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परख : कोठागोई : मंगलमूर्ति'

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प्रो. मंगलमूर्ति शिवपूजन सहाय के सुपुत्र हैं, अंग्रेजी के प्रोफेसर और हिंदी के रचनाकार भी. प्रभात रंजन की चर्चित पुस्तक, ‘कोठागोई’ की यह कोई रूटीन समीक्षा नहीं है. दरअसल इसमें मंगलमूर्ति ने अपने संस्मरण भी गूँथ दिए हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री के विषय में पुस्तक बताती ही  है इस टिप्पणी में भी उनके व्यक्तित्व के अनेकआयाम सामने आते हैं.





कोठागोई’ : मील का पत्थर                         
मंगलमूर्ति 



कोठागोईएक छोटा उपन्यास है, जिसमे एक से जुडी हुई दूसरी और फिर तीसरी कुल बारह कहानियों का एक सिलसिला है जो कथानक को आगे ले चलता है. दरअसल यह एक खास तरह की किताब है जिसने अपने लिए एक खास फॉर्म अख्तियार किया है; और जिसकी ओर इसका शीर्षक इशारा करता है. ऐसा लगता है किस्सागो ने अपनी किस्सागोई के लिए एक अलग तरह का साँचा ही तैयार किया है. इसमें कहानी का उनवान, कहानी, कहानी कहनेवाला, उसकी किस्सागोई सब एक ही मिटटी से गढ़ी हुई एक टेराकोटा मूरत की तरह लगते हैं. इसे संगीत की भाषा में कहा जाये तो पूरी किताब एक लम्बी सुरीली धुन जैसी है जो ठिठका कर मन को बाँध लेती है. इसमें आलाप, तान तोड़े, मींड सब कुछ अपनी-अपनी जगह सजे हुए हैं. इसी अर्थ में कोठागोईका शिल्प अनूठा है. उसमें अलग-अलग कुछ दिखाई नहीं देता सारे नग. नगीने, मूंगे, मोती सब एक मनोहारी जेवर की तरह एक में गुंथे-सजे हैं.और किस्सागोई के लिए जिस अभिनव शैली का प्रयोग किया गया है वही एक धागे की तरह सब कुछ को एक सिलसिले में गूंथती चलती है.इसमें कथ्य और कथन-शैली एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखे जा सकते. 

कोठागोईएक ऐसी कहानी लेकर आगे बढ़ता है जो शुरू से ही आपके साथ चलने लगती है यह कहती हुई

यह इश्क नहीं आसाँ,
एक आग का दरिया है
और डूब के जाना है”.

इसमें एक आंच भी है, लपटें भी, दर्द भी और सुकून भी. बेहद खूबसूरत किताब है कोठागोईजिसमे गाँव की हवा की ताजगी भी है और शहर के बाज़ार की चमक-दमक भी. सचमुच इस किताब को पढना इश्क में डूबने जैसा एक एहसासहै. 

कोठागोईके केंद्र में उत्तरी बिहार के एक शहर मुजफ्फरपुर का एक बदनाम मोहल्लाहैचतुर्भुज स्थान. विडम्बना है कि उसकी पहचान है एक छोटा-सा मंदिर चतुर्भुजा देवी का मंदिर. ऐसे मोहल्ले हर शहर में ज़रूरी होते हैं जैसे हर शहर में बाज़ार जरूरी होते हैं. और शायद एक मंदिर भी हर जगह ज़रूरी होता है. मंदिर तो गाँव में भी मिलेंगे पर बाज़ार तो शहर की ही पहचान हैं.

कोठागोईएक गुज़रे सामंतवादी ज़माने का किस्सा है जब पाप और पुण्य, सही और गलत के अलग-अलग खानों में रक्खे जाते थे. पाप को पाप नहीं, एक ज़रूरी सामाजिक विकार की तरह स्वीकार करते थे.फिर उस पर एक झीना पर्दा भी डाल देते थे - कला और संगीत का. कोठागोईमें उसी गुज़रे ज़माने की तस्वीरों का एक अल्बम है. उस ज़माने के नाच-गानों और मुजरों के कुछ चलताऊ गीत भी इसमें सुनाई पड़ते हैं. उसके लायक कुछ तस्वीरें भी इसमें दिखाई देती हैं नाचने-गानेवालियों के. इस कोठागोईकी सबसे बड़ी ताकत है इसकी नास्टैल्जियाअतीत-व्यामोह. पूरी किताब उसी नास्टैल्जिया से सराबोर है. वह नास्टैल्जिया बीते हुए कल तक आकर रुक जाती है शहर मुजफ्फरपुर के इसी बीते हुए कल के चतुर्भुज स्थान की एक और निराली पहचान हैं कविवर जानकीवल्लभ शास्त्री. वहाँ की एक दूसरी विडम्बना. चतुर्भुज स्थान में चारों ओर भले ही पाप की छाया फैली रही हो, लेकिन जैसे उसके एक सिरे पर चतुर्भुजा देवी का मंदिर है – ‘या देवी सर्वभूतेषु तृष्णा-रूपेण संस्थितावैसे ही बिलकुल उसके केंद्र में एक और मंदिर है काव्य और साहित्य का पंडित जानकीवल्लभ शास्त्री का निराला-निकेतन’. आइये, वहाँ भी चलते हैं.

कोठागोईके अंत में हिंदी के जाने-माने कवि जानकीवल्लभ शास्त्री  की चर्चा है, जैसे वे उस तेजी से मिट रही चतुर्भुज स्थान वाली संस्कृति के एक देव-रूप प्रतीक हों.  नास्टैल्जिया के इस प्रसंग में महाकवि निराला के परमप्रिय-भाजन  जानकीवल्लभजी से जुड़े कुछ चित्र मेरी स्मृति में भी सहसा झिलमिलाने लगे हैं.

बात शायद १९४५-४६ की है मेरे बचपन की. मेरे पिता छपरा में हिंदी के प्रोफेसर थे.एक दिन  शास्त्रीजी हमारे घर पर आये. वे भी निरालाजीकी तरह लम्बी-लम्बी लटें रखते थे. उन्होंने बाबूजी को अपनी नयी प्रकाशित छोटे आकर की एक सुन्दर कविता पुस्तक रूप-अरूपभेंट की.मेरी आदत थी मैं बाबूजी की किताबों को उलटा-पलटा करता था.इसके लिए बाबूजी मुझको कभी डांटते नहीं थे. किताब की सजावट मुझे बहुत अच्छी लगी उस समय कविता की समझ भला क्या होती मुझको.फिर भी उसकी कुछ कविताओं को मैंने पढ़ा था.

उसके लगभग दस साल बाद जब मैं कॉलेज में पढने लगा था मैं छुट्टियों मेंबेनीपुरजा रहा था. बाबूजी के नाते बेनीपुरीजी मेरे चाचाजी थे. तब स्टीमर से गंगा पार करके पहलेजा घाट से मुजफ्फरपुर के लिए गाडी पकड़नी पड़ती थी. स्टीमर से उतरते ही पहले पहुँचने के लिए लोग थोड़ी दूर खड़ी गाडी की ओर तेज-कदम भागते थेमुझे लगा शायद इसलिए उसका नाम पहले-जाघाट पडा होगा. उस दिन सौभाग्य से जानकीवल्लभ शास्त्रीजी स्टीमर पर ही मुझे मिल गए. मुजफ्फरपुर हमलोग शाम में पहुंचे. 

शास्त्रीजी स्नेहपूर्वक मुझको अपने साथ अपने यहाँ ले गए चतुर्भुज स्थान वाली अपनी उसी कुटिया में जिसके चारों ओर एक सघन वन-कुञ्ज था. पूरे वक्त शास्त्रीजी मुझको अपने काव्य-लोक में भ्रमण कराते रहे. स्नेह से भरा उनका कवि-ह्रदय कितना कोमल और ममतामय था प्रति क्षण मुझको इसका अनुभव होता रहा.उस कुटिया में बाहर की ओर एक खुला बरामदा था जहां मैं रात में सोया. उस रात पूर्णिमा थी. पूरा वन-कुञ्ज उस रुपहली चांदनी से नहा रहा था. मुझे लगा मैं कहीं कविता के स्वप्नलोकमें आ गया हूँ. देर-देर तक मुझे नींद नहीं आ रही थी. लगता था चांदनी में नहाये उस वन-कुञ्ज का एक मादक नशा-सा छा गया था मुझ पर. तब मुझे लगा एक कवि का काव्य-लोक कैसा होता है. इसी काव्य-लोक में रहते हुए शास्त्रीजी अपनी काव्य-रचना करते थे. मुझे तो देर तक ऐसा लगता रहा कि मैं किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूँ. लेकिन तभी एकाएक मैं अपने वास्तविक लोक में आ गया जब मैंने देखा मेरी खाट के पायताने दो बिल्लियाँ भी आराम से सो रही हैं. सुबह शास्त्रीजी से विदा लेने से पहले मैंने देखा वहां तो कुत्ते-बिल्लियों का एक पूरा कुनबा ही रहता था.

पटना में मैं अपने पिता के साथ सम्मलेन-भवन में ही रहता था जहाँ शास्त्रीजी अक्सर आते रहते थे. जब मैं डी.जे. कॉलेज, मुंगेर में लेक्चरर हो गया तब एक बार कॉलेज में आयोजित एक कवि-सम्मलेन में मुझे  शास्त्रीजी का काव्य-पाठ सुनने का सौभाग्य भी मिला था जो मेरी स्मृति में अमिट है.उतनी तन्मयता और संगीतमयता से भरा हुआ काव्य-पाठ मैंने उससे पहले कभी नहीं सुना था. आज वैसी विशुद्ध काव्य-पाठ की संध्याएँ सदा के लिए विलुप्त हो गयीं. शास्त्रीजी संगीत के भी मर्मग्य पंडित थे और राग-रागिनियों का उनको शास्त्रीय ज्ञान था. काव्य-पाठ में वैसा कंठ-स्वर बस नेपाली जी के काव्य-पाठ में ही सुनाई पड़ता था. नेपालीजी और रुद्र्जी भी वहां थे. लेकिन इन सब में शास्त्रीजी का काव्य-स्तर सबसे ऊंचा था. जानकीवल्लभ शास्त्री सचमुच निराला के प्रतिस्वर थे.
     
शास्त्रीजी से मेरी अंतिम भेंट ९० के दशक में १९९५-९६ में हुई थी. उन दिनों मैं पटना के नवभारत टाइम्स में पुस्तक-समीक्षाएं लिखता था जब अरुण रंजनजी और नीलाभ मिश्रवहां हुआ करते थे. मुज़फ्फरपुर  की यह यात्रा भी बेनीपुर जाने के क्रम में ही हुई थी. मुज़फ्फरपुर से गुजरते हुए शास्त्रीजी का चरण-स्पर्श करना तो अनिवार्य था. जैसा कोठागोईमें लिखा है – “जाल था कि शहर में देश का, समाज में बड़ा कहाने वाला कोई आ जाये और यहाँ (शास्त्रीजी के यहाँ) न आये”. और मैं तो उनके चरणों के रज-कण जैसा था, और उनका विशेष स्नेह-भाजन भी.

शास्त्रीजी बाहर बरामदे में ही एक धोती लपेटे नंगे बदन एक ऊंचे तख़्त पर बैठे थे और सेव काट रहे थे. मैंने चरण-स्पर्श किया. मुझको गौर से देखा और नाम बताने पर आशीर्वाद देते हुए बगल में बैठाया. फिर बहुत डांटते हुए कहा – “ तुम मुज़फ्फरपुर आये तो खबर नहीं दी. बहुत बड़े आदमी हो गए हो. पिता का संस्कार भूल गए. वे हम सब लोगों के आराध्य थे. बड़े लेखक ही गए हो? तुम्हारा लिखा मैं भी पढता हूँ, पर तुमने मुझको कभी एक पत्र भी नहीं लिखा, आदि, आदि.बात उन्होंने ऐसे ही शुरू की तो मैं एकाएक सकते में आ गया. मैंने कहा मुझसे कोई भूल हुई हो तो आप पिता-तुल्य हैं, क्षमा कर दें. बस तुरत पिघल गए और अपनी आँखे पोंछने लगे. कलेजे से लगाते हुए फिर हाल-चाल पूछने लगे. सेव खिलाया. मिठाई मंगवाई. पिता के संस्मरण सुनाते हुए विकल जैसे हो गए. फिर मुझको कंधा पकडे लेकर उधर गए जहां उनकी गायें बंधी थीं. आम के पेड़ के नीच पक्के गोल चबूतरे पर साथ बैठे और संस्मरणों का सिलसिला चलता रहा. चलने लगा तो उन्होंने अपनी पत्रिका वेलाके कुछ अंक और संस्मरणों की एक पुस्तक की दो प्रतियां दीं कि इनकी भी समीक्षा लिखो, तुम अच्छा लिख रहे हो, लिखते रहो. पिता की विरासत को  संभालना है तुमको. चरण छूने लगा तो फिर ह्रदय से लगाया और माथा सूंघा. तब सहसा मुझको अपने पिता की याद आ गई और मेरी भी आँखें भर आयीं. स्नेह और वात्सल्य का वह युग उन्हीं लोगों के साथ चला गया.

कोठागोईको पढ़ते हुए मुजफ्फरपुर और शास्त्रीजी की सारी यादें ताज़ा हो गयीं. बातचीत में मैंने कोठागोईके लेखक को इस अन्यतम कृति के लिए बधाई देते हुए कहा कि पुस्तक का अंत शास्त्रीजी की चर्चा से हुआ है यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी अनुष्ठान का समापन हम पवित्र  हवनसे करते हैं. शास्त्रीजी कोठागोईकी इस महत्वपूर्ण रचना के लिए मोर-पंख जैसे हैं.जैसे जानकीवल्लभ शास्त्री हिंदी उत्तर-छायावाद युग के काव्य-पथ में एक मील-स्तम्भ हैं उसी तरह कोठागोईभी आज के उपन्यास-साहित्य में एक मील का पत्थर साबित होगी.
___________________
डॉ. मंगलमूर्ति -  ०७७५२९२२९३८ / bsmmurty@gmail.com  

मीमांसा : आजादी, धर्म, देशभक्ति और राष्ट्रवाद : संजय जोठे

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हिंदी के कवि धूमिल ने कभी पूछा था-

“क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

आज़ादी ही नहीं धर्म और राष्ट्र को लेकर भी ऐसे प्रश्न पैदा हो रहे हैं. आधुनिकता की कोख से निकली ये पवित्र मान ली गयीं अवधारणाए आज के ‘दलाल पूंजीवाद’ और ‘साम्प्रदायिकता’ के उभार के दौर में कितनी कलुषित हो गयीं हैं इसे आसानी से समझा जा सकता है. संजय जोठे का  समीचीन और विचारोत्तेजक आलेख.


आजादी,धर्म,देशभक्ति और राष्ट्रवाद                                   
संजय जोठे


भारत में इस राजनीतिक परिवर्तन के बाद बहुत अर्थों में देशभक्ति की परिभाषाएं बदलने का प्रयास हो रहा है. किसी एक सांस्कृतिक आग्रह से जन्मी अंतर्दृष्टि से अब सार्वजनिक जीवन व राष्ट्रीय जीवन के हर आयाम को रंगने का प्रयास चल निकला है. अब बहुत जोर-शोर के साथ एक ख़ास ढंग का राष्ट्रवाद अमल में लाने की तैयारी हो रही है. इस प्रष्ठभूमि में देशभक्ति को नए अर्थ में समझा और समझाया जाएगा. इन परिभाषाओं से सहमति और असहमतियों के अपने अपने परिणाम होने वाले हैं, इन परिणामों को भी धीरे धीरे प्रचारित किया जाने लगा है. इन परिवर्तनों को ठीक से तभी समझा जा सकता है जब हम स्वयं आजादी और देशभक्तिको उनके मौलिक अर्थों में समझें. विशेष रूप से उस अर्थ में जिस अर्थ में ये शब्द आजकल के नए राष्ट्रवादियों द्वारा समझे और समझाए जाते हैं. चूँकि यह नया राष्ट्रवाद एक धर्म विशेष के आग्रहों से संचालित है इसलिए धर्म और संस्कृति की खोल में देशभक्ति और आजादी का क्या स्वरुप है इसे जानना बहुत जरुरी है.

धर्म और संस्कृति के आग्रहों से जन्मी आजादी और देशभक्ति की प्रचलित धारणाएं बहुत ही हवाई किस्म की होती हैं. कम से कम इस मुल्क में तो वे ऐसी ही रही हैं. यह संयोग नहीं है बल्कि बहुत बारीक तरीके से बुना गया षड्यंत्र है. हवाई किस्म की धारणा से मेरा आशय है ऐसी धारणा जिसमे आपरेशनलाइज़करने को कुछ न हो सिर्फ भावनात्मक ज्वार हो जो सिर्फ झाग बिखेरकर लौट जाता. और यह ज्वार भी धर्म के धक्के से ही पैदा होता है. देशभक्ति असल में धर्म भक्ति का ही एक घटिया संस्करण है. उतना ही मारक लेकिन देखने में खूबसूरत. सभी समाजों में यह बराबर देखने को मिलेगा. भारत में प्रचलित देशभक्ति को लीजिये यहाँ अफगानों, मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक ने बार-बार जाहिर किया है कि इस देश के लोग लड़ना नहीं बल्कि मरना जानते हैं, मतलब ये कि विजय या कौशल से बड़ी बात है वीरगति.लड़ने मरने और देशभक्ति का एक संस्करण अरब और यूरोप में भी रहा है. वहां भी प्रचलित धारणा में शहीद होना साधक या नमाजी होने से भी बड़ा पुण्य है. इसी तरह ईसाईयों के टेम्पलार और क्रुसेडर्सरहे हैं. ये धर्म की वार मशीने थीं इनकी धमनियों में धर्म का बुखार लहू बनके बहता था.

यहाँ गौर करने की बात है कि सभी धर्मों में मृत्यु और आत्मबलिदान स्वयं में एक स्वतंत्र मूल्य की तरह स्थापित होते जा रहे हैं. ये गुण कबीलाई या आदिम समाज में आजाद होने या आजादी की रक्षा करने के लिए साधन की तरह उपयोगी रहे है, इसी क्रम में इनका उपकरण की तरह निर्माण और इस्तेमाल हुआ है. लेकिन युद्धखोर समाजों की प्रेरणाओं में जब धर्म की हवस भी शामिल हो जाती है तब मरने मारने वालों की मांग बहुत बढ़ जाती है. धर्म की भूख भयानक है और लगातार बनी रहती है. सामान्य कबीलाई समाज में और घुमंतू समाज में युद्ध कभी इतने लम्बे और भयानक नहीं होते जितने तथाकथित धर्मप्राण समाजों में या राष्ट्रों में हुआ करते हैं. इस अर्थ में संगठित धर्म एक अंतहीन व भयानक युद्ध लड़ने की स्वचालित मशीन है.धर्म के आते ही बहुत बड़ी संख्या में लोग चाहिए होते हैं जो लगातार शहीदों की सप्लाई बनाए रखें. ये सप्लाई बनी रहे इसके लिए जरुरी है कि जीत के बाद के लौकिक और शारीरिक सुखों के आश्वासनों को जमीन से लेकर स्वर्ग तक फैला दिया जाए.

अब चुंकी शहीद जिस समाज में या जिस समाज से लड रहा है उस समाज का ढंग ढोल देखकर उसे भी डर तो लगता ही है कि ये समाज जो अभी ही मुझे दो रोटी और चैन की नींद नहीं दे पा रहा है जीतने के बाद क्या ख़ाक दे सकेगा? उसके इसी भय का इलाज स्वर्ग की तस्वीर खींचकर किया जाता है. मतलब कि विजय और पराजय दोनों के ठोस लौकिक पक्षों सफलता या असफलता - पर आलौकिक आश्वासन की फफूंद चढ़ाई जाती है. इसी काम के लिए एक सबसे मारक आविष्कार किया गया है और वो है - स्वयं शहादत और मृत्यु में ही दिव्यता का आरोपण करके उसे महानतम मूल्य साबित करना. अब मरना कोई आनंद का विषय तो है नहींइसलिए मृत्यु के बाद आनंद के आश्वासन बनाए जाते हैं, और बलिदान उसकी एकमात्र शर्त बनाई जाती है. फिर आपका जीवन बहुत अभाव और दमन में गुजरता है तो आपके लिए बहत्तर हूरेंखड़ी की जायेंगी और अगर आप दुसरे तरह के अंधविश्वासों में दीक्षित किये गए हैं तो आपके लिए मुक्ति मोक्षया अगले बेहतर जन्म के पुरस्कारों का वादा किया जाता है.

इस तरह समय के साथ बढ़ते हुए धर्म बहुत षड्यंत्र पूर्वक मृत्यु और बलिदान को स्वयं में ही एक स्वतंत्र मूल्य बना डालता है और उसके प्रति सम्मोहन भी बढाता जाता है. अब यहाँ एक बात बहुत गहराई से नोट करिए, धर्म के पास इस लौकिक जीवन में देने को कुछ नहीं है, हो भी नहीं सकता. जो कुछ है वो सब आसमान में है. इसलिए इस शहादत या बलिदान का लौकिक प्राप्य परिभाषित ही नहीं किया जा सकता. बहुत कोशिश करके बस इतना ही बतलाया जा सकता है कि तुम्हारे बलिदान से तुम्हारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित होगा. अब यह फिर से समय और परिस्थिति की अनंत अनिश्चितता में लटका हुआ एक हवाई आश्वासन है, हो न हो. यह मरने वाला भी जानता है. इसीलिये उसके दिमाग में शहादत का सम्मान भी ठूंसा जाता है और उसके नाम पर बैंड बाजे बजाये जाते हैं. शहीद की मृत्यु या उसकी अंतिम क्रिया को एक समारोह का रूप देकर अगले शहीदों को निमंत्रण दिया जाता है. सभी धर्म यही करते रहे हैं, आज भी करते हैं.

अब इस भूमिका के प्रकाश में देशभक्तिऔर देश के प्रति कुछ कर गुजरने की उस पुकार को रखकर देखिये जो एक ठोस व् लौकिक नव निर्माण के आश्वासन से नहीं बल्कि शहादत की दिव्यता से आपको सम्मोहित करना चाहती है. सरल ढंग से कहें तो ऐसी देशभक्ति जिसके पास भविष्य का कोई ऑपरेशनल रोडमेपन हो वह न केवल धर्म की अंधभक्ति जैसी ही बाँझ है, बल्कि उससे कहीं अधिक हिंसक भी है. जिस समाज में लौकिक और शारीरिक सुख के आश्वासन हैं वहां लोग मरने से ज्यादा लड़ना पसंद करते हैं. क्योंकि उन्हें पता है कि ज़िंदा रहे तो क्या-क्या भोग सकेंगे. जिन्हें नहीं पता, या जिन्हें उम्मीद ही नहीं है कि यहाँ कुछ भोग सकेंगे वे सीधे स्वर्ग या अगले जन्म में ही खोये रहते हैं, इसीलिये वे हारते रहे हैं.

इसीलिये अरब, मंगोल, और यूरोपीयआक्रमणकारी भारत को इतनी आसानी से हराते रहे हैं. अब इसमें एक दूसरा पेंच भी है. इसी लौकिक अनुमान के साथ एक असुरक्षा भी जुडी है. चूँकि वे ये भी जानते हैं कि युद्ध की पराजय उनसे क्या छीन सकती है इसलिए वे युद्ध से इनकार भी कर सकते हैं. दशकों पूर्व अमेरिका का वियतनाम में फंसना इसी का उदाहरण है जब सुविधाभोगी पीढी ने वहां जाकर लड़ने से इनकार कर दिया था. उसके बाद फिल्मों और विडिओ गेम्स के जरिये देशभक्ति, सैन्य हिंसा, युद्ध और जासूसी ऑपरेशंस को पेंटागन और हालीवूड ने साथ मिलकर महिमामंडित करने का लंबा अभियान चलाया है जो आज भी जारी है.

मतलब ये कि धर्म जो काम शास्त्र लिखकर करता है वही काम राष्ट्र अब फिल्मे और विडिओ गेम्स बनाकर बनाकर करते हैं. इसी के साथ सुविधाभोगी पीढी को मौत से बचाने के लिए टेक्नालाजी पर भयानक खर्च भी करना पड़ता है ताकि दूर बैठकर ही देशों का सफाया किया जा सके, और यही असल में उस तथाकथित स्पेस रिसर्चऔर अक्षय ऊर्जा की खोजकी मूल प्रेरणा है, यूं तो सबको मिसाइल और एटम बम ही बनाने है लेकिन उसे स्पेस रिसर्च या एनर्जी या मेडिकल रिसर्च के नाम से शुरू करते हैं. बाद में स्पेस रिसर्च के लिए बना राकेट धीरे से मिसाइल बन जाता है.

इस देश में भी इसरोइसीलिये बनाया गया था. भरोसा न हो तो ISRO और DRDO के मधुर संबंधों को आप देख सकते हैं. इसीलिये आप देख पायेंगे कि जितना खर्च जीवन बचाने की रिसर्च में होता है उससे कई गुना ज्यादा वार टेक्नालाजी विकसित करनेपर होता है. इसे समझने के लिए सभी देशो का चिकित्सा/शिक्षा बजट और प्रतिरक्षा विकास बजट उठाकर देखे जा सकते हैं, उनकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हो जायेंगी. यह संयोग नहीं है, यह एक सुविचारित प्रक्रिया है. इस अर्थ में धर्म की भक्ति और देशभक्ति में बहुत अंतर नहीं है. दोनों को लंबे समय तक शहीदों की सप्लाई चाहिए. इसलिए दोनों के लिए शहादत परम मूल्य बन जाता है.

अब आते हैं आजादी पर. आजादी भी शहादत की तरह सिर्फ एक हवाई मूल्य है. यह एक स्थितिया एक मुकाम की तरह समझाई जाती है. और इसके पीछे भी संगठित धर्म का षड्यंत्र ही है. ये समझना थोड़ा कठिन है लेकिन बहुत मजेदार है. लगभग सभी समाज आजादी को एक प्रक्रिया या मार्ग की तरह नहीं बल्कि स्वयं में एक मंजिल की तरह पेश करते हैं. ये बिलकुल एक मुश्त जन्नत वाला मामला ही है. हालाँकि ये एक मनोवैज्ञानिक जरूरत है कि आप को किसी गुलाम को आजादी के एक ही पैकेट में सब कुछ दिखाना पड़ता है. यही मजबूरी धर्म के साथ है. उसे स्वर्ग के एक ही पैकेट में सभी प्रोडक्ट ठूंसकर दिखाने होते हैं. लेकिन यहाँ एक अंतर है. धर्म के साथ चूँकि आलौकिक जुडा है इसलिए उस आयाम में पुरस्कार का मिलना न मिलना नजर नहीं आता है.

लेकिन देश के लिए मरने के बाद बच्चों को क्या मिलेगा ? पेंशन और सुरक्षा मिलेगी या नहीं मिलेगी? बीबी या माँ बाप का क्या होगा? ये शहीद को नहीं लेकिन उसके जाने के बाद दूसरों को बहुत साफ़ दिखाई देता है. इसलिए कम ही लोग सैनिक बनना पसंद करते हैं. आज भी आप किसी सैनिक से पूछ लीजिये उसकी मौत के बाद वो अपने परिवार की सुरक्षा और खुशहाली के लिए कितना आश्वस्त है. उसका उत्तर बहुत सकारात्मक नहीं होगा. इस तरह वह अपने लिए या देश के भविष्य के लिए या अपने परिवार के भविष्य के लिए एक बेहतर भविष्य का आश्वासन नहीं ढूंढ पा रहा है. इसीलिये मृत्यु उसके लिए एक अंतिम छलांग है उसके बाद वो अनंत सुख और बेहतर जन्म का झुनझुना बजाएगा है.

अब गहराई से गौर करिए धर्म और देशभक्ति और आजादी तीनों के लिए इस ठोस लौकिक व शारीरिक आयाम में (अपने लिए या परिवार के लिए) कोई आश्वासन नहीं है. कोई गारंटी नहीं है. आजादी की ऐसी कोई प्रक्रियात्मक व्याख्यानहीं है जिसको किसी ठोस भविष्य के निर्माण के लिए ओप्रेशनलाइजकिया जा सके. एक अन्धविश्वासी, धर्मभीरु, विभाजित और गरीब समाज में ऐसी कोई सुविधा नहीं है कि बेहतर जीवन, समरस जीवन और साझी खुशियों की कल्पना की जा सके अर्थात देशभक्ति या आजादी की कल्पना किसी अन्यतर या वृहत्तर शुभ के लिए मार्ग नही बन सकती. इसलिए देशभक्ति और आजादी को खुद में ही एक मंजिल बना दिया जाता है. ये एक बहुत गहरी और बहुत भयानक बात है.

इसका बहुत गहरा अर्थ है. इसका मतलब ये हुआ कि देशभक्ति और आजादी अपने आप में सब कुछ बन जाती है. आजाद होकर या देशभक्त होकर हम क्या हासिल कर लेंगे इसका कोई अनुमान नहीं है. यहीं बात आती है FREEDOM FROM और FREEDOM FOR के अंतर की. मतलब ये कि आजादी आपके लिए क्या है? क्या किसी सेआजाद होना आपके लिए महत्वपूर्ण है? या किसी (लक्ष्य) के लिएआजाद होना आपके लिए महत्वपूर्ण है? मतलब आजादी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करके आप क्या हासिल करना चाहते है? क्या वाकई आपको अपने समाज से उम्मीद है कि यहाँ की सामाजिक संरचना में आपको या आपके परिवार को भौतिक (आसमानी नहीं) सुख मिल सकेंगे? अगर आपके पास ये स्पष्ट अनुमान है तो आप आजादी का अर्थ समझते हैं और उसका ठीक सम्मान व इस्तेमाल दोनों कर सकेंगे. अगर ये अनुमान नहीं है तो आप सिर्फ नारेबाजी करेंगे और देशभक्ति के गीत गाने और शहादत पर ढोल बजाने को ही अपना एकमात्र कर्त्तव्य मानेंगे.

अब थोड़ा और गहरे चलिए. जिस समाज की मौलिक संरचना इतनी जड़ और विभाजित हो कि उसमे आजाद होकर भी कुछ नहीं मिलने वाला उसपर विचार कीजिये. ऐसे भयानक रूप से निराश समाज को आप कैसे ज़िंदा रखेंगे और कैसे युद्ध या दंगों के लिए तैयार करेंगे? मतलब कि ठोस लौकिक और शारीरिक सुखों को समाज के विभाजन ही छीनकर ले गए, न आप पढ़ सकते हैं न मनमर्जी का रोजगार कर सकते हैं. तब आपको ज़िंदा बनाए रखने और देशभक्त बनाए रखने के लिए कोई क्या करेगा? निश्चित ही तब पूरा जोर आलौकिक (धर्म) पर होगा और भविष्य के स्वर्ण युग की बजाय अतीत के स्वर्णयुग पर जोर होगा. क्योंकि भविष्य में आप समाज की व शोषण की हीयरार्की तोड़ने का सपना देख सकते हैं जो धर्म को बिलकुल बर्दाश्त नहीं होगा, इसलिए वो भविष्य का नहीं अतीत का गुणगान करते हैं.

अब इतना पढने के बाद आप सब देशों में शुरू हुए सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या धार्मिक सत्तावाद को समझने की कोशिश कीजिये. आप आसानी से समझ पायेंगे कि की इनकी मौलिक प्रेरणा क्या है और ये किस लक्ष्य का संधान करते हैं.

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संजय जोठे  university of sussex से अंतर-राष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : बाबुषा कोहली

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बाबुषा कोहली की कविताएँ                                                





टु बी हैंग्ड टिल डेथ
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( खुदाओं के नाम )


एक और नई तारीख़ है यह
जो कहीं दूर उफ़क़ से आ टपकी है
बालकनी में सुबह की आमद की ख़बर देने वाली चिड़िया
किसी और दुनिया के ख़ुदा का मसला है
ताज़ा हवा का झोंका और जुलाई की बरसातें
किसी और दुनिया के ख़ुदा की फ़िक्र है
उजाला, हवा, पानी और चिड़िया का गान
इतनी सस्ती चीज़ें हैं
कि इस दौर में कुछ मोल देकर बाज़ार से ख़रीदी जा सकती हैं

वाकई !
उस दुनिया के ख़ुदा के पास ऐसा कोई बेशक़ीमती माल नहीं
कि जिसे हम ज़िंदगी लुटा कर ख़रीद लें
और हमारी दुनिया के खुदा इतने ताक़तवर
कि एक फ़रमान लिख कर ज़िंदगियाँ  लूट सकते है

सलाम है ! सलाम है !
इस दुनिया के खुदाओं की रहमत को सलाम है
कि वे आख़िरी साँस के पहले
कम-अज़-कम अपने निजी खुदाओं को याद करने की मोहलत तो देते हैं
अजनबी इलाक़ों का निज़ाम तय करने वाले
इन बेहद कामकाज़ी खुदाओं के बाजुओं को सलाम है
इनकी निरघ उँगलियों को सलाम है
नश्तर-सी नज़र को सलाम है
नुकीली नाक को सलाम है
निरंग नक़ाब को सलाम है
इनकी निरच्छ कुर्सी को सलाम है
इनके मुज़क्किर अर्दली को
इनकी गाड़ी के निठुर हॉर्न को
इनके कुत्ते की निरगुन भौंक को
इनके जूतों की निरंजन नोक को सलाम है

दरअसल
हज़ारों बार की टूटी-फूटी इस दुनिया को
किसम-किसम के इंजीनियर खुदाओं की ज़रूरत भी तो है
और देखने की बात है
कि ये नए ज़माने के खुदा
कोरी लफ़्ज़बाज़ी में नहीं करते वक़्त ज़ाया
इनके पास नई तरह की ज़मीनें हैं जिस पर
इंसानियत की सड़क का नक़्शा बनाने में ये मसरूफ़ हो गए हैं

हद तो इस बात की है
कि किसी नक़्शानवीस खुदा के पेन की निब क्या टूट गई
दुनिया भर में जैसे तूफ़ान ही आ गया हो
कुछ लोग !
कुछ मूरख लोग आख़िर क्यों नहीं समझते
कि लम्बी-लम्बी सड़कें खोदने के लिए
छोटी-छोटी कब्रें खोदना ज़रूरी हो जाता है
और ये भी तो
कि काम पहले ही बराबरी से बँटा हुआ है
जैसे कि सड़कें वगैरह बनाना इस दुनिया के खुदा के जिम्मे है
जबकि इंसान बनाना उस दुनिया के खुदा का मसला है

और उस दुनिया के खुदा के कारख़ाने में बनी चीज़ें इतनी सस्ती हैं
कि इस दौर में कुछ मोल देकर बाज़ार से ख़रीदी जा सकती हैं


  


पहचान-पत्र

हमारे चेहरे की मांसपेशियाँ करतबी हैं
हम सब के दुःख में दुखी हो सकते हैं
सब के सुख में सुखी
हर मैय्यत में सच्चा मातम मनाते
हम हर आँगन में लहक-लहक के सोहर गाते हैं
धधकती चिताओं पर दाल बघार सकते हैं हम
पीड़ा की नदी पर अपनी नाव उतार सकते हैं

हम यहीं हैं
यहीं और यहीं हैं
ध्यान से देखो तो हम हर कहीं हैं

सभ्यता के प्राम्भ से लेकर अब तक हर युग में मौजूद रहे हम
लेफ़्ट-राईट-लेफ़्ट की अनुशासित लय
सावधान-विश्राम की नियमित ताल
और समूह-बाएँ-मुड़ की यांत्रिक अवस्था हैं
कुंभकर्ण की अनंत नींद हैं हम

उस सभा में भी मौजूद थे हम लोग
जब द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा था
तब सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ के पीछे हम जा छुपे थे
खड़े थे उस प्रांगण में भी जहाँ सीता पर कीचड़ उछाला जा रहा था
अपने बँधे हुए हाथों में हम अपना ज़मीर बाँधे रखते हैं
हालाँकि हम फ़ौरन पीठ कर लेते हैं दुविधा की ओर
सुविधा की ओर लपलपाती हमारी जीभ
हमारे चरित्र का प्रमाण पत्र जारी कर देती है

कौन घायल कैसा घाव
सारी चोटें सार्वभौमिक हैं
हम हर झंडे के नीचे
हर जुलूस के पीछे हैं
हम ढोल हैं मजीरे हैं चिहुँक-चिहुँक कर बजते हैं
हम इकाई-दहाई नहीं सैकड़ा-हज़ार हैं
हम पीड़ितों के पास हैं
और पीड़कों के साथ भी
हमारी कोई शक्लें नहीं
हम चलते-फिरते ज़िन्दाबाद हैं

हम यहीं हैं
यही और यहीं हैं
ध्यान से देखो तो हम हर कहीं हैं

हमें हमारी चतुर आवाज़ से नहीं पहचाना जा सकता
न ही हम अपने अलग चेहरों से जाने जाते हैं
हमारा अँगूठा भी कभी विशिष्ट नहीं रहा
हम सदा से ही जुड़े हुए हाथ हैं
हमारा डीएनए भी सद्भावनापूर्वक गुँथा हुआ मकड़जाल  है
जो उलझा सकता है किसी भी पहचान को
हमारे लहू में जमा देने वाला ठंडापन है
हम मनचाहा आकार ग्रहण कर सकने वाले रीढ़विहीन ऑक्टोपस हैं
माना कि हमारे पास हैं आठ हाथ
पर वे सब हमारी वैचारिकता की ही भाँति लकवाग्रस्त हैं

हमें समझने की कुचेष्टा मत करो
हमारी नैतिकता एक जटिल प्रमेय है
और अपने ढंग और स्वरचित नियमों से
इसके इतिसिद्धम का सर्वाधिकार भी सुरक्षित है हमारे पास

हमें पहचानना हो तो चौराहे पर खड़े होकर ललकारो मत
केवल पुचकारो
हम सुर-असुर की सरगम पर एक गीत गाएँगे
हम सफ़ेद -काले के मेल से एक रंग रचेंगे
हम सत्य-असत्य को जोड़ कर एक मंत्र पढ़ेंगे
हम न्याय-अन्याय को मिला कर एक विधान गढ़ेंगे

एक-एक कदम तुम्हारी ओर बढ़ते हुए
हम अपनी लिजलिजी पीठ तुम्हारी शान में झुका देंगे

हम संवाद को चारों ओर से कुतर डालने वाले चूहे हैं
फुसफुसाहटों में साँस लेता है हमारा अस्तित्त्व
हमारे पास न ही कोई स्पष्ट 'हाँ'है
न ही साफ़ साफ़ 'नकार'की भंगिमा
कोई चीत्कार हमारे सीने पर नहीं धँसती
न ही कोई रूदन हमारे कलेजे को बेधता है
हम ही हैं परमहंसों के पीछे छूट गए कौव्वे
जो आनंद की मुद्रा में होने के अभ्यास में रत हैं

हम यहीं हैं
यहीं और यहीं हैं
ध्यान से देखो हम हर कहीं हैं

और अब भी न चीन्हे तो आईने में झाँको

सही समय पर ध्यानमग्न हो जाने वाले
हम सब इच्छाधारी बोधिसत्त्व हैं
_________________
baabusha@gmail.com 

कैसे भूल जाऊं मैं महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ? : बटरोही

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‘महादेवी वर्मा सृजन पीठ’ की स्थापना के पीछे ख्यात कथाकार बटरोहीके संघर्ष को हिंदी समाज याद रखेगा. इस बीच ‘पीठ’ पर ‘कब्जे’ का अपयश भी उन्हें भोगना पड़ा. आख़िरकार यह ‘पीठ’ भी व्यवस्था के तन्त्र में उलझकर बुझ गया. ऐसे में जिसने इसे रोपा और विकसित किया हो उसकी मनोदशा को समझा जा सकता है. क्या ‘हिंदी समाज’ संस्थान-भंजक समाज है? तमाम संस्थाएं इसी तरह नष्ट होती जा रही हैं.  


कैसे भूल जाऊं मैं महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ?                          
बटरोही



मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं कि मैं 'महादेवी वर्मा सृजन पीठ'को अपने दिमाग से निकाल दूँ. काश, ऐसा हो पाता! क्या एक शिशु को जन्म देने के बाद उसके होश सँभालने से पहले ही अपनी आँखों के सामने उसे भूखा-प्यासा तड़पता हुआ देखा जा सकता है? मुझसे तो ऐसा नहीं हो पाता. आप ही कोई तरकीब बताइए.

1993-94में प्रयाग विश्वविद्यालय के काम से मैं इलाहाबाद गया था. एक शाम मेरे सहपाठी रामजी पाण्डेय ने मुझे अपने घर खाने पर बुलाया. रामजी महादेवी के जीवन काल में ही स्थापित उनके न्यास 'साहित्य सहकार न्यास'के सचिव थे और उनकी सारी संपत्ति की देखरेख का जिम्मा उन्हीं का था. प्रसिद्ध कथाकार अमृत रायउसके अध्यक्ष थे और कार्यकारिणी में अनेक ख्यातिप्राप्त लेखक शामिल थे. बातों-बातों में रामजी ने मुझसे कहा कि रामगढ़ में महादेवी जी का बंगला 'मीरा कुटीर'और कुछ भूमि है, जिसकी व्यवस्था इतनी दूर से नहीं हो पाती. रामजी ने सुझाया कि क्या उसका उपयोग उस क्षेत्र के रचनाकारों के उपयोग और उन्हें प्रेरित करने का लिए नहीं हो सकता? मुझे लगा, यह काम करना तो मेरा दायित्व है और मैंने उसी पल से इस पर सोचना शुरू कर दिया.

लौटने पर रामगढ़ जाकर देखा तो पता चला कि महादेवी के बंगले पर राम सिंह के परिवार का कब्ज़ा है और वह उसे अपने घर की तरह इस्तेमाल कर रहा है. मेरे वहां पहुँचने की खबर रामगढ़ पहले ही पहुँच चुकी थी, ज्यों ही मैं घर की सीमा पर पहुंचा, रामसिंह की माँ ऊपर से दराती नाचते हुए चिल्ला रही थी, "मैं देखती हूँ, कौन हमारा घर छीनता है, हमारे घर को हाथ लगा कर तो देखो, इसी दराती से अगर गर्दन अलग नहीं की तो मैं अपने बाप की बेटी नहीं."पता चला कि रामसिंह बचपन से महादेवी के साथ उनके घरेलू नौकर के रूप में काम करता था, और कभी महादेवी जी ने उससे कहा था कि मेरे बाद इस घर की देखरेख के लिए और कोई है तो नहीं, इसे तुमको ही देखना होगा. इसी आधार पर रामसिंह खुद को महादेवी जी का उत्तराधिकारी समझ बैठा था. उस घर में उसकी माँ, बेटा और उसके तीन-चार बच्चे रहते थे. मुझे उन्होंने मकान के नजदीक फटकने नहीं दिया. मैं मुँह लटकाए वापस चला आया.

संयोग से उन दिनों नैनीताल के जिलाधिकारी मानवेन्द्र बहादुर सिंह थे जो प्रोफ़ेसर नामवर सिंहके साले लगते थे. उन्हें मैंने अपने मन की बात बताई तो उन्होंने जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने को कहा. नैनीताल के जिला प्रशासन में मेरे कुछ सहपाठी और विद्यार्थी थे. खासकर मेरे बी. ए. के सहपाठी माधवेंद्रप्रसाद उनियालकुमाऊँ मंडल विकास निगम के प्रबंध निदेशक थे. राम सिंह का लड़का उन्हीं के एक कार्यालय में काम करता था. डी.एम. और माधवेंद्र ने लड़के को बुलाकर धमकाया और वह घर खाली करने के लिए राजी हो गया. रामगढ़ के कुछ ग्रामीणों को मिलाकर मैंने एक समिति बनाई जिसमें मुख्य रूप से रामगढ़ के ग्राम प्रधान लक्ष्मीदत्त जोशीऔर नैनीताल से शीला रजवारऔर कथाकार प्रेमसिंह नेगी शामिल थे. बेहद उत्साह से हम लोगों ने काम शुरू किया. कुल दस-बारह लोगों की समिति में सभी सदस्यों में समान उत्साह था. नैनीताल से रामगढ़ पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर है. सभी लोग अपना पैसा खर्च करके सप्ताह में एक-दो बार वहां जाते और बैठकें करते. इस बीच जिलाधिकारी ने अपने विवेकाधीन कोष से पचास हजार रुपये की राशि प्रदान की जिससे कि बुरी तरह टूट-फूट रहे उस भवन की मरम्मत करके उसे संग्रहालय का रूप दिया गया. हमें लगा, हम महादेवी के घर को बचा ले जायेंगे. (इससे पहले वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावतमुझे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री माधवराज सिंधियाके पास ले गए थे, जिन्होंने पांच हजार की सहायता राशि प्रदान की जो उस वक़्त एक बड़ी राशि थी.)

मगर मुझे क्या मालूम था कि इस उत्साह के पीछे मंशा कुछ और ही था. मुझे मालूम हुआ कि रामगढ़ के प्रधान जोशी और रामजी पाण्डेयइससे पहले कई बार रामसिंह को हटाने की कोशिश कर चुके थे और असफल रहे थे. उन्हें उम्मीद नहीं थी की इतनी आसानी से घर खाली हो जायेगा. एक ओर नैनीताल के हम लोग अपनी पूरी कल्पनाशीलता के साथ संग्रहालय को रूप देने में लगे थे. दूसरी ओर लक्ष्मीदत्त जोशीऔर रामजी ने मेरे खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. प्रचार किया गया कि मैंने महादेवी के घर पर कब्ज़ा कर लिया है. रामजी का कहना था कि वह इसे महिलाओं की सिलाई-कढ़ाई केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहते थे और लक्ष्मीदत्त इसे महादेवी के मंदिर के रूप में, जहाँ वह सुबह-शाम पूजा-अर्चना और भजन कीर्तन करते रहेंगे. मेरे द्वारा दोनों ही बातों के लिए मना करने पर मेरे खिलाफ षड्यंत्र तेज हो गया, मगर मैं और नैनीताल के साथी पहले की तरह काम में लगे रहे. रामगढ़ से दो-चार लोग मेरे काम को पसंद कर रहे थे, मगर वे ग्रामप्रधान को नाराज नहीं करना चाहते थे. केवल ग्राम प्रधान जोशी ही था जो महादेवी की संपत्ति की क़ानूनी जानकारी रखता था, महादेवी के जीवन काल में भी उसने उनकी संपत्ति का एक हिस्सा अपने नाम करवा लिया था, महादेवी जी ने नैनीताल कोर्ट में उसे चुनौती भी दी थी, मगर मामला विवादित चल रहा था. मैं समझ रहा था कि मेरी मंशा अगर गलत नहीं है तो मुझ्रे क्यों चिंता करने की जरुरत नहीं है. मैं यह भी समझ रहा था कि जिस संस्था का अध्यक्ष जिलाधिकारी को, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है!

मगर प्रधान लक्ष्मीदत्त एक लड़ाकू व्यक्ति था जिसके खिलाफ अनेक मुक़दमे चल रहे थे. जिलाधिकारी ने जब अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके महादेवी की जमीन और घर को 'महादेवी साहित्य संग्रहालय'के नाम कर दिया, प्रधान ने इसके खिलाफ कमिश्नर के यहाँ याचिका दायर की. चूँकि मैं संग्रहालय का सचिव था, इसलिए संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया मेरी ओर से हुई थी. हालाँकि यह हस्तांतरण जिले के प्रशासक (जिलाधिकारी) ने संग्रहालय के अध्यक्ष जिलाधिकारी के नाम किया था. संग्रहालय की कार्यकारिणी में मेरी पत्नी भी थी, प्रधान को एक बहाना और मिल गया और वह प्रचार करने लगा कि मैं अपनी पत्नी के साथ मिलकर महादेवी जी की संपत्ति हड़प रहा हूँ. इस बीच हम लोगों ने (समिति ने) मिलकर अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम किये, मगर मुक़दमा लड़ने के लिए हमारे पास न पैसा था न सुविधा. साहित्यिक अभिरुचि के एक वकील गोविन्द सिंहबिष्ट निःशुल्क हमारी मदद कर रहे थे, मगर बार-बार बिना फ़ीस दिए हमें भी संकोच हो रहा था. चारों ओर यह बात फैलाई जा रही थी कि मैंने संपत्ति पर व्यक्तिगत रूप से कब्ज़ा किया हुआ है, इसलिए लोग मदद के लिए चाहकर भी आगे नहीं आ पा रहे थे. 

इसी बीच 2003-4में मेरी बातें उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारीजी से हुई और उन्होंने इसके लिए डेढ़ करोड़ रूपये की धनराशि प्रदान की और यह शर्त रखी कि इसके ब्याज से संस्था चलेगी जो एक लाख रुपये प्रतिमाह है. मुख्यमंत्री ने कहा कि शासन यह रकम समिति को नहीं दे सकता, उन दिनों मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय में डीन था, इसे विश्वविद्यालय को प्रदान किया गया और यह राशि कुलपति की अध्यक्षता में वित्तअधिकारी के द्वारा संचालित होनी थी. सारे झंझट से मुक्ति का मुझे भी यही रास्ता नजर आया कि इसे विश्वविद्यालय को दे दिया जाय. कम-से-कम इस बहाने संस्था तो जिन्दा रहेगी. काम करने की स्वायत्तता प्राप्त होगी. हालाँकि ग्राम प्रधान का मुकदमा अभी भी नैनीताल हाईकोर्ट में चल रहा है, मगर अब यह मेरा सरदर्द नहीं था. तिवारी जी के प्रयत्नों से चार कमरों का किचन समेत एक अतिथि गृह भी बना, जिस पर ग्राम प्रधान का (अब प्रधान न होते हुए भी) कब्ज़ा है.

अपने जीवन के बेहतरीन चालीस साल विश्वविद्यालय को समर्पित करने के बावजूद मैं नहीं जानता था कि विश्वविद्यालय वास्तव में रचनाधर्मिता की कब्रगाहहोते हैं. हुआ यह कि यह बात किसी भी कुलपति की समझ में नहीं आई कि एक रचनाकार का कद प्रोफ़ेसर से बड़ा तो छोडिये, उसके बराबर भी हो सकता है. 'महादेवी वर्मा सृजन पीठ'को विश्वविद्यालय के एक विभाग की तरह संचालित किया जाने लगा. बार-बार वित्त विभाग द्वारा आपत्ति की जाने लगी कि जिस व्यक्ति की कोई स्थाई आमदनी नहीं है, उसे देश के सर्वोच्च नौकरशाह के बराबर की (प्रोफ़ेसर की) सुविधाएँ कैसे दी जा सकती हैं. हालाँकि जिन दिनों अशोक वाजपेयीमहात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति थे, पीठ में जो कार्यक्रम हुए उनमे ऐसी दिक्कतें नहीं थी, लेकिन यह स्थिति सिर्फ उनके कार्यक्रमों तक थी. उसके बाद 'कथाक्रम', 'महिला समाख्या'और'विज्ञान प्रसार'के साथ मैंने साझा कार्यक्रमों की योजना बनायीं. एक महत्वपूर्ण एम. ओ. यू. महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति वी. एन. राय के साथ किया, कुलपति के साथ वर्धा के लिए मेरा हवाई टिकट भी आ गया, मगर रातों-रात हिंदी विभाग के एक अध्यापक को निदेशक नियुक्त कर दिया गया और सारा कामकाज उन्हीं प्राध्यापक के द्वारा संचालित होने लगा. 

मेरे पास अब इतनी ताकत नहीं थी की मैं कुलपति या उन प्राध्यापक के खिलाफ न्यायालय में जाता. कुलसचिव से बातें की तो उनका कहना था, 'डॉ. साहब, कभी-न-कभी तो निदेशक बदलना ही था, कौन है जो हमेशा सीट में रहता है?'उन्हें मैं क्या बताता कि यह किसी विभागाध्यक्ष का रोटेशन नहीं है, हर अध्यापक रचनाशील नहीं होता. मगर कोई मास्टर यह सुनने के लिए कैसे तैयार हो सकता है कि उसकी क्रियेटिविटी का रूप भिन्न भी हो सकता है. इस संसार में विश्वविद्यालय का प्राध्यापक क्या नहीं कर सकता. उस पर हिंदी का अध्यापक जिसको भगवान ने पैदाईशी सर्वगुण संपन्न बनाया है.

बावजूद इसके महादेवी वर्मा सृजन पीठ ने पिछले दो दशकों में इस संस्था की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायीं है. देश के चोटी के रचनाकारों ने यहाँ आकर इसे और खुद को समृद्ध किया है. फिर चाहे वह अशोक वाजपेयी हों, निर्मल वर्मा हों, मैत्रेयी पुष्पा हों, अपूर्वानंद, प्रियंवद, पंकज बिष्ट, रमेशचन्द्र शाह, गिरिराज किशोर, पुरुषोत्तम अग्रवाल, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, शैलेश मटियानी, अजित कुमार, मनोहरश्याम जोशी, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, महुवा मांझी, अरुण कमल, गोविन्द सिंह, गगन गिल, राजी सेठ, प्रयाग शुक्ल, मंगलेश डबराल, मधु बी.जोशी, निर्मला जैन आदि-आदि वे सैकड़ों प्रतिष्ठित रचनाकार जिनके नाम अभी याद नहीं आ रहे है. महिला समाख्या की गीता गैरोला और महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के अशोक वाजपेयी और अपूर्वानंद ने तो पीठ में अनेकों यादगार कार्यक्रम किये हैं.

अब आप ही बताएँ, कैसे भूल जाऊं मैं अपने महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ?

______________________
लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' का प्रकाशनअब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.
इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322/ email:  batrohi@gmail.com

हस्तक्षेप : गाय की पवित्रता का मिथ : संजय जोठे

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समकालीन भारत की विडम्बनाओं में एक ‘गाय’ भी है, राजनीति ने इसे विद्रूप में बदल दिया है. गाय की पवित्रता की वैचारिक संरचना की शुरुआत कब से हुई, क्या यह ‘हिन्दूमत’ है या ‘बौद्ध’ और ‘जैन’ संक्रमण है या सत्ता का खेल ? निरीह गाय के नाम पर निरीह मनुष्यों की हत्याओं के इस हिंसक दौर में यह जानना बहुत ही आवश्यक है. ऐसे तमाम प्रश्नों पर युवा समाज- वैज्ञानिक संजय जोठे का शोधपरक आलेख.   


गाय की पवित्रता का मिथ                

संजय जोठे


भारत में हाल ही में जिस तरह से गाय के प्रति धार्मिक भावनाएं उभर रही हैं और जिस तरह से उन भावनाओं का हिंसक या उग्र प्रगटीकरण हो रहा है उसे देखकर निराशा होती है. यह निराशा दोहरी है. पहली निराशा इस इस अर्थ में है कि एक कृषि प्रधान देश के लिए गाय या गौ वंश का जितना और जैसा मूल्य होना चाहिए वह इतनी सदियों में हम स्वयं भारतीय ही समझ नहीं पाए हैं और गाय को पवित्र माने जाने के बावजूद वह सिर्फ राजनीतिक विवाद का विषय बनती जा रही है. दूसरी निराशा इस अर्थ में है कि  गाय या गौ वंश के प्रति अहिंसक होने का आग्रह स्वयं में अपनी अंतिम सीमा तक हिंसक होता जा रहा है, और जिस धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ में गाय को पवित्र माना जाता रहा है वह अध्यात्म स्वयं अब बदनाम और विस्मृत होने के कगार पर खडा है. पहली निराशा समझ में आती है, कृषिप्रधान समाज में गाय, कृषि  और पर्यावरण से जुड़ा अर्थशास्त्र हम सब समझते हैं. उसमे कोई विशेष कठिनाई नहीं है. लेकिन इस दूसरी निराशा को समझना होगा. यह पहलू उन लोगों को विशेष रूप से समझना चाहिए जो गाय के सम्मान में हिंसक आन्दोलन छेड़ने को तत्पर खड़े हैं.

असल में गाय को प्रेम करने वालों के लिए ही यह लेख है. उन्हें समझना होगा कि उनकी स्वयं की आध्यात्मिक विरासत किस अर्थ में और क्यों गाय को पवित्र मानती आई है. उन्हें यह भी समझना चाहिए कि जिस ढंग से गौवंश के प्रति उनकी भावनाएं या रणनीतियां आकार ले रही हैं वे असल में गाय और उससे जुड़े आध्यात्मिक ज्ञान का हनन कर रही है. उस पर दुर्भाग्य ये है कि सत्ता और धर्म के ठेकेदार इस दिशा में किसी तरह की स्पष्टता निर्माण करने से जानबूझकर बच रहे हैं. ऐसा करते हुए वे गौवंश की रक्षा के मुद्दे को सिर्फ दो समुदायों के सहजीवन की अनिवार्य सामाजिक, विधिक  व राजनीति शर्त के रूप में देख और दिखा रहे हैं. इस तरह वे अपनी ही आध्यात्मिक विरासत को राजनीतिक षड्यंत्र का चारा बनाकर उसे बदनाम कर रहे हैं.

अब यह आध्यात्मिक विरासत कितनी तर्कसंगत, वैज्ञानिक  या उचित है मैं इसमें नहीं जा रहा हूँ लेकिन इसके बावजूद एक बड़े विरोधाभास और षड्यंत्र को बेनकाब करने के लिए मैं उस विरासत से आने वाले निष्कर्षों का उपयोग भर कर रहा हूँ इस पूरे लेख से गुजरते हुए इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए.

आइये इसपर विचार करें. वो कौनसी आध्यात्मिक विरासत है और वो कौनसे निष्कर्ष हैं जो गाय को इतना पवित्र बनाते है? इसे अधिकाँश गौभक्त भी नहीं जानते हैं. राजीव मल्होत्रा, राजीव दीक्षित या दीनानाथ बत्रा को मानने वाले अधिकाँश लोग इस बात को शायद नहीं जानते हैं कि गाय की पवित्रता और अवद्यता की मौलिक जड़ें किन अनुभवों या मान्यताओं में हैं. वे यह बात नहीं बतला सकते क्योंकि इसमें उनके अपने धर्म की मौलिक समझ पर ही प्रश्न चिन्ह उठ खडा होता है. वे इस बात को दबाते चले जायेंगे कि गाय की पवित्रता का मूल विचार किस परम्परा या किस साधना पद्धति से और क्यों आया है.

इसमें गहरे चलते हैं. इस देश में दो तरह की साधना पद्धतियाँ रही हैं. एक ब्राह्मण और दूसरी श्रमण.वैदिक और ब्राह्मण पद्धति में भक्ति प्रमुख मानी गयी है और परमात्मा की कृपा को मुक्ति का साधन माना गया है. इसीलिये मुख्यधारा का हिन्दू समुदाय मुसलामानों और ईसाईयों की तरह अनिवार्य रूप से एक भक्ति समुदाय है. इसके विपरीत श्रमणपरम्परा में स्वयं के प्रयास या श्रम को कैवल्य या निर्वाण का साधन माना गया है इसमें कोई परमात्मा बीच में नहीं आता. इस परम्परा में जैन और बौद्ध आते हैं जो कालान्तर में अपने धर्म को वैदिक हिन्दू धर्म से अलग कर लेते हैं. विशेष रूप से जैन धर्मइस गौवंश के मुद्दे पर बहुत विचारणीय है. जैन धर्म में आत्मा को परम मूल्य दिया गया है और इश्वर या सृष्टिकर्ता जैसी किसी सत्ता को नकार दिया गया है. इसीलिये जैनों में सृष्टि के बजाय प्रकृति शब्द का व्यवहार होता है. अब जैसे ही आत्मा और प्रकृति को मान्यता मिलती है, वैसे ही सारी चिन्तना आत्मा और पुनर्जन्म सहित आत्मा के उद्विकास पर केन्द्रित हो जाती है. तब कैवल्य सहित बंधन का सारा उत्तरदायित्व आत्मा पर आ जाता है.

अब इसके कुछ विशेष इम्प्लीकेशंस हैं जिन्हें बारीकी से समझना चाहिए. जैन विचार में आत्मा और उसका कर्म स्वयं ही अपनी मुक्ति या बंधन का कारण है. कोई एक्सटर्नल एजेंसी या कोइ परमात्मा (इश्वर/सृष्टिकर्ता  के अर्थ में) यहाँ किसी काम का नहीं है. दिगंबर परम्परा में सर्वाधिक प्रतिभाशाली तीर्थंकर, भगवान् कुन्दकुन्दका प्रसिद्द ग्रन्थ है समयसारउसमे वे लिखते हैं कि न कोई बंधन है न कोई मुक्ति है वस्तुतः यह राग से भरा मन है जो बंध जाता हैयह अध्यात्म के जगत की सर्वाधिक क्रांतिकारी बात है, यही बात गौतम बुद्ध, वसुबन्धु और नागार्जुनसहित सारे जापानी झेन बौद्ध फकीर दुसरे अर्थ में कहते हैं कि मुक्ति और बंधन दोनों ही मन के खेल हैं.

अब इस जैन या बौद्ध मान्यता की गहराई में चलिए. इसका एक अर्थ यह हुआ कि बंधन या दुःख असल में मन के कर्मों का उत्पाद है. इसलिए उसकी निर्जरा के लिए मन को निर्मूल करना है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि मन जिस-जिस अर्थ में कर्मबंध या संस्कार निर्मित करता है उस-उस अर्थ विशेष में उस-उस मार्ग पर विराम लगाया जाये. यहाँ विराम लगाने की प्रक्रिया का चुनाव करते हुए बौद्ध और जैन मार्ग अलग हो जाते हैं. जैन परम्परा उन मार्गों पर विराम लगाकर भौतिक शरीर के अनुशासन को अत्यधिक मूल्य देने लगती है और बौद्ध दर्शन केवल और केवल मन पर विराम लगाने पर केन्द्रित हो जाता है. जैन मुनि आहार निद्रा आदि के अनुशासनों को अंतिम उंचाई तक विकसित करने लगते हैं और बौद्ध आचार्य मन और मनोविज्ञान की गहरी प्रक्रियाओं को समझ लेने में ही मुक्ति का आश्वासन बतलाने लगते हैं. इस तरह जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों में अंतिम रूप से शरीर और मन की चेष्टाओं को समझकर उनका नियंत्रण करना ही मुक्ति का मार्ग है. यहाँ हिन्दू परम्परा का इश्वर या उसकी भक्ति या उसकी कृपा दूर दूर तक किसी काम की नहीं समझी जाती है. और जो भक्ति हम इन जैन या बौद्ध धर्म में देखते भी हैं वह असल में इन धर्मों के पतन का सूचक है, इसके बावजूद वे किसी सृष्टिकर्ता इश्वर को नहीं बल्कि किसी तीर्थंकर या बुद्ध को मानव रूप में पूज रहे हैं.

अब और गहरे चलते हैं, जब शरीर और मन की चेष्टाओं पर बंधन या मोक्ष निर्भर करता है तब सवाल उठता है कि मन कैसे बंधन में पड़ता है? इसके उत्तर के लिए भोग के चुनाव और पुनर्जन्म को आधार बनाया जाता है. विशेष रूप से जैन धर्म में चूँकि आत्मा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है इसलिए उसके उद्विकास को बहुत गहराई से देखा गया है. इसी से पुनर्जन्म की श्रृंखला का पीछा करते हुए यह देखा जाता है कि इस मन का पिछ्ला अवतार या भव क्या था. यह व्यक्तित्व जो आज सामने खडा है यह पिछले जन्म में क्या था? इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति जगाने का विज्ञान सभी श्रमण धाराओं में सबसे विक्सित विज्ञान माना गया है. बौद्ध और जैन दोनों इस विज्ञान को विकसित करने वाली परम्पराएं रही हैं. 

हिन्दुओं में एक मान्यता के रूप में पुनर्जन्म अवश्य रहा है लेकिन एक क्रियान्वित किये जा सकने वाले अनुशासन या विज्ञान के रूप में पुनर्जन्म कभी नहीं रहा है. इसीलिये जब मंडन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को कामशास्त्रपर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तो आदि शंकर अपने पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर काम के अनुभव में नही गए. बल्कि उन्होंने किसी अन्य राजा के शरीर में प्रवेश करके काम का अनुभव लिया और फिर शास्त्रार्थ को उपस्थित हुए. अगर उनके पास पुनर्जन्म की खोज की तकनीक होती (जो जैन और बौद्ध विज्ञान है) तो वे अपनी जान दांव पर नहीं लगाते, कई रहस्यवादी ऐसा मानते हैं कि चूंकि आदिशंकर छः माह तक अपने शरीर से बाहर रहे इसीलिये उनका शरीर कमजोर हुआ और वे अल्पायु में चल बसे.

इस तरह यह स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म का विचार मूलतः जैन और बौद्ध विचार है और उसका विकसित विज्ञान भी जैन व बौद्ध श्रमण परम्परा से आता है. जैनों की मान्यता है कि हर तीर्थंकर पशु योनी से मनुष्य योनी में आने के क्रम में किसी पशु योनी से गुजरता है. इसीलिये उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ उनके पशुयोनी के अवतार का संकेत भी बना रखा है. जैसे भगवान् ऋषभदेव के साथ वृषभ या सांड का चिन्ह है, भगवान् महावीर के साथ सिंह का चिन्ह है. इसी तरह गौतम बुद्ध के साथ भी हाथी का चिन्ह है. यह जाहिर  करता है कि ये सब तीर्थंकर पशुयोनी में अंतिम रूप से इन इन पशुओं के रूप में जन्मे थे. इस मान्यता या रहस्यवादी अनुभव के आधार पर उनके हजारों शिष्यों और मुनियों ने अनुभव किया कि सामान्यतया अधिकाँश मनुष्य गाय की योनी से मनुष्य योनी में आ रहे हैं. इस प्रकार चूँकि मनुष्य योनी में छलांग लगाने के लिए गाय योनी अनिवार्य जंपिंग बोर्ड है इसलिए गाय पवित्र और अवध्य मान ली गयी है.इस बात को ओशो रजनीश ने भी अपने प्रवचनों में स्पष्ट किया है.

यह बात गहराई से नोट की जानी चाहिए कि यह जैनों और बौद्धों की खोज है. हिन्दू साधुओं ने कभी भी इस तरह की बात नहीं उठाई. इसीलिये श्रमण परम्परा ने इस निष्कर्ष पर आते ही गाय सहित सभी पशुओं की बलि पर अनिवार्य रूप से रोक लगा दी. जैनों की अहिंसा और बौद्धों की अहिंसा का मूल कारण यही था. और इसमें भी गाय को इतना पवित्र मानने का कारण भी यही था कि यह पशु योनी से मनुष्य योनी के बीच की यात्रा में अनिवार्य कड़ी है. यह ज्ञान हिन्दू परम्परा में बहुत बाद में आया, या फिर ये कहें कि उन्होंने जैनों और बौद्धों से सीखा. शुरुआती वैदिक धर्म में यहाँ तक कि उपनिषद्काल में भी पशु बलियाँ और गौ बलियाँ दी जाती थीं.बाद में जैन व बौद्ध धर्म के निष्कर्ष को और उससे जन्मे आचरण शास्त्र को ब्राह्मण परम्परा ने भी अपना लिया.

अब गौर से देखने की बात ये है कि जिस मौलिक प्रतीति पर गाय या गौ वंश की दिव्यता या पवित्रता का भवन खड़ा है उसकी आधार भूमि संवेदनशीलता और अहिंसा है. वह भी इसलिए ताकि पशुयोनी से मानव योनी की यात्रा में बाधा न हो. इस दृष्टि से देखें तो मनुष्य योनी तक आने में गाय एक पड़ाव है इसीलिये उसकी ह्त्या नहीं की जानी चाहिए. इसका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य गाय से अधिक महत्वपूर्ण है. गाय एक संभावना है मनुष्य उस संभावना का साकार रूप है. इसलिए गाय या मनुष्य के जीवन में चुनाव होगा तो मनुष्य को ही बचाया जाना चाहिए.

अब इस सबके बाद गौमांस के मुद्दे पर मनुष्यों की ह्त्या की घटना को देखिये. यह न तो सामाजिक या मानवीय दृष्टिकोण से उचित है न ही धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ में उचित है. यह सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक ड्रामा है जो वोटों के ध्रुवीकरण के लिए रचा गया है. इसीलिये यह जोर देकर कहना चाहिये कि धर्म का नाम लेकर गौवंश को मुद्दा बनाने वाले लोग न तो धर्म या अध्यात्म को समझते हैं न इंसानियत को. अगर गौवंश को बचाना है तो उसे दंगा या विभाजन पैदा करने वाली मानसिकता से नहीं बचाया जा सकता. गाय को  बचाना है तो उसे इतना मूल्यवान और उपयोगी बनाना होगा कि उसकी मौत की बजाय उसकी जिन्दगी की कीमत ज्यादा हो. अभी गाय कटती है क्योंकि ज़िंदा गाय की तुलना में मरी हुई गाय अधिक मूल्यवान है. जिस दिन ज़िंदा गाय से मरी हुई गाय की तुलना में अधिक आमदनी होने लगेगी उस दिन गाय अपने आप बच जायेगी. तब किसी अभियान की जरूरत नहीं होगी.


इसीलिये गाय की नस्ल सुधार का आन्दोलन चलना चाहिए. गाय के दूध की मात्रा बढनी चाहिए. विदेशी सांडो से डर लगता है तो देशी विकल्पों पर ही ध्यान दीजिये. जैसे भैंस की दूध देने की क्षमता बढ़ गयी है वैसे ही गाय की देशी संकर प्रजातियों की क्षमता भी बढ़ सकती है. उसके बाद कोई किसान या गरीब आदमी अपनी गाय को मैला खाने के लिए या सडक पर आवारा घूमने के लिए खुला नहीं छोड़ेगा. क्या किसी ने दुधारू भैस को आवारा घुमते या गन्दगी खाते देखा है? उसे कटते देखा है? यह सबसे महत्वपूर्ण बात है जो गौभक्तों को समझनी चाहिए. गाय धर्मशास्त्र से नहीं अर्थशास्त्र से बचेगी. जिस दिन ज़िंदा गाय एक मरी गाय से अधिक मूल्यवान हो जायेगी उसे दिन किसी धार्मिक, नैतिक या कानूनी आग्रह या नियम की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी.
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संजय जोठे, युवा समाजशास्त्री और पत्रकार. समाज कार्य मुद्दों पर पिछले बारह वर्षों से कार्यरत. 
इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स से अंतर्राष्ट्रीय विकास में एम्. ए. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं. 
sanjayjothe@gmail.com

विष्णु खरे : कुछ भी अशुभ नहीं मंगली में

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साहित्य और हिंदी फिल्मों में भी विज्ञान-कथाओं की कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है. मंगल ग्रह जहाँ पानी की संभावना के लिए चर्चा में है वहीँ रिड्ले स्कॉट की फिल्म ‘’द मार्शन’’‘नेसा’ से अपने सम्बन्धों को लेकर विवादों में है.

फ़िल्म क्रीटीक विष्णु खरे का कॉलम.

कुछ भी अशुभ नहीं मंगली में                                   
विष्णु खरे



विशेषज्ञों, अध्यापकों और विद्यार्थियों को छोड़ दें तो हमारे समाज और लेखक-बुद्धिजीवियों का विज्ञान से इतना कम परिचय है कि उन्हें साइंस की गंभीर पुस्तकों का तो क्या, लोकप्रिय किताबों का भी न तो पता रहता है न उनमें रुचि.इसका सीधा सम्बन्ध हमें अंग्रेज़ी में दी जा रही ‘’शिक्षा’’ से है.आज हम हज़ारों किस्म के खरीदे गए यंत्रों, मशीनों और गैजेटों पर आश्रित हैं जिनके ऑपरेटिंग मैन्युअल तक हम समझ नहीं पाते और उनके  ज़रा-सा भी बिगड़ने पर सपरिवार आँसू बहाते हुए वादाशिकन, उद्दंड मिस्त्रियों को ख़ुशामदी फोन करने लगते हैं.

कहानी-उपन्यासों के रूप में भी भारतीय भाषाओँ में साइंस-आधारित जो लिखा गया है या अनूदित हुआ है वह नगण्य है.’’विज्ञान-कथा’’ (‘साइंस-फ़िक्शन’,’’फ़िक्शन’’ शब्द ही हमारे लिए बहुत कठिन है) प्रत्यय से हम अपरिचित हैं जब हमारे लेखकों को साइंस आती-भाती नहीं और न हमारे वैज्ञानिकों की भाषा, साहित्य और सृजन में गति और रुचि है तो क्या आश्चर्य कि आज सारी भारतीय भाषाओँ में पचास विज्ञान-कथाएँ भी नहीं होंगी और उनमें से एक का भी विदूषकी अनुवाद बिना हँसे-हँसाए किसी विदेशी भाषा में असंभव है.

विडंबना यह है कि ऋग्वेदमें कुछ विज्ञान-कथाओं के पूर्वाभास हैं, कुछ संकेत वाल्मीकि-रामायणमें हैं और ‘’महाभारत’’ तथा कुछ परवर्ती पुराण तो एक ठोस भारतीय साइंस-फ़िक्शन के स्रोत बन ही सकते थे.यहाँ जड़भरत विकल मस्तिष्क हिन्दुत्ववादी मानव-संसाधन मूर्खताओं की बात नहीं की जा रही जो आजकल हमारे विश्वविद्यालयों में एक शर्मनाक साइंस-एंड-रिसर्च-फ़िक्शनका आविष्कार और शिलान्यास कर रही हैं.बहुत जल्द हम विश्व के बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों की बिरादरी में हुक्क़े-पानी तो क्या, मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे.

पश्चिमी गल्प और फ़िल्मों से प्रेरित जो कथित चंद विज्ञान-कथाचित्र हिंदी में बने हैं उनमें से  बॉक्स-ऑफिस पर इक्का-दुक्का सफल भले ही हुए हों, वह इतने बचकाने थे कि ज़्यादातर बच्चों के बल पर ही चले.दरअसल वह हमारी 1930-70की ‘’जादुई’’, ’’तिलिस्मी ’’,  ‘’फंतासी’’ फिल्मों के दरिद्र आधुनिक अवतार थे.पश्चिम में लिखित और प्रकाशित  साइंस-फ़िक्शन सिनेमाईविज्ञान-कथाचित्र से कहीं पुरानी सृजन-विधा है और कवि शेली की बहिन मेरी शेली, ज़्यील वेर्न तथा एच.जी.वेल्सआदि की कृतियों के कारण  पहले से ही बेहद लोकप्रिय थी.चलायमान छवियों के आविष्कार के पीछे निस्संदेह उनकी प्रेरणा रही होगी.इस तरह फ़िल्मी विज्ञान-कथा का एक बड़ा, समझदार  दर्शक-वर्ग यूरोप में  पहले से ही मौजूद था. बहस हो सकती है कि क्या खत्रीजीकी चंद्रकांता’’ और ‘’भूतनाथ’’ सीरीज़ को किसी तरह खेंच-खाँच कर साइंस फिक्शन के खाते में डाला जा सकता है.लेकिन ज़ाहिर है कि फ़्रांकेनश्टाइन’’, ’’जर्नी टु द सेंटर ऑफ़ दि अर्थ’’ या ’’द इन्वीज़िबिल मैन’’तो वह नहीं हैं.

काश कि मैं ग़लत होऊँ, लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय दर्शक विज्ञान-कथाचित्रों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहे हैं, जबकि जादू-टोना,चमत्कार, ’’भक्ति’’ और ‘’पौराणिक’’ फिल्मों के बहुत भोले, अद्भुतरसीय स्पेशल इफ़ेक्टदृश्यों को देखकर वह पागल हो जाते थे.क्या इसलिए कि कुंडली-पंचांगीप्राणसाधारण  हिन्दू दर्शक यह देखना-सुनना नहीं चाहता कि उसके ग्रह-नक्षत्र रेतीली-चट्टानी निर्जीव दुनियाओं के अलावा कुछ भी नहीं ? हमारे पास आँकड़े नहीं हैं इसलिए हम नहीं जानते कि हॉलीवुड की कौन-सी विज्ञान कथाफिल्मों को भारत में निस्बतन ‘’हिट’’ कहा जा सकता है – ‘स्टार-वॉर्स’’,’ ’द एलियन’’, ’’दि प्लैनेट ऑफ़ द एप्स’’, ’’क्लोज़ एनकाउंटर्स...’’, ’’किंग कॉन्ग’’, ’’मेन इन ब्लैक’’, ’’सूपरमैन’’, ’’बैक टु द फ़्यूचर’’,’ ’दि टर्मिनेटर’’, ’टोटल रिकॉल’’, ’’इन्फ़िनिटी’’ ? लेकिन इनमें से कोई भी मिस्टर इण्डिया’’या ‘’क्रिश’’जितनी नहीं चली होगी !त्रुफ़ोकी राजनीतिक ’’फ़ारेनहाइट 451’’या  तार्कोव्स्की की दार्शनिक विज्ञान-फिल्म ‘’सोलारिसका तो हमारे यहाँ एक हफ़्ता काट पाना असंभव है.

जब आप रिड्ले स्कॉटकी नई फिल्म द मार्शन’’ (‘‘मंगली’’) देखने जाते हैं तो अन्य कई अंतरिक्ष-यात्रा या मंगली फिल्मों के अलावा आपको सबसे ऊपर स्टैनले कूब्रिककी अमर कृति  ‘’2001 : ए स्पेस ऑडिसी’’याद आती है.मार्शनमें नायक मार्क वाटनी (मैट डैमन) नेसा’ (NASA) द्वारा मंगल ग्रह पर भेजे गए एक अभियान-दल का वनस्पतिशास्त्री सदस्य है जो एक तूफ़ान में अपने अंतरिक्ष-यान से भटक जाता है और उसकी टीम के बाक़ी सारे साथी उसे मुर्दा मानकर वापस पृथ्वी चले जाते हैं.लेकिन डैमन जीवित है और अब उस निर्जीव ग्रह पर निपट अकेला है और उसके पास ज़िन्दा रहने के लिए पिछले अभियानों द्वारा तज दी गई मशीनों और फुटकर सामग्री  के सिवा कुछ भी नहीं है.

उधर कूब्रिककी ऑडिसीमें अंतरिक्ष में बृहस्पति ग्रह का चक्कर लगाते हुए यान में सिर्फ़ तीन सक्रिय मौजूद्गियाँ हैं दो युवा वैज्ञानिक और ‘’हालनामक एक सूपर-कम्प्यूटर, जो यान को चला रहा है, मानवों जैसा दिमाग़ रखता और बोलता है, ज़िद्दी तथा बहसपसंद हो गया है और फ़ैसला ले चुका है कि उनका अभियान असफल होकर रहेगा.वह ‘’दुर्घटनावश’’ एक वैज्ञानिक की ‘’हत्या’’ कर देता है जबकि दूसरा, नायक डेव बाउमन (किएर डुले),विवश होकर उसे ही अंतिम नींद सुला देता है.उसके बाद नायक एक ऐसी अनंत यात्रा पर निकल जाता है जिसमें वह सारे ब्रह्माण्ड के साथ-साथ अपनी भावी वृद्धावस्था और एक भ्रूण के रूप में अपना पुनर्जन्म देखता है.ऑडिसीको संसार की महानतम विज्ञानफिल्म और एक सर्वकालिक श्रेष्ठतम फिल्म माना गया है.लेकिन जब मैंने टाइमऔर न्यूज़वीकके हवाले से  1968में दिल्ली के प्लाज़ा टॉकीज़ में इसका फर्स्ट-डे फर्स्ट-शो देखा तो गिना कि हॉल में मेरे नाभिकीय परिवार और प्रश्नाकुल  वरिष्ठ मित्र डॉ डी.सी.संचेती को मिला कर कुल 29दर्शक थे,जिनमें से कुछ बीच से ही हँसते-कोसते निकल गए.आज भी भारत में इसके योग्य दर्शक न मिलेंगे.मैं ऑडिसीअब तक देश-विदेश में कहाँ कितनी बार देख चुका हूँ यह याद करना असंभव है कोई भी बहाना चाहिए. 

नीत्शेके दार्शनिक जर्मन उपन्यास आल्ज़ो श्प्राख ज़रथुस्त्र’’ (‘ज़रथुस्त्र उवाच’) से प्रेरित, संगीत-सर्जक रिषार्ड श्ट्राउसद्वारा रचित इसी शीर्षक की स्वर-कविता’’के महान प्रारंभिक अंश सूर्योदयके पार्श्व-संगीत वाले पहले दृश्यों तथा ब्रह्माण्ड-यात्रा एवं जरा-मरण-पुनर्जन्म के अनंत अंतिम दृश्यों का रोमांच क़तई कम नहीं हुआ है.ऑडिसीसारी अंतरिक्ष-यात्रा फ़िल्मों की ‘’बिस्मिल्लाह’’ या ‘’श्रीगणेशायनमः’’ है.
तुलना में द मार्शन’’ (मंगल ग्रह की) धरती से मृत्यु के जबड़े से जीवन को खींचने-उगाने वाली जिजीविषा-फिल्म है.मार्क वाटनी को ले जाने के लिए उसके सारे यान-मित्र बेशक़ लौटेंगे, लेकिन उसे उन लम्बे महीनों तक अपनी समूची वैज्ञानिक प्रत्युत्पन्नमति के सहारे उनके लिए जीवित रहना है.वह एक ऐसा रॉबिन्सन क्रूसोहै जिसे मानों बुद्ध के उपदेश की तरह आप अपना ‘’मैन फ्राइडे’’होना है.वह ठेठ भाषा में खुद से कहता है कि मुझे इसमें से निकलने के लिए साइंस का गू निकालना पड़ेगा जो लगभग अक्षरशः सच साबित होता है क्योंकि वह दीगर कारनामों के अलावा  अपने पाख़ाने को खाद बनाकर उससे अपने खाने के लिए आलू उपजाता है.


ऑडिसीपर अब तक करोड़ों शब्द लिखे जा चुके हैं द मार्शनपर भी ऐसी शुरूआत हो चुकी है.मंगल ग्रह की यात्रा को लेकर अब तक लगभग तीस फ़िल्में बनी हैं और हाल की कुछ विज्ञान-कथाफिल्में बहुत सफल नहीं हो पाईं.लेकिन रिड्ले स्कॉटने मैदान में आकर खेल को बेहतरी के लिए बदल डाला है.यह फिल्म शायद सारी दुनिया में हिट होने जा रही है.कहा जा रहा है कि अपने 2040के आसपास के भावी समानव मंगल-अभियान के लिए वातावरण-निर्माण हेतु नेसाने इसे एक जायज़ मिलीभगत के तहत  पूरी तकनीकी जानकारी दी है हालाँकि विज्ञान-सम्बन्धी कुछ गलतियाँ चली ही गईं हैं, मसलन मंगल पर इतने तेज़ तूफ़ान आ ही नहीं सकते और गुरुत्वाकर्षण भी इतना कम है कि आदमी पृथ्वी की तरह नहीं बल्कि कुछ फुदकता-तैरता-सा वहाँ चलेगा.अब भाई फिल्म की रौनक़ के लिए कुछ तो साइंसी कुफ्र चाहिए.कहनेवाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि नेसाने फिल्म की रिलीज़ के वक़्त जान-बूझ कर यह युगांतरकारी खबर लीककी कि मंगल पर खारा पानी मिला है ताकि उत्सुक दर्शकों के मारे टिकट-खिड़की टूट जाए.उस पर डायरैक्टर साहब  ने फ़र्माया कि यह उन्हें महीनों पहले से मालूम था. 

ज़्यादा डेढ़श्याणे मत बनो रिड्ले मियाँ, अगर यह ख़बर चार महीने पहले आती तो फिल्म दुबारा शूट करनी पड़ती, या अगले बरस बनती, या बनती ही नहीं.मंगल का खारा पानी तुम्हारे लिए मीठा और शुभ साबित हुआ. 
________________________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

स्वेतलाना एलेक्सिएविच ( साहित्य के २०१५ का नोबेल पुरस्कार ) : साक्षात्कार

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फोटो : साभार M. Kabakova












8अक्टूबर 2015को साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद स्वेतलाना एलेक्सिएविच के साथ जूलिया ज़ाका का टेलीफोन साक्षात्कार. रूसी भाषा में बातचीत का वाया इंग्लिश यह हिंदी अनुवाद सरिता शर्मा ने किया है.



"मैं उदासीन इतिहासकार नहीं हूँ. मेरी भावनाएं हमेशा उससे जुड़ी होती हैं."        
स्वेतलाना एलेक्सिएविच



जूलिया ज़ाका :  
हैलो!  नोबेल पुरस्कार की आधिकारिक वेबसाइट Nobelprize.org से मैं जूलिया ज़ाका,   आपको इस वर्ष के साहित्य के नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की बधाई देते हुए मैं सम्मानित महसूस कर रही हूँ.

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
बहुत- बहुत धन्यवाद!

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जूलिया ज़ाका
शायद आपको पहले से ही पता चल चुका होगा कि आपको पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, क्या आपको इसकी जानकारी है?

स्वेतलाना एलेक्सिएविच :  
हाँ, मुझे इस बात का पता है, लेकिन अभी भी यह विश्वास करना मुश्किल है कि यह सच है! (हंसते हुए)

______________________
जूलिया ज़ाका
हम यह जानते हैं कि इस वक्त आप संवाददाता सम्मेलन के लिए निकल रही हैं.

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
हाँ, टैक्सी मेरा इंतजार कर रही है

_______________________
जूलिया ज़ाका
आशा है मेरे कुछ सवालों के जवाब के लिए आप 2-3मिनिट दे सकेंगी.  इस साक्षात्कार को अभिलिखित किया जाएगा और बाद में वह इस वर्ष के अन्य पुरस्कार  विजेताओं के  साक्षात्कार के साथ हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध होगा.

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
हां, जरूर.

____________________ 
जूलिया ज़ाका :
पुरस्कार को लेकर आप कैसा महसूस कर रही हैं ? या इस तरह के सवाल पूछना अभी ज़ल्दबाज़ी तो नहीं.

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
(हंसते हुए) सच में ऐसा है, मगर मैं बता सकती हूँ कि अभी कैसा लग रहा है. बेशक, यह एक खुशी की बात है, इसे छिपाना अजीब होगा.

लेकिन इसके साथ इसने मुझे बेचैन भी कर दिया है, क्योंकि इसने रूसी साहित्य के सभी नोबेल पुरस्कार विजेताओं- जोल्जिनिसिन, बुनिन, पास्टरनाकआदि की महान परछाइयों को पुनर्जीवित कर दिया है. बेलारूस को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला. निश्चित रूप से यह उत्सुकता भरा अहसास है और अब न तो किसी तरह की थकान और न ही निराशा मेरे स्तर को कभी गिरने देगी. लम्बा रास्ता तय कर लिया है, बड़ा काम किया जा चुका है और कुछ नया किया जाना मेरा इंतज़ार कर रहा है.

__________________________ 
जूलिया ज़ाका : 
शुक्रिया,इन खूबसूरत लफ़्ज़ों के लिए. अब आपकी लेखन शैली पर बात करते हुए जानना चाहती हूँ कि किन वजहों से प्रभावित होकर आपने पत्रकारिता के दृष्टिकोण को अपनाया?

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
पता है, आधुनिक दुनिया में सब कुछ इतनी तेजी से और अधिकता से घटित होता है कि न तो कोई एक व्यक्ति और न पूरी संस्कृति ही इसे समझने में सक्षम है. दुर्भाग्यवश, यह बहुत तेजी से हो रहा है. टॉल्स्टॉय की तरह बैठकर इस पर सोचने के लिए बिल्कुल समय नहीं है जिनके विचार दशकों में जाकर अधिक परिपक्व हुए थे. मेरे सहित हर व्यक्ति, बस यथार्थ के एक छोटे से भाग को समझने की कोशिश कर सकता है, अनुमान ही लगा सकता है. कभी-कभी मैं अपने मूलपाठ के 100पृष्ठों में से केवल 10पंक्तियों को छोड़ देती हूँ, कभी- कभी बस एक पृष्ठ. और ये सब टुकड़े मिलकर आवाजों के उपन्यास में एकजुट होकर हमारे समय को प्रतिबिम्बित करते हुए हमें बताते हैं कि हमारे साथ क्या हो रहा है.

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जूलिया ज़ाका
आपने अभी एक अद्भुत रूपक "आवाजों के उपन्यासका उपयोग किया है और मेरा अगला सवाल इससे जुड़ा हुआ है. आपने बहुत ज्यादा पीड़ा देखी है और अपने लेखन में भयंकर
प्रमाण देखे हैं. क्या इसने इंसान को देखने के आपके तरीके को प्रभावित किया है?

स्वेतलाना एलेक्सिएविच
इस सवाल के जवाब में थोड़ा वक्त लग सकता है लेकिन मैं बताना चाहूंगी कि जिस संस्कृति का मैं हिस्सा हूँ वह लगातार ऐसी ही दशा और दर्दनाक हालातों में है.

कुछ ऐसा जो  जो अन्य संस्कृतियों में समझ से बाहर और असहनीय है, वह हमारे लिए सामान्य स्थिति है. हम इसी में रहते हैं, यही हमारा वातावरण है.  हम हमेशा पीड़ितों और जल्लादों के बीच रहते हैं. हर परिवार में, मेरे अपने परिवार में ... 1937का साल, चेरनोबिल, युद्ध है. वह बहुत कुछ बता सकता है, हर किसी के पास ये कहानियां हैं..., हर परिवार आपको दर्द के इस उपन्यास के बारे में बता सकता है. और ऐसी बात नहीं है कि यह मेरा दृष्टिकोण है या इन स्थितियों में लोग जैसे सोचते हैं वह मुझे पसंद है. नहीं, यह हमारा जीवन है.

ऐसे व्यक्ति की कल्पना करो जो पागलखाने से निकलकर इसके बारे में लिख रहा है. क्या मुझे उस व्यक्ति को यह कहना चाहिए "सुनो, तुम इसके बारे में क्यों लिख रहे हो?"प्रिमो लेवीकी तरह, जिसने यातना शिविरों के बारे में लिखा और खुद को उनसे अलग नहीं कर सका, या जालामोवकी तरह जिसे पकड़कर यातना शिविर में ले जाया गया और वहां मार दिया गया, वह और किसी चीज के बारे में लिख ही नहीं पाता था. मुझे खुद संदेह होता रहता है कि हम कौन हैं, हमारे दुख को आजादी में क्यों नहीं बदला जा सकता है. मेरे लिए यह महत्वपूर्ण सवाल है. स्लाव चेतना हमेशा प्रबल क्यों रहती है? हम अपनी आजादी को भौतिक लाभ में क्यों बदल देते हैं? या डर में, जैसा कि हमने पहले किया था?

_________________________ 
जूलिया ज़ाका
आप किसके लिए लिख रही हैं?

स्वेतलाना एलेक्सिएविच : मेरे विचार से अगर मैं इन सवालों को खुद समझ सकूं तो मेरे लिए किसी और से बात करना आसान होगा. जब मैं किसी दृश्य में होती हूँ या लिख रही होती हूँ तो यही महसूस करना चाहती हूँ कि मैं अपने करीबी दोस्तों से बात कर रही हूँ.

मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि मैंने इस जीवन में क्या अनुभव किया है. मुझे न्यायाधीश की भूमिका कभी स्वीकार्य नहीं है, मैं उदासीन इतिहासकार नहीं हूँ. मेरी भावनाएं हमेशा उससे जुड़ी होती हैं.

मुझे इस बात की फ़िक्र है कि हम दहशत के रास्ते पर कब तक चल सकते हैं, इंसान कितना सहन कर सकता है. इसलिए काव्यगत त्रासदी मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है. यह महत्वपूर्ण है जब कोई कहता है कि उसने ऐसी डरावनी किताबें पढ़ी हैं और वह बेहतर महसूस करता है, कि पाठक के आँसू बहें और ये आँसू निर्मल थे. आपको ये सब चीजें ध्यान में रखनी चाहिए और लोगों को सिर्फ आतंक से व्याकुल नहीं करना चाहिए.

_________________________
जूलिया ज़ाका : 
धन्यवाद और एक बार फिर से हमारी बधाई स्वीकार कीजिये. हमें आपसे दिसंबर में यहाँ स्टॉकहोम में मिलकर खुश होगी !

sarita12aug@hotmail.com
स्वेतलाना एलेक्सिएविच
अलविदा धन्यवाद!

___________________ 
जूलिया ज़ाका
अलविदा!
_________________________
(साभार : Nobelprize.org , अनुवाद- सरिता शर्मा, पुनरीक्षण- अपर्णा मनोज)


(Telephone interview with Svetlana Alexievich, following the announcement of the 2015 Nobel Prize in Literature, 8 October 2015. The interviewer is Julia Chayka, and the following transcript is an English translation of the conversation in Russian.)

लेखक क्यों लौटा रहे हैं अपने साहित्य अकादेमी सम्मान ?

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'एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा.'

-----------------------------------------------वीरेन डंगवाल



प्रभात
(प्रभात  ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपनीपुस्तक'अपनों में नहीं रह पाने का गीत'के प्रकाशन पर रॉयल्टी नहीं लेने और  2010 में प्राप्त'भारतेंदु हरिश्चंद्र'पुरस्कार लौटाने का निर्णय  लिया  है)


"मुझसे मिलने आए एक हितैषी को जब मेरे पुरस्कार लौटाने के निर्णय का पता चला तो उन्होंने कई तीखे सवाल उठाए. उन्होंने कहा- इससे क्या होगा, जिन्हें तुम पुरस्कार लौटा रहे हो, इन्होंने थोड़े ही तुम्हें पुरस्कार दिया है. ये तो यही कहेंगे कि बढि़या है लौटा दो, हम तो तुम्हें पुरस्कार के काबिल ही नहीं समझते.

उनका दूसरा सवाल था कि सत्ता में आकर वे जो कर रहे हैं उससे अब तुम्हें क्या परेशानी है. वे बहुमत पाकर आए हैं. उन्हें जनता ने अपनी विचाराधरा लागू करने के लिए चुनकर भेजा है. अब वे अपनी विचाराधारा को लागू कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या कर रहे हैं? तुम्हारे प्रतिरोध का ये तरीका और ये समय गलत है. लोकतंत्र में प्रतिरोध का तरीका वोट होता है. तुम्हें वोट के समय प्रतिरोध करना चाहिए.

तीसरी बात उन्होंने कही-दादरी जैसी घटनाओं का विरोध करने से क्या होगा. वे तो चाहते ही हैं तुम जो भी ऐसी हिंसा के विरोधी हो, सामने आ जाओ. इससे तो उनके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की प्रक्रिया को बल ही मिलेगा. क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू तो यही चाहता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो हो रहा है ठीक हो रहा है.

मैंने कहा-एक लेखक को उसके घर में घुसकर मार दिया गया है. तत्काल इस हिंसा के प्रतिरोध का मेरे पास क्या तरीका है?’

वे बोले-इसके लिए लम्बा और जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है?’

मैंने कहा- दाभोलकर और पनसारे जैसे लोग जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे. उनको मार दिया है. असहिष्णु ताकतों ने जमीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों को मारना शुरू कर दिया है.
मैंने उन्हें अपनी व्यथा बताते हुए कहा-सर मैं एक किसान परिवार से हूँ. मेरे बचपन में हमारे घर में चैबीस गायें, आठ बैल और दो भैंसे हुआ करती थी. और जितनी खेती हुआ करती थी, उससे परिवार को किसी आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था. सरकारों की कापरपोरेट जगत को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों ने सब कुछ छीन लिया है. अब गांव में हमारा घर भुतहा हो गया है. वहां एक भी पशु नहीं है. गौ-पालकों को आत्महत्या के कगार पर पहुँचा दिया है और अब गाय के नाम पर राजनीति की जा रही है.

उनका फोन आ गया और वे चले गए.

पिछले दिनों शिक्षकों के एक प्रशिक्षण में बाल साहित्य पर आधारित एक सत्र मुझे लेना था. मुझे एक कहानी सुनानी थी. मैंने बोलना शुरू किया-‘‘मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ, रूसी लेखक लियो टाल्सटाय की लिखी हुई है. इसका शीर्षक है-खुमिया.एक शिक्षक ने मुझे यह कहते हुए रोक दिया कि विदेशी लेखक की कहानी क्यों सुना रहे हो. हमारे देश में क्या लेखक नहीं है. हम विश्वगुरू रहे हैं. हमारे ऊपर विदेशी विचारधारा क्यों थोपी जा रही है?’ इस तरह मुझे टाल्सटाय की कहानी नहीं सुनाने दी गई. सत्र का माहौल न बिगड़े, मैंने भी बहुत आग्रह नहीं किया. उस दिन के बाद से यह घटना मुझे मथती रही. इस तरह तो दुनिया के कितने ही लेखकों को पढ़ने सराहने से वंचित हो जाना पड़ेगा. लगभग पैंतालीस से पचास शिक्षितों के समूह में कोई भी मेरा साथ देने के लिए यह कहने वाला वहाँ नहीं था कि दुनिया के एक महान लेखक की कहानी सुनाने से मुझे आखिर क्यों रोका जा रहा है?

क्या दुनिया के तमाम महान् विचारक, कलाकार और लेखकों की रचनाओं से हमें इसलिए वंचित होना होगा कि वे भारतवर्ष में नहीं जन्मे है."

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मृत्युंजय प्रभाकर

सेवा में
,
अध्यक्ष
साहित्य अकादेमी
नई दिल्ली

मैं आपको इस पत्र की मार्फ़त यह इतल्ला करना चाहता हूँ (जिसकी कॉपी अकादेमी को मेल कर चुका हूँ) कि मैं देश में आम लोगों की व्यक्ति स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों की स्वतंत्रता के दमन और श्री कलबुर्गी की नृशंस हत्या के बाद भी अकादेमी द्वारा उसकी कठोर निंदा न करने और लेखकों के विरोधस्वरुप अकादेमी पुरस्कार लौटाने के बाद बेहद ही लचर रूप में अपनी बात रखने के विरोध स्वरुप साहित्य अकादेमी द्वारा नवोदय श्रृंखला के अंतर्गत छापी गई मेरी पहली कविता पुस्तक 'जो मेरे भीतर हैं'को अकादेमी से वापस लेने की घोषणा करता हूँ.

एक ऐसे वक़्त में जब आधुनिक सभ्यता की नींव बनी तार्किकता और वैज्ञानिक सोच पर देश भर में संघ गिरोह और उसकी समर्थित सरकार के द्वारा जबरदस्त हमले हो रहे हों, देश के नागरिकों के फंडामेंटल राइट्स को नकारा जा रहा हो और देश भर में विष-वपन का खेल केंद्र सरकार की देख-रेख में निर्बाध रूप से जारी हो, ऐसे में जब लेखकों की सर्वोच्च संस्था लचर और लाचार नजर आए, जनता के हितों के पक्ष में आवाज न उठाए, तो उस संस्था से किसी भी तरह का संबंध रखना मुझ जैसे लेखक के लिए कहीं से भी तर्कसम्मत नजर नहीं आता.

उम्मीद है अकादेमी मेरी इस घोषणा के बाद मेरी पुस्तक 'जो मेरे भीतर हैं'के प्रकाशन और विपणन से खुद को अलग कर लेगी.

सधन्यवाद
मृत्युंजय प्रभाकर

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कुमार अंबुज



'साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का एक राजनीतिक अर्थ है' -कुमार अंबुज


लेखकों द्वारा सम्मान या पुरस्कार वापस करने संबंधी कुछ सवाल भी सामने आए हैं. इस संदर्भ में कुछ बातें, एक पाठक, लेखक और नागरिक के रूप में, कहना उचित प्रतीत हो रहा हैः

1.पुरस्कार वापस करने संबंधी तकनीकी दिक्कतें हो सकती हैं, यानी प्रदाता संस्था उसे वापस कैसे लेगी, प्रावधान क्या हैं, राशि किस मद में जमा होगी, इत्यादि. उसका जो भी रास्ता हो, वह खोजा जाए लेकिन समझने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यह एक प्रतिरोध और प्रतिवाद की कार्यवाही है. तमाम तकनीकी कारणों से भले ही यह प्रतीकात्मक रह जाये किंतु इसके संकेत साफ हैं. यह एक सुस्पष्ट घोषणा है कि हम सत्ता की ताकत और आतंक से व्यंथित हैं. हम विचार, विवेक, बुद्धि के प्रति हिंसा के खिलाफ हैं. अभिव्यक्ति की असंदिग्ध स्वतंत्रता के पक्ष में हैं, सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद की राजनीति के विरोध में हैं. लोकतांत्रिकता और बहुलतावाद को इस देश के लिए अनिवार्य मानते हैं. इसलिए सम्मान-पुरस्कार वापस किए जाने की यह मुहिम बिलकुल उचित है, इस समय की जरूरत है.

2.कहा जा रहा है कि सम्मान राशि को ब्याज सहित वापस किया जाना चाहिए. और उस यश को भी वापस करना चाहिए, जैसे प्रश्न उठाए गए हैं. लेखक को जो राशि सम्मान में दी गई थी वह किसी कर्ज के रूप में नहीं दी गई थी और न ही उसे ऋण की तरह लिया गया था. वह सम्मान में, सादर भेंट की गई थी. इसलिए उस पर ब्याज दिए जाने जैसी किसी बात का प्रश्न ही नहीं उठता. जब तक वह सम्मान लेखक ने अपने पास रखा, उसे ससम्मान रखा, उसके अधिकार की तरह रखा. वह उसकी प्रतिभा का रेखांकन और एक विशेष अर्थ में मूल्यांनकन था. वह किसी की दया या उपकार नहीं था. यश तो लेखक का पहले से ही था बल्कि अकसर ही सम्मान और पुरस्कार भी लेखकों से ही यश और गरिमा प्राप्त करते रहे हैं. इसलिए इन छुद्र, अनावश्यक बातों का कोई अर्थ नहीं है.

3.यदि इन सम्मानों को वापस करना राजनीति है तो निश्चित ही उसका एक राजनीतिक अर्थ भी है. लेकिन यह राजनीति वंचितों, अल्पसंख्यकों के पक्ष में है. यह राजनीति इस देश के संविधान, प्रतिज्ञाओं, पंरपरा और बौद्धिकता के पक्ष में है. यह राजनीति इस देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों के लिए है. राष्ट्रवाद के नाम पर देश को तोड़ने के खिलाफ है, इस देश में फासिज्म लाने के विरोध में है.

4. जो कह रहे हैं कि आपातकाल या 1984 के दंगों के समय ये सम्मान वापस क्यों नहीं किए गए, उन्हें याद रखना चाहिए कि तब देश में इस कदर दीर्घ वैचारिक तैयारी के साथ, इतने राजनैतिक समर्थन के साथ अल्पसंख्यकों और विचारकों की सुविचारित हत्याएँनहीं की गई थी. तब कहीं न कहीं यह भरोसा था कि चीजें दुरुस्त होंगी, अब यह भरोसा नहीं दिख रहा है. यह हिंसा अब राज्य द्वारा प्रायोजित और समर्थित है. पहले इस तरह की हिंसा का कोई दीर्घकालीन एजेण्डा नहीं था, अब वह एजेण्डा साफ नजर आ रहा है. पहले एक धर्म, एक विचार और एक संकीर्णता को थोपने की कोशिश नहीं थी, अब स्पष्ट है. जब विश्वामस खंडित हो जाता है और जीवन के मूल आधारों, अधिकारों पर ही खतरा दिखता है तब इस तरह की कार्यवाही स्वात:स्फूआर्त भी होने लगती है. लेखक एक संवेदनशील, प्रतिबद्ध और विचारवान वयक्ति होता है. उस बिरादरी के अनेक लोगों के ये कदम बताते हैं कि देश के सामने अब बड़ा सकंट है.

तो सामने फासिज्म का खतरा साकार है. एक साहित्यिक रुझान के व्यक्ति और नागरिक की तरह मैं इन सब लेखकों के साथ भावनात्मक रूप से ही नहीं, तार्किक रूप से खड़ा हूँ. और इसके अधिक व्यापक होने की कामना करता हूँ. (साभार- जनपक्ष)

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लेखकों - कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

न संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई द्देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित स्वायत्तताकी हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गीजैसे महान साहित्य अकादमी विजेतालेखक की बर्बर ह्त्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की स्वायत्तताकितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सबकुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गीकी शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालयतथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.

२०१४ के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर डेथ वारंटजारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है.

क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में १६ मई, २०१४ के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.

आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर सत्य से सत्ता के युद्धमें अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.

आइये , उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.
राजेन्द्र कुमार( अध्यक्ष जन संस्कृति मंच ) प्रणय कृष्ण,(महासचिव,जन संस्कृति मंच)



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साहित्य  अकादेमी  के  अध्यक्ष  विश्वनाथ प्रसाद  तिवारी की प्रेस विज्ञप्ति 

















अकादेमी सम्मान लौटने वाले लेखकों की सूची

1Uday Prakash -(Hindi writer)

2Nayantara Sahgal -Indian English writer
3Ashok Vajpeyi -Hindi poet
4Sarah Joseph -Malayalam novelist
5Ghulam Nabi Khayal-Kashmiri writer

6Rahman Abbas -Urdu novelist

7Waryam Sandhu -Punjabi writer
8Gurbachan Singh Bhullar -Punjabi writer
9Ajmer Singh Aulakh -Punjabi writer
10Atamjit Singh -Punjabi writer

11GN Ranganatha Rao -Kannada translator

12Mangalesh Dabral-Hindi writer
13Rajesh Joshi -Hindi writer
14Ganesh Devy -Gujarati writer
15Srinath DN -Kannada translator

16Kumbar Veerabhadrappa -Kannada novelist

17Rahmat Tarikere -Kannada writer
18Baldev Singh Sadaknama -Punjabi novelist
19Jaswinder -Punjabi poet
20Darshan Battar -Punjabi poet

21Surjit Patar -Punjabi poet

22Chaman LalPunjabi translator
23Homen Borgohain -Assamese journalist
24Mandakranta Sen-Bengali poet
25Keki N Daruwalla-Indian English poet  etc.
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अकादेमी के पदों को छोड़ने वाले लेखकों की सूची

1Shashi Deshpande -Kannada author
2K Satchidanandan-Malayalam poet
3PK Parakkadvu-Malayalam writer
4Aravind Malagatti -Kannada poet  etc

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रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘नाइटहुड’ सम्मान लौटते हुए क्या कहा था ?

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आज यह सवाल किया जा रहा है कि विगत की घटनाओं के विरोध में साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार या सम्मान क्यों नहीं लौटाएं. इतिहास गवाह है कि जब-जब मनुष्यता पर हमला हुआ है, साहित्यकारों ने कलम के अलावा विरोध के और भी रास्ते अख्तियार किये हैं. महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को ब्रिटिश शासकों ने ‘नाइटहुड’ की पदवी दी थी. १९१९ में जलियांवाला हत्या कांड के विरोध में उन्होंने ‘सर’ की इस पदवी को वापस लौटते हुए एक खत लिखा, इसका अनुवाद. बेहद प्रासंगिक .  


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कलकत्ता
31मई, 1919
महामहिम


सरकार ने पंजाब के स्थानीय उपद्रवों को दबाने के लिए बड़े पैमाने पर जिन उपायों का इस्तेमाल किया है वह हमारे लिए क्रूर सदमे की तरह है और ब्रिटिश शासन के अधीनस्थ हम भारतीयों की बेबसी और स्थिति को भी बयान करता है.

हमें विश्वास हो गया है कि जिस बेतुकेपन और सख्तियों से बदकिस्मत लोगों को दंड दिया गया है  और जिस तरीके से इसे किया गया है वह दूर-दराज़ तक किसी विशिष्ट अपवाद के रूप में भी  इतिहास की सभ्य सरकारों के अनुरूप नहीं. जिस सत्ता का डील डौल ही मानव जीवन की ध्वंस लीला में भीषण रूप से दक्ष है, उसके द्वारा निहत्थे और साधन विहीन लोगों के साथ किये गए इस बर्ताव को देखते हुए हम दृढ़तापूर्वक ये कह सकते हैं कि इनसे किसी तरह के राजनैतिक मुनाफे का दावा नहीं किया जा सकता और नैतिक समर्थन की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती. पंजाब में हमारे भाइयों के साथ हुए अपमान और कष्टों का लेखा-जोखा धीरे-धीरे इन चुप्पियों से रिसने लगा है और भारत के हर कोने में पहुँच गया है.  इस विश्वव्यापी व्यथा से हमारे लोगों में जागा हुआ आक्रोश शासकों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया है संभवतः वे  इसे हितकारी पाठ मानकर स्वयं को बधाई दे रहे हैं.  अधिकांश एंग्लो-इंडियन पत्रिकाओं ने इस निर्दयता की प्रशंसा की है और कुछ इस हद तक क्रूर हो गईं कि हमारी त्रासदियों का तमाशा बन गया है. सत्ता ने लगातार इस बात का ख़ास ख्याल रखा है कि कैसे हमारी दर्दभरी चीखों और उन तमाम अभिव्यक्तियों का जो हमारे अंग-अंग से व्यंजित होती हैं, गला घोंट दिया जाए.

हम जानते हैं कि हमारी सभी अपीलें व्यर्थ चली गई हैं और प्रतिशोध की आग ने हमारी सरकार की कुलीन शासन-कला को अँधा बना दिया है जबकि वह यथोचित ताकत और नैतिक परम्पराओं के साथ रहते हुए उदारमना हो सकती थी. मैं अपने देश के लिए कम से कम  इतना कर सकता हूँ कि तमाम नतीजों की ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने लाखों देशवासियों की आवाज़ बन सकूं जो यंत्रणा की इस दहशत में हैरान और आवाक हैं. यह ऐसा समय है जबकि शर्मिंदगी और अपमान के बीच सम्मान के चमचमाते इन पदकों को मैं असंगत पाता हूँ, और अब मैं खुद को सभी विशिष्ट पदवियों से अलग करते हुए, अपने देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूँ, जो अपनी तथाकथित निरर्थकताओं के कारण अपमान को झेलने के लिए मजबूर हैं और जिन्हें मनुष्य कहलाने लायक भी नहीं समझा जाता. 

इन्ही कारणों ने मुझे कष्टपूर्वक महामहिम से यथोचित सन्दर्भ और खेद के साथ यह कहने पर मजबूर किया है कि आप मुझे  नाइट की पदवी से भारमुक्त  कर दीजिये, जिसे मैंने  आपके पूर्वजों के हाथों कभी स्वीकार किया था और जिनकी सज्जनता की  अभी भी मैं सत्कारपूर्वक प्रशंसा करता हूँ.

आपका 
रवीन्द्रनाथ टैगोर
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अनुवाद : स्नेहा ठाकुर
Project Technical Assistant, IIT Bombay, M. Tech, Nirma University, Ahmedabad.

जब समाज बचेगा, तब साहित्य भी बच जायेगा : विमल कुमार

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साभार; वागीश झा









देश में बढती वैचारिक कट्टरता और हिंसक साम्प्रदायिकता के खिलाफ लेखकों का यह अखिल भारतीय जुटाव ऐतिहासिक है. साहित्य के इतिहास में साझे सरोकारों को लेकर यह एकजुटता भक्ति काल (लगभग १३५० से १६५० ई.) और स्वाधीनता संग्राम के समय दिखी थी. साहित्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा उसका आकलन आगे होगा.

वरिष्ठ साहित्यकार और ख्यात पत्रकार विमल कुमारने इस प्रकरण के सभी पहलुओं पर विस्तार से लिखा है और जो सवाल उठायें गए हैं  भरसक उनके उत्तर भी देने की कोशिश की है.  इस मुद्दे पर कहीं भी कुछ लिखने – बोलने और राय बनाने से  पहले इस आलेख को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए.




कितने अंधेरों में                           
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विमल कुमार




ह  देश के इतिहास में ही  नहीं, संभवतः विश्व के इतिहास  की यह पहली घटना है जब इतनी बड़ी संख्या में लेखकों ने अकेडमी पुरस्कार लौटाएं  और पदों से इस्तीफे दिए हैं. मेरी जानकारी में करीब  तैतीस लेखकों ने अबतक  अकेडमी पुरस्कार और करीब दस  से अधिक लेखकों ने राज्यों की अकेडमी के पुरस्कार लौटाएं हैं. संभव है कि अभी कुछ और लोग भी लौटाएं. बंगाल के करीब सौ लेखकों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर देश में बढ़ती साम्रदायिकता और अभिव्यक्ति  की आजादी के बढ़ते खतरे पर चिंता जताई है. उधर कोंकणी के लेखकों ने आन्दोलंन  करने की बात कही है. दो ज्ञानपीठ लेखकों केदारनाथ सिंहऔर कुंवर नारायणतथा व्यास सम्मान से सम्मानित विश्वनाथ त्रिपाठी तथा दो साहित्याकेद्मी पुरस्कार प्राप्त लेखक काशीनाथ सिंहऔर अरुणकमलने भी पुरस्कार लौटनेवाले लेखकों का समर्थन किया है और इस लडाई में सबको शामिल होने की भी बात की है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस लडाई के तत्काल नतीजे निकलेंगे लेकिन मैं विष्णु खरेकी तरह इस को खारिज भी नहीं करता हूँ.

ज्ञानेद्रपतिने भी कहा है कि वक़्त आने पर वे भी पुरस्कार लौटा देंगे फ़िलहाल वह  साहित्य अकेडमी को कमजोर नहीं करना चाहते हैं. गिरिराज किशोरेभी यही बात कह रहें हैं लेकिन वो ये आशंका भी व्यक्त कर रहे है कि अकेडमी को सरकार कब्जे में कर लेगी. यही आशंका काशीनाथ सिंहकी भी है, पर उन्होंने   अकेडमी पुरस्कार लौटा दिया है.  नामवर जी का बयान हौसला अफजाई करनेवाला नहीं है. लेकिन उन्होंने विरोध के अन्य तरीके अपनाने की बात कही है लेकिन यही बात तो साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष भी कह रहें हैं और सरकार के मंत्री. विनोद कुमार शुक्लऔर अलका सरावगीतथा मृदुला गर्गपुरस्कार लौटने के पक्ष में नहीं हैं कुछ ऐसी ही बात चंद्रकांत देवतालेने भी कही है पर ये सभी मोदी सरकार में व्याप्त स्थितियों की आलोचना भी कर रहे हैं अभी तक गोविन्द मिश्र, सुरेन्द्र वर्मा, रमेशचन्द्र शाह  और मंज़ूर एह्तशामका कोई बयान मुझे देखने को नहीं मिला है. लेकिन मैं उनसभी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ये पुरस्कार लौटाए. उनके प्रति मेरे मन में इज्ज़त बढ़ गयी है यह जानते हुए कि उनमे से कई लेखक वामपंथी नहीं हैं और वे कलावादी या ढुलमुल स्टैंड लेते रहे हैं लेकिन वे सभी  हमारी लडाई में  सभी  साथी हैं. 

जिन लोगों ने पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें मैं किसी नैतिक कठघरे में भी खड़ा नहीं करता हूँ. महज पुरस्कार लौटना ही विरोध दर्ज करने की  कोई कसौटी नहीं रचनाकार के लिए पर मैं अपने मित्र एवं प्रिय कहानीकार उदयप्रकाश  को विशेष धन्यवाद् देता हूँ जिन्होंने ये शुरुआत की. अशोक वाजपेयीभी धन्यवाद के काबिल हैं जिन्होंने अपनी वाम विरोधियों दृष्टि के बावजूद  एक अच्छा कदम उठाया लेकिन जिन लोगों ने पुरस्कार  लौतानेवालों का मजाक उड़ाया है  उनकी मैं घोर निंदा करता हूँ. फेसबुक पर ऐसी कई टिप्पणियां मैंने देखी  हैं जिस से उनलोगों की घटिया मानसिकता का पता चलता है. मैं मोरवाल को भी बधाई देता हूँ कि उन्होंने इंदु शर्मा कथासम्मान लौटा कर एक जरूरी काम  किया है.

इस पूरे  प्रसंग में कुछ तथ्यों  को जान  लेना जरूरी है क्योंकि बहुत सारे तथ्य अभी मीडिया के सामने आये नहीं हैं. शायद इसलिए कई लोग गलत बयानी भी कर रहे हैं. कलबुर्गी की हत्या ३१ अगस्त को होती है और साहित्य अकेडमी की नींद एक महीने बाद टूटती है और उनकी स्मृति में धारवाड़ में  शोक सभा ३० सितम्बर को होती है जबकि उदयप्रकाश ४ सितम्बर को ही अकेडमी पुरस्कार लौटा देते हैं, क्या साहित्य अकेडमी की संवेदनशीलता ख़त्म हो गयी थी या वह वर्तमान सरकार से इतनी डरती है कि इतनी देर से वो शोकसभा करती है. आमतौर पर एक मैंने अबतक अकेडमी को एक हफ्ते  या दस दिन के भीतर ही शोक सभाएं करते देखा है  और ये तो हत्या से हुई मौत है. अकेडमी को तो और संवेदनशील होना चाहिए था. लेकिन जब  १६ सितम्बर को विश्वनाथ त्रिपाठीके नेतृत्व में ११ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष से मिलकर कलबुर्गी की हत्या पर दिल्ली में शोक सभा की मांग करता है तो अध्यक्ष उनकी मांग को ख़ारिज कर देते हैं.

क्या साहित्य अकेडमी का कोई नियम है कि दिल्ली से बाहर रहनेवाले लेखकों की स्मृति में शोक सभा दिल्ली में नहीं हो सकती है. लेकिन साहित्य अकेडमी ने दिल्ली से बाहर  रहनेवाले लेखकों की स्मृति में भी सभाएं की है. आखिर अध्यक्ष किस बात से डरे हुए थे. अगर उन्हें भी डर था कि शोक सभा करने से  कलबुर्गी की तरह वे भी सांप्रदायिक ताकतों के शिकार हो जायेंगे तो वे यह आशंका जाहिर करते. क्या वो इसलिए नहीं करना चाहते थे कि  भाजपा सरकार  नाराज़ हो जायेगी. वे निर्वाचित अध्यक्ष हैं सरकार द्वारा नियुक्त तो नहीं कि उनकी नियुक्ति खतरे में पड़जाये. वे साहित्य अकेडमी की  स्वायत्ता  की बात कह रहे है लेकिन क्या शोक सभा  आयोजित होने से अकेडमी की  स्वायत्ता के भंग होने का कोई खतरा उन्हें नज़र आ रहा था. चलिए हम थोड़ी देर के लिए ये भी मान लेते हैं कि उनसे भूलचूक हो गयी पर वे तो अकेडमी पुरस्कार लौटाने वालों में से कुछ को आपातकाल का  समर्थक  बताने लगे ये भी कहने लगे कि अकेडमी ने लेखक की  किताब को भारतीय भाषाओँ में  अनुवाद करा कर उसे कीर्ति प्रदान की है. इस से तो ये भी पता चलता है वह  लेखकों का सम्मान करना नहीं जानते ..

आखिर लेखक ने तो पुरस्कार पाने के लिए कोई आवेदन नहीं किया था और न अपनी किताब का अनुवाद करने के लिए कोई अनुरोध किया था तो फिर उन्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए, फिर उन्होंने यह भी कहा कि लोग पुरस्कार लौटकर राजनीति कर रहे है लेकिन  उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि देश के कोने-कोने से लोग संस्था के राजनीतिकरण के लिए पुरस्कार नहीं लौटा रहे थे.

और  वे अख़बार की सुर्ख़ियों के लिए पुरस्कार लौटा रहे थे जैसा कि नामवर जी ने यूनीवार्ता से बातचीत में यह बात कही. क्या नयनतारा सहगल और कृष्णा सोबती अख़बार कि सुर्ख़ियों में आने के लिए कदम उठा रही थी, अगर  अख़बार में नाम आने के लिए इन लेखकों ने ऐसा किया तो यशपाल की कहानी ‘अख़बार में नाम’ की याद आना स्वाभाविक है जिसमे एक बच्चा मोटर के नीचे  इसलिए आ जाता है को वो अख़बार में अपना नाम देखना चाहता है. यह सही है कि अंगरेजी के अख़बार हिन्दी के लेखकों को भाव नहीं देते हैं और उनके जीने मरने की खबर भी नहीं देते हैं. पुरस्कार लौटनेवाले कई लेखकों के नाम वे नहीं छापते पर मीडिया के लिए यह एक अनहोनी घटना थी शयद इसलिए उसने कुछ दिन तवज्जो दी लेकिन बाद में मीडिया भी ढीला पड़ गया. और भाजपा के मंत्रियों के उलटे सीधे बयां छापने लगा जिसमे पुरस्कार लौटानेवलों  पर हमले किये गए और ये कहा गया कि लेखकों ने ये पुरस्कार पहले क्यों नहीं लौटाए तब तो इस तर्क से ये भी कहा जा सकता है कि टैगोर ने जलियांवाला काण्ड की घटना पर सर की उपाधि क्यों लौटाई उस से पहले क्यों नहीं लौटाई. ये भी तर्क दिया जा सकता है कि भक्तिकाल के लेखकों ने भी कोई दरबार में विद्रोह क्यों नहीं किया, १८५७ की लडाई में  कितने लेखक आगे आये.

अरुण जेटली ने इसे कागजी क्रांति कहा लेकिन उन्हें भी कागजी नेता कहा जा सकता है क्योंकि वे जमीनी नेता तो नहीं. खुद तो चुनाव नहीं जीत पाते हैं. रविशंकर प्रसाद ने कहा कि आपातकाल में लेखकों ने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए जबकि उन्हें मालूम है कि रेणु जी ने पद्मश्री लौटाया कई लेखक जेल गए कई लेखकों ने विरोध में रचनाएँ लिखी जिसमे धर्मवीर भारतीऔर भवानी बाबूशामिल हैं.

८४ के दंगों के विरोध में खुशवंत सिंहने पद्मभूषण लौटा दिया था इसके अलावा तीन और लेखको ने भी विरोध में पुरस्कार लौटाए और यह ख़बरें मीडिया में आयीं लेकिन संस्कृति मंत्री ने तो लेखकों को लिखना बंद करने की बात की, फिर यह कहा कि ये कानून व्यस्था तो राज्य की जिम्मेदारी है. अगर सबकुछ राज्य की जिम्मेदारी है तो केंद्र ‘भूमि अधिग्रण’ कानून क्यों बना रहा था. विकास भी राज्य की ही जिम्मेदारी है लेकिन स्मार्ट सिटी से लेकर सफाई अभियान भी केंद्र चला रहा है.

इस पुरे प्रकरण में शशि थरूर भी लेखकों को नसीहत देने लगे कि पुरस्कार का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन जब अकेडमी खुद कलबुर्गी का सम्मान नहीं कर रही तो लेखक क्या करें अगर वे पुरस्कार नहीं लौटाते है तो लोग कहते है कि लेखक पुरस्कार से चिपके  हैं अगर वे लौटते हैं तो  उसने पुरस्कार का असम्मान किया, फिर यह भी कहा जाता है कि विरोध के और भी तरिके हैं.

अगर लेखक  धरना दे तो  पुलिस उसे उठा लेती है पकड़ लेती है लाठी से पिटाई करती है आमरण अनशन करे तो गिरफ्तार कर लेती है, साहित्य अकेडमी के सामने नारेबाजी करे तो यह लेखकों का अशिष्ट व्यवहार  माना  जता है. विरोध में कविता कहानी लिखों तो सरकार के कानों   पर जू तक नहीं रेंगती. नक्सली कह कर पुलिस जेल में डाल  देती है इसलिए साहित्य अकेडमी को यह बताना चाहिए कि लेखक किस तरह विरोध प्रकट करे, फिर ये भी तर्क दिया गया कि साहित्य अकेडमी को बचाना जरूरी है लेकिन किसी ने या नहीं कहा कि संवेदनशीलता को बचाना अधिक जरूरी है.

जब देश और समाज ही नहीं बचा तो साहित्य अकेडमी के बचने से क्या लाभ होगा. कुछ लोगों को अकेडमी से पुरस्कार, यात्रा, सेमीनार आदी की उम्मेदे हैं कुछ को किताबों के प्रकाशन की उम्मीद है शायद वे इसलिए इसे कमजोर नहीं करना चाहते हैं. मैं भी चाहता हूँ कि अकेडमी बचे लेकिन  इस अकेडमी को अब गंभीर लेखकों की जरूर नहीं है. पिछले दस पंद्रह सालों में अकेडमी की साख काफी गिरी है. इस पूरे प्रकरण में कई लोगों की कलई भी खुल गयी और पता चल गया कि उनके क्या दृष्टिकोण हैं. मैं भी यह नहीं मानता हूँ कि पुरस्कार लौटकर लेखकों ने कोई शहादत दी है पर इन लेखकों ने कम से कम आवाज़ तो बुलंद की. मुझे केकी एन दारूवालाकी अध्यक्ष को लिखी गयी चिठ्ठी अच्छी लगी जिसका आशय यह है  कि मैं  भ्रष्ट युपीए- दो  का प्रशंसक नहीं हूँ पर इस देश में एम. ऍफ़ हुसैन और तसलीमा नसरीन के संदर्भ में कट्टरपंथी ताकतों के आगे भाजपा और वाम दलों को झुकते देखा है. 

दरअसल इस देश को खतरा इन्हीं कट्टरपंथी ताकतों से है और चुनावी राजनीति ने समाज का जाति और धर्म के आधार पर बुरी तरह ध्रुवीकरण कर दिया है. मोदी सरकार ने इसे और बढ़ने का काम किया है. लेखकों के प्रतिरोध को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. यह केवल कलबुर्गी की हत्या का मामला नहीं. पिछले डेढ़ वर्षों में जिस तरह का माहौल बना है वो बहुत घुटन भरा है लेकिन ये कहने का अर्थ ये नहीं कि कांग्रेस के कार्यकाल में सब कुछ अच्छा था. आज जैसे ही आप भाजपा कि आलोचना करो वे आपको कांगेसी बता देते है जैसे पहले कांगेस की आलोचना करो तो वे आपको साम्रदायिक और  भाजपाई बता देते थे. मुझे लगता है कि आनेवाले दिन और अंधेरों से भरें होंगे और फासीवाद ताकतें बढेंगी क्योंकि अब विपक्ष के नाम पर कोई तीसरी ताक़त दिखाई नहीं देती. ऐसे में लेखकों को एकजूट होने की जरूरत है. बीस तारिख को जलेस-प्रलेस-जसम-प्रेस क्लब -भारतीय महिला प्रेस कोर- दलित लेखक संघ आदि ने एक सम्मलेन रखा है और २३ को मौन मार्च. बेहतर होगा हम अपने मतभेदों को भुलाकर इस लडाई में शामिल हो और फेसबुक पर हलकी टिप्पणियां न करें .

सार्त्र ने नोबेल पुरस्कार लौटाते हुए क्या कहा था ?

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भारत में बढती वैचारिक असहिष्णुता और फैलती धार्मिक कट्टरता के प्रतिपक्ष में लेखकों और कलाकारों के सम्मान लौटाने की ‘सक्रियता’ से जहाँ कुछ लोग असहज महसूस कर रहे हैं वहीँ कुछ इस सक्रियता के पीछे के कारकों की विकृत व्याख्या कर लेखकों और कलाकारों को ही बदनाम करने में जुट गए हैं. इससे जहाँ इस देश में साहित्यकारों की ‘स्थिति’ का पता चलता हैं वहीं देश की बौद्धिकता के स्तर पर भी यह एक प्रश्न चिह्न की तरह है. 

इसी देश में दिल्ली में भडके सिख विरोधी दंगों के विरोध में खुशवंत सिंह ने अपना ‘पद्म भूषण’ लौटा दिया था. आपातकाल के विरोध में फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘पद्म श्री’ लौटाया. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश शासकों की  नाइटहुडकी पदवी १९१९ में जलियांवाला हत्या कांड के विरोध में लौटा दी थी. ऐसे तमाम प्रकरण हैं जहाँ लेखकों और कलाकारों नें मानवता के पक्ष में अपने कलम और कला से विवेक और नैतिकता के पक्ष को जीवंत रखा. विगत में अगर किसी घटना का विरोध नहीं हुआ है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि सदैव के लिए विरोध का अधिकार खो दिया गया है.

फ्रांस के महान लेखक और अस्तित्ववादी दर्शन के जनक ‘ज्यां पॉल सार्त्र’ ने 1964 में  नोबेल पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था. यह वह समय था जब लेखक की नैतिक सत्ता का सम्मान समाज और राष्ट्र किया करते थे. सार्त्र लेखक के ‘जोखिम भरे उद्यम’ के पक्ष में थे और किसी लेखक के ‘राजनीतिक अतीत’ को कोई बुराई नहीं समझते थे. (जैसा कि आज लेखकों से राजनीतिविहीन होने की मांग की जा रही है)

इस महत्वपूर्ण दस्तावेज का उतनी ही गम्भीरता से अनुवाद कथाकार अपर्णा मनोज ने किया  है. वर्तमान  में इसे फिर से पढ़ा जाना चाहिए.



सार्त्र का खत                      





मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि इस मुद्दे को सनसनीखेज़ घटना की तरह देखा जा रहा है: एक पुरस्कार मुझे दिया गया था और इसे मैंने लेने से इंकार कर दिया.

यह सब इसलिए हुआ कि मुझे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि भीतर ही भीतर क्या चल रहा है. 15अक्तूबर, ‘फ़िगारो लिट्रेरियाके स्वीडिश संवाददाता स्तम्भ में मैंने जब पढ़ा कि स्वीडिश अकादमी का रुझान मेरी तरफ है, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ निश्चित नहीं हुआ है, तो मुझे लगा कि अकादमी को इस बाबत ख़त लिखना चाहिए जिसे मैंने अगले दिन ही लिखकर रवाना कर दिया ताकि इस मसले की मालूमात कर लूँ और भविष्य में इस पर कोई चर्चा न हो.

तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि नोबेल पुरस्कारप्राप्तकर्ता की सहमति के  बगैर ही प्रदान किया जाता है. मुझे लग रहा था कि वक्त बहुत कम है और इसे रोका जाना चाहिए. लेकिन अब मैं जान गया हूँ कि स्वीडिश अकादमी के किसी फ़ैसले को बाद में मंसूख करना संभव नहीं.

जैसा कि मैं अकादमी को लिखे पत्र में ज़ाहिर कर चुका हूँ, मेरे इंकार करने का स्वीडिश अकादमी या नोबेल पुरस्कार के किसी प्रसंग से कोई लेना-देना नहीं है. दो वजहों का ज़िक्र मैंने वहां किया है: एक तो व्यक्तिगत और दूसरे मेरे अपने वस्तुनिष्ठ उद्देश्य.

मेरा प्रतिषेध आवेशजनित नहीं है. निजीतौर पर मैंने आधिकारिक सम्मानों को हमेशा नामंजूर ही किया है. 1945में युद्ध के बाद मुझे लिजन ऑफ़ ऑनर (Legion of Honor) मिला था. मैंने लेने से इंकार कर दिया, यद्यपि मेरी सहानुभूति सरकार के साथ थी. इसी तरह अपने दोस्तों के सुझाव के बावज़ूद भी कॉलेज द फ़्रांसमें घुसने की मेरी कभी चेष्टा नहीं रही.

इस नज़रिए के पीछे लेखक के जोख़िम भरे उद्यम के प्रति मेरी अपनी अवधारणा है. एक लेखक जिन भी राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक जगहों पर मोर्चा लेता है, वहां वह अपने नितांत मौलिक साधन- यानी लिखित शब्दोंके साथ ही मौज़ूद होता है. वे सारे सम्मान जिनकी वजह से उसके पाठक अपने ऊपर दबाब महसूस करने लगें, आपत्तिजनक हैं. बतौर ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तख़त या नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तखतों में भारी अंतर है.

एक लेखक जो ऐसे सम्मानों को स्वीकार करता है, वस्तुतः खुद को एक संघ या संस्था मात्र में तब्दील कर देता है. वेनेजुएला के क्रांतिकारियों के प्रति मेरी संवेदनाएं एक तरह से मेरी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं, पर यदि मैं नोबेल पुरस्कार विजेता, ज्यां-पाल सार्त्र की हैसियत से वेनेजुएला के प्रतिरोध को देखता हूँ तो एक तरह से ये प्रतिबद्धताएँ नोबेल पुरस्कार के रूप में एक पूरी संस्था की होंगी. एक लेखक को इस तरह के रूपांतरण का विरोध करना चाहिए, चाहें वह बहुत सम्मानजनक स्थितियों में ही क्यों न घटित हो रहा हो, जैसा कि आजकल हो रहा है.

यह नितांत मेरा अपना तौर-तरीका है और इसमें अन्य विजेताओं के प्रति किसी भी तरह का निंदा भाव नहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे कई सम्मानित लोगों से मेरा परिचय है और मैं उन्हें आदर तथा प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ.

कुछ कारणों का संबंध सीधे मेरे उद्देश्यों से जुड़ा है: जैसे, सांस्कृतिक मोर्चे पर केवल एक-ही तरह की लड़ाई आज संभव है- दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लड़ाई. एक तरफ पूर्व है और दूसरी तरफ पश्चिम. मेरे कहने का यह अभिप्राय भी नहीं कि ये दोनों एक-दूसरे को गले से लगा लें- मैं भलीभांति इस सच को जानता हूँ कि ये दोनों संस्कृतियाँ आमने-सामने खड़ीं हैं और अनिवार्य रूप से इनका स्वरूप द्वंद्वात्मक है- पर यह झगड़ा व्यक्तियों और संस्कृतियों के बीच है और संस्थाओं का इसमें कोई दखल नहीं.

दो संस्कृतियों के इस विरोधाभास ने मुझे भी गहरे तक प्रभावित किया है. मैं ऐसे ही विरोधाभासों की निर्मिती हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि मेरी सारी सहानुभूतियाँ समाजवाद के साथ हैं और इसे हम पूर्वी-ब्लॉक के नाम से भी जानते हैं; पर मेरा जन्म और मेरी परवरिश बूर्जुआ परिवार और संस्कृति के बीच हुई है. ये सब स्थितियां मुझे इस बात की इज़ाज़त देती हैं कि मैं इन दोनों संस्कृतियों को करीब लाने की कोशिश कर सकूं. ताहम, मैं उम्मीद करता हूँ कि जो सर्वश्रेष्ठ होगा, वही  जीतेगा.और वह है समाजवाद.

इसलिए मैं ऐसे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकता जो सांस्कृतिक प्राधिकारी वर्ग के ज़रिये मुझे मिल रहा हो. चाहें वह पश्चिम के बदले पूर्व की ओर से ही क्यों न दिया गया हो, चाहें मेरी संवेदनाएं दोनों के अस्तित्व के लिए ही क्यों न पुर-फ़िक्र हों, जबकि मेरी सारी सहानुभूति समाजवाद के साथ है. यदि कोई मुझे लेनिन पुरस्कारभी देता तब भी मेरी यही राय रहती और मैं इंकार करता...जबकि दोनों बातें एकदम अलहदा हैं.

मैं इस बात से भी वाकिफ़ हूँ कि नोबेल पुरस्कार पश्चिमी खेमे का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर मैं यह जानता हूँ कि इसे कौन महत्त्वपूर्ण बना रहा है, और कौनसी वारदातें जो कि स्वीडिश अकादमी के कार्यक्षेत्र के बाहर है, इसे लेकर घट रही हैं इसलिए सामयिक हालातों में यह सुनिश्चित हो जाता है कि नोबेल पुरस्कार पूर्व और पश्चिम के बीच फांक पैदा करने के लिए या तो पश्चिम के लेखकों की थाती हो गया है, या फिर पूरब के विद्रोहियों के लिए आरक्षित है. यथा, ये कभी नेरुदा को नहीं दिया गया जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से हैं. कोई इस पर गंभीरता से नहीं सोचेगा कि इसे लुइ अरागोन को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए जबकि वह इसके हकदार हैं. यह अफ़सोसजनक था कि शोलकोव की जगह पास्टरनक को सम्मानित किया गया था, जो अकेले ऐसे रूसी लेखक थे जिनका विदेशों में प्रकाशित काम सम्मानित हुआ जबकि अपने ही वतन में यह प्रतिबंधित किया गया था.
सार्त्र सीमोन के साथ. (the couple’s first picture together. )

दूसरी तरह से भी संतुलन स्थापित हो सकता था. अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम में जब हम सब “121घोषणापत्रपर दस्तखत कर रहे थे, तब यदि यह सम्मान मुझे मिलता तो मैं इसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लेता क्योंकि यह केवल मेरे प्रति सम्मान न होता बल्कि उस पूरे मुक्ति-संग्राम के प्रति आदर-भाव होता जो उन दिनों लड़ा जा रहा था. लेकिन चीज़ें इस दिशा में, इस तरह नहीं हुईं.

अपने उद्देश्यों पर चर्चा करते वक्त स्वीडिश अकादमी को कम-अज-कम उस शब्द का ज़िक्र तो करना चाहिए था जिसे हम आज़ादीकहते हैं और जिसके कई तर्जुमें हैं. पश्चिम में इसका अर्थ सामान्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सन्दर्भों तक सीमित है- अर्थात एक ऐसी ठोस आज़ादी जिसमें आपको एक जोड़ी जूते से अधिक पहनने और दूसरे के हिस्से की भूख हड़प लेने का अधिकार है. अतः मुझे लगा कि सम्मान से इंकार करना कम खतरनाक है बजाय इसे स्वीकार करने के. यदि मैं इसे स्वीकार कर लेता तो यह खुद को उद्देश्यों के पुनर्वासहेतु सौंपना होता. फ़िगारो लिट्रेरियामें प्रकाशित लेख के अनुसार, “किसी भी तरह के विवादास्पद राजनैतिक अतीत से मेरा नाम नहीं जुड़ा था.लेख का मंतव्य अकादमी का मंतव्य नहीं था और मैं जानता था कि दक्षिणपंथियों में मेरी स्वीकारोक्ति को क्या जामा पहनाया जाता. मैं विवादित राजनैतिक अतीतको आज भी जायज़ ठहराता हूँ. मैं इस बात के लिए भी तैयार हूँ कि यदि अतीत में मेरे कॉमरेड दोस्तों से कोई गलती हुई हो तो बेहिचक मैं उसे कुबूल कर सकूं.

इसका यह अर्थ भी न लगाया जाए कि नोबेल पुरस्कारबूर्जुआ मानसिकता से प्रेरित है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसे कई गुटों में, जिनकी नस-नस से मैं वाकिफ़ हूँ, इसकी कई बूर्जुआ व्याख्याएँ जरूर की जायेंगी.

अंत में, मैं उस देय निधि के प्रश्न पर बात करूँगा. पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह भारस्वरूप है. अकादमी समादर-सत्कार के साथ भारी राशि अपने विजेताओं को देती है. यह एक समस्या है जो मुझे सालती है. अब या तो कोई इस राशि को स्वीकार करे और इस निधि को अपनी संस्थाओं और आंदोलनों पर लगाने को अधिक हितकारी समझे जैसा कि मैं लन्दन में बनी रंग-भेद कमिटी को लेकर सोचता हूँ; या फिर कोई अपने उदार सिद्धांतों की खातिर इस राशि को लेने से इंकार कर दे, जो ऐसे वंचितों के समर्थन में काम आती. लेकिन मुझे यह झूठ-मूठ की समस्या लगती है. ज़ाहिर है मैं 250,000क्राउंस की क़ुरबानी दे सकता हूँ क्योंकि मैं खुद को एक संस्था में  रूपांतरित नहीं कर सकता चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. पर किसी को यह कहने का हक़ भी नहीं है कि 250,000क्राउंस मैं यूं ही कुर्बान कर दूँ जो केवल मेरे अपने नहीं हैं बल्कि मेरे सभी कॉमरेड दोस्तों और मेरी विचारधारा से भी तालुक्क रखते हैं.

इसलिए ये दोनों बातें- पुरस्कार लेना या इससे इंकार करना, मेरे लिए तकलीफ़देह है.

इस पैगाम के साथ मैं यह बात यहीं समाप्त करता हूँ कि स्वीडिश जनता के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है और मैं उनसे इत्तेफ़ाक रखता हूँ.


(Jean-Paul Sartre explained his refusal to accept the Nobel Prize for Literature in a statement made to the Swedish Press on October 22, which appeared in Le Monde in a French translation approved by Sartre. The following translation into English was made by Richard Howard.)
_________________________________________
अनुवाद : अपर्णा मनोज 

कथाकार, कवयित्री,अनुवादक
aparnashrey@gmail.com

आजादी और विवेक के हक़ में प्रतिरोध सभा

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आजादी और विवेक के हक़ में             

ज (20/10/15)) प्रेस क्लब में देश के सात प्रमुख लेखक संगठनों जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, दलित लेखक संघ, प्रेस क्लब आफ इंडिया, साहित्य संवाद, विमेंस प्रेस कार्प की ओर से देश में अभिव्यक्ति की आजादी के दमन और बढ़ती हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध सभा का आयोजन किया गया.

सभा को संबोधित करते हुए वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठीने कहा कि साहित्यकार इस समय मौजूद लोकतंत्र के संकट को पहचान रहे हैं. यह व्यक्ति के स्तर पर भले ही शुरू हुआ लेकिन इसकी जड़ इतिहास में छुपी हुई थी. इस देश की विविधता हमारी ताकत है. एकता एकरूपता का नाम नहीं है . एकरूपता तानाशाही की पहचान होती है. एकता विविधता को स्वीकार करने से पैदा होती है. यह एक सांस्कृतिक आन्दोलन है. स्वतंत्र विचारकों और लेखकों की हत्या लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. हम आशा करते हैं कि इस साहित्य अकादमी अपनी चुप्पी तोड़ेगी.

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को संबोधित साहित्यकार कृष्णा सोबती का पत्र संजीव कुमार ने पढ़कर सुनाया और प्रतिरोध सभा को संबोधित के. सच्चिदानंदन का भी पत्र पढ़ा गया.

जनवादी लेखक संघ के चंचल चौहानने कहा कि इस आन्दोलन की अलग-अलग व्याख्या की जा रही है. यह प्रतिरोध दो चीजों के बारे में है- झूठ के खिलाफ और हिंसा के खिलाफ. यह प्रतिरोध ऐतिहासिक घटना है.

आनंद स्वरुप वर्माने कहा हम अँधेरे समय से गुजर रहे हैं. इस देश के अल्पसंख्यक डरे हुए हैं. लेखक होने के नाते मैं भी अल्पसंख्यक हूँ और डरा हुआ हूँ .

पंकज सिंहने कहा कि यह एक अँधेरे समय की शुरुआत भी है. इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई की जरुरत है. जिन लोगों ने पुरस्कार वापस नहीं किया वे भी हमारे साथ हैं और प्रतिरोध में शामिल हैं.


आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेयने कहा कि जिन लोगों ने पुरस्कार,पद और तरह-तरह के सम्मानों का त्याग किया है उनका अभिवादन करता हूँ. उन्होंने साहस, समझदारी और सामाजिक सरोकारों का परिचय दिया है. विचारों की विविधता ही भारतीय संस्कृति की पहचान रही है.

नीलाभने कहा कि फासीवादी शक्तियों के पास विचारों की कोई सम्पदा नहीं है. हम क्या खायेंगेक्या पियेंगे, क्या पहनेगे पर प्रतिबन्ध लगाना इस देश को परतंत्र बनाना है.

प्रगतिशील लेखक संघ के अली जावेद ने कहा कि दाभोलकर, कुलबर्गी, पानसरे ने किसी की आस्था पर चोट नहीं पहुँचाया. उन्होंने सवाल करना सिखाया.

जन संस्कृति मंच के आशुतोष कुमारने कहा कि यह प्रतिरोध अखिल भारतीय है. आजादी के लिए भारतीय जनता के संघर्ष से ही भारतीयता की पहचान निर्मित हुई है. आज कुछ लोग भारतीयता को गाय और चाय तक सीमित कर देना चाहते हैं. ऐसे लोग भारतीयता के और हिन्दू संस्कृति की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के भी विरोधी हैं. आज लेखक सच्ची भारतीयता को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

ओम थानवीने कहा कि उन लेखकों का आभार जिन्होंने हमें एक होने का मौका दिया. यह एक जुटता बनी रहनी चाहिए.

कवि मनमोहन ने कहा कि यह सिर्फ लेखकों का मसला नहीं है. वंचित तबकों के लोग रडार पर आ गये हैं. निरंकुशता का माहौल उभर रहा है.

इब्बार रब्बी ने कहा कि लेखक कबीर और तुलसी के ज़माने से आजादी और सामाजिक समरसता के लिए लड़ते रहे हैं. प्रेमचंद ने समाज को रास्ता दिखने के लिए लेखकों का आह्वान किया था. लेखक प्रतिरोध करते हुए अपने स्वाभाविक रास्ते पर चल रहे हैं.

बजरंग बिहारी तिवारीने कहा कि लेखकों की हत्या की अनदेखी करने वाले अँधेरे के वाहक हैं. इनका चरित्र चित्रण करते हुए तुलसीदास कह चुके हैं कि ये हिंसा से प्रेम करने वाले प्राणी हैं. बजरंग बिहारी ने साहित्य अकादमी के सदस्य राधा वल्लभ त्रिपाठीका लिखित वक्तव्य भी पढ़ा . इस वक्तव्य में कहा गया कि आज-कल बहुत से लोग धर्म और धर्मान्धता में अंतर करना भूल गए हैं. धर्म के नाम पर किए जा रहे अत्याचार सबसे पहले धर्म को ही नुकसान पहुंचता है. मैं साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को महत्वपूर्ण समझता हूँ और उसे बचाना चाहता हूँ. मैं इसी कारण साहित्य अकादमी से त्यागपत्र नहीं दिया है लेकिन अगर अकादमी प्रभावशाली कदम उठाने में असमर्थ रहती है तो मैं अकादमी के चारो पद छोड़ सकता हूँ.

विष्णु नागरने कहा कि असहिष्णुता की विचारधारा को चुनौती देने का जो काम विपक्ष की राजनीतिक पार्टियाँ नहीं कर पायीं उसकी जिम्मेदारीलेखकों ,कलाकारों पर आ पड़ी है. लेकिन इस प्रतिरोध को जनांदोलन का रूप देने की जरुरत है.

जनवादी लेखक संघ की रेखा अवस्थीने कहा कि मौजूदा राजनीतिक निजाम के पास लेखकों से बात करने की भाषा ही नहीं है. उनके पास केवल अपशब्द और धमकी की भाषा है. जो लोग लेखकों के इतिहास की बात उठा रहे हैं वे अपने इतिहास की तरफ भूल कर भी देखना नहीं चाहते. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की आजादी की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं थी. उनकी किसी भी प्रगतिशील आन्दोलन में कोई भूमिका नहीं रही है.

कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि पुरस्कार वापसी लेखकों का सांकेतिक प्रतिरोध है. देशभर के लेखक एक स्वर से कह रहे हैं कि वे धर्मान्धतासाम्प्रदायिकता और असहिष्णुता की विचारधारा को नामंजूर करते हैं जिस विचारधारा को कुछ लोग अपनी हिंसक गतिविधियों से और कुछ लोग अपनी चुप्पी से बढ़ावा दे रहे हैं. लेखकों ने इस चुप्पी को छिन्न-भिन्न कर दिया है.

सभा में कथाकार संजीव और चिन्तक सुभाष गाताडे के आलावा अन्य कई वक्ताओं ने भी अपनी बातें रखी. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, मदन कश्यप, Aflatoon Afloo, Balendu Swami , Purnendu Goswami , Ajit Rai Sanjay Joshi Sanjeev Kumar Abhishek Srivastava Kavita Krishnapallavi Vaibhav Singh Ranjit Verma Leena Malhotra केसाथ सभा में भारी संख्या में लेखक, कलाकार, पत्रकार, शिक्षक और छात्र मौजूद थे. सभा का संचालन प्रेस क्लब के सचिव नदीम ने किया .

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 राम नरेश / विजय गुप्ता

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रदीप मिश्र

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‘क्या अँधेरे वक्त में
गीत गाये जायेंगे
हाँ, अँधेरे के बारे में
गीत गाये जायेंगे.’ 
(बर्तोल्त ब्रेख्त)


साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा सतत संघर्ष में है, गाहे–ब-गाहे प्रतिपक्ष के अन्य मोर्चों पर भी सक्रिय होता है. 
वह संकेत करता है, सचेत करता है, सावधान करता है. वह यह सब इसलिए करता है कि वह समाज का संवेदनशील हिस्सा है, वह यह ज़िम्मेदारी सदियों से उठाता आया है. 
कबीर के शब्दों में कहें तो –‘ बिबेक बिचार भरौं तन’ हालाकिं उसे अक्सर यह लगता है – ‘संतों ई मुरदन के गाँव’.

इस निराशा में भी वह ‘बीज बन कर बिखरने’ की कामना करता है. अँधेरे से जूझती प्रदीप मिश्र की कविताएँ





प्रदीप मिश्र की कविताएँ                          


लौटा रहा हूँ अपना ही अपनों को


शब्दों को निचोड़ता हूँ
टपकता है समय का विचलित पसीना
भावों को धौंस देता हूँ
आँसू ढुलकने लगते हैं
संस्कृति के गालों पर
मन को समझाता हूँ
थोड़ा और बर्दास्त कर ले
गुर्राते हुए पूछता है
कितना  और कब तक

एक दिन सुबह
क्षितिज पर चमकते हुए सूर्य के बावजूद
बनी रहती है गहरी अंधेरी रात
और नीला पड़ जाता है
मेरा सर्जक

विद्रोह कर देते हैं शब्द
अकड़ कर खड़े हो जाते हैं भाव
अनसन पर बैठ जाता है मन

फिर भी तुम आदेश देते हो
कहूँ अच्छा-सुन्दर-वाह
मैं भाट
मैं चारण

नहीं मैं एक कवि
शब्द मेरी हड्डियाँ
भाव प्राण
और मन ऊर्जा
इनके बिना मैं कुछ भी नहीं
और भाट-चारण तो कदापि नहीं

इसलिए लौटा रहा हूँ
अपना ही
अपनों को
इस काली रात जैसी सुबह के खिलाफ़.





स्वयं को ख़ारिज करता हूँ

सुनों मैं इतना नृशंस नहीं
जो तुमको गोली मार दूं
मुल्ला मौलवी भी नहीं हूँ
जो जारी कर दूँ फतवा
सत्ता के गलियारे में मेरी जगह नहीं है
जिसकी चमक से अंधा कर दूँ
सारे मनुष्यों को और तुम्हारा महिमागान करूँ
आतंकी या आतातायी भी नहीं कि
संवेदनाओं की लाश पर खड़े हो कर
अच्छे दिनों की बात करूँ

हमारे इस वक्त में
मनुष्यता कराह रही है दर्द से
मंजर बर्दास्त बाहर है
इसलिए मैं स्वंय को खारिज कर रहा हूँ

एक कवि हूँ
हर बार
स्वयं को ही ख़ारिज करता हूँ
मनुष्यता के पक्ष में.





मैं एक रचनाकार
(एक)

मैं एक रचनाकार
मेरे पास सिर्फ मेरा वजूद
जिसमें शामिल सब मेरे अपने
मेरे अपने मेरी ताकत

तुम एक राजनीतिज्ञ
तुम्हारा लक्ष्य सिंहासन
सिंहासन को चाहिए प्रजा
प्रजा यानि मैं और मेरे अपने

तुमने एक चमक भर दिया मेरे वजूद में
इस चमक में चौंधियाया फिरता रहा मैं
देश-गांव-जवार
और तुम्हारे कोड़ों से छिलती रही
मेरे अपनों की पीठ

अपनों का दर्द
अपनों तक पहुँचता ही है
और मैं बिलबिलाने लगा दर्द से
देखा मेरी वजूद में
सिर्फ चमक बची है
चमक यानि दुम हिलाने की आदत

मैं अपने इस वजूद को
को लौटा रहा हूँ तुमको
और स्वतंत्र हो रहा हूँ
दुम से

मेरी स्वतंत्रता
मनुष्ता से भरे समाज में
लौटना है

जहां खड़ा होकर चिल्लाउंगा
नहीं...बस अब और नहीं
और भर भरा कर ढह जायेगा
तुम्हारा सिंहासन और राजमहल.




(दो) 
मैं गोली नहीं चलाऊंगा
बम भी नहीं फाड़ूँगा
ना ही करूँगा कोई ध्वंस 
लेकिन तुम बौखला जाओगे
अपने कुत्तों को छोड़ दोगे मुझ पर
शताब्दियों से यही करते आए हो

नोंचा-खसोटा जाता रहूँगा
और लौटाता रहूँगा सारे सम्मान और पुरस्कार
जिनपर तुम्हारी सत्ता की मुहर है

सावधान शहंशाह
मैं लौटा रहा हूँ
वह सब कुछ जो तुमको सुरक्षित करता है

मैंने बचा लिया है
उम्मीद को फांसी के फंदे से
बचाकर रख दिया है
शब्दों के बंकर में
भावों की खोह बनाकर
जिसकी पहरेदारी कर रही है संवेदना
रचनाकार यही करता है
हर बार

अब मैं फूटकर बिखर जाऊँगा
बीजों की तरह

बीज बनकर बिखर रहा हूँ
शहंशाह
रोक सको तो रोक लो

मेरी फसल को लहलहाने से.

______________________________


प्रदीप मिश्र 
कविता संग्रह फिर कभी (1995) तथा उम्मीद(2015), वैज्ञानिक उपन्यास अन्तरिक्ष नगर (2001) तथा बाल उपन्यास मुट्ठी में किस्मत (2009) प्रकाशित. परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र, इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत.
ईमेल – mishra508@gmail.com /०९१-७३१-२४८५३२७


विष्णु खरे : साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प

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२३/१०/२०१५ को साहित्य अकादेमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों - कलाकारों के विरोध प्रदर्शन के बीच अपना प्रस्ताव पारित किया. वरिष्ठ लेखक – आलोचक विष्णु खरेइस प्रस्ताव को अकादमी के इतिहास में ‘अभूतपूर्व’ बता रहे हैं और इसे लेखकों की 'ऐतिहासिक उपलब्धि'मान रहे हैं. यह आलेख खास समालोचन के लिए. 


साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प                    
विष्णु खरे 



हावत है कि शैतान को भी उसका देय चुकाया जाना चाहिए. यहाँ हमें दो शैतानों – एक व्यक्ति और एक संस्थान – को उनका भुगतान करना होगा. एक ज़माना था जब मैं उदय प्रकाशमें महती संभावनाएँ देखता था. उनके पहले विदेशी,जर्मन,अनुवाद के लिए मुझे दोष दिया जा सकता है. उनकी प्रारंभिक रचनाएँ मैं अब भी प्रशंसा और अचम्भे से पढ़ता हूँ. हिंदी साहित्य में सभी जानते हैं कि फिर वह किस तरह अपनी ही जटिल मानसिकता,विडम्बनाओं और शहीदाना,लोकप्रिय,सफल तरकीबों के शिकार होते चले गए. इधर जिस तरह से सबसे पहले उन्होंने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार ’’लौटाया’’ उसे भारतीय लेखन की सबसे बड़ी,लगभग विश्वस्तरीय, ‘कॉन्फ़िडेंस ट्रिक’ कहा जा सकता है. लेकिन उसके आश्चर्यजनक,कल्पनातीत राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिणाम हुए. कुछ भयातुर, शर्माहुज़ूर लेखकों का ज़मीर, देर से ही सही, लेकिन जागा. जिस भेड़चाल से लेखक-लेमिन्गों ने जौहर करने की शैली में ख़ुदरा अकादमियों के विभिन्न पद-पुरस्कार ‘’वापिस’’ किए उस पर एक उम्दा कॉमिक फिल्म बन सकती है. उदय प्रकाश हामेल्न के चितकबरे जर्मन पुंगीबाज़ की तरह हँसते हुए नए ईनामों के हाइवे पर हैं.

यदि हम साहित्य अकादेमी जैसे संस्थान को दूसरा शैतान मानें तो (डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे और विशेषतः) उसके पुरस्कार-विजेता प्रो. एम.एम.कलबुर्गीकी हत्या(ओं) पर उसकी कथित अकर्मण्यता, लापरवाही और उदासीनता को लेकर मीडिया में जो मुख्यतः सनसनी, चटख़ारों और खलसुख के लिए व्यापक विवाद उठाया गया उससे समाज की सांस्कृतिक मलाईदार परत में उसकी क्षयिष्णु प्रतिष्ठा और छवि को सीधा फ़ौरी नुक़सान ज़रूर हुआ लेकिन अप्रत्याशित सहजात लाभ (कोलैटरल बैनिफ़िट्स) भी मिले.

साहित्य अकादेमी के तत्कालीन, अब दिवंगत, उप-सचिवद्वय (डॉ) प्रभाकर माचवे और (डॉ) भारत भूषण अग्रवाल का अत्यंत कनिष्ठ कृपापात्र-मित्र होने के कारण, जो ‘’तार सप्तक’’ के सुपरिचित कवि और बहुविध लेखक भी थे, मैं इस संस्था को 1965 से जानता हूँ जब उसके संस्थापक-सचिव, रवीन्द्रनाथ ठाकुरके सगे दामाद और गाँधी-गुरुदेव के प्रतिष्ठित जीवनीकार, मंद्र-रोबीली अंग्रेज़ीदाँ शराफ़त के धनी कृष्ण कृपालाणीरिटायर होनेवाले थे. कुछ ऐसे विचित्र संयोग रहे कि उसके ग्यारह वर्ष बाद अकादेमी में तो स्वयं मेरी नियुक्ति, जिसका एक अवांतर किस्सा है, भारत भूषण अग्रवाल की त्रासद असामयिक मृत्यु के बाद उन्हीं के रिक्त पद ‘उप-सचिव (कार्यक्रम)’ पर हुई और अकादेमी की कार्य-प्रणाली को सहभागी के रूप में जानने का दुर्लभ अवसर मिला. यह मात्र एक तथ्य है कि उन दिनों यह अकादेमी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील  ओहदा होता था क्योंकि पुरस्कारों तथा प्रकाशनों सहित सैकड़ों  साहित्यिक कार्यक्रम उसी के ज़िम्मे होते थे. सारी रिपोर्टें उसे तैयार करनी होती थीं, देश-भर के सैकड़ों लेखकों और साहित्यिक संस्थाओं के सतत् संपर्क में रहना होता था, केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय जाना पड़ता था, पार्लियामेंट्री कमेटियों का सामना करना पड़ता था  और सत्र के प्रश्नोत्तर-काल में कभी-भी संसद में तलब होने के लिए प्रकम्पित-प्रस्वेदित तैयारी रखनी होती थी. लेखक तब छत्तीस बरस का था. यह सिलसिला आठ वर्ष ही चल पाया.इसका भी एक अवांतर क़िस्सा है.

आज़ादी के आठ वर्षों के भीतर ही नेहरू-युग की निर्मिति होने के कारण अकादेमी को 1964 के बाद संयोगवश कभी-कभी गतिशीलता, आधुनिकता और समाजोन्मुखता के दौरे पड़ते रहे हैं वर्ना वह कुल मिलाकर संभ्रांत, कुलीन, बूर्ज्वा, अवसरोचित गिरोह-गुट-ग्रस्त, प्रयोग-नावीन्य-शत्रु, कलावादी ‘सवर्ण’  और मूलतः (विशेषतः युवा) लेखक विरोधी ही रही चली आती है. अपनी शुतुर्मुर्गियत में उसे भारत की चतुर्मुख चतुर्दिक् दुर्दशा नज़र नहीं आती. प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता, जनधर्मिता, सामाजिक-आर्थिक बराबरी, वास्तविक वैश्विक आधुनिकता के मूल्यों आदि से वह बिदकती है और उन्हें ‘’साहित्येतर’’, यहाँ तक कि ‘’भारतीय-परंपरा-विरोधी’’ भी कह सकती है. उसकी भाषा, शैली, कार्य-पद्धति, रुझान, चिंतन  और चिन्ताएँ दकियानूस, प्रतिक्रियावादी, कंज़र्वेटिव, पश्चमुखी, लिहाज़ा मृदु हिंदुत्व के प्रति सहानुभूति के  आरोप को न्यौतनेवाले हैं.

इसलिए मुझे उस प्रस्ताव ने चकित और अवाक् कर दिया जो अकादेमी के सर्वोच्च प्राधिकरण, उसके एग्जीक्यूटिव बोर्ड (कार्यकारिणी), ने कल 23 अक्टूबर को अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तथा उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बारके नेतृत्व में दिल्ली के अपने मुख्यालय में  ‘’सर्वसम्मति से’’ पारित किया है. अकादेमी के इतिहास में उसकी शब्दावली अभूतपूर्व है. उसमें न केवल प्रो. एम.एम.कलबुर्गी तथा अन्य बुद्धिजीवियों की दुःखद हत्याओं पर गहरा शोक प्रकट किया गया है बल्कि देश में कहीं भी किसी भी लेखक पर किए गए किसी भी अत्याचार और क्रूरता की कठोरतम निंदा की गयी है. बहुत महत्वपूर्ण यह है कि अकादेमी ने इस सन्दर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों से अविलम्ब कार्रवाई करने  तथा लेखकों को सुरक्षा देने की माँग की है. प्रस्ताव भारतीय संस्कृति के बहुलतावाद के संरक्षण और सभी सरकारों द्वारा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखने की बात करता है. जाति, धर्म, क्षेत्र तथा विचारधाराओं के भेद मिटाकर एकता और समरसता बनाए रखने के संकल्प को भी उसमें रेखांकित किया गया है. प्रो कलबुर्गी की हत्या की निंदा को प्रस्ताव दुहराता है. पहले भी लेखकों की हत्या और उनपर हुए अत्याचारों पर वह अकादेमी के गहरे दुःख को मुखरित करता है. किन्तु प्रस्ताव का शायद सबसे मार्मिक अंश वह है जिसमें विभिन्न जीवन-क्षेत्रों में कार्यरत सामान्य नागरिकों पर की जा रही हिंसा की, जिसे खुद लेखक अपने आन्दोलन में भूल चुके थे, साहित्य अकादेमी कठोरतम भर्त्सना करती है.

भारत जैसे देश में ऐसा कोई भी वक्तव्य सम्पूर्ण और रंध्रमुक्त नहीं हो सकता. सर्वसंशयवादी लेखक-बुद्धिजीवी इसे भी पाखंडी और धूर्ततापूर्ण कहकर खारिज़ कर देंगे. लेकिन बहुत याद करने पर भी मुझे स्मरण नहीं आता कि वामपंथी संगठनों को छोड़ कर स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी निजी, सरकारी या अर्ध-सरकारी संस्था ने इतना सुस्पष्ट, बेबाक़, प्रतिबद्ध, रैडिकल और दुस्साहसी वक्तव्य कभी पारित और सार्वजनिक किया हो.अशोक वाजपेयी ने कुछ महीने पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर माँग की थी कि साहित्य अकादेमी की कथित स्वायत्तता को अविलम्ब समाप्त कर दिया जाए लेकिन अकादेमी के इस प्रस्ताव ने सिद्ध कर दिया कि संकट-काल में ही सही, यदि हिम्मत और संकल्प हो तो एक स्वायत्त संस्था क्या सन्देश दे सकती है.

लेखकगण अपने डंड-कमंडल कंठी-माला वापिस लेते हैं या नहीं इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. यही हास्यास्पद है कि मीडिया के तमाम ‘स्पिन’ और ‘हाइप’ के बावजूद लगभग छः सौ अकादेमी पुरस्कार विजेताओं के जीवित होते हुए भी दस प्रतिशत भी लेखकों ने उसे नहीं लौटाया है. यदि बिहार में भाजपा हारती है, जिसकी प्रबल संभावना है, तो 2019 में उसका मरकज़ी तम्बू उखड़ना तय है, लेकिन इस विवाद को जो तूल दिया जा रहा था उससे यह लगता था कि साहित्य अकादेमी और मंत्रियों  की बेवकूफ़ियों की सेंध से घुसकर मरजीवड़े लेखक दीपावली तक मोदी-शाह सरकार गिरा ही डालेंगे. मैं तो लेखकों की यही ऐतिहासिक उपलब्धि मानता हूँ कि वह अकादेमी से ऐसा युगांतरकारी प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहे.

लेकिन लेखकों के एक वर्ग ने अनैतिकता का परिचय देते हुए यह तथ्य छिपाए कि अकादेमी अध्यक्ष ने कन्नड़ के विख्यात लेखक, अकादेमी पुरस्कार विजेता और कर्नाटक-निवासी अपने उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बार से अनुरोध किया था कि वह कलबुर्गी-परिवार से मिलें तथा संवेदना प्रकट करें. कम्बार इस सिलसिले में मुख्यमंत्री से भी मिले. अकादेमी ने बंगलूरु में एक उपस्थिति-बहुल सार्वजनिक शोक-सभा भी की. अकादेमी की कुछ अन्य भाषाओँ में भी ऐसी स्मारक-सभाएँ हुईं, वक्तव्य जारी किए गए. इस सब को प्रचार-प्रसार क्यों नहीं मिला यह समझना कठिन है और सरल भी. अब अचानक यह आत्यंतिक माँगें हो रही हैं कि अकादेमी को भंग कर दिया जाए या विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बर्ख़ास्त हों, लेकिन किन तानाशाही नियमों के तहत ? अकादेमी को शायद संसद ही निरस्त कर सकती है लेकिन तब भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े बंद नहीं होंगे.उधर केवल अकादेमी की जनरल काउंसिल ही अपने द्वारा चुने गए अध्यक्ष पर महाभियोग (इम्पीचमेंट) लगा सकती है. सब कुछ अपने बाप की खेती नहीं है.फिर यदि वर्तमान सरकार किसी तरह अकादेमी को निलंबित या नेस्तनाबूद कर देती है तो बाक़ी ऐसे सान्स्कृतिक एवं शोध  संस्थान भी नहीं बचेंगे और उनका हश्र नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय जैसा होगा जहाँ को करि तर्क बढावहिं शाखा जैसा हो जाएगा. यह बात बिलकुल जुदा है कि इन बकरों की अम्माएँ कब तक दुआ मनाएँगी. प्रतिबन्ध बीफ़ पर है,गोट-मीट पर नहीं.

लेखकों ने पिछले दिनों अकादेमी पर जो आरोप लगाए हैं और उसे लेकर जो माँगें की हैं उनके औचित्य-अनौचित्य या ‘मेरिट्स’ पर न जाते हुए यही कहा जा सकता है कि वह ‘अवसरवादिता’, बौद्धिक आलस्य, अज्ञान, अधकचरेपन, शौर्य-प्रदर्शन और उपरोक्त भेड़चाल से ओतप्रोत हैं. अधिकांश ‘प्रदर्शनकारी’ जुलूसी न तो लेखक हैं और न साहित्य में उनका कुछ दाँव पर लगा हुआ है. स्वयं लेखक साहित्य अकादेमी के समूचे कार्य-कलाप को न तो जानते-समझते हैं न उसकी सम्पूर्ण व्याख्या और समीक्षा कर सकते हैं. अक्सर उनका एकमात्र मसला अकादेमी पुरस्कार होते हैं और इस बासी कढ़ी में वार्षिक उबाल आते रहते हैं. जिस तरह ‘’योनि-मात्र रह गई नारि’’, उसी तरह अकादेमी सिर्फ़ पुरस्कारों तक सिकोड़ कर रख दी गई है. लेखकों की इस ईर्ष्यालु, लोलुप अंध-मूर्खता पर अकादेमी का हर सदस्य एकांत में ठठाकर हँसता है.


साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओं को, वह काँग्रेस-काल में हों या भाजपा के अच्छे दिनों में, कभी भी लेखकों की सख्त निगरानी से दूर नहीं रखा जा सकता. उसकी समस्याएँ शोक-प्रस्तावों और पुरस्कारों तथा अन्य पारितोषिकों से कहीं जटिल हैं. उसकी जनरल काउंसिल और कार्यकारिणी के ‘’चुनावों’’ की प्रक्रिया दूषित और ‘रिग्ड’ है.वी.के. गोकाक की अध्यक्षता और इंद्रनाथ चौधरी के सचिवत्व में ही अकादेमी का पतन शुरू हो गया था. गोपीचंद नारंग के ज़माने से तो उसमें नासूर से भी अधिक सड़न आ गई. इस अस्तबल को  साफ़ करने के लिए मुक्तिबोध के शब्दों में एक नहीं, कई मेहतर चाहिए. वह भारतीय लेखक हो नहीं सकते. उदय प्रकाश ने उसके पुरस्कार को बेवजह कुत्ते की हड्डी नहीं कहा था. हमें अभी अकादेमी के इस प्रस्ताव का स्वागत, भले ही मजबूरन, शायद एक नई, ग़नीमती शुरूआत के रूप में करना चाहिए.
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vishnukhare@gmail.com 
9833256060

मेघ - दूत : ख़ोर्ख़े लुई बोर्खेज़ (The Circular Ruins)

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अर्जेंटीना के कवि, लेखक और अनुवादक  ख़ोर्ख़े  लुई बोर्खेज़  (Jorge Luis Borges) स्पेनी (Spanish) साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रख्रते हैं.
कहानी 'The Circular Ruins' ( Las ruinas circulares) का प्रकाशन दिसम्बर १९४० में हुआ था. बाद में १९४६ में  इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ. बोर्खेज़  साहित्य में जादुई यथार्थवाद के जनक माने जाते हैं. यह  कहानी  फैंटेसी के सार्थक इस्तेमाल के लिए प्रसिद्ध  है. इंग्लिश से हिंदी में इसका अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.




गोल खंडहर                                                                   
ख़ोर्ख़े लुई बोर्खेज़ 

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय



स रात किसी ने उसे नाव से सरककर तट पर आते हुए नहीं देखा. किसी ने भी बाँस की उस नाव को उस पवित्र कीचड़ में धँसकर डूब जाते हुए नहीं देखा. लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर वहाँ रहने वाले हर व्यक्ति को यह पता चल गया कि बहुत कम बोलने वाला वह व्यक्ति दक्षिण दिशा से आया था, और यह भी कि वह नदी के ऊपरी छोर पर स्थित असंख्य गाँवों में से एक का रहने वाला था, जहाँ की स्थानीय बोली यूनानी भाषा से दूषित नहीं हुई थी और जहाँ कुष्ठ-रोग विरल था.
       
असल में पके हुए बालों वाले उस आदमी ने पहले कीचड़ को चूमा था. फिर लड़खड़ाता हुआ वह उस ऊँचे किनारे पर चढ़ा था (हालाँकि वहाँ उगी कँटीली झाड़ियाँ उसकी त्वचा को भेद रही थीं, किंतु वह उन्हें परे नहीं हटा रहा थाशायद वह अपनी त्वचा के छिलने के दर्द को महसूस भी नहीं कर पा रहा था). लहुलुहान और अशक्त वह किसी तरह खुद को घसीटते हुए उस गोल अहाते तक ले गया, जहाँ किसी घोड़े या बाघ की पत्थर की प्रतिमा स्थापित थी जो पहले कभी आग के रंग की थी, पर अब राख के रंग की रह गयी थी. वह गोल दायरा एक मंदिर था जिसे कोई प्राचीन अग्निकांड तबाह कर चुका था. अब मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों से भरा एक जंगल उस मंदिर की बची-खुची पवित्रता को नष्ट कर रहा था, जहाँ किसी देवता की एक भग्न मूर्ति भी उपेक्षित खड़ी थी. वह विदेशी उस मूर्ति के आधार के पास ही औंधा लेट गया.
          
दूसरे दिन जब उसकी नींद खुली तो सूरज आकाश में बहुत ऊपर चढ़ आया था. बिना हैरान हुए उसने यह महसूस किया कि उसके घाव अब ठीक हो रहे थे. उसने अपनी निस्तेज आँखें बंद कर लीं और वह सो गया. यह नींद उसे थकान की वजह से नहीं आई थी बल्कि वह इसलिए सोयाक्योंकि वह अभी और आराम करना चाहता था. वह जानता था कि उसके अपराजेय मक़सद की पूर्ति के लिए यह मंदिर ही उपयुक्त स्थल था. वह यह भी जानता था कि बहती हुई नदी के किनारे थोड़ी ही दूरी पर एक और मांगलिक मंदिर के भग्नावशेष थे, जिसे पेड़ों के अंतहीन झुरमुट भी नहीं छिपा पाए थे. इस मंदिर में मौजूद देवताओं की मूर्तियों को भी जला कर नष्ट कर दिया गया था किंतु वह जानता था कि फ़िलहाल उसे सो कर अपने तन-मन की स्फूर्ति को बहाल करना था.

बीच रात में वह किसी पक्षी का उदास गीत सुनकर जाग गया. नंगे पैरों के निशान, कुछ अंजीर और गूलर तथा पानी से भरा एक जग अपने पास देखकर वह जान गया कि इलाक़े के लोगों ने उसे यहाँ सोते हुए देख लिया था. उसकी कृपा की आकांक्षा की वजह से या उसके जादू से डरकर उन्होंने उसकी नींद को बाधित नहीं किया था. हालाँकि यह जानकर उसे भय की कँपकँपी महसूस हुई और उसने खंडहर हो चुकी दीवार में ही एक बड़ा आला ढूँढ़ लिया, जहाँ छिप कर उसने खुद को पत्तियों और लताओं से ढँक लिया.

जो मक़सद उसे यहाँ लाया थाउसे प्राप्त करना असम्भव तो नहीं था, किंतु वह अलौकिक ज़रूर था. दरअसल वह आदमी के बारे में सपना देखना चाहता था. वह उस आदमी का सपना एक-एक ब्योरे की सम्पूर्णता में देखना चाहता थाऔर फिर वह उस आदमी का प्रवेश वास्तविकता में कराना चाहता था. इस जादुई परियोजना ने उसकी पूरी आत्मा को निचोड़कर उसे नि:शक्त बना दिया था. ऐसी स्थिति में यदि कोई उससे उसका नाम पूछता या उसके पिछले जीवन के बारे में पूछता तो शायद वह इसका भी जवाब न दे पाता. यह निर्जन और ध्वस्त मंदिर उसे अपने लिए सही जगह लगीक्योंकि यहाँ ज्ञात दुनिया का हस्तक्षेप नहीं के बराबर था. इलाक़े के किसानों का आस-पास होना भी उसके लिए फ़ायदेमंद थाक्योंकि वे उसकी थोड़ी-बहुत ज़रूरतों को पूरा कर सकते थे. भेंट के तौर पर दिए गए उनके चावल और फल पेट भरने में उसकी सहायता करते. अब वह अपने एकमात्र उद्देश्य सोकर सपने देखने के लिए खुद को समर्पित कर सकता था.

शुरू में उसके सपने बेहद अव्यवस्थित थे. बाद में उसे द्वन्द्वात्मक क़िस्म के सपने आने लगे. अजनबी ने सपना देखा कि वह एक गोल रंगभूमि के केन्द्र में था जो कि इस जले हुए मंदिर जैसा ही था. शांत छात्र सीढ़ियों पर ऐसे बैठे थे गोया वे छात्र न हो कर आकाश में लटके बादल हों. अंतिम छात्रों के चेहरे कई सदियाँ दूर अंतरिक्ष में लटके हुए थेहालाँकि वे चेहरे बिलकुल स्पष्ट और सही थे. वह अजनबी उन छात्रों को शरीर की रचना, ब्रह्मांडिकी और जादू आदि विषयों पर भाषण दे रहा था. सभी चेहरे उत्सुकता से सुन रहे थे और समझदारी के साथ प्रश्नों के जवाब दे रहे थेजैसे उन्हें इस परीक्षा के महत्त्व की जानकारी हो-- उनमें से एक का इस आभासी रूप-रंग से उद्धार होना था और उसे वास्तविक विश्व का हिस्सा बनाया जाना था. वह अजनबी अपने जगे होने और सपने देखने -- दोनो ही अवस्थाओं में अपने आभासी छात्रों के उत्तर सुनता. वह ढोंगियों को फ़ौरन पकड़ लेता, जबकि कुछ छात्रों की बुद्धिमत्ता को तेज़ी से विकसित होते हुए देखता. वह एक ऐसी आत्मा की खोज कर रहा था जो इस ब्रह्मांड में भागीदारी के क़ाबिल साबित हो.

नौ या दस रातों के सपनों के बाद वह अजनबी कुछ कड़वाहट के साथ यह समझ पाया कि वह ऐसे आभासी छात्रों से कोई उम्मीद नहीं रख सकता था जो निष्क्रियता से उसकी शर्त स्वीकार कर लेते थेलेकिन ऐसे छात्रों से उम्मीद की जा सकती थी जो कभी-कभार उसकी बातों का तार्किक खंडन करते थे. उसकी शिक्षा को ज्यों-की-त्यों स्वीकार कर लेने वाले कल्पित छात्र उसके स्नेह के क़ाबिल तो थेकिंतु वे कभी भी वास्तविक व्यक्ति के स्तर तक नहीं पहुँच सकते थेजबकि उसका खंडन करने वाले छात्रों में ऐसी सम्भावना की तलाश की जा सकती थी. एक दिन दोपहर के समय (अब वह दोपहर में भी नींद और सपनों के आगोश में चला जाता था,  अब वह सुबह के समय कुछ घंटों के लिए ही जागता था) उसने उस अवास्तविक महाविद्यालय के छात्रों को सदा के लिए वहाँ से रवाना कर दिया और अपने पास केवल एक छात्र को रखा.

वह पीली त्वचा वाला एक शांत लड़का था जिसके तीखे नैन-नक़्श किसी स्वप्नद्रष्टा-से लगते थेहालाँकि वह लड़का थोड़ा हठी और ज़िद्दी भी था. अपने सहपाठियों के यूँ अचानक हटा दिये जाने से वह घबराया नहीं बल्कि कुछ विशेष कक्षाओं के बाद उस लड़के की प्रगति ने उसके शिक्षक को भी हैरान करदिया. फिर भी एक दिन अनर्थ हो गया. वह अजनबी अपनी नींद से यूँ जागाजैसे वह किसी चिपचिपे रेगिस्तान से निकला हो. उसने दोपहर की तुच्छ रोशनी को देखा और उसे इस बात का भ्रम हो गया कि दरअसल वह सुबह का समय है. तब जा कर वह समझा कि वास्तव में उसने कोई सपना नहीं देखा था. पूरा दिन और पूरी रात एक असहनीय, प्रांजलअनिद्रा-रोग उसे पीड़ित किए रहा. खुद को थका देने के लिए वह जंगल में इधर-उधर भटकाकिंतु इसके बावजूद उसके हिस्से में नींद के कुछ सतही पल ही आए. कच्ची नींद के उन पलों में उसे जो चितकबरी परछाइयाँ दिखीं, वे सब बेकार थीं.

उसने उस काल्पनिक महाविद्यालय के छात्रों को फिर से जुटाने का प्रयास भी किया,  किंतु अभी उसने उनके सामने अपना भाषण शुरू ही किया था कि सारे चेहरे विकृत हो कर ग़ायब हो गए. इस अनिद्रारोग की लगभगचिरस्थायी अवस्था में उसकी प्राचीन आँखें क्रोध के आँसुओं से जलने लगती थीं. वह जानता था कि हालाँकि वह हर प्रकार की दुनियावी और अलौकिक उलझनों और पहेलियों को सुलझा सकता था,  किंतु सपने जिन असम्बद्ध और चकरा देने वाले तत्वों से बने थे, उन्हें अपने मन के मुताबिक़ ढाल पाना किसी भी इंसान के लिए बेहद कठिन काम था. यह काम भुरभुरी रेत से रस्सी बुनने या बिना आकार वाली हवा को सिक्के में ढालने से भी ज़्यादा दुष्कर था. वह समझ सकता था कि इस काम में शुरू में विफल होना अवश्यंभावी था. उसने क़सम खाई कि वह उस विशाल दृष्टिभ्रम को भूल जाएगा जिसने उसे शुरू में भटका दिया था. अब उसने एक दूसरा तरीका आज़माना चाहा. लेकिन उसे अमल में लाने से पहले उसने खुद को एक माह का समय दिया ताकि वह अपनी उस ऊर्जा को दोबारा पा सके जिसे उसके पागलपन भरे सपनों ने सोख लिया था. उसने सपने देखने के बारे में पहले से सोच-विचार करना छोड़ दिया. ऐसा करने से वह दोबारा अपनी नींद को पा सका.

अब वह दिन में काफ़ी समय तक सोया रहता. इस दौरान उसे कभी-कभार सपने भी आए, लेकिन उसने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. अपने कार्य को दोबारा शुरू करने के लिए उसने पूर्णिमा की प्रतीक्षा की. उस दिन दोपहर के समय उसने नदी के पवित्र जल में स्नान करके उसने खुद को शुद्ध किया,  सभी आसमानी देवताओं की पूजा की,  सर्वशक्तिमान ईश्वर की वंदना की और फिर सोने चला गया. सोते ही उसने एक धड़कते हुए हृदय का सपना देखा.

सपने में वह हृदय सक्रिय,  गरम,  गुप्त और बंद मुट्ठी जितना बड़ाथा. वह गहरे लाल रंग का था और इंसान की देह में छाती के पास धड़क रहा था. उस इंसानी देह का न कोई चेहरा था, न कोई लिंग. चौदह प्रांजल रातों तक उसने बेहद स्नेह से यह सपना देखा. उसने उस हृदय को छुआ नहीं बल्कि वह केवल उसे ध्यान से देखता रहा,  शायद आँखों से ही उसे दुरुस्त भी करता रहा. हर रात उसकी दृष्टि पहले से ज़्यादा साफ़ होती गई. उसने उस हृदय को अलग-अलग दूरी से और विभिन्न कोणों से देखा और जिया. चौदहवीं रात में उसने पहले हृदय की मुख्य धमनी को उँगली से छुआ,  फिर उसने पूरे हृदय को भीतर और बाहर से महसूस किया. इस जाँच से वह संतुष्ट हुआ.

जान-बूझकर एक रात उसने कोई सपना नहीं देखा. अगली रात सपने में उसने हृदय को लिया और फिर एक ग्रह के नाम का आह्वान करके उसने प्रार्थना की. फिर वह मानव शरीर के किसी अन्य मुख्य अंग का सपना देखने में व्यस्त हो गया.

एक वर्ष के भीतर ही वह कंकाल और पलकों तक पहुँच गया था. असंख्य बाल का सपना देखना सबसे कठिन काम था. जल्दी ही उसने एक सम्पूर्ण मनुष्य का सपना देखा. वह एक युवक था, किंतु वह युवक न हिल-डुल सकता था,  न बोल सकता था,  न ही अपनी आँखें खोल सकता था. हर रात वह अजनबी उस युवक को सोया हुआ देखता था. गूढ़ज्ञानवादी सृष्टिशास्त्र के मुताबिक़ विश्वकर्मा लाल रंग के आदम को ठीक-ठाक करके उसे खड़ा होने लायक बनाते हैं. उस अजनबी जादूगर के कई रातों की कोशिश से बना यह सपनों का आदम भी उस मिट्टी के आदम की तरह ही अनाड़ी , कच्चा और प्रारंभिक प्रयास जैसा था.

एक दिन दोपहर के समय उस अजनबी ने अपनी कृति को लगभग नष्ट ही कर दिया था, हालाँकि बाद में उसे अपनी इस हरकत पर पछतावा हुआ. (यदि वह उसे नष्ट कर देता तो यह उसके लिए बेहतर ही होता). जब उसने पृथ्वी और नदी के देवताओं की प्रार्थना समाप्त कर ली तो वह उस मूर्ति के सामने साष्टांग दण्डवत की मुद्रा में लेट गया. वह मूर्ति सम्भवत: किसी बाघ की थी या शायद किसी घोड़े की थी. अजनबी ने उस प्रतिमा से मदद की याचना की. उसी शाम उसने उस मूर्ति का सपना देखा. सपने में वह एक जीवित,  धड़कता हुआ जीव था. वह कोई ऐरा-गारा बाघ या घोड़ा नहीं था बल्कि इन दोनो ही प्रचंड जीवों का मिश्रण था. इस जीव में साँड़,  गुलाब और तूफ़ान के अंश भी समाहित थे. बहुत सारे जीवों व तत्वों से बने इस देवता ने उस अजनबी को बताया कि पृथ्वी पर उसे अग्नि के नाम से जाना जाता था,  और यह भी कि इस वृत्ताकार भग्न मंदिर में लोगों ने यज्ञ किया था तथा पशुबलि का चढ़ावा चढ़ाया था. इस देवता ने अजनबी से यह भी कहा कि वह उसके सपनों से उपजे सोये हुए छायाभासी मानव में जादुई शक्ति से प्राण डाल देगा, जिससे उस देवता या जादूगर को छोड़ कर बाक़ी सभी उस छायाभासी मानव को हाड़-माँस से बना जीवित इंसान मान लेंगे. देवता ने उस अजनबी जादूगर को आदेश दिया कि वह अपने छायाभासी जीव के लिए धार्मिक अनुष्ठान करे और फिर उसे थोड़ी दूर पर स्थित नदी के किनारे ही बने दूसरे भग्न मंदिर में ले जाए ताकि वहाँ ईश्वरीय चमत्कार की वजह से छायाभासी मानव पूर्णता को प्राप्त कर सके. उस अजनबी के सपने में जैसे वह छायाभासी मानव जाग गया था.

अजनबी जादूगर ने आदेश का पालन किया. उसने लगभग दो वर्ष की अवधि अपने सपनों के मनुष्य को ब्रह्मांड के रहस्य और अग्नि-देवता की पूजा-पद्धति के बारे में समझाने में लगा दी. हालाँकि भीतर-ही-भीतर उसे उस आदमी से जुदाई का ग़म सताने लगा था. आख़िर उसने अपने सपनों में उसका निर्माण किया था. वह उसे बेटे जैसा मानने लगा था. उसे ज्ञान देने के बहाने हर रोज़ वह अपने सपनों को और ज़्यादा समय देने लगा. सपने में ही उसने उस छायाभासी मानव के दाएँ कंधे को दोबारा बनाया,  क्योंकि उसे उसमें कुछ कमी नज़र आ रही थी. कई बार उसे ऐसा लगता कि यह सब पहले भी हो चुका है और इस बात से उसे तकलीफ़ होती ... आम तौर पर उसके दिन अच्छे बीत रहे थे. जब भी वह अपनी आँखें बंद करता, वह सोचता -- अब मैं बेटे के साथ रहूँगा. कभी-कभी वह यह भी सोचता -- जिस बेटे का मैंने निर्माण किया है, वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है. यदि मैं उसके पास नहीं गया तो उसका अस्तित्व ही मिट जाएगा.

धीरे-धीरे उसने अपने छायाभासी बेटे को वास्तविकता का आदी बना दिया. एक बार उसने उसे दूर स्थित पहाड़ की चोटी पर झंडा लगाने का आदेश  दिया. अगले दिन दूरबीन से देखने पर झंडा वहाँ लहराता हुआ दिखा. उसने अपने उस छायाभासी बेटे पर और भी कई प्रयोग किए. हर प्रयोग पिछले से ज़्यादा साहसिक था. कुछ कड़वाहट के साथ वह समझ गया कि उसका बेटा अब वास्तविक अर्थ में पैदा होने के लिए न केवल तैयार था बल्कि आतुर था. उस रात उसने अपने छायाभासी बेटे को पहली बार चूमा और उसे नदी के किनारे के घने जंगल और दलदल के पास वाले गोल खंडहर में स्थित दूसरे भग्न मंदिर में भेजदिया. लेकिन वह नहीं चाहता था कि उसका बेटा खुद को छायाभासी समझे. वह चाहता था कि उसका बेटा खुद को अन्य लोगों की तरह ही वास्तविक माने. इसलिए उसने ऐसा करने से पहले अपने बेटे के ज़हन से उसके प्रशिक्षु होने के समय की पुरानी सारी यादें हटा दीं.

अब वह अजनबी जादूगर अपने भीतर जीत और सुकून महसूस कर रहा था,  लेकिन थकान उस पर हावी थी. सुबह और शाम के झुटपुटे के समय वह पत्थर की मूर्ति के सामने साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में प्रार्थना करता. उसे यह उम्मीद थी कि उसका छायाभासी बेटा भी उस समय नदी किनारे स्थित किसी भग्न मंदिर में मौजूद मूर्ति के सामने ऐसे ही आराधना कर रहा होगा. अब रात में वह पहले की तरह सपने नहीं देखता था. यदि कभी-कभार उसे सपने आते भी थे तो वे आम लोगों के साधारण सपनों जैसे होते थे. अब उसे ब्रह्मांड के सभी स्वर और रूप फीके लगते थे. उसका सारा ध्यान अपने अनुपस्थित बेटे की ओर होता,  जिसे उसकी आत्मा सींच रही थी. उसके जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया. अब उसके भीतर आह्लाद भरा था.

उस अजनबी जादूगर की कथा के कुछ वाचकों के अनुसार कुछ वर्षों बाद एक रात दो नाविकों ने उसे गहरी नींद से जगाया. अँधेरे में वह उनके चेहरे नहीं देख सका, लेकिन उन्होंने उसे उत्तर दिशा में स्थित एक मंदिर में रहने वाले जादूगर के बारे में बताया,  जो बिना खुद जले धधकती आग में चल सकता था. अजनबी जादूगर को अचानक ईश्वर का कथन याद आ गया. उसे याद आया कि विश्व में मौजूद सभी जीव-जंतुओं और तत्वों में केवल आग को ही उसके बेटे के छायाभासी होने के रहस्य के बारे में पता था. इस स्मृति ने उसे पहले तो संतोष दिया, किंतु बाद में उसे पीड़ित कर दिया. उसे भय था कि उसका बेटा कभी अपने विशिष्ट होने के बारे में सोच-विचार कर सकता है. ऐसे में उसे यह पता लग सकता है कि वह एक छवि मात्र है. एक वास्तविक आदमी न होना, किसी और व्यक्ति के सपनों की उपज मात्र होना -- यह पता लगना कितना अपमानजनक होगा , कितना चकरा देने वाला सत्य होगा. अपने मज़े की अवस्था में उपजे अपने बच्चों में भी हर पिता की रुचि होतीहै. इसलिए यह स्वाभाविक था कि वह जादूगर अपने उस बेटे के भविष्य के बारे में चिंतित हो जिसके प्रत्येक अंग को उसने अपनी सोच से एक हज़ार एक गुप्त रातों में बनाकर पूरा किया था.

उसके चिंतन-मनन का अंत अचानक ही हो गया, हालाँकि कुछ संकेत इस ओर पहले से ही इशारा करने लगे थे. एक लम्बे सूखे के बाद दूर की पहाड़ी पर किसी चिड़िया जैसा हल्का और तेज़ी से उड़ने वाला बादल का टुकड़ा प्रकट हुआ. फिर,  दक्षिण दिशा की ओर आकाश का रंग किसी तेंदुए के मुँह जैसा गुलाबी हो गया. इसके बाद चारो ओर ऐसा धुआँ छा गया , जिसने लौह-रातों को भी जैसे खुरच डाला. अंत में जंगल से भयातुर जानवरों के भागने की अजीब घटना घटी. जो भी अब हो रहा था वह सब कई सदियों पहले भी हो चुका था. अग्नि-देवता के मंदिर के गोल खंडहर एक बार फिर धधकती आग में नष्ट हो गए. चिड़ियों से रहित एक सुबह उस अजनबी जादूगर ने खुद को उस गोल खंडहर में चारो ओर से भीषण आग से घिरा पाया. एक पल के लिए उसके मन में नदी में पनाह लेने का विचार आया , किंतु फिर वह समझ गया कि मौत उसके बुढ़ापे का आलिंगन करने के लिए आ रही थी ताकि उसे अपने श्रम से मुक्ति मिल सके. फिर वह लपलपाती लपटों के बीच चला गया. किंतु उन लपटों ने उसकी त्वचा को जलाया नहीं. वे उसे अपने आगोश में ले कर पुचकारने लगीं. उसे कोई गर्मी या जलन महसूस नहीं हो रही थी.

और तब राहत,  अपमान और भय के मिले-जुले भाव से वह अजनबी जादूगर यह समझ गया कि दरअसल वह स्वयं भी मात्र एक छायाभासी उपस्थिति था , किसी अन्य वास्तविक व्यक्ति के सपने की उपज भर था.
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 सुशांत सुप्रिय
 A-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी , वैभव खंड , इंदिरापुरम् ,ग़ाज़ियाबाद -201010  (उ. प्र.) /मो: 8512070086/ ई-मेल : sushant1968@gmail.com

परख : फाँस (संजीव): राकेश बिहारी

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वरिष्ठ कथाकार संजीव का उपन्यास ‘फाँस’ भारतीय कृषक समाज की वर्तमान दारुण दशा पर केन्द्रित है. बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या पूरे तंत्र पर सवालिया निशान है. समस्या जितनी विकट है सहित्य में उसका अंकन उतना ही कम दीखता है. फाँस के माध्यम से संजीव ने इसके सभी पहलुओं को देखने की कोशिश की है. आलोचक राकेश बिहारी की समीक्षा.    



प्रगति के सरकारी सूचकांकों के विरुद्ध…                                    
राकेश बिहारी 



नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार 1995 के बाद हमारे देश में आठ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है,जिसमें महाराष्ट्र के कपास-किसानों की संख्या सर्वाधिक है. यह सिलसिला अब भी जारी है. ताजा जनगणना आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में किसानी छोड़ चुके किसानों की संख्या भी एक करोड़ से कुछ ही कम है. उल्लेखनीय है कि चीन दुनिया में सर्वाधिक कपास पैदा करनेवाला देश है. पूरे विश्व में होने वाले कपास उत्पादन का एक चौथाई भारत के हिस्से आता है. विश्व पटल पर खास कर चीन की तुलना में कपास उत्पादन और किसानों की समृद्धि/बदहाली से संबन्धित भारतीय आंकड़े चिंतनीय हैं. आखिर क्या कारण है कि इसी कपास की खेती करने वाला चीनी किसान लगातार समृद्ध होता जाता है और भारतीय किसान लगातार आत्महत्या को मजबूर है?रेखांकित किया जाना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा-प्रतिहिंसा की घटनाओं में जितने लोग मारे गए हैं उनकी तुलना में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या कई गुणा ज्यादा है.

संजीव


संख्या के हिसाब से इतनी बड़ी आबादी द्वारा आत्महत्या किए जाने के बावजूद यह मुद्दा सांप्रदायिकता की तरह भारतीय राजनीति का केंद्रीय मुदा क्यों नहीं बन पाता है?उद्योग-व्यापार के साथ परस्पर कदमताल करती हुई एक ठोस कृषि-नीति बनाने और उस पर अमल कर इस समस्या को समूल खत्म करने के बजाय सिर्फ आर्थिक-पैकेज के दिखावटी टोटकों के सहारे इस समस्या को जिंदा रखते हुये कृषि-व्यवसाय को लगातार हाशिये पर धकेलते जाने वाली तथाकथित विकासवादी आर्थिक नीति का सच क्या है?सरकारी बैंकों की पंजिकाओं में दर्ज किसान-कर्ज के आंकड़ों के मुक़ाबले महाजनी व्यवस्था के चंगुल में बिलाआवाज़ कराहते कृषक समूह की त्रासद हक़ीक़तें कहाँ दर्ज होती हैं?इन और इन जैसे  कई अन्य महत्वपूर्ण और ज्वलंत प्रश्नों को केंद्र में रख कर लिखा गया प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार संजीव का नवीनतम उपन्यास फांसइस पूरे प्रकरण की आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक पेंचीदगियों की सूक्ष्म पड़ताल करता है.

सभ्यता-विकास के आरंभिक प्रस्थानों में से एक कृषि,समय के साथ कैसे सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक संरचना का अनिवार्य हिस्सा बन गया यह अपने आप में एक बहुत बड़े आख्यान-प्रतिआख्यान का विषय है. संजीव का यह उपन्यास सामाजिक संरचना की तमाम जटिलताओं के बीच खेती-किसानी की त्रासद हकीकतों को परत-दर-परत भेदते हुये सभ्यता और विकास के नाम पर जारी उपक्रमों की एक मारक समीक्षा करता है. महाशक्ति,प्रगति और आधुनिकता की दौड़ मे शामिल राष्ट्र-राज्य की भावी कार्ययोजना की निर्मिति में इस सभ्यता-समीक्षा की  बड़ी भूमिका हो सकती है.

अपनी रचनाओं के प्रतिपाद्य के छोटे से छोटे अवयव की खोज में गहन से गहनतर शोध करना संजीव के कथाकार की बड़ी विशेषता है. एक ऐसे समय में जब जानकारियाँ और सूचनाएँ हमारी उँगलियों के पोरों और माउस की एक क्लिक पर अपनी पूरी भाव-भंगिमाओं के साथ उपस्थित हो जाती हों,अपनी रचनाओं के लिए जरूरी रेशों-उपरेशों की खोज में सीधे उसकी जमीन तक जाकर उसकी बारीकियों में धंसने का यह गुण,जो लगातार दुर्लभ होता जा रहा है,संजीव को न सिर्फ अपने समकालीनों में बल्कि हिन्दी कथा-लेखकों की पूरी परंपरा में अलग से ला खड़ा करता है. संजीव के कथाकार-उपन्यासकार की इस खास खोजी वृत्ति के गुण-सूत्र इस उपन्यास में भी आद्योपांत मौजूद हैं. इंटरनेटी शोध प्रविधि और जमीनी शोध प्रविधि का रचनात्मक अंतर भी उपन्यास में हर कदम बोलता मालूम होता है. गौर किया जाना चाहिए कि संजीव की यह शोध-प्रविधि एकरैखिक न हो कर बहुपरतीय है,जिसे हम अंतर-अनुशासनिक भी कह सकते हैं.

संजीव अपनी औपन्यासिक कृतियों में सिर्फ समस्या या उसकी विडंबनाओं की ही बात नहीं करते,उसके समाधान का विकल्प या मॉडेल भी प्रस्तुत करते हैं. एक लेखक या किसी भी कला विधा के सर्जक की भूमिका की कोई निश्चित परिधि तो तय नहीं की जा सकती पर किसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करना उसके कार्यक्षेत्र का अनिवार्य हिस्सा है या फिर व्यवस्था को समाधान खोजने की दिशा में उद्यत करना यह एक विचारणीय प्रश्न है. संजीव द्वारा अपनी कृतियों में समस्या का समाधान प्रस्तुत करने के आग्रह का मूल कारण उनके शोध की यह अंतर-अनुशासनिक प्रविधि ही है. सुदीर्घ रचना प्रक्रिया के दौरान अंतर-अनुशासनिक शोध की सभी या कि अधिकतम प्राप्तियों के रचना में उपयोग कर लेने का लेखकीय लोभ कई बार कृति के कलात्मक रचाव में कुछ दिक्कतें भी खड़ी करता है.  किसी बड़ी कथा-कृति के कुछ हिस्सों का अत्यधिक विवरणात्मक या सूचनात्मक हो जाना हो या कि समाधान प्रस्तुत करते हुये कृति का किसी खास खांचे के रूमान की जद में आ जाना,ऐसी ही दिक्कतों के कुछ उदाहरण हैं,जिन्हें इस उपन्यास में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है. लेकिन बावजूद इसके संजीव ने जिस तरह इस उपन्यास के कथा-परिवेश की लोमहर्षक त्रासदियों को घटनाक्रम की सम्पूर्ण सामाजिक विडंबनाओं के साथ शब्दबद्ध किया है, वह न सिर्फ हमारी संवेदनाओं को झकझोरता है बल्कि उपन्यास को एक कलात्मक ऊंचाई भी प्रदान करता है. परिणामत: पात्रों के सुख-दुख, राग विराग,उत्साह-हताशा एक सीमा से आगे बढ़ने के बाद पात्रों की काया से निकल कर पाठकों की संवेदना का हिस्सा बन जाते हैं. पात्रों की संवेदना को पाठकों की संवेदना से जोड़ देने का ही यह नतीजा है कि छोटी, सिंधु ताई,शकुंतला, अशोक, विजयेन्द्र, सुनील आदि पात्र अपने पाठ के दौरान और उसके बाद भी देर तक हमारे भीतर सांसें लेते हुये मालूम पड़ते हैं.

पिछले लोकसभा चुनाव के अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब आम आदमी पार्टीके नेता अरविंद केजरीवालने गुजरात सरकार के विकास की बहुप्रचारित अवधारणा को चुनौती देते हुये 2003 के बाद गुजरात में 5874 किसानों की आत्महत्या का मामला बहुत ज़ोर-शोर से उठाया था, जिसका खंडन करते हुये, गुजरात सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसान की संख्या सिर्फ एक बताई थी. किसानों की आत्महत्या संबंधी परस्पर विपरीतधर्मी आंकड़ों के इस सच से भी यह उपन्यास बहुत बारीकी से पर्दा उठाता है. आत्महत्या के बाद मुआवजा बांटने के लिए पात्रऔर अपात्रके संधान का सरकारी उपक्रम किस हद तक मनुष्यविरोधी और अपनी प्रकृति में हिंसक है, उसे इस उपन्यास में बहुत आसानी से समझा जा सकता है.

बैंक का कर्ज चुकाने में अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई लुटा देने के बाद मौसम और सरकारी नीतियों की मार झेलते किसी किसान की आत्महत्या सिर्फ इस आधार पर सरकारी दस्तावेजों में किसान की आत्महत्या के रूप में दर्ज नहीं होती कि बैंक के लेजर्स में  उसके विरुद्ध कर्ज की कोई रकम बाकी नहीं है. ज़िंदगी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के बीच बार-बार हानि उठाने के बाद आत्महत्या को मजबूर हुये किसी नवयुवक किसान की आत्महत्या एक किसान की आत्महत्या नहीं मानी जाती क्योंकि सरकारी दस्तावेजों में भू-स्वामी के नाम के सामने उस किसान-पुत्र का नाम न हो कर उसके पिता का नाम अंकित होता है. आंकड़ों के गणित के आधार पर अपने राज्यों की छवि और सरकारी कोषों की निधि बचाने की सरकारी कवायदें अंतत: किसान-विरोधी ही साबित होती हैं. जब मृत्यु के बाद परिवार जनों की सारी ऊर्जा पात्र-अपात्रनिर्धारण प्रक्रिया से जूझने में ही खर्च हो जाती हो,जब आत्महत्या का सिलसिला इतना अबाध और अनवरत हो कि परिवार के एक सदस्य के बाद लोग दूसरे की अत्महत्या की आशंका से ग्रस्त रहते हों,तो फिर मृत्यु के बाद का माहौल स्वाभाविक शोक से ज्यादा चिंता और आशंका का होता है.

एक ऐसी चिंता और आशंका जो हम से हमारे परिवार जनों की मृत्यु के बाद ठीक से आँसू बहाने या शोक मनाने तक का अवसर भी नहीं देतीं. मृत्यु की खबर सुनते ही रोने-पीटने की मर्मभेदी चीख के स्वाभाविक वातावरण का एक ढंडी आशंका के माहौल में रूपांतरित हो जाना मानव सभ्यता के इतिहास की सर्वाधिक क्रूर और संवेदनहीन परिणति है, जिसे इस उपन्यास में घटित होनेवाली हर   आत्महत्या के बाद पसरे बेचैन-ठंडेपन में महसू किया जा सकता है. सच! कितना भयावह है हमारे समय का यह भूगोल जहां किसी की मृत्यु के बाद उसके प्रियजनों को दो बूंद आँसू बहाने का इत्मिनान भी मयस्सर नहीं होता.

भारतीय समाज अपनी संरचना में खासा जटिल है. वर्ग, वर्ण, लिंग और धर्म के तन्तु यहाँ इस कदर आपस में आबद्ध हैं कि बिना एक को समझे दूसरे को नहीं समझा जा सकता. यह उपन्यास किसानों की आत्महत्या पर बात करते हुये भारतीय समाज के इन सभी घटकों के अंतर्संबंधों पर भी बहुत बारीक नज़र रखता है. अंतरजातीय प्रेम हो या कि ब्राह्मणवादी हिन्दू आचार संहिताओं का पीढ़ियों से शिकार रहे दलितों का धर्मांतरण,अपने संदर्भों की सभी द्वन्द्वात्मक जटिलताओं के साथ उपन्यास के कथानक में आबद्ध हैं. उपन्यास के मुख्य प्रसंग और भिन्न अनुषंगों का इस कदर नाभिनालबद्ध होना इस कृति की औपन्यासिक संरचना को तो मज़बूत करता ही है, पूरे प्रकरण को सामाजिक संरचना और मानवीय संवेदना के सघनतम संधिस्थल पर  विन्यस्त कर देता है.  

महाराष्ट्र की कृषि-समस्या का एक छोर कपास से जुड़ा है तो दूसरा गन्ने की खेती से. कपास की खेती करनेवाले किसान जहां अनुचित मूल्य निर्धारण,मंहगे और धरती की उर्वरा शक्ति का दोहन करने वाले बीज, महाजनों और साहूकारों के रक्तचूसक ब्याज दर और बिगड़ते मौसम चक्र के प्रतिकूल आघातों के बीच पारिवारिक जिम्मेवारी और सामाजिक प्रतिष्ठा के निर्वहन में नाकामयाब हो कर आत्महत्या करनेको मजबूर हैं तो वहीं गन्ना-किसानों का सुख-चैन प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण दखल रखने वाले चीनी मिल मालिकों की आंतरिक उठापटक और राइवलरी की भेंट चढ़ जाता है. यह उपन्यास हालांकि मुख्य रूप से कपास किसानों की समस्या पर केन्द्रित है,लेकिन कुछ आनुषांगिक उपकथाओं के माध्यम से यहाँ गन्ना किसानों की समस्याओं पर भी विचार किया गया है.  

उपन्यास पर लिखी गई यह संक्षिप्त टिप्पणी अधूरी होगी यदि इसके स्त्री पात्रों खास कर शकुनऔर छोटी की सकारात्मकता और जिजीविषा पर बात न की जाये. तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच शकुन और उसके समानान्तर छोटी जिस तरह समय की तमाम प्रतिकूलताओं के विरुद्ध उम्मीद और बदलाव का संघर्ष जारी रखती हैं,वह काबिले तारीफ है. छोटी के चरित्र के बहाने उपन्यासकार ने देह से जुड़ी पारंपरिक आचार संहिताओं को नकारते हुये स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के संदर्भ में जो नैतिकता प्रस्तावित की है, वह देह के लिए प्रेम को अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं मानती. देह को लेकर इस आधुनिक नैतिकता की प्रस्तावना के समानान्तर छोटी और अशोक के परस्पर प्रेम को सामाजिक स्वीकृति न मिल पाना दो तरह की आधुनिकताओं के द्वंद्व के बीच से झाँकती सामाजिक जटिलताओं की व्यावहारिक तस्वीर दिखा जाता है. लेकिन उपन्यास के लगभग अंत में अशोक को एक खास खांचे का महान प्रेमी बना कर पेश करने की परिघटना आधुनिकता और आदर्शबोध के द्वंद्व के बीच एक ऐसी नियति को रेखांकित करती है जो हमेशा से एक खास तरह के फार्मूले की शरण में जा कर ही तुष्ट होता रहा है.

उपन्यास की चिंता के केंद्र में स्थित समस्याओं की बारीक विडंबनाओं के विश्लेषण के  समानान्तर संजीव  छोटे-छोटे जनांदोलनों और स्थानीय प्रतिभाओं की वैज्ञानिक सोच और शोध के आधार पर एक वैकल्पिक समाज की प्रस्तावना भी करते हैं. लेकिन विकल्प रचने का यह प्रस्ताव अपनी एकरैखिकता के कारण व्यावहारिक कम और रूमानी ज्यादा लगता है. उपन्यास का यह हिस्सा जिसकी पृष्ठभूमि में कई शोध-पत्रों का योगदान है,अपनी तमाम वैज्ञानिकताओं के बावजूद उपन्यास की कलात्मकता में कोई अभिबृद्धि नहीं करता बल्कि इसकी रचनात्मक सुंदरता को कुछ हद तक विखंडित ही करता है. आश्रमों,गैर सरकारी संस्थानों और जनांदोलनों की जरूरतों से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन किसानों की समस्या के व्यावहारिक हल के लिए एक बेहतर और ईमानदार कृषि-नीति की जरूरत है जिसकी विनिर्मिति में कृषि और उद्योग दोनों का सम्यक ध्यान रखा जाना चाहिए.

अपनी इन सीमाओं के बावजूद यह उपन्यास प्रगति के सरकारी सूचकांकों के विरुद्ध संवेदनाओं के प्रतिरोध की जिन अनुगूंजों को दर्ज करता है,वह उदारीकरण की आर्थिक राजनीति पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है. विकास के तमाम दावों और सपनों की मार्केटिंग के समानान्तर महाराष्ट्र,गुजरात और आन्ध्र्प्रदेश जैसे तथाकथित विकसित राज्यों में जारी आत्महत्या,नहीं,हत्या और सरकारी आंकड़ों की वीभत्स जुगलबंदी के गुण-सूत्रों को रेखांकित करता यह उपन्यास निःसन्देह हमारे समय का एक जरूरी दस्तावेज़ है.
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(यह समीक्षा हंस के नवम्बर,  २०१५ अंक में भी प्रकाशित)
राकेश बिहारी 
संपर्क: एन एच 3/ सी 76, एन टी पी सी, विन्ध्यनगर, जिला - सिंगरौली
486 885 (म.प्र.) फोन - 09425823033.

विष्णु खरे : एक जन्मशती की भ्रूणहत्या

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हिंदी सिनेमा की महान हस्ती ‘किशोर साहू’ के महत्वकांक्षी जन्मशती समारोह के लिए किये गये प्रयासों का यह हस्र होगा किसी ने सोचा न था. यह पूरा प्रकरण किसी खोजी उपन्यास से कम हैरतंगेज़ नहीं और परिणति जैसे किसी त्रासदी नाटक का अंत हो. साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति सत्ता में आज जैसी संवेदनहीनता ( इसे हिक्कारत भी पढ़ सकते हैं)  दीखती है कभी नहीं दिखी.

विष्णु खरे की टिप्पणी


एक जन्मशती की भ्रूणहत्या                                     

विष्णु खरे 



सारा प्रकरण पिछले वर्ष जुलाई में शुरू हुआ था. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कुछ उत्साही मित्रों ने मिल-बैठकर तय किया कि दोनों प्रदेशों की  साझा सिने-युग-प्रवर्तक प्रतिभा, जिसे जनता ने ‘’आचार्य’’ की मानद उपाधि दे डाली थी, किशोर साहू की जन्मशती उनकी महान लोकप्रिय उपलब्धियों के अनुरूप पैमाने पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तथा किशोर साहू के प्रारम्भिक जीवन से जुड़े नगरद्वय रायगढ़ तथा राजनांदगाँवसहित सारे प्रांत में मनाई जाए. व संभव हो तो कुछ आयोजन मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी हों, विशेषतः भोपाल और नागपुर तथा अनिवार्यतः मुम्बई फिल्म-जगत में.

साफ़ है कि यह जन्मशती छत्तीसगढ़ सरकार की आर्थिक और नैतिक मदद तथा संरक्षण के बिना मनाई नहीं जा सकती थी. एक बड़ा उदघाटन समारोह होना था जिसमें किशोर साहू के दिलीप कुमारऔर कामिनी कौशलजैसे जीवित सहकर्मियों और साहू-वंशजों की उपस्थिति अनिवार्य थी तथा उनकी फिल्मों पर आधारित विभिन्न दृश्य-श्रव्य कार्यक्रमों की कल्पना की गयी थी. एक प्रदेशव्यापी चलित ‘किशोर साहू फिल्म समारोह’होना था, कुछ संगोष्ठियों की योजना बनी, और भी बहुत कुछ करने-होने को था. ज़ाहिर है कि वर्ष भर आयोजित इन कार्यक्रमों पर इतना खर्च होना था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री और संस्कृति-मंत्री के अकुंठ सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं था.

इसके लिए दौड़-धूप छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति अनुसंधान संस्थान के संचालक तथा कवि-साहित्यकार रमेश अनुपम तथा कवि-उपन्यासकार एवं मुख्यमंत्री के विधानसभा-सचिव संजीव बख्शीकर रहे थे जो, स्वाभाविक है, डॉ रमण सिंह के अत्यंत समीप और विश्वस्त समझे जाते हैं. प्रदेश के तत्कालीन संस्कृति-मंत्रीअजय चंद्राकरने 22 जुलाई 2014 को सार्वजनिक रूप से किशोर साहू जन्मशती आयोजन को सम्पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया था. बाद में उन्हें  अधिक महत्वपूर्ण प्रभार देकर उनसे संस्कृति विभाग ले लिया गया किन्तु इतने अरसे के बाद कि उस दौरान वह चाहते तो बहुत कुछ प्रारंभिक हो सकता था.

यह अब तक एक पहेली है कि अजय चंद्राकर ने वचन देकर कोई पहल क्यों नहीं की. रमेश अनुपम का कहना है कि उन्होंने संस्कृति विभाग के कई चक्कर काटे किन्तु उन्हें अस्पष्ट तथा टरकाऊ उत्तर ही हासिल हुए. मुख्यमंत्री के विश्वासु होते हुए भी संजीव बख्शी अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी हैं और उन्होंने भी अपने ढंग से पता लगाने की कोशिश की कि संस्कृति विभाग में किशोर साहू सदी को लेकर आख़िर क्या सोच चल रहा है लेकिन वह भी असफल रहे.

ऐसी स्थिति में कई कॉन्सपिरेसी थेओरीज़ चलने लगती हैं. कहा गया कि शायद संस्कृति मंत्री और उनका विभाग किन्हीं बाहरी अवांछित व्यक्तियों के हाथ में संभावित राशि न देकर स्वयं अपनी परिकल्पना के कार्यक्रम पर खर्च करना चाहते रहे होंगे. आशंकित भ्रष्टाचार के किस्से तो सर्कुलेशन में आ ही जाते हैं. यदि ऐसा ही मंशा है तो साफ़ बात क्यों नहीं होती ? किशोर साहूकी आड़ में किसी को कुछ लाख कमाने हों तो किसे एतराज़ है लेकिन  कम-से-कम काम तो शुरू होने दो. एक थेओरी, जो राजनीतिक रूप से कुछ विश्वसनीय भी थी, यह भी थी की किशोर साहू की जन्मशती यदि बड़े और प्रदेशव्यापी स्तर पर मनाई गई तो लाखों की आबादीवाले साहू समाज में एक नया गर्व-संचार, अस्मिता-बोध और जागरण पैदा होंगे  जो शायद राजनीतिक रूप से कुछ तत्वों के लिए नुक़सानदेह साबित हों. साहू बिरादरी को किशोर जैसा नायक दिया ही क्यों जाए ?

उधर फिल्म-क्षेत्र में लोकप्रिय न केवल किशोर साहू के परिवार से भावी आयोजकों का संपर्क स्थापित हुआ बल्कि एक रोमांचक खोज यह हुई कि आचार्य किशोर साहू की सम्पूर्ण आत्मकथा की टाइप्ड प्रति मूल हिंदी में मिल गई जिसके महत्व को अतिरंजित नहीं किया जा सकता. इस खोज ने छत्तीसगढ़ में एक नई सनसनी फैला दी. किशोर साहू का क़द और बढ़ गया. भारत का प्रत्येक फिल्म-प्रेमी और अध्येता  भी उसे पढने का उत्सुक हो उठा. लेकिन प्रश्न यह था कि जब अभी जन्मशती-समारोह का अता-पता ही नहीं है तो आत्मकथा को कौन कब कैसे प्रकाशित करे ?

सुना है कि छत्तीसगढ़ के नए संस्कृति-मंत्रीअपने प्रभार को लेकर इतने कोरे और अछूते हैं कि मार्गदर्शन के लिए पूर्णरूपेण मुख्यमंत्री पर आश्रित हैं. इसमें कोई लज्जा की बात नहीं है किन्तु वहाँ भी विचित्र यह है कि डॉ रमण सिंह के बारे में बार-बार यह कहा जाता रहा कि वह किशोर साहू जन्मशती को लेकर बहुत सकारात्मक और उत्साहित हैं लेकिन स्वयं संजीव बख्शी उनसे भी कुछ नहीं करवा पा रहे हैं. बारंबार आश्वासनों के बावजूद सारा मामला लेशमात्र आगे नहीं बढ़ता.कोई अनागीर भी था.

क्या डॉ. रमण सिंह भी किशोर साहू जन्मशती को लेकर अंदरूनी तौर पर उदासीन या होस्टाइल हैं ? या उनकी दिलचस्पी छत्तीसगढ़ के इस महान फिल्म निर्माता-निर्देशक-नायक-अभिनेता में है ही नहीं है ? फिर वह अभिनय क्यों करते हैं कि कुछ करेंगे, कुछ करेंगे ? उनके हवाले से कई वादे किए जाते हैं जिनके पूरे होने की शुरूआत तक नहीं होती ? रमेश अनुपम और संजीव बख्शी बड एबट-लुइस कोस्टेलो या लॉरेल-हार्डी की तरह रायपुर में भटकते रहते हैं.या यह भी किसी रहस्य का हिस्सा हैं ?

22 अक्टूबर को किशोर साहू जन्मशती तिथि थी. बताया जा रहा है कि उस दिन छत्तीसगढ़ के शायद किसी भी अखबार में उसका कोई ज़िक्र तक नहीं हुआ. कायदे से उस दिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और संस्कृति-मंत्री को कुछ राष्ट्रीय दैनिकों में एक किशोर साहू परिशिष्ट प्रकाशित करवाना चाहिए था और रायपुर में एक भव्य उदघाटन-समारोह होना चाहिए था. विश्वास नहीं होता कि कोई प्रदेश अपनी इतनी बड़ी प्रतिभा के साथ ऐसा अवमाननापूर्ण व्यवहार कर भी सकता है. रमण सिंह को अर्जुन सिंहके मॉडल पर चलनेवाला प्रबुद्ध मुख्यमंत्री माना जाता है.


रमेश अनुपम-संजीव बख्शी की पुशमी-पुलयू थ्री-लैगेड रेस टीम ने एक विचित्र किन्तु अंतिम निजी कोशिश की है. सुनते हैं उन्होंने किशोर साहू के पुत्र विक्रम साहूसे उनके पिता की आत्मकथा की पाण्डुलिपि कहीं से कुछ अग्रिम राशि देकर दिल्ली के राजकमल द्वारा प्रकाशित करवाने के लिए खरीद ली है. शायद यही दोनों किशोर-साहू-एवं-फिल्म-विशेषज्ञ उसका सम्पादन भी कर रहे हैं. यदि यह सच है और वह ऐतिहासिक आत्मकथा प्रकाशित हो जाती है तो किसे मालूम, मुख्यमंत्री उससे प्रेरित होकर शर्माहुजूरी में ही सही लेकिन एक इज्ज़तबचाऊ छोटा-मोटा जन्मशती-समारोह रमेश अनुपम-संजीव बख्शी और उनकी टीम से करवा ही डालें. वर्ना उनके प्रदेश में ऐन प्रसूति के दिन ज़च्चा-बच्चा की मृत्यु की एक परंपरा है ही.
______
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में रविवार (२५/१०/१५) को प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

परख : छोटू उस्ताद (कहानी संग्रह) : स्वयं प्रकाश

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छोटूउस्ताद
(कहानीसंग्रह)
स्वयंप्रकाश
किताबघरप्रकाशन, दिल्ली

मूल्य- 200/





कहानीमेंअपनेसमयकीविडम्बनाएं 
पल्लव

स्वयंप्रकाशऐसेकथाकारहैंजोकहानीमेंकथ्यकीसम्प्रेषणीयताकेलिएलगातारप्रयोगशीलरहे.प्रगतिशील-जनवादीकथाकारोंमेंइसलिहाजसेवेविशिष्टहैंकियथार्थवादीआग्रहोंकेबावजूदकहानीकीकलाधर्मीजरूरतोंपरवेकमजोरनहींपड़ते.स्वयंप्रकाशनेआमतौरपरसामान्यलम्बाईकीकहानियांलिखींऔरकभीकभीकुछलम्बीकहानियांभीलेकिनइधरआयाउनकानयाकहानीसंग्रहछोटूउस्तादछोटीछोटीकहानियोंकागुलदस्ताहै.इससंग्रहमेंउनकीलिखीदोदर्जनसेअधिककहानियांहैंऔरअधिकांशअसंकलित-अप्रकाशित.देखनेकीबातयहहैकिएकसमयप्रगतिशीलउत्साहसेभरेइसवामपक्षधरकथाकारकानयेसमयकोदेखनेकानजरियाक्याहै? संग्रहकीशुरुआतीकहानीहै-‘आलबेस्ट’, जिसमेंकथावाचकएकयुवासेसंवादकररहाहैजिसेझटपटकैरियरबनानाहै, वाचकउसेनयेजमानेकेसम्भावितआसानकैरियरकीचर्चाकरताहैजिनमेंराजनीति, अपराध, सायबरहैकिंग, ज्योतिषऔरएनजीओबाजीकेबादवहअन्तमेंधर्मऔरअध्यात्मतकपहुंचताहैतबदेखिए- जीवनमेंतनावबहुतहै.कुंठाहै.असन्तोषहै.कोईकन्धानहींजिसपरसिररखकरदोघड़ीरोसकें.समाजकेसदस्योंकाखयालसमाजरखताहै.नागरिकोंकाखयालसरकाररखतीहै.जबकोईसामाजिकयानागरिकबचेगाहीनहीं, सबमात्रउपभोक्ताहोजाएंगेतोउपभोक्ताकाखयालकौनरखे? बाजार! तोतुमहोजाओगेख्यालरखनेकीदुकान.तुमसिखाओगेजगतकोआर्टआफ़फ़ूलिंग.’ 
स्वयं प्रकाश 

यहहैकथाकारकीसाफ़नजरजोपाठककोमहजउपभोक्ताहोजानेसेसावधानकरनाजानतीहै.एकऔरकहानीसुलझाहुआआदमीमेंस्वयंप्रकाशएकलसंवादकीशैलीमेंहैं– ‘कहताहैभीतरजाकरमैंनेक्यादेखा? किदुनियाकेमजदूरोंकोएकहोनेकाआवाहनकरनेवालेखुदएकनहींहैं.संगठितनहींहैं.…… मैंकहताकिधर्म? दहेज? शिक्षा? आबादी? भाषा? तोकहतेक्रान्तिकेबादसबठीकहोजाएगा.आपक्याउम्मीदकरतेथे? आपमेरेप्रश्नोंकेउत्तरनहींदेंगेफ़िरभीमैंआपकावफ़ादारसिपाहीबनारहूंगाऔरआपकेइशारेपरनाचतारहूंगा?’आगेजहांकहानीखत्महोरहीहैवहांकासंवादहै-
जराकिताबोंसेबाहरनिकलोयार! जमानाकितनाबदलगयाहै! तुम्हेंमेरेटाईलगानेपरएतराजहै,एसीकारपरएतराजहै,फ़ाइवस्टारहोटलमेंजानेपरएतराजहै,हवाईजहाजसेयात्राकरनेपरएतराजहै.समझमेंनहींआतातुमलोगोंनेगरीबीकोइतनाग्लैमराइजक्योंकररखाहै? क्यावहकोईगलेलगानेलायकचीज़है? साइंसऔरटेक्नोलाजीहमारीदुश्मनकैसेहोसकतीहैंजी?’यहकहानीबहुतकहनेवालोंऔरकुछभीकरनेवालोंपरबारीकव्यंग्यहै.सोवियतपराभवकेबादसाहित्यकेप्रगतिशीलमोर्चेमेंपस्तीजरूरआईलेकिनकुछरचनाकारोंनेभीतरऔरबाहरकेमनुष्यविरोधीउपक्रमोंकीपहचानकरनेकारास्ताचुना.विमर्शोंकोफ़ैशनऔरआरक्षणदोनोंअतिवादोंसेदेखागयालेकिनस्वयंप्रकाशविमर्शवादकीसीमादर्शातेहैं. 

यहांवेचुहलऔरअपनेठेठअन्दाज़मेंकहानीरचतेहैंकिपाठककथाकेआनन्दसेवंचितहो.बाबूलालतेलीकीनाकमेंवेअस्मिताईआग्रहोंकीखबरलेतेहैं.लोककथाकेअन्दाजसेकहानीचलतीहै.एकमामूलीआदमीबाबूलालतेलीकिसीझगड़ेमेंखामख्वाहउलझजातेहैंऔरएकशक्तिशालीआदमीउनकीनाकपरघूंसामारदेताहै.जाहिरहैसमाजउनकीचिन्ताकरताहैऔरअन्तत: स्थितियहजातीहै-‘तुमचिन्तामतकरो.तुम्हारीनाकअबतुम्हारीनाकनहीं,समाजकीनाकहै.चाहेजितनाखर्चआए,समाजउसकीव्यवस्थाकरेगा.हमतुम्हाराअच्छेसेअच्छाइलाजकरवाएंगे.परएकबातबताओ.होतोतेलीही? कोईऔरतोनहींहो?’ यहहैहमारेसमयकीमानवसूचकांककीप्रगति.जिसमहानस्वतन्त्रताआन्दोलनकेमूल्योंसेहमाराराष्ट्रबनाथाउसेइसतरहतिरोहितहोतेजानाभयानकविफ़लताहैऔरयहविडम्बनाहैकिअस्मिताईआग्रहइसमेंसाझीदारहैं.एकरचनाकारजिसमर्मकेसाथऐसेसंकुचनोंसेआगाहकरसकताहैसमाजविज्ञानीनहीं.इन्तिहातोदेखिए–‘कोईमहीनेभरबादबाबूलालतेलीमुम्बईसेलौटेतोएकदमचंगेहोकर,बल्किकुछहट्टे-कट्टेभीहोकर्.चलते-फ़िरते,खाते-पीते.बस, एकजरासीबातथी.सूखी-सड़ी, बासीपकौड़ेजैसी,कैसीभीसही,जातेसमयचेहरेपरएकनाकथी,आतेसमयनहींथी.उसेकाटकरफ़ेंकदेनापड़ाथा.नाककीजगहसिर्फ़दोसूराखरहगएथे.

कहानीकालोककथाबनजानाकिसीभीकथाकारकेलिएउपलब्धिहै.यहांएककहानीऐसाहीस्वाददेतीहैजिसमेंखेतऔरपगडंडीआपसमेंबातकरतेहैं.बिछुड़नेसेपहलेशीर्षकसेलिखीयहकहानीविकासकीमहानताकाप्रत्याख्यानरचतीहै.खेतऔरपगडंडीकीबातेंचलरहीहैऔरखेतउनदिनोंकीकल्पनाकररहाहैजबपगडंडीकीजगहसड़कबनजाएगीजमीनकेभावबढजाएंगे.दुकानेंनिकलजाएगी.गरमगरमजलेबीछनेगी.पगडंडीकाजवाबहै-‘जलेबीखाएगामरजाना.हवसदेखोइसकी.पतापड़ेगीजबहोएगा.हवसशब्ददिनोंबादकहानीमेंआयाहैऔरदेखिएतोखानेकेप्रसंगमें.ध्यानसेदेखेंतोयहबातमामूलीनहींहैविकासकीहवससेजोनिकलरहाहैवहक्याहै? विस्थापन.गरीबी.विनाश.कथाकारइशारेमेंसबकहदेरहाहै.

इसनयेदौरमेंबूढोंऔरलड़कियोंकीभीखबरइनकहानियोंमेंहै.एकबड़ाभ्रमग्लोबलाइजेशनसेनिकलीसम्पन्नताकेसाथफ़ैलायागयाहैकियहनयापूंजीवादअपनीसम्भावनाओंकोविकसितकरनेकेअवसरदेताहैक्योंकिउत्पादनमेंसबकीभागीदारीआवश्यकहै.स्वयंप्रकाशइसभ्रमकोतोड़तेहैंलड़कियांक्याबातेंकररहीथीं?’औरअकालमत्युइसकीगवाहीदेतीहैं.ऐसेहीकुछऔरसरलीकरणोंसेस्वयंप्रकाशलड़तेहैंजैसेसाम्प्रदायिकता.दंगेऔरहिंसारोजकीबातनहींहैलेकिनरोज़मर्राकेजीवनमेंसाम्प्रदायिकताकैसेघुसीहुईहैऔरवहकिसतरहएकसामान्यमनुष्यकीसम्भावनाओंकोकुन्दकरतीहैइसकाउदाहरणचौथाहादसाहै.यहांहबीबकाकहदेनाकिएलानकरदोकिहिन्दुस्तानसिर्फ़तुम्हारेबापकानहींहै.वहहमारेबापकाभीहै.अबजैसेकेवलकहानीमेंहीमुमकिनहै.हत्या-2’ मेंभीसाम्प्रदायिकताकेभीतरीकलुषकाचित्रआयाहै.बहुतदिनोंबादकिसीकहानीसंग्रहमेंबच्चोंऔरबचपनपरकहानियांआईहैंजैसीइससंग्रहमेंहैं.हत्या-1’, ‘हत्या-2’, ‘ग्रेटइंडियनकुश्ती’, ‘अमीरनेहरू- गरीबनेहरू’, ‘सांत्वनापुरस्कार’, ‘अकालमत्यु’, ‘गणितकाभूत’, ‘आखिरचुक्कूकहांगया?’ स्वयंप्रकाशकीअपनीशैलीमेंलिखीगईवेकहानियांहैंजिनमेंबचपनकेमीठेप्रसंगहैं. 

अभावपूर्णजीवनकेबीचरोमांचकीजगहबनातीइनकहानियोंमेंभारतीयमध्यवर्गकेहार्दिकचित्रभीहैंजबसमाजसेसमूहिकताऔरपारस्परिकताकेलिएपर्याप्तसम्मानऔरस्थानबचाहुआथा.हत्या-1 मेंकथावाचककाशेरकेस्वभावकीहत्यापरएकबच्चेकारोनाट्रेजडीकीरचनाकरनेमेंसफ़लहै.ग्रेटइंडियनकुश्तीप्रेमचन्दकेबालकचरित्रोंकीयाददिलानेवालीहै.दोबच्चेअपनेसेकहींमजबूतएकदूसरेबच्चेकीछातीपरसवारहैंऔरमददकेलिएपुकाररहेहैंकियहउठगयातोहमेंमारेगा.सांत्वनापुरस्कारकिशोरावस्थाकेआकर्षणकाचित्रहैतोअमीरनेहरू- गरीबनेहरूजैसेबीतेदौरकीविलुप्तसामूहिकताकागीत.गणितकाभूतऔरआखिरचुक्कूकहांगया?’ भीऐसेहीप्रसंगोंसेबनीहैं.इनकहानियोंकेबीचअकालमत्युकोपढनाएकअनूठीकहानीकोपढनाहैजोएकतरफ़बचपनकीहत्याकामर्सियाहैतोदूसरीतरफ़इम्मीकेबहानेहमारीव्यवस्थापरटिप्पणी.अच्छीबातयहहैकिकहानीअपनीतरफ़सेएकशब्दभीनहींकहतीऔरपाठकव्यवस्थाकीविफ़लताकीसटीकव्याख्याकरलेताहै.

संग्रहमेंपरिवारऔरपारिवारिकतासेसम्बन्धितकुछकहानियांहैं.जाननारोचकहोगाकिनयेसमयमेंप्रगतिशीलकथाकारइससंस्थाकोकिसतरहदेखरहेहैं.एकखूबसूरतघरकहानीथोड़ेपुरानेदिनोंकीलगतीहैजबमोबाइलनहींआयाथा.एकदिनघरकेमुखियाकेदफ़्तरसेलौटनेमेंअधिकदेरहोजानेपरएकलपरिवारकीचिन्ताएंपाठककोदिलासादेतीलगतीहैंकिइसक्रूरऔरस्वार्थीसमयमेंमनुष्यकेपासअगरइसएकसंस्थाकासहाराभीहैतोयहछोटासम्बलनहीं.ऐसेहीनयेजमानेकेपरिवारकाचित्रलाइलाजमेंआयाहैजबकथावाचकपरिवारकेसदस्योंकीअनुपस्थितिमेंअपनेघरकोदेखताहैऔरवहांफ़ैलीअव्यवस्थासेकुढताहै.यहांएकटिप्पणीहै-‘शायदविक्टोरियायुगकेअदब-लिहाजऔरऔपचारिकताकाइसीतरहसत्यानाशकियाजासकताहै.परमैंकहताहूंउसकीजगहभारतीयसंयमऔरसादगीकोबिठानेकीबजायअमरीकीअय्याशीऔरउज्जडपनकोबिठानेकाक्यातुकहै?’ बुजुर्गदम्पत्तिपरलिखीकहानीलड़ोकनवैश्विकव्यवस्थाकेसुनहरेदौरमेंसमाजकेइसबड़ेहिस्सेकीबातकरतीहै.विचारणीयहैकिजिसयुवाभारतपरहमइठलारहेहैंबीस-पच्चीससालबादजबयहबुजुर्गभारतमेंबदलेगातोउसकेलिएहमारीक्यातैयारीहै? आजभीओल्डहाउसहमा्रीसामाजिकव्यवस्थामेंकोईस्थाननहींबनापाए.येबूढेऔरबीमारलोगक्यामौतकाइन्तजारकरनेकेलिएअभिशप्तहैं? समाजकेलिएइनकाकोईमहत्त्वनहीं? ‘आदरबाजीइसव्यथाकोबहुविधदेखसकीहै- ‘धीरेधीरेतुम्हेंइनकन्सेशंसकीआदतपड़जाएगीऔरकामकरनेकीबची-खुचीआदतभीछूटतीजाएगी.तुमरह-रहकरजवानोंसेईर्ष्याकरोगेऔरहरनईचीज़कोघटियाऔरस्तरहीनकहकरकोसोगे.


एकसंग्रहमेंआधीकहानियांभीऐसीमिलजाएंजिन्हेंपढकरपाठकीयसन्तोषकाअनुभवहोताहोतोयहसंग्रहइसकसौटीपरकहींआगेहै.स्वयंप्रकाशइनकहानियोंकोबुनतेहुएजिसतरहसमाज-देश-कालकीव्याख्याकरतेजातेहैंवहएकऐसेकथाकारकाहीकौशलहैजोरचनाऔरविचारधाराकेसम्बन्धकोभलीभांतिजानताहो. येकहानियांअगरकोरेराजनीतिकबयानबनकररहजानेसेबचीहैंतोइसकाकारणहैबतकहीकीचुहलऔरगपबाजीकेअन्दाजकेसाथबीचबीचमेंकथाकारऐसेवाक्यलिखजातेहैंजोदेरतकस्मतिमेंबनेरहसकें- ‘दिलकोकौनपूछताहैमितवा! विकासतोहोकेरहेगा.’ 
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पल्लव 
393 डी.डी.., ब्लाकसीएंडडी
कनिष्कअपार्टमेन्टशालीमारबाग़
नईदिल्ली-110088
08130072004/ pallavkidak@gmail.com

बोली हमरी पूरबी : प्रफुल्ल शिलेदार (मराठी कविताएँ )

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‘लाख के घर बनाकर
लेखक को
बुलावा भेजते हैं.’


हिंदी के सह्रदय पाठक दूसरी भाषाओँ के कच्चे-पक्के अनुवादों से भारतीय कविता के परिदृश्य को देखते –समझते रहते हैं. मराठी साहित्य प्रारम्भ से ही हिंदी साहित्य को प्रेरणा देता रहा है. हिंदी ने अपने आरम्भ में मराठी और बांग्ला भाषा से बहुत कुछ ग्रहण किया है. मराठी के प्रसिद्ध कवि प्रफुल्ल शिलेदार की कविताओं को प्रस्तुत करते हुए समालोचन यह बलपूर्वक कहना चाहता है कि भाषाओँ के पुल किसी भी सभ्यता के सबसे मजबूत रिश्ते होते हैं.

किताबों के इति और वर्तमान पर यह २० हिस्से स्थायी महत्व के हैं और सहेज लेने लायक हैं. पूरी दुनिया में किताबों का इतिहास ज्ञान और विवेक का भी इतिहास है. किताबों को कभी धर्म ग्रन्थ बना डाला गया तो कभी प्रतिबंधित कर जला डाला गया. कभी लिखने पर पुरस्कृत किया गया तो कभी लेखक के मृत्यु के फरमान जारी किये गए. 

प्रफुल्ल शिलेदार ने स्वयं इन कविताओं का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है.  



प्रफुल्ल शिलेदार की कविताएँ                                                        


लेखक की आत्मकथा से किताबों के बारे में कुछ टिप्पणियाँ


१.
किताबें
मुझे ढूंढती चली आती है     
भीतर से आस रहती है उन्हें
मुझ से मिलने की

पुराने दोस्त की तरह
मुझे ढूंढने की 
बहुत कोशिश करती रहती है
किसी पल आखिरकार मेरा पता पाकर
सामने आकर ख़ड़ी होकर
इत्मिनान से ताकती रहती है

मै उन्हें कब पढूंगा
इसकी राह देखती है
उन्हें पढ़े जाने की
कोई जल्दी नहीं होती

कभी कभार मै  
हैरानी  से
उनकी ओर देखता हूँ
बस यही काफी होता है उनके लिए  

हाथ में लेता हूँ
तो दिल धड़कने लगता है किताबों का
आँखों में चमक सी छा जाती है

पढ़ने लगता हूँ तो
साँसे थाम लेती है
मेरी एकाग्रता
भंग होने नहीं देती

आधा पढ़कर रख देता हूँ
फिर भी मायूस न होकर
मैं उन्हें फिर से कब उठा लूँगा
इस की राह देखती है

पूरी पढ़ी जाने के बाद  
किताबें थक जाती है
भीतर ही भीतर सिमटकर
सोचती रहती है
मुझ पर
क्या असर हुआ होगा




२.
जैसे भेस बदलना
बस वैसे ही
भाषा बदल कर
किताबें
दुनियाभर की सैर करती रहती है

कई सारी लिपियों के अक्षर
अपने बदन पर
गोदती है

सारी सीमाएं लाँघ कर
हवा के झोंके जैसी
मस्ती में  
चारो ओर घूमती रहती है




३.
किताबों का
अपना रूप होता है
बंद आँखों से भी
छूने के बाद
उसका अहसास होता है

गंध होती है
उनके आने से पहले
वह महकती चली आती है

मुखपृष्ठ के मुखौटे
चहरे पर रख कर
किताबें आया करती है

हर पन्ने का दरवाजा
खुला रखती है

कहीं से भी
किताबों में
प्रवेश किया जा सकता है 




४.
पहली बार हाथ में आयी
नयी किताब
बाद में घुल मिल जाती है
इस हाथ से उस हाथ में
घूमते भटकते
छीजती जाती है

पहले तो
उसके शुरुआत के पन्ने
गल जाते है
बाद में
आखिरी पन्ने झड जाते है
और अंत में
तो वह किताब ही
कहीं गुम हो जाती है

नई पुस्तक खरीदने के बावजूद
उस प्रति की यादें
मन से हटती नहीं

किताबें बूढ़ी होती जाती है
डंठल से उनके पत्ते
छूटने लगते है
तब उन्हें
नर्मदिली से
उठाकर रखना पड़ता है
बूढ़े बाप जैसा
सम्हालना पड़ता है



५.
आंखे मूंदकर
किसी किताब की
मन में इच्छा धरना

और आंखे खोलने के बाद
तुरंत उस किताब का
आँखों के सामने होना

ऐसा तो आजकल कई बार होते रहता है
लेकिन पहले किताबें
सिर्फ दुर्लभ ही नहीं
कीमती जवाहिरों जैसी होती थी

अभी अभी चार शताब्दियाँ पहले
होमिलीज की एक प्रति खरीदने के किये
दो सौ बकरियां और दो बोरे अनाज
देना पड़ता था

किताबों को पास में रखना
किसी ऐरे गैरे का
काम नहीं था

उधर किताबे
सरदार उमराव
रईसों अमीरों के पास
या फिर किसी मठ में या
पीठ में होती थी

और इधर तो 
सर पर पक्की चोटी बांधकर
वज्रासन में बैठती थी

बहुत करीब जाने पर
बदले में सीधे अंगूठा काटकर
मांगती थी



६.
किताबें
लिखी जा रही है
सदियों से
कौन जाने कब से
ये छपती जा  रही है

नौवी सदी में
वांग चे ने छापी हुई किताब
अब भी है ब्रिटिश म्यूजियम में

पंद्रहवी सदी का ग्युटेनबर्ग बाइबल
मैंने अपनी आँखों से देखा है
एलिज़ाबेथियन मेज पर
बंद कांच की संदूक में रखा हुआ
लायब्ररी ऑफ़ कांग्रेस में

मृग शावक की
या पशु भ्रूण की
कोमल महीन चमड़ी को
गुलाबी जामुनी पीले नीले हरे
रंग से सिझाकर बने वत्स पत्रों पर
लिखी गई किताबों को
दूसरे हेनरी की रॉयल लाइब्ररी से
लाइब्ररी ऑफ़ पेरिस में
देखकर हैरान हो गया



७.
किताबें
लिखी गई
कपडे पर
पेड़ की छाल पर
रेशीम वस्त्रों पर
सींगों पर
सीप पर
चावल के दाने पर

गोद ली पुरे बदन पर
खरोंच दी
कारागार की दीवारों पर

पांच सहस्राब्दियां पहले
अपौरुषेय पुस्तके
आवाज के खम्बों ने थामें
बरामदे में रहती थी
वैशम्पायन की अंजुली से
याज्ञवल्क्य  के हाथों में
नवजात बालक की तरह
सौपी गई

किताबें सीसें की थी
पक्की भुनी हुई ईटों की थी
नाइल के किनारे पाए जानेवाले
पपायरस पर भी
लिखी गई किताबें 

पपायरस न मिलने पर
चर्मपटों पर
लिखी गई किताबें

काल के
किसी भी ज्ञात कोने में
कोई किताब
मिल ही जाती है
असल में
किसी किताब के कारण ही
वह कोना
उजाला हुआ होता है 



८.
डर जितना आदिम है
उतनी ही आदिम होगी
किताबें

आग पर
काबू पाने का आनंद
इन्सान ने
लिख कर ही
अभिव्यक्त किया होगा

पत्थर से पत्थर पर  
आग ही नहीं
संकेत चिन्ह भी
बनाये जा सकते है
इस बात का पता
उसे उसी वक्त लगा होगा




९.
किताबें
पहली बार
धर्मग्रंथों के रूप में आई
क्या इसीलिए
किताबों के बारे मे अभी भी
मन में इतना सम्मान है

सभी पवित्र कथन
किताबों से आये है
पर सभी किताबें
उन वचनों जैसी
पवित्र नहीं होती

धर्म के
विचारों के
इंसानियत के भी
खिलाफ होने का विष
उनमे उबलता दिखता है
तब किताबे
परायी सी लगती है




१०. 
किताबे
अचानक
कगार तक
धकेलती जाती है

चाकू से भी
नुकीली होती है

ठन्डे दिमाग से
दिमाग फिरा देती है

फसाद में
पत्थर लाठी सांकल सलाखें
बन जाती है
छुरामारी में
चाकू का काम करती है

दंगे में
पत्थर की पाटी होकर
रस्ते में
गिरे हुए के  
सिर को
कीचड़ में बदल देती है

जलाने में
पलीता
या पेट्रोल बम
हो जाती है

चारमिनार की छाँव में
भरी राह में
बदन पर
तेजी से चलने वाले वार
बन जाती है

एके फोर्टी सेवेन से
हर मिनट को
छह सौ राउंड की गति से
छाती में दागी जाने वाली
आस्तिक गोलियां बन जाती है

दिन दहाड़े
बाजार में पकड़कर
सिर पर टिका
पिस्तौल हो जाती है

बीच रात
घर के सामने इकठ्ठा भीड़  से
पत्थर बन कर
सरसराते हुए फेंकी जाती है

आधी रात
फोन पर धमकियाँ देती है

रंगमंच उछाल देने वाला
दीवानगी भरा प्रेक्षागार बन जाती है.





११.
लोहे सी दीवार पर
अपनी नाखूनों से
खरोचने लगता हूँ तो
निगाहों की नोक पर
आ जाता हूँ

खुली हवा की तलाश में
आते है कई लोग मेरे पीछे पीछे
सफेद छोटे से अंगोछे का
पीछा करने वाला
भरी भीड़ से
आगे आता है
पहचान कर
रिवोल्वर दाग देता है

महात्मा मिट जाते है
मंडेला मुक्त होते है
धीमी गति से
बढ़ता है मुक़दमा
आँखों के सामने चमकती है
टूटी हुई निब
काले कपडे के भीतर
बाहर आ जाती है जीभ

अपने आप को खो कर
राह से दौड़ने लगता हूँ
सांसे बढती है
तियानमेन चौराहे पर पहुँच जाता हूँ

बर्फ जैसा जमने के बजाय
चिंगारी जैसे सुलगता हूँ




१२.
किताब छाती से सिमटकर
मंदिर मस्जिद के बाहर
क़तार में
उकंडू बैठता हूँ

एक हाथ में किताब थामकर
दुसरे हाथ में
बिजली की तार
कस कर पकड़ता हूँ

किताब लांघकर जाने के बाद
पागलखाने में
साँसनली में अटक जाता है
चावल का एक दाना
और रुक जाता
सांसो का गाना




१३.
किताबें तो निहत्थी होती है
लेकिन किताबों पर
हथियार चलाये जाने के
कई मसले
इतिहास में है

किताबें लेखक पर
दहशत का बोझ
लाद कर
मुल्क निकासी करवाती है

जिंदगी भर के लिए
जन्म भूमि से
जलावतन कर देती है

लेखक के
सिर काटकर लाने पर
इनाम भी रखा जाता है

दीवानगी में
किताबें
फाड़ कर
टुकड़े टुकड़े
किये जाते है 

पागलपन में भी
कभी कभी
बड़े संयम के साथ
लेखक के बजाय 
किताबों को ही
जलाया जाता है




१४ .
महाकाय
बामियान बुद्ध को
तोप से तहस नहस करनेवाले
फैले है दुनियाभर

कभी खुले आम
कभी बुरका लेकर
रहते है

भीतर से
हमेशा डरे हुए से

महाकाय बुद्ध से ही नहीं
कागज के जीर्ण
टुकड़े से भी डरते है

किताबों पर ही नहीं
तो
पुरानी पांडुलिपियों पर
भूर्ज पत्रों पर
बसन में लपेटे पोथियों पर
बहियों पर
रिसालों पर
तवारीखों पर
स्मृतियों पर
संहिताओं पर

शिला लेखों पर
ताम्र पट पर
मुद्राओं पर
सनदों पर
दस्तावेजों पर

वे झुण्ड से
हल्ला बोल देते है

कब्जे में आयी हर चीज 
फाड़कर फोड़कर
नष्ट कर देते है

किताबों का
अवाम में
ठाठ खड़े रहना
जेहेन में बस जाना
सत्ता को सामने आकर
चुनौती देना
जिन्हें खटकता है
वे किताबों को
नष्ट करने की
कोशिश में रहते है

लाख के घर बनाकर
लेखक को
बुलावा भेजते है




१५.
किताबे
इतिहास की गूढ़ हंसी
हंसती  है

जो इतिहास  बदल नहीं सकते
वे किताबों को बदलते है
उनकी निर्मलता
मलिन कर देते है

किताबों के माध्यम से
वे बरसों तक टिके रहेंगे
ऐसा मानकर
लिखवा लेते है
मनचाही किताबे

किताबों पर अपना झंडा गाड़कर
उनकी छाती पर
पांव रखकर
खड़े रहने से
किताबों पर
काबू पा लिया
ऐसा साबित नहीं होता




१६.
किताबें
अतीत की
मोटी चमड़ी फाड़कर
इतिहास के पेट में छिपी काली अंतड़ी
दिखाते है

वह जिनके लिए
गले का फंदा बन सक सकती है
वे दूर भगा देते है किताबों को

दरवाजे खिड़कियाँ
पक्की बंद कर देते है
सीमाओं पर गश्त बढ़ा देते है
नाकाबंदी संचारबंदी
सब कुछ अजमाकर देख लेते है

उस वक्त किताबें
तितलियाँ बनकर
उड़ती चली आती है
लेखक की कवि की
उँगलियों पर
हलके से बैठकर
लाये हुए पराग कण
उसकी कलम की स्याही में
घुला देती है




१७.
किताबों को जब
अवाम की आवाज
मिल जाती है
तब वे समुन्दर की ऊँची लहरों जैसे
गरजती है

पहुँच जाती है ऊंचाई पर
और तारों जैसी
अचल होकर
चमचमाती है

आँखों को दृष्टी देती है
आवाज को सुर देती है
बंधे हुए हाथ पांव 
खोल देती है

तनाव की काँटों भरी बाड़ को
तोड़ने के लिए आरा बन जाती है
हाथ पांवों को बंधी रस्सी तोड़ने के लिए
चाकू बनती है




१८.

किताबें
सींप बनकर
भाषा सहेजते है
उदक बनकर
अंकुर उगाते है 

पेंग्विन होकर
मीलोंमील सफ़र करते है

चिड़िया जैसे
घोसला ही नहीं
कठफोड़वे जैसे
गहरे संजीदा
निशान भी करते है 

लायब्ररी के अलमारियों में
बड़े संयम से 
खड़ी किताबें  
चील की नजरों से
कांच से बाहर
ताकती रहती है

कई किताबें
चमगीदड़ जैसी निश्चिन्त होकर
उलटे टांग कर लटकती है
उग्र ऋषी जैसे
तप करते किताबों को
हाथ लागने का धैर्य
किसी एकाध में ही होता है

रंगीन चिड़ियों जैसी
मुर्गे या बदक जैसी
गिरोह में रखी किताबें
चहचहाती है
उन्हें हाथ में लेने वालों को
निहारती रहती है

किताबें तो
लुगदी बनकर
कागज बनी
पेड़ की टहनी
इसीलिए भटकते पछियों के लिए
होती है एक जगह अपनी 

बन भी सकते है
एक विराट ओपेरा की
अप्रत्याशित नांदी



१९ .
किताबें
संदेसे के लिए भेजे गए
कोरे कागज के
पीछे आती है

धारा में डूब कर भी
किनारे पर आती है

दरवाजा बंद करने के लिए
टाटी बन जाती है

रोटी सेंकते वक्त
अपने आप
होठों पर आती है

इस जनम में
लिखना रह गया
तो अगले जनम में 
कोख में आती है

सात समुन्दर पार कर के
किताबें
मुझ से मिलने जब तेजी से चली आती है
तब समूची पृथ्वी
लिली का पीला फूल बनकर
मुस्कुराती है



२०.
किताबें
स्थितप्रज्ञ जैसी
स्थितिशील

इंसानों की दुनिया में
ईश्वर ने
दखल अंदाजी करना

वैसी ही
किताबों की दुनिया में
इन्सान आगंतुकी से
दस्तंदाजी करते रहता है

सामने के दो पांव
ऊँचे उठाकर
पिछले दो पांवों पर
खड़े होनेवाली
जिराफ जैसी
गर्दन लम्बी करनेवाली
बकरियों को
किताबें
भरपूर पत्तियाँ
जिन्दगी भर
चरने देती है
***
(अनुवाद : स्वयं कवि)


प्रफुल्ल शिलेदार 

हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में जन्मे प्रफुल्ल शिलेदार वरिष्ठता की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-समीक्षक हैं. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी में अनुवाद कर रहे हैं और विनोदकुमार शुक्लएवं ज्ञानेंद्रपतिजैसे चुनौती-भरे कवियों के पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित कर चुके हैं जिन्हें मराठी में बहुत सराहा गया है. स्वयं उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. उनकी कविताओं का हिंदी संकलन पैदल चलूँगाशीघ्र प्रकाश्य है.  

ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया में होनेवाले कविता-समारोह आर्स पोएतीका’’में 2013में आमन्त्रित वह पहले भारतीय कवि थे. उन्होंने देश विदेश के कई महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों में काव्यपाठ किया है. उनकी पत्नी सौ.साधना शिलेदार हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्द गायिका तथा कुमार गंधर्व की अध्येता हैं. 
प्रफुल्ल शिलेदार (मो.09970186702) मुंबई में रहकर बैंक की नौकरी करते हैं./shiledarprafull@gmail.com
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सबद भेद : द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ : एक पूरक टिपण्णी : मंगलमूर्ति

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हिंदी साहित्य में  आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी नाम से एक युग है, ज़ाहिर सी बात है द्विवेदी जी का योगदान युगांतकारी है. उनके सम्मान में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने १९३३ में 'आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ'का प्रकाशन किया था. जिसे वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय भारतीय साहित्य का विश्वकोशमानते हैं. इस अप्राप्य, दुर्लभ और मूल्यवान ग्रन्थ का पुनर्प्रकाशन नेशनल बुक ट्स्ट, इंडिया ने किया है. ज़ाहिर है यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य हुआ है. पर हुआ यह भी है कि इस गन्थ की जो भूमिका छपी है उसमें से एक पृष्ठ  लुप्त है. इस लुप्त पृष्ठ में नागरी के सभापति रामनारायण मिश्र ने इस ग्रन्थ के निर्माण में श्री शिवपूजन सहाय के योगदान को रेखांकित किया था, इस असावधानी की ओर  मंगलमूर्ति जी ने ध्यान खींचा है जो श्री शिवपूजन सहाय के सुपुत्र और हिंदी- अंग्रेजी के रचनाकार हैं.



द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ : एक पूरक टिपण्णी                               
मंगलमूर्ति 


चार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सत्तरवें वर्ष-प्रवेश पर ९ मई, १९३३ को काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा उनको एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया गया था. पिछली जुलाई में उस ऐतिहासिक ग्रन्थ के (२०१५) नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पुनर्प्रकाशित नवीन प्रतिकृति संस्करण में ‘परिचय’-शीर्षक डा. मेनेजर पाण्डेय का लेख यहाँ इसी स्तम्भ में पुनर्प्रसारित हुआ था. इस संक्षिप्त टिपण्णी के द्वारा उसमें दी गयी महत्वपूर्ण सूचनाओं में कुछ और आवश्यक सुचनाएं जोड़ना अभीष्ट है. पांडेयजी के लेख की प्रमाण के साथ प्रस्तुत सबसे महत्वपूर्ण सूचना यह है कि छोटे १० पॉइंट टाइप में छपी ९ पृष्ठों की ‘प्रस्तावना’ जिसके नीचे ‘श्यामसुंदर दास’ और राय ‘कृष्णदास’के नाम छपे हैं, वह वास्तव में आचार्य नंददुलारे वाजपेयीजीकी लिखी हुई है. नंददुलारेजी के उस लम्बे लेख में द्विवेदी-वांग्मय का विस्तृत एवं सम्यक अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है. पांडेयजी के ‘परिचय’ में भी उस लेख पर विस्तार से विचार किया गया है.’ अभिनन्दन-ग्रन्थ’ में प्रकाशित पूरी सामग्री का  भी पांडेयजी ने अपने लेख में विश्लेषणात्मक ‘परिचय’ दिया है. यहाँ इस टिपण्णी में दी गयी सूचनाएं उसी ‘परिचय’ के पूरक के रूप में प्रस्तुत हैं.

इसमें पहली सूचना विशेष चिंताजनक है. नेशनल बुक ट्रस्ट ने जिस मूल ग्रन्थ से यह नवीन संस्करण फोटो-अनुकृति पद्धति से छापा है उसमें तीन पेज की ‘भूमिका’ का अंतिम पेज गायब है. फलतः इस नवीन संस्करण में भी वह पेज नहीं है. यह ‘भूमिका’ काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति श्रीरामनारायण मिश्र की लिखी हुई है. इस गायब अंतिम पृष्ठ पर ‘भूमिका’के अंत में उनका नाम छपा हुआ है और १९ वैशाख, सं. १९९० (मई, १९३३) तिथि भी दी हुई है. यह एक गंभीर त्रुटि है जिसका नेशनल बुक ट्रस्ट को अविलम्ब परिमार्जन करना चाहिए. ‘भूमिका’ के जो दो पृष्ठ छपे हैं, उनमें शुरू में ही निम्नांकित पंक्तियाँ हैं जिनसे इंगित होता है कि अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करने का मूल प्रस्ताव श्री शिवपूजन सहायका था और उससे एक साल पहले एक अभिनन्दन पत्र जो द्विवेदीजी को दिया गया था उसे शिवपूजन सहाय ने ही लिखा और छपवाया था जिससे इस ग्रन्थ-प्रकाशन और समर्पण की पूर्व-पीठिका बन चुकी थी.

जनवरी १९३२ में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी २४ घंटे के लिए काशी पधारे थे. उस समय काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन-पत्र दिया गया था. उनके चले जाने के कई दिन बाद श्री शिवपूजन सहाय ने सभा के मंत्री से चर्चा की कि सभा को केवल मानपत्र देकर ही न रह जाना चाहिए, आचार्य के अभिनंदनार्थ एक सुन्दर ग्रन्थ भी निकलना चाहिए...इस समुचित प्रस्ताव का सभा ने सहर्ष और सादर स्वागत किया और इसे कार्य-रूप में परिणत करने का आयोजन प्रारम्भ कर दिया.

फिर अंत का जो पृष्ठ अनुपस्थित है उसके अंत में भी रामनारायण जी ने लिखा है. 

श्री शिवपूजन सहाय जी ने जो बीज बोया, उसे पल्लवित करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है. लेखों के संपादन में उन्होंने पूरी सहायता दी है और इस थोड़े समय के अन्दर ही  जहाँ तक बन पड़ा है, उन्होंने प्रूफ भी बड़ी सतर्कता और सतत परिश्रम से देखा है.

वस्तुतः इस ग्रन्थ का बहुलांश सम्पादन-कार्य - लेखकों को पत्र लिख कर सामग्री मंगाना, उनका सम्पादन-संशोधन करना, जनवरी से अप्रैल, १९३३ के तीन महीनों में हफ्ते-हफ्ते बनारस से प्रयाग जा-जा कर वहां इंडियन प्रेस में रहते हुए पूरे ग्रन्थ का प्रेस-सम्पादन करना, एक-एक तफसील पर गौर रखना – यह सारा काम शिवपूजन सहायने किया था जिसका केवल संक्षिप्त उल्लेख रामनारायण मिश्र की ‘भूमिका’ में हुआ है. पहली बार जब जनवरी, १९३२ में द्विवेदीजी को जल्दी-जल्दी में अभिनन्दन-पत्र दिया गया था उस प्रसंग में शिवजी अपने संस्मरण में लिखते हैं –
ग्रन्थ में छपने से रह गया पृष्ठ ; साभार मंगलमूर्ति

अचानक, कुछ घंटों के लिए वे काशी आ गए थे. काशी की नागरी प्रचारिणी सभा में केवल एक बार मैं आचार्य द्विवेदीजी के आराध्य चरणों का स्पर्श कर कृत-कृत्य हुआ था. काशी के सहृदय कलाविद राय कृष्णदास जीके आदेश से बड़ी शीघ्रता में एक अभिनन्दन पत्र लिखा गया (शिवजी ने ही लिखा). श्री प्रवासीलाल वर्माके सहयोग से, प्रेमचंदजी के ‘सरस्वती प्रेस’में, दो घंटे के अन्दर ही, उसे मैं छपवा लाया. तुरंत वह पढ़ा गया. द्विवेदीजी तांगे पर सवार हुए. मैंने साहित्यिक-ऋषि के चरण रेणु का अमृतांजन आँखों में लगाया...

द्विवेदीजी सम्मान और अभिनन्दन से सदा दूर रहते थे. लेकिन काशी नागरी प्रचारिणी सभा से उनका बहुत आत्मीय लगाव था इसीलिए उन्होंने इस अभिनन्दन पत्र को स्वीकार किया होगा. शिवजी उन दिनों कविवर ‘प्रसाद’ की मंडली के सदस्य थे और काशी में ही सभा के बिलकुल पास कालभैरव मोहल्ले में ही  सपरिवार निवास करते थे. एक वर्ष बाद फ़रवरी, १९३२ में ‘प्रसाद-मंडली’की ओर से काशी से ही शिवजी के संपादन में शुद्ध साहित्यिक-पाक्षिक ‘जागरण’का प्रकाशन हुआ. इसके दूसरे ही अंक में शिवजी ने द्विवेदीजी की आगामी जयंती के अवसर पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा एक ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ द्विवेदीजी को भेंट करने का विचार सर्वप्रथम प्रस्तावित किया. सभा ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृत किया और अगले वर्ष की जयंती (९ मई, १९३३) के अवसर पर भेंट के लिए यह ग्रन्थ प्रयाग के इंडियन प्रेस में छप कर तैयार हुआ. ग्रन्थ के प्रकाशन की तैयारी तो फ़रवरी, १९३२ के प्रस्ताव के बाद ही शुरू हो गयी थी. मई, १९३२ के ‘जागरण’ में इसकी योजना के विषय में शिवजी ने पुनः लिखा –

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने अगले साल (१९३३में) आचार्य द्विवेदीजी को सत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने पर जो अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का निश्चय किया है., उसमें रायल अठ्पेजी साइज के करीब साढ़े पांच सौ पृष्ठ होंगे. तिरंगे और एकरंगे चित्रों की संख्या लगभग तीस होगी. उसके प्रत्येक पृष्ठ से मुद्रण-कला का विलक्षण चमत्कार प्रकट होगा. हिंदी के गण्य-मान्य लेखकों, कवियों, संपादकों और हितैषियों की सुन्दर रचनाएं और भारत-प्रसिद्द चित्रकारों के बनाए चित्र उसे अलंकृत करेंगे. इस प्रकार उस ग्रन्थ के प्रकाशन में हज़ारों रुपये व्यय होंगे... धनी-मानी हिंदी-प्रेमियों को अपनी उदारता और हिंदी-प्रेम दिखाने का यह अच्छा अवसर मिला है

अभिनन्दन-ग्रन्थ अंततः लगभग सवा साल बाद- जनवरी से अप्रैल, १९३३ के तीन महीनों में - छप कर तैयार हो गया और ९ मई, १९३३ को नागरी प्रचारिणी सभा में आयोजित एक विशेष समारोह में ओरछा-नरेशके हाथों द्विवेदीजी को समर्पित किया गया. शिवजी ने अपने संस्मरणों और सम्पादकीय टिप्पणियों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं जिन सब को, या उनमें से अधिकांश को भी यहाँ दुहराना संभव नहीं. उनके एक संस्मरण का एक अंश यहाँ विशेष प्रासंगिक है. शिवजी लिखते हैं –

जनवरी, १९३२ में उपर्युक्त अभिनन्दन पत्र लेकर जब द्विवेदीजी चले गए तब राय कृष्णदास जी से मैंने निवेदन किया की सभा की ओर से द्विवेदीजी को एक सर्वांग-सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ दिया जाना चाहिए. राय साहब ने भगीरथ प्रयत्न किया. उनके उद्योग-रथ में मेरे दुर्बल कंधे भी भिड़े. वह कई महीनों के लगातार परिश्रम की लम्बी कहानी है. मैं महीनों इंडियन प्रेस में बैठ कर अभिनन्दन-ग्रन्थ तैयार करता रहा; पर जब उसके समर्पण का समय आया तब मेरे पांच वर्ष के पुत्र आनंदमूर्तिपर शीतला भवानी का भयंकर आक्रमण हुआ. काशी से तार पाते ही मैंने प्रेस से प्रस्थान किया. उस दिन से एक-डेढ़ महीने तक दरवाजे से बाहर न निकला. काशी में अभिनन्दन समारोह हो रहा था और मैं व्यग्र बच्चे की सुश्रूषा में व्याकुल था. वर्तमान ‘सरस्वती’-सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्लजीमेरा बक्स-बिस्तर प्रेस से लाकर दे गए... उत्सव का केंद्र सभा-भवन मेरे मकान से सौ गज से अधिक दूर न था. पर मैं तो दूसरी ही दुनियां में था. महीनों से पूजा के फूल संजोता रहा, पर पूजा के समय ‘देवता’ के दर्शन से भी वंचित रहा. उस समय का कोई भी आनंद मेरे भाग्य के बांटे का नहीं था

श्री मैथिलीशरणजी और राय साहब द्विवेदीजीका लिखा हुआ एक श्लोक  मुझे दे गए और कह गए कि आचार्य का ह्रदय सहानुभूति से विह्वल है; पर अस्वस्थ हो जाने से यहाँ तक आने में असमर्थ हैं – बच्चे को यह आशीर्वाद दिया है. उस श्लोक में बच्चे के आरोग्य-लाभ के लिए जगदम्बा से प्रार्थना थी. ‘रंक की निधि’ की तरह उसे जुगा कर रख लिया, शिवजी के संस्मरणों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनगिनत अत्यंत महत्वपूर्ण सूचनाएं भरी पड़ी हैं. 

‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के सम्पादन-क्रम में शिवजी एक हाथ की सिली नोटबुक में राय साहब और श्यामसुंदर दासजी के सम्पादन-सम्बन्धी निर्देश नोट किया करते थे. वह नोटबुक शिवजी के अपने संग्रह में है जिसके पन्नों की प्रतिकृतियाँ ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ में देखी जा सकती हैं. द्विवेदीजी को यह अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके ६९ वें जन्मदिन पर ९ मई, १९३३ को भेंट किया जाना था जिस दिन वे अपने जीवन के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे. नोटबुक में एक निर्देश यह है कि कविताओं, श्रद्धांजलियों को छोड़ कर केवल लेखों की संख्या ६९ ही रखी जाय. इस कारण कई लेखों को शामिल नहीं किया जा सका. एक जगह यह भी निर्दिष्ट है की शब्दों के हिज्जे में कैसी एकरूपता रखी जाय, जैसे ‘अंग्रेजी’ की जगह ‘अंगरेजी’ हिज्जे ही रहे. इस नोटबुक को देखने से पता लगता है की दिनानुदिन ग्रन्थ संपादन का काम कैसे चल रहा था. शिवजी को जो खर्च-बर्च सभा से मिलता था उसका भी पाई-पाई का हिसाब उसमें अंकित है. यह नोटबुक वास्तव में ग्रन्थ सम्पादन की एक मुकम्मल दैनन्दिनी ही है. शिवजी का सम्पूर्ण साहित्यिक संग्रह जिसमे उनका विशाल पत्र संग्रह, उनकी डायरियां, पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकें आदि विभिन्न सामग्री हैं, अब नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरीमें सुरक्षित है.
श्री शिवपूजन सहाय

‘समग्र’ में प्रकाशित शिवपूजन सहाय के संस्मरणों और द्विवेदीजी के पत्रों में अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं. जैसे ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’के सम्पादन-क्रम में शिवजी ने नागरी-प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में, जहां द्विवेदीजी ने अपने सारे ग्रन्थ-संग्रह और ‘सरस्वती’के सभी संपादित अंकों की मूल पांडुलिपियों को सुरक्षित रखवा दिया था, उन सबको देखा-खंगाला था और उसका विस्तृत विवरण उन्होंने अपने उस लम्बे संस्मरण में दिया है जो १९३३ में ‘हंस’ के दो अंकों में प्रकाशित हुआ था. उनके विषय में शिवजी ने लिखा है –

आचार्य द्विवेदीजी ने अपने अठारह वर्षों के सम्पादन-काल में ‘सरस्वती’ के लिए जितने लेखों और कविताओं का संशोधन किया था. सबकी असली कापी प्रेस से मंगा कर सिलसिलेवार रखते गए थे. फिर अंत में उन्हें अलग-अलग बंडलों में बाँध कर काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को दे दिया था. उन बंडलों में हिंदी भाषा के विकास का इतिहास छिपा हुआ था. वे बण्डल हिंदी साहित्य-भंडार के लिए अशर्फियों के गगरे थे...द्विवेदीजी ने लेखों की कापियों में जो करेक्शन किये हैं, उन्हें देख कर सिर चकरा जाता था...अनेक लेखों को उन्होंने खुद दुबारा लिखा था. कई लेखों के आधे अंश का पर्याप्त संशोधन किया था और आधा स्वयं नए सिरे से लिखा था. एक लेख में उन्होंने दोनों तरफ कागज़ चिपका कर संशोधन और संवर्धन किया था...

शिवजी का यह संस्मरण द्विवेदीजी के पूरे वांग्मय पर सर्वाधिक प्रमाणिक सूचनाओं से भरा हुआ है और द्विवेदी-साहित्य के हर अध्येता के लिए विशेष महत्वपूर्ण है. नव-प्रकाशित यह ‘द्विवेदी- अभिनन्दन-ग्रन्थ’ अपने आप में हिंदी की एक ‘रत्न-मंजूषा’ है. इसके पुनर्प्रकाशन द्वारा अपनी साहित्यिक परंपरा के समादर का यह स्तुत्य प्रयास स्वयं में अभिनंदनीय है.

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श्री मंगलमूर्ति
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