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मंगलाचार : दर्पण साह

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पिथौडागढ़ (उत्तराखण्ड) के दर्पण साह (जन्म : 3-09-1981) की कविताएँ देखें. लोकल और ग्लोबल के बीच हमारी युवा पीढ़ी की सहज आवाजाही है. इन युवा कविताओं में हिंदी कविता का नया मुहावरा आकार लेता दिखता है. 

  

 दर्पण साह की कवितायेँ               


डॉक्टर ज़िवांगो को पढ़ते हुए

(१)

जब विश्व समाज सुधार की बात कर रहा था
जब पूरे संसार में क्रांतियाँ हो रहीं थीं
जब सारे देश जल रहे थे
और जब
एक अनंत काल तक चलने वाले युद्ध की तैयारियाँ चल रही थीं
तब मैं प्रेम में था.

वो सब मुझे धिक्कार रहे थे
मेरे इस कुकृत्य के लिए.

मुझे तब भी लगा
प्रेम सारी समस्याओं का हल है.

मैंने एक वैश्या के होठों को चूमा
और एक सैनिक की चिता में दो फूल चढ़ाए.

मैंने एक भिखारी के लिए दो आँसूं बहाए
और फिर,
मैं एक अस्सी साल के बूढ़े के बगल में बैठकर बाँसूरी बजाने लग गया.
न मैं कृष्ण था न नीरो.






(२)

अगर वादा करते हो कि ये क्रांति अंतिम है
तो भी मैं प्रस्तुत नहीं हूँ इसके लिए
क्यूँकि मुझ देखने हैं इसके दीर्घकालिक परिणाम
अगर कहते हो
ये चैन से बैठने का समय नहीं
और सारे राजनेताओं,कार्परेटों ने छीन ली तुम्हारी रोटी
तो बताओ कहाँ से खरीदे तुमने हथियार ?

जो तुम्हारी आत्महत्याओं के जिम्मेवार थे
तुम बन रहे उनकी हत्याओं के जिम्मेवार
सत्ता में जब तुम आओग
तो क्या एक और क्रांति नहीं होगी
तुम्हारे खिलाफ?
अगर तुम धर्म की खातिर लड़ रहे हो
तो बोलो
तुम्हारे ईश्वर ने क्यूँ बनाए अन्य धर्म
तुम जैसे अच्छे लोगों को ड्रग्स की डोज़ दी है तुम्हारे ईश्वर ने

बोलो कहाँ लड़ा जा रहा है संपूर्ण विश्व के लिए युद्ध
ऑल इन्कलूज़िव
सर्वजन हिताय
है एक ऐसी जगह
लेकिन उसके लिए पहले
बाँसूरी बजाना सीखना होगा





.
फ्री विल

अगस्त का महिना हमेशा जुलाई के बाद आता है,
ये साइबेरियन पक्षियों को नहीं मालूम
मैं कोई निश्चित समय-अंतराल नहीं रखता दो सिगरेटों के बीच
खाना ठीक समय पर खाता हूँ
और सोता भी अपने निश्चित समय पर हूँ
अपने निश्चित समय पर
क्रमशः जब नींद आती है और जब भूख लगती है
इससे ज़्यादा ठीक समय का ज्ञान नहीं मुझे
जब चीटियों की मौत आती है, तब उनके पंख उगते हैं
और जब मेरी इच्छा होती है तब दिल्ली में बारिश होती है
कई बार मैंने अपनी घड़ी में तीस भी बजाए हैं
मेरे कैलेंडर के कई महीने चालीस दिन के भी गये हैं
मैं यहाँ पर लीप ईयर की बात नहीं करूँगा
मुक्ति और आज़ादी में अंतस और वाह्य का अंतर होता है.




.
कैफ़े कैपेचिनो

तेरा लम्स ऐ तवील कि जैसे कैफ़े कैपचीनो
ऊपरी तौर पर
ज़ाहिर है जो उसका
वो कितना फैनिल
कितना मखमली
यूँ कि होठों से लगे पहली बार वो चॉकलेटी स्वाद कभी
तो यकीं ही न हो
कुछ छुआ भी था
क्या कुछ हुआ भी था?
जुबां को अपने ही होठों से फ़िराकर
उस छुअन की तसल्ली करता रहा था दफ़'तन
कुछ नहीं और कुछ-कुछ के बीच का कुछ
एक जाज़िब सा तसव्वुफ़
तेरा लम्स ऐ तवील
और उसकी पिन्हाँ गर्माहट
जुबां जला लिया करता था
उस न'ईम त'अज्जुब से कितनी ही दफ़े
जब भी होती थी
पहली बार में कहाँ नुमायाँ होती थी वो
तेरा लम्स ऐ तवील
जिसका ज़ायका उसके मीठेपन से न था कभी
उम्मीदों की कड़वी तासीर हमेशा रही थी
बहुत देर तक
आज तक चिपकी हुई है रूह से जो
तेरा लम्स ऐ तवील
बेशक माज़ी की नीम बेहोशी का चस्मक
मगर जिसने ख्वाबों के हवाले किया हर बार
बस इख़्तियार नहीं रहता
इसलिए, उसे जज़्ब कर लिया
आख़िरी घूँट तक
वरना यूँ तो न था कि तिश्नगी कमतर हुई हो उससे
तेरा लम्स ऐ तवील
कि जैसे कैफ़े कैपचीनो

(लम्स-ऐ-तवील: दीर्घ स्पर्श, तिश्नगी: प्यास, तसव्वुफ़: mystical, 'अज्जुब: आश्चर्य, 'ईम: आनंद, चस्मक: Disillusion, जाज़िब-मनमोहक)




५.
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी

जब से तुम जानते हो तभी से उस चीज़ का अस्तित्व होता है

दर्पण में बनने वाला प्रतिबिम्ब
वहाँ हमेशा ही होता है
कभी कनखियों से देखना
धीरे धीरे दबे पाँव जाकर
उसकी चोरी पकड़ लोगे तुम
तुम पहले से ही मौजूद थे वहाँ

आंसू की पहली बूंद इसलिए मीठी होती है
क्यूंकि उसका स्वाद होठों तक नहीं पहुंच पाता
कभी बस एक बूँद रोकर देखना

तुम जब घर में ताला लगा के घुमने जाते हो
गायब हो जाता है सारा सामान भी
कभी चुपके से बिन बताये आना
कुछ नहीं मिलेगा वहाँ
घर भी नहीं

कभी हुआ है ऐसा कि अनजाने में
तुमने दूसरी ही चाबी से खोल डाला ताला
कितनी ही बार तो हुआ है कि
तुम सोये घर में उठे ट्रेन की किसी बर्थ में
तुमने पूछा फिर तुम कैसे आये यहाँ
और किसी बहाने ने बनाई रखी कंटीन्यूटी

लॉकर में रखा सामान इतनी सिक्युरिटी के बावज़ूद
वहाँ तुम्हारे देखने के बाद ही उपस्थित होता है

तुम जानते हो कि तुम पचासवीं मंजिल से कूद नहीं सकते
इसलिए वहाँ से केवल मरने के वास्ते कूदते हो
वरना लियोनार्डो को कभी चोट न लगती
वरना कीड़े खाकर उड़ने लगती
न्यूटन की बहन

तुमने जाना है समय को
जैसा उन्होंने तुम्हें बताया
वरना तुम्हारे पास जीने के अनंत क्षण होते
तुमने जाना है रंग
वरना कोई लाल भी कभी लाल होता है भला
तुमने जाने हैं शब्द
इसलिए तुम्हें फूलों की नस्ल जाननी है
और उच्चारित करना है 'अवसाद'

तुम्हारे कोंस्पेट, तुम्हारा विज्ञान बड़ा रुढ़िवादी है

जैसे फेसबुक में कोई लाइक का बटन दबाये
और तुम आनन्दित होते हो
वैसा ही है तुम्हारा प्रेम
और ये बुरा नहीं
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी

पानी का गीला होना ज़ादू नहीं अगर
तो हवा में लटके रहना भी असम्भव नहीं.
_________________

darpansah@gmail.com/+91 955-553 (2559)

सबद - भेद : स्थानीयता-बोध : सतीश जायसवाल

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Akbar riding the elephant
 Hawa'I pursuing another elephant











सतीश जायसवाल वरिष्ठ कथाकार – संपादक हैं. रचना में स्थानीयता और सार्वभौमिकता को लेकर लम्बी  बहसें चली हैं. यह आलेख असरदार तरीके से इस गुत्थी से उलझता है और फिर सुलझाता है.    



रचना साहित्य मेँ स्थानीयता-बोध   

सतीश जायसवाल





हम किसी एक समय मेँ होते हैं.
हम किसी एक स्थान मेँ होते हैँ.
उस किसी समय मेँ उस किसी स्थान का होना एक स्थिति होती है.
उसमें हमारा होना हमारी विद्यमानता होती है. यह किसी समय और किसी स्थान के बिना नहीं हो सकता.

हमारा समय हमारी सामयिकता का पता देता है. यह सामयिकता तत्कालीन भी होतीं है और समकालीन भी होती है. जब हम ऐतिहासिक सन्दर्भों मेँ जाते हैं तो वह तत्कालीन. और जब हम अपने वर्तमान मेँ बने रहते हैं तो वह समकालीन.

हमारे पास उपलब्ध ऐतिहासिक सन्दर्भ हमें वह क्षमता प्रदान करते हैं कि हम उस किसी ततकालीन समय मेँ प्रवेश कर सकें और उस किसी स्थान तक पहुँच सकें जिस समय के उस स्थान मेँ हम नहीँ रहे होंगे.

यह स्थान वह भी हो सकता है जो हमसे पहले भी था और आज भी है और आज हम भी वहाँ पर हैं. फिर भी यह स्थान हमारे आज के स्थान से अलग होगा. वह तत्कालीन समय का स्थान होगा. और वह हमारे समकालीन समय के स्थान से अलग होगा.

साहित्य सृजन की रचना प्रक्रिया हमें यह विलक्षण सर्वकालिक क्षमता प्रदान करती है कि हम अपने समय का अतिक्रमण कर के अपने से पहले के समय मेँ प्रवेश कर सकेँ. अथवा उस समय की सृष्टि भी कर सकें जो समय आज नहीँ है बल्कि, वह हमसे आगे का समय होगा. वह भविष्य में होगा.

तत्कालीनता और समकालीनता, ये दो अलग-अलग समय - मान हैं. और इन दो विभिन्न समय-मानों में घटित-अघटित सन्दर्भ उस एक स्थान को दो अलग-अलग स्थानों में बदल देते हैं. एक - जिसका हमारे साथ पंचभौतिक सम्बन्ध होता है , जहाँ हमारी भौतिक-क्रियात्मक उपस्थिति होती है. और दो- जिसकी विद्यमानता हमारी स्मृतियों के लेखे-जोखे मेँ होती है. ये स्मृतियाँ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों मेँ सुऱक्षित होती हैँ या एक पीढ़ी से दूसऱी पीढ़ी को हस्तान्तरित होने वाली पारस्परिकताओं के सहज विश्वासों मेँ स्पंदित होती हैँ.

कलिंग का युद्ध एक ऐतिहासिक घटना है. उस काल में हम नहीं थे. फिर भी, हम उस युद्ध के हुये होने को इस तरह मानते हैं जैसे कि हम उसके हुये होने को जानते भी हैं. क्योंकि उसके विवरण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों मेँ और पुरा-लेखों में दर्ज़ है. उन पर विश्वास कर लेना हमारा मान लेना है. यह, उनके साथ हमारा सहमत होना होता है. लेकिन युद्ध की उस ऐतिहासिक घटना को प्रामाणिक तौर पर जान लेना नहीं है. क्योंकि वह हमारे सामने की, हमारे अपने देखे की घटना नहीँ है. किसी हुए होने को जानना और उसे मान लेना, दो अलग विश्वास होते हैं. एक - हमारी प्रामाणिकता का विश्वास, जो हमारे अपने भौतिक साक्ष्य पर आधारित होता है. और दूसरा - हमारी तार्किकता का  विश्वास, जो उपलब्ध साक्ष्यों से निर्मित  होता है. ये उपलब्ध साक्ष्य किसी एक स्थान को (अर्थात उसी स्थान को ) हमारे माने हुये और जाने हुये, दो विभिन्न स्थानों मेँ बदल देते हैं.

यह एक निर्मिति होती है.  इस निर्मिति से किसी एक स्थान की स्थानीयता विकसित हो रही होती है, जो बहुधा हमारे पास उपलब्ध सन्दर्भों मेँ अनुपस्थित रह गईं होतीं है. किसी एक स्थान की स्थानीयता को मिल रही यह एक नई पहिचान भी होती है. और जब इस निर्मिति को साहित्य का रचनात्मक संस्पर्श प्राप्त होता है तो उसमेँ अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाएँ आपने अर्थ और अपने आकारो मेँ प्रसारित होने लगती हैं. स्पंदित होने लगती हैं.

हिन्दी के एक बड़े कवि श्रीकांत वर्मा की एक प्रसिद्द कविता --कलिंग''  की ये कुछ पंक्तियाँ इस समय मेरे पास हैँ --

     केवल अशोक लौट रहा है
     और सब कलिंग  का पता पूछ रहे हैं ,
     केवल अशोक सर झुकाये हुये है
     और सब विजेता की  तरह चल रहे हैं
     केवल अशोक के कानों  में चीख गूँज रही है
     और सब हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं

जो कलिंग का पता पूछ रहे हैं वो सैनिक हैं और कलिंग उनके लिये किसी बस, एक युद्ध  भूमि है. लेकिन अशोक युद्ध-भूमि से वापस लौट रहा है. संहार से वापस लौट रहा है. वह अपने भीतर वापस लौट रहा है . अपने भीतर अपनी उन मानवीय संवेदनाओं के पास वापस लौट रहा है जो संहार के विरुद्ध होती हैं. इसलिए वह अकेला लौट रहा है. सब, जो विजेता की तरह लौट रहे हैं, उन्हें उस संहार का कोई पश्चात्ताप नहीं बल्कि वो विजय के मद मेँ हैँ. लेकिन अशोक अपने ही सम्मुख नत-शर है. वह आत्मग्लानि से व्यथित था और पश्चात्ताप कर रहा था.

एक बड़े कवि की यह कविता उस युद्ध की ऐतिहासिक घटना की विस्मयकारी स्थानीयता रचती है. उस युद्ध की ऐतिहासिक घटना को सरक्षित दस्तावेजीकरण से बाहर निकाल कर साहित्य की रचनात्मक शक्तियों के पास ले आती है. ये रचनात्मक शक्तियां हमारी मानवीय संवेदनाओं से उपजती हैं. इसलिए मुझे विश्वास हुआ कि यह कविता मुझे अपने साथ ले जाकर उस दया नदी के तट तक पहुंचाएगी जहाँ खड़ा वह विजेता सम्राट,अशोक अपनी ही विजय के सम्मुख परास्त है. वह पश्चात्ताप कर रहा है. इसलिए वह नत- शर है.

वहाँ मुझे दया नदी मिली. क्योंकि वहाँ दया नदी है. लेकिन वह दया नदीं मुझे नहीँ मिली जिसका जल रक्त से लाल था. मुझे जो दया नदी मिली उसके जल मेँ पश्चिम की तरफ़ को जाते हुए सूर्य की रक्तिम छाया पड रही थी. और जल का रंग लाल हुआ जा रहा था. वह दो अलग-अलग समय-मानों मेँ बंटी हुई एक नदी थी. एक इतिहास-काल की तत्कालीन दया नदी जिसके होने को मैंने माना. और एक हमारे समकालीन समय की दया नदी, जिसके होने को मैंने दो विभिन्न संवेदनात्मक प्राणिकीयताओं मेँ अनुभूत करने की और अपनी विस्मितताओं मेँ धारण करने की कोशिश की.

इतिहास के समय-काल से निकल कर रचना-समय में प्रवेश करते ही वह पश्चात्ताप की नदी मेँ बदल गयी. और अनुभूतियों के संसर्ग मेँ आते ही नदी का अर्थ पानी के अलग अलग संस्कारों मेँ व्याख्यायित होने लगे. एक नदी-तट उस संहारक युद्ध से उपजी मानवीय संवेदना को कविता मेँ अभिव्यक्त करने लगा.  या स्वयं उस कविता की प्रतिध्वनि बन गया. 

दुनिया के किसी ऐसे अन्य युद्ध का मुझे स्मरण नहीं जिसमें एक विजेता सम्राट अपनी ही विजय के सम्मुख उस तरह परास्त होता है. और वह संहारक युद्ध-स्थल दुनिया भर के शान्ति-कामियों के लिये एक तीर्थ-स्थल बन जाता है. किसी एक स्थानीयता का यह विश्व-व्यापीकरण विस्मयकारी है.

साहित्य में स्थानीयता के सन्दर्भ को लेकर हम कुछ बेहद गैर ज़रूरी संशयों से घिरे रहे.  जब किन्हीं शब्दों का और उनके अर्थो का क्षरण होता है तब ऐसे संशय उपजते हैँ. ''संवेदनशीलता''और ''स्थानीयता'' - जब इन संशयों से ग्रस्त होते हैं तो उनके अर्थों का  प्रकटीकरण संकीर्ण राज्नीतिक-सामाजिक सन्दर्भों में होने लगता है. लेकिन जब साहित्य इन्हें ग्रहण करता है और रचनात्मक संस्पर्श प्रदान करता है तब इनकी संशय-मुक्ति होती है. और इनके अर्थ अपनी व्यापकताओ मेँ खुलने लगतें हैँ. कलिंग युद्ध की ऐतिहासिक घटना भी जब काव्य का संस्पर्श पाती है तब वह ऐसे ही, व्यापक अर्थों से युक्त स्थानीयता की रचना करती है.

आधुनिक हिन्दी साहित्य का रचना समय अपने यहां के किसी  युद्ध अथवा युद्ध के प्रत्यक्ष संहारों से सुरक्षित बचा रह सका. चीन और पाकिस्तान के साथ हुये युद्ध भी सीमाओं पर लड़े गए. इसलिए हमारा केंद्रीय समांज उनकी संहारकताओं से सुरक्षित बचा रह सका. फिर भी, दुनिया में कहीं भी हो रहे युद्ध से उपजने वाली मानवीय त्रासदियोँ के प्रति आधुनिक हिन्दी साहित्य उदासीन नहीँ रहा. उन त्रासदियों को हमारे यहाँ संवेदना के स्तर पर ग्रहण किया गया. और उस पर उस पर रचना के स्तर पर प्रतिक्रिया भी की गयी.

इसी काल मेँ, हमारे नजदीक का देश, वियतनाम संभवतः सबसे दीर्घावधि युद्ध के दौर से होकर गुजर रहा था. उस पर, विश्व पदयात्री सतीश कुमार ने अपनी साहित्यिक त्रैमासिक- विग्रह''में ''वियतनाम''शीर्षक से ही एक कविता लिखी थी. वह कविता थी --

     वहाँ
     युद्ध हो रहा है
     यहां
     हम बातें कर रहे हैं.... ''

मेरे अपने पढ़े हुये में से, अपने आकार मेँ, वह शायद सबसे छोटी लेकिन अपनीं मारकता मेँ शायद सबसे बड़ी और उससे भी गहरी कविता थी.

युद्ध पर प्रतिक्रिया कर रही इस कविता मेँ प्रत्यक्ष इंगित भौगोलिक स्थानिकता भी उपस्थित है, जो उसके शीर्षक मेँ  ही है, और वहाँ का स्थानीय समाज हमारी समझ मेँ साफ़ तौर पर उभरता है जो एक दीर्घावधि युद्ध की यंत्रणाओं को झेल रहा है. इस कविता के अन्य संकेतात्मक सन्दर्भ भी हमें ठीक वहीं पर पहुंचाते हैँ. वहाँ, जहां युद्ध हो रहा है.

वहाँ के मनुष्य समाज तक, जो उस दीर्घावधि युद्ध की यंत्रणाओं को झेल रहा है. और यहां -- जहां हम उनकी यंत्रणाओं को, उनकी त्रासदियों को जान तो रहे हैं लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे हैं. हम असहाय हैं.

यह असहायता एक ऐसी दारुण स्थानीयता की रचना करती है जो उधर भी है और इधर भी है. और यह दारुण स्थानीयता उस युद्ध से भी दीर्घावधि है.  वियतनाम उस दीर्घावधि युद्ध से मुक्त हो चुका है.  फिर भी वह युद्ध इस कविता मेँ बना हुआ है कि वहाँ युद्ध हो रहा है और यहां हम बातेँ कर रहे हैं. दो अलग-अलग स्थानीयताओं और उनकी असहायताओं से उपजा वह स्थानीयता-बोध अब हमारी स्मृतियों मेँ अपनी स्थायी जगह बना चुका है.

चाहे हमारा अपना रचना-समय अपने यहां हुये किसी युद्ध अथवा युद्ध के प्रत्यक्ष संहारों से सुरक्षित बचा रह सका, लेकिन हम उन विषादकारी संवेदनाओं से सुरक्षित नहीं बच सके जो भारत-पाक विभाजन की त्रासदियों से उपजीं.  ये त्रासदियां किन्हीं भी योरोपीय देशों के प्रत्यक्ष युद्ध अनुभवों से कम अमानवीय नहीँ थीं. और हमको उतना ही असहाय बनाने वाली भी थीं. उस तरफ़, लाहौर और इस तरफ़ अमृतसर --एक जैसी अनेक व्यथा-कथाओं के केन्द्र में रहे.

फिर धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते गये. लाहौर के लिए अमृतसर और अमृतसर के लिये लाहौर. लेकिन, क्या एक दूसरे से दूर होने का यह विशाद क़िसी एक के लिये भी, किसी दूसरे से कम हो सकता है ? वस्तुतः यह दो विशिष्ट स्थानीयताओं का एक जैसी विषादयुक्त संवेदनाओं मेँ विलीनीकरण है. लाहौर का अमृतसर में और अमृतसर का लाहौर मेँ.  अंततोगत्वा दोनों का एक जैसी संवेदनाओं मेँ बदल जाना.

प्रेम को युद्ध की सबसे रचनात्मक प्रतिक्रिया के रूप मेँ देखा और ग्रहण किया जा सकता है. कम से कम, दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि से उपजी, चन्द्रधर शर्मा ''गुलेरी''की कालजयी कहानी -- उसने कहा था ''तो यही है. इसमें युद्ध है, ''लाम''पर जा रहे सिपाही हैं और वह स्थान भी है जहां पर युद्ध हो रहा है. फिर भी --उसने कहा था '' एक कोमल प्रेम आख्यान है, जो अमृतसर मेँ उपजता है. वह अमृतसर में ही हो सकता था क्योंकि इस आख्यान का प्रेम उसी सांस्कारिकता के तत्वों से निर्मित होता है जो अमृतसर की अपनी स्थानीयता का खालिस तत्व है.

लेकिन अमृतसर की यही स्थानीयता भीष्म साहनी की कहानी –अमृतसर आ गया'तक पहुंचते ना पहुंचते मनुष्य के दूसरे चरित्र के स्थानीय तत्व का संकेतक हो जाती है. भारत -पाक विभाजन का  पीड़ित पात्र जो उस तरफ़, याने लाहोर से चला था तो किस कदर भयभीत और दयनीय था. और इस तरफ, याने अमृतसर पहुंचते ही शेर हो जाता है. और अमृतसर की स्थानीयता एक शरण्यक मेँ परिवर्तित हो जाती है.

दूसरी तरह से देखें तो प्रेम, यहां युद्ध के रचनात्मक प्रतिकार से अलग हटकर, हमें एक पराजय-बोध मेँ मिलने लगता है. यह पंजाब के स्थानीय चरित्र से  अलग है. पंजाब का स्थानीय चरित्र वहां की लोक-गाथाओं से निर्मित होता है जिनकी व्याप्ति आज तक सरहदो की दोनोँ तरफ़ अपनी उंसी विस्तारिता मैं बनी हुयी है जो विभाजन के पहले से रही आई है. ये लोक-गाथाएं हीर-रांझा या सोनी-महिवाल या सस्सी-पुन्नो की प्रेम-गाथाएं है.

शायद, हीर-रांझा या कि सोनी-महिवाल ? मैं अक्सर इन दोनों के बीच उलझ जाया करता हूँ. और अपनी इस उलझन को बनाये रखना मुझे अच्छा लगता है. क्योंकि उतनी देर तक मैं एक साथ दो प्रेम-गाथाओं से जुड़ा रहता हूँ. बीच में एक  नदी होती है -- चनाब. जिसके एक तट पर हीर का गॉंव है --झंग.  और दूसरे तट पर उसके रांझा का गांव है --तख़्त हजारां, जहाँ हीर को आना है. अब ये दो गांव पाकिस्तान मेँ कहीं मिलेंगे या नहीं, क्या पता ? लेकिन मेरे मन मेँ एक नक्शा है  और उस नक्शे में मैं इन दोनों गांवों मेँ, उन दोनों के घरों को ढूंढा करता हूँ.

ये प्रेम-गाथाएं  हिन्दी का अपना रचनाए-साहित्य नहीं बल्कि, हिन्दी संवेदनशीलता की आत्मग्राही रचनात्मकता है. पंजाब की इन अमर प्रेम-गाथाओं के केंद्रीय तत्व को पँजाब से नीचे वाले मैदानी भूभाग मेँ बहुत दूर तक इस तरह आत्मसात कर लिया गया कि उनका हिन्दी से इतर होना लगता ही नहीं. और हम चनाब नदी के दो तटों पर बसे उन दो गॉंवों --झंग और तख़्त हजारां को, इन दो गांवों मेँ हुये उन दो अमर गाथा-पात्रों को अपने करीब, अपने पड़ोस मेँ अनुभूत करने लगें.  यह किसी एक विशिष्ट स्थानीयता के उन संस्कारों के सघन प्रभावों का विस्मयकारी विस्तारण है.  इसे किसी एक विशिष्ट स्थानीयता की गतिशीलता के अर्थ में ग्रहण करना होगा.  तभी हम पक्के तौर पर समझ सकेंगे कि कोई स्थानिकता कहीं स्थित-स्थिर या स्टैटिक होती है. और स्थानीयता किसी एक स्थान के सँस्कार, वहां कि चारित्रिक पहिचान की गतिशीलता मेँ निहित होती है.

भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक विजय शेषाद्रिको उनकी कविताओं के लिये,  अभी -अभी पुलित्ज़र पुरस्कारसे सम्मानित किया गया है. विजय शेषाद्रि मूलतः बंगलुरुके रहने वाले हैं. और अपनी कविता के विषय मेँ बात करते हुये उन्होंने कहीं कहा कि उनकी कविताओं मेँ भारत उपस्थित रहता है. क्या किसी कवि की उपस्थिति को उसकी अपनी कविताओं से अलग कहीं और तलाशना चाहिये ?अपनी कविताओं मेँ भारत की उपस्थिति को, उसकी व्याप्ति को रेखांकित करते हुये विजय शेषाद्रि अपनी स्थानीय पहिचान का रेखांकन कर रहे थे. और ठीक इसके साथ भारत का उल्लेख भी कितने गहरे स्थानीय सन्दर्भ मेँ कर रहे थे ? इसे समझ लेना स्थानीयता बनाम वैश्विकता बनाम भूमंडलीकरण को, उनकी पारस्परिकताओं मेँ और उनके अंतरावलम्बी संबंधों मेँ समझ लेना होगा. और यही समझ ठीक भी है.

एक और निर्मूल किस्म की भयग्रस्तता ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक धड़े को किसी ना किसी रूप मेँ  इस दुविधा मेँ ड़ाल रखा है कि अपनी स्थानीयता के प्रति अपना लगाव जताते ही वैश्विक समुदाय मैं उनकी पहिचान पिछड़ जाएंगी. या पिछड़ी हुयी मान ली जायेगी. कहीं ना कहीं, यह अपनी देसी पहिचान से छुटकारा पाने का ऐसा आवरण रचना होगा जो उन्हेँ स्थान-निरपेक्ष, और अंततोगत्वा स्थानीयता-विहीन कर सकता है. उनकी अपनी पहिचान से ही वन्चित कर सकता है.

क्या हिन्दी साहित्य का आधुनिक-काल अपना पूरा जीवन जी चुका ? और क्या उसकी उत्तर-आधुनिकता आने मेँ अभी देर है ? इन प्रश्नों से परे का यथार्थ अभी भी यही है कि हमारी पहिचान, हमारी अपनी देसी स्थानीयता से हीं बनती है. विजय शेषाद्रि अपने घर- परिवार के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण बातें करते हैं -- कि  वो और उनका परिवार दुनिया में कहीँ भी रहा, लेकिन उनकी माँ ने घर क परिवेश भारतीय (स्थानीय)  ही बनाये रखा. और यह कि, वो अपने बेटे को भारत दिखाना चाहते हैं. उनका यह कथन एक साथ तीन पीढ़ियों की अपनी स्थानीय पहिचान को अपनीं सांस्कृतिक निरंतरता में बनाये रखने का संकल्प है. एक वो स्वयं, एक उनकी माँ और एक उनका बेटा. और अपने संस्कारगत चरित्र मेँ यह पहिचान उसके स्थानीय देसीपने मेँ सुरक्षित मिलतीं है. और यह देसीपना क्या है ? लोगों की नैतिक आदतें और स्वभावगत स्थानीय नैतिकताएं.

आधुनिक हिन्दी रचना साहित्य की चिन्हांकित स्थानीयता एक लम्बे समय तक गंगा - यमुना के दो-आबे वाले उत्तरप्रदेश में केन्द्रित रही. और इस पर मुंशी प्रेमचंद का गहरा प्रभाव रहा. और इससे भी पहले से चली आ रही, तुलसी और कबीर की परंपरा ने भी गंगा-यमुना से सिंचित इस मैदानी भूभाग को जितनी गहरी सांस्कृतिक पहिचान दी उसकी व्याप्ति किसी एक संकीर्ण स्थानीयता मेँ सम्भव नहीं  थी. वह, एक तरह से, आस्थावादी भारतीय समाज की विस्तारित स्थानीयता थीं.
मुंशी प्रेमचंद की रचना परम्परा मेँ दलितों और वंचितों को केन्द्रिय स्थान प्राप्त हुआ. उनकी असहायता और पीड़ा ने हिन्दी रचना साहित्य मेँ एक अलग किस्म की ग्रामीण- सामजिक संरचना की. इस संरचना ने हमारा साम्मुख्य वहाँ के जिन स्थानीय रीति- रिवाज़ों और प्रथाओँ से कराया उनमें भेद-भाव, यातना और अन्याय के तत्व प्रबल थे जो मनुष्य को अपमानित करते हैं और असहाय बनाते हैं. इनका प्रतिकार प्रेमचंद की रचना शक्ति थी.

बाद में फणीश्वर नाथ ''रेणु''ने पूर्वी बिहार की जिस स्थानीयता से अपने रचना-संसार की सृष्टि की उसमें भी वह सब था --- भेद-भाव, यातना और अन्याय-- जो मनुष्य को अपमानित करता है और असहाय बनाता है. एक तरह से यह प्रेमचंद की रचना-दृष्टि का ही विस्तार था. लेकिन कुछ ऐसा भी था जो रेणु के पास ''रेणु''का अपना था. और यह उन्हें प्रेमचंद से अलग, ऊनकी अपनी पहिचान देता था.

मनुष्य को अपमानित करने वाले और असहाय बनाने वाले तत्वों का प्रतिकार प्रेमचंद की रचना-शक्ति बनी. लेकिन ''रेणु''ने उन दलितों और वंचितों को ही रचना-शक्ति में बदल दिया. इसके लिए उन्होंने, इस चिन्हांकित स्थानीयता मेँ व्याप्त उस लोक-तत्व का संधान किया जिसकी रसार्द्रता मनुष्य के लिये जीवनी-शक्ति का संचार करती है. इस जीवनी- शक्ति के साथ वह अपने दुर्भाग्य से संघर्ष कर सकता है. अथक संघर्ष.

''रेणु''ने पूर्वी बिहार के पूर्णिया से लगाकर नेपाल की तराई तक फैली आंचलिकता को कुछ -कुछ वैसी ही विशिष्टता प्रदान की जैसा हमें, अंग्रेज़ी साहित्य मेँ, टॉमस हार्डी के ''वेसेक्स''में मिलता है. ''वेसेक्स''का अपना भू-दृश्य (टोपोग्राफी) है, उसकी मिट्टी के रंग, वहाँ के लोगों के ढंग, उनकी बोली-बानी-- सब कुछ अलग से पहिचाने जाते हैं. और वैसा ही दिखते हैँ जैसा टॉमस हार्डी दिखाना चाहते हैँ.

ऐसा ही कुछ-कुछ शिमला, हमें निर्मल वर्मा के गद्य-लेखन में मिलता है.  वह बिलकुल निर्मल वर्मा की तरह मिलता है. जैसा वो दिखाना चाहते हैं, बिल्कुल वैसा ही दिखता है. पहाड़ो पर बर्फबारी का मौसम हो,खिड़की से बाहर सफ़ेद सड़क हो या बन्द कमरे के भीतर ''फायर प्लेस''में बनी हुयी आग की स्मृतिजीवी (नॉस्टॅल्जिक) गर्मी हो. निर्मल वर्मा की शिमला-अनुभूति इतनी सघन और रागात्मक है कि वह अपने से अलग होकर हम तक पहुंचने मेँ भी संकोच करतीं सी लगती है. कई बार तो लगता है कि निर्मल वर्मा के बिना हिन्दी का रचना -संसार चीड़ के पेड़ों या लाल टीन की छत की सौन्दर्यानुभूति से वंचित रह जाता. और इनके बिना शिमला को ही कैसे जाना जा सकता था ?

निर्मल वर्मा का शिमला सपनीला है.  और जैसे सपनों की चित्रकारी करता हुआ मिलता है. चित्र में, बहुत कोमल धुनो मेँ बजने वाले वैसे किसी संगीत की रचना कर रहा होता है जो पहले से बजता आ रहा है. हमसे पहले वहाँ कोई था, जो उसे वैसा ही बजता हुआ छोड़ कर, अभी-अभी कहीं निकल गया है.

और जब हम उस छूटे हुये संगीत के प्रभाव से मुक्त होते हैं तो शिमला एक आंचलिकता मेँ प्रसारित होता हुआ मिलता है.  कथाकार एस० आर० हरनोट की कहानियां हमें अपने साथ लेकर वहाँ तक पहुंचाती हैं. हरनोट की कहानियों में हिमाचल की आंचलिकता दो धाराओं के समन्वय से विकसित होती है. ''रेणु''की आंचलिक रसार्द्रता और हिमांचल के पर्वतीय जन-समाज में व्याप्त विसंगतियाँ. हरनोट का यह अंचल जितना कथात्मक है, उतना ही यथार्थ भी है.
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सतीश जायसवाल
वृहस्पति चौक
बिलासपुर (छ.ग.) 495001
मोबाः 094252-19932

ई-पता: satishbilaspur@gmail.com

कथा - गाथा : सारंग उपाध्याय

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यह कहानी फिल्मों की दुनिया में संघर्ष कर रहे चार युवाओं – मिनर्वा, अंजुम, रफीक और अदृश्य ‘चौथे लडके’ की कहानी है जो दरअसल हर 'असफल'युवा की कहानी है. कहानी असर छोडती है. सारंग उपाध्याय मुंबई में हैं और करीब से इस दुनिया को देख रहे हैं, यह देखना यहाँ दिखता भी है.


सपने                    
सारंग उपाध्‍याय 

बारिश की बूंदों में घुला स्‍याह अंधेरा तेज हवा में दूर तक फैल रहा था. अशोक, बरगद और पीपल के पेडों की पत्‍तियों की सरसराहट काले पसरे सन्‍नाटे को फाडे जा रही थी. मेंढकों की टर्र टर्र कौओं की बैचेनी में घुली हुई थी. बिल्‍डिंगों के उंचे छज्‍जों पर बैठे कबूतरों की आंखों में डर फडफडाकर चौंकता था. वह रात का दूसरा पहर था, जो तेज बारिश से तरबतर था, बारिश किसी स्‍टेशन से गुजरने वाली तेज ट्रेन की तरह ही सरपट निकल चुकी थी और पीछे, बदन मे कांटे की तरह चुभती, चीखती, हरहराकर घूमती हवा छोड गई थी.

वह सपनों के एक शहर की बरसाती रात थी जो एक पॉश इलाके की चमचमाहट में डूब रही थी. उंची बिल्‍डिंगों से घिरी गलियों के बीच इक्‍का दुक्‍का नेपाली गोरखे छाता लिए, सीटी बजाते और हाथ में पकडी लाठी को कॉंक्रीट से लिपी सडक पर रह रहकर ठोंकते थे. उनकी लाठी की आवाज कुत्‍तों के सामूहिक रूदन में मिलकर एक अलग सी तान दे रही थी. कुत्‍तों, लाठियों और हवा की सरसराहट के बीच सन्‍नाटे की खामोशी से लिपटा स्‍वर उंची इमारतों की खिडकियों से बह रहे लाइटों को चौंका देता था.

कमा, खाकर और जमकर पीने के बाद बैडरूम में जिंदगी का फलसफा रचने वाले उस चमचमाते रईस इलाके में कई प्रोडक्‍शन हाउस, कुछ कॉल-सेंटर और कुछ विज्ञापन एजेंसियों के ऑफिस थे, जहां रात की शिफ्ट में काम चलता था. उस गहराती, स्‍याह होती और बारिश में डूबती उतरती रात में एक गली औंधी खामोश पडी हुई थी. गली के छोटे से मुंह के भीतर दूर एक हाइवे अपनी अजानबाहुओं के साथ लेटा हुआ था]जिस पर गश्‍त लगाती पुलिस की जीप का साइरन आवाजों की आवाजाही भरी रात को थोडी थोडी देर में धमकाता था. दिन भर के शोर से थकी, ढकी, दबी और अकेली पडी उस गली में बनी एक इमारत की दसवी मंजिल के एक फ्लैट के कमरे की एक लाइट सिगरेट के धुएं में जिंदगी को गर्म कर रही थी. कमरे से आ रही ठहाके, अट्टाहस, दबी सी हंसी और मुस्‍कुराहटों को बाहर पडा सन्‍नाटा मेंढक, झिंगुरों की आवाजों के साथ बारिश में घोलकर निगले जा रहा था.

उस बडे से कमरे में, जो उस फ्लैट का बेडरूम था, ठीक बीच में एक अधेड उम्र का सुंदर, गोरा, तीखी नाक और कसे हुए बदन का आदमी उघाडे बदन अपने दोनों पैर दूसरी कुर्सी पर फैलाए बैठा था. उसकी मोटी और कटाव भरी जांघों पर लैपटॉप था और वह अपनी उंगलियों में सिगरेट फंसाकर सामने बडी सी खिडकी से बाहर की ओर देख रहा था, जबकि खिडकी से हवा में घुलकर आवारा घूम रही बारिश की बूंदें कमरे की रोशनी को निगल जाना चाहती थी.

उस आदमी की कुर्सी के दाएं-बाएं और सामने की ओर बिछे पलंग पर तीन, जवान, खूबसूरत लडके लेटे हुए थे. उसमें से पहले का नाम मिनर्वाथा उसकी नाक लंबी लेकिन सुंदर गोलाई में आकार लिए हुए थी. भोंएं सुर्ख काली और ललाट फैला हुआ था. वह खूबसूरत था और उतना ही अंदर से भी था जितना चेहरे से दिखता था.

वह फिल्‍म बनाने की फैक्‍ट्री बन चुके सपनों के शहर में हीरो बनने आया था. एक ऐसे शहर से था जहां टीवी पर दिखने का मतलब कुछ वैसा ही था जैसे आज से पचास साल पहले किसी के घर में टीवी के आने जैसा था. उसकी परवरिश गांव से कस्‍बे बनती जा रही जगह पर हुई थी. और दाढी पर बाल उस जगह के हाइब्रीड हो जाने पर ही आए थे.

चूंकी जगहें लोगों से बनती है इसलिए वहां के लोग न तो शहर के ही रह गए थे न ही गांव के. वे बोलते कुछ थे और पहनते कुछ और ही थे, और जीवन जीते हुए वे एक नायाब संस्‍कृति के अंडे दे रहे थे जिसमें पल रहा जीवन आने वाले समय में परंपरा और आधुनिकता के घर्षण से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍य रचने वाला था. उसके पिता की शहर की एकमात्र टॉकिज के पास दूध और मिठाई की दुकान थी. पर दुकान उसकी होने के बावजूद वह मीठा बहुत कम खाता था और दूध ज्‍यादा पीता था. हालांकि उसकी उम्र दूध और मिठाई दोनों ही छक कर खाने पीने की थी. पर वह दूध पीकर रोज एक ही पिक्‍चर को तब तक देखता था जब तक पेट मे गया हुआ दूध पच नहीं जाता. इस तरह वह दुकान के गल्‍ले से टॉकिज में रोजाना फिल्‍में रिलीज करता था. जल्‍द ही दुकान पर आने वाले लोगों ने उसके बदन में बह रहे दूध के सपने को पहचान लिया था जो उसके पिता के कम होते खून में उछाल के साथ आकार ले रहा था. इस तरह वह सपनों के शहर आ गया. उसकी उम्र सपनों के शहर में सात साल थी, वह बहुत मेहनती था, और रोजाना पांच किलोमीटर दौडता था, दो हजार रस्‍सियां कूदता था, चार घंटे नाचता था और हर तरह की फोटो लेकर सपनों के शहर की जादूई गलियों में हीरो बनने के लिए बांट दिया करता था.

दूसरा लडका, जिसका नाम अंजुमथा, वह लगातार सिगरेट पीता था और सिगरेट पीते हुए वह देश के उस स्‍वास्‍थ्‍य-मंत्री को कोसा करता था, जिसने फिल्‍मों में सिगरेट पीने का दृश्‍य दिखाने पर पाबंदी लगा दी थी. सपनों के शहर में उसकी उम्र तकरीबन पांच साल थी, लेकिन वह हीरो नहीं, बल्‍कि विलेन बनना चाहता था जबकि सिगरेट पीने के बावजूद वह अपनी रियल जिंदगी में कुरकुरे की तरह सीधा आदमी था. उसकी एक पत्‍नी और बच्‍ची भी थी, जो सपनों के शहर से दूर असली जिंदगी जी रहे थे, और रिटायर हो चुके पिता और लगातार खांसी से जूझती मां के साथ वैसे ही सुखी थे जैसे की वह सोचता था. वैसे वह सोचता ज्‍यादा था और तब से सोचता आ रहा था जब से उसके शिक्षक पिता को उसके ही दोस्‍तों ने शिक्षक दिवस के अवसर कक्षा के एक लडके के साथ गुरु शिष्‍य संबंधों की प्रगाढता निभाते हुए देख लिया था. वह तब से ही सोचते आ रहा था और सोचते सोचते पढाई छोडकर एक वीडियो पार्लर चलाने लगा था. वह फिल्‍में दिखाता कम था और देखता ज्‍यादा था. बीच में कुछ नीली फिल्‍में देखकर उसका चेहरा पीला पड गया था, लेकिन जल्‍द ही दाढी के आने से उसका धंसा हुआ पीला चेहरा नीला होने लगा जबकि दिल गुलाबी, इस तरह गुलाबी दिल सुर्ख लाल हो गया. एक दिन उसने अनिल कूपर की चमेली की शादी फिल्‍म देखी और अनिल कपूरबनने का सपना पाल लिया. चूंकि जमाना मर्डर 2 का था इसलिए अनिल कपूर की जगह उसने चमेली की शादी का वर्जन 2 ही बना डाला और सेवंती जैसी लडकी को जूही की कली की मां बना दिया. इसके बाद वीडियो पार्लर में आने वाले लोग उसे हीरो कहते थे क्‍योंकि उसने काम भले ही विलेन का किया था लेकिन लडकी के भाइयों से भरे बाजार में बाप सहित जूते खाने के बाद वह लडकी से शादी कर चुका था. इसलिए वह एक तरह से हीरो ही था.

बहरहाल, उसका कडक, पसली वाला बदन भर चुका था और चेहरा खिल चुका था. सपनों के शहर में आए हुए उसे तीन साल हो रहे थे और सिगरेट पीते हुए तकरीबन छ महीने. सिगरेट के साथ सोचने में उसे ज्‍यादा मजा आया. लेकिन कई बार वह सोचता कम सिगरेट ज्‍यादा पीता था, इसलिए क्‍योंकि उसे डर था कि कहीं उसे सपनों का यह शहर ही न पी जाए, इसलिए वह शाम को सिगरेट के जरिये शहर को ही पी लेता था.

तीसरा लडका सो रहा था, क्‍योंकि उसे सुबह जिम जाना, वह जिम में ट्रेनर था और कई बडे स्‍टार्स और हीरो के बदन को चुस्‍त कर चुका था. वह समुंदर पार एक गांव से आया था और वहीं पहलवानी करता था, लेकिन अखाडे में लडते सीखते हाथ पैरों की जगह उसका दिमाग मोटा होने लगा था. अक्‍सर उसके पिता से पसीने की कीमत को लेकर झगडा होता था. वह अपना पसीना खेती की जगह अखाडे में बहाना चाहता था, और पिता को पसीना खेतों में बहता ही ठीक लगता था. लेकिन वह मां का लाडला था इसलिए अखाडे से निकलकर मशीनी कसरत के हुनर सीख गया और सपनों के शहर भाग आया. उसे सपनों के शहर में तीन साल हो रहे थे और अब उसका कुछ दिमाग पतला हो गया था और उसने अपने अंदर दारा सिंह का लिटिल थ्रीडी वर्जन देख लिया था. पर फिलहाल वह निढाल था और सपनों के शहर में आज वहां से लौटा था जहां समुंदर के सामने सारे लोग अपनी भडास निकाला करते थे.

वे दोनों लडके, जो जाग रहे थे, मिनर्वा और अंजुम, जबकि वह तीसरा लडका जिसका नाम रफीकथा फिलहाल सो गया था, वे सब आदिल नाम के उस अधेड आदमी से उस चौथे-लडके की कहानी सुनना चाहते थे जो वहां नहीं था. उन तीनों ने ही उस चौथे-लडके के बारे में बहुत सुना था, कि सपनों के शहर का वह चौथे-लडका अपनी मंजिल के बहुत करीब पहुंच गया था, लेकिन वह आखिरी तक करीब ही रहा और बाद में खुद एक सपना बन गया, पर चूंकि वह, वहां तक पहुंच गया था जहां उसके सपने बस सच ही होने वाले थे, इसलिए वह उन तीनों में चौथा था, (जो कोई भी हो सकता था), लेकिन वहां नहीं था जहां उसे होना चाहिए था.

वैसे उस बेचारे चौथे लडके की कहानी जो उसके खुद के लिए एक ट्रेजेडी ही थी, लेकिन इन तीनों के लिए मोटीवेशनल थ्‍योरी या असफलता ही सफलता की पहली सीढी जैसी कोई किताब थी, इसलिए बाकि के तीन लडके उस ट्रजेडी को जानना चाहते थे ताकि वे यह जान सकें कि सपनों के शहर में, सपनों को कब, कितना और किस मात्रा में किस तरह से देखना चाहिए, जैसी महत्‍वपूर्ण बातों को जान सकें और उस शहर में अपने भी सपनों को पूरा कर सके.  

सो कहानी शुरू हुई, वह अधेड उम्र का आदमी जिसका नाम आदिलथा जो लगातार लैपटॉप नजरे गडाए हुए सिगरेट फूंके जा रहा था, उसने एक आखिरी सुट्टा लगाकर चौथे लडके कि कहानी सुनानी शुरू की.


चौथे लडके की कहानी

वह सपनों के शहर में सालों पहले आया था. उसे सपने देखना बहुत पसंद था और बचपन से ही लगातार सपने देखता आ रहा था. वह दिखने में बहुत सुंदर था, एकदम गोरा, चिकता, तीखी नाक, गुलाबी होंठ और रेशम जैसे सिल्‍की बाल. वह हर काम में परफेक्‍ट था. मसलन नाचने गाने, से लेकर कराटे जानने और शानदार एक्‍टिंग करने जैसे हुनर में.

स्‍कूल और कॉलेज में चाहे नाचने का कॉम्‍पिटशन हो, या गाने का, या किसी ड्रामें में एक्‍टिंग का हुनर दिखाने का, वह हर जगह अव्‍वल था. शायद यही वजह थी कि वह बहुत ज्‍यादा सपने देखता था और उसके सपने देखने की स्‍पीड इतनी थी की वह कुछ ही मिनिटों में खुदको किसी भी तरह के सपनों में ट्रांसफर कर सकता था.

मसलन, जब वह साइकिल चलाता, तो वह, अक्‍सर बाइक पर होता और जहां कहीं हरी-हरी झाडियां देखता, या तो वह शिकारी बन जाता था या फिर किसी लडकी के साथ हीरो बनकर गाना गाने लगता था. ऐसे ही जब वह स्‍कूल में होता था, तब वह कॉलेज में पहुंच जाता था और एक लडकी से प्‍यार करने लगता था जो उसके स्‍कूल की कोई भी लडकी हो सकती थी. एक बार तो वह अपनी मम्‍मी के साथ जब शिव मंदिर गया था, तब उसे उसके पडोस में रहने वाली दीप्‍ती मिली थी, उसे देखकर उसने झट से एक सपना देखा था, जिसमें वह दीप्‍ती का पति बन गया था और अपनी बूढी मां को मंदिर के दर्शन करवाने लाया था.

वह वर्तमान में बहुत ही कम रहता था क्‍योंकि वह उसे वह बिल्‍कुल अच्‍छा नहीं लगता था. हां, कभी कभार वह वर्तमान में तभी होता जब उसे भूख लगती या प्‍यास, या फिर कुछ बेहद जरूरी काम जहां सपने देखने में उसे तकलीफ होती थी. जैसे जब वह स्‍कूल में था और उसे परिक्षाएं देनीं होती थी, या फिर जब उसे अपने पिता की उस छोटी सी फूल की दुकान में बैठकर या तो मालाएं बनाने का उबाउ काम करना पडता था या इक्‍का-दुक्‍का ग्राहकों को निपटाना पडता था. पर हां कभी-कभी इस काम में उसके सपनों को नई ताजगी भी मिलती थी, खासकर तब जब वह पिता के साथ साइकिल पर बैठकर फूलों के बागीचे से फूल लेकर आता था और जहां उसके सपने गुलाब के फूलों की तरह खिल जाते थे. एक बार उसने एक फूल के बागीचे में खुदको एक लडकी के साथ गाना गाते और नाचते हुए देखा था, बिल्‍कुल फिल्‍मों की तरह, तो वहीं उसके पिता को एक ठाकुर के रूप में देखा था जो इस तरह के कई बागानों व खेतों के मालिक थे.

खैर, बागीचे से निकलने के बाद उसके इस तरह के सपने फीके पड जाते थे और माला बनने वाले फूल भी बासे, मुरझाए और गंधविहीन हो जाते थे. वैसे उसे सपने देखने में सबसे ज्‍यादा तकलीफ तभी होती थी जब उसके पिता उसे निठल्‍ला, कामचोर कहते थे और उसकी मां को मारते थे. उसका एक बडा भाई भी था जो बेहद सीधा-सादा था, लेकिन सपने नहीं देखता था क्‍योंकि उसकी आंखों में यथार्थ का मोतियाबिंद हो गया था. पर वह अपने छोटे भाई को हमेशा सपने देखने के लिए उत्‍साहित करता था. वह कई बार उसे पिता से छिपकर फिल्‍में देखने के लिए पैसे भी देता था. हालांकि उसके सपनों की दुनिया में इस तरह की तकलीफें जल्‍द ही दूर हो गईं थी. विशेष रूप से तब, जब वह कॉलेज में आ गया था, जहां उसके सपनों को लडकियों और फिल्‍मों को देखकर एक सप्‍लीमेंट्री फूड मिलने लगा था. वह जब भी लडकी देखता, तो जाकर कोई फिल्‍म देख आता, और जब भी कोई फिल्‍म देख आता तो उसका मन लडकी देखने के लिए इतना आतुर हो उठता कि उसे किसी भी किस्‍म की लडकी देखनी ही पडती.

इस तरह सपनों की दुनिया में रहते-रहते उसे बहुत बाद में पता लगा था कि उसका दिल सपनों से इस कदर भर चुका था कि सपने अब उसके दिल से निकलकर गालों पर उग आए थे और अक्‍सर आंखों में तैरते रहते थे. वह कई बार बिल्‍लू-बारबर के यहां खुदको निहारता था और अपने सपनों की ब्‍लीचिंग, फेशियल और मसाज किया करता था.

एक दिन फिल्‍में देखते-देखते उसने टॉकिज में लगे पोस्‍टर में हीरो की जगह अपनी तस्‍वीर देखी थी, और सपना देखने के बाद तब तक घर लौटने का फैसला नहीं लिया था जब तक कि उस पोस्‍टर में उसकी तस्‍वीर नहीं लग जाती. बस वह पिता, मां और भाई को छोडकर सपनों के शहर में आ गया था और सपनों के शहर की ऑक्‍सिजन, वहां का दाना पानी लेते-लेते उसके खून में सपनों की मात्रा बढ गई थी वह खुद भी एक सपना बन गया था.

इस तरह वह सपनों के शहर आ गया जहां आने पर उसे एक अजीब तरह का अहसास होने लगा और उसके सपने भी लाल, हरे, नीले, पीले रंगों से भरने लगे. उसे लगा कि उसका जन्‍म इसी शहर के लिए ही हुआ है, लेकिन बहुत जल्‍द ही सपनों के इस शहर में उसके सपनों के सभी रंग सूखने लगे और बजाय लाल, हरे, पीले, नीले रंगों के उसमें भूख के कारण मुंह से निकलने वाले बुलबुले भरने लगे, जिससे उसके सपने देखने की स्‍पीड कम हो गई. यहां तक कि वह अब थोडा भी सपना देखने का प्रयास करता तो उसकी आंखों के सामने सपनों की जगह मटमैले, कसैले और अजीब तरह के अंधेरों से भरे छल्‍ले बनने लगते, जिन्‍हें अक्‍सर मक्‍खियों के झुंड ही तोडते थे. उसे जल्‍द ही अपने सपनों में अजीब सी गंदी बदबू आने लगी थी, जो उनके गलकर सड जाने की होती है.

वह महसूस करने लगा था कि उसके सपने, सपनों के शहर में ही सडने लगे थे, पर क्‍यों उसे यह समझ नहीं आ रहा था. उसे तो लगा था कि उसके सपनों को यहां एक ताकत मिलेगी और वे यहां ज्‍यादा खिलेंगे, लेकिन वे यहां सडने लगे थे, और उसमें हताशा, निराशा, थकान और घुटन के कीडे पडने लगे थे. उसने महसूस किया था कि कभी-कभार बार वह सडक किनारे एकाध सपना देख भी लेता तो उसका सपना जगह-जगह से काला, भद्दा और बदसूरत सा दिखाई देने लगा था, पर बावजूद इसके, उसने एक बात गौर की थी कि उसके सपने मरे नहीं थे. उसने तय किया था कि वह उसके सपनों को बचाएगा इसलिए पहले उसने भूख के बुलबुलों को छांटने का फैसला किया, जिसके कारण ही उसके सपने अंधेरों भरे छल्‍ले बन जाते थे और वह सपने नहीं देख पाता था.

इस तरह चौथे-लडके ने अपने सपनों को सडने, गलने, बदबू से बचाने और भूख के बुलबुलों के बंद करने के लिए शुरूआत में स्‍टेशनों, बस स्‍टैंडों, बागीचों, सडकों, व झुग्‍गियों में दिन काटे और कुछ छोटे-मोटे काम किए.

पहला काम उसे सपनों के शहर में चूहों को मारने का मिला था. जहां वह रात को तकरीबन दो से ढाई बजे के बीच सपने ढोने वाली पटिरयों, गलियों और कोनों में चूहों को मारने का करने लगा. शुरू-शुरू में उसे इस काम में बेहद दिक्‍कत आती थी, कई चूहे मरते नहीं थे, तो कई चूहे एकाएक उछलकर उसके शरीर पर आ जाते थे, जिससे उसे लगता था कि वे उससे दया की भीख मांग रहे हैं, लेकिन चूंकि उसे एक चूहे के पांच रूपये मिलते थे और पांच रूपये से वह भूख के बुलबुलों को खत्‍म करना चाहता था इसलिए वह उन्‍हें मार देता था. जल्‍द ही वह उस काम में एक्‍सपर्ट हो गया और उसे यह काम अच्‍छा लगने लगा.

एक दिन उसने एक अखबार में चूहे मारते हुए खुदकी फोटो देखी तो पहले तो वह बहुत खुश हुआ, लेकिन बाद में उसे लगा कि चूंकि वह सपनों के शहर में है, और यदि चूहे मारने की फोटो भी अखबार में छप सकती है तो फिर उसे इससे भी अच्‍छा काम करना चाहिए. इस तरह उसने इस काम को छोडने का फैसला किया, उसे याद था कि जिस दिन इस काम पर उसका आखिरी दिन था उसने कई चूहों को नहीं मारा था क्‍योंकि उसे लग रहा था कि वह उसके सपनों को ही मार रहा था.

दूसरा काम उसने समंदर से मछली भरकर हाट में पहुंचाने का किया, जिससे वह सालों-साल सपनों के शहर के उस हिस्‍से में घूमता रहा जहां, सपने ही नहीं थे, और जो थे वह उसे मरी हुई मछलियों की तरह तडपते हुए ही दिखाई देते थे, उसने देखा कि इस तरह के काम करने से उसका सपना भद्भा, गंदा और कुरूप होता जा रहा है और वह यदि यही काम करता रहा तो उसका सपना तो छोडिए वह खुद ही टूट जाएगा, इसलिए उसने वह काम भी छोड दिया. इसके बाद वह जगह-जगह होटलों में मस्‍का पहुंचाने का काम करने लगा, इस काम में वह दोनों हाथों में मस्‍का लेकर दिन-रात लाखों सपनों को ढोने वाली, भीड भरी ट्रेन में चढता था और सुबह से शाम तक मस्‍का पहुंचाता रहता था, पर मस्‍का पहुंचाते-पहुंचाते उसे समझ आया कि उसके हाथ मक्‍खन की तरह हो गए हैं, इसलिए वह इन हाथों का दूसरी तरह से उपयोग कर सकता है, सो उसने वह काम भी छोड दिया और लोगों की मालिश करने का कामखोजा. यह काम उसे काफी रास आने लगा, क्‍योंकि इससे उसके सपने की भी मालिश होने लगी थी. साथ में उस लडकी की भी जो उसके भीतर रहती थी और जो उसे फिल्‍म देखने के बाद हर एक दूसरी लडकी में दिखाई देती थी. इस तरह मालिश के जरिये उसे फिर से लडकियां देखने की इच्‍छा होने लगी और उसके भीतर एक लडकी उग आई. वह मालिश करने के बाद घर आकर अपने नरम हाथों से कांच के सामने खडे होकर भीतर की लडकी की मालिश करने लगा. इस मालिश से उसके बदन की भी सिंकाई होने लगी और जल्‍द ही उसे महसूस होने लगा कि रोजाना सुंदर सजी धजी लडकियों को देखकर उसे बेचैन होने की जरूरत नहीं थी क्‍योंकि वह जब चाहता था अपने भीतर बडी हो रही उस लडकी से प्‍यार कर सकता था. इस तरह वह कई सालों तक समंदर किनारे सरसों के तेल से थके-मांदे लोगों की मालिश करता रहा और धीरे धीरे उसने घर जाकर भी अपने ग्राहकों की मालिश करना शुरू कर दिया. समुंदर किनारे और ग्राहकों के घर पर उनकी मालिश करते हुए वह अक्‍सर उन्‍हें अपने बचपन के बहुत सारे सपनों के बारे में बताया करता और उस लडकी के बारे में भी जो मालिश करने के दौरान उसे लडकी ही बना देती थी. अपने ग्राहकों को वह उन सपनों में से उसके चुने हुए एक सपने के बारे में भी बताता था.

इस तरह घर पर मसाज सर्विस देने से उसकी आमदानी ज्‍यादा होने लगी और इस काम से उसे उसका सपना भी साकार होता नजर आने लगा. इस काम को करते हुए उसने देखा कि उसके सपने पहले से कहीं ज्‍यादा रंगीन हो चुके थे. शहर की ऑक्‍सिजन ने उसके सपनों को फिर से रंगीन बना दिया था. अब तो उसे यकीन होने लगा था कि वह इस शहर में हर तीसरे मिनिट में, हर चौथे आदमी कि किस्‍मत बदल जाती है और उसके सपने पूरे हो जाते हैं.

वह मालिश बहुत अच्‍छी करता था, और घर पर जा-जाकर उसने बहुत सा पैसा बना लिया था, इसलिए जल्‍द ही उसने समंदर किनारे तेल का डिब्‍बा लेकर घूमना छोड दिया था और कमाए गए पैसों से कार्ड भी छपवा लिए थे, जिसे वह सुबह-शाम समंदर किनारे ताजी हवा खाने आने वाले पुरूष और स्‍त्रियों दोनों को देने लगा था. वैसे कार्ड छपवाकर सीधे घर पर सर्विस देने का अच्‍छा आइडिया उसने अपने दोस्‍तों को भी दिया था जिससे वे भी ज्‍यादा पैसे कमा सके, लेकिन उसके दोस्‍त उसकी तरह कस्‍टमर्स को संतुष्‍ट नहीं कर पाए थे, इसलिए समुंदर किनारे उसकी डिमांड काफी बढ गई थी. बाद में मालिश करते-करते उसकी भी काफी सेहत बन गई थी और वह काफी सुंदर भी दिखने लगा था. चूंकि इस काम से उसे आमदानी ज्‍यादा होने लगी थी, इसलिए सपनों के शहर में उसने पहली बार कुछ फिल्‍में देखीं थीं, और उसे अहसास हुआ था कि फिल्‍म में हीरो बनने के लिए केवल चेहरा ही नहीं, बल्‍कि नाचना, गाना, एक्‍टिंग करना भी आना चाहिए जिसमें वह पहले ही मास्‍टर था, लेकिन वैसा नहीं था जैसा होना चाहिए था. फिर इसके अलावा  गुंडों को मारने के लिए हीरो के पास चुस्‍त-दुरूस्‍त बदन भी होना जरूरी है, जिसे देखकर सिनेमा हॉल में दर्शक वाह-वाह कर उठे. इस तरह सिनेमा हॉल से कुछ पिक्‍चरें देखकर निकलने के दौरान उसे बाकी सारी चीजें तो समझ में आईं, लेकिन उसे उसके शरीर पर काफी तरस आया क्‍योंकि रोजाना ज्‍यादा मसाज सर्विस देने की वजह से उसका शरीर काफी थुलथुला और बेढोल हो गया था इसलिए अपने सपने को बचाने के लिए उसने रोजाना मालिश नहीं करने का फैसला लिया.

पर हां रोटी की जगह ब्राउन ब्रेड खरीदने के लिए पैसे तो चाहिए थे इसलिए हफ्ते में अब वह केवल एक बार कुछ चुनिंदा कस्‍टमर्स के यहां जाने लगा जबकि बाकी समय अपनी छोटी सी किराए की चॉल में हीरो के जैसे शरीर बनाने में जुट गया. चूंकि चौथे लडके पास पैसा आ गया था इसलिए जल्‍द ही वह यहीं आकर रहने लगा.

यहां आकर, आदिल भाई, यहां कहां रहता था वह, तीसरा लडका जो पहले सोया था, लेकिन चौथे-लडके की कहानी बंद आंखों और खुले कानों से सुन रहा था, उसने अधेड आदमी की धारा प्रवाह बातों को एकाएक तोडते हुए पूछा.
हां, यही रहने लगा,
भाई यहां कहां रहता था वह,
बस यहीं उपर ही रहता था, आदिल भाई ने एक उबासी लेते हुए बगल में बैठे अंजुम को देखते हुए कहा.
बाहर बूंदाबांदी हो रही थी, रात के सवा तीन बज रहे थे, बाहर का पसरा मौन अब कमरे के भीतर प्रवेश कर रहा था. घंटों पहले बनी चाय की प्‍यालियां सूखी दिखाई दे रही थी, जबकि कमरे में तीनों लडकों के चेहरे पर सपने तैर रहे थे.
फिर, फिर क्‍या हुआ, आदिल भाई, यार ये लडका तो गजब का स्‍मॉर्ट निकला, साला बना कि नहीं हीरो.

आदिल भाई को झपकी लग गई थी, थकान उनके चेहरे पर वैसी ही पसरी थी जैसी सपनों के शहर की गलियों में इस वक्‍त सन्‍नाटा, वे सोना चाहते थे, इसलिए उन्‍होंने अंगडाई लेते हुए कहा बाकी कि कहानी कल, अब बहुत नींद आ रही है. उन्‍हें झपकी लेता देख, मिनर्वा ने कहा, भाई आप सोना मत, बताइए न चौथे लडके का क्‍या हुआ वो हीरो बना कि नहीं, आदिल भाई का चेहरा देखकर लग रहा था कि वो बहुत थक चुके थे, उनकी थकान देखकर मिनर्वा ने कहा-चाय बनाओ यार, भाई के लिए, ये भैन चौ.., चौथा लडका जीने नहीं देगा,

आदिल भाई कुर्सी से खडे हो गए और बोले- लौंडों कल सुनना बाकी, उस चौथे ने बहुत लौंडों को हिला दिया, आदिल भाई की बात सुनकर कमरे में तीनों लडकों की आंखों से नींद गायब हो चुकी थी, लेकिन आदिल भाई के आंखों में नींद का समुंदर उलट रहा था इसलिए उनके लिए एक मिनिट भी और बैठना व बोलना मुश्‍किल था. वे मिनर्वा की बात सुनते ही बोले, अब कोई चाय, न कोई सिगरेट, इतना कहते ही आदिल भाई कुर्सी से उठ खडे हुए और अंगडाई लेते उस फ्लैट के दूसरे कमरे सोने के लिए चले गए, जिसकी लाइट दो मिनिट के लिए जली और जल्‍द ही उनके खर्राटों के साथ अंधेरे में डूब गई.

कमरे में अब तीनों लडकों के भीतर चौथा-लडका बैचेनी के साथ सांसे ले रहा था. वे तीनों ही बाहर बिल्‍डिंग के कंपाउंड में सिगरेट फूंक रहे थे, कुत्‍तों का भौंकना लगातार जारी था, बारिश के बाद धुली हुई सडक की सपाटता रात में घुल रही थी. कुछ देर इधर उधर की बतियाने के बाद तीनों लडकों ने चौथे लडके के सपने को लेकर किसी भी तरह का अंदेशा या नया सपना नहीं गढने की सोची, और आपस में बजाय किसी शर्त लगाने के इस बात पर सहमति बनाई कि वे कल सुबह आदिल भाई जैसे सपनों के शहर के बेहद अनुभवी और फिल्‍म इंडस्‍ट्री के बडे प्‍लेटफार्म कहे जाने वाले आदमी से चौथे-लडके के सपने के बारे में उनसे ही जानेंगे, लिहाजा तीनों लडके एक-एक सिगरेट फूंकने के बाद कमरे में आ गए और रात के स्‍याह अंधेरे से भरा वह कमरा सपनों में तब्‍दील हो गया.  

पहला लडका जिसका नाम मिनर्वा था, और जिसकी उम्र सपनों के शहर में सात साल से भी ज्‍यादा हो रही थी, जो बहुत मेहनती था, और मैकडॉनल्‍ड में एक बैरा था, वह उस अंधेरे कमरे में एक रंगीन सपना देख रहा था जिसमें वह हीरो बन गया था और एक प्रोड्यूसर के घर उसकी मसाज कर रहा था. उसके चेहरे पर एक मुस्‍कुराहट तैर रही थी.

दूसरा लडका जिसका नाम अंजुम था और जो सपनों के शहर में विलेन बनने आया था,
अपने मोबाइल में उस आदमी का नंबर खोज रहा था, जिसने उसे उस दिन ऑडिशन के टाइम तीन दिनों के लिए अपने फार्मा हाउस में मिलाया था. उसने उसका नंबर खोज लिया था और हल्‍के से डायल कर, कट करने के बाद, उससे सुबह बात करने की योजना बनाते हुए मुस्‍कुराकर सपने में डूब रहा था.

कमरे में अंधेरा पसरा हुआ था, बारिश एक बार फिर तेजी से शुरू हो गई थी, तीसरे लडके की आंखों में नींद
नहीं थी, उसने बालकनी में जाकर फिर से एक सिगरेट पी, उसकी आंखों में एक बैचेनी थी जो उस चौथे लडके के सपने को खोज रही थी, अचानक उसने सिगरेट खत्‍म की और अपने कपडे उतारकर आदिल भाई के कंबल में घुस गया जहां पर वह चौथे-लडके के साथ था. 
_________________________
सारंग उपाध्याय (January 9, 1984, मध्यमप्रदेश, हरदा
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में संपादन का अनुभव कविताएँकहानी और लेख प्रकाशित फिल्‍मों में गहरी रूचि और विभिन्‍न वेबसाइट्स और पोर्टल्‍स  पर फिल्‍मों पर लगातार लेखनफिलहाल इन दिनों मुंबई से निकलेन वाले हिंदी अखबार एब्सल्यूट इंडिया में कार्यरत है

परख : हुल पहाड़िया (उपन्यास) - राकेश कुमार सिंह : राकेश बिहारी

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नेपथ्य का नायक – तिलका मांझी       
राकेश बिहारी 



बाहरीशक्तियों द्वारा किसी समाज या समुदाय विशेष की पहचान और अस्मिता के अतिक्रमण तथा उसके विरोध की कड़ियों के दस्तावेजीकरण से इतिहास की शृंखला का एक बड़ा हिस्सा तैयार होता रहा है. इसके समानान्तर एक सच यह भी है कि घुसपैठ और विद्रोह की न जाने कितनी द्वन्द्वात्मक संघर्ष गाथाएँ इतिहास का हिस्सा बनने से रह जाती हैं या कि जानबूझ कर उन्हें इतिहास से बेदखल कर दिया जाता है. भारत के आदि-निवासियों की प्रमुख जनजाति पहाड़िया का स्वतन्त्रता-संघर्ष भी इतिहास में दर्ज होने से छूट गई या कि छोड दी गई उन्हीं अनाम गाथाओं में से एक है. ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित उपन्यासों की भूमिका इन अर्थों में दोहरी हो जाती है कि वे न सिर्फ इतिहास में दर्ज घटनाओं का एक रचनात्मक पुनर्पाठ प्रस्तुत करते हैं बल्कि इतिहास में अंकित होने से रह गई घटनाओं का कथात्मक दस्तावेजीकरण भी करते हैं. सुपरिचित कहानीकार-उपन्यासकार राकेश कुमार सिंहका उपन्यास हुल पहाड़िया,आदि विद्रोही बाबा तिलका माझीकी समरगाथा के बहाने न सिर्फ पहाड़िया जनजाति के इतिहास से हमें रूबरू कराता है बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों  और गल्प के सहमेल से तैयार कथाकृतियों के रचनात्मक औचित्य और उसकी उपादेयता को  भी रेखांकित करता है.

गोकि ऐतिहासिक उपन्यासों का मूल आधार निश्चित रूप से शोध और श्रम से इकट्ठा की हुई तथ्यात्मक जानकारियाँ ही होती है,फिर भी उपन्यासों को मानक ऐतिहासिक ग्रन्थों की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए. कारण कि इतिहास को उपन्यास बनाने के क्रम में लेखक कई ऐसी युक्तियों का प्रयोग करता है जो सीधे-सीधे इतिहास के जीने से उतर कर नहीं आतीं. न सिर्फ कथारस के प्रवाह और प्रभाव को बचाए रखने के लिए बल्कि अतीत की गाथाओं के कुछ खोये हुये सूत्रों की तार्किकता को पुनर्सृजित करने के लिए भी ऐसा किया जाना बहुत जरूरी होता है. किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ते हुये इतिहास और उपन्यास के बीच की इस बारीक विभाजक रेखा का ध्यान रखा जाना बहुत जरूरी होता है. दरअसल तथ्य और गल्प के मिश्रण की सही आनुपातिकता ही इस तरह के उपन्यासों की सफलता या असफलता को तय करते हैं.  उपन्यास हुल पहाड़ियानिश्चित तौर पर इस कसौटी पर खरा उतरता है. राकेश कुमार सिंह पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संघर्ष की यह गाथा कहते हुये इतिहास और रचना के फर्क को इस तरह पाट देते हैं कि पाठक को यह एहसास ही नहीं रहता कि कब फैक्ट्सफिक्सनमें  बदल जाता है और कब फिक्सनफैक्ट्समें. तथ्य और गल्प का इस तरह दूध-पानीहो जाना ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है.

उपन्यास की शुरुआत राजमहल पहाड़ी पर बसे एक पहाड़िया-गांव का नया मांझी यानी मुखिया चुनने की घटना से होती है. दिलचस्प है कि किसी गाँव के वर्तमान मांझी का ज्येष्ठ पुत्र जो स्वाभाविक रूप से अगला मांझी नियुक्त होने की पात्रता रखता है को भी मांझी घोषित होने के पूर्व कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है. यदि वह इस परीक्षा स्वरूप दी गई जिम्मेवारियों का सकुशल निर्वहन नहीं कर पाया तो मांझी बनने की उसकी पात्रता स्वत: खत्म हो जाती है. उल्लेखनीय है कि यह परीक्षा  नामलेहाजी नहीं होती बल्कि उम्मीदवार को सामाजिक कल्याण से जुड़े तीन   महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करना होता है. कुशल नेतृत्व क्षमता तथा सामाजिक  सरोकारों के प्रति संभावित माझी की प्रतिबद्धता को जाँचने की यह आदिवासी परंपरा  न सिर्फ वंशवाद के भीतर ही वंशवाद का प्रतिपक्ष रचती है बल्कि वर्तमान  लोकतान्त्रिक परम्पराओं को भी आईना दिखाने का काम करती है. यह और इस जैसी  कई अन्य आदिवासी परम्पराओं,आदिवासी जीवन की दुरूहताओं,कठिनाईयों आदि   के बीच उपन्यास का प्रतिपाद्य पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संग्राम और उसमें  जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका माझी उर्फ तिलका बाबा की अग्रणी भूमिका के रूप में  निखर कर आता है.

जबरा सच्चे अर्थों में अपने समाज का नेता है. अपने लोग और अपनी माटी की सुरक्षा के लिए उसका समर्पण देख मानसमें तुलसी द्वारा बताया गया एक आदर्श  मुखिया का गुण सहज ही याद हो आता है - मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान सह एक,पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक.  पहाड़ी एकता के लिए पल-पल कटिबद्ध और प्रयासरत जबरा के समानान्तर उपन्यास की मांस-मज्जा में ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी-विस्तारवादी नीतियों के क्रमिक क्रियान्वययन की बारीक कहानी भी घुली हुई है. साम-दाम-दंड-भेद की चरणबद्ध कूटनीतिक चाल  को अंजाम देते कंपनी के सिपहसालारों यथा– जेम्स ब्राउन,क्लीवलैंड,मिटफोर्ड,ह्वीलर आदि की व्यूहरचना के विरुद्ध फागुन,कुंजरा,तेतर,चांदो,करमा,कार्तिकजैसे मन-प्राण से समर्पित जन-योद्धाओं के साथ तिलका मांझी की प्रति-व्यूहरचना के बीच अतिक्रमण के विरुद्ध विद्रोह की यह समरगाथा न सिर्फ इतिहास में दर्ज होने से रह गए नायकों को अंधेरे से बाहर निकालने का जतन करती है बल्कि सत्ता और शासन द्वारा इतिहास के मनोनुकूल लेखन की सच्चाई से भी पर्दा उठाती है.

यूं तो सामान्यतया पहाड़िया जनजाति के स्वतन्त्रता संग्राम का यह इतिहास नायकों (पुरुषों) की वीरगाथाओं से ही विनिर्मित हुआ है,पर उपन्यास में आए दो स्त्री चरित्र – तिलका की पत्नी रूपनी और सुलतानाबाद की रानी सर्वेश्वरी अपनी न्यून लेकिन अति महत्वपूर्ण उपस्थिति के कारण न सिर्फ उपन्यास के घटित होने के दौरान  बल्कि इसके समाप्त होने के बाद भी हमें देर तक याद रहते हैं.  बल्कि सच तो यह है कि इन दोनों स्त्री पात्रों का होना इस उपन्यास के होने को भी निर्धारित करता है. रानी सर्वेश्वरी जहां कंपनी के साथ जारी संघर्ष में पहाड़ियों का गुप्त रूप से साथ देती हैं वहीं रूपनी न सिर्फ तिलका की अनुपस्थिति में उसका घर-बार संभालती है बल्कि  प्यार,धिक्कार,और प्रोत्साहन के अवसरानुकूल भावावेग से तिलका के जबरा  पहाड़िया से तिलका मांझी और तिलका माँझी से बाबा तिलका होने की प्रक्रिया में  अपना महत्वपूर्ण  योगदान देती है. इसके अतिरिक्त फागुन जो रिश्ते में उसका देवर  लगता है,के साथ हास-परिहास में जिस तरह वह कई मम्म विंदुओं को छूती है,वह  उल्लेखनीय है. संकेतो में कहे गए उसके संवादों का ही असर है कि फागुन की पत्नी गेंदी पूरे उपन्यास में सिरे से अनुपस्थित रहते हुये भी पाठक-मन में गहरे उपस्थित हो जाती है. इस तरह की कई कलात्मक उचाइयाँ उपन्यास में आरंभ से अंत तक मौजूद हैं. 

उपन्यास में इन दोनों चरित्रों (रूपनीऔर सर्वेश्वरी) को और विस्तार मिल सकता था,लेकिन लगता है उपन्यासकार इतिहास की गहनतर होती घटनाओं में इस तरह धँसता चला गया है कि इन नायिकाओं के व्यक्तित्व की निर्मिति और उनमें निहित संभावित विस्तार की तरफ उसका  अपेक्षित ध्यान जाने से रह गया है. रूपनी का चरित्र तो फिर भी अपनी सीमित उपस्थिती के बावजूद एक तार्किक अंत को प्राप्त होता है लेकिन रानी सर्वेश्वरी उपन्यास के कथा-यात्रा के बीच में ही कहीं गुम-सी हो गई है. रानी सर्वेश्वरी जो इस संघर्ष में पहाड़िया समुदाय खास कर तिलका के साथ थी,एक दिन कंपनी के सैनिकों द्वारा अपने ही किले में नज़रबंद कर दी जाती हैं. तिलका मांझी जो उन्हे भी कैद से मुक्त कराना चाहता था,अविराम संघर्ष की लगभग सभी शुरुआती लड़ाइयों के जीतने के बाद एक दिन अपने साथियों समेत शहीद हो जाता है. पर रानी सर्वेश्वरी का क्या हुआ,उपन्यास उसके संदर्भ में कुछ नहीं बताता. हो सकता है इस संदर्भ को लेकर पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध न हों. लेकिन,हुल पहाड़ियाउपन्यास है,इतिहास का मानक ग्रंथ नहीं. जाहिर है लेखक इतिहास की  उन छूटी हुई कड़ियों को किसी दूसरी युक्ति के साथ इसे उपन्यास का हिस्सा बना  सकता था,लेकिन यह अवसर उसके हाथ से फिसल गया है.

एक महत्वपूर्ण पात्र को बीच में ही छोड़ दिये जाने की इस लेखकीय युक्ति या नियति को रेखांकित करते हुये उपन्यास के शुरुआती अध्याय के बाद सूत्रधार की भूमिका में आए प्रो. श्याम बिहारी सिंह और जेनी के होने की उपयोगिता पर बात करना भी जरूरी लगता है. रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रोफेसर श्यामबिहारी सिंह और जेनी का आगमन जब उपन्यास में होता है,पहाड़िया जनजाति की यह कथा एक परिपक्व आवेग के साथ सीधे इतिहास के हवाले से निकल चुकी होती है. एक खास अंतराल के बीच कई बार की आवाजाही के बाद ये पात्र भी उपन्यास के पटल से ओझल हो जाते हैं. ऐसे में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि अपनी रफ्तार पकड़ चुकी कथा यात्रा में लेखक ने अचानक से सूत्रधार को लाने की जरूरत क्यों महसूस की और फिर उसे बीच में ही क्यों छोड दिया?मुझे लगता है उपन्यास की दिक्कतें इन्हीं पात्रों के होने और न होने की संभावनाओं के बीच अवस्थित है. ये पात्र इतिहास और गल्प के बीच की सेतु का काम कर सकते थे,कुछ हद तक उपन्यासकार ने इन पात्रों की भूमिका को वहाँ तक ले जाने की कोशिश भी की है. लेकिन उपन्यास में उनका और इस्तेमाल हो सकता था,होना चाहिए था. जेनी उत्कंठाओं से भरी एक शोधार्थी है. प्रो श्यामबिहारी सिंह उसकी जिज्ञासाओं का समाधान करते चलते हैं. लेकिन मेरे मन में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि रानी सर्वेश्वरी की नियति को  लेकर जो जिज्ञासाएँ एक पाठक के मन में जागती हैं,वह जेनी के मन में क्यों नहीं जागतीं?हाँ,प्रो श्याम बिहारी सिंह और जेनी की बातचीत के दौरान उपन्यास में पहले से घट चुकी घटनाओं का दुहराव भी खटकता है. इन पात्रों का किंचित और रचनात्मक उपयोग उपन्यास को बेहतर और पूर्ण बना सकता था. बावजूद इसके लगभग भुला दिये गए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाक्रम को अपेक्षित पठनीयता और कथात्मकता के साथ जिस तरह राकेश कुमार सिंह ने औपन्यासिक विस्तार दिया है,वह बहुत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. हिन्दी जगत को इस तरह के कई और उपन्यासों की जरूरत है.
___________ 
हुल पहाड़िया (उपन्यास) / लेखक – राकेश कुमार सिंह
प्रकाशक – सामयिक बुक्स,नई दिल्ली / पृष्ठ संख्या – 320 / मूल्य – 495 रुपये

राकेश बिहारी : संपर्क: एन एच 3/सी 76,एनटीपीसी, 
पो.-विंध्यनगर,जिला - सिंगरौली 486885 (म. प्र.) 
मो.-  09425823033   ईमेल - biharirakesh@rediffmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : बहादुर पटेल

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बहादुर पटेल जीवन से संलग्नता के सजीव, संवेनशील और सक्षम कवि हैं. उनमें एक खुरदरापन और जीवटता है जो आत्माभिमान से आलोकित है. जब वह कहते हैं –‘और हम सबमें एक चापलूस की आत्मा भी उतर आई है.’ तो यह प्रतिकार की सच्चाई से उठती हुई लगती है. आक्रोश को धीरज से कविता में बुनने के लिए जो हुनर चाहिए उसे बहादुर पटेल ने अर्जित किया है.   


बहादुर पटेल की कविताएँ                                 





शब्दों तुम आना 


शब्दों तुम आओ मेरे पास 
जो कोई और बुलाता है 
जाओ उसके पास भी जाओ 
जो किफ़ायत बरते तुम्हारे साथ 
उसके पास संगीत की तरह जाओ

जो अपव्यय करते हैं 
जाना तो होगा तुम्हे उनके भी पास 
उनके मुंह से जब गिरो 
तो हवा में नहाकर 
चुपके से मेरी कविता में छुप जाना

तुम्हे तो जाना ही होगा हर एक के पास 
किसी बच्चे की तोतली भाषा में 
इस तरह जाना कि वह तुम्हे सीख ले
इतनी जल्दी मत आना उसके पास से 
कि वह तुम्हे भुला दे 
तुम बच्चे से कुछ सीख लो 
तो मेरे अवचेतन में बस जाना 
मेरे बचपन की किसी कविता में 
उसका बचपन गा जाना

मेरी पंक्तियों में ऐसे आना 
जो जगह तुम्हारी हो वहीँ बैठ जाना 
किसी और शब्द की जगह पर मत बैठना 
शिशु की तरह का शब्द आये तो पहले उसे जगह देना 
मेरे आग्रह को ठुकराकर 
कभी अपने मन से मेरी कविता में आना

जो शब्दों का इतिहास न जानता हो 
उसके पास बिना सोचे समझे चले जाना 
मैं भी जानता हूँ और तुम भी जानते हो 
उसकी मुर्खता के किस्से मुझे सुना जाना 
एक कवि ही रखेगा तुम्हे सही जगह 
तब तुम जनता को सही-सही बता जाना

तानाशाह के पास भी जाना 
अबोला न लेना उससे 
पर उसकी बातों में ना आना 
वह तुम्हे कीलों वाले जूते पहनायेगा 
सन्नायेगा उन सारे शब्दों पर 
जो तुम्हारे अपने ही हैं 
फिर भी तुम आना 
मेरी कविता में 
दिखाने उसका भी चेहरा.



पॉवर हाउस


हमारे प्रेम करने की कई जगहें थी 
जहाँ मिलना होता हमारा
उन जगहों के भीतर भी 
कई-कई छुपने की जगहें थी 
जिनके पीछे चोरी-छुपे होता अक्सर प्रेम

इस तरह हम उन जगहों से भी करने लगते प्रेम 
दरअसल वे हमारे लिए ऐसा लोक थीं 
जहाँ हमारे सपने अण्डों की शक्ल में रखे होते 
हम उन्हें सेते रहते 
उनके भीतर हमारे पंख पल रहे होते 
जिनके सहारे हमें पार करना था 
ढाई आखर का सफ़र

दरअसल ये वे जगहें थीं 
जो संसार के लिए फालतू थी 
वे ऐसी जगहों से नफ़रत करते
उनके हिसाब से ये ऐसी पाठशालाएं थी 
जो हम जैसे आवारा लोग बनाती थीं 
वे ऐसी जगहों को मैदान 
या किसी धर्मस्थल में बदल देना चाहते थे

पर दीवाने मानते कहाँ हैं यारो 
वे बार-बार इन जगहों पर ही जाते 
और ये जगहें बदनाम होने के बावजूद धड़कती रहती 
और बनी रहती हम लोगों की शरणस्थली

ऐसी ही थी यह जगह भी 
पॉवर हाउस 
जहाँ का सन्नाटा मुझे खींचता रहता 
अक्सर हम वहाँ जाया करते 
और ट्रांसफार्मर के पीछे होता 
हमारा मिलना 
जब कभी वह नहीं आती 
तो भी घंटो वहाँ बैठा रहता मैं
मोबाईल पर सुनता रहता गाने 
या उससे बतियाता रहता

पॉवर हाउस याने इस जमीं पर ऐसी जगहें 
जैसे पृथ्वी का कोई उपग्रह
जैसे लोकधुन के बीच आवाज़
नृत्य के बीच की लचक
कविता के बीच कहा गया अनकहा अर्थ
पेंटिंग के बीच नाचता हुआ कोई स्ट्रोक
दूर किसी के पुकारने की आवाज़ के भीतर का दर्द

इस तरह ये जगहें होती रहती
प्रेम से आबाद 
जब होता मैं उसके प्रेम में 
तब चला जाता खुद से बहुत दूर
और बिलकुल उसके पास

वहीं से लगाता आवाज़ 
तुम पॉवर हाउस आ जाना अपनी आवाज़ लेकर
अपने कान भी लेती आना 
मैं उनमे शहद की कुछ बूंदे डालूँगा 
जिन्हें तुम गुनगुनाती रहना मेरी यादों के साथ

सबसे ताज़ी और खनकती हुई हंसी भी ले आना 
मैं उसकी माला बनाऊंगा 
और तुम मिलोगी तो अपने ही हाथों से 
तुम्हारे जुड़े में सजाऊंगा

अपने पांवों की थप-थप भी ले आना 
मैं उन आवाजों के सहारे 
पार करूँगा तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी

इस तरह इन जगहों को 
रखा हमने आबाद 
ये जगहें हमारे भीतर धड़कती रहेंगी 
और हमारी धडकनों की आवाज़ बुलाती रहेंगी उन्हें
जो हमारी तरह होना चाहते हैं ।


सारा नमक वहीँ से आता है 


सारे समुद्रों का जल 
मेरी प्यास से कम है 
देखो मेरी आँखों की खिड़की से भीतर झांककर 
कितना विस्तार है तुम्हारा

कितनी लहरें हैं 
जो सीधे टकराती हैं तुम्हारी आत्मा से 
यह जानती हो तुम 
और तुम्हारा बेखबर बने रहना 
मेरे भीतर बजता रहता है 
लहरों और पानी के बीच का सन्नाटा 
मछलियों का रुदन सुना है तुमने 
देखा है कभी 
सारा नमक वहीँ से आता है 
मेरी प्यास नमक के बिना अधूरी है

सारे अवशेष मेरी उम्र के तल में विलंबित है 
खंखोलने पर भी वे सतह पर नहीं आते 
मेरी आकांक्षाएं एक विलोम के घेरे में फँसी रहती हैं 
मेरे जीने का मकसद 
कोई अर्थ पैदा नहीं करता 
सारा नमक समुद्र ने मुझसे उधार लिया है . 



चिड़चिड़ाहट

मैं इन दिनों बहुत चिडचिडा हो गया हूँ 
किसी भी समय मेरे गुस्से का पारा जा सकता है 
सातवें आसमान पर 
इसकी वजह मुझे नहीं पता 
जब शांत होता है जल तो गोते लगाकर जानना चाहता हूँ 
कि तल में क्या है 
क्या मेरी परछाई वहाँ पत्थर की तरह पड़ी हुई है

कांटे का कोई झांकरा भी नहीं दिखता वहां 
मेरे मन के कोटर में जहरीला जंतु तो नहीं बैठा है 
बेवजह चिड़चिड़ाहट का सबब कोई कैसे जाने 
यह मुझे कमजोर करती है 
जैसे मुझे जिसपर गुस्सा होना चाहिए उसपर अचानक 
प्रेम की बारिश करने लगता हूँ 
और जो कमजोर और असहाय होता है 
उसी पर उतर जाता है सदियों का गुस्सा

मेरे पास गुस्से और प्रेम करने की कई वजह हैं
जो अचानक सामने आती हैं 
प्रायोजित कुछ भी नहीं होता 
काम का बोझ तो होता ही है इन दिनों 
कैसी दौड़ लगाता है यह जीवन

सबको देखता हूँ गौर से तो लगता है 
हर कोई चिडचिडा है 
अपने से कमजोर पर निकालता है अपना गुस्सा 
हर आदमी अपने गुस्से को प्रेम में बदलने की कला में माहिर है 
ठीक उसी तरह प्रेम को गुस्से में

जैसे मुफलिसी में होता हूँ 
तो गाली देता हूँ पूंजीपतियों को 
और गांठ में आते है कुछ रुपये 
तो गरिया लेता हूँ गरीबों को

फेरी वाले से मोल भाव करता हूँ 
तो लूटने का इल्जाम लगता हूँ 
मॉल में जाता हूँ तो गदगद भाव से खरीद लाता हूँ 
गैरजरूरी सामान

मेरी और आप सबकी चिड़चिड़ाहट में कोई खास अंतर नहीं हैं 
यह समय ही ऐसा है 
हम चिड़चिड़े हो गए हैं 
और हम सबमें एक चापलूस की आत्मा भी उतर आई है.


पत्थर

एक बूँद पानी उतरा है कई बरसों में 
पत्थर के सीने में 
आग की एक लपट उसके भीतर पहले से ही है मौजूद है 
उसकी सख्ती में दोनों का बराबर हाथ है 
एक दिन आग और पानी ही गलायेंगे उसे 
यह एक किताब की तरह खुलेगा 
और अपना इतिहास बताएगा

हमारी सभ्यता के कई टूकडे बिखर जायेंगे आसपास 
हम चुनने की कोशिश करेंगे 
वे धुल में तब्दील हो जायेंगे 
हमारा संदेह उनको कई परिणामों में बदल देगा

पत्थर ही आग पैदा करेगा 
वही बचाएगा इस पृथ्वी को टूटने से 
वही लौटाएगा हमें हमारा पानी 
वह हमारे घरों को बनाएगा 
और हम उनमें रहेंगे 
वह शामिल रहेगा हमारे स्वाद में 
जैसे वह कभी शामिल रहा था हमारे विकास में 
वह अक्सर हमारी स्मृतियों में सन्नाता रहता है

हमारा इतिहास पत्थर, आग और पानी के बिना अधूरा है 
सभ्यता की किलंगी पर चढ़ा आदमी 
इनसे बहुत पीछे है 
इनकी गंध हमारे भीतर हवा की तरह रहती है 
जब कोई स्त्री सिलबट्टे पर मसाला पीसती है 
या घट्टी पीसती है 
तब बजता है इन्ही में संगीत 
जो सदियों तक हवा में रहेगा मौजूद 
और हमारी सभ्यता के बहरे कान सुन नहीं पाएंगे.
निवेदन करता हुआ आदमी 


निवेदन करता हुआ आदमी 
विक्षिप्त कहलाता है
वह कहीं भी मिलेगा इस समय में तो इससे कम क्या कहलायेगा 
अपने जीवन के तमाम दुखों पर 
हरा हुआ ये आदमी रिरियाता हुआ आयेगा नजर 
अपने किसी अदने से सुख में भी वह पागल का पागल लगेगा 
अपनी किसी जिद पर भी वह गिड़गिड़ाता नजर आयेगा 
उसके रोने का तरीका भी हंसायेगा ही

वह किसी पत्थर पर बैठ कर 
इस सख्त दुनिया से एतराज जताएगा 
तब उसके मन में झाँकेगी कोई तितली 
जिसे वह पकड़ने दोड़ेगा 
धीरे से मुस्काएगा अपने इस पागलपन पर

वह किसी एकांत की और भागेगा अपने को बचाता हुआ 
और फँस जायेगा भारी भीड़ में
वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझेगा 
खोया हुआ अपने को ढूँढ़ेगा 
और अंततः नाकाम होकर अपना ही पता पूछेगा
और उसे कोई नहीं बताएगा

बहुत लोग हैं जो इसी तरह निवेदन करते दिखाई दे जायेंगे 
छोटी-छोटी बातों पर झल्ला उठेंगे 
जब लोगों का व्यवहार अप्रत्याशित होगा 
तो वे उदासी के किसी जंगल भटकते रहेंगे 
अपने पर गुस्सा करते हुए दूर तक निकल जायेंगे 
वे गुमनाम से घर लौटेंगे तो 
अपने ही घर में घुसने से पहले 
उनसे पूछा जायेगा कि वे कौन हैं

अपने जीवन में किये गए सारे काम 
उन्हें अपराध की तरह लगेंगे 
जिनका दंड उन्होंने आखिर अब तक भोगा है
एक अंधड़ ऐसे लोगों को घेर लेता है बार-बार

आँखों की पुतलियों पर धूल की परत दृश्य को कर देती है धुंधला 
धूल के परदे के पार वह सत्य को देखने की करता है कोशिश 
लेकिन यह हास्यास्पद आदमी 
आज भी एक टिमटिमाते दीये को बुझने नहीं देता 
एक आस लिए वह लगातार निवेदन कर रहा है.


बहुत उदास हूँ मैं आज 

ओह बहुत उदास हूँ मैं आज 
देखो इस वीणा का तार कितना ढीला हो गया 
कितना कमजोर हो गया है यह जीवन भर रो गाकर
इसको कसने से मन लगातार डरता रहता है 
किस कोने में रखूँ 
जहाँ यह शोभा बढाता रहे
कोई राग अब इसके बस का नहीं

दूसरे जीवन का कोई भरोसा नहीं 
यही जनम था मेरे हिस्से का जिसे बहुत बेतरतीबी से जिया 
कई दाग लगाये मैंने इस पर 
ये दाग धोने के विचार कांपता रहता है वर्तमान 
इनमें रंग भरना चाहता हूँ 
किस फ्रेम में रखूँ 
कौन सी वीथिका में टांगू
इन दाग से लिथड़े हुए रंगों से अब कोई चित्र नहीं उभरता

कितने-कितने नियम बनाये 
मुझ जैसे लोगो के लिए 
पर वे लोग यह कभी जान भी नहीं पाए कि
मैंने कैसे इनके परखच्चे बिखेरे हैं 
दगे और धोखे के इस महल में असंख्य पंख बिखरे पड़े हैं

हमेशा मुझे गुमान रहा मेरी कला पर 
कलाकार होने की छूट हर बार मैंने ली 
इसी बिना पर अपराधी होने से हर बार बचा मैं 
मेरी यह ढाल अब मेरे काम नहीं आ रही 
किस शोर्य की दीवार पर टांगू
इतनी तलवारें पहले ही टांग चुका हूँ यहाँ कि जगह कहाँ बची है

बहुत तेज दौड़ा हूँ मैं 
थकान की दीवार कभी कुछ समझा ही नहीं मैंने

मैं बहुत लाचार सा खड़ा हूँ 
अपने को दुःख देता रहा 
लगातार-लगातार अपने से ही लड़ता रहा हूँ 
मैंने किसी व्यवस्था पर कभी एतबार नहीं किया 
लगातार करता रहा प्रेम पर भरोसा 
अब मैं किसी भी पल मारा जा सकता हूँ 
किसी भी तरह भरोसा नहीं दिला सकता
कि जो मैं कर रहा हूँ वही सही है.
_________________________________________

बहादुर पटेल

17 दिसम्बर, 1968 को लोहार पीपल्या गाँव (देवास, म.प्र.) में
वामपंथ से गहरा लगाव.

हिंदी की अधिकांश प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
उर्दू, मलयालम, नेपाली में कविताओं का अनुवाद

कविता संग्रह 'बूंदों के बीच प्यास'प्रकाशित, दूसरा कविता संग्रह 'सारा नमक वहीं से आता है'शीघ्र प्रकाश्य

सम्बद्ध: ओटला देवास, सम्पर्क: 12-13, मार्तंड बाग़,
तारानी कॉलोनी, देवास 

सहजि सहजि गुन रमैं : हरिओम

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Nitin Mukul-REALM OF THE SENSES

नासिख के शिष्य ‘आग़ा- कल्लब हुसैन खां’ का एक शेर है
लोग कहते हैं कि फन्ने शायरी मनहूस है
शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलक्टर हो गया.

डॉ. हरिओम के साथ मसला दूसरा है, वह कलक्टर होने के बाद भी शायरी करते हैं – और खूब करते हैं. कहते हैं उर्दू शायरी का पालन पोषण फारसी की देख रेख में हुआ. कह सकते हैं हिंदी गज़लें उर्दू के साथ साथ पली –बढ़ी. इसमें कुछ आश्चर्य नहीं – चिराग से चिराग जलते हैं. आज हिंदी में ग़ज़लों की मजबूत परम्परा हैउसकी अपनी कुछ विशेषताएं भी हैं.  जब हरिओम कहते हैं -मैं सोच में तेरे नफ़रत की तरह ज़िंदा हूँ /मैं जल्द ही किसी तहज़ीब-सा मर जाऊंगा. तो बात दूर तक जाती है. यह समय बहुत कुछ के मरते जाने का है. बचाने की कोशिश शायरी करती है अदब करता है. हरिओम की ये गज़लें संवेदना और सोच के अनेक मुलायम धागों से बुनी गयी हैं. इसलिए अलहदा और  असरदार हैं.   



हरिओम की ग़ज़लें                                                          



१.

उदास ख़्वाब-सा दरकूंगा बिखर जाऊँगा
फिर उसके बाद हक़ीक़त-सा निखर जाऊँगा

तेरे क़रार पे गर एतबार हो जाए
मैं सर्द रात की दस्तक पे सिहर जाऊँगा

तुम अपने हाथ में पतवार सम्हालो यारों
मैं थोड़ी देर में लहरों पे उतर जाऊंगा

तेरे निज़ाम की चुप्पी का वास्ता है मुझे 
मैं तंग गलियों से चुपचाप गुज़र जाऊंगा

तू नर्म दूब-सा सहरा में अगर बिछ जाये
मैं सर्द ओस की बूंदों-सा छहर जाऊंगा

तमाम घर के झरोखों को बंद कर लेना
उड़ेगी धूल मैं बस्ती में जिधर जाऊंगा

तू एक रात है लम्बी घनी अँधेरी-सी
मैं एक धूप का परचम हूँ फहर जाऊंगा


ये और बात है वादे न निभ सके मुझसे
ये कब कहा था कि वादे से मुकर जाऊंगा

मैं बेजुबां हूँ मगर सख्त हूकुमत मेरी
मैं एक खौफ़ हूँ आखों में ठहर जाऊंगा

मैं सोच में तेरे नफ़रत की तरह ज़िंदा हूँ
मैं जल्द ही किसी तहज़ीब-सा मर जाऊंगा






२.

ज़ख्म खाकर मुस्कराती ज़िन्दगी की बात कर
ज़ुल्म की आबो-हवा है ज़ब्तगी की बात कर

मैं तो काफ़िर हूँ मुझे दैरो-हरम से क्या गरज़
तू किसी इंसान की पाकीज़गी की बात कर

उम्र के हर मोड़ पर सहरा ही अपने साथ था
धूप अब जलने लगी है तीरगी की बात कर

बाद मुद्दत तू मेरी दहलीज़ का मेहमान है
देख लूं जी भर तुझे फिर दिल्लगी की बात कर

ये भी मुमकिन है तेरा महबूब हो जाये खुदा
इश्क़ की गर बात कर दीवानगी की बात कर

आंसुओं से और ज्यादा बढ़ गया दर्द-ए-फ़िराक
ढल चुकी है रात अब तो ताज़गी की बात कर

बादलों की गोद बंजर हो गई है आजकल
आँख से दरिया उठा फिर तिश्नगी की बात कर

वक़्त पे हँसता रहा तो वक़्त तुझको रोयेगा
तू कभी तो मुख्तलिफ़ संजीदगी की बात कर

और भी आ जाएगी अलफ़ाज़ में रंगत तेरे
तू कभी बच्चों सरीखी सादगी की बात कर





३.

किनारे बैठ के तूफ़ान उठाने वाले
नहीं ये डूबती कश्ती को बचने वाले

हवा में जल रही तहज़ीब की आतिशबाज़ी
बुझे-बुझे से हैं तारीख़ बनाने वाले

वही है तू भी वही हाथ में खंजर तेरे
वही हूँ मैं भी वही ज़ख्म पुराने वाले

हुए हैं दौड़ में शामिल ये दिखावे के लिए
ये शहसवार नहीं जीत के आने वाले

मिले तो राह में हमदर्द हजारों लेकिन
नहीं थे दूर तलक साथ निभाने वाले

नमीं के फूल निगाहों में उगाते चलना
मिलेंगे और भी बस्ती में सताने वाले

गुलों की छाँव में बैठे हैं शरीफों की तरह
थके परिन्द दरख्तों से उड़ाने वाले

कहाँ से इनको बुला लाये रंग-ए-महफ़िल में
ये लोग-बाग़ हैं ताबूत सजाने वाले





४.

उजले दिन मेरी रातों से कहते हैं
ख़्वाब तुम्हारे अब आँखों में रहते हैं

किसका ग़म है मंज़र सूना-सूना है
किसकी चाहत में ये आंसू बहते हैं

बिछड़ गए सब जाने क्यूँ बारी-बारी
हम तन्हाई के आलम में रहते हैं

तुझसे मिलना एक पुरानी बात हुई
मुद्दत से फुरक़त के सदमे सहते हैं

तेरे प्यार ने मुझको मालामाल किया
ये मोती हैं जो आँखों से बहते हैं

दिल में दर्द का दरिया उमड़ा आता है
दुःख के परबत जैसे रह-रह ढहते हैं






५.
सुख़नवरी के तक़ाज़ों को निभाने निकले
हम अपने वक़्त का आईन सजाने निकले

घनी हुई जो ज़रा छाँव तो घर के बच्चे
गली में धूप की बस्ती को बचाने निकले

शब-ए-विसाल की सोचें के हिज्र की सोचें
हमें तो सोचना है तेरे दिवाने निकले

तेरा फ़िराक़ भी तस्कीन-ए-दिल हुआ आखिर
गुबार कितने तेरे ग़म के बहाने निकले

पलट के देखा जो इक उम्र-ए-आशिक़ी हमने
ख़ुतूत कितने किताबों में पुराने निकले

लिया जो दौर-ए-तरक्क़ी का जायज़ा यारों
दसेक साल के बच्चे भी सयाने निकले

उदास हैं बड़ी गांवों की सरहदें मेरे
के जितने मर्द थे परदेस कमाने निकले

अब एक शेर उन बंदों के लिए भी कह दूं
जो अपना मुल्क़ तलक बेच के खाने निकले

हंसी में मेरी उन्होंने न जाने क्या देखा
वो फिर से लामबंद होके सताने निकले

वो एक बार निगाहों से होके क्या निकले
हम अहले उम्र उनके नाज़ उठाने निकले

ये दर्द-ए-आखिर-ए-शब फिर तेरा पयाम लिए
रक़ीब जितने थे सब मेरे सिरहाने निकले

हुआ जो ख़त्म तमाशा तो लोग-बाग उठे
औ बात-बात पे फिर बात बनाने निकले



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हरिओम

उच्च शिक्षा जे.एन.यू. से. कविता, कहानी और ग़ज़लों में बराबर रचनात्मक दिलचस्पी. धूप का परचम (ग़ज़ल), अमरीका मेरी जान(कहानी) और ‘कपास के अगले मौसम में’(कविता) प्रकाशित. इसके अलावा रूमानी गायिकी में भी डूबे हुए. फैज़ को उनके सौवें जन्मवर्ष (२०११) पर अक़ीदत के बतौर फैज़ की लिखी हुई ग़ज़लों और नज्मों को अपनी आवाज़ में गाकर ‘इन्तिसाब’नामक एक अलबम जारी किया.
फिलहाल लखनऊ में सरकारी मुलाज़िम.
संपर्क- sanvihari@yahoo.comमो. 09838568852.

कथा - गाथा : कविता (आवाज़ दे कहाँ है)

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आभार के साथ- Alfred Degens











युवा कथाकार कविता की यह दिलचस्प कहानी पहले तो आपको पढने के लिए मजबूर करती है फिर रेडियो और एफ. एम. की दुनिया की आवाज़ों के पीछे की कहानियों से जोड़ देती है. दरअसल यह अपने मूल में प्रेम–कथा है, टीस भरी सम्पूर्णता के साथ. स्त्री-कथाकार जब किसी कथा को बुनती हैं तब उनमें रिश्तों के बनते – बिगड़ते घर लगाव के साथ आत्मीय पैटर्न बनाते हैं. यह घर, घर के बाहर भी है.        


आवाज़ दे कहां है...                         

कविता



(एक)                
रात जैसे अटक गई थी, किसी पुराने जमाने के रिकार्ड प्लेयर पर अटकी हुई सुई की तरह... बीती ना बितायी रैना / बिरहा की जायी रैना / भींगी हुई अंखियों ने लाख बुझाई रैना / बीती ना बिताई रैना....'

अटकी हुई सुई जैसे एक झटके से आगे खिसकी थी... यारा सीली-सीली बिरहा की रात की जलना / ये भी कोई जीना है, ये भी कोई मरना / यारा सीली-सीली...'

रात की चादर तनते-तनते सिकुड़ने लगी थी जैसे बहते-बहते आंसू अपने आप सूखने लगे हों. जैसे खूब-खूब तन लेने के बाद रबड़ अपनी पुरानी स्थिति में लौटने लगा हो. काली घनी उदास सी रात, उदासी जितनी ही फीकी पर बेरंग नहीं. आखिर हरेक उदासी का अपना एक रंग तो होता ही है.

आज शाम से यह उसकी तीसरी सीटिंग थी. पहले मेघा की ड्यूटी, फिर अपनी और अब देर रात यह नान-स्टाप. बस राहत थी तो यह कि उसे अब बोलना नहीं था. उसने गाने चुन लिये थे और बेहिचक अपनी यादों में डूब-उतरा रहा था. उसे हैरत हुई कि वह इस बात से राहत महसूस कर रहा था कि उसे जुड़ना नहीं था किसी से, बोलना नहीं था लगातार. कभी यही तो उसका पैशन हुआ करता था. सत्तर फीसदी गाने और  ढेर सारे कामर्शियल और सोशल मैसेज के बीच भी वह कुछ लम्हे ढूढ़ ही लेता था जिसमें  अपने मन की बात कह जाये. और वह बात इतनी लम्बी भी न हो कि किसी को बोर करे और इतनी छोटी और बेमकसद भी नहीं कि लोग उन्हें सुने और भूल जायें. सिर्फ अपने दिली खुलूस और आवाज़ की दम पर श्रोताओं से उसने एक रिश्ता कायम किया था, एक अलग सा रिश्ता. और इसी के सहारे उसने एक लम्बी दूरी तय की थी.

सुबह-सुबह वह श्रोताओं को गुड मार्निंग कहता, पसंदीदा म्यूजिक सुनाता, किस्सागोई करता हुआ ट्रैफिक का हाल बताता, रोचक खबरों पर अपनी चुहलबाज टिप्पणियां करता लोगों के आफिस तक की बेरंग दूरी तय करने में उनकी मदद करता. उसने कभी कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी. वे सब तो उसके अपने ही थे, उन्हें वह जोड़ लेता अपने सवालों, उम्मीदों और बातों से.

इसी हिम्मत के बल पर तो वह चल पड़ा था तब भी और उसके सामने बस यही एक डगर दिखी थी, उस तक पहुंचने की. और गाहे-बगाहे सीधे-सीधे या कि बहाने से वह बजाता रहता था अक्सर 1946में बनी अनमोल घड़ी'फिल्म का राग पहाड़ी पर आधारित नूरजहां का वह गीत... आवाज़ दे, कहां है...'पर वह आवाज़ भी खलाओं में गूंजती और फिर लौट आती उसी तक, उस सही जगह पर पहुंचे बगैर.

उसकी सकारात्मक सोच अब निराशा में बदलने लगी थी. धीरे-धीरे वह भूलने भी लगा था उसे... या कि उसने तय कर लिया था की सब कुछ भूल जाना होगा कि भूलने के सिवा और कोई दूसरा चारा बचा ही नहीं उसके पास. पर शाम को मेघा वाले प्रोग्राम में जब वह काल आयावह बजा रहा था... ज़िंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं आते...'
"जो बीत गया उसे वापस बुला लेने की यह ललक क्यों?"वह चौंका था, शायद बेतरह. और चौंकने के क्रम में सवाल का जवाब दिये बगैर एक प्रतिप्रश्न कर उठा था - "आप कौन?"
"बस एक श्रोता. क्या फर्क पड़ता है मेरा नाम कुछ भी हो."
वह अपने पांच साला कैरियर में पहली बार अवाक हुआ था. लाजवाब उसे वह आवाज़ भी कर गई थी. ढेर सारे प्रश्नों के चक्रव्यूह में घेरती हुई.
"आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया? बीते हुये को वापस लौटा लाने की यह ललक क्यूं है आप मेंबीत गया जो वह जैसा था कल था. और ज़िंदगी को जीने के लिये आज की जमीन की जरूरत होती है. यूं पीछे मुड़-मुड़ कर देखेंगे तो..."वह चुपचाप सुन रहा था जैसे कोई और भी कहता था उसे...वर्तमान को उसकी पूर्णता में जीना सबसे जरूरी है. हर पल को इस शिद्दत से जियो कि उसमे पूरी ज़िंदगी जी लो.  फिर बीत चुके से कोई शिकायत नहीं होगी और न उसे वापस लाने की ललक.उसने सहेजा था खुद को, वह अपनी सीमाओं में बंधा था. वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर उसने कहा बस इतना ही  वह भी अपने को बटोरते हुये... "गाना?"
"किशोर कुमार का गाया, गोलमाल फिल्म का वह गीत - आनेवाला पल जानेवाला है."
"डेडिकेट करेंगी किसीको...?"
"हां, आपको..."वह आवाज़ खिलखिलाई थी.

उस खिलखिलाहट में भी सम जैसा कुछ था... पर उस सम से भिन्न भी. वहां एक चहक होती थी, वहां एक ललक होती थी और यहां तह-तह दबाई गई उदासी.

मेघा ने जाते हुये कहा था उससे यार, प्रोग्राम को अपने प्रोग्राम की तरह एन्सीएंट हिस्ट्री का कोई चैप्टर मत बना डालना, यही रिक्वेस्ट है तुम से... प्लीज... कुछ चटकदार-लहकदार नये गाने...'उसके चेहरे की रेखायें तनी थी और इस उतार-चढ़ाव को भांपते हुये उसने कहा था  चलो ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी...'

मेघा उसकी दोस्त थी. मेघा उसे अच्छी लगती थी ... पर उस जैसी नहीं.  उस जैसी तो फिर कोई नहीं लगी. और यहां की ये लड़कियां...उसे बेवकूफ समझती थीं सारी की सारी. और आपस में उसे बाबाआदम'कह के पुकारतीं. मेघा ने ही बताया था उसे. मेघा ही अकेली कड़ी थी उसके और वहां के माहौल के बीच. वो लड़कियां जब मन होता आतीं, मुस्कुरातीं और कहतीं... सहज, मुझे कुछ जरूरी काम है, मेरा प्रोग्राम तुम देख लोगे, प्लीज...'और फिर चल देतीं अपने ब्वाय फ्रेंड के साथ... और फिर आपस में बतियातीं आज फिर उसे बकरा बनाया. 

उसे समझ में आता था सबकुछ. पर काम ले लेता. काम तो आखिर काम था चाहे जिसके हिस्से का हो. और वह काम करने ही तो आया था यहां... दिन-रात बेशुमार काम... कि वह सब कुछ भुला सके या कि पहुंच सके उस तक... यह बात उन तितलियों जैसी लड़कियों की समझ में कहां आती... वे सब लड़कियां जो प्रीति जिंटा और विद्या बालन की होड़ मे इस फील्ड में आ घुसी थीं और कुछ उसी स्टाईल मे सजती-संवरती और कहती थीं - हलो ओ ओ ओ दिल्ली... कचर-कचर अंग्रेजी बोलती और अपने अलग-अलग डीयो और परफ्यूम्ज़ की गंध से  स्टूडियो में गंधों का कोई काक्टेल रचती ये लड़कियां जब स्टूडियो से एक साथ निकलतीं तो सब गंध हवा-हवा- हो लेते और पूरा का पूरा स्टूडियो निचाट हो जाता.  ऐसे में गुलशन अक्सर आता उसके पास और सुना जाता कोई न कोई शेर... ज़मीं भी उनकी ज़मीं की ये नेमते उनकी / ये सब उन्ही का है -  घर भी, ये घर के बन्दे भी/ खुदा से कहिये कभी वो भी अपने घर आये.'वह जानता था वो बातें जरूर लड़कियों की  कर रहा है पर उसका इशारा किसी खास की तरफ है. और वह सचमुच उसके लिये दुआएं मांगता, सच्चे मन से. लेकिन उसकी दुआएं तो हमेशा बेअसर ही रहीं. नेहा प्रोग्राम एक्ज़्क्यूटिव शिवेश के संग-साथ ज़्यादा दिखने लगी थी इन दिनों. वे साथ-साथ निकलते... कभी-कभी स्टूडियो में साथ-साथ घुसते भी. गुलशन बहुत उदास रहने लगा था और उस दिन उदासी में ही कहा था उसने...सामने आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की / मुस्कुराये भी पुरानी किसी पहचान की खातिर / कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया.'उसका मन हुआ था वह मुड़ कर गुलशन को कलेजे से लगा ले. पर उसने हौले से उसकी हथेलियों पर अपनी हथेली भर धर दी थी.


(दो)                       
अभी तक सब कुछ हवा में था और हवा में ही उड़ रहा था इधर-उधर, कहीं से कनफूसियां आती और कहीं तक निकल जाती. पहले गुलशन-नेहा और अब शिवेश-नेहा.  वह सब कुछ बहुत हल्के में लेता. लेकिन उसे आज समझ में आयी थी, ‘अदब'और मुखातिब'पेश करने वाले और हमेशा हंसते-हंसाते रहने वाले गुलशन की संजीदगी... लड़कियों का शब्द यदि उधार लें तो एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव'. और इस एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव शब्द को वो यूं मुंह बिचका कर इलेबोरेट करतीं जैसे कि कोई बुरी बीमारी हो वह.

पर मेघा ऐसा  नहीं करती थी बिल्कुल. वह अपनी और उसकी दोस्ती को सबसे ऊपर रखती. वह उसकी और गुलशन की दोस्ती को तबज्जोह देती. वह गुलशन के लिये परेशान रहती थी इनदिनों और  उससे बार-बार कहती...उसका खयाल रखना.'पर उसे लगता गुलशन का जो होना था हो लिया, संभल भी लेगा वह. खयाल उसे मेघा का रखना होगा. उसने खुद को टोका था सिर्फ इसलिये कि आज वह भी औरों की तरह अपना प्रोग्राम उसे सौंप कर चलती बनी थी.  नहीं... इसलिये कि आज वह तीसरे दिन विकास के साथ जा रही थी और विकास... उसका मन डर रहा था. वह खुद को समझाने केलिये कहता मेघा सब के जैसी नहीं है, भोली है बहुत... पर यही तो उसके डर की वजह भी थी. उसका मन हुआ वह मेघा केलिये कोई गीत बजाये कि अपनी आवाज़ पहुंचा सके उस तक. विकास की गाड़ी में शायद एफ. एम. चल रहा हो.  मेघा की आदत है यह... मेघा को पसन्द है यह. लेकिन पल में ही संभल गया था वह. उसे नहीं करना ऐसा कुछ. वह कौन होता है किसी की जाती ज़िंदगी में दखल देनेवाला.  और सोचने-सोचने में ही शाम बीत गई थी. 

अभी नवरंग'फिल्म का यह गीत बज रहा था... आधा है चन्द्रमा रात आधी / रह न जाये तेरी-मेरी बात आधी / मुलाकात आधी. और सचमुच सबकुछ आधा-अधूरा ही तो रह गया था.  एक रात आयी थी उसकी ज़िंदगी में और ज़िंदगी वहीं अटकी रह गई थी, या कि वह रात. तब से रातें उसे बहुत परेशान करती हैं और यह मौसम तो उससे भी ज्यादा... सायमा को यह फगुनाया मौसम बहुत पसन्द था. पत्ते झड़ने लगते, सूखे-पीले नंगे डाल और नंगे-बुचे पेड़ उसे बिल्कुल नहीं भाते थे और ना ही मौसम का यह रूप. वह वसंत का इन्तजार बहुत बेसब्री से करती. और जैसे ही कालेज कैम्पस के किसी एक पेड़ में कोई पत्ती अंखुआती वह खुशी से किलकारियां भर उठती... सहज, चलो दिखाउं तुम्हे...'
क्या...?'
पीपल के उस पेड़ पर एक नन्हा सा पत्ता उग आया है, लाल- बुराक छुइमुइ सा. बिल्कुल किसी नवजात बच्चे का सा रंग.वह इस बात पर सिवाय हंसने के क्या कर सकता था. देखते-देखते वह पूरा पेड़ पत्तों से सज जाता और सारा वातावरण हरियाली से. सायमा का मन जैसे किसी  अज्ञात खुशियों से भर उठता. उसीने बताया था उसे पीपल के पत्ते सबसे पहले झड़ते हैं और आते भी सबसे पहले हैं. 

और फिर अपने आप उनके दिनों के पांव उगने लगते. सायमा साथ हुई तो जैसे पंख भी. वे किसी पुराने-धुराने पेड़ के नीचे बैठ जाते, अपनी बातों की गठरियां और सायमा का लंच बाक्स ले कर. उनका पूरा का पूरा हिन्दी डिपार्टमेंट पुराने पेड़ पौधों से लदा था. बेतरतीब विशालकाय पेड़. जंगल की तरह चारों तरफ फैले हुये. साइन्स और आट्र्स के दूसरे  डिपार्टमेंट जहां लकदक से लगते वहां इस विभाग की दीवारों से चटें उतरती रहती. सायमा को उसका यह उजाड़पन ही पसन्द था.

सायमा जितनी सादी थी अपनी सादगी में उतनी ही ज्यादा सम्पूर्ण भी. रंग उसे जरूर चाहिये थे जीवन में पर आभरण नहीं...

उसे आज भी याद है वह दिन जब नये-नये प्रोफेसर हो कर आये उदय तिवारी ने क्लास में घुसते ही जैसे सायमा को ही संबोधित किया था भूषण भार संभारि हैं, क्यूं यह तन सुकुमार. सुधे पांव नहीं धर परत, निज सोभा के भार.'और फिर अपनी गलती को सायास घोषित करने के लिये भक्ति काल के वर्ग में रीति काल पढ़ाने लगे थे.

और तो और सूफी काव्य पढ़ाने वाले बिना दांत-आंत के भूषण शर्मा भी पद्मावती का नख-शिख वर्णन पढ़ाते हुये सायमा को ही निहारते रहते....पद्मावती के कोमल और कृष्ण्वर्णी केश ऐसे हैं जैसे अष्टकुल के लहराते नाग. उसकी कुंवारी मांग सऐसी है जैसे रात की काली पट्टियों के बीच दीपक की लम्बी लौ, भौंहें ऐसी सी कि धनुष  जिन्हें देख कर इन्द्राधनुष भी लजाकर छुप जाये...'

... और धीरे-धीरे यह वर्णन नासिका, अधर दंत, कपोल, ग्रीवा आदि से होता हुआ नीचे और नीचे उतरता... 'हिया धार कुछ कंचन लारू / कनक कचोर उठ जन चारू... जुरै जंघ सोभा अति पाये / केला खंभ फेरि जनु लाये...'दूसरी लड़कियां सकुचा जातीं... पर सायमा की आंखें नहीं झुकतीं. कभी नहीं... बिल्कुल भी नहीं.

उसे कोफ्त होती थी...वह बूढ़ा कैसे देखता है तुम्हे.. जैसे राल टपकती  है... और तुम...'
सायमा की आवाज़ की प्रतयन्चा भी उसकी भौंहों की तरह तन जाती...मैं क्यों नजरें झुकाऊं... उसकी वह जाने, देखता है तो देखे... मुझे तो बस पढ़ाई से मतलब है..'

निगाहें दूसरों की भी तनती थी. सीनियर्स, सहपाठी और शिक्षकों तक की. जब भी वे दोनों साथ-साथ होते. सब चिढ़ते उससे और रश्क भी करते थे. अपने भोलेपन और सहजता के कारण सब का मन मोह लेनेवाला सहज सायमा के आने के बाद सबका रकीब हो उठा था, सबकी आंखों का किरकिरी.

सायमा सायमन बीच सत्र में ही आई थी. बाद में उसने बताया था... भाई का यहां नया-नया काम है और भाभी मां बनने वाली हैं.  उनका खयाल रखनेवाला कोई दूसरा नहीं है. बस पिता हैं जो दिल्ली में अब नौकर-चाकरों पर आश्रित रह गये हैं...

और फिर होली आई थी. सायमा के उसके जीवन में आने के बाद की पहली होली. उसने पूछा था...होली खेलती हो तुम?'
हां ... खूब-खूब खेलती हूं. क्यों, नहीं खेलनी चाहिये?'उसने उसेऐसी प्रश्नभरी निगाहों से देखा था  कि उसे अपना आप बहुत तुच्छ लगने लगा था. यह कैसा प्रश्न किया था उसने... सायमा क्या सोच रही होगी उसके बारे में. उसे अपने आप से दिक हुआ था. उसे पहले ही समझ लेना चाहिये था उसके रंग-बिरंगे कपड़ों,चप्पलों और छातों को देख कर. कहती तो थी वह, उसे अपनी ज़िंदगी में बेपनाह रंग चाहिये, सचमुच यह कोई पूछने लायक सवाल तो था नहीं.

अन्तिम गीत हूटर की तरह बजा था, उसके खयालों के पंखों को समेटता हुआ... रात के हमसफर थक के घर को चले / झूमती आ रही वो  सुबह प्यार की.'उसने सोचा वह किस प्यार की सुबह की बात कर रहा है जो शायद कभी नहीं आनेवाली.  उसकी ज़िंदगी में तो कदापि नहीं. उसने अपना हेडफोन उतारा था. शीशे के पार इशारे में झुके हुये अंगूठे को उसने अपना अंगूठा उठा कर ठीक है का इशारा किया और  टेबल को फिर से जमा कर  उठ खड़ा हुआ था.  पर इस उठ खड़े होने के साथ घर जाने की कोई इच्छा या ललक उसके भीतर नहीं जागी, यंत्रवत वह चला जरूर था. घर'यानि कमरे पर... घर'यानि बुलन्दशहर भी जहां गये उसे कितने महीने बीत गये थे.

घर आ गया था. उसने दरवाजा खोला और बिछावन पर पर पड़ गया, जूता उतारे बगैर. बिछावन अभी तक अस्त-व्यस्त था. कुछ गड़ा था उसे तेजी से. उफ की आवाज़ के साथ वह उठ खड़ा हुआ था. यह रेडियो एंड टी वी एडवरटाइजिंग प्रैक्टिशनर एसोसिएशन आफ इंडिया'के द्वारा दिये गये बेस्ट आर जे के  अवार्ड में मिला मोमेन्टो था. आज पूरे सात दिनों के बाद भी वह यूं ही उसके बिछावन पर पड़ा था. क्या फायदा इन सब बातों और चीजों का... क्या करेगा वह यह सब लेकर. जब सायमा तक उसकी आवाज़ पहुंचती ही नहीं. जब उसकी कोई खोज-खबर उस तक आती ही नहीं. डर जैसा कुछ उसके भीतर जागा था उसी क्षण हमेशा की तरह. पर उसने उसे फिर दबाया था. सायमा हार नहीं सकती ज़िंदगी से, किसी भी हाल में नहीं... हारने वाली जीव वह थी ही नहीं. जरूर होगी वह कहीं और उसकी आवाज़ भी सुन रही होगी.  पर सुनती तो...रूठी है शायद और उसका रूठना भी तो जायज है. पिता ठीक कहते थे कोई भी लड़की ऐसे में...

पर मां कहती थी हम दोनों को गैर समझा, पर तुम्हें तो...भरोसा तो उसे होना चाहिये था तुम पर,... मां की आवाज़ रुंआसी हो जाती. वह सोचता कभी-कभी मां पिता की बातें क्या उलटी नहीं थी? क्या मां को वह नहीं कहना चाहिये था जो पिता कहते थे और पिता को मां वाली बात.  उसके मां-बाप अजीब हैं... समय-समाज को देखते हुये तो और भी ज्यादा. उन्हें सायमा और उसके प्यार से कभी दिक्कत नहीं रही. वे सायमा में हमेशा अपनी बेटी ढूंढ़ते, गो कि उनकी बेटियां थी पर वे काफी पहले अपने ससुरालों की हो चुकी थीं. सहज अपनी सबसे छोटी बहन से भी बहुत छोटा था, लगभग नौ साल छोटा.  वह सबका लाड़ला था, इसी नाते सायमा भी.

सीनियर एक्जेक्यूटिव दिनेश पंत ने कहा था...सहज की आवाज़ खामोशी की आवाज़ है, भीतर की गहराईयों से आती आवाज़, जो छूती भी उतनी ही अंदर तक है.'सुभाष रावत ने भी कहा था उस अवार्ड फंक्शन के दिन... सहज की भाषा-शैली लाजवाब है. उसमें रेडियों की पुरानी परम्पराओं और आधुनिक बदलावों के बीच संतुलन बनाये रखने लाजवब हुनर है. दर असल वह आधुनिकता और अतीत के बीच एक सेतुबंध रचता है. श्रोताओं की नब्ज पहचानता है वह.'इतने बड़े-बड़े शब्द उस बौड़म के लिये... पर सब बेकार. झूठ-झूठ से लगते. बौड़म शब्द ही भला लगता उसे अपने खातिर, वह भी सायमा के मुंह से बोला हुआ. अजीब थी न यह बात कि सायमा सायमन उसे इडियट नहीं बौड़म कहती थी. पर कुछ भी अजीब नहीं लगता था उसमें... और सोचो तो सबकुछ अजीब. यही क्या कम अजीब था कि सायमा सायमन हिन्दी पढ़ती थी, हिन्दी आनर्स. वह बिहारी, सूर और तुलसी को ऐसे इस्तेमाल करती जैसे जन्म से ही उनके बीच पली-बढ़ी और खेली-खाइ हो. भाषा पर इतनी गहरी पकड़ और वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा देखता रहता उसे. पर अब लगता है सिर्फ देख-सुन ही नहीं वह गुन भी रहा था उसे.  तभी तो भाषा इस कदर संवरी थी उसकी कि लोग आज कायल हो उठते हैं.


(तीन)                          
गीतों की समझ भी उसे बेतरह थी. जब वह प्रगतीशील दिखने की कोशिश में  साहिर, कैफी और गुलजार को कोट करता वह आनन्द बख्शी के लिये लड़ती... इतना सादादिल, सादाशब्द जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों की परख करने वाला दूसरा शायर तुम्हें नहीं मिलेगा. दर असल गीतों की शुरुआत भी उन्हीं से हुई. उनसे पहले के लोग तो नज्म और गज़लों से ही अपना काम चला लेते थे. पांच हजार गीत लिख जाने की कूवत किस में है और वो भी सब के सब अलग ढंग और ढब के...'

जिन गीतों के लिये तुम  जैसे लोग उन्हें कम कर के आंकते हैं, उनमें छिपा प्रयोग उन्हें क्यों नहीं दिखता. इलू-इलू और जुम्मा-चुम्मा जैसे आमफहम बोलचाल के शब्दों का ऐसा प्रयोग तुमने किसी और के गीतों में देखा है...?'और फिर उसे छेड़ने की खातिर अपनी बात में वह एक पूंछ जोड़ देती...ओ प्रयोगवाद पढ़ने वाले भोंदू विद्यार्थी'. वह सांस लेने को रुकी थी... और चोली के पीछे..? यह तो एक पहेली गीत है. लोक गीतों में ऐसे पहेली गीतों का प्रचलन जमाने से रहा है.. ओ रट्टू विद्यार्थी, अमीर खुसरो की पहेलियां-मुकरियां भूल गये क्या - उठा दोनों टांगन बिच डाला / नाप तोल में देखा भाला / मोल तोल में है वह महंगा / ऐ सखि साजन? ना सखि लहंगा.'उसका चेहरा उसे लाल लगा. डूबते सूर्य के आलोक से... गुस्से से... या कि.... पर नहीं, सायमा को ऐसी बातों में शर्म नहीं आती. उसका बोलाना अभी भी जारी था...

तीस मार्च आनन्द बख्शी की बरसी थी. उसे अचानक ही वह प्रोग्राम दे दिया गया था. उसने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया था सिवाय सायमा की बातों और पसन्द को तरतीबवार श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने के. बेस्ट आर जे के खिताब के लिये उसके नमांकन के साथ उसका यही पीस भेजा गया था.

सहज की हंसी से एकान्त दरका था और सन्नाटा भी. फिर चिहुंक कर बैठ गया था वह अपनेआप. दीवार घड़ी ने सुबह के चार बजाये थे. नींद आंखों से अभी भी दूर थी, कोसों दूर. फ्रीज में सुबह का खाना अब भी पड़ा था पर उसे खाने की इच्छा नहीं हुई.  उसने बोतल निकाल कर पानी पीया था गटागट... ठंडी सी लहर भीतर तक सिहरा गई थी उसे. उसे एक तेज छींक आई थी फिर लगातार कई छींकें. उसने सोचा था मार्च का यह महीना बड़ा अजीब होता है, बिल्कुल इंसान के स्वभाव की तरह धूपछांही. उसे याद आया था सायमा उसे कोई ठंडी चीज नहीं खाने देती थी, आइसक्रीम तो बिल्कुल भी नहीं, यह जानते हुये भी कि उसे बहुत पसन्द था. साइनस जो है उसे. उसका सिर भारी हो रहा था. उसने धीरे से उठ कर रेडियो खोल दिया. वह चौंका था, गुलशन था दूसरी तरफ.  उसे खुशी हुई थी. इस वक्त उसे किसी अपने के साथ की जरूरत थी.

गुलशन की आवाज़ उसके संग-साथ थी - "आज जिस कदर इंसानी अहसासात कुचले जा रहे हैं, भाईचारा और इन्सानियत जैसी भावनाएं पिंजड़े की मैना होती जा रही है, इन्सान इन्सान न हो कर ज्यों रोबोट में तब्दील हो गये हैं ऐसे में दिलजले अगर जाये तो जाये कहां और सुनायें तो किसे... दोस्त गमख्वारी मे मेरी रूअई फरमायेंगे क्या / जख्म के बढ़ने तलक नाखून बढ़ आयेंगे क्या / बेनियाजी हद से गुजरी बंदा परवर कब तलक / हम कहेंगे हाल ए दिल और आप फरमायेंगे क्या.'

गुलशन का दर्द उस तक पहुंच रहा था. उस छोटे से लम्हे में जब एक पल को उसकी आवाज़ गुम हुई थी उसे लगा जैसे उसने अपने आंसुओं को पोछा होगा. चित्रा सिंह की खनकती आवाज़ दर्द और शिकायत में डूबी हुई थी... दिल ही तो है न संगोखिश्त दर्द से भर न आये क्यूं / रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें रुलाये क्यूं...'उसे अपना दु:ख इस समय छोटा जान पड़ा था. उसके और सायमा के प्यार ने एक लम्बा सफर तय किया था... पर गुलशन ने तो... उसे लगा अगर वह स्टूडियो में रुक गया होता तो गुलशन के साथ तो होता. कितनी बार तो रुक जाता है वह, जब घर आने का मन नहीं होता.

दर्द का सिलसिला और गहराता जा रहा था. धीमे-धीमे पर लगातार पड़ते हथौड़े की चोट की तरह...मेरे हमनफस मेरे हमनवां मुझे दोस्त बन के दगा न दे / मैं हू दर्द ए गम से चारालब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे...बेगम अख्तर की आवाज़ बारिश की तरह हौले-हौले फिजा में बरस रही थी.

वह गुलशन से बात करना चाहता था. लेकिन वह ऑन एयर'था... फिर बेगम अख्तर की आवाज़ मे मोमिन की लिखी गज़ल - 'वो जो हम में तुम में करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो / वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो...'

गुलशन कह रहा था दूसरी तरफ - "दिल जलाने के सब के अपने-अपने तरीके होते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो अपने होने भर से कहने-सुनने का एक नया सांचा बना डालते हैं. गुलजार उन्हीं में से एक हैं. उनकी शायरी हमारे अहसासों को छू कर उन्हें बेजान होने से बचाती है. तभी तो छोटी सी कहानी और बारिशों के पानी से वादी के भर जाने पर मोहित मन जब उदास होता है तो उसके दिन खाली बरतन हो जाते हैं और रातें अन्धा कुआं. प्रयोगों का एक लम्बा सिलसिला है गुलजार की शायरी जो टूटन और अलगाव को भी एक नया रुख देती है ...हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते / वक्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते...'

उसे कुछ राहत हुई थी. गुलशन कैसी भी हालत में हो टूट नहीं सकता.  गज़लों का रुख भी बदलने लगा था..तमन्ना फिर मचल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ / ये मौसम ही बदल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ...'उसने कयास लगाया था, उम्मीद शायद अब भी बची है थोड़ी-बहुत.  पर यहीं शायद वह गलत था.

अब अगर जाओ तो जाने  के लिये मत आना / सिर्फ अहसान जताने के लिये मत आना...'वह मुस्कुरा उठा था. मोमिन, गालिब और शकील से होती हुई गज़लों की वह रात गुलजार और जावेद अख्तर तक पहुंच आई थी. उदासी का रंग भी धूसर होने लगा था अपनेआप, मानो पत्थरों पर सिर पटकती लहरों ने ऊब कर अपनी दिशा बदल दी हो.  गुलशन अलविदा कह चुका था. न जाने उसे क्यूं लगा कि इस अलविदा कहने में भी आज अलग जैसा कुछ है. उसने फोन लगाया था गुलशन को. वह फोन लगाता रहा था बार-बार लेकिन फोन लग नहीं रहा था. हार कर उसने कोशिश छोड़ दी थी.

खूब सोया था वह दिन में. उसने कपड़े भी धोये थे और खाना भी बनाया था हमेशा के विपरीत. उसका जी कुछ हल्का हुआ था, क्यों वह समझ नहीं पाया था...क्यों यह सोच कर उसे और ज्यादा परेशानी हुयी थी बाद में. जब वह फोन आया वह सूखे कपड़े तहा कर प्रेस करने के लिये देने जा रहा था.  "गुलशन सीरियस है...उसने सुसाइड करने की कोशिश की थी... कैलाश हास्पिटल में है वह....उसके मकान मालिक ने पहुंचाया है उसे..."मेघा विचलित थी.... "यह सब कैसे हो गया सहज? मैने तुम से कहा भी था. हम कुछ क्यों नहीं कर पाये उसके लिये."वह शर्मिन्दा था सचमुच. उसे क्यों लगा था कि ठीक है गुलशन... उसके अलविदा कहने का अन्दाज अब उसे बार-बार चुभ रहा था. गुलशन जब लड़ रहा था अपने आप से, जब हार कर किसी नतीजे पर पहुंचा था वह, जब उसने नींद की गोलियां खाई थी... वह आराम से सो रहा था... कपड़े धो रहा था... सुकून से था. वह पानी-पानी हुआ जा रहा था... खुद की नजरों में शर्मसार सा...

वह और मेघा जब अस्पताल पहुंचे गुलशन आइ सी यू में था. बाहर खड़ी पुलिस उसके होश में आने का इन्तजार कर रही थी. उन दोनों को उनके सवालों ने घेर लिया था... "आप तो जानते होंगे...क्यों किया होगा उसने आखिर ऐसा... आप तो मित्र हैं उनके..."
"नहीं, हमें कुछ भी नहीं पता..."मेघा ने कड़ाई से प्रतिवाद किया था.  पर वे उसकी बात सुन कहां रहे थे. वह अवाक था...जड़वत. मेघा के बचाव में भी खड़ा नहीं हो पा रहा था वह.  यही तो सबसे बड़ी कमी है उसकी. बचाव करना उसे आया ही नहीं कभी. कायर है वह, अपने लिये ही डरा सहमा... फिर कोई उसके साथ कैसे आ सकता है... उसकी छाया में कौन खड़ा होगा आखिर.... तभी तो चली गई थी सायमा, बिना उससे कुछ कहे-सुने. बिना कोई शिकायत किये. शिकायत करने के लिये भी सामने वाले का अपना होना तो जरूरी होता है न और अपना होने के लिये अपनों के बचाव में खड़े रहना.

वह जैसे दूर खड़ा हो चला था इन सारी स्थितियों से. वह कुछ भी देख-सुन नहीं रहा था उस दिन की ही तरह... दूर कहीं बहुत्त दूर अतीत से तेज-तेज बजते ढोल की आवाज़ आ रही थी...वे गा रहे थे चीख-चीख कर...भर फागुन बुढ़वा देवर लागे, भर फागुन...'होलिका दहन के लिये चंदा मांगते वे लोग सायमा के पास पहुंचे थे. सायमा ने कहा था...कल ही तो दिया है.'
वे दूसरे मुहल्ले वाले होंगे...'
इतने अमीर नहीं हैं हम कि बार-बार चन्दा देते फिरे...'
चल वे, यह नहीं देनेवाली.'
दूसरे ने कहा था...इनलोगों को हमारे पर्व-त्योहार से क्या मतलब...?'
क्यूं नहीं मतलब? मतलब रखना होगा. यहां रहना है तो हम में से ही एक बन कर रहना होगा... और जब जितनी बार मांगे देना भी होगा....'सब हंस पड़े थे ठहाका लगा कर.
सायमा की आंखों में आंसू आ गये थे. वह सब कुछ बर्दाश्त कर सकता था पर उसके आंसू नहीं. उसने बीच का रास्ता निकाला था...सायमा की तरफ से दो सौ रुपये.'सायमा ने प्रतिवाद किया था.

नहीं...'उन लोगों के बीच से बढ़ते हुये एक हाथ को दूसरे ने बरजा था...हम इस से क्यों लें? हमे तो उससे चाहिये...'और एक बार फिर सब हंस पड़े थे जोर से.
सामूहिक अट्टहास कितना वीभत्स होता है, उसी दिन जान पाया था वह. उसने सायमा का हाथ खींचा था...चलो, हम घर चलते हैं...'
चले जाओ. पर याद रखना हम अपना हक ले कर ही रहते हैं, छोड़ते नहीं कभी.'
कहो तो होलिका दहन में इन्हें ही होलिका बना दिया जाय, पवित्र हो कर निकलेंगी... हमारे स्वामी सहजानन्द के योग्य बन कर भी...'दूसरे का ईशारा उसकी तरफ था.
नहीं यार..पवित्र अग्नि भी दूषित हो जायेगी इससे...इसका शुद्धीकरण तो हम करेंगे..."
सहज ने अपने पावों की गति तेज कर दी थी... सायमा को लगभग घसीटते हुये.

दरवाजे पर पहुंच कर उसने कहा था...सायमा यह घर  बहुत खुला-खुला नहीं है? कम से कम एक बाड़ तो होनी ही चाहिये थी चारों तरफ... और नहीं तो कोई दूसरा घर.'उसे उम्मीद थी सायमा विरोध करेगी इस बात का. पर वह चुप रही थी अपने स्वभाव के विपरीत.


(चार)                         
सबकुछ पूर्ववत था. लेकिन उसके भीतर एक भय था जो हटता ही नहीं था. वह बार-बार उसके घर जाता और सब कुछ ठीक ठाक देख कर संतुष्ट होना चाहता. मां की इच्छा थी होली के दिन सायमा उनके घर आये. उसने कहा था वह खुद जा कर ले आयेगा उसे.

शाम गहरा रही थी. वे दोनों खुश-खुश निकले थे. बीते दिनों की कोई छाया भी नहीं थी उनके आस-पास... लगभग आधी दूरी वे तय कर चुके थे. आगे का रास्ता थोड़ा संकरा था, गलीनुमा. एक दूसरे का हाथ थामे वे बढ़ ही रहे थे कि किसी ने धकेल कर उन्हें अलग कर दिया था. सब के सब जैसे सायमा पर टूट पड़े थे... उसका अंग-अंग रंगा जा रहा था और वह सहमा सा गली की दीवार से लगा सुन्न सा देख रहा था सब कुछ... वह सुन रहा था पर जैसे सुन नहीं रहा था...अब रंग में रंग गई यह हमारे...चाहें तो स्वामी सहजानन्द इसे अपना लें. हमें कोई आपत्ति नहीं.'और वे चलते बने थे.

गुस्से और नफरत से भरी सायमा ने धीरे-धीरे खुद को संभाला था और  कुछ पल देखती रही थी उसे अपनी निचाट आंखों से....और वह खड़ा-खड़ा शून्य में  तकता रहा था. और फिर वह चुपचाप चली गई थी... पहले घर और फिर दूसरे दिन शहर से.

वह बुत बना खड़ा रहा था उस दिन भी और आज भी... तब जबकि मेघा को मीडियावालों ने भी घेर लिया था. वह मेघा को इस चक्रव्यूह से निकालना चाहता था. उसने अपनी सारी शक्ति एकत्र की थी...

मेघा चक्रव्यूह से निकली जरूर थी पर इसमें उसका कोई योगदान नहीं था.  वह कोई और थी जो बिजली की तेजी से आई थी और जिसकी एक कौंध से मेघा के इर्द-गिर्द खड़ी भीड़ बिखर गई थी...दिस इस टू मच. बख्सो इन्हें, ये क्या बतायेंगी. मरीज को होश में आने दो... सीधे उसी से पूछ लेना... यहां कोई ज़िंदगी से लड़ रहा है और आपको अपने मतलब की पड़ी है...'

वह आवाज़ सुन कर चौंक पड़ा था और भीड़ को धकेलते हुये घुसा था उसके भीतर. उसका चेहरा एक बार देख पाये... बस एक बार. पर वह मुड़ी और चल दी थी. भीड़ में ही किसी ने कहा था सिस्टर स्टेला थी वह. रोगियों के लिये वरदान जैसी पर नियम की बहुत पाबन्द.'

उसे याद आया उसने पूछा था एक दिन सायमा से तुम क्रिश्चियन्स को नर्सिंग इतना क्यूं पसन्द है?'
क्योंकि यह परोपकार का काम है. दूसरों की खातिर जीने की जिद हमारे धर्म का मूल है.'वह चुप हो गया था...

वह उस नर्स के पीछे-पीछे भागा था पर वह कारिडोर में खुलते ढेर सारे कमरों में से किसी एक में खो गई थी. उसने अपने आप को तसल्ली दी थी... वह अंग्रेजी बोल रही थी नपी तुली और स्टाइलिश.. पर सायमा तो... भीतर से एक आवाज़ आई थी... हिन्दी पढ़ती थी तो क्या उसकी परवरिश तो...

गुलशन को तत्काल खून की जरूरत थी. उसका ब्लड ग्रुप ओ निगेटिव था. और ब्लड बैंक में भी पर्याप्त मात्रा में उस ग्रुप का खून नहीं था. मेघा वहीं रुक गई थी... पर स्टूडियो से बार-बार फोन आने के कारण उसे लौटना पड़ा था. 

"न हंसना मेरे गम पे इन्साफ करना. जो मैं रो पड़ूं तो मुझे माफ करना..."उसने प्रोग्राम की शुरुआत ही अनुरोध फिल्म के इस गीत से की थी...जब दर्द नहीं था सीने में तब खाक मजा था जीने में / अब के शायद हम भी रोये सावन के महीने में / यारों का गम क्या होता है मालूम न था अनजानों को / साहिल पे खड़े हो कर अक्सर, देखा हमने तूफानों को / अब के शायद हम भी डूबे मौजों के सफीने में...'

"नये-पुराने गीत में मैं सहज सारथी यादों की तीर से बिंधा हुआ, दोस्त के गम से लबरेज आप सब का स्वागत...माफ कीजियेगा आप सब का साथ चाहता हूं. इस उदास रात में आप सब ही मेरे हमसफर हैं. रात उदास तब होती है जब कि आपका कोई साथी आप से बिछड़ जाये, रूठ कर दूर चला जाये.  मेरा दोस्त गुलशन अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझ रहा है. वही गुलशन जो अपने साथ गज़लों का एक काफिला लिये चलता है और जिसके आने से आपकी शामें रौनक भरी हो जाती हैं. आज उसी गुलशन को ओ निगेटिव ब्लड की जरूरत है.उसी गुलशन की खातिर...

आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है / ज़िंदगी भर वो सदायें पीछा करती हैं / आदमी जो देता है, आदमी जो लेता है / ज़िंदगी भर वो दुआयें पीछा करती हैं...'

"आपकी दुआ और आप में ही से किसी का थोड़ा सा खून शायद मेरे दोस्त की जान बचा सके. आपके खून का थोड़ा सा हिस्सा..."वह रौ में था, इतना रौ में कि सिवाय गुलशन के उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था. शीशे के दूसरी तरफ के लोग... सीनियर प्रोड्यूसर का आ-आ कर केबिन में झांक जाना... आपके सामने मैं न फिर आऊंगा / गीत ही जब न होंगे तो क्या गाऊंगा  / मेरी आवाज़ प्यारी है तो दोस्तो / यार बच जाये मेरा, दुआ ये करो..'तभी फोन की घंटी टनटनाई थी. आज के कार्यक्रम में यह पहला काल था..."सचमुच आपकी आवाज़ में बहुत दम है. आपकी एक पुकार पर यहां खून देने वालों का तांता लग गया है. आपकी इस गुहार से ओ निगेटिव ब्लड ग्रुप वाले न जाने कितने और मरीजों का भला हो जायेगा... पर अब बस. इससे ज्यादा ब्लड कलेक्ट करने का साधन हमारे पास नहीं है."वह हंसी थी...फिर उसने कहा था... "यह आवाज़ आगे भी जरूरतमन्दों की मदद के लिये उठेगी?"
"कोशिश करूंगा..."
"आमीन."
"आप कौन?"
"उसी अस्पताल की एक नर्स..."
"सायमा...?"
"नहीं, स्टेला."और फोन कट गया था.

उसे हर आवाज़ में सायमा की आवाज़ क्यों सुनाई देने लगी है?...और हर अन्जान चेहरे में... क्या वह...


प्रोग्राम खत्म होते ही वह गुलशन से मिलने के लिये निकल पड़ा था... मेघा उसका इन्तजार कर रही होगी... उसने खुद को टटोला था... क्या यह बेचैनी और ललक स्टेला को देख पाने की भी नहीं थी..?
___________

कविता
15अगस्त, मुजफ्फरपुर (बिहार)

मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है (कहानी संग्रह), मेरा पता कोई और है, ये दिये रात की ज़रूरत थे (उपन्यास).
मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आयेगी (संपादन), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार), अब वे वहां नहीं रहते(राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)
मेरी नाप के कपड़े,कहानी के लिये अमृत लाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार
चर्चित कहानी उलटबांसीका अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित (हर पीस ऑफ स्काईमें शामिल )
कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित
सम्पर्क : एन एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, पो. विन्ध्यनगर, जि. सिंगरौली,486885  (म.प्र.)/07509977020/kavitarakesh@yahoo.co.uk

सहजि सहजि गुन रमैं : मणि मोहन

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चित्र गूगल से आभार सहित 


गंज बासौदा (म.प्र.) के रहने वाले हिंदी के कवि मणि मोहन के कविता संग्रह "शायद"को इस वर्ष के म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार के लिए चुना गया है. समालोचन की ओर से बधाई.    
मणि मोहन आकार में अक्सर छोटी कविताएँ लिखते हैं, पर असर में ये बड़ा काम करती हैं. सहजता से मर्म को स्पर्श करती हैं और गहनता से संवेदना का विस्तार. मणि मोहन की कुछ कविताएँ इस अवसर पर खास आपके लिए.  

मणि मोहन की कविताएँ             


ग्लेशियर

हर नए दुःख के साथ
हम थोड़ा और करीब आये
हर नए दुःख के साथ
सुना एक नया ही संगीत
अपनी धड़कनों का
हर नए दुःख के साथ
थोड़ा और बढ़ा भरोसा
अपने सपनों पर
हर नए दुःख के साथ
थोड़ा ज्यादा ही थरथराये होंठ
थोड़ी ज़्यादा गर्म हुई साँसे
हर नए दुःख के साथ
पिघलते गए
पुराने दुखों के ग्लेशियर.





पानी

मीलों दूर से
किसी स्त्री के सिर पर बैठकर
घर आया
एक घड़ा पानी ....
प्रणाम
इस सफ़र को
इन पैरों को
इनकी थकन को
और अंत में
प्रणाम
इस अमृत को .






दुःख

इस तरह भी
आते हैं दुःख जीवन में
कभी - कभी
जैसे दाल - चावल खाते हुए
आ जाता है मुंह में कंकड़
या
रोटी के किसी निवाले के साथ
आ जाये मुँह में बाल
या फिर गिर जाये
दाल - सब्जी में मच्छर
अब इतनी सी बात पर
क्या उठाकर फेंक दें
अन्न से भरी थाली
क्या इतनी सी बात पर
देनें लगें
ज़िन्दगी को गाली .






रूपान्तरण

हरे पत्तों के बीच से
टूटकर बहुत ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी - अभी एक दरख़्त से
रहेगा कुछ दिन और
यह रंग धरती की गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल जायेगा
धरती के ही रंग में
कितनी ख़ामोशी के साथ
हो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपान्तरण.






इसलिए

न कर सका प्रेम
या किया भी तो आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
प्रेम कवितायें
न हो सका अच्छा पुत्र
या हुआ भी तो आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
माँ या पिता पर थोक में कवितायें
न हो सका शामिल
अन्याय के खिलाफ किसी भी लड़ाई में
या शामिल हुआ भी तो आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
आग उगलती कवितायें
न हो सका मनुष्य
या हुआ भी तो आधा - अधूरा
लिखीं इसलिए
कवितायेँ
बहरहाल
इस तरह भी
गाहे बगाहे
समृद्ध हुआ
हमारा कविता संसार 






पिता के लिए

कहाँ दे पाया इतना प्यार
अपने बच्चों को
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
कहाँ दे पाया
उतनी सुबहें
उतनी शामें
उतना वक्त
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
कहाँ दे पाया
उतनी भाषा
उतना मौन...
उतना हौंसला
अपने बच्चों को
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
दुःख और अभावों के दिनों में
देखते ही बनता था
पिता का अभिनय
कहाँ सीख पाया
उनसे यह कला
अपने बच्चों के लिए
और हाँ . . . .
कहाँ कर पाया उतना भरोसा भी
अपने बच्चों पर
जितना भरोसा
पिता करते थे मुझ पर.







राधे - राधे

पूरे नौ महीने
सजी रहीं शयन कक्ष में
बाल रूप में लीला करते
कृष्ण की तस्वीरें
पूरे नौ महीने
होती रही प्रतीक्षा
कृष्ण के आने की
फिर एक दिन
तमाम मन्नतों
और प्रार्थनाओं की
फूट गई हँड़िया -
घर में जन्म हुआ
राधा का
लीला करते कृष्ण मुस्कराये
आप भी मुस्कराओ
जय बोलो -
एक्स एक्स वंशोम की जय
एक्स एक्स क्रोमोसोम की जय
भक्तजनों
अब तो कहना ही होगा
राधे - राधे





कस्बे का एक दृश्य

जेठ की तपती दुपहरी में
हेलीपेड पर खड़े हुए कलक्टर साहब
इंतजार कर रहे हैं
मुख्यमंत्री जी का

अपने हाथ में थाम रखा है
उन्होंने एक बुके
जिसके फूलों की ताजगी को लेकर
वे बेहद चिंतित दिखाई दे रहे हैं

थोड़ी देर पहले तक
उन्होंने जो शर्ट इन कर रखी थी
अब वो बाहर आ चुकी है
अपना पसीना पोंछते हुए
वे बार बार आसमान की तरफ देख रहे हैं

संकेत हो चूका है
मुख्यमंत्री के उड़नखटोले का
कलक्टर साहब स्वागत करने के लिए
इतने बेचैन दिख रहे हैं
कि उनका बस चले
तो संकेत के लिए छोड़े गए धूंए पर सवार होकर
आसमान में ही स्वागत कर दें बन्दे का

बहरहाल हम तो कवि हैं
हर जगह दिख ही जाती है हमे करुणा
इस वक्त भी
हाथ में बुके थामें कलक्टर साहब
बहुत परेशान और निरीह दिखाई पड़ रहे हैं
ठीक उस गरीब आदमी की तरह
जो हाथ में कागज़ - पत्तर लिए
धूप में खड़े होकर
उनका इंतजार करता है

कलेक्ट्रेट में.


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मणि मोहन

02 मई 1967 ,सिरोंज (विदिशा) म. प्र.
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि
महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित.
वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ'प्रकाशित, वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए'उद्भावना से प्रकाशित,वर्ष 2013 में अंतिका से कविता संग्रह "शायद"प्रकाशित.
सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा में अध्यापन
विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346/ profmanimohanmehta@gmail.com

कथा - गाथा : अनुज (‘अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया’)

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पेंटिग : जगन्नाथ पंडा

समकालीन कहानियों पर एकाग्र  श्रृंखला,  'भूमंडलोत्तर कहानी 'में युवा आलोचक राकेश बिहारी किसी चुनी हुई कहानी के माध्यम से उस कहानी  और कहानी में अभिव्यक्त यथार्थ  की विवेचना करते हैं. इस बार युवा कथाकार अनुज की चर्चित कहानी, 'अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया' पर वह अपना पाठ रख रहे हैं.   
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अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया
अनुज 

("यह कहानी देशभर में हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोगों की विधवाओं एवं उनके बच्चों को समर्पित है"- लेखक)


छावनी के बीचो-बीच बरहम बाबा ज़मीन पर इस तरह चित लेटे हुए थे, मानो निद्रावस्था में हों. ऐसे भी निद्रा और मृत्यु में स्थायित्व का ही तो अन्तर होता है, वरना स्थितियाँ तो दोनों लगभग समान ही होती हैं! लोग चहुँओर से दौड़े चले आ रहे थे. जो भी सुनता भागा आता. लाश तो गाँव में आज पहुँची थी, लेकिन ख़बर तो तीन दिन पहले ही आ गयी थी कि मोटरसाइकिल पर सवार कुछ अज्ञात लोगों ने बरहम बाबा को गोलियों से भून दिया है. भून ही तो दिया था! जिस तरह घनसार की लाल टह-टह रेत में मक्के के दाने पटपटा उठते हैं, छप्पन से निकली छप्पई में बरहम बाबा का शरीर भी जैसे पटपटा उठा था.

हालांकि अख़बारों ने कवर तो खूब किया था, लेकिन पैसिव कवरेजके साथ. आम लोगों में भी हलचल वैसी नहीं हुई थी, जैसी प्रशासन को आशंका थी. हलचल तो तब होती जब युवा-शक्ति का साथ होता! लेकिन गाँवों की आधी से ज्यादा युवा-आबादी तो पहले ही महानगरों में पलायन कर चुकी थी, और जो थोड़ी बहुत बच गयी थी, उसकी बरहम बाबा जैसों में अब कोई दिलचस्पी रह नहीं गयी थी. अन्य राजनैतिक समीकरण भी तो बदल गए थे! इसीलिए आज बरहम बाबा की हत्या को कोई राजनैतिक घटना नहीं बल्कि एक पारिवारिक दुर्घटना के रूप में देखा जा रहा था. फिर भी, प्रशासन कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता थाइसीलिए धारा-144 जैसे एहतियाती कदम उठा लिए गए थे.

पोस्टमार्टम में भी थोड़ा ज्यादा समय लग गया था. दरअसल लाश को चीरने वाला डोम लाश को छूने से आनाकानी कर रहा था.  जब दो-दो डोमों ने सीधे-सीधे मना कर दिया तब जाकर डॉक्टर साहब को खटका लगा था.  वे कारण तो ठीक से समझ नहीं पाए थे कि आख़िर डोमों को हुआ क्या है, लेकिन वे चिढ़ ज़रूर गए थे. लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपने-आप को संयत किया और एक अन्य डोम को बुलाकर बातचीत की. लेकिन जब इसबार भी उधर से वही जवाब मिला, तब वे तैश में आ गए. जोर की झिड़की लगाते हुए डोम को फटकारा और बोले, "थोड़ा एक्स्ट्रा पैसा चाहिए तो ले लो, तुम लोग उसी समय से ई नाटक क्या बतिया रहा है...!"

डोम ने सहमते हुए दबी ज़ुबान में कहा , "नाटक का कौनो बात नहीं है हुजूर...लेकिन हम इस पापी का लहास नहीं छूएँगे, और ई सब बात का हम भूल जाएँगे कि ई हतियारा सब बाथे और सेनारी में कइसा तांडव मँचाए हुआ  था !  अरे दादा रे..., छोटका-छोटका ननकिरवा सब को भी...! बाप रे बाप…! ई सब का कौनो कम नाटक किया था, जो आप हमको कह रहे हैं कि हम नाटक बतिया रहे हैं..? अरे छुअल त छोड़ दीजिए....! जाने दीजिए हुजूर..., हमसे नहीं होगा बस.....!"

लेकिन डॉक्टर साहब ने समझा-बुझाकर एवं चंद झूठे वायदे करके उसे मना लिया था और वह अपनी लाख़ हीला-हवाली के बावजूद लाश चीरने के लिए तैयार हो गया था. आख़िरकार पोस्टमार्टम की कार्यवाही, थोड़े विलंब  से ही सही, पर पूरी कर ली गई थी. इन्हीं सब कारणों से घर वालों को लाश सुपूर्द करने में तीन दिन लग गए थे. गाँव में लाश लेकर पुलिस की गाड़ी ही आई थी और जल्दी-जल्दी लाश उतारकर वापस चली गयी थी. यह दारोगा का निजी अनुभव था कि भीड़ के मिजाज का कोई ठीक तो रहता नहीं, इसीलिए वह थोड़ा ज्यादा ही सहमा हुआ दिख रहा था. जल्दी-जल्दी लाश उतारकर चलता बना था.

बरहम बाबा का चेहरा तो ए. के. छप्पन की गोलियों ने पहले से ही बिगाड़ रखा था, पोस्टमार्टम के बाद और भी बिगड़ गया था. पोस्टमार्टम में शरीर को आधे-आध चीर भी तो देते हैं! मारते हैं छेनी और हथौड़ा सबसे पहले कपार पर, मानो लकड़ी का कोई गठ्ठर चीर रहे हों, और माथा तो ऐसे अलगाते हैं जैसे आदमी का सिर नहीं, कोई बेल हो. फिर बारी आती थी छाती, पेट, और भी जाने किन-किन अंगों की . फिर यह सोचकर कि अब जलाना ही तो है, काम के बाद सिलाई भी नहीं की जाती थी ठीक से! बस, जैसे-तैसे निपटा भर दिया जाता था.  लेकिन बरहम बाबा का हाल तो और भी बुरा दिख रहा था. ऐसा लग रहा था मानो डोम ने भी अपने तरीके और सामर्थ के अनुरूप मृत शरीर से ही अपने लागों का बदला ले लिया हो. लाश देखने आए लोगों में से ज्यादातर का यह ख्याल था कि बरहम बाबा का दिल शेर का था. डरते नहीं थे किसी से ! पोस्टमार्टम के बाद बिगड़े हुए चेहरे को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि मरते वक़्त उनके चेहरे पर कौन-सा भाव रहा होगा, लेकिन पोस्टमार्टम से पहले उनकी लाश को देख चुके लोग इस बात को जानते थे कि भय से फटी आँखों का पता देती उनकी खुली पलकों को किस तरह जबरदस्ती ही बंद करना पड़ा था. चेहरे की रेखाओं को पढ़ लेने वाली बूढ़ी और अनुभवी गँवई आँखें भी इस बात की पहचान कर ले रही थीं कि मौत की भयावकता चेहरे की नस-नस में भिंची हुई थी.

सुनरदेव शर्मा आँसुओं को पोंछता हुआ स्यापा कर रहा था,

कहाते थे बरहम बाबा अउर बुझाता अलुआ नहीं था कुछो, बतकही शुरू करते थे तो खतमे नहीं होता था, जइसे सारा दुनिया हीत ही बइठा हो, लगेंगे सारा इदिया-गुदिया उकटने, हम बोले थे कि नगिनिया है, बच के रहिएगा….डँसेगी एक-ना-एक दिनलेकिन नासुनना ही नहीं था किसी काहो गया नाअब जे बा से कि बुझाया नागए ना ऊ धाम, अब त हो गया मन शांत ….!” बोलते- बोलते  फफककर रो पड़ा था.

सुनरदेवशर्मा की यह हालत देख देवल चौधरी ने उसके दाहिने कंधे पर हाथ रखा और उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “चुप हो जाइए, आप इतने बहादुर आदमी हैं...! आप ही हिम्मत हार जाइयेगा तो फिर अउर लोग को कौन सँभालेगा? जाइये, जा के सरयू सिंह को संभालिए, भोरे से भोकार पारे हुए हैं, चुप्पे नहीं हो रहे हैं.

बरहम बाबा की लाश जहाँ रखी हुई थी वह जगह किसी किलाबंद सैनिक छावनी से कम न थी. चूँकि बाबा भी अपने लोगों को सैनिक ही कहते थे इसलिए लोग-बाग़ उनके इस ठिकाने को छावनी कहने लगे थे. पुलिस रिकार्ड में भी इसे छावनी नाम से ही दर्ज किया गया था. बाबा पर लाखों रूपये का इनाम भी तो रखा गया था, जिन्दा या मुर्दा ! लेकिन यह सब दिखावे की बात ही थी. पुलिस-प्रशासन क्या, आम आदमी  भी यह जानता था कि बाबा इसी छावनी में रहते हैं. छावनी के पीछे की ओर कुछ बैरक सरीखे कमरे बने हुए थे. छावनी के सैनिक जब किला फतह कर लौटते थे तो इन्हीं बैरकों में शरण लेते थे. इन बैरकों में अत्याधुनिक तकनीक से सुज्जित सुख-सुविधा का हर-संभव पुख्ता इन्तजाम होता था. इसी में मेहमानों के लिए एक तफरीह घर भी बना हुआ था जहाँ उच्च पदस्थ आला अधिकारियों और सत्तासीन मेहमानों की मेहमांनवाजी की जाती थी. रंगीन पेय के साथ-साथ कच्चे गर्म गोश्त का भी इन्तज़ाम रखा जाता था. इसके लिए मलिनों की बस्तियों का ही आसरा होता था. कहते हैं कि पुलिस और प्रशासन के कई-कई आला अधिकारी और सत्तासीन राजनेता भी इसी लालच में बाबा के आगे-पीछे डोलते रहते थे और बाबा की कृपा दृष्टि पाते रहने के लिए छावनी की कारगुजारियों पर परदा डाला करते थे. हालांकि छावनी आर्थिक रूप से भी ख़ूब समृद्ध थी और बाबा सैन्य कार्यों में शाहखर्च भी थे, लेकिन धन का आकर्षण तन के आकर्षण से ज्यादा गहरा नहीं होता था. बाबा भी इस रहस्य को ख़ूब समझते थे इसीलिए उन्होंने सैनिकों को अपनी मौन सहमति दे रखी थी. सेना जब भी आक्रमण को जाती, अपने साथ चार-छ: किलो बाँध ही लाती थी. इसी तरह से नगिनिया भी बाथे से बाँध लाई गई थी. लेकिन छावनी के सैनिक जल्दी ही यह समझ गए थे कि नगिनिया सिर्फ गोश्त-भर नहीं  थी.

लखीमपुर बाथे बिहार के मोतिहारी शहर से होकर बहने वाली धनौती नदी के किनारे बसा एक छोटा सा गाँव है जो कभी मलिनों की सबसे बड़ी बस्ती के रूप में पहचाना जाता था. अब तो इस गाँव में  केवल बंजर-सी ज़मीन ही दिखती है और लोग इसे चँवर कहने लगे हैं. यहाँ कोई रहना भी तो नहीं चाहता है!  नहीं तो एक समय था, जब यह गाँव खूब हरा-भरा हुआ करता था और निचली तथा उच्च जाति के कहे जाने वाले लोग भी यहाँ बड़ी हँसी-खुशी और आपसी सौहार्द के साथ रहा करते थे.  राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोग जब पटना के गाँधी मैदान में जातीय भेद-भाव को मिटा देने का आह्वान करते थे, तब पटना से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित इसी लखीमपुर बाथे गाँव का उदाहरण दिया करते थे और यह जोर देकर कहा करते थे कि पूरे देश को इस गाँव से सीख लेनी चाहिए. लेकिन अब तो यह सबकुछ जैसे अतीत हो गया था !  बाथे में छावनी के सैनिकों ने ऐसा हमला किया कि पूरा गाँव ही उजड़ गया. उजड़ा भी ऐसे कि फिर दोबारा कभी बस नहीं पाया था. बाथे पर हुए इस हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था. सच पूछा जाए तो, हिल तो छावनी भी गयी थी, क्योंकि बाबा भी तो इसी हमले के बाद धरे गए थे! आज भी उस हमले की भयावकता को याद करके लोगबाग सिहर उठते हैं.

रात के कोई दस बज रहे थे. हालांकि बड़े शहरों की दृष्टि से देखा जाए तो अभी शाम ही हुई थी, लेकिन गाँवों में तो दस बजते-बजते लोगबाग आधी नींद सो चुके होते हैं! नींद खर्राटे भर रही थी. टिटिहरियों की टिर्र-टिर्र रात को और भी गहरा रही थी. दूर कई-कई कुत्ते रो रहे थे, जैसे गाँव  भर के कुत्तों पर एक साथ ही कोई आसमान टूट पड़ा हो!  एक कुत्ता रोना शुरू करता और जाकर पंचम पर चुप होता, तो दूसरा उसके रोदन को सप्तम पर लाके छोड़ जा रहा था. रुदाली बने ये कुत्ते जैसे वातावरण को भयाक्रांत करने की अपनी कोशिशों में कोई भी कसर उठा नहीं रहने देना चाहते थे. कुत्ते तो अपना काम ईमानदारी से ही कर रहे थे लेकिन अब के समय में कुत्तों के रोने से भी लोगों पर कहाँ कोई फर्क पड़ता है, बल्कि किसी के भी रोने-गाने से कहाँ किसी पर कोई फर्क पड़ता है! एक समय था जब कुत्ते रोना शुरू करते नहीं थे कि गाँव-घर के लोग चोकन्ने हो उठते थे और इस अंदेशे से घुले जाते थे कि पता नहीं क्या अनिष्ट होने वाला है.

फिर अचानक जैसे खर्राटों में खलल पड़ गई . बरहम बाबा के सैनिकों ने गाँव को चारों तरफ से घेर लिया था. किसी अनहोनी की आशंका से पूरा वातावरण दहल उठा था. रात के अँधेरे की घुप्प चुप्पी के बीच दर्जनों लोगों की दिल दहला देने वाली नारेबाजी गूँजने लगी थी. लोग छोटी-छोटी टोलियों में बँटकर नारे लगा रहे थे; "दादा रणवीर अमर रहे, अमर रहे - अमर रहे…!"

सुनरदेव शर्मा ने अपनी बंदूक को आसमान में लहराते हुए नारे को और भी बुलंद किया,
      "बारा के बदला बाथे में,
      तिन इन्ची ठोकब माथे में"

छावनी के सैनिकों ने किसी मलिन बस्ती पर यह पहला आक्रमण किया हो, ऐसा नहीं था. सेनारी, मियाँपुर और इक्वारी जैसी मलिन बस्तियों में तो सैनिकों के आक्रमण होते ही रहते थे, लेकिन पिछले दिनों जब शिवहर जिले के बारा गाँव में मलिन काउन्टर कमांड (एम.सी.सी.) का हमला हुआ था और गाँव के पाँच-सात आततायी जमींदारों को घरों से निकाल कर मार दिया गया था, तब छावनी के सैनिक कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो आए थे. बाबा ने भी अपने रसूख का पूरा लाभ उठाया था ताकि प्रशासन को साथ मिलाकर मलिन काउन्टर कमांड पर नकेल कसी जा सके. बाबा की तत्परता रंग लाई थी, तभी तो उस हमले के सभी आरोपी महीने दिन के भीतर ही पकड़ लिए गए थे. यह बाबा का ही कमाल था कि फास्ट ट्रैक कोर्ट ने उन्हें सजा भी बहुत जल्दी में सुना दी थी, नहीं तो ऐसे मामले तो निचली अदालतों में ही सालों-साल लटके रहते हैं! अब तो सभी आरोपी जेल की सजा काट रहे थे. ऊपरी अदालतों में अपील भी तो नहीं कर पाए थे! अब घर में खाने को दाना तो था नहीं, अदालती लड़ाई क्या खाक लड़ते, और फिर मलिनों में कौन से बैरिस्टरी पढ़े लोग बैठे थे कि छावनी के दिग्गजों से टक्कर लेते और इन भुखमरों का मुकदमा लड़ते! इसलिए निचली अदालतों ने इन्हें जो सजा सुना दी, बस भुगतने लगे थे. बावजूद इसके छावनी में संतोष न था. कानून द्वारा दी गयी सजा कम दिख रही थी. आज के समय में कानून द्वारा दी गयी सजा पर कहाँ किसी को भरोसा रह गया था !  इसीलिए बारा का बदला लेने के लिए छावनी के सैनिकों ने अपने बाजुओं की ताक़त पर ही भरोसा किया था.

बारा-कांड के बाद बरहम बाबा ने छावनी में एक आपात बैठक बुलाकर यह शपथ ली थी कि वे बारा में हुए इस नर-संहार का बदला लेकर ही दम लेंगे. सुनरदेव शर्मा ने तो तभी यह घोषणा कर दी थी कि जबतक वह अपनी राइफल की तीन इंच लम्बी गोलियाँ मलिनों के सिर में नहीं ठोंक देगा तबतक चैन से नहीं बैठेगा. आज बाथे में उसकी यह साध पूरी हो रही थी, इसीलिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित था. उस बैठक में बाबा ने अपने लोगों को  दादा रणवीर के नाम की क़सम देते हुए कहा था कि बारा का बदला बाथे को उजाड़ कर ही लिया जाएगा. छावनी के सैनिकों में दादा रणवीर के नाम की बड़ी इज्जत थी.

कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कभी दादा रणवीर ने सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सेना गठित की थी और अंग्रेजों के चहेते एवं पिठ्ठू जमींदारों को नाको चने चबवा दिया था. उन दिनों दादा रणवीर की सेना में सामाजिक और आर्थिक रूप से दबी कुचली निचली जातियों के लोग तो थे ही, सामन्तों से त्रस्त उच्च जाति के लोगों ने भी दादा रणवीर का खुलकर साथ दिया था. लेकिन बरहम बाबा की यह मौजूदा सेना सामन्तों के विरूद्ध नहीं, उनके हित में खड़ी थी.
    
बाबा का आदेश पाते ही उनींदे लोग घरों से खींच-खींचकर बाहर निकाले जाने लगे थे. गोलियाँ अंधाधुंध चल रही थीं. फिर झोंपड़ियों में आग लगा दी गई  ताकि मांद में किसी के होने की कोई आशंका बची ना रह जाए. मिट्टी से लीप-लाप कर बनाई गई फूस की दीवारों की बिसात ही क्या थी! झोंपड़ियाँ धू-धू कर जल उठी थीं. जो जिस अवस्था में था, घरों से बाहर भागने लगा था. जलती झोंपड़ियों के ताप से बचने के लिए लोग जैसे ही झोंपड़ियों से बाहर भागते, सैनिकों के हत्थे चढ़ जा रहे थे. सैनिक तो जैसे इस प्रत्याशित प्रतिक्रिया के लिए पहले से ही तैयार बैठे होते थे! जो लोग लड़ाकू से दिखे, उन्हें तो तत्काल ही गोली मार दी गई थी.  लेकिन बाकियों को पकड़ लिया गया था. खूबसूरत कमसिन लड़कियों और दुधमुँहे बच्चों को एक तरफ छाँटा जा रहा था.

बाबा ने ज़ोर की हाँक लगाई, "देखिअ सुनरदेव, केहु बाँचे ना…..घेर ल चारू ओर से….कौनो भागे ना पाए देवल, समदिया के घरइया अउर महतारी के धरल बहुत जरूरी बा, तू पीछे से जा आपन आदमी लेके. पकड़के लाओ त, तनी हमहूँ देखीं कि ऊ कौन महतारी हई, अउर कथी के दूध पिअइले बाड़ी समदिया के जे एतना अगराइल चलअ ता ….! समदिया के घरे से जे केहु धरा जाए, सब के खींच लीहअ लोगनधरके मुआओ सब के कूँच-कूँच के …,"बाबा चीख पड़े थे.

बाबा को यह खबर मिल चुकी थी कि आज ही समदिया दुसाध की बेटी का छेंका हुआ है. इसलिए बाबा इसबात के लिए निश्चिंत थे कि आज तो समदिया पकड़ में आ ही जाएगा. वे यह भी जानते थे कि सम‍दिया अभी लड़ने की स्थिति में नहीं होगा क्योंकि एक तो उसे इसबात की खुशी होगी कि बेटी की शादी हो रही है और दूजे यह कि उसके ज्यादातर लड़ाकू सैनिक तो बारा कांड के मुख्य आरोपी थे और अभी जेल की दीवारों से अपना सिर टकरा रहे थे. बाबा का अनुमान सही था. दस-पाँच राउन्ड की मामूली फायरिंग के बाद ही समदिया अपने जवान बेटे के साथ धर लिया गया था. बाबा के आदेश पर समदिया दुसाध और उसके बेटे को बाबा के सामने घसीटकर लाया गया. बाबा का दानवी रूप खिलकर सामने आ गया था. समदिया और उसके बेटे की ऐसी दुर्गति देख छावनी के सैनिकों का उत्साह तो सातवें आसमान पर चढ़ गया था, लेकिन अबतक पकड़े गए मलिनों में प्रतिकार की रत्तीभर संभावना बची न रह गयी थी. महिलाएँ तो बेहोशी की हालत में आ गई थीं.

चारो तरफ लाल टहटह रौशनी बिखर गयी थी. ज़मीन से लेकर आसमान तक रक्तिम होने लगा था. बाबा ही नहीं, सब के चेहरे लाल-लाल हो आए थे. मौत का खौफ भरने वाले और मौत का खौफ महसूस करने वाले चेहरों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा था. शायद मृत्यु सबको एकाकार कर देती है. कहते हैं कि छोटे-छोटे दुधमुँहे बच्चों को हवा में उछालकर उनपर निशाना लगाना बाबा के विशेष शौक में शामिल था, और बाबा के हर शौक को पूरा करना छावनी के सैनिक अपना धर्म समझते थे.

बरहम बाबा ने चीख़ कर सैनिकों का आह्वान किया, "रोग का जड़ पर हमला करना चाहिएई औरत का जात ही है जो हरामियों को पैदा करती है, अउर यही हरामी सब बड़ा होकर बनता है एम.सी.सी…..सुनरदेव, सबसे पहिले ई सब औरतन अउर ननकिरवन सब के खतम करोना रहिएँ बाँस न बजिहें बँसुरिया….!"

बाबा का आदेश टाला नहीं जा सकता था. इसीलिए सर्जना की संभावना वाली महिलाओं और उनके छोटे-छोटे बच्चों को रस्सों से बाँधा जाने लगा था. कार्रवाई शुरु कर दी गयी थी. सरयू सिंह अभी राइफल तानने ही वाला था कि बाबा ने झिड़की लगाई, "गोली का तुम्हारे ससुर के फैक्ट्री से आया है जो लगे बंदूक ताननेएतना शाहखर्ची….! कमाल कई देहलअ बाबू.....! छावनी के पास का एतना फालतू पइसा है कि सब हर्रे-बहेरा पर गोली खरचा किया जाए….अरे केतना महँगा गोली है, कुछ मालुमो है तुमको…! कुछ बुझाता नहीं है का तुम लोगों को …? बइठे-बइठे असला-बारूद मिल जाता है तो फुटानी सूझ रहा हैट्रैक्टर काहेला बना हुआ हैजाओ जाके ट्रैक्टर लेके आओ!"

बाबा का इतना बोलना था कि सरयू सिंह ने राइफल को एक तरफ रख दिया. अब उसने एक मोटा सा डंडा उठा लिया था. महिलाओं को डंडों से गोंद-गोंद कर मारने लगा था. गर्भवती महिलाओं को तबतक गोंदता रहा था जबतक कि उनका गर्भपात नहीं हो गया था.  यमदूत प्राण हरने की बात तो बाद में सोचते थे, पहले तो वे चीख़-पुकार का मजा लेते थे. यमदूत अपने इस पावन कार्य के लिए डंडों के साथ-साथ राइफलों के बट्टों को भी बहुत कारगर और उपयुक्त यंत्र मानते थे.

फिर सैनिकों ने महिलाओं और बच्चों को जबरदस्ती कतार से लिटाना शुरू कर दिया. गोलियाँ खर्च ना हों इसलिए छावनी के सैनिकों ने महिलाओं और बच्चों को ट्रैक्टर से कुचलकर यमलोक पहुँचाने की अद्भुत प्रविधि का इजाद कर लिया था. चलन यही था कि सभी पीठ के बल ही लिटाए जाएँ ताकि जब ट्रैक्टर का अगला पहिया चढ़े तो उनके चेहरे पर आने वाला भाव साफ-साफ दिखे. मौत के भय से फैलती बेबस आँखों को देख छावनी के सैनिक ख़ूब खुश होते थे.

हालांकि  बरहम बाबा छावनी के सैनिकों की इस सर्जना-विरोधी कार्रवाई को हमेशा एक सैद्धांतिक आधार देने की कोशिश करते थे और वे इसका ख़ूब प्रचार भी करते थे, लेकिन मलिन बरहम बाबा के इस रहस्यमयी सिद्धांत को कायरता कहकर ही बुलाते थे. तभी तो मलिनों का नेता समदिया दुसाध जब भी अपनी बस्ती के लोगों को संबोधित करता तो कहा करता था,
"साथियो, ई डरपोक जात का लोग है. ई सब सामने से नहीं लड़ता है, पीठ-पिछे से छुरा घोंपता है, एही से एकनी सब पर भरोसा मत करिह लोग. ई रात में चोरा के हमला करता है. ई कुली चोर हवन स. एकनी से बच के रहे के बा हमनी के...!"

समदिया थोड़ा दम भरता और फिर बोलता, "ई सब अपना को बड़ा जात कहता है और हमलोग को सोलकन कहता है...अरे, अपने तो अइसा-अइसा नीच कुकरम करता है कि भगवान को भी शरम लगे....बड़ा जात का लोग हैं ई...छी:छी:...ई सब को बड़ा कहना तो छोड़ दीजिए, थूकने लायक भी नहीं है ई सब के नाम पर...!"  बोलते हुए समदिया दुसाध का मन जैसे घृणा से भिनभिना उठता था. 

समदिया जब अपने लोगों को संबोधित करते हुए बोलता, तो लोग बेसुध होकर सुनने लगते थे. बोलता भी तो था बहुत भावुक होकर!

"अरे दम हो तो मरद सब से लड़ के दिखाए ना...औरतन और बच्चा-बुतरुक सब को मारता है....ई का मरदई है कि जवान लड़की सब को उठाके ले जाए और.....! भड़ुआ साले...!"
समदिया बोलते-बोलते कभी गुस्से में आ जाता था, तो कभी उसका गला भर उठता था. लोगों पर तो जैसे जादू कर देता था.

सरयू सिंह ने चाबी घुमाई और ट्रैक्टर खड़खड़ करके चालू हो गया. इन्तजार बस सुनरदेव के आदेश का था. सुनरदेव शर्मा ने अंतिम अनुमति के लिए बाबा की ओर देखा तो एकबारगी चौंक गया. बाबा की  आँखें कहीं और टिकी थीं. वह ठिठक गया. सुनरदेव बाबा की सांस पहचानता था. बाबा के साथ साये की तरह चिपका भी तो रहता था! उसने गौर किया कि बाबा एक ताजा गोश्त को अपलक निहार रहे थे. 

उसका चेहरा भय से पीला पड़ा हुआ था. निढाल-सी अपने साथ की महिला के कंधे से टिकी खड़ी थी. उम्र भी सोलह-सत्रह की ही रही होगी लेकिन गठन ऐसा की चेहरे से मासूम दिखने के बावजूद बीस-बाईस से कम नहीं दिख रही थी. ढीली चोटी में करीने से बँधे उसके बाल सामने की ओर छाती पर झूल रहे थे. घने बालों वाली चोटी ने एक स्तन को तो ढँक रखा था लेकिन दूसरे के लिए कोई पर्दा न था. मौत के भय के कारण सांसें जैसे धौंकनी की तरह चल रही थी. सांसों के फूलने-पिचकने और तेज-तेज चलने से उन्नत उरोज तेजी से उठ-बैठ रहे थे. उसके सहमे हुए चेहरे पर उसके काले-काले रेशमी बालों के आठ-दस रेशे उड़-उड़ कर चुहुल करते जा रहे थे. बालों के रेशे जब गोरे-गोरे गालों पर से होते हुए उसकी तीखी नाक पर आ जाते तब वह उन्हें अपने हाथों से समेटकर यथावत अपनी जगह पर लौटा देती थी. यह समदिया दुसाध की छोटी बेटी बसनी थी.

ट्रैक्टर अब धीरे-धीरे आगे की ओर सरकने लगा था. अचानक सुनरदेव आगे बढ़ा और उसने बसनी की बाँह पकड़कर उसे अपनी ओर तेजी से खींच लिया. ट्रैक्टर के चक्कों से कच्च-कच्च और फच्च-फच्च की आवाज़ आने लगी थी. हृदय विदारक चीख-पुकार से जैसे आसमान का सीना चिरने लगा था. सैनिक भी जयघोष बुलंद करने लगे थे – "दादा रणवीर अमर रहे, अमर रहे अमर रहे….!"चीख़-पुकार तो ट्रैक्टर के अगले पहियों के चढ़ने तक ही मचती रही, पिछले पहियों ने तो सबकुछ हमेशा के लिए शांत कर दिया था. फिर कुचली जा चुकी मरी-अधमरी देह उठाकर जलती झोंपड़ियों के दहकते अलाव में फेंकी जाने लगी थी और छावनी के सैनिक आग में जलते मानव-मुंडों से फूटकर निकलने वाली चटकती ध्वनियों को सुनकर आनंदित हो रहे थे. यह पूरी प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती रही.

आज बहुत दिनों के बाद छावनी का वीराना टूटा था. पिछले कुछ सालों से यहाँ कोई उठता-बैठता भी तो नहीं था! लेकिन जब बाथे कांड के सभी आरोपियों को बाईज्जत बरी कर दिया गया था और बरहम बाबा, देवल चौधरी, सरयू सिंह आदि जेल से छूटकर लौट आए थे, तभी जाकर छावनी में कुछ लोग आने-जाने भी लगे थे. नहीं तो, जबतक बाबा जेल में रहे, यहाँ वीराना ही छाया होता था. जब बाबा पकड़े गए थे, कुछ दिनों तक तो छावनी में खूब गहमा-गहमी रही थी और बाबा के पास जेल में भी मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहा था, लेकिन धीरे-धीरे लोग अलसाने लगे थे. लोगों का जेल जाकर बाबा से मिलना-जुलना भी कम ही हो गया था. आखिर एक दिन ऐसा भी आया जब सब छूट गए - साथी, संगी, सैनिक, सभी.

बरहम बाबा का प्रारंभिक ख्याल था कि सैनिकों को यदि सुख-सुविधा की हर वस्तु मुहैया नहीं करायी गयी तो सैनिकों में छावनी के प्रति गहरी निष्ठा नहीं आ पाएगी. फिर भी, यह बात बाबा की समझ में नहीं आ पाती थी कि आखिर वो कौन से कारण हैं कि इतने अधिक वेतन, रुतबे और सुविधाओं के बावजूद छावनी के सैनिकों में अपने आकाओं के प्रति वैसी निष्ठा नहीं आ पाती थी जैसी अंध-भक्ति समदिया दुसाध के लिए मलिनों में होती थी. छावनी के सैनिकों में वैसा आपसी भाईचारा भी नहीं होता था और ना ही मलिनों जैसी भयहीन आक्रामकता दिखती थी. इसलिए छावनी के थिंक-टैंकके लिए यह विचार-मंथन का विषय बना रहता था कि आखिर मलिनों की नंग-धड़ंग सेना की भयहीन आक्रामकता और अपने सेनापति के प्रति की ऐसी अंध-भक्ति के पीछे का रहस्य क्या है!  बरहम बाबा जबतक छावनी में रहे, उनके लिए यह रहस्य, एक रहस्य ही बना रहा. लेकिन जेल के जीवन के दौरान उन्हें यह बात तब समझ में आई थी जब उन्हें प्रोफेसर रामाधार का साथ मिला था. प्रोफेसर साहब पिछले कई सालों से विचाराधीन कैदी बने पड़े हुए थे. उन्हें तब गिरफ्तार किया गया था जब सरकार ने मलिन काउन्टर कमांड (एम.सी.सी.) को एक प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया था. प्रोफेसर साहब पर एम.सी.सी. के 'थिंक-टैंक'का सदस्य होने का आरोप था. जेल के अन्दर तो दुश्मनों को भी दोस्त बनाकर रखने की मजबूरी होती है! इसी मजबूरी के तहत बाबा और प्रो. रामाधार निकट आ गए थे. जब सश्रम कारावास की सजा भुगत रहे कैदी काम पर चले जाते थे तब विचाराधीन कैदी आपस में बातचीत करके अपना समय काटा करते थे और सुख-दुख साझा किया करते थे. बाबा भी विचाराधीन कैदी ही थे. उन्होंने भी अपना सुख-दुख साझा करने के लिए  प्रो. रामाधार के रूप में एक साथी ढूँढ़ लिया था.

एक दिन जब बाबा ने प्रोफेसर साहब से निष्ठा संबंधी अपनी उलझनों को साक्षा किया और उनसे कुछ समझने की कोशिश की, तब प्रोफेसर साहब ने बाबा को कहा, "ब्रह्मदेव भाई, सिर्फ सुख-सुविधा दे देने से ही निष्ठा नहीं आ जाती है. निष्ठा तो सैद्धांतिकी का बाई-प्रोडक्ट होती है. आप जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे एक सिद्धांत होना चाहिए. आपकी सोच वैयक्तिक नहीं वैश्विक होनी चाहिए और यह समझना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है कि आप समाज के दबे-कुचले और कमजोर तबके के पक्ष में खड़े हैं या कि उसके प्रतिपक्ष में."

इसबात पर बाबा ने प्रो. रामाधार को रोकते हुए पूछा था, "लेकिन रामाधार भाई, हम भी तो अपने लोगों के लिए ही लड़ रहे हैं, जइसे आप लोग अपने लोगों के लिए."

प्रोफेसर साहब कंबल को लपेटकर तकिए की शक्ल देने की जुगत में लगे हुए थे और बाबा से बातचीत भी करते जा रहे थे. जब तकिया तैयार हो गया तब उससे टिक कर अधलेटे से पड़ गए और एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, "हम लोगों की लड़ाई और आप लोगों की लड़ाई में बहुत अन्तर है ब्रह्मदेव भाई. आप लोगों की लड़ाई एक उद्देश्यहीन लड़ाई है जिसके पीछे कोई मकसद नहीं है, और थोड़ा बहुत कुछ है भी तो वह सकारात्मक नहीं नकारात्मक है जिससे समाज का कुछ बनने वाला नहीं है."

यह सुनकर बाबा ने विरोध किया था लेकिन दबी जुबान में. प्रो. रामाधार एक विद्वान व्यक्ति हैं यह बात बाबा ही नहीं पूरा इलाका जानता था और तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद सभी विचाराधाराओं के लोगों के बीच उनकी विद्वता की बड़ी धाक थी. इसीलिए बाबा भी उनकी विद्वता से सहमे हुए ही दिखे थे. उम्र में भी तो बाबा उनसे बहुत छोटे थे! बरहम बाबा ब्रह्मचर्य के हिमायती थे इसीलिए गाँव के बुजुर्ग लोग उन्हें बाबा कहने लगे थे, नहीं तो उनकी उम्र पैंतालीस-पचास के बीच ही कुछ रही होगी!

बरहम बाबा बोल पड़े, "रामाधार भाई, मार-काट तो आप भी करते हैं. अब आप वही काम करें तो सकारात्मक और समाज का उससे भला हो रहा है, लकिन वही काम हमारे लोग करें तो नकारात्मक! ये क्या बात हुई!"

यह सुनकर प्रो. रामाधार मुस्कराने लगे थे. शायद उन्हें बाबा से ऐसी साफगोई की उम्मीद नहीं थी .लेकिन पके हुए आदमी थे, तनिक भी विचलित नहीं हुए.

समझाने की मुद्रा में बोलने लगे, "ब्रह्मदेव भाई, यही तो बात आपकी समझ में नहीं आ रही है. हम लड़ते हैं एक सपने के लिए, एक सपने को साकार करने के लिए, जबकि आप सपनों के दुश्मन बने बैठे हैं. हम सत्ता और सामंती व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े हैं, जबकि आप सत्ता के दलालों के पक्ष में खड़े हैं. मकान बनाने और दुकान  सजाने में बहुत अंतर होता है ब्रह्मदेव भाई. हम उस सत्ता के विरोध में खड़े हैं जिसने आज बीच चौराहे पर एक ठेला लगा लिया है और एक खोंमचे वाले की तरह हमारे आदर्शों को, हमारे मूल्यों को बल्कि हमारे पूरे समाज को हांक लगाकर सरेआम बेच रही है. ब्रह्मदेव भाई, हमारी लड़ाई आपसे थोड़े ना है. हम तो कभी-कभी अपने बचाव में आपसे भिड़ जाते हैं. हमारी लड़ाई तो सीधे-सीधे सत्ता से है. जबकि आप सत्ता द्वारा हमारे खिलाफ़ इस्तेमाल किए जा रहे हैं. आपको इस फर्क को समझना होगा. ब्रह्मदेव भाई, आपको यह बात बहुत गंभीरता से समझनी होगी कि आपको इस्तेमाल किया जा रहा है और आप लोग अच्छी तरह से इस्तेमाल हो भी रहे हैं!"  फिर दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए थे.

बाबा को तो पहले से ही यह दर्द साल रहा था कि सत्तासीन पिछड़ी  जाति के राजनेताओं ने किस  तरह से उनका इस्तेमाल कर लिया था. देश की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी पिछड़ी कही जाने वाली जाति ने अपना हक़ माँगती किसी निचली जाति के विरूद्ध अपने फायदे के लिए किसी अगड़ी जाति का इस्तेमाल कर लिया हो और जब गन्ने का रस पूरी तरह से निचुड़ गया, तब गन्ने की सिठ्ठी को उठाकर कालकोठरी में फेंक दिया हो. पहले तो अगड़ी जाति ही पिछड़ों का इस्तेमाल किया करती थी!

बाथे कांड से पहले तो छावनी में प्रदेश के मुख्यमंत्री तक की आवाजाही सतत बनी रहती थी. लेकिन जब से बाबा जेल गए थे, मुख्यमंत्री क्या, किसी विधायक तक ने भी उनकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा था. यही सब सुन-सोचकर बरहम बाबा खामोश हो गए थे.

जेल के जीवन ने बाबा को एकाकी बना दिया था. जब भी अकेले होते, दुनिया भर की बातें दिमाग में कौंधने लगतीं. सबसे ज्यादा तो बसनी का चेहरा परेशान करता रहता था. कभी वह सामने रेलिंग से टिकी दिखती, तो कभी पीछे की ओर से छम्म से आ जाती, कभी दरवाजे की ओट से झांक रही होती, तो कभी पिता और भाई को याद करके उसकी सांसें उखड़ रही होतीं. जब कभी बाबा उसका हाथ पकड़ते और उसे चूमने की कोशिश करते, तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेती और अपने को छुड़ाते हुए अपने कोप-भवन की ओर दौड़कर भाग जाती और बाबा मुस्कराते हुए उसे देखते रह जाते. भागकर कोप-भवन की ओर जाती हुई बसनी के पाँवों से आती पायलों की छम-छम, बाबा को घंटों सुनाई देती रहती. वे मुस्कराने लगते. लेकिन फिर तत्काल ही सचेत हो जाते और यह सोचकर इधर-उधर देखने लगते थे कि जाने किसी दूसरे कैदी ने देख तो नहीं लिया उन्हें इस हालत में! बाबा हरपल इसी तरह की पता नहीं कितनी यादों में खोए हुए डूबते-उतराते हुए मुस्कराते रहते थे. लेकिन जैसे ही बाबा को बसनी के साथ का अपना पहला समागम याद आता, वे विचलित हो उठते थे.

रात गहराई हुई थी. झिंगुर झुन-झुन-चुन-चुन कर रहे थे. छावनी में घुप्प सन्नाटा छाया हुआ था. कहीं से फुसफुसाहट तक नहीं आ रही थी. कभी-कभी ठंडी हवाएँ सर्र-सर्र की ध्वनि के साथ कान के पास से निकल जा रही थी. हालांकि ऐसा नहीं था कि सभी लोग नींद में ही रहे हों लेकिन सन्नाटा मौत का सा था. बसनी की चीख़ से ही सन्नाटे में सुराख हुई थी. हालांकि किसी ने उसकी कराह पर उस तरह ध्यान नहीं दिया था, लेकिन बाबा के कान बज उठे थे. उनका  पूरा शरीर जैसे सर्द-सा पड़ गया था. यह सिर्फ बसनी की चीख़-भर न थी. ऐसा लगा था मानों रात की इस खामोशी के बीच समदिया की हृदय-विदारक चीख़ गूँज उठी हो. समदिया और उसके बेटे की तरह ही बसनी भी दो-तीन बार ही चीखी थी, लेकिन तीव्रता इतनी मानो सबकुछ टूट कर बिखर गया हो. टूटती चूड़ियों की कड़कड़ की आवाज ने भी ऐसे शोर मचाया था जैसे अलाव में मानव-मुंड चटक रहे हों. अभी चित्कार की यह ध्वनि दूर घाटियों से टकराकर लौटती, इससे पहले ही ट्रैक्टर से आती कच्च-कच्च और फच्च-फच्च की आवाज तेज हो आई थी. ऐसा हरबार होता. कोठरी की पूरी दीवार मानो निढाल पड़ी बसनी के उदास चेहरे में तब्दील हो जाती. यादें खींझ में बदल जातीं और बाबा अपने मन को झटककर किसी और बात में उलझाने की कोशिश करने लगते. फिर बाबा एकबारगी बिस्तर छोड़ उठ खड़े होते. पास पड़े घड़े से एक ग्लास पानी निकालते और गला तर करने लगते थे. सोने के लिए तो जाने कितनी ही तरकीबें अपनानी पड़ती थीं! 

उनसे मिलने-जुलने भी तो कम ही लोग आते थे. कभी-कभी बसनी ही मिलने आ जाती थी. लेकिन वह तभी आती थी जब उसे किसी फरमान पर अंतिम ठप्पा लगवाना होता था. जबकि बाबा के मन में तो बसनी हमेशा ही बसी रहती थी और बाबा जब भी अकेले होते, उससे बातें भी खूब किया करते थे. बाबा को रात के अंधेरे में अकेले किसी से फुसफुसाकर बातें करते देख, सुनरदेव चिढ़ जाता था और व्यंग्य में बोल पड़ता, "चले हैं बुढ़ारी में घिंउढ़ारी करने."यह सुनकर बाकी लोग मुस्करा देते थे. हालांकि बाबा के विरोध में किसी को बोलने की इजाजत नहीं होती थी. लेकिन बाबा ने सुनरदेव को इतनी छूट दे रखी थी. अगर कभी कोई अवांछित छूट लेने की कोशिश करता तो सुनरदेव ही उसे झिड़क कर चुप करा देता था. सुनरदेव शर्मा के मन में यह बात हमेशा घर की रहती थी  कि छावनी के सैनिकों ने बाथा जैसे पता नहीं कितने ही आक्रमण किए थे और कितनी ही बसनियाँ छावनी के तफरीह घर की भेंट चढ़ती रही थीं, लेकिन स्वयं बाबा ने इससे पहले कभी किसी बसनी की ओर नजर उठाकर नहीं देखा था. यही सब सोच-सोचकर वह बाबा को लेकर बहुत भावुक हो जाता था, लेकिन बसनी के लिए उसके मन में सहानुभूति का तनिक भाव नहीं रहता था.

जेल ने बाबा के जीवन को ही नहीं, उनकी सोच तक की चूलें हिला दी थीं.  अबतक उनकी सभी पूर्ववर्ती धारणाएँ ध्वस्त हो चुकी थीं और वे दार्शनिकों-सी बातें करने लगे थे. शायद जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों के पीछे ही बड़े-बड़े दर्शन जन्म लेते हैं.

जेल से निकलने के बाद बरहम बाबा ने अपने को सैद्धांतिक रूप से मजबूत करना शुरू कर दिया था. अब उनका ज्यादा समय दार्शनिकों के विचारों को पढ़ने और उन्हें आत्मसात करने में ही बीतता था. लेकिन बाबा ज्यों-ज्यों अपने को सिद्धांतों में तल्लीन करने लगे थे, वे अपने को मलिनों के दुख-दर्द के क़रीब महसूस करने लगे थे. ऐसे में, मलिनों के प्रति उनकी पूर्ववर्ती आक्रामकता क्षीण पड़ने लगी थी और वे अपने ही बनाए नियमों में शिथिलता दिखाने लगे थे. उनके इस वैराग्य को देखकर छावनी में यह बात प्रचारित होने लगी थी कि बरहम बाबा अब सठिया गए हैं. उन्हें अपनी मृत्यु का भय सताने लगा है इसीलिए मउगाए घूम रहे हैं. जबकि बरहम बाबा जेल से छूटने के बाद अपने स्वयं के द्वंद्व से जूझ रहे थे. वे मलिनों के विरूद्ध की जाने वाली आक्रामक कार्रवाई के विरोधी से हो गए थे. अब वे सैनिकों की फौज लेकर भी नहीं निकलते थे, नहीं तो एक समय था जब मैदान के लिए भी निकलना हो तो ऐसे निकलते थे मानो सेना कूच को निकली हो.
    
आज नदी पार की दूर मलिन बस्ती में सब कुछ सामान्य-सा दिख रहा था. लाउड-स्पीकर पर कोई गाना बज रहा था जिसकी हल्की-हल्की सी आवाज़ छावनी तक भी आ रही थी. शायद किसी के घर कोई विवाह  का समारोह था. छावनी और मलिन बस्ती के बीच धनौती नाम की यह नदी पता नहीं कितने वर्षों से बह रही थी और बहती ही जा रही थी. नदी का पाट तो सँकरा ही था, लेकिन यही दोनो को अलगाता था. नदी पर लकड़ी की एक जर्जर पुलिया बनी हुई थी जो मलिनों की बस्ती से छावनी को जोड़ती थी. मलिन बस्ती से छावनी की ओर सामान्यत: कोई आता जाता नहीं था, लेकिन विविध सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के अवसर पर डोमकच  आदि रस्मों के लिए मलिनों की जरूरत पड़ ही जाती थी. इसलिए छावनी की ओर कभी-कभी मलिनों का आना-जाना हो जाता था. छावनी की तरफ से सिर्फ बसनी ही कभी-कभार अपनी बड़की दीदी के ससुराल तक हो आती थी. बसनी के लिए रिश्तेदार के नाम पर वही तो एक बच गयी थी!  पिता और भाई  तो लखीमपुर बाथे कांड में उसकी आँखों के सामने ही बड़ी बेरहमी से मार डाले गए थे. बाथे कांड में जब बसनी को उठाकर बाबा की बाहों में ढकेल दिया गया था, तब सैनिकों को इस बात का बहुत गर्व और संतोष हुआ था कि उन्होंने मलिनों के नेता समदिया दुसाध की बेटी को उठा कर मलिनों को कभी ना भूलने वाली सजा दी है. लेकिन छावनी के सैनिकों के मन का यह भाव बाबा के मन का स्थायी-भाव नहीं बन सका था.

कहते हैं कि बसनी बरहम बाबा का पहला प्यार बन गयी थी और बाबा भी  बसनी के प्यार में  जो एकबार उलझे, तो बस उलझते ही चले गए थे. इसीलिए छावनी में बसनी के साथ वैसी दुर्गति भी नहीं की गई थी जैसी कि आमतौर पर आक्रमण के बाद पकड़कर लाई गयी अन्य मलिन लड़कियों के साथ की जाती थी. छावनी में बसनी रानी बनकर रही  थी. बाबा ने बसनी को मलिन बस्ती में आने-जाने की छूट दे रखी थी. बाबा एक तरफ तो उसके प्यार में बँधे हुए थे तो दूसरी तरफ, जेल से लौटने के बाद अब मलिनों को लेकर उनका मन मलिन रहने लगा था. लेकिन सुनरदेव शर्मा बाबा के इस ख्याल से कभी सहमत नहीं हो पाया था. यह सुनरदेव शर्मा ही था जो बसनी को नगिनिया कहकर बुलाता था और यह बात बसनी भी जानती थी.  वह हमेशा कहा करता था, "अरे ई नगिनिया है, आज ना कल डँसेगी जरूर. बाबा को कुछ बुझाता नहीं है. नहीं तो चाहे सेनारी हो कि इक्वारी हो और चाहे बाथे हो, अपना एक्को-गो आदमी कभी नहीं मराया था. जब से ई नगिनिया आई है, तबही से सेना का लोग मराने लगा है और सेना का हमला खराब होने लगा है. अरे भाई, ई कइसे होने लगा है कि कोई हमला हुआ नहीं कि चारो तरफ से टिटिहरी जइसा निकल पड़ता है सब बंदूक लेके, अउर सेना को भागना पड़ता है जान बचाके...! ऊ सब को पता कइसे चल जाता है कि अभी हमला होने वाला है? नगिनिया ही देती है ख़बर...!"

छावनी के सैनिक आमने-सामने की लड़ाई से गुरेज करते थे इसीलिए जब भी आमने-सामने की भिड़न्त होती थी तो सेना को ही अधिक नुकसान उठाना पड़ता था, जबकि मलिनों को सीधी भिड़न्त से परहेज नहीं होता था. मलिन हर समय प्रत्याक्रमण को तैयार रहते थे. सुनरदेव शर्मा की छठी इंद्रियाँ हमेशा इसबात की गवाही देती रहती थी कि नगिनिया के कारण ही छावनी को नुकसान उठाना पड़ रहा है और वह साथी सैनिकों में यह बात बोलता भी रहता था. सुनरदेव अपने इस सुबहे को लेकर बाबा को भी समझाने की कोशिश करता था, लेकिन बाबा पर उसकी एक ना चलती थी.
सुनरदेव शर्मा बाबा का सबसे चहेता सैनिक था. यह बात बसनी जानती थी. यूँ भी बसनी का रहस्यमयी मौन ही उसकी एकमात्र थाती थी. सुनरदेव भी बाबा के मन में बसी बसनी की महत्ता को खूब समझता था, इसीलिए बहुत मुखर विरोध नहीं कर पाता था. दूसरी ओर, बसनी को चाहने वालों की भी फेहरिश्त कोई कम लम्बी नहीं थी. कुछ तो छावनी में सुनरदेव शर्मा की महत्ता से ईर्ष्या रखते थे  इसलिए बसनी को समर्थन दिया करते थे, तो कुछेक बसनी को भोगने की लालसा लिए संभावनाएँ तलाशते रहते थे. इसतरह सेना के अन्दर बसनी और सुनरदेव के रूप में दो सत्ता-केन्द्र बन गए थे. लेकिन इनके बीच हमेशा एक शक्ति-संतुलन बना रहा था और यह सत्ता-संतुलन आख़िरकार तभी जाकर टूटा था जब सेनारी कांड की चार्जशीट फाइल हुई थी और सुनरदेव शर्मा जेल चला गया था.

बरहम बाबा का मृत शरीर शांत-चित्त लेटा हुआ था. आँखें ऐसी भिंची हुई थीं मानो मियांपुर, सेनारी, इक्वारी और बाथे की सफलता पर अफसोस जाहिर कर रही हों. लोग बाग़ आते, देखते और फिर पीछे हो, हौले से निकल जा रहे थे. आसपास खड़े सभी लोग बाबा की अर्थी के उठने का इन्तज़ार कर रहे थे जबकि सिर के पास बैठी बरहम बाबा की माँ एकटक अपने बेटे को निहारती हुई उसके माथे पर हाथ फेरती जा रही थीं. बरहम बाबा के पिता छावनी के पीछे खड़े  आम के पेड़ की छाँव में बैठे किसी  ग्रामीण के सामने अपना दुखड़ा रोते हुए बोल रहे थे, "भाई, हम तो वो अभागा हैं कि अपने बाप का भी किरिया-करम किए हैं और बेटा का भी करने जा रहे हैं. अरे भाई.., हम तो बोल-बोल के थक गए कि आह मत लो निहत्था गरीब सब लोग का, लेकिन माने तब ना! जेहल काटके आया तब से थोड़ा सुधर भी गया था, लेकिन सुधरने का फायदा का हुआ जब सब खतम हो गयागरीबहन सब का हाय लग गया भाई..!"  बोलते हुए बरहम बाबा के पिता फफक पड़े थे.

अर्थी  के उठने की तैयारी पूरी हो चुकी थी. सिर्फ बसनी  के आने का इन्तजार हो रहा था कि वह आए और अंतिम दर्शन कर ले ताकि बाबा की महायात्रा शुरू हो सके. सांकल के बजने की आवाज आई. बसनी अपने कोप-भवन से बाहर निकली थी. बाबा ने छावनी में बसनी को जो कमरा दे रखा था, उसे वह कोप-भवन ही कहती थी. बाहर भी तो कम ही निकलती थी! आज बसनी लाल जोड़े में थी. सजी ऐसी थी कि दुल्हन विदाई को तैयार हो.  भखरा सिन्दूर से उसकी मांग दमक रही थी. नारंगी रंग का भखरा सिन्दूर शादी के समय दुल्हन की मांग में डाला जाता था और नवविवाहिताएँ थोड़े दिनों तक उसे अपनी मांग में डालती रहती थीं . हालांकि उनके सिन्दूरदानों में भखरा सिन्दूर भरा रहता था, लेकिन रोजमर्रे में इसका उपयोग नहीं किया जाता था. इसीलिए आज बसनी को भखरा सिन्दूर में देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था. उसकी कलाइयाँ लाल चूड़ियों से सजी हुई थीं.  उसने अपने लम्बे-लम्बे बालों को एक जूड़े में समेट रखा था. जूड़ों के कारण दुधिया गर्दन चमचम कर रही थी जिससे झूलते काले-काले मोतियों की लरी वाले मंगल-सूत्र ने उसे और भी आकर्षक बना रखा था. आज बसनी ने ऊँची ऐंड़ी वाली सैंडिलें पहन रखी थीं. सैंडिलों से आती खट-खट की आवाज ने सब का ध्यान खींच लिया था. बाबा ने इन सैंडिलों को बड़े प्यार से खरीदा था.  जब बाबा ने बसनी को सैंडिलें दी थीं तो उसके गोरे-गोरे पाँवों को सहलाते हुए कहा था, "बसनी, भगवान ने तुम्हारा गोड़ एतना सुन्दर बनाया है कि पूछो मत, जब ई सेंडिल पहिनोगी तो दुनिया का सबसे सुन्दर लड़की लगोगी."

प्रत्युत्तर में बसनी ने कुछ कहा तो नहीं था, लेकिन उसने बाबा के जीते-जी कभी उन सैंडिलों को पहना नहीं था.

सब की नज़रें बसनी पर ही टिकी थीं. आज से पहले बसनी को इस रूप में कभी किसी ने देखा भी तो नहीं था, इसलिए सभी भौ-चक्क खड़े थे.  बसनी अर्थी के करीब आई और उसने बाबा को घूर कर देखा. आँखों से जैसे अंगारे बरस रहे थे. चेहरे पर तो मातम का नामोनिशान तक न था. होठों पर हल्की-सी मुस्कान जरूर दौड़ रही थी. थोड़ी देर बाबा को घूरते रहने के बाद बसनी ने अपनी सैंडिलें उतारीं और घुमाकर फेंक दिया पास के बथान की ओर. सैंडिलें गोबर के टाल पर चप्प से गिरी थीं इसलिए किसी प्रकार की विशेष आवाज़ नहीं हुई थी. फिर उसने एक लम्बी खरास खींची और अचानक थूक दिया बाबा के मुँह पर, "आक् थू".
भीड़ सन्न रह गयी. अभी लोग-बाग़ कुछ समझते इससे पहले ही वह तेजी से मुड़ी और भागने लगी नंगे पाँव, मलिन बस्ती की ओर. मलिन बस्ती के लाउड स्पीकर पर बजने वाला गाना अब साफ-साफ सुनाई देने लगा था,  "अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया रे, ये ननदी, दियरा जरा द...."
लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़ धीरे-धीर और तेज होने लगी थी.


कहानी साभार - कथादेश (नवम्बर २०१२)
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अनुज कथापत्रिका के संपादक हैं और उनका एक कहानी-संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है. 
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राकेश बिहारी का आलेख यहाँ पढ़े.

भूमंडलोत्तर कहानी (४) : अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया (अनुज) : राकेश बिहारी

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कथादेश के नवम्बर २०१२ में युवा कथाकार अनुज की  कहानी'अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया'प्रकाशित हुई और परिकथा के मई–जून २०१३ से लेकर जुलाई–अगस्त २०१४ तक  इस पर लम्बी परिचर्चा चली जिसमें मैनेजर पाण्डेय, शम्भु गुप्त, प्रो. तुलसीराम, अरुण होता, डॉ. रामचन्द्रडॉ. रामधारी सिंह दिवाकर, रमणिका गुप्ता, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, डॉ. सूरज पालीवाल, ममता कालिया, राजेन्द्र कुमार, रवि भूषण आदि आलोचक – कथाकारों ने हिस्सा लिया.  युवा आलोचक राकेश बिहारी ने अपनी आलेख श्रृंखला भूमंडलोत्तर कहानी के लिए इस कहानी को चुना है और इस पर विस्तार से चर्चा की है. आप इस आलेख के साथ यह कहानी भी पढ़ सकते हैं. 


विषकुम्भं पयोमुखम् अर्थात
कृत्रिम प्रतिरोध के चिलमन से झाँकती दलित विरोधी मानसिकता
(संदर्भ: अनुज की कहानी ‘अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया’)


राकेश बिहारी 



थादेश (नवंबर, 2002) में प्रकाशित अनुज की कहानी अंगुरी में डँसले बिया नगिनियाकी पृष्ठभूमि मेंबिहार का वह जातीय संघर्ष है जिसके दो छोर पर कभी एम सी सी और रणवीर सेना हुआ करतेथे. नब्बे के दशक में उभरे उस जाति-संघर्ष के दौरान हुये नरसंहारों, रणवीर सेना केक्रिया कलापों, ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या और उसके बाद उसके महिमामंडन की राजनैतिककोशिशों का स्पष्ट प्रभाव इस कहानी पर देखा जा सकता है. न सिर्फ जगह,जातीय सेना और पात्रों केनाम (यथा बाथे,बारा,रणवीर सेना,एम सी सी,बरहम बाबा,रणवीर दादा आदि)बल्कि घटनाओं और उनके राजनैतिक निहितार्थों की समानता के कारण भी यह कहानीकदम-दर-कदम बिहार के उस खूनी जातीय संघर्ष की याद दिलाती है. लेकिन अनुज चाहते हैंकि इस कहानी को उक्त ऐतिहासिक तथ्यों की पृष्ठभूमि में न देखा जाय – 

मैं पाठकों काध्यान इस ओर भी आकृष्ट करना चाहूँगा कि न तो मैंने किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान मेंरखकर यह कहानी लिखी है और ना ही मैंने किसी खास गाँव की बात की है. कहानी मेंप्रयुक्त कुछ नाम यदि मिलते-जुलते से लगते  हैं तो यह महज संयोग है.... जहां तकमेरा सवाल है, मैंने तो कभी ब्रहमेश्वर मुखिया को व्यक्तिगत तौर पर देखा भी नहींथा. कहानी लिखने के समय तो मेरे जेहन में ब्रहमेश्वर मुखिया के जीवन का सच था भीनहीं...(अंगुरी मेंडंसले बिया नगिनियाऔर मेरी रचना प्रक्रिया -  अनुज, परिकथा, जुलाई-अगस्त 2014) 

क्या वर्तमान या इतिहास के किसी चरित्र से प्रभावित कहानियाँ लिखने के लिएलेखक का उसे व्यक्तिगत तौर पर देखा होना जरूरी होता है? अनुज की इस मासूम लेखकीयसमझ पर वारी जाने की इच्छा होती है! इतनी सारी समानताओं को महज संयोग बता करसीधे-सीधे यह कहना कि कहानी लिखते हुये मेरे जेहन में ब्रहमेश्वर मुखिया का सच थाहीनहीं अविश्वसनीय और अव्यावहारिक ही नहीं हास्यास्पद भी है. कोई भी कहानी विशुद्धरूप से किसी घटना का शब्दश: ब्योरा नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए, लेकिन यथार्थ कीपुनर्रचना यथार्थ की जमीन से जुड़ कर ही होती है. यथार्थ से पूर्णत:विलग हो करकल्पना के आकाश में यथार्थ की पुनर्रचना की बात का न कोई औचित्य होता है न हीं उसकीकोई उपादेयता. अंगुरी में डँसले बिया नगिनियासचमुच स्त्री और दलित हितों की कहानी हो सकती थी यदि यह जातीयसंघर्ष को अंजाम देने वाले कुख्यात, नृशंस और बर्बर चरित्रों के महिमामंडन कीकुत्सित राजनीति का प्रतिपक्ष रचती, लेकिन प्रथम पाठ में अपनी पठनीयता और चाक्षुष दृश्यविधान के कारण पाठकों को बांध कर रखने वाली यह कहानी एक खास तरह की शब्दावली, अतार्किक घटनाक्रम, कथानक और चरित्रों के अंतर्विरोधी विकास, यथार्थ और कल्पना के सुनियोजित घालमेल, ऐतिहासिक तथ्यों सेछेड़छाड़ आदि के कारण स्त्री-दलित हितों के विरोध में खड़ी हो जाती है. हृदयपरिवर्तन की तकनीक के बेजा इस्तेमाल के द्वारा एक क्रूर और नृशंस पात्र में भीदेवत्व खोज लेने की लेखकीय चालाकी का ही नतीजा है कि यह कहानी वीभत्स हत्याओं कोअंजाम देने वाले कुख्यात अपराधी के महिमामंडन की राजनीति के पक्ष में भी खड़ी नज़रआती है. कहानी के इन कुत्सित राजनैतिक निहितार्थों की कलई खुलती देख कहानी मेंयथार्थ के सायास प्रतिविम्बन को महज संयोग कह कर इसके प्रकाशन के लगभग दो वर्षों के बाद डिसक्लेमरनुमा  फेस सेविंगकी इस हास्यास्पद चालको लेखकीय चालाकी के दूसरे हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए.

कहानी की भाषा लेखक की दलित-स्त्री विरोधी मानसिकता की किस तरह चुगली करती है उसका उदाहरण कहानी के पहले ही पृष्ठ पर मिल जाता है- ‘’पोस्टमार्टम में भी थोड़ा ज्यादासमय लग गया था. दरअसल लाश को चीरने वाला डोम लाश को छूने से आनाकानी कर रहा था.‘’संदर्भ बरहम बाबा की लाश की पोस्टमार्टम का है. यहाँ इस बात पर भी ध्यान दिया जानाचाहिये कि ये वाक्य कहानी के किसी पात्र-विशेष का कथन नहीं बल्कि लेखकीय ब्योरे काहिस्सा हैं. उल्लेखनीय है कि अस्पतालों में पोस्टमार्टम के दौरान लाश को चीरने काकाम अस्पताल के कर्मचारी ही करते हैं, जो किसी भी जाति के हो सकते हैं. संभव है लाशचीरने के काम की वीभत्सता के कारण इस सेवा में सामान्यतया वंचित-दलित ही जाते हों, लेकिनकिसी सरकारी कर्मचारी को उसके जाति सूचक शब्द – ‘डोमसे संबोधित करना कितना उचित है?सी तरह पूरी कहानी में दलितों के लिए मलिन शब्द का प्रयोग किया गया है. आज का दलितखुद को न तो विशिष्ट समझता है न हीं किसी का कृपाकांक्षी.  यही कारण हैं कि गांधीजी द्वारा दिये गए विशिष्टता सूचक शब्द हरिजनको भी अस्वीकार करते हुये इस समुदायने खुद के लिए दलित शब्द अर्जित किया है. गौरतलब  है कि दलित शब्द में केवल उससमुदाय के प्रति हुये अत्याचार का भाव ही निहित है, उनके प्रति किसी तरह की दया याहिकारत का भाव नहीं.  इसके विपरीत मलिन शब्द एक खास तरह के निम्न भाव-बोध का वाहक है.वैसे भी  समाज में मलिन या मलिन बस्ती कहे जाने का कोई उदाहरण भी सामान्यतया नहींदेखने को मिलता है.  

जाहिर है जानबूझ कर किया गया यह प्रयोग लेखक की जाति संबंधी द्वेषपूर्ण समझ का ही परिचायक है. इसी कड़ी में कहानी में प्रयुक्त डोमकचशब्द के अर्थ-संदर्भ पर भीगौर किया जाना चाहिए. मलिन बस्ती से छावनी की ओर सामान्यत: कोई आता-जाता नहींथा, लेकिन विविध सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के अवसर पर डोमकच आदि रस्मों के लिएमलिनों की जरूरत पड़ ही जाती थी.उल्लेखनीय है कि डोमकचन तो किसी सामाजिकधार्मिक उत्सव के अवसर पर किया जाने वाला कोई रस्म है न ही इसे दलितों द्वारासंपादित किया जाता है. बल्कि यह कहानी में उल्लिखित अंचल विशेष की एक लोक कला है जिसमें लड़के की बारात जाने के बादशादी की रात में स्त्रियाँ अपनी सुरक्षा और मनोरंजन के उद्देश्यसे रात्रि जागरण करते हुयेस्वांग, नृत्य आदि जैसे कार्यक्रम प्रस्तुत करती हैं.  किसी न किसी रूप में यहलोक-कला उत्तर भारत के सभी अंचलों में विद्यमान है. अमूमन इस तरह के आयोजनों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित भी होता है.  हम आपके हैं कौनसिनेमा काबहुचर्चित गीत दीदी तेरा देवर दीवानाएक तरह के डोमकच का ही उदाहरण है. इस लोक-कला कोकेंद्र में रख कर जाने कितनी कहानियाँ हिन्दी में लिखी गई हैं. इस कहानी में डोमकचको दलितों द्वारा संपादित किए जानेवाला रस्म बताना जो सतह पर एक तथ्यात्म्क भूल जैसा  दिखता है, अपने भीतर उस सामंती सोच को छुपाए हुये है  जो दलितों के लिए हिकारत से भरेजाति  सूचक शब्द का इस्तेमाल करता है. यही कारण है कि इस लोक कला कीजानकारी नहोने के बावजूद  डोमकच शब्द के पूर्वार्द्ध डोमके आधार पर लेखक ने इसे दलितों केखाते में डाल दिया है.

प्रतिरोध की रणनीति तो योजनाबद्ध होती है, लेकिनइसकीवृत्ति नियोजित नहीं होती. इस कहानी में पात्रों के प्रतिरोध-व्यवहार इतने कृत्रिम और फिल्मी हैं कि वे  प्रतिरोध के नाम पर एक लचर खानापूरी हो कर रह जाते हैं. एक ऐसे समय में जबअस्मिताबोध का संघर्ष एक ठोस रूपाकार के साथ मुख्य धारा की राजनैतिक लड़ाई का हिस्साबन चुका है, आखिर क्या कारण है कि इस कहानी में कहीं भी सवर्ण वर्चस्ववाद केविरुद्ध दलितों का चैतन्य और प्रत्यक्ष प्रतिरोध नहीं दर्ज होता है? मुख्य रूप सेइस कहानी में तीन ऐसी घटनाएँ या दृश्य हैं जिसे दलितों का प्रतिरोध कहा जा सकता है एक -  पोस्टमार्टम के वक्त बरहम बाबा की लाश चीरने से अस्पताल के दलित कर्मचारियों (लेखकके शब्दों में डोम’) का इंकार, दूसरा -  दलितों के नेता समदिया द्वारा बस्ती के लोगोंको संबोधित करते हुये सवर्ण वर्चस्ववादियों के लिए कहे गए कठोर शब्द और तीसरा - बरहमबाबा की लाश पर बसनी का थूकना. गौर किया जाना चाहिए कि पहले दोनों उदाहरण मेंप्रतिरोध जीवित अत्याचारी के विरुद्ध नहीं उसकी लाश के आगे है और तीसरे उदाहरण मेंअपनी बस्ती में अपने लोगों के बीच. कहने की जरूरत नहीं कि प्रतिरोध के नाम पर कियागया यह प्रतिरोध अपने पूरे स्वरूप में लचर तो है ही, समकालीन दलित-प्रतिरोध औरसंघर्ष की हकीकतों से भी बहुत दूर है. 

इतना ही नहीं लाश के समक्ष किया जानेवाला प्रतिरोध कहींन कहीं बरहम बाबा के प्रति सहानुभूति अर्जित करने की ही एक कोशिश है कारण कि यहलाश उस बरहम बाबा की नहीं जो नृशंस हत्या कांड का मुखिया था. यह लाश तो उस बरहमबाबा की है जो हृदय परिवर्तन के बाद  दलितों के दुख-दर्द का हिमायती हो चला था.  उसक्रूर बरहम बाबा का अवसान तो प्रो. रामाधार की संगति में आने के बाद हृदय परिवर्तनके साथ जेल में ही हो गया था. स्पष्ट है कि नृशंस बरहम बाबा का हृदय परिवर्तन कराकर यह कहानी एक तरफ तो किसी क्रूरतम चरित्र के भीतर भी देवत्व खोजने का जतन करती हैवहीं दूसरी तरफ संत हो चुके बरहम बाबा की लाश के आगे दलितों के तथाकथित प्रतिरोध के बहाने दलितों को ही कठघरे में खड़ा कर देती है जो हृदय परिवर्तन जैसे उच्चतर मूल्यबोधों का अर्थ नहीं समझते और एक न एक दिन अपनी जातदिखा  ही जाते हैं . वे जानबूझ कर भी यह नहीं समझना चाहते कि हृदय परिवर्तन से गुजर चुका व्यक्ति सजा का नहीं सम्मान और सहानुभूति का अधिकारी होता है. जाहिर हैऐसे लोगों के लिए दलित के बदले मलिन शब्द का चुनाव उस  सोची समझी जातीय राजनीति काही हिस्सा है, जिसमें दलितों का परिचय उनके नाम से नहीं उनकी जाति से ही दिया जाता है.तभी तो कहानीकार दलितों के नेता समदिया को सिर्फ उसके नाम से नहीं पुकार के समदियादुसाधकहता है. कहानी में आए किसी संवाद के दौरान किसी पात्र के वर्गीय चरित्र कोउद्घाटित करने के लिए ऐसे शब्दों के प्रयोग का औचित्य तो समझ मेंआता है लेकिन, लेखकया नैरेटर की तरफ से ऐसा कहा जाना उसी मानसिक-राजनैतिक बुनावट की तरफ इशारा करताहै, जिसका उल्लेख अभी ऊपर हुआ है . यदि थोड़ी देर को अनुज के कहे अनुसार इस कहानी कोब्रह्मदेव मुखिया के सच से जोड़ कर न भी देखें तो क्या इस कहानी का रचाव ब्रह्मदेवमुखिया को उसकी हत्या के बाद गांधीवादी साबित किए जाने वाली राजनीति के पक्ष में हीनहीं खड़ा होता?

प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में यह कहानी जितनीकल्पना पर आधारित है उससे अधिक तथ्यों पर आधारित है.‘ (पूरी तरह से अग्रगामीराजनीतिक दृष्टिकोण की कहानी - मैनेजर पाण्डेय, परिकथा, मई-जून 2013) मैनेजरपाण्डेय की नज़र में भी यह तथ्य और कुछ नहीं बिहार का जातीय संघर्ष ही है. मैंतथ्यशब्द की जगह सत्यकहना चाहता हूँवह  सत्य जो सिर्फ जातीय हिंसा तकसीमित न होकर हिंसा के बाद की उस राजनैतिक कवायदों  तक फैला है जिसमें एक क्रूर औरनृषंस हत्यारे के महिमामंडन की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं.

रही बात तथ्य औरकहानी के अंतर्संबंधों की तो कहानी इतिहास की किताब नहीं होती लेकिन इसका मतलब यहभी नहीं कि लेखक दस्तावेजी तथ्यों को अपनी मनमर्जी से बदल कर कहानी में पेश कर दे.  यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बिहार में सामंती गठजोड़ के खिलाफ  गोलबंद हुये दलितों औरपिछड़ों के विरोध में 1994 में रणवीर सेना का गठन हुआ था.  रणवीर सेना का नामकरण भीकम दिलचस्प नहीं, जो एक राजपूत विरोधी नायक के नाम पर हुआ है. इस संगठन का नाम 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सुर्खियों में उभरे रिटायर्ड आर्मी मैन रणवीर चौधरीऊर्फ रणवीर बाबा के नाम पर रखा गया. प्रचलित मान्यता के अनुसार रणवीर चौधरी ने हीभोजपुर के इलाके में राजपूत भूमिपतियों के वर्चस्व को खत्म कर भूमिहारों के रुतबेकी स्थापना की थी. (ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के निहितार्थ, निखिल आनंद, हंस-जुलाई, 2012) अब इन पंक्तियों के समानान्तर अंगुरी में डँसले बिया नगिनियाकी इनपंक्तियों को पढ़ा जाना चाहिए कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कभीदादा रणवीर ने सामंतों के खिलाफ एक सेना गठित की थी और अंग्रेजों के चहेते एवंपिट्ठू जमींदारों को नाकों चने चबवा दिया था. उन दिनों दादा रणवीर की सेना मेंसामाजिक और आर्थिक रूप से दबी कुचली निचली जातियों के लोग तो थे ही, सामंतों सेत्रस्त उच्च जाति के लोगों ने भी दादा रणवीर का  खुलकर साथ दिया था.  लेकिन बरहमबाबा की यह मौजूद सेना सामंतों के विरुद्ध नहीं, उनके हित में खड़ी थी. 

रणवीर सेनाके गठन और नामकरण के इतिहास के संदर्भ में यह कोई तथ्यात्मक भूल भर नहीं, बल्कि यहसूचना कहानी का वह मोड़ है जहां तथ्यों से खेलते हुये अनुज सवर्ण वर्चस्ववाद कीराजनीति के महिमामंडन की आधारशिला रखते हैं. बरहम बाबा के चरित्र को चमकाने के कईऔर जतन कहानी में मौजूद हैं. जिस बरहम बाबा की छावनी में सत्तासीन मेहमानों और आलाअधिकारियों के लिए दलित स्त्रियों का परोसा जाना आम बात है उस बरहम बाबा कोब्रह्मचारी बताने और कालांतर में एक दलित स्त्री से उसको सच्चा प्यार हो जाने की लेखकीय युक्तियां  सी‘’ह्वाइट वाश- प्रोजेक्टका हिस्सा हैं. और यह प्यार भी इतना निष्कलुष और महान कि बिनाबसनी की इजाजत के वह उसे चूमता तक नहीं जब कभी बाबा उसका हाथ पकड़ते और उसे चूमनेकी कोशिश करते, तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेती और अपने को छुड़ाते हुये अपनेकोप-भवन की ओर दौड़कर भाग जाती और बाबा मुस्कुराते हुये उसे देखते रह जाते. 

गौरतलबहै किहाथ छुड़ा कर जाती हुई बसनीके साथ बरहम बाबा कोई ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं करता.बाबा की इस महान सदाशयता और बसनी के कोप भवन में चले जाने को देख कर तो बस महापंडितरावण और अशोक वन में निवास करतीं सीता का प्रसंग ही याद आता है. लेकिन कहानी का अंतर्विरोधतब उजागर होता है जब पाठक बसनी के साथ बरहम बाबा के सहवास के क्रूर दृश्य सेरूबरू होता है. ऐसे में यह प्रश्न उठना बहुत ही स्वाभाविक है कि जो स्त्री चूमनेकी कोशिश करते व्यक्ति का हाथ छुड़ा कर भाग जाती थी क्या उसने यह सब अपने साथ जानबूझकर होने दिया वह भी तब जब उसे अपनी बस्ती में आने जाने की खुली छूट बरहम बाबा ने देरखी थी? या फिर कहानी यह कहना चाहती है कि बरहम बाबा की मर्जी को बसनी की स्वीकृतिमिल चुकी थी? यदि ऐसा है तो फिर कोप-भवन के दिखावे का क्या औचित्य है?

कहानी में वर्णित रणवीर सेना और एम सी सी का खूनी संघर्ष जहां यथार्थ सेसम्बद्ध है वहीं बसनी कहानीकार की कल्पना है. वैसे भी कहानी न पूरी हकीकत होती है न पूराफसाना. यथार्थ और कल्पना का तर्कसम्मत सहमेल ही कहानी में सामाजिक, राजनैतिक और भावनात्मकयथार्थों की पुनर्रचना की ठोस जमीन तैयार करता है. हकीकत और फसाने के मिश्रण का सहीअनुपात और उन दोनों का अंतर्संबंध मिल कर कहानी की सफलता तय करते हैं. दुर्योग सेयह कहानी हकीकत और फसाने के गुंफन में लगातार अंतर्विरोधों का शिकार होती गई हैं.कहानी का सबसे बड़ा अंतर्विरोध बरहम बाबा की हत्या किसने की के उत्तर में दिये गए परस्पर विरोधी तर्कोंऔर उसके उलझाव में निहित है. नतीजतन अंत तक पाठक यह ठीक-ठीक नहीं समझ पाता कि बरहमबाबा की हत्या किसने की.  कहानी की शुरुआत में जहां लेखक बरहम बाबा की हत्या को एकराजनैतिक घटना नहीं बल्कि पारिवारिक दुर्घटना बताता है,वहीं बाद में बसनी केसुनरदेव शर्मा के समानान्तर सत्ता-केंद्र के रूप में उभरने की बात कह के शक की सुईबसनी की तरफ मोदेता है. बरहम बाबा की हत्या को पारिवारिक दुर्घटना कहे जाने केपीछे जहां ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या से जुड़े तथ्यों का प्रभाव है तो वहीं बाद कीबातों में बसनी को सवर्ण वर्चस्ववादियों की नज़र में खल पात्र की तरह उभारे जाने कीलेखकीय मंशा. 

कहानी का यह अंतर्विरोध कहानी के आखिरी हिस्से  में और मुखर हो उठताहै जब बसनी बरहम बाबा की लाश पर थूक कर अपनी बस्ती की तरफ नंगे पाँव भाग जाती है. यदिलाश पर थूकना बसनी का प्रतिरोध है तो वह भागती क्यों है और यदि भागना ही उसकी नियतिहै तो फिर यह प्रतिरोध कैसे हुआ? प्रतिरोध की आंच भय की नमी को सोख कर व्यक्ति कोसाहसी बनाती है. लेकिन बसनी का भागना तो पलायन है. प्रतिरोध और पलायन परस्पर विरोधीगुण-धर्म हैं, ये साथ-साथ कैसे चल सकते हैं? यदि बसनी नंगे पाँव न भाग कर शान सेअपनी बस्ती में जाती तो इसे प्रतिरोध कहा जा सकता था. लेकिन लेखकीय लापरवाही,नासमझी और संकीर्ण जाति-बोध ऐसा नहीं होने देते.  हकीकत और फसाने के लापरवाह सहमेल से उत्पन्न यहअंतर्विरोध आलोचकों को भी उलझाकर रख देता है.  परिणामत:परस्पर विरोधी आलोचकीयस्थापनाएं भी सामने आती हैं.  उदाहरण के तौर पर वरिष्ठ आलोचक रवि भूषण की निष्पत्तियों को देखा जा सकता है. इस कहानी पर बात करतेहुये शुरू में तो वे यह कहते हैं कि– “बरहम बाबा केवल काल्पनिक पात्र नहीं हैं.  काल्पनिक पात्र है बसनी. कहानी को हम ब्रह्मेश्वरमुखिया और रणवीर सेना से जोड़करभले न देखें, पर इससे आँखें नहीं मूँदी जा सकती. कहानी की अंतर्वस्तु हमें यथार्थमें जाने और उसे समझने को भी बाध्य करती है.लेकिन अंत में अपनी इसी मान्यता केलगभग उलट वे यह कहते हैं कि –“ कहानीकार का काम ब्रहमेश्वर मुखिया को कहानी मेंउसके वास्तविक और यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना नहीं है.  यहाँ भिन्न बरहम बाबा है.वास्तविक ब्रहमेश्वर मुखिया कभी नहीं बदलते.जाहिर है इस आलोचकीय अंतर्विरोध काकारण कहानीकार प्रदत्त कल्पना और यथार्थ के बेतरतीब घालमेल में ही निहित है. 

कहानी मेंदृष्टिगत अंतर्विरोधों का यह सिलसिला यहीं नहीं  थमता. इसे  कहानी के शीर्षक, कहानीमें उसके उपयोग और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यंजना के सहारे भी समझा जा सकता है. कहानी काशीर्षक अंगुरी में डंसलेबिया नगिनियाप्रख्यात भोजपुरी गीतकार महेंदर मिसिरकी एक लोकप्रिय रचना से लिया गया है. सवाल यह है कि नागिन कौन हैइस संदर्भ में कहानी कीशुरुआत में ही आए सुनरदेव शर्मा के इस कथन को देखा जाना चाहिए – “हम बोले थे किनगिनिया है, बच के रहिएगा, बच के रहिएगा... डँसेगी एक-ना-एक दिन”  बसनी के भीतरघातकी तरफ इशारा करतेहुये कहानी में दूसरी जगह सुनरदेव कहता है – “जब से ई नगिनिया आई है, तबही से सेना का लोग मराने लगा है और सेना का हमला खराब होने लगा है...जाहिर हैकहानी बसनी को ही नागिन  समझे जाने के पर्याप्त संकेत उपलब्ध कराती है.  लेकिन कहानीके अंत में इस गीत की आवाज़ का दलितों की बस्ती से आना एक नए तरह  के कन्फ़्यूजन कोजन्म देता है. आखिर इस गाने के दलित-बस्ती में बजने का क्या औचित्य है? नागिन कीसंज्ञा का दलितों द्वारा यह स्वीकार कहीं बसनी के लिए प्रयुक्त उस सम्बोधन पर तंज़तो नहींलेकिन प्रश्न यह भी है कि जिस समुदाय की एक स्त्री को प्रतिपक्षी समूहलगातार नागिन कहता हो वह खुद भला इस नकारात्मक सम्बोधन को कैसे स्वीकार करेगा? बक़ौलअरुण होता – “महेंदर मिसिर ने सुषुप्त भारतीयों को जगाने के लिए, आत्म गौरवप्रतिष्ठित करने के लिए अस्मिता को जाग्रत करने के लिए यह गाना लिखा था. कथाकारअनुज ने अपनी कहानी का शीर्षक अंगुरी में डंसले बिया नगिनियारखकर उपर्युक्तपरिदृश्य को आज के संदर्भ में विश्लेषित किया है.(दलितों और पीड़ितों की हिमायतकरनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013) 

अरुण होता प्रदत्त इस सूत्रको खुद अनुज कुछ इस तरह डीकोड करते हैं अपनी इस कहानी में भी मैंने नगिनिया कहकरएक सामंती और विद्वेष की भावना को सिम्बोलाइजकरने की कोशिश की है. मेरी इस कहानीमें नगिनिया कोई पात्र या व्यक्ति नहीं बल्कि एक सोच और प्रवृत्ति है. (अंगुरी मेंडंसले बिया नगिनियाऔर मेरी रचना प्रक्रिया -  अनुज, परिकथा, जुलाई-अगस्त 2014) 

पहली बात तो यह कि किसी कहानी में प्रयुक्त किसी लोक गीत या संदर्भ कीप्रतीकात्मकता इस बात से तय नहीं हो सकती  कि मूल रूप में वह किस संदर्भ में कहा गयाथा, बल्कि इस बात से तय होनी चाहिए कि उसका इस्तेमाल लेखक ने किन संदर्भों के साथ किया है.  दूसरी बात यह कि प्रतीक विधान कोई अराजक या अनुशासनहीन  व्यवहार नहीं जिसे जब-जैसेचाहे लेखक अपने अनुकूल उसका इस्तेमाल या उसकी व्याख्या कर ले. जब पूरी कहानी औरकहानी के घटनाक्रम बसनी को नागिन कहे जाने की वकालत कर रहे हों उस समय सिर्फ उसगाने को दलित बस्ती में बजता दिखा कर उसे किसी प्रवृत्ति विशेष का प्रतीक कैसेबनाया जा सकता है? थोड़ी देर को यदि अरुण होता और अनुज की इस अवधारणा की कसौटी पर हीकहानी के घटनाक्रम को समझने की कोशिश करें तो बात बरहम बाबा की हत्या संबंधीअंतर्विरोध को एक नए रूप में सामने लाती है उल्लेखनीय है कि कहानी के लगभग अंतमें बसनी बरहम बाबा के लाश के पास अपनी मांग में पहली बार भखरा सिंदूर आदि लगाये नवविवाहिता दुल्हन के वेष में आती है,आज उसने पहली बार बरहम बाबा द्वारा उपहार में दी हुई सैंडल भी पहन रखी है. बसनी पहले तो उस सैंडल को गोबर के टाल पर छप्प से फेंक देती है और फिर बरहम बाबा की लाश पर थूक कर नंगे पाँव अपनी बस्ती की तरफ भाग जाती है. 

कहानीकार इस निहायत ही बचकाने और फिल्मी दृश्य के रचाव से इतना मोहाविष्ट है कि उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि बरहम बाबा ब्रह्मचारी है और बसनी भी कोई ब्याहता नहीं,ऐसे में सिंदूरदान और भखरा सिंदूर घर में कहाँ से उपलब्ध होगा. यह नाटकीयता तब और अपने चरम पर पहुँच जाती है जब बसनी बरहम बाबा की हत्या के उपरांत शोक और आक्रोश के उस माहौल में बिना किसी रुकावट या प्रतिरोध के सुरक्षित भाग जाती है. और तभी लाउड स्पीकर पर वह गीत मलिन बस्ती में बज उठता है.  रविभूषण और अनुज इस प्रसंग को एक नई शुरुआत की तरह देखना चाहते हैं. उनके अनुसार दलित बस्ती में गाने काबजना इस नई शुरुआत के उत्सव का प्रतीक है. प्रश्न है कि यह नई शुरुआत क्या है? क्याबरहम बाबा की हत्या दलित राजनीति और संघर्ष की विजय है? निश्चित तौर पर नहीं, कारणकि जिस बरहम बाबा की हत्या कहानी में हुई है उसका तो  हृदय परिवर्तन हो चुका था.  गौर किया जाना चाहिए कि सुनरदेव और बसनी परस्पर विरोधी दो सत्ता केंद्र बन गए थे ऐसे में बरहम बाबा कीहत्या बर्बरता के प्रतीक का शिथिल पड़ना नहीं बल्कि बर्बरता के नए झंडाबरदार के आगमनका प्रतीक है.

 मतलब यह कि बरहम बाबा की हत्या बसनी नेनहीं सुनरदेव ने कराई थी. इस तरह संत हो चुके बरहम बाबा की हत्या को सुनरदेव के ताकतवर होकर उभरने के  रूप में उस पूर्ववर्ती क्रूर और हत्यारे बरहम के पुनर्जन्म की तरह देखा जाना चाहिए.  बरहम बाबा की हत्या के बाद बसनी के उस तरह दलित बस्तीमें भागने को भी इससे जोड़ कर देखा जा सकता है, कारण कि बरहम बाबा की हत्या के बादछावनी में बसनी के लिए संरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं बची थी .यानी  बसनी तबतक छवानी  में थी जबतक वहाँ की परिस्थितियाँ उसके लिए अनुकूल थीं और जैसे ही माहौल प्रतिकूलहुआ वह भाग खड़ी हुई. ऐसे में सनी की मजबूरी को उसका प्रतिरोध और त्याग बताने वाले आलोचक अरुण होता का यह तर्क कितना हास्यास्पद प्रतीत होताहै कि हाँ बसनी ने दरअसल ऐश-ओ-आराम, वैभव आदि को ठुकरा दिया है.(दलितों औरपीड़ितों की हिमायत करनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013) 

अरुण होता के अनुसार लाउड स्पीकर पर बजने वाले गाने का साफ-साफ सुनाई देना औरतेज होना दलित नारी की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होना है. मुक्ति संग्राम में विजयीहोना है(दलितों औरपीड़ितों की हिमायत करनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013)अरुण होता,रवि भूषण और अनुज के अनुसार  यदि बरहम बाबा की हत्या को बर्बरता के प्रतीक की समाप्ति के रूप में देखा जाये तोइसका मतलब यह होगा कि जिन दो सत्ता केन्द्रों का उल्लेख कहानी में हुआ है, उनमेंसुनरदेव की ताकत कमजोर पगई थीयानी बरहम बाबा की हत्या बसनी ने करवाई. ऐसीस्थिति में मजबूत हो कर उभरी बसनी के भाग खड़े होने का तर्क गले नहीं उतरता और अरुण होता द्वारा विश्लेषित प्रतीकार्थ एक नई उलझन खड़ी कर देते हैं. यदि यह दलित अस्मिता संघर्ष के विजय का क्षण है तो फिर नागिन से मुक्तिदिलाने के लिए किसी परवश स्त्री द्वारा भाईयों (पुरुषों)  जगाने का गुहार लगाने वाले इस गीत का इस समय क्या औचित्यहै? महिंदर मिसिर का  यह गीत  उत्सव का नहीं दर्द से भींगी पुकार का  गीत  है.  एकस्त्री के नेतृत्व में विजय प्राप्त करने के बाद  दलित नारी की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होने के प्रतीक के रूप में उपयोग किएगए गीत में पुरुषों को मदद के लिए पुकारना भी कम हास्यास्पद और अंतर्विरोधी नहींहै. दरअसल बसनी का चरित्र तरह कहानी में उभर कर आता है उसमें दलित और स्त्री दोनों के हितों की  अवमानना निहित है. स्त्रियॉं की अवमानना का एक और वीभत्स उदाहरण कहानी में वर्णित बाथे नरसंहारके दौरान मिलता है जब नृशंसता और वीभत्सता की पराकाष्ठा पर चल रहे हत्याकांड के बीच बसनी परनज़र पड़ते ही लेखक उसकी देह का वर्णन रस ले-ले कर करने लगता है. वीभत्सतम रक्तपात के बीच इस तरह के देह वर्णन की कल्पना भी स्त्री विरोधी,अश्लील और जुगुप्साजनक है.

इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदिइसके समर्पण के राजनैतिक निहितार्थों पर बात न की जाये. अनुज ने इस कहानी को देशभरमें हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोगों की विधवाओं एवं बच्चों कोसमर्पित किया है. उल्लेखनीय है कि रणवीर सेना के गठन के  बाद बिहार में कुल 37 नरसंहार हुये थे जिनमें 30 रणवीर सेना के नाम दर्ज हैं. लक्ष्मणपुर बाथे हत्याकांडके वक्त भूमिगत ब्रहमेश्वर का एक बयान काफी सुर्खियों में रहा कि हम महिलाओं कोइसलिए मारते हैं कि वो नक्सली  पैदा करती हैं . बच्चों को इसलिए मारते हैं कि वोबड़े होकर नक्सली बनेंगे. हमारे खिलाफ बंदूक उठाएंगे.“ (ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्याके निहितार्थ -  निखिल आनंद, हंस-जुलाई, 2012) इसके समानान्तर एक सच यह भी है किनक्सली बच्चों और स्त्रियॉं की हत्या नहीं करते थे. ऐसे में आलोचक शंभु गुप्त का यहप्रश्न बहुत जायज है कि – “लेखक आखिर किन लोगों की विधवाओं और उनके बच्चों को यहकहानी समर्पित कर रहा है? ये विधवाएँ और बच्चे आखिर किस जाति विशेष से ताल्लुक रखतेहैं? (कदम-कदम पर कहानी को अपने शिकंजे में कसता लेखक - शंभु गुप्तपरिकथा, मई-जून 2013)थोड़ी देर को रणवीर सेना और ब्रहमेश्वर मुखिया के कथित बयान से इसकहानी को मुक्त भी कर दें तो भी इस कहानी में वर्णित नरसंहार के दौरान बरहम बाबा कायह कथन इस प्रश्न को उचित और तार्किक बनाए रखता है – “बरहम बाबा ने चीख करसैनिकों का आह्वान किया, रोग का जड़ पर हमला करना चाहिए... ई औरत का जात ही है जोहरामियों को पैदा करती है, आ यही हरामी सब बड़ा होकर बनाता है एम सी सी... सुनरदेव, सबसे पहिले ई सब औरतन अउर ननकिरवन सब के खत्म करो... ना रहिएं बांस न बजिहेंबसुरिया...!अनुज शंभु गुप्त के इस विश्लेषण से आहत हैं. कहानी में वर्णित सैद्धांतिक यथार्थ से विमुख हो कर इससमर्पण को इतनी मासूमियत से नहीं स्वीकारा जा सकता. राजनैतिक संदर्भों की कहानियोंका एक-एक शब्द उनके राजनैतिक निहितार्थों का वाहक होता है.ऐसे में यह कहने की जरूरत नहीं कि लेखक की पक्षधरता जातीय राजनीति के किस स्वरूप के प्रति है.

जातिवाद की वर्चस्ववादी राजनीति के ध्वजवाहकों का महिमामंडन करने वाली कुत्सित मंशाओं को सींचते हुये प्रगतिशील कहलाने की लेखकीय यशाकांक्षा इस कहानी की असफलता का सबसे बड़ा कारण है.बरहम बाबा की लाश के सम्मुख अस्पतालकर्मियों का प्रतिरोध हो या कि बसनी का उस लाश पर थूकना,बसनी की मजबूरी को छद्म प्रतिरोध के रूप में दर्शाने की कोशिश हो या फिर शीर्षक में प्रयुक्त गीत को दलित बस्ती में बजाने की नासमझ चालाकी,इन्हें विष से भरे घट के मुंह पर दूध का लेप लगाने की नाकाम कोशिशों की तरह ही देखा जाना चाहिए जो अपने अंतर्विरोधी गुण-धर्म के कारण हर कदम पर सहज ही कहानी में उजागर होते चलते हैं.  
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कहानी अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया यहाँ पढ़े,

सहजि सहजि गुन रमैं : रामजी तिवारी

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वैसे तो समकालीन हिंदी कविता ने छंद और तुक को अपनी दुनिया से लगभग बाहर ही कर दिया है, पर रामजी तिवारी जैसा सचेत कवि जब इस तुक को मध्यवर्गीय जीवन की पराजय से जोड़ता है तब कविता आलोकित हो उठती है, उसमें अर्थ और संप्रेषण के सहमिलन का  एक अलहदा काव्यास्वाद पैदा होता है. यह तुक बाज़ार के गान से नही मिलती, यह तमाम तरह की तुकबंदियों से इसलिए अलग है, और राहत है.

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रामजी तिवारी की कवितायेँ


समतल की संभावना
           
              
बतौर सरकारी मुलाज़िम
रोज का परिचय है
हज़ार रुपये की नोट से,
फिर भी उसे देखता हूँ
हसरतों की ओट से.

परेशान रहता हूँ इतने में
घर की गाड़ी खींचते हुए,
जरूरतों के पपड़ाये होठों को सींचते हुए.

मुल्तवी होती रहती हैं
घर की उम्मीदें, आशाएं
माथे पर बल बनकर तैरती हैं
बच्चों के भविष्य की योजनायें.

हर महीने में लगता है
जैसे कुछ कम रह गया,
तमाम अधूरी हसरतों का
जैसे कुछ गम रह गया.

तो फिर मेरे आफिस का
दैनिक वेतनभोगी ‘लल्लन’
कैसे अपना घर चलाता है,
वह जो तीस दिन में
सिर्फ चार बड़ा गाँधी कमाता है.

क्या उसके माँ-बाप
बीमार नहीं पड़ते ...?
उसके बच्चे आखिर कहाँ हैं पढ़ते ...?
किस तहखाने में वह
जमा करता है सपनों को,
किस तरह समझाता है
वह अपनों को.

यहाँ मेरे तीस हज़ार तो
बीस तारीख को ही
बोलने लगते हैं सलाम,
फिर वह अपने चार हज़ार में
कितने दिन करता होगा आराम.

मैं सोचता हूँ उसके बारे में
कि चार हज़ार में
कैसे कटता होगा उसका महीना,
क्या वह भी सोचता होगा
कि तीस हजार में भी यह आदमी
क्यों रहता है पसीना-पसीना.

या कि जैसे मेरे महीने
जान गए हैं तीस की सवारी,
उसके महीनों को भी
चल गया है पता
कि यही है किस्मत हमारी.

क्या हम कभी आ सकेंगे
इस दुनिया में एक तल पर,
क्या पट सकेगा
हमारे बीच छब्बीस मंजिलों का 
भारी-भरकम अंतर ?
मैं तो मर ही जाऊँगा यह सोचकर
कि मुझे तेरह मंजिल उतरना है,
उसका क्या होगा यह सोचकर
कि उसे तेरह मंजिल चढ़ना है.

सुनता हूँ कि
जो इस देश में सबसे बड़ा है,
वह पचीस हजारवीं मंजिल पर खड़ा है .
तो क्या उसे भी
उतरना होगा इतना नीचे,
नहीं-नहीं
जो खड़े हैं पचासवीं
या सौंवी मंजिल पर
वे ही कहाँ तैयार हैं
एक भी कदम खींचने को पीछे.

क्यों गर्म हो रही है मेरी कनपटी
ऐसे तो मैं कहीं लड़ जाऊँ,
है तो यह कविता ही
लिखूँ .... और आगे बढ़ जाऊँ.

अरे ओ लल्लन ....!
जरा इधर तो आना,
कैशियर बाबू के यहाँ से
हजार रुपये का
फुटकर तो लाना. 




सोचिये न

जेब आपकी भरी हो
तो अटपटा लग सकता है
यह विचार,
परन्तु सोचिये न
कि जेब है खाली
और सामने भरा है बाज़ार.


सोचिये न
कि तीन हजार
और मोतियाबिंद की लड़ाई में
माँ की आँखें हार जाए,
और प्रति माह हजार रुपये की दवा
छः महीने खाने के बजाय
फेफड़ो का बलगम
बाबू को ही खा जाए .


सोचिये न
पांच सौ रुपये बचाने के लिए भाई
ट्रेन की पायदान पर झूलता हुआ
दिल्ली-मुंबई धाये,
और जिस बहन की उँगलियों में
चित्रों के जादू हों
मोहल्ले के बर्तन धोने में
वे घिस जाएं.


सोचिये न
प्रसवा पत्नी
जननी सुरक्षा योजना
की भेंट चढ़ जाए,
और अपनी दिन भर की कमाई से
कैफे-डे की एक काफी
लड़ जाए.


सोचिये न
अव्वल दिमाग वाली बेटी
पढाई की जगह
खिचड़ियाँ खाने लगे,
और कुत्ते के काटने पर
तराजू का पलड़ा
दो हजार की सुई के बजाय
बेटे को
सात कुएँ झंकवाने लगे.


सोचिये न
क्योंकि ऐसे अटपटे प्रश्नों की श्रृंखला
जब भी मन में चलती है,
सच मानिये
यह दुनिया
जरुर बदलती है.



पिता
                         
दुनिया का सबसे सुरक्षित कोना
पिता का होना था .
हम घुड़सवार बने
उनकी ही पीठ पर चढ़कर
उन्ही के कन्धों ने हमेशा रखा हमें
दुनिया से ऊपर .

उनकी उँगलियों ने
हमें सिर्फ चलना ही नहीं सिखाया,
कैसे बनेगा
इस दुनियावी रस्सी पर संतुलन
यह भी दिखाया .

मगर अफसोस .....
हम अभी ठीक से
हो भी नहीं पाए थे बड़े,
कि उन्हीं के सामने
तनी हुयी रस्सी पर
हो गए खड़े .

सुबह जल्दी उठने की पुकार,
स्कूल नहीं जाने पर हुंकार .
गृह-कार्य कौन करेगा,
क्या इसी आवारगी से पेट भरेगा ...?
पढोगे नहीं तो क्या करोगे,
संभल जाओ वरना
मेरे बाद रो-रो भरोगे .
कह रहा हूँ यह सब तुम्हारे लिए ही,
जैसे अनगिनत वाक्य बने थे दुनिया में
हमारे लिए ही .

यहाँ तक थोड़ी डांट थी, थोड़ा दुलार था,
थोड़ी हिदायतें, थोड़ा प्यार था .

कि इसी मोड़ पर
हमारे दौर के सारे पुत्र
अपने पिताओं से अलग हो गए,
उनके रिश्ते-नाते जैसे
किसी गहरी नींद में सो गए .

यदि वे कहीं बचे भी
तो धर्म में ईमान जितना ही,
बदलेगी एक दिन यह दुनिया
इस गुमान जितना ही .

अलबत्ता कुछ पुत्रों ने
जीवन की रफ़्तार धीमी कर
अपने पिताओं को अगले मोड़ पर पकड़ा,
कुछ ने दूसरे तीसरे चौथे
और कईयों ने तो उन्हें
बिलकुल आखिरी मोड़ पर उन्हें जकड़ा .

और जो चलते रहे
पिता के साथ बनकर साया, 
उन्होंने पिता में दोस्त ही नहीं
बेटा भी पाया .

देखा उन्होंने कांपती उँगलियों को
ढूंढते हुए सहारा,
मिल जाए हाथों को
इस भवसागर में
कंधे जैसा कोई किनारा .

कान लगाए रहते हैं
हर आहट की आस में,
आँखें चमक उठती हैं
होता है जब कोई पास में .

हर छोटी आहट पर
पूछते हैं कि क्या हुआ,
हर मदद पर उठाते हैं हाथ
देने के लिए दुआ .

बिलानागा देते हैं सलाह
गाड़ी संभलकर चलाना,
जब तक घर न पहुँचे
लगाए रहते हैं टकटकी
ढूँढकर कोई बहाना .

अब किससे कहें कि
बेटा चलना सीखता है
पकड़कर पिता की उँगलियाँ,
वह दृश्य आधा ही भरता है उस फ्रेम को
जिसे सबसे सुन्दर मानती है यह दुनिया .

आधा फ्रेम तो
उस दृश्य से भरता है
जिसमें एक बेटा
अपने पिता की टेक बनता है .

अरे हाय ....!
पिता भी होते हैं पुत्र
हमने देखा ही नहीं यह मंजर,
इस पिता से तो
यह पीढ़ी ही हो गयी बंजर .

तुम कैसे जानोगे
कि पिता केवल ‘हिटलर’ ही नहीं होते
तनी हुयी रस्सी पर खड़े,
केवल डर भय
दुःख क्षोभ और अवसाद में 
डूबे हुए बूढ़े-बड़े .

उनमें तो छिपी होती है
पिता के साथ
भाई दोस्त और बेटे की कहानी भी,
वीरान और बंजर स्मृतियों में
जीवन और रवानी भी .

(पेंटिंग - मकबूल फिदा हुसैन)
______________________________


रामजी तिवारी
02-05-1971,बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें , संस्मरण और समीक्षाएं प्रकाशित
पुस्तक प्रकाशन - आस्कर अवार्ड्स – ‘यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
मो.न. – 09450546312

परख : काफ़िर बिजूका (सत्यनारायण पटेल) : विजय शर्मा

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काफ़ेर बिजूका उर्फ़ इब्लीस (कहानी संग्रह)
कहानीकार : सत्यनारायण पटेल
प्रकाशक :आधार प्रकाशन, पंचकुला, हरियाणा
प्रथम संस्करण: २०१४/पृष्ठ संख्या: १३५

मूल्य: २०० रुपए




सत्यनारायण पटेल के तीसरे कहानी-संग्रह काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ की समीक्षा विजय शर्मा ने लिखी है. समीक्षा संग्रह के प्रति रूचि तो पैदा करती ही है, खुद समीक्षा भी अपने आप में रुचिकर है.


काफ़िर बिजूका के किस्से                        

डॉ. विजय शर्मा 


कुछ कहानीकार अपनी पहलौटी कहानी से काफ़ी ऊँची अपेक्षाएँ खड़ी कर देते हैं. पाठक और समीक्षक उनसे काफ़ी उम्मीदें करने लगते हैं. पाठक और समीक्षक की बात छोड़ भी दें तो कहानीकार के सामने खुद उसकी कहानी चुनौती बन कर डट जाती है. यह आसान नहीं है कि हर बार वह पिछली कहानी से बेहतर कहानी लिखी जाए. बेहतर न सही पिछली कहानी के बराबर की कहानी लिखना भी हर बार नहीं हो पाता है. यह एक प्रकार का बंधन है, कलम पर लगी रोक. अगर यह बंधन आ गया तो कहानीकार के लिए लिखना मुश्किल हो जाएगा. मगर उसे रुकना नहीं चहिए. उसे लिखते जाना चाहिए हर बार ईमानदारी से खुद को व्यक्त करना चाहिए. इसी तरह किसी कहानीकर की सारी कहानियाँ उत्तम होंगी यह अपेक्षा करना ज्यादती होगी, गलत भी. बराबर लिखने वाला कभी बहुत अच्छी कहानियाँ देगा, कभी औसत और कभी-कभी औसत से नीचे की कहानियाँ उसकी कलम/कम्प्यूटर से आएँगी. अगर कोई कहानीकार पाँच-सात अच्छी कहानियाँ लिखता है तो उसे अवश्य अच्छे कहानीकारों में शुमार करना चाहिए ऐसा मेरा विचार है. खुशी की बात है कि आज हिन्दी में ऐसे कुछ कहानीकार सक्रिय हैं. सत्यनारायण उनमें से एक हैं.

सत्यनारायण पटेल को मैं काफ़ी समय से पढ़ रही हूँ. काफ़ी समय से कहने का तात्पर्य है जबसे उन्होंने लिखना प्रारंभ किया है वे मेरी नजर में हैं. भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान’, लाल छींट वाली लुगड़ी का सपना’, गम्मत’, काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’जैसी कहानियाँ उनकी कलम/कम्प्यूटर से निकली हैं, जिन्होंने पाठको से अधिक समीक्षकों का ध्यान खींचा है. कहानी की एक सबसे बड़ी, सार्वभौमिक और सार्वकालिक विशेषता उसका कहानीपन है. यदि उसकी तमाम अन्य विशेषताएँ हटा दी जाएँ तो भी चलेगा मगर कहानीपन नहीं है, कथारस नहीं है तो उसे कहानी कहना कठिन है. शायद यही उसकी एकमात्र कसौटी हो सकती है/ होनी चाहिए. कम-से-कम मेरी दृष्टि में यह कहानी का प्राणतत्व है. यदि यह नहीं है तो फ़िर चाहे जितनी भी पच्चीकारी की जाए, शैली और शिल्प का कितना भी कमाल दिखाने का प्रयास हो, उसे कहानी कहने में मुझे संकोच होगा.

कहानी की इस शर्त पर मेरे हिसाब से कहानीकार सत्यनारायण पटेल खरे उतरते हैं. उनकी कहानियों में भरपूर कथारस होता है और यह समीक्षकों को आकर्षित करता है. हाँ, इसी कथारस के बीच से वे समाज की अच्छाई-बुराई, राजनीति की उठा-पटक, सत्ता-शक्ति की खींचतान, गाँव-शहर के जीवन की विडम्बनाओं, ग्लोबलाइज़ेशन-उदारीकरण, समाज-परिवार की तस्वीर दिखाते चलते हैं. तस्वीर भी ऐसी मानो कोई फ़िल्म दिखाई जा रही हो. गम्मत’उनकी एक ऐसी ही कहानी है जिसमें वे सत्ता-शक्ति और जनशक्ति की जीवंत फ़िल्म दिखाते हैं. फ़िल्म के नाम से याद आया वे एक फ़िल्म सोसाइटी भी चलाते हैं, बिजूका फ़िल्म सोसाइटी’.आज जब तकनीकि ने यह सुविधा दी है कि आठ-दस फ़िल्में आप अपनी जेब में रख कर चल सकते हैं. कहीं भी बैठ कर अपने लैपटॉप पर फ़िल्में देख सकते हैं तो भला फ़िल्म सोसाइटी में फ़िल्म दिखाने का क्या तुक है? है, जनाब, तुक है. खुद कहानीकार के मुँह से सुनिए, असल काम जो वह करता, वह तो फ़िल्म क्लब के मार्फ़त किसी न किसी मुद्दे पर विमर्श के लिए लोगों को एक जगह इकट्ठा करने का ही था.’तकनीकि ने हमें बहुत सुविधाएँ दी हैं मगर हमें अकेला कर दिया है, हमारा मिलना-जुलना समाप्त कर दिया है और मिले-जुले बिना विमर्श कैसे होगा? और विमर्श नहीं करेंगे तो हम विकास कैसे करेंगे? हमारे दिमाग के जाले कैसे साफ़ होंगे? संगठन कैसे बनेंगे? एकजुटता नहीं होगी तो असामाजिक अत्त्वों से कैसे लड़ा जाएगा? इसीलिए लोगों का एक स्थान पर जमा होना बातचीत करना अत्यावश्यक है. पटेल यह काम अपनी फ़िल्म क्लब के द्वारा करते हैं और इन मिल बैठने के दौरान जो कुछ घटित होता है उसे कहानी में पिरो कर एक खूबसूरत, मानीखेज रचना भी हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं. उस कहानी पर कुछ देर बाद.

सत्यनारायण पटेल के यहाँ में हमें भूमंडलीकृत आर्थिक उदारीकरण व्यवस्था के तहत होने वाली आम आदमी की विवशता के दर्शन होते हैं. व्यवस्था के समक्ष आदमी पंगु हो गया है. लेकिन पटेल के पात्र चुप हो कर बैठते नहीं हैं. वे संघर्ष करते हैं. जब तक संघर्ष जारी है हार मानने, निराश होने की जरूरत नहीं है. यही आशावाद उनकी कहानियों को सकारात्मक रुख देता है. उनकी कहानी के पात्र उल्लसित और ऊर्जा से भरपूर होते हैं. लाल छींट...’ का डूंगा कहीं पूस की रात’ के नायक की याद दिलाता है. दोनों अभावों के बावजूद खुश हैं. एक दूसरों के खेत (सत्ता) के नष्ट होने से, दूसरा कंपनी के डूब जाने से. दोनों खुश हैं क्योंकि अब उनका शोषण करने वाले कमजोर पड़ गए हैं. हालाँकि डूंगा मासूम है उसे शातिर खेल की जानकारी नहीं है.

गाँव से शहर पलायन, एक अन्य सत्य है, हमारे समाज का. इस विस्थापन में जीवन आमूल-चूल बदल जाता है. इस प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष दोनों को समायोजन की प्रक्रिया से हो कर गुजरना पड़ता है. दोनों साथ शहर आते हैं लेकिन दोनों का जीवन अलग-अलग बदलता है. पुरुष पहले भी बाहर रहता था, अब भी बाहर रहता है. वह नौकरी से समय से फ़ारिग हो जाता तो दोस्तों के साथ बैठ जाता. दोस्तों के साथ खाता-पीता और बहस करता. व्यवस्था को कोसता. उसे बदलने का सपना देखता.’ (एक था चिका, एक थी चिकी) मनमर्जी से घर आता है. लेकिन स्त्री का घर गाँव में बहुत फ़ैला हुआ होता है, उसका आँगन, उसका पनघट बहुत विस्तृत हुआ करता है. जहाँ वह चार लोगों के बीच रहती है, चार लोगों से हँसती-बोलती है, लड़ती-झगड़ती है, दु:ख-सुख साझा करती है. शहर उसका घर-आँगन, पनघट, पैर के नीचे की धरती और सर के ऊपर का खुला आकाश सब उससे छीन लेता है. उसका जीवन दो कमरों के घर में सिमट कर रह जाता है.

रूपा एक ऐसी ही स्त्री है जो पति के साथ गाँव से शहर आ बसी है. गनीमत है कि शहर में पढ़ने के लिए उसके साथ दो बच्चे भी हैं. ननद का बेटा रोहित और बहन की बेटी पूजा. बच्चे और रूपा डीडी के राष्ट्रीय चैनल पर कितना समाचार सुने? उस पर बहुत कम अच्छे-चटपटे धारावाहिक आते हैं और केबल कनेक्शन लेने की उनकी सामर्थ्य नहीं है. भले ही केबल कनेक्शन न ले पाना मजबूरी हो मगर इसका लाभ तो मिलता ही है. कैबल के अभाव में परिवार के छोटे-बड़े सदस्य मौका-बेमौका एक साथ बैठ हँस-बोल लेते हैं. समय काटने के लिए कथा-कहानी कह-सुन लेते हैं. बच्चे रूपा से कहानी सुना करते हैं, वह भी जब रिकामी (फ़ुरसत) में होती है उन्हें कोई लोककथा, किस्सा या मनगढ़ंत केणी (कहानी) सुनाती है. सत्यनारायण पटेल रूपा की केणी के बहाने हमें रूपा या यूँ कहें अपनी कहानी एक था चिका एक थी चिकी’के रूप में सुनाते चलते हैं.

इस कहानी में वे भारतीय समाज की वाचिक परंपरा को पुष्ट करते हैं. लोक विश्वास, लोक परम्परा से जोड़ते हुए गाँव के समंवित जीवन को उकेरते हैं, जहाँ सबकी पहचान जुदा हो कर भी एक-दूसरे से जुड़ी थी. रूपा के कहानी कहने में भरपूर कथा रस है. वह बच्चों को कहानी सुना रही है और इसी बीच पटेल हमें रूपा की कहानी सुनाते चलते हैं. कहानी का एक गुण होता है कहने वाले की कल्पनाशीलता. रूपा (पटेल) कल्पना की उड़ान उसे अतिश्योक्ति  दूसरे शब्दों में सर्रियलिज्म तक ले जाती है. एक उदाहरण, जब इस बबूल पर नया घोंसला बनाने की जगह नहीं बचती होगी, तब सभी पक्षी मिलकर बबूल की डगालों को खींच-तान कर लंबी कर लेते होंगे. कोई कहता – जब डगालों पर घोंसले ठसठस हो जाते होंगे, तब खुद बबूल अपनी विशाल बाँहों को और फ़ैला देता होगा ताकि उस पर जन्मा पक्षी घोंसले की तलाश में कहीं और न भटके.’काश ऐसा ही हमारे गाँवों-शहरों में होता. बबूल काँटों वाला पेड़ है लेकिन यहाँ घोंसलों वाला बबूल है, आज के समय-समाज का पर्याय. यहाँ बबूल बरगद की तरह विशाल है जिसका तना खूब चौड़ा और ऊँचा...जैसे गाँव में बाखलें और बाखलों में घर. बबूल पर लंबी-लंबी असंख्य डगालें. यहाँ सब एक घाट पानी पीते हैं, अगड़े-पिछड़ों जैसा कोई मसला नहीं. वैसे कूँए की जगह तालाब ज्यादा जमता. फ़िल्मी अंदाज में आँखों देखा हाल सुनाती इस कहानी में हास्य, नई उपमाएँ और लिव-इन-रिलेशनशिप का छौंक भी है. मगर इसमें केवल कल्पना नहीं कटु यथार्थ भी है. इतनी सरस स्त्री का सारा रस पति के आने की आहट मात्र से सूख जाता है. यहीं कहानी लोककथा से अचानक आधुनिक संदर्भ पकड़ती है और स्त्री विमर्श के द्वार खोलती है. मार्मिक दृश्य है यहाँ, जहाँ मर्द पीकर घर आता है. पत्नी अत्याचार सहती है और बच्चे भयभीत हो कर सोने का नाटक करते हैं.

भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान’, लाल छींट वाली लुगड़ी का सपना’के बाद काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’सत्यनारायण पटेल का तीसरा कहानी संग्रहमेरे सामने है. इस संग्रह में कई कहानियाँ कहानियाँ न हो कर किस्से हैं. वही किस्से जो लोक में मूल्यों और संवेदनाओं को स्थापित करते हैं. लोगों के संकल्प और मजबूत इरादे ऐसे-ऐसे बाँध बाँधते हैं जो सदियाँ बीतने के बाद भी लोगों को पुल पार कराते हैं. ये कहानियाँ बताती हैं कि समाज एक सतत बहती धारा है जिसका स्वरूप बदलता रहता है मगर दु:खद यह है कि विकास के नाम पर, परिवर्तन के नाम पर सब कुछ कल्याणकारी नहीं है, शुभ नहीं है. गाँवों का कस्बों में, कस्बों का शहरों में और शहरों का...शायद जंगल में बदलना जारी है. इस संग्रह की कहानियों में वे कई बार बताते हैं कि हाट-बाजार,व्यापारी, खरीद-फ़रोख्त पहले भी होती थी और आगे भी होगी. कहानियाँ कहती हैं कि हाट-बाजार पहले भी थे, व्यापारी पहले भी थे मगर पहले लोग पैसा-कौड़ी से ज्यादा ईमान और इंसानियत को तवज्जो देते थे. मूल्यों का क्षरण हुआ है, संवेदनाओं का ह्रास हुआ है. मगर निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि लोगों ने हार नहीं मानी है. असफ़लताओं के बावजूद लोग संघर्ष करना भूले नहीं हैं. जब तक संघर्ष का जज्बा है, तब तक चिंता की बात नहीं है.

पहले भी पाजेब न भींगने वाले बाँध और पुलिया बनाने वाले एकाध ही होते थे, आज भी एकाध ही हैं. हाँ, उनकी संख्या बढ़ने के बजाए घटी है. आज भी दशरथ माँझी का जीता-जागता उदाहरण हमारे सामने है. पत्नी इलाज के अभाव में मर गई क्योंकि बीच में पहाड़ था लेकिन दूसरे न मरे इसलिए उसने पहाड़ ही काट दिया. पहले भी एक प्रेमी ने प्रेमिका से मिलने के लिए पहाड़ काटा था मगर वह निजी स्वार्थ का उपक्रम था. दशरथ माँझी और सत्यनारायण की कहानी घट्टी वाली माई की पुलिया’की मनकामना सार्वजनिक हित के लिए काम करते हैं. वे व्यष्टि से समष्टि की ओर जाते हैं. सरकार के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता है/ नहीं छोड़ा जाना चाहिए. सत्ता से हाथ जोड़ कर, गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करने से अच्छा परिश्रम करना है. मनकामना का पति कासीराम सर्पदंश से मर जाता है. बाढ़ के कारण उसका समय पर इलाज नहीं हो पाता है. इलाज के लिए जाते हुए वह डूब कर मर जाता है.

मनकामना पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ता है. सरकारी अत्याचार बढ़ता जाता है. गाँव के युवकों की अपनी सुरक्षा समिति सरकारी अमलों की जेब भरने नहीं देती है तो उसे ही अवैधनिक करार कर देना सरकारी अधिकारियों के लिए कौन बड़ी बात है. पति के जाने के बाद मनकामना का सब कुछ चुला लिया गया. लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती है समाज में अपना स्थान बनाती है. लोग उसका आदर करते हैं वह जो कहती है करने को तत्पर हो जाते हैं. और एक दिन वह लोगों के सहयोग से खाल पर पुलिया बनवाती है. सरकारी अमलों ने यह कैसे करने दिया? शायद लोगों की एकजुटता के सामने डर गई, परास्त हो गई. मनकामना मजदूरों की चिंता करती है, खुद उनके साथ मिल कर काम करती है. उनको मजदूरी देती है, उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है. अभी कुछ दिन पहले यहूदी जीवन पर आधारित एक फ़िल्म देखी थी विटनेस’ उसमें भी गाँव के सारे पुरुष मिल कर एक दिन में एक पूरा घर बना कर खड़ा कर देते हैं. औरतें सहायता करती हैं. वे उनके खाने-पीने का ध्यान रखती हैं. घट्टी वाली माई भी यही करती है. इस तरह सार्वजनिक उपक्रम से पुलिया बनती है. राजा-महाराजाओं के इतिहास में इस पुलिया या इसको बनाने की प्रेरणा का कहीं जिक्र नहीं है. ऐसी कथाएँ लोक में जीवित रहती हैं और पटेल जैसे कहानीकार उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाने का महती काम करते हैं.

धूर्तता आज के सत्ताधारियों की बपौती नहीं है. घट्टी वाली माई का राजा भी जमाने के हिसाब से बड़ा धूर्त था और उसके मंत्री बड़े घाघ थे. न तब बिजली थी न आज मिलती है. मंद-मंद मुस्काते और हर हाल में गर्दन हिला कर समर्थन देते राजा को पहचानना कठिन नहीं है. पटेल हास्य और व्यंग्य की चौंक लगाते चलते हैं. यही सार्थकता होती है किस्सा-कहानियों कि वे कभी पुराने नहीं पड़ते हैं. जिन किस्सों-कथाओं को हम पूरी तरह से जानते हैं जिनकी कहानी हमें कंठस्थ होती है उन्हें देखने-सुनने-पढ़ने में हमे ज्यादा मजा आता है. यह तो कथा रस है जो हमें बाँधे रखता है. इन कहानियों में भरपूर कथारस है, लय है, जीवन स्पंदन है. नमक भीगेगा नहीं, तो गलेगा नहीं. गलेगा नहीं, तो बहेगा नहीं. बहेगा नहीं, तो वाजिब दाम पर बेच सकेगा! वाजिब दाम पर बेचेगा तो कोई बद्दुआ नहीं देगा.’कितनी सीधी-सी बात है. और इस सीधी-सी बात के लिए बनवाना होगा बाँध. सो बनता है बंजारा बाँध. ऐसा बाँध जिस पर चलने से पाजेब नहीं भींगती है. किस्सा वाचिक परंपरा का हिस्सा है अत: उसमें विभिन्नता, वैरिएशन होता ही है. किस्सों के कई वर्सन, कई संस्करण मिलते हैं. यहाँ भी दो तरह की कथाएँ प्रचलित हैं.

एक किस्से में स्वयंवर भी है, जहाँ लड़की विवाह की शर्त रखती है और पिता को पूरा विश्वास है कि छोरी होशियार है, उसे जो सही लगेगा, वही जवाब देगी. बेटी का निर्णय पिता को स्वीकार्य है. क्योंकि वह दकियानूसी नहीं था. काश हर पिता अपनी बेटी पर इतना भरोसा, इतना गर्व करता. कहानी आज की खाप पंचायतों के मुँह पर तमाचा है. प्रेम व्यक्ति को शक्ति देता है, इस अवस्था में व्यक्ति कठिन-से-कठिन काम करने को तत्पर रहता है. समाज में प्रचलित है, प्राण जाएँ पर वचन न जाए. इसी चक्कर में महाभारत के भीष्म अपनी भीष्म प्रतिज्ञा में सर्वनाश कर बैठे, लेकिन कोई बंजारे को  सलाह देता है, न हो पूरा पर्ण तो न हो, प्रण के पीछे प्राण देने की जरूरत नहीं.

मगर बंजारन की शर्त लोगों के मन में कैसी-कैसी तस्वीर उत्पन्न करती है. जितने लोग उतनी बातें. हास्य और जनमानस की उत्सुकता से सराबोर है यह हिस्सा. कोई बंजारन की पाजेब देखना चाहता है तो कोई खुद बंजारन को. बड़ा रसदार चित्रण है. सारे पुरुष हैं जो इस बहाने बंजारन को देखने की आस लगाए बैठे हैं. यहाँ भी बंजारा खुद मजदूरों के साथ मिल कर बाँध बनाने का काम करता है. और जब बाँध बन कर तैयार है बंजारन के दुल्हन रूप का बड़ा सुंदर शब्द चित्र खींचता है कहानीकार. और पाजेब भींजेगी या नहीं इस पर होने वाली सट्टेबाजी का चित्र भी बड़ा मनोरम बन पड़ा है. सट्टेबाज तो लहरों पर बाजी लगाते हैं. जिसकी जैसी क्षमता थी, वैसी आपस में शर्तें लगने लगी थीं. बंजारन जब बाँध पर रखने को पहला कदम उठाती है तब तो धरती-आकाश, पशु-पक्षी सबकी सांसें रुक गई. अग-जग सब थम गया. पूरी कहानी में दो बातें खलीं. पहली मीन या मछली के स्थान पर मत्स्य शब्द का प्रयोग. दूसरा कहानी का अंतिम पैराग्राफ़. अंतिम अनुच्छेद में कहानीकार कहानी कहना छोड़ कर उपदेशक बन गया है. मेरे ख्याल से यहाँ उससे चूक हो गई है.इस अंत के बिना कहानी अधिक मार्मिक, अधिक रसदार, अधिक मानीखेज होती. यही चूक अगली कहानी घट्टी वाली माई की पुलिया’ में भी हुई है. कहानी भाषण या निबंध नहीं होती है. कहानी का अंत कहानी की तरह होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है.

इस संग्रह की ठग’ कहानी भी लोककथा है. विजयदान देथालोककथाओं का बड़ा सुंदर और सटीक प्रयोग करते हैं, उसे आधुनिक संदर्भ भी देते हैं. सत्यनारायण पटेल भी लोककथाओं का अपनी कहानियों के लिए उपयोग करते हैं. यहाँ वे ठग को ठग से मिलाते हैं और एक मजेदार किस्सा गढ़ते हैं. दोनों खूब राइम्स में बात करते हैं. व्यापारियों के लालच का अंत नहीं है. इस लोककथा का पाठक अचानक खुद को आज के बाजार में खड़ा पता है. आज का बाजार खुद एक बहुत बड़ा ठग है वह ठगने से किसी को नहीं छोड़ता है. पहले के ठग आज के दलाल में परिवर्तित हो गए हैं और आज व्यापारी राजा से साठ-गाँठ करके जल, जंगल, जमीन, खेत-पहाड़ सबको दूह रहे हैं. लोक कथा बताती है कि व्यापारियों के मन में पनपते लालची कीड़ों को मारना मुश्किल है. आज तरक्की का पहिया देश की गर्दन पर से गुजर रहा है और न जाने कब तक गुजरता रहेगा. ठग’ लंबी कहानी होते हुए भी उबाऊ नहीं है, न ही कहीं रसभंग होता है.

मालवा एवं मालवी जीवन उकेरने के कारण पटेल पाठकों को कई नए शब्द, नए मुहावरे, नई उपमाएँ थमाते चलते हैं. वे स्थानीय मुहावरों और प्रतीकों का प्रयोग बड़ी सरलता से करते हैं और कहीं खटकते नहीं हैं, कथारस कहीं भंग नहीं होता है. चिकी की चोंच सोयाबीन के दाने की तरह पीली’ इसके पहले शायद ही किसी को नजर आई हो. इसी तरह गाड़ीगरवट, रिकामी, केणी, तीस, अटाटूट, नए-नए शब्द हिन्दी की शब्द संपदा की वृद्धि करते हैं. पटेल की कहानियाँ कथा-प्रवाह से जीवंत हैं.

काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ संग्रह की कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं, यानि शुक्रवार’, पाखी’, बया, उद्भावना’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. मगर इन्हें एक साथ संग्रह में फ़िर से पढ़ना अच्छा लग रहा है. इन कहानियों की प्रकाशन तिथि भी दी हुई है इससे सत्यनारायण पटेल के लेखन का ग्राफ़ बनाया जा सकता है, साथ ही यह शोधार्थियों के लिए भी सहायक होगी. संग्रह की अंतिम कहानी के नाम पर ही संग्रह का शीर्षक है. काफ़िर बिजूका उर्फ़ इबलीस’तथा न्याय’ कहानी संग्रह में अन्य कहानियों से भिन्न मिजाज की कहानियाँ हैं. ये लोक कथाएँ नहीं हैं, न ही इनमें कल्पना की उड़ान है, ये हमारे समाज का आज का चेहरा दिखाती हैं और आज के यथार्थ का चेहरा बड़ा भयावह है. न्याय’ कहानी के अपने मंतव्य के लिए वह पाठक को कहानी के प्रारंभ में ही तैयार कर लेता है. आज की सत्ता-प्रशासन की पहचान कराता यह यथार्थ हमारे समाज का यथार्थ है. यह एक बहुत असंवेदनशील लेकिन राजनैतिक कहानी है.

हम बात करेंगे काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ की. यह कहानी लिख कर सत्यनारायण पटेल प्रेमचंद के पंच परमेश्वर की बात पर खड़े नजर आते हैं. वे बिगाड़ के भय से ईमान की बात कहने से नहीं डरते हैं. इस कहानी को लिखने के अपने खतरे हैं. पोलिटिकली करेक्ट होने के चक्कर में इन बातों को जानते-समझते हुए भी कहानीकार अपनी कलम का हिस्सा बनाने से अक्सर कतराते हैं. मगर पटेल ने यह जोखिम उठाया है. यह एक काफ़ी लंबी कहानी है, सत्यनारायण पटेल लंबी कहानी भली-भाँति साधने की क्षमता रखते हैं. अभी-अभी मैंने एक बहुत महत्वपूर्ण स्पेनिश फ़िल्म देखी जो इतिहास पर आधारित है. फ़िल्म का नाम है, अगोरा’. इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे बार-बार यह कहानी याद आ रही थी. धर्म का इतना अधिक दुरपयोग हुआ है कि धर्म का नाम लेना भी गुनाह हो गया है. सत्ताधारी सदा से धर्म का मनचाहा अर्थ बताते और करते रहे हैं. चाहे वह कोई भी धर्म हो.

यह कहानी बताती है कि प्रोफ़ेसर होने से ही किसी के दकियानूसी विचार नहीं बदल जाते हैं. सांप्रादायिक ताकतें छद्म के साथ समाज में फ़ैली हुई हैं. इस कहानी में कहानीकार कई मानीखेज प्रश्न उठाता है. वह पूछता है क्यों नहीं हो सकती बात? जब ब्रह्मांड में प्रकट-अप्रकट हर चीज पर की जा सकती है बात, तो फ़िर कोई फ़िल्म, किताब, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहिब, गीता, रामायण (सबको मालूम है इन सब पर बात हो सकती है, होती है. शायद भविष्य में न हो सके. वह अंधकारपूर्ण समय होगा.) या फ़िर हो तथाकथित पवित्र पुस्तक... उस पर क्यों नहीं की जा सकती बात? जिस पर बात न हो, फ़िर उसका जीवन में दखल भी क्यों हो?’, अब कोई हिन्दू को तरक्कीपसंद हिन्दू, ईसाई को तरक्कीपसंद ईसाई और मुस्लिम को तरक्कीपसंद मुस्लिम समझता रहे, तो किसी का क्या दोष?’ आगे वह बात क्लीयर भी कर देता है, भई फ़ंडा क्लीयर होना चाहिए – इंसान या तो तरक्कीपसंद है या नहीं.’ बहुत सारे लोगों के गले यह बात नहीं उतरेगी. इसके आगे का वाक्य और अधिक मानीखेज है. अगर तरक्कीपसंद है तो सिक्ख, ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम जैसा कुछ नहीं.’

अक्सर व्यक्ति के पहनावे-उढ़ावे से लोगों को गलतफ़हमी हो जाती है जैसा कि उर्दू-अरबी के प्रोफ़ेसर हमजा कुरैशी को देख-सुन कर लोगों को हो जाती थी. उनको देख कर कहीं से वे कट्टरपंथी नहीं लगते हैं. ऊपर से आधुनिक वेश-भूषा का होने के बावजूद भीतर से वे बड़े कट्टर विचारों वाले हैं. हर समुदाय में ऐसे लोग मिलते हैं. यह केवल मुस्लिम समुदाय की बपौती नहीं है. प्रोफ़ेसर एक लड़के द्वारा लड़की के ऊपर तेजाब फ़ेंकने में गोरवान्वित अनुभव करते हैं, वे खुद को धर्म और संस्कृति का संरक्षक समझते-मानते हैं. वे शहर की तमाम गतिविधियों में शिरकत करते हैं लेकिन अपने इर्द-गिर्द गाढ़े और अबूझ रहस्य का जाल ताने रखते हैं. उनकी बातें लोगों को चमत्कृत करतीं. लेकिन कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक मुखौटा नहीं लगाए रख सकता है. वे बुद्धिमान हैं इसमें कोई दो राय नहीं है. बिजूका उन्हें बिजूका फ़िल्म क्लब की स्क्रीनिंग के समय बुलाता. फ़िल्म देखने के बाद वे बड़ी साफ़-सुलझी बातें करते दुनिया भार की राजनीति पर बोलते. लेकिन अफ़सोस ऐसे अक्लमंद लोग भी धर्म भीरू होते हैं, धर्म के नाम पर आँख मूँद कर जीवन व्यतीत करते हैं, वे अपनी जिद के सामने कोई तर्क नहीं सुनते हैं. ओसामा’ और स्टोनिंग’ फ़िल्म देख कर प्रोफ़ेसर और उनके शागिर्द भड़क जाते हैं. सांप्रादायिक सदभाव सब हवा हो जाता है. बिजूका भी डर जाता है क्योंकि हमारे यहाँ संप्रदाय की आग पेट्रोल की आग की तरह भभकती है. और जब स्टोनिंग’ दिखाई जा रही बगल के शहर में सांप्रादायिक तनाव फ़ैला हुआ था.

यह कहानी जनसंचार माध्यमों का सकारात्मक उपयोग दिखाती है. फ़िल्में लोगों में जागरुकता लाने, उनमें विचार शक्ति भरने का बहुत अच्छा माध्यम हो सकती हैं. आज के समय में भी ये मिल बैठने, विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करती हैं. आवश्यकता है इसका उचित उपयोग करने की. इसी तरह बिजूका फ़ेसबुक, ब्लॉग, एसएमएस, मोबाइल आदि आधुनिक सोशल नेटवर्किंग का प्रयोग क्लब की गतिविधियों को बढ़ाने और उनकी सूचना देने के लिए करता है. फ़िल्म क्लब में दिखाई गई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्में कहानी को वैश्विक परिप्रेक्ष्य देती हैं.

कहानी बिजूका अर्थात कहानीकार का जीवन मकसद भी विस्तार से बताता है. वह भले ही बिजूका कहलाता हो मगर वह बिजूका से उलट स्वभाव का है, कभी भी सोचना शुरु कर सकता है/ कर देता है. वह अपनी शक्ति भूला हुआ हनुमान है, इतना ही नहीं उसका जामवंत भी उसी के भीतर है. वह भ्रष्ट व्यवस्था में आग लगाएगा. इसी उधेड़-बुन में उसे रातों को नींद नहीं आती है. उसके बिस्तर-पलंग में रखी किताबों के पात्र उससे बातें करते हैं. खुद वह व्यक्ति से समष्टि की बात करता है, संगठन की बात सोचता है. करोड़ों-अरबों बिजूका मिल कर देश-दुनिया की आत्मा बचाने की बात सोचता है और अपने तई लोगों को एकजुट करने का प्रयास करता है. उसके भीतर सदैव कोई धुन बजती रहती है, सामूहिक मुक्ति की धुन बजती रहती है. उसे यह भी मालूम है कि सत्ताधारी और स्वार्थी लोग चाहते हैं कि लोग बिजूका ही बने रहें वे हाड़-मांस के लोगों की तरह सोचने-समझने का काम न करें. लेकिन वह खुद ऐसा करता है उसका दिमाग दिन-रात सपने बुनता रहता है.

शुरुआत में ही कहानी ग्लोबल गाँव के उन प्रेमी-युगलों को समर्पित (है), जो भ्रष्ट और हत्यारी व्यवस्था के जातीय शुद्धतावादियों और धार्मिक इब्लीसों द्वारा मारे गए, और अभी मारे जाने बाकी हैं.’ कहानी बीच में काजी साहब का अपनी बेटी को विधर्मी से प्रेम करने और गर्भवती होने पर मार डालने की बात भी करती है. अपने अतीत से कोई नहीं भाग सकता है काजी भी चाह कर भी इससे आउट ऑफ़ रीच नहीं हो पाते हैं. न जाने आए दिन हम ऐसी कितनी घटनाओं की बात सुनते-देखते-पढ़ते हैं. खाप पंचायत केवल हरियाणा में नहीं हैं. अरुंधति राय का एकमात्र उपन्यास इसको चित्रित करता है. यहाँ भी काजी, डॉक्टर अंसारी और प्रोफ़ेसर सब मिल कर एक मासूम की जान ले लेते हैं. उसका गुनाह इतना ही था कि उसने प्रेम किया था. यह सब जगह होता है, सब धर्मों, सब समुदायों में हो रहा है. ममता का पिता इसी अपराध (?) के लिए ममता का गला दबा कर उसे समाप्त कर देता है.

कहानी कई बार लार्जार दैन लाइफ़ सीन दिखाती है. पढ़ कर कभी नागालैंड की सत्ता के दमन का विरोध करती नंगी स्त्रियों की याद आती है, कभी निराला की शक्ति पूजा की. यह मनुष्य मन के दु:ख-दर्द की, सघन पीड़ा की, संवेदनाओं की कहानी है, मनुष्य के असंवेदनशील होते जाने की कहानी है, उसकी जिजीविषा, उसके संघर्ष की, उसके हार न मानने की कहानी है. जिद से अपनी अतार्किक बातों पर अड़े रहने और तर्क से अपनी बात रखने वालों की कहानी है. काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ समाज का आईना है, मूल्यों-संघर्षों को जीवंत करने का प्रयास है. कहानी पूछती है कि जब प्रोफ़ेसर और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले एक साथ मिल कर गलत बात के लिए खड़े हो सकते हैं, तो बेताल के तरक्कीपसंद साथी बहस के दौरान क्यों खिसक लेते हैं? बेताल फ़िर अपनी कॉलोनी में फ़िल्म दिखाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाता है? कौन देगा शबनम, प्रकृति, ईशा, सोराया, अजीज को न्याय? कौन देगा इनके प्रश्नों के सटीक उत्तर? जहाँ दानवता के पैशाचिक अत्याचारों से मानवता कराह रही है वहाँ एक नहीं अनेक जीते-जागते, सोचने-विचारने वाले बिजूकाओं की जरूरत है. इन्हें एकजुट करने का प्रयास कहानी करती है.

सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ समय-समाज में व्याप्तियों का चित्रण हैं. ये कहानियाँ कथा-किस्सों के माध्यम से सोचने-समझने, विचार-विमर्श का आमंत्रण देती हैं. वैचारिक हस्तक्षेप का आग्रह करती हैं. आगे भी पाठक को कहानीकार सत्यनाराण पटेल से बहुत अपेक्षाएँ हैं. पटेल ने अपेक्षाएँ जगाई हैं, उन पर इस दायित्व निर्वाह का गुरुतर भार है.
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विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर ८३१००
मो. ०९९५५०५४२७१, ईमेल: vijshain@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : महेश वर्मा

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पेंटिंग :  Rajan Krishnan 
महेश वर्मा समकालीन हिंदी कविता के (कब तक युवा कहा जाता रहेगा – चालीस को कब का पार कर गए.) महत्वपूर्ण कवि हैं. आज हिंदी कविता अपने कथन और कहन में जहाँ तक पहुंची है उसमें एक अलग स्वर महेश वर्मा का है, एक ऐसी आवाज़ जो साहित्य के सत्ता – केन्द्रों से दूर, सत्ता के दरबारी अवशेषों के प्रतिपक्ष में उठती है. उसमें एक नागरिक की दुश्चिंताएं हैं, यातनाएं हैं और भय है. उनके संसार में प्रेम और रूटीन जीवन के अवसर तो हैं  पर वहां भी विडम्बना की छाया है. वह संसार को एक व्यंग्यात्मक हल्की मुस्कान से देखते हैं, उनमें सूफियों जैसी नि: संगता है.  

महेश वर्मा की  कविताएँ              




कन्हर नदी

यह एक नागरिकता की सीमा रेखा है
बारिश में मटमैली बह रही नदी
       
पुल के इस ओर से आते देखता हूँ
ढेर सारे लोग
जाते लोग

आने वालों से पुकारकर पूछना चाहता हूँ-
कौन है जो वापस नहीं जाने के लिये
पार कर रहा है यह पुल?

बिना पुल के दिनों में हाथी पर,
पालकी पर और सीने तक के पानी को धकेलते
इधर आये थे पूर्वज.

शाश्वत हथिया पत्थर को याद होंगे पितामह
याद है मेरे गुस्सैल बाबा की ?
पुकारकर पूछना चाहता हूँ


कन्हर के उस पार
पूर्वजों के गांव की एक धुंधली याद, बचपन की
अब भी रखी है भीतर के कमरे में,
हँसते हुए भाई बहन,

दीवार पर टंगी हुई बंदूक!



प्रारूप चार

एक बहुत पीछे की जगह से आती पुकार
और एक उदग्र यौनिक आवेग
की दो अवधारणाओं के बीच ही फड़फड़ाती रहूँगी क्या ?

तुम हर बार उस गीली सी
खानाबदोश जगह पर अपना गाल रख दोगे,
और विस्मरण !
मुझको ढांप लेगा क्या ?

इन दीवारों के तुरंत बाहर है उब का आकाश और
पुराने ढंग के वाक्य वहाँ सूखे बादलों की तरह उजाड़ घूम रहे हैं,
उन्हें बिना उम्मीद की आंखें देखती हैं और मुहब्बत में जुदाई
की नज़्म लिखती हैं अपनी कुंवारी छातियों पर

यह तुम्हारा स्वप्नफल मैंने कहा
तुम्हारे उस रोज़ के स्वप्न के लिये
जब तुम मुझसे कुछ पूछना चाहते थे.

यह सांकेतिक सवाल कितना आसान है पूछना तुम्हारे लिये
कि पहले चुंबन मुरझाते हैं या गुलदस्ते के फूल ?

इन्हीं सवालों की सूखी पंखुरियाँ
समेटती रहूँगी क्या ?




नवनीता देवसेन*

जब एक बेचैन भाषा
रक्त की तरह दौड़ती हो भीतर
प्यार का वह शब्द कहो

या सिर्फ गुलाब कहो
और देखो
कैसे अपने आप सुर्ख हो जाता है आकाश

सिर्फ नहीं कह देने भर से
उतर आयेगा अंधकार,
एक पंख कहोगे
और उड़ान रच दोगे.

ऐसे ही प्यास के शब्द से बनाओगे रेगिस्तान
बनाओगे बारिश,

दिशाएँ मत लिखोः सिर्फ धूल लिखो
आंख लिखते ही आकाश पर रख दोगे प्रकाश,

सबके लिये प्यार की सदइच्छा लिखने भर
शब्द नहीं है न ?

एक चुंबन लिखो


(*वरिष्ठ बांग्ला कवयित्री)



संजय साईकल स्टोर्स

लगभग तेरह सौ वर्षों से दो कारीगर
ज़मीन पर उँकड़ू बैठकर शतरंज खेल रहे हैं

उनकी नींद एक फर्श है तो उस पर
शतरंज की गोटियां उग आई हैं
ये अमर गोटियाँ हैं,
सुबह मारा गया वज़ीर,
दोहपर में मुस्कुरा रहा है सफेद फर्श पर
दूर से तिर्यक चला आ रहा है
बेदर्दी से मारा गया ऊँट

किसी को कोई औलिया सपने में चाल  बताते हैं
किसी से बाद करते हैं प्यादे और शहंशाह

किसी की कोई चाल सही पड़ नहीं रही
घर वाले दोनों की चालों से हार गये
हारते दोनों है, झगड़ते हैं, चाय साथ पीते हैं

सपने में घोड़े की टाप का ढाई घर
किसी सिपाही की मौत पर ख़त्म होता हो
तो यह वही सिपाही है जिसने
साईकिल सुधारने में देरी को लेकर
लात से बिखेर दी थी गोटियाँ !



मिलना

कटी हुई पतंग के मिलने से पहले मिल चुका हो
अनायास इस शहर में आ गया शख़्स
कहीं से टूटने से पहले की उसकी एक कहानी भी हो.

जो कभी नहीं मिला था उसका ऐसा मिलना
कि इसी तय संयोजन में मिलना था
कि व्यर्थ हुआ इतना लंबा जीवन
अगर बहुत पहले मिल नहीं पाये

फिर कहाँ ऐसा मिलना होगा में मुड़मुड़ कर
देखना, जैसे वहीं रखा हो मिलने का दृश्य

विदा में हाथ हिलाते दूर जाते, मुड़ना
एक अनिवार्य ठोकर खाना
ताकी  पाठक का विश्वास बना रहे नियति में
ठोकर का और खुद का
मज़ाक बनाते हँसना,
मिलने के प्रतिपक्ष में डूब जाने का सूर्यास्त होना.

मिलने पर मालूम पड़ता
कि कहाँ कहाँ से आ सकता है जीवन
कि यात्रा के सभी रूपक किसी आख्यान में ख़त्म हो जायें

और बार बार
जब एक ही तरह के लोग लगातार बुरे तर्कों के साथ,
मिलने लगें लगातार
तो दूसरी ओर लगातार देखते रहना
कि जैसे देख ही नहीं पाया



कमीज़

कहीं और जाते
जो वहाँ के बिल्कुल नज़दीक से
गुज़रती हो ट्रेन
थोड़ी देर को आँखे मूँद लो।

मूँद लो आँखें कि दिखाई न पड़ जाये
कोई ऐसा वृक्ष
जो उस जगह के बारे में
कुछ विनष्ट अनुमान तुममें रोप दे।

(व्यतीत जगहों पर विश्वास करते रहना चाहिये
लौटकर वहाँ जाना नहीं चाहिये.)

वे जगहें उसी तरह वहाँ हैं
उतनी ही युवा स्त्रियों
और उतने ही साफ आकाश के नीचे प्रकाशमान
जहाँ तीनों बुद्ध संशय  कभी नहीं पहुँचेंगे

पुराने बेयरे जि़न्दा हैं, और लोग
उसी बेफिक्री की फुटबाल
देखकर लौट रहे हैं।

धुँएवाली सिगडि़याँ डर पैदा नहीं करतीं
ये मासूम ख़याल पैदा करती हैं
कि बादलों तक, सिगडि़यों का ये धुँआ कोई बात पहुँचा सकता है।

और तो और कभी उन जगहों के बारे में सोचा भी
जो बीत गई तो इस तरह
कि अपनी कल्पना भी उन्हीं कपड़ों और चप्पलों में की
जो तब पहनते थे जब वहाँ थे।

विषयांतर के लिये थोड़ी देर को रूकना
और सोचना कि वह प्रिय कमीज़ कहाँ गई
जिसका एक अफ़साना था।




आईना

इस घर में सबसे उदास है बाथरूम का आईना. अपने
आने के पांचवे ही दिन से उसे बोरियत ने घेरना
शुरू कर दिया था और उसकी आंखें धुंधलाने
लगी थीं.

या वे नींद से भरी थीं, आने वाली सैकड़ों ठंडी रातों
की अनिद्रा से बोझल ?

सुबह के वाहियात चेहरे और
मुंह के चारों ओर फैला झाग और
असंभव कोण से गरदन घुमाकर दाढ़ी छीलता आदमी उसे
सस्ते साबुन की गंध से ज़्यादा नापसंद है।

आप नहाकर अपना ताज़ा चेहरा
देखने के लिये साफ़ करते हैं आईने पर जमी भाप.
     चिढ़कर वह मुंह बिचका देता है (अपने आप)
______________________________________

कथा - गाथा : जयश्री रॉय

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ज़ून, ज़ाफरान और चांद की रातकहानी के नेपथ्य में कश्मीर की हकीकत है. यह प्रेम कहानी हब्बा खातून के विरह से भीगी है,यह हब्बा के प्रेमी युसुफ शाह की विडम्बना को आज के कश्मीर में पुन: सृजित करती है. इस की ज़बान में ज़ाफरान की खुशबू है. जयश्री रॉय ने कुशलता से ज़ून के ज़र्द अस्तित्व और ज़ाफरान की बर्बादी को आज के कश्मीर के प्रतीक में बदल दिया है. दिलचस्प और रवानी से भरपूर यह कहानी आप के लिए.




(Dimple Kapadia puts on makeup as she gets ready to shoot for 'Zooni'. A Kashmiri crowd, of mostly teenagers, looks on. 1989)



ज़ून, ज़ाफरान और चांद की रात                       

जयश्रीरॉय


''चेकम्यूसोनिम्यानिब्रमदिथन्यूनखो
चेक्योहोज़िगयोम्यान्यदुय.''
(मेरीकौनसौतनतुझेभरमाकरलेगयी. क्योंखिन्नहुएमुझसेतुममीतमेरे )



(एक)
धूप में चमकते बैंजनी फूलों से एक आवाज़ अनायास तितली की तरह उड़ी थी और चारों तरफ छा गई थी- ठीक जैसे हल्की बारिश के बाद का इंद्रधनुष! मैंने चारों तरफ ढूंढ़ती नज़र से देखा था, कहीं कोई नहीं था. बस हल्की हवा में थियराती केशर की क्यारियां और चनार के पत्तों की रेशमी सरसराहट... सितंबर के आईने-से कौंधते आकाश के नीचे खुशरंग ज़मीन की दूर तक बिछी कालीन- खूशबू की गर्म लपटों से भरी हुई!

मेरी हैरानी देखकर शाहिद मुस्कराया था- किसे ढूंढ़ रहे हो नील? ये आवाज़ें तो यहां के ज़र्रे-ज़र्रे में पिरोई हुई हैं. ज़ाफरान के मौसम में फूलों के पराग चुनती लड़कियां अक़्सर हब्बा के दर्द में डूबे मुहब्बत और जुदाई के गीत गाती हैं.
"हब्बा के गीत...!"मैं बुदबुदाया था- "मगर इनमें इतना दर्द क्यों है? बहार में ये पतझर के गीत...!"
"क्योंकि हब्बा के दुख ही इन मौसिकी की शक़्ल में ढले हैं... ये गीत नहीं, हब्बा के रग-ए-जां से टपके लहू के कतरे हैं, आंसू हैं जो उसने अपने महबूब के लिये इन वादियों और केसर के बागों में सदियों पहले दीवानगी की हालत में रातदिन भटकते हुये बहाये थे."शाहिद मेरे बगल में आ बैठा था. धूप में दहककर उसका खूबसूरत चेहरा सुर्ख हो आया था.

सुबह से वह यहां के किसानों को केसर की खेती के बारे में तकनीकी सलाह और जानकारियां दे रहा था- ज़मीन को फसल के लिये कैसे तैयार करनी है, वह किस हद तक भुरभुरी हो, क्यारियों में पानी कितना देना है ताकि वह ज़मीन को भिगोने के बाद क्यारियों में ठहरे नहीं, बगल के नालों में उतरकर बह जाये, दवाई की सही मात्रा क्या हो, क्यारियां किस तरह से बनी हों कि पानी सिंचाई के बाद उनमें ठहर न सके...

शाहिद यहां श्रीनगर के कृषि विभाग में सरकारी मुलाज़िम है. सरकार की केसर की पैदावार बढ़ाने के लिये बनाई गई नयी योजनाओं के तहत वह यहां के किसानों को खेती की नई-नई तकनीक की जानकारी और सलाह-मशविरा देने आता है. दिल्ली युनिवर्सिटी में वह मेरे साथ ही था. इतने अर्से बाद कश्मीर आया तो उससे मिले बग़ैर नहीं रह सका.
मुझे देखकर हैरत हुई थी कि इतने सालों बाद भी उसमें शायद ही कोई बदलाव आया था- सब्ज आंखों की वही चमक, गहरे बादामी बाल और धूप-सा उजला रंग! मुझे याद है, युनिवर्सिटी में लड़कियां उसपर फिदा रहती थीं. तितली के झुंड की तरह उसके आसपास उड़ती फिरती थीं. मगर उसने कभी किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा था- मुसलमान था, मुसलसल ईमान रखता था.

अभी हाल में ही उसकी शादी हुई है. उसकी पत्नी से मिला- माहजबीं!- चांद-सी माथेवाली!... वाकई! देखकर लगा था, शाहिद का लंबा इंतज़ार जाया नहीं हुआ है! माहजबीं के चांद-से चेहरे पर ठीक होंठ के ऊपर एक तिल है- कुदरत का काला टीका! गनीमत है, वर्ना धरती का यह चांद देखनेवालों की नज़रों की आंच से झुलसकर रह जाता.

शाहिद के लाख कहने पर भी मैं उनके घर नहीं ठहरा था. उनकी नई-नई शादी हुई थी. मैं कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहता था. आज वह पाम्पोर आने लगा तो मैं भी उसके साथ हो लिया. पाम्पोर श्रीनगर से 24किलो मीटर की दूरी पर है. पाम्पोर से अंतनाग 36, बारामुल्ला 52, और सोपोर 56कि. मी. है. इसके सबसे पास की बड़ी नदी झेलम है जो श्रीनगर को छूकर बहती है. वैसे तो कश्मीर की और भी कई जगहों में केसर की खेती होती है जैसे पुलवामा, बडगाम, कशतिवार. मगर सबसे बड़ी खेती पाम्पोर में ही होती है. लगभग 3715हेक्टेयर ज़मीन पर.

आते हुये हम शाहिद की जीप में आये थे. आते हुये रास्ते में वह केसर और उसकी खेती के बारे में बताता रहा था. बचपन से मैं मिठाई, खीर पर केसर के सिंदूरी रेशे देखता आ रहा था. उसकी भीनी खूशबू से भी वाकिफ था; मगर उसकी पैदावार आदि के बारे में शायद ही कुछ जानता था. शाहिद ने बताया था कश्मीर का केसर अपनी खूबियों के लिये दुनिया में सबसे बेहतर माना जाता है. इसके लम्बे पराग, चटक रंग, महक- सब बेजोड़ है! वैस तो स्पेन में सबसे ज़्यादा केसर की खेती होती है, मगर कश्मीर के केसर से उनका कोइ मुकाबला नहीं.

सुबह-सुबह हम पाम्पोर पहुंचे थे. सितंबर का यह एक उजला, सजीला दिन था. सितंबर में यहां कंवल का भी मौसम होता है. पूरी डल झील गुलाबी कंवल से ढक जाती है. सुबह की धूप में उनपर चमकती ओस की बूंदें, हवा में उड़ता गुलाल-सा... देखते हुये आंखें तर जाती हैं. यहां का नज़ारा भी सांस रोकनेवाला था. सूरज की लाल, सुनहरी किरणों में शबनम से नहाये केसर के बैंजनी फूल- दूर-दूरतक जहां तक नज़र जाये... उन्हें घेरे हुये नीले, कत्थई बर्फ से ढंके पहाड़ों पर पशमीने की नर्म चादर-सी छाई धुंध, चिनार के ऊंचे, घने पेड़... सड़क के चारों ओर पाईन की सुइयां बिखरी पड़ी थीं. दूर टीलों की तलहटी में हिसालुओं की घनी झाड़िओं में कस्तूरी पंछी रह-रहकर बोल रहा था. एक सपने का-सा परिदृश्य... मुझे यह सबकुछ सच नहीं लग रहा था!

गांव के लोग यहां के पंचायत घर में इकट्ठा होनेवाले थे. शाहिद को उन्हीं का इंतज़ार था. उसे उनसे बातें करनी थी. अभी हमारे पास थोड़ा समय था. वैसे भी पहाड़ों में सुबह देर से होती है. थोड़ी देर पहले ही हमने रास्ते में पड़नेवाली एक छोटी-सी दूकान में नून चाय पी थी- हल्की गुलाबी और नमकीन, मक्खन डली हुई. अलस्सुबह निकलते हुये शाहिद के घर से हम लवासा- गर्म रोटियां खाकर निकले थे. यहां लोग सुबह नाश्ते में अमूमन यही खाते हैं.

एक चिनार के नीचे बैठकर शाहिद मुझे केसर की खेती के विषय में तफसील से बताता रहा था. केसर एक महंगा मसाला ही नहीं, कश्मीर की खूबसूरत संस्कृति का प्रतीक भी है. कोई भी जश्न, दावत, मुबारक मौका इसके बिना मुकम्मल नहीं होता. कहवा यहां लगभग बीस तरह के होते हैं, मगर एक चुटकी केसर के बिना यह शाही पेय नहीं बनता. हर खास पकवान इससे खुशरंग और ज़ायकेदार बनता है. वाज़वान- कश्मीर का मशहूर पकवान- में इसका ख़ास इस्तेमाल होता है. ज़ाफरानी कोकूर (मूर्ग) में तो यह खूब डलता है.

शाहिद की बातें सुनती हुये मैं धीरे-धीरे धूप की रुपहली पन्नी में मढ़ते हुये फूलों को देखता रहा था. मैंने ज़िन्दगी में मसाले के पेड़ तो बहुत देखे थे, मगर उनमें से कोई इतना खूबसूरत भी हो सकता है मैंने नहीं सोचा था. गोआ में हमारे बंगले के पीछे एक तेज पत्ते का पेड़ है और बारिश के समय हल्दी के चौड़े पत्तेवाले पौधे नारियल के पेड़ के नीचे उगते हैं. नाग पंचमी के त्योहार में इन चौड़े पत्तों में लपेटकर तथा भाप में सिझाकर इस पर्व की ख़ास मिठाई पातोरे बनती है- चावल के आटे की बड़ी-सी बेली हुई लोई में कसे हुये नारियल, गुड़ और तिल का पुर डालकर. बहुत स्वादिष्ट! नारियल के बागान में सुपारी के पेड़ भी अक़्सर दिख जाते हैं. गहरे हरे रंग के लंबे डंठल की तरह, सुपारी के गुच्छों से लदे हुये. वहां कई तरह के मसालों के बाग़ होते हैं. हम गर्मी की छुट्टियों में वहां घूमने जाते थे.

चिनार के नीचे बैठकर मैंने देखा था, दूर खेतों में रह-रहकर रंगीन बाया से ढंके हुये औरतों के सर दिख रहे थे. मटमैले या हरे फिरन में गांव की औरतें क्यारियों के बीच टोकरियों में फूल चुनते हुये. शाहिद ने बताया था, बहुत एहतियात से फूल के बीच का नोंकदार, लम्बा हिस्सा चुनना पड़ता है. फिर उन्हें पतझर की हल्की, तापहीन धूप में सुखाना पड़ता है.
"कितने खूबसूरत हैं यार ये फूल... आंखें तर गईं!"शाहिद की बातें सुनते हुये मैं चिनार के तने से लगकर बैठ गया था. रोशनी ज़रा और साफ हो कि कुछ तस्वीरें लूं. मैंने अपने साथ अपना कैमरा लाया था. फोटोग्राफी मेरा शौक है.

"खूबसूरत.. मगर बहुत कम उम्र के..."शाहिद फलसफाना अंदाज़ में मुस्कराया था.
"ज़िंदगी भले छोटी हो, मगर काश ऐसी खूबसूरत हो..."मैंने आंखें बंद करके एक गहरी सांस ली थी. हवा में जैसे इत्र-सा घुला था.

"पहले तो यहां बहुत खेती होती थी, दूर-दूर से सैलानी इन्हें देखने आते थे. दहशतगर्दी के दौर में सब ख़त्म हो गया. फूल चुननेवाले हाथ बंदूकें उठाने लगे, ज़ाफरान की जगह इस ज़मीन पर लाशें उगाई जाने लगी. अब तो जैसे यह धीरे-धीरे ख़त्म होने की कगार पर ही आ पहुंचा है."
"इसके अलावा भी कुछ और कारण होंगे?"मेरे सवाल पर शाहिद ने इसके कई और कारण गिनाये थे- प्रदूषण!... ये प्रमुख कारणों में से एक है. हाल में क्रिउ ईलाके में कई सीमेंट फैक्टरियां खुल गयी हैं. इससे बर्फ और बारिश- दोनों ही प्रभावित हुयी हैं. दूसरी समस्या, ग़ैर देशों से दोयम दर्ज़े के ज़ाफरान का कश्मीर में गैर कानूनी निर्यात. इससे यहां के ज़ाफरान की क़ीमत पर बुरा असर पड़ता है. इसके साथ ही सरकारी महकमे में इसको लेकर लापरवाही तो है ही. फिर, हमारी पढ़ी-लिखी नई नश्ल खेती में दिलचस्पी लेती भी कहां है! सभी को व्हाइट कॉलर जॉब चाहिये. नई तकनीक की जानकारी भी नहीं के बराबर! अच्छी पैदावार के लिये ज़मीन को तैयार करना और बीच-बीच में उसे खाली छोड़ देना भी ज़रुरी होता है.

सुनते-सुनते मुझे झपकी-सी आ गयी थी. कल देर रात से सोया था. सुबह भी जल्दी उठना पड़ा था. मुझे उनींदा देख शाहिद कुछ गांववालों के साथ पंचायत हॉल की तरफ चला गया था. वहां गांव के लोग इकट्ठा हो गये थे शायद अबतक.

कुछ ही दिन पहले पास के एक गांव के सरपंच को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था. हालांकि यहां अभी हालात पहले से बेहतर थे, मगर थोड़े ही दिनों के भीतर कई सरपंचों के बेरहम क़त्ल से माहौल में फिर से तनाव पैदा हो गया था. कई सरपंचों ने एकसाथ इस्तीफा दे दिये थे. लोग सरकार से नाराज़ थे. सरकार उनकी हिफाज़त करने मे नाकाम साबित हो रही थी.  

इस साल सर्दी जल्दी आ रही थी शायद. हवा में अभी से हिम उतरने लगा था. मैं चाहता था, लौटने से पहले स्कीइंग के लिये ज़रुर जाऊं. दो साल पहले इसके लिये शिमला जाकर निराश लौटा था. वहां उस साल बर्फबारी नहीं हुई थी. यहां आने से पहले जम्मू-कश्मीर के टूरिज़्म डिपार्टमेंट से पता चला था पाम्पोर से पर्वतारोहण, स्कीइंग, वॉटर राफ्टींग के लिये जाया जा सकता है. यहां से सबसे क़रीबी स्कीइंग रिसॉर्ट है गुलमर्ग, मालाम जाब्बा, जो पाकिस्तान में पड़ता है, फिर सोलांग वैली रोपवे एंड स्की सेंटर, मनाली- हिमाचल में तथा कुफरी.

मैं उठकर टहलने लगा था. सोकर सपने देखने से अच्छा है खुली आंख से इस जन्नत को देखना जो किसी भी सपने से ज़्यादा खूबसूरत है. मैंने कई तस्वीरें ली थीं- अनाम जंगली फूलों की, नन्हीं, खुशरंग चिड़ियों की, मंजीरे-सी बजती दुधिया, फेनिल पहाड़ी झरनों की... और फिर तस्वीरें लेते हुये ही मुझे अपने पीछे से एकबार फिर वही मीठी, उदास आवाज़ सुनाई पड़ी थी-''चेकम्यूसोनिम्यानिब्रमदिथन्यूनखो…"

मैं उत्सुकता में मुड़ा था और मुड़कर देखता ही रह गया था. सामने बैंजनी फूलों के जमघट के बीच एक लड़की खड़ी थी, हाथ में फूलों से भरी हुई टोकरी लिये हुये. उसने भी शायद आंख उठाकर मुझे अभी-अभी देखा था और देखकर थमक गई थी. ठीक जैसे कोई भयभीत हिरणी! बड़ी-बड़ी आंखों की बेतरह फैली नश्वार पुतलियां और हल्के थरथराते हुये होंठों पर अभी-अभी गाये गीत का कम्पन, तरंग... जैसे रेतपर बहती हवाओं से लहरें बनती हैं और दूरतक फैलती जाती हैं! मैंने उसे ध्यान से देखा था- पके खुबानी-सा रंग, जुड़ी हुई काली, घनी भौंहें और भरे हुये होंठ. कितनी उजली, गोरी थी वह! जैसे धूप में चौदहवीं का चांद खिला हो!

मुझे अपनी तरफ यूं देखते पाकर वह सकपकाकर अपने कपड़े ठीक करने लगी थी. मैंने गौर किया था, उसके कपड़े निहायत साधारण थे. रंग उड़ा ढीला-ढाला कुर्ता और सलवार . सीने पर सुंदर फुलकारी के धागे जगह-जगह से उधड़े हुये थे. सर पर बंधा हुया बाया ज़र्द और फटा हुआ था. टाट के पैबंद में लिपटी हुई किसी बेशकीमती गौहर की तरह दिख रही थी वह. बहुत हसीन मगर बदहाल...

ना जाने हम एक-दूसरे की ओर इस तरह से देखते हुये कितनी देरतक खड़े रहे थे जब पीछे फूलों की क्यारी से किसी की आवाज़ आई थी. शायद कोई उसे ही पुकार रहा था. पुकार सुनकर वह झटके से मुड़कर जाने लगी थी. उसे जाते हुये देखकर मुझे होश-सा आया था. मैंने पीछे से पुकारकर उसका नाम पूछा था. जाते-जाते वह एक पल के लिये ठिठकी थी और कहा था- ज़ून!
"ज़ून...!"उस अजीब से नाम को दुहराते हुये मैं भी लौट पड़ा था. शाहिद भी तबतक वापास आ चुका था और चिनार के नीचे खड़ा होकर मेरा इंतज़ार कर रहा था. उसके पास पहुंचते ही मैंने पूछा था- "ज़ून का मतलब क्या होता है?"

मेरा सवाल सुनकर शाहिद चौंककर मुस्कराया था- "क्या! ज़ून? ज़ून माने चांद. तुम्हें किसने बताया?"

"खुद चांद ने, और किसने... सुबह-सुबह आकाश में चांद निकल आया था- बादलों के फटे लिबास में... ये चांद इतनी ग़रीब क्यों है? दुनिया को अपने जमाल से रोशन करनेवाली खुद इतनी उदास, बदहाल क्यों है?"मैंने खोये-खोये लहज़े में कहा था.

मेरी बात समझ ना पाकर शाहिद मेरे साथ हो लिया था- "क्या बात है यार! इन फूलों के बीच किसी तितली को तो नहीं छू लिया? कहते हैं इनके परों का रंग अगर किसी की उंगलियों को छू जाय तो कभी उतरता नहीं."सुनकर मैं बेख़्याली में मुस्कराया था- "मुझे डरा रहे हो?"
"नहीं, आगाह कर रहा हूं..."शाहिद की आंखों में शरारत थी- "बड़ा अनोखा होता है यह प्यार का रंगरेज़,"
"तुम्हारी हिन्दी... मेरी समझ में तो नहीं आती!"मैं उसकी बात को टालते हुये फिर तस्वीर उठाने में मशगूल हो गया था. शाहिद ने मुझे समझती हुई आंखों से देखा था, जैसे कुछ पकड़ना चाह रहा हो.
"मीटिंग कैसी रही?"एक समय के बाद मैंने उससे पूछा था.
"बढ़िया! लोगों का रेस्पांस अच्छा है. बात उनकी समझ में आ रही है ."
"तुमलोगों का प्रोजेक्ट बहुत बड़ा है! तस्वीर लेते हुये मुझे हिसालुओं की झड़ियों में एक चटक लाल रंग का पंछी दिखा था. "क्या ये बर्ड ऑफ पेराडाइज़ है?"उसकी तरफ कैमरा घुमाते हुये मैंने शाहिद से पूछा था. पंछी की लंबी पूंछ नीचे दूरतक लटकी हुई थी. दुधिया सफ़ेद!
"हो भी सकता है... यहां बहार के मौसम में तरह-तरह के पंछी आते हैं... मगर कबूतर बहुत ज़्यादा होते हैं, हर जगह..."शाहिद मेरे साथ-साथ चल रहा था.
"तुम कुछ कह रहे थे तुमलोगों के प्रोजेक्ट के बारे में..."मेरे पास पहुंचते ही वह पंछी चहकते हुये उड़ गया था. नीले आकाश में सुर्ख शोले की एक लम्बी-सी लकीर खींचते हुये...
"हां! सरकार कई कारगर क़दम उठा रही है कोंग की पैदावार बढ़ाने के लिये."
"कोंग!"मैंने चलते हुये शाहिद को मुड़कर देखा था.
"कोंग यानी ज़ाफरान- कश्मीरी में! हां तो मैं कह रहा था, इसकी पैदावार बढ़ाने के लिये सरकार ने करोड़ों रुपये की लागत की नेशनल ज़ाफरान मिशन का ऐलान किया है. दो साल पहले."
"बढ़िया! मगर सिर्फ ऐलान से क्या! इन योजनाओं पर कुछ अमल भी हो रहा है?"
"सौ प्रतिशत तो नहीं, मगर हां, कुछ बेहतर काम ज़रुर हो रहा है. कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 1977-78में 5707हेक्टेयर से लेकर 2006-07में 3010 हेक्टेयर तक केसर की खेती में गिरावट आई है. इन चौंकानेवाले आंकड़ों से सबकी नींद टूटी है लगता है."

"यह तो बहुत बड़ी गिरावट है! पैदावर पर सीधे असर हुआ होगा!"मैं शाहिद से बात कर रहा था, मगर मेरी आंखें हवा में बैंजनी सितारों-से झूमते-चमकते हुये ज़ाफरान के फूलों पर थी. इन्हीं फूलों के बीच शायद वह एकबार फिर नज़र आ जाये- ज़ून! ज़ून यानी चांद! ये नाम शायद उसी के लिये बना था.
"हां, बिल्कुल..."मेरे ख़्यालों से अंजान शाहिद एक गिरे हुये पेड़ के तने पर बैठा अखरोट खा रहा था जो अभी एक गांववाले ने हमें लाकर दिया था.
"केसर की पैदावर 16मैट्रिक टन से 8.5मैट्रिक टन तक हो गयी थी यानी 2.32किलोग्राम प्रति हेक्टेयर... जो एक गंभीर मसला है."
"चलो, इन आंकड़ों से सरकारी महकमे की आंख खुली है यही बहुत है!"मैं भी उसके पास आ बैठा था. शाहिद ने कहा था, पहाड़ी के पीछे तरफ एक झरना है जहां इन दिनों खूब पंछी आते हैं. मै वह जगह देखना चाहता था.
"हां, क्यों नहीं..."शाहिद मेरे सवाल पर अटका हुआ था- "कई कारगर क़दम उठाये गये हैं, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया... सैफरॉन बिल जम्मू एंड कश्मीर एसेंबली में 2008में पास हुआ. ज़ाफरान पैदा करनेवाले किसानों की माली हालत सुधारने के लिये और ज़ाफरान की पैदावार बढ़ाने के लिये नेशनल मिशन ऑफ सैफरॉन को ईमनदारी से लागू करने की बात सरकार करती रही है."
"सरकार तो बहुत कुछ कहती है, उम्मीद है कुछ करेगी भी..."
"इन बातों में तुम अपना दिमाग़ खराब मत करो. एनज्वाय योर हॉली डे. अब चल खुसरो घर आपने... लौटना है."शाहिद अपने सामान समेटने लगा था.
"तुम जाओ... मेरा तो दिल अब यहीं लग गया है. सोचता हूं, यहीं बस जाऊं..."घास पर लेटकर मैंने अंगराई ली थी.

"वाकई?"शाहिद ने आंखों ही आंखों में मुझे टटोला था- "फिर आगाह कर रहा हूं नील, अपने पांव सोच-समझकर रखना, बहुत दिल-फरेब है यह ज़मीन! हर क़दम पर ईमान को खतरा है..."
"मशविरे के लिये शुक्रिया! यहां रहने के लिये कोई जगह मिल जायेगी?"अखरोट लानेवाले उस आदमी की तरफ मुड़कर मैने पूछा था और शाहिद की जीप से अपना बैग पैक निकाल लिया था. सफर के दौरान इसमें हमेशा मेरी ज़रुरत की छोटी-मोटी चीज़ें रहा करती हैं. उस आदमी ने जिसने अपना नाम घासाजी बताया था, बैग मेरे हाथ से लेकर चल पड़ा था- "कोई न कोई बंदोबस्त तो हो ही जायेगा..."

हम दोनों को जाते हुये देख शाहिद ने पीछे से पुकारा था- "आर यू सीरियस...?"उसे हैरत हो रही थी शायद. मैंने इस तरह से अचानक अपना प्लान बदल लिया था.
"एकबार फैसला कर लूं तो फिर मैं अपनी भी नहीं सुनता..."सलमान की तरह अकड़कर चलते हुये मैंने मुड़कर उसे बहुत स्टाईल से सलाम किया था. वह अपने कंधे उचकाकर जीप की ओर बढ़ गया था- "टेक केयर!"




(दो)
मैं किसी होटल में ठहरना नहीं चाहता था. मुझे यहां की ज़िंदगी का असली ज़ायका और महक चाहिये थी जो बतौर सैलानी मुझे मिल नहीं सकती थी. मैंने घासाजी से कहा था कि हो सके तो वह मुझे गांव में ही कहीं ठहरा दे. घासाजी मुझे अपने घर ले गया थ. ढलवा हरी रंग की छत और लाल ईटोंवाला दो कमरे का छोटा-सा मकान! पीछे सलगम की क्यारी और सेबों का बागान. वह इस घर में अकेला रहता था. उसका इकलौता बेटा पुलिस में था, सोनमर्ग के किसी गुंध नाम की जगह में पोस्टेड था वह. महीने दो महीने में उससे मिलने आ जाता था. बीवी बहुत पहले गुज़र गई थी.

घासाजी से कहकर मैंने उसका पीछे की तरफवाला कमरा ले लिया था. उस कमरे से दूर-दूरतक केसर के खेत और ऊंचे, बर्फ ढंके पहाड़ दिखते थे.

घासाजी खुद खाना बनाता था. उस शाम हम जाकर लोकल बाज़ार से सामान खरीद लाये थे. घासाजी निनया पुलाव बनाना चाहता था. निनया पुलाव यानी मटन पुलाव. यहां के लोग मांस बहुत खाते हैं. दोनों- हिन्दू और मुसलमान. पंडित तक! कश्मीर में खेती बहुत कम होती है. चीज़ें अधिकतर बाहर से ही आती हैं. पहले सर्दी के मौसम में बर्फ गिरने से महीनों पहाड़ी रास्ते बंद पड़ जाते थे. ऐसे में बाहर से सामान आना भी मुश्क़िल हो जाता था. मजबूरी में लोगों को मांस पर ही गुज़ारा करना पड़ता था. अब तो यह इनकी आदत में भी शामिल हो गया है. घासाजी खाना बनाते-बनाते मुझे बताता रहा था. ईलायची, लौंग, ज़ाफरान की गर्म खूश्बू से हवा तर हो रही थी. मैंने गौर किया था, घासाजी बहुत बातूनी किस्म का था. लगातार बात करता रहता था. मगर मेरे लिये अच्छा ही था. मैं इस जगह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानना चाहता था. फूलों की इन बैंजनी वादियों के हर गुंचे से मुझे दोस्ती करनी थी.

मैं पीछे की तरफ के बरामदे में बैठा उगते हुये चांद को देख रहा था. गुलाबी-बैंजनी फूलों की लहराती झील के पार गहरे नीले, कत्थई पहाड़ों के बीच से धीरे-धीरे निकलता हुआ सुडौल चांद- हल्के मोतिया आब से भरा हुआ... एक रुपहली उजास से बर्फीली चोटियों को नहलाते हुये... अद्भुत दृश्य था! मैं बिल्कुल मंत्रमुग्ध-सा तकता रह गया था.

"जानते हैं साहब, पूरे चांद की रातों में केसर के इन बागानों में कुछ अजीब-अजीब-से वाकयात होते हैं. कबरगाह- भूने हुये लैमचॉप की गर्म, खूश्बूदार प्लेट मेरे सामने रखकर घासाजी भी वही बैठ गया था.

"अजीब-से वाकयात..."मैंने चांदी के बर्क में लिपटा हुआ भूने मांस का एक टुकड़ा उठाकर चखा था. दही, मिर्च और बड़ी ईलायची का तीखा स्वाद! इसके साथ चिल्ड बीयर होता तो मज आ जाता... मैंने सोचा था. मगर यहां शराब आदि खुलेआम नहीं मिलती. बहावी आंदोलन का यहां काफी असर है. घासाजी अभी भी कह रहा था- "कहते हैं, चौदहवीं की उजली रातों में जब-जब केसर की गहरी नीली क्यारियों से खुश्बू की गर्म लपटें उठती हैं और पूरी वादी चांदनी में नहा जाती है, लोगों को राजा युसुफ़ शाह चाक के घोड़े की टापों की आवाज़ और उसका हिनहिनाना सुनाई पड़ता है! साथ ही हब्बा के गीत- उदास और दुखभरे... गांव के ज़र्रे-ज़र्रे में किसी आसेब की तरह उतरती हुई चांदनी में जैसे कोई प्यासी रूह रोती फिरती है. लोग अपने-अपने घरों में बंद होकर, रजाइयों में दुबककर इन गीतों को रातभर सुनते हैं जो यहां की फज़ाओं में सदियों से चांद रातों में गूंजते हैं... कुंवारी लड़कियां इन्हें सुनते हुये रो-रोकर अपना सरहाना भिगो देती हैं, बेवायें अपनी सूनी कलाइयों में कहीं दूर खो गयी चूड़ियों की खनक ढूंढ़ती रात गुज़ार देती हैं...

"हब्बा... हब्बा खातून?"यह नाम मैंने सुना तो था. मुझे घासाजी की बातें रोचक लगी थी. मुझसे बातें करते हुये घासाजी कमरे के भीतर से कांच का लैंप जला लाया था. शाम से बिजली गयी हुई थी. फैलती हुई चांदनी बरामदे की सीढ़ियां ऊपर तक चढ़ आई थी. झीना, सफ़ेद कोहरा पशमीने की चादर-सा पूरी वादी से लिपटा हुआ था.

"हब्बा खातून यानी ज़ून यहां की बड़ी मशहूर हस्ती है साहब! उसके गीतों से यहां का बच्चा-बच्चा वाकिफ है. घासाजी फिर मेरे पास आ बैठा था.
"ज़ून... यानी चांद न?"मैं यकायक चौंककर सीधा बैठ गया था.
"हां! यह एक पुराना नाम है. आजकल ऐसे नाम लोग अमूमन नहीं रखते."
"मगर मैंने सुना है यहां एक लड़की का नाम ज़ून है..."
"यहां! कौन?"पूछते हुये घासाजी के माथे पर बल पड़ गये थे. फिर जैसे उसे याद आया था- "हां! बिल्कुल! ज़ून... नईम की बीवी... बहुत बदकिस्मत है बिचारी!"
"नईम की बीवी..."सुनकर मुझे धक्का-सा लगा था. तो उसकी शादी हो गई है!
"जी साहब! एकदम नाकारा इंसान है ये नईम. काम-धाम कुछ करता नहीं, बस अपनी बीवी को सताता रहता है. वह बिचारी मेहनत-मजदूरी करके अपने दो बच्चों का पेट पालती है. पढ़ी-लिखी ज़हीन औरत है, मगर उसका खाना खराब था जो ऐसे निकम्मे के हत्थे चढ़ गई."

लैंप की रोशनी में खाना बनाते हुये घासाजी ने मुझे हब्बा खातून की कहानी सुनाई थी-  इसी ईलाके से सोलहवीं सदी की एक कवयित्री! अपने मां-बाप की दुलारी बेटी जिसे वे प्यार से ज़ून कहकर बुलाते थे. ज़ून यानी चांद! वह चांद-सी ही खूबसूरत थी, मगर उससे भी ज़्यादा कहीं ज़हीन! इन्हीं केसर की क्यारियों के बीच वह गीत गाते बड़ी हुई थी और एकदिन एक किसान परिवार में उसकी शादी हो गयी थी. उसका पति और ससुरालवाले ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे. वहां लोग ज़ून के लिखने-पढ़ने और गीत गाने की आदत को पसंद नहीं करते थे. मगर ज़ून का मन तो बस इन्हीं चीज़ों में लगता था. उधर उसके भेड़-मेमने तितर-बितर हो रहे हैं और इधर ज़ून गीतों के बोल सहेज रही है! केसर के फूल फर्श पर पड़े-पड़े मुर्झा गये और ज़ून को होश नहीं! उसे उस वक़्त कोई धुन सूझ रही है! सब ज़ून से परेशान! आखिर एकदिन ससुरालवालों की शिकायत पर ज़ून का बाप आकर उसे अपने साथ लिवा ले गया. कहते हैं नवम्बर की एक पूरे चांद की रात में जब वादियां शबनम में नहायी हुई थीं और झील के बर्फीले पानी में लाखों सितारे घुले हुये थे, राजा युसुफ़ शाह चाक ने ज़ून को देखा था- केसर के जामुनी बाग़ में गीत गाते हुये नीले चांद-सी! उस वक़्त उसके पूरे जिस्म में रात का फीका रंग और चांदनी की झिलमिल रंगोली थी. बिखरे बालों में किरणों के अनगिन रेशे चमक रहे थे, होंठों के ताज़े कंवल पर शबनम की रोशन बूंदों के जलते-बुझते जुगनू... इक गुदाज़ गज़ल या जिस्म के संगमरमर में ढला हुआ इक गीत- औरत के नाज़ुक लिबास में! इक लम्हा खालिस जादू का... जब मुहब्बत पैदा होती है और पूरी कायनात को अपने आगोश में ले लेती है. फरिश्तों की दुआओं का कबूल होना मुहब्बत के वजूद में आने का पल होता है, ठीक जैसे इक सितारा टूटता है किसी खामोश मुराद को ज़िंदगी अता करने के लिये, किसी तमन्ना को बेआवाज़ परवान चढ़ाने के लिये... ज़मीन पर ताज़ महल के नक़्शे की तरह बिछा हुआ मुहब्बत का इक पुरसुकूं, मुक़द्दस पल... युसुफ शाह चाक पहली नज़र में ही ज़ून पर फिदा हो गया था.

जब शाह को पता चला कि ज़ून की शादी हो गई है, उसने उसके पति को बुलवाकर उससे ज़ून का तलाक करवाया और फिर खुद उससे शादी कर ली. शादी के बाद ज़ून का नाम बदलकर हब्बा खातून रख दिया गया था. शादी के बाद कई सालों तक हब्बा खातून और युसुफ शाह चाक बहुत खुश रहें. हब्बा ने इस दरमियां मुहब्बत के बेहतरीन गीत लिखे. एक-दो पंक्तियों में जज़्बात की मुकम्मल दुनिया... यही ख़ासियत है हब्बा के गीतों की!

मगर उनकी खुशियां ज़्यादा देरतक टिक नहीं पाईं. उन्हें जाने किस बैरी की बुरी नज़र लग गई! जंग में हराकर शाह को बंदी बना लिया गया और पटना के जेल में डाल दिया गया जहां एक अर्से के बाद उसकी मौत हो गई!

इधर अपने महबूब शौहर की जुदाई में हब्बा खातून पागल हो गई और उसी हालत में केसर की क्यारियों में रातदिन भटकते हुये तथा दुख के गीत गाते हुये किसी गुमनाम जगह में मर गई. उसकी कब्र के बारे में आजतक किसी को ठीक से पता नहीं.

खाने के बाद घासाजी देरतक मेरे पास बैठा बातें करता रहा था और फिर अपने कमरे में सोने चला गया था. उसे सुबह उठकर अपने बेटे से मिलने सोनमर्ग जाना था. मैंने भी तय किया था कि मैं भी कल सुबह तड़के यहां से निकल पड़ूंगा.

बिजली जो शाम से गई हुई थी तो अभी तक नहीं आई थी. पूरा गांव चांदनी में डूबा ख़ामोश पड़ा था. देवदार के ऊंचे, घने पेड़ों में फीका अंधकार घोंसला डाले पड़ा था. कोई रात का पंछी रह-रहकर अचानक से बोल उठती था. जैसे कोई बुरे सपने से डरकर जाग उठा हो.

मेरी मन:स्थिति अजीब-सी हो रही थी. ना जाने क्या था जो मुझे बेचैन किये हुये था. हब्बा की कहानी लगातार मेरे जेहन में घूम रही थी. एक गुज़रा हुआ समय, एक बीत गई ज़िंदगी जैसे आज भी यहां की फज़ाओं में सांस ले रही है, धड़क रही है रात की नीली नसों में बेतरह... मुझे महसूस हो रहा था, कोई जादू-सा रिस रहा है इस आधी रात की ख़ामोशी में! एक फसाना, एक गीत... जाने क्या बुन रही है ये रात अपनी स्याह सलाइयों से इतनी चुपचाप और आहिस्ता-आहिस्ता...

एक समय बाद जाने मैं क्या सुनता हूं और उठकर चल पड़ता हूं फूलों के बाग़ की ओर. कोई बुला रहा था जैसे मुझे नींद भीगी फज़ाओं के उस पार से!

रात के इस समय हवा में बर्फ-सा घुला है. केसर की महक से हवा बोझिल. फूलों की घनी क्यारियों के बीच खड़े होकर जैसे मुझे होश आया था. हर तरफ चुप्पी और हवा की नर्म सरगोशियां, चमकते हुये गीले पत्ते और दूध की फेनिल धार-सी बहती चांदनी... चांद इस समय बिल्कुल माथे पर है. आकाश नीलम-सा पारदर्शी और चमकीला. मुझे अचानक डर लगता है. रात की धूमिल परछाइयां चेहरों में तब्दील होने लगती हैं! ज़िंदा होकर घेर लेती हैं किसी आसेब की तरह. मैं एक बेजान बुत की तरह खड़ा-खड़ा सुनता हूं दूर वादियों में जाग उठती आवाज़ें- कोई बढ़ा चला आ रहा है इधर ही- खट-खट-खट... घोड़े की टापों की आवाज़, उसकी हिनहिनाहट, तेज़ सांसें... मेरी हथेलियों में पसीना उतर आया है, दिल पसलियों से टकराकर फटा पड़ रहा है, आंखों के आगे धुंध की आहिस्ता-आहिस्ता पसरती चादर... मैं यहां, इस जगह से अभी चला जाना चाहता हूं, बहुत दूर भाग जाना चाहता हूं, मगर मेरे पैरों में जैसे कोई जान ही नहीं बची है. बेबस-सा खड़ा मैं फीके अंधेरे में आंखें फाड़-फाड़कर देखता रहता हूं- युसुफ़ शाह चाक का सफ़ेद घोड़ा, दुधिया चांदनी में चमकती हुई उसकी खाल, गर्दन पर बादलों-सा लहराता बालों का रेशमी गुच्छा... युसुफ शाह चाक के सफे में जड़ा हुआ बड़ा हीरा चांद की किरणों में मुकम्मल सितारा बन गया है. उतना ही उजला, चमकीला! साफे के ठीक नीचे उसकी जुड़ी हुई भौंहें और काली, गहरी आंखें- किसी जज़ीरे-सी तन्हा और वीरान... वह इधर ही बढ़ा चला आ रहा है! मैं कुछ सोच-समझ पाता कि तभी एक गीत की धीमी आवाज़ ठीक मेरे पीछे आकर टूट जाती है. मेरे जिस्म में जाने कितने कांटे एक साथ उग आते हैं. मैं एकदम से मुड़ता हूं और मेरी नज़र उसपर पड़ती है- ज़ून पर!

मेरे बिल्कुल पास खड़ी है वह मगर जैसे नींद में! खोयी-खोयी आंखें, अधमूंदी पलकें... मैं उसे सकते की हालत में देखता ही रह जाता हूं! वह उस क्षण कोई जीती-जागती इंसान नहीं लगती, जैसे कोई देहातीत सपना हो! उतनी ही अस्पष्ट, पारदर्शी. चांदनी में फानुस बना मोम-सा लौ देता जिस्म, हैरान आंखों की सब्ज पुतलियां और गीले, नम गाल. मैं देखता हूं, उसके होंठों पर अभी-अभी ख़त्म हुये गीत का कंपन, तरंग बचा हुआ है, हवा में पाजेब-सा कुछ बज रहा है बहुत हल्के-हल्के.

देरतक बुत की तरह खड़ी वह मुझे एकटक देखती रही थी, एक न देखती हुई नज़र से. उसकी उन उदास आंखों में जाने क्या था, मेरे भीतर का कोइ अजाना हिस्सा एक ग्लैशियर की तरह टूटने लगा था. नसों में दौड़ता लहू एकदम से उफान पर आया था, जैसे खाल से रिस पड़ेगा! ज़ून ने यकायक बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया था- कहां चले गये थे इतने दिनों तक मुझे छोड़कर!मेरे हाथों में उसका हाथ आते ही जाने मेरे भीतर क्या घटा था! मैं एकदम से बदल गया था ! मुझे महसूस हुआ था, मैं ही तो हूं युसुफ़ शाह चाक, मैं ही तो हूं अपनी हब्बा खातून, अपने ज़ून का बिछड़ा हुआ महबूब! ओह! कितने दिनों तक मैं अपनी ज़ून से दूर एक क़ैद में पड़ा रहा उस परायी ज़मीन पर! कितना बदसूरत है वह मुल्क- वहां के लोग! वहां सूरज आग़ उगलता है, वहां की ज़मीन पर घास की रेशमी कालीन नहीं होती, वहां बुलबुलों की चहक नहीं होती, झील पर फूलों के शिकारे नही तैरतें, वहां मेरी हब्बा, मेरी ज़ून नहीं होती! मेरी आंखें भर आती हैं, ज़ून को अपने क़रीब खींचकर कहता हूं- अब कभी मैं तुम्हें इस तरह से छोड़कर नहीं जाऊंगा ज़ून!

वह फुसफुसाकर कहती है- खाओ मेरी क़सम! अपने सीने में उसकी सांसों की हल्की, नर्म हरारत को महसूसते हुये मैं शिद्दत से कहता हूं- तुम्हारी क़सम! बाख़ुदा... सुनकर ज़ून की बुझे चराग़-सी आंखों में चांद जगमगा उठता है. खिले जास्मीन की तरह दिखता है मुर्झाया चेहरा. मेरी कलाई पर कंगन-सी घिर आती हैं उसकी अंगुलियां. हब्बा को इस तरह ज़माने बाद अपने शाह के साथ देख रात मुस्करा पड़ती है, फूलों की क्यारी से खूशबू के शरारे उठते हैं और हवा चूड़ियों-सी छनकती आहिस्ता से चल पड़ती है...

ज़ून के पास ढेर-सी शिकयातें हैं, कही-अनकही है. वह मुझे दिखाती है आंसुओं से तर ज़ाफरान फूलों के गाल, खुशरंग तितलियों के ज़र्द हुये पर, सर्द आंहों से बोझिल वादी की हवा. उसकी लम्बी, सुनहरी लटों में जुदाई की खा़क है, गोरी रंगत में दर्द की नीली स्याही... अपने शाह की तलाश में वह वादी के हर चप्पे में जमाने से भटकती रही है, रोती-गाती रही है प्यार के गीत. मैं सुनता हूं और अपनी हब्बा के साथ ज़ार-ज़ार रोता हूं- "ये दुनिया बड़ी बेरहम है ज़ून! इसने हमें बहुत सताया... ज़ून के आंसू भी नहीं थमते. वह सिसकियों के बीच कहती जा रही है अपने सदियों की भटकन और बेइंतिहां दुखों के अफसाने- जानते हो, इस वादी के लोग मेरा मज़ार ढूंढ़ते फिरते हैं. मगर उन्हें मेरा मज़ार कैसे मिलेगा मेरे शाह? मैं मरी ही कब थी कि मेरा मज़ार बनता. पत्थरों से दबा देने से रुह नहीं मिट जाती! मुझे तो ज़िंदा रहना था तुम्हारे लिये... तुमसे मिले बग़ैर मैं कैसे मर जाती भला! लोग मुझे पागल समझते हैं. मगर मुझे तो बस तुम्हारी लगन थी! रो-रोकर उसने मेरा सीना भिगो दिया था. मेरी आंखों से बहते हुये आंसुओं से उसका भी माथा भीग गया था. इसी तरह एक-दूसरे की बांहों में खोये हुये हम न जाने कितनी देरतक वहां खड़े रहे थे. ऊपर आकाश पिघलता रहा था, चांदनी झरती रही थी, रात ढलती रही थी पहर-दर-पहर...

और फिर अचानक वह आवाज़ आई थी कहीं दूर गांव से. कोई ज़ून को उसका नाम लेकर पुकार रहा था. एक लटपटाती हुई शराबी आवाज़! सुनकर मेरी बांहों में गश खाई-सी ज़ून जैसे चौंककर जागी थी और मुझसे छिटककर अलग हो गई थी. मुझे भी होश आया था. ज़ून की नीम जगी आंखों में कितनी हैरत, कैसी चौंक थी उस वक़्त! जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही हो कि वह कहां है, किसके साथ है. एक पल ठगी-सी खड़ी रहकर वह मुड़ी थी और तेज़ी से दौड़ती हुई चांदनी के सफ़ेद कोहरे में खो गई थी.

उसके पीछे पूरी वादी में एक सन्नाटा देरतक थरथराता रहा था. कहीं कोई आवाज़ नहीं, हरक़त नहीं, बस एक गहरी बजती हुई चुप्पी और फूल-पत्तों में सरसराती हुई हवा. ना जाने कितनी देर बाद कोई रात का पंछी अचानक चिनार के घने पेड़ से बोला था और मैं एकबार फिर चौंककर जाग-सा उठा था. उस समय तेज़ ठंड में भी मेरे कान के पीछे से पसीना उतर रहा था और दोनों हथेलियां एकदम पसीजी हुई थी. घासाजी के घर की तरफ बोझिल मन से लौटते हुये मैंने देखा था, चांद पश्चिम के गुलाबी क्षितिज में अपना आब खोता हुआ एक ठंडे मोती की तरह धीरे-धीरे उतर रहा है. पूरी वादी सुबह की नर्म, किरमीजी झींसी में नहाकर चांदी-सी चमकीली और ताज़ी हो उठी है.

उसी दिन श्रीनगर लौटने के लिये मैं घासाजी के घर से अलस्सुबह निकल पड़ा था. उस समय केसर की क्यारियां ओस से तर थीं. बैंगनी फूलों पर नर्म किरणों में चमकती हीरे की लाखों बूंदे... पोर-पोर से उनकी सतरंगी लश्कारे! पशमीने-सी नर्म सुबह की उजास में रेशमी धागों से कढ़े बेल-बूटे की तरह सारा परिदृश्य! उतना ही मोहक, स्वप्निल! गांव की औरतें हाथ में टोकरियां उठाये खेतों की तरफ आ रही थीं. दूर से तितली की झुंड की तरह- उनके माथे पर बंधे बाया, लम्बे, ढीले, फीके रंगों के कुर्ते. मर्दों के सर पर सफ़ेद, नक्काशीदार टोपियां... चारों तरफ अनमन देखते हुये मैं पहाड़ी ढलानों की संकरी पगडंडियां उतरता रहा था. मन में अजीब उदासी थी. एकदम बोझिल! कल रात की अजीबोग़रीब घटनायें किसी विस्मृत स्वप्न की तरह मुझे धुंधली-धुंधली याद आ रही थी. पता नहीं वह सब क्या था. चांदनी में भीगती वादियां, रतजगे पंछियों का शोर, फिर... वे घोड़े की आवाज़ें... धुंध के नीले चिलमन के पीछे से छन-छनकर आता हुआ वह गीत- जैसे फिज़ा में किसी के सीने का लहू बूंद-बूंद टपक रहा हो-

म्येहाथव्यचेकित्यपोशुदस्तनय
छावम्यान्यदा'नायपोश.''
( फूलोंकेगुच्छसजायेमैंनेतेरेलिए. आओभोगलोअनार -पुष्पमेरे)



(तीन)
ओह! ज़ून! उसकी गहरे दुख से गीली आंखें, टूटे पंख-सी छटपटाती हुई लम्बी, गहरी सिसकियां! सोचते हुये मैं एक अजीब-सी बेचैनी में हो आता हूं और चाहकर भी कुछ और सोच नहीं पाता हूं! चलते हुये तभी मुझे अहसास होता है कि शायद अपने ख़्यालों में खोया हुआ मैं किसी ग़लत रस्ते में निकल आया था. मैंने हैरान होकर अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाई थी- दूर-दूरतक अब कहीं कोई नहीं. बस हवा में सरसराते चिनार और बादाम के गहरे हरे पेड़ और गूंजता हुआ सन्नाटा... मैं यकायक परेशान हो उठा था. अब यह मैं किधर आ निकला! घासाजी ने कहा था ठीक आठ पन्द्रह में एक बस यहां से सीधे श्रीनगर के लिये निकलती है. अगर वह छूट गयी तो फिर दूसरी बस पूरे दो घंटे बाद.

इधर-उधर देखते हुये मैं नीचे बाज़ार की तरफ जानेवाला कोई रास्ता तलाश ही रहा था कि मुझे एक घनी झाडी के बीच एक डाली से उलझा हुआ वह छींटदार लाल रुमाल दिखा था. उस रुमाल की तरफ देखते हुये मुझमें ना जाने उस पल क्या घटा था, मैं मंत्रबिद्ध-सा उसकी तरफ चल पड़ा था. पगडंडी से उतरकर पास जाकर मुझे घनी झाड़ी के बीच फिर वह मज़ार दिखा था- बहुत पुराना, उजड़ा और वीरान! बंधा हुआ नहीं. पत्थरों की एक बिखरती हुई ढेर! टीले की शक़्ल में! उसे घेरकर बेतरतीव घास और अनचीन्हे, अनाम जंगली फूल! ऊपर चिनार का घना साया... वहां उस समय चारों तरफ कितनी गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी. सिर्फ़ हल्की, मद्धम सांस-सी चलती हवा और दूर कहीं रह-रकर बोलती हुई एक बुलबुल! मुझे इस मज़ार को देखकर ना जाने क्यों लगा था, यही हाल आज यहां के ज़ाफरान के खेतों की है और पूरे कश्मीर की भी! प्रेम और यकीन के अभाव में सबकुछ उजड़ता हुआ, वीरान होता हुआ... मैंने गौर किया था, उस मज़ार पर केसर के कुछ ताज़े फूल पड़े थे. जैसे कोई अभी-अभी डाल गया हो! मैने घास, पत्ते हटाकर देखने की कोशिश की थी, उस मज़ार पर कुछ लिखा हुआ नहीं था. एक गुमनाम कब्र! जाने किस बदनसीब का! मैं एक गहरी सांस लेकर मुड़ा था और फिर चौंककर ठिठक गया था. सामने ज़ून खड़ी थी- मोम की गुलाबी गुड़ीया-सी, सुबह की नर्म, संदली उजास में मोतिया आब से भरी हुई. ओह! कितनी खूबसूरत, कितनी पाकीज़ा लग रही थी वह उस समय! जैसे कोई परी- सफ्फ़ाक, संगमरमरी... मैं उसे सुध-बुध खोकर देखता रह गया था.

ज़ून मुझे अजनबी आंखों से देख रही थी. जैसे मुझे पहचानती भी ना हो. हम कभी मिले ना हों. थोड़ी देर मेरी तरफ देखकर वह मुड़कर चुपचाप जाने लगी थी. उसे जाते देख मैं चौंका था और जल्दी-जल्दी उसके पीछे हो लिया था- सुनिये! ये कब्र किसकी है आप मुझे बता सकती हैं?
मेरे सवाल पर वह चलते-चलते एक पल के लिये ठिठककर रुकी थी और मुड़कर मुझे देखा था- मेरी! ज़ून की... ओह! कहते हुये कैसी हो आई थीं उसकी वे दो बादाम-सी खूबसूरत आंखें! जैसे नीलम का कोई चमकदार चश्मा एकदम से उफन आया हो!... अनगिन जुगनुओं की कौंध के साथ. मेरे जिस्म में कांटे-से उग आये थे. ठंडे पसीने से पूरा शरीर भीग उठा था- ज़ून की कब्र!
"हां ज़ून की..."कहते हुये वह धीरे-धीरे पगडंडियां उतरने लगी थी- सदियों से वह यहां लेटी हुई है- इस चिनार की छांव में! सारा दिन दुनिया की नज़रों से छिपकर वह यहां इस चिनार की छांव में दम साधे पड़ी रहती है और पूरे चांद की रातों में, जब वादियां ठंडी, नीली धुंध से भर जाती है और झीलों में सारा आकाश चांद-सितारों के साथ उथर आता है, ज़ून अपनी कब्र से निकलकर ज़ाफरान की खेतों में अपने शाह की तलाश में भटकती फिरती है, रोती है, गाती है सारी-सारी रात...

यह सब कहते हुये कैसी रहस्यमय हो रही थी उसकी आवाज़! जैसे खंडहरों से कोई हवा सिसकती हुई गुजरती है. मैं उसके पीछे जैसे नींद में चल रहा था.

पहाड़ी से उतरकर उसने एकबार फिर मेरी तरफ देखा था- उन्हीं खोयी-खोयी अजनबी आंखों से- किसी से मत कहना ज़ून का पता. वर्ना लोग उसे चैन से रहने नहीं देंगे. तुम जानते हो, उसे उसके शाह के इंतज़ार में रहना है. क़यामत में अब बहुत वक़्त नहीं. रोज़-ए-हश्र में उसका फैसला होगा... उसे उसका शाह मिलेगा! अज़ाब ख़त्म होगा उसका... अपनी बात ख़त्म करके वह तेज़ी से चलती हुई केसर की बैंगनी क्यारियों में खो गयी थी. उसके जाने के बाद ना जाने मैं कितनी देरतक भूला-भूला-सा खड़ा रह गया था वहां और फिर दूर से आती हुई एक बस की हॉर्न सुनकर पगडंडियों से उतरकर बाज़ार की ओर चल पड़ा था.

उस समय तक दिन काफी निकल आया था और हमेशा की तरह केसर की क्यारियों में फूल चुनती हुई गांव की औरतें सम्मिलित कंठ से हब्बा खातून के दुख भरे गीत गा रही थी-

वारिव्यनसीथ्यवारुछासनो
चारकरम्योनमालिन्याहो.
(मैंसुखीनहींससुरालमें. कोईचाराकरोमेरामायकेवालो.)

उन अजनबी आवाज़ों की भीड़ में मैं ज़ून की मीठी, उदास आवाज़ ढूंढ़ता हुआ संकरी पगडंडियों पर उतरता रहा था. मगर एकबार पीछे मुड़कर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई थी. मैं जानता था, मेरी पीठ पर ज़ून की भीगी आंखें अभी तक लगी होंगी. अपने शाह के लिये अभी उसका इंतज़ार ख़त्म नहीं हुआ है. मैंने मन ही मन ज़ून के लिये प्रार्थना की थी- ज़ून के लिये क़यामत हो और जल्दी हो, उसका अज़ाब ख़त्म हो, उसे उसका महबूब शाह वापस मिले. ज़ाफरान के इन खेतों में एकबार फिर खुशियों के गीतों के चहकते पंछी लौटे. आमीन!

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जयश्री रॉय
18मई, हजारीबाग (बिहार)
अनकही, ...तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये,इक़बाल (उपन्यास),तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) प्रकाशित
युवाकथा सम्मान (सोनभद्र), 2012 प्राप्त
पता : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517

अन्यत्र : महामल्ल्पुरम : अपर्णा मनोज

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अपर्णा मनोज पिछले दिनों महामल्ल्पुरम की यात्रा पर थीं और इस सफर को उन्होंने इस संस्मरण में सांस्कृतिक यात्रा में बदल दिया है. इस धरोहर के संचयन के अनके स्तरों को जिस तीक्षणता के साथ समझने का वह प्रयास करती हैं, विस्मित करता है. मिथकों के अनवरत, अर्थगर्भित, रोचक आयामों से आपका परिचय कराता है यह संस्मरण.   


महामल्ल्पुरम
सफ़र में धूप तो होगी                        
अपर्णा मनोज 


रेत के बंजर किनारों पर मछुआरा राजा कौनसी मछली पकड़ने बैठा है? क्या मुझे अपनी ज़मीन को पुख्ता नहीं करना चाहिए? (कि उगाने के काबिल तो हो थोड़ी ज़मीन)
लन्दन का पुल टूटरहा है ध्वस्त ध्वस्त.
पीछे मेरे नरक की आग –गिरूंगा आग में तो निखरूंगा  ( दांते के इन्फर्नो की आग की कहानी है ये )
 मुझे कोई गौरैया बना दे ? गौरैया बना दे ?( जैसे फिलोमिला की बहन प्रखने/प्रोने नन्ही चिड़िया बन गई थी )
 भरभरा कर गिर गए थे बुर्ज सभीउस महल के -जहाँ कभी रहता था राजकुमार अक्वेटीन ( यही तो घटा था ओडेसी में )
अतीत के खंडहरों को जमा कर रहा हूँ अपने टुकड़ों को जोड़ने के लिए
 हायरेनिमो फिर से पागल हुआ है?  लो लिखता हूँ पुनश्च: वही नाटक (पागलपन का)
 दत्ता द्याध्म दम्यताशांति शांति शांति
(एक शब्द के तीन अलग -अलग अर्थ -क्यों कहा था ब्रह्मा नेनींद से जागते हुए वह निरर्थक शब्द -"दा" (कठोपनिषद)....( TS Eliot, द वेस्ट लैंड के अंतिम छंद से)

महामल्ल्पुरम के उन काले शैल-स्कंधों के सामने खड़े होकर तुम्हें दोहरा रही हूँ कवि इलियट. यहाँ खासी धूप है. आसमान इतना अधिक बुहारा हुआ मुझे अपने शहर में नहीं दिखा. सोच रही हूँ कि चेन्नई में एक घंटा पहले जिन घने बादलों को छोड़ आई थी वे क्या अभी भी चेन्नई की छत पर टंगे होंगे. सोच रही हूँ ग्यारह तारीख को बंगाल की खाड़ी में जो हुदहुद आया था, उसकी कोई आहट तक नहीं यहाँ? सैलानी बस गुमनामियों में आश्चर्य देखते हैं और तस्वीर उतारते हैं. दृश्य और सैलानी आउटसाइडर हैं. उन्हें टोले-मेले पसंद हैं जबकि यायावर देखकर सुनता भी है, बोलता भी है. कुछ अपना सामान उस जगह पर छोड़ आता है और कुछ अपने साथ ले आता है. इधर कुछ कवि हुदहुद की खबर से खूब द्रवित हो उठे होंगे. अपनी फसल उगा रहे होंगे, कविता उविता में पैसा-वैसा नहीं वर्ना कहती कैश क्रॉप.

मुझे तो रसूल हमज़ातोव तुम याद आ रहे हो बेतरह. मैं उन तमाम संवेदनशील कवियों की खुशामदीद चाहते हुए तुम्हें यहाँ कोट कर रही हूँ, फ़कत मेरा दागिस्तान के बहाने –“विचार और भावनाएं पक्षी हैं, विषय आकाश है; विचार और भावनाएं हिरन हैं, विषय जंगल हैं; विचार और भावनाएं बारहसिंगे हैं, विषय पर्वत है, विचार और भावनाएं रास्ते हैं, विषय वह नगर है, जिधर ये रास्ते ले जाते हैं और आपस में जा मिलते हैं ...”इसलिए रसूल तुमसे माफ़ी मांगते हुए आगे जोड़ रही हूँ –प्रक्षिप्त, विषय और भावनाएं आपदाएं हैं और विचार हुदहुद..

इस समय मैं वैदर फोरकास्ट क्यों याद कर रही हूँ? मुझे वो क्रॉसनुमा चार कपों वाली वेदरकॉक घूमती दिख रही है. हमारे ज़माने में वह केवल झकोरों की इत्तला दिया करती थी और हुदहुद हमारे लिए धूल में लोटने वाली एकांत प्रिय चिड़िया होती थी- जिसका रैन-बसेरा  बड़े पेड़ों का कोठर हुआ करता था. आज वही चिड़िया चक्रवात का प्रतीक है. कहते है हुदहुद ने कभी इजराइली बच्चों की जान बचायी थी. कई जगहों पर पेड़-पौधे, पक्षी, जानवर जीवन के टोटम हैं तो कई जगह वे पैथोलोजिकल संवृतियों के टोटम हैं. हुदहुद नाम देना मुझे एक देश के सांस्कृतिक दिमाग से जोड़ता है.

खैर, मेरे सामने एक व्हेलनुमा बड़ी ग्रेनाईट चट्टान खड़ी है. कोरोमंडल की टुकड़े –टुकड़े पीठ किन शिल्पकारों का ब्राइकोलेज है? मुझे इस फ्रेंच शब्द के लिए कोई सही शब्द याद नहीं आ रहा. लिखते समय मैं बहुत देर तक शब्द में उलझी रही. लवाईस स्ट्रॉस भी मिथकों के स्ट्रक्चर्स में कच्चे माल और ब्राइकोलेज की बात करता है.ला पैंजी सौवाज़ उनकी बेहतरीन किताब है. मिथकों के जिस क़स्बे में मैं आई हूँ वहां कुछ किताबों का अवचेतन में खुलना गैर-जरूरी मालूम नहीं पड़ता.

इतिहास का एक कबाडखाना मेरे सामने खुला है. जैसे मेरे दादाजी का संदूक, जैसे मेरी दादी की सुहाग पिटारी, जैसे मेरे नाना जी का पानदान; जैसे एक नगर का सिंहद्वार, जैसे एक प्रांत की सरहद, जैसे सरहद पार की बोली, जैसे एक लोक नदी का दूसरी लोक नद में मिल जाना; जैसे एक देश की भविष्य-निधि, जैसे एक पीढ़ी के हाथ में परम्परा का हाथ.

एक कस्बे की स्मृतियाँ..छैनी, हथौड़ी, जय –विजय. इतिहास का कोई ओपन एयर थियेटर –एक के बाद एक मिथक पात्र, पर ये कहीं नहीं जाते और पर्दा कभी नहीं गिरता!

 महाबलीपुरम मिथक-वल्लरियों का प्रदेश है, चेन्नई से करीब 53किलोमीटर के फासले पर, बंगाल की खाड़ी से सटा, पूर्वी समुद्र का तट. कहते हैं नौ सेनाओं और जलपोतों की चहल-पहल ने इस समुद्रपत्तन को महत्त्वपूर्ण बनाया था कभी. पल्लव या पहलव राजा महामल्ल महेंद्रवर्मनप्रथम ने इसे बसाया (ई.पू. ६१० -६३०) इस सैनिक छावनी में पौराणिक कथाओं के शैल-गुल्म और सात पैगोडा (अब केवल एक पैगोडा रह गया है, शेष सागर की भेंट) क्या केवल किसी राज्य-विशेष की राजनैतिक विजयों और धार्मिक आस्थाओं के प्रतीक-चिह्न मात्र रहे होंगे या किसी सांस्कृतिक जैविक- विकास यात्रा का जरूरी हिस्सा रहे होंगे? क्यों पल्लव राजाओं ने पौराणिक त्रय को अपने गुफा -मंदिरों पर उत्कीर्ण किया? जबकि मोनोलिथ बास-रिलीफ़ मिथकों को अदृश्य स्वनिम में बदल देते हैं.

ये अजीब अनुभूति थी कि इन्हें देखते समय मैं भारवि को सुन रही थी कि कांचीपुरम की वह छठी शताब्दी महाबलीपुरम में खुद को गुनगुना रही थी, कि हांड –मांस का पुतला कहाँ है मिट्टी का? कि कई –कई जीवन किसी भी युग में खुद को शिद्दत से गाते हुए –वह तापस जो एक पैर पर खड़ा है सदियों से- केवल अर्जुन ही क्यों हो सकता है? पाशुपत पाने के लिए सभ्यताएँ चूर –चूर हुईं या दिप-दिप दमकने लगीं –ऐसा हर युग में हुआ कि एक होमर अनादि युद्धों की कारुणिक कथा लिखता रहा और एक वेदव्यास महाभारत में उसी जीव और प्रकृति को पुनर्सृजित करने को बाध्य हुआ जो लगातार संघर्षरत है...मुझे याद आया नीत्शेइन पलों में कि कहता हुआ जरथुष्ट्र के बहाने मुझसे, तुमसे और सबसे –“ ये रहा मेरा ही उच्च अंतरीप और वहां वह समुद्र ठाठें मारता – जैसे मेरे ही भीतर ढुलकता हुआ; बेअदब और चापलूस और सौ सिरों वाला यह वफादार विरूप-कुत्ता जिससे मैं करता रहा प्रेम ...”मैं एकाश्म को देख रही हूँ, नेपथ्य में गाइड टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझे बता रहा है ..Look madam ..look ..the hero of the work is Arjuna, who is believed to be the ascetic doing penance in the great Relief..”

और मन ही मन मुस्कराते मैं सोच रही हूँ कि ये जो झंडा है, जिसमें बन्दर बना है, अर्जुन का होना चाहिए; ऊपर उठते नागों के बीच मैं उलूपी को पहचान पा रही हूँ और गाइड कह रहा है कि पल्लव राजा नाग जाति से थे नाग जाति के थे. नाग थे.. और यहाँ आने से पहले मनोज के मित्र मैनन मोहन बता रहे थे कि पल्लवों का नाता आंध्र प्रदेश के किसानों से था. कहते हैं पेरूचोटरु उदयन ने कौरवों और पांडवों की सेनाओं को भोजन करवाया था और पल्लव इन्हीं की प्रशाखा थे. पल्लवों को जानने के लिए मेरे पास इन जनश्रुतियों के सिवा कोई पूर्वज्ञान नहीं था. खैर, अहमदाबाद लौटकर इतिहास की ऑथेंटिक किताबें पढूंगी कि आखिर ये पल्लव कौन थे? इनकी भाषा प्राकृत थी पर संस्कृत के महाकवियों भारवि और दंडी से इनका क्या रिश्ता था? वेंगी के विष्णुकुंडित का नाती महेंद्रवर्मन और संस्कृत में ‘मत्तविलास प्रहसन’ का रचियता (महामल्ल्पुरम को बसाने वाला) क्या शिव-भक्त होने के बाद भी बौद्धों से आकर्षित न हुआ था! मैं मन्त्रमुग्ध एकाश्म पर जड़ी कहानियों के कूटबंधों को समझने की कोशिश में थी जिनका सम्बन्ध मुझे बचपन में पढ़ी जातक कथाओं से साफ़ दिखाई दे रहा था.

एक ही बास –रिलीफ़ के बारे में गाइड अलग-अलग बातें कह रहा था.. “देखिये, इस रिलीफ़ को गंगा दो भागों में बाँट रही है, यानी यह दो गगन-गुफाएं हैं, गंगा इन्हें जोडती है. ऊपर उठते नागों ने अपने सिर पर गंगा को धारण किया है. और यह जो तपश्चर्या-पटल है- हो सकता है वह तापस अर्जुन न हों, भागीरथ हों. इसके बायीं ओर शिव और तपस्वी की बहु-अर्थी मूर्तियाँ हैं, लोकजीवन है: जो ठिगने और मोटे युगल हैं वे यक्ष हैं. शिव के गण भी हो सकते हैं ये. उधर दायीं तरफ जंगल है, आकाश की तरफ उड़ते गन्धर्व –युगल हैं...” मैंने बीच में टोका –गन्धर्व –युगल इतने लम्बे क्यों हैं?” उसने हँसते हुए कहा कि पल्लव शायद ईरानी उद्गम से थे –पार्थियन. इसलिए इन स्मारकों में आप तीन तरह का स्थापत्य देख सकेंगी –ईरानी, द्रविड़ और बौध ..” आवाक मैं उस पुरोवाक को समझने की कोशिश करती रही..धूप से मेरी आँखें चौंधिया गई थीं या किसी और कारण से! एक साथ कितनी अस्मिताएँ अपनी कथा सुना रही थीं..अनेक परम्पराएँ एक –दूसरे में घुली-मिली थीं..

वहीँ थोड़ी दूरी पर त्री-मूर्ति गुफाएं हैं. एक कृष्ण मंडपम है, जिस पर गोवर्धन की कथा उत्कीर्ण है. एक गेंदनुमा बड़ी चट्टान है जिसे गाइड बटर-बौल बता रहा था..इसका कोई औचित्य न भी हो पर दिलचस्प तो था ही..मखनिया-गेंद और हमने यहाँ कुछ तस्वीरें खींची..बस यही थोडा आमोद –प्रमोद.

आदि वराह मंडपम पर मैं देर तक रुकी रही. इसका निर्माण नरसिंह वर्मन ने करवाया पर इसे पूरा किया था उसके पोते परमेश्वर वर्मन ने. अधिकतर यह मन्दिर बंद रहता है, पर जब हम पहुंचे यह खुला हुआ था. गुफा के बीचोंबीच वराह की प्रतिमा है. नज़र वहीँ उलझकर रह गई थी ..अकेली प्रतिमा है जो पत्थर की न होकर मोर्टार से बनी है.

कहते हैं हिरण्याक्ष पृथ्वी को घसीटकर सागर में ले गया. हृदयविदारक पृथ्वी का रुदन विष्णु को बेचैन कर गया. वराह बनकर विष्णु धरती को बचाने चले आये थे. अपनी थूथन पर पृथ्वी को उठा लिया था. हिरण्याक्ष मारा गया. जैसे –जैसे वराह धरती को आलिंगनबद्ध किये समुद्र से ऊपर उठा- पर्वत बने, घाटियाँ बनीं और वराह के दांत पृथ्वी पर जहाँ भी लगे वहीँ वे उर्वरक हो गईं ...  फर्टिलिटी और सृजन के मिथक जीवन की सनातन दीर्घा को रचते हुए.....मुझे बचपन में ये कहानियां कौन सुनाता था? कौन ? मुझे याद आया उन सुंदर हाथों का स्पर्श जो बगल में लेटाये मुझे लोरीभरी कथाएँ  सुनाते रहे थे..कोई तुम्हें भी तो सुनाता होगा!

फिर हम लोग पांच रथों के लिए चल दिए. दक्षिण की चट्टानों से ये करीब पञ्च सौ मीटर की दूरी पर हैं. पैदल का करीब 20 मिनिट. समुद्री हवा बराबर पंखा  झल रही थी सो पसीना ठंडक दे रहा था. उत्तर दिशा का पहला रथ हमारे सामने था. द्रौपदी –रथ. इसका स्थापत्य दक्षिण के मंदिरों से भिन्न था. कुछ झोंपड़ीनुमा. गोपुरम पर शिखर नहीं था. भीतर दुर्गा की चार हाथों वाली भव्य प्रतिमा. मकर तोरण. सोचती थी कि ये पाँचों रथ किसी विजय अभियान का संकेत थे या फिर वही पांडवों की पुराकथा –३६ साल हस्तिनापुर का वैभव भोगने के बाद संसार का त्याग और स्वर्ग की महायात्रा..द्रौपदी सबसे पहले गिरी थीं मेरु पर चढ़ते हुए..क्यों? मेरे मन का वहम था वर्ना मृत्यु अभियान की गौरव गाथाओं का अंकन कौन नरेश करता!

अर्जुन और धर्मराज के रथ रेप्लिका थे. बस एक अंतर था –अर्जुन के रथ में शिव और धर्मराज में हरि-हर और अर्धनारीश्वर की प्रतिमा. यह कैसा जमावड़ा था! जो आपस में लड़ते थे वे एक हो रहे थे. संगमन!

शाम होने लगी थी. श्रीजिता (मेरी बेटी) बहुत थक गई थी. हमें लौट लेना चाहिए. समुद्र किनारे का मंदिर रह गया था. टिकिट हाथ में था. पैदल काफी चलना पड़ता. बेटी ने मेरे चेहरे की तरफ देखा –वहां कुछ छूट जाने का दुःख था. उसने मेरा हाथ पकड़ा और मंदिर का रुख लिया ..आसूं की दो स्वार्थी बूँदें मेरी आँखों पर अटक गईं.

मंदिर बाद को देखा. पहले सागर की लहरों से खेले. ढलवा बालू में स्टेपू ..यानी घर –घर का खेल, फिर शंख बजाने का खेल, फिर एकत्रित सीपियों में लहरें भरने का खेल और पेब्लो नेरुदा की ऑन द ब्लू शोर ऑफ़ साइलेंस ..क्या यह कोई अकेली लहर है या इसके वज़ूद का दूर तक फैलाव या केवल खारी आवाज़ या तेज़ चमक..अनुमति मछलियों और जहाजों के लिए ..सच तो यह है कि गहरे सोने से पहले चुम्बक की तरह खिंचकर चला जाऊँगा मैं लहरों के शिक्षा देश में....
मंथर गति से हम लौट रहे थे ...मंदिर बाद में

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सभी फोटो : श्रीजिता भटनागर

 कथाकार, कवयित्री अनुवादक अपर्णा मनोज. अहमदाबाद में रहती हैं.

सबद भेद : कबीर का घर और देश : सदानन्द शाही

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कबीर की कविता में घर और देश को लेकर आलोचक प्रो. सदानन्द शाही का यह व्याख्यान भक्तिकाल के तीन बड़े कवियों कबीर, तुलसी और रैदास के अपने-अपने  आदर्श राज्यों की बुनावट की भी पड़ताल करता है. जिस कबीर ने घर रूपी उपभोक्तवाद को जलाने का आमन्त्रण दिया था आज उसी कबीर के नाम पर भोग के बड़े-बड़े किले तैयार हो गए हैं. दो संस्कृतियों के मिलन से विवेक का जो यह दिया जला था आज उस पर कर्मकांड और पाखंड के घने काले साए घिर आये हैं. काश आज भी धार्मिक कट्टरता को फटकारने वाला कोई कबीर होता.




अवधू बेगम देस हमारा                   
(कबीर की कविता में घर और देश)
फोटो द्वारा श्री हरि

सदानन्द शाही






बीर की कविता में घर एक महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में हमारे सामने आता है. आम तौर पर कबीर के जिस घर से हमारा परिचय है, वह घर है जिस घर को वे जला देना चाहते हैं, जला देते हैं. वे केवल अपना घर ही नहीं जलाते हैं, बल्कि उसका घर भी जला देना चाहते हैं, जो उनके साथ चलना चाहता है. घर को जला देना कबीर के साथ चलने की पूर्व शर्त है. यदि आप कबीर के साथ चलना चाहते हैं तो पहले अपना घर जला दें. कबीर के साथ चलने का न्योता सिर्फ उसे ही मिलेगा, जिसने अपना घर जला दिया है-

कबिरा खड़ा बाजार में लिए मुराठा हाथ.
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ..

इसे सिर्फ न्यौता ही न समझा जाय. यह इजाजत और अनुज्ञा का भी मामला है. कुछ लोग बिना न्यौते के भी चले आते हैं. माया और राम दोनों को एक साथ साध लेना चाहते हैं. अपना घर भी जोड़ लें और कबीर के साथ कुछ दूर चल कर देख भी लें कि वहाँ क्या मिल रहा है? कबीर ऐसे लोगों को न्योता भी देते हैं और चेताते भी हैं-

हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ.
अब घर जारौं तासु का, जो चलै हमारे साथ..

कबीर के घर की यह आम छवि है, जिसे हम जानते हैं. वे अपना घर जलाकर आ गये हैं. वे हर उस व्यक्ति का घर जला देने के लिए तत्पर हैं, जो उनके साथ चलने वाला है या चलना चाहता है. मजे की बात यह कि वे अकेले जाना भी नहीं चाहते. वे अपने साथ सबको ले जाना चाहते हैं. शर्त रख देते हैं कि अगर घर नहीं जला पा रहे हो, तो कोई बात नहीं. देख लो ! मेरे हाथ में लुआठा है. मेरे साथ चलोगे तो पहले तुम्हारा घर जलायेंगे, फिर आगे बढ़ेंगे. अपना घर जलाओ और मेरे साथ चलो. हम इसी कबीर को जानते हैं.

अब जो घर जोड़ने की माया में जुटे हैं, वे भला क्यों कबीर के पास आने लगे. घर कितनी मुश्किल से बनता है. उसे जलाना कहाँ की समझदारी है. इसीलिए जिनके पास घर है, वे प्रायः कबीर से परहेज करते हैं. कबीर की कविता से परहेज करते हैं. रामचन्द्र शुक्लकहते हैं-उनका (कबीर का) कोई साहित्यिक लक्ष्य नहीं था, वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे.

कबीर के समय में पढ़े लिखे लोग कौन थे ? या कि जिन्हें पढ़ने लिखने की इजाजत थी. ये प्रायः वही लोग थे जो घर जोड़ने की माया में जुटे हुए थे. वे भला कबीर की सुनते ही क्यों ? और कबीर उन्हें सुनाने भी क्यों जाते ? घर जोड़ने की माया से बँधे हुए पढ़े लिखे लोगों के पास झख मारने कबीर क्यों जाते ? और इसका उलटा भी सच है ऐसे लोग घर जलाने की बात करने वाले कबीर के पास क्यों जाते?

लेकिन कबीर के साथ चलने के लिए बहुत से लोग तैयार रहते हैं. अपना घर जलाने और कबीर के साथ चल पड़ने वाले लोगों की कमी नहीं हैं. प्रेमचन्द के घीसू और माधव को हम जानते है. माया जब मुँह बिराती है, वे कबीर के पास जाते हैं. घीसू माधव को हम इसलिए जान पाये क्योंकि प्रेमचन्द उनका पता देते हैं. ऐसे लाखों लोग हैं जो कबीर के साथ चलते हैं चलना चाहते हैं. अमरीका के एक कवि है राबर्ट ब्लाई. उनकी कबीर से भेट रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुवाद के माध्यम से हुई. उन्हें टैगोर का विक्टोरियन अंग्रेजी में किया अनुवाद पुराना लगा. राबर्ट ब्लाई ने स्वयं कबीर के पचास पदों का अनुवाद किया. अब वे अपनी कविताएँ नहीं सुनाते. जहाँ जाना होता है, वे कबीर की कविताएँ ही सुनाते हैं. इस तरह देखें तो घीसू माधव से लेकर राबर्ट ब्लाई तक कबीर के साथ चलने को तैयार लोगों का रेंज बहुत व्यापक है. ऐसे लोगों को कबीर कहाँ ले जाना चाहते हैं, कहाँ ले जाते है? इसी के साथ सवाल यह भी है कि कबीर के साथ जाने के लिए लोग क्यों तैयार हैं. आखिर कबीर कहाँ ले जा रहे हैं? वह कौन सी जगह है, जहाँ जाने के लिए लोग घर-बार तक जलाने पर आमादा हैं.

कबीर के यहाँ घर के और भी रूप हैं. थोड़ा उसे भी देख लें. एक तरफ तो घर में झगरा भारीहै. वे इस झगरे को सुलझाते हैं. इस भारी झगरे से मुक्ति दिलाने की बात करते हैं. मैं कहता आँखिन की देखी तू कहता कागज भी लेखी. मैं कहता सुरझावनहारी तू राखे अरुझाई रे.’1

घर से आदमी का बड़ा पुराना नाता है. घर के बिना आदमी का काम नहीं चलने वाला. घर जलाने वाले के रूप में मशहूर कबीर का भी. वे केवल घर जलाते नहीं है, घर बनाते भी हैं. अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै.’2इत्यादि-इत्यादि.यानी घर से अमृत बरसे और सुख मिलता रहे तो कबीर को घर करने में एतराज नहीं है. घर की प्रकृति भिन्न है. घर का स्वरूप  भिन्न है. अमृत बरसता हो, निरन्तर सुख उपजता हो तो कबीर घर की रखवाली के लिए भी प्रस्तुत हैं. वे केवल घर जलाने के लिए हाँका ही नहीं लगाते वे घर की रक्षा के लिए भी आवाज लगाते हैं-

मन रे जागत रहिए भाई.
गाफिल होई वस्तु मति खोवै, चोर मुसै घर जाई..3

घर जलाने के लिए प्रसिद्ध कबीर इसके लिए सचेत कर रहे हैं कि कहीं घर में चोर न घुस जाये, इसलिए- जागत रहिए भाई.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है-

मैंने जब-जब सिर उठाया अपने ही चैकठ से टकराया
सिर झुका आओ बोली भीतर की दीवारे
सिर झुका आओ बोला बाहर का आसमान
दोनों ने मुझे छोटा करना चाहा.
बुरा किया मैंने जो ये घर बनाया.

घर का एक रूप जो आदमी को छोटा बनाता है, छोटा बनाना चाहता है छोटा बना देता है, आदमी को छोटा कर देता है. कबीर दास उसे ही जलाने की बात करते हैं. वह इसी तरह का घर है. जो आदमी को छोटा कर दे, ऐसा घर कबीर को कुबूल नहीं है. कबीर ऐसे ही घर को जलाने की बात करते हैं. घर जलाकर और जलवाकर कबीर हमें कहाँ ले जाना चाहते हैं? इस घर जलाने वाले संत के प्रति सैकड़ों वर्षों से लोगों के मन में इतना आकर्षण क्यों हैं? वह कौन सी जगह है, जहाँ जाने के लोभ में लोग घर जलाने को तैयार हो जाते हैं?

इसका उत्तर मुझे रैदास को पढ़ते हुए मिला. रैदास का प्रसिद्ध पद हैसबने पढ़ा होगा. बेगमपुरा शहर को नाऊँ.4इस पद में रैदास कहते हैं.- मेरे शहर का नाम बेगमपुर है. जहाँ दुःख और अन्देशे के लिए कोई जगह नहीं है. वे आगे कहते हैं- हमें खूब अच्छा वतन/घर मिल गया है. अब हम खूब वतन घर पाया. वहाँ न तो माल है न लगान देने की चिन्ता. किसी तरह का खौफ नहीं है, भूल या गलती नहीं है, पतन का डर नहीं है. मेरे भाई, मैंने ऐसा खूबसूरत वतन पा लिया है जहाँ सदैव खैरियत ही रहती है. वहाँ की बादशाहत/शासन व्यवस्था दृढ़ और स्थायी है. वहाँ दूसरा या तीसरा कोई नहीं है. यह शहर दाना-पानी, रोजी रोजगार के लिए मशहूर है. धनी मानी और सज्जन लोगों से यह शहर भरा है. जिसको जहाँ भावे वहाँ आ जा सकता है. कहीं कोई रोक टोक नहीं करता. हर तरह के बंधनों से मुक्त रैदास कहते हैं-जो मेरे इस शहर में रहने वाला है, वही मेरा मित्र है. यह अद्भुत शहर कहाँ है?

कबीर और रैदास दोनों बनारस के हैं. दोनों समकालीन हैं. दोनों मिलकर एक नया शहर बसा रहे हैं. रैदास के भक्तों की संख्या पंजाब में बहुत है. पंजाब से बनारस आने वाली एक ट्रेन का नाम है-बेगमपुरा एक्सप्रेस. एक बार मुझ से किसी ने पूछा था-बेगमपुर कहाँ है ? सहसा तो मुझे पूछने वाले पर हँसी आयी. लेकिन भोलेपन से पूछा गया वह प्रश्न मन में कहीं अटक गया. मुझे लगा कि इस बेगमपुर का पता लगाना चाहिए. मैंने पाया कि यह बेगमपुर और कहीं नहीं कबीर और रैदास की कविता में है. यह कबीर और रैदास की कल्पना का शहर है. 

कबीर कहते हैं-अवधू बेगम देस हमारा.’5कबीर राजा रंक फकीर बादशाह सबसे पुकार-पुकार कर कहते हैं कि अगर तुम्हें परम पद चाहिए तो हमारे इस देश में बसो. इस देश में सत्त धर्म की महता हैं. केवल संत धर्म है.
यही बेगम देश है, जिसे कबीर अमरपुर भी कहते हैं. वे सजना से अमरपुर ले चलने के लिए कहते हैं. अमरपुर में बाजार लगी हुई है. वहाँ सौदा करना है. उसी अमरपुर में संत रहते हैं. संत समाज सभा जहॅ बैठी वहीं पुरुष है अपना.6

कबीर क्या कह रहे हैं. इसे ध्यान पूर्वक कर सुनने की जरूरत हैं. संत समाज सभा जहॅ बैठी वहीं पुरुष है अपना. यह संतों का समाज संतों की सभा अमरपुर में है. यानी संतों की सभा जहाँ है-वहीं अमरपुरी है. वही बेगमपुर है. इसी के साथ कबीर दास का एक और पद पढ़ लीजिए-

चलन चलन सब कोई कहत है, ना जानौं बैकुण्ठ कहाँ है. जोजन एक प्रमिति नहीं जाने/बातन ही बैकुण्ठ बखाने. एक जोजन आगे का हाल जिन्हें नहीं मालूम वे बैकुण्ठ का बखान करते रहते हैं. जब तक आप स्वयं वहाँ नहीं जाते/स्वयं नहीं देख पाते-तब तक बैकुण्ठ पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अन्त में कबीर कहते हैं कि और कुछ नहीं साधु की संगति ही बैकुण्ठ है.7

यह साधु कौन है ? जो अमरपुर में रहता है वही साधु है, वही संत है. वही बेगमपुरा का नागरिक है. इस बेगमपुर की नागरिकता की क्या शर्तें हैं? यह किस भूगोल में पाया जाता है. इसकी क्या विशेषता है? कबीर इसकी विशेषताएँ बताते हैं-

जहवां से आयो अमर वह देसवा.
पानी न पौन न धरती अकसवा, चाँद सूर न रैन दिवसवा.
ब्राह्मन, छत्री न सूद्र वैसवा, मुगलि पठान न सैयद सेखवा.
आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा विस्नु महेस न सेसवा.
जोगी न जंगम मुनि दरवेसवा, आदि न अंत न काल कलेसवा.
दास कबीर ले आये संदेसवा, सार सब्द गहि चलै वहि देसवा.

रैदास के पद के साथ एक बार इस पद को मिला कर देखें. साथ-साथ पढ़ कर देखें. नागरिकता की शर्त एक ही है. भेद बुद्धि का अभाव. किसी तरह की कोई भेदबुद्धि नहीं है. ऊँचनीच की भावना नहीं है. न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र. न कोई मुगल है न पठान. ब्रह्मा, विष्णु, गौरी, गणेश कुछ भी नहीं. भेद बुद्धि का पूर्ण अभाव. इसे जो समझ लेता है उसे ही निर्वाण मिलता है.8

यह बेगमपुर ऐसा वतन घर है जहाँ मनुष्य को छोटा करने वाली हर तरह की भेद बुद्धि का अभाव है. हर वो चीज जो मनुष्य को मनुष्य से बाँटती है, भिन्न होने का, ‘द अदरहोने का भाव पैदा करती है-अमरपुर में उसकी समायी नहीं है. बेगमपुर का वीजा पासपोर्ट उसे नहीं मिलेगा. कबीर का एक और प्रसिद्ध दोहा याद आ रहा है-

कबीरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं.
सीस उतारे भुँई धरे तब पइसे घर माँहि..

अहंकार का भेद बुद्धि का सिर उतारकर बाहर रख देना है, तब प्रेम के घर में प्रवेश हो पायेगा. प्रेम का घर ऐसा है जिसमें अपना सब कुछ देकर सबकुछ को दाँव पर लगाकर ही प्रवेश हो सकता है. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. फिर प्रेम तो सर्वोत्तम है. सर्वोत्तम पाने के लिए सर्वोत्तम देना होगा.9सबसे कठिन है सर्वोत्तम को देना. हमारी मुश्किल है कि हम पाना तो चाहते हैं सब कुछ लेकिन उसके लिए कुछ भी छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इसी पर तंज कसते हुए कबीर कहते हैं-

जन कबीर का सिषर घर, बाट सिलैली गैल.
पाँव न टिकै पिपीलिका, लोगन लादै बैल..

कबीर हमें प्रेम के घर में ले जाना चाहते है. यह प्रेम का घर ही रैदास का बेगमपुर है. बेगम देस का नागरिक बनने के लिए हमें बहुत कुछ छोड़ कर आना होगा. इसीलिए कभी-कभी मुझे लगता है कि कबीर की कविता हमें बहुत कुछ छोड़ने के लिए कहती है, बहुत कुछ अनसीखा करने के लिए कहती है. बहुतेरे अवरोध हैं, जिन्हें दूर करने के लिए कहती है.

बेगमदेस पर विचार करते हुए हमारा ध्यान अचानक तुलसीदास के राम राज्य की ओर चला जाता है. बेगमदेस और रामराज्य में बड़ी समानताएँ हैं. तुलसी के रामराज्य10की कल्पना की हिन्दी में बहुत सराहना हुई है. तुलसीदास हिन्दी के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं. इसके मूल में उनके द्वारा रचित रामराज्य का यूटोपिया भी है, लेकिन बेगमपुर और अमरपुर की यूटोपिया रचने वाले रैदास और कबीर को सिर्फ खण्डन मण्डन करने वाला मान कर अवमानित किया जाता रहा है. बहस होती है कि वे कवि हैं भी या नहीं.

कबीर और रैदास दोनों ही तुलसी से कम से कम सौ वर्ष पहले हुए हैं. उनका बेगमपुर या बेगम देस तुलसी के रामराज्य की कल्पना से कम से कम सौ वर्ष पहले की कल्पना है. तुलसीदास ने थोड़े हेर फेर के साथ बेगमपुर की कल्पना को रामराज्य के रूप में प्रस्तुत कर दिया है. तुलसी के रामराज्य और बेगम देस को आमने-सामने रख कर देखिए. दोनों में ज्यादा भेद नहीं है. रामराज्य की कल्पना में तुलसीदास ने वर्णाश्रम धर्म को एडजस्टकर दिया है. सत्त धर्मकी जगह तुलसीदास ने निज-निज धरम की भेद बुद्धि के लिए जगह बना दी है. रामचन्द्र शुक्लतुलसीदास की जिस प्रतिभा के सबसे बड़े कायल हैं, वह यही है. शुक्ल जी लिखते हैं- सगुण धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो तुलसीदास ने.शुक्ल जी कह चुके हैं कि कबीर, रैदास, दादू आदि का प्रवेश पढ़े लिखे लोगों में नहीं, बल्कि बे-पढ़ी लिखी जनता में था. विडंबना देखिए कि जिनका प्रवेश बे पढ़े लिखे लोगों में था वे कवि लोक धर्म विरोधी हो गये. अस्ल में रामचन्द्र शुक्ल के लोकधर्म की बुनियाद वर्ण व्यवस्था और आश्रम पद्धति ही है. इसीलिए वर्ण व्यवस्था और आश्रम धर्म का विरोध करने वाले कबीर आदि संत लोकधर्म विरोधी हो जाते हैं और वर्णाश्रम धर्म को पुनरस्थापित करने के कारण ही तुलसी दास लोकवादी और हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हो जाते हैं. जबकि वर्णाश्रम रहित लोकधर्म के प्रवर्तक कबीर और रैदास कवि भी हैं या नहीं इस पर बहस हो रही है. यह भी हिन्दी साहित्य की अनेक उलटवासियों में से एक है.

बहरहाल कबीर का यह बेगमदेस यूटोपिया है. एक प्रति संसार की कल्पना है. मौजूदा संसार जटिल संसार, उलटवासिायों से भरे संसार के बरक्स एक मानवीय और समुन्नत संसार की कल्पना है- जिसमें सत-संगति है. सत्त की संगति है. अभेद ही जिसका संविधान है.ऐसी उदात्त यूटोपिया की रचना करने वाले कबीर को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ कवि मानते हैं और ‘‘Hundred poems of Kabir’’ नाम से कबीर की सौ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करके दुनिया के सामने प्रस्तुत करते हैं. और इधर हिन्दी के विद्वान आचार्य और आलोचक बहस कर रहे हैं कि कबीर कवि हैं या नहीं. शायद ऐसी ही बहसों के लिए कबीर ने कहा था- बोलना का कहिए रे भाई, बोलत-बोलत तत्त नसाई.11

(महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, के कोलकाता केन्द्र तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के हिन्दी विभाग में दिये व्याख्यान का सम्पादित रूप. व्याख्यान के आयोजक श्री कृपाशंकर चैबे तथा प्रो0आलोक पाण्डेय के प्रति आभार.)
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1.                मेरा तेरा मनुआं कैसे इक होइ रे.
मैं कहता हौं आंखिन देखी, तू कागद की लेखी रे.
मैं कहता सुरझावनहारी, तूं राख्यो अरुझाइ रे..
मैं कहता तू जागत रहियो, तूं रहता है सोइ रे.
मैं कहता तूं निर्मोही रहियो, तूं जाता है मोहि रे.
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा र मानत कोइ रे.
तू तो रंडी फिरे बिंहडी, सब धन डागर्या खोइ रे..
सतगुरु- धारा निरमल बोहे, वा में काया धोइ रे.
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तबही वैसा होई रे..

2.                अवधू गगन मंडल घर कीजै
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै.. टेक..
मूल बाँधि सर गगन समाँनाँ, सुखमन यों तन लागी.
काम क्रोध दोउ भया पलीता, तहाँ जोगनी जागी.
मनवाँ जाइ दरीचै बैठा, मगन भया रसि लागा.
कहै कबीर जिय संसा नांही, सबद अनाहद बागा.

3.                मन रे जागत रहिए भाई.
गाफिल होइ बस्तु मति खोवै, चोर मुसै घर जाई.. टेक..
षट चक्र की कनक कोठड़ी, बस्त भाव है सोई.
ताला कूँची कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई..
पंच पहरवा सोइ गए हैं, बसतैं जागन लागीं.
जरा मरण व्यापै कछु नाहीं, गगन मंडल लै लागी.
करत बिचार मनही मन उपजी, नां कहीं गया न आया.
कहै कबीर संसा सब छूटा, राँम रतन धन पाया..

4.                बेगमपुरा सहर का नाऊँ, दुखु अन्दोह नहिं तिहि ठाऊँ.
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफ न खता न तरसु जवालु.
अब मोहि खूब वतन गह पाई,
ऊहां खैरि सदा मेरे भाई..
कायम दायम सदा पातिसाही, दोम न सेम एक सो आही.
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहिं मामूर..
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै हरम महल न को अटकावै.
कहि रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सु-मीतु हमारा..
5.                अवधू बेगम देस हमारा.
राजा-रंक-फकीर-बादसा, सबसे कहौ पुकारा..
जो तुम चाहो परम पद को, बसिहो देस हमारा..
जो तुम आये झीने होके, तजो मन की भारा..
धरन अकास गगन कछु नाहीं, नहीं चन्द्र नहिं तारा..
सत्त धर्म की हैं महताबे, साहेब के दरबारा..
कहै कबीर सुनो हो प्यारे, सत्त धर्म है सारा..

6.                अमरपुर ले चलु हो सजना.
अमरपुरी की सॅकरी गलियाँ, अड़बड़ है चढना.
ठोकर लगी गुरु-ज्ञान शब्द की, उधर गये झपना.
वोहि रे अमरपुर लागि बजरिया, सौदा है करना.
वोहि के अमरपुर संत बसतु है, दरसन है लहना.
संत समाज सभा जहँ बैठी, वहीं पुरुष अपना.
कहत कबीर सुनो भाई साधो, भवसागर है तरना.

7.                चलन चलन सब कोई कहत है, नाॅ जानो बैकुंठ कहाँ है.
जोजन एक प्रमिति नहिं जाने, बातनि ही बैकुंठ बखानै
जब लगि है बैकुण्ठ की आसा, तब लग नहिं हरिचरन निवासा.
कहै सुनै कइसे पतिअइहे, जब लगि तहाँ आप नहिं जइहे..
कहै कबीर यहु कहिए काहि, साधो संगति बैकुण्ठहि आहि.

8.                सखि वह घर सबसे न्यारा, जहाँ पूरन पुरुष हमारा.
जहाँ न सुखदुख साच-झूठ नहि पाप न पुन्न पसारा..
नहि दिन रैन चंद नहिं सूरज, बिना ज्योति उजियारा.
नहिं तह ग्यान ध्यान नहि जप तप बेद-कितेब न बानी.
करनी धरनी रहनी गहनी ये सब उहाँ हेरानी..
धर नहि अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्माण्ड कहु नाहीं..
पाँच तत्र गुन तीन नहीं तहँ, साखी सब्द न ताहीं..
मूल न फूल बेल नहिं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै..
ओहं सोहं अध उरध नहिं, स्वासा लेखन को है..
नहिं निरगुन नहिं अविगति भाई, नहि सूछम-अस्थूल..
नहि अच्छर नहि अवगत भाई, ये सब जब के मूल..
जहाँ पुरुष तहँवा कुछ नाहीं कह कबीर हम जाना..
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना..

9.                कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध.
सीस उतारि पगतलि धरै, तब निकसै प्रेम का स्वाद..
प्रेम न खेती नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय.
राजा-परजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाय.

10.             रामराज बैठे त्रैलोका. हरषित भये गए सबसोका.
बयरु न कर काहू सन कोई. राम प्रताप विषमता खोई.
बरनाश्रम निजनिज धरम निरत वेद पथ लोग .
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहि भय सोक न रोग..
दैहिक दैविक भौतिक तापा. राम राज नहिं काहुहि व्यापा.
सब नर करहिं परस्पर प्रीती. चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती.
चारिउ चरन धर्म जग माही. पूरि रहा सपनेहुँ अध नाहीं.
रामभगति रत नर अरु नारी. सकल परमगति के अधिकारी.
अल्पमृत्यु नहिं कबनिउ पीरा. सब सुन्द सब विरुज सरीरा.
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना. नहि कोउ अबुध न लच्छन हीना.
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी. नर अरु नारि चतुर सब गुनी.
सब गुनमय पंडित सब ग्यानी. सब कतग्य नहिं कपट सयानी..

11.             बोलनां का कहिए रे भाई.
बोलत बोलत तत्त नसाई.. टेक..
बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिनु बोले क्या करहि बिचारा.
संत मिलहिं कुछ सुनिए कहिए, मिलहिं असंत मस्टि करि रहिए.
ग्यांनीं सौं बोलें उपकारी, मूरिख सौं बोलें झखमारी.

कहैं कबीर आधा घट बोलै, भरा होइ तौ कबहुँ न बोलै..
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सबद - भेद : सात कवियों के उपन्यास : अविनाश मिश्र

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नामवर सिंह ने उदय प्रकाश के संदर्भ में एक बार यह कहा था कि कवि अच्छे कथाकार हो सकते हैं. भाषा की सृजनात्मकता उनके ध्यान में रही होगी जो कवियों के पास होती ही है, ऐसा समझा जाता है. अविनाश मिश्र ने जब सात कवियों के इधर के प्रकाशित उपन्यासों में इस तरह के किसी ‘औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव’ की खोज़ शुरू की तो उन्हें कैसा अनुभव हुआ यह आप इस आलेख में देखेंगे. अविनाश के विश्लेषण का यह तरीका आपको पसंद आएगा. खुद उनके गद्य में एक काव्यत्मकता रहती है, कवि तो वह हैं हीं. उनकी आलोचना में एक सचेत तीक्ष्णता भी आप पायेंगे.  
   


औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव और बुकमार्क                


अविनाश मिश्र 


यह एक लंबी कहानी है, लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं इसे फिर कभी सुनाऊंगा, क्योंकि मैं उस परंपरा से नहीं हूं जहां परंपरा को बहुत कम बरता जाता है और जहां कथाएं कभी-कभार ही जन्म लेती हैं या कल पर टाल दी जाती हैं. इस कल में असंख्य दुर्घटनाएं हैं और सहानुभूति लुप्त हो चुकी है. इस कभी-कभार में कई बीमारियां हैं और प्रेम लगभग नहीं है.

कथाएं जब कम होती जा रही थीं, मैं तब की पैदाइश हूं. मैं कथाओं के बगैर बड़ा हुआ. दादी, नानी, बुआएं, मौसियां, चाचियां सब गुजर चुकी थींमृत्यु के नहीं अप्रासंगिकता के अर्थ में. मेरे पास और आस-पास एक सपाट जीवन था. यात्राएं बिलकुल चुपचाप थीं. मैं जब नहीं था तब कथाएं ही कथाएं थीं, मैं हूं और कथाएं नहीं हैं, एक रोज मैं नहीं रहूंगा यह सोचकर इस परिदृश्य में धीमे-धीमे मैंने कथाएं अर्जित कीं.मेरे भाग के विप्लव और प्रेम मेरी प्रतीक्षा में थे, लेकिन मैं बहुत वक्त तक बस ‘क्लासिक्स’ पढ़ता रहा. इस तथ्य से परिचित होते हुए भी कि मेरी भाषा का बहुत सारा सामयिक गद्य सारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद बस एक लंबी कहानी भर है, उपन्यास नहीं. मैं बहुत वक्त तक बस‘क्लासिक्स’ पढ़ता रहा.

लेविन, प्येर, अंद्रेई, नेख्लूदोव, बजारोव, लाव्रेत्स्की, रुदिन, मिश्किन, अल्योशा, इवान, रस्कोलनिकोव... ... ... मैं इस कतार का पात्र हो जाना चाहता था और ‘बुकमार्क’ मुझे बताते थे कि मैं कहां पहुंचा हूं. मेरे घर में वे फंसे रहते थे उस जीवन के बीच जहां धूल और बारिश और दीमकों और चूहों और भी कई मुसीबतों से लड़ते हुए आदर्श अब भी सुरक्षित और जीवंत थे. मैंने उन्हें उपन्यासों के बीच से हटाने और उपन्यासों के बीच में पहुंचाने के बीच में ही ‘उम्मीद’ का अर्थ समझा है. लेकिन लंबी कहानियों में कहीं कोई ‘बीच’ नहीं था. मैं उन्हें एक बार में पढ़ जाता था, उनकी सारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद. लंबी कहानियों के इसी दौर में बुकमार्क निरर्थक हो गए. वे कभी नायक हुआ करते थे, औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव के ओज में डूबे कथाओं को अंत तक ले जाते हुए. अब वे बेघर थे. एकदम एकाकी और उदास, उपन्यासों की प्रतीक्षा में वे ‘दूसरों’ के घरों की सीढ़ियों पर बैठे रहते. लेकिन मेरी भाषा में अब ‘उपन्यास’ नहीं थे. औपन्यासिक काव्यात्मकता नहीं थी. बस लंबी-लंबी कहानियां थींसारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद.

मेरी भाषा के वर्तमान में औपन्यासिक काव्यात्मकता की खोज में बुकमार्क लगभग नाउम्मीद हो गए थे. इस दृश्य में ही मेरी भाषा में कवि के रूप में चर्चित और प्रतिष्ठित कुछ युवा रचनाकार एक समयांतराल के बाद उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त हुए. ...और बुकमार्क्स की नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश के क्रम में मैंने कवयित्री नीलेश रघुवंशी का उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ पढ़ा.  



(१)
परिवर्तनों का प्रवाह
एक निम्नमध्यवर्गीय कस्बाई पारिवारिक जीवन के अद्वितीय प्रकटीकरण के लिए नीलेश रघुवंशी भाषा की एक ऐसी बनत को व्यवहार में लाती हैं, जहां औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मांग उनके उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ से गैरजरूरी जान पड़ती है. यहां कथ्य इतना सशक्त और स्पष्ट है कि भाषा में कोई अन्य ‘कार्यक्रम’ करने की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन यह उपन्यास हिंदी में लिखी गई या लिखी जा रही लंबी कहानियों से अलग नहीं है. वस्तुत: यह एक लंबी कहानी है.

यहां एक परिवार है. इस परिवार में पिता की भूमिका में जो सदस्य है, वह इस लंबी कहानी का नायक है. बाहर से देखने से पर नायक ‘कस्बा’ भी नजर आ सकता है. लेकिन ‘कस्बा’ केंद्र में दृश्य होते हुए भी केंद्र नहीं है. केंद्र है पिता और इस केंद्र का वृत्त हैं इस नायक की बेटियां— आशा, उषा, अन्नी, शालू, शिवा, सीमा, बबली और नीरा. इस केंद्र का विपरीत ध्रुव है— इकलौता और आठ बेटियों से छोटा बेटाभैया. इस वृत्त में केंद्र का निकटवर्ती एक अस्थिर बिंदु हैमां. इस वृत्त में केंद्र के समानांतर केंद्र-सा प्रतीत होता एक और केंद्र हैढाबा.

यहां मां अपनी बेटियों की ‘उड़ान’ से भयभीत है, जबकि पिता अपने अंतवंचित अभावों और सामाजिक दुश्वारियों के बीच भी उनकी उड़ानों को हवा दे रहा है. वह सतत संघर्षरत, लेकिन अंत से कुछ पूर्व तक असफल है.

मां बेटियों को पढ़ाए जाने तक के पक्ष में नहीं है, जबकि बेटियों के हाथ आकाश के बहुत-बहुत करीब होते जा रहे हैं. मां पिता के सामने बेटियों पर हावी नहीं है, ऐसा वह पिता की अनुपस्थिति में करती है :

‘और तुमे जो भी कच्छू कहने होउ करे वो कक्का के सामने कैऊ करे. कक्का के सामने तो तुम चुप रहती हो और उनके जाते ही शुरू हो जाती हो. एकाध दिन तुम कक्का से जे सबरी बातें अच्छे से समझ लो.’

बेटियां सामाजिकता के दबाव में असमय ही बहुत समझदार और सहिष्णु हो रही हैं. वे विज्ञान से कला की ओर शिफ्ट हो रही हैं :

‘अरे, वो और बच्चे होते हैं जो साइंस पढ़ते हैं. हमारे-तुम्हारे नहीं.’
‘हां, वो और कोयले होते हैं, जिन्हें भट्ठी में पूरी तरह सुलगना मिल जाता है.’

प्रेम उनके जीवन में नहीं था, प्रेम पर केवल विचार थे. यहां जीवन-प्रवाह अपनी नैसर्गिक गति में है और दृश्य दर दृश्य सब कुछ कस्बे में बदलता जा रहा है. कामगार हाथ बदलते जा रहे हैं. यहां ‘बाजार यानी शहर में बसने की आस है’ और यहां ‘ऐसा लगता कि रात न हो तो कितना अच्छा हो!’ इस बसावट में बार-बार भागकर आना होता है. यह ‘आना’ इतनी बार और इस कदर होता कि लगता यहीं रह जाएं, आखिर गांव में अब रखा ही क्या है! लेकिन राहें एक वक्त के बाद यहां रहने की इजाजत नहीं देतीं और लौट जाना होता. ...और बिछुड़न ऐसी कि सब कुछ चिट्ठी में बदल जाता :

‘क्या सब कुछ एक समय के बाद चिट्ठी में बदल जाता है? हो सकता है कि एक दिन रेल भी चिट्ठी में बदल जाए! क्या सूखे पत्तों के पहाड़ और पगडंडी पर बनी लाइब्रेरी की किताबें भी इस पार से उस पार पहुंच, एक चिट्ठी में बदल जाएंगी?’

इस समय में संप्रायदिकता पसर रही थी और पिता एक उदास गीत की तरह हो गए थे. धीरे-धीरे यह लंबी कहानी हास्य-परिहास की सारी संभावनाएं तजकर दर्द, दु:ख, अवसाद, असहायताबोध और अपराधबोध की ओर बढ़ती है. दो खाली पृष्ठ आते हैं और यह लंबी कहानी अपने मध्यांतर को प्राप्त होती है :
‘चीजों को थोड़ा ठहरकर धैर्य के साथ सुनना-समझना चाहिए. सांस भर आती है, कलेजा मुंह को आ जाता है. किसी के टूटे हुए सपनों का बखान करते. वह भी एक ऐसे आदमी के सपने, जिसने खुद के लिए कोई सपना नहीं देखा.
कुछ और नहीं, बस यह खाली जगह. यह एक कोरा कागज, उन्हीं सपनों के लिए....

इस कथा के अंत तक आते-आते यह लगता कि यह कथा अपने भीतर समाहित सब कुछ के बहुत तेज और सतत बदलते रहने की कथा है. कस्बे में बड़े बदलाव आ चुके हैं. वृत्त खुलकर फैल चुका है. विपरीत ध्रुव बिखरे बिंबों में केंद्रीय होने की गलत प्रक्रिया में है. कभी निकटवर्ती अस्थिर बिंदु अब कुछ धुंधला हो चला है. समानांतर केंद्र अपना मूल स्वरूप खो चुका है. और केंद्र अब सब कुछ से छूटकर लगभग एक द्वीप है. जैसा कि पूर्व में कहा गया कि अंत से कुछ पूर्व तक वह पराजित-सा लगता है, लेकिन बकौल विष्णु खरे उसकी एक बेटी ही उसके पराजय के क्षण को एक मार्मिक विजय में बदल देती है.

‘एक मेहनतकश कस्बाई बेटी की इस आपबीती’ में विष्णु खरेनीलेश रघुवंशी की कहन के भाषाई कौशल पर फरमाते हैं, ‘आज के अधिकांश कहानी-उपन्यास इसलिए भी अपाठ्य हो चुके हैं कि उनमें लेखक-लेखिकाएं कथ्य के अपने कंगाल दिवालिएपन से ध्यान बंटाने के लिए कुछ नहीं तो भाषा की ही अनर्गल और हास्यास्पद बंदरकूद कर रहे हैं. कुछ लोक-भाषा की दूर की कौड़ी लाने के प्रयास में स्वयं घोंघे हुए जाते हैं. नीलेश रघुवंशी के यहां कस्बे की भाषा निहायत कारगर ढंग से अनलंकृत है और जितनी बुंदेलखंडी लाजिमी है, वह भी ठेठ नहीं है.’

‘एक कस्बे के नोट्स’ को पढ़ चुकने के बाद मैं इसे अपने सिरहाने रखता हूं और औपन्यासिक काव्यात्मकता की अपनी खोज के लिए कवि हरे प्रकाश उपाध्याय के उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ में प्रवेश करता हूं.


(२)
कहां नहीं है ‘बखेड़ापुर’

वर्तमान की चापलूसी में 
तुम कभी भी अपने अतीत को व्यर्थ नहीं समझोगे
सारी दुर्घटनाएं सींचेगी
हरे-हरे पात लाएंगी
आने वाली पीढ़ियां सदा उर्वरा होंगी भारत की 

[ कमलेश ] 

‘बखेड़ापुर’ का प्रत्येक अध्याय काव्य-पंक्तियों के उद्धरणों के साथ आरंभ होता है. ‘यह उपन्यास एक कवि का है इसलिए इसकी भाषा और प्रस्तुति को कुछ काव्यात्मक भी होना चाहिए...’ कवि इस दायित्व से प्रत्येक अध्याय से पहले दिए गए उद्धरणों के साथ मुक्त हो जाता है. ये उद्धरण जाने-अनजाने कवियों की काव्य-पंक्तियों से निर्मित और उपन्यास की अंतर्वस्तु से असंपृक्त हैं. अपने कुल प्रभाव में ये उद्धरण केवल अध्याय का खत्म होना सूचित करते हैं, वैसे ही जैसे इस उपन्यास पर लिए प्रस्तुत नोट्स में आए उद्धरण केवल एक अनुच्छेद का आना सूचित करते हैं. गद्य रच रहे एक कवि के लिए इस तरह एक कवियोचित दायित्व से मुक्त होना खेदजनक है. इस उपन्यास की भाषा और प्रस्तुति काव्यात्मक नहीं है. उद्धरण दूसरों के होते हैं, इसलिए उनसे आपका काम अंत तक नहीं चल सकता. 
वे कुछ नहीं करते
अपने आप प्रकट होता है उनसे
सुंदर और नश्वर 

[ध्रुव शुक्ल ] 

भाषा और प्रस्तुति में औपन्यासिक काव्यात्मकता न होने के बावजूद यह उपन्यास आस्वाद के स्तर पर सशक्त है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां कवि अपने लोक में गहरे उतरा हुआ है. यहां लोक से उठकर आए अपरिष्कृत शब्दों का अर्थपूर्ण वैभव है और लोक से ही उठकर चले आए अंधयकीनों का वैभववंचित दर्प भी. पात्रों (जिनका कम न होना वैसे ही है, जैसे उनका बहुत न होना) के छोटे-छोटे जीवन प्रसंगों के बीच चलती किस्सागोई गजब है. यह किस्सागोई और यह लोक-वैभव हिंदी उपन्यास में एक अर्से बाद लौटा है, यह कहने की जरूरत नहीं कि इस अर्थ में यह उपन्यास स्वागतयोग्य है.

मैं यहीं कहीं की गलियों से बाहर निकलने की राह खोजता हूं
नक्षत्रों पर उसकी उंगलियों से छूटे निशानों से 
मेरी नियति का नक्शा तैयार होता है 
जिसमें उलझकर न जाने कितने निर्दोष गिरते चले जाते हैं 

[ उदयन वाजपेयी] 

‘बखेड़ापुर’ में अनपढ़ बनाए रखने की साजिशों के बीच भी बोलियां अपना उल्लास और चुटीलापन नहीं खोती हैं. काहिली और सतही मनोरंजन से घिरे पात्र हाशिए की वर्णनात्मकता रचते रहते हैं. जीवन में इतना विलाप, इतना व्यंग्य, इतना क्रोध, इतनी करुणा, इतनी विवशताएं होती हैं कि इसके प्रकटीकरण के लिए औपन्यासिक काव्यात्मकता को खोकर भदेस होना पड़ता है:

काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहागरात के दिन?’
‘अरे दुर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है.’
‘काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया, कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए.’
‘पैर दबाएगा न रे तेलिया?’
‘आरे काका शुरू न करिए, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है?’

यह उपन्यास अपने कथ्य में विषयों को अतिक्रमित करता हुआ चलता है.
हम आहत थे और रुग्ण थे और हर बात मन में 
रंग की तरह लगाकर बैठ जाते थे
अपने अंग-संग दिन-रात रहने वाले शख्स की 
याद आने लगती थी और रोना आता था
कोई बहुत दूर था, उसकी गंध रंध्रों में फूट पड़ती थी
और सफेद रात घिर आती थी

[ तेजी ग्रोवर ] 

यहां यथार्थ जैसे-जैसे खुलता है, वैसे-वैसे और फैलता जाता है. यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह उपन्यास खत्म भी एक फैलाव पर होता है. यहां मुक्तिबोध याद आते हैं जिनके सामने एक कदम रखते ही हजार राहें फूटती हैं : 

भीतर से कोई आवाज नहीं आती. बाहर से आवाज लगाने वाला कसमसाकर रह जाता है.
जितने भी ‘गिद्ध’ हैं और बहुत सारे ‘गिद्ध’ हैं, सब नजर गड़ाए हुए हैं.’

सरकारी योजनाएं, शिक्षा, चिकित्सा, यौन-मनोविज्ञान, अंधविश्वास, जाति-व्यवस्था, आर्थिकी के बदहाल वर्तमान के बीच ‘बखेड़ापुर’ में वह सब कुछ जो बहुत जरूरी है, अनिश्चितकाल के लिए अवकाश पर है. अपने केंद्रीय कथ्य और प्रकाश में यह कथा एक ऐसी स्थानीयता जो कहीं भी हो सकती है, की बदहाली को राजनीति की बदहाली से और राजनीति की बदहाली को शिक्षा की बदहाली से जोड़ती है. घटनाक्रम, चरित्र और व्यवस्था बदलते रहते हैं, लेकिन यह बदलाव बदहाली को बदल नहीं पाता.
अंधे बिल में अजन्मे शिशु की पसली टूटती है 
तो ईश्वर की हिचकी में गर्दन गिरे पेड़ सी लटक जाती है  

[ अनिरुद्ध उमट ]

यहां सच टूट रहा है और इस टूटन में यह उपन्यास बार-बार स्कूल की तरफ लौटता रहता है, लेकिन यहां तक आते-आते वहां :

बखेड़ापुर में रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. स्कूल अब अस्थायी तौर पर ही लगता. बच्चे बहुत कम स्कूल आ पाते, शिक्षक भी कम आते या नहीं आते— कौन पूछने वाला था.’  

तमाम (अ)मानवीय धत्तकर्मों, गालियों, हिंसा के समानांतर उभरती प्रतिहिंसा के साथ ‘बखेड़ापुर’ की भाषा और प्रस्तुति सिनेमाई प्रभाव लिए हुए है. यहां वह औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव न सही जिसकी मुझे खोज है, लेकिन कहीं-कहीं एक ऐसी सांगीतिक लय है जो अपने असल असर में कुछ कचोटती हुई सी है.
लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता 
पर भाप छाया जैसे जमी रहती
दिन चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता

[पीयूष दईया ]  


‘बखेड़ापुर’ पढ़ चुकने के बाद भी हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज जारी है. मैं इसे भी अपने सिरहाने रखता हूं और कवि राकेश रंजन के उपन्यास ‘मल्लू मठफोड़वा’को उठाकर अपनी आंखों के सामने लाता हूं.
निर्जन है, निस्पंद नहीं है
अरण्य है तो आखेट तो होगा ही
पैरों के नीचे तुम्हारा ही बिंब है
अगले कदम पर कौन होगा तुम्हारे साथ
इसलिए अरण्य है तो आखेट तो होगा ही

[ शिरीष ढोबले ]



(३)
संभावनाओं के उर्वर प्रदेश में   
कठफोड़वा के बारे में बताने के बाद मल्लू के बाबा उससे कहते हैं कि पेड़ को कठफोड़वा चाहिए और देश को मठफोड़वा. ‘मल्लू’ यानी मौलिचंद्र यानी उपन्यास का केंद्रीय पात्र. जिस औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की तलाश मुझे है वह तीन भागों में विभक्त राकेश रंजन के उपन्यास ‘मल्लू मठफोड़वा’ के पहले और दूसरे भाग में दृश्य होता है, लेकिन जैसे ही मैं तीसरे और अंतिम भाग में इस इच्छा के साथ प्रवेश करता हूं कि मैं यहां उसे समग्रता में पा जाऊंगा, मैं निराश होता हूं.

हहरना, बिलपना, राकस, हहुआ, हत्तोरी, खरखउकी, जगत्तर, लोर, बकार, बिहरना, कुहकनी, साही,खिक्खिर, महोख... जैसे लोक-शब्दों और पक्षियों को अपने लंबी कहानीनुमा छोटे से उपन्यास के विन्यास में लाते हुए राकेश ने एक ऐसा प्रभाव संभव किया है जिसे राकेश के शब्द लेकर कहें तब कह सकते हैं कि ‘स्वर उनका मंद था, मंद ही रहा, पर हमारे दिल-ओ-दिमाग पर असर उसका भारी था— भारी और गहरा— कलेजे में हौले से धंसकर उसे मथने वाले तीर की तरह, अकथ व्यथा से भर देने वाला.’
प्रवेश’ शीर्षक पहले अध्याय में नायक की शुरूआती उम्र है जिसमें आकर्षण है, दर्द है, बिछुड़न है और तकलीफें हैं. इस सृष्टि की भौगोलिकता में विचरण और विस्थापन को बाध्य सजीवता को लेकर कैशोर्य कौतूहल से उमगते प्रश्नों के उत्तर हैं जो ‘परिवेश’ शीर्षक दूसरे और ‘प्रस्थान’ शीर्षक तीसरे अध्याय तक भी चले आए हैं :

अक्सर उनके जवाब से दूसरे सवाल पैदा होते, फिर उनके जवाबों से और-और सवाल उभरने लगते और इस तरह बात लंबी होती चली जाती.’
‘अक्सर वे रुक-रुककर बोलते. एक-एक शब्द उनकी आत्मा के गहन लोक से कढ़कर आता-सा प्रतीत होता.   

स्थानीय उत्सवधर्मिता, भाषिक व्यवहार और क्लेशों को प्रगट करते हुए यह उपन्यास एक जरूरी कृति बनने की ओर बढ़ता है, लेकिन बनता नहीं. यह बनने की संभावना के विस्तार के अधूरेपन में खत्म हो जाता है. इस तरह यह अपने अंत में संभावनाशील मगर दुर्घटनापरक उपन्यास है.

एक व्यापकता में नवनिर्मित होते हुए बाजार की आहटों के मध्य एक मनोरंजनधर्मी लोक के हास्य के दृष्टिवृत्त में घटती हिंसाएं और महत्वाकांक्षाएं भाषा को बहुत नीचे उतार देती हैं. इस भाषिक व्यवहार से लड़ते हुए यह उपन्यास बहुत सहज और स्वाभाविक ढंग से अपने ‘प्रस्थान’ की ओर जाता है, जहां खाड़ी युद्ध चल रहा है, लेकिन अगस्त के महीने में फूल अब भी उग रहे हैं. यह उपन्यास अपने कुल असर में शोक और दु:स्वप्नों के बरअक्स प्रेम और करुणा को प्रतिष्ठित करता है. युवा मल्लू का अपने बाबा से संवाद इस उपन्यास को एक मानवीय गरिमा प्रदान करता है :

झूठे ईश्वर को पा नहीं सकते, सच्चों को वह खुद पा लेता है !...
जो धारण करने लायक है वही धर्म है. तू खुद सोच मल्लू ! तू खुद से पूछ क्या धारण करने लायक है— सत्य या असत्य? हिंसा या अहिंसा? दया या निर्दयता? तू खुद से पूछ तुझे उत्तर मिलेगा !...’

कृति की सार्थकता यहां संभव होती है, ऐसी संभवता ही किसी कृति को संभवत: मूल्यवान बनाती है. इस बेहतरीन उपन्यास को हिंदी में लगभग ‘न आने’ जैसे भाव के साथ लिया गया है, इस पर कोई बात नहीं हुई है, जबकि तमाम गैरजरूरी बातें होती रही हैं और हो रही हैं. इस प्रसंग में अगर यहां कुछ अवांतर होकर आर्थर कोएस्टलरकी एक बात का जिक्र करें तब कह सकते हैं, ‘वास्तविक अर्थों में मूल्यवान और महत्वपूर्ण मौलिक रचनाएं समीक्षा-कर्म से बाहर की चीज हैं. उसे आस्वादक और सृजक के बीच बाधा नहीं बनना चाहिए. उसे कोई विवेचना या मीमांसा नहीं देनी चाहिए. उसे एक सूत्र बनकर कृति के संदर्भ में एक सूचना बन जाना चाहिए. चूंकि समीक्षक (?) को ही यह तय करना है कि वह किस कृति को मूल्यवान, महत्वपूर्ण और मौलिक मान रहा है, तब यह उसके विवेक पर भी निर्भर है... समीक्षाएं प्राय: पक्षधरता से आच्छादित होती हैं.’प्रस्तुत उद्धरण के बाद हिंदी में ‘मल्लू मठफोड़वा’ जैसे उपन्यास के उपेक्षित रह जाने के कारण समझ में आते हैं.

‘एक दिन जब सारे हथियार मिट्टी में मिल जाएंगे, सारे फसादों की जड़ें खाक हो जाएंगी, नफरत और दहशत-वहशत के बुलबुले वक्त के बेपनाह समंदर में गुम हो जाएंगे, दुर्दिन बीत जाएंगे, दु:स्वप्न बीत जाएंगे, दुर्लोक बीत जाएंगे, दुष्चक्र बीत जाएंगे... तब क्या बचेगा?
प्यार...
मुझे विश्वास है कि अंतत: प्यार ही बचेगा!!’  

यह उपन्यास संभावनाओं के उर्वर प्रदेश में जाकर खत्म होता है और हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज यहां भी एक संभावना ही बनी रहती है. मैं इस उपन्यास के बाद कवि सुंदर चंद ठाकुर का उपन्यास ‘पत्थर पर दूब : एक कमांडो की प्रेम कथा’ उठा लेता हूं.


(४)
एक प्राचीन रुमानियत के मध्य  
भले ही वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के सुझावों पर गौर करते हुए सुंदर चंद ठाकुर ने अपने उपन्यास ‘पत्थर पर दूब’ की मूल पांडुलिपि के लगभग सौ पृष्ठ कम कर दिए हों, लेकिन फिर भी इससे गुजरने के बाद ऐसा लगता है कि इसमें से कम से कम सौ पृष्ठ और कम होने चाहिए थे. चूंकि ऐसा नहीं हुआ है इसलिए इस अनावश्यक स्फीति ने इस उपन्यास को बोरियत से भर दिया है. इस बोरियत में एक पुरानी रुमानियत है जो अद्यतन मुख्यधारा के उपन्यासों में प्रासंगिकतम अर्थों में अब नजर नहीं आती है. यह रुमानियत इस कदर है कि यह एक दौर के हिंदी उपन्यासों और कहानियों की याद दिलाती है :

‘शिवानी, मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता!’ विक्रम बुदबुदाया.
‘जानती हूं!’ शिवानी के होंठ हिले. दोनों एक-दूसरे के और करीब आ गए. और तब विक्रम ने अपने पपड़ाए होंठ शिवानी के होंठों पर रख दिए. दिल की धड़कनें अपने चरम पर थीं. वे जमीन पर नहीं, जैसे अधर में थे, पेड़ नहीं थे सिर्फ हरा था, हवा नहीं थी, न जंगल था न शहर. ऊपर आसमान भी न था. अस्तित्व का एहसास भी नहीं. सिर्फ एक कशमकश थी, जिसमें दोनों के होंठ फड़क रहे थे.’

कथा-नायक विक्रम के जीवन में बार-बार स्त्रियां आती हैं, लेकिन उसका रुख उनके प्रति आकर्षण से आगे नहीं बढ़ पाता. वह प्राचीन, परिचित और परिणामवंचित प्रेम पर ठहरा हुआ है.

इटैलिक्स फॉन्ट के सहारे यह उपन्यास बार-बार पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) में लौटता है, जहां एक कमांडो कार्रवाई जारी है. सामान्य फॉन्ट के सहारे भी एक समानांतर पूर्वदीप्ति संभव की गई है जहां कथा-नायक अपने प्रेम और घर से जुड़ी मार्मिक और दु:खद स्मृतियों को वर्तमान में डायरी में दर्ज कर रहा है. इस डायरी में कमांडो ट्रेनिंग, (जिसे पढ़कर नाना पाटेकर निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘प्रहार’ याद आती है) फौजियों का जीवन और उनकी असामाजिकता, उनके तनाव और अकेलेपन को उजागर किया गया है. इस अनुशासित व्यवहार के किंचित क्रूर संसार में ध्वस्त होते हुए कथा-नायक को वास्तविक दुनिया से दूर होने का भ्रम होता है :

‘दर्द है, लेकिन जिस्मानी है. दर्द तो कितना भी सहा जा सकता है. आखिर मैंने ही तो यह रास्ता चुना है. मगर यहां सोचने के लिए एक पल भी नहीं मिलता. एक फौजी को क्या सोचने की जरूरत नहीं पड़ती?’
‘लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन लिखना एक लग्जरी है, जो यहां नहीं मिल सकती. यहां नींद से बढ़कर कुछ नहीं. चारों ओर नींद ही बिछी दिखती है. नींद में भी नींद के ही सपने आते हैं.’ 

कमांडो कार्रवाई दरअसल इस उपन्यास का क्लाइमेक्स है. यह कार्रवाई मुंबई के ताज होटल में जारी है, जिस पर आतंकी हमला हुआ है. क्लाइमेक्स और उसके आस-पास के पृष्ठ विचलित कर देने वाले वर्णन से भरे हुए हैं. इस वर्णन में बदलते हुए समय के बीच बदलती सेना और सेना-समय है.

‘1990 के दशक की शुरुआत तक पहाड़ों में आर्मी अफसर बनना आई.ए.एस. बनने से बड़ा माना जाता था. यहां से गिने-चुने लड़के ही अफसर बन पाते थे. मगर नई शताब्दी के पहले दशक के आते-आते उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ ने स्थितियां बदल दीं. बड़े शहरों से अफसरों का आना लगभग बंद हो गया था और वह चाहे खड़गवासला की नेशनल डिफेंस अकेडमी हो, देहरादून की इंडियन मिलिट्री अकेडमी या मद्रास की ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकेडमी, हर जगह छोटे कस्बों के लड़कों की भरमार हो गई थी.’

इस नए सेना-समय में कारगिल युद्ध और उसके विषय में बतियाते जवानों का नेपथ्य है. कई शहादतों के बाद अंतत: विजय दिवस है. शहीद कैप्टन विजयंत थापर और सेना के पुरस्कारों में विद्यमान राजनीति है. एक ऐसा शहीद और मुल्क है, शहीदों के बारे में जिसकी याददाश्त बहुत कमजोर है. यह कमजोरी एक भारतीय कमजोरी है. कथा-नायक उपन्यास की अंतिम पंक्तियों में अपनी डायरी में दर्ज करता है :

‘आज जीवन का एक और अध्याय खत्म हुआ... एक भटकती हुई आत्मा मुक्त हुई... एक अधूरी कहानी पूरी हुई... आज मैं कह सकता हूं कि मेरे पास खुश होने के लिए सारी बुनियादी चीजें हैं... प्रेम का गहरा एहसास भी....’

लेकिन इन अच्छाइयों-बुराइयों के बावजूद यह उपन्यास एक कवि का उपन्यास नहीं लगता है, और इसलिए हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज यहां भी पूरी नहीं होती. मैं अब कवि संजय कुंदन का उपन्यास ‘टूटने के बाद’पढ़ना आरंभ करता हूं.



(५)
अनुपस्थितियों का वैभव
कवि संजय कुंदन के उपन्यास ‘टूटने के बाद’के बारे में आरंभ में ही यह बता देना आवश्यक लगता है कि यह भी कहीं से एक कवि का उपन्यास नहीं लगता है. इसके साथ एक दिक्कत यह भी है कि यह कहीं से उपन्यास भी नहीं लगता है. अपने विन्यास और प्रभाव में यह एक लंबी कहानी जैसा ही है. औपन्यासिकता और औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की अनुपस्थिति के बावजूद यह ‘कथा-कृति’ पढ़े जाने लायक है. यह भी कहना गलत नहीं होगा कि यह कृति खुद को पढ़वा ले जाती है.

108 पृष्ठों के भीतर जीते एक केंद्रीय पात्र अप्पू और उसके माता-पिता और भाई के जीवन-वर्णन में यह कृति पढ़ने वाले की दिलचस्पी बनाए रखती है. केंद्रीय पात्र लक्ष्यवंचित और अपने आस-पास से नाराज-सा है. वह नए-नए इरादे बनाता और तर्क करता रहता है. वह सबकी तरह जीना नहीं चाहता है. इस सोच से उपजी हताशा उसे आत्महत्या की ओर प्रवृत्त करती है. लेकिन अगले ही दिन वह अपनी कामवाली को खुश देखकर इस इरादे को बदल देता है और एक ब्लॉग बनाकर उस पर अपनी आपबीती दर्ज करने लगता है. इस आपबीती पर देश-विदेश से आईं प्रतिक्रियाएं उसे जीवन के प्रति उत्साह और सकारात्मकता से भर देती हैं.
यह पात्र इस कथा का संभावनाशील लेकिन अशक्त और असामान्य पहलू है. यह अपरिष्कृत और अनडेवलप्ड है. इस कृति को प्रासंगिक और कुछ मूल्यवान सिद्ध करने के लिए इस पात्र से इसकी केंद्रीयता छीननी होगी और उसे उसकी मां विमला को सौंपना होगा. यहां मां लगातार अपने दिल की सुन रही है और तमाम टूटनों के बीच भी मजबूती से खड़ी हुई है. वह अपने फैसले खुद लेती हुई एक ऐसी आत्मनिर्भर और आधुनिक स्त्री है जिसे हमारी कल्पनाओं की सारी रचनाओं में ही नहीं, बल्कि इस संसार में भी केंद्रीयता दे देनी चाहिए.

यह कथा इस स्त्री के सेल फोन पर आए एक मैसेज से शुरू होती है. इस मैसेज में उसका बेटा (और यहां इस चर्चा में कृति का भूतपूर्व केंद्रीय पात्र) यह कहकर घर छोड़कर जा चुका है कि उसे खोजने की कोशिश न की जाए. फिर भी मां उसे खोजने की कोशिश करती है, लेकिन दुर्भाग्य (?) से वह कहीं जाता नहीं और लौट आता है. मैं कल्पना करता हूं कि यह पात्र (जिसे बहुत से पाठक केंद्रीय समझने की भूल कर सकते हैं) अगर सचमुच चला जाता और इस कथा में कभी लौटकर न आता... तब क्या होता? इस कल्पना के बाद मैं पाता हूं कि इससे इस कथा पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि यह कथा इस पात्र की ‘अनुपस्थित उपस्थिति’ से कुछ और बेहतर होती.          

यह कथा खत्म होती है जब विमला का पति एक स्त्री से धोखा खाकर टूटा हुआ उसके पास वापस लौट आया है, इस उम्मीद में कि उसकी पत्नी उससे प्रचलित, अपेक्षित और ‘स्त्रियोचित’ व्यवहार करेगी. लेकिन यह व्यवहार इस केंद्रीय स्त्री को स्वीकार्य नहीं है. उसके व्यवहार में अपने पति को लेकर उपेक्षा और नकार का भाव है. यह भाव ‘टूटने के बाद’ आया है. ‘टूटने के बाद?’ इस प्रश्न के साथ विमला अपने पति को उसके हाल पर छोड़ अपनी बहन कमला जो अपने पति से बुरी तरह प्रताड़ित है, के भविष्य को संवारने में व्यस्त हो जाती है.

इस तरह अनुपस्थितियों के वैभव में यह एक पठनीय और जरूरी कृति है, लेकिन जैसा कि जाहिर है मेरी खोज यहां भी अपूर्ण है. इसलिए मैं इसे भी सिरहाने रखता हूं और कवि एकांत श्रीवास्तव के उपन्यास ‘पानी भीतर फूल’ पर नजरें गड़ाता हूं.


(६)
काव्यात्मकता नहीं काव्याभास
कवि एकांत श्रीवास्तवका उपन्यास ‘पानी भीतर फूल’ एक कवि का उपन्यास तो लगता है, लेकिन इसमें काव्यात्मकता कम और काव्याभास ज्यादा है. यहां कृत्रिम काव्यात्मकता रचते हुए वाक्यों को उपशीर्षकनुमा ‘बोल्डनेस’ दे दी गई है. यह विनोद कुमार शुक्ल की शैली है जिसे उम्र और प्रतिभा दोनों में ही उनसे कमतर गद्यकार अपनी कृतियों में अपनाते और आजमाते रहे हैं.

एक अपाठ्य वैभव से संबद्ध यह उपन्यास लोकवाणी को औपन्यासिक भाषा में निभा ले जाने की जिद या कहें शर्त पूरी नहीं कर पाता. यह अपने आस्वादक के लिए ऊब और नैराश्य उपजाता है. इसके अन्य पाठ बहुत संभव है इसे प्रासंगिक, महत्वपूर्ण और स्वाभाविक बनाएं, लेकिन वास्तविक काव्यात्मकता की खोज में इस उपन्यास के नजदीक जाना इसे अधूरा छोड़ देने के लिए बाध्य करता है. कवि के रूप में प्रतिष्ठित रचनाकारों के उपन्यासों से काव्यात्मकता की मांग एक जायज मांग है. यह मांग तब और ज्यादा जायज हो जाती है जब हिंदी के पास एक ऐसी पृष्ठभूमि हो जिसमें कई कथाकारों ने अपने उपन्यासों में एक अप्रतिम काव्यात्मकता संभव की हो.

‘एकांत ने कविता के कलेवर में ‘पानी भीतर फूल’ लिखा है’— ऐसा वरिष्ठ कवयित्री अनामिका ने इस उपन्यास के ब्लर्ब पर कहा है. इसे एक गलतबयानी की तरह पढ़ा जाना चाहिए. यह सच है कि टी.एस. एलियट ने कविता को नाटकीय बनाकर काव्य-नाटक लिखे थे. लेकिन एकांत कविता को औपन्यासिक नहीं बना पाए हैं. ऐसे में कवि का गद्यात्मक व्यवहार काव्याभास तो दे सकता है, काव्यात्मकता कतई नहीं.... मैं अब निलय उपाध्याय के उपन्यास ‘वैतरनी’ को पढ़ने लगता हूं.



(७)
अपूर्ण लेकिन मार्मिक
‘अभियान’ के बाद ‘वैतरनी’ कवि निलय उपाध्याय का दूसरा उपन्यास है. दशरथ मांझी के जीवन पर ‘पहाड़’ शीर्षक से एक और उपन्यास उन्होंने लिखा है. विस्थापन, विवाह, प्रेम, जाति और स्त्री-अस्मिता की धाराओं की ‘वैतरनी’ 111 पृष्ठों की एक ऐसी कथा-कृति है जिसे एक कवि का उपन्यास और उपन्यास न कहकर एक लंबी कहानी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. यहां ऐसा पृष्ठ संख्या को देखते हुए नहीं कहा जा रहा है बल्कि उन औपन्यासिक नियमों को ध्यान में रखते हुए कहा जा रहा है जो बताते हैं कि उपन्यास व्यापक होता है और कहानी गहन. उपन्यास उपाख्यानों में संभव होता है. इस तरह से देखें तो ‘वैतरनी’ उपन्यास नहीं, एक लंबी कहानी है, जो एक कवि के द्वारा लिखी गई नहीं लगती है. जैसे रंग-प्रस्तुतियां कभी-कभी मंच पर अंडर रिहर्सल लगती हैं, वैसे ही यह कृति भी अंडर रिवाइज लगती है— जल्दबाजी और लापरवाही में लिखी हुई— सहज समझ और सजगता से वंचित.... इसके बावजूद यह कृति अपने अंतिम पृष्ठों में एक बड़ी त्रासदी को प्रकट करती है. इन पृष्ठों में कथा-नायिका के प्रेमी की वापसी उसके गांव में होती है. लेकिन प्रेमिका अब गांव में नहीं है और गांव अब गांव नहीं रहा है. वह पूरी तरह बदलने की कगार पर है :

‘लगता है साहब बहुत दिन बाद इस इलाके में आए हैं... कुछ साल पहले उधर क्रशर मशीन लग गया... और पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा ढह गया... तब से यहां आवाज लौटकर नहीं आती...’

इस तरह यह कृति एक अपूर्ण लेकिन मार्मिक अंत को प्राप्त होती है, जहां जीवन में लगातार बाजार के शरीक होते चले जाने का दृश्य है. इस तर्ज पर ही कहूं तब कह सकता हूं हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज भी इस अंत तक आते-आते अपूर्ण लेकिन मार्मिक हो चली है. जैसे जीवन में बाजार के शरीक होते चले जाने के दृश्य बढ़ते चले गए, वैसे ही मेरी इस यात्रा में भी कवियों के उपन्यास बढ़ते चले गए....


उपसंहार
उपन्यास का जन्म इतिहास की एक खास अवस्था में, एक खास जरूरत के कारण हुआ था. वह साहित्य का आदि और मूल रूप नहीं है. साहित्य की आदि शक्ति ट्रेजेडी है. उपन्यास ट्रेजेडी और ट्रेजेडी के बीच के अंतराल की चीज है. उपन्यास समाज के नाम इतिहास का एक एजेंट है. अगर वह ट्रेजेडी के स्थान को भर सकता तब तो कोई बात नहीं थी. लेकिन ट्रेजेडी के स्थान को केवल ट्रेजेडी ही भर सकती है. उपन्यास के जन्म में ही उसकी मृत्यु की आशंकाएं थीं, और जहां तक मैं सोच पाता हूं धीरे-धीरे उपन्यास के इतिहास में गुम हो जाने के लक्षण नजर आ रहे हैं...
—आक्टेवियो पॉज 

कविता गद्य से जन्मी है और वह गद्य में लौट जाना चाहती है...
—जार्ज लुइस बोर्हेस

उपन्यास अखबारी विवरण नहीं है. उसमें अपने युग के प्रश्न और शंकाएं शक्ल बदलकर आते हैं... पहली नजर में उन्हें पहचानना मुश्किल होता है...
—नथाली सरात

कितना भी क्षणभंगुर क्यों न हो, उपन्यास कुछ तो है जबकि हताशा कुछ भी नहीं...
—मारियो वर्गास ल्योसा

बुकमार्क अब भी नाउम्मीद, निरर्थक और बेघर थे. सब तरफ उपन्यासों की शक्ल में लंबी कहानियां थीं, वे उपन्यास नहीं थीं. उनमें काव्यात्मकता नहीं थी, व्यापकता नहीं थी और उपख्यान भी नहीं थे. इनमें रहा नहीं जा सकता था, ये एक रफ्तार में गुजर जाने के लिए बाध्य करती थीं. मैं बुकमार्क्स की तरफ से एक आखिरी उम्मीद के तौर पर युवा कवि गीत चतुर्वेदी के उपन्यास ‘रानीखेत एक्सप्रेस’ की ओर देखता हूं, जिसका प्रकाशित होना इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शेष है. इस उपन्यास के कुछ अंश पढ़ चुकने के बाद यह उम्मीद बंधती है कि इसमें संभवत: काव्यात्मकता और व्यापकता होगी और उपख्यान भी होंगे....

सौंदर्य अगर विचारोत्तेजित नहीं करता तब वह एकरस हो जाता है, बहुत संभव है कि इस उपन्यास में ऐसा कुछ हो. लेकिन इस एकरसता के बावस्फ इसे पढ़ना किसी नदी को पढ़ने की तरह होगा, जहां भाषा सतत नई और सौंदर्य सतत परिपक्व होता जाएगा. यहां दृश्य एक काव्यात्मक विस्तार में होंगे. अतिव्याप्ति की अतिशयता में नियम और उद्देश्य से अलग होकर बजते हुए संगीत का एक अतिरंजित स्वर होगा. जीवन और प्रेम पर यादगार सूक्तियां होंगी :

‘हमारी आत्मा का रंग नीला होता है.’
‘प्रेम हमेशा आपके पीछे चलता है.’   
‘बिना याद किए कोई प्रेम संभव नहीं होता.’
‘प्रेम के दिन टूट जाने के दिन होते हैं.’
‘जिस प्रेम में आपके पास सिर्फ सवाल होते हैं, वह प्रेम ताउम्र आपका पीछा करता है.’
‘ईश्वर शैतान से उतना नहीं डरता जितना मनुष्य से डरता है.’
‘नीचे गिरने के बाद हम पाते हैं कि हमारे सिवाए और कोई चीज नीचे नहीं गिरी.’
‘किसी चीज का होना जानने के लिए उसका घटित होना कतई जरूरी नहीं होता.’
‘रचयिता जब अपने संगीत को प्रायश्चित मानता है. तब लोग उसके प्रायश्चित को संगीत मानने लगते हैं.’
‘सिर्फ धोखेबाज ही यकीन दिलाने में मेहनत करते हैं.’
‘पा लेने की अनुभूति खोने के बाद ही होती है.’                        

‘रानीखेत एक्सप्रेस’ में विन्यस्त इन सूक्तियों को पढ़ते हुए यह तय करना असंभव-सा लगता है कि ये सूक्तियां अनुभवजन्य हैं या भाषाजन्य. यह एक शाश्वत पर टिप्पणियां दृश्य होती हैं. इनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध लगती है. यहां आकर हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज पूर्ण होती है. मैं ‘रानीखेत एक्सप्रेस’ का इंतजार करता हूं....   
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darasaldelhi@gmail.comउपसंपादक पाखी

सहजि सहजि गुन रमैं : परमेश्वर फुंकवाल

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पेंटिग कुंवर रवीन्द्र

परमेश्वर फुंकवाल गीतात्मक संवेदना के कवि हैं. लगाव के बिसरे भूले-क्षण और अलगाव की चुभती- टीसती यादें उनकी कविताओं में जब तब उभर आती हैं. एक कविता रेल से कट गए एक बूढ़े पर है जिसके मुआवज़े के लिए पूरा घर तैयार है पर उसे घर में रखने के लिए तैयार नहीं था.


 परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ                        


वैसे ही

हम जो पुल पार करने को खड़े हैं 
वे कांपते हैं
तेज़ हवाओं में

कदमों को तोड़कर चलने से ही बचे रहेगे ये पुल
अनुशासन हर जगह नहीं बचाता हमें

कभी कभी एक जोर का ठहाका ही
काफी होता है
कभी जंगल में खिले बेतरतीब फूल
कभी कभी
रात के दो बजे
तुम्हारा फोन

कुछ शब्द हमें वैसे ही कहने होंगे
जैसे वे आये थे हमारी सोच में
बिना किये किसी की फ़िक्र
बिना किये सुबह होने की प्रतीक्षा.. 




दूरी

मुरझा कर गिरे जाते हैं फूल

चिड़ियों के पंख
थकान से रिस चले हैं

पुल के पार
दिन डूबता हुआ
शहर को समेट रहा है

एक चिट्ठी आज भी मेरी जेब में
रखी रखी मुड़ती गयी

इस तरह बस उम्मीद में चलते रहना है
कोई कहे भी कि
लौट आओ
तो संभव न हो सके
उसे सुन पाना.




तैय्यारी

झींगुर हावी हो रहे हैं
घड़ी की टिक टिक पर

रसोईघर से बर्तनों की आवाज़
कब की बह गयी

दिन के सारे बुलेटिन
ऑटो मोड में चलाकर सो गए हैं
चौबीस घंटे खबर देने वाले

एक स्वप्न दूर किसी तारे से गले मिलकर
रोशनी की एक किरण की तरह
खिड़की की झिरी से आकर दिमाग को
टटोल रहा है

एक उचाट नींद को 
रात भर रखता हूँ सिरहाने

फिर उतरने लगता है
चेहरे से अन्धकार का सूखा लेप
झुर्रियों से दगा कर

तैयार होता हूँ कुछ इस तरह
तुम्हारे बिना
एक पूरा दिन बिताने को.




सरयू का जल

पूरे होश में कहा था
प्रेम है तुमसे

अब होश संभाल कर रखता हूँ शब्द
उनके सारे संभावित अर्थों की आशंकाओं को तौल तौल कर

परिचय की हदों से लौट आती है नज़र

क्या मैं जानता न था प्रेम
कि तुम्हे
या फिर अपने आप को

झुठलाता हूँ सब कुछ
तपती रेत के पनीले दृश्य मानकर  

दो फूल किनारे से मुझे देखते हैं अपलक

बरसती बूंदों की टप टप में
सुनता हूँ आहट
तुम्हारे लौट जाने की

चढ़ता हुआ पानी अब सांस में घुल रहा है.






मुआवजा

वह लड़कर आया था
आया क्या था लगभग निकाल दिया गया था
सत्तर के ऊपर घर में वह आता भी किस काम

सोच की घनी बेलों में उलझा 
सिद्धपुर स्टेशन के बाहर
पटरी पर लेट गया

डेमू के ड्राईवर ने हॉर्न मारा
फिर ब्रेक
फिर भी देर हो चुकी थी

१०८ उसे उठा कर ले गयी
जिन पैरों ने एक एक ईंट को
घर की नींव और दीवार में रखा था
वे गिट्टी पर पड़े थे
उसके प्राण अस्पताल नहीं पहुँच सके

रेल पर चार लाख के मुआवजे के लिए
अब मुकदमा है
जिसकी पेशी पर जाने के लिए
घर सुबह से तैयार है.
______________________

  
परमेश्वर  फुंकवाल
16अगस्त 1967
आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में परास्नातक
परिकथा, यात्रा, समालोचन, अनुनाद, अनुभूति, आपका साथ साथ फूलों का, लेखनी, नवगीत की पाठशाला, नव्या, पूर्वाभास, विधान केशरी में रचनाओं का प्रकाशन. कविता शतक में नवगीत संकलित.
पश्चिम रेलवे अहमदाबाद में अपर मंडल रेल प्रबंधक
pfunkwal@hotmail.com
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प्रख्यात चित्रकार कुंवर रवीन्द्र के अब तक लगभग सत्रह  हज़ार रेखांकन और चित्र प्रकाशित हो चुके हैं.

कथा - गाथा : हृषीकेष सुलभ

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पेंटिग के.रवीन्द्र

वरिष्ठ रंगकर्मी और कथाकार हृषीकेष सुलभ का नया कहनी संग्रह ‘हलंत’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. ‘द्रुत विलम्बित’ इसी संग्रह की मार्मिक कहानी है जो अंत तक पहुँचते पहुँचते विडम्बना में बदल जाती है. कहानी के अंत की यह विद्रूपता जैसे हमारा समय हो जिसमें मानवीय चाहतें क्रूर अंत को प्राप्त होती हैं, और हर सुंदर चीज पूर्वनियोजित व्यावहारिक तलखर में दफ्न हो जाती है.  

द्रुत विलम्बित                                      
हृषीकेष सुलभ



(एक)
पारुल लहराती हुई घर में घुसी. मानो पंख लग गए हों उसको. वह विज्ञापन में दिखनेवाली उस लड़की की तरह उड़ रही थी, जो अपनी हथेलियों से कबूतर उड़ाती है.परुल ने अपने बैग को उड़ा दिया. बैग जाकर पलंग से टकराया, फिसड्डी बम की तरह. किताबों-कापियों और अगड़म-बगड़म से भरे बैग से एक अजीब-सी आवाज़ हुई. वह अपनी दीदी से टकराते-टकराते बची और फिर दीदी के गले में बाँहें डालती हुई झूल गई. बोली - ‘‘उन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव है दी. .......एक ऐसा अनुभव, जो जीवन भर की थाती बन जाए. ........ऐसी स्मृति, जिसे कोई भी अपना सबकुछ खोकर बचाना चाहे. ........जानती हो दी, वह जब बोल रहे होते हैं, आनंद की अनुगूँजों से भरी एक ऐसी दुनिया में लेकर चले जाते हैं, जहाँ से जल्दी लौटना सम्भव नहीं. .......’’

वह अपनी रौ में थी. अब यह सिलसिला नया नहीं था. विश्वविद्यालय से आते ही वह सर-पुराणमें लग जाती और हाल-फिलहाल में पढ़ी हुई किताबों की भाषा में बातें करती.
‘‘सब्ज़ी गरम कर दूँ?’’ शुभा ने बहन के विलक्षण अनुभव के प्रति तटस्थता बनाए हुए पूछा.
‘‘ दी,...... थोड़ी देर रुको तो सही. .......तुम मेरी बातें नहीं सुनती हो आजकल. .....पहले मेरी बातें सुनो, ........फिर सब्ज़ी.’’ बाईस साल की पारुल नन्ही-सी बच्ची की तरह ठुनक उठी.
शुभा ने जबरन एक नकली और फींकी मुस्कान अपने चेहरे पर चस्पाँ किया. बोली - ‘‘चल, सुना अपने विलक्षण अनुभव के बारे में......’’

‘‘जाओ, नहीं सुनाती मैं. ......तुम मेरा मज़ाक उड़ा रही हो. मैं जब भी सर के बारे में बातें करती हूँतुम कोई न कोई काम लेकर बैठ जाती हो.....तुम्हें अच्छा नहीं लगता.’’
‘‘सुन तो रही हूँ तेरी बातें. .....अब कैसे सुनूँ? ....बता?’’
‘‘ऐसे नहीं.’’
‘‘ तो कैसे?’’

‘‘ऐसे.......’’ और वह शुभा के गले में बाँहें डालकर झूल गई.
अपने ऊपर लदी जवान लड़की की लहराती हुई देह की बोझ से तनिक झुक गई शुभा. कमर में हल्की-सी चिलकन हुई. ‘‘ऊफ़! .....अच्छा चल, .....पहले खा ले.’’

शुभा अब थकने लगी है. उसके और पारुल के बीच उम्र का फ़ासला भी तो है. तेरह वर्षों का फ़ासला. वैसे पैंतीस की उम्र कोई ऐसी उम्र भी नहीं होती कि देह साथ देना छोड़ने लगे. पर मन की थकन जब देह पर तारी हो जाती है, उम्र साथ नहीं देती. अपने आप टूटने लगती है देह. तेरह की उम्र से वह सम्भाल रही है पारुल को. अम्मा तो देख भी नहीं सकीं पारुल को. जन्म देकर विदा हो गईं. बाईस की हुई पारुल. उसके और पारुल के बीच में है विभास. दस साल के भाई और नवजात बहन को पालते-पोसते उम्र ऐसे बीती कि........... और पिता भी तो शिशु ही थे. पारुल को जनमती हुई अम्मा के अनायास चले जाने को वह जीवन भर सहजता से नहीं ले सके. इसे अपना ही अपराध मानते रहे और पीड़ा की गठरी ढोते रहे. कई बार तो वह अपने भीतर उठती पीड़ा की लहर से इतना आकुल हो जाते थे कि उन्हें सम्भालना कठिन होता था. शुभा का मन इस बात को नहीं मानता कि जीने और मरने का सम्बन्ध पीड़ा से होता है. प्रेम ही होता है पीड़ा का संगी-साथी. इसी की डोर में बँधकर संग-साथ जीना सम्भव होता है. जाने के बाद यही डोर जब-जब तनती है पीड़ा की लहरें उठती हैं. अम्मा के जाने के बाद पिता पीड़ा की वन्या में डूबते-उतराते रहे अपने अंतिम दिन तक.

शुभा ने रोटियाँ सेंकी. ......सब्ज़ी गरम किया. और दोनों बहनें खाने बैठीं. फागुन महीने की दोपहर थी. बदलते हुए मौसम की अफ़रा-तफ़री में तेज़ हवा, जाती हुई ठंड और आती हुई गरमी; सब आपस में उलझी हुई थीं. धूप के चमकते हुए कुछ टुकड़े खिड़की पर टँगे पर्दों की दरारों के रास्ते आकर कमरे की फ़र्ष पर बिछ गए थे और अबरख़ की तरह झिलमिल कर रहे थे.


वह अभी-अभी यहाँ से गया है.
हमेशा की तरह घूँट-भर काली चाय उसके कप में पड़ी है, जिसे वह आदतन छोड़ गया है. उसके मौजूद होने का अहसास एक भींगे हुए कम्पन की तरह यहाँ पसरा हुआ है. उसका होना, सचमुच एक विलक्षण अनुभव की तरह इस कमरे में सजीव है. उसकी आवाज़ की अनुगूँज के उत्कट आनंद और बात-बात पर खुलकर ठहाके लगाने की उसकी अदाओं के जादू से उबरना एक मुश्किल काम है. ........शुभा अभी सरापा डूबी हुई है. न चाहते हुए भी यह डूबना उसे अच्छा लग रहा है.


वह जब बोल रहा होता है, उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता है. तमाम असहमतियों को वह अपने जादू से ढँक लेता है. पारुल जिस विलक्षण अनुभव की बात करती है, उस अनुभव से शुभा असंख्य बार गुज़री है. उस अनुभव की तासीर महसूस करती रही है. बस यही एक अनुभव तो है जिसने....... विचित्र है यह अनुभव. जैसे ही इसके उत्कट आनंद का जादू छँटता है, वह मन के अतल से बाहर निकलकर दूर खड़ा दिखता है; जैसे कोई प्रिय वस्तु मुट्ठी से छिटककर पहुँच से दूर चली गई हो और आपकी पकड़ की ताक़त को मुँह चिढ़ा रही हो. फिर उसकी आवाज़ की अनुगूँज किसी बीहड़ स्वर में बदल जाती है, पहाड़ों के टूटने, गिरने, धँसने  वाली आवाज़ की तरह. शुरुआत के दिनों में वह भी पारुल की तरह ही,......पर बाद में जब उसके रचे उत्कट आनंद के गर्भ से प्रकट हुए इस बीहड़ को उसने जाना, तब से अब तक वह किसी एक छोर तक पहुँचने के लिए भटक रही है.

आज वह कई महीनों के बाद आया था. इसके पहले, जब पारुल ने बी. ए. की परीक्षा पास की थी, ठीक रिजल्ट के दिन आया था वह. अनायास ही आया था, पर पारुल के पास होने की ख़ुशी को ऐसे सेलिब्रेट किया उसने, मानो उसे युगों से प्रतीक्षा हो इस क्षण की. अपनी कायरता को उत्सव में बदल देना उसकी अदा रही है. अब तक ऐसे अवसरों पर वह चुप ही रहती आई है. सब कुछ जानते-बूझते हुए भी वह चुप रहती है और वह अपनी चालाकियों से आगे निकल जाता है,........बहुत आगे.

आज इतने महीनों के बाद आया था और अपनी उसी पुरानी अदा के साथ उसकी दायीं हथेली को अपनी दोनों हथेलियों के बीच दाबकर बातें करता रहा..........पारुल की बातें,.........विश्वविद्यालय की बातें,.......अपनी किताबों की बातें. बताता रहा कि पिछले साल कैंसर से हुई पत्नी की मृत्यु के बाद उसका जीवन किस तरह बदल गया है. ........और देहरादून में पढ़ रहे छोटे बेटे और दक्षिण भारत के किसी दूरस्थ शहर में इंजीनीयरिंग कालेज में इसी साल दाखि़ला लेनेवाले बड़े बेटे की बातें करता रहा. दुनिया-जहान की बातें. शुभा की हथेली उसकी हथेलियों के बीच पसीजती रही और वह पसीजती हथेलियों के नमक से अनजान बातें करता रहा.

शायद वह अपने भीतर के किसी डर पर विजय पाने आया था! ........पारुल का डर..........डर इस बात का कि कहीं पारुल इस रिश्ते का सच तो नहीं जानती ! वह समय को लेकर हमेशा सतर्क रहा है. यह चैकन्नापन उसकी आँखों से टपकता है. कब आना और कब जाना है, हमेशा वही तय करता रहा है. वह अचानक ही अपने जाने की सूचना देते हुए उठता और चल देता. आज भी जैसे उसने  तय कर रखा था कि उसे कब इस घर से निकल जाना है. उसे मालूम था कि पारुल के घर लौटने का वक़्त क्या हो सकता है.........वह जा चुका है अपने विलक्षण अनुभव सौंपने की कला की बिसात बिछाकर........

पहली बार जब उसने बिसात बिछाई थी, शुभा एम. ए., दर्षनशास्त्र की छात्रा थी. अभी-अभी एडमिशन हुआ था और कुछ ही दिन हुए थे विश्वविद्यालय जाते. दर्षनशास्त्र विभाग को विश्वविद्यालय के लड़के महिला मंडल बुलाते थे उन दिनों. छात्राओं की संख्या ज़्यादा थी. दर्षनशास्त्र विभाग में फ्रेशर्स डे मनाया जा रहा था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन था. दूसरे विभागों के शिक्षक भी आमंत्रित थे. शुभा ने उस शाम राग यमन में माखननलाल चतुर्वेदी का एक गीत गाया था -  आज नयन के बँगले में संकेत पाहुने आए री सखि. उसकी आवाज़ जब ऊपर उठी,.......और उसने आरोह में तीव्र म लगाते हुए आलाप भरी.....सारेग मप ध निसा......, वातावरण आह्लाद से भर उठा और लोग वाह-वाह कर उठे. अपना गायन समाप्त कर जब शुभा मंच से उतरी, वह सामने था. बेलौस अंदाज़ में बोला - ‘‘लीजिए......एक पाहुन और हाजि़र है.‘‘

शुभा अकबका गई. समझ नहीं सकी क्या जवाब दे.......! क्या कहे! और उसने नज़रें झुका ली.......पर वह कहाँ माननेवाला था! वह तो बिसात बिछा चुका था. फिर अपना अंदाज़ बदलते हुए उसने कहा - ‘‘ कुलाँचें भरकर पहाड़ी पर चढ़ती हुई मद भरी हिरनी की तरह ऊपर उठती है आपकी आवाज़. और नीचे आती है जब..... जाकर सीधे लिपट जाती है प्राण से......बहुत ख़ूब!.......मैं इसी विष्वविद़यालय में अँग्रेज़ी पढ़ाता हूँ.‘‘
उस शाम सामूहिक भोज के दौरान दर्शन विभाग के छात्र-छात्राओं के साथ दूसरे विभागों के शिक्षक भी शामिल थे. उसकी आँखें शुभा का पीछा करती रही थीं और शुभा की आँखें भागती रही थीं इधर-उधर.
‘‘आप विधुशेखरजी की बेटी हैं?‘‘ वह फिर शुभा के सामने था.
‘‘जी.....!‘‘ शुभा की आवाज़ लरज़ रही थी.
‘‘वाह! क्या मणिकांचन संयोग है!.....चित्रकार पिता की संगीतज्ञ पुत्री........और ऊपर से सोने में सुहागा की तरह दर्शनशास्त्र की छात्रा. है न?‘‘ वह शुभा को घेर रहा था. शह-मात के खेल में लगा हुआ था और उसके इस खेल से अनजान शुभा उसके सामने खड़ी थी.
‘‘जी.....‘‘ शुभा असमंजस में थी. पर जाने कैसे उसके होठ खुले. ‘‘......आपको पढ़ा है मैंने.......आपकी कविताएँ,.....आपके लेख......‘‘
‘‘अरे वाह! मैं तो सौभाग्यशाली निकला......वर्ना आज के समय में कौन पढ़ता है कविताएँ!.........विधुशेखरजी को मेरा प्रणाम कहिएगा. मैं उनके चित्रों का घोर प्रशंसक हूँ..........दर्षनशास़्त्र की गुत्थियों से फ़ुरसत मिले तो कभी अँग्रेज़ी विभाग की ओर आइए.......आपसे बातें करके अच्छा लग रहा है. चलता हूँ.‘‘
और वह पलक झपकते अंतर्ध्यान हो गया था. मानो शुभा ही लिए आया हो और अपना काम ख़त्म कर चला गया हो.

बस यहीं से शुरु हुआ था सिलसिला. आज तक नहीं समझ सकी शुभा कि क्या नाम दे इस रिश्ते को?.....झिझक तो नहीं, पर दुविधा होती रही है उसे. यह दुविधा ही शायद शुभा की कमज़ोरी रही और वह इसे ही अपना हथियार बना उसे घेरता रहा......पराजित करता रहा...........उस दिन किसी नवजात की त्वचा की लालिमा अपने चेहरे पर लिये घर लौटी थी शुभा. मन काँप रहा था. देह काँप रही थी. सारी देह की त्वचा तनी हुई थी, जैसे बाएँ तबले की खाल हो और स्वप्न-लोक से झरती आवाज़ों से मिलकर बज रही हो. शुभा गिरती-पड़ती हुई घर पहुँची थी. आठ साल की पारुल से क्या बातें करती! पिता को क्या बताती वह!......बस बजती रही......बजती रही अनाघात. आधी रात में तानपुरा लेकर बैठ गई और काफी की बंदिश....आज रंग है री सखी.............गाती रही. अपनी आँखें मूँदकर सारेग म प धनिसा के आरोह और सांनिध प मग रेसा के अवरोह से खेलती रही शुभा. आँखें खुलीं तो पिता सामने बैठे थे. उसे गाते हुए सुन रहे थे.

एक सप्ताह बाद पिता के नए चित्र में अपने को पाकर लाज से दोहरी हो गई थी शुभा. अब तो नहीं, पर उन दिनों जब-जब उस चित्र को देखती उसकी साँसों की आवाजाही तेज़ हो जाती,.......हलक़ सूखने लगता...........नृत्य की उत्ताप भरी भंगिमा में एक स्त्री-देह की छाया,.......पृष्ठभूमि में समुद्र के गर्भ से उगते हुए सूरज की आभा का विस्तार,.........जल-सतह को हिलकोरतीं लहरों के फेन में घुलकर उमगता हुआ कनक-रंग. समुद्र तट पर चारों ओर सोना ही सोना........जल-सतह पर तट की ओर आते हुए पद्-चिह्न और तट की रेत पर समुद्र की ओर जाते हुए पद्-चिह्न.......और दूर,.......बहुत दूर से तिरती हुई आती एक छोटी-सी नाव. जाने कौन सी दुनिया रची-बसी थी इस चित्र में जोे शुभा को नई लगती!......वह आज याद करती है तो....... बिना किसी संवाद के ही पिता उसके मन को पढ़ लिया करते थे. बाद के दिनों में उन्होंने ख़ुद ही अपने इस चित्र को उलटकर दीवार से टिका दिया था.

बहुत कम बोलते थे शुभा के पिता. हाँ, अपने चित्रों में ज़रूर अपने को अभिव्यक्त करने से नहीं हिचकते. सुख हो या दुःख, मन का उछाह हो या मौन, या हों दुविधाएँ; विधुशेखरजी ने अपने चित्रों में इन्हें आने से कभी नहीं रोका. शुभा की अम्मा के जाने के बाद उनके चित्रों के रंग धूसर बने रहे. उन चित्रों में बजरी से पटी नीरव पगडन्डियाँ, जंगल की नीलिमा पर छाई हुई धुन्घ, पहाड़ों के अवसन्न षिखरों पर अटकी हुई मटमैली रोशनी के सिवा  और कुछ भी नहीं देख पाती थी शुभा. उन दिनों वह अपने पिता के चित्रों से उपजे, गिरने को आतुर पीले पत्तों का उच्छवास, जाती हुई पगध्वनियों की आसलताओं, झाडि़यों, पेड़ों के गझिन रन्ध्रों से हू-हू कर फूटते हुए सन्नाटे की आवाज़ को साफ़-साफ़ सुना करती थी. उससे मुलाक़ातों के बाद जब शुभा की जि़न्दगी ने पहली करवट ली, विधुशेखरजी के चित्रों के रंग बदलने लगे और उनसे उपजती आवाज़ों का संसार भी बदल गया. ........पर जैसे-जैसे दिन बीतते गये और शुभा की देह की तनी हुई त्वचा सिकुड़ने लगी, उसके पिता के चित्रों ने फिर अपना कलेवर बदला. दुविधा, प्रतीक्षा और अनहोनी की आशंका;.......और भी बहुत कुछ,......एक दूसरे में उलझा हुआ, अस्पष्ट और अधूरा. इस दौर के आरम्भ होने के बाद से पिता के अंतिम दिनों तक के सभी चित्र शुभा को आधे-अधूरे लगते हैं.

बेटी को गाते हुए सुनना उन्हें बेहद प्रिय था. शायद शुभा के स्वरों की बाँह पकड़ वह उसके मन और उसके जीवन के तिलिस्म में उतरने की कोषिषें करते थे. अंतिम समय में उन्होंने अपना प्रिय निरगुन सुनने की इच्छा प्रकट की थी. अपने होठों को कँपकँपाते हुए इशारे से शुभा को गाने के लिए कहा था. उसने तानपुरा लेकर भरे गले से गाना शुरु किया था - भोला मन जाने अमर मोरी काया.............और जाने कब उनकी आँखें लग गईं!........और ऐसी लगीं कि.........

विभास की अनुपस्थिति में शुभा ने ही पिता को मुखाग्नि दी थी. वह अपनी पत्नी के साथ अमरीका में था. उसने फ़ोन पर कहा था कि वह श्राद्ध के दिन पहुँचने की कोशिश कर रहा है, पर उसे नहीं आना था, सो चार साल बीत गए अब तक नहीं आया. अब तो उसके फ़ोन भी साल में दो-चार बार ही आते हैं. पिछली बार फ़ोन पर उसने बताया था कि उम्मीद है जल्दी ही उसे यूएस का सिटीज़नशिप मिल जाएगा.

वह जा चुका है. अब जब भी आता है, उसके जाने के बाद शुभा के लिए कठिन होता है समय काटना. जैसे शांत-थिर पोखर को कोई अपने पाँवों से हिलकोर कर जल को मटमैला कर दे, वैसे ही हो जाता समय उसके लिए. सेमल के पके फल-सी फटती हैं बीते हुए समय की गाँठें और बातें, घटनाएँ, आहत क्षण, ठिठकी हुई चाहतें - सब रुई लिपटे बीज की मानिन्द शुभा के इर्द-गिर्द उड़ने लगती हैं.


(दो)
पारुल ने एम. ए. पास किया और शोध के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया. शुभा ने सैंतीस की उम्र पार की. विभास और उसकी पत्नी को यूएस की नागरिकता मिल गई. दोनों कुछ ही महीनों पहले अपने पुरखों का देश देखने आए थे. दिल्ली आए और वहीं से केरल घूमने निकल गए. अपने शहर नहीं आ सके. दोनों ने बहुत जि़द की और बार-बार फ़ोन करते रहे कि पारुल को साथ लेकर शुभा दिल्ली पहुँचे ताकि यूएस जाने से पहले मुलाका़त हो सके, पर वह नहीं जा सकी. उसने पारुल से ज़रूर कहा कि अगर वह चाहे तो जाकर मिल आए, पर पारुल ने नकार दिया. विभास और उसकी पत्नी अपने घर नही आए पर उनके यूएस लौटने तक घर में एक अबोला पसरा रहा. शुभा और पारुल एक दूसरे से बतिया नहीं पा रही थीं. शुभा को बार-बार पिता याद आते रहे. उसे लगता, जैसे यह घर, घर नहीं आकाश का अनंत विस्तार हो और पिता की अनश्वर आत्मा किसी पंछी की तरह अपने ठौर के तलाष की लीला रच रही हो. वह अपनी ख़ामोशी के साथ विभास के प्रति पारुल के भीतर उबलते क्षोभ का सामना करती और अपने दबे हुए आँसुओं को बेरोक-टोक बहने से रोकती. विभास ने स्वतंत्रता अर्जित कर ली थी. मुक्ति पा ली थी उन दोनों से. उसकी यह स्वतंत्रता,.....उसकी यह मुक्ति शुभा को जितना आहत करती, उससे ज़्यादा दुष्चिंताओं से घेरती. विभास ही नहीं, वह भी लगातार अपनी स्वतंत्रता और मुक्ति का नाट्य रचता हुआ शुभा के पीछे छाया की तरह लगा हुआ था. शुभा के मन में सवाल उठते, क्या यह उनकी आत्माओं का विगलन है?......आत्महीन मनुष्य की स्वतंत्रता का जीवन के लिए क्या अर्थ?......वह हो या विभास, क्या ये लोग अपने जीवन में उस विराट अनुपस्थिति को कभी महसूस कर सकेंगे, जिसे ये स्वयं अर्जित कर रहे हैं?

शुभा ने अवसाद की बदली को अपने भीतर की उष्मा से पिघलाकर अपने जीवन के लिए नमी पैदा करने का हुनर अब सीख लिया है. इस युद्ध में संगीत उसका साथ निभाता है, कभी साथी बनकर, तो कभी अस्त्र बनकर........ उसे केवल पारुल की फि़क्ऱ है. पारुल, जिसे उसने अपने कलेजे से सटाकर पाला है. जिस रोती हुई पारुल को वह बिना दूघवाले अपने क्वाँरे स्तनों से दूध पिलाने का भ्रम रच-रच कर चुप कराती रही है, उस पारुल की फि़क्ऱ है उसे. पहली बार रजस्वला होने पर जो पारुल सप्ताह भर तक भयभीत हिरनी की तरह उसकी छाती से चिपकी रही, उस पारुल की फि़क्ऱ शुभा की भूख और नींद में शामिल है.

शुभा के ड्राइंग रूम में सोफे नहीं थे. बेंत की एक आरामकुर्सी थी, जिसका अपने जीवनकाल में उसके पिता उपयोग करते थे. और बेंत के ही कुछ छोटे-छोटे मोढ़े थे. एक छोटे-से चैकोर तख़्त पर दो तानपुरों के बीच वाग्देवी की प्रतिमा थी. सामने की दीवार पर पिता की बनाई उसकी अम्मा का एक तैलचित्र था. बहुत कम ऊँचाईवाला एक दीवान दीवार से सटा रखा हुआ था. इस दीवार पर पटना कलम चित्रशैली के अप्रतिम चित्रकार और विधुशेखरजी के गुरु ईश्वरी बाबू का बनाया एक चित्र टँगा था. विषय पारम्परिक होने के बावजूद इस चित्र में ग़ज़ब का आकर्षण था. एक हाथ में थाली लिये और दूसरे हाथ से आँचल सम्भालती पूजा करने जाती, पर पीछे मुड़कर देखती हुई औरत. सामने मन्दिर, पर नज़र अपने पीछे-पीछे आते एक पुरुष की छाया पर. इस औरत की आँखों में जादू था. विधुशेखरजी अक्सर शुभा से कहते कि इसकी आँखों में एक महाकाव्य छिपा हुआ है........एक नहीं कई-कई जि़न्दगियों की कहानियाँ रचा-बसी हैं इसकी आँखों में. उन दिनों शुभा को पिता का यह कथन अतिरेक से भरा लगता, पर अब उसे लगता है कि ऐसा भी हो सकता है. आँखों का विस्तार समुद्र की तरह अछोर हो सकता है या आँखों की गहराई पृथ्वी के अतल की तरह अनंत हो सकती है क्योंकि शुभा ने उसकी आँखों में बार-बार उतरकर ही अपने और उसके रिष्ते का सच ढूँढ़ा है.

दीवान पर बैठी थी शुभा. सामने खिड़की के पार फैली रोशनी को निहार रही थी. जबसे म्युनिस्पल कारपोरेशन वालों ने यह सोडियम वैपर लाइट लगाई है खिड़की सेअनावश्यक रोशनी के टुकड़े घर में घुस आते हैं और घर की रोशनी से धींगामुश्ती करते रहते हैं. अपने कमरे से निकलकर पारुल आई. उसके पास दीवान पर बैठी. फिर उसने अपने पाँव ऊपर किए और शुभा की गोद में सिर रखकर दीवान पर पसर गई. बोली - ‘‘ आँखें दुख रही हैं.’’
‘‘चश्मा चढ़ेगा अब तेरी नाक पर.’’ उसके बालों में अँगुलियाँ फिराती हुई शुभा ने कहा.
‘‘मैं नहीं लगाने वाली चश्मा.’’ लाड़ दिखाती हुई ठुनकी पारुल.
‘‘अंधी बनकर रहेगी क्या?.......चल, कल तुझे डाक्टर के यहाँ ले चलती हूँ.’’
‘‘कान्टैक्ट लेंस लगाऊँगी.......चश्मा नहीं.’’
‘‘पर उसके लिए भी तो डाक्टर के पास जाना होगा.’’
 ‘‘दी! आज कविजी मिले थे.’’

कविजी, यानी वह. अब पारुल उसे सरनहीं, कविजी बुलाती है. पहले उसे लगा था कि कहीं पारुल के इस सम्बोधन में चुहल या फिर व्यंग्य तो नहीं शामिल है! पर ऐसा नहीं था. उसने तत्काल जान लिया था कि इसमें कुछ और घुला-मिला है. कुछ और.........इस कुछ और से ही वह भयभीत रहती है इन दिनों.
‘‘दी!’’

‘‘हूँ.’’
‘‘तुमने कुछ पूछा नहीं?’’ पेट के बल होकर पारुल ने शुभा की जाँघ पर ठुड्डी टिका दी.
शुभा के सामने विनाश के ठीक पहले मचनेवाले हाहाकार के अतल में छिपी विरानी की भयावहता कौंध गई. पल-छिन के लिए उसका मन काँपा और देह थरथरा उठी. वह पारुल का सिर सहलाने लगी. फिर शुभा को उसकी हथेलियों के बीच दबी अपनी पसीजती हुई दायीं हथेली याद आई. उसको बोलते हुए सुनने का विलक्षण अनुभव याद आया. उसकी आवाज़ के जादू का उत्कट आनन्द याद आया. याद आई पिता के बनाए उस चित्र की वह नृत्य करती स्त्री, जिसकी उत्ताप भरी मुद्रा की अलौकिक निर्भयता ने शुभा को पंख सौंप दिए थे उन दिनों. वे दिन चमत्कारिक अनुभवों से भरे हुए थे. दिन हो या रात, साँझ की फींकी होती लालिमा हो या सुबह की चमक भरी झिलमिलाहट, लू भरी हवा के थपेड़े हों या फुहियों-सी गिरती चांदनी; उसकी धमनियों में बहते रुधिर का ताप कभी मद्धिम नहीं होता था. वह पारुल का सिर सहलाती रही और फिर धीमे स्वर में पूछा - ‘‘ क्या बता रही थी तू? ............बता.......’’
‘‘नहीं बताती मैं.........तुम्हें जब कुछ सुनना ही नहीं, फिर क्यों बताऊँ मैं?’’
‘‘सुन तो रही हूँ.‘‘ शुभा का स्वर डूब रहा था. शब्द छिटककर इधर-उधर हो रहे थे. पारुल के बालों में घूमती उसकी अँगुलियाँ अपनी ताक़त खो रही थीं. पारुल के कविजी के साथ बीता हुआ अपना समय शुभा को विभ्रम की तरह लग रहा था. उसे लगता, जैसे उसके कानों में फुसफुसा रहा हो बीता हुआ कल. यह एक जानलेवा, पर विस्मयकारी अनुभव था शुभा के लिए. वह इस फुसफुसाहट का कोई एक सिरा पकड़ना चाहती थी. चाहती थी इस फुसफुसाहट के साथ अपने भीतर उतर रहे अथाह अँधेरे से उबरना.
अचानक पारुल ने अपने को उसकी गोद से अलग किया. उठकर सामने रखे मोढ़े पर बैठ गई और शुभा की आँखों में अपनी आँखें डालकर पूछा - ‘‘दी, तुम मुझसे नाराज़ हो?’’
‘‘नहीं,.......नहीं तो........नाराज़ क्यों होऊँगी भला?’’ शुभा का प्रतिप्रश्न काँप रहा था. पारुल की दीठ उसकी आँखों के रास्ते उसके भीतर उतर रही थी. शुभा को पता था कि उत्कट आनन्द के क्षणों में आँखों की ताक़त कैसे बढ़ जाती है और दीठ लेज़र किरणों की तरह कितनी तीक्ष्ण हो जाती है.

 ‘‘अगर नाराज़ नहीं हो, तो फिर मुझसे बातें क्यों नहीं करती?......बोलो?.......दी, तुम क्या सिर्फ़ मेरी बहन हो?.....माँ भी तो हो.......बोलो, नहीं हो क्या?’’ पारुल की आँखें झरने लगीं, मानो किसी पहाड़ी नदी की राह में अँटका हुआ बड़ा सा शिलाखण्ड जल के दबाव से अचानक हट गया हो और नदी उमग उठी हो.

‘‘हूँ,.....माँ ही तो हूँ तेरी.’’ शुभा ने उन अदृष्य हाथों को, जो उसके हलक में उतरकर उसका कलेजा खींच रहे थे एकबारगी झटक दिया. दोनों घुटनों पर दोनों हथेलियों का दबाव बनाती हुई एक मद्धिम कराह के साथ उठी. कहा - ‘‘चल,.....खाना खा ले.......रोटियाँ सेंकती हूँ.’’

हाल के पास कविजी मिल गए. उनके साथ रीगल में लंच किया......फिर लाइब्रेरी गई.’’ सूचना के अंदाज़ में बोले गए पारुल के एक-एक शब्द में ठोसपन था.
यह ठोसपन पारुल के साहस से उपजा था या उसके सौंपे विलक्षण अनुभव और उत्कट आनन्द के गर्भ से उपजा था! शुभा के लिए अनिर्णय की स्थिति थी. जो भी हो, अगर इस ठोसपन ने पारुल को उसकी समूची थाती से काटकर अलग कर दिया विभास की तरह, तब क्या होगा? शुभा कुछ भी नहीं सोच पा रही थी. 

(तीन) 
चालीस पार किया शुभा ने और पारुल ने अपना शोध-प्रबन्ध सबमिट किया. इस बीच वह शुभा के पास नहीं आया. चार साल से ऊपर हुए उसे आए. लम्बे समय के बाद, जिस दिन पारुल का बी. ए. का रिजल्ट आया था उस दिन आया था. फिर जब पारुल ने एम. ए. में दाखि़ला लिया था और नया-नया विश्वविद्यालय जाना शुरु किया था, तभी आया था और उस दिन उसकी पसीजती हथेली के नमक से अनजान जो वह गया, सो फिर नहीं लौटा. 

..............पर क्या वह सचमुच नहीं आया उसके घर? क्या वह पारुल के साथ रोज़ नहीं आता है? कभी पारुल की आँखों की चमक में, तो कभी पारुल के पाँवों की गति में शामिल होकर या कभी पारुल की बातों में, तो कभी बिन हवाओं के उड़ती पारुल की जुल्फों में लिपट कर वह इस घर में रोज़ नहीं आता! उसकी आवाजाही का आलम यह है कि कभी वह पारुल की कि़ताबों के पन्नों से झाँकता है और वह पढ़ना छोड़ मुस्काती है, तो कभी खाने की मेज़ पर रखी पारुल की थाली में अपना अक्स चस्पाँ कर चुपके से निकल जाता है और बिना खाए उसकी भूख मिट जाती है. .

.......अब कुछ भी शुभा से छिपा नहीं है. जितनी बातें होती हैं, उनमें वह शामिल होता है, पर अब शुभा और पारुल के बीच उससे जुड़ी किसी बात या घटना या प्रश्न को लेकर सीधी बातचीत नहीं होती. शुभा उस निरीहता और विवशता के बारे में सोचती, जिसे वह दूर रहते हुए भी पारुल के माध्यम से उसके भीतर लगातार प्रक्षेपित करता रहा है. शुभा अपने जीवन का लेखा-जोखा नहीं करना चाहती और न ही सुख और आनन्द की कसौटी पर बीते दिनों को घिस-घिस कर परखना चाहती है, पर वह इन निरीह और निष्कवच अनुभवों का क्या करे! किससे कहे जाकर कि वह उसे पत्नी नहीं, रखैल बनाकर रखना चाह रहा था! एक ऐसा भेडि़या है वह, जो भावनाओं की खोल ओढ़कर शिकार करता है. भावुक शब्दों के विष से बुझे अपने तीक्ष्ण नाख़ूनों और दाँतों को  बहुत सधाव के साथ वह कलेजे के भीतर उतारता है. उसकी आँखों की पुतलियों से नेह-छोह की जो किरणें फूटती हैं, उनका विष भरा रसायन दिमाग़ को सुन्न कर देता है. अनुभवों की इस गठरी को किस समुद्र में तिरोहित करे! कौन समुद्र इसे पचा पाएगा! समुद्र भी तो तट पर उलीचते रहते हैं अपनी सम्पदा........

पारुल का बी. ए. का रिजल्ट जिस दिन आया, पत्नी के मरने के बाद पहली बार आया था वह. यह बताने आया था कि वह अब उसे अपनी पत्नी की ख़ाली जगह देना चाहता है. वह आया और बेहद चालाक़ भाषा में विलक्षण अनुभव और उत्कट आनन्द का कुहा फैलाकर चला गया. उसके जाने के बाद जब कुहा की चादर फटी, शुभा ने इस सत्य को जाना कि वह ख़ाली जगह भरने आया था,........न कि उसे उसकी जगह देने........शुभा को उस दिन पता चला कि उसकी तो कोई जगह ही नहीं थी. वह तो उसका इन्द्रजाल था और शुभा उसके सम्मोहन में हवा में झूलती हुई औरत भर थी.

पारुल बाहर गई है. वह पारुल को लेने आया था. उसने पुरानी कार बेचकर नई कार ली है. वह कार से उतरकर भीतर नहीं आया. अपनी नई कार का हार्न बजाकर उसने पारुल को बुलाया. पारुल पहले से तैयार थी. इंतज़ार कर रही थी. बाहर जाते समय पारुल ने कहा - ‘‘दी, मैं कविजी के साथ रात के खाने पर बाहर जा रही हूँ. रात को लौटने में देर हो सकती है क्योंकि हमलोग फ़्लोटिंग रेस्तराँ में खाना खाने जा रहे हैं. दी, आज शरद की अंतिम रात है,.......पूरे चन्द्रमा की रात इसलिए रेस्तराँ देर रात तक खुला रहेगा और रेस्तराँ वाला जहाज़ गंगा की सैर कराएगा. कविजी की इच्छा है कि हमारी शादी के बाद इसी रेस्तराँ में पार्टी हो, इस कारण भी हमलोग वहाँ कुछ ज़्यादा समय गुज़ारना चाहते हैं ताकि उसकी सर्विस स्टैन्डर्ड का सही-सही अंदाज़ लगा सकें.......’’


(चार)
शुभा की देह में झुरझुरी भर गई. उसे लगा, जैसे बर्फीली आँधी के  भँवर में उड़ती चली जा रही हो वह. उसे अपनी साँसें उखड़ती हुई लगीं. उसकी आँखों के सामने अजीब-सी सफ़ेदी छाने लगी, जैसे पुतलियों से बर्फ़ के बुरादे झर रहे हों. उसे अपना कमरा क़ब्र की तरह लगने लगा और वह यह सोचकर दहल उठी कि अगर इस कमरे से बाहर नहीं निकली तो यह बफऱ्ीली आँधी उसे इसी में दफ़्न कर देगी. शुभा लगभग भागती हुई कमरे से बाहर निकली. लिविंग रूम में पहुँचकर दीवान पर बैठ गई. उसने खिड़की से बाहर देखा. बाहर रात पसरी हुई थी. उसे लगा उसकी साँसों की आवाजाही भटक रही है. शुभा ने अपनी आँखों से कमरे में टँगी तस्वीरों को,....वाग्देवी की प्रतिमा को,......वाद्यों को बारी-बारी टटोला. वह कहीं भी अपनी नज़रें टिकाकर अपने को सहेजना चाहती थी, पर उसकी पुतलियों से अभी भी बर्फ़ के बुरादे झर रहे थे. अपने पैरों को खींचते हुए वह जैसे-तैसे सीढि़याँ चढ़ती हुई ऊपर भागी. छत खुली हुई थी. 

कुआर की अंतिम रात का टहकार चन्द्रमा मटमैले बादलों में तैर रहा था. उसने रेलिंग पर हथेलियाँ टिकाकर आसमान की ओर देखा. हल्की सिहरन भरी हवा ने उसकी साँसों को सम्भाला. छत से सटा आम का पेड़ चन्द्रमा और बादलों के खेल को निहार रहा था. उसकी हरीतिमा कभी चमक उठती, तो कभी छिन भर बाद ही उदास हो जाती. चमक और उदासी के इस खेल में उसने कुछ देर तक अपने को उलझाए रखा. उसे, उससे अपनी पहली मुलाक़ात याद आई. विश्वविद्यालय के सभागार में उस दिन का अपना गायन याद आया. राग यमन की वह बंदिश याद आई. पुतलियों से झरते बर्फ़ के बुरादे पिघलकर जलबूँदों में बदलने लगे. हवा के हल्के बहाव के साथ  तैरकर आती अपनी ही आवाज़ को सुनती रही वह. आकाश मानो विशाल मंच में बदल गया हो और वह उस मंच पर बैठकर गा रही हो और सारा जगत सुन रहा हो उसके गाए गीत को........पुतली पर बढ़ता-सा यौवन, ज्वार लुटा न निहार सकी मैं!......दोनों कारागृह पुतली के सावन की झर लाये री सखि! आज....


जिस समय शुभा की पुतलियों से झरते बर्फ़ के बुरादे पिघल रहे थे.........जिस समय वह अपनी छत के ऊपर टँगे आकाश के मंच से सारे जगत को अपनी करुण-कथा गा-गा कर सुना रही थी,.........जिस समय उसकी पुतलियों के कारागृह में सावन की झड़ी लगी हुई थी; ठीक उसी समय गंगा की विषाल छाती पर तैरते एक छोटे-से जहाज़ की पहली मंजिल पर बने रेस्तराँ में पारुल आपने कविजी यानी, कई पुरस्कारों-सम्मानों से विभूषित, कई काव्य-पुस्तकों के प्रणेता पचासवर्षीय कवि अग्निमुख उर्फ़ यूनिवर्सिटी प्रोफेसर डॉ. बाँकेबिहारी मिश्र के साथ बैठी चिकन टिक्का खाते हुए टकीला पी रही थी. टेबल पर एक लिफाफा रखा था. अब तक यूनिवर्सिटी कालोनी में रह रहे प्रोफेसर साहेब ने पारुल यानी अपनी होनेवाली पत्नी पारुल मिश्र के नाम शहर के नए बसे पाश इलाक़े के एक अपार्टमेंट में जो फ्लैट बुक कराया था, उसके क़ाग़ज़ात टेबल पर रखे इस लिफाफे में थे. और इसी लिफाफे में था कविजी के बैंक अकाउन्ट का पासबुक, जिसमें उनकी दिवंगत पत्नी के बदले होनेवाली पत्नी का नाम आज ही दर्ज़हुआ था.


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हृषीकेष सुलभ

15 फरवरी 1955, ग्राम-लहेजी, छपरा (बिहार)
कहानी संग्रह : बंधा है काल, वधस्थल से छलांग, पत्थरकट,तूती की आवाज़ , वसंत के हत्यारे
नाटक : धरती, आबा, बटोही
रंगमंच आलोचना : रंगमंच का जनतंत्र 
सम्मान :इन्दु शर्मा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, अनिल कुमार मुखर्जी शिखर सम्मान, रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान, पाटलिपुत्र पुरस्कार, सिद्धार्थ कुमार स्मृति सम्मान

कथा - गाथा : राकेश बिहारी

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कला कृति Abdullah M. I. Syed

राकेश बिहारी कथा–आलोचना में सक्रिय हैं. वह खुद कथाकार भी हैं. उनका कहानी संग्रह ‘वह सपने बेचता था’ प्रकाशित है. प्रतीक्षा कहानी फाइनान्समें कार्यरत एक ऐसे युवा की कहानी है जो दुनियावी नज़र में सब कुछ पा लेने के बाद भी न जाने किस चीज़ की प्रतीक्षा में है. कहानी का शिल्प कथ्य के अनुसार है और उसमें आफिस के रोजमर्रा के जीवन के ब्योरे दर्ज़ हैं.  कहानी आपके  सामने है. पढिये और  कहिये कैसी लगी.


प्रतीक्षा                                       
राकेश बिहारी


गहरी मशक्कत के बाद आज देर शाम ऑडिटर ने बैलेंस शीट साइनकर दी. मिस्टर देसाई का शांत चेहरा उनकी नसों में एक रेशमी सुकून के उतरने की गवाही दे रहा था.

बैलेंस शीट तो साइन होनी ही थी, लेकिन उन्हे सुकून इस बात का था कि अकाउंट्स सेक्शन के हेड तेजपाल की नीच और चापलूस हरकतों से खुश होकर ऑडिटर जाते-जाते अपनी सारी बड़ी क्वालिफीकेशन्स ड्रॉप कर गया. मैं तो बस इस बात से खुश था कि पूरे एक महीने और तेईस दिन के बाद कल पहली बार दफ्तर में लेट सिटिंग नहीं करनी होगी.

मिस्टर मोहन का फोन नहीं लगा. उनका हवाट्सऐप भी शायद बंद पड़ा है. पिछले साल बैलेंस शीट साइन होने के बाद देर रात तक हमदोनों ओफिसर्स क्लब के बार में बैठे रहे थे. ह्वाइट मिसचीफ वोद्का और फ्रेश लेमनजूस की तांबई घूंट के साथ अहमद हुसैन महमद हुसैन की आवाज़ का जादू किसी खूबसूरत नशे की तरह हमारे रगो रेश में घुल रहा था- "मैं हवा हूँ, कहाँ वतन मेरा, दस्त मेरा न ये चमन मेरा..."संयोग से उस दिन हम दोनों के अलावा कोई और बार में  नहीं था और वह कमसिन पहाड़ी बार ब्वाय मिस्टर मोहन के कहे पर बार बार अहमद-महमद की वही ग़ज़ल प्ले करता जा रहा था. दफ्तर की महीन राजनीति से शुरू होकर मीर-गालिब के दर्शन तक की ऊंचाई और गहराई मापती वह रात आज भी मेरे जेहन में उसी तरह ताज़ा है. कुछ रातें बीत कर भी कहाँ बीतती हैं!

आज भी सोनाली देर तक अपनी छपर मेरा इंतज़ार करने के बाद नीचे किचेन में चली गई. वहाँ मोबाइल का नेटवर्क ही नहीं आता लिहाजा अब उसे भी फोन नहीं किया जा सकता,और जबतक वह ऊपर अपनी स्टडी में आएगी उसे फोन करने का समय बीत चुका होगा. पूरे ऑडिट के दौरान उससे ठीक से बात नहीं हुई है. पिछले संडे जब तेजपाल ऑडिटर को ज्वालामुखी मंदिर दर्शन के लिए लेकर गया था,उम्मीद थी उससे ठीक से बात हो पाएगी,लेकिन उस दिन उसे कनाडा से आए अपने भाई-भाभी और उनके बच्चों के लिए गिफ्ट लेने बाज़ार जाना था.

पिछले हफ्ते शैलेंद्र का फोन आया था. सचिवालय सहायक वाली परीक्षा के परिणाम पर लगा कोर्ट का स्टे ऑर्डर हट गया है. शायद अगले ही महीने वह ज्वाइन कर ले. हमारी सर्किल में एक वही तो था जो अब तक कहीं सेटल नहीं होसका था. उस दिन तो काम के दबाव में मैंने नहीं सोचा लेकिन अब लग रहा है कि यदि उस दिन हम साथ होते तो यह हमारे लिए सेलिब्रेशन की शाम होती. सेलिब्रेशन का शायद ही कोई ऐसा मौका रहा हो जब हमने ब्लैक टी कीगरम घूंट में घुली उसकी आवाज़ में जो मिल गया उसी कोमुकद्दर समझ लेने का फकीराना उत्सव न मनाया हो! शैलेंद्र हमारी सर्किल में सबसे ज्यादा शार्प और टैलेंटेड था,लेकिन उसकी खुशी ही सबसे ज्यादा स्थगित होती रही थी. अब आई भी है तो पूरी तरह नहीं. अभी उसे अनुकूल जगह पर पोस्टिंग के लिए दो लाख रुपये देने होंगे,वरना पता नहीं उसे किस इंटीरियर में फेंक दिया जाएगा. यह वही शैलेंद्र है जो हम सब में सबसे ज्यादा आदर्शवादी था. यशवंत की दीदी की शादी में जाते हुये जब हम रात को गहरी नींद में होने के कारण नागपुके बदले  चंद्रपुरतक चले गए थे,उसने टी टी को पूरे नियम कानून के मुताबिक जुर्माना सहित भाड़े का अंतर भुगतान करके सरकारी रसीद ली थी. टी टी तो कुछ ऊपर केपैसे लेकर हमें सस्ते में छोडने को तैयार था लेकिन उसकी आदर्शवादी जिद ने हम सबकी जेबेंहल्की करवा दी थी. वक्त हमें कितना कुछ सिखा देता है! पता नहीं अबतक वह पैसों का जुगाड़ कर पाया या नहीं. किसी रालेगण सिद्धी या रामलीला मैदान में जूम होता कैमरा क्या कभी इधर की भी रुख करेगा? खैर,कल सुबह ही उसे फोन करूंगा.

नसें चटख रही हैं.
कनपटी के ऊपर नीली धारियाँ उग आई हैं.
अकेलेपन को धकेलने के लिए रेडियो ऑन करता हूँ.

एफ एम गोल्ड पर जगजीत सिंह की हरारत भरी आवाज़ गूंज रही है- सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान,एक ही थैली में भरे आँसू और मुस्कान...और अब पंकज उधास चिट्ठी आई है,आई है चिट्ठी आई है...रेडियो जौकी की आवाज़ जो अमूमन चहकती-फुदकती रहती है,ने आज एक गाढ़ी-सी भाव प्रवण उदासी ओढ़ रखी है. आज केएपीसोड का थीम    है- चिट्ठी. मुझे सहसा पंकज और मुरारी के साथ मुजफ्फरपुर के जवाहर टॉकीज में देखी फिल्म मैंने प्यार कियाकी भाग्यश्री की खूबसूरत और मासूम लेकिन दर्द में डूबी आँखें याद हो आती हैं – कबूतर जा जा जा... पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को  दे आ...'पता नहीं वे दोनों अब कहाँ हैं! पंकज के मामाजी ने जरूर उसकी नौकरी लगवा दी होगी. मुरारी अपनी योजना के मुताबिक शायद बाज़ार समिति में अपने जीजाजी की गल्ले की गद्दी संभाल रहा हो. कितनी शार्प थी उसकी नंबर मेमोरी... किसी गाड़ी का नंबर प्लेट एक बार देख भर ले वह,नंबर हमेशा के लिए उसके दिमाग में स्कैन हो जाता था. मुझे तो नंबर याद ही नहीं रहते,सब आश्चर्य करते हैं- फाइनांसवाला होकर भी इतनी वीक नंबर मेमोरी! लेकिन लिखावट मैं कभी भी नहीं भूलता. मेरीफाइलों और ड्राअर में सुरक्षित अनगिनत सफेद-पीले-ज़र्द खतों की हस्तलिपियों में जाने कितने अपने-परायों के अक्सकैद हैं-  समय और अहसासों की बेपनाह सिलवटें और खूशबू समेटे. हर दिल अज़ीज़ गौहर रज़ा शब्बा खैर कहते हुये माइक्रोफोन से दूर हट चुका हैचिट्ठी न कोई संदेश,जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गए...जगजीत सिंह की पुरसुकूनआवाज़ मेरीआँखों में जुगनू बन कर कौंधती है. मैं लाइट ऑन करता हूँ. रीडिंग टेबल की ड्राअर में कब से उपेक्षित पड़ा लेटर पैड मेरीहल्की-सी छुअनभर से कुनमुनाया है- कहाँ थे अबतक? कबसे तुम्हारी राह देख रहा हूँ?’  किसी गहरे कुंयेसे आती-सी उसकी आवाज़ को मैं बिना किसी देरी के पूरी इज्जत बख़्शता हूँ! लैपटॉप की तरफ देखता भी नहीं. लेटर पैड की बोसीदा गंध को मेरी लिखावट की गर्मी ने हौले-हौले पिघला कर भाप बनाना शुरू कर दिया है...


मोहन सर!

आज बैलेंस शीट साइन हो गई और आप बहुत-बहुत याद आए.

इस बार तेजपाल ने तो सारी हदें पार कर दीं. उस खूसट ऑडिटर के तो वह पैर ही पड़ गया- 'आप मेरे पिता जैसे हैं,मुझे आशीर्वाद दीजिये कि हम हर क्वार्टर और ईयर एंड में समय से पहले अपना अकाउंट सबमिट कर पाएँ!'मुझे आश्चर्य से ज्यादा उस पर गुस्सा आ रहा था कि एक प्रोफेशनली क्वालीफाइड इंसान इतना कैसे गिर सकता है!

कल प्रसाद जी का फेयरवेल हुआ. हमेशा की तरह वह देरीसे आया,एच ओ डीके भी बाद,और वह भी हाथ में कॉस्ट शीटलिए हुये. जबतक यह है,यहाँ कुछ नहीं बदलने वाला. हफ्तों चुपचाप रहने के बाद आखिरी मोमेंट में इमरजेंसी क्रिएट कर शाम को रोकनेवाली इसकी आदत अबतक नहीं गई. आपको याद है,मुझे इसकी इस आदत से कितनी कोफ्त होती थी. पर अब मैंने भी खुद कों समझा लिया है. सारे दिन गूगल बुक्स पर किताबें पढ़ता हूँ और शाम कों एम आई एस की फाईल या कोई वाउचर लेकर हाँफते-काँपते उस तक जरूर हो आता हूँ. वह मेरीमिहनत से बहुत खुश है इन दिनों.

पिछले हफ्ते रीजनलकल्चरल मीट सम्पन्न हुआ. इस बार का थीम था- पंचतत्व. बिलासपुर यूनिट ने बहुत अच्छी नृत्य नाटिका प्रस्तुत की. अपने मिस्टर देसाई को छोड़ के सारे एच ओ डीज़ आए थे. अगली सुबह हाजिरी बनाते हुये उनसे पूछा तो वही पुराना जवाबफाइनेंस में रहते हुये यह सब भूल जाना पड़ता हैऔर मुझे ऐसी निगाहों से देखा जैसे मैंने जाकर कोई अपराध कर दिया हो. लेकिन ई डी- मिस्टर वर्मा के पब्लिक फेयरवेल में वह सबसे पहले आ गए थे. मुझसे हिन्दी में भाषण भी लिखवाकर रख लिया था. झेंप मिटाने के लिये प्रोटोकॉल का बहाना बनाया,लेकिन आप तो जानते ही हैं कि मिस्टर वर्मा बहुत जल्दी बोर्ड ऑफ डारेक्टर्स में शामिल हो रहे हैं इसलिए...

हाँ,एक और मजेदार बात- पिछले महीने कारपोरेट से मिसेज मूर्तिआई थीं. मिस्टर देसाई ने उन्हें अपने घर डिनर पर बुलाया था. जब वे उन्हें लेने गेस्ट हाउस गए,मिसेज मूर्ति संध्या वंदन कर रही थीं. उसके बाद तो बिना आगे-पीछे देखे मिस्टर देसाई ने खुद के आस्तिक और पूजापाठी होने का बकायदा प्रमाण ही पेश कर दिया- गायत्री मंत्र और दुर्गा सप्तशती के कुछ श्लोकों का सस्वर पाठ कर के. हम अबतक नाहक ही उन्हें चंपू और कम बोलनेवाला समझते रहे थे...

बॉटम टेन परसेंट मे आनेवालों को एनुअल इनसेंटिव नहीं मिलने के कारण लोगों में बहुत रोष है.  मिनिस्ट्रीकी गाईड लाईन के नाम पर एसोसिएशन भी अपने हाथ खड़े कर चुका है. लेकिन लगभग हर तीसरे दिन दिखावटी गेट मीटिंग हो रही है. एक दिन हमने काला रिबन भी लगाया. मल्लिक जैसों ने इस गाईड लाइन की आड़ मे नया धंधा शुरू कर दिया है. सुना है ये लोग सी आर में अच्छे अंक देने के लिए अपने सबार्डिनेट्स से एनुअल इनसेंटिव में हिस्सा मांगने लगे हैं.

खैर,बातें तो बहुत सारी हैं जो कभी खत्म भी नहीं होंगी. दफ्तर की कहानियों के चक्कर में मैंने आपकी खैरियत भी नहीं पूछी. नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद कैसा लग रहा है?रश्मि मोरवाल ने फिर फोन किया कभी?शायद न किया हो,वरनाआपने बताया जरूर होता.  खैर,यह तो होना ही था... हम ठीक सोचते थे कि वह तभी तक भाव देगी जबतक आप उसे कवि सम्मेलन में बुलाने की स्थिति में रहेंगे. हमारी पड़ोसन मां बननेवाली है. एकदिन हमारे  घरआई थी तोआपके बारे में पूछ रही थी. क्लब की पार्टीज़ में जब भीउसेदेखूँ आपकी याद जरूर आती है.

अपना ध्यान रखिएगा... मॉर्निंग वॉक पर जा रहे हैं न?मेरा तो आपके जाने के बाद छूटा सो अबतक छूटा ही है.

आपका स्नेहाधीन
हेमंत

चिट्ठी लिखने के बाद जैसे मिस्टर मोहन की कमी और ज्यादा खलने लगी है. जबतक वे यहाँ थे,मैं लगभग हर सुबह उनकी केबिन में जाता था. दफ्तर की उठापटक से लेकर फिल्म, संगीत,साहित्य और दुनिया जहान की कितनी बातें हम किया करते थे. फाइनेंस डिपार्टमेन्ट में होकर भी कभी हमने एक टीपिकल फाइनेंस वाले की तरहव्यवहारनहीं किया. वरना मिस्टर देसाई और तेजपाल जैसे लोग तो जन्मजात मुनीम हैं और बने भी रहना चाहते हैं. मैं फोन की फोटो गैलरी मेंजाता हूँ. आठ महीने हो गए पर मिस्टर मोहन की फेयरवेल पार्टी जैसे कल की ही बात लगती है... उस पार्टी के लिए कितना उत्साहित था मैं. सारा दिन घूम-घूम कर लोगों के साथ खाने-पीने,बुके,मोमेंटों आदि की व्यवस्था में लगा रहा. कितनी सारी बातें सोच रखी थी उनकी विदाई के मौके परकहने के लिए लेकिन एन मौके जैसे मैं सब कुछ भूल गया या मेरी आवाज़ ही बंद हो गई...

मेरीआँखों के कोर एक बार फिर से पनिया गएहैं.
पंखे की आवाज़ के बावजूद मेरे दिल की धड़कन मुझे साफ-साफ सुनाई परही है...
एक सांस में पानी की पूरी बोतल गटक जाता हूँ...
छत की सफेदी सामने पड़ी चिट्ठी पर गिरतीहै. उसे डस्टबिन में झाड़ने के बाद लेटर पैड एक बार फिर से मेरे हाथों में है-


प्रिय शैलेंद्र,

कैसे हो?उस दिन जब तुम्हारा फोन आया मैं डिटर्स के साथ था. अकाउंट सबमिशन की लास्ट डेट सिर पर थी. ठीक से तुम्हारी खुशी में शामिल नहीं हो पाया. माफ करना.

यह पूछते हुये भी अजीब लग रहा है कि रुपये का बंदोबस्त हुआ या नहीं? तुम जानते ही हो कि जबसे होम लोन की ई एम आई कटने लगी है, हाथ टाइट हो गया है. सिर्फ आठ हजार रुपये ही तुम्हारे खाते में रख पाया था. लेकिन वह भी किसी तकनीकी दिक्कतों के कारण वापस आ गया. कल बैंक स्टेटमेंट देखने पर पता चला. दो लाख में आठ हजार की क्या औकात, पर मन निराश हो गया.  

इन दिनों बहुत अकेला महसूस करता हूँ. यशवंत, राजीव,नवीन सब तो अपने काम में व्यस्त हो गए. एक तुमसे ही लगातार संवाद बना हुआ है... अब तुम भी व्यस्त हो जाओगे. पर तुम बच्चों को चेस सिखाने का सिलसिला मत छोडना. चेस तुम्हारा पहला प्यार है. मैं इस सपने को हमेशा तुम्हारी आँखों मे चमकते देखना चाहता हूँ.

बिटिया कैसी है? अब तो बड़ी हो गई होगी. किस क्लास में गई? उसे मेरा प्यार देना. दिव्या से मिले मुझे छ: महीने हो गए. उसे तो मैं अपने साथ ही रखना चाहता था लेकिन अनुष्का को यह मंजूर नहीं था. तुम तो जानते हो कितनी मानिनी है वह. दिव्या का खर्च उठाने का मेरा प्रस्ताव भी उसने नहीं माना. पता नहीं एन जी ओ की छोटी-सीनौकरी में कैसे चलता होगा सबकुछ. दो दिन पहले जब वह घर पर नहीं थी,दिव्या ने फोन किया था- 'पापा,मुझे कैडबरी का बड़ा वाला गिफ्ट पैक चाहिए, ममा नहीं दिलवाती, कहती है- दाँत खराब हो जाएँगे'. इस संडे उससे जरूर मिलने जाऊंगा.

तुम्हारी पोस्टिंग शायद शहर से दूर हो. ऐसे मेंतुम्हें और भाभी को अलग-अलग नौकरी पर जाने में कुछ शुरुआती कठिनाई होगी,पर हड़बड़ी में उनकी नौकरी छुडवाने का कोई निर्णय मत कर बैठना. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. उनका नौकरी करना तुम दोनों के हक में है,बिटिया के हक में भी. नहीं जानता ऐसा कहने का मुझे कोई हक है भी या नहीं पर हमारे बीच तो कभी कोई दूरी रही नहीं, इसलिए खुद को रोक नहीं पाया.
पिछली बार तुमने कुछ पारिवारिक परेशानियों की बात भी की थी. भाइयों के बीच यदि एक बार दरार पड़ गई तो फिर वह रोज चौड़ी ही होती जाती है. लेकिन चाचा-चाची की तुम्हारे प्रति बेरुखी की बात जानकर मुझे हैरानी हुई. शायद तुम्हारी नौकरी होने के बाद उनके व्यवहार में कोई अंतर आए. तुमने जिस तरह खुद को संयमित  रखते हुये बड़े भैया या दीपक के आगे संपत्ति बांटने का कोई दावा नहीं किया, उसे देख तुम पर गर्व होता है. तुम्हारी यह बात भाभी को ठीक न लगी हो और शायद उनकी दृष्टि से यह उचित भी है.   भले इस मामले में उनके मन का तुम कुछ न कर पाओ, लेकिन उनकी बातें सुनना जरूर. उन्हें अभी तुम्हारी बहुत जरूरत है.

सोनाली से अक्सर बात होती है. अनिकेत के साथ उसके सेपरेशन का केश अब लगभग अंतिम स्थिति में है. मैं बड़ी उम्मीद से प्रतीक्षा कर रहा हूँ. अनुष्का तुम्हारी बहुत अच्छी दोस्त है, जाहिरहै तुम्हें मेरी यह बात अच्छी नहीं लग रही होगी. पर सिर्फ नहीं बोलने से कोई सच तो झूठ नहीं हो जाता न! और फिर अपनी बातें तुम्हें न बताऊँ यह भला कैसे हो सकता है?

ज्वाइन करते ही बताना. तुम्हारी पहली सैलरी मिलने पर जरूर आऊँगा. हम इसे साथ-साथ सेलिब्रेट करेंगे. मैं ब्लैक टी बनाऊँगा और तुम पहले की ही तरह खुले मन से गाना – जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया...

तुम्हारी बहुत याद आ रही है. कल सुबह बात होती है.

तुम्हारा अज़ीज़
हेमंत

बाहर बरस रहे अंधेरे की आवाज़ मेरे अंतस मे लगातार बज रही है और मैं अपनी यादों का सिरा पकड़े चिट्ठियों की दुनिया में अपने लिए रोशनी के कुछ कतरे तलाश रहा हूँ. शैलेंद्र को खत लिखते हुये आज अनुष्का की भी याद आई. क्या उसे भी कभी मेरीयाद आती होगी?अच्छा होता हम दोस्त ही रह गए होते... कभी अलग नहीं होना पड़ता... लेकिन कई बार दोस्त भी तो अलग हो जाते हैं... यदि सोनाली को यह सब कहूँ तो वह कैसे रिएक्ट करेगी? मेरे भीतर चिलकता है कुछ... यह प्रश्न पलट के भी तो पूछा जा सकता है- कभी सोनाली ने मुझसे अनिकेत को लेकर इस तरह की बातें की तो मैं कैसे रिएक्ट करूंगा?

मेरी कनपटी के ऊपर की नीली धारियाँ और गहरी हो गई हैं...डिस्प्रिन कई दिनों से नहीं है. कल याद से खरीद लाऊँगा. सोनाली से बात करने की तलब और तेज़ होती जा रही है....

प्रिय सोनाली,

लगभग दो महीने से ऑडिट की व्यस्तता में पता ही नहीं चला कि मैं कितना अकेला हो गया हूँ. शाम को जब ऑडिटर चले गए,अचानक से इस अकेलेपन का एहसास बहुत ज़ोर से हुआ. कई दिनों से तुमसे बात नहीं हुई. कई दिन तुम्हें इंतज़ार भी करना पड़ा. सब के लिए इकट्ठे माफी चाहता हूँ.

कल कोर्ट की तारीख थी न! क्या हुआ? अगली तारीख कब की मिली है? माधवी की कस्टडी को लेकर क्या सोचा है? उसे मेरा प्यार देना. उसकी तस्वीर देखकर बड़ी बेटी के बाप होने का-सा अहसास होने लगा है.

दिव्या कभी-कभी तुम्हारे बारे में पूछती है. क्या तुमने माधवी को कभी मेरे बारे में बताया?

इस बार रीजनल फाइनन्स रिव्यू मीटिंग खंडाला में हो रही है. तारीख अभी तय नहीं. शायद 16 से 18 अगस्त तक. क्या उन दिनों या दो-एक दिन आगे पीछे मुंबई या पुणे आ सकोगी?

तुम्हें देखने का बहुत मन हो रहा है.
तुमसे मिलकर बहुत कुछ बांटना है.
अपना ध्यान रखना.


असीम प्यार सहित,तुम्हारा ही
हेमंत      

मेरे ही हाथ की लिखी चिट्ठियाँ मुझे किसी अजायब घर से आई हुई महसूस हो रही हैं.
इन पत्रों पर लिखे मिस्टर मोहन,शैलेंद्र और सोनाली के नामों कों मैं बारी-बारी से अपनी उंगलियों के पोरोंसे छूता हूँ... अपनी पलकों से लगाता हूँ...

मेरी नज़र सामने दीवार पर टंगी घड़ी पर जाती है- सुबह के चार बजे हैं... मिस्टर मोहन कुछ देर बाद जगेंगे,उन्हें मॉर्निंग वाक पर जाना होगा... शैलेंद्र तो पहले देर तक सोता था,भाभी और बिटिया की स्कूल ने उसकी यह आदत शायद बदल दी हो... पता नहींसोनाली अभी सोई भी होगी या नहीं...

सोचता हूँ इन पत्रों कों अभी ही पास के किसी लेटर बॉक्स में डाल आऊँ. लेकिन ड्राअर में लिफाफे नहीं हैं. मेरे अंदर तीन अलग-अलग पुल बन रहे हैं एक दूसरे से जुदापर एक दूसरे में घुले-मिले, जिनसेगुजर कर मैं उन तीनों तक पलक झपकते पहुँच जाना चाहता हूँ.

डाक में डाला तो कम से कम चार-पांच दिन... भीतर कुछ ट्यूब लाइट की तरह जलता है... हाँ इन्हें स्कैन करके मेल कर देना ही ठीक रहेगा. 

मेरी लिखावट बरास्ता स्कैनर मेरे लैपटॉप के स्क्रीन पर चमक रही है.
मैं नेट कनेक्ट करने की कोशिश में हूँ कि अचानक बिजली गुल हो गई है...


मिस्टर मोहन,शैलेंद्र और सोनाली की तस्वीरें अपने-अपने फ्रेम से निकल कर एक दूसरे में समा जाना चाहती हैं... मैं उन सब के पास एक ही समय में एक ही साथ पहुँच जाना चाहता हूँ... बेचैनी का शोर बढ़ता ही जा रहा है... बिजली और नींद दोनों की प्रतीक्षा है... देखें पहले कौन आती है... 

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राकेश बिहारी
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह), केन्द्र में कहानी,  भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास  (आलोचना), स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियाँ), पहली कहानी : पीढ़ियाँ साथ-साथ (निकटपत्रिका का विशेषांक) समय,समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (संवेदपत्रिका का विशेषांक) आदि प्रकाशित.
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत/ 09425823033/            :           biharirakesh@rediffmail.com
(यह कहानी बनास जन के नए अंक में प्रकाशित है.)
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