Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all 1573 articles
Browse latest View live

कथा - गाथा : चौपड़े की चुड़ैलें : पंकज सुबीर

$
0
0
Photo : Clare Park, Self portrait, Holding my Past 






































हिंदी की प्रतिष्ठा प्राप्त कथा-पत्रिका हंस के अप्रैल २०१६ में प्रकाशित पंकज सुबीर की  कहानी 
"चौपड़े की चुड़ैलें"को २०१६ का 
"राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान" (योगिता यादव के साथ संयुक्त रूप से) दिया गया है.

कथा आलोचक राकेश बिहारी ने  अपने चर्चित स्तम्भ भूमंडलोत्तर कहानी – विवेचना श्रृंखला के लिए इस कहानी का चयन किया है.

२१ वीं शताब्दी की हिंदी कहानी की संरचना और वैचारिकी की यात्रा को देखते हुए यह कहानी कहाँ ठहरती है ? 
जेंडर के सवाल को यह किस तरह से देखती है और 
अंतत: यह कहती क्या है ?  जैसे तमाम प्रश्नों से राकेश बिहारी जूझते हैं. 
आप पहले कहानी पढ़िए फिर राकेश बिहारी को.

हमेशा की तरह आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा है.

कहानी
चौपड़े की चुड़ैलें                                                                
पंकज सुबीर



वेली वैसी ही थी जैसी हवेलियाँ होती हैं और घर वैसे ही थे, जैसे कि क़स्बे के घर होते हैं. कुछ कच्चे, कुछ पक्के. इस क़स्बे से ही हमारी कहानी शुरू होती है. कहानी शुरू तो होती है लेकिन, उसका अंत नहीं होता है. उसका अंत होना भी नहीं है. क्योंकि यह वो कहानी नहीं है जिसका अंत हो जाए. शहर से कुछ दूर यह क़स्बा बसा था. हवेली जर्जर हो चुकी थी. मगर उसे देख कर लगता था कि कभी इसकी शानौ-शौक़त देखने लायक रही होगी. दीवरों के रंग अब उड़ चुके थे. बड़े-बड़े दरवाज़े जिनसे कभी शायद हाथी भी अंदर चले जाते होंगे, वे भी बूढ़े हो चुके थे. उन दरवाज़ों पर काली चीकटें जमा थीं. जब अच्छा समय रहा होगा तब इन दरवाज़ों को तेल पिलाया जाता होगा, रंग रौगन किया जाता होगा. अब समय वैसा नहीं है तो समय ख़ुद ही इन पर चीकट चढ़ा कर रंग रौगन कर रहा है. बड़ी हवेली सूनी थी. सूनी का मतलब वीरान जैसी नहीं थी. बस यह था कि हवेली में कोई चहल-पहल नहीं थी. कुछ हिस्सा गिर चुका था. जो नहीं गिरा था वह भी कब गिर जाए, कुछ नहीं कह सकते थे. उस बचे हुए हिस्से में तीन छायाएँ डोलती रहती थीं. तीन औरतें. उस खंडहर में वह तीन औरतें ही रहती थीं बस. अकेली. तीनों उम्र के तीन अलग-अलग पायदानों पर खड़ीं थीं. सबसे बड़ी वाली पैंतालीस से पचास के बीच की थी. उसके बाद वाली अभी न जवान थी और न बूढ़ी ही थी. यह कह सकते हैं कि लगभग जवान ही थी और तीसरी वाली जवान थी.

हवेली के पीछे कुछ फासले पर एक बाग़ था. बाग़ में फूल-वूल जैसा कुछ नहीं था. असल में यह एक आम के पेड़ों का झुरमुट था. घना झुरमुट. जिसके बीच में एक बावड़ी बनी हुई थी. बावड़ी नहीं थी, बल्कि चौपड़ा था. चौपड़ा मतलब एक ऐसी चौरस बावड़ी जिसमें चारों तरफ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों. नीचे की तरफ जाकर जहाँ पानी भरा होता है, उससे कुछ ऊपर चारों तरफ छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हों. चौकोर आकार के चौपड़े में चारों दीवारों पर दोनों कोने से उतरी सीढ़ियाँ अंग्रेजी के वी अक्षर का आकार बना कर एक जगही मिल जातीं. उसके बाद उल्टा वी का आकार बना कर नीचे पानी की तरफ चली जातीं. ऊपर से उतरी सीढ़ियाँ जहाँ पर आकर मिलतीं और फिर से दो हिस्सों में बँटती उसके ठीक नीचे ही यह कोठरियाँ होतीं. उल्टे वी के नीचे. यह कोठरियाँ छिपी रहती थीं सीढ़ियों के पीछे. चारों तरफ की सीढ़ियाँ जहाँ जाकर ख़त्म होती थीं वहाँ नीचे एक चारों सीढ़ियों को मिलाता हुआ एक पत्थर का प्लेटफार्म था. प्लेटफार्म के नीचे पानी और बीच से कोठरी में जाने को सीढ़ियाँ. इस प्रकार के चौपड़े हवेलियों और महलों की महिलाओं के लिए बनवाए जाते थे पहले. बड़े घरों की महिलाएँ इनमें ही जाकर स्नान करती थीं. नीचे बनी कोठरियों में कपड़े बदलतीं थीं और सीढ़ियाँ चढ़कर घर को लौट आती थीं. चौपड़ों में पत्थरों की खूब नक्काशी की जाती थी. कोठरियों के अंदर भी नक्काशीदार आले बने रहते थे. चबूतरे बने होते थे. महिलाएँ चाहें तो कुछ देर विश्राम भी कर लें वहीं पर. जब हवेलियाँ गुलज़ार रहती थीं तो कोठरियों में सोने-बैठने की सारी व्यवस्था रहती थीं. हवेली उजड़ीं तो कोठरियों में बस पत्थर के चबूतरे रह गए. ऊपर से देखने पर यह चौपड़े बहुत खूबसूरत दिखते थे. चारों दीवारों पर सीढ़ियों का डमरू आकार और उस पर बनी कलाकृतियाँ. चौपड़े में भी खूब कलाकारी की गई थी. जगह-जगह पत्थरों पर फूलों की बेलें बनीं थीं. नक्काशीदार खंभे सीढ़ियों के पास खड़े थे. बहुत मेहनत के साथ और बहुत प्रेम से बनवाया गया था इस चौपड़े को. जब बनवाया गया था, तब किसे पता था कि एक दिन इसे इस प्रकार वीरान होना पड़ेगा.

तो आम के बाग में यह चौपड़ा था. उस आम के बाग को नागझिरी कहा जाता था. क्यों कहा जाता था, उसका भी किस्सा है. असल में बाग के चारों तरफ पहले एक फसील हुआ करती थी. उस पत्थर की फसील में जो दरारें थीं, उनमें छोटे मोटे साँप रहा करते थे. चूँकि नाग दरारों में या झिरियों में रहते थे, इसलिए बाग़ का नाम पड़ गया नागझिरी. जब तक हवेली के अच्छे दिन रहे तब तक दरारें भी रहीं और साँप भी. अब न तो फसील बची और न ही साँप बचे हैं. मगर नाम अभी भी है उसका नागझिरी. यह जो नागझिरी बाग है, यह हवेली की संपत्ति है. या यूँ कहें कि हवेली वालों के पास बची हुई आख़िरी संपत्ति. इसी बाग़ के सहारे हवेली अपने आज को बिता रही है. हवेली के पीछे से एक पगडंडी जैसा रास्ता नागझिरी तक गया हुआ था. रास्ते के दोनों तरफ जंगली झाड़ियाँ लगीं थीं. पीले और नारंगी फूलों वाली जंगली झाड़ियाँ, जिनके पत्तों को हाथ में लेकर मसलो, तो तीखी गंध आती थी. यह पगडंडी केवल हवेली के उपयोग  के लिए ही थी. यह पगडंडी, जब चौपड़ा बना तो महिलाओं के उपयोग के लिए, उनके आने जाने के लिए बनाई गई थी. इसीलिए इसके दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ लगाईं गईं थीं. इतनी घनी, कि हवा भी अंदर आने के लिए रास्ता ढूँढ़े. अच्छे समय में महिलाएँ इसी पगडंडी से होकर स्नान के लिए चौपड़े पर जाती थीं. महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिए जंगली झाड़ियों को पगडंडी के दोनो तरफ लगाया गया था. हवेली की महिलाएँ नहाने के लिए जा रही हैं और उनको कोई देख ले, यह हवेलियों को और महलों को कभी मंज़ूर नहीं रहा. बल्कि उनका तो यह भी सोचना था कि हमारी महिलाएँ तो किसी भी सूरत में किसी को दिखाई नहीं दें. पता नहीं कब पगडंडी बनी और कब झाड़ियाँ लगीं लेकिन झाड़ियाँ आज बेहद घनी थीं.

यह तो बात हुई हवेली की. अब बात करें क़स्बे की. तो क़स्बा वैसा ही क़स्बा था जैसा होता है. कुछ बूढ़े थे जो दिन भर चौपाल पर बैठे बीड़ी फूँकते रहते थे और मरने का इंतज़ार करते हुए एक दिन बिता देते थे. यह बूढ़े चौपाल का स्थायी हिस्सा थे. इनके अलावा जो जवान थे या जवान से कुछ आगे की स्थिति में थे, वह खेती किसानी का काम करते थे. और जब खेत पर करने को कुछ नहीं होता था तो यह भी क़स्बे के मंदिर के पीछे के मैदान में बैठ कर गाँजा-चिलम सूँटते थे. इसके अलावा क़स्बे में एक और नस्ल भी थी. वह नस्ल जो अभी जवान नहीं हुई थी. जो जवान होने की तैयारी में थी. मगर जवान होने से पहले ही जवानी के सपने जिनकी आँखों में रात भर ठेला-ठेली करने लगे थे. यह लड़के क़स्बे के पास ही एक दूसरे क़स्बे के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने जाते थे. साइकिलों से. और पढ़ कर आने के बाद दिन भर फिर आवारा फिरते थे. माँ-बाप खुद तो पढ़े लिखे नहीं थे जो इनको पढ़ाई-लिखाई के लिए टोकते. उस पर यह कि सरकारी स्कूल में नकल का भव्य आयोजन होता था परीक्षाओं के दौरान. इस नकल के आयोजन में शामिल होने के लिए मास्टरों को फीस देनी पड़ती थी. माँ-बाप यह परीक्षा फीस देकर अपने बच्चों को पास करवा लेते थे. शहर से दूर होने के कारण कभी कोई फ्लाइंग स्कवाड या शिक्षा विभाग का छापामार दल यहाँ तक नहीं पहुँचता था. बच्चे उस स्कूल में जाते थे और साल भर बाद पास होकर अगली कक्षा में आ जाते थे. ख़ैर तो बात यह कि यह लड़के अब जवान हो रहे थे. जवान होती उमर अपने साथ बहुत सारे सवाल लाती है, जो इन लड़कों के पास भी थे. स्कूल से आने के बाद इन लड़कों के पास कोई काम होता नहीं था. घर आकर खाना खाया और उसके बाद निकल पड़े. यह उम्र में लोबान महकने का समय था. लड़के कस्तूरी की तरह अपनी नाभी में महकते लोबान की तलाश में भटकते फिरते थे.

अब बात उस कहानी की जो पूरे क़स्बे में मशहूर थी. असल में नागझिरी के उस चौपड़े को लेकर बहुत सारी बातें फैली हुईं थीं. असल में कहानियाँ तब बननी शुरू हुईं थीं, जब हवेली की दो लड़कियों की चौपड़े में डूबने से मौत हो गई थी. बात पुरानी है. हवेली के अच्छे दिनों की. यह जो लड़कियाँ थीं, यह हवेली के मालिकों में से नहीं थीं. यह हवेली में काम करने वाली थीं. एक दिन अचानक शाम को दोनो की लाश चौपड़े में तैरती हुईं पाईं गईं थीं. कम उम्र की दोनो लड़कियाँ कुछ दिनो पहले ही हवेली में काम करने आईं थीं. तब हवेली में रौनक़ें हुआ करती थीं. हवेली तब सचमुच की हवेली थी, आज की तरह खंडहर नहीं हुई थी. दोनो की मौत पर हवेली ने प्रचारित किया कि चौपड़े का पानी पवित्र पानी है, जिसमें केवल हवेली वालों को ही स्नान करना चाहिए. चौपड़े के पानी की रक्षा नागझिरी में रहने वाले साँप करते हैं. यह साँप केवल हवेली वालों को ही पानी में नहाने देते हैं. इसके अलावा कोई और अगर पानी में नहाने की कोशिश करे, तो साँप उसे डस कर मार डालते हैं.  इन लड़कियों ने नियम तोड़ कर चुपचाप चौपड़े में नहाने की कोशिश की इसलिए दोनो मारी गईं. चौपड़ा केवल हवेली वालों के लिए ही है. क़स्बे वालों ने भी विश्वास कर लिया. हवेली के अच्छे दिन थे इसलिए सबने मान लिया कि यह जो लड़कियों की गरदन पर गला घोंटने के निशान हैं, यह भी असल में साँप द्वारा कुंडली में कसने के निशान हैं. नाग देवता ने लड़कियों को डसने के स्थान पर गले में अपनी कुंडली का फंदा कस कर दोनो लड़कियों को मारा है. इस घटना के बाद यह भी प्रचारित हो गया था कि चौपड़ा अभिशप्त है, उसमें केवल हवेली वाले ही नहा सकते हैं. उस समय तो नागझिरी के चारों तरफ फसील थी इसलिए बाहर का तो कोई अंदर जा ही नहीं सकता था, लेकिन अब जब फसील टूट चुकी है, तब भी कोई नहीं जाता उस तरफ. रात को तो बिल्कुल ही नहीं. वैसे भी उस बाग़ में और उस चौपड़े में है ही क्या ऐसा जो कोई वहाँ पर जाए.

रात को नहीं जाने का कारण एक और कहानी है. कहानी जो बाद में बनी जब हवेली के बुरे दिन आ गए. कहानी यह बनी कि वह दोनो लड़कियाँ जो बरसों पहले चौपड़े के पानी में डूब कर मरी थीं, वह दोनो चुड़ैलें बन कर अचानक ही वापस आ गईं. हैरानी की बात यह थी कि उनके मरने और चुड़ैलें बनने में काफी बरसों का अंतर था. ख़ैर तो जब वह चुड़ैलें बन कर आ गईं तो लोगों को उनका पता भी चलने लगा. पता चलने लगा अफवाहों में. किसी को हँसने की आवाज़ आती, तो किसी को चूड़ियाँ खनकने और पायल बजने की आवाज़ आती. किसी-किसी को चुड़ैलें दिखाई भी दे जाती थीं. यह सब रात को ही होता था. कई सारे क़िस्से हवाओं में थे. किसीको अचानक रात को चौपड़े के पास दो लड़कियाँ फुंदी-फटाका खेलते दिख जातीं थीं. किसीको चौपड़े के पास खड़े आम के पेड़ की शाख पर चुड़ैल बैठी दिखती, जो आदमी को देखते ही, शाख से सीधे चौपड़े के पानी में छलाँग लगा देती. छपाक की आवाज़ को वह आदमी इतनी दहशत के साथ अपने क़िस्से में शामिल करता कि सुनने वाले की रूह फना हो जाती. असल में चौपड़े और नागझिरी के कुछ दूर से एक रास्ता गया था खेतों की ओर. उस रास्ते से आने जाने वाले ही क़िस्से बनाते थे. क़िस्से जवान और अधेड़ बनाते, बूढ़ों को और बच्चों को कभी चुड़ैलें नहीं दिखी थीं. बूढ़े और बच्चे तो दिन भर उन क़िस्सों पर चर्चा करते थे. दिन में नागझिरी और चौपड़ा दोनों अपने सूनेपन और ख़ामोशी को समेटे चुपचाप खड़े रहते थे. नागझिरी का वह आमो का बग़ीचा हर साल हम्मू ख़ाँठेकेदार हवेली से किराए पर ले लिया करता था. किराए पर लेने के बाद बग़ीचे के फल उसके होते थे. हम्मू ख़ाँ हवेली का ही पुराना मुलाज़िम था, बहुत बच्चा था जब हवेली में काम पर लगा था. बीस-पच्चीस साल तक हवेली में काम किया है उसने. जब हवेली की हैसियत मुलाज़िम रखने की नहीं रही, तो हम्मू ख़ाँ भी बाकियों की तरह हवेली से चला आया. ज़िंदगी चलाने को बस यही काम करता है. आम, अमरूदों, इमलियों और दूसरे फलदार पेड़ों को ठेके पर लेता है और फल बेचकर गुज़ारा करता है. यहाँ भी वह दिन भर बाग़ की रखवाली करता था. ठेके में एक निश्चित राशि और कुछ आम उसे हवेली को देने होते थे. तो आमो के सीज़न में तो हम्मू खाँ बाग़ में दिख जाता था लेकिन, उसके बाद फिर से वीरानी छा जाती थी. तो बाक़ी के साल भर कोई उस तरफ जाता भी नहीं था. हवेली की महिलाओं ने तो चौपड़े पर नहाने के लिए जाना बरसों पहले ही बंद कर दिया था. उन लड़कियों के मरने की घटना के ठीक बाद. अब वह लोग हवेली में ही लगे हैंड पंप से पानी लेकर वहीं नहा लेती थीं. यह हैंड पंप उन लड़कियों के मरने की घटना के बाद पुरुषों ने लगवा दिया था. तो यह भूतिया नागझिरी बाग़ सन्नाटे में डूबा हवेली के पिछवाड़े खड़ा था.

क़स्बे के जवान होते लड़कों के लिए चौपड़ा मुफीद जगह थी दिन काटने की. चौपाल पर बूढ़ों का कब्ज़ा था और मंदिर के पीछे के मैदान पर जवानों का. तो लड़कों ने अपना अड्डा बनाया नागझिरी और चौपड़े में . गरमी के दिनों में तो वहाँ हम्मू ख़ाँ भी होता था. लम्बी और मेंहदी के रंग में रँगी दाढ़ी, सिर पर गोल जालीदार टोपी, टोपी से झाँकते मेंहदी में रंगे बाल, बड़ी मोहरी का सफेद पायजामा और उस पर गोल गले का सफेद कुरता. कुरते की जेब से लटकते तम्बाख़ू-सुपारी की थैली के बंद. आँखों में गहरा सुरमा. मुँह में हमेशा दबा हुआ पान. उँगली के सिरे पर लगा हुआ चूना, जिसे बीच-बीच में चाटने की आदत. हाथ में हमेशा एक लाठी. उम्र यही कोई पैंतालीस से पचास के बीच. हम्मू ख़ाँ और इन जवान हो रहे लड़कों के बीच अजीब सा रिश्ता था. लुकाछिपी का. एक अकेला हम्मू ख़ाँ और जवान होते  कई सारे लड़के. हम्मू ख़ाँ इनको लौंडे-लपाटी कहा करता था. दिन भर डंडा लेकर घूमता रहता था बाग़ में. दिन में यह लड़के हिम्मत करके चौपड़े में कूद कर नहा भी लेते थे, हम्मू ख़ाँ से परमीशन लेकर. अब तो नहाने की कोई मनाही नहीं थी, असल में अब तो रखवाले ही चले गए थे. रखवाले मतलब वह साँप जो पहले दरारों में रहते थे. चौपड़े के पानी की केवल हवेली वालों के लिए रक्षा करने वाले जा चुके थे. अब तो कोई भी नहा सकता था उस पानी में. हालाँकि चौपड़े में क़स्बे वाले अब भी नहीं नहाते थे, बल्कि वह तो चौपड़े की ओर जाते भी नहीं थे मगर, लड़कों को कौन रौकता. लड़के चकमा देकर आम भी उड़ा ले जाते थे. कभी-कभी ऐसा लगता था कि हम्मू ख़ाँ को भी पता था कि लड़के आम उड़ा ले जाते हैं लेकिन, वह अनभिज्ञ बना रहता है. कई बार तो वह लाठी लेकर उस पेड़ के नीचे ही खड़ा रहता, जिस पेड़ पर कोई लड़का चढ़ा होता और कई बार यह भी होता कि वह कनखियों से देखता हुआ निकल जाता. शायद चुड़ैलें भी इसी प्रकार से इन लड़कों को खेलता देख कर चुपचाप निकल जाती होंगी, और शायद नागझिरी के साँप भी.

बात उस समय की है जब चुड़ैलों का प्रकोप चौपड़े पर बढ़ा हुआ था. बात उन दिनों की भी है जब यह लड़के देह की तरफ से परिवर्तित हो रहे थे. जिज्ञासाओं के पहाड़ अपनी छाती पर लाद कर घूमते थे. जिज्ञासाएँ जिनका कोई समाधान नहीं था. सवाल थे लेकिन, उन सवालों का कोई उत्तर नहीं था. जिनके पास उत्तर थे वह लोग इन लड़कों को उत्तर बताने के लिए तैयार नहीं थे. लड़के अपनी देह में ऊगते प्रश्नों को सहलाते रहते थे. चौपड़े के पानी में तलाश करते थे कि कहीं कोई गंध दिन में बची हो चुड़ैलों की. नहा कर चौपड़े की कोठरियों में बने चबूतरों पर लेट जाते. चबूतरों में से कभी-कभी कोई गंध आती भी थी, धीमी-धीमी. गंध अजीब सी होती थी. लड़कों ने इससे पहले यह गंध नहीं सूँघी थी. जिस दिन भी गंध आती उस दिन लड़के चबूतरे के पत्थर पर पेट के बल लेट कर, नाक को पत्थर पर टिका कर गहरी-गहरी साँसें भर सूँघते रहते उस गंध को. अपने अंदर, गहरे, बहुत कहरे उतारते रहते उस गंध को. पत्थर के बीचों-बीच से आती थी वह गंध. जब तक चौपड़े में रहते तब तक कपड़ों से कोई राब्ता नहीं होता इनका. नहाने से पहले उतारे हुए कपड़े, तब ही पहनते जब वापस चौपड़े से निकलने का समय हो जाता. और निकलने का कोई तय समय तो था नहीं. जब सूरज उतरने लगे, तब निकल लो. निकल लो, क्योंकि अब चुड़ैलों का समय हो रहा है. बचपन अभी कुछ दिनों पहले ही विदा हुआ था, इसलिए डर तो था मन में. अँधेरा होने से पहले ही निकल कर भाग जाते थे चौपड़े से. जब तक चौपड़े में रहते तब तक, इधर-उधर पड़ी हुई कुछ काँच की बोतलों और कुछ अजीब से सामानों को उठाते और उनसे राब्ता पैदा करने की कोशिश करते. लड़कों को कुछ पता नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है? यह जो देह में अँखुए से फूट रहे हैं यह अँखुए आखिर हैं क्या? तलाश जारी थी सत्य की. तो रात भर जहाँ चुड़ैलों का साम्राज्य रहता था, वहीं दिन में इन भूतों का डेरा उस चौपड़े में जमा रहता था.  नागझिरी का वह बाग़ पूरी तरह से अतृप्त आत्माओं के चंगुल में आ चुका था, दिन में भी और रात में भी.

एक गरमी का मौसम बीत कर दूसरा आने तक, लड़कों और हम्मू ख़ाँ के बीच कुछ संवाद शुरू हो गए थे. लड़के अब हम्मू ख़ाँ के आम चुराते नहीं थे, बल्कि उन आमों की रखवाली करने में भी हम्मू ख़ाँ का साथ देते थे. लड़कों के जीवन से कच्ची कैरियाँ और आम खाने के मौसम अब जा चुके थे. अब पेड़ों पर लगी कैरियाँ उनको ललचाती नहीं थीं. लेकिन और भी अब बहुत कुछ ऐसा था जो उनको ललचाता था. लेकिन जो ललचाता था वह कैरियों की ही तरह पत्तों में छिपा था. सामने ही नहीं आता था. लड़के पत्तों का हटा-हटा कर तलाशते थे कि क्या है, जो ललचा रहा है लेकिन...... बचपन अब पूरी तरह से बीत चुका था. लड़के अब हिम्मत करके हम्मू ख़ाँ से पूछ भी लेते थे कि चाचा आपने कभी देखी हैं यहाँ की, चौपड़े की चुड़ैलें ? कैसी हैं वह चुड़ैलें ? आप तो रात-बिरात भी जब आँधी चलती है, तो बाग़ में आते हो टपकी हुई कैरियों को बीनने. हम्मू ख़ाँ, चुड़ैलों का नाम आते ही चुप हो जाते थे. कुछ कहने की कोशिश करते, फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते. उनकी सुरमे से भरी आँखें मिंचमिंचाने लगतीं. हम्मू ख़ाँ उन लड़कों के साथ अब कुछ ऐसी बातें भी कर लेते थे, जिनको सुनकर लड़कों के मन में रस उतरता था. हम्मू ख़ाँ के पास तो क़िस्सों का भंडार था. क़िस्से जो नीली फिल्मों की तरह नीले-नीले थे. हम्मू ख़ाँ कभी-कभी लड़कों को यह नीले क़िस्से भी सुना देते थे. लड़कों के दिलो-दिमाग़ पर एक नशा सा तारी होने लगता था इन क़िस्सों को सुनकर. एक और, एक और, और हम्मू ख़ाँ एक के बाद एक नीले क़िस्से सुनाते जाते. लड़के एक-दूसरे की तरफ देख-देखकर मुस्कुराते रहते और सुनते रहते. हम्मू ख़ाँ को पता था कि यह उमर क्या माँगती है. इस उमर में क्या सुनने की इच्छा होती है. हम्मू ख़ाँ पूरे क़िस्सागो थे, इतना रस लेकर, इतनी जीवंतता के साथ क़िस्से सुनाते थे कि लड़कों को लगता था जैसे उनके सामने ही क़िस्सा चल रहा है.

एक दिन जब गरमी की चिलचिलाती दोपहर में लड़के हम्मू ख़ाँ को घेर कर बैठे थे, तो एक बार फिर से चुड़ैलों का ज़िक्र निकल आया. लड़के ज़िद पर अड़ गए चुड़ैलों के बारे में जानने को लेकर. हम्मू ख़ाँ बहुत देर तक सोचते रहे फिर बोले -देखोगे चुड़ैलों को ? है इतना दम ? लड़के एकदम सकपका गए. यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था. हम्मू ख़ाँ ने फिर कहा -क्यों डर गए, सूख कर गले में आ गई? मियाँ बात करना आसान है और आमने-सामने देखना अलग बात है. जवान-जहान लौंडे हो, चुड़ैलों से डरते हो? अब आगे से कोई मत छेड़ना चुड़ैलों की बात. लड़कों को भी बात लग गई. उस समय तो चले गए लेकिन, ठान ली कि अब तो चुड़ैलों को देखना ही है. आठ दस लड़के हैं, कुछ भी हुआ तो सब एक साथ टूट पड़ेंगे. योजना बनी कि जब शाम थोड़ी उतर जाएगी और रात आने को होगी, तब चुपचाप जाकर एक पेड़ पर चढ़ जाएँगे सारे और बिना आवाज़ के पेड़ों पर लटके रहेंगे. कोई भी आवाज़ नहीं करेगा. जब तक कोई भी एक इशारा नहीं करेगा तब तक पेड़ से उतरेगा भी नहीं कोई. ज़रा भी ख़तरा होगा तो एक साथ कूद-कूद कर भाग लेंगे सारे के सारे. देखेंगे कि कोई चुड़ैल आती है तो ठीक नहीं तो घंटे-दो घंटे के बाद उतर कर आ जाएँगे.

लगभग पूरे चाँद की रात थी. लड़के आम के पेड़ों पर टँगे हुए थे. पत्तों में दबे-छिपे. जब रात होने को थी तो सबसे पहले रास्ते की तरफ से एक साया उभरा. लड़कों ने दम साध लिया. चौपड़े तक आते-आते साया हम्मू ख़ाँ बन गया. लड़कों ने राहत की साँस ली. हम्मू ख़ाँ ने आकर इधर-उधर देखा. चौपड़े में झाँका और फिर चौपड़े की मुँडेर से टिकी हुइ खटिया को बिछा दिया. हम्मू ख़ाँ अपनी खटिया पर लेटे हुए थे. नागझिरी के बाग़ में सन्नाटा फैला हुआ था. पत्ता भी खड़के तो उसकी भी आवाज़ आ जाए. झींगुरों की चिकमिक सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँज रही थी. लड़के साँस थामे हुए थे, पता नहीं किस तरफ से चुड़ैलें आ जाएँ? रात और गहरी हुई. क़स्बे की रातें वैसे भी जल्दी हो जाती हैं. और यह तो फुरसत का समय था. खेत में कोई काम था नहीं. एक फसल कट के बिक चुकी थी और दूसरी को बोने में अभी समय था. हम्मू ख़ाँ के कारण लड़के और सन्नाटे में थे, चुड़ैल होती तो उतर कर भाग भी जाते. लेकिन हम्मू ख़ाँ के कारण एक राहत यह हो गई थी कि अब अगर कुछ भी होता है तो कम से कम यहाँ पर हम्मू ख़ाँ तो हैं ही उनको बचाने के लिए.

अचानक हवेली की तरफ से आती हुई पगडंडी पर तीन साए उभरे. झाड़ियों के झुरमुट के बीच से. हम्मू ख़ाँ ने धीरे से खाँसा. तीनों साए धीरे धीरे झाड़ियों के बीच से होकर इस तरफ ही आ रहे थे. चौपड़े की तरफ. आहिस्ता-आहिस्ता. हम्मू ख़ाँ खटिया पर उठ कर बैठ गए. लड़के दम साधे हुए थे. तीनो साए इसी तरफ बढ़ते आ रहे थे. आकर वह तीनो साए ठीक हम्मू ख़ाँ के सामने खड़े हो गए. दो साए कुछ दूर चौपड़े की सीढ़ियों के पास खड़े हो गए और तीसरा साया जो दोनो से कुछ भारी दिख रहा है, वह हम्मू ख़ाँ के पास तक आ गया. यही हैं चुड़ैलें ? पहनावा तो चुड़ैलों का ही है. हम्मू ख़ाँ की आवाज़ आई -सलाम बाई जी साहब, बैठिए. उत्तर में कोई आवाज़ नहीं आई, भारी साया खटिया पर बैठ गया. अचानक नागझिरी के पास से जाते हुए रास्ते पर भी पाँच-छह साए प्रकट हुए. वह भी इस ओर ही आ रहे थे. चाँद इतना तो खिला ही था कि सब कुछ दिखाई दे. यह साए पहनावे के हिसाब से चुड़ैल नहीं थे, भूत थे. यह भी वहीं आकर खड़े हो गए. खटिया के पास. चुड़ैलों ने चेहरे ढँक रखे थे, लेकिन भूतों के चेहरे खुले हुए थे. तेज़ चाँदनी में पहचान भी आ रहे थे वह चेहरे. कुछ-कुछ. पहचान में इसलिए आ रहे थे क्योंकि पहचाने हुए थे. जो लड़के पेड़ों पर लटके थे, उन्होंने देखा कि कुछ पिता हैं, कुछ चाचा हैं, कुछ बड़े भाई हैं और हाँ मामा भी. कुछ भूतों के हाथों में कुछ बोतलें भी  थीं.

भूत हम्मू ख़ाँ के पास खड़े थे, हर भूत कुछ पैसे अपनी जेब से निकाल कर हम्मू ख़ाँ को दे रहा था. लड़के अपने लोगों को हम्मू ख़ाँ को पैसे देते देख कर हैरत में थे. हम्मू ख़ाँ ने पैसे हाथ में लेकर उनको गिना और मुंडी हिला कर इशारा कर दिया. भूत चौपड़े की सीढ़ियों की ओर बढ़ गए. सीढ़ियों पर खड़ी चुड़ैलों ने भूतों को आते देखा तो वह भी सीढ़ियों की ओर बढ़ गईं. धीरे-धीरे उतरते हुए भूत और चुड़ैलें चौपड़े के अंदर गुम हो गए. हम्मू ख़ाँ ने हाथ में रखे पैसे खटिया पर बैठी तीसरी चुड़ैल की ओर बढ़ा दिए. चुड़ैल ने पैसे लेकर उनको अपने हाथ में पकड़े हुए एक थैले समान बटुए में रख लिया और फिर उस बटुए को खटिया के सिरहाने रख दिया. हम्मू ख़ाँ उसी प्रकार से कुछ झुक कर खड़े हुए थे. कुछ देर तक दोनो उसी अवस्था में रहे. फिर खटिया पर बैठे साए ने अचानक हम्मू ख़ाँ को खटिया पर अपने पास खींच लिया. लड़कों की साँसें तेज़ हो गईं. यह सब तो क़िस्सों में ही सुना था. लेकिन चुड़ैल के साथ? चाँद आसमान पर खिला हुआ था. नीचे खटिया पर का मौसम धीरे-धीरे बदल रहा था. चुड़ैल की चादर खटिया के नीचे गिर गई थी और हम्मू ख़ाँ का कुरता पायजामा भी उस चादर के पास ही कहीं पड़ा हुआ था. खटिया के नीचे कपड़ों का एक ढेर सा बन गया था. और ऊपर ? ऊपर अब कोई कपड़े नहीं थे, सब नीचे फेंके जा चुके थे. दो शरीर थे जो केवल चाँदनी पहने हुए थे. या शायद यूँ कि चुड़ैन ने हम्मू ख़ाँ को पहना हुआ था और हम्मू ख़ाँ ने चाँदनी को. दिन भर आम के बाग़ में उदास सी पड़ी रहने वाली हम्मू ख़ाँ की खटिया अब जीवंत हो उठी थी. अब हम्मू ख़ाँ भी नहीं थे, और चुड़ैल भी नहीं थी. अब वह स्त्री और पुरुष थे. लड़के देख रहे थे कि किस प्रकार चौपड़े की एक चुड़ैल हम्मू ख़ाँ को पुरुष बना रही थी. और कल्पना कर रहे थे कि बाक़ी की दो चुड़ैलें भी जो उनके चाचा, पिता, मामा, भाई को लेकर चौपड़े के अंदर गईं हैं, वहाँ भी वह चुड़ैलें उनको पुरुष बना रही होंगी. लड़के दम साधे आम के पेड़ पर टँगे थे, हम्मू ख़ाँ की हिलती-डुलती पीठ पर चाँदनी ठहरने की कोशिश कर रही थी और चौपड़े के अंदर चुड़ैलों के खिलखिलाने, झनझनाने और खनखनाने की आवाज़ें धीरे-धीरे तेज़ होती जा रही थीं.

लड़के धीरे से उतर कर चौपड़े के अँधेरे तरफ वाली मुँडेर के पास खड़े हो गए और चौपड़े के अंदर चल रहा कार्यक्रम देखने लगे. हम्मू ख़ाँ ने लड़कों को देखा, देखता ही रहा, मौन, चुपचाप. बड़ी चुड़ैल ने भी देखा. मगर, चौपड़े के  अंदर जो लड़कों के चाचा, भाई, पिता, मामा टाइप के लोग थे, उन्होंने नहीं देखा. देख भी कैसे सकते थे, अँधेरे में जो थे. लड़के चौपड़े के अंदर का दृश्य देख रहे, जहाँ उनके कई रिश्ते, चट्टानों पर वस्त्रहीन बिछे हुए थे. कुछ देर तक देखते रहने के बाद लड़के धीरे से रास्ते की ओर गए और गहरे अँधेरे में समा गए. 




(दो)
उस रात के बाद से सब कुछ बदल गया. सब कुछ बदल गया मतलब यह कि चौपड़े का सारा माहौल ही बदल गया. चौपड़ा अब सचमुच ही भूतिया हो गया. भूतिया हो गया से तात्पर्य यह कि अब वहाँ रात को चुड़ैलों की महफिल सजनी बंद हो गई. अब रात बिरात किसी को वहाँ पर चूड़ियों के खनकने और पायलों के छनकने की आवाज़ें नहीं सुनाई देती थीं. तो क्या उस दिन के बाद इन लड़कों ने कुछ हंगामा मचाया या कुछ ऐसा किया कि जिससे बवाल मचा. नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. असल में तो यह हुआ कि लड़का पार्टी ने धीरे से सत्ता को अपने हाथों में ले लिया. अपने ही परिवार के बड़े पुरुषों द्वारा रात के अँधेरे में जो चौपाल, चौपड़े में लगाई जाती थी, उस चौपाल की सत्ता को लड़कों ने अपने हाथ में ले लिया. और चौपाल का स्थान भी बदल दिया था. चौपड़े की चुड़ैलों को उन्होंने हवेली पर ही वह सब कुछ देना शुरू कर दिया, जिससे उन चुड़ैलों का चौपड़े तक आना बंद हो गया. चुड़ैलों का एकमात्र मीडियेटर हम्मू ख़ाँ तो उनका पहले से ही सेट था. तो कुल मिलाकर हुआ यह कि पहले यह लड़का पार्टी जो दिन भर चौपड़े में धमाल मचाती रहती थी, अब वह हवेली में पड़ी रहती थी. आते पहले ही की तरह चौपड़े पर ही थे, लेकिन उसके बाद बीच के रास्ते से धीरे से हवेली के अंदर बिला जाते थे. ऐसे जैसे भादौ की अँधियारी रात में, बरसते पानी में धीरे से कोई करिया नाग आँख बचा कर घर में बिला जाता है. उसके बाद यह लड़का पार्टी वहीं रहती थी, हवेली के अंदर ही.

बात का स्वभाव है कि वह फैलती ही है. लड़का पार्टी की हवेलीबाज़ी भी सुगबुगाहट की तरह क़स्बे में फैली. फैली, तो परिवार वालों को आपत्ति हुई, स्वभाविक सी बात है. रोका-रोकी और टोका-टोकी शुरू हुई. मगर अब बात रोका-रोकी और टोका-टोकी की कहाँ थी. लड़का पार्टी ने अपनी आँखों से अपने परिवार के पुरुषों को, सम्मानित पुरुषों को चौपड़े की चुड़ैलों के साथ चौपड़े के अंदर उतरते देखा था. उनके पास तो तुरुप का इक्का था. चाचा, मामा, पिता, भाई जैसी उपाधियों के रिश्तों को इन लड़कों ने अपनी आँखों से चौपड़े के अंदर कपड़े उतारते देखा था. उन कपड़ों के साथ ही रिश्ते और उन भारी-भरकत रिश्तों से जुड़े ख़ौफ़ भी उतर गए थे. कपड़े परिवार के पुरुषों ने उतारे थे लेकिन, उस घटना ने लड़कों को नंगा कर दिया था. उसी प्रकार का नंगा जिसके बारे में कहा जाता है कि उससे तो ख़ुदा भी डरता है. हालाँकि अभी भी एक प्रकार की -तृण धरी ओट, या तिनके की मर्यादा को रख कर यह लड़के अपने परिवार के पुरुषों से डील कर रहे थे. इस प्रकार कि मान लीजिए सुरेश के चाचा ने उसे हवेली जाने से मना किया, डाँट-डपट की तो दिनेश ने जाकर उनसे डील कर ली. डील....? डील का मतलब यह कि उनको बता दिया कि उस दिन रात को जब वे चौपड़े की चुड़ैलों के साथ वस्त्रहीन अवस्था में किन्हीं प्राकृतिक कार्यों को संपन्न कर रहे थे, तब पूरी बच्चा पार्टी चौपड़े की मुँडेर से ग्लेडिएटर के दर्शकों की तरह उस प्राकृतिक क्रीड़ा का अवलोकन कर रही थी. यह एक सूचना चाचा, मामा, भाई टाइप के रिश्तों के कस-बल ढीले कर देती थी. धीरे-धीरे उन लड़कों को हवेली में खुल कर आने-जाने का परमिट मिल गया. चौपड़ा वीरान होता गया और हवेली की रौनक लौटने लगी.

हम्मू ख़ाँ का रिश्ता बड़ी चुड़ैल से था और बड़ी चुड़ैल में लड़का पार्टी की कोई दिलचस्पी नहीं थी. लड़का पार्टी तो मँझली और छोटी चुड़ैलों के साथ ही मस्त थी. इसलिए किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी. हम्मू ख़ाँ अपनी जगह खुश था और लड़के अपनी जगह पर. हम्मू ख़ाँ को भी अब अपना कार्य संपन्न करने के लिए हवेली में ही आने-जाने का सुभीता हो गया था. कभी भी. पहले तो यह था कि रात ढलने का इंतज़ार करना होता था. अब शारीरिक इच्छाएँ भी कोई समय देख कर उठती हैं भला ? पता चला दोपहर में ही बादल घिर आए हैं, बरसात होने लगी है. बरसात को देख कर सच्ची वाला मोर तो नाचता ही है लेकिन, उसके साथ एक और मोर भी नाचता है. वह मोर होता है पुरुष के शरीर में बैठा इच्छाओं का मोर. कमबख़्त बादलों को देखकर ही पंख फैलाने लगता है. जब ये पंख हौले-हौले इधर-उधर अपनी छुअन देते हैं सारी देह सलबलाहट से भर जाती है. ऐसा लगता है कि बस अभी....... लेकिन हम्मू ख़ाँ को रात तक का इंतज़ार करना पड़ता, तब तक सारे बादल बरस-बुरस के जा चुके होते. कीचड़ हो रही होती. मच्छर हो चुके होते. कुल मिलकार बरसात का सारा बना-बनाया माहौल ही विदा ले चुका होता. तो अब तो हम्मू ख़ाँ के भी मज़े थे, जब बरसात हो रही हो तभी........ जब मोर का नाचने का मन हो तब नाच ले. इसलिए हम्मू ख़ाँ ने भी अपना अघोषित वीटो लड़का पार्टी के पक्ष में ही रखा था. वैसे भी उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था. हम्मू ख़ाँ जो अगर वीटो नहीं देते तो लड़का पार्टी तो हम्मू ख़ाँ को दो तरफा घेर लेती. पहला तो जो है वो है ही, दूसरा यह कि हम्मू ख़ाँ मुसलमान थे और चुड़ैलें हिन्दू थीं. हम्मू ख़ाँ को तो लड़कों के पक्ष में झुकना ही झुकना था.

हवेली को सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी पैसों की. जिसके लिए गहरी रात में चुड़ैलें चौपड़े तक जाती थीं. लड़के चूँकि अपने-अपने घरों में उस स्थिति में नहीं थे कि जेबों में हमेशा पैसे रहें, फिर भी उनके लिए इधर-उधर से थोड़ा बहुत गोल-गपाड़ा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं था. खलिहान में भरी हुई फसल में से पसेरी-दो पसेरी अनाज अगर उड़ा दिया तो फर्क कहाँ पड़ता है. तो चुड़ैलों का ख़र्च लड़कों के माध्यम से भी चलने लगा था. वैसे भी चुड़ैलों को बहुत ज़्यादा तो चाहिए नहीं था. हवेली थी ही रहने को. लड़का पार्टी भी बड़ा दल था. एकाध का हाथ अगर किसी दिन खाली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. चुड़ैलों को जो भी भुगतान दिया जाता था वह सामुहिक दिया जाता था, चंदे की शक्ल में. इस चंदे के कई रूप होते थे. रुपयों के रूप में भी और दूसरे रूप में भी. जैसे अनूप के पिता की डेयरी थी और सुबह शाम दूध बाँटने का काम अनूप ही करता था. हवेली कांड के बाद से उस दूध में सुबह और शाम चार-चार लीटर पानी बढ़ जाता था. और बढ़ा हुआ चार-चार लीटर दूध हवेली की चुड़ैलों को भोग लगा दिया जाता. सब्ज़ियाँ थीं, फल थे, अनाज था, गन्ने, गुड़ और जाने क्या-क्या तो था लड़कों के पास देने के लिए.  यहाँ पर समय इतिहास में लौट कर चला गया था, वस्तु विनिमय का सिद्धांत एक बार फिर अस्तित्त्व में आ गया था. लड़के वस्तुएँ देते थे और चुड़ेलों से वस्तुएँ प्राप्त कर लेते थे. तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय-जय.



(तीन)
उस लड़के का नाम सोनू था जो इस कहानी में एक ट्विस्ट के रूप में आता है. सोनू कहीं बाहर से नहीं आया था. असल में वह इस लड़का पार्टी का ही हिस्सा था. लेकिन चौपड़े की चुड़ैलों का राज़ खुलने से पहले ही वह क़स्बे छोड़ कर जा चुका था. तब तक वह इस लड़का पार्टी का हिस्सा रहा था, जब तक यह गैंग अपनी प्यासों को लेकर चौपड़े के पानी में कूदती थी. शरीर से उठते प्रश्नों को अपने ही हाथों से सहलाती थी. सोनू के अंदर भी यह प्रश्न उठते थे, लेकिन सोनू के अंदर यह प्रश्न कुछ ज़्यादा फनफनाकर सर उठाते थे. ऐसे कि वह चौपड़े के अंदर पड़े पत्थर पर ही अपना गुस्सा उतार देता था. उसकी आँखों में लाल डोरे उतर आते थे. उसे कुछ भी नहीं सूझता था. बाकी लड़कों के अंदर अगर भट्टियाँ थी, तो सोनू के अंदर एक पूरा ज्वाला मुखी था, जो अपना लावा निकाल देने के लिए उबाल मारता रहता था. यही सोनू अपने सुलगते हुए सवालों को लेकर क़स्बे से चला गया था. चला गया था या भेज दिया गया था आगे की पढ़ाई के लिए. शहर भेज दिया गया था उसे. जाते समय उसकी आँखों में उम्मीदें थीं, सपने थे. सपने, पढ़ाई या कैरियर के नहीं थे, ये सपने तो क़स्बा का कोई भी लड़का नहीं देखता था. बाप-दादाओं की ज़मीनें थीं, खेती-बाड़ी थी, वही कैरियर थी. तो सोनू भी जो सपने लेकर गया था वह सपने, पढ़ाई कैरियर जैसी फालतू चीज़ों के नहीं थे. सपने थे देह में उठते हुए सवालों के हल होने के सपने. अपने अंदर के ज्वालामुखी को किसी अँधेरी ख़ला में उड़ेल कर ख़ाली कर देने के सपने. शहर तो वैसे भी सपनों की मंज़िल होता है. क़स्बा अपने हर सपने को पूरा करने के लिए शहर की ओर देखता है. सोनू भी सपनों की लाल-सुनहरी चिंदियाँ आँखों में लिए शहर की ओर गया था. मगर कुछ ही दिनों में अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर वापस क़स्बे में लौट आया था.

सोनू पहले हवेली की मंडली में कुछ झिझकते हुए आया, क्योंकि वह चौपड़े की उस चुड़ैलों वाली रात का दर्शक नहीं था. उस रात के जो दर्शक थे वह सब तो झिझक-विझक जैसी चीज़ों को छोड़-छाड़ कर हवेली का हिस्सा बन चुके थे. हवेली अब उनका अड्डा थी. सोनू भी उस अड्डे में आया तो हवेली ने उसे वह सब दिया जो उसे चाहिए था. जिस ज्वालामुखी को वह अपने अंदर दबाए फिरता था, वह हवेली में आकर फूट गया. फूटा तो सोनू भी फूटा. उसने वह सब कुछ बताया जो उसके साथ शहर में हुआ था. लड़का पार्टी और चुड़ैलों ने बैठकर उसकी पूरी कहानी को सुना. सुना तो सब सन्न रह गए.
जो कहानी सोनू ने इन लोगों को सुनाई वह किसी और को नहीं सुनाई थी. और यह कहानी ही सोनू के शहर से क़स्बे वापस आने की असली कहानी थी. कहानी कुछ इस प्रकार थी. असल में सोनू जब शहर गया तो कॉलेज, पढ़ाई, जैसी बातों से ज़्यादा चिंता उसे थी उस बात की जो सवाल बनकर उसके शरीर में लहराती थी. वह बुझना चाहता था. और आते ही उसने सबसे पहले तलाश शुरू की उस ठिकाने की जहाँ पर वह अपने आप को बुझा सके. जो जुनून, जो दीवानापन उसके दिमाग़ पर चौबीसों घण्टे सवार रहता है, उसका कुछ उपचार हो सके. लेकिन यह कोई आसान काम तो था नहीं. पुराने समय में हर शहर में इस प्रकार के कुछ ठिकाने होते थे, लेकिन समय के साथ वह ठिकाने भी समाप्त हो गए. अब क्या किया जाए ?

सोनू की तलाश समाप्त हुई एक समाचार पत्र में छपे विज्ञापन पर. विज्ञापन में लिखा था आइये मीठी बातें करिए. मीठी बातें ? सोनू का दिमाग़ कुछ ठनका. मगर उस विज्ञापन में एक कुछ कम कपड़े पहने हुई लड़की का चित्र भी लगा हुआ था. विज्ञापन उसी समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसके मालिक ने कुछ दिनों पहले किसी संस्था में भाषण देते हुए कहा था कि महिलाओं को ठीक कपड़े पहनने चाहिए, उनके द्वारा पहने जा रहे ग़लत कपड़ों के कारण ही बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं. बाद में उन मालिक के ख़िलाफ़ कुछ महिलाओं ने मोमबत्ती लेकर एक प्रदर्शन भी किया था. मालिक को भी बुरा नहीं लगा था, समाचार पत्र के मालिक थे जानते थे कि पब्लिसिटी के टोटके क्या होते हैं. उसको पता था कि मोमबत्तियाँ पब्लिसिटी के लिए जलाई जाती हैं और मशालें क्रांति के लिए, इसलिए जब तक मोमबत्तियाँ जलाईं जा रही हैं तब तक घबराने की कोई बात नहीं है.  ख़ैर तो बात यह चल रही थी कि उन आदर्शवादी मालिक के समाचार पत्र में ही वह विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. उसके साथ कुछ नंबर भी दिए गए थे. सोनू ने कुछ झिझकते हुए उस नंबर पर कॉल किया. मीठी बातें हुईं और बहुत सी मीठी बातें हुईं. जब कॉल काटा तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय कॉल के हिसाब से पैसे कट गए हैं. लेकिन वह कोई बड़ी बात नहीं थी. सोनू अभी क़स्बे से आया था और जेब में ख़ूब माल था. असली बात यह थी कि बातें बहुत ज़्यादा ही मीठी हुईं थीं. बातें, हालाँकि केवल बातें ही थीं, उनसे कुछ भौतिक कार्य तो संपन्न नहीं होना था. लेकिन दिमाग़ में जो रसायन उत्पन्न होते हैं वह तो बातों से भी हो जाते हैं. और दिमाग़ में इस बातचीत के दौरान भरपूर मात्रा में रसायनों की उत्पत्ति हुई थी.

यह जो रसायनों की उत्पत्ति थी यह आने वाले दिनों में और, और, और का कारण बनने वाली थी और बनी भी. सोनू ने उसके बाद कई-कई बार उस नंबर पर कॉल किए. हर बार कॉल काटने के बाद आया हुआ मैसेज एक बड़ी राशि कट जाने की सूचना देता था.  हर बार किसी नई आवाज़ से बातें होती थीं. सोनू चाहता था कि कल जिससे हुई थी उससे से ही हो लेकिन, वैसा नहीं होता था. सोनू की इच्छा थी कि अगर कोई रिपीट में एक बार भी मिल जाए तो उससे कुछ आगे का सिलसिला जोड़ा जाए. मगर वैसा हो नहीं पा रहा था.

असल में ऐसा होना तकनीकी रूप से संभव भी नहीं था. क्योंकि जिस कंपनी के नंबर पर बातें होती थीं उस कंपनी ने पूरे भारत में क़रीब पाँच हज़ार से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं तथा लड़कियों को दिये थे. इन लड़कियों में ज़्यादातर छोटे क़स्बों की लड़कियाँ थीं. इन मोबाइल नंबरों पर ही वह मीठे-मीठे कॉल आते थे. इन महिलाओं को उन कॉल्स को सुनने के सौ से डेढ़ सौ रुपये रोज़ मिलते थे. चार शर्तें इन महिलाओं को पूरी करनी होती थीं. पहली यह कि मोबाइल किसी भी स्थिति में स्विच्ड ऑफ नहीं किया जाएगा. दूसरी सामने वाला आदमी जो भी, जैसी भी बातें करे, इनको फोन नहीं काटना होगा, हाँ में हाँ मिलाना होगा और अपनी तरफ से भी बातें करनी होंगी. तीसरी शर्त यह कि सभी कॉल्स को रिसीव करना होगा और दिन भर में कम से कम तीन घंटे की बात करनी ही होगी, यह उनका उस दिन का टारगेट रहेगा. टारगेट पूरा न होने पर उस दिन का पैसा नहीं दिया जाएगा. मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने, कॉल रिसीव नहीं करने पर भी पूरे दिन का पैसा काट दिया जाएगा. तीन से ज़्यादा बार मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने पर पूरे महीने का पैसा काट लिया जाएगा. और यदि ग्राहक की बात सुनकर फोन काट दिया तो भी पूरे महीने का पैसा कट जाएगा. चौथी शर्त यह कि किसी भी हालत में ये अपनी कोई भी वास्तविक जानकारी कॉल करने वाले को नहीं बताएँगीं. सब कुछ झूठ ही बताना है. इन शर्तों के बाद भी ग़रीब और ज़रूरतमंद कई महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए मोबाइल कंपनी के इस गोरखधंधे से जुड़ी हुईं थीं. मोबाइल कंपनी ने जो नंबर विज्ञापन में दे रखे थे उन पर कॉल करने से कॉल सीधे आई.एस.डी. से ही शुरू होता था. ज़ाहिर सी बात है कि सोनू कितना ही सर पटक लेता उसे एक ही लड़की से दूसरी बार बात करने का मौका, किसी दैवीय संयोग के अलावा नहीं मिल सकता था. पाँच हज़ार में दोहराव की गुंजाइश ही कितनी कम थी.

लेकिन कहते हैं न कि जहाँ चाह वहीं पर राह. उस दिन बात करने वाली लड़की शायद नई थी, उसे नहीं पता था कि वह अपने ग्राहक से जो भी बातें करती है, उन बातों को कंपनी के लोग सुनते हैं, रिकार्ड भी करते हैं. क़रीब घंटे भर की बातचीत के बाद लड़की सोनू के प्रति पिघलने लगी. दोनों के बीच मीठी बातों से इतर पर्सनल बातें होने लगीं. इस प्रकार की स्थिति में अक्सर कंपनी के लोग बीच में ही कॉल को डिस्कनेक्ट कर देते थे. लेकिन इससे पहले कि कंपनी की ओर से उसका कॉल काटा जाता, उसने अपना वास्तविक मोबाइल नंबर सोनू को उपलब्ध करवा दिया. वह अपने शहर और पते के बारे में कुछ और जानकारी उपलब्ध करवाती उससे पहले ही कॉल काट दिया गया. लेकिन उससे क्या होना था ? सोनू के पास तो लड़की का मोबाइल नंबर आ चुका था. लड़की से सीधे संपर्क करने पर पता चला कि लड़की उस शहर की नहीं थी, जिस शहर में सोनू रह रहा था. दूसरे किसी शहर की थी. फिर भी बातचीत तो हो ही सकती थी. किसी अज्ञात के साथ मीठी-मीठी बातें करने से ज़्यादा आनंद देता है, किसी ज्ञात के साथ करना.

कहानी में मोड़ ठीक अगले ही दिन तब आ गया, जब लड़की का कॉल सोनू के पास आया. उसने सोनू को, सोनू के ही शहर के एक स्थान का पता दिया कि मैं तुमसे मिलने आ गयी हूँ, इस जगह पर ठहरी हूँ, आ जाओ. सोनू को तो मानो पंख ही लग गए. मीठी बातें के स्थान पर, मीठी घातें करने का मौका जो मिल रहा था. सोनू तयशुदा समय पर उस स्थान पर पहुँच गया. वहाँ वह सब कुछ नहीं था, जो वह सोच कर आया था. वहाँ कुछ और था. वह वास्तव में एक सेक्सटॉर्शन केन्द्र था. सोनू का वहाँ सेक्सटॉर्शन किया गया. और जो कुछ भी किया गया उस सब का बाक़ायदा तेज़ हेलाजन लाइटों की चुँधियाती हुई रौशनी में वीडियो भी बनाया गया. महँगे विदेशी कैमरों से हाई डेफिनेशन वीडियो. जैसे किसी कमर्शियल फिल्म की शूटिंग होती है, ठीक उसी प्रकार से. लड़कियों और सोनू की कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार की वीडियो बनाई गईं, इसके बाद अंत में सोनू की जमकर पिटाई की गई. इस प्रकार की हड्डी नहीं टूटे, किन्तु हर स्थान पर चोट आए. इस पिटाई का भी पूरा वीडियो बनाया गया. सोनू का मोबाइल, पैसे, एटीएम कार्ड, घड़ी आदि जो कुछ भी उसके पास था कपड़ों को छोड़कर, वह सब कुछ छीन लिया गया. इस मोबाइल नंबर को फिर चालू नहीं करवाने और किसी को कुछ नहीं बताने की धमकी दी गई. उसके बाद एक कार में बिठा कर कहीं छोड़ दिया गया. कहानी सुनते ही पूरी लड़का पार्टी और चुड़ैलों के बीच सन्नाटा खिंच गया था.



(चार)
आते-आते हवेली के माहौल में सोनू भी धीरे-धीरे घुल गया और सहज होता चला गया. अब उसे शहर की उस घटना की कील चुभती नहीं थी. मँझली चुड़ैल उस पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान रहती थी. बल्कि यूँ कहें तो भी ग़लत नहीं होगा कि अब मँझली चुड़ैल पूरी  तरह से सोनू के लिए ही आरक्षित हो गई थी. बड़ी चुड़ैल पहले से ही हम्मू ख़ाँ के लिए आरक्षित थी, तो अब लड़का पार्टी के लिए बस छोटी चुड़ैल ही बची थी.

एक दिन अचानक जब मँझली चुड़ैल ने सोनू से उस जगह के बारे में पूछा जहाँ सोनू को ले जाया गया था, तो सोनू कुछ असहज हो गया. क्या मतलब है यह पूछने का, जानने का. मगर मँझली चुड़ैल के दिमाग़ में तो और ही कुछ था. मँझली चुड़ैल को सोनू द्वारा बताया गया मोबाइल पर बातें करने का काम बहुत मुफ़ीद नज़र आ रहा था. सोनू को राज़ी करने में मँझली चुड़ैल को बहुत ज़्यादा देर नहीं लगी. सोनू को भी लगा कि जो कुछ मँझली चुड़ैल कह रही है, उसमें दम तो है. सोनू आख़िर में मान गया मगर, सब कुछ नए सिरे से तलाश करना पड़ा. हालाँकि बात बहुत पुरानी नहीं हुई थी, इसलिए सूत्र उसे बहुत ही जल्दी मिल गए. वह सूत्र जो कंपनी से जुड़े हुए थे. समय लगा. इस बीच कंपनी के कुछ लोग आकर हवेली देख गए. यह कंपनी विज़िट थी. और अंततः तीनों चुड़ैलों को कंपनी की ओर से मोबाइल नंबर प्रदान कर दिए गए. 
काम जब शुरू हुआ तो चुड़ैलों को बात करने में कुछ झिझक होती थी. ग्राहक बहुत खुली बात करना चाहता था, लेकिन चुड़ैलें ज़रा दबी-छिपी बातें करती थीं. फिर एक दिन सोनू ने मँझली चुड़ैल को बताया कि ग्राहक क्या चाहता है. सोनू ने एक ग्राहक का कॉल अटैंड किया और उसके साथ लड़की की आवाज़ में बात की. खुली-खुली बातें. मँझली चुड़ैल की आँखें, कान और दिमाग़ सब खुलता गया. उसके बाद मँझली चुड़ैल ने मानो पूरे काम के सूत्र अपने हाथ में ले लिए. इस प्रकार से कि जो ग्राहक पहले दस मिनिट तक बात करता था वह अब दो-दो घंटे चिपका रहता. मँझली चुड़ैल को सोनू ने धीरे-धीरे पूरा ट्रेण्ड कर दिया. उस अनुभव से, जो उसने कंपनी के मोबाइलों पर बात कर-करके सीखा था. मँझली चुड़ैल अब दक्ष हो गई थी. उसने बाकी दोनों चुड़ैलों को भी धीरे-धीरे ट्रेण्ड कर दिया. काम ज़ोरों से चल निकला. चुड़ैलें अब खुलकर बातें करती थीं. बिना किसी झिझक के, बिना किसी संकोच के. इस प्रकार, कि कई बार सामने से बातें कर रहा ग्राहक भी शरमा जाता था. चुड़ैलों को समझ में आ गया था कि केवल बातें ही तो करना है, वह भी उसके साथ जो उनको जानता तक नहीं है. किसी अज्ञात के साथ केवल बातें करने में क्या बुरा है. यह ब्रह्मज्ञान प्राप्त होते ही चुड़ैलों के दिव्य नेत्र भी खुल गए थे.

चुड़ैलें पूरा दिन व्यस्त रहती थीं. काम फैल रहा था. तीनों मोबाइल दिन भर व्यस्त रहते थे. चुड़ैलें चाहती थीं कि कुछ और मेाबाइल हों लेकिन उन पर बात करेगा कौन ? अब हवेली को कुछ और चुड़ैलों की आवश्यकता थी. मँझली चुड़ैल ने अपना जाल फैलाया. कुछ ग़रीबज़रूरतमंद महिलाओं और लड़कियों को पैसों की चमक दिखाई. चमक ने कुछ को खींचा और वो हवेली के दरवाज़े तक आ गईं. दरवाज़े से हवेली के कमरे तक लाने का काम मँझली चुड़ैल ने किया. जो कमरे तक आईं वो चुड़ैल बन गईं. मंझली चुड़ैल ने उनकी गरदन के पीछे दाँत गड़ा कर अंग्रेज़ी फिल्मों की तरह कुछ ख़ून-वून तो नहीं चूसा मगर, कुछ ऐसा ज़रूर किया कि चुड़ैलों की संख्या बढ़ गई. अब हवेली में कुछ और चुड़ैलें हो गईं थीं. अब कुछ कढ़ाई, कशीदाकारी के काम भी हवेली में शुरू किये गये. दिखाने के लिए कि हवेली में यह काम किया जा रहा है. नई चुड़ैलें कानों पर हैडफोन लगाए हवेली के अंदर के कमरों में कशीदाकारी करती रहतीं. या यूँ कहें कि कशीदाकारी करने का नाटक करती रहतीं, असल काम तो हैडफोन से चलता रहता था. अब हवेली एक हस्त शिल्प केन्द्र बन चुकी थी.


(पांच)
उस बात को अब दो साल से भी अधिक हो गए हैं. कॉल सेण्टर में कॉल अटेण्डर चुड़ैलों की संख्या अब काफी बढ़ गई है. हवेली के एक हिस्से को तुड़वा कर वहाँ पर तीन चार वातानुकूलित हॉल बना दिए गए हैं. इनमें कई सारे साउंड प्रूफ कक्ष हैं. इन कक्षों में बैठ कर चुड़ैलें अपना काम करती रहती हैं. मँझली चुड़ैल अब वास्तव में ही कंपनी की सीईओ है. कई सारे समाज सेवा के काम करवाती रहती है. आए दिन उसके फोटो समाचार पत्रों में छपते रहते हैं. सोनू और उसने शादी तो नहीं की लेकिन, बात शादी जैसी ही है. सोनू के वह वीडियो जो कंपनी ने  बनाए थे, कई सारी पॉर्न वैब साइटों पर इंडियन सैक्शन में उपलब्ध हैं. सोनू और मँझली चुड़ैल अक्सर इनको देखते हैं, हँसते हैं. चुड़ैलें अब हवेली से निकल कर वरचुअल हो गईं हैं. हवा में फैल गईं हैं, सिग्नल्स के रूप में, फ्रिक्वेंसी के रूप में. अब वे हर किसी के मोबाइल में हैं. मीठी बातें करती हुई, कुछ लाइव ध्वनियाँ पैदा करती हुईं. चुड़ैलें अब रूप बदल-बदल कर आ रही हैं. अब उनका कोई नाम कोई ठिकाना स्थायी नहीं है. अब वह चौपड़े की चुड़ैलें नहीं रहीं, अब वे ब्रह्माण्ड की चुड़ैलें हो चुकी हैं. पूरे के पूरे वरचुअल ब्रह्माण्ड की चुड़ैलें. अब वे कहीं से भी झपटती हैं. जैसे आकाश में चमकने वाली बिजली काली वस्तु को देख कर झपटती है, वैसे ही चुड़ैलें भी काले मोबाइल को किसी के भी हाथों में देख कर झपट्टा मारती हैं और समा जाती हैं उसमें. और उसके ज़रिए मोबाइल धारी के कानों में, आत्मा में, मन में. चुड़ैलें फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं. 
____________
आलेख के लिए यहाँ  क्लिक करें - 

भूमंडलोत्तर कहानी (११) : चौपड़ें की चुड़ैलें ( पंकज सुबीर) : राकेश बिहारी

$
0
0













हिंदी की प्रतिष्ठा प्राप्त कथा-पत्रिका हंस के अप्रैल २०१६ में प्रकाशित पंकज सुबीर की  कहानी "चौपड़े की चुड़ैलें"को २०१६ का "राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान" (योगिता यादव के साथ संयुक्त रूप से) दिया गया है.

कथा आलोचक राकेश बिहारी ने  अपने चर्चित स्तम्भ भूमंडलोत्तर कहानी – विवेचना श्रृंखला के लिए इस कहानी का चयन किया है.

२१ वीं शताब्दी की हिंदी कहानी की संरचना और वैचारिकी की यात्रा को देखते हुए यह कहानी कहाँ ठहरती है ? जेंडर के सवाल को यह किस तरह से देखती है और अंतत: यह कहती क्या है ?  जैसे तमाम प्रश्नों से राकेश बिहारी जूझते हैं. आप पहले कहानी पढ़िए फिर राकेश बिहारी को.

हमेशा की तरह आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा है. 


भूमंडलोत्तर कहानी 11
 सूचना समय का यथार्थ और रचनात्मक कल्पनाशीलता                 
(संदर्भ पंकज सुबीर की कहानी चौपड़ें की चुड़ैलें’)

राकेश बिहारी



हानियाँ अपने समय और समाज की सांस्कृतिक समृद्धि तथा अपने लेखक की वैचारिक तैयारी और कलात्मक कौशल का सूचकांक होती हैं. यूं तो कोई कहानी किसी खास काल संदर्भ से आबद्ध होते हुए उसी काल विशेष की चारित्रिक विशेषताओं और उससे जुडी चिंताओं को लक्षित करके लिखी जा सकती है, लेकिन कहानी के संदर्भित कालखंड का अतीत और भविष्य के साथ नाभिनालबद्ध होना उसकी उपादेयता को बहुपरतीय और बहुआयामी बना देता है. हंस - अप्रैल 2016में प्रकाशित और राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मानसे हाल ही में सम्मानित पंकज सुबीरकी कहानी चौपड़ें की चुड़ैलें,अपने कथानक के समकालीन संदर्भ और सुदूर अतीत में घटित उसकी पृष्ठभूमि के अंतर्संबंधों की पड़ताल की कोशिश के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है. यह कहानी सूचना-समय के नए यथार्थों से निर्मित हो रही नवीन कथा-संवेदना और उससे उत्पन्न रचनात्मक चुनौतियों (खास कर कहानी कला के संदर्भ में) को ठीक से समझने के लिए जो जरूरी सूत्र और उदाहरण उपलब्ध कराती है इससे इसका महत्व दुहरा हो जाता है.

चूंकि अभी-अभी यह कहानी सम्मानित हुई है,हो सकता है कुछ लोगों को मेरा यह कहना प्रसंगानुकूल न लगे, बावजूद इसके जिस एक और कारण से मैं इस कहानी को चर्चा योग्य समझता हूँ, वह है - तमाम संभावनाओं से भरे होने के बावजूद इसका एक बड़ी कहानी बन पाने से वंचित रह जाना. कथानिरूपण की कलात्मकता और किस्सागोई की रहस्यात्मकता के बीच एक बेहद खूबसूरत कहानी की जो  संभावनाएं इस कहानी के लगभग दो तिहाई हिस्से में निर्मित होती हैं, कहानी के आखिरी एक तिहाई हिस्से में उन  सम्भावनाओ का अपेक्षित निर्वाह नहीं हो पाने के कारण यह कहानी अपनी समग्रता में उस कलात्मक गौरव को हासिल करने से रह जाती है जिसकी उम्मीद पाठक के मन में कहानी के आरंभिक दी तिहाई हिस्से से गुजरते हुये पैदा होती है. अच्छी या बुरी कहानी होने के फतवों से युक्त महज विशेषणविभूषित आलोचना-प्रविधि से किनारा करते हुये,ऐसी कहानियों पर गंभीरता से बात किया जाना किसी कथा-कार्यशाला में शामिल होने जैसा अनुभव हो सकता है. इस कहानी का यह कार्यशालाई महत्व वह चौथा कारण है,जिसके लिए इस कहानी पर बात किया जाना बेहद जरूरी है. विगत कुछ वर्षों में हिंदी कथालोचना के परिसर के कुछ हिस्सों में आलोचना के नाम पर सम्बन्ध साधने और बनाने-बिगाड़ने की जो प्रवृत्ति पल्लवित-पुष्पित हुई है, उसे देखते हुए हिंदी कहानी के एक बहुत बड़े और प्रतिष्ठित मंच से सम्मानित होने वाली किसी कहानी, और वह भी एक मित्र की कहानी पर इस किन्तु-परंतु के साथ बात करने के अपने खतरे हैं. लेकिन कहानी, आलोचना और सम्बन्ध तीनों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए उन खतरों का उठाया जाना आज बेहद जरुरी है.

चौपड़ें की चुड़ैलेंके केंद्र में जर्जर होती एक ऐसी हवेली है,जिसका अतीत शानो शौकतसे भरा हुआ था. यह हवेली अपने स्थापत्य के कुछ जरूरी हिस्सों यथा आम के एक सघन बाग और हवेली की स्त्रियॉं के स्नान करने हेतु निर्मित एक खास तरह की बावड़ी जिसे उसके विशेष शिल्प के कारण चौपड़ा कहा जाता है,के साथ मिल कर सामंती मूल्यों का एक मजबूत और जीवंत प्रतीक बन के उभरती है. विडम्बना यह है कि सुदूर अतीत में अपने मालिकों के जघन्यतम सामंती व्यवहारों का गवाह रह चुकी यह हवेली आज जर्जर भले हो चुकी हो,लेकिन उन सामंती मूल्यों की गंध इस खंडहरप्राय हो चुके इमारत की ईंटों में आज भी मौजूद है.  हालांकि निकट अतीत में घटित कुछ घटनाओं में उन के टूटने या यूं कहें कि उसके लगभग उलट जाने की कुछ ध्वनियाँ भी इन खंडहरों से जरूर सुनाई पड़ती हैं,लेकिन बहुत शीघ्र ही वे कातर ध्वनियाँ बदलते समय के चौपड़ पर एक नए सामंत के बाने में फिर से उपस्थित हो जाती हैं. सुदूर अतीत में शानो शौकतसे भरी एक सामंती हवेली का निकट अतीत में जर्जर हो जाना और फिर थोड़े अंतराल के बाद वर्तमान में एक नई चकाचौंध के साथ पुनर्जीवन को प्राप्त होना ही वह त्रिकोणीय भूगोल है जिसके भीतर इस कहानी की तमाम अर्थ छवियाँ अपने आकार ग्रहण करती हैं.

जिन पाठकों ने यह कहानी नहीं पढ़ी है उनके लिए यह बताना जरूरी है कि इस कहानी को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. कहानी का पहला हिस्सा हवेली के उस अतीत से जुड़ा है जब वहाँ एक खास तरह की चहल-पहल हुआ करती थी और जिन दिनों हवेली की स्त्रियॉं के गोपनीय स्नान के लिए एक खास किस्म के वास्तुशिल्प में बावड़ी का निर्माण किया गया था. दूसरा हिस्सा वर्तमान से कुछ वर्षों पूर्व का है जब हवेली बेनूर होने को अभिशप्त थी और तीसरा हिस्सा कहानी का वर्तमान है जहां वह हवेली फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री के अभेद्य व्यावसायिक किले में तब्दील हो जाती है. कहानी के ये तीनों हिस्से सामंतशाही के तीन अलग-अलग रूपों को हमारे सामने खोलते हैं. सामंत संपत्ति और स्त्री में कोई फर्क नहीं करता या यूं कहें कि स्त्रियॉं को अपनी जागीर और जायदाद से ज्यादा की हैसियत नहीं देता. स्त्रियॉं को जागीर मानने की इस प्रवृत्ति के मूल में एक खास तरह का वर्गीय चरित्र भी काम करता है जिसके अनुसार अपने घरों की स्त्रियाँ तो सात ताले में बंद रखी जाती हैं वहीं अपने घर से बाहर,खास कर आर्थिक-सामाजिक  रूप से अधीनस्थ तबके की स्त्रियॉं पर जैसे जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है. स्त्री को लेकर सामंती सोच की इस दोहरी आचार संहिता को कहानी के पहले हिस्से में लेखक ने हवेली,बाग और चौपड़े की बनावट तथा हवेली में काम करने वाली दो लड़कियों के रहस्यमय मौत और उसके बारे में प्रचारित किस्से के माध्यम से बहुत ही खूबसूरत कलात्मकता और सघन बुनावट  के साथ रचा है.  

कहानी का दूसरा हिस्सा,जिसमें हवेली अपनी सामंती ठसक को खोकर लगभग बेनूर हो चुकी है,पितृसत्ता के एक अलग चेहरे को बेनकाब करता है जहां सुदूर अतीत के सामंती परिवार की स्त्रियाँ कालांतर में रात के अंधेरे में अपना शरीर बेच कर हवेली की जरूरतें पूरा करती हैं. कहानी की पंक्तियाँ हैं हवेली को सबसे ज्यादा जरूरत थी पैसों की. जिसके लिए गहरी रात में चुड़ैलें चौपड़ें तक जाती थीं.यद्यपि कहानी अपने आरभ में ही इस बात की घोषणा कर देती है कि हवेली में कोई पुरुष नहीं रहता और वहाँ सिर्फ तीन स्त्रियाँ ही बची हैं,बावजूद इसके मैं हवेली की जरूरतऔर कहानीकार के अनुसार हवेली में बची तीन स्त्रियॉं की जरूरतों में फर्क करना चाहता हूं. हवेली की जरूरत कहने पर उसके पीछे छुपी उस पितृसत्ता का अहसास भी बना रहता है जो अपने दुर्दिन में अपने ही घर की उन स्त्रियॉं के इस्तेमाल तक को तैयार हो जाता है जिन्हें कभी वह सात पर्दे में छुपा कर रखता था. वर्गीय और लैंगिक वर्चस्व के द्वंद्व का यह वह विंदु है जहां लैंगिकता वर्गीयता को पीछे छोड़ देती है.   

हवेली की जरूरतकी स्वाभाविकता में विन्यस्त रचनात्मक संभावनाओं के कारण यह बात मुझे सिर्फ तीन औरतों के बचे रह जाने के मुक़ाबले ज्यादा सहज लगती है,जिसका अहसास शायद लेखक को भी नहीं है तभी वह चुड़ैलों को कहानी में बनाए रखने के व्यामोह में हवेली में सिर्फ तीन स्त्रियॉं के होने की बात को जैसे सायास कहता है. चूंकि कहानी अपने सुदीर्घ विन्यास के बावजूद कहीं भी हवेली में पुरुषों के नहीं बचे होने की तार्किकता को स्थापित नहीं करती है,इसलिए भी हवेली की जरूरतऔर हवेली में बची तीन स्त्रियॉं की जरूरतों को अलग करके समझा जाना चाहिए. कहानी की यह सबसे पहली फांक है जिसके कारण वर्णन की तमाम कलात्मकताओं के बावजूद कहानी में स्थित एक बड़ी संभावना का सूत्र कहानीकार की पहुँच में होते हुये भी छिहुल कर उससे और कहानी से दूर छिटक जाता है.

अब बात कहानी के तीसरे और अंतिम हिस्से की जिसमें वीरान हो चुकी हवेली सूचना क्रान्ति के उपोत्पाद के रूप में सामने आई फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री का हाथ थाम कर नए सिरे से गुलजार हो जाती है. कहानी के इस हिस्से की बनत और पूरी कहानी पर इसके प्रभाव की बात करने के पूर्व कहानी में आए पुरुष पात्रों को जानना बहुत जरूरी है जो कहानी की शुरुआत से ही कहानी में मौजूद हैं. इनमें एक तरफ है आम के बागीचे का रखवाल अधेड़ हम्मू खाँजो अपनी खाल के नीचे एक विशुद्ध दलाल है.  दूसरी तरफ हैं कस्बे के कुछ लड़के जो किशोर से युवा होने के दरम्यान हैं. बढ़ती उम्र के ये लड़के देह और यौन संबंधों के प्रति एक सहज जिज्ञासा से भरे हैं,जैसा कि अमूमन इस उम्र में होता है. अवस्थानुकूल सहज जिज्ञासा और कभी-कभी उसके अतिरेकपूर्ण वर्णन के बीच एक रात चौपड़े में होने वाले कृत्य के बेपरदा होते ही कहानी एक दूसरे ही धरातल पर चली जाती है. उस रात उन लड़कों ने हवेली की उन तीन औरतों के साथ अपने चाचा,पिता,मामा,भाई आदि को नग्न और संभोगरत क्या देखा खुद ही निर्वसन होकर तमाम रिश्तों के खोल से बाहर आ गए. नतीजतन वे अपने उन बुजुर्गों को अपदस्थ कर खुद उस कृत्य का हिस्सा हो गए और तमाम तरह की नैतिकता-अनैतिकता,तार्किकता-अतार्किकता,मर्यादा-अमर्यादा आदि की परिभाषाओं को ठेंगा दिखाता हुआ चुड़ैलोंऔर भूतोंका यह कुकृत्य और तेज गति से जारी रहा. कहानी में एक नाटकीय मोड उन्हीं लड़को में से एक सोनू के शहर से लौटने के बाद आता है. सोनू जो पढ़ने के नाम पर अपने भीतर दमित कामेषणाओं की पूर्ति का सपना लिए शहर गया था कॉल सेंटर की आड़ में चलने वाले पोर्न चैट के व्यवसाय का शिकार होकर कस्बे में लौटा था. शुरू में तो वह अपनी मित्र मंडली के साथ देह के कुत्सित खेल का हिस्सा बनता है पर बाद में हवेली की तीन औरतों में से एक की व्यावसायिक सलाह मानकर उसी हवेली में मोबाइल फोन पर पोर्न   चैटिंग का व्यवसाय शुरू कर देता है जो धीरे धीरे किसी बड़ी टेलीकॉम कंपनी के साथ मिल कर एक इंडस्ट्री की तरह फलने फूलने लगता है. यह सबकुछ इस नाटकीय और इकहरे ढंग से कहानी में घटित होता है कि कहानी के शुरुआती दो हिस्सों में कहानी का खड़ा हुआ विशाल स्थापत्य सहसा ताश के पत्तों से बने महल की तरह भरभरा कर गिर पड़ता है.

नब्बे के दशक में शुरू हुये उदारीकरण के बाद भारत जिस तरह विश्व में आउटसोर्सिंग और कॉल सेंटर के व्यवसाय की अघोषित राजधानी के रूप में उभरा था उसके साये में फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री भी तभी अस्तित्व में आ गई थी,जो आज और धड़ल्ले से  जारी है. ऐसे में इस विषय पर कहानी लिख कर पंकज सुबीर ने एक समय-सजग कहानीकार होने का परिचय दिया है. इस कहानी को पढ़ते हुये ठीक इसी विषय पर लिखी हुई गौरव सोलंकीकी कहानी ग्यारहवीं ए के लड़केजो नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई थी,की याद आना स्वाभाविक है. हालांकि चौपड़ें की चुड़ैलेंअपने अलग स्थापत्य के कारण ग्यारहवीं ए के लड़केकी तरह अराजक नहीं होती पर अपने तीसरे हिस्से की एकरैखिक बुनावट और तनावरहित वर्णनात्मकता के कारण समग्रता में एक अच्छी कहानी होने से वंचित हो जाती है.

पंकज सुबीर की इस कहानी की जिन दिक्कतों की तरफ मैं इशारा करना चाहता हूँ वह सिर्फ इस कहानी की दिक्कत नहीं है. दरअसल मेरी यह शिकायत अधिकांश समकालीन युवा कहानी जिसे मैं भूमंडलोत्तर कहानी कहता हूँ से रहती है. इससे भला कौन इंकार कर सकता है कि सूचना समय के यथार्थ पूर्ववर्ती समय के यथार्थ से बहुत अलग और जटिल हैं. लेकिन कहानी में उन सूचनाओं का इस्तेमाल करते हुये आज की अधिकांश कहानियाँ,सूचना को ही कथा-संवेदना या रचनात्मक यथार्थ की तरह लिख कर रह जाती हैं. इस बात को समझे जाने की जरूरत है कि कहानियाँ सूचना या घटनाओं में नहीं,उनसे उत्पन्न बेचैनियों और विडंबनाओं में होती हैं. इस बात को ठीक से समझने के लिए इस कहानी का एक अंश देखा जाना चाहिए

जिस कंपनी के नंबर पर बातें होती थीं उस कंपनी ने पूरे भारत में क़रीब पाँच हज़ार से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं तथा लड़कियों को दिये थे. इन लड़कियों में ज़्यादातर छोटे क़स्बों की लड़कियाँ थीं. इन मोबाइल नंबरों पर ही वह मीठे-मीठे कॉल आते थे. इन महिलाओं को उन कॉल्स को सुनने के सौ से डेढ़ सौ रुपये रोज़ मिलते थे. चार शर्तें इन महिलाओं को पूरी करनी होती थीं. पहली यह कि मोबाइल किसी भी स्थिति में स्विच्ड ऑफ नहीं किया जाएगा. दूसरी सामने वाला आदमी जो भी, जैसी भी बातें करे, इनको फोन नहीं काटना होगा, हाँ में हाँ मिलाना होगा और अपनी तरफ से भी बातें करनी होंगी. तीसरी शर्त यह कि सभी कॉल्स को रिसीव करना होगा और दिन भर में कम से कम तीन घंटे की बात करनी ही होगी, यह उनका उस दिन का टारगेट रहेगा. टारगेट पूरा न होने पर उस दिन का पैसा नहीं दिया जाएगा. मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने, कॉल रिसीव नहीं करने पर भी पूरे दिन का पैसा काट दिया जाएगा. तीन से ज़्यादा बार मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने पर पूरे महीने का पैसा काट लिया जाएगा. और यदि ग्राहक की बात सुनकर फोन काट दिया तो भी पूरे महीने का पैसा कट जाएगा. चौथी शर्त यह कि किसी भी हालत में ये अपनी कोई भी वास्तविक जानकारी कॉल करने वाले को नहीं बताएँगीं.

उल्लेखनीय है कि जिस सूचनात्मक तरीके से फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री के मैकेनिज़्म को यह कहानी उद्धृत करती है वह हमें कहीं से संवेदित नहीं करता न ही इस व्यवसाय के माहौल में व्याप्त तनाव और उससे जुड़े लोगों के भीतर बनते बिगड़ते संसार से ही हमारा परिचय करा पाता है. फ़ैक्ट और फिक्सन के बीच की दूरी का इस तरह खत्म हो जाना इस समय की बहुत बड़ी त्रासदी है जिसे मैं आज की कहानियों के समक्ष एक बड़ी चुनौती की तरह देखता हूँ. ऊपर के वर्णन की बजाय क्या ही अच्छा होता यदि कथाकार ने कॉल अटेण्ड करने या न करने के बीच फंसी एक स्त्री की छटपटाहटों को हमारे सामने कर दिया होता. यह महज एक उदाहरण है. कहानी लिखते हुये इस तरह के मर्मस्थलों की पहचान या फिर सूचना और संवेदना के बीच के अंतर को समझने के लिए एक खास तरह की रचनात्मक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है. 

इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि चुड़ैलशब्द के प्रयोग पर बात न की जाय. उल्लेखनीय है कि हवेली में काम करने वाली दो लड़कियों की हत्या और कालांतर में हवेली की तीन स्त्रियॉं के द्वारा शरीर बेच कर हवेली की जरूरतों को पूरा करने के बीच की कड़ी के रूप में कथाकार ने एक कथायुक्ति की तरह चुड़ैलों के लिए जगह बनाई थी ताकि चौपड़े में होने वाले कृत्य की खबर सरेआम न हो जाये. यहाँ तक इसका प्रयोग कथोचित भी है.  लेकिन बाद में जिस तरह नैरेटर कहानी में आने वाली हर स्त्री,जिनकी न सिर्फ सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमि बल्कि कहानी में उनकी भूमिकाएँ भी अलग-अलग है,के लिए चुड़ैल शब्द का प्रयोग करने लगता है,वह भी खटकने  वाला है. इस बात को भी समझा जाना चाहिए था कि हवेली की उन तीन स्त्रियॉं का वर्गीय चरित्र कहानी के तीनों हिस्से में अलग-अलग तरह से उभर कर आता है. और फिर कॉल अटेण्ड करने वाली वे पाँच हजार स्त्रियाँ हवेली की उन तीन स्त्रियॉं के साथ एक ही बटखारे से भी नहीं तौली जा सकतीं. जाहिर है कहानी में ये दिक्कतें लेखक द्वारा अपने ही कथा-पात्रों के अलग-अलग वर्गीय चरित्र को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न हुई हैं. यही कारण है कि यह कहानी वर्तमान स्वरूप में अपनी पक्षधरता का ठीक-ठीक पता नहीं देती. कहानी की पक्षधरता तय हो सके इसके लिए रचनात्मक कौशल के साथ वैचारिक तैयारी का होना भी बहुत जरूरी है.  
___________
कहानी यहाँ पढ़ें - चौपड़ें की चुड़ैलें

राकेश बिहारी : 9425823033/  biharirakesh@rediffmail.com

(भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श के अंतर्गत आप लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले)शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे)नाकोहस(पुरुषोत्तम अग्रवाल)अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज), ‘पानी (मनोज कुमार पांडेय),कायांतर (जयश्री राय), ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की(विमल चन्द्र पाण्डेय)नीला घर (अपर्णा मनोज), ‘दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो (तरुण भटनागर), कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे)  पर युवा  आलोचक राकेश बिहारी  की आलोचना पढ़ चुके हैं. जैसा कि आप  जानते हैं यह खास स्तम्भ समालोचन के लिए ही लिखा जा रहा है.) 

बोली हमरी पूरबी : समीर तांती (असमिया)

$
0
0




















Painting : Bishnu Prasad Rabha 
समीर तांती असमिया भाषा के  प्रसिद्ध कवि हैं, 
उनकी  कुछ कविताओं  का असमिया से सीधे हिंदी में  अनुवाद 
शिव किशोर तिवारी ने किया है. 
ज़ाहिर है मूल  से हिन्दी में किया गया यह अनुवाद एक सांस्कृतिक-साहित्यिक पुल तो बनाता ही है, काव्यार्थ की भी अधिकतम रक्षा करता है,  
और एक प्रमाणिक पाठ प्रस्तुत करता है.





समीर तांती की कविताएँ                                                                                                                 
(असमिया से हिंदी अनुवाद शिव किशोर तिवारी)




१.
मेरे फूलों, मेरी तितलियों को


मेरे फूलों, मेरी तितलियों को
रोशनी दो एक टुक,
आकाश जो आँसू बहायेगा वरना !

और मैं क्या लेकर आकाश को समझाऊँगा,
मेरी आँखों में तो एक टुकड़ा बादल भी नहीं.

मेरे पेड़ धीरे-धीरे अकेले पड़ गये,
मेरी घास-दूब धीरे-धीरे अकेली पड़ गईं,

अब किस नक्षत्र से मैं
भीख माँगने जाऊँ ?

मेरे तारे धीरे-धीरे एकांतवासी हो चले,
मेरी नदियाँ धीरे-धीरे एकांतवासी हो चलीं,

रोशनी दो एक टुक.

हे मेरे जराग्रस्त युग!
इन पगों को
किस रास्ते की धूल में संचित करूँ,
बोलो !
हजार सूनी आँखों की तरह
मैं भी जाने कबसे ढूँढ़ रहा हूँ
राह एक.

मेरे इस एकाकी पग को
रोशनी दो एक टुक.




२.
जहाँ से आया था, लौट जाऊँगा एक दिन वहाँ

जहाँ से आया था लौट जाऊँगा एक दिन वहाँ,
ये गीत, नींद के पल, वह शाम
डूबेंगे वक्त की नदी में.

नहीं जान पायेगा कोई कि दु:ख क्यों कहलाता दु:ख,
कि क्यों रोते हैं बच्चे और क्यों आँसू पोछतीं स्त्रियाँ,
कि क्यों कभी अनमनी और कभी कातर
होती है धरती.

पत्ते झड़ गये तो पेड़ भूल जायेंगे खुद को ही,
यह चिड़िया, यह तितली, यह हवा
सूनेपन में याद दिलायेंगे तुम्हारी सदा- सर्वदा.





३.
तुम्हारी आँखों देखता हूँ स्वप्न जब

तुम्हारी आँखों देखता हूँ स्वप्न जब,
रात नीली पड़ जाती है. मैं जैसे चलता जाता हूँ
अंतहीन सूनेपन के बीच. कौन सा मौसम है यह?
मेरे होठों पर उन्मनआकुल गीत. पत्ते झड़ रहे हैं,
उड़ रही है धूल. मृतात्मायें उँगली के इशारे से दिखाती हैं
सुनसान कब्रों पर उगी घास. कोई नहीं इस निर्जन में बहते सोते के किनारे.
दो मुझे, दो इस स्वप्न का मोहन- मंत्र. तुम्हारी आँखों की लहरों पर सवार हो, कामना की नजर उतार लूँ. सामने मेरे रुदनरत टूटी एक नाव, सूखी नदी एक.




वसंत के दिन का आखिरी पहर

पहाड़ जब दूर होने लगता है,
तब नदी पास खिसक आती है,
एक हरी चिड़िया खेतों में बोलती है.
रास्ते का मोड़ पार करने में जितना वक्त लगता है,
उसके बहुत बाद ही मन की गलतफहमी दूर होती है.
फल पकने का एक सर्वोत्तम समय होता है;
वह जो निर्जन घास का मैदान है, जिसका कोई मालिक नहीं,
उसमें भी छुपकर एक नन्हीं कली पंखुड़ी खोलती है,
सब कुछ घुलकर एक हो जाता है चुपचाप.

जंगल की आग जंगल की ही कला है,
फिर भी इस समय उसके सीखे जाने का
कोई उदाहरण नहीं है,
बड़ा खटना पड़ता है सुख पाने के लिए,
धुएँ के उस पार धुआँ और राख,
आकाश के उस पार नहीं पहुँचता कोई.

कितनी शाम आनी बाकी है अभी ?
इस धूप की माया द्वारा छली गई गोधूलि,
छायाएँ लंबी होती आ रही हैं,
भीतर-भीतर काँप उठता है जलस्तर.

पानी से भी तरल होती है जब रोशनी,
तब वह पहले बर्फ को चूमती है,
उसके बाद ही प्रिय शिखर को.

बादलों की आवाज आती है तैरकर,
घास के नीचे धरती रोती है,
विषाद प्रार्थना का आदिमूल है.

ठंड से सूख गया एक पेड़,
पत्थर उसे नतजानु प्रणाम करता है,
डाल पर सामने की ओर वसंत के ओठों के दाग है.

अरवी के पत्ते पर एक बूँद पानी,
तारे सोये नहीं कल रात भी,
हृदय मे किसके सपनों के गीत की गुनगुन ?

कहीं अदृश्य एक नदी बह रही है,
मन ने झूठमूठ नाव खोल दी,
किसी युग में अंत नहीं प्यास का,
एक चुंबन की चाह में मृत हो चुके होठ,
इंतजार को कैसे बना लूँ सजावट की चीज?
पृथ्वी है कामनाओं की लीलाभूमि !


      
५. 
कविता
स्मृतियों की धूल-भरी राह पर
मुझे जाने दो,
तुम यहीं रुको.
पहरा देना
इन बेचारी छायाओं पर,
इनका सिर न काट ले जाय कोई.
चलूँ मैं,
ढूँढ़कर खोल रखो आँखें वे,
अंधकार कहीं उन्हें गाड़ न दे.
चाँद की ओर न देखना
चाँदनी में नदी फफक पड़ेगी,
कहाँ पाओगी दिल को ठंडक देने वाला
सुर ?

चलूँ फिर,
रक्त-रंजित रात के पीछे-पीछे,
शायद उजाले को साँस लेने का
वक्त मिल जाय.
छोड़ न जाना
आग से जल चुके घास के मैदान,
नई पत्तियाँ आ रही हैं,
बरसात में आवाज देंगी वे.
चलूँ,
सिंदूरी होठ अब भी होंगे शायद,
पर्व और प्रेम की कथा कहने को.
जगी रहना,
शोकाकुल तारे पूछ सकते हैं,
मैं न आ पाया तो पकड़ना होगा

बात का सिरा.
___________


समीर तांती :(1955) का जन्म असम के बिहरा चाय बागान (जिला शिवसागर, अब लाघाट) में हुआ. वे उड़िया मूल के परिवार से आते हैं जो एक समय में ओडिशा से असम के चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था. आरंभिक शिक्षा गोलाघाट में और उच्च शिक्षा गुवाहाटी में. अंग्रेजी, असमिया, बँगला, उडिया और हिंदी भाषाओं के जानकार. लेखन असमिया में. तांती मूलतः चित्रकार थे और अब भी चित्र बनाते हैं. असमिया के उत्तर आधुनिक कवियों में अग्रणी. उन्हें आसाम वैली लिटरेरी अवार्डमिल चुका है जो असम का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है.
काव्य संग्रह :

1.     जुद्धभूमिर कबिता (युद्धभूमि की कविता)
2.     होकाकुल उपत्यका  (शोकाकुल उपत्यका)
3.     हेऊजिया  उत्सव ( हरियाली का उत्सव)
4.     अत्यासारर टोकाबही  ( अत्याचारों की डायरी)
5.     कदम फूलार राति  (कदम्ब फूलने की रात)
6.     विख़ाद  संगीत (विषाद संगीत)
7.     हुनिसा ने हेई मात (सुनी है न वह आवाज )
8.     बिषय: दुर्भिक्ख (विषय: दुर्भिक्ष)
9.     आनंद आरू बेदनार बैभब (आनंद और वेदना का वैभव)
10.   कायाकल्पर बेला (कायाकल्प की वेला)
11.   जाओं गइ बोला (चलो चलें)


ताँती चित्रकार हैं यह उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखता है. उदाहरण के लिए ´तुम्हारी आँखों स्वप्न देखता हूँ जब´में वक्ता अपनी प्रेमिका की नजर से भविष्य  का स्वप्न देखता है. घोर अँधेरे में किसी निर्जन प्रांतर में वक्ता अपने को पतझड़ के बीच पाता है जिसमें एकमात्र हरियाली कब्रों पर उगी घास है. पर एक जलस्रोत भी है. (इसके विपरीत वक्ता के अपने परिदृश्य में एक सूखी नदी और एक टूटी नाव है.) चित्र के रंग धूसर हैं फिर भी आशा के संकेत हैं. कम से कम वक्ता प्रेमी चित्र में है. वह अपने प्रेम (कामना”) की नजर उतार लेता है.इस तरह पूरी कविता जैसे चित्रकारी का एक कंपोज़िशन है. 
_______________
शिव  किशोर  तिवारी  

(१६ अप्रैल १९४७)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए.
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoo.com

परख : भूभल (मीनाक्षी स्वामी ) : ज्योतिष जोशी

$
0
0












भूभल (उपन्यास)-मीनाक्षी स्वामी
सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा
नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
मूल्य-360 रुपये
डी-4/37, सेक्टर-15
रोहिणी, दिल्ली-110089




स्त्रियों के प्रति न्याय के लिए पेश हुआ मुकदमा                         

ज्योतिष जोशी

ज्योतिष जोशी


मीनाक्षी स्वामी हाल के वर्षों में उभरीं हिन्दी की महत्वपूर्ण कथाकार हैं.अपनी कहानियों और उपन्यासों में समाज-शास्त्रीय प्रविधि का प्रयोग कर विवेच्य विषय की बारीकी में उतरना उनकी रचनात्मकता का वैशिष्ट्य है.समाजशास्त्र की प्राध्यापक मीनाक्षी स्वामी की प्रकाशित कृतियों में अच्छा हुआ शकील से प्यार नहीं हुआ (कहानी संग्रह), ‘लाला जी ने पकड़े कान (किशोर उपन्यास), ‘पुलिस और समाज’, ‘भारत में संवैधानिक समन्वय और व्यावहारिक विघटन’, ‘कटघरे में पीड़ित’, तथा अस्मिता की अग्नि परीक्षाजैसी विभिन्न सामाजिक और सामयिक विषयों पर लिखित तथा चर्चित कृतियों के अतिरिक्त मीनाक्षी स्वामी ने नतोहंतथा भूभलनामक उपन्यास भी लिखा है.यहाँ हम  उनके साहित्य अकादमी म.प्र. के बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार से सम्मानित चर्चित भूभलउपन्यास पर विचार करेंगे.यह उपन्यास इसलिये विशिष्ट माना जाना चाहिये कि स्त्रियों की स्थिति के कानूनी पहलू की भूमिका को लेकर लिखा गया हिंदी का यह संभवतः पहला उपन्यास है.

भूभलस्त्री-उत्पीड़न और उसके साथ पुरुषों की ज्यादतियों के बरक्स समाज तथा कानून की भूमिका का प्रभावी आकलन करता है.हिन्दी में स्त्री-विमर्श में तेजी आई है और अनेक स्तरों पर स्त्री-अधिकार का संघर्ष चल रहा है पर स्त्री को इस रूप में अंकित करने की कोशिश प्रायः कम ही दिखती है जिसमें कानूनी सीमाओं का संज्ञान लेते हुए वह समाज में अपने संघर्ष के बल पर वांछित हक और सम्मान पा सके.हिन्दी में स्त्री-विमर्श की शुरूआत, कम से कम कथा साहित्य के स्तर पर जैनेन्द्र कुमार ने की.जिनकी रचनाओं में स्त्री को उसके संघर्षों के साथ-साथ उसकी वांछित आकांक्षाओं में देखने की सफल कोशिश हुई.पर बाद के दौर में स्त्री के दूसरे रूप अधिक प्रभावी होते गए और उसके स्वत्व का संघर्ष पीछे छूट गया.मीनाक्षी स्वामी स्त्री को एक बड़े फलक में आँकती हैं जिसमें हर तरह की विपरीत स्थितियाँ होती हैं और उनमें से वह अपनी पहचान पाती है तथा अपने को एक समग्र स्त्री बनाकर कृतकार्य होती है.
   
भूभलमें लम्बी कथा है जिसमें अनेक उतार-चढ़ाव हैं.मुख्यतः कंचू यानी कंचन उपाध्याय की यह कहानी एक ऐसे संघर्षशील स्त्री की कहानी है जो बचपन से ही अपने अधिकारों के प्रति सजग रहती है.अपने भाई राज यानी राजशेखर के विद्यालय में ही पढ़ने की ज़िद हो या अपनी उपेक्षा के प्रति संजीदगी हो.कंचन में बचपन से ही प्रतिरोध की प्रवृत्ति बलवती है और वह लगातार अपने विकास के प्रति सचेष्ट रहती है.उपन्यास में स्त्री-सशक्तिकरण के साथ-साथ स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा का पक्ष प्रबल है.आरंभ में ही हम देखते हैं कि काका यानी नारायण प्रसाद मिश्र की नर्सरी में कंचू, राज, इन्दु, सरला, दिनेश सभी खेलते हैं और कंचू के जन्मदिन पर काका उसे गुलमोहर का पौधा उपहार में देते हैं.कंचन अपनी माँ के कहने पर टाट-पट्टी वाले स्कूल में जाने के बजाय राज के अच्छे स्कूल में प्रवेश की ज़िद करती है और फिर वहीं प्रवेश कर लेती है.अपनी इंदौर वाली गीता बुआ की दी हुई फ्राक के बेल्ट तोड़ने पर वह संजू से लड़ती है जो उसे रक्षाबंधन पर भेंट में मिला है.

स्कूल में नल पर पानी पीने को लेकर झगडे़ में वह राज का बचाव करती है तथा प्रिन्सिपल से नितिन की शिकायत कर उसे सलीके से रहने की सीख देती है.इसी बीच काका की नर्सरी में दोस्तों के साथ छुपम-छुपाई के खेल में झाड़ियों में छुपी ग्यारह वर्षीय सरला को कुछ बदमाश उठाकर ले जाते हैं और उसका बलात्कार करते हैं.काका के प्रतिरोध करने पर उनके सर पर चोट लगती है जो अस्पताल में भर्ती होते हैं, पर उनकी जान नहीं बच पाती.इसका गहरा असर कंचन पर भी पड़ता है.आगे उसका रुझान भाषण प्रतियोगिताओं में भागीदारी के प्रति होता है और वह इंटर स्कूल प्रतियोगिता में मिस चतुर्वेदी के लिखित पर्चे को पढ़े बगैर खुद के प्रदर्शन से प्रथम आती है.प्रतियोगिता में द्वितीय रहनेवाले दीपक तिवारी की चालबाजियों का भी वह जवाब देती हैं.इस दौरान नितिन कंचन को बदनाम करने की साजिश करता है जिसका वह करारा जवाब देती है.आगे के वर्षों में बी.ए. के अंतिम वर्ष में मणिकांत चौधरी का प्रवेश होता है जो अपर कलेक्टर का पुत्र है.वह बैडमिंटन भी खेलता है.उससे कंचन की नजदीकी बढ़ती है.उसके बाद एल.एल.बी. में कंचन और मणि का नामांकन होता है.

इस बीच राज बी.काम करता है जिसके बाद उसकी शोभा के साथ सगाई होती है और फिर शादी भी.इधर एल.एल.बी. के अंतिम वर्ष में अध्यापिका मिस जोशी के साथ उमेश यादव नामक बदमाश छात्र बदसलूकी करता है.मणि के प्रतिरोध करने पर उमेश को निष्कासित किया जाता है.लेकिन उसकी कारस्तानियों से आजिज आकर मिस जोशी नौकरी छोड़कर वापस अपने शहर चली जाती हैं.पुनः प्रवेश लेकर लौटे उमेश यादव ने मणि और कंचन को एक कमरे में बंदकर बदनाम करने की साजिश करता है.उमेश मणि और कंचन के आपसी संबंध को घृणित बताकर कंचन के घर चिट्ठी भेजता है जिस पर कंचन का भाई राज कंचन के प्रति अभद्र होता है.इस पूरे प्रकरण में कंचन को पिता का साथ मिलता है.कंचन के द्वारा उमेश की हरकतों के बारे में बताने पर पिता पक्ष लेते हैं और अन्तर्जातीय होने के बावजूद मणि से उसकी शादी को राजी भी होते हैं.कंचन का मणि के प्रति अपनी पसंदगी जाहिर करने पर पिता के अलावा घर में किसी और का साथ नहीं मिलता.

उपन्यास का सबसे अहम पक्ष कंचन का सिविल जज बनने की तैयारी कर सफल होना है जिसके बाद उसे इंदौर में सिविल जज की नौकरी मिलती है.पहले तो वह अपने बुआ के घर रहती  है पर शीघ्र ही उसे शासकीय बंगला आवंटित हो जाता है.वहाँ वह न्यायाधीश शोभना केलकर के निर्देशन में प्रशिक्षण लेती है.कंचन के माता-पिता गुलमोहर के पेड़ों की छाया में बने बंगले को देखकर खुश होते हैं.कंचन अदालत के चपरासी अशोक के आग्रह पर सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने की जगह देती है जहाँ वह सपरिवार रहने लगता है.इस बीच मणि एल.एल.एम. करके विधि का प्राध्यापक हो जाता है और फिर शोध के सिलसिले में न्यूयार्क जाता है.मणि और कंचन की तय सगाई कंचन के पिता के आकस्मिक देहांत के कारण टल जाती है.पर दोनों का परस्पर संवाद बना रहता है.

 इधर अदालत में कंचन को स्त्री-मामलों की सुनवाई  दी जाती है.पहला मामला घर में काम करनेवाली ममता का आता है जो मालिक के ड्राइवर से प्रेम करती है पर शादी नहीं हो पाती.घरवालों के विरोध करने पर वे भाग जाते हैं.पुलिस में रिपोर्ट होती है तो पकड़े जाते हैं जहाँ पूछताछ करने के बहाने कांस्टेबल राधेश्याम और गणेश उसका बलात्कार करते हैं.मामला अदालत में जाता है और कंचन के प्रयास से दो साल की सजा पाये दोनों सिपाही उच्च न्यायालय से बरी हो जाते हैं और ममता चरित्रहीन करार दी जाती है.तर्क है-कौमार्य भंग का, पर यह देखने की जरूरत नहीं समझी जाती कि उसके कौमार्य भंग का कारण उसका प्रेम है न कि चरित्रहीनता.उसके बाद ज़रीना का मामला आता है जिनके साथ असलम ने बलात्कार किया है.गवाह मोटी रकम खाकर अदालत में पलट जाते हैं जिसके चलते पीडित जरीना को न्याय नहीं मिल पाता है.उसके बाद इमरती बाई का मामला आता है जो आँगनबाड़ी सेविका होने के नाते समाज में जागरूकता फैलाने का काम कर यश पाने लगती है जिससे कुपित होकर ठाकुर कर्णदेव सिंह अपने आदमियों के साथ उसका बलात्कार करता है.

यह मामला भी दब जाता है.वोट की राजनीति यहाँ काम करती है.ठाकुरों की अधिक आबादी मामले को झूठे आरोप में बदल देती है.इसके बाद रूपा का मामला सामने आता है.बकरी चरानेवाली रूपा के साथ छीतर और हरिया बलात्कार करते हैं.उसके पिता नारायण ने बहुत मिन्नत की, पर डाक्टर ने पैसे लेकर बलात्कार की पुष्टि के बावजूद इसे सहमति का मामला सिद्ध कर दिया.आपराधिक मामलों के शातिर वकील रामकिशोर ने बलात्कार के बाद रह गये गर्भ को पहले का सि़द्ध किया और गर्भपात को हथियार बना लिया.इस तरह दोनों अभियुक्त निर्दोष मान लिये गये और पीडीत रूपा चरित्रहीन.इसी कड़ी में एक दस वर्षीय बालिका के साथ साधु नीलभद्र द्वारा किये बलात्कार का मामला चला, पर कुछ न हुआ.साधु नीलभद्र अपने रसूख के बल पर बरी हो गया.

उपन्यास में इन सभी वारदातों की सिलसिलेवार तफ़सील तो है ही, इन पर पर्याप्त बहस भी है जो हमारी व्यवस्था को तार-तार करती है.स्त्रियों को हवस का शिकार बनाकर उनके सम्मान को नष्ट करना और उन्हें मृत्यु के मुँह में जाने को विवश करना-समाज और अदालत दोनों की ओर से होता है.रामकिशोर जैसे पतित और लालची वकील अपनी बेशर्मी का प्रदर्शन कर कुतर्कों के जरिये इंसाफ नहीं होने देते और हमारी कानून-व्यवस्था चंद सिक्कों में तुलकर असंख्य ज़िन्दगियाँ तबाह करती जाती है.इस बीच कुछ अन्य मामले भी प्रकाश में आते हैं जिनमें एक है चौपन साल की कांता के साथ चौबीस वर्षीय राकेश द्वारा बलात्कार.राकेश कहता है कि कांता के पति ने उसकी माँ के साथ बलात्कार किया था जिसका बदला उसने लिया है.इसी तरह रिया का दोस्ती से इन्कार करने पर उससे अरूप, अनल और कुंतल बलात्कार करते हैं.तीन साल की पायल भी चाचा प्रकाश द्वारा हवस का शिकार होती है.

इधर एक और मामला उर्मिला का आता है जिसके बलात्कारी कंचन के सख्त रवैये और सूझ-बूझ भरे फैसले के कारण रामकिशोर की बेशर्म जिरह के बावजूद दस-दस वर्ष की कठोर सज़ा पाते हैं.बलात्कार की पुष्टि हुई पर उर्मिला द्वारा प्रतिरोध के चिह्न न होने को रामकिशोर ने उसे सहमति का मामला बताकर जिरह किया था.उर्मिला ने अपने निर्णय में लिखा-‘‘उर्मिला के साथ बलात्कार हुआ है.यदि मेडिकल जाँच में जोर-जबरदस्ती के चिह्न नहीं पाये गये तो कारण स्पष्ट है.उर्मिला जैसी दुबली-पतली और नाजुक स्त्री तीन बलिष्ठ युवकों का प्रतिरोध करने में अक्षम है.यदि उसकी सहमति होती तो वह मामले की रिपोर्ट दर्ज़ ही नहीं कराती, बल्कि चुपचाप घर आ जाती.’’ (पृष्ठ-176)

कंचन के इस निर्णय को ऐतिहासिक माना गया और उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई.उर्मिला के मामले में शिकस्त खाने के बाद वकील रामकिशोर ने वकीलों का आंदोलन करवा देता है और कंचन के विरुद्ध अतिरिक्त स्त्री-प्रेम और पुरुष-विरोध का आरोप लगाया, पर वह अपनी योजना में कामयाब न हो सका.इस पर उसने मणि के साथ कंचन के संबंध को लांछित करने की घृणित साजिश भी की.अखबारों तक में इस संबंध को बदनाम करने की कोशिश हुई लेकिन कंचन अविचल रही और अपने ध्येय के प्रति प्रतिबद्ध भी.

लेकिन परिस्थितियों ने उसे स्वयं शिकार हो जाने को विवश किया जिसकी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ती है.एक दिन देर रात को नशे में धुत् दोस्तों के उकसाने पर उसी के बंगले के सर्वेन्ट क्वार्टर में रहनेवाला चपरासी अशोक कंचन के घर में घुस जाता है और उसके कपडे़ फाड़ डालता है.पर कंचन के साहस के साथ धक्का देने पर वह भाग खड़ा होता है.यह घटना आग की तरह फैल जाती है.उमेश यादव अब चूँकि स्थानीय पुलिस में है इसलिए मणि और कंचन से पुराना हिसाब का मौका देखकर हवालात में अशोक को डरा-धमका कर बलात्कार को कबूल करने का बयान ले लेता है.अब टी.वी. में इस पर बहस होने लगती है, अखबारों में उल्टी-सीधी रिपोर्ट छपने लगती हैं.पूरे प्रकरण में पाक-साफ होने के बावजूद कंचन अकेली पड़ जाती है.न्यूयार्क से लौटकर विधि का प्राध्यापक बना मणि भी कंचन को संदिग्ध मानकर अकेला छोड़ देता है.इसी बीच जब मणि अशोक से मिलता है और सच्चाई जान लेता है तो उसे भरोसा होता है और इसको उमेश यादव की कारस्तानी मानने में कोई भ्रम नहीं होता.
मेडिकल रिपोर्ट से भी यह सिद्ध होता है कि कंचन का शील अक्षत् है.इसके बाद मणि ने कंचन से माफी माँगी.कंचन ने उसकी गलती स्वीकार की और दोनों ने मिलकर राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से मसविदा तैयार किया.बाद में बलात्कार की पीड़िता के पूर्व चरित्र पर ध्यान देने संबंधी धारा को हटा दिया गया.इस धारा को हटाने के लिए कंचन और मणि ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन किया-गाँव-कस्बा, नगर के लोगों को जोड़कर उन दोनों ने इस समस्या की गंभीरता को बताया और राष्ट्रीय महिला आयोग को ज्ञापन दिया जिसके बाद उक्त धारा को हटाया गया जो बहुत संगत था.ज्ञापन में कंचन ने लिखा था-

   
‘‘यह अपील हर नागरिक के लिए है.बलात्कार संबंधी कानूनों में सुधार के लिए हम एक जन आंदोलन की आवश्यकता महसूस करते हैं ताकि सब को न्याय मिल सके.इन संशोधनों में पीड़ित स्त्री के पूर्व चरित्र पर ध्यान न देना, उसका बयान उसके घर पर रिकार्ड करने की सुविधा, बलात्कार के मामले में आरोपी को सुनवाई पूरी होने तक जमानत न मिलना, अदालत के निर्णय से पहले ऐसे संवेदनशील मामलों में मीडिया को दूर रखना, खासकर मीडिया ट्रायल पर प्रतिबंध, बलात्कार की परिभाषा का दायरा व्यापक करना, समानांतर जाँच एजेन्सी को मान्यता देना, मामले का प्रतिदिन सुनवाई होना, मुख्य हैं.’’ (पृष्ठ-255)

 इस तरह एक बड़े लक्ष्य में बदलकर उपन्यास समाप्त होता है जिसमें कंचन उपाध्याय की संघर्षशीलता और अदम्यता बहुत गहरे स्तर तक हमारे मन पर उतर जाती है.स्त्रियों के प्रति बलात्कार की घृणित घटनाएँ हमारे समाज को शर्मसार करती रही हैं और समाज की संवेदनहीनता को भी सूचित करती हैं.जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त स्त्री दोयम दर्जे की ही बनी रहती हैउपन्यास में कंचन की आरंभिक शिक्षा को लेकर भेदभाव को ही देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों की कितनी उपेक्षा होती है.विचित्र यह है कि यह उपेक्षा माताओं के द्वारा अधिक होती है.कंचन की माँ का व्यवहार इसको पुष्ट करता है.उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यही है कि इसमें समस्या की निरंतरता बनी रहती है और कंचन के सिविल जज बनने के बाद उपन्यास का वास्तविक रूप सामने आता है.उपन्यास का प्रतिपाद्य है-स्त्री उपेक्षा, उसके प्रति सामाजिक के साथ न्याय व्यवस्था की भी संवेदनहीनता तथा उसके साथ जबर्दस्ती यौनाचार.जाहिर है, उपन्यास का स्वर इसके प्रति प्रतिरोध का है जो कानूनी प्रक्रियाओं के साथ स्त्री-स्वर को सशक्त बनाने में दिखता है.अनेक चरित्रों और कथा-स्तरों के इस उपन्यास में कंचन उपाध्याय केन्द्रीय चरित्र है और वह अपनी केन्द्रीयता में बेहद प्रभावित करती है.शेष सभी पात्र पूरक हैं.यहाँ तक कि मणिकांत चैधरी भी नितांत दब्बू और वहमी  ही बनकर आता है.कंचन बचपन से लेकर नाना स्तरों पर पढ़ाई के दौरान कंचन अपने को लगातार माँजती है, परिश्रम करती है, स्वयं को सशक्त करती है तथा अपने व्यक्तित्व में समग्र बनती है.मीनाक्षी स्वामी चूँकि समाजशास्त्री भी हैं, इसलिए उन्होंने उपन्यास में कथा को सामाजिक ताने-बाने में बुनकर कंचन के क्रमिक विकास को दिखाया है, जिससे समस्या की बुनियाद को समझना सहज हो सके.
मीनाक्षी स्वामी

उपन्यास में कथा की निरंतरता है, प्रवाह है और कथ्य में सादगी के साथ विषय को आकार देने की क्षमता है.उपन्यास की भाषा में गति है, सीधे-सीधे कथा में उतारते हुए समस्या की ज़द में ले जाने के कौशल के साथ.उपन्यास बेहद पठनीय और सरस है जिसमें समस्या की निरंतरता में विन्यस्त तनाव हमें स्थिर नहीं रहने देता.हम सोचते हैं, खीझते हैं, झुंझलाते हैं और अपने समाज के साथ अपनी व्यवस्था पर भी लज्जित होते हैं. यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है.उपन्यास अपने प्रतिपाद्य में सफल हो और वह पाठक को अपने मंतव्य से विचलित कर दे, यह उस उपन्यास का वैशिष्ट्य होता है.मीनाक्षी स्वामी का उपन्यास भूभलइस स्तर पर सफल है और अपने नाम के अनुरूप चिन्गारियों से युक्त गर्म राख को प्रज्ज्वलित करता है.यह वह चिन्गारी है जो आग की शक्ल लेती हुई विकराल हो जाती है-डराती है और स्त्री के प्रति किसी भी तरह की हिंसा से ख़बरदार करती है.इस तरह यह उपन्यास स्त्रियों के प्रति न्याय के लिए पेश हुए एक ऐसे मुकदमे के रूप में सामने आता है जिस पर जिरह हो रही है, वादी-प्रतिवादी उलझ रहे हैं, तारीखें बढ़ रही है, सबकी साँसे टँगी हैं कि न जाने क्या हो पर समस्या बदस्तूर बनी हुई है जो हमें शर्मशार कर रही है.यह उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है.
____________
ज्योतिष  जोशी 
4/37,एम.आई.जी.फ्लैट (दूसरी मंजिल) सेक्टर-15, रोहिणीदिल्ली-110089
jyotishjoshi@gmail.com 

परिप्रेक्ष्य : एक एडहॉक शिक्षक की डायरी : संदीप सिंह

$
0
0






















पेंटिग : Emily Browne 

शिक्षक दिवस पर विशेष

लगभग सभी संस्कृतियों में शिक्षण का पेशा पवित्र और आदरणीय समझा जाता रहा है. 
समाज   शिक्षकों से तमाम तरह की अपेक्षाएं रखता है. 
ज्ञान का संरक्षण, उसका संवर्धन और उसके प्रसार की महती जिम्मेदारियों के बीच शिक्षक, शिक्षक बनने की जिस प्रक्रिया से गुजरता है वह बहुत पेचीदा है.       

विश्वविद्यालयों में, खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय में रोजगार की तलाश में लगे शोधार्थियों और रोजगार की सूरत-सीरत बयान करती यह डायरी एक काल्पनिक मित्र की आपबीती की रूप में लिखी गयी है. पूरे विवरण में "सर"नाम की व्याप्ति आद्योपांत विद्यमान है. 
यह एक हकीकत भी है और त्रासदी भी. 

संभावित ‘गुरूजी’(ओं) को इस कत्लेआम से बचाइए. 
यही शिक्षक दिवस पर उनके प्रति आभार होगा.  


___________
एक  एडहॉक शिक्षक की डायरी                                    
(स्वर्गीय दादी को साक्षी मानकर)

संदीप सिंह


नोट: यह मेरे  दोस्त की डायरी है. चंद रोज पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के पास पटेल चेस्ट में उनके पास जाना हुआ. वे कानपुर जा रहे हैं. यूपी ‘फ़ूड डिपार्टमेंट’ में नौकरी लगी है. 12 साल पहले हम दोनों साथ ही दिल्ली आये थे. 2012 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी जमा की. 2014 में सेमेस्टर भर के लिए एक कॉलेज में गेस्ट लेक्चरर भी रहे. तबसे बेरोजगार थे. विचारों में लेफ्ट टू सेंटर है, मध्यमार्गी टाइप. उन्होंने मुझसे यह डायरी प्रकाशित करने की कसम ली है.  

वे किसी जमाने में विश्वविद्यालय से सटे हुए विजय नगर मुहल्ले में रहा करते थे. तब उन्हें JRF मिला करती थी. यूनिवर्सिटी के लोग जानते होंगे कि रिसर्च के आख़िरी सालों में फ़ेलोशिप बंद हो जाया करती है. परिणामस्वरुप हमारे मित्र की तरह काफी लोगों को विजयनगर के कमरों से पटेल चेस्ट के दड़बों में आना पड़ता है. श्रद्धेय गाइड की अनुकम्पा दृष्टि पहचानने की ऊभ-चूभ में डूबी हमारे मित्र की हसरतों भरी इस डायरी को एक साहित्यिक की डायरी की तर्ज़ पर मैंने ‘एक एडहॉक की डायरी’ का नाम दिया है.

डीयू के गणित से अनभिज्ञ पाठकों के लिए बता दें कि डीयू में तकरीबन 6000 एडहॉक (ठेके पर) शिक्षक हैं. हर चार महीने में इनकी नियुक्ति होती है. इस नियुक्ति के लिए इंटरव्यू लिए जाते हैं. जिसकी दांव-पेंच साल भर चला करती है.





1. अप्रैल
आज मेरा गेस्ट टेन्योर ख़त्म हो गया. मुझे लगता है मैंने ठीक-ठाक ही पढाया. बदमाशों ने दिया भी तो काव्य-शास्त्र का पेपर. स्टाफ रूम में मेरा परफ़ॉर्मेंस ठीक ही था. वो अरोड़ा मैडम तो बहुत मानने लगी थीं. आगे देखो क्या होता है. टीचर इंचार्ज बहुत डिप्लोमैटिक है. साला बोलता कुछ है, करता कुछ है. सोचता हूँ सर (गाइड) से मिल लूं.



6. अप्रैल

सर को फ़ोन किया था. वो कल परिवार सहित शिमला जा रहे हैं. बहुत अच्छे हैं सर. बिना कुछ कहे ही समझ गए. बोल रहे थे चौधरी, इस बार तुम्हारा कुछ करवाएंगे. देखो.


8. अप्रैल
रवीन्द्र कह रहा था वर्कलोड घटने वाला है. नया स्लेबस आने के बाद आधे एडहॉक हटा दिए जायेंगे. मेरा तो दिमाग ख़राब है. क्या करूँगा कुछ समझ नहीं आता. विद्वान बनने का भूत चढ़ा हुआ था. सिविल दे देते तो कम से कम यूपी में हो जाता. ये धोबी के गधे सा हाल तो न होता. सर 20 तारीख तक आयेंगे. फेसबुक पर उनकी शिमला तस्वीरें लाइक कीं. 


11. अप्रैल
आज सर का फ़ोन आया था. उनकी नयी किताब आ रही है. प्रकाशन हाउस जाकर फाइनल प्रूफ देखना है. सर को मेरी प्रूफरीडिंग पर बड़ा भरोसा है. कहते हैं चौधरी तुम रोशन निगाहों से पढ़ते हो. अब कैसे बताऊँ कि जीवन में अँधेरा फ़ैल रहा है. सब जानते हुए भी अंजान बने रहते हैं. एजेंट फिर आया था.


15. अप्रैल
गौरव न होता तो मैं क्या करता. उससे पैसे लेकर एजेंट को किराया दिया. सच्चा मित्र है गौरव. सर को आज मैसेज डाला. होप यू आर एन्जोयिंग टाइप. सर को अंग्रेजी में लिखे मेसेज पसंद हैं. उनका जवाब जरूर भेजते हैं. आज भी आया ‘इट्स रियली आसम’.


16. अप्रैल
एनएसडी नाटक देखने गया था मोहन राकेश का. वहां अरोड़ा मैडम मिल गयीं. कह रही थीं मैं तो उन्हें भूल ही गया. उन्होंने भी एडहॉक की बाबत पूछा. सर के बारे में भी पूछ रही थीं. प्रिंसिपल से उनका इक्वेशन ठीक है. बात करेंगी मेरे लिए. बहुत अच्छी हैं अरोड़ा मैडम. ऍफ़बी पर उनकी सारी प्रोफाइल पिक्चर लाइक कर गया. बेटी सुन्दर है उनकी.  


18. अप्रैल
यार ये रविन्द्र सिर्फ बुरी खबरें लाता है. सीबीसीएस में और पोस्ट कम हो रही हैं. हे ईश्वर, हम लोग क्या करेंगे. ये डूटा वाले भी सिर्फ पॉलिटिक्स करते हैं. काम कोई नहीं करते. आज करोलबाग जाऊँगा. गौरव बोल रहा था सिविल्स की कोचिंग वाले टेस्ट सिरीज की कॉपी चेक करने का अच्छा पैसा देते हैं. सर के वापस लौटते ही मिलने जाऊँगा.



20. अप्रैल

करोलबाग जाना बेकार रहा. हिन्दी साहित्य का कोई टेस्ट होता ही नहीं. सब अंग्रेजी में है. हिन्दी की कापियां सिर्फ सामाजिक विज्ञानों की मिलती हैं. क्या विषय ले लिया यार. साला कुछ नहीं है इसमें. राजेश से मिलना अच्छा रहा. चिकन खिलाया उसने. आजकल इथिक्स की कुंजियाँ लिख रहा है सिविल वालों के लिए. बोल रहा था आजकल ‘एथिक्स’ की बहुत मांग है. शाम तक सर दिल्ली पहुँच जायेंगे. स्टेशन रिसीव करने जाऊंगा.




21. अप्रैल

सर से आज नहीं मिल पाया. विभाग में कोई बड़ी मीटिंग थी. पेंडिंग काम निपटा रहे हैं. देखता हूँ ऐसे मौकों पर मुझे नहीं प्रवेश राय को बुलाते हैं. आदमी जात नहीं भूलता. कई बार मन करता है खुद को भूमिहार घोषित कर दूं. गाजीपुर का हूँ. वहां यह भेद पकड़ में नहीं आता. कितने लोगों को जानता हूँ जो हैं ब्राह्मण लेकिन भूमिहार बने हुए हैं. पिछले वीसी के जमाने में यही साले ठाकुर बने हुए थे. भूमिहारों का बड़ा फायदा है एक साथ तीन जाति साध लेते हैं.




23. अप्रैल

सर बड़े ठंडे-ठंडे थे. शायद पहाड़ से लौटने का असर हो. कुछ ख़ास बोला नहीं. कोई बात नहीं. चेहरा दिखाना भी एक काम है. आदमी को याद रहता है. प्रवेश भी आया था घर पर. तेज़ है लड़का. सर के लिए इनडोर प्लांट लेकर आया था. मूरखप्रसाद के दिमाग में यह सब आता ही नहीं.


28. अप्रैल

सर का फ़ोन आया था. पंख्रराज कमल जी फंसादेश में छपी मेरी कहानी से थोड़े नाराज हैं. बोले मैं दलितों का दर्द नहीं समझता हूँ. दिल किया कि कह दूं मैं भी दलितों जैसा ही हूँ. सर के मित्र हैं. सब सुनना पड़ता है. कब कौन काम आ जाय. ऍफ़बी पर कमल जी को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है. कुबूल कर लें तो लाइक-कमेन्ट करना शुरू करूँ.  



5. मई

आज एडहॉक पैनल आ गया. अपन तीसरी कैटेगरी में हैं. बीए में फर्स्ट क्लास न बनने का अफ़सोस रहेगा. वैसे इस पैनल की कैटेगरी से कोई फर्क नहीं पड़ता. अप्रोच से पड़ता है. मित्ररंजन चौथी कैटेगरी में है. पर चार सेमेस्टर से पढ़ा रहा है. सर से मिलना है. शायद प्रूफरीडिंग का कुछ पैसा मिल जाय. लटकाकर रखा है. मांगते शर्म आती है.


7. मई
सर अच्छे मूड में थे. घर में खुशी का माहौल था. हिलसा प्रकाशन से उनकी किताब छप गयी. यह उनकी साध थी. वीसी ने उन्हें ‘परीक्षा स्क्वाड’ में नियुक्त कर लिया है. कह रहे थे वीसी साहब ने मन का मैल निकाल दिया है. सर पिछले वीसी के बहुत करीब थे. इसलिए यह नया वाला कुछ समय तक उनको लेकर सशंकित था. अब सब ठीक हो गया. सर ने मेहनत भी काफी की. कह रहे थे अगर किताब स्लेबस में लग गयी तो पार्टी देंगे. प्रूफरीडिंग का 900 का चेक दिया. आज मैं बहुत आशावान महसूस कर रहा हूँ. सर कितने अच्छे हैं.


9. मई
एडहॉक इंटरव्यू की बिसात बिछने लगी है. अभी पत्ते पीसे जा रहे हैं. यह बहुत दर्दनाक समय होता है. इस समय एडहॉक का हर अभ्यर्थी हाइजेनबर्ग के ‘अनिश्चितता सिद्धांत’ में जीता है. किससे क्या बोलना है इसका बहुत ख्याल रखना पड़ता है. हालत कश्मीरियों सी रहती है. लगता है हर आदमी दूसरे का पत्ता काटने में लगा हुआ है. सर का कहना है कि इस पीरियड में ज्यादातर मौन रहना चाहिए और ‘हूं-हूं’ आसन करना चाहिए.


13. मई

डूटा वाले एडहॉक पोस्ट घटाए जाने के खिलाफ जुलूस निकाल रहे हैं. कन्फ्यूज़ हूँ कि जाऊं या न जाऊं. सर बोल रहे थे कि लोहिया कॉलेज के प्रिंसिपल से मेरे लिए बात की है. प्रिंसिपल साहब वीसी खेमे के हैं. अगर जाऊं और बात उन तक पहुँच गयी तो? जाने का मन तो है.



14. मई

बहुत बड़ा जुलूस हुआ. चेहरे पर रुमाल बाँधी ली थी. रामेन्द्र ने पूछा तो कह दिया आज बहुत एलर्जी है. सर का उदाहरण था. वो लड़कपने में ऐसे ही मुंह पर रुमाल बाँध वार्डन के घर पर रात में पत्थर फेंकते थे. काफी पहले एक दिन मजाक करते-करते बताया था.



17. मई

आज बहुत दुखी हूँ. खुदीराम बोस कॉलेज में बात एकदम पक्की हो गयी थी. टीचर इंचार्ज भी पोजिटिव सिग्नल दे चुके थे. न जाने कहाँ से ये रोस्टर टपक पड़ा. जनरल कोटे की सीट ही उड़ गयी. समझ में नहीं आता इसका चक्कर. दलित मित्रों को लगता है रोस्टर में उनकी सीट मारी जाती है. विकलांग कैटेगरी वाले तो इससे नाराज हैं ही. सच्चाई जो भी हो, इससे कोई खुश नहीं. क्योंकि सब कुछ ढांक-ढूंक कर होता है. शक तो होगा ही.



19. मई

दयाशंकर का दुःख भारी है. एक ज़माने में सर का बड़ा करीबी था. न जाने क्या मामला हो गया उनके नाम पर बिदकता है. उसे भी रोस्टर की मार लगी है. कह रहा था जिसका अप्रोच है उसके लिए रोस्टर तेल लेने चला जाता है. पिछले साल ही लक्खीमल कॉलेज में समीर उषा प्रकाश ने विकलांग कोटे की सीट जनरल में करवा ली थी. साले का असल नाम समीर राय है. पर फेसबुक में अम्मा-पापा का नाम जोड़कर लिखता है. अब इसी नाम से सब जानते हैं. आजकल ऐसा फैशन में है.



20. मई  

सर ने घर पर बुलाया है. अभी तक उनकी किताब की समीक्षा पूरी नहीं कर सका. क्या लेकर जाऊं. उनकी बेटी के लिए छोटा पेंट बॉक्स खरीदने की सोच रहा हूँ. बजट टाइट है.




24. मई

ये पापा भी न. बार-बार एक ही बात पूछते रहते हैं. हज़ार किलोमीटर दूर बैठकर सलाह देना बहुत आसान रहता है. ‘गाइड से खुलकर बोलो’ की रट लगाए रहते हैं. गाइड उल्लू हैं क्या कि उन्हें बार-बार बताऊँ. सब जानते हैं गाइड. गंभीर-शालीन भी बने रहना पड़ता है उनके सामने. गाजीपुर के उजड्डों को लगता है हर काम ढ़ोल बजाकर होता है. खरी-खरी सुना दी मैंने.



25. मई

मां मेरी कमजोरी है. फ़ोन आया था. पापा ने ही बताया होगा. बहन की शादी की बात चल रही है. जानता हूँ घर की हालत. पर क्या करूँ मां. कोशिश तो कर रहा हूँ न. फ़ेलोशिप के पैसे घर भेजे थे कि नहीं. आप लोगों ने कितना कष्ट सहकर मुझे पढाया है. झिझक ख़त्म करने का निर्णय लिया है. थोडा तेज़-तर्राक बनूँगा. कल सर से मिलना है.   



27. मई

भागीरथी कॉलेज में इंटरव्यू की डेट आयी है. यहाँ मामला नहीं बन पायेगा. टीचर इंचार्ज हमारे सर का क्लासमेट था. सुनने में आता है किसी लड़की के चक्कर में दोनों एक दूसरे से भिड़ गए थे. तब से नापसंद करते हैं. चांस तो कम है पर इंटरव्यू देने जाऊँगा.



28. मई
इंटरव्यू में एक टीचर ने राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन पूछा. दूसरे ने कहा – ये हिन्दी की पोस्ट है. अंग्रेजी में CV क्यों लाये हो? अब क्या बताता! वैसे वहां पहुँचते ही पता चल गया था किसका हो रहा है. साला सुनिलवा. पूरा टाइम मोबाइल पर सेटिंग कर रहा था.



1. जून

कल द्रोपदी कॉलेज के इंटरव्यू में भी किस्मत आजमाने चला गया था. महिला कॉलेजों में ज्यादातर पुरुषों को नहीं लेते. सेटिंग अच्छी हो तो बात अलग है. इन कॉलेजों के वेटिंग रूम का दृश्य इतना दारुण रहता है कि दामिनी फिल्म के सनी देओल के ‘तारीख पर तारीख’ वाले कालजयी डॉयलाग की तर्ज़ पर ‘इंटरव्यू पर इंटरव्यू’ चिल्लाने का मन हो जाता है.

(डायरी के अन्दर डायरी : यहाँ वे महिलाएं भी इंटरव्यू देने आती हैं जो सुबह-सुबह अपने पतियों और बच्चों को तैयार कर, नाश्ता खिलाकर ऑफिस और स्कूल/कॉलेज भेज चुकी होती हैं. किस्मत ऐसी कि मुझे अक्सर उनके अगल-बगल वाली सीट मिलती है. अपरिचित लोगों के बीच में होने वाली नमस्ते-रूपी मुस्कराहट के आदान-प्रदान के बाद मैं चुप लगा जाता हूँ. पशोपेश यह रहती है कि कहीं मुंह से आंटी या दीदी न निकल जाय. वेटिंग रूम में कई बार उनकी चर्चा पिछली रात की कढी-सब्जी या बालों के रंग पर होती रहती है. दिल्ली के आसपास मेरठ जैसे शहरों से हिन्दी में पीएचडी की डिग्रियां लिए ये कद्दावर औरतें रहस्यमयी पत्रिकाओं में छपे अपने लेख दिखाती हैं. यह भरोसा बलवान हो जाता है कि हिन्दी-साहित्य का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. इनकी प्रेरणा और जिजीविषा देखकर खुद पर शर्म आने लगती है. मेरा बस चले तो प्रिंसिपल को कह दूं कि हिन्दी की इन वीरांगनाओं को रखना ही पड़ेगा.) 




3. जून

द्रोणाचार्य और लाला हरदयाल कॉलेज में भी इंटरव्यू दिया. यहाँ भी अप्रोच समय पर नहीं पहुंचा. इस बार कहानी और उपन्यास मुख्य पेपर है. और इंटरव्यू में मैडम काव्य के भेद पूछ रही थीं.

सर को न जाने क्या हो गया है. पता नहीं मेसेज भिजवाते भी हैं या नहीं. तत्परता नहीं दिखा रहे पहले वाली. आज अरोड़ा मैडम को ऍफ़बी पर मेसेज भेजा है उनके कॉलेज में पता करने के लिए.




7. जून

एक हफ्ते से सिर्फ भागादौड़ी हो रही है. राजेश की बाइक मांगकर लाया था. 500 का तो पेट्रोल ही फूंक डाला होगा. उधार के बढ़ते पहाड़ का दर्द मुझे ही समझ आता है. खैर, जिनसे-जिनसे मिलना मैटर करता है सबसे मिल लिया. इस बार कोई कसर नहीं छोडूंगा. सर भी न. घाघ हैं. देखा बाइक है चार काम पकड़ा दिए. पर बिटिया उनकी अच्छी है. मेरे दिए पेंट बॉक्स से उसने तस्वीर बनाई.



9. जून
रासबिहारी बोस कॉलेज में साले अध्यापक भी रास रचाते हैं. शोधार्थी कितना असहाय हो जाता है. हिंदी का हो तो और भी ज्यादा. मेरी सीनियर, जूनियर और साथ की लड़कियों की कहानी सुनता हूँ तो शर्म से सिर झुक जाता है. क्या जवान क्या बूढ़े अध्यापक – सब साले लार टपकाते रहते हैं. इस लाररूपी लासे से चिपका आता है एडहॉक का आश्वासन. बिना इंटरव्यू दिए ही लौट आया. सर का कहना है इतना भावुक होना ठीक नहीं.    



10. जून

रामानंद कॉलेज में सर ने बात की है. बोल रहे थे हो जाना चाहिए. थोडा हल्का महसूस हो रहा है.


14. जून

इंटरव्यू हुए दो दिन बीत गए. मेरा नहीं हुआ. भाड़ में जाए ये दुनिया. सब मामला सेट था. टीचर इन्चार्च ने मुझे ले लेने का आश्वासन दिया था. सर ऐसा बोल रहे थे. पर प्रिंसिपल को एमएचआरडी से पंकज उपाध्याय के लिए फ़ोन आ गया. पंकज के नाना मिर्ज़ापुर में आरएसएस के अध्यक्ष हैं. ऐसे मौके पर सर भी कुछ नहीं कर सकते. लग रहा है साठी ग्रुप में किसी से मिलना पड़ेगा.



16. जून

हरेन्द्र सर से मिला. साठी ग्रुप में सक्रिय हैं. परमानेंट होने से पहले सात साल एडहॉक पढ़ा चुके हैं. उनको देख हिम्मत होती है. मेरे ही इलाके से हैं. मेरा दर्द समझते हैं. बोले पिछली सरकार होती तो जरूर करवा देते. मदद का वादा किया है. यह बात मैंने अपने सर को नहीं बताई.



27. जून

अब तक बात नहीं बनी. इस सेशन में कुल 16 इंटरव्यू दे चुका हूँ. क्या जमाना आ गया है. एक एडहॉक के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे? जेआरऍफ़ हूँ. पीएचडी हूँ. तीन अच्छे और पांच औसत  पब्लिकेशन हैं. ज्यादातर लोग API पॉइंट पूरा करने के लिए तो पैसे देकर ऐंवे टाइप लेख छपवाते हैं. अपन का तो क्वालिटी पर छपा है. कभी ज्यादा क्रांतिकारी भी नहीं रहा. अपने काम से काम रखा. उस पर ये हाल है.



8. जुलाई

जालिम है ये दुनिया. फ्रॉड हैं साले सब. इटावा में खाकर आगरा में हगते हैं. सिर्फ अपनी पड़ी है सबको. बहुत प्यार दिखाती थी वह मुटल्ली अरोड़ा मैडम. हफ्ते भर से फ़ोन न उठा रही. सर भी कुछ रिस्पांस न दे रहे. दुनिया वालों बताओ मैं क्या करूँ?




10. जुलाई

सर बहुत अच्छे हैं. मेरे मन में गलत विचार आ गए थे. फोन आया था उनका. बात की है मेरे लिए. मैंने तो आशा छोड़कर यूपी के फ़ूड इन्स्पेक्टर का फॉर्म भी भर दिया. सर भी क्या-क्या करें. कितने तो उनके लोग हैं. आसान नहीं है इतना.



12. जुलाई

कल तुलसीदास कॉलेज में इंटरव्यू है. खुदा न खास्ता सब ठीक रहा तो परसों से अपन भी एडहॉक होंगे. सर के प्रति कृतज्ञता से मस्तक झुका जा रहा है. अम्मा-पापा को फ़ोन करूँगा. गौरव को भी बोलता हूँ कि भाई के पैसे जल्द वापस होंगे.  



24. जुलाई

एक हफ्ते तक डिप्रेशन में था. मेरा वहां पक्का हो जाता अगर इंटरव्यू के बाद टीचर इंचार्ज को  विभाग के एक बहुत पावरफुल प्रोफ़ेसर का फ़ोन न आ जाता. प्रोफ़ेसर संघ के करीब हैं. टीचर इंचार्ज ने मुझसे साफ़-साफ़ बोला- भाई, मुझे भी तो नौकरी करनी है’.


3. अगस्त

मैं ये एडहॉक का धंधा छोड़ रहा हूँ. फ़ूड इंस्पेक्टर के एग्जाम की डेट आ गयी है. जमकर मेहनत करूँगा और सलेक्शन लूँगा. बहुत हुई इन सालों की चापलूसी. साले रबड़ के पुतले. कल गया था सर के घर. अंतिम प्रणाम कर आया.

_____________________
संदीप सिंह
sandeep.gullak@gmail.com

गीत चतुर्वेदी : छह कविताएं

$
0
0
Photo :Tim Walker :  Georgina and Mice









गीत चतुर्वेदी की प्रस्तुत छह कविताएंसमालोचन पर  पहली बार प्रकाशित हो रही हैं.  गीत हिंदी कविता के अब एक तरह से वैश्विक पहचान बन चुके हैं. उनकी कविताओं का चौदह भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है और इन अनुवादों को सराहा गया है.

गीत की कविताएँ इक्कीसवीं सदी की कविताएँ हैं, उनकी कविताओं का मिजाज़ और मुहावरा दोनों  समय के साथ बदला है और समुचित हुआ है.  ये कविताएँ और अधिक कविता हुई हैं.  इनमें आभासी और यांत्रिक समय के मनुष्य और  उसके होने के लगातार हो रहे कत्लेआम का बहता ठंडा लहू है.  इसमें दरअसल कलाओं का वह उजास है जिसमें हम अपना आदमी होना देख पाते हैं.

कविताएँ खास समालोचन के पाठकों के  लिए.



गीत चतुर्वेदी                                                                   


छह कविताएं 



सुसाइड बॉम्‍बर 

कविता को उपयोगितावादी दृष्टिकोण से देखना मुझे नहीं पसंद. 

फिर भी मन में कई बार आता है ख़याल 
कि कोई मानव-बम
बटन दबाना भूल जाए 
कि उस समय वह कविता पढ़ रहा था 

उसके बाद अपना बम उतार कर 
ख़ुद एक मानव-कविता बन जाए 
ताकि दूसरे बम उसे पढ़ सकें.



बड़े पापा की अंत्‍येष्टि


फूल चढ़ाने के बाद उस लाश को घेरकर हम खड़े हो गए थे. 
सम्‍मान से सिर झुकाए. उसका चेहरा निहारते. 
हममें से कई को लगा कि पल-भर को लाश के होंठ हिले थे. 
हां, हममें से कई को लगा था वैसा, पर हम चुप थे. 
एक ने उसके नथुनों के पास उंगली रखकर जांच भी लिया था. 

उसके दाह के हफ़्तों बाद तक लोगों में चर्चा थी कि 
मरने के बाद भी उस लाश के होंठ पल-भर को हिले थे. 
कैफ़े चलाने वाली एक बुढि़या, जो रिश्‍ते में उसकी कुछ नहीं लगती थी
बिना किसी भावुकता के उसने एक रोज़ मुझसे कहा
मुझे विश्‍वास था, वह आएगा, मरने के बाद भी आएगा 
अपना अधूरा चुंबन पूरा करने. 
53 साल पहले जब वह 17 का था 
गली के पीछे टूटे बल्‍ब वाले लैंपपोस्‍ट के नीचे 
एक लड़की का चुंबन अधूरा छोड़कर भाग गया था. 






यासुजिरो ओज़ू की फिल्मों के लिए


अगर तुम एक देश बनाते, तो वह एक मौन देश होता : तुम्हारे रचे शब्दकोश मौन होते : तुमने कभी देवताओं के आगे हाथ नहीं जोड़ा : ताउम्र तुम एक दृश्य रचते रहे : उनमें तुम मानसिक आंसुओं की तरह अदृश्य रहे

अर्थ की हर तलाश अंतत: एक व्यर्थ है : इस धरती पर जितने बुद्ध, जितने मसीहा आए, इस व्यर्थ को कुछ नए शब्दों में अभिव्यक्त कर गए : मांकीतरफ़सेमैंपीड़ाकावंशजहूं: पिताकीतरफ़सेअकेलेपनका : जबभीमैंघरकीदहलीज़लांघताहूं : मैंएकांतकाइतिहासलांघताहूं 

गुप्त प्रेमी मरकर कहां जाते हैं?
सड़क की तरफ़ खुलने वाली तुम्हारी खिड़की के सामने
लगे खंभे पर बल्ब बनकर चमकते हैं
उनके मर चुकने की ख़बर भी बहुत-बहुत दिनों तक
नहीं मिल पाती

मृत्यु का स्मरण
तमाम अनैक्य का शमन करता है
मेरी आंखें मेरे घुटनों में लगी हैं
मैंने जीवन को हमेशा
विनम्रता से झुककर देखा 

थके क़दमों से एक बूढ़ा सड़क पर चला जा रहा
वह विघटित है
उसके विघटन का कोई अतीत मुझे नहीं पता
मैं उसके चलने की शैली को देख
उसके अतीत के विघटन की कल्पना करता हूं
वह अपनी सज़ा काट चुका है
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जज साहब उसे
बाइज़्ज़त बरी कर दें 

जो कहते हैं भविष्य दिखता नहीं, मैं उन पर यक़ीन नहीं करता
मैं अपने भविष्यों को सड़कों पर भटकता देखता हूं
उसी तरह मेरे भविष्य
मुझे देख अपना
अतीत जान लेते हैं 

मैं वह शहर हूं जिसकी वर्तनी व उच्चारण
बार-बार बदल देता
एक ताक़तवर राजा 

यह मेरी देह का भूगोल है :
मैं आईने के सामने जब भी निर्वस्त्र खड़ा होता हूं,
मुझे लगता है,
मैं एक भौगोलिक असफलता हूं


कृति : Sunil Gawde 


मेरी भाषामेरा भविष्‍य

शहर के बाहर पुल के नीचे कचरे के ढेर के बीचोंबीच 
मेरी भाषा का सबसे बूढ़ा कवि चाय में डबलरोटी डुबोकर खाता है 

उसने अफ़ज़़ाल से भी पहले शायरी ईजाद की थी 
सारे देवता जूं बनकर उसकी दाढ़ी में रहते हैं 
उसके शरीर पर जितने बाल हैं, वे उसकी अनलिखी कविताएं हैं 

वह उंगलियों से हवा में शब्‍द उकेरता है 
इस तरह, हर रात अपने अतीत को लिखता है एक चिट्ठी 
जो लिफ़ाफ़ा खोजने से पहले ही खो जाती है

मरने से पहले एक बार 
कम से कम एक बार
उस औरत का सही नाम और चेहरा याद करना चाहता है 
जो किसी ज़माने में उसकी कविताओं की किताब 
अपने तकिए के नीचे दबाकर सोती थी 





मैंने कहा, तू कौन है? उसने कहा, आवारगी *

बहुत सारी रातें मैंने काम करके बिताई हैं 
लिखते हुए, पढ़ते हुए.
हमेशा अकेला ही रहा, इसलिए महज़ ख़ुद से लड़ते हुए. 
लेकिन मैं याद करता हूं उन रातों को 
जब मैंने कुछ नहीं किया, पैरों को मेज़ पर फैलाकर बैठा 
दीवार पर बैठे मच्‍छर को बौद्ध-दर्शन की किताब से दबा दिया.  
कांच के गिलास को उंगलियों से खिसकाकर फ़र्श पर गिरा दिया
महज़ यह जानने के लिए कि 
चीज़ों के टूटने में भी संगीत होता है.

एक रात बरामदे में झाड़ू लगाया और उसी बहाने आधी सड़क भी साफ़ कर दी 
किताबों से धूल हटाने की कोशिश की तो जाना- 
साहित्‍य और धूल में वर-वधू का नाता है.
बाक़सम, इस बात ने मुझे थोड़ा विनम्र बनाया. 
मैंने धूल को साहित्‍य और साहित्‍य को धूल जितना सम्‍मान देना सीखा. 

कुछ गोपनीय अपराध किए 
तीस साल पुरानी एक लड़की को फेसबुक पर खोजता रहा 
और जाना कि पुरानी लड़कियां ऐसे नहीं मिलतीं - 
शादी के बाद वे अपना नाम-सरनेम बदल लेती हैं. 

सीटी बजाते हुए सड़कों पर तफ़रीह की 
और एक बूढ़े चौकीदार के साथ सूखी टहनियां तलाशीं 
ताकि वह अलाव ताप सके. 
एक रात जब सिगरेट ख़त्‍म हो गई तब बड़ी मेहनत से ढूंढ़ा उस चौकीदार को. 
उसने मुझे पहचान लिया और अपनी बीड़ी का आधा बंडल मुझे थमा दिया. 

एक औरत से मैंने सिर्फ़ एक वक़्त की रोटी का वादा किया था 
जवाब में दूसरे वक़्त भूखी रहती थी वह. 
आधी रात मैं उसे कार में बिठाता और शहर से बहुत दूर ढाबे में ले जाता. 
वह आधी अंगड़ाई जितनी थी, आधी रोटी जितनी, आधी खुली खिड़की जितनी
आधे लगे नारे जितनी. 
खाना खाने के बाद हम प्रॉपर्टी के रेट्स पर बहसें करते
और मिट्टी पर मंटो का नाम लिखते थे. 

एक रात एक पुलिसवाले ने मुझे ज़ोर से डांटा कि क्‍यों घूम रहा है इतनी रात को
मैंने भी उसे चमका दिया कि लोग मुझे हिंदी का बड़ा कवि मानते हैं, तुम ऐसे मुझे डांट नहीं सकते. 
बिफरकर वह बोला, साले, चार डंडे मारूंगा तेरे पिछवाड़े. घर जाकर सो जा. 
मैंने उसके साथ बैठकर तीन सिगरेटें पीं. वह इस बात से परेशान था 
कि उसका साहब एक नंबर का चमड़ी है 
और वह अपनी बेटी को पुलिस में नहीं आने देगा. 
अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर मुझे घर छोड़ गया.

एक रात जब मैं पैदल भटक रहा था, कुछ कुत्‍ते भौंकने लगे मुझ पर.
मैंने दोस्‍तोयेव्‍स्‍की का एक हार्ड-बाउंड मोटा उपन्‍यास उन्‍हें दे मारा.
पर कुछ पल बाद ही कुत्‍ते फिर से भौंकने लगे.
मैंने इसे फ़्योदोर की एक और नाकामी मानी
और मन ही मन सोचा :
यह दुनिया माईला... नाम्‍या ढसाळ का गांडूबगीचा है.

जिन रातों को मैंने मोटी-मोटी किताबें पढ़ीं
कुछ कवियों को सराहा, कई पर नाक-भौं सिकोड़ी
जिन रातों को बैठकर मैंने अपनी कविताएं सुधारीं गद्य लिखे - 
मैं उन रातों को कभी याद नहीं करता 
न ही वे चीज़ें याद आती हैं जो मैंने लिखी हैं - 
वे बेशक भूल जाने लायक़ हैं. 
पर जो चीज़ मैं नहीं भूल पाता, वह है अपनी रातों की आवारगी. 
न पैसा न दमड़ी, न किताब न कविता 
जब मरूंगा, छाती से बांध के ले जाऊंगा ये अपनी आवारगी.

और हां, जाने कितनी रातें मैंने छत पर गुज़ारी हैं. 
कभी रेलिंग से टिककर धुआं उड़ाते. कभी नंगी फ़र्श पर चित लेटे 
आकाश निहारते. 
ख़ुद से कहा है बारहा - लोग तुम्‍हें कितना भी रूमानी कहें गीत चतुर्वेदी 
आंसू, गुलाब और सितारे से कभी बेवफ़ाई मत करना. 
कविता ख़राब बन जाए, वान्‍दा नहीं 
पर दिल को इन्‍हीं तीनों से मांजना - हमेशा साफ़ रहेगा. 
अंतत: ख़ुद कवि को ही करनी होती है 
अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त. 


 (शीर्षक पंक्ति मोहसिन अली नक़वी की एक ग़ज़ल से है.
‘गांडूबगीचा’ मराठी कवि नामदेव ढसाळ के एक कविता-संग्रह का नाम है)




सबसे प्रसिद्ध प्रश्‍न 'मैं क्‍या हूं'के कुछ निजी उत्‍तर

रोटी बेलकर उसने तवे पर बिछाई 
और जिस समय उसे पलट देना था रोटी को 
ठीक उसी समय एक लड़की का फ़ोन आ गया.
वह देर तक भूले रहा रोटी पलटना. 
मैं वही रोटी हूं. 
एक तरफ़ से कच्‍ची. दूसरी तरफ़ से जली हुई.

उस स्‍कूल में कोई बेंच नहीं थी, कमरा भी नहीं था विधिवत 
इमारत खंडहर थी. 
बारिश का पानी फ़र्श पर बिखरा था और बीच की सूखी जगह पर 
फटा हुआ टाट बिछाकर बैठे बच्‍चे हिंदी में पहाड़ा रट रहे थे. 
सरसराते हुए गुज़र जाता है एक डरावना गोजर 
एक बच्‍चे की जांघ के पास से. 
अमर चिउंटियों के दस्‍ते में से कोई दिलजली चिउंटी 
निकर के भीतर घुसकर काट जाती है.
नहीं, मैं वह स्‍कूल नहीं, वह बच्‍चा भी नहीं, गोजर भी नहीं हूं 
न अमर हूं, न चिउंटी. 
मैं वह फटा हुआ टाट हूं. 

गोल्‍ड स्‍पॉट पीने की जि़द में घर से पैसे लेकर निकला है एक बच्‍चा. 
उसकी क़ीमत सात रुपए है. बच्‍चे की जेब में पांच रुपए. 
मां से दो रुपए और लेने के लिए घर की तरफ़ लौटता बच्‍चा 
पांच बार जांचता है जेब में हाथ डाल कि 
पांच का वह नोट सलामत है. 
घर पहुंचते-पहुंचते उसके होश उड़ जाते हैं कि जाने कहां 
गिर गया पांच रुपए का वह नोट. वह पांच दिन तक रोता रहा. 
हां, आपने सही समझा इस बार
मैं वह पांच रुपए का नोट हूं. 
उस बच्‍चे की आजीवन संपत्ति में 
पांच रुपए की कमी की तरह मैं हमेशा रहूंगा. 

मैं भगोने से बाहर गिर गई उबलती हुई चाय हूं. 
सब्‍ज़ी काटते समय उंगली पर लगा चाक़ू का घाव हूं. 
वीरेन डंगवाल द्वारा ली गई हल्‍दीराम भुजिया की क़सम हूं 
अरुण कोलटकर की भीगी हुई बही हूं. 

और... 
और... 
चलो मियां, बहुत हुआ. 
अगले तेरह सौ चौदह पन्‍नों तक लिख सकता हूं यह सब.
‘मैं क्‍या हूं’ के इतने सारे उत्‍तर तो मैंने ही बता दिए 
बाक़ी की कल्‍पना आप ख़ुद कर लेना 
क्‍योंकि मैं जि़म्‍मेदारी से भागते पुरुषों की 
सकुचाई जल्‍दबाज़ी हूं, अलसाई हड़बड़ाहट हूं

चलते-चलते बता दूं
ठीक इस घड़ी, इस समय
मैं दुनिया का सबसे सुंदर मनुष्‍य हूं 
मेरे हाथ में मेरे प्रिय कवि का नया कविता-संग्रह है. 

कवि की तस्‍वीर: © ज़ाहिद मीर, 2012. 
__________





1977 में मुंबई में जन्‍मे गीत चतुर्वेदीके खाते में छह लिखी हुई और कई अधूरी-अनलिखी किताबें दर्ज हैं. उनका पहला कविता संग्रह ‘आलाप में गिरह’ 2010 में राजकमल प्रकाशन से आया और दूसरा संग्रह ‘न्‍यूनतम मैं’ भी जल्‍द ही वहीं से आने वाला है. 

उन्‍हें कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार, गल्‍प के लिए कृष्‍ण प्रताप कथा सम्‍मान मिल चुके हैं. ‘इंडियन एक्‍सप्रेस’ सहित कई प्रकाशन संस्‍थानों ने उन्‍हें भारत के सर्वश्रेष्‍ठ लेखकों में शुमार किया है. 

उनकी कविताएं देश-दुनिया की चौदह भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. उनके नॉवेला ‘सिमसिम’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए उनकी अनुवादक अनिता गोपालन को प्रतिष्ठित ‘पेन-हैम ट्रांसलेशन ग्रांट 2016’ अवार्ड हुआ है. सोलह साल तक पत्रकारिता करने के बाद अब वह अपना अधिकांश समय लेखन को देते हैं. इन दिनों भोपाल रहते हैं. उनका ईमेल पता है :  
geetchaturvedi@gmail.com

कथा - गाथा : मोहे रंग दो लाल... (जयश्री रॉय)

$
0
0











भोपाल की स्‍पंदन संस्‍था की संयोजक उर्मिला शिरीष ने 2015  के स्‍पंदन कृति सम्‍मान से कथाकार मनोज पाण्डेय, और स्पंदन आलोचना सम्मान से राकेश बिहारी के सम्मानित होने की घोषणा की है. वर्ष  2016 के स्‍पंदन कृति सम्‍मान के लिए कथाकार जयश्री रॉय के चयन की भी घोषणा हुई है. भोपाल की स्‍पंदन संस्‍था हर वर्ष ये सम्‍मान कविता, कथा, आलोचना, साहित्यिक पत्रकारिता, ललित कला वगैरह वर्गों में देती है.  समालोचन की तरफ से सभी पुरस्कृत लेखकों कलाकारों को बहुत-बहुत बधाई. 

(२०१५ के स्पंदन सम्मान :
एकांत श्रीवास्तव, मनोज कुमार पाण्डेय, गुंदेचा बन्धु, राकेश बिहारी, श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, आरोही मुंशी
________
२०१६ के स्पंदन सम्मान : 
सविता सिंह, जयश्री रॉय, देवीलाल पाटीदार, आशीष त्रिपाठी, हरे प्रकाश उपाध्याय हेमंत देवलेकर )

इस  अवसर पर  जयश्री रॉय की एक नई कहानी आपके लिए.




मोहे रंग दो लाल...                                       

जयश्री रॉय 







रात के मयूरकंठी आकाश में एक उज्ज्वल नक्षत्र अनायास दमक कर बुझा था. साथ ही मद्दिम बजती बांसुरी की तान थमक गई थी. राज प्रासाद की ऊंची-काली दीवारों के बीच कुहासे-सा जमा मौन देर तक थरथराता रह गया था. मीरा ने हल्की चाँदनी में अपनी नीली हथेलियाँ देखी थी,उँगलियों के गाढ़े स्याह पोर- अंग-अंग नीला,वह श्याम हो गई है,कृष्णमय हो गई है! अहा! विष के उन्माद में मीरा की शिराओं में समुद्र का ज्वार उतरा है, रक्त के कण अग्नि-स्फुलिंग बन जल उठे हैं. “राणा ने यह कैसा अमृत भेजा...” प्याली से विष की अंतिम बूंद चाट कर मीरा बसंत की आधी रात में सुध-बुध खो कर नाचती है. उसके घाघरे की सतरंगी घेर से बवंडर उठते हैं, चूनर आकाश ढाँप देती है, पाजेब की झमक सुदूर नक्षत्रों में टंकार-सी गूँजती फिरती है. साथ में नाचते हैं राजद्रोह पर उतरे मेवाड़ के निर्मम महल, उसके विशाल कंगूड़े और फीकी चाँदनी में डूबी उसकी लंबी, उदास बारादरियाँ. मलयानिल के झोंकों पर बांसुरी फिर से निःशब्द बजती रहती है, रेत की शुष्क ढूंहों पर तुलसी का ताजा,श्यामल वन उग आता है, मोर का केंका गूँजता है अनवरत... मीरा नाचते-नाचते एक समय अचेत हो कर गिर पड़ती है,रुक्मिणी के सरहाने बैठा कृष्ण स्वर्ग के झरोखे से झुक कर देखता है अपनी पागल मीरा को और मुस्कराता है,साथ में सारा आकाश,आकाश गंगा भी. पूरब का क्षितिज बासंती मुस्कराहट से भर जाता है. पंछी कलरव कर उठते हैं...

मीरा की स्वप्न भरी आँखें चिन्मयी के बूढ़े,उदास चेहरे पर जाने कितनी सदियों बाद खुलती हैं! वह चुपचाप देखती है- आश्रम की छोटी-सी खिड़की पर गिरती शाम,आकाश का एक मैला टुकड़ा,दूर उड़ते बादल... पास के गोविंदजी के मंदिर में आरती शुरू हो गई है. पूरा वृंदावन हजारों घण्टियों की मधुर ध्वनि से गूंज रहा है. तीन दिन हुये चिन्मयी भजन-कीर्तन,आरती के लिए जा नहीं पायी है. बहुत बीमार है. अब कभी जा भी पाएगी...!चिन्मयी की मोतिया बिन्द से लगभग अंधी आँखें अनायास भर आती हैं- अब क्या तुम्हारे दर्शन भी न मिलेंगे प्रभु! आँखों में इतनी रोशनी,देह मे इतनी शक्ति बचाए रखना कि तुम्हें देख सकूँ,तुम्हारा नाम ले सकूँ... चिन्मयी के दुर्बल हाथ प्रार्थना में जुड़े थरथराते रहते हैं. सीने के भीतर हृदय थम-थम कर धड़कता है.

देर शाम उमा ब्राह्मणी लौटती है. उसके लिए थोड़ी खिचड़ी लायी है. ठाकुरजी का प्रसाद भी. उसे बैठा कर खिलाते हुये बताती है,श्री माँ एनजीओ की सरिता बहनजी बोली है,कल उसके लिए डॉक्टर भिजवाएगी. ज़रूरी हुआ तो अस्पताल में भर्ती करवाने का प्रबंध भी करवाएगी. चिन्मयी अपना पोपला मुंह चुभलाते हुये चुपचाप सुनती है- उसका एक मात्र रोग उसका जीवन है,इसका ईलाज मृत्यु के सिवा और कुछ नहीं हो सकता... कौन वैद्द क्या करेगा... उमा की दी हुई बुखार की गोली वह मुश्किल से घटकती है. आजकल छाती में फांस-सा पड़ा है. कुछ नीचे नहीं उतरता. सांस भी अटकी रहती है. उसे बाथरूम जाना है. उमा उसका हाथ पकड़ कर आश्रम की अंतहीन सीढ़ियाँ उतरती है. उसके गठिया से अकडे घुटने हर कदम पर टूटते हैं,दर्द पोर-पोर चिलकता है. कभी वह हाँफती हुई बैठ जाती है,कभी चौपायों की तरह रेंगती है. तेज दुर्गंध से भभकते हुये बाथरूम तक पहुँचते हुये उसे लगता है,सदियाँ गुजर गईं. उमा ब्राह्मणी धैर्य के साथ उसके लिए खड़ी रहती है.

कितनी अजीब बात है,इसी उमा ब्राह्मणी से एक समय वह बात नहीं करती थी. उमा ब्राह्मणी साल भर हुये इस आश्रम में आई है. पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के किसी गाँव से है. पहले मंगला भजन आश्रम में रहती थी. 23 साल की उमर में विधवा हो कर ससुराल वालों के द्वारा वृंदावन भेजी गई थी. सबको पता है,वेश्यावृत्ति करती थी. आश्रम वाले ही करवाते थे. दो साल पहले गुप्त रोग से पीड़ित हुई तो उस आश्रम से निकाल दी गई. एक समाज सेवी संस्था ने उसका ईलाज कारवाया और इस आश्रम में भेजा. स्वभाव से बहुत झगड़ालू! जुबान चाबुक-सी चलती है. बात-बात पर श्राप देती है. घंटे-घड़ियाल बजा कर रख देती है. उसे अपने ब्राह्मण होने पर बहुत गर्व है. भीख तो किसी से भी ले लेती है,मगर लोगों की जात पूछ कर ही उनके हाथ से पानी पीती है. अहंकार से सुनाती है- चाहे किसी भी जात-कुजात के साथ सोयी मगर उन्हें कभी अपनी रसोई में घुसने नहीं दिया! चिन्मयी को उसके लिए दुख होता है. ऐसा कहते हुये वह कितनी दयनीय लगती है उसे खुद नहीं पता. जीवन की फटी हुई झोली में अपनी झूठी श्रेष्ठता का भरम ढोती फिर रही है. कान्हा कहता है,कर्म सब कुछ. मगर मिला सब भाग्य से है- ये जात,शरीर,दुर्भाग्य का जन्म भर का बोझा... हाड़ तोड़ कर्म का कोई फल अब तक तो नहीं मिला!

एक बार जब वह बहुत बीमार पड़ी थी,चिन्मयी ने उसकी सेवा की थी. उसके कर्कश स्वभाव के कारण आश्रम का कोई उसे छूने के लिए भी तैयार नहीं था. तब से वह चिन्मयी को खूब मानती है. अब तो स्थिति ये है कि इस परदेश में हर सुख-दुख में चिन्मयी को उसी का एक अकेला आसरा है. घर-गाँव,देश अर्सा हुये पीछे छूटे,रिश्तों की लम्बी सूची भी जाने कब शून्य में तब्दील हो गई. अपनों के नाम पर स्मृति में कुछ चेहरों के मिटते-लिसरते धब्बे हैं जो अक्सर आपस में गडमड हो जाते हैं. वृंदावन की गलियों में आवारा पशुओं के साथ हजारों विधवाओं की टोलियाँ भीख मांगती मारी-मारी फिरती हैं. लोग उठते-बैठते इन्हें दुत्कारते हैं,अपशब्द कहते हैं. शुरू-शुरू में चिन्मयी कुछ समझ नहीं पाती थी. उसे बंगला के सिवा कोई और भाषा नहीं आती थी तब. अब इतने सालों में बहुत सारी गालियों के साथ कुछ टूटी-फूटी हिन्दी समझने लगी  है. कोई कुछ भी कहे,वह विनय से दुहरी हो कर पोपले मुंह से मुस्कराते हुये- राधे-कृष्ण,राधे-कृष्णकह देती है. इस परदेश में राधे-कृष्णनाम ही उसकी एक मात्र सुरक्षा है. भीतर आठों प्रहर प्राण भय से धुकधुकाता रहता है. जिसकी मर्जी गाली बके,पीट दे... आश्रम का चौकीदार,रसोइया,मंदिर के पंडे... उम्र कम थी तो डर अलग किस्म का था. जाने कब कौन किस अंधेरे कोने में खींच ले! सुदूर बंगाल से आई हुई हर तरह से असहाय,निराश्रित औरतें यहाँ किसी के लिए भी सहज शिकार होती हैं. कल भी और आज भी... सब  कहते हैं समय बदला है. स्थिति बेहतर हुई है,मगर कहाँ! उमा ब्राह्मणी पान चबाते हुये अक्सर कहती है- कोथाय जाच्छो गोपाल,ना सोंगे जाच्छे कपाल... (गोपाल कहीं भी जाओ,साथ तो किस्मत भी जाएगी ही)

सुना है सरकार विधवा पेंशन की योजना ले आई है. बृद्धावस्था पेंशन भी मिलता है. साथ ही अंतोदय अन्न योजना में चाबल,गेंहू. स्वधार योजना के तहत थोड़ी आर्थिक मदद. मगर कहाँ! आश्रम की अमृता बहनजी कई कागजों पर अंगूठा लगवा कर ले गई थी. कभी-कभी हाथ में भीख की तरह कुछ रख देती है,तेल-साबुन खरीदने के लिए. बस इतना ही. किसी की उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं होती. आश्रम का पूरबिया चौकीदार राम सिंहासन उसका खास आदमी है. थाल भर कर गरम लिट्टी-चोखा अक्सर मैडम के कमरे में पहुंचाता है. अपनी तेल पिलाई हुई छह फुट की लाठी बगल में रख कर आश्रम के गेट पर बैठा खैनी मलता रहता है. हर विधवा को बूढ़िया कह कर दुरदुराता है,कई को पीट चुका है.   

उमा ब्राह्मणी अक्सर उससे पिटती है,मगर डरती नहीं. निर्ल्लजता से अपने पान से कत्थई पड़े दाँत झमका कर हँसती है- आ मोलो जा! ओ मेगुया आमार की कोरबे ला! आमार गाये हाथ  दिएछे,उमा ब्राह्मणीर गाये! जोदी ओर गाये पोका ना पोरे तो आमार नामो उमा ब्राह्मणी नोय बोले दिलाम(अरे जा,वह मेरा क्या बिगाड़ लेगा! मुझ पर हाथ उठाता है! अगर उसके कीड़े ना पड़े तो मेरा नाम उमा ब्राह्मणी नहीं कहे देती हूँ!) सुन कर राम सिंहासन का गाँजा का नशा उतर जाता है. बाभन देवता के श्राप का भय उसे देर तक सताता रहता है. इसके बाद जब तक दुबारा गांजे का नशा ज़ोर से नहीं चढ़ता,वह उमा ब्राह्मणी के आसपास नहीं फटकता. उमा ब्राह्मणी जानती है,बिगड़ने को अब उसके पास कुछ नहीं धरा है. ना देह,ना भाग्य... डरे किस बात से! कहती है- जार दु कान काटा से मोदधे रास्ता दिये चोले( जिसके दोनों कान कट गए हो,वह सड़क के बीच से चलता है).

उमा ब्राह्मणी हमेशा से ऐसी मुंहजोर नहीं थी. खूब डरती थी,शरमाती थी. पति की मृत्यु के बाद कई सालों तक ससुराल में प्रताड़ित करने के बाद तेईस साल की उम्र में जब उसका देवर उसे वृंदावन छोड़ गया था,एक पोटली में एक किलो दाल-चाबल और दो धोतियों का संबल लिए वह दिनों तक केसी घाट की सीढ़ियों पर बैठी घाट की पृष्ठभूमि में खड़े भव्य मदनमोहन मंदिर की ओर देख रोती रही थी. देश से तो क्या,अपने गाँव से भी उसने पहली बार बाहर कदम रखा था. और इतनी दूर आ गई थी. किसी ने कहा था,वृंदावन में सबको आश्रय मिलता है,यह माधव का धाम है. मगर यहाँ तो कोई दरवाज़ा उसे खुला नहीं दिख रहा. घृणा से भरी जलती आँखें,दुत्कार और कटु बोली-भाषा... विधवाओं की टोली में एक और विधवा का इजाफा,एक और भीखमंगी! कहाँ हो भगवान! वह मंदिर-मंदिर घूमती फिरती,यहाँ-वहाँ भीख मांगती. शुरू-शुरू में भीख मांगना बहुत कठिन प्रतीत हुआ था. लोगों के सामने हाथ फैलाते हुये लगा था,जमीन में धंस जाएगी. भीख में मिला पहला निबाला गले से नीचे नहीं उतर पाया था. किसी ने पहले-पहल झिड़का तो अपमान से दोनों कान गरम हो गए.

एक दिन यमुना की संध्या आरती के बाद एक विधवा उसकी कहानी सुन उसे अपने साथ एक भजन आश्रम में ले गई थी. वहाँ पहली रात उसे आश्रम के मैनेजर के कमरे में गुजारनी पड़ी थी. पहले-पहल मना करने पर उस विधवा ने ही उसे मैनेजर के साथ मिल कर पीटा था. कहा था,यहाँ रहना है तो ना कहना भूल जाओ. सेवा दासियों का एक ही काम है,सब की तन-मन से सेवा और ईश स्मरण!

सेवा दासी हो कर वह सबकी मुफ्त की नौकरानी हो गई. जिधर धकेली गई,गई,जो कहा गया,किया. सुबह-शाम घंटों चिल्ला-चिल्ला कर सबके साथ कीर्तन गाती,बदले में दो रुपये,दो मुट्ठी चाबल मिलते! कभी-कभी आश्रम के रसोइये की कृपा दृष्टि पड़ जाती तो कुछ अतिरिक्त भोजन भी मिल जाता. बदले में जूठे बर्तनों का अंबार साफ करना पड़ता. सबके हर छोटे-बड़े काम करने पड़ते. इन सबके बाद आश्रम की एक सीलन भरी अंधेरी कोठरी की ठंडी फर्श पर बोरी का एक टुकड़ा बिछा कर वह अनगिनत विधवाओं के साथ पड़ी रहती. इस विशाल ब्रम्हांड में एक टुकड़ा छत,चार दीवारों की आड़ मिल जाना ही उसके लिए ऐश्वर्य था तब. उन दिनों उसे समझ नहीं आता था,हर मौसम में दिन और रात यहाँ इतने लंबे कैसे होते हैं! काटे नहीं कटते! सील-से बंधे रहते हैं सीने पर...

उदास,निसंग रातों को उसे अपने ठाकुरजी याद नहीं आते थे. उन्हें स्मरण कर-करके वह थक गई थी,ऊब गई थी!. अगर कुछ याद आता था तो अपना गाँव,छोटा-सा घर,मलेरिया के चार दिन के बुखार में मर गया पति... विस्मृति के अंधकार में खो गए उसके चेहरे को कल्पना में टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ते हुये वह घंटों बीटा देती. कभी प्यार नहीं किया था उसके पति ने उससे,अपनापन भी नहीं दिया था. गाँव के अधिकतर मर्दों की तरह उसे मारता-पीटता भी था. मगर वह था तो एक आश्रय था,सर पर छत थी. उसके लिए पति के होने का यही अर्थ था-सुरक्षा! बहुत पहले वह जीवन का एक छोटा-सा सच समझ गई थी- बीच बाज़ार सैकड़ों मर्दों के बीच नुचने-बंटने से अच्छा है घर के अंदर एक मर्द की गुलामी में रहना. वह रह भी रही थी मगर जाने अचानक क्या हुआ. सब उलट-पुलट हो गया. चार दिन के बुखार में उसका पति चल बसा. इसके बाद उसके जीवन का हर सुख हमेशा के लिए खत्म हो गया.... जिस दिन उसका पति मरा था,वह उसके सिरहाने बैठ कर उसके लिए उतना नहीं,जितना अपनी चूड़ियों के लिए रोई थी,सिंदूर-बिंदी के लिए रोई थी,जीवन से पुंछ गए हर रंग के लिए रोई थी. आभूषण के नाम पर कलाइयों में पड़े साखा-पोला-नोआका एक मात्र सुख भी गया! जिस आँगन को वर्षों से लीप-पोत कर उसने चन्दन-सा चिकना बना रखा था,तुलसी चौरे पर अल्पना आंक रखा था,उसी घर-आँगन में वह एक दिन में पराई हो गई. एक बच्चा होता तो फिर भी कोई उम्मीद रहती. उस घर में बने रहने का अधिकार होता. मगर उसके पास तो यह सब कुछ भी नहीं था. सिर्फ रो कर,दुहाई दे कर क्या हासिल हो सकता था भला! अपने लंबे,घने बालों से उसे बहुत प्यार था. सर मुंडवाने से मना किया तो सास ने उन्हीं बालों से पकड़ कर उसे बीच आँगन घसीटा. विधवा माँ ने रोते हुये समझाया,जब जीवन का सबसे बड़ा धन चला गया तब इन नगण्य चीजों से मोह कैसा! सारे मोह के बंधन एक-एक कर काटना सीखो,वर्ना आगे का जीवन नहीं कटेगा...

उस दिन के बाद उसका जीवन एक पल नहीं कटा,हाँ बहुत सारे साल जरूर गुजर गए. गहरी रात के एकांत में आश्रम की सीढ़ियों पर चिन्मयी की प्रतीक्षा में खड़ी उमा ब्राह्मणी खो गए समय के सिरे टटोलती देर तक अनमन खड़ी रही थी. चाँद रात के उजले आकाश में रत जगे पंछियों के झुंड निःशब्द उड़ रहे थे. बगल के तालाब में उनकी परछाइयाँ रह-रह कर काँप उठतीं. एक समय बाद उमा चिन्मयी को आवाज़ देती है लेकिन चिन्मयी वहाँ कहाँ! ज्वर से उसका सारा शरीर जल रहा है मगर इसी से तो रुका नहीं जा सकता. रास का समय हो आया,चाँद का जगमगाता टीका आकाश के गोरे माथे के बीच जड़ा है. होली का मौसम है. हवा में गुलाल उड़ रहा है. अब उसके कृष्ण आएंगे...
               
सारा दिन तेज धूप में शिथिल पड़े निधिवन के पेड़-पौधे रूपसी गोपियाँ बन एक-एक कर आँखें मलते हुये जाग उठे हैं. सोये हुये राधा रानी मंदिर,श्री हरिदास की समाधि,राधा का पवित्र कुआं- चाँद सब पर अपनी चाँदनी के शीतल छींटे मार उन्हें जगा चुका है. रंग महल के शृंगार कक्ष में अपनी शांत-सौम्य मूर्ति से निकल श्री कृष्ण राधा को अपने हाथों से सजा रहे हैं-बकूल फूल माला,गेरू से,चन्दन-आलता-कुमकुम से... उनकी सुंदर काया दूधिया चाँदनी में नील रत्न की तरह दमक रही है. मान से भरी हुई श्री राधा की आँखों में राग की लालिमा है. उधर एक कोने में अंधकार के साथ मिल कर खड़ी मीरा की आँखों में आँसू... वह बहुत खुश है,मगर रो रही है. शुक्ल पक्ष की इस बेला में उसकी सफेद साड़ी के मलिन आँचल में रात का असीम अंधकार भरा है...

आज की रात भी सैकड़ों गोपियों से घिरे रासलीला में मगन कृष्ण मीरा की तरफ एक बार देख नहीं पाते. योगमाया ने समस्त लोक को मोहाविष्ट कर रखा है. सारा वृज प्रदेश- गोवर्धन,गोकुल,बलदेव,नंदगांव,बरसाना,महावन,कुसुम सरोवर- राधा-कृष्ण और उनकी गोपियों के साथ रास में डूबा है. निधिवन,सेवा कुंज के तुलसी वन हरीतिमा में नहाये झूम रहे हैं. बांसुरी की मधूर तान से चारों दिशाएँ गूंज रही हैं.

आखिर सारी रात रास रचाने के बाद मनमोहन क्लांत हो कर अपनी राधा के साथ रंग महल में विश्राम करने चले जाते हैं. भोर की लालीमा फैलते-फैलते सारी गोपिकायेँ भी फिर से लता-गुल्म,पेड़-पौधों में परिवर्तित हो कर निधिवन के आसपास सो जाती हैं. दिन के उगते ही सब कुछ पहले की तरह सामान्य दिखता है. सफेद धोती में लिपटी मीरा अकेली अपनी जगह मूर्तिवत खड़ी रह जाती है,आज भी रंग का एक कण उसके भाग्य में ना जुटा!  ज्वर फिर शिराओं में आग की नदी की तरह हरहरा कर चढ़ रहा है. कनपटियों पर घन-से बरस रहे हैं. वह उद्दाम हवा में पड़े बांस के पत्ते-सी हल्के-हल्के काँप रही है- और कितने दिन छलोगे अपनी मीरा को गिरधर?अपने रंग में रंग लो... उमा ब्राह्मणी चिन्मयी के दोनों कंधे पकड़ कर झिकझोरती है- सुन रही हो मासी,उठो! तुम्हारा बुखार तो बढ़ता ही जा रहा है... चिन्मयी को कुछ समझ नहीं आता,वह चढ़ी हुई आँखों से अपने चारों ओर देखती है- माधव...

उमा उसे एक जमादार की मदद से आश्रम के कमरे में उठा लाई है. चारों तरफ बैठी-लेटी हुई विधवाएँ उसे उदासीन भाव से देख रही थीं. यहाँ सबकी आँखें एक-सी थीं- भावहीन, निर्लिप्त. यहाँ रोग-शोक कोई अनहोनी नहीं,वरन दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है. कोई न कोई हर समय किसी कोने में पड़ी कराह रही है. मृत्यु की प्रतीक्षा में जी रही है. यहाँ की हवा हर ऋतु में दुख,पीड़ा और रोग की बोसीदा गंध से बोझिल रहती है... किसी ने फुसफुसा कर कहा था- अब देह रखेगी लगता है! सुन कर किसी दूसरी ने खीज कर कहा था,अभागी! मरने का और समय नहीं मिला! वृजभूमि में अभी होली की धूम है...

“होली से हम रांडों का क्या लेना-देना,सुनूँ!” उमा ब्राह्मणी ने चमक कर कहा था. उसकी फटकार से सब चुप लगा गई थीं. कुछ देर की चुप्पी के बाद कोने में गठरी बनी पड़ी एक विधवा अचानक सिसकने लगी थी- वैष्णवी दीदी... तत्क्षण दूसरे कोने से कोई झल्ला उठी थी- आबार शुरू होये गेली मागी! एर कान्नार ठेलाय तो कान झाला-फाला होये गेलो (फिर शुरू हो गई! इसका रोना सुन-सुन कर तो कान पाक गए!)! इस आश्रम की एक वाशिंदा थी ये अस्सी साल की वैष्णवी दीदी. दो दिन पहले नहाने के लिए केसी घाट जा कर लौटी नहीं थी. कल बाँके बिहारीजी के मंदिर की सीढ़ियों पर उसकी अकड़ी हुई लाश मिली थी. भिखारी बच्चे उसकी कटोरी से पैसे लूट रहे थे. उसकी थैली का सामान भी चारों तरफ बिखरा पड़ा था- भीख में मिले कुछ मुट्ठी चाबल,बासी रोटिया,जप की माला...

म्युनिसपैल्टी का स्वीपर उसके शव को बोरी में ठूंस कर ले गया था और टुकड़े-टुकड़े कर नदी में फेंक आया था. वैष्णवी अक्सर कहती,जाने मेरी चिता को कौन आग देगा... पाँच-पाँच बेटों की माँ थी वह. बार-बार सुनाती थी सबको. लावारिस शवों की प्रायः यही गति होती है यहाँ. किसी तरह नष्ट कर दिया जाता है. जीवन में भी दुर्गति और मृत्यु में भी... देह के इस नरक का कोई अंत नहीं... सुबकते हुये उसकी सालों की मित्र पचत्तर साल की दुर्गा देवी उसकी पोटली टटोलती है- अपने पाँच बेटों के फोटो और कृष्ण अष्ट शत नामके सिवा और कुछ नहीं इस अभागी के पास! दुर्गा देवी हताशा में एक बारगी रोना भूल जाती है- पचास साल से भीख मांग कर यही कमाया! धिक! उमा ब्राह्मणी ने कुछ रुपये जोड़ रखें हैं अपने अंतिम क्रिया कर्म के लिए. कई लोगों से कह के भी रखा है. देह की मिट्टी ठीक से पार ना लगी तो मर कर भी मुक्ति ना मिलेगी... जो नरक भुगतना था यही भुगत लिया,इसके आगे और नहीं बाबा! उमा ब्राह्मणी अपनी कंठी माला फेरती हुई बड़बड़ाती रहती है. मगर इन सब बातों से निर्लिप्त चिन्मयी अपने कृष्ण के ख्यालों में डूबी पड़ी रहती है. उसका बुखार किसी भी तरह उतर नहीं रहा!
 
वृजभूमि में होली की धूम मची है. कृष्ण सांवला है और बरसाने की छोरी राधा दूध-सी गोरी. कृष्ण की शिकायत पर यशोदा ने उसे सुझाया है गोरी राधा को रंग कर साँवली बना दे. सुन कर कृष्ण राधा को रंगने अपने दोस्तों के साथ नंदगांव से बरसाना जाता है. बरसाने में राधा और उसकी सहेलियां कृष्ण और उसके मित्रों की खूब मरम्मत करती है. लट्ठ मार होली में रंगों की पिचकारियाँ छूट रही हैं,हवा गुलाल से लाल है,लोग झूम रहे हैं,नाच रहे हैं...

इन सब के बीच मीरा अपने सफेद लिबास में आज फिर निसंग खड़ी है. उसकी देह पर रंग की एक छींट नहीं. सूनी आँखें,सूनी मांग... हर तरफ इतना रंग मगर उसका जीवन एकदम बेरंग. कितनी मरुभूमियाँ पार की उसने,कितने पहाड़,नदियां... सिर्फ अपने गिरधर गोपाल से मिलने के लिए! मगर वह कहाँ मिला! वर्षों बीत गए इस वृज भूमि में. लगभग चौदह वर्ष का वनवास... प्राचीन मीराबाई मंदिर की दीवारों की एक-एक ईंट कृष्ण के विरह में बहे उसके आंसुओं से भीग गई. वह गाती फिरती है,रोती फिरती है. मोहन... बार-बार पुकारती है,मगर उसकी आवाज़ उसके भगवान तक नहीं पहुँचती. आकाश के नीले शून्य में घुमड़ कर दम तोड़ देती है. रात कोई असंख्य नक्षत्रों के पीछे से छिप कर उसे देखता है,अलस मलयानिल बन छूता है,श्यामल मेघ बन आपाद-मस्तक भिगो जाता है. समुद्र की उत्ताल लहरों में,मोरपंखी आकाश में, अनंत के निस्सीम नील में उसका संकेत है,सूक्ष्म आभास है मगर वह पकड़ में नहीं आता. छलिया जो है. उसे छलता रहता है. अब भी कितने व्यस्त हैं. आज बरसाने की होली. कल फिर राधा अपनी सखियों के साथ नंदगांव आएगी. उसके बाद मथुरा की होली,बाँके बिहारी के मंदिर की होली,गोकुल,द्वारकाधीश,वृंदावन की होली... राधा कृष्ण के रंग में रंग कर एकदम आकाश वर्णी हो गई है,कृष्ण सुनहरा! अपनी दमकती हुई कंचन मूर्ति राधिका-सा!

मीरा शायद वह जन्म से है. या जन्मों से. बाल विधवा है. वैधव्य का सफेद रंग ले कर पैदा हुई है. कुलीन घर की बेटी,रजस्वला होने से पहले कन्यादान ना हुआ तो माता-पिता नरक में जाएँगे. तो एक पीलिया से मरते हुये रोगी से विवाह करवा दिया. सब कहते हैं,लाल बनारसी में वह एक दिन ससुराल गई,कुछ दिन बाद सफेद धोती में वापस आ गई. बस इतनी ही है उसके सुख-सौभाग्य की कथा...

छोटी बच्ची आमिष खाने के लिए जिद्द करती थी तो माँ कच्चे केले में काठियाँ डाल कर उसे खाने देती थी. बहुत दिनों तक उसे पता ही नहीं चला कि जो वह मछली समझ कर खाती रही है वह दरअसल मछली नहीं,कच्चा केला है. वे दिन इच्छाओं के थे,लोभ के थे,अथाह निराशा के थे. वह हर चीज़ के लिए तरसती- अच्छे भोजन,रंगीन कपड़े,साज शृंगार... रसोई में सरसो-हिल्सा पकता,कतला का बड़ा सर भैया की थाली में परोसी जाती,बारिश में रोहू-पबदा-टिलापिया की ढेर लग जाती. पूरा घर पकते खाने की सुगंध से मह-मह कर उठता. वह बार-बार थूक निगलती पूजा घर के एक कोने में अपने लिए अरवा चाबल और दाल उबालती. सधवा माँ से अपनी बाल विधवा बेटी की हालत देखी नहीं जाती. वह भी अपनी आमिष खाने की थाली परे ठेल कर रख देती.

उसकी बहने अपनी सहेलियों के साथ चरक,राम नवमी के मेले जातीं,झूले पर बैठतीं,मिठाई,मलाई बरफ खातीं. लौटती फीते,चूड़ी,बिंदी और मेले की ढेर सारी कहानियों के साथ. वह एक कोने में बैठी-बैठी सुनती और रातों को सबसे छिप कर रोती. वह अपने दुख किसी से कह नहीं पाती थी. माँ ने,दादी ने,काली बाड़ी के पुरोहित मोशाय ने उससे कहा था,सब पाप है- ये इच्छा-कामनाएँ,रसना का लोभ... शायद तभी से वह अपने कृष्ण से अपने मन के सारे दुख-दर्द साझा करने लगी थी. विधवा मीरा के एक मात्र सखा-सहाय थे कृष्ण मुरारी. जिसका कोई नहीं,उसके श्री कृष्ण. मीरा की जीवनी के बारे में पढ़-जान कर वह आशा और खुशी से भर उठी थी. उन जैसों का भी कोई अपना है,भगवान श्याम सुंदर हैं! उनसे वह लड़-झगड़ सकती है,बोल-बतिया सकती है,हर कामना की पूर्ति कर सकती है. पूरी दुनिया से निराश-निर्लिप्त हो कर जाने कब वह अपने कृष्ण की मीरा हो कर उनसे अटूट रूप से जुड़ गई थी.

उसे याद आता है भवेश फकीर. उसके गाँव में एक तारा पर बाउल गा कर भीख मांगता फिरता था. दोपहर नीम तले दो घड़ी सुस्ताने बैठता तो गाँव के बच्चे उसे घेर लेते थे. कोई पूछता तुम्हारा घर कहाँ है तो कोई पूछता तुम्हारा देश कहाँ. जवाब में भवेश सिर्फ मुस्कराता- कहाँ से आए हैं,कहाँ जाना है... यही तो सवाल है दीदी मोनी जिसका जवाब ढूँढता फिरता हूँ. “तुम किसी को खोज रहे हो?”चिन्मयी कौतूहल से उसकी डुगडुगी उलट-पलट कर देखती तो भवेश फकीर डुगडुगी उसके हाथ से वापस छीन लेता- हाँ खोज रहा हूँ अपनेमोनेर मानुषको (मन का मीत)! फिर अनायास अपने दोनों कानों से हाथ छुआ कर लालोन फकीर का गीत गाने लगता- जानती हो ना लालोन फकीर को?बाउल संगीत के बहुत बड़े कवि-गायक-

सब पूछते हैं लालोन तुम्हारा मज़हब क्या है इस संसार में?
लालोन जवाब देता है- मज़हब कैसा दिखता है?
मुझे तो आज तक यह नहीं दिखा!
कोई अपने गले में माला पहनता है,
कोई ताबीज़,
इससे लोग समझते है उनका मज़हब अलग है.
मगर तुम जब संसार में आते हो या जाते हो
क्या तुम पर तुम्हारे धर्म का ठप्पा लगा रहता है...?

जाने भवेश फकीर की उदास आवाज़ में या उसके गीत के बोलों मे क्या होता था कि सुन कर चिन्मयी उस छोटी-सी उम्र में भी उदास हो जाती थी. कई बार उसने उसे गाते हुये अविरल रोते हुये देखा था. पूछने पर वही एक जवाब- अभी तुम बहुत छोटी हो दीदी मोनी,इतना नहीं समझोगी. बस इतना जान लो,संस्कृत में एक शब्द होता है बातुला-यानी हवा से पागल हुये लोग! तो हम वही पागल या दीवाने लोग हैं,हवा के झोंकों से बेचैन रूहें... इस भव संसार में अपने मोनेर मानुष को पर्वत,जंगल,मरुभूमियों में रात-दिन रोते-गाते हुये ढूँढते फिरते हैं...

गाँव के बाहर सबसे अलग-थलग दो-चार बाउलों का परिवार होता था. ये अधिकतर वैष्णव लोग होते थे. कुछ सूफी भी जिन्हें जाते माराया जात बाहरबुलाया जाता था. मर्द सफेद लूँगी-कुर्ता पहनते थे तो औरतें सफेद साड़ी. इनके बच्चे नहीं होते थे. बस मर्द एक या दो सेवा दासी रख लेते थे और अपने अखाड़ेबदलते रहते थे. इनका कोई स्थायी घर नहीं होता था. बाउल पश्चिम बंगाल और बांगला देश में हर जगह पाये जाते हैं मगर कोई इनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता. कोई कहता नाथ संप्रदाय के सहजिया दर्शन से इनका जन्म तो कोई कहता ईरान के सूफी बाल से आठवीं,नौवीं सदी के आसपास. उनके बारे में पूछते ही अधिकतर बाउल की तरह भवेश फकीर भी बात को हँस कर उड़ा देते- क्यों दीदी मोनी पागल हवा का पता पूछती रहती हो. हम तो बस बहते रहते है सरहदों,नदियों,मरुओं के पार एक देश से दूसरे देश अपने मोनेर मानुष,मुर्शीद,गुरु की तलाश में! हमारे पीछे हमारी छाया तक नहीं होती. काल की अबाध धारा हमारे पद चिन्ह मिटाती चलती है...     

फिर अपने एकतारा की तार छेड़ता- हम में सब- तंत्र,सूफी,इस्लाम,वैष्णव,बौद्ध... और हम सब में! चिन्मयी को उसकी बातें समझ नहीं आती थी मगर अच्छी लगती थीं. लोग कहते थे,इनके पास मत जाओ. ये बच्चे चुराते हैं और अपने बड़े-से झोले में डाल कर ले जाते हैं! चिन्मयी को यकीन नहीं होता था. इतनी उदास आँखों वाले,प्रेम के गीत गाने वाले कभी बुरे इंसान नहीं हो सकते. मीरा भी तो इनकी तरह ही रही होगी- एक तारा हाथ में ले कर अपने मोनेर मानुषेरतलाश में जोगन बन कर रास्ते में निकल पड़ी थी... जिन्हें परम प्रिय की लगन लगी हो उसे इस क्षण भंगुर दुनिया का क्या मोह!

एक दिन जिस तरह भवेश फकीर ने उनके गाँव के पास डेरा डाला था उसी तरह अचानक से चला भी गया था. उसे उदास देख माँ ने समझाया था- इन निर्मोहियों का मोह कैसा. हवा का आवारा झोंका भी कभी मुट्ठी में बांधे से बंधा है?

कितना खुद को समझाया,निर्लिप्त बनने की कोशिश की मगर यह मोह का नाग पाश कटता कहां है! कसे रहता है अपनी बलिष्ठ भुजाओं में... जीवित से मोह,निर्जीव से मोह! हर गत-आगत से मोह... बचपन में पहनी दो लाल चूड़ियों की स्मृति से आज तक स्वयं को मुक्त नहीं कर पाई! बाकी से क्या होगी! शरद ऋतु में जैसे ही दुर्गा पूजा के ढाक बज उठते हैं,रूपसी बंगाल की कास फूली धरती चिन्मयी की निविड़ रातों के सपनों में निःशब्द उतर आती है- श्यामल ग्राम बांग्ला के कमल-कुमुदिनी के गुलाबी-दूधिया फूलों से भरे हुये तालाब,खेत-खलिहान,केले,आम,लीची के बाग...
     
बीच में हजारों किलोमीटर का व्यवधान है,सालों का अंतराल है,विस्मृति का घना कुहरा रह-रह कर गहरा उठता है,मगर कभी काली,लंबी रातों में दूर जल रहे दीये-सी यादें आज भी भीतर टीमटीमा उठती हैं,उसे देर तक अपने मद्धिम आलोक में आपाद-मस्तक घेरे रखती हैं- तुलसी चौरे पर गरद की कोरी साड़ी में दीये बालती माँ,आषाढ़-श्रावण में निरंतर झड़ता आकाश,पकते आम की गंध से मह-मह करती गृष्म ऋतु की अलस दुपहरें... आज भी आँख बंद करके वह गाँव के पोखर में कलशी ले कर उतर पड़ती है,दोपहर की धूप में पानी की सतह पर रुपहली मछलियों को तलवार-सी कौंध कर अदृश्य होते देखती है. कभी बंसबाड़ी में तीतर बोलता है,कभी भर दुपहरी की चुप में कहीं लद्द से एक आम गिरता है! चिन्मयी आँख खोल कर इधर-उधर देखती है. आज कल वह हर समय आवाज़,सुगंध,स्वाद से घिरी रहती है. विस्मृति की धुंध में बहुत पहले खो गई घटनाएँ,दृश्य,बातें एक-एक कर जीवित हो उसे आत्मीयता से घेर लेती हैं,आसपास छाया-नृत्य-सा चलता रहता है रह-रह कर. लगता है जीवन का अवसान बेला कहीं निकट ही आ खड़ा हुआ है! मन हर प्रहर स्मृतियों की मंजूषा खोल कर बैठ जाता है, उलट-पुलट कर देखता है हर देखे-जीए को बार-बार...
  
उमा ब्राह्मणी कई बार उसे छेड़ती है- क्यों दीदी! कोई कान्हा कभी तुम्हारे जीवन में नहीं आया...?सुन कर वह टाल जाती है- एक स्त्री के जीवन में प्रेम के नाम पर तो बहुत कुछ आता है उमा! मगर प्रेम शायद ही आता है.. हाँ,मर्द अपने हर लोभ,भूख को प्रेम का नाम जरूर देता है. दरअसल प्रेम शब्द एक स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी छलना और विडम्बना है... दुख का कारण भी! कहते हुये चिन्मयी को राखाल का स्मरण हो आता है. गुंघराले बालों वाला पड़ोस का खूब सांवला लड़का! एकांत में उजली आँखों और गाढ़ी आवाज से कहता था,उससे बहुत प्रेम करता है! उसके लिए कुछ भी करेगा! उस जादू भरी आवाज ने,मधु मिश्रित शब्दों ने हर औरत की तरह चिन्मयी को भी मोह लिया,पूरी तरह ठग लिया! आज सोचती है तो लगता है,किसी को दोष दे कर भी क्या होगा,विश्वास तो औरत खुद ही हर कीमत पर करना चाहती है,ठगे जाने की भीषण कीमत पर भी! क्योंकि औरत अपने भीतर कहीं गहरे जानती है,अविश्वास में जीने से बेहतर होता है विश्वास करके मारा जाना... प्रेम की मरीचिका के पीछे जीवन के पहले बसंत से जो मन का हिरण दौड़ना शुरू करता है वह आखिरी क्षण तक कहाँ रुकता है! बस कोई एक शब्द प्रेम कहे और लूट ले जाय सारा का सारा... इतना तो आसान है सब कुछ!

राखाल भी अपवाद नहीं निकाला- जब कुछ करने का समय आया,हर मर्द की तरह उसे भी अपनी तमाम जिम्मेदारियाँ और मजबूरियां याद आ गईं. उसे हर तरह से पा लेने के बाद एक दिन अचानक उसका ध्यान भंग हुआ और याद आया कि वे एक समाज में रहते हैं,उसके सगे-संबंधी,मित्र-परिजन हैं,उसकी एक अदद धर्म पत्नी है जिसके प्रति वह उत्तरदायी है,कल को उसकी बेटी विवाह योग्य होगी... जिसे इतनी सारी बातें याद आ जाय वह प्रेम क्या करेगा! रात के एकांत में जो बातें फुसफुसा कर कही जाती है वे दिन के उजाले की ऊष्मा में पिघल कर शिशिर बिन्दुओं की तरह गायब हो जाती हैं. एक समय के बाद चिन्मयी को प्रेम शब्द से वितृष्णा हो गई थी!... ऐसे प्रेम से! यह उस पूरे प्रसंग का सबसे दुखद पहलू रहा- प्रेम से वितृष्ण हो जाना! आगे हर भरम से निकलते हुये उसनेयही कोशिश की थी कि अपने प्रेम को निष्काम बना सके. ये उम्मीदें ही तो हर दुख की जड़ में होती हैं!
     
उमा ब्राह्मणी बैठी-बैठी आग की गठरी बनी चिन्मयी को असहाय भाव से देखती रहती है. सिकुड़ कर मुट्ठी भर रह गई है वह. असहाय,दुर्बल,बिस्तर से मिली हुई. समझ आ रहा है,उसका अंत आ गया है. कितनी ही क्षीण सही,एक छांव,एक आश्रय थी वह उस अनाथ के लिए. जाने क्यों अब भी आँसू आते हैं इन अभागी आँखों में... वह उलटी हथेली से अपनी आँखें पोंछती है. चिन्मयी बुखार में बड़बड़ाती है- केशव! और कितने दिन...

उसकी पुकार आकाश तक पहुँचती है. सुन कर केशव अपनी बांसुरी अधर से हटाते हैं और उठ खड़े होते हैं. चिन्मयी देर बाद आँखें खोलती है और देखती है- श्यामल कृष्ण अब गौरांग चैतन्य बन सामने खड़े हैं- अपनी राधिका के रंग-रूप से सज-संबर कर. एकदम सोने की झलमल प्रतिमा! जीतने उसके नाम उतने विविध रूप! चिन्मयी उसे विस्मित देखती जाती है. भावातिरेक में उसकी आँखों से आँसू अविरल बह रहे हैं. उसके करुणा निधि का हर रूप सलोना! नयनाभिराम! महा प्रभु कभी सुंदर,सलोने निमाई बन नव द्वीप की गलियों में हरे कृष्णगाते फिर रहे हैं तो कभी अपने विराट विश्व रुप में प्रकट हो कर चिन्मयी को अभिभूत कर रहे हैं. अपढ़,अज्ञानी चिन्मयी! उसे प्रभु की भक्ति योग,अचिंत भेद-अभेद वेदान्त जैसी बड़ी,गंभीर बातें समझ नहीं आती. वह बस इतना जानती है कि मीरा की तरह,बाउलों की तरह चैतन्य महा प्रभु भी उनके बाँके बिहारी के अनन्य दास हैं,बल्कि कंचन वर्ण श्री राधिका के रूप से आलोकित श्री कृष्ण स्वयं हैं. उनकी लीला भी समझ से परे है. भगवत गीता तथा भागवत पुराण पर आधारित भक्ति योग को घट-घट पहुंचाने के लिए गुरु ईश्वर पूरी से दीक्षित हो कर नव द्वीप में योग पीठ की स्थापना की,वर्षों देश-विदेश भटकते रहे,आम जन को हरे कृष्णका महामंत्र दियाचिन्मयी भी उसी लीला का अंजाने ही बार-बार हिस्सा हुई है- बाँके बिहारीजी के मंदिर में कई बार भजन गाते हुये भावावेश में मीरा हुई है, ‘हरे कृष्णकी रट लगाते भक्ति रस से आप्लावित चैतन्य महा प्रभु से एकाकार हो कर नाची है,मूर्छित हुई है!

आज भी उस पर मूर्छा-सी छाई हुई है. कुछ सोच-समझ नहीं पा रही. भीतर सब कुछ उलट-पुलट,शिथिल हुआ जा रहा है. बार-बार अपना दुर्बल चित्त अपने गोपाल के पैरों पर एकाग्र करना चाह रही है मगर कर नहीं पा रही. जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा है यह! एक क्षण में यहाँ तो दूसरे ही क्षण सुदूर किसी देश में! ज्वर की तीव्रता में जरा तंद्रा-सी आई नहीं कि माँ सरहाने आ बैठती है- चीनू! उठ माँ! ये बार्लि पी ले... तेरा बुखार तो उतर ही नहीं रहा! सर पर पानी में भिगो कर ठंडी पट्टी रख रही है माँ,उसके लिए पथ्य बना रही है,बुखार उतारने के लिए पानी से सर धो रही है. माँ को देख कर अस्सी साल की चिन्मयी फिर से दस साल की बच्ची बन गई है. मान से भर कर फफक-फफक कर रो रही है- तुम बार-बार मुझे छोड़ कर कहाँ चली जाती हो माँ?मुझे सब बहुत सताते हैं- दादा बौदी की बात में आ कर मुझे मारते हैं,बौदी मुझे खाना नहीं देती,रात-दिन जली-कटी सुनाती है,गाँव की औरतें मुझे भातार खाकी कह कर बुलाती हैं... माँ सुन कर चुपचाप अपने आँसू पोंछती है- मैं सबको डांट दूँगी! “हाँ” चिन्मयी माँ के तेल,मसाले से महकते आँचल में मुंह छिपा कर और जोर से सुबकती है- “अच्छे से डांट देना सबको!”

लो!दो पलक निश्चिंत हो कर आँख बंद किया और माँ फिर अदृश्य! वह दिशाहारा हो कर माँ को ढूंढती फिरती है- दुर्गा मंडप,काली बाड़ी,आम बागान... आम बागान में राखाल मिलता है,उसे खींच कर किसी एकांत कोने में ले जाना चाहता है. उसके पास खूब सारी मीठी-मीठी बातें हैं,दो उद्दंड हाथ हैं,लोभ से भरी कामातुर आँखें हैं... मगर वह उसका हाथ छुड़ा कर भाग खड़ी होती है- छी! पुरुष मानुष का प्रेम... पुरुष के प्रेम से छुट कर वह कहाँ जाएगी! दौड़ते-दौड़ते वह थक कर चूर हो जाती है. खड़ी-खड़ी हाँफती है,हर तरफ देखती है- यहाँ तो सब पुरुष ही हैं- मंदिर का पुरोहित,आश्रम का ट्रस्टी,बड़े-बड़े दानी सेठ,चौकीदार,रसोइयासाथ में औरतें- पान-कत्थे से रंगे होंठ,मुंडे हुये सर,सफेद धोती,गले में रुद्राक्ष की माला... सब हाथ उठा-उठा कर कीर्तन गा रहे हैं,झूमते हुये भावावेश में इधर-उधर गिर रहे हैं. उन सब से बचते हुये वह गोविंद देवजी की भव्य मूर्ति के पास किसी तरह पहुँचती है और उनके पैरों पर गिर पड़ती है. सब एक साथ चिल्लाते हैं- अरे! फिर से मूर्छित हो गई!

डॉक्टर के कंधे के पीछे से उमा ब्राह्मणी उचक कर चिन्मयी को देखती है और फिर पानी लेने दौड जाती है. आज तीन दिन से चिन्मयी इसी तरह ज्वर में बेसुध पड़ी है. लगातार बड़बड़ा रही है. कभी अपनी लाल आँखें खोलती है,इधर-उधर कुछ खोजती हुई-सी देखती है और फिर कभी अपनी माँ को,कभी कान्हा को पुकारते हुये अचेत-सी हो जाती है. वह मातृ शक्ति एनजीओ की नीता बहनजी से बोल कर कई बार डॉक्टर बुला लाई है. डॉक्टर ने देख कर बोला है,जीएगी नहीं! वह जीएगी नहीं यह बात तो सभी जानते हैं,मगर जाने क्यों फिर भी सुन कर कइयों की आँखें भीगी थीं.

जब भी कोई गुमनाम विधवा इस तरह से मरती है,सबको अपना अंत दिखने लगता है. जीवन तो जानवरों की तरह एक झुंड में किसी तरह बीत जाता है,मगर मृत्यु का सफर बहुत एकांगी होता है इस वृंदावन में- ना कोई आँसू बहाने वाला आत्मीय-स्वजन,ना चार कंधे देने वाले बंधु-बांधव! चिता की आग भी अक्सर नसीब नहीं होती इन अनाथ विधवाओं को. चिन्मयी को इस बात का बहुत डर था. एक हिन्दू हो कर अंत में देह को आग और गंगा न मिले तो फिर आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी! पिछली बार वह श्यामा दासी की दुर्गति देख चुकी है. नाली के किनारे रखी बोरी में बंधी उसकी लाश को ले कर आवारा कुत्ते आपस में छीना-झपटी कर रहे थे. वह मरने के दिन तक अपने घर वालों के पत्र का इंतज़ार करती रही थी कि कोई तो जवाब दे,आ कर उसे यहाँ से ले जाय! राह चलते डाकिया को रोकती थी,इससे-उससे पूछती थी. सब झिड़क देते थे. किसी तीर्थ यात्री से उसने अपने घर वालों को पत्र लिखने के लिए कहा था कभी. जाने उसने लिखा भी कि नहीं मगर श्यामा दासी उसी की बात पर भरोषा करके अंत तक बैठी रही. बोलती थी,बहुत दिन पोते का मुंह नहीं देखा,मेरा सारा संसार पड़ा है... इस तरह से यहाँ पड़े रहने से चलेगा क्या! उसका संसार जाने कहाँ पड़ा रहा और वह एक दिन इस तरह से उठ कर चल दी...

हर एक की मौत पर यहाँ सब एक बार मरते हैं,अपना-अपना अंत अपनी आँखों से देखते हैं. रोती हुई उमा ब्राह्मणी को उस बार चिन्मयी ने ही चुप कराया था. कहा था,विश्वास रखो. जाने किस विश्वास की बात करती थी वो. जीवन भर छोटी-छोटी खुशियों के लिए तरसती रही,ठगी गई,प्रताड़ित हुई मगर अपनी आस्था को अपनी बंद मुट्ठियों से कभी फिसलने नहीं दिया. पूछने पर कहती- यह आशा,थोड़ा-सा विश्वास- यही तो आखिरी संबल है उमा! अब इसे जो कह लो.  जीने के लिए दूसरों को ही नहीं,खुद को भी ठगना पड़ता है कभी-कभी! शायद ठीक ही कहती थी वो. उमा ब्राह्मणी के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यही रही कि वह खुद को दूसरों की तरह ठग नहीं पाई. उसे कभी अपने भगवान का आसरा नहीं था,परलोक का भरोसा नहीं था,इसलिए वह हमेशा अनाथ और निराश्रित रही, भीतर तक असुरक्षित. स्वामीजी प्रवचन देते है- इच्छा से मुक्त करो खुद को. यही तो हर दुख के मूल में है! किस इच्छा से मुक्ति की बात करते हैं स्वामीजी! एक छोटा-सा घर,परिवार,बच्चे,किंचित प्यार-दुलार,साज-शृंगार,सुख... क्या यह सब बहुत ज्यादा है चाहने के लिए! अगर इन छोटी-छोटी इच्छाओं से भी मनुष्य मुक्त हो जाय तो वह मनुष्य कैसा! कुछ अच्छा खा नहीं सकते,मन का ओढ़-पहन नहीं सकते! हर जगह अवांछित!उपेक्षित! जीवन भर मनहूस,अपशकुनी के नाम से पुकारी गई. सुबह-सुबह किसी ने चेहरा देखना तक पाप समझा. किसी शुभ कार्य में हिस्सा नहीं ले सकी. जिसने जैसे चाहा भोगा,लेकिन अपनी इच्छा से अपनी देह को एक दिन जी ना सकी...

अब कुछ सहृदय लोग,एनजीओ आगे आ रहे हैं,उनके लिए कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं. विदेशी औरतें,मर्द हाथ में किताब,कैमरा ले कर घूमते हैं,उनसे तरह-तरह के सवाल पूछते हैं. हाल ही में एक सेठ ने अपनी बेटी के विवाह में सैकड़ों विधवाओं को आमंत्रित किया था. कुछ विधवाएँ कोलकाता जा कर दुर्गा पूजा भी देख आई. कुछ लोग चाहते हैं वे रंगीन कपड़े पहने,उत्सव में सम्मिलित हों,त्योहार मनाए. कहते हैं,गलत परम्पराएँ इसी तरह खत्म होंगी. इसकी शुरुआत हो चुकी है. “ये शुरुआत बड़ी देर से हुई बहन...”सब देख-सुन कर चिन्मयी गहरी उच्छवास के बीच बोलती- “मेरा जीवन तो एक ही था! बीत गया...” किस शिद्दत से जीना चाहती थी वह! गहरी ललक थी उसके मन में जीवन के प्रति! रंग,सुगंध,स्वाद के प्रति! पोखर-ताल का काजल वर्णी जल,उनमें खिले कुमुद-कमल की गुलाबी आभा,बारिश के अंत में खेतों में मुस्कराते कास का मीलों फैला उजला वैभव,उन पर चहचहाता वन पाखियों का हरा झुंड,रांगा माटी का रक्तिम लावण्य... सब कुछ उसे उल्लास से भर देता था. जिस वैधव्य में उम्र गुजरी वह कभी मन की अवस्था तो नहीं बन सका. बस ढोया असहाय हो कर,झेला हर क्षण! अब भी बोझा उतरा नहीं देह-प्राण से!

उमा ब्राह्मणी का मन आज बहुत उदास है. कल वृंदावन की होली है. देर शाम तक मंदिर में भजन-कीर्तन हुआ है. गा-गा कर उसका गला बैठ गया है. मंदिर से  लौट कर देखा तो चिन्मयी उसी तरह बेसुध पड़ी थी. बिना कुछ खाये-पिये वह भी अपनी चटाई बिछा कर उसके बगल में लेट गई थी. बीच रात उसने नींद में देखा था,तीन जवान विधवाओं को आश्रम का चौकीदार चुपके से बुला ले गया था. उनमें एक अट्ठारह साल की विधवा मालविका भी थी जो हाल ही में आश्रम में आई थी. वह उसी के गांव की थी. इस वजह से थोड़े ही दिनों में उससे एक आत्मीयता-सी हो गई थी उसकी. इस वक्त उसे रोते-छटपटाते देख उसने कस कर अपनी आँखें बंद कर ली थी- काश! इच्छा मृत्यु जैसी कोई चीज होती...

बगल में अपनी मृत्यु शैय्या पर लेटी गहरी-गहरी सांस लेती चिन्मयी की बंद पलकों में आज कवि गुरु रवीन्द्रनाथ की एक बहुत पुरानी कविता जीवित हो उठी है,अपने आराध्य के इर्द-गिर्द लोटती फिर रही है-
आमार प्राणेर मानुष आछे प्राणे,
आछे से नयन ताराय,आलोक-आधारे,
ओगो ताय देखी ताके जेथाय-सेथाय,
ताकाय आमी जेदिक पाने...  

(मेरे मन का मीत मेरे मन में है,है वो मेरी आँखों के ताराओं में,अंधेरे-उजाले में,उसे देखती हूँ मैं जिधर देखूँ…)कविता सुन होली खेलते हुये राधा और गोपियों से घिरे कृष्ण हाथ में चुटकी भर गुलाल ले कर चिन्मयी को मुड़ कर देखते हैं और मुस्कराते है...

सुबह तेज शोर-गुल के बीच उमा ब्राह्मणी की आँख खुली थी. आज होली थी. पूरा वृंदावन होली के रंग में डूबा हुआ था. सबके साथ युगों से वैधव्य के सफेद आवरण में लिपटी विधवाएँ भी रंगों में सराबोर थी. बहुत से लोगों के अथक प्रयास और संघर्ष के बाद सैकड़ों वर्ष पुरानी निर्मम परंपरा टूटी थी. इस साल विधवाओं को भी वृंदावन में होली खेलने की अनुमति दी गई थी. उमा ब्राह्मणी फटी-फटी आँखों से अपने चारों तरफ सबको देखती है- इतना रंग!इतनी उमंग! कल तक की सूनी आंखे,उदास चेहरे अब कहीं नहीं हैं. वृंदावन की गलियों में अभिशप्त रूह-सी फिरती सफेद साड़ियाँ,फैले हुये हाथ,बुझी हुई आँखें भी कहीं नहीं. इतनी हंसी!उल्लास!. क्या ये वही वृंदावन है! वह बार-बार अपनी आँखें विस्मय से खोलती बंद करती है- हे ठाकुर! यह सब सच है क्या!

इसी भीड़ में एक भ्रमित-सा नवयुवक हाथ में एक चिट्ठी लिए सबसे श्यामा दासी के बारे में पूछता फिर रहा था. उमा के पूछने पर उसने बताया था,वह श्यामा दासी का पोता है,उसे अपने साथ अपने घर ले जाने आया है. उसे उनकी चिट्ठी बहुत देर से मिली थी. जाने कहाँ-कहाँ से घूमते हुये उन तक पहुंची थी! सुन कर उमा ब्राह्मणी रोई थी- वह तो इंतज़ार कर-कर के चली गई बेटा! हो सके तो मुझे अपने साथ ले चल... इसके बाद वह देर तक बैठ कर रोई थी. जाने किस दुख में या खुशी में! जो न्याय समय पर ना हुआ वह न्याय कैसा...

एक समय बाद जाने कहाँ से आ कर मालविका उसे एक कोने में खींच ले गई थी. उस समय वह बहुत घबराई हुई दिख रही थी. हाँफते हुये बोली थी- दीदीमा! मैंने बडे पुरोहित की जान ले ली! और सहा नहीं जा रहा था यह सब! उसकी बात सुन कर उमा ब्राह्मणी सकते में आ गई थी. देर तक कुछ बोल नहीं पाई थी. अपनी बात खत्म कर बदहवास मालविका फिर से दौड़ती हुई भीड़ में खो गई थी. उसके पीछे वह मूर्तिवत खड़ी रह गई थी- तो क्या आखिर वह समय आ गया! पाप का घड़ा भर गया! तुम आ रहे हो भगवान?

मुक्तो बामनी जाने कब से उसे खोजती फिर रही थी. देखते ही उसका हाथ पकड़ कर उसे आश्रम के बाहर गेट के पास एक कोने में रखे एक शव के पास ले गयी थी- तू इधर है!कब से तुझे ढूंढ रही थी! देख,चिन्मयी दीदी... उमा ब्राह्मणी ने देखा था,जीवन भर वैधव्य के सफेद,उदास रंग में लिपटी बाल विधवा चिन्मयी आज रंगों में डूबी हुई शांत पड़ी थी. उसके चारों ओर गुलाल के सतरंगी बादल उड़ रहे थे. उसके कान्हा ने आज दोनों हाथों से सुख,सौभाग्य,सुहाग के सारे रंग अपनी जनम दुखी मीरा पर उढेल दिये थे. उसका युगों से मलिन पड़ा आँचल सात रंगों का इंद्रधनुष बन दिक-दिगंत में लहरा उठा है. रंग,रंग और बस रंग...

देखते हुये उमा ब्राह्मणी की आँखें एक बार फिर आंसुओं से भर गई थीं. उसे रोते देख अपने कृष्ण के साथ होली खेलती हुई सोलह साल की अल्हड़ चिन्मयी एक पल के लिए ठिठक कर उसे इशारे से रोने से बरजा था- आज वह सदियों की प्रतीक्षा के बाद मीरा के वैधव्य से मुक्त हो कर अपने कृष्ण की रुक्मिणी हुई है,श्याम की राधा हुई है. आज सुहाग रंग का दिन है! वृंदावन की शाप-मुक्ति का दिन है! युगों बाद वृज की पहली होली है! आज रोना नहीं...             
 ________

संपर्क               :         तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517
मो.                  :         09822581137/ ई-मेल            :          jaishreeroykathakar@rediffmail.com

बोली हमरी पूरबी : तैंतीस करोड़ अपराध पेट में रख कर (मराठी) : प्रफुल्ल शिलेदार

$
0
0
प्रफुल्ल शिलेदार 






हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में जन्मे प्रफुल्ल शिलेदार वरिष्ठता की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-समीक्षक हैं. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी में अनुवाद कर रहे हैं और विनोदकुमार शुक्ल एवं ज्ञानेंद्रपति जैसे चुनौती-भरे कवियों के पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित कर चुके हैं जिन्हें मराठी में बहुत सराहा गया है. स्वयं उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. उनकी कविताओं का हिंदी संकलन पैदल चलूँगाशीघ्र प्रकाश्य है.  

उनकी एक प्रसिद्ध मराठी कविता ‘तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालूनकविता का हिंदी अनुवाद आपके लिए.

गाय अब  गाय नहीं, राजनीति है. उसे एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान में बदल दिया गया है. उसके नाम पर कुछ भी किया जा सकता है, वह एक  बनती हुई  ईश- निंदा (blasphemy) प्रतीक है.

पर वह गाय !
 कवि के शब्दों में ‘प्लास्टिक की केरीबैग की जुगाली करती’ खुद ‘भवसागर पार करने का सपना’  देख रही है.  ऐसी कविताएँ  हिन्दी में क्यों नहीं लिखी जातीं ? कला के संयम के  साथ बेधक और हस्तक्षेप करती हुई कविता.


 तैंतीस करोड़ अपराध पेट में रख कर                                        
प्रफुल्ल शिलेदार 





उमड़ती भीड़ से भरी सड़क के बीचों-बीच
बैठी है एक गाय हमेशा की तरह
जैसे राह भटककर आ गई हो इस शहर में
या रातों रात बूचड़खाने ले जाए जा रहे झुंड से
पगहा तुड़ाकर छुड़ाकर नजर बचाकर निकल आई हो

इस शहर में अब किसी के घर नहीं है गोठ
फिर कहां से आई, कब आई,कैसे आई यहाँ तक

उसे देखते ही दिमाग में गूँजने लगती हैं घंटियां
गोधूलि स्मृतियों की धूल उड़ने लगाती है 
मेरा शरीर थरथराता है ठीक वैसे ही  
जैसे पीठ पर हाथ रखते ही
थरथराती है उसकी पीठ

गाय के आसपास है वाहनों की भीड़
गाय को बचाते गुजरते हैं रिक्शावाले कारवाले
एक ट्रक ठहरता है गाय को रस्ते बीच बैठी देख कर बजाता है हॉर्न
फिर रिवर्स लेकर निकल जाता है बाजू से
इतनी भीड़भाड़ के बीच सड़क पर बैठी गाय
कोई उसे उठाता नहीं
यहां तक कि कोई पूछता भी नहीं
क्यों ऐसे बैठी है वह रास्ते के बीचोबीच
वह इस तरह क्यों बैठी होगी
इसका विचार तक कोई नहीं करता

इस विसंगत सड़क के बीचोबीच जोखिम उठाकर
बैठी है गाय जान हथेली पर लेकर
लेकिन ऐसा कोई भाव नहीं है उसके चेहरे पर
शायद यह उसके मन में भी न हो
उसे लगता है
किसी की आंखों में क्रोध या घृणा
उसके लिए नहीं हो सकती
आसपास का कोलाहल तो नश्वर है
इसी विश्वास से बैठी है वह रास्ते पर

शहर में आने के बाद गाय भूल गई है मनुष्य का स्पर्श
उसे अब दिखाई नहीं देते
पोले पर उसके वंश को पूरनपोली खिलाने वाले
किसी किसान के हाथ
स्तनों से दूध पीता उसका बछड़ा भी कहीं दिख नहीं रहा


अब तो दिया जाता है उसे ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन
तो दिमाग में उठने लगती हैं सुख भरी तरंगें
अपने आप स्तनों से बहने लगती है धार
मशीन के हाथों में
गोद में बाल्टी रखकर दूध दुहने वाला गोपाला
अब विस्मृति की गर्त में खो गया है कहीं

वैसे गाय को भी मालूम है
इस पृथ्वी पर वही एकमात्र ऐसा प्राणी है
जिसकी विष्ठा से जमीन लीपने के बाद 
वहीं थाली रख इनसान भोजन के लिए बैठता था
लेकिन अब ये दुनिया कुछ तो बिगड़ गई है
यह बात तो उसकी समझ में भी आ गयी है

वह समझ गई है अब इस दुनिया को गाय नहीं चाहिए
चारा देना पीठ पर हाथ फेरना किसी को रुचता नहीं
अब न खेत की जरूरत है न खेती करने वालों की
केवल सुबह-सुबह टेबल पर हो ताजा ब्रेड
और उस पर लगाने के लिए मक्खन

मेहनतकश पसीना बहाने वालों को यह दुनिया
दहलीज के बाहर ही रखना चाहती है

सृष्टि से अब सीधा संबंध ही नहीं चाहिए
ठंडक भी नाप तोलकर चाहिए
कुदरत के कलकल बहते जल पर भी
विश्वास नहीं आता बोतलबंद हुए बगैर
ताजा तुरंत दुहा दूध भी अब
ठंडे पैकेट में बंद हुए बगैर पहचाना नहीं जाता

सड़क पर बैठी गाय के नाक-मुंह में
घुसता है गुजरते वाहनों का धुंआ
अपने ही विचारों में डूबी हुई वह
उसी के बहाने हो रही मारकाट का दंगो का कोलाहल
अनसुना करती
बाजू से बहती खून की धारा को अनदेखा करती
उसी के नाम पर निकले जुलूस को अनजान नज़र से देखती
इस दुनिया को समझने की कोशिश में तल्लीन
उसकी पूर्व की स्मृतियों का
आसपास की दुनिया से अब नहीं रहा कोई तालमेल

मांएं अब अपने बच्चे को नहीं दिखाती
उसके आंखों में छलकता वात्सल्य का अथाह समुद्र
कोई प्यार से हाथ नहीं रखता उसकी पीठ पर
अथवा गर्दन के नीचे नहीं फेरता हाथ ममता का
उसी के चमड़े से बने जूते पहने जल्दी-जल्दी
आसपास से गुजरने वाले पांव ठहरते नहीं कुछ पल भी
हमेशा उसकी पीठ पर बैठने वाला कौआ भी
उसने नहीं देखा कई दिनों से
लाशों को सफाचट करने वाले गिद्ध
अब सिर्फ विजय तेंदुलकर के नाटक के शीर्षक तक बचे हैं ये पता है उसे
उस पर रची गई कथाएं-दंतकथाएं
पिघल चुकी हैं समय के गर्त में
जिसके लिए उसकी आंत जलती थी
उस इनसान से रिश्ता ही टूट गया है

गाय के मन में पहली बार आई नंगेपन की भावना

गाय की आंखों की कोरों से
नदी के उद्गम की तरह निरंतर बहता है पानी
भनभनाती मक्खियों को अपनी पूंछ से भगाते हुए
तैंतीस करोड़ अपराधों को माफ़ करते पेट में छिपाकर 
गाय बैठी है सड़क के बीचोंबीच
मुह में आयी प्लास्टिक की केरीबैग की जुगाली करती
भवसागर पार करने का सपना देखती.
_____________

  
तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालून
प्रफुल्ल शिलेदार

फसफसून वाहणाऱ्या रस्त्याच्या मधोमध
बसली आहे एक गाय नेहमीसारखीच
वाट चुकून कधीतरी या शहरात आलेली
किंवा रातोरात खाटिकखान्याकडे जाणाऱ्या
कळपातून नजर चुकवून दावं तोडून सुटलेली
या शहरात कुणाच्याच घरी गोठा नाही
मग आली कुठून कधी आली कशी आली
ती दिसताच डोक्यात घंटा किणकिणू लागतात
गोरज आठवणींची धूळ उडते
त्वचा थरथरते तशीच
मी तिच्या पाठीवर हात ठेवल्यावर
तिची पाठ थरथरायची जशी

गायीच्या आजूबाजूने वाहनांची वाहती गर्दी
गायीला चुकवून रिक्षावाले कारवाले जातात
एक ट्रक थोडावेळ थांबून होर्न वाजवतो
शेवटी तो देखील रिव्हर्स घेऊन
बाजूने ट्रक काढतो
या वर्दळीत रस्त्याच्या मधोमध बसलेल्या
गायीला कुणीही उठवत नाही
ती रस्त्याच्या मधोमध कां बसली आहे
हे कुणी विचारात नाही
ती कां बसली असावी याचा कुणी विचार करत नाही

जोखीम पत्करून या विसंगत रस्त्याच्या मधोमध
बसलेली गाय जीवावर उदार झालेली असते
पण तसा कुठलाच भाव तिच्या चेहऱ्यावर नसतो
ते तिच्या मनातही नसतं
एखाद्याच्या मनातली संतापाची तिरीप किंवा घृणा
आपल्याकरता असूच शकत नाही
असेच तिला वाटते
आजूबाजूचा कोलाहल नश्वर आहे
याची खुणगाठ मारूनच ती रस्त्यावर बसलेली
शहरात आल्यापासून गाय विसरली माणसाचा स्पर्श
तिला दिसलाच नाही
पोळ्याला तिच्या वंशाला पुरणपोळीचा घास भरवणारा
बळीवंताचा हात
तिच्या स्तनांना लुचणारे पाडसही नाहीसे झाले

तिला दिलं जातंय ओक्सिटोसिनचं इंजेक्शन
तिच्या मेंदूत सुखद लहरी निर्माण होतात
तिचा पाझर यंत्राच्या हातातही मोकळा होतो
मांडीत बदली धरून धार काढणारा गोपाळ
आता विस्मृतीत गेला तिच्या

खरं तर गायीला देखील ठाऊक आहे
ती या पृथ्वीच्या पाठीवरचा असा प्राणी आहे
जिच्या विष्ठेन जागा सारवून
त्यावर ताट मांडून माणूस जेवायला बसत असे
पण आता या जगाच काहीतरी बिनसलंय
हे तिच्या लक्षात आलंय

तिला कळलंय आता या जगाला गाय नकोय
चार देणं पाठीवरून हात फिरवणं नकोय
शेत नकोय शेत पिकवणारा नकोय
फक्त सकाळी सकाळी टेबलवर ताजा ब्रेड
आणि त्यावर लावायला लोणी हवंय

कसणारा घाम गाळणारा
या जगाला उंबऱ्याबाहेरच हवाय

सृष्टीशी संबंधाच नकोय सरळ
गारवाही मोजून मापून हवाय
निसर्गातल्या खळखळत्या पाण्यावरही
बाटलीबंद झाल्याशिवाय विश्वास बसत नाही
धारोष्ण दुधाचीही
थंडगार पाकीटबंद झाल्याशिवाय ओळख पटत नाही


रस्त्यावर बसलेल्या गायीच्या नाकातोंडात
वाहनांचा धूर जातोय
ती विचारात मग्न
तिच्यावरून होणाऱ्या कापकापीच्या दंग्यांच्या कोलाहालाकडे
लक्षच नसतं तिचं
बाजूने वाहणाऱ्या रक्ताच्या धारेकडे अलिप्तपणे बघत
तिच्या नावानं निघालेल्या मोर्च्याकडे अनभिज्ञ नजरेने पाहत
हे जग समजून घेण्याच्या प्रयत्नात गुंग

तिच्या पूर्वायुष्यातील आठवणींचा
आजुबाजुशी काही ताळमेळ बसत नाही
कुठलीच आई दाखवत नाही आपल्या मुलाला
तिच्या डोळ्यातला वात्सल्याचा अथांग समुद्र
कुठलाच हात पडत नाही तिच्या पाठीवर
किंवा मानेखालून फिरत नाही मायेने
तिच्याच कातड्याचे बूट घालून घाईघाईन
आजुबाजून जाणारे पाय थांबत नाहीत क्षणभर
हमखास पाठीवर बसणारा कावळाही तिने
पहिला नाही कित्येक दिवसात
सोलल्यानंतर सांगाडा साफ करणारी गिधाडे
फक्त तेंडूलकरांच्या नाटकाच्या शीर्षकात उरली आहेत
हे तिला जाणवलं
आपल्याभोवती उभ्या असलेल्या कथा-दंतकथा
आता विरघळून गेल्यात
ज्याच्याकरता आपलं आतडं तुटायचं
त्या माणासासोबतचं नातंच तुटलं
नागडेपणाची भावना प्रथमच आली गायीच्या मनात


नदीच्या उगमासारखं  सतत पाणी झरतंय आताशा
गायीच्या डोळ्यातून
घोंगावणाऱ्या माशा शेपटीने हकलत
तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालून
गाय बसली आहे रस्त्याच्या मधोमध
तोंडात आलेली प्लास्टिकची केरीबग चघळत

भावसागर तरुन जाण्याचे स्वप्न पाहात
_______________________________________________
shiledarprafull@gmail.com 

परिप्रेक्ष्य : हिंदी दिवस (रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क) : राहुल राजेश

$
0
0








भाषा  के रूप में हिंदी सबल है, उसका साहित्य समृद्ध है, उसमें आलोचनात्मक विवेक का लगातार प्रसार हो रहा है. एशिया में कमोबेश अब वह एक  सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है.

हिन्दी-दिवस (१४ सितंबर, २०१६) पर राहुल राजेश का विशेष आलेख आपके लिए.
    
                                      
रोमनलिपि में हिन्दी का कुतर्क                                                                          

राहुलराजेश

तकतोअंग्रेजीभाषाकेअंग्रेजीदांपैरोकारहिंदीभाषापरहीहावीहोनेकेउपक्रमकरतेरहेथे.लेकिनइधरहालकेवर्षोंमेंअंग्रेजीभाषाकेइनअंग्रेजीदांपैरोकारोंनेहिंदीपरहावीहोने काएकऔरउपक्रमशुरूकरदियाहै.वहहै- हिंदीमेंदेवनागरीलिपिकीजगहअंग्रेजीकीरोमनलिपिकेइस्तेमालकीवकालतकरना! औरउनकीइसमुहिमकोसिर्फअंग्रेजीमीडियाऔरचेतनभगतजैसे दुटकिया अंग्रेजीलेखकहवादेरहेहैंबल्किफेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्पआदिजैसेसोशलमीडियापरसक्रियतमामअंग्रेजीदांलोगभी पूरे ज़ोर-शोर से देरहेहैं.दुर्भाग्ययहकिइसझाँसेमेंकईहिंदीवालेलोगभीजारहेहैंजोयहकहरहेहैंकिभाई, मानोया नमानोलेकिनफेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्पआदिजैसेसोशलमीडियाप्लैटफ़ार्मों परदेवनागरीलिपिकीजगहरोमनलिपिमेंलिखनाकहींज्यादाआसानऔरसुविधाजनकहै 

हिंदीमेंदेवनागरीलिपिकीजगहरोमनलिपिकीवकालतकोहवादेनेकाएकऔरहास्यास्पदप्रयासतबकियागयाजबसंसदमेंराहुलगाँधीकेहाथमेंरोमनलिपिमेंलिखीहिंदीकीपर्चीवालीतसवीरतमामसोशलसाइटोंऔरमीडियामेंतैरनेलगी! लेकिन ऐसे लोगों को यह बात क्यों समझ में नहीं आ रही कि रोमन में लिखना और रोमन लिपि की थोथी वकालत करना दोनों अलग-अलग बातें हैं! और उन्हें इस फर्क को समझने की सख्त जरूरत है. बात-बात में अँग्रेजी बघारने का मतलब बात-बात में हिन्दी को गरियाना तो नहीं होता!

मुझे यह बात हरगिज समझ में नहीं आती कि सरलता,सहजता और सहूलियत की मांग और अपेक्षा सिर्फ और सिर्फ हिन्दी से ही क्यों की जाती है? जो लोग हिन्दी को रोमन में लिखने की मुंहजोर वकालत करते नहीं थक रहे,वे यही मांग तेलगु,तमिल,कन्नड़,मलयालम,बंगला,उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाओं से क्यों नहीं कर रहे?क्या इन भाषाओं की लिपियाँ बहुत सरल-सीधी हैं?और इनको लिखने में लोगों को कोई दिक्कत नहीं होती?क्या वे लोग फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्पआदिजैसेसोशलमीडियाप्लैटफ़ार्मों पर इन लिपियों में बड़ी आसानी से और धड़ल्ले से लिख रहे हैं और उनकी उँगलियाँ नहीं टूट रहीं?या फिर यह सीधे-सीधे मान लिया जाए कि लोगों कोसारी तकलीफ,सारे गिले-शिकवे,सारी दिक्कत सिर्फ और सिर्फ हिन्दी से ही है? और ऐसा वे इसलिए किए जा रहे हैं कि हमारी सर्वसमावेशी हिन्दी इनकी हर जायज-नाजायज मांग को पूरा करने की कोशिश में इनको पलटकर लताड़ नहीं रही....

ऐसे लोगों को हिन्दी बोलने-लिखने-समझने में भी बेशुमार दिक्कतें आ रही हैं और ये हर मौके पर हिन्दी पर यह निराधार आक्षेप और आरोप लगाते नहीं थकते कि हिन्दी तो बड़ी संस्कृतनिष्ठ है! ऐसे तंगनज़र लोगों को अब कौन समझाए कि आज की खड़ी बोली हिन्दी या फिर राजभाषा हिन्दी में अरबी,फारसी,उर्दू से आए हजारों शब्द धड़ल्ले से बोले-लिखे, पढ़े-समझे जा रहे हैं! क्या इन लोगों को तेलगु,तमिल,कन्नड़,मलयालम,बंगला,उड़िया आदि या फिर मराठी-गुजराती जैसी अन्य भारतीय भाषाएँ संस्कृतनिष्ठ नहीं लगती?क्या ये भाषाएँ संस्कृत के पेट से नहीं जन्मी हैं?तेलगु,तमिल,कन्नड़,मलयालम,बंगला,उड़िया आदि की बात तो छोड़िए,मराठी-गुजराती जैसी हिन्दी की अत्यंत निकटवर्ती भाषाओं में भी संस्कृत शब्दों की बेशुमार भरमार है और लोग इन संस्कृत शब्दों को धड़ल्ले से लिख-बोल और पढ़-समझ रहे हैं!

महज चंद उदाहरण ही काफी होंगे इस बात को समझने के लिए. मराठी में स्टेशनको स्थानककहा जाता है और महाराष्ट्र में आपको हर जगह स्टेशनके लिए स्थानकही लिखा मिलेगा. लेकिन यही शब्द अगर हिन्दी में स्टेशनके लिए अपना लिया जाए और प्रयोग किया जाने लगे तो लोग तुरंत हाहाकार मचा देंगे! हिन्दी के शायदके लिए गुजराती में कदाच (कदाचित)शब्द है! हिन्दी के पूछताछके लिए बंगला में अनुसंधानशब्द है; हिन्दी के निकासके लिए बंगला में बहिर्गमनशब्द है; हिन्दी के साफ-साफ/स्पष्ट/साफ-सुथराके लिए बंगला में परिष्कारशब्द है;हिन्दी के चर्चा  शब्द के लिए बंगला में आलोचनाशब्द है! क्या ये शब्द संस्कृतनिष्ठ नहीं हैं?फिर लोग कैसे इन जैसे हजारों संस्कृतनिष्ठ शब्दों को दिन-रात बिना किसी हिचक और तकलीफ के धड़ल्ले से बोल रहे हैं? और तो और, संबंधित राज्य सरकारें भी अपने सरकारी कामकाज में इनका भरपूर प्रयोग कर रही हैं!

तो क्या यह फिर सीधे-सीधे मान लिया जाए कि लोग सिर्फ और सिर्फ हिन्दी के प्रति ही दुराग्रही हैं और जानबूझकर दुराग्रही हैं?और ये सारे दुराग्रह,ये सारी ज़ोर-जबरदस्ती सिर्फ और सिर्फ हिन्दी पर ही जानबूझकर आजमाई जा रही है?क्या हिन्दी का बस यही दोष है कि भारत के संविधान ने उसे संघ की राजभाषा का दर्जा दे दिया?लेकिन क्या हिन्दी को छोड़कर,जिन राज्यों में तेलगु,तमिल,कन्नड,मलयालम,बंगला,उड़िया आदि या फिर मराठी-गुजराती जैसी अन्य भारतीय भाषाएँ राज्य के सरकारी कामकाज के लिए विधिवत अपनाई गई हैं और सरकारी कामकाज में इनको ही लिखा-बोला,पढ़ा-समझा जा रहा है,वहाँ इन भाषाओं में इस्तेमाल हो रहे हजारों संस्कृतनिष्ट शब्दों को आग्रहपूर्वक और सख्ती से छाँटकर बाहर फेंक दिया जा रहा है?क्या वहाँ के लोग इन संस्कृतनिष्ट शब्दों से बहुत बिदक रहे हैं?

तो फिर हर बार हिन्दी पर ही हमला क्यों किया जाता है? क्या यह बार-बार बताने की जरूरत है कि भाषा,व्याकरण और लिपि के लिहाज से हिन्दी सबसे वैज्ञानिक भाषा है?बाकी भाषाओं की तुलना में हिन्दी को बोलना,समझना,पढ़ना और लिखना भी सबसे आसान है. हिन्दी की देवनागरी लिपि तो अपने आकार-प्रकार और बनावट में तमाम अन्य लिपियों की तुलना में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक,सरल,सहज,सुंदर और टेक्नोलोजी-फ्रेंडलीहै. फिर हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की मूर्खतापूर्ण वकालत क्यों की जा रही है? अपनी लिपि की जो कुर्बानी हिन्दी से मांगी जा रही है,क्या वही कुर्बानी तेलगु,तमिल,कन्नड़,मलयालम,बंगला,उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाओं से मांगने की हिम्मत है किसी माई के लाल में?है चेतन भगत में इतनी कूब्बत कि वह हिन्दी को छोड़कर,इनमें से किसी एक भी भाषा से उसकी लिपि की कुर्बानी मांग सके? फिर सरलता-सहजता और सहूलियत के नाम पर सारी ज़ोर-आजमाइश हिन्दी पर ही क्यों जनाब?

सरलता, सहजता और सहूलियत यानी टंकण-मुद्रण की आसानी और सुविधा के नाम पर हिन्दी से पहले ही उसका पूर्णविराम,चन्द्रबिन्दु,अर्धचंद्रबिन्दु,संयुक्ताक्षर,पंचमाक्षर आदि लगभग छीना जा चुका है! अब उससे उसकी पूरी की पूरी लिपि छीनने की साजिश की जा रही है! जो लोग फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्पआदिजैसेसोशलमीडियाप्लैटफ़ार्मों पर देवनागरी लिपि में लिखने में दिक्कत महसूस करते हैं तो यह उनकी कमी है. उनके डिवाइस की कमी है. अभ्यास और अपनापे की कमी है. पर यह देवनागरी लिपि की कमी हरगिज नहीं.यह व्यक्ति की कमी अवश्य हो सकती है. लेकिन यह देवनागरी लिपि की कमी कैसे हो सकती है? सूचना प्रौद्योगिकी भी इस लिपि को नाकाबिल नहीं मानती.इसलिए किसी व्यक्ति की कमी को किसी लिपि या फिर भाषा की कमी और नाकाबिलियत मत बताइये!

यह सोलह आने साफ है कि रोमन लिपि की वकालत करते हुए देवनागरी लिपि की जो समस्या बताई जा रही है,वह दरअसल देवनागरी लिपिकी समस्या नहीं है. न ही किसी अन्य भाषा की लिपि की.चाहे वह बांग्ला, तमिल, तेलगु, उर्दूया चीनी, कोरियाई या अन्य कोई भाषा ही क्यों न हो! वरना इन सारी भाषाओं की गैर-रोमन लिपि में इतने अखबार, ब्लॉग, चैनल नहीं चलते! ये सब के सब आईटी पर ही आधारित हैं. चूंकि आईटीपहले-पहल रोमन लिपि वाले देशों में विकसित हुई, इसलिए वहां रोमन का प्रयोग रूढ़ होगया, वरना विशेषज्ञ तो संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त मानते हैं! क्या यह भी बताने की जरूरत है कि चीन, जापान,कोरिया आदि जैसे अनेक देश रोमन के बिना ही साइंस, टेक्नोलॉजी, आईटी आदिमें इतनी उन्नति कर चुके हैं और उन्हें आसानी और सहूलियत के नाम पर अपनी क्लिष्ट लिपियों की जगह रोमन लिपि अपनाने का कभी ख्याल तक नहीं आया! 

दरअसल, यह नीयत, नीति, रीति, मनोवृत्ति और मानसिकताकी समस्या है! अधिकतर फेसबुकिए, ट्विटरिए,व्हाट्सऐपिए लोग आदत के शिकार हैं या वे देवनागरी मेंलिखना नहीं चाहते.या वे कोशिश नहीं करते. वरना आजकल माइक्रोसोफ्ट,एप्पल से लेकरतमाम मोबाइल फोन कंपनियां इनब्युल्ट हिंदी इनपुटके साथ ही बाज़ार में अपने उत्पादउतारती हैं! वहीं तमाम ब्लॉगर लोग थोक भाव में हिन्दी में लिख रहे हैं. उन्हें तोकोई समस्या नहीं है! जिन्हें अंग्रेजी की लत लगी हुई है, जो हिन्दी से परहेज करते हैं कि इससे उनका स्टेटसगिर जाएगा, उनका कोई इलाज नहीं है! अंततः बात व्यक्ति के माइंडसेटपर ही आकर रुक जाती है!वरना अभ्यास से क्या कुछ नहीं किया जा सकता!!संत कबीर ने बहुत पहले ही कह रखा है- “करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान. रसरी आवत जात सिल पै पड़त निसान॥
___
                          

संपर्क:-
राहुलराजेश, सहायकप्रबंधक (राजभाषा), भारतीयरिज़र्वबैंक, 15, नेताजी सुभाषरोड, कोलकाता-700001, (प. बंगाल)
मो.: 09429608159  
-मेल: rahulrajesh2006@gmail.com

परिप्रेक्ष्य : हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न : संजय जोठे

$
0
0









हिंदी दिवस के ख़ास अवसर पर कल आपने राहुल राजेश  का आलेख पढ़ा – ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क’ आज प्रस्तुत  है संजय जोठे  का  आलेख – ‘हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न’
_______
किसी भाषा की दुर्दशा दरअसल उस समाज की ही दुर्दशा का प्रतिबिम्ब है. भाषा और साहित्य की  चिंता अंतत: समाज की चिंता है.

जिन प्रश्नों को युवा समाजवैज्ञानिक संजय जोठे ने उठायें हैं उनपर गम्भीरता से विचार होना चाहिए.

एक आलोचनात्मक समाज हमेशा एक बेहतर समाज  होता है.


हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न                                                
संजय जोठे
_______________






हिंदी की दुर्दशा देखकर निराशा होती है. यह निराशा इसलिए भी गहरी है क्योंकि इसके केंद्र में न केवल वैश्विक फलक पर हिंदी की कमजोर छवि बैठी है बल्कि इसके साथ ही हिंदी के झंडाबरदारों की आत्मघाती और परस्पर विरोधी समझ भी कोढ़ में खाज की तरह बैठी हुई है. हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा का नाम देकर देश के एकीकरण का स्वप्न देखने वाले गांधी या कन्हैयालाल मुंशी या मुंशी प्रेमचंदया कोई अन्य ही क्यों न हों – सबने  बड़ी गंभीरता से हिंदी की और हिंदी के द्वारा हिन्दुस्तान की सेवा की चेष्टा की है. उनके प्रयास इमानदार रहे हैं और उनके जैसे लोगों ने बड़ा काम भी किया है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं. लेकिन इस सबके बावजूद विश्व में तो क्या भारत में ही हिंदी को कोई विशेष सम्मान नहीं मिल पाया है. कहने को हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या मातृभाषा हो सकती है या है भी लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है भी? देशभक्ति के दबाव में या राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आग्रह की तरंग में हिंदी को महान और देश की प्रमुख भाषा मान लेना एक बात है लेकिन उसे देश के वर्तमान पर शासन करने वाली और भविष्य का निर्माण करने वाली भाषा बनाना दूसरी बात है. और यही वो बिंदु है जिस पर आकर हिंदी एकदम लाचार खड़ी हो जाती है.

आज हिंदी दिवस पर आप हर अखबार में पढेंगे कि हिंदी कैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हो रही है. अमेरिका यूरोप अफ्रीका से लेकर चीन रूस और जापान तक लोग हिंदी सीख रहे हैं और उनके विश्वविद्यालयों में हिंदी या प्राच्यविद्या के विभाग खुल रहे हैं. यह सब सुनते हुए हमें हिंदी की शक्ति पर गर्व होता है और सदियों से कुपोषित हमारा सामूहिक मन एक झूठी खुराक से मस्त होकर फिर से सो जाता है. हम गंभीरता से नहीं सोच रहे कि इस बात का अर्थ क्या है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की आवश्यकता अन्य देशों को इसलिए महसूस नहीं हो रही है कि हिंदी में कोई ज्ञान विज्ञान का भण्डार अचानक उजागर हो गया है. बल्कि विदेशों में हिंदी असल में भारत की विशाल जनसंख्या और उसकी पीठ पर सवार व्यापारिक संभावनाओं की लहर के धक्के में बढ़ी चली जा रही है. यह समाधान नहीं बल्कि समस्या है. अगर इसे थोड़ी देर के लिए समाधान मान भी लें तो भी यह समझदारी से पैदा की गयी स्थति से नहीं निकला है बल्कि अशिक्षा, अन्धविश्वास और गरीबी के अँधेरे गर्त से जन्मी उस जनसंख्या के गर्भ से निकला है जो मजदूरी के लिए दो हाथ पैदा करने की चाहत में एक भूखा पेट पैदा कर लेता है. हमने जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास किये, उनकी असफलता से ये भयानक भीड़ पैदा हुई और इस भीड़ में अपना माल खपाने के लिए दुनिया भर के व्यापारियों को हिंदी की आवश्यकता है. इस भीड़ को भी हमारे अपने उद्योगपति और सरकारें नहीं संभाल पा रही हैं और विदेशियों को हिंदी सीखकर व्यापार के लिए आना पड़ रहा है. क्या यह हमारी सफलता है? किस मुंह से हम इसे अपनी सफलता कहेंगे?

इसी तरह हिंदी के झंडाबरदार विदेशों में हिंदी के चलन की बात कर रहे हैं. कारण दुबारा वही का वही है – भारत में भ्रष्टाचार आधारभूत संरचना और अवसरों की कमी के चलते प्रतिभाशाली लोग विदेशों में पलायन करते रहे हैं और उन्होंने जगह जगह अपने कबीले बसा लिए हैं जिनमे वे हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओँ का व्यवहार जारी रखे हैं. इस कारण इन भाषाओँ को थोड़ी दृश्यता और अवकाश मिल पा रहा है. क्या यह भी हमारी सफलता है? गौर से देखिये यह भी हमारी असफलता से उपजी एक परिस्थिति है जिसे हमने जान बुझकर निर्मित नहीं किया है बल्कि परिस्थितिवश यह दशा बन गयी है. गलती से या अनजाने जो स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं उनमे गर्व का भाव भरकर संतुष्ट होते रहना भारत का मौलिक मनोरोग रहा है. इसीलिये सचेतन प्रयासों पर कम और “किरपा” या “प्रभु की लीला” पर हमारा अधिक भरोसा रहता है.

अरबिंदो घोष ने अपनी गहन गंभीर किताब “भारतीय संस्कृति के आधार” में बहुत जोर देकर कहा है कि भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में “गद्यात्मक दार्शनिक कृतियां साहित्य की श्रेणी में आने की अधिकारिणी नहीं हैं; (क्योंकि) इनमे आलोचनात्मक पहलू प्रधान है”इन गद्यों के अलावा वे कुछ प्रचलित काव्य साहित्य पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि जनमानस में प्रचलित काव्यसाहित्य को भी “काव्य के रूप में बहुत उंचा स्थान नहीं दिया जा सकता: (क्योंकि) ये विचारों के भार से इतनी दबी हुई है और भाषा की अंतर्ज्ञानात्मक  क्षमता से भिन्न बौद्धिक क्षमता की प्रधानता के कारण इतनी अधिक बोझिल है कि इनमे वह जीवनोच्छ्वास  और प्रेरणाबल हो ही नहीं सकते जो सर्जनकारी कवि-मानस के अपरिहार्य गुण होते हैं.” अपनी बात आगे बढाते हुए अरबिंदो घोष अंत में अपनी विचार प्रक्रिया के केन्द्रीय बिंदु को एकदम उजागर करते हुए भारतीय पौराणिक मनोविज्ञान की मूल समस्या को अचानक सामने ले आते हैं वे लिखते हैं “इनमे (इस काव्य और गद्य साहित्य में) जो चीज अत्यंत सक्रीय है वह है खंडन-मंडनात्मक बुद्धि न कि साक्षात्कार करने और परमोच्च विश्व दर्शन करके उस दर्शन का स्तुतिगान करने वाली आत्मा की अतिविशाल महानता इसमें नहीं पाई जाती और न ही इसमें वह ज्वाज्वल्यमान ज्योति देखने में आती है जो उपनिषदों की शक्ति है.”

इन कुछ उद्धरणों को ध्यान से समझने की कोशिश कीजिये. भारत की सनातम अव्यावहारिकता और पारलौकिक सम्मोहन की स्पष्ट गूँज इन पक्तियों में सुनी जा सकती है. दुर्भाग्य की बात ये है कि अरबिंदो घोषकोई सामान्य साहित्यकार या भाषा, संस्कृति इतिहास आदि के जानकार नहीं हैं बल्कि वे सर्वाधिक जुझारू और सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी सहित योग और भारतीयता के सर्वाधिक पूज्य आधुनिक ऋषि माने गए हैं. आधुनिक राष्ट्रवाद सहित भारत के पुनरुत्थान की कल्पना देने वाले सबसे केन्द्रीय पात्रों में उनका अनन्य स्थान है और उन्होंने एक महाकवि और महायोगी की तरह तत्कालीन भारत के लगभग समस्त साहित्यकारों के अंतरतम को प्रभावित किया है. इस महापुरुष की भविष्य दृष्टि और भाषा दृष्टि के इस रुझान को भारत की और हिंदी की वर्तमान दुर्दशा के साथ रखकर देखिये. आप समझ सकेंगे कि हिंदी को व्यवहार की और ज्ञान विज्ञान की भाषा न बनने देने के पीछे क्या कारण और षड्यंत्र रहे हैं.

अरबिंदो घोषके मनोविज्ञान को आधार बनाकर यह प्रश्न आसानी से उठाया जा सकता है कि भारतीय भाषाओँ में और खासकर हिंदी में ज्ञान विज्ञान का सृजन क्यों असंभव सा हो गया है. सुदूर अतीत में भी झांककर देखें तो भाषा की राजनीति और भाषा से अपेक्षाओं का स्वरुप आत्मघाती होने की हद तक दुर्निवार रहा है. भारत में भाषा संवाद और एकीकरण का नहीं बल्कि विभाजन और उंच नीच को स्थापित करने का औजार रही है.

संस्कृत का उदाहरण लीजिये, यह कभी जनसामान्य की भाषा नहीं रही. हो भी नहीं सकती थी. कालिदास के नाटकों में स्पष्टता से उल्लेख है कि तत्कालीन राजदरबार और भद्रलोक के आर्य श्रेष्ठिजन संस्कृत का व्यवहार करते थे और असभ्य या अशिक्षित अनार्य जन प्राकृत बोलते थे. राजपुरुष और पुरोहित जन संस्कृत में बात कर रहे हैं और नाइ, तेली, कुम्हार किसान इत्यादि प्राकृत भाषा में बात कर रहे हैं. गौर कीजिएगा कि इन असभ्य लोगों में स्त्रियाँ भी शामिल हैं. दुःख की बात ये है कि राजपुरुषों और पुरोहितों की स्त्रियाँ को भी प्राकृत में ही संवाद करना होता था, अर्थात अनार्यों स्त्रियाँ और शूद्रों की भाषा प्राकृत है और भद्रलोक के आर्य पुरुषों की भाषा संस्कृत है. अब कल्पना कीजिये इस स्थिति में राजा और प्रजा में कैसे संवाद होता होगा? आर्य पुरुष और उसकी शुद्रा अनार्य पत्नी में कितना संवाद या प्रेम होता होगा?

इस बात को आगे बढाते हैं. चाणक्य के बारे में उल्लेख है कि उसने संस्कृत भाषा का ऐसा आतंक जमाया था कि अच्छे-अच्छे पंडितों को वह व्याकरण और शास्त्रार्थ की भूल निकालकर परास्त कर देता था. यह उल्लेख ध्यान देने योग्य है. इसका मतलब ये हुआ कि शास्त्रों में सत्य है या नहीं यह बात नहीं हो रही बल्कि शास्त्रों का अर्थ व्याकरण के अनुसार लगाया जा रहा है या नहीं इस बात पर ही सारी लड़ाई हो रही है. चाणक्य ने अधिकतर पंडितों की संस्कृत को अशुद्ध कहकर उन्हें आतंकित कर डाला था. यही रुझान अरबिंदो घोषतक प्रवाहित हो रहा है, इक्कीसवीं सदी में वे भी पौराणिक शंकर या चाणक्य की तरह इस बात पर जोर दे रहे हैं कि भाषा तर्क वितर्क, खंडन मंडन आदि की क्षमता से नहीं बल्कि “विराट विश्वपुरुष के स्तुतिगान” की क्षमता से युक्त होनी चाहिए. अब भारत के पौराणिक पाखंड और अंधविश्वास सहित ज्ञान विज्ञान सृजन के सन्दर्भ में भारतीय चित्त की अनुर्वरता को इस एक लेंस से बहुत बारीकी से देखिये. क्या नजर आता है? यह साफ़ साफ़ दिखाता है कि भारत की मुख्यधारा की पूरी दार्शनिक और साहित्यिक ज्ञान परम्परा सहित भाषा, व्याकरण और सृजन के दुराग्रह असल में तर्कबुद्धि की हत्या करने को समर्पित थे. ऐसे में विज्ञान तकनीक और लौकिक व्यवहार के ज्ञान विज्ञान का सृजन करना ही असंभव हो गया. मुख्यधारा से परे जो समुदाय जन भाषाओं में लौकिक अर्थ का साहित्य रच रहे थे वे आर्यों के भद्रलोक में समादृत न थे और जो समादृत थे वे जन समुदाय से दूरी बनाते हुए उन्हें विश्व पुरुष के स्तुतिगान में झौंकने वाला पारलौकिक साहित्य रच रहे थे.

इन दोनों स्थितियों में भारत की आम जनता के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन उनकी अपनी भाषा में या तो नहीं हो पा रहा था या फिर उसे यथोचित सम्मान के साथ सुरक्षित रखने या विकसित करने का कोई प्रयास नहीं हो रहा था. इन आम जनों ने लौकिक जीवन के हित में तर्कबुद्धि और विज्ञान दृष्टि का प्रयोग करके शिल्प, भेषज, धातुविज्ञान, गणित, आयुर्वेद, चिकित्सा, तन्त्र और योग आदि को विकसित किया. जाहिर सी बात है कि ये लौकिक विद्याएँ अरबिंदो घोष या चाणक्य या शंकर की दृष्टि में विश्वपुरुष के दर्शन नहीं करातीं बल्कि एक आम गरीब भारतीय की रोजमर्रा की जिन्दगी में उसे जीने में मदद करती हैं. इस अर्थ में इन तीन महापुरुषों की दृष्टि में ऐसा ज्ञान और ऐसा साहित्य सम्मान का पात्र नहीं है और जिस भाषा में ये साहित्य रचा गया वह भाषा भी निकृष्ट भाषा है. अब मजा ये देखिये कि हजारों साल के तिरस्कार के बाद आज जब भारतीय ज्ञान विज्ञान पर सवाल उठाये जा रहे हैं तो आजकल के आर्य भद्रपुरुष उन प्राचीन और तिरस्कृत अनार्य आम जनों के ज्ञान विज्ञान को अपना ज्ञान विज्ञान कहकर वाह वाही लूट रहे हैं. आजकल के “स्वदेशी इंडोलोजी” के विशेषज्ञ प्राचीन भारतीय अनार्य और श्रमण परम्पराओं द्वारा तर्कबुद्धि से जन्माये गए विज्ञान और ज्ञान राशि पर अपना दावा कर रहे हैं. यह भारत की सनातन पुराण बुद्धि का जीता जागता सबूत है जो स्वयं तो कोई सृजन नहीं करती लेकिन दूसरों के सृजन को अपने नाम से प्रकाशित अवश्य करती है.

अब वर्तमान में हिंदी के प्रश्न पर आइये. अभी आजादी से पहले अरबी फ़ारसी का प्रभाव हमने इस देश में देखा है. उसका कारण भी साफ़ है. वे राजकाज की भाषाएँ थी वे “विराट पुरुष की दिव्यता के दिग्दर्शन”की बजाय रोजमर्रा के व्यवहारिक जीवन की आवश्यकताओं को उत्तर देती थीं इसलिए इस लोक के जीवन में भरोसा रखने वाले जन समुदाय ने उसे तुरंत लपक लिया और आज भी उस दौर में जन्मी उर्दू का चमत्कार कायम है. लेकिन पारलौकिक सम्मोहन को रचने वाली संस्कृत के हजारों साल के इतिहास का दावा करने के बावजूद पूरे भारत में एक छोटा सा गाँव भी मौजूद नहीं है जो पूरी तरह संस्कृत बोलकर ज़िंदा हो. स्पष्ट होता है कि संत साहित्य में अवधी, ब्रज, भोजपुरी या क्षेत्रीय भाषा-बोलियाँ प्रचलित थी और आजादी के ठीक पहले अरबी फारसी और उर्दू जनमानस में जगह बना रही थी और इसी के साथ इंग्लिश न केवल राजकाज की भाषा बन चुकी थी बल्कि यही इंग्लिश भारत के व्यापक एकीकरण को सिद्ध भी कर रही थी. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के महारथी और विराट दिव्यपुरुष के भक्त उस समय भी संस्कृत और संस्कृति के उत्थान की पारलौकिक योजना पर ही काम कर रहे थे.

इस विस्तार में जाने से यह स्पष्ट होता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से जनमानस की भाषा अछूतों की भाषा रही है और यही भाषा लोक उपयोगी ज्ञान विज्ञान के सृजन का माध्यम रही है. आर्य भद्र पुरुषों की भाषा पारलौकिक सम्मोहन की भाषा रही है. इस तरह साफ़ होता है कि इस जमीन पर इस जिन्दगी से जुडी ज्ञान की प्रणालियों का सृजन करने की क्षमता कम से उन भाषाओँ में तो नहीं रही है जिन्हें हमने आज तक अपने सर पर ढोया है.

भारत में जितना ज्ञान विज्ञान और तकनीक आज प्रचलित है वह यूरोप और अरब की भाषाओँ से आया है. ग्रीक सभ्यता के पतन के बाद उनका ज्ञान विज्ञान अरबी अनुवादों से हासिल किया गया था, वही फिर यूरोपीय पुनर्जागरण का आधार बना और आज उसी ने भारत को सभ्य बनाया है. इस तरह पश्चिमी पुनर्जागरण सहित भारत की मुक्ति का स्त्रोत स्वयं भारतीय भाषाएँ नहीं रही हैं. और दुभाग्य यह है कि हमारे देशभक्त इस तथ्य को भूलकर संस्कृत और सतयुग को फिर से पाषाण युग से वापस घसीटकर लाने में अपनी ताकत लगाये हुए हैं. आज भी हिंदी में कौनसा ज्ञान विज्ञान पैदा हो रहा है? किस विश्वविद्यालय में विश्व स्तरीय शोध या अध्यापन हिंदी में हो रहा है? या हिंदी और संस्कृत का झंडा लहराने वाले लोगों के अपने बच्चे कौनसे स्कूलों कालेजों में पढ़ रहे हैं? इन प्रश्नों के उत्तर से ही सब साफ़ हो जाता है कि हिंदी और हिन्दुस्तान की इतनी बुरी हालत क्यों थी और इनका भविष्य क्या है. 
______________
sanjayjothe@gmail.com

हिंदी दिवस : (३) : हिन्दी का विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है : राहुल राजेश

$
0
0








हिंदी दिवस के ख़ास अवसर पर आपने पढ़ा राहुल राजेश  का आलेख, ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क. संजय जोठे  का  आलेख, हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न

आज  प्रस्तुत है राहुल राजेश का  आलेख – ‘हिन्दी का विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है.

  


हिन्दी का विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है                 

राहुल राजेश





राजभाषा हिन्दी और हिन्दी को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह की निराधार और नकारात्मक धारणाएँ बैठ गई हैं,या कहिए, जानबूझकर बैठा दी गई हैं,जिनको आधार बनाकर लोग तरह-तरह से राजभाषा हिन्दी और हिन्दी का विरोध करते रहते हैं. कोई राजभाषा हिन्दी का इसलिए विरोध करने पर आमादा है कि उसे लगता है,राजभाषा हिन्दी बहुत संस्कृतनिष्ट है और इसलिए बहुत क्लिष्ट है. कोई राजभाषा हिन्दी का इसलिए विरोध कर रहा है कि उसे लगता है,राजभाषा हिन्दी में उर्दू,अरबी,फारसी आदि विदेशी भाषाओं से आए शब्दों पर प्रतिबंध है. कोई राजभाषा हिन्दी और पूरी हिन्दी भाषा का ही सिर्फ इसलिए विरोध कर रहा है कि उसे लगता है,नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा राजभाषा हिन्दी और हिन्दी का भगवाकरण किया जा रहा है. कोई हिन्दी को राष्ट्रवाद और सांस्कृतिकवाद से जोड़कर देख रहा है और इसे पूरे देश के लिए घातक बता रहा है.

कुछ लोग राजभाषा हिन्दी की सरकारी कार्यालयों में तनिक कमजोर स्थिति को ही आधार बनाकर और स्थितियों का अधकचरा आकलन-विश्लेषण कर पूरी की पूरी हिन्दी भाषा को ही कमजोर,दयनीय और दरिद्र घोषित कर देने पर तुले हुए हैं. कुछ लोग यहाँ तक दावा करने लगे हैं कि जैसे संस्कृत मर गई, वैसे ही हिन्दी भी मर जाएगी. (मानो इस संसार में बस अंग्रेजी ही अमर-अनश्वर रह जाएगी.) और तो और,कुछ लोग इतिहास और कुछेक महापुरुषों के असंगत-अप्रासंगिक उद्धरणों और आधे-अधूरे तथ्यों को अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए हिन्दी का मर्शियातक पढ़ने लगे हैं.

सच कहें तो भाषा का जितना विरोध, जितनी बदनामी खुद उस भाषा को बोलने, बरतने, पढ़ने और पढ़ाने वालों ने किया है, उतना तो राजनैतिक दलों ने भी नहीं किया. हिन्दी की खाने वाले तो हिन्दी को ही हरदम भरदम गरियाते रहे हैं. समालोचनई-मैगज़ीन पर साल भर पहले छपा "हिन्दी के लोग"शीर्षक मेरा लेख कभी पढ़ें.हिन्दी वालों की इस फितरत पर मैंने विस्तार से लिखा है. हिन्दी वाले हिन्दी को, राजभाषा हिन्दी को कोसते तो बहुत हैं, इसके भले के लिये कभी कोई ठोस पहल नहीं करते. कभी कोई कारगर दबाव नहीं बनाते.

जरा सोचिए, जो लोग राजभाषा हिन्दी का इतना प्रबल विरोध करते हैं, क्या वे सीधे-सीधे अंग्रेजी का समर्थन नहीं कर डालते? राजभाषा हिन्दी का विरोध तो सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के बने रहने को और अधिक ताकत ही देता है न. भाषा का साम्प्रदायिकरण, भगवाकरण जैसे जुमले बस वामपंथी बकवास हैं. यदि उनके हिसाब से ऐसा हो रहा है तो यह सिर्फ हिन्दी, संस्कृत का नहीं, बल्कि अंग्रेजी का भी तो हो रहा होगा. या फिर अंग्रेजी बहुत सेकुलर भाषा है, सिर्फ सेकुलरों की भाषा है.

कुछ लोगों को लग रहा है कि संस्कृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन की आड़ में भाषा का भगवाकरण किया जा रहा है. अब भला संस्कृत का संरक्षण और संवर्धन यथा- संस्कृत में समाचार-वाचन कहाँ से भाषा का साम्प्रदायिकरण या भगवाकरण हो गया? मुझे तो लगता है, 'हमारी हिंदी'शीर्षक कविता में हिंदी को 'दुहाजू की नई बीवी'तक कह डालने वाले रघुवीर सहाय जैसे हिन्दी के तमाम पुराने और नए लेखकों ने हिन्दी के हित के नाम पर हिन्दी का अहित ही ज्यादा किया है. इसे खुलकर स्वीकार करने की तत्काल सख्त जरूरत है.

कुछ क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों को यह भी गलतफहमी है कि राजभाषा हिन्दी में केवल संस्कृत से आए शब्दों का प्रयोग किया जाता है और उर्दू, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, डच, अंग्रेजी आदि भाषाओं से आए शब्दों पर सरकारी प्रतिबंध है. उनका यह भ्रम अदालती कामकाज पर महज एक नज़र डाल लेने से ही दूर हो जाएगा. अदालत, फैसला, मामला, मिसिल, मुवक्किल, गवाह, गवाही, सबूत, कागज, दस्तावेज, दस्तखत, दस्ती, दस्तकारी, लिफाफा, कामगार, कारगर, कारोबार, बाजार, फर्राश, दफ्तरी, इस्तीफा, तबादला, तैनाती, सलाह, खबर, खिलाफ, गलतियाँ आदि जैसे हजारों शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं जो संस्कृत से नहीं है और इनपर कोई सरकारी प्रतिबंध नहीं है. लेकिन संस्कृत से आए हजारों शब्द ऐसे हैं जो लंबे समय से प्रचलित हैं और पूरी तरह स्वीकृत हैं, उनको लेकर आपत्ति और विरोध करना सरासर मूर्खता ही है.

कुछ क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों का तर्क है कि जैसे संस्कृत अपने भाषायी आभिजात्य के भार और जन-अस्वीकारसे मर गई,वैसे ही हिन्दी भी मर जाएगी. अव्वल तो वे जान लें कि संस्कृत का ह्रास (मृत्यु कदापि नहीं) अरबी,फारसी,उर्दू,अवधी आदि जैसी भाषाओं के क्रमशः उदय और प्रसार के कारण हुआ है. न कि उसकी क्लिष्टता के कारण. और भारत में मुग़लों के आने तक संस्कृत कमोबेश प्रचलित थी. जर्मन विद्वान मैक्समुलर ने ऐसे ही नहीं कह दिया था कि इस देश में तो किसान भी संस्कृत में संवाद करते हैं. इसलिए सबसे पहले तो संस्कृत को काल-कवलित भाषाकी तरह पेश करना बंद करें. संस्कृत हाल-हाल तक की जीवित भाषा है और उसकी नमी और जड़ें तमाम भारतीय भाषाओं में जीवित हैं. ठीक वैसे ही जैसे इलाहाबाद के संगम में सरस्वती.

जहाँ तक समालोचनमें हिन्दी दिवस के अवसर पर मेरे लेख रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्कके बाद प्रकाशित संजय जोठेके लेख हिन्दी दुर्दशा का सनातन प्रश्नका सवाल है तो यह लेख भी हिन्दी को कमज़ोर बताने और कमज़ोर साबित करने की सतत कोशिश करने वाली रूढ़िवादी मानसिकता का ही दुष्परिणाम है. और यही नकारात्मक मानसिकता ही हिन्दी का सबसे अधिक अहित कर रही है.संजय जोठे का आलेख इतिहास के पुराने मानदंडों से हिन्दी का वर्तमान तौलने की तयशुदा कोशिश है. यह प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे इस देश के अनेक बुद्धिजीवीगण फ्रेंच अर्थशास्त्री और विचारक थॅामस पिकेटीकी किताब 'कैपिटल इन दी ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी(2013 में प्रकाशित) को आधार बनाकर मार्क्सवादी सिद्धांतों का वर्तमान संदर्भों में पुनर्विश्लेषण और पुनर्व्याख्या करने की भरसक कोशिश करते फिरते हैं, जबकि पिकेटी ने अपनी किताब में सन् 2000  तक के ही आंकड़ों, संदर्भों और परिस्थितियों को आधार बनाकर अपना पक्ष रखा है. लेकिन सन् 2000 से सन् 2016 तक के सोलह साल के लम्बे अंतराल में समय, समाज, बाज़ार और अर्थव्यवस्था की डायनामिक्स, संदर्भ और इनसे सम्बन्धित सभी आँकड़े तेजी से और लगभग आमूलचूल बदल गए हैं.

संजय जोठे जैसे लोगों को यह समझने की सख्त जरूरत है कि भाषा कोई रूढ चीज़ नहीं है. यह निरन्तर समय, समाज, सत्ता और बाज़ार के साथ बदलते रहती है. कोई भाषा इस क्रम में मजबूत होती जाती है तो कोई भाषा कमज़ोर. हिन्दी इस क्रम में कमज़ोर नहीं, बल्कि मजबूत ही हुई है. इसके लिए खुली आँखों और पूर्वग्रहों से मुक्त होकर तथ्यों और प्रमाणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है. संजय जोठे जैसे लोगों को यह बात भी तत्काल समझने की जरूरत है कि हर बात को राष्ट्रवाद और सांस्कृतिकवाद से जोड़ देने से कोई तर्क सही नहीं हो जाता.यदि उनके तर्क को थोड़ी देर के लिए मान भी लें तो वे बताएं कि इस संसार की कौन-सी भाषा या बोली अपनी जातीय अस्मिता या राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी हुई नहीं है? क्या वे यह पक्का मानते हैं कि किसी भी भाषा या बोली का उसकी जातीय या फिर राष्ट्रीय अस्मिता से कुछ लेना-देना नहीं होता है? क्या वे बताएंगे कि अंग्रेजी भाषा इंग्लैंड और ब्रिटिश लोगों की जातीय और राष्ट्रीय अस्मिता से नहीं जुड़ी हुई है? क्या वो बताएंगे कि भारत में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपनी जातीय या राष्ट्रीय अस्मिता से च्युत हैं और मुक्त हैं? क्या इस देश में हिन्दी, बंगला, मराठी, उर्दू आदि भाषाएँ अपनी जातीय अस्मिता से ऐतिहासिक रूप से जुड़ी हुई नहीं हैं? क्या वे यह मानते हैं कि भारत में अंग्रेजी जातीय या राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी हुई है?

संजय जोठे जिस अंग्रेजी को जिस बाजार की पसंदीदा भाषा बता रहे हैं, वह भी एक जमाने में दरिद्र, कमजोर, निम्न भाषा थी. फ्रेंच, ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि प्राचीनतर भाषाओं की तुलना में तो बहुत ही दरिद्र और कमज़ोर. लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजी मजबूत और क्रमशः समृद्ध होती गई, सत्ता और कारोबार और बाज़ार की भाषा बनती गई. इस मामले में तो हिन्दी यानि खड़ीबोली हिन्दी की उम्र तो अभी महज सौ साल भी नहीं हुई है. फिर हिन्दी पर इतने फतवे जारी करने की इतनी जल्दबाज़ी क्यों भाई? यदि बाज़ार के कारण ही अंग्रेजी मजबूत होती गई तो उन्हीं कारणों और कारकों के बूते हिन्दी भी मजबूत हो रही है. जिस बाज़ार ने जिन कारणों से जैसे अंग्रेजी को प्रोमोटकिया, वही बाज़ार उन्हीं कारणों से हिन्दी को भी प्रोमोटकर रहा है और करेगा.प्रसंगवश यह भी बता दें कि जिस अंग्रेजी की आज हर तरफ इतनी जय-जयकार की जा रही है,वह भी आरंभ में दरिद्र ही थी और उसमें भी ज्ञान-विज्ञान-अनुसंधान और परम अध्यात्म की किताबें नहीं रचीजा रही थी. इतना ही नहीं,अंग्रेजी तब तो अपने शब्द-भंडार में भी इतनी दरिद्र और दयनीय थी कि उसे अपना शब्द भंडार बढ़ाने के लिए French borrowings, Greek borrowings, Dutch borrowings, Latin Borrowings आदि करनी पड़ी.यही कारण है कि अंग्रेजी अपनी ऐसी उधारियोंसे लदी-फदी है और हर कदम पर अब भी दुरूह है. यह बाजार का दबाब ही है कि अंग्रेजी अपनी इन उधारियोंसे मुक्त होने को फड़फड़ा रही है और हिन्दी की तरह जन-जन के लिए सहज-सरल-क्रिस्पी-क्रंची-मंचीहोना चाह रही है. लेकिन हिन्दी को बात-बात पर संस्कृतनिष्ठ बताने वाले लोगों को इस अंग्रेजी की यह संस्कृतनिष्ठतानजर नहीं आती.

जहाँ तक हिन्दी को लेकर अरविन्दो घोष के इन असंगत उद्धरणों का प्रश्न है तो संजय जोठे हिन्दी के हक और पक्ष में दिये गए उन प्रचुर दृढ़ विचारों और स्थापनाओं-प्रस्थापनाओं को क्यों नहीं देखना चाहते जो गांधी,सुभाष,बंकिम,शरत,रवीन्द्र से लेकर सुदूर दक्षिण तक के विद्वानों,नेताओं और महापुरुषों ने दिये हैं?और, भाषा और खासकर संस्कृत और हिन्दी को जाति और वर्ण के खांचों में बाँट देना तो सरासर मूर्खतापूर्ण उपक्रम है. बोलियाँजन-साधारण की थातीहोती हैं तो भाषाएँउनका परिमार्जित रूप,यह भी संजय जोठे को बताने की जरूरत है???
_____
 राहुल राजेश
सहायक प्रबंधक (राजभाषा)
भारतीय रिज़र्व बैंक, 15, नेताजी सुभाष रोड, कोलकाता-700001
(प. बंगाल). मो.: 09429608159  # -मेल: rahulrajesh2006@gmail.com

हिंदी दिवस पर (४) : हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – भाग २ : संजय जोठे

$
0
0


भाषाएँ समाज की निर्मिति होती हैं. 
भाषाओँ की दशा–दिशा को समझने के लिए समाज भी परखा जाता है. क्या हिंदी की वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध उसके अपने बोलने वालों की संस्कृतिक, सामजिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक  स्थिति से नहीं है ? भाषा सम्प्रेष्ण का माध्यम होने के साथ ही संस्कृति की वाहक भी होती है. 

हिंदी दिवस पर इस संवाद की यह चौथी कड़ी आपके लिए –



हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – भाग २                               
संजय जोठे.







हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – इस विषय पर मेरे पहले लेख की संरचना ही मैंने ऐसी बुनी थी जिसमे भारत के मौलिक मनोविज्ञान में बसी संस्कृति, सभ्यता, शुचिता, विकास और समन्वय की धारणा और उसकी कमजोरी को उजागर किया जा सके. इसका शीर्षक भी मैंने इसी तरह रचा था कि सनातन शब्द को एक समस्या की तरह सामने रखा जा सके. यह बहुत जरुरी है कि भारत को या भारत की भाषाओँ को इन शब्दों और इन रुझानों के साथ रखकर देखा जाये. भाषा एक गरीब और कमजोर विधा है जिसपर अन्य शक्तियों के कुकर्मों का ठीकरा फोड़ा जाता है. हिंदी की दरिद्रता के या इंग्लिश की समृद्धि के विमर्श भी इसी तरह है. न तो ये दरिद्रता भाषा की पैदा की हुई है न वो समृद्धि भाषा के द्वारा पैदा की हुई है. भाषा सिर्फ वह पर्दा है जिस पर किन्हीं अन्य शक्तियों के प्रोजेक्टर कुछ कुछ प्रोजेक्ट करते रहते हैं. आइये उन प्रोजेक्टरों की खबर लेते हैं.

असल में किसी भी देश की भाषा सहित उसकी सफलता असफलता का प्रश्न उस देश की संस्कृति और समाज मनोविज्ञान की सफलता असफलता का प्रश्न होता है. उस देश के सांस्कृतिक आग्रहों के गर्भ से ही उसकी भाषा या सृजन का भविष्य निर्देशित होता है. भाषा को सिर्फ भाषा के प्रश्न की तरह देखेंगे तो आप एक छोटे से विस्तार में कुछ भी सिद्ध या असिद्ध कर सकते हैं. भाषा की पाचन क्षमता और ज्ञान विज्ञान का सृजन कर पाने की क्षमता पर प्रश्न उठाने की प्रवृत्ति को भाषा की निंदा भी माना जा सकता है जैसा कि अधिकाँश लोग मानते हैं. हालाँकि यह बहुत स्पष्ट है कि मैं हिंदी की निंदा नहीं बल्कि उसकी और उसको निर्देशित करने वाली बड़ी शक्तियों की क्षमता की समालोचना कुछ ऐसे विस्तार में करना चाह रहा हूँ जो इस भाषा और उससे जुडी संस्कृति के अतीत वर्तमान और भविष्य पर गंभीर प्रश्नों को उजागर करता है.

इस विस्तार में जाए बिना अगर हम भाषा को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह बढ़ावा देने के एकांगी उद्देश्य से ही विचार करते रहेंगे तो लगभग उन्ही निष्कर्षों तक पहुंचेगे जहां तक राजभाषा उत्थान की परियोजना चलाने वाली चिंताएं पहुँचती रही हैं. हालाँकि इस परियोजना बुद्धि के वे निष्कर्ष और उनके प्रस्थान बिंदु भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. उनका यथोचित सम्मान होना चाहिए. लेकिन यह ध्यान में रखकर सम्मान होना चाहिए कि इस सम्मान के मूल में हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह “बढ़ावा देने की परियोजना का आग्रह” छुपा है. यह आग्रह भी महान है, इसका भी सम्मान होना चाहिए. लेकिन पुनः ध्यान में रखा जाए कि इस आग्रह की परिधि में जो एकायामी विमर्श आ रहा है वही मेरे द्वारा की गयी हिंदी की “समालोचना” को “हिंदी का विरोध और अंग्रेजी का समर्थन” बतला रहा है. यह आरोप एकदम गलत है और दुराग्रही है. इस आरोप के ठीक विपरीत मेरी प्रस्तावना का केन्द्रीय आग्रह यह है कि हिंदी भाषा का प्रश्न असल में एक संस्कृति के आग्रहों, दुराग्रहों सहित उस संस्कृति के सृजन के रुझान और उस सृजन की क्षमता का प्रश्न है जिस पर कुछ विशेष तरह की सांस्कृतिक, धार्मिक मान्यताओं की धुंध फ़ैली है. जब तक इस धुंध को नहीं छांटा जाता तब तक हिंदी का प्रश्न एक सरकारी परियोजना एक आन्दोलन (राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) का गुलाम ही बना रहेगा. निश्चित ही भाषा और सृजन का प्रश्न परियोजनाओं और आंदोलनों का नहीं बल्कि आम आदमी की दैनिक जिन्दगी का प्रश्न होना चाहिए. क्या आम आदमी इस प्रश्न को अनुभव कर रहा है? या उसने अन्य संस्कृतियों और भाषाओँ में अपने समाधान खोज लिए हैं?

आइये इसे थोडा विस्तार में जानें. कोई भाषा कब समादृत होती है? या भाषा छोडिये कोई भी चीज कब समादृत होती है? तभी न जबकि उसका आपकी जिन्दगी को कोई सीधा सीधा लाभ हो रहा हो. इस विषय में भाषा से किस लाभ की अपेक्षा होती है? यही न कि इससे आपको अन्य मनुष्यों से जुड़ने की सुविधा मिले संवाद और संचार सहित सम्मान विकास और सशक्तीकरण का भी अवसर और सुविधा मिले. मोटा मोटी यही वे बातें हैं जो किसी भाषा या बोली से अपेक्षित है. अब गौर से देखिये कि मनुष्यों से जुड़ने, संवाद, संचार, सम्मान विकास और सशक्तिकरण को भाषा के अलावा और कौनसी चीज नियंत्रित कर रही है? क्या भाषा इन सद्गुणों को साकार करने की दृष्टि से स्वतंत्र समर्थ और सक्षम है? यही मेरा केंद्रीय प्रश्न है. इसे और सरल करूँ तो कहना होगा कि जिस कमजोरी या ताकत को हम भाषा की कमजोरी या ताकत मान रहे हैं वो वाकई उस भाषा के मत्थे मढ़ी जा सकती है? या किसी अन्य बड़ी शक्ति के मत्थे मढने योग्य है? क्या किसी संस्कृति, धर्म, आध्यात्मिक रुझान या समाज मनोविज्ञान की विशेषता के वाहक के रूप में भाषा अनावश्यक रूप से किसी अनचाहे दंगल का अखाड़ा तो नहीं बन रही है? यह मेरा प्रश्न है. और इसी के उत्तर की तरफ ले जाने के लिए मेरा पहला लेख था. अब इस दुसरे लेख में इसे और विस्तार देना चाहता हूँ.

मैं कोई भाषा विज्ञानी नहीं हूँ न साहित्यकार हूँ और न ही साहित्य का गंभीर पाठक ही हूँ. मैं सिर्फ समाजशास्त्र, धर्म के मनोविज्ञान और डेवेलपमेंट स्टडी के लेंस से भाषा और सृजन के प्रश्न को देख रहा हूँ. समाजशास्त्र जिस समाज मनोविज्ञान और विकास के मनोविज्ञान को उजागर करता है उसमे आप संस्कृतियों के आग्रहों दुराग्रहों के संगत उस समाज विशेष के विकास या पतन सहित इन्हें साधने वाली शक्तियों की विशिष्ट दिशाओं को देख सकते हैं. सामाजिक विकास और इस विकास के एक उपकरण की तरह लोकभाषा या मातृभाषा में ज्ञान विज्ञान के सृजन का प्रश्न मेरे लिए केंद्रीय प्रश्न है. मैं जब इसे सुलझाने निकलता हूँ तो मुझे यह नजर आता है कि भारतीय विश्वविद्यालय (जो किसी अर्थ में भारतीय नहीं बल्कि पश्चिमी मोडल पर बने हैं – यह भी सम्मान की बात है) किसी भी ढंग से भारतीय भाषाओँ में ज्ञान विज्ञान का सृजन नहीं कर रहे हैं. सृजन तो छोडिये अनुवाद भी नहीं कर रहे हैं. इसकी जिम्मेदारी आप किसपर डालेंगे? क्या यह प्रश्न हिंदी को कमजोर करता है? या हिंदी सहित इसके सर पर बैठी अन्य ऐतिहासिक शक्तियों की कमजोरी को प्रकाश में लाने का काम करता है? किसी बीमार की बीमारी को उजागर करके उसकी बदहाली का इलाज ढूंढना कोई पाप है? इस बिंदु पर गहरे जाने की आवश्यकता है.

अक्सर ही राजभाषा या राष्ट्रभाषा को समर्थ बनाने की “परियोजनायें” और “परियोजना का मनोविज्ञान” एक ख़ास लक्ष्य की तरफ निर्देशित रहता है. इस लक्ष्य की परिभाषा हालाँकि पुनः स्वयं इस भाषा के गर्भ से नहीं आती बल्कि इस भाषा को अपनी सांस्कृतिक विजय का उपकरण बनाने वाली और अतीत वर्तमान और भविष्य की व्याख्याओं को मनचाहे रंग में रंगने वाली एक अन्य ऐतिहासिक शक्ति के गर्भ से आती है. उदाहरण के लिए राष्ट्रभाषा या राजभाषा का भारत में जो घोषित लक्ष्य है वो भारत का एक राष्ट्र के रूप में एकीकरण है और भाषा को देशव्यापी संवाद का माध्यम बनाने का आग्रह है. अब ध्यान से देखिये हिंदी के रूप में राजभाषा का यह उपयोग उस बीमारी के इलाज के लिए अपेक्षित है जिस बीमारी का कारण स्वयं भाषा में ही नहीं है बल्कि भाषा से इतर किन्ही अन्य शक्तियों में निहित हैं, और मजा ये कि वे शक्तियां  भाषा को भी बीमारी फैलाने के उपकरण की तरह ही इस्तेमाल करती आयीं हैं. भाषा से बड़ी या भाषा को इस्तेमाल करने वाली वे शक्तियां अर्थात धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिक परम्पराएं – जो वास्तव में ही संगठित रूप से भाषा को अपने विशिष्ट लक्ष्यों के अनुरूप दिशा देती आई हैं और राष्ट्र सहित समाज की कल्पना और सीमाओं को आकार देती आई हैं – उनके द्वारा पैदा की गयी बीमारी को क्या आप सिर्फ भाषा के जरिये ठीक कर लेंगे? हाथी के पूरे शरीर ने जो अपराध किया है वह आप उसकी पूँछ को दंड देकर अनकीया कर लेंगे? क्या भारत में ज्ञान के सृजन की प्रेरणा का न होना और विज्ञान के प्रति ये सनातन वैरभाव और बांझपन केवल भाषा की समस्या है? क्या भाषा की क्षमता और सीमाओं के इतर हम इन प्रश्नों को सीधे सीधे देख सकते हैं?  

यह देखना असल में भाषा के विमर्श की सीमा को लांघने का आग्रह करता है. इसीलिये मैंने अरबिंदो घोष के उद्धरणों को चुना. उनकी प्रसिद्द किताब है जो हिंदी में “भारतीय संस्कृति के मूल आधार” के नाम से प्रकाशित हुई है. उसमे वे भाषा की क्षमता को और उसकी सामर्थ्य को अपने आध्यात्मिक मनोविज्ञान के जरिये तौल रहे हैं और ऐसा करते हुए वे न केवल भाषा से अपनी अपेक्षाओं का स्पष्ट वर्णन कर रहे हैं बल्कि भाषा में इश्वर की काव्यमयी स्तुतिगान की सामर्थ्य की तुलना में वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण ज्ञान के सृजन की सामर्थ्य को दोयम सिद्ध कर रहे हैं.

अरबिंदों घोषमूलतः कवि और योगी थे और इसी कारण वे प्राचीन भारतीय काव्य साहित्य में इतनी गहराई से प्रवेश कर सके थे. उन्होंने अपने रुझान और सामर्थ्य से भारतीय दर्शन और उस दर्शन से जन्मे समाज मनोविज्ञान का जो नक्शा बनाया है वह वास्तव में बहुत सटीक और महत्वपूर्ण है. उनकी किताबें देखिये. हीगल की भाषा जितनी दुरूह है उतनी ही दुरुहता का जाल वे अपनी किताबों में रचते हैं और बड़ी उपमाओं इत्यादि का उपयोग करते हुए वेदान्तिक दर्शन और रहस्यवाद को भारत के अनजाने अतीत से उठाकर अनिश्चित से भविष्य में प्रक्षेपित करते रहते हैं. यही भारत की सनातन पुराण बुद्धि है. यह बुद्धि जब स्पष्ट रूप से भाषा पर टिप्पणी कर रही है तो भाषा की चिंता करने वालों को इसे बड़े अक्षरों में अपनी दीवार पर लिख लेना चाहिए. उनकी टिप्पणी को नोट करते हुए मैं असल में भारत के पौराणिक मनोविज्ञान द्वारा भाषा के सचेतन उपयोग के रुझान को नोट कर रहा हूँ. किन्हीं मित्र को यह लग सकता है कि मैं विषय की सीमा से बाहर जा रहा हूँ. लेकिन मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है. जब आप एक दुधमुंहे बच्चे के अपराधों की चर्चा उसके माँ बाप के रुझानों की चर्चा के बिना करते हैं तो किसी को तो बच्चे की फ़िक्र छोड़कर मान बाप की गर्दन पकडनी ही होगी न?

अब इन माँ बाप के रुझानों को देखिये. हिंदी अगर छोटा बच्चा अहै तो माँ बाप हुए इस देश की संस्कृति अध्यात्म और धर्म. अब ठीक से देखिये जिस एकीकरण और सृजन को आप हिंदी भाषा के जरिये साधना चाहते हैं या जिस एकीकरण और सृजन के लिए हिंदी की सबलता का स्वप्न देखते हैं वह एकीकरण और सृजन किसके जरिये रोका गया है? क्या हिंदी ने लोगों को विभाजित किया है और ज्ञान विज्ञान के सृजन के प्रति अनुर्वर बनाया है? क्या कोई भी समझदार आदमी ये आरोप लगा सकता है? मेरे ख्याल से जिसे भारत का थोड़ा भी ज्ञान होगा वह ऐसा नहीं करेगा. गौर से देखिये असल में किन्ही बड़ी शक्तियों ने भारत को विभाजित और बाँझ बनाया है और फिर इस बाँझ भीड़ के हाथों में संस्कृत तमिल या हिंदी पकड़ा दी गयी है. अब हम बांझपन के इलाज की चर्चा करते हुए संस्कृत या हिंदी के गर्भाशय का परीक्षण कर रहे हैं. यह एकदम भ्रांत दिशा है विचार विमर्ष की. हमें उस गर्भाशय का परीक्षण करना चाहिए जहां से स्वयं संस्कृत या हिंदी जन्मी है. इस स्थिति में हिंदी की सामर्थ्य का विमर्ष स्वयं भाषा के विमर्श की परिधि को लांघ जाएगा. तब इसे आप कोई भी नाम दें लेकिन मेरी दिशा यही है.

हिंदी हो या कोई भी भाषा हो- वो स्वयं में आत्यंतिक रूप से सृजन को संभव या असंभव नहीं बनाती. हाँ उसके रुझान गद्य या पद्य सहित काव्य या तर्क के प्रति लगाव को फेसिलिटेट जरुर कर सकते हैं. लेकिन भाषा की सामर्थ्य किसी संस्कृति की सृजन सामर्थ्य को तय नहीं कर सकती. बल्कि इससे उलटा ही सत्य है, अर्थात किसी संस्कृति की सृजन क्षमता ही उसकी भाषा को बाँझ या उर्वर बनाती है. हालाँकि यहाँ एक और बड़ा प्रश्न है जिसे अभी नहीं उठाना चाहिए- वो प्रश्न है कि इस सृजन की दिशा भी क्या होनी चाहिए? कहने को तो भारतीय भाषाओँ में और संस्कृत में भयानक रूप से विस्तृत और अन्धविश्वासी आलौकिक पुराण साहित्य रचा गया है लेकिन क्या यह सृजन वास्तव में सृजनात्मक है? इस प्रश्न को अभी छोड़ते हैं. फिर भी इस प्रश्न का एक अंश हमारी चर्चा के लिए उपयोगी है.

वह अंश इस अर्थ में उपयोगी है कि यदि पुराण साहित्य के विस्तार को रचने में जिस भाषा ( ठीक से कहें तो भाषा की प्रवृत्ति) और जिस मनोविज्ञान का उपयोग किया गया है क्या उस मनोविज्ञान और भाषा से हमने पर्याप्त दूरी बना ली है? ध्यान रहे कि पुराण रचने का आरोप दुनिया की सभी भाषाओँ पर लगता है लेकिन यूरोप की सबसे प्रमुख भाषा इंग्लिश ने अपने उस अतीत और उस रुझान से दूरी बना ली है. क्या भारतीय भाषाओँ ने ऐसा कुछ किया है? हालाँकि फिर से यहाँ कहना चाहूंगा कि यह चुनाव भी स्वयं भाषा नहीं करती बल्कि भाषा रुपी इस बच्चे के वो माँ बाप करते हैं जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है.  
     
हिंदी और हिंदी में ज्ञान विज्ञान के सृजन के संबंध में मेरी चिंताओं को इस अर्थ में मैं रखता हूँ. मैं नहीं जानता यह भाषा का विमर्श है या संस्कृति का विमर्श है. लेकिन जमीन पर भाषा और संस्कृति के बांझपन  को देखने का यह तरीका मुझे जरुरी लगता है. अनजाने या “प्रक्षेपित महान अतीत” और भविष्य के रोमांटिसिज्म की चकाचौंध में हिंदी और उसकी चिंताए जैसी नजर आती है या उससे जुड़े समाधान जैसे नजर आते हैं उन प्रश्नों या समाधानों की जिम्मेदारी स्वयं हिंदी पर है ही नहीं- इस बात को गहराई से समझना होगा.

______________
sanjayjothe@gmail.com

हिदी दिवस (5) : हिन्दी : अस्मिता की पहचान : मोहसिन खान

$
0
0
















हिंदी की राष्ट्रीय स्वीकृति और वैश्विक पहुँच की चर्चा कर रहे हैं मोहसिन खान. 

अब यह उपभोक्ता तकनीक की सबसे तेज़ी से बढती भाषा है. 

फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सऐप, वाइबर, वीचैट, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन, हो या ब्लागिंग सब हिंदी में फल-फूल रहे हैं.





हिन्दी :  अस्मिता की पहचान                          

मोहसिन खान  



मालोचनपर राहुल राजेश और संजय जोठे के लेख हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के समर्थन-असमर्थन में पढ़े, राहुल राजेश जी से पहले कभी लेखों के माध्यम से परिचय न हुआ और संजय जोठे मेरे घनिष्ठ मित्र प्रकाश जोठे (देवास म.प्र.निवासी) के सबसे छोटे और प्रतिभाशाली भाई हैं. संजय मेरे सामने बहुत छोटे थे, तब जब उनके घर पर मैं आया-जाया करता था, आज जब बड़े हो चुके हैं तो संजय मेरे यहाँ आते हैं और हमारी कई विषयों पर चर्चा, बहस होती रहती है, अब वे भी मित्र हो चुके हैं. समालोचनपर हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के संदर्भ में संजय जोठे के लेख "हिन्दी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न"पढ़कर वास्तव में कुछ बातें स्पष्ट करना अनिवार्य हो जाती हैं, क्योंकि संजय का लेख भाषा के प्रश्न को लेकर जातीय आसमिता, भाषाई अस्पृश्यता एवं भेदभाव, दलित आंदोलन की सीमाओं के तहत रचा गया आभासित होता है, जिसमें एक बहुत बड़ी कमी वर्तमान अवस्था में हिन्दी भाषा और नागरी के विकास, प्रसार, प्रयोग, विस्तार, व्यापकता की बात दरकिनार रह जाती है और दूसरा यह कि लेख राजभाषा की अस्मिता के प्रश्न को भी धक्का पहुंचता हुआ राष्ट्रीय भावना से निरपेक्ष सिद्ध होता हुआ दिखाई देता है. राहुल राजेश जी ने अपने लेख "रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क", "हिन्दी का विरोध अंतत: अंग्रेज़ी का समर्थन है"कई मुद्दे, तर्क, प्रश्न, समाधान हिन्दी और नागरी के संदर्भ में सार्थक रूप में उठाए हैं, लेकिन वे भाषाई राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं और वर्तमान में भगवाकरण की स्थिति से परहेज करते नज़र आ रहे हैं.

संजय जोठे और राहुल राजेश के प्रश्नों, संवादों का क्रमश: उत्तर देते हुए पश्चात में अपना मत हिन्दी और नागरी के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में रखूँगा. संजय के लेख का स्वर हिन्दी भाषा के संदर्भ में विपरीत ठहरता है, क्योंकि हिन्दी, नागरी का वर्तमान स्वरूप व्यापक होते हुए इतना विकास कर गया है कि आज हिन्दी भाषा, नागरी लिपि पुस्तकों की भाषा न रहकर अपनी सीमाओं का विस्तार करते हुए अधुनातन तकनीक का हिस्सा बनते हुए अंतरराष्ट्रीय सीमाओं, पूरी दुनिया मे फैल चुकी है. हिन्दी के जिस रोनेवाली स्थिति को संजय उजागर कर रहे हैं, वह न तो उपयुक्त है और न ही  वर्तमान में कोई ऐसी चिंताजंक स्थिति हिन्दी और नागरी के विषय में दिखाई देती है. संजय ने भाषा के प्रश्न को सनातन स्थिति से जोड़कर अतीत और इतिहास के प्रश्नों को उठाकर भटक जाते हैं और उनके लेख के भीतर से जातीय अस्मिता, भाषाई अस्पृश्यता एवं भेदभाव, दलित आंदोलन की बू आ रही है. वे इस लेख में विद्रोही कम और बदला लेने वाली भावना से अधिक ग्रसित हैं, इसका कारण साफ है कि वे हिन्दी, नागरी के वर्तमान परिदृश्य, प्रसार, व्यापकता से कट जाते हैं और केवल भाषाई भेदभाव को केंद्र में रखते हुए सामयिक अवस्था में हिन्दी के विरोध में उतर जाते हैं. वे ये भूल जाते हैं कि हिन्दी और नागरी ने अपने को हर क्षेत्र के लिए चुस्त और दुरुस्त बना रखा है, वे विरोध पर बल देते हुए हिन्दी और नागरी के वैश्विक फलक पर विस्तार को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं और हिन्दी की स्थिति को आत्मघाती और कोढ़ में खाज की तरह दर्शाते हैं. उनके इस कथन का उत्तर मेरे आगे के लेख में स्पष्ट हो जाएगा कि आज हिन्दी, नागरी किस स्थिति में है और उसका प्रसार कहाँ तक हो पाया है. 

इन्होंने एक प्रश्न और भी उठाया है कि हिन्दी में ज्ञान-विज्ञान या आधुनिक शिक्षा प्रणाली कि पुस्तकें अथवा शिक्षा उपलब्ध नहीं तो इस बात का उत्तर साफ दिया जा सकता है कि आज की स्थिति में हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ समस्त विषयों का माध्यम हिन्दी है और कई विज्ञान के लेखक अपनी पुस्तके हिन्दी में लिख रहे हैं. हिन्दी के पास व्यापार-वाणिज्य से लेकर विज्ञान, तकनीक की भाषा की शब्दावली मौजूद है जिसका प्रयोग लगातार किया जा रहा है.

राहुल राजेश जी ने हिन्दी, नागरी के समर्थन में बात उठाई है और पक्षधरता को लेकर चल रहे हैं यह बात सुखद तो है, लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि वर्तमान में भाषाई राजनीति का खेल भी खेला जा रहा है, क्योंकि यहाँ पर भी बदला लेने की भावना केंद्र में मौजूद है. मुगल काल में फारसी को राजकीय भाषा घोषित किया था उसी के चलते अब हिन्दी भाषा को वैसी ही प्रतिस्थापना के लिए शक्ति-प्रदर्शन के तहत कार्यवाही की जा रही है और यह बात सत्य है कि हिन्दी के भगवाकरण करने पर कुछ लोग आमादा हैं. यह ठीक वैसी ही स्थिति है जब राष्ट्रीय आंदोलन भारत में चल रहे थे तब भाषा का विभाजन साहित्य में देखने को मिलता है. अचानक छायावादियों के लिए भाषा संस्कृतनिष्ठ हो जाता है क्योंकि उनके साथ भी यही समस्या जुड़ी हुई थी कि वह सांस्कृतिक उद्धार की दिशा में आगे बढ़ते हुए जातीय अस्मिता की बात करते हैं और अचानक काशी में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रचलन एक भीतरी आंदोलन के तहत हो जाता है.

छायावाद के सारे रचनाकर कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास तथा अन्य विधाओं में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का आंचल पकड़ लेते हैं. यहाँ उनकी जातीय अस्मिता, प्राचीन गौरव-गुणगान, विश्व में स्वयं को सर्वोपरि बताने का दंभ विद्यमान होकर केंद्र में आजाता है. जबकि इस समय में अधिक लोकप्रियता बच्चन, भगवती चरण वर्मा, अंचल आदि को उनके भाषाई समन्वय पर अधिक प्राप्त होती है. वर्तमान स्थिति भी इससे परे नहीं, आज भारत की अस्मिता की बात उठाते हुए कई जतियों, धर्मों, संप्रदाय के प्रति उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है और भाषा के मामले में भी इसी प्रकार का रवैया बन रहा है. आज भी प्राचीन गौरव का गुणगान करते हुए संस्कृति-रक्षण, भाषा-रक्षण और अन्य रक्षण की बात  मुद्दे के रूप में उजागर होते हुए समक्ष आ रही है, इस बात को किसी भी दशा में इनकार करते हुए नकारा नहीं जा सकता है. 

अब अपने मताभिव्यक्ति में बात रखता हूँ, जो हिन्दी भाषा और नागरी (देवनागरी नहीं, मेरी दृष्टि में मैं नागरी को देव से जोड़कर नहीं देख रहा हूँ) यह सत्य है कि भाषा केवल विचारों और भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, परंतु आज देश के साथ वैश्विक स्तर पर हिन्दी भाषा और नागरी लिपि राष्ट्रीय अस्मिता और पहचान का भी प्रश्न बन गयी है. हम वर्तमान में हिंदी और नागरी लिपि को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने का बहुत प्रयास कर रहे हैं, लेकिन ऐसा प्रयास केवल राष्ट्रीय अस्मिता और प्रभाव को दर्शाने का कृत्रिम प्रयास और विचार सिद्ध होगा, इसका स्पष्ट कारण यह है कि अभी हिंदी भारत में राजभाषा के रूप में स्थापित है, राष्ट्रभाषा के रूप में उसे आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है.

जब हमारे ही राष्ट्र में हिंदी के साथ भेदभाव, प्रतिबद्धता का अभाव और विरोधों की स्थितियों का सामना हो, तो वैश्विक स्तर पर हिंदी की स्थापना महज़ एक दिखावा ही नज़र आता है. भारत भाषा-वैविध्य राष्ट्र है, यहाँ संवैधानिक रूप में मान्य 22भाषाओं को संवैधानिक दर्जा प्राप्त है और यहाँ कई सौ बोलियाँ विद्यमान हैं. ऐसी दशा में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करना किसी भी सरकार के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा नज़र आता है, क्योंकि जैसे ही एक भाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता मिली तो हिंदी की अनिवार्यता लागू होगी और ऐसी अवस्था में प्रांतीय/क्षेत्रीय भाषा के समर्थक अपने विरोध का स्वर ऊँचा करते हुए हिंदी के विरोध में सड़कों पर उतर आएँगे और एक अराजकता/आंदोलन का वातावरण भारत में निर्मित होगा. ऐसी हालत में कोई भी वर्तमान सरकार किसी भी तरह का भाषा के विवाद और स्थापना का ख़तरा उठाने से पीछे ही हटेगी, इस मुद्दे को टालती ही रहेगी.

सरकारें प्रजा बनाती हैं और प्रजा जब एकजुट हो तथा वैचारिक समन्वय के माध्यम से भावुकता को परे रखते हुए हिंदी के मान, अस्मिता और अधिकार के लिए एक साथ आगे आए और प्रत्येक प्रान्त अपना समर्थन हिंदी के लिए दे, तो किसी भी तरह से फिर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने से कोई भी नहीं रोक सकता है. अतः ये बहुत आवश्यक हो जाता है कि भारत में एकजुट होकर एकमत से वास्तविक समर्थन हिंदी भाषा के रूप में प्राप्त हो ताकि हिंदी की वर्तमान संघर्षात्मक अवस्था से मुक्ति मिल सके, वरना भारत सहित विश्व में प्रत्येक वर्ष ढोंग, आडम्बर और झूठी संकल्पना के दोहराव के साथ दिवस 'हिंदी दिवस'यूँ ही मानते रहेंगे, शपथ समारोह, कार्यक्रम होते रहेंगे, अतिथियों के व्याख्यान आयोजित होते रहेंगे और एक दिन हिंदी भाषा संस्कृत भाषा के समान सिमटकर रह जाएगी और इसके प्रचलन पर प्रश्न लग जाएगा, क्योंकि खतरा अभी भी बरकरार है. इसलिए बहुत आवश्यक हो जाता है कि हिन्दी भाषा और नागरी लिपि को लेकर ईमानदार प्रयास करते हुए प्रतिबद्धता के साथ इसे अपनाते हुए दैनिक जीवन की भाषा और लिपि बनाएँ तथा अपने समस्त कार्य हिन्दी और नागरी में करें. 

वर्तमान में प्रचलित हिंदी भाषा और नागरी लिपि को स्थिति पर विचार कर लिया जाए कि हिंदी भाषा और नागरी लिपि किस दिशा-दशा में, किस स्तर पर, किस क्षेत्र में, कहाँ तक प्रसारित और विद्यमान है, इसकी व्यापकता कहाँ तक है, किस माध्यम का चयन करते हुए उपयोगकर्ता इसका इस्तेमाल कर रहा है? सूचना प्रौद्योगिकी के युग में हिंदी भाषा और नागरी लिपि ने अपना मार्ग तय कर लिया है और आज कंप्यूटर, इंटरनेट, सोशल मीडिया, मोबाईल, फ़िल्म, टेलीविज़न इत्यादि में निरंतर अपने माध्यम की भाषा और लिपि बनी हुई है. कंप्यूटर में हिंदी भाषा और नागरी के प्रयोग और उपयोगकर्ता/उपभोक्ता की दृष्टि को केंद्र में रखकर सन 2000से हिंदी भाषा और नागरी को स्थान मिला है अब कम्प्यूटर इंस्टालेशन के समय आप अपनी उपयोगी भाषा और लिपि का चयन करते हुए पूरा कंप्यूटर हिंदी और नागरी में स्थापित कर सकते हैं. अधकितर भाषा प्रेमियों को इस बात का ज्ञान नहीं है और वह अपने कंप्यूटर को अब भी अंग्रेज़ी तथा रोमन में इस्तेमाल कर रहे हैं.

मोबाइल की स्थिति भी ऐसी ही है आपका सम्पूर्ण मोबाईल भाषा चयन के विकल्प के माध्यम से हिंदी और नागरी में परिवर्तित हो सकता है, लेकिन अब भी उपयोगकर्ता अपने भाषाई स्टेटस में अंग्रेज़ी और रोमन को अपनाए हुए  हैं कारण इसका भी स्पष्ट है कि अब भी उनके भीतर से ग़ुलामी के अंश नहीं निकल पाए हैं, अब भी भाषा की ग़ुलामी को अपनाकर अभिमानी हो रहे हैं. उन्हें हिंदी और नागरी के चयन और उपयोग में शर्म और झिझक आती है साथ ही स्वयं की इज़्ज़त-आबरू का दंभी प्रश्न भी उन्हें आ घेरता है. मोबाइल पर ही सेकड़ों हिन्दी के एप्स मौजूद हैं जिसमें  शब्दकोश से लेकर अनुवाद टूल तथा गेम्स से लेकर समाचार चैनल तक हिन्दी भाषा और नागरी लिपि में प्राप्त किए जा सकते हैं.

आज की वास्तविकता यह है कि मोबाइल कंपनियों ने  अपने उत्पाद को खपाने के लिए राष्ट्रों की प्रमुख भाषाओं को ही ग्रहण नहीं किया, बल्कि प्रांतीय और क्षेत्रीय बोलियों को भी ग्रहण किया तथा भाषा को केंद्र में रखकर अपने उत्पाद सेवाओं को भारतीय बाज़ारों में खपाने का भरसक प्रयत्न किया है. भाषा बाज़ार की मांग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा और नीति समझी जा रही है और कम्पनियाँ इसके लिए गंभीर होकर प्रयासरत हैं.

अब भारत में तकनीक का उपयोगकर्ता बेड़े समूह में बड़ी आसानी से कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाईल में हिंदी और नागरी का उपयोग कर रहा है. इंटरनेट पर हिंदी भाषा और नागरी के पृष्ठों की संख्या पहले पहल बहुत कम रही हो, लेकिन वर्तमान में हिंदी और नागरी के पृष्ठों की बाढ़ आ गई है. 

इन्टरनेट पर हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में अकल्पनीय, अथाह सामग्री उपलब्ध है और देवनागरी लिपि में कार्य, प्रयोग, उपयोग किया जाना संभव है. आज ज़माना ब्लोगिंग, माइक्रो ब्लोगिंग का है और ब्लॉगिंग में भाषा का माध्यम हिंदी मौजूद होने के कारण बड़ी अधिक संख्या में हिंदी और नागरी में ब्लॉगों की रचना हो रही है और सभी भारतीय भाषाओँ के साथ हिंदी वर्चस्व पाकर प्रथम स्थान पर है. यहाँ तक कि अब डोमिन भी नेट पर हिंदी और नागरी में बनाए जा सकते हैं, बस अब ईमेल के पते (उदाहरण स्वरूप- राजीवसिंह८६@जीमेल.कॉम) के लिए हिंदी और नागरी में स्थापना की आशा है लगभग वह भी शीघ्र ही पूरी हो जाएगी.गूगल ने इंटरनेट पर हिंदी भाषा और नागरी के विकल्प के साथ खोज इंजनों की सुविधा उपलब्ध कर रखी है, अधिक उपयोगकर्ता अभी भी अंग्रेज़ी/रोमन का प्रयोग कर रहे हैं जो कि दुःखद अवस्था है. स्टार्टअप इंडिया और डिजिटलाइज़ेशन जैसे महत्वपूर्ण प्रयासों से भी हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के प्रचलन में ख़ासी वृद्धि होने के साथ उपयोगकर्ताओं का ध्यान आकर्षित हुआ है.

आज सोशल मीडिया- फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सऐप, वाइबर, वीचैट, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन के नव्य, तीव्रगामी, अधिक कारगर एप्स के माध्यम में हिंदी/नागरी की स्थिति काफ़ी मज़बूत हुई है, इन माध्यमों के उपयोगकर्ता आज अंग्रेजी/रोमन को पछाड़ रहे हैं. बहुत से एप्स समूह फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्प पर मौजूद हैं जिसमें निरंतर हिंदी/नागरी का इस्तेमाल हो रहा है और विकास की गति को तीव्र कर रहे हैं.हिंदी भाषा और नागरी ने सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में तकनीक के साथ अपना क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ने का हौसला दिखाया है, जो कि स्वागत योग्य होने के साथ प्रशंसनीय एवं संतोषप्रद नज़र आता है. आज सोशल मीडिया के कारण हिंदी और नागरी में भारत ही नहीं बल्कि विश्व-स्तर पर व्यक्तियों के मध्य संवाद बढ़ा है और निरंतर वृद्धि हो रही है. मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो.करुणाशंकर उपाध्याय की पुस्तक हिन्दी का वैश्विक संदर्भमें दर्शाते हैं कि 8वर्षों के भीतर दुनियाभर में हिन्दी बोलने वालों की संख्या में 9करोड़ और हिन्दी भाषियों की संख्या में 10करोड़ हिन्दी बोलनेने वालों की बढ़ोतरी हुई है. भारत के अतिरिक्त विश्व में ऐसे कई देश हैं जहां हिन्दी जानने वालों की संख्या 50प्रतिशत तक है. 

आज विश्वभर में हिन्दी जननेवालों की संख्या १,१०,२९,९६,४४७+ है, हिन्दी अब १६० देशों से बढ़कर २०६ देशों तक पहुँच गई है. भाषा के उपयोगकर्ताओं की दृष्टि से हिन्दी भाषा वैश्विक स्तर पर द्वितीय स्थान पर बनी हुई है, इस स्थिति से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वर्तमान में हिन्दी भाषा किस स्तर पर कहाँ तक प्रसारित हुई है. डिज़िटलाइज़ेशन के इस युग में वास्तव में हिंदी भाषा और नागरी को महत्त्व सुनिश्चितता के साथ अपना मार्ग व स्थान भी मिल है और आज अधिक से अधिक उपयोगकर्ता इसका उपयोग निःसंकोच कर रहे हैं, बच्चों, गृहणियों से लेकर वृद्ध भी हिंदी भाषा और नागरी के प्रयोग को तकनीक के माध्यम से अपनाए हुए हैं. 

बैंकिंग क्षेत्र में भी वर्त्तमान में हिंदी/नागरी का बढ़ावा मिलने के साथ स्थिति मज़बूत दिखाई दे रही है. हिंदी-अहिन्दी प्रदेशों में बैंकिंग क्षेत्रों में त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग किया जा रहा है, बैंक के नाम के साथ समस्त प्रकार के दस्तावेज़ ग्राहक/उपभोक्ता की सुविधा के लिए तीन भाषाओं और लिपियों में पर्चियाँ तथा अन्य दस्तावेज़ों का प्रयोग किया जा सकता है, जिसमें हिंदी और नागरी अनिवार्य रूप से मौजूद है. डिज़िटलाइज़ेशन के साथ हिंदी नागरी और बैंकिंग प्रणाली का प्रायोगिक दौर शुरू हो चुका है. बैंकों की सम्पूर्ण वेबसाइट हिंदी में उपलब्ध होने के साथ एटीएम के भाषा विकल्पों में हिंदी और नागरी का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है. ए.टी.एम. त्रिभाषा सूत्र पर आधरित मशीन है जिसमें ध्वन्यात्मक सुविधा के साथ लिखित नागरी लिपि की पर्ची प्राप्त होती है. जमा पर्ची, शेष जानकारी पर नागरी लिपि हिंदी भाषा के साथ मौजूद है. विश्व के कई देशों से हिन्दी की पत्रिकाएँ नागरी में प्रकाशित हो रही हैं. 

इसके साथ भारत के अतिरिक्त दुनियाभर के 100से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी का पठन-पाठन हो रहा है. कई भारतीय मूल के रचनाकर विदेशों में बसे हुए हैं जो कि हिन्दी की सेवा करते हुए लगातार हिन्दी का श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी को देते हुए हिन्दी और नागरी को अपना योगदान दे रहे हैं. उक्त स्थिति के अतिरिक्त सूचना प्रौद्योगिकी के दैनिक व्यवहार, उपयोग और प्रयोग में हम देवनागरी का सहज ही उपयोग करते हुए जीवन व्यतीत कर रहें हैं. रेलवे प्लेटफ़ार्म, बस स्टैण्ड आदि स्थानों पर इलेक्ट्रोनिक बोर्डों द्वारा  सूचना हमें देवनागरी में प्राप्त हो रही है, साथ ही रेलगाड़ी, बस के भीतर और बाहर तत्संबंधी सूचना भी हमें देवनागरी में इलेक्ट्रोनिक बोर्डों द्वारा प्राप्त हो रही है. 

वर्तमान में हिन्दी और नागरी की इतनी अधिक व्यापकता और प्रसार है कि रोमन अब स्वत: पिछड़ने की स्थिति में आचुकी है, हिन्दी और नागरी के वर्तमान और भविष्य पर चिंताजनक कोई खतरा मुझे तो दिखाई नहीं देता, बस विरोधों के संवादों के बजाए हम समर्थन, समन्वय के भाव को ग्रहण कर लें और दुराग्रह से मुक्त हो जाएँ तो हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के विवादों से मुक्त हो जाएंगे. हमें हिन्दी और नागरी की देश-विदेश में स्थापना के साथ सुलभ भाषा और लिपि बनाने के लिए अपने प्रयासों में और अधिक सजगता, सक्रियता और संकल्पना लानी होगी ताकि इसके परिवर्धन और विकास की नई दिशाएँ वैश्विक स्तर पर निर्धारित हो सकें. हिन्दी ने वैश्विक प्रसार और परिदृश्य में अपनी अनूठी पहचान बनाते हुए अपनी शक्तिमत्ता के साथ अपने अस्तित्व को दीर्घ फ़लक पर स्थापना दी है, आज उदारवाद, भूमंडलीकरण, प्रौद्योगिकी के इस युग में हिन्दी और नागरी पिछड़ी नहीं बल्कि उसने अन्यान्य संसाधनों के अनुरूप स्वयं को ढालकर, नव्य मधायमों में संचारित होकर विविध स्तरों पर आरूढ़ होकर यह दर्शा दिया है कि हिन्दी और नागरी जनमानस से लेकर तकनीकी धरातल पर भारत से लेकर वैश्विक स्तर पर बहुत कारगर एवं उपयोगी है. हिन्दी और नागरी में खुलापन और विस्तार है इसी के कारण आज वह सबकी संवाहिका बनी हुई है, अपने को संकीर्णता से बचाते हुए विस्तार के साथ विश्व के कोने कोने में फैल रही है.    
____
डॉ. मोहसिन ख़ान
                        स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग़-जिला-रायगढ़/ (महाराष्ट्र) ४०२  २०१
 मोबाइल-०९८६०६५७९७० / ०९४०५२९३७८३/मेल : Khanhind01@gmail.com

कथा - गाथा : प्रथम पुरुष : तरुण भटनागर

$
0
0
कृति : Ladoo Bai 































कलाओं का विकास मनुष्य की स्वाधीनता के चेतना से जुड़ा हुआ है, बाद में सत्ताओं के सेंसरशिप के बावजूद कला अपनी यह ज़िम्मेदारी उठाती रही है. 
आप कल्पना कीजिये जब पहली बार किसी ने किसी भी प्रकार का कोई वाद्ययंत्र बनाया और बजाया होगा तब क्या हुआ होगा ?
चर्चित कथाकार तरुण भटनागर की कहानी ‘प्रथम पुरुष’ का नायक अपने वाद्ययंत्रों के साथ गहरे संकट में घिर जाता है. 
समाज यथास्थिति में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहता चाहे वह रचनात्मक ही क्यों न हो.
यह कथा जितनी आदिम है उतनी ही आधुनिक भी. 
शिल्प लोक कथाओं का है इसलिए असर भरपूर है. कहानी पढिये.
  
प्रथम पुरुष                                    

तरुण भटनागर




लिंगो पेन जंगल का देव हुआ. वह इंसान था.

कहते हैं वह अठारह वाद्य यंत्र बजाता था. जंगल में कोई कितनी भी बढ़िया किंदरी बजा ले, तोहेली, डुमरी या रामबाजा बजाये, चाहे कितना भी डूबकर मादर को पीटे और आकाश को लक्ष्य बनाकर तुरही की प्रतिध्वनियाँ गुँजाता रहे, कितना ही मदमस्त होकर और लंबी तान के साथ भोंगा बजाये, कितना भी गाये जंगल को कंपाता, किसी धुन को गुने चुप्पा-चुप्पा..... पर जिन लोगों ने लिंगो को सुना था, वे मानते थे, कि वह सबसे बेहतर था.

बस्तर के जंगलों में वारंगल के राजा को आने में अभी देर थी. हजारों बरसों की देर. तब दूर-दूर तक यह बात न थी कि कभी कोई राजा आयेगा. जंगल के खयालों में राजा नाम का शब्द भी न था. तब भाषा न थी, न थे भाषा के शब्द ही. संबोधन थे, आवाजें थीं, इशारे थे, चेहरे पर खिंच आने वाली रेखायें थीं, चित्र थे, रंग थे, एक दूसरे की समझ थी, बहुत सारा खाली समय था, कोई चिंता न थी, दुनिया से कोई शिकायत न थी, पर स्वप्न थे, नृत्य थे, रहने को घर न थे, चूल्हे न थे, खाली समय के बाद भी न था एकाकीपन....बस नहीं थी तो एक भाषा ही, न थे तो बस शब्द ही. वह आज से हजारों साल पहले का समय था. जंगल बस इतना आगे बढ पाया था कि वह जंगल से लाकर आग जला लेता था. पर वह खेती करना नहीं जानता था. कहते हैं तब उसने पहली बार आग भी नहीं जलाई थी. वह जंगल के दावानल से आग लाता था. आग थी, पर अपने हाथों से उसे जलाने का हुनर नहीं था. पर तब भी स्मृतियाँ थीं और स्वप्न आते थे और इस तरह यह कथा आज तक चली आई.




(एक)
लिंगो पेन आठों भाइयों में सबसे छोटा था. यद्यपी उस समय भाइयों जैसा संबोधन नहीं था. भाइयों जैसे संबंध भी नहीं थे. वे आठों बस एक ही जगह एक ही गर्भ से पैदा हुए थे. वे एक साथ पले बढे और यूं पास-पास रहते थे. वहाँ कोई और बस्ती न थी. तब बस्तियाँ भी नहीं होती थीं. लोगों की एक दूसरे को जरुरत सामुहिक शिकार के लिए इकट्ठा होने तक रहती थी, उससे ज्यादा नहीं. आज उस कथा में यह बताया जाता है कि लिंगो उन आठों में सबसे सुन्दर और बलिष्ट था. पता नहीं तब सौंदर्य की कोई चेतना जंगल में इस तरह से विकसित हुई भी थी या नहीं. मालूम नहीं देखने में किस तरह के लोग अच्छे लगते थे. कहते हैं समय के साथ-साथ यह बताया गया कि किस तरह से दीखने को सुँदर माना जाय. पर उस युग में क्या ऐसा कोई कोई भेद रहा होगा ? कहते हैं कि उस दौर में इंसानी सौंदर्य की कोई चेतना न थी. हो सकता है जंगल में भी न रही हो और बाद में कह दिया गया हो कि लिंगो ही सबसे सुंदर था. 

यह कथा प्रक्षप्तियों से भरी लगती है. जब अतीत को याद करते हैं, तो उसकी प्रक्षप्ति बनती है. जंगल ने ऐसी बहुत सी प्रक्षप्तियों को इस कथा में बहुत आत्मीयता से जोडा है. बहुत से झूठ जो स्मृतियों का हिस्सा हो गये और इस तरह कथा पूरी हुई. आज भी अबूझमाड का दण्डामी माँझी आँखें बंद कर इसे सुनाता है. छाती पर हाथ रख, गुनगुनाते हुए, धीरे-धीरे..... कभी गाता है, कभी एकदम चुप हो जाता है, कभी धीरे-धीरे कहता है मानो कोई मंत्र पढ रहा हो, कभी आँखें खोल सामने जंगलों को निहारता इस तरह कथा कहता है मानो खुद से बतिया रहा हो, कभी तर्जनी उठाता हाथों से इशारा करता लगातार बेबाक कहता जाता है बिना रुके....इस तरह शताब्दियों का झूठ सच बनता जाता है. झूठ पर अविश्वास एक धोखा लगता है. आँखों में छलछला आने वाला झूठ, छाती पर हाथ रख गुनगुनाने वाला असत्य, जंगल के सनातन मौन में धीरे-धीरे पकता झूठ....कथा का झूठ जो जुडा और इस तरह पूरी होती गई कायनात.

लिंगो अकेले में कोई वाद्ययंत्र बजाता था. जंगल के बहुत भीतर. कहीं किसी नदी के किनारे. तब किसी ने बाजा बजाना नहीं जाना था. कहते हैं, लिंगो ने कई वाद्य यंत्र बनाये. उनकी थापों को, ध्वनियों को बरसों तक गुना. वह खुले कण्ठ से गाता और थाप देता. जंगल के लोग बेतरतीब और क्रम से सुनाई देनी वाली आवाजों के भेद को जानते थे. जंगल में तरह-तरह की आवाजें थीं. सूखे पत्तों की सरसराहट से लेकर जंगली जानवरों की आवाजों तक बहुत सारी विचित्र और रोज की आवाजें वहाँ थीं. उनमें से कुछ आवाजें तरतीब से एक क्रम में चलती थीं. वे एक चक्र पूरा करतीं. वे जहाँ से शुरु होतीं लौटकर फिर वहीं आती. फिर से शुरु होतीं और फिर वापस वहीं आतीं जहाँ से शुरु होतीं. उनका क्रम था. चक्र था. बारिश की बूँदों की आवाजें जो एक क्रम में टीपटिपातीं और फिर वापस उसी क्रम में फिर से टिपटिपाना शुरु कर देतीं. बारिश में पत्तों के कोनों से गिरने वाला टिपकता, धार से गिरता, फिर से टिपकता पानी या पोखर में कमल के पत्तों पर लगातार एक धुन से टपटपाती बूँदें या ध्यान से सुनने पर देर रात को सुनाई देने वाली पहाडी नाले की छलछलाती लय....हर जगह ध्वनियों की एक क्रमबद्धता होती, एक तरह से एक से क्रम में लगातार चलने वाली क्रमबद्धता.  

रात के एकांत में सुनाई देने वाली झींगुरों की लयात्मक किरकिराती ध्वनियाँ या मेंढकों का भिन्न-भिन्न सुरों में टर्राना जिसमें निश्चित समय अंतराल के बाद एक अगली ध्वनि और फिर से पुरानी और फिर वही ध्वनि क्रम मे सुनाई देतीं. इन आवाजों में लय थी. एक तरह की तालबद्धता. जंगल का इंसान इसे बार-बार सुनना चाहता. वह इंसान जिसके पास रहने को घर न था, चूल्हा न था, जो खेत-खलिहान नहीं जानता था, जिसके पास कपडे नहीं थे, नहीं थी भाषा, न बोलचाल, न गीत.... वही आदमी संगीत को समझता था, सुनता था, गाता था, बजाता था. वह ऐसी आवाज बनाना चाहता जो टुकडों-टुकडों में हो और एक क्रम से चले और फिर वहीं लौटकर जहाँ से वह शुरु हुई अपना चक्र पूरा करे और फिर उसी क्रम में चल पडे चक्र को पूरा करने. यूँ वे एक से स्वर में आवाजें निकालते. उन तालों पर थिरकते. पुरुष या स्त्री की आवाज़ में मानव स्वरों की वह बहुत पुरानी दुनिया थी. पर तब तक आदिम आवाज़ों के साथ वाद्य यंत्र नहीं जुड़े थे. 

कहते हैं लकड़ी के खोखल पर हिरण का चमड़ा माढ़कर उसने सबसे पहला मादर बनाया. उसे भान था कि खोखल में से आवाज़ उठेगी. कहा तो यह भी जाता है कि उसे स्वप्न आया था. पर हकीकत यह है कि उसने इसे गढा था. बनाया था. उसने एक तरह से इसकी तलाश की थी. किसी खोखल पर हाथ मारने से वह भंभाती सी आवाज करता था. यह आवाज उसे अच्छी लगती. वह जंगल में ऐसे खोखल ढूँढता. उसके एक खुले भाग को हाथ से ढँकता और दूसरे पर हाथ मारता. इसी से उसे खयाल आया कि हाथ रखने की बजाय अगर वह उसे बंद ही कर दे तो ठीक रहेगा. बंद कर देने से आवाज गूँजती थी. वह खोखल के भीतर कैद होकर उछल-कूद करती, खोखल की दीवार से टकराती, गूँजती, झनझनाती, भंभाती....इस तरह ताल और थाप के लिए आवाज बनती. उसने हिरण के चमडे से खोखल को बंद किया था. बहुत सालों के बाद उसे धीरे-धीरे समझ आया था, कि इसी खोखल को अगर एक तरफ़ से फूँका जाये तो कई ध्वनियाँ और आवाज़ें निकल सकती हैं. जंगल में बहती हवा से उठते स्वर को वह बहुत गौर से सुनता. बाँस के झुरमुटों से गुजरने वाली हवा की सीटी बजाती आवाज को वह बहुत पास से सुनता. जब तक तेज हवा बहती वह बाँस के झुरमुट के पास बैठा रहता. उस पर कान दिये रहता. उसे गौर से देखता. उसने कई तरह से बाँस के टुकडों को हवा में घुमाकर और फूंककर हवा से आवाजें पैदा की. वह दो तरह के वाद्य यंत्र बना पाया था. पीटकर बजाये जाने वाले, याने थाप वाले बाजे और फूँककर बजाये जाने वाले याने सुषुर वाद्य.

संसार के किसी भी वाद्य यंत्र को खोजने के इतिहास में लिंगो का नाम नहीं आता. दुनिया शायद ही कभी जान पाये कि आज से सैंकड़ों सालों पहले जब इंसान के कण्ठ अकेले थे, तब उसी ने सबसे पहले वाद्य यंत्रों की बात सोची थी. तब वारंगल का राजा बस्तर नहीं आया था. जो था वह सिर्फ जंगल का था. जंगल की कहानी थी. जंगल की ही स्मृति. तब जंगल को पता नहीं था, कि कभी उससे उसकी यादें भी हिरा सकती हैं.

जंगल के सरसराते पेड़ों और बाँसों के झुरमुटों से सीटी बजाकर बहती हवा की तान के साथ वह बरसों तक गाता रहा. वह हवा की दिशा और बल के अनुपात में अपने कण्ठ से आवाज़ें निकालता और वे आवाज़ें जंगल से आने वाली ताल और सुषुर ध्वनियों के साथ संगत करने लगतीं.

वह सारा दिन यही सब करता. उसके सातों भाई शिकार पर चले जाते. वह अकेला रह जाता. वह कभी शिकार पर नहीं गया. उसने संगीत को अपना काम बना लिया. संगीत याने जंगल से जानवर मार लाना. गाना और ताल देना याने जलती लकड़ी पर मांस पकाना. वाद्य यंत्रों के साथ जुगलबन्दी याने आग में पकते माँस से टपकती चर्बी. उसके पास एक वाजिब काम था. उसे काम पर नहीं जाना था. असुनी आवाजें और अनगढ धुनों को ढूंढने वाला वह पहला इंसान था. उसका काम आवाजों और धुनों का काम था. दुनिया में तब तक यह कोई काम नहीं था. तब दुनिया बहुत पुरानी थी. पर आज भी यह कोई काम नहीं माना जाता. गाने को, बजाने को, काम न मानने की रवायत तब से चली आई बे रोक टोक. लिंगो को नहीं पता था, कि हजारों साल बीतने के बाद भी उसके इस काम को काम कहलवाने में समय लगेगा. लोग मानेंगे कि भला आवाजों और धुनों का काम भी कोई काम होता है. लोग लिंगो को पूजेंगे. उसे तर्पण करेंगे . वह सर्वप्रमुख हो जायेगा. पर उसका काम....लोग हजारों साल बाद भी कहेंगे भला यह भी कोई काम हुआ. पर तब यह चेतना भी न थी, कि इस तरह का कोई खयाल आता. तब एक तरह की दीवानगी थी, झक थी, कौतुहल था....खयाल न था.

भाई जब काम पर जाते तब भाइयों की औरतें अकेली घर में रहतीं. पता नहीं भाई की पत्नी के लिए तब क्या सम्बोधन रहा होगा. तब न तो पत्नियां होती थीं और न भाभियां. तब वे औरतें थीं. सिर्फ औरतें, न कि पत्नी या भाभी. तब पुरुष भी पति या देवर न थे. वे सिर्फ आदमी थे. औरतें अक्सर लिंगो को सुनतीं और हँसतीं. दिन बीतते गये और जुगलबन्दी दुरुस्त होती गई. वह मादर बजाता और गाता. बाँस की तुरही को फूँकता.




(दो)
सबसे पहले तीसरे नम्बर वाली औरत ने वह आवाज और धुन सुनी थी. वह एक धुन थी, जिसके साथ कोई गा रहा था. कथा में इसे भाभी बताया गया है. पर आदिम समय में ऐसा कुछ नहीं होता था. तब परिवार का ढाँचा बन रहा था. संबंधों की समझ नहीं थी, ‘ भाभीजैसे संबोधन तो हो भी नहीं सकते थे. एक सी चढती उतरती आवाज में वह धुन और उसके साथ ताल मिलाती मादर की आवाज कहीं आसपास से ही आ रही थी. वह चुपके से उसे सुनने गई थी. यह लय, यह गान उसने पहली बार सुना था. इसलिए वह थोडा डरी हुई भी थी. वह झाडियों में छिपकर लिंगो को गाता देखती रही. उसे नहीं पता था कि वह संसार का सबसे पहला संगीत सुन रही है. वह उस संगीत से डर रही थी. पर एक कौतुहल भी था, जो डर के पीछे दुबका हुआ था. बाद में दो औरतें और आ गई थीं. तीनों ने खुद में डूबे गाते-बजाते लिंगो को सुना. छिपकर उसे देखा. 

नदी किनारे की रेत पर वह बेतरह गा रहा था. उसकी आँखें बंद थीं. मादर की काँपती आवाज़ से नदी का पानी काँप रहा था. हवा में एक अजीब सा कंपन था. जंगल में एक बेतरह सी स्थिरता. लिंगो को कुछ भी पता नहीं था. उसे न तो भूख लगती थी और न नींद आती थी. वह पूरी रात, पूरा दिन गाता-बजाता रहता. औरतें झाड़ियों की ओट में बैठकर उसे देखतीं. उसे सुनतीं.

औरतों के आदमी लौटते और रहवास में उन्हें बुझी हुई आग मिलती. उन्हें खाली सूनी ओट और दूर तक पेड़ों के नीचे फैली रिक्तता मिलती. तब यह तय नहीं था, कि कौन माँस पकायेगा. पर एक आदत बन गई थी. वे आते और उन्हें आग के चारों ओर बैठी औरतें मिलतीं. जो अक्सर आग पर माँस पका रही होतीं. उनके आने पर वे खुश होतीं. पर कुछ दिनों से ऐसा नहीं हो रहा था. वे औरतों को आसपास ढूंढते. औरतें वहाँ नहीं होतीं. वे बहुत देर तक उनका इन्तज़ार करते. औरतें बहुत बाद में लौटतीं. आदमी उन्हें हँसते चहकते लौटते हुए देखते. आदमी हतप्रभ होते. औरतें हँसतीं. आदमी अचरज से उन्हें घूरते, वे कुछ गातीं. आदमी उन्हें अजीब तरह से ताकते, वे बेफिक्र चहकतीं. आदमियों को अजीब लगता. यह उनके जीवन में खलल डाल रहा था. रोज की एक सी दिनचर्या टूट रही थी. तब तक आदमियों ने औरतों पर गुस्सा करना नहीं सीखा था. बस उनकी दिनचर्या टूटती थी. एक अनहोनी घट रही थी. वे चकित से थे. वे नहीं जान पा रहे थे कि इस पर कैसे रिएक्ट करें. पर वे ऐसी किसी चीज को नहीं चाहते थे जो उन्हें चैंका दे, जो अब तक न हुई हो, जिसको वे न जानते हों..... इस तरह वे इसे रोकना चाहते थे.

आदमियों को पता नहीं था कि यह क्या हो रहा है? तब तक दुनिया में किसी को भी संगीत का कहाँ पता था ? कहां पता था, कि आवाजें सिर्फ आवाजें नहीं हैं, वे कोई धुन भी हो सकती हैं. एक दिन आदमियों ने सोचा वे जंगल में छुपकर देखेंगे कि क्या होता है. क्या है जो दुनिया को बदल रहा है? कुछ तो है, जिसने सीधे सरल जीवन में खलल डाली है? क्या है? क्यों है? वे शिकार पर नहीं गये और उन्होंने छिपकर देखा.

तब तक लिंगो को औरतों का पता चल चुका था.
उस दिन वे सब एक साथ गा-बजा रहे थे. एक स्त्री मादर को थाप दे रही थी. दूसरी बाँस की तुरही बजा रही थी. वे उसी तरह बजाने की कोशिश कर रही थीं, जिस तरह लिंगो बजाता था. वे उसकी नकल कर बजा रही थीं. पर फिर भी उनकी लय और ताल टूट रही थी. उस समय तक वाद्य यंत्रों को ठीक से पहचाना नहीं गया था. यह जानना मुश्किल था कि वह मादर है और यह रामबाजा. तब सिर्फ़ ध्वनियों के भेद थे. किसी ध्वनि को सुनकर यह बताया जा सकता था, कि वह किस वाद्य यंत्र का है. इशारा करके वाद्य यंत्र को चिह्नित किया जा सकता था. उनके नाम न थे. उनके लिए कोई संबोधन न था. लिंगो और स्त्रियाँ नाच-गा रहे थे. क्षत-विक्षत, बेतरतीब, नग्न.... एक स्त्री ने लिंगो को अपनी बाँहों में जकड़ लिया. वह उससे प्यार करने लगी. उसके होंठ उसके होंठ में थे. वह गीत का वह भाग था, जहाँ सिर्फ़ वाद्य यंत्रों की आवाज़ होती है और इंसान की आवाज़ गुम जाती है. पुरुष झाड़ियों में छिपे यह सब देख रहे थे. फिर वे धीरे-धीरे बाहर निकल आये.

स्त्रियाँ चाहती थीं कि वे भी उनके साथ नाचें-गायें. पर पुरुषों के तेवर कुछ और ही थे. वे अचंभित थे. वे घबराये हुए भी थे. वे बस इतना ही चाहते थे, कि औरतें लिंगो को छोडकर उनके साथ चली चलें. जैसा कि बताया गया कि वह आदिम समय था और शुक्र था कि तब तक स्त्री को लेकर पुरुष के क्रोध की शुरुआत नहीं हुई थी.

तय हुआ लिंगो साथ नहीं रहेगा. लिंगो के रहने से दिनचर्या टूटती है. उसके रहने से कुछ ऐसा होता है, जो पहले नहीं हुआ. यह तय करना कठिन है कि जो हो रहा है, वह दुरुस्त है या नहीं ? जो हो रहा है वह अचरज में डालता है. डराता है. वह पुरुषों को डराता है. पर यह पता नहीं कि यह ठीक है या नहीं. संगीत आकर्षित करता है. पर पता नहीं इस तरह संगीत रत हो जाने से क्या हो ? क्या पता यह ठीक है या नहीं ? पुरुषों के सामने दुनिया का पहला संगीत अचानक आकर खडा हो गया था. वे हतप्रभ थे. वे एकदूसरे को ताकते. उनके चेहरों पर एक साथ किंकर्तव्यविमूढता और भय दोनो दीखता. जब लिंगो का संगीत उठता, वे चैंककर एकदूसरे को देखते. उनकी आँखें उस हिरण की आँखों की तरह हो जातीं जो आसपास किसी खूँखार जानवर को महसूस कर हो जाती हैं. यंत्रवत, क्षण भर को जड. वे संगीत को सुनकर सतर्क हो जाते. चैंक जाते. औरतों को घूरते मानो देखना चाहते हों कि उन पर संगीत का क्या प्रभाव पडता है. उन्होंने तय किया कि लिंगो यहाँ नहीं रहेगा. उनमें से तीन आदमियों ने लिंगो के रहवास के सामने बडा सा पत्थर रख दिया ताकि वह अपने रहवास में घुस न पाये और यहाँ से चला जाये.

पर स्त्रियाँ अड़ी रहीं. तय हुआ लिंगो को जाना ही होगा. स्त्रियों ने कहा वे भी चली जायेंगी. तय हुआ... कि एक गुप्त योजना बनायी जाये. तय हुआ लिंगो यहीं रहे, पर यह भी कि एक दिन इसे खत्म कर ही दिया जाये. जो स्त्रियों को वशीभूत कर ले उसे खत्म करना ही होगा. जो खोजे नई आवाजें और तानें उसे समाप्त करना ही होगा. जो बनाये नया गीत और पैदा कर दे जीवन में कोई कौतुक. जो खोजे नई ध्वनियां. उसे. हाँ, उसे खत्म करना ही होगा. आदिम दुनिया को आगे बढना था. आगे बढने के लिए लिंगो का खत्म होना जरुरी था. आज की ही तरह तब भी दुनिया इसी तरह आगे बढ रही थी. हर नये को खत्म करके.
कृति : Shantaram Tumbada

शिकार पर चल.

पहले पुरुष ने धूल भरी ज़मीन पर खर्राटे भरते लिंगो को पैर से कोंचा. लिंगो ने घर के सामने रखी विशाल चट्टान को देख लिया था. औरतों ने उसे इतना सरका दिया था, कि वहाँ जगह छूट गई थी. रहवास का प्रवेश थोडा खुल गया था. इतना कि एक अकेला आदमी भीतर जा सकता था. पर लिंगो बाहर ही लेट गया. उसे लगा कि अगर वह भीतर चला गया तो हो सकता है फिर वे सब आकर चट्टान रख दें और वह अपने रहवास में कैद हो जाये. सो वह बाहर ही जमीन पर पसर गया. 

चल.
 ‘न.
 ‘आज चल कल भले न जाना.

जो उससे कहा गया उसके तात्पर्य यही थे. लिंगो नहीं जाना चाहता था. उसे उन लोगों के साथ नहीं जाना था, जो उसके रहवास के सामने चट्टान रख गये थे. पर उसे यह भी लगा कि ये लोग शायद दोस्ती करना चाहते हैं. इनके साथ चलने से शायद मामला खत्म हो जाये. उस आदिम समय में भी यह चेतना थी, कि कौन गुस्से में है और कौन दोस्ती करना चाहता है. इस बात में शिकार को फंसाने जैसा कुछ भी नहीं लगता था. लिंगो उठकर खडा हो गया. उसने उन सातों को इस तरह देखा मानो कह रहा हो  ठीक है.

तभी एक बेरचे (गिलहरी जैसा एक जंगली जंतु) वहाँ से भागा. एक पुरुष ने उस पर सटाक से तीर छोड़ा. बेरचे भाग गया. पुरुष लिंगो को देखकर मुस्कुराया.
तू क्या करेगा शिकार. तू तो ढोल पीट.

(तब ढोल नाम का शब्द नहीं था, शायद ये संवाद भी इसी तरह न हुए हों. बोलने का तरीका ठीक-ठीक इजाद न था. फिर जैसा कि पता है कि कथा में बहुत सी प्रक्षप्तियाँ जुडीं. यह यहाँ भी हुआ. कहा गया कि संवाद हुआ था, जबीक तब तो भाषा भी न थी और इंसान ने बोलना नहीं सीखा था. कथा बार-बार कहती है सातों ने लिंगो को यह कहा, वह कहा. पर संवाद नहीं था. सिर्फ मतलब थे. आवाजों और कहन के अनगढ मतलब. आशय भले यही थे, पर यह किसी और तरह से जतलाया गया था.)

लिंगो ने पुरुष के तीर धनुष को देखा. उसके हाथ से धनुष और तीर ले लिया और तीर को धनुष पर चढ़ाकर उसी तरफ़ निशाना साधे चलने लगा, जिस तरफ़ बेरचे गया था. तीर धनुष पकडने के उसके तरीके पर पुरुष हँस पड़े. मादर बजाते और बाँस की तुरही फूँकते वह बरसों पहले ही तीर चलाना भूल गया था. सातों ने उसे अपने शिकार के समूह से अलग कर दिया था. वे सात इकट्ठा शिकार करने जाते. शिकार के लिए लिंगो को वे भूल चुके थे. उन आदिम दिनों में वे लोग तीर धनुष अलग तरह से चलाते थे. वे उसे कंधे के पास प्रत्यंचा खींचकर नहीं चलाते थे. बल्कि ठीक समाने रखते. दोनों हाथें को तानकर सामने रखते. धनुष को ठीक सामने खींचकर रखते और उसमें तीर फंसाये रहते. 

फिर शिकार की आहट पाकर या नदी में में मछली के ऊपर आने पर उस पर सटाक से एक झटके में छोडते. कभी शिकार के पीछे धनुष को इसी तरह खींचे-खींचे दौडते और सही मौका पाते ही शिकार पर तीर छोडते. तीर छोडते समय खुद भी आगे को लपकते. कुदकर आगे को छलांग लगाते. मानो इस तरह छलांग लगाने से तीर और तेज जायेगा. जबकि ऐसा करने से अक्सर निशाना चूक जाता था. शिकार को मार डालने की उत्तेजना में वे ऐसा करते. पर यह तरीका बन गया था. अभी इंसान को सभ्य होन में हजारों साल बचे थे. तीर धनुष चलाने के तरीके के बदलने में भी हजारों साल लगने थे. लिंगो धनुष को खडा पकडने की बजाय आडा पकडे था, जिसे देखकर सब हँस पडे थे. पर लिंगो को कोई अंतर न पडा. वह बेरचे के पीछे उसी तरह तीर धनुष ताने दौड पडा.  

तब तक दूसरे पुरुष भी आ गये. सब लिंगो के पीछे चल दिये. उन्होंने लिंगो का खूब मज़ाक बनाया. लिंगो मन ही मन गुस्से में था.  रहवास के सामने चट्टान रखने वाली बात और फिर उस चट्टान को हटाने के समय हुए बवाल वाली बात जो उसे औरतों ने बताई थीको जानकर वह गुस्से से भर गया था. वह यह मानता था कि उन औरतों पर उन पुरुषों से ज्यादा उसका अधिकार है. वह उन औरतों को अपना जानता था. सारा दिन वे उसके साथ रहती थीं, उसके साथ नाचती गाती थीं, उससे प्यार करती थीं. वे उसकी ही थीं. पर वह जानता था, कि पुरुष सात हैं और वह अकेला. उन दिनों यह चेतना थी, कि किससे लडा जा सकता है और किससे नहीं. यह इस बात पर निर्भर करता था कि कौन शक्तिशाली है और कौन नहीं. पुरुष लिंगो को चिढा रहे थे. 

उस पर हँस रहे थे. लिंगो का गुस्सा और बढ रहा था. पर चूँकी वह लड नहीं सकता था सो उसे किसी और तरह से प्रतिकार करना था. एकबारगी उसने सोचा कि आज वह दिखा देगा कि वह भी शिकार कर सकता है. उसे पुरुषों के ताने और हँसी सुनाई दे रही थी और वह तीर धनुष ताने बेरछे के पीछे भागा जा रहा था. पुरुष उसके पीछे भाग रहे थे. वह एकबारगी उस बेरछे को मारकर टुकडे-टुकडे कर देना चाहता था. पर वह झाडियों में छिपकर भागता हुआ, घास के मैदान में आ गया था और सरपट भागा जा रहा था. क्रोध के मारे लिंगो के हाथ काँप रहे थे. उसने दो तीन बार तीर छोडा जो सटाक से जमीन से टकराकर खडा हो गया. तभी वह बेरचे झाड़ियों में दुबकता हुआ दिखा. लिंगो ने फिर उसी तरफ तानकर तीन मारा. तीर ज़मीन में जाकर गड़ गया. बेरचे भाग गया.

पुरुष जोर से हँस पडे. लिंगो बेरचे के पीछे सरपट दौड़ा. बेरचे झाड़-झंखाड़, पत्थर, टीला... सरपटाता, कूदता-फांदता भागता गया और लिंगो उसके पीछे-पीछे दौड़ता गया. लिंगो के पीछे हाँफते-दौड़ते पुरुष दौड़ रहे थे. उन पुरुषों ने लिंगो को मारने की योजना बनाई थी. बेरचे के पीछे दौड़ते लिंगो को पता नहीं था कि वह एक संकट में फँसता जा रहा है. वह गुस्से के मारे दौडता जा रहा था. आदिम दुनिया में हत्या एक आम बात थी. वे इसी तरह समझते थे , कि अगर कोई जानवर हल्ला करे तो उसे तीर मार दो. अगर कोई इंसान बेहूदगी करे तो उसे खत्म कर दो. बस वे इतना समझ गये थे, कि लिंगो को औरतों के सामने मारना ठीक नहीं है. वे जानते थे, उनकी आदिम चेतना समझती थी, कि अगर कोई किसी से प्यार करता है, तो उसे उसके सामने नहीं मारा जा सकता है. इसलिए यह युक्ति बनाई गई. युक्ति भी क्या थी, बस एक सरल सा बहाना था, कि किस तरह लिंगो को औरतों से दूर रखा जाय और मौका ताडते ही मार दिया जाय.

बेरछे बीजा के एक पेड़ पर चढ़ गया. उसके पीछे-पीछे पीठ पर तीर धनुष लटकाये लिंगो भी बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ गया. उन दिनों पेड पर चढना आसान था. हर कोई बंदर की तरह पेड पर चढ जाता था. पेड़ बहुत ऊँचा और घना था. इतना ऊँचा कि वहाँ से दूर के पहाड़ और नदियाँ भी दिखाई देती थीं. इतना ऊँचा कि पंछी उस पेड़ के नीचे तक ही उड़कर आ पाते थे. यह भी बताया गया कि वह इतना ऊँचा था कि उसका ऊपरी हिस्सा बादलों से भी ऊपर था. हो सकता है इसका कोई मतलब हो. पेड को इतना ऊँचा बताने का कोई मतलब. कोई निष्कर्ष निकलता हो. जैसे नूह की नाव और मनु की नाव वाली कहानी से यह निष्कर्ष निकला कि मध्य एशिया में जिस जगह आर्य लोग रहते थे वहाँ कभी कोई बाढ आई होगी और इस तरह एक साथ एशिया माइनर और भारत के सप्त सैंधव के इलाकों में एक सी कथा सुनाई दी. ऐसा ही कोई सरल सा अर्थ होगा, उस पेड के इतना बडे होने में कि वह बादलों के पार तक ऊँचा उठा था......दण्डामी माझी उस पेड के बारे में बताते हुए कोई माडिया गीत गाता है. उसका कोई मतलब है, जो समझ नहीं आता. झूठ का गीत....जो किसी बेखयाली में आया होगा, क्रमबद्ध और बेचैन, इस तरह इस कथा में जुडा होगा....दण्डामी माझी एक सी लय में गाता है, एक शब्दों को बार-बार दुहराता है, जो लोग उसके गीत को समझते हैं, मानते हैं कि पेड सचमुच इतना ऊँचा रहा होगा कि वह बदलों के पार हो गया..... भागते बेरछे के पीछे भागते लिंगो की इस कथा में इतिहास का कोई तथ्य है और इस तरह वह पेड इतना ऊँचा है कि वह बादलों को भेदकर आकाश तक है. यह सिर्फ कल्पना भर नहीं. जैसे मनु की नाव सिर्फ कल्पना भर नहीं. जैसे दण्डामी माझी का गीत जो समझ नहीं आता, समय के किसी ठहराव पर वह कथा से इस तरह जुड गया कि उसका हिस्सा हो गया है.

बेरछे पेड पर चढता गया. सरपट, बेतहाशा. उसके पीछे लिंगो भी पेड पर चढ गया. पेड के तने पर अपने दोनों पैर मोडकर उकडू, दोनों हाथों से बीजा के पेड के तने को थामे वह कूदता सा ऊपर चढता गया. हर कूद के साथ ऊपर उठता हुआ. बेरछे इतना ऊपर चला गया कि वह दीखता न था. वह वहाँ तक पहुँच गया था जहाँ से जमीन पर खडे पुरुष चींटी जैसे छोटे-छोटे दीख रहे थे और लिंगो अभी बहुत नीचे था, वह तने को पकडे उस पर कूदता सा ऊपर चढा आ रहा था. पुरुष नीचे खडे थे. यही मौका था. एक ऐसा समय जब लिंगो को खत्म किया जा सकता था. उन्होंने उसी तरफ तीर चलाये जिस तरफ लिंगो पेड में घुसा था. पर उनका अंदाज गलत था. सरपट कूदता सा ऊपर चढता लिंगो बहुत ऊपर जा चुका था. वे अंदाज से ताबडतोड तीर मार रहे थे. ज्यादातर तीर बीजा के पेड के तने में घुस गये. तीरों के वार से तने की छाल उधड गई. डालियाँ टूट गईं. 

कुछ जगहों पर तने के खरपच्चे उड गये. तने पर जगह-जगह से बीजा का लाख और रस बहने लगा. गहरे लाल रंग का यह रस बहकर तने के सहारे नीचे आने लगा. बीजा का रक्ताभ द्रव पहले तो बहुत धीरे-धीरे बह रहा था. पर फिर उसकी कई सारी धारें तने पर बहने लगीं. द्रव्य बहकर पेड़ के तने के सहारे-सहारे नीचे तक आने लगा. पेड का तना लाल द्रव से नहा गया.उस रक्ताभ द्रव को देखकर लिंगो के सातों भाई खुश हुए और उछलते-कूदते चले गये.                                   




(तीन)
पुरुषों ने घर में जश्न मनाया. औरतें उदास थीं. औरतों की आँखों में खुश होते पुरुष का एक ही दृश्य था. अक्सर कई दिनों के बाद, अपने कंधे पर लकडी के लट्ठे से लटकाये किसी मरे हुए शिकार को लेकर, सुबह, दोपहर, शाम या रात , कभी भी वे जब आते थे, तब वे अजीब-अजीब आवाजें बनाते हंसते-मुस्कुराते थे. वे आज भी हंस-मुस्कुरा रहे थे, पर कहीं कोई शिकार नहीं था. लिंगो नहीं लौटा था. औरतें लिंगों को बाहर तक देख आईं. वह नहीं था. पुरुषों ने लिंगो के रहवास को तोड दिया. उसकी छानी और लकडी को उखाडकर फेंक दिया. औरतें दूर से यह सब देखती रहीं. 

लिंगो बेरछे को ढूँढ़ता रहा. पर बेरछे बादलों के पार पेड की सबसे ऊपर की फुनगी से थोडा नीचे पत्तों के झुरमुट में छिपा था. मेरे एक मित्र का मानना है कि पेड इसलिए बडा था क्योंकी लिंगो देवता माना गया और फिर भी वह बेरछे को नहीं मार पाया था, इसलिए पेड को इतना ऊँचा बताया गया. हो सकता है यह जंगल के लोगों का लिंगो से प्यार हो कि वे उसके हार की कोई वाजिब वहज गढना चाहते हों. क्योंकी जिसने संगीत ढूँढा, जीवन को एक नया मायने दिया वह इतना कमजोर कि एक बेरछे को नहीं पकड पाया. उसकी हार सिर्फ उसकी हर भी नहीं, वह सबकी हार है. अगर वह नहीं कर पाया तो इसकी कोई वजह होगी ही. तभी वह पेड इतना बडा था, कि फिर कभी नहीं हुआ, सिर्फ इस कथा के अलावा.

पेड से उतरते समय उसने तनों पर गडे असँख्य तीरों को देखा. टूटी डालियों, उधडे तनों, लटकती छालों, पत्तों के झुरमुटों में फंसे कई तीरों को उसने देखा. तने पर नीचे तक बहते रक्ताभ द्रव को देखा, जो कुछ जगहों पर जमकर चिकना और कडा हो गया था. देर शाम जब वह पेड़ से उतरा तो वहाँ किसी को न पाकर उसे कोई अचरज न हुआ. उसका मन कडवाहट से भर गया. पर वह जुझारु था. एक-एक वाद्य यंत्र को उसने बरसों तक भिडे रहने के बाद बनाया था. लकडी के खोखल पर हिरण का चमडा चढाने में उसे पाँच साल लगे. पहले वह सिर्फ खोखल को हाथ से पीटता था. उसमें से भाँय-भाँय सी आवाज आती थी. फिर एक दिन वह रहवास के सामने से हिरण का चमडा उठा लाया. पुरुषों ने हिरण का शिकार किया था. माँस खाकर खाल फेंक दी थी. 

लिंगो ने उसे उस खोखल पर लपेटकर बाँध दिया. उसी रस्सी से, जो बटी हुई हुई होती थी और जिससे पुरुष लट्ठे पर मरे हुए जानवर को बाँधकर लटकाकर लाते थे. यह रस्सी औरतें बटती थीं. उन दिनों समय को नापने की कोई युक्ति नहीं थी, पर जंगल की कथा में है कि पूरे पाँच साल लगे तो यह मान लेते हैं, कि पाँच साल लगे. वह भिडा रहा. उसने हार नहीं मानी. उसे इस तरह भिडा रहना कभी भी बेतुका नहीं लगा. जब वह हिरण के चमडे को लाया था, तो पुरुषों ने उसे हिकारत से देखा था. मानो वह कोई जंगली जानवर हो. पर उसे कोई अंतर नहीं पडता था. वह आवाज के जादू में था. उसे पता नहीं था कि वह आवाज के जादू में है.

देर रात रहवास के पास आग जलती. जंगल में जब दावानल भडकता पुरुष वहाँ से कोई जलती लकडी ले आते. औरतें कुछ और लकडी इकट्ठा कर उस जलती लकडी की आग को बढा लेतीं. वह आग जलती रहती. सुबह-शाम पूरे समय. उसके बुझने का मतलब था फिर से दावानल का इंतजार ताकि फिर से आग जलाई जा सके. कभी बारिश हो जाती और आग बुझ जाती. औरतें उदास हो जातीं. पुरुष फिर किसी दावानल का इंतजार करते. वे आग के चारों ओर बैठकर माँस पकाते, खाते. लिंगो उनसे बहुत दूर होता. भूखा और जागता हुआ. वह जोर-जोर से कुछ गाता. एक से सुर में गाता. मादर बजाता. अपनी भूख को भुलाने की कोशिश करता. वह भिडा रहता.

लोग आग दावानल से लाते थे, जबकि रहते रहवास में थे. लगता है यह रहवास वाली बात बाद में आई होगी. लट्ठों और टहनियों से बना रहवास आदिम झोंपडियों से पुरानी चीज थी. सभ्यता शायद तब तक इतना नहीं बढी रही होगी. मित्र की बात मानें तो यह दुनिया की सबसे पुरानी कथा है और पच्चीस हजार साल पुरानी है. हो सकता है तब से अब तक आते-आते उसमें बहुत सारी बातें जुड गई हों. फिर इंसान की चेतना भी इतनी सक्षम कहाँ कि वह झूठ को पकड पाये. ऐसी दुनिया की कल्पना कर पाये जिसमें घर, चूल्हा, कपडे कुछ भी न हों, यहाँ तक कि भाषा भी नहीं. 

जब खेती नहीं थी, जब लोग गुफाओं में रहते थे, तब या तो वे शिकार करते थे, सहवास करते थे, खाते थे, सोते थे, गाते थे, नाचते थे और चित्र बनाते थे. वे नग्न थे, पर वे चित्र बनाते थे. वे गुफाओं में रहते थे, पर नाचते थे. वे गाते थे, पर तब भाषा न थी, शब्द भी न थे, पर वे गाते थे.... ऐसे में किसी लिंगो के किये को जान पाना कितना कठिन था. उसकी कथा को वैसा ही बता पाना जैसे यही बताना कि शब्द नहीं थे पर गीत था या यही कि चूल्हा नहीं था, भूख का इंतजाम न था, घर न था, कपडे न थे, ...पर तब भी रंग थे, स्कैच थे, चित्रांकन था. वे आदिम लोग जिन लोगों ने भीमबैठिका, बुर्जहोम....और न जाने दुनिया की कितनी असँख्य गुफाओं में चित्र बनाये, उनमें रंग भरे...उनकी दुनिया देसी ही तो थी. लिंगो की कथा ऐसे ही दौर की कथा है, जब वह सब था जो लगता है शायद नहीं था. इसलिए वह तमाम ऐसी कथाओं से भर गया जो सच नहीं थीं. वह उन स्मृतियों की गिरफ्त में आ गया जो उसकी दुनिया को समझने में नाकाबिल थीं. लिंगो की कथा ऐसी ही नाकाबिल स्मृतियों से भर गई लगता है.

वह पूरी रात चलता रहा. अगली सुबह वह फिर उस जंगली रहवास के पास पहुँच गया, जो अब ध्वस्त कर दिया गया था. उस ध्वस्त रहवास के पास वह उकडू बैठ गया. यह पक्का था कि वह लड नहीं सकता था. वे सात थे और वह अकेला. अब उसे लडना निरर्थक लग रहा था. उसे गाने-बजाने का मन कर रहा था. उसे अभी और गाना बजाना था और इस तरह उसे लडने का खयाल बेतुका लग रहा था. मामला सिर्फ सात विरुद्ध एक का भर नहीं था. वह जीना चाहता था. क्योंकि उसे गाना था, उसे आवाजों से खेलना था. उसे लगा वह इस सबसे कहीं दूर चला जाये, कहीं जहाँ कोई न हो. वह औरतों को भी छोड देगा. गाने बजाने के लिए वह सबकुछ छोड सकता है. उसे ज़िन्दा आता देख पुरुषों को घोर अचरज हुआ. औरतें भी अचरज में पड गईं. 

औरतों को पता चल गया था कि पुरुषों ने उसे मार दिया है. एक औरत यह जानकर खूब रोई कि वह मर गया है. कुछ और औरतें उदास हो गईं. पर उसको वापस आता देखकर वे सब एक किस्म के आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से चहक उठीं. पता नहीं कैसे, पर कहते हैं कि औरतें पुरुषों को यह समझा पाईं कि लिंगो को मारना ठीक नहीं है.  अगर उसका संगीत छुड़ाना है और स्त्रियों से उसके संसर्ग पर लगाम लगानी है तो इसका एक और तरीका है. वह यह कि लिंगो के लिए भी एक स्त्री ले आई जाये. स्त्री, जो सिर्फ़ लिंगो की स्त्री हो. जैसे पुरुष अपनी-अपनी स्त्रियों पर दावा करते हैं, उसी तरह एक स्त्री पर लिंगो का दावा हो. पुरुषों की घबराहट तब तक कम हो चुकी थी. वे यह भी मान चुके थे कि लिंगो शिकार कर सकता है. बेरछे के पीछे दौडते और तीर चलाते लिंगो को देखकर वे यकीन करने लगे कि वह बेहतरीन शिकारी हो सकता है. रोज के खाने के जुगाड़ में उसकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. औरतें शायद ठीक कहती हैं कि, उसे मारना ठीक नहीं. जो लाभदायक हो उसे क्यों मारना?





(चार)
लिंगो के लिए एक औरत लाई गई. वह दूर पार कहीं कुछ और लोगों के साथ रहती थी. पुरुष उसे लिंगो के लिए ले आये थे. जबरदस्ती लाये थे. उन्हें पता था वहाँ दूर कुछ लोग रहते हैं. वे वहीं भटकते रहे थे और एक दिन उन्हें वह औरत वहाँ मिल गई थी. थोडा समय लगा पर फिर वह औरत लिंगो के साथ रहने लगी. कुछ दिनों बाद वह लिंगो के साथ घूमती. उसका गाना बजाना सुनती. फिर वह भी कुछ-कुछ गाने बजाने लगी. लिंगो कभी शिकार पर नहीं गया. पुरुषों की उम्मीद पर उसने पानी फेर दिया. शिकार के पीछे कूदते-फांदते लिंगो को देखकर पुरुष उत्साह से भर गये थे. वे लिंगो को शिकार पर चलने के लिए बार-बार कहते. पर वह नहीं गया. कहानी फिर वहीं पहुँचकर अटक गई. वही गाना बजाना, वही तफरी. वही दुनिया के बिगडने का खतरा. वही औरतो का भटकना. फिर से पुरुषों ने लिंगो से मुक्ति पाने की तरकीब सोची. वे यह जानते थे कि अगर उन्होने लिंगो की औरत को भगा दिया तो उसे भी भागना पडेगा. पुरुषों ने एक दिन औरतो से कह दिया कह दिया कि लिंगो की औरत एक जादूगरनी है. एक टोनही.

लिंगो की औरत को बेदखल कर दिया गया. लिंगो भी उसके साथ बेदखल हो गया. जब वे दोनों जा रहे थे, तब पुरुष उन पर खूब हँसे. इस बार औरतें भी लिंगो के साथ नहीं थी. लिंगो अब उनकी ओर ध्यान न देता था, बल्कि उसे अब अपनी औरत ही सबसे प्यारी लगती थी. फिर उसे यह भी भान था कि इन औरतों के कारण ही पुरुषों ने उसकी हत्या की योजना बनाई थी. वह किसी भी झंझट में नहीं पडना चाहता था. इसलिए भी वह अपनी औरत के साथ ही रहता था. जब उसकी औरत के टोनही होने वाली बात पुरुषों ने फैलाई तो औरतों ने भी उनका साथ दिया. वे भी चाहती थीं कि वे सब वहाँ से चले जायें. लिंगो की औरत आगे-आगे थी और लिंगो उसके पीछे. पुरुष लिंगो पर हँसे. लिंगो पहला पुरुष था, जो अपनी औरत के बेदखल होने से बेदखल हुआ था. जो अपनी डायन से प्यार करता था.

पुरुष जानते थे कि दोनों जंगल में भटक-भटक कर एक दिन खत्म हो जायेंगे. जो शिकार नहीं करता उसका खत्म होना तय है. जो भटकता है, जो खोजता है, जो फितूरी है, जो कुछ नया और अबूझ करता है, जो दीवानों की तरह किसी अदेखे- अनजाने काम में लगा रहता है, जो आवाज और धुन का दीवाना है, औरतें जिसकी दीवानी है, जो जाने किस चीज का तो दीवाना है....उसका खत्म होना तय है. पर फिर भी उन्होंने जाते वक्त उसे लोहे की धातु का एक यूआकार का टुकड़ा दे दिया. पर लगता है यह टुकडा उन्होंने नहीं दिया होगा. क्योंकी जिस दौर में आग भी जंगल से लाई जाती थी उस दौर में लोहा कहाँ होता होगा. कुछ लोग यह भी कहते हैं, कि लोहे का यह टुकडा उसे जंगल के बाहर मिला था. वहाँ सभ्यता थोडा आग बढ चुकी थी. पूरे दस हजार साल से भी ज्यादा आगे. याने जंगल के भीतर और जंगल के बाहर पूरे दस हजार सालों का अंतर था. बाहर के लोग खेती जान चुके थे और लोहे से परिचित थे. तो यह उसे वहीं मिला था, जंगल के बाहर किसी खेत के पास. आज के बस्तर के जनजातीय समाज में यह मोहरकहलाता है. इसी पर लोहे का हल टिकता है. यह धुरी की तरह है. लिंगो को तो शिकार का ही ठीक-ठीक पता नहीं था. वह भला मोहर का क्या करता ? पर उसे पाकर वह चमत्कृत था. उसने इससे पहले ऐसी कोई चीज न देखी थी.

लिंगो और औरत जंगल में भटकते रहे. बहुत से खरहे, हिरण, तीतर, बटेर... उनके सामने से दौड़कर निकलते, लिंगो और औरत उसे पकड़ने को लपकते. लिंगो तीर से निशाना साधता. पर उसका निशाना न लगता. उस दिन भी अगर वह गुस्से से भरा हुआ न होता तो बेरछे के शिकार का वह कौशल न दिखा पाता. वह उसकी क्षमता न थी, बल्कि सिर्फ एक उत्तेजना थी कि वह बेरछे के पीछे भागा गया. वह कभी शिकार कर ही नहीं सकता था. जब भूख सताती लिंगो किसी जंगली जानवर को पकड़ने तीर धनुष छोड बेतहाशा दौड़ता. पर परिणाम सिफ़र. लिंगो और औरत भूखे पेट जानवरों को पकड़ने दौड़ते. उन्होंने पत्ते खाये और कुछ कन्द भी, जिन्हें औरत जानती थी. औरत को कुछ अनाज का भी पता था, जो घास के साथ उगता था और जिसके बीज झाडकर खाया जा सकता था. तब सागौन और बीजा के उस घनघोर जंगल में मांस के अलावा कुछ और था भी नहीं खाने को. सैंकड़ों बरसों बाद इंसान ने महुआ, तेंदू और इमली को खूब लगाया, ताड़ी, सल्फ़ी और छिन्द के पेड़ उगाये. पर उस समय कुछ भी तो नहीं था. वे कई दिनों तक भूखे भटकते रहे और फिर एक दिन जंगल के बाहर फैले एक मैदान में निकल आये.  




(पांच)
वह एक अगल दुनिया थी. जंगल के बाहर की दुनिया. वहाँ झोंपडियाँ थीं. ऐसे रहवास उन दोनों ने कभी नहीं देखे थे. जंगल में छिपकर वे यह सब देखते रहे थे. झोपडियों के चारों ओर खेत थे, मैदान थे. ये खेत और मैदान जंगल को काटकर, साफ कर वहाँ रहने वाले लोगों ने तैय्यार किये थे, जो जंगल के लोगों से बहुत दूर उस बाहरी दुनिया में रहते थे और जहाँ कई दिनों से भटकते वे दोनों निकल आये थे. उस मैदान के इर्द-गिर्द वलेकके पेड़ थे. वलेक याने सेमल. चारों ओर सेमल के पेड. एक गोलाई में उगे हुए. उनके बीच एक विशाल खाली जगह थी. एक रात वे जंगल से बाहर निकलकर उस मैदान तक आ गये. वहाँ अन्न निकालने के बाद पड़े पुआल का ढेर था. वे पुआल के ढेर के पीछे छिप गये. पुआल में कहीं-कहीं कुछ अन्न के दाने लटक रहे थे. लिंगो की औरत को पता था, कि इस पुआल में दाने होते हैं. घास के साथ उग आने वाले इस पौधे को वह जानती थी. जो बरसात के पहले उगता था और ठण्ड आते-आते पक जाता था. दूधिया सा इसका बीज खाने में स्वादिष्ट था. तब उसका कोई नाम नहीं था, बाहर की दुनिया में उसे धान कहा गया बहुत बाद में, बहुत बहुत बाद में. 
 
तभी एक आदमी वहाँ आ गया. उसे देख वे दोनों थोडा डर गये. पर भूख बहुत तेज थी. उसने उस बाहरी आदमी से पूछा. उसे नहीं पता था कि उस बाहरी आदमी को बाहर की दुनिया में किसान कहते हैं. उसे किसान के बारे में नहीं पता था, किसान ही क्या उसे तो खेती के बारे में भी नहीं पता था. उसने किसान से पूछा कि क्या वह उस अन्न के दानों को निकाल सकता है. किसान उसकी बात समझ नहीं पा रहा था. पर जब कुछ समझ आया तो उसने अपनी गरदन हिला दी. मतलब हाँ. लिंगो उस मोहरसे उस पैरे के ढेर को पीटने लगा. भूख से बेहाल स्त्री उससे कुछ दूर ज़मीन पर निढाल होकर बैठी थी. वह अपनी औरत को देखता और उतनी ही जोर से पैरे की ढेर पर मोहरको मारता. अन्न के दाने टूट-टूटकर गिरने लगे. वे झड़ते गये, लगातार. 

इतना झड़े कि अनाज का एक ढेर सा लग गया. किसान अचरज में था. उसने पहली बार देखा था कि कोई इतना अनाज भी निकाल सकता है, वह भी सूख गये पैरे से. कहानी में यूँ है कि अन्न के दानों को पता था, कि यह लिंगो है और यह मुहर है. कि इससे खेती होगी. कि इससे ही भूख का नाश होगा, इसलिए वे खूब झडे इतना कि किसान की आँखें अचरज से फैल गईं. दण्डामी माझी जब कथा के इस भाग को कहता है, तो जोर-जोर से कहता है, हर शब्द पर जोर देता. पर अब हम जानते हैं, कि यह ठीक-ठीक ऐसा नहीं हुआ था. वहाँ भूख थी, वहाँ खेती की चेतना नहीं थी, वहाँ अनाज को पा लेने की भयावह आतुरता थी....वह जादुई नहीं था, वह बहुत कठिन और दारुण था.

लिंगो और स्त्री ने वह अनाज खाया. चारों ओर गहन अँधेरा था. दूर एक किसान बैठा उनको देख रहा था. वह खुश था. वह अचरज में था. उसे यकीन नही नहीं हुआ, कि धातु के एक टुकड़े से इतना अनाज झर सकता है. कथा में कहा गया है कि, उसने बड़े आत्मीय और सम्मान के भाव से लिंगो को देखा. उसने अचरज से जरुर देखा था. उसे वे किसी दूसरी दुनिया के बेहद अलग लोग लगे थे, जो लगातार पैरे को पीटकर अनाज झडा सकते थे. किसान को भूख का तो पता था, पर ऐसी किसी अनिश्चित भूख का पता न था, जिसके बुझने का कोई समय तय न हो....जो कई-कई दिनों तक चले....जो बेहद आदिम युग में थी, किसी दीवानगी में, धुन और लय की दीवानगी के साथ जिस भूख ने पसराये थे अपने पैर...शिकार पर न जाने सदिच्छा और जिद ने जिस भूख को पैदा किया...जो अज्ञात थी, अबूझ सी, जिसका कोई इतिहास नहीं हुआ...जिसकी कथा में जुडती गयी अज्ञान से भरी स्मृतियाँ, झूठ के आख्यान....जिस पर लिखे गये असत्य भाष्य...जो उपजी थी आवाजों को तरतीब देने के असह्य लालच में...जो नकार थी इंसान के तारतम्य से भरी जिंदगी का.... फिर कहीं ऐसी भी भूख....ऐसी भूख जिसके लिए कोई चूल्हा नहीं होता. कोई खेत नहीं होता. ऐसी भूख जिसके लिए कहीं कोई रोटी नहीं होती. 

अनाज नहीं होता. दस हजार साल पीछे छूट चुकी भूख, जिसकी कोई तरतीब नहीं, कोई इबारत नहीं, कोई किस्सा नहीं....जो जंगलों में जानवरों से लडते-भिडते इंसानों के पुरखों ने गुजारी, कभी खुद शिकार बनते और कभी शिकार करते. जंगल की कितनी पुरानी भूख, जो हमारे पुरखों के चेतना में थी. इतिहास के गर्त में... 

बस्तर में एक गाँव है, जिसका नाम है सेमर गाँव. वहाँ जंगल खत्म होता है. सेमल के छितर पेड़ों का एक विशाल जंगल है. उस जंगल के बीच एक खाली छूटी जगह है. उसमें दूर तक फैले कुछ खेत हैं. कुछ बहुत पुराने खेत. कहते हैं लिंगो इसी जगह पर आया था और उसने अपनी डायन औरत के साथ भूख मिटाई थी.

बरसों बाद जंगल के लोगों को लिंगो का पता चला. पता चला कि उसने अब गाना बजाना छोड सा दिया है. वह अब नया कुछ करना चाहता है. कहते हैं वह घास के पौधों से अन्न झडाता रहता है. उसके पास कुछ है, कुछ अजीब सी चीज जिसे वह सूखे घास के ढेर पर मारता है. वह बहुत से ऐसे पौधे उगाना चाहता है जिसमें से अनाज झरता है. पर कैसे ? वह नहीं जानता. उसने बाहर की उस दुनिया में देखा था, कि वे पौधे एक साथ एक जगह पर उगे थे. वह आदमी उनकी ओर इशारा करके उसे खेतकह रहा था. वह जानना चाहता था, कि कैसे खेत बनता है ? कैसे उगते हैं पौधे एक साथ ? पर उसे नहीं पता था, कि उसके और उस आदमी के बीच दस हजार साल का अंतर था, वह उसकी बात नहीं समझ सकता था और वह उसकी दुनिया पर अचंभित होने के अलावा कुछ और नहीं सोच सकता था. 

कुछ दिनों बाद लिंगो वापस आ गया. कई दिनों की बहुत लंबी यात्रा के बाद. उसी जगह जहाँ से वह चला था. मालूम हुआ अब सिर्फ पाँच पुरुष ही रह गये थे. दो को जंगली जानवर खा गये थे. एक औरत बीमार हो गई थी. वह रात दिन गाना गाती और जमीन पर लकडी पीट-पीटकर ताल देती. पाँचों पुरुषों ने पाया कि लिंगो उस डायन औरत को बहुत प्यार करता है. उन्होंने कहा कि उस डायन का जादू अब लिंगो के शरीर में उतर आया है. अभी एक औरत बीमार हुई है कल को सारी औरतें बीमार हो जायेंगी. लिंगो के भाइयों ने औरतों को बताया था, कि जिस पुरुष में स्त्री का टोनहा आ जाये वह पूरे जंगल, पूरे आकाश का संहार कर सकता है. वह नई सृष्टि गढ सकता है. वह सर्वनाश कर सकता है. वे लिंगो को खत्म कर देना चाहते थे. उनके अनुसार वह अब सारी दुनिया के लिए खतरा बन गया था.

'एक काले आकाश के नीचे लेटी डायन औरत उदास थी. उन दिनों आकाश में तारे न थे. आकाश काला था, पिनट काला, बेरौनक और बेरौशनी. लिंगो ने उसके लिए एक चाँद बना दिया, जो अक्सर रात उस डायन औरत के चाहने पर आकाश में उतर आता. उसने बहुत से तारे बनाये और उनको आकाश में छोड दिया.

दण्डामी माझी लगातार कह रहा था. मुझे लगा मुझे उसे टोकना चाहिए. बताना चाहिए कि मूल कथा बदल दी गई है. बहुत पहले ही. इस तरह कि पता भी नहीं चलता कि वह लिंगो की ही कथा.

चाँद तारे बनने की कहानी अलग है. वह यह कहानी नहीं है.
मैंने एकदम से कहा था. दण्डामी चुप हो गया. दो और लोग भी वहाँ थे, वे मुझे घूरने लगे. दण्डामी चुप रहा फिर धीरे से कहने लगा.

 ‘.....जो नई बात करता है, वही गढता है वही बनाता है, वह भूख पर भी शिकार को नहीं जा पाता, वह बनाता रहता है और इस तरह दुनिया बनती है. हम पढे लिखे नहीं हैं, इसलिए नहीं मानते कि जिसने आग ढूँढी, संगीत ढूँढा, खेती ढूँढी....उसके अलावा कोई और है जिसने दुनिया को बनाया. यह जो दुनिया है, यह लिंगो की है, क्योंकी उसने इसकी शुरुआत की....... आप यकीन करो यह चाँद-तारे उसी ने बनाये .’ 

मुझे लगा कि कभी दण्डामी को बताऊँगा, सत्य और असत्य के भेद को...प्रक्षप्तियों के झूठ को, टीकाओं के छल को...उस असत्य को जो भरमाता है यादों को, गढता है बेतुकी स्मृतियाँ...कभी बताऊँगा चाँद-तारे बनने के सच्चे किस्से को...बिग-बैंग को...आज के विकास के कौतुहल को. पर यह तो जंगल में रहता है. इसके गाँव तक कोई रास्ता नहीं आता. अबूझमाड के धुर अंतरतम में, दुनिया से बेवफा, जहाँ इंतजार भी बेमानी है, ‘आसएक खत्म हो चुकी दुनिया का शब्द है जहाँ...वहाँ खुद से इतना आश्वस्त और संजीदा...

 इसे कैसे समझाऊँगा कि एक दुनिया है, बहुत आगे बढ चुकी दुनिया, जो नहीं मानती कि जो पहला है, भूख और जीवन से जुदा...भटकता है अपनी धुन में पागलों की तरह, ढूँढ लाने कोई नई बात, कोई नई धुन...वही रचयिता है एक नई सृष्टि का, नहीं मानती कि जिसने ढूँढा उसने ही शुरुआत की....अंततः उसी ने.... अबूझमाड के इस बियाबान में तुम्हारी यह सोच कितनी तो अकेली है दण्डामी. यह खयाल, यह स्वप्न कितना तो जुदा है.... तुम किस दुनिया के बाशिंदे हो दण्डामी ? क्या तुम्हें नहीं लगता कि लिंगो की इस कथा के साथ तुम अकेले छूट गये हो ? इस निर्जन बियाबान में बिल्कुल अकेले. जब उस अकेले, हम दो चार लोगों को वह सुनाते हो अपनी छाती पर हाथ रख, किसी गीत से बताते हो उस झूठ के मर्म को, उस खयाल को, उस स्वप्न को जो आता रहा होगा पुरखों के युग से एक सा...तब लगता है पता नहीं कितने लोग होंगे जो जान पायें तुमको....

 ‘...जब वह गाता, तब बारिश होती. भरी गर्मी में महुआ के फूल बेतरह टपक-टपक कर पानी में गिरते. उसमें सड़ते और एक अजीब-सी मदमस्त खुशबु जंगल-जंगल दौड़ती. लिंगो और औरत सड़े महुआ का वह पानी पीते. छककर. नशे में निढाल वे रात-दिन नाचते, उत्सव मनाते, संभोग करते. उन्हें नहीं पता था, कि बरसों बाद दुनिया इस पेय को एक नाम देगी... शराबऔर उसे पता भी नहीं होगा कि, एक लिंगो था और एक उसकी स्त्री.

दण्डामी डूबकर कहता है. मानो पहली बार कह रहा हो, मानो हर बार यह कहानी बदल जाती हो. वह कहता है कि सिर्फ लिंगो ने गढी यह दुनिया. भले लोग न मानें, न जानें पर वह लिंगो ही था. मैं उससे पूछना चाहता हूँ कि क्या वह ईश्वर के बारे में जानता है ? या यही कि क्या वह उसके बारे में जानना चाहता है ? क्या वह कुछ और जानना चाहता है, इस बारे में कि यह दुनिया कैसे बनी ? जैसे यही कि ग्रीस में कोई ज्युपिटर था, हमारे यहाँ ब्रम्हा, कि कोई रा था इजिप्ट में... लाखों दावे, लाखों किस्से कि किसने बनाई दुनिया...क्या वह जानना चहता है ?

फिर एक दिन लिंगो को उन पुरुषों ने पकड़ लिया. लिंगो रोज कुछ न कुछ नया बनाता जा रहा था. वे मानते थे कि जो नया बनाता है, वह अनुपयुक्त है. जो नई बात करता है वह घातक है. जो नया सोचता है, नया ढूँढता है दुनिया को उसकी जरुरत नहीं. जिस तरह संगीत को खोजकर उसने उनकी दुनिया में संकट पैदा किये वैसे ही और उससे भी भयानक संकट वह पैदा कर सकता है. वह खोज सकता है कोई नया स्वप्न, बोलने-बतियाने का कोई नया तरीका, कोई कविता, कोई अनहोनी सी वस्तु, वह सोच  सकता है आकाश में उडने के बारे में, समुद्र में बहुत गहरे उतरने के बारे में, वह सोच सकता है चाँद पर जाने के बारे में....दुनिया के लिए कितना तो बेतुका होगा ऐसा इंसान. वे सोचते रहे हजारों बरसों तक. इस तरह वे पाँचों लिंगो को सृष्टि का विनाश्कर्ता मानते थे. एक दिन उन्हें लिंगो मिल गया. डरे घबराये उन पाँचों ने लिंगो को पकड लिया. उसको आग में जला दिया.

 ‘...जंगल में जो आग जलती है, उसमें से आज भी अठारह वाद्य यंत्रों की आवाज़ सुनाई देती है. उसमें हवा की सरसराहट और सीटी से अपना गला मिलाती एक धुन सुनाई देती है. उसमें प्यार की एक लय है. उस आग से शराब की एक मादक गंध उठती है, आज भी.

दण्डामी कहता है. अटकता हुआ. संभलता हुआ. चुप होता हुआ. वह नहीं जानता अबूझमाड में होने का मतलब. उसे नहीं वास्ता अकेले पड जाने की किसी बात से. कभी कुछ लोग आते हैं. कई-कई महीनों के बाद. कभी कोई उससे किस्सा सुनना चाहता है. कभी उसका मन होता है. कभी उसका मन नहीं होता है. कभी वह सुनाता है. कभी वह सुनने आने वालों को भगा देता है. उसे यकीन है. अबूझमाड की निपट निर्जनता और अकेलेपन के बाद भी, घने बियाबान में खुद को कभी बेहद अनजान और बेतुका महसूस करने के बाद भी....कि वह सही है, बाकी सब गलत.

उसे यह बताना आसान नहीं कि बहुत पहले कभी बस्तर में आया था वारंगल का राजा. वह अपने साथ बहुत से देवी-देवता लाया था. धीरे-धीरे वे देवी-देवता ही मान लिये गये. बीतते इतिहास के साथ-साथ जंगल के देवता हारते गये. उनके किस्से मिथकों में बदल गये. उनका सच एक आदिम गप्प हो गया.   
(यह कहानी राकेश बिहारी द्वारा संपादित रचना समय - २०१६ में प्रकाशित है. आभार  के साथ)     
_________   
तरुण भटनागर
३५, रासकोर्स रोड, ग्वालियर, मध्यप्रदेश    
tarun_bhatnagar2006@hotmail.com                                                                                     

पिंक : तू खुद की खोज में निकल : जय कौशल

$
0
0




















निर्माता शूजीत सरकार और निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की फ़िल्म ‘पिंक’ खूब पसंद की जा रही है. यह कहानी दिल्ली में किराए पर रहने वाली तीन कामकाजी लड़कियों मीनल अरोड़ा (तापसी पन्नू), फलक अली (कीर्ति कुल्हाड़ी) एंड्रिया तेरियांग (एंड्रिया तेरियांग) की है जो पुरुषवादी मानसकिता का शिकार बनती हैं और जिनका केस अमिताभ बच्चन कोर्ट में लड़ते हैं. 
इस फ़िल्म में तनवीर गाज़ी की कविता अमिताभ की आवाज़ में बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है.
जय कौशल की टिप्पणी.  



क्यों देखनी चाहिए ’पिंक’                               

जय कौशल





यों बात बहुत पीछे से शुरू की जा सकती है, पर चलिए एक ताज़ा उदाहरण से कहतेहैं. 2007 में एक फ़िल्म आई थी 'जब वी मेट'. उस फिल्म में रेलवे कास्टेशन-मास्टर नायिका करीना कपूर से कहता है, ‘अकेली लड़की खुली तिजोरी कीतरह होती है.हालांकि नायिका द्वारा तब उस फ़िल्म में एक पुरुष द्वारा कहेगए स्त्री-विरोधी, पूर्वाग्रही, सामंती वाक्य का वैसा विरोध नज़र नहीं आयाथा. हम जैसे बहुत-से पढ़े-लिखे दर्शकों को भी तब वह चमत्कारिकवाक्य सुनकरबहुत हँसी आई थी. बख़ैर, अब 2016 में एक फ़िल्म आई है- पिंक. 7-8 साल होनेको आए, इस बीच सौम्या’, ‘निर्भया’, ‘डेल्टाबहुत कुछ हो गुजरा, अनेककानून भी आए, पर हमारे समाज की मान्यताएँ अभी भी कमोबेश वही की वही हैं.अकेली लड़की को खुली तिजोरी मानने वाली’, ‘उसके इन्कार को इकरार समझनेवालीस्त्री-विरोधी’, ‘पूर्वाग्रहीऔर सामंती. पिंकएक ऐसी फ़िल्महै, जो इन सारी कुमान्यताओं पर दनादन हथौड़े मारती है. 

यहाँ स्त्री द्वारानाकहने का मतलब अपने अभिधार्थ में नाही है, बिना रत्ती भर लक्षणा औरव्यंजना की गुंजाइश के. उनका हँसना-बोलना, कपड़े, डांस-म्यूजिक पीना-पिलानासब नॉर्मल व्यवहार के हिस्से हैं, मर्दों के लिए संकेतनहीं, प्लीज! अमिताभ बच्चन द्वारा वकील के रूप में जज के सामने दिया गया फ़िल्म का लगभग अंतिम डायलॉग कि, NO! No your honour! My client said no!नो एक शब्द नहीं है. एक वाक्य है.नो का मतलब नहीं होता है, फिर चाहें वो आपकी दोस्त हो, गर्ल फ्रेंड हो, कोईसेक्स वर्कर हो या आपकी बीवी ही क्यों न हो.’ हमारे आत्म-मंथन के लिए एक जरूरी वाक्य है. 

एकसमय था, जब फ़िल्मों में सरकारी गवाह बन चुके व्यक्ति को गवाही के दिन अदालततक पँहुचाने में निर्देशक अपनी सारी कला और ऊर्जा खपा देते थे, तब भीअपराधी अमीर जादे, किसी नेता या रसूख वाले के रिश्तेदार हुआ करते थे, तब भीहमारी मुस्तैदपुलिस अपराध होने के बाद ही आती थी और अक्सर अपराधी की ओरसे उसे बचाने के लिए सारी कार्यवाही किया करती थी. तब नायक या नायिकागुस्से और अपमान में भर कानून अपने हाथ में लेकर अकेले दम पर अपराधियों सेसुपरमैन/वुमन बनकर उनका खात्मा कर देता था और अंत में यह कहकर कि मैं इसदेश के कानून का सम्मान करता/करती हूँ, उसके द्वारा अपने आपको पुलिस केहवाले कर दिया जाता था, फ़िल्म खत्म हो जाती थी, हम दर्शकगण नायक/नायिका केसंघर्ष और उसकी जीतकी वाहवाही करते नहीं थकते थे. फ़िल्मों मेंस्त्री-मुद्दा तब भी, कम ही सही, एक विषय था, महिलाओं का उत्पीड़न, छेड़छाड़, बलात्कार तब भी थे, लेकिन उस समय की फ़िल्मों में उत्पीड़ित/शोषित महिलाओं कीओर से प्राय: उनके बेटे/भाई/मित्र/पिता अथवा पति यानी पुरुष अपराधियों सेअपनी स्त्रियों पर हुए अत्याचार का बदला लेते थे. 

स्त्रियों की सीधीभागीदारी अपने प्रति हुए अपराध के विरोध में वैसी सीधी नहीं दिखती थी.लेकिन आज का परिदृश्य बदल गया है. फ़िल्मों के कथानक में कथा और कल्पनाकातत्त्व इधर लगातार कम होता दिख रहा है. अब स्त्री अपनी लड़ाई खुद लड़ रहीहै, कानून में पूरी आस्था के साथ भरपूर तर्क के बल पर. पिंकमें इसे देखाजा सकता है. पिंककी तीनों नायिकाएँ समाज द्वारा स्त्री को एक स्त्री केसाथ सम्पूर्ण इंसान और स्वतंत्र सोच की आजाद इकाई स्वीकार करवाने तथाहिंसा की नहीं, वे बार-बार नाकहने के बावजूद अपने साथ जबरदस्ती किए जानेपर आत्मरक्षा के रूप में की गई हिंसक कार्यवाहीको आत्मरक्षाही माननेकी लड़ाई लड़ रही हैं. ऐसे समाज में उनका डर जाना भी अस्वाभाविक नहीं हैं.जाहिर है, इस प्रक्रिया में उनके साथ एक पुरुष अमिताभ बच्चन भी वकील के रूपमें आ खड़े हुए हैं. 

कुछ मित्रों को आपत्ति है कि डायरेक्टर साब को एकपुरुष ही वकील बनाना था, जो घटना से पहले स्वयं इन लड़कियों को घूराकरताथा, कोई महिला वकील उन्हें नहीं सूझी. फ़िल्म ने उस घूरने वाले पुरुष कोवकील बनाकर उसे स्त्रियों का संरक्षक और तारणहार बना दिया, जो अंतत:पुरुषवाद की जीत है. कहने को तो कोई यह भी कह ही सकता है, कि इसमें वर्किंगगर्ल्स के रूप में काम कर रही और एक-साथ रह रही तीनों लड़कियों में एकदिल्ली की पंजाबी है, दूसरी लखनऊ से मुस्लिम समुदाय की है और तीसरीनॉर्थ-ईस्ट की (संभवत: आदिवासी) है, इनमें एक भी लड़की 'दलित'क्यों नहींहै!! उसे भी एक वर्किंग-गर्ल के रूप में इनकी साथी दिखाया जाना चाहिए था, तब फ़िल्म और ज्यादा रियलिस्टिक होती. फ़िर कोई और मांग भी आ जाती. 

बहरहाल, यह बात तो सही है कि महिला वकील होनी चाहिए थी, तब फ़िल्म का तेवर कुछ औरबेहतर बनता, लेकिन घूरनेवाली बात समझ में नहीं आई. यह सही है कि किसी कोघूरना गलत है, स्त्री को घूरना तो अपराध है, अगर वह वास्तव में किसी कोप्रताड़ित करने की दृष्टि से है तो! किसी ने कहा है कि, ‘गलत समझ के नहींदेखता हूँ तेरी तरफ/ ये देखता हूँ कि अंदाजे-ज़िन्दगी क्या है’, यह भी तो होसकता है कि फ़िल्म में तीनों लड़कियों के अन्य पड़ोसियों की तरह वकील अमिताभबच्चन उन्हें घूरन रहे हों, न ही अन्यों की तरह उनके घर में पुरुषों केआने-जाने के ‘टाइम’ और ‘ड्यूरेशन’ का रिकॉर्ड रख रहे हों, बल्कि पारम्परिक रूपमें अकेली रह रही लड़कियों के प्रति एक सामान्य, सहज, मानवीय समझने वालानजरिया रखकर देखरहे हों, कि जिन्हें पूरा समाज जो समझे बैठा है, वे वैसीहैं भी या नहीं! अन्यथा एक घूरने वाला आदमी उन लड़कियों के मुश्किल समय मेंअन्य सभी पड़ोसियों की तरह उनकी मदद नहीं भी कर सकता था, आम समाज की तरहउन्हें गश्ती पार्टीमानकर उनके विरोध में भी बना रह सकता था, क्योंकि तबअन्यों की तरह उसकी भी अकेली लड़की को खुली तिजोरी मानने वाली’, ‘उसकेइन्कार को इकरार समझने वाली’ ‘स्त्री-विरोधी’, ‘पूर्वाग्रहीऔर सामंतीमानसिकता को अच्छी खुराक मिल रही होती, लेकिन उन्होंने इसके विपरीत जाकर उनपड़ोस में रहकर भी अन्जान जैसी लड़कियों की मदद की. 

मुझे लगता है, अमिताभ काएक पड़ोसी के रूप में उन्हें देखना, देखना ही था, ‘घूरनानहीं था. वैसे तोहमारे समाज की मानसिकता ही स्त्री-विरोधी है, एक-दूसरे के घरों में क्याहो रहा है, इसे लेकर हम अक्सर 'पीपिंग टॉम'बने रहते हैं. फिर अगर वे अकेलीलड़कियाँ हों तो, उफ्फ्फ! फ़िल्म में दिल्ली में रह रही नार्थ-ईस्ट कीलड़कियों के साथ प्रायः कैसा व्यवहार होता है, इसे भी संक्षेप में, पर बखूबीबताया गया है. सबका अभिनय बेजोड़ है, अमिताभ बच्चन सहित. मेरे विचार सेहमें एक पॉपुलर, व्यवसायी एवं एंटरटेन्मेंट, एंटरटेन्मेंट और सिर्फ़एंटरटेन्मेंट के लिए बदनाम हो चुके सिनेमा माध्यम से यथार्थ की अतिरिक्तमाँग करने के बजाय हमारे बीच के मुद्दे उठाने और जनता में चेतना को विस्तारदेने के कारण उसके लगातार रियलिस्टिक तथा मैच्योर होने और हमें मैच्योरिटीसे सोचने तथा व्यवहार करने में थोड़ा-बहुत मददगार बनने पर प्रसन्नता जाहिरकरनी चाहिए ..हाँ,कोसना उचित नहीं, आलोचना भरसक हो...तो आइए, ‘पिंकशब्दमें निहित स्त्रियों के स्टीरियोटाइप विशेषणकी आलोचना के साथ उसकासंज्ञाके रूप में स्वागत करें और तनवीर गाज़ी के शब्दों में कहें कि, 'तू ख़ुद की खोज में निकल/तू किसलिए हताश है/तू चल तेरे वज़ूद की/समय को भी तलाश है'..
______________
जय कौशल  त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में कार्यरत हैं. 
मो. नं.- 09612091397/ ईमेल-jaikaushal81@gmail.com

तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश हैतू चल, तेरे वजूद की
तनवीर  गाज़ी
समय को भी तलाश है

जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ
समझ न इन को वस्त्र तू
ये बेड़ियाँ पिघाल के
बना ले इनको शस्त्र तू

तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश हैतू चल, तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है

चरित्र जब पवित्र  है
तो क्यूँ है ये दशा तेरी

ये पापियों को हक़ नही
की लें परीक्षा तेरी

तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश हैतू चल, तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है

जला के भस्म कर उसे
जो क्रूरता का जाल है

तू आरती की लौ नही
तू क्रोध की मशाल है

तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश हैतू चल, तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
 
चुनर उड़ा के ध्वज बना
गगन भी कपकपायेगा

अगर तेरी चुनर गिरी
तो एक भूकंप आएगा

तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश हैतू चल, तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है.

_________

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रमोद पाठक

$
0
0


















(ARTIST:ROBERTO SANTO Arco.Bronze)

जो कवि यह समझते हैं कि प्रेम कविताएँ लिखना प्रेम करने के बनिस्पत कम ज़ोखिम का काम है, वे भारी गलतफहमी के शिकार हैं. कुछ सोचकर ही राइनेर मारिया रिल्के ने युवा काप्पुस से यह कहा होगा कि ‘प्रेम कविताएँ मत लिखो.’ क्योंकि – ‘व्यक्तिगत विवरण जिनमें श्रेष्ठ और भव्य परम्पराएँ बहुलता से समाई हों, बहुत ऊँची और परिपक्व दर्जे की रचना-क्षमता मांगती हैं.’

दरअसल प्रेम कविताओं की यह जो ‘भव्य परम्परा’ हैं  उनमें इतना लिखा गया है कि अक्सर हम जाने अनजाने उनकी नकल ही किया करते हैं.घिसे हुए प्रेम से अधिक यातनादायक घिसी हुई प्रेम कविताएँ होती हैं.रिल्के के ही शब्दों में कोई रचना तभी अच्छी बनती है जब वह अनिवार्यता में से उपजती है.

प्रमोद पाठक की इन प्रेम कविताओं पर यह सब मैं नहीं कह रहा हूँ. वे आश्चर्यजनक रूप से इस घिसेपन और एकरूपता से बचे हुए हैं. उनकी रचना-क्षमता परिपक्व है या कि उनके प्रेम ने उनकी कविताओं को परिपक्व बनाया है. ठीक–ठीक कुछ भी कहा नहीं जा सकता. पर कविताएँ जरुर फ्रेश हैं प्रेम पर लिखी होने के बावजूद.





प्रमोद पाठक  की कविताएँ               





ओक में पानी की इच्‍छा

उसकी इच्‍छाओं में मानसून था                
और मेरी पीठ पर घास उगी थी              

मेरी पीठ के ढलान में जो चश्‍मे हैं
उनमें उसी की छुअन का पानी चमक रहा है
इस उमस में पानी से
उसकी याद की सीलन भरी गंध उठ रही है

मेरे मन की उँगलियों ने इक ओक रची है
इस ओक में पानी की इच्‍छा है

मैं उस मिट्टी को चूमना चाहता हूँ
जिससे सौंधी गंध उठ रही है  
और जिसने गढ़े हैं उसके होठों के किनारे.




चप्‍पलें 

इन गुलाबी चप्‍पलों पर 
ठीक जहाँ तुम्‍हारी एड़ी रखने में आती है 
वहां उनका अक्‍स इस तरह बन गया है मेरी जान 
कि अब चप्‍पल में चप्‍पल कम और तुम्‍हारी एड़ियाँ ज्‍यादा नज़र आती हैं 

घिसकर तिरछे हुए सोल में 
जीवन की चढ़ाई इस कदर उभर आई है
फिर भी तुम हो कि जाने कितनी बार 
चढ़कर उतर आती हो 

रात तनियों के मस्‍तूल से अपनी नावें बाँध सुस्‍ताती हैं चप्‍पलें 
और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी 
थककर सोए तुम्‍हारे पैरों का पता देती हैं. 




तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ

मेरे इन कंधों को
खूंटियों की तरह इस्तेमाल करो 
स्पर्शआलिंगन और चुंबन जैसी ताजा तरकारियों भरा
प्यार का थैला इन पर टाँग दो
अपनी देह की छतरी समेटो और गर्दन के सहारे यहाँ टाँग दो
मेरी गोद में सिर रख कर लेटो या पेट की मसनद लगाओ
आओ मेरी इस देह की बैठक में बैठोकुछ सुस्ताओ
तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ.





एक स्त्री के समंदर में बदलने की कथा 

कभी सुबह ने शाम से कहा था 
हमारे बीच पूरा का पूरा दिन है 
हमारा साथ सम्भव नहीं
वैसे ही उसने उससे कहा 
हमारे बीच पूरी की पूरी दुनिया है 

यह सुनते ही 
वह भागा उससे दूर 
दूर बहुत दूर 
भागता रहा भागता रहा 
और भागते भागते नदी में बदल गया 
उसका भागना पानी के बहने में बदल गया 

बहुत दिनों बाद किसी ने 
एक स्त्री के समंदर में बदलने की कथा सुनाई 
वह स्त्री एक पुरुष का नदी में बदलना सुनकर 
समंदर में बदलने चली गई 
और तब से नदियाँ समंदर की ओर बहने लगीं.





और मेरे पास सिर्फ शर्मिंदगी बची थी ऐसा मनुष्य हो जाने की

इस कड़ाके की ठंड में 
जब प्यास को पानी से डर लगता है 
अपनी बेटी के बनाए चित्र में मछली देख 
मुझे पानी की याद आई 

चित्र में पानी भरपूर था 
मगर मेरी छुअन उस तक पहुंच नहीं पाती थी 
मैं उसे छूने नदी तक गया 
और कभी बाघिन की तरह छलांग मारतीउमड़ती नदी की आंखों में 
उसे सूखते पाया 

नदी की आंखों में एक उदासी भरी कथा थी 
अपने शावकों सहित किसी बाघिन के लापता हो जाने की 
उसके जंगल में मनुष्य के घुसपैठ की  

मुझे नदी के कान से कुछ आवाजें आई 
उसमें अनुगूंज थी शहर की इस तरफ बढ़ती आ रही पदचाप की 
नदी की भी तैयारी थी अपने पानी के छौनों को साथ ले कहीं गुम हो जाने की

और मेरे पास सिर्फ शर्मिंदगी बची थी ऐसा मनुष्य हो जाने की





मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता

हम सी‍ढ़ि‍यों पर मधुमालती के उस फूल जितनी दूर बैठे थे
जो रात की तरह आहिस्‍ता से हमारे बीच झर रहा था
समुद्र दूर दूर तक कहीं नहीं था 
फिर भी दुख के झाग अपने पूरे आवेग से तुम्‍हारे दिल के किनारे तक आ- आकर मुझे छू रहे थे
उन झागों के निशान मेरी देह पर उभरते आ रहे थे

यह दुख किसी मिट्टी से बना होता
तो मैं एक कुम्‍हार होता और तुम्‍हारे लिए मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता




प्यार के द्रव्य को अपनी पीठ पर लादे एक घोंघा

मैं बिखर रहा हूँ कण कण 
किसी बच्चे के हाथ से फर्श पर छिटक गए कंचों की तरह.
कितना मुश्किल और निरुपाय होता है इस तरह छिटके हुए को समेटना.
लगता है जैसे मैं नीम हूँ पतझड़ का और तुम्हारे साथ बिताए एक-एक पल की स्मृति झर रही है मेरी पत्तियाँ बनकर.
मुझे मालूम है कि तुम दूर-दूर तक कहीं नहीं हो फिर भी मक्का के भुट्टे के दानों की तरह उभरा है तुम्हारा होना मेरी देह, मेरी स्मृति और मेरे वज़ूद पर.
यह कैसी बेबसी है कि मैं अपनी कोशिशों के बावजूद विरत नहीं हो पाता तुमसे.
मेरी आने वाली प्यार की हर सम्भावना पर आषाढ़ के बादलों सी छा जाती हो तुम.
नहीं मालूम तुम्हें यह सब जान सुख मिलेगा या दुःख मगर यह सच है कि प्यार के इस द्रव्य को अपनी पीठ पर लादे एक घोंघा बना मैं अब गति कर रहा हूँ जीवन में.

___________




प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्‍चों के लिए भी लि‍खते हैं. उनकी लि‍खी बच्‍चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्‍चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्‍था 'रूम टू रीडद्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताएँ चकमकअहा जिन्‍दगीप्रतिलिपीडेली न्‍यूज आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्‍चों के साथ रचनात्‍मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं.
सम्पर्क :
27 एएकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगरदुर्गापुराजयपुर302018/राजस्‍थान
मो. : 9460986289
___
प्रमोद पाठक  की कुछ कविताएँयहाँ  पढ़ें, और यहाँ भी 

सबद भेद : गांधी और प्रतिरोध : प्रकाशचन्द्र भट्ट

$
0
0





















महात्मा गांधी का निर्माण साम्राज्यवाद विरोधी चेतना, आंतरिक जातिवाद और सम्प्रदायवाद विरोधी चिंता और दो विश्व युद्धों के बीच मानवता की दुर्दशा पर चिंतन के बीच हुआ है. 
ये सभी स्थितियाँ आज भी कमोबेश बनी हुई हैं. ज़ाहिर है ऐसे में उनकी चेतना, चिंता और चिन्तन को बदली हुई परिस्थितियों में फिर से देखने की जरूरत है और विकसित करने की भी.
गाँधी जयंती के अवसर पर प्रकाशचंद्र भट्ट का यह आलेख आपके लिए



संस्कृति में प्रतिरोध का स्वर और गाँधी      
(हिन्द स्वराज का संदर्भ)
प्रकाशचंद्र भट्ट




गाँधी के ‘हिंद स्वराज’ का यथार्थ औपनेवेशिक भारत है पर तैयारी औपनिवेशिकता से टकराहट तक सीमित नहीं, इस नाते यह किताब तथाकथित समकालीनता की किताब न होकर ऐतिहासिक चेतना की किताब है. इतिहास बोध से संपन्न इस रचना की चिंता स्वाधीन भारत की सत्ता और संस्कृति को लेकर दिखाई देती है. रचना स्वाधीन भारत के सवालों से मुठभेड़ के समय एक भविष्य दृष्टि लेकर उपस्थित होती है‚ यानी रचनाकार की ऐतिहासिक चेतना काल के एक आयाम तक सीमित नहीं है.

सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद,  पूँजीवादी दमनकारी तुरन्ता चेतना का प्रसार और दखल दिनो़ं दिन बढ़ता जा रहा है. दृष्टि से अलग नहीं हुआ करता व्यवहार‚ प्रतिक्रियावादी दृष्टि भी चिंतन से व्यवहार में उतरती है. गाँधी ‘हिंद स्वराज’ में प्रतिक्रियावादी दृष्टि  से टकरात॓ हुए हिंद‚ स्वराज‚ संस्कृति‚  राष्ट्र‚ धर्म‚ आधुनिक और इतिहास का बहुलतावादी अर्थ सामने रखते हैं. भय से निर्मित प्रजा में प्रतिरोध की शक्ति का विलोप प्रजा की गुलामी को गहरा बनाता है. ‘हिंद स्वराज’ इस शक्ति के जागरण का वैचारिक अणु बनकर आता हैअगर लोग एक बार सीख लें कि जो क़ानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नार्मदगी है, तो हमें किसी का भी जुल्म बाँध नहीं सकता.

समय एवं मानवीय चेतना की संश्लिष्टता की समझ के लिए जिद्दी-एकांगिक दृष्टि बहुत दूर तक सहायक नहीं हो सकती, आर्थिक-विकास एवं समाजवैज्ञानिक दृष्टि की उपेक्षा करने वाला संस्कृति का कोई भी पाठ, अतीत द्वारा वर्तमान का  अधिग्रहण होकर रह जाया करता है. इस बिंदु पर कहना न होगा कि इन विषयों की एकाकी यात्रा भी  विकास को  मानवीय चेतना से रिक्त कर देगी. इस संकट को जानने, महसूसने और उससे बचने के लिए  विकास को वैज्ञानिकों या अर्थशास्त्रियों की बपौती मानने के पूर्वाग्रह से मुक्ति आवश्यक प्रतीत होती है. संस्कृति में यदि विकासकामी चेतना तो हो किंतु सामाजिक चेतना से युक्त असहमति, विरोध और प्रतिरोध विलुप्त हो तो क्या उस चेतना को मानव निर्मित पर्यावरण यानी संस्कृति कह सकते है? सोचने की बात है. उत्तर यदि ना में आए तो यह स्वीकारा जा सकता है कि सामाजिक चेतना से युक्त प्रतिरोध को संस्कृति की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए.

हम किसी का भी जुल्म और दबाव नहीं चाहते- चाहे वह गोरा या हिंदुस्तानी हो. हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है- ‘हिंद स्वराज’ के इन जलते कोयलों को यदि आज सांस्कृतिक प्रतिगामी दृष्टि द्वारा पकड़ लिया जाए तो संभावना बनती है कि ‘हिंद स्वराज’ पर प्रतिबंध लग जाए क्योंकि सांस्कृतिक अग्निशमन घटना-स्थल पर तत्काल पहुँच संस्कृति को बचा लिया करते हैं‚ किताब‚ लेखक‚ विचार को ठिकाने लगा डालते हैं.

जब व्यक्ति और उसके विचार को बदनाम किया जा रहा हो और उसकी रचना को प्रतिबंधित तो दो बातों की संभावना बनती है. एक, बदनाम और प्रतिबंधित करने वाली सत्ता और रचनाकार के मध्य स्वीकार, सामंजस्य और सहमति का संबंध न होकर तनाव, अस्वीकार, असहमति, विरोध और प्रतिरोध का संबंध है. दो, वह व्यक्ति, विचार, और रचना यथास्थितिवाद के विरोध में उठी है, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक सत्ता के लिए चुनौती बनती है. गाँधी अपनी जिस किताब को छोटी और जीवन-क्रम में अजीब कहते हैं, संवाद शैली में गढ़ी गयी ‘हिंद स्वराज’ के साथ ऐसा ही कुछ होता है. कहीं गाँधी गहरी चाल चलते हुए तो कहीं अपने अजीब ख्याल और धार्मिक प्रयोगों से हिंदुस्तान को नुकसान पहुँचाने वाले कहे जाते हैं. सत्ता, किताब के वितरण पर रोक लगाती है. इस कार्रवाई पर गाँधी का प्रतिरोध जन्म लेता है- ‘हिंद स्वराज’ का सृजन और गुजराती से अंग्रेज़ी में अनुवाद, प्रतिरोध की चेतना का ही प्रतिफल रहा है.

यह किताब आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका तक सीमित नहीं रहती. औपनिवेशिक भारत की समस्याओं से जूझते हुए राजनीति और धर्म में प्रेम की प्रस्तावना करते हुए उसे मनुष्य  जीवन की मूल संवेदना के  रूप में रेखांकित करती है. मनुष्य की समग्र और अखंड स्वाधीनता की चाह राजनीतिक स्वाधीनता तक सीमित नहीं हो सकती.-हम किसी का भी जुल्म और दबाव नहीं चाहते- चाहे वह गोरा या हिंदुस्तानी हो. हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है”.

सत्ता, प्रतिरोध की चेतना की धार को विभिन्न औजारों से भोंथरा करती रही है, ताकि सत्ता की मनचाही का प्रतिपक्ष न उभर सके. वर्तमान और इतिहास से यह समझ बनती है कि  निरंकुश सत्ता के लिए पुलिस एवं कानून ऐसे ही सार्वकालिक शांत दिखने वाले हिंसक अस्त्र रहे हैं. भय से निर्मित प्रजा में प्रतिरोध की शक्ति का विलोप उनकी गुलामी को गहरा बनाता है. अगर लोग एक बार सीख लें कि जो क़ानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नार्मदगी है, तो हमें किसी का भी जुल्म बाध नहीं सकता.

संस्कृति का समाजशास्त्रमें मैनेजर पाण्डेयने लिखा है कि संस्कृति का बुनियादी अर्थ है मानस के परिष्कार की विशिष्ट अवस्था. इस परिष्कार की प्रक्रियाएँ भी संस्कृति के अंतर्गत आती हैं. उन प्रक्रियाओं को जिन वस्तुओं से मदद मिलती है उन्हें सांस्कृतिक रूप या साधन कहा जा सकता है. ऐसे साधनों में मुख्य हैं- मनुष्य की बौद्धिक क्रियाएँ और विभिन्न कलाएँ. गाँधी का कहना है कि हिंदुस्तानी सागर के किनारे पर ही मैल जमा है. उस मैल से जो गंदे हो गए हैं उन्हें साफ होना है. हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत साफ़ हो सकते हैं.इसी बिंदु पर यदि हम संस्कृति की मूल चिंता और प्रक्रिया को देखें तो ‘हिंद स्वराज’ की मूल चेतना को समझा जा सकता है.


मनुष्य की स्वाधीनता की नैतिकता के लिए गाँधी स्वराज,  सभ्यता, संस्कृति और स्वभाव शब्द का प्रयोग करते हैं. स्वराज के बाद सभ्यता का प्रयोग अधिक करते हैं. उनकी सभ्यता चेतना की समझ के लिए स्वराज के साथ हिंद शब्द भी बड़े काम का है. इटली और हिंदुस्तान में गाँधी बताते हैं कि इमेन्युअल कावूर और गैरीवाल्डी के विचार से इटली का अर्थ था इमेन्युअल या इटली का राजा और उनकी हुजूरी. मेजिनी के विचार से इटली का अर्थ था इटली के लोग- उसके किसान. गाँधी मेजिनी से जुड़ते हुए हिंदुस्तान का अर्थ करते है -करोड़ों किसान और जनता. जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं. स्पष्ट है कि गाँधी की चिंता के केंद्र में है किसान और प्रजा की गुलामी.

संस्कृति के भी उद्योग बनते समय में समाजशास्त्री कहते हैं कि ऎसे में एक आयामी समाज बनता है और एक आयामी मनुष्य पैदा होते हैं. सत्ता सबसे पहले संस्कृति को समय से कर देखना दिखाना चाहती है. इसमें सामाजिक व्यवस्था के साथ संचार-माध्यम सत्ता का सहयोग करते हैं. इनके माध्यम से अनुभूतियों की कंडीशनिंग घनीभूत होती जा रही है. इससे समाज में प्रश्नाकुलता और आलोचनात्मक चेतना की जगह बने बनाए सच की परछाइयाँ लेती जा रही हैं. पाठक से संवाद में गाँधी कहते हैं- शरीर का सुख कैसे मिले, यही आज की सभ्यता ढूँढ़ती है, और यही देने की वह कोशिश करती है‚ परन्तु वह सुख भी नहीं मिल पाता.आलोचनात्मक चेतना के हनन का यह तरीका पूँजीवादी व्यवस्था का तरीका, आलोचनात्मक विवेक के सहारे समझा जा सकता है.

पूँजीवादी व्यवस्था खरीदने और बेचने की आज़ादी के रास्ते पराधीनता की विराट व्यवस्था है और संस्कृति मनुष्य की स्वाधीनता की रचना और अभिव्यक्ति. गाँधी आधुनिक सभ्यता का सख्त प्रतिरोध यूँ ही नहीं करते. बिना बोध के प्रतिरोध कैसे संभव है? 1909में गाँधी लिखते हैं- पहले लोगों को मार-पीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है.गाँधी इतना और जोड़ते हैं कि पैसा उनका खुदा है, यह ध्यान में रखने से सब बातें साफ हो जाएँगी.

गाँधी के यहॉ औपनिवेशिक चेतना द्वारा गढ़ी गयी आधुनिक सभ्यता के चरित्र की गहरी और व्यापक पहिचान दिखाई देती है. आप बतलाते हैं कि यह बाहर से सांत्वना देती है और अंदर से चूहे की तरह कुतरकर खोखला कर देती है. उसकी खूबी यह है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पड़ते है. फिर तो न वे दीन के और न रहते दुनिया के. प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल मास कल्चर पर लिखते हुए माइकेल माहात्म्यलिखते हैं. कलाकार या परफारमेंस को स्टार में बदलना पूँजीवादी संस्कृति की विशेषता है. पूँजीवादी संस्कृति यानी मास कल्चर. उसके सामाजिक पर पड़े प्रभाव को बतलाते हुए आप कहते हैं कि उनके चेहरों पर तृप्त उत्तेजना का आनंद सचमुच ब्रहमानंद सहोदर है लेकिन बस कुछ घंटों के लिए. इंस्टैंट फूड, इस्टैंट काफी और इंस्टैंट विचार खोजते समाज में माइकेल जैक्सन वैसा ही इंस्टैंट निर्वाण देने वाला माध्यम है जैसे कि भगवान श्री रजनीश

स्पष्ट है कि गाँधी अपनी जनचेतना के कारण मास कल्चर का खंडन करते हैं. गाँधी की संस्कृति, सांस्कृतिक चिंताएँ‚ इस्टैंट स्वीकार, इस्टैंट अस्वीकार का परिणाम नहीं. गाँधी जब रेल, अख़बार, संसदीय लोकतंत्र, वकील का अस्वीकार करते हैं उसके मूल में इसी तुरंतापन का विरोध है.

बंगाल का विभाजन, अशांति और असंतोष खंड को पढ़कर गाँधी की प्रतिरोधात्मक चेतना के तेवर को समझा जा सकता है. बंगाल का विभाजन में गाँधी बताते हैं- “उस असंतोष से अशांति पैदा हुई और उस अशांति में कई लोग मरे, कई बरबाद हुए, कई जेल गए,कई को देशनिकाला हुआ,आगे भी ऐसा होगा, और होना चाहिए. ये सब लक्षण अच्छे माने जा सकते हैं.  अतः बने और बनाऐ गए साँचे टूटने चाहिए. पूँजीवादी वर्चस्व के समाज में बात याद रखे जाने लायक महसूस होती है - आगे भी ऐसा होगा और होना चाहिए. गाँधी की सांस्कृतिक दृष्टि में न्याय की पक्षधरता और अन्याय के प्रतिरोध का निर्भय स्वीकार है. संदर्भ चाहे देश या विदेश की जनता हो या ब्रिटिश सत्ता या देसी रियासतें. प्रतिरोध में यह विवेक बराबर उपस्थित है कि इसका नतीजा बुरा भी आ सकता है.

रवीन्द्रनाथ टैगोरलिखते हैं- एक खास तरह के इतिहास द्वारा सांस्कृतिक औपनिवेशिकता इस देश के इतिहास का लोप कर देना चाहती है. हम पेट की रोटी के बदले, सुशासन, सुविचार और सुशिक्षा सब कुछ एक बड़ी़........दूकान से खरीद रहे हैं- बाकी बाजार बंद हैं....... जो देश भाग्यशाली हैं वे सदा स्वदेश को देश के इतिहास में ही खोजते और पाते है.... हमारे मामले में इसका उल्टा है. देश के इतिहास ने ही हमारे स्वदेश को ढक रखा है.गाँधी जब इतिहास, राष्ट्र, शिक्षा, भाषा, लिपि, कारीगरी, सांप्रदायिता के प्रश्नों पर विचार करते हैं तो वे औपनिवेशिक‚ नवऔपनिवेशिक संस्कृति की चालों से असहमति रखते हैं, उसका विरोध करते हैं.

इतिहास-लेखन में सामाजिक चेतना के आने का कारण में इतिहासकार हरबंस मुखियाध्यान केन्द्र में नए परिर्वतनको बतलाते हैं, जिसका अर्थ होता है आधुनिक दृष्टिकोण. असल में इतिहास में हमें जिस चीज का अध्ययन करना चाहिये वह है काल के एक बिन्दु से दूसरे तक समाज के विकास की मंजिल, समाज की उत्पादन प्रणाली में आने वाले परिर्वतन और उससे उत्पन्न सामाजिक संगठन आदि. ऐसा अध्ययन अतीत के सम्पूर्ण समाज का अध्ययन होगा और वास्तव में शासक का निजी धर्म तो अनावश्यक हो जायेगा. सच तो यह है कि हमें जो  राजनीतिक इतिहास पढ़ाया जाता है वह वस्तुतः शासक राजवंशों का इतिहास है. गाँधी कहते हैं इतिहास या हिस्ट्री का अर्थ बादशाह या राजाओं की तवारीख तक, राजाओं के संघर्षों तक सीमित नहीं हो सकता. कहते हैं कि अगर यही इतिहास होता, अगर इतना ही हुआ होता, तब तो दुनिया कब की डूब गयी होती. यहाँ गाँधी की ऐतिहासिक दृष्टि को देखा जा सकता है.

बिना आलोचनात्मक विवेक के रचनात्मक नहीं हुआ जा सकता. गाँधी कहते हैं कि जुल्म का प्रतिरोध भारत का स्वभाव है, क्योंकि राजा के जुल्म पर प्रजा के रुठने के साक्ष्य यहा बराबर मिलते हैं. ये प्रजा एक दिन में नहीं बनती, उसे बनने में कई बरस लगते हैं. गाँधी पैसिव रेज़िस्टेन्स के द्वारा प्रजा का निर्माण करने में तत्पर लक्षित होते हैं. इस रास्ते व्यक्ति-स्वराज को सामाजिक-स्वराज में बदला जा सकता है. बिना इस चेतना के स्वराज का अभिप्राय अधिनायकवाद और हिन्द का अर्थ हिन्दुस्तान की सत्ता हो जाएगा. गाँधी को इन अर्थों से घोर आपत्ति है,  इनसे गाँधी का संबंध असहमति और विरोध का है. सोचना होगा हमें हिंद और स्वराज के प्रतिगामी अर्थ से मोह है या प्रगतिशील अर्थ को पाने,  बचाने और बढ़ाने की चेतना. यहीं से सहमति और  प्रतिरोध के रास्ते में से एक को चुनना पड़ता है.
_________________________
संदर्भ -

1.भारत : इतिहास और संस्कृति- गजानन माधव मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
2- हिंद स्वराज- महात्मा गाँधी, शिक्षा भारती, दिल्ली, 2011
3- भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा- मैनेजर पाण्डेय, भूमिका, वाणी प्रकाशन, दिल्ली 2013
4- तीसरा रुख़ - पुरुषोत्तम अग्रवाल, वाणाी प्रकाशन, दिल्ली, 1996
5- मैं नास्तिक क्यों हूँ- भगत सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
6- प्रसाद, निराला अज्ञेय- रामस्वरुप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
7- इतिहास की पुनर्व्याख्या- संपादित, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली
8- आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास - सव्यसाची भट्टाचार्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1999

9- निज ब्रह्म विचार धर्म, समाज और धर्मेतर अध्यात्म- पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली 2004
____________


डा.प्रकाशचंद्र भट्ट
सहायक प्रोफेसर,हिंदी विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय द्वाराहाट
अल्मोड़ा, उत्तराखंड .
मोबाइल-9759818860/ drprakashbhatt@gmail.com

मेघ - दूत : इरोस्ट्रेटस (Jean-Paul Sartre) :

$
0
0

























इरोस्ट्रेटस (Erostratus) ज़्याँ पाल सार्त्र (Jean-Paul Sartre) के कहानी संग्रह The Wall (French: Le Mur) में संकलित है. इसका प्रकाशन 1939 में हुआ था.

विश्व युद्धों की गहरी निराशा और असहाय- बोध के बीच यूरोपीय दर्शन, कला और साहित्य में एक विचारधारा ने जन्म लिया जिसे हिंदी में अस्तित्ववाद (Existentialism) कहते हैं. 
असंगतता, अतार्किकता और अवसाद से भरे विश्व में किसी सुसंगत विचार या जीवन तक पहुंचना संभव नहीं है. सब कुछ एब्सर्ड है. सार्त्र को एक प्रमुख अस्तित्वादी दार्शनिक के रूप में देखा जाता है.

इरोस्ट्रेटस में सार्त्र मनोवेगपर ज़ोर देते दिखते है, उनके कथा-वृतांत की सबलता और मनोगत अंतर्दृष्टि का यह असरदार उदाहरण है. उनके पात्र और परिवेश 20 वीं शताब्दी के संघर्ष, जटिलताओं, विक्षिप्तता और रुग्ण वासना के ही प्रतिबिम्ब हैं.  
कहानी लम्बी है, अंग्रेजी से इसका अनुवाद हिंदी में सुशांत सुप्रिय ने किया है जो खुद कथाकार – कवि हैं.

इरोस्ट्रेटस  ( Erostratus )                        
ज़्याँ पाल सार्त्र 

(अनुवाद : सुशांत सुप्रिय)



लोगों को ऊँचाई से देखना चाहिए. बत्तियाँ बुझाकर कमरे की खिड़की के पास खड़े हो जाइए. किसी को एक पल के लिए भी शक नहीं होगा कि आप उन्हें वहाँ ऊपर से देख सकते हैं. लोग अपने सामने की चीज़ों के बारे में सचेत होते हैं. कभी-कभार पीठ पीछे की चीज़ों के बारे में भी, किंतु उनका सारा ध्यान पाँच फ़ुट आठ इंच की ऊँचाई तक के दर्शकों तक ही सीमित होता है. आठवीं मंज़िल से डर्बी टोपी कैसी दिखाई देती है, इस पर कब किसने ध्यान दिया है? चटकीले रंगों और भड़कीली पोशाकों का इस्तेमाल करके अपने सिरों और कंधों को सुरक्षित रखने के बारे में वे सावधान नहीं होते. उन्हें नहीं पता कि मानवता के इस बड़े शत्रु -- 'नीचे के दृश्य' का सामना कैसे किया जाए. मैं अकसर खिड़की की चौखट पर झुककर हँसने लगता. वह सीधी मुद्रा कहाँ है जिस पर उन्हें इतना गर्व है-- वे पटरियों से चिपके होते थे और उनके कंधों के नीचे से दो लम्बी टाँगें निकल आती थीं.

आठवीं मंज़िल की बाल्कनी -- यही वह जगह है, जहाँ मुझे अपना सारा जीवन बिता देना चाहिए था. आपको भौतिक प्रतीकों के साथ-साथ नैतिक श्रेष्ठताओं को थामना होता है, नहीं तो वे ढह जाती हैं. पर दूसरे लोगों की तुलना में मुझमें क्या श्रेष्ठता है? स्थिति की श्रेष्ठता, और कुछ नहीं. मैंने खुद को अपने भीतर के मनुष्य से ऊपर स्थापित कर लिया है और मैं इसका अध्ययन करता हूँ. यही कारण है कि नौत्रेदेम की मीनारें, आइफ़िल टावर के छज्जे, साक्रे-कोऊर और रुए दे लांबे पर स्थित आठवीं मंज़िल -- ये सब मुझे हमेशा पसंद रहे हैं. ये बहुत बढ़िया प्रतीक हैं.

कभी-कभी मुझे सड़क पर जाना पड़ता, जैसे दफ़्तर जाने के लिए, तो मेरा दम घुटने लगता. यदि आप उनके बराबर खड़े हों तो लोगों को चींटी मानना बहुत मुश्किल होता है. वे आपसे टकराते हैं. एक बार मैंने सड़क पर एक मरा हुआ आदमी देखा था. वह मुँह के बल गिरा हुआ था लोगों ने उसे सीधा किया. उससे ख़ून बह रहा था. मैंने उसकी खुली आँखें और चौकन्नी निगाह देखी. उसका ढेर-सा ख़ून देखा. मैंने खुद से कहा, "यह कुछ भी नहीं है. यह गीले रोगन जैसा लगता है, गोया उन्होंने उसकी नाक पर लाल रोगन फेर दिया हो. बस."पर मुझे अपने पैरों और गर्दन में एक घिनौनी शिथिलता महसूस हुई. मैं बेहोश हो गया. लोग मुझे दवाइयों की एक दुकान पर ले गए. उन्होंने मेरे मुँह पर कुछ थप्पड़ लगाए और पीने के लिए कुछ दिया. मैं उनकी हत्या भी कर सकता था.

मुझे मालूम था कि वे मेरे शत्रु हैं, पर वे यह नहीं जानते थे. वे एक-दूसरे को पसंद करते थे. वे कोहनियाँ रगड़ते थे. वे यहाँ-वहाँ मेरी मदद भी कर देते थे क्योंकि वे सोचते थे कि मैं भी उन जैसा हूँ. पर यदि वे सच का ज़रा-सा भी अंदाज़ा लगा पाते तो वे मुझे पीट देते. बाद में उन्होंने ऐसा किया भी. जब उन्हें पता चल गया कि मैं कौन हूँ तो उन्होंने मुझे पकड़ लिया और मेरी खूब पिटाई की. उन्होंने दो घंटे तक स्टेशन-हाउस में मुझे मारा, मुझे थप्पड़ रसीद किए, घूँसे चलाए और मेरे हाथ मरोड़े. उन्होंने मेरी पतलून फाड़ दी और अंत में मेरा चश्मा ज़मीन पर फेंक दिया. जब मैं घुटनों और कोहनियाँ के बल झुक कर उसे ढूँढ़ रहा था तो वे हँसे और उन्होंने मुझे ठोकरें मारीं. शुरू से ही मैं जानता था कि वे मेरी धुनाई करेंगे. मैं हट्टा-कट्टा नहीं हूँ और अपना बचाव नहीं कर सकता. उनमें से जो बड़ी डील-डौल वाले थे, वे लम्बे अरसे से मेरी तलाश में थे. यह देखने के लिए कि मैं क्या करूँगा, सड़क पर चलते हुए वे जानबूझकर मुझसे टकरा जाते. मैं उन्हें कुछ नहीं कहता. मैं ऐसा जताता जैसे मैं कुछ भी समझा ही नहीं. लेकिन उन्होंने मुझे फिर भी पकड़ लिया. मैं उनसे डरता था, पर ऐसा नहीं है कि उनसे नफ़रत करने के लिए मेरे पास और गंभीर कारण नहीं थे.

जहाँ तक इस सब का संबंध है, उस दिन से सब कुछ बेहतर हो गया, जिस दिन मैंने रिवॉल्वर ख़रीद लिया. जब आप अपने पास विस्फोट और ज़ोरदार आवाज़ करने वाली कोई चीज़ रख लेते हैं तो आप खुद को मज़बूत महसूस करते हैं. मैं हर रविवार को रिवॉल्वर साथ ले कर बाहर निकलता. मैं उसे अपनी पतलून की जेब में रख लेता और घूमने निकल जाता. मैं उसे अपनी पैंट पर केकड़े की तरह रेंगता महसूस करता. वह मेरी जाँघ पर ठंडी लगती, लेकिन धीरे-धीरे शरीर के स्पर्श से वह गरम होने लगती. मैं कुछ दृढ़ता के साथ चलता. मैं जेब में हाथ डाल लेता और उस चीज़ को महसूस करता. हर थोड़ी देर बाद मैं पेशाब करने के बहाने शौचालय जाता. वहाँ भी मुझे सावधान रहना पड़ता, क्योंकि मेरे अग़ल-बगल लोग होते. वहाँ मैं सावधानी से रिवॉल्वर बाहर निकालता. उसका भार महसूस करता.

उसके चारखानेदार काले हत्थे और ट्रिगर को निहारता, जो अधखिली पलक की तरह दिखाई देता था. दूसरे लोग, जो मुझे बाहर से देख रहे होते, वे सोचते कि मैं पेशाब कर रहा हूँ. पर मैं शौचालय में कभी पेशाब नहीं करता.

एक रात मुझे लोगों को गोली से उड़ा देने का विचार सूझा. वह शनिवार की शाम थी. मैं ली से मिलने गया था. वह रूए मोंतपारनास्से पर स्थित एक होटल में धंधा करती थी. मैं कभी किसी औरत के साथ सोया नहीं था. इस क्रिया में मैं खुद को लुटा हुआ महसूस करता. हालाँकि आप ऊपर होते हैं, किंतु जो कुछ मैंने सुना है, उससे स्पष्ट है कि इस व्यापार में कुल मिला कर वे ही फ़ायदे में रहती हैं. मैं किसी से कुछ माँगता नहीं, पर मैं किसी को कुछ देता भी नहीं. अन्यथा मेरे पल्ले भी कोई ठंडी, पवित्र स्त्री पड़ती, जो मेरे सामने घृणा से आत्म-समर्पण  करती.

मैं हर शनिवार को ली के साथ इकेंसे होटल में जाता और वहाँ एक कमरा लेता. वहाँ वह अपने कपड़े उतार देती और मैं बिना छुए उसे देखता रहता. उस रात वह मुझे नहीं मिली. मैंने कुछ देर इंतज़ार किया. चूँकि वह आती हुई नहीं दिखाई दी, मैंने अंदाज़ा लगाया कि उसे ज़ुकाम हो गया है. वह जनवरी की शुरुआत थी और बेहद ठंड पड़ रही थी. मैं कल्पनाशील व्यक्ति हूँ और मैंने उस सारे आनंद को अपने सामने चित्रित कर लिया जो मुझे उस शाम मिलता. रूए ओडिसा पर काले बालों वाली एक गठीली और मोटी औरत मौजूद थी. मैं उसे अकसर वहाँ देखता. मैं प्रौढ़ स्त्रियों से घृणा तो नहीं करता, लेकिन वे जब कपड़े उतार देती हैं तो दूसरी औरतों की तुलना में ज़्यादा नंगी लगने लगती हैं. दरअसल वह मोटी औरत मेरी ज़रूरतों के बारे में कुछ नहीं जानती थी, और मैं एकदम से उससे वह सब कहते हुए डर रहा था. हालाँकि मैं नए परिचितों के बारे में ज़्यादा फ़िक्र नहीं करता, लेकिन यह भी तो हो सकता है कि ऐसी औरत ने दरवाज़े के पीछे किसी उचक्के को छिपा रखा हो, जो अचानक ही झपट पड़े और मुझसे मेरे रुपए-पैसे छीन ले. फिर भी, उस शाम मुझमें साहस था. मैंने तय किया कि मैं वापस घर जाऊँगा, रिवॉल्वर उठाऊँगा और फिर वहाँ जा कर अपनी किस्मत आज़माऊँगा.

पंद्रह मिनट बाद जब मैं इस औरत के पास पहुँचा तो मेरा रिवॉल्वर मेरी जेब में था और मैं किसी चीज़ से भयभीत नहीं था. क़रीब से देखने पर वह बेचारी लगी. वह सड़क पार वाली मेरी पड़ोसन, पुलिस सार्जेंट की बीवी जैसी लग रही थी. मैं बेहद खुश था क्योंकि मैं लंबे अर्से से उसे नंगा देखना चाहता था. जब सार्जेंट घर में नहीं होता था तो वह खिडकी खोल कर कपड़े पहनती थी और मैं अकसर उसे एक नज़र देखने के लिए परदे के पीछे खड़ा रहता था. पर वह हमेशा कमरे के कोने में कपड़े पहनती थी.

होटल स्तेला में छठी मंज़िल पर केवल एक कमरा ख़ाली था. हम ऊपर गए. वह औरत काफ़ी भारी थी और हर सीढ़ी पर साँस लेने के लिए रुकती थी. मुझे अच्छा लगा. तोंद के बावजूद मेरी देह हल्की-फुल्की है और मुझे थकाने के लिए छह से ज़्यादा मंज़िलों की ज़रूरत है. छठी मंज़िल पर पहुँचकर वह रुकी और अपने दिल पर दायाँ हाथ रखकर उसने गहरी साँस ली. उसके बाएँ हाथ में कमरे की चाबी थी.

मेरी ओर देखकर मुस्कराने का प्रयास करते हुए उसने कहा , "बहुत ऊपर है."मैंने बिना कोई जवाब दिए उसके हाथ से चाबी ले ली और दरवाज़ा खोल दिया. जेब में डाले अपने बाएँ हाथ में मैंने रिवॉल्वर पकड़ रखा था . मैंने उसे तब तक नहीं छोड़ा जब तक मैंने बत्ती नहीं जला दी. उन्होंने वाश-बेसिन पर हरे साबुन की एक टिकिया रख दी थी, जो एक ग्राहक के लिए काफ़ी थी. मैं मुस्कराया. नहाने के पीढ़ों और साबुन के टुकड़ों की मुझे ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती. वह औरत अब भी मेरी पीठ के पीछे गहरी साँसें ले रही थी. और यह सब मुझे उत्तेजित कर रहा था. मैं घूमा और उसने अपने होठ मेरी ओर बढ़ा दिए, लेकिन मैंने उसे दूर धकेल दिया.

"अपने कपड़े उतारो."मैंने उससे कहा .
कमरे में एक आरामकुर्सी थी जो कपड़े से मढ़ी हुई थी. मैं उस पर बैठकर आराम की मुद्रा में आ गया. ऐसे ही समय मुझे सिगरेट की तलब होती है.
उस औरत ने अपने कुछ कपड़े उतार दिए और मुझे अविश्वास से देखते हुए रुक गई.

"तुम्हारा नाम क्या है? "
"रेनी."
 "अच्छी बात है रेनी, जल्दी करो. मैं इंतज़ार कर रहा हूँ. "
"तुम कपड़े नहीं उतारोगे ? "
"तुम चालू रहो."मैंने कहा , "मेरी फ़िक्र मत करो."

उसने अपने अधोवस्त्र उतार दिए और उन्हें कपड़ों के ढेर पर सावधानी से डाल दिया.
"तुम थोड़े सुस्त हो, प्रिये. क्या तुम अपनी प्रेमिका से ही सब कुछ करवाना चाहते हो ? "
यह कहते हुए वह एकदम मेरी ओर बढ़ी और अपने हाथों के सहारे कुर्सी के हत्थे पर झुकते हुए उसने मेरे सामने घुटनों के बल बैठने की कोशिश की. मैं झटके से उठ खड़ा हुआ.

"ऐसा कुछ नहीं है."मैंने कहा.
"तो तुम मुझसे क्या चाहते हो ? "
"कुछ नहीं. केवल चहलक़दमी. आस-पास घूमो. इससे ज़्यादा मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता." 

वह भद्दी चाल से कमरे में इधर-उधर घूमने लगी. औरतों को नग्न हालत में चहलक़दमी करने से ज़्यादा कोई बात नहीं क्रोधित करती. एड़ियाँ ज़मीन पर सीधी रखने की उनकी आदत नहीं होती. उस वेश्या ने अपनी कमर धनुषाकार कर ली और अपनी बाँहें लटका लीं. मैं जैसे स्वर्ग में था -- गले तक कपड़े पहने मैं आरामकुर्सी पर शांत बैठा था. मैं अपने दस्ताने तक पहने हुए था, जबकि वह औरत मेरी आज्ञा से कपड़े उतार कर नग्न हो गई थी और मेरे सामने इधर-उधर घूम रही थी. उसने अपना सिर मेरी ओर घुमाया और दिखावे के लिए कुटिलता से मुस्कराई.

अचानक मैंने उससे कुछ कहा.
"हरामी कहीं के !"वह शर्माते हुए होठों में बुदबुदाई.
लेकिन मैं ज़ोर से हँसा. तब वह उछली और कुर्सी से अपने अधोवस्त्र उठाने लगी.
"ठहरो ! "मैंने कहा, "अभी समय नहीं हुआ. थोड़ी देर बाद ही मुझे तुम्हें पचास फ़्रैंक देने हैं लेकिन मुझे अपने पैसों की क़ीमत चाहिए."
अपने अधोवस्त्र पकड़ कर घबराए स्वर में वह बोली ,"बहुत हो गया, समझे ? मुझे नहीं पता, तुम क्या चाहते हो ? अगर तुम मुझे बेवक़ूफ़ बनाने के लिए यहाँ लाए हो , तो ... "
तब मैंने अपना रिवॉल्वर निकाल कर उसे दिखा दिया. उसने गम्भीरता से मुझे देखा और बिना एक भी शब्द बोले अपने अधोवस्त्र वापस नीचे डाल दिए .

"शुरू हो जाओ , "मैंने उससे कहा , "कमरे में टहलती रहो ."

वह नग्न हालत में ही और पाँच मिनट तक कमरे में घूमती रही. फिर मैंने उसे अपनी छड़ी दी. वह चुपचाप वह सब करती रही जो मैंने उससे कहा. उसके बाद मैं उठा और मैंने उसे पचास फ़्रैंक का नोट थमा दिया. उसने वह नोट ले लिया.

"फिर मिलेंगे, "मैंने कहा, "उम्मीद है,  इन पैसों के बदले मैंने तुम्हें ज़्यादा नहीं थकाया."

पर उस रात मैं अचानक ही उठ बैठा. उसका चेहरा, उसे रिवॉल्वर दिखाते समय उसकी आँखों का भाव और हर सीढ़ी पर हिलता हुआ उसका थुलथुल पेट मुझे बीच रात में याद आने लगे .

क्या बेवक़ूफ़ी है , मैंने सोचा. मुझे बेहद अफ़सोस हुआ. जब मैं उसके साथ था, मुझे तब उसे गोली मार देनी चाहिए थी.  उसके पेट में अनेक छेद कर देने चाहिए थे. उस रात और अगली तीन रातें अपने सपने में मैंने उसकी नाभि के चारो ओर छह गोल छोटे-छोटे लाल छेद देखे.



(दो)
  
इस सब का नतीजा यह हुआ कि मैं रिवॉल्वर लिए बिना कहीं बाहर नहीं निकलता. मैं लोगों की पीठ देखता और उनकी चाल से यह कल्पना करता कि यदि मैं इन्हें गोली मार दूँ तो ये कैसे लगेंगे. मेरी आदत थी कि हर रविवार को शास्त्रीय संगीत सभा ख़त्म होने के बाद मैं शातेले के आस-पास घूमता था.
छह बजे के क़रीब मैंने घंटी की आवाज़ सुनी और फिर वहाँ काम करने वाले लोगों को शीशे के दरवाज़ों को खोलकर हुक से बाँधते हुए देखा. यह शुरुआत थी. धीरे-धीरे भीड़ बाहर निकली. लोग मानो तैरते हुए क़दमों से चल रहे थे. आँखों में अभी भी सपने सँजोए, दिलों में सुंदर भावनाएँ लिए वे जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आ रहे थे. मैंने अपना दाहिना हाथ जेब में डालकर पूरी ताकत से रिवॉल्वर का हत्था पकड़ लिया. कुछ पल बाद मैंने खुद को उन पर गोलियाँ चलाते देखा. मैंने उन्हें मिट्टी के मटकों की तरह तोड़ दिया. गोली से उड़ा दिया. वे एक-एक करके उड़ते गए और बचे हुए भयभीत लोग दरवाज़ों पर लगे शीशे को तोड़कर वापस थिएटर में भागने लगे. यह बहुत उत्तेजक खेल था. जब खेल ख़त्म हुआ तो मेरे हाथ काँप रहे थे. मुझे अपना होश सँभालने के लिए त्रेहेर के शराबख़ाने में जा कर कोन्याक पीनी पड़ी.

मैं स्त्रियों को जान से नहीं मारता. मैं या तो उनके गुर्दे में गोली मारता या उनकी पिंडलियों में, ताकि वे नाचने लगें.

मैंने अभी तक कोई फ़ैसला नहीं किया था. पर मैंने हर काम ध्यान से किया. मैंने छोटे-छोटे ब्योरों से शुरुआत की. मैं डेन्फ़र्ट-रोशेरो की 'शूटिंग-गैलरी'में अभ्यास करने गया. मेरा निशाना ज़्यादा सधा हुआ नहीं थालेकिन आदमी बड़ा लक्ष्य होता है. ख़ास करके तब जब आप नली सटा कर गोली मारते हैं. फिर मैंने अपने विज्ञापन का प्रबंध किया. मैंने ऐसा दिन चुना जब मेरे सभी सहकर्मी दफ़्तर में इकट्ठे हों. सोमवार की सुबह. मेरे उनके साथ हमेशा दोस्ताना संबंध रहे हैं, हालाँकि मैं उनसे हाथ मिलाते हुए डरता था. वे अभिवादन करने के लिए अपने दस्ताने उतार लेते. हाथों को नंगा करने, दस्तानों को फिर से पहनने और उँगलियों पर धीरे-धीरे सरकाने तथा झुर्रियों से भरी नग्नता को प्रदर्शित करने का उनका तरीका बेहद अश्लील था. मैं अपने दस्ताने हमेशा पहने रहता.

सोमवार को हम ज़्यादा काम नहीं करते थे. व्यापारिक सेवा विभाग से टाइपिस्ट हमारे लिए पावतियाँ ले आती थी. लोमोर्सिस खुश होकर उससे मज़ाक करता और उसके चले जाने के बाद वे सब तृप्त भाव से उसकी सुंदरता की चर्चा करते. फिर वे लिंडबर्ग के बारे में बात करते. मैंने उनसे कहा,"मुझे काले नायक पसंद हैं."

 "नीग्रो ? "मसी ने पूछा .
"नहीं , काले. जैसे काला जादू में. लिंडबर्ग श्वेत नायक है. मुझे उसमें कोई रुचि नहीं है."
"हाँ , अटलांटिक पार करना बहुत आसान है न ."बूखसिन ने खट्टे मन से कहा.
"मैंने उन्हें काले नायक की अपनी संकल्पना से परिचित करवाया."
"अराजकतावादी ? "
"नहीं, "मैंने शांत भाव से कहा."देखा जाए तो अराजकतावादी मनुष्य से प्रेम करते हैं."
"फिर वह कोई पागल होगा."

मसी कुछ पढ़ा-लिखा था. उसने हस्तक्षेप किया. "मैं तुम्हारे पात्र को जानता हूँ."उसने मुझसे कहा , "उसका नाम इरोस्ट्रेटस है. वह प्रसिद्ध होना चाहता था और उसे दुनिया के आश्चर्यों में से एक इफ़ीसस के मंदिर को जलाने से बेहतर कोई काम नहीं सूझा."
"और उस मंदिर को बनवाने वाले व्यक्ति का क्या नाम था ? "

"मुझे याद नहीं , "उसने स्वीकार किया."शायद कोई भी उसका नाम नहीं जानता है. "
"सच ? लेकिन तुम्हें इरोस्ट्रेटस का नाम याद है. क्या तुम जानते हो , चीज़ों के बारे में उसकी कल्पना ज़्यादा बुरी नहीं थी ."

इन्हीं शब्दों के साथ बातचीत ख़त्म हो गई , पर मैं एकदम शांत था.

समय आने पर उन्हें ये बातें याद आएँगी. मैंने इससे पहले इरोस्ट्रेटस का नाम नहीं सुना था. पर मेरे लिए उसकी कथा प्रेरणा का स्रोत थी . वह दो हज़ार साल से भी पहले मर चुका था, पर उसका कृत्य अब भी काले हीरे-सा चमक रहा था. मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी नियति लघु और त्रासद होगी. पहले मुझे डर लगा, किंतु फिर मैं इसका आदी हो गया. यदि आप इस बारे मे विशेष दृष्टिकोण से सोचें तो यह भयानक लग सकता है, पर दूसरी ओर यह बीत रहे पल को काफ़ी शक्ति और सुंदरता प्रदान करता है. सड़क पर चलते हुए मुझे अपने भीतर एक अजीब-सी ताकत का अहसास होता. रिवॉल्वर मेरे पास था -- वह चीज़ जो, जो विस्फोट और आवाज़ करती है. लेकिन अब मुझे वह चीज़ शक्ति नहीं देती थी. दरअसल शक्ति और विश्वास मेरे भीतर से उत्पन्न हो रहा था. जैसे मैं खुद किसी रिवॉल्वर की तरह था , तारपीडो की तरह था, बम की तरह था. मैं भी अपने शांत जीवन के अंत में एक दिन फट जाऊँगा और मैग्नीशियम की तरह लघु और तेज चमक से विश्व को प्रकाशमय कर दूँगा. उस समय मुझे कई रातों तक एक ही सपना आया. मैं अराजकतावादी था. मैंने खुद को ज़ार के रास्ते में डाल दिया था और मेरे पास आग उगलने वाला एक यंत्र था. निश्चित समय पर जुलूस निकला, बम फटा और हम भीड़ के सामने हवा में उछाल दिए गए -- मैं , ज़ार और सुनहरे फ़ीतों वाले तीन अधिकारी.

इसके बाद मैंने कई हफ़्तों तक दफ़्तर में अपनी शक्ल नहीं दिखाई. मैं मुख्य मार्गों पर अपने भावी शिकारों के बीच घूमता या कमरे में बंद होकर अपनी योजनाएँ बनाता. अक्टूबर के शुरू में उन्होंने मुझे नौकरी से निकाल दिया . तब मैंने आराम से यह पत्र लिखा , जिसकी मैंने एक सौ दो प्रतियाँ बनाईं --

               
'श्रीमन्

आप प्रसिद्ध व्यक्ति हैं और आपकी रचनाएँ हज़ारों की संख्या में बिकी हैं. मैं आपको बताता हूँ, क्यों -- क्योंकि आप मनुष्य से प्यार करते हैं. आपके लहू में मानवतावाद है. आप भाग्यशाली हैं. जब आप लोगों के साथ होते हैं तो अपना विस्तार कर लेते हैं. जब भी आप अपने जैसा कोई इंसान देखते हैं, आपमें उसके लिए सहानुभूति उमड़ आती है, भले ही आप उसे जानते भी न हों. आपमें उसके शरीर के प्रति, उसकी टाँगों के प्रतिऔर इन सबसे ज़्यादा उसके हाथों के प्रति रुचि है -- इससे आपको ख़ुशी होती है,क्योंकि उसके हर हाथ में पाँच उँगलियाँ हैं और वह बाक़ी उँगलियों के साथ अपना अँगूठा भिड़ा सकता है. जब आपका पड़ोसी मेज़ से क़लम उठाता है तो आप खिल उठते हैं, क्योंकि उसे उठाने का एक तरीका है जो बेहद मानवीय है और जिसका वर्णन अकसर आपने अपनी रचनाओं में किया है. यह किसी बंदर के तरीके से कम लचीला और कम तेज है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा समझदार तरीका है. आप भी आदमी की गहरे ज़ख़्म खाई मुद्रा से और उसकी प्रसिद्ध दृष्टि से प्यार करते हैं. यह जंगली पशु के तौर-तरीक़ों से अलग है. इसलिए आपके लिए इंसान से उसी के बारे में बात करने के लिए सही लहज़ा ढूँढ़ना आसान है -- मर्यादित, किंतु उन्माद से भरा हुआ. लोग आपकी किताबों पर लालचियों की तरह टूट पड़ते हैं. उन्हें ख़ूबसूरत आरामकुर्सियों पर बैठकर पढ़ते हैं. वे महान प्रेम के बारे में सोचते हैं -- शांत और त्रासद प्रेम , जो आप उनके सामने प्रस्तुत करते हैं. वह उनकी अनेक कमियों, जैसे बदसूरत होने, रिश्तों में धोखेबाज़ी और पहली जनवरी को वेतन वृद्धि न होने की भरपाई कर देता है. तब वे ख़ुशी से आपकी नई पुस्तक के बारे में कहते हैं -- अच्छी रचना है.

मुझे लगता है, आप यह जानने को उत्सुक होंगे कि वह व्यक्ति कैसा होगा जो मनुष्य से प्यार नहीं करता. ठीक है , मैं वैसा ही आदमी हूँ और मैं उनसे इतना कम प्यार करता हूँ कि जल्दी ही मैं बाहर जाकर उनमें से आधा दर्जन की हत्या कर दूँगा. शायद आप हैरान होंगे कि केवल आधा दर्जन ही क्यों ? क्योंकि मेरे रिवॉल्वर में केवल छह गोलियाँ हैं. अमानवीयता है न ? और एकदम असभ्य कृत्य? लेकिन मैं आप को बताता हूँ कि मैं उनसे प्यार नहीं करता. मैं समझता हूँ, आप क्या महसूस करते हैं . किंतु जो कुछ आपको अपनी ओर खींचता है, वही मुझमें घृणा उत्पन्न करता है. मैंने आप ही की तरह लोगों को हर वस्तु पर निगाह रखे, बाएँ हाथ से इकोनॉमिक रिव्यू के पन्ने धीरे-धीरे पलटते हुए देखा है. क्या यह मेरी ग़लती है कि मैं समुद्री सिंहों को भोजन करते हुए देखना अधिक पसंद करता हूँ ? इंसान अपने चेहरे को शरीर-विज्ञान के खेल में बदले बिना उससे कोई काम नहीं ले सकता. जब वह मुँह बंद करके कुछ चबाता है तो उसके जबड़े के कोने ऊपर-नीचे होते रहते हैं. मैं जानता हूँ, आप इस दुख भरे आश्चर्य को पसंद करते हैं. पर मुझे इससे परेशानी होती है, न जाने क्यों ; मैं शुरू से ही ऐसा हूँ.

यदि हम लोगों में केवल रुचियों का ही अंतर होता तो मैं आपको कष्ट नहीं देता. पर यह सब कुछ ऐसे घटित होता है जैसे सारी सज्जनता आपमें ही है, मुझमें कुछ नहीं. मैं न्यूबर्ग झींगे को पसंद या नापसंद करने के लिए तो स्वतंत्र हूँ, किंतु यदि मैं मनुष्यों को नापसंद करता हूँ तो मैं कमीना हूँ और सूरज की रोशनी तले मेरे लिए कोई जगह नहीं. उन्होंने जीवन की संचेतना पर जैसे एकाधिकार कर लिया है. मेरा ख़्याल है कि आप मेरा मतलब समझ जाएँगे. पिछले तैंतीस सालों से मैं ऐसे बंद दरवाज़े खटखटा रहा हूँ जिन पर लिखा है -- 'यदि आप मानवतावादी नहीं हैं तो आपके लिए प्रवेश निषिद्ध है. 'मुझे सब कुछ त्यागना पड़ा है. मुझे चुनाव करना पड़ा -- वह या तो असंगत और दुर्भाग्यपूर्ण प्रयत्न रहा या देर-सवेर वह उनके फ़ायदे में बदल गया. मैं खुद को उन विचारों से अलग नहीं कर सका, जिन्हें बनाते समय मैंने उनका स्थान साफ़-साफ़ नियत नहीं किया था. वे मेरे भीतर संघटित जातियों की तरह बने रहे. मेरे प्रयोग किए हथियार तक उनके थे. उदाहरण के लिए, शब्द -- मैं अपने शब्द चाहता था, किंतु जिन शब्दों का मैं इस्तेमाल करता था , वे पता नहीं कितनी चेतनाओं से घिसटकर निकले हैं. उन आदतों के कारण जो मैंने दूसरों से पाई हैं , वे खुद-ब-खुद मेरे ज़हन में क्रमबद्ध हो जाते हैं. और यह भी असंगतिहीन नहीं है कि मैं लिखते समय उनका प्रयोग कर रहा हूँ., हालाँकि यह अंतिम बार है.

मैं आपको बताता हूँ, लोगों से प्रेम कीजिए वरना उन्हें हक़ है कि वे आपको बाहर खदेड़ दें. ख़ैर, मैं खदेड़ा जाना नहीं चाहता. जल्दी ही मैं अपना रिवॉल्वर लूँगा, नीचे सड़क पर जाऊँगा और यह सुनिश्चित करूँगा कि कोई उन लोगों का कुछ बिगाड़ सके. अलविदा. शायद आप ही वह हों जिससे मैं मिलूँगा.

आप इस बात का अंदाज़ा बिलकुल नहीं लगा पाएँगे कि आपको हैरान करने में मुझे कितनी ख़ुशी होगी. यदि ऐसा नहीं होता -- और इसकी सम्भावना ज़्यादा है -- तो कल का अख़बार पढ़िएगा. उसमें आप पाएँगे कि पॉल हिल्बेयर नाम के शख़्स ने उन्माद के पल में छह राहगीरों की हत्या कर दी. समाचारपत्रों के गद्य के महत्त्व को आप औरों से अधिक समझते हैं. आप समझते हैं न कि मैं 'उन्मादी 'नहीं हूँ. इसके ठीक उलट मैं एकदम शांतचित्त हूँ और महोदय, मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इन विशिष्ट भावनाओं में मेरे विश्वास को स्वीकार करें.
                                                                                --- पॉल हिल्बेयर


मैंने वे एक सौ दो पत्र एक सौ दो लिफ़ाफ़ों में डाले और उन पर फ़्रांस के एक सौ दो लेखकों के पते लिख दिए. उसके बाद मैंने डाक-टिकटों की छह गड्डियों के साथ सब कुछ अपनी मेज की दराज में डाल दिया.

अगले दो सप्ताह मैं बहुत कम बाहर निकला. मैंने खुद को धीरे-धीरे अपने अपराध में जज़्ब होने दिया. अकसर मैं शीशे में देखता कि मेरे चेहरे में ख़ुशी से बदलाव हो रहा है. मेरी आँखें बड़ी हो गयी थीं. ऐसा लगता था जैसे वे मेरे सारे चेहरे को खा रही हों. वे चश्मे के पीछे काली और कोमल लगती थीं और मैं उन्हें नक्षत्रों की तरह घुमाता था. वे आँखें किसी कलाकार या हत्यारे की आँखों की तरह तेज थीं, पर मैंने अंदाज़ा लगाया कि सामूहिक हत्याओं के बाद उनमें और भी गहरा परिवर्तन होगा. मैंने दो ख़ूबसूरत लड़कियों की फ़ोटो देखी है -- नौकरानियों की , जिन्होंने अपनी मालकिनों की हत्या करके उन्हें लूट लिया था. मैंने उनके पहले के और बाद के चित्र देखे हैं. पहले के चित्रों में उनके चेहरे किसी बदसूरत भूत के कॉलरों पर जमे शर्मीले फूलों-से दिखाई देते थे. किसी सतर्क घूँघट बनाने वाली कंघी ने उनके बालों को बिलकुल एक जैसा आकार दिया था. उनके घुँघराले बालों से भी ज़्यादा भरोसा दिलाने वाली चीज़ थी उनके कॉलर और फ़ोटोग्राफ़र के सामने होने का उनका अहसास. उनमें बहनापे की समानता लगती थी -- एक ऐसी समानता, जो फ़ौरन ख़ून के रिश्तों और प्राकृतिक-पारिवारिक सम्बन्धों को उजागर कर देती है. बाद की फ़ोटो में उनके चेहरे आग जैसे दैदीप्यमान थे. उनकी गर्दनें उन क़ैदियों की तरह नंगी थीं जिनके सिर अभी -अभी उड़ाए जाने हो. हर जगह झुर्रियाँ थीं. डर और घृणा की डरावनी झुर्रियाँ, जैसे कोई हिंस्र पशु उनके चेहरों पर चला हो और अपनी छाप छोड़ गया हो . और वे आँखें -- वे काली , उथली आँखें मेरी आँखों की तरह थीं.

"यदि यह अपराध, जो अधिकांश में केवल अवसर था, "मैंने खुद से कहा , "इन लड़कियों के चेहरों को बदलने के लिए पर्याप्त है, तो मैं उस अपराध से क्या अपेक्षा नहीं कर सकता, जिसकी कल्पना मैंने स्वयं की है और जिसे मैं खुद शक्ल दूँगा . " वह मुझ पर अधिकार पा लेगा और मेरे सारे मानवीय भद्देपन को दूर कर देगा ... अपराध , जो उसे दोहरे रूप में करने वाले आदमी के जीवन को काट देता है. ऐसा समय आ सकता है जब कोई पीछे लौटना चाहे, पर यह चमकदार चीज़ उस समय आपके पीछे होती है, आपका रास्ता रोकती हुई. मेरी माँग केवल एक घंटे की थी ताकि मैं अपने कृत्य का आनंद ले सकूँ.

मैंने ज़्यादा खर्चीली ज़िंदगी शुरू कर दी. मैंने रुए वेविन पर स्थित एक रेस्तराँ के मालिक से सुबह-शाम अपना खाना मँगवाने का प्रबंध कर लिया. वेटर ने घंटी बजाई पर मैंने दरवाज़ा नहीं खोला. मैंने कुछ मिनट इंतज़ार किया, फिर दरवाज़ा आधा खोला और फ़र्श पर रखी थाली में भाप छोड़ती बड़ी प्लेटें देखीं.

27अक्टूबर को शाम छह बजे मेरे पास कुल 17फ़्रैंक और 50सेंतीमे बचे थे. मैंने अपना रिवॉल्वर उठाया, चिट्ठियों का पुलिंदा लिया और नीचे चला गया. मैंने दरवाज़ा जानबूझकर बंद नहीं किया ताकि काम ख़त्म करके लौटते समय मैं ज़्यादा तेज़ी से भीतर आ सकूँ. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मेरे हाथ ठंडे हो गए थे और ख़ून जैसे मेरे सिर में जमा हो रहा था. मेरी आँखों में जलन हो रही थी.

मैंने होटल देस एकोलेस और स्टेश्नरी वाली दुकान की ओर देखा, जहाँ से मैं पेंसिलें ख़रीदता था.  वे जानी-पहचानी नहीं लगीं. मुझे हैरानी हुई . मैंने खुद से पूछा, "यह कौन-सी सड़क है? "

बुलेवा द्यूत मोंते पर्रनास्से लोगों से खचाखच भरा हुआ था. वे मुझे ठेल रहे थे. दबा रहे थे. अपनी कोहनियों या कंधों से मुझे धकेल रहे थे. मैंने खुद को धक्का लगाए जाने का विरोध नहीं किया. मुझमें उनके बीच घुसने की ताकत नहीं थी. किंतु अचानक मैंने खुद को उस भीड़ के बीचों-बीच पाया , भयावह रूप से लघु और अकेला. केवल चाहने भर से वे मुझे चोट पहुँचा सकते थे. मैं अपनी जेब में पड़े रिवॉल्वर के कारण डरा हुआ था. मुझे लगा कि लोग मेरे पास रिवॉल्वर होने का अनुमान लगा सकते हैं. वे अपनी तीखी निगाहों से मुझे घूरते और अपने पाशविक पंजों से मुझे बेधते हुए ख़ुशी भरी घृणा से कहते , ", तुम ... हाँ , तुम्हीं ... !"वे मेरे चिथड़े उड़ा सकते थे. वे मुझे अपने सिरों से भी ऊपर उछाल सकते थे और मैं उनकी बाज़ुओं में कठपुतली की तरह वापस आ गिरता. मैंने अपनी योजना को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर देना बेहतर समझा. मैंने कूपोले में जा कर भोजन किया. वहाँ मैंने 16फ़्रैंक और 80सेंतीमे ख़र्च कर दिए. अब मेरे पास 70सेंतीमे बचे थे और मैंने उनको गटर में फेंक दिया.




(तीन)

मैं तीन दिनों तक अपने कमरे में बिना कुछ खाए, बिना सोए पड़ा रहा. मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था और मुझमें इतना साहस भी न था कि मैं खिड़की के पास चला जाऊँ या बत्ती जला लूँ. सोमवार को किसी ने दरवाज़े पर घंटी बजाई. मैंने अपनी साँस रोक ली और प्रतीक्षा करने लगा. फिर मैं पंजों के बल चलकर गया और अपनी आँख चाबी के छेद से लगा दी. पर मैं केवल काले कपड़े का टुकड़ा और एक बटन देख सका. उस आदमी ने दोबारा घंटी बजाई . फिर वह चला गया. मुझे नहीं पता, वह कौन था. रात में मुझे तरोताज़ा करने वाली चीज़ें दिखाई दीं -- तालवृक्ष , बहता हुआ पानी और गुम्बद के ऊपर नीला, लोहित आकाश. मैं प्यासा नहीं था, क्योंकि मैं हर घंटे नल पर जा कर पानी पी लेता था. पर मैं भूखा था.

मुझे वह वेश्या फिर दिखाई दी. या वह मेरी कल्पना थी. यह सब एक क़िले में था जो शहर से 60मील दूर कॉसेस नॉएरस में था. वह नग्न थी. अकेली. मेरे साथ. रिवॉल्वर से डराते हुए मैंने उसे घुटने के बल झुकने और हाथ-पैरों पर दौड़ने के लिए विवश कर दिया. फिर मैंने उसे एक खम्भे से बाँध दिया और  उसे अच्छी तरह यह समझाने के बाद कि मैं क्या करने वाला हूँ, मैंने उसे गोलियों से भून दिया. इन वेश्याओं ने मुझे इतना परेशान कर दिया था कि मुझे इसी से संतोष करना पड़ा. बाद में मैं अँधेरे में बिना हिले-डुले पड़ा रहा. मेरा सिर एकदम ख़ाली था. पुराना पलंग चरमराने लगा. सुबह के पाँच बज रहे थे. मैं कमरे से बाहर निकलने के लिए कुछ भी दे सकता था, पर मुश्किल यह थी कि सड़क पर लोगों के होने की वजह से मैं नीचे नहीं जा सकता था.

फिर दिन निकल आया. अब मुझे भूख महसूस नहीं हो रही थी , लेकिन मुझे बेइंतहा पसीना आ रहा था. मेरी क़मीज़ पूरी तरह भीग चुकी थी. बाहर धूप निकली हुई थी. तब मैंने सोचा -- "वह बंद कमरे में अँधेरे से घिरा हुआ है. उसने तीन दिनों से न कुछ खाया है , न ही वह सोया है. उन्होंने घंटी बजाई और उसने दरवाज़ा नहीं खोला. जल्दी ही वह सड़क पर जाएगा और हत्याएँ करेगा."

मैंने खुद को डराया. शाम को छह बजे मुझे फिर से भूख सताने लगी. मैं ग़ुस्से से पागल था. मैंने मेज-कुर्सियों से ठोकर खाई. फिर मैंने कमरों, रसोई और शौचालय की बत्तियाँ जला दीं, और बेहद ऊँची आवाज़ में गाने लगा. इसके बाद मैंने अपने हाथ धोए और बाहर चला गया. सारी चिट्ठियों को डाक के बक्से में डालने में मुझे पूरे दो मिनट लग गए. मैंने उन्हें दस-दस करके भीतर धकेला. कुछ लिफ़ाफ़े तो मैंने मोड़ भी दिए होंगे. फिर मैं बुलेवा द्यू मोंते पार्नास्से पर रुए ओडीसा तक बढ़ गया. मैं एक बिसाती की खिड़की के आगे रुका और जब मैंने अपना चेहरा देखा तो सोचा , "आज रात ! "

मैं रुए ओडीसा के सिरे पर रुक गया. सड़क का खम्भा मुझ से ज़्यादा दूर नहीं था. मैं इंतज़ार करने लगा. दो औरतें एक-दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले गुज़रीं.

मुझे ठंडा पसीना आ रहा था . कुछ देर बाद मैंने तीन आदमियों को आते हुए देखा . मैंने उन्हें जाने दिया. मुझे छह लोगों की ज़रूरत थी. बायीं ओर वाले आदमी ने मुझे देखा और जीभ से चटकारा लिया . मैंने अपनी आँखें घुमा लीं.

सात बज कर पाँच मिनट पर एडगर-क्विनेट मुख्य मार्ग पर लोगों के दो झुंड आए. उनमें दो बच्चे , एक पुरुष और एक महिला थी. उनके पीछे तीन वृद्धाएँ थीं. मैं एक क़दम आगे बढ़ा. महिला ग़ुस्से में लग रही थी और छोटे लड़के की बाँह खींच रही थी. पुरुष धीरे से बोला , "कितना कमीना है ! "

मेरा दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था कि मेरी बाँह पर चोट कर रहा था. मैं आगे बढ़ा और उनके सामने खड़ा हो गया. जेब में मेरी उँगलियाँ रिवॉल्वर के ट्रिगर को घेरे हुए थीं.
"माफ़ कीजिए."पुरुष मुझसे टकराते हुए बोला. उसी समय मुझे याद आया कि मैंने अपने मकान का दरवाज़ा बंद कर दिया था और इससे मुझे ग़ुस्सा आ गया. मैं जान गया कि मुझे उसे खोलने में अपना क़ीमती समय नष्ट करना पड़ेगा. इस बीच वे लोग मुझसे और दूर होते जा रहे थे. मैं घूमा और यांत्रिक ढंग से उनके पीछे चलने लगा , पर अब मुझमें उन पर गोली चलाने की इच्छा नहीं बची थी.

वे मुख्य सड़क पर भीड़ में खो गए. मैं दीवार के सहारे खड़ा हो गया. मैंने आठ और नौ बजे के घंटे सुने. मैंने खुद से दोहराया, "मैं इन लोगों को क्यों मारूँ जो पहले से ही मरे हुए हैं !"और मैंने हँसना चाहा. एक कुत्ता आया और मेरे पैर सूँघने लगा.

जब वह लम्बा-तगड़ा आदमी मेरे पास से गुज़रा तो मैं उछल कर उसके पीछे हो लिया. मैं उसके डर्बी हैट और ओवरकोट के कॉलर के बीच उसकी लाल गर्दन की झुर्री देख सकता था. वह चलते हुए थोड़ा उचक रहा था और गहरी साँसें ले रहा था. वह भारी-भरकम दिखाई देता था. मैंने जेब से अपना रिवॉल्वर निकाला. वह ठंडा और चमकदार था. उसने मेरे भीतर नफ़रत पैदा कर दी. मैं यह अच्छी तरह याद नहीं कर पा रहा था कि आख़िर मुझे उससे क्या काम लेना है. कभी मैं रिवॉल्वर को देखता, कभी उस आदमी की गर्दन को. मुझे लगा जैसे उसकी गर्दन की झुर्री मुझ पर कड़वी मुस्कान फेंक रही थी. मुझे हैरानी हुई कि कहीं मैं अपना रिवॉल्वर नाले में न डाल दूँ.

अचानक वह आदमी मुड़ा और मुझे घूरने लगा. वह चिढ़ा हुआ था. मैं पीछे हटा.
"मैं आपसे पूछना चाहता था .... "

लगता था जैसे वह सुन ही नहीं रहा था. वह केवल मेरे हाथों की ओर देख रहा था. मुझे बात आगे बढ़ाने में मुश्किल हुई," ... कि रुए दे लागाइते को कौन-सा रास्ता जाता है ? "
उसका चेहरा भारी था. उसके होठ काँप रहे थे. वह कुछ नहीं बोला. उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया. मैं और पीछे हटा और बोला , "मैं चाहता ..."

तब मैं जानता था कि मैं चीख़ना शुरू कर दूँगा. मैं यह नहीं चाहता था. मैंने उसके पेट पर तीन बार गोली चलाई. वह बेवक़ूफ़ाना भाव लिए घुटनों के बल गिरा और उसका हाथ बाएँ कंधे पर लुढ़क गया.

"हरामी कहीं का ,"मैंने कहा , "सड़ा हुआ आदमी ! "

फिर मैं भागा. मैंने उसे खाँसते हुए सुना. मैंने शोर की आवाज़ और अपने पीछे भागते हुए क़दमों की चरमराहट भी सुनी. किसी ने पूछा , "झगड़ा हुआ था क्या ? "उसके ठीक बाद कोई चिल्लाया , "ख़ून ! ख़ून ! "मैंने सोचा , इस शोर का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है.

मैंने केवल एक बहुत बड़ी ग़लती कर दी थी -- रुए ओडीसा पर एड्गर क्विनेट की ओर भागने के बजाए मैं बुलेवा द्यू मौंतेपार्नास्से की ओर भाग रहा था. जब मुझे इसका अहसास हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मैं भीड़ से घिर चुका था. हैरानी से भरे हुए चेहरे मुझे घूर रहे थे,   ( मुझे एक महिला का भारी और खुरदरा चेहरा याद है जो पंखों के गुच्छे वाली एक टोपी लगाए थी) और मैंने अपने पीछे रुए ओडीसा से आने वाली चिल्लाहटें सुनीं -- "ख़ून , ख़ून ! "

एक हाथ ने मुझे कंधे से पकड़ लिया. मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठा. मैं इस भीड़ के हाथों पिट कर मरना नहीं चाहता था. मैंने दो बार गोली चला दी. लोगों ने चीख़ना और इधर-उधर भागना शुरू कर दिया. मैं एक कैफ़े में घुस गया. मैं जब खाने-पीने वालों के बीच से हो कर भागा तो वे सब चौंके, पर किसी ने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की. मैंने कैफ़े के अंत में स्थित शौचालय में खुद को बंद कर लिया. अभी मेरे पास रिवॉल्वर में एक गोली बाक़ी थी.

कुछ पल बीत गए. मैं बुरी तरह हाँफ़ रहा था और मेरी साँस फूल गई थी. सब कुछ असामान्य रूप से मौन था , जैसे लोग जानबूझकर शांत हों.

मैंने रिवॉल्वर को अपनी आँखों के सामने किया और उसका छोटा-सा छेद देखा, गोल और काला -- वहाँ से गोली निकलेगी, पाउडर मेरा चेहरा जला देगा. मैंने बाँह नीचे की और इंतज़ार करने लगा . कुछ पलों के बाद वे आ गए. काफ़ी भीड़ होगी -- मैंने फ़र्श पर पैरों की आहट से अनुमान लगाया . वे कुछ फुसफुसाए और फिर शांत हो गए. मैं अभी ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहा था और सोच रहा था कि दरवाज़े के दूसरी ओर वे मेरी साँसों की आवाज़ सुन रहे होंगे. उनमें से कोई आगे बढ़ा और उसने दरवाज़े की कुंडी घुमाई. वह मेरी गोली से बचने के लिए ज़रूर दरवाज़े से चिपका खड़ा होगा. मैं अभी गोली चलाना चाहता था, लेकिन अंतिम गोली मेरे लिए थी.

वे किसलिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ? मुझे आश्चर्य हुआ. अगर उन्होंने अचानक झटके से दरवाज़ा तोड़ दिया तो मेरे पास इतना भी समय नहीं होगा कि मैं खुद को गोली मार सकूँ और वे मुझे ज़िंदा पकड़ लेंगे. पर उन्हें कोई जल्दी नहीं थी. वे मुझे मरने के लिए बहुत समय दे रहे थे. हरामज़ादे , सब-के-सब डरे हुए थे.

कुछ देर बाद एक आवाज़ ने कहा , "ऐ ... दरवाज़ा खोल दे. हम तुझे मारेंगे नहीं ."फिर ख़ामोशी छा गई और उसी आवाज़ ने दोबारा कहा , "तू बचकर नहीं निकल सकता ."

मैंने कोई जवाब नहीं दिया. मैं अभी भी हाँफ़ रहा था. गोली चलाने लायक हिम्मत जुटाने के लिए मैंने खुद से कहा, "अगर उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो वे मुझे पीटेंगे, मेरे दाँत तोड़ देंगे. हो सकता है , मेरी एक आँख ही निकाल लें."

क्या वह विशालकाय आदमी मर गया था ? या मैंने उसे सिर्फ़ घायल किया था ? शायद दूसरी दोनों गोलियाँ भी किसी को न लगी हों .... वे लोग कुछ तैयारी कर रहे थे. वे फ़र्श पर कोई भारी चीज़ घसीट रहे थे. मैंने तेज़ी से रिवॉल्वर की नली अपने मुँह से लगाई. पर मैं गोली नहीं चला पाया, यहाँ तक कि मैं अपनी उँगली भी ट्रिगर पर नहीं रख पाया. चारो ओर गहरा सन्नाटा था .


मैंने रिवॉल्वर फेंककर दरवाज़ा खोल दिया.
____________ 


सुशांत सुप्रिय
A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड ,  इंदिरापुरम
ग़ाज़ियाबाद -201014 (उ. प्र.)

मो: 8512070086/ई-मेल : sushant1968@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेमशंकर शुक्ल

$
0
0
भीमबैठका









भीमबैठका आवासीय पुरास्थल है, यह आदि-मनुष्यों द्वारा निर्मित शैल चित्रों के लिए प्रसिद्ध है .भारत के लिए तो यह राष्ट्रीय महत्त्व का है ही यूनेस्को ने भी इसे विश्व धरोहर के रूप में स्वीकार किया है. भीम से जोड़कर देखने के कारण संभवत: इसे भीमबैठका कहा जाता है. पर यह प्राचीनतम है, पूर्व पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल (लगभग २५ लाख वर्ष पूर्व) तक फैला हुआ. यहाँ 750 शैलाश्रय हैं जिनमें 500 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं.

प्रेमशंकर शुक्ल ने भीमबैठका को आधार बनाकर सौ से भी अधिक कविताएँ लिखी हैं. जो ‘भीमबैठका एकांत की कविता है’ नाम  से शीघ्र प्रकाश्य है.

किसी एक खास विषय या वस्तु को लेकर उसे तरह-तरह से देखने, समझने, महसूस करने और फिर निर्मित करने का काव्यात्मक उपक्रम कम देखने को मिलता है. प्रेमशंकर शुक्ल ने भीमबैठका को इसी तरह सृजित किया है. आदि मनुष्यों के ये आश्रयस्थल कितने अर्थगर्भित और आलोकित है  इन कविताओं को पढ़ते हुए जाना जा सकता है. यह पत्थर और शब्दों की जुगलबंदी है जिसमें कविता बहती है. ये आदिम और आधुनिक एक साथ हैं.  



भीमबैठका : प्रेमशंकर शुक्ल                                               








भीमबैठका

भीमबैठका सुन्दरता की आदत है

भीमबैठका की आदिवासी चट्टानों में अथाह मौन
मौन का महात्म्य है

भीमबैठका रहवास का उजाला है
सर्जन-विश्वास का भी

यहाँ शैलचित्रों के रंग
हमारे जीवन के लमहों को रंगते रहते हैं
कि फीकी न हो हमारी उमर

जिस ताल पर भीमबैठका की चट्टान में
समूह नृत्य चल रहा है वही है आदिताल

आदि बसाहट भीमबैठका की गुफाओं में
हमारे पुरखों की साँसों का संगीत है
जिसकी आवाजाही अँधेरे और उजाले के बीच है

भोर में  चट्टानों की पीठ पर जो तारे गिरते हैं
हमारे सपनों में उनकी खनक सुनाई देती है
और समृद्ध होता है जीवन-संगीत

भीमबैठका में कविता का एकान्त है
और पृथ्वी की किताब में
भीमबैठका एकान्त की कविता है.






चट्टानों की बस्ती

चट्टानों की खूबसूरत बस्ती है भीमबैठका
भीमबैठका की अग्निगर्भा चट्टानों की धातु
सांगीतिक है. इनमें कनक की खनक नहीं
कलाओं की झनक-झन सुनायी देती है
मजबूत धातु है इनकी इसीलिए हैं यह भीमकाय
और इनके पास आते रहे हैं गदाधर भीमसेन

सुंदर कवि शब्दों को बजा-बजा कर
रचता है कविता-पंक्ति
चित्रांकन में कुशल चित्रकार रंगों को माँज-माँजकर
यह इनके धातुई प्रकृति का चमत्कार है
भीमबैठक की चट्टानों पर भी उछालो कोई धातु
तो वह उसके संगीत के साथ ही करती है उसे वापिस

बहुत पानी है इन चट्टानों में
तभी तो इनकी छाया है शीतल-तरल-अथाह

वैशाख-जेठ की दोपहरों में
चट्टानों की छाया देती हैं हमें अनिर्वचनीय सुख

अपने कहने में छाया की कई-कई तहें हैं
और धूप के कितने-कितने आरोह-अवरोह

कंदराओं में बैठकर हवा का संगीत सुनने से
जीवन की सुन्दरता गुनने से चट्टाने खुश होती हैं

गुफाओं की तरल छाँव को
आप हिलाते हैं और आ जाता है
कविता में आलोडऩ

बादल छाँह करते हैं
तो तपते पेड़ हाथ उठाकर पूछते हैं
बारिश कब आएगी

गुफाओं के बीच दिखता नीला आकाश
वनवासी पाण्डवों-युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम,
नकुल, सहदेव और द्रोपदी के मध्य
अचानक आ गए वासुदेव लगता है

भीमबैठका चट्टानों की खूबसूरत बस्ती है
तभी तो यहाँ आने के लिए कविता
तरसती है और बहाती रहती है
कितना तो पसीना अपना

कविता के पसीने में
समय का नमक रहता है.






घोषणा
(श्री देवीलाल पाटीदार के लिए)

आदि बसावट भीमबैठका के शैलचित्र
बनाते हुए आदि मनुष्य ने
अपने पूरम्पूर मनुष्य होने की घोषणा की है
और अपनी मनुष्यता का किया है
सुन्दर उद्घाटन

रचना अपने को समझना है
समझाना भी
चाहे शब्दकाया में हो या चित्रकाया में

चट्टान-चित्रों की रचना में
मनुष्य को क्षण जीना आया

रचने के अनूठे क्षणों में ही
मनुष्य ने अपने मनुष्य की
गहरी पहचान की है

भीतर की अथाह जलराशि तक
बनायी है अपनी पहुँच

अपनी ऊष्मा और आँच को
भीतर की आँख से बखूबी
निहार सका है वह

सर्जना की गहरी ताकत को भी
समझ सका है वह रचने के ही
दरमियान

रचने के उल्लास-आवेग में
यह घोषणा स्पष्ट सुनी जा सकती है कि
सृजन-क्षण उन्माद वृत्तियों का
सच्चा निषेध हैं

सर्जन में ही विस्तार है
मनुष्यता की उजास का

सर्जन हमारे भरोसे का सत्याग्रह है.






चित्र सोच रहे हैं
(वरिष्ठ चित्रकार श्री अखिलेश के लिए)

चित्र सोच रहे हैं
अपने रंग
अपने आकार-प्रकार

रेखाएँ जो रंग से बाहर निकल गई हैं
या रूप से भी
यह चित्रकार की चूक नहीं है
अचानक उठ आयी हूक है

चित्र देख रहे हैं
मेरी ही आँख से मुझे
खड़ा हूँ मैं
थामे हुए चट्टान का पल्लू

चित्र सोच रहे हैं
मेरे मस्तिष्क से भी
चित्र सोच रहे हैं
दुनिया के हर दिल-दिमाग से

चित्र सोच रहे हैं
देखते हुए डार से बिछुड़ती पत्ती
छोटे से छत्ते में इतनी मधुमक्खियों का
रहना एक साथ

ग्रहमंडल या ब्रह्माण्ड में पृथ्वी भी
एक छत्ते की तरह है
जहाँ रहते हैं हम सब साथ
पता नहीं मैं अपने हिस्से का
शहद बना भी पा रहा हूँ या नहीं

भीमबैठका में
चित्र सोच रहे हैं
उन्हें रचने वाली उँगलियाँ

मैं यहाँ भोपाल में
चित्रों का सोचना
सुन रहा हूँ

चित्र सोच रहे हैं
जितना जीवन
उतना ही विस्तार
पा रहा है विन्यास मनुष्यता का

चित्र सोच रहे हैं
इसीलिए दिल-दिमाग में
रंगत है. भीमबैठका घर और चित्र की
आदिसंगत है..


भीमबैठका






चट्टान
(श्री मंजूर एहतेशाम के लिए)

घास की हरी बेलें चट्टान से लिपट रही थीं
और चट्टान की आत्मा और देह में
हो रही थी गुदगुदी
निहार यह मेरे भीतर भी दौड़ गयी थी झुरझुरी
और मैं चला गया था चट्टान के बहुत करीब
सहेजे हुए अपने अंदर बहुत सी
जिज्ञासाएँ और सवाल

पूरी तैयारी से लिखे प्रश्नों को
मैं पढ़ता जा रहा था
बहुत देर बाद सजग और विरल आवाज़ में
उसने कहा
क्या देख रहो तुम इस तरह गड़ाकर अपनी आँख
निगाह धँसाए जा रहे हो मेरे भीतर लगातार
तुम्हारे पूर्वज कवियों ने तो जड़ कहा है हमें
फिर क्या देखना चाहते हो मेरे अंदर तुम
मैं चट्टान हूँ यहाँ भीमबैठका की
तुम्हारे समय से नहीं
मैं अपने पत्थर-समय से
चल रही हूँ
पत्थर-राग कहाँ समझती है तुम्हारी खोपड़ी

आग मेरी देह से ही गयी है तुम्हारे घर
जिसका आये दिन करते रहते हो तुम गलत इस्तेमाल

मैं पूरी पत्थर से बनी हूँ
बन्द हूँ हर तरफ से मैं
फिर क्या देखना चाहते हो मेरे भीतर तुम
मैं पत्थर जी रही हूँ बता दिया न तुम्हें
फिर क्यों टटोल रहे हो मेरा अंतस् इस तरह तुम

तुम्हारे जीने की तरह नहीं
चट्टान को अपने पत्थरपन में जीना होता है
पत्थरपन में जीना समझते हो क्या तुम
मेरा रेशा-रेशा पत्थर है
मैं कण-कण पत्थर हूँ

मेरी पहचान पत्थर है
पत्थर के सिवा एक कतरा भी नहीं है
मेरा अस्तित्व
पत्थर की गहराई में
नदी समायी रहती है

पत्थर की मर्यादा में ही रहना होता है मुझे
तुम मनुष्य तो जब-तब करते रहते हो
मनुष्यता की मर्यादा को तार-तार

तुम यही पूछ रहे हो न
कि तुम जड़ चट्टान हो फिर तुम्हें
देश-दुनिया का, मनुष्य का इतना पता कैसे है
तुम नहीं जानोगे मेरा पत्थर दु:ख
देखो न! कितने रंगहीन रंग हैं मेरे भीतर
मेरे हर अंग में रंग हैं पर तुम उन्हें
पहचान कहाँ पाओगे
वह पक चुके हैं अपनी ही आग में
तुम्हें तो कच्चे रंग देखने की समझ है
पक्के रंग पत्थर देह में ही मिलते हैं
पत्थर के अंदर से मनुष्य के भीतर तक की
आग की यात्रा का बहुत रोचक है वृत्तांत
जानना चाहिए इसे तरतीब से तुम्हें
ध्वनि, आहट, मौन को सुनने का
होना ही चाहिए तुम्हें सुन्दर अभ्यास
अंकुरण-हरियाली के पहले धरती कितना तपती है
जानता क्यों नहीं यह ठीक से तुम्हारा काव्य-विवेक

मैं जड़ चट्टान हूँ न!
फिर क्यों प्रविष्ट हुए जा रहे हो मेरे अंदर तुम
तुम्हें इतनी भी तमीज नहीं कि
बिना इजाजत पत्थर-प्रवेश निषेध होता है

क्यों खोल रहे हो तुम मुझे परत-दर-परत
मेरी पत्थर धडक़नों में
क्या सुनना चाहते हो तुम लगाकर अपने कान
मेरे धडक़न-बाजा में तुम्हारा संगीत नहीं है

मेरा पत्थरतन मत खरोंचो तुम
वैसे भी अपनी सभ्यताओं के विकास में
मनुष्य ने पत्थरों का बहुत खून बहाया है

मेरा बीच गहरी अँधेरी कोठरी है
उधर क्यों जा रहे थे तुम
जब तुम अपनी माँ की कोख में थे
उसी अनुभूति से ही पढ़ सकते हो तुम यह अँधेरा
यह मध्य जहाँ तुम अब खड़े हो
वह अँधेरे और उजाले का मध्यांतर है

अरे! उधर नहीं सिरहाने से थोड़ी दूर
वहीं एक वृक्ष गिरते समय की
अपनी चीख रख गया है मेरे पास
बहुत बेरहमी से काटा गया था उसे
जब कि उसने तुम मनुष्यों को
छाया और फल देने में
कोई कोताही न की थी कभी

क्या अनक रहे हो तुम
इस तरह चुपचाप
जानते हो-
आहट मेरी मातृभाषा है
इस से ही जान लेती हूँ
कौन खड़ा है मेरे पास
कौन प्रश्न-मुख है
कौन है दुनिया का दुख

छाया और धूप
मेरी सहेलियों के नाम हैं
इसलिए इन पर किए गए तिर्यक सवालों का
मैं नहीं दूँगी तुम्हें जवाब
हर संबंध की अपनी मर्यादा होती है
तुम मनुष्य तो अपने संबंधों के प्रति
हुए जा रहे हो भद्रंग

तुमने पूछा कि क्या आदिमानव ने ही
बनाए हैं यह चित्र या यह गुफाएँ उन्हीं की रही हैं
मेरा उत्तर हाँमें है
उन्होंने कलह नहीं कला को चुना अपने लिए
रेखांकित किया अपनी सर्जन-शक्ति
उनके चित्रों ने धरती का आँगन रँग दिया है
आँगन पार द्वारभी
लेकिन क्या होगा इससे
अब जब मनुष्य की रचनाशीलता घट रही है दिनोंदिन
उजाड़ रहा हो वह नदी-पहाड़
हवा-पानी में घोल रहा हो ज़हर-बिक्ख
बना रहा हो मारक हथियार
और कम हो रहे हों जीने के औजार
कभी धर्म के नाम पर झगड़ा
कभी जाति के नाम पर
सोच-सोच दुख होता है मुझे बहुत
फटती है मेरी छाती

धरती कितना सहती है
ठीक से कहाँ महसूस कर पा रही है
तुम्हारी कवि-बुद्धि
शांति की शीतलता और करुणा की उजास
तुम मनुष्यों के भीतर मंद पड़ रही है
और तुम हो कि खोए हुए हो अपने होशो-हवास

भीम की बात करते-करते तुम ठिठक क्यों गए
हाँ! वह महाबली योद्धा अपने वनवास के समय
यहीं बैठता था
लेकिन उसके बैठने में पूरी ऊँचाई थी
सोचने में गहराई थी
छूता था हमें तो धन्य हो जाता था
हमारा पत्थर-मन
स्पर्श में भीग जाता था सारा तन
उसके आतप में हमारा भी बदन जला है
उसकी न्याय-बुद्धि लख बढ़ा है
हमारे भी संकल्प का वजन
उसका स्पर्श उतने उत्कर्ष से मैं बोल नहीं पाऊँगी
मैं भूल नहीं पाऊँगी उसकी बलकती हुई चुप्पी
अपार बल था उसमें लेकिन
एक पत्ती को भी नहीं सताया उसने

आग से बनी थीं द्रोपदी
कौरवों ने उनकी क्रोधाग्नि भडक़ाकर
खाक होने का खुद ही लिख लिया था फैसला

पाँचों पाण्डव और पांचाली
मनुष्यता की महिमा हैं
बड़ापन क्या होता है कहती थीं उनकी आँखें
क्षुद्रता-ओछापन टिक नहीं सकता था उनके पास
कितने आघात सहा था उन्होंने लेकिन
उनके रोएँ-रोएँ में वीरत्व की गरिमा थी अकूत
जब वह चलते थे साथ तो कितना खुश हो जाता था
धरती का चेहरा
पता नहीं वीरता उतना वैभव
अब पायेगी भी या नहीं

अच्छा लगा यह देख कि तुम
अपने पूर्वज कवि के दिए सबक
सभ्यता-समीक्षाके प्रति अपनी कविता में
पूरे मनोयोग से हो संन्निष्ठ
लगाए हुए अपनी साँस

मुझे यह भी मालूम है कि भीमबैठका में तुमने
खूब किया है चट्टान-मंथन
गुफाओं की परिक्रमा भी की है बहुत
तुम्हें मानवता का उजाला पसंद है
और अपने आदि पूर्वजों के प्रति
तुम्हारे मन में है बेहद सम्मान
इसीलिए आते रहते हो तुम यहाँ भीमबैठका
मैंने भी इसीलिए
तुम से कर ली इतनी देर तक बात

अब जाओ बहुत कह लिया
सुन लिया तुम्हारी बहुत जिज्ञासाएँ और सवाल

ध्यान रखना
यह दुनिया दिन और रात से बनी पोथी है
इसे ठीक से पढऩे-समझने में लगा कर रक्खोगे
अपने दिल-दिमाग
खुलती जाएगी तुम्हारी कविता में भी
चुप्पी और बात
_______________________________






प्रेमशंकर शुक्ल
(16 मार्च 1967, ग्राम गौरी सुकलान, रीवा, मध्य प्रदेश)

कुछ आकाश, झील एक नाव है (कविता संग्रह), दूरदर्शन के लिए वरिष्ठ कवि भगवत रावत पर केंद्रित वृत्तचित्र का पटकथा लेखन

संपादन : पूर्वग्रह (साहित्यिक पत्रिका)
नवीन सागर सम्मान, रजा पुरस्कार, दुष्यंत कुमार पुरस्कार, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान

सम्पर्क :
भारत भवन, श्यामला हिल्स, भोपाल-462002
मो. 09424439467

अभिव्यक्ति की आज़ादी और आलोचनात्मक विवेक पर जारी हमले

$
0
0
"The Making of India", Naresh Kapuria / via SAHMAT

देश में उन्माद का वातावरण सकारण पैदा किया जा रहा है, जिससे कि जनता अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों और उनके पीछे के उत्तरदायी कारणों को भूलकर छद्म किस्म की उत्तेजना में घिरी रहे. स्वाधीन चेतना और विवेक पर लगातार हमले हो रहे हैं. 
आज असहमत होना देशद्रोही होने का पर्याय हो गया है. मीडिया हठी और बर्बर मानसकिता का सौदागर बन चुका है. ऐसे में आलोचनात्मक चेतना के पोषण की सबसे अधिक जरूरत है.

समालोचन हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में द्रौपदीके मंचन को लेकर हुए हंगामें और इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में तोड़-फोड़ की कोशिश का पुरजोर विरोध करता है. और जनवादी लेखक संघ के  इस बयान के साथ खड़ा है.
______________________________



अभिव्यक्ति की आज़ादी और आलोचनात्मक विवेक  पर  जारी हमलों के ख़िलाफ़  एकजुट हों!




रियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में द्रौपदीके मंचन को लेकर खड़ा किया गया हंगामा और इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में तोड़-फोड़ की कोशिश हाल की ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों को दबा देने की नीति पर आरएसएस और उससे जुड़े अनगिनत संगठन लगातार, अपनी पूरी आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं.

हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में विगत 21सितम्बर को महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी विश्व-प्रसिद्ध कहानी द्रौपदीका मंचन किया गया. यह कहानी कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है और इसका नाट्य-रूपांतरण/मंचन भी अनेक समूहों द्वारा अनेक रूपों में किया जा चुका है. महाभारतकी द्रौपदी की याद दिलाती इस कहानी की मुख्य पात्र, दोपदी मांझी नामक आदिवासी स्त्री, सेना के जवानों के हाथों बलात्कार का शिकार होने के बाद उनके दिए कपड़े पहनने से इनकार कर देती है जो वस्तुतः अपनी देह को लेकर शर्मिन्दा और अपमानित होने से इनकार करना है. उसकी नग्नता उसके आत्मसम्मान का उद्घोष बनकर पूरे राज्यतंत्र को शर्मिन्दा करती है. जुलाई में दिवंगत हुईं महाश्वेता देवी को याद करते हुए इसी कहानी का मंचन हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में किया गया. मंचन के दौरान शान्ति रही और नाटक को भरपूर सराहना मिली, लेकिन उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने भारतीय सेना को बदनाम करने की साज़िश बताकर इस मंचन के विरोध में हंगामा शुरू किया. आस-पास के इलाकों में अफवाहें फैलाकर समर्थन जुटाया गया, महाश्वेता देवी को राष्ट्रविरोधी लेखिका के रूप में प्रचारित किया गया, कुलपति के पुतले फूंके गए और विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने यह मांग रखी गयी कि नाट्य-मंचन की इस देशद्रोहीगतिविधि के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाए. असर यह हुआ विश्वविद्यालय ने नाटक के मंचन से जुड़े शिक्षकों पर एक जांच कमेटी बिठा दी, जबकि इस मंचन के लिए न सिर्फ विश्वविद्यालय प्रशासन से पूर्व-अनुमति ली गयी थी बल्कि वहाँ मौजूद अधिकारियों ने मंचन की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी.

अब अंग्रेज़ी विभाग के प्राध्यापक, सुश्री सनेहसता और श्री मनोज कुमार कार्रवाई के निशाने पर हैं और आरएसएस के आतंक का असर विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर शिक्षक समुदाय तक की किनाराकशी के रूप में दिख रहा है. दोनों शिक्षकों के खिलाफ आरएसएस का दुष्प्रचार-अभियान पूरे जोर-शोर से जारी है. ज़ाहिर है, उनकी कोशिश है कि इनके ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं भड़का कर इन पर दंडात्मक कारवाई के लिए विश्वविद्यालय को मजबूर किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि विश्वविद्यालय में आलोचनात्मक विवेक के लिए कोई जगह न बचे.

इसी कड़ी में 4अक्टूबर को इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन के तीसरे दिन हिन्दुत्ववादियों ने मंच पर चढ़कर हंगामा किया और इस पूरे आयोजन को राष्ट्रविरोधी देशद्रोही गतिविधि बताते हुए नारे लगाए. आयोजन-स्थल से खदेड़े जाने के बाद उन्होंने पत्थर भी फेंके जिससे इप्टा के एक कार्यकर्ता का सर फट गया. उनका आरोप यह था कि प्रसिद्ध फिल्मकार एम एस सथ्यू (गरम हवाके निर्देशक) ने अपने उदघाटन भाषण में पाकिस्तान में भारतीय सेना के घुसने की आलोचना करके राष्ट्र के खिलाफ काम किया है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि वहाँ पिछले दो दिनों से चल रही नाट्य-प्रस्तुतियां राष्ट्रविरोधी और जातिवादी हैं. आरएसएस के मालवा प्रान्त के प्रचार प्रमुख प्रवीण काबरा ने यह बयान दिया कि वे (इप्टा वाले) जन्मजात राष्ट्रविरोधी हैं.यह आयोजन-स्थल पर किये गए आपराधिक हंगामे का औचित्य साबित करने का तर्क था.


ये दोनों घटनाएं राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों का दमन करने की हिन्दुत्ववादी साज़िशों की ताज़ा कड़ियाँ हैं. जनवादी लेखक संघ इनकी भर्त्सना करता है और हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षकों तथा इप्टा के साथियों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है. पिछले साल अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने असहिष्णुता के इस माहौल के खिलाफ अपने सृजन-कर्म से बाहर जाकर अभिव्यक्ति के अन्य रूपों का भी सहारा लिया था. पुरस्कार वापस किये गए थे, सड़कों पर उतर कर नारे लगाए गए थे, अकादमियों पर सरकारी धमकियों के बरखिलाफ अपनी स्वात्तता बहाल करने/रखने का दबाव बनाया गया था. लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों और फ़िल्मकारों की उस मुहिम का सन्देश राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रसारित हुआ था. ऐसी ही मुहिम की ज़रूरत दुबारा सामने है. हम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि इस माहौल के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करें और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होने वाले हमलों का सीधा प्रतिकार करने के लिए एकजुट हों.
______________

जनवादी लेखक संघ
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)
संजीव कुमार (उप-महासचिव)

Viewing all 1573 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>