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मीमांसा : एडोर्नो : अच्युतानंद मिश्र

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एडोर्नो (Theodor W. Adorno, September 11, 1903 – August 6, 1969) बीसवीं सदी के प्रसिद्ध दार्शनिक, समाज-वैज्ञानिक और संस्कृति- आलोचक हैं. 
वे ऐसे शायद पहले विचारक हैं जिन्होंने दर्शन और संगीत पर एक साथ लिखा है. जर्मनी की नाजी बर्बरता और अमेरिका की पूंजीवादी सभ्यता में पनप रहे खोखले सभ्यता – उद्योग के बीच उनके चिंतन ने आकार लेना शुरू किया, एक ओर जहाँ वह वेदना को कला की भाषा मानते हैं वहीँ दूसरी ओर संस्कृति – उद्योग के माध्यम से मनुष्य की चेतना को नियंत्रित और अपनी रहस्यात्मकता से उसे लुभा कर एक निरे उपभोक्ता में बदल देने कि प्रक्रिया की भी विवेचना करते हैं.

आज भारत में ये दोनों प्रवृत्तियां मौजूद हैं, एडोर्नो इन्हें समझने में मदद करते हैं. 

युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र ने एडोर्नो की तमाम जटिल स्थापनाओं को  समझ कर उन्हें भारतीय परिवेश में प्रस्तुत करने का श्रमसाध्य कार्य किया है और  समकालीन बनाया है. उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है.  
   




बीसवीं सदी के अँधेरे में                                    

अच्युतानंद मिश्र 





बीसवीं सदी में प्रबोधन की अवधारणा को लेकर पुनर्विचार का वातावरण बना. प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् तीन बड़ी परिघटनाएं घटती हैं. रूस में समाजवादी सरकार की स्थापना, जर्मनी में दक्षिणपंथ का पुनरागमन और 1929 की विश्वव्यापी मंदी. प्रकट रूप में भले इनके बीच कोई सहज सम्बन्ध न रहा हो लेकिन वास्तव में ये एक बड़े परिवर्तन को इंगित कर रहीं थी. इनमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज मौजूद थे. इन परिघटनाओं ने इतिहास, राजनीति, आर्थिकी आदि पर पुनर्विचार का वातावरण निर्मित किया.

1923 में फ्रैंकफर्ट स्कूल की स्थापना हुयी. तीस के दशक के आरंभिक वर्षों में सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों में हो रहे परिवर्तन ने फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के सामने नये प्रश्न प्रस्तुत किये. उपरोक्त परिघटनाओं की स्पष्ट व्याख्या राजनीतिक एवं आर्थिक परिघटनाओं के तौर पर की जा सकती थी, लेकिन फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने इन घटनाओं के अप्रत्यक्ष प्रभाव एवं श्रोत की तलाश आरम्भ की. उन्हें यह महसूस होने लगा कि संस्कृति और समाज की अवधारणा पर पुनर्विचार की जरुरत है. फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के समक्ष प्रश्न यह भी था कि उन्नीसवीं सदी की विरासत से हम क्या समझे. उन्नीसवीं सदी किस रूप में अब भी मौजूद है.

इस प्रश्न को जिन चिंतको ने बार-बार व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया, उनमें एडोर्नों का नाम लिया जा सकता है. एडोर्नो का जन्म 1903 में हुआ. तीस के दशक में वे फ्रैंकफर्ट स्कूल से विचारक और चिन्तक के तौर पर जुड़े. हालाँकि उससे पहले ही वे होर्खाइमरऔर वाल्टर बेंजामिनसे मिल चुके थे. 1930 में ही होर्खाइमरने फ्रैंकफर्ट स्कूल की बागडोर संभाली. वे जीवन पर्यन्त एडोर्नो के सहयोगी रहे. तीस के दशक के मध्य एडोर्नो, होर्खाइमरसहेत तमाम चिंतकों को जर्मनी छोड़कर बाहर जाना पड़ा. इस भाग दौर से तंग आकर बेंजामिन ने आत्महत्या की. एडोर्नो बेंजामिनसे गहरे जुड़े थे. बेंजामिन के लेखन में उनकी गहरी रूचि का पता बेंजामिन के साथ उनके पत्राचारों को देखने से चलता है. एडोर्नो बेंजामिन के साथ दोहरे सम्बन्ध की भूमिका का निर्वाह करते हैं. एकतरफ वे बेंजामिन के साथ बौद्धिक संवाद स्थापित करते हैं तो दूसरी तरफ निजता का आत्मीय संसार रचते हैं. एडोर्नों के लिए यह दोहरा भाव अलग अलग नहीं है बल्कि वे एक दूसरे में घुले हुए हैं. एक तरह से कहें तो वहां निजता का विस्तृत आत्म है. वे दोनों एक ऐसी मित्रता को रचते हैं, जिसमें आत्म का विस्तार होता है. सहभाव की संवेदना एडोर्नों में बहुत आरम्भ से ही देखी जा सकती है. कांटकी प्रसिद्ध पुस्तक क्रिटीक ऑफ प्योर रीज़नको वे 14 वर्ष की उम्र में भी अकेले नहीं पढ़ते हैं, अपने मित्र के साथ पढ़ते हैं. एक जगह उन्होंने लिखा है कि उस तरह की पढाई वे जीवन भर फिर नहीं कर सके. एडोर्नो के लेखन का केंद्रीय पक्ष है निजी एवं आत्मीय अनुभव का दार्शनिक विस्तार.वे लगातार छीजते हुए आत्म को लेकर अपनी व्याख्या रखते हैं. मनुष्य और समाज के सम्बन्धों को वे महज़ बाहरी सम्बन्धों की तरह नहीं देखते. उन्हें लगता है यह सम्बन्ध लगातार हमारे भीतर भी बन रहा है. संस्कृति और समाज के प्रश्न को इसलिए वे सिर्फ बाहरी घटक के रूप में देखने का विरोध करते हैं.

प्रबोधन की चेतना एडोर्नोको लगातार उद्वेलित करती है. वे प्रबोधन का विश्लेषण करते हुए इस बात को नहीं भूलते कि दुनिया विकासवाद की ओट में फासीवाद तक पहुँच जाती है. एडोर्नो प्रबोधन के  युग से फासीवादी वर्चस्व के मध्य एक जटिल सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं और इस क्रम में विकासवाद की नई सीमाओं की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं. वे हीगेल की द्वंद्वात्मकता से  प्रबोधन को व्याख्यायित करते हैं. होर्खाइमर के साथ मिलकर लिखी उनकी पुस्तक प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता (Dialectics of Enlightenment)  बीसवीं सदी तक की यात्रा की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है.

कांटका मानना था कि प्रबोधन मनुष्य को मुक्त करता है और उसे आत्मघाती अपरिपक्वता से उबारता है. एडोर्नो, होर्खाइमर कांटके इस दृष्टिकोण की आलोचना प्रस्तुत करते हैं. वे यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या सचमुच प्रबोधन मानव मस्तिष्क को मिथकीय चेतना से उबारता है? क्या वह उसे आदिम मानसिक संरचना से निकालकर एक आधुनिक बोध तक ले जाता है? क्या प्रबोधन वास्तव में मिथक का विलोम बनता है? एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं, वास्तव में ऐसा नहीं है. बाहरी तौर पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबोधन एक वैज्ञानिक अवधारणा है, जिसकी दिशा उर्ध्वाधर है लेकिन वास्तव में वह द्वंद्वात्मक है. एडोर्नो, होर्खाइमर बताते हैं प्रबोधन मिथकीय चेतना के विरुद्ध नहीं है. वह मिथक के विरुद्ध होकर भी मिथक को पैदा करती है. 

प्रबोधन की चेतना का खुला अंत उसे मिथक से जोड़ देता है. वह अनभिज्ञता से आरम्भ होकर अनभिज्ञता के नये मुकाम पर हमें ला छोडती है. यह अनभिज्ञता ही उसे मिथकीय बना देती है. वे कहते हैं प्रबोधन का उद्देश्य मनुष्य को भयमुक्त करना था. मनुष्यता प्रबोधन के युग को पार कर चुकी है. हमारा ज्ञानोदय हो चुका है. हम आदिम से आधुनिक की और प्रस्थान कर चुके हैं. हम यह मान चुके हैं कि आदिम युग बीत चुका है. लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है. मनुष्यता के पास पुरानी आशंकाएं बची हुयी हैं. नई आशंकाओं के साथ मिलकर एक नये विभ्रम ने मनुष्य को भय और आतंक के साथ दबोच लिया है. यह नई स्थिति ही प्रबोधन को मिथक तक ले जाती है. इस अर्थ में वह एक द्वंद्व को रचती है.

एडोर्नो, होर्खाइमरकिसी अमूर्त चिंतन की बात नहीं करते. अपने समय के दबावों को व्याख्यायित करने के क्रम में, वे यहाँ तक पहुंचते हैं. उनके समस्त चिंतन पर हिटलर औरनाज़ीवादसे निर्मित वर्तमान के विश्लेषण तक पहुँचने का गहरा दबाव है. वे महसूस करते हैं कि नाज़ीवाद ने न सिर्फ दुनिया की बाहरी संरचना को नष्ट किया बल्कि मनुष्यता की आन्तरिक संरचना को भी नष्ट कर दिया है. क्या नाज़ीवाद का यह आगमन मात्र एक संयोग है? क्या यह इतिहास के वास्तविक विकासक्रम में अपवाद की तरह आया दौर है? आखिर प्रबोधन की आधुनिक चेतना से लैस दुनिया नाज़ीवाद की बर्बरता तक कैसे पहुँच गयी? ये प्रश्न प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता के मूल प्रश्न हैं. समस्त विश्लेषण पर इस दौर की गहरी छाप देखी जा सकती है.

मार्क्स और हिटलर के बीच तक़रीबन सौ वर्ष का अन्तराल है. मार्क्स उस गहरी खाई को पार करते हैं, जिसको लेकर तमाम दार्शनिक बहस कर रहे थे - आखिर दुनिया की व्याख्या किस तरह हो. मार्क्स के समस्त चिंतन पर प्रबोधन और जर्मन आदर्शवाद का गहरा प्रभाव था. आखिर मार्क्स से होती हुयी दुनिया, हिटलर तक किस तरह पहुँच गयी? जर्मनी का वही समाज जिसने मार्क्स के चिंतन के लिए आधुनिक संवेदना निर्मित की थी उस समाज के भीतर से हिटलर की आलोचना क्यों नहीं पैदा हुयी? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को तलाशते हुए एडोर्नो, होर्खाइमरइस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बीसवीं सदी में दुनिया की व्याख्या का प्रश्न आर्थिक और राजनीतिक भूमिका तक महदूद नहीं रहा गया है. प्रबोधन की प्रक्रिया ने समाज के भीतर कुछ गहरे परिवर्तन किये हैं. इस दौरान अगर दुनिया अधिक ज्ञानात्मक हुयी है तो साथ ही अधिक बर्बरभी हुयी है. बर्बरता की यह नई परिकल्पना प्रबोधन के उस अप्रत्यक्ष चरित्र की ओर इशारा करती है जिसके विषय में दार्शनिकों का ध्यान अब तक नहीं गया था.

यहीं से होते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर समाजशास्त्र की परिकल्पना और विश्लेषण तक पहुँचते हैं. प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता का एक सन्दर्भ यह भी है कि ज्ञान की प्रक्रिया से कोई समाज किस तरह सम्बन्ध बनाता है. ज्ञान युग से गुजर चुके समाज के भीतर से फासीवादी क्रूरता का समग्र विरोध अगर पैदा नहीं होता तो हमें इस ज्ञान युग का पुनर्मूल्यांकन करना होगा.




(दो)
रूस और जर्मनी की सीमायें मिलती थी. नागरिकों का एक जगह से दूसरी जगह पलायन होता था. एक तरफ समाजवादी सत्ता थी तो दूसरी तरफ फासीवादी सत्ता. इन दो विपरीत सी लगती सत्ताओं  के बीच  जनता के भीतर किस तरह का परिवर्तन आ रहा था. सीमा पर खड़े मनुष्य के लिए दायाँ और बायाँ  किस तरह का था.

इन प्रश्नों के उत्तर को ढूंढते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर कांट की प्रबोधन की अवधारणा से खुद को अलगाते हैं. कांट के अनुसार प्रबोधन एक लम्बे ऐतिहासिक संघर्ष का परिणाम है. मनुष्य इतिहास के भिन्न दौरों से गुजरता हुआ यहाँ तक पहुंचा है. लेकिन एडोर्नो, होर्खाइमर के लिए वह अब भी रास्ते में हैं. प्रबोधन एक गतिशील विचार प्रक्रिया है. सहज भाषा में कहें तो एडोर्नो, होर्खाइमर उसे एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं. एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया. जिस पर अपने युग –समाज का गहरा प्रभाव है. इसलिए 19 वीं सदी का प्रबोधन 20 वीं सदी से भिन्न है. एडोर्नो, होर्खाइमर के लिए महत्वपूर्ण यही है कि युग-समाज से गहरे प्रभावित होने के बावजूद, इसे कोई नियंत्रित कर रहा है. अगर समाज पर, मनुष्यता पर, प्रबोधन का प्रभाव है तो इस प्रबोधन की प्रक्रिया को नियंत्रित कर समाज और मनुष्यता को भी नियंत्रित किया जा सकता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर की इस बात से हेबरमास भी इत्तेफाक रखते हैं, लेकिन वे उम्मीद और आशा को नहीं छोड़ते. हेबरमास के अनुसार इस नियंत्रण से मुक्ति संभव है. प्रबोधन की चेतना में ही यह दृष्टि भी अंतर्निहित है कि मनुष्य सत्ता के दबावों से संघर्ष करता रहे. उसकी ज्ञानात्मक चेतना सामूहिकता में जो बोध निर्मित करती है उसमें सत्ता का विरोध संभव है. जरुरत है उस अधूरी छूट गयी प्रक्रिया को तीव्र करने की. यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एडोर्नो, होर्खाइमर और हेबरमास की दृष्टि में इस भेद के मूल में एक युग का फर्क भी है.

एडोर्नो, होर्खाइमर मिथकों को प्रबोधन के बरक्स रखते हैं. वे कहते हैं मिथक हमारे विवेक पर हावी हो जाता है. परन्तु विवेक को जागृत कर हम मिथकों से उत्तरोत्तर मुक्त होते जाते हैं. हमारी सामूहिक स्मृति और अवचेतन हर बार एक क्रमिकता में हो, यह जरुरी नहीं. जिसे हम सामूहिक स्मृति कहते हैं वह कई बार अतीत को देखने की हमारी भाववादी दृष्टि भी साबित होती है. जैसे ही हम मिथकों से वर्तमान को जोड़ने की कोशिश करते हैं हम अतीत की उन विवेक हीनताओं के शिकार होते जाते हैं.

ब्राह्मणवादी मिथकों के विरुद्ध दलितों के यहाँ भी मिथक निर्माण के आग्रह को देखा जा सकता है. ब्राह्मणवादी देवताओं के मिथकों के बरक्स दलित भी देवताओं के मिथक को रचते हैं. वे गोरे देवताओं के विरुद्ध काले देवताओं की परिकल्पना को प्रस्तुत करते हैं. ये काले देवता किस तरह के होते हैं? ये क्या करते हैं? ये अपने भक्तों से किस तरह प्रसन्न होते हैं? जब इस तरह के सवालों से हम रूबरू होते हैं तो पाते हैं कि यह वास्तव में मिथकों के बहाने ब्राह्मणवादी विस्तार ही है. ब्राह्मणवादी चेतना सामन्ती थी. वह धर्म के चमत्कारी वर्चस्व का किस्सा रचती थी. दलितों द्वारा मिथकों के निर्माण से संघर्ष की अग्रगामी चेतना को भी सामन्ती दायरे में घसीटना वस्तुतः एक प्रति-ब्राह्मणवादी कोशिश बनकर रह जाती है.

प्रबोधन के अनुसार ईश्वर और प्रकृति के प्रति मनुष्य का विषयगत रुख ही मिथक का मूल कारण है. अतिप्राकृतिक शक्तियां, आत्मा, दानव ये सब मानवीय शक्तियों के ही भिन्न रूप हैं जिसे मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों के सामानांतर निर्मित किया है. मिथक निर्माण की प्रक्रिया के मूल में मनुष्य और प्रकृति का द्वंद्व है. मनुष्य प्रकृति पर हावी होने के क्रम में मिथकों का निर्माण करता है. इन शक्तियों की मनोरचना के माध्यम से वह प्रकृति के जादू को तोड़ने का प्रयत्न करता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर इस बात को सामने रखते हैं कि मिथक निर्माण की प्रक्रिया अमूर्त और अव्याख्येय नहीं है. वह एक निश्चित ज्ञानात्मक प्रक्रिया का हिस्सा होती है. एक समूची परिकल्पना के तहत उसे अनुशासन रीति-रिवाज़ और अनुष्ठानों में बदला जाता है. उसके ऊपर ज्ञान-सत्ता का वर्चस्व स्थापित किया जाता है. स्थानीय देवी-देवताओं को उनकी वरीयता के अनुसार, आसमानी शक्तियों में बदला जाता है. यहाँ ज्ञानोदय और मिथक के बीच फर्क मिटने लगता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर लिखते हैं “मिथक ज्ञानात्मक होने लगता है और प्रकृति वस्तुगत. जिन चीज़ों पर मनुष्य ने शक्ति का प्रदर्शन किया था उन्हीं से विच्छेद के कारण वह बढ़ी हुयी शक्तियों को अर्जित करता है. वस्तुओं के साथ प्रबोधन का सम्बन्ध उसी तरह का है जैसा कि तानाशाह का मनुष्य के साथ”1.यहाँ वर्चस्व के रास्ते एडोर्नो, होर्खाइमर प्रबोधन और मिथक के बीच के सम्बन्ध को व्याख्यायित करते हैं, वे इस बात को रखते हैं कि मिथक की चेतना में प्रबोधन की दृष्टि मौजूद रहती है और इसी तरह प्रबोधन भी अंतत एक मिथक को ही रचता है. इस अर्थ में प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता उसे मिथक के विरुद्ध होकर भी मिथक से मुक्त नहीं होने देती.

हर रीति-रिवाज़ चीज़ों के सम्पन्न होने की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करती है. अनुष्ठानों के अपने नियम होते हैं. मिथक के दायरे से शुरू होकर चीज़ें ज्ञानात्मक होने लगती हैं. इसी प्रक्रिया के तहत यानि ज्ञानोदय के रास्ते ही मिथक सामाजिक स्वीकृति पाता है. इस बात को समझने के लिए हम पीपल के पेड़ का उदाहरण ले सकते हैं. पीपल के पेड़ के नीचे रात के वक्त सोना खतरनाक है. पीपल का पेड़ रात के वक्त अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है. यह एक प्रकृतिगत विविधता है. इस पर मनुष्य का स्पष्ट रूप से कोई नियंत्रण नहीं है, लेकिन इस पर मनुष्य मिथकों के निर्माण से वर्चस्व स्थापित करता है. पीपल के पेड़ पर भूत की परिकल्पना को वह रचता है. इस तरह पीपल के पेड़ का मिथकीकरण किया जाता है. दिन के वक्त उसकी पूजा होती है. यह इसलिए कि इस प्रक्रिया यानीं अनुष्ठानों के माध्यम से पीपल का पेड़ लोगों की सक्रिय स्मृति का हिस्सा बना रहे. जो बात ज्ञानोदय के दायरे में आती है उसे मिथक का रूप देकर,लोगों की चेतना में आरोपित किया जाता है. यह बात अगर एक तार्किक संदर्भ अख्तियार भी करती है तो उसका परिणाम विपरीत होता है.

मिथक की चेतना कमज़ोर होने की बजाय और मज़बूत होने लगती है. ज्ञानात्मक चेतना और मिथकीय चेतना के दायरे एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं. ज्ञानोदय की प्रक्रिया किसी सत्य को स्थापित नहीं करती. इसके विपरीत वह उस संदर्भ को पुख्ता करती है जो वास्तव में एक मिथ से पैदा हुयी थी. इस तरह मिथक (काल्पनिक, अयथार्थ) और ज्ञानोदय (वास्तविक , यथार्थ) के बीच दूरी नहीं रह जाती. दोनों एक दूसरे को स्थापित करने का प्रयत्न करने लगते हैं. प्रकट तौर पर ज्ञानोदय की जो मूल चेतना है जो मिथक के विरुद्ध नज़र आती है वास्तव में वह मिथकीय होने लगती है. भारतीय संदर्भ में मिथकों की स्थापना के लिए ब्राह्मणवाद के तौर पर हम मिथकों के अनुशासन में बदलने की  प्रक्रिया को देख सकते हैं. पुरोहिती की समग्र व्यवस्था मिथकों को सामाजिक वर्चस्व में बदलने में किस हद तक सफल हुयी, यह अलग से बताने की जरुरत नहीं.

एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं “जिस तरह मिथक प्रबोधन को अनिवार्य बना देता है उसी तरह हर कदम से प्रबोधन भी खुद को मिथक में गहरे उलझा देता है. वह अपने सारे संदर्भों को मिथक से प्राप्त करता है ताकि वह उसे नष्ट कर सके. मिथकीय भाषा में वह मिथक के प्रति अपना मत जाहिर करता है”2.

एडोर्नो, होर्खाइमर का मानना है कि तर्क की स्थापना के साथ–साथ ताकत की स्थापना को महत्व दिया गया. तर्क का उद्देश्य ताकत के अस्तित्व को स्वीकार्य बनाना था. वे कहते हैं कि तर्क को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया ताकि वह एक वर्चस्व का रूप अख्तियार करे. फूको भी इसी स्थापना को आगे बढ़ाते हुए ज्ञान ताकत की अवधारणा हमारे समक्ष रखते हैं. फूको ने एक बातचीत में स्वीकार किया कि वे फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों और विशेषकर एडोर्नो के चिंतन से वाकिफ नहीं थे. वे कहते हैं कि अगर उन्हें इन सब का पता होता तो उनका काम इन सबपर टिप्पणी करने से भी चल जाता.

एडोर्नो, होर्खाइमर का मानना था कि प्रबोधन की अवधारणा को एक निश्चित अवधारणा में बदल दिया गया है. हर घटना, स्थिति का विश्लेषण उन्हीं तय अवधारणाओं को अनुकूलित करने के क्रम में होता है. एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं यह वास्तव में प्रबोधन नहीं है. किसी घटना या स्थिति की गतिशीलता का इसमें निषेध है. स्थितयों के प्रति एक निश्चित रुख अख्तियार कर लेने से उसकी विकासात्मक गति की ठीक पहचान संभव नहीं रह जाती. प्रबोधन का उद्देश्य अज्ञात और डर पर तार्किक निष्कर्षों द्वारा विजय पाना है. इस प्रक्रिया के तहत ही वास्तविक तौर पर प्रबोधन की प्रक्रिया को आत्मसात किया जा सकता है. देश -काल रहित ज्ञानात्मकता को सर्वकालिक सत्य की तरह आरोपित करना, प्रबोधन नहीं हो सकता. प्रबोधन को पहले स्वयं ही प्रबोधन की चेतना को आत्मसात करना होगा.

एडोर्नो, होर्खाइमर सवाल उठाते हैं कि जब हम तर्क को एकमात्र विकल्प यानि वर्चस्व के तौर पर सामने रखते हैं तो उस स्थिति में हमारे विवेक का क्या होता है. विवेक से उनका तात्पर्य आलोचनात्मक विवेक के रूप में है. वे पूछते हैं कि विवेक तर्क के इस वर्चस्व के खिलाफ खड़ा क्यों नहीं होता? इसके जवाब में वे कहते हैं कि तर्क वास्तव में जिसपर अपना वर्चस्व कायम करता है, जिसपर हावी होता है, उससे उतरोत्तर उसकी दूरी बढ़ती जाती है. ऐसी स्थिति में किसी किस्म के आलोचनात्मक विवेक की गुंजाईश बची नहीं रह जाती है. तर्क विषय से दूर हटता जाता है और इस प्रक्रिया में वह विषय का ही वस्तुकरण कर देता है. तर्क और वस्तु के बीच उसी स्तर का सम्बन्ध विकसित होता जाता है जैसा कि तानाशाह का मनुष्यों के साथ. तानाशाह की परिकल्पना शासक और शोषित की पारम्परिक दूरी को और बढ़ा देती है. एक बिंदु पर जाकर यह दूरी इतनी बढ़ जाती है कि शासक चाहकर भी कुछ ऐसा नहीं सोच सकता जो जनता के पक्ष में हो. इसे और स्पष्ट करते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर विषय और वस्तु के नये संदर्भों को रखते हैं. वे कहते हैं कि तर्क के सहारे अमूर्तन को रचा जाता है. वर्चस्व के नये दायरों को निर्मित करने के लिए वस्तु की निजता को नष्ट किया जाता है. इस निजता के ध्वंस से विषय का वस्तुकरण संभव हो पाता है.

एक वैज्ञानिक के समक्ष परिक्षण के लिए मेज़ पर मौजूद चूहा मात्र एक वस्तु है. चूहे के रूप वह कोई विषय नहीं है. उसकी निजता का वैज्ञानिक के लिए कोई महत्व नहीं है. वैज्ञानिक के समक्ष आने से पहले वह एक प्रजाति में रूपांतरित हो चुका होता है. उसके निजी गुण धर्मों का वैज्ञानिक के लिए कोई महत्व नहीं रह जाता. प्रयोग से प्राप्त निष्कर्षों को वह उस एक चूहे से प्राप्त निष्कर्ष के रूप में नहीं प्रस्तुत करता. वह उसके माध्यम से समस्त प्रजाति के बारे में अपनी राय व्यक्त करता है. इस तरह की वैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से विषय को वस्तु में बदला जाता है. सत्तावर्ग द्वारा किये गये तमाम तरह के नरसंहारों को अंजाम देने से पहले मनुष्य को इसी तरह की प्रजातियों में बदला जाता है. इसके लिए सत्ता ज्ञान माध्यमों का इस्तेमाल करती है. लोगों को वर्ण, जाति, रंग, लिंग, राष्ट्र, भाषा आदि के नाम पर चिन्हित किया जाता है. सत्ता पहले उस चिन्ह के खिलाफ घृणा को प्रचारित करती है और फिर उस चिन्ह को मिटाने की प्रक्रिया के द्वारा बड़े पैमाने पर नरसंहारों को अंजाम दिया जाता है.

हम यह कह  सकते हैं कि एडोर्नो, होर्खाइमर के चिंतन की केंद्रीय अवधारणा ही विषय का वस्तुकरण है. वे बताते हैं कि बुद्धिवाद का सबसे बड़ा संकट यही है. वस्तुकरण की इस प्रक्रिया के द्वारा विवेक का यांत्रिकीकरण होने लगता है. वह स्वयं ही एक स्वचालित वस्तु में बदल जाती है. विवेक की अपनी निजी विशिष्टताएं समाप्त हो जाती हैं. यांत्रिकता ही विवेक के ऊपर हावी हो जाती है. प्रबोधन की प्रक्रिया के तहत विवेक का यांत्रिकीकरण और उसके परिणामस्वरूप यांत्रिक बुद्धिवाद की स्थापना. प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता यह निष्कर्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है.

“चिंतन को एक ऐसी स्वतंत्र और स्वायत्त प्रक्रिया के रूप में मूर्त किया जाता है जो उस यंत्र का अनुकरण करता है जिसे स्वयं उसने ही निर्मित किया है. अंततः चिंतन को यंत्र द्वारा बदल दिया जाता है” 3

विचारों के इस यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि मनुष्य और यंत्र के बीच की दूरी कम होती जाती है. इस प्रक्रिया में मनुष्य हारता जाता है. यंत्र का वर्चस्व उसकी पूरी चेतना एवं सत्ता पर हावी होता जाता है. यांत्रिक वैचारिकता समस्त वैचारिकता को नष्ट कर देती है. स्वचालन की प्रक्रिया मनुष्य की विषयगत सत्ता को लगभग धूमिल कर देती है. स्वचालन यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का अगला हिस्सा है जिसे तकनिकी तार्किकता द्वारा अर्जित किया जाता है. यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया के समक्ष अगर समग्र प्रकृति है तो तकनिकी प्रक्रिया के समक्ष प्रकृति का जरुरी हिस्सा मनुष्य है. यांत्रिकीकरण से जब हम तकनीकीकरण की प्रक्रिया की तरफ बढ़ते हैं तो द्वंद्वात्मक चेतना विनष्ट होती जाती है.

विषय और वस्तु के बीच बढती दूरी के परिणामस्वरूप वस्तु विषय के अस्तित्व पर हावी होने लगती है. वस्तु की यह वर्चस्व-चेतना प्रबोधन का अनिवार्य गुण बन जाती है. सार्त्र का मानना था कि साम्राज्यवादी वर्चस्व की प्रक्रिया में शासक और शोषित दोनों के आत्म का विघटन होता जाता है. लगातार हिंसा और वर्चस्व की चेतना को अंजाम देते हुए वर्चस्व की शक्तियाँ मानवीय विवेक को नष्ट करती जाती हैं. इस बात को साम्राज्यवादी शासन के दौरान हुयी अकूत हिंसा में देखा जा सकता है. दूसरी ओर शासित राष्ट्र भी अपने आत्म को बचाने की प्रक्रिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के अनुरूप ढलते जाते हैं. वे अपने स्व की रक्षा नहीं कर पाते. उनकी निजी विशिष्टताएं नष्ट होती जाती हैं.    

प्रबोधन की प्रक्रिया के तहत किस तरह आत्म-संरक्षण की प्रक्रिया आत्म-विघटन में बदलती है? यह समझना जरुरी है. हमारे यहाँ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी भी आत्म-संरक्षण की बात करते हैं. वे भी महसूस करते हैं कि साम्राज्यवादी वर्चस्व का जवाब दूसरे वर्चस्व (हिंसा )के द्वारा नहीं दिया जा सकता. वे यूरोपीय आधुनिकता को साम्राज्यवादी वर्चस्व के मूल में रेखांकित करते हैं. यही वजह है कि गांधी साम्राज्यवाद के विरोध का तरीका यूरोपीय आधुनिकता के विरोध के रास्ते निकालते हैं. वे आत्मबोध के निर्माण के द्वारा आधुनिकता के वर्चस्व को चुनौती देने की बात करते हैं. गांधी का यह चिंतन यूरोपीय आधुनिकता का क्रिटीक रचता है. एक सामानांतर आधुनिकता की परिकल्पना, जिसमें स्व का वस्तुकरण नहीं होता. गांधी आत्म की तलाश में स्व पर ठहर नहीं जाते. वे स्व से आगे बढ़ते हुए सामूहिकता की ओर बढ़ते हैं. इस अर्थ में हम देखें तो गाँधी के समस्त चिंतन में किसी भी तरह के अमूर्तन का जबरदस्त विरोध देखा जा सकता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर भी यह मानते हैं कि अमूर्तन के द्वारा प्रबोधन अपने युग के मिथक को रचती है. अमूर्तन को वे इस प्रबोधन के वर्चस्व के अस्त्र के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं मिथक के सन्दर्भ में जिस भूमिका को भाग्य या संयोग के रूप में हम देखते हैं, प्रबोधन के वर्चस्व निर्माण में वही भूमिका अमूर्तन की होती है.

क्या यह संभव नहीं था कि मानवीय विवेक द्वारा इस अमूर्तन के पार देखने की कोशिश की जाती? 20 वीं सदी में ऐसा नहीं हो सका. एडोर्नो, होर्खाइमर के अनुसार ऐसा इसलिए कि प्रबोधन की चेतना में प्रकृति का निषेध अंतर्निहित था. मानवीय विवेक ने मानवीय प्रकृति को विस्मृत कर दिया. ऐसे में सहज तार्किकता संभव नहीं रह गयी. सहज तार्किकता का अर्थ था वे मूल्य जो फ्रेंच क्रांति से मिले थे. स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना. इसके साथ ही प्रकृति के साथ मनुष्य के सह-अस्तित्व की चेतना. मनुष्य स्वयं भी प्रकृति का रूप था लेकिन तर्क के वर्चस्व ने सर्वप्रथम मनुष्य को प्रकृति की इस सहचेतना से काट दिया. परिणामस्वरूप जो मानवीय विवेक विकसित हुआ वह प्रकृति से विमुख था. प्रकृति पर वर्चस्व का अर्थ था मनुष्य पर भी वर्चस्व. इसे 19 वीं और 20 वीं सदी के मध्य तक यांत्रिक तार्किकता के माध्यम से अर्जित किया गया. मनुष्य बनाम सत्ता की लड़ाई मनुष्य बनाम यांत्रिक तार्किकता की लड़ाई में बदल गयी.




(तीन)
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात रूस में साम्यवादी सत्ता की स्थापना के साथ साथ ही रूस के पड़ोसी राष्ट्र जर्मनी में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार आरम्भ हुआ. राष्ट्र और समुदाय की नई अवधारणायें विकसित हुयी. पहचान की राजनीति का नया दौर शुरू हुआ. यह राजनीति 19 वीं सदी की राजनीति से पूरी तरह भिन्न थी. इस राजनीति ने राजनीतिक -अर्थशास्त्र की निर्णायक भूमिका को मद्धिम कर दिया. एडोर्नो के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण था कि आखिर रूस और जर्मनी की राजनीति जो प्रकट तौर पर एक दूसरे के एकदम विपरीत नज़र आती है, उसे एक ही समय में दोनों तरफ की जनता ने स्वीकार किस तरह कर लिया? इन दो राष्ट्रों की राजनीतिक चेतना में मौजूद वैपरित्य का जनता से अन्तर्विरोध क्यों नहीं उभरा? जनता ने इस वर्चस्व को अगर स्वीकार कर लिया तो जाहिर सी बात है कि जनता राजनीति से इतर किसी और वर्चस्व को स्वीकार कर रही थी. यानी जनता की अवधारणा को महज़ आधार और अधिरचना के पुराने विभाजन से नहीं समझा जा सकता. यह एक नई स्थिति थी, जहाँ आधार-अधिरचना एक नये अर्थ में घुलमिलकर प्रस्तुत हो रहें थें. एडोर्नो इसे संस्कृति उद्योग के रूप में चिन्हित करते हैं.

संस्कृति उद्योग के हवाले से लोकप्रिय संस्कृति की अवधारणा विकसित की गयी. यानि जनता के अंतर्विरोधों को जिसके निर्माण में  वर्गीय चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका थी - विस्मृत किया गया. यह किस तरह संभव हुआ? ऐसा करने के लिए वर्गीय अंतर्विरोधों को, प्रकट रूप में खत्म किया गया. हम जानते हैं कि वर्गों का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि वर्गीय अन्तर्विरोध मौजूद होते हैं. ये अन्तर्विरोध हमारी चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ये अन्तर्विरोध प्रकट-अप्रकट तौर पर जनता की संस्कृति में भी मौजूद होते हैं. संस्कृति उद्योग के हवाले से वर्गों के सामंजस्य की छद्म सांस्कृतिक चेतना निर्मित की जाती है. पहले लालच के वृहद् संसार के रूप जनता के अवचेतन को निशाना बनाया जाता है. ऐसे विज्ञापन निर्मित किये जाते हैं जो आपसे कुछ भी खरीदने का आग्रह नहीं करते. वे आपसे उपभोक्ता और उत्पाद के स्तर पर नहीं जुड़ते. उन्हें स्वप्न के रास्ते, सौंदर्य के रास्ते, इच्छा -आकांक्षा के रास्ते हमारे अवचेतन में प्रवेश दिलाया जाता है. एक दिन बाहरी दुनिया में हम उन आकांक्षाओं को, स्वप्नों को मूर्त होता देखते हैं. इस तरह हमारी चेतना पर एक आधिपत्य निर्मित किया जाता है. यह नई संस्कृति हर तरह के विरोधों से मुक्त है, यह बात हमारी चेतना में धीरे -धीरे दर्ज होने लगती है.

सफलतापूर्वक इस भ्रम को फैलाया जाता है कि दुनिया की हर चीज़ हर किसी के लिए संभव है. संस्कृति का अर्थ एक कृत्रिम आनंद तक सीमित कर दिया जाता है. फिल्मों के स्तर पर हम देखते हैं कि हर सफल फिल्म का अर्थ फूहड़ हास्य तक सीमित कर दिया गया है. कला के उत्पादन से जनता के मनोविज्ञान के सम्बन्ध को पूरी तरह अनुकूलित कर दिया जाता है.
 
अंतर्विरोधों का सामंजस्य ही इस संस्कृति का मूलाधार है. संस्कृति में जब अंतर्विरोधों का सामंजस्य होता है तो वह बड़े पैमाने पर राजनीति को बदल देती है.

हमारे यहाँ जो पिछले दिनों राजनीतिक परिवर्तन हुआ उसमें भी इस बात की शिनाख्त की जा सकती है. हर विषय पर एक ही समय में विरोधी बातें कही जाती हैं और जनता के वैविद्ध्य के मध्य उसे खपा दिया जाता है. इसके तहत एक ही समय में कट्टरपंथ और उदारपंथ दोनों का सामंजस्य निर्मित किया जाता है. वे लोग जो कट्टरपन्थ की संस्कृति के प्रशंसक हैं, उन्हें इस राजनीति को समर्थन देना चाहिए और वे लोग जो कट्टरता के विरोध में उदारता के पक्ष में हैं वे भी इसी राजनीति में अपने लिए स्थान पा सकते हैं. हम देखते हैं कि हमारे प्रधानमन्त्री, चुने जाने के पूर्व से ही और आज तक, हर विषय पर परस्पर विरोधी बातों के सामंजस्य को प्रश्रय देते हैं . इस तरह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के भीतर लोकप्रिय संस्कृति के रास्ते वर्चस्व की राजनीतिक भूमिका निर्मित की जाती है. इसे न तो पारम्परिक अर्थ में राजनीति कहा जा सकता है और ना ही संस्कृति. यह एक नई स्थिति है. एडोर्नो इसे संस्कृति उद्योग का नाम देते हैं.  

संस्कृति उद्योग में एडोर्नो इस बात की पड़ताल करते हैं कि किस तरह लोकप्रियता के माध्यम से सांस्कृतिक वर्चस्व की सार्वभौमिकता को रचा जाता है. इस बात को समझने के क्रम में हम सिगरेट का उदाहरण ले सकते हैं. हमारे यहाँ सिगरेट के डब्बे पर यह छपा होता है ‘सिगेरट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’. किसी भी समाज में सभी सिगेरट के सेवन नहीं करते. लेकिन मध्यवर्गीय दायरे में हम देख सकते हैं कि सिगेरट पीना एक लोकप्रिय संस्कृति का रूप ले चुका है. जिस तरह फैशन के तौर पर लोग धूप के चश्मे पहनते हैं या टोपी लगते हैं उसी तरह सिगरेट पीकर भी दूसरों पर अपना प्रभाव जमाते हैं. हर किसी में सिगेरट पीने की इच्छा दूसरों को देखकर आती है. लेकिन वह लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा तभी हो सकती है जब वह विरोधों के सामंजस्य को निर्मित करे. यानि वे लोग जो सिगरेट नहीं पीते या पीने वालों को लेकर एक अलग तरह की राय रखते हैं, वे भी सिगेरट के उत्पाद से जुड़े, तभी सिगरेट पीने की संस्कृति एक लोकप्रिय संस्कृति में बदल सकती है. ‘सिगरेट पीना स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है’सिगरेट के डब्बे पर अंकित इस चेतावनी को देखकर शायद हो सिगेरट पीना छोड़ता हो. ऐसा नहीं होता. फिर यह चेतावनी किनके लिए होती है. मूलतः यह सूचना उन लोगों के लिए है जो लोग सिगेरट नहीं पीते.

इस तरह सिगरेट के उत्पाद से दोनों जुड़ जाते हैं. पीनेवाले सिगरेट के डब्बे में मौजूद सिगरेट से संतुष्ट होते हैं और न पीनेवालों को जोड़ने के लिए डब्बे पर यह चेतावनी मौजूद होती है.  न पीनेवाले सिगरेट का उपभोग डब्बे पर अंकित चेतवानी से करते हैं. सिगरेट को लेकर उनके मन में जो नकारात्मकता होती है जो क्षोभ एवं गुस्सा होता है उसे किसी हद तक यह चेतावनी कम कर देती है. चेतावानी को पढ़कर लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति लोगों की आस्था मजबूत होती है. इस तरह सिगरेट को सामाजिक सांसकृतिक व्यवहार का अंग बनाया जाता है. विरोधों के सामंजस्य से लोकप्रियता का समाजशास्त्र रचा जाता है. नागरिक समाज में इस तरह के विरोधो के समंजस्य से ही वर्चस्वाद की चेतना को जनता के लिए अनुकूलित किया जाता है.

एडोर्नो के चिंतन में इस बात को देखा जा सकता है कि वे क्लासिकल मार्क्सवाद को लेकर कुछ बुनियादी प्रश्न उठाते हैं. वे इतिहास की विकासवादी अवधारणा को प्रश्नांकित करते हैं और उसके खतरों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. वे कहते हैं इतिहास की विकासवादी अवधारणा के अनुसार मनुष्यता एक जकड़बंदी से स्वतंत्रता की ओर बढती है, भ्रामक है .एडोर्नो कहते हैं वास्तव में दुनिया बर्बरता से मनुष्यता की तरफ नहीं बढ़ती , दुनिया गुलेल से बम की तरफ बढती है. यानि इतिहास की इस विकासवादी अवधारणा में विज्ञान के माध्यम से वर्चस्व के नये प्रतिमान रचे जाते हैं.  हर नया प्रतिमान पिछले प्रतिमानों के मुकाबले अधिक बर्बर होता है.

एडोर्नों मार्क्सवाद की इस मूल अवधारणा पर चोट करते हैं जिसके अनुसार अब तक का ज्ञात इतिहास, वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है और वर्ग संघर्ष का उद्देश्य वर्गों को समाप्त कर समतामूलक समाज के निर्माण का है. एडोर्नो का मानना था कि यह धारणा गलत है कि उत्पादन की पूंजीवादी शक्तियाँ जब पूंजीवादी सम्बन्धों से मुक्त हो जाएँगी तो वे स्वतंत्र समाज को जन्म देंगी. पूंजीवाद किसी किस्म की स्वतंत्रता को प्रश्रय नहीं देता. वह वर्चस्व के एक स्तर से दूसरे स्तर की तरफ बढ़ता है. वह इतिहास की समग्रतावादी  अवधारणा का इस्तेमाल कर वर्चस्व के नये रूपों को विकसित करता है. इस अर्थ में अनजाने ही इतिहास की मार्क्सवादी अवधारणा पूंजीवादी वर्चस्व का हिस्सा बन जाती है. एडोर्नो लिखते हैं “सार्वभौमिक इतिहास की अवधारणा का विरोध किया जाना चाहिए और उसे  नकारा जाना चाहिए. अतीत के विध्वंसों और भविष्य के संभावित विध्वंसों को देखकर कोई पागल ही कह सकता है कि बेहतर दुनिया की संकल्पना इतिहास की अवधारणा में अंतर्निहित है जो इसे जोडती है”4

स्पष्ट है कि इतिहास की अवधारणा के तहत मुक्ति की चेतना को लेकर एडोर्नो संदेह व्यक्त करते हैं. वे कहते हैं कि सार्वभौमिकता के तहत जिस इतिहास को हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता है, वास्तव में वह वर्चस्व को ही जन्म देता है. 20 वीं सदी की तमाम क्रूरताओं और बर्बरताओं के मूल में, इतिहास की समग्रतावादी दृष्टिकोण की भूमिका रही है, इससे शायद ही कोई इंकार कर सकता है.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूंजीवाद वर्चस्व को आम जन की संस्कृति (mass culture)के रास्ते अर्जित करता है. इसके लिए संस्कृति को यांत्रिक उत्पादन की प्रक्रिया से जोड़ा जाता है. वाल्टर बेंजामिन ने इसकी चर्चा सबसे पहले अपने लेख यांत्रिक पुनरुत्पादन के दौर में कला में किया था. वे चित्रकला के समक्ष कैमरे की भूमिका को रखते हैं. एडोर्नो बेंजामिन की इसी अवधारणा को और विस्तार देते हैं. वे लिखते हैं संस्कृति की तकनीक पर निर्भरता धीरे- धीरे उसे तकनीक के अनुकूल विकसित करती जाती है. कला और कलाकार के मध्य तकनीक की भूमिका निर्णायक होने लगती है, न सिर्फ निर्णायक अपितु तकनीक कला और कलाकार दोनों को नियंत्रित भी करने लगती है. इस अर्थ में वह समूची संस्कृति को उद्योग में बदल देती है. कला का वितरण एवं उत्पादन भी उद्योग के नियमों के तहत होने लगता है. इसका समूची कला पर एवं कलाकार पर प्रतिकूल असर पड़ता है. हालाँकि एडोर्नो कहते हैं कि संस्कृति उद्योग में उद्योग को शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए बल्कि सांस्कृतिक उद्योग से ध्वनित होने वाले सांकेतिक अर्थ पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए.

एडोर्नो के अनुसार कला के उपभोग, उसके प्रसार, उसकी लोकप्रियता से संस्कृति उद्योग का संदर्भ विकसित होता है. ऐसे में यह जरुरी है कि कला और कलाकार के भीतर मौजूद स्व की चेतना एवं स्वतः स्फुरण को नष्ट किया जाये. कला और कलाकार की स्वायतता को नियंत्रित किया जाना संस्कृति उद्योग का मूलभूत चरित्र है. यह बात हम टैलेंट शो जैसी प्रतियोगिताओं में जो आये दिन टी. वी पर दिखाई जाती हैं में देख सकते हैं. इन कार्यक्रमों में यह दावा किया जाता है कि एक समान्य सी प्रतिभा को लगातार मांजकर एक कलाकार के रूप में किस तरह बदला जाता है. लेकिन इस प्रक्रिया में जो चीज़ सबसे पहले नष्ट की जाती है वह है कलाकार की स्वायतता. उसे अपने विषय में अपनी कला चेतना के संदर्भ में किन्हीं निजी मान्यताओं, प्रक्रियाओं को रखने नहीं दिया जाता. उसे दिए गये निर्देशों को यांत्रिक तौर पर पालन करना होता है. ये निर्देश संस्कृति उद्योग के नियमों के तहत विकसित होते हैं. कलाकार का काम इस उद्योग में एक कड़ी के रूप में जुड़ना भर है. उसकी कला को उत्पादित वस्तु के तौर पर जनता के बीच खपाया जाता है. इस तरह के कार्यक्रमों में दर्शकों की राय कितनी अहम् है इस बात को बार -बार बताया जाता है. उनसे अपनी पसंद के कलाकार के पक्ष में वोट करने को कहा जाता है, यह बताया जाता है कि देश का फैसला इस कलाकार के पक्ष में गया है. इस तरह चंद लोगों की अनुकूलित दृष्टि को समूचे देश के निर्णय के रूप में व्याख्यायित किया जाता है .ऐसा क्यों किया जाता है ? हम जानते हैं कि अरबों की जनसंख्या वाले देश में दस – पांच हज़ार लोगों की संख्या का क्या अर्थ है ,लेकिन ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि इस रास्ते लोकतंत्र की हमारी समझ लगातार विकृत होती रहे. बहुमत की छद्म चेतना का निर्माण कर कला का वस्तुकरण किया जाता है ताकि उसे आम जन की चेतना का अनिवार्य हिस्सा बनाया जा सके.




(चार)
संस्कृति ने मनुष्य को गहरी जकड़बंदियों से मुक्त किया है. एक तरह से मनुष्य जिन जड़ताओं के अधीन खुद को पाता है, उससे बाहर निकलने का रास्ता संस्कृति का रास्ता होता है. कोई भी संस्कृति समय की सीमाओं के पार तभी आ सकती है जब उसमें प्रगतिशीलता के तत्व मौजूद हों. बगैर प्रगतिशील भूमिका के कोई भी संस्कृति मनुष्य की स्मृति बोध का स्थायी अंग नहीं बन सकती. इसी संदर्भ में मार्क्स ग्रीक त्रासदियों की भूमिका की चर्चा करते हैं. वे जब कहते हैं कि अब तक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है तो वे मनुष्य की इसी सांस्कृतिक स्मृति की चर्चा कर रहे होते हैं. मनुष्य की स्मृति में उसकी लम्बी अनथक यात्रा की स्मृतियाँ अपनी जगह सुनिश्चित कर ही लेती हैं. इतिहास की  चेतना, संस्कृति और परम्परा के रास्ते ही उसके जीवन में प्रवेश पाती हैं. हम अक्सर इस प्रश्न के समक्ष खुद को पाते हैं कि स्मृति और परम्परा में से किसे रखे और किसे छोड़ दें. यह बोध ही दरअसल संस्कृति का बोध है. इतिहास की चेतना भी दरअसल हमारी चेतना में संस्कृति के रास्ते ही दाखिल होती है. इसलिए मार्क्स जिस क्रमिकता की बात करते हैं, वह वास्तव में हमारा संस्कृतिक बोध ही है. लेकिन अगर इस सांस्कृतिक बोध को नष्ट कर दिया जाये तो इतिहास की इस क्रमिक चेतना को वर्चस्वादी चेतना में बदलना आसान हो जायेगा. संस्कृति उद्योग हमारी सांकृतिक चेतना को नष्ट कर देती है.

एडोर्नो कहते हैं संस्कृति जब उद्योग का रूप धारण करने लगती है तब उसमें उद्योग धंधों से सम्बन्धित संकट भी पैदा होने लगते हैं. कलाकार उत्पादक की भूमिका में आ जाता है और कला उत्पाद बन जाती है जिसे बाज़ार में जींस की तरह खपाया जाता है. उत्पादन का आधार मात्रा और गति से निर्मित होने लगता है. गुणवत्ता का महत्व इसलिए नहीं रह जाता क्योंकि तकनीक के माध्यम से उसे पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में ढाल दिया जाता है. एक संगीतकार से सिर्फ एक ही तरह का संगीत बार बार उत्पादित करने को कहा जाता है क्योंकि बाज़ार में उसी की मांग होती है. कला का उत्पादन, मांग और आपूर्ति के नियमों के तहत अनुकूलित होने लगता है .यांत्रिक पुनरुत्पादन का परिणाम यह होता है कि कलाकार की कला चेतना शुष्क होने लगती है .दूसरी तरफ बार बार एक ही तरह के कला उत्पादों का उपभोग करते -करते आम जन की सौंदर्याभिरुची भी जड़ होने लगती है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि कलाकार के भीतर भी श्रमिक की तरह का विलगाव उत्पन होने लगता है. एडोर्नो इस बात पर बल देते हैं कि संस्कृति उद्योग विलगाव पैदा कर संस्कृति की चेतना से ही आम जन को काट देती है.

संस्कृति उद्योग बाहरी स्तर पर वर्गीय अंतर्विरोधों को दूर कर इस भ्रम को फैलाती है कि चीज़ें सबके लिए सुलभ है. हर कोई अपने को इस उदार संस्कृति से जोड़ सकता है. इतिहास में यह क्षण पहली बार आया है. ऐसा करने के लिए वह हज़ार वर्षों से मौजूद उच्च कला और लोक कला के बीच के भेद को समाप्त करने का नाट्य भी रचती है. ऐसा करने में उसकी सफलता के पीछे कला का यांत्रिक उत्पादन ही है. उदाहरण के तौर पर हम मुम्बईया फिल्मों को देख सकते हैं. इन फिल्मों को ऐसे उत्पाद के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है जिस तक हर किसी की पहुँच संभव हो. इसे फिल्म उद्योग ने संभव बनाया है. पुराने समय में नाटकों का जो मंचन होता था वहां तक समाज के अभिजात्य वर्ग की पहुँच थी. चूँकि उपभोक्ता अभिजात्य वर्ग था इसलिए उन कलाओं की अंतर्वस्तु भी उसकी रूचि के अनुरूप थी. वह अभिजात्य की चेतना को पुख्ता करती थी. सामान्य लोगों के लिए लोक कलाएं थीं. ये कलाएं उनके जीवन में मौजूद नैतिकता और मानवीयता के पक्षों को उजागर करती थी. संस्कृति उद्योग इन दोनों के बीच मौजूद ऐतिहासिक खाई को पाटकर नई तरह की अंतर्वस्तु के साथ कला को उत्पाद के तौर पर हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है. सरसरी तौर पर देखने से यह लग सकता है कि कला के ऐतिहासिक संघर्ष को मिटा दिया गया है. लेकिन वास्तव में कला को ही नष्ट कर दिया गया है. उसे महज़ एक उपभोग में बदल दिया गया है. आम जन को एक विकल्पहीन स्थिति में रखा जाता है. उन्हें किसी न किसी रूप में इस कला वस्तु का उपभोग करना ही है. इस तरह कला सार्वभौमिकता का वृहद् संसार रचती है. इसी रास्ते सर्व-सत्तावाद हमारे जीवन में प्रवेश करता है.





(पांच)
कला रूपों में बदलाव का उद्देश्य निर्माताओं के लिए धन उगाहना है .कला स्वयं में कुछ अर्थ नहीं रखती. उसकी कोई स्वायत्त चेतना बची नहीं रह जाती है .संस्कृति के वस्तुकरण का उद्देश्य उसे मुनाफे के व्यापार में बदलना है. इसके लिए कला के भीतर से जनसंपर्क की प्रवृति को विकसित किया जाता है.

इसे समझने के लिए हम फिल्म के रूप में  विकसित हुयी संस्कृति को समझ सकते हैं. पूरी दुनिया में फिल्म एक उद्योग का रूप ले चुका है. उसमें कई विभाग हैं, जिसमें काम करने वाले अलग अलग लोग हैं. फिल्म को बनाने वाले सभी लोग कलाकार नहीं कहे जा सकते लेकिन उनके बगैर फिल्म निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती. इस तरह कला उत्पादन में कलाकार की भूमिका सीमित होती जाती है. 

कई तरह की तकनीकी एवं यांत्रिक प्रक्रियाओं से होकर फिल्म का निर्माण पूरा होता है. उसमें पूंजीपति पैसा लगते हैं. उनके लिए फिल्म शुद्ध रूप में एक व्यवसाय है, एक दूसरा वर्ग भी होता है जो श्रम करता है. उत्पाद के तौर फिल्म का उपभोग एक तीसरा वर्ग करता है. यह आम जन है. सिनेमा हाल वह जगह है जहाँ उसे बेचा जाता है ,फिल्म को सिनेमा हाल तक ले जाने में भी कुछ लोगों की भूमिका होती है जिसे वितरक कहा जाता है. ये कौन लोग हैं? संस्कृति उद्योग ने यह नया वर्ग विकसित किया है, अगर फिल्म को उत्पाद के रूप में आम जन तक न पहुँचाया जाये तो इस वर्ग की भूमिका समाप्त हो जाएगी. ये फिल्म से लेकर शेयर बाज़ार तक तमाम क्षेत्रों में फैले लोग हैं.  परजीवी के तौर पर विकसित ये लोग समाज की चेतना पर प्रतिकूल असर डालते हैं. हम इन्हें दलाल के रूप में स्वीकार करते हुए भी अनिवार्य मानने लगते है. ये हमें यकीन दिलाते हैं कि सांस्कृतिक उत्पादों तक हमारी पहुँच तभी संभव है जब हम इनके माध्यम से जुड़े.  इस तरह धीरे -धीरे समज इन परजीवियों को लेकर सहज होने लगता है.

“संस्कृति उद्योग में तकनीक कला की तकनीक से महज़ नाम के ही अर्थ में एकरूप है. कला में तकनीक का अर्थ वस्तुओं के आंतरिक संगठन और आंतरिक नियम के बीच सम्बन्ध निर्मित करना है. जबकि संस्कृति उद्योग में आरम्भ से ही तकनीक का सम्बन्ध वितरण और यांत्रिक पुनरुत्पादन से है”5.

एडोर्नो का बल इस बात पर है कि अन्य उद्योगों की अपेक्षा संस्कृति उद्योग कोई भौतिक उत्पादन नहीं करता है इसलिए आम जन में खपाने के लिए, उसे परजीवियों के रूप में मध्यस्थों की जरुरत रहती है.

एडोर्नों कहते हैं संस्कृति उद्योग में जो हलकापन है उसे गंभीरता से लेना चाहिए, वह हमारे समक्ष इस हल्केपन को इसलिए रखता है ताकि हम यह समझ विकसित करें कि संस्कृति का अर्थ मात्र आनंद और उपभोग अर्जित करना है. इसमें किसी सुसंगत विचार की तलाश व्यर्थ है. इस तरह संस्कृति उद्योग समूची संस्कृति की संगती को हमारी चेतना में विस्मृत करने की कोशिश करती है. संस्कृति उद्योग में प्रकट तौर पर मौजूद विचारहीनता की वैचारिकता को समझने की जरुरत है.

“संस्कृति उद्योग यह कहकर अपना बचाव करती है कि वह व्यवस्था बनाये रखना चाहती है .उसकी इस प्रवृति की तारीफ की जाती है .इस प्रवृति को विचारधारा कहना गलत न होगा”6

संस्कृति उद्योग को गंभीरता से लेने का अर्थ है कि उसके प्रति एक आलोचनात्मक विवेक का निर्माण किया जाये. कहने का तात्पर्य है कि संस्कृति की चेतना के रास्ते ही संस्कृति उद्योग का प्रतिकार किया जा सकता है.

फिल्मों में जिस तरह से नैतिकता की विजय होती है, वह हमारे विरोध की चेतना को खंडित करता है. फिल्मों में यह दिखाया जाता है कि अंततः न्याय की जीत होती है. यह बात हमें सुकून से भर देती है. जब हम पर्दे पर नायक को जीतता हुआ देखते हैं तो हमारे चेतन अवचेतन में मौजूद असंतोष तृप्त होता है. हम नायक की इस जीत में खुद को शामिल महसूस करते हैं. नायक की परिकल्पना से हमारी चेतना अविष्कृत होने लगती है. यह अविष्कार हमारे भीतर के क्रोध और गुस्से को ठंढ़ा करता है. हमारी बेचैनी कम होने लगती है. इस तरह हमारी चेतना में संघर्ष की आकांक्षा का उन्मूलन होने लगता है.

मनोरंजन के नाम पर लोगों को उनके बुद्धि विकल्पों से मुक्त किया जाता है. कोई अगर गुस्से में है, दिन भर की मसरूफियत ,झूठ ,फरेब और लालच से उकताया हुआ शख्स जब घर लौटता है तो टीवी पर हास्य और प्रेम से भरा एक धारावाहिक दिखाया जाता है. नायक नायिका के पीछे भाग रहा होता है. ऐसा करते हुए,वह उलजलूल हरकतें करता है. पीछे से अदृश्य लोगों के हंसने की आवाजें आती है. यह संकेत है कि इस पर हँसना चाहिए. दृश्य में नायक को सच्चा और मासूम दिखाया जाता है. वह नायिका से प्रेम का निवेदन करते हुए कुछ भी करने की कसमें खाता है. उसे इस तरह की भूमिका में देखते हुए हम तनाव रहित होने लगते हैं .हमारे भीतर रूपांतरण होने लगता है. सांस्कृतिक उद्योग इसी तरह हमें परिवर्तित करती है . वह हमारी चेतना को विखंडित करती है.

एडोर्नों कहते हैं कि आम जन के भीतर जो परिवर्तन की आकांक्षा होती है,वह रोज-रोज के जीवन में मध्यम पड़ती जाती है .जो असंतोष उसके ऐतिहासिक बोध से निर्मित हो रहा होता है,जो गुस्सा उसकी चेतना में संचित हो रहा होता है संस्कृति उद्योग उसे विनष्ट करती है . वह हमारे भीतर सुखी होने की कल्पना को प्रबल बनाती है लेकिन सुख का अर्थ संदर्भ बदल देती है .वह क्रोध और क्षोभ के स्थान पर हमारे भीतर अतृप्त आकाँक्षाओं और लालसाओं को भरती है.

हम क्या सोचे ,किस तरह सोचे, कैसे सोचे इसे हमारा विवेक, हमारी चेतना नहीं बनाती. इसे संस्कृति उद्योग तय करती है.

संस्कृति उद्योग में एडोर्नो खाली समय की अवधारणा पर विस्तार से विचार करते हैं. खाली समय से क्या तात्पर्य है. एडोर्नो का मानना है कि खाली समय- यह इधर की अवधारणा है. पहले फुर्सत का समय होता था. खाली समय वास्तव में न तो खाली है और न बचा हुआ है. वह काम से जकड़ा हुआ है. वह अपने नाम के विपरीत है. दरअसल खाली समय हमारी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है. न तो काम करते हुए और न ही अपनी चेतना में लोग वास्तविक स्वतंत्रता महसूस करते हैं. काम पर नियंत्रण रखने वाली शक्तियों ने ही हमारे खाली समय को जकड़ रखा है. काम से फुर्सत पाने के लिए जिन क्षणों में हम अपने को खुला छोड़ देना चाहते हैं वे क्षण हमारे नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं. इस तरह खाली समय की अवधारणा अपने अर्थ के विपरीत भूमिका निभाती है.
यह सवाल महत्वपूर्ण है कि खाली समय निर्मित किस तरह होता है. किस तरह उन क्षणों में भी उत्पादकता बरक़रार रहती है. गुलामी के इस दौर में जब उत्पादकता लगातार बढ़ती जा रही है ऐसे में खाली समय का औचित्य क्या है. यानि उत्पादन की इस अंधी दौर के बीच खाली समय एक विभ्रम को रचती है, वह हमें जकड़ने का एक नया औजार साबित होती है. एडोर्नो कहते हैं स्वचालन की प्रक्रिया ने खाली समय की परिकल्पना को और घनीभूत कर दिया है.

अमूमन प्रसिद्द लोगों से यह सवाल पूछा जाता है कि आप खाली समय में क्या करते हैं. अधिकांश लोग अपने काम से इतर जैसे कि संगीत, चित्रकला, पेंटिंग या पढ़ने आदि-आदि शौकों का जिक्र करते हैं. एडोर्नों कहते हैं इस तरह संस्कृति की समझ को फुर्सत के हवाले कर दिया जाता है. उपन्यास पढना या चित्र बनाना आदि को लोगों की समझ में इस तरह बिठाया जाता है कि यह खाली समय के व्यसन हैं.


एडोर्नो ये तमाम बातें 50 और 60 के दशक के मध्य कह रहे थे. उनपर यह आरोप लगा कि उनकी बातें एक हद तक अमेरिकी समाज के परिवर्तन को तो इंगित करती हैं लेकिन शेष दुनिया से उसका कुछ भी लेना देना नहीं. चिंतकों ने उन पर यह भी आक्षेप लगाये कि वे राजनीति की समझ को कमजोर कर रहे हैं. आधी सदी बाद यानि 21 वीं सदी के आरंभिक दशकों में यह देखना कठिन नहीं है कि भारत जैसी तीसरी दुनिया के देश में भी संस्कृति उद्योग ने किस तरह कब्ज़ा जमा लिया है. संस्कृति और राजनीति नये अर्थों में समाज को अपनी जद में ले रही है.

हमारे यहाँ जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ और उसके बाद का जो समय गुजरा है उसे हम किस तरह देखें. संस्कृति उद्योग और प्रबोधन के वर्चस्व से निर्मित हमारे समय में, हम कितना बच रहे हैं. 19 वीं सदी की मोमबत्तियों की लौ मद्धिम पड़ चुकी है. इक्कीसवीं सदी की रौशनी की तलाश के लिए हमारे पास क्या विकल्प बचता है? क्या समय और परिवर्तन का बोध हमारी चेतना में आगे बढ़ रहा है? क्या हम नये सवालों से नये संदर्भों के साथ टकरा रहे हैं ?

एडोर्नो का चिंतन हमें 20 वीं सदी के मुहाने पर लाता है. उनके यहाँ उलझन है, असफलता और निराशा है लेकिन इमानदारी और बेचैनी भी है. वे नये और पुराने को घंघोलते हैं.

वे इस बात को हमारे समक्ष रखते हैं कि 20 वीं सदी के अंधकार में परिवर्तन -परिवर्तन की रट लगाने से चीज़ें नहीं बदलने वाली. पूंजीवाद के नये रूपों को पहचानने की जरुरत है. पूंजीवाद का यह हमला बाहर से ज्यादा भीतर से है. ऐसे में विश्लेषण के रास्ते अपने भीतर के रूपांतरण को हम चुनौती दे सकते हैं.

21 वीं सदी में यानि हमारे वर्तमान में एडोर्नो को हम क्यों पढ़े?  यह भी कहा जा सकता है कि एडोर्नो ने ये बातें जब कहीं तो उनके समक्ष अमेरिकी समाज की हलचले थी .
हम जानते हैं कि पूंजी का उद्देश्य समूची दुनिया को एक विशाल बाज़ार में और मनुष्यता को उपभोक्ता में बदल देने की है. इस कोशिश में पूंजी न तो देश की सीमाओं को स्वीकार करती है और न ही समय की वर्जनाओं को. आज जब बदलते भारत को हम देखते हैं तो यह देखना कठिन नहीं है कि आज़ादी के बाद भारत में जो पूंजी का प्रसार हुआ है उसने इसके एक बड़े हिस्से को बीसवीं सदी के अमेरिकी समाज के बेहद करीब ला दिया है. हिंसा -क्रूरता को राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया है. आप सत्तर के दशक तक की भारतीय फिल्मे देखें तो यह देखना कठिन नहीं है कि लोकप्रियता के नाम पर भी नायक हमेशा आदर्श को बचाने की कोशिश करता था. वह हत्यारों के विरुद्ध संघर्ष करता था .लेकिन 90 के दशक तक आते-आते नायक खुद हत्याओं में मशगुल हो गया. वह एक छाया नायक की भूमिका में आ गया. ऐसा इसलिए हुआ कि पूंजी की भूमिका निर्णायक होने लगी. फिल्म एक बड़े उद्योग में बदल गया.


21 वीं सदी के भारत को समझने में, उसके समक्ष चुनौतियों को परखने में एडोर्नो नये सिरे से प्रासंगिक नज़र आते हैं. एडोर्नो ने उत्तरपूंजीवाद के चरित्र और समाज पर उसके प्रभाव के विषय में जो बातें बीसवीं सदी के मध्य कही थीं वे एक हद तक वर्तमान भारतीय समय और समाज पर लागू होती नज़र आती हैं. समाज संस्कृति और राजनीति का चेहरा समूची दुनिया में बदला है. इस बदलाव के मूल में पूंजी की भूमिका है. एडोर्नों इसे उद्घाटित करते हैं. वे संकृति में रूपांतरित राजनीति और राजनीति की बदलती संस्कृति को हमरे समक्ष रखते हैं. वे इस बात के लिए हमें सचेत करते हैं कि मनुष्य के रूप में और समाज की एक इकाई के रूप में हम इस परिवर्तन को परखें और 21 वीं सदी के नये प्रश्नों को नये परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करें. मनुष्य के रूप में अधिक सचेत मनुष्य होकर इसे चुनौती दी जा सकती है.
_________________
संदर्भ:
1.Dialectics of enlightenment , Theodor W.Adorno, Max Horkheimer ,Translated by Edmund Jephcott , 2002,Sandford California, Page  6
2.Ibid ,8
3.Ibid ,19
4.Negative Dialectics ,Theodor W.Adorno, Translated by E.B.Ashton , 1973 , Routledge , London ,Page 320
5.The Culture Industry Selected essays on mass culture , Theodor W.Adorno 1991 , Routledge , London ,Page 109
 6 Ibid, 112
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'क्या हुआ जो' : राहुल राजेश

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राहुल राजेश का दूसरा कविता संग्रह 'क्या हुआ जो'इस वर्ष  ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशितहुआ है. इसी संग्रह से कुछ कविताएँ.

राहुल राजेश कविता लिखते हुए अपने श्रोताओं को विस्मृत नहीं करते. उनकी कविता में  संवाद की सहजता और संप्रेषणीयता है.




राहुल राजेश की कविताएँ                          



समय के साथ

समय के साथ भर जाते हैं घाव
समय के साथ मंद पड़ती हैं स्मृतियाँ
समय के साथ पकता है प्यार
समय के साथ कुंद पड़ती है धार.




पाठ

बूँद समंदर से ज्यादा चमकीली होती है
पत्ती पेड़ से ज्यादा पनीली होती है
फूल पत्ती से ज्यादा सुंदर होता है
घास जंगल से ज्यादा हरी होती है
मुस्कान हँसी से ज्यादा मोहक होती है
छुअन आलिंगन से ज्यादा मादक होती है

बूँद समंदर से पहले सूखती है
पत्ती पेड़ से पहले गिरती है
फूल पत्ती से पहले झरता है
घास जंगल से पहले कटती है
मुस्कान हँसी से पहले मिटती है
छुअन आलिंगन से पहले सिमटती है

प्यास में समंदर नहीं, बूँद ही टिकती है
पाँव में जंगल नहीं, घास ही लिपटती है
आँखों में पेड़ नहीं, फूल-पत्ती ही हँसती है
दिल में हँसी नहीं, मुस्कान ही उतरती है
देह में आलिंगन नहीं, छुअन ही ठहरती है !



आत्माकीकमीज

मेरीआत्माकीकमीज
वहींछूटगईहै
गाँवकीखूँटीपर

मैंनंगेबदन
चलाआयाहूँ
इसशहरमें

नौकरीकीपतलूनतो
हैपासमेरे
जिसेपहनकर
ढँकलेताहूँ
अपनीटाँगें

औरतसल्लीकरलेताहूँ
किअपनेपैरोंपर
खड़ाहूँ

परमेरीआत्माकीकमीज
वहींछूटगईहै

गाँवकीखूँटीपर !



हँसी

बना बैठा था मैं
हिमशैल रूठकर

छिड़ा हुआ था
एक अनकहा महासमर

पसरा हुआ था
मौन का महासागर
हम दोनों के बीच...

जब नहीं रहा गया तनकर
वह आई
आँखों में अनुनय भरकर

और
छुआ मुझे

मुझसे भी
बना रहा गया नहीं पत्थर
मैं भी ढहा भरभराकर

पहले वह
फिर मैं

फिर हम दोनों
हँसे खिलखिलाकर !






चिट्ठियाँ

बचपनमेंचिट्ठीकामतलब
स्कूलमेंहिंदीकीपरीक्षामें
पितायामित्रकोपत्रलिखनाभरथा
चंदअंकोंकाहरबारपूछाजानेवालासवाल
आदरणीयपिताजीसेशुरूहोकरअंतमें
सादरचरण-स्पर्शपरसमाप्तहोजाताहमाराउत्तर
कागजकीदाहिनीतरफदिनांकऔरस्थानलिखकर
मुफ्तमेंदोअंकझटकलेनेकाअभ्यासमात्र

गर्मीकीछुट्टियोंमेंहॉस्टलसेघरआतेवक्त
हमेंचिट्ठियोंसेबतियानेकीसूझीएकबारगी
सुंदरलिखावटोंमेंपहली-पहलीबारहमनेसंजोएपते
फोन-नंबरकौनकहे, पिनकोडयादरखनाभीतबमुश्किल
न्यूईयरकेग्रीटिंगकार्डोंसेबढ़तेहुए
पोस्टकार्डों, लिफाफों, अंतरदेशियोंका
शुरूहुआजोसिलसिला
चढ़ापरवानहमारेपहले-पहलेप्यारकाहरकाराबन

मां-बाबूजीयादोस्तोंकेख़तोंके
इंतजारसेज्यादागाढ़ाहोतागयाप्रेम-पत्रोंकाइंतजार
यहइंतजारइतनामादककि
हमरोजबाटजोहतेडाकिएकी
दुनियामेंप्रेमिकाकेबादवहीलगतासबसेप्यारा

मैंठीकहूँसेशुरूहोकर
आशाहैआपसबसकुशलहोंगेपर
खत्महोजातीचिट्ठियोंसेशुरूहोकर
बीस-बीसपन्नोंतकमेंसमानेवालेप्रेम-पत्रोंतक
चिट्ठियोंनेबनालीहमारेजीवनमें
सबसेअहम, सबसेआत्मीयजगह
जितनीबेसब्रीसेइंतजाररहताचिट्ठियोंकेआनेका
उससेकहींअधिकजतनऔरप्यारसेसंजोकर
हमरखतेचिट्ठियाँ,
अपनेघर, अपनेकमरेमेंसबसेसुरक्षित,
सबसेगोपनीयजगहउनकेलिएढूँढ़निकालते
बाकीख़तोंकोबार-बारपढ़ेंपढ़ें
प्रेम-पत्रोंकोछिप-छिपकरबार-बार, कई-कईबारपढ़ते

हमारेजवांहोतेप्यारकीगवाहबनतीयेचिट्ठियाँ
पहुँचीवहाँ-वहाँ, जहाँ-जहाँहमपहुँचेभविष्यकीतलाशमें
नगर-नगर, डगर-डगरभटकेहम
औरनगर-नगर, डगर-डगरहमेंढूँढ़तीआईंचिट्ठियाँ
बदलतेपतोंकेसंग-संगदर्जहोतीगईंउनमें
दरकतेघरकीदरारें, बहनोंकेब्याहकीचिंताएँ
औरअभी-अभीबियायीगायकीखुशखबरीभी
संघर्षकीतपिशमेंकुम्हलातेसपनीलेहर्फ़
जिंदगीकाककहराकहनेलगे
सिर्फहिम्मतहारनेकीदुहाईनहीं,
विद्रोहकाबिगुलभीबनींचिट्ठियाँ

इंदिरा-नेहरूकेपत्रहीऐतिहासिकनहींकेवल
हमबाप-बेटेकेसंवादभीनायाबइनचिट्ठियोंमें
जिसमेंबीसबरसकेबेटेनेलिखापचासपारकेपिताको-
आपतनिकभीबूढ़ेनहींहुएहैं
अस्सीपारकाआदमीभीशून्यसेउठकर
चूमसकताहैऊँचाइयाँ

आजजबबरसोंबादउलट-पुलटरहाहूँइनचिट्ठियोंको
मानो, छूरहाहूँजादूकीपोटलीकोई
गुजरावक्तलौटआयाहै
खर्चहोगईजिंदगीलौटआईहै
भूले-बिसरेचेहरेलौटआएहैं
बाहेंबरबसफैलगईहैं
गलाभरआयाहै
ऐसालगरहा, येपोटलीहीमेरेजीवनकीअसलीकमाई
इसेसंभालनामुझेआखिरीदमतक
इनमेंबंदमेरेजीवनकेक्षणजितनेदुर्लभ
दुर्लभउतनीहीइनहर्फ़ोंकीखुशबू

जैसेदादीकीसंदूकमेंअबभीसुरक्षितदादाकीचिट्ठियाँ
मैंभीबचाऊंगाइनचिट्ठियोंकोवक्तकीमारसे
एसएमएस-ईमेल, फेसबुक-ट्वीटर-वाट्सऐपकेइसमायावीदौरमें
सबएक-दूसरेकेटचमें, परइनचिट्ठियोंकेस्पर्शसे
महसूसहोरहाकुछअलगहीरोमांच, अलगहीअपनापा

की-बोर्डपरनाचनेकीआदीहोगईऊंगलियोंकीहीनहीं,
टूटरहीयांत्रिकजड़ताजीवनकीभी.



शायद

नहीं बचे बिना ग्रेजुएट वाले गाँव
नहीं बचे बिना शॉपिंग मॉल वाले शहर
नहीं बचे साझा आँगन वाले घर
नहीं बचे साझा चूल्हे वाले परिवार
नहीं बचे सच बोलते बाज़ार
नहीं बची सच सुनती सरकार...



सरोगेसी

कहीं नेमत
कहीं सुविधा
कहीं संजोग है

कहीं विज्ञान
कहीं निदान
कहीं प्रयोग है

कहीं मजबूरी
कहीं धंधा
कहीं उद्योग है

यह किराए की कोख है !



मैंनेकबकहा

मैंनेकबकहा
मेरेकवितालिखनेसे
कहींकुछबदलजाएगा !

कहींकुछनहींबदलरहा
तोक्याइसलिए
कवितालिखनाछोड़दूँ ?

तोक्याइसलिए
अपनेआपसेमुँहमोड़लूँ ?

तोक्याइसलिए
आपसबसे
जगसे
जीवनसे


नातातोड़लूँ ?
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हिंदी के युवा कवि और अंग्रेजी-हिंदी के परस्पर अनुवादक. नौ दिसंबर, 1976को दुमका, झारखंड के एक छोटे-से गाँव अगोइयाबाँध में जन्म. पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर. कविता के साथ-साथ यात्रा-वृतांत, संस्मरण, कथा-रिपोतार्ज, समीक्षा एवं आलोचनात्मक निबंध लेखन. इसके अलावा, सामाजिक सरोकारों और शिक्षा संबंधी विषयों से भी सक्रिय जुड़ाव. देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित. कुछ रचनाएँ अंग्रेजी, उर्दू, मराठी आदि भाषाओं में अनूदित. भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश की द्विमासिक पत्रिका विपाशा द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता-2009 में द्वितीय पुरस्कार. पहला कविता-संग्रह 'सिर्फ़ घास नहीं'जनवरी, 2013 में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से प्रकाशित. पहला गद्य-संग्रह 'गाँधी, चरखा और चित्तोभूषण दासगुप्त' (यात्रा-वृत्तान्त, अनुभव-वृत्त और डायरी-अंश) फरवरी, 2015 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. दूसरा कविता-संग्रह 'क्या हुआ जो'जनवरी, 2016 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. कन्नड़ और अंग्रेजी के युवा कवि अंकुर बेटगेरि की अंग्रेजी कविताओं का हिंदी अनुवाद 'बसंत बदल देता है मुहावरे'अगस्त, 2011 में यश पब्लिकेशंस, दिल्ली से प्रकाशित. राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 1996 में प्रकाशित जवाहर नवोदय विद्यालयों के बच्चों की कविताओं के संग्रह 'बोलने दो'में कुछ कविताएँ संकलित.

संप्रति भारतीय रिज़र्व बैंक में सहायक प्रबंधक (राजभाषा). इससे पहले भारतीय संसद के राज्यसभा सचिवालय और कोयला खान भविष्य निधि संगठन (कोयला मंत्रालय, भारत सरकार)में भी अनुवादक के पद पर कार्यरत रहे.

संपर्क:  राहुल राजेश, फ्लैट नंबर– बी-37,आरबीआई स्टाफ क्वार्टर्स, 16/5,डोवर लेन,गड़ियाहट,कलकत्ता-700029 (प.बं.)

मो.: 09429608159   ई-मेल:  rahulrajesh2006@gmail.com

सबद भेद : जगदीश स्वामीनाथन की कविताओं का मर्म : अखिलेश

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(by Jyoti BHATT, Portrait of J. Swaminathan, 1987)

चित्रकार, कलाकार, विचारक और कवि जगदीश स्वामीनाथन (June 21, 1928 – 1994) का जन्म शिमला में बसे तमिल परिवार में हुआ था.
वे कांग्रेस सोशलिष्ट पार्टी और फिर कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य रहे. हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता भी की. भारत भवन भोपाल के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका थी, बाद में आदिवासी कला के संरक्षण में वे जुट गए.
वह विश्व के कुछ बड़े चित्रकारों में शुमार किये जाते हैं. उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं.
सभी कविताएँ अनिवार्यता से पैदा हुईं एक चित्रकार की काव्य – संवेदना का पता तो देती ही हैं, इन कविताओं से कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों को समझने में भी बड़ी मदद मिलती है.
इन कविताओं पर मशहूर चित्रकार अखिलेश का आलेख.
पेंटिग और कविता का यह दुर्लभ संयोग यहाँ घटित हुआ है.
साथ में कविताएँ भी दी जा रही हैं.



ससुरों का रंग कैसा चोखा है!’                                         

अखिलेश
(अखिलेश)




गदीश स्वामीनाथन ने बमुश्किल तमाम आठ कविताएँ लिखी हैं. खोजने पर इतनी ही मिलीं और जो आठवी है, उसके बारे में मुझे गहरा सन्देह है कि वह स्वामी की कविता है. यह आठवीं कविता ‘पूर्वग्रह’ के किसी अंक में छपी है, जिसे अब प्राप्त करना और पड़ताल करना इस लेख को कई बार लिखने कीमेहनत की तरह हो सकता है, अतः इस आठवीं को यहीं उद्धृत कर इससे छुट्टी पा लेता हूँ,शेष सात पर बात आगे.इस कविता में आये शब्द फुईही स्वामी की शब्दावली का आश्वासन देती है.

अधर में खिलता चला गया
क्षितिज का मौन
रात अपनी चादर में तारों को समेट
बन गई
एक धवल बादल की फुई
तिर आया आँखों में
पूजा का सजल थाल :
आनन्दाच्या जेहीं आनन्द तरंग
आनन्दचि अंग आनन्दा पे.”

ये सात कविताएँ सत्तर के दशक में स्वामी की प्रदर्शनी के वक्त जारी किये गये और मंजीत बाबा द्वारा सिल्क स्क्रीन में छापी गई पुस्तिका केरूप में विशेष संस्करण की तरह है. इन कविताओं में शिमला बसा है. शिमला के बहाने हिमाचल, हिमाचल के बहाने वैश्विक अनुभव. इन सात कविताओं में ऐसा क्या है,जो स्वामी को एक कवि के रूप में स्थापित करता है,इसकी जाँच करने पर कई बातों की तरफ आपका ध्यान जाता है. पहला तो यही कि ये किसी ‘उदास रामदास’ की उपस्थिति,आत्म-दया,आत्मग्लानि से भरी हुईकवितायेँ नहीं है.‘उदास रामदास’ जो लगभग मरा हुआ भिखारीनुमा कोई व्यक्ति है जिसे दूसरों के रहमोकरम पर ही जीना है. वह आत्मभिमानी नहीं है,उसकी संस्कृति,सभ्यता एक अज्ञात द्वारा नष्ट कर दी जाने लायक है ऐसा उसका गहरा विश्वास है. ये रामदास दयावती के कुनबे का वंशज है,जिसका पौरुष नष्ट हो चुका है. इस रामदास के कई नाम हैं,किन्तु हर नाम में वह हमेशा कुचला हुआ ही है. इस रामदास का सिर्फ़ एक ही अतीत है कि इसका कोई अतीत नहीं है. स्वामी की कविता में यह रामदास नदारद है.
वहाँ एक कवि हृदय है,वहाँ एक सहृदय है जिसका साक्षात्कार प्रकृति से हो रहा है.


पेंटिग : J. Swaminathan

(एक)

यहएक मनुष्य का रसास्वादन है. स्वामी प्रकृति के होने मात्र में विभोर हैं. चकित हैं. स्वामी का अपना काव्य-प्रेम भी इसी अनुराग के कारण इसी हतप्रभता के कारण विस्मयाबोधक है. वे अक्सर ज़िगर मुरादाबादी का यह शेर पढ़ दिया करते थे,जिसके कारण वे जिगर को बहुत मानते भी रहे. ज़िगर के बारे में एक साक्षात्कार में कहते हैं. ‘शिमला के एक मुशायरे की याद है. मैं स्काउट था. टिकिट चेक करने का काम था. ज़िगर को सुना. काले तबे-सा चेहरा, मंगोल आँखें,ओंठ चाकू से चीर दिया गया हो जैसे,नदी में पान की पीक टपकती हुई. शराब में धुत.”
इन्ही जिगर का ये शेर स्वामी को विस्मित करता है :

आज न जाने बात ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन!

यह साभ्यतिक व्यवस्था में प्राकृतिक उपस्थिति हीहैजिसमें मनुष्य,इस शाश्वत आत्मग्लानि में जी रहा है कि वह एक जानवर है जिसे सभ्य होना है,जो सभ्य होने की तरह-तरह की व्यवस्था बनाता रहता है जो लगातार बिगड़ती जाती है. जिससे यह अहसास और गहरा होता जाता है कि व्यवस्थित कुछ नहीं हो सकता जिस कारण वो अधिक जोर और जिद के साथ एक नई व्यवस्था जुटाने,बनाने लग जाता और इस तरह लगातार वह उस प्रकृति को नज़रअन्दाज़ करता जाता है. जिसकी वह सन्तान है,जिसका वह एक अनिवार्य-अविभाज्य अंग है. मनुष्य की साभ्यतिक सफलताओं ने उसे और अज्ञानी और असभ्य और उपेक्षा से भरा है. इस पूरी विकास-यात्रा में उसनेचमत्कृत होने के कारण खोजने में प्रकृति की उपेक्षा करना ही सीखा है,जिसमें वह इस बात को लगातार भूला है कि-

ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजे
इक आग दरिया है और डूब के जाना है.

(स्वामी की पसन्द का एकऔर ज़िगर’)

उसे लगा कि ये क्या बेवकूफी की बात है कि इक आग दरिया है और डूब के जाना है. वह तो किनारे खड़ा होकर ही इश्क फरमाने की व्यवस्था बना रहा है. इसमें सच की जगह नहीं है. इश्क का फितूर नहीं है. इसमें जान का जोखिम नहीं है. इश्क के लिए जो कि सिर्फ़ दो शरीर का मसला है,सच की क्या ज़रूरत है? वाले भाव से सन्तुष्ट मनुष्य अब इश्क को सौदे में मुब्तिला करना चाहता है. कविता क्या इस दौरान अपने समय के सच से दूर भागी है? यह पड़ताल का विषय है,क्योंकि स्वामी की कविता अपने समय की रिपोर्ट नहीं करती है. तब फिर वह क्या करती है? इसे देखने से पहले मैं आपका ध्यान अशोक वाजपेयी की इस बात टिकाना चाहता हूँ,जिसमें वे कह रहे हैं :

“कविता के जिस विनय की ओर यहाँ इशारा है, वह सिर्फ़ कविता भर का नहीं है. स्वामी की इन कविताओं में इसका अहसास पाठक को गहरा होता है कि ये कविताएँ सिर्फ़ सच नहीं है,बल्कि उस सच्चाई के असंख्य ब्यौरों में एक एक हैं. स्वामी की कविताओं में स्वामी दावा करते नज़र नहीं आते. वे बस वहाँ हैं और एक मनुष्य की तरह हैं,जो अपने समय की अबूझता से हतप्रभ भी है,असहाय नहीं. वह चौकन्ना है जाँचने-परखने में. वह यह भी जानता है कि उसका होना ही इसका होना है,तभी वह रात भर बरसते पानी से बहे बूढ़े रायल पेड़ को वापस लगाता भी है और अचम्भित भी होता है कि ‘ससुरा इस साल फिर फल से लदा है.”

यह वही हिज्र की रात है,जो रोशन है. यही विस्मय है. इस पूरी कविता में जिसका शीर्षक ही ‘मनचला पेड़’ है. एक पेड़,जिसके ‘मनचले’ होने का ज़िक्र सिर्फ़ इसलिए है कि वह मरकर फिर फलों से लद गया है. ससुरा.

कविता में हर तरह के आश्चर्य  ही है,जिसमें बीज हवा के साथ जहाँ गिर जाते हैं,जम जाते हैं ‘ढीठ’. दरख़्त बन जाते हैं,ऊपर से बने रहते हैं ‘कमबख़्त’. इस कमबख़्त याने हतभाग्य या शामत के मारे की शामत आती है गिरी बारिश के रूप में. पार साल की बारिश. जिसमें पहाड़ के मानुस भी सहम जाते हैं और ढाकगिरीहै. यह ढाक (बिजली) इसकी शामत ले आई और धार की ऊँचाई से धान की क्यारी पर ला पटकती है.

कविता में यहाँ उस मानुस का ज़िक्र है,जो इसे कोस रहा है कि वहाँ तुझे तकलीफ थी या कोरड़ खा गये थे बेवकूफ,क्योंकि अच्छी फसल होने पर दस पेटी सेव मिलते थे. अब यह नुकसान से उपजी तात्कालिक प्रतिक्रिया है,जिसमें पेड़ बेवकूफ इसलिए हैं कि ढाक के कारण उखड़-उछल आया है. फिर से लगाया गया और फिर फलों से लद गया. उसमें आने वाले रूपक ढीठ बीज. कमबख़्त बिरक्स. जोगी या बगुले बिरक्स. बेवकूफ बिरक्स और मनचला पेड़. रायल का पेड़ मेरे ख्याल से रायल किसी ख़ास प्रकार के सेवका ब्राण्ड नाम होगा. इसमें पेड़ का मनचला होना सिर्फ़ इस कारण है कि इस प्राकृतिक विपदा को झेल जाने के बाद भी वह खड़ा है और इस साल फल से भी लदा है. यह विस्मय है. इन विपत्तियों को झेलकर भी बचे रहना और फिर फलों से लद जाना विस्मय है. इस कविता में रामदासी उदासी,आत्म-दया,आत्मग्लानि नहीं है. असहायता है. सामूहिकता है और जीवन है. जीवन के आगे का जीवन भी है,जहाँ फिर फल हैं और इसी तरह ढीठ बीज भी. यहाँ प्राकृतिक नैरन्तर्य की तरफ इशारा है. 

पेंटिग : J. Swaminathan


(दो)
अशोक वाजपेयी का यह कहना कि कविता भाषिक संरचना है,इन कविताओं में बेहतर ढंग से ध्वनित होता दीखता है. भाषा के स्तर पर स्वामी हिन्दी में अप्रचलित पहाड़ी बोली का उपयोग करते हैं. इन कविताओं में आये अनेक शब्द हिन्दी भाषी के लिए नितान्त अपरिचित हैं,किन्तु वे अवरोधक नहीं बनते हैं. जैसे कितने ही हिन्दी भाषियों के लिए,जो मैदानी इलाकों में रहते हैं,ढाकशब्द अपरिचित है. वे नहीं जानते कि बिजली को कहा जाता है. यहाँ सिर्फ़ बिजली लिखने से यह अन्देशा भी है कि वो बिजली का अर्थ अपने घरों में पहुँच रही बिजली के अर्थ में लें. कविता में ढाकशब्द बादलों में कड़कने वाली बिजली को ध्वनित करता है और पाठक उसमें उलझता-निपटता नहीं है,बल्कि बिजली गिरने से पेड़ के उखड़-उछल जाने को ठीक-ठीक पकड़ लेता है. इस तरह की विश्वसनीयता ही इन कविताओं की कामयाबी है. इनमें स्वामी का सुर रूपकों के इस्तेमाल से बेसुरा नहीं होता है,बल्कि वह पाठक को भाषा की संरचनाई खूबसूरती से व्यंजित करता है. जिसमें हिन्दी भाषा में बोलियों से आये शब्द उसे और समृद्ध बनाते हैं. स्वामी की इन सात कविताओं में कुमाऊँनी बोली के अनेक शब्द हैं,जो इन्हें पहाड़ी महक से भर देती हैं. भाषा के धरातल पर यह संरचना नहीं दीखलाई देती है,किन्तु यह पेड़ जो मनचला है,वह अन्य प्रसंगों में बगुला या जोगी भी है और कमबख़्त तो है ही. एक कविता में एक पेड़ के लिए एक से अनेक रूपकों का इस्तेमाल कुछ कम विस्मयकारी नहीं है. बगुला और जोगी में प्राकृतिकऔर साभ्यतिक गुण स्वामी पास-पास रख रहे हैं.

‘सेब और सुग्गा’ कविता में भी स्वामी इसी प्रकृति को अप्राकृतिक के पास रखते हैं और पाठक को यह अहसास नहीं हो पाता कि वे एक शाश्वत के बरक्स साधारण को पढ़ रहे हैं. यहाँ सूत्रधार की तरह,जो डिंगली में आग लगाने को इसलिए कह रहा है कि सुग्गे पेड़ पर घोंसला न बना सकें,जिससे वे एक चोंच मार सौ दाने न नष्ट कर पायें, कवि ससुरों के चोखे रंग पर विस्मय करता है और बादलों के बीच हरी बिजली की तरह कौंधाता है. फिर अन्तिम दो पंक्तियों में इसी प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाते हुए, इन्हें अपना हिस्सा लेने दो महाराज कहकर डिंगली में लग सकने वाली आग ठण्डी कर लेता है. इसमें कविता की पंक्ति उसी विस्मय से भरी है.

..ससुरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है.”

स्वामी की मनचला पेड़’,‘जलता दयार’,‘सेव और सुग्गे’,‘गाँव का झल्ला’, ‘कौन मरा’,‘पुराना रिश्ता’, और ‘दूसरा पहाड़,इन सातों कविताओं में किसी प्रकार का दावा नहीं है. वे बस हैं. वे ठीक उसी तरह हैं,जैसे उनके चित्र जिन्हें वे discontinuityकहते हैं. क्या ये कविताएँ भी इसी   discontinuityकी द्योतक हैं?स्वामी चित्रांकन को जीवन के नैरन्तर्य में एक रंगात्मक हस्तक्षेप मानते रहे.


पेंटिग : J. Swaminathan


(तीन)
कला का प्रकटन एक ऐसा बिन्दु है जहाँ से जीवन में कुछ बदलाव आ गया है. अब तक के जीवनानुभव में यह चित्र भी जा जुड़ा है. इसके बाद का जीवन अब एक नया जीवन है,जिसमें इस चित्र का देखना भी शामिल हो गया है. इस चित्रानुभव में सुसंस्कारित हुआ जीवन अब तक के जीये गये जीवन से कुछ अलग है. यह जीवन नया जीवन है,एक और जन्म की तरह. ये सात कविताएँ एक साथ लिखी गई कविताएँ हैं. इनका मिज़ाज़,शब्दावली और अन्तर्धारा से साफ़ पता चलता है कि ये कविताएँ एक बैठक में लिखी गई हैं. तब हम यह मान सकते हैं कि स्वामी के जीवन में ये सात कविताएँ एक कविता की तरह हैं और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन की तरह. इन कविताओं के अनुभव से संचालित,संस्कारित,बाद के जीवन की दुनिया नई दुनिया है. स्वामी की सहज गम्भीर मुद्रा जिसमें आकस्मिक विनोदप्रियता पाई जाती थी. इन कविताओं के मिज़ाज़ में दीखती है. ये कविताएँ सहज ही कुमाऊँनी जीवन के कुछ रूपाकार सामने ले आती हैं. उनकी विविधता और उनका तथाकथित आधुनिक जीवन से लेन-देन भी उतना ही सहज,सरल है. इस्तेमाल की जा रही तक्नालॉजी का भी आतंक नहीं,वे बस एक उपयोगी वस्तु की तरह वहाँ मौजूद हैं,किन्तु सतह पर इन साधारण,सामान्य,रोज़मर्रा की जीवनन्दिनी के भीतर घट सकने वाली,घट चुकी दुर्घटना और उसके नुकसान और उसकी स्वीकारोक्ति इन कविताओं में मनुष्य की उपस्थिति को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करती है. मनुष्य के आत्मबल,विश्वासों और अनुभव की कहानी कहती इन कविताओं में मानवीयता का,सहभागिता का और हो रहे घटनाक्रमों के सामने असहाय उपस्थिति को जितनी सरलता से स्वामी यहाँ बखान कर जाते हैं. वह विस्मय भाव है.

ये कविताएँ समाज-सुधार का संदेश सिर्फ़ इसलिए नहीं देती हैं कि वे आत्मग्लानि में नहीं लिखी गयीं. न ही स्वामी को इस बात का मूर्ख भ्रम था कि कविताओं से समाज सुधारा जा सकता है या कविता से क्रान्ति का करतब हो सकता है. ये उथली समझ,कि कविताओं से किसी तरह का संदेश दिया जा सकता है,ने इधर की कविताओं को बहुत ही अख़बारी रिपोर्ट से भर दिया. यहाँ कविता से विस्मय की जगह उपदेश,कौतुक की जगह कौशल,कल्पना की जगह थोथा यथार्थ मिलता है. ‘शिकायती’ कवि सृजनकर्ता की जगह याचक बना हुआ है. दुनिया से नाराज़ हर बात से शिकायत रखता हुआ सिर्फ़ ईर्ष्या से भरता जा रहा कवि अपने समय से हताश है. भिक्षुक की जगह ‘भिखारी’ कवि की चाहतने कविता को साधन की तरह बरता और उससे उम्मीदें जगा लीं. जाहिर है कविता,जो इस संसार में उसी अजूबे की तरह मौजूद है,जैसे सूर्य या चाँद या प्रकृति,इन अकारण उम्मीदों को पूरा नहीं कर सकी और बदले में शिकायती कवि,हताशा और निराशा का पुतला बन और शिकायती हो चला.

स्वामी की कविताएँ इन उम्मीदों,हताशा और निराशाओं से परे उस भिक्षुक की कविताएँ हैं,जो अपने ध्यान योग में संसार का ध्यान भी रखे है. उसकी नज़र से गाँव का झल्ला भी अछूता नहीं है और ‘निम्मलआकाश’ भी. इन जरा-सी कविताओं में बहुत-सा संसार स्वामी इसी भाव से बाँधते हैं,जिसे निराला की इस कविता से ज़्यादा मुखर ढंग से बतलाया जा सकता है. संयोग से निराला की यह कविता स्वामी की पसन्दीदा कविताओं में से एक है:

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बन्धु !

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव,बन्धु !



(चार)
निराला की यह कविता अध्यात्म और सांसारिकता दोनों छोर पर डोलती रहती है. इसमें वैराग्य भी है और धँसकर-हँसकर जीवन जीने का लुत्फ भी है. सम्भवतः इन्हीं कारणों से यह स्वामी की पसन्द भी बनी हो. एक तरफ कवि जीवनानुराग से भरा है और चेतन भी रहा है. स्वामी का यही चौकन्नापन इन कविताओं में दीखता है. वे सिर्फ़ वर्णन नहीं हैं,न ही सिर्फ़ अनुभव भर हैं. ये देखना भी है और दिखाना भी. और उनकी यही विश्वसनीयता पाठक को आश्वस्त करती है. पाठक निराश नहीं होता,बल्कि इन कविताओं में वह लुत्फ उठाता है जो उसे किसी तरह का बोझ न महसूस कराते हुए संसार के सहज उपलब्ध होने,जिसमें घटना-दुर्घटना,अच्छा-बुरा,अकेलापन और सहभागिता सब एक साथ,एक जगह जीवन में उपलब्ध होती है. और यही उसे आश्वस्त करता है कि वह महान और तुच्छ,विराट और विराम,भूला और पाया हुआ सब एक साथ है. उसकाहोना ही इन सबका होना है.

इन कविताओं को पढ़ते हुए यदि स्वामी के कविता प्रेम को पाठक जानते हैं,तब भी उनका कोई ख़ास भला नहीं होगा. यह जानना कि स्वामी हिन्दी कविता,उर्दू शायरी के बहुत जानकार ही नहीं थे,बल्कि उन्हें अपने पसन्द के कवियों,शायरों की कई कविताएँ और कलाम याद भी थे. उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंगला कविताएँ भी कण्ठस्थ थीं. जिन्हें वे कभी-कभार ही सुनाया करते,जिसमें सबसे प्रिय ‘एकला चलो’. ज़िगर मुरादाबादी,मजाज,मीर तकी मीर,ग़ालिब आदि अनेक शायर स्वामी की शाम गहरी किया करते. फ़ैज अहमद फै़ज और इक़बाल का राजनैतिक मिज़ाज़ उन्हें पसन्द न था. यह दिलचस्प है कि स्वामी का अपना जीवन बहुत ही राजनैतिक उथल-पुथल से भरा गुज़रा. जिसमें उनकी सक्रियता भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण रही जितना वैचारिक हस्तक्षेप. स्वामी की इस राजनैतिक विचारधारा का रेशा भी इन कविताओं का मन मैला नहीं करता है. वे उतनी ही पाक,उतनी ही इठलाती,उतनी ही तीव्र उपस्थिति दर्ज कराती हैं जितना बगीचे में खिला गुलाब.

इन सात कविताओं में उजला संसार नहीं है. ये कविताएँ निराला की तरह अनुभव और जीवन-रस का तौल-मौल नहीं करतीं. अज्ञेय का प्रकृतिवाद भी इनमें नहीं है,न हीये रघुवीर सहाय के अख़बारी लेखन से प्रभावित हैं,श्रीकान्त की ऐतिहासिकता और अशोक वाजपेयी की देहमयता भी इनमें नहीं है. शमशेर का रीतापन और विनोदकुमार शुक्ल का भरा होना भी इन कविताओं में नहीं है. वे बस हैं,स्वामी की तरह की कविताओं की तरह. उनका होना किसी उम्मीद का होना नहीं है. इनका होना दावा और आश्वासन नहीं है. ये टूटी हुई,बिखरी हुई नहीं हैं. वे जोड़-तोड़ भी नहीं हैं. वे बस हैं. जैसी हैं,वैसी हैं. ये ठुकराई हुई स्वीकारोक्ति है. यदि स्वामी कविताएँ लिख रहे होते,तब भी कोई ज़्यादा फ़र्क इसलिए नहीं पड़ता कि इन सात कविताओं में उन्होंने इस संसार को उसकी समग्रता में समेटा है.


इनका सुख.दुख प्राकृतिक और सहज सहने योग्य है. जितना सुख है,उससे कम मात्रा में दुख नहीं है. किन्तु इनकी स्वीकारोक्ति महत्त्वपूर्ण है. स्वामी को महादेवी वर्मा की कविता में नीर भरी दुख की बदलीबहुत पसन्द थी. इसका कारण भी शायद यही हो कि इस नीर भरी दुख की बदली की स्वीकारोक्ति ही इस कविता की जान है. 
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ll ज ग दी श स्वामीनाथन की कविताएँ  ll


 J. Swaminathan


१.
गाँव का झल्ला

हम मानुस की कोई जात नहीं महाराज
जैसे, कौवा कौवा होता है, सुग्गा सुग्गा
और ये छितरी पूँछ वाले अबाबील अबाबील
तीर की तरह ढाक से घाटी में उतरता बाज, बाज
शेर शेर होता है,  अकेला चलता है

सियार, सियार
बंदर सो बंदर, और कगार से कगार पर
कूद जाने वाला काकड़ काकड़
जानवर तो जानवर सही
बनस्पति भी अपनी-अपनी जात के होते हैं
कैल कैल है, दयार दयार
मगर हम मानुस की कोई जात नहीं
आप समझे न
मेरा मतलब इससे नहीं कि ये मंगत कोली है 
मैं राजपूत
और वह जो पगडंडी पर छड़ी टेकता
लंगड़ाता चला आ रहा है इधर
बामन है, गाँव का पंडत
और आप, आपकी क्या कहें
आप तो पढ़े-लिखे हो महाराज
समझे न आप, हम मानुस की कोई जात नहीं
हम तो बस, समझें आप
कि मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सियार भतेरे, भतेरे बंदर
और सब बच्चे काकड़ काकड़या हरिन, क्यों महाराज
शेर कोई कोई, भेड़िये अनेक
वैसे कुछ ऐसे भी, जिनकी आँखों में कौवा भी देख लो
सियार भी, भेड़िया भी
मगर ज़्यादातर मवेशी
इधर उधर सींगें उछाल
इतराते हैं
फिर जिधर को चला दो, चल देते हैं
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा भी टकराता है
जिसके मुखौटे के पीछे, जंगल का जंगल लहराता है
और आकाश का विस्तार
आँखों से झरने बरसते हैं, और ओंठ यों फैलते हैं
जैसे घाटी में बिछी धूप
मगर वह हमारी जात का नहीं
देखा न मंदर की सीढ़ी पर कब से बैठा है
सूरज को तकता, ये हमारे गाँव का झल्ला.


२.
पुराना रिश्ता

परबत की धार पर बाहें फैलाए खड़ा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
कोकूनाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आए थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस
जब मक्की तैयार होती है
तब एक सुसरा रीछ
पास से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फेल हो गये महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढ़ा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल.


३.
सेव और सुग्गा

मैं कहता हूँ महाराज
इस डिंगली में आग लगा दो
पेड़ जल जाएँगे तो कहाँ बनाएँगे घोंसले 
ये सुग्गे
देखो न, इकट्ठा हमला करते हैं
एक मिनट बैठे, एक चोंच मारा और गये
कि सारे दाने बेकार
सुसरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है
भगवान का दिया है
लेने दो इनको भी अपना हिस्सा
क्यों महाराज ?


४.
दूसरा पहाड़

यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखायी नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुंध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है
मानों कहीं गया ही न हो
- देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूँछ हिलाते डंगर
ज्यों के त्यों बने हैं, ठूंठ सा बैठा है चरवाहा
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुंध में लुपका है, उबर आयेगा
अजी ज़रा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुंध, न कोहरा, न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखायी नहीं देता महाराज
उस पहाड़ में गूजरों का एक पड़ाव है
वह भी दिखायी नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अंगारों सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाये बैठा है.


५.
जलता दयार

झींगुर टर्राने लगे हैं
और खड्ड में दादुर
अभी हुआ-हुआ के शोर से
इस चुप्पी को छितरा देंगे सियार
ज़रा जल्दी चलें महाराज
यह जंगल का टुकड़ा पार हो जाये
फिर कोई चिंता की बात नहीं
हम तो शाट-कट से उतर रहे हैं
वर्ना अब जंगल कहाँ रहे
देखा नहीं आपने
ठेकेदार के उस्तरे ने
इन पहाड़ों की मुंडिया किस तरह साफ कर दी
डर जानवरों का नहीं महाराज
वे तो खुद हम आप से डरकर
कहीं छिपे पड़े होंगे
डर है उस का
उस एक बूढ़े दयार का
जो रात के अँधेरे में कभी-कभी निकलता है
जड़ से शिखर तक
मशाल सा जल उठता है
एक जगह नहीं टिकता
संतरी की तरह इस जंगल में गश्त लगाता रहता है
उसे जो देख ले
पागल कुत्ते के काटे के समान
पानी के लिए तड़प-तड़पकर
दम तोड़ देता है
ज़रा हौसला करो महाराज
अब तो बस, बीस पचास कदम की बात है
वह देखो उस सितारे के नीचे
बनिये की दूकान की लालटेन टिमटिमा रही है
वहाँ पहुँचकर
घड़ी भर सुस्ता लेंगे.


६.
मनचला पेड़

बीज चले रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं हम जाते हैं ढीठ
बिरक्स बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निम्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गये
एक रात
ढाक गिरा और उसके साथ
हमारा पंद्रह साल बूढ़ा रायल का पेड़
जड़ समेत उखड़कर चला आया
धार की ऊँचाई से धान की क्यार तक
(अब जहाँ खड़ा था वहाँ तुझे तकलीफ थी 
यार बोरड़ खा गये थे बेवकूफ)
सेटिंग ठीक होने पर दस पेटी देता था, दस
मैं तो सिर पीटकर रह गया मगर
लंबरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा, रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नये मुकाम पर
अचरज है, सुसरा इस साल फिर फल से लदा है


७.
कौन मरा

वह आग देखते हो आप
सामने वह जो खड्ड में पुल बन रहा है
अरे, नीचे नाले में वह जो टरक ज़ोर मार रहा था
पार जाने के लिए
ठीक उसकी सीध में
जहाँ वह बेतहाशा दौड़ती, कलाबाजियाँ खाती
सर धुनती नदिया
गिरिगंगा में जा भिड़ी है
वहीं किनारे पर है, हमारे गाँव का श्मशान
ऊपर पुड़ग में या पार जंगल के पास
मास्टर के गाँव में
या फिर ढाक पर ये जो दस-बीस घर टिके हैं

या अपने ही इस चमरौते में
जब कोई मानुस खत्म हो जाता है
तब हम लोग नगाड़े की चोट पर
उसे उठाते हुए
यहीं लाते हैं, आग के हवाले करते हैं 
लेकिन महाराज
न कोई खबर न संदेसा
न घाटी में कहीं नगाड़े की गूँज
सुसरी मौत की सी इस चुप्पी में
यह आग कैसे जल रही है.


८.
ग्राम देवता

ये मंदिर पाण्डुओं ने बनाया है
पहले यहाँ
इस टीले के सिवा कुछ न था
काल के उदर में पगी
इसकी शहतीरों को देखो
पथरा गयी हैं
और इसके पत्थर ठोंको
फौलाद सा बोलते हैं
चौखट के पीछे
काई में भीगी इसके भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफा
कोख में जिसके
गिलगिला पत्थर
गुप्त विद्याओं को संजोए
मेंढकनुमा
बैठा है हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
पहले यहाँ कुछ न था
इस टीले के सिवा
बस
ये नंगा टीला
पीछे गगन के विस्तार को नापता
धौलाधार
अधर में मंडराता पारखी
नीचे
घाटी में रेंगती पारे की लीक
गिरी गंगा के किनारे
श्मशान
पराट की झिलमिलाती छत
बीस घर उस पार
दस बारह इधर जंगल के पास
चीड़ों के बीच
धुप-छाँव का उंधियाता खेल
कगार पर बैठी
मिट्टी कुरेदती सपना छोरी
हरी पोशाक ढाटू लाल गुड़हल सा
सूरज
डिंगली से डिंगली किरण पुंजों के मेहराब
सजाती ठहरती सरसराती हवा
तितलियों सा डोलती
टीले पर दूब से खेलती
धूप
सीसे में ढलता पानी
चट्टान पर
टकटकी बाँधे
गिरगिट का तन्त्रजाल
धौनी सी धड़कती छाती दोपहर की
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा
मए मंदिर पाण्डुओं ने बनाया है
रातोंरात
कहते हैं
यहाँ पहले कुछ न था
दिन ढलते
एक अन्देशे के सिवा
अनहोनी का एक अहसास
यकायक आकाश सुर्ख हो गया था
गिरी गंगा लपलपा उठी थी
महाकाल की जिह्वा की तरह
यकायक बिदक गए थे
गाम लौटते डंगर
फटी आँखे लपकी थी खड्ड की ओर
पगडण्डी छोड़
इधर उधर सिंगे उछाल
चढ़ गए थे धार पर बदहवास
चरवाहा
दौड़ पड़ा था बावला सा
गाँव की ओर
कौवे उठ उठ कर गिरते थे वृक्षों पर
और जंगल एक स्याह धब्बे सा
फैलता चला गया था हाशिये तोड़
सिमट गया था घरों के भीतर
सहमा दुबका सारा गाँव
रात भर आकाश
गडगडाता रहा फटता रहा बरसता रहा
टूटती रही बिजली गिरती रही रात भर
कहते हैं स्वयं
ब्रह्मा विष्णु महेश
उतरे थे धरती पर
पाण्डुओं की मदद और
धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए
लए थे हाटकोटी से देवदार की
सप्त-सुरों वाली झालर-शुदा शहतीरें
चैट के लिए पीने तराशे स्लेट
दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर
और कांगड़े में ढली ख़ास
अष्ट धात की मूर्ति
शिखर के लिए काँस कलश
रातोंरात
ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
सुबह
जब बुद्धुओं की तरह घर लौटते
पशुओं की घण्टियों के साथ
कोहरा
छंटा
वही निम्मल नीला आकाश
और धुन्ध से उबरते टीले पर
न जाने कब से से खड़ा ये मन्दिर
हवा में फहराती जर्जर पताका
मनो कुछ हुआ ही न हो
बस
न जाने कब
रातोंरात
गर्भगृह को चीर
धरती से प्रकट हुआ
ये चिकना पत्थर
आदिम कालातीत
गाँव की नियति का पहरेदार
दावेदार
चौखट के पीछे
काई में सिंची भीतर की रौशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफा
कोख में जिसके
गुप्त विद्याओं को समेटे
मेंढकनुमा
हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा

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परिप्रेक्ष्य : बॉब डिलन : गीत चतुर्वेदी

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(Kevin Winter, Getty Images)

अमरीकी गीतकार और गायक बॉब डिलन (May 24, 1941) पिछले पांच दशकों से अपने लिखे गीतों से पूरी दुनिया को प्रभावित करते आ रहे हैं. 
गीतों को नया आयाम देने के लिए बॉब डिलन को २०१६ के साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा है. उनके गीत सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक प्रश्नों से मुठभेड़ करते हैं, वे बेचैन करने वाले हैं. 

साहित्य और पुरस्कारों के तमाम समकालीन प्रमादों के बीच गीत चतुर्वेदी ने बॉब डिलन को याद करते हुए उनके होने के महत्व को रेखांकित किया है. हिंदी – उर्दू में कविता के गान की परम्परा को परखते हुए आज की कविता के समक्ष चुनौतियों की भी चर्चा की है.

यह एक कवि का सुंदर गद्य भी है. 


डिलन, कविता और नोबेल                      
गीत चतुर्वेदी






बॉब‍ डिलन को नोबेल पुरस्‍कार मिलने के बाद पूरी दुनिया में एक बार फिर से यह बहस शुरू हो गई है कि साहित्‍य क्‍या है. डिलन को क़रीब बीस साल से नोबेल का दावेदार माना जाता है, लेकिन जब भी उस दावेदारी का जि़क्र होता था, यह बहस अग्रभूमि पर नहीं आती थी, क्‍योंकि दावेदारी के समय से ही यह लगभग सर्वमान्‍य, सर्वस्‍वीकृत था कि और किसी को भले मिल जाए, यह पुरस्‍कार बॉब डिलन को तो क़तई नहीं मिलेगा. नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा से पहले, तीन दिन तक, मैंने विभिन्‍न जगहों पर जो पूर्वानुमान पढ़े थे, उनमें से अधिकांश में यह स्‍पष्‍ट भविष्‍यवाणी थी कि यह डिलन को नहीं मिलेगा. इतने बरसों तक नहीं मिला, तो अब मिलने का सवाल भी नहीं. लेकिन नोबेल समिति जो काम सबसे अच्‍छे तरीक़े से करती है, वह यह कि तमाम भविष्‍यवाणियों में पलीता लगाना. जिन लोगों को भी इस पुरस्‍कार का सबसे क़रीबी दावेदार माना जाता है, अक्‍सर यह पुरस्‍कार उन लोगों के क़रीब से होता हुआ, अनछुआ गुज़र जाता है.

मेरे प्रिय समकालीन लेखकों में से एक इलियास खौरीने अपने एक संस्‍मरण में यासर कमालका जि़क्र किया है. कमाल, तुर्की के लेखक थे. ओरहन पमुक के उभरने से पहले जिन दो तुर्की लेखकों को पूरी दुनिया में जाना और माना जाता था, उनमें अहमत हमदी तानपिनारके साथ यासर कमालका भी नाम था. यासर कमाल को पूरी उम्‍मीद थी कि उन्‍हें साहित्‍य का नोबेल पुरस्‍कार ज़रूर मिलेगा. ज्‍यूरी की नज़र में बने रहने के लिए उन्‍होंने स्‍टॉकहोम में एक मकान किराये पर ले लिया था और वहीं रहने लगे थे. उन्‍होंने ध्‍यानाकर्षण की कुछ ऐसी कोशिशें की थीं, जिन पर बाद के बरसों में हंसा जा सकता है (ढंके-छिपे या ज़ाहिरा तौर पर ऐसी हरकतें बहुत सारे लेखक करते हैं). कमाल को कभी नोबेल नहीं मिला, हालांकि उनका काम बड़ा है. कहने का अर्थ यह है कि जिन लोगों की दावेदारी बहुत अधिक चर्चित होती है, यह पुरस्‍कार अक्‍सर उनसे शर्मा कर छिटक जाता है.

बॉब डिलन के बारे में भी यह बरसों पहले मान लिया गया था कि यह उनसे छिटक चुका है और लोग महज़ उम्‍मीद के लिए, एक सालाना नाउम्‍मीदी बांधे बैठे हैं. जैसे फिलिप रॉथके लिए बांध ली गई है. जैसे अदूनिसके लिए. और जैसी नाउम्‍मीदी हारुकि मुराकामीके लिए बढ़ती जा रही है. कोई भी पुरस्‍कार राजनीति से निरपेक्ष नहीं होता. सामाजिक, राष्‍ट्रीय, अंतर्राष्‍ट्रीय या निर्णायक की निजी राजनीति, हमेशा पुरस्‍कारों को प्रभावित करती हैं. निर्णायक बदल दीजिए, पुरस्‍कार बदल जाएगा, उसका स्‍वरूप बदल जाएगा. पुरस्‍कारों के साथ जुड़ी एक कारुणिक विडंबना यह भी है कि वे जितना न्‍याय करते नज़र आते हैं, उससे कहीं ज़्यादा अन्‍याय करते नज़र आते हैं. जिसे पुरस्‍कार मिला है, यदि हम उसे पसंद करते हैं, तो हम उस निर्णय में न्‍याय खोज लेते हैं. और यदि उसे नापसंद करते हैं, तो उसमें तमाम तरह के अन्‍याय भी खोज लेते हैं. बॉब डिलन को पुरस्‍कार के इस निर्णय में भी दोनों ही पहलू एकदम मुखर हैं.



बॉब डिलनकी ख्‍याति मूलत: गायक और संगीतकार के रूप में हैं. उन्‍हें गायन और संगीत की दुनिया के लगभग सारे पुरस्‍कार मिल चुके हैं. पिछले बीस बरसों में, जब से उनके नाम की चर्चा नोबेल के लिए चल रही थी, तब से ही यह पर्याप्‍त स्‍पष्‍ट था कि दुनिया का एक बड़ा हिस्‍सा उनके साहित्यिक योगदान को भी रेखांकित करना चाहता है. इस ‘साहित्यिक योगदान’ पर हमेशा बहस होती रहेगी. क्‍या वह साहित्यिक योगदान इतना बड़ा है कि हमारे समय के अन्‍य क़द्दावर लेखकों को उपेक्षित कर नोबेल पुरस्‍कार उन्‍हें दे दिया गया? यक़ीनन, इस पर कभी एकराय क़ायम नहीं हो सकती. जो लोग ख़ुद को, और जिन्‍हें पूरी दुनिया, विशुद्ध लेखक मानते/मानती हैं, उन्‍हीं के साहित्यिक योगदान पर कभी एकराय नहीं बन पाती, डिलन तो ‘विशुद्ध लेखक’ भी नहीं हैं. उन्‍होंने ख़ुद को ‘कवि’ नहीं माना. 1960 के दशक में जब उनके गीतों ने प्रतिरोध के अपने तेवर, शोषितों और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता के स्‍वरों और विरल साहित्यिक गुणवत्‍ताओं के कारण चर्चा पाई, दीवानगी की हद तक लोग उनके प्रशंसक बने, तब ही डिलन ने अपना रुख़ स्‍पष्‍ट कर दिया था- ‘मैं कवि नहीं हूं. जो कोई ख़ुद को कवि मानता है, दरअसल वह कभी कवि नहीं होता.’ उनको मिले नोबेल पुरस्‍कार की तरह उनकी यह ‘युवकोचित स्‍थापना’ भी कभी निर्विवाद नहीं हो सकती, लेकिन इससे उनका रुख़ स्‍पष्‍ट हो जाता है. उन्‍होंने ख़ुद को कवि नहीं माना, लेकिन अपने साहित्यिक योगदान को रेखांकित करने की आकांक्षा कभी जागृत, कभी सुप्‍त रूप में उनमें दिखाई देती रही है, इससे भी स्‍पष्‍ट है कि उनके इस योगदान को लेकर भी साहित्‍यकारों में विवाद की स्थिति हमेशा बनी रही. कई लोगों के लिए वह महज़ एक गायक हैं, जो अपने गीत ख़ुद लिखता है और सुंदर लिखता है.

बॉब डिलन के गीतों से मेरा परिचय 1990 के शुरुआती बरसों में मेरी किशोरावस्‍था के दौरान हुआ था, जब मैं रॉक संगीत के प्रति अपनी दीवानगी के कारण वर्तमान और इतिहास के कई गायकों को खोज-खोजकर सुनता था. कई सारे दूसरे गायकों की तरह डिलन से भी मेरा परिचय मेरे बड़े भाई ने कराया था, यह कहते हुए कि इसे सुनोगे, तो कई दूसरों को भूलने का मन करेगा. और जैसे-जैसे उमर बढ़ी, यह बात ज़रा बेहतर समझ में आती गई कि डिलन, कई दूसरों को भूल जाने में आपकी मदद करता है. महान कलाएं श्रेष्‍ठताओं की स्‍मृति का जितना सुख देती हैं, उतना ही वे कमतरों को विस्‍मृत करने के औज़ार भी उपलब्‍ध कराती हैं. बक़ौल जौन ऐलिया, ‘है मेरी दुआ कि मेरे सिवा/तुम्‍हें सब शायरों से वहशत हो.’

मेरी किशोरावस्‍था की यह स्‍मृति डिलन के ‘कवि-रूप’ की स्‍मृति नहीं है, यह डिलन के ‘गायक-रूप’ की स्‍मृति है. मैंने डिलन के गीत पहले सुने, बाद में उन्‍हें पढ़ना शुरू किया. मैंने पहले डिलन की शारीरिक आवाज़ को स्‍पीकर या हेडफोन से बाहर आते हुए सुना, और उनकी काव्‍यात्‍मक आवाज़ को बाद में पहचानना शुरू किया. हर कवि अपनी कविता के भीतर अपनी एक विशिष्‍ट आवाज़ पा लेने और उसे अटल बनाए रखने का संघर्ष करता है. वही आवाज़ उसकी कविता की श्रेष्‍ठता या लाघव को परिभाषित करती है. डिलन ने बेहद शुरुआत में ही इस आवाज़ को हासिल कर लिया था और समय के साथ यह खनखनाती ही गई. उन्‍हें नोबेल की घोषणा के बाद से, उनके बारे में अंग्रेज़ी में जिन कुछ लोगों की टिप्‍पणियां पढ़ी हैं, उनमें से अधिकांश में डिलन के गायक-रूप की स्‍मृति दर्ज है, उन्‍हीं गीतों में प्रवाहित उनके कवि-रूप की स्‍मृति बहुत कम है.


और संकट की जड़ यहीं पर है. उनका गायक-रूप इतना विशाल, महिमामंडित, सेलेब्रेटेड, भीमकाय है कि कोरी आंखों से देखने पर उनकी काव्‍यात्‍मक सूक्ष्‍मताएं छिपी जान पड़ती हैं. बरसों से हमने उन्‍हें एक गायक की तरह स्‍वीकार कर रखा है, हम उन्‍हें महान गायक मानते हैं, लेकिन वह गायक दरअसल एक कवि है, हममें से कई का चेतन-अचेतन मन इसे स्‍वीकार नहीं कर पाता. कलाएं स्‍वीकृति और अस्‍वीकृति के ध्रुवों के बीच डोलती हैं. सहज स्‍वीकृति से कोई कला महान नहीं हो जाती. पूर्ण अस्‍वीकृति से भी छोटी कला, बड़ी नहीं हो जाती. कविता की उत्‍पत्ति और विकास की ऐतिहासिक परंपराओं को देखा जाए, तो हर भाषा में कविता की शुरुआत गीतात्‍मक गुणों को समाहित करते हुए हुई. यह ठीक-ठीक किसी को नहीं पता कि ऐन किस समय गीत अलग हो गए, कविताएं अलग हो गईं. दोनों के बीच एक स्‍पष्‍ट फ़र्क़ बन चुका है, इस बात की तरफ़ हमारा ध्‍यान बीसवीं सदी में गया, जब आधुनिकतावाद ने हमारे सौंदर्यबोध, श्रेष्‍ठताबोध और बौद्धिक समझ को निर्णायक रूप से परिभाषित कर दिया. उसके बाद तमाम ‘वाद’ विकसित हो चुके हैं, लेकिन हमारी परिभाषाएं अभी भी अपना मूल आहार उन्‍हीं आधुनिक रीतियों से पाती हैं. और यह समीचीन भी है. बीसवीं सदी में प्रदर्शनकारी कलाएं पूरी तरह अलग हो गईं. गीत गाए जाने लगे. कविताएं लिखी जाने लगीं. ‘लिखना’ और ‘बोलना’ दोनों के अर्थ समय के हिसाब से बदलते रहे हैं. अगर किसी की कविता ‘गाई’ जाती है, तो उसे एक अचंभे या घटना की तरह लिया जाता है. जैसे नेरूदाकी कविताएं उनकी युवावस्‍था में ही गाई जाती थीं और इसके बाद भी हम नेरूदा को ‘गीतकार’ नहीं मान पाते, कवि ही मानते हैं. जैसे उर्दू के शायर अपनी ग़ज़लों को बाक़ायदा तरन्‍नुम में सुनाते हैं, फिर भी हम उन्‍हें शायर ही कहते हैं, गीतकार नहीं. गाये जाने और लिखे जाने के बीच का यह फर्क़ बहुत स्‍पष्‍ट स्‍थापित हो गया. वैसे, अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं के मुहावरे को ध्‍यान में रखें, तो हमें पता चलेगा कि मोत्‍ज़ार्टसंगीत रचता नहीं था, संगीत ‘लिखता’ था. इस तरह, उस परंपरा को आधार बनाकर मोत्‍ज़ार्ट को संगीत का ‘लेखक’ भी कहा जा सकता है.  प्राचीन वैदिक और शास्‍त्रीय संस्‍कृत साहित्‍य का अध्‍ययन किया जाए, तो पता चलता है, उस ज़माने में ‘लेख’ का अर्थ लिखना नहीं, बल्कि ‘चित्र बनाना’ होता था. लिखने के लिए ‘उत्‍कीर्ण’ जैसे आशयों वाले शब्‍द ज़्यादा चलते थे. आज भी उर्दू में शेर ‘लिखे’ नहीं जाते, शेर ‘कहे’ जाते हैं.  लिखे और कहे का यह फ्लर्ट कमोबेश क़ायम ही रहेगा.

यह गहरी मान्‍यता है कि आधुनिक कविता लिखी जाती है. ऐसे में कोई कविता गा रहा हो, तो वह गायक बन जाता है. कवि कम रह जाता है. मैंने अपने 22 साल के हिंदी कविता की संगत में कई वरिष्‍ठ कवियों को देखा है कि वे कविता के गाए जाने से, उसमें तुक या लय के आविष्‍कार से किस तरह छिटक उठते हैं, छनछना जाते हैं. ऐसा इसलिए भी है कि लय, तुक, गीतात्‍मकता, सांगीतिकता पर कवियों से ज़्यादा गीतकारों ने क़ब्‍ज़ा कर लिया है और गीतकार लोकप्रिय विधाओं में काम करते हैं, वे सिनेमा में जाते हैं, श्रोताओं के बीच जाते हैं, वे कैसे भी करके अपनी आवाज़ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. कवियों को यह बात पसंद नहीं आती. जाने किन संक्रमणों के ज़रिए कवियों को यह रोग लग गया है कि लोकप्रिय में कलात्‍मकता का संधान नहीं हो सकता. जो भी प्रविधियां लोकप्रिय कलाओं में प्रयुक्‍त की जाती हैं, यदि उनका प्रयोग आप अपनी गंभीर कला में करना चाहेंगे, उसे गंभीर बनाए रखने की शर्तों पर भी, तब भी निस्‍संदेह आपको संदेह से देखा जाएगा. यह सिर्फ़ हमारी नहीं, दुनिया की सारी भाषाओं की कविता का सच है. जिन चीज़ों के कारण कविता लोगों के बीच पहुंचती हो, उन सभी चीज़ों को कविता से निकाल दिया जाए, और फिर सियापा किया जाए कि लोग कविताएं नहीं पढ़ते- यह बीसवीं सदी की एक बड़ी खोजों में से एक है. इससे कवियों को उपेक्षा की आत्‍मरति जैसा सुख मिलता है और गीतकारों जैसे ‘निम्‍न’ दर्जे के कलाकारों की निंदा करने का सुख भी. यह बीसवीं सदी की एक रूढि़ बन चुकी है कि कवि है, तो किन्‍हीं स्थितियों में आजीविका के लिए ‘गीत’ लिख देगा, साहित्यिक श्रेष्‍ठता के लिए ‘कविता’ लिखेगा, लेकिन गीत को कविता की तरह नहीं बरत पाएगा, कविता को गीत की तरह नहीं ले पाएगा. और अगर वैसी कोई कोशिश करेगा, तो मुख्‍य धारा में नहीं आ पाएगा. साहित्‍य कोई छोटा-मोटा नहीं, ख़ासा बड़ा गेट्टो है

डिलन की दिक़्क़त यह है कि उन्‍होंने अपना साहित्‍य रचने के लिए छपे हुए शब्‍दों, छपी हुई किताबों, स्‍याही और का़गज़ की मदद नहीं ली, बल्कि उन्‍हें रिकॉर्ड कर दिया, उन्‍होंने अपनी कविताओं को गा दिया. जबकि उन्‍हें किताबों में रखकर पढ़ा जाए, तो यह महसूस करने के लिए हमें किसी अतिरिक्‍त साक्ष्‍य की ज़रूरत नहीं होगी कि उनके गीत, सांगीतिक सीमाओं में बंधी हुई और कई बार उन सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई, श्रेष्‍ठ कविताएं ही हैं. और वे कविताएं ओविड, होमर और सैफ़ोकी परंपरा से जुड़ती हैं. हिंदी-उर्दू जैसी भाषाओं के साथ डिलन का कोई रिश्‍ता नहीं है, लेकिन हम जैसे लोग जिनका रिश्‍ता हिंदी-उर्दू से भी है, अंग्रेज़ी से भी है और डिलन जैसे प्रतिबद्ध कवियों से भी है, हम इस बात को बेहतर महसूस कर सकते हैं, क्‍योंकि यह परंपरा हमारे कहीं ज़्यादा निकट है. हम मीरा, कबीर, तुलसी को अब भी गाते हैं. हम मीर, ग़ालिब और फ़ैज़ को दूसरों की आवाज़ों में अपने टेपरिकॉर्डर पर सुनते रहे हैं. हमने वह सिनेमा देखा है, जिसमें साहिर और शैलेंद्र ने अपनी आला दर्जे की कविताएं लिखी हैं. कैसी अकल्‍पनीय जगहों पर भी उन्‍होंने कविता की गुंजाइश बना दी. औरों का मैं नहीं कह सकता, पर कम से कम मुझमें अब तक इतना बौद्धिक साहस नहीं आ पाया है कि मैं साहिर और शैलेंद्र को सिर्फ़ इस नाते कवि मानने से इंकार कर दूं कि उन्‍होंने अपना काव्‍य-कर्म सिनेमा के लोकप्रिय दायरों में किया था.

हिंदी-उर्दू की कई ‘महान’ कविताओं पर उनके गीत भारी पड़ते हैं, क्‍या उन्‍हें इसलिए नकारा जाए कि वे छपी हुई किताबों में आने से पहले गाये जा चुके थे? कई बार तो मुझे लगता है कि अगर साहिर में गायन की वैसी प्रतिभा होती, और उन बरसों में भारत का सांस्‍कृतिक-पॉप माहौल अमेरिका जैसा होता, तो साहिर अपनी कविताएं डिलन की तरह गाकर उतना ही असर छोड़ सकते थे. यहां मैं इन कवियों की आपस में तुलना नहीं कर रहा, बल्कि उस सांस्‍कृतिक माहौल की कर रहा हूं. हम हिंदी-उर्दू वाले इसे इसलिए भी बेहतर समझ सकते हैं कि हमने, कम से कम अपनी भाषा में, गीतों के स्‍तर को लगातार गिरते हुए देखा है. गीत जैसी बेबस व बर्बाद विधा में भी कविता के तत्‍वों को बचाना, उनसे आला कविता बना देना, कितनी बड़ी चुनौती का काम है. और अगर एक कवि ने, बाक़ायदा अड़ लेकर, लगातार दशकों तक, इस असंभव-से लगने वाले काम को बेहद ख़ूबसूरती से अंजाम दिया है, तो यक़ीनन वह नोबेल पुरस्‍कार का हक़दार है. अपनी सिनेमा-पॉप इंडस्‍ट्री में सैकड़ों गीतकार सक्रिय हैं, वे बहुत आसानी से इस चुनौती की नामुमकि़न-सी तबीयत को समझ जाएंगे. साहिर के बाद तो कोई साहिर न हो पाया, शैलेंद्र के बाद कोई शैलेंद्र नहीं. उसी अमेरिकी पॉप और रॉक संगीत में डिलन के बाद कोई डिलन नहीं हैं. कोहेनजैसे अन्‍य आला नाम डिलन के साथ के ही हैं, बाद की पीढ़ी के नहीं. और नोबेल समिति ने इसी बात को रेखांकित किया है. उन्‍होंने डिलन को कवि नहीं कहा, उन्‍होंने डिलन को सिर्फ़ गायक या गीतकार नहीं कहा. ‘गीतों की महान अमेरिकी परंपरा में नई काव्‍यात्‍मक अभिव्‍यक्तियों को संभव करने के लिए’ उन्‍हें यह पुरस्‍कार दिया गया. जिन क्षेत्रों को कवियों ने छोड़ दिया, या जहां जाना उन्‍होंने अपने मान से नीचे का काम समझा, उन क्षेत्रों में जाकर डिलन ने कविता की नई अभिव्‍यक्तियां संभव कीं.


डिलन का रचनाकर्म महान है. उन्‍होंने वाचिक साहित्‍य की परंपरा में खड़े होकर ‘गाया हुआ साहित्‍य’ रचा है. और हम लोगों ने उस ‘साहित्‍य को सुना’ है. भले उसे उन्‍होंने काग़ज़ के लिए नहीं लिखा, लेकिन वह साहित्‍य के दायरे के भीतर ही है. इतिहास में कई नाटककारों को नाटकों के लिए नोबेल पुरस्‍कार मिल चुका है. आखि़र वे नाटक भी तो काग़ज़ के लिए नहीं लिखे गए थे, बल्कि मंचन के लिए ही लिखे गए थे. नाटकों को ‘पढ़ने वाले’ कम ही होते हैं, नाटक ‘देखने वाले’ काफ़ी होते हैं. उसी तरह डिलन का साहित्‍य ‘पढ़ने वाले’ कम हों, उनका साहित्‍य ‘सुनने वाले’ बहुत हैं. 

इस बीच यह भी ध्‍यान आता है कि डिलन को आखि़र 2016 में ही नोबेल क्‍यों मिला? इतने सालों से नाम चल रहा है, अब तक क्‍यों नहीं मिला? हो सकता है कि नोबेल समिति के निर्णायकों में कोई बदलाव हुआ हो. इन दो सालों के नोबेल निर्णय बेहद प्रायोगिक रहे हैं. 2015 के नोबेल निर्णय के बाद से ही यह संभावना बलवती हो गई थी कि डिलन को मिल सकता है. पिछले साल यह पुरस्‍कार स्‍वेतलानाअलेक्‍सीयेविचको दिया गया था, जिन्‍हें साहित्‍यकार नहीं माना जाता. वह पत्रकार हैं और उनके पत्रकारीय रिपोर्ताजों की पुस्‍तकें इतनी आला दर्जे की हैं, कि उन्‍हें साहित्‍य मानते हुए नोबेल दिया गया. यह दशकों बाद नॉन-फिक्‍शन को साहित्‍य के रूप में स्‍थापित करने की एक पहल भी थी. ठीक उसी कड़ी में, बॉब डिलन को भी साहित्‍य का पुरस्‍कार दिया गया है, जिन्‍हें पहली नज़र में लोग साहित्‍यकार नहीं मानते. उनके ‘गीतों को साहित्‍य जैसा मान’ दिया गया है.  जाने इस पर डिलन की अंदरूनी प्रतिक्रिया क्‍या होगी? पढ़ने में आया है कि नोबेल घोषणा के बाद डिलन किसी जलसे में नमू हुए थे और नोबेल पर उन्‍होंने एक शब्‍द भी नहीं कहा. डिलन को जानने वालों के लिए यह सामान्‍य होगा. जो चीज़ें कलाकारों को उत्‍साहित करती हैं, वह उन पर खीझे हुए-से रहते हैं. साठ के दशक में एक पत्रकार ने उन्‍हें ‘जीनियस’ कहा था, और इस शब्‍द से चिढ़कर उन्‍होंने उसे खदेड़ लिया था. डिलन जिस तरह के खरमग़ज़ इंसान हैं, इस पर कोई अचरज नहीं होगा कि वह नोबेल पुरस्‍कार लेने पहुंचें और अपने भाषण में दो-बार बातें ऐसी बोल आएं, जो ख़ुद नोबेल समिति को ही नागवार गुज़र जाए.

डिलन के गीतों का कंटेंट जिस तरह समावेशी, मानवाधिकार का पक्ष लेता, शोषितों के पक्ष में आवाज़ उठाता हुआ प्रतिबद्ध कंटेंट है, 2016 में उन्‍हें पुरस्‍कार देना, डोनाल्‍ड ट्रम्‍प नामक एक उन्‍माद के सदंर्भ में, अमेरिका को कहीं यह याद दिलाने की कोशिश तो नहीं कि उसे बर्बरता के अपने प्राचीन इतिहास के महिमामंडन की कोई ज़रूरत नहीं, ख़ासकर तब, जब वह मार्टिन लूथर किंग जूनियर और बॉब डिलन सरीखे, मानवता के गीतों के रचयिताओं को अपने सांस्‍कृतिक इतिहास में प्राप्‍त कर चुका हो.  

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गीत चतुर्वेदी  हिंदी के चर्चित कवि, कथाकार, आलोचक तथा अनुवादक हैं. उनकी कविताओं का देश - विदेश की तमाम भाषाओँ में अनुवाद हुआ है.
geetchaturvedi@gmail.com

मीमांसा : नास्तकिता का अर्थात : संजय जोठे.

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युवा समाज वैज्ञानिक संजय जोठे ने भारत में नास्तिकता के अर्थ,उसकी परम्परा और वर्तमान में उस पर हो रहे हिंसक हमलों पर यह सारगर्भित लेख लिखा है. यह लेख यह भी दिखाता है कि वर्तमान में धर्मों की यह जो भयानक असुरक्षा है उसके मूल में क्या है. उनसे सहमत हुआ जा सकता है कि मथुरा में जो हुआ है वह ‘तार्किकों, अन्धविश्वास विरोधियों, पाखंड-विरोधियों’ के खिलाफ काफी समय से चल रही आपराधिक हिंसा का ही विस्तार है.  

समय से और हमारे ‘समय’ में हस्तक्षेप करता एक जानदार आलेख.

नास्तकिता का अर्थात            
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संजय जोठे




सौभाग्य से आजकल भारत में नास्तिकता चर्चा में है. यह अच्छा लक्षण है और इसके साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. यह अच्छा लक्षण इस अर्थ में है कि जब-जब कोई समाज नास्तिक होने का दुस्साहस दिखाता है तब-तब वहां संस्कृति सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का तेजी से विकास होता है. या कहें कि ज्ञान विज्ञान के विकास और नास्तिकता में एक समानुपातिक संबंध है. भारत जब अतीत में बौद्धों और जैनों (और कुछ हद तक लोकायतों सहित आजीवकों) के साथ नास्तिक था - तब भारत की सभ्यता अपने शिखर पर थी और दार्शनिक ज्ञान में ही नहीं बल्कि भौतिक ज्ञान में भी भारत अपने ज्ञात शिखर पर था इसी दौर में गणित, खगोल, भेषज, धातुविज्ञान और शल्य चिकित्सा तक पर भारी काम हुआ था आजकल के हिन्दू ज्ञान विज्ञान का जो दावा करते हैं वह सब ज्ञान विज्ञान न तो वेदों से संबंधित है न आस्तिकों से. इसी दौर में भारत सोने की चिड़िया था जिस पर हमला करने के लिए पहले यवन फिर हूँण, तातार, शक इत्यादि योजना बना रहे थे. बाद में आस्तिक और वेदवादी धर्मों के उभार के बाद भारत पा पतन आरंभ हुआ जो कई अर्थों में आज तक जारी है.

आज नास्तिकता के इस दुस्साहस से जुड़े अवसर के साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. वह चिंता इस बात की है कि नास्तिकता चर्चा में जिस ढंग से आई है वह ढंग खतरनाक है. नास्तिकता को एक संगठित आन्दोलन न बनने देने के प्रयासों ने यह खबर बनाई है, न कि नास्तिकता ने स्वयं मुखर होकर कुछ कहना आरंभ किया है. इस अंतर को समझना होगा. नास्तिकता अगर अपने शिक्षण के कंटेंट और उस कंटेंट को डिलीवर करने की सफलता के कारण चर्चा में आये तो यह शुभ है लेकिन नास्तिकता पर हमले के कारण यह चर्चा में आई है यह बात गलत हुई जा रही है.

भारत में नास्तिकता हमेशा ही एक बिखरी हुई प्रवृत्ति रही है. ऊपर-ऊपर प्रगतिशील नजर आने वाले लोग भी घर के अंदर न सिर्फ आस्तिक हो जाते हैं बल्कि कर्मकांडी और पाखंडी तक हो जाते हैं. वे अपने बच्चों को घर में समुद्र लांघ जाने वाले देवता सिखाते हैं और स्कूल में न्यूटन का गुर्त्वाकर्षण और सौर मंडल का माडल सिखाते हैं, इसी कारण उनके बच्चे कुछ भी तय नहीं कर पाते और विज्ञान तो कभी सीख ही नहीं पाते हैं. इन दो मुंहे प्रगतिशीलों को छोड़ें तो भी बिखरे हुए रूप में सच्चे नास्तिक भारत भर में फैले रहे हैं लेकिन उनमे बड़े पैमाने पर आपस में कोई सम्बन्ध नहीं निर्मित हुआ है. अब फेसबुक और सोशल मीडिया ने उन्हें भी सम्बन्धित होने के लिए मंच दे दिया है. इन नास्तिकों ने पहली बार हिम्मत करके एक सामूहिक कदम उठाया है और वृन्दावन के दुस्साहसिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी जी के नेतृत्व में यह एक आन्दोलन की शक्ल लेने को तैयार हुआ जा रहा है. इस सब पर हमला होना ही था. अगर हमला न होता तो मानना पड़ता कि यह पहल ईमानदार या धारदार नहीं है. हर अच्छी और इमानदार पहल पर हमला होना ही है. यही उस पहल के वैध, शुभ और शक्तिशाली होने का पहला प्रमाण है.

नास्तिकता की यह पहल क्यों हुई है और इसका विरोध क्यों हो रहा है इसको समझने के लिए पहले आस्तिकता और नास्तिकता को ही समझना होगा. दुनिया के अन्य देशों में ईश्वर, उसकी किताब और धर्मादेशों में आस्था रखने को आस्तिकता कहा जाता है और इन्हें नकारने वालों को नास्तिक कहा जाता है. हालाँकि यह बहुत मोटा मोटा विभाजन है इसमें अन्दर बहुत सारे जाल हैं लेकिन हमारी चर्चा के लिए इतना विस्तार पर्याप्त है. एक अदृश्य से करुणावान’ (इसाइयत और इस्लाम) या भयानक’ (यहूदी) ईश्वर और उसकी किताबों में भरोसा करना ईमान का या विश्वास का चिन्ह है जिसे आस्तिकता माना जा सकता है. लेकिन भारत में या स्पष्ट रूप से कहें तो भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास करना नहीं होता है. भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ वेदों में आस्था रखने से है, वेद अपौरुषेय हैं और उनके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती ऐसा मानने वाले दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और वेदों के ज्ञान और उस ज्ञान की अपौरुषेयता को नकारने वाले दर्शन नास्तिक दर्शन कहलाते हैं.

ईश्वर को लेकर इस विभाजन का भी कोई अर्थ नहीं है क्योंकि सांख्य और योग दोनों ही दर्शन आते तो आस्तिक दर्शन की श्रेणी में हैं, लेकिन ईश्वर को क्रमशः या तो सीधे सीधे अस्वीकार करते हैं या फिर धारणा का विषय मात्र मानते हैं. सरल शब्दों में कहें तो सांख्य दर्शन ईश्वर को मानता ही नहीं और योग दर्शन के लिए ईश्वर सिर्फ धारणा का विषय है जिससे किन्ही ख़ास मनोवैज्ञानिक रुझान के लोगों को साधना में सुविधा होती है. योग इस तरह ईश्वर का इस्तेमालकिसी ख़ास मकसद से कर रहा है, शायद यह दुनिया का एकमात्र दर्शन है जो किसी अन्य ईश्वर से भी बड़े साध्यके लिए ईश्वर को साधन बनाकर उपयोगकरने का साहस रखता है. लेकिन आजकल के बाबा लोग ही नहीं बल्कि ओशो जैसे तथाकथित क्रांतिकारी भी पतंजलीसे विश्वासघात करते हुए वेदान्तिक ब्रह्म को योग के ईश्वर से मिलाकर लोगों को कन्फ्यूज करते हैं. खैर, तो अंतिम रूप से योग भी जिस कैवल्य में फलित होता है वहां ईश्वर या आत्मा इत्यादि कुछ नहीं है, वह फलित जैनों के कैवल्य से मिलता जुलता है और जैन न सिर्फ नास्तिक हैं बल्कि श्रमण है. इसके बावजूद चूँकि योगदर्शन वैदिक प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल करते हुए वेदों की सत्ता को स्वीकार करता है इसलिए वह आस्तिक दर्शन कहलाता है.

इस छोटी सी भूमिका के बाद अब हम स्वामी बालेन्दुजी के नेतृत्व में उठ खड़े हुए इस आन्दोलन के प्रति वेद वेदान्त और योग के रसिकों के मन की उभर रही असुरक्षा को समझ सकते हैं. यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि स्वामी बालेन्दु न सिर्फ भारतीय अर्थ की आस्तिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं बल्कि सेमेटिक धर्म मानने वाले देशों की आस्तिकता (बिलीफ, फैथ या ईमान) को भी निशाने पर ले रहे हैं. इस प्रकार स्वामी बालेन्दु जी की नास्तिकता की प्रस्तावना दोहरा वार कर रही है. इसीलिये वे हिन्दुओं सहित ईसाईयों और मुसलमानों कि निंदा के पात्र भी बन गये हैं. भारतीय हिन्दुओं के मन में बसी वेदों / भगवान के प्रति निष्ठा और भारतीय मुसलमानों ईसाईयों आदि के मन में बसी अल्लाह या गॉड के प्रति निष्ठा दोनों को वे एकसाथ कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और बहुत तार्किक रूप से आस्तिकता या विश्वास के इन माँडलों पर वैध प्रश्न उठा रहे हैं. उनके प्रश्नों कि भूमि प्राकृतिक नैतिकता, कामन सेन्स, नागरिकता बोध और वैज्ञानिक रुझान से मिलकर बनी है, इसीलिये उनकी प्रस्तावनाओं में विकसित और मुखर सामाजिक सरोकारों की गूंज होती है जिसे उनकी हर टिप्पणी, वक्तव्य और लेख में सुना जा सकता है.

लेकिन इतने अच्छे संकल्प से की जा रही इतनी सुन्दर पहल से किसी को क्या समस्या हो सकती है? क्या काल्पनिक ईश्वर और हजारों वर्ष पुरानी तिथिबाह्य हो चुकी किताबों को चुनौती देते हुए वैज्ञानिक चेतना के साथ जीने का आग्रह करने में किसको खतरा हो सकता है? असल में यही प्रश्न विचारणीय है. आस्तिकता या नास्तिकता में क्या ठीक और हितकर है यह कोई चर्चा का मुद्दा नहीं है, सभी लोग जो थोड़े से शिक्षित या जागरूक हैं वे नास्तिकता और वैज्ञानिक रुझान के फायदों को बखूबी समझते हैं. इसलिए असल मुद्दा यह है कि आस्तिकता की रक्षा में लट्ठ भांजने वालों के मन की असुरक्षा का विश्लेषण कैसे किया जाए.

इसे एक दुसरे मुद्दे से जोड़कर देखते हैं तब आसानी होगी. क्योंकि नास्तिकता (बे-ईमान या नॉन-बिलीवर या वेद-विरोधी होने के अर्थ में) जिस तरह पहले खतरनाक समझी गयी है वैसा ही और उतना ही खतरा उससे आज नहीं है. आज उससे जो और जितना खतरा है वह संपूर्ण और निर्णायक खतरा है. आज पूरे विश्व में आस्तिकता और धर्म को एक बहुत नए ढंग की चुनौती मिल रही है जो पहले कभी नहीं मिली है. यह चुनौती क्या है और इसकी प्रष्ठभूमि क्या है इसे समझना जरुरी है, आइये इसमें प्रवेश करते हैं.

असल में पश्चिमी समाज में वैज्ञानिक विकास ने जिस पुनर्जागरण को संभव बनाया है और उसके नतीजे में जो औद्योगिक और सामाजिक विकास हुआ उसने ईश्वर को एक सृष्टा और नियामक के रूप में अपने पद से सदियों पहले हटा दिया है. वहां अब ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि ईश्वर का स्थान विज्ञान ने ले लिया और चर्च का स्थान विश्वविद्यालयों ने ले लिया है. लेकिन पूर्वी समाजों का दुर्भाग्य ये रहा कि यहाँ धर्म सत्ता इतनी शक्तिशाली और सर्वव्यापी रही कि यहाँ धर्म, दर्शन और विज्ञान में विभाजन ही पैदा नहीं होने दिया. यहाँ धर्म ही दर्शन और विज्ञान तक का स्त्रोत बन बैठा और इसी क्रम में आस्था और तर्क में असंभव मेल बैठाते बैठाते खुद पाखंडी हो गया. पश्चिम में कम से कम धर्म, दर्शनशास्त्र और विज्ञान अपने अपने क्षेत्रों में दावे से कुछ इमानदार घोषणा करते रहे हैं. वहां भारत जैसा गोल मोल पाखण्ड नहीं जन्मा क्योंकि इन तीनों के विभाजन और उनके विषयों के संगत विस्तारों का अंतर स्पष्ट रहा है.

लेकिन भारत में शुरू से ही धर्म ने सारा कार्यभार अपने कन्धों पर उठा रखा है और तीन मुंह वाले ब्रह्मा की तरह एक मुंह से धर्म, दुसरे से दर्शन और तीसरे से विज्ञान कहना पड़ता है. इसीलिये भारतीय लोग न धर्म सीख पाते हैं न दर्शन न ही विज्ञान, भारतीय समाज में एक आम आदमी के जीवन में ये तीनों ही गायब हैं. भारतीय लोग इन तीन मुंहों को देखकर बस कन्फ्यूज ही होते रहते हैं कुछ भी निर्णय नहीं ले पाते. इसीलिये भारत धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक रूप से जहां का तहां बना रहता है. इसी से कुछ लोगों को ग़लतफ़हमी हो जाती है कि हम कभी मिटाए नहीं जा सके’, वे कहते हैं कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारीलेकिन गौर से देखें तो असल में यह ऐतिहासिक जड़ता भर है, अजर अमर हस्ती जैसा कुछ नहीं है. इसी को अधिकाँश लोग सनातन होना कहते हैं हजारों साल से जो थे वही आज भी हैं. इसपर भी तुर्रा ये कि इस बात पर जिन्हें शोक मनाना चाहिए वही इसमें गर्व का अनुभव करते हैं.


अब आगे बढ़ते हुए विज्ञान और औद्योगीकरण सहित भूमंडलीकरण पर सवार होकर सब तरह के अच्छे बुरे विचारों गीत संगीत, वेशभूषा, भोजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि - ने अब दुनिया भर में हमला बोल दिया है. ऐसे में आत्मरक्षण और अस्मिता का प्रश्न भयानक रूप से पीडादायी हो गया है. आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता ने जिस तरह से सर्वसमावेशवाद, बहुसंस्कृतिवाद और अन्तः संस्कृतिवाद आदि को जन्म दिया है उसकी प्रतिक्रिया ने प्राचीन धर्मों और संस्कृतियों में अस्मिता की खोज और अस्मिता के परिभाषण सहित अतीत में मनचाही अस्मिताओं को प्रक्षेपित और आरोपित करने तक के आन्दोलन छेड़ दिए हैं. यह आवश्यकता एक विराट गर्भ बन गयी है जिसमे से दुनिया की हर प्रमुख संस्कृति में सांस्कृतिक पुनर्परिभाषण, सांस्कृतिक पुनरुत्थान और अपने धर्म की खोज के वैश्विक और स्थानीय आन्दोलन पैदा हो गये हैं.

इसी गर्भ से कई रंग के आतंकवाद और राष्ट्रवाद जुडवा भाइयों की तरह एकसाथ निकल रहे हैं. यह वैश्विक स्तर पर पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ है. इसीलिये आज की आस्तिकता और नास्तिकता प्राचीन अर्थ की आस्तिकता या नास्तिकता की स्वाभाविक संगिनी की तरह नहीं देखी जानी चाहिए. आज की आस्तिकता और नास्तिकता दोनों ही एक कई अर्थों में वैश्विक और निर्णायक बन गयीं हैं. अब सभी तरह की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिताएं अवश्यंभावी हो चुके वैश्विक संस्कृति में विलय के पूर्व - आत्मरक्षण की अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं. और जैसा कि अमर्त्य सेन ने अपनी किताब अस्मिता और हिंसामें नोट किया है, “यह अस्मिता केवल गर्व और ख़ुशी का ही स्त्रोत नहीं है बल्कि ताकत और आत्मविश्वास का स्त्रोत भी हो सकती हैयही ताकत और आत्मविश्वास न सिर्फ एक आरोपित महानता को अपने धार्मिक-सांस्कृतिक अतीत (इतिहास नहीं) में प्रक्षेपित कर रहा है बल्कि इस आरोपित महानता पर प्रश्न उठाने वालों पर आक्रामक होकर हमले भी कर रहा है. भारत में आज तर्कवादियों या नास्तिकों पर जो हमला हो रहा है वह यही हमला है.

अब हम आते हैं नास्तिकता पर हो रहे हमले के विश्लेषण पर. भारत में पिछले कुछ दशकों में धर्म के निर्माण और रक्षा की एक ख़ास प्रवृत्ति उभरती रही है. असल में देखा जाए तो यह प्रवृत्ति अंग्रेजी शासन के समय जन्मी थी जबकि भारतीय बुद्धिजीवियों को पश्चिम के सभ्य समाज से संबंधित होने का पहला मौक़ा मिला था. निश्चित ही उपनिवेशी नियंत्रण और दमन खतरनाक था और निंदनीय है, लेकिन उसने भारत के पुरातनपंथी और अन्धविश्वासी समाज को पश्चिमी ज्ञान विज्ञान और विकसित सामाजिक रचना का पाठ भी पढ़ाया था. इसी कारण तिलक, पाल, और राममोहन रॉयसहित अनेक तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने आर्य आक्रमण थ्योरी को लपक लिया था और अंग्रेजी आक्रमण को भारत को सभ्य बनाने वाली ईश्वरीय योजना का एक भाग मान लिया था, राममोहन रॉय ने तो ब्रिटेन में घोषणा भी की थी कि भारतीय आर्य अपने पुराने यूरोपीय आर्य भाइयों से अरसे बाद दुबारा मिल रहे हैं. इस ऐतिहासिक भरत मिलाप का उन्होंने खासा उत्सव मनाया था.

यहाँ एक और दिशा से गौर करें तो इसाइयत के सेवाभावी और मिशनरी स्वरूप और पश्चिमी समाज की विकसित और तुलनात्मक रूप से नैतिक संरचना ने भारतीय बुद्धिजीवियों को खासा प्रभावित किया था. विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्दने अपनी अमेरिका और यूरोप यात्राओं से जिस तरह का इसाई धर्म और सेवाभाव सीखा उसी के आधार पर इस नियो-हिन्दुइज्म या नियो-वेदांता की नींव रखी गयी, याद कीजिये स्वामी विवेकानंद ने भारत लौटते ही सिस्टर निवेदिता के साथ रामकृष्ण मिशनआरम्भ किया था.  मिशनरी इसाइयत से प्रेरित इस नये मिशनके आगे या पीछे राममोहन रॉय, केशवचंद्र, देवेन्द्रनाथ, रानाडे, दयानन्द सरस्वतीजैसे अन्य सुधारक भी हुए. इस दौर के भारतीय सिद्धान्तकारों ने जिस एक नियो-हिन्दुइज्म को पैदा किया वही आजकल भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को संचालित कर रहा है.

यह नियो हिन्दुइज्म या नियो वेदांत संभवतः दुनिया का सबसे नया और सबसे असुरक्षित धर्म है जिसके पास एक भगवान् एक किताब या एक महापुरुष नहीं है और जो अपने रक्षण या विकास के लिए एक फ्रेम या एक मार्ग परिभाषित करने में भयानक रूप से असमर्थ है. इसीलिये इसकी असुरक्षाएं अजीबो गरीब ढंग से काम करती हैं. एक तरफ यह अपनी ही बड़ी आबादी को अपने धर्मग्रंथों और धर्मस्थलों का उपयोग करने से रोकता है और दुसरी तरफ इन ग्रंथों और स्थलों से दूर जाने पर दंड भी देता है. अपनी ही स्त्रियों को धर्म कि खोल में बांधे रखता है और उन्ही स्त्रियों  द्वारा देवता या मंदिर के स्पर्श से डर भी जाता है. यह भयानक रूप से विरोधाभासी और दिशाहीन स्थिति है जिसे सिर्फ अन्धविश्वासी सम्मोहनों और हिंसा के भय से ही नियन्त्रण में रखा जा सकता है. यह भय और दंड ही असल में इस नवीन रचना का प्राण है. इस भय को तार्किक विश्लेषण से उजागर करना इस रचना के लिए बहुत पीडादायी है. इस आंतरिक भय और इस पीड़ा को न केवल आधुनिक सिर्फ धर्माधीश और बुद्धिजीवी जानते समझते रहे हैं बल्कि आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठन भी इसी पीड़ा के गर्भ से जन्मे हैं. इसीलिये अब इनकी सम्मिलित शक्ति ने एक राजनीतिक आन्दोलन को गठित किया है जो अनजाने अतीत में मनचाही श्रेष्ठताओं का प्रक्षेपण करते हुए इस प्रक्षेपण पर उठने वाले सवालों का दमन कर रहा है. गौर से देखा जाए तो स्वामी बालेन्दु के नास्तिक आन्दोलन पर जो आक्रमण हो रहा है या अन्य तार्किकों, अन्धविश्वास विरोधियों, पाखंड-विरोधियों का जो दमन हो रहा वह इसी दमन का जीता जागता उदाहरण है.   
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संजय जोठे
Lead India Fellow,
M.A Development Studies,
I.D.S., University of Sussex U.K.
PhD. Scholar TISS, Mumbai India.
sanjayjothe@gmail.com

निज घर : मुकुल शिवपुत्र पर सीरज सक्सेना : पीयूष दईया

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(मुकुल शिवपुत्र का गायन)


मशहूर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक और कुमार गन्धर्व के पुत्र मुकुल शिवपुत्र किंवदन्ती में बदल गए हैं. उनकी मयनोशी और अपारम्परिक जीवन शैली के तमाम किस्से हवाओं में बिखरे हैं. 
पहली टकराहट तो उनकी अपने पिता से ही हुई, बाद में पत्नी के असमय निधन ने उन्हें दरवेश बना दिया.

प्रसिद्ध चित्रकार और सिरेमिक आर्टिस्ट सीरज सक्सेना का लम्बा संग साथ मुकुल शिवपुत्र के साथ रहा है.  यह संस्मरण उसी का सुफल है.

कवि-रंगकर्मी पीयूष दईया से सीरज सक्सेना की बातचीत में यह संस्मरण बुना गया है. 
संगीत में रूचि रखने वालों के लिए यह रुचिकर है, कलाओं के साझा घर की भी यह एक आत्मीय बैठकी है जिसमें कलाकारों के अंतर्मन आलोकित हैं. 


मुकुल शिवपुत्र                                                        
सीरज सक्सेना के साथ पीयूष दईया की बातचीत





(एक)
सीरज सक्सेना
रामचरितमानस में मेरी रूचि बचपन से रही है. मुकुल शिवपुत्र जी से मिलने के बाद मानस के रहस्य मुझ में खुलने-फैलने लगे. उनसे मिलना इस तरह से अविस्मरणीय है कि उसे अब तक मैं संस्मरण का दर्जा नहीं दे सका हूं.

भारत भवन में आयोजित होने वाली संगीत-सभाओं में मैं बराबर जाता था और वहां यदा-कदा पं. मुकुल शिवपुत्र का ज़िक्र होता रहता था. कभी उदयन (वाजपेयी) बोलते-बताते थे, कभी अखिलेश. इन बातचीतों से मेरा उनसे परोक्ष परिचय बनने लगा. इन चर्चाओं से मेरे मन में उनकी छवि एक गूढ़ संगीतकार/गायक की बनी. वे ऐसे शख़्स लगे जो स्वयं अपने महत्व से उदासीन हो. निर्लिप्त. कभी उनके औघड़ व्यक्तित्व के बारे में सुनने को मिलता. एक दिन शाम में अखिलेश के यहां उदयन आए हुए थे. मैं वहां अक्सर रहता ही था. अखिलेश बड़े उदारमना हैं. मैं कभी भी समय-असमय उनके यहां चला जाता था लेकिन मेरी उपस्थिति से कभी भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई. मैं भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता था. मैं उन दोनों की बातचीत सुन रहा था. उन दिनों सुनने में ही भलाई लगती थी, अपनी सीमाओं व अज्ञान का मुझे पता था. रात में लगभग दस बजे जब उदयन जाने लगे तो मुझे भी साथ लेते चले अपने गेस्ट हाउस छोड़ने के लिए. मेरा गेस्ट हाउस उनके घर के रास्ते में ही था. रास्ते में उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मुझे जल्दी नहीं है तो हम मुकुल से मिलने चलते हैं. मैं सहर्ष तैयार था. मुकुल पोलीटेक्नीक कॉलेज के पीछे किसी शिक्षकों के अतिथि-गृह में रह रहे थे. हम उनके कमरे पर पहुंचे. दस्तक दी. अन्दर से आवाज़ आयी--’’कौन है?’’ उदयन ने कहा--’’मैं उदयन.’’ भीतर से स्वर बाहर आया--’’आ जाइए, खुला है.’’ हम अन्दर दाखि़ल हुए. कमरे में प्रकाश मद्धिम था. हल्की दाढ़ी और धोती-कुर्ता पहने एक देसी आदमी वहां बैठे थे. कमरा छोटा था, जिस लैम्प से प्रकाश फैला था वह भी. एक गिलास रम से भरा था और साथ में एक और गिलास था जिसमें दूध था. मुकुल और उदयन के बीच कुछ देर औपचारिक बातचीत चलती रही. मैं सब कुछ सुनने के बजाय देख रहा था. रोमांचित. साक्षात्. फिर हम वहां से लौट आए. उदयन जी ने मुझे मेरे गेस्ट हाउस छोड़ा. रात-भर मैं मुकुल जी के बारे में सोचता रहा. नींद मुझे अपने घेरे में नहीं ले सकी.





(दो)
सुबह आठ बजे मैं अपनी साइकिल से मुकुल जी के कमरे पर पहुंच गया. पहले मैंने उन्हें अपना परिचय दिया कि मैं कल उदयन जी के साथ आया था. और आप के बारे में सभी से सुनता रहा हूं. मिलने की जिज्ञासा थी इसलिए आया हूं. उन्होंने कहा--’’अच्छा, ठीक है.’’उन्होंने मुझे दूध पिलाया. पूछा--’’कहां रहते हो?’’मैंने बताया-- "भारत भवन के अतिथि-गृह में. वहां एक बड़ा फ्लैट है जिसके एक कमरे में मैं रहता हूं.’’ उन्होंने कहा--’’अच्छा, चलो चाय पीने चलते हैं.’’ हम नीचे आए. उन्होंने एक झोले में अपना सामान रख रखा था. मैंने अपनी सायकिल ले ली. वहीं पोलिटेक्नीक के आसपास चाय की कई छोटी-छोटी गुमटियां है. हमने चाय पी. तब उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हारे साथ चलता हूं. तुम्हारे कमरे पर. मैंने कहा--’’हां, ज़रूर.’’मैंने उन्हें सायकिल पर बिठाया और हम चल पड़े. हमीदिया कॉलेज के सामने आए और उन्होंने कहा, अब रूको. रुक गये. बोले--"यहां से पैदल चलते हैं.’’वहां से मेरा गेस्ट हाउस नज़दीक ही था. प्रोफेसर्स कालोनी में. हम कमरे तक पैदल गये. उन्हें वहां अच्छा लगा. उन्होंने खाना बनाया. हम दोनों ने खाया. मेरा भारत भवन जाने का समय हो चुका था. मैंने उनसे कहा कि मुझे स्टूडियो जाना होगा पर वे वहीं रहे, कोई दिक़्क़त नहीं है. बोले--"हां, ठीक है. मैं यहीं हूं. तुम कब आओगे?’’मैंने कहा--दोपहर में खाना खाने. फिर वापस चला जाऊंगा और शाम में छह-सात बजे तक फ़ारिग हो जाऊंगा.’’बोले--अच्छा.’’ दोपहर में जब कमरे पर पहुंचा तो उन्होंने बढ़िया खाना बना कर तैयार रखा हुआ था. मैंने खाना खाया, चला गया. शाम में लौटा. बातचीत करते रहे. रात में मैं रामचरित मानस पढ़ रहा था. वे बोले--’’क्या पढ़ रहे हो?’’ मैंने कहा--रामचरित मानस.वे बोले--’’अच्छा, जोर से पढ़ो.’’मैं बाल काण्ड पढ़ रहा था सो उसी में आगे उन्हें सुनाने लगा. थोड़ी देर में तो वे रोने लगे. मुझे समझ नहीं आया कि एकदम क्या हो गया कि वे रोने लगे हैं. बोले--ऐसे पढ़ते है? क्या तुम्हें पढ़ना नहीं आता है?’’ मैंने कहा--’’पढ़ तो रहा हूं. चौपाई.’’ बोले--ऐसे नहीं पढ़ते हैं. मैं पढ़ कर सुनाता हूं.’’वे पढ़ते और एक चौपाई की व्याख्या आधा घण्टे तक करते. मानस-शब्दावली उनके जरिये मुझे कण्ठस्थ हो गयी है. आज जब मैं एक चौपाई पढ़ता हूं तो उसका अर्थ पढ़ते-पढ़ते ही समझ में आने लगता है. फिर ऐसा होने लगा कि कभी मैं पढ़ता था, वे व्याख्या करते थे. कभी अचानक भावुक हो जाते, कभी ख़ामोश. यह हमारी दिनचर्या का हिस्सा बनने लगा. हम शाम में पाठ करते. पहले बाक़ायदा अगरबत्ती जलाते. फिर पाठ चलता. पाठ के बाद परांठे वग़ैरह बनते. वे बड़े धार्मिक शख़्स हैं. खास कर बाल-काण्ड उन्होंने बहुत अच्छे से सिखाया.

उस दिन आने के बाद वे मेरे साथ लगभग सात-आठ महीने लगातार रहे.

(मुकुल शिवपुत्र के हस्ताक्षर)



(तीन)
रामचरित मानस पढ़ते पढ़ते उनको कुछ कम्पोजिशन याद आ जाती थी. वे अचानक गाने लगते थे. पूछते--’’कुछ समझ में आया?’’मैं कहता--’’नहीं, लेकिन गाना अच्छा लगा.’’ कभी कोई पुराना फ़िल्मी गाना भी सुना देते थे. कभी भजन सुनाने लगते थे. उन्हीं दिनों में उन्होंने भारत भवन में रामचरित मानस पर एकाग्र एक परर्फोरमेंस दिया. एक दिन मैं और पण्डित जी (हम मुकुल शिवपुत्र को पण्डित जी कह कर बुलाते थे) हम दोनों ध्रुव शुक्ल से मिलने गये. उन्होंने ध्रुव जी से कहा मैं रामचरित मानस पर गाना चाहता हूं.उन्होंने कहा--’’हां, आप तय कीजिए कहां गाना है, कब गाना है. मैं आयोजन का बन्दोबस्त कर देता हूं.’’ कुछ दिनों बाद भारत भवन में उन्होंने रामचरित मानस से कुछ चौपाइयां गाईं. पूरी जगह श्रोताओं से भरी थी. कह सकते हैं कि भीड़ उमड़ पड़ी थी. शाम में छह बजे उन्हें गाना था. वह संस्कृति विभाग का आयोजन था. सरकार की ओर से. तय हुआ कि दिग्विजय सिंह, मुकुल जी को गुलदस्ता देकर, उनका स्वागत करेंगे और फिर वे गाएंगे. चार बजे सफ़ेद रंग की लाल बत्ती वाली गाड़ी गेस्ट हाउस आ गयी. मुकुल जी मेरे साथ ही रह रहे थे. सो उन्हें लिवाने के लिए.



(चार)
अच्छा, पण्डित जी अभिनय भी ज़बरदस्त करते थे. अपने होने की महत्ता भी दिखाते थे. जब कभी ज़रूरत होती. अपनी तरह से. कभी बिलकुल सहज रहते, कभी ऐसे हो जाते कि कोई उन्हें हाथ तक नहीं लगा सकता. कि वे महान संगीतकार है. बहुत दफ़ा उनसे तूतू-मैंमैं भी हो जाती थी. वे बिलकुल हमउम्र दोस्त की तरह लड़ने लगते थे और मैं उन्हें पूरी इज़्ज़त देते हुए लड़ता था. बहरहाल, वे सज्जन जो उन्हें लेने आए थे, उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया. मुकुल जी ने मुझसे कहा कि जाओ, दरवाज़ा खोलो. मैंने खोला. सज्जन ने पूछा--’’मुकुल जी हैं?’’मेरा जवाब था--’’हां, हैं.’’उन्होंने कहा--’’आप उन्हें बता दीजिए कि गाड़ी लेने आयी है.’’ मैंने कहा--जी.’’मुकुल जी से कहा कि गाड़ी आ गयी है सो चलते हैं. उन्होंने कहा--नहीं. अभी नहीं. उनसे कह दो कि वे आ रहे हैं.’’एक घण्टा वह सज्जन इन्तज़ार करते रहे. फिर आए और बोले कि चलना चाहिए, विलम्ब हो रहा है. मुकुल जी बाहर आए और उनसे बोले--’’तुम जाओ. मैं ख़ुद आ जाऊंगा.’’ थोड़ी देर बाद मैंने कहा कि पण्डित जी पांच बजने को आए हैं. यहां से पैदल चलेंगे तो आधा घण्टा पहुंचने में लग जाएगा और छह बजे कार्यक्रम है. मुख्यमन्त्री आपका स्वागत करेंगे. मुझे बोले--’’तुम्हें जल्दी है. तुम जाओ.’’मुझे लगा कि उन्हें सही वक़्त पर कार्यक्रम-स्थल तक पहुंचाना मेरी ज़िम्मेवारी है. मैंने फिर आग्रह किया. बोले--’’अच्छा, चलते हैं.’’बगल में झोला. पांव में मोजे व चप्पल. कुरता पहने, कंधे पर गमछा और हाथ में अपना काला छाता लिये..उस दिन वे ऐसे चल रहे थे जैसे कोई राजा जाता हो. छाते की उस समय कोई ज़रूरत नहीं थी. लेकिन उनके हाथ में छाता ऐसे था जैसे प्रतिष्ठा का प्रतीक. हम पैदल चलते चलते ..पार्क तक पहुंचे. वहां एक पान की दुकान है. पण्डित जी ने कहा कि चलो पान खाते हैं. मैंने कहा--’’पण्डित जी विलम्ब हो रहा है.’’ मैं चलने का आग्रह कर रहा था और वे पानवाले को यह समझा रहे थे कि उन्हें कैसा पान चाहिए. चूना इतना, इस तरह कि कत्था ऐसे लगाये कि..पन्द्रह-बीस मिनट तक तो वे पानवाले को यह समझाते रहे कि उन्हें किस तरह का पान खाना है. फिर उसने पान बनाया. पण्डित जी ने मुंह में रखा और हम वहां से आगे चले. जब भारत भवन पहुंचे तब तक छः बज कर पन्द्रह मिनिट हो चुके थे.



(पांच)
अब उन्हें तो पता था कि क्योंकि मन्त्री का मामला है, सो वह देर से ही आएगा, लेकिन मुझे तब यह बात पता नहीं थी. वे अपने समय पर ठीक ही पहुंच गये थे. दिग्विजय सिंह आए साढे छः बजे जबकि छः बजे का समय तय था. यह शायद मुकुल जी को ठीक नहीं लगा. वे अपने ग्रीन रूम में थे. भारत भवन में कलाकार का सम्मान बहुत गहरा था. जैसे स्टूडियो बन्द होने का समय पांच बजे का है लेकिन अगर कोई कलाकार रात में दस बजे तक काम कर रहा है तो चौकीदार वहीं रहता था. यह नहीं कह सकता था कि पांच बज गये हैं और आप जाइए. बाहर गुन्देचा बन्धु उनका तानपूरा ट्यून कर रहे थे. सारंगीनवाज़ थे, सारंगी वादक सरवर खान के दादाजी. सभी मुकुल जी को बहुत गम्भीरता से ले रहे थे. पूरी दर्शक-दीर्घा खचाखच भरी हुई थी. मुकुल जी के कार्यक्रम का सभी को बेसब्री से इन्तज़ार बना रहता था. सभी समय से पहले ही आ गये थे. मुकुल जी को अपने होने, गाने व आवाज़ की गम्भीरता का पता था. ख़ैर! औपचारिक उद्घोषणा शुरू हो चुकी थी कि अब हम श्री मुकुल शिवपुत्र को आमन्त्रित करते हैं और मुख्यमन्त्री को कि वे उन्हें गुलदस्ता भेंट करें. उद्घोषणा हो गयी और पांच मिनिट बीत गये पर पण्डित जी नहीं आए. वे परदे के पीछे ही खड़े हुए थे कहीं. दिग्विजय सिंह स्टेज पर गुलदस्ता ले कर खड़े रहे. थोड़ी देर बाद वे आए और औपचारिक रस्में पूरी होने के बाद उन्होंने गाया. तीन घण्टे तक. अद्भुत गायन था. अमर.



(छह)
कई बार वे शराब पी कर इतने धुत्त हो जाते थे कि उन्हें ऑटो से लाना पड़ता था. बहुत बार जेबें रूपयों से भरी होती थी. कई दफ़ा किसी कार्यक्रम के बाद वे सीधे बार में जा कर बैठ जाते थे. फिर किसी तरह लड़खड़ाते कमरे तक पहुंचते. ऑटोवाले उन्हें जानने लगे थे. कई दफ़ा सीढ़ियां चढ़ते हुए जेबों से नोट गिर जाते. फिर सुबह उठने पर हमसे कहते--तुमने मेरे पैसे ले लिये.’’हम उन्हें बताते, पण्डित जी रूपये ऑटो में गिरे थे और ऑटोवाले ने ऑटो से रूपये निकाल कर दिये हैं. सीढ़ियों से कितने ही पांच पांच सौ के नोट उठा कर ख़ुद मैंने रखे हैं. हम आपके पैसे क्यों लेंगे. बहुत लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे.





(सात)
वे चिलम भी ख़ूब पीते थे. उनका पूरा एक पर्व चलता था. अगर शराब पी रहे हैं तो सात-आठ दिन लगातार पीते रहते थे. सुबह से शाम तक. ज़्यादातर वक़्त कमरे में रहते थे और कम बोलते थे. बीच बीच में गाते भी रहते थे. खाना ख़ुद ही बनाते थे. उनका खाना अक्सर गरिष्ठ होता था. खाना बनाने के लिए जो सामग्री होती थी उसमें बढ़िया आटा और रसोईघर में दूध का होना बहुत ज़रूरी है और एक लीटर देसी घी. पनीर होना ज़रूरी है और मक्खन. जब नहीं होता था तब वे ले कर आते थे. बड़ा अलग ढंग का खाना बनाते थे. उनके हाथ में मानो स्वाद बसता है. इतना स्वादिष्ठ भोजन. दाल बना रहे हैं तो उसमें दूध भी डाल देते थे तब भी ग़ज़ब का स्वाद आता था. हम बड़े लालच के साथ खाते थे. कई बार तो उन्होंने हमें आलू और भांग की सब्जी खिला दी, मेथी की बोल कर. सोयाबीन की बड़ी, आठ रूपये क़िलो वाला चावल और सोयाबीन का सस्ता वाला तेल. जीरा, राई, हरीमिर्च वगै़रह : यह हमारा मीनू होता था पर पण्डित जी के आने के बाद हमारा मीनू बदल गया. वे अपना ले कर आते थे. कई बार सेण्डविच बनाते थे.





(आठ)
वे यह कोशिश करते थे कि मैं कहीं जाऊं नहीं. न भारत भवन न कहीं और. इतना खिला देते थे कि कहीं जा ही न सकूं, नींद आती रहे. यहीं बना रहे. कई बार लेने आ जाते थे, भारत भवन. बीच के दिनों में मुझे रोकने का वे बहुत आग्रह करते. कहते कि इस पेंटिग में कुछ नहीं रखा. मैं तुम्हें तानपूरा सिखा देता हूं. ऐसे उल्टे दौरे उनको पड़ते रहते थे. एक बार तो काफ़ी लड़ाई-झगड़ा कर के मैं सुबह दस बजे कमरे से निकल गया. उनके आने के बाद से मेरा भारत भवन के सिरेमिक्स के स्टूडियो में जाना कम होने लगा था. पहले मैं नियमित व अनुशासित था. इतवार हो या सोमवार, रोज़ जाता था. स्टूडियो मैं ही खोलता था और आख़ीर में मैं ही आता था. अब नागे होने लगे थे. मैंने पहचाना कि इस का असर मेरे काम पर पड़ रहा है. मैं जाने लगा, तो उन्होंने रोक लिया कि आज तुम नहीं जाओगे. मैंने कहा--’’मैं भोपाल आया ही सीखने हूं और वह मेरा कर्म है, मुझे करना ही है. आप जाने दें.’’ वे कहने लगे--’’इससे कोई रास्ता नहीं निकलेगा. पैसे-वैसे कुछ मिलते नहीं है.’’ वे मुझे जानबूझ कर, भीतरी स्नेह के चलते, हतोत्साहित कर रहे थे. तरह तरह से. कहने लगे--’’शाम को तानपूरा मंगवा लेता हूं. दो मिनिट में सिखा दूंगा. देशाटन करेंगे. मुम्बई में शो करेंगे. तुम्हें नहीं मालूम, बहुत अच्छी पहचान है मेरी.’’मैंने कहा--’’जी, पण्डित जी. मुझे मालूम है, बहुत अच्छी पहचान है आपकी. दूर दूर तक आपके डंके बजते हैं.’’बोले--’’फिर भी तुम्हें भरोसा नहीं है.’’ऐसे ही बोलते थे वे, ’’ज़्यादा समझदार है तू! नहीं मानेगा मेरी बात.’’ मैं अनुनय करता--’’नहीं, पण्डित जी ऐसी बात नहीं है. मुझे जाना ही होगा. वह मेरा कर्म है, काम है.’’ बोले--’’छोड़ दे वो. मैं तुझे सिखाऊंगा संगीत. तानपूरा बजाओ. कुछ नहीं है उसमें. चार दिन में सिखा दूंगा.’’ मैंने फिर विनयतापूर्वक कहा कि नहीं, पण्डित जी मुझे यह सब समझ में नहीं आएगा. यह गुरू-शिष्य परम्परा का मसला है. और हमारे लिए तो गुरू दोस्त है. बोले--’’मैं ऐसा थोड़े बोल रहा हूं कि मेरे पैर दबा. हम तो वैसे ही दोस्त हैं. दोस्त की तरह बजाना, सीखना.’’और कमाल देखिए कि वो तानपूरा आया, फिर शाम में और मैं वहां से भाग गया.

पण्डितजी चाहते थे कि वे मुझे तानपूरा सिखाएं और जहां जहां उनके कार्यक्रम हों वहां मैं उनके साथ जाऊं. पर वह समय मेरे लिए बनने का था सो दिन भर मैं स्टूडियो में रहता था. शाम और सुबह में ही उनका साथ सम्भव हो पाता था. इस से वे नाराज़ होते और चिढ़ जाते थे. यही बात उन्होंने बाद में मुझे अपने एक पत्र में भी लिखी : ’’तुम मुझ से मिले ही कब?’’उन का यह मित्र-भाव मेरी निधि है.


(सीरज सक्सेना और मुकुल शिवपुत्र)

(नौ)
दोपहर में एक ऑटो आकर भारत भवन के गेट पर रुकता है. वे नशे में धुत्त अजीब-सा व्यवहार करते हैं. सब उनको जानते थे. उन्होंने कहा कि जाओ सीरज को बुला कर लाओ. भारत भवन का एक कर्मचारी भागते भागते आया और बोला कि आपसे मिलने कोई आया है. ऑटो से कोई एक बाबा आए हैं. मैंने कहा, ठीक है, मैं आ रहा हूं. मैं फिर अपने काम में लग गया. पता चला थोड़ी देर बाद वे ख़ुद आ रहे हैं, झूमते-झामते. अच्छा, वहां सब महिलाएं वग़ैरह भी काम कर रहीं थी. सबको मालूम था कि मुकुल जी इन दिनों मेरे साथ रह रहे हैं. सब को लगता था कि मेरी संगत बड़ी अच्छी है और मैं उनकी तारीफ़ भी करता था. अचानक वे वहां नशे में धुत्त खड़े थे. सब देख रहे थे. मेरी हालत ख़राब हो गयी. मैं मिट्टी में काम कर रहा था. बोले--तू इन लोगों के साथ क्या कर रहा है ? क्या कर रहा है इन लोगों के साथ?’’ मैंने तुरन्त कहा, ’बस, मैं चल रहा हूं आपके साथ.’’ उन्होंने कहा--’’हां, यह सब बन्द कर और चल. ऑटो बाहर ही खड़ा हुआ है.’’हम कमरे पर पहुंचे. उन्होंने चीलम लगाई और पीने लगे. 

उन्हें मेरी संगत इसलिए भी पसन्द थी कि मुझे किसी चीज़ की लत नहीं थी और किसी चीज़ को लेकर नकार भी नहीं था. जब वे पेश करते थे तो अपनी मात्रा के हिसाब से भांग ले लेता था, मदिरा भी. उनको जिस साथी की तलाश थी, उसे शायद उन्होंने मुझ में देखा हो. और मैं उनके साथ रहना इसलिए पसन्द करता था कि उनका व्यक्तित्व मुझे बहुत प्रभावित करता था. इस तरह से उनका अराजक व औघड़ तरह से रहना पर फिर भी उनकी कला का सामाजिक स्वीकार व महत्व. उनकी कला की एक अलग जगह है. अपनी. उनकी जीवन-शैली अलग है. यह मुझे प्रभावित करता था. उनसे बहुत सीखा है मैंने.




(दस)
मुकुल जी को लिखने का भी शौक़ रहा. वे अपनी कॉपी में कविताएं या किसी बंदिश के बोल मात्राओं में या राग में लिखित रूप से रखा करते थे. पर कोई भी डायरी उनके साथ अधिक देर तक टिक नहीं पाती थीं. कुछ कविताएं भी वे हिन्दी और संस्कृत में लिखते और सुनाते थे.

बीच बीच में पण्डित जी को कुछ चीज़ें आकर्शित भी करती थीं जैसे रिकॉर्डर, कैमरा, रनिंग शूज़ इत्यादि पर ये सब चीजें उनका साथ अधिक देर तक नहीं दे पातीं. उने झोले में यह सब, कुछ ही समय बाद, ग़ायब हो जाता है.

हम यह जानते थे कि वे कुमार गन्धर्व के बेटे हैं. एक दो बार हमने कुमार जी की बात की. उन्होंने पूछा--’’तुम्हें क्या अच्छा लगता है संगीत में.’’ उस दौर में हम नुसरत फतह अली खां को भी काफ़ी सुनते थे. वह भी सुनते थे. बोले कि ’’यह क्या बकवास लगा रखी है. किस किस को सुनते हो!’’ एक दिन हमने कुमार जी की कैसेट लगा दी. वे आए कहीं से और आ कर बैठ गए. बिलकुल गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे. अचानक उठे और हमारा दिल्ली-मेड टेपरिकार्डर उठा कर फेंक दिया. जोर से. मैं रसोईघर में था. जोर का स्वर हुआ तो मैं आया. मैंने देखा, पूरा टेपरिकार्डर वहां पुर्जा-पुर्जा बिखरा पड़ा था. मैंने उनसे कहा--’’इतना अच्छा चल रहा था. अब क्या सुनेंगे?’’ उन्होंने कहा--’’मैं बैठा हूं पर मुझे तो कभी तू सुनता ही नहीं है. इन लोगों को सुन रहा है. मेरे को सुनने का टाइम नहीं है तेरे पास? बैठ, मैं सुनाऊंगा तुझ को.’’



कुमार जी को सुन कर वे अजीब से हो जाते थे. बड़े असहज. उनकी उपस्थिति को वे शायद बरदाश्त नहीं कर पाते थे. उन पिता-पुत्र का कुछ अजीब ही सम्बन्ध था. उन्होंने बहुत सालों से घर छोड़ दिया था. कुमार जी जब जीवित थे तभी वे घर से चले गये थे. ऐसा अभागा-सा ख़याल आता है मानो उनके जीवन में कोई बुरी घटना हुई है. इसके बारे में हमने कभी चर्चा नहीं की. हालांकि उनकी पत्नी, हमारे इन्दौर के कला-महाविद्यालय से पढ़ी थी. सन् 80के दशक में जब वे इन्दौर में रहते थे तब बहुत ही आधुनिक ढंग से रहते-जीते थे. यह बताया था उन्होंने. वे बताते थे--’’इन्दौर में जो सब से पहला स्कूटर आता था वह मैं ही ख़रीदता था. बाबा दिलाते थे. वे एक बार मुझे साउथ अफ्रीका भी ले कर गये थे. विदेश भी जा चुका हूं.’’ मानो कह रहे हो कि देखो कितना बड़ा हूं मैं. उनका बड़ा अच्छा अंदाज़ था बताने का. उसमें अहं नहीं होता था पर कुछ ऐसा लगता था जैसे शेर घुर्रा रहा हो प्यार से. जबकि यह मालूम हो कि यह मुझसे स्नेह करने वाले मित्र हैं. जिनसे दुश्मनी का कोई अर्थ नहीं है. कुछ इस ढंग से घुर्राते हुए कि उसमें विनोद-भाव और अभिनय का पुट हो. मासूम. बड़े अंदाज़ से कहते थे कि उस वक़्त मैं रेबेन का चश्मा पहनता था. और जब इन्दौर में निकलता था तो सब देखते थे मुझे. जींस पहनता था. स्कूटर पर निकलता था. यह था, वह था. सिगरेट पीता था. हमारे कला-महाविद्यालय के सीनियर मित्र बताते थे कि उनकी पत्नी बहुत सुन्दर थी. उनका शायद प्रेम-विवाह हुआ था. उनके ससुर स्वयं एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. हमें यह पता चला था कि अपनी पत्नी की मृत्यु के लगभग तुरन्त बाद उन्होंने घर छोड़ दिया था. वे ऐसे ही भटकते थे, बस. आज उन्हें घर छोड़े भी शायद चालीस साल हो गये होंगे. पैसे की कमी उन्हें बहुत कम होती थी. कोई न कोई आयोजन हो ही जाता था. सब को पता था कि उनके पास कोई घर नहीं है. कभी रेलवे स्टेशन पर सो जाते हैंं, कभी कहीं चले जाते हैं. कभी किसी के साथ रह लेते हैं. तो उनके लिए घर की एक व्यवस्था करनी चाहिए. वहां पर उनके सभी मित्र लोग यह कोशिश कर रहे थे कि सरकार की ओर से उन्हें एक बंगला मिल जाय. जब तक यह जीवित रहेंगे तब तक उनका बना रहेगा. लेकिन वे अराजक ढंग से जीने वाले व्यक्ति हैं. अगर आप उन्हें व्यवस्थित करने की कोशिश करेंगे तो वे तुरन्त वहां से चले जाएंगे. उनका बहुत लम्बा समय साधुओं के साथ भी बीता है.

जब मैं भोपाल छोड़ कर दिल्ली आ रहा था तब पण्डित जी किसी दूसरे शहर में कार्यक्रम के लिए गये हुए थे. जाते समय मेरी उनसे भेंट नहीं हो सकी थी. दिल्ली अचानक आना पड़ा हम को. बल्कि एक तरह से भोपाल से भगाया गया हम को. पण्डित जी दक्षिण भारत की ओर कहीं गये हुए थे. जब वे भोपाल आए तो गेस्ट हाउस पर ताला लगा था. वे वहां से चले गये और फिर भोपाल नहीं आए. वे नेमावर चले गये. नेमावर का पता मेरे पास था. यह जगह हरदा के पास है. वे वहां एक आश्रम में रहते थे. भोपाल भी वे वहां से ही आए थे और उन्होंने ही मुझे वहां का पता दे रखा था. दिल्ली आने के बाद मैंने उन्हें चिठ्ठी लिखी. नेमावर से उनका जवाब आया. कई बार फ़ोन पर भी बात होती थी.
आगे जाकर एक लम्बा अन्तराल बीत गया.

(मुकुल शिवपुत्र)


(ग्यारह)
उनकी याद मुझे उनकी ओर ले जा रही थी. मैं इन्दौर आया. इन्दौर से उनके यहां उनसे मिलने गया. नेमावर. वहां उनका रूप एक साधु का था. वे छोटी कुटिया में रहते थे. वहां भगवान की कुछ मूर्तियां रखी थी. उनकी डायरी थी. झोला था. कमण्डल था. तानपूरा रखा था. चीलम थी. गांजा था. आश्रम की एक कुटिया उन्हें दी हुई थी. वे रोज़ सुबह आश्रम की सफ़ाई करते थे. झाडू लगाते थे. उस आश्रम के महन्त विद्वान व प्रभावशाली थे. उनसे मुकुल जी की दोस्ती थी और उन्हीं के चलते वे वहां रहते थे. जो भी महन्त से मिलने आता वह पूरा आश्रम घूमता ही था. उनकी कुटिया में भी लोग आते थे. कुछ लोग वहां पैसे रख कर चले जाते थे. गांव वासी आते थे. कोई एक बोरी चावल रख कर चला जाता था, कोई कुछ. ऐसे उनका जीवन-निर्वाह हो रहा था. आसपास के लोग उनसे गहरा आदर-सिक्त प्रेम करते थे. कभी कभी वे आसपास गांव के लोगों को बुलाते और कुछ कुछ सिखाते थे. जब मैं गया तब वे एक लड़के को तबला बजाना सिखा रहे थे. यूं वहां किसी को यह पता नहीं था कि वे एक बहुत बड़े गायक हैं. वहां उनकी पहचान एक सन्त की तरह थी. जब मैं उनके दिये पते पर उन्हें ढूंढ़ते ढूंढ़ते पहुंचा तब मैं लोगों से यही पूछ रहा था कि पण्ड़ित मुकुल शिवपुत्र जी कहां रहते हैं. वे बड़े संगीतकार है. पर लोगों ने कहा कि नहीं, ऐसा तो यहां कोई नहीं है. लेकिन हां, एक मुकुल सन्त ज़रूर है जो वहां कुटिया में रहते हैं. मैं कुटिया पर पहुंचा. वहां ताला लगा था. आसपास पूछा. सब ने कहा, यहीं कहीं होंगे या नदी पर होंगे. मैं नदी पर गया लेकिन वे वहां भी नहीं थे. मई-जून का समय था. तेज धूप. मैं दो घण्टे तक इन्तज़ार करता रहा. मुझे लगा कि कहीं वे चले तो नहीं गये, लेकिन वे जब बाहर जाते थे तो बता कर जाते थे कि मैं पूना जा रहा हूं या किसी और शहर. सो यह तय था कि वे हैं यहीं पर. मैं बैठा रहा. नर्मदा के किनारे इतनी गर्मी थी कि देह का सारा पानी सूखा जा रहा था. नर्मदा का अपना एक रहस्यात्मक सौन्दर्य है, गर्मी की दोपहर इस रहस्य को और गहरा रही थी. वे क़रीब दो घण्टे बाद आए. जैसे ही आए, मैंने उनके चरण छुए. आदरवश. वे कुटिया में ले गये और हाल-समाचार जाना. फिर पूरा नेमावर घुमाया और स्थान का महत्व समझाया. यह बताया कि नेमावर नर्मदा का मध्य-बिन्दु है. नर्मदा की नाभि है यहां पर. वहां कुछ पुराने मन्दिर भी हैं. मैं उनके साथ दो दिन ठहरा फिर वापस आ गया. इस यात्रा का असर मुझ पर इतना गहरा रहा कि मैंने कुछ कविताएं भी लिखीं. मैं वहां उनसे मिलने दो बार गया. एक दफ़ा जब दिल्ली से आश्रम फ़ोन किया तो पता चला कि वे अब वहां नहीं रह रहे थे. रमता जोगी जो ठहरे! फिर उनसे तब मुलाक़ात हुई जब वे रजा फाउण्डेशन के अवार्ड के लिए आए थे. हमारे कमरे पर भी आए. रात में रस-रंजन किया. अगले दिन कमानी सभागार में उनका गायन था. सुनने में आया है कि वे अब पूना या नासिक की तरफ़ कहीं हैं.






(बारह)
पण्डित जी हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी बोलते हैं. मुझे टूटी फूटी मराठी आती हैं. इसलिए मराइी में उन से बहुत ही कम बातचीत हुई. ज़्यादातर हिन्दी और अंग्रेज़ी में ही बातें होती थीं. बीच बीच में जब पण्डितजी मूड में होते तो भोजपुरी में भी बोलते. जैसे वे प्रेम से सिरजा कह कर बुलाते.

जब मैं दूसरी बार नेमावर गया तो मेर साथ मेरे एक कलाकार मित्र मार्क --जो नीदरलैण्ड से आये थे--भी मेरे साथ चले. वहां पण्डितजी और हम सब दो दिन अंग्रेजी में ही बात करते रहे. उन्होंने मार्क के लिए गाया-बजाया भी. मार्क उनकी इस फक्कड़ जीवन-शैली से प्रभावित हुए. उनके लिए पण्डित जी ने (जो स्वयं शाकाहार हैं) नर्मदा नदी से मछली भी बनवाई.



(तेरह)
पण्डितजी और मैं दोनों ही कला की अलग अलग विधाओं में रमे थे. एक ही शहर के होने के नाते हमारे बीच निकटता शीघ्र हुई. विधा का यह अलगाव मुझे उनके साथ सहज मित्रता बनाने में मददगार साबित हुआ. मसलन, अगर मैं संगीत क्षेत्र का होता तो उनके पैर छूता और उनका नाम लेने से पहले कान छूता. अर्थात् हमारे बीच कोई औपचारिकता या अपनी अपनी विधा का बड़प्पन नहीं था. मैं उनसे एक मित्र की तरह ही खेलता बात करता, लेकिन मुझे उनके कद का हमेशा खयाल रहता और अपनी मर्यादा में रह कर ही हंसी ठिठोली करता. उन्होंने मुझे जो हक़ या अधिकार दिया है वह मुझे अच्छे से पता है और शायद उन्हें भी.



(चौदह)
इन्दौर के कला गुरू दिवंगत विश्णु चिंचालकर (जिन्हें हम सब गुरू जी कहते हैं) मुकुल जी के पिता कुमार जी के बड़े क़रीबी मित्र थे. चित्रकला को उन्होंने बचपन से देखा है. गुरूजी के काम की वे अकसर तारीफ़ किया करते थे. मुझे भी सलाह देते थे कि तुम्हें भी उनकी तरह कुछ करना चाहिए. पर मेरा कहना रहता था कि पण्डित जी मेरा मन अमूर्तन में लगता है--जो दिख रहा है उसे बनाने में मेरी रुचि नहीं है. वे नाराज़ भी होते थे. जब मैं उन से मिलने नेमावर पहुंचा था तो उन्होंने मिट्टी में बनाई एक छोटी मूर्ति दिखाई, जिस में शिव खड़े हैं और नृत्य कर रहे हैं. इस मूर्ति को ले कर उन्होंने यह कथा सुनाई कि शिव को देख पार्वती भी उनके साथ नृत्य कर रही है. जैसा जैसा शिव करते हैं वैसा वैसा पार्वती भी करतीं हैं. वे भी पारंगत और प्रवीण हैं. यह जुगलबंदी चलती रही. कुछ देर बाद शिव ने एक विचित्र भंगिमा रची. अपने नृत्य का एक विशेश करतब दिखाया --खड़े हो कर अपने दाहिने पांव की छोटी उंगली से बायीं आंख में अंजन लगाया. यह भंगिमा देख पार्वती स्तब्ध रह गयीं. आंख में अंजन लगाते हुए यह प्रतिमा जब मैंने मुकुल जी के पास देखी तो मेरे पूछने पर उन्होंने यह बताया कि यह प्रतिमा उन्होंने ही सिरजी है. प्रतिमा छोटी थी पर इसे बनाने में मुकुल जी का हुनर देखा जा सकता था--शिव की वह भंगिमा जिसमें शिव एक पांव पर खड़े हैं और दूसरा पांव उनके मुख पर है. अनुपात के हिसाब से वह एक सुन्दर और पूर्ण प्रतिमा थी. मुकुल जी का देखना सूक्ष्म और परिपक्व है.
(मुकुल शिवपुत्र द्वारा लिखा पत्र)



मुकुल जी को सुनते हुए पूरा वजूद झंकृत हो जाता था. जब वे हमारे साथ थे तब भी रियाज़ बराबर करते थे. सुबह उठ कर. वह सोते कब थे, यह पता नहीं लगता था. वे जगे, बैठे रहते थे. गाते यूं थे कि आवाज़ सुनायी नहीं देती थी. अन्दर ही अन्दर रियाज़ करते, गाते थे. कभी ऊंचे स्वर में भी गाते थे. उनका स्वर आध्यात्मिक रहस्य में लीन जान पड़ता था. उनका गाना कभी मनोरंजन नहीं लगा. कभी नहीं. उनके गाने में शृंगार नहीं, वियोग का स्वर प्रमुख रहता था. एक तरह का अवसाद भी. वे भजन भी गाते थे. हम हमेशा यह ख़याल रखते थे कि उनके भीतरी जगत में हमारे कारण ख़लल न पड़े. कभी वे लिखते और हमें सुनाते कि देखो, मैंने कविता लिखी है. अगर उन दिनों का रोज़नामचा लिख पाता तो अच्छा रहता. जिन काग़ज़ों पर लिखते थे वे उनके झोले से न जाने कहां गिर जाते थे. कभी वे बाज़ार चले जाते खरीदारी करने, कभी किसी मित्र से मिलने.




(पन्द्रह)
दिल्ली में शकरपुर इलाके़ में मैंने और मेरी पत्नी अगेश ने रहना शुरू किया था. कमरा बहुत छोटा था, पर वे उसमें भी हमारे साथ रहे थे. अगेश जानती हैं कि मेरा उनके साथ गहरा सम्बन्ध है और वे भी उनकी बहुत इज़्ज़त करती है. उनकी भौतिक उपस्थिति से कभी हमें या हमारी उपस्थिति से उन्हें विघ्न पड़ा हो याद नहीं. एक बार आए तो कई दिन हमारे साथ रहे. कभी भांग की सब्जी बनाते कभी मदिरा पीते रहते. कभी चीलम पीते. जब वे रहे तब खाना वे ही बनाते थे. अगेश को खाना बनाने नहीं देते थे. ख़ुद बनाते थे.



एक दिन कहा--’’ऑटो करो, अशोक जी (वाजपेयी) से मिलने जाना है.’’मैंने कहा-- पहले फ़ोन कर के पूछ लेते हैं कि वे है भी या नहीं. "बोले--’’हां, फ़ोन करो.’’फ़ोन भी बड़े अंदाज़ से करते हैं. जब अगली ओर से फ़ोन उठा लिया जाता तो कहते, मैं मुकुल शिवपुत्र बोल रहा हूं. अगला कहता हां, कहिए. पर वे तीन-पांच बार ज़रूर यह कहते कि अरे मैं मुकुल शिवपुत्र बोल रहा हूं. अगला धैर्यपूर्वक उनके अगले वाक्य का इन्तज़ार करता. फिर कहते--’’मिलने आ सकता हूं. अभी आप घर पर ही है?’’जवाब आया--’’हां, ठीक है आप आ जाइए.’’अशोक जी के यहां गये तो वहां भी कुछ बात नहीं करते थे. नमस्ते कह कर बैठे रहते थे. अशोक जी उनके पिता के मित्र रहे हैं सो एक अलग तरह का सम्मान भी उनके प्रति उनके मन में है. काफ़ी देर बैठे रहने के बाद कहा--मैं एक म्यूज़िक स्कूल खोलना चाहता हूं. जिसमें नये लोगों को मैं कुछ गाना सिखाऊं.’’ अशोक जी ने कहा--’’हां, ठीक है. आप प्लान करिए. कहां करना है, यह बताइए. करेंगे कुछ.’’इन वाक्यों बाद आधे घण्टे का वक़्फ़ा. अशोक जी बैठे हुए है, मैं बैठा हुआ हूं. बीच बीच में अशोक जी अपना कुछ करते पर उनका पूरा ध्यान सारे समय मुकुल जी की ओर ही बना रहा. अशोक जी ने पूछा--’’मुकुल, आना कब हुआ तुम्हारा? बोले--’’अभी आया हूं.’’ अशोक जी ने पूछा--’’कुछ गाना वग़ैरह है?’’ बोले--’’नहीं, गाना हो जाएगा, हो जाएगा गाना.’’
फिर चुप हो गए.

देर बाद बोले--’’अच्छा, अब हम चलते हैं.’’ अशोक जी ने कहा--’’नहीं, रुको. आज यही रुक जाओ. दो-तीन दिन रुक जाओ.’’ बोले--’’नहीं, इसके यहां रुका हूं.’’ मैंने कहा--’’नहीं, आप रुक जाइए.’’ बोले--’’क्यों, क्या तुम्हें तकलीफ़ हो रही है मुझसे?’’ मैंने कहा--’’नहीं, ऐसी बात नहीं. घर चलना है. घर चलते हैं.’’ बोले--’’अच्छा, चलो. अशोक जी, इज़ाज़त दीजिए.’’ अशोक जी ने कहा--’’ठीक है. मुकुल आना फिर.’’ बोले--’’हां. हां. फ़ोन करूंगा मैं, आपको.’’
इस तरह हम दो तीन बार अशोक जी के यहां गये.



वे एक ऐसे व्यक्ति है जिनकी कोई इच्छा नहीं है. He don't want to become anything. हर व्यक्ति में चाहना रहती है पर उनके मन में यह तक नहीं है कि वे अपने गाने में ही सही, संसार के सम्मुख महान बनें. वे बस जब तक होगा गाते रहेंगे, जीते रहेंगे. किसी एक जगह से उनको मोह नहीं है. एक जगह वे ज़्यादा लम्बे समय तक रहते भी नहीं हैं. वे सिर्फ़ अपने संगीत में रहते हैं. 



(सोलह)
मुकुल जी जैसा यायावर मैंने अपने आस-पास, अपनी कला बिरादरी में नहीं देखा. वे यायावरी के उस्ताद हैं. यायावरी में उनकी बराबरी करना असम्भव है. एक तो वे बहुत ही कम सामान के साथ अपनी यात्राएं करते हैं और दूसरा उनके पड़ाव भी अनिश्चित ही होते हैं. जब तक उन का मन रमता है तब तक वे एक जगह टिके रहते हैं, लेकिन फिर अचानक कहीं और निकल जाते हैं. वे छोटी से छोटी जगह पर भी बहुत कम सुविधाओं के साथ सहज ही रह लेते हैं. जहां जाते हैं उसे अपना घर बना लेते हैं. उन्हें जगह और भौतिक सुख-सुविधाओं के बारे में शिकायत नहीं रहती. बल्कि किसी अनगढ़ जगह पर ही उनका चित्त रमता है. साधु-महात्माओं के साथ रहते हुए ही उन्हें इस जीवन-शैली का अभ्यास हुआ है. उन के पास हमेशा एक झोला रहता है, जिस में गीता, पेन, काग़ज़, गमछा आदि रहते हैं. चीज़ों के संग्रह के लिए उनकी स्पेस में कोई जगह नहीं है. कम से कम सामान के साथ जीवन अच्छे से जीया जा सकता है, यह उन्हीं से सीखा है.

अगर वे अपने गायन के लिए कहीं जाते हैं तो कभी कभी कई दिन वहीं रुक जाते हैं. पैसे या किसी और वस्तु का संग्रह उनके जीवन में नहीं है. यह उनका अपना जीवन जीने का बिरला तरीका है. उनके भीतर जीजिविशा का अद्भुत आत्मविश्वास है. 



(सत्रह)
दूसरी बार जब मैं उनसे नेमावर मिलने गया था तब वे आते वक़्त मेरे साथ आ गये. वे मुझे वहां रोकने के लिए बराबर आग्रह कर रहे थे. बोले--’’कि रुक. कल कलाव बनेगा. दो पीपे घी आने वाला है. दो बोरी आटा आ रहा है. तू रुक जा.’’ कलाव मतलब भगवान का प्रसाद. बड़ी कढ़ाई में बनता है. मैंने कहा--’’नहीं, मुझे जाना होगा. तीन दिन के लिए इन्दौर आया हूं. दो दिन आपके साथ यहां रहा, एक दिन घर पर रहना होगा. माता-पिता भी हैं.’’ बोले--’’तेने वापसी का रिजर्वेशन तो नहीं करा रखा? कल कलाव है. मैं परसों आऊंगा तेरे यहां, इन्दौर.’’ मैंने कहा--’’हां, ठीक है. आप ज़रूर आइए.’’ फिर एक दिन बाद वे मेरे घर आ गये. इन्दौर बस-स्टैण्ड पर पहुंच कर उन्होंने मुझे फ़ोन किया. मैं उन्हें अपने स्कूटर पर लेने गया और घर ले आया. हमारे घर पर नीचे एक अलग कमरा है. अतिथि कक्ष. उन्हें वहीं ठहराया ताकि वे अपने ढंग से रह सके. दुर्गासप्तशती, भागवत और तुलसीदास की विनय पत्रिका जैसी किताबें उनके झोले में हमेशा रहती थीं. उनके साथ जो समय बीता, उससे मैं आज भी सीखता हूं. इन्दौर में वे मेरे घर दो-तीन दिन रहे. घर पर मैंने यह कह रखा था कि वे एक महान गायक व सन्त हैं. मेरी मां ने पूछा--’’तब तो हाथ भी देखते होंगे?’’ मैंने कहा--’’हां, हाथ भी देखते हैं. और पहुंचे हुए सन्त हैं.’’ मेरी मां में स्वतः ही उनके प्रति श्रद्धा-भाव जग गया. पण्ड़ित जी ने मेरी मां को गाना भी सुनाया. एक लोक-भजन है--जमना किनारे मोरा गांव, सांवरे आ जाइयो.....यह भजन मैं अपने बचपन में गांव में भी सुनती थी : मां ने उनसे कहा. उन्होंने कहा कि हां, यह गांव से ही आया है. मेरी मां से रहा नहीं गया सो उन्होंने उनसे पूछ ही लिया कि क्या आप हाथ भी देखते हैं? पण्ड़ित जी ने कहा कि हां, देखता हूं और उन्होंने मेरी मां का हाथ भी देखा. उन्हें ज्योतिष-विद्या आती है. 

मुकुल जी अपने पहनने-ओढ़ने को लेकर बिलकुल उदासीन थे. वे इन सब से ऊपर उठ गए हैं. उनकी दाढ़ी अक्सर बढ़ी रहती थी. कभी मौज में आते तो पूरी दाढ़ी साफ़ करवा लेते. कभी वे स्पोटर्स शूज पहन लेते, कभी हंटरर्स हेट. आम तौर पर वे जिस पोशाक में होते थे वह थी धोती और कुरता. एक गमछा. झोला हमेशा साथ रखते. उसमें कुछ पुस्तकें भी रहतीं. जैसे दुर्गासप्तशती. रूद्राक्ष की माला और अगरबत्ती का पैकेट हमेशा ही रहता. माचिस, चिलम. एक या दो पुडिया गांजे की. कभी मदिरा. उनसे जो भी मिलता, प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहता.

उनका एक नया रूप मैंने तब देखा था जब मैं उनसे हरदा के पास नेमाबर मिलने गया था. उनका साधु-रूप भी उनके लिए एक तरह का आवरण ही था. वे शायद इसमें स्वयं को सुरक्षित महसूस करते थे. या उनका गायक उस खोल में सुरक्षित रहता था. उनका स्वभाव अप्रत्याशित था. बालक-मन तो था ही. मासूम. ज़िद्दी. मैंने जो रूद्राक्ष पहन रखा है वह उन्होंने ही मुझे दिया था. यह उनका आशीर्वाद है जिसने संघर्ष के दिनों में मुझे गहरा सम्बल दिया.

उनका पूजा-पाठ करने का तरीक़ा अलग था. इसमें उनके समय-तारीख़ इत्यादि का महत्व नहीं था. पूजा के लिए नहाना ज़रूरी नहीं था. वे बिना नहाये भी पूजा करते थे. यद्यपि पूजा-संस्कारों व कर्मकाण्ड, विधियां उन्हें बहुत अच्छे से आती थीं. दुर्गासप्तशती का पाठ वे इतने ज़बरदस्त ढंग से करते थे कि आप मन्त्रमुग्ध सुनते रह जाते थे. मुझे सुनते सुनते ही कण्ठस्थ हो गया. पहले तो दुर्गा के 108नाम सुनाए. फिर उसकी चित्रमयी व्याख्या की. कहते, कि सुन, अच्छी चीज़ सुनाता हूं. मेरे पास बैठा कर तुझे बहुत अच्छी चीजें सुनाऊंगा, सिखाऊंगा. दुर्गा कवच सुनाते. गीता के श्लोक वे प्रायः बोलते रहते थे. कर्म-दर्शन के माहात्मय पर विस्तार से बताते.


(अठारह)
भोपाल में बीते मेरे लगभग चार वर्षों में मुकुल जी के साथ लगभग आठ महीने बीते थे. लगातार. यह समय मेरे लिए महत्वपूर्ण सीख है. यह देखा कि उनके भीतर का कलाकार एक मनुष्य की तरह किस तरह से बर्ताव करता है. किस तरह से जीता है. उसके सरोकार किस ढंग के हैं. वे बाक़ी इन्सानों व कलाकारों से भिन्न हैं. उनका उठना-बैठना, पूरा व्यक्तित्व, कहना चाहिए वजूद, बहुत ही प्रभावशील है. उनमें गहरा आकर्षण है. वे एक प्रेरक व्यक्तित्व हैं. उनकी जीवन-शैली निहायत ही सरल-सहज है. उनको तथाकथित समाज या जीवन या आसपास से कोई अपेक्षा ही नहीं है. उनकी कोई वांछा नहीं रहती. गाना उनके लिए वैसा ही था जैसे किसी दूसरे सामान्य इनसान के लिए अपना कर्म. उन दिनों जब मैं भोपाल में था तब मेरी काफ़ी अपेक्षाएं थी, न जाने किस किस से, शायद अपने आप से ही होगी. कि मैं एक युवा कलाकार हूं, बहुत गम्भीरता से अपना घर-बार छोड़ कर आया हूं सो मुझे कहीं छप्पर मिलना चाहिए, कि मान्यता मिलनी चाहिए वग़ैरह. यह मेरी अनुभवहीनता थी. बाद में ज्ञान हुआ कि असली चीज़ें ये सब नहीं हैं. बर्हिमुखी से अन्तर्मुखी होने का यह रूपान्तरण पण्ड़ित जी की ही देन है. उन्हें भौतिक सुविधाओं की ज़रा भी चिन्ता नहीं थी. कि ज़मीन पर सोएंगे तो गद्दा होना चाहिए या तकिए की ज़रूरत होती है. उन्हें बाल्टी तक की अपेक्षा नहीं रहती थी. मेरे लिए यह कल्पना करना तक कठिन है कि अगर बाल्टी न हो तो मैं पांच दिन कैसे बिता सकूंगा. अब मैं किसी भी तरह से जीवनयापन कर सकता हूं. यह पण्ड़ित जी से ही सीखा है. बिना किसी को हानि पहुंचाए हुए, बिना किसी मान्यता को गिराए हुए. सभी कुछ की गरिमा को अक्षुण्ण रखते हुए.

उन दिनों मैं उस उम्र में था जब अपने देखने-ओढ़ने पर भी काफ़ी समय ज़ाया करता था. मुझे किस तरह से व क्या पहनना चाहिए, कि किस तरह से बाल कटवाने चाहिए. कलाकार हूं तो तमाम लोगों से अलग हूं, कि मेरे दो सींग निकले हुए हैं! उस उम्र का एक अलग उत्साह था. टीशर्ट पर कविता लिख कर और जींस पर रंग लगा कर घूमते थे. उस उत्साह को रूपान्तरित करने में मुकुल जी का बड़ा हाथ है. उनके साथ बिताए समय से मैंने इतने पाठ सीखे हैं कि वे ताउम्र मेरे लिए काफ़ी हैं. रह रह कर वे पाठ जीवन में सामने आते हैं. कई बार मैं उनके सामने हताश हो जाता था कि जेबें ख़ाली हैं और मिट्टी/भट्टी तक के पैसे नहीं है. चावल लाने के पैसे नहीं है. ये करे-वो करे-क्या करे! उन मौक़ों पर उन्होंने मानसिक बल दिया. कई बार क्या होता था कि अहम् की वजह से या किन्हीं और कारणों से मैं अपनी गहरी पीड़ा या आर्थिक तंगी की शिकायत वग़ैरह पर बात नहीं कर पाता था. यह सब मैं मुकुल जी से बांटता था. 
(पीयूष दईया  और सीरज सक्सेना)

वे मेरे मित्र-सखा-गुरू सबकुछ थे. मैं उनके साथ बिलकुल खुला था और वैसा ही वे भी मेरे साथ महसूस करते थे. हमारा सम्बन्ध स्वच्छन्द सम्बन्ध था. उम्र को उन्होंने कभी प्रत्यारोपित नहीं किया. उम्र, गुण, विद्या सभी लिहाज़ से मैं उनका अनुज ही था.
(‘बातचीत का यह अंश 2009 की सर्दियों में बुना गया था,पर रह गया और अब फिर से पुनर्जीवित हुआ है’ : पीयूष दईया ) 
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(वाग्देवी प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक -सीरज सक्सेना के साथ पीयूश दईया की बातचीत “सिमिट-सिमिट जल’’ से एक अंश)
पीयूष दईया : todaiya@gmail.com

सबद भेद : अदम गोंडवी की शायरी : संतोष अर्श

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अदम गोंडवी (22अक्तूबर 1947- 18 दिसंबर 2011)हिंदी में दुष्यंत कुमार के बाद दूसरे सबसे प्रसिद्ध शायर हैं. उनकी गज़लों की धार बड़ी तेज़ और मारक है. आज़ादी के बाद की राजनीतिक विडम्बना  और सामाजिक विद्रूपता पर उनके पास असरदार और यादगार कविताएँ हैं.
उनकी जयंती पर आज उन्हें स्मरण करते हुए संतोष अर्श का यह आलेख .


अदम गोंडवी : जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से        
संतोष अर्श 


एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल
मशरिकी फ़न में नई तामीर है मेरी ग़ज़ल
     
अपनी ग़ज़ल के लिए यह एतिमाद और फ़ख्र भरा शेर कहने वाले रामनाथ सिंह अदम गोंडवीकी ग़ज़लों में सचमुच एशियाई कविता की भाव-धारा और हिंदुस्तानी भाषा की संवेदनात्मक आक्रामकता नमूदार होती है. उनकी ग़ज़लें,जिस समय से मुठभेड़ कर रही हैं वह समय,कविता में प्रतिरोध की जिस क्षमता की माँग करता है,उसी प्रतिरोधात्मक भाषा की शक्ति से भरी-पूरी हैं. कबीर सी फक्कड़ मस्ती और सच कहने का हुनर जो बड़ी साधना के बाद, जीवन के तकलीफ़देह यथार्थ से दो-दो हाथ करने के बाद हासिल होता है, अदम के शेरों में पेश-पेश है.  
     
दिसंबर, 2011 की सर्दियों में मृत्यु से कुछ समय पूर्व लीवर सिरोसिस से पीड़ित,मरणासन्न,जनता के कवि,शाइर मुफ़लिस अदम को लखनऊ पीजीआई में भर्ती नहीं किया जा रहा था. धरतीपुत्रकहे जाने वाले वरिष्ठ समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव  अलस्सुबह ख़ुद पीजीआई (संजय गाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान,लखनऊ) पहुँच कर अदम को भर्ती कराते हैं. चारागरी का बंदोबस्त करते हैं. आख़िर अदम भी धरतीपुत्र कवि थे. खेती और शाइरी एक साथ करते थे. और इस पूरे घटनाक्रम में हमें सियासत और अदब के अंतिम रोमानी रिश्तों की बुलंदी दिखाई देती है,जो पिछली सदी में ही बहुत पहले ख़त्म हो चुके थे. एक धरतीपुत्र की दोस्ती और ज़मीनी संवेदना ने दूसरे धरतीपुत्र कवि को ख़ुदा-ए-सुख़न मीरकी तरह यह उलाहना देने का मौक़ा नहीं दिया कि-

बाद मरने के मेरी क़ब्र पर आया वो मीर
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद 

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. शराब ज़िगर को फूँक कर मौत का इंतज़ाम कर देती है. वो भी जब अदम सा पीने वाला हो ! शाइरी और शराब का क्या रिश्ता है ?शाइर शराब क्यों पीता है ?
     
दिमाग़ी फ़िरावानियों के बग़ैर शाइरी केवल एक क़वायद बनकर रह जाती है. अदम उन्हीं फ़िरावानियों के शाइर थे. इसलिए शौक़े-फ़िरावाँ रखने वालों के प्रिय थे. सबके महबूब और मक़बूल जनकवि अदम गोंडवी.                          
     
अदम गोंडवीने दुष्यंत के विनम्र प्रतिरोध को धार और आक्रामकता के साथ व्यंग्य का जो दर्प दिया,उसने उन्हें हिन्दी का लोकप्रिय ग़ज़लगो शाइर बनाया. ग़ज़ल कहने की ज़मीन (मीटर और व्याकरण) होती है लेकिन अदम ज़मीन (धरती) पर पाँव जमा कर ग़ज़ल कहते हैं शायद तभी उनकी ग़ज़लों का एक संग्रह धरती की सतह परनाम से प्रकाशित हुआ. ज़मीन और आदमी के सहज सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए बड़े-बड़े दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी है लेकिन अदम का एक शेर इन्हें तरलता के साथ बेरोक-टोक हमारे हृदय पर तारी कर देता है. अदम बार-बार साहित्यकारों को ज़मीन की ओर लौटने के लिए कहते हैं-

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ  
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में 

ग़ज़ल गुफ़्तगू करती है ! यक़ीनन अदम की ग़ज़लें भी गुफ़्तगू करती हैं लेकिन ऊँची आवाज़ में, आँखों में आँखें डालकर- महबूब से नहीं ! हाकिमों से,मुख़्तारों से,सरमायादारों की कनीज़ आततायी सत्ता और उसके रजअतपसंद ख़्वाजासराओं से !

जिनके चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गए
कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाज़ार में उनके कलेण्डर आ गए

और इस गुफ़्तगू या ग़ालिबन तकरार में;उनकी ग़ज़ल प्रतीकों और मुहाविरों में तो शास्त्रीयता का निर्वाह करती है लेकिन लीक से हटकर तीखेपन के साथ ! उर्दू की ग़ज़लगोई की लज़्ज़त बरक़रार रखते हुए. कहने वाले कहते हैं कि वे हिन्दी की ग़ज़ल में दुष्यंत के उत्तराधिकारी बनकर आए थे. नई भाषा, रचाव और मुहाविरेदानी के साथ ! ग़ज़ल की मुलायमियत को तेवर में तब्दील कर. परंपराभंजक बनकर ! उसका अनुसरण करके नहीं. लेकिन क्या इन फ़सानों से अदम की शाइरी मेल खाती है ?ख़ैर ! गंगाजल के बारे में वे क्या कहते हैं ?

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

बगैर उर्दू की मुहाविरेदानी के ग़ज़ल कही जा सकती है. लेकिन क्या वो ग़ज़ल होगी ? स्वयं अदम ने ही शुद्ध हिन्दी में ग़ज़लें कही हैं-

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

लेकिन,उनकी प्रभावी ग़ज़लें वही हैं जिनमें उर्दू तग़ज़्जुल का लबो-लहज़ा क़ायम है. ये बात और है कि उनकी भाषा क्लिष्ट नहीं होने पाती है. प्रेमचंदी हिन्दुस्तानी,जो गँवई-गँवार की, आम-अवाम की भाषा भी है,अपने रचाव और अनुभूति की तीव्रता से व्यंग्य की मारक क्षमता बढ़ाती है.

कहीं फागुन की दिलकश शाम फ़ाकों में गुज़र जाए
मेरा दावा है इसके हुस्न का जादू उतर जाए
तख़य्युल में तेरे चेहरे का ख़ाका खींचने बैठे
बड़ी हैरत हुई जब अक्स रोटी के उभर आए
     
अदम के यहाँ पहले तो व्यवस्था पर चोट है फिर श्रम की महत्ता है. किसान-मज़दूर की पक्षधरता है. जनता की शक्ति पर यक़ीन है क्योंकि वे प्रतिबद्ध,पार्टी कैडर हैं. बदलाव के लिए वे हथियार उठाने तक को तैयार हैं. सबसे मारक है व्यंग्य ! जो तिलमिलाने पर मजबूर करता है. व्यंग्य इसलिए भी मजबूत है क्योंकि उनकी कर्मभूमि अवध है और मातृभाषा अवधी है. अवधी भाषा अपने सामान्य वार्तालाप में ही व्यंग्यात्मक है लिहाज़ा अवधीभाषी अच्छे व्यंग्य करते हैं. व्यंग्यात्मकता अदम के शेरों में चिंगारी की तरह व्याप्त है. उदाहरण के लिए कुछ शेर देखे जा सकते हैं-

जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

कुछ राजनीतिक और अत्यंत चर्चित,संसद-विधानसभा तक में कहे-सुने जाने वाले व्यंग्यात्मक शेर-

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
कोई भी सरफिरा धमका के जब चाहे ज़िना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

कहीं-कहीं व्यंग्य में इतनी सघन संवेदनात्मकता है कि पाठक-श्रोता को द्रवित कर दे, ऐसी अनुभूतियों को कविता में लाने का कारण हृदय को टूटने से बचाने का अंतिम उपाय होता है. आख़िर तंज़ भी दिल टूटने से बचाने की एक तरक़ीब है-   

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी
ये सुबहे-फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है

पीलापन उदासी का प्रतीक है. बौद्धों ने अपने दु:खवाद को प्रदर्शित करने के लिए पीले रंग का परिधान चुना. बीमार पत्नी का पीलापन एनीमियाग्रस्त ग़रीब गर्भवती भारतीय औरत का पीलापन भी हो सकता है और पीलियाग्रस्त बच्चे का भी ! यही पीलापन उर्दू के कीट्सकहे जाने वाले मजाज़ के यहाँ भी दिखता है. महवे-यास होने की शिद्दत से भरा पीलापन- जैसे मुफ़लिस की जवानी,जैसे बेवा का शबाब. ज़र्द आँख के आँसू पीले होते हैं. दुष्यंत किसी की आँखों के जंगल में राह भूल जाते थे,वह जंगल ज़रूर पीला रहा होगा. रॉबर्ट फ्रॉस्ट के जंगल की तरह...Two roads diverged in a yellow wood..!                  

रजनीश या ओशोजो भारत के आध्यात्मिक गुरुओं में शुमार होते रहे हैं. उनके आश्रम में योग से भोग तकके पर्दे में होने वाले व्यभिचार को अदम ने अपने कई शेरों में निशाना बनाया है. कहा जाता है अदम ओशोका आश्रम अपनी आँखों से देखकर आए थे.

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब
अथवा,

प्रेमचंदकी रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके
ये ओशो के अनुयायी हैं कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे 
दोस्तों अब और क्या तौहीन होगी रीश की
ब्रेसरी के हुक पे ठहरी चेतना रजनीश की

    

अदम उसी प्रकार पीड़ा से परिहास करते हैं जिस प्रकार ग़ालिब जैसे उर्दू के बड़े शाइरों ने अपनी शाइरी में किया है. भूख अदम के यहाँ सबसे बड़ा सच है. भूख तमाम ज्ञान की जननी है. बड़े-बड़ों को ज्ञान भूख से मिला. भूख उनकी हर ग़ज़ल में आई है अपने उसी भयानक रूप में जिस रूप में वह भारत की सत्तर फ़ीसदी आबादी का सत्य रही है. शायद इसीलिए अदम के बहुत से शेरों में भूख बार-बार चीखती है-

इन्द्रधनुष के पुल से गुजरकर उस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है
   कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गयी शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में
   ज़ुल्फ,अँगड़ाई,तबस्सुम,चाँद,आईना,गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब
भुखमरी की जद में है या दार के साये में है
अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साये में है
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

भूख बाइसे-बग़ावत बनेगी यह भरोसा भी शाइर को है-
  
सत्ता के जनाज़े को ले जाएँगे मरघट तक
जो लोग भुखमरी के आगोश में आए हैं      
  
इसीलिए वे भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलने की बात करते हैं-

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

इसीलिए उन्हें गर्म रोटी की महक पागल कर देती है. गंध की कितनी मादक अनुभूति है, ऐसी भी तरक़्क़ीपसंद शाइरी कहीं होगी क्या ?

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

अदम गँवई-गँवार के अगुवा, अलमबरदार कवि हैं इसलिए वे श्रम की महत्ता जानते हैं. इसीलिए किसान के श्रम की फ़िक्र भी है और झोंपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार करने की कोशिश भी है. दुनिया में जो कुछ भी सुंदर है वह श्रम से निर्मित हुआ है. किन्तु मेहनतकश को जब उसके श्रम के एवज़ में भुखमरी के सिवाय कुछ नहीं मिलता तो अदम की शाइरी अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहती है-

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगलों में आई है

यहाँ तक सभ्यता का निर्माण भी घीसू के पसीने से ही हुआ है-

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

गाँव के अमानुषिक वातावरण, ग़रीबी, भुखमरी, शोषण, दमन सबको देखने की बारीक़ निगाह अदम में है इसीलिए वे जनकवि हैं. सरयू नदी की बाढ़ का कैसा जीवंत चित्र है इस शेर में,जो हश्र (प्रलय) का प्रभाव पैदा कर रहा है-

कितनी वहशतनाक है सरयू की पाकीज़ा कछार
मीटरों लहरें उछलती हश्र का आभास है

गाँव के बारे में,महानगरों में बैठकर आँकड़े जुटाने और बनाने वाले लोगों को यह ख़बर नहीं है कि कितने लोग गाँव छोड़कर शहरों की ओर कमाने निकल गए हैं. विस्थापन की यह पीड़ा और लाचारी कैसी होती है,यह महानगरीय अफ़सरशाही और मध्यवर्गीय हिप्पोक्रेसी की पहुँच से दूर की बात है.

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
हमारे गाँव का गोबरतुम्हारे लखनऊ में है
जवाबी ख़त में लिखना किस मोहल्ले का निवासी है

सिर्फ एक प्रतीक के रूप में प्रेमचंद के किसान जीवन पर लिखे गए महाकाव्यात्मक उपन्यास गोदानके पात्र गोबरका प्रयोग करने मात्र से शेर कितना प्रभावी और वज़न हो गया है. गोदान का थोड़ा सा सत्व ही इसमें निचुड़कर आ गया है. अपसंस्कृति, साहित्यकारों की खेमेबाजी और हवाई साहित्य, सांप्रदायिकता, लालफ़ीताशाही, पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश, क्रांतिधर्मा चेतना और राजनीतिक अगुवाकारी की विफलता से जन-सामान्य में उपजा संत्रास अदम की ग़ज़लों का बीज-भाव है. सर्वत्र विद्रोह और नकार, प्रतिरोध और मुक्ति की कामना उनके शेर-शेर में व्यंजित होती है.

जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
ये बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

परिवर्तन की ये उद्दाम चाह जीवन में तमाम मानसिक और भावनात्मक यातनाओं से गुज़रने के बाद पैदा होती है. ये हिन्दी ग़ज़ल का मिज़ाज भी रही है,दुष्यंत भी यातनाओं के अँधेरे में सफ़रकरते थे. यह अँधेरा अदम के यहाँ और स्पष्ट है लेकिन,प्रकाश के साथ-

अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है
सहज अनुभूति के स्तर में कविता जन्म पाती है

धर्म, इतिहास और शास्त्र का नकार बहुत कड़े शब्दों में है,शायद दलितों के हवाले से-

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहाँ शंबूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

कुल मिलाकर अदम की ग़ज़लें उस हिंदुस्तान का साफ़ नफ़ीस आईना हैं जहाँ रहकर उन्होंने अपनी ग़ज़ल को रवानी दी है. और जिन पर मुख़्तसर चर्चा पर्याप्त नहीं है.

दिल लिए शीशे का देखो संग से टकरा गयी
बर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल

अदम की कुछ नज़्में भी हुई हैं. गिनती भर की. नज़्मों में चमारों की गलीनज़्म अधिक मजबूत है क्योंकि इसमें दलित-चिंतन के साथ एक कथानक भी है. चमारों की गलीदलितों के शोषण और सामंती सवर्ण जातियों द्वारा उन पर ढाये गए ज़ुल्मों का बयान करने वाली रचना है. लोकतंत्र के मास्क में छुपे भारत के सत्तरसाला भ्रष्ट सवर्णतंत्र को यह रचना बरहना करती है. बरहनागो तो अदम हैं ही ! पचपन पदों वाली इस रचना में कृष्णा नाम की एक दलित लड़की की करुण कहानी है जिसके साथ गाँव ही के ठाकुर ने बलात्कार किया है. और पुलिसिया दमन का सामना भी पीड़ित और उसके परिवार को करना पड़ रहा है. कहते हैं यह रचना अदम के गाँव में घटी एक घटना पर आधारित है जिस पर पुलिस, मीडिया और प्रशासन का ध्यान नहीं गया था. ठाकुरों की सामंती ठसक और पुलिस की भ्रष्ट छवि को उजागर करती यह रचना अपनी भाषा, शैली और कथ्य में भी ठोस है. रचना के पहले ही बंद में एक विशिष्ट ओज है-

आइये महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को


दलित लड़की कृष्णा के लिए उन्होंने यूरोपीय नवजागरण काल के चित्रकार लिओनार्दो द विंचीके प्रसिद्ध चित्र मोनालिसाका प्रतीक प्रयोग किया है जो अपनी सादगी के बावज़ूद चित्रकला के इतिहास में कालजयी रचना है-

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार की मोनालिसा

सरयू पार की मोनालिसामें कला का एक अनूठापन है जो साधारण होकर भी असाधारण है. गोंडा के ग्रामीण परिवेश में मोनालिसा की परिकल्पना कितनी सौंदर्यात्मक है और यही अदम की कला का उरूज़ है. मोनालिसा की मुस्कान के पैमाने से दलित लड़की कृष्णा के सौंदर्य को मापने का यह तरीका कवि की कल्पना का उत्कर्ष है. और छंद का आयाम भी क्या ख़ूब है. ज़िंदगी के ताप को महसूस करने के लिए चमारों की गली तक अदम ख़ुद ही नहीं जाते साथ में अपने श्रोता-पाठक को भी ले जाते हैं. गाँव का परिवेशभी एक ऐसी ही नज़्म है. अड़तीस पदों की यह रचना गाँव के परिवेश के जीवंत चित्र खींचती है-

व्याख्या ये भ्रम में रखने का अनोखा दाँव है
नर्क से बदतर तो अपने देश का हर गाँव है

इस कविता की ये पंक्तियाँ भारतरत्न अंबेडकर के उस कथन की याद दिलाती हैं जिसमें उन्होंने भारतीय गाँवों को अमानुषिक जातीय भेद-भाव का नर्क कहकर दलितों को शहर की ओर जाने की बात कही थी.
     
फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा है,अलग़रज ग़ज़ल बहुत दिक करने वाली चीज़ है.बिना दिक हुए ग़ज़ल कही जा सकती है क्या ?ग़ज़ल कहते बहुत लोग हैं लेकिन क्या वो ग़ज़ल ही होती है ?ग़ज़लगो का काम वकालत का पेशा होता है. मिसरे-उलामें वह अपनी दलील देता है और मिसरे-सानीमें उसकी वकालत करता है. ग़ज़ल मुहाविरे से बात करती है और उर्दू की चीज़ है इसलिये उर्दू से दूर रहकर ग़ज़ल को नहीं पाया जा सकता. हिन्दी के कई ग़ज़लकार इसीलिए फ्लॉप हुए. अदम से पहले दुष्यंत ने भी इस बात को बखूबी समझा था और उनकी ग़ज़लगोई हिन्दी ग़ज़ल के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई. अदम,दुष्यंत से और आगे गए हैं. उन्होंने न केवल उर्दू और बोलचाल की हिन्दुस्तानी के मुहाविरों को चुना है बल्कि क्लासिक उर्दू शायरी के प्रतीक भी अपनी ग़ज़लों में  इस्तेमाल किए हैं. उदाहरण के लिए यूसुफ़और ज़ुलेखाप्रतीकों को लेते हैं. उर्दू ग़ज़ल की परंपरा में इन प्रतीकों का अपना विशिष्ट महत्व है. इनका धार्मिक महत्व भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. अदम शेर कहते हैं-

सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेख़ा के इशारों पर
हक़ीक़त ये है यूसुफ़ आज भी नीलाम होता है

उर्दू के इन परंपरागत प्रतीकों के प्रयोग से शेर लाजवाब हो गया है. युसुफ़-ज़ुलेख़ा का क़िस्सा भी क्या क़िस्सा है ! पैग़ंबर याक़ूब के बेटे यूसुफ़ को मिस्र के बाज़ार में बिकना पड़ा था. ज़ुलेख़ा उन पर आशिक़ थी और उसकी आशिक़ी ने उन्हें क़ैदख़ाने तक पहुँचाया. उर्दू शाइरी में यूसुफ़ हुस्न और सदाचार के प्रतीक हैं. और कैसे-कैसे प्यारे शेर उन को प्रतीक बनाकर लिखे गए हैं.  

मिसाले-दस्ते-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है
ये दिल भी दामने-यूसुफ़ है चाक चाहता है (अहमद फ़राज)
आबगीनों की तरह टूट गया टूट गया
ख़्वाबे-यूसुफ़ में ज़ुलेख़ा का भरम आप ही आप (फ़े सीन एजाज़)
दुनिया में फ़क़त एक ज़ुलेख़ा ही नहीं थी
हर यूसुफ़े-सानी के ख़रीदार मिले हैं (हकीम नासिर)
हुस्न क्या जिसको किसी हुस्न का ख़तरा न हुआ
कौन यूसुफ़ हदफ़-ए-क़ैद-ए-ज़ुलेख़ा न हुआ (रशीद क़ौसर फ़ारुक़ी) 

सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेख़ा के......... अदम के इस शेर में प्रतीक वही क्लासिक ग़ज़ल परंपरा के यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा हैं लेकिन यहाँ आकर उनके मानी बदल गए हैं. ज़ुलेख़ा पूँजी का प्रतीक है और यूसुफ़ जनका. सत्य ये है राजनीति की महफ़िल में ज़ुलेख़ा-पूँजी के इशारों पर यूसुफ़-जन आज भी नीलाम होता है.उर्दू शायरी की परंपरा का एक ऐसा किरदार जो आध्यात्मिक प्रेम, प्रिय के सौंदर्य और सदाचार के लिए प्रयुक्त होता आया है अदम ने उसे जन के लिए प्रयोग करके उसके भोलेपन और निरीहता को स्थापित किया है. 

अदम की ग़ज़लों की कलात्मकता सिर्फ़ भाषा, मुहाविरों और शेर की रवानी के आधार पर नहीं आँकी जा सकती. शेर की गहराई की थाह उनकी बारीक़ निगाही से भी नापी जा सकती है. एक किसान के तजुर्बात प्रगतिशील कविता के लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं यह अदम के निम्नलिखित शेर बताएँगे-
 
 बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में 
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

रमसुधी की झोंपड़ी का सरपंच की चौपाल में खो जाना उसी तरह की प्रक्रिया है जैसे जमींदारी उन्मूलन के दौरान प्रारम्भ की गयी सीलिंगयानी अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम.इस क़ानून के तहत जिस किसी के भी पास साढ़े बारह एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि थी, सरकार द्वारा उसका अधिग्रहण कर भूमिहीन किसानों में बाँट दिया जाता था. यह कानून 1960 ई॰ में आया था लेकिन इसके क्रियान्वयन में जो भ्रष्टाचार राजस्व कर्मियों और जमींदारों की साँठ-गाँठ से हुआ उसको नंगा करने के लिए अदम ने उपर्युक्त शेर कहे. यह वही दौर था जब जमींदारों ने गर्भ के बच्चों के नाम भी अपनी ज़मीनों के पट्टे करा दिये थे और भूमिहीनों को बक़ौल अदम पट्टे की सनद ताल (तालाब) में मिलती थी. वे उसमें खेती कर पाएँ तो करें नहीं तो कूदकर आत्महत्या कर लें. यह जो बात कहने का चुटीला और चमकता हुआ ढंग है यह अदम की ग़ज़ल का कलात्मक मेयार ऊँचा करता है. इसी तरह अदम ने कई शेरों में नख़ासशब्द का इस्तेमाल किया है. लखनऊ की विक्टोरिया रोड पर प्रत्येक रविवार को लगने वाली लगभग दो सौ वर्ष पुरानी बाज़ार को नख़ास की बाज़ारकहा जाता है. जहाँ प्रत्येक वस्तु की सस्ती सेकेंड हैंडउपलब्धता प्रसिद्ध रही है. अपने शेर में व्यंग्य की धार तेज़ करने के लिए नख़ास की बाज़ारको अदम इस तरह प्रयोग करते हैं-

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

ये अदम की ग़ज़लगोई की अलहदा नज़ीर है. भाषा के भी विविध आयाम अदम की ग़ज़लों में दिखते हैं एक तरफ तो वे कहते हैं-

अर्ध तृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्य पर विरह दग्ध उच्छ्वास लिखा है
तो दूसरी ओर-

बहरे-बेकराँ में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाये सफ़ीने से

उर्दू शायरी का कोई क़द्रदान यह नहीं कह सकता कि उपरोक्त शेर उर्दू का नहीं है. यहाँ सफ़ीने शब्द पर भी गौर करना होगा जो एक धार्मिक इस्लामी प्रतीक है और हिज़रत से जुड़ा है. भाषा के प्रयोग के लिए अदम आने वाले दिनों में और भी ख़ास हो जायेंगे. ऐसी भाषा हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद जैसों को ही सधी थी और यह भी इत्तेफ़ाक है कि अदम बार-बार अपने शेरों में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के पात्रों को बुला लेते हैं. घीसू, होरी, धनिया, मंगल,गोबरके साथ-साथ एक स्थान पर रेणु का हीरामनभी आया है.

हीरामन बेज़ार है,उफ़ ! किस कदर मंहगाई है
आपकी दिल्ली में उत्तर-आधुनिकता आई है   

उर्दू शायरी के तमाम प्रचलित अरबी-फ़ारसी कचराही शब्द अदम ने जमकर प्रयोग किए हैं. जैसे- रजअत, इलहाम, ज़दीद, इज़ारेदार, कुदूरत, नीलगूँ, जाफ़ाश, ज़द, शफ़क़त, गरानीपैहम, हैय्यत,रवायतआहनी, खुदसरी,तबीब, मरदूद,बेज़ार, फ़ैसलाकुन, फ़सील, जाँफ़िशानी, लन्तरानी,महकार, मर्तबा, इदारा, फ़र्द, क़बा, शिगूफ़ा, नीलोफ़र, रकाबी, बरहना, ज़िना, तमद्दुन, बहरे-बेकराँ, तख़य्युल, शीराज़ा, दहकान, गंदुम आदि. ये सभी शब्द क़स्बाई और कचराही मिठास रखते हैं. इज़ाफ़त जो थोड़ी-बहुत अदम के शेरों में मिलती है वह उर्दू ग़ज़ल से प्रेरित है. बोलचाल के शब्दों और मुहाविरों का निखरा हुआ रूप है. मुहाविरे हिंदी और उर्दू  दोनों के खिले हैं जैसे- बापू  के बंदर, फ़ैसलाकुन ज़ंग, कल तलक, वक़्त के सैलाब, साहिबे किरदार, आग का दरिया, ठंडा चूल्हा, रँगीले शाह का हम्माम, आँख पर पट्टी, अक़्ल पर ताला, तालिबे-शोहरत, जाये भाड़ में, ख़ुदा का वास्ता, शिगूफ़ा उछालना, ढ़ोल पीटना, ढीला गरारा, तवज्जो दीजिए, जहन्नुम में, शीराज़ा बिखर जाये, दीगर नस्ल, ग़रीब की आह, रामनामी ओढ़कर आदि.
     
ठेठ देहाती,गँवई-गँवार अवधी के मुहाविरे भी मिलते हैं जैसे- पट्टे की सनद, खेतों में बेगार, दीवार फाँदने में (किसी की बहू-बेटी के प्रति बुरी निगाह या व्यभिचार सूचक), कुर्वोजवार, सोलह-उन्नीस, आक-थू आदि. अंतर इतना है कि मूल मुहाविरों को ग़ज़ल की बंदिश के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तित कर लिया गया है. अंग्रेज़ी के शब्द भी कहीं-कहीं प्रयोग किए गए हैं मसलन- जजमेंट, रिकार्ड, ब्रेसरी, स्कॉच आदि. साहित्यकारों के नाम और उनके साहित्य के बारे में क़सीदे के शेर भी अदम ने कहे हैं. अमृता प्रीतम और प्रेमचंद में उनकी अगाध श्रद्धा है. मंटो और मुद्रराक्षस को भी उन्होंने अपने शेरों में याद किया है. कहीं-कहीं व्यंग्य की बारंबारता मोनोटोनी (नीरसता) पैदा करती है और रचनात्मक व्याकरण भी कभी-कभी बिखर जाता है. लेकिन बहर से ख़ारिज़ होने के बावज़ूद शेर दहाड़ता रहता है.    
     
जनोन्मुखी साहित्य उम्रदराज़ होता है. अदम ने बहुत थोड़ा सा कहा और वह बहुत सुना गया. अल्फ़ाज़ की चिंगारियों की तुर्शी के साथ,निश्चय ही अदम की शाइरी आने वाली पीढ़ी की रहबरी को आकुल रहेगी. उनमें व्यवस्था को बदल डालने की जो बेचैनी है वह मिट्टी की महक से मह-मह महकती रहेगी. क्योंकि बक़ौल अदम-

इसकी अस्मत वक़्त के हाथों न नंगी हो सकी
यूँ समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी ग़ज़ल  
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संतोष अर्श (1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह फ़ासले से आगे, ‘क्या पताऔर अभी है आग सीने मेंप्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्षत्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी 

poetarshbbk@gmail.com 

सहजि सहजि गुन रमैं : विनोद पदरज

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पेंटिग : लाल रत्नाकर

















हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद पदरज की कविताओं की दुनिया लुटते–पिटते-घिसटते जीवन की आपाधापी में मुब्तिला आम आदमी की दुनिया है. यह बच्चे जनती-पालती-दुलराती-खटती-मार खाती आम स्त्री की भी दुनिया है. कविताएँ जमीन से उठती हैं पर यहाँ लोक अलंकार नहीं है वह यातना है.  विनोद की आठ कविताएँ.   




विनोद पदरज की कविताएँ                                                            


मुम्बई

गाँवों में खेत हैं
खेतो में अन्न
गाँवों में कुँए हैं
कुँओं में जल
गाँवों में वृक्ष हैं
वृक्षों पर फल
फिर भी रोटी ?
रोटी है मुंबई में

जनता एक्सप्रेस के दूसरे दर्जे की ठसाठस बोगी में
कसाई की बकरे की तरह ठुँसा हुआ
वह दोस्तों का प्यारा
पिता का दुलारा
माँ की आँखों का तारा
मुम्बई जा रहा था

किसे चाहिये गोश्त लजी़ज़
दस्तपुश्तचाँपकलेजी
और सिरी ठोस
किसे चाहिये

यह एक अदृश्य हाथ था
जिसने उसे सतोल कर
बोगी में फेंक दिया

जब वह मुम्बई के खयालों में खोया था
मैंने उसे हाँडी में खदकते देखा.



जो अभी तक हँस रहा है

लकदक वस्त्रों में
गाड़ियोंबंगलों में
कोई नहीं था ऐसा
जो हँसता हो-वैसी हँसी
पहाड़ी झरने जैसी

यह एक गड़रिया था
अनथक यात्रा के बाद
रेवड़ के बीचों बीच
खिले हुए छीले सा खड़ा हुआ
कि कैमरे को देखकर
खिलखिलाकर हँस पड़ा

पर्यटन विभाग की सुचिक्कन पत्रिका के पृष्ठ पर
छपा है यह चित्र
रंगीलो राजस्थान

जो अभी तक हँस रहा है
उसे नहीं पता
कि उसकी कपोत हँसी को
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया गया है.



कृषक मेध

जब भी कोई किसान
अपनी जोरू को पीटता है-

‘‘मालजादी
हरामजादी
राँध नहीं सकती भाजी
चुपड़ नहीं सकती थी क्या
सूखे टिक्कड़ फेंक दिये
जैसे कोई कुत्ता हूँ मैं।’’

और फिर लाचार पर
लातघूसाथप्पड़लाठी ताबड़तोड़
रात के अँधेरे में उठता है आर्त स्वर
धेनुएँ रोती हैं
रोते हैं बैल
हल और कुँए
अन्नपूर्णा धरती रोती है जार जार

चीख चीख कर टिटहरी
अंडों पर बैठ जाती है
आसमान से झरती है
बूँद बूँद ओस.



उत्सव में औरतें

उत्सव में आई हैं वे औरतें

पाउडर की घनी पर्तों के पीछे भी
नहीं छिप सकी हैं
आँखों की तलहटी की कालिख
होंठ हँसते हैं पर मन उदास हैं

कहाँ खो गईं इनके भीतर की वे लड़कियाँ
जिनकी किताबों में मोरपंख दबे थे
जो मेघों की छाँह में
खूब दूर दूर तक दौड़ना चाहती थीं
बालुई रेत पर

जिन्हें हम खरगोश और चंचल हिरणियाँ कहते थे
उनका आखेट कर लिया गया

वे लकदक वस्त्रों में हैं
जिन्हें खरीदने को ही
उन्होंने सुख समझा
और भूल गईं
कि किस सूर्य के ताप से
हौले हौले खिलती थीं
आत्मा की कली
किस मेघ के नाद से
आँखों के घौंक हरे हो जाते थे

यूँ तो कहती हैं वे
कि उन्होंने किसी से प्रेम नहीं किया
मगर उनकी पीठ पर नील पड़े हैं
जिनसे पता लगता है
कि बरसों बाद भी
सोते में कभी-कभी कोई नाम
उनके होठों से
हरसिंगार के फूल जैसा झर जाता है.




नई नई

घर में दूध नहीं था
पर वह चाय बना लाई

घर में चून नहीं था
पर उसने रोटियाँ बनाई

घर में साग नहीं था
पर उसने सब्जी पकाई

इस पर भी बिना नागा
धुत्त धणी की मार खाई

चिड़ा लायगा मूँग
चिड़ी चावल
दोनों प्रेम से पकायेंगे
खायेंगे
बच्चों को डैनों तले दुबकाकर
गरमास में डूब जायेंगे

कैसा सुंदर सपना था !
कैसी विकट सचाई !!

भायली से मिलके रोई बहुत
माँ बाप के आगे
बहुत खिलखिलाई.




जिन स्त्रियों ने मुझे पाला

जिन स्त्रियों ने मुझे पाला
वे खूबसूरत नहीं थीं
पर सुंदर थीं

उनके हाथ पाँवों की खाल
जैसे आँधीपानी और धूप का प्रहार झेलते
बबूल की छाल
चिड़ियों के घोंसलों से उनके बाल
उनके दाँत
किंचित उजले किंचित ज़र्द
(बीड़ियाँ जो पीती थीं)
उनके लीर लीर लत्तों पर
जमाने की धूल और गर्द
फिर भी हँसी
जैसे धरती के कलेजे से लगकर
खिली शंखपुष्पी

वे जब लड़तीं
आँधी में पेड़ हो जातीं
और प्रेम करतीं
तो बारिश में पेड़

हक़ीक़त में अमृत का
अटूट कुण्ड थीं वे
जो शीत में निवाया रहता
और ग्रीष्म में ठण्डा टीप

पर उनके दुख की कथा अलग है

भीतर तक भर जाने पर
वे मुझे मारतीं पीटतीं गालियाँ देतीं
फिर छाती से चिपटाकर
जोर से डकरातीं
थोड़ी देर को ही सही
पर शिला बर्फ की
पिघल पिघल जाती

ऐसी ही स्त्रियों ने मुझे पाला
जैसे अधर में लटकी
अहर्निश चकरधिन्नी
तदपि सुजलाम सुफलाम पृथ्वी ने
हमें पाला.




पणिहारी का नया गीत

पणिहारी
तेरी कमर के लचके तो सबको दिखते हैं
पर माथे पर धरी
भरी जेगड़ का बोझ
किसी को नहीं दिखता

पणिहारी तेरी अचक चाल से हलर मलर
लहँगा तो सबको दिखता है
पर दाझते पाँवों के छाले
किसी को नहीं दिखते

पणिहारी
तेरी उँगलियों की फाँक में से झाँकती
कामणगारी आँखें तो सबको दिखती है
पर उनमें घुमड़ती दुख की घटाएँ
किसी को नहीं दिखतीं

पणिहारी
तेरे परेंडे का पानी तो सबको
मीठा और ठण्डा लगता है
पर कितना मर मर के माटी
मटकी रूप धरे है
आठों पहर झरे है
किसी को नहीं दिखता
किसी को भी नहीं.




गुदड़ी

हमारे घर की खपरैल पर
सूख हरी है वह
धूप में चमकती

इसे किस रंग की कहें
हरा घिसते घिसते
हरे का धब्बा रह गया
और आसमानी धुलते धुलते
आसमानी जैसा कुछ
फिर भी कोई तो रंग है इसका
शायद वही
जो इन्द्रधनुष का है

इसके अंतस्तल में
हमारे पुरखों की कमीजे़ं
बंडियाँकुर्ते
जनानी मर्दानी धोतियाँ
और ऊपरआँखों की तरह ताकती
मेरी माँ की वह लूगड़ी
जिसका पल्लू पकड़े पकड़े
घूमा करता था मैं घर में

इसे फटने नहीं दिया गया
जब भी ज़रूरत हुई
तागा नए सिरे से
हर पीढ़ी ने अपनी तरह
कि अब तो
धमनियों शिराओं जैसा धागों का जाल है
कहना बड़ा मुश्किल है
कि कौनसा धागा कहाँ से शुरू हुआ
कहाँ पर खत्म

जब भी मैं इस पर बैठता हूँ
जाने क्या हो जाता है

कभी कच्चा माँस खाते देखता हूँ खुद को
कभी चकमक पत्थर से आग जलाता हूँ
कभी फसल उगाता हूँ
खुसरों की लोरी को
सूर के पदों में मिलाकर गाता हूँ

अभी कल का किस्सा सुनिये
किसी राजा की सवारी निकल रही थी
कि खड़ा था मैं किनारे पर
सिर पर जूतियाँ धरे
खम्माघणी अन्नदाता खम्माघणी
कहता हुआ

और एक दिन तो हद ही हो गई
मैं मोहनजोदड़ों के स्नानागार में नहाने चला गया
कि कुछ घुड़सवार आये
और मुझे पकड़ कर ले गये

न जाने कितनी स्मृतियाँ हैं
कितने खून,पसीनेऔर नींद और रतजगों का
गड्डमड्ड संसार

यकीन मानिए आप
इसी में लाल छिपे हैं.
_____________________________

विनोद पदरज
13 फरवरी 1960 (सवाई माधोपुर )

कोई तो रंग है (कविता संग्रह)
सामान रखने के  लिए नहीं बना हूँ मैं (कविता संग्रह) बोधि प्रकाशनजयपुर से शीघ्र प्रकाश्य
राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए हिन्दी कवि अम्बिका दत्त पर केन्द्रित मोनोग्राफ  का सम्पादन.

सम्पर्क 
3/137, हाउसिंग बोर्डसवाई माधोपुरराजस्थान 322001
मो. 9799369958

सबद - भेद : अमृता प्रीतम : विमलेश शर्मा

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अमृता प्रीतम (1919-2005)का लेखन बहुत विस्तृत है. उनकी कविताओं ने जहाँ पंजाबी कविताओं को पहचान दी वहीं उनके कथा लेखन में वह खुदमुख्तार स्त्री नज़र आती है जो स्त्रियों के तमाम प्रश्नों पर बेखौफ होकर मुखर है. उनके पास एक मुलायम दिल है जो प्रेम में है. 


विमलेश शर्मा का आलेख अमृता के लेखन पर केन्द्रित है और बहुत ही रचनात्मकता से उनके लेखन की विशेषताओं से परिचय कराता है. 

दर्द, चिंगारियाँ और आग                                              
(संदर्भ-अमृता प्रीतम)
विमलेश शर्मा



मृता अपनी लाज़वाब औऱ पुरअसर रोशनी से आपके मन के नीले पर दस्तक देती है. परचमों के जाने कितने बंद हैं जो इस एक लेखनी में समा आएँ हैं. स्त्री जीवन को किस तरह कतरा-कतरा जीती है, किस तरह संवेदनाओं के बियाबान में प्रेम के सबसे नाजुक फूलों को सहेजती है, यह कहीं से जानना है और साहित्य में अगर उसके निशान टटोलने हैं तो अमृता प्रीतम उस बियाबां में अपनी रचनाओं के साथ किसी कोने में सबसे तेज चमकती हुई सी नज़र आती है. स्त्री मन जाने कितनी वेदना और उच्छवासों के रूप में यहाँ उलटता हुआ नज़र आता है. वो खामोश नज़रों से इतिहास को देखती है औऱ औरत की दासता की बेज़बानी में खो जाती है. वो जाने कितनी-कितनी टूटी दस्तकों को अपने लेखन में आवाज़ देती है. वह जानती है कि तलाक सचमुच झांझर की मौत होती है और औरत के जीवन में उसकी ही मुस्कुराहटें और खनक जाने कितनी कैदों में कैद होती रहती है. वो हमारे समाज में हिकारत से देखे गए और स्त्री जीवन की त्रासदी कहे जाने वाले शब्दों तलाक औऱ वैश्या पर पूरी संवेदनशीलता और बेबाक लिखती है कि ये तो केवल मन की अवस्थाएँ है, इन्हें जंज़ीरें कहना उचित नहीं. विवाह जैसी सामाजिक संस्थाओं और शुचिता जैसे मापदण्डों से इनका कोई लेना-देना नहीं है. सही मायने में तो स्त्री का मन ही है जो उसे कैद में रखता है . इसी के चलते वह एक कैद से मुक्त होती है औऱ दूसरी कैद उसे आ घेरती है. यह कैद कभी औलाद की होती है, कभी रिश्तों की तो कभी उस प्रेम की जिसे वह सांस दर सांस जीती चली जाती है.
  
दरअसल जीवन की जंजीरों में कैद साँसों का नाच देखने के लिए जो आँख चाहिए होती है वह इंसानियत की आँख होती है और वह आँख अमृता के पास थी. अमृता का लिखा सिर्फ अपने दर्द की सीमा में महदूद नहीं है वरन् वह सरहद पार बैठे बेगाने दर्द को भी उतनी ही शिद्दत, उतनी ही तीव्रता से छू लेता है, जैसे की कोई नरम हथेली माथे के ताप को. कई आलोचकों ने उस वक्त अमृता केइस लोकप्रिय लेखन को साहित्य से खारिज़ किया क्योंकि इससे स्त्री मनोभाव आग की भाँति दहक उठे थे और फिर अगर बात स्त्री की अपनी जबानी हो तो इस समाज के लिए चीजें आसानी से ज़ज्ब करना और मुश्किल हो जाता है. परन्तु  साहित्य वही है जो समस्त खाँचों और दायरों से मुक्त होकर साधारणीकृत होने की कुव्वत रखता हो. जहाँ हर मन अपने भीतर के अंगारे को उस आँच के भीतर कुंदन बनता देखता हो, आँसुओं के निर्झर के भीतर लफ्ज दर लफ्ज़ गुज़रता हो , साहित्य का और कोई मानक फ़िर क्या हुआ जा सकता है भला.

अमृता की संवेदनशील रचनाधर्मिता लोकप्रियता ने सभी आलोचकों का मुँह खुद ही बंद कर दिया था. अमृता को पढ़ते हुए ख़ुद को बारहा संभालना पड़ता है, दिल के रेशे-रेशे को सहेजना पड़ता है, क्योंकि पाठक को खुद नहीं मालूम होता है कि जाने कब आँसुओं का सैलाब वो सब कुछ बहा ले जाए जो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपका है. समाज का दोमुँहापन किस प्रकार व्यक्ति को तोड़ता है,  पुंसवादी सोच किस प्रकार स्त्री को  समाज के  चौराहे पर बैठा देती है यह सत्य पूरी तल्ख़ी से अमृता अपनी रचनाओं में बयां करती है. प्रेम के सबसे नरम अहसासों को जीती स्त्री किस प्रकार छली जाती है, किस तरह वह जीवन के घात-प्रतिघातों और उतार-चढ़ावों को जीती है, इन सभी घटनाक्रमों को अमृता की रचनाएँ जीवंत रूप में  अभिव्यक्त करती है, उतनी ही सच्चाई और प्रामाणिकता के साथ कि मानो वह स्वयं इन सबकी प्रत्यक्षदर्शी रही हो.

स्त्री जीवन को हर युग में एक भोग का साधन माना गया है, चाहे राम हो या कृष्ण वे अपने अहं और रास से बाहर नहीं आ पाए हैं. शायद इसीलिए वे कहती हैं सतयुग मनचाही ज़िंदगीं जीने का नाम है, किसी आने वाले युग का नहीं...” (ख़तों का सफ़रनामा-सं.-उमा त्रिलोक) जाने कितने-कितने अल्फ़ाज है जो इस सदा रूदन्ती औषधि के लेप से तपकर इस लेखनी में आ बैठे हैं. एक-एक हर्फ़ मानों सदियों की कराह है. इस लिखें में जाने कितनी करवटें हैं तभी तो वह दर्द लिखते हुए कहती है-नज़्म लिखना, मन के वनों में जाकर, एक सघन झाड़ी की ओट में, बदन की केंचुली उतार देना है.. .अमृता ने स्त्री होने के तमाम दर्दों को प्रेम की आँच में तापकर सहा था. यही कारण है कि इमरोज़ औऱ अमृता एक जैसे जान पड़ते हैं. अमृता को पढ़ते हुए जाने कितनी बार आँसुओं ने सब्र के पहाड़ को तोड़ दिया है, उन्हें पढ़ना हर मर्तबा पहली बार पढ़ना ही होता है...कोरा, सौंधा या कि चाय की सबसे ऊपर वाली ढाई पत्ती सा एकदम तरोताज़ा...इसीलिए गंगाजल से लेकर वोदका तक उनको शब्दों की प्यास,तलब औऱ रूमानियत को महसूस किया जा सकता है. वह प्रेम के दरिया के पार उतरना नहीं चाहती थी, डूब जाना चाहती थी.

अगर पहले-पहल हम अमृता के नागमणि उपन्यास की बात करें तो यह उपन्यास अल्का और कुमार की प्रेमकहानी कम एक स्त्री की सात्विकता और पुरूष की कठोरता की कहानी अधिक लगती है. हर सामान्य पुरूष (समाज का अर्थशास्त्र यही कहता है) की ही तरह कुमार अल्का को केवल एक देहवादी नज़रिए से देखता है. वह उसका भोग करता है परन्तु उसे छिटक देता है. वह उसे अपने काम में बाधा समझता है ,दूसरी ओर अल्का प्रेम के उच्चों को छूती है . इसी मानसिकता के चलते कुमार परेशां फ़कीर की तरह दरबदर भटकता है तो अल्का उस दौलत की मिल्कीयत को लेकर, जिसे जितना अधिक ख़र्च किया जाय ,बढ़ती ही जाती है. उपन्यास की नायिका जीवन जीने के वस्तुवादी दृष्टिकोण के पीछे यही तर्क देती है कि-खुशी वस्तुओं में नहीं होती,खुशी मन की अवस्था में होती है. मैं वस्तुओं को सूँघ सकती हूँ,उनके पीछे पड़ सकती हूँ, पर मैं किसी के मन की अवस्था को कुछ नहीं कह सकती.(नागमणि-चुने हुए उपन्यास-अमृता प्रीतम-पृ.127)

नागमणि उपन्यास में जीवन का प्रखर यथार्थ औऱ गहन संवेदना दोनों है. अगर स्त्री संदर्भों में बात की जाय तो  बात ज़ेहन में उमड़ती है कि क्या कभी कुमार अल्का को उस की तरह प्रेम कर सकता है. जो पुरूष देह में अपने ताप को होम करना चाहता है, जो प्रेमिका को वेश्या औऱ डेविल जैसे अमानवीय शब्दों में और वैसे ही हास्यास्पद मनोभावों के साथ संबोधित करता हो क्या कभी वो प्रेम के उतने उच्च को छू पाएगा जो अल्का के माध्यम से कहानी में दर्शाया जा रहा है. कुमार से ज़्यादा समर्पित अल्का पर यहाँ तरस आ जाता है कि वह एक अहमंन्नय पुरूष के प्रति पूर्ण समर्पिता है परन्तु वह उस प्रेम का मोल नहीं समझ पा रहा. वह प्रेम को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक कैद मान बैठा है. अल्का सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ उस दिन का इंतज़ार कर रही होती है जब वह कुमार के लिए बाहर की वस्तु नहीं वरन् भीतर का भाव बन जाएगी. अल्का अपने इसी समर्पण औऱ कुमार के प्रेम में उसका हर निर्णय स्वीकार करती है,अगर मेरे एक विवाह से आपको संतुष्टि नहीं हुई तो मैं दो कर लूँगी, दो से भी नहीं हुई तो चार कर लूँगी . जितने आप कहेंगे कर लूँगी..(वही, पृ.152) आश्चर्य होता है कि प्रेम में बौरायी हुई यह लड़की थक कर बैठती नहीं ,हार नहीं मानती, क्योंकि उसे यकीं है कि कुमार एक दिन उसे ठीक उसी तरह अंगीकृत करेगा , जिस तरह वह उसे प्रेम करती है. उसे विश्वास है कि ज़िंदगी एक दिन करवट ज़रूर लेगी. प्रेम का जो रूहानी रंग अमृता पेश करती है वो आज के साहित्य में मिलना मुश्किल है. आज प्रेम एक विडियो चैट के मार्फ़त शुरू होता है. चंद अल्फ़ाजों में कैद होता है, चंद मुलाकातें होती है औऱ फ़िर वाष्पीकृत हो जाता है. नागमणि का कथानक जहाँ एक ओर कुमार के प्रेम के विरोधाभास को इंगित करता है तो दूसरी तरफ़ जगदीशचन्द्र के शिव भाव को बताता है. जगदीशचन्द्र के प्रेम का उच्च वहाँ है जहाँ वह कहता है कि प्रेम में देह, देह नहीं रहती. प्रेम सिर्फ़ वहाँ होता है, जहाँ सिर्फ़ मन का ऐक्य हो, जहाँ बस विस्तार को महत्व मिलता हो, किसी भी प्रकार के संकुचन को वहाँ स्थान नहीं. शायद इसीलिए अल्का उस की लौटती पीठ से माफ़ी माँगती है. अगर कुछ शब्दों में ही बाँधा जाए तो स्त्री की जीवटता, प्रेम करने के सामर्थ्य औऱ सहनशीलता की कहानी है नागमणि और उपन्यास का निचोड़ है ये चंद पंक्तियाँ-

"मेरे ख़याल में ज़िंदगी का रास्ता जिस्म की रोशनी में मिलता है!
"रोशनी मन की होती है - तन की नहीं!
"जिसके तन में मन रोशन हो वह जिस्म अंधेरा नहीं हो सकता!"– (अमृता प्रीतम-नागमणि उपन्यास)

अमृता का जन्म पंजाब में हुआ और बचपन लाहौर में बीता, यही कारण है कि उन्होंने भारत विभाजन का दर्द बहुत करीब से महसूस किया था . इनकी कहानियों और उपन्यासों में इस दर्द को पूरी गहनता और तीव्रता के साथ महसूस किया जा सकता है. सामाजिक दायरों में दबी पिसी स्त्री की कसमसाहट और वैवाहिक जीवन के कटु सत्यों का उद्घाटन  अमृता की लेखनी अनवरत करती चलती है . संभवतः यही कारण है कि इनका लेखन भारतीय समाज की कट्टरता का जीता जागता उदाहरण तो बन ही पड़ा है, साथ ही सीमा पार की सीमाओं को भी तलाश लेता है. जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि वह अपने पात्रों की संवेदनाओं को इतनी शिद्दत से जीती है कि स्व और पर का भेद मिट जाता है. उनकी कथाओं के पात्र परिवेश से बहुत निकट से उठा लिए गए हैं इसलिए जिस लोकप्रियता को अमृता ने छुआ उसे और कोई नहीं छू सकता था. उसे किसी ने ख्वाब कहा तो किसी ने अनलिखी नज्म जैसे कि वो लिखने के लिए हो ही ना सिर्फ़ , जीने के लिए ही हो. स्त्री जीवन के संघर्ष को जब वे बेबाकी से बयां करती हैं तो सिमोन की बगल में खड़ी नज़र आती हैं. उन जेहादी विचारों से उनके लिखे में वो गर्माहट आ जाती है जिससे वो कभी अपनी कूची को सुहागन रंगों से रंगती है तो कभी होली के रंगों से ...और यूँ हर्फ़ों में उकेरा हुआ उसका हर रंग कुछ और गहरा , कुछ और हरा हो जाता है . उसकी लेखनी में जाने कितने समंदर सांसे लेते हैं . वहाँ  कहीं उमर ख़य्याम की रूबाईयां है तो कहीं कई टूटी हुई उदास नज़्में. वह अपनी कविता में अपने लेखन की नमी को स्वय बयां करती हुई लिखती है-गंगाजल से लेकर वोदका तक, यह सफ़रनामा है मेरी प्यास का....(ख़तों का सफ़रनामा) यही सफ़र काव्यात्मक ढंग से उनकी हर रचना में आन खड़ा हुआ है.

अमृता साहित्य और आम रचना का फ़र्क बखूबी जानती थी, इसीलिए उसने कोरी भावुकता को वक्ती आँधियाँ कहा, जो साहित्य का कभी भला नहीं कर सकती. सीमोन की ही तरह अमृता स्त्री का दर्द और त्रासदी सब कुछ समझती है. बकौल प्रभा खेतान- लेखक की निर्मित दुनिया स्वयं उस लेखक को आत्मसात कर सके इसलिए अपनी चेतना पर आरोपित सभी परतों को छीलते हुए चलने पड़ता है, किंतु अत्यधिक आत्मसात् करने के पश्चात् भी हमारा तादात्म्य और एकीकरण प्रामाणिक नहीं हो पाता,भेद बना रहता है. स्व की सीमा का अतिक्रमण भी वही कर सकता है जो अपने सीमित दायरे के भीतर की दुनिया को पहचाने. नहीं तो सारा पाठकीय अनुभव आरोपित, किसी और के मानस का छीना हुआ टुकड़ा लगता है.(स्त्री उपेक्षिता पुस्तक के आमुख में प्रभा खेतान के विचार) 

अमृता प्रीतम स्व और पर की इन हदों को बखूबी जानती हैं इसीलिए वो कहती हैं –कई घटनाएँ जब घट रही होती हैं, अभी-अभी लगे जख़्मों सी होती हैं, तभी उऩकी कोई कसक अक्षरों में उतर जाया करती है.पढ़ते हुए लगता है कि हर दर्द की सूरत कमोबेश एक सी ही होती है , एक दिन कोई एक नाम वाला दुख ले दे रहा होता है, कल कोई दूसरे नाम वाला. पर शब्दों की स्याह ताकतें हर दर्द के माप को एक सा कर देती है. यही बात अमृता के लेखन में हर्फ़ दर हर्फ़ नज़र आती है. अमृता की कहानियों में  शाह की कंजरी,उस स्त्री की कहानी है जो नाच गाना करके गुजर बसर करती है.  शाह नामक एक रसूखदार व्यक्ति की नज़र जब उस  नीलम पर  पड़ती है तो  वो उससे प्रेम कर बैठता है. स्त्री पर अगर इस तरह किसी  काम का ठप्पा लग जाए जो कि समाज की दकियानूस मान्यताओं के विरूद्ध हो तो वह उसे रखैल जैसे संकुचित शब्दों की संज्ञा प्रदान करता है. नीलम यहाँ रखैल है पर ऐसी जिसने अपना जीवन और संवेदनाएँ शाह को समर्पित कर दिया है. इसी  बात और सौतिया डाह के मनोभाव को यह कहानी सहजता से दर्शाती है.

अंतरव्यथा(नीचे के कपड़े) कहानी वैवाहिक संबंधों की वास्तविकता की कलई खोलती है. इन संबंधों की जाने कितनी हकीकतें और रूदालियाँ हैं जो कितनी ही अलमारियों की खुफ़िया दराज़ों में बंद है. कहानी एक माँ की उस चिंता को स्वर प्रदान करती है जो अपने पुत्र के सामने गलत साबित नहीं होना चाहती. वह चाहती है कि पुत्र उसे उस प्रेम की ही नज़र से देखे जो उसने उससे किया है. यह भय माँ के मन में शायद इसलिए है कि पुत्र भी बड़ा होकर इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का ही अंग बन जाएगा. जिसकी नज़र में स्त्री की शुचिता, उसका समर्पण औऱ पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ ही उसकी प्रतिबद्धता तय करेगी. इसलिए वह कहानीकार के पास अपनी कहानी ले कर जाती है. वह उसके जीवन को लिपिबद्ध करने की माँग करती है, जिसे वो अपनी ज़िंदगी के उन बंद खतों के साथ बतौर कन्फेशन रख देगी.

जंगली बूटीअमृता की बहुत ही संजीदा कहानी है. जिसमें अँगुरी के भोलेपन ने प्रेम को सहज रूप प्रदान कर दिया है. कहानी में प्रेम की तुलना उस जंगली बूटी से की गयी है, जिसे कोई गर एक बार चख ले तो वो पराए हाथों बिक जाता है. कहानी ग्रामीण मानसिकता भी उजागर करती है कि ग्रामीण जीवन में स्त्रियों के लिए पढ़ना औऱ प्रेम करना दोनों पाप है. अंगुरी की मासूमियत इसमें है कि वो प्रेम में विवाह जैसी संस्था को बाधा नहीं मानती. ग्रामीण जीवन में स्त्री जीवन पर उसके परिवार का हक होता है जो उसे जहाँ चाहे, जैसा चाहे किसी वस्तु की भाँति उसे बेच सकता है, उसका बियाह कर सकता है. कहानी में प्रभाती जो अंगुरी का पति है,दुहाजु हैऔऱ अंगुरी दूजवर. प्रभाती लगभग निष्क्रिय सा रहने वाला जीव है तथा अँगुरी के प्रति पूर्ण उदासीन है. अँगुरी भी अपने गहनों की खनक में खुश है. पर मन तो मन का साथ माँगता है सो वह रामतारा को अपने मन की चाबी सौंप देती है और यूँ उसकी सदा खनकने,चहकने वाली झांझरें प्रेम में मौन हो जाती है.

अमृता के लेखन से गुजरते हुए हम चाहे बात पिंजर की करें या नागमणि, यात्री, तेरहवाँ दिन और उनचास दिन की वहाँ चित्रित सभी पात्र चाय के एक पौधे की मानिंद उगे हुए नज़र आते हैं और हर लड़की उस पौधे की सबसे ऊपर की कोंपल की भाँति जो डेढ़ औऱ ढाई के क्रम में लगी होती है,... सबसे छोटी, सबसे हरी और चमकदार पर सबसे ताज़ा और ज़ायकेदार. हर किरदार वहाँ अपने को खोज़ता हुआ फिर-फिर बुनता हुआ नज़र आता है. इस तरह अमृता को पढ़ते-पढ़ते बार-बार रूमी याद आते हैं कि- तुम समन्दर की एक बूँद नहीं, अपने आप में एक बूँद में पूरा समन्दर हो....अमृता की लिखी सौ से अधिक पुस्तकें हैं परन्तु अभी पिंजर, रसीदी टिकट, यह सच है, एक थी सारा और खतों का सफ़रनामा ही ठीक से पढ़ पायी हूँ.  बहुत कुछ पढ़ा जाना बाकी है पर बात यह भी है कि एक ही रचना को जाने कितनी-कितनी बार पढ़ा जाए तब कहीं जाकर वह पूरे होश में ठीक-ठाक जेहन में बैठ पाती है. इसके बावजूद बहुत कुछ अनपढ़ा भी छूट जाता है. पहली दूसरी दफ़ा तो पाठक पर लफ्जों और संवेगों का तुफ़ान ही तारी रहता है. उनका प्रसिद्ध उपन्यास पिंजर, जिस पर फिल्म भी बन चुकी है.. विभाजन औऱ हिन्दू –मुसलमां कौम के कट्टरपन पर हावी एक स्त्री की ज़िद औऱ उसके यातनापूर्ण जीवन की दास्तां है. यह ऐतिहासिक दास्तान अभिव्यक्त होकर इतिहास की वेदना और चेतना बन जाया करती है. यहाँ लेखिका पूरो औऱ रशीद के रिश्ते की कशमकश में. स्त्री मन के उन अनछुए पक्षों को उकेरने की कोशिश करती है जो हर स्त्री के अपने हैं. स्व से ऊपर उठकर अंततः  पूरो की ही तरह उनका हर औपन्यासिक पात्र चेतनावान हो उठता है. यही कारण है कि पूरो अपना जबरन उठाए जाने का, धर्म परिवर्तन का और सपनों के कुचले जाने का दर्द भूलकर हर उस लड़की की मदद करती है जो उस की  ही तरह सतायी जा रही है. वह कहती है, कोई भी लड़की हिन्दू हो या मुसलमान, जो भी लड़की लौटकर अपने ठिकाने पहुँचती है, समझो उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पहुँच गई. (पिंजर उपन्यास-अमृता प्रीतम) पिंजर इंसान के एक बेहतर इंसान बनने की कल्पना है. यहाँ नायिका पूरो परिपक्व है, गंभीर है औऱ वैचारिक है. यही वैचारिकता उसे व्यष्टि से समष्टि स्तर तक ले जाती है.

अमृता ने प्रेम को जिया था. उसने प्रेम को गिरते हुए नहीं वरन् संभलते औऱ संभालते हुए देखा था. यही कारण है कि अमृता-साहिर-इमरोज़ के उदात्त प्रेम और विश्वास की महक उनकी कई रचनाओं में बिखरी मिलती है . यह प्रेम कभी सरहदों पार पहुँचकर देश, काल और परिवेश से परे हो जाता है तो कभी दिल के सबसे भीतरी कोने में छिपकर बैठा गमकता रहता है, ठीक रातरानी की तरह . यूँ हर प्रेम एक कविता के ही समान होता है जहाँ कुछ अक्षर सुनहरे रंग के हो जाते हैं तो कुछ विरह की आग में तपकर सुर्ख़ . परन्तु उनकी हरियाली ताउम्र कायम रहती है. पिंजर में रशीद और पूरो का प्रसंग हो या उसके मंगेतर रामचंद का प्रसंग प्रेम की यह खेती वहाँ भी हरी ही रहती है. अमृता की खासियत यही है कि यहाँ बातें बेहद सादा लफ्जों में निकलती हैं और दिल को छू जाती है. औरत की सादगी और पाकीजगी को समाज ने कभी स्त्री मन की नज़र से देखने की कोशिश नहीं की वरन् वह उसे तन के फ्रेम में कसने की कोशिश करता है. इसी दर्द को लेकर उनके उपन्यास एरियल की पात्र ऐनी कहती है,- मुहब्बत और वफ़ा ऐसी चीजें नहीं है जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं , हो सकता है- पराए बदन से गुज़रकर वह और मज़बूत हो जाए जिस तरह इंसान मुश्किलों से गुजरकर औऱ मजबूत हो जाता है. प्रेम औऱ रिश्तों पर इतनी खूबसूरती से सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता ही लिख सकती थी. उनके गद्य में जाने कितनी अधूरी कविताओं के टुकड़े पड़े हैं जिन्हें पढ़ते हुए, देखते हुए दिल जाने कितनी बार छलनी हो उठता है. अमृता कीदो खिड़कियाँकहानी जीवन के उन अर्थों के नाम है जो पेड़ों की शाखों पर पत्तों की मानिंद उगते हैं और खो जाते हैं. एक स्त्री का उसके परिवेश से आत्मीय लगाव होता है. यहाँ विस्थापन की वेदना है औऱ ताउम्र उन चीजों की वापसी का इंतज़ार है जो लोप हो गयी हैं. यह कहानी एक स्त्री के रीतते जीवन औऱ अकेलेपन का एकालाप है.

एक थी अनिता, रंग दा पत्ता औऱ दिल्ली की गलियांउनके वे उपन्यास है जहाँ स्त्री चेतना का निरन्तर विकास औऱ प्रेम के चैतन्य सोपान दिखाई देते हैं. एक थी अनिता की नायिका अनिता उस राह पर चलती है जहाँ कोई रास्ता नज़र नहीं आता परन्तु कुछ है जो उसे निरन्तर बुलाता है. रंग दा पत्ता में प्रेम की रवानगी है. इस उपन्यास की स्थापना है कि मुहब्बत से बड़ा ज़ादू इस दुनिया में कोई नहीं है.

ऐसा नहीं है कि अमृता सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ प्रेम औऱ स्त्री मन की ही बात करती है समाज, मज़हब और सियासत पर भी वे बैलौंस लिखती है. उनके यह सच हैउपन्यास में गढ़ा गया बेनाम किरदार इंसान के चिंतन का ही प्रतीक है. वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश में हज़ारों साल पीछे जाकर इतिहास की कितनी ही घटनाओँ में खुद को पहचानने का प्रयत्न करता है. महाभारत के प्रसंगों के माध्यम से इतिहास को वर्तमान में जोड़ने की कोशिश यहाँ साफ़ झलकती हुई दिखाई पड़ती है. उपन्यास की किरदार पानी  पीने के लिए ग्लास उठाती है तो  उसे लगता है कि उसने युधिष्ठिर की  सदियों पहले दी गई आज्ञा से ही उसने जल का स्रोत खोज़ा है और मानो उसके लिए भी वहाँ से वैसी ही  एक आवाज़ गूँजती है जो कभी नकुल के लिए गूँज़ी थी कि मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना इस ग्लास का पानी नहीं पीना औऱ इतिहास औऱ वर्तमान के बीच झूलते हुए वह किरदार फिर यह सोचने लग जाता है कि वह सदियों  से अभिशप्त नकुल ही तो है, जो कभी वक्त के सबसे ज़रूरी सवालों का ज़वाब नहीं दे पाया और जिसे मूर्छित होने का शाप लगा हुआ है. कभी यह किरदार जुए में हारा हुआ युधिष्ठिर बन बैठता है तो कभी द्रोपदी बन सवाल करता है कि – युधिष्ठिर जब तुम अपने आपको ही हार चुके थे तो फ़िर मुझे दाव पर लगाने का तुम्हें क्या अधिकार था. अमृता लिखती है कि इस सवाल के माध्यम से मैं समाज को बताना चाहती हूँ कि,- जब इंसान अपने आपको दाव पर लगा चुका है, हार चुका है तो समाज के नाम पर दूसरे इंसानों को मज़हब के नाम पर खुदा की मखलूक को और रियासत के नाम पर अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दाव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है? इतिहास और वर्तमान के बीच ऐसी ही कशमकश हमें कमलेश्वर के उपन्यास कितने पाकिस्तानमें भी दिखाई देती है.

 वस्तुतः उनका समूचा लेखन इंसान क्या है और इंसान क्या हो सकता है के फ़ासले  को जेहनी तौर पर तय करने का हौंसला दिखाता है. इस सफ़र में जाने कितने तिकोन पत्थर उनके हलफ़ से उतरे हैं. कितने भविष्य हैं जो उसने वर्तमान से बचाएं हैं और शायद  कितने वर्तमान जिनको  वर्तमान से  भी बचाया है, की जद्दोजहद साफ दिखाई देती है. यह बचाव बेहद ज़रूरी है क्योंकि यहाँ हर चेहरे पर नकाब है औऱ यहाँ हर जन्मपत्री आदम की जन्म की एक झूठी गवाही देती है.

अमृता के लेखन में जाने कितनी बेरंग चिट्ठियां है, हिज़्र का रूहानी रंग है और हर हर्फ़ इस तरह प्रयुक्त हुआ है मानो अपना सबसे अलग प्रभाव छोड़ रहा हो. वहाँ गूढ़ दार्शनिकता के बज़ाय नीम उदासियाँ हैं जो भावों के पैराहन ओढ़ कर आती हैं. पाकिस्तान की शायरा सारा शगुफ़्ता की ज़िदगी औऱ शायरी के बारे में लिखती हुई वह कब खुद शगुफ़्ता बन बैठती है पता ही नहीं चल पाता. सारा का जीवन यातनाओं का चरम है. उस जीवन में बस दीवारें हैं, गुज़रता हुआ वक्त है औऱ आँखों में बेमाप समुन्दर. सारा की नज़्में जलते हुए हर्फ़ है जिन्हें पढ़ते हुए दिल पर फफोले उभर आते हैं और आँख में पानी. इन शब्दों को पढ़ते हुए संवेदनाओं की उठापठक आपको कई देर मौन के गहरे गह्वर में धकेल सकती है. वह पल-पल समाज, शौहर और परिवार द्वारा दी गयी यातनाएँ भोगती हुई कहती है कि, मैं अपने रब का ख़्याल हूँ... और मरी हुई हूँ...मेरे जीवन की रात में दाग सिर्फ़ चाँद का है. अमृता सारा की फिर से जीने की ख्वाहिश को स्याह (शाब्दिक) ताकतों के ज़रिए आबाद करती हुई, मन्नतों के इतिहास में एक पाक मन्नत दर्ज़ करती है, जो इंसान को सिर्फ इंसान देखने की आकांक्षी है. उसकी नज़र में सारास्वयं एक दुआ है पर अपने हाथों से गिरी हुई नहीं , वह इंसान के हाथों से गिरी हुई दुआ थी. वो कहती है सारा एक दुआ थी और दुआएँ हमेशा सलामत रहती हैं..कभी रूठती नहीं..मरती नहीं.... वाकई ! इतना खूबसूरत तो कोई खुदा जैसा दोस्त ही लिख सकता है. अमृता की लिखी यह किताब हर्फ़ दर हर्फ़ सांसों का उतार-चढ़ाव है. सारा अमृता के लिए खास है और इसी कारण उसका दर्द भी उसका अपना है. उस तारे की टूटन को वह अपने भीतर महसूस करती है. लोग कहते हैं तो सच ही कहते होंगे कि उन्होंने कई बार टूटे हुए तारे कि गर्म राख ज़मीन पर गिरते देखी है....मैंने भी उस तारे की गर्म राख अपने आँगन में बरसती हुई देखी है...जिस तरह औऱ तारों के नाम होते हैं, उस तरह जो तारा मैंने टूटते देखा , उसका भी एक नाम था- सारा शगुफ़्ता...(एक थी सारा-अमृता प्रीतम) 
सारा की नज़्म कागज से उतरकर जिस्म पर कुछ यूँ सुलगती है....और अमृता खुदा से मिलकर सिसकते हुए उसे सलाम कहती है...

अभी औरत ने सिर्फ़ रोना ही सीखा है
अभी पेड़ों ने फ़ूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ़ समुन्दर को लूटना ही सीखा है
औरत अपने आँसुओं से वुजू कर लेती है
मेरे लफ़्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया...(सारा शगुफ़्ता, एक थी सारा से...)

अमृता की यह दोस्ती और रूहानी अहसास उनकी रचना एक थी सारा में जीवित है. उनकी हर रचना हर पाठ के साथ एक नयी आलोचना तैयार करती है. कहानियाँ और कविताएं भाषिक सरंचना से जाने कैसा ज़ादू पैदा करती है कि उन में डूबा हुआ पाठक इस दुनिया ज़हान के समस्त  प्रसंगों के लिए अपरिचित बन बैठता है. पाठक को हर रचना पाठ के बाद भी कुँआरी जान पड़ती है. वहाँ खामोशी का बोलता हुआ दायरा है जो आपको अपने आगोश में लेने के लिए बेताब जान पड़ता है. अमृता अपनी रचनाओं में सदा जीवित बनी रहेंगी, यही कारण है कि पाठक उनकी कविताओँ में हर बार एक नयी अमृता को पा लेता है, ठीक इन पंक्तियों की तरह-

मैं तुझे फ़िर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरी कल्पनाओँ की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरूँगी
या तेरे केनवास पर लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फ़िर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं...(रसीदी टिकट)


एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था, ''जन्मों की बात मैं नहीं जानती, लेकिन कोई दूसरा जन्म हो तो... इस जन्म में कई बार लगा कि औरत होना गुनाह है... लेकिन यही गुनाह मैं फिर से करना चाहूँगी, एक शर्त के साथ, कि खुदा को अगले जन्म में भी, मेरे हाथ में कलम देनी होगी.”..यही बयान अमृता के लेखन में  उतरकर उसे स्त्री के हकूक में खड़ा कर चिरयुवा रखते हुए कालजयी बना देता है.
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विमलेश शर्मा
अजमेर (राजस्थान)
vimlesh27@gmail.com

परख : हिजरत से पहले और ख़यालनामा (वन्दना राग)

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वंदना रागके हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रहों 'हिजरत से पहले'और 'ख़यालनामा'से गुजरते हुए  अर्पण कुमार का  उनकी कथा – संवेदना पर यह आलेख  


वन्दना राग : हिजरत से पहलेऔर ख़यालनामा                                     


अर्पण कुमार





वंदना राग के हाल ही में आए दो कहानी-संग्रहों 'हिजरत से पहले' और 'ख़यालनामा' में क्रमशः दस और सात कहानियाँ हैं. शीर्षक कहानी हिजरत से पहले में लुदरू, उसका बेटा जीवन और जीवन का नेता दोस्त लक्ष्मण ,एंकर ईनू जोशी, कैमरामैन हिम जैसे पात्रों के माध्यम से कहानीकार ने अपनी कहानी को सघनतापूर्वक बुना है. किसी भी हिंसा को दिल से सही नहीं माननेवाला लुदरू अंततः स्वयं को शहीद कर लेता है. आहिस्ता आहिस्ता अपने अंत तक पहुँचने वाली यह कहानी, आदिवासियों और उनकी प्राकृतिक संपदा के हक़ में तो है, मगर उसके लिए अपनाए जानेवाले नक्सलवाद को सही नहीं मानती. आदिवासियों के साथ खड़े लोग भी कैसे इसकी चपेट में आ जाते हैं, कहानी इसे सूक्ष्मतापूर्वक चित्रित करती है. स्वांग पिता की मृत्यु के उपरांत सदमाग्रस्त एक बेटी की  कहानी है और उसके बहाने जीवन की आपाधापी के बीच मृत्यु के शोक को कुछ ही समय में हाशिए पर चले जाने को यहाँ चित्रित किया गया है. 'देवादेवा', महाराष्ट्र की सूखाग्रस्त खेती, अभावग्रस्त और पलायनवादी हो रहे एक मराठी किसान और अंतहीन निराशा के बीच अंधविश्वासों की खाई में गिरते उसके परिवार की कहानी है, जो एक परिवार के बहाने पूरे अंचल विशेष की कथा कहती है. प्रकटतः अन्धविश्वास का पोषण करती दिखती यह कहानी मूलतः समाज में प्रचलित अंधविश्वास पर व्यंग्य करती है, जिसे टूल्स बनाकर लेखिका ने किसानों की विकल्पहीनता को गहरा करने का प्रयास किया है.

पति परमेश्वर कहानी में सहाय जी और उनकी पत्नी संध्या के बहाने आम मध्यमवर्गीय घरों की दैनिक दिनचर्या में झाँका गया है. पुरुष मनोविज्ञान को बेहतर रूप में चित्रित करती यह कहानी, हल्की-फुल्की होकर भी ज़िंदगी में भीतर तक झाँकती है. वंदना की भाषा में एक निरपेक्षता है, जिसके उस्तरे से पात्रों को तराशा गया है. यह निरपेक्षता, कई बार एक खिलंदड़ी भाषा ('आँखें') का निर्माण करती है तो कभी उदासी का स्लेटी रंग ('आज रंग है') रचती है. कभी अतीतजीवी ('और उस साल सब हार गए') हो जाती है तो कभी छेड़छाड़ करती (पति-परमेश्वर). वंदना का गद्य कहीं चटपटा है तो कहीं विचारशील. यह कभी गाली-गलौज से भरा हुआ है तो कभी इसमें अंतर्मन की यात्रा की गई है. मगर जो और जैसा है, अनुरक्ति और विश्वास के साथ सृजित है. यही, वंदना की लेखनी की ताकत है.

आए दिन धोखे या कहें दुराव-छिपाव से शादी करने की घटनाएँ हमें देखने को मिलती हैं. धोखे को दुतरफा धार वाली तलवार न मानने का हश्र क्या हो सकता है, यह क्या देखो दर्पण में कहानी को पढ़कर समझा जा सकता है. 'कठकरेज', गाँव की पृष्ठभूमि में क्रमशः अकेले पड़ते और अंततः मर जानेवाले एक वृद्ध की कहानी है. समाज की आपराधिक बुनावट के बीच बुनी वंदना की कहानी आज रंग है, उनकी दूसरी कहानियो की ही तरह संश्लिष्ट है और किसी नायकत्व से इतर, पात्रों का सहज रचाव यहाँ भी दिखता है. समीर और मल्लिका की यह प्रेम कहानी, मूलतः एकतरफ़ा प्रेम कहानी है. समीर जैसा एक मध्यवर्गीय चरित्र अपनी कल्पनाशीलता में मल्लिका को लेकर जितनी दूर तक सोचता चला जाता है, यह कहानी उसे ठीक ठीक पकड़ती है. चुन्नू यादव जैसे आपराधिक रसूखदारों को केंद्र में रखने से यह कहानी सचमुच हमारे आसपास घटित होती दिखती है. हाल हाल तक 'बीमारू' कहे जानेवाले हिंदी प्रदेशों के कॉलेजों और मुहल्लों में ऐसी घटनाएँ और दृश्य बड़े आम थे. सच्चे प्रेमी या तो चुप रह जाते थे या चुप करा दिए जाते थे. एक जगह पराजित दिखते उसी समीर को पहले प्रेमिका और बाद में पत्नी के रूप में श्रुति मिलती है. और शुरू से मजबूत और आक्रामक दिखते सैमी को उसकी प्रेमिका छोड़ जाती है. कहानी के अंत को वंदना के कहानीकार ने समुचित रूप में या कहें कुछ तार्किक परिणति के साथ निर्वाहित किया है. एक तरफ़ प्ले बॉय की छवि को हरदम विजेता नहीं माना जा सकता (सैमी के चरित्र के रूप में) तो दूसरी तरफ़ मल्लिका जैसी लड़कियां भी हैं, जो अपने जीवन में उपलब्ध विकल्पों के बीच एक आसान रास्ते पर चलना पसंद करती हैं. हालांकि इसके पीछे किसी अपराधी छवि वाले 'रॉबिन हुड' के प्रभाव ,भय और अहसान के मिले जुले भावों के बीच चुन्नू यादव के समक्ष किया गया उसका आत्मसमर्पण भी हो.

यह मन्नू भंडारी की चर्चित कहानी 'यही सच है' से आगे जाती है. चीजों को सरलीकृत किए जाने के प्रतिरोध में वंदना का कहानीकार यहाँ भी तत्पर नजर आता है. जो मल्लिका, समीर की स्मृतियों में कहीं गहरी पैठी है, उसकी छाती के बीचों-बीच लगी गोली से निकले रक्त के लाल रंग को उसका अवचेतन भूल नहीं पाता है. जीवन की प्रेरणा (मल्लिका)और जीवन के सच (श्रुति) के बीच वह लाल रंग जमकर एक धब्बे के रूप में तब्दील हो गया है. यहाँ कोई जीतता है और न कोई हारता है. शायद, जीवन का रंग भी यही है. कुछ सूफ़ियाना किस्म का जहाँ राग-विराग अलग-अलग नहीं, एक साथ हैं. 

कहा जा सकता है कि भाषा का संयत इस्तेमाल और तह दर तह कहानियों को खोलना, वंदना के कहानीकार को भली-भाँति आता है. पात्रों की आदतों और उनकी छोटी छोटी हरकतों को लेखिका इस क़दर प्रस्तुत करती है कि उनका एक सजीव दृश्य पाठकों के सामने आ उठता है. एक लंबे मोनोलॉग की सी कहानी ख़यालनामा व्यक्ति के भीतरी मनोभावों की गुत्थियां खोलता, एक मनो-सामाजिक कहानी है, जहाँ व्यक्ति अपने भीतर से चालित और नियंत्रित होकर बाहर में अपनी भूमिका तय करता है. अंदर से बाहर की यह यात्रा, मगर हर बार नियंत्रण और तय किए गए मानदंडों से इतर भी चली जाती है. ऐसी कहानियों में व्यक्ति के भीतर चल रहे उठापटक को ठीक ठीक पकड़ना, कहानीकार के लिए एक चुनौती का सबब बन जाता है.

वंदना राग की कई कहानियाँ 'मैं' शैली में लिखी गई हैं. इससे कहानियों में एक प्रामाणिकता और आत्मदग्धता सहज ही आ जाती है. वंदना की कहानियों में कई बार ऐतिहासिक दृष्टि-संपन्नता भी देखने को मिलती है और उन कहानियों को अपने तईं युग-चेतना से संपृक्त करती है. यह कहानी, ऑनर कीलिंग पर आधारित दूसरी अन्य कहानियों की तरह होती, मगर इसमें लेखिका ने काल-बोध को लाकर इसकी निरंतरता को हमारे सामने रखा है और इससे यह कहानी कुछ अधिक कालजयी बन गई है. यद्यपि यह प्रकटतः ऑनर कीलिंग से संबंधित कहानी नहीं है, मगर उसके तर्ज़ पर इसे 'ऑनर-टार्चरिंग' निश्चय ही कहा जा सकता है, जिसके कई प्रत्यक्ष विवरण कहानी में मौजूद हैं. 'आज सनीचर चढ़ा है रे', एक शराबी और ग़ैर जिम्मेदार पिता के घर में असुरक्षित उसकी छोटी बच्ची की कहानी है. 

गाँवों और शहरों की आवाजाही पर वंदना ने इन दोनों संग्रहों में कई कहानियाँ लिखी है. यह किसी लेखक की साहित्यिक विविधता के लिए आवश्यक है. इससे वह अपनी लेखकीय पुनरावृत्ति से बचता है. इन पृष्ठभूमियों पर बेहतर और प्रामाणिक ढंग से लिखी कहानियाँ, वंदना राग की जीवटता और उनके लेखन की 'जैव विविधता' दोनों को सिद्ध करती है. गाँवों में शहरों के सपने होते हैं और शहरों में गाँवों की स्मृतियाँ. पैरों की चपलता, शहर की ओर भागती है और शहर में थके पाँव, गाँव आकर सुस्ताना चाहते हैं. शहरों में अपने अपने ठिए हैं और भीड़ के बीच व्यक्ति का अपना एकांत. गाँवों में सामूहिकता है और सामूहिकता के अपने संघर्ष और लोगों की सच्ची-झूठी बनी छवियाँ.मगर इन सबके बावजूद दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं. आज, दोनों को बचाए रखने और संभाले जाने की ज़रुरत है. हाँ, दोनों के बीच की दिखती असमानता को वंदना का कहानीकार अपने तरीके से रखता है. सिनेमा के बहाने कहानी में कथावाचक राजीव चावला के बहाने सिनेमा की कई अंतर्कथाओं को यहाँ चित्रित किया गया है. उसके दोनों दोस्तों शलभ कुलकर्णी और माधव किशोर के साथ पूरी कहानी गुँथी गई है.

वंदना राग का कहानीकार बहुत ठहरकर चलता है. अगर पाठक भी उतना ही ठहरकर उन्हें पढ़े, तो वह उन विवरणों में डूबता चला जाता है. ये कहानियाँ अपने पाठकों से भी यही अपेक्षा रखती हैं. मसलन 'क्रिसमस कैरोल' कहानी को ही लिया जाए. दो सहेलियों के परस्पर भिन्न मताग्रहों के बीच गुँथी इस कहानी में वंदना ने अपने लेखकीय मिज़ाज के अनुरूप अपने पात्रों के बेहतर स्केच खींचकर उन्हें जीवंत बनाया है. कहानी की नायिका, अपनी सहेली स्टेला द्वारा अपने होठों को गीला करने के उसके प्रयास पर सोचती है और उसकी वर्तमान स्थिति को मन ही मन दर्ज़ करती चलती है, "मैं देखकर सन्न रह जाती हूँ कि ऐसा करते वक़्त वह सेक्सी कम ज़रूरतमंद ज़्यादा लगती है".

एक सधी हुई भाषा में घटनाक्रम को बहुत लाउड किए बग़ैर दोनों के बीच के विवाहेतर संबंध को या कहें उनके आत्मिक रिश्ते को अभिव्यक्त किया गया है. इसमें अगर सिर्फ स्त्री की यौनिकता और उसकी देह स्वतंत्रता को देखा जाए तो यह कहानी के मूल उद्देश्य के साथ अन्याय होगा. अपने पुत्र की उम्र से थोड़े बड़े अनूप चौधुरी से स्टेला की निकटता कहीं इससे आगे जाती है. प्रकट और घोषित तथ्यों के बीच  दबे हुए सच को जब तब जोर शोर से उजागर करनेवाली स्टेला के आत्म निरीक्षण की यह कहानी है. पारंपरिक तरीके से और मध्यवर्गीय कसौटियों पर कसे और सिद्ध हुए मूल्यों के साथ चलनेवाली कथावाचिका और स्टेला की आपसी वैचारिक टकराहट के बहाने वंदना ने इस विषय पर बिना आग्रही हुए एक संवेदनशील कहानी को रचा है. जो कथावाचिका सहेली, इस बढ़ते जाते संबंध पर एक पैनी, तीक्ष्ण और कुछ संशकित निगाहें जमाई हुई थी, जिस अपूर्व चौधुरी से स्टेला को दूर रहने की हिदायत दे चुकी थी,बाद में वही कथावाचिका इस पूरे प्रसंग में कोमलता और अकलुषता को लाकर मानों अपनी मध्यवर्गीय कसौटी से कहीं आगे जाकर स्वयं को भी कसने का प्रयास करती है.

अपनी कई दूसरी कहानियों में भी वंदना ऐसे ही कुछ जटिल चरित्रो को हमारे सामने खोलती हैं. कहा जा सकता है कि उनकी कहानियाँ चाहे जिस परिवेश और काल को आधार बनाकर लिखी गई हों, वहाँ मनोविश्लेषण का ठंडा तेज चाकू अपना काम ज़रूर कर रहा होता है. प्रकटतः दिखती स्थितियों और प्रत्यक्ष दिखते चरित्रों के भीतर चल रहे ऊहापोह को वे बखूबी पकड़ पाती हैं, जो उन्हें कथाशिल्प के स्तर पर निर्मल वर्मा और गीतांजलि श्री के करीब ठहराती है. स्वतंत्रता संघर्ष की पृष्ठभूमि में लिखी कहानी और उस साल सब हार गए, समाज के विभिन्न वर्गों के आपसी अंतर्द्वंद्व को स्पष्ट करती है.त्वचा, गुलामी से पहले और उसके बाद के कालों को बेहतर रूप से जोड़ने में सफल रही है. कुछ तात्कालिक सांस्कृतिक संकेतकों (Cultural indicators) के बीच इन दोनों कहानियों में इतिहास से बाहर किए गए आम लोगों के संघर्ष, मूल्य और उनके योगदान को चित्रित किया गया है. 'विरासत' कहानी में पिता के श्वेत-श्याम पक्ष का इस तरह चित्रण होता है कि अपने बच्चों को खुश करने में लगे पिता अंततः अनियमित दवाई और समुचित रख रखाव के बगैर एक दिन दुनिया छोड़ जाते हैं.  


एक ईमानदार आदमी का हश्र क्या होता है, वह कितना निरीह होता है, इसके बहाने व्यवस्था में पिसते ऐसे नायकों की बेबसी को उभारा गया है. फिर भी उस वृद्ध के बड़े बेटे को इन तमाम अभावों के बीच उनके टूटे फूटे मूल्य भी बेहतर ही लगते हैं. हालाँकि इसका अहसास उसे, उनकी मौत के उपरांत होता है. हलक को सुखाती 'दो ढाई क़िस्से' कहानी, अपनी पूरी संश्लिष्टता को जीती वंदना की एक परिपक्व रचना है. रागात्मकता हक़ीक़त से अधिक हक़ीक़त के ख़याल में होती है. व्यक्ति अंततः अकेला ही है, इस सर्वमान्य तथ्य को अपने तईं यह कहानी प्रभावी रूप में रखती है. दुनिया जहान की कहानी सुनाने वाले क़िस्सागो की निजी कहानी कोई नहीं सुनना चाहता. उसे ब्रांड के रूप में स्थापित करनेवाले निगम साहब और न ही उस ब्रांड को सुनने आया श्रोता समूह. उसे भटकने तक की इज़ाज़त नहीं. लोग रागात्मकता को भी किस यांत्रिकता से ले रहे हैं, कहानी इस मनोस्थिति को बख़ूबी पकड़ती है. 

कहा जा सकता है कि वंदना के पास कहानियों का अपना खज़ाना है और कहन का एक ख़ास अंदाज़. वन्दना राग का कहानीकार, अपनी ओर से बहुत जजमेंटल नहीं होता. वह अपने पात्रों में किसी एक के साथ खड़ा होने में यकीन नहीं रखता. उनके पात्र, एकदम से श्वेत और श्याम किस्म के नहीं हैं. समय और समाज की कई आंतरिक जटिलताओं के बीच ऐसा संभव भी नहीं होता. वे परिस्थितियों के अनुसार या उनके बीच गढ़े गए और बड़े स्वाभाविक दिखते हैं. अतः पाठकों को वहाँ गलदश्रु भावुकता कम ही मिलती है.
___________
अर्पण कुमार
मो: 0-9413396755 : ई-मेल : arpankumarr@gmail.com 

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चतुर्वेदी की नयी कविताएँ

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(पेंटिग : Salman Toor : Imaginary Multicultural Audience :2016

पंकज चतुर्वेदी की कविताएँ राजनीतिक हैं, सभ्यता अब तक जहाँ पहुंची है उसके पक्ष में खड़ी हैं और उसे और विकसित होते देखने का सपना देखती हैं.
मनुष्यता की अब तक की अर्जित समझ में जिनका यकीं नहीं है और जो सभ्यता को बर्बरता में बदल देना चाहते हैं उनके खिलाफ  हैं और  हमारे समय की विडम्बना पर गहरी मार करती हैं.
उनकी कुछ नयी कविताएँ आपके लिए.




पंकज चतुर्वेदी की नयी कविताएँ                         




विपत्ति



सौन्दर्य के अभाव के लिए
कोशिश नहीं करनी पड़ती
वह एक विपत्ति है





देखना


सत्ता अगर तुम्हारी
सराहना करे
तो देखना
कि जनता से तुम
कितनी दूर आ गये हो

देश जनता ही है
वह किसी भू-भाग का
नाम नहीं




अफ़सोस


सत्ता कल्पना करती है
देश की
जिसमें उससे असहमत लोग
न रहते हों

देश को अफ़सोस रहता है
कि उसने किन हाथों में
अपने को सौंप दिया है




अजीब


वे समझते हैं
कि वे तुम्हें मिटा चुके

इसलिए उनका हमला
तुम्हारे वजूद पर नहीं
नज़रिये पर है
क्योंकि वह क़ायम रहा
तो एक दिन लालिमा
सब ओर छा सकती है
जैसे किसी वसंत में
पलाश के फूल

वे तुम्हें अपशब्द कहते हैं
क्योंकि डरते हैं
तर्क की तेजस्विता ही नहीं
सौन्दर्य की सम्भावना से भी

क्षुद्रता तुम्हें अपनी तरह
बना लेना चाहती है
ताकि तुम उससे उबरना न चाहो
और गिरना ही उठना मालूम हो

यह कितना अजीब है
कि हिंसा वही करता है
जो दयनीय है

जिसे लगता है कि ईश्वर भी
उसके राज्याभिषेक के लिए
निर्दोष लोगों की
हत्या कर सकता है

जो अपनी आत्मा को
नहीं बचा पाया
करुणा के अभाव से
वह उत्पीड़न के अस्त्र से
देश को बचाना चाहता है





इंतिज़ाम

सत्ता अपयश से नहीं डरती
कोई निर्दोष मारा गया
तो वह कहती है :
यह हत्या नहीं
मृत्यु है

क़ुदरत जो करती है
उसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं

ईश्वर का जो विधान है
उसे कौन टाल सकता है

लोग जीना नहीं चाहते
तो राज्य क्या करे

और ऐसा तो है नहीं
कि जब हम नहीं थे
तब मृत्यु नहीं थी

मगर पहले जो कहते नहीं थे
अब उसे हत्या कह रहे हैं

हम इस साज़िश को
बेनक़ाब करेंगे

सत्ता अपयश से नहीं डरती
वह यश का इंतिज़ाम करने में
यक़ीन करती है





क्या ज़्यादा दुखद है


तुम जब किसी को पूँजीपति बनाते हो
तो एक दिन उसे सांसद भी
बनाना पड़ता है
और फिर वह देश के
सैकड़ों करोड़ रुपये लेकर
विदेश भाग जाता है

तब क्या ज़्यादा दुखद है
एक पूँजीपति का भाग जाना
या एक सांसद का ?

राजनीतिक तरक़्क़ी के लिए
तुम जब किसी अपराधी की
मदद लेते हो
तो एक दिन उसे संसद में भी
बिठाना पड़ता है

तब क्या ज़्यादा दुखद है
कि तुम उसके बग़लगीर हो
या वह भी बैठा है संसद में

या फिर यह कि इस देश की
ग़रीब और निरपराध जनता को
तुम संसद में पहुँचने
देना नहीं चाहते ?





व्यंग्य


मंत्री जी ने कहा :
मैं यह नहीं कहता
कि सिर्फ़ हम
देश को बचायेंगे
उसे तो
हम सब बचायेंगे

इस बेचारगी में
यह व्यंग्य निहित था
कि जो काम
सबको मिलकर
करना चाहिए
वह सत्ता को
अकेले करना
पड़ रहा है




जब कोई हत्यारा कहता है



जब कोई हत्यारा कहता है
कि वह संविधान की
इज़्ज़त करता है
उससे डरता है

तब यही मानो कि समाज के
एक हिस्से ने उसे
इतनी इज़्ज़त बख़्शी है
कि वह ऐसा कह पा रहा है

दूसरा हिस्सा उसके
दावे पर ख़ामोश रहता है
क्योंकि वह अभी हत्या की
ज़द में नहीं आया

बाक़ी लोग इस दहशत में
चुप रहते हैं
कि जो पहले हो चुका
उसका फिर सामना न करना पड़े
उनको या दूसरों को
जो उनके ही बिरादर हैं




बिम्ब-प्रतिबिम्ब


अगर बग़ैर काम-काज के
संसद चल रही है
तो राज्य की
अन्य संस्थाएँ भी
इतनी ही नाकामी से
चल रही होंगी
कम-से-कम इस मानी में
संसद सिर्फ़ अपना नहीं
लोकतंत्र के दूसरे
खंभों का भी
हाल कहती है





विवशता


जब कभी सुनता हूँ
किसी का उन्मादी स्वर :
''संविधान न होता
तो हम लाखों का
सिर उतार लेते''

तब यही समझता हूँ
कि सभ्यता
उसका स्वभाव नहीं
विवशता है



हाय


बड़े-बड़े मुद्दों से शुरू किया था तुमने
चुनाव अध्याय
अन्त में बची रह गयी गाय
हाय हाय !




आशय


जब भी कोई अभियुक्त कहता है :
उसे देश के क़ानून में
पूरी आस्था है
तो वह दरअसल
कहना चाहता है
कि उसे पक्का यक़ीन है
कि अभियोग से छूटने में
क़ानून उसकी मदद करेगा




भारतमाता

माँ कहती है :
कोई तुम्हारे साथ बुरा करे
तो भी तुम अच्छा ही करना

वही मेरी
भारतमाता है



प्रत्याशा


मैं शत-प्रतिशत सहमति की
प्रत्याशा में ही नहीं लिखता
इसलिए भी लिखता हूँ
कि वह छीलता चला जाय

अगर मैंने तुम्हारी आलोचना की
और तुम्हें उससे तकलीफ़ हुई
तो मुझे उम्मीद होती है :

अभी बच सकता है समाज 
_____________________

पंकज चतुर्वेदी  
हिन्दी विभाग                                                                 
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय                                                         
सागर (म.प्र.)---470003
मोबाइल-09425614005                                                       
ई-मेल- cidrpankaj@gmail.com

लम्बी कविता : कादम्बरी : अतुलवीर अरोड़ा

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पेंटिग : राजा रवि वर्मा











बाणभट्ट रचित कादम्बरी संस्कृत साहित्य की महानतम कृति है. उसे पहला उपन्यास भी माना गया है, मराठी भाषा में उपन्यास को कादम्बरी कहा जाता है.

अतुलवीर अरोड़ा की लम्बी कविता कादम्बरी की कथा से प्रेरित है और इसके दस खंडो को उन्होंने १२ दिनों में पूरा किया है.

कविता संवादधर्मी है, इसकी नाट्य प्रस्तुति भी संभव है.  



अतुलवीर अरोड़ा की लम्बी कविता                           


कादम्बरी याद रहेगी  (11-06-2016)

एक थी
कादंबरी
वह
शेष नहीं थी
व्यथा में अपनी
अवसाद का गद्य
लेकर प्रच्छन्न
अपनी
कथा कहती रही
जटिल
मुखर हुआ पद्य
व्यक्त अव्यक्त
अंतहीन यात्राओं से
लौटा हुआ
कवि
परिजनों के बीच
उसे तलाशता हुआ
पदस्थ
अपदस्थ
कहाँ
जीवन कहाँ था
जो कभी हुआ करता था
इस बचे खुचे समय में
वह
जीवित नहीं था
अभी
बीत चुका था
वह अभी
बीत जाएगा
कुछ ऐसा ही कहता हुआ
बीतने को था
जो कभी
बीतना न था
कौन,
भूषणभट्ट ?
तुम कहो न कहो ,
फलित होते रहेंगे
अनकहे भी शब्द
भेदी
बाण की तरह
कादम्बरी याद आएगी !
हम भूल जाएंगे ,
कादम्बरी याद रहेगी.



2
शिलातल
नहीं है कोई
बैठे रहना तुम, मुनिकुमार जी !
कामदेव पूछेगा
तुम से जब प्रश्न
उत्तर क्या दोगे ?
स्खलित
ज्ञान्पुन्ज !
दुष्प्राप्य
अपने
अस्खलित यौवन में !
रुदन से मुंद गए हैं
दीखें
चिपके नयन
खंडित न मण्डित स्वतः
पुण्डरीक के !
चन्द्रपीड खो गया
वैशम्पायन जी.
उठो, सलाम करो
अपने एक पाँव से !
पेंटिग : राजा रवि वर्मा
3
विस्मृति के कक्ष में जो सो रही है
वह,
उसे कथा होना है
या कथ्य
विरह का
महाश्वेता पूछती है
प्रश्न अनुत्तरित !
वैशम्पायन जी !
कथासरित सागर ,
तुम !
सुन रहे हो या सुना रहे हो ?
शिल्प ही की त्वचा में से खिलते
बाहर आते हुए
प्रभुत्व में जादू के
मन्त्र सिद्ध हाथ !
कान कहाँ गए ?
लुप्त हुई वाणी !
आकाश में कहाँ
कौनसे
चले गए हैं
सब के सब पात्र
मर्म अभी उलझेगा
बार बार सुलझेगा
परछाइयाँ किसकी
कहाँ कहाँ ओढ़कर
भरम लील जाएगा
अरब की कथाओं में
सोये हुए प्रेम को
जगाने के लिए
शूद्रक, मेरे श्रोता !
यादों की मृत्यु तक जीवन खोजा करती है !
एक धागा खुलता है
दूसरे को बाँधने
वृत्त लेकिन फिर भी रहता है
अधूरा.
बुनती चलती रहती है.
कादंबरी को याद है
अपना आरम्भ !
अंत पता नहीं ,
वैशम्पायन जी !
एक बार फिर
अपने एक पाँव से
अपनी सरजी हुई कथा को
कथा -सलाम हो !
चंडीगढ़ से दिल्ली
दिल्ली से कोलकतां
हवा में हवा. ..!
वह कथ्य क्या हुआ ?


4
कैसी हो , कादम्बरी ?
रुको तो सही
कुछ देर रुको
कंठ में ऐसे ही
भीतर गिरने से पहले
अश्रु सिंचित आँख में
विष वमन होगा ही
अंकुरित जो हो रहे हैं
दुःख
गीले शिखरों पर
पेड़ों या पहाड़ों के
मूर्छा के इंतज़ार में
अनकही ठहरी है
कथा
किसी किराए के
प्रसूतिगृह में
अंश अंश आती हुई
खुरचन जैसी
बाहर
अपने शुष्क गर्भ गृह से
वृत्त में अटका है
मरणासन्न शिशु
रक्तसना पाषाण.
चन्द्रपीड विह्वल !
कौन था वह जो समुद्र में जा गिरा
फिर अश्व बन गया
शापग्रस्त प्राण !
मिथुन में लीन हुए किन्नरों के साथ ?
आर्तनाद सुनो
महाश्वेता पीट रही है
छाती पृथ्वी की
उसी के अंक में लेटी हुई.
वधिक
प्रार्थनारत.
कैसी हो, कादंबरी ?
छठी से इक्कीसवीं में
कैसी छलांग ?



5

साष्टांग कादम्बरी ! (17-06 -2016)

भूल गए
उपोद्घात
कहां शुरू हुए
ताप न तपस्या
ऋषिमूल गए !
कहां गए तपस्वी
मुनियों के तपोवन
यमुना का कीच
जल
भरसक चुप है
जीव जन्तु असुरक्षित !
जीने की कला
मांस
गोमांस राजनीति दूर निकल आई.
सूर्यमण्डल लूटने को निकल गए हो, सनत कुमार जी !
खड़े भी नहीं हुए थे
बिजली हड़प ली
सोना चांदी बांदी सेवक बंधुआ कर लिए
दावानल रचा
वनों के वन
चंदन
लुप्त हो गए
विश्वनिर्माता !
अम्बारी,काका !
पीले नीले अमरबेल चढ़े बढ़े
अमरी
नारायण
राष्ट्रों के राष्ट्र
संयुक्त
व्यापारी
शंख, गदा, खड्ग, चक्र, नृसिंहरूप
प्रकट
सद्यः प्रकट
अनार्य
पुण्यों के पुण्य,
कादंबरी तुम्हें साष्टांग प्रणाम करती है !

पेंटिग : राजा रवि वर्मा


6
शुरू भी नहीं हुई
और शुरू हो गई
ब्रह्मा से पूछा
नहीं
विष्णु न महेश का
स्मरण
ही किया
फिर भी
उन्हीं की प्रजाओं का हिस्सा बनी
दृश्य में न बाणासुर
न मणियों के समूह
रावण के मस्तक थे
लेकिन वे भी गायब
दैत्यों के जैसे स्पर्श र्में थे देव
दैव
निष्ठुर था
ताप, क्रोध,रुधिर, आंसू, अट्टहास था
सत्व रजोतम में
तम का महातम ही
वर्णमाला थी !
उन्हीं के थे चरण
उन्हीं की थी धूल
धूलियाँ ही धूलियाँ
कथ्य चन्द्रपीड में
कथन पुण्डरीक !
अनुभवपर्व
हत्यारा
महाश्वेता सा
पृथ्वी में से
धुन्धाया
फूट कूट खौलता
जलजालाता उबरता
ठेलता कुछ फैलता
अंतरिक्ष में !
कदम्ब की डाल
टूटा
काला आकाश !
अविनाशी शरीर
मेरा
सपर्श करो, तुम !
विगतशाप
पुण्डरीक !
उतरो आकाश से !
हाथ लिए हाथ, ओ रे, कपिंजल !
आलिंगन चन्द्रतेजोमय !
अविनाशी अप्सरा
मैं कथा, कादम्बरी !



7

कादम्बरी मुग्ध ! (21- 06 -2016 )

कथा का एक
विराट
कोई प्राणवान
पिंजर रहा होगा
जो फिलहाल कथा को
पिंजरे में धकेल कर
खुद
बाहर आ गया था.
पिंजरे में कैद कथा
अपना पाठ सुना रही थी
तोता मैना को
शब्द शब्द
नाद
मंत्रोच्चार
दोनों
वाणी को
हूँहाँ में मुखर करते हुए
दरअसल कथा को
गुप्त रख कर
मौन किसी स्वप्न जैसे
हो गए थे.
कर्णाभरन
चंदन के
तिल थे या तीली
नुकीले श्रृंगार.
कथा वहीं बैठ जाती
होकर
सुगन्धित
शब्दों की कमान पर खिंचने के लिए
हाथियों के यूथ के यूथ की प्रतीक्षा में
कि चढ़ कर आएंगे
योद्धा
सेनानी
महावतों के संग
स्तम्भ के स्तम्भ
स्तम्भित अध्याय
कथा के प्रवाह को रचते हुए
कथा युद्ध थी
कथा बुद्ध थी

नायिका मुग्धा
कादम्बरी मुग्ध थी
अपने चरित्रों पर
अपनी घटनाओं के मध्य
रास
रंग में !
हालांकि प्रसंग सारे
सिरे से नदारद थे.
मिथुन स्वतः मिथुन के
कथा विशारद थे !
आती जाती रहती थी
पिंजरे के भीतर
पिंजर में सांस
तप्त !
वैशम्पायन जी ,
एक बार अपने
एक पांव पर
खड़े हो जाओ ,
माथा झुकाओ ,
और कर लो सलाम !


8
कादम्बरी नयना :   22- 06 - 2016

विस्फारित नेत्र थे
प्रश्न पूछते हुए
वर्णन में जाओगे
कथा सूत्र उठाओगे
कहां से कहां
कैसे ,
इतनी कितनी सब
इकाइयां बनाओगे
थोड़ी देर
दण्डी के पास
चले चलते हैं
अर्थस्फुट की भिक्षा में
दशकुमार चरित ही के पास
हो आते हैं.
नहीं कहीं मिलेगा तो चुराकर लाते हैं.
समास लेने होंगे तो
लौट आएंगे
भीतर
अपने पास
फिलहाल अनगिनत श्लेष सृष्टि है.
चाहूँ तो
पहन सकती हूँ
सकीर्ण
चोली भी
घाघरे में अपने विस्तीर्ण हो सकती हूँ
दिल्ली ही नहीं
पूरी सृष्टि घूम
घूम्यो है
अनन्त मेरी जंघा
प्रजाओं के सृष्टिकाल
जन्मे अजन्मे
कल्पित कर सकती हूँ
जम्बूद्वीप पृथ्वी
संकल्पित कर सकती हूँ
शुकनास वचना मैं
चन्द्रपीड शयना
मेरे कादम्बरी नयना !

पेंटिग : राजा रवि वर्मा


9

हेल्लो , कादम्बरी ! (23-06 -2016 )

मुझे नहीं पता
मैं मूल हूँ
या धूलिकण
बालुका नदी की
सागर संतप्त
के तट पर
अनुरक्त
कुछ कुछ आरक्त
खड़ी सोच रही हूँ
ले लूँ या
डुबकी को भूल जाऊं
उड़ जाऊं
दूर कहीं
अनजाने
अंतरिक्ष
आकाशभाषित सृष्टि
मेरी लुप्त कथा दृष्टि
कहने और लिखने के गुह्यतम रहस्य
बृहत्कथा होती मैं
पैशाची पोषित
या सोमदेव घोषित
भाषा में भिन्न
श्लोकबद्ध होकर
फिर छिन्न -विच्छिन्न
सूर्यमति , बोलो !
में मनोरंजन हूँ ?
लिए दिए घूमती हूँ
किस्से ही किस्से
किस किसके हिस्से
कुलटाएं
जागृत
वारांगनाएं
धूर्त मेरे पुरुष
कामरूप कामरस
लोल लूल लोलुप
कितनी मैं मौलिक
भौगोलिक कितनी
कितनी मूलभूत
मैं कथा में व्यभिचार
मैँ सांस्कृतिक अतिचार
मैं चित्र विचित्र
इस जीवन सम्पूर्ण में
मरण मेरा खेल
यह कल्प
जगत गल्प !
आना था दूसरे
कितने कितने कालों में
जाना
मर्म पाना था
पुल कहीं बनाना था
तोड़ते भी जाना था
में कथा का पहने हुए
जुआ
जुआरी
करती ऐय्यारी
तिल मेरी भूमि
तिल का पहाड़
राई के जंगल
काई सिवार
पहाड़ी गुफाएं
झरने लताएं
मेरे नगर
महानगर
खोदे दिए किसने
खुंदे नाखूनों से
मत्स्यपुराण मैं
खान कलाओं की
गुणाढ्य का मान
सारस्वत सम्मान
में ही हूँ शिव
और हूँ में ही पार्वती !
सूर्यमति , बोलो !
पृष्ठ मेरे खोलो !
हेल्लो , हेल्लो ,
हेल्लो ! हेल्लो !
में कहां की कादम्बरी !
मैं यहां हूँ कादम्बरी !


10
होने को मैं थी
और मुझे
होना नहीं था
शापमुक्त हो कर खुद को
खोना  नहीं था
कथन शापग्रस्त मुझको
ढोना नहीं था
रोना मेरा
रोना धोना
रोना नहीं था.
एक जीवन था कहीं जो
दूजा होना था
दूसरे को पहले जैसी
पूजा होना था.
मुक्त
शापमुक्त !
लेकिन फिर भी
शापग्रस्त !
वृत्त अनावृत्त
अनावृत्त में भी वृत्त
कथा, तुमको कथा में

कदम्ब होना था !  
______________
मेरा पूरा नाम मुझे 'अतुलवीर अरोड़ा'की शक्ल में मिला है जिसे मैंने कभी बदलने की कोशिश नहीं की. जन्म (२६ सितंबर, १९४६ ) मेरा लाहौर में हुआ था जब पाकिस्तान बनने के खटके शुरू हो चुके थे. पुराने पंजाब से विलग होने के बाद नए पंजाब में अमृतसर, जालंधर, शिमला, चंडीगढ़, दिल्ली, और अब पंचकूला (हरियाणा ) में स्थायी वास. पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए.,हिंदी (१९६८)और पी-एच.डी. ( भाषा संकाय,१९७१)

पुस्तकें :  'आधुनिकता के संदर्भ में आज का हिंदी उपन्यास' (आलोचना), समकालीन रचनाशीलता और रंगतन्त्र -विचार  (आलोचना), 'एक समुद्र चुपचाप ' (कविता संग्रह), 'जैसे परम्परा सजाते हुए' (तेजी ग्रोवर और अर्नेस्ट अल्बर्ट  के साथ मिलकर प्रकाशित  किया गया कविता संकलन), सहयोगी कविता-कहानी संकलनों में हिस्सेदारी. मसलन,  'निषेध के बाद'(संपादक : दिविक रमेश), 'बच्चे की वापसी' (संपादक :बलदेव वंशी)'कितना अन्धेरा है'(लंबी कविताएं,सम्पादन : मोहन सपरा), 'कविता दशक' (प्रताप सहगल, सुखबीर सिंह ), 'कहानी के आसपास',  'आज की हिंदी कहानी'इत्यादि. 

थियेटर और फिल्म जगत में अभिनय के माध्यम से रह रह कर दखल (१९७४ से २००८ तक)

कई रंग -नाटकों की रचना. एक काव्य नाटक, 'गुनाहगार हाज़िर है',  हाल ही में  (स्व.)नीलाभ के सम्पादन में 'रंगप्रसंग ' (४६ ) में प्रकाशित. 
atulveera@gmail.com

कालजयी (४) : गदल (रांगेय राघव)

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पेंटिग : लाल रत्नाकर















रांगेय राघव
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तिरुमलै नम्बाकम वीर राघवाचार्य  उर्फ रांगेय राघव (१७ जनवरी१९२३ - १२ सितंबर१९६२) का रचनासंसार इतना विस्तृत और  बहुविषयक है कि भारतेंदु की रचनाशीलता की याद आती है,  उनकी किताबों की संख्या १५० बतायी जाती है जिनके विषय – कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना, अनुवाद, पुरातत्व, सभ्यता,  संस्कृति आदि हैं.  रांगेय राघव का जन्म आगरा में हुआ था, पूर्वज दक्षिण आरकाट से आकर यहाँ बस गये थे. मात्र ३९ वर्ष की अवस्था में  ब्लड कैंसर से यह सूर्य अस्त हो गया. प्रो. प्रकाशचन्द्र गुप्त ने उन्हें ‘हिंदी साहित्याकाश का धूमकेतु’ ठीक ही कहा है.

रांगेय राघव के ग्यारह कहानी संग्रह हैं जिनमें ८३ कहानियाँ संकलित हैं. गदल उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी बतायी जाती है. यह एक मजबूत स्त्री की स्तब्ध कर देने वाली सशक्त कथा है. रांगेय राघव हिंदी के ऐसे कथाकार हैं जो कहानी के परिवेश और भाषा पर बहुत मिहनत करते थे. उस परिवेश में जाकर रहते थे. इस कहानी  को पढ़ते हुए आपको इसका बखूबी अहसास होगा.  

कालजयी के इस सिलसिले को बढाते हुए इस कहानी पर आलोचक रोहिणी अग्रवाल की विवेचना भी आप पढ़ेंगें. इससे पहले आप कफन(प्रेमचंद), आकाशदीप(प्रसाद), और पत्नी(जैनेन्द्र) पर आलोचनात्मक आलेख पढ़ चुके हैं.  

पर पहले गदल कहानी पढिये.

ग       द       ल                                                             
रांगेय राघव




बाहर शोरगुल मचा. डोडी ने पुकारा - ''कौन है?''
कोई उत्तर नहीं मिला. आवाज आई - ''हत्यारिन! तुझे कतल कर दूंगा !''
स्त्री का स्वर आया - ''करके तो देख! तेरे कुनबे को डायन बनके न खा गई, निपूते!''
डोडी बैठा न रह सका. बाहर आया.
''क्या करता है, क्या करता है, निहाल?'' - डोडी बढक़र चिल्लाया - ''आखिर तेरी मैया है.''
''मैया है!'' - कहकर निहाल हट गया.
''और तू हाथ उठाके तो देख!''स्त्री ने फुफकारा - ''कढीख़ाए! तेरी सींक पर बिल्लियाँ चलवा दँू! समझ रखियो! मत जान रखियो! हाँ! तेरी आसरतू नहीं हूँ.''
''भाभी!'' - डोडी ने कहा - ''क्या बकती है? होश में आ!''
वह आगे बढा. उसने मुडक़र कहा - ''जाओ सब. तुम सब लोग जाओ!''
निहाल हट गया. उसके साथ ही सब लोग इधर-उधर हो गए.
डोडी निस्तब्ध, छप्पर के नीचे लगा बरैंडा पकडे ख़डा रहा. स्त्री वहीं बिफरी हुई-सी बैठी रही. उसकी आँखों में आग-सी जल रही थी.
उसने कहा - ''मैं जानती हूँ, निहाल में इतनी हिम्मत नहीं. यह सब तैने किया है, देवर!''
''हाँ गदल!'' - डोडी ने धीरे से कहा - ''मैंने ही किया है.''
गदल सिमट गई. कहा - ''क्यों, तुझे क्या जरूरत थी?''

डोडी क़ह नहीं सका. वह ऊपर से नीचे तक झनझना उठा. पचास साल का वह लंबा खारी गूजर, जिसकी मूछें खिचडी हो चुकी थीं, छप्पर तक पहुंचा -सा लगता था.

उसके कंधे की चौडी हड्डियों पर अब दिए का हल्का प्रकाश पड रहा था, उसके शरीर पर मोटी फतुही थी और उसकी धोती घुटनों के नीचे उतरने के पहले ही झूल देकर चुस्त-सी ऊपर की ओर लौट जाती थी. उसका हाथ कर्रा था और वह इस समय निस्तब्ध खडा रहा.

स्त्री उठी. वह लगभग 45वर्षीया थी, और उसका रंग गोरा होने पर भी आयु के धँुधलके में अब मैला-सा दिखने लगा था. उसको देखकर लगता था कि वह
फुर्तीली थी. जीवन-भर कठोर मेहनत करने से, उसकी गठन के ढीले पडने पर भी उसकी फूर्ती अभी तक मौजूद थी.
''तुझे शरम नहीं आती, गदल?'' - डोडी ने पूछा.
''क्यों, शरम क्यों आएगी?'' - गदल ने पूछा.
डोडी क्षणभर सकते में पड ग़या. भीतर के चौबारे से आवाज आई - ''शरम क्यों आएगी इसे? शरम तो उसे आए, जिसकी आँखों में हया बची हो.''
''निहाल!'' - डोडी चिल्लाया - ''तू चुप रह!''
फिर आवाज बंद हो गई.
गदल ने कहा - ''मुझे क्यों बुलाया है तूने?''
डोडी ने इस बात का उत्तर नहीं दिया. पूछा - ''रोटी खाई है?''
''नहीं, ''गदल ने कहा - ''खाती भी कब? कमबखत रास्ते में मिले. खेत होकर लौट रही थी. रास्ते में अरने-कंडे बीनकर संझा के लिए ले जा रही थी.''

डोडी ने पुकारा - ''निहाल! बहू से कह, अपनी सास को रोटी दे जाय!''
भीतर से किसी स्त्री की ढीठ आवाज सुनाई दी - ''अरे, अब लौहरों की बैयर आई हैं; उन्हें क्यों गरीब खारियों की रोटी भाएगी?''
कुछ स्त्रियों ने ठहाका लगाया.
निहाल चिल्लाया - ''सुन ले, परमेसुरी, जगहँसाई हो रही है. खारियों की तो तूने नाक कटाकर छोडी.''





(दो)

गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था. गदल विधवा हो गई. गदल का बडा बेटा निहाल तीस वर्ष के पास पहँुच रहा था. उसकी बहू दुल्ला का बडा बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी.

निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिनों थी चम्पा और चमेली, जिसका क्रमशः झाज और विश्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था. आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतरकर धूल में घुटरूवन चलने लगे थे. अंतिम पुत्र नारायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ बननेवाली थी. ऐसी गदल, इतना बडा परिवार छोडक़र चली गई थी और बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर के यहाँ जा बैठी थी.

डोडी ग़ुन्ना का सगा भाई था. बहू थी, बच्चे भी हुए. सब मर गए. अपनी जगह अकेला रह गया. गुन्ना ने बडी-बडी क़ही, पर वह फिर अकेला ही रहा, उसने ब्याह नहीं किया, गदल ही के चूल्हे पर खाता रहा. कमाकर लाता, वो उसी को दे देता, उसी के बच्चों को अपना मानता, कभी उसने अलगाव नहीं किया. निहाल अपने चाचा पर जान देता था. और फिर खारी गूजर अपने को लौहरों से ऊँच समझते थे.

गदल जिसके घर बैठी थी, उसका पूरा कुनबा था. उसने गदल की उम्र नहीं देखी, यह देखा कि खारी औरत है, पडी रहेगी. चूल्हे पर दम फूंकनेवाली की जरूरत भी थी.

आज ही गदल सवेरे गई थी और शाम को उसके बेटे उसे फिर बाँध लाए थे. उसके नए पति मौनी को अभी पता भी नहीं हुआ होगा. मौनी रँडुआ था. उसकी भाभी जो पाँव फैलाकर मटक-मटककर छाछ बिलोती थी - दुल्लो सुनेगी तो क्या कहेगी?
गदल का मन विक्षोभ से भर उठा.
आधी रात हो चली थी. गदल वहीं पडी थी. डोडी वहीं बैठा चिलम फूंक रहा था.
उस सन्नाटे में डोडी ने धीरे से कहा - ''गदल!''
''क्या है?'' - गदल ने हौले से कहा.
''तू चली गई न?''
गदल बोली नहीं. डोडी ने फिर कहा - ''सब चले जाते हैं. एक दिन तेरी देवरानी चली गई, फिर एक-एक करके तेरे भतीजे भी चले गए. भैया भी चला गया.पर तू जैसी गई; वैसे तो कोई भी नहीं गया. जग हँसता है, जानती है?''

गदल बुरबुराई - ''जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था. तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आई थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमर गई, अब उसे खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई?''
''नहीं.''
''तु तो बस यही सोच करता होगा कि गदल गई, अब पहले-सा रोटियों का आराम नहीं रहा. बहुएँ नहीं करेंगी तेरी चाकरी देवर! तूने भाई से और मुझसे निभाई, तो मैंने भी तुझे अपना ही समझा! बोल झूठ कहती हूँ?''
''नहीं, गदल, मैंने कब कहा!''
''बस यही बात है देवर! अब मेरा यहाँ कौन है! मेरा मरद तो मर गया. जीते-जी मैंने उसकी चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई. पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हडक़ंप उठाऊँ? यह लडक़े, यह बहुएँ! मैं इनकी गुलामी नहीं करूँगी!''
''पर क्या यह सब तेरी औलाद नहीं बावरी. बिल्ली तक अपने जायों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है. तेरी माया-ममता कहाँ चली गई?''
''देवर, तेरी कहाँ चली गई थी, तूने फिर ब्याह न किया.''
''मुझे तेरा सहारा था गदल!''
''कायर! भैया तेरा मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था. तूने मुझे पेट के लिए पराई डयौढी लँघवाई.
चूल्हा मैं तब फूं फूं , जब मेरा कोई अपना हो. ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके. मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लँूगी.
समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब. अब कुनबे की नाक पर चोट पडी, तब सोचा. तब न सोचा, जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेरकर देखा. अरे, कौन किसकी परवा करता है!''
''गदल!'' - डोडी ने भर्राए स्वर में कहा - ''मैं डरता था.''
''भला क्यों तो?''
''गदल, मैं बुढ्ढा हूँ. डरता था, जग हँसेगा. बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्माँ से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया. गदल,भैया की भी बदनामी होती न?''
''अरे चल रहने दे!''गदल ने उत्तर दिया - ''भैया का बडा ख्याल रहा तुझे? तू नहीं था कारज में उनके क्या? मेरे सुसर मरे थे, तब तेरे भैया ने बिरादरी को जिमाकर होठों से पानी छुलाया था अपने. और तुम सबने कितने बुलाए? तू भैया दो बेटे. यही भैया हैं, यहीं बेटे हैं? पच्चीस आदमी बुलाए कुल. क्यों आखिर? कह दिया लडाई में कानून है. पुलिस पच्चीस से ज्यादा होते ही पकड ले जाएगी! डरपोक कहीं के! मैं नहीं रहती ऐसों के.''
हठात् डोडी क़ा स्वर बदला. कहा - ''मेरे रहते तू पराए मरद के जा बैठेगी?''
''हाँ.''
''अबके तो कह!'' - वह उठकर बढा.
''सौ बार कहूँ लाला!''गदल पडी-पडी बोली.
डोडी बढा.
''बढ!'' - गदल ने फुफकारा.

डोडी रूक़ गया. गदल देखती रही. डोडी ज़ाकर बैठ गया. गदल देखती रही. फिर हँसी. कहा - ''तू मुझे करेगा! तुझमें हिम्मत कहाँ है देवर! मेरा नया मरद है न? मरद है. इतनी सुन तो ले भला. मुझे लगता है तेरा भइया ही फिर मिल गया है मुझे. तू?'' - वह रूकी- ''मरद है! अरे कोई बैयर से घिघियाता है? बढक़र जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपनापा मानता हैं. मैं इस घर में रहूँगी?''
डोडी देखता ही रह गया. रात गहरी हो गई. गदल ने लहँगे की पर्त फैलाकर तन ढक लिया. डोडी ऊँघने लगा.




(तीन)

ओसारे में दुल्ले ने अँगडाई लेकर कहा - ''आ गई देवरानी जी! रात कहाँ रही?''
सूका डूब गया था. आकाश में पौ फट रही थी. बैल अब उठकर खडे हो गए थे. हवा में एक ठंडक थी.
गदल ने तडाक से जवाब दिया - ''सो, जेठानी मेरी! हुकुम नहीं चला मुझ पर. तेरी जैसी बेटियाँ है मेरी. देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नहीं.''
दुल्लो सकपका गई. मौनी उठा ही था. भन्नाया हुआ आया. बोला- ''कहाँ गई थी?''
गदल ने घुंघट खींच लिया, पर आवाज नहीं बदली. कहा - ''वही ले गए मुझे घेरकर! मौका पाके निकल आई.''

मौनी दब गया. मौनी का बाप बाहर से ही ढोर हाँक ले गया. मौनी बढा.
''कहाँ जाता है?'' - गदल ने पूछा.
''खेत-हार.''
''पहले मेरा फैसला कर जा.''गदल ने कहा.

दुल्लो उस अधेड स्त्री क़े नक्शे देखकर अचरज में खडी रही.
''कैसा फैसला? - मौना ने पूछा. वह उस बडी स्त्री से दब गया.
''अब क्या तेरे घर का पीसना पीसूगी मैं?'' - गदल ने कहा - ''हम तो दो जने हैं. अलग करेंगे खाएँगे.'' - उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही यह कहती रही - ''कमाई शामिल करो, मैं नहीं रोकती, पर भीतर तो अलग-अलग भले.''

मौनी क्षण-भर सन्नाटे में खडा रहा. दुल्लो तिनककर निकली. बोली - ''अब चुप क्यों हो गया, देवर? बोलता क्यों नहीं? देवरानी लाया है कि सास! तेरी बोलती क्यों नहीं कढती? ऐसी न समझियो तू मुझे! रोटी तवे पर पलटते मुझे भी आँच नहीं लगती, जो मैं इसकी खरी-खोटी सुन लँूगी,समझा? मेरी अम्माँ ने भी मुझे चूल्हे की मट्टी खाके ही जना था. हाँ!''

''अरी तो सौत!'' - गदल ने पुकारा - ''मट्टी न खा के आई, सारे कुनबे को चबा जाएगी डायन. ऐसी नहीं तेरी गुड क़ी भेली है, जो न खाएंगे हम, तो रोटी गले में फंदा मार जाएगी.''

मौनी उत्तर नहीं दे सका. वह बाहर चला गया. दुपहर हो गई. दुल्लो बैठी चरखा कात रही थी. नरायन ने आकर आवाज दी - ''कोई है?''
दुल्लो ने घुंघट काढ लिया. पूछ - ''कौन हो?''
नरायन ने खून का घूंट  पीकर कहा - ''गदल का बेटा हूँ.''
दुल्लो घुंघट में हँसी. पूछा - ''छोटे हो कि बडे?''
''छोटा.''
''और कितने है!''
''कित्ते भी हों. तुझे क्या?'' - गदल ने निकालकर कहा.
''अरे आ गई!''कहकर दुल्लो भीतर भागी.
''आने दे आज उसे. तुझे बता दँूगी जिठानी!'' - गदल ने सिर हिलाकर कहा.
''अम्माँ!'' - नरायन ने कहा - ''यह तेरी जिठानी!''
''क्यों आया है तू? यह बता!'' - गदल झल्लाई.
''दंड धरवाने आया हूँ, अम्माँ! - कहकर नरायन आगे बैठने को बढा.
''वहीं रह!'' - गदल ने कहा.

उसी समय लोटा-डोर लिए मौनी लौटा. उसने देखा कि गदल ने अपने कडे अौर हँसली उतारकर फेक दी और कहा - ''भर गया दंड तेरा! अब मरद का सब माल दबाकर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है.''
नरायन का मुंह स्याह पड ग़या. वह गहने उठाकर चला गया. मौनी मन-ही-मन शंकित-सा भीतर आया.

दुल्लो ने शिकायत की - ''सुना तूने देवर! देवरानी ने गहने दे दिए. घुटना आखिर पेट को ही मुडा. चार जगह बैठेगी, तो बेटों के खेत की डौर पर डंडा-धूआ तक लग जाएँगे, पक्का चबूतरा घर के आगे बन जाएगा, समझा देती हूँ. तुम भोले-भाले ठहरे. तिरिया-चरित्तर तुम क्या जानो. धंधा है यह भी. अब कहेगी, फिर बनवा मुझे.''

गदल हँसी, कहा- ''वाह जिठानी, पुराने मरद का मोल नए मरद से तेरे घर की बैयर चुकवाती होंगी. गदल तो मालकिन बनकर रहती है, समझी! बाँदी बनकर नहीं. चाकरी करूँगी तो अपने मरद की, नहीं तो बिधना मेरे ठेंगे पर. समझी! तू बीच में बोलनेवाली कौन?''
दुल्लो ने रोष से देखा और पाँव पटकती चली गई.
मौनी ने देखा और कहा - ''बहुत बढ-बढक़र बातें मत हाँक, समझ ले घर में बहू बनकर रह!''
''अरे तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम!'' - गदल ने मुस्कराकर कहा - ''तब से मैं सब जानती हूँ. मुझे क्या सिखाता है तू? ऐसा कोई मैंने काम नहीं किया है, जो बिरादरी के नेम के बाहर हो. जब तू देखे, मैंने ऐसी कोई बात की हो, तो हजार बार रोक, पर सौत की ठसक नहीं सहूँगी.''
''तो बताऊँ तुझे!'' - वह सिर हिलाकर बोला.
गदल हँसकर ओबरी में चली गई और काम में लग गई.





(चार) 

ठंडी हवा तेज हो गई. डोडी चुपचाप बाहर छप्पर में बैठा हुक्का पी रहा था. पीते-पीते ऊब गया और उसने चिलम उलट दी और फिर बैठा रहा.

खेत से लौटकर निहाल ने बैल बाँधे, न्यार डाला और कहा - ''काका!''डोडी क़ुछ सोच रहा था. उसने सुना नहीं.
''काका!'' - निहाल ने स्वर उठाकर कहा.
''हे!''डोडी चौक उठा - ''क्या है? मुझसे कहा कुछ?''
''तुमसे न कहूँगा, तो कहूँगा किससे? दिन-भर तो तुम मिले नहीं. चिम्मन कढेरा कहता था, तुमने दिन-भर मनमौजी बाबा की धूनी के पास बिताया, यह सच है?''
''हाँ, बेटा, चला तो गया था.''
''क्यों गए थे भला?''
''ऐसे ही जी किया था, बेटा!''
''और कस्बे से घी कटऊ क्या कराया कि बनिए का आदमी आया था. मैंने कहा - ''नहीं है, वह बोला - लेके जाऊँगा. झगडा होते-होते बचा.''
''ऐसा नहीं करते, बेटा!'' - डोडी ने कहा - ''बौहरे से कोई झगडा मोल लेता है?''

निहाल ने चिलम उठाई, कंडों में से आँच बीनकर धरी और फँूक लगाता हुआ आया. कहा - ''मैं तो गया नहीं. सिर फूट जाते. नरायन को भेजा था.''
''कहाँ?''डोडी चौंका.
''उसी कुलच्छनी कुलबोरनी के पास.''
''अपनी माँ के पास?''
''न जाने तुम्हें उससे क्या है, अब भी तुम्हें उस पर गुस्सा नहीं आता. उसे माँ कहूँगा मैं?''
''पर बेटा, तू न कह, जग तो उसे तेरी माँ ही कहेगा. जब तक मरद जीता है, लोग बैयर को मरद की बहू कहकर पुकारते हैं, जब मरद मर जाता है, तो लोग उसे
बेटे की अम्माँ कहकर पुकारते हैं. कोई नया नेम थोडी ही है.''
निहाल भुनभुनाया. कहा- ''ठिक है, काका ठीक है, पर तुमने अभी तक ये तो पूछा ही नहीं कि क्यों भेजा था उसे?''
''हाँ बेटा!'' - डोडी ने चौंककर कहा - ''यहा तो तूने बताया ही नहीं! बता न?''
''दंड भरवाने भेजा था. सो पंचायत जुडवाने के पहले ही उसने तो गहने उतार फेंके.''

डोडी मुस्कुराया. कहा - ''तो वह यह बता रही है कि घरवालों ने पंचायत भी नहीं जुडवाई? यानी हम उसे भगाना ही चाहते थे. नरायन ले आया?''
''हाँ.''
डोडी सोचने लगा.
''मैं फेर आऊँ?'' - निहाल ने पूछा.
''नहीं बेटा!''डोडी ने कहा - ''वह सचमुच रूठकर ही गई है. और कोई बात नहीं है. तूने रोटी खा ली?''
''नहीं.''
''तो जा पहले खा ले.''
निहाल उठ गया, पर डोडी बैठा रहा. रात का अँधेरा साँझ के पीछे ऐसे आ गया, जैसे कोई पर्त उलट गई हो.
दूर ढोला गाने की आवाज आने लगी. डोडी उठा और चल पडा.
निहाल ने बहू से पूछा - ''काका ने खा ली?''
''नहीं तो.''
निहाल बाहर आया. काका नहीं थे.
''काका.''उसने पुकारा.
राह पर चिरंजी पुजारी गढवाले हनुमानजी के पट बंद करके आ रहा था. उसने पुछा -''क्या है रे?''
''पाँय लागूँ, पंडितजी.''निहाल ने कहा - ''काका अभी तो बैठे थे.''
चिरंजी ने कहा- ''अरे, वह वहाँ ढोल सुन रहा है. मैं अभी देखकर आया हूँ.''
चिरंजी चला गया, निहाल ठिठक खडा रहा. बहू ने झाँककर पूछा- ''क्या हुआ?''
''काका ढोला सुनने गए हैं.'' - निहाल ने अविश्वास से कहा - ''वे तो नहीं जाते थे.''
''जाकर बुला ले आओ. रात बढ रही है.'' - बहू ने कहा और रोते बच्चे को दूध पिलाने लगी.
निहाल जब काका को लेकर लौटा, तो काका की देही तप रही थी.
''हवा लग गई है और कुछ नहीं.'' - डोडी ने छोटी खटिया पर अपनी निकाली टाँगे समेटकर लेटते हुए कहा - ''रोटी रहने दे, आज जी नहीं चाहता.''
निहाल खडा रहा. डोडी ने कहा - ''अरे, सोच तो, बेटा! मैंने ढोला कितने दिन बाद सुना है.

उस दिन भैया की सुहागरात को सुना था, या फिर आज ....''
निहाल ने सुना और देखा, डोडी आंख मीचकर कुछ गुनगुनाने लगा था ..




(पांच)

शाम हो गई थी. मौनी बाहर बैठा था. गदल ने गरम-गरम रोटी और आम की चटनी ले जाकर खाने को धर दी.
''बहुत अच्छी बनी है.'' - मौनी ने खाते हुए कहा - ''बहुत अच्छी है.''
गदल बैठ गई. कहा - ''तुम एक ब्याह और क्यों नहीं कर लेते अपनी उमिर लायक?''
मौनी चौंका. कहा - ''एक की रोटी भी नहीं बनती?''
''नहीं'', गदल ने कहा - ''सोचते होंगे सौत बुलाती हूँ , पर मरद का क्या? मेरी भी तो ढलती उमिर है. जीते जी देख जाऊँगी तो ठीक है. न हो ते हुकूमत करने को तो एक मिल जाएगी.''
मौना हँसा. बोला - ''यों कह. हौंस है तुझे, लडने को चाहिए.''
खाना खाकर उठा, तो गदल हुक्का भरकर दे गई और आप दीवार की ओट में बैठकर खाने लगी. इतने में सुनाई दिया - ''अरे, इस बखत कहाँ चला?''
''जरूरी काम है, मौनी!'' - उत्तर मिला - ''पेसकार साब ने बुलवाया है.''
गदल ने पहचाना. उसी के गाँव का तो था, घोटया मैना का चंदा गिर्राज ग्वारिया. जरूर पेसकार की गाय की चराने की बात होगी.
''अरे तो रात को जा रहा है?'' - मौनी ने कहा - ''ले चिलम तो पीता जा.''
आकर्षण ने रोका. गिर्राज बैठ गया. गदल ने दूसरी रोटी उठाई. कौर मुंह में रखा.
''तुमने सुना?''गिर्राज ने कहा और दम खींचा.
''क्या?''मौनी ने पूछा.
''गदल का देवर डोडी मर गया.''
गदल का मुंह  रूक गया. जल्दी से लोटे के पानी के संग कौर निगला और सुनने लगी. कलेजा मुंह को आने लगा.
''कैसे मर गया?'' - मौनी ने कहा - ''वह तो भला-चंगा था!''
''ठंड लग गई, रात उघाडा रह गया.''
गदल द्वार पर दिखाई दी. कहा - ''गिर्राज!''
''काकी!'' - गिर्राज ने कहा - ''सच. मरते बखत उसके मुंह से तुम्हारा नाम कढा था, काकी. बिचारा बडा भला मानस था.''
गदल स्तब्ध खडी रही.
गिर्राज चला गया.
गदल ने कहा - ''सुनते हो!''
''क्या है री?''
''मैं जरा जाऊँगी.''
''कहाँ? - वह आतंकित हुआ.
''वहीं.''
''क्यों?''
''देवर मर गया है न?''
''देवर! अब तो वह तेरा देवर नहीं.''
गदल झनझनाती हुई हँसी हँसी - ''देवर तो मेरा अगले जनम में भी रहेगा. वही न मुझे रूखाई दिखाता, तो क्या यह पाँव कटे बिना उस देहरी से बाहर निकल सकते थे? उसने मुझसे मन फेरा, मैने उससे. मैंने ऐसा बदला लिया उससे!''
कहते कहते वह कठोर हो गई.
''तू नहीं जा सकती.'' - मौनी ने कहा.
''क्यों?'' - गदल ने कहा - ''तू रोकेगा? अरे, मेरे खास पेट के जाए मुझे रोक न पाए. अब क्या है? जिसे नीचा दिखाना चाहती थी, वही न रहा और तू मुझे रोकनेवाला है कौन? अपने मन से आई थी, रहूँगी, नहीं रहूँगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है. इतना बोल तो भी लिया - तू जो होता मेरे उस घर में तो, तो जीभ कढवा लेती तेरी.''
''अरी चल-चल.''
मौनी ने हाथ पकडकर उसे भीतर धकेल दिया और द्वार पर खाट डालकर लेटकर हुक्का पीने लगा.
गदल भीतर रोने लगी, परंतु इतने धीरे कि उसकी सिसकी तक मौनी नहीं सुन सका. आज गदल का मन बहा जा रहा था. रात का तीसरा पहर बीत रहा था. मौनी की नाक बज रही थी. गदल ने पूरी शक्ति लगाकर छप्पर का कोना उठाया और साँपिन की तरह उसके नीचे से रेंगकर दूसरी ओर कूद गई.



(छह)

मौनी रह-रहकर तडपता था. हिम्मत नहीं होती थी कि जाकर सीधे गाँव में हल्ला करे और लट्ठ के बल पर गदल को उठा लाए. मन करता सुसरी की टाँगे तोड दे. दुल्लो ने व्यंग्य भी किया कि उसकी लुगाई भागकर नाक कटा गई है, खून का-सा घूंट पीकर रह गया. गूजरों ने जब सुना, तो कहा - ''अरे बुढिया के लिए खून-खराबा कराएगा! और अभी तेरा उसने खरच ही क्या कराया है? दो जून रोटी खा गई है, तुझे भी तो टिक्कड ख़िलाकर ही गई!''
मौनी का क्रोध भडक़ गया.
घोटया का गिर्राज सुना गया था.

जिस वक्त गदल पहुंची,पटेल बैठा था. निहाल ने कहा था - ''खबरदार! भीतर पाँव न धरियो!''
''क्यों लौट आई है, बहू?''पटेल चौंका था. बोला- ''अब क्या लेने आई है?''
गदल बैठ गई. कहा - ''जब छोटी थी, तभी मेरा देवर लट्ठ बाँध मेरे खसम के साथ आया था. इसी के हाथ देखती रह गई थी मैं तो. सोचा था मरद है, इसकी छत्तर-छाया में जी लँूगी. बताओ, पटेल, वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका, तो क्या करती? अरे, मैं न रही, तो इनसे क्या हुआ? दो दिन में काका उठ गया न? इनके सहारे मैं रहती तो क्या होता?''
पटेल ने कहा- ''पर तूने बेटा-बेटी की उमर न देखी बहू.''
''ठीक है'', गदल ने कहा - ''उमर देखती कि इज्जत, यह कहो. मेरी देवर से रार थी, खतम हो गई. ये बेटा है, मैने कोई बिरादरी के नेम के बाहर की बात की हो तो रोककर मुझ पर दावा करो. पंचायत में जवाब दँूगी. लेकिन बेटों ने बिरादरी के मुंह पर थूका, तब तुम सब कहाँ थे?''
''सो कब?'' - पटेल ने आश्चर्य से पूछा.
''पटेल न कहेंगे तो कौन कहेगा? पच्चीस आदमी खिलाकर लुटा दिया मेरे मरद के कारज में!''
''पर पगली, यह तो सरकार का कानून था.''
''कानून था!'' - गदल हँसी - ''सारे जग में कानून चल रहा है, पटेल?

दिन दहाडे भैंस खोलकर लाई जाती हैं. मेरे ही मरद पर कानून था? यों न कहोगे, बेटों ने सोचा, दूसरा अब क्या धरा है, क्यों पैसा बिगाडते हो?कायर कहीं के?''
निहाल गरजा - ''कायर! हम कायर? तू सिंधनी?''
''हाँ मैं सिंधनी!'' ...ग़दल तडपी - ''बोल तुझमें है हिम्मत?''
''बोल!'' - ''वह भी चिल्लाया.
''जा, बिरादरी कारज में न्योता दे काका के.'' - गदल ने कहा.
निहाल सकपका गया. बोला - ''पुलस ...''
ग़दल ने सीना ठोंककर कहा - ''बस?''
''लुगाई बकती है!'' - पटेल ने कहा - ''गोली चलेगी, तो?''
गदल ने कहा - ''धरम-धुरंधरों ने तो डूबो ही दी. सारी गुजरात की डूब गई, माधो. अब किसी का आसरा नहीं. कायर-ही-कायर बसे हैं.''
फिर अचानक कहा - ''मैं करूँ परबंध?''
''तू?'' - निहाल ने कहा.
''हाँ, मैं!'' ...और उसकी आँखों में पानी भर आया. कहा - ''वह मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही करूँगी.''

मौनी आश्चर्य में था. गिर्राज ने बताया था कि कारज का जोरदार इंतजाम है. गदल ने दरोगा को रिश्वत दी है. वह इधर आएगा ही नहीं. गदल बडा इंतजाम कर रही है. लोग कहते है, उसे अपने मरद का इतना गम नहीं हुआ था, जितना अब लगता है.

गिरर््राज तो चला गया था, पर मौनी में विष भर गया था. उसने उठते हुए कहा - ''तो गदल! तेरी भी मन की होने दूँ.सो गोला का मौनी नहीं. दरोगा का मुंह बंद कर दे, पर उससे भी ऊपर एक दरबार है. मैं कस्बे में बडे दरोगा से शिकायत करूँगा.''


(सात)

कारज हो रहा था. पाँते बैठतीं, जीमतीं, उठ जातीं और कढाव से पुए उतरते. बाहर मरद इंतजाम कर रहे थे, खिला रहे थे. निहाल और नरायन ने लडाई में महँगा नाज बेचकर जो घडो में नोटों की चाँदी बनाकर डाली थी, वह निकली और बौहरे का कर्ज चढा. पर डाँग में लोगों ने कहा -''गदल का ही बूता था. बेटे तो हार बैठे थे. कानून क्या बिरादरी से ऊपर है?''

गदल थक गई थी. औरतों में बैठी थी. अचानक द्वार में से सिपाही-सा दीखा. बाहर आ गई. निहाल सिर झुकाए खडा था.
''क्या बात है, दीवानजी?'' - गदल ने बढक़र पूछा.
स्त्री का बढक़र पूछना देख दीवान सकपका गया.
निहाल ने कहा - ''कहते हैं कारज रोक दो.''
''सो, कैसे?'' - गदल चौंकी.
''दरोगाजी ने कहा है.''दीवानजी ने नम्र उत्तर दिया.
''क्यों? उनसे पूछकर ही तो किया जा रहा है.''उसका स्पष्ट संकेत था कि रिश्वत दी जा चुकी है.
दीवान ने कहा - ''जानता हूँ, दरोगाजी तो मेल-मुलाकात मानते हैं, पर किसी ने बडे दरोगाजी के पास शिकायत पहुंचा ई है, दरोगाजी को आना ही पडेग़ा. इसी से
उन्होंने कहला भेजा है कि भीड छाँट दो. वर्ना कानूनी कार्रवाई करनी पडेग़ी.''

क्षणभर गदल ने सोचा. कौन होगा वह? समझ नहीं सकी. बोली - ''दरोगाजी ने पहले नहीं सोचा यह सब? अब बिरादरी को उठा दें? दीवानजी, तुम भी बैठकर पत्तल परोसवा लो. होगी सो देखी जाएगी. हम खबर भेज देंगे, दरोगा आते ही क्यों हैं? वे तो राजा है.''
दीवानजी ने कहा -''सरकारी नौकरी है. चली जाएगी? आना ही होगा उन्हें.''
''तो आने दो!'' - गदल ने चुभते स्वर से कहा - ''सब गिरफ्तार कर लिए जाएँगे. समझी! राज से टक्कर लेने की कोशिश न करो.''
अरे तो क्या राज बिरादरी से ऊपर है?'' - गदल ने तमककर कहा - ''राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धर्म नहीं छोड देंगे, तुम सुन लो! तुम धरम छीन लो, तो हमें जीना हराम है.''
गदल के पाँव के धमाके से धरती चल गई.
तीन पाँते और उठ गई, अंतिम पाँत थी. निहाल ने अँधेरे में देखकर कहा - ''नरायन, जल्दी कर. एक पाँत बची है न?''
गदल ने छप्पर की छाया में से कहा - ''निहाल!''
निहाल गया.
''डरता है?'' - गदल ने पूछा.
सूखे होठों पर जीभ फेरकर उसने कहा - ''नहीं!''
''मेरी कोख की लाज करनी होगी तुझे.'' - गदल ने कहा - ''तेरे काका ने तुझको बेटा समझकर अपना दूसरा ब्याह नामंजूर कर दिया था. याद रखना,उसके और कोई नहीं.''
निहाल ने सिर झुका लिया.
भागा हुआ एक लडक़ा आया.
''दादी!''वह चिल्लाया.
''क्या है रे?'' - गदल ने सशंक होकर देखा.
''पुलिस हथियारबंद होकर आ रही है.''
निहाल ने गदल की ओर रहस्यभरी दृष्टि से देखा.
गदल ने कहा - ''पाँत उठने में ज्यादा देर नहीं है.''
''लेकिन वे कब मानेंगे?''
''उन्हें रोकना होगा.''
''उनके पास बंदूकें हैं.''
''बंदूकें हमारे पास भी हैं, निहाल!'' - गदल ने कहा - ''डाँग में बंदूकों की क्या कमी?''
''पर हम फिर खाएँगे क्या!''
''जो भगवान देगा.''
बाहर पुलिस की गाडी क़ा भोंपू बजा. निहाल आगे बढा. दरोगा ने उतरकर कहा - ''यहाँ दावत हो रही है?''
निहाल भौंचक रह गया. जिस आदमी ने रिश्वत ली थी, अब वह पहचान भी नहीं रहा था.
''हाँ. हो रही है?'' - उसने क्रुद्ध स्वर में कहा.
''पच्चीस आदमी से ऊपर है?''
''गिनकर हम नहीं खिलाते, दरोगाजी!''

''मगर तुम कानून तो नहीं तोड सकते.
''राज का कानून कल का है, मगर बिरादरी का कानून सदा का है, हमें राज नहीं लेना है, बिरादरी से काम है.''
''तो मैं गिरफ्तार करूँगा!''
गदल ने पुकारा - ''निहाल.''
निहाल भीतर गया.
गदल ने कहा - ''पंगत होने तक इन्हें रोकना ही होगा!''
''फिर!''
''फिर सबको पीछे से निकाल देंगे. अगर कोई पकडा गया, तो बिरादरी क्या कहेगी?''
''पर ये वैसे न रूकेंगे. गोली चलाएँगे.''
''तू न डर. छत पर नरायन चार आदमियों के साथ बंदूकें लिए बैठा है.''
निहाल काँप उठा. उसने घबराए हुए स्वर से समझने की कोशिश की - ''हमारी टोपीदार हैं, उनकी रैफल हैं.''
''कुछ भी हो, पंगत उतर जाएगी.''
''और फिर!''
''तुम सब भागना.''
हठात् लालटेन बुझ गई. धाँय-धाँय की आवाज आई.
गोलियाँ अंधकार में चलने लगीं.
गदल ने चिल्लाकर कहा - ''सौगंध है, खाकर उठना.''
पर सबको जल्दी की फिकर थी.
बाहर धाँय-धाँय हो रही थी. कोई चिल्लाकर गिरा.
पाँत पीछे से निकलने लगी.
जब सब चले गए, गदल ऊपर चढी. निहाल से कहा - ''बेटा!''
उसके स्वर की अखंड ममता सुनकर निहाल के रोंगटे उस हलचल में भी खडे हो गए. इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा - ''तुझे मेरी कोख की सौगंध है. नरायन को और बहू-बच्चों को लेकर निकल जो पीछे से.''
''और तू?''
''मेरी फिकर छोड! मैं देख रही हूँ, तेरा काका मुझे बुला रहा है.''
निहाल ने बहस नहीं की. गदल ने एक बंदूकवाले से भरी बंदूक लेकर कहा - ''चले जाओ सब, निकल जाओ.''
संतान के मोह से जकडे हुए युवकों को विपत्ति ने अंधकार में विलीन कर दिया.
गदल ने घोडा दबाया. क़ोई चिल्लाकर गिरा. वह हँसी. विकराल हास्य उस अंधकार में गँूज उठा.
दरोगा ने सुना तो चौंका, औरत! मरद कहाँ गए! उसके कुछ सिपाहियों ने पीछे से घेराव डाला और ऊपर चढ ग़ए. गोली चलाई. गदल के पेट में लगी.




(आठ)
युद्ध समाप्त हो गया था. गदल रक्त से भीगी हुई पडी थी. पुलिस के जवान इकट्ठे हो गए.
दरोगा ने पूछा - ''यहाँ तो कोई नहीं?''
''हुजूर! - एक सिपाही ने कहा - ''यह औरत है.''
दरोगा आगे बढ आया. उसने देखा और पूछा - ''तू कौन है?''
गदल मुस्कराई और धीरे से कहा - ''कारज हो गया, दरोगाजी! आतमा को सांति मिल गई.''
दरोगा ने झल्लाकर कहा - ''पर तू है कौन?
गदल ने और भी क्षीण स्वर से कहा - ''जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की ... .''
और सिर लुढक़ गया. उसके होठों पर मुस्कराहट ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे अब पुराने अंधकार में जलाकर लाई हुई ...पहले की बुझी लालटेन ..
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कालजयी (४) : गदल : वर्जनाहीन स्त्री-चरित्र की गाथा : रोहिणी अग्रवाल

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तिरुमलै नम्बाकम वीर राघवाचार्य  उर्फ रांगेय राघव (१७ जनवरी, १९२३ - १२ सितंबर, १९६२) का रचनासंसार इतना विस्तृत और  बहुविषयक है कि भारतेंदु की रचनाशीलता की याद आती है,  उनकी किताबों की संख्या १५० बतायी जाती है जिनके विषय – कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना, अनुवाद, पुरातत्व, सभ्यता,  संस्कृति आदि हैं.  रांगेय राघव का जन्म आगरा में हुआ था, पूर्वज दक्षिण आरकाट से आकर यहाँ बस गये थे. मात्र ३९ वर्ष की अवस्था में  ब्लड कैंसर से यह सूर्य अस्त हो गया. प्रो. प्रकाशचन्द्र गुप्त ने उन्हें ‘हिंदी साहित्याकाश का धूमकेतु’ ठीक ही कहा है.

रांगेय राघव के ग्यारह कहानी संग्रह हैं जिनमें ८३ कहानियाँ संकलित हैं. गदल उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी बतायी जाती है. यह एक मजबूत स्त्री की स्तब्ध कर देने वाली सशक्त कथा है. रांगेय राघव हिंदी के ऐसे कथाकार हैं जो कहानी के परिवेश और भाषा पर बहुत मिहनत करते थे. उस परिवेश में जाकर रहते थे. इस कहानी  को पढ़ते हुए आपको इसका बखूबी अहसास होगा.  

कालजयी के इस सिलसिले को बढाते हुए इस कहानी पर आलोचक रोहिणी अग्रवाल की विवेचना भी आप पढ़ेंगें. इससे पहले आप कफन(प्रेमचंद), आकाशदीप(प्रसाद), और पत्नी(जैनेन्द्र) पर आलोचनात्मक आलेख पढ़ चुके हैं.  


गदल : वर्जनाहीन स्त्री-चरित्र की गाथा                                

रोहिणी अग्रवाल
(रांगेय राघव) 



रांगेय राघव हिंदी के ऐसे महत्वपूर्ण कथाकार हैं जो हाशिए के समाज के जीवन-यथार्थ को अपनी रचनाओं के माध्यम से उद्घाटित करते हैं. कब तक पुकारूंउपन्यास के कारण हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है. गदलकहानी की भावभूमि भी इसी उपन्यास के इर्द-गिर्द घूमती है; बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि यह स्वायत्त कहानी न लगकर उपन्यास का ही एक अंश प्रतीत होती है.

गदलकहानी का केन्द्रीय तत्व है प्रेम, जो आत्मपीड़न, समर्पण और उत्सर्ग की चिरपरिचित युक्तियों के साथ कहानी में विकसित होता चलता है. लेकिन इस प्रेम की रंगत ‘उसने कहा थाऔर आकाशदीपसरीखी कहानियों से पूर्णतया भिन्न है. यह एक खास बड़बोलेपन के साथ प्रेम की उपर्युक्त तीनों विशिष्टताओं में अपने होने का अहसास कराता है. कहानी चरित्र प्रधान है और नायिका गदलकी मनोवृत्तियों और इच्छाओं से संचालित है. खारी गूजर वंश की पैंतालीस वर्षीय बहू गदल पति गुन्ना की मृत्यु के बाद अपने भरे-पूरे परिवार को छोड़ बत्तीस वर्षीय विधुर लोहार मौनी के घर ‘बैठजाती है. सभी स्तब्ध हैं कि दो जवान बेटों की माँ ने अपने से छोटी जाति और छोटी वय के पुरूष से विवाह क्यों किया? बेटे की वय के मौनी से विवाह करने का अर्थ तब समझ में आता यदि उसके साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध होता. इसलिए क्रोध और अपमान से धधकता तीस वर्षीय बड़ा बेटा जब-तब उसे कुलच्छनी’, ’कुलबोरनीकहकर मन की भड़ास निकालता है. डोडी, गदल का देवर, महसूस करता है कि गदल का यह कृत्य वास्तव में नया घरबसाने की चाह नहीं, बल्कि डोडी से अपने अपमान का बदला लेने की युक्ति है.

एक अंतरंग मुलाकात में गदल और डोडी दोनों एक-दूसरे के प्रति अपने आकर्षण की बात भी करते हैं. गदल उसे पुरुषोचित कदम न उठाने के लिए धिक्कारती है और डोडी बिरादरी के भय और दिवंगत बड़े भाई प्रति सम्मान की बात कहकर गदल से विवाह न कर पाने की अक्षमता को स्वीकारता है. एक दिन बाद ही डोडी की असामयिक मृत्यु का समाचार पा गदल मौनी से सारे सम्बन्ध तोड़ पुनः अपने परिवार से आ मिलती है. बिरादरी-भोज देकर वह डोडी को श्रद्धांजलि-सुमन अर्पित करना चाहती है और अपनी धुन में परवाह भी नहीं करती कि कानूनन पच्चीस लोगों से अधिक किसी भी भोज का आयोजन करने में पुलिस-कचहरी का चक्कर शुरू हो जाएग. वह न जेल से डरती है, न मृत्यु से. उसे सिर्फ अपनी इच्छा पूरी करनी है और अद्भुत दृढ़ता और निर्भीकता के साथ अपने प्राणों की आहुति देकर वह बिरादरी-भोज सम्पन्न भी कराती है. यह डोडी के प्रति उसका प्रेम-समर्पण और प्रेमोत्सर्ग है.

गदलकहानी की विशेषता है कि यह हिंदी साहित्य को अपनी दृढ़ता-कर्मठता और इच्छाओं से संचालित जैसा वर्जनाहीन स्त्री-चरित्र देती है वैसा मित्रो मरजानीकी मित्रो के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है. गदल की चारित्रिक संरचना बेहद पारदर्शी है. जो भीतर है, वही एक ईमानदार अभिव्यक्ति के साथ बाहर भी है. दुराव-छिपाव और छल गदल से कोसों दूर है. इसलिए लेखक को रुककर, किन्हीं कथा-युक्तियों का सहारा लेकर उसके व्यक्तित्व की सूक्ष्म परतों को उभारने का श्रम नहीं करना पड़ता है. कहानी के प्रारंभ में वह जितनी मुखरा, जुनूनी और निडर है, कहानी के अंतिम भाग में भी. उसके चरित्र की संरचना एक सीधी-सपाट पंक्ति की तरह है, जो पाठक को कथा-विकास के साथ-साथ किन्हीं अतल गहराइयों या उन्नत ऊँचाइयों में ले जाने का लोमहर्षक आह्लाद नहीं देती. केन्द्रीय चरित्र को प्रारम्भ में ही अति-स्पष्ट एवं अपरिवर्तनीय बना देना लेखक के लिए जोखिम का काम है. कथा की सूक्ष्म व्यंजनाओं को प्रामाणिक रूप से उभारने और पाठकीय कौतूहल को बनाए रखने के लिए लेखक प्रायः पात्रों के चरित्र का क्रमिक उद्घाटन करते हैं. इससे पाठक को गहनतर होती कथा के विकास की प्रत्येक अवस्था में कुछ नया पाने और उसी अनुपात में अपने भीतर मनोभावों की महीन परतों के खुलते चले जाने का आभास भी होता है. यह वह स्थिति है जब रचना पाठक को शब्दों की जकड़बंदी से मुक्त कर अहसास की ऐसी दुनिया में ले जाती है, जो उसके भीतर धड़कती है, लेकिन जिससे वह अपरिचित था. अपने भीतर उमगती इस दुनिया को चीन्ह लेने पर वह उसे अपने शब्दों में भले ही न पिरो पाए, लेकिन लेखक के साथ जुड़कर अपने को बेहतर और समृद्धतर पाता है.

कहानी की दुनिया के समानांतर भीतर की दुनिया से तादात्म्य स्थापित कर पाने की यह क्षमता जितनी गहन और उन्नत होती है, कहानी उतनी ही प्रभावशाली और कालातीत होती चलती है. कुशल कथाशिल्पी रांगेय राघव कहानी की इस अर्हता को जानते हैं और पाठक की अपेक्षा को भी. इसलिए घटनाओं के त्वरित वेग और चुटीले संवादों के सहारे वे पाठक की जिज्ञासा को उत्कर्ष की ओर लिए चलते हैं. कहानी का नाटकीय विधान सिर्फ दृश्यात्मकता का परिपाक ही नहीं करता, पाठक को उन क्रिया-व्यापारों का साझीदार होने का वर्चुअल सुख भी देता है. स्पष्ट है कि विचारशील गंभीर पाठक को सम्मोहित दर्शक में तब्दील करने की यह कला कहानी में अंतर्निहित दुर्बलताओं को नजरअंदाज कर देती है.

कहानी में गदल रंगमंच की प्रायः सभी भूमिकाओं का स्वयं निर्वहण करती दीख पड़ती है. वह सूत्रधार, मुख्य अभिनेत्री रंगनिर्देशक और पटकथा-लेखक - सभी भूमिकाओं में समान दक्षता के साथ संचरण करती है. इतनी प्रत्युत्पन्नमतिसम्पन्न कि जहाँ अपने को प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करने में कठिनाई महसूस हो, वहीं एक अन्य विचार/संवेदन को अपने लक्ष्य और कार्यशैली में जोड़कर कथा-गति को प्रवाहमान बनाए रखती है. इसलिए कहानी की संरचना उपन्यास अथवा नाटक के पैटर्न पर आगे बढ़ती है - एक सुस्पष्ट प्रमुख कथा के साथ एक या एकाधिक अन्तर्कथाओं की नियोजना.गदलकहानी में गदल-डोडी प्रेम की मुख्य कथा के साथ-साथ गौण कथा - बिरादरी भोज - भी है जो मुख्य-कथा के प्रभाव को गाढ़ा भी करती है और कथानायिका की चारित्रिक विशिष्टताओं को उसकी सबलताओं-दुर्बलताओं के साथ बखूबी उभारती है.

कथानायिका गदल की विशेषता है कि वह अपने किसी भी मनोभाव और मान्यता को प्रचलित अर्थ के सहारे समझने की रूढ़ि का विरोध करती है. डोडी के प्रति अपने प्रेम की गहराइयों को अभिव्यक्त करने के लिए वह मर्यादा की सभी कगारों को तोड़ते हुए रोष का सहारा लेती है. गुन्ना की किरिया के तुरंत बाद वासनापूर्ति के लिए वह मौनी के घर नहीं बैठती. दरअसल मौनी को पूरी कहानी में वह मरदका दर्जा देती ही नहीं. कभी उसे धमकाते हुए इशारों पर नचाती है, अब कया तेरे घर-भर का पीसना पीसूंगी मैं,’’तो कभी अपनी उम्र का रोब दिखा कर उसकी धौंस को बचपने में उछ़ा देती है – “अरे, तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम!  तब से मैं सब जानती हूं. मुझे क्या सिखाता है तू?’’तो कभी दृढ़ शबदों में उसे उसकी सीमाओं का बोध करा कर – “अपने मन से आई थी, रहूंगी, नहीं रहूंगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है.’’जाहिर है गदल के लिए मौनी डोडी को मर्मांतक आघात देने हेतु इस्तेमाल किया गया औजार भर है. “उसने मुझसे मन फेरा, मैंने उससे. मैंने ऐसे बदला लिया उससे.’’गदल के बदले का अंकगणित साफ है - कोई कूटनीति नहीं. आमने-सामने दो-दो हाथ की लड़ाई. हार-जीत की परवाह नहीं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी को ललकारने की प्रक्रिया में ही उसके भीतर का आवेश क्रमशः घुलता चलता है.

आश्चर्य होता है कि अपनी उद्दत-विद्रोही प्रकृति का बार-बार ढोल पीटने वाली गदल डोडी के प्रति अपने प्रेम को लेकर इतनी खामोश क्यों हो गई? लोकलाज को तिलांजलि देते हुए जिस अकुंठ भाव से उसने मौनी का वरण किया है, उसी तरह डोडी के साथ भी वह घर बसा सकती थी? और मौनी के घर बैठनेके बाद जब इस प्रेम को खरे शब्दों में अभिव्यक्ति दी भी तब जब उसका कोई अर्थ नहीं रह गया था? सत्य यह है कि गदल जितनी तेज तर्रार और विद्रोहिणी दीखती है, असल में उतनी वह है नहीं. बिरादरी की मर्यादा ने उसकी सोच और गतिविधियों को बाँधा हुआ है. पति के साथ एकनिष्ठ भाव से पिछले तीस बरस से वह गृहस्थी चला रही है, लेकिन रह-रह कर संकेतों में डोडी को इस तथ्य को भूलने नहीं देती कि ‘‘जब चौदह की थी, तब तेरा मौसा मुझे गाँव में देख गया था. तू उसके साथ तेल लिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न तब ? मैं आई थी कि नहीं ?’’

वह जानती है भरी जवानी में पत्नी और बच्चों को गंवा देने के बाद डोडी ने दूसरा ब्याह क्यों नहीं किया; कि निहाल को अपना बेटा मानकर वह वास्तव में गदल को ही सीने से लगाए हुए है. गुन्ना की मृत्यु के बाद वह हर पल डोडी की ओर से आने वाले विवाह-प्रस्ताव की बाट जोह रही है. गुन्ना की मृत्यु ने उससे परिवार की मालकिन का हक छीनकर निहाल की बहू को दे दिया है. तेरी आसरतू नहीं हूँजैसे चीखते प्रतिवादों के साथ परोक्ष रूप से वह डोडी को जल्दी फैसला लेने को उकसाती है. गदल के लिए अपने प्रेम से भी बड़ा आत्मसम्मान है. प्रेमी के सामने प्रेम-याचना करके वह अपने को छोटी क्यों करें ? कठोर शब्दों में अपने प्रतिवाद को रख किसी अनहोनी की चेतावनी वह अवश्य डोडी को देती चलती है - ‘‘जीते जी मैंने उसकी (पति) चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई. पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हड़कंप उठाऊँ? यह लड़के, यह बहुएं. मैं इनकी गुलामी नहीं करुंगी.’’

गदल की हताशा का कारण डोडी में गदल की बढ़ी हुई अपेक्षाएं हैं. गदल जिस जीवन दर्शन को जी रही है, वह मानता है कि आत्मानुशासन में बंधा समर्पित प्रेम जीवन भर एक-सी अकर्मण्य स्थिति मे बना नहीं रहता. जीवन-स्थितियों में बदलाव आते ही कामना को व्यावहारिकता, निष्क्रियता को कर्मठता और अमूर्त प्रेम को ठोस पारिवारिक रिश्तों का रूप देना जरूरी है. पुरूष होने के नाते पहलकदमी डोडी को करनी होगी. इस आग्रह में उसकी इस मान्यता की भी पुष्टि है कि मर्यादा का उल्लंघन करके बनाया गया सम्बन्ध अंततः पेड़ और वासना की लपटों में घिर कर जल जाता है. “मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी.’’स्पष्ट शब्दों में अपनी कबीलाई नैतिकता का स्वीकार करने वाली गदल की सबसे बड़ी पीड़ा और पराजय यही है कि ‘‘तूने (डोडी) मुझे पेट के लिए पराई ड्योढ़ी लंघवाई.’’अपनी इस पीड़ा का सार्वजनिक ढिंढोरा पीटने में भीउसे कोई संकोच नहीं – “बताओ पटेल, जब वह ही मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका तो क्या करती?’’

गदल के भीतर मनोवेग सामान्य गति से नहीं बहते, अंधड़ बनकर उठते हैं, इतनी अधिक तेज गति के साथ कि वे उसे भी अपने संग उड़ा ले चलते हैं. गदल में अंधड़ों की सवारी करके किसी भी अपरिचित टीले पर पहुंच जाने की निडरता है, उन अंधड़ों पर सवारी गांठ कर अपने मनचीते क्षेत्रों को सींचने का धीरज और संयम नहीं. वह अपनी प्रवृत्तियों से संचालित भावुक स्त्री भर है जिसे आगा-पीझा सोचकर निर्णय लेना नहीं आता,विपत्तियोंके मुँह में बैठकर जिंदगी की लड़ाई लड़ने का कौशल अलबत्ता खूब है. अपनी तुनक मिजाज प्रवृत्ति के कारण वह जिंदगी भर की कमाई पलों में गंवा सकती है, और क्षति पर हाहाकार या पश्चाताप करने का जड़ विगलित भाव नहीं, बल्कि नई रणनीति बना नए सफर पर निकल पड़ने का उत्साह अपने भीतर पाती है.

गदल की सबसे बड़ी विशेषता है उसका प्रचंड उग्र स्वभाव. इसी कारण शेष पात्र उसके सम्मुख निस्तेज हैं. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि लेखक ने गदल के डिमांडिग और डॉमिनेटिंग व्यक्तित्व के कारण किसी को उसके सामने उभरने का अवसर ही नहीं दिया.

रांगेय राघव ने पूरी कहानी में गदल के अतिरिक्त किसी अन्य पात्र के व्यक्तित्व को सर्जित करने का प्रयास ही नहीं किया. उन्होंनें पात्रों को या तो बिंदुओं के रूप में उभारा है या अस्तित्व की क्षीण-सी रेखा के रूप में  उनका होना विलोम चरित्र चित्रण पद्धति के जरिए गदल के चरित्र को मजबूत आधार देने के लिए ही है. उल्लेखनीय है कि कथा के नायक न सही, महत्वपूर्ण पात्र कहे जा सकने वाले डोडी को लेकर भी लेखक की लापरवाही देखी जा सकती है. पराक्रमी सुदर्श और समझदार न होने के बावजूद वह बेहद संकोची मितभाषी और आत्मकेन्द्रित है. गदल के कारण परिवारहीन होने पर भी अकेला और निर्वंश होने का बोध उसे कभी नहीं हुआ. ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गदल का वैधव्य, अबाध अनुराग और अकस्मात् घर से नाता तोड़कर मौनी के पास चला जाना बहुत बडे़ आघात की तरह उस तक पहुँच होगा.
पेंटिग : लाल रत्नाकर 

सद्य परिणीता गदल को जबरन बुलाकर शायद वह अपना कलेजा उंडेल देना चाहता रहा हो, लेकिन लेखक उसे शब्द नहीं देते. गदल के कोंचने पर बस, आत्मस्वीकृति स्वरूप वह इतना भर कहता है कि ‘‘डरता था, जग हंसेगा, बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्मा से पहले से ही नाता था, तभी तो चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया. गदल, भैया की भी बदनामी होती न?’’वह जानता है गदल उसी से रूठकर मौनी के घर बैठीहै. यह भी जानता है कि यदि अधिकारपूर्वक वह उसके लौट आने की बात कहे तो गदल लौट भी आएगी. लेकिन दब्बूपन उसका व्यक्तित्व बन गया है. इसलिए अकारण नहीं कि तीस बरस बाद अचानक वह ढोला मारू रा दूहा सुनने निकल जाता है; और उत्तेजना, पश्चाताप, अवसाद के मिलेजुले दबाव के कारण रात में ही दम तोड़ देता है.

चूंकि रांगेय राघव के पास सारा शब्द-भण्डार गदल के लिए है, इसीलिए गौण पात्रों, विशेषकर डोडी को उन्होंने चुप्पियों के जरिए रचा है. डोडी लेखकीय उपेक्षा का शिकार न होता तो प्रेम की गहनता और सामाजिक विवशता की रस्साकशी के बीच पुरुष के अंतर्द्वंद्व की कितनी ही अनसुनी दास्तानें कह सकता था. लेकिन तद्युगीन कथारूढ़ियों के दबाव से आक्रांत लेखक भी प्रेम को स्त्री संदर्भ में ही विश्लेषित करने का आग्रह पाले हुए हैं, मानो प्रेम स्त्रीत्व को जांचने की कसौटी है, पुरुषत्व की निर्मिति में इसका कोई लेना-देना नहीं. अपवादस्वरूप जयशंकर प्रसाद ‘आकाशदीपकहानी में प्रेम के जरिए अपनी ग्रंथियों से मुक्त होकर मनुष्यत्वका आरोहण करते पुरुष की कथा कहते हैं. विडंबना यह है कि स्वयं लेखक रांगेय राघव कहानी को गहराई देने को उत्सुक नहीं. पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों की अपेक्षा उनका बाह्य संघर्ष उन्हें अधिक खींचता है. इसलिए घटना बहुलता के जरिए वे कहानी का वितान फैलाते हैं. इस प्रक्रिया में जैसे-जैसे पात्रों के मनोविज्ञान से उनकी नब्ज घूटती चलती है, वैसे-वैसे उनकी भांति वे भी उन्माद को कर्मठता मानने लगते हैं और अंततः आत्मघात के लिए अपना ही सम्मोहन-पाश बुनने लगते हैं.

कहानी की गौण कथा को इसी सम्मोहन-पा की संज्ञा दी जा सकती है. मरते बखत उसके मुँह पर तुम्हारा नाम कढ़ा था काकी’- डोडी की मृत्यु की सूचना देने वाले गिर्राज के ये शब्द मानो गदल के लिए जीवन भर की थाती बन गए हैं. अपने प्रेम पर सामाजिक-स्वीकृति की मुहर लगाना उसके जीवन का कुल ध्येय बन जाता है. “बताओ पटेल, वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका तो क्या करती,’’ से लेकर ‘‘वह मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही करूंगी’’तक की दृढ़ निश्चयात्मकता! परबंधयानी बिरादरी भोज का आयोजन! यानी राजाज्ञा उल्लंघन!

यह वह स्थल है जहाँ कहानी अपनी धुरी से छिटक जानी है- केन्द्र में गदल के होने के बावजूद. ऐसा नहीं कि कहानीकार अनायास बिरादरी भोज-प्रकरण कहानी पर आरोपित कर देते हैं. स्वभाव के विपरीत इस मुद्दे पर गदल की मिमियाहट कहानी में पहले भी दर्ज हुई है. गुन्नी के मृत्युभोज का स्मरण करते हुए वह अपमान से थरथरा उठी है-“तू भैया, दो बेटे. पच्चीस आदमी बुलाए कुल. क्यों आखिर? कह दिया लड़ाई में कानून है. पुलिस पचीस से ज्यादा होते ही पकड़ कर ले जाएगी. डरपोक कहीं के. मैं नहीं रहती ऐसों के.’’ गदल की पहली फांस -प्रेम हताशा -जिस असम्बद्ध ढंग से उसकी दूसरी फांस - बिरादरी भोज - से जुड़ी है वहाँ वह खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचते हुए ज्यादा नजर आती है. प्रेमोन्मादिनी गदल अपनी दिशा बदलकर जैसे ही भोज और बिरादरी की मर्यादा के सवालों से टकराती है, वैसे ही वह घोर परंपरावादी सोच और सामंत में विघटित हो जाती है. वास्तविकता यह है कि अपने हक की लड़ाई के लिए मौनी की भौजाई दुल्लो से दो-दो हाथ करने (“देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नही’’) या ब्लैकमेल करते अपने ही बेटे की अक्ल दुरुस्त करने वाली गदल (‘भर गया दंड तेरा. अब मरद का सब माल दबा कर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है.’’ नारायन (पुत्र) का मुंह स्याह पड़ गया. वह गहने उइा कर चला गया.) वैचारिक दृष्टि में मर्यादाके शास्त्र से बंधी है. परंपरा उसे दृष्टि और दिशा दोनों देती है. किसी भी विसंगति पर सोचना-समझना और फिर उसे चुनौती देना गदल का कार्यक्षेत्र नहीं. वह स्टीरियोटाइप के रूप में अपनी सार्थकता मानती है.

‘‘तू? ...मरद है? अरे, कोई बैयर से घिघियाता है? बढ़कर जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपना मानता है.’’गदल नहीं जानती कि स्त्री और पुरूष दोनों की निजता और स्वायत्तता की हत्या करने वाली पितृसत्तात्मक  व्यवस्था की खुर्राट चौकीदार है वह. यहाँ से गदल की जो छवि विकसित होती है, वह उसकी पूर्ववर्ती मुक्त-जुझारू-आत्माभिमानी स्त्री की सकारात्मक छवि को अपदस्थ करते हुए उसकी सीमाओं को निरंतर संकरा करती चलती है. गदल में अपनी नियति के पार देखने का विवेक नहीं है. क्षण में बंधे तात्कालिक सरोकार उसके लिए जीवन-मरण के, प्रतिष्ठा-साख के सवाल बन जाते हैं. ‘‘कानून क्या बिरादरी से ऊपर है? ... राज के पीछे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धरम नहीं छोड़ दें, सुन लो. तुम धरम छीन लो तो हमें जीना हराम है.’’प्रतीत होता है मानो बीहड़ वन में सिंहनी की तरह दहाड़ती गदल ताकत के अहंकार में अनजाने ही पिंजरे में घुस गई है.

कहानी की विश्वसनीयता की रक्षा के लिए लेखक ने बेहद श्रमपूर्वक छोटी-छोटी घटनाओं को प्रामाणिक तार्किकता के साथ बुना है, जैसे भव्य बिरादरी-भोज के आयोजन के लिए दारोगा को रिश्वत देना, प्रतिशोध की आग में जलते फौजी का बड़े दारोगा के पास शिकायत करना, दारोगा का घटना-स्थल पर आगमन और कानून उल्लंघन के अपराध में कानूनी कार्यवाही की तैयारियां करना, दावत को प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर गदल द्वारा बेटों को गोलियां चलाने का हुक्म देना और सवयं पुलिस की गोली खाने के बाद संतोषमिश्रित आह्लाद के साथ फुसफसाते हुए प्राण त्याग देना- ‘‘जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की ... ’’आदि आदि. लेकिन इतना तय है कि अति नाटकीयता और अति-भावुकता ने कहानी के मूल प्रभाव को भी क्षरित कर दिया है. हो सकता है लेखक ने अंतिम प्रकरण प्रेम में घायल सिंहनी गदल की नेतृत्व क्षमता, निर्णय क्षमता, बहादुरी और निर्भीकता को रेखांकित करने के लिए रचा हो, लेकिन वह सामान्य बेवकूफ स्त्री से अधिक स्मृति में नहीं आ अटकती.

गदलकहानी लेखकीय अंतर्दृष्टि की अपरिपक्वता का परिणाम है. शिल्पगत कलात्मकता के कारण कहानी अपने केन्द्रीय पात्र को एक मजबूत चरित्र के रूप में उभारने का भ्रम देती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कथा की सूक्ष्म पड़ताल एवं सुस्पष्ट उद्देश्य के अभाव में अंततः उसे श्रीविहीन कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है कि नई जमीन तोड़ने के उत्साह में लेखक समस्या का ‘ओवरव्यूदेकर संतुष्ट हो गया है, स्थिति की तह तक नहीं पहुँचा. अनुसूचित जनजातियों को लेकर इससे पूर्व प्रायः लेखकों ने नहीं लिखा है. आपराधिक जनजातियों के रूप में गूजर-लौहार आदि जनजातियां संभ्रांत समाज के बाहर परिधि पर ही रही है, विशेषकर मध्यवर्गीय नागर समाज का शिक्षित वर्ग अपने दुराग्रहों के कारण इन्हें किसी अन्य ग्रह का प्राणी मानता आया है. फलतः ऐसे अनछुए विषय के प्रति उसकी दिलचस्पी गहन है. रांगेय राघव इसे जानते हैं और अपने लेखकीय व्यक्तित्व को अलग रूप देने के लिए इस अपरिचित जनजाति के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की झलकियां देने लगते हैं. वे यथार्थ का उत्खनन करने का दिखावा करते हैं, किंतु विडंबना है कि एक-दूसरे में उलझी संश्लिष्ट यथार्थ की महीन परतों को अलग-अलग पहचान नहीं पाते.


पात्रों के हृदय या मस्तिष्क की अंतरंग तस्वीर देने की बजाय उनकी आउटलाइनदेना और प्रेम को बलिदान के अति नाटकीय संघर्ष में विघटित कर देना गहराई के अभाव में उपजी दृष्टिहीनता का परिणाम है जिसके चलते प्रेम किसी भी किस्म की दार्शनिक गंभीरता का स्वरूप लेकर पाठक के भीतर कोई आलोड़न पैदा नहीं करता. अधिक से अधिक वह पजैशनका उपादान बन जाता है जो स्नायुतंत्र में उत्तेजना  भले ही भर दे, जीवन के बरक्स आत्मालोचन की चुनौती प्रस्तुत नहीं करता. इसलिए इस कहानी में मुक्ति एवं उदात्तीकरणका वह रूप नहीं जो आकाशदीपमें है. हाँ, ‘उसने कहा थाके समकक्ष इसे अवश्य कहा जा सकता है जहाँ विपरीत युग्म (ओपोजिट बाइनरीज़) का निदर्शन करते-करते प्रेम और त्याग एक ही स्थिति -प्रेम - का विस्तार बन जाते हैं, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कथा-पात्र समझ ही नहीं पाते कि परंपरा के दबावों ने उनके प्रेम का आखेट ही किया है. फिर भी रांगेय राघव इस बात के लिए प्रशंसा के अधिकारी हैं कि जड़ पात्रों के जरिए कहानी में न केवल गति का आभास देती विशद दृश्यावलियां गढ़ते हैं, बल्कि हिंदी कथा साहित्य की सर्वाधिक जुझारू और कर्मठ स्त्री पात्र को भी रच का कालातीत कर देते हैं.

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प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभागमहर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा

सहजि सहजि गुन रमैं : खगेन्द्र ठाकुर

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(खगेन्द्र ठाकुर : फोटो मुसाफ़िर बैठा के सौजन्य से)










खगेन्द्र ठाकुर (९-सितंबर,१९३७) : 
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अविभाजित बिहार (अब झारखण्ड) के गोड्डा के एक गाँव में जन्म. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ाव और राजनीतिक सक्रियता. जनशक्तिअख़बार की पत्रकारिता. देह धरे को दण्ड’, ‘ईश्वर से भेंटवार्ताजैसी व्यंग्य पुस्तकों के साथ तीन कविता संग्रह सहित आलोचना और लेखों की कोई 20-21 पुस्तकें प्रकाशित.

पर उनका कविरूप अलक्षित ही रहा है. इसका एक बड़ा कारण आलोचक के रूप में उनकी ख्याति है.

जमीन से जुड़ी, जीवट और ज़िदादिली से भरपूर ये कविताएँ हमारे अपने समय की ही कविताएँ हैं. 

सात कविताएँ आपके लिए .  

     
  



खगेन्द्र ठाकुर की कविताएँ       




वे लेखक नहीं हैं

वे लिखते हैं
लेकिन कागज पर नहीं
वे लिखते हैं धरती पर

वे लिखते हैं
लेकिन कलम से नहीं
वे लिखते हैं
हल की नोंक से.

वे धरती पर वर्णमाला नहीं
रेखाएं बनाते हैं
दिखाते हैं वे
मिट्टी को फाड़ कर
सृजन के आदिम और अनंत स्रोत

वे तय करते हैं
समय के ध्रुवांत
समय उनको नहीं काटता
समय को काटते हैं वे इस तरह कि
पसीना पोछते-पोछते
समय कब चला गया
पता ही नहीं चलता उन्हें  

वे धरती पर लिखते हैं
फाल से जीवन का अग्रलेख
वे हरियाली पैदा करते हैं
वे लाली पैदा करते हैं
वे पामाली संचित करते हैं
शब्दों के बिना
जीवन को अर्थ देते हैं
ऊर्जा देते हैं, रस देते हैं, गंध देते हैं,
रंग देते हैं, रूप देते हैं
जीवन को वे झूमना सिखाते हैं
नाचना-गाना सिखाते हैं
लेकिन वे न लेखक हैं
और न कलाकार
वे धरती पर
हल की नोक से लिखते हैं
उन्हें यह पता भी नहीं कि
लेखकों से उनका कोई रिश्ता है क्या?
उन्हें कोई सर्जक क्षमता है क्या?






ज्योति का अक्स

झरोखे के चौकोर से लगा तुम्हारा चेहरा,
और प्रतीक्षारत सजल आँखें तुम्हारी,
इधर मेरा द्विधाग्रस्त अस्तित्व
दोनों के बीच फैलता हुआ है
भयानक, खूंखार सघन जंगल.

मैं जो पगडण्डी नाप रहा हूँ
वह जंगल से होकर गुजरती है
भरा हुआ है जो हिंस्र जंतुओं से
लेकिन कोई बात नहीं चिंता की,
मुझे मालूम है
यह पगडण्डी जंगल से बाहर गयी है
जाहिर है मैं भी जाऊंगा

कदम-कदम पार करेंगे हम जंगल,
मेरे साथ है तुम्हारी आँखों की ज्योति
और उस ज्योति का अक्स मेरी चेतना में
फिर तो कोई बात नहीं.








धुआँ उठने को है

खूब उगलो ताप
ढेर-ढेर फेंको आग
ओ सूरज!
जल गये आसमानी बादल, 
तलैयों के प्राण गये,
धरती की कोख जली, 
जल-जल कर बिदक गयी
फसलों की हरी- भरी क्यारी!
और जलें, 
तुम्हें जीवन करें अर्पित सभी
पशु-पक्षी और आदमी
बराबर हैं सभी अब.
कायम करो ऐसे ही समता का राज, 
अर्पित हैं सभी तुम्हारे प्रताप को, 
सह नहीं पाते थे आग
ओ सूरज!
इनके पेट की आग
उग्रतर हैं तुम्हारे प्रताप से, 
खूब उगलो ताप, 
लाख फेंको अग्निवाण,
ये नहीं सहेंगे अब आग.
धुआँ पेट की आग का, 
धुआँ जीवन के अरमानों का
उठने को है, 
तुम्हारे प्राणघाती किरणों पर छाने को है.







हम काले हैं

हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे कोयला
जब जलता है तो 
हो जाता है बिलकुल लाल
आग की तरह
गल जाता है लोहा भी
जब उसमें पड़ जाता है.
हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे कोयला
जब जलता है तो 
हो जाता है बिलकुल लाल
आग की तरह
चमड़ी खींच लेता है
जब कहीं कोई भिड़ता है.
हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे बादल
जब गरजता है तो 
बिजली चमक उठती है
कौंध जाती है
जिससे दुनिया की नजर.
हाँ, हम काले हैं
काली होती है जैसे चट्टान
फूटती है जिसके भीतर से
निर्झर की बेचैन धारा
जिससे दुनिया की प्यास बुझती है.
हाँ, हम काले हैं
काली होती है जैसे मिट्टी
जब खुलता है उसका दिल
तो दुनिया हरी-भरी हो उठती है.
जब जलता है तो 
हो जाता है बिलकुल लाल.





पुरानी हवेली

इस हवेली से
गाँव में आदी-गुड़ बंटे
सोहर की धुन सुने
बहुत दिन हो गए

इस हवेली से
सत्यनारायण का प्रसाद बंटे
घड़ी-घंट की आवाज सुने
बहुत दिन हो गए

इस हवेली से
किसी को कन्धा लगाए
राम नाम सत है- सुने
बहुत दिन हो गए

इस हवेली की छत पर
उग आई है बड़ी-बड़ी घास
आम, पीपल आदि उग आये हैं
पीढ़ियों की स्मृति झेलती
जर्जर हवेली का सूनापन देख
ये सब एकदम छत पर चढ़ गए हैं.

इस हरियाली के बीच
गिरगिटों, तिलचिट्टों के सिवा
कोई नहीं है, कोई नहीं है.





हिन्दू हम बन जाएंगे

सूखा पड़ गया
फसल मारी गयी
बादल निकले बेवफा
मौसम है कसूरवार.

बाढ़ आ गयी
गाँव दह गए
लहलहाती फसल बह गयी
कोई क्या कर सकता था?
नदियाँ हो गयी थीं पागल.

खाने की चीजें हो गयीं भूमिगत
महंगाई चढ़ी आसमान
लोग दौड़ते हुए परेशान
बोले देश के मंत्री प्रधान
इसके लिए है जवाबदेह आसमान

हतप्रभ है सुन कर जनता
बाग-बाग हैं अपने लोग
अटल जी हैं एकदम लाजवाब
नेता हो तो ऐसा हो
क्या कहने हैं – अजी वाह

उधर मुस्का रहा है प्याज
गदगद है जमाखोर समाज
पता नहीं कहाँ गया नमक
लापता है चेहरे की चमक
जनता करने लगी आह
अजी अटल जी वाह-वाह

कोई बात नहीं प्रधान जी
गीत भारतीय संस्कृति के गाइए
मुनाफाखोरों को कष्ट नहीं दीजिए
हम भी करते हैं प्रतिज्ञा
हिन्दू हम बन जाएँगे
प्याज नहीं खाएँगे
एकादशी हर रोज करेंगे
नमक आपसे नहीं मांगेंगे.

अटल रहे आपका व्यापार
अटल हों करें गगन-विहार
करे न कहीं कोई भी आह
अजी अटल जी वाह-वाह.



रक्त कमल परती पर

यहाँ, वहां हर तरफ
   उठे हैं अनगिनत हाथ
हर तरफ से अनगिनत कदम
   चल पड़े हैं एक साथ
ये कदम चले हैं वहां
   बीहड़ पर्वत के पार से
ये कदम चले हैं
   गहरी घाटी के अंधियार से
पहाड़ों पर दौड़ कर
   चढ़े हैं ये मजबूत कदम
धुएं की नदी पार कर के
   बढ़े हैं ये जंगजू कदम
रोशनी के बिना
   घोर जंगल है जिन्दगी जहाँ
ये कदम बना रहे हैं
   किरणों के लिए द्वार वहां
अनगिनत हाथ
   उठे हैं जंगल से ऊपर
ये हाथ उठे हैं
   पूँजी के दानव से लड़ कर
ये हाथ हैं जो
   कोयले की आग में तपे हैं
लोहे जैसा गल कर जो
   इस्पात-से ढले हैं
इन हाथों ने
   अपनी मेहनत की बूंदों से
सजाया है
   पथरीले जीवन को फूलों से
हमने देखा हर हाथ
   यहाँ एक सूरज है
हर कदम यहाँ
   अमिट इतिहास-चरण है
इन्होंने गढ़ डाला है
   एक नया सूरज धरती पर
उगाये हैं यहाँ अनगिन

   रक्त कमल परती पर.

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विकल्प की प्रक्रिया; आज का वैचारिक संघर्ष मार्क्सवाद; आलोचना के बहाने; समय, समाज व मनुष्य, कविता का वर्तमान, छायावादी काव्य भाषा का विवेचना, दिव्या का सौंदर्य, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : व्यक्तित्व और कृतित्व (आलोचना)
धार एक व्याकुल; रक्त कमल परती पर (कविता संग्रह)आदि  पुस्तकें प्रकाशित
पता :  
जनशक्ति कालोनी, पथ-24, राजीव नगर, पटना, बिहार – 800024

91-9431102736/ khagendrathakur@gmail.com


सहजि सहजि गुन रमैं : जसिन्ता केरकेट्टा

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 जसिन्ता केरकेट्टा की कविताओं के संसार में आदिवासी समाज की अस्मिता की खोज है. 
विकास की विडम्बना, हिंसा और छल की पहचान है. आक्रोश की सबल स्वाभाविक अभिव्यक्तियाँ हैं. 
प्रकृति की उपस्थिति है पर बाज़ार और उपभोक्तावाद के दंश की टीसती हुई पीड़ा के साथ.
तलाशी, आरोप, गिरफ्तारी, मुकदमा, हत्या की प्रक्रिया में तार-तार होती आदिवासी जिंदगी की स्व: अनुभूत इतिहास है.

जसिन्ता रचनाकार के साथ साथ पत्रकार भी हैं. उनकी कविता के अनुवाद तमाम देशी विदेशी भाषाओं में हुए हैं.
उनकी छह  कविताएँ.



जसिन्ता केरकेट्टा की कविताएँ                 




महुआ चकित है

धूप भी चुन रहा है
महुआ साथ-साथ 
जवनी की मां थकती नहीं,
चुनती है महुआ शाम तक.
थोड़ा-थोड़ा हुलककर
देख रहे डालियों में फंसे
अधखिले दूसरे महुए भी
धीरे से ठेल देगी रात
जिन्हें धरती की ओर....,
कैसे जवनी की मां 
पहचानती है अपने गाछ के
हर एक महुए को?
हर कोई चुन रहा है गांव में
अपने गाछ का महुआ.
नहीं है कोई 
ललचाई आंखें वहां,
गाछों के नीचे पसरी छाह में 
सुस्ता रही बेपरवाह महुआ.
महुआ चकित है बाजार आकर
कैसे कोई आदमी महुआ पीकर 
उठा ले जाता है 
किसी भी घर की
बाजार से घर लौटती 
कोई चंपा, चंदा, फूलो या महुआ को?




साहेब! कैसे करोगे खारिज ?

साहेब !
ओढ़े गये छद्म विषयों की
तुम कर सकते हो अलंकारिक व्याख्या
पर क्या होगा एक दिन जब
शहर आई जंगल की लड़की
लिख देगी अपनी कविता में सारा सच,
वह सच
जिसे अपनी किताबों के आवरण के नीचे
तुमने छिपाकर रखा है
तुम्हारी घिनौनी भाषा
मंच से तुम्हारे उतरने के बाद
इशारों में जो बोली जाती है
तुम्हारी वे सच्चाईयां
तुम्हें लगता है जो समय के साथ
बदल जाएगी किसी भ्रम में,
साहेब !
एक दिन
जंगल की कोई लड़की
कर देगी तुम्हारी व्याख्याओं को
अपने सच से नंगा,
लिख देगी अपनी कविता में
कैसे तुम्हारे जंगल के रखवालों ने
'तलाशी'के नाम पर
खींचे उसके कपड़े,
कैसे दरवाजे तोड़कर
घुस आती है
तुम्हारी फौज उनके घरों में,
कैसे बच्चे थामने लगते हैं
गुल्लीडंडे की जगह बंदूकें
और कैसे भर आता है
उसके कलेजे में बारूद,
साहेब !
एक दिन
जंगल की हर लड़की
लिखेगी कविता
क्या कहकर खारिज करोगे उन्हें?
क्या कहोगे साहेब?
यही न....
कि यह कविता नहीं
"समाचार"है.....!!




मेरा अपराध क्या है?

मेरा अपराध क्या है?
इतना ही पूछा था सालेन ने
जवाब में बस आई थी
कमरे से एक'धांय'की आवाज.
मारा गया था झोंपड़े के अंदर वह
यह जाने बिना कि
उसका अपराध क्या था.
ठिठक कर रूका था
आंगन में खड़ा वह घोंघा भी,
सालेन के बच्चे उसे
घोघ्घु कहकर बुलाते थे
चलता था वह आंगन के आर-पार,
एक ही पल में आ गया था
बेवजह उधर आए बूटों के नीचे
निकल गई थी अंतड़िया,
मर गया वह आंगन में
यह पूछे बिना कि
मेरा अपराध क्या है..?
उस दिन
बच्चों ने पिता के साथ
खो दिया घोघ्घु को भी,
उनकी आंखें ताउम्र पूछती है
उनका अपराध क्या था?
वे जानते हैं
पिता का अपराध खोज लिया जायेगा
तय कर लिया जायेगा कागजों पर
और मौत के बाद भी
उसकी देह पर ठोंका जाएगा
कभी न मिटने वाला दाग
मगर घोघ्घू की हत्या का
क्या है जवाब ?
प्रकृति से जुड़े लोग
और घोघ्घु की तरह
प्रकृति की हर चीज
पूछती हैं अपनी हत्या पर
आखिर मेरा अपराध क्या है?





हत्या का अधिकार

आंदोलन करो
वे तुमपर बस नजर रखेंगे,
प्रदर्शन करो
वे मुहाने पर तुम्हारा इंतजार करेंगे,
रैलियां निकालो
वे तुम्हारे लिए सड़के खाली कराएंगे,
धरना दो
वो दूर खड़े तुम्हें देखेंगे
जब तुम चिल्लाकर भाषण दोगे
वे तुम्हारी बातें चुपचाप सुनेंगे,
सालों-साल अनशन करो
वे जबरन तुम्हारी देह में
दाना डालने के लिए छेद करेंगे,
पर, तुम आत्महत्या की कोशिश करो
तो वो तिलमिलाएंगे.
सबकुछ करने की अनुमती है तुम्हें
बस नहीं कर सकते तुम
उनके षडयंत्रों से हारकर
अपनी हत्या का प्रयास
तुम्हारी हत्या का अधिकार
रख लिए है उन्होंने
सिर्फ अपने पास.......!!




 मुझे कोई'दिवस'चाहिए

सालेन चाहता है
मैं एक बार उसके गांव आऊं
मेरे आने की खबर से
आ जाएगी बिजली, पानी, रास्ता.
मगर मैं क्या करूं
वहां तक पहुंचने के लिए
मुझे कोई दिवस चाहिए.
बिन बरसात तो सालेन भी
रोपा नहीं रोपता
मुझे भी तैयार करने हैं
वहां अपने खेत
जहां लग सकती हो मेरी रणनीति,
फल सकती हो मेरी राजनीति,                                   
उग सकते हों फसल सपनों के,
मैं लगाऊंगा विकास के सपने
सालेन के गांव में
बस, मुझे कोई दिवस चाहिए.
मैं आऊंगा चलकर, देखने
पहाड़ पर बसा सालेन का गांव
दिल्ली से दिखती है थोड़ी धुंधली
उसके घर के पिछवाड़े की जमीन,
मैं साफ कराऊंगा जंगल
ये रोकती है मुझे,
उस तक सीधे पहुंचने से,
हल और हथियार से मैं
मुक्त करूंगा उसके हाथ
तब उगाऊंगा उसके खेतों में
अपने कारखाने और अपने हथियार
मनाऊंगा उसकी
मुक्ति और शहादत एक साथ
बस, मुझे वो दिवस चाहिए.




धुंआती लकड़ी

बारिश में खड़ी है
धुंआती लकड़ी .
धुंआती लकड़ी....
यानि उम्मीद है
कि आग फिर से धधकेगी,
यह सबक है
उन पत्थरों के लिए
रगड़ से जिनके
पैदा हो सकती है आग
मगर खड़े हैं जो
एक दूसरे के खिलाफ
इसलिए बारिश के बीच भी
अड़ी है...खड़ी है
धुंआती लकड़ी...,
पड़ जाती है उसपर
सबकी नजर
मच जाता है कोहराम
कहां से आई वह धुंआती लकड़ी?
लगा देगी आग जंगल में,
बुझा दो इसे,
उस आदमी को पकड़ो
जो इसके पीछे खड़ा है
उसे सजा दो, जिसने
इसे देखकर भी अनदेखा किया
उन सभी गांव वालों को
ले लो शक के दायरे में....,
अब धुंए से ढंका जा रहा है
जंगल, गांव, आदमी, आसमान,
गुम है धुंआती लकड़ी
अब चारों ओर है धुंआ ही धुंआ,
लग चुकी है आग
झुलस रहे हैं
आग पैदा करने वाले
मूक पत्थर भी .

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JACINTA KERKETTA
C/O - PETER BARWA,
SHANTINAGAR GARHATOLI-2
OLD H.B ROAD, KOKAR. RANCHI
JHARKHAND. 834001/
jcntkerketta7@gmail.com  

कथा - गाथा : थर्टी मिनिट्स : विवेक मिश्र

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पेशे से चिकित्सक विवेक मिश्र हिंदी के चर्चित कथाकार हैं. उनकी कहानी ‘थर्टी मिनिट्स’ को आधार बनाकर  येसुदास बीसीने ‘30 MINUTESफ़िल्म का निर्माण किया है जो अब सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने वाली है.

विवेक की इस कहानी को ‘साइको थ्रिलर लव स्टोरी’ कहा गया है. बहुत ही चुस्त और गतिशील कथानक है. नायक के गले का फंदा जैसे हमारे गले में कसता जाता है. 
हर कहानी अपने समय को बयाँ करती है. यह भी हमारे समय का ही एक सच है.  



कहानी
थर्टी मिनिट्स         
विवेक मिश्र


कमरे की दीवार पर टंगी घड़ी में अभी नौ बजने में दस मिनट थे. कमरे की छत पर लटके पंखे पर एक नायलॉन की रस्सी का फंदा झूल रहा था. उसके ठीक नीचे एक प्लास्टिक की कुर्सी पड़ी थी. सामने स्टूल पर रखी स्टॉप वॉच तेज़ी से दौड़ रही थी. वह उल्टी चल रही थी. समय चुक रहा था. उसे शून्य पर आकर रूक जाने में दस मिनट बाकी थे. मुल्क बड़े इत्मिनान से मोबाईल पर गेम खेल रहा था. स्टॉपवॉच में तेज़ी से नम्बर बदल रहे थे, जब उसे शून्य पर आकर रूक जाने में ढाई-तीन मिनट ही शेष रहे आए, तब मुल्क खड़ा हो गया. स्टॉपवॉच भागते-भागते, हाँफ़ने लगी. नौ बजने में दो मिनट. मुल्क ने कुर्सी पर चढ़कर पंखे से लटकते फंदे को गले में डाल लिया.
 
बचा हुआ आख़री मिनट, बहते हुए पानी सा फिसल रहा था.
   
स्टॉपवॉच तेज़ ढलान पर लुढ़कती गाड़ी थी, जो किसी खड्ड में गिर रही थी. वह रुक जाती पर कोई भी चीज़ उसे रोक नहीं पा रही थी. मुल्क ने अपने पैरों के अंगूठे सिकोड़ कर, ज़िंदगी की नब्ज़ टटोली. अब उसकी आँखें घड़ी पर नहीं, दरवाज़े पर थीं.

तभी दरवाज़े की घंटी बजी और एक खतरनाक खेल, मौत का खेल, थम गया.
  
मुल्क एक छब्बीस-सत्ताइस साल का ऐसा चेहरा, जो कई बार आपसे टकराया होगा और आपके साथ चलते अन्य कई लोगों को धकेलता हुआ बस में चढ़ गया होगा. वह कई बार भाग कर आपके सामने ठीक उस समय मेट्रो में चढ़ा होगा, जब उसके दरवाज़े बस बन्द होने ही वाले होंगे. एक ऐसा आदमी जिसके कंधे से धक्का लगने के बाद उसने आपको पलट कर देखा तक नहीं होगा. कई बार जब वह अपने कानों में हेड फोन लगाए आपके सामने से गुज़रा होगा, तो आपको उसे देखकर लगा होगा कि उसको किसी की परवाह नहीं. दरसल उसे देखकर आपको लगा होगा कि उसे अपनी भी परवाह नहीं, खास तौर से तब, जब आप ज़ेबरा क्रोसिंग पर सड़क पार करने के लिए ग्रीन सिगनल का इन्तज़ार कर रहे होंगे और वह मोबाइल पर बात करता हुआ, बिना सिगनल की परवाह किए सड़क पार कर गया होगा. जब कोई तेज़ रफ़्तार गाड़ी उसे छू्के निकली होगी तब शायद आप उसके लिए चिंतित या परेशान हो उठे होंगे. अचानक आपको उसकी शक्ल अपने किसी बहुत करीबी रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी या फिर भाई या बेटे जैसी लगी होगी. आपने यह भी सोचा होगा कि इसे लगता है कि यहाँ किसी को इसकी परवाह नहीं जबकि आप साँस साधे तब तक उसे देखते रहे होंगे, जब तक उसने सड़क पार नहीं कर ली होगी.
   
हाँ वही, अब याद आया आपको. मैं उसी मुल्क की बात कर रहा हूँ. उसीका कमरा पूर्वी दिल्ली के उस इलाक़े में है जिसे अगर आप ऊपर से देखें तो विकास मार्ग कही जाने वाली एक चौड़ी सड़क के दोनों ओर बसी, घनी आबादी वाली ये दो बस्तियाँ लक्ष्मी नगर और शकरपुर ऐसे लगती हैं, मानों किसी पेड़ के मोटे तने पर मधुमक्खियों के दो बड़े-बड़े छत्ते लगे हों और रात में तो लगता है, जैसे करोड़ों जुगनू इन छत्तों पर आ बैठे हैं. एक बड़े अजगर-सी दिखने वाली मेट्रो, एक विशाल पेड़ के मोटे तने जैसे रास्ते के ऊपर बने पुल पर, दिनभर यहाँ से वहाँ रेंगती रहती है. यह जब रुकती है तो अपने बीसियों मुँह खोलकर हज़ारों लोगों को अपने भीतर लीलती है और साथ ही साथ उतने ही उगल भी देती है. भीड़ से बजबजाते इन इलाकों से निकल कर, हज़ारों लोग, हर सुबह पूरी दिल्ली में फैल जाते हैं. विकास मार्ग की ओर बढ़ने पर बाँई तरफ़ पड़ने वाला इलाक़ा जो ज़्यादा बड़ा पर सँकरी गलियों और घनी आबादी वाला है. वह लक्ष्मी नगर है. इसी की एक सँकरी गली के आखिर में पैंतीस गज के प्लॉट पर बने पाँच मंजिला मकान के चौथे फ्लोर पर, एक आठ बाइ दस का कमरा-मुल्क का कमरा है.
 
मुल्क लगभग रोज़ ही आठ बजे अपने कमरे पर लौट आता है. आज भी वही समय था. आते ही कमरे की बत्ती जला दी. रोशनी होने पर जो उजागर हुआ, उसमें सबसे पहले देखी जा सकने वाली चीज़ों में, दरवाज़े के सामने वाली दीवार पर टंगी घड़ी और उसी के नीचे एक स्टूल पर रखी, स्टॉपवॉच थी, जिसमें मिनट के स्थान पर तीस और सेकेन्ड के स्थान पर दो शून्य रुके हुए थे. मुल्क ने अपना लैपटॉप बैग बेड पर फेककर कमरे का दरवाज़ा चौखट से भिड़ाया और बेड पर पड़ी मुचड़ी और सीली तौलिया उठाकर, कमरे से जुड़े बाथरुम में घुस गया.
   
बाथरुम से निकलने पर मुल्क के थके हुए चेहरे पर एक विचत्र-सी, विस्मित कर देने वाली चमक आ गयी थी. उसे देखके लगता जैसे वह अपने अकेलेपन के शून्य में तिर रहा था. ऐसे में कोई चीज जो उसे बाहर की दुनिया से जोड़ती- वह उसका मोबाइल और लैपटॉप ही था. उसने अपने मोबाइल से एक नम्बर मिलाया. दूसरी ओर से आवाज़ आई, ‘न्यू पीज़्ज़ा सेन्टर. मुल्क ने ऑर्डर दिया वन चिकन पिज़्ज़ा विद् एक्सट्रा चीज़, पता लिखिए, डी-4/131, स्ट्रीट न.8, रमेश पार्क, लक्ष्मी नगर. अभी टाईम हुआ है 8.30, डिलीवरी टाईम 9 पी.एम. फ़ोन काटने से पहले ही मुल्क ने स्टॉपवॉच का बटन दबा दिया.
  
स्टॉपवॉच में नम्बर सरपट भागने लगे. जैसे-जैसे घड़ी में समय बढ़ता, स्टॉपवॉच में समय कम होता. मुल्क की आँखों की चमक को उनके चारों ओर बने काले घेरे धीरे-धीरे मलिन करने लगते.

वहाँ दूसरे सिरे, न्यू पिज़्ज़ा सेंटर पर, जहाँ आर्डर नोट किया जाता, बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता, ‘पिज़्ज़ा इन थर्टी मिनिट्स, ऐट योर प्लेस. आठ से नौ बजे के बीच का समय, पिज़्ज़ा सेंटर के लिए सबसे व्यस्त समय होता. इस समय पिज़्ज़ा सेंटर की सारी टेबिलें भरी रहतीं. वहाँ जाकर लगता जैसे शहरों में रोटी खाना किसी बीते समय की बात हो चली है. सेन्टर के मेन काउन्टर के साथ होम डिलीवरी के ऑर्डर बुक करने के लिए भी एक काउन्टर अलग से होता, जिस पर एक लाईन से कई फ़ोन रखे होते जो लगातार बजते रहते. काउन्टर पर एक अधेड़ उम्र का नेपाली आदमी बैठा रहता जिसका रंग भूरा, मुँह बर्गर की तरह फूला हुआ और आँखें छोटी और धसी हुई, कहीं दूर ताकती हुई लगतीं. वह अपना काम करते हुए कहीँ दूर देखता हुआ लगता. कभी लगता वह अपने सामने वाले आइसक्रीम पार्लर के बोर्ड को देख रहा है, जिस पर बर्फ से ढ़के पहाड़ बने हैं. उसे देखकर लगता, वह सालों से वहीं बैठा है. शायद तभी से जब पहली बार इस शहर के किसी आदमी ने बर्गर, चाउमिन और पिज़्ज़ा का स्वाद चखा होगा. वह फ़ोन पर ऑर्डर बुक करता और एक पर्ची पर ऑर्डर नम्बर और डिलीवरी टाईम डालकर किचन में खुलने वाली खिड़की से अंदर पास कर देता.
   
किचन के अंदर दस-बारह जोड़ी हाथ, किसी बड़े कारखाने में लगी मशीनों की तरह एक साथ चलते. इन हाथों के शरीर, चेहरे और उनपर टकी हुई आँखें भी होतीं, पर वे दिखाई नहीं देतीं. कई बार इन चेहरों पर गलती से आ गई कोई मुस्कराहट किसी पिज़्ज़ा के डिब्बे में गिर कर बन्द हो भी जाती तो वह कुछ ही देर में गर्मी और घुटन में छटपटा कर दम तोड़ देती.
    
ये हाथ खिड़की से ऑर्डर मिलने के बाद, आठ से दस मिनट में पिज़्ज़ा तैयार कर, उसे पैक करके वापस उसी खिड़की से बाहर खिसका देते. बाहर काउन्टर पर लाल-पीले रंग की टी-शर्ट पहने बैठा नेपाली आदमी जो इस बीच अपने भीतर कहीं थोड़े-बहुत बचे रह गए पहाड़ और उसके सिरे पर पिघलती बर्फ़ को दूर किसी बहुमन्ज़िला इमारत के शीर्ष पर अपनी धंसी हुई आँखों से देख रहा होता और ध्यान से देखने पर खुद भी एक पिघलता हुआ पहाड़ ही लगता, तुरन्त डब्बे में बन्द पिज़्ज़ा, बिल और पता एक पॉलीथिन में डाल कर, एक बटन दबा देता जिससे उसके सिर के ऊपर लगे इलेक्ट्रानिक बोर्ड पर एक नम्बर उभरता और ज़ोर से कानों को चुभने वाली घंटी बज उठती. घंटी बजते ही, पिज़्ज़ा सेंटर से बाहर, ठीक तीस मिनट में, इलाके के किसी भी घर में पिज़्ज़ा पहुँचा देने के लिए तैयार खड़े, पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय हरकत में आ जाते. बोर्ड पर एक नम्बर उभरता, उसी नम्बर की टी-शर्ट पहने बाहर खड़ा डिलीवरी बॉय लपक कर काउन्टर पर आ जाता. 
     
इस बार बोर्ड पर उभरने वाला नम्बर था-“36”. नेपाली ज़ोर से चीखा, ‘बुकिंग टाईम आठ तीस, डिलीवरी टाईम नौ बजे.आगे बोलते हुए उसने 36 नम्बर की टी-शर्ट वाले लड़के को अपनी धंसी हुई आँखों से घूरा-12 मिनट निकल चुके हैं, थर्टी मिनिट्स मतलब थर्टी मिनिट्स, नहीं तो इस राउण्ड का पैसा कटा समझो. लड़के ने उसकी तरफ़ नहीं देखा पर लगा जैसे वह भी मुल्क की तरह अकेलेपन के शून्य में तिर रहा था. उसने काउन्टर पर रखा पैकेट उठाया और अपनी मोटर-साइकिल के पीछे लगे बॉक्स में डाल दिया. एक क्षण में गाड़ी का इंजन घनघनाने लगा. शरीर और मोटर-साइकिल एक हो गए. हेलमेट पहनते ही वह जैसे बाहर की दुनिया से कट गया. मोटर-साईकल के गति पकड़ते ही आस-पास जलती बत्तियाँ फैलकर लम्बी हो गईं. ट्रैफ़िक की आवाज़ें धीरे-धीरे तीखी और नुकीली होने लगी. अब वह लगभग उड़ता हुआ, अंधेरों और रोशनियों के बीच से मधुमक्खी सा भिनभिनाता, हवा में तैर रहा था. वह केवल उस पते को देख पा रहा था जिस पर उसे तीस मिनट में पहुँचना था.
मुल्क गले में रस्सी का फंदा डाले स्टूल पर खड़ा, अपने पैर के अंगूठे को सिकोड़कर अभी ज़िंदगी की आख़िरी धड़कन को टटोल पाता, दरवाज़े की ओर देखते हुए उसकी आँखें आख़री बार झपक पातीं कि उससे पहले ही घंटी बज गई. उसी समय स्टॉपवॉच में समय चुक गया. वह शून्य पर आकर रुक गई. दीवार घड़ी ने भी नौ बजने का एलान कर दिया.
मुल्क ख़ुशी और उन्माद से, अपने गले से फंदा उतारते हुए बुद्बुदाया, ‘जीत गया, मैं फिर जीत गया, फिर समय हार गया, मौत हार गई,……नाव आई कैन लिव एनअदर डे.
मुल्क ने मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलकर पिज़्ज़ा लिया, पैसे दिए और दरवाज़ा बन्द कर दिया.
मुल्क का यह खेल अजीब है न! वह इसे रोज़ खेलता है. शायद अब अगर वह आपको मिले तो आप उससे बात करना चाहेंगे. ऐसा नहीं है कि मुल्क से आपकी पहले कभी बात नहीं हुई. जरूर कभी न कभी, इतने सालों से अपनी टेली कॉलर की नौकरी करते हुए, उसने आपको मोबाइल, क्रेडिट कार्ड, या फिर किसी फ्लैट की बुकिंग के लिए फोन किया होगा. उसने अपने बी.ए ऑनर्स के दूसरे साल में ही कॉलेज छोड़कर नोएडा के एक कॉल सेंटर में नौकरी कर ली थी. पहले दो साल तो नौकरी लगती रही, छूटती रही पर उसके बाद न्यूटोन- एक ऐसी कम्पनी जो ठेके पर किसी भी आदमी को, किसी भी चीज़ के लिए केवल टेलीफोन पर कन्विन्स करने का ठेका लेती है, में आकर वह टिक गया. वजह थी यहाँ उससे साल भर बाद ज्वाइन करने वाली, नीरु.
   
दोनों साथ काम शुरु करते, साथ में ब्रेक लेते और साथ ही काम ख़त्म करके, वर्क स्टेशन से निकलते. अपनी सीट पर कॉल करते हुए भी मुल्क की आँखें नीरू पर टिकी रहतीं. नीरू भी कभी-कभी नज़र उठाकर मुल्क को देख लेती.
वह शायद सोमवार की दोपहर में मिले ब्रेक का समय था. जब मुल्क कैन्टीन में अकेला बैठा था. उसकी आँखें कुछ ढूँढती हुई यहाँ-वहाँ घूम रही थीं. इसी बीच उसने सिगरेट सुलगा ली और ढेर सारा धुँआ छत की ओर धकेल दिया. उसकी उँगलियाँ टेबिल पर पड़े लाइटर से खेल रही थीं. तभी लम्बी, पतली उँगलियों वाले, एक ख़ूबसूरत हाथ ने टेबिल पर घूमते हुए लाइटर को रोक दिया. यह नीरू थी. नीरू ने मुल्क के सामने अपने मोबाईल का इनबॉक्स खोलकर रख दिया. व्हॉट द हेल इज़ दिस, सेम मेसेज, टेन टाइम्स, लुक! वी आर कलीग्स, मुल्क हम साथ काम करते हैं, बस.नीरू ने झल्लाते हुए कहा. मुल्क ने अपनी जेब से मोबाईल निकाल कर, वही मेसेज दोबारा नीरू को भेज दिया. नीरू के मोबाईल में मुल्क के मेसेज के रिसीव होने की घंटी बजी. मुल्क, नीरू को देखकर मुस्करा दिया. नीरू झुंझला गई. उसने अपना मोबाईल उठाया और तमतमाते हुए बोली यू आर इम्पॉसिबलऔर पलट कर चली गई. नीरू चली गई, मुल्क वहीं बैठा नीरू को भेजा मेसेज़ पढ़ता रहा, जिसमें लिखा था – ‘एवरी इवनिंग ऐट नाइन, आई वेट फ़ॉर यू, ऐट मॉय प्लेस - डी-4/131, स्ट्रीट न.-8, रमेश पार्क, लक्ष्मी नगरऔर आख़िर में लिखा था, ‘प्लीज़ मेक इट दिस इवनिंग.
मुल्क इस शहर में दिन-रात यहाँ-वहाँ भागते उन लाखों लोगों की भीड़ में एक ऐसा बनता-बिगड़ता चेहरा था, जिसका अपना एक चेहरा होते हुए भी कोई चेहरा नहीं था. उसकी आँखों के चारों ओर लगतार बड़े होते स्याह गोलों को नापने वाला उसके आसपास कोई नहीं था. अनगिनत चेहरों के बीच कोई दोस्त नहीं और शायद दोस्त बनाने का समय भी नहीं. पिछले दो साल से बस ज़िन्दगी के दो ही सिरे थे- लक्ष्मी नगर का वन रूम सेट और नोएडा का वर्क स्टेशन, इसीके बीच दौड़ रहा था, वह. सेंटर से निकल कर कमरे पर पहुँचता, फ़ोन पर पिज़्ज़ा का ऑर्डर देता और ऑर्डर बुक करते ही तीस मिनट पर रूकी हुई स्टॉपवॉच का बटन दबाता. स्टॉपवॉच उल्टी दिशा में भागने लगती और शून्य पर आकर रूक जाती. इन तीस मिनटों में मुल्क अपने मोबाईल पर गेम खेलता, कभी नीरू को भेजा हुआ अपना मेसेज पढ़ता, कभी कमरे में रखे रैक से कोई किताब निकाल कर उसके पन्ने पलटने लगता. कभी इसी बीच नीरू को फिर से वही मेसेज भेज देता. तीस मिनिट पूरे होने से कुछ मिनट पहले, मुल्क कुर्सी पर खड़ा होकर पंखे से लटकते फंदे को गले में डाल लेता. आधा घंटा बीत जाता, नौ बज जाते. नीरू नहीं आती पर तीस मिनट पूरा होने से पहले पिज़्ज़ा आ जाता. मुल्क के कमरे की घंटी बज जाती और वह गले से फंदा उतार देता.
     
करोड़ों की आबादी वाले इस शहर में, हम आप में से बहुतों की तरह नितांत अकेला मुल्क, जिसे अब आप थोड़ा बहुत पहचानने लगे हैं. यह खेल कई महिनों से खेल रहा था. वह अभी तक इस खेल में जीतता आ रहा था. वह हर दिन जीत के बाद कलेन्डर पर सही का एक निशान लगा देता. मुल्क का तीस मिनट का खेल घर और बाज़ार, प्यार और इंतज़ार और आख़िर में ज़िंदगी और मौत के बीच होता. उसकी ज़िंदगी मौत से जीत जाती. हर बार तीस मिनट से पहले ही दरवाज़े की घंटी बज उठती. नीरू नहीं आती, पर पिज़्ज़ा तीस मिनट पूरे होने से पहले आ जाता.
   
वह फ़रवरी का महीना था. धीरे-धीरे कम होती सर्दी में बसंत की महक मिलने लगी थी. आज भी मुल्क ने अपने नियत समय पर पिज़्ज़ा ओर्डर करके स्टॉपवॉच का बटन दबा दिया. समय तेज़ी से सरकने लगा. न जाने क्यूँ मुल्क को लग रहा था कि आज नीरू ज़रूर आएगी. आज वह स्टॉपवॉच को रोक देना चाहता था.
कई महिनों से नीरू, मुल्क के मेसेज के आते ही उसे अपने मोबाईल से डिलीट करती आ रही थी. उसने कभी मुल्क के मेसेज का जवाब नहीं दिया था, पर मुल्क भी यह समझने लगा था कि अब नीरू को उस पर ग़ुस्सा नहीं आता था. उस शाम उसे ऑफ़िस से निकलने में थोड़ी देर हो गई थी. वह अकेली ही नोएडा, सेक्टर-18 के बस स्टॉप पर खड़ी थी. बार-बार कोशिश करने पर भी मुल्क का मेसेज अपने मोबाईल से डिलीट नहीं कर पा रही थी. उसने मेसेज को कई बार पढ़ा था पर वह उसे मिटा नहीं पा रही थी. उस मेसेज का एक-एक शब्द जैसे नीरू के बदन पर रेंगता हुआ उसे गुदगुदा रहा था. शायद पहली बार उसने मुल्क के मेसेज का जवाब देने का मन बनाया था पर उसकी उँगलियाँ कुछ भी टाइप नहीं कर सकी थीं.

बार-बार मुल्क की आँखें, सामने आ रही थीं. नीरू के भीतर आज जो कुछ भी चल रहा था, उससे वह असहज हो उठी थी पर उसे ग़ुस्सा नहीं आ रहा था. वह अकेली खड़ी मुस्करा रही थी. तभी उसके मोबाईल पर मेसेज रिसीव होने की घंटी बज उठी. मुल्क का ही मेसेज था. उसने उस मेसेज के रिसीव होते ही बड़ी बेसब्री से खोला था. उसे मुल्क का भेजा एक-एक शब्द, जो वह पहले भी सैंकड़ों बार पढ़ चुकी थी, बिल्कुल नया लग रहा था. उसके मेसेज के आख़िरी शब्द प्लीज़ मेक इट दिस इवनिंग, आज शाम चली आओ’,मोबाईल से निकल कर उसके चारों तरफ़ लगे बड़े-बड़े ग्लोसाईन बोर्डों पर चमकने लगे थे. अपने पागलपन पर नीरू मन ही मन हँस रही थी. तभी एक ऑटो के रुकने की आवाज़ ने नीरू को चौंका दिया था. नीरू ने ऑटो वाले कि तरफ़ देखे बिना ही कहा, 'लक्ष्मी नगर जाना हैऔर ऑटो वाले के जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर ही उसमें बैठ गई. उसके बैठते ही ऑटो लक्ष्मी नगर की ओर दौड़ने लगा.
   
मुल्क के उस दस बाई बारह के कमरे में जितनी तेज़ी से घड़ी की सुइयाँ भाग रही थीं, उतनी ही तेज़ी से कमरे के बाहर की दुनिया भी भाग रही थी. उसी में घनघनाती हुई भाग रही थी पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय की मोटर-साइकिल और वह ऑटो भी जिसमें नीरू सवार थी.
अभी तीस मिनट पूरे होने में पूरे तीन मिनट बाक़ी थे. मुल्क कुर्सी पर खड़े होकर, पंखे से लटकते फंदे से खेल रहा था. नीरू का ऑटो स्ट्रीट न.-8, प्लॉट न. 131 के आगे रूका, तो उसकी आँखों के सामने मुल्क के अनगिनत एस.एम.एस तेज़ी से गुज़रने लगे, जिसमें लगभग हर मेसेज में उसने अपना पता लिखा था. नीरू को लगा जैसे वह इस जगह को पहले से जानती है. मुल्क की बड़ी-बड़ी जादुई आँखें आज आख़िरकार, उसे यहाँ तक खींच लाई थीं. उसके पैर जैसे ख़ुद--ख़ुद सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे. वह बिना वजह ही मुस्कुरा रही थी, पर उसने तो सोचा था कि वह मुल्क से मिलेगी तो बिल्कुल नहीं मुस्कराएगी. वह उसे बहुत डाँटेगी, फिर थोड़े प्यार से समझाएगी, आख़िर ये क्या पागलपन है? क्यूँ? किसलिए? पर वह तो मुस्कुराए जा रही थी. कोई चुम्बक उसे खींचे लिए जा रही थी. उसने घुमावदार सीढ़ियों से ऊपर की ओर देखा तो सामने लिखा था- डी-4/131, उसके भीतर कुछ तेज़ी से पिघल रहा था. उसके मुँह का स्वाद बदल गया था. मुल्क का कमरा उसके सामने था. इस पते को वह अच्छी तरह जानती थी फिर भी तेज़ी से लगभग दौड़ते हुए सीढ़ियाँ चढ़ते, एक पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय को रोक कर उसने पूछा था, ‘डी-4/131 यही है.

लड़के ने हड़बड़ी में कहा, ‘जी 131 का ही ऑर्डर है. नीरू के चेहरे कि मुस्कान जैसे उसके पूरे शरीर में फैल गई. नीरू ने कहा, ‘ऑर्डर मुझे दे दीजिए, में वहीं जा रही हूँ. नीरू ने पिज़्ज़ा लेकर, एक बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ उसके हाथों में पैसे थमा दिए. लड़के ने बचे हुए पैसे वापस देने चाहे, पर नीरू ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘इट्स ओ.के.लड़का ख़ुश था. वह लगभग कूदता हुआ नीचे उतर गया.
नीरू का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था. उसने दरवाज़े पर लगी घंटी बजानी चाही, पर उसकी ऊँगलियों ने जैसे उसकी बात मानने से इनकार कर दिया. उसने अपना काँपता हुआ हाथ दरवाज़े पर रख दिया, मानो भीतर बैठे मुल्क की धड़कनें हाथ से टटोल लेना चाहती हो. नीरू के दरवाज़े पर हाथ रखते ही दरवाज़ा अपने आप खुल गया.
भीतर मोटी-मोटी किताबें रैक में एक-दूसरे के कन्धे पर सिर टिकाए खड़ी थीं. उनकी अब किसी को ज़रूरत नहीं थी. सालों से घूमती घड़ी की सूईयाँ अभी भी घूमती जा रही थीं, पर वहाँ उनकी गति को तोलने वाला कोई नहीं था. स्टॉपवॉच शून्य पर रूकी हुई थी. कमरे के भीतर का आकाश स्थिर हो गया था. कमरे के भीतर किसी एक पल ने, एक लम्बी साँस लेकर, उसे अपने भीतर रोक लिया था. कमरे की हरेक चीज़ उस पल के साँस छोड़ने का इंतज़ार कर रही थी, पर उस पल ने साँस नहीं छोड़ी. उस पल का, उस साँस के साथ यकायक़ इस पृथ्वी से लोप हो गया था. वह पल, वह साँस, किसी एक घड़ी में, किसी पुच्छ्ल तारे-सी चमक कर अंतरिक्ष में विलीन हो गई थी.
दीवारों पर झूलती परछाइयाँ, धीरे-धीरे टूट कर गिरने लगीं, पर मुल्क का शरीर ज़मीन से ढाई फ़ुट ऊपर झूलता ही रहा. नीरू मुल्क की बड़ी-बड़ी जादुई आँखों को एकटक देख रही थी. वे कमरे के बीचों-बीच हवा में तैर रही थीं. उनमें अनन्त विस्तार लिए हुए, एक ब्लैकहोल था, जो कमरे के भीतर की हरेक चीज को अपने भीतर खींच रहा था. नीरू भी किसी बेजान वस्तु सी उस ब्लैकहोल में खिची चली जा रही थी. न्यू पिज़्ज़ा सेंटर के काउन्टर पर गूँजती फ़ोन की घंटियाँ तेज़ हो गई थीं. ट्रैफ़िक का शोर और भी ज़्यादा तीक्ष्ण और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला हो गया था. मुल्क की आँखों के चारों ओर सैंकड़ों पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय मधुमक्खियों की तरह भुनभुनाते उड़ रहे थे, वे भी उसी ब्लैकहोल में समाते जा रहे थे. तभी नीरू के मोबाईल पर मुल्क का भेजा हुआ, वह मेसेज रिसीव हुआ, जो आसमान के रास्ते में कहीं, कुछ देर के लिए फंस गया था. जिसके आख़िर में लिखा था, प्लीज़ मेक इट दिस इवनिंग…
   

बाहर बाज़ार अपना खेल चालू रखने के लिए किसी दूसरे मुल्क को ढूँढ रहा था.

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विवेक मिश्र
15 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जन्म। विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। तीन कहानी संग्रह- ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’, ‘पार उतरना धीरे से’ एवं ‘ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?’ प्रकाशित। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। कुछ कहानियाँ संपादित संग्रहों में शामिल. कहानी ‘ऐ गंगा उमा बहती हो क्यूँ’ गुजरात एवं महाराष्ट्र में स्वामी रामानन्द तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में शामिल। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। चर्चित कहानी ‘थर्टी मिनट्स’ पर फीचर फिल्म निर्माणाधीन। कहानी ‘कारा’ कथादेश-सुर्नोनोस पुरुस्कार 2014 तथा फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मनी एवं अंग्रेजी में अनुवाद के लिए चुनी गई. 'Light through a labyrinth'शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कोलकाता से तथा कहानियों का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कोलकाता से प्रकाशित।     कहानी संग्रह ‘पार उतरना धीरे से’ के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (उ.प्र. सरकार) द्वारा ‘यशपाल पुरूस्कार-2014’

123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91

सबद भेद : महात्मा गाँधी का अधूरा भाषण : राजीव रंजन गिरि

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आज से १०० साल पहले 4 फ़रवरी 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर गाँधीजी अपना भाषण दे रहे थे. 
एनी बेसेंट, सदारत कर रहे दरभंगा महाराज और मंच पर बैठे तमाम गणमान्य लोगों को वह सम्बोधन इतना नागवार लगा कि सब मंच से उठ कर चले गए. 
अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के सुझाव पर गाँधी जी एक साल भारत भ्रमण के बाद अपने विचार यहाँ प्रगट कर रहे थे.   

आखिरकार इस भाषण में क्या कहा गया था ?

इस भाषण की शताब्दी के अवसर पर ‘अंतिम जन’ के पूर्व संपादक और आलोचक राजीव रंजन गिरि उस भाषण की विवेचना कर रहे हैं. बेहद उत्तेजक और पठनीय आलेख.
  

अधूरे भाषण की याद में                                       

राजीव रंजन गिरि



1915में गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे. उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने सुझाव दिया कि भारत आकर शीघ्रता में कोई काम शुरू न करें. एक साल तक अपनी आँख और कान तो खुला रखें, लेकिन मुँह बन्द. गोखले जी चाहते थे कि गाँधी भारत-भ्रमण करें. देश की परिस्थितियों का अध्ययन करें. चुपचाप देश की वास्तविकता समझें. मुल्क के लोगों की मनोभूमि पढ़ें. उसके बाद सार्वजनिक सवालों पर, खासकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के बारे में, अपनी राय बनाएँ और अपने आगामी कार्यकलापों की रणनीति भी. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह और उसमें गाँधीजी की भूमिका से गोखले भली-भांति अवगत थे. वे गाँधीजी की प्रतिबद्धता से भी वाकिफ थे.

फिर ऐसा सुझाव क्यों दिया गोपालकृष्ण गोखले ने? क्या गोखले को यह लगता था कि उनके शिष्य के मन में भारत-दुर्दशा की जो धारणा है, वह वास्तविकता से दूर है? अथवा यह कि गाँधी की राह भारत के लिए उपयुक्त नहीं? अथवा यह कि भारत के लोग गाँधी-मार्ग पर चलने के लिए तैयार नहीं? अथवा यह कि गाँधी के रास्ते भारत की मुक्ति मुमकिन नहीं? या इन सभी कयासों के रसायन से बना था गोखले का सुझाव.

भारत को लेकर गाँधीजी ने जो धारणा हिन्द स्वराजमें जाहिर की थी. तत्कालीन ज्यादातर बुद्धिधर्मियों की मानिन्द गोखले जी भी उससे इत्तेफाक नहीं रखते थे. तत्कालीन सभ्यता की समीक्षा कर गाँधीजी जो यूटोपिया दिखा रहे थे, उसने गोखले को सुझाव के लिए प्रेरित किया था. गोखले जी का अनुमान था कि साल भर भ्रमण और लोगों से मिलजुल कर, हकीकत जानने के बाद, गाँधी अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करेंगे. अपनी धारणा बदलेंगे. जाहिर है यूटोपिया बदलेगा, ‘हिन्द स्वराजमें निहित विचार भी.

इस दौरान गाँधीजी देश के विभिन्न हिस्सों में गए. कई जगह उनके सम्मान में आयोजन हुए. भिन्न-भिन्न तरह के कार्यक्रमों में शरीक हुए. लोगों से संवाद किया. कुछेक भाषण भी किए. इसी क्रम में महात्मा मुंशीराम, जो स्वामी श्रद्धानन्दके नाम से लोकप्रिय हैं और कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरसे भी मिले. 31मार्च 1915को गाँधी जी कोलकाता स्थित कॉलेज स्कवेयर के विद्यार्थी भवन में, पी.सी. लायन्स की सदारत में आयोजित एक बड़ी सभा में भाषण के दौरान, अपने गुरु के आदेशका स्मरण करते हुए कहा कि मैं इस सभा में भाषण देने का लोभ संवरण नहीं कर सका.

2फरवरी 1916को महामना मदनमोहन मालवीय के निमन्त्रण पर गाँधीजी बनारस पहुँचे. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के बाइसवें वार्षिकोत्सव में भी शामिल हुए. काश्मीर के महाराजाधिराज के सभापतित्व में सम्पन्न इस समारोह में गाँधी जी ने भारतीय भाषाओं की असीम उन्नति की जरूरत पर बल दिया. युवकों से हिन्दी में पत्र-व्यवहार करने का आग्रह किया. अँग्रेजी जानने वालों से आग्रह किया कि अँग्रेजी के उच्च विचार और नए खयाल सब लोगों के सामने रखें.

अगले दिन 4फरवरी 1916को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन हुआ. कार्यक्रम में वायसराय भी शामिल हुए थे. दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में सम्पन्न समारोह में मालवीय जी के विशेष आग्रहपर गाँधीजी ने भाषण दिया. इस ऐतिहासिक भाषण से गाँधी जी का महामौन टूटा.

साल भर के देश-भ्रमण के दरम्यान गाँधीजी ने जो मौन रखा था वह ऋषियों की समाधिस्थ मौन नहीं था, जिसमें एक जगह बैठकर अंतप्रज्ञा का अभिज्ञान किया जाता है. गाँधी ने इस कालखण्ड में खूब यात्राएँ की. हर क्षेत्र के लोगों से मिले. साहित्य, राजनीति, धर्म, अध्यात्म, समाज सुधार जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रहे सचेत लोगों के साथ चर्चाएँ की. उनके विचारों को जाना, सुना और गुना. योगी की समाधि से गाँधी की यह यात्राकालीन/भ्रमण/चल समाधि इस रूप में भिन्न है. कारण कि इसमें लोगों से लगातार संवाद किया गया था. पर साथ ही उनके भीतर अन्त:सलिला की तरह विचार-चेतना प्रवाहित हो रही थी. कुछ छूट रहा था तो कुछ जुट रहा था. घटाव और जोड़ चल रहा था. योगी की समाधि में भी यही होता है. भीतर के उथल-पुथल के बगैर समाधि सम्भव नहीं. ऊपर शान्त-प्रशान्त और अन्तर्जगत में अन्त:सलिला. जब चरम पर पहुँचता है समाधिस्थ तो अन्दर भी प्रशान्त हो जाता है.

यह भाषण इस मायने में भी ऐतिहासिक महत्त्व का था कि इसमें गाँधीजी ने अपनी धारणा मजबूती के साथ जाहिर की. मंच पर मौजूद एनी बेसेंटको गाँधीजी की बातें आपत्तिजनक महसूस हुई. उन्होंने गाँधीजी को भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा. गाँधीजी ने अध्यक्ष से पूछा कि अगर आपकी समझ में मेरी इन बातों से देश और साम्राज्य को हानि पहुँच रही है तो मुझे अवश्य चुप हो जाना चाहिए.अध्यक्ष ने गाँधीजी को अपने कथन का आशय स्पष्ट करने के लिए कहा. गाँधीजी अपनी बात साफगोई से कह रहे थे परन्तु एनी बेसेंट मंच से उठकर चली गई. साथ में कई गणमान्य भी चले गए. नतीजतन गाँधीजी का भाषण अधूरा रह गया.

एक साल भारत-भ्रमण और लोगों से संवाद के पश्चात, राष्ट्र और राष्ट्रीय आन्दोलन के बारे में, गाँधीजी ने युवाओं की मौजूदगी में अपने विचार साझा किये तो एनी बेसेंट सरीखे तत्कालीन नेतृत्व को पसन्द नहीं आया. आखिरकार क्या था इस भाषण में? जिसके बारे में गाँधीजी ने कहा था कि, ‘आज मैं भाषण नहीं देना चाहता, श्रव्य रूप में सोचना चाहता हूँ. यदि आज आपको ऐसा लगे कि मैं असंयत होकर बोल रहा हूँ तो कृपया मानिए कि कोई आदमी जोर-जोर से बोलता हुआ सोच रहा है और वही आप सुन पा रहे हैं. और यदि आपको ऐसा जान पड़े कि मैं शिष्टाचार की सीमा का उल्लंघन कर रहा हूँ तो कृपया उस स्वच्छन्दता के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे.

गाँधीजी ने कहा कि इस पवित्र नगर में, महान विद्यापीठ के प्रांगण में, अपने देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना शर्म की बात है. विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में जिन लोगों ने गाँधीजी से पूर्व अँग्रेजी में अपना भाषण पेश किया था, उन लोगों को शायद ही यह अनुमान था कि विदेशी भाषा में बोलना शर्म-सरीखा है. कहना तो यह होगा कि ज्यादातर लोग अँग्रेजी में बोलना गौरव मानते रहे हैं. इसे गुमान समझते हैं. गाँधीजी इस गुमान को शर्म बता रहे थे. इन्होंने आशा प्रगट की कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जाएगा. अगर ऐसा नहीं होता तो बकौल गाँधीजी हमारी भाषा पर हमारा ही प्रतिबंध है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तब तो हमारा संसार से उठ जाना अच्छा है.यह भाषण एक सदी पहले दिया गया था. आज भी ऐसा सोचने-माननेवाले मिलते हैं जो अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भारतीय भाषाओं को तंग बताते हैं. गाँधी के लिए ऐसा सोच अपनी भाषाओं पर प्रतिबंध सरीखा है.

गाँधीजी ने वहाँ मौजूद लोगों से सवाल किया कि क्या कोई स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अँगरेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? श्रोताओं ने नहीं, नहींकहकर जवाब दिया. यह उत्तर सुनकर गाँधीजी ने पूछा कि फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए?’

उन्होंने कहा कि भारत के अँगरेजीदाँ ही देश की अगुवाई कर रहे हैं और वे ही राष्ट्र के लिए सब-कुछ कर रहे हैं. ... मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षों में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिए शिक्षा पाई होती, तो हम आज किस हालत में होते?’ इस प्रश्न का स्वयं जो उत्तर दिया, वह काबिलेगौर है, कि आज भारत स्वतन्त्र होता, हमारे पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी न होते बल्कि देश के हृदय को छूनेवाली वाणी बोलते; वे गरीब-से-गरीब लोगों के बीच काम करते और पचास वर्षों की उनकी उपलब्धि पूरे देश की विरासत होती.

गाँधीजी ने यहाँ तक कहा कि आज तो हमारी अर्धांगिनियाँ भी हमारे श्रेष्ठ विचारों की भागीदार नहीं हैं. अंग्रेजी शिक्षा ने पति-पत्नी के विचारों के बीच बड़ी खाई पैदा की थी. उस दौर में देश की अगुवाई करने वाले पुरुष तो अँग्रेजी शिक्षा में दीक्षित थे, परन्तु स्त्रियाँ इससे वंचित थीं. वनस्पति शास्त्री सर जगदीश चंद्र बोसऔर रसायन शास्त्री पी.सी. रॉय तथाउनके शानदार आविष्कारों का हवाला देकर गाँधीजी ने पूछा कि क्या यह लज्जा की बात नहीं है कि जनता का उनसे कुछ लेना-देना नहीं.

गाँधीजी ने भारत की ख्याति का कारण आध्यात्मिकता को बताया. इस क्षेत्र में भारत की कोई सानी नहीं है, ऐसा कहा. पर साथ में यह भी कहा कि बातें बघार कर आध्यात्मिकता का संदेश नहीं दिया जा सकता. ऐसा संदेश महज तकरीरों के जरिये नहीं दिया जा सकता. हालाँकि गाँधीजी ने यह माना कि हम भाषण देने की कला के लगभग शिखर पर जा पहुँचे हैं; पर यह पर्याप्त नहीं. बकौल गाँधीजी अब हमारे मनों में स्फुरण होना चाहिए और हाथ-पाँव हिलने चाहिए.बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के इस समारोह में कहा गया था, जिसकी याद गाँधीजी ने भी दिलाई कि भारतीय जीवन की सादगी कायम रखनी है तो हमें अपने हाथ-पाँव और मन की गति में सामंजस्य लाना आवश्यक है.यह मूल सवाल है. विचार की दिशा में हाथ-पाँव का हिलना. सोच की दिशा में कदम बढ़ाना. कर्म को शब्द के निकट ले जाना और इनमें सामंजस्य स्थापित करना. तभी, विचार श्रोताओं के हृदय को छूने में सफल हो सकते हैं.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में जो भाषण हुये, उसके बारे में गाँधीजी ने क्यों कहा कि इन व्याख्यानों ने श्रोताओं के हृदय नहीं छुए. यह भी कहा कि यहाँ जो भाषण हुए उसके बारे में, लोगों की परीक्षा ली जाए और मैं निरीक्षक होऊँ तो निश्चित है कि ज्यादातर वक्ता फेल हो जाएँ. अलबत्ता गाँधीजी यह मानते थे कि वक्ता भाषण देने की कला में लगभग शिखर पर पहुँच गये हैं. वक्ता भाषण देने की कला में शिखर पर हैं, फिर भी फेल कैसे?

गाँधीजी ने बताया कि 28दिसम्बर 1915को राष्ट्रीय महासभा काँग्रेस के बम्बई (अब मुम्बई) में सम्पन्न तीसवें अधिवेशन में तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए, जो हिन्दी में दिए गए थे. ध्यान दिलाया कि यह मुम्बई की बात है, बनारस की नहीं; जहाँ सभी लोग हिन्दी बोलते हैं. प्रसंगवश, याद रखना होगा कि बनारस के सभी लोग हिन्दी नहीं, भोजपुरी बोलते रहे हैं. हाँ, हिन्दी समझ लेते होंगे.

अपने भाषण के आरम्भ में ही गाँधीजी ने यह कहा था कि अभी-अभी जो महिला भाषण देकर बैठी हैं, उनकी अदभुत वाकशक्ति के प्रभाव में आकर आप लोग कृपया इस बात पर विश्वास न कर लें कि जो विश्वविद्यालय अभी तक पूरा बना और उठा भी नहीं है, वह कोई परिपूर्ण संस्था है और अभी जो विद्यार्थी यहाँ आए ही नहीं हैं, वे शिक्षा-संपादन करके यहाँ से एक महान साम्राज्य के नागरिक होकर निकल चुके हैं.

इस वक्तव्य में दो बातें काबिलेगौर हैं. एक, वक्ता की वाक्शक्ति के असर में बातों पर विश्वास नहीं करने के लिए कहना. दो, अँगरेजी हुकूमत को महान साम्राज्यबताना.

अब प्रश्न उठता है कि वक्ताओं ने हिन्दी में अपने विचार व्यक्त किए होते तो क्या श्रोताओं का हृदय छूने में पूर्णतया सफल होते? गाँधीजी के अनुसार क्या यह पर्याप्तहोता? कहना होगा कि श्रोताओं के हृदय छूने के लिए भाषा पहली सीढ़ी है, एकमात्र नहीं.

गाँधीजी के भाषण का एक हिस्सा भाषा के मुद्दा पर केंद्रित था, दूसरा कांग्रेस द्वारा पास स्वराज के प्रस्ताव पर.

गाँधीजी को विश्वास था कि अखिल भारतीय काँग्रेसऔर मुस्लिम लीगअपना कर्तव्य पूरा करेंगी और कुछ-न-कुछ ठोस सुझावों के साथ सामने आयेंगी. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि काँग्रेस और मुस्लिम लीग क्या-कुछ कर पाती हैं, इसमें मेरी उतनी दिलचस्पी नहीं है, जितनी इस बात में कि विद्यार्थी-जगत क्या करता है या जनता क्या करती है. काँग्रेस और मुस्लिम लीग की बनिस्पत विद्यार्थियों और किसानों को तवज्जो देना महत्त्वपूर्ण है. यहाँ गाँधीजी की आगामी नीति- स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई के दौरान जिसे हकीकत बननी थीकी झलक मिलती है. काँग्रेस की कमान गाँधीजी ने संभाली, उससे पहले काँग्रेस बैरिस्टर, जमींदार सरीखे उच्च वर्ग के लोगों तक महदूद थी. गाँधीजी ने इसे किसानों-मजदूरों से जोड़ा. इन्होंने पूरी साफगोई से कहा कि कोई भी कागजी कार्रवाई हमें स्वराज नहीं दे सकती.काँग्रेस का प्रस्ताव पास करना, कागजी कार्रवाई ही तो था. इसके मद्देनजर ठोस सुझावसामने लाना था, और अपना कर्तव्यभी पूरा करना था. गाँधीजी का मतलब साफ था कि काँग्रेस कागजी कार्रवाई से आगे बढ़े. इन्होंने काँग्रेस अध्यक्ष से सहमति जाहिर की कि स्वराज की बात सोचने के पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी.

किस दिशा में मशक्कत? किस मार्ग पर? क्या करना होगा काँग्रेस को, स्वराज की खातिर? गाँधीजी ने संकेत दिया था, विद्यार्थी और किसान क्या करते हैं, इसे महत्त्व देकर. इनके प्रति दिलचस्पी प्रगट कर. यह भी कहा कि धुआँधार भाषण हमें स्वराज के योग्य नहीं बना सकते. वह तो हमारा आचरण है जो हमें उसके योग्य बनाएगा.कैसा होना चाहिए हमारा आचरण, कि हम स्वराज के काबिल बन सकें? गाँधी-चिंतन में आचरण पर सबसे ज्यादा जोर है. विचार और आचरण का समन्वय. विचार और कर्म की एकता.

स्वराज पाने के लिए आचरण को कसौटी बनाना, नितांत मौलिक बात थी. यह गाँधीजी का पक्ष था. एक मजबूत पक्ष.

स्वराज के सवाल के साथ गाँधीजी ने स्वच्छता का प्रश्न जोड़ा. इसके माध्यम से व्यक्तिगत आचरण और सामाजिक आचरण का सवाल भी उठाया. इन्होंने कहा कि कल मैं विश्वनाथ के दर्शन के लिए गया था. उन गलियों में चलते हुए, मेरे मन में ख्याल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मन्दिर पर उतर पड़े और यदि उसे हम हिंदुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह एक महान मंदिर हमारे अपने आचरण की ओर उँगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ. क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मंदिर के आसपास की गलियाँ इतनी गन्दी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं, वे बे-सिलसिले और चाहे जैसे हों. गलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और सँकरी हों. अगर हमारे मंदिर भी सादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज कैसा होगा?’

स्वराज का प्रश्न उठानेवाले लोगों की निगाहों से ऐसे मुद्दे बहुत दूर थे. पर गाँधीजी के हिसाब से ये तमाम मुद्दे स्वराज के प्राथमिक सवाल थे. गाँधीजी ने पूछा कि चाहे खुशी से, चाहे लाचारी से अँग्रेजों का बोरिया-बिस्तर बँधते ही क्या हमारे मन्दिर पवित्रता, स्वच्छता और शान्ति के धाम बन जाएँगे?’ वे मन्दिर की सफाई तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने रेलगाड़ी के डिब्बे की गंदगी की तरफ भी ध्यान दिलाया. बकौल गाँधीजी यह जानते हुए भी कि डिब्बे का फर्श अकसर सोने के काम में बरता जाता है, हम उस पर जहाँ-तहाँ थूकते रहते हैं. हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें वहाँ क्या फेंकना चाहिये, क्या नहीं और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गन्दगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है.नागरिक-कत्र्तव्य के इस सवाल के साथ गाँधीजी ने वर्गीय मनोवृत्ति के बारे में बताया कि जिन्हें कुछ ऊँचे दर्जे का माना जाता है, वे अपने से कम भाग्यशाली अपने भाइयों के साथ डाँट-डपट का व्यवहार करते हैं.इतना ही नहीं, यह भी बताया कि विद्यार्थी भी ऐसा करते हैं. वे अँगरेजी बोल सकते हैं और नारफॉक जाकिटें पहने होते हैं और इसलिए अधिकार जता कर डिब्बे में घुस जाते हैं और बैठने की जगह ले लेते हैं.अंग्रेजी बोली और जाकिट विद्यार्थियों को अपने देश के सामान्य लोगों से कुछ दर्जा ऊपर होने का बोध कराता था! अंग्रेजी साम्राज्य की मुखालफत करने वाले विद्यार्थी का मानस स्वीकार कर चुका थाअंग्रेजी भाषा और उनकी पोशाक की श्रेष्ठता. इसी श्रेष्ठता के सहारे वे लोग सामान्य लोगों पर रौब गालिब करते थे.

गाँधी के लिए यह स्वराज का बुनियादी प्रश्न था. श्रेष्ठता-ग्रंथि के रहते स्वराज नहीं आ सकता. ये परेशानियाँ अँगरेजों के कारण पैदा नहीं हुई थीं. इसके लिये भारतवासी जिम्मेवार थे. गाँधीजी के लिए ये चिंताजनक बातें थीं; स्वराज की राह में रूकावट भी. इसलिए उन्होंने कहा कि स्वराज की दिशा में बढऩे के लिये हमें बिना शक ये सारी बातें सुधारनी चाहिये.’ ‘स्वराजकी किस दिशा में बढऩे के लिए ये सारी बातें सुधारनी चाहिए. यह कहना ज्यादा उचित प्रतीत होता है कि किस स्वराजकी दिशा में कदम बढ़ाने के लिए ये तमाम कमियाँ दुरुस्त करनी होंगी. स्पष्ट है कि गाँधी जिस स्वराजकी बात कर रहे थे, वह अलहदा था और विशिष्ट भी.

इतिहास के उस दौर में सक्रिय विचार-समूहों में स्वराज की अपनी-अपनी कल्पना थी. वे सभी अपने-अपने स्वराजको रूप और आकार देने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे. अपने-अपने मोर्चे पर स्वराज के ये तमाम तस्व्वुर किसी स्तर पर एक-दूसरे से संबद्ध थे तो किसी स्तर पर असंबद्ध भी. एक स्तर पर किसी के प्रतिलोम थे तो दूसरे स्तर पर पूरक भी. किन्हीं मायनों में एक-दूसरे से संगत करते थे तो कुछ अर्थों में सामना भी. स्वराज की ये अवधारणाएँ एक-दूसरे को काटती थी तो पूर्णता भी प्रदान करती थीं. गाँधी के जेहन में स्वराजकी जो अवधारणा थी, उसकी दिशा में बढऩे के लिए बिना शक उक्त तमाम बातें देशवासियों की कमियाँ थीं, स्वराज प्राप्ति के रास्ते की रुकावट भी. लिहाजा, सुधार की जरूरत थी.

दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह ने उद्घाटन समारोह के एक सत्र की सदारत की थी. अपने संबोधन में भारत की गरीबी पर प्रकाश डाला था. अन्य वक्ताओं ने भी गरीबी के सवाल पर जोर दिया था. इसपर गाँधीजी ने कहा कि जिस शामियाने में वायसरॉय द्वारा शिलान्यास-समारोह हो रहा था, वहाँ काफी प्रदर्शन किया गया था. जड़ाऊ गहनों की ऐसी प्रदर्शनी थी, जिसे देखकर पेरिस के जौहरी की आँखें भी चौंधिया जातीं. जब मैं गहनों से लदे हुए उन-उमरावों और भारत के लाखों गरीब आदमियों से मिलता हूँ तो मुझे लगता है, मैं इन अमीरों से कहूँ जब तक आप अपने ये जेवरात नहीं उतार देते और उन्हें गरीबों की धरोहर मानकर नहीं चलते, तब तक भारत का कल्याण नहीं होगा.देशी राजवाड़ों के इस अश्लील प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए गाँधीजी ने कहा कि मुझे यकीन है कि सम्राट अथवा लार्ड हार्डिंग, सम्राट के प्रति वास्तविक राजभक्ति दिखाने के लिये किसी का गहनों के संदूक उलटकर सिर से पाँव तक सजकर, आना जरूरी नहीं समझते.इन्होंने भारत के राजवाड़े, नवाब और जमींदारों द्वारा बनायी जा रही बड़ी इमारतों को लेकर दु:ख जाहिर किया, क्योंकि ये किसानों से वसूले गए पैसों से बनता है. जमींदारों राजाओं और नवाबों की समृद्धि किसानों की कमाई पर टिकी होती है. तब देश में पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक लोग किसानी करते थे. गाँधीजी ने कहा कि यदि हम इनके परिश्रम की सारी कमाई दूसरों को उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज की कोई भी भावना हमारे मन में है.

स्वराज का प्रस्ताव पास करने वालों और सभा-संगोष्ठियों में स्वराज का सवाल उठाने वालों से यह पूछना गौरतलब है. किसानों के परिश्रम की कमाई उठाकर कौन ले जाता था? साम्राज्यवादी शोषण-व्यवस्था और इसके अन्दर काम कर रही सामन्ती संरचना. समारोह में मौजूद राजे-महाराजे और अमीर-उमराव इस संरचना के विशेष अंग थे. यह एक मूलभूत सवाल था, जिसे गाँधीजी ने उठाया. यह कहकर गाँधीजी स्वराज के प्रश्न से किसानों का सवाल सम्बद्ध कर रहे थे. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि हमें आजादी किसान के बिना नहीं मिल सकती. आजादी वकील और डॉक्टर या सम्पन्न जमींदारों के वश की बात नहीं है.आजादी के लिए किसानों को सबसे आवश्यक तबका बताना, भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन के सन्दर्भ में, प्रस्थापना-परिवर्तन करने वाली बात थी. गाँधीजी ने किसानों से वकील, डॉक्टर या सम्पन्न जमींदारों में भेद किया. गाँधी के कथन में जमींदार के पहले सम्पन्नशब्द का प्रयोग हुआ है. समाज वैज्ञानिकों ने सातवें-आठवें दशक में यह तथ्य पहचाना कि तमाम जमींदार एक कोटि में नहीं समाते.

जमींदारों में भी स्तर भेद रहा है. इस भेद का प्रतिफल भी कई क्षेत्रों में दिखता है. वकील, डॉक्टर या सम्पन्न जमींदारों के वश में देश की आजादी नहीं है, यह कहकर गाँधीजी ने स्वाधीनता-आन्दोलन की तत्कालीन संरचना पर सवाल खड़ा किया. इतिहास के उस दौर में यही तबके स्वतन्त्रता-आन्दोलन की अगुआई कर रहे थे. इन्हें आजादी के लिए अपर्याप्त कहकर गाँधीजी आन्दोलन की प्रकृति में बदलाव लाने का सुझाव दे रहे थे. वे किसानों का जिक्र कर बहुसंख्यक आबादी को स्वाधीनता-आन्दोलन से जोडऩे पर बल दे रहे थे. मुट्ठी भर वकील, डॉक्टर या सम्पन्न जमींदारजो कई मायनों में साम्राज्यवादी व्यवस्था के मजबूत अंग भी थेस्वाधीनता आन्दोलन को कितने दूर तक ले जा सकते थे? देश की बहुसंख्यक जनता से कटकर देश-हित का कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता, देश की आजादी का आन्दोलन तो बिल्कुल नहीं. ब्रिटिश हुकूमत की सर्वाधिक मार इस बहुसंख्यक आम अवाम को झेलनी पड़ती थी. बगैर इनके शामिल हुए आन्दोलन के सफल होने का सवाल ही नहीं था.


स्वाधीनता-आन्दोलन के तत्कालीन नेतृत्व को आजादी के लिए अपर्याप्त कहने वाले गाँधीजी उस दौर तक अँग्रेजी सत्ता को देश के लिए घातक नहीं मानते थे. जो लोग उस हुकूमत को भगाना चाहते थे, वे देश की जनता को आन्दोलन से जोडऩे की जरूरत नहीं समझ पाये थे. लिहाजा यह बात और भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है. गाँधीजी ने पूरी साफगोई से कहा था कि ‘‘यदि मुझे इस बात का विश्वास हो जाए कि अँग्रेजों के रहते हुए इस देश का कदापि उद्धार न होगाउन्हें यहाँ से निकाल ही देना चाहिएतो उनसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहाँ से चलते होने की प्रार्थना करने में, मैं कभी आगा-पीछा न करूँगा और मुझे विश्वास है कि अपनी दृढ़ धारणा के समर्थन में मरने को भी तैयार रहूँगा, ऐसा मरण ही मेरी सम्मति में प्रतिष्ठा का मरण है.’’

प्रसंगवश, गाँधीजी के अनन्य अनुयायी आचार्य जे.बी. कृपलानीने अपने संस्मरण गुलामी बापू कीमें लिखा है कि अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप हिंसा में भरोसा रखने वाले हैं और गाँधी ठहरे परम अहिंसावादी! गाँधीजी ब्रिटिश राज्य में श्रद्धा रखने वाले हैं और आप उसका उच्छेद करने वाले. तो आपने उनका नेतृत्व किस प्रकार स्वीकार किया? जवाब में कृपलानी जी कहते हैं : मैंने इस आदमी में एक शक्ति देखी है. वह हैया तो काम को अन्त तक पहुँचाना या अपना अन्त कर देना. इसलिए मैंने इनको अपना नेता स्वीकार किया है. दूसरे, उनमें सच्चाई है. आज वे अहिंसा का समर्थन करते हैं, परन्तु जिस क्षण उनको यह समझ में आ जाएगा कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है, उसी समय वे हिंसा के रास्ते पर चल कर ऐसी उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं लड़ेगा. इस एक ही चीज ने मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया है. इसीलिए मैं उनके साथ हूँ. हिंसा के विषय में तो मेरा विश्वास हो गया है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असम्भव है. उनको जिस क्षण यह लगा कि ब्रिटिश राज्य देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किये हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाये थे. ब्रिटिश शासन को उन्होंने शैतानी राज्य कहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा.

आचार्य कृपलानी ने गाँधी-शख्सियत को बिल्कुल ठीक उकेरा है. उनकी शक्ति के बारे में सर्वथा उचित आकलन पेश किया है. क्या है गाँधी-शक्ति? जे.बी. कृपलानी ने इस गूढ़ प्रतीत होने वाले प्रश्न का सहज उत्तर दिया है. वह हैजो काम अपने कंधे पर लिया है, या तो उसे अंत तक पहुँचाना या अपना अन्त कर देना. जो दायित्व स्वीकारा है, उसके प्रति पूर्णत: कटिबद्ध होना. उसे लेकर कोई शुबहा नहीं. काम की राह में कठिनाई आने पर पलायन नहीं. बहुतेरों को यह गाँधी-मार्ग रास नहीं आता. कारण कि इसमें वचनबद्धता के बाद उसे पूर्णता तक पहुँचाने के अलावा कोई चारा नहीं. भले ही खुद का अंत करना पड़े. आचार्य कृपलानी ने गाँधी की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता बताई हैसच्चाई. यही गाँधी की मजबूती है. इन दोनों खूबियों को परिभाषित करने वाले आचार्य कृपलानी का आरम्भिक दौर में गाँधी की अहिंसक विचारधारा में यकीन नहीं था. गाँधीजी थे परम अहिंसावादी जबकि आचार्य कृपलानी हिंसा में पूरा भरोसा रखते थे. विचारों का विपर्यय इतना ही नहीं था. गाँधीजी ब्रिटिश राज के प्रति श्रद्धा-भाव वाले थे; जबकि कृपलानी जी की पुष्ट धारणा थी कि बगैर अँग्रेजी राज का उच्छेद किये, हिन्दुस्तान का भला होने वाला नहीं.

गाँधी की शख्सियत की व्याख्या करते हुए आचार्य कृपलानी ने यह भी कहा है कि आज वे अहिंसा का समर्थन करते हैं, परन्तु जिस क्षण उनको यह समझ में आएगा कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होनेवाला नहीं है, उसी समय वे हिंसा के रास्ते पर चलकर ऐसी उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं लड़ेगा. गाँधी के चरित्र में निहित इसी मूल्य ने आचार्य कृपलानी को अपनी तरफ आकृष्ट किया. अपने विचार पर खुद को न्योछावर कर देना. प्राणपण से अपनी मान्यताओं के पथ पर चलना. भले ही उस पर चलते हुए जीवन का उत्सर्ग करना पड़े.

सवाल पैदा होता है कि अगर गाँधीजी को समझ में आता कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है और वे हिंसा की राह अपनाते तो क्या इसे पलायन कहा जाता? जवाब होगानहीं. कारण कि यह न तो किसी सुविधा के लिए होता और न ही किसी वैचारिक ढुलमुनपन अथवा दुविधा के कारण. आचार्य कृपलानी ने इस काल्पनिक स्थिति के लिए भी कहा है कि ऐसी परिस्थिति में गाँधीजी जिस उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं. यहाँ भी वे स्वयं के उत्सर्ग के लिए तैयार रहते. यहाँ नोट करने लायक हैगाँधी-भावना. गाँधी अगर अहिंसा से हिंसा की राह पर जाते तो यह भी सत्य के प्रयोग का एक पड़ाव ही बनता. उनका समूचा जीवन सत्य तक पहुँचने का प्रयोग था. बहरहाल ऐसी कल्पना करने वाले आचार्य कृपलानी ने पूरी साफगोई से कहा है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असम्भव है. गाँधी का समूचा

जीवन अहिंसा के प्रयोगों का पर्याय था. ये तमाम प्रयोग देश व दुनिया के कल्याण के लिए थे.
इसमें पूरी मानवता की चिन्ता थी. एक नयी सभ्यता गढऩे की अकुलाहट का परिणाम थे ये सारे प्रयोग. इसमें किसी के शोषण के लिए गुँजाइश नहीं थी. यही वजह है, जैसा आचार्य कृपलानी ने भी बताया है कि, जिस क्षण गाँधी ने समझा ब्रिटिश राज देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किये हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाये थे. गाँधीजी ने ब्रिटिश शासन को शैतानी राज्यकहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा. ब्रिटिश शासन के प्रति श्रद्धा रखनेवाले गाँधी उसे शैतान कहने लगे. इतनी मजबूती से कहने लगे कि देशभर ने इस पर भरोसा किया, रंचमात्र भी संदेह न कर, ब्रिटिश हुकूमत को शैतान कहा.

गाँधीजी और आचार्य कृपलानी के विचारों में वैषम्य दिखता था. लिहाजा लोगों के जेहन में यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक था. आचार्य जे.बी. कृपलानी की शख्सियत से वाकिफ लोग समझ नहीं पा रहे थे कि निहायत विपरीत विचार वाले व्यक्ति का नेतृत्व इन्होंने क्यों माना है? इसका जवाब देते हुए कृपलानीजी ने गाँधीजी की ताकत की चर्चा की है. यही ताकत उन्हें श्रेष्ठ साबित करती थी. इसी ने कृपलानी जी को प्रेरित किया कि वे गाँधीजी को अपना नेता मानें.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भाषण में गाँधीजी ने स्पष्ट किया था कि अगर उन्हें यह समझ में आ जाए कि अंग्रेजों के रहते देश का उद्धार कतई नहीं होगा तो उनसे भारत से चले जाने हेतु प्रार्थना करने में बिल्कुल आगा-पीछा नहीं करूँगा. ऐसा ही किया भी. इसे समझते ही पूरी प्रतिबद्धता के साथ अंग्रेजी सत्ता को यह अहसास कराने में जुट गए कि उन्हें भारत से सात समुद्र पार चले जाना चाहिए. अपनी इस दृढ़ धारणा के समर्थन में मरने को तत्पर रहने की बात उन्होंने की थी. इस तरह के मरण को श्रेष्ठ भी बताया था. इस पर भी वे बिल्कुल सच्चे साबित हुए. उनके जीवन ने इस धारणा को पुष्ट किया. इसी ने आचार्य कृपलानी सरीखे अनेक लोगों के अन्त:करण में गाँधी की अगुवाई स्वीकारने का भाव जगाया.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके उद्घाटन के दौरान जो माहौल बना था, उससे गाँधीजी का मन उद्विग्न था. इसका कारण था, स्थान-स्थान पर लगाई गई खुफिया पुलिस. आयोजन में वाइसरॉय शामिल हुए थे. उनकी सुरक्षा के मद्देनजर यह तैनाती हुई थी. गाँधी के मुताबिक इसका कारण थाअविश्वास. भारतीय लोगों के प्रति शासकों में अविश्वास. अगर शासक और शासितों में विश्वास होता तो सुरक्षा के इन्तजाम नहीं होते. जगह-जगह खुफिया पुलिस नहीं लगाए जाते. गाँधी इस अविश्वास का कारण पूछते हैं. इसकी वजहों पर विचार करते हैं. एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और परिणामस्वरूप सुरक्षा के लिए खुफिया पुलिस की तैनाती गाँधी के हिसाब से मरणान्तक दु:ख है. वे कहते हैं कि ‘‘इस प्रकार मरणान्तक दु:ख भोगते हुए जीने की अपेक्षा क्या लार्ड हार्डिंग के लिए सचमुच ही मर जाना अधिक श्रेयस्कर नहीं है. परन्तु एक बलशाली सम्राट के प्रतिनिधि इस प्रकार मर भी नहीं सकते. मृतक की भाँति जीना ही वे शायद जरूरी समझते हों.’’विद्यार्थियों की सार्वजनिक सभा को सम्बोधित करते हुए गाँधी यह कह रहे थे. वे ही ऐसा कह सकते थे; सबकी मौजूदगी में. कारण कि उनका मन साफ था. पारे की तरह. सुरक्षा के ऐसे पुख्ता इन्तजाम के साथ जीना मृतक की तरह जीना है. फिर ऐसे जीवन का क्या मतलब? इस जीवन से श्रेयस्कर है सचमुच मर जाना. वायसराय लार्ड हार्डिंग के लिए सहजतापूर्वक गाँधीजी ने जो कहा, उसे सुनने के लिए मंच पर आसीन लोग तैयार थे? थोड़ी देर बाद भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा गया, उसका राब्ता इससे जुड़ता प्रतीत होता है.

गाँधीजी यह भी पूछते हैं कि खुफिया पुलिस का जुआ हमारे सिर पर लादने का क्या कारण है? जवाब में इसके लिए अराजक दल को जिम्मेदार मानते हैं. गाँधी खुद को अराजक ही कहते हैं, ‘‘मैं खुद भी अराजक ही हूँ, पर दूसरे वर्ग का.’’इन दोनों अराजक वर्ग की विभाजक रेखा हैहिंसा. गाँधी अराजक थे, अहिंसक अराजक. वे हिंसक अराजक दल की उत्पति का कारण मानते हैंउतावलेपन का नशा. वे इस समूह को स्पष्टतया कहते हैं, ‘‘यदि भारत को अपने विजेताओं पर विजय प्राप्त करनी हो तो आपकी अराजकता के लिए यहाँ जगह नहीं है.’’ कारण कि हिंसा कायरता का लक्षण है. हिंसा की पैदाइश की बड़ी वजह कायरता है.

ईश्वर के प्रति अटूट आस्था वाले गाँधी हिंसा में भरोसा रखने वाले लोगों को कहते हैं, ‘‘यदि आपका ईश्वर पर विश्वास हो और यदि आप उसका भय मानते हों तो फिर आपको किसी से डरने का कोई कारण नहीं हैफिर चाहे वे राजा-महाराजा हो, वाइसरॉय हों, खुफिया पुलिस हों अथवा स्वयं सम्राट हों.’’गाँधी के मन में हिंसक अराजकतावादियों के स्वदेश-प्रेम के प्रति आदर-भाव था. गहरा सम्मान. उन्होंने कहा है कि ‘‘अराजकों के स्वदेश-प्रेम का मैं बड़ा आदर करता हूँ. वे जो स्वदेश के लिए आनन्दपूर्वक मरने के लिए प्रस्तुत रहते हैं, उनकी मैं इज्जत करता हूँ.’’गाँधी हिंसक अराजकतावादियों के स्वदेश-प्रेम का सम्मान करते थे. वतन के लिए खुशी-खुशी मरने वाले जज्बे की भी इज्जत करते थे. फिर भी उनके मार्ग से घोर असहमति रखते थे.

गाँधीजी ने भाषण में उन लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘‘मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या मृत्युदंड प्राप्त होता है उसे किसी भी प्रकार गौरवपूर्ण माना जा सकता है?’’ वे स्वयं जवाब भी देते हैं–‘नहीं.वजह बताते हैं कि ‘‘कोई धर्मग्रन्थ ऐसे उपाय का अवलम्बन करने की अनुमति नहीं देता.’’ सवाल उठता है कि कोई धर्मग्रन्थ इसकी इजाजत देता तो क्या स्वीकार करते? गाँधी की मनोभूमि से वाकिफ कोई भी व्यक्ति इसका सहज जवाब दे सकता है; वे तब भी इसे हरगिज पसन्द नहीं करते. वे हिंसा कतई स्वीकार नहीं कर सकते थे. गाँधी जो सभ्यता निर्मित करना चाहते थे, उसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी.
गाँधी के सपनों की दुनिया में हिंसा के लिए स्थान नहीं था. भले ही वह हिंसा किसी के भी प्रति हो. किसी पर, किसी तरह की, हिंसा गाँधी को स्वीकार नहीं. दुश्मन के प्रति भी हिंसा मंजूर नहीं. यह हिंसा की संस्कृति को खारिज कर मनुष्यता पर आधारित संस्कृति गढऩे की आकांक्षा का परिणाम है.

गाँधीजी ने इस भाषण में हिंसा की राह पर चलनेवालों को कायर बताया. पूरी साफगोई से कहा कि ‘‘बम फेंकने वाला गुप्त रूप से षडयन्त्र करता है. वह बाहर निकलने से डरता रहता है और पकड़े जाने पर अयोग्य और अतिरिक्त उत्साह का प्रायश्चित भोगता है.’’ अपने विचार के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता और उसके लिए मरने को प्रतिष्ठा का मरण कहने वाले गाँधी हिंसक अराजक वर्ग की राह पसन्द क्यों नहीं करते थे? जबकि हिंसक अराजक वर्गके लोग भी अपने विचार के समर्थन में मरने के लिए तत्पर रहते थे. आखिरकार उनका मरण प्रतिष्ठा का मरणक्यों नहीं? पूछा जा सकता है कि बम फेंकनेवाले अगर गुप्त रूप से षडयंत्र नहीं करें और बाहर निकलने से डरे भी नहीं, तो क्या गाँधीजी इसे स्वीकार करते? हरगिज नहीं; क्योंकि बम से होनेवाली हिंसा बीच की दीवार है. गाँधीजी अहिंसा की राह हरगिज नहीं छोड़ते. अहिंसा गाँधी के लिए साधन मात्र नहीं है. अहिंसा साध्य है और कसौटी भी. अहिंसा के प्रतिमान पर गाँधी घटनाओं को परखते हैं और स्वयं को भी.

हिंसा की राह पर चलने वालों को कायर बताना काबिलेगौर है. यह कहकर गाँधीजी ने आम समझ का विलोम प्रस्तावित किया है. हमारी सभ्यता-संस्कृति का विकास जिस दिशा में हुआ है, उससे यह मिथ्या धारणा पुष्ट हुई है कि हिंसा ताकत का पर्याय है; कि हिंसा का मार्ग मजबूती का मिसाल है; कि हिंसा करने वाले पराक्रमी होते हैं. गाँधीजी की चिंता और चिंतन के केंद्र में, हिंसा को शौर्य माननेवाला, यह झूठा-सच रहा है. वे आजीवन अपने शब्द और कर्म के जरिये इसका प्रतिलोम रचते रहे हैं. यह समझाते रहे हैं कि अहिंसा वीरों का मार्ग है; कि अहिंसा मजबूरी में अपनाया जानेवाला साधन नहीं है; कि अहिंसा की राह पर पराक्रमी और निडर लोग ही चल सकते हैं. अहिंसक संस्कृति की रचना ही मनुष्यता का लक्ष्य होनी चाहिए. गाँधी जैसी शख्सियत के लिए यह बेहद चिंताजनक बात थी कि मनुष्य ऐसी संस्कृति निर्मितहिंसा को तवज्जो देने वालीकरने की दिशा में अग्रसर हैं. मनुष्य मात्र की भलाई अहिंसक संस्कृति में है, न कि हिंसक. गाँधी हिंसा के उत्स की असली वजह कायरता को भी समाप्त करना चाहते थे. भय के कारण ही हिंसा पनपती और पल्लवित-पुष्पित होती है. निहायत भिन्न परिस्थितियों में भी हिंसा के उत्स का कारण एक ही होता हैभय. भले ही वह भिन्न-भिन्न तरह का भय हो.

गाँधी अभय-संस्कृति रचना चाहते थे; जिसमें कोई किसी से भयभीत न हो. जो क्रांतिकारी (गाँधी जिन्हें हिंसक अराजक वर्गसम्बोधित करते हैं) हिंसा की राह से आजादी पाना चाहते थे, गाँधी के मुताबिक वे पवित्र साध्य के लिए अपवित्र साधन अपना रहे थे. गाँधी जैसे व्यक्तित्व के लिए सोचने की बात यह भी थी कि हिंसा के जरिये हासिल स्वराज में हिंसा के लिए जगह रह जाएगी. जो आजादी हिंसा से मिलेगी, उससे हिंसा पूर्णत: समाप्त नहीं होगी. हिंसा से हासिल स्वराज से अहिंसक संस्कृति के पनपने के लिए आवश्यक खाद-पानी मुमकिन नहीं है. गाँधी अहिंसक संस्कृति विकसित होना देखना चाहते थे. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह में भी इससे लेशमात्र विलग नहीं हुए थे; जाहिर है, यहाँ भी विचलन सम्भव नहीं था.    


गाँधीजी अपने भाषण में, बंग-भंग में, हिंसक आन्दोलनकारियों के दावे की चर्चा कर रहे थे. ऐन तभी मंच पर बैठी एनी बेसेंट ने हस्तक्षेप करते हुए भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा. यह चिन्तनपूर्ण भाषण जिस दिशा में बढ़ रहा था, वह श्रीमती बेसेंट को नागवार गुजरा. क्या उन्हें हिंसक आंदोलनकारियों की चर्चा उचित नहीं जान पड़ी? एनी बेसेंट की तरह गाँधी भी अहिंसा के प्रतिबद्ध समर्थक थे. गाँधी की जो छवि बनी थी, उसे दक्षिण अफ्रीका में उनकी भूमिका ने गढ़ा था. बेसेंट इससे वाकिफ न हों, यह मानने की बात नहीं. जाहिर है वे हिंसा का समर्थन नहीं करेंगे, इस तथ्य को भी एनी बेसेंट समझती होंगी. फिर किस बात ने प्रेरित किया कि वे गाँधी का भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहें.

निश्चय ही वह बात थीहिंसक आन्दोलनकारियों की चर्चा के पूर्व की बात; जिसमें वे देश का उद्धार न होने की समझ आने पर, अँग्रेजों से बोरिया-बिस्तर समेटकर जाने के लिए कहने और इसके लिए मरने को भी तत्पर रहने को कह रहे थे. साथ ही हिंसक आंदोलनकारियों के स्वदेश प्रेम और इसके लिए मृत्यु को गले लगाने के प्रति सम्मान की चर्चा. युवजनों के बीच सार्वजनिक सभा में ऐसी बातें कहने-सुनने से वाकिफ नहीं था तत्कालीन नेतृत्वकारी तबका. वह भी ऐसे आयोजन में जिसमें ब्रिटिश-सत्ता के प्रतिनिधि शिरकत कर रहे हों! यहाँ तक पहुँचकर गाँधी के भाषण की दिशा साफ हो चुकी थी. बेसेंट सरीखी प्रबुद्ध शख्सियत इसे समझने में चूक नहीं सकतीं!

बंग-भंग के सम्बन्ध में हिंसक आन्दोलनकारियों के दावे की चर्चा गाँधीजी पहली दफे कर रहे हों, ऐसा नहीं है. उन्होंने बताया कि ये बातें मिस्टर लॉयन्स की अध्यक्षता में भी कह चुका हूँ. श्रीमती बेसेंट ने गाँधीजी को जो सुझाव दिया, उसका कारण गाँधीजी ने क्या समझा? उन्होंने समझा कि श्रीमती बेसेंट भारत से बहुत अधिक प्रेम करती हैं और वे समझती हैं कि युवकों के सामने इस प्रकार की स्पष्ट बातें कहकर मैं अनुचित काम कर रहा हूँ.

गाँधीजी बेसेंट की इस धारणा से इत्तेफाक नहीं रखते थे. वे इसकी वजह मानते थेपरस्पर अविश्वास. ब्रिटिश सत्ता और भारतवासी एक-दूसरे के प्रति विश्वास के जोड़ से नहीं बँधे थे. गाँधीजी अपना कत्र्तव्य मानते थे, दोनों के भीतर परस्पर प्रीति और विश्वास पैदा करना. बहुतेरे लोग घर की बैठक में ऐसी बातें भले ही करते हों, लेकिन सार्वजनिक तौर पर इससे परहेज करते थे. गाँधीजी इसे दायित्वहीन मानते थे. वे खुले तौर पर, पूरी स्पष्टता से, ऐसी बातों की चर्चा श्रेयस्कर मानते थे. वे मानते थे कि सत्ता चलाने वालों से जो भी परेशानी हो, उसे साफ-साफ शब्दों में कहना चाहिए और इसके नतीजा स्वरूप जो कष्ट मिले, उसे भोगने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. लेकिन उन्हें गाली नहीं देनी चाहिए.

अंग्रेजी साम्राज्य ने अपनी हुकूमत चलाने के लिए जिस संरचना का निर्माण किया था, उसके मजबूत आधार-स्तम्भ थेसिविल-सर्वेंट. भारतीय जनता पर होने वाले अत्याचार और शोषण के एक अहम उपकरण भी थे सिविल सर्वेंट. एक बार गाँधीजी से एक सिविल सर्वेंट की मुलाकात हुई. उसने पूछा कि, ‘‘क्या आपका भी ऐसा ही ख्याल है कि हम सभी सिविल-सर्विस वाले बुरे होते हैं और जिन पर शासन करने के लिए हम यहाँ आते हैं, उन पर हम केवल अत्याचार ही करना चाहते हैं?’’ गाँधी जी ने नाइत्तेफाकी जाहिर की. इनकी असहमति जानने के बाद उस सिविल-सर्वेंट ने आग्रह किया कि जब कभी ‘‘मौका मिले, आप हम अभागे सिविल-सर्वेंटों के पक्ष में लोगों के सामने दो शब्द कहने की कृपा करें.’’ गाँधी ने इस भाषण में उसके आग्रह पर अमल किया. उन्होंने कहा कि ‘‘इंडियन सिविल के बहुत से लोग नि:संदेह उद्धृत, अत्याचार प्रिय और अविवेकी होते हैं. इसी तरह के और कितने ही विशेषण उन्हें दिए जा सकते हैं.’’परन्तु इसके बाद जो विश्लेषण इन्होंने किया, मौजूद जनता ने उससे असहमति जाहिर की.

गाँधीजी का मानना था कि ‘‘कुछ वर्षों तक हमारे देश में रहकर वे और भी ओछी मनोवृत्ति के बन जाते हैं.’’इसका विवेचन करते हुए, इन्होंने इसरार किया कि हमारे देश में आने के पहले यदि वे सभ्य और सत्पुरुष थे, यहाँ आकर यदि वे नीति-भ्रष्ट हो गए तो क्या इसका हमारे ही चरित्र का प्रतिबिम्ब मानना चाहिए.

श्रोता इससे सहमत नहीं थे. गाँधीजी ने फिर दोहराया कि ‘‘आप लोग खुद ही विचार करें कि एक मनुष्य, जो कल तक भला आदमी था, मेरे साथ रहने पर खराब हो जाए तो उसके इस अद्य:पतन के लिए कौन उत्तरदायी होगा? वह या मैं?’सभी सिविल सर्वेंटों को गलत मानना अनुचित है; साथ ही इनके अद्य:पतन के लिए भारतवासियों को दोषी ठहराना भी उचित नहीं. जिस सिविल-सर्वेंट ने गाँधीजी से, पक्ष में दो शब्द बोलने के लिए, निवेदन किया था; मुमकिन है, वह व्यक्तिगत तौर पर भला व्यक्ति हो. लेकिन जिस साम्राज्य की हुकूमत और हिफाजत के लिए इस पद का सृजन किया गया था, उसमें भारतवासियों के प्रति अन्याय होना लाजिमी था. सिविल-सर्वेंट ब्रिटिश सत्ता के नुमाइंदे थे, भारतीय जनता के नहीं. वे अँग्रेजी साम्राज्य के हितों की रक्षा के लिए थे, न कि भारतवासियों की भलाई के लिए. अभागेतो वे कतई नहीं थे. सिविल-सर्वेंट जिस मशीन के पूर्जा के तौर पर काम कर रहे थे, पूरी मशीनरी भारतवासियों का दोहन-शोषण कर अभागाबनाने का काम कर रही थी.

वास्तव में वे सिविल-सर्वेंटथे ही नहीं, भारतीय जनता के लिए तो वे किंगथे या उसकी नुमाइंदगी करने वाले बॉस. इसलिए कहा जा सकता है कि गाँधीजी का यह मानना पूर्णतया ठीक नहीं है कि  ‘‘भारत में आने पर खुशामद की जो हवा उन्हें चारों ओर से घेर लेती है, वहीं उनके नीति च्युत होने का कारण है.’’सोचने की बात यह भी है कि खुशामद की संस्कृति विकसित करने में अँग्रेजी साम्राज्य और उसकी मशीनरी की भूमिका भी रही है. गाँधीजी आत्मालोचन के एक बड़े उदाहरण हैं. वे खुद को जिम्मेदार साबित करते हैं, दूसरों पर दोषारोपण करने की जगह. इस लिहाज से यह कहना उचित है कि कभी-कभी अपने दोष स्वीकार करना भी अच्छा होता है, पर सदा नहीं. कहना न होगा कि आत्मप्रशंसा जिस प्रकार सकारात्मक मनोवृत्ति नहीं है, उसी प्रकार सदा आत्मग्लानि भी जायज नहीं.

भाषण समापन के पहले गाँधीजी ने स्वराज-प्राप्ति के सम्बन्ध में जो बातें कहीं, वह काबिलेगौर है. उन्होंने कहा कि ‘‘यदि किसी दिन हमें स्वराज मिलेगा तो वह अपने ही पुरुषार्थ से मिलेगा. वह दान के रूप में कदापि नहीं मिलने का.’’स्वराज-आन्दोलन के सन्दर्भ में यह प्रस्थापना-परिवर्तन करने वाली बात थी. इससे साफ जाहिर होता था कि स्वराज के लिए ब्रिटिश हुकूमत पर निर्भर रहना उचित नहीं.


अगर भारतवासी अपना पुरुषार्थ-प्रदर्शन नहीं करेंगे तो स्वराज दूर की कौड़ी साबित होगी. गाँधीजी ने ब्रिटिश-साम्राज्य के इतिहास की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि ‘‘ब्रिटिश-साम्राज्य चाहे जितना स्वातन्त्र्य प्रेमी हो, फिर भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए, स्वयं उद्योग न करने वालों के, वह कभी स्वतन्त्रता देने वाला नहीं है.’’गाँधीजी बोअर-युद्ध का हवाला देकर अपनी बात पुष्ट कर रहे थे, कि श्रीमती बेसेंट के साथ कई बड़े लोग चले गए और भाषण बाधित हो गया.
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राजीव रंजन गिरि
हिंदी विभाग राजधानी कॉलेज
(दिल्ली विश्वविद्यालय)
राजा गार्डेन/नई दिल्ली 15
मो.- 98 68 17 56 01

परख : रचना का सामाजिक पाठ (पंकज पराशर ) : जय कौशल

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समीक्षा दो लोग पढ़ते हैं – खुद समीक्षक और दूसरा वह लेखक; जिसकी (कृति) समीक्षा की गयी है. कभी-कभी संपादक या/और प्रूफ रीडर भी पढ़ लेते हैं.

हिंदी में समीक्षा निचले दर्जे की बौद्धिक सक्रियता समझी जाती है. ‘सीनियर’ आलोचक किसी कृति की समीक्षा लिखना अपनी तौहीन समझते हैं.

व्यवहारवादी, संपर्क-साधी और अंधभक्ति मानसिकता के कारण समीक्षा अब एक संदिग्ध उपक्रम है. जिसका अब सिर्फ इतना ही अर्थ रह गया है कि ‘मेरे किताब की समीक्षा फलां जगह आयी है.’

ऐसे में पंकज पराशर की आलोचनात्मक कृति ‘रचना का सामाजिक पाठ’ की जय कौशल की ‘समीक्षा’ पढ़ते हुए मैं मन ही मन भयभीत था.

पर यह समीक्षा ऐसी नहीं है. ‘मेरे महबूब में क्या नहीं क्या नहीं’ की मनोग्रन्थि से मुक्त यह एक विवेकसम्मत और पठनीय आलेख है. जहाँ जरूरत है वहां जय कौशल ने साफ शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त की है. इस समीक्षा का भी स्वागत किया जाना चाहिए.




रचनाकासामाजिक                                 
जय कौशल



हिन्दीकीयुवारचनाशीलताऔर आलोचनामेंपंकजपराशरएकस्थापितनामहै.हिन्दी और मैथिलीमें कविता-लेखन से लेकर कहानी, अनुवाद, समीक्षा और आलोचना तक उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. प्रस्तुत आलेख में उनकी साहित्यभंडार प्रकाशन,इलाहाबादसे 2015 मेंप्रकाशितपुस्तक ‘रचना का सामाजिक पाठमें संकलित लेखों की पड़ताल की गई है. यह पुस्तकपंकज द्वारा ‘तद्भव’,‘बहुवचन’,‘पहल’,‘आलोचना’,‘साखी’,‘वर्तमानसाहित्य’,‘अनहद’,‘लमही,‘पाखी’,‘नयाज्ञानोदय’,‘समयांतर’औरशिक्षाविमर्श’मेंप्रकाशितलेखों कासंग्रहहैं.इसमेंदोखण्ड हैं, जिनमेंकुल मिलाकरसोलहलेखहैं.
   
पुस्तक का पहलालेख‘कलाऔरसौंदर्यकेगैररूपवादीकथाकार’शीर्षकसेशेखरजोशीकीकहानियोंका मूल्यांकनहै.जिसमें उन्होने ‘नौरंगीबीमारहै’,‘आशीर्वचन’,‘बदबू’,‘उस्ताद’,‘मेंटल’जैसी कहानियों को अपनी आलोचना का आधार बनाया है. एकसजगआलोचक की तरह पंकज केवल शेखरकीकहानियोंतक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे उनकीतुलनानागार्जुनऔररेणुजैसेरचनाकारोंकेसाथकरते हुए इन सबकी संवेदना का एका प्रकट कर देते हैं. उन्होंने ठीक लिखा है कि, किसीभीभाषाकेबड़ेऔरमहानरचनाकारोंकोपढ़तेसमयस्वाभाविकरूपसेअनेकमहानरचनाओंकीयादआतीहै.कहानीकोपढ़तेसमयसिर्फकहानीयादआए,यहकोईजरुरीनहीं; उसमानवीयसंवेदनाकोसंपोषितकरनेवालीसंरचनाकीसंवेदनासेजुड़नेवालीकोईमहानकवितायादआ जाएतोइसमेंकोईहैरतकीबातनहींहै. यथा, ‘कोसीकाघटवार’मेंगोसाईंकेजीवनकेनिचाटअकेलेपनकोभरनेकेलिएउन्होंनेजिसतरहकुत्ते,बिल्लीकोसाथरखकरदेखाहैऔरगोसाईके अस्थिर तथाचंचलमनकाचित्रणकियाहै,उससेगुजरतेहुएयकायकबाबानागार्जुनकीअमरकविताअकालऔरउसकेबाद’कीयादआतीहै.पंकजकी टिप्पणीहैकि,‘शेखरअपनीकहानियोंमेंअभिजात्यऔररूपवादीसौंदर्यबोधपरचोटकरतेहैं. वेबेहदमितव्यतासेअपनीबातकहतेहैं,चाहेवहगरीबहो,चाहेश्रमिक.हाशिएकेसमाजकेप्रतिउनकीजिम्मेदारीकाएहसासउनकीकहानियोंमेंसाफतौरपरमिलताहै.उन्होंने साफ़ रेखांकित किया है कि,शेखरजोशीजैसारचनाकारजोखुदमितभाषीहै,उसकेअपनेमूल्यांकनकेक्रममेंस्वयंहिंदीआलोचनाभीमितभाषीहोगई, जोठीकनहींहुआ.’ जाहिर है, इस आलेख से शेखर जोशी के रचनाकर्म के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत महसूस होती है.

पितृसत्ता,स्त्रीऔरसमकालीनजीवन-यथार्थ’शीर्षकसेपुस्तक केदूसरेलेखमें अल्पनामिश्रकीकहानी‘स्याहीमेंसुर्खाबकेपंख’को आधार बनाया गयाहै.यह पितृसत्ताकीक्रूरता, कुलीनताकीहिंसाऔरनृशंसताकीकहानीहै.पंकजनेइसकहानीकीबहुतअच्छीसमीक्षाकीहै,हालांकिमुझेनिजी तौर पर इसलेखकेशुरुआतीसाढ़े-तीनपृष्ठरचनाकीसमीक्षाकेसंदर्भमेंबहुतजरूरीनहींलगे. इनमें स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बहस पर बात की गई है. पंकजकी इस पुस्तक से गुजरते हुए उनकी समीक्षा-दृष्टि के सुथरे पैमानों पर तो बहुत ढंग से ध्यान जाता ही है, लेकिन एक बात खटकती भी है, वह ये कि वह एकबातकोसिद्धकरनेकेलिएतर्कोंका अंबार लगा देते हैं, यहाँ तक कि संदर्भ के रूप में एक के बाद एक अनेक बड़े नामों और उनके कथनों को पेश करते चले जाते हैं, इससे मुद्दा थोड़ा बोझिल-सा लगने लगता है, जबकि उनकी बात दो या तीन उदाहरणो में ही स्पष्ट हो चुकती है. ख़ैर,

‘कहानीकेस्त्रीबनामस्त्रीकीकहानी’नामकलेखभीउनकेपिछलेलेखकीतरहस्वानुभूतिऔरसहानुभूतिकीबहसमेंस्त्रीप्रश्नपरस्वानुभूतिकोप्राथमिकतादेतादिखाईदेताहै. इसमेंउन्होंनेलवलीनकीकहानी ‘चक्रवात’,जयश्रीरॉयकीएकरात’,कविताकी‘बावड़ी’,वंदनारागकी‘पतिपरमेश्वर,गीताश्रीकीगोरिल्लाप्यार’,इंदिरादांगीकीमैंनेपरियाँदेखीहैं’, केमाध्यमसेअपनीबातकोस्पष्टकियाहै. उनकी यह टिप्पणी काबिले-गौरहैकि,स्त्रीजीवनकेसमकालीनयथार्थकोअधिकप्रामाणिकऔरवास्तविकरूपमेंस्त्रीकथाकारोंकीनजरसेहीदेखनामुमकिनहै.’

‘भूमंडलीकृतभाषामेंसंवेदनाकीपरिभाषा’ मेप्रियदर्शनकीकहानीपेइंगगेस्ट’की समीक्षा की गई है. इसमें उन्होंनेलिखाहै,‘भूमंडलीकरणनेहमारीभाषाकोगहराईसेप्रभावितकियाहै.हमारीसंवेदनाऔरसोचभूमंडलीकृतसमयकेमुताबिकअनुकूलितहोरहीहै,जिसेसामाजिकआदतोंऔरसार्वजनिकव्यवहारोंमेंआसानीसेलक्षितकियाजासकताहै.’लेखक के अनुसार, भूमंडलीकृतसभ्यतामेंअंतरंगताअंततःसंबंधोंकेदायरेकाअतिक्रमणनहींकरपाती.इससभ्यताकासबसेबड़ासचयहहैकिमनुष्य की प्राथमिकताएंबदलतीरहतीहैं.इस बातकोरांचीसेदिल्लीआकरमैसेजमैठानीकेघरमेंबतौरपेइंगगेस्टरहरहीशालिनीकेउदाहरणसेसमझाजासकताहै.

मिसेज मैठानीशालिनीकोचाहेजितनीसुविधाएँदेतीरही हों,बीमारपड़नेपरशालिनीकीचाहेजितनीजितनीसेवाकरचुकीहों, उसकेदोस्तोंकोआने-जाने और मस्ती करने की चाहे जितनी आजादी देती रही हों,लेकिनशालिनीकेलिएवहसिर्फ‘मिसेजमैठानी’ही रहतीहैं.उम्रकेएकबड़ेफासलेकेबावजूदशालिनीमिसेजमैठानी’ कोचाचीकहपातीहै, नआंटीकरनेमेंसहजतामहसूसकरतीहै.वहएककामकाजीसंबोधन ‘मिसेजमैठानी’काबनापातीहै. शालिनीकायहवाक्य‘आपमेरीमांबननेकीकोशिशकरें’एकप्रतीकवाक्यजैसाहैकिएकदूसरेकीआजादीकासम्मानअंतरंगताऔरसंबंधोंकोलेकरउदारतापूर्णव्यवहारकेबावजूदइसेसंबंधोंकीगहराईऔरबेहदइसेजोड़नासंभवनहींहै.लेकिन इस बात का दूसरा पहलू भी है. प्रियदर्शनने अपनी  कहानी में जिसओरइशाराकिया है,वहसचकाएकरूपतो होसकताहैपरपूरासचनहीं है.इसकेउलटभीसमाजमेंढेरोंउदाहरणमौजूदहैं. भरपूरभूमंडलीकरणऔरउत्तरआधुनिकताकेबावजूदमनुष्यकीसंवेदनाअभीभीइतनीयांत्रिकऔरपशुवतनहींहुईहै,जिसकीओरप्रियदर्शनइशाराकररहेहैं.


संजीवबख्शीकेउपन्यासभूलनकांदा’ की समीक्षा बतौर ‘आदिवासीजीवनकायथार्थऔरहिंदीउपन्यास’शीर्षक से लिखे गए लेख केशुरुआतीहिस्सेमेंरचनाऔरशोधकार्यकेक्षेत्रऔर उनकेआपसीअंतर्संबंधोंपरबातकीगईहै. इस क्रम मेंपंकजनेस्पष्टलिखाहैकि,मानवीयतासंवेदनशीलताऔरसंस्कृतिसमीक्षाकेबगैरकोईउपन्यासएकरचनाअसंभवहै,जबकितथ्यऔरसूचनाविश्लेषणपरआधारितअध्ययनकाकामइसकेबिनाभीचलसकताहै.शायदरचनाकीप्रामाणिकता औरस्वाभाविकताकोलेकरहिंदीआलोचनामेंजिसतरहकी/सेबातेंहुईहैंउसकेकारणभीशायदउपन्यासकारोंकारुझानतथ्योंपरआधारितउपन्यासलिखनेकीओरहुआहै.दूसरीबातयहकिवर्षोंसेसामाजिक,राजनीतिकऔरसाहित्यकरूपसेभीहाशिएपररहेदलितऔरआदिवासीअबसमकालीनराजनीतिऔरसाहित्यिकविमर्शकीमुख्यधारामेंशामिलहैं,इनकोकेंद्रमेंरखकरलिखीगईपुस्तकोंकीबाजारमेंएकमांगहै,जिसकेकारणदलितोंऔरआदिवासियोंकोकेंद्रमेंरखकरउपन्यासलिखेजारहेहैंइनमेंवहलोगभीशोधाधारितउपन्यासलिखरहेहैं,जिन्हेंआदिवासीजीवनकाकोईप्रत्यक्षअनुभवनहींहैकोईजानकारीऔरन उनके जीवनऔरसंस्कृतिसेकोईपरिचय. 

पंकजयहाँशोधआधारितउपन्यासकेक्रममेंसहानुभूतियास्वानुभूतिकेसवालसेभीटकरानेकाप्रयासकररहेहैं,हालांकिअबशोधआधारितरचनायामानवीयसंवेदनापरआधारितरचनाकाप्रश्नज्यादामुखरहोनाचाहिएकिसहानुभूतिबनामस्वानुभूतिका प्रश्न. पंकजमूलतःअपनेविश्लेषणमेंयहीकहनाचाहतेहैं. आदिवासीसंदर्भोंपरबातकरतेहुएउन्होंनेलिखाहै कि, ‘आदिवासियोंकाजीवनअधिकसहजछल-प्रपंचरहितऔरप्रकृतिकेसाथसहजसामंजस्यपूर्णहोताहै. वेमुख्यधाराकेकथितसभ्यसमाजकेशोषणचक्रमें भी इसीलिए फँसजातेहैंकिइससमाजकेतौरतरीकेऔरकाइयांपन से वेभोलेलोगसर्वथाअनजानहोतेहैंलेकिनजबउन्हेंअपनेसाथहोरहेछल-प्रपंचकापताचलताहै याउनकेसमाजकेसामनेकोईसंकटआताहै,तोउसकासामनासिर्फएकपीड़ितव्यक्ति,नहींबल्किपूरासमाजमिल करकेकरताहै.किसीव्यक्तिकोअकेलाछोड़देनागैर-आदिवासीसमाजकी प्रवृत्ति है. इसी क्रम में आगे लिखा गया है, ‘सबसेअधिकसमस्याआदिवासियोंकेजीवनमेंबाहरीहस्तक्षेपसेबढ़ीहै, जिसकेकारणसंघर्षबढ़ाहै.’ 

मेरे विचार से पंकजजी की उक्त सारीबातें उस जगहअच्छीतरहसे लागूहोसकतीहैं,जहांआदिवासीऔरगैर-आदिवासीसमुदायसाथ-साथ/आस-पासरहतेहैंयाजहांउदारीकरण,निजीकरण,विकासऔरदबंगईकेकारणभीआदिवासियोंसेगैर-आदिवासियों द्वारा उनकेसंसाधनछीनेजारहेहों. यानी जहांआदिवासीसमुदाय कमसंख्यामेंहैऔरवे लोग अभी भी पढ़ेलिखेनहींहै,यहतर्कवहांसहीहोसकताहै, जहांहमआदिवासियोंकोअभीभीआदिम रूपमेंहीदेख, समझ, पा और स्वीकाररहेहैं.भूलनकांदा’के परिप्रेक्ष्य में यह बात ठीक हो सकती है, पर आदिवासी मात्र पर इसे लागू नहीं किया जा सकता.

जराएक नजर पूर्वोत्तरकीओरडालिए, वेराज्य,जोआदिवासीबहुलहैं, वेराज्य,जहांसाथ-साथ/आस-पासगैर-आदिवासीनहींबल्कि विभिन्नआदिवासीजनजातियांही रहतीहैं.जहांशिक्षाभीपहुंचरहीहैऔरसत्ता वराजनीतिपरभीइन्हींआदिवासियोंकाप्राधान्य;क्यापंकजजीकी बातवहांलागूहो पाएगी!सचयहहैकिपूर्वोत्तर मेंएकआदिवासीसमुदायही दूसरेआदिवासीसमुदायसेसत्ताऔरसाधनोंकेलिएसंघर्षरतहै. यहाँअगड़ेआदिवासियोंकेमनमेंदूसरेपिछड़ेआदिवासियोंकेप्रतिवैसाहीभाव देखाजासकताहै, जैसा किछत्तीसगढ़मेंआदिवासियोंऔरगैर-आदिवासियोंकेबीचहै.

आफस्पा कानून तथापड़ोसीराज्योंऔरदेशोंसेघुसपैठआदिकोछोड़देंतोयहांआदिवासियोंकीआपसीसमस्याएंकमनहींहै. यहांशिक्षितहोगए औरनौकरियोंमेंगएआदिवासीपिछड़ेअनपढ़आदिवासियोंकोबेतरह कमतरसमझतेहैं. तो क्या अगड़े होने के कारण, बेवकूफ़ माने जाने की हद तक सीधे-सादे न रह जाने के कारण ये समुदाय आदिवासी नहीं कहलाए जाएंगे! नकार दीजिए न! अबचाहें तो लगे हाथ कह डालिएकिनफरतकायहसंस्कारउन्हेंपूंजीवादी स्थितियों औरनिजीकरणआदिसेपनपीनईपरिस्थितियोंनेदिया है, पर एक मिनटरुकिए, पहलेजरा सोचिएकिजोदुनियाइतनी सीधी-सादी,भोलीऔरसहजथी, वहऐसीक्योंकरहोगई कि अपने ही दूसरे आदिवासी समुदाय का गला घोंटने पर उतारू हो गई? तथाकथित सभ्यता का आवरण ओढ़े जाने से पूर्व जब कभी हम स्वयंजंगलोंमेंरहतेहोंगेतोक्या हम भी ऐसे ही सीधे और भोले नहीं थे? फ़िरभोलेपनकातर्कसिर्फ़ आदिवासियोंकेसाथहीक्यों? हम इस बात परस्यापाक्योंनहीं करतेकिहमारे और सरकार द्वाराकेवलनिजीऔरसरकारीस्वार्थोंकीपूर्तिकेलिएआदिवासियों काशोषणबंदकिया जाना चाहिए बल्किउन्हेंनईपरिस्थितियोंकेअनुसारउनकेजीवनकोसमृद्धकरनेकीअच्छाईबुराईबताकर उन्हेंजेनुइन ढंग सेआगेबढ़नेमेंमददकरनी चाहिए न कि उन्हें दया का पात्र बना देना चाहिए!

‘भूलनकांदा’काजिक्रकरतेहुएपंकजकहतेहैंकि, ‘छत्तीसगढ़केआदिवासीबेहदभोलेऔरछल-प्रपंचोंसेदूरशांतिप्रियजीवनमेंयकीनरखनेवालेहैं,जिन्हेंयहतकनहींमालूमकिभारतकबगुलामथा,कबआजादहुआ, पहलेकौनशासकथाऔरआजकौनशासकहै.’ 

सवालयहहैकिआखिरइसमेंगलतीकिसकीहैकिआदिवासीमूर्खताकीहदतकभोले वपिछड़ेरहगए. इसमेंहमतथाकथितअगड़ोंकीजिम्मेवारीकितनीहै, इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए.बहरहाल, ‘भूलनकांदा’उपन्यासकीतारीफमेंपंकज के तर्क से बखूबी सहमत हुआ जा सकता है कि, ‘यहएकऐसाउपन्यासहै,जोआदिवासीजीवनकेबारेमेंकोईमायालोकनहींरचता.’उन्होंनेउपन्यासकानैरेशनबहुतअच्छाकियाहै;आदिवासीप्रकृतिपूजकहैं,सामूहिकतामेंबेहदयकीनरखतेहैं, सुख-दुखमेंसाथरहतेहैं, पर फ़िर कहें कियहबातक्षेत्र विशेष के आदिवासी समुदाय विशेष परलागूहोसकतीहै, सबपरनहीं. उपन्यास में देखें तो, जोसामूहिकतामुखियाकेकहनेपरसारेआदिवासीसमुदायकीएकआवाजबनजातीहैकिबच्चोंकीहत्यागंजहा द्वारानहीं, भकलाकेहाथोंहुईहै, वह दूसरीबारजांचकेसमयक्योंसामनेनहीं आ पाती! गंजहाकोजेलमेंइतनामेहनतीशांतदेखकरजेलरकोशकहो जाताहैकियहआदमीहत्यारानहींलगता. सोवहजांचबिठवाताहैऔरवहीआदिवासीसमाजजोपहली बार में सामूहिकताकेलिएजानदेने को तत्पर था, दूसरीबार मेंटूटजाताहै. जाहिर है, इसकेकारणोंकीपड़तालभीकीजानीचाहिए. 

पंकजकी आलोचना में ‘नेमड्रॉपिंग’काफ़ी देखी जा सकती है. यहाँ भीउन्होंनेलिखाहै कि, ‘नोबलपुरस्कारसेसम्मानितअमरीकीउपन्यासकारअर्नेस्टहेमिंग्वेकेकालजयीउपन्यास‘दओल्डमैनएंडसी’कीतरहसंजीवबख्शीकायहउपन्यास‘भूलनकांदा’भारी-भरकमउपन्यासनहींहै.’ यहाँ हेमिंग्वेकी  तुलना किस अर्थमेंकी गई,स्पष्टनहींहोपाया. 

‘करुणाकीचित्रलिपिमेंजीवनकागद्य’नामक लेख महादेवीवर्माकेगद्यसाहित्यपरकेंद्रितहै.इसमेंपंकजने ठीकरेखांकितकियाहैकि,‘आचार्यशुक्लनेअपनेइतिहासकेसंशोधितसंस्करणमेंमहादेवीवर्माकेगद्यका जिक्रनहींकिया,जबकि 1940 मेंआएअपनेइतिहासकेसंशोधितसंस्करणमेंशुक्लजीनेलिखाहै, ‘इससंस्करणमेंसमसामायिकसाहित्यकाअब तककाआलोचनात्मकविवरणदेदियागयाहैजिससेआजतककेसाहित्यकीगतिविधिकापूरापरिचयप्राप्तहोगा, लेकिनउन्होंनेमहादेवीकेगद्यकाज़िक्रनहींकिया.यहीकारणहैकिमहादेवीकीपहचानबड़ेस्तरपरएककवयित्रीकीहीबनकररहगईजबकिउनकागद्यभीकममार्के का नहींहै.’ 

पंकजनेअपनेलेखमेंमहादेवीकेइस अचीन्हे गद्यपर बारीकी सेविचारकियाहै.उनकेअनुसार, ‘प्रेमचंदकीकहानियोंऔरउपन्यासोंमेंगुलामभारतकेग्रामीणऔरकिसानोंकेजीवनयथार्थकाचित्रणजिसरूपमेंहुआहै,उसेअनुपमेयमानाजाताहैपरयदिहममहादेवीके‘अतीतकेचलचित्र’, ‘स्मृतिकीरेखाएं’और‘पथकेसाथी’केसंस्मरणोंमेंचित्रितग्रामीणस्त्रियोंकीपराधीनताकीपीड़ाऔरतत्कालीनजीवनयथार्थकोदेखेंतोलगताहैप्रेमचंदनेग्रामीणस्त्रियोंकेजीवनयथार्थकाजैसाचित्रणकियाहै,वहएकपुरुषकीदृष्टिसेदेखेहुएयथार्थकीमहजऊपरीपरतहैउनकेकथासाहित्यमेंस्त्रियोंकाजीवनयथार्थपुरुषोंकेव्यक्तिगतऔरसामाजिकजीवनयथार्थकाहीएकहिस्सा-साहै,जिसमेंस्त्रियोंकेवैयक्तिकजीवन-यथार्थ,व्यक्तिगतदुख,आकांक्षाऔरउसकीछटपटाहटोंकोकमजगहमिलीहै.’ 

‘श्रृंखलाकीकड़ियां’मेंमहादेवीलिखतीहैं, ‘नारीकामानसिकविकासपुरुषोंकेमानसिकविकाससेभिन्नपरंतुअधिकद्रुत,स्वभावअधिककोमलऔरप्रेम-घृणादिभावअधिकतीव्रतथास्थाईहोतेहैं, इन्हींविशेषताओंकेअनुसारउसकाव्यक्तित्वविकासपरसमाजकेउनभावोंकीपूर्तिकरतारहताहैजिनकीपूर्तिपुरुषद्वारासंभवनहीं.’ आलोचक पंकजपराशरनेइससंदर्भकीतुलनाकरतेहुएविश्लेषितकियाहैकिप्रेमचंदचूंकिकथाकारथे,इसलिएकथा-साहित्यकेपात्रोंकेबारेमेंकल्पनासेछूटलेकरऔरउनकेस्वरूपऔरस्वभावकोगढ़नेकीगुंजाइशथी, लेकिनमहादेवीवर्मानेसंस्मरण,रेखाचित्रऔरनिबंधकीराहचुनी,जिसमेंकल्पनाऔर‘गल्प’कीकोईगुंजाइशनहींहोती.एकऔरबातजिसकाजिक्रकरनायहांअप्रासंगिकनहींहोगाकिप्रेमचंदकीसहानुभूतिस्त्रियोंकेसाथहै,परंतुस्वानुभूतिप्रेमचंदकेपासनहींहै,इसलिएवहएकस्त्रीकीतरहगुलामभारतकीस्त्रियोंकीसामाजिक,ऐतिहासिकऔरराजनीतिकपराधीनताकेयथार्थकोसमझनेमेंअसमर्थथे.’ 

महादेवीकेसंस्मरण,रेखाचित्रएवंनिबंधवाकईस्त्री-दृष्टिसेबेहदगंभीरऔरस्वानुभूत दृष्टि लिए हैं.श्रंखलाकीकड़ियां,अतीतकेचलचित्रऔरस्मृतिकीरेखाएंजैसीरचनाओंकेढेरोंउदाहरणइसबातकोसिद्धकरतेहैं. यहाँ पंकज की टिप्पणी है किमहादेवीवर्मानेजिनपात्रोंऔरउनकेसमाजोंकेबारेमेंलिखाहै,उसमेंसिर्फस्त्रियांहीव्यवस्थाऔरसत्ताकीसताईहुईनहींहै,पुरुषभीपीड़ितहैं,इसलिएमहादेवीकोसिर्फस्त्रियोंकेपक्षमेंलिखनेवालीस्त्रीवादीलेखिकाकहनाठीकनहींहोगा.पुरुषसत्ता,समाजसत्ताऔरअर्थसत्ताकेशिकारभारतीयसमाजमेंसिर्फस्त्रियांहीनहीं,पुरुषभीहैं.अपनीभावुकताऔरनिश्छलतासेपुरुषोंकीविवशताभीलेखिकाकेहृदयकोअपारकरुणासेआप्लावितकरदेतीहै. ‘बदलू’, ‘घीसा’, ‘रामा’, ‘अलोपी’, ‘चीनीफेरीवाला’, ‘जंगबहादुर’और‘ठकुरीबाबा’ऐसेपात्रहैं,जिनकीदशाउसीतरहलेखिकाकोमर्माहतकरतीहै, जैसीकिगुंगिया’, ‘भक्तिन’, ‘बिबिया’, ‘सबिया’, ‘अभागीस्त्री’, ‘बालिकामाँ‘या‘बिट्टो’ की. महादेवीकेसंस्मरण,रेखाचित्रएवंनिबंधवाकईस्त्री-दृष्टिसेबेहदगंभीरऔरस्वानुभूत दृष्टि लिए हैं.श्रंखलाकीकड़ियां,अतीतकेचलचित्रऔरस्मृतिकीरेखाएंजैसीरचनाओंकेढेरोंउदाहरणइसबातकोसिद्धकरतेहैं. यहाँ पंकज की टिप्पणी है किमहादेवीवर्मानेजिनपात्रोंऔरउनकेसमाजोंकेबारेमेंलिखाहै,उसमेंसिर्फस्त्रियांहीव्यवस्थाऔरसत्ताकीसताईहुईनहींहै,पुरुषभीपीड़ितहैं,इसलिएमहादेवीकोसिर्फस्त्रियोंकेपक्षमेंलिखनेवालीस्त्रीवादीलेखिकाकहनाठीकनहींहोगा.पुरुषसत्ता,समाजसत्ताऔरअर्थसत्ताकेशिकारभारतीयसमाजमेंसिर्फस्त्रियांहीनहीं,पुरुषभीहैं.अपनीभावुकताऔरनिश्छलतासेपुरुषोंकीविवशताभीलेखिकाकेहृदयकोअपारकरुणासेआप्लावितकरदेतीहै. ‘बदलू’, ‘घीसा’, ‘रामा’, ‘अलोपी’, ‘चीनीफेरीवाला’, ‘जंगबहादुर’और‘ठकुरीबाबा’ऐसेपात्रहैं,जिनकीदशाउसीतरहलेखिकाकोमर्माहतकरतीहै, जैसीकिगुंगिया’, ‘भक्तिन’, ‘बिबिया’, ‘सबिया’, ‘अभागीस्त्री’, ‘बालिकामाँ‘या‘बिट्टो’ की. रोचक है कि पंकजअपनेतर्कसेस्वानुभूतिऔरसहानुभूतिकेस्तरपरजोबातप्रेमचंदपरलागूकर रहेहैं,वहमहादेवीपरलागूक्योंनहींहोरही! इसी लेख में दी गई पिछली टिप्पणी के अनुसार यदि प्रेमचंदकेलेखनमेंपुरुषकीदृष्टिसेलिखाहोनेकेकारणउसमेंस्त्रियोंकेवयक्तिकजीवनयथार्थव्यक्तिगतदुखआकांक्षाऔरउसकेछटपटाहटों कोकमजगहमिलीहै,स्वानुभूतिहोनेकेकारणप्रेमचंदएकस्त्रीकेतरहगुलामभारतकेस्त्रियोंकेसामाजिकऐतिहासिकऔरराजनैतिकपराधीनताकोसमझनेमेंअसमर्थरहेहोंगे,तोफ़िर महादेवीउसीतर्कसेएकस्त्रीहोनेकेकारणअपनेलेखनमेंपुरुषोंकेप्रतिवस्तुनिष्ठकैसेहोजाएँगी! 

पंकज जीस्वानुभूतिबनामसहानुभूतिकेतर्कसेप्रेमचंदकोतोकमतरसाबितकरदेरहेहैं  पर ऐनउसीआधार परमहादेवी वर्माकोस्थापितकररहेहैं.यद्यपिपंकज जी नेमहादेवीके स्त्री-पात्रोंकीआर्थिकआजादी,शिक्षा,बाल-विवाह,बेमेल-विवाह,दहेजआदिसेसंबंधितमुद्दोंकाबड़ाअच्छाविश्लेषणकियाहै. उन्होंनेकेवलमनुष्यबल्कि मनुष्येतरप्राणियोंकोभीअपनेगद्य काप्रमुखहिस्साबनाया, इसकाभरपूररेखांकनइसआलेखमेंकियागयाहै.


‘हिंदी गद्य की शमशेरियत’एक छोटा लेख है, जिसमें शमशेर के गद्य की विशेषताओं की सैद्धांतिक चर्चा की गई है, लगभग इस अर्थ में कि अगर गद्य कवियों की कसौटी है तो शमशेर की कसौटी गद्य में भी कविता, रंग और चित्र ही है. ‘मुझ में ढलकर बोल रहे जो वे समझेंगे’ भारत यायावर की ‘नामवर होने का अर्थ’ किताब की समीक्षा बतौर लिखा गया है. इसमें प्रोफ़ेसर नामवर सिंह जैसे जीवंत किंवदंती बन चुके शिखर आलोचक के वाद-विवाद और संवादों पर एक अच्छा वैज्ञानिक-विश्लेषण मौजूद है.

‘निज लय का अनुपम गद्य’में राजेश जोशी की पुस्तक ‘किस्सा कोताह’ की समीक्षा की गई है. इसी तरह ‘विष्णु नागर आलोचना से मुखामुखम’ में विष्णु नागर की पुस्तक ‘कविता के साथ-साथ’की समीक्षा है. इस अर्थ में ‘1857 का गदर और मिर्ज़ा ग़ालिब’ एक महत्वपूर्ण लेख है. ग़ालिब जैसा महान शायर अपनी शायरी और ‘दस्तंबू’ नामक अपनी डायरी में 1857 के गदर के बारे में क्या लिख रहा था, इसके बेहतरीन विवेचन के साथ उस दौर में मिर्जा ने अपने निजी जीवन में क्या-क्या झेला, इसकी दास्तान भी बयाँ की गई है.

इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘इतिहास बनाम विमर्श’शीर्षक से है, जिसका पहला लेख है- ‘खड़ी बोली कविता का इतिहास : तथ्य और सत्य’. शुरुआत में पंकज ने इस बात पर गहराई से विचार किया है कि किसी भी इतिहास को पढ़ने के साथ-साथ उसमें मौजूद तथ्यों और निष्कर्षों को सीधे सीधे स्वीकार लेने के बजाय, इतिहासकार ने उन्हीं तथ्यों और निष्कर्षों को क्यों रखा होगा, यह जानना चाहिए और इसके लिए स्वयं उस इतिहासकार की मंशा का भी अध्ययन किया जाना चाहिए. हिंदी, हिंदू, हिंदी जाति की अवधारणा और नवजागरण के परिदृश्य की ऐतिहासिक स्थिति जानने के लिए इस लेख का शुरूआती हिस्सा बेहद महत्त्वपूर्ण है, साथ ही खड़ी बोली की कविता की शुरुआत एवं खड़ी बोली को अपनाने संबंधी भारतेंदु आदि लेखकों के संशय की पड़ताल भी इस लेख में की गई है. 

पंकज ने लिखा है कि, ‘जिस खड़ी बोली में कविता करने की बात को मुश्किल कहकर कविगण पहले से टालते रहे, उसकी एक पूरी परंपरा यहां पहले से मौजूद थी. खड़ी बोली कविता की परंपरा जिन भारतेंदु से शुरू हुई बताई जाती है, वह भारतेंदु इसमें ‘कठिनता’ महसूस करते हैं, जबकि आमिर खुसरो, कबीर, नजीर अकबराबादी, राम प्रसाद ‘निरंजनी’ आदि इसमें सुगमतापूर्वक रचनाएं करते रहे.’ लेकिन इस लेख में चंदा झा का जिक्र जिस तरह भारतेंदु के बरक्स एक पैरेलल व्यक्तित्व की तरह खड़ा दिखाया गया है, वह बहुत तार्किक नहीं लगता. इसमें चंदा झाका ‘बिहारी नवजागरण’, हिंदी जाति की अवधारणा’ आदि के संदर्भ में महत्व निदर्शन और विश्लेषण करने के बजाय खड़ी बोली कविता के संदर्भ में वे किस रूप में काम कर रहे थे, यह अधिक फोकस ढंग से कहा जाता, तो बेहतर होता. 

वस्तुतः चंदा झा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अलग से एक लेख होना चाहिए था, यहां सिर्फ खड़ी बोली की कविता के संदर्भ में उनके योगदान को रेखंकित किया जाता, तो शायद ज्यादा उचित होता.

इस पुस्तक में ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल और अमर्त्य सेन’शीर्षक लेख की जितनी प्रसंशा की जाए, कम होगी. यह लेख केवल अमर्त्य सेन और उनकी किताब के जिक्र के साथ अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में मौजूद अन्य कई पब्लिक इंटेलेक्चुअलों के लेखन और उनके विद्रोही व्यक्तित्व का रेखांकन ही नहीं करता, बल्कि इसमें पहली बार हिंदी में ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ की अंतरराष्ट्रीय अवधारणा को सामने रखा गया है.

‘कई विमर्शों के जनक लेवी स्त्रॉस’नामक लेख लेवी स्ट्रॉस पर हिंदी में परिचयात्मक, लेकिन गंभीर किस्म का बन पड़ा है. इसे पढ़ने के बाद लेवी स्त्रॉस की समाजशास्त्र, दर्शन, नृतत्वशास्त्र एवं संरचनावाद संबंधित पुस्तकों के हिंदी अनुवाद एवं उनके पठन-पाठन की गहरी जरूरत महसूस होती है, ताकि हिंदी के पारंपरिक वैचारिक लेखन पर नवीन अंतरराष्ट्रीय प्रभाव एवं हस्तक्षेप संभव हो सके और हिंदी का लेखन वैश्विक स्तर पर खड़ा हो सके.

‘बालसाहित्य : खुद के बहाने एक बहस’शीर्षक लेख में हिंदी में बाल साहित्य की वर्तमान अवस्था और उसकी जरूरत पर एक बेहतरीन विमर्श सामने आया है. पंकज जी ने इसे खुद अपने बचपन से जोड़कर बेहद व्यावहारिक आयाम दे दिया है. इसमें उठाए गए सवाल इतने मौजूँ हैं कि लगता है यह लेख जरूरी तौर पर हिंदी पाठ्यक्रमों का हिस्सा होना चाहिए ताकि हम वास्तविक धरातल पर न केवल अपने बुजुर्गों, अपने लोक और अपने बचपन की ओर लौट सकें, बल्कि आने वाली पीढ़ी को बाल साहित्य की अच्छी विरासत भी सौंप सकें.

‘हिंदी पट्टी के युवाओं का स्वप्न और संघर्ष’इस पुस्तक का अंतिम लेख है. इसमें समकालीन परिदृश्य में हिंदी और अंग्रेजी लेखन की बाजार के नजरिए से पड़ताल हुई है, साथ ही यह सवाल भी बेबाकी से उठाया गया है कि क्या हिंदी में सक्रिय युवा लेखकों की रचनाओं में हिंदी पट्टी के युवाओं के स्वप्न और संघर्षों के प्रामाणिक अभिव्यक्ति हुई है! समकालीन युवा हिंदी कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही कहानियां पर गंभीर सवाल उठाते हुए पंकज जी स्पष्ट कहते हैं कि आज की हिन्दी कहानी ने ग्रामीण संवेदना, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आंदोलन आदि से जुड़े वास्तविक मुद्दों से हटकर सिर्फ ‘शाइनिंग इंडिया’ के किस्से गढ़ने में तो महारत हासिल की है, पर युवाओं के वास्तविक स्वप्न व संघर्षों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति यहां नहीं मिलती, जो कि वस्तुतः रचनाशीलता के साथ एक तरह का छल ही है.

पंकज पराशर की इस पुस्तक का हिन्दी जगत में स्वागत किया जाना चाहिए.
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जय कौशल 
हिंदी विभाग/ त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर-799022
Cell- +919612091397
Email-jaikaushal81@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अनुराधा सिंह

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कृति : SUNIL GAWDE

  



अनुराधा सिंह की कविताएँ संशय की कविताएँ हैं.
सबसे पहले वह लिखे हुए शब्दों को संदेह से देखती हैं कि क्या इसका अर्थ अभी भी बचा हुआ है.
फिर वह प्रेम को परखती हैं कि यह कभी संभव हुआ भी था ?
स्त्री होने का ज़ोखिम न केवल समाज में बल्कि भाषा में भी बढ़ता जा रहा है.
सीरिया, लेबनान में ही नहीं ऐन हमारे सिरहाने उनका बहता हुआ रक्त है.  


अनुराधा की कविताओं में यह दुर्गम बार – बार दीखता है. ये बेचैन करने वाली कविताएँ हैं. 


अनुराधा सिंह की कविताएँ                    






लिखने से क्या होगा

मुझे लगता था कि

चिड़ियों के बारे में पढ़कर क्या होगा

उन्हें बनाये रखने के लिए

उन्हें मारना बंद कर देना चाहिए

कारखानों में चिमनियाँ

पटाखों में बारूद

बन्दूक में नली

या कम से कम

इंसान के हाथ में उंगलियाँ नहीं होनी चाहिए

आसमान में आग नहीं चिड़िया होनी चाहिए.


वनस्पतिशास्त्र की किताब में

अकेशिया पढ़ते हुए लगा कि

इसे पढ़ना नहीं बचा लेना चाहिए

आरियों में दाँत थे

दिमाग़ नहीं 

हमारे हाथों में अब भी उंगलियाँ थीं

जबकि आसमान में चिड़िया होने के लिए

मिट्टी में बदस्तूर पेड़ का होना ज़रूरी था.


फिर देखा मैंने

स्त्री बची रहे प्रेम बचा रहे

इसके लिए

क़लम का

भाषा का ख़त्म होना ज़रूरी है 

हर हत्या हमारी उँगलियों पर आ ठहरी

जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा

दरअसल उन्होंने किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया.




तब भी रहूँगी मैं

तब, जब हो जाऊँगी
मैं निश्चल

निर्जन वन में स्थिर जल सी

क्या तब भी बनैले पशु आयेंगे मेरे तट पर

अपनी आखेटक प्यास लेकर

तब भी क्या मेरे भीतर की तरलता 

पहचान ली जाती रहेगी निस्संदेह


जब खो दूँगी भविष्य में

किसी प्रेम

की प्रत्याशा 

क्या तब भी स्त्री लगती रहूंगी सम्पूर्ण 


जिस दिन तिनके बीनना बंद कर दूँ

क्या तब भी माना जायेगा 

उर्वर हूँ

बना रही हूँ घोंसला

आने वाली संतति के लिए

छुपा सकती हूँ अपने गर्भ में

प्रेम के कोमल रहस्य अब भी


जब थक कर रुक रहूँगी

पीपल के थिर पत्तों में

आषाढ़ी पवन की तरह

क्या तब भी

शिरोधार्य की जाएँगी 

मेरे अंतर की प्रच्छन्न कामनाएँ


थक जाने पर भी

चलती उड़ती खनखनाती रहती हूँ

डरती हूँ रुक जाने से

शांत हो जाने से

स्त्रीत्व के सूख जाने से.




बची थीं इसीलिए

वे बनी ही थीं
बच निकलने के लिए


गर्भपात के श्रापों से सिक्त

गोलियों

हवाओं

मुनादियों और फरमानों से इसीलिए बच रहीं  

ताकि सरे राह निकाल सकें 

अपनी छाती और पुश्त में बिंधे तीर

तुम्हारी दृष्टि के कलुष को अपने दुपट्टे से ढांक सकें


बचे खुचे मांड और दूध की धोअन से

इसीलिए बनी थीं 

कि सूँघें बस ज़रा सी हवा

और चल सकें इस थोड़ी सी बच रही पृथ्वी पर

बचते बचाते

इस नृशंस समय में भी

बचाये रहीं कोख़ हाथ और छाती

क्योंकि रोपनी थी उन्हें

रोज़ एक रोटी

उगाना था रोज़ एक मनुष्य

जोतनी थी असभ्यता की पराकाष्ठा तक लहलहाती

सभ्यता की फसल

यूँ तय था उनका बचे रहना सबसे अंत तक.





मुझे खेद है

मुझे खेद है
कि जब नहीं सोचना चाहती थी कुछ भी गंभीर

तब मैंने तुम्हारे लिए प्रेम सोचा


अला कूवनोव की खस्ताहाल गली में रह रही

बूढ़े आदमी की जवान प्रेमिका की तरह

असंभावनाओं से परिपूर्ण था मेरा प्रेम

मेरे सामने की दीवार

जिस पर कभी मेरे अकेले 

कभी हम दोनों की तस्वीर टंगी रहती है

जीवन में तुम्हारे जाने आने की सनद मानी जाएगी अब से


सड़क पर सरकार का ठप्पा लगा है

फिर भी घूमती फिरती है जहाँ तहाँ

नारे लगाती है उसी के खिलाफ

पत्थर चलाती है ताबड़तोड़

और फिर लेट जाती है वहीँ गुस्ताखियों में सराबोर

मैं इस सड़क जैसी बेपरवाही और मुख़ालफ़त के साथ

इसी पर चल कर 

पहुँच जाना चाहती थी तुम तक

क्योंकि अनियोजित जी सकना ही

अर्हता है प्रेम कर सकने की 

अब इस प्रेम को कैसे रंगा जाये किसी कैनवास पर

क्या आस पास फैले हुए कपड़े और जूते

प्रेम की बेतरतीबी की तदबीर बन सकते हैं

या स्टेशन पर घंटों खड़ा

ख़राब इंजन

रुकी हुई ज़िन्दगी में

चुक चुके प्रेम की तस्वीर हो सकता है


क्षमाप्रार्थी हूँ

घिर जाना चाहती हूँ दुर्गम अपराधबोध में

कि जब नहीं था मेरे पास करने के लिए

कुछ और

मैंने प्रेम किया तुमसे.





बुद्धत्व 


शब्द लिखे जाने से अहम था 

मनुष्य बने रहना 

कठिन था 

क्योंकि मुझे मेरे शब्दों से पहचाना जाए 

या मनुष्यत्व से 

यह तय करने का अधिकार तक नहीं था मेरे पास 

शब्द बहुत थे मेरे 

चटख चपल कुशल कोमल 

मनुष्यत्व मेरा रूखा सूखा विरल था 

उन्होंने वही चुना जिसका मुझे डर था 

चिरयौवन चुना मेरे शब्दों का 

और चुनी वाक्पटुता 

वे उत्सव के साथ थे 

मेरा मनुष्य अकेला रह गया 

बुढ़ाता समय के साथ 

पकता, पाता वही बुद्धत्व 

जो उनके किसी काम का नहीं.  




मैं फिर बेहतर थी

उसने बहुत दिया मुझे

अब वापस कैसे करूँ उतना सब

जिन दिनों वह दे रहा था मुझे दुनियादारी के सबक

दुनिया झुलस रही थी

हिंसा और बैर की आग में

तरुण यज़दी लड़कियाँ

नोची खसोटी जा रहीं थीं वहशी दरिंदों के हाथों

मैं फिर बेहतर थी.


जितने कष्टसाध्य काम थे

उन सबके घाट पर ला खड़ा किया है उसने मुझे

मेरे जैसे कमज़ोर इंसान के लिए

किसी से मुंह फेर लेना असंभव था

अंतर्भूत था स्वयं से प्रेम करना

उसने सुनिश्चित किया कि

कोई प्रेम न करे मुझे अब 

मैं भी नहीं .


फिर भी बेहतर हूँ उन औरतों से

जो अपने देशों की लड़ाई में खून खच्चर हुईं थीं सरोपा

दिल भी हुआ था उनका

दिल ही सबसे ज्यादा

मुझे तो सिर्फ चीखती धूप में खड़ा कर दिया

कुचलती रौंदती बारिश के नीचे

ठगी गयी थी मैं ऐसी

कि मेरा सारा असबाब सलामत था

वह सिर्फ मुझसे प्रेम करने की सायत

और रिवायत ही तो भूला था

और क्या हुआ था मेरे साथ

मैं बहुत बेहतर थी

लीबिया, सीरिया की बेटियों और अफ़गान औरतों से


बहुत बेहतर थी मैं उन औरतों से

जिनके दुःख दिखते हैं

जो छाती पीट कर रो सकतीं हैं

पछाड़ खा सकती हैं विलाप कर सकती हैं

नहीं दिखा सकती थी मैंने अपने ज़ख्म

किसी पेचीदा मरहम को

नहीं माँग सकती थी अपनी बेनींद रातों का हिसाब

एहतियाती सिरहाने से

नहीं रोई कभी
क्योंकि मैं फिर बेहतर थी.  



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११ सालों से मुंबई और दूसरे शहरों के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले साधनहीन छात्रों के लिए रोज़गारपरक शिक्षा हेतु कार्य कर रही हैं. लेखन और अनुवाद भी साथ- साथ.  

पता : बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडर, जोगेश्वरी ईस्ट , मुंबई.   
ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in

मोबाइल : 9930096966
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