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सहजि सहजि गुन रमैं : मृदुला शुक्ला

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(पेंटिग : कैंसर ;  melissa-anne-carroll)

मृदुला शुक्ला का पहला कविता संग्रह 'उम्मीदों के पाँव भारी हैं 'बोधि प्रकाशन से २०१४ में  प्रकाशित है.
रचनात्मक लेखन में वह इधर लगातार सक्रिय हैं.
कैंसर पर केन्द्रित इन सधी हुई  कविताओं में मृदला ने इस बीमारी को तरह-तरह से देखा है.
इस त्रासद रोग के दारुण प्रभावों की मार्मिकता बेचैन करती है.
१० कविताएँ





मृदुला शुक्ला की कविताएँ                              

कैंसर 





१.
शिकारकोकसकर
दबोचनेकेबाद 
वोनहींकरतापरवाह 
एकएककरटूटतेजातेहैंउसकेलिम्ब
असहायजीवमेंअपनेदांतगड़ाए
केकड़ा 
अंतिमयात्रातकजाताहैसाथ 
मेरीज्ञातभाषाओंमेंउसे 
कर्कट ,कर्कया  कैंसरकहागया.





२.
कैंसरकेकड़ाहोता 
शायद
होताएकबिल्ली
आतादबेपांवचुपकेसे
कईबारझपट्टामारनेपरभी
बालबाल
बचजाताहै  शिकार्

मगरवोबरसोंबरस
रहताप्रतीक्षामें
अपनेपैनेपंजेसाधे
कैसरकेकड़ानहीं
चालाकबिल्लीहै

हमचूहेहीसाबितहुएहैअबतक.






३.
पतलीसिरिंजकेसहारे
रागोंमेंउतर
नसोंमेंदौड़ते
केकड़ेसेलुकाछिपी  है 
कीमोथेरेपी

जिंदगीकीबाटजोहते 
किश्तोंमेंमिलीमौतहै
कीमोथेरेपीs.






4.
पिता 

अस्पतालोंकेचक्करकाटतेपिता 
थोड़ीथोड़ीदेरमें 
तरकरलेतेहैंअपनागला 
घरसेलायीपानीकीबोतलसे 
बायोप्सीकीरिपोर्टकेइंतज़ारमें 
उतारतेहुएअपनेहोंठोकीपपड़ी 
नोचलेतेहैंथोडामांसभी 
बेखबरबैठेरहतेहैं 
ठुड्डीतकबहआये 
रक्तसे.





५.
बहन 
घरऑफिसनिबटा 
पतिबच्चोकोसुला 
देररातफोनलगातीहैमाँको 
दोनोंबेतुकीबातों  परहंसतीहैं 
हँसनाआश्वस्तिहै 
सबठीकहै,सबठीकहोगा.





६.
दादी 
दिनभरबुदबुदातीहै 
महामृतुन्जय  मन्त्र 
नीदमेंभीकरवटलेनेपरआतीहैआवाज 

:
मृत्योर्माम्रतमभव"






7.
अभिसारकेक्षणोंकेसुखकोआधाकर 
वोदेखतीहै 
गहरेस्वपनमें 
करोंदेसीदोलल्छहूँगांठे 
जोद्विगुणितबहुगुणितहोतेहुए 
पसरजायेंगीपूरीदेहमें 
विच्छेदनकेबादवहांबनेब्लैकहोलमें 
एकएककरसमाजारहेहैं 
सुखदाम्पत्य 
अंतमेंजीवनभी 
वोचौंककरजागतीहै 
धीरेसेखिसकादेतीहैहै
पयोधरोंपररखेप्रियकेहाथ 
बालकनीमेंबैठताकतीहै
सितारोंकेबीच
अपनेलिएभी  खोजतीटिमटटिमाती 
हुईसीएकजगह 
मकानबनानेकेलिए 
जमीनचुननेकेदिनयादआतेहैं.
 



8.
बेडनम्बरआठकीपुष्पा 
कीमोसेगंजेहुएसरपरभीटीकलेतीहै 
सिन्दूर 
अभीभीसुहागनमरनेकीइच्छाका जीव
उसे बचाए  रखाहै.




९.
अचानकसेघरपरख़त्महोजातीहै 
अड्डेबाजी 
सब्जानतेहैंसाथछूनेखानेसे
नहींआताकेकड़ापास 
अबतकतोकीमोभीनहींशुरूहुईहै 
मगरएहतियातफिरभीजरुरीहै 
बसवोबचपनकापगलासादोस्त 
आताहैबिलानागा 
बहुतदेरबैठारहताहैचुपचाप 
थामकरहाथ  
गहरेअँधेरेमें 
माँअचानकआकरजलातीदेतीहैं
बत्ती.





१०.
ओपरेशनकेलिए 
पैसेजमाकरवातेहुए 
पहलेवोजमाकरताहै 
पांचसौकेनोटकीगड्डी
फिरसौकी 
फिरदसऔरबीसरूपयेकेनोट 
अंतमें 
काउंटरखनकउठताहैसिक्केसे 
स्ट्रेटबालोंवालीमेबेलीनकीलिपस्टिक 
लगाएरिसेप्शनपरबैठीतन्वंगी 
कांपतेहांथोसेगिनतीहैवोसिक्के
कहनाचाहतीहै 
इसेआपरखलो 

ऐसा 
आजचौथीबारहुआहैसुबहसे 
उसनेसीलियाहैमुहं 
कलेजाहोगयाहै 
पत्थरका.




__________________
mridulashukla11@gmail.c



फिदेल कास्त्रो : पाब्लो नेरुदा

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(A photo of Fidel Castro in New York in 1959 taken by Roberto Salas)
फिदेल कास्त्रो (जन्म: 13 अगस्त 1926 - मृत्यु: 25 नवंबर 2016) :
___________

बीसवीं शताब्दी के महान क्रांतिकारी नेताओं में अग्रगण्य फिदेल के लगातार घंटो तक जोशीले भाषण देने की कला के कारण उनके मित्र उन्हें, ‘द जाइंट’ नाम से पुकारते थे.
फिदेल ने छोटे से द्वीप क्यूबा को अपने समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य अमेरिका के सामने स्वाभिमान और खुदमुख्तारी से खड़ा होना सिखाया.
फिदेल शायद अंतिम राजनेता थे जिनकी अपने समय के महान साहित्यकारों से घनिष्ठता थी.
मार्केज़ तो उनके निकटतम मित्र थे.
इसके अलावा हेमिंग्वे, पाब्लो नेरुदा आदि भी उनके मित्रों में शामिल थे.

पाब्लो नेरुदा की पुस्तक कन्फैसो क्यू बे विविदोः मैमोरियाज  के स्पानी से अंग्रेजी अनुवाद मैमोयर्स (अनुवादक- हार्दिए सेंट मार्टिन) से  हिंदी में यह अनुवाद कर्ण सिंह चौहान ने किया है. जो ग्रन्थ शिल्पी से प्रकाशित “मेरा जीवनः मेरा समय"में संकलित है.

फिदेल को याद करते हुए. समालोचन की यह प्रस्तुति.

फिदेल कास्त्रो                                                    
पाब्लो




पनी जीत के बाद हवाना में प्रवेश के दो हफ्ते बाद फिदेल कास्त्रो कराकस में थोड़ी देर के लिए आए. वह वहां वेनेजुएला की सरकार और जनता को मदद के लिए धन्यवाद देने आए थे. इस मदद में उनकी सेनाओं को दिए हथियार भी थे जो वर्तमान राष्ट्रपति द्वारा नहीं उनके पहले के राष्ट्रपति लर्जाबल द्वारा दिए गए थे. लर्जाबल वेनेजुएला के वामपंथियों (साम्यवादियों समेत) के मित्र रहे और उन्होंने जब जरूरत पड़ी तो क्यूबा के साथ अपनी एकजुटता दर्शाई.
वेनेजुएला की जनता ने क्यूबा क्रांति के युवा नेता कास्त्रो को जैसा राजनीतिक स्वागत-सम्मान दिया वैसा कम ही देखने को मिलता है. फिदेल ने कराकस के विशाल एल सिलेंसियो मैदान पर बिना रुके चार घंटे तक भाषण दिया. मैं भी उस दो लाख की भीड़ में खड़ा होकर वह लंबा भाषण सुनने वालों में से एक था. मेरे लिए और बाकी तमाम के लिए फिदेल का भाषण एक तरह का रहस्योद्घाटन था. उन्हें इतने लोगों के सामने भाषण देते सुन मुझे लगा कि लातीन अमेरिका में एक नए युग की शुरूआत हुई है. मुझे उनकी भाषा की ताजगी बहुत अच्छी लगी.
आम तौर पर मजदूर वर्ग के अच्छे से अच्छे नेता और राजनेता उन्हीं घिसी-पिटी बातों को दोहराते रहते हैं. इन बातों का अर्थ भले ही महत्वपूर्ण हो लेकिन उनके शब्द बार-बार के दुहराव से भोंथरे हो जाते हैं. फिदेल ने इस तरह की जुमलेबाजी नहीं की. उनकी भाषा आगमनात्मक और प्राकृतिक थी. ऐसा लगता था कि बोलते और पढ़ाते वक्त वह स्वयं भी उससे सीख रहे थे.
हेमिग्वे के साथ फिदेल
(A photo of Ernest Hemingway and Fidel Castro in Cuba in 
1960 taken by Roberto Salas)

वेनेजुएला के वर्तमान राष्ट्रपति बेटनकोर्ट वहां नहीं थे. उसे कराकास की जनता का सामना करना बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि लोग उसे पसंद नहीं करते थे. जब फिदेल ने अपने भाषण में उसके नाम का उल्लेख किया तो लोगों की सीटियां और आवाजें आने लगीं, जिन्हें फिदेल ने हाथ के इशारे से शांत किया. मुझे लगा उसी दिन से बेटनकोर्ट और क्यूबा के इस क्रांतिकारी के बीच वैमनस्य पैदा हो गया. उस समय तक न तो फिदेल मार्क्सवादी थे न कम्युनिस्ट और न ही उनके भाषण का उनके सिद्धांतों से कुछ लेना-देना था. मेरी निजी राय है कि उस भाषण में फिदेल की तेजस्विता और बुद्धिमत्ता, जनता के मन में जोश पैदा करने की क्षमता, कराकास के लोगों द्वारा उस भाषण को हृदयंगम कर लेने की तीव्र इच्छा ने बेटनकोर्ट को परेशान किया होगा. बेटनकोर्ट लफ्फाजी, कमेटियों और गुप्त सभाओं की पुरानी परिपाटी वाला राजनेता था. उसके बाद से बेटनकोर्ट ने हर उस चीज को बेरहमी से कुचलना शुरू किया जिसका संबंध क्यूबा की क्रांति से हो.
सभा के अगले दिन मैं देहात में रविवार की पिकनिक पर था कि कुछ मोटरसाइकल सवारों ने हमें क्यूबा के दूतावास का निमंत्रण-पत्र दिया. वे सारा दिन मुझे ढूंढ रहे थे कि मैं कहां मिल सकता हूं. यह समारोह उसी शाम को था. मटील्डे और मैं वहां से सीधे दूतावास गए . बुलाए गए अतिथियों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि वे हाल और बगीचे में नहीं समा रहे थे. दूतावास के बाहर भी लोगों की भारी भीड़ थी और दूतावास को जाने वाली सड़कों से भवन तक जाना मुश्किल था .
हम किसी तरह लोगों से भरे कमरों को पार करते हुए वहां पहुंचे जहां कुछ लोग हाथों में जाम उठाए हुए थे. फिदेल की सबसे करीबी और उनकी सचिव सीलिया घर के एक खाली हिस्से में हमारा इंतजार कर रही थी. मटील्डे उसके साथ रही और मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया. वह शायद नौकर का या माली का या ड्राइवर का कमरा था. उसमें एक बिस्तर लगा था जिसे जल्दी में खाली किया गया था और उसके कपड़े तितर-बितर थे. तकिया फर्श पर था और कोने में एक मेज थी. बस. मैंने सोचा कि वहां से मुझे किसी एकांत कमरे में ले जाया जायगा जहां मैं क्रांति के सेनापति से मिलूंगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अचानक कमरे का दरवाजा खुला और फिदेल कास्त्रो के भव्य व्यक्तित्व से कमरा भर गया.
वह मुझसे बहुत ऊंचे थे. वह मेरी तरफ तेज कदम बढ़ाते हुए आए.
हैलो पाब्लोकहकर उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया.
उनकी पतली लगभग बच्चों जैसी आवाज सुनकर मैं तो दंग रह गया. उनके व्यक्तित्व में कुछ था जो इस आवाज के अनुकूल था. फिदेल बहुत बड़े आदमी होने का अहसास नहीं कराते. उन्हें देख ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चा टांगों के अचानक बढ़ जाने पर लंबा हो गया जबकि उसका चेहरा और कोमल दाढ़ी अभी बच्चे की ही है.

(मार्केज़ के साथ फिदेल)
अचानक गले लगने की क्रिया को छोड़ वे सक्रिय हुए और मुड़कर कमरे के कोने की तरफ चले गए. मैंने ध्यान नहीं दिया कि एक कैमरामैन चुपके से कमरे में दाखिल हो गया था और हमारा फोटो लेने की तैयारी कर रहा था. तभी बड़ी फुर्ती से फिदेल उस तक पहुंचे और उसे गले से पकड़कर लगभग अधर में उठा दिया. कैमरा फर्श पर गिर गया. मैं फिदेल के पास गया और उनकी बांह को पकड़कर उस मरियल से फोटोग्राफर को उनसे छुड़ाने की कोशिश की. लेकिन फिदेल ने उसे दरवाजे के बाहर फेंक दिया. फिर वह मेरी तरफ मुड़े, फर्श से कैमरा उठाया और उसे बिस्तर पर फेंक दिया.
हमने उस घटना पर कोई बात नहीं की केवल लेटिन अमेरिका के लिए एक प्रैस एजेंसी की संभावना पर बात की. मुझे याद पड़ता है कि प्रेन्सा लातीना एजेंसी उसी बातचीत का नतीजा थी. उसके बाद हम वापस समारोह में चले गए, दोनों अपने-अपने दरवाजों से होकर.
जब एक घंटे बाद मटील्डे के साथ मैं दूतावास के समारोह से वापस जा रहा था तो उस फोटोग्राफर का भयभीत चेहरा और गुरिल्ला नेता की फुर्ती जिसने अपनी पीठ के पीछे से घुसने वाले को महसूस कर लिया, याद आए.
वह फिदेल कास्त्रो से मेरी पहली मुलाकात थी. उसने फोटोग्राफ लेने देने का इतना विरोध क्यों किया ! क्या इसमें कोई राजनैतिक रहस्य छिपा था!  आज तक मैं यह नहीं समझ पाया हूं कि हमारा यह साक्षात्कार इतना गुप्त क्यों रखा गया.


(इंदिरा गाँधी के साथ)
लातीन अमेरिका को आशाशब्द बहुत प्रिय है. हमें स्वयं को आशाका महाद्वीप कहलाना पसंद है. संसद, राष्ट्रपति और अन्य प्रतिनिधि स्वयं को आशा के प्रत्याशीकहलाना पसंद करते हैं. यह आशा स्वर्ग का वायदा है, एक ऐसा वायदा जो कभी पूरा नहीं होगा. वह अगले चुनावों तक, अगले साल तक, अगली सरदी तक टलता जाता है.
जब कयूबा की क्रांति हुई तो लाखों लातीन अमेरिकी नींद से जगे. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. एक ऐसा महाद्वीप जिसने उम्मीद करना ही छोड़ दिया था, वह इस पर कैसे विश्वास करता. लेकिन यहां फिदेल कास्त्रो था जिसे कोई जानता भी नहीं था जिसने आशा को बालों से पकड़ लिया, पैरों पर खड़ा किया और कस कर पकड़ कर अपनी मेज पर बिठा लिया यानी लातीन अमेरिका के लोगों के घर में बिठा दिया.
तब से हम इस आशा को संभाव्य वास्तविकता मान उसे पाने के रास्ते पर चल पड़े हैं. लेकिन अभी भी हम डरे हुए हैं. एक पड़ोसी देश, जो बहुत ही शक्तिशाली और साम्राज्यवादी है क्यूबा को और आशा को खत्म करने पर तुला है. लातीन अमेरिका की जनता रोज अखबार पढ़ती है, रोज रात रेडियो से कान लगाए रहती है. और वे संतोष की सांस लेते हैं. क्यूबा अस्तित्वमान है. एक और दिन, एक और साल. और पांच साल. हमारी उम्मीद का सिर अभी कटा नहीं है. उसका सिर नहीं काटा जा सकता है .

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karansinghchauhan01@gmail.com

मंगलाचार : दिव्या विजय (कहानी)

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(Photo: Courtesy  Woody Gooch)

बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग   में   एम.बी.ए.
बैंकाक में आठ  साल रहीं फिर लौट कर ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर और नाटकों में अभिनय और लेखन आदि.यह दिव्या विजय हैं. और यह है इनकी कहानी.

दिव्या विजय की इस कहानी में वो सारे तत्व मौजूद हैं जो उनके अंदर के कथाकार के भविष्य को लेकर आशान्वित करते हैं.
भाषा पर उनकी पकड़ है और स्फीति से वह बचती हैं,  प्रारम्भिक कहानियों में जिन्हें साध पाना मुश्किल ही होता है.


उनका स्वागत और आप जरुर बताएं कि इस कहानी में आपको क्या अच्छा लगा.


बनफ़्शई ख़्वाब                                                     
दिव्या विजय 



घंटी बजी और उसने चौंक कर घड़ी की ओर देखा. सात बज गए... इतनी जल्दी! वो मन ही मन पलों का हिसाब करने लगी. उसे पता था ठीक पंद्रह सेकंड बाद फिर डोर बेल बजेगी. तब तक दूध वाला लगभग बीस क़दम चलकर बाक़ी दो घरों में दूध के पैकेट पकड़ा देगा. यही पंद्रह सेकंड उसके पास तय करने को थे कि उसे उठना है या नहीं. उसे उठ जाना चाहिए...उसने कोशिश की मगर नहीं उठ पायी. घंटी चीख़ती रही....इतनी तेज़ कि दीवारें उस चीख़ से अट गयीं. दीवार से फिसलते हुए उसकी नज़र ज़मीन तक गयी...फ़र्श भीगा है. फ़र्श पर क्या गिरा है...कहीं कल रात फिर...? अब सब पोंछना होगा. बिखरा हुआ समेटना क्यूँ पड़ता है? नहीं, वो कुछ नहीं करेगी.


पेड़ की हिलती हुई शाख़ पर उसकी निगाह अटक गयी. पत्तों की ओट से छन आ रही धूप की किरचियाँ उसे ज़ुबान पर चुभती महसूस हुईं. उसे गर्म थूक को उगलने की शदीद इच्छा हुई पर उसने उसे निगल लिया. कल चौथी रात थी जब उसकी आँखों ने झपकने से इंकार कर दिया था. शुरू में उसे घबराहट हुई पर अब वो अभ्यस्त हो चली है. ज़्यादा थकान होने पर अब वो आँखें खोल कर भी सो सकती है. यह आँखें बंद कर सोने से ज़्यादा आसान है. उसने नज़रें बाहर जमा दीं. 


पेड़ की शाख़ पर कूदती गिलहरी के पंजों की बुनावट देख उसका मन भीग आया. कितना कस कर तने को पकडे है...एक बार भी नहीं गिरती. फ़ोन फिर बजा..इस बार माँ का. कल बमुश्किल दो-चार शब्दों की बात हुई थी. बोलना बाज़ दफ़ा कितना मुश्किल हो जाता है. पर उसे बोलना पड़ा क्योंकि नहीं बोलती तो माँ यहाँ आ जाती. वो नहीं चाहती यहाँ कोई भी आए. किसी की भी उपस्थिति से उसका मन घबरा जाता है. किसी से बात करना बड़ा भारी मालूम होता है. इस सोफ़े से हिलना उसे नामुमकिन लगने लगा है. उसका सारा वक़्त यहीं बीत रहा है. आस-पास पैकेज्ड फ़ूड की पन्नियों का ढेर इकट्ठा है और पानी की ख़ाली बोतलें बिखरी हैं. परसों मेड को फ़ोन कर उसने हफ़्ते भर की छुट्टी दी है. ज़िंदा इंसान को देखना उस से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा....इस से ख़ुद की मुर्दनगी का अहसास और बढ़ जाता है.

उसने अपने हाथों को देखा. मैल की परतें गोरे रंग के बीच से झाँक रही हैं. वो कई दिनों से नहायी नहीं...कितने दिनों से...शायद वही आख़िरी दिन था. हाँ वही था...पहने हुए कपड़ों को देख उसने सोचा. बनफ़्शई ड्रेस उसी रोज़ पहनी थी. उसकी बाँहें मटमैली हो चली हैं. सिलवटों से भरी ड्रेस उसे चुभने लगी. क्या उसे कपड़े बदलने चाहिए? उसने भीतर झाँक कर देखा. अंदर इनर था. उसने ड्रेस झटके से उतार कर फेंक दी. उसे राहत महसूस हुई. क्या उस रोज़ उसे पता था कि यह होने वाला है? शायद नहीं या हाँ...वो पहली बार उस से मिली थी उसी रोज़ से उसे मालूम था कि यह होने वाला है. 


उसके दोस्त कहते हैं..."शी इज़ सो गुड ऐट आयडेंटिफ़ायइंग पीपल."
'
ओह येस शी इज़! एंड शी इज़ डम्ब इनफ़ टू फ़ॉल फ़ॉर सेम पीपल हूम हर हार्ट रेजेक्ट्स.

हार्ट...आह!ये दिल! दिल की धड़कन अचानक बढ़ गयी तो उसने सोफ़े को बाहें फैला कस कर सीने से लगा लिया. सोफ़े ने उसका दिल थाम लिया. सोफ़े का सफ़ेद रंग उसके भीतर उतरने लगा...ठंडक पिघलते हुए उसके दिल पर गिरने लगी...बूँद-बूँद. ड्राई आइस....अपनी ठंडक से जला देने वाली बर्फ़. 


उसे बहुत जोर की चीं-चीं सुनायी दी. नीले काकातुआ का जोड़ा झगड़ रहा है. वो सोफ़े से उतरने की कोशिश में नीचे गिर गयी. ख़ुद के इस तरह गिरने पर उसकी हँसी छूट गयी. वो अकेले ही हँसने लगी....हँसते-हँसते उसे रोना आने लगा. उसने घड़ी देखी..साढ़े सात हो रहे हैं. उसे लगा कि आज का दिन फिर इस तरह शुरू नहीं करना चाहिए. वो किसी तरह घिसटते हुए रिमोट तक पहुँची और टीवी चालू कर दिया. 


फ़ुटबॉल मैच आ रहा है. वो खिलाड़ियों को पहचानने की कोशिश करने लगी पर उसे ठीक से कुछ दिखायी नहीं दिया. फ़ुटबॉल की जगह एक सफ़ेद धब्बा उसे उछलता हुआ दिखायी दे रहा था. वो उसी धब्बे के पीछे भागने लगी. धब्बा एक झील में जा गिरा. उसने झील में जाने के लिए क़दम बढ़ाया मगर तुरंत पीछे ले लिया. उसने अपने बूट्स उतारे और झील में पैर डुबो दिए. ठंडा पानी पहली बार में नश्तर की तरह चुभा. उसके तलवे सिकुड़ने लगे लेकिन उसे ख़याल आया कि वो आने वाला है. उसकी देह गर्माहट से भर गयी. उसने हाथ में पकड़े तोहफ़े नीचे घास पर रख दिए. उसका जन्मदिन है...वो आने वाला है. उसने कहा था वो आएगा. उसने कहा था आज सारा दिन वो उसके साथ बिताएगा. वह जल्दी तो नहीं पहुँच गयी. उसने इधर उधर देखा. यह जगह भी उसी ने चुनी है....उसकी पसंद कितनी अच्छी है.

झील के चारों ओर हल्की हरी चादर बिछी है और झील का पानी हल्का नीला. उसने अपनी ड्रेस ज़रा ऊपर की...जाने कब खिसक कर पानी को छूने लगी थी. हल्का गीला हिस्सा घुटनों पर ठहर गया. गोरे रंग पर बनफ़्शई झालर का कंट्रास्ट.....एक पुरानी बात याद आयी जब उसके रंग पर इस से भी गहरा एक रंग ठहरा था...उसके होंठ ताम्बई जो थे. झील के पानी में गुलाल घुल गया. गुलाबी रंग से उसने अपनी अँगुलियाँ भिगोयीं और घास पर कुछ बूँदें छितरा दीं. वहाँ गुलाबी फूल उग आए....फूलों को लड़ी में पिरो उसने माला बनायी...कुंडल बना कर पहन लिए...वो वनकन्या दिखने लगी. उसे जंगल-जंगल फिरना होगा...तब क्या उसका महबूब आएगा? उसने ज़ोर से आवाज़ लगायी....आ जाओSSS.....


आवाज़ चिड़िया बन गयी...उसने चिड़िया को अपनी पुकार थमा दी और उड़ा दिया. अब वो आता ही होगा. सूरज के बीचों बीच एक धारी उग आई और वो उसे निगलने लगी....पानी जमने लगा. उसके पैर बर्फ़ हो गए तो वो महबूब के गले कैसे लगेगी?उसने अपने पैर झील से निकाले और घास पर बिछा दिए. एक कनखजूरा जाने कहाँ से उसके पैरों पर आ लिपटा. उसे डर नहीं लगा...उसे कहानियाँ याद आयीं जब प्रेम की परीक्षा लेने कोई और रूप धर ख़ुदा चला आया. वो ग़ौर से उसे देखती रही....अनगिनत पैर....उसके इतने पैर होते तो वो बग़ैर थके मीलों भागते हुए अपने महबूब को यहाँ लिवा लाती. कनखजूरा उसके पैरों पर से होता हुआ कहीं खो गया.

वो अब फिर अकेली थी. धब्बा बड़ा हो रहा था और फ़ुटबॉल एक खिलाड़ी के पास थी. अब शायद गोल होगा. काकातुआ फिर चिचियाने लगे. उनका पानी ख़त्म हो गया था. उसने उनके लिए पानी भरा और उन्हें बाहर रख दिया. उन्हें बाहर रहना अच्छा लगता है...खुले आसमान के नीचे. तय समय बाहर न निकालो तो शोर मचा देते हैं. उन्हें सीधी धूप नहीं सुहाती इसलिए कभी उनके ऊपर छतरी तान देती है कभी ख़ुद कुर्सी पर बैठ उनकी छाँव बन जाती है. 


वो भीतर जाने को पलटी तो उसके कानों में साँप रेंगने लगे....उसने लकड़ी के दरवाज़े पर अपने कान टिका दिए. आवाज़ें थीं...पुकारें थीं...भीड़ का शोर था....जयकारे थे...ज़रूर कोई शहंशाह युद्ध जीत कर आ रहा था. यह वही हो सकता है...बस वही. उसे झील के पार जाना होगा. झील को बर्फ़ हो जाना होगा...बर्फ़ जिस पर दौड़ते हुए वो उस पार जा सकेगी. उसने अपने दिल की आह झील पर रख दी. वो भागती गयी...अब किसी भी पल वो दिखायी देगा...घने जंगल के अँधियारे चीरते हुए उसकी आँखें मशाल बन गयीं. वो हर साये को सहलाती गयी. जो साया उसे जकड़ लेगा वही उसका महबूब होगा.

साये ख़त्म हो गए...दिल डूब रहा था. सामने पहाड़ था...पहाड़ के ऊपर...वहाँ कुछ है. उसने नंगे पैरों को देखा...वो उसे मिलेगा... वो फिर दौड़ चली. वो आया क्यों नहीं...उसे कुछ हुआ तो नहीं. उसने कहा था...उसने जगह चुनी थी...उसने बनफ़्शई रंग कहा था...उसने कहा था वह उसे चाहता है. उसने वादा किया था वो उसके सामने फिर जन्म लेगा. वो रुकी..उसने अपने पेट पर पत्थर बाँध लिए. अब वो उसे जन्म देगी...वो बढ़ चली. 


वो पहाड़ की चोटी पर थी. वहाँ तेज़ हवा थी...वो दो इंच ऊपर उठ कर तैरने लगी. वहाँ कंकाल थे...उसने हाथ बढ़ाया...उन्होंने हाथ थाम लिया. क्या वो उसे पंख देंगे? उसे और आगे जाना है. वो बिना पंखों के आगे बढ़ चली है...पर वो तो  नीचे जा रही है. उसे किसी ने धकिया दिया है. किसने? गोल हो गया था. 


खिलाड़ी ख़ुशी से चीख़ रहे थे. काकातुआ की चहचहाहट थम गयी थी. वो तंद्रा से जागी...एक बिल्ली पंजा भीतर घुसा उनकी गर्दन मरोड़ चुकी थी. 
____________

दिव्या विजय :
(२० नवम्बर १९८४, अलवर, राजस्थान)

ई मेल-  divya_vijay2011@yahoo.com

सहजि सहजि गुन रमैं : नरेंद्र पुण्डरीक

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पेंटिग : लाल रत्नाकर


नरेंद्र पुण्डरीक की इन कविताओं  में गाँव घर है. माँ, पिता, भाई, बेटी, पत्नी और स्त्रियाँ हैं.
कविताएँ कथ्य से बहुत मजबूत हैं.
अनुभव पर विचारों का सेंसर एक सीमा तक ही है.  
जो सच्चाई है वह बयां है.  
हमारे परिवारों में खुद छुपी हुई हिंसा है जिसका शिकार स्त्रियाँ होती हैं. कवि के शब्दों में -

‘हर आदमी की आंख में
एक सूअर का बाल होता है
जो औरत के दिल में अक्सर गड़ता रहता है.’

नरेंद्र पुण्डरीक अपनी इन कविताओं से सीधे चोट करते हैं. 
उनकी पांच कवितायें आपके लिए.

नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएँ                                                    




पुल बनी थी माँ


हम भाइयों के बीच
पुल बनी थी माँ
जिसमें आये दिन
दौड़ती रहती थी बेधड़क
बिना किसी हरी लाल बत्ती के
हम लोगों की छुक छुक छक छक

पिता के बाद
हम भाइयों के बीच
पुल बनी माँ
अचानक नहीं टूटी
धीरे धीरे टूटती रही
हम देखते रहे और
मानते रहे कि
बुढ़ा रही है माँ ,

माँ के बार बार कहने को
हम मान कर चलते रहे
उसके बूढे़ होनें की आदत और
अपनी हर आवाज में
धीरे धीरे टूटती रही माँ ,

हाथेां हाथ रहती माँ
एक दिन हमारे कंधों में आ गई
धीरे धीरे महसूंस करनें लगे हम
अपने वृषभ कंधों में
माँ का भारी होना,

जब तक जीवित रही माँ
हम बदलते रहे अपने कंधें
माँ आखिर माँ ही तो है
बार बार हमें कंधे बदलते देख
हमारे कंधों से उतर गई माँ
और माँ के कंधों से उतरते ही
उतर गये हमारे कंधे.



बेसूरत होती औरतें

पत्नी से एक दिन पूछा  कैसी रही अब तक की ?

उसने कहा
निभा लिया मैनें
दूसरी होती तो पता चलता

मैनें कहा दूसरी होती तो
तुम जैसी तो नहीं ही होती
नहीं होती तो भी निभ जाती
उससे भी जैसे तुमसे निभ गयी,

औरतों से निभना उसके  आदमी से अच्छा कौन जानता है
आदमी निभता है
और औरत निभाती है
निभने निभानें के इस बारीक अन्तर को जब तक औरत समझे
समझे तब तक उसकी दुनियां ही निपट जाती है,

ज्यादातर औरतें  आदमी की लंपटई को
उसके हाल में छोड़
अपने को बचती बचाती हुयी
लड़के लड़कियों से होती हुई
नाती पोतों से लग जाती हैं ,

वे अच्छी तरह जानती हैं कि
हर आदमी की आंख में
एक सूअर का बाल होता है
जो औरत के दिल में अक्सर गड़ता रहता है
कोई भी औरत उसको उसकी आंख से निकाल नहीं पाती,

जब भी निकालनें के  लिए  उसकी आंखों में देखती है
तो उसे उसमें अपनी सूरत दिखाई देती है
और
हमेशा वह अपनी ही सूरत के झांसें में आ जाती है ,

अपनी सूरत के झांसें में
आती हुई यह औरतें
उसकी आंखों में कब बेसूरत हो जायेंगी समझ नहीं पातीं.



चलने वाले पांवों में

चलनें वाले पांवों में ही  फटती हैं बिवांइयां
चलनें वालें पांवों में ही  लिपटती है चंदनवर्णी धूल
चलनें वाले पांवों में ही लद कर आते हैं शब्द,

अक्सर चलनें वाले पांवों को देखकर
मुझे अपने पिता के पांव याद आते हैं
जिनकी बिवांइयों में पिता
बसंत के दिनों में
पिलाते थे रेड़ का तेल ,

पिता के पांवों केा देखकर
याद आये थे मुझे त्रिलोचन के पांव
जो पिता की तरह चलते थे तेज तेज
सागर की सड़कों में चलते हुये उनके साथ
मुझे पिता के पांव याद आ रहे थे ,

अब जब मैं चलनें वाले पांवों की चर्चा कर रहा  हूँ.
तों मुझे बमियान में खडे़ बुध्द के
उन पांवों की याद आ रही है
जिनमें अभी कुछ दिन पहले ही
तालिबानियों ने लगाई थी आग
क्योंकि उन्हें निश्चित हो गया था कि
इन्हीं पांवों में चल कर आये थे वे शब्द
जो हजारों साल बाद भी
उनकी नींद को हलाकान करते हैं ,

हालाकि शब्दों से तालिबानियों को
कोई खास परिचय नहीं रहा है
जो अब भी नहीं है लेकिन
यह अंदाजा उनको हैं कि
पैरों की एक भाषा होती है
जो छटा में बेजोड़ और
अनुभव के शीरे में इतनी सीझी होती है कि
जहाँ जाती है उसके
अपने होनें का विश्वास होता है ,

चलते हुये पांव हर
घेरे को तोड़ते और रचते हुये
चलते हैं अपनी इबारत
जिस पर सृष्टि अपना पहिया रखती है.
 


साबका

सबसे पहले मेरा साबका
उन स्त्रियों से पड़ा
जो हवा-धूप के
होते हुये भी
अपने अंधेंरे और सड़न में खुश थी ,

जिनके पति साल के तीन सौ पैसंठ दिन
देवता बने रहते थे
इन्हीं स्त्रियों में मेरी माँ थी
जो हमसे अधिक
शालिग्राम की बटिया के
भोजन और पहनावे के लिए
चिन्तित रहती थी ,

इसके बाद मेरा साथ
उन स्त्रियों से रहा
जो दिन भर चरेर धूप में
रहते हुये भी अपने दुखों को
तनिक भी नहीं काट पा रही थीं ,

हवा-धूप -पानी के
स्वाद के साथ
चढ़ी धोतियों और पानी से उपजा इनका सौन्दर्य
अब भी कहीं
मेरे भीतर सुरक्षित है,

चालीस साल बाद भी जिसे
नहीं व्यक्त कर पाये शब्द
बिंब नहीं उठा पाये
जिसका बोझ
प्रतीक नहीं ठहर पाये
जरा भी जिसके सामने
कुछ भी कहे मर्मज्ञ

मैं इसे कविता में
रख रहा हूँ जस का तस.


बिटिया को देख कर

शादी के बाद पहली बार
घर आयी बिटिया को देखकर
मैं भांप लेना चाहता था कि
जिस घर में बिटिया गई है
घर का आंगन इतना तो है न कि
वह अपने गीले बालों को धूप दिखा सके ,

मै जान लेना चाहता था कि
घर की दीवारे इतनी
उंची तो नहीं हैं कि
चार पाई खिसका कर दरवाजों की
सिंटकनी न खोली जा सके,

और खिडकियों के परदे इतने
भारी तो नहीं हैं कि
बाहर की हवा भीतर न आ सके
किसी के माँ बाप हमेशा तो नहीं रहते
किसी के याद दिलानें पर ही न
उसे याद आयेंगें हम ,
और मेरे बाद
मेरा नाम लेते हुये
नहीं आयेगी अपने भाई के घर ,

न चाह कर भी
मैं यहां यह सब लिख रहा हूँ
क्योंकि बेटी का सुख सीधे
पिता तक पहुंचता है.

 ___________________________


नरेन्द्र पुण्डरीक
(15 जनवरी, 1958) 
कविता संग्रह : नगे पांव का रास्ता, सातों आकाशों की लाडली, इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया,इस पृथ्वी की विराटता में 

सचिव : केदार शोध पीठ न्यास, (बाँदा) 
मो. 8948647444
pundriknarendr549k@gmail.com 

सबद - भेद : अरुण कमल की काव्य-यात्रा : हरे प्रकाश उपाध्याय

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वरिष्ठ कवि अरुण कमल के पांच कविता संग्रह  – ‘अपनी केवल धार’ (1980) ‘सबूत’(1989), नये इलाके में’(1996)‘पुतली  में संसार’(2004,‘मैं वो शंख महाशंख’ (2013). तथा  अंग्रेजी में समकालीन भारतीय कविता के अनुवादों की एक पुस्तक – ‘वायसेज़’. वियतनामी कवि ‘तो हू’ की कविताओं तथा टिप्पणियों की अनुवाद-पुस्तिका, साथ ही ‘मायकोव्स्की’की आत्मकथा के अनुवाद एवं अनेक देशी-विदेशी कविताओं के अनुवाद, आदि प्रकाशित हैं.
साहित्य अकादेमी पुरस्कार, शमशेर सम्मान, भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कारों से वह सम्मानित हैं.

उनकी कविता – यात्रा पर हरे प्रकाश का यह आलेख. हरे अच्छे उपन्यासकार और संपादक तो हैं हीं उनके अंदर साहित्य का एक सुगढ़ विवेचक भी मौजूद है.    

 जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी                                           

हरे प्रकाश उपाध्याय



रुण कमल हिंदी की कविता में तब दाखिल होते हैं, जब देश में आजादी से मोहभंग की निराशा, संशय और आशंका का कोहरा घना हो रहा होता है. अपने वक्त के बारे में कवि लिखता है- 
बोलना गुनाह
खाँसना गुनाह
आँगन में औरतों का हँसना गुनाह
छुरा भाँजते गुंडे छुट्टा घूम रहे हैं
और अपने ही घर के चौखट पर बैठा आदमी
मारा जा रहा है....

पर यही वह समय है जब अपनी पक्षधरता चुनने व उसे व्यक्त करने का भी तकाजा है. यह वह दौर है जहाँ सावधानी, सतर्कता के साथ निराशामय यथार्थ से टकराना पड़ता है. अपनी ताकत के लिए आत्मीयता के साथ अपने लोगों को पहचानना भी पड़ता है- 
एक ही तो हैं हमारे लक्ष्य. एक ही तो है हमारी मुक्ति. साथ-साथ मिलकर चलेंगे हम. जहाँ गिरोगे तुम. वहीं रहेंगे हम. जहाँ झुकोगे तुम. वहीं उठेंगे हम. लाओ मुझे दो अपने हाथ. चलो मेरे पाँव से चलो....
मगर यह काम आसान नहीं है, अपने होने के पर्दे में शत्रु बैठे हुए हैं खंजर लिए हुए-...
मैंने देखा साथियों को . हत्यारों की जै मनाते. मेरा घर नीलाम हुआ. और डाक बोलने आये अपने ही दोस्त....  

यहाँ फटाफट निष्कर्ष निकालना, सरपट चलते जाना और दो टूक निर्णय लेना खतरनाक हो सकता है, पर अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद एक संवेदनशील व्यक्ति चुप भी तो नहीं हो सकता. उसे अपनी और अपने लोगों की लड़ाई लड़नी होती है. अपनी ताकत को पहचानना पड़ता है. समय की विसंगतियों के रेशे-रेशे उघाड़कर देखना पड़ता है. यह उल्टा जमाना है-..

ऐसा जमाना आ गया है उल्टा
कि कोई तुम्हें रास्ता बतावे तो शक करो....

एक कवि के लिए यह वक्त खासा चुनौतीपूर्ण है. उसे आगे बढ़ना है और रास्ता खोजना है. पुराने खोजे हुए मार्ग अपर्याप्त हो चुके हैं. कहना नहीं होगा कि वक्त आगे और जटिल और व्यवस्था निरंतर और कुटिल होती जाती है. अरुण कमल की काव्य संवेदना पर विचार करने के लिए हमें दीन दुनिया और समय में लगातार आते गये इस बदलाव को भी समझना होगा. समस्याएं लगातार विकराल होती गयी हैं. संवेदनशील आदमी इस सबके बीच फतवेबाजी नहीं कर सकता, सरपट दौड़ते हुए, स्पष्ट निर्णय सुनाते हुए नहीं चल सकता. पर अमूर्त कलावाद का भी यह दौर नहीं है. अरुणकमल की रचना प्रक्रिया के समक्ष ये तमाम संकट आते हैं. इस बीच इन सबसे जूझते हुए यह कवि जैसे बनता और आगे बढ़ता है, इसे गहराई से समझना रोमांचक और झकझोरनेवाली प्रक्रिया है. अरुण कमल सपाट दावा करने वाले कवि नहीं हैं. वे जमीन से जुड़े हैं और जमीन के लोगों के कवि हैं, मगर वे इस बात को इस वाचाल तरीके से कहीं नहीं कहते. उनके लिए प्रतिबद्धता झंडे की तरह लहराने की चीज नहीं है, बल्कि उसे जीना ही उनका ध्येय है. वे अपने समय को पूरा समझने या एकमात्र सही व्याख्याता होने का दावा भी कभी नहीं करते. उन्हें जितना संशय इस संसार को लेकर है, जितना संदेह शत्रुओं पर है, उससे कम खुद पर नहीं है. वे बार-बार अपनी कविता में खुद को भी तौलते हैं- ...
झड़ना था तो खेत में झड़ता
दाई माई चुन लेतीं. झड़ना था तो राह में झड़ता
चिड़िया चुरगुन चुन लेतीं. अब तो खंखड़ हूँ मैं केवल
दाना था सो घुन खा बैठे....

पर बेहतरी की ललक और जिजीविषा भी उनके यहाँ कभी खत्म नहीं होती- ..
फूटने के बाद भी मिट्टी की सुराही
जाड़े में बोरसी बन जाती है
वैसे ही मैं भी तो काम आ सकता हूँ
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा.

अपनी सीमाओं की समझ, जिजीविषा, विनम्रता, कौतूहल, जिज्ञासा, आत्मसंशय और आत्मीयता ही अरुण के मूल काव्य मूल्य हैं. कमजोर, गरीब, हारे हुए, धूसर के प्रति अनुराग और ताकतवर, चमकते हुए, हावी होते व छाते हुए लोगों-ताकतों के प्रति धृष्टता-कठोरता इस कवि के काव्य के गुणसूत्र के पदार्थ हैं. वे हर चीज को बार-बार देखते हैं और जानने की कोशिश करते है. पर जो गरीब, वंचित, बेसहारा, निर्वासित और सताये हुए लोग हैं उनके शोक और करुणा से वे इतने आप्त हैं, उनसे अपना तादात्मय स्थापित किये हुए रहते हैं. उनसे संवाद और संपर्क कायम किये रहते हैं. उनकी पीड़ा और पक्ष सतत बताते रहते हैं.
एक ही दौर में अनेक कवि होते हैं. एक ही अनुभव से अलग-अलग प्रभाव भी पैदा होते हैं. अरुण कमल अपने दौर के एक अलग कवि हैं. वे अलग दिखने के लिए कविता नहीं लिखते. कविता में अलग से पहचाने जाने का सायास प्रयास वे नहीं करते. वे अपनी कविता से चौंकाने या मंत्र मुग्ध कर देने या मोहाविष्ट कर देने की कोशिश भी कभी नहीं करते. वे अपनी कविता में ज्ञान का बखान या प्रतिभा प्रदर्शन के प्रति सचेष्ट कवि नहीं हैं. इसीलिए वे अपनी पीढ़ी में अलग हैं. अरुण कमल के काव्य संस्कार और मिजाज-मंतव्य को समझने के लिए उनके हर संकलन के प्रारंभ में दी गयी तुलसीदास की ये पंक्तियां गौर करने लायक है-  
विनयपत्रिका दीन की बापु आप ही बाँचों
हिय हेरि तुलसी लिखी सो सुभाय सही करि
बहुरि पूँछिये पाँचों. 

अपनी कविता को वे दीन की विनयपत्रिका कहते हैं. जाहिर है इस कविता के लिए पांडित्य से अधिक संवेदना और सहृदयता की जरूरत पड़ती है. इसीलिये शिल्प के प्रति अरुण कमल के यहाँ कोई सावधानी, सजगता या प्रयोग नहीं है, पर साधारण आदमी के दिल की बात यहाँ से वहाँ तक भरी पड़ी है. इनके यहाँ बौद्धिक जटिलता नहीं है बल्कि संवेदनात्मक संश्लिष्टता है. इसीलिए शिल्प में सरल मालूम होती इनकी कविता भाव में उतनी ही जटिल है, जितना हमारा समय. अरुण की कविता में सारे संसार की बाते हैं, गली-मोहल्ले की आम घटनाओं से लेकर वैश्विक राजनीति तक, पर वैसे जैसे कि कोई उसे भोगकर अपना हाल कह रहा हो. उसे इस बात से मतलब नहीं कि उसका हाल आप पर क्या असर डाल रहा है. उसे इस बात की भी फिक्र नहीं कि उसके कहने का लहजा कैसा है. वह कहने के तरीके के प्रति सावधान नहीं है, बल्कि जो कह रहा है उसके प्रति सावधान है. वह ईमानदारी से जो महसूस कर रहा है, बता रहा है. एक घोषित वामपंथी होने के बावजूद कभी भी नकली जीत या विलाप अरुण की कविता में नहीं दिखाई पड़ता. जीवन से ऊपर आवरण की दार्शनिकता अरुण कमल की कविता में नहीं पायी जाती बल्कि यथार्थ और अनुभव से लिपटी हुई दार्शनिकता की कविताएं इनके यहाँ हैं. यह दार्शनिकता आप उनकी बिल्कुल शुरू की कविता उर्वर प्रदेश में देख सकते हैं और आगे जाकर पुतली में संसार संकलन में तो वह अत्यंत परिपक्व और पुष्ट हो गयी है. पुतली में संसार संकलन में अरुण के अंदाज की दार्शनिकता रेखांकित करने योग्य है. अर्थ का ऐसा विस्तार और भावों की ऐसी सघनता उनकी पीढ़ी में दुर्लभ है, बल्कि उनके बाद की पीढ़ी में तो और दुर्लभ है.

अरुण का पहला संकलन- अपनी केवल धार 1980 में प्रकाशित होता है, तब से लेकर सन 2013 तक उऩके इस समेत उनके पाँच कविता संकलन आये हैं- सबूत (1989)नये इलाके में (1996)पुतली में संसार (2004) और मैं वो शंख महाशंख (2013). इन संकलनो से आप गुजरें तो पाएंगे कि यथार्थ और अनुभव के प्रति कवि की परिपक्वता जितनी दृढ़ होती गयी है, उतनी ही दार्शनिकता का आकाश भी विस्तृत होता गया है. जो लोग इन कविताओं की सरलता देखते हैं, वे शायद धोखा खाते हैं. ये कविताएं सहज हैं मगर सरल नहीं है. दरअसल अरुणकमल की काव्य मुहावरा सरलीकृत है ही नहीं. तल पर जितनी सपाटता है, अंतस में उतनी ही गहराई हैं. दरअसल ये कविताएं पाठ में संपन्न हो जा जाने के बाद अर्थ में शुरू होती हैं. फौरी साक्षात्कार में इन कविताओं की अंतर्वस्तु को पकड़ना हाथी की पूँछ या सूड़ पकड़कर उस आधार पर ही हाथी को पूरा समझ लेने सरीखा भूल करना है. इन कविताओं को जानने के लिए अरुण कमल  जाना है शीर्षक कविता में जानने का जो तरीका अपनाते हैं, उसे अपनाना पाठक के लिए श्रेयस्कर है. जाना है कविता में एक फल को जानने का अनभुव बताते हुए वे कहते हैं- पहले भी देखा था यह फल. सूंघा था. चखा था बहुत बार. बचपन से ही.... पर इन सबके बावजूद यह जानना अपर्याप्त था. उस छोटे से फल का धरती आकाश तक जो संबंध फैला हुआ है, वह तो बहुत बाद में पता चलता है जब कवि उसे डाल पर पकते हुए देखता है. बिल्कुल यही हाल अरुण कमल की कविताओं का है. जब तक आप उनकी प्रकृति को, उसके मूल को नहीं समझ लेते तब तक उसके धरती आकाश तक के संबंध को भी नहीं जान सकते. खास जीवन प्रसंगों तक में महदूद रह जाने वाली कविताएं अरुण के यहाँ हैं, पर बहुत कम. अधिकांश कविताएं बहुत ही अर्थ संकोची हैं. जब तक आप उनसे आत्मीय या गाढ़ा रागात्मक संबंध नहीं बनाते, वे अपने आशय उजागर नहीं करतीं. अपनी मूर्तता के विन्यास में गहरा अमूर्तन लिये ये कविताएं अपना अर्थ किन्ही खास पंक्ति में नहीं रखतीं.

शीर्षकों से अर्थ लगा लेना तो अरुण की कविता के साथ भारी अन्याय है. वे बारिश पर कविता लिखते हुए मलहम तक जा पहुंचते हैं. पर न यहाँ बारिश से कविता का अर्थ खुलता है न मलहम से. कविता अपनी समग्रता में ही कोई आशय व्यक्त करती है.  बारिश शीर्षक कविता में प्रकृति, चाँद, तारे, आकाश के साथ गाँजे के धुएँ की स्मृति के साथ विस्मृति का भी आख्यान है और अंत में मलहम की गंध. अब आप सोचिए कि यह कैसी बारिश है. बारिश को जानने-समझने की तमाम पारंपरिक उपादान यहाँ अपर्याप्त हैं. आशय यह कि हर कविता जीवन के तमाम रंजोगम में ऐसी डूबी हुई कि एकांगी संवेदना व अनुभवों से बात पकड़ में ही नहीं आनेवाली. ये व्यंजानार्थ वाली कविताएं हैं. अर्थ के संधान में अभिधा यहाँ बहुत देर कर साथ नहीं देती.

अरुण कमल ने लंबी कविताएं नहीं लिखी हैं. पर हर कविता इतने भिन्न तरह के पदार्थों से बनी है कि असंगतियों पर से जरा सा ध्यान विचला कि अर्थ हाथ से छूटा. उनकी कविताएं काया में जितनी छोटी हैं, आत्मा उनकी उतनी ही विशाल है. ये ठोस कविताएं है. इनका रेशा-रेशा आपस में इतना गझिन गूंथा हुआ है कि इनके भीतर उतरने के लिए, इन्हें उधेड़ने और समझने के लिए आपके पास पर्याप्त धैर्य और सहृदयता चाहिये. हालांकि कुछ कविताएं व्यंग्य या चमकदार उक्तियों वाली भी इनके यहाँ हैं, पर बहुत नहीं है. अरुण कमल की एक बहुत प्रसिद्ध कविता है जो इनके पहले संकलन में ही है-धार. यह पूरी कविता एक कौंध के रूप में है बहुत चमकदार पंकितयों से बनी. पर ऐसी कविताएं इनके यहां कम हैं.

अरुण कमल पुतली में संसार के कवि हैं. वे एक साथ अनेक चीजों को देखते हैं. हर चीज में इतनी छवियाँ हैं कि उनका इकहरा मानी व्यर्थ है-यह बात अरुण की कविता पढ़कर समझी जा सकती है. वे मछली की आँख में अपना निशाना देखते हैं कि नहीं देखते- उनकी कविता में यह बात ही गौण है. वे तो मछली की आँख में देखते हुए यह देख रहे होते हैं कि मछली किसे देख रही है. और ऐसा वे सायास नहीं देख रहे हैं. उन्हें अपनी परंपरा मालूम है , लक्ष्य भी मालूम है---मुझे तो देखना था बस आँख का गोला. और मैं इतना अधिक सब कुछ क्यों देख रहा हूँ देव . लक्ष्य मालूम होते हुए भी कवि समूचे यथार्थ को अनदेखा कैसे कर देसमग्रता की अनदेखी न कर पाना ही अरुण के कवि की प्रकृति है, स्वभाव है. इस बात के सबूत हमें उनकी अधिकांश कविताओं में मिलते हैं. इसी वजह से अरुण कविता के नये इलाके में प्रवेश कर पाते हैं. वे उस मौसम में निकल पाते हैं जहाँ आकाश ढहा हुआ आ रहा है. इतनी आपाधापी है दुनिया में कि आप स्मृति से काम नहीं चला सकते. चीजें काफी तेजी से बदल रही हैं. अरुण इस सच्चाई का सामना करते हैं. इस संकट से उबरने का उपाय तलाशते हैं. इसी सबके बीच उन्हें अपनी सीमाओं का अहसास भी होता है. जो नये इलाके में निकलेगा ही नहीं, उसे भला कैसे पता चलेगा कि संकट कितने नये-नये हैं. अपने घर में सिमटकर कविता लिखनेवाले कवियों से आप उम्मीद नहीं कर सकते कि हर दरवाजा खटखटाने का उपाय वे सोच भी सकें. अरुणहर चीज पर से आवरण हटाकर देखने वाले कवि हैं इसलिए वे उस सबूत पर भरोसा नहीं करते जो हत्यारों और लूटेरों ने अपने पवित्र और निष्कलुष होने के लिए जुटा लिये हैं. वे इस षड्यंत्र के खिलाफ चुप्पी को तोड़ना चाहते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि 



...शक है उन पर जो निर्दोष हैं क्योंकि वे चुप हैं.
अरुण कमल ने गरीब और कमजोर आदमी की निरुपायता, उनके प्रति ताकतवरों की हिंसा, लोकतंत्र के पाखंड, सत्ता की दुरभिसंधियों, कर्मकांडों और भूख की यातना पर जैसी कविताएं लिखी हैं, वैसी कविताएं उनके समकालीनों के यहाँ बहुत कम हैं. लोकतंत्र के सारे स्तंभ किस तरह साधारण नागरिकों की तरह से मुँह मोड़े हुए, कैसे-कैसे हास्यास्पद पाखंड रचे जा रहे हैं, उसको कारगर तरीके से उन्होंने बेपर्द किया है. एक तरफ दुनिया में अमीरी का वैभव और उसके सामने ही मंदिरों में भीख माँगते बच्चे, भूख से बीच सड़क पर दम तोड़ता आदमी इन स्थितियों को सामने लाते हुए अरुण शांति और अहिंसा के विजय पर करारा व्यंग्य करते हैं. वे अपनी कविताओं में बारंबार यह दिखाते हैं कि गरीब आदमी का जीवन जीना, सांस लेना, पानी पीना, हँसना, बोलना सब किस तरह ताकतवरों की व्यवस्था को अखर रहा है. मजदूर अपनी छुट्टी से दो-एक दिन फाजिल अपने घर रुक गये हैं, उन्हें आशंका है कि वे या तो काम से निकाल दिये जाएंगे या उनकी मजदूरी काट ली जाएगी. इस व्यवस्था में बच्चों का हँसना-मुस्कराना भी गुनाह हो गया है. जहाँ भूख से मरते आदमी के बारे में कहा जा रहा है कि उसने शराब पी है. अखबार अमीरों की दरियादिली और अजीबोगरीब हास्यास्पद खबरें छाप रहे हैं, मगर बेगुनाह व कमजोर लोगों के साथ बरती जा रही सत्ता की क्रूरता की खबर को गोल कर दे रहे हैं. जनतंत्र की तीखी आलोचना हम यहाँ पाते हैं---- 
प्रजातंत्र का महामहोत्सव छप्पन विध पकवान
जिनके मुँह में कौर माँस का उनको मगही पान.  

इतना ही नहीं एक कविता में वे इसी विक्षोभ से भरकर उग्र व्यंग्य की अभिव्यक्ति करते हैं-
माँ बहनों की इज्जत लूटी जिन लोगों ने उनकी जय हो
खून बहाया मासूमों का जिन लोगों ने उनकी जय हो
दाँत गड़ाने को जो व्याकुल उन कुत्तों की जय हो जय हो
पैसा फेंकों पैसा, जल्दी-जल्दी फेंकों पैसा फेंको....

अरुण को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे कवियों का ध्यान आता है. पर उनका दौर और मुहावरा अलग था. सरोकार की साम्यता देखने लायक है. अरुण को श्रम की संस्कृति में गहरा भरोसा है. वे लिखते हैं- 

गंदे कटे-पिटे हाथ
जख्म से फटे हुए हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ. 

अरुण को भरोसा है कि ---
ग्रहण के बावजूद सूर्य ही रहा सूर्य
ग्रहण के बावजूद सूर्य ही होता है सूर्य. 

भले ईमानदारी, सच्चाई, मेहनत का छोर थामे जन को लांछित, उपेक्षित, अपमानित और प्रताड़ित किया जा रहा हो, मगर कभी न कभी इस ग्रहण से सूरज तो पार पाएगा ही और ग्रहण के बावजूद आखिर सूरज तो सूरज है.

समय के साथ स्थितियाँ भले जितनी प्रतिकूल होती गयी हों पर साधारण लोगों की ताकत के प्रति, उनके ईमान के प्रति अरुण का भरोसा डिगा नहीं है, वह और पुख्ता होता गया है.  मैं वो शंख महाशंख संकलन की एक कविता में वे सही ही पूछते हैं- 
जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी
उसे कैसे कहूँ कि इसे सजाकर लिखो
जिसके पास कुछ नहीं सिवा इस देह के
उसे कैसे कहूँ आज बाजार का दिन है
जो खो चुका है घर-परिवार
उसे कैसे कहूँ पानी उबाल कर पियो. 

भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने साधारण मनुष्य को जितना निरुपाय , विवश, अकेला और निहत्था बनाया है, उसको लेकर इस संकलन में वे विस्तार से बताते हैं. नयी बनती दुनिया को प्रश्नांकित करते हैं.  एक तरफ राजनीति को छलनीति बनाकर दुनियाभर के सत्ता पर कब्जा जमाये लोग साधारण आदमी के वजूद से घृणित मजाक कर रहे हैं, वही उनका साथ धार्मिक पाखंडी भी खूब मजे से दे रहे हैं- चाहे वह 'अंत्येष्टि' का अवसर हो या 'शोभायात्रा' का, हर जगह इनका पाखंड उजागर है. धर्म, संस्कार और संस्कृति के नाम पर हास्यास्पद तरीके अपना कर जनता का शोषण करने वाले ऐसे पाखंडियों पर भी अरुण ने अपनी कविता में जबरदस्त प्रहार किया है. दरअसल पूंजी और सत्ता के संस्थानों पर कब्जा जमाये लोगों ने ही धार्मिक संस्थाओं पर भी अपने नाम की पट्टी लगवा ली है. इन सारे दुःखों का वृतांत रचते हुए अरुण कही लाउड या वाचाल नहीं होते. अपराधियों को बिना कोई रियायत दिये हुए पूरी गंभीरता और दृढ़ता से अपनी बात कहते हैं. और जन के साथ तादात्मय यह कि... 
सरकारी आंकड़ों में वह कहीं नहीं है
जब भी उनकी गिनती गलत होगी
जब भी वे हिसाब मिला नहीं पाएंगे
मैं हँसूँगा आंकड़ों के पीछे से गलियां देता
वो मैं हूँ मैं वो अंक महाशंख ...
___________________________

हरे प्रकाश उपाध्याय
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
204, सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023
मोबाइल-8756219902

मेघ - दूत : दुनिया का सबसे रूपवान डूबा हुआ आदमी : गैबरिएल गार्सिया मार्केज़

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जब परिस्थितियाँ विकट, त्रासद और दारुण हो जाती हैं तब साहित्य और कलाएं प्रतिपक्ष का नया शिल्प विकसित करती हैं जो सटीक हो और सूक्ष्मता से अपने समय की विद्रूपता और विडम्बना को व्यक्त कर सके.  
विश्व युद्धों के बीच मनुष्य के  असहाय हो जाने की ही एक तरह से अभियक्ति  था अस्तित्ववाद (existentialism).
इसी तरह से जब लैटिन अमेरिकी देश तानाशाही और साम्राज्यवादी चंगुल में फंस कर स्मृतिविहीन किये जा रहे थे, साहित्य में जादुई  यथार्थवाद का जन्म हुआ (magic realism).

आज खासकर भारत में गैबरिएल गार्सिया मार्केज़ फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं और उन्हें तलाश कर पढ़ा जा रहा है.

बींसवीं शताब्दी के बड़े लेखक और नोबल पुरस्कार से सम्मानित कोलम्बिया के Gabriel García Márquezकी कहानी ‘The Handsomest Drowned Man in the World मूल रूप से स्पेनिश भाषा में 1968 में लिखी गयी थी.
इसका अंग्रेजी में अनुवाद 1972 में हुआ और यह उनके कहानी संग्रह ‘Leaf Storm and Other Stories में संकलित है.
इसका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है जो पहली बार यहाँ प्रकाशित हो रहा है.

जादुई तत्वों को यथार्थवादी हिस्से में जोड़ देना, जादुई यथार्थवाद है, गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़ इसके मास्टर माने जाते हैं.
इस कहानी में जब एक बंजर जैसे गाँव में एक उदात्त ओजस्वी मृत व्यक्ति का शव आता है तब वहाँ सबकुछ बदल जाता है. वहाँ अब चट्टानों पर फूल खिलने लगते हैं.
जैसा कि मार्खेज़ की शैली है ‘बताओ नहीं दिखाओं’.

यह कहानी  इस शैली का बेहतरीन उदाहरण है.  
(अनूदित लातिनी अमेरिकी कहानी)
दुनिया का सबसे रूपवान डूबा हुआ आदमी                         
गैबरिएल गार्सिया मार्केज़

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय


जिन शुरुआती बच्चों ने उस फूले हुए अँधेरे और चिकने उभार को समुद्र में से अपनी ओर आते हुए देखा,  उन्होंने सोचा कि वह ज़रूर दुश्मन का जहाज़ होगा. फिर उन्होंने पाया कि उस पर कोई झंडा या पाल नहीं लगा था, इसलिए उन्हें लगा कि वह कोई व्हेल मछली होगी. लेकिन जब वह किनारे पर आ कर लगा और उन्होंने उस पर लगे समुद्री खर-पतवार के गुच्छे, जेलीफ़िश के जाल, मछलियों के अवशेष और पानी में तैरने वाले जहाज़ के टुकड़ों को हटाया तब जा कर उन्हें पता चला कि दरअसल वह एक डूबा हुआ आदमी था.

पूरी दोपहर बच्चे उससे खेलते रहे. कभी वे उसे तट की रेत में दबा देते, कभी बाहर निकाल लेते. पर संयोग से किसी बड़े आदमी ने उसे देख लिया और पूरे गाँव में यह चौंकाने वाली सूचना फैला दी. जो लोग उसे उठा कर क़रीब के घर में ले गए, उन्होंने यह पाया कि वह उनकी जानकारी में आए किसी भी अन्य मरे हुए आदमी से ज़्यादा भारी था. वह लगभग किसी घोड़े जितना भारी था, और उन्होंने एक-दूसरे से कहा कि शायद वह काफ़ी अरसे से तैर रहा था, इसलिए पानी उसकी हड्डियों में घुस गया था. जब उन्होंने उसे ज़मीन पर लेटाया तब उन्होंने कहा कि वह अन्य सभी लोगों से ज़्यादा लम्बा था क्योंकि कमरे में उसके लिए मुश्किल से जगह बन पाई. पर उन्होंने सोचा कि शायद मृत्यु के बाद भी बढ़ते रहने की योग्यता कुछ डूब गए लोगों की प्रवृत्ति का हिस्सा थी.

उसमें समुद्र की गंध रच-बस गई थी और केवल उसका आकार ही यह बता पा रहा था कि वह किसी इंसान की लाश थी, क्योंकि मृतक एक अजनबी था, यह बताने के लिए उन्हें उसके चेहरे को साफ़ करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी. गाँव में लकड़ी के केवल बीस मकान थे जिनमें पत्थरों के आँगन थे, जहाँ कोई फूल नहीं उगे थे. ये मकान मरुभूमि जैसे एक अंतरीप के अंत में बने हुए थे. वहाँ ज़मीन की इतनी कमी थी कि माँओं को हरदम डर लगा रहता कि तेज़ हवाएँ उनके बच्चों को समुद्र में उड़ा ले जाएँगी. इतने बरसों में थोड़े से मृतकों को निपटाने के लिए उन्हें खड़ी चट्टान से समुद्र में फेंक दिया जाता था. लेकिन समुद्र शांत और उदार था, और सभी लोग सात नावों में अँट जाते थे. इसलिए जब उन्हें डूबा हुआ आदमी मिला तो यह जानने के लिए कि वे सभी वहाँ मौजूद थे, उन्हें केवल एक-दूसरे को देखना भर था.

उस रात वे सब काम पर समुद्र में नहीं गए. जहाँ पुरुष यह पता करने निकल गए कि पड़ोस के गाँवों में से कोई लापता तो नहीं है, वहीं महिलाएँ डूबे हुए आदमी की देखभाल करने के लिए उसी मकान में रह गईं. उन्होंने घास के फाहों से उसकी देह पर लगी मिट्टी को साफ़ किया. पानी में डूबे रहने के कारण जो छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर उसके बालों में उलझ गए थे, उन्होंने उनको भी हटाया. फिर उन्होंने मछलियों के शल्क हटाने वाले उपकरणों से उसकी त्वचा पर जमी परतों और पपड़ियों को खुरचा. जब वे यह सब कर रही थीं तो उन्होंने पाया कि उसकी देह में लिपटी वनस्पतियाँ गहरे पानी और दूर-दराज़ के समुद्रों से आई थीं. उसके कपड़े चिथड़ों-जैसी हालत में थे. लगता था जैसे वह प्रवालों की भूल-भुलैया में से बहकर वहाँ पहुँचा था.

गैबरिएल गार्सिया मार्केज़

उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि मृत होते हुए भी वह बेहद गरिमामय लग रहा था. समुद्र में डूब गए अन्य लोगों की तरह वह एकाकी नहीं लग रहा था. नदियों में डूब गए लोगों की तरह वह मरियल और ज़रूरतमंद भी नहीं लग रहा था. लेकिन असल में वह किस क़िस्म का आदमी था, यह बात उन्हें उसकी देह की पूरी सफ़ाई करने के बाद ही पता चली, और तब यह देखकर वे विस्मित हो गईं. आज तक उन्होंने जितने लोग देखे थे, वह उन सभी से ज़्यादा लम्बा, हट्टा-कट्टा और ओजस्वी था. हालाँकि वे सब हैरानी से उसे निहार रही थीं, पर उसकी क़द-काठी और उसके रूप की कल्पना कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं था.

उसे लेटाने के लिए उन्हें पूरे गाँव में उतना लम्बा बिस्तर नहीं मिला, न ही उन्हें कोई ऐसी मज़बूत मेज़ ही मिली जो अंत्येष्टि से पहले की रात उसके 'जागरण'संस्कार के समय उसे लेटाने के काम आती. गाँव के सबसे लम्बे लोगों की पतलूनें उसे छोटी पड़ गईं, सबसे मोटे लोगों की क़मीज़ें उसे नहीं आईं, और सबसे बड़े पैरों के जूते भी उसके पैरों की नाप से छोटे निकले. उसके विशाल आकार और रूप से मोहित हो कर गाँव की महिलाओं ने एक नाव की पाल से उसकी पतलून, और किसी दुल्हन के शानदार कपड़ों से उसकी क़मीज़ बनाने का निश्चय किया ताकि वह मृत्यु के बाद भी गरिमामय बना रहे. जब वे एक गोल घेरे में बैठकर बीच-बीच में लाश को देखते हुए कपड़े सिल रही थीं, तब उन्हें लगा जैसे इस रात से पहले हवा कभी स्थिर नहीं थी, न ही समुद्र कभी इतना अशांत था, और उन्होंने मान लिया कि इन परिवर्तनों का मृतक से कुछ-न-कुछ लेना-देना था.

उन्होंने सोचा कि यदि यह प्रतापी व्यक्ति उनके गाँव में रहा होता तो उसके भव्य मकान के दरवाज़े सबसे चौड़े होते, छत सबसे ऊँची होती, फ़र्श सबसे मज़बूत होती, पलंग को किसी जहाज़ के ढाँचे के बीच के हिस्से में लोहे की कीलें ठोककर बनाया गया होता, और उसकी पत्नी सबसे प्रसन्न स्त्री होती. उन्होंने सोचा कि उस आदमी का रुतबा ऐसा होता कि वह महज़ उनके नाम लेकर ही समुद्र के अंदर की मछलियों को पानी से बाहर बुला लेता. उस आदमी ने अपनी ज़मीन पर इतनी ज़्यादा मेहनत की होती कि पत्थरों के बीच से फूट कर फ़व्वारे निकल आते, जिससे वह खड़ी चट्टानों पर फूलों के पौधे उगा सकता. उन्होंने चुपके-से अपने मर्दों की तुलना उस आदमी से की, और इस नतीजे पर पहुँचीं कि जो काम वह आदमी एक ही रात में कर देता, उस काम को उनके मर्द जीवन भर मेहनत करके भी न कर पाते. मन-ही-मन उन्होंने अपने मर्दों को पृथ्वी पर मौजूद सबसे कमज़ोर, सबसे निकृष्ट और सबसे बेकार जीव मान कर ख़ारिज कर दिया. वे सभी महिलाएँ अपनी अनोखी कल्पनाओं की भूलभुलैया में विचर रही थीं, जब उनमें से सबसे बड़ी उम्र की महिला ने एक लम्बी साँस ली. सबसे बड़ी उम्र की महिला होने के कारण उसने डूबे हुए आदमी को कामवासना से देखने की बजाए दयालु दृष्टि से देखा था. वह बोली -- "इसका चेहरा तो एस्टेबैननाम के आदमी से मिलता-जुलता है."

यह सच था. उनमें से अधिकांश महिलाओं के लिए उसके चेहरे को केवल एक बार और देखने भर की ज़रूरत थी. वे यह जान गई थीं कि उसका और कोई नाम हो ही नहीं सकता था. उनमें से कम-उम्र और ज़्यादा हठी महिलाएँ फिर भी कुछ घंटों तक भ्रम की स्थिति में बनी रहीं. उन्हें लगा कि यदि वे उसे पूरे कपड़े और चमड़े के बढ़िया जूते पहना कर फूलों के बीच लेटा दें तो शायद वह लौटैरोनाम से जाना जाए. पर यह एक अहंकारी भ्रम था. महिलाओं के पास ज़्यादा कपड़ा नहीं था. कपड़ों की कटाई और सिलाई अच्छी तरह नहीं हुई थी, जिसके कारण वह पैंट उस आदमी को बहुत छोटी पड़ रही थी. उसके सीने में मौजूद छिपी ताकत की वजह से उसकी क़मीज़ के बटन खिंच कर बार-बार खुल जाते थे.

मध्य-रात्रि के बाद हवा का वेग कम हो गया, और समुद्र फिर से अपनी बुधवार वाली निद्रालु अवस्था में चला गया. उस नीरव सन्नाटे ने सारी शंकाएँ दूर कर दीं-- वह एस्टेबैन ही था. महिलाओं ने उसे कपड़े पहनाए थे, उसके बाल सँवारे थे, उसके नाखूनों को काटा था और उसकी दाढ़ी बनाई थी. जब उन्हीं महिलाओं को यह पता चला कि अब उस आदमी को ज़मीन पर घसीट कर ले जाया जाएगा, तो करुणा और खेद से उनके रोंगटे खड़े हो गए. और तब जा कर वे सब यह समझ पाईं कि जो विशाल आकार उसे मृत्यु के बाद भी दुख दे रहा था, जीवन में उसने उसे कितना दुखी किया होगा.

अब वे उसके जीवन की कल्पना कर सकती थीं -- अपने विशाल आकार के कारण वह दरवाज़ों के बीच में से झुककर निकलने के लिए अभिशप्त रहा होगा, उसका सिर बार-बार छत की आड़ी शहतीरों से टकरा कर फूट जाता होगा. किसी के यहाँ जाने पर उसे देर तक खड़े रहना पड़ता होगा. सील मछली जैसे उसके मुलायम गुलाबी हाथ यह नहीं जानते होंगे कि उन्हें क्या करना है. उधर गृह-स्वामिनी खुद डरी होने के बावजूद अपनी सबसे मज़बूत कुर्सी आगे करते हुए उससे बैठने का आग्रह करती होगी -- "बैठिए न , एस्टेबैन जी ! "  लेकिन वह मुस्कराते हुए दीवार के सहारे खड़ा रहता होगा -- "आप तकलीफ़ न करें , भाभीजी. मैं यहाँ ठीक हूँ."हालाँकि उसकी एड़ियाँ दुख रही होतीं और जब भी वह किसी के यहाँ जाता, तब बार-बार यही क्रम दोहराने के कारण उसकी पीठ में भी दर्द होता -- "आप तकलीफ़ न करें. मैं यहाँ ठीक हूँ."पर वह ऐसा केवल कुर्सी के टूटने की शर्मिंदगी से बचने के लिए कहता. और शायद वह कभी नहीं जान पाता था कि वही लोग जो उससे कहते थे -- "नहीं जाओ, एस्टेबैन, कम-से-कम कॉफ़ी के बनने तक तो रुक जाओ ", वही लोग बाद में फुसफुसा कर एक-दूसरे से कहते थे -- "शुक्र है, वह बड़ा-सा बुद्धू आदमी चला गया. वह रूपवान बेवकूफ़ चला गया ! "

उस रूपवान आदमी के शव के बगल में बैठी महिलाएँ सुबह होने से थोड़ा पहले यही सब सोच रही थीं. बाद में उन्होंने उसके चेहरे को एक रुमाल से ढँक दिया ताकि रोशनी से उसे कोई तकलीफ़ न हो. इस समय वह इतना अरक्षित, सदा से मृत और उन महिलाओं के अपने मर्दों जैसा लग रहा था कि वे सभी यह देखकर रोने लगीं. वह एक कम उम्र की स्त्री थी जिसने रोने की शुरुआत की. फिर दूसरी महिलाएँ भी रुदन में शामिल हो गईं. वे लम्बी साँसें भर रही थीं और विलाप कर रही थीं. वे जितना ज़्यादा सुबकतीं, उतनी ही ज़्यादा उनकी रोने की इच्छा बलवती होती जाती. दरअसल वह डूबा हुआ आदमी अब पूरी तरह से एस्टेबैन लगने लगा था. इसलिए वे बहुत ज़्यादा रोती रहीं क्योंकि वह पूरी पृथ्वी पर सर्वाधिक दीन-हीन, सर्वाधिक शांत और सर्वाधिक कृपालु आदमी लग रहा था, बेचारा एस्टेबैन. इसलिए जब गाँव के मर्द इस ख़बर के साथ लौटे कि वह डूबा हुआ आदमी पड़ोस के किसी गाँव का निवासी नहीं था, तो आँसुओं के बीच महिलाओं के मन में उल्लास की रेखा खिंच गई. "शुक्र है परमात्मा का, "वे सब लम्बी साँसें ले कर बोलीं, " यह डूबा हुआ आदमी हमारा अपना है."

गाँव के मर्दों को लगा कि यह सारा दिखावा महिलाओं का छिछोरापन था. वे रात के समय पूछताछ करने के मुश्किल काम की वजह से थक चुके थे. वह एक शुष्क दिन था और हवा बिलकुल नहीं चल रही थी. वे केवल यह चाहते थे कि सूरज के सिर पर चढ़ आने से पहले वे नवागंतुक की लाश को हमेशा के लिए ठिकाने लगाने की परेशानी से मुक्त हो जाएँ. उन्होंने बचे हुए मस्तूलों के सामने के हिस्से और बरछेनुमा बाँसों से एक कामचलाऊ अर्थी बनाई, जिसे उन्होंने पालों के कपड़े से बाँध दिया ताकि वह खड़ी चट्टान तक पहुँचने तक शव का भार उठा सके. वे उस आदमी के शव को एक मालवाहक जहाज़ के लंगर के साथ बाँध देना चाहते थे, ताकि वह गहरी लहरों में भी आसानी से डूब जाए. उस गहराई में मछलियाँ भी अँधी होती हैं और गोताखोर गृह-विरही हो कर काल के गर्त में समा जाते हैं. वे लोग यह नहीं चाहते थे कि लहरों के थपेड़े उस आदमी के शव को भी वैसे ही वापस तट पर ले आएँ, जैसे अन्य शवों के साथ हुआ था.

लेकिन गाँव के मर्द जितनी जल्दी यह काम निपटाना चाहते , गाँव की महिलाएँ समय बरबाद करने के उतने ही तरीके ढूँढ़ लेतीं. वे अपनी छातियों पर समुद्र से बचाव की तावीज़ें बाँधे हुई थीं, और घबराई हुई मुर्ग़ियों की तरह इधर-उधर चोंच मारती फिर रही थीं. एक ओर  उन में से कुछ महिलाएँ उस डूबे हुए आदमी के कंधों पर अच्छे शगुन का धार्मिक लबादा डालने में व्यस्त दिख रही थींदूसरी ओर कुछ अन्य महिलाएँ उसकी कलाई पर दिशा-सूचक यंत्र बाँध रही थीं.  "ऐ, वहाँ से हटो , रास्ते से हटो, देखो, तुम्हारी वजह से मैं डूबे हुए आदमी पर लगभग गिर ही गया था"जैसे शोर-शराबे के बाद गाँव के मर्दों को औरतों की नीयत पर संदेह होने लगा. वे बुड़बुड़ाने लगे कि एक अपरिचित व्यक्ति को अंतिम यात्रा के लिए इतना ज़्यादा सजाने-सँवारने की क्या ज़रूरत है, क्योंकि शव के साथ आप कितनी भी धार्मिक रस्में अदा कर लें, अंत में तो लाश को शार्क मछलियों के मुँह का निवाला ही बनना है. पर महिलाएँ इधर-उधर दौड़ते-भागते और टकराते हुए भी उस डूबे आदमी पर स्मृति-चिह्नों के टुकड़े बाँधती रहीं. वे अब रो तो नहीं रही थीं, पर गहरी साँसें ज़रूर ले रही थीं. यह सब देखकर गाँव के मर्दों का ग़ुस्सा फूट पड़ा, क्योंकि किसी डूबे हुए नगण्य आदमी की बह कर आई ठंडी लाश पर इतना बतंगड़ पहले कब हुआ था?उनमें से एक महिला डूबे हुए आदमी की देख-भाल में दिखाई जा रही इतनी कमी से अपमानित महसूस कर रही थी. तब उसने मृत व्यक्ति के चेहरे पर पड़ा रुमाल हटा दिया. उसके गरिमामय चेहरे को देखकर गाँव के मर्द भी विस्मित रह गए.

वह वाकई एस्टेबैन था. उनके द्वारा पहचाने जाने के लिए उसका नाम दोहराए जाने की ज़रूरत नहीं थी. यदि उन्हें उसका नाम सर वाल्टर रेलिघबताया गया होता तो वे भी उसके अमेरिकी लहज़े से प्रभावित हुए होते. उन्होंने भी उसके कंधे पर बैठे तोते और वहीं टँगी नरभक्षियों को मारने वाली चौड़ी नाल की पुरानी बंदूक़ को देखा होता. किंतु विश्व में एस्टेबैन कोई विलक्षण ही हो सकता था, और वह वहाँ पड़ा था -- व्हेल मछली की तरह फैला हुआ. उसके पैरों में जूते नहीं थे, और उसने किसी बच्चे की नाप की पतलून पहन रखी थी. उसके कड़े नाखूनों को किसी चाकू से ही काटा जा सका था.

वह शर्मिंदा महसूस कर रहा है, यह जानने के लिए उन्हें केवल उसके चेहरे से रुमाल को उठाना भर था. यदि वह इतना बड़ा या भारी या रूपवान था तो यह उसकी ग़लती नहीं थी. यदि वह जानता कि उसके साथ यह सब होने वाला है तो वह ज़्यादा सावधानी से अपने डूबने की जगह चुनता. यह बात मैं पूरी गम्भीरता से कह रहा हूँ. यदि यह सब ताम-झाम मुझे पसंद नहीं, तो ऐसे में लोगों को परेशानी से बचाने के लिए मैं तो किसी जहाज़ का लंगर अपने गले में डालकर किसी खड़ी चट्टान से लड़खड़ाते हुए नीचे कूद जाता. जैसा कि गाँव के मर्द कह रहे थे, एक गंदी, ठंडी लाश की वजह से वे सब परेशान हो रहे थे जबकि उससे उनका कोई लेना-देना नहीं था.

लेकिन डूबे हुए आदमी के आचरण में इतनी सच्चाई थी कि सबसे ज़्यादा शक्की मर्द -- वे जो अपनी समुद्र-यात्राओं की अंतहीन रातों की कटुता में यह भय महसूस करते थे कि उनकी ग़ैर-मौजूदगी में उनकी स्त्रियाँ उनके सपने देखते हुए थक जाएँगी, और डूबे हुए लोगों के सपने देखने लगेंगी-- वे और उनसे भी ज़्यादा निष्ठुर लोग एस्टेबैन की सच्चाई देखकर भीतर तक काँप उठे.

और इस तरह से उन्होंने एक डूबे हुए परित्यक्त आदमी की इतनी शानदार अंत्येष्टि की, जो उनकी कल्पना के अनुरूप थी. कुछ महिलाएँ अंत्येष्टि के लिए फूल लेने पड़ोस के गाँवों में गई थीं. वे अपने साथ और महिलाओं को भी ले आईं जिन्हें डूबे हुए आदमी के बारे में बताई गई बातों पर यक़ीन नहीं था. साथ लाई गई महिलाओं ने जब डूबे हुए आदमी को देखा तो वे और फूल लाने के लिए वापस अपने गाँवों में गईं. वे अपने साथ और ज़्यादा महिलाओं को ले आईं. यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक वहाँ इतने फूल और इतनी महिलाएँ नहीं हो गईं कि वहाँ चलने-फिरने की जगह भी नहीं बची. अंतिम समय में उन्हें डूबे हुए आदमी को एक अनाथ के रूप में लहरों के हवाले करते हुए तकलीफ़ हुई. इसलिए अपने सर्वोत्तम लोगों में से उन्होंने उस डूबे हुए आदमी के माता, पिता, चाचा, चाची, और भाई-बहनों का चुनाव किया, जिससे उसकी वजह से गाँव के सभी लोग आपस में रिश्तेदार बन गए.

कुछ नाविकों ने दूर कहीं रोने की आवाज़ें सुनीं और वे समुद्र में रास्ता भूल गए. लोगों ने तो यहाँ तक सुना कि उनमें से एक नाविक ने खुद को मुख्य मस्तूल से बँधवा लिया क्योंकि उसने उन मोहिनियों (Sirens) के बारे में पौराणिक कथाएँ सुन रखी थीं जिनके सम्मोहक गीत सुन कर नाविक रास्ता भटक कर मारे जाते थे.

लोग उसकी अर्थी को कंधे पर उठा कर ढलान वाली खड़ी चट्टानों तक ले जाने का सौभाग्य पाने के लिए आपस में लड़ रहे थे. उसी समय उन पुरुषों और महिलाओं को पहली बार अपनी गलियों के सूनेपन, अपने आँगनों की शुष्कता और अपने सपनों की संकीर्णता का शिद्दत से अहसास हुआ , क्योंकि उनके सामने डूबे हुए आदमी की भव्यता और उसका सौंदर्य था. उन्होंने उसे किसी लंगर के साथ बाँधे बिना समुद्र के हवाले कर दिया, ताकि यदि वह वापस आना चाहे तो आ सके और जब आना चाहे, तब आ सके. वे सभी सदियों जितने लम्बे पलों तक अपनी साँसें रोके खड़े रहे, जितना समय उसकी देह को उस अगाध गर्त्त में गिरने में लगा.

यह जानने के लिए उन्हें एक-दूसरे को देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि अब वे सभी मौजूद नहीं थे, कि अब कभी वे सभी मौजूद होंगे भी नहीं. लेकिन वे यह भी जानते थे कि उस समय के बाद सब कुछ अलग होगा. उनके घरों के दरवाज़े पहले से ज़्यादा चौड़े होंगे, उनकी छतें ज़्यादा ऊँची होंगी और उनके फ़र्श ज़्यादा मज़बूत होंगे ताकि एस्टेबैन की याद बिना शहतीरों से टकराए हर कहीं आ-जा सके. तब भविष्य में कोई फुसफुसा कर यह नहीं कहेगा --"अरे, वह बड़ा-सा आदमी चल बसा. बुरा हुआ. अरे , वह रूपवान बुद्धू गुज़र गया." ऐसा इसलिए क्योंकि एस्टेबैन की याद को अनादि-अनंत तक सुरक्षित रखने के लिए वे सभी अपने मकानों के सामने के हिस्से को चमकीले रंगों में रंग देने वाले थे. सोतों की खोज में वे सभी हाड़तोड़ मेहनत करके पत्थरों के बीच खुदाई करने वाले थे ताकि खड़ी चट्टानों पर फूल उगाए जा सकें.

भविष्य में जब खुले सागर से आती बगीचों की गंध से विचलित विशाल समुद्री जहाज़ों के यात्री सुबह के समय उठेंगे, तब जहाज़ का कप्तान अपनी वर्दी पहने उनके पास आएगा. उसके पास तारों की स्थिति जानने वाला उपकरण होगा, जो उसे ध्रुवतारे के बारे में बताएगा. उसकी वर्दी पर युद्धों में नाम कमाने के लिए मिले तमग़ों की क़तारें होंगी. क्षितिज पर नज़र आते गुलाबों के अंतरीप की ओर इशारा करते हुए वह चौदह भाषाओं में कहेगा -- उधर देखिए, जहाँ हवा इतनी शांत है कि वह क्यारियों में सोने चली गई है, उधर वहाँ , जहाँ सूरज इतना चमकीला है कि सूरजमुखी के फूल यह नहीं जानते कि वे किस ओर झुकें , जी हाँ, वही एस्टेबैन का गाँव है.
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Estevanico : (implicitly, by the name "Esteban" given to the drowned man)
Lautaro :(Lautaro was military figure in the Arauco War, a conflict in the mid 1500s between colonizing Spaniards and the natives of what is now Chile. He was a leader of a native Mapuche people.
Sir Walter Raleigh : an English explorer in the late 1500s.

Odysseus and the Sirens (implicitly) : Greek mythical figures seen in Homer's Odyssey. The sirens were mythical creatures, half-woman and half-bird, who sang in beautiful voices to lure sailors off their course to a rocky death. Odysseus, the hero of Homer's tale, famously tied himself to the mast as his ship sailed past the island of the sirens (while the rest of his men were forced to plug up their ears), thus becoming the only mortal man to have ever heard the sirens and lived to tell the tale.
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सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड,इंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद -201014 (उ. प्र.)
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

मंगलाचार : राहुल झाम्ब

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(फोटोग्राफ : Michael Kenna)








































राहुल झाम्ब की कविताएँ                                        





हाथ

उठाया अपने हाथ से
भीगी मिट्टी सा ठंडा
मृत पिता का बूढ़ा हाथ
भीतर का ताप ढह गया
माया का दर्पण चटक गया

छोड़ा अपने हाथ से
पत्थर सा भारी
मृत पिता का नाज़ुक हाथ
भीतर का लोहा पिघल गया
सब कुछ हाथ से फ़िसल गया.





मुक्ति

तुमने अकेला नहीं
मुझे मेरे  ख़ुद के साथ छोड़ा था
इससे बेहतर भला क्या सोहबत होती
इससे ख़ूब भला क्या सफ़र होता

बुद्ध भी तो छोड़ गये थे राहुल को...

छूटने वालों की मुक्ति छोड़ने वालों में नहीं
स्वयं में है.



 आस्मां

बूँदें छिटक कर गिरती हैं
आस्मां से
छिटक कर गिरे
हम कहाँ से?




एक दिन

एक  दिन
हम सब लोग
बूढ़े होने लगते हैं

एक दिन
हम सब लोग
बूढ़े हो जाते हैं

एक दिन
हम सब लोग
एक ही जैसे हो जाते हैं

एक दिन
हम सब लोग
एक हो जाते हैं



श्राद्ध
पितृ पक्ष है आज
कहो कैसे किया है श्राद्ध

अघोरी सा किया जीवन  निर्वाह
खाया माँस और पी शराब

कैसे करूँ और अर्पण, पुरखों को अपने
बस जिया एक दिन वैसे, पुरखों ने जैसे



खाली

जानता हूँ
कुछ नहीं रहेगा एक दिन
चलते रहने का भार भी नहीं

वक़्त रहते
छूट जाये ये भार
मिले दिशा प्रियजनों को
निकल पडूँ मैं
अंतिम तीरथ पर
दिशाविहीन अनासक्त
न पीछे कोई अलाप
न आगे कोई प्रार्थना

वक़्त रहते
सीख जाऊँ बस चलते रहना
खाली-खाली



बेहिसाब

मन की कोई क़िताब नहीं
वो तो लिखता...
लहरों पर ख्व़ाब
हवाओं पर जवाब
बादलों पर उड़ान
गीतों पर ध्यान

मन की कोई क़िताब नहीं
वो तो लिखता...
बस लिखता जाता...
बेहिसाब.



ख्व़ाब-ख़रामा

नीम-शब, नीम-बाज़ बेहोशी में
आता हूँ ख़रामा ख़रामा
ख्व़ाब संभाले रक्खो
मैं हूँ ख्व़ाब-ख़रामा.

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राहुलझाम्ब (10 दिसंबर, 1973, बीकानेर, राजस्थान)

प्रबंधनमें स्नातकोत्तर 
विभिन्नबिज़नेस-इकाइयोंमेंवरिष्ठपदोंपरकार्य का अनुभव
इनदिनोंबंगलूर (कर्नाटक) में.


सबद भेद : सिनेमा और कश्मीर : नीतू तिवारी

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फिल्में केवल मनोरजंन का साधन नहीं हैं, वे एक तरह से जिंदा इतिहास भी हैं.सवाल यह है कि   बरतने वाला कितने वस्तुनिष्ठ ढंग से इसे निर्मित कर रहा है.फिल्मों पर गम्भीर और शोधपरक ढंग से लिखने वाले युवा समीक्षकों में नीतू तिवारी ने इधर ध्यान खींचा है.कश्मीर को फिल्मों और डाक्यूमेंट्री में जिस तरह चित्रित और प्रस्तुत किया जा रहा है, उसकी तीक्ष्ण विवेचना आप यहाँ पायेंगे.


जेहलम-जेहलम ढूँढे किनारा                                
नीतू तिवारी  



काँग्रेस ने राजनीतिक स्वतन्त्रता जीती है,लेकिन अभी भी आर्थिक,सामाजिक और नैतिक स्वतन्त्रता को जीतना बाकी है....इन आज़ादियों को पाना राजनीतिक स्वतन्त्रता अर्जित करने से कहीं अधिक कठिन होगा.”
(गाँधी जी का कथन,फ़्रोम राज टु स्वराज – बी.डी.गर्ग,पेंगुइन बुक्स,पहला संस्कारण,2007,नई दिल्ली,पृ-134)

आज़ादी की बड़ी वाली तस्वीर के भीतर सिमटती इन छोटी-छोटी आज़ादियों का अस्तित्व एक परेशान कर देने वाली उपस्थिती है. जिसकी ओर गाँधी के इंगित किए जाने के बावजूद अभी तक पूरक सफलता मिल पाई हो,ऐसा नहीं है. तो अनिश्चितताओं से घिरे राजनीतिक समय की अभिव्यक्ति सिनेमा किस प्रकार कर रहा है?क्या नए बनते राष्ट्र ने ऐसी आधिकारिक रियायतें दीं जिनसे सिने-माध्यमों ने सत्यकी विराट और व्यापक परिधि को समो लेने वाली पटकथाएँ रचीं?और एक से अधिक विधाओं में मौजूद भारतीय सिनेमा के अनेक सत्यवाली कहानियाँ कितनी निष्पक्ष और राज्यसत्ता समर्थित बनीं? ‘अनेकता में एकताजैसी राष्ट्रीय भावना से टकराने वाली घटनाओं का, अन्य पहचानोंका कितना नोटिस हमारे सिनेमा में लिया जाता है? यह सभी प्रश्न अपनी खुदबुदाहट में इस पर्चे का रूप ले पाये हैं. सिनेमा की प्रचलित चौहद्दियों के बाहर विचलनके सिनेमा और मुख्यधारा के अलावा दूसरी सबसे पारंपरिक सिने-पहचान के रूप में डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का एक ही विषय पर किया गया संक्षिप्त अध्ययन है.

किस तरफ हैं आप?”
याद है वो सवाल जो हैदर में उठा था?
गज़ाला के इस सवाल पर पलटकर डॉ. मीर का जवाब आता है “ज़िंदगी की.(तरफ)
यह एक दंपति के बीच उठे सवाल-जवाब हैं.

Image credit:  Red Ant FIlms

किसी भी सामान्य से घर में मौजूद होने वाला आपसी वार्तालाप. लेकिन देशकाल और आबोहवा इस साधारण से लगने वाले संवाद को अपना व्यापक अर्थ देती हैं. जो जाकर सीधा जुड़ जाता है हर उस व्यक्ति से जिसे अपना पक्ष तय करना अभी बाक़ी है. जिसको अभी वो सबकुछ तय करना बाक़ी है जिसे लेकर देश का मीडिया,बुद्धिजीवी और तमाम लोग अपना पक्ष रख रहे हैं. लेकिन लोकतंत्र की सबसे बुनियादी नींव को नहीं पता कि प्राइम टाइम के बाद वो राष्ट्रीयता का टैक्स्ट कहाँ से ढूँढे? 40 से 50 मिनट की बैठक और बहस में कौन गलत कौन सही का फैसला होकर देश की राज्यसत्ता के प्रति वफ़ादारी साबित हो सकती है. लेकिन इन बहसों में जो साबित नहीं हो सकता या जो दो जमा दो का हासिल नहीं है. उसे कैसे समझा जाये?अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा और पुराना सिनेमाई देश मानने वाले हम,अपने विवादित हिस्सों की कहानी कितने अंदरूनी दर्द से बुन सकते हैं ? कश्मीर के हालात को समझने के लिए जब हम स्त्रोत ढूँढते हैं तो वे किताबें,लेख,पत्रिकाएँ,व्याख्यान आदि के रूप में बिखरे पड़े हैं. पर सिनेमा को अपना प्राथमिक स्त्रोत मानने वाले विद्यार्थियों के सामने यह एक कठिन चुनौती है. जो वास्तविक स्थितियों को समझने के लिए सिनेमाई कहानियों में सूत्र खोजते हैं या कम से कम सौ साल पुराने इतिहास में से राष्ट्रीय स्तर पर संवेदनशील मुद्दों के दस्तावेजीकरण की उम्मीद रखते हैं.

हम सिनेमा को इतिहास की समझ बनाने वाले दस्तावेज़ के रूप में नहीं बल्कि मनोरंजन और कला-माध्यम तक उसे सीमित करने वाले समाज हैं. जिनमें अभी तक फ़िल्मों के बारे में राय हल्के-फुल्के ढ़ंग से बना ली जाती है. लेकिन चाक्षुष माध्यम होने के कारण इसके प्रभाव दर्शक को जिस भावानुभूति और अनुभव से जोड़ते हैं,वह भोगे हुए का पर्याय बन सकता है. इस तरह सीमित अर्थ में ही सही पर यह अनुभवजनित सूचनाएँ मिलकर किसी विषय पर हमारी पक्षधरता का आधार हो सकती हैं. यह एक तरह का फिल्म-जर्नलिज़्म हुआ. जो फिल्में अनदेखे-अनसुने को ठीक आपके बगल में बिठा कर आपको बेचैन कर सकती हैं. यूँ तो  विश्व-सिनेमा में दूसरे ग्रहों से पृथ्वी की सुरक्षा करते कई काल्पनिक आख्यान रचे गए हैं. लेकिन उन फिल्मों का भी एक बड़ा हिस्सा है जो मानवीय इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार,भीषण विश्व-युद्ध और जर्मन होलोकास्ट जैसे रक्त सने चित्रों को भी विभिन्न दृष्टियों से फिल्माते हैं. लेकिन इस तर्ज़ पर भारत में घटी लगभग सभी संवेदनशील घटनाएँ भारतीय सिनेमा से नदारद हैं,प्रतिबंधित हैं. कश्मीर और उस जैसे विवादित/नाज़ुक प्रान्तों जैसे कि उत्तर-पूर्वी प्रदेश या नक्सलवाद के प्रभाव वाले इलाकों की कहानियाँ या तो हमारे सिनेमा में हैं नहीं. अगर हैं भी तो वहाँ की ज़मीनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हैं. इसलिए सिनेमा की हिस्ट्री रीडिंगके लिए हमारा पहला सवाल होना चाहिए कि सिनेमा अपनी कहानियों में खोजता क्या है?जुड़ाव या ज़िम्मेदारी.

हिन्दुस्तानी सिनेमा में ऐतिहासिक संदर्भों की खोजबीन या उस नज़र से फ़िल्मों का अध्ययन करने से पहले अपनी इस समझदारी को साफ करना होगा कि बहुलतावादी समाज में इतिहास-सजग फिल्में और इतिहास-विमुख फिल्में दोनों का पाया जाना संभव है. कोई भी पीरियड ड्रामा यानी ऐतिहासिक फिल्म केवल अपने कथानक,परिवेश,संवाद और पहनावे से किसी गुजरे जमाने का आभास देकर दर्शकों को यह भ्रम दे सकती है कि वह एक इतिहास-सजग फिल्म है. पटकथा,संवाद या वेशभूषा निहायत सामान्य और आज के वक़्त की होते हुए भी अगर वह फिल्म संदेश और स्वभाव में इतिहास के प्रति जुड़ाव रखती है तो एक संवाद को जन्म देगी. ऐतिहासिक संदर्भ से वर्तमान का संवाद स्थापित कर सकने की कुशलता इतिहास-सजग फ़िल्मों में मिलती है. वहीं इतिहास-विमुख सिनेमा वह है जो किसी भी काल-विशेष का केवल स्वांग रचता है,मूलकथा सपाट ढ़ंग की बॉलीवुडिया प्रेम-कहानी ही निकलती है. इसका सीधा-साफ बँटवारा आप उन फ़िल्मों में देख सकते हैं जो कश्मीर के इर्द-गिर्द बुनी गईं लेकिन जिनमें कश्मीर के केवल भूगोल का परिचय मिलता है,वहाँ की राजनीतिक हलचलों का कोई ब्यौरा नहीं मिलता. वहाँ की सिविल सोसायटी की उम्मीदों,खूनी होलियों के अवसाद से भरी गलियाँ-चौराहे या राज्यसत्ता और जनांदोलनों के बीच वहाँ लगातार संघर्ष का पुराना इतिहास जो साँसें लेता है – इस सबकी गैरमौजूदगी. इसे ही इतिहास से विमुखता का व्यवहार कहा जा सकता है.

जब-जब फूल खिले,कश्मीर की कली,आरज़ू,हिना,नूरी,द हीरो,पत्थर के सनम,फ़ना,लक्ष्य,रॉकस्टार,ये जवानी है दीवानी और अन्य फ़िल्में उस तरफ से अपनी कहानी कहती हैं जिधर से किसी नाज़ुक कश्मीरी बहस का सिरा दर्शकों तक नहीं पहुँचता. यह भारतीय मुख्यधारा मीडिया और सिनेमा की कहानियाँ हैं. पर देश का एक हिस्सा जो बहुत लंबे वक़्त से अपनी बेचैनियों में घिरा हुआ है जब उसकी कहानी कही जाएगी तो कैसी होगी ?क्या वो कहानी सपाट ढ़ंग से वैसी ही पारिवारिक और प्रेम-कहानियों का झुरमुट होगी जैसा समूचे उत्तर-भारत में नज़र आता है. कश्मीर को लेकर बात करना केवल एक राजनीतिक विषय नहीं बल्कि उसकी उपस्थिति का हमारे सिनेमा में होना इंसानी रिश्तों की उलझनों से दो-चार होना है. सिनेमा में हम मानवीय सम्बन्धों को कैसे दर्शाते हैं. सिनेमाई भाषा का सम्मान करते हुए हम कितना नजदीक से उसे अनुभव कर सकते हैं. क्या एक फिल्म हमें बता सकती है कि इंसानी रिश्तों की कितनी परतें हो सकती हैं?

यहाँ से जिस नई तरह की सिने-परिभाषा को गढ़ने का चलन शुरू हुआ उसमें कहानियाँ दूसरे पक्ष को सामने लाने की कोशिश करती नज़र आती हैं. वह है कश्मीरी लोगों का पक्ष. मेनस्ट्रीम ख़बरों और बहसों के दूसरी तरफ अलग-थलग पड़े कथित भारतीय नागरिकों का आख्यान बुनने वाली फ़िल्मों को खोजें तो पक्ष-विपक्ष दोनों खुलते हैं-दोनों सिकुड़ते हैं. तब अधिक स्पष्टता से सिनेमा की राजनीति पर देश की राजनीति का असर दिखाई देता है. नए ढब की परिभाषाओं और उस पर अमल करती फ़िल्मों का ज़िक्र शुरू होता है तो कश्मीर की परिस्थिति को समझने के लिए हालिया देखी गई दो फ़िल्मों का रेफ्रेंस पिछली दस फ़िल्मों के अनुभव पर भारी पड़ा. इन दो फ़िल्मों के नाम हैं – विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित “हैदर” और संजय काक द्वारा निर्देशित “जश्न ए आज़ादी”. यह दोनों फ़िल्में कश्मीर समस्या के भीतर फँसी ज़िंदगियों की कहानियाँ हैं. क्रमशः एक फ़िक्शन है और दूसरी डॉक्युमेंट्री. जनमत के उल्टे चलते हुए इन दोनों ही फिल्मों का नेरेटिव आखिरी सिरे से अपनी कहानी कहना शुरू करता है.



मैं रहूँ के मैं नहीं
1995 के सेट अप में हैदर की कहानी बुनी गई है. फ़िल्म रंगों के गाढ़ेपन का बहुतायत इस्तेमाल करती है. लाल,नीले,सफ़ेद और गाढ़े काईदार रंग. रंग जोकि भावनात्मक वातावरण बनाने में सहायक तत्व हैं,उनका गाढ़ा पन भावनाओं की सघनता की ओर भी इशारा करता है. गाढ़े नीले रँग की दीवारों के बीच फिल्म की शुरुआत किसी रहस्यमयी क़िस्से की शुरुआत लगती है. पहले पहल हुए संवाद से पता चलता है कि घाटी में लोग गोलियों के अलावा इलाज के अभाव में भी मरने को मजबूर हैं. लेकिन कोई सिरफिरा सा पात्र तभी उन ज़िंदगियों को बचाने उभर आता है- डॉ. हिलाल मीर जिनकी इस कोशिश पर खुद उनकी पत्नी गज़ाला शर्म,खुन्नस,ड़र और अविश्वास के लिजलिजेपन में चारों ओर से घिरी नज़र आती है. गज़ाला फिल्म में अपने परिचय दृश्य में खुद बतौर स्कूली टीचर क्लास के बच्चों के बीच सामूहिक स्वर में पूछती और बताती हैं कि "वॉट इज़ ए होम?".एन.सी.आर.टी. के पाठ्यक्रम में छठवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाई जाने वाली यह कविता फिल्म के भीतर केवल एक दृश्य नहीं बल्कि आगे चलकर वही पाठ उनके परिवार का त्रासद और केन्द्रीय प्रश्न बनकर गूँज उठता है. इस तरह के महीन रेफरेंस हमें बताते हैं कि किसी भी फिल्म में मौजूद छोटे-छोटे संदर्भों को खोलने से फ़िल्मकार की विचारधारा के साथ जुड़ा जा सकता है. यह सिनेमा पारिवारिक सरंचना को मॉडल मानकर बुना गया है. हिन्दी फिल्में देखने वाले पारंपरिक दर्शक-वर्ग के लिए राष्ट्र का सरलीकृत प्रतिबिंब है. देखा जाए तो,इसी तर्ज़ पर हैदर अपनी पारिवारिक (सामुदायिक) पहचानों से वफ़ादारी के नक़्शे पर उस राष्ट्रवादकी अवधारणा को साकार करने की कोशिशों का हिस्सा हो जाती है जिसके भीतर एक ओर सुदृढ़ राष्ट्रकी कल्पना है और दूसरी तरफ निजी पहचानों की स्वीकार्यता का प्रश्न.

हैदर के ज़्यादातर कैरक्टर रिएक्टिव हैं,पैसिव नहीं. मसलन हैदर से शुरुआत की जाए तो वह अलीगढ़ विश्वविद्यालयमें ब्रिटिश इंडिया के रेवोल्यूशनरी पोएट्स पर पीएच.डी. करने वाला एक शोध छात्र है. जिसे उसके परिवार ने घर से दूर दूसरी दुनिया देखने भेजा था. जहाँ ना दिन पे पहरे और ना रात पे ताले हैंयानी कश्मीर के बाहर की दुनिया. लौटते वक़्त चेकिंग करने वाले सुरक्षा अधिकारियों के सामने जानबूझकर अनंतनाग को उसके दूसरे नाम यानी इस्लामाबादकहकर पुकारना एक मांगा हुआ जोखिम है और यह मांग उठती है यातना भरी प्रक्रिया से गुजर कर. इस यातना का सबसे पीड़ादायी पक्ष यह है कि इसमें समूचे देश के लोग एक विशेष प्रांत की ओर आपसी अपनापे की बजाए कटाव,संत्रास और संदेह के साथ व्यवहार करते हैं. फिर इस दुर्व्यवहार को राष्ट्रहितबताकर जायज़ और ज़रूरी साबित कर दिया जाता है.

इस पुष्टीकरण से जिस मान्यता को बल मिलता है वह यह कि कश्मीरी जनता प्रायः देशद्रोही या कम से कम संदेहास्पद लोग हैं. लगातार इस प्रकार के नतीजों के सामने खड़े वे लोग फिर जानबूझकर अतिवादी प्रतिक्रियाएँ देने लगते हैं और अंततः दोषी साबित होते हैं. हालाँकि यह दोषारोपण हम अपने सिने-नायकों पर नहीं करते. वो तो सत्तर-अस्सी के दशक में सलीम-जावेद के गढ़े हुए नायाब फ़ोर्मूले से जन्मा एंग्री यंगमैन है. जिसका गुस्सा सिर्फ अपने साथ हुई ज़्यादतियों के कारण नहीं है. बल्कि यूनिवर्सल है और जावेद साहब के शब्दों में, फ़िल्मी हीरो एक ऐसा आदमी होता था जो मुसीबतें उठाता है और उस मुसलसल तकलीफ में ही वो अपने को हीरो समझता है.(सिनेमा के बारे में,जावेद अख़्तर से नसरीन मुन्नी कबीर की बातचीत,राजकमल प्रकाशन,पेपरबैक्स में पहली आवृत्ती-2011,पृ-74)ऐसी अपील देता है जो अविश्वास के दौर में भी एक हिम्मत दे सके.

गज़ाला या अर्शी के किरदार भी परिस्थितियों से निर्देशित होते हुए अपने रास्ते बनाते नज़र आते हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया के सिलसिले की तरह तमाम घटनाएँ उनके जीवन में घटती जाती हैं. इनमें उनका अपना कोई हिस्सा शामिल नहीं है. इस तरह वे न सिर्फ अपने बल्कि उन असंख्य कश्मीरी दिशाहीन लोगों के अक्स को फिल्मी पर्दे पर उतार लाती हैं. जो अनचाहे ही सही पर तीन ओर से घिरे क्रूर समुदायों के बीच जीवन तलाश रहे हैं. हैदर जब कहता है कि, “कश्मीर में ऊपर ख़ुदा है और नीचे फ़ौज/ फ़ौज का जंतर है – आफ़स्पा” या “पूरा कश्मीर क़ैदख़ाना है मेरे दोस्त”तो वो एक-साथ आफ़्सपा का दंश झेल रहे उन सभी राज्यों की तकलीफ अपनी आवाज़ में घोल लेता है. वो बताता है कि कश्मीर और उत्तर-पूर्वी इलाकों में आफ़्सपा की शक्ल में एक संवैधानिक अभिशाप को झेलने के लिए अभिशप्त जनता भारतीय क़ानून को उसी शक़ के साथ देखती है जैसे देश की बहुसंख्यक जनता उन्हे. संवादों से इतर दीवारों,बैनर और बोर्ड पर लिखे को पढ़ना भी ज़रूरी है. उन से कुछ बेहद तीखे सच उभरते हैं,जैसे मिलिटरी कैंप में हल्की सी झलक एक साइन बोर्ड की नज़र आती है जिस पर लिखा है – ‘Catch them by their balls. Their hearts & minds will follow.’ ये लिखावटें अनैतिक-अमानुषिक व्यवहार की वो कड़ियाँ हैं जो अप्रत्यक्ष तरीके से दबाव को कसती जाती हैं.

जहाँ तहाँ शहर भर में लिखा है we want freedom, Indian army go backइत्यादि. ये नारे आज की प्रतिक्रियाओं का हिस्सा नहीं हैं. 2007 में आई दस्तावेज़ी फ़िल्म “जश्न ए आज़ादी” में भी नज़र आते हैं. इसकी फुटेज साल दर साल 1991 से 2005 तक बिखरी हुई हैं. यानि लंबे समय से ऐतिहासिक परिवर्तन द्वारा भारतीय राज्यसत्ता से आज़ादी और अलगाव की इच्छा घाटी में तैर रही है. मनहूसियत और गुस्से से फुट पड़ने के पहले वाला सन्नाटा हर घर में नज़र आता है. इस चुप्पी को तोड़ने और गुस्से को पिघलाने के लिए बिना केन्द्रीय राज्यसत्ता या अंधराष्ट्रभक्ति की ओर झुके एक संतुलित समाधान की ओर इशारा करती यह फ़िल्म इंतकाम से आज़ादी की बात करती है. फ़िल्म का केन्द्रीय भाव है कि “इंतकाम से इंतकाम ही पैदा होता है. जब तक हम अपने इंतकाम से आज़ाद नहीं होते,कोई आज़ादी हमें आज़ाद नहीं कर सकती.”



जनमत के उल्टे चलना
जश्न ए आज़ादीजैसी फिल्में चेताती हैं कि समय विशेष को चित्रित करने वाली फ़िल्में किसी भी विधा में होते हुए समकालीन परिस्थितियों की ओर भरपूर इशारा कर सकती है. मुद्दा यहाँ सिनेमाई विधा की चौहद्दियों के पार अपनी बात रखने का साहस और उसकी निष्पक्षता का है. अब यहाँ साथ-साथ बिल निकोल्स का एक महत्वपूर्ण तर्क दस्तावेज़ी सिनेमा के बारे में भी समझा जाना चाहिए. बिल निकोल्स डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों पर गंभीर और शोधपरक लेखन के लिए जाने जाते हैं. वे कहते हैं कि,फ़िक्शन फ़िल्में ऐसे आख्यान रचती हैं जिनमें घटनाओं के होने का हम कभी पूर्वानुमान लगाते हैं,तो कभी उनके घटित हो जाने पर भी संदेह करते रहते हैं. जबकि डॉक्युमेंट्री फिल्म में किसी संदर्भ का आना उस अतीत पर पुनः दावेदारी करने जैसा है.” (21)

आगे इसे विश्लेषित करते हुए वे तुलनात्मक रूप से दोनों प्रकार के सिनेमा का अंतर स्पष्ट करते हैं, “दस्तावेज़ी सिनेमा में भी कथात्मक फ़िल्मों की ही तरह पटकथा,चरित्र,घटनाएँ,और परिस्थितियाँ बुनी जाती हैं. इस तरह एक पाठ के तौर पर डॉक्युमेंट्री सिनेमा फ़िक्शन से सरंचना के स्तर पर बिलकुल भी अलग नहीं है. बल्कि वे अर्थछवियाँ भिन्न ठहरती हैं जिन्हे वे निर्मित करते हैं. डॉक्युमेंट्री सिनेमा अपने हृदयस्थल से एक कहानी कम और एक तर्क अधिक है,वह कोई काल्पनिक संसार ना होकर ऐतिहासिक विश्व की घटनाओं का संज्ञान होता है.(रिप्रसेंटिंग रिऐलिटि,बिल निकोल्स,इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रैस, 1991,यू.एस.ए.,पृ-111)
तो कुलमिलाकर ना केवल फिल्म-निर्माण से जुड़े लोगों के लिए बल्कि डोक्यू-सिनेमा के दर्शकों के लिए भी यह अधिक जोख़िम और ज़िम्मेदारी भरा सिनेमाई अनुभव है.

फिल्म की चर्चा पर लौटते हुए, तनावग्रस्त कश्मीर को आज समझने के लिए कश्मीर के कल से गुज़रना पहली ज़रूरत है. डॉक्युमेंट्री का नैरेशन खुद फ़िल्म के लेखक और निर्देशक संजय काक की आवाज़ में है. भांड़ों के नाटकीय प्रस्तुतीकरण के पैरेलल वे कश्मीर के इतिहास को सामने रखते हैं. क्रूर शासकवर्ग से संघर्ष का लंबा अनुभव वहाँ की जनता को है,इसके प्रमाण देते हैं. इसके अलावा जो खास बात जश्न ए आज़ादीको अन्य कश्मीर संबंधित वृतचित्रों से अलग करती है,वह यह कि इस डॉक्युमेंट्री में उस ज़मीन की लगभग हर इकाई से जुडने की कोशिश की गई है. बनी-बनाई वैचारिक पक्षधरता की बजाए अन्यहोते जा रहे अपने ही देशवासियों से पुनः संवाद स्थापित करने का प्रयास यहाँ दिखता है. फिल्म का एक दृश्य है जहाँ कुछ नौजवान लाशों को दफनाने का काम किया करते हैं. मरे हुए लोग सिविलियन,मिलिटेंट,इनफोरमर कोई भी हो सकते हैं,इसकी जानकारी उन युवकों को नहीं रहती.

वे केवल उन्हे दफनाने का इस्लामी फर्ज़ पूरा करने वाले लोग हैं. अपनी बाइट में वह बताते हैं कि "दस साल से इस काम को कर रहे हैं. शुरुआती दिनों में धड़ से अलग डैड बॉडी देखकर उल्टी आती थी-रोना आता था. पर अब हम भी पत्थर हो गए हैं,मन से कठोर हो गए हैं,अब फर्क नहीं पड़ता."दुनिया के सबसे नौजवान देश की युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा ज़िंदगी से कट रहा है और इस सारे मसले का शोर केवल राजनीतिक स्तर की बातचीत तक सिमट जा रहा है. छोटी-छोटी उपलब्धियों और हताशाओं के बीच जीये जाने वाले इंसानी जज़्बातों के क़ब्र में सोते जाने के किस्से हमारे सिनेमा में,हमारे मीडिया कवरेज में और इन सूचना तंत्रों से बनी हमारी स्मृति में कहीं नहीं हैं. कब्रगाहों में लाशों की बढ़ती गिनती किसी भी राष्ट्र-राज्य की नेशन थ्योरी को पुनःपरिभाषित करने की मांग है.

क्रिस्टोफर नोलानकी बड़ी मज़ेदार और अद्भुत फिल्म है इनसेप्शन.फिल्म की मूल कथा स्वप्न और यथार्थ के विचारों के बीच की पहचान करने के विवेक की कहानी है. यहाँ एक स्वप्न के भीतर दूसरा,दूसरे के भीतर तीसरा और चौथा और ना जाने कितने सपने गूँथे रहते हैं. फिल्म का मूलविचार अपने सच की एक तलाश है. क्या कश्मीर को लेकर हम भी किसी नींद में हैं? जहाँ तहों के भीतर कई सपने सच बनकर मौजूद हैं. कश्मीर को जन्नत बताने वाले सैलानियों की आवाज़ें क्या कोई सपना हैं?कश्मीर की आवाम का भारत से आज़ादी की चाह और गुस्सा क्या कोई सपना है?क्या हज़ारों सैनिकों की शहादत और लाखों बेघर कश्मीरी पण्डितों का दुख कोई सपना है?और फिर सच क्या है?


साल 1991 से लेकर 2005 तक सेपरेटिस्ट रैली,यासीन मलिक,इख्वानी,मिलिटेंटों के परिवार,एनकाउंटर और क्रैकडाउन के दृश्य आदि को पहली बार दर्शकों के सामने लाकर जश्न ए आज़ादीका कैमरा किसी प्रकार की सहानुभूति की उम्मीद को जन्म नहीं देता. बल्कि कश्मीर के हर तीसरे घर में सुलग रहे गुस्से का नोटिस है. मास कन्सेंसस के बनने और उस को दबाए जाने की प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण है. अनदेखे दुश्मन के तौर पर पूरे राज्य में मौजूद पोपुलर सेंटिमेंट से औज़ारों की लड़ाई का सिनेमाई प्रस्तुतीकरण है. इस डॉक्युमेंट्री में आँकड़ों, साक्ष्यों और तथ्यों का जो ब्यौरा मिलता है वह घाटी में हो रहे भारी नरसंहार का पता देता है. जिसका छटाँक भर भी मुख्यधारा सिनेमा में कहीं मौजूद नहीं है. और ऐसा पहली बार नहीं है जब वृत्तचित्र बनाम व्यावसायिक सिनेमा की बहस में अपनी प्रामाणिकता को डॉक्युमेंट्री अधिक सत्यता से स्थापित करती है. फिर भी भारतीय करावासों में हो रहे अमानवीय व्यवहार का रेफरेंस आते ही 'हैदर'का बॉयकाट करते हेशटैग सोशल मीडिया में तैरने लगते हैं. जबकि 2007 में 'जश्न ए आज़ादी'उन सभी संदर्भों को दर्ज कर चुकी है और इसकी जनमानस में तुलनात्मक रूप से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं मिलती. प्रसिद्ध सिने-अध्येता रवि वासुदेवनइसका सीधा कारण डॉक्युमेंट्री को माइनॉरिटी मीडियम का होना मानते हैं. जिसके मुख्यधारा सिनेमा के बनिस्पत जन-संवाद की संभावनाएँ सीमित हैं. (दि मेलोड्रामेटिक पब्लिक, रवि वासुदेवन, परमानेंट ब्लैक,पहली आवृत्ति 2015(पेपरबेक), रानीखेत,पृ-239)

मुद्दे के यथासंभव हर दृष्टिकोण को दिखाना/बताना मीडिया और सिने-माध्यम की नैतिक ज़िम्मेदारी है. शासकवर्ग के बरक्स जो भी आंदोलन है उसके अस्तित्व का नोटिस लेना,उसका पक्षधर या सिंपेथाईज़र होना नहीं है. सेना और सरकार का पक्ष ही अंतिम नहीं है बल्कि नीतिगत फैसलों पर अमल किए जाने के लिए ये एक दूसरे के पर्याय हैं. वहाँ की जनता के नज़दीक उनकी कहानियाँ,उनके हिस्से का सच सुनना और फिर उसे फॉरवर्ड करना लोकतंत्र की धूमिल पड़ती परिभाषा में आस्था का लौट आना है. यही चुप न बैठने की सोच,आज की सोच है. जिसका आकादमिक ज्ञान,सिनेमाई अनुभव और मीडिया जनित स्मृति में होना प्रायोजित राष्ट्रवादकी क्लास के बाहर खड़े होना है. इस सिलसिले में कुछ और महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं जिनका होना, ‘जश्न ए आज़ादीकी कड़ियों में एक लंबी बहस को जोड़ते जाना है. अजय रैना की फिल्म - टेल देम दी ट्री दे हैड प्लांटेड हैस नाओ ग्रौन, इफ़्फ़त फातिमा की फ़िल्में – व्हेयर हैव यू हिडन माइ न्यू मून क्रेसेंट और ख़ून दी बराव,आश्विन कुमार निर्देशित - इनशाल्लाह फूटबालजैसी दस्तावेजी फ़िल्मों के साथ अन्य कई ज़रूरी प्रयास कश्मीर की दूसरे सिरे से की गई व्याख्याएँ हैं.


जेहलम-जेहलम ढूँढे किनारा
कश्मीरियत और इंसानियत के साथ पॉपुलर सेंटिमेंट्स के उल्टे खड़े होने की हिम्मत के बाद भी ये दोनों फिल्में पूरी तरह निर्दोष ही हैं,यह भी एक सवाल है और इस सवाल का बने रहना इसलिए भी ज़रूरी है कि हम फिर वही गलती न दोहराएँ जो सरकारी परिभाषाओं को रटते समय हम करते हैं. हैदरअपनी तमाम बोल्डनेस के बावजूद अंत में केवल पारिवारिक कलह के निपटान की कथा पर आ सिमटती है. आमने-सामने की लड़ाई में डॉ. हिलाल मीर जैसे तटस्थ कश्मीरी लोगों पर हो रहे  टोर्चर का संज्ञान यह तो बताता है कि वहाँ सैन्य बल एक क़िस्म के ऊपरी दबाव से चालित और किसी मिशन के तहत बड़े मशीनी तरीके से काम कर रहे हैं. उनके जाते ही कश्मीर की समस्या फिर अनुत्तरित रह जाती है. फ़िल्म का क्लाइमैक्स अंततः व्यावसायिक दबाव के चलते आदर्शवाद के झुरमुट में ओट पा लेता है. इस तरह कश्मीरी ज़मीन पर हो रहे  दमन को डि-पोलिटिसाइज़ कर दिया जाता है.

हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अंदाज़न हर दो दशक के बाद फ़िल्म-निर्माण की शैली और वस्तुकथा में बदलाव दिखाई देता है. चौथे दशक से लेकर दसवें दशक तक फ़िल्में देश में हो रही बड़ी हलचलों का ज़िक्र करती नज़र आती है और कई बार अपनी पूर्ववर्ती व्याख्याओं को उलटती-पलटती भी हैं. इसका मज़ेदार नमूना है 1992 में आई मणिरत्नम द्वारा निर्देशित रोज़ा और उसके दो दशक बाद विशाल भारद्वाज की फ़िल्म हैदर. कश्मीर के उग्रवादी संगठनों में शामिल लोगों और भारतीय सेना और सुरक्षा-बलों का निहायत अलग सच बताती ये दोनों फ़िल्में एक-दूसरे का धुर विलोम हैं और पर्याय भी. पर्याय इसलिए कि आख़िर तक पहुँचते हुए हैदर भी जीये गए अविश्वास के बरक्स विरासत में मिली नैतिकता से हार कर सामूहिक फैंटासियों को  प्रतिबिम्बित करता है. जिनमें हीरो का नायकत्व गरिमामयी होना ज़रूरी है. जो दर्शकों को ये फील दे सके कि अब से सबकुछ भला होने वाला है,असमंजस के बदले जो ठहराव और अविश्वास का प्रतिउत्तर भरोसे से दे सके. इस क़िस्म के यक़ीन को बनाने की जल्दबाज़ी विशाल भारद्वाज की पटकथा में भी नज़र आती है. इंतकाम से आज़ादी का मॉरल नारा लगाकर फिल्म अपने अंत की ओर बढ़ जाती है और पूरी फिल्म में पूछे गए अनगिनत राजनीतिक प्रश्नों को नैतिकता की ओट से उत्तर देती है. फिल्म पटकथा के स्तर पर,संवादों की सहायता से लगभग एक निर्दोष सा वातावरण बनाना चाहती है.

जश्न ए आज़ादीमें यह बनी-बनाई मासूमियत नहीं है. यह फिल्म ख़ालिस पोलराईज्ड पेंटिंग सी लगती है. जिसकी एडिटिंग,कैमरा और निर्देशन अपनी पॉलिटिक्स को लेकर काफी मुखर है. इस मुखरता के फेर में फिल्म कश्मीरी इतिहास से कुछ ज़रूरी हिस्सों की तरफ मुँह मोड लेती है. कश्मीरी पंडितों की चुप्पी कुछ ऐसा ही आक्षेप है. इस बिन्दु पर फिल्म की आलोचना की जा सकती है. फिर यह समझना भी ज़रूरी है कि इस डॉक्युमेंट्री से वे तमाम आवाज़ें गायब क्यूँ हैं जो किसी भी प्रकार के ध्रुवीकरण की सहभागी नहीं हैं. उन तबकों की रायशुमारी मिसिंग है. फ़िल्म भारतीय राज्यसत्ता के उत्सव से भारतीय नागरिकों की गैर-मौजूदगी में खोखले होते जा रहे जनतंत्र की ओर तो इशारा है लेकिन ये इशारा इतना ज़्यादा क्लियरकट है कि इसकी छाँव से वे सभी असहमतियाँ गायब हैं जो कोई दूसरी विचारधारा रखती हों. इसके अलावा कश्मीरी नौजवानों की ओर से हिंसात्मक कार्यवाहियों का सरलीकरण करना थोड़ा असहज करता है.

हिन्दुस्तानी झंडे की सलामी के लिए उठे सारे फ़ौजी हाथों पर बंधे कलावे प्रमुखता से फिल्माए गए हैं. जो फ़िल्मकार के किसी खास इशारे की तरफ ध्यान तो खींचते हैं लेकिन साथ ही एक भ्रम भी पैदा करते हैं. यह दृश्य हिन्दुकृत होती जा रही सैन्य-भावनाओं का प्रतिबिम्बन व साम्प्रदायिक राष्ट्रवादका प्रतिकीकरण तो करता है. लेकिन यह इखवानी और मिलिटेंट गुटों के मुस्लिम प्रतिनिधित्व के सामने एक काउंटर तर्क-सा लगता है जोकि भारत की सेक्युलर राष्ट्र की छवि का नकार है. असल बात स्वीकार और नकार की भी नहीं,असल बात यह है कि ऐसी आभासी तुलनात्मक निर्मिति पर इतना ज़ोर क्यूँ?और ऐसा करते हुए भी यह दोनों तस्वीरें पूरी तरह प्रामाणिक और सच हैं क्या? कश्मीर का राजनीतिक धुन्धलका अपने गहरेपन में यहाँ नज़र आता है. यह तमाम असहमतियाँ फ़िल्मकार के दृष्टिकोण और उनकी पक्षधरता को रेखांकित भी करती हैं और उस पर सवाल भी उठाती हैं. यहाँ मुझे शुद्धब्रत सेनगुप्ताका कथन याद आ रहा है जो संजय काक की दस्तावेजी फिल्मों को लोकवृत्त में विमर्श को जन्म देने वाली फिल्में बताते हुए आलोचनात्मक टिप्पणी करते हैं,एक परिपूर्ण फिल्म या काम कोई डराने की वस्तु हो सकती है. वह केवल अपनी संपूर्णता के वेग में उन सभी असहमतियों को दबा सकती है जो उसकी और इशारा करेंगी. यह तो सिर्फ दोषपूर्ण फिल्म है जो हमें असंतुष्ट, उत्कंठा से भरा हुआ और गतिमान अवस्था में छोड़ जाती है. जहाँ से हम फ़िल्मकार के साथ हजारों तर्क-वितर्क करने के लिए प्रस्थान करते हैं. ताकि वर्तमान में स्थित विसंगतियों को अनुकूलित करके जीवनानुकूल बनाया जा सके.” (ए फ़्लाइ इन द करी, के.पी. जयसंकर व अंजली मोंटेरो,सेज़ पब्लिकेशन,पहला संस्करण 2016,नई दिल्ली,पृ-59)

लेकिन इन हल्के-फुल्के असहमत क्षणों की उपस्थिती उस ज़रूरी सवाल को गैरवाजिब नहीं कह सकती जिसे हर कश्मीरी की निगाह पूछ रही है. शिकायतों और असहमतियों का बने रहना हर स्तर पर तरक्की के लिए ज़रूरी है और शिकायतें अक्सर उन्ही से होती हैं जो काम करते हैं. बस फ़ाल्स-जैकेटिंग के दौर में अपने हिस्से का सच हर माध्यम से हमको खोजना है. सिनेमा माध्यम होने के साथ-साथ तकनीक भी है और ऐसी गजब की तकनीक जो राष्ट्र-निर्माण की छवि गढ़ने में सहायक 'टूल'भी है. इस बात को हिटलर जैसे तानशाह ने भी अपने दौर में  समझा था और तभी अपनी सेना के महिमगान के लिए उसने प्रोपेगेंडा फिल्मों का निर्माण करवाया था. आज़ादी के बाद से लेकर लगभग साठ तक के दशक में ऐसी तमाम फिल्में हमारे मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी बनीं जो गांधी,नेहरू या शास्त्री जी के भारतको व्याख्यायित करती थीं. पी.साईनाथजैसे विचारक इसीलिए फिल्म लेखन को पत्रकारिता की तुलना में अधिक कलात्मक और चुनौती भरा मानते हैं. उनका कहना है कि,भारत विभिन्न वास्तविकताओं वाला देश है.....जहाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं लेखकों का चयन,कि वे किस पक्ष की कहानी कहना चाहते हैं और उनका लेखन केवल त्रासदियों की रिपोर्टिंग नहीं होगी बल्कि वह उस घटनाक्रम को सामने लाएगी जिसके तहत सामाजिक विचलन आते हैं.”(व्याख्यान:इंडियन स्क्रीनराइटर्स कोन्फ्रेंस,यूट्यूब से उद्धृत, 03.08.2016,लिंक यहाँ से देखें-
https://m.youtube.com/watch?v=sQjLj-suogQ )

तुष्टिकरण की राजनीति की कोशिशों के बीच एक समाज अपनी अस्मिता के लिए निरंतर संघर्षरत है. समझौता परस्ती के युग में सर कटाने और सर झुकाने के बीच का जोश और होश अपना अनुपात अभी निश्चित नहीं कर पाया है. इसलिए उनके संशय और उनकी दुविधाओं में कान देकर उनको सुनने का हौसला हमें अपने तईं रखना होगा. एक नई पहल के लिए आपसी सहयोग और सद्भाव का होना ज़रूरी है. फ़िलहाल इतना समझने में यह दोनों फ़िल्में बेशक बेहद मददगार कोशिशें हैं. जिनका होना सिनेमा के समय-सापेक्ष होने की गवाही है और मनोरंजन प्रधान माध्यम के बरक्स सिने माध्यम की दूसरी परिभाषा भी है. 

इन मायनों में इस तरह की फिल्में हिंसा के इतिहास से हमारे दर्शक-मन का साक्षात्कार हैं, ऑडियो-विजुअल माध्यम के रूप में फ़िल्मकार और उक्त विषय के बीच से गुजरते हुए एक नए अदब के बनने की यात्रा का सहभागी होना है.

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नीतू तिवारी
डॉक्युमेंट्री सिनेमापर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. कर रही हैं.
सिनेमा पर लिखती हैं.
मो - 9999054384/ ई-मेल:neeroop@hotmail.com

सबद भेद : स्तन, कैंसर और कविताएँ : संतोष अर्श

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Painting by Javier Alvarez

साहित्य को अपने समय के अलग-अलग चश्मों से देखा जाता है, देखा भी जाना चाहिए.
‘टेक्स्ट’ के इन तमाम ‘रीडिंग्स’ में साहित्य में अंतर्निहित विचारों की विवेचनाएँ होती हैं, पर उनका जो मुकम्मल प्रभाव है अगर वह असरदार हैं तो वे बची रहती हैं. 
फिर-फिर पढ़ी जाती हैं.
कुछ समय पूर्व पवन करण की स्तनऔर अनामिका की ब्रेस्ट कैंसरकविताओं पर घनघोर चर्चा हुई थी.  इन कविताओं को लोलुप पुरुष मानसिकता से ग्रस्त, स्त्री विरोधी आदि आदि कहा गया.
युवा अध्येता और कवि संतोष अर्श ने फिर से इन कविताओं को टटोलने की कोशिश की है.
एक अच्छी बात यह है कि वह भारतीय सौन्दर्यबोध को भी लगातार ध्यान में रखे हुए हैं. जरुर पढ़ा जाना चाहिए. 


'स्तनऔर ब्रेस्ट कैंसर: व्याधि,कविता,स्त्री और स्त्रीवादी      
संतोष अर्श





“I don’t want to discuss my breasts with the whole world.”
Brooke Burke 
वन करण की स्तनऔर अनामिका की ब्रेस्ट कैंसरकविताओं को लेकर रंजित,अतिरंजित,संतुलित,असंतुलित,आवश्यक,अनावश्यक चर्चा हुई थी. इस बहस के दौरान कुछ सार्थक,निरर्थक,व्यर्थ,अर्थवान और विचारोत्तेजक लेख भी सामने आए थे. इनमें शालिनी माथुरका लेख व्याधि पर कविता या कविता की व्याधिअपने भीतर के आवेगमय दुर्वाद और दोनों कविताओं की यादृच्छिक व्याख्याओं के कारण अधिक चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने सूज़न सॉन्टैग,सूज़न ग्रिफिन,नाओमी वुल्फ़, एड्रियन रिच आदि स्त्रीवादियों का हवाला देते हुए अतिवादी और अतिरंजित लहज़े में इन दोनों कविताओं और कवियों पर टिप्पणी की है. यही नहीं उस लेख में,स्तन कैंसर जैसी बीमारी की छाया में लिखी गयी इन कविताओं में उन्होंने कवियों द्वारा स्त्री-देह का पोर्नोग्राफिक निरूपण करने की बात भी लिखी है. अपने उक्त लेख का अंत शालिनी माथुर ने इस प्रकार किया है कि- “पवन करण और अनामिका ने व्याधि से ग्रस्त,दर्द से दुखते हुए,मृत्यु के भय से आक्रांत,शल्य चिकित्सा के कारण विरूपीकृत स्त्री के शरीर पर नश्तर से कविताएँ उकेर दीं और स्त्री के रक्तस्नात अनावृत्त शरीर को हम सब के बीच ला खड़ा किया मगर इस बार इन दोनों कवियों के इस क्रूर,हिंसक,बर्बर और निहायत ग़लीज़ मज़ाक पर हँस पाना भी हमारे लिए मुमकिन नहीं.”कविता,व्याधि,स्त्री-देह और स्त्रीवाद की इस चतुर्भुजी बहस में कविताओं के ठीक-ठीक पाठ,भाव,अनुभूति और संवेदना को दरकिनार कर दिया गया.

स्तन,स्त्रीत्व का प्रतीक हैं. स्त्री के सौंदर्य की चरमावस्था! अर्द्धनारीश्वर के मिथक को मानने वाली संस्कृति में कहा जाता रहा है कि पुरुष के पुष्पित स्तन स्त्री के सुंदर,अभिभूत करने वाले स्तनों में फलित होते हैं. शैशवावस्था से लेकर आजीवन,स्त्री के स्तन पुरुष के लिए प्रगाढ़ आकर्षण,आश्चर्य और रहस्य से भरे अंग हैं. स्तनविहीन स्त्रीत्व की कल्पना न पुरुष कर सकता है न स्वयं स्त्री,यह उन दोनों के लिए त्रासद स्थिति होगी. स्त्री के स्तनों के तिलिस्म और आकर्षण से मुक्त हो पाना पुरुष के लिए मुमकिन नहीं है. पवन करण ने भी अपनी कविता स्तन’ ‘पुरुष होकरही लिखी है. उन्होंने अपनी कविता संगीता रंजनको समर्पित की है जिन्हें छाती के कैंसर की वज़ह से अपना एक स्तन गँवाना पड़ा था. यही बात उनके संग्रह (स्त्री मेरे भीतर,जिसमें यह कविता संकलित है) में कविता के नीचे भी लिखी है. यहाँ छातीशब्द को यों ही गुज़र जाने देना नहीं चाहिए. उर्दू के बेहतरीन अफ़सानानिगार मंटो को छाती शब्द के प्रयोग पर (उनके अपने दौर में) बड़ी-बड़ी सफ़ाइयाँ और मुख़्तलिफ़ जवाब देने पड़ते थे. यह गौरतलब है कि शालिनी माथुर ने भी अपने लेख में मंटो को उनकी कहानी ठंडा गोश्तके साथ याद किया है. यक़ीनन मंटो की कहानी ठंडा गोश्त अश्लील नहीं है. पवन करण की कविता स्तन भी अश्लील नहीं है. पोर्नोग्राफिक नहीं है. हाँ अपने समय की एक सामान्य कविता है जिसे ब्रेस्ट कैंसर ने विशेष कर दिया है. यह हिन्दी साहित्य की दुनिया की भीषण त्रासदी है कि मंटो के ज़माने के जवाबलेवा किसी न किसी सूरत में आज भी मौज़ूद हैं.

स्तन कविता किताब के दो पृष्ठों पर फैली हुई है लेकिन उसमें पाँच पंक्तियाँ ही प्रमुख हैं. प्रारम्भ की तीन पंक्तियाँ-
इच्छा जब होती वह धँसा लेता उनके बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो उनमें छुपा लेता अपना मुँह
कर देता उन्हें अपने आँसुओं से तर
और आख़िर की दो पंक्तियाँ-
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से    

मुझे लगता है कि इन पाँच पंक्तियों में ही कविता समाप्त हो जाती है. और यदि इनके बीच में कुछ न लिखा जाता तब भी कविता उतनी ही रहती. मैंने पहले भी कहीं पवन करण पर लिखते हुए कहा है कि वे अपनी कविता में बहुत कुछ कहना चाहते हैं जबकि कविता यह चाहती है कि उसमें कम से कम कहकर बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया जाय. अगर पवन करण कुछ कम कहते तो शालिनी माथुर उनकी कविताओं को पोर्नोग्राफ़ी की शास्त्रीय रचनाएँन कहतीं क्या ?
यद्यपि इस कविता की इन पंक्तियों-

अंतरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थामकर वह उससे कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी ख़ुशियाँ,इन्हें संभालकर रखना

पर,यहकहकरएतराज़ किया जा सकता है कि स्तन जो कि स्त्री देह के संवेदनशील अंग ही नहीं यौनांग भी हैं, उन पर किसी का अधिकार नहीं है. वे किसी की अमानत नहीं हो सकते ! स्त्री की देह उसका अधिकार है. माय बॉडी माय राइट ! लेकिन अधिकार प्रेम से मिलता है. और प्रेम के रंग इस कविता में बिखरे हुए हैं. प्रेमी-पुरुष की देह पर भी स्त्री का अधिकार है. रागात्मक क्षणों में, वह चाहे तो कह कह सकती है कि तुम्हारे ये पुष्पित स्तन और सख़्त पुट्ठे मेरी अमानत हैं. यहाँ किसी प्रकार की अतिरंजना नहीं बल्कि बराबरी की बात है. स्त्रीवाद की बुनियाद तो स्त्री-पुरुष की समानता को लेकर ही पड़ी आख़िर ?और कविता में स्त्री की उन्मुक्त रज़ा है. उसे अपने स्तन प्यारे हैं ! और होने ही चाहिए. अपनी देह को प्यार करना ही चाहिए. उसे निरामय,स्वस्थ और सुंदर बनाए रखने के हरसंभव प्रयत्न करने चाहिए. इसीलिए तो-

उनके बारे में उसकी बातें सुन-सुनकर बौराई
वह जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफ़े सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें

ज़ाहिर है कि कविता की स्त्री जिस मुँह में अपने स्तनों को भरकर,आँखें मूँद कर आनंदित होना चाहती है उस मुँह पर उसका अधिकार है. और यह अधिकार उसे प्रेम से मिला है. मनुष्यों का प्राकृतिक संसर्ग पशुओं की तरह प्रजनन की जैविक प्रक्रिया भर तो है नहीं ! यौनरत होने का अधिकार प्रेम ही से तो मिलता है ! अन्यथा अन्य विकल्पों में पुरुष या तो स्त्री देह को क्रय करता है या फिर उसके साथ रेप करता है. इस प्रसंग पर ब्रिटिश लेखक ई.एल. जेम्स के उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रेपर इसी नाम से बनी फ़िल्म को याद करना मौजूँ होगा. फ़िल्म में एक स्थान पर नायिका के साथ यौनरत नायक अपनी देह को उसे स्पर्श नहीं करने देता है जबकि नायिका यौनतुष्टि हेतु उसकी देह को छूना चाहती है,लेकिन उसने नायक की हर बात मानने का एग्रीमेंट साइन किया है. वहाँ स्त्री देह एक उपनिवेश है,उसे एक बिज़नेस टाइकून ने ख़रीद लिया है. कई मामलों में भारतीय समाज में विवाह भी उसी अनुबंध की तरह होता है. स्तन कविता में फ्रायडियन प्रभाव ज़रूर है लेकिन पोर्नोग्राफ़ी ?

पोर्नोग्राफी स्त्री को हीन बनाती है लेकिन वह असली नहीं है. उसमें पशुवत यौनरत होने का अभिनय करते स्त्री-पुरुषों की चीखें और चरमसुख का कामुक सीत्कार नकली होता है. पोर्नोग्राफी में सेक्स और हिंसा दोनों हैं. हिंसा और सेक्स के अपने महीन मनोवैज्ञानिक संबंध हैं जिन पर यहाँ चर्चा मुमकिन नहीं है. लेकिन काम-वासना के हिंसक उत्प्रेरण के लिए पोर्नोग्राफी का उत्पादन बाज़ार का एक हिस्सा है,पूँजी का एक उपक्रम है. इस पर आशुतोष कुमार ने ठीक लिखा है कि, “पोर्नोग्राफी के विषय में खुद स्त्रीवाद के दायरे में शोध,बहस और विमर्श का ज़ख़ीरा इतना बड़ा है कि उसे संक्षेप में समेटने के लिए भी एक विशेषांक की ज़रूरत पड़ेगी. पोर्नोग्राफी के हज़ारों रूप हैं. पोर्नोग्राफी किसी तरह की हो,वह हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही होती है,यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा नहीं है. ऐसी धारणा स्वयं स्त्री के खिलाफ़ जा सकती है.”

पॉर्न इंडस्ट्री से वैश्विक स्तर पर स्त्री के आर्थिक संबंध भी हैं. इस भूमंडलीकृत इंडस्ट्री में कितने ट्रिलियन डॉलर्स का विनिवेश और प्रवाह है यह कोई दबी-छुपी बात नहीं है. आशुतोष कुमारने इस पर लिखते हुए सनी लियोन का उल्लेख किया है. अभी कुछ दिनों पहले मीडिया में ख़बर थी कि सनी लियोन भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री से अधिक लोकप्रिय हो गई थीं. पोर्नोग्राफी में भी बड़े बदलाव हुए हैं. अब पॉर्न ट्यूब्स में भी कृत्रिम लिंग पहनकर हार्डकोर यौनसुख देती हुई शीमेल्सको दिखाया जाने लगा है. यह लंबी चर्चा और बहस-विचार का विषय है. जिस पर स्त्रीवादियों को ध्यान देना चाहिए. कविता स्तन में आगे बढ़ते हैं-
वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता

शहद के छत्तेऔर दशहरी आमबहुत अच्छे, श्लील उपमान नहीं कहे जा सकते हैं. स्तन-कैंसर जैसी गंभीर बीमारी पर लिखी गयी कविता के लिए तो बिलकुल नहीं! शहद के छत्ते और दशहरी आम चालू टाइप के लोकगीतों के से उपमान लगते हैं. जैसे देहातों में गाये-बजाये जाने वाले फूहड़ गीतों के रूपक होते थे. पवन करण को यहाँ सावधानी बरतनी चाहिए थी,लेकिन कविता सावधानी बरतकर नहीं लिखी जाती. उस पर उन्होंने सामंती-दरबारी कवि बिहारी का ज़िक्र भी इस कविता में कर दिया है. पीछे की कविता में स्तनों को बहुत कुछ कहा गया है. विद्यापति के एक पद में निर्वसना उरोजिनी सरोवर में नहा रही है और उसने अपने दोनों हाथों से अपने स्तन छुपा रखे हैं. विद्यापति कहते हैं कि वे दोनों स्तन सुंदर चक्रवाक (पक्षी) हैं और नायिका ने इसलिए उन्हें दबा-छुपा रखा है कि वे कहीं उड़ न जाएँ. उसे डर है कि यदि वे उड़ गए तो कौन उन्हें वापस ला कर देगा ?दरबारी कवि पोर्नोग्राफर हो सकते थे क्योंकि उन्हें ज़र मिलता था.

अवध में नवाबी के दौरान तरगारे-हरकारेहोते थे जो रतिक्रियारत होने जा रहे नवाबों के पलंग के नीचे पहले से घुसकर अपने कामुक सीत्कार,वाक्-कौशल आदि से उनकी कामेच्छा को उद्दीप्त करते थे. दरबारी कवि ऐसे ही होते थे. ग़रज़ यह कि शहद के छत्ते और दशहरी आम जैसे उपमान कविता को कमज़ोर करते हैं. पवन करण का शहद के छत्तेउपमान स्तन की जैविक संरचना से कुछ-कुछ भले ही मेल खाता हो लेकिन ऐसे उपमानों का प्रयोग करने के कारण कवि को स्त्रीवादियों से किसी तरह नहीं बचाया जा सकता. और स्तन दशहरी आम होते हैं ?इससे ठीक तो अनामिका की कविता ब्रेस्ट कैंसर में दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाले उन्नत पहाड़ों जैसे स्तनहैं. अनामिकाकी कविता के स्तनों का निरूपण भी देखा जाना चाहिए-
दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ बहा दीं दूध की नदियाँ
तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में जाले लगे.

इस कविता की दुर्व्याख्या करने वालों ने इसे नख-शिख वर्णन कहा है. स्तनों की उन्नत पहाड़ों से उपमा देना नख-शिख वर्णन नहीं है. साथ ही यह किसी प्रकार का औदात्य भी नहीं उत्पन्न करता. नख-शिख वर्णन देखने के लिए हिन्दी के पास रीतिकाल जैसा एक पूरा-पूरा काव्य-युग है. इसलिए ऐसा लिखने वाले लेखक को कोई काव्यबोधहीनता से ग्रस्त कहे तो उसे गलत क्यों माना जाय ?

स्तनों को क्या कुछ नहीं कहा गया ! उनका किस तरह का प्रयोग नहीं किया गया ?बाज़ार के नब्बे फ़ीसद विज्ञापन स्त्री के स्तनों पर टिके रहे हैं. उस क्रम में उन्नत पहाड़’, ‘शहद के छत्तेऔर दशहरी आमको भी रख लिया जाय. यहाँ तक आकर अब स्तनों के विषय में जर्मेन ग्रीयर के विचारों को देखना भी काम्य होगा कि- भरी-पूरी छातियाँ असल में स्त्री के गले में लटका फाँसी का फंदा हैं : ये उसे उन पुरुषों की निगाह में चढ़ा देती हैं जो उसे अपनी रबड़ की गुड़िया बनाना चाहते हैं,लेकिन उसे यह सोचने की छूट हरगिज़ नहीं दी जाती कि उनकी फटी पड़ती आँखें सचमुच उसे ही देखती हैं. छातियों की तारीफ़ तभी तक है जब तक कि उनके असली काम की निशानियाँ नहीं दिखाई देतीं : रंग गहरा हो जाने,खिंचने या सूख जाने पर वे वितृष्णा उपजाती हैं. वे एक व्यक्ति के अंग नहीं आंटे की तरह गूँधे और मरोड़े जाने या चुसनी की तरह मुँह में भरे जाने के लिए उसके गले में लटके प्रलोभन हैं. (जोशी मधु. बी. (अनु.),बधिया स्त्री,पृष्ठ- 36)जर्मेन ग्रीयर के विचार स्तनों से पीड़ित स्त्री के लिए हैं. यौन और जैविक कारणों से संतप्त स्तनों से व्याधिग्रस्त स्तन बहुत अलग हैं. यह सुकून देने वाली बात है कि स्तन कैंसर पर लिखी जा रही कविता में अनामिका ने स्तनों पर होने वाले यौन हमलों का भी ध्यान रखा है-
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग-संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.

अपनी कामुक,बेध देने वाली दृष्टि से पुरुष बच्चियों के अविकसित,विकसनशील स्तनों को भी नहीं छोड़ता. वह उन्हें आँखों से ही मसल डालना चाहता है. काम-कुंठाओं से ग्रस्त पुरुषों वाले भारत देश में स्त्रियाँ बहुत घूरी जाती हैं. घूरना एक प्रकार की यौन हिंसा है. पुरुष स्त्री के स्तनों को घूरता है. किसी बी-ग्रेड बॉलीवुड फ़िल्म में लड़की लड़के से पूछती है कि, ‘तुम लड़कियों में सबसे पहले क्या देखते हो ?लड़का उत्तर देता है, ‘यह लड़की पर निर्भर है कि वह आ रही है या जा रही है.इस संवाद पर भारतीय पुरुष हँसता है. एतराज़ नहीं करता ! आती हुई लड़की के स्तन और जाती हुई स्त्री के नितंब ! पूरी दुनिया में कमोबेश पुरुषों द्वारा स्त्रियों में यही देखा या घूरा जाता है. सिनेमाई (अप)-संस्कृति में इसे देखा जा सकता है. ब्रेस्ट कैंसर कविता की स्त्री यह जानती है कि दस बरस की उम्र से ही उसके स्तनों के कारण उसका सड़क पर चलना दूभर हो गया था. लेकिन स्तनों के लिए एक ही कविता में उन्नत पहाड़’, ‘बुलबुले’, ‘खुदे-फुदे नन्हे पहाड़उपमानों का प्रयोग असंगत मालूम होता है. एक स्त्रीवादी कवयित्री द्वारा स्तनों के लिए इतने सारे उपमानों के प्रयोग का क्या औचित्य है ?यह काव्यौचित्य भी तो नहीं है ! पहले ही स्तनों को बहुत कुछ कहा जा चुका है. कविता में व्याधि का भी रूपक है-
कहते हैं महावैद्य
खा रहे मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई

पहाड़ उपमान का प्रयोग कवयित्री ने संभवतः इसलिए भी किया हो कि भारत में एक आयु तक स्तनों को स्त्री पहाड़ की तरह ढोती है और इसलिए भी कि कैंसर की पीर पर्वत सी होती होगी. विद्यापति स्तनों को चक्रवाककहें,सूरदास श्रीफल,रीतिकाल के कवि उरोज, कठिन-कुचया और कुछ कहें,पवन करण शहद के छत्ते और दशहरी आम कहें या अनामिका उन्नत पहाड़,तकलीफ के हीरे और बुलबुले कहें ! वास्तव में स्तन चर्बी,सहायक ऊतकों और लसीकाओं वाले ऊतकों से निर्मित और पसलियों पर स्थित होते हैं जिनमें परलिकाएँ (Lobes) होती हैं,जिनसे होती हुई दूध की वाहिकाएँ (Lactiferous Duct)स्तनाग्र या निप्पल से आकर जुड़ती हैं.त्वचा के नीचे से स्तन के ऊतकों के एक क्षेत्र का विस्तार बगल तक होता है. बगल में भी लसीका ग्रंथियाँ (Lymph Nodes) होती हैं. लसीका ग्रंथियों का फैलाव कॉलरबोन से लेकर चेस्टबोन तक होता है.

ब्रेस्ट कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सों के अनुसार 85 प्रतिशत स्तन कैंसर दूध वाहिकाओं या परलिकाओं की कोशिकाओं में होता है. अनामिका जिस मौत की चुहियाकी बात अपनी कविता में कर रही हैं वह यहीं जन्म लेकर छिपी बैठी रहती है और स्तनों को तकलीफ के हीरे बना देती है. स्तन कैंसर व्याधि के लिए जाले और चुहिया से रचा गया रूपक कृत्रिमता उपन्न करता है. गुफाओं में जाले लगेबिम्ब कैस प्रभाव पैदा करता है ?स्तन अंदर से गुफाओं जैसे नहीं हैं. वे ख़ाली और अंधकारमय नहीं हैं. उनके भीतर मातृत्व का प्रकाश है. दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने के पश्चात भी वे खाली नहीं होते,उनमें पूर्णता और तृप्ति भर जाती है. और मौत की चुहिया,जो स्तन की गाँठ के लिए अनामिका ने रची है वह मुहावरे को तोड़-मरोड़ कर रची गयी है. इस रूपक को सही पकड़ा गया है. बीमारी को रूपक से अभिव्यक्त करने के कुछ रचनात्मक कारण होते हैं क्या ?कविता रचनी है तो क्या हुआ ? पहाड़ जैसे उन्नत स्तनों के लिए ऐसी बरहमी या विरक्ति ठीक नहीं जो अनामिका की कविता में व्यंजित हुई है. बीमारी मनुष्य-जीवन का हिस्सा है. उसके ज़िंदा होने की निशानी है. जिजीविषा की कसौटी है. अनामिका ने इस कविता में स्त्री की पीड़ा से परिहास करने की कोशिश की है,यही आइरनी है. यह व्यंग्योक्ति कविता प्रकट भी करती है-
कहो कैसे हो ?कैसी रही ?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी !

बावजूद सबकुछ के संवेदना सही-सलामत है. कविता की कमज़ोरिया स्तन कैंसर की बीमारी के प्रभाव के कारण हैं. शब्दों के साथ-साथ बिंबों,उपमानों,रूपकों की भी सीमित सृजनात्मक संभावनाएँ होती हैं.

पवन करण की कविता में देहराग अधिक हो गया है. इसीलिए उनकी कविता का पोस्टमार्टम किया गया था. लेकिन पुरुष की ओर से यह सचाई भी है. पुरुष में देह-लिप्सा अधिक है. अगर पुरुष की लिप्सा को अपनी कविता में पवन करण ने ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर दिया है तो वे प्रशंसा के पात्र हैं भर्त्सना के नहीं. ब्रेस्ट कैंसरकविता का दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाला एक स्तन पवन करण की कविता के विपरीतलिंगी देहराग के मध्य से बाहर निकल गया है-

अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उससे,वह उसकी तरफ देखता है
और रह जाता है,कसमसाकर

ब्रेस्ट कैंसर कविता वबिता टोपोको निवेदित या समर्पित है. पवन करण का स्त्री मेरे भीतरसंग्रह का पहला संस्करण राजकमल से 2006 में छपा है और शालिनी माथुर के लेख के अनुसार अनामिका की कविता ब्रेस्ट कैंसर पाखी के फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में प्रकाशित है. मुमकिन है कि अनामिका ने यह कविता बाद में लिखी हो. यह भी मुमकिन है कि पवन करण की कविता के बारे में जानकर उन्होंने यह कविता लिखी हो साथ ही यह भी कि स्तन कैंसर पर उन्होंने और भी कोई कविता लिखी हो या फिर ये सोचा हो कि स्तन कैंसर जैसा विषय उनकी काव्य-रचना से छूट रहा है. बहरहाल व्याधिग्रस्त स्तन एक गंभीर विषय हैं. ब्रेस्ट कैंसर बहुत गंभीर मुद्दा है और यदि किसी गंभीर विषय पर कविता लिखते समय उस कविता के साथ कवि (कवयित्री भी) न्याय नहीं कर पाता तो वह लोकप्रियता के लिए चुना गया विषय बनकर रह जाता है.

पुरुषवाद ने स्तनों के उभार को लेकर जो कामुक प्रपंच रचा है,अगर अनामिका इस पुरुषवादी प्रपंच को आधार बनाकर ही व्यंग्य में स्तनों को दूध की नदियाँ और पहाड़ बता रही हैं तब तो ठीक है लेकिन यदि वे भी स्तनों की पुरुषवादी लिप्सा के भँवर में फँस गई हैं तो स्तनों पर पुरुषों जैसी ही कविता लिख रही हैं. काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि वे स्तनों पर पुरुष जैसी कविता नहीं लिख सकतीं. नारीवादियों के ग्रन्थों में लिखा हो तो और बात है. पवन करण के कवि का निस्तारण हो जाएगा क्योंकि स्त्री के जैविक अंगों (जो पुरुष के पास नहीं हैं) को लेकर उसकी अनुभूति से पुरुष हमेशा-हमेशा के लिए महरूम है. स्तनों पर बात करते समय भीतर की स्त्री से नहीं भीतर के पुरुष से बचना पड़ता है. पवन करण नहीं बच पाए हैं. लेकिन अनामिका क्यों नहीं बच पाईं ? स्तन और व्याधि को आधार बनाकर यह कहना संगत होगा कि स्तन-कैंसर जैसे रोग की गंभीरता को समझना ज़रूरी है. क्योंकि यहाँ स्त्री और पुरुष की अनुभूति का प्रश्न नहीं है बल्कि इस बीमारी से पीड़ित स्त्री की अनुभूति का प्रश्न है. यह अनुभूति स्तन-कैंसर से ग्रस्त हुए बिना पायी जा सकती है क्या?यहाँ स्त्री-पुरुष की बहस से दूर स्त्री और स्तन-कैंसर जैसी व्याधि से ग्रस्त स्त्री ही उपस्थित हैं. और इन दोनों कविताओं ने इस बात का साइन बोर्ड भी लगा रखा है.

कविता व्याधि की तरह दारुण नहीं है लेकिन स्तनों की तरह सुंदर और संवेदनशील निश्चित रूप से है. कवियों पर निजी आक्रमण करने के लिए कविताओं की दुर्व्याख्याओं के बहुत से कारण हो सकते हैं. इन कविताओं पर जो बहस हुई उनमें से एक की रचनाकार अनामिका उस बहस में सम्मिलित हुईं. रचनाकार रचना करके उसे छोड़ देता है. उसकी व्याख्याओं के प्रपंच में नहीं पड़ता है. फिर ज़हर मिले जाम उसे पीना भी चाहिए. अनामिका ने स्त्रीवाद की आड़ लेकर उनकी कविता पर किए गए आक्षेपों को लेकर (या प्रतिवाद में) एक लेख (कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना पड़ता है) लिखा है. यह इतना आवश्यक नहीं था. लेख में वे लिखती हैं, “स्त्रीवादी कविता की प्रिय तकनीक अंतर्पाठीय मिमिक्री है जो ध्रुवान्तों (कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,देहाती-शहराती,पौरात्य-पाश्चात्य,निजी-समवेत आदि) के बीच एक नाटकीय चुप्पी घटित करने से संभव होती है ! स्त्री कविता,मेटाफिजिकल-कन्फ़ेशनल,कबीराना-फ़कीराना और सूफ़ियाना कविता की तरह,भावों की शुद्धता में यक़ीन नहीं करती. और गंभीर से गंभीर बात बड़े विनोदी स्वर में कह सकने की हिम्मत रखती है.”यदि कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना आवश्यक है तो कवि का यह बताना कि उसकी कविता किस तरह पढ़ी जाय ग़ालिबन गैरज़रूरी है. पवन करण ने ऐसा कुछ लिखा हो तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा. नहीं लिखा तो बहुत अच्छा है.

हिन्दी दुनिया के दक्षिण-वामी-मध्यमी,कार्टेल,सिंडीकेट,मठ-गढ़,माफ़िया-गुर्गों से निरापद होकर यह कहना होगा कि ये दोनों हिंदी की ज़रूरी कविताएँ हैं. स्तन कविता की स्त्री उस अतीतराग को स्मरण करती है जो दोनों स्तनों के साथ उसके जीवन में था. शल्य-चिकित्सा के बाद उसका जीवन बच गया है. अतीतराग की स्मृतियों में व्याधि से बच जाने का उल्लास छुपा हुआ है- मगर,वह,विवश,जानती है.व्याधि एक जैविक विवशता है. और-

उसकी देह पर घूमते उसके हाथ
क्या ढूँढ रहे हैं,कि उस वक़्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं.

मन से अधिक मायूस पुरुष के हाथों में स्त्री की व्याधि से उपजी मायूसी है. हिंदी कविता में इस प्रकार की मायूसी देखी गई तो यह अच्छी घटना है. अनामिका की कविता में-
अब मेरी कोई नहीं लगती ये तकलीफ़ें
तोड़ लिया उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताये
(एंजेलिना जॉली))
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है.  

बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ हैं. इन पंक्तियों में भी मायूसी है. उदासी है जो व्याधि से उपजी है. व्याधि नहीं रही ! वह अंग लेकर चली गई,लेकिन उदासी है. ख़ालिस स्त्री की उदासी....!!              

मई, 2013 में हॉलीवुड की ख्यात अभिनेत्री एंजेलिना जॉली ने Mastectomyअपनाकर अपने दोनों स्तन निकलवा दिए थे. एंजेलिना की नानी,माँ और मौसी की मृत्यु स्तन कैंसर से हुई थी.  उन्होंने उसी डॉक्टर से परामर्श लिया था जिसने उनकी माँ का ऑपरेशन किया था. उन्होंने स्तन कैंसर पर दुनिया भर में ख़ूब चर्चा की और जागरूकता फैलायी. एंजेलिना का क़िस्सा क्या किसी कविता से कम है ?ब्रेस्ट कैंसर और स्तन इन दोनों कविताओं में दुनिया भर की स्त्रियों के लिए गहरी संवेदना है. इन कविताओं की कितनी भी दुर्व्याख्याएँ की जाएँ लेकिन ये स्तन कैंसर जैसी व्याधि पर लिखी गयी हैं. एक कविता आख़िरी वक़्त तक एक कविता होती है. हिन्दी में इस तरह की कितनी कविताएँ हैं ?मैं या कोई स्त्री/पुरुषवादी आलोचक किसी कवि/कवयित्री को यह कैसे बताएगा कि उसे स्तन कैंसर पर किस भाव-भाषा-शैली में कविता लिखनी चाहिए.

_____________ 

संतोष अर्श (1987बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह फ़ासले से आगे, ‘क्या पता और अभी है आग सीने में प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी 
poetarshbbk@gmail.com 





स्तन / पवन करण
________________
पवन करण
इच्छा होती तब वह उन के बीच धंसा लेता अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो तो उन में छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने आंसुओं से तर


वह उस से कहता तुम यूं ही बैठी रहो सामने 
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूँ 
और  तब तक उन पर आँखें गडाए रहता 
 जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से
या लजा कर अपनी हाथों में छुपा नहीं लेती उन्हें


अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थाम कर वह उस से कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना


वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
उन के बारे में उसकी बातें सुन सुन कर बौराई 
वह भी जब कभी खड़ी हो कर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह  कई दफे सोचती इन दोनों को एक साथ 
उसके मुंह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें

वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर 
डाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते हुए हमेशा 
उसे कॉलेज में पढ़े बिहारी आते याद 
उस वक्त उस  पर इनके बारे में 
सुने गए का नशा हो जाता दो गुना 


वह उसे कई दफे सब के बीच भी उन की तरफ 
कनखियों से देखता पकड़ लेती 
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है 
वह कहती  हाँ जी हाँ 
घर पहुँच कर जांच लेना


मगर रोग , ऐसा घुसा उस के भीतर
कि उन में से एक को ले कर ही हटा देह से
कोई उपाय भी न था सिवा इस के
उपचार ने उदास होते हुए समझाया


अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उस से , वह उस की तरफ देखता है
और रह जाता है , कसमसा कर  
मगर उसे हर समय महसूस  होता है
उस की देह पर घूमते उस के हाथ
क्या ढूंढ रहे हैं , कि इस वक्त वे
उस के मन से भी अधिक मायूस हैं


उस खो चुके के बारे में भले ही
एक-दूसरे से न कहते हों वे कुछ
मगर वह, विवश , जानती है
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के बीच से.
___________________
अनामिका


ब्रेस्ट कैंसर/ अनामिका
(वबिता टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)

दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में
जाले लगे!


'कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!


निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-फुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,


कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!



दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!

बुल बुले, अच्छा हुआ,फूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के हीरे, हलो।
कहो, कैसे हो?

जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीफ के हीरे!


अब मेरी कोई नहीं लगतीं ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!


जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किए जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!
_______________________

सहजि सहजि गुन रमैं : सुधांशु फिरदौस

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पेंटिग : Rick Bainbridge



सुधांशु फिरदौस की कविताओं में ताज़गी है.
इधर की पीढ़ी में  भाषा, शिल्प और संवेदना को लेकर साफ फ़र्क नज़र आता है.
धैर्य और सजगता के साथ  सुधांशु कविता के पास जाते हैं. 
बोध और शिल्प में संयम, संतुलन और सफाई  साफ बताती है कि उनकी कितनी तैयारी है.
ये क्लासिकल मिजाज़ की कविताएँ हैं, पर तासीर इनकी अपने समय के ताप से गर्म हैं.

‘मुल्क है या मकतल’ में जहाँ हलकान आज का समय है वहीँ ‘शरदोपाख्यान’  ऋतु  पर श्रृंगार है, ‘कालिदास का अपूर्ण कथागीत’ अर्थपूर्ण कविता है जैसे खुद  कवि का  अपना काव्यशास्त्र.
उम्मीद है ये कविताएँ चाव से पढ़ी जाएँगी.


‘कहता हूं जला दी है मैंने अपनी नौका
मिटाता आया हूं अपने पदचिह्न 
पीछे हटने का रखा ही नहीं कोई विकल्प’

सुधांशु फिरदौस की कविताएँ                          




ll मुल्क है या मक़तल ll


कैसा चमन कि हमसे असीरों को मन’अ  है
चाक-ए-कफ़स से बाग़ की दीवार देखना
(मीर)
   




[१]

तुम्हारी खूबसूरती है या मौत का ख्याल
बागों में इस बार कुछ ज़्यादा ही खिले हैं गुलाब

देखो इन मोरों की आंखों में बादलों का तवील इंतज़ार

हमारी बेचारगी तुम्हारे नाजो-अंदाज़

तारीख गवाह है
किताबें भरी पड़ी है जिंदा अफसानों से
इस कशमकश का हासिल क्या है
वस्ल या फ़िराक़

ये जो आड़ी-तिरछी सरहदे हैं
जिनसे महदूद दायरे को हम मुल्क कहते हैं
जहां आज़ादी के लिए रूहें रहती हैं तड़पती
कैदखाने नहीं तो और क्या हैं?

युग बीत गए
वक्त बदल गया
किताबें चाट डाली गईं 
लेकिन कहीं कोई मसीहा सच कहने को आज भी नहीं तैयार

कहते हैं कि आंखों में छुपी हुई होती है
मौत की आहट
घर हो या बाज़ार किसी से नज़र मिलाते ही
इन दिनों होने लगती है घबराहट

क्या नफ़ासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहती है अवाम!



[२]

वो मेरे भाई ही हैं कोई पराए नहीं
जो बात-बात पर मुझे कहते हैं गद्दार
हद तो तब हो गई जब उन्होंने उस रोज़ कहा :

“जो सवाल कर रहा वह है मुसलमान
उसे चले जाना चाहिए पाकिस्तान’’

‘‘भाई साहब, माफ कीजियेगा कहीं आप तो नहीं हैं मुसलमान?”

आहंग में ढूंढ़ा था हमारे पुरखों ने ख़ुद को लाफ़ानी करने का राज़
वे उसे कपड़ों की तरह पहन हो गए थे जिंदगी और मौत के पार

हम अपनी बे-आहंगी का महसूल चुकाते हुए रोज़ मर रहे हैं

वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है
हर कारसाजी अपनी तामीर से पहले
महज़ ख्यालगोई ही होती है
हुकूमत का कोई भी अदना-सा फैसला
मामूली-सा फरमान
काफी है आपको ताउम्र करने को हलकान
***




ll शरदोपाख्यान ll



विकचकमलवक्त्रा  फुल्लनीलोत्पलाक्षी
विकसितनवकाशश्वेतवासो वसाना ।
कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं
प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमम्याम्  ।।
(ऋतुसंहारम् - ३/२८)


[१]

खिली है शरद की स्वर्ण-सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
मां कहा करती थी कि चाम ही नहीं हड्डियों में भी लग जाती है ये धूप 
इसमें ही सुखाया जाता है मृदंग को छाने वाला चमड़ा  
बहुत से किसान सुखाते हैं इस धूप में ही
पखेव के बहाने सालों भर मवेशियों के जोड़-रस्सी में काम आने वाला पटुआ
सुखाई जाती है इस धूप में ही बाजार से बिना बिके लौट आई मछलियां
इस लापरवाह धूप के भरोसे ही ओल, अदरक, आलू, आंवला, मूली के
रंग-बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आंगन

जिसे लग जाए ये धूप
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठता रहता है टंकार
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग से भरती
नवरात्र के हुमाद-सी सुवासित करती रहती है ये धूप
*




[२]

साफ-सफ्फाक सोते का बहता हुआ जल

असंगत अंतराल पर गिर रहे हैं गूलर के पके हुए फल

अपनी कटाई के इंतजार में यौवन से मदमाते-झूमते
कास के फूलों की सफेदी रच रही
इस सुदूर वितान में
अपना ही एक प्रतिआकाश

खेतो में धान की जड़ों के बीच डोभे गए खेसारी के बीजों में 
शुरू हो गया है धीरे-धीरे अंकुरण

हवा के साथ-साथ पत्तियों की हल्की सरसराहट
फलों के पानी में गिरने की विलंबित टपटपाहट
शरद की इस दोपहरी को गीतात्मकता से भर
लोरी का काम कर रही है

दूर से ही दिख जा रही है मछलियों की चपलता
वे मच्छीमारों की बंसियों के तिलिस्म से बेखबर
गूलर के लाल-लाल फलों पर आसक्त और चुंबनातुर 
बार-बार उपरा जा रही हैं सतह पर
*

[३]

ओस से भरी हुई है शरद की शाम
अपना काम-काज निपटाकर
मेट्रो की तारों पर कतारबद्ध बैठे हैं कबूतर
सुनहरी धूप में दिन भर नहाने से कुम्हलाई हैं पत्तियां

दफ्तरों से लौटते थके-मुरझाए चेहरे
एफएम पर सुन रहे हैं एक ही गीत 

पहली ही बूंद से भीगने को मुंतजिर दरख्त
झुटपुटे में लग रहा विरह से लिपटा कोई यक्ष

दीपावली की तैयारियों से सज गए हैं बाजार

घर की याद में बेकल हैं प्रवासी परिंदे
अपनी खुमारी में बेटिकट या टिकटयाफ्ता
गिन रहे रवानगी का दिन
*

[४]  

शरद की पूर्णिमा
आज होगा कितने ही नवयुगलों का शुभ-लाभ से युक्त कोजगरा 
क्या शुभग रूप निखरा है आकाश में चांद का
रात की रानी अपनी मादकता से चित्त को विपर्यस्त किए दे रही है बार-बार  
गली वाला हरसिंगार इतना खिला है कि फूलों से ओझल हो गई हैं पत्तियां
मंद-मंद पश्चिमी बयार के साथ आती खुनकी
कभी-कभी सिहरा दे रही है बदन को
भिगो रही ओस की अदृश्य निरंतरता
चंद्रिका से नहाए इस पूरे विस्तार को
जहां भी जल रही हैं बत्तियां पतंगे वहीं नृत्यरत खुद को कर रहे उत्सर्ग
दूर सेमल के पेड़ पर रतिरत कोई पक्षी चहका
आज कितनी ही मछलियां कर रही होंगी चांद की चाह में प्राणदान
*

[५]  

ऋतुओं के स्पर्श से लापरवाह है वातानुकूलन  

आखिरी मेट्रो सवारियों को उतार अंतरालों पर लौट रही है
जाने को अपनी आरामगाह

मानवीय बस्तियों में कोई आहट कोई सुगबुगाहट नहीं

लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में
या पड़े हैं  टेलीविजन देखते बिस्तर पर निढाल

जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूंद 

नींद से दूर मेरे लिए इस छत पर बैठे
तुम्हारी याद को संजोना
अजाब है या नेमत
तय करना मुश्किल पड़ रहा है. 

Art by  Marium Agha : A Courtier in Love



ll कालिदास का अपूर्ण कथागीत ll 


मूढं बुद्धमिवात्मानं हैमीभूतमिवायसम् ।
भूमेर्दिवमिवारुढं मन्ये भवदनुग्रहात् ।।
अद्यप्रभृति भूतानामधिगम्योऽस्मि शुद्धये ।
यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते ।।
(कुमारसंभवम् - ६.५५/५६)



एक समय था जब ऋतुओं के आगमन को लेकर
कितनी उत्सुकता रहती थी मन में

प्रत्येक नक्षत्र का अपना विधान अपना पकवान
ऋतुओं में छुपा होता था जीवन का सारा अनुष्ठान और मिष्ठान
कैसे मेघाच्छादित नभ देख हर्षोल्लास से भागते थे आम्र उपवन की ओर
वर्षांत में जब पशुओं की महामारी को भगाने लिए उठता था हरका 
गोबर-लाठी के हड़बोंग को छोड़
उत्साह में चिल्लाते-दौड़ते कैसे करते थे ग्राम-प्रदक्षिणा
हटती ही नहीं थीं प्रीतिस्निग्ध आंखें मेघों से होड़ लेते बलाकाओं के झुंड से
आम्र मंजरियों और बकुल-पंक्तियों के खिलने की कैसी रहती थी प्रतीक्षा
दृश्यों को अनावृत्त करने का कौतूहल नहीं दबता था दबाए
गूलर के फूल या तेरह धारी वाले मक्के के बाल के स्वामित्व की चाह जैसी
कैसी निष्कपट जिज्ञासाएं उन्मत्त कर रात्रिचर निडर बना भटकाती थीं निर्जन ग्राम-प्रांतर में 
दादुर, मीन, धेनु, वृषभों से कैसा रहता था अनुप्राणित 
कितना रोया था एक बार कदंब की छांव में बैठा मृत तितली को करके जलाप्लावित

दूर नदी मंझधार में नौका पर झिझिया खेलतीं स्त्रियों द्वारा गाए जाते 
हलकी पुरवा बयार के साथ ग्राम में पहुंचते गीतों की मद्धम स्वर-लहरियां
कीर्तनियों के झाल, करताल, मृदंग के आरोहावरोह की मादक ध्वनियां  
रेत पर सूर्य-किरण के साथ दौड़तीं निश्छल सुबहें 
चंद्रछवि के साथ नदी में तैरतीं शीतल रातें 
किसी पूर्वजन्म की स्मृति लगती हैं 

अब तो अपने ही हृदय के यक्ष और यक्षिणी की विरह में घुलता
ऋतुओं की टोका-टाकी से वीतराग
कमल, कुंद, लोध्र, कुरबक, शिरीष,कदंब कुसुमों को
खिलते और मुरझाते निर्लिप्त देखता हूं

लेना ही पड़ताहैकालिदासकोएकएकदिन संन्यास
‘ऋतुसंहार’ से ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ तक आते-आते वह मांग ही लेता है मुक्ति
नंदीग्रामकेत्यागकाउज्जैनकेत्यागसेहोताहैउपसंहार
मल्लिका का सान्निध्य हो या प्रियंगुमंजरी का सहवास
विरह हो या संसर्ग एकाकी कालिदास
एकाकी ही रहता है

अवशेषसेउत्पन्न हूं
एकदिनअवशेष छोड़ चला जाऊंगा
उससे पहले संतप्त हूं
भाषा-भाषा
शब्द-शब्द
देह-देह
भटकने के लिए
*

भटकना होता है अकेले ही प्रत्येक प्रतिभा को अपनी त्रासदी में
सब कुछ झेलते हुए बिना किसी प्रचलित आस-आकांक्षा के
देना ही होता है अवदान
रचना ही होता है सबसे छुपाकर
जीवन की संपूर्ण मसि का उत्सर्ग कर एक प्रेमपत्र
क्या पता कैसा हो इसका भवितव्य
पहुंचे या न पहुंचे वह प्रेमिका तक
पहुंच भी जाए तो वह उसे पढ़े या न पढ़े
पढ़ भी ले तो उसमें निहित भावनाओं-व्यंजनाओं को समझे या न समझे 

अक्षर-अक्षर और सांस-सांस बना रहता है शक्ति,व्युत्पत्ति और अभ्यास पर एक संशय 
मन बैठ-बैठ जाता है देख कि कितना व्यापक है शब्द-ध्वनि का यह फैला हुआ पारावार
हिमालय के उच्च शिखर से होड़ लेती है पूर्ववर्ती कवियों की कीर्ति-पताका
जब भी सोचता हूं वाल्मीकि या वेदव्यास को तब बोध होता है अपनी अपूर्णता का  
दुविधाएं उद्दंड मेघ की तरह मन को घेर लेती हैं बार-बार
करता हूं इष्ट का स्मरण
कहता हूं जला दी है मैंने अपनी नौका
मिटाता आया हूं अपने पदचिह्न 
पीछे हटने का रखा ही नहीं कोई विकल्प
तैरना ही मुक्ति इस निदाघ सिंधु में
नहीं चाहता कोई अनुकंपा या वरदान
मृत्यु कवि के लिए एक छंद से दूसरे छंद में लगाई गई छलांग है 

कोरे पृष्ठ पर जब भी उतरता है कोई शब्द
असंगत हो जाती है हृदय की चाल
कानों की शिराएं होती हैं तप्त
एकाग्र हो करता हूं शब्द का अनुसंधान 

एक प्रवाह एक छंद है जो करता है अग्रसर
प्रत्येक क्षण नए-नए अनुभवों से होता है पुनः पुन: जन्म  

कविता से काव्येतर अभिलाषा
प्रेम से प्रेमेतर अंदेशा
अपमान नहीं तो और क्या है प्रेम और कविता का
मिल जाए कुछ मनोनुकूल दान, भोजन और भोजनोपरांत दक्षिणा  

भिक्षाटन नहीं है कोई भी कलाकर्म
न ही ब्राह्मण-वृत्ति या कर्मकांड 
कविता तो नितांत विरोधी रही है इस लोकोपवादी याचक वृत्ति की 
कवि में उपस्थित रहना ही चाहिए एक शालीनता से भरा औद्धत्य
नहीं मिलता भिखारियों को सरस्वती का आशीर्वाद
एक बिल्कुल नए अनुसंधान के लिए
एक आधी-अधूरी कल्पना जो क्या बनेगी इसका नहीं अभिज्ञान 
सारी भौतिक लालसाओं और तृष्णाओं को त्याग 
जल, रक्त, मांस, अस्थि को एकत्र कर देनी ही होती है आहुति
*

यहां से दिखती है दूर कीर्ति की एक चमक एक आभा
जो हो सकती है मरीचिका भी कोई नहीं जानता
आंखें बांध अपने भीतर की कौंध को संभाले चढ़ना होता है
उपत्यका की चढ़ाइयों पर मृत्युपर्यंत
बहुत ही साधारण घटना है पथ से चूक खाई में गिर जाना
गिर ही जाते हैं लोग शुष्क जीवनानुभव और मलिन मन लेकर
ऐसे ही खाई में गिरे दादुरों की क्षुद्रतापूर्ण वक्रोक्ति से आक्रांत है समस्त कला-जगत

कला का इतिहास पदाक्रांत है दुर्भिक्षता और अकाल-मृत्यु से 
मरणोपरांत कीर्ति का इतिहास जीवन भर घिसे असंख्य पत्थरों में से
किसी एक सौभाग्यशाली को स्पर्शमणि का प्राप्य स्पर्श है 
दुर्निवार है कला-कर्म
कवि होना और भी प्रिय भोज्य होना है मृत्यु का
अकाल-मृत्यु से लब्ध अस्थियों के ढेर के ऊपर
कालिदास के आराध्य नटराज करते हैं नृत्य
भरत मुनि बजाते हैं वीणा
काव्य-पुरुष करते हैं आराधना
सरस्वती के हाथों से अपने इन दुस्साहसी पुत्रों के लिए बरसते हैं स्नेह-कुसुम 
सृष्टि की असफलता की शल्य-चिकित्सा के प्रयास का एक और मर्मान्तक अंत देख
ब्रह्मा की आंखों से टपक जाते हैं आंसू 
जिससे कवि लेते रहते हैं पुनर्जन्म
विष्णु देख ब्रह्मा की विह्वलता स्मृतियों में झांक मंद-मंद मुस्काते हैं
*  


प्रत्येक क्षण कोई न कोई कवि नंदीग्राम से होता है विस्थापित 
लेकिन युग लग जाते हैं किसी कालिदास को उज्जैन पहुंचने में   
कश्यप ने विनता से कहा था कि अधैर्य सबसे बड़ा पाप है
कला-क्षेत्र में अधैर्य पाप नहीं महापातक है
यदि नहीं है साहस अपना सर्वस्व दांव पर लगाने का
तब भलाई है प्रतिभा को कहीं और ही लगाने में  
क्योंकि यहां सत्ता है अनंत अनिश्चितताओं, विडंबनाओं और प्रवंचनाओं की

बहुत व्यस्त और निर्मम समालोचक है समय
बेध्यानी में खारिज करता समग्र जीवन-संघर्ष  
*


अमर्श से भरे कुटिल प्रपंचों का प्रदर्शन अशोभनीय बनाता है कला-कर्म को 
उज्जैन के कला-मठों में बैठे लोग संभवतः ही कभी समझ पाएं कि कविता नहीं है ज्ञान का आतंक
ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्व का त्याग है   
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढ़कर आएगी या गर्दभ पर
*

               
रचनात्मक जीवन समुच्चय है अंतर्विरोध का—
जितना सिमटता उतना ही फैलता
बिना किसी अपराध के अपराधबोध से संतप्त जीवन
कोई व्यक्तिगत स्वार्थ या भौतिक लालसा नहीं मात्र कलात्मक महत्वाकांक्षा
फिर भी देखते ही देखते जो है सबसे पास वही हो जाता है सबसे दूर
क्या अनूठा द्वैत है

सत्यको बरतना कभीभीनहींरहा सहज
लेकिन कालकीगतिऐसीहैकिअबइसे देखना
दीठमेंचमकतेझीनेतारकीतरह दुर्लभहै
*


नींद में आए व्यवधान का परिणाम है सृष्टि 
बनाने वाले की चूक का अवदान है सृष्टि
इसलिए कहीं से भी देखो अपूर्ण है सृष्टि
इसी अपूर्णता का विस्तार है यह जीवन उज्जैन से कश्मीर तक
कालिदास केवल एक ईकाई भर है इस अपूर्णता की

महत्वाकांक्षाएं अंततः पूर्ण होती हैं शून्यता में
कालिदास ने अंततः अनुभवगत कर लिया था इसे पर रचा नहीं
तथागत ने अपने अनवरत अनुदर्शन से जान लिया था इसे पर मौन ही रहे
आनंद रूपक भर है इस शून्यता का
यह तो बहुत बाद की बात है जब नागार्जुन ने इसे कहा
और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा ‘सब हवा है’

अपूर्णता दौड़ाती है सब कुछ पाने की ओर
फिर लौटाती है सब कुछ छोड़ने की ओर
अपूर्णता कारण और आदमी लोलक है
जो डोलता रहता है चाह और त्याग के बीच
यह दोलन ही जीवन का काव्य है
*

बहुत दुष्कर है ढूंढ़ पाना
इस खंडित महाद्वीप के मानचित्र पर कालिदास का जन्मस्थल
क्या कोई पूछता भी है कालिदास की जाति

कोई नहीं जानता कहां से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहां को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहां पहुंच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीँ उतरती हैं पारिजात-सी सुगंधित
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकतीं
मेघदूत की पंक्तियां
उसके बाद केवल किंवदंतियां
जनश्रुतियां... 

(‘कालिदास का अपूर्ण कथागीत’ तद्भव के नए अंक में प्रकाशित है.)

सुधांशु फिरदौस
२ जनवरी १९८५ 
(सिंगाही – मुजफ्फरपुर, बिहार )
जामिया मिलिया इस्लामिया के गणित विभाग में शोध छात्र हैं
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित

sudhansufirdaus@gmail.com 

मति का धीर : प्रभाकर श्रोत्रिय : ओम निश्चल

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प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचक, निबन्धकार और संपादक थे. उनके संपादकत्व की चर्चा हुई है. ज्ञानपीठ से युवा साहित्यकारों की रचनाओं के प्रकाशन की उनकी योजना में मुझे भी प्रकाशित होने का अवसर मिला था. ओम निश्‍चल से उनका लम्बा संग साथ रहा है, दिल से याद किया गया है यहाँ  उन्हें. उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर भी गम्भीरता से बात हुई है. 


स्‍मृति शेष : प्रभाकर श्रोत्रिय
खटखटाता है कोई सुधियों की साँकल                                 
ओम निश्‍चल


प्रभाकर श्रोत्रिय के निधन से हिंदी का आंगन कुछ और सूना हो गया है. वे गत लगभग छह माह से बीमार थे तथा भोपाल में आयोजित विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के बाद से उनका सार्वजनिक समारोहों में आना जाना लगभग बंद-सा हो गया था. वे हिंदी के ऐसे आलोचक थे जिन्‍होंने समीक्षा की एक अलग उदात्‍त भाषा रची तथा रचना के मर्म में प्रवेश कर उसके आस्‍वादन का सलीका सिखाया. वे हिंदी के उन इने गिने आलोचकों व निबंधकारों में थे,जिसने उज्‍जैन की विद्वत्‍परंपरा के साहचर्य में रहकर आलोचना-समीक्षा की एक समावेशी शैली का अनुसंधान किया.

किन्‍तु, प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे,यह बात सहसा स्‍वीकार्य नहीं होती. वे जिस तरह से चाकचिक्‍य और नफासत के साथ रहते थे,उससे यह भान नहीं होता था कि वे सहसा बीमार पड़ेंगे और इतनी जल्दी हमें छोड़ कर चले जाएंगे. अभी पिछले ही बरस भोपाल में विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के मौके पर वे जब सम्‍मानित होने के लिए पहुंचे तो मुख्‍य द्वार से घुसते ही लगी कुर्सियों पर वे पत्‍नी ज्‍योति जी के साथ आराम फरमा रहे थे. किंचित शिथिलकाय तो लग रहे थे पर चेहरे पर वही सनातन तेज विद्यमान था. मैंने दोनो के कुछ चित्र खींचे. यही उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी. फिर कुछ दिनों बाद वे बीमार पड़े और गंगाराम हास्‍पिटल में कई बार इलाज के लिए दाखिल हुए. पर हाल ही में हुए ब्रेन हैम्‍रेज से वे सम्‍हल नहीं पाए और 15 सितंबर को रात आखिरी सांस ली.

क्‍या संयोग है कि जिस दिन में मैं अपनी बेटी के आठवें हास्‍पिटलाइजेशन का बिल भुगतान के लिए तैयार करवा रहा था,बिलिंग काउंटर पर सहसा ज्‍योति जी को खड़े पाया. वे शायद रनिंग बिल निकलवा रही थीं . संकोच हुआ कि इतने दिनों बाद कैसे उनका सामना करूँ. पर दस मिनट की कश्‍मकश के बाद बिलिंग काउंटर पर आ उनसे प्रणाम कर श्रोत्रिय जी का हाल पूछा. उन्‍होंने कहा, 'वे होश में नहीं हैं.'कोई संभावना ? 'क्षीण ही है',उन्‍होंने कहा. मैंने कहा कि हमारा आपका प्रारब्‍ध लगभग एक सा है. मैं गत डेढ़ साल से गंगाराम आईसीयू के चक्‍कर काट रहा हूं बेटी को लेकर और आप श्रोत्रिय जी के इलाज के लिए यहां गत छह माह से आ-जा रही हैं. उन्‍होंने कहा,हां निरंजन(श्रोत्रिय) ने बताया था कि आपकी बेटी क्रिटिकल हालत में है. मुझे लगा यह श्रोत्रिय जी की आखिरी वेला है. मुझे बेटी को रिलीव करा कर संसदीय राजभाषा समिति के एक निरीक्षण में समन्‍वयन के लिए निजामुद्दीन से उदयपुर-माउंटआबू के लिए ट्रेन पकड़नी थी सो जल्‍दी में था पर ज्‍योति जी को जिस रूप में बिलिंग काउंटर पर खड़े पाया,लगा एक अकेली विषण्‍ण स्‍त्री  अपने सुहाग की रक्षा के लिए अस्‍पताल में चक्‍कर काट रही है.

श्रोत्रिय जी ने कुछ ही समय अध्‍यापन किया तभी मध्‍यप्रदेश साहित्‍य परिषद से जुड़ गए. साक्षात्‍कारका संपादन किया. फिर अक्षरासे होते हुए भारतीय भाषा परिषद में आए तथा अंत में भारतीय ज्ञानपीठ. यानी नौकरियां बदलते रहे,इससे न तो उनकी ठीक से कोई पेंशन बनी होगी न कोई ढंग का पीएफ ही उनके हिस्‍से में आया होगा. वे भारतीय भाषा परिषद में भी तंगहाली में ही रहे. वसुंधरा,गाजियाबाद वाला मकान भी उन्‍होंने भोपाल की कोई संपत्‍ति बेचकर तथा कुछ धनराशि पास से जुटा कर ही खरीदा था. साहित्‍य अकादेमी से भी वे समेकित मानदेय पर ही अनुबंधित रहे . ऊपर से छह माह से पस्‍त कर देने वाली बीमारी. इलाज के लिए बेटे बेटी के होते हुए भी केवल पत्‍नी ही सक्रिय दिखतीं . कहां से खर्च आता होगा इतने मंहगे इलाज के लिए यह सोच कर एकबारगी मन कांप उठा. अगले दिन उदयपुर पहुंचते हुए फेसबुक पर अनंत विजय  का स्‍टेटस दिखा, 'श्रोत्रिय जी नहीं रहे.'सोच कर मन विचलित हो उठा. बेटी-दामाद मुंबई में है,बेटे-बहू मथुरा में. फिर भी संबंधों में इस छीजते युग में वे जैसे अकेली हो गई हैं. श्रोत्रिय जी के बिना वे कैसे रहेंगी,इस चिंता से ही मन कसैला हो गया. उनके व उनकी पत्‍नी के निकट रही राजी सेठ से बात हुई तो उनकी बीमारी व देखभाल को लेकर तमाम बातें हुईं. वे अपने आखिरी दिनों में जैसे अकेले पड़ गए थे. एक सन्‍नाटा जैसे उनके इर्द गिर्द खिंच गया था. उनके हितैषी उन्‍हें फोन मिलाते पर अक्‍सर फोन कम ही उठता. कौन उठाए,क्‍या बात करे. बीच में उन्‍हें इलाज के लिए ज्ञान चतुर्वेदी ने भोपाल भी रखा पर जैसे वह भी एक पड़ाव भर था. उनकी अनंत की यात्रा जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी.

आज श्रोत्रिय जी नहीं हैं तो उनकी बहुत सी स्‍मृतियां मन में गूँज रही हैं. कोलकाता प्रवास के दिनों में मैं उनके निकट आया था. तब से लगभग नियमित मुलाकातें थीं. जब उन्‍होंने 1995 में कोलकाता में आकर परिषद से वागर्थका पहला अंक निकाला तब मैं वाराणसी में था. वागर्थ का पहला अंक जैसे कोंपल की तरह सुगंध से भरा था. याद आता है,उसके पहले अंक में ज्ञानेंद्रपति की कविताएं थीं . शायद दिनांत पर आलूऔर मानव बमआदि. सभी स्‍तंभ सुचिंतित आयोजना से भरे हुए दिखते थे. कोलकाता में अरसे बाद फिर एक पत्रिका ने आंखें खोली थीं. पूरे देश के लेखक उससे जुड़ने लगे थे और परिषद की ख्‍याति दूर दूर तक पहुंचने लगी थी. वहां वे लगभग सात बरस रहे.

प्रभाकर श्रोत्रिय से मिलना साहित्यिक परंपरा और आधुनिक विमर्श के लिए सतत जिज्ञासु एक ऐसे व्यक्ति से मिलना था, जिसके पास भाषा और अभिव्यक्ति की इतनी परतें थीं कि वे हर दिन नये रूप में,नये तरीके से खुलती थीं. निर्बंध हँसी उनके स्वभाव का हिस्सा थी जो अवसाद से आकुल मन को भी अपने ठहाकों की बारिश से नहला दे. एक दुर्लभ कवि मन के होते हुए भी आलोचक के भाग्य का वरण कर उन्होंने हिन्दी कविता को जिस सह्मदयता से दुलारा है और हिंदी जगत को जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं, वे आलोचक की सदाशयता का प्रमाण हैं. अक्षराऔर साक्षात्कारके संपादक के रूप में उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता के नये मानक स्थापित किये तो सारिका,दिनमान,धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी लोकप्रिय व्यावसायिक पत्रिकाओं के बंद होने के बाद व्याप्त एक लंबे साहित्यिक सन्नाटे के बीच वागर्थएक ऐसी पत्रिका का पुनर्भव था,जिसने देश भर में फैले पाठकों की साहित्यिक और बौद्धिक भूख फिर जगा दी. श्रोत्रिय के संपादकीयों ने एक ऐसी परंपरा की लीक खींची,जिसका निर्वाह आज कुछ ही पत्रिकाएँ कर रही हैं. व्यावसायिक और अत्यंत लघु पत्रिकाओं के बीच की कड़ी के रूप में वागर्थकी यश:काया को रचने का श्रेय श्रोत्रिय को ही जाता है. इस बीच उन्होंने वागर्थ  के  अनेक  दीर्घजीवी विशेषांक निकाले जिनमें नयी शती के भविष्यपर केंद्रित अंक को देश भर में खासी सराहना मिली . इसी तरह आगे चल कर नया ज्ञानोदयका पानी पर निकला अंक बेजोड़ है.

श्रोत्रिय एक जाने-माने आलोचक, नाटककार व निबंधकार हैं. किन्तु जब कोलकाता के साहित्यिक आयोजनों में उनका परिचय वागर्थके संपादक के रूप में दिया जाता तो उन्हें इसका मलाल अवश्य होता. पर वागर्थके सपने के लिए उन्हें यह भी स्वीकार्य था. वागर्थमें उन्होंने अपने समय के प्रतिष्ठित लेखकों-कवियों से लेकर युवतर रचनाकारों को भी बहुमान देकर छापा. किसी विचारधारा अथवा खेमे की लीक का अनुसरण न कर वागर्थ को वे सर्वसमावेशी बनाये रखने के लिए प्रतिश्रुत रहे. अपने समय के ज्वलंत मसलों पर तीखे किन्तु संतुलित संपादकीय लिखे और साहित्यिक व कलात्मक सृजन दोनों को पड़ोस में लाने का गंभीर उपक्रम किया. वे मार्च 2002 तक वागर्थ के संपादन और भारतीय भाषा परिषद के निदेशक पद से जुड़े रहे. श्रोत्रिय जी की एक अकेली निष्ठा ने वागर्थको जिस वैविध्य से संस्कारित किया, उससे यह हिंदी जगत की निश्चय ही एक बहुवस्तुस्पर्शी पत्रिका बन गयी थी. कभी हिंदी पत्रकारिता का गढ़ रहे कलकत्ता में वागर्थको छोड़कर अन्य कोई ऐसी पत्रिका नहीं थी, जिसे वास्तव में पाठकों की पत्रिका का दर्जा दिया जा सके. जिस साहित्यिक लगाव और समस्त विधाओं के प्रति समादर-भाव से उन्होंने वागर्थकी प्राण प्रतिष्ठा की, वह आज भी उनकी याद दिलाती है. उनके जीवन में सर्वाधिक दुविधा के दिन कोलकाता के थे . वागर्थछोड़ते वक्‍त वे वेदना में थे. वे कहते थे, ‘’वागर्थ का प्रकाशन शुरू से ही बड़े संघर्ष और अंतर्विरोधों से घिरा रहा है. इसके चलते मैंने अपनी बहुत तरह से बलि दी है. संस्थान में रहने में मैंने कई बार असुविधा अनुभव की लेकिन वागर्थमें ही मेरी जान अँटकी थी. कितनी वेदना से उन्‍होंने कहा था, ‘’बाजारवाद बलि देना नहीं,लेना जानता है, परन्तु कभी-कभी किसी की बलि से कोई महत्वपूर्ण चीज़ बच भी जाती है.‘’

कोलकाता में वे मेरे संरक्षक जैसे थे. कितनी बार रात में उन्‍होंने अपने संपादकीय फोन पर सुनाए हैं. एक बार उनसे जानना चाहा कि वे लेखन की ओर कैसे मुड़े तो जो बातें बताईं उनसे मन को तनिक ग्‍लानि भी हुई कि कैसा सवाल पूछ लिया. उन्‍होंने बताया,  "गरीब होना और अनाथ होना शायद बचपन या किशोर काल की सबसे बड़ी विपदा है. पिताजी के निधन के समय 12 साल का रहा हूँगा. वे संस्कृत के अत्यंत गंभीर-प्रतिष्ठित विद्वान थे,स्वाभिमानी, असंग्रही. तो उनका जाना एक साथ अनाथ भी बना गया और गरीब भी. दो बड़े भाई थे, वे भी तब पढ़ ही रहे थे. माँ और मैं साथ थे. गरीबी की चरम सीमा क्या होती है, तभी पहचानी. परन्तु मैं आपसे यह क्यों कह रहा हूँ? कविताएँ अगर तभी से लिखता रहा तो मैं इसे इस परिवेश से, दबाव से जोड़ूँ,यह ठीक नहीं लगता. वह सहज वृत्ति के रूप में आई. बड़े-बुजुर्ग सराहते थे तो बल मिलता था. डॉ.कैलासनाथ काटजू तब भारत के गृहमंत्री थे, वे जावरा के ही थे. उन्हें कविता सुनाई, वे खुश हुए,उन्होंने अपने पास से दस रुपये महीना छात्रवृत्ति दी, यह दिल्ली से आती रही, लेकिन कैसे कहूँ कि कविता के कारण यह हुआ,एक गरीब बालक की मदद भी तो कारण हो सकता है. दसवीं क्लास में ही नौकरी कर ली प्राथमिक विद्यालय में. कई-कई काम एक साथ. नौकरी-अध्ययन प्राय: साथ चले. कविता किन अज्ञात दबावों या धक्कों से जन्मी, इसकी कोई स्मृति मुझे नहीं है, हाँ, भीतर कहीं ये रहे हों तो कह नहीं सकता. लेकिन गद्य की ओर आना तो तात्कालिक दबाव ही था. अध्ययन का क्षेत्र गद्य माँगता था, इसलिए कविता की तन्मयता और एक अलग मानसिकता में बने रहना मेरी परिस्थितियों के विपरीत था. और शायद गद्य में ही कविता को आश्रय भी मिल सकता था और एक खोई हुई मानसिकता से भी मुक्ति भी. संभवत: जीवन के वास्तविक संघर्षों के साथ खड़े रह पाने का भी यह रचनात्मक उपाय था. गद्य लिखते-लिखते पद्य छूट गया और गद्य में पूरी सजगता के साथ उपस्थित रह पाना मन को रुचिकर भी लगने लगा. रचनाकारों की सराहना या रचनाओं की सराहना से गद्य का दौर शुरू हुआ, जो बाद में आलोचनात्मक दृष्टि में विकसित हुआ. लेकिन यहाँ पहली बार लगा कि आत्माभिव्यक्ति अब किसी दूसरे के सहारे की जा रही है. तो क्या आलोचना पराश्रयी विधा है? क्या यह रचना का उपोत्पादन है? क्या यह साहित्य के क्षेत्र में दूसरे दर्ज़े की विधा है? शुरू में शायद ही ये सवाल पैदा हुए होंगे पर ये प्रश्न बाद में उभरे और लगातार ज्यादा गंभीर होते गए. मैं नहीं कहता कि मैंने इनका समाधान पा लिया है,पर अब ये गंभीर नहीं रहे. "

एक बार उनसे पूछा,पहली रचना के प्रकाशन का सुख कैसा होता है. इस निजी अनुभव को किस तरह व्‍यक्‍त करेंगे. वे बोले ,बस ऐसा ही लगता है जैसे लंबी दौड़ में जीतने पर खुशी से पहले थकान और टूटन होती है1 हाँ एक संतोष मिलता है . पहली से लगा कर आज तक पुस्तक लिखने में मैंने इतना परिश्रम किया कि लगभग हर किताब लिखने के तुरन्त बाद लंबी बीमारी ने मुझे आ घेरा. तो पुस्तक आ जाने पर एक राहत मिलती रही, तब से अब तक. माघ ने लिखा है---क्लेश: फले नहि पुनर्नवतां विधत्ते. क्लेश का फल मिल जाए तो ताज़गी आ जाती है---यही ताजगी आती रही-नई पुस्तक लिखने के लिए फिर से मन तैयार और उत्साहित हुआ. कभी कोई ऐसी विलक्षण खुशी हुई हो--- पहली या दूसरी या अन्य पुस्तक के प्रकाशन के बाद नहीं लगता. इतनी किताबें छपीं-कभी किसी का लोकार्पण या उत्सव मनाने का जी नहीं हुआ. लगा जैसे एक काम से मुक्त हुआ---लेकिन उसके बाद लगातार, एक नया अभाव घेरता रहा. शायद यही अगली पुस्तकें लिखवाता रहा. यह सच है कि अब तक उनकी अनेक किताबें निकलीं पर लोकार्पणके लिए उन्‍हें कोई समारोह इत्‍यादि करने की जरूरत नही महसूस हुई. हां एक बार निबंधों की एक पुस्‍तक आई तो उसका लोकार्पण विश्‍व पुस्‍तक मेले में मेरे अनुरोध पर किताबघर प्रकाशन मंडप में सुपरिचित हिंदी लेखकों केदारनाथ सिंह,कमलेश्वर,अशोक वाजपेयी,पद्मा सचदेव के सान्निध्य में जाने-माने कवि कुँवर नारायणने किया.

पर सच्‍चा सुख किसी पुस्‍तक के प्रकाशन का तब मिला जब उनकी किताब 'प्रसाद का साहित्‍य: प्रेमतात्‍विक दृष्‍टि'रामलाल पुरी ने आत्‍माराम एंड संस से छापी. वे बताते हैं,  ‘’मई या जून की दिल्ली की गर्मी में पुस्तक लेकर दिल्‍ली गया. एक दो प्रतिष्ठित लेखकों के सिफारिशी पत्र भी थे. सात दिन तक प्रकाशकों के यहाँ भटकता रहा. किसी ने पूछा-कितने पैसे देंगे. किसी ने पूछा-पुस्तक कितनी बिकवा सकते हैं. किसी ने कहा-पाठ¬क्रम में लगवा सकेंगे इसे या हमारी अन्य पुस्तकों को.. आदि. निराश वापस लौटने के लिए कश्मीरी गेट बस स्टाप परखड़ा था. झोले में पुस्तक थी. सहसा सामने बहुत बड़े बोर्ड पर निगाह गई-आत्माराम एंड संस,सोचा चलो यहाँ भी किस्मत आजमा लेते हैं. पहुँचा. बहुत बड़े काँच के केबिन में वयोवृद्ध रामलाल पुरी जी बैठे थे. मैंने आने का कारण बताया. पुस्तक बताई. उन्होंने स्नेह से बिठाया. कोकाकोला पिलवाया. सारी बातें सुनीं-पुस्तक के विषय में. फिर कहा- एक फार्म देते हैं, भर दीजिए. इसमें सब कुछ लिखदीजिए. हम आपका शोध-प्रबंध दो विशेषज्ञों से पढ़वाएँगे. उन्हें हम पारिश्रमिक देते हैं. उनसे स्वीकृत होने पर हमारे विक्रय विशेषज्ञ इसकी जाँच करेंगे कि पुस्तक छापना ठीक होगा या नहीं. अगर सब सहमत होंगे तो पुस्तक अवश्य छपेगी. हम एक माह में सूचना देंगे. मुझे जीवन की सबसे ज्यादा खुशी हुई कि पुस्तक की जाँच होने पर यह अगर छपी तो अपने गुणों से छपेगी. मुझे विश्वास था कि हर परीक्षा में यह खरी उतरेगी. किताब किसी सिफारिश या प्रलोभन में न छपकर,इतने बड़े (उस समय के सबसे बड़े) प्रकाशक द्वारा परीक्षण करके यदि छापी जाए तो पुस्तक का इससे बड़ा सौभाग्य नहीं हो सकता. दो माह बाद सूचना आई. पुस्तक छपेगी. अनुबंध पत्र भी. आप इससे मेरी प्रसन्नता का अनुमान लगा सकते हैं.‘’

भोपाल में रहते हुए उन्‍हें दुष्यंत कुमार, शरद जोशी, शानी, अनिल कुमार, रमेशचंद्रशाह, अशोक वाजपेयी, ज्योत्स्ना मिलन, रमेशदवे, सोमदत्त, भगवत रावतआदि अनेक लेखकों की संगत में रहने का अवसर मिला. बीच में त्रिलोचन जी आ जाते थे. रात के दो दो बजे तक उनके साथ घूमना-बतियाना होता. विदिशा से विजय बहादुर सिंहभी आ जाते, बीच में बालकवि बैरागी भी आते रहते. राजेश जोशी तब तेजी से उभर रहे थे. सुदीप बैनर्जी,चंद्रकांत देवताले,धनंजय वर्मा भी आते रहते. लक्ष्मीकांत वैष्णव भी वहाँ आ गये थे, वेणु गोपाल भी कुछ समय के लिए आए. लेखकों ही नहींपत्रकारों में रामेश्वर संगीत,यशवंत अरगरे,कैलाशचंद्र पंत,ध्यान सिंह तोमर राजा व फजल ताबिशआदि अनेक साथी थे. बुजुर्गों में डॉ.प्रभुदयालु अग्निहोत्री,अम्बाप्रसाद श्रीवास्तवभी थे. भोपाल में उन्‍होंने एक गोष्ठी समवेतचलाई थी. कोई चंदा नहीं,कोई पदाधिकारी नहीं---एक सूचना पर सभी लोग आ जाते. गोष्ठियाँ होतीं. चाय भी खुद के खर्चे से रंगमहल टाकीज़ के कैंटीन पर पीते. बाहर से कभी डॉ.नगेन्द्र, कभी श्रीकांत वर्मा,कभी हरिशंकर परसाई,कभी अली सरदार जाफरीआदि आते तो उन्हें भी गोष्ठी में विशेष आमंत्रित किया जाता. बाद में भी कई नए और प्रखर लेखकों से भेंट हुई. कला,साहित्य परिषद के कारण वहाँ देश भर के लेखकों की आवाजाही होती. यों उनके अनेक सुपरिचित थे पर अंतरंग मित्रों में रमेश दवे, कैलाशचंद्र पंत और स्व.रामेश्वर संगीत प्रभाकर जी को बहुत महत्‍व देते थे.

प्रभाकर जी अध्‍ययनशील आलोचक थे. आलोचना के लिए उन्‍होंने कविता को केंद्र में रखा. शायद उनका अपना कवि मन काव्‍यालोचन में ही सुख पाता था लिहाजा उनसे जानना चाहा कि कवि और कविता को लेकर उनकी प्राथमिकता क्या होती है?वे बोले, ‘’श्रेष्ठ कवि का चयन मैं वाद को सामने रख कर नहीं,कविता की श्रेष्ठता को सामने रख कर करता हूँ. काव्य मूल्य दरअसल अपने उच्चतर अर्थों में हमारे जीवन मूल्य की संवेदनात्मक और मार्मिक प्रतीति है. आत्म साक्षात्कार है. शब्द और अर्थ के गहरे संयोजन में कविता संवेदन अंतर्दृष्टि, सौंदर्य-बोध, रस बोध, कला समय और समाज बोध उत्पन्न करती है जो हमारे सामने हर समय नए संदर्भों में नवीनता प्राप्त करता है. यही कारण है कि कविता समय और देश की भूमि को अतिक्रांत करती है. कविता के बारे में, उसके हर पहलू को लेकर मैंने अपनी अनेक पुस्तकों में विस्तार से चर्चा की है. बातचीत में उन्हें समेट पाना संभव नहीं है. बड़ा कवि और बड़ी कविता अपनी अन्विति में कथ्य और रूप को हमारे भीतर नवीन से नवीनतर अर्थ में उद्घाटित करती है. कविता की अंतर्क्रिया जितनी जटिल होती है, उतनी ही जटिल विवेचन प्रक्रिया भी है. इसलिए कोई एक परिभाषा या प्रतिमान अंतिम नहीं हैं. कविता हमारी शक्ति भी है और हमारा सौंदर्य भी,वह हमारी चिंता भी है और अनुभूति भी.

मेघदूत के रम्य अनुशीलन (मेघदूत: एक अंतर्यात्रा) ने उनकी लेखनी को बहुत यश दिया है. एक जगह उन्‍होंने कहा भी है कि जब तक किसी रचना का अपना विराट ब्राहृांड नहीं होता,तब तक उसे बड़ी रचना होने का गौरव नहीं मिल सकता. यक्ष को सर्वहारा कहते हुए उनका आस्वादक मन तो यहाँ तक पहुँच जाता है कि मेघ ग्राम यात्रा न करता और सूखी धरती को अंकुरित न करता तो आपके सारे हँसिये बेकार हो जाते. स्पष्ट है कि मेघदूत के सर्जनात्मक अनुशीलन के समय वे व्यर्थ में एक पेड़ कटवा देने के अपराध-बोध से भर उठे थे, पर फिर भी कहते थे, ‘मेघदूत पर लिखना सर्वथा एक नई भाव-भाषा भूमि पर पैर रखना था.

आज आए दिन कविता के प्रतिमान गढ़ने और बदलने की बातें होती हैं. मैं उनसे पूछता हूँ,क्‍या आलोचक को आलोचना को सर्जनात्मक आस्वाद में बदल देने का आकांक्षी होना चाहिए? वे बोले, तो क्या आलोचना को रूखा-सूखा, मस्तिष्क का व्यायाम होना चाहिए? आखिर आलोचना भी साहित्य की एक विधा है. कविराज विश्वनाथ ने लिखा है कि कविता के जो उद्देश्य होते हैं, वे इस साहित्य शास्त्र या आलोचना के होते हैं. सिद्धांतों के उदाहरण स्वरूप संस्कृत आचार्यों ने काव्य से प्राय: सरस पंक्तियाँ चुन कर रखीं, इसीलिए कि वे शास्त्र को सरस बनाना चाहते थे. कविता और आलोचना अपने आस्वादनीय प्रयोजन को भिन्न रीति से पूरा करती हैं. कविता के मर्म में पैठकर आलोचना उसकी आस्वादनीयता को अधिक संप्रेषणीय बनाती है, वह भाषा की परतें खोलती है, अनुभूति या कथ्य को तत्वत: स्पष्ट करती है, कविता में निहित अंत:अर्थ और आयामों को अपनी दृष्टि से जाँचती-परखती है और उन विसंगतियों पर भी उँगली रखती है जो उसकी समझ से कविता को नुकसान पहुँचाती हैं. कविता और आलोचना दोनों ही पाठक को निवेदित हैं. कवि: करोति काव्यानि रसं जानाति पंडित:. कवि रचना करता है, उसका रस या मर्म पंडित या आलोचक समझता है और अपनी समझ से पाठक की समझ का विस्तार करता है.

वे बोले,जहां तक आलोचना के प्रतिमानों का सवाल है वे कविता से ही जन्म लेते हैं. रचना को जो तत्व सौंदर्य प्रदान करते हैं और मार्मिक कौशल से अपने समय, सत्य और जीवनार्थ को व्यक्त करने में सहायक होते हैं, वे ही आलोचना के प्रतिमान बनते हैं, इसे वह(आलोचना) औचित्य और समय की कसौटी पर कसती है और तमाम ज्ञान बिन्दुओं से उसे विशद बनाती है. इसका विस्तृत विवेचन मैंने अपनी पुस्तक कविता की तीसरी आँख में किया है.

प्रभाकर श्रोत्रिय की आलोचना विचारधारा की बंदी  न थी,इसलिए जिस निष्‍ठा से उन्‍होंने प्रसाद और नरेश मेहता पर लिखा,उसी निष्‍ठा से वे मुक्‍तिबोध और त्रिलोचन के प्रशंसक थे. वे कहते थे कि ज्‍यादातर आलोचनाएँ विचारधारा का ही नहीं,संगठनों का मुँह जोहते हुए की जाती हैं. इस तरह ये विचार धारा के प्रति भी ईमानदार नहीं होतीं. वे विचारधाराओं को बंदीगृह मानते थे क्‍योंकि वे लेखक की स्वायत्तता और उसके विवेकसंगत चिंतन को, सब जगह से श्रेष्ठ के चयन के उसके अधिकार को छीनती हैं. जब कि सर्जक की दृष्टि तो उस तथ्य और यथार्थ के पार भी पहुँचती है, जहाँ विचारधाराओं की पहुँच नहीं होती. वे मानते थे कि विचारधारा  की एकांतिकता लेखक से उसका आकाश छीनती है.उनका मानना था कि मुक्तिबोध ने लेखक की जिस राजनीति की चर्चा की है, वह चालू राजनीति नहीं है, उसके गहरे मानवीय अभिप्राय हैं. इसलिए निश्चय ही आलोचना को हर वक्त आत्म-परीक्षण से गुजरना चाहिए. इसके बिना वह न सिर्फ जड़ हो जाती है, बल्कि सड़ जाती है.

वे हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस कथन के हामी थे कि दुर्वार काल स्रोत सबको बहा देगा. वही बचेगा जिसे मनुष्य के हृदय में आश्रय प्राप्त होगा. तो ऐसी कौन सी कृतियां होंगी,मेरे पूछने पर वे बोले,सबसे पहले रामचरित मानस का नाम लूँगा. इसके बाद मुझे कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतल और मेघदूत प्रिय है. महाभारत और वाल्मीकि रामायण विराट् और अद्भुत सर्जनाएँ हैं. संस्कृत की अनेक कृतियाँ मुझे कई कारणों से प्रिय हैं, जैसे हर्षचरित,उत्तर रामचरित ,मृच्छकटिक,कादम्बरी,मुद्राराक्षस,किरातार्जुनीयम्, आदि. अपभ्रंश की अनेक रचनाओं और रचनाओं के करुण पक्ष ने बहुत छुआ है.हिंदी में मुझे कामायनी और गोदान विशेष प्रिय हैं,उर्दू की गालिब,फिराक समेत कई शायर औरशायरी,भारतीय भाषाओं की और विश्व भाषाओं की अनेक कृतियाँ पढीं,प्रिय लगीं जैसे अन्ना केरेनिना,माँ,गणदेवता. टालस्टाय, दोस्तोव्स्की, सोल्जेनित्सीन वगैरह की कृतियाँ. आत्मकथाओं में गाँधी की आत्म कथा. यह सूची लंबी है. यदि हिंदी की कृतियों और रचनाकारों के नाम लूँ तब तो यह सूची बेहद लंबी हो जाएगी. फिर भी आचार्य शुक्ल, निराला,आचार्य द्विवेदी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जैनेन्द्र, महादेवी, निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, नरेशमेहता, शमशेर, भारती आदि के नाम न लूँ तो गुस्ताखी हो जाएगी. आखिर अब तक किया ही क्या है---लिखने-पढ़ने के अलावा. किस वक्त कौन-सी कृति, कौन-सी उक्ति मन पर छा जाती है, क्या कहा जाए.

वे अपने अनेक समकालीनों के निकट रहे पर उनमें सुमन जी,नरेश मेहता और जैनेन्‍द्र जी के साथ उनकी अनेक यादें जुड़ी थीं. सुमन जी पर उन्‍होंने शोध किया था. उनका नाटक इला आया तो सुमन जी ने सोचा,प्रभाकर आलोचक हैं तो नाटक भला कैसा लिखा होगा पर एक बार पढा तो अनेक अवसरों पर उसकी चर्चा करते रहे. इसी तरह मेघदूत पर प्रभाकर जी की किताब मेघदूत:एक अंतर्यात्रा पढ कर उन्‍होंने उसे ऊँचे आसन पर प्रतिष्‍ठित किया जबकि कालिदास के इस नाटक पर न जाने कितनी टीकाएं और व्‍याख्‍याएं लिखी जा चुकी हैं. नरेश जी से उनके कितने घने संबंध बने पर उनकी 65वीं वर्षगांठ पर उन्‍होंने उनकी पुस्‍तक उत्‍सवापर कुछ तीखा आलेख पढा तो महिमा जी भले थोडा क्रुद्ध हुईं पर नरेश जी ने माहौल को थोडी ही देर में हल्‍का बना कर उसे  सहज बना दिया.

जैनेन्द्र जी के साथ तो वे एक अत्‍यंत रोचक प्रसंग सुनाते हैं. भोपाल, भारत भवन में वे जैनेन्द्र प्रसंगमें आए थे. अपने अनुज लेखकों की वे हमेशा खोज-खबर रखते थे. प्रभाकर जी भारत भवन नहीं जाते थे. सो वहाँ कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वे प्रभाकर जी और रमेश दवे जी के घर आए. दो-एक लोग साथ थे. जैनेन्द्र जी के मन में कोई बात घुट रही थी. आते ही उन्होंने उनसे पूछा बताओ,रामचंद्र शुक्ल कैसे कवि थे? प्रभाकर जी ने कहा- उनके कवि होने का क्या सवाल है? एक कविता पुस्तक यूँ ही निकली है. जैनेन्द्र जी ने कहा-हाँ मैं भी यही कहता हूँ, आलोचक सर्जक नहीं हो सकता. शुक्ल जी निराला की कविता को भले ही उनसे सौ गुना ज्यादा समझते हों, वे कवि नहीं हो सकते. उन्‍होंने कहा, बाबू जी, सर्जक होने के लिए कवि होना जरूरी नहीं है, सब की अपनी अपनी विधा होती है. आलोचक  भी सर्जक हो सकता है. जैनेन्द्र जी ने फिर जोर दिया-- तो उन्‍होंने हिम्मत करके एक तीखा सवाल दागा. अच्छा, बाबू जी बताइए, आप तो सर्जक हैं न. आप कविता लिखेंगे तो कैसी लिखेंगे. जैनेन्द्र क्षण-भर मेरी ओर देखते रहे. फिर जैसे कमान ढीली कर बोले, हाँ,सो तो है. वे बोले, ‘’एक बड़े-बुजुर्ग लेखक की यह महत्ता है. वरना जैनेन्द्र जी तर्क के अक्षय भंडार थे. वे कोई भी तर्क देकर निरुत्तर कर सकते थे पर उन्होंने अनुज लेखक का मान रखा.‘’

पक्षाघात के समय दिल्ली में वे उनके घर गये. पलंग पर लेटे थे. देखते ही जैसे आँखों में चमक आई और कुछ तरलता दिखी. उन्होंने प्रभाकर जी का पंजा अपने बाएँ हाथ में लिया. पकड़ गज़ब की सख्त थी---दोनों हाथों का बल जैसे एक हाथ में आ गया था. उनका हाथ बतियाता-सा लगा. हाथ भी इतना बोल सकता है यह उन्‍होंने उसी दिन जाना. गों.. गों..जैसी ध्वनि से उन्होंने अपने बेटे से कुछ कहा, उसने कहा, हाँ हाँ चाय आ रही है.... वे  बोले,’’ऐसी हालत में भी अतिथि के स्वागत की ऐसी चिंता ! ‘’

त्रिलोचन जी के साथ प्रभाकर जी का भोपाल की सड़कों पर रात को दो-दो बजे तक घूमना होता था, जब वे हिंदी ग्रंथ अकादमी में काम करते थे. वे बताते थे, ‘’त्रिलोचन जी मेरे लिए हर मर्ज की दवा थे. दुनिया के जिस विषय को छेड़ दो, चाहे विज्ञान हो या पर्यावरण-- वे घंटों बोलते रहते सप्रमाण. कभी तुलसी और निराला का प्रसंग निकल आए तो बात ही क्या. परन्तु जब भोपाल में घनघोर ठंड पड़ रही थी एक दम सुबह-सुबह घंटी बजी. मैं चौंका, इस ठंड में इतनी सुबह कौन. नींद से उठ कर थोड़ा अस्त-व्यस्त आया तो दरवाजे  की जाली से देखा बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन. अरे,इतनी सुबह. मैं स्तब्ध. फिर अपने को सहेजा. भीतर बिठाया और चाय आदि के उपक्रम के बारे में पत्नी को खबर करना ही चाहता था कि बाबा बोले, चाकू लाओ. मैं फिर चौंका. सुबह-सुबह, दो बुजुर्ग कवि चल कर आए और अब ये चाकू माँग रहे हैं. मुझे  भौंचक्का देख कर बाबा ने उसी कड़कती आवाज में कहा, अमरूद काटेंगे और उन्होंने अपने जेब से अमरूद निकाले. कहने लगे- सुबह-सुबह अमरूद खाने से दमा ठीक होता है...’’

प्रभाकर जी के पास अज्ञेय,  पंत,  महादेवी,  दुष्यंत,  भारती,  चंद्रकांत बांदिबडेकर, शिवप्रसाद सिंह, श्रीराम लागू, कृष्णा सोबती, राजी सेठ, अवध नारायण मुद्गल, चित्रा मुद्गल आदि-आदि के ढेरों प्रसंग थे  जिस पर एक पुस्‍तक ही बन जाए. शायद इस बारे में उन्‍होंने कहीं कुछ लिख भी रखा हो. पर एक  प्रसंग तो अविस्‍मरणीय है. शरद जोशी की पत्नी इरफाना जी शायद एम.ए. कर रही थीं. उन्होंने प्रसाद विशेष कवि लिया था या प्रसाद पढ़ना चाहती थीं. शरद जी के घर आए दिन जाना होता था. एक दिन उन्होंने प्रभाकर जी से पूछा, ‘’प्रसाद पर तो तुमने पीएच.डी की है. इरफाना को प्रसाद पढ़ा दो.‘’फिर पूछा, ‘’तुम्हारा टापिक क्या था?’’ उन्‍होंने कहा, ‘’प्रसाद साहित्य में प्रेम तत्व.‘’शरद जी कहने लगे, ‘’ऐसा करो, प्रसाद तुम पढ़ा दो, प्रेम तत्व मैं पढ़ा दूँगा.‘’और फिर प्रभाकार जी का जोर का ठहाका . आज सोचता हूं कि कितने मनोविनोदी थे वे. आज जरा सी बात पर लोग मुंह फुला लेते हैं,आलोचक तो अपनी ठसक में ही रहता है,पर प्रभाकर जी ने अपने पर अपने आलोचक को जरा भी हावी नही होने दिया . एक सरल तरल व्‍यक्‍तित्‍व वे हमेशा बने रहे.

'सुमनः मनुष्य और स्रष्टा', 'प्रसाद को साहित्यः प्रेमतात्विक दृष्टि', 'कविता की तीसरी आँख', 'संवाद', 'कालयात्री है कविता', 'रचना एक यातना है', 'अतीत के हंसः मैथिलीशरण गुप्त', जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता'. 'मेघदूतः एक अंतयात्रा, 'शमशेर बहादूर सिंह', ‘नरेश मेहता’ 'मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे-आगे', से लेकर कवि-परम्‍परातक हिंदी में उन्‍होंने आलोचना की एक सुगठित शास्‍त्रीय परंपरा तैयार की. उनके लिखे नाटक इला,फिर से जहांपनाहसॉंच कहूं तो  जीवन,इतिहास और मिथक में एक नए कथ्‍य के जरिए प्रवेश करते हैं. सौंदर्य का तात्पर्य', 'समय का विवेक', 'समय समाज साहित्य', 'हिन्दी - कल आज और कल',शाश्‍वतोयंप्रजा का अमूर्तनमें उनका निबंधकार एक चिंतक की भूमिका में दिखता है तो भारत में महाभारतउनके जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक के रूप में पहचानी गयी,जिसमें उन्‍होंने अपने वैचारिक जीवन की पूरी पूँजी लगा दी.उनके निबंधों के बारे में संत साहित्‍य विशेषज्ञ शुकदेव सिंह का कहना था कि उनके निबंध(आज व्यक्तिवादी चित्तवृत्ति को केंद्र में लेकर लिखे जा रहे संपादकीयों के सापेक्ष)निबंध के विकल्प के रूप में एक सात्विक विधा का आविष्कार हैं.

  
मध्यप्रदेश के रतलाम जिले की जावरा तहसील में 19 दिसंबर,1938 को जन्मे श्रोत्रिय जब बारह वर्ष के ही थे तभी पिताजी की मृत्यु हो गयी. वे संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान और एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे. उनके जाने से श्रोत्रिय और उनके दोनों बड़े भाइयों के सिर से एक ऐसा आश्रय उठ गया जिसकी पितृ-वत्सल छाँह में उनका व्यक्तित्व आकार पा रहा था. गरीबी की चरम सीमा क्या होती है, यह श्रोत्रिय को सदैव याद रही. तभी उनमें कविता के प्रति ललक जागी थी और ऊपर उन्‍होंने कहा ही है, जब जावरा के ही डॉ.कैलाशनाथ काटजू,जो उन दिनों भारत के गृह मंत्री थे, को उन्होंने अपनी कविता सुनाई तो वे बेहद खुश हुए और श्रोत्रिय को दस रूपये महीने की छात्रवृत्ति दी जो दिल्ली से आती रही. किन्तु अभावों के दिन केवल छात्रवृत्ति से नहीं कटते, उसके लिए अपने कंधे मजबूत करने होते हैं. लिहाजा दसवीं कक्षा में पढ़ते हुए ही उन्होंने एक प्राथमिक विद्यालय में नौकरी कर ली और फिर नौकरी व पढ़ाई साथ साथ चले. क ख ग से लेकर डिग्री कक्षाओं तक श्रोत्रिय ने अध्यापन कार्य किया तथा बाद में हमीदिया महाविद्यालय,भोपाल में वे हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए. इस बीच उन्होंने पीएच.डी और डी.लिट की उपाधियाँ भी हासिल कीं. उन दिनों श्रोत्रिय गद्य लेखन और आलोचना की ओर सक्रियता से उन्मुख थे,यहाँ तक कि उस जमाने की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके लेख देखे जा सकते थे, जिसकी सुगंध छिपी न रह सकी. मध्यप्रदेश साहित्य परिषद में खाली हुए सचिव के पद के लिए किसी ऐसे उपयुक्त व्यक्ति की तलाश मध्यप्रदेश सरकार को थी जो सचिव पद के साथ-साथ साक्षात्कार का भी संपादन संभाल सके. शासन से इसके लिए बुलावा आने पर उन्होंने संकोच के साथ प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के सचिव की बागडोर सँभाली तथा पहली बार अध्यापन के अनुशीलनपूर्ण वातावरण से निकल कर साहित्य की मानक पत्रिका साक्षात्कार के संपादन जुड़े जो उसके पहले सुप्रसिद्ध कथाकार शानी के संपादन मे निकलती आ रही थी. सरल-ह्मदय और अध्यापक डॉ.श्रोत्रिय के लिए वे बेहद कठिनाई और चुनौतियों के दिन थे. 

शानी के बाद साक्षात्कार का संपादन कोई हँसी-खेल नहीं था. श्रोत्रिय पत्रकारिता की दुनिया और साहित्यक संपर्कों के मामले में निपट अज्ञातकुलशील थे. संपादकीय बस्ते रचनाओं से खाली थे. महीनो तक रचनाकारों से उन्हें कोई सहयोग भी नहीं मिला, लिहाजा साक्षात्कारका प्रकाशन लंबित रखना पड़ा. लगभग छह महीने की तपश्चर्या और विरोधों से सामंजस्य बिठाते हुए श्रोत्रिय ने साक्षात्कार का प्रकाशन पुन: शुरू किया और पहले ही अंक की आभा ने उसे लेखकों-कवियों की पलकों पर बिठा दिया. उन्होंने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सचिव पद पर रहते हुए मध्यप्रदेश कला परिषद के वर्चस्व को भी खत्म किया,जिसका प्रभामंडल उन दिनों साहित्य परिषद पर काफी हावी हुआ करता था. अपने सचिव-काल में श्रोत्रिय ने साक्षात्कारको यश के शिखर पर पहुंचाया. साक्षात्कारके संपादन से विरत होने के बाद वे फिर अध्यापन से जुड़े और कुछ अंतराल पर मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा परिषद की पत्रिका अक्षरानिकाली. तब श्री बैजनाथ प्रसाद दुबे परिषद के सचिव हुआ करते थे. किन्तु बाद में जब लेखकों को पारिश्रमिक देने की कोई व्यवस्था न रह गई तो उन्होंने अक्षराका संपादन छोड़ दिया. तीन वर्ष तक अक्षराके बंद रहने के बाद फिर श्रोत्रिय ने ही अक्षराका संपादन हाथ में लिया.

मान-सम्‍मान तो प्रभाकर जी को बहुतेरे मिले पर साहित्‍यिक पुरस्‍कार बहुत कम----न साहित्‍य अकादेमी,न व्‍यास सम्‍मान,न भारत भारती,न साहित्‍य भूषण,न मूर्ति देवी,न शलाका,न शिखर सम्‍मान,न कबीर सम्‍मान,न मोदी सम्‍मान,न गोयनका सम्‍मान,न केंद्रीय हिंदी संस्‍थान सम्‍मान ही--- पूछने का मन होता है कि क्‍या वे इन पुरस्‍कारों के योग्‍य न थे ? आखिर क्‍या दिया इस प्रखर आलोचक को इस हिंदी समाज ने. आलोचना निबंध नाटक और संस्‍कृति को लेकर इतने अकूत काम जिसमें उनकीशाश्‍वतोयं,  भारत में महाभारतकवि परंपराजैसी तमाम कृतियां शामिल हों, उस विदग्‍ध,समावेशी आलोचक और सम्‍मोहक वक्‍ता का हिंदी समाज और संस्‍थाओं ने कैसा सम्‍मान किया है,यह हमारे सामने है. वे भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्‍य अकादेमी, भारत भवन, मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति विभाग तथा अनेक संस्‍थाओं के सदस्‍य रहे, जूरी में रहे, सबकी झोलियां पुरस्‍कारों सम्‍मानों से भरते रहे, पर उनकी अपनी झोली पुरस्‍कारों से खाली रही. हा धिक्.


उनके ठहाकों और मुक्त हँसी का अपना एक क्षितिज था. इससे उनके भीतर भी कहीं दुख जैसा किसी चीज का निवास है या नहीं यह पता नही चल पाता था. या फिर राजेश जोशी  के शब्दों में उन्‍हें भी बहुत सफाई से अपनी हँसी में अपने आँसू छिपा लेने की महारत हासिल थी?इस बात पर उनका कहना था, ‘’मेरे मनहूसपने,क्रोध और दुख को भी कुछ लोगों ने देखा होगा, जिन्हें मैं इनके सिवा कुछ दे नहीं सकता था. कुछ शायद घमंडी,औपचारिक व अंग्रेजी में फार्मल भी कहते होंगे. आपको ठहाके दिखे तो शुक्रगुज़ार हूँ. और जहाँ तक दुख की बात है तो वह कहाँ नहीं है. हमसे भी कई गुना दुखी लोग संसार में हैं, उनके आगे अपना दुख बहुत छोटा लगता है और शायद हास्यास्पद भी. मुझे लगता है,दुख को अपने में नहीं,दूसरों में देखने से ही रचना का बृहत् संवेदन-संसार बनता है.‘’

एक बार मैंने यों ही पूछ लिया था कि आपका अपना ही प्रिय स्तंभ है: यदि जीवन दुबारा जीने को मिले. इस संबंध में अपने को ही रख कर देखें तो?प्रभाकर जी कहने लगे, ‘’जो कर रहा हूँ वही सब करना, जिसके लिए एक जीवन बहुत छोटा पड़ता है. कई भाषाएँ सीखूँ यह भी चाहता हूँ. खैर, पता नहीं, अगली जिंदगी मिले या नहीं मिले, मिले तो कौन सी. जिस तरह काम करता रहा हूँ पूरी जिंदगी, उससे गधे की ही जिंदगी मिल गई तो?’’यह थे प्रभाकर जी. अपनी मुद्रा,अपनी वाचिकता,अपनी  ईमानदारी और अपनी मर्मस्‍पर्शिता व स्‍वाभिमान से उन्‍होंने अपनी शख्‍सियत में किसी को सेंध नहीं लगाने दी. वे अविजित रहे. दीनता और हीनता का रोना नहीं रोया. उन्‍हें याद करते हुए महावीरप्रसाद द्विवेदी की कही बात याद आती है. वे सरस्‍वतीके संपादक थे. रेलवे की बड़ी नौकरी छोड़ कर संपादन का काम सम्‍हाला था . सरस्‍वती के आखिरी संपादकीय में उन्‍होंने लिखा कि मुझ पर दुखों के पहाड़ टूटे किन्‍तु सरस्‍वतीके पन्‍नों पर  मैंने इसका रोना नहीं रोया.प्रभाकर जी ने यही लीक अपनाई. अक्षरा,साक्षात्‍कार,वागर्थ,नया ज्ञानोदयसमकालीन भारतीय साहित्‍यके माध्‍यम से उन्‍होंने खुद के साथ साथ सहयोगी लेखकों के स्‍वाभिमान और यश की रक्षा भी की . उनका माथा हीनता से झुकने नहीं दिया. जिस तरह का विवाद रवींद्र कालिया के जमाने में नया ज्ञानोदयके साथ बाद में हुआ,उसे देख कर वे सिर धुनते थे कि आखिर हिंदी के लेखकों संपादकों को क्‍या हो गया है?  
प्रभाकर श्रोत्रिय के व्‍यक्तित्‍व के अनेक आयाम हैं. सुधी आलोचक,समावेशी संपादक व प्रखर वक्‍ता तीनों रूपों में वे अद्वितीय रहे हैं. सच कहें तो सुगठित सौंदर्य के स्‍वामी प्रभाकर जी के व्यक्‍तित्‍व से स्‍वत्‍व की सुगंध आती थी. आलोचक के रूप में उन्‍होंने जयशंकर प्रसाद,शिवमंगल सिंह सुमन,मैथिलीशरण गुप्‍त, शमशेर व नरेश मेहता पर एक आधिकारिक आलोचक के रूप में लेखनी चलाई है तो संपादक के रूप में उन्‍होंने साहित्‍यिक पत्रकारिता की एक अलग ही लीक खींची. प्रभाकर जी ने नये रचनाकारों के हिमायती थे. ज्ञानपीठ से नए कवियों बोधिसत्‍व,प्रेमरंजन अनिमेष,अरुण देव,बसंत त्रिपाठी,संजय कुंदन व निर्मला पुतुल आदि की पुस्‍तकें छापीं तो उन पर बड़े लेखकों से ब्‍लर्ब लिखवाए. उन्‍हें  साहित्‍य की मुख्‍य धारा में प्रतिष्‍ठित करने का काम किया. उनकी भाषण कला बेजोड़ थी. वे पोडियम पर खड़े होते थे या मंच पर विराजमान तो लगता था,सरस्‍वती वहीं कहीं उनके आस पास ठिठक कर खड़ी हैं. 

पूरा माहौल उनके संबोधन से मुखरित हो उठता था. वे बोलते थे तो लगता था हमारी कवि-परंपरा का कोई निष्‍णात व शास्‍त्रज्ञ कवि बोल रहा है. उनकी भाषा में पांडित्‍य भी था,लालित्‍य भी. वे अपने संचालन से किसी भी समारोह को उत्‍सव बना देते थे. अपने संपादकीयों में वे एक ऐसे चिंतक के रूप में उभरे जो केवल कविता कहानी के आस्‍वादन में ही डूबा नहीं रहता बल्‍कि सामाजिक परिप्रेक्ष्‍य को एक विचारक के रूप में अवलोकित आकलित करता है. वे चले गए हैं तो लगता है मालवा के मौलश्री की सुगंध खो गयी है. एक व्‍यक्‍तित्‍व कहीं दूर क्षितिज के अंधकार में कहीं विलीन हो गया है.
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डॉ. ओम निश्‍चल
जी-1/506 ए
उत्‍तम नगर,नई दिल्‍ली-110059
फोन 8447289976 / 
मेल : omnishchal@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : वीरू सोनकर

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फोटो द्वारा Gordon Parks




























कला का अपने समय के यथार्थ से जटिल रिश्ता बनता है.
कविताएँ यथार्थ नहीं बनतीं वे कुछ ऐसा करती हैं कि यथार्थ और भी यथार्थ बन जाता है, वह और रौशन हो जाता और अनुभव के दायरे में आ जाता है.
  कलाओं से इकहरी सहजता की मांग नाजायज़ है, वे सदियों से अपने समय को लिखने की जद्दोजहद में मुब्तिला हैं, वे उसे लिखने के रोज़ नये पैतरें आज़माती हैं.

पिछली सदी को इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने ‘अतियों की सदी’ कहा, नई सदी तेज़ी से फैलते डिजिटल चित्रों और सूचनाओं की सदी है.
यह बड़े से बड़े सरोकारों के तेज़ी से हास्यास्पद होकर प्रतिक्रियावाद में बदल जाने की भी सदी है.
यहाँ स्याह से सफेद होता हर पल बेपर्दा है, इसलिए हर चीज अविश्वसनीय है, और एक मज़ाक है और यह एक उद्योग भी है.
यह आधुनिकता और उदारता के विलोम की भी सदी होने जा रही है.

ऐसे में नई सदी की हिंदी कविता का प्रयोजन और तासीर तो बदली ही है उसका ढांचा भी बदला है.
किसी कविता में किसी एक केन्द्रीय बिम्ब पर अब कवि नहीं टिकता.
वह तेज़ी से बदलते बिम्बों के बीच अपने समय का रूपक रखता चलता है, पर वह जहाँ भी है सटीक हुआ है.


वीरू सोनकर नई सदी के युवा कवि हैं. इन कविताओं में तुर्शी और तेज़ी है. अभी तो उनके सामने यह पूरी सदी पड़ी है. उम्मीद के साथ ये कविताएँ आपके लिए.




वीरू सोनकर की कविताएँ                                      



रंग

रंग वह नहीं
जो उड़ जाते हैं अपनी तय उम्र के बाद
या
दूसरे रंग के अतिक्रमण से
असमय मर जाते हैं

रंग प्रमाण है
कुछ भी होने या फिर कुछ नहीं होने के

तभी
बुढ़ापा, उम्र का एक रंग है
और चेहरे का गवाह है उदासी का एक रंग
सुख की मुग्ध आँखों का मुंद जाना भी
एक रंग है

जैसे,
नदी का रंग पानी है
और पृथ्वी का रंग सिर्फ जीवन
समुद्र के भरपेट होने का उत्सव-रंग उसकी त्वचा लहरें हैं

या कह सकते हो कि

भूख, अपने हर रंग में एक गर्म रोटी का चेहरा है
जिस पर कोई अन्य रंग नहीं चढ़ता.





जंगल एक आवाज है

जंगल गायब नहीं है
वह देर से बोलता है

अपने सन्नाटे की अलौकिक रहस्यमयता लिए
हमारे भीतर चीखता है
कहता है
मेरी प्रतिलिपि दूर तक बिखरी पड़ी है
तुम्हारे ड्राइंगरूम के बोनसाई से लेकर स्वीमिंगपूल की उस नकली पहाड़ी नदी तक

जंगल एक अमिट स्मृति है
सड़को पर छाई सुनसान रात उस बाघ की परछाई है
जो तुम्हारे शहर कभी नहीं आता

जंगल अचानक से हुए किसी हमले की एक खरोंच है
एक जरुरी सबक कि जंगल कोई औपचारिकता नहीं निभाता

जंगल एक बाहरी अभद्र नामकरण है

जंगल दिशा मैदान को गयी
एक बच्ची को अचानक से मिला एक पका बेलफल है
जंगल बूढ़े बाबा के शेर बन जाने की एक झूठी कहानी है
जंगल खटिया की बान सा सिया हुआ
एक घर है
जंगल वह है जो अपने ही रास्तो से फरार है
जंगल हर अनहोनी में बनी एक अनिवार्य अफवाह है

जंगल एक रंगबाज कर्फ्यू भी है
जो तय करता है रात को कौन निकलेगा और दिन में कौन

जंगल जो बारिश में एक चौमासा नदी है
तो चिलचिलाती धूप में बहुत देर से बुझने वाली एक प्यास भी

जंगल सब कुछ तो है पर विस्थापन कतई नहीं है

जंगल एक आवाज है
जो हमेशा कहती रहेगी
कि
तुम्हारा शहर एक लकड़बग्घा है
जो दरअसल जंगल से भाग निकला है.




संभावनाशील पागल

जब एक मुकम्मल देश लिखना कठिन हो रहा है
ऐसे समय में चाहता हूँ
हर आदमी एक शब्द हो जाये
हर शब्द एक आवाज,
हर चेहरा एक पन्ना,
और हर कविता हमारे इस समय का श्वेतपत्र

निगरानी से डरा हुआ हर आदमी चीख पड़े
बावजूद इसके कि
चीखना,
अब पागलपन की निशानी है
बावजूद इसके कि
सरकार के पागल होने से पहले यह पूरा देश पागल हो जाये
मैं वहां एक मुकम्मल देश की शक्ल देखता हूँ

चे के हमशक्लो की भीड़ में
जहाँ खुद का खो जाना एक आम सी बात हो
स्टालिन के भगोड़े जूते किसी प्रमाण की तरह संरक्षित हो
हिटलर की अंतिम गोली की कहानी हर पागल कहने में न डरे

एक ऐसा देश,
जहाँ कोई पागल ही न मिले
वह देश सबसे अच्छे नक़्शे के बाद भी
खुद पर एक सवाल है

और
यह मुझ पर भी एक सवाल है
कि क्या एक मुकम्मल देश लिखना वाकई कठिन है
या मेरा पागल हो जाना ?




नि:शब्द

मैंने कहा "दर्द"
संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी

मैंने शब्द वापस लिया और कहा "मृत्यु"
सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए
मैंने शर्मिन्दा हो कर सर झुका लिया
फिर कहा "मुक्ति"
सभी नकाबपोश औरते, विकलांग और  कर्जदार मेरी ओर देखने लगे !

अब मैं ऊपर आसमान में देखता हूँ
और फिर से,
एक शब्द बुदबुदाता हूँ
"वक्त" !
कडकडाती बिजली से कुछ शब्द मुझ पर गिर पड़े
"मैं बस यही किसी को नहीं देता !"

मैं अब खुद के लिए कोई शब्द चाहता हूँ
कोई कुछ नहीं बोलता.



 जगह

उसने पानी को
पहली बार सामने आये किसी अजूबे सा देखा
उसमे घुलते रंग को देखा
और
देखी आग
छुआ, और कहा "ओह तो तुम मेरा छूटा हुआ हिस्सा थी"

पैरो के नीचे की भुरभुरी मिटटी को सूंघा,
तप्त सूर्य की तेज़ आँच के बाद भी वहाँ घास की एक कोंपल निकल आयी थी

उसने नदी में एक पत्थर उठा कर फेंका,
भंवर में बनी-बिगड़ी लहरें गिनी

फिर वह आकाश की ओर मुँह उठा कर शुक्राने में हँसा
गुजरती हवा के कान में कहा
सुनो,
मैं बिलकुल ठीक जगह पर हूँ! 

_________
वीरू सोनकर
9 जून 1977 (कानपुर)

स्नातक (क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपुर) बीएड ( डी ए वी कॉलेज कानपुर)
पत्र पत्रिकओं में कविताएँ कहानियाँ आदि प्रकाशित
veeru_sonker@yahoo.com

सबद भेद : प्रगतिशील कविता और शमशेर बहादुर सिंह : रवि रंजन

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कवियों के कवि शमशेर अपनी कविताओं की भाषा की बहुस्तरीयता और  जटिल काव्यानुभवों के कारण प्रसिद्ध हैं. उनकी कविताओं पर प्रोफेसर रवि रंजन का यह आलेख आपके लिए.


प्रगतिशील कविता में शमशेरियत की शिनाख्त             
रवि रंजन 




एक चीज़ जो आधुनिक कला और कविता का भी, अक्सर खास हिस्सा बन जाती है वह है प्रेरणा का चित्र की ज़मीन से पैदा होना, उभरना ... लगभग चित्र की ज़मीन पर ही रहना.   कभी -कभी मूर्ति की ज़मीन से उभरना और मूर्ति की ज़मीन पर ही रहना.”
(शमशेर बहादुर सिंह की कुछ गद्य रचनाएँ’, पृ.331)
                                                                          
‘उसने मुझसे पूछा, तुम्हारी कविताओं का क्या मतलब है ?
मैंने कहा - कुछ नहीं.
उसने पूछा- फिर तुम इन्हें क्यों लिखते हो ?
मैंने कहा - ये लिख जाती हैं.’                            
(शमशेर बहादुर सिंह : प्रतिनिधि कविताएँ, पृ. 58)

प्रगतिशील कवि के रूप में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और शमशेर ‘औरेबी हमसफर’ हैं. स्पष्ट ही प्रगतिशील कविता का वैविध्य एवं अनेकायामिता इनकी रचनाओं में देखी जा सकती है. घनानंद की ‘लोग तो लागी कावित्त बनावत, मोहि तो मोरे कवित्त बनावत’ वाले अंदाज़ में रचित शमशेर की ऊपर उद्धृत काव्यपंक्तियों से गुजरते हुए उनके अंतर्मुखी व्यक्तित्व का एहसास होता है. गौरतलब है कि विजयदेव नारायण साही ने उनकी रचनाओं के सन्दर्भ में जिस मलार्मीय विडम्बना को रेखांकित किया है – वह कहीं न कहीं कवि के एकांतवास से संबद्ध है. किन्तु, मार्क्सवादी विचारधारा से शमशेर की बुनियादी प्रतिबद्धता जगजाहिर है. उन्होंने लिखा है  कि “मार्क्सवाद मेरी ज़रुरत थी, सच्ची ज़रुरत, उसने मुझे मार्बिड और रुग्ण मन:स्थिति से उबारा.” ‘मार्क्सवाद’ शीर्षक कविता में वे स्वीकार करते हैं कि वर्तमान के संस्कारों को जन्म देने वाले विगत संस्कारों के युग में प्रचलित मिथ्या सामंतवाद–पोषक मध्ययुगीन भटकाने वाले दर्शन से निजात पाने की सच्ची दृष्टि उन्हें मार्क्सवादी दर्शन में आस्था से प्राप्त हुई :

‘मेरा माजी, हाल.
मेरा दिल
मेरा मुस्तकबिल.
मेरी जान
नज्र के क़ाबिल.
कुफ्र से लिया ईमान.’
(उदिता, पृ. 92)

बावजूद इसके, भारत-चीन युद्ध पर लिखी ‘सत्यमेव जयते’ कविता में कवि को अपने राष्ट्रीय हितों के पक्ष में तथाकथित साम्यवादी नीतियों की तल्ख़ आलोचना करने में भी कोई हिचक नहीं हुई :

हिमालय पहाड़ कोई चीन की दीवार तो नहीं
जिसे लाँध जाओ !
अखिल सच्चाई के महादेव बौनों पर करुणा से हँसते है.
 __
                
माओ ने सब कुछ सीखा, एक बात नहीं सीखी :
कि झूठ के पाँव नहीं होते !
सत्य की ज़बान बंद हो, फिर भी वह गरजता है.’
(चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ. 40)

‘राष्ट्रीय मार्क्सवाद’ की बात कही है, वही शमशेर पर भी लागू होती है. आज यह अलग से बताने की ज़रुरत नहीं है कि मार्क्सवाद–मात्र को प्रगतिशीलता की और प्रगतिशीलता को बड़ा कवि होने की बुनियादी शर्त मान लेने के बालहठ के चलते हिन्दी आलोचना में रागात्मक अर्थवत्ता और सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता से ओतप्रोत कविताओं की जाने-अनजाने कहीं न कहीं उपेक्षा ज़रूर  हुई है. अंग्रेज़ी की एक कहावत का इस्तेमाल करते हुए कहा जाय तो मार्क्सवाद के प्रति आत्यंतिक आग्रह की वजह से कुछ आलोचक कविता के साथ उन तथाकथित समझदार लोगों की तरह सलूक कर बैठते हैं जो बच्चे को बाथटब में नहलाने के बाद बचेखुचे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं. यह सुखद है कि कालान्तर में प्रगतिशील-जनवादी बिरादरी के आलोचक आत्यंतिक क्रांतिकारिता के आवेश से मुक्त हुए हैं. इसका एक पुख्ता सबूत मैनेजर पाण्डेय की वह स्वीकारोक्ति है, जिसमें कहा गया है कि  “प्रगतिशील होने के लिए मार्क्सवादी होना आवश्यक नहीं है. अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है, तो उसकी रचनाशीलता में प्रगतिशीलता होगी.” 


वस्तुत: प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के पहले अधिवेशन (1936)में ‘प्रगतिशील’ शब्द और साहित्य में प्रगतिशीलता को लेकर जो बात उठाई थी  उसका वृत्त मैनेजर पाण्डेय के ऊपर उद्धृत कथन के साथ कमोबेश पूरा होता दिखाई देता है. तात्पर्य यह कि शमशेर ने ऐसी अनेक कविताएँ रचीं हैं जिन्हें मार्क्सवाद के बने-बनाए चौखटे में जबरदस्ती फिट करने की कोशिश गैर-रचनात्मक ही नहीं, बल्कि गैरजरूरी है :

भारत भवन, भोपाल १९८७












‘मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो
ताकि उसकी आंच और लपट में तुम 
फौव्वारे की तरह नाचो

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिंगो सको, मुमकिन है तो.’
(टूटी हुई, बिखरी हुई)

बहरहाल, हमारा मकसद यहाँ शमशेर की कुछ कलात्मक-सी दिखने वाली अल्पज्ञात कविताओं में ‘शमशेरियत’ की शिनाख्त करना है. इस क्रम में ‘वाम वाम वाम दिशा / समय साम्यवादी’, ‘बम्बई में वर्ली के सत्तर किसानों को देखकर’, ‘लेनिनग्राद’, ‘अकाल’ जैसी अनेकानेक कविताओं से बनावट और बुनावट में भिन्न व विपरीत प्रतीत होने वाली उनकी कुछेक ऐसी कविताओं पर भी समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए जिनमें स्वयं कवि के शब्दों में ‘वस्तुगत प्रयोग और रूपगत प्रयोग, दोनों के यथासंभव निर्दोष शिल्प के उच्चतम स्तर पर ......कठोरता से आग्रह’ मौजूद हैं. उदारहण के लिए शमशेर की एक कविता द्रष्टव्य है:                                          
                    
‘निश्चल जल पर घिरा कोहरा
बीच खड़ा टापू
सगुन दिवस का विचारता-सा मौन.’

छायाचित्र की तरह प्रतीत होने वाली इस छोटी-सी कविता में शब्दों के द्वारा जो घटित किया गया है उससे सर्वप्रथम एक परिदृश्य उभर कर सामने आता है. जल है जो निश्चल है, उस पर कोहरा घिरा हुआ है. घिरा हुआ से अभिप्राय यह कि कोहरा में हवा की गति से आगे बढ़ाते जाने की कोई स्थिति अभी पैदा नहीं हुई है. व्यंजना है कि हवा भी बह नहीं रही है. एक अन्य कविता में शमशेर ने लिखा है : ‘स्थिर है शव-सी वात’. विवेच्य कविता में टापू बीच में है, किनारे पर या किसी एक तरफ नहीं. वस्तुत: कविता में पहले जो पूरा दृश्य अंकित किया गया है वह टापू के लिए पृष्ठभूमि बन जाता है. रचनात्मक प्रभाव की दृष्टि से यह किसी सरोवर या झील का वर्णन मालूम पड़ता है, क्योंकि यदि नदी होती तो जल प्रवाहित हो रहा होता. यह सब जो रचना के भीतर से छन कर बाहर निकल रहा है उसे पाठक के अंतर्मन में अर्थ के रूप में स्वत: उदित होना चाहिए.

अब ज़रा रुककर टापू की मुद्रा पर एक नज़र डालें. मुद्राएं अनेक हो सकतीं हैं. मुद्रा किसी योगी की हो सकती है, मुद्रा प्रतीक्षा करने वाले व्यक्ति की हो सकती है, मुद्रा चिंता में डूबे किसी मनुष्य की हो सकती है, मुद्रा पछतावे में पड़े किसी व्यक्ति की हो सकती है. पर यहाँ मुद्रा है –‘सगुन दिवस का विचारता-सा मौन.’ हम एक ऐसे पुरोहित की कल्पना करें जो पुर के हित में आने वाले दिवस के लिए सगुन विचार रहा है. जाहिर है कि सगुन तब विचारा जाता है जब किसी किसी महत्त्वपूर्ण काम की शुरुआत करनी होती है,  कोई बड़ा क़दम उठाना होता है. सवाल उठना वाजिब है कि आने वाले दिवस का सगुन विचारने वाला यह ‘टापू’, जो कविता में एक गुणात्मक चित्र के रूप अंकित है, किसका प्रतिनिधित्व करता है. संभवत: उस व्यक्ति का, जो किसी समुदाय या समूह को किसी बड़ी पहलकदमी के लिए नेतृत्व प्रदान करने की मनोदशा में है. दूसरे शब्दों में कहें तो किसी क्रांतिकारी समूह की नेतृत्वकारी शक्ति इस कविता में टापू के रूप में प्रतीयमानित हो रही है.

कैसी समझ होगी. स्पष्ट ही यह प्रभाववादी समझ होगी. कारण यह कि शमशेर की इस कविता से गुजरकर एक संवेदनशील पाठक जो प्रभाव ग्रहण करेगा और उस प्रभाव का कविता की पंक्तियों से अंत:संबंध स्थापित करके उसके अंतर्मन में जो आभासित होगा, वही उसके लिए काव्यार्थ है. तात्पर्य यह कि अब तक बतौर पाठक हमने इस कविता को अपनी आकल्पना में आभास के द्वारा ग्रहण किया है.

मुक्तिबोध के अनुसार शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार की है. इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा, जो उसके संवेदना ज्ञान की दृष्टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्ति रखते हों..........शमशेर ने अपने हृदय में आसीन चित्रकार को पदच्युत करके कवि को अधिष्ठित किया है, इससे एक बात यह हुई है कि कवि का कार्य-क्षेत्र (scope) बढ़ गया है. इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार जीवन की उलझी हुई स्थितियों का चित्रण नहीं कर सकता, वह किसी दृश्य खंड को ही प्रस्तुत कर सकता है. उस विचित्र दृश्य खंड में भी वह दृश्य के सूक्ष् पक्षों को प्रस्तुत नहीं कर सकता, किन्तु कवि वैसा कर सकता है.”

अंतर्वस्तु के स्तर पर शमशेर की इस कविता में आए ‘निश्चल जल’ से गुजरते हुए निराला की ‘तुलसीदास’ कविता के ‘उर्मिल जल’ की सहसा याद हो आती है, जो वहाँ ऐतिहासिक परिस्थितियों में हलचल का द्योतक है, जिसमें जातीय आकांक्षाओं का शतदल पप्रस्फुटित होना चाह रहा था. यह रचनात्मक प्रतिध्वनि शमशेर की कविता में आए ‘निश्चल जल’ के चित्र को एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ प्रदान करती है. स्पष्ट ही शमशेर के यहाँ ‘निश्चल जल’ सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों में ठहराव का द्योतक है. कविता में निश्चल जल पर कोहरा घिरा होने की बात कही गयी है. कहना न होगा कि हिन्दी कविता में पहले भी जल पर कोहरा घिरता रहा है. उदाहरण के लिए अज्ञेय की कविता में जहाँ कोहरा ‘झोंप अधियारा’ बनकर घिरा बताया गया है वहाँ एक दुविधा या असमंजस की स्थिति व्यक्त हुई है. कोई चाहे तो परम्परा की पगडंडी पर चलते हुए इससे शमशेर की कविता में आए ‘घिरा कोहरा’ का संबंध-सूत्र जोड़ सकता है.

यदि इस कविता में टापू बीच में खड़ा न होकर बायीं अथवा दायीं ओर खड़ा होता तो कोई बड़ी आसानी से रचनाकार की विचारधारात्मक रुझान को क्रांतिकारी वामपंथ अथवा सौन्दर्यवादी दक्षिणपंथ से जोड़ दे सकता था. पर यहाँ टापू संकल्प की मुद्रा में बीच में खड़ा है. गौरतलब है कि शमशेर आम तौर पर जिस सामजिक-राजनीतिक विचारधारा से प्रतिश्रुत रहे हैं उसके नेतृत्वकारी वर्ग की कार्रवाई का रुख इस कविता के रचना-काल तक अतिक्रान्तिकारी के बजाए मध्यवर्ती था. दूसरे शब्दों में, तब तक भारतीय संस्कृतिकर्मियों के बीच घनघोर वामपंथी राजनीति अपने पाँव नहीं पसार पायी थी.

भारत भवन, भोपाल १९८७

इस कविता के रूप विधान में प्रच्छन्न रंग-संकेत भी निहित हैं. यहाँ जो ‘निश्चल जल’ है, वह सलेटी रंग का है, क्योंकि अभी दिनारम्भ नहीं हुआ है. इस जल पर घिरे कोहरे का रंग भी सलेटी है, क्योंकि उस पर अभी सूर्य की किरणों का प्रभाव पड़ना शेष है. इस धुंधलके के बीच खड़े टापू का रंग भी सलेटी ही है. कविता में टापू मौन है और ज्ञातव्य है कि चित्रकला की दुनिया में मौन को सलेटी रंग से ही प्रतिभाषित किया जाता है. विश्व के एक महान चित्रकार मातिस ने अपने चित्रों में सलेटी रंग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है, क्योंकि उनके चित्रों में उत्कीर्ण अधिकांश चरित्र चुप हैं. उल्लेखनीय है कि इस कविता के रूप-संयोजन में एकरंगीय कल्पना को प्रच्छन्न रखकर कवि शमशेर ने काव्यबिम्बों के माध्यम से जो एक तरह की मिश्रित एकता पैदा की है उनमें विक्षेप के बजाए पूरकता का संबंध है. संभवत: यह पूरा छायाचित्र कवि के रचनात्मक मानस पटल पर सलेटी रंग में ही पहले पहल अंकित हुआ होगा. प्रसंगवश शमशेर की एक अन्य काव्यपंक्ति की बरबस याद आती है : ‘मौन में इतिहास का कन किरन जीवित, एक, बस.’ राजेन्द्र कुमार का कहना सही है कि“शमशेर की भाषा सबसे ज्यादा वहाँ फबती है, जहाँ हिन्दी और उर्दू का दोआबा है और उनकी कला सबसे ज्यादा वहाँ निखरती है, जहाँ काव्य-कला और चित्रकला का दोआबा है.” 

यह ठीक ही कहा गया है कि श्रेष्ठ कविता का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य अत्यंत प्रच्छन्न और उसकी अर्थबहुलता प्राय: बहुसंदर्भ-मुखर होती है. याद आ सकते हैं फ्रेडरिक जेम्सन,जिनके अनुसार बहुसंदर्भ-मुखर पाठों की अर्थबहुलता किसी आलोचक की आकस्मिक सूझ के बजाए पठन-प्रक्रिया में पाठ और परिप्रेक्ष्य के बीच मौजूद गहरी नातेदारी की क्रमबद्ध पहचान का परिणाम होती है. कवि शमशेर के यहाँ सामाजिक यथार्थ के दबाव के उदहारण और भी हैं. प्रसंगवश उनकी एक दूसरी कविता विचारणीय है जो अपनी संरचना में एक पूरे लैंडस्केप को इस कदर समेटे हुए है कि पाठक के समक्ष कवि का सृजन-संसार परत-दर-परत खुलता चला जाता है:
                            
‘श्रम-रत कुछ धोबी, कुछ अस्थिर प्रस्तर :
तट पर - कवि से दूर –
चाँदी के स्थिर जल में असित हिलतीं मूर्तियाँ.’
(चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ. 91)

‘मूर्तियाँ’ शीर्षक से रचित इस कविता से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है कि यहाँ गति और स्थिरता के के द्वंद्व के बीच जो देखा जा रहा है वह है - चाँदी के  निर्मल जल में हिलतीं काली मूर्तियाँ. कविता में जल को आईने की तरह चमकदार, ह्रदय की तरह स्वच्छ, पारदर्शी आदि तो कहा जाता रहा है पर यहाँ इसे चाँदी की तरह निर्मल कहने का प्रयोजन विचारणीय है. संभवत: कवि जल की उज्ज्वलता पर बल देना चाहता है, क्योंकि इसमें प्रतिबिंबित होने वाली मूर्तियों का रंग काला है. कविता में इस तरह के चित्र खचित करने के संरचनात्मक तर्क को शुक्लजी की शब्दावली में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ कहा जा सकता है. दूसरी बात यह कि लोक में ‘चाँदी’ का प्रयोग समृद्धि या वैभव के अर्थ में किया जाता है. ‘चाँदी काटना’ मुहावरे के अभिप्राय से हम सब भली भांति परिचित हैं. इस कविता में चाँदी का जलवस्तुत: अर्थकेन्द्रित समाज-व्यवस्था का द्योतक है. इस व्यवस्था के आईने में उस मेहनतकश वर्ग का अक्स उभरता है, जिसकी नियति निर्जीव पत्थर की तरह तट पर ही रह जाने की है. जाहिर है कि उसके श्रम का बड़ा लाभांश व्यवस्था को प्राप्त होता है पर वह तटस्थ रहने के लिए विवश है. इसके साथ यह भी कि अपने हित में यथास्थिति कायम रखने के लिए चौकन्नी व्यवस्था के दर्पण में श्रमिक वर्ग की तमाम सक्रियताएं लगातार आंकी जाती हैं, जिससे प्राय: कामगार वर्ग अनजान रहता है. एक छोटे से शब्दचित्र में यह मार्मिक अर्थ पिरोया हुआ प्रतीत होता है.

‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ की प्रस्तावना में शमशेर ने लिखा है : “मैं सदा ही अपने मानसिक परिवेश को चित्रित करता रहा हूँ. परिवेश के साथ-साथ उसके माहौल को भी अपने पास, ‘इतने अपने पास’ खींचता रहा हूँ कि मेरा अंदरूनी कवि और चित्रकार, अपने अक्स को उसमें उतरने से बाज नहीं रख सके.”

अमृता शेरगिल के चित्रों पर टिप्पणी करते हुए समर्थ युवा कलाविद व हिन्दी आलोचक ज्योतिष जोशीने लिखा है कि उन्होंने  भारतीय कला को अपनी यथार्थवादिता से हैरत में डाल दिया. भारतीय दैन्य, अवसाद और उसके रूढ़िवाद को इतनी तन्मयता से किसी भी दूसरे कलाकार ने रूपायित नहीं किया. उनकी चित्रमय भाषा भारतीय लघुचित्रों की याद दिलाती है. कृतियों के माध्यम से जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति के साथ अमृता की प्रश्नाकुलता उन्हें पहला समग्र आधुनिक चित्रकार बनाती है.” (आधुनिक भारतीय कला, भूमिका, पृ. 8 )एक हद तक यह बात शमशेर की छोटी कविताओं पर भी लागू होती है, जो एक विराट प्रतिभा के सुफल की तरह हैं जिनसे गुजरते हुए प्रभाकर माचवे को पत्रोत्तर देने के क्रम में हास-परिहास में लिखित उनकी एक पंक्ति का सहसा स्मरण हो आता है : ‘प्रतिभा में गुरु प्रथम आधुनिक कवि होना भी क्या है ठठ्ठा.’

यदि साहित्यवाद के हिमायती किसी पाठक या आलोचक को यह प्रतीत हो कि शमशेर की  कविताओं पर यहाँ एक राजनीतिक अर्थ जबरन थोपा जा रहा है, तो अचरज नहीं. ऐसे शुद्धतावादी सौन्दर्यप्रेमी साहित्य-रसिकों को हमारे समय के सर्वाधिक समर्थ एवं विश्वसनीय हिन्दी आलोचक नामवर सिंहके एक कथन की याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा : “कविता के मूल पाठ जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, यहाँ से वहाँ तक व्याख्या ही व्याख्या है. कोई सर्जनात्मक कृति इसीलिये कृति है कि वह कोई स्थिर वस्तु नहीं है, जड़ पदार्थ नहीं है. पढ़ने की प्रक्रिया में ही काव्यकृतियाँ अर्थ ग्रहण करती हैं और सार्थक होतीं हैं. इस प्रक्रिया में कभी-कभी मूल पाठ इतना बदल जाता है कि मूल पाठ का पता लगाना भी कठिन होता है. ......सृजन से ग्रहण तक सम्प्रेषण की समग्र प्रक्रिया में काव्यकृति निरंतर उपजती और उपजाई जाती है. यह ‘उपज’ ही उसका जीवन है. किसी कृति को जड़ पाठ से मुक्त करना ही उसकी प्रासंगिकता है.” (वाद विवाद संवाद, पृ. 71)

कविता केवल अभिव्यक्ति ही नहीं, सम्प्रेषण भी है और कहने की ज़रुरत नहीं कि अभिव्यक्ति के स्तर पर शमशेर की कविताओं में सूक्ष्म कारीगरी का करिश्मा एक हद तक पारदर्शी है पर सफल सम्प्रेषण के लिए ऐसी कविताएँ पाठक से संवेदनशील चौकन्नेपन की माँग करती हैं. याद आते हैं मुक्तिबोध, जिनका मानना था कि ‘जनता का साहित्य’ से मतलब जनता को तुरंत समझ में आने वाला साहित्य कतई नहीं है. अपने काव्य-संग्रह ‘उदिता’ के अंत में ‘सीधे अपने पाठक से’ मुखातिब होकर शमशेर ने लिखा था कि ‘सच्चे मतलब को ढँकने वाली कला एक झूठा आडम्बर है ; वह ऊपर से पहली नज़र में चाहे जितनी खूबसूरत और मोहक लगे.’ किन्तु इसके साथ ही उनका यह भी मानना रहा है कि “रचना की संरचना को समाज की संरचना प्रभावित करती है. एक आंदोलन कई कला-रूपों को प्रभावित कर सकता है, ...लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक कला-रूप या विद्या की अपनी एक मर्यादा होती है और वह मर्यादा कायम रखना ज़रूरी होता है.” सच तो यह है कि शमशेर तथाकथित कलावादी-प्रयोगवादी कवियों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रयोगशील रहे हैं और इस क्रम में वे कई बार काव्यभाषा की गहन संरचनाओं का इस्तेमाल सतही संरचना के तौर पर करते हैं. उन्हें इस बात का इल्म न था ऐसा नहीं है. अपने काव्य संग्रह “चुका भी हूँ नहीं मैं’ के आरम्भ में साहित्यिक मित्रों के प्रति ‘आभार ज्ञापन’ करते हुए वे स्वयं कहते हैं : “अपनी काव्यकृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं. उनकी सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिह्न-सा रही है, कितना ही धुंधला सही.”


वावजूद इसके, प्रतिबद्धता और सर्जनात्मकता के अप्रतिम समन्वय से रचित शमशेर की कविताओं में गहन वैयक्तिकता से उपजी वह निर्वैयक्तिकता व निस्संगता उल्लेखनीय है जिसके चलते उनमें चित्रण के स्तर पर यथातथ्यता और मूल्यनिर्णय के स्तर पर प्रतिबद्धता दिखाई देती हैं.  विजयदेव नारायण साही ने सही लिखा है कि “प्रगतिवाद शमशेर के लिए मात्र वह नहीं है जो वह है, बल्कि वह है जो उनकी काव्यानुभूति की बनावट का अंग बनकर प्रस्तुत होता है. इस अर्थ में वह उनके लिए अभिनय नहीं है, वास्तविकता है.”
__________________________

रवि रंजन
Visiting Professor, ICCR(MEA) Chair
School of Oriental Studies
University of Warsaw, Poland.
Ph.0048225533553.
(Professor & former Head/Department of Hindi/School of Humanities/University of Hyderabad)

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चौधरी

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(पंजाबी फ़िल्म चौथी कूट का एक दृश्य) 






















लेखक अपने समय की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों को आलोचनात्मक ढंग से देखता है, आक्रोश और आकांक्षा को वह उसके सम्यक यथार्थ में ग्रहण करता है और उसका यह बोध ही चेतना के विस्तार में सहायक बनता है.
ऐसी रचनाओं में सम्बोधन और सम्प्रेष्ण पर ख़ास ज़ोर दिया जाता है.
युवा कवि पंकज चौधरी ऐसी ही कविताएँ लिखते हैं.
साहित्य के लिए जो असुविधाजनक है वह उनकी पहली प्राथमिकता है.
वह इस या उस के साथ नहीं खड़े हैं वह मनुष्यता के साथ खड़े हैं.


पंकज चौधरी की कविताएं                                     






हेडलेस पोइट्री

एक श्रोत्रिय ब्राह्मण ने कहा
कि हम श्रोत्रिय जो होते हैं
वे ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी ब्राह्मण शूद्र

एक वत्स भूमिहार ने कहा
कि हम वत्स जो होते हैं
वे भूमिहारों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी भूमिहार अधम

एक चौहाण राजपूत ने कहा
कि हम चौहाण जो होते हैं
वे राजपूतों में सबसे बड़े होते हैं
और बाकी राजपूत नीच

एक अम्बष्ठ कायस्थ ने कहा 
कि हम अम्बष्ठ जो होते हैं
वे कायस्थों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कायस्थ निम्न

एक भगत कलबार ने कहा 
कि हम भगत जो होते हैं
वे कलबारों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कलबार अंत्यज

एक कृष्णायत यादव ने कहा
की हम कृष्णायत जो होते हैं
वे यादवों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी यादव कमीन

एक अवधिया कुर्मी ने कहा
कि हम अवधिया जो होते हैं
वे कुर्मियों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कुर्मी चांडाल

एक मौर्य कोयरी ने कहा
कि हम मौर्य जो होते हैं
वे कोयरियों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी कोयरी अज्ञात-कुलहीन

एक बालियांन जाट ने कहा
कि हम बालियान जो होते हैं
वे बालियानों में सर्वोच्च कुलोत्पन्न होते हैं
और बाकी जाट शुद्रातिशूद्र

एक नागर गुर्जर ने कहा
की हम नागर जो होते हैं
वे गुर्जरों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाकी गुर्जर अछूत

एक रविदासिये चमार ने कहा
कि हम रविदासिये जो होते हैं
वे चमारों में ब्राह्मण होते हैं
और बाकी चमार अश्पृश्य

एक मधेशी पासवान ने कहा
कि हम मधेशी जो होते हैं
वे पासवानों में राजपूत होते हैं
और बाकी पासवान पिछड़े

एक नावरिया खटिक ने कहा
कि हम नावरिया जो होते हैं
वे खटिकों के राजा होते हैं
और बाकी खटिक उनकी प्रजा

एक किस्कू आदिवासी ने कहा
की हम किस्कू जो होते हैं
वे आदिवासियों में शेर होते हैं
और बाकी किस्कू गीदड़


जिस देश को
इतनी जातियों और उपजातियों में
बांट दिया गया हो
और जहां पर
एक ही जाति के कुछ लोग
अपने को सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा बताते हों
और अपने ही भाई-बंधुओं को अधम और नीच
उसके लिए
भारत क्या ख़ाक सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा होगा!




संगठन

ब्राह्मण
ब्राह्मण के नाम पर
हत्यारे को नायक कह देता है

भूमिहार
भूमिहार के नाम पर
बूचर को दूसरा गांधी कह देता है

राजपूत
राजपूत के नाम पर
बलात्कारी को क्लीन चिट देने लगता है

कायस्थ
कायस्थ के नाम पर
भ्रष्टाचारी को संत कहने लगता है

बनिया
बनिया के नाम पर
यत्र-तत्र मूतने लगता है

जाट
जाटों के नाम पर
खापों को न्यायसंगत ठहराने लगता है

गुर्जर
गुर्जर के नाम पर
सर फोड़ देता है

यादव
यादव के नाम पर
अपराधियों की दुहाई देने लगता है

कुर्मी
कुर्मी के नाम पर
बस्तियां उजाड़ देता है

कोयरी
कोयरी के नाम पर
खून का प्यासा हो जाता है

चमार
चमार के नाम पर
अछूतानंद को दलितों का सबसे बड़ा कवि मानने लगता है

खटिक
खटिक के नाम पर
उदितराज को सबसे बड़ा दलित नेता मानता है

पासवान
पासवान के नाम पर
पासवान को एकमुश्त वोट दे देता है

वाल्मीकि
वाल्मीकि के नाम पर
वाल्मीकियों को ही असली दलित मानता है

और मीणा
मीणा के नाम पर
आदिवासियों का सारा डकार जाता है

अब सवाल यह पैदा होता है
कि क्या भारत में
जाति से भी बड़ा कोई संगठन है?


  


किस-किस से लड़ोगे यहां

किस-किस से लड़ोगे यहां
कोई यहां ब्राह़मणवादी है तो
कोई यहां राजपूतवादी
कोई यहां कायस्थववादी है तो
कोई यहां कोयरीवादी, कुरमीवादी
कोई यहां यादववादी है तो
कोई यहां बनियावादी
कोई यहां जाटववादी है तो
कोई यहां वाल्मीदकिवादी, खटिकवादी
कोई यहां हिन्दूदवादी है तो
कोई यहां मुस्लिमवादी, ईसाईवादी
कोई यहां पूंजीवादी है तो
कोई यहां इगोवादी
कोई यहां आभिजात्यीवादी है तो
कोई यहां कलावादी
कोई यहां बिहारवादी है तो
कोई यहां यूपीवादी, एमपीवादी
कोई यहां अवसरवादी है तो
कोई यहां तलवावादी
कोई यहां बकवादी है तो
कोई यहां इस्तेमालवादी
कोई यहां अफसरवादी है तो
कोई यहां कुलीनवादी, दयावादी

सब यहां आदमी के वेष में वादी है
और वाद का कवच ओढ रखा है
इंसानियत का ताज गिरा रखा है
आदमी बने भी तो बने कैसे
सब ने ऐसे-ऐसे वादों का मल खा रखा है.



लड़ना जरूरी है

लड़ो...
क्योंकि लोगों ने लड़ना छोड़ दिया है

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े घुट-घुटकर जीना पड़ता है

लड़ो...
क्योंकि अभी तक तुम्हें जो कुछ भी मिला है
लड़कर ही मिला है

लड़ो...
क्योंकि लड़ने वाले का इंतजार होता है

लड़ो...
क्योंकि नहीं लड़ने से ही जंगलराज कायम होता है

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े इंसान पिटठू बन जाता है

लड़ो...
क्योंकि जो लड़ेगा वही बचेगा

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े इंसान को अंधा, बहरा, गूंगा और लूला माना जाता है

लड़ो...
क्योंकि नहीं लड़ोगे तो लोग तुम्हें खा लेंगे

लड़ो...
क्योंकि बगैर लड़े अग्नि स्वर्ग से पृथ्वी पर नहीं लाई जाती

लड़ो...
क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं

लड़ो...
क्योंकि पाने के लिए ही तुम्हारे पास सारा जहान है.



मां

मां और बच्चा के बीच में
यह खेल
बहुत देर से चल रहा है

मां बार-बार अपनी ओढ़नी को
छाती पर संभालती है
लेकिन बच्चा  है कि हरेक बार
ओढ़नी को छाती पर से गिरा देता है
और लगता है वह खिल-खिलाकर हंसने
मां बस बच्चा को
आंख भर दिखा देती है

बच्चा कई शरारतों के बीच
एक शरारत और कर बैठता है
इस बार वह
अपनी मां के बाल को
जोर से तिर देता है
मां थोड़ा-सा चिंघाड़ उठती है
और हल्की-सी चपत
अपने लाडले को लगा देती है
बच्चा रोने का नाटक शुरू करता है
अपने लाडले को रोता देख
मां की आंखों में आंसू छलछला आते हैं
और लगती है वह
अपने लाडले को ताबड़तोड़ चूमने.



कविता में

कविता में
स्त्रीवादियों ने
स्त्री को ढूंढा

दलित स्त्रीवादियों ने
दलित स्त्री को ढूंढा

आदिवासी वादियों ने
आदिवासी को ढूंढा

दलितों ने
दलित को ढूंढा

ओबीसी वादियों ने
ओबीसी को ढूंढा

कम्युनिस्टों ने
मार्क्स को ढूंढा

कांग्रेसियों ने
गांधी-नेहरु को ढूंढा

संघियों-भाजपाइयों ने
राम को ढूंढा

लेकिन कविता में
कविता को किसी ने नहीं ढूंढा.

______________________________ 

पंकज चौधरी
सितंबर, 1976कर्णपुर, सुपौल (बिहार

प्रकाशन : कविता संग्रह 'उस देश की कथा'तथा  पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित)
बिहार राष्ट्रंभाषा परिषद का 'युवा साहित्यकार सम्मान', पटना पुस्तक मेला का 'विद्यापति सम्मान'और प्रगतिशील लेखक संघ का 'कवि कन्हैोया स्मृति सम्मान'.
कुछ कविताएं गुजराती और अंग्रेजी में अनूदित

कार्यकारी संपादक, युद्धरत आम आदमी, नई दिल्ली
348/4, दूसरी मंजिल गोविंदपुरी
कालकाजी, नई दिल्ली/ मोबाइल नंबर-9910744984 

सबद भेद : हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि : कुछ जिज्ञासाएँ : बटरोही

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बटरोही









ब्रिटिश शासकों को पहाड़ी क्षेत्र का वातावरण उन्हें अपने देश की याद दिलाता था. वे अस्थाई रूप से यहाँ रहने लगे. बाद में ये क्षेत्र सैलानियों की जगहें बनतीं चली गयीं. हम भूल गए कि इन क्षेत्रों का संस्कृति और साहित्य के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका है.

वरिष्ठ कथाकार और आलोचक बटरोही अपने कथा साहित्य में अपनी जड़ों की तलाश का उपक्रम भी साथ-साथ करते रहे हैं.  उनका चर्चित उपन्यास ‘गर्भगृह में नैनीताल’ उनके अपने शहर नैतीताल की खोज़ है, इतिहास, मिथक, आत्म और कथा का अद्भुत कोलाज़.  

दून लिटरेरी फेस्टिवल में दिया गया उनका यह सम्बोधन कलाओं के उनके अपने परिवेश से सम्बन्ध पर प्रकाश डालता है और हिंदी साहित्य में देहरादून के योगदान की भी याद दिलाता है.



हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि : कुछ जिज्ञासाएँ                                
बटरोही  


म लोग, जिन्होंने अपनी पहली साँस हिमालय की गोद में ली, इस जिज्ञासा के साथ बड़े हुए हैं कि हिमालय के ऊँचे शिखरों के पीछे जो देवता रहते हैं वे लोग कौन हैं? बचपन से ही बर्फीली चोटियों के पीछे हमारी रखवाली कर रहे उन देवताओं को हम अपनी कल्पना में रचने की कोशिश करते और आस-पास मौजूद अपने वीर परिजनों की छवि के अनुसार उनके रूपाकार गढ़ने की कोशिश करते. जंगलों-पर्वतों के एकांत में हम उन्हें पूजते और उनके साथ अपने सुख-दुःख बांटते. हमारे ये देवता एकदम हमारे ही जैसे होते, उनकी और हमारी भाषा भी एक होती जो दिमाग के बदले दिलों से पैदा होती; हमारा चेहरा-मोहरा ही नहीं, पशुओं और वृक्षों की छाल से बनी हमारी पोशाकें, चट्टानों, टीलों, गुफाओं और नदियों से निर्मित हमारे आवास, पशु-पक्षियों के हमारे वाहन और समस्त जीव-जंतुओं के साथ एक परिवार की तरह रहने वाला हमारा समाज, सभी-कुछ समान था... सुख-दुःख साझा करते हम और वे देवता... दुख-तकलीफ के पलों में हम बिना बताए एक-दूसरे का दर्द महसूस करते हुए उनके पास पहुँच जाते और ख़ुशी के क्षणों में वे देवता हमारे पास आकर हमारी ही तरह नाचने-गाने लगते.

लेकिन आगे बढ़ते चले जाने के साथ हमने पाया कि वे देवता गायब होते चले गए. हमने उन्हें उस दिशा में बहुत खोजा, जिस ओर वे गए थे, मगर वे हमें कभी नहीं मिले. हमें बताए बगैर न जाने कहाँ चले गए हमारे वे देवता?

एक दिन कुछ अपरिचित-से लोग हमारे पास आए. उन्होंने बताया कि वे हमारे बिछुड़ गए देवताओं को हमें भेंट करने आए हैं. उन्होंने ही हमें बताया कि देवताओं के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता... न हम, न वे... इसीलिए वे हमारी स्मृतियों में अपने देवताओं को डालने आए हैं. ये देवता भव्य मंदिरों और प्रासादों में रहते थे मगर हम उन्हें पहचान नहीं पाए. हमें लगा, ये तो हमारे देवता हैं ही नहीं. हमने उन परदेसी शुभचिंतकों से कहा कि अपनी स्मृतियों की यात्रा करते हुए हम युग-युगों तक अपने देवताओं को तलाशते रहे हैं, मगर वे हमें कभी नहीं मिले. जितना ही हम उनके नजदीक पहुँचने की कोशिश करते, वे उतना ही पर्वत-श्रृंखलाओं के बीच छिपते हुए हमसे दूर होते चले जाते!... हमने उनसे पूछा कि हम इस बात पर कैसे यकीन कर लें कि जिन्हें वे लोग हमारे लिए लाये हैं, वे हमारे ही देवता हैं! उन्होंने जवाब दिया कि वे हमारे ही सगे भाई हैं जो उनसे अतीत में हमसे बिछुड़ गए थे. उन्होंने हमारे वनों, पर्वतों और नदियों को काटकर अपने लिए नए रास्ते और आवास बनाए, अपने नए देवता गढ़े, नया समाज बनाया. उन्होंने हमारे सामने प्रस्ताव रखा कि अब हम सारे परिजन अपनी यात्रा मिल-जुल कर नए सिरे से शुरू करेंगे.

अपने सगे भाइयों का यह प्रस्ताव हमें अटपटा जरूर लगा मगर हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था कि हम उनके देवताओं से अपनी दुनिया बसा लेते...
अब मैं अपने मुख्य विषय पर आता हूँ.

कलाओं में उसके भौगोलिक क्षेत्र का क्या महत्व है? प्रत्येक कला एक निश्चित भौगोलिक सीमा के बीच से ही अंकुरित होती है मगर क्या रच जाने के बाद रचना अपने भौगोलिक क्षेत्र से मुक्त हो जाती है या कि उसका भूगोल ही रच जाने के बाद अपने सीमा-क्षेत्र से रचना को मुक्त कर देता है.

इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह भी है कि एक रचनाकार जिस भौगोलिक क्षेत्र का अपने लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करता है, क्या रचना को जन्म देने के बाद उसे अपने भौगोलिक क्षेत्र से मुक्त हो जाना चाहिए? और क्या रचनाकार का परिवेश और उसका भौगोलिक क्षेत्र एक ही चीज हैं या रचनाकार और उसके भावक के लिए इसका सन्दर्भ अलग-अलग है?

ये ऐसे सवाल हैं जो रचनाकार के ही नहीं, शायद उसकी रचना के मन में भी कभी-न-कभी उठते हैं. रचना से मतलब उस परिवेश से है जिसके बीच वह रच जाने के बाद अपना विस्तार कर लेती है. लेकिन अगर परिवेश और भौगोलिक क्षेत्र रच जाने के बाद भी एकाकार नहीं हो सके हैं, अपनी स्वतंत्र अस्मिता बनाये हुए हैं, ऐसे में क्या इसे रचनाकार की असफलता मान लिया जाना चाहिए? सवाल यह है कि रचनाकार की सफलता क्या है? यह सफलता उसके अपने मन का संतोष है या कि उसकी रचना के परिवेश का संतोष?

कुछ विस्तार से अपनी बात समझा दूँ. पिछली सदी के आखिरी वर्षों में जब मैं यूरोप के एक खूबसूरत शहर बुदापैश्त (हंगरी) में था, वहाँ मुझे भारतीय दूतावास के स्टोर के कोने में फालतू चीज की तरह फैंका हुआ एक वीडियो कैसेट मिला जिसमें महान भारतीय कलाकारों के अनेक कार्यक्रम संकलित किये गए थे. इस कैसेट में अनेक दूसरे कार्यक्रमों के अलावा नृत्य सम्राट उदय शंकर के अल्मोड़ा स्थित इंडिया कल्चरल सेंटरमें उनकी पत्नी अमला शंकर के निर्देशन में आयोजित पहाड़ी घसियारिनों का नृत्य भी शामिल था.बाद में जब मैंने वह नृत्य देखा तो भौंचक रह गया. हमारे लोक जीवन की भंगिमाओं को जिस आत्मीय कलात्मकता के साथ उसमें प्रदर्शित किया गया था, वह मेरे खुद के लिए अपनी ही संस्कृति का नया पाठ था. इससे भी बढ़कर बात यह थी कि उस नृत्य-गीत के बोल छायावादी कविता के प्रमुख स्तम्भ सुमित्रानंदन पन्तने लिखे थे, यही नहीं, गीत का पुरुष स्वर भी पंतजी का ही था.
उदय शंकर भट्ट

भारत लौटने के काफी समय के बाद एक दिन जब मैं नेट पर संसार के चर्चित नृत्य-गीत टटोल रहा था, मुझे उदय शंकर के इसी केंद्र में निर्मित अस्त्रपूजाशीर्षक से एक और नृत्य मिला जो असल में कुमाऊँ का अत्यंत लोकप्रिय परंपरागत लोक-नृत्य छोलियाहै. यह नृत्य भी उदय शंकर के ही निर्देशन में प्रस्तुत किया गया है, मगर उसकी पूरी संरचना ठेठ कुमाऊनी है. इतिहास-क्रम में सस्ती लोकप्रियता की आड़ में छोलिया नृत्य काफी विकृत हो चुका है, मगर इस नृत्य को देखकर मूल नृत्य की गरिमा और भव्यता बहुत साफ महसूस होती है. यह नृत्य मूलतः योद्धाओं का नृत्य है, जो बाद में क्षत्रियों की बारात में अपनाया जाने लगा. धीरे-धीरे यह विभिन्न पर्वों और आयोजनों में भी प्रस्तुत किया जाने लगा मगर आज यह नृत्य सस्ते मनोरंजन और कलाकारों के द्वारा चमत्कार दिखाकर पैसा जुटाने का माध्यम बन गया है.

दूसरा उदाहरण मैं विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर का देना चाहूँगा जो बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में अपनी बेटी के स्वास्थ लाभ के लिए नैनीताल के पास रामगढ़ में आए थे. प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपने एक लेख में इस बात का उल्लेख किया है कि टैगोर इस जगह के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर इतने प्रभावित हुए कि विश्वभारती की अपनी परिकल्पना वह यहीं साकार करना चाहते थे, लेकिन बेटी की अकाल मृत्यु के कारण उन्होंने रामगढ़ में विश्वभारती स्थापित करने का अपना विचार त्याग दिया और उसे शान्तिनिकेतन ले गए.

सर्वोच्च भारतीय मेधा, संस्कृति और कला का प्रतिनिधित्व करने वाले इन दो मनीषियों का संसार को परिचय देने की जरूरत नहीं है. सवाल यह है कि संसार के अनेक क्षेत्रों में घूमने के बाद उन्हें इस छोटे-से पहाड़ी इलाके में ऐसा क्या लगा कि यहीं वे अपनी कला को मूर्त रूप देना चाहते थे!

इन सवालों पर अगर हम हिंदी साहित्य के वर्तमान सन्दर्भ में सोचें तो शायद ही सहमति के किसी बिंदु पर पहुँच सकेंगे. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं था, मगर आज यह कई कारणों से मुश्किल हो गया है.

मसलन एक कारण तो वह जगह है, जहाँ पर हम इस वक़्त एकत्र हुए हैं. देहरादून हिंदुस्तान के एक छोटे-से नवनिर्मित पहाड़ी राज्य की आधी-अधूरी राजधानी है. इस स्थान का मैं इसलिए जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि हिंदी साहित्य को इस देश की सबसे पवित्र समझी जाने वाली नदी गंगा की तटवर्ती संस्कृति के आईने में झांककर ही देखा जाता रहा है. कैसी विडंबना है कि यह प्रदेश गंगा का उद्गम क्षेत्र है लेकिन अपने गर्भ से निकलने के बाद यह नदी अपनी अस्मिता को परिभाषित करने का अधिकार खो बैठती है. यह सच है कि नदी कभी अपने मूल की ओर बहती हुई नहीं देखी गई है लेकिन साहित्य और कलाओं की यात्रा तो हर समाज, देश और काल में अपनी जड़ों से जुड़ने की ही यात्रा रही है.

गंगा की जीवन-यात्रा इसी प्रदेश के एक अनजाने से इलाके गौमुख से शुरू होती है, लेकिन अपने मैदानी संगम-क्षेत्र प्रयाग और वाराणसी में पहुँचते ही वह उस रंग में इतना सराबोर हो जाती है कि अपने मूल को भूलकर अपने विस्तार को ही अपनी पहचान बना लेती है. मैं यहाँ बोलियों और भाषा की उस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि भाषा से संस्कृतियाँ जन्म लेती हैं या बोली से, मेरी चिंता का सबब सिर्फ इतना है कि हिंदी क्षेत्र में ऐसा क्यों होता रहा है कि बोली और भाषा में से एक के समर्थ होने पर वह दूसरे के साथ सम्बन्ध-विच्छेद करना शुरू कर देती है. जिस खड़ीबोली हिंदी को हम आज की साहित्यिक भाषा का प्रस्थान-बिंदु और मानक मानते हैं, उस पर गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र की भाषाओँ और संस्कृति का आज तक इतना आतंक है कि भले ही हम उनकी भाषाओँ को अनुवाद के साथ पढ़ें, आधुनिक हिंदी की जड़ें हमें आज भी वहीँ दिखाई देती हैं.

महान देव भाषा संस्कृत, उसका कालजयी साहित्य और समूचा मध्यकालीन हिंदी साहित्य उसी की धारा के रूप में है यद्यपि इस बीच अनेक परस्पर विरोधी धाराएँ और दृष्टिकोण भी कम नहीं उभरे हैं. मजेदार बात यह है कि लोक और नागर अभिव्यक्ति का यह अंतर भाषा के मानकीकरण और बोली-भाषाओँ के अस्तित्व का ही मसला नहीं है, उस समूची सौन्दर्याभिरुचि, सौंदर्यशास्त्र और सांस्कृतिक मूल्यों से भी जुड़ा है जिससे इस पूरे क्षेत्र की पहचान निर्धारित होती है. इस बात का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी के सौन्दर्य-शास्त्र की चर्चा आज भी एक सदी पहले के आचार्य रामचंद्र शुक्लसे शुरू की जाती है और अमूमन हमारे पंडित समुदाय के बीच वहीँ पर ख़त्म भी हो जाती है. इतने विशाल भारतीय साहित्य के बीच हिंदी लेखन में ही यह विरोधाभास क्यों मौजूद है ?

रसूल हमज़ातोव
वर्षों पहले मैंने आर्मीनियाई-रूसी कथाकारों का एक संग्रह पढ़ा था – ‘हम पर्वतवासी. उसी के आसपास मशहूर दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोवका आत्मकथात्मक उपन्यास मेरा दागिस्तानभी पढ़ा. अगर इसे क्षेत्रीय भेदभाव न समझें तो काला सागर और कैस्पियन सागर के मध्य स्थित छोटे-से देश आर्मीनिया और उसके पडौसी जॉर्जिया से लगा दागिस्तान हमें इसीलिए अपने लगते हैं क्योंकि हम भी पर्वतवासी हैं. यही नहीं, हम लोग एक-दूसरे से सीखकर आज भी अपनी कठिन राहें सुलझा सकते है. क्या कारण है कि 1999में दागिस्तान पर चेचन्या के विद्रोहियों ने जब आतंक फैलाया था, हमें अपनी सीमाओं का काश्मीर याद आया था. मेरा दागिस्तानको पढ़ते हुए अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति याद आई थी, जिस पर आज उन्हीं की तरह मानो घुन लग गया है... कहना यह चाहता हूँ कि भारत के हम पर्वतवासी लेखकों को हिंदी-लेखकों की अपेक्षा ये दागिस्तानी और आर्मीनियाई लेखक अपने समाज के अधिक निकट क्यों लगते हैं? फर्क सिर्फ इतना ही तो है कि हम हिमालय के समाज हैं और वे आल्प्स पर्वत श्रृंखलाओं के.

रसूल हमजातोव ने अपनी मातृभूमि दागिस्तान और अपने देश रूस को याद करते हुए लिखा है कि मैं अपनी मातृभाषा अवारका ऋणी हूँ क्योंकि उसने मुझे पैदा किया और राष्ट्रभाषा रूसी का इसलिए कि उसने मुझे पाला-पोसा.हिंदी समाज के साथ विडंबना रही है कि वह अपनी जड़ों से जुड़ी नैसर्गिक गौमुख-संस्कृति को कभी याद नहीं करता जब कि दोआब क्षेत्र की अर्जित संस्कृति में बहकर अपने मूल से लगातार कटता चला गया है. कट ही नहीं गया है, उसे याद करने की जरूरत भी नहीं समझता. अगर याद करता भी है तो सिर्फ एक पर्यटक के रूप में जहाँ सिर्फ हवा खानेजाया जाता है.

मैं अवार कवि हूँ.रसूल हमजातोव लिखते हैं, मगर अपने दिल में मैं केवल अवारिस्तान, केवल दागिस्तान, केवल सारे देश के लिए नागरिक के उत्तरदायित्व को अनुभव करता हूँ. यह बीसवीं सदी है. इसमें सिर्फ ऐसे ही जिया जा सकता है.

रसूल आगे लिखते हैं, ”मुझे बताया गया कि मेरे जन्म के फ़ौरन बाद मेरे पिताजी को नौकरी के सिलसिले में अस्थायी रूप से हरादारीह गाँव में जाना पड़ा. पिताजी के घोड़े के साथ दो सफरी थैले, दो खुरजियाँ लटकी हुई थीं. एक में तो हमारा घरेलू सामान था कपड़े-लत्ते, बचा-खुचा आटा, दलिया, चरबी और किताबें; दूसरे थैले में से मेरा सर बाहर झाँक रहा था...

इस सफ़र के बाद मेरी माँ सख्त बीमार हो गई. हम जिस गाँव में पहुँचे, वहाँ एक ऐसी गरीब और एकाकी औरत मिल गई, जिसका बच्चा उन्हीं दिनों चल बसा था. वही मुझे अपना दूध पिलाने लगी. वह मेरी धाय, मेरी दूसरी माँ बन गई...

तो इस तरह दुनिया में दो नारियाँ हैं, जिनका मैं ऋणी हूँ. मेरी उम्र चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो और इन नारियों के लिए चाहे मैं कुछ भी क्यों न करूँ, उनके नाम पर कोई भी कारनामा न कर दिखाऊँ, उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाऊँगा...

मेरी जनता, मेरे छोटे-से देश, मेरी हर किताब की भी दो माताएँ हैं... मेरी पहली माँ है मेरी मातृभूमि दागिस्तान. मेरा यहाँ जन्म हुआ, यहीं मैंने पहले-पहल अपनी मातृभाषा सुनी, उसे सीखा और वह मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गई. यहीं मैंने पहले-पहल अपनी जनता के गीत सुने और खुद पहला गीत गाया. यहीं मैंने पहले-पहल पानी और रोटी को चखा. नुकीली, तीखी चट्टानों पर चढ़ते हुए बचपन में कितनी ही बार मुझे चोटें लगीं मगर मेरी मातृभूमि के पानी और जड़ी-बूटियों ने मेरे सभी घावों को अच्छा कर दिया. पहाड़ी लोगों का कहना है कि ऐसी कोई भी तो बीमारी नहीं है, जिसके इलाज के लिए हमारे यहाँ पहाड़ी जड़ी-बूटियाँ न हों.

अंत में रसूल हमजातोव लिखते है, “मेरी दूसरी माँ है महान रूस, मास्को. उसने मुझे शिक्षा-दीक्षा दी, मुझे पंख दिए, मुझे बड़े रास्ते पर पहुँचाया, असीम क्षतिज दिखाए, सारी दुनिया को मेरे सामने उभारा... बेटे के रूप में मैं दोनों माताओं का ऋणी हूँ.”  

जाने कितनी ही बार रसूल की इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक विचित्र निष्कर्ष तक पहुँचा हूँ. मेरे निष्कर्ष को सुनकर आप चौंक सकते हैं, असहमत भी हो सकते हैं, मगर मुझे तो यही सच लगता रहा है.

अगर मैं कहूँ कि आधुनिक खड़ीबोली-हिंदी का आरम्भ एशिया की पीठ परनामक पुस्तक में संकलित हिमालय क्षेत्र के एक जमीनी सर्वेक्षणकर्ता नैन सिंह रावत (1830-1895) की रचनाओं से होता है तो इसे महज क्षेत्रवादी सोच कहकर टाल देना ठीक नहीं होगा. यह किताब कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. उमा भट्ट और डॉ. शेखर पाठकद्वारा सम्पादित की गई है यद्यपि उनसे पहले हिंदी के एक अन्य विद्वान डॉ. राम सिंह इस सामग्री को प्रकाश में ला चुके थे. एशिया की पीठ परमुझे इसलिए उल्लेखनीय लगती है क्योंकि इस पुस्तक में पहली बार नैनसिंह का सारा रचनाकर्म एक साथ शामिल किया गया है, जिसमें उनकी पहली डायरी अल्मोड़ा से काठमांडू होकर ल्हासा यात्रा 1865-66, ठोक ज्यालुंग डायरी 1867और यारकंद-खोतान का रोजनामचा 1873-74के अलावा 1871में प्रकाशित अक्षांस दर्पणनामक विज्ञान-लेखन से जुड़ी पुस्तक शामिल है जो प्रामाणिक वैज्ञानिक तथ्यों को लेकर लिखी गई हिंदी की पहली विज्ञान-पुस्तक है.

हिंदी साहित्य के विद्वानों ने हिंदी गद्य के उद्भव का श्रेय फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा-मुंशियों और भारतेंदु मंडल के रचनाकारों को दिया है. इनमें से बाद के अधिकांश लेखक नैनसिंह से उम्र में छोटे हैं हालाँकि इन सभी की भाषा की तुलना में नैन सिंह रावत की भाषा खड़ीबोली हिंदी समाज के अधिक निकट है.

नैन सिंह रावतको सोलहवीं से उन्नीसवीं सदी तक हिंदी गद्य में लिखने वाले दर्जनों लेखकों के स्थान पर स्थापित करने के पीछे मेरा तर्क है कि उन्नीसवीं सदी में निर्मित हो रहे नए हिंदी समाज का जातीय चरित्र पहली बार नैन सिंह रावत के गद्य में  दिखाई देता है. रामप्रसाद निरंजनी और दौलत राम तो रीतिकालीन-ब्रजभाषा कविता की परम्परा के गद्यकार हैं, फोर्ट विलियम कॉलेज के चारों भाषा-मुंशी भी भाषा के खड़ी-बोली विन्यास के बावजूद हिंदी समाज का कोई अपना चरित्र निर्मित करते नहीं दिखाई देते. निश्चय ही भारतेंदु-मंडल के गद्यकारों से यह प्रवृत्ति शुरू होती है, ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर लोग या तो नैनसिंह रावत से उम्र में छोटे हैं या उनके समकालीन हैं. इस सन्दर्भ में भी खास बात यह है कि नैनसिंह का गद्य उस गौमुख-समाज की भाषा है, जहाँ से जन्म लेकर आधुनिक खड़ीबोली हिंदी का भारतीय चरित्र उभरा. इसलिए नैनसिंह के गद्य को सिर्फ एक नई जन्म ले रही भाषा के नमूनों के रूप में नहीं, नए बन रहे हिंदी समाज की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए.

जरा नैनसिंह की भाषा पर नजर डालें. नीचे दिए गए उद्धरण उमा भट्ट और शेखर पाठक द्वारा सम्पादित किताब एशिया की पीठ परके दूसरे खंड से लिए गए हैं. 

लामे लोग वड़े वड़े आसनों में वैठकर पोथी पढ़कर पूजा में लगे रहते हैं  पर तमाशा यह है कि पूजा के समय मास कोई नहीं खाता  जहां तक मास की मुमानियत है कि जिस किसी लामा ने अपने रहने के मकान में मास खाया हो तो पूजा के समय जव तक थोड़ी सी सत्तू न फांक लेवे पूजा की पोथियों को न पढ़ने लगे  सत्तू का फांक लेना इन लोगों का दतून और कुल्ली करना है” (पेज 210)
नैन सिंह रावत


अब जरा नैनसिंह रावत का यह विवरण देखें. भाषा और कथन-भंगिमा में किस कदर लयात्मकता और व्यंग्यात्मकता है

क्या खूव हमारे कुमाऊ के पन्त पांडे जोशी लोग अपनी सेखी और बढपन के मारे जव वाजार के भीतर जाते हैं तो पानी का छीटा लेते हैं  जब वही लोग नैपाल को जाते हैं इनके रसोई चौके के टहल में नेवार जाति के भैंस और मुर्गी अंडेखोर नजर आते हैं (पेज 211)

यह है खड़ीबोली हिंदी का प्रारंभिक गद्य.

नैनसिंह रावत एक सर्वेक्षक थे जिन्होंने भले ही औपनिवेशिक शासकों के गुप्तचर के रूप में बर्फीले हिमालय के बीच एक नया रास्ता खोजा, मगर वह खुद नहीं जानते थे कि इस यात्रा के दौरान उन्होंने एक और बड़ी यात्रा तय की, जो थी आधुनिक भारत की संपर्क भाषा के राजपथ के निर्माण के लिए रोपा गया मील का पहला पत्थर.

अंत में, हम पर्वतवासीकहानी-संग्रह की भूमिका में प्रसिद्ध आर्मीनियाई आलोचक ग्रान्त मारतीरोसियानके द्वारा अपने देश के युवा लेखकों के लिए लिखे गए इन शब्दों को उद्धृत करना चाहूँगा जो आज नैनसिंह रावत के युवा उत्तराधिकारियों के लिए भी उतने ही प्रासंगिक हैं :

युवा पीढ़ी को प्रशिक्षित करने का कार्य आज के आर्मीनियन कहानियों के सम्मुख उपस्थित बहुत से भिन्न-भिन्न दायित्वों में एक है. कहानी लेखन की ओर अधिक-से-अधिक नए-नए आर्मीनियाई लेखक आकृष्ट हो रहे हैं. जिस तरह आर्मीनियाई साहित्य प्रतिभा संपन्न है, उसी तरह इस साहित्य का निर्माण करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली हैं.  जब तक आर्मीनियाई कथाकारों ने अपने सुन्दर देश का भविष्य अपने हाथों में नहीं ले लिया, इनका दो हजार साल पुराना इतिहास कई परीक्षाओं से गुजरता रहा है.
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लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’
batrohi@gmail.com
mob. 9412084322

सबद भेद : उदय प्रकाश का कथा संसार : संतोष अर्श

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संतोष अर्श कविताएँ लिखते हैं, इधर उनके कुछ आलोचनात्मक लेखों ने भी ध्यान खींचा है.
प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश की कहानियों की संरचना में विन्यस्त वैचारिकी, संवेदना और शिल्प पर विस्तार से इस आलेख में उन्होंने अपनी बात रखी है.
उदय प्रकाश का आज जन्म दिन भी है. मुबारकबाद.

नए वर्ष का स्वागत, आप सबको शुभकामनाएँ.
उम्मीद है समालोचन के साथ आप सबकी यह यात्रा रचनात्मक और सार्थक रहेगी.


उदय प्रकाश का कथा-साहित्य: विचार और संवेदना                  

संतोष अर्श 

असल में जब इतिहास में स्वप्न,यथार्थ में कल्पना,तथ्य में फैंटेसी और अतीत में भविष्य को मिलाया जाता है तो आख्यान में लीला शुरू होती है और एक ऐसी माया का जन्म होता है,जिसका साक्षात्कार सत्य की खोज की ओर एक यात्रा ही है. इसीलिए हर लीला और प्रत्येक माया उतनी ही सच होती है जितना स्वयं इतिहास.   
: उदय प्रकाश
उदय प्रकाश का कथा-साहित्य जितना संश्लिष्ट है उतना ही विचारोत्तेजक भी है. समकालीन हिन्दी-कथा-साहित्य में उदय प्रकाश का आविर्भाव एक परिवर्तनकारीघटना है. उन्होंने शिल्प तथा भाषा-शैली के स्तरों पर अपने आपको बेजोड़ तो साबित किया ही साथ ही साथ उनके साहित्य का वैचारिक और संवेदनात्मक रूप विरल और नए प्रतिमानों को स्थापित करने वाला है. उन्होंने अपने समय की नब्ज़ को बहुत ही बारीक़ी से देख-सुन-अनुभव कर समझा और अपने गतिशील रचना-कर्म से उसे गढ़ा है. उनकी रचनाधर्मिता हिंदी कथा-साहित्य के लिए वरदान सिद्ध हुई. उनका कथा-साहित्य हिन्दी कथा-साहित्य की परंपरा में आधिकारिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है. पिछले दो-तीन दशकों में दुनिया में जो परिवर्तन हुए उनकी गति इतनी अधिक थी कि साहित्य को उसके साथ दौड़ पाने में बहुत मुश्किल हुई और वह पीछे छूट गया. केवल साहित्य ही नहीं परिवर्तन की इस गति के परस्पर न चल पाने के कारण बहुत सारे नैतिक,सांस्कृतिक मूल्य भी पीछे छूट गए. इस आँधी में समाज की चूलें हिल गईं और उसका रूढ़ ढाँचा छिन्न-भिन्न हो गया. इन हालातों में हिंदी कथा-साहित्य के सामने जो चुनौतियाँ आईं वे पिछले समय की अपेक्षा अधिक कड़ी थीं. बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक इस संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण था.
समकालीन कहानी की चुनौतियों व उसके गतिरोध के संदर्भ में शंभु गुप्तलिखते हैं- “अकहानी और समांतर नाम के कहानी-आंदोलनों में अनेकानेक नाम ऐसे थे जो उस समय बड़ी प्रमुखता से उछले थे और जिन्होंने सारे आकाश को छा दिया था;आज उन नामों का कहीं कोई अता-पता नहीं है. कौन काल के किस गाल में समा गया,पता नहीं ! गतिरोध उनको खा गया. वे पुनर्यौवन न प्राप्त कर सके. अतः गतिरोध की समस्या कोई मामूली समस्या नहीं है. यह लेखक की न केवल प्रतिभा या लेखकीय क्षमता से जुड़ी हुई है बल्कि प्रकारांतर से यह उसकी जीवन-दृष्टि (विज़न) और उसके व्यक्तिगत जीवन-व्यवहार से भी गहरे सम्बद्ध होती है. दिल्ली में ऐसे अनेकानेक लेखक हैं जो शुरू-शुरू में बड़ी तेज़ी से उभरकर सामने आए लेकिन बाद में या तो,उनकी शक्ति चुक गई या फिर उन्हें मीडिया खा गया या फिर दिल्ली उन्हें चट कर गई ! तो,गतिरोध की समस्या इस तरह बहुआयामी और बहुस्तरीय है. गतिरोध के संदर्भ में बात करना इसलिए और भी ज़रूरी है कि ऐसा अधिकतर कहानीकारों के साथ ही होता है.”1उदय प्रकाश ने इस गतिरोध को परे हटाते हुए हिन्दी-कहानी को गत्यात्मकता प्रदान की. उन्होंने अपने सामाजिक,आर्थिक और ऐतिहासिक यथार्थबोध को अपनी कहानियों में फलीभूत किया जिसने हिन्दी कहानी के मेयार को और बुलंद किया तथा उसे सार्वभौमिकता प्रदान की.                
उदय प्रकाश के समय में साहित्य में जिस प्रतिरोधी संवेदनात्मक शक्ति की ज़रूरत थी उस ज़रूरत के सामने भाषा की सृजनात्मक संभावनाएँ क्षीण होने लगी थीं. उदय प्रकाश ने अपने समय को पहचानने में एहतियात बरती. शायद इसीलिए वे समकालीन हिंदी कथा-साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार बनकर सामने आए. उनकी कहानियाँ न केवल वैचारिक स्तर पर अपनी समकालीन कहानियों से अलग हैं बल्कि शिल्प और रचना-विधान में भी वे नितांत मौलिक साबित हुईं. तमाम आलोचकीय और साहित्यिक विवादों के बाद भी उदय प्रकाश हिंदी के समकालीन कथा-साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं. क़िस्सागोई की प्राचीन भारतीय परंपरा का उन्होंने अपनी कहानियों में विकास किया है. उनकी कहानियाँ भारतीय ग्राम-जीवन के यथार्थ के साथ-साथ शहरी विसंगतियों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज और संस्कृति के परिवर्तनों का जीवंत वर्णन है. वे कहानी लिखते नहीं हैं कहते हैं,और यह प्रेमचंदी कथा-साहित्य की परंपरा का अग्रगामी पहलू है. उनका रचनाकर्म जन सरोकारों से गहरे जुड़ा है. सामाजिक और ऐतिहासिक यथार्थबोध की दृष्टि से उनका कथा-साहित्य नायाब है. यहाँ हम उदय प्रकाश की कुछ ऐसी ही कहानियों को आधार बनाकर उन पर चर्चा करेंगे. 
और अंत में प्रार्थनाके डॉक्टर दिनेश मनोहर वाकणकर भारत के फ़ासिस्ट दक्षिणपंथी संगठन के सदस्य होते हुए भी एक प्रगतिशील ज़िम्मेदार डॉक्टर की मौत मरते हैं. इस कहानी पर अक्सर आरोप लगता रहा है कि यह एक मार्क्सवादी कथाकार द्वारा दक्षिणपंथ का महिमामंडन और प्रचार है. लेकिन यह धारणा सतही स्तर का कुतर्क है. डॉक्टर वाकणकर दक्षिणपंथ के पूँजीवादी आधार को बेनक़ाब करते हैं. थुकरामहाराज की मृत्यु भी यही दर्शाती है. डॉक्टर वाकणकर की अपने पेशे के प्रति ईमानदारी दरअसल भारतीय ईमानदारी का आखिरी चरण भी है जिसका अंत इतना आसान नहीं है. ईमानदारी को फँसाकर मार दिया जाना उसे अमर कर देना है. अपनी शिल्पगत विशेषताओं से पुष्ट इस कहानी में कई विषयों का समाहार हुआ है. उदय प्रकाश का यह अपना मौलिक और विलक्षण तरीका है कि वे अपनी कहानी को कुछ भी कहने की छूट देते हैं और वह तमाम बातें अपने एक धागे के सहारे कह जाती है. “डॉक्टर वाकणकर को कई बार संदेह होने लगता है कि क्या सचमुच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण देश-भर में हिंदू धर्म के मतावलम्बियों के भीतर किसी सामुदायिक किस्म की कौटुंबिक भावना पैदा करने,उनमें नई जागृति लाने,अपनी रूढ़ियों को त्यागने तथा वेदों,उपनिषदों,पुराणों में वर्णित धर्म के मूल स्वरूप को अंगीकार करने की प्रवृत्ति पैदा करने के लिए हुआ है,या इसका कोई दूसरा मक़सद है,जिसे यह बख़ूबी पूरा कर रहा है. इस बात को सर संघ चालक और दूसरे अधिकारी जानते हैं,इसीलिए वे इतने में ही संतुष्ट हैं. डॉक्टर वाकणकर जितना सोचते,उनके भीतर बेचैनी और असंतोष उतना ही बढ़ता. वे संघ को अपना मानते थे,अपने जीवन के लगभग पच्चीस वर्ष उन्होंने इसे सौंपे थे,ऐसा हो कैसे सकता था कि वे उससे खुद को निस्संग और उदासीन बना पाते.”2
संघ को अपना मानने के बावजूद आख़िर ऐसी क्या बात थी जिसके कारण डॉक्टर वाकणकर उसी संघ के हाथों प्रताड़ित किए जाने के आघात से अकाल मौत मरते हैं ?उनकी मृत्यु के पीछे एक पूरी की पूरी फ़ासीवादी विचारधारा जिसमें पूँजी का भ्रष्ट निवेश और धर्म आधारित सांप्रदायिक राजनीति भी सम्मिलित है, की साजिशें हैं. वाकणकर की मृत्यु को प्रगतिशीलता का एक प्रतिरोध माना जा सकता है लेकिन थुकरा महाराज की मौत को कैसे विश्लेषित किया जाय ?वे भी तो ब्राह्मणवादी कुसंस्कारों से ग्रस्त एक विपन्न,संघ के कार्यकर्ता ही हैं. उसे लगता था कि संघ की राजनीति से ही उसके जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटेगा. लेकिन यह घटना उसकी मृत्यु के रूप में होती है. कहानी के इस प्रकरण पर शंभु गुप्तका कहना है, “इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि डॉक्टर वाकणकर की निगाह में सिद्धान्त और व्यवहार दो भिन्न स्थितियाँ नहीं हैं,वे पानी और लहर या कि शब्द और उसके अर्थ की तरह अभिन्न और एक हैं. इस लिहाज से थुकरा महराज की मौत उनके लिए और जैसे एक उज्ज्वल संभावनाशीलता की ही मौत थी. वे थुकरा महराज की निश्छलता,गरीबी,भावुकता,संघ के प्रति ग्रामीण निष्ठा इत्यादि पर फिदा थे तो दरअसल इसलिए कि उन्हें उम्मीद थी कि थुकरा महराज एक न एक दिन संघ का कार्यकर्ता बने रहने के बावज़ूद अपने ब्राह्मणवादी/नस्लवादी संस्कारों से मुक्ति पाकर उस रास्ते पर चल निकलेंगे जिस पर वे खुद चलते आ रहे हैं और जिसे ही वह सबसे उपयुक्त और मानवीय रास्ता समझते हैं. यह रास्ता चाहे संघ के फ़ासीवादी रवैये से मेल न खाता हो और उसकी खिलाफ़त करता हो;लेकिन संघ से जुड़े होते हुए भी उन्हें सिर्फ़ इसी रास्ते पर चलना है चाहे आगे चलकर वे दूध में मक्खी की तरह निचोड़कर बाहर कर दिये जाएँ.”3
कहानी प्रश्नों के उत्तर को अनकहा रखती है. डॉक्टर वाकणकर थुकरा महराज के रूप में एक मौत पहले ही मर चुके थे. यहाँ पर पूँजी,राजनीति और धर्म के भ्रष्ट अंतर्संबंधों की जो पड़ताल की गयी है वह कहानी का मूल कथ्य है. भारतीय नौकरशाही और पुलिस प्रशासन का यथार्थ बताने वाली उदय प्रकाश की यह कोई अकेली कहानी नहीं है लेकिन इसमें आदिवासी प्रश्नों का उठना महत्वपूर्ण है. आर.एस.एस. के प्रचार को लेकर इस कहानी पर चस्पा किए गए कुतर्कों और साहित्य की हल्की समझ रखने वालों के लिए शंभु गुप्त का यह लिखना ठीक है,और इससे पूर्ण सहमत हुआ जा सकता है कि- “उदय प्रकाश यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की महिमा का आख्यान करने में नहीं लगे थे;जैसा कि बहुत सारे लोगों ने उन पर आरोप मढ़ा था;बल्कि डॉक्टर वाकणकर की तरह बल्कि एक तरह से उनकी मार्फ़त इस तथाकथित सांस्कृतिक और गैर-राजनीतिक महासंगठन को,इसकी घोषित विचारधारा/सैद्धांतिकता को,इससे जुड़े लोगों की रोज़मर्रा की सारी की सारी गतिविधियों/आचरण को नियम और नैतिकता की कसौटी पर कस रहे थे. नियम और नैतिकता की इस व्यापक मानवीय और लोकतान्त्रिक कसौटी पर यह संगठन और इसके प्रतीक/प्रतिनिधि लोग खरे नहीं उतरे;उतर नहीं सकते थे;क्योंकि इस संगठन की नींव ही गड़बड़ और ग़लत थी;वह फ़ासीवादी क्रूर और हिंसक थी अतः अनुचित और अतार्किक थी-;यह इस कहानी का निष्कर्ष है.”4
ब्राह्मणवाद के विरोध में उदय प्रकाश के तेवर और उनकी निष्ठा सराहनीय है. उन्होंने इसके बदले में निजी जीवन में जो कष्ट उठाए हों और यंत्रणाएँ सहन की हों वह अलग बात है लेकिन उनका कथा-साहित्य अपनी इस प्रतिरोधात्मक ज़िद पर अड़ा रहता है. यह प्रतिरोध की शक्ति उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फूले जैसे इतिहास के महानायकों से ग्रहण की है. मोहन दासके पेशलफ़्ज़ में उन्होंने महात्मा फूले की पुस्तक ‘Slavery’से कुछ पंक्तियाँ कोट की हैं. The most glaring tendency of the British Government system of high class education has been the virtual monopoly of all higher offices under them by the Brahmins.”5भारतीय समाज की जातिवादी संरचना में ब्राह्मणवाद की भूमिका जातिवाद को बढ़ाने और लाभ के आर्थिक अवसरों को अन्य किसी के हाथ में न जाने देने की लामबंदी के रूप में रही है. ब्राह्मणवाद को एक ट्रान्सफोबिया भी रहा है और उसके भीतर का हिजड़त्व सदैव यह समझने लगता है कि ब्राह्मणवाद का विरोध ब्राह्मण जाति का विरोध है. यद्यपि ऐसा है नहीं ! ब्राह्मणवाद का विरोध स्वयं ब्राह्मणों ने भी किया है. स्वयं ब्राह्मण उसके शिकार भी हुए हैं. कोई गैर ब्राह्मण यदि ब्राह्मणवाद का विरोध करे तो वह ब्राह्मण जाति का शत्रु ही बन जाता है. ग़ुलामगीरीकी प्रस्तावना में महात्मा फूले ने लिखा है- “अपनी इस चाल,विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जातिभेद की फौलादी ज़हरीली दीवारें खड़ी करके उन्होंने इसके समर्थन में अपने जातीय स्वार्थ सिद्धि के कई ग्रंथ लिख डाले. कुछ लोग जो ब्राह्मणों के साथ बड़ी कड़ाई और ज़िद से लड़े उनका ब्राह्मणों ने एक वर्ग ही अलग कर दिया. परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बंद हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मुहताज हो गए. इसलिए इन लोगों को जीने के लिए मजबूर होकर मरे हुए जानवरों का माँस खाना पड़ा. उनके इस आचार-व्यवहार को देखकर आज के शूद्र जो बहुत ही अहंकार से अपने आपको माली,कुणवी,सुनार,दर्जी,लुहार,बढ़ाई,तेली,कुर्मी आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएँ लगाते हैं,क्योंकि वे लोग केवल इस प्रकार का व्यवसाय करते हैं और ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के बहकावे में आकर एक-दूसरे से घृणा करना सीख गए हैं. ये लोग भगवान की निगाह में कितने अपराधी हैं इन सबका आपस में इतना नजदीकी संबंध होने पर भी किसी तीज-त्यौहार को ये उनके दरवाजे पर दूर से ही पका-पकाया भोजन माँगने के लिए आ जाते हैं तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से देखते हैं. इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया उनसे उन्होंने उसके अनुसार ही उनको जातियों में बाँटकर एक तरह से सजा सुना दी.”6
ब्राह्मणवाद के विरोध का यही तर्कानुमोदित और न्यायसंगत नुस्ख़ा उदय प्रकाश ने अपनाया है.मोहन दासमें मोहन दास की नौकरी हड़पकर उसे प्रताड़ित करने वाला बिसनाथब्राह्मण जाति का ही है. वास्तव में बिसनाथभारतीय समाज में जड़ें जमाये हुए ब्राह्मणवाद का प्रतीक है. इन प्रतीकों,पात्रों से उदय प्रकाश अपने कथा-साहित्य में ब्राह्मणवाद के भयानक षड्यंत्रों को सामने लाते हैं. मोहन दासमें एक संवाद इस प्रकार है- ये नन्द किशोर है तो भखार का ढीमर,लेकिन यहाँ बांभन बन के वैष्णव शाकाहारी शाकाहारी होटल चला रहा है. सजनपुर के चौबे घराने से बहू भी बियाह लाया है ससुर. पंडिज्जीकहो तो भकभका के फूलकर गुप्पा हो जाता है.
अच्छा है ! बिरादरी बढ़ती है.विजय तिवारी ने कहा.....”7
ब्राह्मणवाद अपनी जातिगत श्रेष्ठता का दावा करता है और दूसरी जाति को हेय समझता है. इसीलिए अन्य जातियों की प्रगति से वह कुंठित होने लगता है. उदय प्रकाश भारतीय समाज में व्याप्त इस सड़ी-गली विचारधारा का विरोध अपनी चिर-परिचित शैली में करते हैं. दमन और उत्पीड़न करने वाले अफ़सर-पुलिसवाले,कलेक्टर,डिप्टी-कलेक्टर,तहसीलदार और पटवारी जैसे पात्र इसीलिए उदय प्रकाश ब्राह्मण जाति से चुनते हैं. यदि किसी ने बारीकी से भारतीय सामाजिक संरचना को देखा है तो यह कोई हवाई बात नहीं है. यह समाज का सबसे सच्चा और उसे प्रभावित करने वाला पहलू है. वे उन ब्राह्मण पात्रों का परिचय भी बताते हैं- “दोनों लड़के ताव-ताव में फँस गए. उन्हें पकड़कर धकियाते हुए थाने ले जाया गया. थाने में उस वक़्त इंस्पेक्टर नहीं था सिर्फ हेड कांस्टेबल पांडे था. पांडे देवरिया जिले का था और चौबीसों घंटे धुत्त रहता था. कोतमा में उसकी अच्छी आवभगत होती थी क्योंकि वह छुट्टे या अद्धा-पौवा लेकर ही छोटा-मोटा मामला निपटा देता था.”8मोहन दासमें बिसनाथकी मदद करने वाला पुलिसकर्मी भी विजय तिवारीहै. इन पात्रों और इनके संवादों के व्यंग्यार्थ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. ये ब्राह्मणवाद को एक ख़तरनाक,अश्लील और फ़ासिस्ट विचारधारा के रूप में प्रमाणित करते हैं.
पीली छतरी वाली लड़कीइस विषय मेंविवादित भी रहीहै. यहाँ ब्राह्मणवाद का विरोध रैडिकलीहुआ है. हिन्दी भाषा और साहित्य के अकादमिक संस्थानों में ब्राह्मणवाद के आतंक को यह लघु उपन्यास कुछ-कुछ अतिवाद के साथ प्रस्तुत करता है. लेकिन क्या यह हमारे अकादमिक संस्थानों की सच्चाई नहीं है ?इसे सिरे से खारिज़ नहीं किया जा सकता. इस कहानी में ऐसे कई उच्छेद आए हैं जिनमें ब्राह्मणवाद का वास्तविक रूप पेश-पेश है. रावण की हरामी औलादोंजैसी शब्दावली का प्रयोग,ब्राह्मणवाद के विरोध में उदय प्रकाश ने पहले-पहल लिखित रूप में किया है. कथा में हिन्दी की अकादमिक दुनिया का वातावरण इस प्रकार चित्रित हुआ है- “डॉ. राजेन्द्र तिवारी का पीरियड ख़त्म हुआ. उन्होंने विद्यापति पढ़ाया था. पयोधर,कुच,कटि,रति,मदन जैसे शब्दों का रस ले लेकर,मिचमिची आँखों में छलकती कामुकता और लंपटता के साथ उन्होंने अर्थसमझाया था. स्त्री उनके लिए कुच,कटि,पयोधर और त्रिबली थी. लड़कियों की गर्दनें नीची थीं. बलराम पांडे,विजय पचौरी,विमल शुक्ल,विभूति प्रसाद मिश्रा सब एक-दूसरे को कनखियों से देखकर मुस्करा रहे थे.”9
हिंदी भाषा और साहित्य की रचनात्मक और अकादमिक दुनिया को साफ-सुथरा करने के लिए कई बड़े रचनाकारों ने ब्राह्मणवाद का विरोध किया है. वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक स्वर्गीय राजेन्द्र यादव ने अपनी साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से ब्राह्मणवाद को निशाना बनाया था और विश्व हिन्दू परिषद ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी थी. यहाँ तक कि हिंदी के ब्राह्मणवादी गुटों द्वारा हिंदी साहित्य जगत से बहिष्कृत कर दिये जाने के कारण उन्हें एक साहित्य अकादमी पुरस्कार तक नहीं दिया गया. हिंदी जगत की इन्हीं विसंगतियों को उदय प्रकाश ने अपने इस उपन्यास में चित्रित किया है. विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की स्थिति इस प्रकार है- “और दूसरी बात यह है कि राहुल ने हिंदी विभाग में एडमीशन लेकर इसलिए भयानक गलती की है क्योंकि उस विभाग में चपरासी से लेकर हेड ऑफ दि डिपार्टमेन्ट तक सब के सब ब्राह्मण हैं. एम.ए. प्रीवियस में भी राहुल,शालिगराम और शैलेंद्र जॉर्ज के अलावा बाकी सभी.”10केवल इतने से ही नहीं उदय प्रकाश ने  ब्राह्मण जाति की आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक अवस्थिति की पड़ताल भी की है- “लेकिन एक जाति ऐसी है,जिसने अपनी जगह स्टेटिकबनाए रखी है. बिलकुल स्थिर. सबसे ऊपर. हजारों साल से...वह जाति है ब्राह्मण. शारीरिक श्रम से मुक्त. दूसरों के परिश्रम,बलिदान और संघर्ष को भोगने वाली संस्कृति की दुर्लभ प्रतिनिधि. इस जाति ने अपने लिए श्रम से अवकाश का एक ऐसा स्वर्गलोकबनाया,जिसमें शताब्दियों से रहते हुए इसने भाषा,अंधविश्वासों,षडयंत्रों,सहिंताओं और मिथ्या के ऐसे माया लोक को जन्म दिया,जिसके ज़रिये वह अन्य जातियों की चेतना,उनके जीवन और इस तरह समूचे समाज पर शासन कर सके.”11पीली छतरी वाली लड़कीब्राह्मणवाद से सीधे-सीधे लोहा लेने वाली रचना है. यह ब्राह्मणवाद की संगठित फासीवादी विचारधारा का अतिवादी स्तर तक विरोध करती है. भारत में जातिवाद की समस्या की जड़ों तक जाने पर यह पता चलता है कि ब्राह्मणवाद ने ही जाति व्यवस्था की स्थापना की. इस संरचना में उन्होंने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरी जातियों को नीच माना. उन्होंने जाति के अतिरिक्त कुल एवं गोत्र नामक दो भेद और उत्पन्न किए. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को हल की मूठ छूने की मनाही थी. ऐसे ही तमाम मिथक ब्राह्मण जाति में प्रचलित रहे हैं. डॉ. भीमराव अंबेडकरने ब्राह्मणवाद पर चोट करते हुए कहा है- “ब्राह्मणों की मूलभूत चिंता गैर-ब्राह्मणों से निहित हितों की रक्षा करना है.”12केवल अपने हितों की रक्षा करने वाला किसी देश का वर्ग उस देश की संरचना को न केवल कमजोर करता है बल्कि द्वेष को भी जन्म देता है. इस तरह की जाति आधारित सामाजिक-संरचना से न कोई स्वस्थ समाज बन सकता है और न ही कोई राष्ट्र.
आख्यानपरक ब्यौरों का प्रयोग उदय प्रकाश की हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अत्यंत मौलिक शैली है. कहानी के साथ-साथ,मध्य में ब्यौरों का प्रयोग एक अर्द्ध-विराम जैसा प्रतीत होता है. पाठक उन ब्यौरों को कहानी साथ मिलाकर पढ़ता है तो उसे यह ज्ञात होता है की देशकाल की स्थिति उस समय क्या थी. हालाँकि बाद में उदय प्रकाश की देखा-देखी कई कथाकारों ने इस आख्यान शैली को अपनाया लेकिन उनमें भाषा की वह अम्लीय तरलता नहीं है जो उदय प्रकाश में है. इसलिए वे केवल अपने कथानक में अवरोध उत्पन्न करके रह जाते हैं. कथानक की शार्पनेस इन ब्यौरों से और भी बढ़ जाती है. मोहन दासमें इसका बेहतरीन प्रयोग है. कुछ आलोचकों ने बेमन से इसे बोधगम्यता में बाधक बताया है. लेकिन मैं समझता हूँ कि कथा के समानांतर इन ब्यौरों को पढ़ने-समझने की प्रक्रिया एक प्रकार की संप्रेषणीयता पैदा करती है. भूमंडलीकरण,उदारीकरण,बाज़ारीकरण और उपभोक्तावाद को उदय प्रकाश अपनी विशिष्ट दृष्टि से देख कर प्रस्तुत करते हैं. मोहन दासमें यह पृथक रूप से है लेकिन उनकी अन्य कहानियों जैसे पीली छतरी वाली लड़की’, ‘वारेन हेस्टिंग का साँड़’, ‘दिल्ली की दीवार’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटरऔर अन्य छोटी-छोटी कहानियों में भी है. यह ब्यौरे इतनी स्फूर्ति से भरे होते हैं कि पाठक को झकझोर देते हैं- “ध्यान दीजिए यह ब्यौरा उसी समय का है जब हिंदुओं का जगद्गुरू अपने मठ में बैठा हुआ,एक स्त्री के साथ वही सब कुछ कर रहा था,जो हजारों किलोमीटर दूर,कई समुद्र पार,व्हाइट हाउस की कुर्सी पर बैठा अमेरिका का राष्ट्रपति कर रहा था. जब दज़ला और फ़रात नदी के पास किसी गड्ढे में अपनी जान बचाने के लिए छिपे हुए गिलगमेश के एक वंशज को पुराने समुद्री डाकुओं के वंशज बाहर खींचकर उसके दाँत गिन रहे थे.
ऐसा समय,जिसमें जिसके पास जितनी मात्रा में सत्ता थी,वह विलोमानुपात के नियम से,उतना ही अधिक निरंकुश,हिंस्र,बर्बर,अनैतिक और शैतान हो चुका था....और यह बात राष्ट्रों,राजनीतिक दलों,जातियों,धार्मिक समुदायों और व्यक्तियों तक एक जैसी लागू होती थी.”13
ऐतिहासिक ब्यौरों का प्रयोग भी उदय प्रकाश इसी प्रकार करते हैं. इससे क़िस्सागोई का लहजा प्रभावी होता है. लगता है कहानी सुनाई जा रही है. कहन प्रभावशाली हो जाती है. दिल्ली की दीवारसे एक उदाहरण इस प्रकार है- “कहते हैं अंग्रेज़ों के जमाने में जब जार्ज पंचम या चार्ल्स,पता नहीं दोनों में से कौन,हिंदुस्तान आए थे,तो यहीं के देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों के कैंप इसी जगह पर लगे थे. वे विलायत के अपने सम्राट का स्वागत करने यहाँ इकट्ठा हुए थे. कहते हैं कि वह स्वागत कुछ-कुछ वैसा ही था,जैसा अभी कुछ साल पहले अमेरिका के प्रेसिडेंट बिल क्लिंटन का स्वागत था. इसी जगह पर देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों ने अपने अंग्रेज़ सम्राट का राज्याभिषेक किया था,जिसे अंग्रेज़ी में कोरोनेशनकहते हैं और विलायती सम्राट ने यहाँ जो भाषण दिया था,उनके जाने के बाद उसे राष्ट्रीय अभिलेखागार में रख दिया गया था. भाषण की उस प्रति को हिंदुस्तान के इतिहास का एक अहम दस्तावेज़ माना जाता है.”14बतकही शैली में प्रस्तुत किए जाने वाले ये ब्यौरे कहानी की रोचकता में इजाफ़ा तो करते ही हैं साथ ही पाठक को मूल कहानी के प्रति अधिक संवेदनशील और सजग बनाते हैं. उसमें इतिहासबोध पैदा होता है और वह वर्तमान को अतीत से प्रभावित होते हुए देख पाता है या उन दोनों के अंतर्संबंधों के प्रति कोई दृष्टि विकसित कर पाता है. इतिहासबोध की बहुत उत्कृष्ट रचना वारेन हेस्टिंग का साँड़है. यह उदय प्रकाश के असाधारण और विलक्षण लेखन की मिसाल है.
ब्यौरों का प्रयोग एक रेज़िस्टेंसउत्पन्न करता है. उदय प्रकाश का कथा साहित्य प्रतिरोध का कथा साहित्य है. इसलिए उसमें पैनापन विचार के प्रवाह से आता है.“यही वह आदमी है,जिसके लिए संसार भर की औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं. तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलिसिस के ज़रिये रोएँ उखाड़े जा रहे हैं,जैसे पिछले समय में गड़रिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे. राहुल को साफ दिखाई देता कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर लड़कियाँ उन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी-पार्लर्स में मेमनों की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टाँगें छितरा कर बैठ जातीं. इन लड़कियों को टीवी बोल्ड एंड ब्यूटीफुलकहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद रिच एंड फ़ेमसथा.”15ऐसे ही तमाम आख्यान और ब्यौरे उनकी कहानियों में देखने को मिलते हैं. अपने समय की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसी प्रवाहमय प्रतिरोधात्मक शैली आवश्यक थी. उत्तर-आधुनिकता के सभी पहलू उनके कथा-साहित्य में मौजूद हैं. उदय प्रकाश ने अपने तमाम कथा साहित्य की रचना उस समय की जब दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही थी. भू-मंडलीकरण का सबसे अधिक प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों पर पड़ा. यह प्रभाव नकारात्मक अधिक थे. यहाँ संस्कृति और अस्मिता के संकट उत्पन्न हो गए. यहाँ की आदिम जातियों का जीवन संकट में पड़ गया. मुनाफ़ाखोरी ने मनुष्यता को लील लिया. इन सब प्रभावों के अक्स उदय प्रकाश का कथा-साहित्य अपने भीतर समेटे है.
विचारधारा के प्रति उदय प्रकाश पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं. ऐतिहासिक भौतिकवाद को उन्होंने अपनी अंतःप्रेरणा से और भी अधिक सरल बनाया है. उनकी कहानियाँ इसका पुरज़ोर उदाहरण हैं. मार्क्सवाद की समझ उन्हें सतही रूप में नहीं है,बल्कि वे विचारधारा को अपनी कहानियों की संरचना में माँजते और चमकाते हुए चलते हैं. उदाहरण के लिए उनकी एक लघुकथा श्रीमान भाववादीको लिया जा सकता है- “श्रीमान भाववादी यह मानते थे कि पदार्थ और चेतना में,चेतना ही महत्वपूर्ण होती है. चेतना प्रधान है,पदार्थ गौण है. वह कहते थे कि मेज़ या दरवाज़े की चौखट या कार बनाने की प्रक्रिया में पहले मेज़,दरवाज़े की चौखट या कार की अवधारणा जन्म लेती है. इसके बाद,उसी के आधार पर मेज़,दरवाज़े की चौखट का निर्माण होता है...............लेकिन वे अपने इस भाववादी दर्शन के प्रति वास्तव में सच्चे मन से ईमानदार थे. इसका प्रमाण यह है कि जब उनका सिर किसी चौखट से या घुटना किसी मेज़ से टकराता था,तो वे अपने माथे या घुटने को नहीं,मेज़ या चौखट को सहलाते हुए कहते थे : “आयम रियली वेरी सॉरी. आपको कहीं चोट तो नहीं आई?” लेकिन दुर्भाग्य से एक बार दिल्ली की सड़क पर वे अस्सी कि॰मी॰ प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती ब्लू लाइन बस से टकरा गए. इसके पहले कि वे ब्लू लाइन बस से यह पूछें कि,“बहन जी,आपको कहीं ठोकर तो नहीं लगी?”उनकी चेतना पदार्थ में बदल चुकी थी.”16मार्क्सवादी मटीरियलिज़्मअथवा भौतिकवाद को यह कहानी चुटीले और सहज-सरल रूप में प्रस्तुत करती है. मार्क्स द्वारा प्रस्तुत मनुष्य के मिथ्या चेतनामें रहने की अवधारणा को इसमें लक्षित किया जा सकता है. मार्क्सवादी कला-साहित्य सौंदर्यशास्त्र की व्यापक दृष्टि से उदय प्रकाश की कहानियों का अलग से विश्लेषण करने की आवश्यकता है. उदय प्रकाश स्वयं कहते हैं- “मार्क्स ने तो विचारधारा (आइडियोलॉजी) को समाज की अधिरचना (सुपर-स्ट्रक्चर) का ही लगभग पर्याय माना था,जिसमें राजनीति,धर्म,दर्शन,ललित कलाएँ,संस्कृति,विज्ञान,मिथ्या चेतनाएँ,आदि अनेक तत्व सम्मिलित थे. ये सब एक-दूसरे से अंतः संबंधित होते हुए एक-दूसरे के साथ द्वन्द्वात्मक प्रतिक्रियाओं के साथ संश्लिष्ट होते हैं.”17
जादुई यथार्थवादको लेकर भी उदय प्रकाश पर ख़ूब बहस हुई है. एक नया पाश्चात्य आलोचनात्मक संदर्भ जो उदय प्रकाश की कहानियों से जोड़ा गया वह है जादुई यथार्थवाद. हालाँकि लेखक स्वयं ऐसी किसी संभावना से इनकार करता है कि उसने अपनी कहानियों में जादुई यथार्थवाद को लक्षित किया है अथवा यह अनायास आ गया है. एक साक्षात्कार में जादुई यथार्थवाद पर प्रश्न किए जाने पर उदय प्रकाश उत्तर देते हुए कहते हैं- “लोग क्या कहते हैं,यह सुन-सुन कर मेरे कान पक चुके हैं. जादुई यथार्थवाद जैसी चीज़ से न मेरा पहले कोई संबंध था, न आज है. मेरी रचनाओं में इसे कुछ लोगों ने ढूँढा. लेकिन आप से मैं पहले भी कह चुका हूँ, ‘टेपचूमैंने लिखी 1976 में आपातकाल के दौर में. तब तो जादुई यथार्थवाद कोई नहीं जानता था,मेरे खयाल से नामवर सिंह भी नहीं जानते थे. तब कहीं इसका कोई हल्ला ही नहीं था.
टेपचूके बाद एक और कहानी लिखी गयी. मेरी कहानियों में कहीं कुछ ऐसा था जिसे पश्चिमी भाषा में मैजिकल कहा जा सकता है. और भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारी जो पूरी परंपरा रही है आख्यान की,जिसमें जातक,पंचतंत्र,दादी-नानी की कहानियाँ,लोककथाएँ आती हैं,उसमें पहले से यह बात है. मैं तो जानता भी नहीं था कि कुछ अनोखा काम कर रहा हूँ. लेकिन मेरी कहानियों में जादुई यथार्थवाद ढूँढने का काम किया कुछ आलोचकों ने.”18 जादुई यथार्थवाद को लेकर जिन प्रमुख कहानियों पर बात होती है वह हैं, तिरिछ’, ‘टेपचू’, और हीरालाल का भूत. कुछ आलोचक यह भी कहते हैं कि यथार्थवाद का यह जादुई रूप उदय प्रकाश ने मार्केज़से ग्रहण किया है. “जादुई यथार्थवाद एक परागामी शैली है;यह ठीक है किन्तु इसका आधार वास्तविक यथार्थ ही होता है. जादुई यथार्थवाद वास्तविक यथार्थ से परे जाने या कि उसका अतिक्रमण किए जाने की प्रक्रिया के तहत ही ईज़ाद हुआ था. ..........हिन्दी तथा विश्व-साहित्य के एक विज्ञ व तर्कशील पाठक अरुण माहेश्वरी की इस बात से असहमत होने का कोई कारण हमें नहीं दिखता- लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवाद की सारी शक्ति आदमी के भौतिक जगत और आत्मिक जगत – दोनों के ही विस्मयों के द्वंद्वात्मक सह-अस्तित्व को तलवार की धार पर चलने के संतुलन और रोमांच के साथ व्यक्त करने में निहित रही है. गोबर युग से लेकर रॉकेट युग,इलेक्ट्रानिक युग तक के यथार्थ के संश्लिष्ट जीवन को व्यक्त करने की जिस शक्ति का परिचय मार्क्वेज़ ने दिया है,वह शैली तीसरी दुनिया के सारे देशों के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये कारगर हो सकती है.(हंस;अर्द्धशती विशेषांक: खंड-1 अगस्त-सितंबर, 1997;पृ॰7).”19
राजेन्द्र यादवका यह कहना कि उदय प्रकाश मार्केज़से प्रभावित हैं कोई बड़ी बहस की बात नहीं है. कोई भी लेखक किसी लेखक से प्रभावित अवश्य होता है. जादुई यथार्थवाद भी कोई ऐसी बुरी विषय-वस्तु नहीं है. यह भारतीय कथा साहित्य की परंपरा में विद्यमान रहा है. देश-विदेश की लोक-कथाओं में यह अपने विभिन्न रूपों में विद्यमान रहा है. प्रायः लैटिन अमेरिकी उपन्यासकारों मार्केज़’, ‘बार्खेससे जोड़कर इसकी चर्चा की जाती है. किन्तु यह ऐसी कोई आसमानी वस्तु नहीं जिस पर विवाद उत्पन्न किया जाय. “औपनिवेशिक काल में योरोपीय शासकों को अपने शासित देशों के समाज की जो परम्पराएँ,जो मान्यताएँ समझ में नहीं आयीं उसे उन्होंने जादू-टोने की संज्ञा दे दी. बजाय इसके कि उसकी जटिलताओं को समझते और उनके प्रति लोगों की आस्थाओं को समझते. तो यह वही जादुई यथार्थवाद है. इसे विरूद्धों के सामंजस्य की शैली में भी पढ़ा जा सकता है. यह सामंजस्य लौकिक-अलौकिक के सम्मिलन के रूप में दिखाई देता है तो शहरी और ग्रामीण परम्पराओं के सामंजस्य के रूप में भी दिखाई देता है जिसे हाइब्रिड कहा जाता है. कभी-कभी उसे हालत की भयावहता को दिखाने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है. उदाहरण के लिए वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूडमें यह दिखाया गया है कि जब केला-बागान के मज़दूरों का क़त्लेआम हुआ तो मकोन्दो में पाँच साल तक बारिश होती रही और उस बारिश में उस नरसंहार के सारे निशान धुल गए.”20
मार्केज़से प्रभावित होने के कारण उदय प्रकाश की रचनाओं में जादुई यथार्थवाद आ गया है यह कहना अनुचित है. भारतीय समाज में ऐसे मिथक बहुत हैं जो जादुई यथार्थवाद जैसे ही हैं. जैसे गाँवों में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर वर्षा होना,किसी के मरने से पहले बिल्ली और कुत्तों का रोना आदि आदि. और यदि इसे जादुई यथार्थवाद मान लिया जाय तो परंपरागत भारतीय कथा-साहित्य जादुई यथार्थवाद का ख़जाना है. हीरालाल का भूतमें जो जादुई यथार्थवाद आया है वह उसी गँवई परिवेश के मिथकों पर आधारित है. वहाँ ठाकुर हरपाल सिंह के घर में जो घटित हो रहा है वह उसकी अपरोधबोधग्रस्त मानसिकता के कारण है.“इतना ही नहीं,कभी-कभी ठाकुर हरपालसिंह संडासघर में टट्टी करने जाते तो बाहर से कोई साँकल चढ़ा जाता और उन्हें देर तक उसमें बंद होकर आवाज़ें लगानी पड़तीं. एक रात तो गजब ही हो गया. सरला बेबी को लगा कि रात में कोई उनकी छाती पर चढ़ गया और ऐसी-वैसी जगह हाथ डालने लगा. उन्होंने उठना चाहा,बोलना चाहा,चीखना चाहा,लेकिन सब बेकार. शरीर का कोई भी हिस्सा उनका साथ नहीं दे रहा था. सब सुन्न हो गया था. रात ज़्यादा भी नहीं हुई थी. किसी ने अचानक उसके ट्रांजिस्टर की आवाज़ ख़ूब ऊँची कर दी और इसके बाद सुबह उन्हें होश आया तो उनके शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था और रात में उनके साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती कर डाली गयी थी.”21
यहाँ पर घटनाएँ स्वाभाविक ढंग से घट रही हैं. इनमें जो रहस्यमयता है वह ग्रामीण जीवन की एक सहज और प्रचलित प्रवृत्ति भर है. हीरालाल के साथ हुए अन्याय को इन घटनाओं के माध्यम से शमित किया गया है. बुराई को उसके अपराधबोध के साथ उसका दंड भुगतने के लिए छोड़ दिया गया है. इस प्रकार हम पाते हैं कि उदय प्रकाश की कहानियों में जादुई यथार्थवाद लक्षित नहीं है वह स्वतः आ गया है और भारतीय कथा-साहित्य के लिए यह कोई नई बात नहीं है. पंचतंत्र से लेकर जातक कथाओं तक यही जादुई यथार्थवाद देखने को मिलता है. प्रेमचंद की कहानियों से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों तक जादुई यथार्थवाद व्याप्त है. इसके लिए उदय प्रकाश को विवादास्पद करना निकृष्ट,आलोचकीय दृष्टि होगी. क्योंकि यह उदय प्रकाश की कुछ कहानियों में आता भी है तो सकारात्मक रूप धारण करके.
तिरिछ अपने शिल्प और कथानक की दृष्टि से अनूठी रचना है. ग्रामीण मिथकीय जीवन के साथ इसमें उदय प्रकाश ने फैंटेसी का प्रयोग भी किया है. वे मूलतः कवि हैं और इस कहानी में उनका कवि रूप मुखर हुआ है. उनके पास गत्यात्मक गद्य है जो गीत की सी बोली बोलता है और कविता जैसा आभास पैदा करता है. यह गद्य का गीत उनकी आत्मकथात्मक कहानियों में भी देखा जा सकता है. नेलकटरऔर डिबियाइस दृष्टि से सघन अनुभूति और भावोद्रेक की कहानियाँ हैं . “क्योंकि चीज़ें कभी खोती नहीं है. वे तो रहती ही हैं. अपने पूरे अस्तित्व और वज़न के साथ. सिर्फ़ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं.”22यह काव्यात्मकता उनकी डिबियाआत्मकथा में भी है- “लेकिन जो नहीं है,उसके लिए,जो है,उसे दाँव पर लगाना क्या कोई समझदारी है !”23
तिरिछपर यह आरोप लगाया गया कि वह मार्केज़की ‘Chronicle of a Death Foretold’की नकल है. यह कहने वालों ने निश्चय ही मार्केज़की इस किताब को नहीं पढ़ा है. घट चुकी घटना को नरेटर के माध्यम से वर्णित करने की शैली का प्रयोग दोनों कहानियों में है,यह स्वीकार किया जा सकता है लेकिन सीधे-सीधे नकल कह देना अनुचित ही नहीं एक तरह का पूर्वग्रह और लांछन है. घटनाक्रम का वर्णन,स्वप्न और फैंटेसी दोनों कहानियों में है. ‘Chronicle of a Death Foretold’की शुरुआत में ही बताया गया है कि ‘Santiago Nasar’पेड़ों के स्वप्न देखता है. इसमें नरेटर को उसके विषय में सारी जानकारियाँ उसकी माँ से मिलती हैं. तिरिछमें नरेटर स्वयं मृतक का पुत्र है जो अपने पिता की सभी प्रवृत्तियों से अवगत है. वह भी सपने में तिरिछ को बार-बार देखता है और भयाक्रांत होता है. “मैं गोल-गोल चक्कर लगाता,जल्दी-जल्दी पास-पास डग भरकर अचानक खूब लंबी-लंबी छलाँगें लगाने लगता,उड़ने की कोशिश करता, किसी जगह पर चढ़ जाता,लेकिन मेरी हज़ार कोशिशों के बावजूद वह चकमा नहीं खाता था. वह मुझे बहुत घाघ,समझदार,चतुर और खतरनाक लगता. मुझे लगता कि वह मुझे खूब अच्छी तरह से जानता है. उसकी आँखों में मेरे लिए परिचय की जो चमक थी,उससे मुझे लगता कि वह मेरा ऐसा शत्रु है जिसे मेरे दिमाग में आने वाले हर विचार के बारे में पता है.”24        
तिरिछअपने रचना-विधान में अत्यंत मौलिक और हिन्दी की उत्कृष्ट कहानी है. इसका ग्रामीण भावबोध शहरी पूँजीवाद की स्थितियों का स्पष्ट पता देता है. फैंटेसी का प्रयोग कहानी को और भी यथार्थवादी आधार प्रदान करता है.
उदय प्रकाश का कथा साहित्य अपनी संवेदनात्मक संश्लिष्टता,शिल्प की नवीनता और कथानक की कसावट से अद्भुत प्रभाव पैदा करता है और पाठक के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है. उसकी पक्षधरता स्पष्ट है. वह टेपचूके साथ अंत तक खड़ा है और उसे मरने नहीं देता. उदय प्रकाश ने ग्रामीण यथार्थ के साथ शहरी यथार्थ को मिलाकर ऐसे अनूठे आख्यान तैयार किए हैं कि वह हमारे समय,समाज और देश की बदलती हुई तस्वीरों का दर्पण बन जाता है. मोहन दासजैसी रचना सीधे-सीधे मनुष्य की अस्मिता के प्रश्न को उठाती है. वह सिद्ध करती है कि इस दौर में आपका हक़ तो छीना ही जाएगा साथ में आपकी अस्मिता को भी हड़प लिया जाएगा. दत्तात्रेय के दु:खदरअसल प्रत्येक श्रमशील और ईमानदार व्यक्ति के दु:ख हैं. उनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य मनुष्यता को बचाने की क़वायद को लेकर चलता है और उसमें सफल भी होता है. भले ही वह अपने पाठक को आशावाद से छलते नहीं हैं.
______
संदर्भ:-
 1-गुप्त शंभु,कहानी : समकालीन चुनौतियाँ,वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण,पृष्ठ- 17
2- प्रकाश उदय, ...और अंत में प्रार्थना,वाणी प्रकाशन, 2010 संस्करण,पृष्ठ- 165
3- गुप्त शंभु,कहानी : समकालीन चुनौतियाँ,वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण,पृष्ठ- 169, 170
4- वही,पृष्ठ- 70
5- उद्धृत,प्रकाश उदय,मोहन दास,वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण
6- फूले महात्मा ज्योतिराव,डॉ. अनिल सूर्या (अनु.),प्रस्तावना,ग़ुलामगीरी,गौतम बुक सेंटर, 2007 संस्करण,पृष्ठ- 35
7- प्रकाश उदय,मोहन दास,वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण,पृष्ठ- 42
8- प्रकाश उदय, ...और अंत में प्रार्थना,वाणी प्रकाशन, 2010 संस्करण,पृष्ठ- 178
9-  प्रकाश उदय,पीली छतरी वाली लड़की,वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण,पृष्ठ- 97
10- वही,पृष्ठ- 51
11- वही,पृष्ठ- 123
12- डॉ. अंबेडकर,जातिभेद का उच्छेद,गौतम बुक सेंटर, 2010 संस्करण,पृष्ठ- 43
13- प्रकाश उदय,मोहन दास,वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण,पृष्ठ- 37
14- प्रकाश उदय,दिल्ली की दीवार,दत्तात्रेय के दु:ख,वाणी प्रकाशन, 2014 संस्करण,पृष्ठ- 61
15- प्रकाश उदय,पीली छतरी वाली लड़की,वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण,पृष्ठ- 11
16- प्रकाश उदय,श्रीमान भाववादी,दत्तात्रेय के दु:ख,वाणी प्रकाशन, 2014 संस्करण,पृष्ठ- 46
17- निश्चल ओम,(साक्षात्कार) लेखक को उसकी रचना बड़ा बनाती है: उदय प्रकाश,उदय प्रकाश साठ पर पुनर्पाठ,शीतल वाणी पत्रिका,अगस्त-अक्तूबर अंक,पृष्ठ- 150
18- आदित्य अरुण, (साक्षत्कार) मेरे घर पर शेर पले थे दरवाजे पर हाथी था, वही,पृष्ठ- 71
19- गुप्त शंभु,यथार्थ का अतिक्रमण और जादुई यथार्थवाद,वही पृष्ठ- 79
20- रंजन प्रभात,मार्केज़ जादुई यथार्थवाद का जादूगर,वाणी प्रकाशन, 2014 संस्करण,पृष्ठ- 120, 121
21- प्रकाश उदय,हीरालाल का भूत,तिरिछ,वाणी प्रकाशन, 2014 संस्करण,पृष्ठ- 140
22- नेलकटर,वही,पृष्ठ- 14
23- डिबिया,वही,पृष्ठ- 18
24- तिरिछ,वही,पृष्ठ- 26, 27 
-----                                                                                                                                                 

मेघ - दूत : शंख घोष की कविताएँ (अनुवाद :उत्पल बैनर्जी)

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२०१६ का ५२ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार आधुनिक बांग्ला साहित्य के जानेमाने कवि शंख घोष को दिए जाने की घोषणा हुई है. इससे पहले बांग्ला लेखकों में ताराशंकर, विष्णु डे, सुभाष मुखोपाध्याय, आशापूर्णा देवी और महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है.

शंख घोष  की  कविताओं का मूल बांग्ला से  हिन्दी में अनुवाद सुपरिचित कवि और अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने किया है. 



शंखघोष (শঙ্খ ঘোষ)
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6 फ़रवरी 1932 को चाँदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मे शंख घोष ने बंगला साहित्य में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. ए. की उपाधि प्राप्त की.

शंख घोष समकालीन बंगला कविता में एक श्रेष्ठ नाम हैं, इसके साथ ही वे अप्रतिम गद्यकार और आलोचक भी हैं. बंगला साहित्य में अमूमन रचनात्मक लेखक और कवि ही आलोचक होता है. 60 से अधिक पुस्तकों के रचयिता शंख घोष अपनी अनूठी बिम्ब योजना, काल सापेक्ष कथ्य और कविता की अपनी विशिष्ठ बनक के लिए अपार लोकप्रियता अर्जित कर चुके हैं. वे जीवन भर विभिन्न शिक्षा प्रतिष्ठानों में अध्यापन करते रहे. 1992 में आप जादबपुर विश्वविद्यालय से सेवामुक्त होकर सम्प्रति पूर्णकालिक लेखक के रूप में कार्य कर रहे हैं.

1960 में आप अमेरिका के आयोवा में आयोजित लेखकों की कार्यशाला में शामिल हुए थे. आपने दिल्ली विश्वविद्यालय, विश्वभारती विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला में भी अध्यापन किया है. आपको नरसिंहदास पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, देशिकोत्तम सम्मान,  रवींद्र पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, डी. लिट्. की मानद उपाधि, साहित्य अकादमी का अनुवाद का पुरस्कार प्राप्त हो चुका है. 2016 का ज्ञानपीठ पुरस्कार से आपको विभूषित किया गया है. 2011 में आपको भारत सरकार ने पद्म भूषण से नवाज़ा था. `आदिम लता गुल्ममय', `विज्ञापनों से ढँक जाता है चेहरा', `निरा मूर्ख, दुनियावी नहीं', `कवि का अभिप्राय', `बाबर की प्रार्थना'आदि आपकी अत्यंत लोकप्रिय रचनाएँ हैं.
9 खण्डों में आपका गद्य प्रकाशित हुआ है.





शंख घोष की कविताएँ                                     


इसीलिएइतनीसूखगईहो

बहुतदिनोंसेतुमनेबादलोंसेबातचीतनहींकी
इसीलिएतुमइतनीसूखगईहो  
आओमैंतुम्हारामुँहपोंछदूँ

सबलोगकलाढूँढ़तेहैं, रूपढूँढ़तेहैं   
हमेंकलाऔररूपसेकोईलेना-देनानहीं
आओहमयहाँबैठकरपल-दो-पल
फ़सलउगानेकीबातेंकरतेहैं

अबकैसीहो
बहुतदिनहुएमैंनेतुम्हेंछुआनहीं
फिरभीजानगयाहूँ
दरारोंमेंजमाहोगएहैंनीलभग्नावशेष

देखोयेबीजभिखारियोंसेभीअधमभिखारीहैं
इन्हेंपानीचाहिएबारिशचाहिए
ओतप्रोतअँधेराचाहिए

तुमनेभीचाहाकिट्रामसेलौटजानेसेपहले
इसबारदेरतकहोहमारीअंतिमबात
ज़रूर, लेकिनकिसेकहतेहैंअंतिमबात!
सिर्फ़दृष्टिकेमिलजानेपर
समूचीदेहगलकरझरजातीहैमिट्टीपर
औरभिखारीकीकातरताभी
अनाजकेदानोंसेफटपड़नाचाहतीहै
आजबहुतदिनोंकेबाद
हल्दीमेंडूबीइसशाम
आओहमबादलोंकोछूतेहुए
बैठेंथोड़ीदेर ....






टलमलपहाड़

जबचारोंओरदरारोंसेभरगयाहैपर्वत
तुम्हारीमृतआँखोंकीपलकोंसे
उभररहाहैवाष्प-गह्वर
औरउसेढँकदेनाचाहताहैकोईअदृश्यहाथ,

दृष्टिहीनखोखलकेप्रगाढ़अंचलमें
अविरामउतरतेरहेहैंकितनेहीकंकड़
औरहमलोगपीलीपड़चुकी
सफ़ेदखोपड़ीकेसामनेखड़ेहैं, थिर --
मानोकुहासेकेभीतरसेउठरहाहोचाँद
हालाँकिआजभीसंभवनहींशिनाख़्तकरनाकि
इतनेअभिशापोंकेभीतर-भीतर
विषैलेलताबीजकीपरम्परा
किसनेतुम्हारेमुँहमेंरखदीथीउसदिन
तन्द्रालसजाड़ेकीरात!

जबइसनीलअधोनीलश्वासकेप्रतिबिम्बमें
बिखरीहुईपंक्तियाँ
काँपतीरहतीहैवासुकिकेफनपर
औरमर्मकेमर्मरमेंहाहाकारकरउठतेहैं
तराईकेजंगल
मैंतबभीजीवनकीहीबातकरताहूँ

जबजानवरोंकेपंजों केनिशानदेखते-देखते
दाखि़लहोजाताहूँ
दिगंतकेअँधेरेकेभीतर-भीतर
किसीआरक्तआत्मघातकेझुकेकगारपर
मैंतबभीजीवनकीहीबातकरताहूँ

जबतुम्हारीमृतआँखोंकीपलकोंपरसे
अदृश्यहाथहटाकर
मैंहरखोखलमेंरखजाताहूँ
मेराअधिकारहीनआप्लावितचुम्बन --
मैंतबभीजीवनकीहीबातकरताहूँ

तुम्हारीमृतआँखोंकीपलकोंसे
उभररहाहैवाष्प-गह्वर
औरउसेढँकदेनाचाहताहै
कोईअदृश्यअनसुनाहाथ ... यहटलमलपहाड़!





सैकत

अबआजकोईसमयनहींबचा
येसारीबातेंलिखनीहीपड़ेंगी, येसारीबातें
किनिस्तब्धरेतपर
राततीनबजेकारेतीलातूफ़ान
चाँदकीओरउड़ते-उड़ते
हाहाकारकीरुपहलीपरतोंमें
खुलजानेदेताहैसारीअवैधता
औरसारेअस्थि-पंजरकीसफ़ेदधूल
अबाधउड़तीरहतीहैनक्षत्रोंपर
एकबार, सिर्फ़एकबारछूनेकीचाहतलिए.

औरनीचेदोनोंओर
केतकीकेपेड़ोंकीकतारोंकेबीचसेहोतीहुई
भीतरकीसँकरी-सीसड़कजिसतरहचलीगईहै
अजानेअटूटकिसीमसृणगाँवकीओर
वहअबभीठीकवैसीहीहैयहकहनाभीमुश्किलहै
फिरभीयहसजलगह्वरपूरेउत्साहसे
रातमेंयहविराटसमुद्रजितनीदूरतक
सुनाताहैअपनागर्जन

वहाँतकमतजागनासोतेहुएलोगो!
तुमसोएरहो, सोएरहो
उसगाँवपरबिखरजाएनिःशब्दसारीरेत
औरतुम्हेंभीअलक्षितउठालेनिःसमय
अंकमेंरखलेअँधेरेयाफिर
अँधेरे-उजालेकीजलसीमापर
रखलेपद्मकेकोमलभेदमें
जन्मकेहोंठछूकरधमकेमृत्यु

आजअबऔरसमयनहींहै
सारीबातेंआजलिखनीहीपड़ेंगी
येसारीबातें, येसारी ...!





मत

इतनेदिनोंमेंक्यासीखा
एक-एककरबतारहाहूँ, सुनलो.
मतकिसेकहतेहैं, सुनो
मतवहीजोमेरामत
जोसाथहैमेरेमतके
वहीमहत, ज्ञानीभीवही
वहीअपनामानुस, प्रियतम
उसेचाहिएटोपीजिसमेंलगेहों
दो-चारपंख
उसेचाहिएछड़ी
क्योंकिवहमेरेपासरहताहै
मेरेमतकेसाथरहताहै.
अगरवहइतनारहे?
अगरकभीकोईदुष्टहवालगकर
उसमेंकोईभिन्नमतिजागजाए?
इसलिएध्यानरखनापड़ेगाकि
वहदुर्बुद्धितुम्हेंकहींजकड़ले.
लोगउसेजानेंगेभीकैसे?
मैंबंदकरदूँगासारेरास्ते -- हंगामेसेनहीं --
चौंसठकलाओंसे
तुम्हेंपताभीहैमैंनेकितनीकलाएँसीखलीहैं?





काठ

एकदिनउसचेहरेपरअपरिचयकीआभाथी.
हरीमहिमाथी, गुल्मथे, नामहीनउजास
आसन्नबीजकेव्यूहमेंपड़ीहुईथीआदिमता
औरजन्मकीदायींओरथीहड्डियाँ, विषाक्तखोपड़ी!
शिराओंमेंआदिगन्तप्रवहमानडबरेथे
अकेलेवशिष्ठकीओरस्तुतिबनीहुईथीआधीरात
शिखरपरगिररहेथेनक्षत्रऔर
जड़ोंमेंएकदिनमिट्टीकेअपनेतलपरथी
हज़ारोंहाथोंकीतालियाँ.
पल्लवितटहनियाँसीनेकीछालसेदूर
स्वाधीनअपरिचयमेंझुककरएकदिन
खोलदेतेथेफूल.
औरआजतुमसामाजिक, भ्रष्ट, बीजहीन
काठबनकरबैठेहो

अभिनंदनकेअँधेरेमें!
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उत्पल बैनर्जी, 
जन्म 25 सितंबर, 1967,(भोपाल, मध्यप्रदेश)  
मूलतः कवि. अनुवाद में गहरी रुचि.

‘लोहा बहुत उदास है’शीर्षक से पहला कविता-संग्रह वर्ष 2000 में सार्थक प्रकाशन,  नई दिल्ली से प्रकाशित.

 वर्ष 2004 में संवाद प्रकाशन मुंबई-मेरठ से अनूदित पुस्तक ‘समकालीन बंगला प्रेम कहानियाँ’, वर्ष 2005 में यहीं से ‘दंतकथा के राजा रानी’(सुनील गंगोपाध्याय की प्रतिनिधि कहानियाँ), ‘मैंने अभी-अभी सपनों के बीज बोए थे’ (स्व. सुकान्त भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ) तथा ‘सुकान्त कथा’ (महान कवि सुकान्त भट्टाचार्य की जीवनी) के अनुवाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. वर्ष 2007 में भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से ‘झूमरा बीबी का मेला’ (रमापद चौधुरी की प्रतिनिधि कहानियों का हिन्दी अनुवाद), वर्ष 2008 रे-माधव पब्लिकेशंस, ग़ाज़ियाबाद से बँगला के ख्यात लेखक श्री नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की द्रोणाचार्य के जीवनचरित पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘द्रोणाचार्य’का प्रकाशन. यहीं से वर्ष 2009 में बँगला के प्रख्यात साहित्यकार स्व. सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘चित्रगुप्त की फ़ाइल’के अनुवाद का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन. वर्ष 2010 में संवाद प्रकाशन से प्रख्यात बँगला कवयित्री नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताओं का अनुवाद ‘और एक आकाश’शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. 2012 में नवनीता देवसेन की पुस्तक ‘नवनीता’ का हिन्दी में अनुवाद ‘नव-नीता’ शीर्षक से साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित. इस पुस्तक को 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. 

संगीत तथा रूपंकर कलाओं में गहरी दिलचस्पी. मन्नू भण्डारी की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘दो कलाकार’ में अभिनय. कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के निर्माण में भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोगी. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों द्वारा निर्मित वृत्तचित्रों के लिए आलेख लेखन. इंदौर दूरदर्शन केन्द्र के लिए हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार श्री विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर तथा अन्य साहित्यकारों से साक्षात्कार. प्रगतिशील लेखक संघ तथा ‘इप्टा’, इन्दौर के सदस्य.

नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो. बाल-साहित्य के प्रोत्साहन के उद्देश्य से सक्रिय ‘वात्सल्य फ़ाउण्डेशन’ नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के निर्णायक मण्डल के भूतपूर्व सदस्य. राउण्ड स्क्वॉयर कांफ्रेंस के अंतर्गत टीचर्स-स्टूडेंट्स इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत मई 2009 में इंडियन हाई स्कूल, दुबई में एक माह हिन्दी अध्यापन.

सम्प्रति - 
डेली कॉलेज, इन्दौर, मध्यप्रदेश में हिन्दी अध्यापन.
पता - भारती हाउस (सीनियर), डेली कॉलेज कैंपस, इन्दौर - 452 001, मध्यप्रदेश.
दूरभाष - 0731-2700902 (निवास) /  मोबाइल फ़ोन - 94259 62072

ईमेल :     banerjeeutpal1@gmail.com

परख : जल और समाज (ब्रजरतन जोशी)

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डॉ. ब्रजरतन जोशी की पुस्तक ‘जल और समाज’ २००५ में प्रकाशित हुई थी, २०१७ में इसका परिवर्धित संस्करण आया है. इसकी एक भूमिका प्रसिद्ध गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने लिखी है ज़ाहिर इस भूमिका की भी एक अलग महत्ता है.

 कृति की समीक्षा मनु मुदगिल ने की है जो पर्यावरण लेखन  के लिए जाने जाते हैं.


भूमिका
“श्रद्धा के बिना शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाए, वह आंकड़ों का एक ढेर बन जाता है. वह कुतूहल को शांत कर सकता है, अपने सुनहरे अतीत का गौरवगान बन सकता है, पर प्रायः वह भविष्य की कोई दिशा नहीं दे पाता.

ब्रज रतन जोशी ने बड़े ही जतन से जल और समाज में ढ़ेर-सारी बातें एकत्र की हैं और उन्हें श्रद्धा से भी देखने का, दिखाने का प्रयत्न किया है, जिस श्रद्धा से समाज ने पानी का यह जीवनदायी खेल खेला था.

प्रसंग है रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर. देश में सब से कम वर्षा के हिस्से में बसा है यह सुन्दर शहर. नीचे खारा पानी. वर्षा जल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूंदें. आज की दुनिया जिस वर्षा को मिली-मीटर/सेंटी-मीटर से जानती हैं उस वर्षा की बूंदों को यहां का समाज रजत बूंदों में गिनता रहा है. ब्रज रतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहां बने तालाबों का वर्णन करते हैं. और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, काल-खण्ड में जो यों बहुत पुराना नहीं है पर आज हमारा समाज उस से बिलकुल कट गया है.

ब्रज रतन इस नए समाज को उस काल-खण्ड में ले जाते हैं जहां पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था. उस दौर में बीकानेर में कोई 100 छोटे-बड़े तालाब बने हैं. उन में से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो. नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से संचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे. ये तालाब उस समाज की उसी समय प्यास तो बुझाते ही थे. यह भू-जल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं रहता था. ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिए गए हैं.

ब्रज रतन इन्हीं लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं. वे हमें इस रेगिस्तानी रियासत में संवत् १५७२ में बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते है सन् १९३७ में बने कुखसागर तक. इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें बनाना भी शामिल है और बड़े जतन से इनका रख-रखाव भी. उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी श्रद्धा से उनके पालन का वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलता जाता था.

लेकिन फिर समय बदला. बाहर से पानी आया, आसानी से मिलने लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का. फिर जमीन की कीमत आसमान छूने लगी. देखते ही देखते शहर के और गांवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे से पाट दिए गए हैं. पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है. उसके विस्तार में यहां जाना जरूरी नहीं.

इसलिए ब्रज रतन जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है. यह शहर का इतिहास नहीं है. यह उसका भविष्य भी बन सकता है.”
  ____________ : अनुपम मिश्र



हर शहर को चाहिए जल और समाज                   
मनु मुदगिल

यह पुस्तक उस तालाब व्यवस्था को प्रस्तुत करती है जिसने बीकानेर के इतिहास को सींचा और उसके भविष्य को लेकर आशा भी बंधाती है.

किसी भी चीज़ की कमी उसे महत्वपूर्ण बना देती है. इसी लिए राजस्थान ने हमेशा ही पानी को किसी भी और जगह से ज्यादा पूजा. कम बरसात और खारे भूजल से बाध्य लोगों ने न सिर्फ सुंदर और स्थिर संरचनाएं बनायी बल्कि उनसे सम्बन्धित सतत प्रथाएं भी रची.

डॉ ब्रजरत्न जोशी की पुस्तक जल और समाजहमें इन्ही संरचनाओ और प्रथाओं से अवगत कराती है जिन्हें बीकानेर के लोगों ने स्थापित किया. डॉ जोशी लम्बे वार्तालापों और शोध से पानी और शहरी जीवन के जटिल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं को खोज लाये हैं. यह प्रस्तुती इस लिए भी विशेष है क्योंकि इसमें ऐसी पीढ़ी की आवाज़ है जिसे हम तेज़ी से खोते जा रहें हैं. और उसके साथ ही खो रहें हैं विगत काल की प्रज्ञता.

जल और समाजमहान पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की रचना आज भी खरे हैं तालाबसे प्रेरित है और एक शहर पर केन्द्रित हो कर उस काम को आगे भी ले जाती है. हर शहर और बस्ती को ऐसी रचना चाहिए जो उसके जल विरासत को आलेखित करे क्योंकि यही संरचनाएं उसके वर्तमान और भावी जल संकट का निदान हैं. जैसा की अनुपम मिश्र इस किताब की भूमिका में लिखते हैं: यह शहर का इतिहास नहीं है. यह उसका भविष्य भी बन सकता है.

बीकानेर के सौ से ज्यादा तालाबों और तालाइयों में से दस भी ऐसे नहीं जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो. लोगों ने खुद मेहनत की और धन और सामान इकट्ठा कर इनका निर्माण और संरक्ष्ण किया. यह जलाशय सिर्फ पानी के भंडार नहीं थे. इनके आसपास घने पेड़ और जड़ी बूटियां इन्हें जैव विवधता केंद्र बनाते जहाँ वन, वन्य जीव और इंसान का अदभुत मेल होता था. जहाँ लहरों में तैराकी परिक्षण और आस पास कुश्ती के अखाड़े कुशल तैराक और पहलवान बनाते थे वहीं बोद्धिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गोष्टियाँ मन को पोषण करते.
अपनी इतनी उपयोगिताओं की वजह से तालाब हमेशा साफ़ सुथरे और इनका जल निर्मल रहा. कुछ जलाशयों की सम्भाल के लिए रखवाले भी रखे जाते. शुभ अवसरों पर इन्हें भेंटे दी जाती. खास तौर पर शादी के बाद नव दम्पति का अपने समाज के तालाब पर जाना और उनके संरक्षकों का अभिवादन करना अनिवारय था.   

जातिवाद को बीते भारतीय युग का अभिशाप माना जाता रहा है परन्तु जैसा कि यह पुस्तक दर्शाती है यह विसंगति पिछले कुछ दशकों में ही ज्यादा दृढ़ हुई है. बीकानेर में काफी तालाब अलग अलग जाति और समाज ने बनवाये पर उनका उपयोग सावर्जनिक रहा. मिसाल के तौर पर खरनाडा तलाई ब्राह्मण सुनारों ने बनवाई पर इस पर लगे मेले मगरों में सभी की भागेदारी और प्रबन्धन रहा.

इसी तरह स्न्सोलाव तालाब, जिसे सामो जी ने बनवाया, गेमना पीर के मेले से लौट कर आने वाले मुस्लिम श्रधालुओं का विश्राम स्थल रहा. उस इलाके के ब्राह्मण इन यात्रियों की देखभाल करते.
सभी छोटे बड़े जलाशयों की जानकारी का संग्रह होने के अलावा, ‘जल और समाजभूगर्भशास्त्र, भूगोल और ज्योतिष की मिली जुली समझ द्वारा तालाब के लिए जमीन की चयन प्रक्रिया को भी चिन्हित करती है. मिट्टी की गुणवता और उसके जल को रोकने की क्षमता का परिक्षण तथा विशेष औजारों द्वारा तालाबों का निर्माण और पानी के स्तर का माप अपने आप में उस समय का अनूठा विज्ञानं था. 
   
लेखक की इस विषय में शोध पर दक्षता पुस्तक के परिशष्ट में और प्रबल दिखती है जहाँ अभिलेख सूचना संग्रहण से प्राप्त दस्तावेजों द्वारा रियासतकालीन बीकानेर के बन्दोबस्त में आये विभिन्न तलाईयों का आगोर भूमि सहित ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है. इसी तरह इन जलाशयों पर लगने वाले तिथि अनुसार मेले और आगोर में पाई जाने वाली औषधियों की जानकारी भी उल्लेखनीय है. सामग्री स्रोतों की पूरी जानकारी तथा अभिलेखीय सन्दर्भों के साथ साथ बीकानेर का जलाशय मानचित्र इस पुस्तक को विश्वसनीय और सहज बना देते हैं.

 ‘जल और समाजस्थानीय बोली की मिठास भी ले कर आती है. जल से जुडी आंचलिक कहावतों के साथ साथ, सन १९७५ में लिखी उदय चंद जैनजी की बीकानेरी गजल को विशेष स्थान मिला है. यह गज़ल शहर के बाज़ार, लोगों और ख़ास तौर पर इसके तालाबों का सुंदर वर्णन करती है.

अफ़सोस की बात है कि उन सौ ताल, तलाइयों में से अब  एक  प्रतिशत भी अच्छी दशा में नहीं है. पाइपलाइन के विस्तार ने घर घर में पानी पहुंचा दिया जिससे तालाबों की महत्ता घटती गयी और इनके आगोरों में अतिक्रमण और खनन की आंधी चल पड़ी. ज्यादातर तालाब किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं थे जिससे कि क़ानूनी करवाई में भी मुश्किलें आई. पूर्व के सावर्जनिक तालाबों से वर्तमान के बोतल बंद पानी की तुलना करते हुए यह पुस्तक समाज के जल के साथ बदलते रिश्ते पर भी कटाक्ष करती है. जहाँ निजी कंपनिया हमें अपने अधीन बना रही हैं वहीँ तालाब आत्मनिर्भरता के सूचक हैं. जहाँ पाइपलाइन पर करोड़ों रुपये खर्चे जाने पर भी पानी की सप्लाई की समस्या बनी रहती है वहीँ तालाब उर्जा और धन दोनों पक्षों से उपादेय हैं. अगर नदियों को बाँधने या बोरवेल से भूजल खींचने के बजाय तालाबों को संरक्षित किया जाये तो करोड़ों रूपये की बचत की जा सकती है.

मजेदार बात यह भी है कि तालाब जल वायु परिवर्तन के सन्दर्भ में भी विधिमान्य हैं. यह न सिर्फ कम बरसात में उपयोगी मने गये हैं बल्कि बाढ़ के पानी को भी अपने अंदर समा कर शहरों को खतरे से बचाते हैं. मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों ने अपने तालाबों पर अतिक्रमण कर जो आपदाएं झेली हैं वो जग जाहिर हैं. इस वजह से तालाब व उससे जुडी संस्कृति का महत्व उस जमाने से ज्यादा इस जमाने में है.

हालाँकि बीकानेर के कुछ समाजों ने अपने तालाबों को पुनजीवित करने का प्रयास किया है, उनका दृष्टिकोण आधुनिक भूनिर्माण की तरफ अधिक और प्राकृतिक परिवेश की तरफ कम रहा है. डॉ जोशी उन सब खामियों को उजागर करते हैं जिससे बीकानेर में संरक्ष्ण के भावी कामों में मदद होगी. और शहर भी अगर अपनी जल संस्कृति को ऐसे सन्दर्भों और विश्लेषणों में पिरो पायें तो वास्तव में स्मार्ट सिटी बनने की तरफ अग्रसर होंगे.
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मनु मुदगिल चंडीगढ़ स्थित इंडिया वाटर पोर्टल के लिए पानी और पर्यावरण से जुड़े विषयों पर पर लिखते हैं 

परिप्रेक्ष्य : २१वीं सदी का पहला महत्वपूर्ण साहित्यिक आन्दोलन : डेमियन वाल्टर्स

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courtesy by revengeforwanda

२१ वीं सदी में क्या कहीं कोई साहित्यिक आन्दोलन चल रहा है ?
देश–विदेश कहीं भी.
इस जिज्ञासा के कारण मैं तमाम पत्र पत्रिकाएं टटोल रहा था कि मेरी नज़र ‘theguardianमें प्रकाशित डेमियन वाल्टर्स के  इस लेख (Transrealism : the first major literary movement of the 21st century?) पर पड़ी.
  
समालोचन के लिए इसका अनुवाद बड़े मन से अनुराधा सिंह ने किया है, उन्होंने अपनी तरफ से कुछ फुटनोट भी दिए हैं, जिससे कि  विषय स्पष्ट हो सके.

पुनरीक्षण के लिए अपर्णा मनोज का भी समालोचन आभारी है.


परायथार्थवाद (ट्रांसरियलिस्म)
२१वीं सदी का पहला महत्वपूर्ण साहित्यिक आन्दोलन     
डेमियन वाल्टर्स
अनुवाद – अनुराधा सिंह    



यह कोई विज्ञान कथा शैली नहीं है और यथार्थवाद भी नहीं वरन् इन दोनों के मध्य मंडराती हुई एक अस्थिर अवधारणा है.  फ़िलिप के.डिकसे लेकर स्टीफ़न किंगके दौरान पनपे परायथार्थवाद नामक इस महत्वपूर्ण प्रत्यय की विकास यात्रा पर निकले हैं डेमियनवाल्टर्स. यह उभरती हुई नवीन कथा शैली, साहित्य में पूर्वस्थापित यथार्थ की अवधारणा को समाप्त करने का लक्ष्य साध रही है.  



डेमियन वाल्टर्स


परिसीमा अतिक्रमण

‘ए स्कैनर डार्कली’1जिसे लिखा तो १९७३ में गया था लेकिन जो १९७७ में छप सका, फ़िलिप के. डिकका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास होने के साथ- साथ उनके सम्पूर्ण रचनाकार्य को वर्गीकृत करने वाला उपन्यास भी है. यह निश्चित तौर पर उनके लेखन कैरियर के पूर्वार्ध तक लिखे गए ‘द मैन इन द हाई कैसल’ और ‘डू एंड्राइड्स ड्रीम ऑफ़ इलेक्ट्रिक शीप?’ जैसे विज्ञान कथा श्रेणी के उपन्यासों और फिर इन्हें पीछे छोड़ने वाले उनके उत्तर रचनाकाल के लेखन जिसमें परायथार्थवादी उपन्यास ‘वैलिस’और ‘द डिवाइन इनवेज़न’भी शामिल हैं, के बीच एक विभाजक का काम करता है. ‘ए स्कैनर डार्कली’दो कहानियों का सम्मिश्रण है – बाह्य रूप से यह एक विज्ञान कथा लगती है जबकि हकीक़त में यह फ़िलिप के. डिक द्वारा मानसिक क्षमता का नाश करने वाली नशीली दवाओं और नशे के व्यसनियों के बीच गुज़ारे गए समय की कठोर यथार्थवादी आत्मकथात्मक प्रस्तुति है.

लेखक, अलोचक और गणितज्ञ रूडी रकर ने 1983 में अपने निबंध ‘ए ट्रांसरियलिस्ट मेनीफेस्टो’२ में पहली बार इसे परायथार्थवादी साहित्यिक आन्दोलन नाम से नवाज़ा. आज तीन दशक बाद रकर का वह निबंध समकालीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में पहले से भी अधिक प्रासंगिक है. फर्क इतना है कि जिन दिनों रकर लिख रहा था उन दिनों विज्ञान कथा साहित्य और मुख्य धारा साहित्य परस्पर भिन्न धाराएं थीं ऐसा आभास हो रहा है कि रकर ने २१वीं सदी के आरंभ में जिस आन्दोलन का आवाह्न किया था वह अंततः फलीभूत हो गया है. 

परायथार्थवाद आधारभूत स्तर पर एक पूर्णतः यथार्थवादी उपन्यास लिखे जाने की पैरवी करता है. यह बनावटी रूपरेखा और आद्यप्रारूपीय पात्रों जैसी कृत्रिम संरचनाओं की बनिस्बत लेखक के खुद के अनुभवों से उठाई गयी घटनाओं और चरित्रों को तरज़ीह देता है. लेकिन फिर इसी यथार्थवादी ताने-बाने में वह एकदम अविश्वसनीय और अनूठे काल्पनिक विचारों को बुनता चलता है, जैसे उन्हें किसी काल्पनिक विज्ञानकथा, फंतासी और दहशतअंगेज़ रोचक कथा-किताब से उठाया गया हो.    और वह परायथार्थवादी लेखक जो अभी एक अमरीकी हाई स्कूल के जीवन का विस्तृत और वास्तविक वर्णन कर रहा था अचानक अपने कथानक में अनजाने ग्रह की उड़न तश्तरी ले आता है और एक बहुत मामूली लगने वाला लड़का अतिमानवीय ताकतों से लैस हो जाता है, ताहम पूरा यथार्थवादी कथानक चकनाचूर हो जाता है.

कुछ काम ऐसे हैं जो रकर की मंशा के अनुरूप परयाथार्थवाद में खरे नहीं उतरते. बेहद लोकप्रिय विज्ञान कल्पना आधारित कहानियों जैसे ‘हैरी पॉटर’या ‘द हंगर गेम्स’में यथार्थ का चित्रण इतना कम है कि उनकी चर्चा परायथार्थवाद के सिद्धांतों के तहत नहीं की जा सकती. ‘स्पाई थ्रिलर्स’जैसे उच्च तकनीकी आधारित उपकरण जो आभासी तौर पर सच्ची घटनाओं के वास्तविक आख्यान लगते हैं, वे भी अपनी कृत्रिम रूपरेखा और आद्यप्रारूपीय पात्रों के चलते वास्तविकता से बहुत दूर हैं. परायथार्थवाद एक विशिष्ट प्रयोजन के अंतर्गत कल्पना और वास्तविकता के विशिष्ट संयोजन पर लक्ष्य साधता है, जो समकालीन पाठकों के लिए बेहद प्रासंगिक सिद्ध हुआ है.

परायथार्थवादी लेखकों की संभावित सूची विवादास्पद और आकर्षक दोनों है. जैसे मार्गरेट ऐटवुड का ‘द हैण्डमेड्स टेल’ औरउसके उपन्यास‘ओरिक्स’ तथा ‘क्रेक’ आदि. स्टीफन किंग अपनी रचनाशीलता का सर्वोत्तम दे रहे होते हैं जब वह कामगार अमरीकियों का चित्रण करते-करते उन्हें अतिमानवीय भयों से ग्रस्त कर ध्वस्त कर देते हैं. थॉमस पिंचन, डॉन डीलिलो और डेविड फ़ॉस्टर वालासआदि अन्य उल्लेखनीय नाम हैं.  अमरीका के कुछ प्रबुद्ध लेखकों के बीच ‘द हैण्डमेड्स टेल’तथा ‘ओरिक्स’और ‘क्रेक’जैसे उपन्यासों के लिए मशहूर मार्गरेट ऐटवुड, संभ्रांत अमरीकी जीवन के एक आक्रांता पराशक्ति द्वारा हो रहे विनाश का बेहतरीन वर्णन करने वाले स्टीफन किंग, थॉमस पिंचन, डॉन डीलिलो और डेविड फ़ॉस्टर वालास (वैलेस)आदि उल्लेखनीय हैं. विज्ञान कथा शैली से जन्मे लेखकों में ह्विटऔर ‘द ब्रिज’उपन्यासों के लेखक इएन बैंक्स,जे जी बालार्डऔर मार्टिन एमिसका नाम भी परयाथार्थवादी तकनीकी के प्रवर्तकों में अग्रणी है.

समकालीन कथा साहित्य में चमत्कार तत्व के प्रसार को बहुधा ‘विज्ञान कथा का मुख्यधाराकरण’3नाम भी दिया जाता है. लेकिन साइ फाइयानि विज्ञान कथाएँ हमेशा से उन पाठकों के लिए पलायनवादी कल्पनाओं की जन्मदात्री रही हैं जो जीवन की कठिन वास्तविकताओं से कुछ समय के लिए भागकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं. इसके अलावा बुकर पुरस्कारों से सम्मानित शुद्ध यथार्थवादी उपन्यासों की भी आज कमी नहीं है. साइ फाइ और यथार्थवाद दोनों ही दो अलग अलग तरह से अपने पाठकों को राहत प्रदान करते हैं- पहला, उन्हें जीवन की नीरस वास्तविकता से उबार कर और दूसरा उन्हें यह विश्वास दिला कर कि यथार्थ, जिस पर हम भरोसा करते हैं वह स्थिर, दृढ़ और अपरिवर्तनशील है. जबकि परायथार्थवाद का विचार ही असुविधाजनक है, यह हमें आभास कराता है कि न केवल हमारी वास्तविकता एक हद तक कृत्रिम है, बल्कि देखा जाये तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है और यह हमें इस असुखद अनुभूति से कभी मुक्त नहीं होने देता.

परायथार्थवाद एक क्रांतिकारी कला शैली है. यथार्थ की पूर्वस्थापित अवधारणा का मिथक सामूहिक विचार नियंत्रण का महत्वपूर्ण औजार रहा है. ‘सामान्य इन्सान’की पूर्वनिर्धारित परिभाषा भी इसी मिथक से कदम से कदम मिला कर चलती है. रकर द्वारा परायथार्थवाद का एक क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में निरूपण और भी अधिक सार्थक हो जाता है जब इसकी समीक्षा इसके सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों द्वारा किये गए विविध उपयोगों के आधार पर की जाती है. ऐटवुड, पिंचन, फ़ॉस्टर-वालास ने पारंपरिक सर्वमान्य यथार्थवाद के द्वारा परिभाषित, स्त्रियों के राजनैतिक उत्पीड़न से लेकर उपभोक्तावादवाद द्वारा जबरन थोपी गयी आध्यात्मिक मृत्यु जैसी घटनाओं की सामान्यता और असामान्यता को चुनौती देने के लिए परायथार्थवादी तकनीकों का उपयोग किया.

आज परायथार्थवाद समकालीन साहित्य लगभग सभी मौलिक और चुनौतीपूर्ण कार्यों को आधार प्रदान कर रहा है.  जैसे ‘द इंट्यूशनिस्ट’में कोलोज़न वाइटहेड्स द्वारा जातीयता को आधार प्रदान करने वाली व्यवस्था का प्रबुद्ध विश्लेषण और ज़ोम्बियों के सर्वनाश पर आधारित उपन्यास ‘ज़ोन वन’ में न्यूयॉर्क टाइम्स के ढब का परायथार्थवादी मोड़.मोनिका बर्नद्वारा वर्णित विकासशील देशों के भविष्य के पार तक की गयी मतिभ्रमकारी सड़क यात्रा और ‘द गर्ल इन द रोड’में गरीबी और तेज़ रफ़्तार तकनीकी परिवर्तनों के बीच फंसी स्त्रियों की ज़िन्दगी. मैट हेगका सशक्त युवतर उपन्यास, ’द ह्यूमन्स’, जो लोगों को आमंत्रित करता है कि वे मानव जीवन को परग्रहवासियों की दृष्टि से देखें . परायथार्थवाद का अपना ३० वर्ष पुराना इतिहास है लेकिन हम देखेंगे कि आने वाले ३० वर्षों में यह साहित्य की दिशा और दशा भी तय करेगा.
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1.A Scanner Darkly is a BSFA Award-winning 1977 science fiction novel by American writer Philip K. Dick. The semi-autobiographical story includes an extensive portrayal of drug culture and drug use (both recreational and abusive).
2.             A Transrealist Manifesto— Appeared in The Bulletin of the Science Fiction Writers of America, #82, Winter, 1983. (The Transrealist writes about immediate perceptions in a fantastic way- Rudy Rucker)
3.            http://www.tor.com/2012/01/18/what-is-genre-in-the-mainstream-why-should-you-care/ (What is Genre in the Mainstream? Why Should You Care?)  - Ryan Britt 
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अनुराधा सिंह
११ सालों से मुंबई और दूसरे शहरों के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले साधनहीन छात्रों के लिए रोज़गारपरक शिक्षा हेतु कार्य कर रही हैं. लेखन और अनुवाद भी साथ- साथ.  

पता : बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडरजोगेश्वरी ईस्ट मुंबई.   
ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in

सहजि सहजि गुन रमैं : अदनान कफ़ील दरवेश

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फोटो : Michael Kenna 

कविता मनुष्यता की पुकार है.
जब कहीं चोट लगती है, दिल दुखता है, हताशा घेरती है मनुष्य कविता के पास जाता है. उसे पुकारता है. उसे गाता है, सुनता है. कविताओं ने सभ्यताएं रची हैं.

हर  कवि उम्मीद है इस धरती के लिए. एक कोंपल जिसमें  कि एक पूरा संसार है.

अदनान कफ़ील दरवेश की ये युवा कविताएँ सदी से मुठभेड़ करती कविताएँ हैं.
कार्पोरेट वैश्वीकरण से यह जो नव साम्राज्य पैदा हुआ है और इसके साथ चरमपंथ और आतंक का जो यह समझौता है उस तक कवि पहुंचता है.

सदियों से साथ-साथ रहते तमाम धर्मों के बीच जो आत्मीय पुल हैं इस देश में वे उसकी स्मृतियों में कसकते हैं.

ये कविताएँ बताती है कि वह प्रेम में है. और इससे सुन्दर बात इस धरती के लिए और क्या हो सकती है.

ख़ास आपके लिए अदनान की ये कविताएँ.







अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ                          



मेरी दुनिया के तमाम बच्चे

वो जमा होंगे एक दिन  और खेलेंगे एक साथ मिलकर
वो साफ़-सुथरी दीवारों पर 
पेंसिल की नोक रगड़ेंगे 
वो कुत्तों से बतियाएँगे 
और बकरियों से 
और हरे टिड्डों से 
और चीटियों से भी..

वो दौड़ेंगे बेतहाशा 
हवा और धूप की मुसलसल निगरानी में 
और धरती धीरे-धीरे 
और फैलती चली जाएगी 
उनके पैरों के पास..

देखना !                 
वो तुम्हारी टैंकों में बालू भर देंगे 
और तुम्हारी बंदूकों को 
मिट्टी में गहरा दबा देंगे 
वो सड़कों पर गड्ढे खोदेंगे और पानी भर देंगे 
और पानियों में छपा-छप लोटेंगे...

वो प्यार करेंगे एक दिन उन सबसे 
जिससे तुमने उन्हें नफ़रत करना सिखाया है 
वो तुम्हारी दीवारों में 
छेद कर देंगे एक दिन 
और आर-पार देखने की कोशिश करेंगे
वो सहसा चीखेंगे !
और कहेंगे- 
देखो ! उस पार भी मौसम हमारे यहाँ जैसा ही है 
वो हवा और धूप को अपने गालों के गिर्द 
महसूस करना चाहेंगे
और तुम उस दिन उन्हें नहीं रोक पाओगे !

एक दिन तुम्हारे महफ़ूज़ घरों से बच्चे बाहर निकल आयेंगे 
और पेड़ों पे घोंसले बनाएँगे 
उन्हें गिलहरियाँ काफ़ी पसंद हैं 
वो उनके साथ बड़ा होना चाहेंगे..

तुम देखोगे जब वो हर चीज़ उलट-पुलट देंगे 
उसे और सुन्दर बनाने के लिए..

एक दिन मेरी दुनिया के तमाम बच्चे 
चीटियों, कीटों
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों 
और तमाम वनस्पतियों के साथ मिलकर धावा बोलेंगे 
और तुम्हारी बनाई हर चीज़ को 
खिलौना बना देंगे..

(रचनाकाल: 2016)






शैतान

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूंकि तांडव का कोई ख़ास रंग नहीं होता
अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना ही अब उसकी आँखें सुर्ख और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना ही उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब.

क्यूंकि इस दौर का शैतान
इंसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर.

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है साथी
वो अपने मंसूबे जल्दी ज़ाहिर नहीं करता
वो दिखाता है एक झूठी दुनिया का ख्वाब
रिझाता है अपनी मीठी-चुपड़ी बातों से
इस दौर के शैतान ने अपने पारंपरिक प्रतीकों और चिन्हों की जगह
इन्सान की तरह मुस्कुराना सीख लिया

जी हाँ श्रीमान !
वो मुस्कुरा रहा है गली के नुक्कड़ पे
सब्ज़ी मंडी में
रेलवे स्टेशनों और एअरपोर्टों पे
वो मुस्कुरा रहा है स्कूलों में
वो मुस्कुरा रहा है ऊँची कुर्सियों पर
यहाँ तक कि वो मुस्कुरा रहा है हमारे घरों में
और हमारे बहुत भीतर भी....
(रचनाकाल: 2014)





अपने गाँव को याद करते हुए

जब मुल्क की हवाओं में
चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है
ठीक उसी बीच मेरे गाँव में
अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम माएँ
हर शाम वक़्त-ए-मग़रिब
चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ
मस्जिद की सीढ़ियों पर
अपने हाथ में पानी से भरे गिलास और बोतलें थामे
अपने बच्चों को कलेजे से चिमटाए
इमाम की किऱअत पर कान धरे
अरबी आयतों के जादू को
भीतर तक सोखती हुयी
नमाज़ ख़त्म होने का इंतज़ार है उन्हें
के नमाज़ियों का जत्था
बाहिर निकले और
और चंद आयतें पढ़कर
उनके पानी को दम कर दे
और उनके लाडलों-लाडलियों पर
कुछ बुदबुदाकर हाथ फेर दे
कुछ को ज़्यादा भरोसा है
खिचड़ी दाढ़ी वाले इमाम साहब पर
मैं सोचता हूँ बारहा कि ये मुसलमानों का ख़ुदा
इनकी मुरादें क्यूँ पूरी करता आ रहा है सदियों से?
मुझे इनकी आस्था में कम
इनके भरोसे में ज़्यादा यक़ीन है
यही मेरा हिन्दोस्तान है
इसे किस कमबख़्त की नज़र लग गयी .....
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)






हँस मेरी जाँ

हँस मेरी जाँ
कि तेरे हँसने से
गुलाब खिलते हैं
बहार आती है
गुलों में रंग भरते हैं
बादल पगलाते हैं
कोयल कूकती है
मयूर नाचते हैं
दरिया में रवानी आती है
माहताब और उजला होता है
तू हँस
कि मुझे साँस आती है
जिस दिन तूने हँसना छोड़ दिया
ये दुनिया बेरंगी हो जाएगी
और कोई कवि मर जायेगा...
(रचनाकाल: 2013,दिल्ली)





ऐ मेरी दोस्त !

मैंने पहाड़ों से
प्रतीक्षा और समर्पण के मर्म को समझा है
मैं किसी थकाऊ लंबी यात्रा में अभी मशगूल हूँ
मुझमें पहाड़ की ख़ामोशी को भर जाने दो
मुझे मत छेड़ो
मुझे ख़ामोश रहने दो
मुझे इतना चुप रहने दो
कि मैं भी एक दिन
पहाड़ बन सकूँ
लेकिन मेरा वादा है तुमसे
मेरी दोस्त !
मैं लौटूंगा तुम्हारे पास
एक दिन ..
एक दिन मैं उतर आऊंगा
अपनी ही ऊँचाइयों से
पानी की तरह
तुम्हारे समतल में
फ़ैल जाऊँगा एक दिन.
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)






जब मैंने तुमसे प्रेम किया

जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना
कि मेरे आस-पास की दुनिया
कितनी विस्तृत है
मैंने हवा को खिलखिलाते हुए देखा
मैंने फूलों को मुस्कुराते हुए देखा
मैंने पेड़ों को बतियाते हुए सुना
मैंने चींटियों को गुनगुनाते हुए सुना
मैंने पानी को एक लय में बहते देखा
मैंने महसूस किया कि हम जिस दुनिया में रहते हैं
वो कितनी छोटी और सिकुड़ी हुयी है
मैंने देखा कि हमारे आस-पास एक अनोखी दुनिया भी है
जो हमसे लगभग ओझल है
मैंने जाना कि मेरे आस-पास कितना कुछ है
जो सूक्ष्म है किन्तु सघन भी
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना कि
हमारी दुनिया कितनी निष्ठुर और क्रूर है
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मुझे महसूस हुआ कि
हमारे आस-पास की दुनिया
कितनी सहज और कितनी सुन्दर है
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना कि अभी मैं और फ़ैल सकता हूँ ...
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)





एक पेड़ का दुःख

सब पत्ते विदा हो लेंगे
गिलहरियां भी कहीं और चली जाएँगी
चीटियाँ भी जगह बदल देंगी
और सुग्गे नहीं आएंगे इस तरफ
फिर कभी
न बारिश
न हवा
न धूप
बस घने कुहरे के बीच झूल जाऊँगा मैं
किसी दिन
अपनी ही पीठ में
ख़ंजर की तरह धँसा हुआ
सबकी स्मृतियों में !
_________________



अदनान कफ़ील दरवेश
(30 जुलाई 1994,गड़वार, बलिया, उत्तर प्रदेश)
कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल: thisadnan@gmail.com

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