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परख : अपने हस्तिनापुरों में (प्रभा मुजुमदार)

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अपने हस्तिनापुरों में (कविता-संग्रह)
कवयित्री: प्रभा मुजुमदार 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन,जयपुर
प्रथम संस्करण: 2014
मूल्य: 100 रु., पृष्ठ संख्या: 148


सत्ताऔरसमाजकोआईनादिखातीकविताएँ                 
राहुलराजेश

हिंदीकीसुपरिचितकवयित्रीप्रभामुजुमदारकानयाकविता-संग्रह'अपनेहस्तिनापुरोंमें'मेरेहाथमेंहै.प्रभा मुजुमदार उन रचनाकारों में से हैं, जो बिना किसी शोर-शराबे के चुपचाप सृजनरत रहते हैं.यहउनकातीसराकविता-संग्रहहै.इससेपहलेउनकेदोकविता-संग्रह'अपने-अपनेआकाश'और'तलाशतीहूँजमीन'क्रमश: प्रकाशितहोचुकेहैं.जैसाकिउनकेपिछलेदोनोंसंग्रहोंकेशीर्षकोंसेभीस्पष्टहै, उनकेपहलेकविता-संग्रह'अपने-अपनेआकाश'कीकविताओंमेंजहाँउनका'निजत्व'मुखरथातोवहींउनकेदूसरेकविता-संग्रह'तलाशतीहूँजमीन'कीकविताओंमेंउनका'स्त्रीत्व'मुखरथा.लेकिनअपनेतीसरेसंग्रहमेंप्रभामुजुमदारनेअपनेनिजत्वऔरस्त्रीत्वसेआगेबढ़तेहुए, राजनीतिकऔरसामाजिकविद्रूपताओंकोअपनाकेंद्रीयस्वरबनायाहै.

        
उनकेपिछलेदोसंग्रहोंमेंजहाँघर-परिवार, समाजमेंस्त्रियोंकीस्थिति-नियतिऔरबाजारकेफरेबऔरछलावेसघनतासेअभिव्यक्तहुएथे, वहींउनकेइसताजासंग्रहकीलगभगसभीकविताओंमेंराजीनीति, लोकतंत्र, सत्ताऔरसंपूर्णसमाजमेंव्याप्तहोगएछल-प्रपंच, साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़, उठा-पठक, सुविधापरस्ती, मौकापरस्ती, हिंसा, क्रूरता, षड़यंत्र, धार्मिकअसहिष्णुता, प्रायोजितसांप्रादायिकता, अराजकता, दमन-शोषणऔरअंतत: लोकतंत्रसेमोहभंगलेकिनइसकेबावजूदहरतरफपसरीआत्मघातीचुप्पीऔरसंवादहीनताबेहदतीक्ष्णताऔरउद्विग्नतासेअभिव्यक्तहुएहैं.

       
बोधिप्रकाशन, जयपुरसेवर्ष 2014 मेंबोधिजन-संस्करणकेरूपमेंप्रकाशितइसतीसरेसंग्रह'अपनेहस्तिनापुरोंमें'मेंकुलअड़सठकविताएँहैं.कुछेककविताओंकोछोड़देंतोलगभगइनसभीकविताओंमेंमौजूदासमाजऔरमौजूदाराजनीतिमेंलगातारहोतेजारहेपतनऔरक्षरणकेखिलाफपुरजोरगुस्सा, कटाक्षऔरचाहकरभीकुछनहींकरपानेकीछटपटाहटबेहदमुखरहै.स्वयंप्रभामुजुमदारअपनीभूमिकामेंलिखतीहैंकिसंग्रहकीअधिकांशकविताएँहमारेचारोंओरपसरीसंवादहीनता, छीजतेहुएमानवीयसंबंध, गहरातेअवसादभरेसन्नाटे, अविश्वास, असहिष्णुताएवंक्रूरमहत्वाकांक्षाओंकीअहंकारीगर्जनाओंकेबीचएकअनवरतबेचैनी, छटपटाहट, कुछकरनेकीव्यग्रताऔरकरसकनेकेअवसादसेगुजरनेकीप्रक्रियासेउपजीहैं.

       
सचमुच,आजयहसबसेकड़वासचहैकिसंवादकेसारेसाधनमौजूदहोनेऔरबाजारकेतमामहथकंडोंकेबावजूद, आजसमाजमेंचुप्पीऔरसंवादहीनताहीसमयकीसबसेपहलीपहचानबनगईहै.इसलिएसंग्रहकीपहलीहीकविताकाशीर्षक'संवाद'हैजिसमेंप्रभामुजुमदारकहतीहैंकि- 'कलतकयहाँ/ संवादोंकी/ खुलीआवाजाहीथी/ मगरआजसारेरास्ते/ बंदहोगएहैं.../ अनलिमिटेडटॉकटाइमकेबावजूद/ बेधकहैयहसन्नाटा.'सबकुछदेखतेहुएभीसब, हमसबचुप्पहैं! लेकिनसंग्रहकीअगलीहीकवितामेंवेइसचुप्पीकोबेहदबेबाकीसे'डिकोड'करदेतीहैं- 'सबचुपहैंइनदिनों/ औरहरएकचुप्पीका/ एकलंबा, गहराऔरखामोशअर्थहै.../ मगरयहचुप्पी/ मासूमऔरबेगुनाहनहींहै/ हवामेंएकसाजिशकीतरह/ घुलीहै/ औरहमसबको/ तमाशबीनोंकीपंक्तिमें/ खड़ाकरचुकीहै!' (चुपहैंसब : एक).

       
लेकिनप्रभामुजुमदारनेअपनीबेचैनी, आक्रोशऔरहालातकोबयांकरनेकेलिएशब्दोंकोहीअपनापहलामाध्यमबनायाहै- 'मेरेलिए/ शब्दएकऔजारहैं/ भीतरकीटूट-फूट/ उधेड़बुन/ अव्यवस्थाऔरअस्वस्थताकी/ शल्यक्रियाकेलिए.'इसलिएवेशब्दोंकीभूमिकाकोबेहदबारीकीसेबयांकरतीहैं- 'शब्दएकरस्सीकीतरहहै/ मनकेअंधेगहरेकुएँमें/ दफनपड़ीयादोंको/ खंगालनेकेलिए.../ शब्दएकप्रतिध्वनिहै/ वीरान, अकेली, निर्वासितनगरीमें/ हमसफरकीतरह/ साथचलनेकेलिए.'(शब्द : एक).लेकिनवहइसीसंग्रहकीभूमिकामेंयहभीरेखांकितकरतीहैंकि शब्द की सत्ता और महत्ता, इन दिनों या तो नेपथ्य में मौन साधे खड़ी है अथवा बाजार की चकाचौंध में अपनी उपयोगिता तलाश रही है और सत्ता के हर मठ और गढ़ के आगे अपने को नवाजे जाने की कवायद भी कर रही है. इसलिए वह अपनी कविता में लिखती हैं- 'शब्दअब/ बिकनेलगेहैंमंडियोंमें/ उत्पादबनकर/ औरबिचौलियोंकेसमूह/ खड़ेहोतेहैं/ उनकेदामआंकनेकेलिए/ अपने-अपनेलेबल/ औरपैकिंगकेसाथ.' (शब्द : तीन).

       
लेकिन विश्वसनीयता के इस गहराते संकट के बीच,उन्हेंयहपूराविश्वासहैकिसारीविद्रूपताओं, विषमताओंऔरछद्म-छलावोंकेबावजूदसत्यऔरमनुष्यताकीजड़ेंअबभीजिंदाहैंक्योंकि- 'जड़ेंजानतीहैं/ अपनेकोजिंदारखना/ अंधेरेऔरगुमनामीके/ बरसों, सदियों, युगोंमेंभी.' (जड़ेंजिंदाहैं : एक).इसलिएवेपूरेविश्वासकेसाथकहतीहैं- 'सुलगतेहुएजंगलमें/ बाकीहोंगीहीकईजड़ें/ बारिशकेइंतजारमें/ लहलहानेकोतैयार.'(जड़ेंजिंदाहैं : तीन).

      
आज के दौर में समय की रफ्तार बहुत बढ़ गई है, सूचना-क्रांति अपने चरम पर पहुँचकर विकाराल और विध्वसंक हो गई है और आक्रामक बाजार की चपेट हर कोई आ गया है. फलत: आदमी संवेदनाशून्य हो गया है और आदमी की आदमियत ही दाँव पर लग गई है. इसलिए प्रभा मुजुमदार महसूस करती हैं कि- 'इन दिनों/ किसी की खुशी पर/ नहीं होती खुशी/ और न ही छू पाती है/ किसी की कोई पीड़ा.../ किसी की मदद के लिए/ उठने से पहले हाथ,/ सोचने लगता है दिमाग/ नफे-नुकसान का हिसाब.' (इन दिनों : एक).ऐसी परिस्थिति में मनुष्य का पूरा वजूद ही किसी और की गिरफ्त में आ गया है और मनुष्य की हरेक गतिविधि का संचालन अब किसी और के हाथों हो रहा है. इसलिए वे लिखती हैं- 'मैं एक प्यादा/ शतरंज की बिसात पर/ बिछाया हुआ/ शहादत के लिए.../ मैं एक नागरिक/ आँकड़ों के मोहक जाल में/ बहलाए जाने के लिए.../ मैं एक वोटर/ वक्त-बेवक्त के चुनावों के लिए!' (वजूद).

         
प्रभा मुजुमदार ईश्वर और धर्म के नाम पर चल रहे कर्म-कांड, स्वांग और अभियान को भी ईश्वर की मौत ही मानती हैं. इसलिए वे लिखती हैं- 'कहते हैं/ ईश्वर मर गया है/ क्या सच?/ फिर कौन है/ उसका उत्तराधिकारी?/ या उत्तराधिकार की ही/ लड़ाई लड़ रहे हैं/ इतने सारे शैतान?' (ईश्वर की मौत पर).इसी तरह वे सतयुग के बहुप्रचारित दावों और स्थापित सत्यों पर भी संदेह करती हैं और उसका तार्किक विश्लेषण करती हैं. 'सतयुग में जीने से'कविता में वे कहती हैं- 'जितने भी संकेत/ और पुरावे मिलते हैं,/ काफी हैं मोहभंग के लिए/ सच और झूठ की/ पहचान के लिए/ क्योंकि तब भी रूप बदलकर किए जाते थे/ हत्याएँ और बलात्कार/ याचक का भेष धरकर/ हथिया ली जाती थी संपदा/ छल से जीता जाता था बल/ रिश्तों में सेंध लगाकर/ छीनी जाती थी सिद्धि.'इसलिए कविता के अंत में वे पाती हैं कि- 'शायद हम बेहतर हैं/ इस युग में ही/ अपने दुख, दुविधाओं और/ तमाम असुरक्षाओं के बावजूद.'

         
अपनी कविताओं में वे समाज में व्याप्त दोगलेपन और हर मोड़ पर गाल बजा रहे विदूषकों की भी स्पष्ट पहचान करती हैं- 'वही लोग/ जिन्होंने भ्रष्टाचार के विरोध में/ आसमान उठा रखा था सिर पर/ अपने और अपनों को बचाने के लिए आज/ समझौते की संभावनाएँ ढूढ़ रहे हैं.../ माफिया और अपराधियों के/ विरोध में/ जन आंदोलन खड़ा करने वालों की/ अलमारियों के भीतर से/ गिर रहे हैं नर-कंकाल.' (विदूषकों के बीच).लेकिन उन्हें मालूम है कि यहाँ इतनी आसानी से कुछ भी नहीं बदलने वाला, क्योंकि यहाँ हर चीज पहले से ही तय और प्रायोजित है, क्योंकि यहाँ हरबार 'उन्हीं की चौसर/ उन्हीं का खेल/ उन्हीं की गोटी/ उन्हीं के दाँव/ उन्हीं के दर्शक/ उन्हीं के समर्थक/ आयोजक/ निर्णायक' (हर बार : तीन)होते हैं और हम हर बार वही इतिहास दुहराने को विवश होते हैं.

         
इस संग्रह में गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभा मुजुमदार राजनीति, लोकतंत्र, प्रजातंत्र, जनतंत्र जैसे शब्दों के मौजूदा फरेब को बखूबी पहचानती हैं और संग्रह की तमाम कविताओं में उन्हें भरसक उजागर करने का प्रयास करती हैं. इसके लिए वे मिथकों और महाभारत के दृष्टांतों का सारगर्भित इस्तेमाल भी करती हैं. यही कारण है कि उन्होंने इस संग्रह का नाम भी 'अपने हस्तिनापुरों में'रखा है, जो इस संग्रह के केंद्रीय स्वर को मुखरता से प्रतिध्वनित करता है. उन्होंने संग्रह की संक्षिप्त भूमिका में लिखा भी है कि हस्तिनापुर सत्ता का स्थायी प्रतीक है. इसलिए महलों-दरबारों में चली जा रही शतरंजी चालें, ईर्ष्या, ब्लैकमेलिंग, नैतिकता की सुविधानुसार व्याख्या, अवसर के अनुरूप चुप्पी और वक्तव्य, लालसाओं का विस्फोट, येनकेन-प्रकारेन कार्यसिद्धि, हिंसा और विध्वंस द्वारा अर्जित विजय के बाद की अराजकता, अनिश्चितता, मोहभंग और विरक्ति भी हरेक देश-काल में सत्ता-केंद्रों के इर्दगिर्द घटित होने वाली कमोबेश स्थायी प्रवृतियाँ ही हैं.

        
संग्रह में 'अपने हस्तिनापुरों में'शीर्षक से छह कविताएँ हैं जो सत्ता से जुड़ी इन प्रवृतियों का बहुत सटीक चित्रण करती हैं. इस श्रृंखला की पहली कविता की शुरूआत में ही हमें सत्ता की सुविधापरस्ती की साफ झलक देखने को मिल जाती है- 'धृतराष्ट्र होने का मतलब/ अंधा होना नहीं होता./ धृतराष्ट्र होना होता है,/ अपनी मर्जी, खुशी और/ सुविधा के साथ,/ कुछ भी देख सकने की दिव्यदृष्टि./ कुछ भी अनदेखा/ कर सकने की आजादी.'सत्ता की मौकापरस्ती भी इस श्रृंखला की दूसरी कविता बखूबी बयां कर देती है- '''के खिलाफ हैं/ पंचानबे मुकदमे/ ''के खाते में दर्ज हैं सौ./ ''ने ताउम्र/ जेल से खेली है राजनीति./ एक का वोट बंधा/ जाति के नाम,/ तो दूसरे ने काटी है/ धर्म की फसल./ और यह तीसरा,/ बाँट रहा है सबको/ भाषाओं के नाम./ ...वे तीनों आश्वस्त हैं/ अपनी चाल के/ तुरूप के पत्ते से./ ...उन्हीं में से तो आएगा कोई,/ ढोल धमाकों के साथ/ हमारा भाग्य विधाता बन.'

       
इस श्रृंखला की पाँचवी कविता जनतंत्र की मौजूदा सच्चाई को एकबारगी बेपरदा कर देती है और आज के लोकतंत्र के बारे में कुछ कहने को बाकी नहीं रह जाता- 'जनतंत्र,/ जन की नहीं/ धन की शक्ति से चलता है./ जैसे हर भगवान को चाहिए,/ विराट और समृद्ध मंदिर/ भेंट और चढ़ावे/ सुरक्षा और दिव्यत्व/ भक्त और महंत./ जनतंत्र को भी चाहिए रुतबा./ अभेद्य सुरक्षाचक्र से मंडित,/ संसद, विधानसभाएँ/ मंत्री, राज्यपाल, राष्ट्रपति के लिए,/ आलीशान कोठियाँ, महल, बगीचे./ वर्दी और मैडल से सुसज्जित कमांडो,/ लालबत्ती, सायरन, लंबे काफिले,/ वेतन, भत्ते, सुविधाएँ,/ विदेश यात्राएँ, विशेष विमान,/ फूल-मालाएँ, चढ़ावे./ प्रवचन सुनने,/ तालियाँ बजाने को तत्पर/ भक्तों की जमात.'इसी कविता में आगे वे लोकतंत्र के महापर्व यानी मतदान का सच भी कटाक्षपूर्वक सामने रख देती हैं- 'एक वोट डालने से नहीं हिलती/ दिल्ली की सल्तनत/ यूँ दिल बहलाने के लिए/ अच्छा ख्याल है यह भी!'

       
लेकिन इस श्रृंखला की अंतिम कविता यानी 'अपने हस्तिनापुरों में : छह'में प्रभा मुजुमदार जनतंत्र के इस पतन के लिए हमें भी जिम्मेदार ठहराती हैं- 'कैद हैं हम/ अपने हस्तिनापुरों में/ बगैर जंजीरों के/ कारागार के दीवारों के बाहर./ समर्थ, चेतन,/ विवेकवान होने के बावजूद,/ देख रहे हैं,/ मनुष्यत्व के विरोध में/ षड़यंत्रों का अंतहीन सिलसिला./... जानते हुए भी कि/ बस एक आवाज भर शेष है/ तमाम मुर्दों में प्राण फूँकने के लिए/ फिर भी मुँह से नहीं निकलती/ बगावत की आवाज.'इसलिए वे इस कविता-श्रृंखला के अंत में हमसे सीधे सवाल करती हैं- 'कौन-सा वह मोह है?/ किस बात का इंतजार है?/ कौन-सी वे प्रतिज्ञाएँ/ तन, मन, मस्तिष्क को जकड़े हुए/ पत्थर-सी लदी सीने पर?/ क्या हम/ अपने आप से मुक्त नहीं हो सकते?'लेकिन सच तो यह है कि हम तभी मुक्त हो सकेंगे, जब हम अपने निजी और क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठेंगे और निजहित से पहले देशहित के बारे में सोचेंगे!

        
इस संग्रह में इसी तेवर और मिजाज की कई अन्य कविताएँ भी हैं. लेकिन वे सब की सब व्यग्रता और बेचैनी की एक जैसी मन:स्थिति में ही रची जान पड़ती हैं. इसलिए उनमें एक ही विषय का सायास दुहराव और कमोबेश सपाटबयानी दिखती है. यही कारण है कि संग्रह की ऐसी अनेक कविताएँ अनावश्यक विस्तार और अवांछित दुहराव का शिकार हो गई हैं, जो कविताओं की सतत पठनीयता को बाधित भी करती हैं. संग्रह में अनेक कविताओं का एक, दो, तीन, चार, पाँच खंडों तक जबरन विस्तार भी खटकता है. लेकिन इसके बावजूद, संग्रह में 'जंगली घास', 'एक मामूली आदमी', 'अपने तहखाने में', 'वक्त मिलने पर', 'दामिनी-सी', 'बच्चों के आने पर', 'उम्मीद है', 'संभावना'और 'जिंदगी हूँ मैं'कुछ ऐसी कविताएँ हैं, जिसमें कवयित्री का निजत्व, मनुष्य की सकारात्मक ऊर्जा, उमंग, उत्साह और जिंदगी की रवानियत प्रतिध्वनित होती हैं और हमें समाज, सत्ता और राजनीति की कड़वी सच्चाइयों से थोड़ी राहत मिलती है.

        
मुझे इस संग्रह में निजी तौर जो कविताएँ सबसे अधिक पसंद आईं, उनमें से एक है- 'बच्चों के आने पर'. इस कविता की पंक्तियाँ मन को छू लेती हैं- 'फिर फुदकने लगी चिड़िया/ आँगन में./ फूलों से भर गई बगिया./ महकने लगी हवा./ उतर आया बसंत/ चुपके से आँगन में./ ...एक अरसे बाद,/ जान आ गई रसोईघर में/ खुशबू, रंग और स्वाद से./ घनघनाने लगे सारे फोन/ देर रात तक.'इतना ही नहीं, बच्चों के घर आने पर खुद घर भी बहुत खुश हो जाता है क्योंकि- 'घर का एक कोना/ पहचानता है तुम्हें/ मेरे बच्चो!/ तुम्हारी खिलखिलाहट,/ झूठ, प्यार और शरारत,/ डर और आँसू,/ सपनों और चाहतों को,/ वैसे ही समेट रखा है इसने अपने भीतर.'इसी तरह 'उम्मीद है'शीर्षक कविता की शुरुआती पंक्तियाँ भी मुझे बाँध लेती हैं- 'जब तक/ एक पत्ता भी/ खड़कता है अंधेरे में,/ सन्नाटे को/ मिल रही है चुनौती.'संग्रह की अंतिम कविता 'जिंदगी हूँ मैं'भी हमारी सारी हताशा-निराशा हर लेती है और हममें फिर से जीने की ताकत भर देती है- 'फिर फिर लौटकर/ दस्तक देती रहूँगी मैं,/ तुम्हारे बंद दरवाजे पर./ ...जिंदगी हूँ मैं./ मौत की तमाम/ वेदना और हाहाकार के बीच,/ छुपा रखूँगी/ अपने कुछ अंकुर.'

       
कुल मिलाकर, प्रभा मुजुमदार का यह तीसरा संग्रह 'अपने हस्तिनापुरों में'पठनीय और सराहनीय है. उम्मीद करता हूँ कि प्रभा मुजुमदार अपना अगला संग्रह निकालने से पहले थोड़ा ठहरेंगी, अपनी कविताओं को और कसेंगी, उन्हें और पकने देंगी और अभिव्यक्ति की सघन रचनात्मक बेचैनी के बावजूद किसी भी हड़बड़ी से बचेंगी. संग्रह में प्रूफ की कुछ गलतियाँ रह गई हैं, लेकिन वे कविता के आस्वाद में ज्यादा विघ्न नहीं डालतीं. हाँ, मुझे पता नहीं क्यों इस संग्रह का नाम कुछ खटकता रहा और मैं इसे 'अपने हस्तिनापुरों में'की बजाय, हर बार 'अपने-अपने हस्तिनापुर में'ही पढ़ता रहा!
__________                 

राहुलराजेश 
सहायकप्रबंधक (राजभाषा), भारतीयरिज़र्वबैंक, मुख्य कार्यालय भवन
आश्रमरोड, अहमदाबाद-380014 (गुजरात). 
मो. 09429608159, rahulrajesh2006@gmail.com                             

विष्णु खरे : किसके घर जाएगा सैलाबे बला

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लोकतंत्र में व्यक्ति की गरिमा और आज़ादी के पक्ष में पुरस्कार वापसी का विस्तार साहित्य, कला, इतिहास, विज्ञान से होते हुए अब फ़िल्म-संसार तक है. किसी भी सभ्य समाज में इतनी सहिष्णुता तो होनी ही चाहिए कि वह अपना प्रतिपक्ष सुन सके. असहमति को बगावत समझना और उसे देशनिकाला दे देना एक प्रतिगामी सक्रियता है जो अंतत: समाज का विध्वंस कर उसे एक कट्टर और एकरेखीय समाज में बदल देती है. ऐसे समाजों की क्या दुर्दशा है इसे भारतीय महाद्वीप के नागरिक से भला बेहतर कौन समझ सकता है ?

विष्णु खरे अपने लेखन से अप्रिय होने की हद तक जाकर असुविधाजनक सवालों  उठाते  हैं. वे  अक्सर गलत समझ लिए जाने के जोखिम में घिर जाते हैं. यह आलेख जहाँ सम्मान वापसी के पक्ष में खड़े लेखकों और सिनेमा-सम्बन्धितों से कुछ नैतिक सवाल पूछता है वहीँ इस मुहीम को तार्किक विस्तार देते हुए कुछ सुझाव भी रखता है.  


किसके घर जाएगा सैलाबे बला                                            
विष्णु खरे

पनी इकलौती कहानी ‘मोहनदास’पर मिला जो पुरस्कार हिंदी गल्पकार उदय प्रकाशने इसलिए लौटाया था कि दात्री संस्था केन्द्रीय साहित्य अकादेमीने कन्नड़ के अपने पूर्व-पुरस्कृत  सदस्य-लेखक प्रो. एम.एम.कलबुर्गीकी मशकूक हिन्दुत्ववादी तत्वों द्वारा हत्या पर यथासमय समुचित शोक प्रकट नहीं किया, उससे जन्मा संक्रामक आन्दोलन एक बदलती गेंद बनकर लुढ़कता, टप्पे खाता, दीर्घाकार होता, बरास्ते सांसद महंत आदित्यनाथके अखाड़े गोरखपुर से मुंबई में  शाहरुख़ खान के बँगले ‘जन्नत’ तक पहुँच ही गया और इस तरह उसने एक असंभव, अप्रत्याशित वृत्त पूरा कर लिया.

यह अत्यंत विवादास्पद राजपूत महंत उदय प्रकाश के वही दूर के कज़िन हैं जिन्हें भयावह मुस्लिम-शत्रु माना जाता है, जिनके सांसदी हाथों से उन्होंने  कुछ बरस पहले एक कृतकृत्य रिश्तेदाराना साहित्यिक पुरस्कार ग्रहण किया था और उस कारण हमेशा के लिए लांछित हो चुके हैं. यदि आर.एस.एस.कह रहा है कि शाहरुख़ खान को पाकिस्तान मत भेजो क्योंकि वह देशद्रोही नहीं है तो आदित्यनाथ का आह्वान है उसकी फ़िल्में देखना बंद कर दो ताकि वह होश में आ जाए और केंद्र सरकार तथा देश के वातावरण को तंगनज़र, असहिष्णु या ‘इंटॉलेरैंट’ कहना बंद कर दे. इस पर उदय प्रकाश के प्रत्युत्तर की विकल प्रतीक्षा है. यह भी है कि शाहरुख़ ने अपने ‘पद्मश्री’ और अन्य सम्मान लौटने से इनकार कर दिया है.

सिने-जगत वाले कुछ महीनों से पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूटपर थोपे गए अयोग्य अध्यक्ष गजेन्द्र चौहानके विरुद्ध छात्र-आन्दोलन से उद्वेलित हैं ही और पिछले दिनों देश के बदतर हुए सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक माहौल को लेकर लेखकों-बुद्धिजीवियों के मुखर और सक्रिय विरोध-प्रदर्शन के बाद कुछ फिल्मकर्मियों ने भी , जिनमें आनंद पटवर्धन, दिवाकर बनर्जी, सईद मिर्ज़ा, अनवर जमाल, कुंदन शाह, वीरेन्द्र सैनी, संजय काकआदि शामिल हैं, अपने सरकारी सम्मान लौटाकर एक नया मोर्चा खोल दिया. इसमें प्रसिद्ध उपन्यासकार और सक्रियतावादी अरुंधती रॉयका नाम भी है.

कुछ विचित्र विरोधाभास सामने आ रहे हैं. यदि हम खुद को फिल्म-जगत तक ही महदूद रखें तो एक सवाल यह है कि जो भी सम्मान या पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं वे किस सरकार ने दिए थे. यदि उन्हें ग़ैर-भाजपा सरकारों ने दिया था तो भाजपा सरकार के ज़माने में उन्हें लौटाने से किस नैतिक-सामाजिक-राजनीतिक सिद्धांत को ‘एसर्ट’ किया जा रहा है ? इससे भाजपा किस तरह से शर्मिंदा या चिंतित हो सकती है ? उलटे वह कह नहीं सकती  कि इस कबाड़ को आप कांग्रेस के दफ़्तर या मनमोहन-सोनिया के निवासों पर ले जाइए.

और भी विचित्र यह होगा कि आप सब सरकारों को एक ही थैली की चट्टी-बट्टी मानें और कहें कि हम इस सरकार के कुकृत्यों के विरुद्ध उस पिछली सरकार के पुरस्कार लौटा रहे हैं.तो पूछा जा सकता है कि आपने उस सरकार से पुरस्कार क्यों लिए – क्या वह उस वक़्त बेदाग़ थी ? और क्या राजीव गाँधी, नरसिंह राव और मनमोहनसरकारों ने कुछ ऐसा किया ही नहीं कि आप उनके कार्यकाल में कुछ लौटाते ? मसलन अरुंधती रॉयको तो उनका पुरस्कार 1988 में मिला था, बाबरी मस्जिद 1992 में ढहाई गई और उसके बाद हज़ारों हत्याओं वाले दंगे हुए. क्या वे दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गीके आगे नगण्य और क्षम्य थे कि ‘’सीनियर’’ पुरस्कार-विजेताओं ने तब कोई कार्रवाई मुनासिब न समझी ? इस तर्क में क्या दम है कि हम जब उचित समझेंगे तब ईनाम लौटाएँगे ? और जो लौटा रहे हैं वे भी सही हैं और जो नहीं लौटा रहे हैं वे भी ग़लत या दोषी नहीं हैं ? जो दो-दो कौड़ी के पुराने प्रांतीय या स्थानीय पुरस्कार लौटा रहे हैं वे भी स्वयं को पाँचवाँ सवार या गाड़ी को नीचे से खींचनेवाला तीसरा ‘हीरो’ चौपाया समझ रहे हैं.

बहुत सारी ऐसी प्रतिष्ठित निजी साहित्यिकसंस्थाएँ हैं जो महत्वपूर्ण पुरस्कार देती हैं – उनसे क्यों नहीं कहा जा रहा कि वे उपरोक्त तीनों हत्याओं जैसी जघन्य, फ़ाशिस्ट घटनाओं पर शोक प्रकट करें ? लेकिन फिर हमारे लेखकों को भारतीय ज्ञानपीठपुरस्कार कैसे मिलेगा, ज्ञानपीठ से पुस्तकें कैसे छपेंगी, ’ज्ञानोदय’ में रचनाएँ कैसे आएंगी ? कुछ नहीं तो बिड़ला फाउंडेशनही सही ! किसी भी पार्टी या रंगत के हों, राजनेताओं को साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच देना बंद क्यों नहीं होता ? क्या हिंदी के प्रकाशकों ने अपने हाउस-जर्नल्स में कभी ऐसी हत्याओं पर शोक प्रस्ताव छापे ? जुझारू वामपंथी हिंदी पत्रिकाओं ने कोई लेख-वेख ?

मेरे लिए सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी नहीं कह रहा है कि वह सरकारी-अर्ध-सरकारी संस्थाओं से कोई राब्ता नहीं रखेगा – इस मसले पर भारतीय लेखकों की कोई नीति या सोच ही नहीं हैं. मेरा मत है कि सिर्फ़ भाजपा के वक़्त के सरकारी पुरस्कार लौटाए जाने चाहिए – बाक़ी को लौटाना महज़ एक धूर्त, निरर्थक पब्लिसिटी स्टंट है. हमारा अधिकांश मीडिया, जो बुद्धि और सूचना के स्तर पर काफ़ी दीवालिया है, मीडियाकरों द्वारा टुच्चे, जुगाड़े गए ‘’पुरस्कारों’’ को ‘स्पिन’ और ‘बाइट’ दे रहा है. आप देखें कि शाहरुख़ को अपना कोई पुरस्कार लौटाने-योग्य नहीं दीख रहा  है क्योंकि  उसकी पॉपुलैरिटी बड़े-से-बड़े ईनाम या सम्मान लौटाने-न लौटाने से कई गुना ज़्यादा बड़ी है, दादासाहेब फालके से भी ज्यादा, इसलिए उस पर  हमला करने के लिए भाजपाई नेताओं और रामदेव तथा आदित्यनाथको उतरना पड़ा है – सईद लँगड़े पर कौन रोएगा ?

असहिष्णुता हमारे यहाँ कब से नहीं है – जाति-प्रथा से ज़्यादा अमानवीय चीज़ और किस समाज में वेद और मनुस्मृति-काल से है ? मजहबों में इंटॉलरेन्स अनिवार्य रूप से कूट-कूट कर भरा हुआ है. हम सब उस एकतरफ़ा-दुतरफ़ा नफ़रत को जानते है जो हमारे यहाँ विभिन्न धर्मों, बिरादरियों, संस्कृतियों, भाषाओँ, प्रदेशों आदि के बीच में है. हमारे देश में हर उम्र की ‘स्त्री’ को लेकर जो ग़ैर-बर्दाश्तगी है वह रोज़ दमन, बलात्कार, दहन और अत्याचारों की खबरों की शक्ल में हमारे घरों पर नाज़िल होती है.सिर्फ़ आज की और ‘धर्मवादी’ असहनशीलता की बात सभी के लिए सुविधाजनक है क्योंकि हम पूरा निज़ाम बदलने की हिम्मत और सलाहियत रखते ही नहीं.

कड़वी सचाई तो यह है कि हमारी अधिकांश अधेड़ फिल्म-इंडस्ट्री ख़ुद तंगनज़र और बुज़दिल है  और अपने स्वार्थ व ऐयाश मुनाफ़े के लिए हर तरह के इंटॉलरैंट माफ़िया की लौंडी बनी हुई है. वह खुद ‘कास्टिंग काउच’ पर विवस्त्र लेटी हुई है. जिस तरह हमारे पूरे समाज में कोई प्रबुद्ध, निडर, आधुनिक सभ्यता और विचारधारा नहीं है उसी तरह सिनेमा-उद्योग में भी नहीं है. उसे बैठने को कहो तो वह रेंगने लगता है.

दरअसल आज फिल्म-जगत में नेहरू-युग से 1970-80 तक के निस्बतन बड़े, नैतिक-सामाजिक-राजनीतिक मौजूदगी वाले  प्रोड्यूसर,डायरेक्टर,स्त्री-पुरुष एक्टर, लेखक और गीतकार रहे ही नहीं. दिलीप कुमार आज उस ज़माने के एक लाचार, आख़िरी मार्मिक प्रतीक हैं. अमिताभ बच्चन से किसी भी तरह की उम्मीद बेकार है. दूसरी ओर भाजपाई और अन्य उपद्रवी हिन्दुत्ववादी राजनीतिक और सांस्कृतिक तत्व, कुछ मुंबई में होने के कारण भी, खुल्लमखुल्ला फ़िल्म उद्योग में दाखिल हो चुके हैं, ’डॉमिनेट’ कर रहे हैं और उनके समर्थक तो सिनेमा की हर शाखा में ‘इन्फ़िल्ट्रेट’ करते आए ही हैं. कई बड़े हीरो-हीरोइन आज भाजपा-शिवसेना आदि  के समर्थक-सदस्य हैं, जैसे कुछ कांग्रेस के भी रहे हैं. वे आपसी जासूसी, चुग़ुलखोरी और नुक़सान करते ही होंगे.

हॉलीवुड 1946-56 के बीच प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा प्रगतिशील एक्टरों और लेखकों को आखेट  बनाने के राजनीतिक अभियान से हिल गया था. बाद में इस ‘डायन-शिकार’ (‘विच-हंटिंग’) को बंद करना पड़ा लेकिन वह लोगों की स्मृति में बना  हुआ  है और उसे लेकर दोनों पक्ष अब भी जागरूक हैं. हालाँकि उस पर अब तक किताबें लिखी जा रही हैं, लेकिन क़िस्सा बहुत जटिल है. उसके ‘नायक’ विख्यात पटकथा-लेखक डाल्टन ट्रम्बोथे जिनपर स्वयं अब एक फिल्म बन रही है. हॉलीवुड की यह कुख्यात दास्तान मुंबई में दुहराना बहुत कठिन नहीं है. अभी तक देश की जनता यह समझ नहीं पा रही है कि यह पुरस्कार लौटाना और तंगनज़री, असहिष्णुता, इंटॉलरैंस वगैरह क्यों, किसलिए हैं. इसके लिएश्याम बेनेगल, गोविन्द निहालाणी, ओम पुरी, आमिर खान, शाहरुख़, महेश भट्ट, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, तब्बूजैसे नामों को इंडस्ट्री के एक जुलूस की शक्ल में सड़क पर आना होगा. इसमें मुख्यधारा (मेनस्ट्रीम) के लोकप्रिय चेहरे और नाम होने अनिवार्य हैं. अंदरखाने कौन-क्या है यह कहना भी तो मुश्किल है. लेकिन देशव्यापी जागरूकता और निडरता  की एक शुरूआत फिल्मवाले भी कारगर ढंग से कर सकते हैं.

आज संसार में सिनेमा से अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली कला और सूचना माध्यम कोई नहीं है.गोवा में भारत का सरकारी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह शीघ्र ही होने जा रहा है.वैसे तो इसे विश्व सिने-बिरादरी में कोई भी बहुत गंभीरता से नहीं लेता, फिर भी गोवा के नाम पर कुछ विदेशी निर्माता-निदेशक-अभिनेता अपनी फिल्मों के साथ उसमें खींचे चले ही जाते हैं और बाहर के अखबारी तथा रेडियो-टीवी के पत्रकार भी.जो प्रबुद्ध,आधुनिक और प्रतिबद्ध भारतीय फिल्मकर्मी वाक़ई असहिष्णुता के मसले पर गंभीर हैं उन्हें इस फिल्म समारोह के अवसर के ज़रिये  अपनी बात सारी  दुनिया के सामने रखना चाहिए. भले ही इसका बहिष्कार न किया जाए लेकिन समारोह की अवधि में काली पट्टियां बाँधी जा सकती हैं,प्रदर्शन किए जा सकते है,जुलूस निकाले  जा सकते हैं,प्रैस और टीवी कांफ्रेंसें की जा सकती हैं,सेमिनार और लेक्चर किए जा सकते हैं. ज़रूरत पड़े तो अपनी फ़िल्में वापिस भी ली जा सकती हैं. पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट के छात्र भी इसमें शांतिपूर्ण ढंग से शामिल हो सकते हैं.

अभी यह मालूम ही नहीं पड़ रहा है कि दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गीत्रिमूर्ति की हत्या किन तत्वों ने की लेकिन सभी लेखकों-बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों-एक्टरों को आज एकजुट और सतत् जागरूक रहने की ज़रूरत है. यह भी है कि आज यदि बिहार में महागठबंधन जीतता है, जिसकी प्रबल संभावना है, तो मुंबई में शाहरुख़, आमिर आदि  के नेतृत्व में एक विजय-मार्च निकाला जाना चाहिए क्योकि वह असहिष्णुता के अंत का एक प्रारंभ हो सकता है.
______________ 
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

विष्णु खरे को इस सन्दर्भ में यहाँ भी पढ़ें- 

सबद भेद : कवि विजय कुमार : अच्युतानंद मिश्र

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कवि आलोचकविजय कुमार के तीन कविता संग्रह अदृश्य हो जाएँगी सुखी पत्तियां, चाहे जिस शक्ल से और रातपालीप्रकाशित हैं. आलोचना के क्षेत्र में भी उनका गम्भीर कार्य है.  

उनके कवि कर्म पर अच्युतानंद मिश्र का आलेख.  

विजय जी को जन्म दिन की बधाई और समालोचन परिवार की ओर से आप सभी को दी पा व लीकी शुभकामनाएं  
                 






इस तरह, एक कविता लिखना चाहता था मैं                                 
अच्युतानंद मिश्र 



विता सामान्यीकरण भी करती है .परन्तु सामान्यीकरण की यह प्रक्रिया कविता में एक विशेष प्रकार का रूपाकार ग्रहण करती है. जीवन जगत में सामान्यीकरण की प्रक्रिया परिभाषाओं और परिकल्पनाओं के माध्यम से सम्पन्न होती है. कविता में ऐसा नहीं होता. परिभाषाएं एवं परिकल्पनाएं जहाँ सामान्य का विशेषीकरण करती हैं, वहीँ  कविता विशिष्ट से सामान्य की तरफ प्रस्थान करती है. कविता अन्य ज्ञान माध्यमों से इस अर्थ में भी भिन्न है कि वह इस प्रक्रिया में यानि चेतना निर्माण की प्रक्रिया में ज्ञान और संवेदना का संतुलन निर्मित करती है .भारतीय काव्यशास्त्र में सहृदय की परिकल्पना इसी संदर्भ की ओर इंगित करती है. कविता में सामान्यीकरण का एक अर्थ संदर्भ यह भी है कि वह इस तरह विशिष्ट यानि अपवादों की सत्ता संरचना का निषेध रचती है. यह कहना ज्यादा सार्थक होगा कि हर कविता अंततः एक प्रतिरोध रचती है .क्योंकि प्रतिरोध की संस्कृति ज्ञान और संवेदन की साझा संस्कृति है. इसी सन्दर्भ में जब हम विजय कुमार की कविताओं को देखते हैं तो पाते हैं कि वह हमारे इर्द गिर्द फैली विशिष्ट और आश्चर्यपूर्ण यथार्थ को सामान्य में बदलती हैं. हमारे समय का  सांस्कृतिक प्रतिरोध रचती है. 

विजय कुमार के अब तक तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उनका पहला संग्रह अदृश्य हो जाएँगी सुखी पत्तियां 1981 में प्रकाशित हुआ. चाहे जिस शक्ल से शीर्षक से उनका दूसरा संग्रह 90 के दशक के मध्य में  प्रकाशित हुआ. 2006 में उनका तीसरा संग्रह रातपालीप्रकाशित हुआ.

विजय कुमार के पिछले संग्रह रात-पाली की कवितायेँ अपने स्वरुप और शिल्प में हिंदी कविता में एक नया प्रस्थान बिंदु निर्मित करती है. उत्तर पूंजीवाद के सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया को जिस शिद्दत और आवेग के साथ विजय कुमार रात-पाली में दर्ज़ करते हैं ,वह हिंदी कविता में मौजूद एकरूपता और दुहराव के समानांतर नये भावबोध को रचती है. नब्बे के दशक की कविता का मूल संकट ज्ञान और संवेदना के असंतुलन से निर्मित होता है. इन कविताओं में दो अलग छोड़ देखे जा सकते हैं .एक तरफ संवेदना का भावुक धरातल नज़र आता है -कई बार इस हद तक कि वह नई कविता का पुनुरोदय सा प्रतीत होने लगता है -तो दूसरी तरफ ज्ञान की बहु-आक्रामकता के दवाब के बीच कविता ही गायब होने लगती है. इस सबके साथ साथ दो और बिन्दुओं की तरफ ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा ,एक तो नब्बे के दशक की कविता आठवें दशक की कविता का विस्तार जैसा बनने की कोशिश बनकर रह जाती है तो दूसरी तरफ उससे अलग होने की कोशिश में वह बेहद अमूर्त भी हो जाती है .ऐसा नहीं है कि इस दौर के कवि को इन संकटों का पता नहीं है. बहुत सारे कवि इस संकट से वाकिफ थे, लेकिन रास्ता न खोज पाने की वजह से वे भिन्न -भिन्न तरह की काव्य विसंगातियों, सरलीकरणों एवं राजनीतिक मुहावरे को सीधे सीधे काव्यात्मक अभिव्यक्ति में तब्दील करने का प्रयत्न करने लगे. 

उदाहरण के तौर पर देखें तो  नब्बे के बाद हिंदी कविता में साम्प्रदायिकता का विषय महत्वपूर्ण हो उठता है. अचानक बहुत सारे कवि सामप्रदायिकता को मूल अंतर्विरोध की तरह प्रस्तुत करते हैं . निश्चित रूप से साम्प्रदायिकता एक महत्वपूर्ण और जरुरी विषय है लेकिन सिर्फ साम्प्रदायिकता को ही कविता में लाना एक तरह से उस पूरे सवाल को दरकिनार करना भी था जो आठवें दशक की कविता में मौजूद गतिहीनता से उपजी थी. नब्बे के दशक की कविता का एक संकट यह भी था कि बहुत सारे कवि नब्बे के दशक में आठवें दशक को ही दोहरा रहे थे . सिर्फ नब्बे ही क्यों यह बात बिलकुल आज की कविता तक पर लागु होती है. ऐसे में कविता में ठहरा हुआ समय नज़र आने लगता है .नब्बे के बाद से आज तक की कविता है उसके एक हिस्से में जो अतिरिक्त कलात्मक सजगता या भाषिक कौतुक है वह इसलिए भी है कि वस्तुगत स्थिरता या ठहराव ओझल हो सके . इस ठहराव को विजय कुमार प्रश्नांकित करते हैं . वे इस ठहराव से उत्त्पन विडम्बना बोध को कविता बनाते हैं –

पर जीवन इतना रूमानी नहीं है
हम चालीस पार के हो गये हैं
हम मुक्त नहीं हैं
भीतर से कुढ़ रहे हैं हम
हम एक वजनी पत्थर की तरह
समय की नदी में डूबते जा रहे हैं
हम सबके कमरों में महान लेखकों की थोड़ी- बहुत किताबें हैं
इन्हीं किताबों के पास विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स की गोलियां रखी हैं

इस कविता में मौजूद आत्मालोचन का स्वर एक सार्वजनिक स्पेस निर्मित करता है. ध्यान दे कि यहाँ हम को संबोधित किया गया है. हम यानि मध्यवर्ग. यह एक तरह से उस नायकत्व से अलगाव भी है, जहाँ आत्मलोचना को नितांत वैयक्तिक बनाने की कोशिश की जाती है. निकट के यथार्थ को रखने की कोशिश में या कहें अपने अनुभव को प्रमाणिक बनाने की कोशिश में यथार्थ का वैयक्तिकरण कर दिया जाता है. लेकिन इस पूरी वैयक्तिक प्रक्रिया में वर्गीय सामान्यीकरण (वर्ग स्वयम में एक सामान्यीकरण ही है) का निषेध अन्तर्निहित होता है. निकट के यथार्थ या प्रमाणिक यथार्थ लिखने की कोशिश में बारहा यथार्थ ही छूट जाता है. विजय कुमार अपनी कविताओं में निजता से बचते है. कहीं अगर कवि का मैं या निजी संसार आता भी है तो वह एक खास तरह की सामूहिकता के बोध के साथ . विजय कुमार के यहाँ मध्यवर्गीय आत्मालोचना का स्वर नवें दशक की कविता में अधिक विडम्बनाओं एवं व्यंग्य के साथ उभरता है.

उदारीकरण ने हमारे समाज के मूल ढांचे को बदलना शुरू किया. नब्बे के दशक तक इसका प्रभाव बहुत हद तक मध्यवर्ग तक सीमित प्रतीत होता था लेकिन नब्बे के अंतिम वर्षों में इसने समाज के निचली सतह को बुरी तरह तबाह कर दिया था. हाशिये पर जीने वालों की तादाद में अकल्पनीय बढ़ोत्तरी हुयी .क्रूरता का नया दौर शुरू हुआ. गुजरात के दंगे सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं थे कि वहां  हिंसा सत्ता वर्ग द्वारा परिचालित थी.  ऐसा तो प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर हर दंगे में होता ही है. महत्वपूर्ण वह क्रूरता थी, जिसके समक्ष मनुष्यता का ऐतिहासिक रूप से दैनीय चित्र हम देखते हैं. इस क्रूरता का अभ्यास स्थल यही निम्न वर्गीय जीवन था .फूको ने शहरी संस्कृति पर प्रश्न उठाते हुए यह पूछा है कि महानगरों की जो चरम आधुनिकता हैं ,चकाचौंध रौशनी है उसके समानांतर जो एक विशाल कूड़ाघर निर्मित हो रहा है, भिखमंगो, अफीमचियों, नशेड़ियों, वेश्याओं, यतीम बच्चो एड्स और यौन संक्रमण के बीमार मरीजों, परिवार द्वारा छोड़ दिए गए बूढों, कोढियों आदि का उसे हम किस वर्ग में रखेंगे.

70 के दशक में यह यूरोप और अमेरिका को ध्यान में रखकर कही गयी बात थी लेकिन 2000 के गिर्द यह प्रश्न हमारे समय समाज क लिए भी महत्वपूर्ण हो उठा. दिल्ली मुंबई कलकत्ता जैसे शहरों ने एक विशाल कूड़ाघर निर्मित कर लिया .अगर हम किसानों की आत्महत्या का प्रश्न भी इसमें जोड़ दें तो यह समझना कठिन न होगा कि यह प्रश्न शहर या गाँव से सम्बन्धित नहीं है , बल्कि इसने शहर और गाँव की बीसवीं सदी तक मौजूद परिकल्पना को बदल दिया. जिन आर्थिक राजनीतिक सामाजिक सम्बन्धों नें बीसवीं सदी में शहर और गाँव को परिभषित किया था अब बहुत हद तक वे सम्बन्ध बदल रहे थे. इस बदलाव के मूल में मनुष्य और मनुष्य के बीच हो रहे आदिम संबंधो के परिवर्तित होने की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी क्योंकि ऐसी क्रूरता इससे पहले हमारे समाज में मौजूद नहीं थी.

रात पाली की कविताओं को देखे तो उसमे बेहद संवेदनशीलता के साथ इन परिवर्तनों  की पड़ताल की गयी है.

फिर कोई लिखता है कविता
यह कविता
पुलिस थाने में इंसाफ की दुहाई नहीं
न इसमें दिनचर्या न धधकतीआग
और न पोटलियों में बंधे विवरण
और न इस्तीफा है
xx xx xx xx xx xx
तो क्या ये तामम कवितायेँ
चाबियाँ हैं किन्हीं ओझल दरवाजों की
जो समय के बाहर खुलते हैं ?

आत्मा के किन घावों का निशान लिए
इंसानों की परछाइयां बैठी हुयी है भाषा में


यह कविता एक वक्तव्य भी है कि फिर कवितायानी आठवें दशक के बाद की कविता क्यों. यहाँ यह देखना महत्वपूर्ण है कि विजय कुमार की कविताओं में अपनी पिछली कविताओं की तुलना में एक नये मिजाज और नये बोध की कविता रात पली में नज़र आती है. इन कविताओं में डिटेल्स की भरमार है लेकिन ये कवितायेँ किसी पुरानी काव्य परिपाटी से निकलकर नहीं आती. ये शहर को देखने की हमारी अनुकूलित दृष्टि पर चोट करती हैं. रातपाली का संदर्भ यह भी है कि भागदौर और गति के चरम से निर्मित महानगर की रातें कैसी होती हैं. यानि गति और परिदृश्य ये दो तत्व हैं जो इन कविताओं में मूल बिंदु बनते हैं. रात के वक्त जो शहर का विशिष्ट परिदृश्य है. वह हमारे सामान्य बोध में दाखिल होता है. यहाँ  एक रूपांतरित होते मनुष्य की समय गाथा दर्ज होती है. लेकिन यहाँ मनुष्य संज्ञावाचक नहीं है मसलन यहाँ व्यक्तियों के नाम नहीं हैं. यहाँ इसलिए मनुष्य का संदर्भ एक समुदाय एक समाज एक परिदृश्य रचता है.


______
अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबेARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com

सबद भेद : सन् 1857 का विद्रोह: सुराज के लिए संघर्ष : मैनेजर पाण्डेय

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भारत और इंग्लैण्ड के तथाकथित ‘साझे रिश्तें’ (जिसे अक्सर राजनेता ब्रिटेन के सरकारी दौरों पर दुहराते रहते हैं) बराबरी और परस्पर सम्मान के नहीं थे. और ये अगर ‘रिश्ते’ थे भी तो एक गुलाम देश और एक औपनिवेशिक शासक के बीच के थे. इसमें शोषण, यातना, विकार और विकृति के न जाने कितने जिंदा पन्ने हैं. 

१७५७ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कलकत्ता में अपने साम्राज्य की नीव रखी थी. १७५७ से १८५७ के बीच के १०० वर्षों में एक व्यापारिक कम्पनी के हाथों में धीरे धीरे भारत का निज़ाम आ गया. १८५७ के महा विद्रोह को कुछ इतिहासकार बलवा कहकर उसकी प्रकृति और महत्व दोनों को छोटा कर देते हैं. 

इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम की स्मृतियां लोकगीतो में बिखरी पड़ी हैं. वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने हिंदी क्षेत्र की सभी बोलियों (भाषाओँ) के लोकगीतों का संग्रह कर यह शोधपरक भूमिका  लिखी है. आज यह खास आपके लिए.  

'स मालोन' ने अपने पांच वर्ष पूरे कर लिए हैं. समालोचन से जुड़े सभी लेखकों, शुभचिंतकों और पाठक को बधाई .





सन् 1857का विद्रोह: सुराज के लिए संघर्ष                             
मैनेजर पाण्डेय


इतिहास जिनकी उपेक्षा करता है, साहित्य उनकी चिंता करता है और उनकी आवाज बनकर उन्हें नया जीवन देता है.
         



न् 1857के भारतीय महाविद्रोह के इतिहास-लेखन का इतिहास बहुत लंबा है, वह सन् 1858से 2011तक फैला हुआ है. ये इतिहास विभिन्न दृष्टिकोणों, विचारधाराओं और उद्देश्यों से 1857के विद्रोह की व्याख्या करते हैं. आरंभिक इतिहास उपनिवेशवादी दृष्टि से लिखे गए और बाद में राष्ट्रवादी दृष्टि से. बीसवीं सदी में माक्र्सवादी और सबाल्टर्न दृष्टियों से भी 1857के संघर्ष के इतिहास लिखे गए. इन सभी इतिहासों में 1857के संघर्ष के नायकों, सेनानियों, नवाबों, राजाओं और रानियों का उल्लेख है, लेकिन उस युद्ध में लड़ने, शहीद होने और खूँखार दमन का शिकार होने वाले साधारणजनों की चर्चा नहीं है.

1857का युद्ध एक जन-युद्ध था, उसमें साधारण जनता ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था और बाद में वही सबसे भयावह दमन के दौर से गुजरी. उस जन-युद्ध में भारत के हिंदुओं और मुसलमानों, पुरुषों और स्त्रियों ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध युद्ध किया था. उसमें सभी जातियों, पेशों और हैसियत के लोग शामिल थे. यह बात उस युद्ध से संबंधित लोकगीतों, गीतों और साहित्य के विभिन्न रूपों के माध्यम से हमारे सामने आती है. इस जन-युद्ध से यह भी साबित होता है कि हर वर्ग और हैसियत के लोगों को देशभक्त होने का अधिकार है. इतिहास तथ्यों की चर्चा करता है, लेकिन दारुण और दर्दनाक स्मृतियों की नहीं, जबकि पराजित और पराधीन मनुष्यों की स्मृति बहुत लंबी होती है. ऐसी स्मृतियों को सजीव, प्रभावशाली और दीर्घजीवी बनाने का काम साहित्य करता है, विशेष रूप से लोकसाहित्य; क्योंकि लोकसाहित्य की रचना लोक करता है और इस तरह वह अपनी स्मृतियों को दीर्घजीवी बनाता है. 1857से संबंधित लोकगीतों और लोकभाषाओं में लिखे गीतों में अनेक प्रकार की स्मृतियाँ व्यक्त हुई हैं. अंग्रेजी राज से लोक के संघर्ष और अंग्रेजी उपनिवेशवाद की लूट, दमन और तबाही के अनुभवों की स्मृतियाँ लोकगीतों में ही है.
         

सन् 1857-58में भारत में अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो जन-युद्ध हुआ था उसके उद्देश्य, स्वरूप और महत्व पर तबसे अब तक जो विचार-विमर्श हुआ है उसका आधार वास्तविक, कल्पित और मनगढंत ऐतिहासिक सच और झूठ रहे हैं. यही नहीं, ऐसे संपूर्ण लेखन में विभिन्न प्रकार के ज्ञानियों की दृष्टि और समझ प्रकट हुई है, लेकिन युद्धक्षेत्र की जनता की चेतना और भावना नहीं. उस जन-युद्ध में शामिल जनता की चेतना और भावना को जानने के लिए उस जनता के रचे लोकगीतों को पढ़ना जरूरी है.
         
उन लोकगीतों से जाहिर होता है कि भारतीय जनता ईस्ट इंडिया कंपनीके कुराज के कारण तबाही, बर्बादी और यातना की जिस दारुण दशा को झेल रही थी उससे मुक्ति और सुराज की स्थापना के लिए वह युद्ध कर रही थी. सन् 1857के विद्रोह के एक सेनानी कुँवर सिंहसे संबंधित एक लोकगीत में उनकी राजनीतिक आकांक्षा और उसके अधूरा रहने का दुख इस तरह व्यक्त हुआ है:

                                          कुल्ही गुनलका रामा, मटिया में मिलि गइले,
                                          नाहीं लेबे पवलीं हम सुराज

सुराज हिंदी की विभिन्न लोकभाषाओं का अत्यंत लोकप्रिय शब्द है. यह जितना लोकप्रिय है उतना ही पुराना भी है. तुलसीदास के समय में यह बहुत लोकप्रिय रहा होगा, इसीलिए उन्होंने रामचरितमानस में इसका कम से कम पाँच बार प्रयोग किया है. अयोध्या कांड में सुराज शब्द का प्रयोग तीन बार है:

          (क)   जाइ सुराज सुदेश सुखारी.
                                                          होहिं भरत गति तेहि अनुहारी..
          (ख)   राम बास बन संपतिभ्राजा.
                                                          सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा..
          (ग)    अलिगन गावत नाचत मोरा.
                                                          जनु सुराज मंगल चहु ओरा..

फिर किष्किंधा कांड में सुराज शब्द का प्रयोग दो बार है:
         
(घ) अर्क जवास पात बिनु भयऊ.
                                                          जस सुराज खल उद्यम गयऊ..
          (ङ)    विविध जन्तु संकुल महि भ्राजा.
                                                          प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा..

तुलसीदास के अनुसार सुराज के पाँच लक्षण हैं. पहला, सुराज होने से देश सुदेश हो जाता है. दूसरा, सुराज के कारण जनता सुखी होती है. तीसरा, सुराज होने पर चारों ओर मंगल होता है. चैथा, सुराज में दुष्टों की गतिविधियाँ समाप्त हो जाती हैं और पाँचवा, सुराज के कारण जनता की उन्नति होती है. इनमें से एक भी लक्षण ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में भारत में न था. इसका तात्पर्य यह है कि वह कुराज था, इसीलिए उसके विरुद्ध सुराज की स्थापना के लिए 1857का संघर्ष हुआ. बाद के समय में स्वाधीनता आंदोलन के दौर में भी सुराज शब्द का हिंदी क्षेत्र में प्रयोग अत्यंत लोकप्रिय था. आम जनता स्वधीनता आंदोलन के सभी छोटे-बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को सुराजी कहती थी.

इस लोकगीत में केवल सुराज न पा सकने का दुख ही व्यक्त नहीं हुआ है बल्कि सुराज के सपने के अधूरा रह जाने के एक बड़े कारण का स्पष्ट उल्लेख भी है. सन् 1857के जन-युद्ध में भारतीय पक्ष की पराजय के अनेक कारण बताए गए हैं, लेकिन प्रायः इतिहासकारों  ने उस कारण की चर्चा नहीं की है जिसका उल्लेख इस लोकगीत में है:

                                         रामा देशवा के कुछ त अदमियाँ रे ना.
                                          रामा भइले देश के द्रोहिया रे ना.
                                          एक त हम आस कइलीं राजा डुमराव के
                                          उहो भागी चलले जइसे बन में खरहा.

हाल की खोजों से यह बात सामने आई है कि उस युद्ध में भारतीय पक्ष की पराजय का एक बड़ा कारण असंख्य भारतवासियों का देशद्रोह था, जिसका उल्लेख इस लोकगीत में है. गदर के गद्दारों का उल्लेख एक और लोकगीत में भी है. गदर के गद्दारों की चर्चा इस भोजपुरी गीत में की गई है: 
     
                                         रामा देशवा के कुछ त अदिमिया रे ना..
                                          रामा हो गइले देशद्रोहिया रे ना.
                                          रामा मिलि गइले आयर के संगवा रे ना..
                                          रामा भारी दल लेके उनके सथवा रे ना.
                                          रामा आरा पर कइले चढ़इया रे ना..

गदर के गद्दारों के बारे में एक अवधी लोककवि के गीत में कहा गया है:
                                         
भाई बन्द और कुटूम कबीला सबका करौं सलामा.
                                          तुम तो जाय मिल्यो गोरन ते हमका हैं भगवाना..


एक कौरवी लोकगीत में गदर के कुछ गद्दारों को कुछ इस तरह याद किया गया है:

                                          गंगाराम याहूदी ने जी देखो तो क्या काम किया.
                                          अंग्रेजों से मिला रहा, और लड़ने का बस नाम किया.
                                          फौज ने मांगा खाने को, ना उनका कोई काम किया.
                                          भूखे लड़ते रहे गाजी अरु, किनको सुमू शाम किया.   

खड़ी बोली के एक लोकगीत में गद्दार सामंतों का यह उल्लेख है:
                               
सूबे के राजवार फिरंगी से मिल गये.
                                          जितने लड़े समर में सब उत्तर चले गये.
                                          दो एक निमक हराम किरिस्तान हो गये.
                                          सदहा लड़ाई मारि कै राना निकल गये.
         
गदर के गद्दार दो तरह के थे. एक थे छोटे-बड़े असंख्य सामंत और दूसरे थे अंग्रेजी राज के बहुत सारे जासूस. इन गद्दारों की करतूतों की खोज और विवेचना का काम हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अनेक लेखकों ने किया है. हिंदुस्तान के शम्सुल इस्लामने जासूसों के खुतूत और दिल्ली हार गई नाम से एक किताब संपादित की है जिसमें देशी जासूसों के एक सौ आठ खत हैं. शम्सुल इस्लाम ने इस किताब की एक लंबी भूमिका भी लिखी है, उस भूमिका में गदर के गद्दारों के बारे में एक अंग्रेज इतिहासकार जे. डब्ल्यू. केईकी यह राय उद्धृत की है - ’’यह ग़दर-युद्ध की एक अदभुत विशेषता थी कि हालांकि अंग्रेज़ स्थानीय नस्लों के विरुद्ध लड़ रहे थे, पर उन्हें वास्तविकता में इसी देश के स्थानीय लोगों ने समर्थन दिया. ये समर्थक जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय शत्रु मानते थे उनकी सहायता के बिना हम एक दिन भी जीवित नहीं रह सकते थे.’’1
         
1857के युद्ध की एक और विडंबना है जिस पर इतिहासकारों ने कम ध्यान दिया है वह विडंबना यह है कि उस जन-युद्ध में भारतीय पक्ष की पराजय और अंग्रेजी राज के विजय की सबसे बड़ी वजह भारतीय सामंतों, जमींदारों और छोटे-बड़े राजे-महाराजों की गद्दारी तथा अंग्रेजी सत्ता की मदद थी. इस तथ्य को अंग्रेज इतिहासकार केई और पत्रकार रसेल ने स्वीकार किया है. 1857के एक भारतीय सेनापति नानासाहेब ने अपने अंतिम पत्र में यह ठीक ही लिखा है, ’’शैतान रजवाड़ों ने अपने स्वार्थ के लिए इस देश को अंग्रेजों के हवाले कर दिया, जबकि अंग्रेजों की हमारे सामने कोई हैसियत ही नहीं थी.’’2            
         
शम्सुल इस्लाम ने अपनी किताब 1857के हैरतअंगेज दास्तानें में अंग्रेजी सरकार के दस्तावेजों के आधार पर उन भारतीय राजाओं महाराजाओं का ब्यौरा दिया है, जिन्होंने गदर के साथ गद्दारी की और अंग्रेजी राज की मदद की. उन दस्तावेजों के अनुसार ग्वालियर के सिंधिया, हैदराबाद के निज़ाम, इंदौर के होल्कर, जयपुर के महाराजा, जोधपुर के महाराजा, रामपुरके नवाब, रीवा के राजा, रतलाम के राजा, टिहरी के महाराज, टौंक के नवाब, भोपाल के नवाब, पटियाला के महाराजा, जिंद के राजा, नाभा के राजा, कपूरथला के राजा, पटौदी के नवाब और जम्मू-कश्मीर के राजाकी मदद से अंग्रेजी सेना जीत गई और भारतीय विद्रोही हार गए. ऐसे गद्दार छोटे-बड़े सामंत बिहार में भी थे. उनमें से कुछ की जानकारी शाद अजीमाबादी के उपन्यास पीर अली में है.
         
जिन छोटे-बड़े जमींदारों, राजाओं और महाराजाओं ने गदर से गद्दारी की और अंग्रेजी राज की मदद की उनको विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजी राज से तरह-तरह के ईनाम तथा पदवियाँ मिली. यही नहीं विद्रोही देशी सामंतों की जायदाद भी गद्दारों को सौंप दी गई. इस प्रसंग में एक और विडंबना यह है कि 1947में जब भारत आजाद हुआ तब गदर के गद्दार राजाओं, महाराजाओं को स्वतंत्र भारत की सत्ता में भी अनेक प्रकार की राजगद्दियाँ मिली. इस बात का स्पष्ट उल्लेख रामविलास शर्मा की 1947में ही लिखी एक कविता में इस प्रकार है:

                                          धरती के मालिक हैं सब गद्दार गदर के,
                                          जमींदार, ताल्लुकेदार,
                                          सुन्दर शरीर पर कुष्ठ रोग से.
         
सुराज का अर्थ स्वराज भी था, यह बात भी लोकगीतों और गीतों के माध्यम से हमारे सामने आती है. अजीमुल्ला खाँ के लिखे 1857के बागी सैनिकों का कौमी गीत में यह स्पष्ट कहा गया है:

                                          आज शहीदों ने है तुमकों अहले वतन ललकारा
                                          तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा
                                          हिन्दु मुसलमां सिख हमारा भाई भाई प्यारा
                                          यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा..


अवध की बेगम हजरत महल की गजल के एक शेर में भी आजादी की तमन्ना इस तरह व्यक्त हुई है:
                                          एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए
                                          जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया
         

1857के संग्राम में भाग लेने वाली अजीजन के अनेक गीतों में आजादी की पुकार बार-बार व्यक्त हुई है. उनका एक गीत यह है:

                                          आजादी का बिगुल बजा है
                                          और क्रांति का साज सजा है
                                          देरी का है अब समय नहीं
                                          सुनो नाना जी का फरमान..
                                          जागो, उठो, अब हुआ बिहान

एक गौंडी लोकगीत में आजादी की आकांक्षा इस रूप में व्यक्त हुई है:

                                          हम भारत के गोंड - बैंगा, आजादी ख्यार.
                                          अंग्रेजन ला मार भगाओ, भारत ले रे.
                                          हम भैया छाती अड़ाओ, हम तो खून बहाओ भारत ख्यार.
                                          अंग्रेजन ला मार भगाओ, भारत ले रे.

इन लोकगीतों से यह स्पष्ट है कि सुराज का अर्थ स्वराज ही था. उस युद्ध में शामिल भारतीयजन यह समझते थे कि स्वराज में ही सुराज होगा.
         
सन् 1857के जन-युद्ध में जो लोग सुराज के लिए लड़ रहे थे वे यह जानते थे कि अंग्रेजी राज कुराज है. यद्यपि भारत में राज करने वाले अंग्रेज शासकों ने 1757से 1947तक कभी यह नहीं माना कि उनका राज कुराज था, लेकिन जो ईमानदार अंग्रेज अधिकारी उस कुराज के गवाह थे, उनमें से कुछ उसे कुराज कहते भी थे. ऐसे एक अंग्रेज अधिकारी ने 1833ईस्वी में अंग्रेजी में एक लंबी कविता लिखी थी, जिसका शीर्षक था इंडिया.कविता जब छपी तब उसके साथ कवि का नाम नहीं था. वह अनाम कविता 1834ईस्वी में लंदन में छपी थी. उसके बाद लगभग एक सदी से कुछ अधिक समय तक वह अंधेरे में खोई रही. 1972में यह फिर प्रकाश में आई और प्रकाशित हुई. इस कविता के एक हिस्से में अंग्रेजी राज का जो चित्र है उसे देखिए और सोचिए कि वह कैसा राज है - कुराज या सुराज.

                                          हम उनके बीच एक अभिशाप की तरह हैं
                                          हमारा नाम ही उनके लिए आतंककारी है
                                          कोई सहानुभूति नहीं, कोई दया नहीं, कोई पछतावा नहीं,
                                          हमारा लक्ष्य है लाभ, हमारा साधन है शक्ति
                                          हम हमेशा लेते हैं, कभी देते नहीं,
                                          हम यह चिंता नहीं करते कि वे जीते हैं या मरते हैं.. 3

         

ऐसे राज के विरुद्ध विद्रोह करना स्वाभाविक है और विद्रोह न करना आश्चर्यजनक, इसीलिए उस अंग्रेज कवि ने 1833में 1857के महाविद्रोह की भविष्यवाणी करते हुए अंग्रेजी राज को इन शब्दों में सावधान किया था:

                                          क्या तुम यह जानते हो कि
                                          कैसा जल-प्रलय आ रहा है
                                          चक्करदार लहरें तुम्हें चारों और से घेर रही हैं
                                          मैं तुम्हें आने वाले प्रलय से सावधान कर रहा हूँ.
                                          ओ ब्रिटेन ! इसे रोको, ये रक्त की लहरें हैं.. 4

इसके बाद कवि ने जैसे रक्त रंजित भयावह दृश्यों का चित्रण किया है वैसे दृश्यों का सामना 1857-58के विद्रोह के समय अंग्रेजों को कई बार करना पड़ा.
         
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज कैसा था, वह किसानों के साथ कैसा क्रूर व्यवहार कर रहा था, यह आप एक अन्य अंग्रेज कवि के शब्दों में देखिए. 8मई, 1858को मजदूर नेता और कवि अर्नेस्ट जोन्सने भारत के किसानों के शोषण और दमन के बारे में लिखा था, ’’उन्हें (भारत के किसान) याद है कि इसके बाद जब खेती करना असंभव हो गया, उन्होंने अपने खेत छोड़ने की कोशिश की क्योंकि वे उन पर फसल पैदा करने की स्थिति में ही नहीं थे, लेकिन वास्तव में उन्हें उन ज़मीनों पर कर देने के लिए मजबूर कर दिया गया जिन पर उन्हें हल चलाना भी नहीं था. उन्हें यह भी याद है कि जब वे मांगी जा रही रकम अपने संबंधियों से जुटाने में विफल रहे, किस तरह उन्हें यातनाएँ दी गई थीं. किस तरह उन्हें दिन की तपती दोपहरी में पांव से बांधकर उलटा लटकाया गया था या फिर पांव में पत्थर बांध सिर के बालों से लटकाया गया था. कैसी लकड़ी की पैनी पिपेंट नाखूनों में धंसायी गई थी. कैसे बाप-बेटों को एक साथ बांधकर, एक साथ उन पर कोड़े बरसाए जाते थे, जिससे एक की तकलीफ से दूसरे की पीड़ा और बढ़ जाए. किस तरह औरतों को कोड़े मारे जाते थे. किस तरह उनकी छाती पर बिच्छू बांधे जाते थे और आंखों में लाल मिर्च का चूरा बुरक दिया जाता था.’’5यही कारण है कि 1857के विद्रोह में भारत के किसानों ने और सैनिकों के रूप में किसानों के बेटों ने भाग लिया था, शहीद हुए थे और बाद में खूँखार दमन के शिकार भी हुए.
         
हिंदी क्षेत्र की विभिन्न लोकभाषाओं के लोकगीतों के रचनाकार किसान ही थे. आइए, यह देखें कि इन लोकगीतों में अंग्रेजी राज की कैसी तस्वीर है. एक भोजपुरी लोकगीत में अंग्रेजी राज के कुराज के प्रभाव का वर्णन यह है:

                                          हो गइली कंगाल हो विदेसी तोरे रजवा में.
                                          सोने की थारी जहाँ जेवना जेंवत रहनी,
                                          कठवा के डोकिया ले भइलीं मुहाल.
                                          भारत के लोग आजु दाना बिनु तरसे भइया,
                                          लन्दन के कुतवा उड़ावे मजा माल,
                                          हो विदेसी तोरे रजवा में.

इसके साथ ही मनोरंजन प्रसाद सिंह के भोजपुरी गीत फिरंगिया की इन पंक्तियों को पढि़ए:

                          सुन्दर  सुथर  भूमि  भारत  के  रहे  रामा, आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया
                          अन्न धन जन बल बुद्धि सब नास भइल, कौनो के ना रहल निसान रे फिरंगिया
                          जहँवा थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे, लाखे मन गल्ला और धान रे फिरंगिया
                          उहें आज हाय रामा! मथवां पर हाथ धरि बिलखि के रोवेला किसान रे फिरंगिया



ब्रज के एक लोकगीत में अंग्रेजों को फिरंगी डाकू कहा गया है:

                                          री बहिना मेरी भारत में फिरंगी डाकू धंसि गए.
                                          जिन्ने डारी ये लूट मचाय. री बहिना मेरी........
                                          री बहिना मेरी माल खजाने सबु ले गए.
                                          जिन्ने दीने ए लोट चलाय. री बहिना......
                                          री बहिना मेरी गायन के खिरक खाली है गए.
                                          जिन्ने दीनी ए सब कटवाय. री बहिना....
                                          री बहिना मेरी दूध दही सुपनो है गयो.
                                          दुरलभ है गई छाछ. बहिना मेरी.......

ऐसा नहीं है कि कंपनी राज तो कुराज था पर 1858के बाद ब्रिटेन की राजशाही के राज में भारत में सुराज आ गया था. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के अनेक भारतीय और अंग्रेज लेखकों ने ब्रिटिश शासन में भारत की लूट, तबाही, बर्बादी और यातना का सप्रमाण विवेचन किया है. बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक सखाराम गणेश देउस्करने 1904ईस्वी में बांग्ला में एक पुस्तक लिखी थी, जिसका हिंदी में देश की बात से पहला अनुवाद 1908में और दूसरा 1910में हुआ था. उसमें अंग्रेजी राज द्वारा भारत के शोषण और दमन का विस्तार से विवेचन किया गया है. उसके एक अध्याय का शीर्षक है किसानों का सर्वनाश’,एक और अध्याय का शीर्षक है कारीगरों का सर्वनाशऔर बाद में एक और अध्याय है देशी कारीगरी का नाश. इन अध्यायों के शीर्षक बता रहे हैं कि उनमें क्या लिखा गया है. किसानों का सर्वनाश अध्याय में काशी के बारे में देउस्करजी ने लिखा है, ’’अंग्रेजों के हाथ में इस प्रदेश के पड़ते ही नौ वर्ष में यह स्वर्ण-भूमि श्मशान-भूमि हो गई. बेचारे किसान हर तरह से मारे गए. यही दशा देश भर के किसानों की हुई.

सन् 1921में महावीरप्रसाद द्विवेदीने एक किताब लिखी थी,  वध के किसानों की बर्बादी. यह किताब द्विवेदी जी ने अपने नाम से नहीं एक किसानके नाम से लिखी थी. उसकी भूमिका शिवप्रसाद गुप्तने लिखी थी. शिवप्रसाद गुप्त ने भूमिका में लिखा है कि किसानों की अवस्था गुलामों से भी ज़्यादा गिरी हुई है. इसकी एकमात्र औषधि उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता देना है’’.महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अवध के किसानों पर करों के बोझ, उनको वसूल करने की प्रक्रिया में होने वाले जुल्म और ज़्यादती तथा बेदखली का विस्तृत विवेचन करते हुए उनकी दुर्दशा को पाठकों के सामने रखा है.

गांधी जी ने भारत में और अन्यत्र भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद की रीति-नीति और करतूतों का जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था उसके आधार पर उन्होंने 1929में लिखा था, ’’जहाँ तक साम्राज्यवाद का सवाल है तो मैं जहाँ भी देखता हूँ वहाँ झूठ, धोखा, घमंड, अत्याचार, नशाखोरी, जुआबाजी, व्याभिचार, रात-दिन लूट और डायरवाद ही दिखाई देता है. साम्राज्य की वेदी पर सबकुछ का बलिदान किया जाता है. वह केवल अपने व्यापार के लिए जीता है और उसकी रक्षा के लिए मरता भी है.’6ऐसा साम्राज्यवादी राज कुराज नहीं तो और क्या है और उसके विरुद्ध विद्रोह पर आश्चर्य क्यों.
         
सन् 1857के विद्रोह के बारे में जो इतिहास लिखे गए हैं उनमें बहादुरशाह जफर, उनके बेटों, अवध की बेगम हजरत महल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, तात्यां टोपे,   अजीमुल्ला खाँ और कुँवर सिंह केनाम सामने आते हैं. सबाल्टर्न इतिहासकार गौतम भद्र ने एक लेख में 1857के विद्रोह के चार अल्पज्ञात विद्रोहियों के बारे में लिखा है. उन विद्रोहियों में बडौत के शाहमल, मथुरा के देवीसिंह, छोटा नागपुर के कोल आदिवासी गोनू और उत्तर प्रदेश के मौलवी अहमदुल्लाशाह मुख्य हैं.7
         
हिंदी क्षेत्र की लोकभाषाओं के लोकगीतों में 1857के विद्रोह में भाग लेने और शहीद होने वाले अनेक पुरुषों और स्त्रियों के नाम ही नहीं उनकी संघर्ष गाथा भी मिलती है. भोजपुरी के लोकगीतों और गीतों में मंगल पांडे, कुँवर सिंह, उनके भाई अमर सिंह और पटना के पीर अलीके नाम मिलते हैं. बुंदेली में झांसी की रानी लक्ष्मीबाईके बारे में अनेक लोकगीत हैं पर उनके साथ ही पारीछत की वीरता का प्रभावशाली वर्णन है. वह लोकगीत इस प्रकार है:

                                          मुरगा बोले पतारन में
                                          हथनी मारे हजारन में.
                                          पारीछत दहाड़े हजारन में.
                                          ढड़कें फिरंगी पहारन में..
                                          पाठे कौ झिन्ना रुकत नैया
                                          पारीछत कौ हांती टरत नैया.
                                          पूरी हथिनिया गरद मिला जाय
                                          पारीछत कौ तेगा कतल कर जाए..

एक और लोकगीत में लक्ष्मण सिंह की वीरता का वर्णन इस प्रकार है:

                                         लक्ष्मन सिंह फिरत हैं दौआ
                                          मारत जात लखत अंगरेजन, काटत ककरी जौआ
                                          भगत फिरत अंगरेजा बेकल, दौआ हो राओ हौआ.
                                          बांदा से कोठी तक मारी, फौज फिरंगी कौआ.
                                          सुन लो तब कोउ कान खोल के भाग चले लखनौआ.             

एक अन्य गीत में श्यामलगिरी के शौर्य और युद्ध कौशल का वर्णन इस प्रकार है:

                                          श्यामलगिरि भोरई आ धमके.
                                          तीन सहस नाथु ले धाये, अंगरेजन पै चमके.
                                          कानपूर से भगे फिरंगी पुन बिठूर आ धमके.
                                          होन लगी तकरार रार है, आन फिरंगी ठमके.

एक लोककवि गंगा सिंह ने बहादुरसीला देवीऔर अन्य स्त्रियों के युद्ध का चित्रण किया है:

                                          बांदा लुटो रात के गुइयां, सोउत रई चिरैयां
                                          सीला देवी लरी दौर के संग में सहस मिहरियां
                                          अंगरेजन तों करी लराई मारे लोग लुगइयां
                                          गिरी गुसाईं तब दौरे हैं लरन लगे मऊ मइयां

बुंदेली के एक और लोककवि रामधनीने पदमाकर की रानी भवानी का यश-गान करते हुए लिखा है:

                                          उमदानी है आज भवानी, पदमाकर की रानी
                                          जागा जागा सभा रोय क सुना रई है बानी
                                          सागर से वा नागपुर सों घड़ा रई रन पानी
                                          मानों गुरिया बेंच-बांध के बनवा लेउ क्रियानी
                                          भाला बरछी गोला बोला ले लो रे प्रिन ठानी
                                          रामधनी अब रार ठनी है, देस दुखी तब जानी.

एक और बुन्देली लोकगीत में खानपुर के मर्दान सिंहके युद्ध-कौशल के बारे में यह कहा गया है:
                                          लोहागढ़ कठिन मवात,
                                          फिरंगी झांसी भरोसै ना रहियो.
                                          जहं तोप चलें, गोला चलें, भालन की है मार,
                                          जहँ सीस हथेली ले चले,
                                          जमराज के सिरदार.
                                          फिरंगी झांसी भरोसैं ना रहियो. लोहागढ़.....
                                          का कहिये खानपुर बारे की,
                                          मर्दन सिंह नृपत जुझारे की.
         



(दो)              
सन् 1857के भारतीय विद्रोह और संघर्ष के दो मुख्य केंद्र थे - दिल्लीऔर लखनऊ. उन्नीसवीं सदी के आरंभ से ही अवध कंपनी राज की आखों का काँटा बना हुआ था, उस पर कब्जा करने की इच्छा जोर मार रही थी. एक इतिहासकार क्रिस्पीन बेट्सने सन् 1825में एक घुडसवार अंग्रेज सैनिक और अवध के एक जमादार के बीच बातचीत को उद्धृत किया है. उस सैनिक ने जमादार से पूछा कि क्या अवध की जनता ब्रिटिश राज के अधीन रहना चाहती है. जमादार ने जवाब दिया, ’’म दुखी जरूर हैं, पर हमें माफ कीजिए. ब्रिटिश राज के अधीन होने पर अवध के नाम और हमारे राष्ट्र के सम्मान का अंत हो जाएगा.’’ 8जब 1856ईस्वी में कंपनी राज ने अवध पर कब्जा किया तब अवध का आहत आत्मसम्मान उग्र होकर 1857के विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ. लखनऊ का संघर्ष भीषण था. दिल्ली में बहादुरशाह जफ़र के बेटों और दूसरे शहजादों का हत्यारा हडसन लखनऊ में ही लूटमार करते हुए मारा गया.9इतिहासकार रिचर्ड गाट नेलिखा है कि खूँखार हत्यारा जेम्स नील भी लखनऊ में ही मारा गया.
         
पूरा अवध अंग्रेजी राज के खिलाफ उठ खड़ा हुआ. प्रायः इतिहासों में बेगम हजरत महल का नाम मिलता है. लेकिन उन अनेकों की कोई चर्चा नहीं होती जो अपनी जान हथेली पर लेकर लड़े और शहीद हुए. ऐसे वीरों की शहादत की स्मृतियाँ अवधी भाषा के लोकगीतों और गीतों में दर्ज है. उन शहीदों को विद्वान इतिहासकार जाने या न जाने, लेकिन आम जनता उन्हें खूब जानती है और उनको आदर के साथ याद भी करती है. अवधी के एक लोक कवि भागू ने चहलारी के राजा बलभद्र सिंहकी शौर्य गाथा को इस रूप में गाया है:

                                          राजा कहिये चहलारी वाला जेहिक बांट परी तरवार.
                                          ब्याह क कंगना कर मां बाजै लक्खी मौर देय बहार..
                                          हाथी घिरिगा जब राजा का महावत गया सनाका खाय.
                                          बोला महावत तब राजा ते भैया दीन बंधु महाराज..
                                          मरजी पावौं सहजादे की तुरतै चहलारी दऊं पहुंचाय.
                                          सुनिकै राजा राहुटु होइगा करिया नैन लाल होइ जांय..
                                          बोला राजा चहलारी वाला जेहिका बलभद्रसिंह नाव कहाय.
                                          हटजा हटजा मेरे आगे से तेरा काल रहा नियराय..
                                          धरम छत्री का यू नाही है भागै रण ते पीठ देखाय.

          गौंडा के राजा देवीबख्श सिंह एक विद्रोही थे, जिनके बारे में यह लोकगीत है:

                                          राजा देबी बकस लोह वंका जिनका रत्ती भर न संका.
                                          बहि बजवाय दीन है डंका.
                                          राजा एक सर बंधाय दीन लाय,
                                          जब राजा कै राज रहा, तब सुखी सबै संसार रहा.    

         
अवध के एक और विद्रोही वीर रायबरेली के राणा बेनीमाधवथे, जिनके बारे में एक लोककवि दुलारे ने यह लोकगीत लिखा है:

                                          अवध मां राना भयो मरदाना..
                                          पहिल लड़ाई भई बक्सर मां सेमरी के मैदाना.
                                          हुवां से जाय पुरवा मां जीत्यो तबै लाट घबड़ाना..
                                          नक्की मिले मान सिंह मिलिगे मिले सुदर्सन काना.
                                          छत्री बेस एक ना मिलिहै जानै सकल जहाना..
                                          भाई बन्ध और कुटूम कबीला सबका करौं सलामा.
                                          तुम तो जाय मिल्यो गोरन ते हमका हैं भगवाना..
                                          हाथ मां भाला बगल सिरोही घोड़ा चले मस्ताना.
                                          कहैं दुलारेसुन मोर प्यारे यों राना कियो पयाना..

राणा बेनीमाधव की बहादुरी के बारे में और भी अनेक लोकगीत और गीत लोक-प्रचलित हैं.

         
ब्रज भाषा के लोकगीतों में भी अनेक व्रिदोहियों की स्मृतियाँ प्रचलित हैं. एक विद्रोही अमानी के बारे में यह लोकगीत हैः

                                          अमानी मानै तो मानै घोड़ी ना मानै
                                          के अंगरेज चढ़े घोडि़न पै, कित्ते उलटे पैदर आये
                                          कित्ते पकरि कुअन में डारे, कित्ते उलटे भाजे
                                          करौ अमानी ने जब पीछौ, बीन बीन के मारे
                                          अमानी मानै तो मानै घोड़ी ना मानैं.
         
इन लोकभाषाओं के साथ-साथ मालवी, गौंडी, हिमाचली, हरियाणवी और कौरवी आदि लोकभाषाओं के लोकगीतों में 1857के विद्रोह और बाद के दमन की स्मृतियाँ आज भी जीवित हैं. इन लोकगीतों के साथ ही बहादुरशाह की गज़लों में 1857के विद्रोह और बाद की बर्बादी के गम की गूँजें अनेक रूपों में मौजूद हैं तो बेगम हजरत महलकी गजल में आजादी की तमन्ना और उसके लिए सबकुछ कुर्बान करने की तत्परता व्यक्त हुई है. उर्दू की दूसरी गजलों में भी 1857के विद्रोह के आग की गर्मी मौजूद है. अजीजनके गीतों में आजादी की चाहत और उसे पाने के लिए सब कुछ गँवाने की तैयारी के स्वर सुनाई देते हैं.
         
राजस्थानी के लोकगीतों और गीतों में अपने मातृभूमि पर अंग्रेजों के कब्जे से उपजे अपमान का बोध, आजादी के लिए मर-मिटने का जोश और महाविद्रोह के समय की शहादतों की स्मृतियाँ मौजूद हैं. राजस्थानी के कविवर बाँकीदास ने 1830के आसपास अंग्रेजी राज के आने के बारे में राजस्थान के राजाओं को चेतावनी दी थी और उनमें अपनी मातृभूमि की रक्षा का दायित्व बोध जगाया था. साथ ही उन्हें उनकी वीरता की परंपरा की याद दिलाते हुए ललकारा भी था. राजस्थानी के एक और बड़े कवि हैं सूरजमल्ल मिसण, जो 1857के विद्रोह के समय मौजूद थे. वे उस समय कई स्तरों पर सक्रिय थे. एक ओर वे वीर सतसई की रचना कर रहे थे, जिसमें 1857का संघर्ष प्रतिबिंबित है तो दूसरी ओर वे उसी समय अनेक राजपूत जमींदारों को पत्र लिखकर उस विद्रोह में शामिल होकर युद्ध करने की प्रेरणा दे रहे थे. उनके ऐसे पाँच पत्र प्राप्त हैं, जिन्हें वीर सतसई के संपादकों ने भूमिका में उद्धृत किया है. सूरजमल्ल मिसण की राजनीतिक सूझबूझ को समझने के लिए उनके पहले पत्र का यह अंश देखने लायक है, ’’ये राजा लोग देशपति जो जमीन के स्वामी हैं, ये सबके सब निकम्मे, कायर और हिमालय के गले ही निकले. इस क्रांति ने अंग्रेज को चालीस से लेकर 60-70वर्ष तक पीछे डाल दिया है, तो भी ये राजा लोग कायरता दिखा रहे हैं और (अंग्रजों की) गुलामी करते हैं. परंतु मेरी यह बात आप याद रखिये कि जो इस बार अंग्रेज रह गया तो वही सर्वशक्तिमान हो जाएगा, पृथ्वी का मालिक कोई भी न रह सकेगा, सब ईसाई हो जाएँगे.’’10तीसरी ओर वे 1857के विद्रोह के एक बहादुर आउवा के राजा खुशाल सिंह की तारीफ का गीत लिख रहे थे.
         
1857से संबंधित राजस्थानी लोकगीतों में सबसे अधिक लोकगीत आउवा के राजा खुशाल सिंह के युद्ध कौशल, उनकी निर्भीकता और बलिदान के वर्णन-चित्रण से संबंधित हैं. एक लोकगीत यह है:

                                          ढोल बाजै, थाळी बाजै, भेळो बाजै बांकियो,
                                          अजंट ने ओ मारने दरवाजे नांकियो,
                                          जुझै आउवो !
                                          हे ओ जूंझै आउवो, आउवो मुलकां में चावो ओ,
                                          जूंझै आउवो..
         
1857के विद्रोह के बारे में अधिकांश इतिहासकारों की राय है कि वह केवल हिंदी क्षेत्र तक सीमित था. यह पूरी तरह सही नही है. यह सच है कि हिंदी क्षेत्र में वह जितना व्यापक और प्रचंड था, उतना देश के अन्य भागों में नहीं. लेकिन वह था अखिल भारतीय और सर्वव्यापी. पूरे देश की जनता कंपनी शासन के कुराज से पीडि़त, प्रताडि़त, दमित, आक्रांत और आक्रोशित थी, इसलिए जब 1857के विद्रोह की आग भड़की तब उसकी आभा और गर्मी चारों और फैली. अब तक यह माना जाता रहा है कि इस विद्रोह से पूर्वी भारत अप्रभावित था. लेकिन हाल में पूर्वी बंगाल के चटगाँव में विद्रोह का प्रमाण उस क्षेत्र की एक लोकगाथा के रूप में सामने आया है. गोपाल प्रधान ने लोकभाषा में मौजूद 1857की उस महागाथा को प्रस्तुत किया है.

गोपाल प्रधान ने अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा है, ’’1857में अब के बांग्लादेश के चटगाँव में फौजी छावनी में विद्रोह हुआ. विद्रोही त्रिपुरा के रास्ते मेघालय में जयंतिया राजा के यहाँ जाना चाहते थे. त्रिपुरा में घुसकर वे सिलचर तक आये लेकिन रास्ते में बदरपुर की पहाडि़यों और जंगलों में भटक गए. कुछ जासूसों की गद्दारी के कारण वे अंग्रेजी फौज के हत्थे चढ़ गए और मारे गए. उनके विद्रोह और समापन की त्रासद कथा लोगों की जु़बान पर अब भी है. जंगीयार गीतनाम से इसी घटना की लोकगाथा कछार जिले के देहाती क्षेत्रों में गाई जाती है.’’11

गोपाल प्रधान ने उस महागाथा का परिचय देते हुए यह भी लिखा है कि वह बांग्ला के एक रूप सलेटी में है जो सिलहट क्षेत्र की बोली है. यह लंबा गीत पयार छंद में है, जो पूर्णतया गेय है, इसीलिए वह आज भी वहाँ की जनता की स्मृति में ही नहीं जिंदगी में मौजूद है.
         
यह एक लंबा शोकगीत है जिसके आरंभ में चटगाँव में विद्रोह की शुरुआत, फिर विद्रोहियों की सीमित शक्ति के कारण पराजय, पलायन और बाद में अंग्रेजी राज के एक भारतीय जासूस की गद्दारी के कारण विद्रोहियों के अंत की कथा है. इसे जंगीयार गीतकहा जाता है अर्थात जंगी सिपाहियों का गीत. इस पुस्तक की भूमिका में गोपाल प्रधान ने एक और महत्वपूर्ण बात लिखी है. वे कहते हैं, ’’गाथा को पढ़ते हुए एक और बात की ओर अनायास ध्यान जाता है और वह है कथा में प्रस्तुत सूबेदारनी का प्रबल चरित्र. अपनी तेजस्विता से वह बहुत कुछ बेगम हजरत महल और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की याद दिला देती है. 1857के प्रसंग में स्त्रियों की यह स्थिति एक प्रश्न को जन्म देती है. अंग्रेजों के आने के बाद भारत में स्त्रियों को घर में कैद रखने की प्रवृत्ति बढ़ी? दस्तावेजों और लोक मन से उपजी इन कथाओं से लगता तो यही है. तो शायद यह मिथक ही है कि मुगल शासन में स्त्रियाँ घर के भीतर कैद थीं. अगर ऐसा होता तो कहाँ से झुंड के झुंड ये स्त्रियाँ 1857में सैनिक वेश धारण कर लड़ाई में कूदी होतीं.’’12
         
1857का भारतीय विद्रोह एक जन-युद्ध की तरह लड़ा गया और जन-युद्ध प्रायः उतने सुनियोजित नहीं होते जितने सरकारों के युद्ध. जन-युद्धों की कार्रवाई, दिशा और गतिविधियाँ जनता की चेतना, भावना और कल्पना के अनुसार संचालित होती है. लेकिन इतिहासकार हर युद्ध के विवेचन में योजना की खोज करते हैं और उसे न पाकर निराश होते हैं. 1857जैसे जन-युद्धों की प्रक्रिया और स्वरूप को समझने के लिए ग्राम्शीका वह कथन उपयोगी है जिसे रुद्रांग्शू मुखर्जीने उद्धृत किया है. ग्राम्शी ने लिखा है कि ’’पंडित और विद्वान लोगों का ऐतिहासिक-राजनीतिक दृष्टिकोण केवल उन्हीं विद्रोहों और आंदोलनों को वास्तविक और विचारणीय मानता है जो पूरी तरह योजनाबद्ध और सचेत ही नहीं बल्कि उनके अमूर्त सिद्धांत के अनुरूप हों. उनकी दृष्टि में शुद्ध सहजता इतिहास में नहीं होती.’’13रुद्रांग्शू मुखर्जी ने ठीक ही लिखा है कि 1857के विद्रोही सिपाहियों की चेतना, ग्राम्शी के शब्दों में, लोकमत से आलोकित और दैनिक अनुभवों से निर्मित हुई थी. जनता के आंदोलनों, विद्रोहों और क्रांतियों में क्रियाशील चेतना का स्वरूप ऐसा ही होता है.
         
1857का जन-युद्ध भले ही सरकारों के युद्ध की तरह सुनियोजित न हो लेकिन विद्राहियों के सामने उसका उद्देश्य स्पष्ट था. इसे समझने के लिए उस विद्रोह से संबंधित तीन घोषणा-पत्रों पर ध्यान देना जरूरी है. पहला घोषणा-पत्र बहादुशाह जफ़र का है, जिसे उन्होनें 25अगस्त, 1857को एक अपील के रूप में जारी किया था, जो कि इस प्रकार है:

’’हिंदुस्तान के हिंदू और मुसलमान भाइयो...... उठो. खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की है उनमें सबसे कीमती बरकत आजादी है. क्या वह जालिम फिरंगी जिसने धोखा देकर हमसे यह बरकत छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? क्या खुदा की मर्जी के खिलाफ इस तरह का काम हमेशा जारी रह सकता है? नहीं, कभी नहीं.   फिरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला अब लबरेज हो चुका है. यहां तक कि अब हमारे पाक मजहब को खत्म करने की नापाक ख्वाहिश भी उनमें पैदा हो गई है. क्या तुम अब भी खामोश बैठे रहोगे? खुदा यह नहीं चाहता कि तुम खामोश रहो क्योंकि खुदा ने हिंदू-मुसलमानों के दिलों में उन्हें अपने मुल्क से बाहर निकालने की ख्वाहिश पैदा कर दी है.
         
खुदा के फजल और तुम लोगों की बहादुरी से जल्दी ही अंगे्रजों को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हमारे इस मुल्क हिंदुस्तान में उनका जरा भी निशान न रह जाएगा. हमारी फौज में छोटे और बड़े की तमीज भुला दी जाएगी और सबके साथ बराबरी का बरताव किया जाएगा क्योंकि इस पाक जंग में अपने मजहब की हिफाजत के लिए जितने लोग तलवार खींचेगे वे सब बराबर नाम के भागी होंगे. वे सब भाई हैं, उनमें छोटा-बडे़ का कोई भेद नहीं. इसलिए मैं फिर अपने तमाम हिंदू भाइयों से कहता हूं - उठो और ईश्वर के बताए इस बड़े काम को पूरा करने के लिए मैदान-ए-जंग में कूद पड़ो.
         
कई हिंदू और मुसलमान सरदान जिन्होंने अपने मजहब की हिफाजत के लिए अपने मकानों को छोड़ दिया था और जो भारत में अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंके के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं, मेरे पास आए और जेहाद चलाने में हिस्सा ले रहे हैं. यह तय ही है कि मुझे आने वाले वक्त में जल्द ही पश्चिम से मदद मिलेगी, इसलिए आम जनता की जानकारी के लिए यह इश्तिहार, जिसमें कई धाराएँ हैं, जारी किया जाता है. यह सभी का फर्ज है कि वे इस पर ऐहतियात के साथ सोचें और इसे मानें. जो दल इस काम में शरीक होना चाहते हैं लेकिन उनके पास कोई साधन नहीं हैं, उन्हें रोजाना मुझसे तनख्वाह मिलेगी. सभी इस बात को जान लें कि हिंदुओं और मुसलमानों की पुरानी किताबें, दिव्यशक्ति वाले लोगों की लिखी चीजें और ज्योतिषियों और पंडितों का गणित- सभी इस बात की ताईद करते हैं कि अंग्रेजों के पैर भारत या कहीं और भी नहीं जमने पाएंगे.
         
इसलिए सभी को यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि ब्रिटिश हुकूमत जारी रहेगी. मेरा साथ दीजिए और आम लोगों की भलाई में काम करके बादशाह का यकीनी  बनिए.....’14
         



(तीन )                                       
इस अपील या घोषणा-पत्र से यह स्पष्ट है कि 1857के विद्रोह के तीन मुख्य लक्षण थे
             
1. भारत की आजादी हासिल करना, 2.अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति और 3.भारत के सभी धर्मों और समुदायों की रक्षा और उनके बीच एकता कायम करना.
         
दूसरे घोषणा-पत्र को आजमगढ़ घोषणा-पत्रकहा जाता है. वह 29सितंबर, 1857को देल्ही गजटमें प्रकाशित हुआ था.15  इस घोषणा-पत्र की शुरुआत इस तरह होती है, ’’हिंदुस्तान के हिंदू और मुसलमान सब लोग यह जानते हैं कि वे काफिर और धोखेबाज अंग्रेजों के अत्याचार और दमन से तबाह हो रहे हैं.’’इस घोषणा-पत्र के पाँच हिस्से हैं. पहले में भारत के जमींदारों की तबाही की चर्चा है और कंपनी की जमींदारी व्यवस्था की आलोचना की चर्चा भी. दूसरे में भारत के पुराने व्यापार और व्यापारी वर्ग की बर्बादी का ब्यौरा है, अंग्रेजी राज की व्यापार नीति की आालोचना है और अंग्रेजी राज से आजादी के बाद की नई व्यापार नीति का खुलासा है. तीसरे हिस्से में अंग्रेजी राज में भारतीय कर्मचारियों के अपमान और दुदर्शा की चर्चा के बाद नई शासन व्यवस्था में भारतीय कर्मचारियों की बेहतर स्थिति का उल्लेख है. चैथे हिस्से में कंपनी राज में भारतीय कारीगर और कारीगरी के विनाश का विवेचन है और अंग्रेजों से आजादी के बाद के बादशाही शासन में कारीगरों और कारीगरी के स्वतंत्र विकास की संभावना की बात है. पाँचवे हिस्से में हिंदू धर्म और इस्लाम की रक्षा में पंडितों और फकीरों की भूमिका का विवेचन करते हुए बादशाही शासन में उनकी भली-भाँति देखरेख का वादा है. आजादी की किसी भी लड़ाई में एक तो गुलामी की पूरी व्यवस्था की आलोचना होती है और दूसरे आजादी के बाद की व्यवस्था में सबकी बेहतरी की योजनाओं की घोषणा होती है. ये दोनों बातें इस घोषणा-पत्र में मौजूद हैं.
         
तीसरा घोषणा-पत्र अवध की बेगम हजरत महल का है. वह घोषणा-पत्र या बयान ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के जवाब में जारी किया गया था.  महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र 1858के 1नवंबर को भारत में पढ़कर सुनाया गया था. उसका एक हिस्सा यह है, ’’हम घोषणा करते हैं कि हमारी राजकीय इच्छा के अनुसार आस्था और धार्मिक विश्वास के कारण न तो किसी के साथ पक्षपात होगा  न कोई परेशान किया जाएगा और न किसी के साथ ज्यादती होगी. सभी कानून के सामने समान होंगे और सबकी सुरक्षा होगी. यह भी हमारी इच्छा है कि हमारी प्रजा के साथ नस्ल और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा. वह अपनी शिक्षा, बुद्धि और ईमानदारी के अनुरूप हमारी सेवा में कार्य करेगी.’’16
         
इस घोषणा-पत्र के अनुसार उन सभी विद्रोहियों को क्षमादान देने का आश्वासन दिया गया था जो शांतिपूर्वक अपने घर लौट जाएँगे. केवल उन्हीं लोगों को दंड दिया जाएगा जो अंग्रेजों के हत्यारे होंगे, हत्याकांड में सहायक होंगे और विद्रोह के नेता या सहायक होंगे. बल्कि वे सभी लोग जो 1जनवरी, 1859तक समर्पण करेंगे उन्हें माफी मिलेगी. विक्टोरिया के घोषणा-पत्र में यह भी कहा गया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का विघटन होगा और भारत की सत्ता ब्रिटिश राजसत्ताके अधीन होगी. इस घोषणा-पत्र के अनुसार भारत से संबंधित अतीत की गलतियाँ दुहराई नहीं जाएँगी, कंपनी के साथ की गई सभी संधियों का सम्मान भी होगा. साथ ही किसी राज्य को हडपने की कोशिश नहीं होगी और हर व्यक्ति को धार्मिक मामले में स्वतंत्रता होगी.
         
बेगम हजरत महलविक्टोरिया के घोषणा-पत्र के अभिप्रायों, इरादों, कुटिलताओं और चालाकियों को समझ रही थी. वे जानती थी कि इस घोषणा-पत्र का लक्ष्य है विद्रोहियों के बीच फूट पैदा करना और उन्हें प्रतिरोध छोड़कर समर्पण के लिए प्रेरित करना. उन्होंने सोचा कि यह प्रतिरोध के लिए आत्मघाती होगा, इसलिए उन्होंने विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के जवाब के रूप में अपना घोषणा-पत्र जनता के सामने रखा. बेगम हजरत महलका घोषणा पत्र यह है:

वह बेवकूफ होगा जो यह विश्वास करेगा कि ब्रिटिश राजसत्ता ने हमारी गलतियों या उनकी नजर में अपराधों के लिए हमें माफ कर दिया है. सब जानते हैं कि उन्होंने हमारे छोटे और बड़े अपराधों को कभी माफ नहीं किया, वे चाहे अनजाने में किए गए हों या जानबूझकर. महारानी यह भी कहती है कि वे कंपनी द्वारा किए गए सभी समझौतों का सम्मान करेंगी, जबकि कंपनी ने सारे भारत को हडप लिया है और उसने कभी किसी संधि का सम्मान नहीं किया. क्या महारानी इसी स्थिति का सम्मान करना चाहती हैं ? अगर महारानी किसी का राज हडपना नहीं चाहती तो वे हमारा देश हमें लौटा क्यों नहीं देती, जो हमारी जनता चाहती है. यह भी घोषणा की गई है कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के कानून सबके लिए एक समान होगा. यह सोचने की बात है कि न्याय का धर्म से क्या लेना-देना. जहाँ तक धार्मिक मामलों में दखल न देने की वादे की बात है तो उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है जब सड़क बनवाने के नाम पर मंदिर और मस्जिद तोड़े जा रहे हैं, जब ईसाई धर्म की शिक्षा देने के लिए पादरी गाँवों में भेजे जा रहे हों और जब एंग्लिकन चर्च के रीति-रिवाज को सीखने वालों को धन दिया जा रहा हो.
         
यह भी लिखा है कि जिन लोगों ने हत्या की है या विद्रोह का नेतृत्व किया है या विद्रोहियों की मदद की है उनको छोड़कर बाकी लोगों को माफी मिले. लेकिन ये बाकी लोग कौन हैं जबकि सारी जनता ने विद्रोह किया है. यह भी कहा गया है कि जो भी विद्रोह में शामिल हैं उन्हें दंड दिया जाएगा. यह घोषणा-पत्र परस्पर विरोधी बातें कहता है. अंत में यह भी कहा गया है कि जब शांति स्थापित हो जाएगी तब सड़कें बनेगी और नहरें भी ताकि जनता का जीवन बेहतर हो. इसका तात्पर्य यह है कि सरकार के पास भारतवासियों के लिए मजदूर की नौकरी के अलावा और कुछ देने के लिए नहीं है. अगर जनता इस सबके अभिप्रायों को नहीं समझती तो हम क्या कर सकते हैं.’’17अपने घोषणा पत्र के अंत में बेगम हजरत महल ने एक नारा भी दिया है, ’’धोखा मत खाओ’’.
         
बेगम हजरत महल का यह घोषणा-पत्र उनकी हिम्मत, बहादुरी, राजनीतिक सूझबूझ और दूरदर्शिता का प्रमाण है. लंदन के अखबार दी टाइम्सने 1858में बेगम हजरत महल के बारे में ठीक ही लिखा था, ’’अवध की बेगम ने अपने सभी सेनानायकों से अधिक युद्ध कौशल और साहस का परिचय दिया है.’’
         
सन् 1857के विद्रोह के दमन के दौरान अंगे्रज सैनिकों, सेनानायकों और अधिकारियों ने बर्बरता का जैसा नाच किया उसकी तुलना या तो लातीनी-अमेरिका में स्पेनी साम्राज्यवादियों की बर्बरता से की जा सकती है या फिर उत्तरी अमेरिका में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की बर्बरता से. अंग्रेजी साम्राज्यवाद में उत्तरी अमेरिका में जिस तरह अनंत मौत, विनाश, अकाल, भुखमरी, रेड इंडियंस का संहार, दासों का व्यापार, गिरमिटिया मजदूरों की हत्या आदि के सहारे अपना कब्जा और राज कायम किया उसी तरह भारत में विद्रोह के दमन का अभियान चलाया. जैसे लातीनी अमेरिका और उत्तरी अमेरिका में उपनिवेशवादियों की सर्वग्रासी बर्बरता का एक कारण वहाँ के निवासियों के विरुद्ध नस्ली घृणा थी वैसे ही भारतीय विद्रोहियों के दमन के दौर की बर्बरता के मूल में नस्ली घृणा और रंगभेद से उपजी भावना थी.
         
कार्ल मार्क्सऔर फ्रेडरिक एंगेल्सने लंदन से अमेरिका के एक अखबार न्यूयार्क डेली ट्रिब्यूनमें भारतीय विद्रोह, उसके विस्तार और दमन के बारे में लगातार लेख लिखे थे. मार्क्स ने  4सितंबर, 1857को जो लेख भेजा वह 16सितंबर, 1857को अखबार में छपा था. उस लेख में मार्क्स ने भारत से अपने घरों को भेजे अंग्रेज अधिकारियों के पत्रों को उद्धृत किया जो अंग्रेजों की दमन नीति और नस्ली घृणा के सबूत देते हैं.18एक पत्र में लिखा था, ’’हमारे हाथ में जीवन और मृत्यु की शक्ति है. हम आपको आश्वासन देते हैं कि हम किसी को छोड़ेंगे नहीं.’’दूसरे पत्र में लिखा था, ’’कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब हम 10से 15आम लोगों को फाँसी नहीं देते.’’ एक उत्साही अधिकारी ने लिखा था, ’’होल्म दर्जनों लोगों को ईटों की तरह लटकाता है.’’ एक और व्यक्ति ने अनेक लोगों को फाँसी देने का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसके बाद हमारा जश्न शुरू होता है. एक और व्यक्ति ने लिखा है, ’हम घोड़े की पीठ पर बैठे हुए फौजी अदालत चलाते हैं और प्रत्येक निगर (निग्रो) को या तो फाँसी देते हैं या गोली मार देते हैं.’’इस आखिरी पत्र से जाहिर है कि अंग्रेज भारतवासियों को काला आदमी समझते थे और उनसे वैसी ही घृणा करते थे जैसे अमेरिका में नीग्रो लोगों से.
         
इतिहासकार बेट्सके अनुसार अमृतसर के कमिश्नर फ्रेडरिक कूपरने स्वयं स्वीकार किया कि उसने जुलाई, 1857में 237पकड़े गए सिपाहियों को फाँसी पर चढ़ाया. 45सिपाही बंद कमरे में साँस घुटने से मर गए.19रिचर्ड गाॅटने लिखा है कि बनारस में कर्नल मिल द्वारा फाँसी पर चढ़ाए गए लोगों की कई कतारें थी.20 9जून, 1857को सैनिक कानून लागू किया गया और जो भी पकड़े गए उन्हें फाँसी दे दी गई. कुछ लोगों को पेड़ों से लटकाया गया तो कुछ लोगों को हाथियों की गर्दन से. यही हाल इलाहाबाद में भी था. वहाँ गाँव के गाँव जला दिए गए. रिचर्ड गाॅटने दिल्ली पर अंग्रेजों के कब्जे के बाद जो जनसंहार हुआ उसके बारे में एक दर्शक का यह बयान दर्ज किया है, ’’दिल्ली में जब हमारे सैनिक घुसे तब जो मिला उसे संगीन घोपकर मार दिया गया.’’ ऐसे लोगों की संख्या बहुत थी क्योंकि एक-एक घर में 40-50लोग छिपे हुए थे. ये विद्रोही नहीं थे, दिल्ली के नागरिक थे. वे हमसे माफी माँग रहे थे पर उन्हें निराशा हाथ लगी. इसी समय कैप्टन हडसन ने बहादुरशाह जफ़रके बेटों और अन्य शहजादों की बर्बर हत्या की.21 अंग्रेजों के कब्जे के बाद दिल्ली के दर्द को जानना हो तो ग़ालिब की वह गजलपढि़ए जो इस संग्रह में मौजूद है. साथ ही ग़ालिब के खतों को भी पढ़ा जा सकता है. 
         
केवल अमृतसर का कमिश्नर अकेला हत्यारा अधिकारी नहीं था. कार्ल मार्क्सने 5अप्रैल, 1858के एक लेख में लिखा था कि आगरा का एक मजिस्ट्रेट स्वयं लोगों को फाँसी देता था या फिर गोली मारता था. एक और मजिस्ट्रेट ने दावा किया कि उसने 95लोगों को फाँसी दी है और जल्दी ही वह 100की संख्या पूरी करेगा.
         
ब्रिटिश अनुमान के अनुसार अवध पर कब्जे के दौरान डेढ़ लाख लोग मारे गए, जिनमें35हजार सिपाही थे और बाकी आमजन थे.22

लखनऊ पर कब्जे के बाद अंग्रेज सिपाहियों, सेनानायकों और अधिकारियों ने लूट और डकैती का जो अभियान चलाया था उसका ब्यौरा लंदन टाइम्सके पत्रकार विलियिम रसेल ने अपनी रिपोर्ट में दिया था. उसका विश्लेषण करते हुए फ्रेडरिक एंगेल्स ने एक लेख में लिखा था,- ’’चंगेज खाँ के उन्मादी गिरोहों के सैनिक टिड्डियों के दल की तरह जिस शहर में जाते थे वहाँ का सब चट कर जाते थे. फिर भी उनका आक्रमण ईसाई, सभ्य, बहादुर और भले अंग्रेज सैनिकों के आक्रमण की तुलना में वरदान लगता है क्योंकि वे जल्दी ही लौट जाते थे, जबकि अंग्रेज अपने साथ उस दलाल समूह को लाते हैं जो लूट को एक व्यवस्था का रूप देते हैं, वे डकैती को दर्ज करते हैं, उसको बोली लगाकर बेचते हैं और यह ध्यान रखते हैं कि अंग्रेज अपनी बहादुरी के पारितोषिक से वंचित न हो.’’23ही है उपनिवेशवाद की कार्यशैली की रूपरेखा. अंग्रेजी सेना द्वारा दमन का एक बर्बर तरीका था विद्रोही सिपाहियों और नागरिकों को तोप के मुँह पर बाँधकर उनकी वीभत्स हत्या करना. 22मई, 1857को पेशावर के करीब एक सैनिक विद्रोह हुआ था जिसे जल्दी ही दबा दिया गया. 40सिपाहियों को तोप के मुँह पर बाँधकर विस्फोट करके उड़ा दिया गया. यह दारुण दृश्य देखने वाले एक ब्रिटिश कैप्टन ने अपने पिता को पत्र में लिखा था, ’यह दृश्य वीभत्स था, लेकिन परम संतोषदायक था.’’24
         
कानपुर पर कब्जे के समय अंग्रेजों ने दमन की प्रक्रिया में जिस वीभत्सता का परिचय दिया वह अकथनीय है. रिचर्ड गाॅट ने लिखा है कि बनारस और इलाहाबाद के कसाई कर्नल नील ने पकड़े गए सिपाहियों को गोली मारने के पहले उन्हें बीबीगढ के फर्श पर गिरे खून को चाटने के लिए मजबूर किया.25
         
अंग्रेजी सेना के दमन का जो दावानल फैला उसकी लपटों की कुछ जलन लोकगीतों में भी व्यक्त हुई है. बुंदेली के लोककवि फकीरे खान के एक गीत में उसकी अभिव्यक्ति इस तरह हुई है:

                                          चूना मूंड़न पै बुझवा दये.
                                          हांत-पांव में कीला ठोंके, पाछे से संदवा दये.
                                          तेरा दिन चार मइना लों, गोड़न खून मिटा दये.
                                          जार दयो है बिला बिलजुरा लुटो जन भगवा दये.
                                          अंगरेजन खां बुलाइनन ने, बंटाधार करा दये.
                                          खान फकीरे, कालों कइये, ऐसे हाल करा दये.

दूसरे लोककवि दादूरामके गीत में अंग्रेजी सेना की करतूतों का वर्णन यह है:

                                          घिर गए खानपुर वारे हैं.
                                          चैतरफा से घेरा पर गए गंसे गांव के द्वारे हैं.
                                          उरझा सेन फिरंगी लूटैं, जारे पुर घर सारे हैं.
                                          गाए मार डार दई दौरन, छेंके जन अति वारे हैं.
                                          ’दादूरामटेर कें कै रये छांड चलो घर द्वारे हैं.
         
अंग्रेजों ने दमन के माध्यम से आतंक का जो राज कायम किया उसका चित्रण एक कौरवी लोकगीत में यह है:

                                          मेरी थर थर माथा कांपे री
                                          गोरां के डर के मारे
                                          बागों के माली भागे री
                                          गोरों के डर के मारे
                                          तालों के धोबी भागे री
                                          गोरों के डर के मारे.

         
अंग्रेजी सेना ने सुराज का नाम लेना भी अपराध घोषित कर दिया था. यह बात एक लोकगीत में इस तरह है:

                                          बुंदेलखंड के गांउन-गांउन, फेर ढ़ोड़ेर पिटवाओ.
                                          जो सुराज की नाम लेवेगें, तो हम कीला ठुकवाओ.
                                          गांवन-गांवन पी.ए. फिशर नें करो दमन भौंतई भारी.
                                          अंग्रेजन के गुलाम राजा, तिनके हम गुलाम भारी..

         
1857के भारतीय विद्रोह के बिखरने के बाद अंग्रेजी राज के सैनिकों और सेनापतियों ने दमन, लूट, हत्या और भयानक आगजनी का जो खूँखार अभियान चलाया था उसको ब्रिटिश सत्ता, जनता और बुद्धिजीवियों की नजर में जायज ठहराने के लिए अंग्रेजों ने औरतों, बच्चों और जवानों के साथ भारतीय विद्रोही सैनिकों के अत्याचारों की कल्पित कहानियों का खूब प्रचार-प्रसार किया. उस प्रचार का असर ब्रिटिश संसद, वहाँ के अखबार और बुद्धिजीवियों पर पड़ा. लंदन के अखबार दी टाइम्सने घोषणा की, ’’एक चर्च के विनाश के बदले हम 50मंदिर नष्ट करेंगे. प्रत्येक ईसाई की हत्या के बदले हम 1000विद्रोहियों की हत्या करेंगे.’’26
         
दूसरों की कौन कहे उसी दुष्प्रचार से प्रभावित होकर महान उपन्यासकार चार्ल्स  डिकेन्सने लिखा था, ’’मैं भारत में प्रधान सेनापति बनना चाहता हूँ. मैं इस पूर्वी नस्ल में आतंक पैदा करूंगा और कहूँगा की खुदा की आज्ञा से मैं उनके वंश का विनाश करने और धरती से उनके अस्तित्व को मिटा देने के लिए सब कुछ करूंगा क्योंकि वे अनेक अत्याचारों के अपराधी हैं.’’27
         
जिस समय ब्रिटेन में यह सब किया जा रहा था, उसी समय वहाँ कुछ ऐसे भी लोग थे जो भारत में रहने वाले अंग्रेज सेनापतियों और अधिकारियों की कल्पित कहानियों का सच जानते थे. उनमें एक थे पत्रकार विलियम रसेल जो विद्रोह के समय भारत में थे और यहाँ की हर घटना से परिचित थे. उन्होंने विद्रोहियों के अत्याचार की कहानियों का खंडन किया.  दूसरे थे सर आस्टिन हेनरी नाम के वामपंथी राजनीतिज्ञ और लिबरल सांसद. उन्होंने दिल्ली, कानपुर, झांसी और अन्यत्र अंग्रेजी औरतों और बच्चों पर विद्रोहियों के अत्याचार की सभी कहानियों को लज्जास्पद कल्पना कहा.28
         
इस लेख के अंत में इस प्रश्न पर बात करना जरूरी है कि 1857के भारतीय जन-युद्ध का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन पर क्या प्रभाव पड़ा. भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की दो धाराएँ थी. एक धारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी धारा थी जिसे विप्लववादी भी कहा जाता है. दूसरी धारा वैध और अहिंसक धारा थी. क्रांतिकारी धारा आरंभ से 1857के विद्रोह से प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण करती रही लेकिन वैध और अहिंसक धारा 1857के विद्रोह को याद करने में संकोच करती थी. फिर भी उस पर 1857के संघर्ष का प्रभाव दिखाई देता है. 2009में अंग्रेजी की प्रसिद्ध पत्रिका न्यू लिटरेरी हिस्ट्रीका एक विशेषांक निकला था जिसका शीर्षक था भारत और पश्चिम. उसमें फैजल देवजीका एक लेख है द म्यूटिनी टू कम. इस लेख की कुछ मान्यताएँ दिलचस्प हैं और भारत के स्वाधीनता आंदोलन से 1857के विद्रोह के संबंध में बारे में विचारणीय भी. एक तो यही कि भारत में आधुनिकता और राष्ट्रीयता का जन्म 1857के विद्रोह से होता है. दूसरी मान्यता यह है कि 1857के विद्रोह के दौरान विद्रोहियों ने देशवासियों से यह अपील की थी कि वे अंग्रेजों के लिए काम न करें और उनका बहिष्कार करें. यही नहीं बल्कि अंग्रेजी राज से सहयोग के लिए गदर के गद्दारों की निंदा भी होती थी. फैजल देवजी ने विद्रोहियों की इस समझ और कोशिश में गांधी जी के सत्याग्रह का बीज पाया है. 1857के विद्रोह के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो एकता कायम हुई, उसका प्रभाव स्वाधीनता आंदोलन पर बहुत दिनों तक बना रहा. भारत के स्वाधीनता आंदोलन का लक्ष्य था स्वराज्य के माध्यम से सुराज स्थापित करना. यही लक्ष्य 1857के विद्रोह का भी था.
         
सन् 1857के संग्राम में संघर्ष करने वाले तथा शहीद होने वाले भारतीय जन और उनके संघर्ष तथा शहादत के गीत गाने वाले लोक कवि यह उम्मीद करते थे कि भविष्य के कृतज्ञ भारतवासी उनके संघर्ष और बलिदान को जरूर याद करेंगे. यही उम्मीद ब्रजभाषाके इस लोकगीत में व्यक्त हुई है:

                                         भूल न जइयो भारतवासी उन वीरन की  कुर्बानी.
                                          हँसते-हँसते प्रान गंवाएँ अमर रखो माँ कौ पानी..
         
इस पुस्तक की भूमिका के आरंभ में समाज से साहित्य के जिस संबंध की बात कही गई है उसकी पुष्टि सुभद्राकुमारी चैहान की कविता झांसी की रानीकी समाधि पर की इन पंक्तियों से
होती है:
                                          इससे  भी  सुन्दर  समाधियाँ
                                          हम  जग   में   हैं   पाते .
                                          उनकी गाथा पर  निशीथ  में
                                          क्षुद्र   जन्तु    ही   गाते..
                                          पर कवियों की अमर गिरा में
                                          इसकी    अमिट   कहानी .
                                          स्नेह  और  श्रद्धा से  गाती
                                          है    वीरों    की   बानी..

छत्तीसगढ़ी के एक लोकगीत में 1857के संघर्ष को आजादी का पहला रागकहा गया है:
                                         
धधके लगिस वीर बंगाल                                       
दिल्ली के रंग होंगेगे लाल                                    
माचिस रकत होले  फाग                                      
आजादी के पहिली राग.                                         
कांपिस  अंग्रेजी  शासन                                        
डोलिस लंदन के आसन

जो समाज अपने अतीत के इतिहास को भूलता है वह भविष्य में भयंकर भूलें करता है.
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संदर्भ
1 जासूसों के खतूत, सं. शम्सुल इस्लाम, 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 33
2 1857के हैरतअंगेज़ दास्ताने, सं. शम्सुल इस्लाम, 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.104
3 India, Edit. B.M. Sankhader, 1972, Kumar Brothers, New Delhi, P.79
4 India, Edit. B.M. Sankhader, 1972, Kumar Brothers, New Delhi, P.25-26
5  नया पथ, मई 2007, पृ. 186
Main Stream, August 31, 2013, P. 29
Subaltern Studies IV, Ed. Ranjit Guha, 1990, Oxford University Press, New York,   P. 229
Subalterns and Raj, Crispin Bates, Routledge, 2010, P.56
9 Britain's Empire, Richard Gott, 2011, Verso, London, P.466
10वीर सतसई, 10सूर्यमल्ल मिश्रण, सं. कन्हैयालाल सहल और अन्य, राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर, पृ.53
111857: एक महागाथा, प्रस्तोता - गोपाल प्रधान, 2011, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.7
121857: एक महागाथा, प्रस्तोता - गोपाल प्रधान, 2011, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.8
13 War and Society in Colonial India, Edit. Kaushik Roy, Oxford University Press, India, 2012, P. 117
14 आजकल, मई 2007, नई दिल्ली, पृ. 40-41
15        Subalterns and Raj, Crispin Bates, Routledge, 2010, P.68-70
16        In the City of Gold and Silvers, Kenize Mourad, Full Circle Publishing, New Delhi, 2013, P.396-397
17        In the City of Gold and Silvers, Kenize Mourad, Full Circle Publishing, New Delhi, 2013, P.398-399
18        Karl Marx on India, Edit. Iqbal Husain, Tulika Books, New Delhi, 2006, P.90
19        Subalterns and Raj, Crispin Bates, Routledge, 2010, P.78
20        Britain's Empire, Richard Gott, 2011, Verso, London, P.456
21        Britain's Empire, Richard Gott, 2011, Verso, London, P.464
22        In the City of Gold and Silvers, Kenize Mourad, Full Circle Publishing, New Delhi, 2013,   P.396
23        Karl Marx on India, Edit. Iqbal Husain, Tulika Books, 2006, P.176-177
24        Britain's Empire, Richard Gott, 2011, Verso, London, P.454
25        Britain's Empire, Richard Gott, 2011, Verso, London, P.462
26        In the City of Gold and Silvers, Kenize Mourad, Full Circle Publishing, New Delhi, 2013, P.283
27        In the City of Gold and Silvers, Kenize Mourad, Full Circle Publishing, New Delhi, 2013, P.283
28 Karl Marx on India, Edit. Iqbal Husain, Tulika Books, 200
___________





मैनेजर पाण्डेय
बी-डी/8 ए
डी.डी.ए. फ्लैट्समुनिरका/नई दिल्ली-110067/मो॰ 9868511770

सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज

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पेंटिग : Paresh Maity: SUNLIGHT












अपर्णा मनोज कविताएँ लिख रही हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनके अनुवादों ने भी ध्यान खींचा है. प्रस्तुत कविताओं का वितान वैश्विक है. दुनिया में जहाँ- जहाँ भी दर्द हैं ये कविताएँ वहां वहां जाती हैं. ये कवितायेँ हिंदी कविताओं की पहुंच का पता देती हैं. एक अर्थ में ‘लोकल’ होने के साथ है हर व्यक्ति विश्व-प्राणी भी है. हर घटना घटनाओं का सिलसिला है. इन कविताओं में संवेदना, विचार और शिल्प की परिपक्वता दिखती है.


अपर्णा मनोज की कविताएँ                                                    




असहिष्णुता:

इसे मेरी असहिष्णुता ही समझ लिया जाए
और केवल इसलिए मेरी हत्या कर दी जाए 
कि मुझे मास्टर जी जम नहीं रहे
कि स्कूल की वर्दी का कोई रंग मुझे माफ़िक नहीं आ रहा  
कि ये ख़ास सिलाइयाँ, ये ख़ास टाँके
कि ये ख़ास जिस्म और ये ख़ास दिमाग
कि ये ख़ास तरह के खौफ़
ये ख़ास इमारतें, ये ख़ास इबारतें
कि मुझे दरी -पट्टी साथ
कि मुझे कलम- कागज़ साथ
बोलना चाहिए अब
मास्साब बीच से इस डंडे को हटाइए.
एक गैरमक्बूल सच के लिए
हमें बोलना चाहिए अब.

कि ये केवल पत्तों के टूटने की आवाज़ नहीं
कि ये रातभर फूलों का झड़ना नहीं
कि ओस और आसमान
परिंदे, नदियाँ और पहाड़
कि ये समंदर और सैलाब की निसाबे तालीम नहीं
निशानेराह और निशानेमील का सबक भी नहीं      
ये केवल चौराहे से फूटती सड़कों की बात नहीं
ये केवल रेलों का आना-जाना भी नहीं
कि मैं इस कदर भी खल्वतगाह में नहीं रहना चाहती
कि मुझे गुमशुदा समझ लिया जाए

एक संकरी प्रेम गली में
क्या सच में वे दो समा नहीं सकते?
इतना तो पूछना चाहिए मुझे, मास्साब अब.





ख़त:

डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
वे आ रहे हैं
रवांडा वे आ रहे –
बोस्निया के इतिहास, 1915 के मासूम आर्मीनिया
वे आ गए सूडान- डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
  
दुनिया के कुओं-मैं अपने कबीले की सारी बाल्टियाँ और रस्सियाँ तुम्हें सौंपता हूँ
तुम्हारे मीठे जल के लिए कोई सदी फिर लौट आये मिलने तुमसे!
दुनिया के चारागाहों मैं बीजों की पोटली और मन्नत की घंटियाँ तुम्हारे हवाले करता हूँ कि एक दिन जब सुबह को सांझ का इंतज़ार हो
तो वह लौटे हमारे मवेशियों के साथ
मैं अपनी लड़कियां कहीं छिपा नहीं सका. मुझे माफ़ करना सितारों के सरदार!
पर मैंने ख़त भेजे हैं उनकी याद में –
दुनिया की घनी आबादियों को
खार्तूम और दुनिया की ख़ूबसूरत राजधानियों को
हर पार्लियामेंट को, संसद को, कॉंग्रेस,  बून्देस्ताग और मजलिस को
मैंने साफ़-साफ़ लिखा है-
कि दुनिया की गलियों में
हमारी स्मृति में रैलियां निकालो, हर बच्चे को मोमबत्ती जलाना सिखाओ
हर युवा को मैंने छोटे-छोटे झंडे भेजे हैं –सेफ्टीपिन से अपनी जेब पर टांक लो
दुनिया के हर कवि को मैंने ‘शब्द’ पार्सल किये हैं
हर धर्म के पास मैंने इबादत भेजी है
मैंने अपना सारा सामान दुनिया के म्यूज़ियमों को भेजा है
जादू-टोने, मन्त्र और बुद्ध की मूर्तियों की अनगिनत प्रतियाँ दुनिया के महानायकों को भेज चुका हूँ.
यू एन ओ को ‘शांति’ की अपील भेजी है और साथ में अपने पेड़ों, बाग़-बगीचों, नदियों, मैदानों और पक्षियों के डी एन ए सैम्पल भी
मैंने तमाम अस्पतालों से कहा है कि हमारे एकमुश्त अंगों को ले जाओ
हमारी आँखें बहुत दूर तक देखती थीं
हमारे कंठ बहुत मधुर थे और खून बहुत साफ़
हमारे गुर्दे अब भी प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक, वे आ रहे हैं ..वे रौंदें
इसके पहले दुनिया के ‘महान जनवाद’
हमारी आत्माओं को किसी सुरक्षित जगह पहुंचा दो.
पहुंचा दो ......
प्यार और दुलार के साथ तुम्हारा डरफर!



छुटकारा:

दोस्त 
छुटकारा कहीं नहीं है
हम जो कभी एक दूसरे से दूर भागते हैं
इसका अर्थ यह नहीं कि कोई ओर नहीं, छोर नहीं हमारा
और हम कहीं भी भाग छूटेंगे
पृथ्वी की परिधियों से आज तक कोई नाविक नहीं गिरा किसी शून्य में
सब चलते रहे
चलने की चाह में हम बार-बार वामन हुए 
पृथ्वी भी साथ-साथ चलती रही, उठती रही, बढ़ती रही
कदमताल एक दो, एक दो एक
अंतरिक्ष की गुफ़ा में
धरती एक ठिगना गोरखा.





फांक:

पहली-दूजी कक्षाओं तक मैं यह समझती रही कि
धरती एक नारंगी है 
शरबती फांकोंवाली
मीठी खट्टी
पर बड़े होने पर फांक के अर्थ ही बदल गए
सचमुच की फांक बीच आ गई 
नारंगी का ज़ायका फिलिस्तीनी हो गया
मुझे लगा कि मेरी देह में यहूदियों की प्राचीन बस्ती है
मुझे लगा कि मैं एक निर्वासित फांक हूँ
मुझे लगा कि नारंगी से छिटककर मैं कहीं दूर जा गिरी हूँ
मैं एक विस्थापित समय का अनपढ़ अंगूठा हूँ
बार-बार किसी सुफ़ैद कागज़ पर लगा नीला ठप्पा.

मैं फोरेंसिकी विभाग में
अपना पता पूछती रही.
उन्होंने मेरे हाथ में इज़राइल की फांक रख दी
मैं उस फांक को लिए चप्पा-चप्पा घूमी
फांक को जोड़ने के लिए दूसरी फांक नहीं थी
फांक में टूटे-फूटे घर मिले
टूटे-फूटे नाम मिले                    
अधजली रोटियां चूल्हे-चौके मिले
छूटे सामान, खत, डायरियां, तस्वीरें, खिलौने, रेडियो, टी.वी, मोबाइल

इस टूट-फूट को सँभालने रोज़ डाकिया आता है  
पार्सल, चिट्ठियों की प्रतिध्वनियाँ
डाकिये के पैरों की आवाज़
सोचती हूँ पतों पर लौट आयेंगे इनके पंछी
वंश-वृक्ष पर नारंगियाँ लटकेंगी बच्चों के लिए
अनभै सांचा.



चित्र और चित्रकार:

कितनी अजीब बात थी
एक दिन कब्र में आँख लगी मेरी
और मकबूल फ़िदा हुसैन का वह चित्र मेरी आँख में पूरी उर्वरता के साथ दहकता रहा
एक औरत की गुलमोहर छाती थी या वही नारंगी धरती
मुझे लगा कि मैं सीरिया हो गई हूँ
और मेरे बच्चे मेरी पीठ से बंधे हैं
मेरी बांह पर झूल रहे हैं
मेरे पैरों से लिपट रहे हैं
दुनिया एक मख्तूम दर्द में बदल गयी
बचे हुए बच्चे आदिम जिद में थे
बर्फ के पहाड़ का गोला खाना चाहते थे 
चाहते-चाहते उनकी चाहत आहत हुई, चाहना बंद न हुआ
चाहते कि सारी दुनिया आइसक्रीम का ठेला हो जाए
ऑरेंज बार की चुस्कियों में  
दुनिया मुहब्बत का मेला हो जाए.

बच्चों को हिंडोले में झूलना चाहिए
उनकी दादी का अंजन- ख़्वाब था
बच्चों के नज़रिए बनाते वक्त, लोई उबटन के वक्त
लोरियों की नूरअफ्शां रातों के वक्त
दादी अपने ख्व़ाब में अलादीन का चिराग घिसती
और हिंडोले मांगती दुनिया के बच्चों के लिए
सीरिया में दादी वही करती जो हिंदुस्तान में करती
हिंडोलों का इतिहास दादी पोतियों की चोटियाँ गूंथते वक्त दोहराती
लाल-पीले रिबनों से कितने हिंडोले गुँथ जाते

मकबूल की दादी ने भी उसकी हथेली पर ही हिंडोला रख दिया होगा
मेला और हिंडोला.
दुनिया और नारंगी
नारंगी और फांकें
आजकल कई दिनों से सीरिया की फांक दुनिया में बंट रही 
मकबूल की पेंटिंग में बहुत साल पहले न जाने कौन-सा सीरिया उपस्थित था?
या बचपन में किसी जाइंट-व्हील में अपने ही बैठे होने की कोई धूसर तस्वीर थी?
या कि मकबूल की नीली नस 
रंगना चाहती बेसबब -
दुनिया के बच्चे हिंडोले में झूल रहे हैं
झूल रहे हैं
आइसलैंड से चिली तक झूल रहे हैं
पूरब-पश्चिम  मकबूल की कूची पर -
मानव-चक्का आसमान और धरती बीच घूम रहा
अचानक चक्का रुक जाता 
कोई हिंडोले से उतर आया
हिंडोले में कोई और चढ़ रहा
वह देखो फ़िदा हुसैन किस दिशा जा रहा
पीछे खाली झूला..हवा से हिल रहा, हिल रहा और सामने
फैला है निर्वासन
मुश्किल है चित्र के उस पार जाना.
_____________________________________________
अपर्णा मनोज
aparnashrey@gmail.com

सबद भेद : मुक्तिबोध : सिद्धान्त मोहन

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गजानन माधव मुक्तिबोध जितने महत्वपूर्ण कवि हैं उतने ही बड़े आलोचक भी. अपने समय की यातना और आतंक को जैसा मुक्तिबोध ने पढ़ा है वैसा अब तक किसी लेखक ने नहीं. जटिल, विकट और अभाष्य यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध ने फैंटेसी का सहारा लिया. हिंदी का युवा रचनाकार मुक्तिबोध को अपने निकट पाता है. मुक्तिबोध की पहचान और प्रासंगिकता पर सिद्धान्त मोहन का आलेख.     




उनके ख़याल से यह सब गप है, मात्र किंवदंती                          
सिद्धान्त मोहन


क्या कहूं,
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती -
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात.


शुरुआत ऐसे करनी होगी कि विश्व के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ ने अमरीका को इतनी छूट दे दी है कि देश में आगे होने वाले नाभिकीय हादसों में मुआवज़े देने के लिए ‘स्ट्राइप्स एंड स्टार्स’ बाध्य नहीं है. शुरू होते मजमून में तो यह भी लिख दिया जाना चाहिए कि देश की सरकार चुने जाने के साल भर बाद भी चुनावी विक्षिप्तता से जूझ रही है और बात यहां से भी शुरू हो तो क्या गलत है कि भारत के प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि देश गलतियों को माफ़ कर सकता है, धोखेबाज़ों को नहीं; और इसके साथ यह भी कि वे कहते आए हैं कि मैं मानता हूं कि गुजरात में साल 2002 में दंगे हुए, लेकिन तब से लेकर अभी तक गुजरात में एक भी दंगा हुआ हो तो मुझे बताएं.

और इसके बीच हम जैसे विकट मानसिकता से लबरेज़ लोग हैं, जो इतने घने और गहराते माहौल में एक कवि को ढूंढ रहे हैं, उसकी एक ‘कविता की प्रासंगिकता’ की तलाश कर रहे हैं. अपनी बातों से गजानन माधव मुक्तिबोध को बेहद दुर्लभ और दूर बताने का कोई आशय तो सही नहीं मालूम पड़ता, फ़िर भी इस एक कविता ने न जाने क्यों इस कवि को बड़ा दूर बनाने का प्रयास किया. यह कवि तो इस कविता से अपने बीच और गहरे उतरना चाहता था, लेकिन बहसों, विवादों, संवाद श्रृंखलाओं और लेखों ने इस कविता और आम पाठक की पकड़ को और दूर किया. इस कवि ने ‘कविता’ को दूर रखकर बदलाव के आह्वान का प्रयास किया, जो बहसों में सिमटा रह गया. मुक्तिबोध तो कहता ही है – कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं वर्तमान समाज में चल नहीं सकता.

चूंकि बात को सरल करने का चलन भी है, इसलिए कहना ज़रूरी है कि ‘अंधेरे में’ पर आए तमाम किस्म के विचारों ने बहुत दुर्लभ योगदान के बाद भी इस कविता को पहुंच से थोड़ा और दूर किया.

....और इसके साथ पद्म पुरस्कृतों की श्रेणी में बिल और मेलिंडा गेट्स का भी नाम दर्ज हुआ.

प्रासंगिकता की खोज में यह भूलना लाज़िम था कि अपना भूगोल बहुतेरे उदाहरणों से भरा हुआ है. उन उदाहरणों को कान पकड़कर बीच में कभी भी लाया जा सकता था, लेकिन उन्हें दरकिनार कर शाब्दिक भूगोल से इस कविता को साधने की कोशिश हुई. मुक्तिबोध यह खुद ही कह जाता है,कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है!बहुतेरे चौंकने और सहम जाने के बीच भी वह तो मौजूद ही है,उसे चिन्हित करने और पाने के प्रयास नहीं हो रहे. यहां बहुत सारे ‘वह’ हैं, इन सारे ‘वहों’ के बीच एक सम्बोधक भी है. उसका बस एक काम है, संवाद. वह हर जुबां से बात करने की कोशिश में है, लेकिन उसका यह ‘वह’ बीच में ही साथ छोड़ जाता है और वहां दूसरा ‘वह’ घर कर जाता है. अपने वह के लिए मुक्तिबोध शुरू में साफ़ करने की कोशिश करता है – वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है. हालांकि अपने ‘वह’ की यह अभिव्यक्ति खुद भी एक स्तर के बाद कम है, वह ‘वह’ बहुत दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है.

वह अपने ही समग्र में बहुत बार मारा जाता है. बहुत-बहुत नृशंस तरीकों से. मारे जाते ही वह उठ खड़ा होता है, फ़िर से आवाज़ उठा देता है. फ़िर से प्रश्न करता है, फ़िर से तुम सब माँस के लोथड़ों पर हताश होता है. उदाहरणों को और छिछला करते हुए कहें तो वह जब मारा जाता है तो बहुत सारे यूरोपीय पॉलिटिकल फिल्मकार बगलें झाँकने लगते हैं.

यह बहुतों के अपाच्य और बहुतों के लिए अपने ही खेमे की पहल क्यों है? मुक्तिबोध जब इस कविता को लिखता है, तो इस कविता में बहुत सारे जॉनर्सऔर स्टीरियोटाइप्स तोड़ता है. बहुत सारी चीज़ों के साथ और उतनी ही चीज़ों के खिलाफ़ खड़ा होता है. वह मठ और गढ़ की नियमावली के खिलाफ़ खड़ा होता है और वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के खतरों के सापेक्ष भी बात करता है.

मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा.


फ़रवरी 2015 के किसी दिन सेंसरबोर्ड ने कुछ शब्दों की सूची निकालकर कहा कि साहब! ये सारे शब्द आपकी फ़िल्मों में अब नहीं आने चाहिए. हिन्दू धर्म पर सबसे गहरी चोट एक फ़िल्म से हुई और मुजफ्फरनगर दंगों में बलात्कार की शिकार औरतों की चिकित्सकीय जांच घटना के दो से आठ महीनों के बाद कराई गई..

प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,
इसीलिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूंक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी –
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सज़ा दी!


उसने सूत्रधार और अभिनेताओं के साथ बात की शुरुआत की है. हिन्दी साहित्य का एक बड़ा हिस्सा रंगमंच को प्रेरणा देता रहा है, अलबत्ता यह भी कहना कहां से गलत होगा कि साहित्य की बड़ी फांक रंगमंच के बेहद करीब होती है. भले ही वह मूर्त रूप लेने में तुम सभी से कितना ही रियाज़ क्यों न करवाए? उस कविता का अस्तित्व वही रियाज़ है. यह रियाज़ ऐसा नहीं है, जो तुमसे एक लंबा समय मांगे. बस थोड़ी-सी सामाजिक समझ और तुम उसके और ज़्यादा क़रीब होते हो. मुक्तिबोध तुम्हारा सूत्रधार बना बैठा है, सभी बातों को तुम्हारे करीब ला-लाकर बिठा दे रहा है, तुमसे बेहद सरल भाषा में वह अभिमुख होता है और हमारे समय के कुछ बेहद महत्वपूर्ण आलोचक इस सूत्रधार को डरपोक नायक की तरह खड़ा कर देते हैं. कुछ तो उसे इतना महिमामंडित कर देते हैं कि वह सरलता के कटोरे में अपनी जगह बनाने से दूर बैठ जाता है. उसे तो बेहद अच्छे तरीके से पता है वह वर्तमान समाज में चल नहीं सकता.

हे आलोचक! मुक्तिबोध तुम्हारा भोथरापन जानता आया है.

वह दो रूपों को लेकर चलता है. एक को तो कमज़ोरियों से ही लगाव है और जबकि दूसरा तुरंत बोल पड़ता है कि दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो!

उसकी प्रासंगिकता क्या है? एक लाइनअप पर चलने से माहौल तो यह बन गया कि इस प्रश्न से अलग कोई बात की ही नहीं गयी. लेखकों और भाषकों को मेल और पत्र लिखे जाने लगे और फ़ोन पर पूछा जाने लगा कि आप ‘अंधेरे में’ की प्रासंगिकता को अपनी अगली रचना का केन्द्र बना सकते हैं क्या? नियमतः अपवादों को ध्यान में रखते हुए बात करें तो साफ़ समझ आया कि पूरी जुगत इन अंधेरों की प्रासंगिकता ढूंढने में ही खर्च हुई. किसी रिज़ल्ट की बात नदारद थी. सम्भव है कि इस बार भी यहां भी निष्कर्ष से पहले तक के मोड़ तक ही पहुंचा जा सके. मुमकिन है कि इस लैबिरिंथ में कुछ खोजा न जा सके लेकिन कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं वर्तमान समाज में चल नहीं सकता.

...एक बात यह भी थी कि इंडियन मुजाहिद्दीन नाम का संगठन सरकार की नाकामियों और रिपोर्ट कार्ड का भार उठने के लिए अस्तित्व में आया.

उसका ‘वर्तमान समाज’ क्या है? यदि किसी आयोजन का दारोमदार मेरे सिरे पर स्खलित हो तो पहल होगी कि इस ‘वर्तमान समाज’ के बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम्हारे इश्टैबलिशमेंट और डिसेंडेंस में ‘वर्तमान समाज’ कहां फ़िर रहा है? या यही क्यों नहीं कि अवमूल्यन के समझौतों में ‘वर्तमान समाज’ कहां तक गिरा? रे पाठक! पॉलिटिकल तुम कब होगे? उसका वर्तमान समाज तो काल के सभी रूपों में फैला हुआ है. वह राजनीतिक तो है ही साहित्यिक भी है. उसकी समझ और उसका डावांडोलपन भी साफ़ है. उसे तो पक्का पता है कि ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर बहस गरम है. वह तुम्हारे जैसे टूटपूंजिये क्रांतिकारी को भी समझता है, उसको तो यह भी पता है कि क्रांति तुम्हारे रग-रग में धड़क रही है, तुम हरेक पल रंग-दे-बसन्ती मार्का क्रांतिकारी हो जाना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारी क्रांति का सारा वैभव केवल इंटरनेट और फेसबुक पर ही धरा रह जाएगा. तुम लिखोगे, तुम तस्वीरें काली करोगे, सस्ते चुटकुले चेंपते फिरोगे लेकिन तुम तख्तियां और ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे’ नहीं उठाओगे. तुम सबका काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन परन्तु, ठण्डा है.

ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!

और

मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम...

साथ में

रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे.

बांध-भारत-मंदिर वाला बयान देने वाले नेहरू यदि बांधों की वैकल्पिक सचाई को भी समझते तो वे कहते कि बांध भारत के नए हाशिए हैं, जो ‘विकसित’ और ‘विस्थापित’ को उनकी परिभाषा से भी दूर फेंक देते हैं.

इस प्रासंगिकता की लड़ाई को समझने की जद्दोज़हद तब से ही खत्म होती आ रही है, जब से यह नव-काव्याभाषियों के रैगिंग का हथियार बनना नहीं शुरू हुई. साहित्य की तमाम प्रचलित और इंटरनेटी परिभाषाओं ने मुक्तिबोध के इस पूरे झंझावात को शुरुआत में हर युवा के लिए अप्रासंगिक बनाए रखा. फ़िर जब फुटकर रचनाओं, कुछ सस्ती पोस्टों और कुछ उनसे भी सस्ते विवादों ने किसी युवा को ग्लैमर के क़रीब लाकर खड़ा किया, तो फ़िर वह भी प्रासंगिकता साबित करने का हथियार होने लगा. इतनी बहसों के बावजूद इसे क्यों नहीं पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जा सका? इसे गाइडलाइन के सापेक्ष क्यों नहीं रखा गया?

क्यों यह साहित्यिक खेमेबंदी का आधार भर बनकर रह गया?

इतना तो साफ़ है कि इस काव्य पर अपना हक़ जताने वाला हरेक खेमा इस अर्थ में निःसंतान है. जब उसका दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है तो वह आपका हो जाता है, और जब सैनिक प्रशासन है नगर में वाकई तो आपका. इस सब के बीच बहुत कुछ है, बहुत सारा अनुत्तरित-संबोधित भी है. इसको विराट और बहुअर्थी न समझ पाने वाला अपने अवमूल्यन के कई दरवाज़े खोलता है. यह हमारे समाज के ताज़ातरीन उदाहरणों से भरी हुई कविता है. पढ़ते-पढ़ते कई सारे उदाहरण लुक-छिप चले आते हैं.

पीछे-पीछे साथ-साथ.
और दोस्त, तुम्हारे लिए आखिर में एक कोट –

बजने दो साँकल
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन-वैसे ही
आप चला जाएगा आया था जैसा.



(पूरी शिद्दत से मुक्तिबोध का सम्मान करता हूं. शैली संभवतः अपाच्य हो, इसके लिए मुक्तिबोध मुझे समझेंगे और माफ़ करेंगे, ऐसी आशा है.)
___________________________________

सिद्धान्त मोहन 
बनारस में पैदाईश.
पत्रकारलेखकवैज्ञानिक  
ब्लॉग बुद्धू-बक्सा के संचालक
ईमेल : siddhantmohan@yahoo.com
फ़ोन : +91-9451109119

प्रेम के असम्भव गल्प में : आशुतोष दुबे

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‘प्रेम के असम्भव गल्प में’ कवि आशुतोष दुबे का लिखा गद्य है, उनकी कविताओं की ही तरह भाषा के सौन्दर्य और लयात्मकता से भरपूर. भाषा में लिखने की शुरुआत प्रेम पर भी लिखने की शुरुआत है.  न जाने ऐसा क्या है प्रेम में कि हर बार बात अधूरी रह जाती है. सबने लिखा. सब जगह लिखा गया फिर भी ये गलियाँ बिनपहचानी हैं, ये रास्ते नए नए से लगते हैं इसके मुसाफिरों को. फ़िराक ने ठीक ही लिखा है – ‘हजार बार जमाना इधर से गुजरा है/ नई नई सी है तेरी रहगुजर फिर भी’.
  


प्रेम के असम्भव गल्प में                                                                   
आशुतोष दुबे



॥ एक ॥
कहन में नहीं अंटता; कहना पड़ता है. बिन कहे समझ लिया जाता है, लेकिन कहना पड़ता है. दो लोगों के बीच की हवा में जो अदृश्य है, उसे कहना पड़ता है. उसका होना उसकी कहन को साँसत में डालता है. उसका कहना उसके होने को भी बाज़ दफ़ा संकट में डालता है. मुसलसल एक मुसीबत है. एक यातना. बेचैनी. अनिश्चितता. और फिर भी कदम ज़मीन से कुछ ऊपर. प्रेम के अंतरिक्ष में यथार्थ की गुरुता के बोध का निषेध है. उसके गुरुत्वाकर्षण का प्रतिरोध. उसका अपना यथा-अर्थ है जिसकी उधेड़बुन में स्वप्न है, स्वैर-कल्पना है, धड़-धड़ है, नींद से खाली रातें हैं, एक तड़प भरी ख्वाहिश का मिस्डकॉल है, सरगोशियाँ हैं, अनायास-औचक मुस्कान है, उतनी ही औचक और बेवजह उदासी है, कुछ हो रहा है का अहसास है और उसके होने-न होने के शुबहे हैं. यह ज़मीन रपटीली है, भुरभुरी है कि यहाँ वह दलदल है जिसमें धँसते हुए जान पर बन आएगी- कहा नहीं जा सकता. पर कदमों को उठना है और ज़मीन से कुछ ऊपर चलना है. ‘सावधान, आगे ख़तरा है’ के नियोन साइन का मन में जलना-बुझना है. किसी परछाँई की बाँह थाम लेना है. लड़खड़ाने के खिलाफ जूझना है. भरोसे, डर और अचरज के रोमांचकारी सफ़र का सिन्दबाद होना है पर सिकन्दर हो पाएंगे या नहीं इस धड़के का बना रहना है. एक अनिश्चित नदी में उतरी हुई नाव में बिन पतवार डगमगाते हुए बैठ जाना है. नाव को ही खेवनहार होना है. निमिष भर को चमकी बिजली में दूर तक देख लेना है और फिर चमक के बाद के अँधेरे में लापता हो जाना है. एक अनुभूति में वास करना है जिसका अनुभव अभी एक स्वप्न है. एक शाश्वत गल्प की नागरिकता है. भरे भुवन में शब्दों की बेदख़ली है मगर संलाप-संवाद की कायमी बदस्तूर है. आँखों को ज़्यादा काम करना पड़ रहा है. बात पहुँची या नहीं इसका अन्देशा है. पहुँचना समझना है. पहुँच गई समझाना है. एक कठिन डगर  जो अभी बनाई जानी है, बनाने से पहले ही कठिन है.





॥ दो ॥
प्रेम करने वाले एक लगातार बारिश में खड़े रहते हैं. याद की बारिश में. वे न छाता ढूँढते हैं न छत. खुले में रहते हैं. खुला ख़तरनाक होता है. बारिश होती है लेकिन बिजलियाँ भी गिरती हैं.  कहते हैं, पेड़ के नीचे खड़े हो गए तो ख़तरा और बढ़ जाता है.
नहीं, संयोग नहीं यह
वियोग भी नहीं
यह श्मशान-श्रृंगार है
जिसमें विरह शोभा में दीप्त
एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में
कातर होता है
देखो
एक पेड़ जल रहा है सामने
वह देखो
उसके नीचे
बारिश से बचने के लिए खड़े हुए हम
राख हो रहे हैं

एक उम्मीद में प्रेम आकार लेता है लेकिन नाउम्मीदी में राख नहीं होता. वह असम्भवता के बरअक्स भी उतना ही उदग्र है, जितना प्रत्याशा में. कामना है लेकिन साध्यता के गणित से बाहर. इसीलिए एक गणना-सर्वस्व समाज में प्रेमी, पागल और कवि एक पँक्ति में गिने जाते हैं. दरअसल, वे तीन अलग-अलग लोग हैं भी नहीं. प्रेम उन्हें घंघोल देता है.






॥ तीन ॥

समय में जो सूख गया प्रेम
और अब जिसकी ठीक-से याद भी नहीं रह गयी
बस मन पर उस सूखे निशान की धुंधली स्मृति भर है

प्रेम जो किताबों में दबे सूखे फूल सा नहीं
सहेज कर रखी गई उस चिट्ठी सा नहीं
जिसके पीले पड़ गए कागज़ की तहों को खोलते हुए
उसके टूटने का डर लगता है

प्रेम जो अपनी याद दिलाने से बचता है
छुपता है जो अपने आप से
जो लौ के खत्म हो जाने के बाद
धुँए की उस छोटी सी वर्तुल लकीर का अंतिम लेख है

उचट गई नींद में
अंधेरे में आंखें खोले
जो दिखाई नहीं देता
जिसका सूखा हुआ निशान मन पर उभर आता है
वही है प्रेम
जो अब नहीं है

लेकिन कुछ भी कहा नहीं जा सकता यक़ीन से






॥ चार ॥

हीरामन ने पूछा था हीराबाई से : मन समझती हैं न आप ?
रोग यहीं पर था. हीराबाई ने हीरामन का मन ही तो समझा. उसी का अनमोलपन जाना. जिस बाज़ार में वह खड़ी थी, वहाँ यह मन हीरे-सा चमकता था. जाना तो महुआ घटवारिन को सौदागर के साथ ही था. लेकिन उसका मन उस गाड़ीवान की छप्पर वाली गाड़ी में ही रह गया. हीराबाई रेल में चली गयी. लेकिन हम जानते हैं, वह हीरामन की उस बैलगाड़ी में ही बैठी रह गई. प्रेम के असम्भव गल्प में.

और इसी असम्भव गल्प से बाहर निकलने को छटपटाती हुई पार्वती जब अपने घर के बाहर पेड़ के नीचे मरते हुए देवदास के पास जाने को बाहर दौड़ी तो भुवन चौधरी ने नौकरों से हवेली के दरवाज़े बन्द करवा दिए. एक दूसरे समय में अपने कठिन दरवाज़ों को खोलकर वह आधी रात को अकेली देवदास के पास उसे अपना मन बताने आई थी. प्रेम की कहानियों में प्रेमियों को उसके लिए अप्रस्तुत रह जाने की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है.

और  लहनासिंह ? उसे एक अकथ प्रेम का शहीद होना था क्योंकि ‘उसने’ कहा था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था. वह लड़की वह नहीं थी जिससे वह छेड़खानी में उसकी कुड़माई के बारे में पूछता था. वह भी वह नहीं था जो उसके कहने पर कि हाँ हो गई, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू...  सड़क पर सबसे टकराते और अन्धे की उपाधि पाते किसी तरह घर पहुँचा था. प्रेम की कील में अटका चिन्दी-चिन्दी मन था जो हवा में फरफराता था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था.



      
॥ पाँच ॥

वे दो हैं. दोनों के बीच आजकल एक आविष्ट हवा है. वह उसे भी छूती है, इसे भी. लेकिन पहल कौन करेगा? सारी ज़िम्मेदारी उस दरमियानी हवा की ही तो नहीं है. कहीं ऐसा न हो कि दोनों ठिठके रहें और बीच में निर्वात आ जाए.

प्यार में पहल कौन करेगा
प्रेमी एक-दूसरे की ओर देखते हैं
मौसम एक-दूसरे से हाथ मिलाते हैं
साथ चलते हैं कुछ दूर तक इसी तरह
फिर एक विदा लेता है
और इस तरह कि अपनी याद भी नहीं छोड़ता

प्रेम भी प्रतीक्षा करता है
दोनों प्रेमियों की ओर टकटकी लगाए
किसके कन्धे पर पहले किसका सिर टिकेगा

प्रेम दूरी से नहीं
देरी से डरता है
वह घटित होना चाहता है
और सिर्फ स्मृति में नहीं

इस उधेड़बुन में नहीं कि
प्यार में पहल कौन करेगा ?

वे तमाम प्रेम जो सिर्फ कल्पनाओं में घटित होकर रह गए; जिनमें शब्द कन्नी काट गए; जिनका घर सिर्फ यादों में बन पाया  अपना हिसाब माँगने किसी असावधान पल में औचक चले आते हैं. उन्हें जवाब देना मुश्किल होता है.





॥ छह ॥

प्रेम एक एकांत का द्वार खोलता है जिसमें दूसरा एकांत प्रवेश करता है. दोनों एकांत एक-दूसरे की हिफ़ाज़त करते हैं. लेकिन दोनों के बीच की दीवार घुलती रहती है. तब प्रेम का एक विस्तृत एकांत बनता है.

वह है चाहे वे न हों.
उसमें सब कुछ मधुर ही नहीं, बल्कि कोई कटु-तिक्त बीज भी है उसके भीतर जिससे कतराना मुश्किल है.

वह कुनकुनी धूप है, ठिठुरन के विरुद्ध. लेकिन उसमें जो आँच है, उसकी ताब लाना भी मुश्किल.

वह कामना का असमाप्त विन्यास है.

तृप्ति एक बार फिर
कामना को जगह देती है
कामना एक बार फिर
तृप्ति के जल में डूबती है
और फिर बाहर निकल आती है
अनाहत
कमल की तरह
उस पर पानी की जो यहाँ-वहाँ बूँदें हैं
वह तृप्ति की स्मृति है
कामना हमेशा इस स्मरण से संतप्त है


स्मरण है. मरण है. राख के ढेर में से फिर साकार होना है.  सिलसिला है. सरोवर में मन की छाया को किसी ने जकड़ लिया है. उसे मुक्त कराने के लिए मन वहाँ बार-बार लौटता है. बार-बार की कैद में.






॥ सात ॥

रोज़मर्रा के क्लेश में, संताप में, जद्दोजहद में भी वह किसी सेंध से घुस कर लड़ाई के लिए ज़रुरी जीवट की आँच अपनी अदीठ उंगलियों से ज़रा-ज़रा बढ़ा देता है.

कभी-कभी वह प्रिय से छुपने की कोशिश करता है. कभी-कभी खुद से भी.
वह परस्पर विलोमों का समवाय है. वह जितना विरुद्धों का सामंजस्य है उतना ही समानताओं का असमंजस भी.

वह अछोर आकाश है. निरवधि काल और विपुल पृथ्वी की एकांत उपस्थिति.

उसके विष से नीली पड़ रही है मन की देह. उसी में प्राण फूंकेगा वह अपनी संजीवन छुअन से.
उसके अपने उजाले हैं - अपने अंधेरे.

उसका हृदय में जगना है कि गले में टंगे एलबेट्रॉस के शव का स्वत: टूट कर गिरना है. वही है जो त्रास से त्राण तक ले जाएगा. वही भाव-उर्मि है, जो शाप का परिहार है.
उसमें होना भारहीन होना है. ढाई आखर के सा-भार जीवन में होना है.

वह प्रतीक्षा है. प्रतीक्षा की असहनीयता भी. उसकी यातना, रोमांच और आनन्द भी.

वह अनश्वरता में ओट लेते अध्यात्म पर एक गुपचुप मुस्कुराहट के साथ अपनी धुरी को उतने ही गुपचुप-पन से बदल सकता है. उसका यही कर सकना प्रेमियों को एक अन्देशे और अंतत: सकते में डाले रखता है. वह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है जिसके पथ में न अल्प, न पूर्ण; कोई विराम आता ही नहीं.

वह अपनी कथाओं में रहता है. अलग-अलग कथा-घरों में. कविताएं उसकी खुशबू को तितलियों की तरह पकड़ने की कोशिश करती हैं. उसके सुखान्त और दुखान्त हैं मगर उसका कोई कथान्त नहीं है. कवि और कथाकार उसे बूझने की जद्दोजहद में एक बुखार में कागज़ों पर भटकते हैं. इबारतें खत्म हो जाती हैं; अर्थ फिर भी शेष रह जाते हैं.

उसके आसपास की दुनिया बदलती जाती है. उसके ढब-ढंग भी. पर उसकी ज़रुरत, उसकी तलाश, उसके लिए द्वन्द्व, उसकी प्यास कभी नहीं बदलती.वह धारा-वाहिक है लगातार.

जो प्रेम में रहने की ताब नहीं ला पाते वे भी प्रेम के अभिनय या आभास में रहने की ज़रुरत से इंकार नहीं कर पाते. अभिनय धीरे-धीरे विदा ले लेता है. वही बच रहता है जिसे मंजूर करना इतना मुश्किल रहा.
प्रेम करना मनुष्यता की बहुत पुरानी, लाइलाज, चीठी आदतों में शुमार है. जो इस संसार में कुछ भी अच्छा कर सके, इस संसार से प्यार करने के चलते ही कर सके. क्योंकि प्रेम करना अपने और दूसरों के बैठने के लिए अपने हिस्से के संसार को थोड़ा साफ-सुथरा बनाना है.


संवाद प्रेम को सींचते हैं. और इसके लिए वे हमेशा शब्दों पर निर्भर नहीं होते.






॥ आठ ॥

प्रेम कभी असफल नहीं होता. यह शब्द प्रेम के शब्दकोष में तिरस्कृत है.बल्कि वह सफलता जैसे बाज़ारु शब्दों को भी तुच्छ ही मानता है. उसकी गरिमा उसके होने में है, उसके नतीजों में नहीं.


अब तुम वहाँ हो जहाँ मैं तुम्हें देख सकता हूं
अब मैं वहाँ हूँ जहाँ से तुम मुझसे बात कर सकती हो
हम एक-दूसरे के जीवन में नहीं हैं
पर एक-दूसरे की दुनियाओं को देख सकते हैं
काँच की दीवार के पार से

जब परिभाषाओं की दस्तक दरवाज़े पर होनी ही थी
पता नहीं क्या हुआ
हम क्यों लौट गए
कभी-कभी समय अपनी गेंद को ऐसे स्पिन कर देता है
कि होने वाला अघटित रह जाता है
और अनसोचा हो कर रहता है

लेकिन हम अफसोस में नहीं, खुश हैं
और एक-दूसरे को खुश देखकर भी खुश हैं
और इसका कोई तर्क ढूंढना मुश्किल है कि ऐसा क्यों है

सच तो यह है कि हम अब और ज़्यादा बातें करते हैं
हंसते हैं, तुनकते हैं, वक़्त बिताते हैं
क्योंकि इस सबको कहीं और नहीं पहुंचना है
ज़्यादा से ज़्यादा काँच की दीवार के उस तरफ

जहाँ से तुम मुझे देख सकती हो और मैं तुम्हें
अपनी-अपनी दुनियाओं की खुशियों और झंझटों में मसरुफ
जहाँ कामना पीली पड़कर झर चुकी
और शुभकामना को हम सींच रहे हैं.

वह है तो हम हैं. उसके तिनकों से बना हुआ है हमारा घोंसला. हम यहाँ से संसार में उड़ान लेते हैं और यहीं लौटते हैं बार-बार.  वह एक ठंडी हथेली है हमारे तपते हुए सिर पर. एक स्पर्श. एक संवाद. एक दृष्टि. मन ही मन का सारा व्यापार. कभी-कभी वह भी किसी स्वप्न में ही. कोई स्मृति भर. दरअसल कहीं नहीं. दरअसल यहीं कहीं. वह दरअसल और तसव्वुर के बीच की सरहद पर दोनों तरफ तस्करी करने वाला अय्यार है.




॥ नौ ॥


प्रेम इतना नामाकूल है कि अंतत: वह ऐसी तमाम सूक्तियों, सुभाषितों और वाक्यों से चुपके से निकल भागता है. वे बेचारे हक्के-बक्के से फिर उसके पीछे-पीछे भागते हैं. हाँफते हुए, थक कर कागज़ों पर टूट कर बिखरते-गिरते हुए. ज़रा दम लेकर फिर उस छलिए के पीछे दौड़ते हुए. यह एक हारी हुई होड़ है.  लेकिन सच यह भी है कि प्रेम के असम्भव गल्प में प्रवेश करने के लिए हार और जीत जैसे शब्दों को अपनी ग्लानि और अपने गुरुर को जूतों की तरह बाहर उतार कर आना पड़ता है.

(फ़िल्म- चित्र 'एक दूजे के लिए'से )

 

_________________________________________
आशुतोष दुबे (1963)
कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें
कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी.
अ.भा. माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, केदार सम्मान, रज़ा पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार.
अनुवाद और आलोचना में भी रुचि./ अंग्रेजी का अध्यापन.
सम्पर्क: 6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर - 452001 ( म.प्र.)
ई मेल: ashudubey63@gmail.com/098263 70577

विष्णु खरे : सईद जाफ़री

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सिनेमा और रंगमंच के बेहतरीन कलाकार सईद जाफ़री का पिछले १५ तारीख को देहांत हो गया. प्रेमचंद की कहानी पर आधारित सत्यजीत राय की फ़िल्म ’शतरंज के खिलाड़ी’ में उनके अभिनय के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है.उनके सिनेमाई सफर की और तमाम बाते हैं, विष्णु खरे का कॉलम. 




अदाकारी की शतरंज का उस्ताद                                    
विष्णु खरे 




ले ही सईद जाफ़री (8.1.1929 – 15.11.2015) मलेरकोटला,पंजाब की रियासत  के अपने दीवान नाना के यहाँ पैदा हुए हों,यह उनकी और हम सरीखे उनके मुरीदों की खुशकिस्मती थी कि वह वहीं पले-बढ़े नहीं,वर्ना उनके जिस ब्रान्डेड तलफ़्फ़ुज़ पर सारे उर्दूपरस्तों  को नाज़ है वह फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ सरीखा वाहियात होता.ज़ाहिर है कि वह एक संपन्न शिया घराने से थे,ख़ुद तो ज़हीन थे ही,लिहाज़ा अलीगढ़,मसूरी,अलाहाबाद और वाशिंगटन की कैथलिक यूनिवर्सिटी में तालीम ले सके और अंग्रेज़ी साहित्य में बी.ए. और मध्यकालीन भारतीय इतिहास और (बचपन से ही थिएटर और सिनेमा की एक्टिंग का जुनूनी शौक़ होने की वजह से) ड्रामा की ललित कला में एम.ए. की डिग्रियाँ आसानी से हासिल कर सके.नाटक और फ़िल्मों में इतने पढ़े-लिखे लोग आज भी नहीं हैं.

लेकिन सिर्फ़ पढ़े-लिखे होने से कुछ नहीं होता.हुनर और प्रतिभा भी चाहिए.1950 के दशक में ही सईद के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने अपना ड्रामा ग्रुप बना डाला.उनकी लम्बाई  पाँच फ़ुट छः इंच  के इर्द-गिर्द थी लेकिन इरादे आस्मान छूते थे.शक्ल-सूरत उस ज़माने के लाहौरी-बम्बइया चॉकलेटी हीरो जैसी नहीं थी, अलबत्ता चेहरे,आवाज़ और शरीर-भाषा में एक आत्म-विश्वास और ठसक थी.रगों में शुरूआती स्कॉच के अलावा गंगा-जमनी तहज़ीब बहती थी.लेकिन हिन्दुस्तानी ड्रामा और फ़िल्म का सीन और अपनी ज़ाती ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव  देखकर वह समझ गए थे कि उनके लिए मग़रिब का रास्ता पकड़ लेना ही बेहतर होगा.तब उनकी दो माशूकाएँ थीं – एक्टिंग और दिल्ली की मधुर (‘बहादुर’,बाद में ‘जाफ़री’).सो उन्होंने बरास्ते अमरीका लन्दन जाकर दोनों को हासिल किया.


हम-आप जैसे लोग बहुत खुशनसीब हैं कि सईद जाफ़री अपनी आत्मकथा,भले ही अंग्रेज़ी में,आज से सत्रह बरस पहले लिख कर छोड़ गए.हिंदी के एक जाहिल प्रकाशक को मैंने बरसों पहले समझाया था कि तू सिनेमा पर एक बड़ी सीरीज़ शुरू कर लेकिन उसकी अक्ल पर उसके बदन से भी ज़्यादा चर्बी बढ़ती गई है,वर्ना अब तक वह हिंदी अनुवाद में मुहय्या रहती. बहरहाल,अगर आप ‘’सईद : एन एक्टर्स जर्नी’’पढ़ पाएँ तो मालूम होगा कि सईद जाफ़री की अपनी दिलफेंक फ़िकरनॉट ज़िन्दगी हरगिज़ किसी फिल्म से कम सिनेमाई नहीं थी और डेविड नाइवेन,पीटर सैलर्स और एलेक गिनेस सरीखे समकक्ष हरफ़नमौला उस्तादों की याद दिलाती है.

रेडियो, डबिंग,कमेंटरी,लेखन,रंगमंच,टेलीविज़न और सिनेमा में सईद जाफ़री ने अमेरिका,ब्रिटेन और हिंदुस्तान में कुल मिलाकर जितना और जिस क्वालिटी का काम किया है - उनके नाम पर इन विधाओं की क़रीब 200 गतिविधियाँ दर्ज़ हैं - उसकी टक्कर का कोई व्यक्तित्व मुझे दक्षिण एशिया में दिखाई नहीं देता – न अब्राहीम अल्काज़ी,न दिलीप कुमार,न अमिताभ बच्चन. आज के मुम्बइया सो-कॉल्ड हीरो वगैरह तो सईद जाफ़री के आगे करोड़ों कमानेवाले टिड्डों-गुबरैलों से क़तई कम नहीं.

उन्होंने 1950 की दहाई  के अपने दिल्ली के दिनों में फ़्रैंक ठाकुरदास जैसे दोस्तों के साथ ज़्याँ कोक्तो,क्रिस्टोफ़र फ़्राइ,टी.एस.एलियट सरीखे नाटककारों को स्टेज किया था.वह अपने वक़्त से बहुत आगे थे और भारत के लिए तो हमेशा वैसे रहे.हमारे यहाँ प्रमुख रूप से पहली बार वह 1969 की द्विभाषीय फिल्म ‘द गुरु’में देखे गए लेकिन प्रतिभा के लिए जौहरी गृध्र-दृष्टि रखनेवाले सत्यजित ‘’माणिकदा’’ रायने उन्हें अपनी,उर्दू-हिंदी और प्रेमचंद की ‘’शतरंज के खिलाड़ी’’के लिए तत्काल या उसके पहले ही ताड़ लिया था. अंग्रेज़ी का मुहाविरा है – ‘दि रैस्ट इज़ हिस्ट्री’.भारतीय सिनेमा के इतिहास  में इस तरह की कास्टिंग फिर देखी न गई.

मीर रोशन अली के किरदार में सईद जाफ़री हिंदी फ़िल्मों में एक धीमी गति के बम की फटे.माणिकदा की यह एक महान फिल्म है ही,सईद तो लगता है कि मिर्ज़ा सज्जाद अली कहीं बिना मात खाए निकल न जाएँ लिहाज़ा सीधे 1856 के गोमतीवाले इमामबाड़े से सौमेन्दु रॉय के कचकड़े में दाखिल हो गए थे.अस्तंगता सामंती शिया संस्कृति उनमें जीवंत हो उठी.हिंदी फिल्मों में पहली बार उर्दू ऐसे अंदाज़ से बोली-सुनी गई.ऐसा ख़ान्दानी मुस्लिम किरदार इससे पहले रुपहली परदे पर देखा न गया था.और जहाँ तक अदाकारी का सवाल है,गोली चलने से पहले जब मिर्ज़ा सज्जाद अली बाज़ी के दौरान रोशन अली की तौहीन करते हैं,तब सईद जाफ़री जिस तरह चोट खाकर उसका बिलबिलाया हुआ रुआँसा जवाब देते हैं वह हिंदी और सत्यजित राय के सिनेमा में बेजोड़ है.उसे महान एक्टिंग भी कहा जाता है.आप ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से सईद (और शायद शबाना) को हटा दीजिए,फिल्म अवध के सूबे की तरह अपंग होकर गिर जाएगी.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सईद जाफ़री के बेहतरीन बरस 1977-2000 के ही कहे जाएँगे जिस दौरान उन्होंने करीब सौ सफल-असफल फ़िल्मों में हर किस्म के निदेशकों और हीरो-हीरोइनों के साथ पिताओं और अन्य रिश्तेदारों,रोजगारदाताओं,हास्य-खलनायकों,मामूली पेशों के लोगों आदि के किरदार किए.अगर किसी फिल्म में उनकी एक्टिंग को खराब कहा गया तो गौर से देखने के बाद मालूम पड़ता है कि वह रोल ही ग़लत या कमज़ोर लिखा गया था.यह सच है कि सईद किसी फिल्म में अपने पहले शॉट पर कैमरे के लेंस को गंभीरता से प्रणाम करते थे लेकिन इसकी परवाह नहीं करते थे कि उनकी फ़नकारी के साथ इन्साफ हो रहा है या अन्याय – वह अपनी तरफ से अपना बेहतरीन उसे देते थे.अगर कोई डायरेक्टर इतना जाहिल है कि वह सईद जाफ़री को अच्छे डायलाग या सीन नहीं दे सकता,या उन्हें अच्छी तरह शूट नहीं कर सकता तो उससे बहस क्या करना – अपना मुआविज़ा लीजिए और सरेआम इतराते हुए चले जाइए.

वह बचपन से ही सैकड़ों देशी-विदेशी फ़िल्में देख चुके थे और उनके सामने ही मोतीलाल,अशोककुमार,किशोर साहू,बलराज साहनी,नीमो,मुबारक़,डेविड,कन्हैयालाल,याकूब,नाना पलशीकर,बद्री प्रसाद,नज़ीर हुसैन,मुराद,इफ्तिख़ार,बीर सखूजा,जयंत,रहमान,सप्रू,चन्द्रमोहन,बी.एम.व्यास, केशवराव दाते, के.एन.सिंहसरीखे नायक, खलनायक और चरित्र-अभिनेता क्या-से-क्या हो चुके या रहे थे.उन्हें मुंबई में अपने मुस्तक़बिल या मुमकिन हश्र को लेकर कोई ख़ुशफ़हमी नहीं थी.उन्हें मालूम था कि जब तक उनकी आँखों में दम रहेगा,कुछ नहीं तो विदेशी कद्र का साग़रो-मीना उनके आगे रहेगा. वह रिचर्ड एटेनबरो,डेविड लीन,जॉन हस्टन और जेम्स आइवरी जैसे निदेशकों के साथ काम कर चुके थे.

इक्कीसवीं सदी में शायद उनकी चार हिंदी फ़िल्में आईं – ‘सनम तेरी क़सम’ (2000),अलबेला’ (2001),’प्यार की धुन’ (2002) और ‘भविष्य’(2006),जो सभी अंधकारमय रहीं.उनके लायक़ हिंदी फिल्मों और उनके जैसे किरदारों का ज़माना शायद जा चुका था.अस्वस्थ हो जाने के पहले उनकी आख़िरी फिल्म अंग्रेजी की ‘एव्रीव्हेअर एंड नोव्हेअर’ (2011) थी.  लेकिन कोई बाज़ी 45 बरस तक चले यह कम नहीं होता.जो बैरिमान की ‘दि सेवंथ सील’देख चुके हैं वह जानते हैं कि शतरंज के उस सबसे बड़े खिलाड़ी से जीतना नामुमकिन है – हारनेवाले उसके साथ नाचते हुए चले जाएँ,यही उसकी मात है.ये खेल है कब से जारी.

__________________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

मंगलाचार : ज्योत्स्ना पाण्डेय

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पेंटिग :  Paresh Maity : MOONLIGHT















ज्योत्स्ना अर्से से कविताएँ लिख रही हैं. तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. वैविध्य पूर्ण काव्य- संसार तो है ही शिल्प पर भी मेहनत दिखती है. 






ज्योत्स्ना पाण्डेय की कविताएँ                 





कुमार गन्धर्व

साधना  की चकरी पर 
साँसें 
कभी चढ़ती, कभी उतरती
कि गले से गुजरते हुए 
बहक न जाएँ 
शब्दों के मतलब 

शब्द------
वही जिनसे 
बूँद बूँद रिसता है कबीर 
भिगोता है आत्मा 
बस ! उनकी ही 
जो जानने लगे हैं खुद को 
या कि उसकी 
जिसकी साधना में 
सुध खोया  परमात्मा 
अब तक लटका है 
दीर्घ षडज पर.  




सरल रेखाएँ 

सरल रेखाओं की तरह 
अनंत तक 
साथ चलते हुए
सिद्ध किया तुमने कि 
प्रेम है 
एक टीस भरी, सुखद प्रक्रिया...

यदि हो जातीं रेखाएँ वक्र,
तो, किसी बिन्दु पर आकर, मिलतीं 
और आगे निकल जातीं
या ठहर जातीं ,
उसी एक बिन्दु पर ....

फिर सिद्ध किया तुमने कि  
प्रेम है,
सतत्  बहने वाली विलक्षण प्रक्रिया 
जिसमें कोई ठहराव नहीं,
न ही कोई वक्रता----

बस! हैं तो सीधी और सरल रेखाएँ .....

(उदय प्रकाश जी कि "सरल रेखाएँ"पढते हुए) 





चिट्ठी 

नहीं, मोबाइल नहीं था तब 
जो कानों के परदे पर 
लिख देता तुम्हारे शब्द 

नीला आसमान इबारत बन 
होता गया चिट्ठी 
चिट्ठी, जो 'प्यारी गुडिया'से शुरू होकर 
'ढेर सारा प्यार,
तुम्हारा पापा'पर खत्म हो जाती 

मैंने कभी नहीं खुरचे 
वे अनमोल शब्द 
जो महारंध्र से रिसकर बहते हैं 
धीरे-धीरे मेरे भीतर 
नसों के नीलेपन में 

आँखों की पुतलियों पर बजतें हैं 
रिकार्ड (विनाएल) पर की गई पेंटिंग की तरह 
तुम्हारी अंतिम पीड़ा के दृश्य-
जब अचानक ही 
मेरे सिर से फिसल कर तुम्हारे हाथ 
लिपट गए थे श्वेत में 

एकांत बच्चा बन 
ढूँढता है तुम्हारा स्पर्श 
खेलता है आँख मिचौnii
कि बंद आँखों के खुलते ही सच हो जाए झूठा 

भिंची आँखें
मौन की खिड़की- 
दिखते हैं असंख्य इन्द्रधनुष 
उस नीली लौ के बीच 
जहाँ आत्मा से होकर गुजरता है परमात्मा 
धवल प्रकाश  
खड़े हो तुम 
शांत, सद्यस्नात 

करते हो प्रार्थनाएं 
प्रार्थनाएं, जिससे वृक्ष लिखते थे जंगल 
और आकाश हो जाता मेरी आँख 
जहाँ स्वप्न हो जाते डाकिया 
दे जाते हौसलों की चिट्ठी-

प्यारी गुडिया, ढेर सारा प्यार 
तुम्हारा पापा.




गोबरधनिया 

कि वे आज भी वैसी ही हैं
जैसे पत्थरों पर छैनी से 
किसी ने उन्हें तराशा और वे वहीँ रुक गईं हों
जम गई हों 
अपने ही पत्थर में
दीवार में कटीदीवार पर चिपकी 
दीवार से झरी,  गोबरधनिया

कि उन्हें तो वैसे ही दीखते रहना चाहिए
जैसे आकाश में ध्रुव
कि इन्हें अटल रहने का अभिशाप है


सिर पर वही  बॉस की टोकरी 
बगल में छोटी-सी बाल्टी
जिसमें कई सदियाँ गिरीं और बन गईं गोबरधनियाँ
जिसमें कई युग ढेर हुए
और उसकी गंध के बीच जब भी रंभाने की आवाज़ उठी
तो ये आवाज़ उनकी ही थी या खूंटे की ?
कौन जाने ?

वे बची हैं आज तक हमारे लिए
उतनी ही जितनी गोबर को जरुरत है पानी की

वाह !
उनकी मौलिकता
विरासत में मिली कामधेनु !
जिसके दूध दुहने और गोबर लीपने में
उन्होंने अपनी संततियों के देखे ख्वाब
और ख्वाबगाह सी उनकी बेचैन देह
ग्रामश्री के खूंटे पर जस की तस ?

तिस पर उन्हें तो जानना ही है
पानी और गोबर का अनुपात
ये गणित उनके राशिफल में सबसे अधिक रहा ताकतवर

और वाह रे ! इनकी राम रटन्त
कि इनके कंठ में कब, किसने भरे सूर, कबीर, तुलसी
वे गाती हैं अपना ही जीवन  
"अब लौ नसानी, अब न नसइहौं" 
कि इन्होने अपना ही जीवन रटा
सीखा बार-बार
हम औरतें नहीं
गोबर की गोबरधनियाँ हैं
थापेंगी तो गोबर
पाथेंगी तो गोबर
और चिपक जायेंगी दीवार से 
उपलों की तरह 

ऐसी गोबर गणेश भी नहीं
दर्शन भी जानती हैं ये 
कि सूखने के बाद 
जलने को तैयार उपले 
छोड़ देंगे दीवार का मोह 
    
कच्ची दीवार पर  
उपलों को थापती 
छाप देती हैं अपना भूत, भविष्य और वर्तमान
  
लकीरें बोलती हैं अनबोला  
उनके हाथउनका भरोसा 
उनका भरोसा, उनकी रोटी 
और रोटी के साथ पसीने भर नमक

दिन की खट-खट के बाद  
रात की नीरवता में  
तारे राख की तरह उतरते हैं आँख में 

कि जब जलेंगे ये उपले  रात के साथ 
तो बुझेगी भूख -
आँखों में जिजीविषा जल उठती है 
उम्मीद की लौह नदी
बहती है रगों में  
वक्त के चूल्हे में 
उपलों-सी देह लिए 
वे जीती हैं जीवन  
भूख से आग के रिश्ते जैसा   

आग की ये सुरखाब चिड़ियाँ
सूरज तक एक बार उड़ तो जाएँ
जलेंगी
तो इनकी राख से बार-बार पैदा होगी वही चिड़िया

जो एक दिन जानेगी कि
वह उपला नहीं
गोबरधनिया नहीं

क्यों पाथे उपला
क्यों पाथे आकाश ?




कहानियाँ

खौलते कदमों के साथ 
दौड़ती हैं कहानियाँ 
पक्की सड़क पर 
इनकी पीठ पर आदिम छाले हैं 

थोड़ी जिद कि अपना होना 
यहाँ हो जाए दर्ज 
थोड़ी नमी दर्द की
पीठ सहलाती, बढाती हौसला  - कि दौड़ो,
दौड़ो उन किनारों पर
जहाँ मिलता है समंदर से आसमान
उलीचता है बालू 

खोल दो वहीँ पर अपने केश  
कि बरसे उनसे नमी और नमक
थोडा बादल भी झरने दो ----

बालू और बादल पर
आसान नहीं पदचिह्न छोड़ना 
निशानों को घुलना रहता है लहरों में 
लहरों का अंतर्मन 
पानी में घुलती नमक की डली ----

नमक है कि भर जाता है छालो में 
रेत को जिद छलक आये रक्त से चिपकने की 
और टीस -
इसका तो अपना ही एक मरुदेश है ---- 

कहानियाँ हो जाती हैं नागफनी 
जमा लेती हैं अपने पाँव 
रेत में गहरे तक 
हवा से अपने हिस्से की नमी सोख 
वे एक चेतावनी विहँसती हैं- 
कि 'उखाड़ो मुझे, उजाड़ो मुझे 
खरोंच दूँगी ,
मुझे नकारे जाने के सभी दस्तावेज़' ----

कहानियाँ लिखी हुई स्त्री हैं ---






कविता  

देह की देहरी पर
जलती है कविता
अँधेरे में दीप-सी 
कि तिरते हैं शब्द
कांपती है चमक
हिलते हैं रक्तकण
बेचैनियों की ध्वनि से लौटते हैं शब्द

कहरवे पर समय के हाथ
लय उठती है, गिरती है
उँगलियों से भाषा पिघलती है
निगलती है रगों से धुआँ

एक गुफा बोलती है चित्रलिपि में 
एक झरना भिगोता है उसके पैर 
झरने की आवाज़ सुनाई देती है
दूर तक
कल-कल-कल

बिम्ब से बाहर आती है कविता
बूंदों  को पीती है 
धीरे-धीरे 
भावों की पृथ्वी पर 
घास रखती है कदम  
हटाती है पत्थर 
जहाँ लेटा था सूरज हाथों पर जलाए  
धूप की लौ 

ठहर जाती हूँ मैं
लौ के ठीक नीचे
जहाँ तरल और मृदु से बन रही है मृदा
बन रहा है दीप
बन रहा है दुःख
बन रहा है सुख 

एक देह से रोने की आवाज़ 
जोर से उठी
हाथ हिले

औरत की पसली से अभी
जन्मी है कविता . 

_____________________________
jyotsnapandey1967@gmail.com

मनीषा कुलश्रेष्ठ : परम में उपस्थित वह अनुपस्थित

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मनीषा कुलश्रेष्ठ के पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछांई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्व गाथा),तीन उपन्यास (शिगाफ़, शालभंजिका, पंचकन्या)और माया एँजलू की आत्मकथा वाय केज्ड बर्ड सिंग, अमरीकी लेखकमामाडे के उपन्यास हाउस मेड ऑफ डॉनतथा  बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद प्रकाशित हैं. तमाम पुरस्कारों से सम्मानित हैं.

बेहद संवेदनशील लेखिका  मनीषा कुलश्रेष्ठ का प्रेम पर यह गद्य खास आपके लिए.  




परम में उपस्थित वह अनुपस्थित                                           
मनीषा कुलश्रेष्ठ

ब्रह्म मुहुर्त में एक ललक और संभावित अलगाव के पीड़क पलों में उसने कान में जो विदा का श्लोक फुसफुसा कर फूंका था, एन् उसी पल कविता में उपस्थित हो उठी थी, उसकी संभावित स्थायी अनुपस्थिति.  हम मिल रहे थे, उसकी आगत अनुपस्थिति के भुरभुरे मुहाने पर.  वह क्रमश: अनुपस्थित हो रहा था मेरे परोक्ष अस्तित्व से, मगर उपस्थित होता जा रहा था मेरे होने की तमाम अपरोक्ष वजहों के मूल में.  बाहर मेरी देह और उसकी परछांई जितनी जगह घेरती है, वह उतनी जगह मेरे भीतर घेर रहा था, मेरी ही परछांई के मूल स्त्रोत को बेदखल करते हुए. बाहर कोहरा था, भीतर और भी घना, लेकिन दोनों कोहरों में गहरा फर्क़ था.  ये अलगाव की आगत के क्षेपक क्षण थे, असंगत - से, कि उपस्थित था वह, अनुपस्थित होने के बहुरूपात्मक प्रत्यक्षीकरण में. मेरी पीठ पर दर्ज हैं, आज भी उसकी कौड़ियाली आँखें, रेतघड़ी सी झरती हुईं. जो चाहती थीं स्थान, काल, पात्र की सभी सीमाएं ध्वस्त हो जाएं, समय - रथ के पहिए की धुरी ही टूट जाए. 

उसकी अनुपस्थिति जब मेरे आगे उपस्थित हुई.  पटरियाँ खाली थीं. रेल जा चुकी थी. वही जंगल थे, पगडंडिया थी, बिना पुल वाली बहक कर बहती नदी थी. नहीं था तो केवल वह योजक चिन्हजिससे जुड़ते थे जंगल मुझसे. पगडंडियां बनाती थीं हमारा योग. जंगल वहीं थे, नदी के किनारे सुरख़ाबों के घोंसले भी वहीं थे, उनके अनुरंजनी नृत्य भी जारी होंगे. उस अथाह और परम उपस्थित में योजक चिन्ह के अभाव में उसके साथ मैं भी अनुपस्थित हो गई थी. मन को ट्रेंक्वेलाइज़र देकर सुला दिया था यह सोचकर कि कुछ दिन बाद बीत जाएगा एक सतयुग. एक लंबा वनवास जो प्रिय था, स्वर्ण मृगों की कुलांचों से भरा - भरा और केवट - शबरी - हनुमान भाव से ओत प्रोत. स्मृतियां लिपट - लिपट कर पैरों से, साथ लिथड़ेंगी.  मौन चीख पड़ेगा, देह सिहर - सिहर कर रुदन करेगी . मान रूठ कर, पलट कर खड़ा हो जाएगा और समझदार प्रेम उसके भले की कामना करते हुए, उसका असबाब उठा कर स्टेशन तक छोड़ कर लौट आएगा . उस अनुपस्थित प्रेम के कंधे पर टिक कर बिता दी जाएगी शेष वयस.

यायावरी हमारी नियति और चाव दोनों है, उपस्थिति और अनुपस्थिति के व्यतिक्रम हमारा पाथेय. बहुधा यह हुआ है कि हमने काटे हैं , अनजाने रास्ते एक दूसरे के. उसके उठकर जाने की ऊष्मा से भरी जगह पर मैं बैठी हूं, और मेरी बगल की गली से वह समानांतर गुज़रा है. एक बार तो धूलभरी आँधी में हम अनायास उपस्थित थे आमने - सामने मगर बिना पहचाने एक दूसरे को. हम दो यायावर एक दूसरे की यात्राओं में लगातार अनुपस्थित रहे थे लेकिन पटरियों और सड़कों के विकट मोड़ों पर धुंधलके में भी रेलों, बसों की खिड़कियों से दिखते रहे एक - दूसरे को. हाथों में दिशानिर्देशक पट्टिकाएं थामे. कहा तो रूमी ने लेकिन महसूस मुझे होता रहा है, ये शरीर बहुत दूर हैं पर हमारी आत्मा की तरफ तुम्हारी आत्मा की एक खिड़की हमेशा खुली है.

किसी महागाथा में क्षेपक सी बीती उन रातों में मेरी आत्मा की लगभग सारी खिड़कियां खुली रह गईं थीं. नतीजतन मुझे ठंड लग गई थी, मैं खांसती और छींकती रही थी, एंटीहिस्टैमिनिक दवाओं के रैपर सारे खाली थे. वह होता तो खीज कर कहता - "अगर मेरी अनुपस्थिति तुम्हें बीमार कर सकती है तो मेरी उपस्थिति का भला कोई अर्थ रह जाता है? तुम्हें पैदा करनी होगी "इम्यूनिटी". मेरे न होने को लेकर. कुछ देर को सुला दो यह दर्द. "


क्या यह केवल अनुपस्थिति थी?  यह उस उपस्थिति की सांद्रता थी. जो ठोस होने की हद तक सांद्र होने को थी. एक पूरा वातावरण था उसका होना.  वह बस एक कमरे से उठकर चला गया था, अपना असबाब बांध कर मगर वायुमंडलीय गोलक में बस चुकी थी उसकी उपस्थिति. खूब एहतियात से उसने बाँधा था अपना सामान कि कहीं कुछ छूट न जाए, किंतु बहुत सारी जगहों पर वह खुद ही छूट गया था.  पीछे छूटा वह छोटा - सा संसार, राजीव चौक की मैट्रो - रेल के डिब्बे की तरह हो गया था, उसकी स्मृतियों से ठसाठस, कि मुझे सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. वो सारे सन्नाटे जो उसकी मुलायम - समझाने वाली आवाज़ से अपदस्थ हुए थे, बुरी तरह चीख़ रहे थे . मेरे कान बस बहरे होने को थे. उसकी उपस्थिति ने उसकी अनुपस्थिति को पूरी तरह संक्रमित कर दिया था. सुन्न पड़े मेरे वज़ूद पर एक क्लीशे झर रहा था, जिसे मेरा मौलिक मन अपनी कुर्तियों पर से झाड़ने का प्रयास कर रहा था.

Absence makes the heart grow fonder. "उसका महत्व, उसके जाने के बाद!"

चाय के अकेले प्याले की व्यथा जा मिली थी, खुले हिंदी के अखबार के समानांतर बंद टाइम्स ऑफ़ इंडिया की अनखुली तहों के अनछुए दुख से. खाने में से स्वाद की तरह वह अनुपस्थित था.

मेरे वनांचल के सारे गगनचुंबी विशाल पेड़ अपनी छालों समेत स्वपोषी ऑर्किडों को दुष्टता से नीचे धकिया चुके थे, मगर बसंत मलबे में भी उपस्थित था, पीताभ और संक्रमित. लाल परों वाली 'मिनिवेट'चिड़ियों के झुंडों का आप्रवास समाप्त हो चुका था. वे लौट रहीं थीं.  लौटते झुंड से पीछे छूट गए कमजोर परों वाले किशोर 'आईबिस'पंछी पेड़ पर बैठ किंकियाते थे. उड़ चुके थे वे क्षण और क्षणांश जिनमें पूरी सदी के साथ की संभावना के भ्रूण अकस्मात मर गए थे. एक दुनियावी खेल के बरक्स लंबे अनुभव की एक ज़मीन धंस रही थी. जड़ें मिट्टी छोड़ रहीं थीं.  मैं खुली जड़ें लिए एक अधउखड़े पेड़ सी, हतप्रभ! अपने बगल के सटे पेड़ के उखड़ कर अपनी जड़ों को पैर बनाकर चले जाने के चिन्हों को जड़वत देख रही थी.  वे पदचिन्ह थे कि जड़चिन्ह!

उसकी अनुपस्थिति ने उघाड़ दिया था मेरी आत्मा को. निर्वसन होने का निर्वासन हममें से हर कोई जीता है, नग्नता के दु:स्वप्नों में.  मैं कुछ स्वप्न में, कुछ यथार्थ में अपनी नग्न आत्मा को हाथों से ढांपे बैठी थी.  जिस लगाव को महसूसने के लिए पांच इंद्रियां कम पड़ती हों, और छठीं इंद्री की आंच को हम समवेत फूंकों से जगा रहे थे, ऐन् उसी पल वह उठ कर चला गया था . मैं इस साझे दर्शन पर काम करते हुए अकेले छूट गई थी कि - एक अद्भुत और अभूतपूर्व, हर संभव - असंभव कोण और तराश वाले किसी संबंध के मूल में केवल देह - अंतस - अचेतन - अवचेतन नहीं हो सकते. एक व्यक्ति के संश्लेषण में आत्मा और देह के अतिरिक्त भी कुछ ज़रूर होता है.

'जिगसॉ पज़ल'के टुकड़ों जैसे दो लोग, परस्पर मिलने वाले विपरीत कटाव, तराश और उठान लिए इस संसार में बमुश्किल मिलते हैं. हम अपने अस्तित्वगत संश्लेषण के ये जादुई मिलान करने को उद्धत ही थे कि वह पलट कर चला गया. यह जताते हुए कि - सुनो प्राण, अनुपस्थिति महज वैश्विक है, उपस्थिति अनंत.

मैं उस अनंत के भरम को ढो रही हूं कि ईश्वर जिस निर्वात को तुम्हें सौंपता है, प्रेम में अनुपस्थिति के अणु उस निर्वात को भर देते हैं, वह निर्वात जीवंत और सांस लेने योग्य हो जाता है.  लेकिन मेरा दम घुट रहा था. 'हायपोक्सिया'में बिना ऑक्सीजन के इस सम्मोहक असर का भरम मुझे अभी जीना था, अंतिम रूहानी सांस की मीठी नींद तक. कहते हैं कि किसी की अनुपस्थिति उसके विरह - पीड़क को तभी प्रभावित करती है जब उसकी उपस्थिति पीड़क की पांचों इंद्रियों पर हावी हो. मेरी तो छठी इंद्री तक संक्रमित थी. उसके जाने से लगा बहुत सारी वे अनुपस्थितियां भी सजीव और संगीन हो गईं, उन स्थाई और अस्थाई दिवंगतों की कि जिनके मरने / जाने को उसके होने ने लगभग भर दिया था.  आज चित्रों - आत्मचित्रों के बाढ़ के दिनों में किसी का कोई छायाचित्र तक नहीं है मेरे पास . क्योंकि वह मानता था कि  दिवंगतो और अनपस्थित हो चुके आत्मीयों की फोटो महज एक कृत्रिम और स्थूल राहतें हैं जबकि ख़त धड़कते हुए, पंख फड़फड़ाते जीवंत अहसास है अनुपस्थितों के. यही कह कर दिवंगतों की तस्वीरें हटवा दी थीं मेरी भीतरी और बाहरी दीवारों से. ख़तों से मेरी दीवारें भरीं थीं, भीतरी और बाहरी.

वह जा रहा था और मैंने कहा था - "माना कि तुम हमेशा लौट आते हो, पर तुम्हारा जाना देखना मेरे हिस्से में बहुत आता है.  अपने जाने को पता नहीं तुम कैसे लेते होगे, शायद मेरे ओझल होने से. मेरा ओझल होना भी मगर मेरे ही हिस्से बहुत ज्यादा ही आता है.  मुझे जलन होती है तुमसे कि एक दिन तुम मेरा जाना देखो, तुम्हारा मुझे जाते हुए देखना और खुद को ओझल होते हुए पाना दोनों तुम्हारे हिस्से थोड़ा - थोड़ा तो आए.  मैं जानती हूँ तुम ज़िद्दी हो, तुम मुझे जाने न दोगे. क्योंकि तुम डरते भी हो कि मैं नहीं लौटी तो!! मेरा बहुत मन है कि मैं भी तुम्हें एक रोज़ इस तरह जाकर आहत करूं."

वह जाते - जाते कह गया था -
"बिलकुल, तुम मुझे आहत करो, मैं तुम्हें आहत करूंगा. हम एक - दूसरे को लहुलुहान करेंगे. क्योंकि यही अस्तित्व के एकमेक होने की प्रक्रिया है, लहू और मज्जा में घुस कर. आगे हमें बसंत बन कर फूटना है, तो पतझड़ में मिट्टी में मिलना होगा. एक दूसरे में सदैव उपस्थित होने के लिए आज की अनुपस्थिति का ख़तरा उठाना होगा. फिलहाल तो मुझे जाना ही होगा.  तुम भी लौट जाओ कहीं भी, बेवजह ही सही. क्योंकि हर व्यक्ति को एक दिन चुरा कर अपने लिए रख लेना होता है. क्षितिज रेखा जैसा एक दिन जिससे वह अपनी पूरी चेतना के साथ अतीत को भविष्य से अलगा सके. एक ऐसा दिन जो समस्याओं से जूझने का न हो, न ही समाधानों की खोज का हो. वह दिन बस तल्लीनता का हो अनुपस्थित की खोज में उपस्थित. सुनो, हम सजा सकते हैं इन अनुपस्थितियों को तरह - तरह से. जगा लो अपने भीतर किसी कौतुकप्रिय कलाकार को. जब वह आमंत्रित होता है तब वह भर देता है यह शून्य अनुत्तरित, एकतरफ़ा प्रेम का. अनुपस्थिति प्रेम के लिए वही है जो बुझती आग के लिए फूंक है. फूंक पहले तो हल्का - सा बुझाती है आग को और फिर भभक कर जलता है प्रेम. अनुपस्थिति में ही पोषण है प्रेम का.  अनुपस्थितियां जगाती हैं अनंत संसार फंतासियों का, इन्हीं में रचा जाता है प्रेम को नितांत अनूठे ढंग सेऐसे विलक्षण ढंग और बेढंग जिन्हें यथार्थ में संसार या कि संसार का यथार्थ कभी अनुमान और कल्पना तक की अनुमति न दे. 

उसने आँख पर शब्दों की सिल्क - पट्टी बांध कर घुमा दिया था इस लुकाछिपी के खेल में, जिसमें हार कर मैंने उसकी अनछुई परछाँई से कहा था - तुम और मैं क्या हैं? यह जो हमारे बीच है बस शब्दों का भावनात्मक हुजूम है?  जब दूर होगे तो ये मेरे और तुम्हारे ये रंगीन, गंधहीन शब्द बहुत तंग करेंगे. स्पर्श तो शायद त्वचा भुला देगी. यादें उम्र की विस्मृति में बिला जाएंगी. बस ये शब्द गूंजेंगे, नीली मीनारों मे? तुम भला सोच सकोगे मुझे अपनी मंद पड़ती याददाश्त में?

उसका प्रेम भी मुझसे अकाट्य तर्क वाली वकालत करता है,  हाँ उसकी अनुपस्थिति में भी. 'मुझ पर भरोसा रखना थियो'की तर्ज और टेक उठाता है. परोक्षत: नहीं भी रखूं तो भी तो यह भरोसा आत्मा का है, क्योंकि दिल तो बच्चा है जी. मेरी रूह बहुत सख्त मिजाज़ है, कस कर पकड़े रखती है कान बच्चा दिल के.

आह! उसके लिए प्रेम कितना सरल था, मानो हम अपना न होना किसी को उपहार में दें और उसका होना उठा लाएं. मैं आंखें बंद करती हूंसोचती हूं वह लौटेगा और कहेगा, मैं सारा जीवन एक यात्रा पर रहा हूँ और अब घर आ गया हूँ. तब एक लंबी अनुपस्थिति के बाद आलिंगन से बेहतर कुछ नहीं होगा.  कुछ भी बेहतर नहीं अपने चेहरे को उसके कांधे के घुमाव में सटा कर अपने फेंफड़ों में उसकी गंध भर लेने से. आज भी उसे सोचना चम्मच से अपनी नींद की चीनी घोलना है. स्वयं को मर्मस्पर्शी, उर्वर निकषों पर कसना है.

पीली रोशनियों के चतुर्भुजों में चकाचौंध मैं किसी एनस्थिसिया से जग गई हूँ. यह स्वप्न और जागृत के बीच की संधिरेखा मुझे सदा ही अचंभित करती है. यह समय से परे की फिसलन भरी ढलान, जहां मेरे हाथ मेरी आँखों की जगह ले चुके हैं. मैं सुन रही हूं एकांत जो बाहर बारिश की तरह गिर रहा है. बारिश की बूंदों के चारों तरफ़ नन्हें इंद्रधनुष डोल रहे हैं. टिक - टिक बीत रहा है तटस्थ समय हर किसी के अस्तित्व में गहरे रहतीं एक, कुछ और कई अनुपस्थियों की संगीन या रंगीन उपस्थितियों से विरक्त.
   
मैं यह सब अतिरेक के इसी ज़माने में लिख रही हूं, जब इस संसार से अनुपस्थित होती जा रही हैं बहुत सारी अनुभूतियां. अनुभव और अनुभूतियों के बीच का 'कुछ तो'भीषण हो गुज़रा है.  इन दोनों के बीच बनी, लगातार चौड़ी होती एक दरार में धंस कर 'कुछ तो है'जो अनुपस्थित हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे लगातार हर तरह से,  हर माध्यम में संवादरत इस दुनिया में से  मौन!  मौन अपने आपमें किसी की अनुपस्थिति से नहीं उपजता, बल्कि वह शाश्वत संपूर्ण की उपस्थिति का महीन संगीत है, जिसे अनभ्यस्त कान सुन नहीं सकते. गंध, स्वाद, स्वर, स्पर्श, रूप, रस और मद अपनी अनुपस्थिति में अनुभूत नहीं होते अब, वे नितांत एेंद्रिक हो गए हैं, वे स्मृति में टिकते ही नहीं छन कर बह जाते हैं.

अनुभव और अनुभूति के बढ़ते फ़ासलो के बरक्स आत्म से जड़, चेतन में अचेत, ताज़ा तुरंत सिंकी रोटी को भूल चुकी इस इक्कीसवीं सदी में मानो कुछ टिकता ही नहीं. अनुपस्थिति तो अपने विनम्र तर्क लेकर फिर भी खड़ी है, हम उसके तर्क नहीं गहते हैं, क्योंकि सांकेतिकता अधरों पर ठिठकी तिर्यक मुस्कान से परे खुश्क़ हँसी में बदल चुकी है, व्यथा अब इंगित नहीं होती, उसका विज्ञापन आवश्यक हो चला है. अनुपस्थित भाव राग - विराग, प्रेम - विरह,  भूख - तृषा, परम और चरम जीवन - जगत में क्या,  काव्यलोक या कलाजगत में दुर्लभ हैं. जबकि यह एक तथ्य है कि हम उपस्थितों को उनकी अनुपस्थितियों में अधिक तीव्रता से सीखते/सोखते हैं, क्योंकि हम सब जानते हैं कि संवाद के बीच उचित मौन ही अर्थ - बहुल होता है. अनुपस्थित की उपस्थिति को हम परे धकेल रहे है.  हम सतहों पर तैरने के आदी गहरे पैठने से बचने लगे हैं. 

प्रेम में से विश्वास से पूर्व आत्मविश्वास चुक रहा है, प्रेम में आत्मविश्वास जिस पल जागता है तभी वह आकर्षित होना छोड़ पाता है, बल्कि आकर्षित करना शुरू कर देता है. यह तय है कि अनुपस्थिति में उपस्थित परम के भाव का फलसफ़ा अपने लिए पारदर्शी आत्मनिरीक्षण  मांगता है और मांगता है  अनुभव की एक उम्र. पारदर्शिता की सबसे बड़ी ज़रूरत है स्वयं के सांद्र में किसी अन्य की तरल उपस्थिति. अपने लिए पारदर्शी होकर ही मनुष्य दूसरों के लिए विश्वसनीय हो सकता है.


लगातार भौतिक सुख और दर्दविहीनता और सुविधा में रहते हुए जैसे कि अभाव की पीड़ा अनुपस्थित हो गई है. महसूस करने और अनुभूत होने की सघनता इस तरह विरल हुई है, जैसे कि हम अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी स्थायी तोषप्रद एनस्थिसिया में डोलते हों. ऐसे में कोई भी दर्द दुखती शिराओं पर ठिठका खड़ा, इतना मंद और मीठा लगता है कि हम उसपर हंसते हैं, रोते नहीं. निजी दुखों को बचाते, सुखों को प्रदर्शित करते हुए आत्मरति में डूबे हुए हम हर गीत और बीतते हुए प्रेम की अंतिम चमकीली सिसकी भी नहीं सुन पा रहे.  ठीक वैसे ही, जैसे तेज़ और कृत्रिम प्रकाशों की उपस्थिति में मुलायम अँधेरे में डरे हुए ख़रगोश की तरह दुबका सुबह का आखिरी धुंधलका हम नहीं देख पा रहे रहे.  अतिरिक्त रोशनियों में 'ओवर एक्पोज़्ड'हम सामूहिकता में सटे-सटे, भीड़ की गर्म नज़दीकी में स्वयं से ही अनुपस्थित हो चले हैं. हमारे चारों तरफ़ वर्तमान का ठंडा गाढ़ा पारभासी अंतरिक्ष है.  हमने भविष्य की तस्वीरों से मुखातिब होना बंद कर दिया है,  अतीत के तहखानों से आती सीढ़ियाँ कबाड़ से अँटा दी हैं.  नियति के सुविधाजनक बहाने को ओढ़ हम विलग हो चुके हैं आगत और अतीत दोनों से. 'नॉस्टैल्जिया'शर्मिंदगी है, स्वप्नजीविता एक बेवकूफ़ी. वर्तमान के ज़ंग लगे भौंथरे निकष पर शब्द धार नहीं पाते. वर्तमान की गाढ़ी सांद्रता में अनुपस्थितियों का विलुप्तता में बदलना दुखद है.  

बहुत कुछ विरल होते हुए पहले अनुपस्थित हुआ, अनुपस्थिति के अहसास को हमने आगत और अतीत से काट दिया फिर बहुत कुछ विलुप्त हो चला. विलुप्तता की बहुत सी मिसिंग कड़ियों के टूटे सिरे पकड़े, इस धरा पर एकाकी छूटते, अपने जीनोटायप में जीवित जीवाश्म लिए है हम. हम कितनी-कितनी अनुपस्थितियों की विलुप्त उपस्थितियों का अभिशाप ढोएंगे?
(दीप भव के नए अंक में प्रकाशित)
______________ 
manishakuls@gmail.com
(सभी फ़िल्म -फोटो मार्केज़ के उपन्यास  Love In the Time of Cholera पर इसी नाम से निर्देशक Mike Newell की फ़िल्म से, जिसमें नायिका फरमीना डाज़ा की भावप्रवण भूमिका  में Giovanna Mezzogiorno हैं.)

सहजि सहजि गुन रमैं : अविनाश मिश्र

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पेंटिग : Robert Rauschenberg














कविता लघुतम दूरी तय करके भाषा के संभव उच्चतम स्तर तक पहुचने की कोशिश करती है.  कवि जोसेफ ब्रादस्की कविता को कब्र पर लिखे कुतबे की संतान इसीलिए कहते हैं. कविता में सूत्रता रहती है. अविनाश मिश्र की कविताएँ अनुभव और अनुभूति को व्यक्त करने के इसी घनीभूत रास्ते पर हैं. इनमें से कुछ कविताएँ तो अक्षर और मात्राओं पर हैं. विद्रूप को उसकी भयावहता में व्यक्त करने के लिए वह अपनी शैली लाउड नहीं करते. कविता में भाषा का कौतुक सृजनात्मक है और उसका एक गहरा सामाजिक अर्थात भी है. ये तेरह कविताएँ खास आपके लिए.

एक अखबार : तेरह कविताएं                        
अविनाश मिश्र


मूलतः कवि

आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो
कि तुम अब भी मूलतः कवि हो
भले ही वक्त के थपेड़ों ने
तुम्हें कविता में नालायक बनाकर छोड़ दिया है
बावजूद इसके तुम्हारा यह कहना
कि तुम अब भी कभी-कभी कविताएं लिखते हो
उन्हें कुछ कमजोर करेगा
*



विवश होकर

मैं महानगरीय संस्कृति को कुछ इस तर्ज पर पाना चाहता था
कि वहां बेरोजगारों का भी मन लगा रहे
और इसलिए मैं एक अवसाद पर एकाग्र होना चाहता था
लेकिन विवश होकर मुझे एक पत्रकार बनना पड़ा
बाद इसके सच को व्यक्त करने में ज्यादा समय लगता हैया झूठ को
यह सोचने का भी वक्त नहीं बचा मेरे पास

अब वह वक्त याद आता है जब वक्त था
और एक ऐसे घर की भी याद आती है
जो कहीं कभी था ही नहीं
और कभी-कभी वे स्थानीयताएं भी बेतरह याद आती हैं मुझको 
जहां मैं एक पुनर्वास में बस गया था
इतने निर्दोष और बालसुलभ प्रश्न थे मेरे नजदीक
कि मैं उत्तरों पर नहीं केवल विकल्पों पर सोचा करता था
*




में

अखबार में चरित्र होना चाहिए
चरित्र में कविता
कविता में भाषा
और भाषा में अखबार
*




दो

माता ऐसी दो जैसी दूसरी न हो
पिता ऐसा दो जो सदा घर से बाहर हो
पत्नी ऐसी दो जो मनोरमा हो
पति ऐसा दो जो श्रवणशील हो
बहन ऐसी दो जो चरित्रचिंतणी हो
भाई ऐसा दो जो शुभाकांक्षी हो
विचार ऐसा दो कि कुछ विवाद हो
और अखबार ऐसा दो कि दिन बर्बाद हो
*




शोर का कारोबार

वहां बहुत शोर था और बहुत कारोबार
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था

हालांकि गरीबी गर्वीली नहीं थी मेरे लिए
मुझे उससे भयंकर घृणा थी
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था

हालांकि प्रेम पवित्र नहीं था मेरे लिए
मुझे उससे बस आनंद की गंध आती थी
ऐसे में कविताएं रचने के लिए
मैं अतीत में जाना चाहता था

इस कदर अतीत में कि
मुझे आग के लिए पत्थरों की जरूरत पड़ती
और शिश्न ढंकने के लिए पत्तों की
*




हिंदी से भरे हुए कुएं में

यह एक बहुत प्राचीन बात है
सब सत्तावंचित सत्ता से घृणा करते हैं
लेकिन भाषाएं हथियार नहीं होतीं

यह एक बहुत प्राचीन बात है
भाषाएं स्वार्थ को नष्ट करती हैं
और आदर्श लक्ष्य को

यह एक बहुत प्राचीन बात है
भाषाएं समावेशी और मार्गदर्शक होती हैं
लेकिन उदारताएं अंततः भ्रष्ट हो जाती हैं

यह एक बहुत प्राचीन बात है
सुख को सार्वभौमिक कर दो
और दुःख को सीमित

यह एक बहुत प्राचीन बात है
यह एक कुएं का जल कहता था
यह उस कुएं में मेंढकों के आगमन से पूर्व की बात है
*





अच्छी खबर

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें कोई हताहत नहीं होता
आग पर काबू पा लिया गया होता है
और सुरक्षा व बचावकर्मी मौके पर मौजूद होते हैं

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें तानाशाह हारते हैं
और जन साधारणता से ऊपर उठकर
असंभवता को स्पर्श करते हैं

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें मानसून ठीक जगहों पर
ठीक वक्त पर पहुंचता है
और फसलें बेहतर होती हैं

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें स्थितियों में सुधार की बात होती है
जनजीवन सामान्य हो चुका होता है
और बच्चे स्कूलों को लौट रहे होते हैं

वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
इतनी अच्छी कि शायद खबर नहीं होतीं
इसलिए उन्हें विस्तार से बताया नहीं जाता
लेकिन फिर भी वे फैल जाती हैं
*





उप संपादिका

वह अक्सर पूछती है :
अकसर में आधा ‘क’ होता है कि पूरा
मैं बिल्कुल भ्रमित हो जाता हूं
बिलकुल में आधा ‘ल’ होता है कि पूरा

अक्सर बिलकुल
बिल्कुल अकसर
*




समाचार संपादक

इराक में छोटी ‘इ’
और ईरान में बड़ी ‘ई’

कुछ मात्राएं शाश्वत होती हैं
कभी नहीं बदलतीं

जैसे
तबाही का मंजर
*





उ ऊ
              
करुणा बहुत बड़ा शब्द है
लेकिन मात्रा उसके में     
छोटे की ही लगती है

रूढ़ि बहुत घटिया शब्द है
लेकिन मात्रा उसके में
बड़े की लगती है

जो जागरूक नहीं होते
वे जागरूक के में
छोटा लगा देते हैं

लेकिन जागरूक होना बेहद जरूरी है
और इसकी शुरुआत होती है 
जागरूक के में बड़ा लगाने से

और अगर एक बार यह जरूरी शुरुआत हो गई
तब फिर शुरुआत के में
कोई बड़ा नहीं लगाता
और न ही जरूरी के में छोटा
*




सांप्रदायिक वक्तव्य

‘सांप्रदायिक’ मैं हमेशा गलत लिखता हूं
और ‘वक्तव्य’ भी

सांप्रदायिक वक्तव्य मैं गलत लिखता हूं

मैं गलत लिखता हूं सांप्रदायिक वक्तव्य
*




मैंने कहा

मैंने कहा : साहस
उन्होंने कहा : अब तुम्हारे लायक यहां कोई काम नहीं
मैंने कहा : एक इस्तीफा भी रचनात्मक हो सकता है
उन्होंने कहा :रचनात्मकतावह तो कब की खत्म कर चुके हम
अब केवल इस्तीफा ही बचा है तुम्हारे पास
*






नहीं

कल और आज मैं उस दर्द के बारे में सोचता रहा
जो मेरे लिए नहीं बना
और इस अवधि में मैंने तय किया
बहुत जल्द मैं अपना बहुत कुछ निरस्त कर दूंगा
ऐसा मैं पहले भी करता आया हूं
शीर्षक नहीं पंक्तियों से प्यार है मुझे
कि मैं जिन्हें समझने के स्वगत में हूं
संभवत: मैं उन्हें उसी रूप में चाहता हूं
जिसमें स्वीकार नहीं
जिजीविषा की अंतिम कथा-सा
जिसे मैं शब्द न दे सका
वह भी यथार्थ था
पाप के बाद प्रायश्चित जितना निरर्थक
वह भी
तस्वीर सौजन्य  : Sushil Krishnet
______________________________________
(इसमें से कुछ कविताएँ 'जलसा'में भी प्रकाशित हैं.)




अविनाश मिश्र :
darasaldelhi@gmail.com
उपसंपादक पाखी

सबद भेद : विनोद कुमार शुक्ल का कवि-कर्म : रवीन्द्र के. दास

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फोटो साभार;  शाश्वत गोयल








विनोद कुमार शुक्ल जितने बड़े उपन्यासकार हैं उतने ही बड़े कवि भी. विष्णु खरेठीक ही कहते हैं-‘उनकी कविता वह जलप्रपात है जिसमें सबकी आवाज़ों का कोरस समाया हुआ है’. इन आवाजों  में एक चिंतनशील मुद्रा आपको हमेशा दिखती है. रवीन्द्र कुमार दासका यह आलेख विनोद कुमार शुक्ल के कवि-कर्म पर केन्द्रित है. 

ज़िन्दगी से होती हुई / कोई सड़क                                         
(विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ)


होना और हुए की बात होना, एक नहीं है. होना अध्यात्म है और होने तथा हुए की बात करना दुनिया है, दुनियादारी है. परम्परा से, दोनों में ‘किसकी प्राथमिकता है’ को लेकर विवाद है. गौरतलब है, विवाद वास्तविकता को लेकर नहीं, इसकी स्वीकृति के प्रकार-भेद को लेकर है. हम मनुष्य ऐसी बहुत सारी योग्यताओं, संपदाओं, और विशेषताओं से लैस होते हैं, जिन्हें महत्त्वपूर्ण मानने को ठहरते नहीं. किन्तु इनका अभाव होने पर हम मनुष्य इसका महत्त्व जान पाते हैं.   
    
पिता ने फुलाया था उसका फुग्गा
मृत पिता की सांस
अभी तक फुग्गों में सुरक्षित है
मृत बच्ची के पास !!!

और इस तरह प्रारम्भ होता है स्मृति का आख्यान. क्या महत्त्व है हमारे जीवन में स्मृति का ? कुछ नहीं ? क्या वह अतीतजीवियों के छिपाने का खोल मात्र है ? विनोद कुमार शुक्ल लब्धप्रतिष्ठ गद्यकार हैं, कवि हैं. इनकी रचनाएँ तरह तरह के रास्तों से गुजरते रहने वाली देशाटन-जैसी एक मनुष्य की इच्छा-यात्रा है. यात्रा न तो रास्ता करता है, न शहर और न कोई और तथ्य. यात्रा करता है मनुष्य. मनुष्य सिर्फ रोटी कपड़ा और माकन जैसी बुनियादी बातों का चिंतन नहीं करता, बल्कि उनके लिए चिंतन नहीं प्रयास करता है. मनुष्य सिर्फ इच्छाओं में रमण करता है. हम मनुष्य जो इच्छा करते हैं उसका पिछला छोर होता है हमारी स्मृति. और इसी स्मृति से निर्णित होती है संस्कृति जो इच्छा का अगला सिरा होती है. स्मृति और संस्कृति के अनिवार्य संबंध की अनिवार्य कड़ी है मानुष-आकांक्षा, जिसमें सारी संभावनाएं विद्यमान हैं. विनोद इन संभावनाओं का चित्र बनाते हैं, हालाँकि उनको विदित है, “चित्रकार को मेरी कविताएँ पसंद नहीं”, “संगीतकार को भी मेरी कविता पसंद नहीं”. ऐसा इसलिए है क्योंकि कविता में शब्द होते हैं, शब्दों में अर्थ की अनंत संभावनाएं होती हैं और जिन्हें संभावनाओं से ऐतराज़ है, वे अतीत को स्मृति नहीं, इतिहास कहते हैं, सुनिश्चित किया हुआ स्तब्ध इतिहास.

इतिहासों में घर नहीं होता, मनुष्य नहीं होता, मानुष-आकांक्षाएँ नहीं होतीं, स्वप्न और संभावना नहीं होतीं और नहीं संभावनाशील शब्द होते हैं. जिन्हें इतिहास ने बेसहारा छोड़ दिया, वे विनोद कुमार शुक्ल की कविता में पुनस्सर्जित होकर प्राणवान हो उठते हैं :

नष्ट होने की परंपरा 
ऐसे मजबूत खंडहर की तरह है
कि ऐतिहासिक किले के मज़बूत खंडहर में
अभी भी मिलिट्री की बैरकें हैं 
किले में गरीबों की नई गृहस्थी का घर हुआ होता
कुछ सुरक्षित रह जाती गृहस्थी
हमलावर लोगों से”

कुछ विद्वानों के लिए ये खंडहर ऐतिहासिक शोध की सामग्री, कुछ के जातीय अस्मिता की सामग्री हैं तो सत्ता-प्रशासन मिलिट्री बैरक बनवाता है. किन्तु कवि विनोद कुमार शुक्ल यहाँ घर बसाने की संभावना करते हैं.

घर का बने रहना इनके रचना-संसार का केन्द्रीय पक्ष है. इस ‘घर के बने रहने’ का संबंध मानव-सभ्यता के विकास के अनेक प्रकार के सोपानों से है. सभ्यता के विषय में विचार किया जाता है, उसके परिवर्तन-परिवर्धन पर भी विचार होता है. लेकिन घर को एक सहज दाय के रूप में स्वीकार कर इसकी वास्तविक सत्ता और महत्ता को नज़रअंदाज़ करते आ रहे हैं.

“कोई मुझे करे बेदखल 
मेरे घर मेरी दुनिया से 
फिर अपने को बचाने में
जाने कितना समय लगे
भाग यहाँ से घर.”

अनायास परिदृश्यमान हो उठता है चारों ओर से संकटापन्न मनुष्य, जो खुद को बचता हुआ नहीं पाकर भी बचा लेना चाहता है कोई अमूल्य निधि – जिसकी दरकार है सभी बचे लोगों को. उसी तरह यह कविता ‘घर’ को बचा लेना चाहती है, दुनिया बचा लेना चाहती है,

“मुझे बचाना है
एक एक कर
अपनी प्यारी दुनिया को
बुरे लोगों की नज़र है
इसे ख़त्म कर देने को” -----

क्योंकि कवि की स्पष्ट समझ है कि विचार और बाज़ार का एकमात्र टार्गेट है घर. इसी घर से जुड़ी है लोगों की दुनिया. दुनिया न तो अध्यात्मवादियों का संसार है, न संरचनावादियों का समाज बल्कि यह है रागात्मिका वृत्ति और अनिवार्य संबंधों का वृत्त, पूर्ण रूप से मानवीय आकांक्षाओं से सराबोर. और इसी की एकाग्रता को भंग करने कोई निर्वैयक्तिक और उदात्त सा प्रतिपक्ष घात लगाए बैठा है.  

कोई भी संस्थान, व्यवस्था या संरचना नहीं अवशिष्ट है जहाँ टूट फूट न हुई हो. तो भी, टूटने-फूटने के बाद ये बनामोनिशान मिट जाते हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. देखा जाए तो तोड़-फोड़ तो नवनिर्माण की बुनियादी शर्त है, बशर्ते इसमें हमारी मर्ज़ी शामिल हो. रीति-रिवाज़, चिंतन-मिजाज़, प्रेम-व्यवहार, पहनावा-श्रृंगार, खान-पान, बोल-चाल --- वगैरह वगैरह एक जगह परिवर्तन को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है. तो क्या परिवर्तन हो जाना किसी सत्ता का नष्ट हो जाना है? अतीतोन्मुखी विचारधारा का उत्तर जहाँ होगा ‘हाँ’, वहीं वैज्ञानिकता कहेगी नहीं. तो हमारी दैनंदिन बुद्धि में दोनों जवाबों को ख़ारिज कर देने की सहज योग्यता भी है. हाँ भी गलत और न भी गलत.

पतझड़ के मौसम में बगीचा उजाड़ सा दिखता है किन्तु हमारी स्मृति में बसी पुनः नव-पल्लव आने की अनिवार्यता हमें निराश नहीं होने देती. प्रत्युत दुगुने उत्साह से हम प्रतीक्षारत रहते हैं. यह बहुजन-प्रत्यक्ष दृष्टान्त है. ऐसे अनेक उदहारण खोजे जा सकते हैं. आशान्वित रहना या निराश हो जाना आकस्मिक या अकारण नहीं होता. जब हमारी स्मृति हमारा साथ नहीं देती तो हम निराश हो जाते हैं और जब साथ होती है तो आशान्वित बने रहते हैं. इतनी सी बात है.

अब प्रश्न है कि किस प्रकार की वस्तु, घटना अथवा दृश्य स्मृति में अपना स्थान बना पाते हैं? जीवन में – एक व्यक्ति अनगिनत परिदृश्यों से रूबरू होता है. सबको सुरक्षित नहीं किया जाता, नहीं किया जा सकता. जिस वस्तु की वस्तुता जीतनी तीव्र और सघन होती है, वह उसी अनुपात में व्यापक और स्थायी स्मृति का रूप ले पाती है. इसे दूसरे रूप में समझा जा सकता है, जैसकि इसे पाश्चात्य चिन्तक इमैनुअल कांट इसे समझाते हैं. ‘प्रत्येक संवेदना ज्ञान की वस्तु है. संवेदना ज्ञान की वस्तु मानसिक कोटियों के माध्यम से बनती है. मानसिक कोटि संवेदनाओं की पहचान करती है. जिसकी पहचान मानसिक कोटि के सहारे नहीं हो पाती है, वह वस्तु अभिज्ञाता व्यक्ति के लिए अज्ञात ही रह जाती है. अज्ञातता वस्तु की नहीं, व्यक्ति की मर्यादा है. इन मानसिक कोटियों का निर्धारण स्मृतियों के दम पर होता है और स्मृति भी मानसिक कोटियों के दम पर टिकी रहती है. ये मन की वस्तु है, मानसिक या काल्पनिक नहीं. इसका रिकार्ड रखा गया होता है. एक दृष्टान्त लेते हैं, इमली, जिसका नाम सुनकर उसके मुंह में पानी भर आता है जो इसके नाम-रूप-कर्म से वाकिफ है. ऐसा मात्र इस शब्द के उच्चारण से नहीं हो जाता बल्कि इसके लिए स्मृति का होना आवश्यक है.

स्मृति की ताकत कई बार ज्ञान-बोध का अतिक्रमण करती है, मसलन, मृत्यु से किसी का डरना. गोया किसी भी जीवित व्यक्ति को इसका अनुभव नहीं होता, किन्तु, संभवतः, व्यक्ति की आन्तरिकता से इसकी कोई पहचान होती है
“जो कुछ अपरिचित हैं
वे भी मेरे आत्मीय हैं
मैं उन्हें नहीं जानता
जो मेरे आत्मीय हैं.”

विनोद कुमार शुक्ल अपनी कविताओं से ‘सूख’ गए संबंधों को एकबार फिर से रससिक्त करना चाहते हैं, पुनर्जीवित करना चाहते हैं गौरतलब है, संबंध बनाना मानवीय प्रयास है संबंधों की अनिवार्यता की खोज वैज्ञानिक प्रयास है और सोए संबंधों को जगाना कविताई प्रयास है. कविताई प्रयास का एक बेहतर उदहारण देखिए:

“और अच्छा लगता मैं उन्हें स्टेशन पर देखता 
वे मेरे घर आ जाते, कोई ऐसे संबंध की तरह
जिन्हें मैंने कभी देखा न था
उत्तर प्रदेश के एक गाँव में रह रही
उस बड़ी बहन की तरह
जिससे संबंध टूट गए”

कवि यहाँ खुद-ब-खुद स्पष्ट है कि सम्बन्ध तो है, पर टूट गया है. कविताओं में उस ‘टूट’ गए संबंधों के अचानक जी उठने की कामना उसके वैयक्तिक प्रयास की विफलता का छाया-कथन भी तो है. हम मनुष्य संबंधों के लिए कुछ इस कदर व्याकुल और तत्पर रहते है जैसे प्रत्यंचा पर चढ़ा बाण. इसी तरह हम नहीं सोचते कि इसका परिणाम क्या होगा ! क्या हो सकता है- हम नहीं सोचना चाहते. यह मानवीय सहज प्रवृत्ति है. पुलिस, नेता, बुद्धिजीवी और जागरूक लोग हमें बार बार नसीहत और हिदायत देते रहते हैं कि पहले तय कर लें कि कौन हो सकता है, फिर दरवाजा खोलें. लेकिन बहुधा ऐसा नहीं होता क्योंकि सावधानी असहजता है. और मानवीय आकांक्षा सहजता-बिद्ध है. सहज रहने का दौरा आता है, एक नैसर्गिक वृत्ति की तरह. तभी तो वह दौड़ता है दरवाज़ा खोलने को, जब भी वह दस्तक सुनता है, संबंधों की दस्तक !

“ऐसे छोटे बच्चे से लेकर 
जिनके हाथ साँकल तक नहीं पहुँचते
घर का कोई भी दौड़ता है
दरवाज़ा खोलने
जिसे सुनाई देती है
दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़.
थोड़ी देर होती दिखाई देती है
तो चारपाई पर लेटे लेटे 
घर के बूढ़े बूढ़ी
चिंतित हो सबको आवाज़ देते हैं
कि दरवाजा खोलने कोई क्यों नहीं जाता ?
पर होता ऐसा
कि दरवाजा खुलते ही
स्टेनगन लिये हत्यारे घुस आते हैं
और एक एक को मार कर चले जाते हैं.
ऐसा बहुत होने लगता है
फिर भी दरवाज़े के खटखटाने पर
कोई भी दौड़ पड़ता है
और दरवाज़ा खटखटाए जाने पर
दरवाज़े बार बार खोल दिए जाते हैं.”

ऐसा अनायास नहीं हो जाता, आत्मीयता की एक हुक अन्दर ही अन्दर पसीजती रहती है. अजनबी से अगर वास्ता न रखा जाना है तो यह भी तय करना होगा कि अजनबी कौन है. इस पर तो अभी विचार किया जाना शेष है कि कोई अजनबी क्यों और कैसे अजनबी है ? बड़ी विकट स्थिति है, कवि इससे अभिज्ञ है,

“मुझे यह भी नहीं मालूम  
कि मैं कितनों को नहीं जानता.” और इसके साथ यह भी देखने योग्य है-
“खूब चलेंगे
कि ज़िन्दगी के नजदीक आने को  
बहुत मन होता है
वाकई ज़िन्दगी से होती हुई
कोई सड़क ज़रूर जाती होगी ...”

विनोद कुमार शुक्ल की कविता पढ़ते हुए सहसा यह अहसास होता है हम किसी नए क्षितिज के विस्तार पर विचर रहे हैं. वह क्षितिज कुछ ऐसा है जो आत्मीय तो प्रतीत होता है, किन्तु हम उसके अभ्यस्त इस मायने में नहीं कि हम कविता-यात्रा में इस विस्तार से नहीं गुजरे, जीवन यात्रा में अवश्य गुजरे हैं. दुसरे शब्दों में कहा जाए तो इनकी कविताओं में कविता का अन्य अर्थ-विस्तार दृष्टिगत होता है. यह अर्थ-विस्तार हमें एक नया आलोक, नई रौशनी मुआहिया करवाता है. इस अर्थ-विस्तार में हमारे पाठक मन का एकबद्ध अभ्यास टूटता है जो एक नियमित संरचना के अन्दर रची-कही गई कविताओं के बार बार पाठ के कारण बन गया था [या है]. इसीलिए हलकी मिटटी खोदने के अभ्यासी, इनकी कविताओं पर, और शायद इनकी समग्र रचनात्मकता पर ‘कठिन’ होने का आक्षेप करते रहे हैं. जाहिर है, कठिनाई कवि या कविता नहीं, पाठकों की है जो उनकी सुविधा के अभ्यास के कारण उत्पन्न हुई है. और इस कारण यह स्पष्ट हो जाना लाजिमी है कि जो तर्कशास्त्र या ज्ञानशास्त्र प्रचलित है इनकी पृष्ठभूमि में एक ‘निश्चित किया गया’ जीवनदर्शन है. जिस जीवन दर्शन से जीवन की समझ पूरी तरह नहीं बन रही हो तो उसमे परिवर्तन-परिवर्द्धन अपेक्षित और स्वाभाविक हो जाता है. और नए तर्कशास्त्र और ज्ञानशास्त्र का उदय भी साथ साथ ही होता है.   

तर्कशास्त्र या ज्ञानशास्त्र जीवन की सम्यक अवगति के लिए होता है, बजाय इसके की जीवन को किसी शास्त्र या पद्धति में रिड्यूस कर ही समझा जाए. जब विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में नए अर्थ-विस्तार की बात की जाती है तो जीवन के उन पहलुओं को समझने की कोशिश की जाती है जो किसी कारन से अनदेखा, अनछुआ सा रह गया है –

“जाते जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा कि नहीं की चिंता
पृथ्वी पर अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना घर की तरफ लौटने जैसा.”

शब्द सरल, स्पष्ट और आत्मीय किन्तु भावबोध बिलकुल नया. भावुक होकर कवि नौटंकी नहीं कर रहा कि ‘सारे निर्धन, अभावग्रस्त लोह मेरे भाई हैं, मैं उनके दुःख से इतना दुखी हूँ कि मेरा वज़न कम होता जा रह, ये सब पूँजी पतियों का षड्यंत्र है, मैं इन्हें मिटाकर रहूँगा. भाइयो! मैं अगर चुक गया तो तुम लोग इस मशाल को जलाए रखना ... वगैरह वगैरह.” इनकी चिंता अभाव है, अभाव-ग्रस्त लोग नहीं; निर्धनता है, निर्धन लोग नहीं.

बार बार सवाल उठता है कि कविता क्यों, किसलिए और किसके लिए लिखी कही जाती है ? हजारों साल से इन सवालों का समाधान भी किया जा रहा है और समाधान किया जाना जारी है. पर सवाल है कि ज्यों के त्यों धरे हुए हैं. समय सन्दर्भ बदलते हैं, समाधान काल कवलित हो जाते हैं.

“सबकी तरफ से वह बोलेगा
वही तो !
कुछ बात नहीं की जिसने मुझसे
चाय पीते हम दोनों सड़क पर खड़े रहे चुपचाप.
वही !! .......
........
जो हमेशा होता है इस तरह चुपचाप
कि अब जोर से बोलेगा अचानक किसी वक्त
पहले भी यही बात थी
अभी भी यही बात है
जबकि पिछले दिनों
कुछ गुंडों ने उसकी जुबान काट दी.”

कौन हैं ये गुंडे जो सबकी तरफ से बोलने वाले की जुबान काट देते है ? क्या इनके हाथ में चाक़ू-छुरी या तमंचा होता है ? नहीं. ये हैं नारा लगाने वाले प्रोफेशनल लोग, जो आपकी बातों को नारों में बदल कर आपकी जुबान काट लेते हैं. कवि आँखों से देखने और कंठ से घर्र-घर्र, गों-गों करने के अलावा और कुछ नहीं करता दिखता. फिर भी ये नारेबाज़ जमकर उस कवी का मजाक बनाते हैं. साहित्य नारेबाजी नहीं है. विद्वानों का कथन उधार लेकर कहा जाए तो साहित्य एक सहयोगी प्रयास है अन्य सभी प्रयासों का. जो पक्ष किन्हीं कारणों से सिद्धांतों, विचारों से उपेक्षित रह गए हैं, साहित्य उन्हें फिर से उकेरता है, उभरता है, प्रकट-प्रकाशित करता है. दर्शन और राजनीति तो राजमार्ग हैं जिन्हें साहित्य पगडंडियों के माध्यम से मानव और मानवता से जोड़ता है. इस तरह साहित्य राजनीति और दर्शन-चिंतन से जुड़ा तो ज़रूर है, पर उसका वास्तविक सरोकार ‘मनुष्य’ है. इसे राजनीति या दर्शन का पूरक भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि पूरक न्यूनता का भी सूचक है. कवि के शब्दों में,

“मैं कोई ऐसा जूता बनवाना चाहता हूँ  
मेरे पैरों में ठीक ठाक आये.” 

जब व्यवस्था और व्यवस्था-बोध में अंतराल आ जाता है तो गलतफहमी का बाज़ार गर्म हो जाता है और जो इस ताक में बैठे होते हैं- वे आतंक (आतंकवाद वाला आतंक नहीं) की राजनीति करते हैं. तरह तरह के फतवे जारी किए जाते हैं. ऐसा सिर्फ वहाँ संभव हो पाता है. जहाँ मानव-व्यक्ति के बोध-तंत्र को अविकसित रखकर उससे ‘कमिटमेंट’ की शक्ल में गुलामी करवाई जाती है. इसके लिए अज्ञान ही हथियार का काम करता है.
“गोली की आवाज़ सुनकर
पेड़ की सारी चिड़ियाँ उड़ गई
पर मरने वाला कोई एक आदमी था
चिड़ियाँ बेकार उड़ीं.”  

सचमुच चिड़ियों को नहीं पता होता है डरने की सही वज़ह का. चिड़ियाँ फिर भी डरती रहती हैं. क्यों ? यह सवाल नहीं, निषेध है. एक प्रतिकार उस विधान का जिसमें किसी को सिर्फ इसलिए दण्डित किया जाता है कि इस दंड को जानने के बाद कोई वैसी परिघटना को दुहराए नहीं. चिड़ियाँ डरती रहे. चिड़ियों का यह डरने वाला स्वभाव उनका परिचय बना रहे कि डरपोक होती हैं. फिर भी,

“इतने अनिश्चय की स्थिति में
कि कब कौन आदमी अचानक मारा जाए
लोगों के लिए
जीवन भरपूर और निश्चित हो गया है .......”     

यह कोई निष्क्रिय आशावाद नहीं, विद्रोह है. और विद्रोह की शक्ल है अनिश्चित मृत्यु के विरुद्ध जीवन को वास्तविक और अपना मानना. हजारों साल से प्रचलित मुहावरे का कि मौत का निश्चित है, उपहास उड़ाया गया है कि मौत बिलकुल अनिश्चित है और इसलिए उससे ख्वामख्वाह डरने की, उसकी खातिर तिल-तिल कर रिसने और पिसने की जरूरत नहीं है.

बड़ा संतोष होता है विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते हुए, जीवन की जीवंत और प्राणवान संवेदननाएँ इधर-उधर प्रवाहित होती हुई को देखते हुए. जीवन मौत की प्रतीक्षा का नाम नहीं है. इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि अभाव और दुःख सम-मूल्यक नहीं हैं, दोनों में बड़ा गहरा भेद होता है. अभाव में भी लोग आनंद का आस्वादन करते हैं, कर सकते हैं और धन-वैभव संपन्न लोग भी पीड़ित होते हैं.

फ़र्ज़ करें, ग्रामीण इलाके में, मिल मजदूर के लिए, पत्नी, माँ, बहन या बेटी, दोपहर का खाना ले जा रही है. सर पानी का लोटा और हाथ में पोटली. घर का सबसे साबुत लोटा, वह भी दरका हुआ, कि पानी बूंद बूंद टपक रहा है. अपनी पूरी हैसियत के अनुरूप सज-धजकर अपनों के लिए दोपहर का कलेवा ले जाती ग्राम्य नायिकाएँ, प्रेम से सराबोर.

“ और सर पर बोहे हुए चमकते दूर से दीखते
कांसे पीतल के लोटे ऐसे
मजदूर पति, मजदूर पिता, मजदूर भाई के लिए
कि या तो चमक ही हो आकार लोटे का
जिसमें भरा हुआ कुँए का पानी साफ़
या उजाले की प्यास
भरी दुपहरी में
अँधेरी जिंदगी को बहुत
कि बहुत है प्यार की चमक
कांसे के लोटे में भरी हुई
पर लोटा फूटा है
रिसकर चमक चौंध
हमको दिखती है.
“यदि नाक की फुल्ली चमकी
तो इसका मतलब
उस लोटे से रिसकर एक बूंद चमक
पीतल की फुल्ली पर टपकी.”

इनकी एक सरल सी कविता है, “धौलागिरि को देखकर”. धौलागिरि को देखना कोई निरपेक्ष घटना नहीं है. कवि ने धौलागिरि देखा और उन्हें धौलागिरि के उस चित्र का स्मरण हो आया, जिसे कभी पहले देखा होगा और इसके साथ पूर्वजों के चित्र का स्मरण हो आया. और स्मृति की व्याप्ति कुछ इस तरह कौंधी कि धौलागिरि का प्रत्यक्ष पूर्वजों की स्मृति में अनुदित हो गया. स्मृति जब सक्रिय होती है तो सर्जनात्मक शक्ति बन जाती है जिसे ज्ञानतंत्र की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती है. स्मृति की वस्तु का साक्षात्कार एक विषयि-शक्ति को संरचित करता है. चित्र-दर्शित धौलागिरि का मानस प्रत्यक्ष हुआ और पूर्वजों का स्मरण हो आया.

जीवन में वर्तमान – वर्तमान काल का तकनीकी रूप नहीं होता है, क्षण और क्षण के क्रम से बीत रहा होता है, तो भी वर्तमान का बल व्यक्ति के अनुरागी चित्त में स्थापित रहता है, स्मृति और अनागत की प्रत्याशा से सबलित. और मनुष्य इसी को वर्तमान समझकर जी रहा होता है –

“जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में
सबकुछ होना बचा रहेगा.”

तो प्रश्न है कि होना या हो जाना अतीत है, वर्तमान है या इसमें भविष्य भी है ? इसका निर्धारण सिर्फ प्रेक्षा बुद्धि नहीं करती है क्या ? मसलन, घर यानी घर का होना. इसकी ऐतिहासिक अवस्थिति कैसे निर्धारित की जा सकेगी ? जिनके घर होते हैं वे भी कई बार, कई कारणों-प्रयोजनों से, इधर उधर भटकते रहते हैं. और जिनका घर नहीं होता, वे या तो घर के पचड़े से दूर अथवा घर के लिए लालायित भटकते हैं. घर न हो तो व्यक्ति की सकजिक संरचना में क्या स्थिति हो सकती है ? वह राष्ट्र का नागरिक होगा, बाज़ार का उपभोक्ता होगा वगैरह, वगैरह. उसका अतीत नहीं होगा. इतिहास के लक्ष्य की प्राप्ति का सिद्धान्तीकरण करने वाले अतीत की अनवरतता को अवरुद्ध नहीं कर पाएंगे – जो स्मृति के रूप में आख्यायित-पुनराख्यायित होती रहेगी. संस्थानों की बात न करें तो व्यक्ति/व्यक्तियों का काम इतने से चलता रहेगा. इतना तो तय है कि स्मृति दुःखमूलक नहीं होती क्योंकि यह गत-घटना मात्र नहीं होकर द्रौपदी की बटलोई की तरह अनंत संभावनाओं से युक्त होती है. किसी के ‘कुछ नहीं’ में किसी और का ‘सब कुछ’ की संभावना का भी यही तात्पर्य है.

विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में मंदिर, देवी, प्रतिमा, मूर्ति जैसे पदों की बहुतायत है. जाहिर है, ये पद अर्थों का वहां न करते हुए भी सांस्कृतिक परंपरा का, जो भाषाई-संरचना की भित्ति और नियामिका शक्ति है, निर्वहण करते हैं. यह परंपरा इनकी कविताओं में कुछ इस तरह निबद्ध प्रतीत होती है, मानो स्मरति की सीमा यहीं आकर विराम पाती है. तो भी, यह ध्यान देने की बात यह है कि मंदिर को एक प्राचीन भवन की तरह आकारित करते हैं, जो अक्सर खंडहरों में तब्दील हुए से प्रयुक्त हुए है. इसके साथ, ये मंदिर में ‘घर’ के प्रवेश पर भी बल देते हैं और घर को भी मंदिर की सौम्यता तक ले जाने को यत्नशील हैं. मंदिर पद पर गौर से अध्ययन किया जाता है कि लगता है कि इनके सामूहिक अवचेतन [कलेक्टिव अनकांशस] में इससे अधिक विश्वसनीय स्थल नहीं है. किन्तु इनकी व्यावहारिक चेतना ‘घर’ को अधिक महत्त्वपूर्ण मानती है.

“मुझे लगता है वही चाय की दुकान होगी
उसके पुराने जर्जर दरवाजे को देखता हूँ
दरवाजा खुलता है
यह दरवाजा भी मंदिर का है
एक गरीब छोटी लड़की
ढिबरी लिये खड़ी है
यह एक छोटा सा बहुत गरीब शिव का घर है.”

इसके साथ, यह भी द्रष्टव्य है,

“वे दोनों एक दूसरे के भक्त
और कोई देवी देवता नहीं
चौरासी करोड़ देवी देवताओं से
निर्जन प्रदेश का एकांत
वहीं घर
पूजा की कोठरी सा.”                                                    

इनकी रचनाओं में ‘प्रेम’ निर्सगतः एक दाम्पत्य अभिकथन में ही बार बार प्रकट होता है, इस तरफ
ध्यान दिलाना भी समीचीन होगा. शास्त्रीय पदावली में इसे ‘स्वकीय प्रेम’ कहा जाता है. अन्य रचनाओं [यथा, उपन्यास] में भी इन्होंने दाम्पत्य को बड़े इत्मीनान और शिद्दत से रचा है. इसकी कोई वज़ह होनी चाहिए,

“अपनी कर्म साधना के चलते
दोनों नदी की मंझधार तक पैदल चले जाते
किसी डूबते का दुःख बाँटते
और पकड़कर उबार लेते
कभी स्वयं को स्वयं से
यदि गड्ढे में पैर पड़ जाता
तो चक्कर आ जाता.”  

और, इसके साथ यह भी द्रष्टव्य कि

“रात्रि होते ही गहरी होती
और अँधेरा होते ही अंधकार
बहुत जल्दी सोते हुए
दोनों प्रायः सुबह का स्वप्न देखते
रात में चौंककर दो तीन बार उठते
कि सुबह हो गई
और दोनों में से कोई
दोनों में से किसी को सुला देता
कि रात बाकी है सो जाओ.”
साथ साथ सोते हुए
एक ही स्वप्न देखते
टूट जाता तो वहीं से जोड़ते
जहाँ से टूटा होता और देखने लग जाते
स्वप्न के जोड़ का पता नहीं चलता
कुछ छूटता नहीं.”

इनके लिए दाम्पत्य दो व्यक्तियों का सहयोग नहीं, प्रत्युत सह-अस्तित्व है. इससे यह तात्पर्य नहीं लिया जाना चाहिए कि किसी पक्ष यानि स्त्री या पुरुष की सामाजिक अस्मिता का निषेध किया जाता है. नियुक्त व्यक्ति अस्मिता-रहित नहीं हो जाता. पुरुष-अस्मिता का सवाल अभी बौद्धिक जगत में प्रचलित नहीं हुआ किन्तु स्त्री-अस्मिता का है.स्त्री परिवार का हिस्सा मात्र माने जाने वाले या एक उपभोग्य वस्तु माने जाने वाले परिदृश्य से मुक्त हुई है- उसकी कार्मिक व्यक्तिता को रेखांकित किया जा रहा है. महानगरों में कई कारणों से यह परिदृश्य अधिक उतावला है किन्तु ग्रामीण और कस्बाई इलाके में बौद्धिक दृष्टि से अभी तक रुका फंसा है. कवि इस परिदृश्य का रूपांकन कुछ इस तरह करता है:

“काम पर जाती हुई औरत
इतनी सामान्य कि औरत कम
औरत का दृश्य ज्यादा.”

मेरी राय में कवि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की मुख्य चिंता ‘घर’है. इस घर पर बाज़ार और विचार की वक्र-दृष्टि है. ऐसे में कवि स्मृति के सहारे भूयोभूयः घर की ओर लौटता है. मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल से मनुष्यता की रचना में घर की केन्द्रीय भूमिका रही है. घर की संकल्पना सभी संबंधों का सेतु है. दृष्टान्त के लिए, जब कोई चलना सीख चुका है और जिसे घर के अनिवार्य महत्त्व का बोध है उसे लादकर यानी जबरदस्ती घर नहीं ले जाया जा सकता है, अगर ऐसा करना पड़ता है तो कहीं कुछ खटकता है. उस व्यक्ति की निष्ठा घर के प्रति होनी चाहिए के लिए क्षोभ उभरता है. ऐसा होता भी तह है जब व्यक्ति अपनी सम्यक व्यक्तिता को ग्रहण नहीं कर पाया होता है अथवा अपने क्रिया-कलाप को अधिक महत्त्व दे रहा होता है. किन्तु जब उसे ‘घर’ [की महती भूमिका] का अवबोध हो जाता है वह अपनी श्रांति भूलकर लपककर घर की ओर भागता है. बताना आवश्यक नहीं कि घर के बिना वह और उसके बिना घर लगभग अधूरा है, सारहीन, है, निराश्रित है, बेमानी है. ऐसा नहीं है कि घर के विकल्प की तलाश नहीं हुई. मसलन, सराय, कोठा वगैरह ‘अन्य’ ठिकाने के रूप में ही कायम हैं. तो भी, घर की जरूरत बनी रही और अनिवार्यतः बनी भी रहेगी. यहाँ एक शिशु को मानव प्रतिनिधि बनाकर व्यक्ति और घर के रागात्मक द्वंद्व को कितनी खूबसूरती से रखा गया है,

“ उसने चलना सीख लिया था
शाम को घूमकर
कुछ दूर पैदल
घर लौटते समय
थककर कहा उसने
“घर नहीं आता”
जिद में जमीन में बैठ गया
माँ ने तभी
जब गोद में उसे उठा लिया
गोद में लेकर चलने का
अभ्यास नहीं था
चाल थकी सरीखी
उतरकर
वह पैदल चलता
तभी ठीक था.
“ घर दिखने लगा
तो उसका उत्साह  बहुत था
गोदी से उतरा अपने आप
वह खड़ा हो गया
जैसे उसे भी घर ने
दूर से पहचान लिया हो
घर अब उसके पास खुद आएगा
“घर नहीं आता”
कहकर वह दौड़ा
घर की तरफ हाथ फैलाए
छोटे छोटे पैर
उसने दौड़ना सीख लिया था.”

विनोद कुमार शुक्ल अपनी कविताओं में उस रागात्मिका वृत्ति को बड़ी सहजता से संजोया है जो संसार का मूलसूत्र है. इनकी काव्य-भाषा चिंतनकी भाषा है यानी भाषा की जिस संरचना में हम सोचते है उसी संरचना में कवि उसे रच देता है. ऐसे रचनाकार अद्वितीय ही रह जाते है चुनांचे इनकी स्वाभाविकता का अनुकरण करना असंभव-जैसा कठिन होता है. इनकी कविताओं से गुजरते हुए इतनी बात समझ आती है, न तो जीवन नियत है और कविता. किन्तु दोनों बोध-विस्तार की मर्यादा में आकर घुटने-मिटने कगते हैं. किन्तु कुछ अनुशासन ऐसे हैं जिसकी मर्यादा में रहना होता है और उसका संकुचन झेलना पड़ता है. तो भी, वह कवि जो नारों या सिद्धांतों का उल्था नहीं कर रहा होता है इससे मुक्त होता है. अकादमिकता, सांस्थानिककता वगैरह ऐसे रचनाकारों का तिरस्कार करती है क्योंकि क्योंकि वे जन-मन शिक्षित नहीं ‘ट्रेंड’ करना चाहती है. कवि को विदित है

 “सबसे ज्यादा उंचाई
क्या होती है
मैं नहीं जानता.”  

तभी तो वह अन्दर की दुनिया की सैर करने का मन बनाता है और वहां का रास्ता भी खोज लेता है अर्थात् एक जरूरी काम की तरह,

“पेड़ के नीचे बैठना
अच्छा लगता है
अन्दर की दुनिया में
जाने का रास्ता है.”

और फिर वही,

“पेड़ के नीचे बैठना
बाहर की दुनिया में
आने का रास्ता है”  

गौतम बुद्ध की तरह- अध्यात्म में सिक्त और लोक में अनुरक्त.

_____________________________ 
रवीन्द्र कुमार दास (२८-४-१९६८, इजोत, मधुबनी,बिहार)
  
'जब उठ जाता हूँ सतह से', (कविता-संकलन), 'सुनो समय जो कहता है'(संपादन, कविता संकलन),'सुनो मेघ तुम' (मेघदूत का हिंदी काव्य रूपांतरण), स्त्री उपनिषद्(दो भागों में)कविता संग्रह, 'शंकराचार्य का समाज दर्शन',जयपुर से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका उत्पल  के लिए “सब्दहि सबद भया उजियारा” नाम से कविता आलोचना विषय पर कॉलम लेखन. आदि

संपर्क:77 डी, डीडीए फ्लैट्स, पॉकेट-1, सैक्टर-10, द्वारका, नई दिल्ली- 110075 
मोबाईल: 08447545320 /  dasravindrak@gmail.com

परख : राजनीतिक किराना स्टोर : अरविन्द कुमार

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सामाजिक - राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार करते व्यंग्य    
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

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व्यंग्य करना आसान हैव्यंग्य लिखना नहीं. हंसी उड़ाना आसान है, लेकिन हंसी का पात्र बनना नहीं. खिल्ली उड़ानामज़ाक उड़ानाफब्ती कसनाखिंचाई करनामुखालिफत करना जैसी क्रियाएँ सबको आती हैं, लेकिन इनका विषयबद्ध लेखन दक्ष कारीगरी का काम है. अपने जीवन के शुरुआती दिनों में हमने शंकररंगालक्ष्मण जैसे व्यंग्यकारों की कारीगरी देखी जो रेखाओं से बने एक चित्र के माध्यम से ऐसा तंज़ कस लेते थे कि बिना कुछ लिखे महाभारत महाकाव्य जैसा प्रभाव उत्पन्न हो जाता था. 'धर्मयुगके पन्नों में आबिद सुरती अपने पात्र ढब्बू जी के चुटकुलों के जरिये व्यवहार विज्ञान का विश्वविद्यालय चलाया करते थे.
     
व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक चर्चित हुएकृशनचंदरहरिशंकर परसाई और के॰पी॰सक्सेनाजिन्होंने समाज की हर गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई और पैने व्यंग्य लिखे. बेचन पाण्डेय 'उग्रकी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इन लेखकों ने  व्यंग्य लेखन को अपने किस्म की नई विधा से सजाया-संवारा और लोकप्रिय बनाया. हरिशंकर परसाई का लेखन वामपंथी झुकाव के कारण अक्सर एकांगी हो जाता था लेकिन उनकी लेखन की तलवार किसी को नहीं बख्शती. उनके बाद रवीन्द्रनाथ त्यागीशरद जोशीश्रीलालशुक्लडा॰ ज्ञान चतुर्वेदीजैसे अनेक महारथी व्यंग्य-संग्राम में उतरे और हिन्दी भाषा में व्यंग्यलेखन को पाठकों से जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की.

व्यंग्य की विधा में इन दिनों जिन हस्ताक्षरों की साहित्य जगत में चर्चा हैउनमें से एक हैं,अरविंद कुमार तिवारीजो अब घटकर अरविंद कुमार रह गए हैं. उनकी सद्य प्रकाशित व्यंग्य-पुस्तक  में उनकी 52 व्यंग्य रचनाएँ संकलित हैं, जिनमें अधिकतर व्यंग्य भारत की राजनीति में समाहित विद्रूपता पर केन्द्रित हैं. शायद इसीलिये उन्होंने इस संग्रह का नाम भी राजनीतिक किराना स्टोररखा है. 

मतलब यह कि एक ऐसा किराना स्टोरजहाँ राजनीति से सम्बंधित हर चीज़ उपलब्द्ध हो जाये. जैसे कि टोपीझंडा,डंडाबैनरहोर्डिंगबिल्लाकट आउट्सकुरता-पैजामाधोतीसाड़ीजैकेटमफलरचाय वालों और दूध वालों की ड्रेस और तमाम पोलिटिकल सिम्बल्स. हर पार्टी की ज़रुरत का हर सामान. और वह भी एक ही छत के नीचे....आप की टोपीकेसरिया टोपीसफ़ेद टोपीलाल टोपीनीली टोपी. झाड़ू की बिक्री खूब हो रही है.....बुर्के शेरवानी की बिक्री में भी काफी इजाफा हुआ है. भाई साहबमेरा किराना स्टोर एक एक्सटेंडेड स्टोर होगा. वहां हर पार्टी को अपनी ज़रुरत की हर चीज़ मिलेगी. तम्बू-कनात से लेकर झंडियाँकुर्सी-मेज़,बल्लियाँलाईटमाईक और टीवी-सीवी तक. और ज़रुरत पड़ी तो जय-जय कारी भीड़ से लेकर नारा और भाषण लिखने वाले बन्दे और प्रवक्ता तक.’    

राजनीति राज्य को संचालित करने की नीति होती है लेकिन अब वह सिंहासन बचाने की  नीति में तब्दील हो गई है. जिस  बुद्धि का उपयोग प्रजा के कल्याण के लिए किया जाना थाउसका उपयोग अब स्वयं के  बचाव के लिए किया जाने लगा है. राजनीति यानी दाँव पेंचदाँव पेंच यानी छल-प्रपंच रचना,धोखा या झांसा देनाटेढ़ी चाल चलना या विरोधी को परास्त करने के प्रयत्न करना आदि. शतरंज के खेल में प्रयुक्त होने वाले मोहरे राजनीति के उन क्रियाकलापों के प्रतीक हैं जो देश की जनता की छाती पर बिसात बिछाकर इस तरह खेले जाते हैं, जिसे केवल खिलाड़ी देख और जान सकते हैंउनके अतिरिक्त किसी और को कुछ नहीं दिखने वालान समझ आने वाला. जनता को सिर्फ यह सुनाई पड़ता है कि जो खेल खेला जा रहा है वह उसके कल्याण के लिए है. इसलिए खिलाड़ियों पर भरोसा करो. शतरंज की बिसात को मत देखो. हम हैं नहम तुम्हारी धरती को स्वर्ग बनाकर दिखाएंगे. प्रजा जन उसी स्वर्ग की कल्पना करते अपनी छाती खोले आपरेशन थियेटर के बेहोश मरीज की तरह निश्चिंत लेटे हैं- 'जो करेगाडाक्टरकरेगा.अरविन्द कुमार इन स्थितियों-परिस्थितियों पर गहरा तंज़ कसते हैं. 

व्यंग्य लिखने के लिए लेखक में साहसी होने का गुण आवश्यक है. जनतंत्र में व्यंग्यकार की हैसियत सत्ता और समाज की कमतरी को उजागर करने वाले अघोषित विरोध-नेता जैसी होती है. आजादी के बाद अपने देश के गैर-लोकतंत्रीय मिज़ाज के बदले लोकतान्त्रिक व्यवस्था लागू की गई. गौर से देखा जाए तो यह प्रयोग चुनाव करवाने तक ही सफल रहाआमजन का मिज़ाज बदलने में असफल रहा. विरोध में कुछ कहना या लिखना खतरे से खाली नहीं है. इसलिए लेखक खुलकर लिख नहीं पाता. इसके बावजूद मजबूत कलेजे वाले लिखते हैंभले ही संभल-संभल कर. अरविंद कुमार ऐसे ही साहसी व्यंग्य लेखकों में से एक प्रतीत होते हैं. मान-बेटे के इस संवाद को देखिये---

‘भैंस बहुत अच्छी होती है. गाय की बहन. गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है. हमें पालती है. अगर गाय हमारी माँ है, तो भैंस हमारी मौसी. ---पर हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं. भैंस की पूजा क्यों नहीं करते? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का क्यों नहीं माना जाता? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी दवाइयों में डाला जाता है, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षा-गौ रक्षा की बातें करते हैं, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता? क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है? ---बेटा, मैं यह सब नहीं जानती. यह सब धर्म और राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं. मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय हमारे लिए ज़रूरी है, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है.
'राजनीतिक किराना स्टोरमें समाज में व्याप्त विसंगतियों पर जम कर कटाक्ष किया गया है. अरविन्द कुमार लिखते हैं---'अगर इंसान भूखा हो तो भगवान के भजन में भी उसका मन नहीं लगतापर नई पीढ़ी के हमारे नए भगवान चाहते हैं की भजन हो न हो पर सपने अवश्य देखो. बंद आँखों से न सही,खुली आँखों से सपने देखो......सपने देखोगे तो सफल हो जाओगे. सपने देखोगे तो अमीर बन जाओगे. सपना ही सब कुछ है. हमारे भाग्यविधाताहमारे कर्णधार आजकल उसी सिद्धान्त का अनुकरण कर रहेहैं. उनके अनुसारदेश की गरीबी का मूल कारण सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की विसंगतियाँ नहीं हैं. यह नया विकासवाद नहीं है. भ्रष्टाचार तो बिल्कुल ही नहीं है. गरीबी भौतिक नहीं भावात्मक होती है. भूख वस्तु नहींएक एहसास है. अपनी मनोदशा सुधारोदशा अपने-आप सुधार जाएगी. सोच बदलोगरीबी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी.'

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर अरविंद कुमार की यह टिप्पणी भी एक करारा तंज़ है---

'अभी भीहमारे देश में तीन ऐसे तगड़े-तगड़े जिन्न मौजूद हैं जो रिश्ते में अब तक के सारे जिन्नों के बाप लगते हैं. ये तीन जाइण्ट-किलर टाइप के जिन्न हैंउन्नीस सौ चौरासीदो हजार दो और दामादजी की कमाई की मलाई. इनको ठीक चुनावों के समय मौका देखकर छक्का मारने के लिए निकाला जाता है. बोतलों से इनके निकलते ही अच्छे-अच्छों की हवा खराब हो जाती है. कोई बगलें झाँकने लगता है तो कोई कानून की दुहाई देने लगता है. न उन्नीस सौ चौरासी का कोई हल निकलता है और न ही दो हजार दो का. जांच-फांच होने-कराने की तो छोड़िएलोगों के छलछला आए घावों पर फिर से उनकी मजबूरी की पपड़ियाँ जमाई जाने लगती हैं. औरदामाद जी तो दामाद जी ही हैंवे फिर एक राष्ट्रीय दामाद बनकर वीआईपी ट्रीटमेंट पाने लगते हैं.'

कुल मिला कर राजनीतिक किराना स्टोरएक अवश्य ही पढ़ने लायक पुस्तक है  
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मूल्य--- रू.185/-, पृष्ठ संख्या : 151, प्रकाशक : मनसा पब्लिकेशन लखनऊ.
 

रेहाना जब्बारी की वसीयत : विनोद चंदोला

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कोर्ट ट्रायल में रेहाना








ईरानी युवती रेहाना जब्बारी को 25 अक्तूबर 2014 को फांसी दी गई थी.वह 19 साल की थी जब उन्हें हत्या के अभियोग में गिरफ़्तार किया गया था पर वह अंत तक अपने इस दावे परक़ायम रहीं कि उन्होंने महज़ बलात्कार की शिकार होने से बचने के लिए अपने हमलावर का प्रतिकार किया था, हमलावर को मारने वाला कोई और था.अदालत से मौत पाने तक उन्होंने पूरे सात साल सियाह क़ैदख़ाने में गुज़ारे और मौत सेपहले अपनी मां को एक संदेश भेजना चाहा था.इस फ़ारसी संदेश का अंग्रेज़ीअनुवाद  समाचार माध्यमों में रेहाना की वसीयत के रूप मेंप्रचारित-प्रसारित हुआ था. इसी वसीयत  का हिंदुस्तानी में काव्यानुवाद  विनोद चंदोला ने किया है. कितना मार्मिक है यह पत्र. दिल में सीधे उतर जाने वाला.

 

   


वसीयत रेहाना की                                  


अज़ीज़शोले1
हो गया तय आज 
होना है रूबरू क़िसास2से
सालता है दर्द
तुमने ख़ुद जानने न दिया
खड़ी थी आख़िरी जुज़ पर
मैं किताब--ज़िंदगानी की
क्यों?
नहीं लगा तुम्हें
मालूम होना चाहिए था मुझे?
पता है तुम्हें!
कितनी शर्मिंदा हूं मैं
कि तुम होआज़र्दा3
मेरे लिए
न मिल सका तुम्हें मौक़ा
कि चूम सकूं
तुम्हारा और अब्बू का हाथ


अता किए जीने को
दुनिया ने 19 साल
बला की उस रात
चली जानी चाहिए थी मेरी जान
फेंक दी जाती लाश मेरी
किसी कोने मेंशहर के
और कुछ दिन बाद ले जाती पुलिस तुम्हें लाशघर
शनाख़्त के लिए
तब होता तुम्हें मालूम 
ज़िनाबिलजब्र4 भी सहा था मैंने
क़ातिलों का न पता चलता कभी
हैसियत नहीं हमारी उनके जैसी
यही हुआ होता फिर
कि जीतीं तुम ज़िंदगी तड़पती, शर्मसार
और मर जातीं कुछ बरस बाद तड़प-तड़प कर


लेकिन क़िस्से ने लिया मोड़
जिस्म को मेरे कहीं फेंका न गया
कर दिया गयाक़ैद क़ब्र से सियाहख़ाने में
मजबूर क़िस्मत के आगे
करूं क्या शिकवा भी
जानती हो तुम बेहतर
है नहीं मौत ज़िंदगी की आख़िरत


था तुमने सिखाया, बताया
आता हैहर कोई
इस दुनिया में
लेने तजुर्बा
कोई सबक़
और साथ हर पैदाइश के
असर लेती है एक ज़िम्मेदारी
जानामैंने
है पड़तालड़ना भी
कभी-कभी
याद हैमुझे
कहा था तुमने
क़द्र--क़ीमत की ख़ातिर
चुकानी पड़ती है जान भी

सिखाया थातुमने
फ़साद-शिकायत के वक़्त मदरसे में
बने रहना चाहिएकैसेहमें ख़ानम-ख़ातून5
याद होगा तुम्हें
कितना ज़ोर देती थीं तुम
हमारे अख़लाक़6पर
था तुम्हारा तजुर्बा ग़लत
वक़्त--हादसा
तुमसे सीखी बातें न कर सकीं मदद मेरी
पेश कर अदालत में
बनाया गया बेरहम क़ातिल
बेदिल मुजरिम
न बहाए आंसू मैंने
न मांगी रहमत
चीखी-चिल्लाई भी नहीं
था यक़ीन क़ानून पर


लगा मुझ पर इल्ज़ाम
बेपरवा जुर्म का
मालूम है तुम्हें
मच्छर तक नहीं मारे मैंने
तिलचट्टों को उड़ा देती रही हूं मैं
अब बन गई हूं क़त्ल की साज़िश करने वाली
न जानना चाहा मुंसिफ़ ने
हादसे के वक़्त
लंबे पॉलिश किए नाख़ून थे मेरे


न जानना चाहाउसने कभी
हाथ न थे मेरे खुरदरे किसी
मुक्केबाज़ के से
और यह मुल्क
जिसके लिए महब्बत तुमने बोई मुझ में
न चाहा कभी उसने मुझे
हिमायत की न किसी ने मेरी
कराहते-चिल्लाते सहे जब लात-घूंसे मैंने
खाईं सवाल पूछने वालों से फ़ाहिश गालियां
सर मुड़वाकर
खोई मैंने ख़ूबसूरती की आखिरी निशानी
औरपाई इनाम में
ग्यारह दिनों की तनहाई



मत रो शोले
सुन करयह सब
पुलिस दफ़्तर में
दुखाया गया मुझे जब
नाख़ूनों के लिएमेरे
तो समझी मैं
यह ज़माना नहीं करता क़द्र
ख़ूबसूरती की
खूबसूरत अंदाज़ की
ख़याल औरतमन्ना की ख़ूबी की
ख़ुशख़ती7की
ख़ुशचश्मी8की
ख़ूबसरत खयाल की
और मीठी ज़बान की ख़ूबसूरती की


अज़ीज़ मादर
ख़यालबदले मेरे
और न हो तुम इसके लिए ज़िम्मेदार
न होंगे मेरे अल्फ़ाज़ ख़त्म
ग़ैरमौजूदगी में तुम्हारी
तुम्हारे जाने बग़ैर
जब मैं होऊं हलाक
बाद उसके सिपुर्द किए जाएंगे तुम्हें
छोड़े जा रही हूं
अपने हाथों से लिखा यह ख़त
बतौर विरासत अपनी


लेकिन मर्ग9से पहले
मांगती हूं जो तुमसे
देना होगा तुम्हें
पूरी ताक़त से, पुरज़ोर कोशिश से
है यह वह एक अदद चीज़
जो चाहती हूं मैं
इस दुनिया से
इस मुल्क से
और तुमसे
मालूम है मुझे
तुम्हें चाहिए
कुछ मोहलत इसके लिए
करती हूं बयां
अपनी वसीयत का
एक क़तरा भर
रो मत मादर
सुन
चाहती हूं मैं
जाओतुम अदालत
बताओ उसे मेरी ख़्वाहिश
क़ैद से नहीं कर सकती मैं यह दरख़्वास्त
इसलिए तुम्हें
फिर-फिर
उठाना होगा सोग
मेरी ख़ातिर
है एक चीज़ यही
गुज़ारिश जिसकी करतीनहीं मुझे परीशां
कहा तुमसे कई मर्तबा
हलाक होने से बचाने कीमुझे
न करो इल्तिजा


मेरी रहमदिल मादर
जान से भी अज़ीज़ मेरी
अज़ीज़ शोले
सड़ना नहीं चाहतीमैं गर्द में
चाहती नहीं जवां दिल मेरा
और चश्म हो जाएं ख़ाक़
इसलिए हूं करती अर्ज़
बाद मुझे किए जाने के हलाक
जल्द-अज़-जल्द
दिलमेरा, गुर्दे,आंखें, हड्डियां
और वह सब कुछ
जो काम आ सकेदूसरों के
लिए जाएं निकाल जिस्म से मेरे
दे दिए जाएं बतौर तोहफ़ा
उन्हें जिन्हें ज़रूरत हो उनकी
नहीं चाहतीमैं
ऐसा तोहफ़ा पाने वाला कोई
जाने मेरा नाम
ख़रीदे मेरे लिए गुलदस्ता
या दुआ करे मेरे लिए
नहीं चाहती अपने लिए कब्र
जहां आकर रो सको तुम अपना दुखड़ा
और तड़प सको ख़ूब
नहीं चाहती पहनो तुम
सियाह लिबास मेरे लिए
कोशिश करो
भुलाने की मेरे मुश्किल दिन
सिपुर्द कर दो मुझे
हवाओं को
उड़ा ले जाएं वे मुझे


न की दुनिया ने महब्बत हमसे
न चाहा मेरा नसीब
और अब मैं शिकस्ता
लग रही हूं
मौत के गले
लेकिन अदालत में ख़ुदा की लगाऊंगी
इल्ज़ाम तफ़्तीश करने वालों पर
होंगे मुलज़िम इंस्पेक्टर और मुंसिफ़
मुंसिफ़ अदालत--उज़्मा10के
जोपीटते रहे जगा-जगा कर
न रुके सताने से मुझे
मुलज़िम वे सब होंगे मेरे
जिन्होंने जहालत में या झूठ के सहारे
हक़ कुचले मेरे
न किया ग़ौर इस पर
कि हक़ीक़त
दिखती है कभी-कभी जैसी
होती है उससेअलहदा


नरम-दिल अज़ीज़ शोले
दूसरी दुनिया में
होंगेमुद्दई मैं और तुम
बाक़ी सब मुलज़िम
देखेंगे
है ख़ुदा की क्या मर्ज़ी
मैं आख़िरी दम तोड़ना चाहती थी
तुम्हारे आग़ोश में 
करती हूं तुमसे बेइंतहा प्यार.



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1.                        शोले पाकरवान, रेहाना की मां
2.                        ख़ून के बदले ख़ून की न्याय दंड व्यवस्था
3.                        शोकाकुल
4.                        बलात्कार
5.                        सुशील-भद्र महिला
6.                        व्यवहार
7.                        अच्छी लिखावट
8.                        आँखों की सुंदरता
9.                        मृत्यु

10.                     सर्वोच्च न्यायालय


विनोद चंदोलापिछले दो दशकों से पेइचिंग को अपनी रिहाइश बनाए हुए हैं और चीनी समाचार माध्यमों में एक अरसा व्यतीत करने के बाद फ़िलहाल बच्चों की परवरिश से बचा समय फुटकर अनुवाद-लेखन में लगाते हैं.
__________ 
 vinodchandola@gmail.com


विष्णु खरे : अपनी सिने-दुनिया और ‘’असहिष्णुता’’

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तंगनज़रीएक खतरनाक बीमारी है, यह शको-सुब्हा से पैदा होती है, गलतफहमी से पलती बढ़ती है, मज़हबी खुराक पाते ही लाइलाज़ हो जाती है. इससे सेंटिमेंट हर्टटाइप की महामारी फैलने का भारी खतरा होता है.

फिल्मी दुनिया जो इतनी चमकदार और भाईचारे टाइप की दिखती थी, एक आमिर खान के बयाँ से बेपर्दा हो गयी है. गलतबयानी करने से क्या यह बेहतर नहीं है कि कलाकार इस मुद्दे पर कुछ रचनात्मक लेकर आते- कम से कम अदद डाक्युमेंट्री ही सही.

प्रत्येक दूसरे सप्ताह-रविवार की सुबह के इस स्तम्भ के अंतर्गत हिंदी के आलोचक और सिने- मीमांसक विष्णु खरे का यह मानीखेज़ आलेख खास आपके लिए.





अपनी सिने-दुनिया और ‘’असहिष्णुता’’                                        
विष्णु खरे 



हिंदी का असहिष्णुतानहीं, उर्दू का तंगनज़रीनहीं, बुद्धिजीवी समझे जानेवाले अभिनेता आमिर खान द्वारा प्रयुक्त अंग्रेज़ी का इंटॉलेरेंसशब्द इस समय मुख्यधारा और सामाजिक मीडिया द्वारा लगभग सड़क से संसद तक प्रचलित और शायद लोकप्रिय कर दिया गया है, हालाँकि इसकी शुरूआत लेखकों-बुद्धिजीवियों ने की थी. यों यदि वह अंग्रेज़ीभाषी नहीं थे तो उनके बीच भी वह नया था. इंटॉलेरेंसकोई स्वतंत्र भाववाचक संज्ञा नहीं है. हर व्यक्ति दिन में कई बार व्यक्तियों, समाज और ईश्वर तक के प्रति असहिष्णु हो जाता है. विडंबना यह है कि वह समझता है कि वह भी उसके प्रति असहिष्णु हैं,शायद होते भी हों. अकारण और सन्दर्भ के बिना असहिष्णुता असंभव है, हालाँकि बुग्ज़े-लिल्लाही भी एक शय होती है.

आज समाज, संस्कृति और संसद के भीतर तंगनज़रीया नाबर्दाश्तगीको लेकर जो विवाद व्याप्त है वह आध्यात्मिक या अस्तित्ववादी नहीं है, वह व्यापक है और सीमित भी, और वह राजनीतिक, धार्मिक और सांप्रदायिक भी है. सच तो यह है कि इन आखिरी तीनों विशेषणों का प्रयोग करते ही बात एक अपरिहार्य दुतरफ़ा असहिष्णुता की ओर झुकने लगती है. विशेषतः उस समय जब विवादित असहिष्णुता के बीज राजनीति में देखे जा रहे हों और उसे धार्मिक और साम्प्रदायिक माना जा रहा हो.

राजनीति ने शायद हमारे सिने-विश्व में इंदिरा गाँधी और शिव सेना के अलग-अलग प्रादुर्भावों से प्रवेश किया. ध्यान दें कि यहाँ बात सिनेमा या फिल्मों की नहीं हो रही, सिने-जगत की आतंरिक और बाह्य ठोस राजनीति – ‘रेआलपोलिटीक’ – की हो रही है. 1964 तक मुम्बइया फिल्म-उद्योग के राजनीति से सम्बन्ध जवाहरलाल नेहरू की नायक-पूजा हीरो-वर्शिप से आगे नहीं गए थे. सारे नायक-नायिकाएँ, निर्माता-निदेशक-पत्रकार भी, नेहरूजी के साथ तत्कालीन सैल्फी खिंचाने के लिए आपसी संघर्ष करते थे. कारणों में जाना यहाँ संभव और ज़रूरी नहीं, लेकिन पिछले पचास वर्षों में धीरे-धीरे हिंदी फ़िल्मी दुनिया राजनेताओं, पुलिस अफसरों, इनकम-टैक्स मुहकमे,’ हाइ-मीडिया’ (अपनी खुशफहमी में शायद यह शब्द लेखक ने गढ़ा है) और विज्ञापनदाताओं की गुलाम बनती गई. संसार में किसी भी दूसरी फिल्म-इंडस्ट्री का ऐसा पतन नहीं हुआ.

हिंदी सिनेमा में आज आप किसी को वामपंथी या लेफ्टिस्ट समझने-कहने की हिमाकत नहीं कर  सकते लेकिन नेहरूजी के ज़माने से आज तक कुछ फ़िल्मवाले खुल्लमखुल्ला या अंदरखाने किसी कथित कांग्रेसी विचारधारा से जुड़े हुए होंगे. उस ज़माने में दिलीप कुमार, देवानंद तथा राज कपूर-नर्गिस आदि इसके उदाहरण थे. सोवियत रूस का उल्लेख भी किया जा सकता है. नेहरू के बाद उन्हीं के परिवार को लेकर  अपने सर्वाधिक प्रकट रूप में यह रुझान अमिताभ बच्चन (और उनकी पत्नी जया)  में देखा गया था और अब सभी जानते हैं कि दोनों अपने-अपने राजनीतिक हश्र में फिलहाल कहाँ हैं. इसी तरह पिछले क़रीब बीस वर्षों में फ़िल्मी दुनिया के बहुत सारे लोग भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना की ओर आकृष्ट हुए हैं और उनके बहुत सारे सैल्फी अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी,(अब दिवंगत) बाल ठाकरे तथा वर्तमान ठाकरे परिवार के साथ देखे गए हैं. आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  के साथ फोटो खिंचवा पाने पर तो निस्संदेह बड़ा प्रीमियम होगा. साफ़ है कि अभी  मुंबई फिल्म-जगत मुख्यतः इन दो राजनीतिक खेमों के बीच बंटा हुआ है ज़्यादा समर्थन मुंबई-दिल्ली में वर्तमान सत्तारूढ़ दलों को है.


राष्ट्रीय स्तर पर इंटॉलरेंस और सहिष्णुता का संघर्ष दो समूहों के बीच होता माना जा रहा है - एक ओर कथित वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष, प्रबुद्ध, आधुनिकतावादी पार्टियाँ, लेखक, बुद्धिजीवी, उनके संगठन और समर्थक मीडिया हैं और दूसरी ओर कथित दक्षिणपंथी पार्टियाँ और उनके समर्थक ऐसे ही तत्व. लेकिन यदि सरलीकरण का अपरिहार्य सहारा लिया जाए तो झगड़ा मुख्यतः सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और भाजपा-विरोधियों के बीच देखा जा रहा है और यह माना जा रहा है कि सरकार-सहित सभी सांप्रदायिकराजनीतिक-गैर राजनीतिक व्यक्ति और समूह अपने विरोधियों पर हमले करवा रहे हैं, उनकी हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं, उनपर आतंक बरपा जा रहा है, उनका इस देश में शांति, सुरक्षा, आत्म-सम्मान और गरिमा के साथ रहना कठिनतर होता जा रहा है. अंततः बात फिर ‘’आया न देखो फ़र्क़ हिन्दू-मुसलमान के बीच’’ तक पहुँच गई है. पहले आमिर खान के स्कूली बेटे ने अपनी माँ से कहा, फिर किरण राव  ने अपने खाविंद से कहा और फिर आमिर खान ने राष्ट्र से कहा कि उनके परिवार का किसी विदेश में ही बस जाना बेहतर होगा. बाद में, खैर, उन्होंने अपने सारे विवादित वक्तव्य वापस ले  लिए हैं  लेकिन उनके पुतले जलाए गए, उन्हें तमाचे मारने के लिए ईनाम के ऐलान हुए और कई अदालतों में उनपर मुक़द्दमे दायर हुए हैं, हालाँकि काश पूछो कि मुद्दआ क्या है.

सवाल और भी हैं. हम उच्च बौद्धिकता तक नहीं जातेदाभोलकर,पानसरे,कलबुर्गी की अभी तक अनसुलझी हत्याओं का ज़िक्र तक नहीं करते, क्योंकि वर्तमान सन्दर्भ फिल्म लाइन का है, लेकिन तब तो मामला और गंभीर हो जाता है. विश्व में सिनेमा से अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली कला आज कोई नहीं है. यदि जाति-प्रथा को भी एक पांच हज़ार वर्ष पुरानी अंतर्देशीय अमानवीय असहिष्णुता मान लिया जाए तो हमारे देश के करोड़ों नागरिकों के लिए इन्टॉलरेंस कोई नई चीज़ नहीं रही, अभी भी नहीं है, भले ही मुस्लिम होने के कारण आमिर कह सकते हैं कि आंतरिक हिन्दू असहिष्णुता से मेरा कोई वास्ता नहीं. किन्तु सुन्नी-शिया तंगनज़री भी कई सौ वर्ष पुरानी है और हिंदुस्तान में भी उसके चलते कुछ लाख मुस्लिम तो मारे गए होंगे.सवर्णमुस्लिम बोहरों और अहमदियों आदि को लेकर क्या सोचते हैं यह भी छिपा हुआ नहीं है. जिस तरह आमिर हिन्दुओं की आतंरिक अमानवीय असहिष्णुता को अपना मामला नहीं समझते उसी तरह हिन्दू फिल्म निर्माता भी अंदरूनी मुस्लिम असहिष्णुता को छूने से डरते हैं.

आमिर खान और उद्योग के अन्य मुस्लिम-हिन्दू यदि मानते हैं कि मुसलमानों को लेकर भाजपा और केंद्र सरकार की असहिष्णुता असह्य हो चुकी है तो उन्हें ट्विटर’,’व्हाट्सअपऔर Faecesbook आदि के साथ-साथ उसके बारे में फिल्म-निर्माण तक आना चाहिए. संसार भर में उनके करोड़ों देशी-विदेशी मुस्लिम-ग़ैर मुस्लिम प्रशंसक हैं. यह सही है कि भाजपाई या हिन्दू तंगनज़री पर ईमानदार और साहसिक फ़िल्म बनाना आसान नहीं है. लेकिन उस फिल्म या ऐसी फिल्मों के माध्यम से यह तो खोजा जा सकता है कि हिन्दू-मुसलमानों के बीच किस तरह की समस्याएँ हैं वह हैं भी या नहीं या हिन्दू-मुसलमान तो मुहब्बत और भाईचारे से रह रहा है, सिर्फ शेख-बिरहमन-मुल्ला-पाण्डे उन्हें परस्पर जानी दुश्मन बनाए दे रहे हैं. क्या हमारा फिल्म-संसार सांप्रदायिक सीमाओं से बंटा हुआ है? मैं पिछले करीब साठ वर्षों से हिंदी फिल्मों के बारे में पढ़-सुन रहा हूँ लेकिन ऐसी कोई चीज़ मेरे संज्ञान में नहीं आई. पाकिस्तान बनने पर कुछ मुस्लिम फिल्मकार वगैरह भारत छोड़कर चले गए थे, लेकिन उनमें से कुछ लौट भी आए थे और जो नहीं लौटे उनमें से लगभग सभी पछताते रहे. आज भी यदि सारे पाकिस्तानी फिल्म-टीवी कलाकारों को भारत आने दिया जाए तो मुमकिन है आमिर खान, शाहरुख़ खान, सलमान खान और अनेक दुसरे युवतर भारतीय मुस्लिम कलाकार उन्हें लेकर असहिष्णु हो जाएँ.

यह मसला एक ऐसा युद्ध-क्षेत्र है जिसमें बारूदी सुरंगें बिछी हुई हैं. ऐसी फ़िल्में करोड़ों दर्शकों को हिला सकती हैं. लेकिन जो फिल्मीजन भाजपाई या हिन्दू तंगनज़री महसूस करते हैं उन्हें इस विषय पर अपनी फीचर फ़िल्में लेकर सामने आना ही चाहिए. डाक्यूमेंट्रीज़ भी  बनाई जा सकती हैं. आज किसी भी फिल्म को दबाया नहीं जा सकता. तब यह देखा जाएगा कि उन्हें बनने कैसे दिया जाता है, वह किस तरह सेंसर होती हैं, उन्हें वितरक और सिनेमाघर मिलते हैं या नहीं, किस तरह के दर्शक उन्हें देखने आते हैं और उन्हें लेकर सिनेमा के भीतर और बाहर कौन, क्या, कब तक करता है. आखिर ईरान में अब भी कई डायरेक्टर जेल में हैं. अरब देशों में सैकड़ों फ़िल्में बनाई-दिखाई नहीं जा सकतीं. असहिष्णुता इतनी बहुआयामीय है कि उसे   लेकर कोई सरलीकरण नहीं किया जा सकता. यह टिप्पणी भी बहुत संतोषजनक नहीं है. तंगनज़री एक बहुत खतरनाक मसला तो है ही और वह अभी लम्बे अरसे तक वैसा बना रहेगा.
_____________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

मंगलाचार : पल्लवी शर्मा

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पल्लवी शर्मा एक प्रक्टिसिंग आर्टिस्ट हैं और कैलिफ़ोर्निया में विगत १८ वर्षों से रह रहीं  हैं. उनकी  कृतियां राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर प्रदर्शित हुई हैं और पसंद की गयी हैं.
संत्रास, व्यर्थता बोध, अवसाद, खालीपन  और इस तरह की तमाम अनुभूतियों के बीच आज हम जी रहे हैं. पल्लवी शर्मा की इन कवितायेँ में सघन अनुभव के अछूते बिम्ब आपको दिखेंगे.



पल्लवी शर्मा की कविताएँ                               
_________________________________


ll सजावटी सामान ll 

जी लेती है वह थोड़ा पानी पी पी कर
लाल सुर्ख होठ, नकली मुस्कान
दवा के असर से
धुंधलका है आँखों के सामने
कैसे देख पाती
स्याह सफ़ेद सच्चाई को
जानवर के नाखुनो से भी सख्त
लम्बे प्लास्टिकी रंगीन नाखूनों से
रिझाती अपने आप को 
पल्लवी शर्मा 

शरमा जाती अपने खालीपन पर
सिसकती जाती
थोड़ा पानी पी पी कर
साँझ सवेरे नुकीली ऐड़ी वाली
सैन्डल  पर सवार
घुमती दिन-दिन भर
जीवन की तलाश में 

हड्डियों के निकल जाते दम
और रोगग्रस्त शारीर को
रात में दफ़न कर देती बिस्तर में
अविकसित, अर्धविकसित
अनकही, अनचाही
बन-बन के बिगड़ने वाले
कागज के रेखांकन हैं ये
रंग के बाद
एक घर, एक दीवार
एक देखनेवाले की तलाश
सजावटी सामान की तरह
बाज़ार में बिकने को तैयार हैं ये

जी लेती है वो थोड़ा पानी पी पी के
लाल सुर्ख होठ नकली मुस्कान.




ll परतदार अनुभव ll

एक अर्थ है 
जो शब्द ढूढ़ रहा है
गली मुहल्ले में
चारपाई के नीचे रखे पानी के लोटे में 
नीले प्लास्टिक की बोतल में जमें गोले के तेल में
जिस पर नारियल का पेड़ बना है
विदेशी सैलानियों के लालायित लम्बे थैले में
संगीत के चौंग-भौंग में
कलाकृतियों के नामाकरण में
चौराहे पर लगे बिलर्बोडस में

थक हार के परतदार अनुभव 
बैठ जाता है कोने में 
एक शब्द काफी नहीं है
उस बीते बसंत के लिए 
प्यासी फसलों 
और कम्बल में लिपटी उस सर्दी के लिए
जो मौसम के बदलने के बाद ही जाती है.




ll पोरस मन ll 

अनन्त  इच्छाएँ 
उपरी परत के सूक्ष्म छिद्रों से बहार निकल कर 
कहती हैं अंदर की आँखों देखी
हाड़-माँस 
गुर्दा मस्तिष्क और पता नहीं क्या-क्या
एक प्राण दो देह
सात समुंद्र 
नवो ग्रह
गुत्थियों के भीतर 
उलझे बैठे हम सभी 
दिमाग की नसें कस कर बंधी हैं चारपाई से
जीभ  सकपकाता है दाँतों के बीच
कंठ और तालु सभी अपनी जगह हैं
एक वैकल्पिक विचारधारा के सहारे
आयेगा बदलाव यह सोच
धमनियाँ और शिरायेँ  निरन्तर कार्यरत हैं
कायदे कानून और परम्पराओें से परे 
गिलबिली पित्त की थैली में बंद है
हरे पीले रंग
माँस पेशीयों के नीचे दबी है
कई फीट लम्बी भूख  
दिन रात धौंकनी सा धड़कता दिल
पसीने से लथपथ
नई उर्जा लिए प्रतिदिन उगता है 
पूरब से 
ढलने पश्चिम  की ओर.

पल्लवी शर्मा 




ll प्रवाही ll

मन रेशम सा होता है 
तो कीड़े सा 
कुलबुलाने लगता है
कुछ सोच कर..  रूक जाता 
तो कभी ताने बाने बुनने लगता है 
नई पुती  दिवार सा 
कील कांटियों को गाड़
छत को कंधा दे
मौन खड़ा हो जाता है

जब कचोटने लगती हैं पुरानी बातें
बिना चप्पल पगडंडियों पर 
हवा से बाते करता
मेघों से सर को ढक 
वहीं रेहट के पास 
पानी सा बह जाता है.




ll मानसी गंगा ll

बचपन से देखा है 
मानसी गंगा को
शांत 
इतना शांत ...   
कि गहराई का कोइ अंदाजा न लगा सके
तल भरा पड़ा  है 
टूटी हुई चूड़ियों 
खेरीजों और कीचड़ में  धंसे 
कीमती धातु  के देवी देवताओं से

कछुओं के कई दस्ते रहतें हैं 
अपने खोल से सिर बाहर निकाल 
बेधड़क गश्त लागतें  हैं 
इस पार से उस पार तक 
आटों की गोलियों पे 
धावा बोलतें हैं एक साथ
इनमें से कई मांसहारी हैं
चन्दन तिलक लगाए
हमेशा  ताक में रहतें हैं 
बेबस और लाचारों के

भरी दुपहरिया   में 
इसका  रंग हलका 
और गहराई...  मानो  दुगनी हो जाती है
घाट के पत्थर  गर्म तवे से हो जाते  हैं  
प्यासे पक्षी 
मानसी गंगा में जा मिलने वाली 
मोरियों से गिरते पानी का आचमन करते 
कुत्ते जीभ  लटकाए मंदिर से बहते दूध का आनन्द लेते 
पाँड़े -पुरोहित दिवार की छाया में सुसताते हैं 

साँझ होते ही धुरंधर तैराक कूद पड़ते 
बुर्ज़ से पानी में
शव की तरह छहलते 
विलीन हो जाते
तो कभी चमत्कारी साधु बाबा की तरह
साक्षात प्रकट हो जाते 
अथाह जल के मघ्य में 

रात्रि में  
पानी में टिमटिमाते 
छोटी बड़ी  
रंग बिरंगी लाइटों के प्रतिबिम्ब 
सबकुछ चित्रवत प्रतीत होता है
पर अनवरत ...  घंटो और घडि़यालों की नाद
झकझोर देती है 
शांत जल को

काले बालों में बिंधी हुई
एक लम्बी श्रृंखला इच्छाओं की
आँख बंद कर 
डुबकी लगाते ही
भीगे देह से सट कर खड़ी हो जाती हैं 
मनोकामनाएँ बहु बेटियों की
आंखों को मीच कर
धीमे स्वर में 
तीव्र गति से 
कह देतीं हैं..  
अपने मन-गुन की बात
विसर्जित कर देती हैं मानसी गंगा में 
पीले गेंदे के फूल 
दीपों की माला 
और...  सारे अवसाद.  

 ___________
Born in India, Pallavi immigrated to USA in 1997. She received her BFA and MFA from the Faculty of Fine Arts, Baroda, India and her Ph.D. in Art History from India's National Museum Institute of History of Art and Conservation.  She is a multidisciplinary artist and her research interest concerns Asian American women's cultural production, feminist pedagogy and activism.

She has exhibited her work nationally at various venues including the Queens Museum of Art, Aicon Gallery, NY, Bishop Museum, HI, and Women Made Gallery, IL, College of Integral Studies, CA. She is a Board member of Asian American Women Artist Association (AAWAA). Director and founder of ‘Inner Eye Art’ a non- profit Art Organization, and Art Consultant at “Art Core” an Art Consulting firm based in San Francisco Bay area.
nnereyeartsf@gmail.com

सबद - भेद : नामवर सिंह की पुस्तक ‘कहानी नई कहानी’: राकेश बिहारी

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पार्श्व में हजारीप्रसाद द्विवेदी : समालोचन













नामवर सिंह की आलोचना–पुस्तक ‘कहानी नयी कहानी’, हिंदी कहानी को समझने के लिए आधार-ग्रन्थ की तरह है. नामवर सिंह ने इसे एक दशक (१९५६-१९६५) की चिन्तन यात्रा की पगडंडी कहा है.  आज जब ५० साल बाद कहानी का युवा आलोचक इस कृति को पढ़ता है तब उसके समक्ष कुछ नए प्रश्न भी उठते हैं. साहित्य में संवाद का यही तरीका है. ऐसे संवाद   कृति को आलोकित करते हैं, परम्परा को प्रशस्त करते हैं.  
राकेश बिहारी का आलेख.



कथालोचना की सैद्धांतिकी                                                            
(संदर्भ: नामवर सिंह की पुस्तक कहानी नई कहानी)     

 राकेश बिहारी


मीक्षाकी समीक्षा या आलोचना की आलोचना एक कठिन काम है. यह काम और कठिन हो जाता है जब समीक्षा या आलोचना के घेरे में उपस्थित आलोचक नामवर सिंह जैसा जीवित ही किंवदंति बन चुका कोई व्यक्ति हो. एक ऐसा व्यक्ति जिसने साहित्यिक आलोचना के समानान्तर रचना और समाज के बीच एक संवाद-सेतु का निर्माण कर आलोचना शब्द को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है. यह कठिन काम दुविधापूर्ण भी हो जाता है जब उसे अंजाम देने वाला व्यक्ति कोई नौसिखुआ हो. इस कठिनाई और दुविधा के बीच नामवर जी की कथालोचना पर लिखते हुये मेरे मन में कुछ संशय भी हैं. यदि नामवर जी के शब्द ही उधार लूं तो कहीं छोटे मुंह बड़ी बाततो नहीं हो जायेगी...? नामवर जी की कथालोचना को पढ़ते हुये मेरी जो पाठकीय निष्पत्तियां हैं वह कितनी जायज हैं..? इस आलोचना-आइडलको पढ़ने में मुझ से कोई चूक तो नहीं हो गई..? मन अपने ही निष्कर्षों पर तरह-तरह से संशय कर रहा है. इस कश्मकश के बीच अचानक नामवर जी की ही एक पंक्ति मेरे भीतर कौंधती हैं - रस ग्रहण के कार्य में हर पाठक अकेला है और अपनी नियति का पथ उसे अकेले ही तय करना हैइन पंक्तियों ने जैसे मुझमें अपनी पाठकीय नियतियों को सबसे साझा करने का अपार साहस भर दिया है. पाठकीय संशय को आश्वस्ति में बदलने का यही कौशल नामवर जी के आलोचक की सबसे बड़ी विशेषता है.


हिन्दी कहानी की कोई ठोस आलोचना पद्धति यदि नहीं बन सकी तो इसके पीछे एक खास तरह की आलोचकीय अवधारणा रही है कि कहानी इस लायक है ही नहीं कि उसे गम्भीर समीक्षा का विषय माना जाये.. यह दुविधा नामवर जी के मन में भी थी. कहानी नयी कहानीकी भूमिका में उन्होंने इसे स्वीकार भी किया है. बावजूद इस दुविधा के यदि नामवर जी ने कहानियों पर सैद्धान्तिक ढंग से सामान्य बातें न कहते हुये भी सिद्धांतों के निर्माणमें जो योगदान किया है उसके ऐतिहासिक महत्व हैं. कहानी नयी कहानीकिताब में नामवर जी के दो रूप हैं. एक सिद्धांतकार का जो कदम-कदम कहानी पढ़ने के तरीके बताता हुआ पाठ-प्रक्रिया के कई महत्वपूर्ण टूल्सका इजाद करता है. और दूसरा रूप उस आलोचक का है जो कुछ चुनिंदा कहानियों की पाठ प्रक्रिया से गुजरता हुआ पाठकों को उस कहानी की लेखन-प्रक्रिया तक पहुंचाने की कोशिश करता है. एक ऐसी कोशिश जिसमें कहानी के रेशे-रेशे का पुनर्मूल्यांकन और पुनरान्वेषण सन्निहित है. बात पहले उनके सिद्धांतकार पर.

विशुद्ध कहानी का पाठक आलोचना का नाम सुन कर ही शायद घबरा उठे. लेकिन नामवर जी जिस सहज-सरल और तरल भाषा में कहानी पढ़ने की सैद्धांतिकी गढ़ते और उसे विकसित करते हैं उसे पढ़ना किसी रचना पढ़ने जैसा ही प्रीतिकर है, कई बार इतना सम्मोहक कि कई रचनायें भी अपने पाठकों को उस दुनिया तक न ले जा पायें. कविता और कहानी की आलोचना के टूल्सबिल्कुल एक से नहीं हो सकते. हालांकि कथालोचना की तरफ अपना पहला कदम बढ़ाते हुये उन्हें कहानी में आलोचना की वही विश्लेषण पद्धति कारगर दिखती है जो प्राय: छोटी कविताओं के लिये प्रयुक्त होती रही हैं. लेकिन नयी कहानीपाठ-प्रक्रिया का व्याकरण निर्मित करने के क्रम में अपनी इस शुरुआती धारणा से बहुत हद तक मुक्त होते हुये वे कहानी पढ़ने के कुछ ऐसे औजार हमारे हाथों में थमा जाते हैं जो हर भाषा और हर समय के कथा-पाठ के लिये जरूरी और उपयुक्त हैं.

भाषा-शिल्प और रूप से ज्यादा अन्तर्वस्तु और यथार्थ पर जोर ही कथोचित समीक्षा पद्धति की खोज है. जागरूक चिंतन तथा पैनी सामाजिक दृष्टि की जरूरत को रेखांकित करते हुये वे कहते हैं - घटना-प्रसंग जितना ही वास्तविक होगा, कहानी उतनी ही जोरदार होगी.नामवर जी की कथालोचना में कहानी की समीक्षा को मनोरंजन और शिल्प के कैद से मुक्त करने की पुरजोर कोशिश को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है. कहानी, अच्छी कहानी, नई कहानी जैसे पदों की व्याख्या करते हुए वे कहानी की सोद्देश्यता और सामाजिकता के तहों तक प्रवेश करते हैं. एक उद्धरण यहां द्रष्टव्य है - "आज इतना ही कहना काफी नहीं है कि अमुक कहानी बहुत अच्छी है या अमुक कहानी सफल है, बल्कि इस अच्छेपनको और सफलताको अधिक ठोस और युक्तिसंगत रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता है. दूसरे शब्दों में, आज की कहानी की सफलताका अर्थ है, कहानी की सार्थकता. आज किसी कहानी का शिल्प की दृष्टि से सफल होना ही काफी नहीं है बल्कि वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख उसकी सार्थकता भी परखी जानी चाहिये."वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख कहानी की जिस सार्थकता की बात यहां नामवर जी कह रहे हैं उसे हम यथार्थ के पुन:सृजन और पुनर्विश्लेषण के माध्यम से उसके  भीतर गहरे पैठे अन्त:सत्यों की पुनर्स्थापना भी कह सकते हैं.

यथार्थ को संवेदना से जोड़ने के लिये जिस रचनात्मक संघर्ष की जरूरत होती है उसे नामवर जी केवल युद्ध या कोई स्थूल लड़ाई नहीं मान कर व्यक्ति और समुदाय के आपसी संबंधों की प्रतिक्रिया मानते हैं. व्यक्ति और समुदाय का यह संवाद एक सफल कहानी में रूपयित हो इसके लिये सामाजिक स्थिति, पारिवारिक संस्कार, जीवन दृष्टि तथा अनुभव सीमा को भेदने की जरूरत है, जो सिर्फ भाषा या शिल्प से संभव नहीं है. सायास और चौकन्ने भाषाई रचाव को तो नामवर जी कहानीकार की चालाकी के रूप में देखते हैं जो पाठक को भरमाने का एक उपक्रम है. "कहानी में जहां भाषा को अधिक कवित्व-पूर्ण, ललित, सुन्दर या उदात्त बनाने की कोशिश दिखाई पड़े वहां समझ लेना चाहिये कि वस्तु सत्य की पूंजी के अभाव में शब्दों के व्यापार के सहारे कामयाबी हासिल करने की कोशिश है."नामवर जी भाषा-शिल्प बनाम अन्तर्वस्तु की इस बहस को और स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि प्रभावोन्विति का असली कारण कहानी में अन्तर्निहित विचार और अनुभूतियों की विशेषता ही होती है. इसलिये भाषा शैली के आधार पर ही कहानियों के मूल्यांकन को वे आलोचनात्मक असामर्थ्य और पाठकीय भोलापन का सूचक मानते हैं.

नामवर जी ने कथालोचना के जो औजार विकसित किये हैं वे सर्वकालिक हैं इसलिये उनकी उपयोगिता और प्रासंगिकता आज भी उतनी ही बनी हुई है. कहानी नयी कहानीको पढ़ते हुये कोई पाठक सहज ही आज के कथा परिदृश्य में तब के यानी नयी कहानी के दौर के कथा-समय की कई-कई प्रतिछवियां देख सकता है. नामवर जी की आलोचना सिर्फ रचना और उसके रसास्वादन तक ही सीमित नहीं होती. उनकी दृष्टि कहानी और कहानीकार के साथ-साथ पाठक, पत्रिका, बाजार और  बृहत्तर समाज के आचार-व्यव्हार से भी लगातार संवाद बनाती और उसका जरूरी मूल्यांकन करती चलती है. वे रचना-सजग से कहीं ज्यादा समय-सजग आलोचक हैं. तभी तो वे जितनी बारीकी से अपने दौर की कहानियों पर बात करते हैं उतनी ही सचेत और सजग निगाही से पत्रिकाओं के बाजारू टोटके और पाठकीय समझ पर डोरे डाल रहे विज्ञापनबाज संपादकों की तरफ भी इशारा करते चलते हैं. और इस तरह उनकी आलोचना लेखक, पाठक और संपादक तीनों के लिये बराबर रूप से जरूरी हो जाती है. कुछ पंक्तियां आप भी देखिये –

 "जो बाजारू पत्रिकायें विषयाश्रयी वर्गीकृत कहानियों के द्वारा अपनेपाठकों की भूख मिटाती हैं वे उन्हें सम्पूर्ण जीवन से विछन्न करती हैं. वे परोक्ष ढंग से अपने पाठक समुदाय की कहानी सम्बन्धी प्राथमिक दिल्चस्पी को कुंठित करती हैं. इस प्रकार उनकी रुचि सीमित होती है, समझ संकुचित होती है और आकांक्षा अन्य कहानियों से वंचित होती है. एक ओर कहानियों के वर्ग बनते हैं तो दूसरी ओर पाठकों के. फलस्वरूप कहानीकार टाइपकहानियां लिखने लगते हैं. देखते-देखते घटिया ढंग के टाईपकहानीकारों से बाजार पट जाता है"

आज जब बाजार और मुनाफे का गणित समझा रहे संपादक समय के बृहत्तर और जरूरी सवालों से मुंह फेर कर प्रेम और बेवफाई के बाजारू मर्दोत्सव में तल्लीन हैं, लगता है नामवर जी  साठ वर्ष की दूरी से इसमें सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं.

ऊपर वर्णित कथालोचना की नामवारी अवधारणायें अपने पहले पाठ में  हमें शब्द-दर-शब्द सम्मोहित करती हैं. लेकिन जैसे ही कुछ थम कर हम इन सिद्धान्तों के कुछ भिन्न पहलुओं पर देखते हैं अन्तर्विरोधों की कई स्पष्ट दरारें कालीन के भीतर से झांकने लगती हैं. यहां नामवर जी की स्थापनाओं की दो परस्पर विरोधी मान्यताओं पर गौर करना जरूरी है. पहला प्रश्न है कहानी और उसकी नियति के लिये जिम्मेवार कौन है कहानीकार या कि पाठक? इस प्रश्न पर अपनी तरफ से कुछ कहने की बजाय मैं नामवर जी के शब्द ही आगे करना उचित समझता हूं.

आज की हिन्दी कहानी के विकसित तत्वों के रसास्वादन के लिये यथोचित अभिरुचि का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी सबसे पहले आज के जागरूक कहानीकारों की है. अभिरुचि के द्वारा ही सुरुचिसम्पन्न पाठकों का समुदाय तैयार किया जा सकता है, जो कि आज की हिन्दी कहानीके जीवन्त तत्व के विकास की खास शर्त है."

अब एक दूसरा उद्धरण देखिये - "कहते हैं जैसे पाठक वैसा साहित्य; लेकिन सिर्फ कहते हैं. इसके मूल में क्या यह तथ्य नहीं है कि साहित्य का स्तर नीचा है तो इसकी बहुत कुछ जिम्मेदारी पाठकों पर है? अगर अच्छी या बुरी सरकार की जिम्मेदारी किसी देश की जनता पर है तो अच्छे या बुरे साहित्य की जिम्मेदारी पाठकों पर है."

कहने की जरूरत नहीं है कि अच्छी कहानी की जिम्मेवारी तय करने के क्रम में नामवर जी खुद उलझ गये हैं.

दूसर प्रश्न है - क्या कथा लेखन एक पेशा है? यदि हां तो कथाकार प्रोफेशनल क्यों न हो?मुझे लगता है नामवर जी इस प्रश्न पर भी अन्तर्विरोध के शिकार हैं. या यूं कहें कि अपनी बात मजबूत करने के लिये इस संदर्भ में परस्पर विरोधी तर्कों का इस्तेमाल कर जाते हैं. एक बार फिर उन्हीं कि कुछ पंक्तियां -

कहानी के अंदर बहुत सी बारीकियां हो सकती हैं जिन्हें रचनाकार होने की कारण केवल कहानी-लेखक ही जानता है. वह जानता है कि कौन सा टचक्या इफेक्ट्सपैदा कर सकता है और इस तरह एक विशेष प्रकार का प्रभावउत्पन्न करने के लिये जहां-तहां कुछ विन्दु-विसर्गरख देता है. कभी-कभी हमपेशा कलाकार इन बारीकियों को भांप लेते हैं क्योंकि वे पेशे के अन्दरुनी आपसी रहस्यों से परिचित होते हैं."

अब एक दूसरा उद्धरण -

"जैसा कि सितंबर ६४ की कल्पनामें किनारे से किनारे तककी कहानियों के बारे में लिखा गया है कि राजेन्द्र यादव में कुशल व्यवसायिक लेखनके सारे गुण-दोष मौजूद हैं.कहना न होगा कि जहां व्यावसायिकता आ गई वहां नये सर्जन की संभावना समाप्त."

यह अन्तर्विरोध कई प्रश्नों को जन्म देता है. पहला यह कि लेखन प्रोफेशन है या नहीं? यदि लेखन प्रोफेशन है तो लेखक बिना प्रोफेशनल हुये कैसे रह सकता है? और फिर यदि लेखन प्रोफेशन है तो क्या दूसरे प्रोफेशन की तरह इस पेशे के भी  कुछ अंदरुनी रहस्य यानी ट्रेड-सेक्रेट्सभी होते हैं? जिस तरह अपनी पाठकीय नियति के साथ हर पाठक अकेला होता है उसी तरह लेखकीय नियति भी रचना प्रक्रिया के स्तर पर नितांत अकेली या निजी होती हैं. मुझे लगता है कि पाठकीय और लेखकीय नियति की अलग-अलग और स्वतन्त्र उपस्थिति ही किसी रचना के कई-कई पाठ और उस पाठ के कई-कई अन्तर्पाठ रचती है. ऐसे में यह कहना कि कहानी की बारीकियां सिर्फ कहानी-लेखक ही समझ सकता है कथालोचना और उसकी सैद्धांतिकी गढ़ने के औचित्य पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर देता है.

अब बात नामवर जी के उस कथालोचक रूप की जो कहानियों को अपने विशिष्ट पाठ प्रक्रिया से सरल और सरलतर बनाते हुये पाठकों तक पहुंचाता है. किसी कहानी के अन्तर्वस्तु के विभिन्न प्रभावों को नामवर जी जिस बारीकी और सहजता से हमारे सामने रख देते हैं वह दुर्लभ है. आलोचना की कठिन शब्दावली और बोझिल पारिभाषिकताओं से मुक्त हो कर आलोचना को एक सहजग्राही रचना में परिवर्तित कर देना नामवर जी की बहुत बड़ी विशेषता है. नामवर जी न सिर्फ कहानी पढ़ने की सैद्धांतिकी रचते हैं बल्कि उन सिद्धांतों के आधार पर कहानियों का विश्लेषण भी कर के बताते हैं. अच्छी और कम अच्छी कहानी या भावुक और भावप्रवण कहानियों में कैसे अंतर किया जाय इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने जिस तरह कहानियों की व्याख्या की है वह पाठकों की आंखें खोल देने वाला है.

द्विजेन्द्रनाथ मिश्र निर्गुणकी एक शिल्पहीन कहानीऔर उषा प्रियंवदाकी वापसीकी तुलनात्मक व्याख्या के बहाने नामवर जी ने जिस तरह तथाकथित अच्छी कहानीको नई कहानी के बरक्स रख कर देखने की कोशिश की है उससे कई बातें साफ हो जाती हैं. एक अच्छी कहानी पाठकों को सिर्फ अश्रुविगलित ही नहीं करती बल्कि उसकी आंखों में समय और समाज को देखने-समझने की नई दृष्टि भी पैदा करती है. इन कहानियों की बहुस्तरीय पाठ-प्रक्रिया में जिस तरह वे दो कहानियों के बहाने दो कथाकारों और उससे भी आगे जाकर दो युगों का अंतर रेखांकित करते हैं वह सहज हो कर भी आसान नहीं है.

कहानी के रेशे-रेशे में छुपे विशिष्ट प्रभावों को उजागर करने में नामवर जी बेजोड़ हैं, लेकिन उनकी दिक्कतें तब शुरु होती हैं जब वे अपनी समीक्षा-प्रक्रिया में खुद अपने ही द्वारा निर्मित सिद्धान्तों की जाने-अनजाने अनदेखी करने लगते हैं. उनका कथालोचक जैसे उनके काव्यालोचक की शरण में चला जाता हैं. नतीजतन वे यथार्थ, अन्तर्वस्तु, सामाजिक सोद्देश्यता आदि की जगह  संगीत, रूप, ध्वनि और लय आदि के टूल्स से कहानियों को जांचने-परखने लगते हैं. नामवर जी के कथालोचक के भीतर काव्यालोचक की यह घुसपैठ निर्मल वर्माकी परिन्देकी समीक्षा में सहज ही देखी जा सकती है. कई बार ऐसा भी लगता है कि कहानी और कविता की आलोचना की टूल्स के घालमेल के कारण नामवर जी किसी कथाकार की कमियों को भी अनदेखा कर जाते हैं वहीं किसी कथाकार की उपलब्धियां भी उन्हें नहीं छू पाती हैं. निर्मल वर्माके प्रति आसक्ति के हद तक का मोह और मोहन राकेशऔर राजेन्द्र यादवके प्रति अतिशय निर्ममता के शायद यही कारण हैं. तभी तो एक शिल्पहीन कहानी’, ‘वापसीऔरधरती अब भी घूम रही है (विष्णु प्रभाकर) पर अपनी स्पष्ट राय जाहिर करने वाले नामवर जी राजेन्द्र यादव की एक कमजोर लड़की की कहानीके बारे में अपना एक मत नहीं रख पाते हैं और मोहन राकेश को यात्रा के दौरान कहानी बटोरने वाला केखक भर बता कर काम चला लेते हैं. 

मोहन राकेश की कहानियों के बारे में उनका यह मत कि यात्रा में प्राप्त कहानियों की तरह ही इनमें गहरी मानवीय संवेदना का अभाव मिलता हैगले नहें उतरता. यहां मुझे राजेन्द्र यादव की एक आत्मस्वीकारोक्ति याद आ रही है कि पहले जब मैं बस-ट्राम और रेलवे के साधारण दर्जे में यात्रा करता था तो कहानियां मिलती थीं अब कार, ए. सी. ट्रेन और हवाई जहाज से यात्रा करते हुये सिर्फ दूरियां तय होती है.यात्रा चाहे मन से मन की हो या फिर एक जगह से दूसरी जगह की,है तो यायावरी ही न. बिना यायावरी के भी कहानी लिखी जा सकती है क्या? मुझे लगता है यायावरी कहानी के लिये एक अनिवार्य गुण है. बेशक यात्रा में मिले सत्यों को जबतक लेखक एक दृष्टिसंपन्न संवेदनशील स्पर्श नहीं देता एक अच्छी कहानी नहीं बन सकती. मोहन राकेश ने ऐसी कई कहानियां लिखी है. अपरिचितमोहन राकेश की एक ऐसी ही कहानी है.

नामावर जी अद्भुत तर्क शक्ति के धनी आलोचक हैं. वे कहानी के साथ लगातार एक जिरह करते हैं. जिरह आलोचना का एक अनिवार्य गुण-धर्म भी है. लेकिन वकील की तरह जिरह करना और वकील हो जाना दोनों में अंतर है. कहानियों से जिरह करते नामवर जी कब आलोचक से वकील और वकील से न्यायाधीश बन जाते है पता ही नहीं चलता है. आलोचक वकील नहीं हो सकता क्योंकि वकील को सिर्फ अपने क्लाइंट का हित देखना होता है, वह भी हर कीमत पर. इससे उसे कोई वास्ता नहीं होता कि उसका क्लाइंट दोषी है या निर्दोष. मेरी दृष्टि में आलोचना और वकालत के बीच की यही विभाजक रेखा है. नामवर जी का आलोचक कई बार इस विभाजक रेखा का अतिक्रमण करता है. यही कारण है कि परिन्देकी प्रतीक्षा तो उन्हें बहुस्तरीय और बहुलार्थी लगती है लेकिन संबंधों की कई-कई परतों के उघड़ने के बावजूद यंत्रणा और विडंबना के बीच नंदाके लिये गीताकी प्रतीक्षा’ (राजेन्द्र यादव) में उन्हें कुछ भी नजर नहीं आता.

मैं ने अब तक जिसे नामवर जी का अन्तर्विरोध कहा है हो सकता है यह मेरा मीन-मेखया कि मेरी शंकायें भर हों. इससे कथालोचना के क्षेत्र में किये उनके ऐतिहासिक अवदान का महत्व किंचित मात्र भी कम नहीं होता, कारण कि वे पहले आलोचक हैं जिन्होंने कहानी विधा को भी गंभीर आलोचना-समीक्षा के लायक माना. छोटा मुंह बड़ी बातजैसी इस टिप्पणी में व्यक्त अपनी आशंकाओं को मैं नामवर जी की कथालोचना की सीमाओं से ज्यादा समकालीन कथालोचना की चुनौतियां मानता हूं, क्या आपको भी ऐसा ही नहीं लगता?
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सहजि सहजि गुन रमैं : राकेश रोहित

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जब पूरा वातावरण कट्टरता, हिंसा और असहिष्णुता से भयाक्रांत हो और सत्ता के पहियों के नीचे मासूम, निर्दोष और खरे जन पिस रहे हों तब कविता क्या कर सकती है ?


ऐसे थरथराते समय में अगर वह प्रेम को पाने, बचाने और सहेजने में जुटी है तो वह अपनी ज़िम्मेदारी को मैं समझता हूँ कि समझ रही है. जो सुंदर है, सहज है और जो मासूम है आज उसकी रक्षा सबसे पहले की जानी चाहिए. अगर कवि प्रेम के गीत नहीं गा सकता तो वह विद्रोह को भी नहीं लिख सकता. राकेश की कवितायेँ विकट कोलाहल में इसी मानवीय संवेदना के साथ खड़ी हैं और यह भी देख रही हैं कि ‘अंधेरे ब्रह्मांड में दौड़ रही है पृथ्वी’. 



राकेश रोहित की कवितायेँ                                      




कोलाहल में प्यार

कभी- कभी मैं सोचता हूँ
इस धरती को वैसा बना दूँ
जैसी यह रही होगी
मेरे और तुम्हारे मिलने से पहले!
इस निर्जन धरा पर
एक छोर से तुम आओ
एक छोर से मैं आऊं
और देखूँ तुमको
जैसे पहली बार देखा होगा
धरती के पहले पुरूष ने
धरती की पहली स्त्री को!
मैं पहाड़ को समेट लूँ
अपने कंधों पर
तुम आँचल में भर लो नदियाँ
फिर छुप जाएं
खिलखिलाते झरनों के पीछे
और चखें ज्ञान का फल!
फिर उनींदे हम
घूमते बादलों पर
देखें अपनी संततियों को
फैलते इस धरा पर
और जो कोई दिखे फिरता
लिए अपने मन में कोलाहल
बरज कर कहें-
सुनो हमने किया था प्यार
तब यह धरती बनी!





कवि, पहाड़, सुई और गिलहरियां

पहाड़ पर कवि घिस रहा है
सुई की देह
आवाज से टूट जाती है
गिलहरियों की नींद!

पहाड़ घिसता हुआ कवि
गाता है हरियाली का गीत
और पहाड़ चमकने लगता है आईने जैसा!

फिर पहाड़ से फिसल कर गिरती हैं गिलहरियां
वे सीधे कवि की नींद में आती हैं
और निद्रा में डूबे कवि से पूछती हैं
सुनो कवि तुम्हारी सुई कहाँ है?

बहुत दिनों बाद उस दिन
कवि को पहाड़ का सपना आता है
पर सपने में नहीं होती है सुई!

आप जानते हैं गिलहरियां
मिट्टी में क्या तलाशती रहती हैं?
कवि को लगता है वे सुई की तलाश में हैं
मैं नहीं मानता
सुई तो सपने में गुम हुई थी
और कोई कैसे घिस सकता है सुई से पहाड़?

पर जब भी मैं कोई चमकीला पहाड़ देखता हूँ
मुझे लगता है कोई इसे सुई से घिस रहा है
और फिसल कर गिर रही हैं गिलहरियां!
मैं हर बार कान लगाकर सुनना चाहता हूँ
शायद कोई गा रहा हो हरियाली का गीत
और गढ़ रहा हो सीढ़ियाँ
पहाड़ की देह पर!

गिलहरियां अपनी देह घिस रही हैं पहाड़ पर
और कवि एक सपने के इंतजार में है!






पीले फूल और फुलचुही चिड़िया

वो आँखें जो समय के पार देखती हैं
मैं उन आँखों में देखता हूँ.
उसमें बेशुमार फूल खिले हैं
पीले रंग के
और लंबी चोंच वाली एक फुलचुही चिड़िया
उड़ रही है बेफिक्र उन फूलों के बीच.

सपने की तरह सजे इस दृश्य में
कैनवस सा चमकता है रंग
और धूप की तरह खिले फूलों के बीच
संगीत की तरह गूंजती है
चिड़िया की उड़ान
पर उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!
सृष्टि के पुनःसृजन की संभावना सा
दिखता है जो स्वप्न इस कठिन समय में
उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!

दुनिया के सारे मनुष्य कहाँ गये
कोई नहीं बताता?
झपक जाती हैं थकी आँखें
और जो जानते हैं समय के पार का सच
वेखामोश हो जाते हैं इस सवाल पर.
सुना है
कभी- कभी वे उठकर रोते हैं आधी रात
और अंधेरे में दिवाल से सट कर बुदबुदाते हैं
हमें तो अब भी नहीं दिखता कोई मनुष्य
जब नन्हीं चिड़ियों के पास फूल नहीं है
और नहीं है फूलों के पास पीला रंग!

इसलिए धरती पर
जब भी मुझे दिखता है पीला फूल
मुझे दुनिया एक जादू की तरह लगती है.
इसलिए मैं चाहता हूँ
सपने देखने वाली आँखों में
दिखती रहे हमेशा फुलचुही चिड़िया
फूलों के बीच
ढेर सारे पीले फूलों के बीच.






विदा के लिए एक कविता

और जब कहने को कुछ नहीं रह गया है
मैं लौट आया हूँ!
माफ करना
मुझे भ्रम था कि मैं तुमको जानता हूँ!
भूल जाना वो मुस्कराहटें
जो अचानक खिल आयी थी
हमारे होठों पर
जब खिड़की से झांकने लगा था चाँद
और हमारे पास वक्त नहीं था
कि हम उसकी शरारतों को देखें
जब हवा चुपके से फुसफुसा रही थी कानों में
भूल जाना तुम तब मैं कहाँ था
और कहाँ थी तुम!
वह जो हर दीदार में दिखता था तेरा चेहरा
कि खुद को देखने आईने के पास जाना पड़ता था
और बार- बार धोने के बाद भी रह जाती थी
चेहरे पर तुम्हारी अमिट छाप
वह जो तुम्हारे पास की हवा भी छू देने से
कांपती थी तुम्हारी देह
वह जो बादलों को समेट रखा था तुमने
हथेलियों में
कि एक स्पर्श से सिहरता था मेरा अस्तित्व
हो सकता है एक सुंदर सपना रहा हो मेरा
कि कभी मिले ही न हों हम- तुम
कि कैसे संभव हो सकता था
मेरे इस जीवन में इतना बड़ा जादू!
भूल जाना वो शिकवे- शिकायतों की रातें
कि मैंने पृथ्वी से कहा
क्या तुम मुझे सुनती हो?
वह जो दिशाओं में गूँजती है प्रार्थनाएं
शायद विलुप्त हो गयी हों
तुम तक पहुँचने से पहले
कि शब्दों में नहीं रह गई हो कशिश
शायद इतनी दूर आ गए थे हम
कि हमारे बीच एक फैला हुआ विशाल जंगल था
जो चुप नहीं था पर अनजानी भाषा में बोलता था
और जहाँ नहीं आती थी धूप
वहाँ काई धीरे-धीरे फैल रही थी मन में!
सुनो इतना करना
तुम्हारी डायरी के किसी पन्ने पर
अगर मेरा नाम हो
उसे फाड़ कर चिपका देना उसी पेड़ पर
जहाँ पहली बार सांझ का रंग सिंदूरी हुआ था
जहाँ पहली बार चिड़ियों ने गाया था
घर जाने का गीत
जहाँ पहली बार होठों ने जाना था
कुछ मिठास मन के अंदर होती है.
वहीं उसी कागज पर कोई बच्चा
बनाए शायद कोई खरगोश
और उसके स्पर्श को महसूसती हमारी उंगलियां
शायद छू लें उस प्यार को
जिसमें विदा का शब्द नहीं लिखा था हमने!







एक दिन

सीधा चलता मनुष्य
एक दिन जान जाता है कि
धरती गोल है
कि अंधेरे ने ढक रखा है रोशनी को
कि अनावृत है सभ्यता की देह
कि जो घर लौटे वे रास्ता भूल गये थे!


डिग जाता है एक दिन
सच पर आखिरी भरोसा
सूख जाती है एक दिन
आंखों में बचायी नमी
उदासी के चेहरे पर सजा
खिलखिलाहट का मेकअप धुलता है एक दिन
तो मिलती है थोड़े संकोच से
आकर जिंदगी गले!


अंधेरे ब्रह्मांड में दौड़ रही है पृथ्वी
और हम तय कर रहे थे
अपनी यात्राओं की दिशा
यह खेल चलती रेलगाड़ी में हजारों बच्चे
रोज खेलते हैं
और रोज अनजाने प्लेटफार्म पर उतर कर
पूछते हैं क्या यहीं आना था हमको?


इस सृष्टि का सबसे बड़ा भय है
कि एक दिन सबसे तेज चलता आदमी
भीड़ भरी सड़क के
बीचोंबीच खड़ा होकर पुकारेगा-
भाइयों मैं सचमुच भूल गया हूँ
कि मुझे जाना कहाँ है?
_________________________

राकेश रोहित : 19 जून 1971 (जमालपुर)
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचिऔर
पहली कहानी "शहर में कैबरे"'हंस'पत्रिका में प्रकाशित.
"हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं"आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक केरूप में प्रकाशित और चर्चित. 

rkshrohit@gmail.com

परख : हर्ता कुँवर का वसीयतनामा

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पूर्वोत्तर के आदिवासी जीवन पर हिंदी में मूल रूप से लेखन कम देखने को मिलता है. कथा साहित्य में तो इसकी कमी है ही. उदयभानु पाण्डेय का नवीनतम कहानी संग्रह ‘हर्ता कुँवर का वसीयतनामा’ की जमीन पूर्वोत्तर है. शोषण, विद्रोह, निर्वासन, प्रेम आदि स्थितियां  इन कहानियों में सबलता से प्रत्यक्ष हुई हैं. अर्पण कुमार की विस्तृत समीक्षा.        

हर्ता कुँवर का वसीयतनामा और पूर्वोत्तर की जमीन                             
अर्पण कुमार 




सुदूर उत्तर-पूर्व और पश्चिमी क्षेत्र को छोड़ भी दें तो स्वयं हिंदी प्रदेशों में भी विभिन्न आवास-क्षेत्रों में फैले आदिवासी जीवन को बहुत करीब से हिंदी साहित्य में अभिव्यक्ति अभी कम ही प्रदान की गई है. इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी जीवन पर और उसमें भी कार्बी जनजातियों को लेकर उदयभानु पांडेय लंबे समय से अपने लेखन में उन्हें चित्रित कर रहे हैं. हर्ता कुँवर का वसीयतनामाउदयभानु पांडेय का नवीनतम कहानी-संग्रह है. सतवंती(1989) और उत्तर राग एवं अन्य कहानियाँ(2001) के बाद का यह उनका तीसरा कहानी-संग्रह है. उपरोक्त दोनों संग्रहों की शीर्षक कहानियों सहित कई कहानियाँ इस संग्रह में संकलित हैं. एक तरह से इस पुस्तक को उनकी प्रकाशित कहानियों का प्रतिनिधि-संग्रह भी कहना ग़लत न होगा. अस्तु,इस कहानी-संग्रह में कुल पंद्रह कहानियाँ हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि उनकी कहानियों का जो ट्रेड-मार्क है वह इन कहानियों में भी उपस्थित है और वह है सुदूर उत्तर-पूर्व की जीवन-शैली का चित्रण उनके भीतर का प्रेम एवं उनकी खास तौर से हर्ता कुँवर कर्बी जनजातियों का आंतरिक एवं प्रामाणिक चित्रण.

उल्लेखनीय है कि हिंदी कथा-जगत में पहली बार इतने व्यवस्थित तरीके से कार्बी जनजातियोंकी जीवन-शैली एवं उनकी मनोरचना को किसी कथाकार ने अपना वर्ण्य विषय बनाया है. बेशक इस  जनजातीय समाज को लेकर असमिया से हिंदी में अनुवाद प्रकाशित हुए हैं मगर मौलिक रूप से कथा का विषय इसी संग्रह में बन पाए हैं.जहाँ तक ऐसी अनुदूति कहानियों का विषय है प्रो. पांडेय ही उसमें अग्रणी नज़र आते हैं.प्रो. रंगबंग तेरांगाकी कहानी टिड्डे का विरहा (2003 समकालीन भारतीय साहित्य) का हिंदी अनुवाद सर्वप्रथम इन्हीं के माध्यम से आया. प्रस्तुत संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है हर्ता कुँवर का वसीयतनामा.कार्बी जनसमुदाय की मान्यता के अनुसार,हर्ता कुँवर ने सूर्यदेव की आखिरी और छठी बेटी से शादी तो की मगर देवताओं द्वारा हर तरह की सुविधा और संपदा को विनम्रतापूर्वक न सिर्फ उसने ठुकराया बल्कि अपने बल-बूते एक बड़े कार्बी-साम्राज्य की स्थापना भी किया. उसी हर्ता कुँवर की मिथ को पलटते हुए आज की वर्तमान कार्बी-जनजाति के लोगों में पनपते असंतोष को उदयभानु पांडेय ने प्रस्तुत संग्रह की इस शीर्षक कहानी हर्ता कुँवर का वसीयतनामामें बेहतर तरीके से उभारा. 

ड्रैमैटिक मोनोलॉगका इस्तेमाल करते हुए मैं शैली में लिखी यह कहानी इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी बन पड़ती है. अगर भौगोलिक विस्तार पर दृष्टि की जाए,तो यह कार्बी-जनजाति वास्तव में असम से लेकर चीन,बर्मा थाईलैंड ,बांग्लादेश,सिक्किम से लगे नेपाल के कुछ हिस्सों तक पसरी हुई है. मगर प्रस्तुत संग्रह में असम विशेष में रहनेवाले कार्बी लोगों की जीवन-कथा को प्रस्तुत किया गया है. यहाँ उनके जीवन में आए विचलनों को काफी पीछे जाकर पकड़ने की कोशिश की गई है. उदाहरण के लिए अगर हर्ता कुँवर का वसीयतनामाकहानी को ही लें तो यह कहा जा सकता है कि लेखक ने अगर अपने इस समकालीन विषय को उसकी पुरातनता में जाकर न पकड़ा होता तो संभव है कि यह विषय किसी अखबार के रिपोर्ताज़ जैसा कुछ होकर रह जाता. संवेदनात्मक रूप से सघन प्रेम-कहानियाँ लिखने वाले उदयभानु लंबे समय से आदिवासी जीवन ,उसकी संस्कृति और समस्या को अपने गल्प में निरंतर स्थान देते आए हैं. कोई चार दशकों से अधिक समय से पूर्वोत्तर में प्रवास कर रहे उदयभानु  की कहानियों में बड़े स्वाभाविक और मौलिक रूप में इनके परिवेश का चित्रण संभव हुआ है. मूलतःअवध में जन्में और शिक्षा प्राप्त उदयभानु  की कहानियों में उत्तर-प्रदेश,बिहार से लेकर पूर्वोत्तर की परस्पर भिन्न मगर एक-दूसरे से जुड़ी संस्कृतियों और उनकी टकराहट की अनुगूँज सुनी जा सकती है.

डॉ. लोहियाउत्तर भारत के हिंदुओं के बीच प्रचलित रामायण में स्वयं से सीता के बिछुड़ने की तुलना राम द्वारा किसी संपत्ति के चले जाने से किए जाने पर काफी आपत्ति करते थे और उस मानसिकता को स्त्री-विरोधी मानते थे. मगर कार्बी रामायण,आदिवासी हिंदुओं की ऐसी पुराकथा है जिसमें आदिवासी स्त्रियों की स्वतंत्रता के अनुरूप ही उनके पौराणिक चरित्रों का चरित्र-निरूपण किया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि अपने परंपरागत रूप में आदिवासी-समुदायों में स्त्री-मुक्ति आधुनिक स्त्री-विमर्श की सैद्धांतिकी से भिन्न अपने प्रकृतस्थ रूप में नज़र आती हैजहाँ उनकी मुक्ति और स्वतंत्रता उतनी ही स्वाभाविक है जितनी उस अंचल की हरियाली और उनकी आम जीवन-शैली.वहाँ मूलतः  स्त्री-पुरूष में कोई लैंगिक भेदभाव देखने को नहीं मिलता.

उदयभानु या तो आदिवासी जीवन की समकालीन विडंबनापूर्ण राजनीतिक टूटन,अलगाव को; वहाँ पनपती हिंसा और उग्रवाद को उसके पीछे के सुनहरे,शांतिपूर्ण और निष्कपट रहे जीवन के बरक्स रखकर वर्तमान त्रासदी की टीस को कुछ ज़्यादा गहराई के साथ उभारते हैं. उदयभानु की कहानियों में राजनीतिक सजगता उनकी कहन को एक तीव्र धार देती है जिसमें उनकी भाषा एक प्रदेश-विशेष की हो रही उपेक्षा और वहाँ की भोली-भाली जनता को गुमराह कर उन्हें नशा,हिंसा और भ्रष्टाचार में लिप्त कर रहे स्थानीय और बाहरी लोगों के सिंडिकेट की चालबाजी को परत-दर-परत उघाड़ने में मदद करती है.  उदयभानु पांडेय के इस नवीनतम कथा-संग्रह में एक तरफ ठोस राजनीतिक वास्तविकता है तो दूसरी तरफ घोर रोमांटिसिज्म भी.सुदूर पूर्वोत्तर में उनका सुदीर्घ प्रवास और उनका किस्सागो मिज़ाज़.....खास तौर से स्त्री-मनोजगत पर उनकी पकड़ उनकी कहानियों में पात्र और परिवेश के प्रभावी चित्रण में काफी उपयोगी हैं. पुस्तक का ब्लर्ब लिखते हुए  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ठीक ही लक्षित किया है,  “.एक और विशेषता जो रेखांकित करने की है, वह है इन कहानियों में पूर्वोत्तर राज्यों के निर्वासित और आदिवासियों का जीवन. एक लंबे समय से कहानीकार उनके निकट साहचर्य में है. अतः उनके जीवन-यथार्थ,जीवन-दर्शन,परिवेश और मनोजगत से उसका परिचय है. भारत के इस संवेदनशील पूर्वोत्तर क्षेत्र के जन-जीवन का प्रायः शोषण ही हुआ है जिसकी परिणति उसकी विद्रोही गतिविधियों में हो रही है. इस संग्रह की कई कहानियाँ इस तथ्य को उजागर करती हैं.

कार्बी पुरा-कथाओं के चरित्रों का उदायभानु पांडेय ने अपनी कहानियों में रचनात्मक इस्तेमाल किया है. साथ ही उनकी हिंदू मिथ-परंपरा से निकटता पर भी वे चर्चा करते हैं. वे अपनी कहानियों में खासकर उनके शीर्षक देते हुए हमेशा कोई काव्यात्मक बुनावट करते हैं जिसके पीछे निश्चित रूप से संबंधित कहानी की पृष्ठभूमि को उभारने में और उसे एक पौराणिक आधार देने में उन्हें एक अतिरिक्त सुविधा मिल जाती है. वैसी कहानियाँ अपने शीर्षक से ही पाठकों को आकर्षित करती हैं. उदाहरण के तौर परश्याम मोसे न खेलो होरी रे ,हर्ता कुँवर का वसीयतनामा, मित्रावरुणोआदि का नाम लिया जा सकता है. इस तरह अपनी समकालीन कहानियों में किसी पुराने पदगीत आदि के वाक्यांश देकर तो कभी अपने मिथकीय चरित्रों को उदधृत करते हुए वह अपनी कहानी की प्रभावोत्पादक्ता को बढ़ाने में कामयाब रहे हैं. इनकी कहानियों के शीर्षक गुंफित और अपने में बहुत कुछ समेटे होते हैं और उनकी प्रतीकात्मकता अक्सर कहानी के लिए किसी सूत्र सा होती हैं जिसके माध्यम से कहानीकार अपनी कहानी को समुचित रूप और आकार देता है और अपने उस मेटाफरको खोलता भी चलता है. इससे कहानी के प्रति न सिर्फ पाठकों का आकर्षण द्विगुणित होता है बल्कि वहाँ उठायी गई विषयवस्तु को समझने में भी सुविधा मिलती है. फिर चाहे वह कहानी भंवरा रे हम परदेसी लोगहो या फिर श्मशान में श्वपच’.
                                               
जहाँ तक उदयभानु की प्रेम-कहानियों का सवाल है उनकी कहानि बाँग्ला स्त्रियों के साथ उ.प्र. और बिहार के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का प्रेम और उन स्त्रियों के साँवले रंग,उनकी बड़ी-बड़ी आँखों के प्रति उनका आकर्षण उनके मातृत्व-भाव और सहज समर्पण के प्रति भावुक पुरबिया पुरुष मन और फिर किसी न किसी कारण से दोनों का बिछोह ……एक तरह से उदयभानु की प्रेम-कहानियों की यह एक मुख्य विशेषता है. उनकी प्रेम-कहानियों का यू.एस.पी..


उदयभानु के कथा-जगत में एक तरफ अवध के लोकगीतों के टुकड़े मिलते हैं तो वहीं दूसरी तरफ बिहार के श्रमिक समाज की पीढ़ियों से जारी पीड़ा भी दिखाई पड़ती है. विकास और भ्रष्टाचार; उपभोक्तावाद और बाजारवाद के बीच कहीं बुरी तरह फँसे पड़े आदिवासी-मन के अंतर्विरोध तो खैर उनकी सामाजिक-राजनितिक एवं सांस्कृतिक तेवर की कहानियों के सिग्नेचर-ट्यूनतो हैं ही. अवध के लोकगीतों के प्रयोग-मात्र से सतवंतीकहानी में जो पुराने और नए का रचनात्मक तनाव मिलता है,वह इस कहानी के पाठ को समझने में काफी सहायक है. भारत की रूढ़ पारंपरिक जातिगत व्यवस्था में अगर एक ब्राहम्ण की विवाहित स्त्री अपने ही गाँव की एक पिछड़ी जाति  के नवयुवक के साथ बंबई भाग जाती है तो परिवर्तन की इस हवा को पुरानी संस्कृति के बरक्स देखने से सतवंती(धर्मयुग में 1984 में प्रकाशित) का यह कदम खासा महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी दिखता है. कुछ-कुछ अपने समय से आगे भी.

कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषा किसी भी रचना की प्रवाहमयता और उसकी प्रभावोत्पादकता  में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है|प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में भी भाषा की यह ताकत देखने को मिलती हैजो कहानियों की पृष्ठभूमि और उसके कथ्य के अनुरूप अपनी छटा बिखेरती है. जब लेखक दुखांत प्रेम कहानी लिखता है (और जिसमे उनका कहानीकार बहुत प्रभावी ढंग से सामने आता है) तब वह  एक चोटिल और भावुक प्रेमी मन को जिसे पुरानी स्मृतियों ने इस तरह जकड़ रखा है कि उसे कुछ भी सुहा नहीं रहा है (उत्तर राग की मृत्यु) ...तो शहर में ढलती शाम की धूप, (जब वह अपनी पूर्व-प्रेमिका नंदिता के घर उससे मिलने जा रहा है) और गहराती रात (जब वह उसके यहाँ से टूटा हुआ वापस अपने होटल आ रहा है) दोनों ही दृश्यों का चित्रण न केवल पात्र के मानोभावों का प्रकटीकरण  है बल्कि एक सशक्त और प्रभावी गद्य की बानगी भी है:-   ‘…नहाने के बाद पलकें भारी होने लगी थीं और मैं सो गया. नींद टूटी तो धूप की किरणों से छिदी शाम एक पिटी हुई झगड़ालू औरत की तरह लग रही थी. औंधे-मुँह पड़ी हुई सड़कें थकी-थकी और आहत-सी दिख रही थीं......(उत्तर राग की मृत्युपृष्ठ संख्या 96) वहीं देर रात को सड़कों पर कई अन्य तरह की ठेठ बाजारू गतिविधियों को लक्षित करता खुली सड़क पर गुजरता हुआ कहानी का नायक सौरभ सक्सेनाको लगता है,’ ...महानगर एक दैत्याकार अजगर की तरह पसरा हुआ था.‘ (उत्तर राग की मृत्युपृष्ठ संख्या 102)     

नगीनाहृदय को छूनेवाली कहानी है. कहानी का नायक, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. यहाँ एक प्रवासी मजदूर की दशा का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया हैजिसे न उसके पैतृक निवास में रहने की समुचित और सुरक्षित व्यवस्था है और न वहाँ ही,जहाँ वह जी-तोड़ मेहनत कर रहा है. आखिरकार वह अपनी तमाम सरसता और पसीना देकर भी अंततः गरीबी के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाता है.और फिर नगीना की प्रतिकृति उसका जवान बेटा भी उसी रूप में जब पूर्वी बिहार से असम की धरती पर अपने कदम रखता है तो इसके बहाने लेखक यह साफ तौर से इंगित करता है कि सर्वहारा की जीवन-स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है और उस दारूण जीवन-स्थिति का शिकार उसकी अगली पीढ़ी भी होती चली जाती है. उल्लेखनीय है कि असमिया पत्रिका श्रीमयीके जनवरी 1995 के अंक मेंउदयभानू के गल्पपर चर्चा करते हुए प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामीने नगीनाकहानी की विस्तार से चर्चा की थी और उसे काफी मर्मस्पर्शी बतलाया था.

स्मृतियों के चित्रण में भाषा का सौष्ठव अपने चरम पर होता है,अगर उसे भली-भाँति और डूबकर चित्रित किया जाए.वैसे भी विस्थापन के इस युग में स्थान-विशेष को छोड़ने का दुःख और नई जगह के साथ तादात्म्यीकरण की प्रक्रिया बड़ी जटिल और बहुस्तरीय हो गई है. बेशक भौतिक रूप में समायोजन की प्रक्रिया बहुत जल्द होती है और कई बार किसी बड़ी समस्या से मुक्त भी लगती है मगर मानसिक स्तर पर समामेलन और समायोजन की यह प्रक्रिया बहुत धीरे-धीरे ही संपन्न होती है. ठीक सभ्यता और संस्कृति के तर्ज़ पर.मित्रावरुणोऔर नगीनाकहानियों के माध्यम से इसे सहज ही समझा जा सकता है जहाँ एक प्रोफेसर और एक मजदूर को अपने प्रवासी होने का मूल्य चुकाना पड़ाता है.ऐसा नहीं है कि सभी स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के खिलाफ हो जाते हैं क्योंकि ऐसा होने पर तो समाज की संरचना ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी.मगर जो इन बातों को लेकर राजनीति करते हैं, वे इन पृष्ठभूमियों का बेजा इस्तेमाल अरसे से करते आए हैं. मित्र और वरुण दोनों की दोस्ती के पौराणिक आख्यान का इस्तेमाल करते हुए इस कहानी में दोस्ती के आधुनिक रूप (जिसमें अवसरवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है) का चित्रण किया गया है. इसमें एक प्रसिद्ध कहावत  दोस्त तो जिंदा है मगर मुहब्बत नहीं रहीका इस्तेमाल करते हुए लेखक ने इस कहानी का अंत किया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यहाँ पढ़े-लिखे लोगों की स्वार्थी और संकुचित दृष्टि का भी सहज ही पर्दाफाश किया गया है.

सतवंतीकहानी 1989 में इसी नाम से प्रकाशित उनके पहले कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है. यह कहानी सर्वप्रथम 1984 में धर्मयुग में प्रकाशित होकर चर्चित हो चुकी है.इसे लेकर नाट्यकार और निर्देशक डॉ. श्रीमती गिरीश रस्तोगी,शिवानी,कुबेरनाथ राय,डॉ. जवाहर सिंह जैसे वरिष्ठ लेखकों/आलोचकों ने लेखक को पत्र लिखकर सतवंती के चरित्र को काफी खनकदार और फोर्सफुलबताया था. निःसंदेह सतवंती का चरित्र काफी बोल्ड है और यह कहानी अपनी रचना के वर्ष से आगे जाकर  नारी के चयन-अधिकार को बड़ी मुस्तैदी से हमारे सामने लाती है. किसी की सतवंती के निर्णय को लेकर असहमति हो सकती है और वह होनी भी चाहिए मगर प्रकटतः वासनापरक दिखती इस कहानी में सतवंती के चरित्र के माध्यम से कहानीकार ऐसे कई असहज मुद्दों को हमारे सामने लाता है जिन्हें लेकर हम रुढ़,दकियानूस और प्रतिक्रियाशील तो हैं मगर उनके समाधान को लेकर वास्तव में रंचमात्र भी कोई चिंता या परवाह नहीं करते.
                           
उत्तर रागकहानीकार की एक सधी और परिपक्व कहानियों में से एक है.अमूमन उदयभानु की प्रेम कहानियों में नायक-नायिका का मिलन नहीं होता है और मिल न पाए की कोई  कसक ही उन्हें यादगार कहानी बनाती है.उचित ही कहा जाता है कि अधूरी प्रेमकथा हमारे जेहन मे कहीं टँगी रह जाती है.मानो दो लोगों के प्रेम तो कब के नष्ट हो गए मगर प्रेम के जो क्षण उन दोनों के द्वारा कभी जिए गए थे,पाठक के मनोजगत में स्मृति के किसी धागे से टँगे रह जाते हैं.जो प्रेम-कहानियाँ अपने पाठ के साथ इस टीस को जितनी सघनता से रचती चलती हैं वे उतनी ही सफल मानी जाती हैं. इस मायने में उदयभानु की प्रेम कहानियाँ सफल कही जाएंगी क्योंकि वे अपने रचाव और प्रभाव दोनों में ही एक टीस के साथ समाप्त होती हैं. और समाप्त होकर वे कही-न-कहीं हमारी स्मृति में टँगी रह जाती हैं. प्रेम-कहानियों में बीते हुए क्षणों के पुनर्सृजन का बड़ा महत्व होता है.इन्हीं क्षणों को कहीं किसी कोण से छूकर प्रेम की तीव्रता और अलगाव की पीड़ा दोनों को एक साथ गहरा किया जाता है.

पाठकों की सुविधा के लिए यह बताता चलूँ कि प्रस्तुत संग्रह की अधोलिखित कहानियाँ प्रेम कहानियाँ हैं:

1.         गुरुदक्षिणा
2.         श्याम,मोसे न खेलो होरी रे
3.         उत्तरराग की मृत्यु
4.         उत्तरराग
5.         और जहाज डूब गया

अगर उत्तररागको छोड़ दें तो उपरोक्त किसी भी कहानी में मिलन नहीं है या उनकी प्रेम-कथा सुखांत नहीं है.और अगर उत्तररागमें मिलन है भी तो पहले प्रेम के साथ नहीं बल्कि दूसरे प्रेम के साथ. तभी तो इसे उत्तरराग कहा गया. मगर इस उत्तरराग से पहले एक असफल गृहस्थी और उसकी टूटन से उत्पन्न अकेलापन और अवसाद है.जिससे प्रेम किया जा रहा है वह पुत्री की सहेली और उसकी समवयस्क है.तिस पर तुर्रा यह कि इस प्रेम को संरक्षण भी पुरानी और पहली प्रेमिका मंदाकिनीके घर में मिल रहा है. कहानी की वाचिका भी मंदाकिनीही है. इससे कहानी में एक खास तरह का सौंदर्य और प्रवाह आ गया है जहाँ मंदाकिनीअन्यथा करुणा और आत्म-पीड़ा की पृष्ठभूमि में रचित इस कहानी में कभी अपनी उदात्त्ता से तो कभी अपने परिहास से बीच बीच में शीतल जल की फुहारें लाती है. यह उत्तरराग क्या है“….पूर्वराग तो आता और चला जाता है,पर उत्तरराग बड़ा भयंकर होता है.साँप का डसा भले ही बच जाए पर उत्तरराग का डसा पानी भी नहीं माँगता.इस भली बंगालिन ने किस तरह मेरे प्रिय अंबरिश को नया जीवन दिया है.उसके उत्तरराग को स्वीकार कर!(उत्तर रागपृष्ठ संख्या 115)  

नायक के खंडित विवाह ....और इन सबकी जानकारी उसकी पूर्ववर्ती प्रेमिका मंदाकिनीको होने और फिर अंततः एक शिष्या द्वारा स्वयं नायक का वरण..... यहाँ अंबरीश का एक सुदीर्घ दुःख भरा जीवन है जिसमें लंबी भावनात्मक शून्यता के बाद एक बार फिर उसके दिल पर प्रेम  का मेह बरसता है. मगर जीवन की एक परंपरागत व्यवस्था जिसे हम विवाह या घर बसाना कहते है,उसके के प्रति एक विश्वास भी इस कहानी में देखा जा सकता है. हालाँकि इस तरह घर बसाने का मूल्य,अंबरिश को एक  बहुत बड़ी कीमत देकर चुकाना पड़ा है(पहली और असफल रही शादी के संबंध में ). यह कहानी अंबरिश की पहली प्रेमिका मंदाकिनीकी जुबानी ही कही गई है जहाँ वह उसकी नई पत्नी दोलनचापाके साथ मिलकर काफी खुश है और अंबरिश के भविष्य को को लेकर  आश्वस्त भी . अंबरिश के इस तरह टूटने में मंदाकिनी खुद को भी कहीं-न-कहीं जिम्मेवार मानती आई है.

कहने की ज़रूरत नहीं कि उत्तर-रागएक कलाकार के टूटे हुए प्रेम,उसकी असफल शादी और तदुपरांत अपनी पुत्री की समवयस्क सहेली और अपनी शिष्या के साथ उसके पुनर्विवाह की कहानी है.मगर यह एक पचास को छूते  पुरुष(‘अंबरीश भार्गव’)और बीस पार(बाईस साल की) स्त्री (दोलनचापा) की कोई सनसनीखेज कहानी नहीं है और न इसे हठात किसी रोमांच-मात्र के कारण यहाँ प्रस्तुत किया गया है.बल्कि संग्रह की इस अपेक्षाकृत लंबी कहानी का कथा-विन्यास इतना सुगठित और क्रमशः उठान लेता हुआ है कि अंबरिश और दोलनचापा के इस मिलन को पाठक बड़े स्वाभाविक तरीके से ले पाता है. मगर अंत की यह स्वाभाविकता जिसे पाठक शुरू में ही जान जाता है,कहानी की रोचकता को कहीं से कमतर नहीं करती. वह इसलिए भी कि कहानी शुरू ही अपने अंत से होती है अर्थात यह कहानी फ्लैश-बैकमें लिखी गई है.अपने कथा-चरित्रों पर भरपूर मेहनत करनेवाले उदयभानु के यहाँ उनके उपन्यासों से लेकर उनकी कहानियों तक स्त्री-पुरुष चरित्रों के कई रंग देखने को मिलते हैं.

अच्छे-बुरे,ग्रे-शेड हर तरह के. प्रस्तुत कहानी भी यद्यपि नायक अंबरिश के इर्द-गिर्द घूमती है मगर उसकी पहली पत्नी रत्नासे पूर्व की उसकी प्रेमिकामंदाकिनीऔर रत्नासे तलाक के बाद दोलन....इन सभी स्त्री-चरित्रों की स्केचिंग न सिर्फ बहुत मेहनत और तन्मयता के साथ की गई है बल्कि उनका चरित्र-चित्रण कुछ ऐसा है कि वे कहानी को बढ़ाने में सहायक हैं. दोलन के बारे में अंबरिश की पत्नी कहानी की शुरूआत में ही कह देती है....यह डायन ....साथ ही यहाँ घटित घटनाओं को कहानीकार ने इस तरह रखा है और पात्रों के मनोभावों को इस तरह विश्लेषित किया है कि कहानी के कई अस्वाभाविक दिखते मोड़ भी अपने-आप जस्टीफाई होते चलते हैं. शेक्सपीयर के नाटकों की यह खूबी है कि वहाँ  ओपनिंग ही कहानी के सूत्र में होता है. वही बात उदयभानु की कहानियों में देखने को मिलती है.

उत्तर राग की मृत्युके कोई तेरह साल बाद उत्तर रागकहानी लिखी गई. हालाँकि दोनों कहानियाँ प्रेम की थीम पर है मगर परवर्ती कहानी (उत्तर राग) न सिर्फ जीवन के प्रति एक विधेयक दृष्टिकोण के साथ समाप्त होती है बल्कि वह पूर्ववर्ती कहानी (उत्तर राग की मृत्यु) की तुलना में शिल्प और कथ्य के स्तर पर अधिक गझिन और बहुस्तरीय भी  है. उत्तर राग की मृत्युएक दुःखांत प्रेम-कथा है जो नायक की सिनिकल हताशा पर समाप्त होती है .जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है वहीं उत्तर-राग में प्रेम की पुनर्स्थापना की गई है. यहाँ जीवन को लेखक एक विधेयक रूप में देखता है. प्रेम पर कहानीकार एक पोजीटिव निर्णय लेता है. अंबरीश भार्गव को उसके पहले प्रेम में असफल तो नहीं कहेंगे मगर भौतिकता के आगे न झुकने की जिद में उसकी शादी मंदाकिनीसे नहीं हो पाती है.उसकी शादी  जिस स्त्री से होती है कमोबेश उसे लेखक ने पृष्ठभूमि में ही लिखा है और उसका चित्रण एक झगड़ालू और गैर-रोमांटिक स्त्री के रूप में ही किया गया है. पहली प्रेमिका मंदाकिनीइस कहानी की वाचिका है और यही इसी कहानी का सौंदर्य है. इससे नायक के अंदर की विशेषता और उसका सौंदर्य-बोध दोनों पाठकों के सामने अकलुषित रूप में आ पाते हैं. 

पत्नी के रूप में मिली स्त्री तेज-तर्रार, जोड़-गाँठ में माहिर,छिद्रांवेषी,स्वभाव से शंकालु और आक्रामक है. मतलब यह कि जिन भौतिकवादी  मानकों को मंदाकिनी के पिता के आगे अंबरीश अस्वीकार कर  चुका था,उसे क्या मालूम था कि पत्नी के रूप में उसे ऐसी ही स्त्री मिलनेवाली है. जहाँ तक अंबरीश के प्रति दोलनचापा के प्रेम संबंध की बात है,वहाँ नायक की तात्कालिक पीड़ादायक स्थिति से उबारने को लेकर एक सहज मातृवत्सल भाव है. वह अपनी माँ से अनुमति लेकर जब इस दिशा में आगे  बढ़ती है तो उसे समाज की कोरी और बेमानी चिंता नहीं रहती. उसके लिए अंबरीश के प्रति उसका प्यार करुणा-जन्य है और इसीलिए वहजस्टीफाईडहै क्योंकि ऐसा करके वह अंबरीश को मौत के मुँह से बाहर निकाल पाती है. इस धरातल पर आकर एक कमसीन लड़की का ऐसा आत्मोत्सर्ग अंबरीश के लिए जीवनदायी ठहरता है. अपने अंदर की इस अहैतुकी करुणा के कारण दोलनचापा मंदाकिनी से भी इक्कीस ठहरती है जिसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में मंदाकिनी भी स्वीकार
करती है. अगर दोलनचापा को लेकर मंदाकिनी के मन में कोई ईर्ष्या-भाव नहीं है तो उसके पीछे दोलन की यही उदात्ता काम कर रही है. कामायनी में जो श्रद्धा के लिए कहा गया सब कुछ दें और कुछ न लें यह उत्सर्ग झलकता है’,यहाँ भी  प्रेम-श्रद्धा-विश्वास मिश्रित भाव का आवास है दोलनचापा के चित्त में. 


प्रेम का प्रस्फुटन जिस परिस्थिति में हुआ वह करुणा-जन्य है. यह प्रेम के बहाने और उसके साथ, जीवन के प्रति विश्वास और श्रद्धा की कहानी है. नई प्रेमिका अपने ही नायक की पुरानी प्रेयसी को आंटी कहती है.चूँकि यह करुणाजन्य प्रेम है,इसलिए दोनों के बीच की आयु के अपेक्षाकृत ज्यादा दिखते अंतर को लेखक अंततः नलीफाईकर देता है. जितना मातृत्व दोलन में है,मातृत्व का उतना और वैसा अंश स्वयं मंदाकिनी में भी नहीं है. बेशक वह जीवन भर अपने पुराने प्रेमी का ख्याल एक मित्रता-भाव से रखती आई है. यह उसका मित्रता-भाव ही है कि वह तात्कालिक रूप से शरण देने के लिए दोनों को को दार्जीलिंग बुला लेती है है. निःसंदेह मंदाकिनी अंबरीश की दोस्त और संरक्षिका दोनों रूप में खरी सिद्ध होती है.मंदाकिनी के कथावाचिका होने के कारण इस कहानी  की टेकनीक और थीम एक हो गई है जिससे इस कहानी का सौंदर्य न केवल द्विगुणित हुआ है बल्कि पात्रों और घटनाक्रम के विकास में एक प्रामाणिकता भी आई है. 


रोलां बार्थ जिसे प्लेजर ऑफ टेक्स्टकहता है वह इस कहानी पर सहज ही लागू है. दोलन में एक तरह का संकोच भाव है जो उसके नारी-व्यक्तित्व को बेदाग और कमनीय बनाता है और जिस पर अंबरीश की पुरानी प्रेमिका भी रिझ जाती है. अक्सर स्त्रियों में ईर्ष्या होती है,मगर यहाँ वह ईर्ष्या,एक-दूसरे के प्रति स्नेह और आदर में बदल जाती है. मंदाकिनी का अपराध बोध उसके भीतर गहरा समाए हुए है कि अंबरीश प्रेम के मोह से उस निकालने या कहें छुटकारा देने के लिए उससे पहले ही शादी कर लेता है जो निरंतर असफल होती चली जाती है. मंदाकिनी उस वक्त भी जान रही थी कि प्रकटतः तो अंबरीश, अपना घर बसा रहा है,मगर सच्चाई यह थी कि वह उसे (अपनी प्रेमिका को) खुश करने एवं किसी दुविधा से मुक्त करने के लिए अपने जीवन की बलि दे रहा था. इस पृष्ठभूमि में, अंबरीश का चरित्र उद्दात्त ठहरता है. बेटी मधुके पैदा  होने पर जहाँ उसे सब कुछ ठीक होने की गुंजाईश थी मगर यह घटना भी दो दिनों  की चाँदनी ठहरती है. 

एक कलाकार अपनी क्षुधा से तड़पते हुए और उसका सामना करते हुए अपने अंदर की तमाम बेचैनियों से लड़ता है. जिसे हम कलाकार की न्यूड पेंटिंगमानते हैं और उसकी निंदा या प्रशंसा कर रहे होते हैं मूलतः वह कलाकार उस वक़्क्त अपने को जला रहा होता है. वह अपने अंदर की क्षुधा का उद्दात्तीकरण कर रहा होता है और इस तरह कला की शरण में जाकर उसका प्रशमन कर रहा होता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि अंबरीश,उदयभानु की कहानियों के अन्य पुरुष-पात्रों की ही तरह मर्यादित और धैर्यवान है. अगर देखा जाए तो दोनों तरफ से प्रेम की यह स्वीकरोक्ति अंबरीश के जीवन को बचाने के लिए है और इसीलिए यह प्रेम अपनी अपेक्षित ऊँचाई को प्राप्त होता है.

अपने कथ्य और अपनी भाषा के साथ तल्ख स्वर उठाती श्मशान में श्वपचकहानी, संग्रह की महत्वपूर्ण और प्रभावी कहानियों में से एक है. हिंदी भाषी तिवाड़ीजैसे ब्राहमण को यहाँ परोक्ष रूप से स्वपच कहा गया है जो कुत्ते का मांस खाता है और मनवचन और कर्म से वणिक-मात्र है. वह अपने फायदे के लिए भोले-भाले आदिवासियों को कभी अंग्रेजी शराब परोसकर तो कभी उन्हें धन का प्रलोभन देकर न सिर्फ उन्हें उनके मूल्यों से भटकाता है बल्कि उन्हें विपथगामी बनाकर उनका अपने हिसाब से इस्तेमाल भी करता है. स्पष्टतः लेखक ने यहाँ स्थिति की भयावहता का निरपेक्ष चित्रण किया है जहाँ किसी का महिमामंडन है और न ही किसी की अनावश्यक निंदा की गई है. असम के अन्य आदिवासी-समुदायों की तुलना में कार्बी समुदाय अपेक्षाकृत अधिक संस्कृतनिष्ठ है मगर उसकी नई पीढ़ी में आई भौतिकपरस्ती और उसकी गुमराही को पाठकों के सामने रखने में लेखक नें कोई संकोच नहीं किया है. तिवाड़ीजैसे लोगों के प्रभाव में आकर कई आदिवासी श्मशान जैसी जगह पर भी अमर्यादित और अपनी परंपरा से विलगित व्यवहार करते हैं. 

नशे के आधुनिक रूप ने परंपरागत आदिवासी समाज को विरूपित और प्रदूषित ही अधिक किया है. हालाँकि मद्यपान आदिवासी समाज के लिए नया नहीं है मगर होम-मेडशराब में जिस तरह की सामूहिकता और सामुदायिकता देखने को मिलती थी,उनका अंग्रेजी शराब के सेवन में अब सरासर अभाव दिखता है जब श्मशान में अंग्रेजी शराब थोक के भाव मे परोस दी जाती है. नशा पहले जहाँ एक मस्ती और उत्सव का रूप होता था अब वह आधुनिक बोतलों के आकार में अपना काम निकालने की अवसरवादिता में बदल रहा था. भौतिकवाद की चपेट मे आता आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा किस तरह उच्छृंखल और विद्रूप होता जा रहा है और अपनी अनुशासित परंपरा को तोड़ता चला जा रहा है, ‘श्मशान में स्वपचकहानी इस पर तीखी टिप्पणी करती है. समाज में बढ़ते चले जाते आत्मकेंद्रण को भी यहाँ बखूबी उठाया गया है.   

इस क्रम में,संग्रह की मितरावर्णोकहानी का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें अपेक्षाकृत कम योग्य एक  कर्बी प्राध्यापक को कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिया जाता है,जिसकी निंदा उस समाज के कई कार्बी बुद्धिजीवी भी करते हैं.  मित्र और वरुण दो देवता हैं. वे एक साथ सोमरस पीते हैं और नर्तकियों का नृत्य देखते हैं. इसी को एक प्रतीक के रूप में लेकर कहानीकार मित्रावरुणौकहानी की रचना करता है जिसमें आधुनिक युग के दो मित्रों की निकटता और  अलगाव की कहानी कही गई है. इसमें सहज ही शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती राजनीति की दखल और उससे बदलते या कहें गिरते शैक्षणिक स्तर की वर्तमान  स्थिति को यहाँ चित्रित किया गया है. जहाँ दो लोग कभी स्वभावतः मित्र थे यह राजनीति उन्हें भाषाई और सामुदायिक आधार पर विभाजित कर देती है. स्पष्टतः स्वार्थ-जन्य राजनीति से कुछ लोगों की जेबें भरी जा सकती हैं मगर किसी समाज को सही दिशा में ले जाने की उसकी न कोई वैचारिकी होती है और न मंशा ही. मितरावर्णोऐसे दो मित्रों के अलगाव की जितनी कहानी है उतनी ही राजनीति से जनकल्याणकारी निष्ठा और समर्पण के अलग होने की भी. सुदूर आदिवासी अंचल में एक कॉलेज की पृष्ठभूमि में लिखी यह कहानी इस देश की बृहत्तर शैक्षणिक व्यवस्था पर एक टिप्पणी है जिसमें सुनियोजित तरीके से प्रियंवद जैसे सुयोग्य प्राध्यापक निरंतर हाशिए पर किए चले जा रहे हैं और उनके पक्ष में खड़े लोगों की आस्था भी डगमगा रही है और उनका इस व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है. स्पष्तः इससे शिक्षा के क्षेत्र मे निरंतर गुणवत्ता का हरास ही हुआ है.प्रियंवद का कॉलेज की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता के पेशे मे आना उसके इसी मोहभंग को दिखलाता है.

स्थितप्रज्ञएक पिता द्वारा अपने इकलौते बेटे की हत्या कर देने और फिर उसकी याद में एक समाजसेवी संगठन के चलाने की कहानी है. यहाँ एक आदिवासी पिता के मनोविज्ञान को ठीक-ठीक पकड़ने की कोशिश की गई है,जहाँ वह अपने मूल्यों की खातिर विपथगामी हुए अपने बेटे की हत्या करता है. श्मशान में श्वपचऔर मित्रावरुणोकहानियों के बरक्स इस कहानी को रखकर देखें तो यहाँ आदिवासी मूल्यों की श्रेष्ठता ही स्थापित हुई है. संग्रह की कुछेक कहानियाँ उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर भी हैं. ना घर मेरा ना घर तेरादो पीढ़ियों के बीच के मतांतर को तो हमारे सामने लाती ही है साथ ही गरीब और अमीर दोनों ही तरह के बुजुर्गों के एक जैसे अनुभव और अपनी परवर्ती पीढ़ी से मिले मोहभंग को अपने तईं उठाती है.

संग्रह की अंतिम कहानी और जहाज डूब गया(2006)अपने छोटे कलेवर के बावजूद भी अगर पाठकों को लंबे समय तक याद रह जाती है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह कहानी एक दुःखांत प्रेम-कहानी है बल्कि यह अपनी बुनावट में कुछ इस कदर सघन है कि यहाँ बेमेल विवाह और प्रेम की मजबूरी दोनों सामने आ जाती है और अंततः व्यक्ति अपने आपको अकेला पाता है. अपने प्रेमी की जिस पत्नी के कारण,वह अपने प्रेमी के जीवन से दूर चली जाती है,अंततः उन दोनों का तलाक हो ही जाता है. वह नायक के बच्चे की खातिर अपने प्रेम की बली देती है. यह संयोग से कुछ अधिक है कि उदयभानु के यहाँ बेमेल विवाहों की करुण-गाथा कुछ अधिक ही है और उसे अक्सरहाँ प्रेम के बरक्स रखकर देखा गया है. साथ ही, स्वकीया बनाम परकीया बनाम स्वकीया नायिकाओं का संघर्ष भी उनके कथाजगत में देखने को मिलता है. मगर परकीया नायिकाएं अभिसारिका मात्र की भूमिका में नहीं हैं बल्कि उनका प्रेम उद्दात्त है और वे अपने इस संबंध में त्याग की किसी भी सीमा तक जाती हैं. 

कह सकते हैं कि प्रस्तुत संग्रह में आदिवासी समाज की मुख्य-धारा और उसके लोगों से संबंधों के उतार-चढ़ाव को उसकी पूरी द्वंत्वात्मकता में पकड़ने की कोशिश है. यहाँ संस्कृति और भाषा की भिन्नता; राजनीतिक वर्चस्व और सामाजिक मान्यता; नक्सलवाद और भटकाव जैसे कई मुद्दों को गल्प के साँचे में ढालकर अभिव्यक्त किया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि वर्तमान समय आदिवासियों के लिए किसी संक्रमण काल जैसा है जहाँ उनकी पुरातनता वर्तमान की आधुनिकता से मुठभेड़ कर रही है. वे जितना बाहर की सांस्कृति से लड़ रहे हैं उतना ही अपने अंदर के बदलाव से.  हिंदी में कार्बी जीवन पर केंद्रित कई कहानियों के इस संग्रह में पूर्वोत्तर के आदिवासी जीवन का संकुल हमें सहज ही देखने को मिलता है.  इन कहानियों का इसीलिए अपना एक समाजशास्त्रीय महत्व ठहरता है. विगत कुछेक दशकों के बीच वहाँ बही परिवर्तन की बयार को लेखक ने जितनी सूक्ष्मता से देखा है उतनी ही सघनता से उसे अपनी कहानियों में प्रस्तुत भी किया है. 
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(प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ/18इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड/नई दिल्ली 110003 /पृष्ठ 136 /मूल्य:- 130 रुपए)
अर्पण कुमार 
बी-1/6,/एस.बी.बी.जे. अधिकारी आवास/ जयपुर
पिन : 302005/ मो. 9413396755    

रंग - राग : तमाशा : सारंग उपाध्याय

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सिनेमा आधुनिक कला माध्यम है. इस माध्यम में तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं. तकनीकी मदद से कल्पनाशीलता को मूर्त करने में ‘चल-चित्र’ दीगर कला माध्यमों से बहुत आगे निकल गया है. हिंदी फिल्मों को भी दृष्टिसम्पन्न और कल्पनाप्रवण निर्देशक मिलते रहे हैं. इनमें नवीनतम हैं – इम्तियाज़ अली.  

अगर फिल्मों से आप केवल मनोरंजन लेना चाहते हैं तो फ़िल्म –‘तमाशा’ आपके लिए नहीं है पर एक कला माध्यम के रूप में अगर आप फ़िल्म देखना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपको निराश नहीं करेगी. सारंग उपाध्याय फिल्मों पर क्रिएटिव ढंग से लिखते हैं. यह समीक्षा रुचिकर है और उत्सुकता पैदा करती है.        



ये तमाशाहै, आपको देखना ही होगा, पहले पर्दे पर बाद में भीतर..

सारंग उपाध्‍याय 




जिंदगी मन के भीतर कहानियों का अंकुरण है. जिंदगी गुजरती बाहर है, लेकिन कहानियां घटती भीतर हैं. यात्राएं कहानियां बुनती हैं और किरदार चुनती हैं. यात्राएं चलती बाहर हैं, और किरदार पहुंचते भीतर हैं. मन के जंगल में किरदारों के पेड उगते हैंऔर आत्‍मा को ढंक लेते हैं. घटनाएं किस्‍सा नहीं होती, तमाशा होती हैं, और तमाशे कहानियां नहीं होते, बल्‍कि किरदारों की आवाजाही होते हैं. एक आदमी वह नहीं होता, जो दिखाई देता है बल्‍कि वह होता है, जिसे लोग देखना चाहते हैं. लोग दूसरों के हिसाब से दिखते हैं इसलिए तमाशाहो जाते हैं. निर्देशक इम्‍तियाज अलीफिल्‍म दिखाना चाहते हैं जबकि लोग तमाशादेखना चाहते हैं.

इम्‍तियाज अली की फिल्‍में उनकी भीतर की बेचैनियों का अक्‍स है. वे विराट से शून्‍य में पहुंचने की यात्रा रचते हैं. उनकी आंखों से कैमरा उनके भीतर के किरदारों का चित्रण करता है. वे दुनिया घूमने के जुनून और इश्‍क के बीच जंग रचते हैं, उनके किरदार दौलत को मुठ्ठी से रेत की तरह छोते हैं,और शौहरत को अपने पीछे भगाते हैं. इम्‍तियाज मुफलिसी और तंग हालातों में रहनुमाई का चमत्‍कार खड़ाकरते हैं, दौलत के नशे में मशीन बनती दुनिया को जिंदगी का तमाशा दिखाकर उसकी आत्‍मा को जगाते हैं.


बहरहाल, फिल्‍म समीक्षाएं राय बनाती हैं, कुछ समीक्षाएं शब्‍दों की प्‍यासी होती हैं और फिल्‍मोंको हरा करती हैं इम्‍तियाज की तमाशा को न शब्‍दों की प्‍यास है और न ही फिल्‍म में सूखा पड़ा है. ये फिल्‍म सुंदर दृश्‍यों के संयोजन से कहानी बुनती है और दर्शकों से बातें करती हैं. हां जिनकी तबीयत हरी नहीं है और मन खाली रहता है, उन्‍हें तमाशा देखना चाहिए. केवल इस बात को जानने के लिए कि क्‍या वे तमाशा बन गए हैं या बना रहे हैं

फिल्‍म बेहतरीन दृश्‍यों का कोलाज है. ये इम्‍तियाज ही हैं, जो ये बता सकते हैं कि शिमला की सुकून देने वाली खुली वादियों का हर बचपन आजाद नहीं होता है, बल्‍कि वहां भी दूसरों की इच्‍छाओं और महत्‍वकांक्षाओं की घुटन बालमन पर काली परछाई की तरह पती रहती है, और एक दिन बचपन और जवानी दोनों को निगल जाती है. इन वादियों में बचपन को कहानियां दादी और नानी नहीं सुनाती, बल्‍कि वो आधे घंटे के हिसाब गली के नुक्‍कपर मिलती हैं. कुदरत के बीच बने घरों में भी बाजार का अजगर दिलों के भीतर बैठा रहता है और पैसे, मुनाफे व लालच की सांस छोता रहता है. सबसे ज्‍यादा घुटन ऊंचाइयों पर ही होती है.

फिल्‍म की शुरुआत में यश सहगल जैसे बच्‍चों का चेहरा आपको ब्‍लैक एंड व्‍हाइट बैकग्राउंड और रामलीला के रंग-बिरंगे किरदारों के बीच बेहद सुंदर दिखाई देगा. प्‍यूष मिश्राके संवाद और उनकी अदायगी यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि वे किस स्‍तर का अभिनय करते हैं. पहले दृश्य के भीतर संयुक्‍ता को देखन ना भूलें. ऐसा बादलों की सुंदर छटाओं की तरह का किरदार इम्‍तियाजही रच सकते हैं. आपका पता नहीं, लेकिन संयुक्‍ता की चाल, उसकी आंखें और नन्‍हेकलाकार यश के मुंह से दोबारा उसका नाम सुनना मैं ता उम्र नहीं भूल पाऊंगा. संयुक्‍ता तुम एक कविता हो, जिसे सुना और पढ़ा नहीं जाता बल्‍कि केवल देखा और महसूस किया जाता है.
इम्तियाज़ अली

फ्रांस के कोर्सिका के अद्भुत प्राकृतिक दृश्‍य और समंदर किनारे सटी गलियों में मद्धम गति से पार्श्‍व में बजता संगीत आपके दिल की लय को दुरुस्‍त रखने वाले स्‍वर हैं. फिल्‍म देखते हुए इसे महसूस किया जा सकता है. आपकी मुलाकात यहीं से दीपिका पादुकोणेऔर रणबीर कपूरसे होगी. और एक कहानी शुरू होगी, इंटरवल तक आपको अजनबी बनाए रखेगी. हां, सिनेमा को महज मनोरजंन समझने वाले दर्शकों की ऊब के लिए इम्‍तियाज को कतई माफी मांगने की जरूरत नहीं है. ये फिल्‍म की एक गति है, इसके साथ आपको कदमताल मिलाना होगा.

संपर्क और सूचनाएं अस्‍तित्‍व की आश्‍वस्‍ति का वाहक होती हैं. संपर्क में होना दरअसल आश्‍वस्‍त होना होता है. हर तरह से, हर आयाम से. प्रेमी और प्रेयसी के भीतर बिछने की आशंकाएं मन के भीतर संपर्कों का नया संसार रचती हैं. कितना रोचक है स्‍त्री और पुरुष के बीच अपने नाम, पहचान और परिचय को जानबूझकर छिपाकर प्रेम में पजाना और उससे भी अजीब है प्रेम की संभावनाओं के बीच बिछकर कभी न मिलने की आशंकाओं के बीच प्रेम का गहरा होता जाना.

यकीनन कहानी यहीं से शुरू होती है, जब वेद (रणबीर कपूर)और तारा (दीपिका पादुकोणे)वॉट्सएप, फेसबुक, इंस्‍टाग्राम, ट्विटर, इंटरनेट और मोबाइल, सहित सूचनाओं के समंदर में डूबी दुनिया के बीच एक ऐसे लके और लकी के रूप में मिलते हैं, जो अजनबी ही बने रहना चाहते हैं, और अजनबी ही बिछजाते हैं. और मिलते वैसे ही हैं, जैसे बिछते है, एकदम अजनबी की तरह. अमूमन ऐसा होता नहीं है कि प्रेम की संभावनाओं के बीच दो अजनबी एक दूसरे से झूठ बोलने का वादा करें. अल्‍हड़, उन्‍मुक्‍त, बेफिक्र और जिंदगी के आवारापन में डूबे इन दोनों अजनबियों की मस्‍ती फिल्‍म मे बांधे रखती है.



बहरहाल, एक दूसरे के वजूद की खुमारी में डूबने जा रहे दो जवां दिल सात दिनों तक बिना किसी संपर्क के रहते हैं और इस बात को जानकर रहते हैं कि वे फिर कभी नहीं मिलेंगे. ये बा ही खतरे वाला काम है. वैसे खतरे के बीच निर्देशन का सौंदर्य तो इम्‍तियाज ने एक दूसरे से दैहिक स्‍पर्श के आकर्षण के दृश्‍य में रचा है. जब उंगलियों से हाथ और हाथ से आलिंगन करते इस प्रेमी जोड़े के भीतर कौतुहूल के फूल खिलते हैं. लेकिन लड़के के अनुशासन से दबे मन से निकली संस्‍कारों की जहरीली हवा में मुरझा जाते हैं.

इस दृश्‍य में रणबीर, यानी की वेद के किरदार को ठीक से फिल्‍म के अंत में जाकर समझ सकते हैं कि आखिर स्‍त्री देह की कल-कल करती नदी में लड़का स्‍वाभाविक रूप से खुदको डूबने से क्‍यों रोकता है. वैसे अजनबी बनकर बिछड़ने के खतरे को तारा के पासपोर्ट आने का दृश्‍य और वेद से आखिरी बार मिलने के दृश्‍य में महसूस किया जा सकता है. इम्‍तियाज आपको यहां से फिल्‍म के मध्‍य भाग में प्रवेश कराते हैं, जो कोलकाता से दिल्‍ली तक पहुंचता है.

फ्रांस से अजनबी की तरह दोनों का लौटना और उस पूरे समय को एक बेहद रंगीले गाने में खत्‍म कर देना कमाल है. सिनेमेटोग्राफर रवि वर्मनका हुनर देखते ही बनता है. कोर्सिका के सुंदर, खुले और प्राकृतिक दृश्‍यों के बीच भंगा करते और मौज में गाते तीन सरदारों के चेहरे पर ही कैमरे को फोकस करना उनकी रचनात्‍मकता का परिचय है. इम्‍तियाज गजब के निर्देशक हैं, वे ये जानते हैं कि कहानी को किस अंदाज में आगे बाना चाहिए. आरती बजाज का संपादन कमाल है, शुरू से अंत तक दृश्‍यों की एक बेहतरीन श्रंखला को मानों उन्‍होंने एक माला में पिरो दिया है. फिल्‍म में फ्लैश बैक का कमाल प्रयोग किया गया है. फिर कहूंगा ये एक निर्देशक की अनूठी क्षमता है कि वह क्रिएटीविटी के पुराने तरीके से कैसे नये दृश्‍य रचता है.

वेद और तारा के भारत आने के बाद की फिल्‍म की कहानी किसी भी समीक्षक को किसी भी सूरत में बतानी नहीं चाहिए. क्‍योंकि इसके बाद की कहानी आपकी जीवन यात्रा के बीच शामिल हुए किरदारों की है, जो आपके हमारे और तकरीबन सभी के जीवन में एक तमाशा रचते हैं. ये ऐसे किरदार हैं, जो हम सबके भीतर हैं, और ता-उम्र हमारी आत्‍मा को छिपाकर खुद ही जिंदगी जीते हैं और हमारी आत्‍मा का तमाशा बनाते हैं. फिर तमाशे न लिखे जाते हैं, न सुनाए जाते हैं, वह बस देखे जाते हैं. लिहाजा फिर दोहरा रहा हूं, इस फिल्‍म को आप एक बार देख आएं. हां एक संकेत यही है, दो अजनबी जब संयोगवश मिलते हैं और पहली बार अपना परिचय देते हैं, तो वो नहीं होते, जिस अजनबियत के साथ उन्‍होंने एक दूसरे को छोा था. वेद वह नहीं है, जिस रूप में तारा उससे मिली थी. वह बहती नदी से जानवरों की तरह मुंह लगाकर पानी पीने वाला किरदार नहीं है, बल्‍कि इस बाजार की सारी तरकीबों में डूबकर केवल बिस्‍लरी की बॉटल प्‍यास बुझाने वाला एक प्रॉडक्‍ट मैनेजर है.

दरअसल, हर आदमी एक तमाशा है क्‍योंकि वह जो दिखाई दे रहा है, वह दूसरों के कहे अनुसार है, दूसरों के हिसाब से है. हिसाब का दबाव पैसे का भी है, जहां रोजी-रोटी और नोन-तेल-लकी की चिंता में जाने कितने व्‍यक्‍तित्‍व, प्रतिभाएं और जिंदगियां झुलसकर रह गए. जबकि जो झुलसने से बच गए वे इस बाजार में एक उत्‍पाद बनकर रह गए और मंडी में बिकने व खरीदने के चक्र में भटक रहे हैं. इसमें मैं विशेष रूप से शामिल हूं, आपका पता नहीं?

दीपिका पादुकोणेबॉलीवुड अभिनेत्रियों के अप्रतिम सौंदर्य का प्रतिनिधि चेहरा है. जितनी खूबसूरत वे दिखती हैं, उससे कई गुणा बेहतर उनके अभिनय का सौंदर्य है. यह फिल्‍म दीपिका के अभिनय और सुंदरता के लिए देखनी चाहिए. रणबीर कपूर को पसंद इसलिए किया जा सकता है कि उनकी अभिनय की विविधता आपको उस किरदार से मिलाएगी, जिसके लिए आप फिल्‍म देखने आए हैं. यह बात उनकी हर फिल्‍म के लिए ठीक बैठती है.
 
एआर रहमानजाने-माने संगीतकार हैं, उनके संगीत को आप थियेटर में सुन सकते हैं. उनकी तुलना फिलहाल नहीं.

इम्‍तियाज के बारे में ऊपर कह चुका हूं. वे एक दर्शन जी रहे हैं और उसी को अपनी फिल्‍मों में प्रेम के रहस्‍यवाद के जरिये एक कहानी के रूप में पर्दे पर उतारते हैं. उनकी कहानियां जितनी नई होती हैं, उससे भी कई गुणा बेहतर उनका ट्रीटमेंट. वे एक बेजोनिर्देशक हैं.


यूटीवी मोशन पिक्‍चर्स और साजिद नाडियाड वाला की कंपनी नाडियाडवाला ग्रैंडसन इंटरटेन्‍मेट के बैनर तले बनी यह फिल्‍म नाडियाडवाला की एक अलग पहल है. वे इस तरह की फिल्‍मों मे पैसा लगाते नहीं हैं, हालांकि उनकी यह फिल्‍म पैसे की दृष्‍टि से असफल कही जा सकती है, लेकिन एक फिल्‍म के रूप में उनके द्वारा बनाई गई हाऊस फुल टू थ्री और हे बेबी टाइप कीफिल्‍मों की तुलना में बहुत ही बेहतर कही जाएगी और हमेशा सिनेमा के स्‍तरीय दर्शकों द्वारा याद रखी जाएगी. तमाशा के लिए फिल्‍म की पूरी टीम को बधाई.
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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक 
Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi
sonu.upadhyay@gmail.com
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