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मति का धीर : महाश्वेता देवी

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अपने उपन्यास ‘मास्टर साब’ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है- ‘लेखकों को वहाँ और अधिक चौकस रहना पड़ता  है, जहाँ अँधेरा कुंडली मारे बैठा है. उसे वहाँ प्रकाश फैलाना होता है, अविवेक पर प्रहार और कशाघात करना होता है.’
कहना न होगा महाश्वेता देवी आजीवन, अनथक, अनभय यही करती रहीं. लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी विचारक तथा पद्मश्री, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, मैग्सेसे आदि पुरस्कारों से सम्मानित जन प्रिय महाश्वेता देवी अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका लेखन हमेशा सजीव रहेगा.

आज ‘आनंदबाजार पत्रिकाने उनकी स्मृति में यह आलेख प्रकाशित किया है, जिसका बांग्ला से हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध लेखक अरुण माहेश्वरी ने आपके लिए किया है. 
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মহাশ্বেতা দেবী
महाश्वेता देवी(14 January 1926 – 28 July 2016)            



हाश्वेता देवी की लिखने की टेबुल कभी भी बदली नहीं. बालीगंज स्टेशन रोड में ज्योतिर्मय बसु के मकान में लोहे की घुमावदार सीढ़ी वाली छत के घर, गोल्फ ग्रीन या राजाडांगा कहीं भी क्यों न रहे, टेबुल हमेशा एक ही. ढेर सारे लिफाफे, निवेदन पत्र, सरकारी लिफाफे, संपादितवर्तिकापत्रिका की प्रूफकापियां बिखरी हुई. एक कोने में किसी तरह से उनके अपने राइटिंग पैड और कलम की बाकायदा मौजूदगी. सादा बड़े से उस चौकोर पैड पर डाट पेन से एकदम पूरे-पूरे अक्षरों में लिखने का अभ्यास था उनका.

लिखना, साहित्य बहुत बाद में आता है. कौन से शबरों के गांव में ट्यूबवेल नहीं बैठा है, बैंक ने कौन से लोधानौजवान को कर्ज देने से मना कर दिया है - सरकारी कार्यालयों में लगातार चिट्ठियां लिखना ही जैसे उनका पहला काम था. ज्ञानपीठसे लेकर मैगसेसेपुरस्कार से विभूषित महाश्वेता जितनी लेखक थी, उतनी ही एक्टिविस्ट भी थी. 88 साल की उम्र में अपने हाथ में इंसुलिन की सूईं लगाते-लगाते वे कहती थी, ‘‘तुम लोग जिसे काम कहते हो, उनकी तुलना में ये तमाम बेकाम मुझे ज्यादा उत्साहित करते हैं.’’

इसीलिये महाश्वेता को सिर्फ एक रूप में देखना असंभव है. वेहजार चौरासी की मांहै. वेअरण्य के अधिकारकी उस प्रसिद्ध पंक्ति, नंगों-भूखों की मृत्यु नहीं है  की जननी है. दूसरी ओर वे सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन का एक चेहरा थी. एक ओर उनके लेखन से बिहार-मध्यप्रदेश के कुर्मी, भंगी, दुसाध बंगाली पाठकों के दरवाजे पर जोरदार प्रहार करते हैं. और एक महाश्वेता आक्साफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से दिल्ली बोर्ड के विद्यार्थियों के लियेआनन्दपाठशीर्षक संकलन तैयार करती है, जिम कार्बेट से लू शुन, वेरियर एल्विनका अनुवाद करके उन्हें बांग्ला में लाती है. उनके घर पर गांव से आए दरिद्रजनों का हमेशा आना-जाना लगा रहता है.

(नेल्सन मंडेला के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करते हुए)
दो साल पहले की बात है. किसी काम के लिये कोलकाता आया एक शबरनौजवान महाश्वेता के घर पर टिका हुआ था. नहाने के बाद आले में रखी महाश्वेता की कंघी से ही अपने बाल संवार लिये. इस शहर में अनेक वामपंथी जात-पातहीन, वर्ग-विहीन, शोषणहीनसमाज के सपने देखते हैं. लेकिन अपने खुद के तेल-साबुन, कघीको कितने लोग बेहिचक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिये दे सकते हैं ? कैसे उन्होंने यह स्वभाव पाया ? सन् 2001 में गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाकको महाश्वेता ने कहा था, ‘जब शबरों के पास गई, मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गये. आदिवासियों पर जो भी लिखा है, उनके अंदर से ही पाया है.

सबाल्टर्न इतिहासलेखन की प्रसिद्धी के बहुत पहले ही तो महाश्वेता के लेखन में वे सब अनसुने सुने जा सकते थे. 1966 में प्रकाशित हुई थीकवि बंध्यघटी गात्री का जीवन और मृत्यु. उसमें उपन्यासकार ने माना था, ‘बहुत दिनों से इतिहास का रोमांस मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था. एक ऐसे नौजवान की कहानी लिखना चाहती थी जो अपने जन्म और जीवन का अतिक्रमण करके अपने लिये एक संसार बनाना चाहता था, उसका खुद का रचा हुआ संसार.’ ‘चोट्टी मुण्डा और उसका तीरवही अनश्वर स्पिरिट है.चोट्टी खड़ा रहा. निर्वस्त्र. खड़े-खड़े ही वह हमेशा के लिये नदी में विलीन हो जाता है, यह किंवदंती है. जो सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है.सारी दुनिया के सुधीजनों के बीच महाश्वेता इस वंचित जीवन की कथाकार के रूप में ही जानी जायेगी. गायत्री स्पिवाक महाश्वेता के लेखन का अंग्रेजी अनुवाद करेगी. इसीलिये महाश्वेता को बांग्ला से अलग भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा.

विश्व चिंतन से महाश्वेता का परिचय उनके जन्म से था. पिता कल्लोलयुग के प्रसिद्ध लेखक युवनाश्वया मनीश घटक. काका ऋत्विक घटक. बड़े मामा अर्थशास्त्री, ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकलीके संस्थापक सचिन चौधुरी. मां के ममेरे भाई कवि अमिय चक्रवर्ती. कक्षा पांच से ही शांतिनिकेतन में पढ़ाई. वहां बांग्ला पढ़ाते थे रवीन्द्रनाथ. नंदलाल बोस, रामकिंकर बेजजैसे शिक्षक मिलें. देखने लायक काल था. 14 जनवरी 1926 के दिन बांग्लादेश के पाबना (आज के राजशाही) जिले के नोतुन भारेंगा गांव में महाश्वेता का जन्म. इसके साल भर बाद हीआग का दरियाकी लेखिका कुर्रतुलैन हैदरजन्मी थी. दोनों के लेखन में ही जात-पात, पितृसत्ता का महाकाव्य-रूपी विस्तार दिखाई दिया. इसी चेतना की ही तो उपज थी - ‘स्तनदायिनीका नाम यशोदा. थाने में बलात्कृत दोपदी मेझेन द्रौपदीका ही आधुनिक संस्करण है. भारतीय निम्नवर्ग एक समान पड़ा हुआ पत्थर नहीं, उसमें भी दरारे हैं, वह क्याश्री श्री गणेश महिमामें दिखाई नहीं देता है : ‘‘भंगियों की होली खत्म होती है दो सुअरों को मार कर, रात भर मद-मांस पर  हल्ला करते हैं. दुसाध यहां अलग-थलग थे. फिर दो साल हुए वे भी भंगियों के साथ होली में शामिल है.’’

अपनी साहित्य यात्रा के इस मोड़ पर आकर महाश्वेता एक दिन रुक नहीं गई. उसके पीछे उनकी लंबी परिक्रमा थी.‘46 में विश्वभारती से अंग्रेजी में स्नातक हुई. एम.. पास करने के बाद विजयगढ़ के ज्योतिष राय कालेज में अध्यापन. उसके पहले 1948 सेरंगमशालअखबार में बच्चों के लिये लिखना शुरू किया. आजादी के बाद नवान्नोके लेखक विजन भट्टाचार्यसे विवाह. तब कभी ट्यूशन करके, कभी साबुन का पाउडर बेच कर परिवार चलाया. बीच में एक बार अमेरिका में बंदरों के निर्यात की योजना भी बनाई, लेकिन सफल नहीं हुई.1962 में तलाक, फिर असित गुप्तके साथ दूसरी शादी. 1976 में उस वैवाहिक जीवन का भी अंत.

इसी बीच, पचास के दशक के मध्य एकमात्र बेटे नवारुणको उसके पिता के पास छोड़ कर एक कैमरा उठाया और आगरा की ट्रेन में बैठ गई. रानी के किले, महालक्ष्मी मंदिर का कोना-कोना छान मारा. शाम के अंधेरे में आग ताप रही किसान औरतों से तांगेवाले के साथ यह सुना कि रानी मरी नहीं. बुंदेलखंड की धरती और पहाड़ ने उसे आज भी छिपा रखा है.

इसके बाद हीदेशपत्रिका में झांसी की रानीउपन्यास धारावाहिक प्रकाशित हुआ. और इसप्रकार, अकेले घूम-घूम कर उपन्यास की सामग्री जुटाने वाली क्रांतिकारी महाश्वेता अपनी पूर्ववर्ती लीला मजुमदार, आशापूर्णा देवीसे काफी अलग हो गई. उनका दबंग राजनीतिक स्वर भी अलग हो गया. अग्निगर्भउपन्यास की वह अविस्मरणीय पंक्ति, ‘‘जातिभेद की समस्या खत्म नहीं हुई है. प्यास का पानी और भूख का अन्न रूपकथा बने हुए है. फिर भी कितनी पार्टियां, कितने आदर्श, सब सबको कामरेड कहते हैं.’’कामरेडों ने तो कभी भीरूदाली’, ‘मर्डरर की मांकी समस्या को देखा नहीं है.चोली के पीछेकी स्तनहीन नायिका जिसप्रकारलॉकअप में गैंगरेप...ठेकेदार ग्राहक, बजाओ गानाकहती हुई चिल्लाती रहती है, पाठक के कान भी बंद हो जाते हैं.

कुल मिला कर महाश्वेता जैसे कोई प्रिज्म है. कभी बिल्कुल उदासीन तो कभी बिना गप्प किये जाने नहीं देगी. अंत में, बुढ़ापे की बीमारियों, पुत्रशोक ने उन्हें काफी ध्वस्त कर दिया था. 

फिर भी क्या महाश्वेता ही राजनीति-जीवी बहुमुखी बंगालियों की अंतिम विरासत होगी ? ममता बंदोपाध्याय की सभा के मंच पर उनकी उपस्थिति को लेकर बहुतों ने बहुत बातें कही थी. महाश्वेता ने परवाह नहीं की. लोगों की बातों की परवाह करना कभी भी उनकी प्रकृति नहीं रही.
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(‘आनंदबाजार पत्रिकादैनिक के 29 जुलाई 2016 के अंक से साभार)

अरुण माहेश्वरी
संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेककोलकाता - 700064 

विष्णु खरे : कई हजार चौरासियों की माँ

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महाश्वेता देवी के कथा साहित्य ने भारतीय सिनेमा को कुछ बेहतरीन फिल्मे दी हैं जिसमें ‘संघर्ष’, 'हजार चौरासी की मां’, ‘रुदाली’ आदि शामिल हैं, उनकी आधारित फिल्में अपना अलग व्यक्तित्व रखती हैं. 


कई हजार चौरासियों की माँ                             
विष्णु खरे 


पने मुझ सरीखे असंख्य आराधकों के लिए वह एक स्निग्ध काली-दुर्गा जैसी थीं और स्वयं मैंने उन्हें एक मां की तरह माना क्योंकि अन्य कई बड़े फर्कों की तरह मुझमें-उनमें उम्र का उतना फासला भी था,  हालांकि राष्ट्रीय सक्रियतावादी राजनीति और साहित्य में वह जगत्दीदी संबोधित की जाती थीं. उनका निधन असामयिक इन्हीं अर्थों में है कि वह अंत तक सक्रिय थीं और वह जो चतुर्मुखी काम कर रही थीं, उसे कर पाने वाला कोई अब दिखाई नहीं देता.

यह नहीं कि करीब पचास वर्ष पहले महाश्वेता देवी की अपनी विशिष्ट छवि बनना शुरू नहीं हो चुकी थी लेकिन विचित्र व्यंग्य यह है कि उन्हें दक्षिण एशिया में एक सुपरिचित लोकप्रिय व्यक्तित्व बनाने का श्रेय 1968की कई कारणों से अतिचर्चित महाफिल्म 'संघर्ष'को जाता है जिसकी कहानी महाश्वेता की थी. निर्माता-निर्देशक एच. एस. रावेलअपनी पिछली फिल्म 'मेरे महबूब'की अपार सफलता की आंधी पर सवार थे किंतु वह (और उनकी पत्नी) गंभीर बांग्ला साहित्य के पाठक भी थे और उन्हें महाश्वेता का 'लैली आस्मानेर आईना'जैसा बहुआयामीय, अत्यंत सिनेमैटिक कथानक दिखाई पड़ा.


रावेल-दंपति का इस कहानी को खोज पाना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यदि वह लिखी ही न जाती तो खोजने को होता क्या. हैरत होती है कि बांग्ला भद्रलोक में पली-बढ़ी महाश्वेता को बनारस के 'कुलीन'हत्यारे ठग-पंडों की भाषा सहित समूची जीवन-शैली, पारिवारिक ढांचे और 'संस्कृति'का इतना ज्ञान था. 'संघर्ष'के अधिकांश पात्रों के नाम आश्चर्यजनक रूप से उस काल-खंड के ठेठ बनारसी हैं. देखा जाए तो कहानी पूरी तरह से एक 'पीरियड'मसाला किस्सा या दास्तान है और 19वीं सदी के किसी 'चहार दरवेश'से उठाई लगती है. 'संघर्ष'के बारे में तय करना मुश्किल है कि वह कितनी रावेल-दंपति की फिल्म है और कितनी महाश्वेता देवी की.

दिलीपकुमारऔर वैजयंतीमालाके बीच तब संबंध इतने बिगड़ चुके थे कि दोनों के 'युगल-दृश्य'यदि फिल्माए जाते भी थे तो अलग-अलग, लिहाजा उनका नकलीपन साफ दिखाई देता था. इस तनाव का कमोबेश कुप्रभाव पूरी फिल्म पर पड़ा लेकिन इसके सारे बड़े अभिनेता - नायक-नायिका सहित बलराज साहनी, युवा संजीव कुमार, जयंत, उल्हास, सप्रू, दुर्गा खोटे, इफ्तेखार, दिलीप धवन, पद्मा खन्ना, मुमताज बेगम,अंजू महेन्द्रू आदि - इसे कुल मिलाकर एक बड़ी फिल्म बनाने में सफल हो ही गए, हालांकि 'मेरे महबूब'सरीखे शाहकार के बाद नौशाद के ठूंसे-हुए संगीत ने बहुत निराश किया. बहरहाल, 'संघर्ष'अब एक 'कल्ट फिल्म'है जिसे रोज हजारों लोग अवैध देखते और डाउनलोड करते हैं. अभी भी यदि कोई इससे दो रील के करीब काट सके तो यह एक क्लासिक हो सकती है.
(समीप सिंह द्वारा निर्देशित नाटक 'हजार चौरासी की मां'का एक दृश्य, दिसम्बर २०१५, श्रीराम सेंटर, दिल्ली )

लेकिन एक प्रतिबद्ध फिल्म-कथाकार के नाते महाश्वेता देवीकी जो अमोघ प्रतिष्ठा है वह एक ओर तो गोविन्द निहालाणीनिर्देशित 'हजार चौरासी की मां'सरीखी नक्सलबाड़ी-एनकाउंटर आधारित क्लासिक पर टिकी हुई है या फिर कल्पना लाजमी की लगभग उतनी ही चर्चित फिल्म 'रुदाली'पर. सिर्फ महाश्वेता ही ऐसी कहानियां लिख सकती थीं क्योंकि उन्हीं का अनुभव-संसार इतना विस्तृत और निर्भीक था. सच्चे-झूठे कारणों से अब भी कथित नक्सलबाड़ी क्रांतिकारी मारे जा रहे हैं. 



'रुदाली'उस राजस्थानी सामंतवादी-प्रथा पर आधारित है जिसमें निम्न-वर्ग की गरीब औरतें किसी समृद्ध पर्दानशीन सद्यविधवा के एवज में उसके पति के लिए विलाप करने किराये से बुलाई जाती हैं. दोनों फिल्मों का चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुआ और अब वह अनिवार्यतः देखी जाने योग्य किसी भी भारतीय फिल्म सूची में शामिल है. यह बात दीगर है कि मैं कल्पना लाजमी और उनके दिवंगत मेंटर भूपेन हज़ारिकाको बहुत सराहनीय नहीं समझ पाता हूं.

यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हम नहीं जानते कि पटकथा और फिल्मीकरण के स्तर पर अन्य सह-लेखकों और स्वयं निर्देशक ने मूल कहानियों में क्या तरमीमें की होंगी, फिर भी महादेवी का अपना स्तर और प्रतिष्ठा देखते हुए यह माना जा सकता है कि वह बहुत ज्यादा न रहीं होंगी. गौतम घोषने अपनी बहुस्तरीय और जटिल फिल्म 'गुड़िया'उनकी जिस कहानी पर बनाई है, वह अद्भुत रही होगी. हिंदी की इस फिल्म में मुस्लिम प्राण,जो पाकिस्तान जाना चाहता था, एक शो का 'वेन्ट्रिलोक्विस्ट' (उदरवक्ता, पेटबोला) है जो दूर से ही एक आदमकद गुड़िया के मुंह से अपने शब्द बुलवा सकता है. मरने से पहले वह गुड़िया सहित अपनी यह कला शो के दूसरे बाजीगर ईसाई मिथुन चक्रवर्ती को सौंप जाता है. जब मिथुन की शादी होती है तो असली पत्नी और रबर की गुड़िया के बीच तनाव शुरू होता है. एक अनोखी कहानी पर बनी यह अनूठी फिल्म भारत में भला कैसे चलती.

महाश्वेता देवी की फिल्म-कथाएं अधिकांश सिने- और साहित्य-कहानियों से बहुत अलग हैं और अधिकांश आधुनिक स्त्री-पुरुष लेखकों की कल्पना से परे हैं. सच तो यह है कि वह सिनेमा या सस्ते लुगदी-छाप पाठकों को नहीं बल्कि किसी गंभीर सामाजिक समस्या को ध्यान में रख कर लिखी गई थीं. वह सारी स्त्री-केंद्रित हैं. 'संघर्ष'की मूल कहानी भी तवायफ लैला-ए-आसमान वैजयंतीमाला के इर्द-गिर्द घूमती है. इतालवी निर्देशक इताल्लो स्पिनेल्लीकी फिल्म 'गनगोर'एक ऐसी अभागी झारखंडी युवा मां पर केंद्रित है जिसे एक बेदिमाग फोटोग्राफर अपने बच्चे को स्तन-पान कराते शूट कर लेता है और उसकी अपनी बिरादरी उसके साथ बलात्कार कर उसे तबाह कर देती है. चित्रा पालेकरकी मराठी फिल्म 'माती माय'की 'नायिका'मृत शिशुओं को दफनानेवाली एक गरीब औरत है जो मां बनने के बाद यह काम नहीं करना चाहती और अब सारे गांव के अन्याय का शिकार है, जिसमें उसका पति भी शामिल है.

महाश्वेता देवी ने अपनी प्रतिबद्ध नक्सलवादिता से भारतीय स्त्रियोचित-पुरुषोचित भावुकता को ध्वस्त कर दिया. वह नीर भरी दुख की बदली नहीं थीं, विद्युत्गर्जन की तूफानी मेघमाला थीं. वह निर्माता-निर्देशकों को अपनी-जैसी कहानियों पर फिल्म बनाने को प्रेरित और बाध्य कर सकीं, यह भारतीय सिनेमा का एक गौरवशाली अध्याय है.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.)
विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

परिप्रेक्ष्य : समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए : अरुण माहेश्वरी

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समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए                                   
(प्रेमचंद की 137वीं सालगिरह पर)
अरुण माहेश्वरी


1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला. हिंदी के उपन्यास सम्राट.

उपन्यास - अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान.
प्रेमचंद लिखते हैं : उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए.और साथ ही यह भी किजब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं.
अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र.जीवन जैसा हैके नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र.
फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं. उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा. आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं.
मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !
प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है. जबकि मतवाद-सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार-साहित्य के दर्जे को गिरा देता है.

यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था. स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा- इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था. फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं.

प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता. लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है. बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है. 
मतऔरआदर्शको लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है. मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं. आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब  और भी साफ है. 

(अंतिम समय में अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ प्रेमचंद)

ऐसे मेंपुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए. पूंजीवादी आदर्श औरपूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श औरसमाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श औरक्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र औरजनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन मेंजैसा हैको चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता. इसजैसा हैके चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है. यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता.

यह समयमतऔर आदर्शके बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है. 

दरअसल पूरे विषय को ज्ञान और सत्य के बीच के एक सनातन तनाव के विषय के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक आदमी सत्य की ओट में झूठ बोल सकता है. यह उसका दुराग्रह होता है जब वह तथ्यात्मक रूप से कही गई एक सही बात में अपनी कामनाओं या वासनाओं को छिपा रहा होता है. इसके विपरीत, दूसरा आदमी किसी उन्माद में, या भूलवश, अपनी इच्छा के विरुद्ध ही, झूठ कहता हुआ भी सच बोल जाता है. यह असल में तथ्यात्मक वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठ सत्य का द्वंद्व है. वास्तविकता यह है कि हर कथन में, हर बयान में कुछ खामोश संकेत छिपे होते हैं, जिन्हें आम तौर पर पंक्तियों के बीच के अंतराल और मौन कहा जाता है.

जब तक इन मौन संकेतों की रिक्तताओं को पकड़ा नहीं जाता है, पाठ के झूठ और सच का पूरी तरह से पता नहीं लग सकता है. और, इन्हें पकड़ने का एकमात्र तरीका है कि पाठ को ठोस, वास्तविक जीवन के संदर्भ में स्थापित किया जाए. पाठ में लेखक का सोच ही सब कुछ नहीं होता, जरूरी होता है उस सोच को ऐसे सकारात्मक और नकारात्मक संकेतों की श्रृंखला में उतारना जो इन मौन संकेतों के वास्तविक संदेश का वहन कर सके, पाठकों तक उन्हें सही ढंग से प्रेषित कर सके.

इसीलिये, जब भी आपजैसा है वैसाबयान करेंगे, वह कोरा प्रकृतिवाद नहीं होगा. वह सच स्वत: नहीं, आपके जरिये व्यक्त हो रहा है. उससे आप वास्तव में एक ऐसा पूरा परिप्रेक्ष्य पेश कर रहे होते हैं, ताकि आपकी अपनी बातों के मौन संकेतों को भी पढ़ा जा सके. इसके अलावा, जो सच आपके सामने है, वह आपके मार्फत कैसे अभिव्यक्त होता है, उसी से यह भी जाहिर हो जाता है कि खुद आपने उस सच को कैसे ग्रहण किया है. पिछले दिनों अशोक वाजपेयीके बारे में अपने एक लेख में, आश्विच के वद्यस्थलपर खड़े कवि के भावों की अभिव्यक्ति से हमने जितना आश्विच को नहीं देखा, उससे बहुत ज्यादा खुद लेखक के सत्य को देखा था. 

ऐसी ढेरों बातें होती हैं, जिन्हें हम अपनी कल्पना में महसूस करके ही उसे सच मानने लगते हैं. इनमें वास्तव में जीवन का वस्तु-सत्य नहीं, हमारी अपनी इच्छा-अनिच्छा बोल रहे होते हैं. इससे उचित-अनुचित का हमारा बोध भी व्याहत होता है. यह बात, सिर्फ लेखक पर नहीं, पाठक पर भी, हर व्यक्ति पर लागू होती है. ऐसे में, आम बाजारू लेखक, जब वह पाठ के जरिये अपने पाठक के रूबरू होता है, अक्सर वह किंचित निरपेक्ष होकर अपने लिये एक न्यायाधीश की भूमिका अपना लेता है. वह पाठक का मन टटोल कर उसके हित-अहित के बारे में न्याय सुनाने लगता है. यह पाठक के मनोविज्ञान में बैठ कर न्याय-निर्णय देने वाला एक प्रकार का खोजी नजरिया है जो आम तौर पर बाजार में काफी सफल साबित होता है.

तमाम बाजारू लेखन का यह एक मूल सूत्र है. लेकिन सवाल है कि क्या यह नजरिया पाठक का उसके जीवन के सच से साक्षात्कार कराने वाला नजरिया है ? भले यह पाठक का सामयिक तौर पर हित साधे, उसे लुभाये, उसका मनोरंजन भी करें, लेकिन यह उसे उसके सच से परिचित नहीं कराता. यह अन्तत: एक झूठ ही है, किसी झूठे आश्वासन की तरह का झूठ. इसमें पाठक के अपने विचार के अधिकार तक को छीन लिया जाता है. लेखक उसके लिये उसकी पसंद का एक भला-भला सा संसार रच देता है.
इसके विपरीत, पाठ में वस्तुनिष्ठता का दूसरा रास्ता है स्पष्टवादिता का, साहस के साथ सच को कहने का. बात को जीवन के ठोस संदर्भ के साथ स्थापित करने का. जब पाठक सच को जानने पर भी उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा होता है, तब पूरी ताकत के साथ सच को रखने की जरूरत होती है. जब कोई जीवन का मजा भी लेगा, लेकिन भान ऐसा करेगा मानो वह यह मजा अपनी मर्जी से नहीं ले रहा, तो ऐसे में जीवन की ठोस सचाई के बयान से उसके छद्म नैतिक-मूल्यों के जंजाल को खत्म करने की जरूरत रहती है.

तथापि, लेखक के लिये, यह स्पष्टवादिता वाला रवैया ही अंतिम नहीं हो सकता है. पाठ का विश्लेषणात्मक विमर्श यदि कभी किसी छल-छद्म पर निर्भर नहीं करता, तो वह किसी भी प्रकार के बल पर भी आश्रित नहीं हो सकता है, भले वह तर्क का बल हो या न्याय-नैतिकता का बल. सबसे बड़ी सचाई यह है कि भाषा के अपने सारे मौन-मुखर संकेत अंतत: खुद में जीवित तर्क होते हैं. भाषा का प्रयोग ही तो किसी बात को रखने के लिये, किसी बात से इंकार करने या किसी बात को मनवाने के लिये किया जाता है. हर बात के अपने दो पहलू होते हैं. एक पक्ष होता है, दूसरा विपक्ष. हर बात को दूसरी बात से काटा जा सकता है. इसप्रकार, कहा जा सकता है कि अनिर्णय एक सर्व-व्यापी सच है.

प्रश्न यही है कि क्या ऐसे में, किसी भी एक धागे में, कथित तौर पर किसी विचारधारा के धागे में पिरो कर सारे विचारों को किसी प्रकार की स्थिरता प्रदान करने की क्या कोई जरूरत है ? जब विचार पहले से ही स्थिर है, एक निश्चित अर्थ का वहन करते हैं, वे खोखर नहीं होते कि उनमें कुछ भी डाला जा सके. तब फिर उन्हें और ज्यादा बांधने की, एक सूत्र में पिरोने की, एक चादर के तले लाने की क्या जरूरत है ? यहीं से शब्द और विचार की शक्ति के बारे में हम एक नये अभिज्ञान को अर्जित कर सकते हैं.

मूल बात यह है कि जो साफ तौर पर गलत है उसके भूल-भुलैय्ये में और ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है. वह हमारे जीवन में अप्रासंगिक है. कोई इसे किसी भी बहाने से, नैतिक या दूसरे कारणों से स्वीकारे या न स्वीकारे. बाबा रामदेव कैंसर का इलाज कर सकता है या योग में सारे ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ है, यह झूठ है. ऐसे झूठ को कोई किसी भी बहाने से कितनी बार भी क्यों न कहा जाए, उनकी जांच के भी चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है. सच कहने के अलावा लेखक के पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है, वह किसी को अच्छा लगे, या बुरा लगे; किसी को दुखी करे या सुखी करे. आदमी पाप के बोझ को लाद कर चले ताकि धर्म से उनका उद्धार किया जा सके, यह धर्माधिकारियों के हित का हो सकता है. लेखक का काम इसके ठीक विपरीत है. भले ऐसा करते हुए वह नितांत अलग-थलग और असामाजिक किस्म का किसी भूत जैसा ही क्यों न दिखाई देने लगे. रिल्के ने कहा था किसुंदरता तो पैशाचिकता का अंतिम आवरण है. हर नई चीज डरावनी प्रतीत होती है.

इस समझ के साथ आगे बढ़ने पर ही, कहना न होगा, लेखक की अपनी भूमिका, पाठक के साथ उसके संबंध के सारे सवाल एक नई अर्थवत्ता ग्रहण करने लगेंगे. तभी हम, यह संसार जैसा है, वैसा ही उसे पेश करने के रास्ते की श्रेष्ठता को और भी अच्छी तरह से समझ सकेंगे. प्रेमचंद का लेखन इसी प्रकार पूरी उत्कटता से सच को कहने वाला लेखन था.

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अरुण माहेश्वरी (जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचकसामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार  

प्रकाशित पुस्तकें (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3)नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्मसंस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .

 संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेककोलकाता - 700064 

सहजि सहजि गुन रमैं : शंकरानंद

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(Photo by Portia Hensley : Two homeless boys in Kathmandu) 


शंकरानंद के दो कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’और ‘पदचाप के साथ’प्रकाशित हैं.  बेघर लोगों पर आकर में छोटी ये आठ कविताएँ सहजता से मार्मिक हैं, कम शब्दों में, शब्दों पर बिना वजन डाले वह अर्थात तक सीधे पहुँचती हैं.


शंकरानंद की कविताएं                              





ll बेघर लोगों के बारे में कुछ कविताएं ll 





एक
वे बेघर लोग हैं
उनकी सुबह उन्हें धोखा देती है
उनकी रात उन्हें जीने नहीं देती
उनकी नींद उन्हें काटती है

उन्हें कोई नहीं रखता अपने घर में
उनका कोई सहारा नहीं इस विशाल पृथ्वी पर

इसलिए कि वे बेघर हैं.



दो
उनकी इच्छा है कि घर हो अपना सुंदर सा
जहां रोज धूप आती हो और
रोज चमकती हो चांदनी

वे अपने हिस्से का अन्न सिझाना चाहते हैं
ऐसे चूल्हे की आग में जो
रोज एक ही जगह हो
लेकिन ऐसा होता नहीं

उनके चूल्हे टूटते हैं बार-बार.



तीन
वे जहां बसते हैं
नहीं सोचते कि इस बार फिर बेघर होंगे 
बड़ी मुश्किल से बसते हैं वे इस तरह उजड़ उजड़ कर
जी तोड़ मेहनत से बनाते है वीराने को रहने लायक

उनकी थकान भी नहीं मिटती कि
फिर उजाड़ दिये जाते हैं वे.



चार
यह धरती सब की है लेकिन उनकी नहीं
उनके हिस्से की ईंट कहीं नहीं पकती
उनके हिस्से का लोहा कहीं नहीं गलता
तभी तो वे बेघर हैं
                  
बारिश में भींगते हैं वे
रोते हैं तो आंसू पानी के साथ बहता है
उनके हिस्से की हवा भी भटकती है.



पांच
सूरज उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो धूप ही दे सकता है

चांद उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो चांदनी ही दे सकता है

हवा उनके लिए लड़ नहीं सकती
पानी उनके लिए हथियार नहीं उठा सकता.



छः
जब भी गोली चलेगी
वे बच नहीं पाएंगे
जब भी बम गिरेगा
उड़ेंगे उनके चिथड़े

कभी उन्हें छिपने की जगह नहीं मिलेगी
कोई उन्हें अपने घर नहीं बुलाएगा

आंधी में वे पत्तों की तरह उड़ा करते हैं.



सात               
वे शायद सपने नहीं देख पाते

जरा सी आंख लगती है कि
आने लगते हैं बुरे ख्याल और डर जाते हैं

वे दुःस्वप्न ही देखते हैं अधिक
वह भी खुली आंख से.



आठ
उनके पास कुछ नहीं रहता
जो भी पसीना बहा कर जमा करते हैं
वह या तो सड़-गल जाता है
या लूट कर ले जाते हैं लुटेरे

वे कुछ नहीं बचा पाते तब
अपनी जान के सिवा!

हजारों साल से यही हो रहा है.
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शंकरानंद (8अक्टूबर 1983) 
पहला कविता संग्रह दूसरे दिन के लिएभारतीय भाषा परिषद, कोलकाता सेप्रथम कृति प्रकाशन मालाके अंतर्गत चयनित एवं प्रकाशित.
दूसरा कविता संग्रहपदचाप के साथहाल ही में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित.
कुछ में कहानी भीप्रकाशित. 
सम्प्रति- अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क- क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगड़िया-851204/मो.08986933049

परख : एक और ब्रह्मांड : अरुण माहेश्वरी

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एक और ब्रह्मांडख्यात लेखक अरुण माहेश्वरी की कृति है, यह इमामी समूह के संस्थापक श्री राधेश्याम अग्रवाल के जीवन पर आधारित है. पर यह जीवनी नहीं है और इसे उपन्यास भी नहीं कहा गया है. इसे शानदार ढंग से राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

हिंदी में किसी व्यावसायिक व्यक्तित्व पर यह आदमकद रचना है. यह इतना रोचक, अप्रत्याशित, और रहस्यों से भरपूर है कि इसे एक उपन्यास की तरह पढ़ा जा सकता है. अरुण माहेश्वरी ने इसे रचते हुए तमाम समकालीन विमर्शों के साथ मुठभेड़ किया है. यह कृति बौद्धिक चुनौती भी पेश करती है.

उद्योग और प्रबन्धन से अपरिचित पाठक इसे पढ़ते हुए सहजता से अपनी समझ विकसित करता चलता है. पूंजी और उत्तर पूंजीवाद के इस दौर में एक अदने से मनिहारनका भारत के २०० अमीरों में शामिल हो जाना वास्तव में एक नए ब्रह्मांड का सृजन है.

३७० पेज में फैले इस आख्यान में कोलकाता के पतनशील सामन्ती समाज और उदीयमान व्यवसायी वर्ग के संघर्ष हैं, राधेश्याम अग्रवाल का मित्र राधेश्याम गोयनका से लम्बा चला संग साथ है, इमामी समूह के विशालकाय होते जाने की कथा है. बिडला समूह से रिश्ते, हिमानी, झंडू आदि तमाम कम्पनियों के अधिग्रहण आदि के तमाम दांव पेंच हैं. आमरी (हास्पिटल) का दर्दनाक अग्निकांड है.

गरज की यह भारत में उद्यमशीलता की गाथा है. इसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए. पूंजी को समझने के लिए भी और एक आधुनिक समाज के निर्माण में वाणिज्यक समाज के योगदान को जानने के लिए भी.

सरिता शर्मा की समीक्षा


पूंजी, पूंजीवाद और उत्तर पूंजीवाद : तलघर                                
सरिता शर्मा

साहित्य में जीवनी-लेखन की समृद्ध परंपरा रही है.  यूनानी जीवनीकार प्लूतार्क की कृति में यूनान, रोम और फारस के  विशिष्ट और यशस्वी व्यक्तियों के जीवन वृत्तांत दिये गये हैं.सुकरात की जीवनी  ‘अनाबासिस सुकरात’उनके शिष्य जनोफोन ने लिखी.चीन में स्सु-मा चिएनने अपने समकालीन विशिष्ट व्यक्तियों की जीवनियां लिखी. जेम्स बासवेलद्वारा लिखित सेम्युअल जान्सन की जीवनी अंग्रेजी जीवनी-साहित्य में एक महत्वपूर्ण घटना है. मशहूर डच चित्रकार वान गॉगपर इरविंग स्टोन के उपन्यास `लस्ट फार लाइफको श्रेष्ठ माना जाता है. हाल में वाल्टर इसाक्सन द्वारा स्टीव जॉब्सपर लिखी किताब बेस्टसेलर बन गयी है. उद्योगपतियों की जीवनियों में हेनरी फोर्ड की `माइ लाइफ एंड वर्कऔर रॉकफेलर की जीवनी `टाइटनमशहूर हैं. भारतीय उद्योगपतियों में जमशेदजी टाटा की दो जीवनियां, डी.सी.एम समूह के श्रीराम, खुशवंत सिंह, अरुण जोशी और  जी.डी. बिड़ला की जीवनियां आई हैं. 

हिंदी में ‘कलम का सिपाहीऔर आवारा मसीहाजैसी श्रेष्ठ जीवनियां लिखी गई हैं. अरुण माहेश्वरी की पुस्तक ‘एक और ब्रह्मांड’  इमामी और झंडू जैसी विख्यात कंपनियों के मालिक राधेश्याम अग्रवाल की जीवनी है. यह पुस्तक राधेश्याम अग्रवाल के बहाने देश में आधुनिक व्यापार और उद्योग के जन्म और विकास का दिलचस्प वृतांत प्रस्तुत करती है. राधेश्याम अग्रवाल की गिनती भारत के दो सौ सबसे अधिक अमीर लोगों में की जाती है.


उन्होंने अपनी जीवनी  हिंदी में लिखवाने के बारे में लिखा है- मैंने जो जीवनियां पढ़ी, उनमें से अधिकांश अंग्रेजी में हैं. ये जीवनियां समाज के संभ्रांत वर्ग के लिए ठीक हैं, मगर जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती, उनके लिए बेकार हैं. हमारे देश के सत्तर प्रतिशत लोग हिंदी जानते हैं. इसलिए मैंने फैसला लिया कि मेरी जीवनी आम आदमी की भाषा में लिखी जाएगी. कई लोगों ने मेरी जीवनी लिखने में दिलचस्पी ली, पर मैं ऐसे व्यक्ति से लिखवाना चाहता था जो जीवनियां लिखता रहा हो और जिसका हिंदी भाषा पर अधिकार हो. अरूण माहेश्वरी इस कसौटी पर खरे उतरे.

पुस्तक के आरंभ में  ‘जीवनी लेखन की मेरी समझ’में अरुण माहेश्वरी लिखते हैं- यदि हम साहित्य के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि एक साधारण, सपाट और नीरस जीवन को भी जब उसकी द्वंद्वात्मकता के साथ गहराई से पेश किया जाता है तो वह इतने रोमांच, विस्मय और विचारों के उद्रेक का हेतु बन जाता है कि पाठक सदियों तक उसमें डूबता-उतराता, अपने को संस्कारित करता चला जाता है. किसी भी महान साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र, जीवन के वास्तविक चरित्रों की सच्चाइयों से ही निर्मित होते हैं. लेखक की कल्पनाशीलता, उसके ज्ञान और इतिहास-बोध की भी ऐसे चरित्रों के सृजन में बड़ी भूमिका होती है.’ लेखक के लिए तटस्थ रहकर जीवनी लिखना आसान नहीं होता. अरुण महेश्वरी मानते हैं- ‘सच से सुन्दर कुछ नहीं होता. श्रेष्ठ अमर जीवनी एक जीवंत, वास्तविक और कर्मोद्दम जीवन का साहसपूर्ण आख्यान होती है. तमाम ऊंच- नीच के बीच बनती आदमियत की पहचान होती है.’
 
अरुण माहेश्वरी
     
इस पुस्तक में बीस हजार रुपए से बीस हजार करोड़ रुपए तक की पूंजी के सफर के बारे में बताया गया है. मानव जीवन के वैचारिक द्वंद्व, बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौर की साम्यवादी व्यवस्था में पूंजीवाद के तालमेल और तर्क को दर्शाया गया है. राधेश्याम अग्रवाल और उनके अभिन्न मित्र और समूह के को-चेयरमैन राधेश्याम गोयनका और श्री अग्रवाल की पत्नी उषा अग्रवाल के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है. उद्योगपतियों के जीवन में असुरक्षा और  कदम -कदम पर जोखिम को विशेष रूप से उभारा गया है. धज बीकानेरमें  मारवाडिय़ों के व्यवसाय कौशल को रेखांकित करते हुए रेखांकित किया गया है. राधेश्याम के पिता वंशीलाल कंदोई  के बारे में बताया गया है -‘आने के साथ ही रंग के कारोबार में हाथ लगाया और खराब रंग ने भी सोने का भाव दिया. तत्काल हार्डवेयर के आयात का काम भी शुरू हो गया.

अपने समुदाय का ध्यान ये लोग कैसे रखते हैं, इसका भी उल्लेख है—‘वंशीलाल फलाने से देनदारी की फरदी लेकर नोटों की गड्डी के साथ बैठ जाता और फलाने का देना चुकाकर उसकी लाज ढांपता.राधेश्याम में परिवारगत संस्कार तो थे ही, कमाल की व्यावसायिक सूझबूझ भी थी. राधेश्याम ने दवाई कंपनी फ्रैंकरौस को आर्थिक संकट से उबारा, तो व्यवस्था राजेंद्र कुमार के हाथ में ही रहने दी, परंतु आगाह कर दिया—‘मैं कभी नहीं चाहूंगा कि इस कंपनी में ऊंचे वेतन के कर्मचारी भरे जायें. अगर ऐसा किया गया तो इसकी छोटी-छोटी दुकानों को मुनाफे पर चलाना असंभव होगा.विज्ञापन गुरु ऐलक पद्मसी ने इमामी क्रीम, टेलकम पाउडर, बोरोप्लस और नवरत्न तेल को सफलता के शिखर पर पहुँचाया. जब राधेश्याम अग्रवाल ने पुरुषों के लिए गोरेपन की क्रीम का उत्पादन करने की बात की, तो ऐलक पद्मसी ने ‘फेयर एंड हैंडसम’ का प्रचार शाहरुख़ खान से कराकर उसे बाजार में उतार दिया. ‘पेन रिलीफ’ क्रीम का नाम बदल कर ‘फ़ास्ट रिलीफ’ करने के पीछे भी ऐलक पद्मसी का दिमाग थाअमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, रवीना टंडन, करीना कपूर ने इमामी के विज्ञापन किये. राधेश्याम अग्रवाल की राय में- ‘आम जनता तक जाना है तो सितारों को साथ लाना ही होगा.’
    
पुस्तक में राधेश्याम अग्रवाल की प्रबंधकीय कुशलता के साथ- साथ  उनके मानवीय पक्षों को भी उजागर किया गया है. बिरला समूह द्वारा राधेश्याम अग्रवाल को स्मार्ट न दिखने पर रिजेक्ट किया जाना और अंततः उनकी प्रतिभा के बूते पर न सिर्फ नियुक्त कर देना, बल्कि आदित्य बिड़ला का चेहता बन जाना राधेश्याम अग्रवाल के व्यक्तित्व की सुदृढ़ता का परिचायक है. आदित्य बिड़ला से उन्होंने कंपनियों के अभिग्रहण और विलयन की विद्या सीखी. मजदूरों की समस्याओं पर इमामी समूह में विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है. हर माह एक बार मालिक और मजदूरों की बैठक होती है जिसमें काम की परिस्थितियों, मजदूरों के वेतन, बढ़ोतरी और सभी कानूनी अधिकारों के बारे में फैसले लिए जाते हैं. चालीस सालों में एक बार भी काम बंद नहीं हुआ है क्योंकि मजदूर ही कमेटी और उसके अध्यक्ष को चुनते हैं. मजदूरों की आमदनी में वृद्धि को अनिवार्यतः उत्पादन में वृद्धि से जोड़ा गया है.

जितना जोखिम उतना लाभ’ के सिद्धांत पर चलते हुए इमामी में विलय के बाद हिमानी के मृतप्राय कारखाने के उत्पादन को चालीस गुणा बढ़ाने वाले राधेश्याम अग्रवाल आधुनिकीकरण और श्रम संसाधनों का समुचित प्रयोग करके चमत्कार करना जानते हैं. झंडू, खाद्य तेल, इमामी ब्रांड, रीयल इस्टेट जैसे बहुआयामी उद्योगों के सफल नियंत्रक राधेश्याम संयुक्त परिवार तथा भारतीय परम्पराओं से जुड़े हैं. राधेश्याम अग्रवाल के बारे में उनके साथी  राधेश्याम गोयनका का कहना है- राधेश्याम गजब की स्मरण शक्ति का धनी, दूरदर्शी, असंभव पढ़ाकू और गहरी अंतर्दृष्टि वाला असाधारण व्यक्ति है. असंभव शब्द उसके शब्दकोश में नहीं है. चुनौतियों में रमता है और मानता है कि कोई पूर्ण नहीं होता. नशा है तो सिर्फ काम का. दूसरों से भी यही अपेक्षा रखता है. इसीलिए कुछ जिद्दी भी है.’

पुस्तक में राधेश्याम अग्रवाल के साथ -साथ उनके कारोबार इमामी की जीवनी है. राधेश्याम अग्रवाल चारटर्ड अकाउंटेंट हैं मगर विपणन और विज्ञापन में गहरी समझ और दिलचस्पी के कारण कंपनी के इन कामों को देखते हैं. राधेश्याम गोयनका बिक्री और वित्त की जिम्मेदारी संभालते हैं. अपने एक साक्षात्कार में राधेश्याम अग्रवाल और राधेश्याम गोयनका ने अपने परिवार के सब सदस्यों का उपनाम ‘इमामीवाला’ रखने की बात की है. जमीन से जुड़े रहने की खासियत उन्हें अन्य धनाढयों से अलग करती है. ‘राधेश्याम अपनी ऊंची उड़ानों कर बावजूद जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हैं. सड़क किनारे की दुकान से कुल्हड़ की चाय आज भी उसका शगल है.’ 

अन्दर –महल’ में राधेश्याम अग्रवाल की धर्मपत्नी उषा के जीवन की झलक मिलती है. ‘हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है.’यह बात उषा के जीवन से चरितार्थ होती है जिसने अपने शांत और स्थिर स्वभाव से संयुक्त परिवार को जोड़ा हुआ है. अपनी धार्मिक आस्था को उन्होंने डायरी में व्यक्त किया है जिसमें उनका स्वामी राधेश्वर भारती के प्रति भक्तिभाव परिलक्षित होता है. अन्दर महल की अन्य स्त्रियां कारोबार में हाथ बंटा रही हैं. राधेश्याम की पुत्री प्रीति इमामी के नए उत्पादनों को बाजार में लाने और ब्रांडिंग का काम संभाल रही है. बेटों- भतीजों की बहुएं किताबों और कलाकृतियों के काम से जुड़ गयी हैं. ‘चिट्ठियां और द्वय रसायन पाक’ में राधेश्याम अग्रवाल द्वारा राधेश्याम गोयनका को लिखे पत्रों के अंश हैं जिनमें कहीं उलाहना तो कहीं आत्मीयता नजर आती है. कारोबार से जुड़ी समस्याओं की भी उनमें चर्चा की गयी है. कारोबार जम जाने के पश्चात् राधेश्याम अग्रवाल ने स्कूल के दिनों के दौरान साथ पढ़े दोस्तों और बिड़ला ब्रदर्स के सहयोगी मित्रों की मंडली बनाकर हर शनिवार की दोपहर किसी न किसी के घर मिलकर गपशप करते हैं और ताश खेलते हैं.परिशिष्ट में प्रमोद शाह नफीस से बातचीत  राधेश्याम अग्रवाल के विभिन्न पक्षों को उजागर करती है.नौकरों के प्रति उदारता बरतने के बारे में उषा बताती हैं-पूछते रहते हैं कि सब पर कितना ऋण है, सबका ऋण चुकता कर देते हैं.’ राधेश्याम अग्रवाल के कविता संकलन ‘भावधारा’ में उनकी अंतर्यात्रा दिखाई देती है- ‘बांटो- खुशियां बांटो/ मुस्कान बांटो / चेहरे मुस्काएं/ अंतर मुस्काए/ जो देखे/ सो मुस्काए/ अपने लिए न रखो सब बांटो.’   
    
यह पुस्तक इतिहास दृष्टि से लिखी गयी है. बंगालियों के बारे में बहुत दिलचस्प जानकारी दी गयी है कि शिक्षा और प्रचुर धन संपत्ति के बावजूद वे व्यवसाय में क्यों नहीं आये और जो आये वे टिके नहीं. राधेश्याम अग्रवाल ने कोलकाता के चोर बागान इलाके में 48 बी मकान खरीदा जिसके मालिक नीलकंठ मल्लिक का वर्णन बेहद जीवंत है- ‘बंगाल की ‘बाबू’ संस्कृति की तमाम गलाजतों का एक जीता- जागता नमूना. नीलकंठ अपनी सुन्दर पत्नी ज्योत्स्ना को हर रोज हंटर से मारता, खुद को राजा समझता.’ राधेश्याम अग्रवाल ने एक बार नीलकंठ और उसके भाई रवि को मंहगी फ्रेंच सेंट की बोतल भेंट की, तो रवि ने सेंट की पूरी बोतल को अपनी बग्घी के घोड़े की पूँछ पर उड़ेल दिया. जब नीलकंठ ने इमामी कारखाने में काम करने वाली लड़की को छेड़ा, तो राधेश्याम अग्रवाल ने उसे चेतावनी दे दी- ‘आर्डर चलाओ अपने घर में. आगे से अगर कभी ऐसी हरकत की तो ख़बरदार जो हस्र होगा, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.’ 

इमामी समूह के जीवन में आमरी अस्पताल में आग लगना काला अध्याय है. ‘इसी अस्पताल में मासूम, असहाय रोगियों की मृत्यु का जो अकल्पनीय दर्दनाक दृश्य दिखाई दिया, उसने एकबारगी हिटलर के गैस चेंबर की यादों को ताजा कर दिया. आमरी अग्निकांड राधेश्याम के जीवन में किसी प्रलयंकारी विध्वंस से कम नहीं था.’ यह अस्पताल अभी तक बंद पड़ा है. राधेश्याम के परिवार के कई सदस्यों को जेल जाना पड़ा और अभी तक मुक़दमे चल रहे हैं. लेखक ने व्यापार जगत की अनिश्चितता को चिन्हित करते हुए लिखा है- ‘लालसाएं ही तो इस पूरे युग की प्रमुख चालक शक्ति है. आधुनिकता के जख्मों को भोगना ही इस युग का मूलमन्त्र है.
एक और ब्रह्मांडअत्यंत सार्थक पुस्तक है जो उद्योग-व्यवस्था के संचालन और प्रबंधन से जुड़े तकनीकी पहलुओं को भी बड़े सरल एवं दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करती है. दो परिवारों का मिला- जुला उद्योग स्वयं में एक मिसाल है. पुस्तक के महत्व को रेखांकित करते हुए भूमिका में गिरीश मिश्र ने लिखा है-  ‘यदि कोई आदमी यह जानना चाहे कि देश में आधुनिक व्यापार और उद्योग कैसे पनपे और उसमें जिन लोगों या समुदायों का अहम् योगदान रहा, उन्होंने किन हालात में काम किया, प्रतिकूल परिस्थितियों से कैसे सामना किया तथा डटे रहे, तो अरुण माहेश्वरी की प्रस्तुत पुस्तक पढनी चाहिए.’

आलोक मेहताके अनुसार ‘इस पुस्तक में इतिहास और दर्शन भी आया है. इसका हिंदी में लिखा जाना महत्वपूर्ण है. यह पुस्तक प्रेरणा देने वाली है. ऐसी पुस्तकों को जनसुलभ बनाने की जरूरत है.’ लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस पुस्तक के बारे में कहा है – ‘कोलकाता के कम्युनिस्ट गढ़ में, जहां हड़तालें आम बात थी, राधेश्याम अग्रवाल ने इमामी समूह को कैसे गढ़ा, यह विस्तार से समझने की बात है.इतिकथन  में अरुण महेश्वरी कहते हैं- ‘क्या राधेश्याम की कहानी किसी असीम अनंत की साधना की, पूंजी के उस ब्रह्म की साधना की ही कहानी नहीं है, जो अविराम गति से फैलते अपने एक और असीम, अनंत ब्रह्माण्ड की सृष्टि कर रहा है.’

पुस्तक की शैली प्रवाहपूर्ण है और लेखक की टिप्पणियां विषयवस्तु को दिलचस्प बना देती हैं. नकारात्मक पक्षों से यथासंभव बचा गया है. उद्योग को सफल बनाने के लिए समय की नब्ज को पकड़े रखने और आगे बढ़ते रहने के जैसे गुरों को सीखने में यह पुस्तक मदद करती है.
___________

सरिता शर्मा 
1975, सेक्टर-4, अर्बन एस्टेट,
गुड़गांव-122001
मोबाइल -9871948430.
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"कुछ दिन पूर्व एक मित्र ने मुझसे पूछा था कि वह समालोचन की मदद कैसे कर सकते हैं? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों नहीं आप समालोचन में किसी माह प्रकाशित रचनाओं पर अपने किसी की स्मृति में मानदेय प्रदान करें.
ऐसे में जब सहित्य की बड़ी पत्रिकाएं तक अपने लेखकों को मानदेय नहीं दे पाती हैं. समालोचन की यह इच्छा क्यों कर पूरी होती.
पर एक दिन साहित्य के प्रेमी और अध्येता डॉ. दिलीप कुमार गुप्त का संदेश आया कि वह अगस्त महीनें में समालोचन में प्रकाशित सभी रचनाओं पर अपनी माता जी की स्मृति में मानदेय देना चाहते हैं.
और इस तरह से एक ऐतिहासिक शुरुआत के वह सहभागी बन गए. यह अपने तरह की अनूठी पहल है. इसमें आप भी जुड़ सकते हैं."

संपादक

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम : लवली गोस्वामी

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कविताओं पर अंतिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता. कविताएँ अर्थ बदलती रहती हैं. हर पाठक उसमें कुछ जोड़ता है. यही नहीं समय और स्थान भी उसमें बदलाव लाते हैं. आप किसी कविता में जो आपको अच्छा लगा है उसे तरह तरह से समझने की कोशिश भर कर सकते हैं. यह जो अच्छा सा है, पर क्या है यह ? यही उसका जादू है, जो सर चढ़ बोलता है.

कविताएँ पढिये. अगर वे  वास्तव में बेहतर हैं तो उन्हें फिर फिर आप पढ़ेंगे. समाज के काम लायक हुई तो वह उसे सहेज कर रखेगा. अपने दुःख – सुख में उन्हें गायेगा- गुनगुनाएगा.

कुछ समय पर भी छोड़ दीजिये. कविता पर कर्कश होना असभ्यता है.


लवली गोस्वामी की प्रेम पर यह लम्बी कविता आपके लिए. 




प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम                                        
लवली गोस्वामी





डरना चाहिए खुद से जब कोई
बार  बार आपकी कविताओं में आने लगे 
कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से
पूरा करे, और वह सही हो

यह चिन्ह है कि किसी ने
आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है 
अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी
उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोएंगे आप 
प्रेम में चूँकि कोई आजतक हँसता नहीं रह सका है

आग जलती जाती है और निगलती जाती है
उस लठ्ठे को जिससे उसका अस्तित्व है
उम्र बढती जाती है और मिटाती जाती है
उस देह को जिसके साथ वह जन्मी होती है 
बारिश की बूंदे बादलों से बनकर झरती हैं
बदले में बादलों को खाली कर देती हैं
प्रेम बढ़ता है और पीड़ा देता है
उन आत्माओं को जो उसके रचयिता होते हैं  

एक सफेदी वह होती है
जो बर्फानी लहर का रूप धर कर
सभी ज़िन्दा चीजों को
अपनी बर्फीली कब्र में चिन जाती है
जिस क्षण तुम्हारी उँगलियों में फंसी मेरी उँगलियाँ छूटी 
गीत गाती एक गौरय्या मेरे अंदर बर्फीली कब्र में
खुली चोंच ही दफ़न हो गई






एक बार प्रेम जब आपको सबसे गहरे छूकर
 गुज़र जाता है आप फिर कभी वह नहीं नहीं हो पाते
जो कि आप प्रेम होने से पहले के दिनों में थे








हम दोनों स्मृतियों से बने आदमक़द ताबूत थे 
हमारा ज़िन्दापन शव की तरह उन ताबूतों के अंदर
सफ़ेद पट्टियो में लिपटा पड़ा था
अपने ही मन की पथरीली गलियों के भीतर
हमारी शापित आत्माएँ अदृश्य घूमा करती थीं  

यह तो हल नहीं होता कि हम प्रेम के
उन समयों को फिर से जी लेते
हल यह था कि हम मरे ही न होते 
लेकिन यह हल भी दुनिया में हमारे
न होने की तरह सम्भव नहीं था

जीवन की ज़्यादतियों से अवश होकर 
प्रेम को मरते छोड़ देने का दुःख 
ईलाज के लिए धन जुटाने में नाकाम होकर 
संबधी को मरते देखने के दुःख जैसा होता है

दुःखों के दौर में जब पैर जवाब दे जाएँ
तो एक काम कीजिए धरती पर बैठ जाइये
ज़मीं पर ऐसे रखिये अपनी हथेलियाँ
जैसे कोई ह्रदय का स्पंदन पढ़ता है
मिट्टी दुःख धारण कर लेती है
और बदले में वापस खड़े होने का
साहस देती है







         इन दिनों मैं मुसलसल इच्छाओं और दुखों के बारे में सोचती हूँ
उन बातों के होने की संभावना टटोलती हूँ, जो सचमुच कभी हो नहीं सकती









मसलन, आग जो जला देती है सबकुछ
क्या उसे नहाने की चाह नही होती होगी
मछलिओं को अपनी देह में धँसे कांटे
क्या कभी चुभते भी होंगे
जब प्यास लगती होगी समुद्र को
कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
चन्द्रमा को अगर मन हो जाये गुनगुने स्पर्श में
बंध जाने का वह क्या करता होगा  
सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
दरकार नही होती होगी कभी

उसे देखती हूँ तो रौशनी के उस टुकड़े का
अकेलापन याद आता है
जो  टूट गए किवाड़ के पल्ले से
बंद पड़ी अँधेरी कोठरी  के फ़र्श पर गिरता है
अपने उन साथियों से अलग
जो पत्तों  पर गिरकर उन्हें चटख रंगत देते हैं  

इस रौशनी में हवा की वह बारीकियाँ भी नज़र आती हैं
जो झुंड में शामिल दूसरी रौशनियां नहीं दिखा पाती
जिंदगी की बारीकियों को बेहतर समझना हो
तो उन लोगों से बात कीजिये जो अक्सर अकेले रहते हों

कभी - कभी मैं सोचती हूँ तो पाती हूँ कि
अधूरे छूटे प्रेम की कथा
पानी के उस हिस्से की तिलमिलाहट
और दुख की कथा है
जो चढ़े ज्वार के समय समुद्र से
दूर लैगूनों में छूट जाता है
महज़ नज़र भर की दूरी से
समुद्र के पानी को
अपलक देखता वह हर वक़्त कलपता रहता है
समुद्र तटबंधों  के नियम से बंधा है
चाहे तब भी उस तक नहीं आ सकता
वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
जो वापिस  समुद्र तक नहीं जा सकता
मैंने जाना कि प्रेम में ज्वार के बाद
दुखों और अलगाव का मौसम आना तय होता है

लगातार गतिशील रहना हमेशा गुण ही हो ज़रूरी नहीं है
पानी का तेज़ बहाव सिर्फ धरती का श्रृंगार रचता है
धरती के मन को भीतरी परतों तक रिस कर भिगो सके   
इसके लिए पानी को एक जगह ठहरना पड़ता है

बिना ठहरे आप या तो रेस लगा सकते हैं
या हत्या कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते

जल्दबाज़ी में जब धरती की सतह से
पानी बहकर निकल जाता है
वहां मौज़ूद स्वस्थ बीजों के उग पाने की
सब होनहारियाँ ज़ाया  हो जाती हैं





प्रेम के सबसे गाढ़े दौर में जो लोग अलग हो जाते हैं अचानक
 
उनकी हँसी में उनकी आँखें कभी शामिल नहीं होती




कुछ दुःख बहुत छोटे और नुकीले होते हैं
ढूंढने से भी नही मिलते
सिर्फ मन की आँखों में किरकिरी की तरह
रह - रह कर चुभते रहते हैं
न साफ़ देखने देते हैं, न आँखें बंद करने देते हैं

नयी कृति के लिए प्राप्त प्रशंसा से कलाकार 
चार दिन भरा रहता है लबालब, पांचवें दिन
अपनी ही रचना को अवमानना की नज़र से देखता है
वे लोग भी गलत नहीं हैं जो प्रेम को कला कहते हैं

सुन्दरताओं की भी अपनी राजनीति होती है
सबसे ताक़तवर करुणा सबसे महीन सुंदरता के
नष्ट होने पर उपजती है
तभी तो तमाम कवि कविता को
कालजयी बनाने के लिए
पक्षियों और हिरणों को मार देते हैं
ऐसे ही कुछ प्रेमी महान होने के लोभ से
आतंकित होकर प्रेम को मार देते हैं

एक दिन मैंने अपने मन के किसी हिस्से में
शीत से जमे तुम्हारे नाम की हिज्जे की 
दुःख के हिमखंड टूट कर आँखों के रास्ते
चमकदार गर्म पानी बनकर बह चले 

जब से हम - तुम अर्थों में साँस लेने लगे
सुन्दर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे थे









स्मृतियों और मुझमे कभी नही बनी
आधी उम्र तक मैं उन्हें मिटाती रही
बाक़ी बची आधी उम्र में उन्होंने मुझे मिटाया







मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थी 
मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
तुम्हारी देह के रोम - रोम को
सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना
मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी

मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ
जिसकी पत्तियां हर बार
मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गायें

मैं तुम्हारे मन की पथरीली सी ज़मीन पर उगी 
जिद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी 
जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाये तब भी
वह छोड़ जाये तुम्हारी आत्मा में
स्मृतियों की चंद अनभरी  ख़राशें

लगातार
 घाव देने वाले प्रेम का टूटना
साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
देखी है आपने कभी दर्द से चीखते कलपते
इंसान के चहरे पर मौत से आई शांति
असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है


इन दिनों सपने हिरन हो गए हैं 
और जीवन थाह - थाह कर
क़दम रखता हाथी

एकांत में जलने के दृश्य
भव्य और मार्मिक होते हैं
गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे
अडिग खड़े किले की आग से
अधिक अवसादी जंगलों का
दावानल भी नहीं होता.
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रंग - राग : चौथी कूट (ਚੌਥੀ ਕੂਟ) : सूरज कुमार

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निर्देशक गुरविन्दर सिंह की सिख अलगाववादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर बनी पंजाबी फ़िल्म चौथी कूट (ਚੌਥੀ ਕੂਟ)अभी प्रदर्शित हुई है. यह कथाकार वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों पर आधारित है. यह पहली ऐसी पंजाबी फिल्म है, जो कान्स फिल्म महोत्सव में दिखाई जा चुकी है. 

इस फ़िल्म पर चर्चा कर रहे हैं सूरज कुमार.   



भारतीय सिनेमा की चौथी दिशा: चौथी कूट (FOURTH DIRECTION)            

सूरज कुमार


भारतीय परिप्रेक्ष्य में अगर सार्थक सिनेमा की बात करें तो बड़ी तादाद में ऐसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित मिलती हैं. ऐसे में  ये आकस्मिक नहीं  है कि चाहे बांङ्ग्ला में सत्यजित रे हों या कन्नड में गिरीश कासरवल्ली या हिन्दी में मनी कौल इन सबकी फिल्मों का आधार मूलतः साहित्य ही रहा है. भारतीय सिनेमा में ऐसे कई निर्देशक और भी  हुए हैं  जिन्होंने साहित्य आधारित गंभीर फिल्में बनायीं लेकिन उस पर अलग से चर्चा  की जा सकती है.  यहाँ इसी श्रृंखला में नवोदित निर्देशक गुरविन्दर सिंहका नाम लिया जा रहा है जिनकी दूसरी फीचर फिल्म चौथी कूट 5अगस्त,2016 को  रिलीज हुई है. 

गुरविन्दर की पहली फीचर फिल्म अंधे घोड़े दा दान (Alms for a blind horse)2011में रिलीज हुई थी जो गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास (1976में प्रकाशित) पर आधारित थी. चौथी कूटपंजाबी कथाकार वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों पर आधारित है. पहली और दूसरी फिल्म के बीच पाँच साल का अंतराल बताता है कि निर्देशक ने इस फिल्म के लिए कितनी तैयारी की होगी. इस पंक्ति के लेखक को इस फिल्म को देखने का अवसर FTII पूणे में 6जून को वहाँ हुए प्रदर्शन के दौरान  मिला. वहाँ निर्देशक से हुए संवाद से केवल दो-तीन  उदाहरण  इस तैयारी को स्पष्ट करता है . प्रीप्रॉडक्शन  में कहानी तय करने के बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है कास्टिंग और लोकेशन तय करना. ऐसे में कहानी के चरित्र के अनुरूप अभिनेता तय करना सबसे महत्वपूर्ण होता है,जिसका चयन  निर्देशक ने स्क्रीन टेस्ट और पूर्व में संपर्क में आए व्यक्तियों की पात्रों से उनकी साम्यता के आधार पर किया. 

लेकिन सबसे विलक्षण बात इस फिल्म के दूसरे महत्वपूर्ण पात्र टॉमी को लेकर है जो एक कुत्ता है. स्पेनिश फिल्म  ‘Amores  Perros’की तरह इस  कुत्ते की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी. जाहिर है निर्देशक को भी वैसा ही कुत्ता चाहिए था सो उन्होंने तय किया कि इसके लिएगद्दीनस्ल का कुत्ता चाहिए. ट्रेनर के पास ये नस्ल नहीं थी इसलिए गद्दी नस्ल के पपी को पाला गया फिर उसे ट्रेनकिया गया. दूसरी बात फिल्म के लोकेशन को लेकर है. गौरतलब है कि  फिल्म में space और Time सबसे महत्वपूर्ण होता है. कहा भी जाता है Film is a spatiotemporal audio-visual medium’.समय 80के दशक का है जबकि स्पेस तत्कालीन पंजाब और उसका ग्रामीण अंचल है. 

साहित्य में किसी स्थिति को  शब्दों के माध्यम से बड़ी आसानी से अभिव्यक्त किया जा सकता  है लेकिन सिनेमा में  वही बात अभिव्यक्त करना खासा कठिन हो जाता है. जैसे साहित्य में ये लिखना कि  हजारों लोग जा रहे थेबहुत आसान है जबकि फिल्म में उसे दिखाना उतना ही कठिन. फिल्म निर्माण में इस बात का खास खयाल रखना पड़ता है. इस फिल्म की स्क्रिप्ट में फ़ार्महाउस खेतों के बीच है. बक़ौल- निर्देशक इसे ढूँढने के लिए उनकी टीम को लगभग सौ घर देखने पड़े.

फ़िल्म का एक दृश्य

फिल्म दो कहानियों पर आधारित है. आम तौर पर जब उपन्यास पर आधारित फिल्म बनाई जाती है तब फिल्म की अवधि की तुलना में उपन्यास का आकार बड़ा होने के कारण उसमे काट-छांट की जाती है जबकि अगर कहानी को आधार बनाया जाता है तब उसमें आमतौर पर फ़िल्मकार अपनी तरफ से जोड़ता है या एक से अधिक कहानी का संयोजन करता है. यह कोई सिद्धान्त नहीं है,लेकिन इसके कुछ उदाहरण हैं- सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ीफिल्म में जनरल औट्रमऔर वाजिद अलीखान की कहानी का पल्लवन किया था  जबकि कहानी में उसके संकेत मात्र  थे.  जबकि उनकी ही फिल्म तीन कन्यारवीन्द्रनाथ ठाकुर की तीन कहानियों (पोस्टमास्टर,समाप्ति और मनिहारी) पर आधारित थीं.

चौथी कूट  दो कहानियों पर आधारित है और फिल्म में भी दो समानान्तर कहानियां हैं जो एक जगह पर एक-दूसरे को छूती भर है. कई समीक्षकों ने दूसरी कहानी को अप्रासंगिक बताया है. दरअसल यह एक अलग विश्लेषण का विषय हो सकता है जिसके तहत फिल्म और वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों को साथ मे रख कर पढ़ा जाय. पर चूंकि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है इसलिए यहाँ फिल्म को आधार बना कर बात करना अधिक समीचीन होगा. मुझे प्रेमचंद के उपन्यास गोदानकी याद आती है जिसमें  समीक्षकों ने शहर की कथा को असंबद्ध कहकर खारिज करने का प्रयास किया था तब नलिन विलोचन शर्माने अपनी आलोचना के जरिये समानान्तर शिल्प के जरिये ग्रामीण और शहरी कथा के औचित्य को सिद्ध किया था. बिलकुल वैसा तो नहीं है लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं समझता हूँ  पूरे पंजाब में पसरे हुए दहशत के माहौल को केवल गाँव की जगह उसके बाहर के माहौल को भी इकठ्ठा पकड़ने के लिए फ़िल्मकार ने दोनों कथाओं को मिलाया होगा. 

फिल्म की कहानी अस्सी के दशक में, ऑपरेशन ब्लूस्टार (जून1984) के बाद की है. यह  हिंसा - निस्तब्धता - हिंसा के बीच की कहानी है. उल्लेखनीय है  हिंसा मुखर रूप में इसमे सामने नहीं आती लेकिन उसका अहसास पूरे वातावरण में व्याप्त है. सत्ता और अलगाववादियों के बीच फंसी आम जनता की ज़िंदगी कितनी त्रासद है इसे इस फिल्म में सटीक ढंग से उभारा गया है. कहा जा सकता है की पंजाब में अब ऐसे हालत तो नहीं हैं तो अब ऐसी फिल्म बनाने की क्या प्रासंगिकता है ? अगर हम अपने आसपास कश्मीर,उत्तरपूर्व ,टर्की ,बोको हरम और ISIS के इलाके में सत्ता और प्रतिसत्ता के बीच फंसे लोगों को देखें तो उनकी भी समस्या यही है. एक समीक्षक ने इस फिल्म कि तुलनाBruegel की पेंटिंग Fall of Icarus’से की है जिसका भाव है  इतिहास की महत्वपूर्ण घड़ी घटित होने के पार्श्व में सामान्य जीवन यथावत चलता रहता है.

पेंटिग : Fall of Icarus

फिल्म की शुरुआत जुगल और राज नाम के दो हिन्दू दोस्तों से शुरू होती है जो जल्दी में अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ना चाह रहे थे जो छूट जाती है. उनके साथ एक सिख भी है. पता चलता है एक मालगाड़ी को अमृतसर जाना है लेकिन  आर्मी वालों ने चेतावनी दी है कि उस गाड़ी में कोई न बैठे. वो लोग बहुत चिरौरी करते हैं गार्ड से साथ ले चलने के लिए,वो मना करता है,ट्रेन चलने पर  बाद में वो लगभग जबर्दस्ती मालगाड़ी के गार्ड के डब्बे में घुस जाते हैं जहां पहले से और भी पैसेंजर होते हैं. गार्ड पहले तो भलाबुरा कहता है फिर पैसे भी लेता है. डिब्बे में पहले से जो यात्री हैं उनके बीच  बहुत कम संवाद की स्थिति है,एक अंजाना सा तनाव डिब्बे में भी पसरा होता है.

यहाँ से फिल्म फ़्लैशबैक में चलती है जहां जुगल याद करता है कि कैसे वह अपनी पत्नी और बच्ची  के साथ गाँव का रास्ता भूल जाता है जिससे जुड़ता हुआ कहानी का मुख्य हिस्सा शुरू होता है. गाँव के  रास्ते में एक  फ़ार्महाउस होता है,डरते-डरते वे  आवाज देते हैं,प्रतिक्रिया देर से होती है,फिर  भी दरवाजा खुलने पर भय दूर होता है. बाद में संक्षिप्त बातचीत के बाद घर का मुखिया जोगिंदर उन्हें उनके घर तक छोड़ता है. जोगिंदर अपनी बीवी,दो बच्चों,माँ और कुत्ते टॉमी के साथ  वहाँ रहता है. यहाँ जोगिंदर का परिवार  आतंकवादी और आर्मी वालों के बीच फंसा हुआ है. रात में आतंकवादी आकर  धमकाते हैं और दिन में आर्मी वाले. आतंकवादी चाहते हैं कि जब भी वो चाहें वे उन्हे आश्रय दे और आर्मी वाले आतंकवादियों को शरण देने के शक में उनके पूरे घर को उलट-पुलट देते हैं. रात में कुत्ते(टॉमी) का भौंकना  आतंकवादियों को नागवार लगता है और वो  जोगिंदर को उसे मार देने को कहते हैं. लेकिन टॉमी जोगिंदर और उसके परिवार के लिए मात्र कुत्ता नहीं है बल्कि परिवार के सदस्य जैसा है. उसे दूर छोड़ आने पर भी वो वापस आ जाता है. मारने की कोशिश करने पर भी वो उसे मार नहीं पाते. आतंकवादियों में से एक जोगिंदर की पहचान कबड्डी के खिलाड़ी के रूप में करता है,वो मजबूत भी है लेकिन उनके सामने असहाय है. लेकिन यह टॉमी ही है जो भूँकना नहीं छोडता,चाहे आतंकवादी हो या आर्मी वह किसी के सामने नहीं झुकता.

दरअसल टॉमी एक प्रतीक है प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ खड़े होने का, उनसे सामना करने का डर,भय आतंक और त्रास  के अंधेरे के खिलाफ टॉमी उम्मीद की एक रौशनी है. कुल मिलकर चाहे वो आतंकवादी हों या सुरक्षा बल सभी आम जनता की समस्याओं को लेकर असंवेदनशील हैं. आम आदमी का इन दो चक्कियों के बीच अपने वजूद को बचाए रखना अपने-आप  में बड़ी चुनौती है.

बॉलीवुड की  फिल्मों में दिखाया जाने वाला पंजाब बहुत ही अस्वाभाविक और कृत्रिम सा दिखाई पड़ता है.   सरसों के खेत और नाचते-गाते  हुए पंजाबियों के  दृश्यों से हर सिनेमा दर्शक परिचित है .लेकिन वह केवल एक फैंटेसी है, वास्तविकता नहीं. वहाँ की वास्तविक राजनीतिक और सामाजिक स्थिति इतनी सरलीकृत नहीं है.  गुरदयाल सिंह की  इस फिल्म में परिवेश को यथासंभव प्रामाणिक बनाए रखते हुए परिस्थिति की जटिलता को दर्शाया गया  है.  इनकी फिल्मों में प्रकृति का अपना एक अलग व्यक्तित्व है. दिन का समय घने बादल और हरे खेत,वहीं रात की नीरवता ऐसी लगती है मानो हम खुद पात्रों के साथ खड़े हों. सत्यराय नागपाल की सिनेमैटोग्राफी  निर्देशक की सोच को पर्दे पर साकार करती है.

बाद में फिल्म वापस ट्रेन की ओर लौटती है और वहाँ स्टेशन आने से पहले ही गार्ड उन सभी यात्रियों से उतरने कहता है,इससे पहले की कोई उन्हें देख न ले. किसी भी फिल्म को बनाने से पहले फ़िल्मकार उस फिल्म को अपनी कल्पना में साकार करता है,अपनी टीम के साथ उसे रजत पट पर साकार करता है,तीसरी बार दर्शक उस फिल्म की अपने मस्तिष्क में छाप बनाता है. उसकी सार्थक प्रतिक्रिया फ़िल्मकार को संतुष्टि देती है. 

ऐसे दौर में जबकि आम भारतीय सिनेमा के दर्शक हॉलीवुड,बॉलीवुड और फॉर्मूला पंजाबी/क्षेत्रीय फिल्मों  के बने-बनाए ढांचे से अलग कुछ सोच नहीं पाते या कहें देखने पर जज़्ब नहीं कर पाते ऐसे में गुरविंदर की यह फिल्म देखने वालों को भी चौथी कूट (दिशा) दिखाती है. निश्चित ही यह फिल्म नए फ़िल्मकारों को कुछ सार्थक करने की प्रेरणा देगी.
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सूरज कुमार
केन्द्रीय  विश्वविद्यालय, कर्नाटक
surajhilsayan@gmail.com



मीमांसा : बौद्रिला : अच्युतानंद मिश्र

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फ़्रांसिसी दार्शनिक बौद्रिला (Jean Baudrillard,  27 July 1929 – 6 March 2007) बीसवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण चिंतकों में शामिल हैं, खासकर उत्तर-आधुनिकता और उपभोक्तवाद को समझने के लिए उन्हें जरुर पढना चाहिए. मार्क्सवाद, नारीवाद, मीडिया और उसकी संरचना पर उनका कार्य चर्चित रहा है.

युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र लगातार समकालीन सामाजिक – दार्शनिक अवधारणाओं पर लिख रहे हैं. अब तक आपने  'विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग',  'फूको'तथा 'जुरगेन हेबरमास'पर उनके आलेख पढ़े . आज बौद्रिला पर उनका आलेख ‘बाज़ार के अंतिम अरण्य में’ प्रस्तुत है. लेख खूब पढ़ कर और फिर मन से गढ़कर लिखा गया है,सहज रूप से वैचारिक है.  





बाज़ार के अंतिम अरण्य में                                                        
अच्युतानंद मिश्र 



(एक)
क्या बीसवीं सदी में किसी केंद्रीय विचारधारा की तलाश संभव है.  हिंसा क्रूरता और चरम मानवीयता के विरोधी युग्मों से गुजरती हुयी सदी वर्तमान में हमारी स्मृति में क्या जोड़ती है.युद्ध और विकास के दो पहियों पर घूमती दुनिया इक्कीसवीं सदी में कहाँ पहुँचती है ? इस तरह के प्रश्न पिछले तीस सालों में अलग अलग खेमों से लगातार पूछे गए. इन सवालों का कोई वस्तुनिष्ठ उत्तर न तो तब संभव था और न अब.लेकिन क्या ये सवाल जायज़ थे? इनके पीछे महज़ एक जिज्ञासा भर थी या गुजरी हुयी सदी को नकारने की कोशिश भी थी!

बीसवीं सदी केन्द्रीयता के निर्माण और विलोप की सदी थी. आस्था और चरम हताशा की सदी थी.मनुष्यता के चरम वैभव और उसके निर्मूल हो जाने की आशंकाओं से गुजरती हुई सदी थी.इसलिए बीसवीं सदी को किसी एक अवधारणा विचारधारा या राजनीति के दायरे से जब भी देखने की कोशिशें हुयी तो अक्सर ही कुछ न कुछ छूट गया और जो छूटा उसके संघर्ष ने हर बार नई अवधारणाओं को जन्म दिया.इस सबके बावजूद यह जरुर स्वीकार किया जाना चाहिए कि बीसवीं सदी के केंद्र में आलोचनात्मक विवेक सदैव मौजूद रहा.यही वजह है कि वर्चस्व की तमाम कोशिशों के बावजूद वैचारिक विकास कभी अवरुद्ध नहीं हुआ. लुकाच ने जहाँ राजनीति और संस्कृति की समान जमीन तलाशने की कोशिश की वहीं वाल्टर बेंजामिन, एडोर्नों और होर्खिमायरने पूंजीवादी वर्चस्व की संस्कृति के फलने फूलने और उसके आम जन की संवेदना में रूपांतरित होने के खतरों की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट किया.

द्वितीय विश्व युद्ध तक पूंजीवाद के तमाम खतरे प्रकट रूप में मूलाधार के खतरे ही प्रतीत होते हैं या कम से कम पूंजीवाद से संघर्ष कर रही दुनिया के बड़े दायरे में पूंजीवाद के असल संकट को मूलाधार के परिवर्तन की चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया गया.ऐसा इसलिए भी था क्योंकि बहुत सारे चिन्तक पूंजीवाद के विकास को एक रैखिकीय मान रहे थे.वे पूंजीवादी विकास को इतिहास की सरल रेखा के रूप में देख रहें थे और उसके खिलाफ उन्नीसवीं सदी के संघर्ष को बीसवीं सदी का यथार्थ बता रहे थे.सरल शब्दों में कहें तो बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में हम जिसे मार्क्सवादी यथार्थबोध समझ रहे थे वह वास्तव में उन्नीसवीं सदी का यथार्थ बोध ही था, जो हकीकत में उस दौर तक एक अतीत मोह में बदल गया था.

द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक आते-आते दुनिया में सबकुछ मूर्त नहीं रह गया था और न ही उसकी व्याख्या ही मूर्त रह गयी थी. इस अमूर्त होती दुनिया को लेकर पहली बार फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने ध्यान खींचा. पहली बार उन्हें फासीवाद के आसन्न संकट को व्याख्यायित करने के लिए राजनीतिक यथार्थ बोध की शब्दावली अपर्याप्त लगी. यह महसूस किया गया कि यथार्थ के निर्माण में एवं उसे व्याख्यायित करने में अब राजनीति, अर्थव्यवस्था के साथ-साथ मनोविज्ञान और साहित्य की भूमिका भी निर्णायक हो चली है. फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने और खासकर दूसरे दौर के चिंतकों ने जिनमें हेबरमास और मारकूजशामिल थे का मानना था कि दुनिया की किसी अवधारण की व्याख्या अब शास्त्रीय ढंग से नहीं की जा सकती.हर व्याख्या एक अंतर-अनुशासनीय पद्धति की मांग करती है, इसलिए यह जरुरी  हो चला है कि देखने और समझने के पुराने तरीकों पर सवाल उठाया जाये.

इस दिशा में फ्रेंच समाजशास्त्री बौद्रिलाबीसवीं सदी के उत्तरार्ध की ओर सामाजिक रूपाकारों में हुए परिवर्तन की एक विवादास्पद मगर दिलचस्प व्याख्या हमारे समक्ष रखते हैं.वे यथार्थ से अति यथार्थ तक, वर्ग से एक आक्रामक भीड़ तक, इतिहास से तत्काल तक और समाज से छवियों तक के रूपांतरण की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं.बीसवीं सदी के तमाम चिंतकों की अपेक्षा बौद्रिला का महत्व इस बात में है कि वे आरम्भ मार्क्सवाद की आलोचना से नहीं करते बल्कि इस बात से करते हैं कि बीसवीं सदी में मार्क्सवाद का अर्थ क्या रह गया है. हर्बर्ट मार्कुजकी तरह ही वे भी नव-मार्क्सवाद से आरम्भ करते हैं. बौद्रिलामार्क्सवाद को नकारने की बजाय इस प्रश्न का समाजशास्त्रीय उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मार्क्सवाद का अभिप्राय क्या रह गया है? शास्त्रीय मार्क्सवाद से मुठभेड़ को वे मार्क्सवाद के विरोध में नहीं देख रहे थे बल्कि ये उसे मार्क्सवाद की सतत आलोचनात्मक प्रवृत्ति का ही हिस्सा मान रहे थे.


बौद्रिलाका जन्म 1929में फ्रांस में हुआ.उनके दादा किसान थे और इसलिए घर पर पढ़ने लिखने का कोई माहौल नहीं था. बौद्रिला के अनुसार वे अपने परिवार के पहले शख्स थे जो पढ़ने लिखने की तरफ आये और ऐसा करने के लिए उन्हें अपने परिवार से खुद को अलगाना पड़ा. बौद्रिला विश्वविद्यालय की अकादमिक दुनिया का हिस्सा कभी नहीं हो सके.यही वजह है कि उनकी चिंतन पद्धति में शास्त्रीय आलोचना का जबरदस्त विरोध है. बौद्रिला के चिंतन में हर अवधारणा को नकारने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है. बौद्रिला इसे चिंतन की क्रांतिकारिता के रूप में चिन्हित करते हैं. बावजूद इसके यह कहना गलत न होगा कि तमाम उत्तराधुनिक विचारकों में बौद्रिला सबसे अधिक तर्क संगत नज़र आते हैं.  शायद यही वजह है कि उन्होंने खुद को उत्तराधुनिक चिन्तक कहे जाने का अकसर विरोध किया. आधुनिकता से उत्तराधुनिकता के संक्रमण की वे समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं. वे उन सामाजिक स्थितियों की पड़ताल करते हैं, जिसके अनुसार आधुनिकता का पटाक्षेप हो चुका है.

बौद्रिलाइतिहास की चेतना से जुड़ने की परिपाटी को तोड़ते हुए नितांत वर्तमान से जुड़ने की कोशिश करते हैं.एक तरह से कह सकते हैं कि फ्रांस में पचास और साठ के दशक से बौद्रिला नई विरासत का निर्माण कर रहे थे.ऐसा नहीं है कि ऐसा करने वाले बौद्रिला अकेले शख्स थे बल्कि फ्रांस में इसकी शुरुवात बौद्रिला से पूर्व फूको और रोलां बार्थकर चुके थे.बौद्रिला ने इनके प्रभाव को स्वीकार भी किया है. बौद्रिला के निर्माण में 68 के छात्र आन्दोलन की बड़ी भूमिका रही. यह भी कम दिलचस्प नहीं कि फूको और बौद्रिलादोनों एक दूसरे के विरोधी रहे लेकिन दोनों ने ही अपने चिंतन के प्रस्थान बिंदु को मई 68’ के छात्र आन्दोलन से जोड़ा है.वह दशक फ्रांस में बेहद गतिशील दशक था.छात्रों द्वारा तमाम तरह की व्यवस्था का इतना व्यापक विरोध इससे पहले नहीं देखा गया.बौद्रिला इस समूचे परिवर्तन को बेहद निकट से देख रहे थे.वे महसूस कर रहे थे कि राजनीति और समाज के बीच एक बड़ी फांक निर्मित हो गयी है. ऐसा उन्नीसवीं सदी में नहीं था.समाज के समूचे ढांचे में कुछ बहुत तेज़ी से बदला है. बौद्रिला आंद्रे बैतेलकी समाजशास्त्रीय अवधारणाओं से मार्क्सवाद के सम्बन्ध की तलाश करते हैं.बौद्रिला की आरंभिक दो पुस्तकें द कंज्यूमर सोसाइटीऔर द सिस्टम ऑफ़ ऑब्जेक्टसाठ के दशक में लिखी गयी थी.इन पुस्तकों में बौद्रिला मार्क्सवाद के नये परिप्रेक्ष्य और चुनौतियों की बात करते हैं. 70’ के दशक के मध्य तक आते-आते बौद्रिला को उत्तराधुनिकता के व्याख्याता और मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी की उपाधि दी जाने लगी.जबकि अपनी आरंभिक पुस्तकों में बौद्रिला नव-मार्क्सवाद को विकसित कर रहे थे. ऐसा क्यों हुआ? बौद्रिला की उपरोक्त दोनों पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद बहुत देर से यानि 90’ के दशक में हुआ जबकि सत्तर के दशक में लिखी उनकी पुस्तकें पहले अनुदित हो गयीं.इससे बौद्रिला की छवि मार्क्सवाद विरोधी की बनी.हालाँकि बौद्रिला का मार्क्सवाद के साथ सम्बन्ध प्रक्रियात्मक था न कि प्रतिक्रियात्मक.आरम्भ में वे मार्क्सवाद के नये विस्तार की ओर गए, एक तरह से उसके साथ रचनात्मक संवाद का रिश्ता बनाया.

बौद्रिलासमाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मार्क्सवाद के नये आयामों को रखते हैं.इस सन्दर्भ में बौद्रिला आंद्रे बैतेलकी अवधारणाओं से मार्क्सवाद को परखते हैं बैतेल का मानना था कि उपभोग को सीमित होना चाहिए.इसे व्याख्यायित करते हुए वे उपभोग के दो पहलुओं की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हैं.पहला वह जो अनिवार्य है जिसके बगैर जीवन को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता.दूसरे वह जो अतिरिक्त से पैदा होता है शोक, दुःख ,ख़ुशी, विकृत कामुकता इत्यादि.बैतेल का मानना था कि इस दूसरे उपभोग की कोई सीमा तय नहीं की जा सकती. लेकिन इसका सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि यह अर्थशास्त्र के संरक्षणवादी नियमों से परे है.उदाहरण के तौर पर बैतेल विवाह समारोह में उपहार देने की परम्परा की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हैं.उपहार देने के पीछे मूल्य यही है कि पाने वाला भविष्य में इससे बेहतर उपहार दे, लेकिन इस लेन-देन को अर्थशास्त्र के नियमों से नहीं समझा जा सकता.इसे सामाजिक नियमों के तहत ही समझा जा सकता है. एक तरह से यह स्थिति अर्थशास्त्र -गैर अर्थशास्त्र, उत्पादन- अनुत्पादन, और तर्क-आध्यात्म के बीच झूलती रहती है.उपहार देकर व्यक्ति के भीतर जो ताकत निर्मित होती है बैतेल के अनुसार वह भौतिक की बजाय गैर भौतिक प्रक्रिया बन जाती है. एक ऐसे आत्म का निर्माण होने लगता है जो अर्थशास्त्र से चालित होते हुए भी उसके दायरों से बाहर आने लगता है. बौद्रिला बैतेल की इस अवधारणा का इस्तेमाल अपनी पुस्तक द कंज्यूमर सोसाइटीमें करते हैं.

बौद्रिला के अनुसार आज का मनुष्य दूसरे लोगों से घिरा नहीं है बल्कि वह वस्तुओं से घिरा हुआ है.अतीत में वह दूसरे लोगों से घिरा हुआ था.यही उसका समाज था और यहीं उसकी चेतना का निर्माण होता था. इस समाज में चेतना के निर्माण का परिणाम यह था कि उसका अंतिम लक्ष्य मानवीय होना ही था या यह कहें कि मानवीय चेतना की कसौटी ही मनुष्यता थी .लेकिन जब समाज का निर्माण वस्तुओं और मनुष्य के योग से होगा तो वह किस तरह की चेतना को निर्मित करेगा.

व्यक्ति -व्यक्ति के बीच परस्परता के मूल में समाज की अवधारणा अंतर्निहित थी.समाज के अंतर्विरोधों से वर्ग का जन्म हुआ.लेकिन समाज के बगैर न तो वर्ग होगा और न ही वर्ग संघर्ष.बौद्रिला कहते हैं कि जिस तरह भेड़ियों के बीच रहकर भेड़िये का बच्चा भेड़िया बनता है उसी तरह वस्तुओं के बीच रहकर हम भी उन्हीं के अनुरूप ढलते जाते हैं.उनकी गति, उनकी लय के अनुरूप ढलने का अर्थ है मानवीय संवेदना से विलग होना.आज के समय में हम इन वस्तुओं के जन्म उनका विकास और उनकी मृत्यु को देख रहे हैं.पहले के समय में वस्तुओं ने मनुष्य के जन्म विकास और मृत्यु को देखा होगा.लेकिन मनुष्यता के तमाम दौरों से वस्तुओं का संसार गुजरता हुआ चला आया.और वर्तमान में एक स्थिति आ गयी जहाँ मनुष्य की चेतना का ही वस्तुकरण हो गया यानि मनुष्य वस्तु समाज का एक अंग बन गया.वस्तुओं से पटी पड़ी इस मनुष्यता को हम किस तरह व्याख्यायित करें ?क्या इनके मूल में किसी सार्वभौमिक नियम या किसी परिकल्पना की तलाश संभव है? स्पष्ट रूप में प्रकृति से विच्छिन्नता के रूप में इसकी पहचान की जा सकती है.

प्रकृति के साथ मनुष्य का जो सम्बन्ध था, वह अपने मूल स्वरूप में द्वंद्वात्मक था.मनुष्य प्रकृति के साथ सहयोग और संघर्ष के द्वैत में जीता था. वह प्रकृति का हिस्सा था और उसे बदलने के लिए सतत संघर्षशील भी. उसका यह संघर्ष अंदर बाहर के द्वन्द्व-द्वैत में आकार लेता था,  लेकिन सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ प्रकृति का स्थान तकनीक ने लेना आरंभ किया.तकनीक ने द्वंद्व को नियंत्रित करना शुरू किया क्योंकि तकनीक के मूल में गति का प्रश्न था.प्रकृति की गति मनुष्य के अनुकूल थी. यही वजह है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का द्वंद्व किसी वर्चस्व में नहीं बदलता था लेकिन तकनीक की गति के सामने मनुष्य की चेतना हरदम तालमेल नहीं बिठा सकती .ऐसे में तकनीक वर्चस्व को रचती है.यह वर्चस्व वस्तुतः एक द्वंद्वहीन स्थिति को निर्मित करता है.संकट घनीभूत तब होता है जब तकनीक को मनुष्य के बौद्धिक चिन्तन कल्पनाशीलता और संवेदना जैसे मूलभूत गुणों का स्थानापन बनाने की कोशिशें होने लगती हैं .यह एक बंद गली के अंधे मोड़ तक जाती है.प्रकृति के साथ मनुष्य का विच्छेद न सिर्फ़ उसका बाह्य क्षरण है बल्कि वह एक आंतरिक क्षरण को भी जन्म देती है.ऐसे में मनुष्य एक चेतना विहीन जीवित इकाई बनकर रह जाता है.वस्तुओं के संसार में एक विचित्र वस्तु.

लेफेब्रेका मानना था कि मनुष्य के क्रियाकलाप भौतिक और अमूर्त दोनों ही विलगाव का शिकार हुए हैं.औद्योगिकरण की प्रक्रिया ने मनुष्य को उसकी सामाजिकता से काट दिया. सामाजिकता से यह अलगाव मनुष्य के रूप में उसकी पहचान को भी विखंडित करता है.पूर्व औद्योगिक समाजों में मनुष्य की पहचान उसके कर्म यानि पेशे से होती थी.अगर वह लकड़ी का काम करता था तो वह बढई था अगर वह सोने के आभूषण बनाता था तो वह सुनार था.घर बनाने वाला राजमिस्त्री था.यानि वह जिन औजारों से काम लेता था.वे औजार उसकी पहचान को पुख्ता करते थे. औद्योगिकरण के परिणामस्वरूप उसकी यह पहचान नष्ट होने लगती है.अब न तो उसकी पहचान के साथ श्रम जुड़ता है और न ही औज़ार उसकी पहचान को पुख्ता बनाते हैं.वह श्रम के यांत्रिकीकरण का शिकार बनता है.यह एक विलगाव है जहाँ श्रमिक अपने ही श्रम और उसके उत्पाद से अलग होता जाता है. लेफेब्रे के अनुसार बीसवीं सदी में सामाजिकता के नये परिप्रेक्ष्य को समझने और व्याख्यायित करने के लिए इस विलगाव को व्याख्यायित करना जरुरी है. दिलचस्प यह है कि इस विलगाव को श्रमिक महसूस नहीं कर पाता क्योंकि वह उत्तरोत्तर इस प्रक्रिया का हिस्सा बनता जाता है.जाहिर है कि इस प्रक्रिया में वह अन्य की  भूमिका अदा नहीं कर सकता.ऐसे में समाज के बौद्धिक वर्ग की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इस स्थिति की पहचान करे और समाज का ध्यान इस ओर आकृष्ट करे.


बौद्रिला लेफेब्रेकी इस व्याख्या को आगे बढाते हैं.वे विलगाव के बाद के समाज की आलोचनात्मक व्याख्या हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं.वे इस विलगाव को समाज के विघटन और सामाजिक चेतना के ह्रास से जोड़ते हैं.समाजविहीनता की इस स्थिति के परिणामस्वरूप उपभोग की परिपाटी विकसित होने लगती है.वह तमाम तरह की सांस्कृतिक चेतना को उपभोग में बदल देती है. कंज्यूमर सोसाइटीमें बौद्रिला उपभोग की संस्कृति का मूल संस्कृति में तब्दील हो जाने की बात  करते हैं .बौद्रिला कहते हैं कि आधुनिक समाज के मूल में उत्पादन है, लेकिन उत्पादन के विकास के साथ उपभोग की चेतना भी विकसित होती है.वर्तमान समाज एक ऐसे मोड़ पर आ गया है जहाँ सिर्फ उत्पादन या उत्पादन प्रक्रिया के माध्यम से उसे पूरी तरह व्याख्यायित नहीं किया जा सकता .उत्पादन स्वयं में आधा-अधूरा तर्क बनकर रह जाता है.जरुरत इस बात की है कि उत्पादन के साथ-साथ उपभोग की चेतना को भी इसमें शामिल किया जाये.

शास्त्रीय मार्क्सवाद के अनुसार उपभोग की प्रक्रिया से उत्पादन की प्रक्रिया अलग होती जाती है.एक कारीगर जब किसी वस्तु को तैयार करता है तो वह उसकी हर प्रक्रिया का आरंभ से लेकर अंत तक हिस्सा होता है लेकिन जब वस्तु बनकर तैयार होती है तो वह उसके उपभोग से वंचित रह जाता है.यहीं वंचना की स्थिति विलगाव को उत्पन्न करती है. यानि उत्पादन और उपभोग के बीच का विलगाव.आधुनिक श्रमिक का उत्पादन की प्रक्रिया से सम्बन्ध कुछ भिन्न स्तर का है.कारखाने में एक श्रमिक का काम कुछ इस तरह का हो सकता है कि वह किसी वस्तु को तैयार करने में बार-बार सिर्फ एक पुर्जे को कसता हो.अतः वस्तु के पूर्ण निर्माण में उसकी भूमिका बहुत नगण्य रह जाती है.इस तरह वस्तु के निर्माण का श्रेय श्रमिक की बजाय कारखाने की मशीनें और उसके मालिक को जाता है.श्रम का यह विकेंद्रीकरण श्रमिक के भीतर श्रम की चेतना को ही नष्ट कर देता है. स्थिति और बदतर तब हो जाती है जब उत्पादन की गति बढ़ जाती है और श्रमिक को अधिक से अधिक वस्तु तैयार  करना पड़ता है.ऐसा करने के लिए वस्तु के खपत को बढाया जाता है और कई बार खपत के मिथ को भी रचा जाता है.जिसके लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है.




(दो)
यहाँ बौद्रिला एक महत्वपूर्ण बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं.पहले जहाँ वस्तुओं के उत्पादन के साथ ही प्रक्रिया पूर्ण हो जाती थी, वहीं अब ऐसा नहीं रह गया था. उत्पादन के साथ -साथ उपभोग भी महत्वपूर्ण हो चुका था.बौद्रिला उपभोग के समाजशास्त्र को व्याख्यायित करते हैं. बौद्रिला के अनुसार यह विलगाव के बाद की स्थिति है. इसे स्पष्ट करते हुए बौद्रिला इसे मिलेनेशिया में प्रचलित दंतकथा से जोड़ते हैं. मिलेनेशिया के मूल निवासी अक्सर गोरे लोगों के यहाँ आसमान से कुछ उतरता हुआ देखते थे.वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि यह हवाई जहाज़ है. उन्हें लगता था कि आसमान से कोई दैवीय समृद्धि है जो गोरे लोगों के यहाँ बरस रही है.उनके समृद्ध और शक्तिशाली होने के पीछे इसी आसमानी ताकत की भूमिका है. यह समृद्धि कभी उनके यहाँ (मूल निवासियों के यहाँ ) नहीं बरसती. इस तरह बौद्रिला कहते हैं कि मूल निवासियों ने हवाई जहाज़ का एक छद्म निर्मित किया.यह छद्म बताता है कि मिलेनेशिया के मूल निवासी उस ख़ुशी और समृद्धि से बस एक हवाई जहाज़ की दूरी भर है.इस दंतकथा से बौद्रिला आधुनिक उपभोक्ता को जोड़ते हुए बताते हैं कि आधुनिक उपभोक्ता भी यही महसूस करता है.मूल निवासियों की तरह उसे भी यही लगता है कि वह ख़ुशी से बस उस वस्तु भर की दूरी पर है. इस तरह वस्तुओं के संसार का मिथक निर्मित किया जाता है.बौद्रिला इस प्रक्रिया का विस्तार से जिक्र करते हैं वे लिखते हैं  

एंटिक स्टोर की प्रदर्शन खिड़की बेहद सजावटी और कलापूर्ण होती है. उसे देखने से ऐसा नहीं लगता कि उसमें बहुत सा धन झोंक दिया गया है बल्कि उसमें सीमित और पूरक वस्तुओं को चयन के लिए रखा जाता है. लेकिन यह व्यवस्था एक उपभोक्ता के भीतर एक मनोवैज्ञानिक क्रमिक प्रतिक्रिया को जन्म देती है.वह इसे देखता है, जांचता है, परखता है और सम्पूर्णता में ग्रहण करता है.इधर कुछ वस्तुएं यूँ ही दी जा रही हैं, उनके पक्ष में बोलने वाली वस्तुओं के बगैर.और इस तरह वस्तुओं के साथ उपभोक्ता का सम्बन्ध बदलने लगता है : अब वस्तुएं किसी विशेष उपयोगिता को प्रदर्शित नहीं करती, बल्कि वे एक श्रृंखला में अपना महत्व प्रदर्शित करती हैं . कपड़े धोने की मशीन, बर्तन धोने की मशीन और फ्रिज जब एक साथ प्रदर्शित की जाती हैं तो इनका अर्थ बदल जाता है.अकेले में ये कुछ और अर्थ रखती हैं.प्रदर्शन खिड़की, विज्ञापन, उत्पादक ,ब्रांड आदि एक सुसंगत और सम्पूर्ण अर्थ निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं . उस कड़ी की तरह जो सिर्फ एक वस्तु को दूसरे से जोड़ता भर नहीं है बल्कि यह भी बताता है कि उस वस्तु के बगैर अगली वस्तु का महत्व रह नहीं जाता.इस तरह श्रृंखलाबद्ध होकर हर वस्तु अधिक जटिल और ताकतवर वस्तु की भूमिका का निर्वाह करने लगती है” 1.

 इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप वस्तुओं में आकर्षित करने का अतिरिक्त मूल्य निर्मित हो जाता है.उपभोक्ता उसे अधिक लालची नज़रों से देखता है.इस तरह वह उस मिथ का शिकार होने लगता है जिसके अनुसार उसे लगता है कि इस वस्तु को खरीदने से उस पर ख़ुशी बरसेगी.उदाहरण के तौर पर आधुनिक उपभोक्ता यह महसूस करता है कि अगर वह सबसे बेहतर मॉडल का कार या फोन खरीदेगा तो उसे अपार ख़ुशी प्राप्त होगी. वास्तव में ख़ुशी कभी आती नहीं.वह एक वस्तु से दूसरे वस्तु में रूपांतरित होती रहती है. किसी वस्तु को खरीदने के बाद उपभोक्ता ख़ुशी के दूसरे स्तर की तरफ आकर्षित होने लगता है.वह आत्म-आलोचना के माध्यम से अपनी आकाँक्षाओं को प्रदर्शित करता है. वह कहता है अगर मैंने थोड़ी प्रतीक्षा की होती, थोड़ा धैर्य दिखाया होता, थोड़ी राशि और खर्च की होती तो मैं इससे बेहतर और अधिक उपयोगी वस्तु को पा सकता था.इस तरह उस अप्राप्त ख़ुशी को पाने के लिए प्रतीक्षा और खर्च का अटूट सिलसिला चल पड़ता है.धीरे -धीरे उपभोक्ता का ही वस्तुकरण हो जाता है.वह लोगों की अपेक्षा वस्तुओं के साथ खुद को अधिक सुरक्षित और उन्मुक्त महसूस करता है.उसकी सामाजिकता इन्हीं वस्तुओं के मध्य निर्मित होने लगती है.इस तरह उपभोग की प्रक्रिया एक जादू में बदलने लगती है.खुशियाँ वास्तव की बजाय संकेत और चिन्हों में बदलने लगती हैं .वस्तुएं इन चिन्हों को प्रदर्शित करती हैं.बौद्रिला कहते हैं,यह जादू टी. वी. के स्क्रीन पर रोज़ दिखाया जाता है.इस तरह उत्पादन की प्रक्रिया से इतर उपभोग की प्रक्रिया का समाजशास्त्र निर्मित होने लगता है.

टी. वी. विज्ञापन के माध्यम से उपभोग के आनंद के छद्म को रचती है. विज्ञापन के माध्यम से उन वस्तुओं का इस्तेमाल कर सुखी हो चुके लोगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता हैं .उनके चेहरे से टपकती ख़ुशी और उनकी वेशभूषा से झलकती सम्पन्नता हमें यह आश्वासन देती है कि इन वस्तुओं के इस्तेमाल के बाद हम भी इसी तरह के हो जायेंगे.बौद्रिला कहते हैं कि उनकी ख़ुशी ही हमारी वांछित आकांक्षा है . यह एक जादू है. हम उन्हें टी.वी. पर खुश देखकर उत्पादन से अलग वस्तु को लालसा के रूप में देखते हैं.इस तरह उपभोग का मनोविज्ञान हमारे भीतर निर्मित होता है.बाहर मौजूद वस्तु हमारे भीतर पाने की आकांक्षा को बलवती बनाती है.बौद्रिला के अनुसार टी.वी. की भूमिका वही है जो मिलेनेशिया के मूल निवासियों के लिए आकाश से उतरते विमान की थी.यहाँ एक समाज दूसरे समुदाय को अधिक उपभोग करते देखता है.वह उसके भीतर उपभोग के बाद के आनंद का मूर्त स्वरुप देखता है.टी.वी. इस अर्थ में अमूर्त के मूर्त होने का स्वांग रचती है. वह यथार्थ को छद्म यथार्थ में बदलती है.लेकिन इस तरह कि वह हमारी चेतना में यथार्थ की तरह ही दाखिल हो.


यह किसी अध्ययन द्वारा साबित नहीं किया जा सकता कि विज्ञापन से किसी उत्पाद के विक्रय में कितनी सहायता मिली.बावजूद इसके विज्ञापन का सहारा लिया जाता है.विज्ञापन एक तरह का अनुकूलन है .बाज़ार की रस्मअदायगी की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा.इस अर्थ में विज्ञापन किसी भी चीज़ को वास्तव में प्रदर्शित नहीं करते.विज्ञापन के माध्यम से हम वास्तविक के साथ अवास्तविक का भी उपभोग करना सीखते हैं.यह अवास्तविक एक अर्थ में वस्तु से भिन्न एक नया उत्पाद है.उत्पादक को इस अर्थ में वास्तविक के साथ-साथ इस अवास्तविक को भी बेचना है.इस तरह इस नई प्रक्रिया में उत्पाद के साथ साथ उसका विज्ञापन भी बेचने की वस्तु बन जाती है.कीमत के सन्दर्भ में भी यह बात लागू होती है और इसलिए हमें हर वस्तु की वह कीमत अदा करनी पड़ती है जो वह विज्ञापन के साथ मिलकर बनाती है.एक तरह से कहें तो विज्ञापन वस्तु की चेतना बनकर हमारे भीतर घुसपैठ करती है.और इस तरह आकाँक्षाओं का एक अटूट सिलसिला निर्मित होता है.क्योंकि विज्ञापन एक संसार को हमारे समक्ष रखता है. उसमें सामाजिक तर्क को बुना जाता है.

टूथपेस्ट के अधिकांश विज्ञापनों में किसी चिकित्सक की वेशभूषा में तैयार एक व्यक्ति को पेश किया जाता है.वह  मुस्कराहट और आत्मविश्वास के साथ लोगों को यकीन दिलाता है कि यह 99% चिकित्सकों द्वारा आजमाया जाने वाला टूथपेस्ट है और इसीलिए इसका इस्तेमाल करना दाँतों के लिहाज़ से बेहद जरुरी है .इसी तरह का दावा अन्य टूथपेस्ट भी करते नज़र आते हैं .तो क्या इस अर्थ में चिकित्सकों की संख्या वास्तव का अतिक्रमण नहीं कर जाती, लेकिन उन विज्ञापनों को देखते हुए हमारे मन में यह ख्याल नहीं आता कि अचानक हर ब्रांड के पास 99% दंतचिकित्सक कहाँ से आ गए .किस प्रक्रिया के तहत दन्तचिकित्सकों  की संख्या और प्रतिशत निर्धारित की गयी .धीरे -धीरे विज्ञापन की इस अतार्किक और छद्म शैली के हम अभ्यस्त होते जाते हैं .हमारे भीतर की तार्किक चेतना विनष्ट होने लगती है. हम उस छद्म के साथ ही उस विज्ञापन का उपभोग एक वस्तु के रूप में करने लगते हैं. 

इसी तरह किसी साबुन के विज्ञापन में हम सुसज्जित स्नानघर को देखते हैं.विज्ञापन के लिए एक स्नानघर का कृत्रिम सेट बनाया जाता है. उसमें एक सिने तारीका को नहाते हुए इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे उसकी खूबसूरती के मूल में यही विज्ञापन है. प्रकट तौर पर देखने से यह लग सकता है कि अमुक कम्पनी का उद्देश्य इतना ही है कि हम इस साबुन को अधिक से अधिक ख़रीदे लेकिन वास्तव में  साबुन के साथ -साथ इसी तरह के स्नानघर, इस तरह की स्त्री आदि आदि की आकांक्षा भी बेची जा रही है.यह धीरे-धीरे हमारे अवचेतन को अपना शिकार बनाती जाती है.उपभोग की आकांक्षा का प्रतिरोपण एवं विस्तार उपभोक्ता निर्माण की केंद्रीय एवं अनिवार्य शर्त बनने लगती है.इसे पूरा करने के लिए एक पूरा अनुशासन विकसित किया जाता है. प्रबंधन और विज्ञापन को अध्ययन का विषय बनाया जाता है.उसकी सैद्धांतिकी निर्मित की जाती है.फील्ड ट्रेनिंग के द्वारा उन्हें इस प्रक्रिया के लिए अनुकूल बनाया जाता है.

यह मिथ भी रचा जाता है कि वस्तुओं की उपलब्धता असीम है.लोगों तक इस बात को तकनीक और विज्ञापन के माध्यम से पहुँचाया जाता है.वस्तुएं सामाजिक विकास के मिथ को भी रचती हैं.बौद्रिला बताते हैं कि चिन्हों और संकेतों के माध्यम से यह बताया जाता है कि उपयुक्त मूल्य चुकाकर कोई भी किसी वस्तु को खरीद सकता है और इसलिए हर कोई हर स्तर की ख़ुशी पाने का अधिकारी बन सकता है. उदाहरण के तौर पर हम आधुनिक बाज़ार के रूप में मॉल को देख सकते हैं.वहां कभी भी चीज़ें कम नहीं पड़ती .दुनिया की हर चीज़, हर आदमी के नाप की चीज़ वहां उपलब्ध है.चीज़ों की विविधता और 24 घंटे उनकी उपलब्धता उसका प्रस्थान बिंदु है.मॉल लोगों में प्रकट तौर पर कोई वर्गीय भेदभाव नहीं करता . उसमें यह संकेत निहित है कि अगर किसी के पास खरीदने के पैसे नहीं हैं तो भी वह चीज़ों को मुफ्त देखकर उन्हें छूकर उनका आनंद उठा सकता है.पूरी तरह भले सुखी न हो लेकिन सुखी होने का स्वप्न और उस स्वप्न के इतने करीब होने का यथार्थ मॉल रचता है .इस प्रक्रिया में वर्ग की मूर्त चेतना से बाहर आकर सभी को एक समान उपभोक्ता बनाने की प्रकट-अप्रकट कोशिश मौजूद रहती है.

बौद्रिला के अनुसार मार्क्स के यहाँ इस तरह की व्याख्या उपलब्ध नहीं है. बौद्रिला अपनी व्याख्या में उत्पादन के मार्क्सवादी सिद्धांतों को नकारते नहीं हैं.लेकिन उपभोग की सरलीकृत समाजशास्त्रीयता या उसे वर्ग की चेतना के सामान्यीकरण तक महदूद कर नहीं देखते .यहाँ एक महत्वपूर्ण बात की ओर बौद्रिला संकेत करते हैं कि पारम्परिक पूंजीवादी प्रणाली के तहत वर्गीय दायरे में लोगो  की क्रय शक्ति को परिभाषित किया जाता था .क्रय शक्ति लोगों की उपभोग की चेतना को निर्मित करती थी.आज भी हम देखते हैं कि तमाम तरह की आर्थिक जनगणनाओं में चीज़ों के लिहाज़ से लोगों की क्रय शक्ति और उनके वर्ग का निर्धारण किया जाता है.बौद्रिला के अनुसार आधुनिक पूंजीवाद ने क्रय और उपभोग के सम्बन्धों को तर्क के परे पहुंचा दिया है.इसमें सामाजिक मनोविज्ञान की भूमिका निर्णायक होने लगी है. इसे बनाने में सूचना माध्यमों की बड़ी भूमिका है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता.बौद्रिला मार्क्स की वर्गीय व्याख्या को अस्वीकार करते हुए बताते हैं कि आकाँक्षाओं की अटूट श्रृंखलायें उत्पादन के नियमों के तहत निर्मित किये जाते हैं ,जो उतरोत्तर उत्पादन के नियमों से मुक्त होकर अपना एक स्वतंत्र दायरा विकसित कर लेते हैं.इस प्रक्रिया में लगातार मानवीय चेतना नष्ट होती जाती है.वस्तुओं का संसार एक समनांतर दुनिया की तरह बन जाता है, जिसमें मनुष्य होने का अर्थ वस्तुओं के साथ सम्बन्ध के अर्थ में विकसित होता है.इस सम्बन्ध के मूल में सिर्फ और सिर्फ लालच और आकांक्षा होती है. बौद्रिला पूछते हैं इस लालच में फँसने के अतिरिक्त उपभोक्ता के पास क्या विकल्प रह जाता है?

तकनिकी विकास की अवधारणा वास्तविक है या छद्म ? बौद्रिला इस प्रश्न पर नये परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं.फूको ने इतिहास की विकासवादी अवधारणा को चुनौती दी थी. बौद्रिला वर्तमान के विकास को तकनीकी विकास के मिथक के रूप में व्याख्यायित करते हैं. विकास की अवधारणा के केंद्र में बौद्रिला उपभोग की चेतना को रखते हैं. तकनीकी विकास का अर्थ है स्वचालन की  प्रक्रिया का तीव्र होना. इस अर्थ में वे गिज्मोंकी अवधारणा को सामने रखते हैं. गिज्मों क्या है ?बौद्रिला के अनुसार गिज्मोंएक ऐसी वस्तु है जो एक साथ बहुत कुछ कर सकती है-ऐसा बोध जगाती है.वास्तव में वह वस्तु से परे , वस्तु का बोध में रूपांतरण है. गिज्मोंउपयोगिता का मिथक रचता है.वह वस्तु की मूल चेतना यानि उसकी वस्तुपरकता  को तरलता में बदलती है .जैसे अगर हम एक खुरपी की बात करें तो उसका इस्तेमाल हम एक नुकीले हथियार के रूप में कर सकते हैं लेकिन किसी भी स्थिति में उसका इस्तेमाल पहिये की तरह नहीं किया जा सकता .यही उसकी वस्तुपरकता है और वह ठोस है. इस तरह वस्तु-संसार अपनी गुणात्मकता की वजह से ठोसत्व की अवधारणा को निर्मित करता है .बौद्रिला इस संदर्भ में पूछते हैं कि अगर किसी वस्तु में कोई ठोस तत्व हो ही नहीं तो उसे हम किस तरह देखेंगे.वस्तु संसार में उसकी उपस्थिति का क्या अर्थ होगा.बौद्रिला के लिए गिज्मोंवास्तव में इसी तरह की तरलता लिए वस्तु संसार में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करता है. उसमें कोई विशेष गुण नहीं है फिर भी  वह सबकुछ कर सकने में सक्षम है. 

यह एक नए तरह की वस्तुपरकता है. गिज्मोंइस तरह वस्तु के केंद्रीय संसार से बाहर आकर नई वस्तुपरकता का मिथ रचता है.वह वास्तव में है क्या यह हम कभी नहीं जान पाते.बौद्रिला के अनुसार गिज्मोंवर्तमान का मिथक है क्योंकि उसकी उपयोगिता को किसी सुसंगत तर्क के द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता.विश्रृंखलित मान्यताओं के अनुरूप वह अनेकानेक रूपों द्वारा संचालित होता है. उसकी इस बहुआयामिता का मिथ केन्द्रीयता के तर्क को नष्ट करती है .बौद्रिला का मानना है कि इस अर्थ में वह धर्म से भी बदतर है. धर्म के साथ यह बात महत्वपूर्ण है कि वह वस्तुओं के गिर्द व्यवस्थित संरचना को निर्मित करती है.उसके कार्य करने की, प्रतिक्रिया देने की और व्याख्या की एक निश्चित प्रणाली है .तो क्या गिज्मोंइस अर्थ में मशीन से कमतर एक निम्न-स्तरीय वस्तु है? बौद्रिला के अनुसार ऐसा हर्गिज़ नहीं है बल्कि इसके उलट यह यथार्थ को दूसरे स्तर तक ले जाती है वह इसे यथार्थ से परे और अतियथार्थ के करीब लाती है. सूचना क्रांति ने गिज्मोंकी भरमार हमारे सामने रख दी है .एक फोन का इस्तेमाल हम तस्वीरें खींचने गीत सुनने, फिल्म देखने या गूगल पर संवाद करने के रूप में कर सकते हैं लेकिन जिस क्षण हम यह सबकुछ कर रहे होते हैं उसी क्षण संचार माध्यम से हमारे पास एक सन्देश भेजा जाता है - आधुनिक और अति आधुनिक होने के लिए यह जरुरी है कि हम इस्तेमाल किये जा रहे पुराने फ़ोन की जगह एक स्मार्ट फोन का इस्तेमाल शुरू करें, क्योंकि वह हर हाल में एक आगे की विकसित आधुनिक दुनिया को प्रतिबिम्बित करता है.ठीक इसी समय टी.वी. पर एक विज्ञापन द्वारा इस छद्म को अतियथार्थ में बदला जाता है. एक विज्ञापन में यह दिखाया जाता है कि अमुक लड़के की इस खुबसूरत लड़की से मित्रता और यहाँ तक कि प्रणय सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि उस लड़के ने समय रहते यह स्मार्ट फोन खरीद लिया था इसलिए यह जरुरी हो गया है कि अब हम भी देर न करें.

बौद्रिला बताते हैं कि गिज्मों तकनीकी  वस्तु-संसार में वैश्विकता को प्रदर्शित करती है.वह इस तथ्य को हमारे भीतर आरोपित करती है कि जीवन की हर जरुरत (भौतिक -गैर भौतिक) के लिए गिज्मोंउपलब्ध है.एक विज्ञापन यह दिखाता है कि अमुक बच्चे को नींद इसलिए आ गयी क्योंकि इस खिलोने में माँ का स्पर्श मौजूद था तो वहीं दूसरा विज्ञापन यह दिखाता है कि अमुक पुरुष को नींद इसलिए मयस्सर हुयी क्योंकि उसने स्त्री की तरह का साथ देने वाला यह खिलौना खरीद लिया था.


बौद्रिला के अनुसार यह मानना कि तकनीक हमेंशा प्रकृति को बदलती है से अभिप्राय यह भी निकलता है कि प्रकृति का तकनीकीकरण किया जायेस्वचालन की प्रक्रिया में मनुष्य का वैश्वीकरण इस तरह होता है कि वह हर बार गिज्मोंके माध्यम से ही खुद को अधिक संतुष्ट महसूस करता है. गिज्मोंस्वयं में अति क्रियाशीलता की कल्पना है.इस तरह संतुष्टि को एक काल्पनिक संतुष्टि या अमूर्त संतुष्टि में बदल दिया जाता है. यहाँ बौद्रिला एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि तकनीक की इस अनुगामिता का परिणाम यह होता है कि मनुष्य स्वयं तकनीकी वस्तु में बदलता जाता है .रोबोट यंत्र के तौर पर उसका आदर्श होने लगता है. यह एक तरह से चेतना का तकनीकीकरण है जो यांत्रिकीकरण से आगे की स्थिति है.एक रोबोट वह सबकुछ कर सकता है जो एक विषय के रूप में मनुष्य.यहाँ तक कि प्रजनन भी.धीरे धीरे रोबोट और मनुष्य हमारी चेतना में अलग अलग रूपाकार नहीं रह जाते.रोबोट और मनुष्य के एकमेक होने का परिणाम यह होता है कि हम रोबोट के प्रति मानवीय संवेदनाओं का प्रसार करने लगते हैं और उसके क्रियाकलापों को अतिमानवीय समझने लगते हैं.यानि हमारे आदर्श के रूप में मनुष्य की जगह रोबोट की परिकल्पना स्थापित हो जाती है.

यह जो स्वचालन की प्रक्रिया है, क्या यह महज़ गति और गुणवत्ता तक ही सीमित है ? वास्तव में ऐसा नहीं है.स्वचालन की प्रक्रिया द्वारा मानवीय श्रम का निषेध किया जाता है.बचे रहने के लिए मनुष्य को अपने श्रम का तकनीकीकरण करना होता है. उदाहरण के तौर पर संचार माध्यमों द्वारा विकसित ऐप प्रणाली को देखा जा सकता है.आरम्भ में ऐप को लोगों के मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत किया गया. लेकिन भारत जैसे अर्ध विकसित देश में जिस तरह से ऐप को पिछले दो वर्षों में समाज का अनिवार्य और जरुरी हिस्सा बनाया जा रहा है, वह दिलचस्प है.

मानवीय श्रम में एक अंतर्भूत सामाजिकता होती थी .श्रम के द्वारा जो सामाजिकता निर्मित होती थी वह हमारे सौन्दर्यबोध का नियामक भी होता था .लेकिन ऐप प्रणाली मानवीय श्रम का निषेध करती है.कल तक हम टैक्सी को बुलाने के लिए जब किसी कॉल सेंटर में फ़ोन करते थे तो हम एक सामाजिक -आर्थिक प्रणाली से जुड़ते थे . कॉल सेंटर में बैठा शख्स हमें टैक्सी के आने का समय बताता था.कई बार टैक्सी न भेज पाने के कारणों की भी चर्चा करता था.हम उसे अपने गंतव्य के विषय में जानकारी देते थे. इस तरह यांत्रिक होते हुए भी दोतरफा संवाद संभव होता था .यह एक सामाजिक प्रक्रिया थी.लेकिन ऐप द्वारा जब मनुष्य का और मानवीय श्रम का हस्तानान्तरण होता है तो यह प्रक्रिया यांत्रिकीकरण से तकनीकीकरण के युग में प्रवेश करती है.इस प्रक्रिया में तमाम तरह के संवाद स्वचालित होते हैं. ऐप पर रिकॉर्ड किये गए संदेशों में हम किसी लड़की की आवाज़ सुनकर उसके होने की कल्पना कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में वहां कोई होता नहीं है .इसलिए वे किसी भी तरह से हमारी सौंदर्य चेतना को उद्भुत नहीं करते.संवेदना का तकनीकीकरण हमें सामाजिक रूप में निरर्थक बना देता है.इस तरह की स्थिति में किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता की भूमिका शेष नहीं रह जाती है.स्वचालन की प्रक्रिया पूरी दुनिया को अंततः एक विशाल गिज्मोंमें बदल देगी .इसके पार रास्ता क्या है?

रास्ता तलाशने की कोशिश में बौद्रिला मार्क्सवाद से बाहर आते हैं. 60’ के दशक में बौद्रिला मार्क्सवाद के साथ रचनात्मक संवाद जैसी स्थिति बनाते हैं.वे अपनी आरंभिक दोनों पुस्तकों में मार्क्सवाद के नये आयामों की बात करते हैं.हालाँकि इन पुस्तकों में भी शास्त्रीय मार्क्सवाद से बौद्रिला लगातार मुठभेड़ करते हुए नज़र आते हैं.



(तीन)
1920’ से 1960’ के बीच प्रतियोगी पूंजीवाद से एकाधिकारी पूंजीवाद में रूपांतरण होता है.इस दौरान आपूर्ति को बड़े पैमाने पर बढाया गया. इसके लिए उत्पादन के फलक को विस्तृत किया गया और कीमतें घटाई गयी.इस दौर में पूंजी के संग्रहण के साथ साथ उत्पादन की नई तकनीकों को विकसित किया गया ताकि उत्पाद और खपत दोनों को बढाया जा सका.इस प्रक्रिया को सम्भव करने के लिए पुराने मूल्यों (मार्क्स के अनुसार वस्तु के उत्पादन में दो तरह के मूल्य होते हैं उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य ) के साथ नये मूल्य- संकेत मूल्यको स्थापित किया गया. संकेत मूल्य से बौद्रिला का तात्पर्य प्रस्तुतीकरण, सजावट, कामुकता ,संचार माध्यम द्वारा प्रचार- प्रसार इत्यादि है .इन तमाम प्रक्रियाओं से गुजरकर वस्तु का संकेत मूल्य विकसित होता है, जो उत्तरोत्तर अधिक प्रभावी होता जाता है.इसी प्रक्रिया के तहत वस्तुओं का बाहरी रूप रंग उनसे प्रदर्शित होने वाला आराम आदि मूल्य बनने लगते हैं.समाज जब इस तरह के मूल्य के साथ वस्तुओं को स्वीकार करता है तो उसका रूपांतरण होने लगता है.वस्तुओं के प्रदर्शन से लोग सम्मानित और ताकतवर महसूस करने लगते हैं. उदाहरण के लिए घर कपड़े आदि से प्रदर्शित होने वाले सम्मान और ताकत को हम देख सकते हैं.आये दिन विज्ञापन इस बात को स्थापित कर रहे होते हैं कि अमुक इलाके के लोग इसलिए सभ्य सुसंस्कृत और समृद्ध हुए क्योंकि उन्होंने उस इलाके में अपना मकान ले लिया था.छटनी के दौरान अमुक कर्मचारी की नौकरी इसलिए बच गयी क्योंकि उसने अमुक ब्रांड का सूट पहन रखा था.स्पष्ट हैं कि इन विज्ञापनों में संकेत मूल्य की सामाजिकता को स्थापित किया जाता है. बौद्रिला कहते हैं कि यह विलगाव के बाद का समाज है.जब समाज में विलगाव की प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो वहां हर चीज़ बिकाऊ माल की भूमिका में आ जाती है. लेकिन यह बिकाऊ माल महज़ भौतिक वस्तु ही नहीं है, बल्कि सम्मान ,स्नेह, आदर्श, प्रेम और चरम घृणा ये सब भी बिकाऊ माल में बदल जाते हैं.

70’ के मध्य तक आते-आते बौद्रिला मार्क्सवाद के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अख्तियार करने लगते हैं. इस दौरान उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित होती हैं द मिरर ऑफ़ प्रोडक्शन और डेथ ऑफ़ सिम्बोलिक एक्सचेंज. इन पुस्तकों से बौद्रिला मार्क्सवाद के कट्टर आलोचक साबित होते हैं. वे कहते हैं मार्क्सवाद वास्तव में बुर्जुआ समाज का आईना है. मार्क्सवाद ने उत्पादन को केंद्र में स्वीकार किया है.इस तरह वह पूंजीवाद को स्वाभाविकता प्रदान करती है.राजनीतिक अर्थशास्त्र के द्वारा पूंजीवाद को बार-बार अपने को ठीक करने का मौका मिला.इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र उस सामाजिक परिवर्तन की आलोचना करने में असमर्थ साबित हुयी जिसके तहत समाज का विघटन बहुत तेज़ी से होता है और मनुष्य एक सामाजिक इकाई से घटकर वस्तुजगत का अंश बनने के लिए बाध्य हो जाता है.बौद्रिला के अनुसार आवश्यकता और उत्पादन मूल्य दोनों के मूल में समाज ही है.अतः पूंजीवाद द्वारा सामाजिक विघटन की प्रक्रिया की ठीक-ठीक पहचान उत्पादन और आवश्यकता के अनुसार संभव नहीं. इस तरह बौद्रिला मार्क्स की राजनीतिक अर्थशास्त्र की अवधारणा को नकारते हैं. वे कहते हैं वास्तव में मार्क्स ने आदिम समाज में विनिमय की पद्धतियों पर ध्यान नहीं दिया. सांकेतिक विनिमय का विघटन मात्र राजनीतिक आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी जैसा कि मार्क्स ने समझा था, इससे बढ़कर वह सामाजिक रूपाकारों में आया परिवर्तन भी था.

बौद्रिला मार्क्स की आलोचना करते हुए कई बार एकांगी दृष्टिकोण का शिकार होने लगते हैं और विरोध का एक छोर पकड़ लेते हैं.मार्क्स के यहाँ सामाजिक संरचनाओं का नकार नहीं है.मार्क्स ने हमेंशा समाजैतिहासिक पद का इस्तेमाल किया है .यह जरुर है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में सामाजिक रूपाकारों में आये विघटनकारी परिणामों का आकलन मार्क्स के समय में संभव नहीं था.बौद्रिला इस बात की अनदेखी कर जाते हैं कि मार्क्स उन्नीसवीं सदी के पूंजीवाद के विषय में जो कह रहे थे ,उसे हूबहू बीसवीं सदी में लागू करने की बात मार्क्स ने नहीं कही थी और यह विश्लेषण की मार्क्सवादी परिकल्पना के भी विरुद्ध है.बौद्रिला मार्क्सवाद का विरोध करते हुए जब यह कहते हैं कि तमाम तरह की जरूरतों का और उत्पादन मूल्य का निर्धारण सिर्फ और सिर्फ समाज द्वारा होता है तो वास्तव में वह उस ऐतिहासिकता को भूल जाते हैं जो समाज के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है. 


मार्क्स जिसे ऐतिहासिक द्वंद्ववाद कहते हैं .मार्क्सवाद की समस्याओं की व्याख्या करते हुए बौद्रिला मार्क्स की ऐतिहासिक उपलब्धियों को दरकिनार कर देते हैं . अपनी पुस्तक मिरर ऑफ़ प्रोडक्शनमें बौद्रिला इस बात पर बहुत अधिक जोर देते हैं कि मार्क्स ने उपयोग मूल्य को ही उत्पादन के केंद्र में स्वीकारा है.बौद्रिला कहते हैं कि मार्क्स विनिमय मूल्य की बात भी करते हैं लेकिन वे विनिमय मूल्य और उपयोग मूल्य के बीच द्वंद्वात्मकता को बखूबी स्पष्ट नहीं करते.बौद्रिला के अनुसार ऐसा इसलिए है क्योंकि मार्क्स की व्याख्या में उपयोगी मूल्य ही सर्वोपरि है.बौद्रिला अपने लेखन में बार-बार इसपर बल देते हैं कि मार्क्सवाद उत्पादन से परे कुछ भी देखने में असमर्थ है.बौद्रिला के अनुसार मार्क्स का स्पष्ट मानना था कि श्रम द्वारा उपयोग मूल्य निर्मित होता है जो विनिमय मूल्य को भी निर्मित करता है.लेकिन इसके विपरीत की परिकल्पना मार्क्स ने नहीं की थी.बौद्रिला इसे गुणात्मक और मात्रात्मक के द्वंद्व के रूप में व्याख्यायित करते हैं.मार्क्सवाद की आलोचना में बौद्रिला निश्चित रूप से नये बिन्दुओं की तलाश करते हैं . वे कहते हैं कि विनिमय मूल्य द्वारा उपयोग मूल्य का निर्माण हो रहा है.यह राजनीतिक अर्थशास्त्र के बाद की स्थिति है.ऐसे में समाज को व्याख्यायित करने में राजनीतिक अर्थशास्त्र की भूमिका अब रह नहीं गयी है .बौद्रिला लिखते हैं . “श्रम का अंत हो चुका है .उत्पादन का अंत हो चुका है .राजनीतिक अर्थशास्त्र का भी अंत हो चुका है .संकेतक –संकेतित के बीच मौजूद द्वंद्वात्मकता भी नष्ट हो चुकी है.इसी द्वंद्वात्मकता के तहत ज्ञान और अर्थ का संचय और उसकी सम्पूर्ण व्याख्या का रैखिकीय निर्धारण संभव था.साथ ही विनिमय मूल्य / उपयोग मूल्य में मौजूद द्वंद्वात्मकता जो कि संचय और सामाजिक उत्पादन को संभव बनाती थी का भी अंत हो गया .विमर्श की सीधी पगडण्डी नष्ट हो चुकी है .वस्तुओं का सरल संसार नष्ट हो चुका है .चिन्हों का शास्त्रीय युग मिट चुका है . उत्पादन के युग का भी अंत हो गया.  2बौद्रिला के अनुसार श्रम उत्पादन के केंद्र में था लेकिन अब वह उत्पादन को तय नहीं करता .स्वचालन की प्रक्रिया तकनीकी विकास ने उसे उत्पादन के तमाम उपकरणों में से एक बना दिया है .श्रम मात्र एक चिन्ह बनकर रह गया है . तनख्वाह और श्रम के बीच का तार्किक संबंध भी नष्ट हो चुका है.अब लोग यथार्थ में नहीं बल्कि अतियथार्थ में जी रहे हैं.

70’ के दशक में बौद्रिला का मार्क्सवाद से सम्बन्ध एक जटिल व्याख्या की मांग करता है.यह कहना बेहद कठिन है कि बौद्रिला मार्क्स को नकार रहे हैं या उसे समकालीन संदर्भ में नई व्याख्याओं से जोड़ रहे हैं.ऐसा इसलिए भी कि बौद्रिला को लगता है कि किसी समाधान की तरफ बढ़ना संभव नहीं रह गया है.समाज एक बेहद क्रांतिकारी मोड़ से गुजर रहा है.उनके अनुसार यह उतना ही क्रांतिकारी है जितना प्राक-आधुनिक और आधुनिक समाज के मध्य घटा परिवर्तन.
 
बौद्रिला के लेखन का अंतिम पड़ाव यहीं से आरम्भ होता है, जहाँ वे यथार्थ के रूपांतरण की सूक्ष्म व्याख्या हमारे समक्ष रखते हैं. बौद्रिला बताते हैं कि इस यथार्थ के छद्म को सूचना क्रांति ने निर्मित किया है. टी.वी. के पर्दे के रूप में वह हर वक्त हमारे साथ है. यथार्थ को तलाशना असंभव हो चुका है.हर चीज़ संचार माध्यम का हिस्सा हो चुकी है.ज्ञान को सूचना में बदल दिया गया है.बौद्रिला के अनुसार पहले हर घटना का ऐतिहासिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य होता था.लेकिन सूचना माध्यमों ने घटनाओं को उनके इतिहास और राजनीति से अलग कर दिया है. टी.वी. के पर्दे पर जितनी देर के लिए वह प्रकट होता है मात्र उतना ही उसका इतिहास है.यह भी संभव है कि वास्तव में वह घटना घटी ही न हो लेकिन संचार माध्यमों के द्वारा उसका घटना संभव हो पाता है.इस अर्थ में किसी घटना को यथार्थ से अलग किया जाता है.

पिछले दो वर्ष की भारतीय राजनीति में भी हम इस तरह के अति यथार्थ को देखते हैं.राजनीतिक मंचों से एक झूठ को कहा जाता है, तमाम टी.वी. चैनल यह जानते हुए कि यह झूठ है ,उसे दिखाते हैं .इस तरह यथार्थ से परे एक नया यथार्थ या अति यथार्थ विकसित होता है.इस अति यथार्थ के साथ किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता की संभावना नहीं बची रह जाती. हमें हर हाल में इस अति यथार्थ का उपभोग करना है, क्योंकि इस अतियथार्थ से न तो कोई मुक्ति है न इतर कोई संसार नज़र आता है.


बौद्रिला इस बात को हमारे समक्ष रखते हैं कि पिछली सदी ने तमाम तरह की संकल्पनाओं को नष्ट कर दिया है.उन सबके घुलने मिलने से दो ही चीजें बची रह गयी हैं.भाषा और बाज़ार.भाषा अमूर्त है और बाज़ार उसका मूर्त रूप. इसके परे अब न तो कोई इतिहास है न समाज न राजनीति .भाषा और बाज़ार के बीच अब कोई द्वंद्वात्मकता नहीं बची रह गयी है. मार्क्सवाद ने चीज़ों को देखने के द्वंद्वात्मक नज़रिए पर जोर दिया था.हर परिघटना के दो पहलू थे.अतियथार्थ ने इन पहलुओं को नष्ट कर दिया है.अब किसी किस्म का द्वंद्व –द्वैत बचा नहीं रह गया है .हर घटना महज़ एक भाषाई आवेग बनकर रह गयी है.भाषा के बाहर जो कुछ है वह बाज़ार है. लेकिन भाषा और बाज़ार किसी किस्म के द्वंद्व को निर्मित नहीं करते.उनके बीच किसी किस्म का बाइनरी सम्बन्ध अब नहीं बचा है.

अन्य उत्तरमार्क्सवादी चिंतकों की तरह बौद्रिला के पास भी इस स्थिति से निकलने का कोई समाधान नज़र नहीं आता. कई खण्डों में लिखी वैचारिक स्फूलिंग की पुस्तक वैचारिक स्फूलिंग में बौद्रिला स्मृतियों के धुंधले आईने में दुनिया को देखते हैं.वे एक वृहद् उदासी को रचते हैं.बौद्रिला यह मानते हैं कि समाज एक बड़े संक्रमण से गुजर रहा है.ऐसे में इस उदासी के पार किसी झिलमिल को देखना संभव नहीं.लेकिन अपने समय में इमानदार होने की कोशिश यह भी है कि हम अपने वर्तमान के प्रति जवाबदेह बने.बौद्रिला का समस्त लेखन इसी वर्तमान की व्याख्या हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है.अपनी उदासी में मौजूद आशंकाओं के साथ बौद्रिला भविष्य का एक चिन्ह भर छोड़ जाते हैं.
अंततः एक सच्चा पागल आदमी गली में दिखा, जिसे खुद से बात करने के लिए मोबाइल की जरुरत नहीं थी.3

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संदर्भ सूची
1 The Consumer Society: Myths and Structures, sage publication (English translation), 1998 , page 31
2 Symbolic Exchange And Death, sage publication (English translation ),1993. Page 8
3 Cool Memories  V, Willey -2006, Page 14  
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अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबेARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अम्बर रंजना पाण्डेय

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जबकि समय जटिलतर होता जा रहा है, कलाओं से हम उनके एकआयामी होने की जिद्द ठान बैठे हैं. बस एकबार में ही अनावृत्त होकर किसी क्षणिक उत्तेजना में लुप्त हो जाए, कविता में गहरे बैठने का न धीरज बचा है न उसके मन्तव्य के अनुसन्धान का बौद्धिक उपक्रम दीखता है. उसे किसी फौरी उद्देश्य के लिए बस तैयार किया जा रहा हो जैसे. शेष कार्य लपलपाती कुंठा से भरी (कु)भाषा पूरा कर देती है. 

ऐसे सतत उत्तेजना से भरे इस समय में अम्बर रंजना पाण्डेय की कविताओं को प्रस्तुत करना जोखिम लेना है.
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"दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं. 

अम्बर की कवितायें शास्त्रीयता और आधुनिकता का अद्भुत संतुलन प्रस्तुत करती हैं. इनमें संस्कृत के कवियों की परम्पराएं और छंदों की छायाएं भी मिलेंगी और समकालीन जीवन की धड़कन भी सुनाई देगी. अम्बर की कवितायें कविता के समकालीन परिदृश्य में अपनी सायास भिन्नता से न सिर्फ एक बहस आमंत्रित करती है वरन सौन्दर्य और लोकजीवन को नए ढंग से देखने का प्रस्ताव भी करती हैं. यहाँ प्रस्तुत कवितायें मध्यप्रदेश के वृक्षों पर सौ कवितायें लिखने की योजना का हिस्सा हैं. इससे पहले भी इस श्रृंखला की कई कवितायें वेब पर प्रकाशित हो चुकी हैं. वृक्षों पर कवितायें लिखने का विचार ही अपने आप में इतना अनूठा है कि इन कविताओं के हार्दिक पाठ को आमंत्रित करता है."
                 : महेश वर्मा




अम्बर रंजना पाण्डेय की पाँच कवितायें    
(श्री प्रियंकर पालीवाल जी के लिये) 





पेंटिग : Jivan Lee




मुचकुंद

वन-विभाग के डाक-बंगले में कोई
लम्पट अफसर लगा गया था मुचकुंद के
चार-छह वृक्ष कि पत्तों को डास जागेगा
रात-रात भर इसके नीचे किसी
एनजीओ वाली स्त्री के संग किन्तु फेल
था अफसर स्नातक में. वनस्पति-विज्ञान में
शून्य मिला था, रूपया खिलाकर पास हुआ था.
उसे पता नहीं था बरसों डहकता है मुचकुंद
तब नक्षत्रों से इसके नवपर्ण टकराते हैं.

कहाँ कवि बनना चाहता था
कहाँ वन-विभाग में चाकरी करनी पड़ी.

ब्रह्मराक्षस भी सो जाते हैं. चंद्र अस्त
हो जाता तब ऊपर ऊपर जहाँ तक आँख
नहीं जाती, खुलते है मुचकुंद के कुसुम.
चमगादड़ों से पूरा वृक्ष भर उठता  है

सुगंध की पूछते हो तो ऐसी तुम्हें
उस स्त्री के तलवे पर भी नहीं मिलेगी-
जिसके पीछे तुम पागल थे और नाप डाली
थी आधी पृथ्वी साढ़े-तीन समुद्र जिसके लिए.
यह उसे ही प्राप्य है जो अंधकार को
पढ़ता है किसी कविता की तरह,
जो अंधकार को बो लेता है
मन में सीताफल के बीज की तरह.

मुचकुंद पर कविता लिखना हो तो
बैतूल के वनों में जाना तुम-
जहाँ भवानीप्रसाद मिश्र गए थे.



महुआ

मधु किन्तु मृषा मृषा कहकर मामी को बेच
गया माली महुए का बालक-तरु बता कर
बहेड़े का है. मेधावी विद्यार्थी वन-
विज्ञान का; किराये से रहता था पीछे,
आता बार बार बताता कि बहेड़ा नहीं-
गुड़ का फूल लगेगा इसपर, कौन मानता!
एक दिन जो आधा फाल्गुन में था, आधा
बैसाख में, देखा मेघमंडल तक आने
को है मधूक. दल सब छोड़ दिए, गुड़पुष्पों
के गुच्छ के गुच्छ गुंथे पड़े है गहगह. ऐसे
गहगड्ड मुकुलों के तिमिर में चौंकी मामी
का मन भी गहक गया. तो क्या जो महुआ यों
देहात में जहाँ तहाँ फूलता है कि इसे
नहीं देखभाल दरकार.देखो तो सूरज
से पूर्व छोड़ देता है आचमन के जल
ज्यों अपनी सब की सब श्री. वानर, मृग, सियार
बिलौटी- दूर फूलों को भखने को कैसे
मन मचलता- वन में, डगाल पर, अहेर-काल.
ताड़ी की बात नहीं करता लोग समझते
कवि बेवड़ा है. झाड़-फूलों का चिंतक हूँ.




अश्वत्थ

देखो, छबीला कैसे छाज रहा. गोपाल
मंदिर के शृंग से थोड़ा नीचे, कंधे
पर छाया और कीर्ति में जिसकी छवि दीप्त
हो रही- छिन्नाधार फिर भी फूल रहा है.
आषाढ़ के तड़ित्वानों को पी पी.मंदिर
के बाएँ जो भग्न भाग है वहीं से काक
खा कर उड़ा होगा शलाटु, विष्ठा गिराता
हुआ; गोपाल जी के दृगों के ठीक आगे-
उनके नाट्य-मंडप के ऊपर.पंडित जी
चुप रहते है. पुरातत्व विभाग के अफ़सर
भी अश्वत्थ उखाड़ते भय खाते है. तने
से यज्ञ का चमचा बना लेंगे पुरोहित
जी.छाल उबालकर बहू को पिला देंगे,
जिसकी हिचकियाँ दो दिवस से सतत चल रही
है.बेटा गया परदेश, नौकरी लगी है.

अश्वत्थ बढ़ेगा और एक रात्रि सम्भवत:
भादों में- मंदिर का यह भाग गिर पड़ेगा.
मरम्मत के अभाव में व बजट न पास किए
जाने के कारण.काठ सड़ने से गिर गया
देवालय; आते जाते पत्रकार गण कहेंगे, तब.
पीपल को दोष न लगायेंगे.छतनारा
बढ़ा करेगा.जरा पौन चलने पर ध्वनि करेगा.



जामुन का वृक्ष

जिह्वा जामुनों को खाकर नीली पड़ी थी.
तम के रस से कंठ भरा था. कसैले अधर.
जम्बूवृक्ष के प्रगाढ़ अन्धकाराच्छ्न्न
दाव में अनंत भूमा की व्रज्या से थके
भूतनाथ पाड़े ने अनुराधा का चुम्बन
लिया था जब, तब हठयोगियों की चर्या को
पकड़ लिया था मूर्च्छा ने, पकड़ लिया था
निद्रा ने. पहले तर्जनी चिबुक पर छुवाई
थी. पुतलियों पर पुतलियाँ धर देर तक स्थिर
खड़े रहें. भूतनाथ की आँखों की चौखट
में बिम्ब फंसा था कविता होने को आकुल
जैसे पिंजरे में बंद दाड़िम चुगता शुक
हो उड़ने उड़ने को. दांतों से दांत बजा,
जो भूतनाथ मुस्कुराया, अनुराधा पीठ
दे खड़ी हुई परन्तु मन तो मथा जा चुका
था. जीभ भी जामुनों से कसी जा चुकी थी.
कुटरुओं की कुटर्रू कुटर्रू से धरण सब
भरी थी जानो तुमुल का घड़ा हो. दोपहर
जामुन सी तिमिरमय, ठंडी जी को लगी थी.




बिल्ब-वृक्ष

ठाढ़ेश्वरी बाबा जैसा
ठूँठ. शंखचूड़ जड़ में पड़ा
रहता. बैशाख की दोपहर
मैंने देखा शतधा, जीवन
का लक्षण न था. विरुढ़ अर्थ
जैसा वह रूखा सूखा था.
किन्तु ज्येष्ठ के प्रथम दिवस
फाल्गुन पूर्णिमा का चन्द्र
भरी दोपहर दिखाई पड़ा.
भौंचक रह गयी पुतलियाँ, भ्रम
भरकर दृग जब देखता रहा
तब टूटा. बिल्ब के बड़े बड़े
फलों से वृक्ष भरा हुआ था.
उग आये पर्ण इच्छाओं
से कोष कोष से. हरी हरी
डंठलों से जुड़े तीन तीन
पात. पंडितगण के खिल गए
मन. गंधों का ऐसा उत्सव
मचा हुआ था कि फूल फूला
सबसे अंत में. इन्द्रियां सब
संतुष्ट हुई. बिल्बवृक्ष के
आँखभर ऐसे दर्शन हुए.

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परख : हिंदू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण : वसुधा डालमिया

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वसुधा डालमिया








अंग्रेजी में 1997 में प्रकशित वसुधा डालमिया की पुस्तक – ‘The Nationalisation of Hindu Traditionका हिंदी अनुवाद ‘हिंदू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण’ राजकमल प्रकाशन से इस वर्ष छप कर आया है. अनुवाद संजीव कुमार और योगेन्द्र दत्त ने किया है.
राष्ट्रवाद, उदयीमान मध्यवर्ग, अस्मिता (ओं) की निर्मिति, धार्मिक सुधार और साम्प्रदायिकता आदि के बीच अन्त: क्रियाओं की जटिलता के आकलन का यह बौद्धिक आकलन अकादमिक क्षेत्रों में बहुत समादृत है.
इस शोध पुस्तक का महत्व कई कारणों से है. हिंदी नवजागरण के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र की भूमिका  और उनके शहर बनारस और उस समय की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक सक्रियताओं को जानने समझने के लिए यह प्रमाणिक और विश्वसनीय सामग्रीं प्रदान करता है.
दूसरा यह कि हिंदी नवजागरण को लेकर अतिउत्साह और अतिव्याख्या का जो ‘हिंदी स्कूल’ है उसे समुचित और संतुलित करने के लिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए.
और यह भी कि भारत में जिस तरह से मानविकी में शोध होते हैं वे कितने अक्षम, अपर्याप्त और अनुचित हैं, इस शोध को पढ़ते हुए खास तौर से महसूस होता है. 
अनुवाद बेहतर है.

लेखक अरुण माहेश्वरी ने इस किताब की कुछ अवधारणाओं पर जरूरी सवाल उठाये हैं.



भारतेंदु हरिश्चंद्र : सबाल्टर्नवाद और सांस्कृतिक मार्क्सवाद    

अरुण माहेश्वरी


संजीव कुमार ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर केंद्रित वसुधा डालमिया की किताब जो मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई है - The Nationalisation of Hindu Traditionका हिंदी में अनुवाद किया हैं- ‘हिन्दू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण, जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है.   

इतिहास की सबाल्टर्नवादी दृष्टिको मूलत: इतिहास सृजन की एक अति-यथार्थवादी (surrealist) धारा कहा जा सकता है. यह वस्तु मात्र केंद्रित एक ऐसा नजरिया है जो चीज को किसी सक्रिय प्रक्रिया में, परिघटना के तौर पर देखने के बजाय, कुछ स्वयंसिद्ध सिद्धांतों के चौखटे में उसके पूरे विस्तार के साथ जड़ने की कोशिश होती है. अर्थात इसमें वर्णित चीज में कभी कोई बदलाव नजर नहीं आता है, क्योंकि उसके इर्द-गिर्द भी कहीं किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं दिखाई देता है. मान कर चला जाता है कि कुछ चीजें हैं जो सनातन काल से चली आ रही हैं, आज भी चल रही है और शायद आगे भी इसी प्रकार चलती रहेगी. उसी सनातनता के परिप्रेक्ष्य के चौखटे में यह इतिहास दृष्टि अपने विषय को भी उसके अधिकतम, और सूक्ष्मतम ब्यौरों के साथ जड़ने का काम करती है. और जब आप इतिहास को किसी भौतिक परिघटना के तौर पर देखने के बजाय उसे किसी सनातन सत्य की अभिव्यक्ति के रूप में देखने लगेंगे, तो हमेशा विषय की द्वंद्वात्मकता के व्याहत होने और एक प्रकट चित्र के कल्पित विस्तार के भूल-भुलैय्या में ही खो जाने का खतरा बना रहता है. और, इससे कुल मिला कर जो कृति सामने आती है, उसमें अन्तत: अति-विस्तार की ऊब की अंधेरी खाई के सिवाय और कुछ नहीं बचा रहता है.

विषय को और भी खोलने के लिये, मैं यहां ओवेन चैडविककी प्रसिद्ध किताब The Secularisation of the European Mind in the 19th Century(1975) का उल्लेख करना चाहूंगा, क्योंकि इसका एक गहरा संबंध वसुधा डालमिया की किताब के विषय से भी है. चैडविक की इस किताब की सबसे बड़ी शक्ति इसी बात में है कि उन्होंने तमाम वैज्ञानिक चिंतकों की तरह स्वयं धर्म को एक सामाजिक परिघटना के रूप में देखा था. अपनी किताब में चैडविक ने सामाजिक चिंतन में रैनेसांस के उदारतावाद से लेकर कार्ल माक्‍​र्स के विचारों के साथ ही मजदूरों के व्यवहार में होने वाले बदलावों, चर्च के प्रति बदलते हुए समाज के रवैये का एक विवरण दिया था और साथ ही19वीं सदी में वाल्तेयर की भूमिका, विज्ञान और धर्म, इतिहास और सेकुलर, मनुष्य की नैतिक प्रकृति की तरह के बौद्धिक विषयों को भी अपने विचार का विषय बनाया था. इस पूरे उपक्रम में चैडविक ने डरखाईम (Durkheim) की तरह के लोगों की सोच की उस पूरी प्रणाली का प्रत्युत्तर दिया था जोधर्म को एक सामाजिक परिघटनामानने के बजाय, ‘समाज को एक धार्मिक परिघटनाके रूप में देखते हैं. जो लोग भी सामाजिक प्रक्रिया के अध्ययन के विषय के तौर पर समाज में धर्म के स्थान को अपनाते हैं, उनके विपरीत चैडविक धर्म-निरपेक्षीकरण(Secularisation)  की प्रक्रिया से आधुनिक समाज के अध्ययन की बात पर बल दिया था. यह कहना कि धार्मिक आस्था पहले भी थी, और आज भी है समाज को स्थिर रूप में देखने का दृष्टिकोण है.

चैडविक ने उदाहरण दे कर कहा था कि एक जमाने में लोग भूत-प्रेत, डायन-डाइनी पर जितने व्यापक पैमाने पर विश्वास करते थे, आज वे सारे भूत-प्रेत निशक्त हो गए हैं. आदमी नैसर्गिक तौर पर आस्थावादी है की तरह की बातों का ऐतिहासिक अध्ययन में कोई मायने नहीं होता. चैडविक के शब्दों में, ‘इतिहास ईश्वर का ज्ञान नहीं होता, आंशिक तौर पर यह ईश्वर के ज्ञान का ज्ञान होता है.जो लोग मनुष्य के धार्मिक अनुभवों की प्रकृति के अध्ययन में लगे होते हैं, उनके लिये इस सच को मानना कठिन होता है कि लोगों की ईश्वर पर आस्था डोल रही है. उल्टा ऐसा करने वालों को वे कहते हैं कि आप जिस धर्मनिरपेक्षीकरण की बात कर रहे हैं, वह आपके दिमाग का फितूर है, क्योंकि आप ऐसा चाहते हैं. लेकिन यह सच नहीं है; अर्थात धर्मनिरपेक्षीकरण एक कोरा प्रचार है. इसकी बात न करना ही बेहतर है.

चैडविक के शब्दों में, ‘They say that secularisation only exists in the minds of those who wish it to occur ; in short that it is merely a word of propaganda ; and that we shall therefore do better not to use it. Their excuse lies in the perception that a goodly number of those who write about secularisation write out of dogma and not out of open minded enquiry.” 

ऐसे लोग धर्मनिरपेक्षीकरण की तरह के शब्द को शब्दकोश से ही निकाल बाहर करने की बात करते हैं. वे अंतत: धर्मनिरपेक्षता की बात को ही एक भूल साबित करना चाहते हैं. चैडविक ने ऐसी दृष्टि की तुलना उस मूलभूत धार्मिक दृष्टि से की है, जो आदमी के स्वर्ग से गिरने के बाद उसके पतन और पतन के सिवाय और कुछ नहीं देखती है.

लेकिन इतिहास के बारे में इस नजरिये का मूल दोष यही है, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है कि यह कुछ स्वयंसिद्ध बातों के चौखटे में ऐतिहासिक प्रक्रिया को जड़ने की कोशिश होती है. मसलन्, धर्म था, धर्म है और धर्म रहेगा. इसके अलावा बाकी सारी बाते फिजूल हैं. ऐसे लोगों के लिये धार्मिक विश्वासों के रूप में आने वाले परिवर्तनों का कोई मायने नहीं होता. उनके लिये इस सवाल का भी कोई अर्थ नहीं होता कि आज कितने लोग है जो भूत-प्रेत या पुराणों में वर्णित नरक के खौलते तेल में तल देने या परियों जैसी सुंदरियों, देवी-देवताओं से भरे स्वर्ग जैसी बातों पर पूरा यकीन करते हैं ?

वसुधा डालमियाकी किताब की चर्चा करते हुए चैडविक की बातों का जिक्र सिर्फ इसीलिये किया गया है कि डालमियाने जिस प्रकार हिंदू धर्म के एक स्वयंसिद्ध ढांचे में बनारस, भारतेंदु और हिंदी भाषा को रखने की कोशिश की है, उससे इसके सिवाय दूसरे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है कि आज के भारत और 19वीं सदी के भारत में, यहां के लोगों के सामाजिक व्यवहार में कोई फर्क ही नहीं आया है. वाराणसी की तरह के हिंदुओं के एक धार्मिक शहर में हरिश्चंद्र की तरह के एक धर्म-भीरू साहित्यकार का जन्म होता है और उसके जरिये धर्म का ही राष्ट्रीयकरण हो जाता है. मसलन्, धर्म-विश्वासी राममोहन राय के जरिये धर्म का राष्ट्रीयकरण भर हुआ क्योंकि बांग्ला नवजागरण ने बंगाल से धर्म का नाश तो नहीं किया. वह इसके पहले भी था, नवजागरण में भी था और आज तक है और शायद हमेशा रहेगा ! आधुनिकता के प्रकल्प की सारी विफलताओं के बावजूद ऐसीथा, है, रहेगाकी तरह की बातें न सिर्फ इतिहास-विरोधी है, बल्कि इतिहास को एक सामाजिक-आर्थिक परिघटना के रूप में अध्ययन का विषय बनाने के मूलभूत वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विरुद्ध है. वसुधा डालमिया की किताब इससे पूरी तरह से ग्रसित है और इस प्रकार के स्वयंसिद्ध आधारों पर इतिहास के अध्ययन के जो भी दुष्परिणाम हो सकते हैं, उन सबको इस ऊबाऊ किताब में अच्छी तरह से देखा जा सकता है.

दरअसल, इतिहास को एक सामाजिक-आर्थिक परिघटना के रूप में न देखने का यह यह दोष सिर्फ सबाल्टर्नवादियों का नहीं, सांस्कृतिक मार्क्सवाद के तमाम रूपों का है. वे हर सामाजिक व्यवहार को संस्कृति संबंधी कुछ स्वयंसिद्ध बातों के आधार पर देखने की कोशिश करते हैं. जबकि मार्क्सवाद इतिहास के अध्ययन के केंद्र में मनुष्यों के बदलते हुए सामाजिक-आर्थिक संबंधों को रखता है. इसका एक बड़ा उदाहरण हम आज आम तौर वैश्वीकरण और सांप्रदायिकता संबंधों पर की जाने वाली चर्चा में देख सकते हैं.

जब कोई वैश्वीकरण और सांप्रदायिकता को अनिवार्य तौर पर परस्पराश्रित मानता है, तब वह वैश्वीकरण को एक आर्थिक-सामाजिक परिघटना के तौर पर देखने के बजाय उसे महज एक सांस्कृतिक परिघटना या सांस्कृतिक समस्या के रूप में देखने का दोषी होता है. वैश्वीकरण के नाना सांस्कृतिक परिणामों को भी वह एक ही निश्चित आत्मगत चौखटे में जड़ कर पेश करता है. वैश्वीकरण की तरह की एक ऐतिहासिक पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक परिघटना को नितांत संकीर्ण दृष्टि से साम्प्रदायिकता की तरह की एक समस्या में सीमित करके देखना या इस प्रकार का कोई भी निष्कर्ष निकालना कि भारत में सांप्रदायिकता हमेशा से थी, आज भी है और आगे भी रहेगी, एक पूरी तरह से इतिहास-विरोधी नजरिया है. इतिहास संबंधी सोच के इस दोष को यदि आपको सबसे प्रकट रूप में देखना-समझना हो तो आप उसे एजाज अहमदकी किताबOn communalism and Globalisation’ से देख सकते हैं. वह वसुधा डालमिया की तरह ही एक ऐसा आख्यान रचते हैं जिसमें भारत में नाना रूपों में हिंदू सांप्रदायिकता का बोलबाला रहा है, वही आज भी जारी है और वे कहते हैं कि वैश्वीकरण की इस दौर में आगे भी इसी प्रकार जारी रहेगा.  

गहराई से देखने पर यह समझने में शायद ही किसी से चूक होगी कि ऐसा सांस्कृतिक मार्क्सवाद सैमुअल हंटिंगटनके सभ्यताओं के बीच संघर्ष के सिद्धांत का ही एकमाक्‍​र्सवादीप्रतिरूप है. मजे की बात यह है कि इसका इतिहास की सबाल्टर्न दृष्टि के साथ स्पष्ट मेल दिखाई देता है. 

हेगेलने दुनिया के इतिहास को स्वतंत्रता के विचार का विकास कहा और मार्क्स ने उसे वर्ग संघर्ष का विकास बताया. हेगेल के विचार को, जो सर के बल खड़ा था, मार्क्स ने उलट कर पैरों के बल खड़ा किया.

यथार्थ और विचारों की द्वन्द्वात्मकता की सच्चाई में अक्सर'पहले कौन'का सवाल असमाधेय सा लगने लगता है. इसीलिये विचारों की शक्ति से कभी कोई इंकार नहीं कर सकता. फिर भी, इतिहास में यह सचाई बार-बार ज़ाहिर होती रही है कि विचार जीवन के व्यक्त हो चुके यथार्थ के पीछे-पीछे घिसटते हैं और कल्पना के पर लगा कर उसी के गगन में ऊँची उड़ाने भरते हैं. मगर भ्रम ऐसा पैदा होता है मानो वे अपने किसी पूर्ण रूप से स्वाधीन और संप्रभु संसार में विचर रहे हैं. इसीलिये, 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद'मार्क्सवाद को हेगेलवाद में रूपांतरित करने का उपक्रम है. यह भाववाद है. मार्क्सवाद का विलोम है.
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अरुण माहेश्वरी (जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचकसामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार  

प्रकाशित पुस्तकें (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3)नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्मसंस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .

 संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेककोलकाता - 700064 


परिप्रेक्ष्य : चित्त जेथा भयशून्य

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विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना चित्त जेथा भयशून्यका प्रकाशन जून-जुलाई १९०१ के आस-पास माना जाता है. यह बांगला में प्रकाशित गीतांजलि में शामिल है पर अंग्रेजी के उस गीतांजलि में नहीं शामिल है जिसे 1913 के  साहित्य के  नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और जिसकी भूमिका डब्ल्यू. बी. यीट्स (W. B. Yeats)ने लिखी थी.

115 साल पूर्व  लिखी इस कविता का अर्थ अभी भी शेष है. हिंदी में इसके दो अनुवाद मुझे देखने को मिले. एक शिवमंगल सिंह सुमनका बताया जाता है दूसरा अनुवाद भवानी प्रसाद मिश्र का है  जो साहित्य अकादेमी से १९६७ में प्रकाशित रविन्द्रनाथ की कविताएँमें शामिल है जिसकी भूमिका हुमायूँ कबीरने लिखी है. इस संकलन में टैगोर की कुछ कविताओं के अनुवाद हजारीप्रसाद द्विवेदीऔररामधारी सिंह दिनकरने भी किये हैं.  रवीन्द्रनाथ टैगोर के १५० वीं जयंती पर मशहूर शिक्षाविद् और वक्ता स्टीवन रूडोल्फने  Where The Mind Is Without Fearकी एक संगीत संरचनाप्रस्तुत की थी.

आजादी के ७ वें दशक में इस कविता को पढ़ते हुए उन मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा होता है जो भारत की आज़ादी की निर्मिति में शामिल थें. इन मूल्यों को समझना और सहेजना सच्ची देशभक्ति होगी. हिंदी में अभी भी इस कविता के बेहतर अनुवाद की आवश्यकता बनी हुई है. 

स्वाधीनता दिवस की समालोचन की यह बधाई स्वीकार करें.
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पुनश्च :  लेखक मंगलमूर्ति जी ने  इस कविता  का बहुत पहले अनुवाद  किया था. वह  अनुवाद भी दिया जा रहा है. साथ ही उनके सौजन्य से इस कविता की चित्र-कृति भी जो खुद रवीन्द्र द्वारा रेखांकित है. बांगला से इस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद स्वंय रवीन्द्रनाथ  टैगोर ने किया था.

चित्त जेथा भयशून्य                                  



চিত্তযেথাভয়শূন্যউচ্চযেথাশির,
জ্ঞানযেথামুক্ত, যেথাগৃহেরপ্রাচীর
আপনপ্রাংগণতলেদিবস-শর্বরী
বসুধারেরাখেনাইখণডক্ষুদ্রকরি,

যেথাবাক্যহৃদযেরউতসমুখহতে
উচ্ছসিয়যাউঠে, যেথানির্বারিতস্রোতে,
দেশেদেশেদিশেদিশেকর্মধারাধায়
অজস্রসহস্রবিধচরিতার্থতায়,

যেথাতুচ্ছআচারেরমরু-বালু-রাশি
বিচারেরস্রোতঃপথফেলেনাইগ্রাসি -
পৌরুষেরেকরেনিশতধা, নিত্যযেথা
তুমিসর্বকর্ম-চিংতা-আনংদেরনেতা,

নিজহস্তেনির্দয়আঘাতকরিপিতঃ,

ভারতেরেসেইস্বর্গেকরোজাগরিত||



चित्त जेथा भयशून्य

चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।


जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।


जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-
पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।



निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥
_______




Where The Mind Is Without Fear


Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.






जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 

जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें

जहां ज्ञान मुक्‍त हो 

जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर 

छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों 



जहां हर वाक्‍य ह्रदय की गहराई से निकलता हो

जहां हर दिशा में कर्म के अजस्‍त्र नदी के स्रोत फूटते हों

और निरंतर अबाधित बहते हों 

जहां विचारों की सरिता 

तुच्‍छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो

जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो 
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियाँ तुम्‍हारे अनुगत हों

हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्‍वातंत्र्य स्‍वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ.

(
शिवमंगल सिंह "सुमन")
______________________




ll प्रार्थना ll 
_____________


चित्त जहाँ शून्य, शीश जहाँ उच्च है
ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह –प्राचीरों ने
वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में
छोटे-छोटे टुकडें बनाकर बंदी नहीं किया है

जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता
जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्र विधि चरितार्थता में
देश-देश और दिशा दिशा में प्रवाहित होता है

जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल
विचार के स्रोत पथ को सोखकर
पौरुष को विकर्ण नहीं करता
सर्व कर्म चिंता और आनन्दों के नेता
जहाँ तुम विराज रहे हो

हे पिता, अपने हाथ से निर्दय आघात करके
भारत को उसी स्वर्ग में जागृत करो
(भवानी प्रसाद मिश्र)
_______________________________

ओ मेरे पिता !
भयहीन मन हो जहाँ,
ओर जहाँ सर ऊंचा रहे सदा;

ज्ञान हो मुक्त जहाँ;
ओर संकीर्ण अपनी-अपनी दीवारों से
टुकड़ों में बंटी नहीं हो दुनिया जहाँ;

जहाँ शब्द आते हों सत्य के अंतस्तल से;
अश्रांत आकांक्षा जहाँ बाहें फैलाती हैं पूर्णता की ओर;

जहाँ मरे-मिटे रिवाजों के अंतहीन मरुस्थल में
सूख न चुकी हो मनीषा की निर्मल धारा;

जहाँ ले चलते तुम मन को
निरंतर-विस्तारित कर्म ओर विचारों की ओर;
स्वाधीनता के उसी स्वर्ग में
ओ मेरे पिता
जागरित हो मेरा भारत देश !
_________
मंगलमूर्ति)
















रहमान  के  साथ 

सबद भेद : साहित्य के वधस्थल से : कर्ण सिंह चौहान

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पेंटिग :  A perfect murder: Kim Sobat














शिवदान सिंह चौहान प्रगतिशील साहित्य के संस्थापक सदस्य थे. नामवर सिंह ने उनकी जमीन पर अपने प्रभाव का विस्तार किया. कैसे शिवदान सिंह की बेकदरी हुई, कैसे वह धीरे-धीरे परिदृश्य से बाहर हो गए और फिर विस्मृति के शिकार ?

यह कहानी जितनी शिवदान सिंह के पतनकी है उससे अधिक अवसरवाद के उत्थान की है. कर्ण सिंह चौहान का आलेख.



साहित्य के वधस्थल से                              

कर्ण सिंह चौहान


(हिंदी साहित्य में जनवादी वर्चस्व के चालीस सालों में सैकड़ों साहित्यिक पत्रिकाएं निकलीं जिनमें हजारों-हजार नए लेखक सामने आए. लेकिन हमारे देखते-देखते इतिहास ने जो कत्लेआम किया यह दुनिया के साहित्य के इतिहास में अभूतपूर्व त्रासदी है. हजारों की संख्या में बंटे इनाम, लिखे आलेख और महत्व उन्हें इस त्रासदी से बचा नहीं पाए. जो दस-बीस बचे हैं, उनके बारे में भी कुछ कहना मुश्किल है. उससे भी अधिक दुख की बात यह है कि इससे बिना सबक  लिए अभी भी बड़ी संख्या में एक जुनून के मारे लोग इतिहास के बूचड़खाने की लाइन की कतार लंबी करते जा रहे हैं. शिवदान सिंह पर लिखी यह संस्मरणात्मक सी टिप्पणी इन्ही बलिदानों पर श्रद्धांजलि स्वरूप है.

प्रारंभिक रचनाओं से ही जाहिर था कि अधिकांश नए लेखक प्रतिभाशाली थे लेकिन प्रतिबद्धताओं जनवादी, लोकवादी, कलावादी, विखंडनवादी और भी कई कई - की आधी-अधूरी समझ के चलते उन्होंने लिखे से ज्यादा अनलिखे की भ्रूण हत्या की, विचारों के आधार पर रचना में कतर-ब्योंत की और एक इकहरे सपाट को कत्लेआम के लिए निहत्था छोड़ा.

जनवाद के नाम पर फिलहाल तक यशस्वी हुए अनेक कवियों ने भी नए लोगों को बरबाद करने में अहम  भूमिक निभाई. मसलन  वे खुद तो जान रहे थे कि व्यक्तित्व, व्यवहार, विचार, रचना में बड़े अंतराल होते हैं व्यक्तित्व कवियाया हुआ, विचार क्रांतिकारी, व्यवहार कुशल और रचना हिंदी कविता परंपरा के अपने राग में पली. पर नया लेखक इन सबको विचार में रिड्‍यूसकर चला और अपना बंटाढार कर बैठा. वह इन अंतरालों को न समझ पाया, न साध पाया.

अभी कुछ दिन पहले एक नामवरआलोचक को लेकर साहित्य में चख-चख मची थी कि उसने वर्तमान सत्ता का निमंत्रण स्वीकार कर अपना जीवन भर का सम्मान गँवा दिया है. ऐसे लोग अपने भोलेपन में यह नहीं समझ पाते कि नामवर होना किसी सिद्धांत, विचारवाद, संगठन या जन से प्रतिबद्धता पर टिका नहीं है, होता तो आज से पचास बरस पहले उसी दिन समाप्त हो गया होता जब रामविलास से लगाकर नेमिचंद जैन और तमाम जनवादियों ने उनके विचलन और भटकावों पर हमले किए थे. सब जानते हैं कि उसके बावजूद हर विरोधी अपनी गोष्ठी, विमोचन, समारोह आदि की अध्यक्षता के लिए, भूमिका के लिए, कृपादृष्टि के लिए उनके दरबार में सजदा करता रहा और उन्हें शीर्ष आलोचक मानता रहा.

उसी समय शिवदान सिंह जैसे समीक्षक भी जीवित थे जो विचार, विचारधारा, पार्टी, साहित्य संगठन, जनता सभी कुछ से प्रतिबद्ध थे और लेखन में भी सक्रिय थे. उनका नोटिस उनके अपने तक नहीं ले रहे थे. शिवदान तो बड़े आलोचक थे, लेकिन इतिहास के कत्लेआम में जो हजारों मारे गए, ऐसे अनंत उदाहरणों को देकर मन क्या खराब करना.

इसलिए जिन चीजों को हमारे अधिकांश साहित्यधर्मी प्रासंगिकता की शर्त मानकर चल रहे हैं, उसके बहुत कारुणिक परिणाम निकले हैं और निकलने वाले हैं.

यह संस्मरणात्मक लेख इन्हीं त्रासदियों की पृष्टभूमि में  शिवदान सिंह चौहान की त्रासदी पर है जिसे कई ड्राफ्ट में लिखा गया जो अन्य संदर्भ में यहाँ-वहाँ छपे. जिसमें ऐसे ही कितने बिंदुओं को, उफनती उत्तेजना को दबा कूलस्वर में छू भर कर छोड़ दिया गया है. संदर्भ उनका है लेकिन समस्या आम है)
शिवदान सिंह चौहान



(एक)

शीर्ष की ये पंक्तियां बाबा नागार्जुन की हैं और बीसवीं सदी के बीच लिखी गई कविता से हैं. उन्नीसवीं सदी में अमेरिका के महान कवि वाल्ट व्हिटमैनने भी ऐसी ही कुछ बात कही थी जो उनकी "उनके लिए जो विफल रहे"कविता में है :

"जो अपनी आकांक्षाओं में विफल रहे, उनके लिए
अग्रिम पंक्तियों में खेत रहे जो अज्ञातनाम सैनिक, उनके लिए
शांत समर्पित अभियंता - साहसी यात्री, उनके लिए
उपेक्षा में रहे जिनके सुंदर गीत और भव्य चित्र, उनके लिए
मैं एक विजय स्मारक बनाऊंगा
सबसे ऊंचा, किसी विचित्र अग्निशिखा से चमकता
असमय जो बुझ गई. "(चंद्रबली सिंह के अनुवाद से )

कितना साम्य है इन दो महान कवियों की भावाभिव्यक्तियों में. वाल्ट व्हिटमैन के लिए तो बाबा से लेना संभव ही नहीं था क्योंकि वे तो उनके जन्म के भी पहले यह रच चुके थे. बाबा जैसे कवि के लिए भी यह कोई नहीं मान सकता कि उन्होंने इस कविता को पढ़कर अपना मन बनाया होगा.

तो मानना होगा कि यह एक ऐसा स्थाई भाव है जो देश और काल की सीमाओं के पार कवियों को मथता रहा है. यही वह जमीन रही है जिससे आधुनिक काल के साहित्येतिहास में रवीन्द्रनाथ टैगोर और अन्य ने उपेक्षितों का सवाल उठाया और बहुतों ने फिर यशोधरा, उर्मिला, कर्ण, मेघनाथ आदि कितने ही ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों को उठाया, घीसू-माधव को रचना के केंद्रीय चरित्र बनाया. यही मूलभूत संवेदना और विकसित होकर वर्तमान में समाज के उपेक्षितों के पक्ष में कवि-संवेदना को ले जाती है. यही भाव कविता के- "जलते हुए गांवों के बीच से गुजरने"और "जली हुई औरत के पास सबसे पहले"पहुंचने, या "जिनके स्वभाव के गंगाजल ने युगों-युगों को तारा है/ जिनके कारण यह भारतवर्ष हमारा है" जैसी कहन पर आधारित साहित्य का एक नया सौंदर्यशास्त्र रचने का प्रेरक रहा है.

यानी कि देश और काल के तात्कालिक तकाजों और निर्णयों से परे इतिहास और मानव संवेदना का एक ऐसा रहस्यमय संसार अभी तक रहा आया है जिसे किसी सत्ता, शक्ति, वैभव, प्रसिद्धि, विजय हुंकारों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता था. यह संवेदना जमीन के अंदर के उस कंपन को सुन सकती थी जो उन धड़कनों से होता है जो किसी भी देश या काल में अनजाने-अनपहचाने ही दफ्न हो गईं. धरती वंध्या नहीं है, न कंकर-पत्थरों का मलबा कोई सर्जना कर सकता है. उसके अंदर पड़े रचना के अंकुर हजारों साल बाद भी धरती की कोख से फूट निकलते हैं.

इसीलिए वाल्ट व्हिटमैनउनको पहचानते हैं और इसीलिए बाबा नागार्जुन केवल उन्हें ही नमन करते  हैं.

शिवदान सिंह चौहान अभी हाल ही में हमारे बीच से गए हैं. बहुत अरसा नहीं हुआ. कि लोगों ने अनुभव करना और कहना शुरू कर दिया है कि इस हिंदी भाषा ने अपनी एक ऐसी प्रखर आलोचनात्मक प्रतिभा की नितांत उपेक्षा की. इस अपराधबोध से उसे कोई मुक्त नहीं कर सकता.

मामला केवल उपेक्षा तक ही सीमित नहीं रहता. उपेक्षा, अकेलेपन, सायास षड़यंत्रों को झेलना और फिर भी लिखते रहना सबके लिए संभव नहीं होता. चौहान तो फिर भी सुना कि अंत तक कुछ न कुछ लिखते रहे. लेकिन जो लिखना सोच कर भी नहीं लिख पाए, वह क्षतिपूर्ति कहां होगी. उनकी कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के नए संस्करणों की भूमिका में विष्णु शर्मा जी और मधुरेश ने दिखाया है कि किस प्रकार ऐसा महत्वपूर्ण लेखक अपनी अनुपलब्ध पुस्तकों के पुन:प्रकाशन की उम्मीद तक खो बैठा था. यह हमारी लेखक जमात और प्रकाशन जगत की स्थिति में आया एक आमूल बदलाव है, जिसे चौहान साहब तो समझते ही नहीं थे, आज भी अधिकांश लेखक नहीं समझ पा रहे हैं. वे इसे व्यक्तिगत घटना की तरह देखते हैं या किसी प्रकाशक विशेष के आचरण का प्रमाण मानकर.

जबकि मामला इतना सरल नहीं है. इसमें रोज-रोज ऐसी कितनी ही दुखदायी स्थितियां जुड़ रही हैं और मजे की बात यह है कि इसपर किसी को बहुत अफसोस भी नहीं होता. जो किसी तरफ छपा ले जाते हैं वे बेछपों पर फब्तियां कसते हैं . किताबें धड़ल्ले से छपती हैं. किसी विभाग में थोड़ी सी हैसियत में आया अध्यापक लेखक प्रकाशकों का चहेता बन सेंतमेत में दो-चार पुस्तकें छपा जाता है. किसी मौके की सरकारी जगह पर बैठा अफसर अपनी तो अपनी यार-दोस्तों और चहेतों की भी छपा जाता है. साहित्य संगठनों के अफसरों की प्रकाशकों से सांठगांठ जग-जाहिर हैइधर तो बहुत यार-बास साहित्यिकों ने बाकायदा अपने-अपने गुट बना लिए हैं जो पुस्तक-प्रकाशन से लेकर विज्ञापन और पुरस्कारों के तंत्र क को प्रभावित करते हैं. वहां शिवदान सिंह चौहान जैसी आलोचनात्मक प्रतिभा को यह दिन देखना पड़े, उससे शोचनीय दशा किसी भाषा साहित्य की और क्या हो सकती है. लगता है हिंदी का पूरा तंत्र बटमारों की चपेट में है जहां सब अखबारों, प्रसार माध्यमों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशनों में पुराने और नए प्रभुओं का ही बोलबाला है.

आक्रोश में यह और ऐसा ही बहुत कुछ कहा जा सकता है .

सब जानते हैं ऐसा कोई भी आक्रोश अंतत: साहित्यिक सत्तामानों की शक्ति का ही गुणगान करना होगा. चीनी लेखक लू शुनने कहा था कि बाज जब चिड़िया को धर दबोचता है तो चिड़िया ही चिल्ल-पौं मचाती है, बाज खामोश रहता है. बिल्ली जब चूहे को दबोचती है तो चूहा ही चीखता है, बिल्ली एकदम शांत रहती है. बहुत से लेखक जब अपने विरुद्ध हो रही ज्यादतियों का शोर मचाते हैं तो दूसरे सब खामोश रहते हैं. तो समझ लीजिए कि हम चीख रहे हैं और महानुभाव बहुत सौम्य और शांत हैं तो यह कुछ बाज-चिड़िया, बिल्ली-चूहे जैसा मामला ही होगा.

वाल्ट व्हिटमैन हों या नागार्जुन, रवींद्रनाथ टैगोर हों या मुक्तिबोध या आलोक धन्वा, यह कॄति संवेदना जब बाज की जगह चिड़िया की, बिल्ली की जगह चूहे की पुकार सुनती है तो रचना के न्याय की घोषणा करती है. यह न्याय अब तक होता आया है और किन्हीं कारणों से समकालीन स्थितियों में उपेक्षित रह गए लेखकों को इसका बड़ा भरोसा रहा है. अभी न सही लेकिन कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई तो होगा जो हमें पढ़ेगा और सराहेगा.

और ऐसा वाकई हुआ भी है. कितने ही लेखक ऐसे हुए जो अपने पद, प्रभाव, संगठन के चलते जरूरत से ज्यादा मूल्य पा गए. ऐसे भी हुए जो महत्वपूर्ण अवदान के बाद भी स्थितियों की अन्-अनुकूलता के कारण उपेक्षित रह गए. दोनों ही स्थितियों में न्याय हुआ, भले ही मरने के बाद हुआ.

लेकिन आगे-आगे यह चल पाएगा इसमें संदेह है क्योंकि जिन आस्थाओं, विश्वासों, रूढ़ियों, मूल्यों, सिद्धांतों के कारण यह संभव होता था उन सबकी नींव हिल रही है. किसी के पास कल हुए तक को देखने की फुरसत नहीं है, बीते इतिहास में जाने की कौन कहे. और फिर आप जो करते हैं या नहीं करते उसके लिए जिम्मेवार आप स्वयं हैं. आपका क्या बनता है और क्या नहीं बनता, इसके जिम्मेवार भी आप ही हैं, कोई दूसरा नहीं. यह तो हो नहीं सकता कि एक तरफ तो आप सिद्धांतों के लिए बलिदानों की बात करें और दूसरी तरफ जब थोड़ा कुछ बलि होने लगे तो आप चिल्लाएं कि उपेक्षा हो रही है. एक तरफ तो आप सत्ता या व्यवस्था के खिलाफ मुहिम चलाएं, लेकिन जब सत्ता या व्यवस्था भी आपकी अनदेखी करे तो चिल्लाएं कि देखो अनदेखी की जा रही है. आप नए बनते परिवेश और परिस्थितियों से आंख बंद कर पुराने खटराग में ही मगन रहें, लेकिन जब यह नया आपको छेककर चला जाए तो आप चिल्लाएं कि देखो-देखो छेका जा रहा है.

कथनी और करनी का, सिद्धांत और व्यवहार का, आस्था और आचरण का ऐसा दोगलापन बहुत दिनों तक चला और काफी हद तक आज भी चल रहा है. लेकिन इधर यह भेद मिट रहा है. 

यानी कहने को तो हम कहते रहे कि "नीड"और "ग्रीड"में पहली ही उत्तम है लेकिन चलते दूसरी पर रहे. आज का युवा इस दोगलेपन से मुक्त हो लालच को जीवन के लिए जरूरी मानकर उसपर चलता है. पूरा समाज पैसे को कोसे और उसी के लिए सारी मारकाट करे, यह बेईमानी इधर के लोग समझने लगे हैं और कहते हैं कि अच्छे जीवन के लिए पैसा कमाना कोई बुरी बात नहीं है . यह भी कि आपके जीवन का स्तर, संभ्रांतता, स्वतंत्रता, सदाशयता, मानवीयता सब आपकी जेब के पैसों के अनुपात में हो गई है.

तो ऐसा नया वातावरण बन रहा है. उसमें अगर आप छेंके जा रहे हैं तो उसका चुनाव आपने किया है, जिम्मेदारी भी आपकी है. आप क्रांति करने निकले हैं तो क्रांति का विरोधी यह पूंजी का समाज आपको हिकारत से देखेगा ही. फिर शिकायत किस बात की और किससे है ? पूंजीवादी तंत्र या उसके नुस्खों पर अमल करते समाज से कि देखो क्रांतिकारियों को हलवा-पूरी नहीं खिला रहा ! या पूंजी पर टिके समाज में अपने लिए सुअवसर बनाते अपने साहित्यिक हमसफरों से कि तुम भी हमारी तरह क्यों नहीं रह जाते ? अरे बाबा जब इस सत्ता और समाज को मिटाने ही चले हो तो या तो इसे मिटा कर खुद आ जाओ सत्ता में या फिर यह तुम्हें मिटा देंगे. तो फिर रोते काहे हो भैय्या ?
यह प्रतिक्रिया होगी किसी की भी इस उपेक्षा के रुदन के बारे में.

लेकिन यह तो गनीमत है कि हमारी भाषा में और उस भाषा के समाज में बदलते हुए भी काफी कुछ पुराना चल रहा है और बदलते-बदलते भी कुछ समय तो लगेगा ही. इसलिए आज भी इस तरह की चर्चाएं हो जाती हैं और काफी लोग समवेदना में जुट जाते हैं. इसलिए यहां अभी पुनर्मूल्यांकन वगैरह की बातें कुछ दिन तो चलेंगी ही. उपेक्षितों के न्याय की बातें भी होंगी और उसमें लानत-मलामत, आवेश की बातें भी होंगी. इन उपेक्षितों के प्रति प्रणाम का जज्बा भी दिखेगा.


नामवर सिंह


(दो)

तो जब चौहान साहब को करीब से जानने वालों ने या उनकी प्रतिभा को पहचानने वालों ने उनकी उपेक्षा का सवाल उठाया तो बहुतों को लगा कि यह सच है. वैसे भी साहित्य की अपनी दुनिया आज इतनी सीमित सी और हाशिए की हो गई है कि अपने किसी बिसरे को स्थापित करने का काम सार्थक लगता है.

ऐसा नहीं है कि अपने समकालीनों में केवल शिवदान जी ही इस उपेक्षा का शिकार हुए हों. और भी कई हुए होंगे जो हमेशा के लिए खो गए. और भी कई हो सकते थे लेकिन साहित्येतर कारणों ने उन्हें एक हद तक बचा लिया. और वह समय भी आने वाला है जब सब हाशिए पर ही पड़े नजर आएंगे. वैसे भी सत्साहित्य के पाठक और प्रशंसक तो पहले भी बहुत नहीं रहे. इधर तो अच्छे-अच्छों की बेकद्री हो रही है. हिंदी के सबसे पापुलर लेखक प्रेमचंद को लेकर ही रोज कोई न कोई बवाल मचा रहता है. कभी कहते हैं कि उनके जन्मस्थान की बेकद्री हो रही है. कभी कहते हैं कि उनकी फलां किताब हटा दी. और अब तो कुछ दलित भी पीछे पड़ गए हैं.

इसलिए बेकदरी से तो कोई परे नहीं है. चौहान कोई मामूली लेखक तो थे नहीं. समकालीन दुनिया के सबसे प्रचलित मार्क्सवादी सिद्धांत से जुड़े थे. कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. साहित्यिक संगठनों से जुड़े थे. जनता से जुड़े थे. 'प्रभा', 'हंस', 'आलोचना'जैसी मशहूर पत्रिकाओं के संपादक रहे थे. गहन साहित्य समीक्षा की चौदह किताबें लिखी थीं. दुनिया की अन्य भाषाओं में मशहूर तैंतीस किताबों का हिंदी में अनुवाद किया था. आठ किताबों का संपादन किया था. यह कोई छोटा-मोटा काम तो नहीं.

इतने विराट कर्म और इतने विशाल साहित्य भंडार के होते हुए इनके साथ ऐसा हुआ, अफसोस तो होगा ही.

यह अफसोस तब और बढ़ेगा जब हम देखेंगे कि एक कल की छोकरी अरुंधती राय एक उपन्यास लिख रातों-रात छा गई दुनिया के साहित्यिक आसमान में. केरल संदर्भ के कारण शुरू में कुछ कामरेडों ने विरोध भी किया, लेकिन जब हर सत्ता-विरोध के जुलूस में वह शीर्ष पर चलने लगी तो सबने चुपचाप लोहा मान लिया. एक ने लिख मारा एक निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई लड़की के चांद को चाहने और उस पर पहुंच जाने की कहानी और बन गया सीरियल और छप गए फटाफट दस संस्करण. सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का मामला तूल पकड़ा तो एक ने लिख दिया 'कितने पाकिस्तान'और छप गए धड़ाधड़ संस्करण और मिल गया पुरस्कार.

तो ऐसे होता है साहित्य में आजकल. जो होना होता है वह फटाफट हो जाता है. यह और बात है कि उस होने में लेखक को बाजार को समझना होता है, प्रकाशक को आक्रामक प्रचार करना होता है, बहुत सारे अन्य प्रचार-माध्यमों को साधना होता है. यानी उसके होने में पर्दे के पीछे एक लंबी प्रक्रिया चलती है . लेकिन आप हैं कि लिए बैठे हैं लेखन कर्म की एक लंबी-चौड़ी फेहरिश्त . किसके पास उस फेहरिश्त को पढ़ने की फुरसत है. हिंदी का हर तीसरा मास्टर तीन बोरी किताबें लिखे होताहै. तो अब क्या उसे ही देखते रहें.

इसलिए यह विराट और विशाल रचनाकर्म से प्रभावित या आतंकित होने का समय नहीं है.

यानी आमतौर पर यह सत्साहित्य की बेकदरी का समय है. चौहान जी की हुई यह यहां चर्चा में है. उनके आसपास के कई की हुई या हो सकती थी. सैकड़ों खेत रहे लोगों का जिक्र तो यहां संभव नहीं उनके परिकर के लोगों में से लें उनमें से ही एक चंद्रबली सिंह हो सकते थे और रामविलास शर्मा हो सकते थे. कहने सुनने में यह चाहे जैसा लगे लेकिन यह एक तथ्य है कि जनवादी लेखक संघ के निर्माण और उसमें चंद्रबली सिंह के 'रिकाल'ने उन्हें विस्मॄति के गर्भ से उठाकर कुछ हद तक समकालीन चर्चाओं में ला दिया. रामविलास शर्मा के साथ यह हो गया होता लेकिन कोई जीवट रही होगी कि उन्होंने साहित्य के इर्दगिर्द के उन तमाम ज्ञानक्षेत्रों में इतना काम कर डाला कि साहित्य में ही सीमित महानुभावों की उनसे जिरह करने की हिम्मत नहीं हुई. वे अपने में एक मठ बन गए और वहां बहुत से श्रद्धालु जुटने लगे. इस तरह ये बचे. लेकिन सुरेंद्र चौधरी या विमल वर्मा जैसे सैकड़ों लोग शुरू में ही ऐसे दबे कि फिर उबर नहीं पाए. और भी कई.

लेकिन शिवदान जी के साथ यह हादसा क्योंकर हुआ. देश की राजनीति के संबंध में अपने समकालीनों में शायद वे सबसे सही और सजग थे. राजनीतिक सकर्मकता में भी वे पार्टी के साथ घनिष्ठ रूप में जुड़े रहे. साहित्य के सैद्धांतिक विश्लेषण में या व्यावहारिक मूल्यांकन में उनके जैसी वस्तुनिष्ठता, सातत्य, पैनापन, संवेदनशीलता, वैज्ञानिकता किसी दूसरे में देखने को नहीं मिलती. यानी कि अभी तक जो मूल तत्व किसी लेखक को महत्वपूर्ण बनाने और बनाए रखने के लिए काफी थे, वे सब उनमें थे. फिर भी उनके साथ यह हादसा हुआ.

औरों की बात तो जाने दीजिए, सातवें दशक का समय था जब हम युवा लोग प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े मुद्दों की पड़ताल कर रहे थे और प्रगतिशील और जनवाद की बहसें तेज थीं. रामविलास जी तो 1953 में प्रगतिशील संगठन से क्या अलग हुए कि उन्होंने फिर उस ओर मुंह किया ही नहीं. लेकिन शिवदान जी तो आखीर तक साहित्यिक संगठन के काम से जुड़े रहे . "आलोचना के मान"पुस्तक के नए संस्करण में उनकी दो डायरियां संकलित हैं. "दिल्ली डायरी"दिल्ली में 1956 में हुए एशियाई लेखक सम्मेलन का विस्तॄत ब्यौरा देती है और वैचारिक संघर्ष के मुद्दों को सामने लाती है जिसमें शिवदान जी सक्रिय थे. "ताशकंद डायरी"उसी क्रम में 1958 में हुए अफ्रीकी एशियाई लेखकों के सम्मेलन के बारे में है. दोनों डायरियों में उनकी दॄष्टि का तीखापन और मूल्यांकन का संतुलन देखने की चीज है.

फिर "सभी रंगत के प्रगतिशीलों"का एक सम्मेलन बुलाया गया बांदा में 1973 में. इसमें बड़ी संख्या में नए लेखक भी आए. शिवदान जी यहां भी बहुत सक्रिय थे. यह जमाना प्रगतिशीलों और जनवादियों के बीच सहीपन की लड़ाई का था और दोनों ही अपनी-अपनी लाइन के पक्ष में संगठन को जीतना चाहते थे. इस सम्मेलन में हमने शिवदान जी को सक्रिय रूप में देखा था. वे बहुत ही गंभीरता से सब कुछ करते और करने में पूरी शालीनता बरतते. लेकिन शायद जमाना बदल चुका था और गंभीरता और शालीनता के मूल्य अब ऐसे बेशकीमती नहीं रह गए थे कि नए लेखकों को अपने पक्ष में करा सकें. नए लेखक चाहते थे जोश, आवेश, तीखापन, कुछ घटनात्मकता, कुछ सनसनीखेज. इसलिए पुराने प्रगतिशीलों की पूरी बिरादरी की उपस्थिति के बावजूद हम लोग सम्मेलन को अपनी दिशा में ले जा सके. अहं के टकराने के अपने प्रारंभिक विरोध के बावजूद धूमिल तक इस मिलिटैंसी के खेमे से आन मिले थे क्योंकि यह उनके मन की बात थी.
हमने देखा था चौहान जी को विक्षुब्ध होते, पराजित होते, मौन होते, निराश होते. उनका पूरा व्यक्तित्व जैसे इस नई परिस्थिति में असंगत सा हो गया हो.

फिर पुराने प्रगतिशील आंदोलन के मूल्यांकन की बहसें हुईं. इन बहसों के स्रोत के रूप में लोग शिवदान जी की "साहित्य की समस्याएं"तथा "प्रगतिवाद"नामक दो पुस्तकें, रामविलास जी की "प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं", हंसराज रहबर की "प्रगतिवाद : पुनर्मूल्यांकन", अमॄतराय की "साहित्य में संयुक्त मोर्चा"के साथ-साथ अनेक प्रगतिशील लेखकों द्वारा समय-समय पर की गई टिप्पणियों को लेते थे. और हालांकि इस पुराने इतिहास के प्रति सभी लोग एक वस्तुपरक विश्लेषण की बात करते थे, लेकिन सच्चाई यह थी कि नए लोग सनसनीखेज अतिवादिता को ही अंदर से पसंद करते. शिवदान जी का विवेचन बहुत संतुलित, तथ्यपरक और तर्काधारित होता. इससे उत्तेजना नहीं मिलती थी.

अमॄतराय या भैरवजैसे लेखकों का आक्रोश कुछ शिकायती सा मालूम पड़ता. लेकिन रामविलास जी किसी भी अनुशासन से मुक्त हो जब अपने तीर चलाते तो पढ़ने वाले को मजा आ जाता. इसलिए ज्यादातर नए लेखक उनके कायल होने लगे. फिर जब वे नई मुक्त अवस्था से कम्युनिस्ट पार्टी के कमिस्सारों को ललकारते तो उसमें लेखकों को साहित्य की अस्मिता का स्वाभिमान नजर आता.

इसलिए पुरानी बहसों में भी शिवदान जी का संतुलन लोगों को रास नहीं आया . शिवदान बहुत ठंडे भाव से चीजों को पेश करते. मसलन प्रगतिशील आंदोलन में प्रेमचंद की भूमिका और उनके लेखन के कायल होने के बावजूद यह चौहान ही कह सकते थे कि प्रेमचंद गांधी से बड़े यथार्थवादी नहीं थे. यह एक गहरी वस्तुपरकता और बेबाक विश्लेषणात्मकता थी. लेकिन नए लेखकों को यह पसंद नहीं था. कोई जब प्रेमचंद के हवाले से कहता कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं उसके आगे चलने वाली मशाल है तो साहित्यिकों को मजा आता. गांधीवाद की शवपरीक्षा होती तो रचनाकार को मजा आता. 'कहना न होगा'की पुनरावॄत्तियों में जब न कुछ को भी रसदार बना कहा जाता तो श्रोताओं को मजा आता.

शिवदान जी यह मजा नहीं दे सकते थे. इसीलिए वे तीनों संगठनों में से किसी में महत्व के नहीं रहे. तीनों में से किसी के मंच पर उनका कोई स्थान नहीं रहा. साहित्य के पुराने और नए विवादों में उनकी कहन कोई सनसनी पैदा न कर पाने की वजह से अप्रासंगिक हो गई. उन्होंने अपने अन्य कई समकालीनों से कोई सबक नहीं लिया. लिया होता तो जान जाते कि कैसे संगठन मात्र का विरोध करने पर भी उनके ये समकालीन तीनों संगठनों में पुजते थे. कैसे सब जगह से उन्हें न्यौता मिलता था. सबमें उनके अपने भक्त थे.


(तीन)

शिवदान बहुत सिद्धांतवादी होकर रहे और नई विकसित विद्याओं से अनजान रहे.

क्या थीं ये नई विद्याएं ? इन्हें बदलते इतिहास ने, बदलते परिवेश ने विकसित किया था. कुछ लोग कहना चाहेंगे कि इन्हें आधुनिकता के बाद विकसित उत्तर-आधुनिकता में बदलते भूमंडल ने विकसित किया था. ये विद्याएं थीं जो किसी भी तरह के इतिहास के अंत की घोषणाएं कर रही थीं, किसी भी तरह के सिद्धांत के अंत की घोषणाएं कर रही थीं, किसी भी तरह के महिमामंडन या महागाथाओं के अंत की घोषणाएं कर रही थीं. सॄष्टि के पीछे कोई सुसंगत तर्क नहीं है जिसे किसी तथाकथित वैज्ञानिकता से समझा समझाया जा सके. कोई ऐसा विचार या विचारधारा नहीं हो सकती जिससे हर चीज का विश्लेषण किया जा सके. केंद्रीभूत, सिलसिलेवार, श्रंखलाबद्ध कुछ नहीं है. खंड-खंड वास्तविकताएं हैं और अपनी आकांक्षाओं को फलीभूत करते जन, गुट या समूह हैं जो भूमंडल के इस चक्र को चला रहे हैं.

बहुत से लोगों को आज बहुत सी बातों पर आश्चर्य होता है. कुछ चीजें उनकी समझ से परे हो गई हैं. मसलन हिंदी में ही शीर्ष पर ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनकी टिप्पणियां अक्सर लेखकों में हास्य-व्यंग्य का विषय बनी रहती हैं. लेकिन फिर भी हर संगठन, हर लेखक अपने सभा-सम्मेलन-विमोचन-विश्लेषण में उन्हें विभूषित कर कॄतकॄत्य होता है. यह कौन सा रहस्यवाद है. कोई खास रहस्यवाद भी नहीं. असल में हमसे जो चीज उनके अजीबोगरीब की आलोचना कराती है वह हममें कहीं सटी चलती आधुनिकता की मूल्यधर्मिता है. यह एक मरती हुई आदत है बस जिसकी स्मॄति दूसरों के संदर्भ में होती है. सब जानते हैं कि हर आदमी जीवन में, व्यवहार में, आचरण में उसे कबका त्याग चुका है. उनके लिए यह अजीबोगरीब ही वास्तविकता है. इसलिए व्यवहार में सब इसके पुरोधाओं को ही प्रणम्य मानते हैं.

इसलिए यह अजीबोगरीबपन, सर्व-निषेध और सतत संशय की आकर्षक मुद्राएं अब रचनात्मकता की पूर्व शर्त सी हो गई हैं.

शिवदान सिंह इसमें पिछड़ गए थे. वे एक पुरानी सैद्धांतिक अड़ पर कायम थे और यह अड़ बदलती दुनिया में लगातार अप्रासंगिक होती जा रही थी. इस अड़ से जन्मी समाजवादी व्यवस्थाएं टूट रही थीं, इस अड़ से साहित्य रचना करने वाले या साहित्य के सिद्धांत बनाने वाले लोग लगातार अर्थहीन होते जा रहे थे. शिवदान भी इन्हीं में थे. वे शायद देख तो रहे थे लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि कोई उनका समकालीन दिन में तीन बार स्थापना बदलने के बाद भी साहित्य समाज से लेकर हर सत्ता का चहेता बना हुआ था. ऐसे लोगों का विरोध भी हर जगह होता था लेकिन फिर भी उनका प्रभामंडल बढ़ता ही जाता था. विरोध जिन कारणों से होता था वह कमजोर होते हठ थे. समर्थन या सम्मान जिन कारणों से होता था वे उभरती नई स्थितियां थीं. शक्तिशाली पुरानी फिजूल होती शक्तियों के पराभव और न्यूनता में भी नई शक्तियों की पहचान में अपनी महारत का कायल मार्क्सवादी ही जब इसे पहचानने में चूक रहा था तो बाकी की बात तो कौन कहे. जो जो लोग साहित्य में सफलता के मान कायम कर रहे थे वे वही थे जो इस अड़ को तिलांजलि दे नए हालातों के राज को एक हद तक या तो समझ चुके थे या उसके अनुकूल आचरण कर रहे थे.

आधुनिकतावाद के मूल्यधर्मी मार्क्सवाद में पगे शिवदान जैसे व्यक्ति के लिए शायद इसे समझना संभव भी नहीं था ठीक उसी तरह जिस तरह समाजवादी व्यवस्थाओं के पराभव को समझना किसी भी तरह के मार्क्सवादियों के लिए संभव नहीं रहा है. वे उसके कारणों में जाने के नाम पर दूसरी लाइन को जिम्मेदार मानते हुए अपने को सही ठहराकर खुश हो रहे होते हैं. दिनों दिन स्पष्ट होता जा रहा है कि आधुनिकता की विचारधाराओं की व्याख्याएं इस आज के समय को समझने में असमर्थ हो रही हैं . लेकिन फिर भी एक अड़ बनी है.

इस अड़ ने हमारे सामने ही कितने ही हादसों को घटित किया है और आने वाले दिनों में बहुत सारे हादसों को जन्म देगी जिससे साहित्य के क्षेत्र में लगातार कारुणिक स्थितियां पैदा होंगी. हम यह जानते हैं कि शिवदान जी की पीढ़ी ने और उसके बाद आई प्रगतिशीलता या जनवाद या नव जनवाद की पीढ़ी ने या साहित्य के प्रतिमान बना चलने वाले और सब ने मान-मूल्यों की जो एक दुनिया बसाई है और साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के जो सिद्धांत गढ़े हैं वे तेजी से निरस्त हो रहे हैं . केवल इतना ही नहीं, साहित्य मात्र से प्रतिबद्ध चाहे जिस तरह के भी जनवादी या कलावादी रुझान रहे हों उन सबने अपनी मान-मूल्य आधारित विशिष्ट दुनिया का निर्माण किया है. वह दुनिया रोज लगातार ध्वस्त हो रही है. इसलिए आने वाले दिनों में साहित्यिक ट्रेजिकों की लंबी कतार होगी क्योंकि मीडिया की इस दुनिया में महान से महान हिंदी लेखक की प्रस्तुति भी बहुत मामूली सी कारुणिक होगी.

फिर भी हम स्वयं इसी अपनी साहित्यिक दुनिया का हिस्सा होने के कारण सब कुछ जानते हुए भी छाती पीटने को अभिशप्त होंगे क्योंकि उससे ज्यादा कुछ होना या कर पाना संभव नहीं होगा. दृश्य कुछ महाभारत के स्त्री-पर्व जैसा होगा.

शिवदान जी की ट्रेजेडी सबसे ताजा है  अपूर्णकाम ये ट्रेजेडियां रचनाकारों की वेदना का स्रोत बनेंगी जो वाल्ट व्हिटमैन या नागार्जुन या टैगोर या आलोक धन्वा की रचनाओं में उभरेंगी और उन्हें ज्यादा भावप्रवण, धारदार, मानवीय बनाएंगी.

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कर्ण सिंह चौहान 
स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि.बल्गारिया और हांगुक वि.वि.सिओलदक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.

लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मानसाहित्य के बुनियादी सरोकारप्रगतिवादी आंदोलन का इतिहासएक समीक्षक की डायरीयूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा)अमेरिका के आर पार (यात्रा)हिमालय नहीं है वितोशा (कविता)यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकेंपाब्लो नेरुदालू शुनकोरियाई कविता-संग्रहआदि प्रमुख  हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में  लेख प्रकाशित हुए.
karansinghchauhan01@gmail.com

मति का धीर : गुरदयाल सिंह

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गुरदयाल सिंह राही(10 January 1933 – 16 August 2016) अमृता प्रीतम के बाद पंजाबी भाषा के ऐसे दूसरे रचनाकार हैं जिन्हें भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त हुआ था. उनके उपन्यासों के देश– विदेश में अनुवाद हुए और उनपर फिल्में बनीं. उन्हें रूस से सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार भी मिला. इनकी तुलना रूस के महान उपन्यासकार मक्सिम गोर्की से  की जाती है.  गुरदयाल सिंह हाशिये पर गुजर-बसर करने वालों की जिंदगी के सुख –दुःख के रचनाकार थे. वे खुद हाशिये से थे.

किसी भी रचनाकार का एक जरूरी रिश्ता उसके प्रकाशकों से होता है. देश निर्मोही ‘आधार प्रकाशन’ के प्रकाशक ही नहीं लेखक और संपादक भी हैं. उम्मीद है कि वह गुरदयाल सिंह रचनावली का कार्य समय से सम्पन्न कर लेंगे. यही सच्ची श्रदांजलि होगी.
समालोचन की तरफ से गुरदयाल सिंह की स्मृति को नमन.


गुरदयाल सिंह : आम आदमी का लेखक                    
देश निर्मोही



पंजाबीउपन्यासकोयथार्थवादकीजमीन पर  पुख्तातरीकेसेलाखड़ेकरनेवाले ज्ञानपीठपुरस्कारविजेताउपन्यासकारगुरदयालसिंह, जोअपनेआपमेंएकजीता-जागताइतिहासथे आज हमारे बीच नहीं हैं.जिसतरहहमरूसके जनजीवनऔरउसकेइतिहासकोजाननेकेलिएतोल्स्तोयकेपास जातेहैंऔरचीनतथाभारतकेसंदर्भमेंलूशुनएवंप्रेमचंदकेपास जातेहैं, उसीतरहपंजाबकोजानने-समझनेकेलिएहमारेपासगुरदयाल सिंहकानामआताहै.उनकीकालजयीकृति'मढ़ीकादीवा'केबादउनकेलगातारऐसेउपन्यास प्रकाशमेंआतेरहेजोअगलामीलपत्थरप्रस्तुतकरनेकाप्रयासकरतेरहे हैंजैसे'अधचांदनीरात', 'परसा', 'घरऔररास्ता', सांझ सवेर’, ‘पाँचवाँ पहर‘, 'अंधेधोड़ेकादान', और 'भरसरवरजबउच्छलै'.इसकेअतिरिक्तभीउनकारचनात्मकअवदानगहनव्यापकहैजिसमेंउनकेउपन्यास'साँझ-सवेर', 'रेतकीएकमुट्ठी'और'पौफटनेसेपहले', चारसौसेअधिककहानियां, निबन्ध, बाल-साहित्यऔरआत्मकथा'क्याजानूमैंकौन'जोअपनेआपमेंआत्मकथाकीएकनईपरिभाषाघडतीहै.

प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने 'मढ़ीकादीवा'उपन्यास की तुलना तोल्स्तोय के उपन्यासयुद्ध और शांतिसे करते हुये अपने एक लेख में लिखा कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोप में उपन्यास पतन  की ओर जाने लगा तभी एक पिछड़े देश तथा पिछड़ी कही जाती भाषा के एक उपन्यास ने इसे चढ़त की ओर मोड दिया. यह उपन्यास था तोल्स्तोय की रचनायुद्ध और शांतिऔर भाषा थी रूसी. ऐसा ही कुछ भारतीय साहित्य के गद्य क्षेत्र में घटा जब भारतीय उपन्यास अपने शिखर से पतन की ओर जाने लगा तो बीसवीं सदी के छटे दशक में एक पिछड़ी कही जाने वाली भाषा ने इसे चढ़त की ओर मोड दिया. वह उपन्यास था मढ़ी का दीवाऔर उसकी भाषा थी पंजाबी. रूसी भाषा में भी इस उपन्यास का अनुवाद हुआ और लगभग 10 लाख प्रतियाँ प्रकाशित हुई. राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा निर्मित इसी उपन्यास पर आधारित फिल्म को राष्ट्रीय अवार्ड मिला. 2012 में उनके एक और उपन्यास अंधे घोड़े का दानपर बनी फिल्म पर भी सर्वोतम पंजाबी फिल्म नेशनल अवार्ड मिल चुका है.

प्रो. चमन लाल के साथ गुरदयाल सिंह 
गुरदयाल सिंह के उपन्यास भारतीय जन-जीवन की एक सच्ची तस्वीर हैं. उनके उपन्यासों में हरे भरे खेत खलियानों, कुओं , तलाबों, ऊबड़ खाबड़ गलियों, कच्चे मकानों, पक्के चौबारों और जीते जागते घर आँगनों का यथार्थपरक ढंग से चित्रण हुआ है. गुरदयाल सिंह के लेखन की ताकत इस बात में थी कि उन्होने उन आम लोगों का पक्ष लिया है जिन्हें सदियों सेनीच’ कह कर तिरस्कृत किया जाता रहा है वह जगसीर, बिशना, रौनकी, साधू , मुंदर ,भानी, नंदी और सती जैसे पात्रों के संगी साथी हैं. यही किसी साहित्यकार कि मानवता कि कसौटी है. गुरदयाल सिंह मलवे के ग्रामीण परिवेश के सांस्कृतिक विवेक से जुड़े उपन्यासकार थे. उनके सभी उपन्यासों में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रभावों को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है. दलित जातियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ, पाखंड, झूठ और परम्पराओं के नकार में उनकी लेखनी की आवाज़ मुखर थी.

गुरदयाल सिंह स्वतंत्र भारत के एक प्रतिनिधि उपन्यासकार थे. उनसे मिलना और उनके रचना संसार से होकर गुजरना दोनों ही अपने आप में अनूठे अनुभव थे. गुरदयाल सिंह के रचना संसार में विचारने का मौका उनके पहले उपन्यासमढ़ी का दीवासे मिला. बाद मेंअध चाँदनी रातपढ़ने को मिला और कुछ कहानियाँ.परसापंजाबी में प्रकाशित होते ही खूब चर्चित हुआ और उसे पहले पंजाबी में ही पढ़ा.

यह संयोग विरले ही देखने को मिलता है कि एक ही व्यक्ति में एक अच्छा इंसान और अच्छा लेखक एकसाथ हों. पंजाबी साहित्य में यह संयोग गुरदयाल सिंह के रूप में देखने को मिला. परसाका हिन्दी अनुवाद आधार से प्रकाशित हो इस आशय का एक पत्र मैंने उन्हें लिखा तो उन्होने बिना किसी पूर्व शर्त के अपनी सहमति दे दी. उनका लिखना था कि तुम बड़ा काम कर रहे हो, तुम्हारी मदद करके मुझे खुशी होगी . हालांकि उनके हिन्दी में चार उपन्यास नामी गिरामी प्रकाशकों ने प्रकाशित किए थे.

1994 में पहली बार गुरदयाल सिंह से मिलना हुआ और उन्होने अपना सर्वश्रेष्ठ आधार जैसे एक नए प्रकाशन के खाते में डाल दिया. यह आधार के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी. जिससे हमारा उत्साह चरम पर था. उनसे एक रिश्ता बना जो दिनों दिन प्रगाढ़ होता गया. बाद में गुरदयाल सिंह ने अपने सभी उपन्यासों व अन्य रचनाओं के हिन्दी अनुवादों के अधिकार आधार को दे दिये.

अब जब हम उनके समग्र साहित्य को हिन्दी में उपलब्ध करवाने के मकसद से उनकी रचनावली पर काम कर रहे थे जिसका सम्पादन हमारेसमय केप्रतिभाशालीआलोचकसाहित्यकारविनोदशाहीने पूरा किया है तो गुरदयाल सिंह से फोन पर अक्सर लंबी -लंबी बाते होती रहती थी.वे पिछले लगभग एक साल से अस्वस्थ  चल रहे थे. उनकी इच्छा थी कि यह काम जल्द पूरा हो. हमारी तरफ से हो रही देरी पर उन्हें खीज भी होती. 


वे नाराज़ भी होते. कोई एक सप्ताह पहले ही उनका फोन आया तो उन्होने पूछा कि अभी कितना काम बचा है. जल्दी करो अब मेरे पास समय नहीं है. लेकिन अपनी सीमाओं को तो हम ही जानते थे जिनके रहते यह काम उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया. सच में मेरे अंदर यह अपराध बोध हमेशा रहेगा कि मैं उनकी यह अंतिम इच्छा उनके रहते पूरी नहीं कर पाया.

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देश निर्मोही
आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा /aadhar_prakashan@yahoo.com





बात - बेबात : खुशामद के खतरे : इक़बाल हिन्दुस्तानी

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कभी हालीने ग़ालिब के लिए लिखा था –

एक रौशन दिमाग था न रहा
शहर में एक चिराग था न रहा. 

कहना न होगा हमारे तमाम शहर ‘रौशन दिमाग’ से ख़ाली होते जा रहे हैं वहां तमाम तरह की ज़हनी कालिख पुतती जा रही है.


लेखक और एक्टिविस्ट इक़बाल हिन्दुस्तानी वैसे तो अपने संजीदा और रौशन ख्याल लेखों के लिए जाने जाते हैं पर कभी-कभी वह मज़ाहिया अदाज़ में भी असरदार बातें कहते हैं. आज पेश है  उनका एक व्यंग्य - खुशामद के खतरे

खुशामद के खतरे                                   
इक़बाल हिन्दुस्तानी   




चाहें तो ग़ालिब के बराबर तुम्हें कर दें
वर्ना कभी हुटिंग भी करा सकते हैं चमचे. (अलीम खां)

इतिहास गवाह है कि चमचो की वजह से ही कई सरकारें बनीं तो कई हुक्मरानों के ताज छिन भी गये.         
          
ख़बर है कि देहरादून के चम्मच कांड में एक दर्जन लोगों को उम्रकैद हो गयी. आपको याद दिला दें एक विवाह समारोह में इन लोगों ने चम्मच को लेकर हुए झगड़े में दो लोगों की हत्या कर दी थी. क्या ज़माना आ गया एक चम्मच ने पहले दो लोगों की जान ली. अब उसी चम्मच ने 12लोगों को उम्रभर के लिये जेल के अंदर करा दिया. यह कम्बख़्त चम्मच चीज़ ही ऐसी होता है कि आदमी से ज़्यादा तवज्जो इसे दी जाने लगी है. अब देखिये ना अपने देश में कई सरकारें चमचो की वजह से बनी और उनकी मेहरबानी से ही चल रही है. हां यह अलग बात है कि जब कोई बड़ी आफत आती है तो चम्मच तोतों की तरह आंखे बदलने में ज़रा भी देर नहीं लगाते.
  
कार्यालयों में कुछ लोग काम की बजाये बॉस की चमचागिरी करके ही आगे बढ़ने में विश्वास रखते हैं. अब भले ही मेहनती और और उनसे अधिक योग्य बंदा जलभुनकर राख ही क्यों न हो जाये. उनकी बला से. लेकिन प्रमोशन चमचागिरी करने वाले का ही होता है. यह रास्ता आसान और हंडरेड परसेंट गारंटी से कामयाबी वाला जो है. संतरी से लेकर मंत्री तक चमचों का ही दबदबा चलता है. थाने में आईपीसी की धाराओं से अधिक चमचो की पौबारा हो रही है. सरकारी नौकरी में तो चमचागिरी का मज़ा ही कुछ निराला है. मिसाल के तौर पर प्राइमरी में टीचर हैं तो आराम से घर बैठकर मस्ती करें. बस बीएसए की चमचागिरी करना याद रखें. एमपी एमएलए के चमचे भी मज़े ले रहे हैं.


जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उससे राज़ी है
सच तो यह है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है. (नजीर अकबराबादी)
  
अगर आप किसी बदमाश के चमचे हैं तो क्या कहने? आप न केवल मुहल्ले में सब पर रौब गालिब कर सकते हैं. बल्कि पुलिस से भी आपकी खूब पटेगी. सियासत में तो जलवा ही चमचागिरी का है. टिकट लेना हो तो चमचागिरी से बड़ी काबलियत और कोई नहीं और मंत्री बनने से लेकर सीएम पीएम बनना हो तो भी यही हुनर काम आयेगा. मायावती तो चमचों की बातों में आकर ही यूपी का सीएम पद देश का पीएम बनने के सपने दिखाने से खो चुकी हैं. इसी चमचागिरी की नायाब खूबी से कई नाकाबिल लोग काबिल लोगों को टंगड़ी मारकर कई प्रदेशों में मनमानी सरकार चला रहे हैं तो केजरीवाल और ममता दीदी जैसे चंद सिरफिरे चमचागिरी न करने का नतीजा रोज़ केंद्र के हाथों परेशान होकर भोग रहे हैं.
  

हज़ारों कुर्सियां ऐसी कि हर कुर्सी पे दम निकले
जो इस पर बैठकर खुद से उठे ऐसे ही कम निकले (कैफ़ी आज़मी)

ज्यादा पुरानी बात नहीं है. आइरन लेडी कही जाने वाली पूर्व प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी को उनके चमचो , आप चाहें तो उनको तहज़ीब के दायरे में सलाहकार भी कह सकते हैं, ने सत्ता में बने रहने के लिये जनता का मूड देखने की बजाये एमरजैंसी लगाने की नेक सलाह दे डाली थी. नतीजा यह हुआ कि वे उल्टे उसी एक गल्ती से सत्ता से बाहर हो गयी. चमचो का कुछ नहीं बिगड़ा. वे नारा लगाकर अपनी चमचागिरी का फर्ज अदा करते रहे इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा. चमचो की कहानी लंबी है कि कैसे पंजाब में भिंडरावाला को आस्तीन का सांप बनाकर पालने की सलाह दी गयी और फिर जब इंदिरा जी की जान चली गयी तो चमचो ने राजीव जी को चमचागिरी करके पीएम बनवा दिया.
  
चमचागिरी के बल पर एक पायलट की सरकार हवा में चलती रही और एक दिन चमचो ने फिर वही पुराना खेल दोहराया कि बाबरी मस्जिद/ रामजन्मभूमि का जिन्न बोतल से बाहर निकालने की सलाह सीधे सादे राजीव गांधी को दे डाली. जिसका नतीजा सबके सामने है. ऐसा नहीं है कि हमारे देश मेें ही चमचो की इतनी चलती हो. बल्कि अमेरिका को देखो जो उसकी चमचागिरी करते रहते हैं. वे चाहे चुने हुए शासक न भी हों. तानाशाह हों और निकट भविष्य में उनका चुनाव कराने का इरादा भी न हो तो भी अपने अंकल सैम उनकी तरफ न खुद आंख उठाकर देखते हैं और न ही किसी को ऐसा करने की इजाज़त ही देते हैं.
 
जहाँ कुर्सी मिली फिरऔन हैं हम
समझते ही नहीं कौन हैं हम. (मजीद लाहौरी)

मिसाल के तौर पर सउदी अरब जैसे कट्टरपंथी और पाकिस्तान जैसे आतंकवाद के पालनहार को अंकल सैम चमचागिरी करने के इनाम के तौर पर अब तक बख़्शे हुए हैं. हां एक बात और जो उनकी चमचागिरी से इनकार करता है तो वे उसे नेस्तोनाबूद करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते. ओसामा बिन लादेन को ही लो जब तक वह अंकल सैम के इशारे पर रूस को अफगानिस्तान से भगाने के लिये जेहाद रूपी चमचागिरी करता रहा तो सब ठीक चलता रहा. लेकिन जैसे ही उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कराया तो वह जेहादी से खूंखार आतंकवादी बन गया और चमचागिरी ख़त्म तो ओसामा भी ख़त्म.

मैं घुस जाऊँगा जन्नत में, खुदा से बस यही कहकर
यहीं से आये थे आदम, ये मेरे बाप का घर है. (शौक़ बहराईची)

  
ऐसे ही इराक के सद्दाम हुसैन ने चमचागिरी से मना किया तो बिना ख़तरनाक हथियार बरामद किये ही सद्दाम की छुट्टी कर दी गयी. ताज़ा मिसाल लीबिया के कर्नल गद्दाफी की है. ओबामा की चमचागिरी न कर पंगा ले रहा था. बेमौत मारा गया. आजकल पाकिस्तान चमचागिरी से ना नुकुर कर रहा है. उसका भी भगवान ही मालिक है. मियां नवाज़ शायद ज़िया उल हक़ की चमचागिरी से मना करने का हश्र भूल गये हैं. अंकल सैम को गुस्सा आ गया तो पाक के नवाज़ साहब को शरीफ़ से बदमाश का तमगा लगाकर अफगानिस्तान और ईराक बनने में देर नहीं लगेगी. तरक्की का आज एक मात्र रास्ता है चमचागिरी. जय हो चमचो की .

वो आदमी भी फ़रिश्तों से कम नहीं जिसने
हवस के दौर में किरदार को संभाला है .. (इक़बाल हिदुस्तानी)
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इक़बाल हिंदुस्तानी

इकबाल हिन्दुस्तानी  15 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं. दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं.  रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं. गज़ले लिखते हैं और तमाम सम्मान से नवाजे गए हैं.  आजकल ये नवभारत टाइम्स डॉटकॉम पर ‘‘भली लगे या बुरी‘‘ नाम से ब्लॉग लिख रहे हैं.  
iqbalhindustani@gmail.com


सहजि सहजि गुन रमैं : विनोद भारद्वाज

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प्रकाशक Copper Coin ने बड़े ही आकर्षक ढंग से हिंदी के कवि विनोद भारद्वाज की कविताओं की किताब – ‘होशियारपुर और अन्य कविताएँ’ इस वर्ष प्रकाशित की है. इसमें १०० से कुछ अधिक है कविताएँ हैं. 
_
“विनोद भारद्वाज की यह कविताएँ सबसे पहले अपनी बात अपने ढंग से कहने के धीरज और साहस का प्रतिफलन हैं और अपने अलगपन में एकदम आकृष्ट करती हैं. कवि युवा हो या प्रौढ़, यदि उसके पास वाक़ई कुछ अपने कहने को है- जो कि तभी संभव है जब कि उसका अनुभव भी निजी हो- तो वह ‘कवियों’ की भारी भीड़ और ‘युग’ के केन्द्रीय स्वर को परस्पर उसके हाल पर ही छोड़ता हुआ अपनी बात सारी जोखिमें उठाते हुए कहेगा  ही.”
विष्णु खरे

“विनोद भारद्वाज की कविता में अनेक दुर्लभ प्रसंग हैं. मिसाल के लिए स्त्रियाँ हिरणों का शिकार करने जंगल में आई हैं. स्त्रियों को देखकर हिरण भागते नहीं हैं. यह हिंदी में मार्मिक मनोभाव की कविता है, हिंदी की दुर्लभ कविता. यह संवेदना का विस्तार करनेवाली कविता है.” 
आलोक धन्वा

“सिनेमाई दृश्य विधान विनोद भारद्वाज की ख़ास खूबी रही है, लेकिन उनके विवरणों और चित्रों में नाटकीयता के लिए कोई जगह नहीं है. इसकी जगह उन्होंने एक ऐसी वस्तुपरकता उपलब्ध की है जो अनुभवों को एक तरह अतिभावुकता और संवेगों से बचाती है और दूसरी तरफ उन्हें उदासीन और तटस्थ नहीं होने देती.”
मंगेलेश डबराल

(फ्लैफ से) 
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विनोद भारद्वाज की कविताएं                                  




हिरणों का शिकार करती स्त्रियां
अवध का एक पुराना मिनिएचर देखकर

क्या कहा तुमने
शिकार भी करती हैं स्त्रियां
घने और बीहड़ जंगलों में जाती हैं
उनके कोमल हाथों में धनुष होते हैं
बंदूकों से वे अचूक निशाने लगाती हैं

वह एक तस्वीर थी
पांच औरतें थीं उसमें
और वे हरे रसीले चमकीले जंगल में
हिरणों का शिकार कर रही थीं
उनकी पोशाकें सुंदर थीं
बहुत सुंदर थीं उनकी पगड़ियां

उनके पैरों पर शानदार डिज़ाइन वाले जूते थे
लेकिन ज़रा हिम्मत तो देखिए
उन कमबख़्त हिरणों की
वे अपनी पूरी मस्ती में थे
हवा में उछल रहे थे
हरी घास की एक नई चमक को
अपनी छलांग में पहचान रहे थे

देखो उस गुलाबी पोशाक वाली सुंदरी को
वह कुछ कह रही है दूसरी से
उसके किसी निर्मम आदेश या
उसकी ख़तरनाक बंदूक के प्रति
उदासीन हैं ये हिरण
एक ने बड़ी ज़ोर से छलांग लगाई
दूसरे ने हरे रंग में अपना मुंह चमकाया
तीसरे ने शायद धीरे-से कुछ गाया
पांच स्त्रियां हैं इस जंगल में
शायद इसीलिए हिरण आश्वस्त हैं
मुस्टंडे मूंछों वाले महाराजा कहीं नज़र नहीं आ रहे
न ही उनके हाथियों, शिकारियों और चमचों ने
सारे जंगल को रौंद रखा है

यह एक अलग तरह का दिन है
एक दूसरी ही तरह का हरा रंग चमक रहा है
आज स्त्रियां शिकार करने को निकली हैं
क्या ये रानियां हैं?
ज़रूर ये रानियां ही होंगी
कुछ उनकी सेविकाएं होंगी और कुछ सखियां
बंदूक से टकटकी बांधकर
वे उस भव्य दृश्य को देख रही होंगी

क्या ये सचमुच शिकारी औरतें हैं?
अवध के किसी चित्रकार ने शायद नवाब के
मनोरंजन के लिए
तस्वीर बनाई हो
हो सकता है उसने सच्चाई ही दिखाई हो
भरोसे से कुछ कहा नहीं जा सकता
पर आपको आख़िर शक़ क्यों हो रहा है जनाब?
स्त्रियां बहुत बहादुरी के काम कर चुकी हैं
इस रक्तरंजित इतिहास में
कितनी अद्वितीय मिसालें मौजूद हैं
विदुषी, सुंदर और बहादुर स्त्रियों की
वे जो भी काम करती हैं
सलीके और सुंदरता से करती हैं

लेकिन हिरण कुछ और ही सोच रहे हैं
इस अद्वितीय क्षण में वे कवियों की तरह हो गए हैं
उन्हें विश्वास है स्त्रियां
स्त्रियों की तरह शिकार करेंगी
एक कुशल कोमलता और सुंदरता के साथ
और वे निश्चिंत होकर
एक शानदार, बहुत ऊंची और शायद
आख़िरी छलांग हवा में लगाते हैं.



उदास आंखें

जब तुम्हारी उदास आंखों को
देखता हूं
तो लगता है कि आज ईश्वर को किसी ने
परेशान किया है
जब तुम्हारी उदास आंखों को
देखता हूं
तो अमृत के किसी हौज में
कोई कंकड़ कहीं से उछलता है
आकर गिरता है.
तुम्हारी उदास आंखों में
दुनिया भर की सुंदरता का दर्द है
भय है
नज़ाकत है तुम्हारी उदास आंखों में
तुम रोने के बाद
आईने में जब देखती हो
तो माफ़ कर देती हो इस दुनिया को
तुम चुपचाप एक कोने में
सिमटकर बैठ जाती हो
जब तुम्हारी उदास आंखों को देखता हूं
डरता हूं
कांपता हूं
फिर ईश्वर की तरह चाहता हूं
इन उदास आंखों को
इन आंखों के पीछे
कई सारी आंखें हैं
क्षण भर के लिए उदास
क्षण भर के लिए बहुत पास
इन उदास आंखों को देखता हूं
तो लगता है कि
ईश्वर को किसी ने गहरी नींद से
जगाया है
कि देखो दुनिया
कितनी उदास हो चुकी है.




युद्ध में एक प्रेम कविता

तुम एक सपना देखती हो
एक क़िले के खंडहरों से तुम्हें
शहर
कितना सुंदर नज़र आता है
यह एक प्राचीन नगर है
जिसे बचाने के लिए जैसे तुम
बदहवास भाग रही हो
सपने में तुम देखती हो
एक कतार में मुर्दे पड़े हैं
अचानक वे उठ खड़े होते हैं
तुम एक चीख़ के साथ
जागती हो
तुम्हारा सुंदर पर डरा हुआ चेहरा
एक गीले तौलिये में लिपटा हुआ
और चीज़ें कहीं दूर भागती हुईं
एक मोर
दो मोर
किले की ऊंची लंबी दीवार
पर छलांगें लगाता हुआ
छोटा-सा बंदर का बच्चा
यह तौलिया मेरे आंसुओं से
भीगा हुआ है
एक उदास मुस्कान
तुम्हारे चेहरे पर है
दुनिया की सबसे बड़ी तोप
कभी चलाई नहीं गई
वह सिर्फ़ एक बार
परीक्षण के लिए
चली थी
इस तोप पर बत्तखें बनी हैं
अपने में नौ स्त्रियों को समाए एक भव्य
हाथी है
तुम अपने गीले तौलिये से
इस तोप को
धीरे-धीरे चमकाती हो
देखने की कोशिश करती हो
इसमें कितनी कला है
कितनी ताक़त
कितनी मृत्यु
कितनी राहत




इच्छा

इस लोटे का भी एक सपना है
कभी-कभी दिन में फ़ुरसत के वक़्त
जो इसे देखने को मिल जाता है
रात को इसे नींद नहीं आती
अजीब तरह के खाने की गंध और न कही गई
बातों का स्वाद लिए नक़ली दांतों का एक सेट
नल के ठंडे पानी में इसमें डूबा रहता है

तड़के सुबह का वक़्त इसे पसंद है
कुछ ज़रूरी यादें, पेड़, जंगल, गन्ने के खेत
दिमाग़ में घूम जाते हैं
इन दिनों तो आंगन के एक कोने में पड़ा
यह महाराजिन का इंतज़ार करता है
यह भी कोई सपने का वक़्त है
पर लोटा कमबख़्त एक सपना देखता है
कि उसे ख़ूब चमकाया जाए

थोड़ा वक़्त उसे भी दिया जाए
गिरने पर उसकी जो यह आवाज़ है
कई जगहों से जो वह पिचक गया है
उससे मुंह न बिचकाया जाए
पर लोटा तो आख़िर लोटा है

एक दिन अपने कुछ इस तरह से गिरने के इंतज़ार में है
कि एक अच्छी आवाज़ हो
अम्मा जी गुड़ की गरम चाय उसमें
बेरहमी से उंड़ेल न दें

उसका भी एक सपना हो
न हो सपना
एक पूरी नींद तो हो.




टाइप करने वाली

उस लड़की ने
सिर्फ़ टाइप किया
मेहनत से
साफ़-साफ़
शुद्ध
हमेशा हिज्जों की पूरी हिफ़ाज़त के साथ

ज़्यादातर जो उसने टाइप किया
अन्याय के बारे में था
समाज में औरत की हालत के
बारे में था

ज़्यादातर उसने टाइप किया
उसने सिर्फ़ टाइप किया

रोटी के अपने पीतल के
गोल डिब्बे को खोलकर
जलते हीटर की रोशनी और आंच में
धीरे-धीरे
अपने खाने को खाने लायक बनाती थी
वह लड़की
उंगलियों को चटकाते हुए वह लड़की
कांप जाती थी किसी जगह आज
टाइप करने को कहींप्रेमशब्द न हो
ज़्यादातर शब्द दूसरे थे
जिन्हें हमेशा वह सही टाइप करती थी

अस्पताल में ऑक्सीजन पर पड़ी रही
दस दिन वह लड़की
किसी लापरवाह व्यक्ति के बारे में कुछ बुदबुदाती
जमा जोड़ गुणा बड़बड़ाती
उस लड़की की लाश पर उसकी बूढ़ी मां
चीख़ती रही
सब के सामने

उस लड़की की कहानी
कभी किसी ने टाइप नहीं की.




पीछा

कहां से निकलेंगी कविताएं; एक गेंद
कहीं से निकलती है
और बारिश-धुली सड़क पर लुढ़कती चली जाती है.
कहां से शुरू होंगी कविताएं.
कम-से-कम सिर्फ़ उस गेंद का पीछा नहीं करेंगी कविताएं.

गेंद पर से मोटर निकल जाएगी
मोटर का पीछा करेगी कविताएं.
नीले कनटोप में डोलता प्यारा बच्चा सड़क के एक
कोने से हाथ हिलाएगा. उसने सुनी नहीं अभी
कविताएं.

मोटर एक गुफा से निकलेगी
कविता भी कहीं से निकलनी चाहिए
वह देखो वहां से निकलेंगी कविताएं
गुफा में एक झपट्टा मारेंगी कविताएं
हाथापाई में निकलती चली जाएंगी
कविताएं
गेंद से अपना कोई रिश्ता बनाएंगी कविताएं
बारिश के कीचड़ में गेंद कुचली पड़ी थी
रंगीन रबड़ की बरसाती पहने लड़के
ने उसे देख लिया. न देखने पर भी उसके
निकलती कविताएं.


लेकिन क्या कविताएं गेंद की दोस्ती में भागीं?
आप कहेंगे शायद डोलता बच्चा देखकर वे जागीं
हाथापाई के बाद घायल कुछ कविताओं ने
उस बच्चे को बताया
नहीं, दरअसल, पीछा करती ही हैं कविताएं.
बच्चा एक चीज़ के साथ आगे बढ़ गया
बहादुर कविताओं की खोज में.
बहुत तेज़ भाग रही थी कविताएं.






शीला

सुना था कि वहअच्छे घरकी थी
लोअर मिडिल क्लास फ़ैमिली की
लेकिन पगली थी
दर्जा आठ की पढ़ाई छोड़कर
एक रिक्शेवाले के साथ भाग आई

कवि धूमिल को जब उसने पहली बार देखा
बड़ी ज़ोर से हंसी
क्या कहा आपने, बीवी जी, भैया के दोस्त हैं यह?
हम तो इन्हें चचा समझ रहे थे
सीढ़ियां चढ़ते हुए
धूमिल ने भी सुना
और फिर अपनी घनी मूछों में हंसे बड़ी ज़ोर से

अगले पंद्रह वर्षों में
शीला के घर कई लड़कियां और बाद में एक लड़का
पैदा हुआ
बरसों बाद अचानक वह फिर
हमारे घर आकर काम करने लगी
इस बार शीला ने कुछ नहीं कहा
हंसी भी नहीं भैया की किसी बात पर
और हां, बताया किसी ने
उसकी बड़ी लड़की का ब्याह भी हो चुका है




शीला, कहां है तुम्हारा रिक्शेवाला पति?
कहां है तुम्हारा घर?
क्या सचमुच तुम क्या किसी अच्छे भले घर को
छोड़कर चली आई थी?
शीला, बताओ, तुम्हें याद है धूमिल की?
एक कवि के हंसने की याद है तुम्हें कुछ?

क्या कहा, बाबूजी आपने?
शीला ने घबराकर देखा
फिर जैसे अपनी लड़कियों के लिए काम में लग गई

इस बार लौटा मैं जब छुट्टियों में अपने घर
मां ने बताया
शीला फिर भाग गई है
इस उम्र में
एक नए मर्द के साथ
रिक्शावाला आकर रोता रहा
घंटों उनके सामने
अगली गर्मियों तक उसे अपनी दूसरी लड़की का
ब्याह पक्का करना है




घर में मृत्यु

एक बहुत पुराने पतीले में
चावल भिगो दिए गए हैं
साबुत उड़द की दाल
अंगीठी की धीमी आंच में
देर से पक रही है
घर में सब जने
इकट्ठा हो गए हैं
नहाने-धोने के बाद
एक जगह पर बैठ गए हैं
पालथी मारकर
कुछ ऐसे कि जैसे पहले कभी
बैठे ही न थे

फ़र्श ठंडा है
दिन भर वहां बर्फ़ की
सिल्लियां पड़ी थीं
सब इंतज़ार में हैं
एक अजीब तरह के भोज का
सब चुप हैं
वे कुछ बोलना नहीं चाहते
आज तो सिर्फ़ पकेगी
साबुत उड़द की दाल
उसकी महक
ठंडे फ़र्श से टकराकर
ऊपर की ओर उठती है
और फिर
उसे ले जाती है
छोटे-से बच्चे के पास
जो दूर दिल्ली में बैठा है
साढ़े दस साल का गुक्की
पूछता है
पिता से

दादी के मरने पर
तुम बापू क्या रोए थे?

पिता के पास
कोई जवाब नहीं है
थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद
पिता पूछते हैं बेटे से
गुक्की, तुम बताओ
दादी के मरने की ख़बर सुनकर
तुम क्या रोए थे?
गुक्की चुप है
फिर कुछ सोचकर
वह कहता है पिता से
बापू, मैं अंदर से रोया था.
तुम रोए थे?
क्यों रोए थे गुक्की?
तुम तो हमेशा
दादी से लड़ते थे?
मैं रोया था बापू
भीतर से रोया था
फिर मुझे बाबा की याद आई
देखो कितने अच्छे हैं बाबा
भीतर से टूट चुके हैं
फिर भी भेजा उन्होंने मेरे लिए
दस का एक नोट
आइसक्रीम खाने के लिए
गुक्की चला जाता है
आइसक्रीम खाने

ठंडे फ़र्श के मोज़ैक के काले दाने
चमक रहे हैं
इस घर को मां ने
महीनों धूप में खड़े होकर
बनाया था
इस फ़र्श को
न जाने कितनी बार
उन्होंने ख़ुद चमकाया था
कभी-कभी पोचे में
वे देखती थीं अपना चेहरा
सब आज याद आ रहा है
साबुत गर्म उड़द की दाल को देखकर
इस चमकीले थाल में.

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अक्टूबर 1948 में जन्मे विनोद भारद्वाज ने लखनऊ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए.किया और पच्चीस साल टाइम्स ऑफ़ इंडियाके धर्मयुग, दिनमानतथा नवभारत टाइम्सजैसे हिंदी प्रकाशनों में पत्रकारिता की.1967 से 1969 तक उन्होंने कविता और कला की चर्चित लघुपत्रिका आरम्भका नरेश सक्सेना और जयकृष्ण के सहयोग से संपादन किया.प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय ने उन्हें पत्रकारिता में आने के लिए प्रेरित किया और दिनमानमें सहाय के संपादन में कई साल काम करना उनके लिए एक बड़ा और निर्णायक अनुभव साबित हुआ.1981  में विनोद को वर्ष की श्रेष्ठ कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल स्मृति प्रतिष्ठित पुरस्कार और 1982 में श्रेष्ठ सर्जनात्मक लेखन के लिए संस्कृति पुरस्कार मिला.विनोद ने चालीस साल तक लगातार फिल्म और कला पर लिखा है,कलाकारों पर फिल्में बनाई हैं और दूरदर्शन के लिए चेखोव की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म दुखवा मैं कासे कहूंऔर लघु धारावाहिक मछलीघरभी लिखा है.कला और सिनेमा पर कई किताबों के अलावा 1980 में पहला कविता संग्रह,जलता मकान,छपा और 1990में दूसरा संग्रह,होशियारपुर,छपा.बाद की कविताएं इस नए संग्रह,होशियारपुर और अन्य कविताएंमें पहले दोनों संग्रहों सहित शामिल हैं.एक कहानी संग्रह,चितेरी,के अलावा  सेप्पुकुऔर सच्चा झूठउपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं.हार्पर कॉलिंस ने सेप्पुकुका ब्रज शर्मा द्वारा किया अंग्रेज़ी अनुवाद छापा है.वे जल्द ही सच्चा झूठका अंग्रेज़ी अनुवाद भी छाप रहे हैं.इन दिनों विनोद भारद्वाज इस उपन्यास त्रयी का अंतिम भाग लिख रहे हैं.विनोद की कविताओं के अनुवाद अंग्रेज़ी,जर्मन,रूसी,पंजाबी,उर्दू,मराठी और बांग्ला में हो चुके हैं.इन दिनों दिल्ली  में रहकर आर्ट क्यूरेटर के रूप में सक्रिय हैं.

परख : आलाप और अन्तरंग (गोबिंद प्रसाद)

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कवि गोबिंद प्रसाद के सृजनात्मक-आलोचनात्मक गद्य 
आलाप और अन्तरंग’  पर राजेश कुमार का आलेख.






अनुभव संवेदन का गझिन ग्राफ़                          
राजेश कुमार

मानान्तरखड़ी-ऊर्ध्वमुखी रेखाओं के सहारे लिपटी-उलझी हुई डोरियाँ...या विचार-तन्तु कहें !जैसे सीधे खड़े हुए लम्बे-ऊँचे पेड़ों के साफ़ और छरहरे तने...और उनसे लिपटती-लड़खड़ाती विकसित होती बेतरतीब लताएँ. उनकी कलात्मक संरचना में उभरती विभिन्न आकृतियाँ.  आवरण पर यह रेखांकन ही जैसे पुस्तक के अन्तर्मन को मूर्त कर रहा हो. शीर्षक-- आलाप और अन्तरंग. लेखक-- गोबिन्द प्रसाद.

पेशे से प्राध्यापक गोबिन्द प्रसाद मूलतः कवि हैं...साथ ही चित्रकार और अच्छी समझ व शौकिया रियाज़ के साथ संगीत में रुचि रखने वाले सहृदय भी. युवाकाल की रंगमंचीय सक्रियता भी उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पहलू है. संक्षेप में, वे स्वयं में एक सम्पूर्ण संस्कृतिकर्मी हैं. ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के मौलिक चिंतन से बुनी हुई यह पुस्तक उनके ‘अन्तरंग का आलाप’भी है और ‘आलाप का अन्तरंग’भी.

कवि-कलाकार कैसे-कैसे और क्या-क्या सोचता है, सोचे हुए की अभिव्यक्ति कैसे करता है, उस अभिव्यक्ति का उद्देश्य क्या होता है, क्या वह जितना अभिव्यक्त करता है उतना ही सोचता है—साहित्य और कला में रुचि रखनेवाले प्रायः हर व्यक्ति में यह सब जानने की उत्कंठा होती है. इन प्रश्नों का संक्षेप में, किन्तु विस्तृत उत्तर है यह पुस्तक. संक्षेप में इसलिए कि लेखक ने एक विषय का विश्लेषण एक वाक्यांश से लेकर कुछ पृष्ठों तक किया है; विस्तृत इसलिए कि इसमें कथ्य की बुनावट इतनी गझिन और सूत्रात्मक है कि उधेड़ने पर उसके तार दूर-दूर तक फैले हुए विषय-सन्दर्भों को अपने घेरे में समेट लेते हैं. साहित्य-कला-समाज-दर्शन तथा सामान्य जन-जीवन से जुड़े प्रायः हर विषय पर लेखक के चिंतन की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में है.

गोबिंद प्रसाद
कला और साहित्य की विभिन्न विधाओं में सहज ही प्रवेश-प्राप्त गोबिन्द प्रसाद जिस विषय पर लिखते हैं उसी के विशेषज्ञ प्रतीत होते हैं. वे जो भी लिखते हैं, पूरे आत्मविश्वास, अधिकारभाव और ‘स्थापनाभाव’ के साथ; हालांकि उनकी केन्द्रीय विधा कविता है. इस पुस्तक में उनकी अधिकांश टिप्पणियाँ कविता और कवि पर ही हैं . भाषा में अभिव्यक्त होने से पहले कविता क्या है, इस पर उनकी स्थापना देखिए —

“कविता प्रकृति के समक्ष प्रार्थना रूप है जो हृदय के आकाश में शब्दातीत भास्वर होती रहती है.” (आलाप और अन्तरंग,पृष्ठ:85)

कविता को परिभाषित करने के उत्कृष्ट बौद्धिक चिंतन का यह ‘रहस्यात्मक’ स्तर है...थोड़ा गूढ़ भी है. दूसरा स्तर रहस्यात्मक होने के साथ-साथ थोड़ा सरल-सहज भी है —

“कविता रूह का लिबास है. (पृष्ठ:17)

एक तीसरा स्तर भी है,जो नितांत लौकिक है; जहाँ वे कविता को सामान्य जीवनानुभव के माध्यम से परिभाषित करते हैं —

“कविता मेरी बेतरतीबी की ‘कलाई पकड़’ है. वह मुझे हर बार तरतीब देने की कोशिश है. वह मेरे बेगानेपन से हाथ मिलवाती है.” (पृष्ठ:19)

पकड़ की सबसे मज़बूत विधि है ‘कलाई पकड़’. अब इस संयोग की ओर संकेत करना और भी रोचक होगा कि अपने युवाकाल में गोबिन्द प्रसाद ने पहलवानी भी खूब की है, जिसके प्रभाव से वे आज भी युवा हैं — श्रम से, शरीर से और शब्द से भी.

कविता के विविध आयामों को लेकर गोबिन्द प्रसाद ने इस पुस्तक में बहुत ही मौलिक और सुगठित चिंतन किया है. लय, ताल,  छंद, प्रतीक, रूपक, शब्द, अर्थ, भाषा, संवेदना, जीवन-दर्शन जैसे कविता के दर्जनों संघटक तत्वों पर उन्होंने घनी चर्चा की है. उनका हर वाक्य एक सूत्र होता है, जिसका विश्लेषण करने पर बातें स्वतः ही स्पष्ट हो जाती हैं.

इस क़िताब में खुसरो, कबीर, मीर, ग़ालिब, इकबाल, प्रसाद, निरालाआदि के माध्यम से विभिन्न साहित्यिक विषयों पर चर्चाएँ हैं और अज्ञेय, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह आदि की काव्यगत विशेषताओं से सम्बंधित विश्लेषणात्मक और यथाप्रसंग सूत्रात्मक टिप्पणियाँ हैं, जो हिंदी भाषा-साहित्य के अध्येता-अध्यापक तथा चिन्तक-सर्जक सभी के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं.

एक ओर जनपद के कवि त्रिलोचनगोबिन्द प्रसाद की दृष्टि में ‘अनावृत्त के कवि’हैं, जिनकी सहजता ही उनका आकर्षण है, उनके काव्य-मर्म की गहराई है तो दूसरी ओर वे काव्य-भाषा के सन्दर्भ में भाषा-सजग माने जाने वाले कवि अज्ञेय जैसे बीसवीं सदी के दिग्गज हिंदी कवि तक की आलोचना चुटकी लेकर करते हैं. एक जगह तो वे अज्ञेय-काव्य के अंतर्विरोध को ‘आध्यात्मिक छाया’ कहकर उनका बचाव करते हैं, लेकिन जब बात आधुनिकता के सन्दर्भ में भारत की खोखली सांस्कृतिक परम्परा की हो तो वे अपने इस प्रिय कवि को भी आड़े हाथों लेते हैं. दरअसल भारतीय आधुनिकता का अधिकांश दिखावा मात्र है. प्रगतिशीलता के तमाम दावे करके भी परम्परा के मोह में पड़कर अपने पिछड़ेपन से चिपका रहनेवाला ‘समाज का दर्पण’हिंदी साहित्य भी इस प्रवृत्ति से मुक्त नहीं. यह स्थिति और भी विडम्बनापूर्ण तब हो जाती है जब ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’का प्रतिनिधि कवि भी आधुनिकता के पैमाने पर कमज़ोर उतरता है. इस सन्दर्भ में गोबिन्द प्रसाद लिखते हैं --

“बावजूद आधुनिक कवि होने के,अज्ञेय में इस प्रश्नाकुल आलोचक व्यक्तित्व की छवि कुछ कमज़ोर जान पड़ती है . आधुनिकता की ताल पर गाते-गाते वस्तुतः कहीं गहरे अर्थों में आस्था की डोर से वे इस तरह भारतीय-संस्कृति और परम्परा की गोद में समाते जाते हैं कि विद्रोह की ललकार आस्था के द्वारा लील ली जाती है. अज्ञेय की आधुनिकता जैसे ही आध्यात्मिकता के गलियारे में प्रवेश करती है उसकी काव्य-दीप्ति मद्धिम पड़ने लगती है. ”(पृष्ठ:151) 
     
भाषा को व्यवहृत करने का गोबिन्द प्रसाद का तरीका निराला ही है. किसी कवि की चर्चा करते समय वे प्रायः पूरे काव्य-व्यक्तित्व का सूत्र ही प्रस्तुत कर देते हैं. कवि को समझने और उसकी कविता को परखने के लिए ये सूत्र जितने उपयोगी हैं,उतने ही रोचक भी . ‘प्रसाद-सूत्र’ (!) का एक उदाहरण देखें —

“ प्रसाद : प्रसाद अतीत के आइने को इतिहास-चिन्तन से प्रक्षालित करते हैं; बार-बार. शायद उन्हें भरम है कि खोया हुआ सांस्कृतिक गौरव और प्रेम (सम्बन्धों) की मादकता उन्हें फिर से मिल जाएगी . ” (पृष्ठ:143)

उनकी इस सूत्रात्मकता की चरम परिणति वहाँ होती है जहाँ वे एक ही वाक्य में किसी बात या व्यक्ति के लिए एकदम सही नाप का खाँचा तैयार कर लेते हैं. यह काम उनके लिए एक खेल है . अज्ञेय की नाप का एक वाक्य देखिए—

“ अज्ञेय : शब्दों की ओट में रहनेवाला कवि ! ” (पृष्ठ:131)
तो गोबिन्द प्रसाद की अभिव्यक्ति प्रायः सूक्तिपरक होती है, कविताओं में भी और आलोचनात्मक निबंधों-टिप्पणियों में भी. बल्कि कहना चाहिए कि उनकी गद्य-भाषा में काव्य-भाषा की सूक्तिपरकता का संक्रमण हुआ है. वे एक विषय को कई दृष्टियों से और कई कोणों से देखते हैं, तो उसकी अभिव्यक्ति भी उसी तरह करते हैं और एक ही विषय पर एक साथ कई सूक्तियाँ गढ़ लेते हैं. इस पुस्तक में तो यह सूक्तिपरकता उनके लेखन की केन्द्रीय प्रवृत्ति सी जान पड़ती है . कुछ उदाहरण देखें...थोक में..
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“ सुख का सातत्य आनन्द को जन्म नहीं दे सकता . ”(पृष्ठ:17);“ कविता रूह का लिबास है .” (पृष्ठ:17);“ लय अनुभव-संवेदन की गति का ग्राफ़ है . ”(पृष्ठ:17);“ तरतीब अपने क़िस्म का ठहराव है .”(पृष्ठ:43);“ मिथक : जातीय स्मृतियों एवं प्रक्कल्पनाओं का एलबम . मिथक : संस्कृति एवंकाल की रचनात्मक व्याज स्तुति . मिथक : काल की गोद में समाहित सम्पुंजितपरम्परा,इतिहास और संस्कृति का जीवाश्म (फॉसिल). ”(पृष्ठ:61);“ मुहावरा : किसी दुसरे का कमाया हुआ सत्य है .” (पृष्ठ:145)

ऐसे सैकड़ों उदाहरण इस पुस्तक में देखने को मिल जाएँगे. किन्तु वे केवल सूक्ति देकर अपना काम ख़त्म नहीं मान लेते,बल्कि सन्दर्भ-प्रसंग के अनुसार उनका विश्लेषण भी करते हैं . विश्लेषण के माध्यम से लेखक पाठक को वहाँ खींचकर ले जाता है जहाँ ‘अर्थ’ छिपा हुआ होता है . ऐसा ही एक विशिष्ट उदाहरण देखें —

“कवि हृदय का वकील होता है . ” (पृष्ठ:68)
सही को ग़लत और ग़लत को सही साबित करने की कुतर्क-प्रणाली के कारण अपनी नकारात्मक छवि के लिए ही वकील अधिक जाना जाता है...तो पाठक इस वाक्य को पढ़कर एक बार चौंकेगा ज़रूर — कितना विचित्र रूपक है ! लेकिन आगे लेखक ने जो विश्लेषण किया है,उसे पढ़कर पाठक संयत होगा —

“उसकी वकालत तर्क की झूठी बैसाखियों के सहारे नहीं वरन सच्चे मनुष्यत्व की नैतिकता और निष्ठा की अदृश्य बहनेवाली अन्तःसलिला-सी बहती है जिसके होठों पर सदा इनसानपरस्ती का राग फूटता रहता है . कवि का तो झूठ भी काम आता है कल्पना बनकर .” (पृष्ठ:68)

हालांकि विश्लेषण का उनका यह तरीका कभी-कभी उल्टा भी पड़ जाता है, बात समझ में आने की बजाय और उलझ जाती है. दरअसल वे सोचने की भाषा में लिखते हैं,तो उनकी भाषिक अभिव्यक्ति (वाक्यों की बनावट) अक्सर वैसी ही होती है. ऐसी भाषा में उनकी बातें आसानी से समझ में तो आ जाती हैं, लेकिन संकट यह है कि कोई भी व्यक्ति जितनी तेज़ी से सोचता है उतनी ही तेज़ी से लिख नहीं सकता. यानी सोच आगे चली जाती है और भाषा पीछे रह जाती है. तो सोच को पकड़ने की कोशिश में भाषा लड़खड़ा जाती है. चिंतन की लम्बी दूरी को जब भाषा कम समय और शब्द में तय कर ले तो सूक्ति बन जाती है, लेखक इसमें सिद्धहस्त है; लेकिन कई बार इसके विपरीत स्थिति भी आ जाती है — जब कम चिंतन को व्यक्त करने के लिए भाषा को अपेक्षाकृत अधिक लम्बी दूरी तय करनी पड़े.  

कई बार गोबिन्द प्रसाद अपनी संक्षिप्त किन्तु व्यावहारिक व्याख्यात्मक चर्चा के माध्यम सेहिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण सन्दर्भों पर ऐसा सूत्रात्मक निर्णय देते हैं जो सामान्यतः लम्बी बहस के बाद भी संभव नहीं हो पाता. मुंशी प्रेमचंद के कथा साहित्य पर भले ही अब तक दर्जनों किताबें लिखी-छापी जा चुकी हों,उनकी कालजयी कहानी ‘कफ़न’ की भी खूब चर्चा हुई हो,लेकिन ‘कफ़न’ शब्द को विभिन्न सन्दर्भों से जोड़कर इसके बहुआयामी मर्म को उद्घाटित करने वाला जो सूत्र गोबिन्द प्रसाद ने सहज ही ढूंढ़ निकाला वह नितांत नवीन है—

“ किसका कफ़न : बुधिया का...चमारों का...या चमारों के कुनबे का...या फिर गाँव वालों का xxx कहीं जाति व्यवस्था के कफ़न की बात तो नहीं कर रहे प्रेमचंद ? xxx कहीं समाज व्यवस्था का कफ़न तो नहीं...भारतीय संस्कृति का कफ़न ? ”(पृष्ठ:100)

भारतीय समाज, राजनीति, साहित्य और संस्कृति का केन्द्रीय मुद्दा बन चुके दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श पर भी लेखक की सार्थक टिप्पणियां इस पुस्तक में संकलित हैं. इनके मूल्यांकन के बहाने इन विमर्शों के पीछे छिपे अवसरवादी वर्चस्ववादियों पर भी उनकी सीधी नज़र है. शायद इसीलिए वे इन विमर्शों की लोकप्रिय, बहुप्रशंसित, लगभग सर्वसुलभ अच्छाइयों और मजबूतियों का नाम लिये बिना इनके तमाम अंतर्विरोधों,संकटों,कमज़ोरियों आदि की ही चर्चा अधिक करते हैं. अंत में भूल-सुधार करने की मुद्रा में दिये गए उनके निष्कर्षात्मक अंश अलग से चिपकाए हुए ज़रूर लगते हैं , लेकिन एक सामंजस्यपूर्ण समाज की स्थापना की दृष्टि से ये बहुत महत्वपूर्ण हैं.

सूचना-साम्राज्यवाद,भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के अप्रत्याशित वर्चस्व ने दलितों-स्त्रियों की मुक्ति के अवसर तो उपलब्ध कराए, साथ ही उनके शोषण के नए लुभावने तंत्र भी विकसित किए. शब्दों की संस्कृति उन्हीं में से एक है. लेकिन इस लेखक को शब्द-संस्कृति की गहरी समझ है, जिसका उपयोग वह दलित-विमर्श की सार्थकता के सन्दर्भ में बखूबी करता है --

“ मैं सोचने लगा ‘अछूत’ शब्द से ही ‘अछूती’ शब्द बनता है लेकिन दोनों में अर्थ का संसार कैसे दो किनारों पर जा बसा है. एक में (‘अछूती’) कितना भव्य,पावन और अनोखेपन का भाव है तो दूसरे (‘अछूत’)में कितना गर्हित, दालान, अन्याय और क्रूरता का सामाजिक (या कि अ-सामाजिक) कोढ़ !! कैसी विडम्बना है . समाज भी खूब है. अजब लीला है शब्दों की . ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूती कन्या’ .”(पृष्ठ:51)
       
गोबिन्द प्रसाद ने नियमित अभ्यास और पेशे के रूप में संगीत को भले ही न अपनाया हो,  लेकिन इस कला-रूप पर लेखन वे लगातार करते रहे हैं – कभी संगीत के अंग-प्रत्यंग पर तो कभी संगीतकारों के गायन-वादन पर. इस विषय से सम्बंधित उनके सूक्ष्म-समर्थ चिंतन के कई उदाहरण इस पुस्तक में भी संकलित हैं — कहीं विविध आयामों और दृष्टियों से ताल को परिभाषित करते हुए तो कहीं नाद को विश्लेषित करते हुए. एक टिप्पणी में वे अपनी सूक्ष्म दृष्टि और भाषा-शक्ति से ‘आलाप’ को परिभाषित करते हुए लिखते हैं –

“स्वरों के अनुत्क्रामी रूप से यत्किंचित विस्तार देते हुए नई राहों का अन्वेषण और नए आयाम देते हुए राग को अपने मूल में वही बनाए रखकर भी उसके स्वरूप को अधिकाधिक और चारुता के साथ पुष्ट करना ही आलाप है .” (पृष्ठ:74)

इतना सूक्ष्म और गहन विश्लेषण एक बहुविध कलावंत ही कर सकता है...और वही काव्य-चिंतन को संगीत-चिंतन से जोड़ सकता है --

“गद्य कविता को ऐसे ही समझो जैसे बिना साज़ के आवाज़ .”(पृष्ठ:27)

कला की तमाम विधाएँ सामान रूप से महत्वपूर्ण हैं,शायद इसीलिए लेखक की कलात्मक प्रवृत्ति भी बहुआयामी है. गोबिन्द प्रसाद कला को जीवन से इतर नहीं मानते. उनकी दृष्टि में कला जीवन का मर्म है, जीवन का विवेक है,जीवन जी समग्रता है. वे कला के प्रति जितने चिंतनशील हैं उतने ही चिंतित भी. लिखते हैं कि कला का प्रारम्भ एक ‘आदि कौशल’ से होता है. इसी आदि कौशल का विशिष्ट रूप एक पद्धति के रूप में विकसित होकर कलाकार की शैली बन जाता है. यहीं से वह एक ‘ब्रांड’ या ‘ब्रांडनेम’ में तब्दील होने लगता है. अपनी विकसित पद्धति के आधार पर जब कलाकार कला को एक ‘तंत्र’ के रूप में अपनाता है तो वह (कला) ‘प्रोडक्शन’ (उत्पादन) में बदल जाती है. यहीं से बाज़ार कला पर नियंत्रण करने लगता है. इसीलिए वे कला को ‘ब्रांड’ या ‘प्रोडक्शन’ नहीं होने देना चाहते; वे बाज़ार-तंत्र को कला पर हावी नहीं होने देना चाहते. लेकिन इससे आगे उनकी चिन्ता और भी गहरी है. उन्हें लगता है कि इस ‘अल्ट्रा आधुनिक संस्कृति’ में (कविता और) कला के लिए कहीं कोई अवकाश नहीं. वे चिंतित हैं कि कहीं तमाम विलुप्त प्रजातियों की तरह प्राण-वायु रूपी कला और कविता भी धरती से मिट न जाए ! यह लेखक की केवल चिंता नहीं, ‘प्राण-वायु’ के लिए उसकी व्याकुलता भी है.

गोबिन्द प्रसाद केवल कला और कला-समय के प्रति ही चिंतित नहीं हैं; इस पुस्तक में यथाप्रसंग वे अन्य विभिन्न समकालीन समस्याओं के प्रति भी अपनी चिंता व्यक्त करते हैं. एक टिप्पणी में वे अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के संकट को बड़े ही रोचक ढंग से एक ऐसे रूपक के माध्यम से व्यक्त करते हैं, जहाँ पूँजीवाद तांगा है, पूँजीवादी और दलाल उसकी सवारियाँ हैं,आम आदमी तांगे में जुता घोड़ा है,आतंकवाद चाबुक है और लोकशाही तंत्र कवच. लेखक चिंतित है कि आख़िर घोड़े की जान कैसे बचे ! विडंबना यह है कि आतंकवाद का चाबुक पड़ते ही घोड़ा अपना दुख-दर्द भूलकर पूँजीवाद की सवारियों को उनकी मंज़िल तक पहुँचाने के लिए पहले से भी तेज़ गति से दौड़ पड़ता है. वे पूँजीवाद की बैसाखी पर चलनेवाली भारतीय राजनीति पर व्यंग्य करते हैं और राजनीति से इतर समाज के हाल-चाल से भी असंतुष्ट हैं. समकालीन समाज में शराफ़त का ‘फ़ालतू’ हो जाना और इंसानियत का ग़ैर-ज़रूरी हो जाना भी उनकी चिंताओं में शामिल है --

“उसने कहा , ‘ज़रुरत से ज़्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए .’ मैंने कहा , ‘ इनसानियत भी नहीं ?’ अचकचाकर उसने कहा , ‘ इनसानियत ! उससे तो ज़रूरत भी पूरी नहीं होती ....ज़्यादा की तो बात छोड़िए .’(पृष्ठ:59)

हिंदी-संस्कृत-अंग्रेज़ी के अलावा गोबिन्द प्रसाद उर्दू और फ़ारसी के भी विद्वान हैं.उन्होंने उर्दू से हिंदी में महत्वपूर्ण अनुवाद किये हैं; कई वर्षों से ईरान कल्चर हाउस, नई दिल्ली के फ़ारसी शोध केंद्र द्वारा संयुक्त रूप से चार भाषाओं (फ़ारसी-अंग्रेज़ी-हिन्दी-उर्दू) में प्रकाशित होने वाले शब्दकोश ‘फ़रहंग-ए-आर्यान’ के संपादक-मण्डल में शामिल हैं. उनका लेखन विविध विषयों के प्रति उनकी रुचि का प्रतिबिम्ब है. उनकी बातचीत और टिप्पणियों  में अक्सर मीर, ग़ालिब, इक़बाल, जिगर, शाद, हसन नईम, दाग़, अहमद फ़राज़आदि की शायरी शामिल रहती है. इनके बिना जैसे उनकी बात ही न पूरी होती हो. उर्दू की बात करते हुए तो उनकी शब्दावली भी उर्दूनुमा हो जाती है. हालांकि वे हिंदी-उर्दू को एक ही मानते हैं ; बस दोनों का मिज़ाज थोड़ा अलग है — इसे वे अपने तार्किक-प्रामाणिक विश्लेषण से सिद्ध भी करते हैं —

“भाषा (दोनों भाषा) अलग नहीं हैं...फ़क़त भाषा का स्वभाव अलग है : एक का मिज़ाज और तबीयत कुछ दुनियावी रंगत लिए हुए ज़्यादा है...उसके लिबास में कुछ नफ़ासत पसन्दी और शोख़ अदाओं से दिल में उतरने वाली मदहोशी कुछ इस क़दर है कि चेतना को सुला दे,हिस्सो-हरकत को भुला दे . और दूसरी में जैसे चेतना के समुद्र-तल में बहती प्रशांत लहरें...मानस के आकाश में उड़ती दिव्य  छायाएँ,अर्थ-छटाओं की सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों को...रूप-छटाओं के प्रकाश-पुंजों को छूने की ललक – एक अन्तरतम में निर्धूम ज्वाला की पावन लौ की दीप्ति का बोध लिये अपने भीतर ! ”(पृष्ठ:67)

लेखन में गंभीर विचार-विमर्श करते हुए गोबिंद प्रसाद हास्य-व्यंग्य को भी शामिल करते चलते हैं...बड़ी कुशलता से विषय का विश्लेषण भी करते हैं और मौक़ा मिलने पर चुटकी भी लेते रहते हैं. वे उर्दू भाषा की विशेषताओं का केवल काव्यात्मक विश्लेषण ही नहीं करते , बल्कि उसकी लिपिगत कमज़ोरी पर भी नज़र डालते हैं ; हम भी नज़र डालें...बहुत दिलचस्प है...

“ बहुत से शब्द ऐसे हैं जहाँ ‘ज़ेर’ न लगाई जाए तो शब्द कुछ से कुछ हो जाएगा xxx एक बार एक साहब ने ‘किताबचा’ को कुत्ता बच्चा पढ़ दिया . एक बार एक साहब ने ‘मुतनव्वो’ लफ्ज़ को ‘मुतनू’ कहकर एक बड़े नक़क़ाद की शख्सियत में ‘चार चाँद’ अनजाने ही लगा दिए . ”(पृष्ठ:95)

तो भाषा पर गोबिन्द प्रसाद की पकड़ बेजोड़ है. यह पुस्तक विविध विषयसन्दर्भों के अतिरिक्त भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी उनकी एक विरल और महत्वपूर्ण उपलब्धि है . इसमें बहुत से नए विषय हैं,नई दृष्टियाँ हैं;लेकिन जहाँ पुराने विषय हैं वहाँ भी लेखक के मौलिक चिंतन और भाषा-शिल्प की नवीनता ने उन्हें रोचक और संप्रेषणीय, फलतः महत्वपूर्ण बना दिया है.

इधर काफ़ी लम्बे समय से आलोचना के सन्दर्भ में दो महत्वपूर्ण सवाल उठते रहे हैं – पहला,क्या आलोचना रचना है ? दूसरा, आलोचना की भाषा इतनी बनावटी और नीरस क्यों है...क्या इसका कोई विकल्प नहीं ? इन दोनों ही सवालों का ज़वाब है यह किताब. आलोचना की भाषा भी सरल-सहज, स्वाभाविक और सरस-रोचक हो सकती है. इस किताब में संकलित लेखक की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ इसका अच्छा उदाहरण हैं. इन टिप्पणियों की भाषा अपनी स्वाभाविकता और सरसता को समेटे हुए उस कलात्मक ऊँचाई तक जाती है जहाँ पहुँचकर कोई भाषिक अभिव्यक्ति ‘रचना’ के पद पर प्रतिष्ठित होती है. कवि का गद्य अन्य से इतर और विशिष्ट होता है. यह गद्य-भाषा हिंदी आलोचना को नई धार और इस विधा से विरक्त पाठक के हृदय में इसके प्रति सहर्ष सशक्त स्वीकार्यता देगी.

गोबिन्द प्रसाद का यह सृजनात्मक-आलोचनात्मक गद्य भविष्य के आलोचक को भाषा का सरस और सहज स्वीकार्य संस्कार देगा. 
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राजेश कुमार
8755201713
rabbijnu@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अविनाश मिश्र : नवरास

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कांगड़ा पेंटिग





12 वीं शती के महाकवि जयदेव विरचित ‘गीतगोविन्द’ ऐसी कृति है जिसकी अनुकृति का आकर्षण अभी समाप्त नहीं हुआ है. केवल भारतीय भाषाओँ में इसके २०० से अधिक अनुवाद हुए हैं. हिन्दी के भीष्म पितामह भारतेंदु ने १८७७ – १८७८के बीच ‘गीत- गोविन्दानंद’ शीर्षक से इसका अनुवाद किया था. शब्द और स्वर के इस महाकृति को इस लिए भी जाना जाता है कि इसमें पहली बार राधा अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ उपस्थित होती हैं.    

युवा कवि  अविनाश मिश्र  ने नव रास नाम से ये जो ९ कविताएँ लिखी हैं, गीतगोविंद से प्रेरित हैं. अनुवाद नहीं हैं इसलिए समकालीन हैं. प्रेम में श्रृंगार और चाह के  साथ यातना और वेदना का भी संग –साथ रहता है. आज ख़ास आपके लिए.



नव रास                                                                         
[ जयदेव कृत ‘गीतगोविंद’ से प्रेरित ]

अविनाश मिश्र 




ll कृष्ण ll
[ संध्या ]

मैं महत्वाकांक्षा के अरण्य में था
जब तुम मुझे लेने आईं
आवेगों से भरा हुआ था तुम्हारा आगमन
सारा संघर्ष तुम्हारा मेरी बांहों में समा जाने के लिए था

अब देखती हो तुम मुझे
महत्वाकांक्षाओं के संग रासरत 

मैं भूल गया हूं तुम्हारा आना
मैं भूल गया हूं तुम्हें
मैं भूल गया हूं आवास  
*



ll राधिका ll  
[ निशा ]

मैंने कानों में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने नाक में कभी कुछ नहीं पहना 
मैंने गले में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने कलाइयों में भी कभी कुछ नहीं पहना 
और न ही पैरों में

मैंने अदा को
अलंकार से ज्यादा जरूरी माना

अलंकार कलह की वजह थे
और प्रेम परतंत्रता का प्रमाण-पत्र
*



ll सखी ll  
[ ऊषा ]

अतिरिक्त चाहने से
किंचित भी नहीं मिलता

उसने चाहा चांद को
और पाया :
‘विरह का जलजात जीवन’  

कोई स्त्री पहाड़ नहीं चढ़ सकती 
कोई पुरुष नहीं लिख सकता कविता 

तुम रोको स्त्रियों को पहाड़ चढ़ने से 
और पुरुषों को कविता लिखने से
* 



ll कृष्ण ll
[ संध्या ]

चुनौतियों में उत्साह नहीं है
समादृतों में बिंबग्राहकता
देखना ही पाना है
बेतरह गर्म हो रहा है भूमंडल
आपदाओं में फंसी है मनुष्यता
दूतावासों में रिक्त नियुक्तियां
तवायफें अब भी सेवा में तत्पर
प्रेम कर सकता है कभी भी अपमानित
रोजगार कभी भी बाहर       
*



ll सखी ll 
[ निशा ]

तुझे पाकर भी तुझे भूलता है वह
तू नहीं हो पाती उसकी तरह
कि याद आए उसे

वह भयभीत है महत्वाकांक्षाओंके भविष्य से
तू अभय दे उसे
उसे आकार दे तू      

गीली मिट्टी की तरह
तेरे प्यार के चाक पर घू म ता हुआ
अब तेरे हाथ में है वह जो चाहे बना दे
*



ll राधिका ll
[ ऊषा ]  

मेरीमहत्वाकांक्षाओंमें कोई दिलचस्पी नहीं
एक बड़ी झाड़ू है मेरे पास
इससे मैं बुहारा करती हूं आस-पास की महत्वाकांक्षाएं
इस बुहारने में ही मिलती हैं मुझे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
इन्हें न मैं जांचती हूं
न बुहारती हूं
मैं बस इन्हें उठाकर रख देती हूं
किसी ऐसे स्थान पर
रहे जो स्मृति में  
*



ll कृष्ण ll
[ संध्या ] 

मैंउजाले का हारा-थका
अंधेरे में तुम्हारे बगल में लेटकर कहता हूं  
कि न जाने कहां खो दीं
मैंने अपनी महत्वाकांक्षाएं

तुम अपने बालों को
मेरे चेहरे पर गिरा
अपने होंठों से
बंद करती हो   
मेरा बोलना
*



ll राधिका ll
[ निशा ] 

तुम्हारी स्मृति बहुत कमजोर हो गई है
मैं देती हूं तुम्हें तुम्हारी स्मृति
तुम्हारा स्थान
जहां मिलेंगी तुम्हें
तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
जो न मेरे लिए अर्थपूर्ण हैं
न अर्थवंचित
लेकिन जिन्हें मैं बचाती आई हूं
अपनी बड़ी झाड़ू से
*



ll कृष्ण ll
[ ऊषा ] 

सब नींद में हैं
सब बेफिक्र हैं
सब स्वयं के ही दुःख और दर्द से
व्यथित और विचलित हैं

इस दृश्य में मैं खुद को इस प्रकार अभिव्यक्त करना चाहता हूं
कि लगे मैं इस ब्रहमांड का सबसे पीड़ित व्यक्ति हूं
लेकिन तुम यूं होने नहीं देतीं

छायाकार  सुघोष मिश्र
तुम जिनकी जिंदगी में नहीं हो
उन्हें नहीं पता कि उनकी जिंदगी में क्या नहीं है
***
_______________________
संदर्भ : ‘विरह का जलजात जीवन’ महादेवी वर्मा के एक गीत की पंक्ति है.   


अविनाश मिश्र
युवा कवि-आलोचकप्रतिष्ठित प्रकाशन माध्यमों पर रचनाएं प्रकाशित और चर्चित.
पाखीमें सहायक संपादक
darasaldelhi@gmail.com
____________
कुछ कविताएँ यहाँ  पढ़ें और  आलेख भी.


सहजि सहजि गुन रमैं : मनोज कुमार झा (६ कविताएँ)

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पेंटिग : LAXMA GOUD


मनोज कुमार झा हिंदी कविता में न परिचय के मोहताज हैं न किसी प्रस्तावना के.
उनकी कविता की अपनी जमीन है जिसे उन्होंने मशक्कत से तैयार किया है.
किसी तात्कालिक उपभोक्तावाद में उनकी कविताएँ नष्ट नहीं होतीं.
सरलीकरण के मानसिक आलस्य से  बाहर निकलकर वे  खुद काव्यास्वाद के लिए चुनौती पेश करती हैं.
उनकी ६ कविताएँ आपके लिए.


मनोज कुमार झा की कविताएँ                                 







पदचाप

सीटी की आवाज
बिजली के पोल पर ठकठक
चिड़िया फड़फड़ाई
पीछे से उठा ट्रेन का घड़घड़
सब कुछ तो सुनाई पड़ रहा
पर रात के दो बजे जो कर रहा मुहल्ले की रखवाली
क्यों छुप गयी है उसके पैरों की आवाज.




नहीं बची करूणा

जय जय करते धरम की
इतनी जोर से कि रोने लगे दूध पीता बच्चा
मगर पूरे टोले में नहीं एक को भी साध
रामचरित के पारायण की
दसकोसी में नहीं कोई जिसकी आँखों
में बचा हो राम कथा का करूण जल.

कहते हैं योगानंद वैदिक को सब था याद
उनके शरीर में अक्षरों का विष था
पर जब करते रामायण का पारायण तो बन जाते गाय
मगर कोई नहीं बचा पाया उसको
कमौआ बेटा ने कुछ कहा अंग्रेजी में
जैसे किसी ने ताड़ पर चढ़ा कर नीचे कुल्हाड़ी
मार दी हो
वो सूखते गए जैसे सूख जाती गाय की छीमियाँ

और एक दिन पढ़ते पढ़ते अरण्य कांड
लुढ़क गए चैकी से
पंच आए घर के सामान बाँटने
गूँगे अक्षर-वंचित बेटे ने ताका रामचरित मानस को
और देखा उलट पलट कर
देखता रहा उस चित्र को
जिसमें राम के बगल में खड़ी हैं सीता
नीचे प्रांजल संस्कृत बोलने वाले कपीश
फिर तो कोई बचा ही नहीं राम की करूणा का सुमरैया

वो तो अपने नहीं लगते जो बचा रहे धरम.




कदाचित आमंत्रण

आस पास कहीं पानी का प्रदेश नहीं है
लेकिन इस कुहासों वाली रात में
ज्यों माथों पर जल का छींटा पड़ता है बार बार
लगता है कोई नाव चला रहा है.

बार बार खोलता हूँ किबाड़
बार बार खिड़की का पल्ला
कोई नाव चला रहा है
जैसे कोई नाव चला रहा है.

नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़
नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छूआ था
इन अँधियालों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चल रहा है !

ऐसी ही रात थी
ऐसा ही गफ्फ कुहासा
रात नहीं जल पाई लाश हजारों लोगों के उस गाँव में
पोखर के किनारे मसान में छोड़ी गई लाश पुलिस के डर से
अंधेरा चढ़ते ही खाया था जहर
माँ बैठी रही भगाते सियार कुकुर
दो दिन चार दिन दिन में भी कुहासा
फिर शादी ब्याह ढ़ोल तमाशा
अंतिम तस्वीर उसी पोखर की करीब चार साल पहले के
वो तैरने में माहिर, मैं नवसिखुआ कमजोर.

ओह, यह नाव कौन चला रहा है
कुहासा रात को और कितना घेरेगा,
रजाई क्यों लग रही इतनी भारी लगती ज्यों पानी में
कुत्ते भी भौंककर थक गए, कुहासा जम रहा सीने में
तू ही कुछ कह ओ मेरी नींद कि
मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है.




खिलौना भी डराता है

अभी अभी सोया है वह बच्चा
पाँच मिनट पहले तक वह मजदूर था
अभी उतरी है चेहरे पर बाल्य की आभा
कि तभी मालिक हुड़कता है
कि धोया नहीं तीन जूठे ग्लास
आँखें मलते हुआ वह मजदूर पुनः
और फिर सो गया थकान लपेटकर
भूख की किरचें गड़ती हैं ऐंठी हुई नींद में जगह जगह

हरी घास देखता है अधनींद में
सोचता है कि बेहतर था घोड़ा होना
कि तभी दिखा एक खिलौना जैसे-रंगों का गुच्छा
हुलसा कि तभी काँपा हिया कि खिलौने में मालिक का हाथ तो नहीं.


  

विवश

अब मैं तुझे क्या दूँ
क्या छोड़ जाऊँ तेरे साथ
मेरे पास कुछ किताबें थीं जैसे आइनों का गुच्छा
एक एक अक्षर शीशा था
वो सारे कहीं लुप्त हो गए
मैंने तो अपनी नीम-बेहोशी में अक्षरों को किताबों से छूटते देखा
कई बार तो कई पन्ने देखे बहुत दूर
कटी पतंग सी हवा में फरफराते
कोई साथ ही नहीं देता मेरी किताबों की दुगर्ति
का निगेटिव फोटो बनाने में
मैं एक सिरा सौंप सकता हूँ तुमको इस बेरौनक कथा का

कई संहतिया थे मेरे जो पोखर किनारे के पेड़ थे
तीन-चार तो तीस के भीतर ही रह गए
कई पचास से पहले
जैसे लहलहाते खेत को पाला मार गया
उजड़ गई बाँसों की बाड़ी
अब जो बचे हैं उसे दोस्त सँभलकर कहना पड़ता है
बड़े हुनरमंद थे सारे
पर सारे मशीन हो गए
दुनिया की नकल की मशीन
वो मशीन जो कुछ जोड़ती नहीं दुनिया में
अकाल मरे जो दोस्त
दोस्त जो हुए मशीन कुकाल
मैं इनकी कथाएं सुनाता
पर जाजिम फट गई है जहाँ तहाँ
जैसे पेड़ पर खड़े भुट्टे से ही किसी ने चुन लिया दाना
कुछ भी नहीं मेरा हासिल
धवल संघर्ष नहीं कोई
इन टेढ़ी उँगलियों बाले हाथों से कैसे सहलाउँ माथा, दूँ आशीष
पाँकी नदियों से घिरी मेरी रातें
सूखे पेड़ों के वन में गुजरे मेरे दिन
मैं तुझे खाने को कहता साथ-साथ
मगर चले जाओ बहुत सुन्दर बनाती है तेरी माँ बथुआ का साग
मुझे भी कल यहाँ से निकल जाना है.



उद्गम

कितने अधिक रंग हो गए इस दुनिया में
और कितने कम उसको थामने के धागे
अपने शरीर के रंग में मिलावट करती हैं तितलियाँ
और गुजारिश करता है अपने रंगों को
बचाने को व्याकुल थिर फूल
कि सखि रंग के भरम में मत डूबो
चलो मिलते हैं अपने पुराने गुइयों पानी से कि
करोड़ों बरसातों में पा-पाकर अमित प्रवाह
लाखों प्रदेशों में पा-पाकर बहुवर्णी निवास

कैसे बचा है अबतक अपने पुराने रंग में.
___________________ 



मनोज कुमार झा

जन्म ०७/ ९/ १९७६  बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में
शिक्षा - विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित
एजाज अहमद की किताब रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्स का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित.
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए विक्षिप्तों की दिखन पर शोध. संवेद से कविताओं की प्रथम पुस्तिका ‘‘हम तक विचार’’ प्रकाशित. कविता संग्रह ‘‘तथापि जीवन’’ प्रकाशित.
2008 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित. 2015 का भारतीय भाषा परिषद के युवा सम्मान से सम्मानित.
सम्पर्क
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा - 846004
मो- 099734-10548

रंग - राग : अखिलेश से पीयूष दईया का संवाद

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(पीयूष दईया और अखिलेश, फोटो द्वारा  योगिता शुक्ल)

28अगस्त को मशहूर चित्रकार अखिलेश अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे करने जा रहे हैं.
कोलकोता में १ दिसम्बर को अखिलेश जी की षष्ठिपूर्ति के सिलसिले में एक बड़ी प्रदर्शनी का आयोजन किया जा रहा है और वहाँ अखिलेश की ७ नयी किताबों का विमोचन भी होगा.
कवि – संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया ने अखिलेश से यह बातचीत हाल ही में सम्पन्न की है, और समालोचन पर ही प्रकाशित हो रही है.
संवाद एक रंग-पीले रंग, पर एकाग्र है. 
इस किस्म का संवाद शायद ही कभी किसी चित्रकार के साथ किया गया हो.
  

रंगों के बखान मेंपीताभ का वैभव                
___________________________________

अखिलेश से पीयूष दईया की  बातचीत



1.आप के चित्रों में रंग-लीलापर आग्रह प्रमुख है. रंगों के प्रति आप का आकर्षण व क्रीड़ा-भाव क्या बचपन से ही था? छुटपन में आप को स्वभावतः कौन से रंग ज़्यादा पसंद थे? और बचपन की दुनिया में पीले रंगसे आप का रिश्ता किस किस्म का था?

पेंटिग : अखिलेश 


रंगों के प्रति आकर्षण एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. मेरे ख्याल से सभी रंगों से प्रभावित होते हैं और अपने को उसके प्रति अनजाने में खींचा पाते हैं. ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो रंगाकर्षण को याद रख पाता हो. ​मेरा रंग के प्रति आग्रह उतना ही सहज रहा होगा जितना मैंने महसूस किया जिसे मैं सिर्फ कपड़ों के स्तर पर याद कर पाता हूँ. बचपन में मैं चित्रकला के प्रति अरुचि रखता था और इन सब से दूर रहा करता था. रंग लगाना या चित्र बनाना, इन सब से दूर, बाहर खेल मैदान में मेरा समय गुजरता था.

मेरे सभी भाई बहन चित्र बनाते थे. मेरे पिता चित्रकार थे. घर भर में चित्र और चित्रकला की बातें बिखरी रहा करती थीं जिनमें मेरी रुचि न के बराबर हुआ करती थी सिर्फ इसलिए कि ये सभी जो कर रहे हैं मुझे नहीं करना है. किसी भी रंग से कोई नाता बनाए बगैर मेरा बचपन अछूता रहा आया. पीला ही क्यों ? इस अछूते रंग समय में मेरी दुनिया खेलों के साथ अपना सम्बन्ध बनाए हुए थी जहाँ कीचड़, धूल, मिट्टी के रंगो का बोलबाला था. हाँ, कपडे पहनने में मेरे पास रंग की पैलेट खुली हुई थी. मेरे पिता चित्रकार थे और उनकी रुचियाँ लघु चित्रों से प्रभावित थी. हम लोग कम ही सही किन्तु रुचिपूर्ण और रंगदार कपडे पहनते थे. एक बार मैंने इतना भड़कीला कुरता सिलवाया था कि उसे पहन कर मैं ही खुद काँप उठा था. बमुश्किल उसे दूसरी बार पहना.


2.क्या ऐसा कहा जा सकता है कि बचपन/लड़कपन में जिन रंगों की तरफ़ आप का ध्यान व अनुराग अधिक व गहरा था, वे ही रंग आगे जा कर आप की रंग-पैलेट बने या वयस्क/ परिपक्व होने के बाद रंगों को लेकर आप का चुनाव वही नहीं रहा जो बचपन में था?
दूसरे शब्दों में, आगे जा कर जिन रंगों से प्रमुखतः आप की रंग-पैलेट बनी, क्या आप उन के प्रति बचपन से ही सजग थे? और क्या उन रंगों के प्रति आप का रंगानुराग गहरा व उज्ज्वल था? क्या उन दिनों पीला रंग आप का पसंदीदा रंग थाअब पलट कर सोचने-देखने पर आप को क्या लगता है?



हाँ, यह सच है. बचपन में जिन रंगों से मेरा सम्बन्ध बना था, ज्यादातर अनजाने में, बाद में वो सम्बन्ध उन रंगों से नहीं रहा. मैं इन धूसर रंगों को अपनी पैलेट अब नहीं देखता. जब कल महाविद्यालय गया तब भी इन रंगों के बजाय मुझे जीवन्त और खिले खिले रंग पसंद थे. ये तो नहीं कहूँगा कि उन रंगों का इस्तेमाल मैं किसी समझ के साथ करता था या किसी आकर्षण के कारण किन्तु सहज ही उन्हें लगाया करता था. इन सब रंगों की समझ या रंग के महत्व का अहसास भी नहीं था बल्कि चित्र में रंग का कोई महत्व होता है इसका अहसास बहुत बाद में हुआ.

पलट कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरा ध्यान उन दिनों रूप पर अधिक था, संयोजन दूसरी चुनौती लगाती थी, स्पष्ट रेखांकन ज्यादा महत्व का होता था. इन्हीं के प्रति लगाव, इन्हीं की चाहना मुझे उलझाये हुए थी. पीला रंग ही क्यों सभी रंग मेरे लिए समान रहे और मेरा ध्यान कला के अन्य पक्षों की तरफ रहा. मेरा रंगानुराग गहरा था उज्ज्वल भी था किन्तु केन्द्रित न था. रंग चित्र का केन्द्र हो सकते हैं इसका अभिज्ञान बहुत बाद में हुआ.



3.चित्र बनाने के अपने शुरुआती दिनों में आप ने काले रंग में ख़ूब काम किया. बल्कि आठ साल तक आप ने सिर्फ काले रंग में ही काम किया. काले रंग के साथ ही काम करते रहने के इस ऑब्सेशन के पीछे क्या वजहें रहीं? बल्कि आप ने काला रंग ही क्यों चुना? मसलन, पीला क्यों नहीं?



येही वो जगह है जहाँ मेरा ध्यान रंगों की तरफ गया और मैंने काले रंग में लम्बे समय तक काम किया. १९७८ की बात है जब मैंने पहली बार किसी अमूर्त चित्र प्रदर्शनी को देखा. रज़ाके चित्रों की प्रदर्शनी भोपाल कला परिषदमें लग रही है यह जान कर हम तीन दोस्त कादिर, हरेन शाहऔर मैं इन्दौर से आये और पहली बार इस प्रदर्शनी को देख मुझे रंग महत्व का ज्ञान हुआ. पहली बार मैंने इतने मुखर, इतने स्पष्ट और आकर्षक रंग अहसास को महसूस किया और जाना कि चित्रों में रंग का महत्व क्या है. इसी दौरान मैंने वैन गॉगका खत भी पढ़ा था जिसमें उसने अपने भाई थियोको लिखा कि भविष्य का चित्रकार रंगों का चित्रकार होगा. वो डेढ़ सौ साल पहले देख रहा था बाद के चित्रकारों का भविष्य. ये दोनों बात जुड़ गयीं और मैंने अपने को एकाग्र किया रंगों पर. जल्दी ही पता चल गया कि इस आरोपण के कारण या इस विचलन के कारण मेरा सामान्य रंग प्रयोग भी फीका होने लगा है. रंग की ताकत और उसका दूभर होना दिखाई देने लगा. रंग आसानी से नहीं आ जाते. आपके हाथ काँप जाते है उसे लगाने में.  कई बार चित्रकार हिम्मत कर उसे लगा देता है किन्तु अगले ही पल उसे वश में करने के लिए दूसरे रंग से धूसर करने लगता है. रंग लगाना ही काम नहीं है उसे सम्भालना और फिर उससे वो कहलाना जो आप चाहते हो यह सब एक लम्बी और मुश्किल प्रक्रिया है.

जब उस प्रदर्शनी को देखने के बाद मेरा रंगप्रयोग उखड गया तो मैंने अपने घर आने वाले उन अनेक चित्रकारों से रंगप्रयोग के बारे में पूछना शुरू किया. अब मैं जानता हूँ, उस वक़्त नहीं जानता था, कि उनके पास भी कोई जवाब न था. उस वक़्त सभी ने जो भी कहा वो इतना विरोधाभासी था कि मैं ही भ्रमित हो गया और उस वक़्त मसीहा की तरह एक चित्रकार, जो मेरे पिता का विद्यार्थी भी था, धवलक्लांतने मुझे कहा यदि रंग को समझना चाहते हो तो छह महीने सिर्फ काले रंग में चित्र बनाओ.

काले रंग का चुनाव मेरा नहीं था धवलक्लांत का था और वे मेरे घर आने वाले अनेक चित्रकारों में विशिष्ट स्थान रखते थे, उनके चित्र देखने उनके घर जाना होता था और वे काले रंग और अनेक प्रयोगों के साथ अपने चित्र को एक रिलीफ जैसा बनाया करते थे. काले रंग की अनेक परतें,अनेक रंगतें, अनेक ऊबड़-खाबड़ टेक्सचर उनके चित्रों में विचित्र आकर्षण पैदा करते थे. उनका नाम था धवलक्लांत, उसमें भी विरोधाभास दीखता था. और कामों में भी अजीब सा विकर्षण, कुछ अलग सी गन्ध जो शायद सरेस या किसी तरह के गोंद की होती थी, जिसमें कभी कभी फंगस भी लगी होने के कारण उसकी गन्ध भी उसमें लिपटी रहती, जिसे वे दिखाने के लिए उसी वक़्त साफ़ कर रहे होते थे. ये सब आकर्षित करता था और वे रंग भी जो मात्रा में बहुत कम होते थे.

सो उनकी सलाह पर मैंने काम शुरू किया काले रंग में और लगभग दस सालों तक सिर्फ काले रंग का ही सहारा रहा.

यह स्थिर विचार (obsession) सिर्फ रंग को उसकी सत्ता में लगाने की कूवत हासिल करने के लिए रहा. मैं रंग को मारना नहीं चाहता था लगाना चाहता था. बहुत छोटी सी ख्वाहिश थी. रंग का सामना करना चाहता था अपने कैनवास पर. उस वक़्त मेरा अनुभव यही कह रहा था कि कैनवास पर रंगानुभव करना बहुत मुश्किल है और रज़ा के चित्रों में उसको फलित होते देखा था. काले रंग का चुनाव मेरे लिए लाभदायक रहा और यदि वो उस वक़्त पीले रंग के लिए कहते तो शायद पीले रंग में यह सब अनुभव करता.    ​


4.अपनी एक बातचीत में आप ने कहीं कहा है कि पीले रंग में काम करना किसी भी कलाकार के लिए अत्यन्त चुनौतीपूर्ण है. लेकिन ऐसा आप को क्यों लगता है? पीले रंग में आख़िर ऐसा क्या काठिन्य छुपा है
Franz Marcने लिखा है :  "Blue is the male principal, stern and spiritual. Yellow the female principal, gentle, cheerful and sensual. Red is matter,  brutal and heavy and always the colour which must be fought and vanquished by the other two."

पेंटिग : अखिलेश


​हम अपने जीवन में दो रंगों को अनजाने लगातार अनुभव करते रहते हैं. नीलाऔर हरा. हमारे सर के ऊपर तना नीला आसमान लगातार अपनी चुपचाप उपस्थिति दर्ज कराता रहता है और प्रकृति में फैला हरा रंग हम हमेशा देखते हैं. अधिकांश चित्रकारों की रंग पैलेट इन्ही दो रंगों से संचारित है. आभूषण के तौर पर लगा लाल टीका लगाते मैंने कई चित्रकारों को देखा है. कोने में एक लाल टिपकि लगा कर उसे पूरे कैनवास पर लगाए रंग से सँभालने का काम करते हुए अक्सर बहुत से चित्रकार मिल जायेंगे. जिन्हे शायद यह अहसास ही नहीं हुआ हो कि रंग चित्र में बराबर का हिस्सेदार है. इसी तरह पश्चिम के चित्रकार के लिए धूसर रंग की लगातार उपस्थिति उसके मानस को संचारित करती है. चित्र बनाते वक़्त जिस तरह अपने महाविद्यालय के दिनों में मुझे अहसास नहीं था रंग के महत्व का. 

पीला रंग, मुझे लगता है, किसी भी तरह का समझौता नहीं करता, वह आपको अपनी उपस्थिति से लगातार विचलित करता है कि बगैर मुझे पालतू बनाये, बगैर मेरे रूप को बिगाड़े, बगैर कोई समझौता किये, मुझे अपनी शुद्धता में, पवित्रता में मेरा उपयोग करो तो जानूँ. ये चुनौती कोई और रंग नहीं देता. मुझे चुनौतियाँ अच्छी लगती हैं. पीले रंग में उथलापन है जो शुरुआत में लगता है कि इसे कैसे सम्भालें और उसका यही गुण उसे किसी भी चित्रकार को अपनी तरफ आकर्षित नहीं होने देता. इसके कई रंग-भेद हैं जिसमें सबसे ज्यादा पीला, जिसे हम lemon yellow के नाम से जानते हैं, वही मुश्किलें पैदा करता है. उसे कम ही चित्रकार हाथ लगाते हैं. मैंने अपने होश में बहुत ही कम चित्रकारों को इसका प्रभावशाली उपयोग करते देखा है. इस पीले के साथ बहुत बड़ी समस्या मुझे ये भी लगती है कि इसे लगाने के बाद इसमें रंग-गहराई नहीं दिखती फिर कैसे इसका रूप बिगाड़े बगैर इसे लगाए कि पीला भी हो और किसी दूसरे रंग का सहारा न लिया गया हो. इसे कई साल सिर्फ काले रंग में काम करने बाद समझ पाया. ये फार्मूला भी नहीं हो सकता किसी रंग को समझने का. ये प्रयोग नहीं अनुभव की बात है. अनुभव के मुकाबले प्रयोग के दायरे सीमित होते हैं.     

फ्रांज़ मार्कने जो कहा वो उनके लिए सच है जिसे कला के सिद्धान्त की तरह नहीं लिया जा सकता जिस तरह मेरा चित्रानुभव मेरे लिए ठीक है सब पर लागू नहीं होता. अब यदि वो लाल को पालतू बनाने की जद्दोजहद से गुजरे हैं, जिसमें नीला और पीला उन्हें औजार की तरह लगते हैं, तो यह उनकी उस धूसर परिस्तिथियों में बड़ी और फैली समझ का ही प्रमाण है. उन्हीं परिस्थितियों में वैन गॉग भी रहे जिनका अनुभव उन्हें कहीं और ले गया और वे इन्ही दो रंगों का खूबसूरत प्रयोग करते हैं ----'Starry Nights'में. ये दो रंग, पीला और नीला, उन्होंने जादू की तरह लगा दिया. आप चित्र देखें तो अभी भी खुली है वो रेस्तराँ, यही लगता है.

पीले रंग में कठिनता कुछ नहीं है बस वो अपने आपे में नहीं रहता. ऐसा भी नहीं है कि उसे सम्भाला नहीं जा सकता किन्तु मैं चित्र में ट्रिक का इस्तेमाल नहीं करना चाहता. राजनीति में छल, चालाकी, चकमा देना आदि सब जायज होगा किन्तु यहाँ नहीं. (हालाँकि वहाँ भी नहीं होना चाहिए) किन्तु मनुष्य के छोटेपन का एकमात्र आश्रय स्थल भी छिन जायेगा, ऐसा नहीं होना चाहिए.   ​

5.सम्भवतः पहले पीला रंग आप की रंग-पैलेट का हिस्सा नहीं था. मेरा मतलब है कि आप के चित्रों में पीले रंग की उपस्थिति प्रमुख व केन्द्रीय नहीं होती थी. लेकिन हाल के वर्षों में पीला रंग आप के चित्रों में जगह पाने लगा है. ऐसे अनेक चित्र बने हैं जिन में पीला रंग प्रमुख है.
दूसरे शब्दों में, हाल के वर्षों में आप के कैनवास पर पीले रंग के प्रकटीकरण को आप कैसे देखते हैं?



​मैंइसे एक लम्बी यात्रा के परिणाम के रूप में देखता हूँ .



6.मुख्यतः एक रंग में रची गयीं वान गॉगकी सूरजमुखी-श्रृंखलाव कुछ और चित्रकारों के ऐसे चित्रों का ध्यान आता है जो एक रंग में निर्मित हैं. अपने चित्र-कर्म के पहले दौर में आप ने भी सिर्फ़ एक रंग---काले रंग---में चित्र बनाये हैं. लेकिन क्या आप ने इस के बाद भी कभी एक रंग में चित्र बनाये हैं? अगर हाँ, तो किस रंग में और क्यों. अगर ना, तो भी क्यों. बल्कि आप के लिए किसी भी एक रंग में चित्र बनाने के मानी और निहितार्थ क्या हैं?


पेंटिग : अखिलेश


वैगॉग रंगों की शुद्धता को पहचान कर उन्हें सशक्त रूप से बरत रहा था. वैन गॉग की सूरज मुखी वाले चित्र बहुत प्रभाशाली हैं और उनमें पीले रंग का प्रयोग उसने पहली बार इतना उत्फुल्लित ढंग से किया कि वो अभी भी आकर्षित करते हैं. याने रंग प्रयोग उस चित्र को काल से परे ले आया. यह भी दिलचस्प है कि इन उत्फुल्लित सूरज मुखी को चित्रित करने के पहले वैन गॉग ने तीन या चार चित्र बनाये थे ----मरे हुए सूखे सूरजमुखी के. उनमें इन फूलों का सूखापन भी उसी कौशल से चित्रित किया है मानो वो अभ्यास कर रहा हो जीवन के खुशनुमा होने का. पीले रंग की बात पर लौटें तो बहुत कम चित्रकार हैं जिन्होंने lemon yellow का इस्तेमाल किया हो. आप उन्हें उँगलियों पर गिन सकते हैं. पश्चिम में वैन गॉगके बाद चित्रकारों में झिझक दूर हुई और वे रंगशुद्धता की ओर मुड़े. इसके पहले यहाँ की रंग पैलेट धूसर और रंगों को लगभग नीरस सा धूसर बना कर लगाया जाता रहा. पिकासो, मातिस, रोथको,​ शागाल आदि कुछ चित्रकार हैं जिन्होंने निर्बाध प्रयोग किया किन्तु इसमें रोथको के अलावा कोई नहीं है जिसने शुद्ध पीला रंग लगाया हो. भारतीय चित्रकारों में सिर्फ तीन नाम हैं जिन्होंने पीले को पीले की तरह लगा दिया और चित्र आकर्षण खड़ा रहा. हुसेन, रज़ा और स्वामीनाथन. इन लोगों का रंग प्रयोग तीन तरह का है किन्तु इन तीनों ने इस बात को समझा कि lemon yellow चित्र में लगाना जोखिम का काम है.

मेरे काले रंग प्रयोग के बाद कभी कभार मैंने सिर्फ एक रंग प्रयोग से कुछ चित्र बनाये हैं जिसमें लाल या नीला शामिल हैं. क्यों बनाये हैं ये शायद मुझे भी नहीं पता और इस का कोई कारण हो सकता है यह भी नहीं कहा जा सकता. इसका निहितार्थ सिर्फ चित्र बनाना ही है उसके अलावा मैं कोई और बात नहीं साध रहा था.




7.क्या आप पहले से यह तय कर के काम करते हैं कि हाँ, अब मैं अमुक रंग में काम करूँगा/चित्र बनाऊँगा अथवा रंगों का चुनाव औचक होता है? ख़ास तौर पर उस समय जब आप चित्र बनाना शुरू कर रहे होते हैं. ​
इस सन्दर्भ में Jasper Johnsका वाक्य दिलचस्प है :
"Sometimes I see it and then paint it. Other times I paint it and then see it. Both are impure situations, and I prefer neither.



दोनों में ही कई बार एक निरन्तरता ही तय करती है रंगों को और कई बार औचक चुनाव उन्हें प्रकट करता है. बात चाहे कुछ भी हो, रंग लगाने का अनुभव इस बयान के बाहर है. ​जेस्पर जॉन्सका कहना बिल्कुल सही है----कई बार आप चुनते हैं, कई बार रंग आपको चुनता है और जब वो चुनता है तब आप उसे बाद में ही देख पाते हैं. और चित्र बनाना ही अपवित्र कर्म है जिसे आप चुनते हैं और एक पवित्रता तक ले जाने की कोशिश में लगे रहते हैं. अब इसे पवित्र अपवित्र कर्मो में बाँटना भी एक गलत टर्म है जब हम उसे impure कह रहे हैं तब उसके अपरिपक्व होने का इशारा है. अपवित्र नहीं. हिन्दी में अभी चित्रकला की शब्दावली को लेकर कुछ काम नहीं हुआ है (बल्कि हिन्दी को लेकर भी सब एकमत नहीं हैं)इसलिए इस उधार से काम चलाना होता है जिससे मुझे बहुत तकलीफ होती है. अब बताये impure के लिए क्या शब्द इस्तेमाल हो ?

मैं चुनता हूँ उन रंगों को जो मेरे अवचेतन के सबसे नजदीक हैं. अब ये वाक्य गलत है---वास्तविकता के धरातल पर, जो अवचेतन में है, इसकी जानकारी का आधार क्या ? उसे कैसे कोई चुन सकता है ? किन्तु उन रंगों को मैं चुनता हूँ अपने विश्वास से, अपने अनुभव से जो मेरे अवचेतन का निर्माण करते हैं. जब कोई चित्र मैं पूरा करता हूँ तब कई बार उसमें लगाए गए रंग के विपरीत रंग चुनता हूँ चुनाव जानबूझकर करता हूँ. किन्तु मेरे लिए अब सभी रंग बराबर का दर्जा लिए हैं. सफ़ेद हो या काला.

पीले रंग के विषय में एक और दिलचस्प बात यह भी है कि भारतीय लघु चित्रों के लिए एक समय में बनाये जाने वाला पीला रंग जिसे Indian Yellow के नाम से जानते हैं दुनिया के लिए विशेष था. इस रंग को कई लघु चित्रों में देखा जा सकता है और इसके जैसा पीला न पहले कहीं था न अब है. व्यापार के लिए अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबन्ध लगाया जिसे हम आज़ाद होने के बाद भी हटा नहीं पाये. कामशास्त्र में वर्णित सत, रज और तम तीन तरह की मनःस्थिति रखने वाले लोगो को सात्विक, राजसी और तामसिक ​प्रवृतियोंमें बांटा है जिसको सांकेतिक रूप से दर्शाने के लिए तीन रंगों का प्रयोग किया जाता रहा है--- पीला, लाल और काला. अब आप इससे अंदाजा लगा लें कि सात्विक प्रवृत्तियों को दर्शाने के लिए पीले रंग का चुनाव किया गया है. ये बात उसी की तरफ इशारा करती है कि सात्विकता का प्रकटन आसान नहीं है.  ​

छाया :  तनवीर फारूकी



8.यूं पीला रंग शायद आप के पसंदीदा रंगों में से एक है. मसलन, आप को पीले रंग का शर्ट पहनना प्रिय है. 
दूसरे शब्दों में, आप के जीवन में, अन्य रंगों के बीच, पीले रंग की जगह क्या है?



No Indian painter has ever seen any point in “killing" colours as so many western artists do. -Philip S. Rawson

​बहुत पहले साठ के दशक में फिलिप का यह कथन उसके भारत अनुभव के बाद निकला है सो मैं भी रंग को मारने की जगह उसे वापरता हूँ उसकी गरिमा में. उसके वैभव में.
​उसकी अनन्तता में. उसके हैरानी भरे सानिध्य में मैं सुकून हासिल करता हूँ. उसका साथ मेरी क्षमता है. उसका प्रकार मेरा विस्तार. उसका होना मेरा होना है ऐसा कहना ज्यादती होगी किन्तु मैं लाचार हूँ.

​सभी रंगों के लिए मैं एक जैसा महसूस करता हूँ. ​

 
9.जब आप सारे रंगों के प्रति एक जैसा महसूस करते हैं तब वह क्या तत्व है जिसके चलते रंग-पैलेट की निर्मिति होने लगती है?

क समय बाद सारे रंग-प्रयोग जिस तरह आप चाहते हैं कर सकते हैं क्योंकि आप जानते हैं इन रंगों के भीतर के प्रकार, भीतर का व्यवहार, भीतर का भेद, भीतर की मुलामियत और कठोरता और फिर भी आप नहीं भी जानते. रंग भी अपना सत सब खोलकर नहीं बता रहे. वो आकस्मिकता है जो आपको उसके पास ले जा रही है. ये उद्घाटन, ये मुलाकात आदि सब संयोग पर टिकी है. चित्र बनाते वक़्त आप इस संयोग की जमीन तैयार करते हैं और चौकन्ने रहते हैं उस साक्षात्कार के लिए. रंग पैलेट इस संयोगोँ से बनती होगी अन्यथा वो अपनी पसंद से बनी हुई है. रंग आकर्षक हैं और आकर्षण घातक है. वो सीमित भी कर सकता है और विस्तार में भी ले जा सकता है.   ​




10.आप के चित्रकर्म में एक ख़ास तरह का नैरन्तर्य रहा है और क्रमशः सूक्ष्म परिवर्तन भी. आप के नये चित्र क्या आप के अपने देखने का पुनर्नवा विस्तार हैं? अथवा, क्या यह स्वयं को पुनराविष्कृत करना है या बिलकुल नये सिरे से नयी ज़मीन तोड़ना है?
क्या यह कहा जा सकता है कि आप के काम की जड़ें आप के देखने में हैं?


निरन्तरता ही प्रकटन है विभिन्नता का, वैविध्य का, अजूबे का, अचम्भे का, ये मेरे ख्याल से सभी कलाकारों के अचम्भित होने का जतन है. जिस तरह एक दर्शक अचम्भित होता है उसी अचम्भे की तलाश में कलाकार सृजन करता है.  इसे इतना सरल भी नहीं कहा जा सकता किन्तु इसके मूल में यही एक बात है जो उसकी निरन्तरता का सबब है. उसकी तलाश में कई तत्व जुड़ जाते हैं. वो अपनी तलाश में अचम्भित होता है. पुनराविष्कृत होना, पुनर्नवा होना ये सब होने के बाद के निशान हैं. शायद इन सबके लिए ​सृजन नहीं होता होगा या नई जमीन तोड़ने की बात भी नहीं होती होगी.  मुश्किल है इसे किसी कारण में बांधना. यह कारण के परे सिर्फ अहसास पर टिका हुआ है जिसमें वो सब भी शामिल है जो उसका अनुभव है या जिसे उसने महसूस किया है.

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बात - बेबात : भारतीय "जबर स्मार्ट"सिटी और विराट एकात्म वाद : संजय जोठे

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युवा सामाज वैज्ञानिक संजय जोठे कभी-कभी व्यंग्य  भी  लिखते हैं. स्मार्ट सिटी का जुमला खूब चला हुआ है, जबकि शहर ढंग से शहर भी नहीं बन सके हैं.




भारतीय "जबर स्मार्ट"सिटी और विराट एकात्म वाद              

संजय जोठे



स्मार्ट सिटी की बहुत चर्चा हो रही है. लेकिन लोग नहीं जानते  कि स्मार्टनेस का भारतीय वर्जन दुनिया में सबसे अच्छा है. चूँकि ये भारतीय संस्कृति का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व करता है इसलिए यह बेजोड़ है. दर्शन, अध्यात्म, सामाजिक व्यवस्था और सबसे ऊपर - वसुधैव कुटुंब और एकात्म मानववाद की "समानुभूति"भारतीय स्मार्ट सिटी का प्राण है. अन्य पश्चिमी देश सिर्फ तकनीक और इंफ्रास्ट्रक्चर से स्मार्ट हो पाये हैं लेकिन भारत के शहर संस्कारों और आत्मा से स्मार्ट हैं. ये बात जरा गहरी है सो धीरे धीरे समझते हैं.

दुनिया के अन्य स्मार्ट शहर मानव मानव और पशु पक्षियों में भेद पर खड़े हैं. उनमे विश्वगुरु की सर्वं खल्विदं ब्रह्मम और वसुधैव् कुटुंब की भावना नहीं है. अमेरिका या चीन जापान के स्मार्ट शहर एकदम शहरी लोगों के लिए और सिर्फ इंसानों के लिए हैं, उनमे बसनेवालों को पता ही नहीं होता कि गरीबी और गरीबों का और पशु पक्षियों का जीवन क्या है. सड़क के गड्ढे, खुले में टट्टी फरागत, आवारा गायों और कुत्तों की जीवन शैली, भूखे कौवों और सुवरो की समस्याएं क्या हैं वे नहीं जानते. एक अर्थ में वे अत्यंत स्वार्थी और भेदभाव करने वाले बन जाते हैं. लेकिन भारत के सबसे स्मार्ट शहर में भी अध्यात्म और मानववाद का झंडा बुलन्द रखा गया है. यहां के स्मार्ट शहर में गाय, सूअर कुत्तों इत्यादि प्राणियों को भी शहरी जीवन का परिचय दिया जाता है ताक़ि जब ये प्राणी अपने ग्रामीण बंधुओं से मिलें तो उन्हें समुचित शिक्षा दे सकें.

सबमे ब्रह्म है - इस सत्य का बोध कराने का विशेष इंतेजाम भारत में किया गया है. मेट्रो स्टेशन या एयरपोर्ट से निकलते ही आपको खुली नालियों और सड़कों पर परमहंसभाव से टट्टी फरागत करते और अन्य पशु पक्षियों से ब्रह्म चर्चा करते हुए आध्यात्मिक मनुष्य मिल जायेंगे. मनुष्यों, गायों, कुत्तों, सुअरों, कौवों और चूहों के बीच इस दिव्य एकात्म भाव की ये अमेरिकी, जापानी इत्यादि लोग कल्पना भी नहीं कर सकते. इन्हें वसुधैव कुटुंब को समझने में अभी और दो हजार साल लगेंगे.

शहर तो छोड़िये विश्वगुरु ने गाँव भी स्मार्ट बना छोड़े हैं. ग्रामीण लोगों को शहरी मनुष्यों के दुःख दर्द का एहसास बना रहे इसके लिए वहां भी इंतेजाम किये हैं. भले गाँव में पीने का पानी न मिले लेकिन कोका कोला पीकर और पिज्जा बर्गर खाकर शहर के पेट में कैसी गुड़गुड़ होती है ये हर गाँव को बताया जाता है. कोक, मैकडोनाल्ड और अंग्रेजी के अहाते गाँव में खोल डाले हैं. टिशु और टॉयलेट रोल वाले शहरी लोगों का जीवन कैसा होता है इसे बताने के लिए सदियों से सूखे पड़े गांवों में भी टॉयलेट बनाये गए हैं ताकि ब्रह्ममुहूर्त में ग्रामीण लोग शहरी बंधुओं सा"जल विहीन जीवन"जीकर "बॉटम ऑफ़ हार्ट"तक विराट एकात्मता का अनुभव कर सकें.

हमारी ट्रेनों में वातानुकूलित डब्बे में बैठा आदमी अक्सर खुद को अमेरिकन समझने लगता है और जमीन से कट जाता है. उसे वापस जमीन पर लाने के महान उद्देश्य से पटरियों के बीचोबीच देशज संस्कारों के फूल बिछाए जाते हैं स्टेशन पर उतरते ही जिनकी खुशबु से पुनः विराट एकात्म भाव जाग उठता है. ऐसा सूक्ष्म संस्कार बोध और मानवता बोध दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा आपको. यकीन न आये तो किसी भी विश्व प्रसिद्द "वैरागी योगी"या सन्यासी से पूछ लीजिये.

इसी विराट एकात्म मानव वाद की प्रेरणा से अभी अभी गुरुग्राम के लोगों को वैश्विक भाईचारे का परिचय दिया गया. गुड़गांव का नाम गुरुग्राम रखते ही संस्कारी भारतीय नर नारी और बाल गुपाल एकदम से महाभारत काल में पहुँच गए और उन्होंने कलियुग में आने से इनकार कर दिया. देश के चिंतकों को चिंता हुई उन्होंने तय किया कि इन्हें वापस लाने के लिए पेरिस या वेनिस जैसा दृश्य गुरुग्राम में उपस्थित करना होगा, तब बड़ी योजना से गुरुग्राम की वीथिकाओं में पानी छोड़कर नावें चलाईं गयीं और कलिकाल की स्मृति को पुनर्जीवित किया गया. अमेरिकी या रशियन इस तरह के माइंड कंट्रोल और टाइम ट्रैवल की कल्पना तक नहीं कर सकते.

भारतीय स्मार्ट शहर सर्वांगीण अर्थ में स्मार्ट हैं. हम गहन आध्यात्मिक लोग हैं. इसलिए हमारा अध्यात्म भी अब सुपर स्मार्ट हो गया है. वैरागी बाबा और जीवन्मुक्त योगी लोग गरीब और भूखी जनता को प्रवचन करते हुए एयर कंडीशन मंच पर बैठते हैं और उन्हें अमेरिकी भौतिकवादियों के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव कराकर वैश्विक भाईचारा जगाते हैं.

जमीन तो छोड़िये हमारे स्मार्ट संस्कार अब आकाश में भी सुगन्ध फैला रहे हैं, हमारे हवाई जहाजों में सफर करते हुए भी आपको गरीबों और वंचितों के जीवन से कटने नहीं दिया जाता है, फ्लाइट में मच्छर और चूहे जानबूझकर छोड़े जाते हैं ताकि आप हवा में उड़ते हुए जमीन के लोगों को न भूल जाएँ, एयर इण्डिया आजकल फ्लाइट में दरवाजे पर गाय बांधने पर भी विचार कर रही है. शहर के लोग गौ माता के दर्शन नहीं कर पा रहे हैं और गौ माता गलियों में नहीं जाती हैं इसलिये ठीक हाइवे पर "गौ पंचायतों"की व्यवस्था की गयी है ताकि आपकी या अंतिम यात्रा संस्कारों से भरी गुजरे.

दुखी और दीन मनुष्यों का दुःख अनुभव करना सबसे बड़ा स्मार्ट और विराट संस्कार है. इस विराट और एकात्म भाव का झंडा विश्वगुरु ने अभी ओलम्पिक में भी गाड़ दिया. हमारे संस्कारी अधिकारीयों ने देखा कि भारतीय खिलाडी पतित और गौमांस भक्षी यूरोपियों और अमेरिकन्स की संगत में ज्यादा ही फिरंगी बनते जा रहे हैं उन्हें भारतीय संस्कारों का होश नहीं है. ये देखकर उन्होंने मेडल इत्यादि की मोह माया छोड़कर वहीँ संस्कार जागरण का काम शुरू कर दिया. गाँव में एक गरीब मजदूर बिन खाये पिए कैसे गुजारा करता है इस बात का बोध देने के लिए एक एथलीट को 42 डिग्री की गर्मी में भूखे प्यासे मेराथन दुड़वा दिया. लेकिन ये मुर्ख मीडिया और कुसंस्कारी भारतीय इसके पीछे मानवता कल्याण का विराट भाव नहीं समझ पा रहे हैं. घोर कलजुग आ गया है बाउजी.

अब आप सब संस्कारी बन्धुओं से नरम निवेदन है कि भारत के स्मार्ट शहरों और स्मार्ट एकात्मवादि संस्कारों को एकसाथ रखकर देखना सीखें. पश्चिमी भौतिकवादियों और कुसंस्कारी लोगों का चश्मा उतार दें और विश्वगुरु की बताई विधि से भारत की स्मार्ट सिटी को देखें.
आपका कल्याण हो!

जे जंबुदीप.... जे बिसगुरु !!!

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sanjayjothe@gmail.com
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