सकता है,  कहानी में चार छवि, चार क्रियाओं तक जाया जा सकता है. लेकिन उपन्‍यास एक साथ गहराई व विस्‍तार मांगते हैं. इसलिए उसमें क्रिया और छवि का यह संघर्ष सतत चलता है. इस संघर्ष की परिणति एक लगातार असंतोष का रूप लेती है. वह असंतोष लेखक से उपन्‍यास की रचना कराता है. इसी बीच कहीं लेखक को यह आभास होता है कि वह जिस आत्‍म का संधान कर रहा है, क्रिया से जिस छवि की चाहना कर रहा है,  वह न तो क्रिया से उपलब्‍ध हो रही है,  और न ही क्रियोत्‍पन्‍न छवि से ही,  तब वह मन के भीतरी लोकों की तरफ़ जाता है. वह जितना भीतर जाता है, जितनी सूक्ष्‍मताओं का आवाह्न करता है,  पाता है कि उसके आत्‍म की एकल विशिष्‍टता नष्‍ट हो रही है. आखि़र सूक्ष्‍मताओं में तो सभी मनुष्‍य एक ही जैसे हैं. जैसे पदार्थ का विखंडन करते रहा जाए, तो अंतत: सारे पदार्थ परमाणु में बदल जाते हैं. यह आभास होते ही लेखक वापस बाहर आ जाता है. यह विरोधाभासी कार्यवाही चलती रहती है. मिलान कुंदेरा ने अपने उपन्‍यासों और निबंधों में इस स्थिति का कई बार सुंदर व मान्‍य विश्‍लेषण किया है.

इस पूरी प्रक्रिया के भीतर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्‍म-तत्‍व की निर्मिति किससे होती है. सारा आत्‍म दो तत्‍वों में रहता है: स्‍मृति और विस्‍मृति. किसी भी मनुष्‍य के जीवन से स्‍मृति को निकाल दीजिए, उसे पता नहीं चलेगा कि वह क्‍या है. मनुष्‍य घटनात्‍मक स्‍मृतियां, पहचानजनक स्‍मृतियां भूल जाता है,  किंतु किसी भी मनुष्‍य को पूर्णत: स्‍मृतिहीन नहीं किया जा सकता. कितना भी स्‍मृतिलोप हो, मनुष्‍य को यह याद रहता है कि उसके पास दो हाथ हैं, दो पैर हैं,  एक पेट है, भूख है. स्‍मृतिहीन मनुष्‍य भी चलने और दौड़ने की स्‍मृति व अभ्‍यास रखता है. उसे कमोबेश भाषा की स्‍मृति रहती है. वह चीज़ों के नाम भूल जाता है,  अपना नाम भी भूल जाता है, लेकिन एक आधारभूत भाषा उसके पास बनी रहती है,  जिससे वह अपनी स्‍मृतिहीनता का संप्रेषण करता है. यदि किसी तरह यह समग्र स्‍मृति नष्‍ट की जा सके,  तो वह संपूर्ण निश्‍चेष्‍ट हो जाएगा. उसके पास पैर होंगे, लेकिन चलने की स्‍मृति व अभ्‍यास नहीं होंगे. उसके पास हाथ होंगे, लेकिन किसी वस्‍तु को उठाने की स्‍मृति व अभ्‍यास नहीं रहेंगे. यह पूर्णत: व समग्र विस्‍मृति होगी. ऐसी स्थिति में आत्‍म कुछ नहीं रह जाएगा. यानी जिसकी स्‍मृति हर ली,  उसका आत्‍म भी हर लिया.

किसी मनुष्‍य को यदि सबकुछ याद रहे,  वह कुछ भी भूलता न हो जैसा बोर्हेस की एक कहानी का चरित्र, तो उसके पास भी आत्‍म नहीं बचेगा. उसे इतना सबकुछ याद रहेगा कि उसे समझ ही नहीं आएगा कि वह दरअसल है क्‍या इसीलिए आत्‍म का निवास विस्‍मृति में भी है.

आत्‍म के विलोपन के लिए इस अतिवाद पर जाना कोई ज़रूरी नहीं. एक निश्चित परिमाण में स्‍मृतिहीनता आत्‍म को ग़ायब कर देती है. इसीलिए जब भी स्‍मृति को विषय के रूप में चुना जाएगा, आत्‍म की तलाश की बात अपने आप शुरू हो जाएगी. स्‍मृति और आत्‍म नाभिनालबद्ध हैं. जैसा कि हमने ऊपर मोदियानो के उपन्‍यास मिसिंग पर्सनमें देखा. उसे समग्र विस्‍मृति नहीं है, उसे बुनियादी चीज़ें याद हैं,  लेकिन उनके बावजूद वह अपना आत्‍म खो चुका है. उसकी तलाश में निकला है. यही तलाश मोदियानो की रचनाओं का मूलाधार है. स्‍मृति,  खोया हुआ समय और आत्‍मसंधान. यह खोया हुआ समय सिर्फ़ व्‍यक्ति के जीवनकाल का खोया हुआ समय नहीं है. स्‍मृति हमारी मानवीय जि़म्‍मेदारी है. हम अपने जन्‍मकाल से पहले पैदा नहीं होते, लेकिन जन्‍मकाल से पहले की सामूहिक स्‍मृतियां,  हमारी निजी स्‍मृतियों में इस क़दर रच-बस जाती हैं,  कि कई बार हम दोनों में फ़र्क़ नहीं कर पाते. जिस तरह यह सामूहिक स्‍मृति हमें आनंद देती है,  उसी तरह एक ग्‍लानि व अपराधबोध भी पैदा करती है. लेखक का अपराधबोध कभी निजी नहीं होता,  उसमें एक सामूहिकता अवश्‍य होती है. यह ग्‍लानि पाठक के भीतर भी होती है. एक ग्‍लानि, दूसरी ग्‍लानि से संवाद करती है. इसी तरह लेखक और पाठक के भीतर सामूहिक स्‍मृतियों के रास्‍ते निजी स्‍मृति के भवन में आया उल्‍लास भी होता है. एक उल्‍लास, दूसरे उल्‍लास से संवाद करता है. सामूहिक स्‍मृति या इतिहास रचनाओं के भीतर इस तरह यात्रा करते हैं. जैसा दोस्‍तायेव्‍स्‍की, प्रूस्‍त और काफ़्काके भीतर. इसीलिए जब भी स्‍मृति को विषय की तरह बरता जाएगा,आत्‍म की तलाश शुरू होगी,वैसे ही खोए हुए समय या इतिहास के पुनर्संधान की बात भी शुरू हो जाएगी. हमने सिलसिलेवार देखा कि मोदियानो में यह सब ही कुछ है.   

नोबेल मिलने से पहले तक अंतर्राष्‍ट्रीय साहित्‍य की दुनिया में पैट्रिक मोदियानो को कम जाना जाता था. घोषणा के तुरंत बाद ही कई अख़बारों ने सर्वे किया कि क्‍या आप इस लेखक को जानते हैंज़्यादातर लेखकों और पाठकों ने अ‍नभिज्ञता जताई. ये सब वे पाठक थे, जिनका विश्‍व-साहित्‍य के प्रति ज्ञान अंग्रेज़ी के माध्‍यम से अर्जित है. ख़ुद नोबेल समिति के पीटर इंग्‍लंड ने घोषणा के बाद यह कहा कि मोदियानो को ज़्यादातर लोग नहीं जानते. इन पंक्तियों के लेखक के साथ यह संयोग रहा कि पो-मो कथाख्‍यान शैली में अपनी विशेष रुचि के कारण उसने नोबेल घोषणा से काफ़ी पहले ही मोदियानो की तीन किताबें अंग्रेज़ी अनुवाद के ज़रिए पढ़ रखी थीं,  इसीलिए वह इतने विस्‍तार से अपनी बात कह सका.

अंग्रेज़ी से प्रभावित दुनिया में मोदियानो अवश्‍य ही कम जाने गए लेखक रहे हों,लेकिन उनके अपने देश फ्रांस में यह स्थिति नहीं. वहां उन्‍हें लगभग हर घर में जाना जाता है. फ्रेंच में उनकी किताबें बेस्‍ट-सेलर होती हैं. इसी साल उनका नया उपन्‍यास आया है, और कुछ ही महीनों में जिसकी एक लाख से ज्‍यादा प्रतियां बिक चुकी हैं.  पीटर हैंडके जैसे लेखक काफ़ी समय पहले ही मोदियानो को फ्रांस का जीवित महानतम लेखक कह चुके हैं.  मोदियानो की कीर्ति का अंदाज़ा इस बात से भी लग सकता है कि फ्रांस के एक मशहूर गायक ने उनके नाम व कृतियों के आधार पर एक प्रसिद्ध गीत की रचना की थी. उन्‍होंने कई फिल्‍मों की पटकथा भी लिखी, फिल्‍मकार लुई मॉल की संगत ने भी उन्‍हें यश दिया. वह चर्चाओं से दूर अपनी किताबों की दुनिया में रहते हैं. उनके इंटरव्‍यू भी ज़्यादा नहीं मिलते. यह साहित्‍य के एक संन्‍यासी को मिला पुरस्‍कार हैजो गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा के इस दौर में तमाम लाइमलाइट से दूर रहता है,जनसपंर्क अभियान नहीं चलाता,पार्टियों में नहीं जाता और अच्‍छी किताबें लिखता है.

उनके नाम की घोषणा से नोबेल पुरस्‍कार पर एक बार फिर विवाद हो रहा है. क्‍या नोबेल पुरस्‍कार किसी ऐसे लेखक को मिलना चाहिए जिसने व्‍यापक पाठकीय स्‍वीकृति, लोकप्रियता हासिल कर ली हो या उच्‍चकुलीन साहित्‍य के र‍चयिता किसी ऐसे लेखक को, जो बहुसंख्‍यक पाठकों के लिए लगभग अनजाना होविश्‍व-साहित्‍य की न्‍यूयॉर्क लॉबी इस घोषणा से ज़्यादा ख़फ़ा है. अमेरिकी मीडिया लंबे समय से यह सवाल उठा रहा है कि नोबेल पुरस्‍कार यूरोप-केंद्रित है. गाहे-बगाहे वह अफ्रीका और एशिया के लेखकों को भी पुरस्‍कार दे देता है, लेकिन वह जान-बूझकर अमेरिका की उपेक्षा कर रहा है. न्‍यूयॉर्क लॉबी का ख़फ़ा होना समझ में आता है. फिलिप रॉथ,पॉल ऑस्‍टर,जॉएस कैरल ओट्स जैसे लेखक अभी तक प्रतीक्षा कर रहे हैं. ख़ासकर रॉथ के संदर्भ में यह प्रतीक्षा बेहद खलने वाली हो चुकी है. अंतर्राष्‍ट्रीय साहित्‍य में रॉथ का क़द बेहद बड़ा है. इससे पहले के कई नोबेल विजेता रॉथ केलेखन को अपना प्रेरणा-स्रोत मान चुके हैं. अमेरिकी मीडिया की छटपटाहट है कि इसके बाद भी रॉथ को उपेक्षित क्‍यों किया जा रहा है. यदि नोबेल न भी मिला,  तो भी रॉथ के क़द पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला. रॉथ अब संभवत: नोबेल के क़द से बड़े हो चुके हैं. इतिहास में भी यह पुरस्‍कार कई मास्‍टर्स और जाएंट्स को नहीं मिला. तोल्‍स्‍तोय,चेखॉव,काफ़्का,जेम्‍स जॉएस,प्रूस्‍त  से लेकर बोर्हेस, रूज़ेविच,हर्बर्टतक. ये सभी और इन जैसे कई वंचित लेखक नोबेल पुरस्‍कार के क़द से बड़े हैं. बीसवीं सदी के कथा-साहित्‍य के चार हिस्‍से किए जाएं,तो पाएंगे कि पहले हिस्‍से को प्रूस्‍त और जॉएस ने प्रभावित किया,दूसरे हिस्‍से को काफ़्का ने प्रभावित किया,तीसरे और चौथे हिस्‍से को बोर्हेस ने प्रभावित किया. इतने प्रभावशाली इन लेखकों को नोबेल नहीं मिल पाया, किंतु इनसे प्रभावित लेखकों को नोबेल अवश्‍य मिल गया.

दरअसल, यह कोई नहीं जानता कि नोबेल समिति के मन में क्‍या चल रहा है,पुरस्‍कार न देने के लिए वह किन बातों को आधार बनाती है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नोबेल पुरस्‍कार किसी ऐसे लेखक को मिला हो,जिसे अंग्रेज़ी के ज़रिए बहुत सारे लोग न जानते हों. जबकि आम मान्‍यता यह बन चुकी है कि केवल वही लेखक श्रेष्‍ठ हैं, जिन्‍हें अंग्रेज़ी के ज़रिए बहुत लोग पढ़ते हों या जिस लेखक ने अमेरिकी प्रकाशन-उद्योग को प्रभावित किया हो.  नोबेल की निर्णायक समिति में अंग्रेज़ी वाले लोग कम ही होते हैं, अन्‍य यूरोपियन भाषाओं के साहित्‍य के जानकार ज़्यादा. वे जर्मन,स्‍वीडिश,फ्रेंच आदि मूल या अनुवादों को ज़्यादा प्रामाणिक मानते हैं,क्‍योंकि उनकी ही नहीं,दुनिया के साहित्‍य में कई विद्वानों की मान्‍यता है कि इन भाषाओं में अनुवाद का मुख्‍य आधार साहित्यिक गुणवत्‍ता को बनाया जाता है,जबकि अंग्रेज़ी में अनुवाद का आधार अक्‍सर कॉमर्शियल होता है. जिसमें ख़ूब बिकने की क्षमता होगी,उसका अंग्रेज़ी अनुवाद जल्‍द हो जाता है. वरना ‘हायब्रो’ साहित्यिक गुणवत्‍ता की किताबें अंग्रेज़ी में, विभिन्‍न यूनिवर्सिटी प्रेस या न्‍यू डायरेक्‍शन जैसे,छोटे हाउस ही छापते हैं.

यह पुरस्‍कार नोबेल कमेटी ही देती है तो उन्‍हें जो सही लगेगा,उसी को देगी. इस पर बाहर से कुछ कहना इसलिए भी नहीं जमता,कि चयन उनका विशेषाधिकार है. उन्‍होंने लेखक की लोकप्रियता को तो कभी पैमाना नहीं बनाया हांगुणवत्‍ता को ज़रूर बनाया. वह समिति यह दावा भी नहीं करती कि वह इस साल की अवधि में विश्‍व के सर्वश्रेष्‍ठ लेखक को ही यह पुरस्‍कार दे रही हो. मुझे ध्‍यान नहीं पड़ता कि पिछले तीस-चालीस साल में उन्‍होंने किसी कमज़ोर लेखक को पुरस्‍कार दे दिया हो (भले इस बार के या अतीत के कई नोबेल शांति पुरस्‍कार गले से नीचे न उतर पाए हों). हांकम जाने गए लेखकों को ज़रूर दिया,पर पुरस्‍कार मिलने के बाद उस लेखक की गुणवत्‍ता को पूरी दुनिया ने माना. यह भी इस पुरस्‍कार की एक सफलता है. जो लोकप्रिय या प्रसिद्ध हो चुका,उसे तो सभी पढ़ ही रहे. एक ऐसा हीरा खोज के दुनिया के सामने रखना,जो सच में हीरा है,लेकिन लोगों की नज़रों से दूर. यह भी बड़ी बात है. पिछले दस-पंद्रह बरसों के लॉरिएट्स में ओरहन पमुकही ऐसे आखि़री लेखक थेजो नोबेल से पहले ही अत्‍यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो चुके थे. यानी लोकप्रिय लेखकों का इतिहास कम रहा है. लोगों को आश्‍चर्य होता हैजब यह पता चलता है कि चेस्‍वाव मिवोशकी अंग्रेज़ी में पहली किताब 1976में आती है,और उन्‍हें 1980में नोबेल मिल जाता है. अंग्रेज़ी में भले देर से आए,लेकिन मिवोश ने सन 60 से ही यूरोपीय व विश्‍व साहित्‍य को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. 

बाक़ी,राजनीति,भाषाई-इलाक़ाई  फेव‍रिटिज्‍़म आदि जैसी बातें हर पुरस्‍कार के बारे में होती हैंवह सब भी होता होगा,हमें नहीं पता,नोबेल भी उससे अछूता न होगा,यह भी सही है. पर मोदियानो जैसे लेखक को पुरस्‍कार मिलने से यह फिर साबित होता है कि सब कुछ अंग्रेज़ी ही नहींसब कुछ अमेरिका ही नहीं. वे लेखक भी श्रेष्‍ठ हो सकते,जिन्‍हें अंग्रेज़ी के पाठक,अंग्रेज़ी के प्रकाशक या अंग्रेज़ी कै पैरोकार नहीं समझ पाते. मोदियानो ख़ुद अंग्रेज़ी नहीं बोलतेलेकिन अब अंग्रेज़ी के बड़े प्रकाशक उन्‍हें दूर-दूर तक पहुंचाएंगे. क्‍योंकि एक साल पहले तक उनकी किताबें अंग्रेज़ी में फ़ायदा नहीं देती थींअब ख़ूब देंगी.  न्‍यूयॉर्क के एक छोटे प्रकाशक गोडाइन ने मोदियानो की तीन किताबें छापी हैं. पिछले बीस बरसों में तीनों को मिलाकर महज़ आठ हज़ार प्रतियां बिकीं. वह पंद्रह दिनों के भीतर ही उन किताबों की बड़ी संख्‍या में छपाई करने वाला है. येल यूनिवर्सिटी प्रेस  फरवरी 2015 में मोदियानो के तीन नॉवेला का संग्रह छापने वाली थी, दो हज़ार प्रतियों के प्रिंट ऑर्डर के साथ. पुरस्‍कार की घोषणा के बाद उसने यह किताब नवंबर 2014 में ही छापने का फ़ैसला किया है,वह भी बीस हज़ार प्रतियों के पहले संस्‍करण के रूप में. मोदियानो के फ्रेंच प्रकाशक गालिमार ने नवंबर माह के लिए एक लाख अतिरिक्‍त प्रतियां छापने की घोषणा की है. यह सिलसिला अभी चलता रहेगा. पुरस्‍कार का एक अर्थ यह भी होता है कि अनजानी गलियों तक लेखक की पहुंच बन जाए.
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साभार : अनुराग वत्स


गीत चतुर्वेदी

आलाप में गिरह (कविता संग्रह) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,२०१० 
सावंत आंटी की लड़कियां ( कहानी संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०
पिंक स्लिप डैडी (कहानी संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०
चिली के जंगलों से (नेरूदा के संस्मरणों व लेखों का अनुवाद), संवाद प्रकाशन, मेरठ  
चार्ली चैपलिन की जीवनी,संवाद प्रकाशन, मेरठ  
लोर्का, नेरूदा, यानिस रित्सोस, एडम ज़गायेव्स्की, अदूनिस, तुर्की युवा कवि आकग्यून आकोवाऔर इराक़ी कवयित्री दून्या मिख़ाइल. ईमान मर्सल,बेई दाओ, को उन, एदुआर्दो चिरिनोस  आदि के कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
इनके अलावा मराठी से हिंदी में भी कई अनुवाद आदि.
geetchaturvedi@gmail.com

परिप्रेक्ष्य : पैट्रिक मोदियानो से हेलेन हेर्नमार्क की बातचीत

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" मैं 45 साल से एक ही किताब को रुक-रुक कर लिख रहा हूँ.."  
पैट्रिक मोदियानो

(2014 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद, फ्रांसीसी भाषा के उपन्यासकार पैट्रिक मोदियानो सेनोबेल मीडिया की तरफ से की गयी हेलेन हेर्नमार्क की बातचीत का हिंदी अनुवाद सरिता शर्मा ने किया है. 69 वर्षीय पैट्रिक मोदियानो 15 वें फ्रांसीसी लेखक हैं जिनकों यह सम्मान मिला है.उन्हें लगभग 6 करोड़ 80 लाख रूपये मिलेंगे.)


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ll पैट्रिक मोदियानो से हेलेन हेर्नमार्क की बातचीत ll
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पैट्रिक मोदियानो: हैलो.       

हेलेन हेर्नमार्क :हाँ, हैलो, आपको नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने पर तहेदिल से बधाई.

पैट्रिक मोदियानो : आपकी कृपा है और मैं बहुत भावुक हो रहा हूँ.

हेलेन हेर्नमार्क :  मेरा नाम हेलेन है और मैं नोबेल प्राइज की वेबसाइट से बोल रही  हूँ. हमें आपसे कुछ सवाल पूछने के लिए समय देने के लिए धन्यवाद.

पैट्रिक मोदियानो :ओह, हाँ, हाँ, हाँ.

हेलेन हेर्नमार्क :  जब खबर मिली तो आप कहाँ थे?

पैट्रिक मोदियानो :मैं रास्ते में था. हाँमैं सच में रास्ते में था. मेरी बेटी ने मुझे यह खबर सुनाई.

हेलेन हेर्नमार्क :ओह आपकी बेटी ने आपको मोबाइल पर बताया?

पैट्रिक मोदियानो :हाँ, हाँ, हाँ. मैं बहुत भावुक हो गया था. मैं इस बात से और भी खुश हूँ कि मेरा एक नाती स्वीडिश है.

हेलेन हेर्नमार्क :आप कहाँ थे? पेरिस के बीचों- बीच? कौन से मार्ग पर थे ?

पैट्रिक मोदियानो: ओह, मैं बस जारदैं द लक्समबर्गके बगल में था.

हेलेन हेर्नमार्क :अरे, वाह. आपके लिए नोबेल पुरस्कार मिलना क्या मायने रखता है, उसका क्या महत्त्व है?

पैट्रिक मोदियानो :सबसे पहले ... तो इतना अप्रत्याशित, मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह पुरस्कार कभी मुझे मिलेगा. इसने मुझे सच में भावविभोर कर दिया है.. मुझे बहुत भावुक बना दिया है.

हेलेन हेर्नमार्क :आप लंबे समय से लेखक रहे हैं. आप क्यों लिखते हैं?

पैट्रिक मोदियानो :हाँ, मैंने  बहुत जल्दी बीसेक साल की उम्र से लिखना शुरू कर दिया था. अब बहुत लंबा अरसा हो गया है. यह कुदरती है, एक तरह से मेरे जीवन का हिस्सा है.

हेलेन हेर्नमार्क :आपने 20या 30किताबें लिखी है. क्या ऐसी कोई विशेष पुस्तक है जो आपको बहुत प्रिय है, आपके लिए औरों से अधिक महत्त्वपूर्ण है?

पैट्रिक मोदियानो: देखिए, ऐसा करना मुश्किल है. मुझे हमेशा यह लगता है कि मैं एक ही किताब लिख रहा होता हूँ. इसका मतलब है कि मैं 45साल से एक ही किताब को रुक रुक कर लिख रहा हूँ. हमें सच में अपने पाठक का पता नहीं होता  है.

हेलेन हेर्नमार्क :अब आप दुनिया भर में मशहूर हो गए हैं तो अपनी कौन सी किताब पढने की सिफारिश सब पाठकों से करेंगे?

पैट्रिक मोदियानो:  हाँ, मुझे हमेशा महसूस होता है कि वह मेरी लिखी पिछली किताब है.

हेलेन हेर्नमार्क :उसका नाम क्या है?

पैट्रिक मोदियानो :उसका नाम है पुर कै तू न त पेर्द पा दां ल कार्तिए.

हेलेन हेर्नमार्क: पुर कै तू न त पेर्द पा दां ल कार्तिए.?

पैट्रिक मोदियानो: हाँ. पुर कै तू न त पेर्द पा दां ल कार्तिए. यह अपने आस पड़ोस में परिप्रेक्ष्य खो देने के बारे में है. मैं हमेशा पिछली किताब का सुझाव देता हूँ क्योंकि वह आपको ,,,छोड़ देती है.

हेलेन हेर्नमार्क :और आगे पढने की उत्सुकता के साथ?

पैट्रिक मोदियानो :हाँ, हाँ. .

हेलेन हेर्नमार्क :आप आज रात पूरे परिवार के साथ जश्न मनाने के लिए जा रहे होंगे?

पैट्रिक मोदियानो: हाँ, हाँ, मैं अपने परिवार के साथ होना चाहता हूँ. हाँ. और अपने  स्वीडिश नाती के साथ जिससे मिलकर मैं बहुत खुश होता हूँ और वह मुझे बहुत प्यार करता है. यह मैं यह पुरस्कार उसे समर्पित करता हूँ. आखिरकार यह उसके देश से है.

हेलेन हेर्नमार्क: तो आप दिसंबर में स्वीडन आ रहे हैं?

पैट्रिक मोदियानो :हाँ, हाँ, जरूर!

हेलेन हेर्नमार्क :पूरे परिवार के साथ?

पैट्रिक मोदियानो: हाँ, हाँ. (हंसते हुए)

हेलेन हेर्नमार्क :क्या आपका परिवार बहुत बड़ा है

पैट्रिक मोदियानो: नहीं, ऐसा नहीं है, मेरी सिर्फ दो बेटियां और एक नाती है. इसलिए बड़ा परिवार नहीं है.
हेलेन हेर्नमार्क :शुक्रिया और आपको एक बार फिर से बहुत- बहुत बधाई.

पैट्रिक मोदियानो :शुक्रिया. उम्मीद करता हूँ मैंने आपको जो बताया वह ज्यादा भ्रामक तो नहीं है न?

हेलेन हेर्नमार्क:नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं. शानदार शाम बिताएं और एक बार फिर से स्वीडन और  नोबेल प्राइज वेबसाइट कि तरफ से हार्दिक बधाई.

पैट्रिक मोदियानो:ओह, मैं बहुत भावुक हो गया हूँ)

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सरिता शर्मा
उपन्यास, समीक्षा और अनुवाद

सबद भेद : उत्तर - अशोक : आशुतोष भारद्वाज

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फोटो : कविता वाचक्नवी












अशोक वाजपेयी हिंदी आलोचना में अपनी प्रेम कविताओं के कारण चर्चित, प्रशंसित और निंदित रहे हैं. पर बाद की उनकी कविताओं के आयतन में विविध विस्तार दिखते हैं. ‘उत्तर–अशोक’   में कबाड़ी, कुंजड़ा, कुम्हार, लोहार, बढ़ई, मछुआरों के लिए भी जगह बनी है. 

आशुतोष भारद्वाज ने अपने इस असरदार आलेख में रचना और रचनाकार के  द्वंद्व को देखने का सृजनात्मक प्रयत्न किया है जो दरअसल समय और सृजन का भी द्वंद्व है.   


कविता की उड़ान                                      
आशुतोष भारद्वाज


वक्त आ गया है कि मैं
कहीं भी ढेर में से हाथ बढाकर उठाऊं एक मुट्ठी राख
जली हुई हरिजन हड्डियाँ
कोकाकोला की टूटी हुई अधबोतलें
और अपने साल भर के बेटे के पास
ले जाकर
चालू मुहावरे में कहूँ: यह है
मेरा देश ---- संविधानमें सना हुआ.
या उस हरी साड़ी में लिपटी
गदगद ब्याहता की ओर
चटखारे भरता हुआ जाऊं
इस कुच्बुज्जे शहर में
और इससे पहले कि वह विचलित हो
उसके हाथों में थमा दूँ
संसदकी आज की कार्रवाई की रिपोर्ट

अब वक्त आ गया है
कि अपने घर के कस्बाई उजास को
भूलकर
एक भीड़ जमा कर पूछूँ:
कौन कहता है इस सूअरबाड़े को
अपना घर?
---
वक्त आ गया है कि पूँछ उठाऊं
फिर अपनी कविता की गधापचीसी में ऊँचे से
उसी की गुहार लगाऊं...

(अब वक्त आ गया है, १९७०)

***

यह बिलकुल मुमकिन था
कि अपने को बिना जोखिम में डाले
कर दूँ इनकार
उस चीख से
जैसे आम हड़ताल के दिनों में
मरघिल्ला बाबू छुट्टी की दरख्वास्त भेजकर
बना रहना चाहता है वफादार
दोनों तरफ.

---
थोडा दमखम होता
तो शायद में चाट सकता था
अपनी कुत्ता-जीभ से
उसका गदगदा पका हुआ शरीर.
आखिर मैं अफसर था,
मेरी जेब में रुपिया था, चालाकी थी,
संविधानकी गारंटी थी.
मेरी बीवी एकलौते बेटे के साथ बाहर थी
और मेरे चपरासी हड़ताल पर.
चाहत और हिम्मत के बीच
थोडा-सा शर्मनाक फासला था
बल्कि एक लिजलिजी-सी दरार
जिसमें वह लड़की गप्प से बिला गयी.
अब सवाल है कि चीख का क्या हुआ?
क्या होना था? वह सदियों पहले
आदमी की थी
जिसे अपमानित होने पर चीखने की फुरसत थी.

(चीख, १९७१)


*** 

ये कवितायेँ उस कवि की हैं जिसने “सारा जीवन कविता की पांच ही जिल्दें लिखी हैं: प्रेम, मृत्यु, घर, कला, संसार.” ये उसके संचयन तिनका तिनकाके “एक पतंग अनंत में” खंड की अंतिम दो कवितायेँ हैं. उसकी स्व-प्रस्तावित जिल्द से भिन्न, लगभग विपरीत. संविधान, संसदइन दो कविताओं के अलावा उसके कवि-कर्म में १९६९ की ‘साक्षात्कार’ कविता के सिवाय शायद कहीं नहीं आते, जहाँ एक व्यक्ति जेब में संविधान का गुटकारख साक्षात्कार देने जाता है.

कविता में “पवित्रता की खोज और रहस्य का पुनर्वास” को अपना मूल सरोकारमानता यह कवि यहाँ कविता को पूँछ उठाकर की गयी गधापचीसी बतला रहा है. पूर्वज और निवास के प्रति अमूमन सम्मानरत दीखते इस कवि के लिए घर यहाँ सूअरबाड़ा है. औदात्यापूर्ण प्रेम को समर्पित उसकी कविता यहाँ अपनी कुत्ता-जीभ से किसी लड़की का गदगदा पका हुआ शरीर चाटना चाहती है. कविता की सीमाओं के प्रति यह आक्रोश, अपनी काव्य-प्रस्तावनाओं का घनघोर अतिक्रमण शायद उसके कवि-संसार में अकेला है. इसीलिए महत्वपूर्ण है. कवि और उसकी जिल्दें उन लम्हों में सर्वाधिक वेध्य होती हैं जब उसकी कविता उनका उल्लंघन करती है. कई मर्तबा शायद ऐसा कवि द्वारा अनुकांक्षित नहीं होता, अधिलंघन कवि का सायास प्रयत्न नहीं होता, कविता खुद कवि से परे चली जाती है. कवि बेखबर या शायद बेबस रहा आता है, अपनी कविता को उन सरहदों के पार जाते देखता है जो उसने अपने लिए अस्प्रश्य निर्धारित की थीं. अगर कला एक स्वायत्त सत्ता है तो कवि की ही नहीं, कविता की भी अपनी स्वतंत्र कामनाएं होती हैं. वह कोई अधीनस्थ वस्तु नहीं, अतिसंवेदनशील मांस-मज्जा लिए एक जीवंत बोध है. वह उस परिंदे की तरह है जिसे कवि अपने पिंजरे में बंद नहीं रख सकता, भले ही वह पिंजरा कितना ही भव्य क्यों न हो, कवि की विराट दृष्टि से निर्मित हुआ हो. अगर उसे अपने लिए वह जगह अपर्याप्त लगी तो नजर हटते ही वह पिंजरे की सलाखों को कुतर फुर्र से उड़ जायेगा.

इसीलिए बड़ी कविता सिर्फ वही नहीं होती जो कवि के घर में संभव हुई हो, कई मर्तबा कविता की उन्मुक्त उड़ान भी अनेक आकाश समेट लेती है --- आखिर उसके पंखों की पहली फड़फड़ाहट कवि के रक्त में ही सनी होती है.

उपरोक्त दो कविताओं की उड़ान लेकिन कैसे संभव हुई थी? सायास या अनायास?  

अगर यह मानें कि यह दोनों कवि के बावजूद घटित हुईं, और इनका डीएनए उसके बाक़ी कृतित्व से नहीं जुड़ता तो कवि की ऑथरशिप का प्रश्न उठता है कि क्या इन दोनों पर उसका रचनात्मक हस्ताक्षर धुंधला है? इसी से सम्बंधित एक प्रश्न यह भी कि जब रचना रचनाकार की मर्यादा चकनाचूर करती है, वह रचना की विजय का क्षण है या रचयिता की? यह स्वच्छंद उड़ान कला-कर्म की आंतरिक शक्ति की वजह से संभव हुई या कलाकार ने खुद को दरकिनार करने का जोखिम उठा वह अवकाश निर्मित किया, जहाँ उसकी कृति उसे ही नकारती एक नवीन निर्मिति कर सके. कवि ने पिंजरा खोला या परिंदा खुद ही फुर्र हो गया? शायद इसका हल रचना में ही निहित है. हर कृति अपनी काया में कुछ ऐसे अदृश्य संकेत-सुराग संजोये रहती है जिनमें यह जवाब उद्घाटित होता है.   



‘चीख’ का नायक अफसर जो अपमानित होने पर चीखने की फुरसत सदियों पहले खो चुका है, अचानक चुप हो जाता है. १९७१ की इस कविता के बाद अगली प्रकाशित कविता सात साल बाद १९७८ में. इस बनवास के बाद कवि अपनी जिल्द पर लौटता है, जहाँ तोतों के अधखाये फल सी पृथ्वी है. संविधान, संसद और आक्रोश कहीं नहीं अब. १९८५ के उपरांत लगातार कवितायेँ, कई कविता संग्रह हैं. एक पतंग अनंत मेंदूसरा संग्रह है, कवि की उम्र उन्तीस-तीस की थी इन दोनों कविताओं की रचना वक्त, इसके बाद बारह संग्रह और आये, लेकिन ‘कुत्ता-जीभ’ सा कर्कश प्रत्यय और पूँछ उठाकर की गयी गधापचीसी सा आक्रोश फिर नहीं दीखता.
ये दोनों मरियल-मामूली कविता भी नहीं. संविधान यहाँ ऊबती-डूबती सी संज्ञा नहीं बल्कि ऐसा प्रत्यय जिसमें पूरा देश सन गया है. (चालू मुहावरे में कहूँ: यह है

मेरा देश ---- संविधानमें सना हुआ). क्या संविधान कीचड़ है? कोई बदबूदार गन्दगी? क्या पूरा देश इस संविधान की दुर्गन्ध में गंधहा रहा है? हालाँकि कविता कवि से स्वतंत्र है, कविता में कवि या उसके जीवन को तलाशने-स्थापित करने का प्रयास कविता को समझने के लिए कोई अनिवार्य अंतर्दृष्टि या सूत्र नहीं देता, लेकिन कवि के सन्दर्भ में यह तथ्य महत्वपूर्ण होगा कि इस कविता की रचना के वक्त कवि एक ऐसे सरकारी कर्म में था जो संविधान का हलफ उठाता है, जहाँ संविधान देश का अंतिम विधान है. देश की समूची व्यवस्था, खुद कवि का प्रशासनिक कर्म उसी संविधान द्वारा निर्धारित होता था. किसी भी कर्मचारी या अधिकारी द्वारा संविधान का अपमान नौकरी के आचरण का घनघोर उल्लंघन माना जाता है. देश और संविधान का इस तरह उल्लेख कविता में ही सही, किसी अधिकारी के आचरण अर्थात उसकी सर्विस रूल्स के प्रतिकूल माना जा सकता है. इसके बावजूद ये कवितायें संभव होती हैं. रचना के वक्त कवि को प्रशासनिक सेवा में आये महज चार-पांच वर्ष ही हुए थे, सरकारी तंत्र से अपेक्षाकृत अनुभवहीन.

शायद इसलिए गौरतलब है कुल्हाड़ी सी धारदार और मारक इन दोनों कविताओं के तुरंत बाद कई वर्षों की काव्य-चुप्पी. इस मौन को अनावृत करना लेकिन आलोचना का नहीं, जीवनी लेखक का ध्येय होगा.

ठीक तीस वर्ष बाद लेकिन, जब कवि साठ वर्ष का हो चुका है, वह सहसा कविता में अपने जिए का बहीखाता रचता है. हलफ, उन्हीं में से एक, मैं अपने गुनाहइत्यादि कवितायेँ एक नयी जिल्द निर्मित करती हैं.

नहीं, मैं उन्हीं में से एक था
सिवाय इसके कि नसैनी से लोग ऊपर चढ़ते हैं
पता नहीं कैसे मैं उससे नीचे तलघर में उतर गया.
---

अपने समय के अत्याचारों में मैं शामिल न हुआ होऊं
लेकिन उनमें से एक भी मेरी वजह से कम खूंखार या
कुछ कमजोर पड़ा हो ऐसा तो नहीं हुआ:
तलघर में सही, मैं उन्हीं में से एक था.


(उन्हीं में से एक, २००१)

***

कविता में कवि के स्व की तलाश अनुपयोगी है. प्रथम पुरुष में लिखी कविता कवि के स्व को इंगित नहीं करती. इसलिए उपरोक्त कविताओं के नायक ‘मैं’ में कवि को चिन्हित करने का प्रयास यहाँ कतई नहीं. यहाँ प्रयोजन महज यह कि कवि सहसा लम्बा बनवास लेता है --- ऐसी कविता के बाद जो अपमानित मनुष्य की चीख की विलुप्त होती जगह को उघाड़ती है --- बनवास के तुरंत बाद प्रेम और ईश्वर की जिल्द पर तो लौटता है लेकिन उम्र के साठवें वर्ष से उसकी कविता निरंतर बीते जीवन का मूल्याङ्कन करती रही है, जहाँ अगर प्रेम और कला की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है तो यह बेधक स्वीकारोक्ति भी

मैं भरसक टुच्चेपन से बचा रहा लेकिन
डाह से नहीं,
मैं लूटपाट से अलग रहा पर
दूसरों को जब-तब बेवजह घायल करने से नहीं
---
पवित्रता की खोज में
मैं कौन-सा कलुष की चपेट से बच पाया?
(मैं अपने गुनाह, २००१)




क्या इसी को थिओडोर अडोर्नो ‘लेट स्टाइल’ कहते थे, जो उन्होंने बीथोवेन के आखिरी वर्षों के संगीत में चिन्हित की थी? वे तत्व जो रचनाकार के आखिरी दौर में उमड़ते हैं. जब पांच-छह दशकों में फैली सर्दियों के नाख़ून और धूप के पंजे उसकी रचनात्मक काया को खरोंच चुके होते हैं, कभी नाजुक रही आई उसकी कवि-त्वचा खुरदुरी हो झुर्रियां हासिल करती है, जो प्रश्न, प्रस्तावनाएँ उसने अनिवार्य मान लीं थीं, उनके विलोम सहसा उसकी कविता में जीवित होते हैं. कविता उन रास्तों से गुजरना चाहती है जिन्हें कवि ने अपने लिए निषेध मान लिया था.

उम्र के उत्तरार्द्ध में अशोक वाजपेयी की कविता अगर अपने किये-जिए का मूल्याङ्कन करती अपराध बोध से रु-ब-रु होती है तो क्या यह उसकी काव्य-जिल्द में एक महत्वपूर्ण और गुणात्मक वृद्धि है? दूसरे, यह क्यों और किस परिणाम के साथ जन्म लेती है? क्या यह सायास है, कवि की प्रस्तावनाओं के विस्तार का एक अनिवार्य पड़ाव, या किन्ही बाहरी प्रत्ययों से निर्धारित?
  
अफ़सोस या पछतावे मनुष्य और उसकी बढती उम्र का स्वभाव है, क्या यह लेकिन उसकी कविता का भी अनिवार्य गुण है? शायद नहीं, अगर होता तो हर उम्रदराज कवि की कविता बहीखाते में तब्दील हो जाती. हर वह कवि जिसने सृष्टि की अगोचर पीड़ा व अवसाद की खोज में जीवन बिताया, अपने अंतिम वर्षों में दृश्य-जगत के दुःख का गीतकार हो जाता.

कविता की यही शक्ति है. वह कवि को स्वर देती है, कवि के मनुष्य को नहीं.
इसलिए यहाँ मानीखेज प्रश्न यह कि इस कविता में पछतावा एक मनुष्य, जो कवि भी है, की चेतना पर उम्र के घिरते दवाबों का सूचक है जो उसकी कविता में लक्षित होते हैं, या एक कवि, जो मनुष्य भी है, और उसकी कविता का स्वाभाविक विकास है?
कुछ अन्य कवितायेँ शायद इस प्रश्न का बेहतर जवाब दे पायें.


मैं सिर्फ अपना रंदा ही नहीं चलाता/या ठोंक पीट ही नहीं करता रहता हूँ/मैं अपना काम करते हुए सोचता भी हूँ/और कभी कभी जब लकड़ी के छल्ले छिल-छिलकर/ जमीन पर गिरते हैं/तो उनमें उलझे हुए कुछ सपने भी देखता हूँ.
अभी परसों ही मुझे रंदा चलाते हुए ख्याल आया कि/ लोगों के बीच जो मनुमुटाव है/ उसे रंदे से छीलकर फैंका नहीं जा सकता है?
ऐसा हो पाता तो शायद यह दुनिया/ किसी नयी बनी मेज की तरह चिकनी और समतल हो जाती.
(बढ़ई, शताब्दी के अंत के कगार पर)

***
जब मैं जाड़ों में करेला/और गर्मियों में फूलगोभी बेचता हूँ तो इस सदी को जी-भर कोसता हूँ कि इसने सब्जियों तक को उनके असली समय से अलग कर दिया है.
यह कैसी सदी है कि जिसमें अब हर मुहल्ला बाज़ार है/ और हर मकान दुकान.
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कभी कभी मैं सोचता हूँ/ कि बच्चों का यहाँ तक कि पालतू कुत्ते-बिल्लियों का/ सबका अलग-अलग नाम होता है/ पर इन घरेलू सब्जियों का नहीं: क्या इसलिए कि उनका इतिहास नहीं?
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दाम ज्यादा लगने पर ग्राहक झुंझलाते हैं/ कम होने पर मैं कुढ़ता हूँ   

(कुंजड़ा, शताब्दी के अंत के कगार पर)



यह शताब्दी के अंत की कवितायेँ है. कुल सात संज्ञाओं पर सात लम्बी कवितायेँ: कवि, कबाड़ी, कुंजड़ा, कुम्हार, लोहार, बढ़ई, मछुआरा. ‘कवि’ तो रहा मूल सरोकार, लेकिन कुम्हार, कुंजड़ा जैसे गोचर किरदार और उनके दुःख शायद पहली मर्तबा कवि के सरोकार बने हैं, जिनसे वह शताब्दी के अंत में संबोधित होता है.

इन सात कविताओं तक आते में कवि को लगभग चार दशकों का अनुभव हो चला है शब्द-संधान का. वह शब्द और कविता के साथ पला, युवा हो अब प्रौढ़ हुआ है. इन कविताओं को पढ़ इस कवि की चेतना पर किस किस्म की झुर्रियां दिखलाई देती हैं? क्या यह कवितायेँ उसके बोध का सहज विस्तार हैं? उसकी कविता अपना ताना और बाना बहुत बारीक कातती आई है, आन्तरिकता इसका गुण है. दृश्य सृष्टि की इसे अमूमन दरकार नहीं; अदृश्य का अनुसंधान इसका स्वभाव रहा है. पुरखे, मृत्यु, ईश्वर, कीचड़ सने जूतों से स्वर्ग में प्रवेश इसकी आकांक्षा है.

दाम ज्यादा लगने पर झुंझलानेसा मामूलीपन और रंदे से छील कर लोगों के मनुमुटाव मिटा देनेसा यह सतही सपना क्या इस कविता का अनिवार्य मुकाम है? क्या यह वही कवि है जो इस कविता के कुछ ही वर्ष बाद यह उदात्त अभिलाषा कहेगा ---- काल के प्रतिघात के बावजूद/उसका अभिषेक करते हैं --- /समय से घायल हाथों से हम/ जो कालातीत हैं/ उसका अभिषेक करते हैं.
शताब्दी के गीत ने कवि से अपने को लिखवाया, या उस मनुष्य ने, जो कवि भी है, इसे लिखा? संभवतः किसी सामाजिकता से उत्प्रेरित हो?

शब्द अगर अपनी प्रकृति में इल्हाम है, खुद अपने को कवि के माध्यम से कहता है, रचना एक इबादत और कवि एक साधक, तो यह रचना के उथले लम्हे हैं. किसी कृति से गुजरते वक्त उसकी शब्द-काया को छू आप चिन्हित कर सकते हैं कि उसका अपने रचयिता से क्या सम्बन्ध रहा होगा, उसके शब्द किन लम्हों में उतारे होंगे. कुम्हार और कुंजड़ा कवि के इल्हाम नहीं है, कवि के वांग्मय का जैविकीय संविधान इनसे कतई नहीं जुड़ता.


चूँकि यह कविता का अपना मकान नहीं है, यह कवि नहीं, बल्कि उसके मनुष्य की चेतना को कसते दवाबों का सूचक है, जिन्हें वह अपनी कविता में कायान्तरित करना चाहता है लेकिन चूँकि यह उसके कवि की आकांक्षा नहीं इसलिए कविता इसे सिर्फ उथले ढंग से ही थाम पाती है.

शायद यह मनुष्य अपनी कविता की काया में कोई कथित सामाजिक दृष्टि पिरोना चाहता है, कोई ऐसी दृष्टि जो उसके आलोचक, पाठक या समकालीन रचनाकारों के अनुसार उसके पास नहीं है.

लेकिन उसकी कविता इसके लिए तैयार नहीं. वह एक स्वघोषित उत्सवधर्मी और प्रेमरत कवि है, लेकिन यह सतत प्रेम और उत्सवधर्मिता देर सबेर चंद अफ़सोस, किंचित ही सही, हासिल कर लेती है कि सृष्टि का एक विराट अंग उसकी निगाह से वंचित रहा है.

उसके पछतावे निश्चय ही सच्चे हैं. उसकी कवि-निगाह ने अब तलक तोतों से अधखाई पृथ्वी को बखूबी सहेजा है, लेकिन अपने उत्तरार्द्ध में आकर शायद उसे लगता है कि उसकी कविता कुंजड़े और कुम्हार के बगैर सम्पूर्ति प्राप्त नहीं करेगी, वह इन्हें भी आवाज देना चाहता है. लेकिन उसकी कविता की अपनी स्वतंत्र गति, यति व रति है. पिछले चार दशकों से अर्जित जिल्दें यह कविता यूँही नहीं त्यागना चाहती. वह कवि को कोई रियायत नहीं देना चाहती. उसे अपेक्षा है कि कवि ने जिस तरह प्रेम और पुरखों का संधान किया, उनकी संगति में जीवन बिताया, लोहार को भी वह वही सम्मान और समर्पण दे. कवि लेकिन तैयार नहीं है. वह कुम्हार-मोहल्ले और लोहार-गली की ओर उन्मुख तो होता है, उनकी झोंपड़ी के भीतर झांकता भी है, लेकिन संवादरत नहीं होता.

इसीलिए गहन संभावनाओं के बावजूद इन कविताओं में ‘लेट स्टाइल’ किसी शिखर पर नहीं पहुँच पाती. अगर यह पछतावे और अफ़सोस कवि को देर तलक मथते, बढ़ई को उसने अपनी रूह में धारित किया होता तो शायद उसके उत्तरार्द्ध की कविता एक निर्णायक मोड़ ले नए रास्ते पर जा सकती थी, लेकिन यह भाव अस्थायी रहा. उसने पनाह फिर से प्रेम की सृष्टि में हासिल की जहाँ “जब एक गोरा सुडौल नितम्ब मुड़ता है तो देवताओं को हिचकी आती है”.

लेकिन. उपरोक्त कवितायेँ इस कवि की रचना-सृष्टि में भले निचले पाए पर आयें, यह उसकी कला के लिए आश्वस्तिदायक संकेत है. उसकी कला अपने साधक के प्रति कठोर है, किसी अव्याप्त-अपर्याप्त अनुभूति का सम्मान नहीं करती, कवि की जिद तहत उन्हें शब्द तो देती है, लेकिन उन्हें एक शालीन दूरी पर भी हौले से ठहरा देती है. कवि के मुहावरे में, ऐसी कविता को वह कवि के पड़ोस में नहीं बिठाती. इसलिए यह कमजोर कवितायेँ प्रकारांतर से रचना प्रक्रिया को ही प्राण-प्रतिष्ठित करती हैं.
 
यह कविता की कवि और उसके हठ पर विजय भी है, जो जाहिरी तौर पर कवि की ही अस्थियों से निर्मित वज्र से संभव हुई है.

कायनात की हरेक शै में कविता चिन्हित कर लेने वाले एक सजग और चैतन्य कवि को क्या यह अहसास न हुआ होगा कि इन वेध्य लम्हों में खुद उसकी रचना उसे नकार देगी, उससे परे निकल जाएगी?

सात वर्ष लम्बे कवि-मौन की ही तरह यह प्रश्न भी लेकिन आलोचना का कम, जीवनी-लेखक का अधिक है. दोनों ही प्रश्न लेकिन एक दूसरे के पूरक हैं, कवि की बुनियाद और निर्मिति को गहरे से रेखांकित करते हैं. 


(यह आलेख पीयूष दईया द्वारा अशोक वाजपेयी पर सम्पादित एक शीघ्र प्रकाश्य किताब में संग्रहित है)

पत्रकार, कथाकार. युवा आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह,
कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में छतीसगढ़ के नक्सली इलाके से   रिपोर्टिंग और डायरी प्रकाशित 
कथादेश के विशेषांक “कल्प कल्प का गल्प” का  संपादन 
कृष्ण बलदेव फेलोशिप और पत्रकारिता के लिए रामनाथ गोयनका अवार्ड

ई पता : abharwdaj@gmail.com

आलेख : अज्ञेय और मैं : आशुतोष भारद्वाज


रंग - राग : हैदर : सारंग उपाध्याय

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सिनेमा के दर्शक सार्थक फिल्मों की हिंदी की  मुख्य धारा के फ़िल्म-उद्योग से उम्मीद रखते हैं. कभी-कभी कुछ फिल्में ऐसी बनती हैं जो प्रबुद्ध दर्शकों और समीक्षकों का ध्यान अपनी और खीचने में कामयाब रहती हैं. हैदर ऐसी ही फ़िल्म है- शेक्सपियर के नाटक हैमलेट और कश्मीर के अपने संघर्ष के मेल मिलाप से बनी विशाल भारद्वाज की यह फिल्म  दोनो के साथ कितना न्याय करती है यह तो आप फिल्म देख कर ही जान सकते हैं. बहरहाल सारंग उपाध्याय ने इस फ़िल्म को देख कर इसे देखने की सिफारिश की है. प्रस्तुत समीक्षा हैदर के प्रति रूचि पैदा करती है. 

यथार्थ के छद्म में संवेदनाओं के साथ चुत्‍सपा                 
सारंग उपाध्‍याय

यथार्थ आधा सच होता है और आधा झूठ. आधे सच और आधे झूठ का टुकडा मिलकर छद्म रचते हैं. वस्‍तु स्‍थिति अपाहिज होती है और उलझनों की बैसाखी से अफवाहों पर रेंगती है. निराकरण यथार्थ के भीतर तिलस्‍म रचते हैं. यथार्थ आंख होती है आंख की किरकिरी नहीं. फिल्‍म हैदर निर्देशक विशाल भारद्वाज की आंखों का यही यथार्थ है. जहां कश्‍मीर हैम्‍लेट की तश्‍तरी में परोसा हुआ छद्म है. कैमरे खूबसूरत जगहों से प्‍यार करते हैं और अक्‍सर अच्‍छा काम करते हैं.

बतौर फिल्‍म निर्देशक विशाल भारद्वाज कालक्रम में बह रहे यथार्थ के अनोखे बुनकर हैं. वे अक्‍सर अतीत को वर्तमान में खूबसूरती के साथ बुनते हैं. मैकबेथ (मकबूल), ओथेलो (ओमकारा) के बाद शेक्‍सपियर की महान और कालजयी रचना हैम्‍लेटके जरिये वे इस बार हैदर लेकर आए हैं. एक ऐसी फिल्‍म जिसमें मानवीय मन के भीतरी कोनों से झांकता हुआ कश्‍मीर अपनी उलझन भरी वादियों में कलात्‍मक सौंदर्य रचता है.

विशाल के कैमरे में 1995 का कश्‍मीर कैद है, जो डॉ. हिलाल मीर, पत्‍नी गजाला, बेटे हैदर और उनके समय को बुनता है. डॉ हिलाल मीर पेशे के ईमान को दुनिया में सबसे बडा मानते हैं. इस बात को भूलकर कि राजनीति से बडा और उसके बाहर कुछ नहीं होता. वे घायल उग्रवादी का इलाज करते हैं और उन्‍हें पनाह देते हैं. (विशाल को यह तय करना था कि यह उग्रवादी हैं, अलगाववादी हैं, आतंकवादी हैं या फिर इंतकामी) भारतीय सेना को उन पर देशद्रोहियों से मिले होने का शक होता है. शक यकीन की केंचुली होता है. सेनाएं मानवता की रक्षा करती है, लेकिन मानवता पर उनका यकीन एक शक ही है.

फौज की नजर में डॉ हिलाल मीर (नरेंद्र झा) का धर्म एक अपराध माना जाता है और वे सेना के शिकंजे में होते हैं. लाख समझाइश के बाद भी भीड के बीच अपने पति की हिरासत, पत्‍नी गजाला मीर (तब्‍बू) के जीवन में भयावह त्रासदी की तरह घटती है. एक हंसता खेलता घर एक झटके में लॉन्चर से उड जाता है. यह दृश्य विश्‍व संवेदना का पत्‍थर हो जाना है.

बशरत पीर और विशाल स्‍क्रीन प्‍ले के चितेरे हैं. शक की परतों से यकीन को ढूंढने की फौजी कसरत के दृश्यों में वे एक बेहतरीन कविता का शीर्षक रचते हैं. बाकी की पूरी फिल्‍म दृश्य के जरिये अपने समय के विरोधाभासों की कविता रचती है.

हिलाल मीर का बेटा हैदर (शाहिद कपूर) अलीगढ मुस्‍लिम विवि का छात्र है. कश्‍मीर में उसका आना और सेना द्वारा उससे पूछताछ का पहला दृश्य कश्‍मीरियों के जमीर की अंतहीन तलाशी के अभियान की शुरुआत है. अर्शिया के रूप में श्रद्धा कपूर के पत्रकार का किरदार बंद कमरे में खुली खिडकी की तरह है. तलाशी के दौरान हैदर की मदद को पहुंची अर्शिया से अनंतनाग को इस्‍लामाबाद कहलवा कर विशाल फिल्‍म की संवेदनशीलता के तार छूते हैं. विशाल ने फिल्‍म के संवाद लिखे हैं जो गंभीर हैं.

हैदर को सेना द्वारा गिरफ्तार अपने अबू जी की (पिता हिलाल मीर) तलाश है. तलाश लॉन्‍चर के धमाके में बिखर कर खंडहर हो चुके अपने घर से होती है. घर बाहर नहीं होते बल्‍कि अंदर होते हैं. उनका टूटना मन को मरघट बना देता है. जबकि घर की चीजें आदतों के टुकडे होते हैं जिसमें स्‍मतियां घोसलें बनाया करती हैं और मन को हरा भरा रखती हैं. हैदर धूल धुसरित और जलकर राख हुए घर से स्‍मतियां अवेरता है. निर्देशक ने इस दश्‍य से मनुष्‍य सभ्‍यता को हिंसा के खिलाफ ज्ञापन सौंपा है. यह दृश्य कैमरे को धीरज के साथ काम करने की आजादी देने का संकेत देता है. दश्‍यों से कहानी महकना शुरु करती है.

सुरक्षा की छाया कश्‍मीर के लिए घुटन बन चुकी है. इस घुटन में तानाशाही की दुर्भावनाएं गंधा रही हैं. जबकि जन भावनाएं निराकरण के तिलस्‍म में फंसी हैं. यथार्थ का छद्म हैदर का शिकार करता है. कश्‍मीर पर अब तक बनी फिल्‍मों में यह पहली फिल्‍म है, जिसमें सेना के अमानवीय पक्ष, उसके भीतर के भ्रष्‍टाचार, स्‍थानीय प्रशासन और पुलिसिया घुसखोरी को बेहद सलीके से छुआ गया है. लेकिन बावजूद इसके विशाल के साहस के हाथ यथार्थ की छाया भर आई है, जिसमें झूठ और सच दोनों ही रहे. उनके हिस्‍से का यथार्थ कई सतही प्रयोग के बीच हैम्‍लेट निगल गया.

अबू जी की तलाश में हैदर का सामना अपनी मौजी (मां तब्‍बू) से चाचा खुर्रम के बीच पक रहे प्रेम की छाया में होता है. विशाल पष्‍ठभूमि के संगीत के माहिर आदमी हैं. यहां कश्‍मीरी लोक संगीत के स्‍वर पर्दे के उस पार खडे हैदर के खून में चाचा का फरेब और मां की बेवफाई घोलते हैं. यहां हैदर का संवाद संगीत के सन्‍नाटे को चीर देता है. ये छुप छुप के नाच गाना पहले भी होता था कि अभी अभी शुरु हुआ है, अबू जी के बाद. विशाल यहां हैदर के मन में हैम्‍लेट रचना शुरू करते हैं जबकि बाहर कश्‍मीर ठंड, सर्द हवाओं से उसके मरघट मन को पत्‍थर करना शुरू करता है.

स्‍थानीय पुलिस, आर्मी ऑफिस, और कई जेलों में भटकने के बाद संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के दफ्तर के बाहर अपनों की तलाश कर रहे लोगों की कतार में हैदर की तख्‍ती भी लटकती है. यह दृश्य फिल्‍म में कश्‍मीर की सबसे कोमल मानवीय संवेदना है, जो बरसों से लहुलुहान है. यह दृश्य दुनिया में हुकूमतों के अर्थ पर सवाल है.

फिल्‍म दृश्य की आंच पर पकती हुई चलती है. हैदर का अपनी मौजी से संबंध, चाचा खुर्रम का मौजी की आंखों में फरेब डालना और इन सबके बीच बंदूकों के साये में बैचेन होता कश्‍मीर, यह सबकुछ फ्लेशबैक में बुना गया है. संपादन अच्‍छा है, लेकिन फिल्‍म की गति को धीमा करता है. कई मायनों में यह एक धीमी फिल्‍म है. दृश्यों के साथ न्‍याय करती हुई. हालांकि इंटरवल के बाद फिल्‍म एक लय में बहती है.

रूहदार के रूप में इरफान की एंट्री आपको वादियों के कोनों में छिपी दुनिया में ले जाती है. ऐसी दुनिया जहां इंतकाम बंदूक थामे है और दिलों में भारत से अलगाव की आग है. फिल्‍म में रुहदार कश्‍मीरियों की रूह है, जो कभी मरती नहीं. यह चरित्र हैदर और कश्‍मीर के मन को जोडने वाले पुल की तरह काम करता है. रुहदार फिल्‍म का बेहद गहरा चरित्र है. इरफान किरदार में बहते नजर आए. उनकी एंट्री पूरी फिल्म में नाटकीयता पैदा करती है. उनका लंगडाकर चलना और आर्शिया से दोहराकर सवाल पूछना उन्हें रहस्यमयी बनाता है. वे किरदार को रूह की तरह जीते हैं. यह आत्‍माओं को जगाने वाला है. वह हैदर के पिता हिलाल मीर के साथ गुजारे गए यातनादायक समय का साक्षी है और छद्मम में भटक रहे हैदर को हकीकत में लाता है. वह हैदर को बताता है कि चाचा खुर्रम सेना की मुखबिरी और पुलिसिया गठजोड करने वाला पैसे का लालची सांप है. आस्‍तिन का सांप जिसने हैदर के अब्‍बू जी को निगल लिया और मौजी की आखों में फरेब उंडेल दिया. रुहदार हैदर के भीतर कश्‍मीर की सिलाइयों से पिता का इंतकाम बुनता है. ‘उन आंखों में गोली दाग देना जिसने तेरी मां की आंखों में फरेब डाला और मां को बख्‍श देना, उसका इंसाफ खुदा करेगा.

‘सच विरोध करना सिखाता और विद्रोही बनाता है, लोग अक्‍सर इंतकामी होना पसंद करते हैं. लेकिन हैदर का सच इंतकामी और विद्रोही होने के बीच का तिलस्‍म है. सच में झूठ और झूठ में सच का भ्रम रचने वाला. यह हैदर का चुत्‍सपा है, जिसे विशाल ने रचा है.

प्रेमिका अर्शिया के साथ कई सुंदर प्रतीकों के बीच हैदर की जिंदगी कश्‍मीर के भूगोल पर आवारा बन जाती है. यहां हैदर का खुदसे बहुत ही खूबसूरत मानीखेज संवाद है. दिल की अगर सुनता हूं तो- तू है, दिमाग की सुनता हूं तो- तू है नहीं, जान लूं कि जान दूं, मैं रहूं कि मैं नहीं.

एक चौराहे पर रेडियो के साथ इकबाल के गीत सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा गुनगुनाकर सोलो प्‍ले करता हैदर, दरअसल हुकूमतों से ठग कर पागल हुआ कश्‍मीर है. वह कश्‍मीर जो बंदूक की नाल में अटका है और अपनी ही झल्‍लाहट में घुटकर मनोरोगी बन रहा है. कुल मिलाकर यह 1995 से आज तक का कश्‍मीर है, जिसके साथ चुत्‍सपा हो गया. ठगे हुए शाहिद की प्रतिभा इसी दृश्य में खिलती है. फिल्‍म में विशाल भारद्वाज के निर्देशन कौशल का यह सबसे दर्शनीय स्‍थल है. इस स्‍थल की खूबसूरती तब निखरती है जब मां नये पति के साथ पुराने बेटे को देखती है और बेटा नये पिता के साथ पुरानी मां को. हैम्‍लेट और कश्‍मीर यहां एकाकार होते हैं.
कश्‍मीर की राजनीति परिवारों को बिखेरती रही है. परिवार के भीतर, बाहर का कश्‍मीर रिश्‍तों में धोखे और फरेब की चिंगारी घोलता है. यह चिंगारी कश्‍मीर में सामूहिक अलगाव पैदा करती है.

मां और चाचा के निकाह का दृश्य बेहद नाटकीय है. भाई की श्रद्धांजलि सभा में भाभी के साथ भाई के विवाह की घोषणा. बेटे के सामने नई शादी के रोमांच में छुईमुई की तरह शर्माती लजाती और सजती हुई मां. नये प्रेमी के इश्‍क में रंगा, पुराने शौहर की स्‍मतियों से पश्‍चाताप में डूबा एक स्‍त्री का मन. बेटे को देख कर कच्‍चे मातत्‍व और शर्मिंदगी में डूबे वात्सल्‍य भर जाने वाला एक मां का मन. अपने ही अंतस में उलझा मौजी हैम्‍लेट का मन है.

निकाह के जश्‍न में हैदर मां को पिता के हत्‍यारे की शक्‍ल बताता है. सुंदर, नत्‍य, कश्‍मीरी लोकधुन पर रमा गीत और रचा संगीत, नाटकीयता से भरा, प्रतीकों के बेजोड प्रयोग से फिल्‍माया गया यह संगीत दृश्य विशाल को दूसरे तमाम निर्देशकों से अलग करता है. वे एक बेहतरीन संगीतकार भी हैं.

फिल्‍म में कई स्‍तर पर उदघाटित होते छोटे-छोटे सच फिल्‍मी होने के संकेतों के बीच फिल्‍मी नहीं हुए हैं. यही निर्देशन की ब्‍यूटी है. अलगाववादियों से हैदर का लौटना, फिर उलझे हुए सच को अपनी आत्‍मा में रख कर उसे निगलने और उगलने के लिए बेचैन होना, प्रेमिका से मिलन, प्रेमिका के पिता का हैदर के पीछे मुखबिरों को लगाना, प्रेमी के खिलाफ पिता का बेटी को भरोसे में लेना, मां का बेटे के साथ टूटता हुआ रिश्‍ता, चाचा का भतीजे को सच बताने के लिए एक झूठे सच को गढना और चाचा और मां के निकाह के दौरान हैदर का बंदूक छिपाना, हैदर के सपने में पिता का आना और चाचा से इंतकाम के लिए कहना, हैदर की दुआ में बैठकर पश्‍चाताप में डूबे चाचा पर पीछे से बंदूक चलाने की नाकाम कोशिश करना फिर अंत में चाचा के कहने पर ही भतीजे को पुलिस दारा पकड कर एंनकांउटर के लिए मुखबिरों संग भेजना सब कुछ विशाल ने शानदार तरीके से संपादित किया है. किसी भी नये निर्देशक के लिए दश्‍यों के माध्‍यम से फिल्‍मों को पूरी जुगुत्‍सा के साथ आगे बढाने की यह सबसे बेहतरीन बानगी है. फिल्‍म के रूप में यह हैदर की जीत है.

पिता का सपना हैदर को उसके आसपस रचे गए तमाम तरह के छद्मों से बाहर ले आता है. दरअसल, यह उसके भीतर की आवाज है. वह आवाज जो पिता के साथ आत्‍मीय प्रेम से उपजी है.

मुखबिरों को मार कर सीमा पार जा रहा हैदर अपनी मौजी से आखिरी बार मिलता है. मां और बेटे की यह मुलाकात दोनों के बीच जमी कई झूठी परतों को तोडती है. संवाद भीतर के अवसाद और गलतफहमियों को पिघला देते हैं. दो हत्‍याएं कर चुका हैदर तीसरी हत्‍या अपनी प्रेमिका के पिता की करता है. वह उसकी अबू जी की यातना का एक गुनहगार है. हैदर अब बर्फीली पहाडियों पर पिघलता हुआ बहता है. तिलस्‍म और छदम से पत्‍थर हो चुकी उसकी आत्‍मा अब हल्‍की हो चुकी है. जो दुनिया के लिए फरार है, लेकिन खुदके लिए आजाद हो रही है. तब्बू के पास अभिनय के लिए बहुत कुछ था. उनके किरदार की भावनात्मक उलझन चेहरे पर अक्सर एक खालीपन के साथ दिखाई पड़ीं. वे एक मंझी हुई अदाकारा हैं. सलमान की जय हो के बाद उनका यह रूप बेहद अलग है.

यहां फिल्‍म में विशाल ने अपनी ही कब्र को खोद कर आराम करना चाह रहे तीन बूढे किरदार खूबसूरत प्रतीक के तौर पर खडे किए हैं. धोखे, नफरत, लूट, खसोट, भय, यातना, हिंसा, खून खराबे और वैमनस्‍य से हांफती समूची मनुष्‍य सभ्‍यता को मत्‍यु की पनाह में आराम का संकेत देते. यह दृश्य हैम्‍लेट और कश्‍मीर के बीच एक ठहराव है. और संपूर्ण मनुष्‍य सभ्‍यता को सोचने पर विवश करता है.

अपने प्रेमी द्वारा पिता की हत्‍या से अर्शिया खामोशी में डूब रही है और प्रेम की अनगिनत और कभी न सुलझने वाली उलझनों में उलझी है. विशाल ने यह दृश्य एक बुने हुए स्‍वेटर को उसी के हाथों उधेडकर उसकी देह पर उलझाते हुए बताया है. दरअसल, यह उसकी आत्‍मा की उलझन है, जो उसके ईद गिर्द रचे समय में उलझ गई है. वह अब मुक्‍ति पाना चाहती है. यह प्रतीकात्मक दश्‍य एक स्‍त्री के सपनों का विडंबनाओं और नियती के आगे मौन आत्‍मसमर्पण है.

अपने अंतिम दौर में फिल्‍म टूटे सपनों, मरती इच्‍छाओं, लालसाओं में फंसे, फरेब से पिटे और सियासत से ठगे कश्‍मीर का प्रतीकात्‍मक चित्र खींचती है. हैदर अब अलगाव की पनाह में है और असलाहों की छाया में सुस्‍ता रहा है. उसी छाया से वह सपनों के जहर बनने पर मत्‍यु का आलिंगन कर कब्र मे दफन हो रही प्रेमिका को देखता है. यह हैदर की रोशनी पर आखिरी नजर है. उसके जीवन के बंद गलियारों में रोशनी और हवा बहाने वाली उसकी खिडकी बंद हो चुकी है. वह भागता हुआ कब्र तक पहुंचता है. यह दृश्य हिंसा और नफरत के अंधेरे में प्रेम की रोशनी का दृश्य है. कफन में लिपटी प्रेमिका की लाश को गले से चिपटाए वह अलगाव के बीहड में प्रेम की बसाहट तलाश रहा है.

झूठ, फरेब, लालसा, नफरत और वासना का, अंत बिखराव होता है. सबकुछ आत्‍मा पर घात है. देह और मन को कुचलना है. भतीजे की मौत में ही चाचा खुर्रम की जिंदगी को पनाह है. लेकिन बेटे पर मां की वात्सल्य की छाया है. मौजी हथियारबंद दस्तों के साथ खड़े पति खुर्रम से कहती है “यदि जिंदगी में मुझसे कभी मोहब्बत की हो तो एक मौका उससे मिलने का दो.‘ लहुलुहान हुआ, भीतर से टूट कर बिखर चुका हैदर बंदूक की गोली की जगह दूर से अपनी मां को आता देख अपने संपूर्ण अस्‍तित्‍व को वात्‍सल्‍य में पाता है. बेटे और मां के बीच रचा गया यह अंतिम दृश्य मां और बेटे का सदियों बाद मिलन संवाद है. दोनों के बीच बहुत कुछ घुलता है और घटता है, सिवाय उस जिद को छोड़, जिसमें हैदर हमेशा हारता रहा, लेकिन वह आज जीतना चाहता है क्योंकि उसे अपने पिता के दुश्मन की आंखों में गोली दागना है, जिसने उसकी मां की आंखों में फरेब डाला. मां उसे लेने आई है. लेकिन वह अपनी जीत में भी, फिर मां से हारता है.

ममत्‍व का कोई अंतिम छोर नहीं होता वहां विस्‍तार अपार है और गहराई अतल. मौजी फिदायीन बन गई. उसके भीतर की आत्‍मा पति के हत्यारे से इंतकाम और बेटे की सलामती चाहती है. वह पश्‍चाताप से मैली हो चुकी आत्मा का घात करती है.

धुएं के गुबार, मांस के लोथडों, लाशों के टुकडों और आधी जिंदगी और आधी मौत के बीच तडप रहे खुर्रम की दुआ कबूल हो जाती है. मत्‍यु के विध्‍वंस के बाद चीखता चित्‍कार करता हुआ हैदर अपनी मां के टुकडे ढूंढता है. वह इस बार ठगा नहीं गया. बल्‍कि वह मौजी को समझने में खुदसे ही ठगा गया. मां ने उसे कभी नहीं छला, छलता उसे कश्‍मीर रहा. मां उसे छल कर भी महफूज करती रही. अफसोस की हैदर मौजी के सच की थाह नहीं ले पाया. इंतकाम की आग हैदर के चेहरे पर है, जिसकी रोशनी में उसे बेबस, लाचार और मौत मांगते चाचा की आंखों में फरेब दिखाई देता है. वह उन आंखों में गोली दागना चाहता है, जिसने मौजी की आंखों में फरेब डाला और अबू जी और उससे धोखा किया. लेकिन वह इंतकाम नहीं लेता. त्रासदी से उजडी उसकी आत्‍मा में मनुष्‍यता की चिंगारी बची है. लाशों के टुकडों, जलते मांस के लोथडों की गंध और घायल आत्‍मा की चीखों का यह दृश्य विभत्‍स और मनुष्‍य सभ्‍यता पर हिंसा के तांडव का है. वासना, छलना, धोखे, नफरत के बीच रचे गए छद्म में आत्‍मा देह से अक्‍सर ऐसे ही मुक्‍त हुआ करती है. कभी कभी मर्जी के खिलाफ आत्‍मा का घात ऐसे ही दृश्य रचता है.

हैदर अश्‍वत्‍थामा है, पता नहीं? क्‍या विशाल ने उसे भटकने के लिए छोड दिया? पता नहीं, यदि हां तो कहां? वह कौन है? क्‍या करेगा? कहां जाएगा? इंतकाम को उसकी आत्‍मा ने धिक्‍कार दिया है और अलगाव ने उसे तबाह कर दिया. इन सबके बीच क्‍या वह कश्‍मीर का प्रतीक है? या प्रतीक की छाया भर या चिहन या फिर संकेत?

दरअसल हम सब भी कश्‍मीर को लेकर एक छदम भरे यथार्थ में जी रहे लगते हैं. कश्‍मीर की नियति भटकाव की है? हिंसा भरे अंत के साथ हैदर फिल्‍म खत्‍म हो जाती है, लेकिन सवालों को छोड जाती है. जो बेहद अनसुलझे हैं. कश्‍मीर की भारत से आजादी को पहली बार इस हिम्‍मत के साथ पर्दे पर दिखाया गया. इस दौर में किताबों की पहुंच सिनेमा जितनी नहीं. विवादों के बीच फिल्‍म का रिलीज होना और कई सिनेमा घरों पर नहीं दिखाने के लिए दबाव बनाया जाना और बावजूद इसके फिल्‍म का चलना, चर्चा में आना और कश्‍मीर पर फिर से सवालों को मथने की प्रक्रिया को शुरु करना. यह कामयाबी से कम नहीं. निश्‍चित यह फिल्‍म कश्‍मीर को लंबे समय तक जिंदा रखेगी. और हिम्‍मत के साथ आगे बढकर और फिल्‍म बनाने के लिए भी. संभव हो पैसा कमाने के लिए, कलात्‍मकता दर्शाने के लिए. उस सच और यथार्थ को बताने के लिए जिसका एक हिस्‍सा हमारे हाथ लगा ही नहीं. क्‍या हमारी कश्‍मीर पर प्रयोग की इच्‍छा है? कश्‍मीरियों की आजादी दूसरे मुल्‍क की गुलामी भी हो सकती है या फिर एक नृशंस हत्‍याकांड मचा रहे आतंकी समूह आईएस की हुकूमत की, जिसके झंडे वहां फहराए जा रहे हैं और जिसके दीवाने दुनिया भर के युवा हो रहे हैं. लडकियां अपनी कोख से बर्बरता, नशंसता और जंगली कबाइलियों से भी पिछडे, कुंद, मंद समाज को बनाने के लिए लडाके पैदा करने जा रही हैं, उसे अपना सौभाग्‍य मान रही हैं.

दीवानगी में डूबे नशे की परिणिति बिखराव के साथ भयावह तबाही लाती हैं. कई सल्‍तनतें इसका उदाहरण हैं. घटनाओं की खबर आधा सच होती है, लेकिन पूरा नहीं, यही सबसे बडा खतरा है. आधा और अधूरा अक्‍सर यथार्थ ही होता है. सच और झूठ दोनों की उपस्‍थिति के साथ मौजूद. कश्‍मीर भारती के अंधे युद्ध का प्रतीक तो नहीं?

विवादित, ज्‍वलंत और जनभावनाओं के उछाल को सुनामी में बदलने वाले मसलों और विवादों के राजनीतिक हल उन्‍हें होल्‍ड पर डालने से बेहतर कभी नहीं रहे हैं.  हैदर हैम्‍लेट के ढांचे में कश्‍मीर की अधूरी, हल्‍की सी छाया से गुजरती हुई फिल्‍म है जो निर्देशन के तौर पर गंभीर, संजीदा, साहसी और प्रशंसनीय है. यह फिल्‍म हमेशा याद की जाएगी. जो चरित्र छूटे हैं उनकी अदाकारी को इस फिल्‍म का हिस्‍सा बनने के लिए बधाई. बधाई विशाल और उनकी पूरी टीम को एक और अच्‍छी फिल्‍म बनाने के लिए.
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सारंग उपाध्याय (January 9, 1984, मध्यमप्रदेश के हरदा जिले से)
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में संपादन का अनुभव 
कविताएँकहानी और लेख प्रकाशित
फिल्‍मों में गहरी रूचि और विभिन्‍न वेबसाइट्स और पोर्टल्‍स  पर फिल्‍मों पर लगातार लेखन.
फिलहाल इन दिनों मुंबई से निकलेन वाले हिंदी अखबार एब्सल्यूट इंडिया में कार्यरत है

परख : लौटती नहीं जो हँसी (तरुण भटनागर) : राकेश बिहारी

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हँसी का नियोजित अकस्मात             
राकेश बिहारी


"`हमकोचूतिया समझे हो. बट्टू की खलिहान वाली हंसी और वो हँसुली के पास पड़ा रुद्राक्ष और उस पर फिर बट्टू की हंसी. शास्त्री की चूंदी की गांठ. स्साला गंठीली चूंदी पर हाथ फेरता रहा. रामा सब समझता है. और एक चीज़ और हुजूर. आज कहता हूँ. माफ की जौ. रामा से अच्छाहंसी का पारखी कोई नहीं. पूरे गाँव में रामा ही जानता है. रामा ही चीन्ह सकता है असली और नकली हंसी को. तुम ऊंची जात के लोग बस हँसना नहीं जानते. हम छोटी जात में,मां अपने बिटवा को हँसना सिखाती है. अंदर की हंसी को कैसे बाहर निकालो. ये इधर का हंसी हुज़ूर,इधर का...'
रामा मुट्ठी से अपनी छाती ठोंकरहा था... .
`ये इधर का हंसी हुजूर... इधर का... .'" 

तरुण भटनागर के उपन्यास- 'लौटती नहीं जो हंसी'के लगभग मध्य में बाबूजी से कही गई रामा की ये बातें बहुत हद तक इस उपन्यास की केंद्रीय चिंता को अभिव्यक्त कर जाती हैं. बाबू जी इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं. स्वभाव से खल होने के बावजूद लगभग पूरा उपन्यास उनके आस पास ही रचा-बुना गया है. रामा उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पात्र है जो बाबू जी के छल का शिकार हो कर भी अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण किसी भी पाठक के जेहन में अपनी एक मजबूत और सकारात्मक उपस्थितिदर्ज करा लेने की ताकत रखता है. उपन्यास में कई और पात्र हैं लेकिन बाबू जी का बेटा और रामा का दोस्त बट्टू तथा रामा की माँ मिसरी बाई भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और इनकीउपस्थिति कथानक की केन्द्रीयता को प्रभावित करते हुये उसे कदम-दर-कदम थामे रखती है. इन पात्रों के बहाने जिस एक बात को लेखक ने उपन्यास के केंद्र में रखा है, वह है हंसी. यहाँ हंसी सिर्फ अपने पारंपरिक और मूल अर्थ-छवियों को ही ध्वनित नहीं करती बल्कि समय और स्वार्थ के तत्कालीन दवाब से उत्पन्न उसके नए-नए अर्थ-रूपों को भी खोलती-खंगालती चलती है. मौलिक हंसी के गायब होते जाने के बीच विभिन्न प्रकार की नकली हंसी के फलने-फूलने के बहाने दरअसल यह उपन्यास समय और समाज की जड़ोंको खोखला करने में लगी समूची व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने का एक सार्थक जतन करता है. इस तरह यह उपन्यास हंसी की उपस्थिति और अनुपस्थिति के दुहरे संजालके बीच समकालीन यथार्थ के एक ऐसे विद्रूप से हमारा परिचय कराताहै जिसकी निर्मिति में समाज के हर अंग की बराबर की हिस्सेदारी है चाहे वह नेता हो या अधिकारी,समाजसेवी हो या व्यापारी,मीडिया हो या आंदोलनकारी. उन्मुक्त और विद्रूप के दो विपरीत ध्रुवीय छोरों के बीच क्षण-क्षण रूप बदलती हंसी कैसे अपने असली स्वरूप से मुक्त होकर एक बनावटी प्रतिसंसार की पुनर्रचना कर रही है,यह उपन्यास उन दारुण हकीकतों की जटिलताओं को एक बेहद ही पठनीय कथानक के माध्यम से उसकी सूक्ष्मताओं के साथ कदम-दर-कदम दर्ज करताचलताहै. लेकिन इस क्रम में जो एक बात खलती है वह है - पूरी व्यवस्था के बीच सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी का ही कर्तव्यपरायण दिखाया जाना.उसकी जो थोड़ी बहुत कमियाँ उपन्यास में दिखाई भी गई हैं वह उसके अभिजात्य व्यवहार से सम्बद्ध है.तरुण पेशे से खुद एक प्रशासनिक अधिकारी हैं,ऐसे में पूरी व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करते हुये,प्रशासनिक अधिकारी के लिए उदारता बरतने का कारण कहीं  न कहीं उपन्यास में लेखक के व्यक्ति का हस्तक्षेप जान पड़ता है,जिससे बचा जाना चाहिए था.  

वैसे तो रोना हंसी का विपरीतार्थक शब्द है लेकिन जीवन-जगत में उसकी उपस्थितिकई बार हंसी के अनुपूरक का काम भी करती है. असली और नकली हंसी की उपस्थिति-अनुपस्थिति के समानान्तर असली और नकली रुलाई की संवेदन संहिता भी परिदृश्य को एक अलग तरह की पूर्णता प्रदान करती है. या यूं कहें कि एक की चर्चा करते हुये दूसरे की चर्चा खुद ब खुद अपनी अनिवार्यता रेखांकित कर जाती है. विवेच्य उपन्यास के कथानक की अंतर्धारा में कहीं न कहीं यह रुलाई भी एक अदृश्य लेकिन प्रभावी राग की तरह लगातार अपने होने का अहसास बनाए रखती है. यही कारण है कि इस उपन्यास को पढ़ते हुये,कुछ जगह तो खासकर,नया ज्ञानोदय के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित तरुण भटनागर की ही कहानी `रोना'और शुक्रवार साहित्य वार्षिकी 2013 में प्रकाशित दिनेश भट्टकी कहानी `अंतिमबूढ़े का लाफ्टरड़े'की लगातार याआती है. उल्लेखनीय है कि तरुण भटनागर की कहानी `रोना'जहां दिन प्रतिदिन गुम हो रही असली रुलाई के समानान्तर छोटे-छोटे स्वार्थों से संचालित नकली रुलाई के विविधवर्णी और व्यावसायिक विस्तार की तरफ इशारा करती है वहीं दिनेश भट्ट की कहानी `अंतिमबूढ़े का लाफ्टरडे'हंसने के अवसर के लगातार क्षरित होने के बीच व्यायाम और स्वास्थ्य के नाम पर निकल चले लाफ्टर क्लबों के साये में पल-बढ़ रही उन विडंबनाओं को रेखांकित करती है जहां एक कृत्रिम और मशीनी व्यवस्था संवेदनाओं  के भूगोल का लगातार अतिक्रमण करती चलती है. यहां यह भी रेखांकितकिया जाना चाहिए कि नकली रुलाई की हकीकतों से दो-चार होती कहानी `रोना'जहां एक विद्रूप हंसी के साथ समाप्त होती है वहीं नकली हंसी में स्वास्थ और जीवन की सार्थकता खोजती कहानी `अंतिमबूढ़े का लाफ्टरड़े'के अंत में उसका मुख्य पात्र अचानक ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता है. रोने और हंसने की विपरीतधर्मी संवेदनात्मकताएंकिस तरह एक दूसरे का पूरक होती हैं उन्हें इन दोनों कहानियों के परस्पर विरोधी अंतों से समझा जा सकता है. प्रस्तुत उपन्यास 'लौटती नहीं जो हंसी'हंसी और रुलाई की इन परस्पर अनुपूरकताओंकी बारीकियों को अपेक्षाकृत अधिक विस्तार और गहराई से विश्लेषित करता है. तभी तो जीवन भर हंसी को एक क्रूरतम हथियार की तरह सिर्फ और सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षाओ की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करनेवाले बाबू जी,इस उपन्यास के अंत में छिपकर रोने को मजबूर हो जाते हैं- "लोरमी ने मान ही लिया था कि बाबू जी रोते नहीं हैं- कितना हँसे हैं. पूरे हंसोड़. रो तो सकत ही नहीं. न,बिलकुल नाहीं. पर वो रोये थे. हंसी की दुनियाकमतर नाहो जाये,सो छिपकर रोये थे. वे ये सोचकर रोये थे कि पांचों लड़इय्यों ने किस तरह  रामा और बट्टू को मारा. यह जानकर रोये की बट्टू की मां सब जानकर भी चुप रही. यह महसूस कर रोये कि बिट्टू उनको कितना तो प्यार करता था. किसी को गाली देते,रामचरितमानस पढ़ने का नाटक कर डुलते,लोगों को सलाह बांटते... कई बार उन्हें लगा कि वे रो लें. कई बार तो उन्हें हंसने पर भी रोना आया,लगा ठठाकर हंसने की बजाय रोना ही था,जैसे हंसी छूट-छूट जाएगी और बुल से रोना फूट पड़ेगा,पर हर बार तो संभल गए. उनकी हर उदासी,संताप और चुप्पी पर हंसी की अमरबेल थी और वे लंबे समय तक इंतज़ार करते रहे कि इस अमरबेल को काट फेंकें... क्या आज वे ऐसा कर सकते हैं,अपने हिस्से की उदासी और रोने को जी भरकर जी सकते हैं?"जीवनपर्यंत बनावटी हंसी के क्रूरतम इस्तेमाल से हैवानियात की सारी पराकाष्ठायें पार कर जानेवाले बाबूजी जिस तरह जीवन की संध्या में एक दयनीय व्यर्थताबोध की स्थिति में पहुँचकर जी भरके रो लेना चाहते हैं वह इस पूरे उपन्यास को निश्छल हंसी की सुनियोजित हत्या के बाद के शोकगीत में बदल देता है.

आडंबरी सफलता और मूल्यच्यूत मिथ्या आदर्शों  का उत्सव मनाती  हंसी जब अपनी क्रूरकृत्रिमता के कारण जीवन और जीवंतताकी किश्तवार हत्या का पर्याय बन जाये तो रुलाई के सोते का फूटना स्वाभाविक है. यह वही अभिसंधि है जहां रुलाई न सिर्फ हंसी की हत्या से उत्पन्न परिस्थितियों के विरुद्ध आखिरी हथियार के रूप में सामने आती है बल्कि हंसी का पूरक बनते हुये उसकी अनिवार्यता के पर्याय की कारुणिक प्रस्तावना भी बन जाती है. यह रुलाई विवशता से कहीं आगे उस विडम्बना को रूपायित करती है, जिसके मूल में सबकुछ लुटा के होश में आने का व्यर्थताबोधी अवसाद भरा होता है.

पिछले कुछ वर्षों में सामूहिकता के विरुद्ध वैयक्तिक महात्वाकांक्षाओं का जो लगभग सर्वमान्य होता-साव्यावहारिक स्वरूप हमारे सामने उभर कर आया है,वह ऊपर से जितना चमकीला है भीतर से उतना ही जहरीला. चमकीले और जहरीले के इस प्रायोजित संतुलन को यह उपन्यास बिना किसी अतिरिक्त तामझाम के एक सहज कथात्मकता के जरिये रेखांकित कर जाता है. हमारे समय की इस विशेषता को दर्ज करते हुये लेखक ने खिलंदड़ेपन के भीतर छुपी नृशंसता को इस उपन्यास के कथानक को विकसित करने की प्रविधि के रूप में इस्तेमाल किया है. सतह पर दीखनेवाला सच मूल यथार्थ से कितना अलग है वह उपन्यास के हर मोड़ पर देखा-महसूसा जा सकता है. कथन और प्रविधि के इस विरोधाभासी संयोजन के कारण ही शुरू से आखिर तक हंसी एक सुनियोजित अकस्मात के रूप में सामने आती है. लेकिन हंसी के अकस्मात के नियोजन के समानान्तर उसके शिनाख्त या मूलोच्छेद की भी एक धारा उपन्यास में लगातार चलती है.बाबू जी के साथ-साथ मिसरीबाई और रामा के चारित्रिक विकास में इसे आसानी से पहचाना जा सकता है. शोषण और प्रतिरोध के इस द्वंद्वको बारीकी से उकेरते हुये किसी अव्यावहारिक क्रांतिकारिता का सहारा नहीं लेना भी इस उपन्यास की विशेषता है. लेकिन उपन्यास के आखिरी अध्या`मित्र मान लो कि वे साहित्यकार थे'में लेखक जिस तरह उपन्यास के पूरे कथानक की प्रतीकात्मकता  स्थापित करने के उद्देश्य से हड़बड़ी में उपन्यास की कुंजी जैसा कुछलिख जाता है वह पाठकों के विवेक पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा तो है ही,कहीं न कहीं उसमें अपने लिखे के प्रति ठीक-ठीक आश्वस्त न होने का भाव भीछुपा हुआ है.  

उपन्यास के केंद्र में पूर्वी भारत का एक गांव लोरमी है. बाबू जी इसी लोरमी में बाहर से आते हैं और इस तरह पूरे गाँव को अपनी मुट्ठी में कर लेते हैं किकिसी को कुछ पता ही नहीं चलता कि कब उनका गाँव उनका नहीं रहा. पूरे गाँव में बाबू जी अकेले पढे-लिखे हैं. वे शिक्षा के साथ-साथ साम,दाम दंड भेद के भी धनी हैं. और जो इतने संसाधनों से समृद्ध हो भला वह महत्वाकांक्षी क्यों न हो! तो बाबूजी की भी महत्वाकांक्षा है-  सत्ता प्राप्ति. सत्ता- गाँव की, समाज की, क्षेत्र की और अंतत: राज्य की. एक आम या साधारण व्यक्ति से लेकर सत्तासीन होकर खास हो जाने की उनकी कहानी के क्रम में बहुत से लोग आते हैं,उनकी ज़िंदगी आती है,उनके सपने आते हैं और बाबू जी उन सब को कुचलते हुये बड़ी सफाई से अपनी मंजिल तय करते जाते हैं. सफाई ऐसी कि किसी को यह समझ भी नहीं आता कि उनके आस्तीन में साँप बैठा हैऔर वे आस्तीन के उसी साँप को अपना हितैषी समझते रहते हैं. वैसे तो उनका चेहरा एक आम शोषक की तरह ही कुरूप और वीभत्स हैलेकिन उन्होने जनसेवा और हंसी का एक ऐसा मुखौटा लगा रखा हैजिसके पीछे उनकी सारी कुरूपताएं-विद्रूपतायें छुपी होती हैं. एक सच्ची और निश्छल हंसी जो हमारे आचार-व्यवहार का एक आम हिस्सा होतीहै,कैसे सत्ता की चालाक कारगुजारियों का हथियार बन जाती है, उसे बाबू जी के व्यवहार और उनकी रणनीतियों में आसानी से देखा जा सकता है. बाबू जी न सिर्फ अपनी मुखियागिरी चमकाए रखना चाहते हैं बल्कि उसी रास्ते एक शातिर ठसक के साथ बढ़ते हुये सत्ता का च्चतम सिंहासन भी हथिया लेना चाहते हैं. सत्ता और व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठने का यह खेल कितना क्रूर और वहशीहोता है इसे इस उपन्यास में कदम-दर-कदम देखा जा सकता है. जाति-व्यवस्था,प्रशासन-व्यवस्था, राजनैतिक-सामाजिक नेतृत्वऔर मीडिया का चतुष्कोणीय गिराव जिस तरहनिजी,पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के मूल ताने-बाने को तहस-नहस कर क्रूरता की नई मिसालें कायम कर रहा है उसने एक आम मनुष्य के भीतर की नमी को सोख लिया है. विश्वास और भरोसे के विरुद्ध दहशत और विश्वासघात का यह खेल जब किसी ऐसे व्यक्ति के आगे खुलता है जो भीतर से निरीह और दोषरहित है तो उसके बाद का मंजर कितना त्रासद और अफसोसनाक हो सकता है उसे इस उपन्यास के दो पात्रों रामा और बट्टू के बदलते व्यवहारों में रेखांकित किया जा सकता है.

गौरतलब है कि बाबूजी येन केन प्रकारेण अपने सपनों को पूरा करना चाहते है. किसी भी तरह,किसी भी सूरत मेंऔर किसी भी कीमत पर. यह कीमत किसी की जान भी हो सकती है;किसी की यानी किसी की,प्रतिद्वंद्वीऔर मातहत तो दूर अपने बेटे की भी. सरकारी महकमों में सबसे निचले स्तर पर काम करनेवाले कर्मचारी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों तक को सेट कर लेने से लेकर जो राह में आ जाए उसकी हत्या तक करवा देने वाले बाबूजी के लिए अपनी महत्वाकांक्षाएं ही सर्वोपरि है. बाबूजी लोरमी को सूखाग्रस्त और विवाद रहित गाँव घोषित करवाना चाहते हैं ताकि उनके गाँव को विकास का सरकारी फंड मिले और समाज सेवा के बहाने आत्मसेवा का उनका कारोबार चमचमाता रहे. अपना दबदबा कायम रखने के लिए हत्या और दमन के समानान्तर सरकारी पंजीमें लोरमी को विवाद रहित गाँव के रूप मे दर्ज करवाना एक बेहद ही चुनौती भरा काम है. इस चुनौती का सामना करने के लिए ही बाबू जी ने दो उपकरण विकसित किए हैं- एक लड़ईय्ये का हौवा और दूसरी झूठी हंसी का खेल. अपने द्वारा कराई गई हत्याओं का ठीकरा बाबू जी तथाकथित लडइय्योंके सिर पर फोडते हैं. इसका उन्हें दुहरा फायदा है एक तो यह कि लडइय्योंकी आड़ मेंउनके कुकर्म छुप जाते हैं और दूसरा फायदा यह कि इस नाम पर उन्हें प्रशासन और व्यवस्था की सहानुभूतियाँ भी मिलनेलगती हैं. यहाँ इस बात को भी समझा जाना जरूरी है कि लड़ईय्या जहां कथानक मेंबाबूजी के द्वारा एक हौवा के रूप में खड़ा किया जाता है वहीं लेखक इस लड़इय्योंको रक्तपिपासु व्यवस्था के  प्रतीक के रूप में पेश करता है. मतलब यह कि लेखक इस कथानक में निहित गहरे अर्थ-संदभों को खोलने-खँगालने के लिए लड़इय्यों के प्रतीक को एक प्रभावी कथा-युक्ति की तरह प्रयुक्त करता है. इस तरह लड़इय्यों के प्रतीक में हम भेंड़िए के प्रचलित मुहावरे का अर्थ विस्तार भी देख सकते हैं.

लड़इय्यों के अतिरिक्त जिस दूसरे उपकरण की चर्चा मैंने ऊपर की है,वह है- हंसी. बाबूजी द्वारा  हंसोड़ों की एक जमात तैयार करना आए दिन बड़े शहरों मे चल रहे लाफटर क्लबों से कई अर्थों में भिन्न है. बाबूजी द्वारा प्रचारित यह हंसी उनके झूठ और हत्या के व्यापार को ढंकने या यूं कहें कि उसे पकड़ मे आने से बचाने हेतु तैयार किए गए एक क्रूर सुरक्षा कवच की प्रस्तावना है. एक ऐसी झूठी और भायावह हंसी जिसका कुहासा हकीकत के आसमान को ढँक ले.  लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर कहा है,इस उपन्यास में हंसी के इस क्रूर नियोज केसाथ-साथ उसकी शिनाख्त और उसके मूलोच्छेद का भी एक जतन दिखाई देता है. रामा के चरित्र को इस जतन के प्रतिनिधि चेहरे की तरह देखा जाना चाहिए. रामा एक साहसी और सतर्क नौजवान है. वह असली और नकली हंसी के अंतर को ही नहीं समझता बल्कि वह परिवेश में बिखरे साक्ष्यों को समायोजित कर घटना के आखिरी तह तक पहुँचने का विवेक भी रखता है. तभी तो जंगल में अपनी मां की हँसुली और शास्त्री के एक मुखी रुद्राक्ष को आस पास पाकर इस सती को समझ पाता है कि उसकी मान की हत्या किसी और ने नहीं बल्कि शास्त्री नेही की थी. ईमानदारी और प्रतिरोध की ऊष्मा से धधकती उसकी छाती बट्टू की हंसी और उस हंसी के पीछे छिपी चालाकियों को बहुत गहराई से पहचानती है. रामा न सिर्फ असली और नकली हंसी के अंतर को पहचानता है बल्कि सच को छुपाने की साजिश में हंसी गई सुनियोजित हंसी का जवाब अपनी उन्मुक्त,ईमानदार और निडर हंसी से देता है. बाबू जी द्वारा यह कहने पर कि 'ई लड़ईय्या बड़ परेशान करे है रे रामा. शास्त्री जी सरीखे धरम पुरुष को चबा गया',रामा की हंसी को हम सीधे उपन्यास के पन्नों में देखें- "दबाते-दबाते भीरामा की हंसी छूट गई. छाती गुदगुदान हंसी. हंसी जो घास छीलकर पगड़ण्डी बनती है. हंसी का रास्ता जी जंगल की पगड़ण्डी से होकर मां की हँसुली तक जाता है. जंगल की महुआ टपकान हंसी. हंसी दारू है- ठप्प,ठप्प. बेसरम की झाड़ी में डुबकी हंसी जिसे उसने लड़ईय्या जाना. छूये के पानी में काही के नीचे दुलान हंसी दुबक,सुब्ब,दुबक... दुनाली की धाय के साथ आकाश की ओर फड़फड़ाकर उड़ती सफेद और काली हंसी. "रामा की यह हंसी बाबू जी की सत्ता को सीधी चुनौती है. वह बाबूजी जो बट्टू को हंसने की रणनीति सिखाते रहे,रामा की हंसी से दरक-से जाते हैं. रामा की हंसी के साथ बाबू जी के घर और तखत ही नहीं उनकी छाती और पेट के काँपने की बात कहकर उपन्यासकार ने हंसी के विरुद्ध हंसी को खड़ा कर के हंसी की परस्पर प्रतिरोधी छवि उकेरी है.

रामा न सिर्फ कुटिल हंसी के प्रतिरोध में `छाती गुदगुदान'हंसी हँसना जानता है बल्कि `रावण वाली रामलीला हंसी'की हकीकत भी जानता-पहचानता है. उसे इस बात की अच्छी पहचान है कि हंसी में कब गुदगुदाहट छिपीहोती है और कब कपट. वह इस तथ्यसे भी भली भांति परिचित है कि हंसी कैसे ऐतिहासिक तथ्यों का सृजन और आखेट करती है. समय के गर्भ में यकीन रोपने का उपक्रम हो या किसी बने-बनाए सत्य को विखंडित करने का कुत्सित खेल,रामा हंसी और उसके पीछी की सारी कूटनीति से परिचित है. तभी तो जब बट्टू बाबूजी की सीख पर उसके आगे मिसरीबाई की हत्या के सचको छुपाने की कोशिश में 'रावण की रामलीला हंसी'हँसता होता है,रामा उसे भीतर तक ताड़ जाता है. वह बट्टू की हंसी में बढ़ते कच्चेपन औरआदमीयत के महीनरेशों को पहचानता है. लेकिन बट्टू की नकली हंसी की पहचान उसे गहरे उदास कर जाती है. उसकी इस उदासी में भी निश्छल हंसी के विलुप्त होते जाने का शोकगीत छिपा है. जब सब आपको चिढ़ा रहे हों,आपका मज़ाक उड़ा रहे हों ठीक उसी वक्त असली और नकली हंसी के अंतर को पहचाना जाना एक ऐसी विडम्बना की तरफ इशारा करता है जिसके एक छोर पर विवशता है तो दूसरे छोर पर उदासी.  उदासी और विवशता का यही विरल पर दुखद संयोग 'हंसोड़ हँसुली'की स्मृति के बहाने विकल्पहीन विवशता के करुण विद्रूप को हमारे सामने उजागर कर जाता है. रामा न सिर्फ बट्टू का दोस्त है बल्कि वह उसकी मजबूरी को भी कहीं न कहीं समझता है. यही कारण है कि बट्टू की हंसी का झूउसे क्रोधित नहीं करता बेतरह उदास कर जाता है. इस तरह यह उपन्यास इस बात को भी रेखांकित करता है कि लगभग एक सी ही अलग-अलग परिस्थितियोंमें एक ही व्यक्ति भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता है जिसके पीछे सम्बन्धों की ऊष्मा औरतटस्थता दोनों ही काम करती हैं. यही कारण है कि रामा जहां बाबूजी के आगे उन्हें भीतर तक कंपा देनीवाली हंसी हँसता है तो बट्टू के आगे उदास हो जाता है. रामा की हंसी और उदासी के इन्हीं दो छोरों के बीच ही सम्बन्धों के रसायन से निर्मित विकल्पहीन विवशता का करुण विद्रूप किसी सन्नाटे की तरह चीख रहा है.

अभी जिस विकल्पहीन विवशता की बात हमने की उसका एक और दृष्टांत उपन्यास में मौजूद है- बट्टू के द्वारा रामा को जंगल जाने से बार-बार रोकना. जिस तरह रामा असली और नकली हंसी का अंतर समझता है,उसी तरह बट्टू अपने बाबू जी की हकीकत को. उसे पता है कि वक्त आने पर बाबू जी रामा को भी नहीं छोड़ेंगे. बाबू जी की इन क्रूर और कुत्सित हरकतों की आशंका के तले दबा बट्टू बार-बार रामा को जंगल जाने से रोकता है. लेकिन बाबू जी की क्रूरताओं को ठीक ठीक जानने से ही उसके भीतर एक ऐसी विवशता जड़ जमा चुकी है कि वह रामा को बार-बार उसकी जरूरतों के पूरा करने का तो भरोसा दिलाता है पर जंगल में होनेवाली हत्याओं और लड़ईय्यों की हकीकत के बारे में साफ-साफ नहीं कह पाता. एक तरफ मित्र की चिंता और दूसरी तरफ यह विवशता दोनॉमिलकर बट्टू को आत्महत्या की कोशिश के कगार तक पहुंचा देते हैं. पिता की अमानुषिक क्रूरता और मित्र की ज़िंदगीद के प्रति स्वभाविक चिंताओं के बीच एक खास तरह की किंकर्तव्यविमूढता की स्थिति बट्टू को एक संवेदनात्मक आघात की स्थिति में ले जाता है. परिणामत: ऊपर-ऊपर बाबूजी की आज्ञा मानता दीखता बट्टू मानसिक और भावनात्मक स्तर पर बाबूजी से बहुत दूर चला जाता है. बट्टू की इस मन:स्थिति से पर्दे हटाता उसी की डायरी का एक अंश- "मुझे यह गुमान न होगा, उस समय भी जब मैं मरूँगा कि मैंने सबको खोया. मैंने पिता को खोया. जब पिता खड़े होते हैं मेरे सामने तो मुझे लगता है, जैसे मैं किसी अजनबी के सामने खड़ा हूँ. जब मैं अपने पिता के साथ खिलखिलाकर हँसता हूँ, मुझे लगता है जैसे मैं पापी हूँ. उनके साथ हँसना अपने प्यार को, अपने जीवन को धोखा देना है. मुझे याद है, जब मैं छोटा था पिता अपनी मूंछ-दाढ़ी मेरे गालों और गले पर रगड़ते थे और मैं उनके साथ खिलखिलकर हँसता था. मैं पिता के साथ उसी तरह से फिर से हंसना चाहता हूँ. एक निश्छल बेलौस हंसी. पिता और पुत्र की हंसी. पता नहीं यह कौन-सी हंसी है, जो मेरे और पिता के बीच आकार खड़ी हो गई है. यकीन करो मैं अपने पिता को खो चुका हूँ. मैं इस अजनबी के साथ जाने क्यों हँसता रहता हूँ?"गौर किया जाना चाहिए किबट्टू की डायरी का यह अंश रामा को ही संबोधित है. अपने पिता के अजनबी में बदल जाने की यह त्रासदी किसी के लिए कितनी दुखद हो सकती है,इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकताहै कि बट्टू यह बात किसी से कह भी नहीं सकता,सीधे-सीधे अपनी डायरी से भी नहीं. यही कारण है कि डायरी लिखते हुये भी इन बातों को बाहर लाने के लिए वह अपने सबसे करीबी दोस्त रामा का सहारा लेता है. काश! वह अपनी ये बातें रामा से प्रत्यक्षत: कह पाता. बतौर पाठक इस तरह की कचोट उस समय भी हमारे भीतर पैदा होती है जब रामा बट्टू की हंसी का सच समझने के बावजूद उससे कुछ कहता नहीं,उदास होकर रह जाता है. आखिर क्या कारण है कि बट्टू के भीतर का मनुष्य अपनी नियति पर जार-जार रोना चाहता है लेकिन बाबू जी से विद्रोह नहीं कर पाता?आखिर वह कौन सी विवशता है जो रामा को बट्टू के आगे मुंह नहीं खोलने देती?दोनों एक दूसरे को प्यार तो करते हैं पर मित्रता की परीक्षा में खरे नहीं उतरते. कहने की जरूरत नहीं कि यदि रामा और बट्टू ने आपस में अपने मन की पीड़ा और दुविधाएँ बांट ली होती तो न रामा की हत्या होती न बट्टू की. लेकिन लेखक ऐसा नहीं होने देता. क्या यह सिर्फ एक प्रत्याशित परिस्थितिजन्य विवशता है?या फिर एक सुव्यवस्थित लेखकीय निष्कर्ष से अलग न हट पाने का लेखकीय आग्रह जो रामा और बट्टू को एक खास तरह की विवशता में धकेल एक भावनात्मक विकल्पहीनता की स्थिति रचना चाहता है,जो अंतत: एक के बाद एक कई हत्याओंका कारण बनता है. कहीं ऐसा तो नहीं किलेखक ने सबकी हत्या करने/कराने के बाद बाबूजी के भीतर उत्पन्न भावनात्मक शून्य की परिकल्पना पहले कर ली थी औरयह उपन्यास उसी नियोजित अंत का पीछा करने की कोशिश भर है?

ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऊपर बट्टू की डायरी  के जिस अंश का उल्लेख हुआ है,उसे पढ़ते हुये बाबू जी के भीतर बट्टू के लिए घृणा का भाव भरा हुआ है. आखिर किस रसायन से बना है बाबूजी का हृदय कि वे सच से वाकिफ होने के बावजूद एक झूठ को ही सच की तरह आत्मसात कर लेना चाहते हैं?उल्लेखनीय है कि डायरी के इस अंश में बट्टू बाबूजी को एक अजनबी की तरह उल्लिखित करता है,और उस अंश को पढ़ते हुये बाबूजी को भी वह अपना बेटा नहीं लगता. मतलब यह कि पिता पुत्र दोनों एक दूसरे के लिये कहीं न कहीं अजनबीपन के भाव से भरे हैं. लेकिन ऊपर से लगभग एक-सा दिखने वाला यह भाव भावनात्मक स्तर पर विपरीतधर्मी गुण-धर्म से बना है. बट्टू जिस तरह बाबूजी को अजनबी कहता है कहीं न कहीं वह उसके भीतर बाबूजी के प्रति पल रहे एक गहरे लगाव को ही दिखाता है. वह बाबूजी को मन प्राण से मानता है लेकिन उनकी स्वभावगत क्रूरताएं उसे एक अलग तरह की मन:स्थिति में ले जाती हैं,जिसके मूल में सिर्फ और सिर्फ दुख है – अपने प्रिय पात्र की मनुष्योचित संवेदनाओ के सूखते जाने को दर्शक की भांति देखते रहने की विवशता से उत्पन्न दुख! लेकिन बाबू जी के भीतर उत्पन्न बट्टू के लिए अजनबीयत के भाव के मूल में उनके भीतर उसके लिए पल रहा घृणा का वह भाव है जो उनके सपनों के धराशायी हो जाने के कारण पैदा लिया है. इस तरह यह उपन्यास पिता-पुत्र के संबंधों में दिन-ब दिन हो रहे एक बेहद ही चिंतनीय परिवर्तन का द्योतक है जो भूमंडलोत्तर आचारगत जटिलताओं को बहुत ही सूक्ष्म तरीके से उभारता है – वे जानते थे कि बट्टू बहुत कुछ जानता है. वे जानते थे कि वे और बट्टू उस तरह से पिता और पुत्र नहीं हैं, जैसे कि दूसरे पिता-पुत्र होते हैं. उन दोनों के बीच नाउम्मीदी थी. वहाँ अविश्वास, दुख और अंधेरा था. इतना अंधेरा कि बट्टू ने खुद को खत्म कर लेना ही श्रेयस्कर समझा. इतना अंधेरा कि बाबू जी को अब डर लग रहा है. बाबू जी को कभी डर नहीं लगा. पर यह डायरी, इस डायरी के शब्द उन्हें डरा रहे हैं. पिता-पुत्र के नैसर्गिक रिश्तों के बीच फैला यह अंधेरा,अविश्वास और नाउम्मीदी किस हद तक सफल और प्रभावोत्पादक है यह एक बहस का विषय हो सकता है लेकिन इस तथ्यसे तो नहीं इंकार किया जा सकता न कि सत्ता के सपनों का सफर बहुत सारे रस-रसायनों को सोखता चलता है?

सामाजिक राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए एक  तरफ जहां बाबूजी जैसे लोग हर प्रकार की मासूमियत और मनुष्यता के मूल्यों की हत्या करते चलते है,वहीं उपन्यास में रामू की मां मिसरी बाई और बट्टू की मां भी हैं, जिनका होना न सिर्फ मां-बेटे के सम्बन्धों को एक अलग कोण से देखने का स्पेस मुहैया कराता है, बल्कि पारिवारिक ताने-बाने में स्त्री की हैसियत को भी रेखांकित कर जाता है. हर व्यक्ति,व्यवहार और रिश्ते का एक वर्गीय चरित्र भी होता है या यूं कहें कि हमारी वर्गीयता भी हमारे व्यवहार आदि को निर्धारित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. बट्टू और रामा की मां के बीच के अंतर से भी इस सत्य को परखा जा सकता है. बट्टू की मां जहां एक लाचार और विवश स्त्री के रूप में सामने आते है वहीं रामा की मां का व्यक्तित्व एक दृढ़और मजबूत महिला का है. इन दोनों चरित्रों के अंतर के पीछे कहीं न कहीं उनकी वर्गीय पृष्ठभूमि की भी भूमिका है. मिसरी बाई जहां एक निम्नवर्गीय आदिवासी महिला है वहीं बट्टू की मां एक उच्च मध्यमवर्गीय स्त्री. अभाव जहां हमें माँजता है वहीं मध्यमवर्गीय सुविधाभोगिताहमें लगातार चेतनाशून्य करती चलती है. यही कारण है कि मिसरी बाई जहां अपने बेटे को लगातार यह सीख देती है कि बट्टू चाहे जितना भी पैसा दे,लकड़हारी मत छोडना,वहीं रामा की मां लड़ईय्ये की हकीकतजानते हुये भी तबतकचुप रहती है जबतक कि खुद उसका बेटा उसका शिकार नहीं हो जाता. आस-पड़ोस और समाज में लगी आग से बेफिक्र मध्यवर्ग तबतक नहीं जागता जबतक कि खुद उसके घर में आग न लग जाये. लेकिन कई बार जागते-जागते बहुत देर चुकी होती है. बट्टू की मां के जागते-जागते यह देर हो चुकी थी. तभी तो उनकी चीख-पुकार घर की चाहारदीवारी से बाहर नहीं जाती और एक दिन वह चूहा मारने के लिए लाई संखिया खाकर अपनी जान दे देती है. इसके विपरीत जब बट्टू रामा से जंगल न जाने को बार-बार कहते हुये उसकी जरूरतों का ध्यान रखने की बात करने के बावजूद रामा उस बात नहीं मानता कारण कि उसके भीतर मां की सीखें गूँजती हैं – भले बट्टू लता रहे खाने का समान, दारू और पैसा, पर तू बिना नागा रोज लकड़ी बेचना.मिहनत और मिट्टी की आंच में तापी उस मां की सीख का ही नतीजा है कि बार-बार जंगल न जाने की हिदायत और जीवन की दुहाई देते बट्टू को रामा का एक ही जवाब है – तुम्हारे लिए
जीवन बड़ा है,मेरे लिए लकड़ियाँ काटनाध्वनि,रंग और पर्यावरण से हंसी की तुलना के बीच मिहनत का यही तेज है जिसकी रोशनी में एक लकड़हारे की यह जिजीविषा जीवन से भी बड़ी दिखने लगती है. जीवन और जिजीविषा का यही कदमताल इस उपन्यास को विशेष बनाता है.

(यह लेख आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य  राकेश बिहारी की  आलोचना पुस्तक 'भूमंडलोत्तर समय में उपन्यासमें शामिल है.)
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कथाकार और युवा आलोचक राकेश बिहारी द्वारा भूमंडलोत्तर कहानी पर  लिखी जा रही विवेचना- श्रृंखला को आप समालोचन पर पढ़ सकते हैं.

मंगलाचार : गौतम राजरिशी

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ग़ज़ल कविता का ऐसा ढांचा है जो ब-रास्ते फारसी से होते हुए दुनिया की अधिकतर भाषाओँ में मकबूल है. हिंदी को यह तोहफा उर्दूं की सोहबत से हासिल है या यूँ  कहें की जब हिंदी और उर्दूं एक थे और हिन्दवी आदि नामों से उन्हें जाना जाता था, तब शेरों और ग़ज़लों को दोनों एक साथ गाते-गुनगुनाते थे. यह लत तभी की है. हिंदी में गजलें खूब कही जा रही हैं.

पेशे  खिदमत है गौतम राजरिशी की गज़लें



गौतम राजरिशी की गज़लें                                                                       



बात रुक-रुक कर बढ़ी, फिर हिचकियों में आ गई
फोन पर जो हो न पायी, चिट्ठियों में आ गई

सुब्‍हदो ख़ामोशियों को चाय पीते देख कर
गुनगुनी-सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गई

ट्रेन ओझल हो गई, इक हाथ हिलता रह गया
वक़्ते-रुख़सत की उदासी चूड़ियों में आ गई

अधखुली रक्खी रही यूँ ही वो नॉवेल गोद में
उठ के पन्नों से कहानी सिसकियों में आ गई

चार दिन होने को आये,कॉल इक आया नहीं
चुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई

बाट जोहे थक गई छत पर खड़ी जब दोपहर
शाम की चादर लपेटे खिड़कियों में आ गई

रात ने यादों की माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, उँगलियों में आ गई

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कुछ करवटों के सिलसिले,इक रतजगा ठिठका हुआ
मैं नींद हूँ उचटी हुई,तू ख़्वाब है चटका हुआ

इक लम्स की तासीर है तपती हुई,जलती हुई
चिंगारियाँ सुलगी हुईं,शोला कोई भड़का हुआ

इक रात रिमझिम बारिशों में देर तक भीगी हुई
इक दिन परेशां गर्मिए-जज़्बात से दहका हुआ

कुछ वहशतों की वुसअतें,पहलू-नशीं कुछ उलफतें
है उम्र का ये मोड़ आख़िर इतना क्यूँ बहका हुआ

ये जो रगों में दौड़ता है इक नशा-सा रात-दिन
इक उन्स है चढ़ता हुआ,इक इश्क़ है छलका हुआ

जानिब मेरे अब दो क़दम तुम भी चलो तो बात हो
हूँ इक सदी से बीच रस्ते में तेरे अटका हुआ

दिल थाम कर उसको कहा “हो जा मेरा !” तो नाज़ से
उसने कहा “पगले ! यहाँ पर कौन कब किसका हुआ ?”


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हवा ने चाँद पर लिखी जो सिम्फनी अभी-अभी
सुनाने आई है उसी को चाँदनी अभी-अभी

कहीं लिया है नाम उसने मेरा बात-बात में
कि रोम-रोम में उठी है सनसनी अभी-अभी

अटक के छज्जे पर चिढ़ा रही है मुँह गली को वो
मुँडेर से गिरी जो तेरी ओढनी अभी-अभी

थी फोन पर हँसी तेरी, थी गर्म चाय हाथ में
बड़ी हसीन शाम की थी कंपनी अभी-अभी

मचलती लाल स्कूटी पर थी नीली-नीली साड़ी जो
है कर गई सड़क को पूरी बैंगनी अभी-अभी

सितारे ले के आस्माँ से आई हैं ज़मीन पर
ये जुगनुओं की टोलियाँ बनी-ठनी अभी-अभी

है लौट आया काफ़िला जो सरहदों से फ़ौज का

तो कैसे हँस पड़ी उदास छावनी अभी-अभी
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gautam_rajrishi@yahoo.co.in

बात - बेबात : कवि जी : राहुल देव

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एक सीधे -सादे नागरिक से जब स्थानीय 'महाकवि'मिलता है तब उसकी क्या दशा (दुर्दशा) होती है ?
उम्मीद (आशंका) है  कि ऐसे महाकवि आपके नगर- कस्बे में भी होगे - आप बच कर रहे - 'खुदी'हाफिज़.
राहुल देव का एक जोरदार व्यंग्य .



छुट्टी का दिन और एक महाकवि का साथ

राहुल देव


ल कविनगर में रहने वाले एक कवि मित्र राह चलते मिल गये. वैसे हमारे यह मित्र अभियांत्रिकी में परास्नातक हैं और कमाऊ विकास प्राधिकरण में इंजिनियर हैं. कविता से इनका दूर दूर तक कोई नाता नहीं था. गलती से एक बार यह मेरे साथ एक कवि सम्मलेन में चले गये. लौट कर आए, सोये और अगली सुबह कवि हो गये. पाश कालोनी में बड़ा सा फ्लैट, पांच अंकीय वेतन, दो नटखट बच्चे और पतिव्रता पत्नी संग बहुत मौज से जीवन चल रहा था कि एकाएक इनके परिवार में हिंदी साहित्य का नया अध्याय शुरू हुआ.

हमारे इन कवि मित्र का असली नाम है चिरौंजीलाल लेकिन शहर की टूटपूंजिया काव्य परिषद् द्वारा साहित्य भूषण सम्मान से अपमानित किये जाने के बाद से जनाब साहित्य शिरोमणि साहित्य भूषण महाकवि चिरंजीव कुमार उर्फ़ ‘चिंटू’ कहाए जाते हैं. कुछ लोगों ने इनको चढ़ाचढ़ा कर इतना ऊपर चढ़ा दिया है कि अब शहर का कोई भी आयोजन इनके बिना अधूरा ही रहता है. चिंटू जी को भी यह ग़लतफ़हमी हो गयी है कि अब इनके बिना हिंदी साहित्य का काम नहीं चल सकता.

चिंटू जी उच्च पद पर होने के कारण पहले ही शहर के सम्मानित व्यक्तियों में से थे . महाकवि बनने के बाद उन्होंने अपने आप को और महत्त्वपूर्ण दिखाना शुरू कर दिया है. मुझे देखते ही उन्होंने अपनी चिरपरिचित मुस्कान फेंकी बदले में मैंने भी मुस्करा कर कहा- और भाई चिरौंजी क्या हालचाल हैं ? यह सुनते ही वह पगलाए सांड की तरह बिदक गये, बोले- यार हद करते हो, पूरा शहर जानता है कि मेरा नाम बदल गया है और एक आप है जो कि हमारे मित्र होने के बावजूद चलते फिरते हमारी मिट्टी पलीद किया करते हैं. मैंने उन्हें शांत करते हुए कहा, क्षमा करना आदरणीय भाई चिरंजीव जी, और सब कुशल-मंगल ! नाम रुपी सम्मान का यह छोटा डोज पाकर उनका मुरझाया हुआ चेहरा फिर से खिल उठा.

मैं अपने घर से किसी जरूरी काम के लिए निकला था. मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं यह मुझे अपने घर की ओर न घसीट ले जाए. मैं जैसा सोच रहा था ठीक वैसा ही हुआ. उन्होंने कहा- चलो आओ, घर चलते हैं बहुत दिन हुए आपके साथ बैठकर चाय पिए हुए. मैं कहा-फिर कभी,आज थोड़ा जल्दी में हूँ. लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और मेरी बांह पकड़कर अपने घर की ओर यूँ चल दिए जैसे कोई कसाई बकरे को जिबह करने कसाईबाड़े की ओर ले जाता है. मैंने मन ही मन सोचा आज बुरे फंसे ! लगता है गया आज का पूरा दिन. वह मानो मेरे मनोभावों को ताड़ गये और बोले क्या बताऊं आज छुट्टी का दिन था मैं किसी को ढूंढ ही रहा रहा अपनी कवितायेँ सुनाने के लिए कि घर से निकलते ही आप मिल गये. मैं मरता क्या न करता. मैं चिंटू जी को चाहकर भी मना भी नही कर पाया था क्योंकि मुफ़लिसी के इस कठिन दौर में उनके प्राधिकरण में बड़ी मुश्किल से ख़रीदा गया मेरा प्लाट पिछले एक महीने से लटका हुआ था. एक उनको छोड़कर मेरा उस कार्यालय में जानने वाला है ही कौन. और आजकल किसी भी सरकारी कार्यालय में बिना जान पहचान के कोई भी काम जल्दी नहीं होता.

घर आकर चिंटू जी अन्दर वाले कमरे में अपनी डायरी लेने चले गये. उनकी श्रीमती जी मेरे सामने चाय का प्याला रख गयीं. मैंने उन्हें देखकर नमस्ते भाभी जी का जुमला उछाल मारा. उन्होंने भी बदले में एक कुटिल मुस्कान फेंकी मानो कहना चाहती हों वाह बच्चू तो आप हैं आज के मुर्गें. मैंने चाय पीने के लिए प्याला उठाया ही था कि चिंटू जी अपनी कविताओं की पांडुलिपि के साथ प्रकट हुए. मैंने उनकी प्रशंसा में कहा, आजकल तो खूब छाए हुए हैं आप. हर गोष्ठी, पत्रिका और अखबार में जहाँ नज़र उठाओ आप ही आप नज़र आते हैं बस. वह गद्गद होते हुए बोले, अरे खाली चाय पी रहे हैं आप. अरी सुनती हो... कुछ नमकीन वगैरह भी हो तो ले आओ. भाई साहब हमारे बहुत ख़ास मित्रों में से हैं. कुछ देर बाद उनकी नौ वर्षीय लाडली आँख मिचमिचाते हुए एक प्लेट में नमकीन लेकर आ गयी. मैंने कहा- कितनी प्यारी बच्ची है. किस कक्षा में पढ़ती है.

उन्होंने कहा अरे भाई साहब क्या बताएं एडमिशन तो इसका फ़लाना कान्वेंट में कराना चाहता था लेकिन कम्बखत पढ़ने में मन ही नहीं लगाती. बड़ी मुश्किल से कह सुन के ढमाका कान्वेंट में डाला. आजकल की महंगाई में बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाना किसी तपस्या से कम नहीं. स्कूल की फीस दो फिर ट्युशन की फीस दो. तुम्हारी भाभी को भी मेरठ के एक कॉलेज से बीएड का फॉर्म डलवा दिया है. हालांकि तुम्हारी भाभी जी मैनेजमेंट में पोस्टग्रेजुएट हैं लेकिन अब इस उम्र में कहाँ प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करेगी यह सोचकर बीएड कराना सही समझा. पूरे एक लाख दिए तब जाकर प्रबंधन कोटे से एडमिशन हुआ. लग रहा है अब यह भी घर बैठे बैठे सरकारी मास्टरनी हो जायेगी. यों कहकर वह दांत निकालकर खीं खीं खीं कर हंसने लगे. फिर अपने अल्सेशियन कुत्ते को पुचकारते हुए मेरी तरफ देखकर बोले- क्या कहते हो, तुम भी अपनी मैडम को ऐसे ही कुछ क्यों नहीं करवा देते. आजकल घर में एक जने की कमाई से होता क्या है. मैंने गरदन हिलाते हुए कहा- हाँ, क्यों नहीं, जरूर देखूंगा. फिर मुझे कुछ असहज देखकर उन्होंने कहा कि अगर आपको गरमी लग रही हो तो अन्दर कमरे में चलें. एसी है अपने यहाँ अभी पिछले सीजन में ही तुम्हारी भाभी की जिद पर लगवाया है. वो क्या है न कि इसके पिता यानि मेरे ससुर जब भी अमेरिका से आते हैं तो बगैर एसी और बिजली के उनका बुरा हाल हो जाता है. सब अपना अपना शौक है वरना हम तो दिन भर दफ्तर में पैसों की गर्मी के बीच बेचारे कूलर से ही अपना काम चला लेते हैं. ही...ही..ही.. अब आप तो घर के ही हैं, आप से क्या छुपाना. आप को तो सब मालूम ही है. ही...ही..ही. बिजली बैकअप के लिए इन्वर्टर भी रख छोड़ा है. इन बिजली वालो का भी कोई भरोसा नहीं .

हाँ तो भाई जी अब बाकी बेकार की बातों को छोड़ो और कुछ साहित्य-वाहित्य हो जाए. आप को तो पता ही होगा कि आजकल अच्छे साहित्य की कदर करने वाले न तो प्रकाशक रहे और न ही संपादक. सब तरफ कूड़ा ही कूड़ा बिखरा पड़ा है. पिछले डेढ़ साल से मेरे 4 महाकाव्य, 6 खंडकाव्य और 5 प्रबंधकाव्य की पांडुलिपियाँ अप्रकाशित पड़ी हुईं हैं. इनके प्रकाशन के लिए मैंने राजधानी के कई प्रकाशकों से बात की लेकिन सबने काम अधिक होने का बहाना करके एक स्वर में मना कर दिया. मैं भी कहाँ हार मानने वाला था. मैंने अपनी पांडुलिपियों में दर्ज अपनी कालजयी रचनाओं को लोकल साप्ताहिक ‘जन-जन की आवाज़’ में उन्हें धारावाहिक छपवाया. आपने भी देखा हो शायद. आखिर लोगों को भी तो पता चले कि उनके शहर में कैसी हस्ती रहती है. वो बात अलग है कि इसके एवज में उस अखबार में संपादक को प्राधिकरण का सालाना विज्ञापन दिलाना पड़ा. लेकिन आप ही बताइए क्या गलत किया मैंने आखिर ताली एक हाथ से तो बजती नहीं. संपादक काइयां था तो मैं क्या कम चालाक था. मैंने तो पहले ही सोच रखा था. मैंने अपना सम्पूर्ण साहित्य उसके पेपर में छपवा डाला. उनको टोकते हुए बीच में मैंने आग में घी डालते हुए कहा- लेकिन भाई साहब आप तो अपनी किताबें किसी नामी प्रकाशक से छपवाने वाले थे. उन्होंने एक लम्बी साँस लेकर कहा अमा तुमने क्या मुझे कच्चा खिलाड़ी समझ रखा है. मैं इधर अपने नेताजी पर एक प्रशस्ति ग्रन्थ लिख रहा हूँ. एक राज़ की बात आपको बता रहा हूँ किसी से कहिएगा नहीं दरअसल पिछली दफा जब मैं प्रदेश की दूसरी राजधानी गया था तो मैं वहां नेता जी से मिला. उनके एक करीबी ने मुझे यह सुझाव दिया था कि अब मेरी किताबें नेताजी ही स्पांसर कर सकते हैं. उनको खुश कर सकूँ तो इस दुनिया में कुछ भी मिलना नामुमकिन नहीं. बस इस प्रशस्ति ग्रन्थ का आईडिया वहीं से आया. अब तो बस आप देखते जाओ आगे-आगे होता है क्या. मैंने भी कुछ आश्चर्य भाव दिखाते हुए अपना दायाँ हाथ हवा में घुमाकर कहा- भई वाह, आपका भी जवाब नहीं.

चिंटू जी अपनी झूठी प्रशंसा सुन के बहुत खुश थे. मैंने सुन रखा था कि एक बार एक गोष्ठी में एक आलोचक ने उनकी आलोचना कर दी थी तब क्रोधित होकर उन्होंने उसके सिर पर अपना माइक दे मारा था, बेचारा डेढ़ महीने अस्पताल में रहा. इसलिए भी मैं सावधान था. इस ख़ुशी में अपने छप्पन इंच के सीने को फुलाकर महाकवि चिंटू जी आगे बोले- वैसे मैंने इधर के दो हफ़्तों में कुछ नई कुण्डलियाँ, 45 घनाक्षरी, 56 रोले, 36 सोरठा, 24 छप्पय, 16 ग़ज़लें, 15 गीत और 84 दोहे लिखे हैं जिन्हें मैं आज आपको सुनाऊंगा. वो क्या है न की मैं किसी एक विधा में ठहर कर नहीं लिख पाता और नई कविता यानि कि फ्री वर्स मैं तो बिलकुल नहीं लिख पाता. दरअसल बुरा न मानिएगा लेकिन फ्री वर्स को मैं कविता ही नहीं मानता. मैंने मन ही मन में सोचा आपके मानने न मानने से क्या फर्क पड़ता है. उन्होंने आगे कहा- मेरी इन बेशकीमती काव्य रचनाओं में भगवान् की भक्ति हैं, श्रृंगार है, प्रकृति का मनभावन चित्रण है, भारतीय सभ्यता और राष्ट्रीय संस्कृति है, हर तरह के रस, छन्द और अलंकार को साधने की मैंने कोशिश की है. अब ज्यादा क्या कहूँ. 

मेरी कविताओं की धार से तो आप भलीभांति परिचित ही हैं. यह तो कहो अपनी पारी कुछ देर बाद शुरू हुई नहीं तो कबके साहित्य अकादेमी वाले घर आके पुरस्कृत कर दिए होते. अभी पिछले ही दिनों अपने संस्कृति मंत्री के रिश्तेदारों के 6 फ्लैट वसुंधरा कालोनी में एलाट करवाए तो मंत्री जी भी बड़ा खुश हुए और बोले की चिरौंजी इस बार हिंदी संस्थान का साहित्य श्री पुरस्कार तुमको, हमारी तरफ से. इसे कहते हैं कवियों की इज्जत और नहीं तो क्या समझ लिए. एक आप अपने को देख लो क्या उखाड़ लिए आप मजदूर, किसान और बोले तो प्रगतिशील कविता लिख लिख के भला. आप से बाद में हम आए इस फील्ड में और आप खुद ही देख लीजिये आज मैं कहाँ हूँ और आप कहाँ ? सब माता लक्ष्मी और माता सरस्वती जी की कृपादृष्टि का परिणाम है वरना मैं क्या हूँ, हे...हे..हे.... इस तरह चिंटू जी अपनी पिछले कई हफ़्तों से दबी हुई राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक भड़ास का वमन मेरे ऊपर नॉनस्टॉप करते चले गये. या यूँ कहिये कि बस आगे-आगे वह फेंकते गये और पीछे-पीछे मैं लपेटता गया . दिमाग और दिल के इस खेल में आख़िरकार मैंने दिमाग से काम लिया और चुपचाप उनकी काव्यरुपी अग्निवर्षा को सहता रहा. अंत में मैंने आसमान की ओर मुंहकर मन ही मन कहा, हे ईश्वर ! ये तू किस जन्म का बदला निकाल रहा है मुझसे.

अपनी प्रार्थना समाप्त कर मैंने देखा महाकवि चिंटू जी के श्रीमुख से उनके एकल काव्यपाठ का अंतिम दोहा अपनी पूरी रफ़्तार के साथ पर्याप्त मात्रा में थूक की फिचकार के साथ निकला और मेरे थोबड़े को ऊपर से नीचे तक भिगो गया. मैंने रूमाल से अपना चेहरा पोंछते हुए उन्हें धन्यवाद कहा. चिंटू जी ने अपने लड़के को आवाज़ लगाकर फ्रीज़ की ठंडी बोतल मंगवाई. पानी की पूरी बोतल गटागट गले से नीचे उतारने के बाद उन्होंने मेरी ओर देखा और निर्दयता से पूछा- कैसा लगा ? मैं गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच रहा था लेकिन फिर कुछ सोचकर मैंने समझदारी से काम लिया. मैंने चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट लाते हुए कहा- भई वाह ! बहुत खूब ! मज़ा आ गया आज तो !! आपके चरण कहाँ हैं महाकवि !!! मैंने अपनी शारीरिक भावनाओं को नियंत्रित किया हुआ था लेकिन मन ही मन ही उनको खूब गरियाया. अगर प्लाट कन्फर्मेशन का चक्कर न होता तो कसम से मेरी चप्पल और चिंटू जी का उजड़ा चमन दोनों की जुगलबंदी आज हो ही गयी होती. कुल मिलाकार कहूँ तो बेबसी, गुस्सा और हंसी का मिलाजुला भाव था. उनकी दो कौड़ी की कविताओं को मैंने कैसे झेला इसका दर्द मैं ही जानता था. 

कुछ भी हो लेकिन उनके लिखने की स्पीड देखकर मैं दंग था हालाँकि इस धुआँधार स्पीड में वे क्या लिख रहे थे इसे वे शायद स्वयं नहीं जान पा रहे थे. हाँ आज अगर तुलसी, सूर, कबीर, बिहारी जीवित होते तो इनकी काव्यप्रतिभा को देखकर जरूर इन्हें अपना गुरु घोषित कर दिए होते. खैर लगभग दो घंटे भर की उनकी बकवास सुनते सुनते मेरा दिमाग सुन्न होने लगा था. जब रहा नहीं गया तो मैंने कह ही दिया- अच्छा तो अब आज्ञा दीजिये. किसी तरह जान छुड़ाकर मैं वहां से भागा और फिर कभी उनके घर के रास्ते से न गुजरने की कसम खाई. उन्होंने चलते-चलते यह भी कहा कि प्लाट कन्फर्म होने पर मैं उनकी मिठाई न भूलूं और गृहप्रवेश पर पूजा पाठ के साथ शाम को एक कवि गोष्ठी भी जरूर रखूं जिसकी अध्यक्षता वे करें. यह एक नया प्रयोग होगा. जाते जाते उन्होंने आवाज़ लगाई कि फिर कभी मैं सपरिवार भी उनके यहाँ तशरीफ़ लाऊं. लेकिन मैं वहां से ज्यों निकला कि फिर वापिस मुड़कर नहीं देखा, सीधा घर आकर ही दम लिया.

इस भागमभाग में मैं किस काम से निकला था यह भी भूल चुका था. घर लौटकर पत्नी ने मेरा हाल-बेहाल देखा तो पूछा कहाँ चले गये थे ? क्या ओलम्पिक में दौड़ लगा रहे थे क्या. मैंने कहा अरी भागवान जा अन्दर जाकर एक गिलास ठंडा पानी ला और कुछ मत पूछ तेरे इस मकान के चक्कर में मुझे आजकल क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. राम बचाए ऐसे कवि और उनकी कविताओं से. मारा बेड़ागर्क कर डाला ऐसे नामुरादों ने हिंदी कविता का. वैसे ऐसे कवि इस देश के अमूमन हर गाँव-कस्बों-शहर में पाए जाते हैं जिन्हें उनके क्षेत्र के दायरे से बाहर कोई नहीं जानता. इनकी साहित्य की समझ पर मुझे तो तरस आता है और आपको !
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संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर 261203
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मो. 09454112975

रंग - राग : सनी लिओने : विष्णु खरे

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किसी भी व्यस्क समाज में यौन – विषयों को सहजता से लेने की नैतिकता रहती है. कामसूत्र के देश से इतने साहस की उम्मीद आज भी किया जाना चाहिए कि वह कला के किसी भी ऐसे विषय से आखँ नहीं चुराएगा. विष्णु खरे ने सनी लिओने के होने से भारतीय समाज में उठ रहे सवालों पर लिखा है – उम्मीद है कि कभी वह इस पर और विस्तार से लिखेंगे.


सनी लिओने से खड़े होते सवाल                      

विष्णु खरे 




क्या मेरे अनेक भ्रमों में एक यह भी है कि सनी लिओने पर,जिन्हें आप उघड़ेपन की एक पराकाष्ठा के साथ अपनी हिन्दू-भारतीय पसंद, रुझान या मौक़े के मुताबिक़ ‘’भाभी’’,’’दीदी’’,’’आंटी’’ या ‘’साली-सलहज’’ आदि कहने-मानने को स्वतंत्र हैं, अपने देश और समाज में ढंग से कोई बात ही नहीं हुई है ?


अधिकांश लोग पलटकर पूछ सकते हैं कि यह सनी लिओने कौन है और मुल्क व जनता उस पर चर्चा क्यों करें ? यह कोई नाराज़गी-भरा नहीं,बल्कि सच्चा और मासूम सवाल भी हो सकता है क्योंकि आप उम्मीद नहीं कर सकते कि अपने फिल्म-दीवाने देश में भी सभी सवा-सौ करोड़ बाशिंदे सभी फ़िल्में देखते हों, उनके एक्टरों की फिल्मेतर, निजी ज़िंदगी के ब्यौरे जानते हों.

लेकिन भारतीय सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति के मामलों में ऐसी नाउम्मीदगी से काम नहीं चलता. यहाँ सब-कुछ पब्लिक है, प्राइवेट कुछ भी नहीं. सिनेमा की दुनिया तो अब खुद एक ऐसी फिल्म बन गयी है जो बड़े-छोटे परदे के सीमित संसार से परे कभी ख़त्म नहीं होती और जिसमें कभी इंटरवल नहीं होता. बीच में से छोड़कर चले जाइए, जब भी आप लौटेंगे लगेगा वहीं से गए थे. यह फिल्म जितनी चलती है उतनी ही पिछली-जैसी होती जाती है.

जिन्हें पहले हिंदी में ब्ल्यू फ़िल्में या ‘’नीले फ़ीते का ज़हर’’ कहा जाता था अब वह ‘पोर्नोग्राफ़िक’ फिल्मों या उनके संक्षिप्त नाम ‘’पॉर्न’’ से जानी जाती हैं. उन दिनों उन्हें रखना, देखना अपराध तो था ही, अनैतिक और शर्मनाक कर्म भी था, हालाँकि करोड़ों भारतीय उन्हें देखना चाहते थे और किसी तरह विदेश पहुँच गए तो उनका सबसे पहला ‘’एडवेंचर’’ ब्ल्यू फिल्म या ‘’लाइव सेक्स’’ शो देखना ही होता था. भारत में लाइव सैक्स शायद अब भी अत्यंत निजी महफ़िलों में मुमकिन हो, पॉर्न किसी भी शहर में किलो के भाव से खरीदना संभव है.

सनी अमेरिका की इसी पॉर्न इंडस्ट्री की प्रॉडक्ट है. उसके माता-पिता दोनों भारतीय सिख थे और वह ख़ुद, जिसका असली पंजाबी नाम करनजीत कौर वोहरा है,स्वयं को सिखणी कहती है लेकिन वह 1981 में कनाडा में पैदा हुई, पली-बढ़ी और जब किशोरी थी तभी से उसके यौन-रुझान उभयलिंगी थे और चौदह वर्ष की उम्र में उसका कौमार्य-भंग हो चुका था. संकोच और लज्जा के कारण उसने पहले सिर्फ़ समलैंगिक ‘लैस्बियन’ फिल्मों में काम किया और कुछ वर्षों के बाद ही वह पूर्णतः पॉर्न फ़िल्मों में आई. वह इस फ़ील्ड में सफल होनेवाली पहली भारतीय-पंजाबी नवयुवती थी. करोड़ों कद्रदानों के लिए सनी लिओने एक अभूतपूर्व ‘एक्सोटिक’ जिस्म थी. पंजाबी-सिख-भारतीय विवस्त्र माँसलता और भफाती हुई ‘सैक्सुएलिटी’ का ऐसा उन्मुक्त प्रदर्शन  पहले कभी देखा नहीं गया. भारत में पहले कुछ जानकार प्रशंसकों ने उसे एक ‘रिएलिटी शो’ में आमंत्रित किया और फिर बम्बइया सिनेमा के  एक नव-नैतिकतावादी बाप-बेटी ने उसे एक फिल्म में ‘’एक्टिंग’’ का ऑफर दे ही डाला. लगता है यह सब एक रणनीति के तहत किया गया. तब से पॉर्न एक्टर सनी लिओने एक भारतीय हिन्दीभाषी अभिनेत्री है.

यह नहीं कि सनी ने अपना असली पेशा तर्क कर दिया है. वह सौ से भी अधिक पॉर्न फ़िल्मों में अदाकारा या निर्मात्री के रूप में आ चुकी है, हर वर्ष लौट कर वैसी फ़िल्में डायरेक्ट या प्रोड्यूस करती है और करोड़ों डॉलरों के अपने इस निजी धंधे के हर अंग से जुड़ी हुई है. वह यह मुफ़ीद पेशा छोड़ नहीं सकती. उसका अपना वेबसाइट भी है जिसकी पचास डॉलर वार्षिक सदस्यता लेकर आप उसके शरीर के अंतरंगतम लोमहर्षक गोशे-गोशे तक जा सकते हैं और पचासों स्त्री-पुरुषों के साथ ‘’कामसूत्र’’ और खजुराहो को बचकाना और शर्मिंदा करती हुई सभी अजाचारी, मार्की द सादीय, सोडोम और गोमोर्रा मुद्राओं में उसे देख सकते हैं. जब से वह भारत आई है, लाखों पॉर्न-प्रेमी हिन्दुस्तानी उसके नए दर्शक बनते जा रहे हैं. वह अब तीस वर्ष से ऊपर की होने को आई,जब इस तरह की महिलाएं अपने अधेड़ ढलान के पास पहुँचती समझी जाती हैं.

कैमरे के सामने खुल्लमखुल्ला कई अजनबी स्त्री-पुरुषों के साथ कई तरह से सम्भोग करना, फिर इस तरह बनाई गई फिल्मों की लाखों सी.डी. संसार भर में बेचना, उन्हें स्थायी रूप से किराए पर ब्लॉग पर डालना – क्या यह वेश्यावृत्ति नहीं कहा जाएगा ? क्या लाखों नाबालिग़ उन्हें रोज़ नहीं देखते ? क्या इसका बचाव किसी भी नैतिकता से किया जा सकता है ? क्या भारत में सनी को गिरफ़्तार किया जा सकता है ? यह ठीक है कि हर बालिग़ स्त्री-पुरुष को अपने शरीर का कोई भी इस्तेमाल करने का अधिकार है, लेकिन उसके भी क़ानून हैं. तब क्या हम सनी लिओने को एक ‘’सैक्स वर्कर’’ कह-मान सकते हैं ? लेकिन कौन-सी ऐसी असल सैक्स-वर्कर होगी जो अपने श्रम का वीडिओ बनाने देगी और उसे पालिका-बाज़ार में बेचने देगी ? बल्कि सारे संसार में ? क्या हम सनी लिओने को लाखों-करोड़ों ग़रीब और मजबूर सैक्स-वर्करों से अधिक चालाक, निर्लज्ज और ख़तरनाक वेश्या, या  बदतर न माने ? उधर विडंबना यह है कि सनी के स्तर की कुछ भारतीय तारिकाएँ वेश्यावृत्ति के आरोप में पकड़ी गई हैं.

हमारे समाज की ‘’थर्ड पेजक्रीमी लेयर’’ में और याहू-इन्टरनैट पर ऐसे प्रि- और पोस्ट-पेड  दलाल-तत्व सक्रिय हैं जो सनी लिओने को एक प्रतिभा-संपन्न भद्रमहिला और अभिनेत्री बनाने पर आमादा हैं जैसे शबाना आज़मी और तब्बू के बाद सनी का ही नंबर हो. अभी उसकी किसी  ‘’पारिवारिक’’ फिल्म को भी सशुल्क तूल दिया जा रहा है मानों निरूपा राय या मीना कुमारी की रूह की वापिसी होने वाली है. लेकिन सभी जानते हैं कि वह तीसरे दर्ज़े की एक्ट्रेस भी नहीं है और उसके साथ कोई भी इज्ज़तदार ‘’फर्स्ट रेट’’ अदाकार काम नहीं करना चाहते, उसके साथ फ़ोटो खिंचवाने से भी कतराते हैं. लेकिन ‘’सनी इज़ लाफ़िंग ऑल द वे टु द बैंक’’.

यदि सनी को भारतीय समाज ने आत्मसात् कर लिया है तो उससे कुछ जटिल प्रश्न उठते हैं. हमारे मध्यवर्गीय परिवारों ने उसे कैसे लिया है ? क्या बच्चियाँ बड़ी होकर सनी आंटी जैसी बनना चाहती हैं ? क्या भारतीय  नैतिक ‘लिबरलिज़्म’ हर ऐसे मामले को लेकर अलग-अलग है? यदि हम एक पोर्नोग्राफ़िक ऐक्ट्रेस को लेकर इतने खुले हैं तो पॉर्न को अपने फ्री मार्किट में आने देने में देर या संकोच कैसा ? हर शहर में दो-तीन पॉर्न-शॉप और सिनेमा क्यों नहीं हो सकते ? सनी से बेहतर उपलब्ध फ़्रेंचाइज़ और ब्रांड-एम्बेसेडर कौन हो सकता है ?

सनी लिओने के मसले पर, यदि वह कोई मसला है तो, देश के, विशेषतः पुरुष और महिला स्त्रीवादी, चिंतक चुप क्यों हैं ? क्या उस पर कोई भी सवाल उठाना स्त्री-विरोधी प्रतिक्रियावाद,या कुछ इससे भी बुरी चीज़ है ? प्राचीन हिन्दू संस्कृति नगरवधुओं को लेकर बहुत उदार थी. क्या आज वह उदारता और खुलापन निरपवाद संभव हैं? सनी-जैसियों की आमद हिन्दू समाज और भारतीय सिनेमा को बदल भी सकती है.
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