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Channel: समालोचन
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कथा - गाथा : लूट : शहादत ख़ान

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समालोचन पर ही प्रकाशित शहादत ख़ान की कहानी ‘क़ुर्बान’ ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. भाषा और उसकी कसावट यह दोनों उनके पास हैं. कथा को विकसित करते हुए उसे सार्थक परिणिति तक ले जाने का हुनर वह सीख रहे हैं.

‘लूट’ कहानी दंगों में लूट के दृश्यों से बुनी गई है. ये दृश्य प्रभावशाली हैं, विचलित करते हैं.
पर अंत ...
उसमें अभी और कुछ किया जा सकता था. कथा तो अब शुरू हो रही थी.


खैर आप यह कहानी पढ़िये और खुद देखिए. 

लूट                                       
शहादत ख़ान




हांफने के तेज शोर, भागने-दौड़ने की आवाज़ों और घरेलू सामानों की उठक-पठक से जब उसकी आँखें खुली तो कमरे में घुप अँधेरा था. बिस्तार पर लेटे-लेटे ही उसने सिर के ऊपर दिवार में लगी बल्ब की चटकनी दबाई, तो एकदम हुए तेज उजाले से उसकी आँखें चौंधिया गई. उसने दोनों हाथों से आँखों को मला. कई बार पलकों को झपका और फिर अपने पास रखी हाथ घड़ी को उठाकर देखा तो सुबह के तीन बजकर पांच मिनट का समय हो रहा था.

बाहर शोर हो रहा था और उसकी आँखें नींद से भरी थी. वह पीछे को लेट गया. तभी ट्रेन के छूट जाने और खुद के अकेले रह जाने का ख्याल उसके दिमाग में दौड़ने लगा. अपने साथियों से बिछड़ने और उसके बाद शुरु हुआ परेशानियों का वह सिलसिला उसके आँखों के सामने तैरने लगा. लेटे-लेटे उसने एक-दो बार इधर-उधर करवट बदली और फिर अच्छे से पूरी आँखें खोलकर पूरे कमरे को देखा. उसका पलंग जिस पर वह लेटा था कमरे के बीचो-बीच था. उसके सामने वाली दीवार में छोटा-सा दरवाजा था. दरवाजे से हटकर बगल वाली दिवार से लगी एक अलमारी खड़ी थी. उसमें कुछ कपड़े और धार्मिक ग्रंथ रखे थें. ग्रंथों में मुख्य रूप से वेद, पुराण और रामचरितमानस की जिल्दें दिखाई दे रही थी. बाएं दिवार से लगी दो कुर्सियां रखी थी और उनके ऊपर एक खिड़की लगी थी.

एकाएक किसी भारी-भरकम वस्तु के छूट कर गिरने जैसा धमाका हुआ. रात की खामोशी में काफी देर तक उस धमाके का शोर अपनी प्रतिध्वनि के साथ लगातार गूंजता रहा. कमरे के अपने इस निरीक्षण के दौरान वह बाहर हो रहे शोर को बिल्कुल भूल गया था. उसे फिर से वही आवाज़े सुनाई देने लगी. वह बिस्तर से उठा और खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया... उसने बाहर झांका... देखने के लिए... कि वहां चल क्या रहा है?

बाहर लूट मची हुई थी. दंगें में अपना घर-बार छोड़कर भागे लोगों के घरों को उनके ही पड़ोसी लूट रहे थें. वह लूट रहे थे... फ्रिज, वाशिंग मशीन, सिलाई मशीन, प्रेस, पलंग, चारपाई, बैड, सोफा, कुर्सी, मेज, अलमारी, कपड़े, बर्तन, खिलौनें, रेडियो, टीवी, सीडी, रजाई-गद्दे और बक्सें.... वह लूट रहे थे वह सब... जो ज़िंदगी जीने की बुनियादी ज़रूरियात है... वह लूट रहे थे... एक दुनिया... जिसे कभी किसी ने बड़े प्यार से सजाया और बसाया था.

पश्च्छिम में डूबता चाँद खिड़की में झाँकता हुआ उसका चेहरा रोशन कर रहा था. उसकी नींद की खुमारी उतर गई. चाँद की सफेद रोशनी में अपने सामने होती उस अप्रत्याशित लूट को देखकर वह मुस्कुराया. हालांकि उसे भी नहीं पता था कि वह मुस्कुरा क्यों रहा है... पर उसके होंठ फैल गए थें... उसकी हंसने की अनिच्छा के विरुद्ध... वे मुस्कान के रूप में खिल रहे थें.

उसने उस बिन बुलाई मुस्कान को अपनी बची-खुची नींद की अलसाई में ली गई एक अंगड़ाई के साथ गायब कर दिया. वह मुड़ा और दरवाज़े से बाहर निकल गया. चलते हुए उसने अपनी सोच को शब्द देते हुए खुद से कहा, चलो हम भी लूटते है. अगर कुछ मिल जाएं?अपने मतलब का.

जिस कमरे में वह रात बिता रहा था वह रेलवे स्टेशन के पास बसे गाँव से महज पाँच मिनट की दूरी पर था. उसे नही पता था कि यह गाँव कौन-सा है और इस स्टेशन का नाम क्या है?कल जब दिल्ली जाने वाली उसकी ट्रेन छूट गई, जो आखिरी न होने के बाद भी आखिरी साबित हुई थी तो, उसके उन अनजानों साथियों में से एक ने जिनके साथ वह पिछले तीन महीने से रह रहा था उसे स्टेशन के पास के गाँव के इस कमरे को रात बिताने के लिए दे दिया था. ताकि वह सुबह उठकर बिना हड़बड़ी के दिल्ली जाने वाली पहली ट्रेन पकड़ सके. जहां से उसे अपने गृह-राज्य जाना था.

वह एक मराठी युवक था. कॉलेज में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई करता था. साथ ही वह एक अति-राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का सदस्य भी था. इसलिए जब राष्ट्रीय चुनाव की तारीख नज़दीक आने लगी तो उस दल ने संसद की सबसे ज्यादा सीटों वाले हिंदी राज्यों में अपनी गतिविधि बढ़ाने पर जोर देना शुरु कर दिया. वहां अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए उसे समर्पित और जोशीले प्रचारकों की जरुरत थी. जो न केवल राजनीति का गुणा-भाग जानते हो, साथ ही बोलना भी जानते हो. उनमें लोगों को जोड़ने की काबलियत हो और निष्क्रिय पड़े संगठन और कार्यकर्ताओं में फिर जान फूंक सकते हों. उसमें ये सारी खासियत थी. वह मराठी के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी का भी अच्छा ज्ञान रखता था. राजनीति शास्त्र का छात्र होने के कारण उसे राजनीति की भी समझ थी. साथ ही वह बोलने में भी माहिर था. उसकी इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही दल के प्रदेश अध्यक्ष ने जब हिंदी राज्यों में प्रचार के लिए भेजे जाने वाली टीमों का चुनाव किया तो उनमें से एक टीम में उसे भी शामिल कर लिया.

जिस टीम में वह शामिल था वह उत्तर प्रदेश राज्य में आई थी. आते ही वह अपने काम में जुट गई थी. उसने गांव, कस्बों और छोटे शहरों में घूम-घूमकर पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलना शुरु किया. छोटी-छोटी वर्कशॉप आयोजित की. उनमें पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट किया. उन्हें चुनाव की रणनीति समझाई. उन्हें मौजूदा सरकार की नाकामियों और अपनी पार्टी के एजेंडे को आम जन के बीच लेकर जाने के लिए कहा. वह उन्हें समझाते कि किस तरह वह पार्टी की घोषणाओं को लोगों तक पहुंचाएंगे और उन्हें पार्टी के लिए वोट करने के लिए प्रेरित करे. पूरे प्रदेश में इस तरह के कार्यक्रमों को करने में उन्हें तीन महीने लग गए. इन तीन महीनों में उन्होंने निष्क्रिय पार्टी संगठन को फिर से सक्रिया कर दिया था और निराश पार्टी कार्यकर्ताओं में फिर से उत्साह भर दिया था.

काम खत्म होने के बाद वह वापस लौटने लगे. लेकिन उनके लौटने से पहले ही दंगे भड़के उठे. वह भी ऐसे कि एक बार शुरु होने के बाद उसने हफ्ते भर से पहले रुकने का नाम नहीं लिया.

हालांकि किसी को भी नहीं पता था कि आखिर दंगा हुआ किस बात पर था?लेकिन देखते ही देखते पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ गया. लोग गाँवों से रातों-रात पलायन कर गए. बसे-बसाएं घर उजड़ने लगे. हँसते-खेलते परिवार बिछड़ गए. खाली घर जलने लगे और दिन दहाड़े कत्ल किये जाने लगे. भागने वालों में किसी को कुछ पता नही था कि कहां जाना है? किधर जाना है? बस जाना हैं. अगर ज़िंदा रहना है तो जाना ही हैं. जिसकी जान बच जाती तो वह ईश्वर का शुक्र अदा करता और फिर राहत शिविरों में अपने अन्य परिजनों को ढूँढ़ता फिरता.

एक हफ्ते तक दंगे होते रहे थें. शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया था. पूरी परिवहन व्यवस्था ठप पड़ गई थी. बस, ट्रेन बस बंद थी. उन हालात में वे एक पार्टी कार्यकर्ता के खाली मकान में रहे थें. हफ्ते भर बाद जब हालात कुछ काबू में आएं और परिवाहन साधनों का पहियां घूमा तो उन्होंने राहत भरी सांस ली थी. उस कार्यकर्ता ने जल्दी ही पता लगा लिया कि दिल्ली जाने वाली ट्रेन कब छूटेगी. वह रात में दस बाजे जाने वाली थी. उसने उनके स्टेशन तक पहुंचने का पूरा इंतज़ाम कर दिया. परंतु किसी कारणवश वह टीम के अन्य साथियों के साथ स्टेशन पर नहीं पहुंच सका था. रेल उसका इंतजार किए बिना उसके साथियों को लेकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गई. वह अकेला पीछे छूट गया था.

उस व्यक्ति ने जो बाद में उसे स्टेशन पर छोड़ने आया था कहा, कोई बात नही. तुम कल चले जाना. तब तक आराम करो. तुम्हें पहली ट्रेन से रवाना कर देंगे.
इसके बाद वह उसे वापस शहर नहीं ले गया था. वह उसे शहर से अगले स्टेशन पर ले आया था. उसे नहीं पता था कि वह स्टेशन शहर से कितनी दूर था. पर वह उसके पीछे बीस मिनट तक मोटर साईकिल पर बैठा रहा था. जब उसने मोटर साईकिल रोकी और उसकी लाईट बंद की तो वह एक सुनसान जंगल में थे. उसने उसे अपने पीछे आने के लिए कहा और फिर इस एक कमरे वाले घर का दरवाज़ा खोलकर उसने कहा, तुम रात यहां बिताओ. स्टेशन यहां से थोड़े फासले पर ही. मैं सुबह आऊंगा... गाड़ी के आने से पहले. तुम्हारा टिकट भी लेता आऊंगा. अब तुम आराम करो.

उसके जाने के बाद वह पलंग पर बैठ गया. उसके दिमाग में अजीबो-गरीब ख्याल दौड़ने लगे. फिर उसने मोटर साईकिल के स्टार्ट होने की आवाज़ सुनी. पहले वह तेज थी और फिर धीमे होते-होते पूरी तरह बंद हो गई. मोटर साईकिल के जाने की आवाज़ के बंद के बाद वह बेसुध सा पीछे को लेट गया और उसे नींद आ गई. उसके बाद अब उसकी आँखें खुली थी.

वह खाली सूनसान गलियों में से होकर गुजर रहा था. जले घरो, टूटी दरों-दिवारों और खाली पड़े दालानों को देखता हुआ. वहां कोई आवाज़ नहीं थी. सिवाएं उसके चलने और सांस लेने के. उसने आधा गाँव पार कर लिया और उस स्थान पर जा पहुँचा जहां लूट हो रही थी.

लोग लूट रहे थे गैस चूल्हा और तकिया. एक आदमी चारपाई उठाकर ले जा रहा था, तो दूसरा टीवी. तीसरा गैस सिलेंडर तो चौथा दिवार घड़ी. कोई कपड़ों से भरा बक्सा उठाएं जा रहा था. दो आदमी कपड़े रखने की अलमारी पकड़े जा रहे थे तो कोई मोटर साईकिल और साईकिल उठाएं ले जा रहा था. कोई जानवर खोलकर ले जा रहा था तो कोई छत के पंखें. मसलन सब के सब कुछ ना कुछ लूट रहे थें. और अगर किसी को लूटने के लिए कुछ नही मिल रहा था वह उन उजड़ चुके घरों के दरवाज़े ही उखाड़ने लगा था.

वह गली से बाहर निकलकर उन घरों की तरफ मुड़ा जिनमें लूट हो रही थी. चलते-चलते अचानक उसे अपनी चप्पलें जमीन पर चिपकती हुई महसूस हुई. उसने नीचे देखा तो गली में जगह-जगह खून, टूटी चप्पलें, औरतों के दुप्पटें और हाथों की कटी हुई उंगलियां, पैर के उंगुठे और कहीं-कहीं पूरा पैर कटा हुआ पड़ा था. जिनसे दुर्गंध उठ रही थी. बदबूँ से उसने अपनी नाक-भौंह सिकुड़ी और फिर आगे की ओर चल दिया.

लूट का मंज़र अब भी बादस्तूर जारी था. उसने अपने पास गुजरते एक आदमी को देखा. वह बच्चों के खिलौनें और कुछ किताबें उठाएं चला जा रहा था. वह थोड़ा ओर आगे बढ़ा तो ठोकर लगकर गिरने से बाल-बाल बचा. संभलकर उसने देखा तो निहायत ही खूबसूरत एक जवान लड़की की लाश पड़ी थी. गहरे घाव लगने से लाश में से निकला खून ज्यादा दूर तक न फैलकर उसके आस-पास ही जमा हो गया था. मानो वह उस लाश के प्रति अपनी वफादारी साबित कर रहा हो. कहा रहा हो कि भले ही इंसान इंसान के प्रति वफादार न हो, लेकिन मैं तेरे प्रति वफादार हूँ. हालांकि रास्ता मिलते ही मुझे इख्तियार था कि मैं बहकर कहीं तक भी फैल जाऊँ.

हाथ में चूड़ी, पैरों में पायल और उसके बनाव-सिंगार को देखकर लगा रहा था कि वह एक अच्छे परिवार की शादी-शुदा औरत थी. उसने लाश को ध्यान से देखा तो डूबते चाँद की चाँदनी में उसके सीने पर एक लॉकेट चमक रहा था. एक चमकदार लॉकेट. उसकी चैन चांदी की थी और उसके बीच में सफेद नगीने की शक्ल का कुछ चमक रहा था. उसने वह लॉकेट लाश पर से उठा लिया और उसे ध्यान से देखने लगा. होने न हो, उसने यह लॉकेट कहीं देखा हैं!लेकिन उसे याद नही आ रहा कि कहां देखा है?दिमाग पर जोर देकर उसने याद करने की कोशिश की तो कॉलेज की वह लड़की याद आई, जिसे उसने सबसे पहले एडमिशन विंडों पर देखा था. उसके बाद कैंटीन और फिर क्लास के गेट पर. फिर तो वह उसे हर उस जगह देखता जहां वह जाती थी. वह उसके पीछे दिवानों की तरह घूमता था. हर जगह, कॉलेज के पूरे वक्त. हालांकि उसने उससे कभी कुछ कहा नहीं था. बस वह उसे देखता. वह ज़्यादा गोरी नहीं थी. सांवला रंग था. छोटी और मुखर काली आंखे. लंबे बाल. और गले में लटकता वह चमकदार लॉकेट. हूबहू वैसा ही, जैसा इस वक्त वह अपने हाथ में लिए खड़ा था. उसने कई बार चाहा कि वह उससे बात करे. उसे अपने दिल की बात बता दे. पर उसने कुछ नहीं कहा. फिर उसने एक प्रोफेसर के हाथ में कुछ फॉर्म देखे थे. उन फॉर्म में सबसे ऊपर उस लड़की की फोटो वाला फॉर्म था. उसने उसका नाम पढ़ा, उसके पिता का नाम. धर्म देखा और देखी उसकी जाति. जाति देखते ही वह पीछे हट गया...!वह खुद से ही बुदबुदाया, वह एससी है?यानि दलित.इसके बाद उसने उसे फिर कभी नहीं देखा. हालांकि वह उसके आगे-आगे घूमती. पर वह पलट गया. वह एक ब्राह्मण लड़का था, फिर दलित लड़की से कैसे प्यार कर सकता था...?

लूटने वाले लोग अब भी लूट रहे थे. जब लूटने के लिए कुछ नहीं बचा तो वे एकांत में अकेले खड़े उस इंसान के पास आकर जमा हो गए जो एक लाश के पास खड़ा अपने हाथों में थामे किसी चीज को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहा था. उसने भी लॉकेट से नज़र हटाकर, चेहरा उठाकर एक बार उन लोगों को देखा और फिर लॉकेट में खो गया. उसके चारों तरफ लोगों की संख्या बढ़ती गई और वह ऐसी ही बुत बना लॉकेट को देखता रहा.
तभी, अचानक एक शोर उठा. लोग, और उनसे घिरे खड़ा वह शख्स इससे पहले कि कुछ समझ पाते हवा में तैरती हुए सफेद टोपियों का एक झुंड आया और उन सबके सिर धड़ से अलग जा गिरे.

लॉकेट अब भी चमक रहा था. लेकिन अब ठंडी होकर अकड़ चुकी लड़की की लाश पर नही बल्कि ताजा और गर्म खून के निकलने से फुदकते लड़के के धड़ पर.
________________
शहादत  ख़ान
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली
7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com

श्रद्धासुमन : कमल जोशी

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यायावर, जीवट से भरे प्रसिद्ध फोटोग्राफर कमल जोशी की आत्महत्या की ख़बर पर यकीन नहीं हो रहा है.

उनसे कई मुलाकातें हैं. पहाड़ के जीवन को केंद्र में रखकर लिए गए उनके छाया चित्रों का संसार अद्भुत है. चमकीले चटख रंगों के उनके छाया चित्रों में निराशा का स्पर्श तक नहीं है. है तो विद्रूपता से संघर्ष की उर्जा है.

वह श्वास के रोग से पीड़ित जरुर थे पर इसे लिए दिए ही वह दुर्गम पहाड़ों की यात्राओं पर अक्सर होते थे. 

वह अकेले रहते थे पर अक्सर मैंने उन्हें लोगों के बीच पाया था. आस -पास के आयोजनों में उनका होना लगभग तय रहता था.

आख़िर कार ऐसा क्यों हो जाता है कि हमारे बीच का कोई एकदम असहाय  पड़ जाता है. ऐसे कौन से क्षण होते हैं कि खुद का होना ही भार बन जाता है.

सामाजिकता के ताने बाने में कहीं गांठ पड़ गयी है. जो निर्दोष है, मासूम है, वह आज अकेला पड़ गया है.

कमल जोशी आपके चित्र आपको जिंदा रखेंगे. भले ही हमने आप को मार दिया.


आपकी याद में आपके सब चाहने वाले.     


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फेसबुक पोस्ट पर उनका अंतिम छाया चित्र - innocence.....!
२९ जून २०१७







The Street View.
२६ मई २०१७ 





मेहनत से जीना जाना है,,
पत्थर को बिस्तर माना है.....







आदरणीय राजेंद्र धस्माना जी अनन्त यात्रा पर...! विनम्र श्रद्धांजलि ...
17 मई २०१७














ये पड़ाव...! कितने अपने से हैं ये अजनबी पड़ाव... .

१२ मई.
















चले भी आओ की कुछ दूर साथ चलें
कारवां सजाया है तेरे ख़्वाबों के सहारे.....





चुनाव के जो देखे हाल, ताई बोली खुले आम
साइड लगाओ नेताओं को, बीड़ी सुलगाओ और करो काम









चल पड़ी वो लोकतंत्र की तलाश में.
कहीं और कभी तो मिलेगा
वो अपने सही रंग रूप में...
एक मायना लिए ...हर एक के लिए...!




छोटी छोटी इच्छाए,
छोटी सी दुनिया..और चेहरा भर ख़ुशी.......






faith in the god that resides in nature......!







ऐसा घर हो न्यारा  






साला मैं तो साब बन गिया.....!
लोग मेरी उम्र में चेयर-मैन बनते हैं मैं "धराशायी"से बैड-मैन बन गया हूँ! ( No, not the type of bad man Gulsan Grover plays, I said Bed-man!)


चालीस साल से ज्यादा मेरा बिस्तर जमीन पर ही रहा. याने मैं "धरा-शायी"रहा. नैनीताल हो या दिल्ली या कोटद्वार, मैं अपना बिस्तर फर्श पर ही बिछाता रहा क्यों की इससे मुझे बहुत सुविधा रहती है. जगह के लिए बैड की सीमा से बंधना नहीं पड़ता. किताबें, दवाइयां, लैपटॉप, गमछा, पानी सब आसपास जमीन पर "एक हाथ की दूरी पर". हाथ बढाया और उठा लिया. कहीं से भी लौट कर आता और अपने जमीनी बिस्तर पर बड़ा आनंद रहता क्यों की अन्य जगहों पर पलंग में सोना होता (ट्रेकिंग के अलावा) !

पर इस चिकनगुनिया का ऐसा मरा की उसने मुझे मजबूर कर दिया. सुबह जमीन में बिछे बिस्तर से उठने में घुटनों में इतनी तकलीफ होने लगी है की डॉक्टर के सलाह पर बिस्तर जमीन से उठा कर बैड-बोक्स लाना पड़ गया है...! याने बैड -रूम में सच मुच का बैड आ गया. याने साहबी शुरू!

चिकनगुनिया रे ! तूने घुटने-कंधे का दर्द तो दिया...., पर साब भी बना दिया ...!
और हाँ, मेहमान जो आयेंगे वो अब भी जमीन पर लगे बिस्तर पर ही सोयेंगे अगर उनकी हालत मुझसे खराब हुई तो..

Kamal Joshi
December 14, 2016




अभी रास्ता लंबा भी है तो .......चलना ज़रूर है...









Morning Fog - Winter announces itself at Kotdwara/ Uttarakhand..










तेरे दामन में एक दुनिया बसा ली मैंने...
जिंदगी! हर सांस की कीमत पा ली मैंने..

(Ramgarh / prithawi niwaas)





जाऊं कहाँ बता ए दिल........!
27 फरवरी २०१७






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कमल जोशी 
सम्पर्क:
अब यह संभव नहीं रहा.

मैं कहता आँखिन देखी : सविता सिंह

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हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री सविता सिंह की रचनात्मकता में नारीवाद की भूमिका और इस विमर्श की वर्तमान अर्थवत्ता को लेकर रेखा सेठी ने यह संवाद किया है.

संवाद की यह विशेषता होती है कि वह जटिल से जटिल अवधारणा को सुगम बनाते हुए सहजता से संप्रेषित होता है.

यह संवाद वैश्चिक स्तर पर स्त्री की स्थिति और उनमें हो रहे बदलाव और उस बदलाव के दर्शन पर प्रकाश डालता है.


सविता सिंह की कविताओं को समझने का एक रास्ता भी यहाँ से आपको दिखेगा.



हमें राष्ट्रवाद के अँधेरों को भी देखना चाहिए...                    

सविता सिंह से रेखा सेठी की बातचीत




आपके निकट स्त्री-कविता का आशय क्या है?
मैं एक स्त्री हूँ और मेरी कविता में मेरी यह पहचान सम्मिलित है. मैं यह कभी भुला नहीं पाती कि मैं एक स्त्री हूँ. बहुत सारी स्त्रियाँ अक्सर यह कहती हैं कि वे साहित्यकार हैं और उनके लिए इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि वे स्त्री हैं. मेरा प्रस्थान बिन्दु यह नहीं है. मैं मानती हूँ और बहुत शिद्दत से महसूस करती हूँ कि मेरे साथ जो कुछ भी इस जीवन में घटित हुआ है और हो रहा है वह इस वजह से ही है. अच्छा-बुरा जो कुछ भी है. ज़रूरी नहीं है कि आप स्त्री हैं तो हर दम आप पर प्रहार ही होता रहता है या आप हिंसा की शिकार होती हैं. एकख़ास किस्म की असमानता अवश्य है, जिस पर हमारी पूरी व्यवस्था, आर्थिक-सामाजिक, आधारित है उससे आप प्रभावित होती रहती हैं. परन्तु स्त्रियों की अपनी शक्ति भी है कविता लिखना उसमें से एक ऐसी ही क्षमता है जिसे वह अपनी शक्ति के रूप में समझ सकती है. 

कविता में अपनी बात अभिव्यक्त करना उस अन्दरूनी शक्ति का इज़हार है. यह मेरे लिए अपने निकट होने जैसा है. स्त्री कविता में अपने निकट होने का एक मतलब है. कहीं न कहीं यह उसके स्वका मामला है और जो स्व है उसका आविर्भाव उसके साथ जन्म से ही होता है. हाँ उसके साथ उसका विकास हो तो उसमे और बहुत-सी बातें आ जाती हैं. यह एक .खास यात्रा है. मेरे अपने स्व का विकास. मेरे जीने के लिए यह बहुत है. मुझे अपने बारे में एक ख़ास तरह की समझ चाहिए जो मुझे सम्पन्न करे. यह सम्पन्नता कोई बाहर से महसूस न भी करे आप अपने भीतर उसे महसूस कर सकती हैं, वह एक रोशनी की तरह होती है, आपको आगे जो कदम रखने हैं उनकी दिशा दिखाती हुई. यह दिशा बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कोई आपके भीतर से ही यह सुझा रहा होता है कि आप किधर जाएँ. यह आपका अपना फैसला होता है. जीवन का गम्भीर फैसला. दरअसल मुक्त होने का अहसास की प्रतीति यहाँ होती है.
मेरे लिए स्त्री कविता कोई अनौपचारिक उपस्थिति नहीं है. अगर मुझे कोई बात नहीं जँचती या मैं नहीं लिख सकती तो मैं नहीं लिखती. मैं जब भी लिखती हूँ, वह मेरे विकसित होने का एक तरीका होता है जो अपने आप में यूनीक या विशिष्ट है.

कुछ लोगों को स्त्री कविता जैसे अभिधान से कठिनाई है. उनका मानना है कि कविता का कोई जेंडर नहीं होता. कई लोग कहते हैं कि स्त्रीकविता का विशेषण नहीं हो सकता अर्थात् स्त्री कविता कहकर कविता को किसी परिभाषा में बाँधना ग़लत होगा. आपका क्या विचार है?
मेरा अपना मानना है कि उन लोगों की चेतना में यह बात इस तरह आई ही नहीं है. मैं किसी की आलोचना नहीं करना चाहती परन्तु, यह अवश्य कहना चाहती हूँ कि स्त्री में अगर स्त्री की चेतना नहीं है तो उसके अन्दर पुरुष की चेतना है क्योंकि ये दो ही तरह की चेतनाएँ हैं जो पूरी सृष्टि को चला रही है. आपके द्वारा पूछा गया यह सवाल पुरुष चेतना द्वारा विप्रेषित है और जो लोग इस तरह सोचते हैं उसका खामियाज़ा वे भुगतते भी हैं, यही कह सकती हूँ.

आपने अपनी काव्य यात्रा का आरम्भ इतिहास के एक विशेष दौर में किया जब हाशिये की आवाज़ों को केन्द्र में लाने की कोशिश की जा रही थी स्त्री की आवाज़ को भी हाशिये की आवाज़ की तरह ही पढ़ा गया. समय के उस बिन्दु पर आपने घोषित तौर पर स्त्रीवादीकवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनायी. साहित्य में इस तरह का पोज़ीशनलेना कहाँ तक सम्भव है?
यह बात तो सही है कि जिस समय का आप ज़िक्र कर रही हैं, जब मैंने कविता लिखना शुरू किया, वह बहुत ज़्यादा असमंजस का समय था. स्त्री-कविता को स्त्री कविता कहा जाए या न कहा जाए, उसकी स्वीकृति होगी या नहीं, उसकी जगह बनेगी या नहीं या वह अस्वीकृत हो जाएगी, ये सारी सम्भावनाएँ थीं और संदिग्धता भी थी, लेकिन एक कवि को साहसी भी होना चाहिए. उसमें अतिक्रमण करने की आत्मशक्ति होनी चाहिए, तभी कविता नई जगह बना पाती है. और उस समय मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि जो स्त्रियाँ लिख रही थीं वो हाशिए की थीं. मैं सभी कवयित्रियों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में पढ़ती थी. जब मैं अपनी कविताओं को लेकर गम्भीर हुई और मुझे लगा कि जिस समय में हम जी रहे हैं उस समय में स्त्रियों का हस्तक्षेप होना ही चाहिए. मुझे लगा कि इस असन्दिग्धता के दौर को मुझे पार करना होगा. यह हिम्मत मुझमें होनी चाहिए कि जो मैं सचमुच महसूस कर रही हूँ उसे लिख सकूँ. मुझे ज़रा भी भय नहीं था कि इसे ख़ास ढंग से लेबल कर दिया जाएगा या उसकी वजह से इस कविता को और हाशिये पर धकेल दिया जाएगा.
मुझे ऐसा लगा कि ये कविताएँ अपने समय को सम्बोधित कर रही हैं .
कोई भी अभिव्यक्ति तभी सटीक, तभी कारगर हो पाती है जब उसके पीछे यह भावना हो कि हम अपनी स्वतन्त्रता को इस तरह से ज़ाहिर कर सकते हैं. इससे पहले मैं नहीं जानती कि किसी ने कहा हो कि मैं स्त्रीवादी कविताएँ लिखती हूँ. सबने कहा कि यह स्त्रियों की कविताएँ हैं, वगैरह-वगैरह, लेकिन स्त्रीवादी रूप में अपने को पेश करना कठिन बात थी. इसके लिए विवेकपूर्ण साहस चाहिए था. इसी से मेरा पथ तैयार हुआ. मेरी कविताओं ने किया हो या न किया हो यह मैं नहीं जानती, लेकिन इस हिम्मत ने दूसरों को हिम्मत दी कि वे अपनी इच्छाओं को सही ढंग से पहचान कर उसके बारे में कुछ कह सकें. मैं यह समझती हूँ कि मेरी कविताएँ  हाशिये को केन्द्र के करीब लेकर आने की ज़द्दोजहद में लगी रही हैं और कुछ नहीं तो हाशिये को ही केन्द्र बना लेंगी.

आपके गद्य और कविता में फेमिनिस्ट पोज़ीशन और टोनमें अन्तर है, ऐसा मुझे लगता है... गद्य में स्वर काफ़ी उग्र है, परिवर्तन की बेचैनी भी अधिक है... आपने पितृसत्तात्मक संरचनाओं को प्रश्नांकित किया है... वहाँ रेडिकल फेमिनिज्म प्रमुख है, जबकि कविता इससे थोड़ा हटकर है, वहाँ एक नयी स्त्री की तलाश है जिसे विचारधारा के बद्ध मुहावरों में नहीं पढ़ा जा सकता, आप इस पर क्या कहेंगी?
कविताओं और आलोचनात्मक लेखन में जो फ़र्क है वह इन विधाओं की अपनी पुकार है, और अर्थवत्ता है. उनमें थोड़ा फ़र्क हो सकता है, लेकिन मेरे दोनों किस्म के लेखन में बात एक ही है. गद्य में आप बहुत सारी चीज़ें कह सकते हैं कविता नफीस चीज़ है, कविता आप जिस चीज़ को जैसा जानते हैं वह उसके पार ले जाकर आपको छूती है, इसलिए कविताओं की संरचना या उसका टोन अलग है. चेतना के बहुत सारे स्तर ऐसे हैं जो हमारे भीतर होते हैं, लेकिन हम उन तक खुद आसानी से नहीं पहुँच पाते. मेरा अपना मानना है कि कविताएँ वहाँ बहुत हद तक दुबकी रहती हैं, इसलिए प्रयास कर हमें वहाँ जाना चाहिए. मैं समझती हूँ कि कविताओं में, अभिव्यक्ति में एक ख़ास तरह का परिवर्तन, संयम और एक वयस्कता होनी चाहिए लेकिन कविता हो या गद्य दोनों जगह उद्देश्य एक ही है कि हम जिस समाज में रहते हैं उसको बदलें, उसको ज़्यादा सच्चा और सह्य बनाएँ जिसमें सभी लोग न्यायपूर्ण ढंग से रह सकें. यह सुन्दर समाज बनाने की शुरूआती शर्त है.

स्त्री होना आपकी कविता को कैसे प्रभावित करता है ?
जैसा मैंने अभी कहा कि मेरे भीतर का स्त्री-आलोक मुझे दिशा देता है. इसका एक दूसरा पक्ष भी है, कविता और आपका द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध. आप और कविता एक दूसरे को बनाते चलते हो. इस प्रक्रिया को मैं पहचानती हूँ. कविता के इस सच को मैंने अपनी कविताओं में परखा है और उसे ज़ाहिर भी किया है. कविता का जीवन’, ‘कहाँ लिए जा रही हो मुझे मेरी कविता’, ‘कृतज्ञ हूँ मेरी कविताआदि अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिनमें यह प्रक्रिया देखी जा सकती है. यह प्रक्रिया बहुत जीवन्त हैमनुष्य के दूसरे स्वकी तरह ही, उससे बहुत मिलती-जुलती. मेरी उसके प्रति कृतज्ञता भी है, सवाल भी हैं और झगड़े भी. कविता के साथ मेरा बहुत ही घनिष्ट एवं आत्मीय सम्बन्ध है.

आप कहना चाहती हैं कि स्त्री होना ही कविता को प्रभावित नहीं करता, कविता भी स्त्रीत्व को प्रभावित करती है ?
निश्चित तौर पर यह एक द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है और दोनों एक-दूसरे को प्रफुल्लित-विकसित करते हैं. कविता स्त्री को मुक्त करेगी यह एक सशक्त धारणा है जो लगातार स्त्री को  में चिन्तनशील रखती है.
अभी तक आपके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं, तीनों का केन्द्र स्त्री है पर दृष्टिबोध बदला हुआ है. आप इसे कैसे देखती हैं?
तीनों संग्रह में कवयित्री तो एक ही है आपने सही कहा, और वह एक स्त्री है जो धीरे-धीरे समाज में रहने, उसमें अपनी रिहाईश की शर्तों को पहचानने, उन्हें बदलने तथा उन्हें पूरी तरह से पितृसत्ता से मुक्त करने की कोशिश में जुटी हुई हैं. यह एक प्रक्रिया है- लगातार आगे बढ़ती हुई और पैनी होती हुई. ऐसे में कविता अपने साथ रूप-रंग, मकसद पहचानती, बदलती हुई अग्रसर है. इसी ढंग से उसमें बदलाव आते गए हैं. व्यक्तिगत स्तर पर उसे संकुचित नहीं किया मैंने. हमें ऐसी कविताएँ सिर्फ़ इसलिए नहीं लिखनी चाहिए, क्योंकि उनकी मान्यता है या उनकी पहचान बन गयी है. कविता को कोशिश करनी चाहिए कि उसकी जो पहचान स्थिर हो रही है और उसके स्थिर होने के कारण पितृसत्ता का प्रभाव फिर से उस पर स्थापित हो रहा है वह उसके पार जाए. उसके पार उतरने के लिए मेरी कविताएँ संघर्ष करती रही हैं. भाषा के स्तर पर तथा कथ्य के स्तर पर उसे लगातार संघर्ष करना है. जो बिम्ब हैं, जैसे रात, अँधेरा, प्रकाश, स्वप्न, नीला रंगइसमें और भी बहुत सारे रंग आते हैं या राग हैं, वे सब मेरी कविता में लगातार आवाजाही करते रहे हैं, क्योंकि मैं संगीत या चित्र-कला को कविता के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण मानती हूँ जितना शब्द को. रंग और शब्द जब आपस में मिलते हैं तब नयी चीज़ें पैदा करते हैं.
कविता की जो चुनौतियाँ हैं उनको आरम्भ में ही मैंने स्वीकार कर लिया था और इसलिए आप पाएँगी कि मेरे तीनों संग्रहों में कविता अपना रूप, अपना कथ्य, अपनी संरचना और अपना उद्देश्य काफ़ी हद तक बदलती चली गयी है. अपने जैसा जीवनमें जो स्त्री कहती है कि मैं किसी की औरत नहीं हूँया जो विलाप कर रही है, रोती है सुप्रिया, विमला की यात्राये सारी कविताएँ स्त्रियों के नाम लेकर लिखी गयी हैं, क्योंकि ये स्त्रियाँ हमारे आस-पास हैं जीवन में गूँथी हुई. आप उन्हें बहुत आसानी से पहचान सकती हैं. जब हम नींद थी और रात थीमें आते हैं तब वहाँ भाषा के स्तर पर या संवेदना के स्तर पर उनकी बारीकियों में जाती हूँ. उसमें भाषा बहुत महीन हो गयी है, अभिव्यक्ति की अप्रत्यक्षता में लगभग समाई हुई, और स्वप्न समयमें कविता का एक नैरेटिव आता है. स्वप्न, रात, जंगलइन सबका बहुत बड़ा एक कैनवस है. उन लोगों के नेरेटिवस हैं जिन्हें मैंने काफी देर तक अपनी कविताओं में रखने की कोशिश की है. जो हमारा पाठक है, वह भी उसका हिस्सा है. देखना था कि जो लोग आपको पढ़ते हैं, उनको कितनी देर तक आप अपने साथ रख सकती हैं और उनको प्रभावित कर सकती हैं. बहुत सारी चीज़ें थी, बहुत सारे उद्देश्य थे जो बदलते रहे हैं और एक उद्देश्य तो है ही कि कविता में हम उन्नत हों, फूल की तरह खिल सकें. आ.िखर, कविता की पूरी दुनिया ही तो कायनात है. उसमें बार-बार यह कायनात सम्भव होती है, बदल-बदलकर, बेहतर होकर. उसमें वह सभी जीव हैं जिन्हें हम जानते हैं, वे सभी जातियाँ जिनसे हम मिलते हैं, वे मनुष्य जिन्हें हम बेहतर बनाना चाहते हैं.

क्या यह आवश्यक है कि स्त्री-कविता की अपनी अलग पहचान हो?
यह सब सवाल इस बात से जुड़े हुए हैं कि स्त्री कविता है क्या? अगर किसी की मेटाफिजीकल प्रेजेंस है, उसकी उपस्थिति है तो हम कौन हैं जो कह दें कि यह उपस्थित नहीं है या इसकी पहचान नहीं होनी चाहिए. यह सारे सवाल लैंगिक राजनीति के बड़े सवाल से जुड़े हुए हैं. लेखन का कोई और रूप हो, चाहे कविता या पेंटिंग की दुनिया तो उसमें जो पहचान उभर कर आती है उसे स्वीकार करना होगा. अगर वह पहचान न स्वीकार करें तो कहीं न कहीं उसकी अपनी चेतना में कोई समस्या है क्योंकि इस दुनिया में हर चीज़ यदि मनुष्य के दृष्टिकोण से देखी जाए तो उसकी सारी ज़द्दोजहद पहचान के लिए ही होती है और उसी से अस्मिता तय होती है. अगर मैं स्त्री कवि हूँ और मैं मानती हूँ कि मेरी कविता स्त्रीत्व से जुड़ी है तो निश्चित तौर पर मैं चाहूँगी कि उन कविताओं को स्त्री कविता के रूप में पहचाना जाए. स्त्री सच हैमेरी ही एक कविता है, ‘नींद थी और रात थीमें. यहाँ सत्य का कविताकरण और राजनीतिकरण दोनों होता है.

स्त्री-कविता जैसा अभिधान क्या केवल पाश्चात्य सन्दर्भों से अनुप्रेरित है या भारतीय दृष्टि भी उसके निर्माण का आधार है?
यह सवाल एक तरह से प्रच्छन्न किस्म का है. बहुत से लोग स्त्रीवाद पर हमला करते हैं और कहते हैं कि वह पाश्चात्य से आया है या फिर अवतरित हुआ है. मैं भी मानती हूँ कि इसमें पाश्चात्य, से उदय होने के कारण एक दृष्टिकोण है, लेकिन हमें यह भी नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए कि अगर दुनिया में कहीं भी मनुष्य का कोई समूह (स्त्री तो छोड़ो) दुनिया को बदलने के लिए संघर्ष कर रहा है और उसका कोई परिणाम निकल रहा है तो हम क्यों उससे मुतासिर न हों, हम क्यों उसे स्वीकार न करें या उससे अपनी पहचान न जोड़ें? यहाँ पाश्चात्य का सवाल बीच में आ जाने से इसका सम्बन्ध औपनिवेशिक संस्कृति से जोड़ दिया जाता है, जिससे सांस्कृतिक दासता की ध्वनि आती है. यह सारी बातें हाइपर नेशनलिज्म या उग्र राष्ट्रवाद के सन्दर्भ से उभर कर आती हैं. बिना किसी धुँधलके के मैं यह कहना चाहती हूँ कि हमारा अपना जो राष्ट्रवाद है उसने हमारे लिए एक नये पितृसत्तात्मक समाज का निर्माण भी किया, क्योंकि इस राष्ट्रीय व्यवस्था में स्त्री और पुरुष बराबर नहीं हैं. पितृसतात्मक व्यवस्था उसमें गुँथी हुई है, इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम दुनिया की उन बहनों के साथ एक बहनापा स्थापित करें जिन्होंने विवेक के स्तर पर या जीवन के स्तर पर अपने यहाँ के पुरुषों से संघर्ष कर कुछ हासिल किया है.
1960के आसपास अमरीका में जिस रेडिकल फेमिनिज्म की शुरुआत होती है या उससे भी पहले जब स्त्रीवादी चेतना उभरने लगी, मेरी वालस्टोनक्राफ्टने जब लिखना शुरू किया, (1870) या फिर सोशलिस्ट स्त्रीवादियों ने स्त्री श्रम की पड़ताल शुरू कीइनको भी हम अपने संघर्ष से जोडक़र देखते हैं. कम्युनिस्ट मूवमेंट में जो स्त्रियाँ रहीं उन सबका इतिहास हमारा इतिहास है. हमारे लिए इतिहास का अर्थ केवल राष्ट्र का इतिहास नहीं है, स्त्री संघर्ष का इतिहास है. हालाँकि यहाँ भी राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है, लेकिन उसका प्रतिफल क्या हुआ? यह हमारे सामने है कि सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौरतथा अन्य स्त्रियाँ जो स्वतन्त्रता संघर्ष में शामिल थीं वे पुरुषवादी विवेक से प्रभावित रहीं. 

1932-33में जब स्त्री के प्रतिनिधित्व का सवाल उठा तो उनके द्वारा रखे गए विचार असमंजस में डालने वाले लगते हैं. वे राष्ट्रवादी होने के कारण ही अपनी योजना एवं लक्ष्य में पुरुषवादी लगते हैं. स्त्री-प्रतिनिधित्व के विषय में इन्होंने कहा कि स्त्रियों को कोई आरक्षण नहीं चाहिए बस उनकी मनुष्यता को पहचाना जाए. कितना बड़ा अन्तर्विरोध है इस कथन में, क्योंकि एक तरफ़ यह कहा जा रहा है कि स्त्रियाँ बहुत सशक्त हैं, उन्हें विशेष दर्जा नहीं चाहिए, साथ ही उनकी, मनुष्यता को नहीं पहचाना जा रहा, इसका भी स्वीकार है. कहीं बहुत बड़ी फाँक है यहाँ. आप अपनी मनुष्यता की पहचान कराना चाहती हैं तो उसके लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है. 1973-74में जब टुवर्ड्स इक्वालिटी रिपोर्टआई तो स्थिति साफ हो गयी. हिन्दुस्तान की औरतों की स्थिति कितनी ख़राब और दयनीय थी, चाहे उनकी शिक्षा का प्रश्न हो या स्वास्थ्य, सब जगह उनकी स्थिति मिट्टी के बराबर थी. उसके बाद ही यह चेतना आई कि इसे बदलने के लिए विशेष यत्न करने होंगे. उनके उत्थान के लिए सरकारी नीतियाँ गम्भीरता से बनाने की शुरुआत होती है.

बाबा साहेब अम्बेडकर इस पर पहले बात कर चुके थे और मैं उनके योगदान को महत्त्वपूर्ण मानती हूँ कि उन्होंने उन लोगों के लिए संविधान में विशेष प्रोविज़न किए जिन्हें दलित या अस्पृश्य माना गया था. स्त्री की स्थिति में सुधार लाने के लिए भी बाबा साहेब ने हिन्दू कोड बिल में परिवर्तन लाने की कोशिश की. कम से कम उन्होंने इस आवश्यकता को राजनीतिक स्तर पर पहचाना तो सही. मेरे कहने का मतलब है कि हम राष्ट्रवाद को आँख मूँद कर स्वीकार नहीं कर सकते. हमें राष्ट्रवाद के अँधेरों को भी देखना चाहिए. औरतों के लिए उसकी अपनी मुसीबतें हैं. हमें यह बहस नहीं करनी चाहिए कि हम इसको पाश्चात्य मानें या भारतीय? और अगर पाश्चात्य है भी तो हम जैसे पश्चिम के उपनिवेशवाद को स्वीकार नहीं करते, लेकिन उनके यहाँ जो प्रगतिशील आन्दोलन हुए हैं, उनको हम स्वीकार करते हैं. उसी तरह हमारे यहाँ जो राष्ट्रवादी चेतना है उसमें जो प्रगतिशील अवयव है, उसको हम स्वीकार करते हैं और जो प्रतिगामी हैं, जो हमें पीछे धकेलते हैं, पितृसत्ता के अधीन करते हैं; जो आपको परम्परा में व्याप्त प्रतिगामी मूल्यों की तरफ वापस धकेलता है उसको हम अस्वीकार करते हैं. उन्हें हम राष्ट्रवाद के नाम पर आत्मसात नहीं कर सकते.

आपकी दृष्टि में स्त्री कविता के मूल मुद्दे क्या हैं?
स्त्री कविता के मूल मुद्दे वही हैं जो दुनिया में आज तक स्त्रियों के मूल मुद्दे रहे हैं और जिन पर स्त्रियों ने लिखा भी है. मेरा यह मानना है कि स्त्री कविता तमाम सामाजिक संरचनाओं में जो असमानता व्याप्त है, चाहे वो स्त्री को लेकर हो चाहे दूसरे ऐसे समूहों को लेकर, उन सब के प्रति संघर्ष को जायज़ ठहरती है. वह संसार को हर तरह की कुरूपताओं से मुक्त करना चाहती है. वह पितृसत्ता की भयावहता से मनुष्य को निजात दिलाना चाहती है. इसके लिए वह सुन्दर की पहचान करना चाहता है, इसका बिम्ब के माध्यम से, कथ्य के माध्यम से एवं नैरेटिव के सहारे सृजन करती है. मैंने भी यह कोशिश की है कि जिन असमानताओं से हमारा समाज प्रभावित है उसके दर्द और अँधेरों को सामने लाऊँ. स्त्री-कविता भी लगातार इस चिन्ता में डूबी हुई है कि वह समाज को कैसे बदल सकती है. सामानान्तर स्तर पर ऐसी सभ्यता के विकास में सम्मिलित होऊँ जिसमें अन्तत: जो भी हमारी भिन्नताएँ हैं वह हमारे शोषण के लिए इस्तेमाल न होकर हमारी उन्नति के लिए हों, जिससे हम कह सकें कि एक सामूहिक, विनम्र, विश्व समुदाय बनाने में हमारी कविताओं का योगदान रहा है. हमरी कविताओं को पढ़ते हुए लोगों को लगे कि वे वयस्क स्त्री नागरिक की कविताएँ हैं. यह एक उपलब्धि होगी.

जैसा आपने कहा कि आपकी कविताओं को लोगों ने वयस्क स्त्री नागरिक की कविता के रूप में पढ़ा, लेकिन सामान्यत: परम्पराओं के अन्तर्विरोध तथा निजता व पितृसत्ता के विरोध का स्वर ही स्त्री साहित्य में ज्यादा जगह घेरता है. ये मुद्दे ही प्राथमिक हो जाते हैं और बाक़ी मुद्दे छूट जाते हैं या पीछे रह जाते हैं. 

निश्चित तौर पर मेरी कविताएँ पितृसत्ता से लड़ती हैं, क्योंकि पितृसत्ता ने ही स्त्री को वह स्त्री बनाया जो हम आज हैं. हमारी लैंगिकता को संकुचित कर हमारे स्त्रीत्व को परिभाषित किया जिसकी वजह से हम यह महसूस करते हैं कि हम शक्तिहीन हैं. हिन्दी में इस दौर की स्त्री कविता जिस तरह पितृसत्ता से संघर्ष कर रही है, या जिस तरह उसके विरुद्ध संघर्षरत है, यह उसकी कोई बड़ी खामी या दोष नहीं है बल्कि यह उसका प्रस्थान बिन्दु है. इस कविता को इससे बहुत आगे जाना है. मैं अपनी कविताओं में भी यह कोशिश करती हूँ. मेरे तीसरे काव्य संग्रह स्वप्न समयमें कुछ लम्बी कविताएँ हैं जिनमें सभ्यता के बदलते विमर्शों, केन्द्र्र में आती स्त्री कविता का बखान मिलेगा. यह एक पूरी यात्रा है जो भाषा, ज्ञान व चेतना, सभी को लेकर आगे बढ़ती है. मेरा यह मानना है कि अगर आज अधिकांश कवयित्रियाँ पितृसत्ता पर प्रहार कर रही हैं तो यह इसलिए कि यह कविता अभी अपने प्रारम्भिक दौर में है. आगे चलकर उनकी कविताओं का विकास सम्भवत: उधर ही होगा जिधर मेरी कविताएँ अब मुझे ले जा रही हैंएक संयमित सोच की तरफ़ कि हम एक सुन्दर जीवन को कैसे जी सके.

आपकी कविताओं का ग्राफ एक नयी दिशा की ओर इशारा करता है, क्या आप उस दिशा को पहचानती हैं. आपके मन में कोई साफ़ तस्वीर है?
साफ़ तस्वीर नहीं कह सकते, लेकिन एक धुँधली-सी छवि तो उसकी है. इसीलिए वह रहस्यमयी दिखती है क्योंकि उसे साफ़ -साफ़ बता नहीं पातेअभी. मेरा अपना ख्याल है कि स्वप्न समयकी जो अन्तिम कविता है नीला विस्तारउसमें यह बात है...
बस कुछ और दूर चलकर
छूट जायगा हमारा साथ मेरी कविता
तुम्हें जाना होगा वहाँ
जहाँ समुद्र लहरा रहा होगा
जहाँ स्वप्न जाग रहे होंगे
जहाँ एक स्त्री लाँघ रही होगी एक अलंघ्य प्यास

वहाँ पहुँचकर मुड़ना होगा मेरी तरफ़ तुम्हें
कम से कम एक बार
बताना होगा क्या स्वप्न और स्त्री एक ही हैं
रात के दो फूल
दो दीप अन्धकार के
जिनके जलने से तारे रोशनी पाते हैं
आकाश सजता है जिनसे हर रात
बताना क्या रिश्ता है उनका आपस में
क्या स्त्री सचमुच रात है
जैसा मैं जानती हूँ
या रात में स्वप्न है वह

एक नीला विस्तार
अज्ञात है जिसका ज़्यादातर हिस्सा

तो जो आपने सवाल किया है उसकी इसमें काफ़ी सारी बातें हैं. अभी जो स्त्री विमर्श है पश्चिम में, ख़ासकर फ्रांस में, उसमें स्त्रियाँ कह रही हैं कि समाज में वह जगह स्त्रियों को प्राप्त नहीं हो पायी, स्त्रियाँ वो जगह नहीं बना पाईं हैं जो उनके अवचेतन में है और इसके लिए इतिहास में जाने के बजाए उन्हें अपने सब कांशियस और अनकांशियस को तलाशना है. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त में स्त्री चिन्तकों ने अपनी चिन्ताएँ भी जोड़ दी हैं. यह सिद्धान्त कहता है कि वे तमाम पहचाना अपहचाना दमन कहीं जाता नहीं, वह हमारे सबकांशियस में जाकर बैठ जाता है. इसमें आपकी पीड़ा, अपमान, आपके साथ जो हिंसा हुई या जो हिंसा स्वयं आपने अपने ऊपर की, ये तमाम दुखदायी पीड़ाएँ और इनसे मुक्ति का रास्ता भी हमें हमारे सबकांशियस में मिल सकता है. मैं यह मानती हूँ कि कविता में कांशियस, अनकांशियस और सबकांशिय सब में आवाजाही आसानी से हो सकती है, क्योंकि हम यहाँ पर यथार्थ, अतियथार्थ और उसकी और भी जो अन्य परतें हैं उन सबसे एक साथ जुड़ते हैं और अपनी अपंगतता (दिफोर्मिटी)को पहचानने लगते हैं, तब उसका चित्रण अप्रत्यक्ष सत्ता की तर.फ जाता है, क्योंकि पहचान का यह रास्ता दुरूह और मुश्किल है. कविता तब निश्चित तौर पर प्रत्यक्ष किस्म का चित्र नहीं खींचती. उसको उस हद तक रहस्यमयी होना ही होगा, लेकिन ऐसा रहस्य जिसमें जाकर हम अपनी ठोस स्थिति को देख सके. यह एक तरह की सामाजिक-मानसिक यात्रा है, जब आप सबकांशियस स्तर पर जाकर उन चीज़ों को नये सिरे से पहचान सकें जो दरअसल आपके यथार्थ में हैं.

जैसे आप कह रही हैं कि कविता में वह गुंजाइश बनती है कि आप चेतन अवचेतन के बीच इस तरह की आवाजाही कर सके, लेकिन आप इसको कैसे साधती रहीं?
यह एक बौद्धिक प्रक्रिया के समान है, लेकिन यह भाषिक भी है. आप जब जूलिया क्रिस्टेवाको पढ़ेंगी तो पाएँगी कि लगातार वह एक समानान्तर यात्रा करती रहती हैं भाषा में जहाँ यथार्थ शब्दबद्ध है. एक तो हमारा ठोस यथार्थ है और एक वह जो इस यथार्थ को समझने में मदद करता है. हमारे पास यथार्थ को समझने की कुछ हिकमतें ऐसी हैं जो हमें विचार देती हैं, लेकिन कुछ ऐसी हैं जो उपलब्ध नहीं हैं. जैसे एक स्थिति यह हो सकती है कि एक कविता है जो आपके दर्द के बारे में है और उसे अभिव्यक्त करती है और एक कविता है जो उस दर्द को समझने के लिए आपके स्व को अभिव्यक्त करती है. जिसे आप महसूस कर रही हैं उसे आपका दूसरा सेल्फ अलग से देखता है और उसके लिए एक अलग मेटा लैंग्वेज चाहिए, वह एक मेटा रियलिटी है यानी एक यथार्थ पर दूसरा यथार्थ प्रत्क्षेपण के ज़रिए अवस्थित है. कविता एक ख़ास किस्म का अतिक्रमण कर सकती है. आपके विचारों का अतिक्रमण, आपकी समझ का अतिक्रमण. इसीलिए मैं बार-बार कविता में जाती हूँ. वह इतनी आसानी से आपको हासिल नहीं है जैसे मेरी कविता में सपनों का बहुत जि़क्र है लेकिन आप यह तय नहीं करते कि आप क्या सपना देखेंगी. बहुत सारे कवियों के यहाँ आप पाएँगी कि सपनों का जि़क्र आता है और यथार्थ का भी जि़क्र है जैसे किसी चीज़ को देखते-देखते आप कुछ और देखने लगती हैं. आपके दूसरे अनुभव जागृत हो जाते हैं. चित्रकारों के साथ भी यह बहुत हुआ है खासकर फ्रैंच चित्रकारों के यहाँ अगर आप देखेंगी तो लैंड स्कैप पेंट करते-करते वे अति यथार्थवादी हो जाते हैं. ऐसी चीज़ों को भी पेंट कर देते हैं जो उस लैंड स्केप में नहीं हैं. मेरा ख्याल है कि कविता भी यह सब काम करती है, जो थोड़ी रहस्यमयी-सी लगती है लेकिन मैं यथार्थ को कभी नहीं छोड़ती वह हमेशा मेरे विश्लेषण का हिस्सा बना रहता है. वही ज़मीन है जिस पर मैं खड़ी रहती हूँ. अपने को इधर-उधर फेंकती हुई, देखती हूँ, विस्तारित करती हूँ.

स्त्री की बात करते ही इतिहास, परम्परा और मिथक के कई पन्ने एक-साथ खुल जाते हैं यानी स्त्री-अनुभव बहुत ही पेचीदा और संश्लिष्ट होता है. कविता में इसे साधना कितना श्रम साध्य है?
श्रम साध्य से ज़्यादा एक विशेष प्रकार की सजगता चाहिए. आपको सोचने-समझने के कई संकेत मिलते रहते हैं. और आपका दिमाग सोचता है कि ऐसा क्यों हुआ, परन्तु उसके बाद उसे छोड़ देता है. एक कवि जो कविता को साध रहा है या साध रही है वह उन संकेतों को एक चौकन्नेपन से स्वीकार कर उस पर विचार करने लगती है. आपमें इतनी संवेदनशीलता हो कि वे चीज़ें जो एक बिम्ब, विचार और एक झलक दिखलाकर चली गयी हैं, आपसे छूटें नहीं. आपको बहुत सारे लोगों ने कहा होगा कि कविता आ जाती है और अगर उस वक्त आपने उसे नहीं लिखा, तो वह चली जाती है, आप दोबारा उसको पकड़ नहीं सकते. मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ है. मैं उन कविताओं को दोबारा नहीं लिख पाई, इसका मुझे बेहद अफसोस रहता है. वह कैसे आती हैं, जैसे सुबह जागते-जागते कुछ पंक्तिआ जाती है. क्यूँ आई इसका तो पता प्रत्यक्षत: नहीं है, लेकिन वह आती है. अगर आपको एक पंक्ति भी आ गयी है तो पूरी कविता आ गयी. आप सजगता से उसे बना सकते हैं, श्रम से ज्यादा आपको हर वक्त प्रतीक्षारत रहना होता है कविता को पाने के लिए. आपको एक प्रक्रिया में रहना होता है. कवि का जीवन कविता का ही जीवन होता है. उसके सुख-दु:ख, हताशाएँ-निराशाएँ, सुख-आह्लाद सब एक साथ उसे जीना होता है. जो कुछ भी आश्चर्यजनक है, विस्मयकारी है, जो आपको एकदम आउट ऑ.फदिस वल्र्ड लगता है. अविस्मरणीय वह सब गम्भीर रूप से स्वीकारने की चीज़ें होनी चाहिए. मेरे जीवन में बहुत सारी कविताएँ इस तरह से ही आई हैं. बहुत विस्मयकारी ढंग से. विस्मयकारी अनुभवों को भी मैंने अपने गले से लगाया, अपनी भाषा में उन्हें ले आई, अपने शब्दों के साथ उनको बैठाया और एक रूप दिया. अनुभव के कई-कई क्षेत्र हैं, कई-कई परतें हैं जहाँ से विचार और कल्पना सब आते हैं, इतिहास, मिथक परम्परा, सभी स्रोतों से विचार हवा की तरह आते हैं, लेकिन हम उन्हें अपने वर्तमान में तभी अपना पाते हैं जब समय को उनहें दोबारा गढऩे की आज़ादी देते हैं. इसमें संघर्ष लगता है, आपनी चिन्ताएँ सामाजिक और वैश्विक एक साथ होनी चाहिए.

क्या आपको कभी लगा कि स्त्री विमर्श कविता की सम्भावनाएँ तलाशने की अपेक्षा उसके लिए एक सीमा बन गया, क्योंकि यह जिस तरह कविता को एक विशेष दृष्टिबोध से देखने का आग्रह करता है उससे कविता के अन्य पक्ष चर्चा के केन्द्र में आ ही नहीं पाते?
मैं विमर्श को पुन: परिभाषित करना चाहूँगी, क्योंकि स्त्री विमर्श किसी यथार्थ को संकुचित करने के लिए नहीं है. स्त्री विमर्श है ही इसीलिए कि वह जीवन की तमाम परतों को खोल सके और स्त्री विमर्श के भीतर जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, मैं नहीं मानती कि वे सीमित हैं, क्योंकि विमर्श एक जगह स्थिर होकर नहीं रहता. विमर्श के इतिहास की अपनी यात्रा है. अगर स्त्री विमर्श की बात करें तो यह विमर्श वह नहीं है जहाँ 1960में था. आज हम स्त्री विमर्श के तीसरे दौर से भी आगे निकल चुके  हैं बल्कि, विमर्श के इस फेज़ में या पड़ाव पर हैं जहाँ स्त्रियाँ लगातार पुरानी बातों को निरस्त कर रही हैं, उसमें नया जोड़ रही है, बिल्कुल नया यथार्थ भी हासिल कर रही हैं. वो ख़ुद अपनी ज़मीन तलाश कर उसे उर्वर बनाकर, उसमें जो भी फसल उगानी थी, उगाकर, काटकर उस जगह आ गयी हैं जहाँ पर वे दार्शनिक स्तर पर मानुष के मनुष्यत्व को पहचान रही हैं. स्त्री विमर्श विकास की ओर अग्रसर है और ऐसे मुकाम पर पहुँचा हुआ है जहाँ चाहे कला हो, साहित्य या अलग से स्त्रियों पर कविता, उसे संकुचित करने के बजाए उसके लिए नयी ज़मीन तैयार कर रहा है. अब आप पर है कि आप स्त्री विमर्श को कैसे समझती हैं. आप किस स्तर पर उससे जुड़ी हैं. आप स्त्री विमर्श के पहले चरण में, दूसरे या फिर तीसरे उससे आगे के विमर्शों में हैं या फिर उससे भी आगे बिल्कुल अलग. मेरा मानना है कि आजकल ज्यादा पढ़ी-लिखी महिलाएँ जो एब्सट्रेक्ट विचारों के खित्ते में काम कर रही हैं सब तीसरे चरण में हैं, क्योंकि वे अपने आत्म-संघर्ष से यहाँ तक पहुँची हैं. किसी ने उनको पहुँचाया नहीं है. उन्होंने स्वयं देखा, जाँचा-परखा, सबको पढ़ा है. बहुत सी स्त्री सिद्धान्तकार हैं जिन्होंने मार्क्स के बाद फ्रायड, उसके बाद बल्कि फूको को महत्त्वपूर्ण माना है और उनसे प्रेरित हुईं. बहुत सारी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने लकां के काम को बहुत महत्वपूर्ण माना है. फ्रायड की उन्होंने लकां के ज़रिए कठोर आलोचना की. वे पुरुष के ज़रिए पुरुष को रिप्लेस कर रही हैं, विस्थापित कर रही हैं.

आजकल मैं फ्रेंच फेमिनिज्म से बहुत मुतासिर हूँ. उनके काम में जूलिया क्रिस्टोवा हों या हेलेन सिक्सू, इन लोगों के काम में आपको वो उन्नति दिखती है जिसको आप संकुचित अर्थ में स्त्री विमर्श नहीं कह सकती. वह एक सभ्यता विमर्श है जिसमें स्त्रियाँ अपना विकास कर चुकी हैं और इतने प्रगतिशील ढंग से सोच रही हैं जैसा पुरुषों ने भी नहीं सोचा होगा. इनका जो नया इलाका है उसमें अपने दायरे से बाहर निकलकर सोचने समझने की कोशिश हो रही है. यह संघर्ष बहुत बड़ा है. यह कभी भी कविता या किसी अन्य चीज़ को संकुचित कर ही नहीं सकता. यहाँ एक नया सिम्बोलिक ऑर्डर यानी व्यवस्था बनाने का अथक प्रयास चल रहा हैजिसमें अर्थव्यवस्था का भी रूपान्तरण हो जाना चाहिए.

आपकी शिक्षा और शिक्षण का दायरा राजनीति और जेंडर से जुड़ा हुआ है. आपकी सोच को दिशा देने में उसकी क्या भूमिका रही ?
बहुत हद तक इन विषयों ने दिशा दी है क्योंकि उससे आपको एक ख़ास किस्म की विशेषता मिलती है और चौकन्नापन भी. आपकी चेतना एक सामूहिक चेतना का हिस्सा बन जाती है, लेकिन जब आप रचना करने चलते हैं तो उस सामूहिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए भी आपको उससे आगे की स्थितियों का अनुसन्धान करना पड़ता है. कविता में भाषा का, भाषा में गद्य का, चित्रकला में रंग का, संगीत में ध्वनि का, वगैरह वगैरह क्योंकि बिना राग को जाने हुए संगीतकार कोई नया राग नहीं बना सकता. 

राजनीति आधुनिक चिन्तन की उपज भी है और उसकी सबसे बड़ी कसौटी भी. समकालीन स्त्री-अनुभव में वह शामिल है लेकिन स्त्री-कविता में उसे कितना स्पेस मिला है?
विश्व स्तर पर जो स्त्री कविता है उसमें लगातार उन्नति होती रही है. सिल्विया प्लाथपर मैंने कविता लिखी हैं. इसी तरह की बहुत सारी कवयित्रियाँ हैं जिन्हें पढक़र मैं चकित होती रहती हूँ. हमारी अपनी हिन्दी में मेरा यह मानना है कि स्त्री-कविता तेज़ी से विकसित हो रही है और हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रही है. मैं ऐसा नहीं मानती कि वह केवल किसी विमर्श के दायरे में बँधी हुई है. विमर्श में उसकी हिस्सेदारी है और उससे वह लाभान्वित भी हो रही है, लेकिन कविता कभी स्त्री विमर्श का हिस्सा बनकर अपने को प्राप्त नहीं कर सकती. उसे अपनी विशिष्ट विकासशील यात्रा करनी होगी. उसे समाज, देश और सभ्यताओं को विकसित करना होगा. वह नये-नये विमर्श बनाएगी-चिन्तन का दायरा, फलक विस्तार पाएगा यह हमारी सामाजिक आर्थिक मनोवैज्ञानिक यथास्थितियों को बदल कर ही रुकेगा. राजनीति की समझ भी इससे बदलेगी. स्त्री एक नागरिक है, सिर्फ़ पत्नी या दोस्त नहीं यह तभी हो सकेगा जब उसे एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में मान्यता मिलेगी. कविता लिखना उसी दिशा में एक उपक्रम है.

अभी जैसे आपने कहा कि कवि को सजग रहना है तो आपकी कविता में सजगता तो दिखाई पड़ती है. आपके यहाँ भावना की गहराई भी है और विचार की ऊर्जा भी लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है आपकी भाषा एक-एक शब्द जैसे साभिप्राय प्रयुक्त होता है और वाक्य में शब्द का स्थान एक विस्तृत रूपक रच देता है. यह काव्य-साधना, शब्द-साधना स्वयं-सिद्धा है या कठिन अभ्यास से अर्जित हुई है? अपनी काव्य-प्रेरणा और रचना-प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइये?
रेखा, यह सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे बड़ा सवाल है. बहुत सारे लोग अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हैं. मानिए पीला रंग, जब एक पेंटर पीले रंग को कैनवस पर ले आता है, या आती है तो अनुभव और संवेदना के स्तर पर वो एक ख़ास किस्म का पीला रंग होता है, उस चित्रकार का पीला रंग. उससे वह जुड़ी हुई होती है. पीला रंग कोई एक रंग नहीं है, उसमें न जाने कितने रंग है इसीलिए जब मैं नीले रंग के बारे में बात करती हूँ तो मैं बताती हूँ कि नीला कोई एक रंग नहीं है. रात का रंग सिर्फ़ काला नहीं होता. काला भी कोई एक रंग नहीं. यानी सब हमारे देखने की दृष्टि से संचालित एवं आबद्ध है. यथार्थ में जो अनुस्यूत भिन्नताएँ होती हैं उसे हमारी संवेदनात्मक दृष्टि कैसे देखती है यह सब उसी पर निर्भर है. उससे हमारा और हमारे शब्दों का क्या सम्बन्ध है? जब हम शब्दों का चयन करते हैं तो हमारा आन्तरिक अनुभव उसी समय विस्तृत हो जाता है. 

यह लगातार चलनेवाली एक प्रक्रिया है. हमें कोशिश करनी पड़ती है कि उस समय जो महसूस किया जा रहा है उसे अभिव्यक्त कैसे करना है. कविता में अनुभव के आधार पर भी शब्दों का चुनाव किया जाता है. वे शब्द इतने सटीक होने चाहिए कि पाठक को भी यह भ्रम होने लगे  कि यह उसके अनुभव का हिस्सा है. कविता एकदम आपके भीतर तभी उतरती है और जब उसमें बहुत सारी और चीज़ें दिखने लगती हैं. कभी-कभी एक परत पर आप टिककर कुछ कह रहे होते हैं और पाठक के मन में दूसरी, तीसरी, चौथी कोई और परत खुल जाती है. इस तरह कविता की प्रक्रिया सि.र्फ व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं है जो आपके भीतर चल रही है. आपके पाठक, आपका समाज, आपकी भाषा का इतिहास सब एक-साथ काम कर रहे होते हैं. बहुत सारी चीज़ों को तो वह कहती भी नहीं है केवल इंगित करके छोड़ देती है. बाकी सब तो बाकी लोग कहते हैं और यही कविता की शक्ति भी हैं कि वह दूसरों को भी बोलने के लिए प्रेरित करे, दूसरों की अभिव्यक्ति में उन्हें अभिव्यक्त कर दे. कविता सामूहिक मुक्ति का संघर्षरत स्वप्न है जिसमें सभी लोग बेझिझक शामिल रहते हैहो सकते हैं. यहाँ लैंगिकता की राजनीति और भी उत्कृष्ट ढंग से चलती रहती हैलगातार हम अपनी संकीर्णताओं को चीरते हुए व्यापक जीवन की तर.फ बढ़ते हैं. स्त्री में यह विशेषता हैवह सर्जक है और इस अर्थ में समावेशी भी.

समकालीन कविता की परम्परा में, अपने युग के अन्य कवियों की तुलना में स्त्री रचनाकारों की कविता का मूल्यांकन आप कैसे करेंगी?
मैं जब अन्य कवियों को पढ़ती हूँ तो मेरे सामने कई चित्र अपने बिम्बों के ज़रिए उभरने लगते हैंकई आईने आने लगते हैं जिनमें मैं अपना चेहरा और अपनी स्थिति देखती हूँ. मेरे लिए यह बहुत ही अन्तरंग अनुभव होता है. जैसे जब आप महादेवीको पढ़ते हैं तो शुरू में उनकी आलोचना इस तरह हुई कि उनके यहाँ संघर्ष से ज्यादा व्यक्तिगत सन्ताप है, लेकिन उस सन्ताप-विलाप का स्वर इतना करूण है कि वह स्त्री को ज़्यादा छूता है या पुरुष को यह भी समझने की बात है. किसी भी कविता का पाठ एक राजनीतिक मसला भी है. आप स्त्री कवि को कहाँ से पढ़ रहे हैं, उससे यह बात सा.फ हो जाती है कि आपका पाठ कैसा होगा. मैं जब स्त्री कवि को पढती हूँ, गगन गिल पर मैंने इधर लिखा भी है, उसमें से मुझे एक ऐसी गूँजती हुई आवाज़ आती है जो अपनी ही छूटी हुई आवाज़ लगती है. मेरा ख्याल है कि स्त्री कविता चाहे वो जिस दौर में लिखी गयी हो, मीरा की कविता हो या अक्क महादेवीकी, उन सबको पढ़ते हुए लगता है कि यह मेरी अपनी ही कविताएँ हैं, मेरी छूटी हुई आवाज़ जिसे सहज ही अपना लेने को जी चाहता है.

समकालीन कविता से मेरा आशय कविता की उस धारा से था जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों हैं और उसमें यदि हम स्त्री-कविता को अलग से न देखना चाहें तो उसमें उसे कैसे प्लेस करेंगे?
निर्भर करता है कि यह कौन कर रहा है. यह राजनीति है रेखा, कौन उस कविता को पढ़ रहा, कौन किसको आगे बढ़ा रहा है, कौन किसको पीछे धकेल रहा है, इसको समझना ही पड़ेगा. कविता आपके सच की आवाज़ है, जब आप ऐसी किसी विधा में लिख रही होती हैं तो यह आवश्यक है कि आपके अन्दर एक स्वच्छता हो, सच्चाई हो उसकी आभा हो कम से कम उसे पढ़ते हुए और परिभाषित करते हुए भी हमें चाहिए कि कविता इसके अपने इतिहास और भूमिका के सन्दर्भ में पढ़ें, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. यही चिन्ता का विषय है. जो लोग इस समय सक्रिय हैं यह उन लोगों की कमी है कि वे उन चीज़ों पर बात नहीं कर रहे. कोई एक अच्छी स्त्री कविता किसी भी पुरुष को पसन्द आनी चाहिए और कोई अच्छी कविता जो किसी पुरुष द्वारा लिखी गयी है वह स्त्रियों को पसन्द आनी चाहिए, इसमें कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन उसका समय पर बहस और विश्लेषण भी होना चाहिए. पंकज सिंहकी स्त्री पर लिखी कविताएँ किसे पसन्द नहीं आएँगी या फिर विष्णु नागर की माँ पर लिखी कविता बेमिसाल लगती है. कुमार अम्बुजकी बहनों पर लिखी कविता भी एक ऐसा ही उदाहरण है. मंगलेश जीके यहाँ भी माँ पर एक कविता है जो ज़ेहन में रहती है. असद ज़ैदीकी अधिकतर कविताओं की मैं अच्छी पाठिका हूँ. विजय कुमार की एक कविता मार खाई हुई औरतया फिर लीलाधर मंडलोईकी माँ पर कविताएँ इतनी करुणा हैं कि आप यहाँ ज्यादा फ़र्क नहीं कर सकते, स्त्री-पुरुष भावना में. हमारे सीनियर पुरुष कवियों की कविताएँ अपनी विलक्षणता में हम सबको भाती हैं, कुँवर हों, केदार जी, अशोक वाजपेयी या फिर विनोदकुमार शुक्ल और प्रभात त्रिपाठी या फिर विष्णु खरे. वैसे ही अनीता वर्मा, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, नीलेश, सविता भार्गव, विपिन चौधरीसबके यहाँ सामान्य सामाजिक चेतना पर लिखी कविताएँ पुरुष कवियों को खूब भाती हैं. यहाँ स्त्री विमर्श की तलाश वे नहीं करते, लेकिन जहाँ स्त्रियों का संसार अपनी स्व-चेतना में कविताओं में खुलता है, उसकी चमक ही विशेष होती है.

क्या आपको लगता है कि हिन्दी आलोचना ने स्त्री-रचनाकारों को साहित्य की मुख्यधारा में उचित स्थान नहीं दिया?
निश्चित तौर पर उचित स्थान नहीं मिला, उसकी आलोचनात्मक प्रवृत्ति नहीं है जिससे उसे समझें. आलोचना बातचीत के लिए एक आधार देती है जिस पर आप सभी सहमत हो सकते हैं कि यह कविता यह कह रही है. अगर आप अभी समकालीन स्त्रियों को पढ़ें तो लगेगा कि उसमें एक स्वर है जो उनका है, क्योंकि वो उनके अनुभवों से आ रहा है और वे अनुभव सार्वभौमिक भी हैं क्योंकि स्त्री कहीं भी हो किसी भी वर्ग की, किसी भी धर्म की, उसे पितृसत्ता दमित करती है. इसलिए स्त्रियों का अनुभव एक स्तर पर एक किस्म का अनुभव होता है. लेकिन उसके बाद उसमें बहुत सी भिन्नताएँ भी हैं. अगर यह सत्य कोई मिस कर जाए तो कविता समझने में दिक्कत होगी. यदि किसी स्त्री कवि को यह कहा जाए कि उसकी कविता तो पुरुषों की तरह है या सामान्य साहित्य की तरह तो इस बात को शाबाशी की तरह थोड़े ही लेना चाहिए. इसको इस तरह से लेना चाहिए कि कहीं आलोचना ने अपना काम नहीं किया और आपको वह भाषा और वह समझ नहीं दी जिससे आप पहला कदम या दूसरा कदम पार कर सकें और दूसरे स्तर पर जाकर बहस करें. मेरा अपना मानना है कि स्त्रियों की कविताओं की बहुत ज्यादा चिन्ता इस आलोचना में नहीं रही है, लेकिन मैं यह भी मानती हूँ की अब जो आलोचना हो रही है उसमें यह चिन्ता भी है, संवेदना भी और समझने की कोशिश भी. इसलिए निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं है. 

आपने साहित्य आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हस्तक्षेप किया है और कुछ रचनाओं का स्त्री-पाठ कर उसे एक नये जेंडर लेंस से देखने की कोशिश की है? क्या इस तरह के पाठ आलोचना के नये प्रतिमान बन पाएँगे?
इधर मैंने एक बहुत छोटी कोशिश की है और उसकी सराहना हुई है जिससे पता चलता है कि ऐसी आलोचना की कमी है हिन्दी में. मैंने जो कोशिश की, जो आलोचनात्मक टिप्पणियाँ अब तक स्त्री कवियों पर की गयी हैं उनसे अलग कुछ देखूँ, जैसे नीलेशकी ज़्यादातर कविताओं को जो प्रशंसा मिली वह उसके वर्ग विश्लेषण के कारण. नीलेश एक ख़ास वर्ग से आती हैं और उस अनुभव को उन्होंने कविता में पिरोया, लेकिन मैंने उनकी कविताओं में उस स्वर को ढूँढ़ा जिसे स्त्री स्वर कह सकते हैं. अगर आप उन्हें पढऩा चाहते हैं तो उनकी स्त्री को आप अनुपस्थित नहीं कर सकते. इसी तरह गगन गिलके बारे में मैंने लगातार देखा कि लोग उनकी आलोचना करते हैं कि वे अँधेरे में चली गयी. बुद्ध की ओर चली गयी हैं और यथार्थवादी जीवन से उनका सम्बन्धविच्छेद-सा हो गया है. लेकिन जब मैं उन्हें पढ़ती हूँ या उनका पाठ करती हूँ तो पाती हूँ कि वे कहीं नहीं गयी हैं. अपने ही स्पेस में हैं. एक स्त्री के स्पेस में. उनका जीवन जो उनकी वेदना का स्रोत है वो उनके स्त्री होने को लेकर ही है. सन्तान न होने का भयानक दु:ख उनके भीतर है और उनकी कविताओं में भी अभिव्यक्त होता है. कोई भी स्त्री उस स्वर को समझ सकती है और उसके बाद वे देखतीं हैं कि इस दु:ख से निजात पाने के लिए उन्हें एक दूसरी कॉस्मोलोजी का ही सृजन करना होगा. उस तलाश में वे बुद्ध के पास जाती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि दुख को पहचानने की एक दार्शनिक दृष्टि यहाँ है. इसलिए यह पाठ बहुत अलग है. आप इस विषय को बिना समझे उनकी आलोचना करके उनको खारिज करते रहिए तो आप उनकी कविताओं को नहीं पढ़ सकेंगे. आप उन कविताओं को भी खारिज कर देंगे जो महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं. स्त्री चेतना के लिए यह उसकी अपनी दिशा है. उसे समझने के लिए आपको इस तरह के पाठ से मदद मिलेगी.

कविता या साहित्य को जेंडर लेंस से देखने के क्या लाभ हैं और उसकी क्या सीमाएँ हैं ?
लाभ यह है कि आप सत्य के थोड़ा करीब होंगे और आपकी समझ आपके पाठ को अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न करेगी. उसकी सीमा यह इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि यह उसको स्त्री विमर्श में कैद करने के लिए नहीं किया गया, किया गया है पाठ को खोलने के लिए. इसको एम्पेथेटिक रीडिंग या सहानुभूतिपरक पाठ कहते हैं जो मैंने किया है. स्त्रियाँ ज्यादा आसानी से ऐसा पाठ कर सकती हैं (पुरुष भी चाहें तो ऐसा पाठ कर सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें अपने को थोड़ा बदलना पड़ेगा) मैं यह मानती हूँ कि यह पाठ मैंने यह स्थापित करने के लिए किया कि स्त्रियों द्वारा लिखी गयी कविताओं का पाठ थोड़े अलग ढंग से होना चाहिए, क्योंकि जिस चेतना की वे उपज हैं उसमें उसका स्त्री होना केन्द्र में है. अगर आप इसको नदारद कर देंगे तो आप उसके आसपास तो पहुँच सकते हैं, लेकिन बहुत करीब नहीं जा सकते और पाठ को खोलना बहुत ज़रूरी है. .खासकर आज आलोचना की जो स्थिति है वह स्त्रीवादी नहीं है उसमें स्त्री के प्रति वह संवेदना नहीं है. मेरा .खयाल है कि जब इस तरह के कुछ और पाठ होंगे तो पाठ करने का जो यह ढंग है वह हिन्दी आलोचना में ज़रूरी तौर पर शामिल हो जाएगा और इस अर्थ में यह हो सकता है कि यह प्रतिमान बने.  लेकिन उसकी मुझे ज्यादा चिन्ता नहीं है. मुझे केवल इस बात में रूचि है कि जब हम इन कविताओं को पढ़ते हैं तो उन्हें थोड़ा करीब जाकर पढ़ सकें.

स्त्री कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है? क्या हमारा समाज जेंडर सेंसेटिवहोने की जगह कभी जेंडर न्यूट्रलहो सकेगा यानी आप स्त्री हैं या पुरुष इससे कोई अन्तर न आये और आपकी पहचान व्यक्ति रूप में हो?
पहला कदम तो हमारा होना चाहिए जेंडर संवेदनशीलता का यानी कि एक संवेदना होनी चाहिए जिससे यह समझा जाए, कि दो लैंगिक समुदायों के बीच सम्बन्ध ठीक-ठाक नहीं हैं. इनको ठीक करने के लिए जेंडर सेंसिटाईज़ेशन ज़रूरी है. आज बहुत सारा लेखन जो हम कर रहे हैं वह उस संवेदना को पैदा कर रहा है, लेकिन जेंडर न्यूट्रल होना एक बहुत बृहत किस्म की ऐतिहासिक-सामाजिक प्राप्ति होगी. जेंडर न्यूट्रलयानी जेंडर अन्ध या निरपेक्ष वही समाज हो सकता है जहाँ जेंडर की असमानताएँ समाप्त हो चुकी हों. स्वीडन वगैरह .खास कर नॉरडीक देशों में जेंडर निरपेक्ष नीतियाँ बन रही हैं. यह बहुत ही प्रसन्न करनेवाली बात है क्योंकि जेंडर के स्तर पर उनके समाज में जो असमानताएँ थीं उन्हें उन्होंने .खत्म करने की कोशिश की है. कैसे? औरतों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि पितृसत्ता ने हमारे समाज को श्रम विभाजन के आधार पर विभाजित किया है. बहुत ही ठोस ढंग से स्त्री और पुरुष को असमान बनाया है. हम कौन से काम करते हैं उससे निश्चित होता है कि समाज में हमारी भूमिका क्या होगी. अगर स्त्री जानवरों से भी ज्यादा काम करती है हमारे देश में (जिसके लिए आँकड़े भी है) और वो काम इतने भारी काम हैं कि अगर वे न किये जाएँ तो दूसरे काम भी नहीं हो सकते तो इससे क्या असमानताएँ पैदा हो रही हैं, इसे तो समझना ही पड़ेगा. 

बात यह है कि इसके बावजूद उसके श्रम का मूल्य नहीं. स्वीडन जैसे देशों में आप पाएँगे कि जेंडर के आधार पर इस तरह के विभाजन को समाप्त करने की कोशिश की गयी है. वहाँ पर वेल बीइंग की बात होती है यानी हम कैसे स्वच्छ जीवन जिएँ, घरेलू काम कौन करेगा इत्यादि? वह किस तरह बँटेगा, सरकार सिर्फ स्त्रियों को ही प्रसूति के लिए छुट्टी देगी या पुरुषों को भी छुट्टी देगी. अगर बच्चे हैं तो पिता को भी छुट्टी मिलनी चाहिए. एक दिन में कितने घंटे काम किया जाना चाहिए जिससे कि आपकी मनुष्यता विकसित हो. जब आप इस तरह से विचार करने लगेंगे, जब सारा समाज ऐसे सोचेगा तब वहाँ अर्थव्यवस्था या पितृसत्ता पर टिकी असमानताएँ सुलझने लगती हैं. हमारे देखते-देखते यह हुआ है कि जेंडर निरपेक्ष नीतियाँ बन रही हैं. इसीलिए जेंडर निरपेक्षता को हासिल किया जा सकता है. अगर हम जुट जाएँ कि हम उन चीज़ों को अपने समाज से दूर करें, निकाल बाहर करें जो हमें असमान बनाती हैं तब हम एक साथ गरिमापूर्ण समाज में गरिमा के साथ जीने वाले स्त्री-पुरुष बना ही सकेंगे.

आपकी सभी रचनाओं पर आपको पाठकों से बहुत प्यार मिला, उन्होंने आपकी कविता से एक साझेदारी महसूस की और आलोचकों ने भी इस कविता में विश्वास व्यक्त किया, इससे आपके रचनाकार मानस की कितनी तुष्टि होती है? इतने सब प्यार और सम्मान के बाद भी क्या आपको कभी ऐसा लगा कि साहित्यिक जगत में स्त्री रचनाकार होने के नाते असमानता का दंश झेलना पड़ा हो?
मैंने जो अपना प्रस्थान बिन्दु चुना था उसे घोषित तौर पर मैंने स्त्रीवादी कहा था, कि मैं एक स्त्रीवादी कवयित्री हूँ और मुझे उसी तरह पढ़ा जाना चाहिए. उसकी वजह से लोगों ने गम्भीरता से पढऩे की कोशिश की इसलिए एक विशेष दृष्टि मुझ पर पड़ी. मैं शुरू से यह माँग करती रही, खासकर जिस तरह मैं लिखती रही. एक नयेपन के साथ ठोस ढंग से अपनी बात कहती रही उसे प्रशंसा मिली है. शुरू से ही इतना तो मुझे ज़रूर मिला है और इसीलिए मैं अपनी आलोचना में सकारात्मक ढंग से ही पहल करती रही हूँ. अपने पहले काव्य संग्रह अपने जैसा जीवनपर सुधीश पचौरीजी ने जो लिखा उसे तो मैं कभी भूल ही नहीं सकती. वह मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा. केदार जीने भी लिखा, नामवर जी भी बोले, हालाँकि नामवर जी इस बात पर अटके कि मुक्ति का प्रश्न स्त्री के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है पुरुषों के लिए क्यों नहीं? मैं मानती हूँ कि मुक्ति का प्रश्न पूरी मनुष्यता के लिए है लेकिन स्त्री के लिए यह और भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लैंगिक आधार पर वह दमित हैं, और इसे समाप्त करने के लिए वह संघर्ष करती है. मैंने इस प्रश्न को बार-बार उठाया है तो यह सही है कि अपने पहले संग्रह से ही मुझे बहुत सम्मान, .खास किस्म का रेकॉगनिशन मिला जिससे मैं उत्साहित भी हुई कि मैं इस दिशा में और लिखूँ. अगर मुझे आलोचना भी मिलती तो भी मैं लिखती रहती लेकिन तब शायद मेरी कविता और मेरे स्व का विकास इस रूप में नहीं हो पाता. आलोचना होती है तो आप उसका जवाब देने की सोचते हैं. लेकिन मुझे लगातार प्रशंसा मिली. मेरा दूसरा संग्रह नींद थी और रात थीजब आया तो उसकी भाषा को चिह्नित किया गया. 

मुझ पर बहुत ज्यादा धयान दिया गया तो तुष्टि तो क्या कहूँ लेकिन यह ज़रूर है कि हिन्दी कविता में स्त्री कविता के लिए यह आह्लादित करने वाली बात है. इसीलिए मैं डिसक्रिमिनेटिड तो नहीं महसूस करती हाँ, यह ज़रूर है कि मेरे वर्ग को लेकर या मेरे विदेशी अनुभवों को लेकर हिन्दी में थोड़ी असहजता प्रकट की गयी है. लेकिन जैसा मेरा मनना है कि मैं हिन्दी में सिर्फ़ हिन्दी की ही बातें क्यों लिखूँ? यह तो भाषा का ही अपमान है. इस भाषा में हर तरह के अनुभव आने चाहिएँ अगर यह हिन्दी कवयित्री का अनुभव है. वह अपने अनुभव को अवश्य प्रकट करेगी यदि यह उसका अनुभव है. भाषा उससे उन्नत होगी. अगर हम अपने विविध अनुभवों को न लाएँ तो भाषा उससे संकुचित होगी. यह एक इलाका है जिसको ध्यान में रखते हुए अशोक पांडेय ने लिखा है, प्रांजल ने, अविनाश मिश्र आशुतोष सबने बहुत बढिय़ा लिखा है कि स्वप्न क्या है, अँधेरा क्या है? उसकी पूरी राजनीति को खोलकर उन्होंने सामने रखा है. इस तरह वरिष्ठ कवियों-आलोचकों से लेकर जो नए कवि और आलोचक हैं उन्होंने मेरी कविताओं पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की और उनका प्यार और सम्मान मुझे मिला इसलिए मैं असन्तुष्ट कैसे हो सकती हूँ. मुझे लगता है कि ठीक-ठाक यात्रा हो रही है.   

एक कवि की हैसियत से आपकी क्या इच्छा होगी कि आपकी कविताओं को कैसे याद किया जाए किसी अस्मिता से जोडक़र या फिर विशुद्ध साहित्यिक रचना के रूप में ?
नहीं, मैं चाहूँगी कि मुझे एक स्त्री के रूप में याद किया जाए. मेरी कविताओं को स्त्री कविता के रूप में पहचान मिले क्योंकि मैं उसी तरह लिख रही हूँ. मैं कभी नहीं भूलती कि मैं एक स्त्री हूँ और एक ऐसे समाज में रह रही हूँ जहाँ असमानता की गज़ब-गज़ब किस्म की प्रविधियाँ हैं. मतलब कि इस समाज ने नयी-नयी किस्म की असमानताओं का अनुसंधान किया है. .खासकर हमारे यहाँ जो जातिवाद है वह हमारी सोच को संकटग्रस्त करता है. मैं अभी कुछ पढ़ रही थी तो उसमें एक जगह यह बात आती है कि अमेरिका में एक शोध के दौरान श्वेत और अश्वेत स्त्रियों को एक प्रश्न दिया गया कि जब वे आईने में अपने आप को देखती हैं तो क्या देखती हैं? ज़्यादातर श्वेत स्त्रियों ने कहा कि वे एक स्त्री को देखती हैं जबकि अश्वेत स्त्रियों ने कहा कि वे एक अश्वेत स्त्री को देखती हैं. तो यह जो भिन्नताएँ है उनको अपनाते हुए उनके दर्द को अपने में समाहित करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि जो मैं अपने को एक स्त्री कवि के रूप में देखती हूँ, चाहती हूँ कि मुझे एक स्त्री होने के कारण जिन स्त्रियों से रू-ब-रू होना पड़ता है उनके दर्द को भी समझा जाए. मैं चाहूँगी कि मुझे स्त्री कवि के रूप में ही याद किया जाए जो सवर्ण जाति से होती हुई भी अपनी संवेदना में उन स्त्रियों की संवेदनाओं को शामिल करके चलती है जो जाति या वर्ण के कारण बहुत ज्यादा शोषित और अपमानित हुई हैं. मैं चाहूँगी कि मुझे इसी रूप में याद किया जाए.  

सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से आने वाले समय में स्त्री कविता क्या भूमिका निभाएगी ?
सामाजिक परिवर्तन में स्त्री कविता अपनी भूमिका निभाएगी क्या, वह निभा रही है. वह सबके बीच यह चेतना स्थापित कर रही है कि हर मनुष्य चाहे वह कहीं हो वह चाहता है कि उसकी गरिमा हो. उसे न्याय मिले, उसके निम्नतर होने की चेतना को निरस्त किया जाए. 

बहुत सारी स्थितियाँ जो हमारे लिए तकलीफदेह हैंहिकारत, असामनता, हिंसा, अन्याय, इन सबमें परिवर्तन लाने का काम हिन्दी की स्त्री कविता कर रही है और सि.र्फ राजनीतिक ढंग से ही नहीं, दर्शन और सभ्यता विमर्श के तहत भी वह उस काम को कर रही है.मुझे अपने समकालीन स्त्री कवियों से बहुत उम्मीदें हैं और उन्हें मैं बहुत प्यार से पढ़ती हूँ.
(यह बातचीत नया ज्ञानोदय के नए अंक में प्रकाशित है.)
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रेखा सेठी
एसोसिएट प्रोफेसर (इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, नई दिल्ली)  
ई-मेलः reksethi@gmail.com

मेघ - दूत : छिपा हुआ निशानची (लायम ओ'फ़्लैहर्टी)

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‘छिपा हुआ निशानची’ मशहूर आयरिश लेखक ‘Liam O'Flaherty’ (28 August 1896–7 September 1984) की चर्चित कहानी ‘The Sniper’ का हिंदी अनुवाद है.युद्ध कथाओं में ‘The Sniper’का विशेष स्थान है. 

आयरलैंड के गृह युद्ध में एक निशानची घायल हो जाता है, जान बचाने के लिए अंतत: जिसकी वह हत्या करता है वह उसका अपना भाई है. अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.




आयरिश कहानी
छिपा हुआ निशानची                               
लायम ओ'फ़्लैहर्टी

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय




जून की शाम का लम्बा झुटपुटा रात में विलीन हो गया. डब्लिन अँधेरे के आवरण में लिपटा था, हालाँकि चाँद की मद्धिम रोशनी ऊन जैसे बादलों के बीच से झाँककर गलियों और लिफ़े के काले जल पर एक फीका प्रकाश डाल रही थी. इस प्रकाश से पौ फटने का आभास हो रहा था. घिरी हुई चार अदालतों के आसपास तोपें गरज रही थीं. शहर में यहाँ-वहाँ मशीनगन और राइफ़ल की गोलियों के चलने की आवाज़ें रात की नीरवता को तोड़ रही थीं, जैसे अलग-थलग पड़े खेत-खलिहानों में कुत्ते रुक-रुक कर भौंक रहे हों. गणतंत्रवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच गृह-युद्ध चल रहा था.
liam o'flaherty

'कॉनेल पुल के पास की एक छत पर गणतंत्रवादी पक्ष का एक छिपा हुआ निशानची लेट कर चारों ओर नज़र रखे हुआ था. उसकी बगल में उसकी राइफ़ल पड़ी थी और उसके कंधे से दूरबीन लटक रही थी. उसका चेहरा किसी छात्र के चेहरे जैसा दुबला-पतला, तपस्वी-सा था  किंतु उसकी आँखें किसी कट्टरपंथी कीठंडी, चमक भरी आँखों-सी लग रही थीं. वे चिंतन करने वाली गहरी आँखें थीं -- एक ऐसे व्यक्ति की आँखें जो मौत को क़रीब से देखता रहा है.

भूखा होने की वजह से वह जल्दी-जल्दी एक सैंडविच खा रहा था. सुबह से बहुत उत्तेजित होने के कारण वह कुछ भी नहीं खा सका था. अपना सैंडविच पूरा खा कर उसने अपनी जेब में रखी बोतल में से व्हिस्की का एक घूँट लिया. फिर उसने वह बोतल वापस अपनी जेब में रख ली. यह सोचते हुए वह कुछ देर के लिए रुका कि क्या उसे सिगरेट जलाने का ख़तरा मोल लेना चाहिए. यह बेहद ख़तरनाक स्थिति थी. अँधेरे में रोशनी की चमक दिख सकती थी, जबकि शत्रु का छिपा हुआ निशानची चारों ओर नज़रें रखे हुए था. पर फिर उसने यह ख़तरा उठाने का फ़ैसला किया.

अपने होठों के बीच एक सिगरेट दबा कर उसने माचिस की तीली सुलगाई, धुएँ को जल्दी-जल्दी अंदर लिया और तीली बुझा दी. लगभग उसी समय एक गोली छत की मुँडेर से आ कर टकराई. छिपे हुए निशानची ने एक कश और लिया और सिगरेट बुझा दी. फिर उसने धीरे से गाली दी और रेंग कर बाईं ओर चला गया.

बहुत सावधानी से वह थोड़ा-सा उठा और उसने मुँडेर के ऊपर झाँका. तभी एक रोशनी चमकी और एक गोली उसके सिर के ठीक ऊपर से सनसनाती हुई निकल गई. वह उसी समय नीचे झुक गया. उसने चमक देख ली थी. वह गली के दूसरी ओर की छत की ओर से आई थी.

छत पर लुढ़कता हुआ वह पीछे स्थित एक बड़ी चिमनी के पास पहुँचा और धीरे से उसके पीछे उतना खड़ा हो गया जिससे कि उसकी आँखें मुँडेर से ऊँची स्थिति में आ जाएँ. वहाँ देखने के लिए कुछ भी नहीं था -- सामने केवल नीले आकाश की पृष्ठभूमि में गली के उस पार स्थित मकान की छत की धुँधली रूपरेखा  थी. उसका शत्रु छिपा हुआ था.

तभी एक बख़्तरबंद गाड़ी पुल पार करके इस ओर आई और धीरे-धीरे गली में आगे बढ़ने लगी. वह गली के दूसरी ओर पचास गज़ की दूरी पर आ कर रुक गई. छत पर छिपा हुआ निशानची गाड़ी के इंजन की मंद घुरघुराहट सुन सकता था. उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा. यह शत्रु की गाड़ी थी. वह गोली चलाना चाहता था, पर वह जानता था कि इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा. उसके राइफ़ल की गोलियाँ उस दैत्याकार बख़्तरबंद गाड़ी के स्टील के कवच को कभी नहीं भेद पाएँगी.

तभी बगल वाली गली के किनारे से होती हुई एक वृद्धा वहाँ पहुँची. उसका सिर एक फटी हुई शॉल से ढँका हुआ था. वह बख़्तरबंद गाड़ी में मौजूद एक आदमी से बात करने लगी. वह उस छत की ओर इशारा कर रही थी जहाँ छिपा हुआ निशानची लेटा था. एक भेदिया.

बख़्तरबंद गाड़ी का द्वार खुला. एक आदमी का सिर और कंधे नज़र आए. वह छिपे हुए निशानची की ओर देख रहा था. निशानची ने अपनी राइफ़ल उठाई और गोली दाग दी. उस आदमी का सिर ज़ोर से बख़्तरबंद गाड़ी के किनारे से जा टकराया . वृद्धा तेज़ी से बगल वाली गली की ओर भागी. निशानची ने एक बार फिर गोली चलाई. वृद्धा गोल घूमी और एक चीख़ के साथ नाली में गिर गई.

तभी गली के उस पार स्थित सामने वाली छत पर से एक गोली चली. निशानची के मुँह से एक गाली निकली और राइफ़ल उसके हाथ से छूटकर खड़खड़ाहट के साथ छत पर गिरी. निशानची को लगा जैसे यह शोर मुर्दों को भी जगा देगा. वह अपनी राइफ़ल उठाने के लिए झुका. पर वह उसे नहीं उठा पाया. उसकी बाँह का ऊपरी हिस्सा बेकार हो गया था . "मुझे गोली लगी है , "वह बुदबुदाया.

वह छत पर पेट के बल लेट कर रेंगता हुआ वापस मुँडेर तक पहुँचा. अपने बाएँ हाथ से उसने अपने दाएँ बाज़ू में लगी चोट को महसूस किय. ख़ून उसके कोट की आस्तीन में से रिस कर बाहर आ रहा थ. कोई दर्द नहीं था. केवल एक भोथर-सी अनुभूति थी , जैसे उसका बाज़ू काट दिया गया हो.

उसने जल्दी से जेब से अपना चाकू निकाला और मुँडेर के निचले  हिस्से पर रखकर उसे खोल लिया. गोली के लगने की जगह पर एक छोटा-सा छेद था. लेकिन बाज़ू के दूसरी ओर कोई छेद नहीं था. यानी गोली जा कर हड्डी में धँस गईथी. गोली लगने से हड्डी ज़रूर टूट गई होगी. उसने ज़ख़्म के नीचे से बाँह मोड़ी.  बाँह आसानी से मुड़ गई . दर्द सहने के लिए उसने अपने दाँत भींच लिए.

उसने चाकू से मरहम-पट्टी वाली थैली फाड़ दी . आयोडीन की बोतल खोलकर उसने उस द्रव्य को घाव में रिसने दिया . दर्द की एक असह्य लहर उसकी देह में फैल गई. ज़ख़्म पर रुई और पट्टी रख कर उसने उसे बाँध दिया और अपने दाँतों की मदद से पट्टी में गाँठ लगा दी.
Irish Civil War.

फिर वह बिना हिले-डुले अपनी आँखें मूँदकर मुँडेर के निचले हिस्से से टिक कर  बैठ गया. वह अपने आत्म-बल के सहारे दर्द से उबरने की कोशिश कर रहा था.

नीचे गली में सन्नाटा था. बख़्तरबंद गाड़ी तेज़ी से पुल के उस पार लौट गई थी. मशीनगन चलाने वाले का निर्जीव सिर गाड़ी के बाहर लटका हुआ था. वृद्धा का शव नाली में स्थिर पड़ा हुआ था.

छिपा हुआ निशानची बहुत देर तक बिना हिल-डुले अपनी जगह पर पड़ा रहा. वह अपनी घायल बाँह को आराम देने के साथ ही अपने बच कर निकलने की योजना बना रहा था. वह इस घायल अवस्था में सुबह छत पर पड़ा हुआ नहीं पाया जाना चाहता था. लेकिन सामने वाली छत पर छिपा बैठा शत्रु निशानची उस के बच कर निकलने की राह में बाधा था. उस शत्रु को मार दिया जाना ज़रूरी था, पर घायल निशानची अपने ज़ख़्मी हाथ की वजह से भारी राइफ़ल नहीं उठा पा रहा था. अब उसके पास केवल एक रिवॉल्वर बचा था जिसकी मदद से उसे इस काम को अंजाम देना था. तब उसे एक योजना सूझी.

अपनी टोपी उतार कर उसने उसे अपनी राइफ़ल की नली पर टाँग दी. फिर उसने धीरे-धीरे राइफ़ल को मुँडेर के ऊपर उठाया ताकि वह टोपी गली के उस पार की छत से दिखाई दे. ठीक उसी समय प्रतिक्रिया हुई. सामने की छत से चली एक गोली टोपी को बीच में से चीरती हुई निकल गई. छिपे हुए निशानची ने राइफ़ल टेढ़ी कर दी . टोपी मुँडेर के ऊपर से फिसल कर गली में जा गिरी. फिर राइफ़ल को बीच में से पकड़ कर उसने अपना बायाँ हाथ मुँडेर के ऊपर निर्जीव लगने वाली अवस्था में लटका दिया. कुछ पलों के बाद उसने राइफ़ल को फिसल कर गली में गिर जाने दिया. फिर उसने अपना हाथ घसीट कर खुद छत पर लुढ़क जाने का अभिनय किया.

इसके बाद वह जल्दी से रेंगकर उठा और छिप कर गली के उस पार स्थित छत की ओर देखने लगा. उसकी चाल सफल हो गई थी. शत्रु के छिपे हुए निशानची ने टोपी और राइफ़ल को गली में गिरते हुए देख कर यह सोचा कि उसने अपने शत्रु को मार गिराया था. अब वह अपने छिपने की जगह से बाहर निकल कर चिमनियों की एक क़तार के सामने खड़ा था. वह दूसरी ओर देख रहा था. पश्चिमी आकाश की पृष्ठभूमि में उसका सिर साफ़ नज़र आ रहा था.

छिपा हुआ गणतंत्रवादी निशानची मुस्कराया और उसने अपना रिवॉल्वर मुँडेर से ऊपर उठा कर निशाना लगाया. शत्रु के निशानची की उससे दूरी लगभग पचास गज की थी. धुँधली रोशनी में यह एक मुश्किल निशाना था. उसकी ज़ख़्मी दाईं बाँह में भयानक दर्द हो रहा था. पर उसने दम साध कर निशाना लगाया. अधीरता की वजह से उसके हाथों में कँपकँपी हो रही थी. होठों को आपस में दबाते हुए उसने एक लम्बी साँस ली और गोली दाग दी. एक कानफोड़ू आवाज़ हुई और उसकी बाँह झटका लगने की वजह से हिल गई.

जब धुआँ छँटा तब सामने की छत की ओर झाँककर निशानची खुशी से चिल्लाया. उसके शत्रु को गोली लग गई थी. वह गली के उस पार स्थित सामने वाली छत की मुँडेर पर मरणासन्न अवस्था में लटका हुआ था. वह अपने लड़खड़ाते पैरों से खुद को सम्भालने का निरर्थक प्रयत्न कर रहा था, पर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी सपने में आगे की ओर गिरता जा रहा था. उसकी पकड़ से छूट कर उसकी राइफ़ल मुँडेर से टकराई और फिर नीचे स्थित नाई की दुकान के डंडे से टकरा कर वह ज़ोर की आवाज़ के साथ ज़मीन पर जा गिरी.

फिर सामने वाली छत की मुँडेर से फिसल कर शत्रु का वह मरणासन्न निशानची आगे की ओर गिरा. उसकी देह ने हवा में कई कलाबाज़ियाँ खाईं और अंत में वह ज़मीन पर एक भारी, भोथर आवाज़ के साथ धप्प् से गिरी. फिर वह वहीं स्थिर पड़ी रही.

छिपे हुए निशानची ने अपने शत्रु को छत से नीचे गिरते हुए देखा और वह भीतर तक काँप गया. उसके भीतर युद्ध की लालसा नहीं रही, बल्कि अब उसे पछतावा महसूस हुआ. उसके माथे पर पसीने की बूँदें छलक आईं. अपने ज़ख़्म की वजह से वह पहले ही कमज़ोरी महसूस कर रहा था. यह गर्मी का एक लम्बा दिनथा. जब बिना ज़्यादा कुछ खाए-पिए छत पर लगातार छिप कर निगरानी करने की थकी हालत में उसने अपने मृत शत्रु की क्षत-विक्षत गिरी देह को देखा, तो उसके भीतर जुगुप्सा-सी उठी. उसके दाँत खुद-ब-खुद किटकिटाने लगे. वह कुछ-कुछ बड़बड़ाने लग. वह युद्ध को कोसने लगा, अपने-आप को कोसने लगा, सब को कोसने लगा.

उसने अपने हाथ में मौजूद रिवॉल्वर की ओर देखा जिसमें से अब भी धुआँ निकल रहा था. गाली देते हुए उसने रिवॉल्वर को छत पर अपने पैरों के पास फेंक दिया. छत से टकराते ही धाँय की आवाज़ के साथ रिवॉल्वर चल गया और उसमें से चली एक गोली निशानची के सिर के क़रीब से सनसनाती हुई निकल गई. इस घटना से वह स्तब्ध रह गया. डर के मारे उसकी अक़्ल ठिकाने आ गई. उसने अपनी उत्तेजना को क़ाबू किया. जल्दी ही उसके ज़हन में मौजूद भय के बादल छँट गए और वह हँसने लगा.

अपनी जेब से व्हिस्की की बोतल निकाल कर उसने एक ही घूँट में बोतल ख़ाली कर दी . व्हिस्की के प्रभाव से वह बेपरवाह महसूस करने लगा. फिर उसने छत से हट कर अपने कम्पनी कमांडर को ढूँढ़ने का फ़ैसला किया ताकि वह उन्हें यहाँ घटी घटनाओं के बारे में बता सके. चारों ओर एक सघन चुप्पी थी. अब गलियों में से गुज़रने पर ज़्यादा ख़तरा नहीं था. निशानची ने अपना रिवॉल्वर उठा कर अपनी जेब में डाल लिया. फिर वह रोशनदान में से रेंगकर नीचे के मकान में दाख़िल होगया.

मकान में से निकल कर जब निशानची बाहर गली में पहुँचा तो अचानक उसे शत्रु के उस निशानची को देखने की उत्सुकता हुई जिसे उसने मार गिराया था. उसने मन-ही-मन यह माना कि शत्रु का वह निशानची जो कोई भी था,   वह एक सधा हुआ निशानेबाज़ था. उसने सोचा, क्या मैं उसे जानता था. शायद सेना के दोफाड़ होने से पहले वह मेरी ही कम्पनी में होगा. उसने शत्रु के निशानची की लाश को पलट कर उसे देखने का ख़तरा उठाने का फ़ैसला किया. उसने ओ'कॉनेल गली की ओर झाँककर देखा. गली के उस ओर भारी गोलीबारी हो रही थी, पर इस ओर सब कुछ शांत था. निशानची ने तेज़ी से दौड़कर गली पार की. तभी उसके आस-पास किसी मशीनगन से चली गोलियाँ बरसने लगीं. गोलियों से बचने के लिए उसने शत्रु के निशानची के शव के पास मुँह के बल छलाँग लगा दी. मशीनगन से चलने वाली गोलियों की बौछार बंद हो गई.

तब निशानची ने शत्रु निशानची के शव को पलट कर देखा. वह सन्न रह गया क्योंकि उसके सामने उसके अपने मृत भाई का चेहरा था.

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सुशांत सुप्रिय

कथा - संग्रह : हत्यारे (2010)हे राम (2013)दलदल (2015)ग़ौरतलब कहानियाँ (2017)पिता के नाम (2017)
काव्य-संग्रह : इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (2015)अयोध्या से गुजरात तक (2017)
अनुवाद :  विश्व की चर्चित कहानियाँ (2017) , विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (2017) 

A-5001, गौड़ ग्रीन सिटीवैभव खंड ,  इंदिरापुरम
ग़ाज़ियाबाद -201014  (उ. प्र.)

मो: 8512070086 /ई-मेल : sushant1968@gmail.com

मेघ -दूत : सॉनेट मंडल : तुषार धवल

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युवा कवि सॉनेट मंडल कोलकाता के बाशिंदे हैं और इन्डियन इंग्लिश  में कवितायें लिखते हैं. वे Enchanting Verses Literary Review (www.theenchantingverses.org) के मुख्य सम्पादक हैं. सॉनेट की ताज़ा किताब 'इंक एन्ड लाइन' , जिसका सह-सम्पादन सुकृता पॉल ने किया है, 2014 में प्रकाशित हुई थी. यूनिवर्सिटी ऑफ आयोवा (अमेरिका) के अन्तर्राष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम (2014-16) के 'सिल्क रूट प्रॉजेक्ट में वे एक फीचर्ड पोएट थे और सन 2016 के गायत्री गमर्श स्मृति पुरस्कार से सम्मानित भी हुए.

उनकी कवितायें 'वर्ल्ड लिटरेचर टुडे', 'आइरिश एक्ज़ामिनर', 'मैकेन्ज़ी रिव्यू', 'शीप्सहेड रीव्यू', 'फील्डस्टोन रीव्यू', 'पैलिस्टाइन क्रॉनिकल', 'इंडियन लिटरेचर जॉर्नल'और 'एशिया लिटेरेरी रिव्यू'में छप चुकी हैं. सॉनेट की कविताओं के स्लोवेनियन अनुवाद का स्लोवेनिया के पब्लिक रेडियो और टेलिविजन के 'लिटरेरी नॉक्तुर्नो'कार्यक्रम के तहत प्रसारित हुआ था. वे 2018 के सियेरा नेवाडा कॉलेज के MFA के क्रियेटिव राइटिंग प्रॉग्राम में एक रेसिडेन्ट कवि की हैसियत से शामिल होने वाले हैं.



इन कविताओं का अनुवाद कवि तुषार धवल ने किया है.  शायद पहली बार सॉनेट मंडल हिंदी में अनूदित हो रहे हैं. 



सॉनेट मंडल की कविताएँ                                       


मरता हुआ सैनिक : कुछ छवियाँ

1.
एक थके हुए सिर पर अनिच्छा से टिका हुआ कॉम्बैट हेल्मेट
और गर्भ में गोलियाँ रखी हर वक्त चौकन्नी एक बन्दूक
एक दूसरे से टिके हैं अनसुलझे अनुशासन में ----
एबसर्ड और अद्भुत का अनोखा मिश्रण



2.
आँखें  टिकी हुईं उगती सुबह पर, जो अपने दिल में सूरज लिये
रस भरे बादलों की उनींदी छाया को सोख लेती है
आँखें झपकती हैं छुई-मुई की तरह जब विचार मर रहे होते हैं
घुसेड़ी गई देश भक्ति की सरहद पर



3.
धुएँ की चादर पीछा करती है कहीं बहुत दूर हुए हवाई हमलों की
और ऊपर बादल अपनी गरज से चीखती दलीलों को दबा रहा है
एक थकी कल्पना म्यूज़िकल नोट्स की तरह उठती और गिरती है
यथार्थ की डोर पर,जो बोझिल निर्जनता में बक्सा-बन्द है.


4. 
एक अविश्वासी हाथ सिगरेट जलाता है और पथराव करता है
पास के किसी गड्ढे सेत्यौरियाँ चढ़ाता है तय परिणाम पर
एक जोड़ा युद्धरत होंठ भुनभुनाते हैं बचपन का कोई गीत
भटकते हुए धुएँ से एक मनहूस बवंडर उठता है.


5.
वह सिर पड़ा है बेजान, उसकी आँखें अब भी जड़ी हुईं इस होती सुबह पर
वह बन्दूक अगले साथी के इन्तज़ार में है और हेलमेट ढुलक आया है
वह मरा सा गड्ढा लगभग सूखा हुआ अब और पानी नहीं दे पाता
और वह बहता खून भी उसे भर नहीं पाता.



6.
अपने शैशव में एक परिवार खेलता है घर में, बेखबर
तर्क टूटी दीवारों को खरोंचते हैं, रास्ता खोजते
इन जादुई बन्दूकों को पॉप कल्चर से मिटा देने का
पीड़ा की बिखरी रेत में आशा की मारीचिका मुस्काती है.





कोई नहीं दरवाजे पर इन्तज़ार में

यह दरवाजा यादों की एक सूनी नाव है
जो अकेली तिर रही है चरमराती आवाज में
उस भय भरती नदी में ---
जो पकड़ कर भींच लेती है मुझे
भूतकाल में दौड़ जाने की उम्मीद के खिलाफ
वह नाव ---
जिसे मैं अपने ननिहाल जाती कच्ची सड़क से
देख सकता था.
यादों के शान्त गहरे पानी पर
बैलेंस बनाते काठ के पटरों की
चर्र-चों की आवाजें
जैसे किसी बियाबान से उठती आवाजें थीं
जो उन यादों में घुसने के खिलाफ चेतावनी थी मेरे लिये
वहीं दूसरी तरफ
अतीत की महक
भूतकाल से टहलती आती उन्हीं हवाओं के कन्धों पर सवार थी
जिसमें महक थी पिछली आँधी में गिरे कच्चे आमों की
गर्मी की ऊँघती दोपहर की आवाजों ने
अपनी बातों में फुसला कर मुझे उन हवाओं को सूँघने से रोक दिया

यह सिर्फ दो दशक पहले था
कि मेरी जिन्दगी छन्द थी
और अब --- मैं गम्भीर कवितायें चाहता हूँ.
मुक्त होने के खयालों में सबसे अधिक मुक्त था
कैद रहना
बचपन के अपने गाँव में
कच्ची सड़क, पानी
और आम के बगीचे में

वह सब कुछ था --- बस कुछ ही पल पहले.
वे पल मेरी उम्मीद से बड़े हो गये हैं
और अब, जब मैं अपने नाना से मिलने आया हूँ
मैं सुन सकता हूँ
लपलपाती लू को
जो एक जोड़ा दरवाजों को झकझोरती
फड़ाफड़ाती हुई बहती है
उस दरवाजे पर जहाँ कोई नहीं है इन्तज़ार में.





हरामजादी सरहदें और झण्डे


कोई आनन्द नहीं हो सकता
मरे पशुओं का उत्सव करने में.
गाय तो कब की मर चुकी है
और सूअर यहाँ वहाँ बिखरे पड़े हैं.
कुछ पैर अभी भी थरथरा रहे हैं.
माटी से ---
कुछ के अँकुर फूट आये हैं
कन्द की तरह उनकी देह
जमीन के भीतर दबी है
तुम सबने गूँगे पशुओं को शहीद कर
फिर से एक पाठ गढ़ लिया है.  
तुम कट्टरों के लिये
ये गूँगे और अस्पष्ट पन्ने
सबसे आसान थे विकृत करने को
कि हंगामा खड़ा किया जा सके

कविता की स्पष्टता भी अभी
किसी मदहोश अस्पष्टता में फँसी हुई है
और सभी इन्ज़ार में हैं
आँसुओं के इन्तज़ार में
उस कठोर आकाश से
जो भारी है लेकिन सहनशील. वे सब
नाटक कर रहे हैं  निष्क्रियता का
चोरी छिपे नजरें मिलाते हैं
देश की सीमा के बलात्कार पर
गलियों में
पूरी अटलता से
एक जल प्रलय उतरेगा आकाश से
क्योंकि तर्क खो चुके हैं इन अन्धेरों में

चिढ़े हुए इन संदेश वाहकों को तब
तलवारों और धर्म ध्वजों का व्यूह भेद कर
निकलना होगा
नोंकों और छोरों से
चीरते हुए उनके उपदेशों को

इन हरामजादी सरहदों पर.



युद्ध के समय में आस्था

गर्मी का एक मौसम युद्ध करता है भीतर
और आँसू सूख जाते हैं
हारे हुए सैनिक निर्वासित
खून के साम्राज्य से

घायल कविता रोजाना की सड़क के नुक्कड़ों पर
मृत्यु का उपहास करती है
जैसे जूते की हील से यूँ ही कुचली जाने के बाद भी
अधबुझी सिगरेट से
धुआँ निकलता रहता है बिना रुके
रहस्य की छाया में मरते सपने
भाग्य के आदेशों को धता बताते हैं

क्रूर मिसाइलों से घिर कर
बहती उदासियाँ
जंग खाये झरोखों से सिर टकराती हैं

स्मृति और आस्था की पैनी जकड़
जीवितों में उम्मीद जगाती है
और अचानक हुए विस्फोट की हैरत
मुखौटे झाड़ देती है ---

सियारों के रति- रोदन और
परागों से जगी उत्तेजना के बीच

यह हवा सूँघ लेती है ज़हर
और शून्य, अनजान
फिर भी, हम साँस लेते हैं, गहरी आस्था में
कि हम प्रेम की उपज हैं
और किसी गर्माहट में दफना दिये जायेंगे.

__________
तुषार धवल

22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)
पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद
दिलीप चित्र की कविताओं का हिंदी में अनुवाद
कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनयचित्रकला और छायांकन में भी रूचि

सम्प्रति : भारतीय राजस्व  सेवा में

tushardhawalsingh@gmail.com

परिप्रेक्ष्य : कश्मीर तीन साल पहले : यादवेन्द्र

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जिन्हें हम आम समझ कहते हैं वे पूर्वग्रहों के गुच्छे ही तो होते हैं. धारणाएं बनती जाती हैं और फिर हम एक समझ विकसित कर लेते हैं. इन धारणाओं के निर्माण में कुछ प्रचारित घटनाएँ, बार–बार प्रस्तुत की जा रहीं छबियों आदि का बड़ा हाथ होता है.  

इस आम समझ से संचालित किसी व्यक्ति की टकराहट जब उस समूह से होती है तब कई बार वह विस्मय से भर उठता है. ‘टाइप’ और इकाई का अंतर प्रत्यक्ष हो जाता है. 

पूर्वग्रह दुराग्रह ही हैं. कश्मीर को लेकर भी हम इसी तरह के तमाम दुराग्रहों से भरे बैठे हैं. तीन साल पहले लेखक अनुवादक यादवेन्द्र कश्मीर की यात्रा पर थे तब उनके साथ कुछ इसी तरह के अनुभव हुए.

आज कश्मीर को खुले मन से समझने की बहुत जरूरत है. 


कश्मीर तीन साल पहले                                     
यादवेन्द्र 



तीन साल पहले अप्रैल 2014 में तेज बारिश और बर्फ़बारी के बीच होली कश्मीर घाटी में बीती सर्दियों की जकड़न के बाद फगुनाहट में मलमल का कुरता निकालने का सुख भूल कर बिलकुल नया अनुभव. श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुँचने से कोई बीस मिनट पहले से ही बर्फ़ीले पहाड़ दिखने शुरू हो गए थे और दूर दूर तक उनपर कश्मीरी पश्मीने की नहीं बल्कि बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछी हुई थी. हवाई पट्टी पर से बर्फ़ हटा दी गयी थी नहीं तो पूरा हवाई अड्डा किसी इग्लू (ध्रुवों के आसपास रहने वाले लोगों के बर्फ़ के घर ) जैसा दिखाई देता. मेरे लिए उतनी बर्फ़ छू कर देखने का जीवन का पहला अनुभव था.

अपने साथ ले जाने वाले के आने में थोड़ी देर हो रही थी इसलिए हमें  हवाई अड्डे पर शीशे की खिड़कियों को लाँघ कर आते धूप के चकत्तों  की तलाश में यहाँ वहाँ टहलते देख कर सरकारी ड्यूटी पर तैनात एक कद्दावर पर खूबसूरत नौजवान पास आया और बिना माँगे सलाह दे गया कि हम बेंचों पर न बैठें नहीं तो ज्यादा सर्दी के कारण टाँगें अकड़ जायेंगी. चाय कॉफी हवाई अड्डे पर किधर मिलेगी,साथ में यह भी साथ ले जाकर दिखा गया. गर्मागर्म चाय ने शरीर और मन को जब जकड़ से मुक्त किया तब पहली बार समझ आया कि कश्मीरी गर्मजोशी से यह पहला साक्षात्कार है.

श्रीनगर में रहते हुए ज़ाहिर है हमारा पहला पड़ाव डल झील थी जो शहर के बीचों बीच फिसलती हुई निकल रही थी पर जिसका दूसरा किनारा बहुतेरी कोशिशों के बाद भी हमें दिखायी नहीं दे पा रहा था. मुझे अपने घर बनारस की गंगा याद गयी जो वास्तव में तंग गलियों से होकर तो नहीं बहती पर इन तंग गलियों से गुजरते हुए बिलकुल घरेलू स्त्री जैसी आपसे आँखें चार करती रहती है. पानी की अनेक धाराएँ इस शहर में बहती दिखती हैं और सड़क पर चलते फिरते इनके अंदर जैसे ही लकड़ी की बड़ी नाव (शिकारा या हाउसबोट) पर नजर पड़ती है आपको डल झील के साथ उसका जुड़ाव समझ आ जाता है. यानि रक्त वाहिनी शिराओं की तरह श्रीनगर के अंदर तक डल झील फैली हुई है.

इस यात्रा में मेरी छोटी बेटी मृदु साथ थी और कई बरसों से हम यह हिसाब किताब लगाते रहे थे कि देश के कितने प्रांतों में घूम चुके हैं. ऐसे में बार बार उत्तर पूर्वी राज्यों के अतिरिक्त कश्मीर घाटी छूट जाती थी. उत्तर पूर्वी राज्यों की बात करें तो असम ,सिक्किम और मेघालय सुरक्षित नजर आये. वैसे ही जम्मू और लेह का नंबर तो आ गया पर कश्मीर घाटी जाने के कार्यक्रम अचानक सुर्ख़ियों में आ जाने वाली किसी आतंकी घटना की वजह से बार बार मुल्तवी होती रही. अख़बार पढ़ पढ़ के मन के अंदर श्रीनगर की छवि ऐसी बन गयी थी जैसे जान हथेली पर लेकर दीवाली के दनादन पटाखों के बीच से कोई लंबा सुनसान रास्ता तय करना हो, और हम थे कि सरफरोशी  की तमन्ना लेकर घूमने निकलने को तैयार नहीं होते.

टैक्सी वाले ने पहले तो ये कहा कि आप बिलकुल बेफ़िक्र रहो ,और अगली साँस में कह गया कि आज आज़ादी पसंद अनेक संगठनों ने एक मासूम नौजवान की हत्या के विरोध में कश्मीर बंद का  एलान किया हुआ है. तब हमें एक एक अदद दूकान बंद होने का सबब समझ में आया. हमें शाकाहारी खाने की जो दूकान बताई गयी थी ,उसमें बड़ा सा ताला  लटका देख हमारा मन और मुँह भी वैसे ही लटक गया. टैक्सी वाला हमें धीरे धीरे बाज़ार और आबादी से दूर लेता जा रहा था और हम दहशत के मारे प्रकट रूप में कुछ बोल नहीं रहे थे पर धड़कनों की बढ़ती हुई आहट को दबाना ना मुमकिन होने लगा. डरते डरते पूछने पर उसने बताया कि मैं आपको साफ़ सुथरे पानी और दूर से पूरे शहर का नज़ारा दिखाने के लिए ही ले जा रहा हूँ, आप घबराइये मत कोई कुछ नहीं करेगा.

निशात बाग़ से थोड़ा पहले उसने  एक जेटी पर रोका  जहाँ एक भी सैलानी नहीं था ,पाँच छह शिकारे  वाले बैठे लूडो खेल रहे थे. जब टैक्सी वाले को सबने सलाम किया तो मन की आशंका और बलवती हो गयी ,एक दूसरे की पहचान वाले सब मिलकर कहीं कोई साजिश तो नहीं करेंगे --- हम वयस्क तो चलो फिर भी आगा पीछा कुछ मुकाबला कर सकते हैं  पर ये बेचारा दो साल का मेरा नाती पलाश ? इतनी दूर चले आने के  बाद वापस लौटना न तो संभव था और न ही सुरक्षित -- हम जितना ही अपने चेहरे मोहरे से निश्चिन्त दिखने की कोशिश करते उतने ही बदहवास नज़र आते. खैर डगमगाते कदमों (और मन से भी) से हम शिकारे  पर सवार हुए और वह बड़े शांत भाव से धीरे धीरे पानी पर सरकते हुए आगे बढ़ने लगा. झील के पानी में हमारे मनों के अंदर दुबकी हुई आशंकाओं का कहीं कोई हिलोर नहीं थी. तट से दूर जाते हुए मनोरम नज़ारों की वजह से बहुत अच्छा लग रहा था ,पर मन था कि पल पल में ही लौट कर गहरे अविश्वास और आशंकाओं की गिरफ़्त में आ जाता. जहाज के पंछी सरीखा जो जल का असीमित विस्तार देख कर बार बार जहाज पर ही लौट आता है.

अभी सौ मीटर भी आगे नहीं चले होंगे कि एक शिकारा  चलते चलतेआया और हमारे शिकारे से सट कर चलने लगा ,जाहिर है हमारी धड़कनें और तेज हो गयीं. उस शिकारे वाले ने हमारे शिकारे को पकड़ लिया --हमारी तो जान मुँह को आ गयी और अपनी निर्दोष मस्ती में खोये हुए बच्चे को सब ने मिलकर किनारे से दूसरी तरफ खींच लिया. नाव एकदम से डगमगा गयी ,दूसरे शिकारे वाले ने शायद हमारे मन की हलचल भाँप ली - बोला : बच्चे की कश्मीरी लिबास में फोटो खिंचवा लो शाब. हमने सामने आयी स्थिति के साथ दबे मन से समझौता करना ही उचित समझा और फोटो खिंचवाने को राजी हो गये.

साथ चलते चलते उसने सिल्क की रंग बिरंगी पोशाक निकाली और बच्चे को अपनी तरफ माँगने लगा. मैंने पलाश को अपनी गोद में पकड़ के बिठाया हुआ था ,फोटो वाले से कहा कि जो पहनाना हो इसी नाव में मेरे पास बैठे बैठे पहना दो. मेरी उहापोह देखते हुए मेरे शिकारे वाले ने कहा शाब आप बच्चे को बेफ़िक्र होकर दूसरी नाव में जाने दो ,हमारा तो रोज का यही धंधा है. ऋचा से इजाजत ले कर मैंने पलाश को दूसरी नाव में जाने तो दिया पर मन की तसल्ली के लिए पूरा जोर लगा कर दूसरी नाव खुद पकडे रहा. हाँलाकि झील के शांत पानी और दोनों शिकारे  वालों के हाव भाव और वाणी ने अनकहे ही हमारे मन के अंदर सहजता का भाव भरना शुरू कर दिया था. बड़े इत्मीनान और शौक से उसने बच्चे को फिरन  पहनाया,कमर पर दुपट्टे जैसा कपडा बाँधा फिर पगड़ी बाँधी. अच्छी तरह सजाने के बाद बच्चे के हाथ में एक लम्बी भारी भरकम पतवार थमा दी. उसके बाद एक फोटो खींचने की बात तय होने के बावज़ूद उसने अलग अलग पोज़ में बच्चे की सात आठ फोटो खींची. सैर से लौटते हुए एक घंटे बाद  उसने फिर बीच रास्ते हमें पकड़ा और सारी फोटो दिखाते हुए बोला की आप जो चाहें चुन लीजिये शाब. बगैर किसी दबाव और आग्रह  के हमने उस से सभी फोटो ले लीं.

अलग अलग भंगिमाओं में पलाश इतना सुन्दर लग रहा था कि हमसे एक भी फोटो छोड़ते न बनी. पर उस अशांत समाज में मेहनत  मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले उस मामूली  फ़ोटोग्राफ़र ने सिर्फ हमारा दिल ही नहीं जीता बल्कि हमारे तमाम निराधार पूर्वाग्रहों को भी बिना कुछ बोले सफ़ाई दिए यूँ ही चुटकी बजाते हुए धराशायी कर दिया.  
____________________
यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com        

सहजि सहजि गुन रमैं : मणि मोहन

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पेंटिग : Persian painter Parviz Kalantari


कविताएँ अपने मन्तव्य तक की यात्रा में कम से कम जगह घेरती हैं. वे कुछ भी अन्यथा लेकर नहीं चलती और कुछ भी अतरिक्त नहीं करती हैं. वे भाषा की मितव्ययिता की चरम हैं. सबसे सुंदर कविताएँ कब्रों पर लिखी जाती हैं.

मणि मोहन की कविताओं को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है. आकार में ये छोटी कविताएँ अर्थ में बड़ी हैं. इनकी अनुगूँज देर तक बनी रहती है.


मणि मोहन की कविताएँ                         






याद
 

बहुत दिनों बाद
किसी की याद आयी ...
जैसे कोई जरूरी किताब ढूंढते हुए
बेतरतीब किताबों से निकलकर
फड़फड़ाते हुए
फर्श पर गिर जाए
कोई अधूरी पढ़ी किताब !





रात की बारिश

कुछ और बढ़ गई उदासी
रात की बारिश ने
धो ड़ाली
स्मृतियों पर जमीं
बरसों पुरानी गर्द .





 बीमार

अपनी दवा की पर्ची के साथ
एक बूढ़ी स्त्री ने
जब अपने बेटे को
एक मुड़ा - तुड़ा नोट भी थमाया
तो अहसास हुआ
कि ये दुनियाँ
वाकई बीमार है.





कथा

किसी पार्क की बेंच पर बैठे
दो बुजुर्ग
अपने समय की
कथा सुना रहे हैं एक दूसरे को . . .
पेड़, पौधे, परिंदे
साक्षी हैं
कि पार्क की बेंच पर बैठे
अपने समय की
कथा सुना रहे हैं.




भी


सब शामिल हैं
इस अंतिम यात्रा में
मैं भी
तुम भी
भाषा भी
विचार भी
कविता भी
और भी
जैसे हत्यारे
और यह कविता भी .




डर


क्या डर
वाकई इस क़दर पैठ गया है
हमारे भीतर
कि हम
अब हत्यारों के लिए
भीड़ में जगह बनाने लगे हैं ....
कि चाकू चलाने में
उन्हें कोई तकलीफ़ न हो .



यह वक्त


कितना ख़ौफ़नाक है
यह मंज़र
कि हत्यारों से बचने के लिए
कोई भागता है भीड़ की तरफ
और मनुष्यों की यह भीड़
देखते ही देखते
किसी हॉरर फिल्म के
दर्शकों में बदल जाती है .....
(
और कभी कभी तो हत्यारों में भी!!)


 

इस पतझर से

                कितना कुछ
सीखना बाकी है
अभी
इस पतझर से !
ज़र्द पत्तों की तरह
चुके हुए
मरे हुए
शब्दों को छोड़ना है ....
एक लय के साथ
हवा में बिखरते हुए
नृत्य करना सीखना है ....
धैर्य सीखना है
इंतज़ार सीखना है
नए पत्तों की तरह
ताजगी से भरी भाषा का ....
अभी तो
बहुत कुछ
सीखना है
इस पतझर से !





ख़ामोशी


ठीक नहीं
यह ख़ामोशी
जो पसरी है
इस छोटे से घर में
हमारे बीच
ठीक नहीं
यह ख़ामोशी
जो पसरी है
इस विशाल मुल्क में
हमारे बीच.

 __________

मणि मोहन
जन्म  : 02 मई 1967, सिरोंज (विदिशा) म. प्र.
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि

प्रकाशन : देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं  में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशितवर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ'प्रकाशित. वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक  'एक सीढ़ी आकाश के लिए'प्रकाशित. वर्ष 2013 में  कविता संग्रह  "शायद"प्रकाशित. इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार.

कुछ कवितायेँ उर्दू, मराठी और पंजाबी में अनूदित.  वर्ष 2016 में  बोधि प्रकाशन जयपुर से "दुर्दिनों की बारिश में रंग "कविता संकलन तथा तुर्की कवयित्री मुइसेर येनिया की कविताओं की अनुवाद पुस्तक प्रकाशित.
इसके अतिरिक्त  "भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास", "आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता "तथा  "सुर्ख़ सवेरा"आलोचना पुस्तकों सह- संपादन .

सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन.
संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346

ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com

सबद - भेद : इक शम्अ है दलील-ए-सहर : अच्युतानंद मिश्र

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मुक्तिबोध फिर चर्चा में हैं. उनकी मृत्यु के बाद जो चर्चा चली थी उसमें उन्हें एक बड़े कवि के रूप में पहचाना गया. मुक्तिबोध जयशंकर प्रसाद के बाद दूसरे ऐसे बड़े कवि हैं जिनका गद्य भी मजबूत है. मुक्तिबोध के साहित्य का केन्द्रीय शब्द है आत्मसंघर्ष. चित्त सम्मोहन के इस दौर में रचनाकारों और विचारकों को इसकी आज सबसे अधिक जरूरत है.    

अब इस वर्तमान बहस में मुक्तिबोध की कविताओं को गहरे संदेह  से  कुछ युवा देख परख रहे हैं. ऐसे में युवा आलोचक अच्युतानंद मिश्र के इस सुचिंतित आलेख को पढ़ा जाना चाहिए.  
    


इक शम्अ है दलील-ए-सहर #
अच्युतानंद मिश्र


मुक्तिबोध की मृत्यु 1964 में हुई. 1964 में ही नेहरू की भी मृत्यु एवं कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ. तब से लेकर अब तक आधी सदी का समय गुजरा है. इस आधी सदी में न सिर्फ राजनीतिक अपितु बुनियादी सामाजिक एवं सांकृतिक परिवर्तन भी हुए हैं. अगर मुक्तिबोध की कविता का संदर्भ इन पचास वर्षों के बीच हुए बुनियादी परिवर्तनों से जुड़ता है तो वह हमारे वर्तमान की जटिलताओं को देखने का एक जरिया हो सकता है. इसी अर्थ में यह भी देखना गैर मुनासिब न होगा कि मुक्तिबोध की कविताओं को हम देश-काल की सीमाओं से परे गतिशील पाठ के रूप में, किस तरह व्याख्यायित कर सकते हैं? किसी लेखक या कृति के कालजयी होने के क्रम में, यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.

50’ वर्षों के हमारे सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक समय की गतिकी के बीच मुक्तिबोध की कविता किस तरह हमारे काम आती है? अपने समय की प्रवृत्तियों को आत्मसात करते हुए जिस तरह कोई युग बढ़ता है और परिवर्तित होता है, उसी तरह के परिवर्तनों से हर कृति को भी गुजरना होता है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण नहीं कि मुक्तिबोध की कविता भविष्य की कविता है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि बनते हुए भविष्य के समानांतर चलती हुयी कविता, वह है कि नहीं !

मुक्तिबोध की कविताओं को 50-60 के दशक में रखकर देखने की कोशिशें अधिक हुई. ऐसा नहीं है कि यह जरूरी नहीं था. लेकिन जिस तरह हर युग की कुछ प्रवृतियाँ भविष्योन्मुखी होती हैं, उसी तरह मुक्तिबोध की कविताएँ भी भविष्योन्मुखी थी. ज्यों ही हम उनका मूल्यांकन सम-सामयिकता या समय केन्द्रीयता के आधार पर करने लगते हैं,एक बड़ा यथार्थ हमसे छूटने लगता है. यह कुछ-कुछ हाईजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत की तरह है, अगर आपने स्थिति का ठीक-ठीक पता लगाने की कोशिश की तो गति आपके हाथ से निकल जायेगी. ऐसे में आपको स्थिति और गति के बीच थोड़े अनिश्चय का संतुलन विकसित करना होगा. मुक्तिबोध की कविता भी अमूमन उन लोगो को अधिक अमूर्त जटिल या अव्याख्येय लगती है, जो लोग निश्चितता के पक्षधर होते हैं. इसी जमीन पर मुक्तिबोध को लेकर एक बहस साठ के दशक में हुयी. उस बहस के मूल में एक ओर जहाँ साठ के दशक की वैश्विक सामाजिक एवं राजनीतिक परस्थितियाँ थीं, वहीं कुछ स्थिर और रूढ़ मान्यताएं भी थी. मुक्तिबोध को इन रास्तों से मुक्कमल तौर पर समझना आसन न था. हाँ उनके विषय में इस रास्ते परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते थे, वह हुआ.

मुक्तिबोध को पढ़ते हुए जो सबसे जरुरी सवाल सामने आता है वह है, हम हिंदी कविता में मुक्तिबोध को कहां रखें? यह प्रश्न इसलिए भी कि समकालीन कविता के संदर्भ में अक्सर मुक्तिबोध की परम्परा का हवाला दिया जाता है लेकिन आमतौर पर वह दोनों ही को अर्थात समकालीन कविता और मुक्तिबोध को अव्याख्यायित रख छोड़ने की कवायद ही साबित होती है. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि हम इस प्रश्न को बार-बार पूछे कि मुक्तिबोध की काव्य परम्परा से हम क्या समझे? कहना न होगा कि मुक्तिबोध के संदर्भ में इस प्रश्न को काफी पीछे छोड़ दिया गया है. परन्तु मुक्तिबोध पर शुरू होने वाली हर नई कोशिश को इस प्रश्न से बार बार गुजरना होगा.

मुक्तिबोध के संदर्भ में यह बात काबिले गौर है कि वे तमाम पुराने रास्तों को तोड़ते हैं. तोड़-फोड़ तो निराला से अधिक आधुनिक हिंदी कविता में शायद ही किसी ने किया हो, लेकिन मुक्तिबोध की उलझन दूसरी है. वे कविता, जीवन और जीवन दर्शन को एक साथ रखने की कोशिश करते हैं. वे अतीत वर्तमान और भविष्य को एक सीधी रेखा में नहीं रखते. वे इसका एक त्रिकोण बनाते हैं. यही वजह है कि यहाँ अतीत से भी भविष्य में जा सकते है.

तुम मेरी ही परम्परा हो प्रिय
तुम हो भविष्य –धरा दुर्जय
तुममे मैं सतत प्रवाहित हूँ
तुममे रहकर ही जीवित हूँ
तुम मृत न मुझे समझो
मेरी भविष्यवानियाँ सुनों !! (भविष्य-धारा, 116/2)

मुक्तिबोध भविष्य के रास्ते ही अतीत में प्रवेश करते हैं. वे जानते हैं, जो जीवित रहेगा, वह भविष्य ही है. इसलिए अतीत का सबकुछ निर्मित होने वाले भविष्य पर निर्भर करता है. मुक्तिबोध, इतिहास को रूढ़ि या पहले से स्थापित किसी सत्ता के रूप में नहीं देखते. वे इसे लगातार आगे बढ़ रहे समय की धारा में खोजने की कोशिश करते हैं. वह समय जो इतिहास से टकराता है. परम्परा को चुनौती देता है. ऐसा करते हुए सबसे बड़ा संकट है दिशा-हारा होने का. मुक्तिबोध इतिहास से टकराते जरुर हैं, परम्परा को चुनौती देते हैं, लेकिन वे न तो इसे नकारते हैं और न ही उसे छोड़ते हैं. सहज भाषा में कहें तो मुक्तिबोध के लिए एक बौद्धिक की जिम्मेदारी है कि वह इतिहास से टकराकर इतिहास का पुनर्निर्माण करे.

आधुनिक हिंदी कविता, विशेषकर बीसवीं सदी की हिंदी कविता में दो रास्ते नज़र आते हैं. एक रास्ता है निराला का दूसरा मुक्तिबोध का. आप किसी सरलीकरण के रास्ते मुक्तिबोध को निराला से सम्बद्ध नहीं कर सकते. दोनों कवियों के मध्य फासला सिर्फ दो दशकों का है. बावजूद इसके एक बात जो दोनों को करीब लाती है, वह है,जिस तरह निराला को महज़ छायावाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता, ठीक उसी तरह मुक्तिबोध को भी नई कविता और प्रयोगवाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता है.

निराला की कविता के केन्द्र में किसान जीवन है. भारतीयता का एक अर्थ उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान विकसित हुआ. साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ते हुए यहाँ की जनता ने जो मूलतः किसान थी या किसान परम्परा से सम्बद्ध थी, एक राष्ट्र,एक राज्य के रूप में खुद को सुगठित किया. आधुनिक हिंदी कविता का मूल स्वर विशेषकर 1857 -1947 के बीच इसी चेतना से जुड़ा. निराला इस चेतना की सर्वाधिक अग्रगामी आवाज़ थे. किसान जीवन की कुछ मान्यताएं एवं परम्पराएँ थी, जो नये मूल्यबोध को रचती थी. आप पाएंगे कि तमाम नये मूल्यबोधों की सर्वाधिक प्रखर पहचान निराला के यहाँ मिलती है. 

किसान जीवन में एक खास तरह की एकरूपता होती है. सोच स्वभाव और आकांक्षा के स्तर पर भी. इसलिए किसी व्यक्ति के द्वारा भी समाज को निरुपित किया जा सकता है. किसान जीवन की बड़ी विशेषता यही है कि वहां व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी इकाइयों के रूप में नहीं, बल्कि एक दूसरे से सम्बद्ध इकाई के रूप में देखा जा सकता है. निराला की कविताओं में आ रहा व्यक्ति इस अर्थ में समाज की चेतना को इंगित करता है. वहां व्यक्ति और समाज का द्वंद्व महत्वपूर्ण नहीं है. वहां महत्वपूर्ण है, व्यक्ति के आत्मविस्तार की संभावना. ऐसे में निराला जिस अकेलेपन की बात करते हैं, वह एक रुमान और वेदना से हमें भर देता है. मध्यवर्ग का हर व्यक्ति अपने स्वप्न में निराला के इस गहन अकेलेपन को पाना चाहता है. क्यों? क्योंकि वहां जीवन का रोमांच है. वह है, क्योंकि मनुष्य की संवेदनाएं व्यापक होती हैं. वे अपने भीतर एक दुनिया से साक्षात होती है.

यह तेरी रण-तरी
भरी आकाँक्षाओं से
घन, भेरी –गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के ,आशाओं से
नवजीवन की ,ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !(निराला रचनावली ,135/1)

किसान जब भी अकेला होता है, वह प्रकृति के पास जाता है. दूसरे अर्थों में प्रकृति, मनुष्य के भीतर के शून्य को अपनी तरह से भर देती है. उसे पूर्ण कर देती है.

आज़ादी के पश्चात भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुयी. किसानों का बड़े पैमाने पर दिहाड़ी मजदूरों के रूप में रूपांतरण होने लगा .नये रूप में शहर विकसित होने लगे. विस्थापन की हर नई लहर ने परिधि की नई परिमिति को रचा.

मुक्तिबोध किसान जीवन और उसकी रागात्मक संवेदना को नहीं लिखते. वे भविष्य के भारत में विकसित हो रही औद्योगिक संस्कृति को लिखते हैं. औद्योगिक संस्कृति के परिणामस्वरुप बहुत तेज़ी से सामूहिकता की चेतना का विघटन होने लगता है. निराला की कविताओं में इसलिए जहाँ पारिवारिक सम्बन्ध या उस सम्बन्ध की संवेदना से संचालित मानवीयता एवं उद्दातता नज़र आती है, वहीँ मुक्तिबोध की कविताओं में उस संवेदना से छूटे हुए मनुष्य की वेदना, आत्महीनता एवं डर अधिक नज़र आता है. औद्योगिकीकरण भारतीय संस्कृति के विलोम को रचा. मुक्तिबोध की कविता, इस विलोम का आलोचनात्मक भाष्य बनती है. एक तरह से कहें तो मुक्तिबोध की कविताओं की भावभूमि यही है. वे सामूहिकता के मूल्यों के छीजने और उसके परिणामस्वरूप विकसित हो रही संस्कृति को लिखते हैं.

अधूरी और सतही जिंदगी के गर्म रास्तों पर
हमारा गुप्त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्सी एक गहरा स्याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमिटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्द !! (चकमक की चिनगारियां ,232/2)

जिंदगी के अधूरेपन ने इस गुप्त मन को रचा है. दूर कहीं स्मृतियों में वह भरीपूरी ज़िन्दगी मुस्कुराती है लेकिन स्मृतियों के पार चिलचिलाते यथार्थ की तपन में गुप्त मन अपराधबोध से भरकर बिलबिलाता है. मुक्तिबोध की बेचैनी यही है. पुराना समाज लौट नहीं सकता. नया समाज एक विकृति को रच रहा है. अनिश्चितता का यह द्वंद्व मुक्तिबोध को कचोटता भी है और कुछ न कर सकने के अपराध से भी भर देता है. इस अपराध बोध से मुक्त होने के लिए मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष की ओर बढ़ते हैं, लेकिन मुक्तिबोध इस आत्मसंघर्ष को बुद्धि और संवेदना के द्वैत से निर्मित करते हैं. इसे महज़ एक भाववादी आत्मसंघर्ष समझना मुक्तिबोध की मूल चेतना को ही नसमझने की कोशिश है. 

मुक्तिबोध की यह उलझन ही उस रचनात्मक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया है, जिसमे वर्तमान का आलोचनात्मक विवेक निर्मित होता है. रामविलास शर्मा जब मुक्तिबोध के आपराधबोध को महज एक मानसिक कवायद मानकर उसे नकारने लगते हैं, वही वे अपने भाववादी निष्कर्षों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने लगते हैं. मुक्तिबोध पर ऐसा करते हुए वे इतनी दूर निकल आते हैं जहाँ से मुक्तिबोध की कविता का कोई सम्बन्ध शेष नहीं रह जाता. 

औद्योगिक सभ्यता जनित विलगाव को मुक्तिबोध चिन्हित करते हैं. किसान जीवन अपने अर्थों में एक भरा पूरा जीवन था. वहां व्यक्ति ,परिवार और समाज की इकाइयों में बनता था. मनुष्य के हर राग-रंग के केंद्र में प्रकृति थी. औद्योगिक सभ्यता प्रकृति को जीवन से निकाल फेंकती है.

औद्योगिक सभ्यता ने खुद को जायज़ बनाने के लिए संस्थाओं का निर्माण किया. संस्थाओं के रास्ते एक नये तरह की सामाजिकता का विकास हुआ. मनुष्य के हर तरह के सम्बन्धों को संस्थाओं ने अपने गिरफ्त में ले लिया. संस्थाओं का उद्देश्य था, जीवन की प्रक्रिया का वस्तुकरण. वस्तुकरण की प्रक्रिया ही इस नई सामाजिकता की जड़ में थी. इसे संस्थाओं के द्वारा रोजमर्रा की संवेदना में स्वाभाविक बनाया गया. इस प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की संवेदना में तीव्र बदलाव आता गया. ऐसे में जिस तरह की पूर्णता और संवेदनात्मक भराव हम निराला में देखते हैं, मुक्तिबोध के यहाँ उसके ना हो पाने को समझा जा सकता है. मुक्तिबोध की तमाम कविताओं को ले, उसमें उनका मन किसी मित्र ,किसी प्रेमिका, किसी संगी से बात करने को व्याकुल नज़र आता है. क्यों? क्योंकि जीवन व्यापार-से उस सामाजिकता, संवादपरकता को निथार लिया गया है. उसका स्थान एक सूक्ष्म यांत्रिकता ने ले लिया है . मुक्तिबोध की हर कहानी, हर लेख संवाद से ही शुरू होती है, यहाँ तक कि उनकी तमाम कविताओं में भी एकायामी स्वर नहीं है. 

स्वरों की यह बहु-आयामिता मुक्तिबोध लेकर आते हैं. हिंदी में इस ओर कम ध्यान गया आखिर वे कौन सी जरूरतें थीं, कौन से कारण थे कि मुक्तिबोध को डायरी की शक्ल में आलोचना लिखनी पड़ी? क्यों वे आपनी कविताओं में स्वयं से ही संवाद करने लगते हैं? मुक्तिबोध का आत्मसंवाद इतना व्यापक गूढ़ और बेचैन करने वाला क्यों है? क्या इस आत्मसंवाद के द्वारा मुक्तिबोध के लिए आपने अंतःकरण की बेचैनी को अधिक संगत रूप में रखना संभव नहीं होता? मुक्तिबोध को पढ़ते हुए लगता है कि इस संवाद-परकता के द्वारा समाज की सामूहिक चेतना को एकायामी होने से बचाया जा सकता है. मुक्तिबोध की बेचैनी के मूल में समाजपरकता को नये सिरे से विकसित करने की कोशिश है.

मनुष्य नगरों में आ चुका है. कृषि जीवन–समाज से बाहर आ चुके मनुष्य को सामाजिकता की तलाश है. यह तलाश उसे स्मृतियों में ले जाती है. वह स्वप्न जगत में विचरण करने लगता है. बाहर सड़कें हैं संस्थाएं हैं, पत्रकार हैं, डोमाजी उस्ताद और हत्यारा बलवान है. ये सब सिर्फ बाहर हैं ,लेकिन भीतर प्रवेश पाने को आतुर. औद्योगिक समाज ने भीतर की दुनिया के खालीपन को विस्तृत कर दिया है. एक काफ्काई संसार रच दिया है. मुक्तिबोध की कविता इस अंधेरी दुनिया को अभिव्यक्त करती है. उसके अभिव्यक्त करने में ही उसका प्रतिकार अंतर्निहित है.

कि इतने में
उसी अँधेरे में
हाथ में लेकर एक रहस्यमय लालटेन
नंगे पाँव , लगातार तेज़ चलता हुआ ,
ढूंढता हुआ हमें
कोई लक्ष्य आता है
जिसे देख
आभ्यन्तर ग्रन्थियां, बहि:समस्याएं.
चीख-चीख उठती हैं. (एक स्वप्न कथा 268-269/2)

मुक्तिबोध अन्दर और बाहर के द्वंद्व को आधुनिक परिस्थितियों में अभिव्यक्त करते हैं. आधुनिक परिस्थिति का अर्थ क्या? वह ये कि एक छद्म बाहरी दुनिया बना दी गयी है, उस छद्म के परिणाम- स्वरुप एक छद्म अन्तस् भी निर्मित हो गया है. मनुष्य का यथार्थबोध कहीं गुम हो गया है. उसकी चेतना इस छद्म में लुप्त हो रही है. वह प्रतिरोध के छद्म से अपने को बचा लेना चाहता है, लेकिन वह जितनी कोशिश करता है, उतना ही वह इस छद्म के कीचड़ में फंसता जाता है. रास्ता क्या है? मुक्तिबोध को लगता है मनुष्य की इस निष्क्रिय होती चेतना को रोकने के लिए यह जरुरी है कि हम अपने इन्द्रिय-संवेदन को पुनः जागृत करे. बाहर की दुनिया के छद्म को ठीक-ठीक समझने के लिए यह जरुरी है कि हमारा इन्द्रिय-संवेदन दोष रहित रहे .

खूंखार सिनिक संशयवादी
शायद मैं कहीं न हो जाऊं
इसलिए, बुद्धि के हाथों पैरों की बेड़ी
जंजीरे खनकाकर तोड़ी (मेरे सहचर मित्र 251/2)

जंजीरे जब भी टूटेंगी खनक तो होगी ही. लेकिन उसे सुनने के लिए यह जरुरी है कि हम संज्ञाशून्य न हो. इसलिए मुक्तिबोध अलग से बल देकर लिखते हैं कि जंजीरे खनकार तोड़ी, क्योंकि खनकने में इन्द्रियों को संवेदित करने की प्रक्रिया का संदर्भ है.




(दो)
मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति इतनी भयावह क्यों नज़र आती है? निराला पन्त या प्रसाद की कविताओं में प्रकृति और मनुष्य का एक सहचर रूप नज़र आता है. निराला के यहाँ प्रकृति मनुष्य की दृढ़ता, सौन्दर्यबोध और अनुराग को प्रदर्शित करती है. एक स्तर पर मनुष्य की चेतना का उद्दीपन भी करती है. कमोबेश यह बात छायावाद के तमाम कवि और नई कविता के अधिकांश कवियों के विषय में कही जा सकती है. कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं.

क्यों मानव सुलभ सहज
आकांक्षाओं के तरु
यों ठूंठ हुए वृन्दावन के ,
मानव-आदर्शों के गुम्बद से आज यहाँ
उलटे लटके चिमगादड़ पापी
भावों के.
क्यों स्वार्थ-घृणा-कुत्सा के
थूहर जंगल में
हैं भटक गये ये लक्ष्य (मेरे सहचर मित्र ,252/2)

XXXXXX

वह कारण, सामाजिक जंगल का
घुग्घू है,
है घुग्घू का संगठन, रात का तम्बू है.
यह भीतर की जिन्दगी नहाती रहती है.
हिय के विक्षोभों के खूनी फव्वारों में ,
अंगारे में.(मेरे सहचर मित्र ,253/2)

XXXXX

कटे उठे पठारों का दर्रों का
धँसानों का बियाबान इलाका .
गुंजन रात
अजनबी हवाओं की तेज़ मार धाड़,
बरगदों बबूलों को तोड़-ताड़ फाड़,
क्षितिज पर अड़े हुए पहाड़ों से छेड़-छाड़,
नहीं कोई आड़. (चम्बल की घाटी में ,401/2)

मुक्तिबोध की कविताओं से ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. प्रकृति का यह भयवाह दुर्दमनीय एवं कठोर रूप हिंदी कविता में अन्यत्र नज़र नहीं आता. आखिर प्रकृति का यह भयवाह रूप क्यों ? क्यों मुक्तिबोध की कविताओं में घुग्घू, उल्लू जैसे बिम्ब आते हैं. गतिशील और उद्दाम नदियों के स्थान पर ठहरे काले जल से भरी सुनसान बावरी क्यों है. भुतहे पीपल का जिक्र यहाँ वहां उनकी कविताओं में भरा परा है. आखिर मुक्तिबोध प्रकृति को इस तरह क्यों देखते हैं. क्या इस देखने में कोई संकेत, कोई दृष्टि नज़र आती है . मुक्तिबोध के संदर्भ ये जरूरी प्रश्न हैं.

मनुष्य और प्रकृति के बीच एक अटूट ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है. प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध उत्तरोतर विकसित होता गया. मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है. वह प्रकृति से संघर्ष भी करता है और मनुष्य होने की प्रक्रिया में प्रकृति के और निकट चलता जाता है. प्रकृति का बोध ही उसके भीतर सौन्दर्य बोध को उद्भूत करता है. प्रकृति की दुरुहता ही मनुष्य को साहस और दृढ़ता की नई मंजिलों तक लेकर जाती है. संक्षेप में हम प्रकृति के बगैर किसी मनुष्यता की कल्पना नहीं कर सकते हैं.

औद्योगिक क्रांति नें इस सम्बन्ध को विकृत करना शुरू किया. मनुष्य प्रकृति से संघर्ष करता था, लेकिन हर बार जीत –हार से परे मनुष्य नये सोपान चढ़ता जाता था. प्रकृति की दुरुहता से संघर्ष करते हुए मनुष्य ने श्रम के सौन्दर्यबोध को अर्जित किया. नैतिकता, ईमानदारी सदयता जैसे मानवीय गुण इसी सौन्दर्यबोध के द्वारा समाज में स्वीकृत होते गये. कला संगीत कविता आदि की जरूरत मनुष्य को प्रकृति के और नजदीक लाती गयी. परन्तु औद्योगिक क्रांति ने इस सम्बन्ध को असंतुलित कर दिया. मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष द्विआयामी नहीं रह गया. औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप एक तीसरी चीज़ विकसित हुयी. आरम्भ में मनुष्य ने यंत्रों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप निर्मित करना शुरू किया. मनुष्य के हाथों की तुलना में यंत्रों की गति अबाध थी. हर नई कोशिश उस गति को और तीव्र करती जाती थी. 

श्रम की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की सामाजिकता का भी विकास और विस्तार होता गया. यंत्रों ने उसे भी प्रभावित करना शुरू कर दिया. एक तरफ समाज-विहीनता की स्थिति तो दूसरी तरफ मशीनों से लगातार पिछड़ने का आत्मबोध. इन दोनों के सम्यक प्रभाव ने मनुष्य के भीतर एक विकृत सौन्दर्यबोध को रचना शुरू किया. वर्चस्व के बोध ने मनुष्य के भीतर एक बड़े शून्य को रचा. पश्चिम ने इसी वर्चस्व बोध के रास्ते पूरब को निगल लेना चाहा. यह देखना कठिन नहीं है कि साम्राज्यवादी न सिर्फ पूरब के लोगों से घृणा करते थे, अपितु वहां की प्रकृति से भी नफरत करते थे. वे सब कुछ का उन्मूलन चाहते थे.

द्विवेदी युग से लेकर छायावाद तक की हिंदी कविता में प्रकृति पर जोर है. बाह्य दृश्यात्मकता अधिक है. ऐसा इसलिए भी कि वे पूरब की प्रतिरोध की चेतना को प्रकृति के वर्णन के द्वारा भी रच रहे थे. प्रकृति वर्णन इस अर्थ में साम्राज्यवाद विरोध का एक तरीका था. आज़ादी के पश्चात भारत स्वयं पश्चिम के रास्ते पर चल पड़ा. वर्चस्ववादी आधुनिकता ने देश में जड़े जमानी शुरू की. औद्योगीकरण का एकायामी मार्ग विकसित होने लगा. इस बात पर बल दिया जाने लगा कि स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान देश लगातार पिछड़ता गया है. उसकी भरपाई के लिए यह जरुरी है कि तीव्र आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया जाए. 

इस चेतना ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना में एक चौड़ी दरार उत्पन्न कर दी. मुक्तिबोध के समग्र लेखन में भारतीय चेतना में आई इस दरार को महसूस किया जा सकता है. मुक्तिबोध देश पर आसन्न संकट को प्रकृति की भयावहता के रूप में इंगित करते हैं. तीव्र औद्योकीकरण के असंतुलन ने उस चेतना को ही निगल लिया, जिसके रास्ते भारत की आधुनिक चेतना का निर्माण हुआ था, हो रहा था. मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति की भयावहता दरअसल उस असंतुलन को रेखांकित करने की कोशिश है. मुक्तिबोध प्रकृति में सघन मनुष्यता को महसूस करते हैं लेकिन यथार्थ में उन्हें में सब कुछ जालों से भरा भुतहा और अपसकुनकी सूचना देने वाला प्रतीत होता है.

यह महज़ मुक्तिबोध की कल्पना और यथार्थ भर का विभाजन नहीं है, बल्कि देश की मूल चेतना और वर्तमान की वर्चस्ववादी चेतना का भी विभाजन है. कहने का तात्पर्य यह कि मुक्तिबोध प्रकृति के जरिये जब मानवीय चित्रों को कल्पना और स्मृति में अभिव्यक्त करते हैं तो वे देश की वांछित चेतना को रेखांकित कर रहे होते हैं,  लेकिन ज्यों ही वे यथार्थ की भावभूमि पर उतरते हैं, उन्हें एक भयवाह और दुश्चिंताओं से भरा समय और समाज नज़र आता है.

इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, ज्वाल नहीं है.
सिर्फ धुएं के बादल-दल हैं
और धुआंते हुए पुराने हवामहल हैं
लाख लाख घुमती चिंगारियां हैं मुतफ़न्नी (एक प्रदीर्घ कविता ,295/2)

इस उद्धरण में चाँद सूरज और ज्वाल के स्थान पर धुंएँ के बादल-दल का होना बताता है कि मुक्तिबोध आधुनिक वर्चस्ववादी सभ्यता को किस तरह देख रहे थे. इसी कविता में आगे वे लिखते हैं कि वे बच्चे जो कभी जनता की आँगन में नंगे खेले थे-

किन्तु आज उनके चेहरे पर
विद्युत वज्र गिरानेवाले
बादल की कठोर छाया है
तारक मंडल पार पुरानी
ठंडकभरी सुदूर दूरियों की परछाई
उनके मुख पर
नंदन-वन की रूपाकारी
लन्दन-वन की फैली झांईं उनके मुख पर (एक प्रदीर्घ कविता, 297-298/2)

इस अंश में बादल और लन्दन –वन से स्पष्ट समझा जा सकता है कि मुक्तिबोध वर्तमान को कैसे देख रहे थे. लन्दन-वन साम्राज्यवाद रूपक भी है और उस चेतना को भी इंगित करता है जिसपर भविष्य के भारत की नींव रखी गयी है.

मुक्तिबोध के लेखन की बड़ी खूबी यह है कि वे विधाओं का अतिक्रमण करते हैं. उनके साहित्य को आप किसी विधा की चौहद्दियों में रखकर समझ नहीं सकेंगे. उनकी आलोचना, कविता या कहानी सभी पारम्परिक अर्थों में विधाओं के निश्चित दायरे से बाहर निकल आती हैं. तो क्या मुक्तिबोध शिल्प के स्तर पर अपूर्ण साबित होते हैं? दरअसल मुक्तिबोध वैचारिक प्रवाह और अन्तराल के लेखक हैं ,वे मनुष्य की चिंताओं का आन्तरिकीकरण करते हैं . यानी बाहर की दुनिया के समनांतर, भीतर भी एक दुनिया का निर्माण. ऐसा करते हुए मुक्तिबोध जानते हैं कि यह हुबहू करना संभव नहीं है. इनके बीच कोई न कोई अन्तराल छूट ही जाता है. मुक्तिबोध उन अंतरालों को सूत्रों में गढ़ते हैं. विधाओं के पूर्वनिर्मित दायरों में मुक्तिबोध को लगता है कि रचनाशीलता बाधित एवं विकृत होती है . उनका मूल उद्देश्य बाह्य का अन्तरिकीकरण और फिर उस अन्तः का बाह्यकरण है. रचना का वास्तविक सौन्दर्य अंतर-बाह्य के इस द्वंद्व में ही घटित होता है. यह कुछ न कुछ छूट जाने से ही उत्पन्न होता है. 

यही वह बिंदु है जहाँ लेखक विचार को रचना में बदलता है. इस प्रक्रिया को मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदना के संवेदनात्मक ज्ञान में रूपांतरण के तौर पर चिन्हित करते हैं. मुक्तिबोध इसे एकायामी मार्ग नहीं मानते. वे दोनों दिशाओं की सतत यात्रा को रचनाकार के लिए जरूरी मानते हैं. इस प्रक्रिया में लेखक की भूमिका तीसरे की है. वह छिपा हुआ है, परन्तु वह दोनों में मौजूद भी है और उसे दोनों से मुक्त भी होना है. मूल लेखकीय समस्या यहीं से उत्त्पन्न होती है. आमतौर पर रचनाकार स्वयं को बद्ध होने से रोक नहीं पाता.

मुक्तिबोध के इस सूत्र में दो प्रक्रियाओं का जिक्र है. क्या ये दोनों प्रक्रिया एक क्रमिकता को रचते हैं. मुक्तिबोध यह नहीं मानते. वे इनके बीच मौजूद अंतरालों को महत्व देते हैं. रचनाकार का निर्माण इन्हीं अंतरालों में होता है. मनुष्य की संवेदनाओं का प्रकटीकरण भी अंतरालों में ही होता है. शब्दों के बीच के अन्तराल, वाक्यों के बीच के अन्तराल, सम्बन्धों के बीच के अन्तराल. मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता को इन्हीं अंतरालों में विकसित करता है. यही वह पक्ष है जहाँ एक मौलिक रचनाशीलता विकसित होती है. 

संवेदना का निज आत्म-चेतस रूप विकसित होता है.औद्योगिक सभ्यता अंतरालों को नष्ट करती है. वह अंतरालों को वस्तुओं के अपरिमत संसार से भरती है. यह सतत वस्तुपरकता मनुष्य की संवेदनाओं को नष्ट करती जाती है. इसीलिए मुक्तिबोध ज्ञान और वस्तु के वर्चस्व को संवेदनात्मक विस्तार से रोकते हैं. वे इस सतत वस्तुपरकता के विरुद्ध सहज संवाद-परकता की परिकल्पना रखते हैं. क्योंकि मनुष्य के बीच इस वस्तुपरकता ने अजनबियत के बीज बो दिए हैं. मुक्तिबोध को लगता है –

अपने  समाज में अकेला हूँ बिलकुल
मुझमें जो भयानक छटपटाहट है
नहीं वह किसी में ,
इसलिए अपना ही श्रेणीगत
साम्य है जिनसे, उनसे ही गहरा है विद्वेष-
विरोध, विरोध, विरोध
किन्तु जो दूर हैं
अलग, पृथक हैं
जो अति भिन्न हैं
वे प्रियदर्शन सहचर मित्र हैं मेरे (चम्बल की घाटी में ,416/2)

यही वजह है कि मुक्तिबोध सतत विरोध की संवेदना का सृजन करते हैं. वे इसी का सौन्दर्यबोध रचते हैं.

मुक्तिबोध के संदर्भ में फैंटेसी की बात अक्सर होती है. उसे अमूमन उनकी काव्य कला या टेकनिक से जोड़कर देखा जाता है. इस बात पर कम ही विचार किया गया है कि आखिर मुक्तिबोध को फैंटेसी की जरूरत क्यों पड़ती है. क्यों वे कल्पना-लोक को शब्दों में परिवर्तित करते हैं? अपने समय के दबावों से तो मुक्तिबोध कहीं इस ओर नहीं मुड़ते? मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा को सझने के क्रम में ये जरूरी प्रश्न हैं. मुक्तिबोध की काव्य चेतना सतत विकासमान रही. वे तार सप्तक से शुरू करते हैं लेकिन वे धीरे धीरे अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं. बाद की उनकी कविता अभिव्यक्ति के नये रूपों की तलाश करती है. 

मुक्तिबोध के लेखन को रूप और अंतर्वस्तु के तौर पर ज्यों ही हम विभाजित कर देखने की कोशिश करते हैं त्यों ही हमसे उनका सूक्ष्म यथार्थबोध छूटने लगता है. आज़ादी के बाद के बन रहे देश की दशा और दिशा को जिस तरह मुक्तिबोध ने 50’ के दशक में पढ़ लिया था, वह अद्वितीय है. मुक्तिबोध जिसे लिख रहे थे, वह भविष्य का यथार्थ था. उसे सिर्फ वर्तमान के कार्य-कारण सम्बन्ध से स्पष्ट नहीं समझा जा सकता है. ऐसे में मुक्तिबोध के लिए फैंटेसी प्रकट-यथार्थ से एक रचनात्मक दूरी की तरह है, जिसमें वे भविष्य की घटनाओं को कल्पना चित्रों के द्वारा गढ़ते हैं.

एकाएक मुझे भान होता है जग का,
अख़बारी दुनिया का फैलाव,
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
पत्ते न खड़के,
सेना ने घेर ली हैं सड़कें.
बुद्धि की मेरी रग
गिनती है समय की धक्-धक्.
यह सब क्या है
किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह
मॉर्शल-लॉ है!( अँधेरे में ,331/2)

इस अंश को को शिल्प और अंतर्वस्तु के विभाजन के तौर पर नहीं देखा जा सकता .यहाँ समय की गति से संवेदना की गति का मिलान होता है. एक लय निर्मित होती है . संवेदनात्मक प्रवाह इसी लय में मौजूद है. जो कवि के अवचेतन में घटित हो रहा है, उसे वह अपनी चेतना के बोध में लाता है. मुक्तिबोध की चिंता यही है कि जो संभाव्य है, जिसे इन्द्रिय अपनी जाग्रत संवेदना से देख पा रही हैं उसे यथार्थ अनुभव में कैसे बदला जाये. मुक्तिबोध की फैंटेसी को हम उनके अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं. यह मनोवैज्ञानिक उपक्रम भर नहीं है. समूची अँधेरे मेंकविता एक भविष्यकाल को निरुपित करती है. लेकिन मुक्तिबोध उस अनुभव को अपने अवचेतन से चेतन में बाहर निकाल लेते हैं. यही उस कविता को एक सफल कविता बनाती है. वह कविता अपने समय की चौहद्दियों को तोडती है. 

60’ के दशक के यथार्थबोध में, समाज में उस तरह डोमाजी उस्ताद या हत्यारा बलवान या नगर सेठ उपस्थित न हो लेकिन मुक्तिबोध का अति संवेदन शील जागरूक मन, उसे संभाव्य मानकर अपने अवचेतन में दर्ज़ करता है. वह एक स्याह डर के रूप में, एक काले धब्बे के रूप में वहां अंकित है. भय का सृजन मुक्तिबोध के यहाँ अवचेतन से प्राप्त इन्हीं अनुभवों से होता है. वे इन अनुभवों को सामान्य अनुभव में फैंटेसी के माध्यम से बदलते हैं. मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा एक गंभीर और सैद्धांतिक विश्लेषण की मांग करती है, ज्यों ही हम उसे शिल्प या टेकनिक तक महदूद करते हैं हम उसके प्रभाव को कम कर आंकने लगते हैं.

मुक्तिबोध को पढने के भिन्न भिन्न तरीकों को इजाद किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध के लेखन से यह तो स्पष्ट ही है कि वे पारम्परिक पाठ विधि से स्पष्ट नहीं होते. वे एक ही समय में कई दिशाओं में विचार कर रहे होते हैं. सामान्य रूप से हम एक दिशा में विचार करते हैं,उसके पश्चात हम दूसरी तरफ बढ़ते हैं. मुक्तिबोध के साथ ऐसा नहीं है. वे एक समय में कई दिशाओं में वैचारिक यात्रा कर रहे होते हैं.उनकी विचार प्रक्रिया बहुआयामी है. 

इस बात को दरकिनार कर जब हम सामान्य बोध के साथ या सहज बुद्धि के साथ मुक्तिबोध को पढने की कोशिश करते हैं तो दो तरह की कोशिशों की ओर मुब्तिला होते हैं. अव्वल तो हम मुक्तिबोध को खारिज कर दें, दूसरे हम अपने स्वीकृत तर्कों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने की कोशिश करें. दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना की दोनों परम्पराओंने इन्हीं रास्तों का अनुपालन किया है, और कहना न होगा कि इस रास्ते जो मुक्तिबोध का विश्लेषण नज़र आता है वह किसी समग्रता की बजाय अधूरेपन की तरफ ही ले जाता है.

मुक्तिबोध के समग्र लेखन में विधाओं की सीमाओं के परे, चेतना के विभिन्न एकात्मकताओं और द्वैत की तलाश की जानी चाहिए. मसलन उनकी किसी कविता के अंश को उनकी किसी कहानी के टुकड़े के साथ जोड़कर पढने की कोशिश की जा सकती है या डायरी के किसी अंश में मौजूद विचार को कविता में व्यक्त किसी संवेदना से मिलकर देखा जा सकता है.  

जिस तरह का समय और समाज हमारे इर्द गिर्द निर्मित हो रहा है उसमें मुक्तिबोध को नये सिरे से समझने की जरुरत महसूस होती है. मुक्तिबोध ने समाज को कभी एकायामी नहीं माना. वे राजनीति को केंद्र में रखकर समाज और संस्कृति को देखने के पक्षधर नहीं थे. पिछले पचास साल में यानी मुक्तिबोध के गुजर जाने के बाद से समाज और संस्कृति के रास्ते बुनियादी बदलाव किये गये हैं . मनुष्य की अवधारणा को ही बदल दिया गया. एक सतत समाजविहीनता क्रूरता और हिंसा समाज का स्थायी भाव होता जा रहा है. मनुष्य अपने ही खिलाफ साजिश में लगा हुआ है. उसके आत्म को ही अनुकूलित कर दिया गया है. मुक्तिबोध ने तो आत्मसंघर्ष, आत्मालोचना, आत्मचेतस जैसे पद दिए. हमारे लिए अब भी उन रास्तों पर चलना एक चुनौती है. वर्तमान स्थिति में तो अनिवार्यता भी है. मुक्तिबोध को वर्तमान में पढने का एक अर्थ यह भी है कि हम उस आत्म-संघर्ष आत्म-चेतना और आत्मालोचना की यात्रा फिर से आरम्भ करें.बकौल मुक्तिबोध-

प्रकांड अनबन ,
निज से ही संघर्ष
चाहिए मुझको दीप्त अनवस्था
इतनी कि स्वयं ही टूटकर
शून्य गगन में
ब्रह्माण्ड धूल के परदे सा बन जाऊं
फ़ैल जाऊं तन जाऊं !!(चम्बल की घाटी में, 408/2)

मुक्तिबोध ने निज से संघर्ष कर ही इस दीप्त अनवस्था को आर्जित किया था. उनकी इस अनवस्था ने रचनात्मक विस्फोट के जिस चरम को रचा, वह आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है. वहीं से अपलक ताकती दो ईमानदार आँखें हैं जो हर दम हमारी पीठ पर गड़ी हुयी हैं.
_______________________
# ग़ालिब के एक शेर से उद्धृत
(ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है l
इक शम्अ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है ll)

$ सभी उद्धरण मुक्तिबोध रचनावली से लिए गये हैं 
______________________________________

अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबेARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com



अनिरुद्ध उमट की नई कविताएँ

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पेंटिग : SOMNATH HORE


प्रेम और मृत्यु कविताओं के प्रिय पते हैं, ये यहाँ आती - जाती रहती हैं और अक्सर यहीं से पनपती भी हैं. जीवन इन्हीं के बीच पसरा है. एक जिन्दगी से लगाव का चरम है, एक अ – लगाव का उत्कर्ष. राग और विराग के बीच के इस विस्तृत संसार में बहुत कवि मिलेंगे पर इन किनारों को जीने वाले कवि विरले ही होते हैं. अनिरुद्ध उमट  इसी तरह के कवि हैं. जैसे मृत्यु के पास अतिरिक्त नहीं रहता. उसी तरह इन कविताओं की संरचना में भी शब्दों का अनावश्यक वजन नहीं है.  

अनिरुद्ध उमट  की कुछ नई कविताएँ.



अनिरुद्ध उमट की कविताएँ                       





स्पर्श

कोयल के कण्ठ से
कूक की शक्ल में
सूर्य ने
तुम्हारे कान के पास
पहला स्पर्श रखा

पूरी देह पर पसरी रात
अचकचाई

भोर पारदर्शी चादर बन
लिपट गयी.



अभी

अभी देखो तो बेंच पर से जाने वाला रह गया है बेंच कुछ चली गयी है

अभी देखो तो जिस खिड़की पर बैठा बाहर निहार रहा था वह भीतर नही रहा

अलबम में से हाथ इतना निकला कि मटकी में डूबता लोटा मध्य ही में थिर हो गया और प्यास डूब गयी

बैठा था जिस दीवार को थामे वह दीवार ढही सपनों की सूखी पुकारों में

अभी घुटनों में दर्द यूं उठा जैसे अंतिम मोड़ से पहले गले लग रहा

अभी कोई जल की धार नीचे पत्थर सा बहता.




जब तुम पते भूल गए हो

जाने किस हवेली में पीतल के पिंजरे में मिट्ठू रहता था
अँधेरे कमरे में काली साड़ी पहनी गोरी वृद्धा

दो कमरों के बीच
गोल मेज पर
पीतल का पान-दान अभी महका है

जिसमें लाल हुए होंट दिख रहे हैं

वह पान-दान इस सुबह में तैर रहा

जब तुम पते भूल गए हो
पते तुम्हें






आऊँगा

उसने कहा कोई दिन आऊंगा
आप को लिए जाऊँगा

मैंने नही कहा

आखिरकार मुझे ही चुननी पड़ी
अस्थियां
स्वप्न
पुकार

मैंने नही कहा
आऊंगा

देखा मैंने
वह चुग रहा था
राख में
दन्त
नख
अस्थि

अभी श्मसान में हमने देखी
रागाकुल
लपटों में
स्वाहा होने से इनकार करती
कामना




आया वह

अपनी मृत्यु के बीस साल बाद आया वह
वैसा ही
हाँ
ठीक वैसा ही

बोला वो उस दुपहर
शिकंजी पीनी रह गई थी बाक़ी

फिर मुझे भी एक गिलास देता बोला
अरे आप ने भी
नहीं पी

और देखिए ये पत्र तब लिखा था
आज आप को
पोस्ट करने जा रहा

रविवार को डाकिया नहीं आता तो क्या
पत्र तो पोस्ट कर ही सकते हैं

धप्प से लाल डिब्बे में कुछ गिरा

बीस बरस बाद
कोई हिचकी
इस लाल डिब्बे को हिला देगी





बात अबोली

बात करते करते झूल जाएगी
ढीली शाख़ सी गर्दन

बात करते करते दीवार सहारे रखी
निसरनि बिछ जाएगी
बीच आँगन

बात करते करते बात
अबोली रह जाएगी

बात करते करते
हम लौटेंगे
गूँगे
मृत.





भेदिया

हमारी देह को रात के चमकते चूहे तलाश लेगे. पर भोग नही स्वीकारेंगे. तुम किसी सुरंग में अपनी देह के रहस्य किसी अंधे साधक को सौंपोगे ...उसकी अन्धता तुम्हारे उजास में दम तोड़ देगी.
        अभी जब तकिये में कोई भेदिया नही ....तब तुम मेरा भेद तकिये की सीवन में रख रही हो. तुम्हारे बालों में एक सर्प मार्ग भूल गया है.
       दीवारों में तुम अपने होंट ईंटो की जगह रख रही हो.
       मेरे आने का दुखद इन्तजार तुम्हें है...आसमान से एक विलाप में सिंदूरी जीभ मेरी पलको पर मचल रही है.
        तुम नीद में बिल्ली की तरह अँधेरे घर में मुझे दूध की तरह पलके मूंदे पी रही हो.



अनुवाद

तुम्हारी देह
कोई अनुवाद है अगर

मेरे पढ़े का मूल
तुम में
अपने रोम रोम से
खिलता है

मेरे वस्त्रों में तुम्हारे
निज अंगों की
सुवास की मद्धम दहक

तुम्हारे वस्त्र जो अभी मैं धारे हूँ.





किन्तु

शब्दों के होंठ थे
होठों के शब्द

रमणी का नेहिल अस्वीकार

किन्तु
नमक पान होना था
हुआ




अभिषेक

शयन कक्ष में तुम थीं
हर जतन कक्ष

कहीं न था मैं

आभूषण थे
न होने को

केश थे बिखरने को
अन्तरिक्ष में

तुमने दोनों हाथों
पृथ्वी की तरह
मुझे ग्रहण किया

अभिषेक.




अब

फागुन में तुमने फागुन को
गुन हीन किया

अब सूर्य की किरणे सीधी गिर रही.




जिसने

निज हुआ जाता है
अपने ही हाथों
समर्पित

स्व को जिसने कंचुकी की
गाँठ से भी कस बाँधा।



उत्कीर्ण

अभी रची जा रही है
महावर
जबकि तुम स्वप्नों की देहरी पर
एक एक वसन
मुक्त हो रही हो

अभी मुझ में नख दन्त तुम
उत्कीर्ण कर रही
अपने श्यामल समर्पण को

और ताम्बूल पत्र
तुम में
घुलने को आतुर

अभी पलकें मूंदे
तारों ने
तुम्हारे रोमरोम में
तनिक झिझकते

झंकृत किये तार कसे.



देह सिक्त

निद्रा में पुकारती है
नाम
जो निद्राहीन है

किसी करवट उच्चारित नाम
अनुच्चार में सधे क़दमों बढ़ता है
गर्दन पर पता अंकित कर
दबे पाँव लौट आता

फिर तुम वसन मुक्त
उस मार्ग
देह सिक्त स्वयं को रख देती

प्रतीक्षा में एक एक पुष्प झरता.



स्पर्श है नाम का

करवट में सपना नहीँ
स्पर्श है
मेरे नाम का

साँस जब बह रही हो
देह को धारा में बहाती

मध्य रात्रि तुम्हे सपने सा निरावरण करता

फिर तुम अँधेरी रात सी मुझ पर टांकोगी
तारे
मेरी साँस को किसी प्राण लेवा सर्पिणी सी

वनस्पति समस्त जगत की
हम में
अपने अंधियारे में बीज फूटते देखेगी

और हम श्लथ
और हम स्वरों के नाद में
और हम गूंथते आकाश गंगा
और हम अमावस का विलोपित चाँद
एक दूजे में

गोपन अवस्थित.
______
अनिरुद्ध उमट
28 अगस्त 1964, बीकानेर, राजस्थान

प्रकाशन
उपन्यास - अंधेरी खिड़कियां, पीठ पीछे का आंगन
कविता संग्रह - कह गया जो आता हूं अभी, तस्वीरों से जा चुके चेहरे.
कहानी संग्रह - आहटों के सपने
निबन्ध संग्रह - अन्य का अभिज्ञान आदि

सम्मान-
राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा उपन्यास- अंधेरी खिड़कियां- को रांगेय राघव सम्मान
कृशनबलदेव वैद फेलोशिप

संस्कृति विभाग, भारत सरकार की जूनियर फेलोशिप आदि 
 anirudhumat1964@gmail.com

मीमांसा : बारुक स्पिनोज़ा : प्रचण्ड प्रवीर

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यहूदी मूल के महान डच दार्शनिक Baruch De Spinoza(२४ नवम्बर १६३२ - २१ फ़रवरी १६७७) अपने प्रसिद्ध क्रांतिकारी ग्रन्थ 'Ethics(१६७७)के कारण जाने जाते हैं. हिंदी में उनकी चर्चा कहीं-कहीं मिलती है, पर उनकी कृति का अनुवाद देखने में अभी तक नहीं आया है. उनके दर्शन पर कोई भाष्य भी कहीं दिखा नहीं है. कोई भाषा बिना स्पिनोज़ा को पढ़े और समझे कैसे आधुनिक कही जा सकती है ?

प्रचण्ड प्रवीर का यह आलेख बारुक स्पिनोज़ा को पढ़े जाने की पूर्वपीठिका है. इसके मूल में यह आकांक्षा है कि कृति का समुचित अनुवाद भी हिंदी में प्रकाशित हो. (अगर हुआ है तो वह सर्व सुलभ हो)
संक्षेप में ही सही इस आलेख में स्पिनोज़ा के दर्शन को समझने और भारतीय चिन्तन परम्परा से उनकी   तुलना का एक सार्थक उद्यम दिखाई देता है.


बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?              

प्रचण्ड प्रवीर


ससे पहले कि हम इस बात पर चर्चा करें कि बारुक स्पिनोज़ा कौन थे और उनके ग्रंथ को क्यों पढ़ा जाए, एक विद्यार्थी के रूप में मैं यह विचार कर लेना जरूरी समझता हूँ कि हमारे सामने कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ हैं. मेरा मानना है कि बहुत विद्यार्थी इसलिए पढ़ते हैं कि क्योंकि हमारी परिपाटी है कि पढ़ने से योग्यता मिलेगी. और उससे जीविकोपार्जन का साधन मिलेगा. इसी अर्थ में निहित हो कर दिन-प्रतिदिन हमारे अध्ययन का दायरा सीमित और सकुंचित होता जा रहा है. इसका परिणाम यह है कि तर्क, शील, असहमति, सिद्धांत जैसे बहुत से विषयों पर हमारी समझ कम या न्यून होती जाती है.

छांदोग्य उपनिषदमें श्वेतकेतु-उद्दालक के संवाद में यह प्रश्न उठता है कि वह कौन सी ऐसी चीज है, जिसे जानने से हम सब कुछ जान सकते हैं. अगर हम उपनिषद के बतलाए उत्तर को न भी माने, तो भी यह सहज विचार उठता है कि मनुष्य सब कुछ जानने की इच्छा रखता है, पर क्या वह सब कुछ जान सकता है?  साधारणतया आलस्य या कायरता से सब कुछ जानने से डरते हैं या उसकी सम्भावना को नकारते हैं. अगर विचारा जाय कि अगर हम सब कुछ जान सकें, तो यह हम मानेंगे कि जानने की बहुउपयोगिता है और उसके पश्चात जीविकोपार्जन समस्या नहीं रह जाती. ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ जानने योग्य हो, मसलन आपका मकान कितने ईंटों से बना है, उसमें कितना सीमेंट-बालू लगा है? बहुत से इस तरह के निरर्थक ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं है.

ज्ञान के विषयों को अर्जन करना विद्या अर्जित करना कहलाता है. इस हिसाब से नए विद्या क्षेत्र आते रहने से, नई विधाओं की जानकारी बढ़ते रहने से, नई चुनौतियाँ भी सामने आती रहती हैं. लेकिन इन सब के बावजूद कार्यों की तीव्रता के अतिरिक्त, मानव जीवन पर कोई विशेष अंतर नहीं आया. कहने का तात्पर्य यह है कि सीखने की दर, फिर काम-काज करने की क्षमता, विश्राम की आवश्यकता, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, मानसिक तनाव, कमोबेश समय के हिसाब से थोड़े बहुत बदले हैं पर बहुत बड़ा अंतर देखने को नहीं मिलता. इतिहास के अध्ययन करते हुए हम पाते हैं कि आज भी कमोबेश सभ्यता कुछ वैसी ही है जो हज़ारों साल पहले हमारे पूर्वजों की थी, जैसे कि किसी शासक के शासन में, किसी अर्थ व्यापार में लिप्त, पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझते, व्याधि-रोग से लड़ते हुए, तरह-तरह की विभीषिकाओं का सामना करते हुए. समय के साथ हर व्यापार का रूप बदला, पर सिद्धांत में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है.

हमारे प्राचीन वाङ्मय में ज्ञान और विद्या में  भेद किया गया है, जहाँ विद्या संकुचित ज्ञान को कहते हैं. आमतौर पर ज्ञान का आशय आत्मिक ज्ञान से लिया जाता है, जो मेरा आशय नहीं है. ज्ञान का दूसरा अर्थ नीतिगत आचरण, सही गलत का निर्धारण, स्वतंत्रता- परतंत्रता, प्रकाश-विमर्श, सम्बन्ध की एकरूपता-विविधता, काल-नियति की सत्ता, स्वभाव-प्रभाव, गुण-धर्म आदि के अबाधित सम्यक विचार से लिया जाता है. यहाँ एक आपत्ति की जा सकती है कि यह दर्शन का विषय निर्धारित कर दिया गया है, इसलिए यह भी एक तरह की विद्या है. बहरहाल, मेरा कहना है कि विद्यार्थियों के समक्ष महती चुनौती सब कुछ जान लेने की है, जिसे आम तौर पर उपयोगी समझा जाता है या जिसकी उपयोगिता को हम नकार नहीं सकते. हम इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि हमने अपने जानने और समझने का दायरा छोटा कर दिया है. जिसमें योग्यता रहती है, उसके लिए आजीविकोपार्जन कभी प्रश्न नहीं रहता क्योंकि विद्वानों का आमतौर पर स्वागत ही किया जाता है.

जानने का आधार बहुधा तर्क पर छोड़ दिया जाता है. यह भी विचारणीय कि आम्फलस अवधारणा (नाभि अवधारणा) को कैसे गलत माना जाय जिस के तहत यह माना जाता है कि विश्व का निर्माण कुछ ही समय पहले हुआ जिसमें सारा अनुमान योग्य प्रमाण निहित है. नोबल पुरस्कार विजेता, दार्शनिक और गणितज्ञ बर्ट्रेंड रसेल (1872-1970) यह तर्क देते थे कि समूचा ब्रह्माण्ड कुछ पाँच मिनट पहले ही अस्तित्व में आया है जिसमें जीवाश्म, स्मृति, पहाड़, पुराने अवशेष वर्तमान में देखे जा रहे रूप में अस्तित्व में आए हैं.होर्हे लुई बोर्हेज़की एक प्रसिद्ध कहानी में चिंतन है कि वर्तमान अंतहीन है, भविष्य आशा के अतिरिक्त कुछ नहीं और भूतकाल स्मृति के अतिरिक्त कुछ नहीं. ऐसी बातें हमारे कालबोध के लिए चुनौतियाँ खड़ी करती हैं. तर्क और अन्य प्रमाणों से ऐसे विचारों का निदान या समाहार करते हुए यथार्थ ज्ञान तक पहुँचना उपलब्धि समझी जा सकती है.
कुछ दशकों पहले तक हिन्दी के अध्ययन में तीन महती परम्पराएँ थी

१. संस्कृत वाङ्मय के आधार पर हिन्दी में विस्तार (उदाहरण के तौर पर जयशंकर प्रसाद, निराला आदि)
२. उर्दू-फ़ारसी के आधार पर हिन्दी में विस्तार, तथा
३. अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं के मानक ग्रंथों के आधार पर हिन्दी में विस्तार.

किंचित संकोच के साथ यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी ये तीन महती परम्पराएँ अब मृतप्राय हैं. साहित्य के विद्यार्थियों के पास अवसर रहता है कि वह इतिहास, दर्शन, राजनीति शास्त्र जैसे अनेक विषयों पर अधिकार रख सकें. इसी कड़ी में, मेरा मानना है कि सत्रहवीं सदी में एम्सटर्डम में जन्में यहूदी बारुक स्पिनोज़ा (1632- 1677) का नीतिशास्त्र (Ethics)ऐसी रचना है जो कि संक्षिप्त है पर संसार के सभी प्रमुख विषयों पर गंभीर चिंतन है. जिसे सब कुछ जान लेने की लालसा है, उन्हें यह छोटी सी किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए, जिसके कारण बीसवीं सदी के महान दार्शनिक जिल्स डेलेयुजने बारुक स्पिनोज़ाको दार्शिनकों का राजकुमारकी उपाधि दी.

स्पिनोज़ा के नीतिशास्त्र ने यूरोप के चिन्तन को बड़ी गहराई से प्रेरित किया. कैथोलिक चर्च ने उनकी इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया. भारत में कई विद्वान उनके चिंतन को, गलती से, अद्वैत वेदांत से जोड़ते रहे. मेरा मानना है कि हर दार्शनिक परम्परा को उसकी विशिष्ट तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, मूल्यमीमांसा और परमार्थ मीमांसा से पहचाना और समझा जा सकता है. स्पिनोज़ा का दर्शन इस मायने में प्रभावशाली है कि ज्यामितीय सूत्रों जैसे उनके विचारों का निरुपण और उसकी सिद्धि तीन सौ सालों से अपराजेय खड़ी हैं. इनमें जीवन मूल्यों, भावों, नीति की बहुआयामी चर्चा है. इनके नीति के प्रमेयों को संस्कृत के सुभाषित की सूक्तियों जैसा नहीं समझना चाहिए, बल्कि यह सही अर्थों में सिद्धांत हैं जो कि न्यायशास्त्र की परिभाषा से निबद्ध होते हैं.

अगर तर्कों की कोई ऐसी अकाट्य श्रृंखला है, जो तीन सौ चालीस साल से अविजित है उसे ज़रूर पढ़ना चाहिए. जहाँ तक मेरी जानकारी है, स्पिनोज़ा के इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है. अगर ऐसा कोई अनुवाद भारत का कोई भी विश्वविद्यालय शोधकार्य के रूप में भी उपलब्ध करवा पाए, तो मैं समझता हूँ कि बहुत से लोग इस कार्य से बहुत लाभान्वित होंगे.



स्पिनोज़ा का नीतिशास्त्र :  संक्षिप्त परिचय

स्पिनोज़ा का नीतिशास्त्र सन् 1677 में उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ. मूल रूप से लैटिन में लिखा यह ग्रंथ सन् 1664 और 1665 के बीच लिखा गया था. यह ईश्वर के चमत्कारिता और कृपालु अवधारणा को नकारता है. इनके नीति के प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि क्या झूठ बोला जाय, पशु-वध हो या न हो, बहुविवाह अपराध है या नहीं. यह समाज में प्रचलित नियमों के अनुसंधान के बजाय व्यक्ति के विचारों का चिंतन हैं. यह पाँच भागों में हैं

1.      पहला भाग ब्रह्म के बारे में (यहाँ भारतीय परम्परा के प्रचलित ईश्वर शब्द का प्रयोग करने में मुझे हिचकिचाहट है. हालांकि उनके गॉड की अवधारणा निर्गुण ब्रह्म जैसी लगती है, पर वह अद्वैत वेदांत का निर्गुण ब्रह्म नहीं है. इस लेख के लिए मैं उनके गॉडका प्रयोग ब्रह्मसे ही करूँगा.)
2.      दूसरा भाग मन के उत्पत्ति और उसकी प्रकृति के बारे में
3.      तीसरा भाग भाव के उत्पत्ति और उसकी प्रकृति के बारे में
4.      चौथा भाग मानवीय बंधन या भावों के बल के बारे में
5.      पाँचवा भाव समझ की शक्ति के बारे में या मानवीय स्वतंत्रता के बारे में

इस पुस्तक की विशेषता है कि यह अपने सिद्धांत को यूक्लिड की ज्यामिति की तरह कुछ स्वयंसिद्ध और कुछ परिभाषा से कई प्रतिज्ञा और उपसिद्धांत प्रतिपादित करती है तथा उसे सिद्ध करती है. हर भाग में यह उत्तरोत्तर जटिल होती जाती है, तथा कोई-कोई सिद्धांत बहुत से प्रमेय और उपसिद्धांत की मदद से सिद्ध होता है. इस आधार पर मानवीय व्यवहार के लिए वह अद्भुत नीतिशास्त्र का निर्माण करते हैं, जिसकी कुछ प्रतिज्ञा और सम्बन्धित परिभाषाएँ इस तरह से हैं:

आशा की परिभाषा - आशा अस्थायी प्रसन्नता है, जो कि किसी भूतकाल के या भविष्य से सम्बन्धित विचार से उत्पन्न होती है जिसके बारे में हम किसी हद तक सशंकित होते हैं. (भावों की परिभाषा १२ भाग ३ )
भय की परिभाषा - भय अस्थायी वेदना है जो कि किसी भूतकाल के या भविष्य से सम्बन्धित विचार से उत्पन्न होते हैं, जिसके बारे में हम किसी हद तक सशंकित होते हैं.  (भावों की परिभाषा १३ भाग ३)
व्याख्याइन दो परिभाषाओं से यह स्थापित होता है कि कोई भी आशा बिना भय के मिले नहीं हो सकती और कोई भी भय बिना आशा के नहीं हो सकता है. जो व्यक्ति, आशा पर निर्भर होता है और भविष्य के बारे में सशंकित रहता है, वह निश्चित तौर पर भविष्य में उसके न होने के बारे में विचार कर चुका होता है, जिसके कारण किसी हद तक उसे वेदना होती है. फलस्वरूप आशा पर निर्भर होने के कारण, वह भय से जुड़ा रहता है. इसी तरह, जो व्यक्ति भय से, दूसरे शब्दों में उस विषय में सशंकित है जिसका वह तिरस्कार करता है, उसी समय वह तिरस्कृत वस्तु के अस्तित्व पर भी प्रश्न लगाता है. फलस्वरूप उसे प्रसन्नता होती है, और वह यह आशा करता है कि उसके इच्छानुसार चीजें घटेंगी.

प्रतिज्ञा४१ भाग ४- प्रसन्नता अपने आप में बुरी नहीं पर अच्छी है, लेकिन वेदना अपने आप में बुरी है
व्याख्याप्रसन्नता भाव है, जहाँ शरीर की कार्यशक्ति या तो बढ़ती है या सहायक होती है. वेदना भाव है जिसमें कार्यशक्ति या तो कमती है या बाधित होती है. अत: प्रसन्नता अपने आप में अच्छी है. (देखें: भाग ४, प्रतिज्ञा ४७)

प्रतिज्ञा ४७ भाग ४ - आशा और भय के भाव अपने आप में कभी अच्छे नहीं हो सकते.
उपपत्ति -  आशा और भय के भाव बिना वेदना के अस्तित्व में नहीं आ सकते. क्योंकि भय एक तरह की वेदना है (देखें भावों की परिभाषा १३ भाग ३) और आशा (भावों की परिभाषा १२ और १३ भाग ३) बिना भय के हो सकती; अत: यह भाव अपने आप में अच्छे नहीं हो सकते (प्रतिज्ञा ४१- भाग ४), लेकिन तभी तक जब वे अत्यधिक प्रसन्नता को बाधित करने में सफल हों.

स्पिनोज़ा के विचारों ने यूरोप के दार्शनिकों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया. चूँकि इसे कैथोलिक चर्च द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, कई दार्शनिक जैसे जॉन लॉक (1632-1704)लाइबनिज (1646-1716)डेविड ह्यूम (1711-1776), और इमानुएल कांट (1724-1804) आदि ने छुप कर इस ग्रंथ का अध्ययन किया. साहित्य के विद्यार्थियों के लिए यह बड़ी सुखद जानकारी है कि इसका पहला अंग्रेजी अनुवाद सन 1856 में प्रख्यात लेखिका व अंग्रेजी की महान उपन्यासकार जॉर्ज इलियट (मेरी इवान्स 1819-1880) ने किया था. 
आधुनिक दार्शनिक उनके अकाट्य प्रमाणों की श्रृंखला पर वैचारिक मतभेद जताते हुए तर्क-प्रणाली पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं, कि हमारी बुद्धि और तर्क की सीमा होती है इसलिए हम परमसत्य को कभी नहीं जान सकते. यह करीब-करीब बौद्धों का भी विचार है.

बहरहाल, मेरा मंतव्य किसी बौद्धिक सम्प्रदाय विशेष की तत्त्वमीमांसा पर विमर्श करना नहीं है. उपरोक्त उदाहरण से मैं कई ऐसे सिद्धांतों की तरफ़ ध्यान ले जाना चाहता हूँ. स्पिनोज़ा की दार्शनिक प्रणाली में न्याय की अवधारणा नहीं है. न ही सौन्दर्यशास्त्र से उन्हें कोई-लेना देना है. फिर भी नीति को ले कर किया गया उनका चिंतन अपनी सीमा में परिपूर्ण व बहुत गहरा है.


अनुवाद की समस्या और सावधानियाँ : मूल लैटिन या अंग्रेज़ी से अनुवाद

पहला प्रश्न यह है कि इसका हिन्दी में अनुवाद कैसे उपलब्ध हो! उससे पहले यह ग्रंथ अपने आप में दुर्भेद्य प्रतीत होता है. अगर हम इसका लैटिन से हिन्दी अनुवाद नहीं कर सकते तो बहुत से उपलब्ध अंग्रेजी अनुवादों से इसका हिन्दी अनुवाद किया जा सकता है. मेरा मानना है कि सबसे पहले हमें स्पिनोज़ा के प्रतिपादित सिद्धांतों को पढ़ना चाहिए. इसमें भी पहले भाग ३ (भाव के उत्पत्ति और उसकी प्रकृति के बारे में) और भाग ४ (मानवीय बंधन या भावों के बल के बारे में) के सारे सिद्धांतों को कई-कई बार पढ़ना चाहिए. इसके बाद हमें भाग ५, फिर भाग १ से भाग ५ तक पूरी किताब पुन: पढ़नी चाहिए.

इस पुस्तक का अनुवाद एक महती और विशिष्ट शोध परियोजना है. जहाँ अनुवाद की बड़ी सावधानी बरतनी होगी. जैसे Love (लव) का अनुवाद प्रेम नहीं प्यार ठीक होगा. क्योंकि स्पिनोज़ा ने प्यार की परिभाषा प्रसन्नता के रूप में की है, जो किसी बाहरी कारण के विचार से जुड़ा होता है. हमारे यहाँ प्रेम की अवधारणा में परस्पर विश्वास और आत्म संतुष्टि समाहित है, अत: इसका अनुवाद प्रेम में करना भ्रामक सिद्ध हो सकता है. इसी तरह God (गॉड) का अनुवाद ईश्वर या भगवान की अपेक्षा ब्रह्म करना निकटतम होगा, क्योंकि अनेक दर्शनों में ईश्वर की परिभाषा सर्वशक्तिमान इच्छा करने वाला परमतत्त्व जैसा माना गया है.इसी तरह Existence (एक्सिज्टेंस)का अनुवाद अस्तित्व में और Essence (एसेंस) का अनुवादसार करना ठीक होगा.


भावों का चिंतन और जीवन मूल्य

स्पिनोज़ा सारे भावों को सूचीबद्ध करके हर भाव को प्रसन्नता, वेदना या इच्छा से जुड़ा बतलाते हैं. वे अच्छे का अर्थ किसी भी चीज के हमारे उपयोगी होने से लेते हैं. बुरे का अर्थ किसी भी अच्छे का अवरोध को कहते हैं. मूल्य को शक्ति ही बताते हैं. स्पिनोज़ा के विभिन्न सिद्धांत जैसे किस्वतंत्र आदमी मृत्यु से कम कुछ नहीं सोचता, ‘अगर आदमी स्वतंत्र पैदा होता तो जब तक वो स्वतंत्र रहता कभी अच्छे और बुरे की अवधारणा नहीं सोच सकता, दया, जो मनुष्य तर्कों पर जीता है उसमें, अपने आप में बुरा और अनुपयोगी है’ गहन चिंतन की ओर ढ़केलते हैं. जिस ह्यूमिलिटी (humility) की लोग दुहाई देते हैं, उसे स्पिनोज़ा इस तरह परिभाषित करते हैं ह्यूमिलिटी अथवा दीनता एक तरह की वेदना है, जो मनुष्य को अपने शरीर या मन की कमजोरी के विषय में सोचने से उत्पन्न होती है (भाव की परिभाषा- २६, भाग ३). फिर उसी दीनता पर उनकी प्रतिज्ञा (भाग ४, ५३) – ‘दीनता अपने आप में मूल्य नहीं है या विवेक बुद्धि से उत्पन्न नहीं होती’; हमारे पारम्परिक दयाकी महत्ता को तुच्छ और दीनता के प्रति सहानुभूति को त्याज्य मानता है.


स्पिनोज़ा के नीतिशास्त्र से असहमति या सहमति से पहले, उनका ग्रंथ गम्भीर चिंतन और ईमानदार निष्कर्षों के लिए प्रतिबद्धता की मांग करता है. संक्षिप्तता और विशिष्टता के कारण, उनका ग्रंथ सभी अनीश्वरवादी, नास्तिक, घोर आस्तिक, प्रगतिशील, बुद्धिजीवी तथा क्रांतिकारियों के लिए आवश्यक है. अपूर्व मेधा के सामने असहाय पाठक इस ग्रंथ के अकाट्य तर्कों को पढ़ने के बाद अपने अंदर एक नवीन दृष्टि का सृजन कर पाता है. मेरा मानना है, ऐसा चिंतन सर्वथा कल्याणकारी है.
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सम्बन्धित लिंक
1. https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)
2. Part I: Concerning God: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_1
3. Part II: On the Nature and Origin of the Mind: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_2
4.Part III: On the Origin and Nature of the Emotions: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_3
5.Part IV: Of Human Bondage, or the Strength of the Emotions:  https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_4

6.Part V: Of the Power of the Understanding, or of Human Freedom:  https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_5
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प्रचण्ड प्रवीर  बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहलेने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय'हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह'जाना नहीं दिल से दूरप्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .

prachand@gmail.com

मोनिका कुमार की कविताएँ

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“खुद को ज़िंदा रखने के लिए
इतने रतजगों के बाद
उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.”

२१ वीं सदी की हिंदी कविता का युवा चेहरा जिन कवियों से मिलकर बनता है इसमें मोनिका कुमार शामिल हैं.  ख़ास बात यह है कि उन्होंने अपना एक मुहावरा विकसित किया है और संवेदना के स्तर पर भी उनमें एक नयापन है.


मोनिका कुमार की कुछ नयी कविताएँ   




मोनिका कुमार की कविताएँ             
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आगंतुक

आगंतुक के लिए कोई पूरे पट नहीं खोलता
वह अधखुले दरवाज़े से झांकता 
मुस्कुराता है

आगंतुक एक शहर से दूसरे शहर
जान पहचान का सुख तज कर आया है
इस शहर में भी
अमलतास के पेड़,गलियाँ, छज्जे और शिवाले हैं
आगंतुक लेकिन इन्हें ढूँढने यहाँ नहीं आया है

क्या चाहिए ?
अधखुले दरवाज़े के भीतर से कोई संकोच से पूछता है
निर्वाक आगंतुक एक गिलास ठंडा पानी मांग लेता है

पानी पीकर
आगंतुक लौट जाता है
जबकि किसी ने नहीं कहा 
भीतर आयो
कब से प्रतीक्षा थी तुम्हारी
और तुम आज आये हो
अब मिले हो
बिछुड़ मत जाना.



चंपा का पेड़

चंपा के पेड़ से बात करना धैर्य का अभ्यास है
ख़ुदआगे बढ़ कर यह पेड़ बात नहीं करता
पत्तियां खर खर नहीं करेंगी कि शरद द्वार खड़ा है
सीत हवाओं के निहोरे से अलबत्ता चुपचाप झरता है
इतना दूर नहीं उगा 
कि संकल्प करके इसे कोई ढूँढने निकले
इसके नाम से नहीं होता एक प्रांत अलग दूसरे प्रांत से
मिल जाता है धूर भरी सड़कों के किनारे शहर दरबदर 
कतार में एकांत में 
स्वांत सुखाय
गलियों बागों बगीचों में
रास्तों को रौशन करता
प्रतीक्षा मुक्त
न मधु न भ्रमर

चंपा के पेड़ पर कुछ भी उलझा हुआ नहीं है
पत्तियां मुश्किल से एक दूसरे को स्पर्श करतीं  
फूल खिले हुए टहनियों पर विरक्त
ऐसी निस्पृहता !
जीवन है तो ऐसी निस्पृहता क्यूँ मेरे पेड़ !
कौन है तुम्हारे प्रेम का अधिकारी
सर्वत्र तो दिखते हो
मन में किसके बसते हो ?

उत्तर मिला धीरे से
निस्पृहता मेरा ढब है
प्रतीक्षा में रत हूँ उस पथिक की
जो जानता है
सत्य पृथ्वी परायण होते हुए भी उभयचर है
निर्द्वंद है पर करुणा से रिक्त नहीं
मैं उस पथिक के प्रण पर नहीं उसकी उहापोह पर जान देता हूँ
जो सत्य की प्रतिष्ठा ऐसे करता है
जैसे आटे को सिद्ध करती स्त्री
परात में
कभी पानी और डालती
कभी आटा और मिलाती है.

 
 
एकांत के अरण्य में

अंततः यह संभव हुआ
दो जीवों की असमानता के बीच
संबंध का संयोग जगा

इस घर में मैं सामान से अधिक बोझ लेकर आई थी
फिर यहाँ खिलने लगा एकांत का अरण्य
इस घर में रहती थीं छिपकलियाँ
जिन्हें मैनें असल में पहली बार देखा
न्यूनतम सटीक देह
चुस्त लेकिन शांत मुख
छिपकलियाँ एकांत के पार्षद की तरह घर में रहतीं
और मैं व्याकुलता की बंदी की तरह   
निश्चित ही आसान नहीं था
छिपकलियों से प्रार्थना करना
इनके वरदान पर भरोसा करना
पर इससे कहीं मुश्किल काम मैं कर चुकी थी
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना

दूरियां बनी हुई हैं जस की तस
अतिक्रमण नहीं है अधिकारों का
छिपकलियाँ दीवारों पर हैं
और मैं अपने बिस्तर में
फिर भी एक दीवार अब टूट चुकी है 
एकांत के अरण्य में
आत्मीय एक फूल खिल गया है.



सर्दियों की बारिश

भले ही बाहर ठंड है
सर्दियों की बारिश फिर भी जल रहे माथे पर रखी ठंडे पानी की पट्टी है
इस बारिश में भीगने पर जुकाम लगने का डर आधा सच्चा और आधा झूठा है

उस भीगे हुए को मैनें सड़क पार करते हुए देखा
बारिश की गोद से उचक उचक जाते देखा
जब उसे कोई नहीं देख रहा था
उसे अपने आप को गुदगुदाते हुए देखा

बारिश की आवाज़ में वह ख़लल नहीं डालता
बाहर बारिश हो तो
पायदान से पैर रगड़ता
पाँव में लगी बारिश और मिट्टी को झाड़ कर
दबे पाँव कोमल कदमों से अपने घर में घुसता है
भीगा हुआ
पर अंदर से खुश
जैसे कोई धन लेकर घर लौटता है

मैनें देखा उसे
लौट कर घर वालों से बात करते हुए
अभी जो बारिश में सड़क पार की
इस बात को रोजनामचे से काटते हुए
निजी और सार्वजानिक राए को अलग करते हुए
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत खुश है. 




शहरज़ादी उनींदी पड़ी है

शहरज़ादी उनींदी पड़ी है
मृत्यु से बचने के लिए
क्या कोई अनवरत कहानी कह सकता है ?

कथा पर सवार काफ़िले
अक्सर गंतव्य से आगे निकल जाते हैं 
उन्हें कहानियों का अंत ज़िंदा नहीं रखता
धीरे धीरे वे कथानक से जुतने लगते हैं
हमारे मरने की मामूली कहानी
हमें मरने तक ज़िंदा रखती है
कहानियाँ दोहरा रही हैं खुद को
हर कहानी किसी और कहानी में है
घटनाएं इसलिए भी बेतहाशा घट रही हैं
क्यूंकि हम मानने लगे हैं
गति के दौर में विश्राम अपराध है

एक हज़ार एक रातें बीतने वाली हैं
शहरज़ादी को आभास हो गया है
कि अनवरत कहानी के अंत से पहले
सुलतान को उससे प्रेम हो जाएगा
पर शहरज़ादी का दिल जानता है
खुद को ज़िंदा रखने के लिए
इतने रतजगों के बाद
उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.




धोखा होना चाहता है

पीठ पर बस्ते लादे
भेड़ों जैसा झुण्ड बनाकर
हम सुबह स्कूल में दाखिल होते थे
नीम आँखों से क़दम नापकर प्रार्थना सभा में पहुँच जाते

प्रार्थना सभा में हमने कनखियों से संसार को देखा 
हमारे भीतर एक मशीन तैयार हो चुकी थी
जो हमारी जगह पर रोज़ नेकी पर चलने और बदी से टलने की प्रार्थना कर देती थी
मज़ा तो बिल्कुल नहीं आ रहा था
पर ऐसा भी नहीं कि कोई धोखा हुआ हो

फिर एक दिन
मैं अकेले और खुली आँख से स्कूल पहुँची
रिश्तेदार के घर से हम सुबह देरी से घर लौटे थे
देरी से स्कूल आने की अग्रिम आज्ञा लेकर
माँ ने वर्दी पहना कर तुरंत स्कूल रवाना कर दिया

स्कूल में मध्यांतर का उत्सव था
पर मैं आज उत्सव का हिस्सा नहीं थी
स्कूल इतना अजनबी लग रहा था
कि मैं रोते रोते घर लौटना चाहती थी
जिन सीढ़ियों को रेल समझकर हम इससे उतरा करते थे  
वह जादुई गुफ़ा लगने लगी
जैसे कि हम जब सौर मंडल के दूसरे ग्रह के बारे में पढ़ रहे होंगे
पृथ्वी पर हमारी पकड़ कम हो जाएगी  
और कोई पत्थर से सीढ़ियों को बंद कर देगा   

क्लास में जाने से पहले मुंडेर पर खड़े नीम का पेड़ देखा
इसकी चिंदी चिंदी पत्तियां 
मुझे डराने लगी
बेमौसमी ठंड से पैर ठंडे हो गए

घंटी बजते ही
मध्यांतर में उगने वाली सैंकड़ों आवाज़ें
मंद पड़ने लगीं

मेरी क्लास के लड़के
पसीने से भरी हुई कमीज़ों में
अभी अभी पाताल से आए बौने लग रहे थे
गलबहियां डाले डोलती हुई लड़कियाँ
जो आज मेरी सहेलियाँ नहीं थी  
हल्के चुटकुलों पर लहालोट हो रही थीं

उस दिन से मेरे दो हिस्से हुए
एक जो स्कूल जाता रहा
और दूसरा जो सदा सदा के लिए अकेला हो गया.



__________________________
मोनिका कुमार
अंग्रेज़ी विभाग
रीजनल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश
चंडीगढ़.
09417532822 /turtle.walks@gmail.com

हस्तक्षेप : वैज्ञानिक शोध पत्रिकाएँ हिंदी में क्यों नहीं छपती हैं ? आशीष बिहानी

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आशीष बिहानी हिंदी के कवि हैं और ‘कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र’ (CCMB), हैदराबाद में जीव विज्ञान में शोधार्थी हैं.

ज़ाहिर है उन्हें हिंदी में वैज्ञानिक शोध पत्रिकाएँ की अनुपलब्धता का अहसास और दर्द दोनों है. हिंदी की दुनिया को जो लोग सिर्फ साहित्य तक सीमित समझते हैं उन्हें इस बात की क्यों कर चिंता होगी ?  कम से कम ‘नेचर’ के अनुवाद की ही व्यवस्था कर दी जाती, जबकि विज्ञान को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के बड़े दावे किए जाते हैं.

वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान दोनों को फलने,फूलने.पसरने के लिए निज भाषा के खाद पानी की जरूरत होती है. रोपेंगे नहीं तो फल कहाँ से मिलेगा श्रीमान. महोदय. 


वैज्ञानिक शोध पत्रिकाएँ हिंदी में क्यों नहीं छपती हैं ?
आशीष बिहानी





क्याकारण है कि दुनिया के दूसरे सबसे विशाल भाषी समूह होने के बावज़ूद कोई भी वैज्ञानिक शोध पत्रिका भारतीय भाषाओँ में अपने शोध-पत्रों का अनुवाद करके प्रसारित नहीं करतीं है? नेचर और स्प्रिन्गरके विलय से बने प्रकाशन दानव की पत्रिका नेचरका प्रमुख हिस्सा विज्ञान की विविध शाखाओं में अत्याधुनिक शोध को प्रकाशित करता है. यह पत्रिका कोरिया, चीन और जापानजैसे देशों में, उनकी राष्ट्र भाषाओँ में अनूदित-प्रकाशित की जाती है. इसी प्रकाशन की पत्रिका साइंटिफिक अमेरिकन”, जो कि विज्ञान में अभिरुचि रखने वाले सामान्य पाठक वर्ग के समक्ष नवीन वैज्ञानिक खोजों, अविष्कारों और उनसे उत्पन्न होने वाली विचारधारा को आकर्षक तरीक़े से पेश करती है. यह पत्रिका स्थानीय अनुवादकों और प्रकाशकों के सहयोग से तकरीबन बीस भाषाओँ में प्रकाशित की जाती है, जिनमे रूसी, ताईवानी और ब्राज़ीलियाईभाषाएँ शामिल हैं.

नेचरकी सालाना वेटेड फ्रेक्शनल काउंट इंडेक्स के हिसाब से भारत में शोध का आयतन ताइवान, ब्राज़ील और रूस जैसे देशों को कड़ी टक्कर दे रहा है. यद्यपि इस मामले में हम चीन और अमेरिका जैसे देशों के आस-पास भी नहीं फटकते, हमारे यहाँ शोध बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है, ख़ास कर जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान में. हिंदी, मेंडेरिन के बाद दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और बोलने वालों की संख्या रूसी, जापानी, कोरियाई इत्यादि से बहुत ज़्यादा है. तत्पश्चात, तमिल/ तेलुगु/ पंजाबी/ बंगाली आदि भाषाएँ भी बहुत पीछे नहीं हैं.

इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत में शोध की स्थिति संतुष्टिपूर्ण है. बस यह कि अपने सामर्थ्य का एक नगण्य अंश देता हुआ भारत भी बहुत महत्वपूर्ण है. शोध की बढ़ोतरी से भी खुश मत होइएगा, सरकार ने जो अभी आधारभूत शोध की फंडिंग पर कुल्हाड़ी चला दी है उसका असर कुछ समय में नज़र आयेगा. डेढ़ अरब की आबादी वाले हमारे देश से जितने वैज्ञानिक शोध पत्र निकलते हैं उससे दो गुना ज़्यादा स्पेन से निकलते हैं और तकरीबन छः गुना चीन से. हर नेता के भाषण में हम यूएसए बनने के सपने देखते हैं. हमें याद रखना चाहिए कि मौजूदा तंग हालात के बावज़ूद यूएसए से निकलने वाला शोध आयतन में भारतीय विज्ञान का बीस गुना है!

भारत एक तेज़ी से बढती अर्थव्यवस्था है जहाँ आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विज्ञान और प्रोद्योगिकी से वंचित है क्योंकि वो शेष छोटे हिस्से की भांति अंग्रेज़ी सीख नहीं सकता, आर्थिक और भाषिक मजबूरियों के कारण. ऐसे में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ज्ञान अभ्यर्थियों को कौशल और योग्यता की तुलना में कहीं आगे ले जाता है -- ऐसे स्थानों पर भी जहाँ अंग्रेज़ी की कोई आवश्यकता नहीं है. 

अंग्रेज़ी से इस विकारग्रस्त मोहब्बत का नतीज़ा है कि हमारे युवा दूसरे देशों की बनाई आधारभूत संरचनाओं में सस्ते बैल बनने को तैयार हैं बजाय अपने ही देश की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की कोशिश करने के. सच्चे अर्थों में उद्यमशील बनने के. उनको उदासीन महसूस कराने में हमारे संस्थानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. UGC द्वारा अनुमोदित शोध पत्रिकाओं की सूची देख लीजिये. विज्ञान और प्रोद्योगिकी वर्ग में एक भी भारतीय भाषा का जर्नल नहीं है. बंगाली/ तमिल/ तेलुगु तो दूर की चिड़ियाएँ है, हिंदी तक में विज्ञान का दस्तावेज़ीकरण शून्य के बराबर है. क्यों कोई सीखना चाहेगा हिंदी, अगर तकनीकी रूप से मज़बूत होना चाहता हो तो? यदि कोई सीखेगा, तो उसे मिलेगा क्या पढ़ने को? UGC की सूची से बाहर भारतीय भाषाओं में विज्ञान की दुर्दशा देखकर ही दिल दुहरा होने लगता है, जहाँ विज्ञान बस जादुई दवाइयों, बॉडी-बिल्डिंग और तथ्यों का अश्लील ढेर रह जाता है.

इसकी तुलना में जापान में जीव विज्ञान के 400शोध जर्नल्स में से 300जापानी भाषा में प्रकाशित होते हैं. आलम यह है कि वहाँ किये जाने वाले शोध को अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की आवश्यकता पड़ती है. इन दोनों बातों में सम्बन्ध सिद्ध नहीं हुआ है पर यह एक सम्भावना है जो हमें भारतीय भाषाओँ के लिए खोजनी होगी. अन्यथा भारतीय विज्ञान इसी लूली रफ़्तार से चलता रहेगा और देश के भावी बेहतरीन वैज्ञानिक या तो वेंकी रामकृष्णन की तरह लन्दन में पनाह पाने को भागेंगे या फिर द्विभाषी न होने के ज़ुर्म में किसी ऐसे काम को करते हुए सज़ा काटेंगे जो करना उन्हें पसंद नहीं.

संभव है कि वित्त की कमी विज्ञान के प्रसार और शोध को धीमा कर दे. पर भारत में वैज्ञानिक गतिविधियों का अभाव मूलभूत रूप से स्थानीय भाषाओँ में उसकी अनुपलब्धता के कारण है. पर हिंदी तो काफी लचीली भाषा है जो किसी भी ढाँचे में ठीक-ठीक फिट हो सकती है. तो फिर हिंदी में विज्ञान का अभाव क्यों?

कारण अनावश्यक रूप से उलझी हुई अधिकतर समस्याओं की तरह स्पष्ट है. हिंदी विश्वार्द्ध में अपनी भाषा में विज्ञान में भाग लेने के प्रयास हो ही नहीं रहें है. सभी अंग्रेज़ी के माध्यम से उत्पन्न हुए हमारे योगदान से खुश हैं जो कि भारत की विशालता और संभावनाओं के आगे नगण्य है. हमारे निकट भविष्य के लक्ष्य, सुदूर भविष्य के लक्ष्यों पर हावी हो गए हैं. यदि अंग्रेज़ी सीखने से किसी को गोल्डमेन साक्स में नौकरी मिल जाती है, वो क्यों कोशिश करेगा भारत में वैसी कंपनी बनाने की! 2003में फ़िनलैंड के वैज्ञानिकों ने अकादमिया में बढ़ते अंग्रेज़ी के प्रयोग के प्रति चेताया था कि यदि विज्ञान से फिन भाषा को हटाया गया तो प्रकृति की बारीकियों को पहचानने के मामले में धीरे-धीरे उनकी भाषा पंगु हो जाएगी. स्पष्ट है कि हिंदी में वो असर अभी से नज़र आने लगे हैं. किसी भाषा का हाल संस्कृत और लैटिन जैसा होने में समय नहीं लगता. लगभग सामान परेशानियाँ जापान और स्पेन के वैज्ञानिकों ने भी जताईं हैं.

हिंदी के तथाकथित कर्णधार हिंदी का प्रचार-प्रसार करने और अहिंदी प्रदेशों में उसे थोपने में जुटे हैं. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हो रही है. और हिंदी के बचे खुचे वक्ता और लेखक हिंदी की जड़ों को, उसके कारकों को भूलकर, राष्ट्रभाषा होने के दंभ में भरे अन्य भारतीय भाषाओँ को सीखने से इनकार कर चुके. हिंदी का क्रमिक विकास रुक चुका. दक्षिण भारतीय सरकारी विभागों में CCTV स्क्रीन्स पर हिंदी शब्द और उनके अंग्रेज़ी अर्थ दिखाए जाते हैं और कई कर्मचारी उन्हें सीखने का प्रयास करते नज़र आते हैं. हिंदी प्रदेशों में अन्य भाषाओँ के शब्द नहीं दिखाए जाते. ये कहना भर भी हिंदी भाषियों को अटपटा सा लगेगा. जब परा-सिन्धु प्रान्तों को एकीकृत करने निकली भाषा की दूसरी संस्कृतियों को आत्मसात करने की क्षमता विन्ध्याचल पार करते करते दम तोड़ दे तो उसका राष्ट्र-भाषा बनना तो लाज़मी नहीं. बजाय दक्खिन को शामिल करने के, हमारा झुकाव रोमन और लैटिन से उद्भूत भाषाओँ की ओर है जो फाइलो-लिंग्विस्टिकली हमसे कोसों दूर है. उन तत्वों को शामिल करना प्रगतिशीलता के खिलाफ़ नहीं है पर गड्ड-मड्ड प्राथमिकताओं का नतीज़ा अवश्य है.

ट्रांस-इंडियन भाषा के नारे लगाने की बजाय बेहतर होगा कि हम लोग विज्ञान और अर्थशास्त्र जैसे विषय, जो वैश्विक प्रगति में एक देश की भूमिका और महत्ता को निर्धारित करते हैं, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं. अंग्रेज़ी को देश के विद्यालयों में पढाए जाते हुए 180साल हो गए हैं. हमें यह भूलना होगा कि भारत के हर कोने में लोगों को अंग्रेज़ी या हिंदी सिखाई जा सकती है. हिंदी, बंगाली, पंजाबी, मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, गुजराती इत्यादि भाषाएँ उनके विशाल भाषिक आधार से ऊपर किसी वैश्विक मंच की मोहताज़ नहीं है. इतने सारे पाठकों की जरूरतों को दुस्साध्यकहकर दुत्कार देने की बजाय हमें उन जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए. प्रयोग के तौर पर विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक शोध पत्रों (जिनमें से अधिकतर ओपन सोर्स हैं) का अनुवाद करके ग्रामीण स्तर तक मुहैया कराना होगा. भारतीय भाषाओँ में इस प्रयोग की पहली हकदार हिंदी होगी (2001की जनगणना के मुताबिक 41प्रतिशत भारतीय हिंदी समूह को मातृभाषा मानते हैं और कुल 53प्रतिशत हिंदी को जानते समझते हैं). तत्पश्चात, अन्य भाषाएँ सीधे अंग्रेज़ी से हिंदी वाले प्रयोग की समझ काम में लेते हुए या हिंदी अनुवाद से पुनः अनुवाद कर लाभान्वित हो सकतीं हैं.

तो हिंदी को दो लम्बी दूरी की दौड़ें तुरंत शुरू करने की आवश्यकता है: विश्व भर के वैज्ञानिक शोध को यथावत हिंदी में अनूदित करना और अन्य भारतीय भाषाओँ से ऐसी शब्दावली और संरचनाएं सोखना जो हिंदी में काम लीं जा सकतीं हैं.

इस प्रकार का प्रयोग सिर्फ़ प्रयोग के लिए नहीं होगा. यदि हम इतनी जानकारी लोगों को उपलब्ध करवाते हैं,

१. भारतीय पुरातन विज्ञान के बारे में फैले झूठ को सत्यों से अलग करने में जनता की भागीदारी होगी, बशर्ते अनुवाद पूर्णतया खुले मंच पर उपलब्ध हो
२. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली तैयार होगी, बशर्ते उस शब्दावली को हम संस्कृत-करण से बचा पाएं
३. हिंदी और अन्य भाषाओँ के बीच खड़ी दीवारें कमज़ोर होंगी क्योंकि इस समय इनमें से कोई भी विज्ञान के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है.
४. लोगों को उनकी अपनी भाषा में कुछ नया करने का मौक़ा मिलेगा और घरेलू इनोवेशन होने की संभावना बढ़ेगी.
५. भारत की मुख्यधारा के डिस्कोर्स में अंग्रेज़ी न जानने वाले लोगों की आवाज़ मज़बूत होगी. वर्तमान में देशज भाषाओँ को निम्न मानकर दरकिनार किया जाता है, यह सभी को विदित है.

समस्या यह है कि ये सब हवाई किले हैं. बड़ी संख्या में अलग-अलग विषयों से नौज़वान विद्वानों को व्यक्तिगत स्तर पर अनुवाद करना शुरू करना होगा. हिंदी में वैज्ञानिक डिस्कोर्स को जगह देनी होगी. हम यह मानकर विज्ञान को दरकिनार नहीं कर सकते हैं कि हम एक ग़रीब देश हैं. हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिए बाहर से कोई नहीं आने वाला है. हो सकता है कि ये बीड़ा उठाने को पर्याप्त लोग न हों पर उस अक्रियता का अंजाम हमें ही भुगतना होगा.
______________

आशीष बिहानी 
जन्म: ११ सितम्बर १९९२बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थीकोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद
कविता संग्रह: "अन्धकार के धागे" 2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित

ईमेल: ashishbihani1992@gmailcom

अम्बर रंजना पांडे की कविताएँ

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सदी (२१ वीं) की हिंदी कविता पर यह आरोप बार-बार दुहराया जाता रहा कि इनमें अधिकतर पिछली सदी के कवियों की नकल हैं और कि खुद इनमें दुहराव है और कि पता नहीं चलता - कौन किसकी कविता है.  मतलब - कवियों ने अपने अलहदा मुहावरे विकसित नहीं किए हैं आदि आदि.

यह सही है कि केदारनाथ सिंह और रघवीर सहाय से २१ वीं सदी के अधिकतर युवा कवि / कुकवि प्रभावित रहे हैं और केदार जी का या मुहावरा ‘हमारे समय की सबसे’ बहुत अधिक इस्तेमाल हुआ है. इतना कि अब तो उब सी होती है.

पर जिनसे सदी की युवा कविता का चेहरा बनता है उनमें से अधिकतर ने खुद अपना कवि व्यक्तित्व विकसित किया है. पूर्वज हैं उनमें शामिल पर एक सीमा तक.

अम्बर रंजना पांडे इसी तरह के कवि हैं. उनकी कविताएँ हिंदी कविता का नया पड़ाव हैं. भाषा, शिल्प, संवेदना सबमें वह नवोन्मेषी हैं.
उनकी कुछ नई कविताएँ 


अम्बर रंजना पांडे की कविताएँ                 




वेश्या से मिलना जुलना
(सच्ची घटना पर आधारित)

अर्धरात्रि से दूसरे दिवस दोपहर तक 
आगंतुकों की सेवा, फिर स्नान, पूजा,
भोजन, नींद
ऐसे कट गया जीवन पर वर्षा होते ही
उसे याद आता डिहरी, सोन के किनारे
उसकी जीर्ण कुटी और गृहदाह

एक दिन जब आगंतुक अधिक न थे
बहुत वर्षा हो रही थी और उसने खाट पर
बिछाई थी धुली हुई, कमलिनियों से भरी
चद्दर, निकट ही
स्टोव पर दूर दार्जिलिंग की चायपत्ती
गुड़गुमुड़ बोलती उबलती थी, उसने पूछा
'तुम क्या करते हो अमरन साहब?'

जैसे अम्माँ मुस्कुरातीं खिचड़ी स्वादिष्ट बनने पर
अम्माँ खिचड़ी अच्छी से अच्छी बनाने के
बहुत जतन करतीं
'रोगी का पथ्य उत्तम हो तब रोगी
फटाफट निरोग होता है'मूँग की दाल
दुबराज, नमक और जल
जैसे पंचतत्त्वों से भाँत भाँत के जीव हुए
वैसे ही इन पाँच पदार्थों से
खिचड़ी के भिन्न भिन्न स्वाद होते

'मैं कवि हूँ, कैथी.'पता नहीं क्यों
उस बज़ार की सब निर्धन वेश्याएँ साड़ी ही
क्यों पहनती थी, साड़ी की किनोर से चाय की
पतीली पकड़े, वह हँसती, ठठाकर

'कवियों को नमक लेने को धन नहीं होता
कवि लोग वेश्याओं के घर बस
उपन्यासों में आते है अमरनचंद्र.'

एक रात्रि बहुत नशे में उसके ब्लाउस में
अपनी कविता रखकर
आ गया मैं, उस रात्रि रुपया नहीं था मेरे निकट

बहुत दिनों बाद उसने फ़ोन किया
पैसे माँगती होगी किंतु वह शुरू हो गई
'संवाद पर संवाद ही तो लिखे है
कथा हो सकती है. कवि नहीं हो तुम
झूठे हो.'

फिर अगली बेर गया तो कहा
'मत आओ हर्पीज़ हो गया है.
बहुत पीड़ा है.
बहुत खेद है.'

मन बहुत विशाल पाकशाला है
उसमें अंधकार है मिट्टी का तेल है
मैं वहीं बैठ गया
और मन में ही चौके में
स्टोव में हवा भरने लगा
बहुत वर्षा होती थी
चौके की छत चूती थी

कालीमूँछ धान अल्प था
दाल मटर की थी मूँग की नहीं थी

इतने दुःख में भी वह हँसने लगी 'कवि हो
तब भी कल्पना में भी
ऐसा अभाव है तुम्हारे.'

किस कवि ने कहा कि अदहन में भी
चावल डालते नहीं अकेले
मन जो एक विशाल पाकशाला है
तो देह उसमें खदकता अदहन है
सब अकेले ही जलते है

'हमेशा हाथ से नमक डालना
चम्मच से कभी नहीं'अम्माँ की
शिक्षा

नमक लेकर मैं अंगुलियों से
उसे तौलता रहा; कमर के एक ओर
जहाँ हर्पीज़ अधिक थी, उसे ऊपर कर
करवट ली, 'अमरनचंद्र जी, अपने मन की
इस विशाल, आँधमयी
जिसकी छत चूती है
उस पाकशाला में चाय बनाकर ही मुझे
पिला दो
नमक आँकते तो लम्बा टेम खटेगा.'

रोगी का पथ्य उत्तम हो
तब रोगी फटाफट निरोग होता है

'अच्छा मैं अदरक लेकर आता हूँ तब.'
छाते कविताओं की ही भाँति
दुःख से पूरा नहीं बचा पाते थे- पतलून सोरबोर
बुशर्ट बरबाद, जनेऊ तक भीग गया
(पता नहीं क्यों मैं क्यों पहनता था उन दिनों
विष्णुपुर का जनेऊ!)

सब सृष्टि जलमयी थी, बुधवारपेठ में
कोई दिखता ही नहीं था, पनोरे, पड़ोह धलधल
बहते
सब दिशा गोड़डुबान जल था, एक चाय के ठेले पर
हम्माल मजूर चिमनी से बीड़ी सुलगाते थे

'पता था रीते हाथ लौटोगे, घटा कहती है कि
आज ही सब बरसूँगी'चाय छानते उसने कहा
'बाहर गमले में अदरक बो रखी है मैंने
आपको बताने आती तब तक आप फ़रार.'

'अदरक को छुआछूत बहुत होती है न! कोई ऐसा वैसा हाथ
लग जाये सड़ जाती है'मैंने कहा

उसने मुख उठाया 'ओह रे बाबा, तुम्हें तो
माता निकली है'जलते स्टोव के आलोक में
उसका कपाल देखकर मैंने कहा

'माता तो छोटी थी तब निकली थी
यह हाथभर केश थे मेरे
आधे माता ले गई आधे कालाजार लील गया

लम्बे केशोंवाली वेश्याएँ बहुत कमाती है.'

'बार बार वेश्या क्यों कहती हो?'
'कोई शब्द पुरातन होकर बुरा तो
नहीं हो जाता न.'

पत्नी से अलग होने के पश्चात्, प्रतिदिन का
आना-जाना था उसके निकट
बहुत पहले की बात नहीं है
हाँ, तब वर्षा बहुत होती थी

और चिमनी से ही हो जाता था इतना
प्रकाश
कि जीवन चल जाए, एक-दूसरे के
दुःख और सुखों से भरे कपाल दिख जाए

'मैंने जब भी कोई कविता लिखनी चाही
दुख की छाया ने उसपर पड़कर सब नाश
कर दिया.'

'दुःख की छाया सुख की भूमि पर पड़ती है
सुख की छाँह मेघों की छाँह जैसी है
अभी थी अब नहीं. भंगुर है.'

'तुम कवि हो क्या, कैथी?'

हँस हँसकर उसने कहा 'हाँ हूँ
काहे से कि संवाद करना ही तो
कविता है तुम्हारी दृष्टि में'हर्पीज़ में भी
उसने हँस हँसकर कहा.
___________
*बुधवारपेठ- पुणे का एक इलाक़ा जो वेश्यावृत्ति के लिए प्रसिद्ध है.
*अमरनचन्द्र- कवि का धोखे का नाम. कवि वेश्या से अपना असली नाम नहीं बताना चाहता.

मल्लबर्मन 


अद्वैत मल्लबर्मन का टीबी अस्पताल से
आधी रात को भाग जाना

(अद्वैत मल्लबर्मन ने तिताश एकटी नदीर नाम नामक उपन्यास लिखा था। उन्होंने अविभाजित बंगाल में एक दलित परिवार में जन्म लिया था।)

जधावपुर के कुमुदशंकर राय टीबी अस्पताल से
ख़ून की उलटी करते भाग गया अद्वैत मल्लबर्मन
'पद्मा पद्मा'पुकारते
'होगी कोई विस्मृत हतभागिनी'वार्डबॉय ने कहा

'पद्मा पाकिस्तान चली गई'कहते भाग गया
सन्निपात के सातों लक्षणों से क्लांत, यक्ष्मा का रोगी
वय: ३६/३८

एक रात कहने लगा रोगी, फाँसी लगाई तो
श्वेत कनइल के हार की लगाऊँगा
जधावपुर में कहाँ धरी है
नदियों में केवल सायंकाल फूलनेवाली कनइल की लताएँ

फिर एक दिवस भू पर पग धरने से
मना कर दिया, किसी मूल्य पर पलंग से
नहीं उतरता था, कहता, भारतवर्ष में
जौंक बहुत है

सरोजिनी के नवदल में पेड़ा माँगता था
देश आज़ाद हुआ है
किंतु वह तो दो वर्ष पूर्ण ही हो गया
उसे कहाँ पता था डाक्साब

तिताश में तैरते मेरी लंगोट बह गई
सिंघाड़े के आटे का हलवा बल भया
मेरी आठवर्ष की स्त्री को नाग डँस गया
दिनभर बकबक झिकझिकी वृथा विलाप
बीड़ी के लिए रुपए देता था
सौगंध खाता कि सिनेमा वाली स्त्री से मिलाएगा

एक बालक आता तो था मिलने, नाम कोई घटक वटक था
बोतल लाता था
दोनों ही पद्मा की रट लगाते 'पद्मा पद्मा पद्ममयी पद्मा
पद्मवर्णा दुर्गम तरणा पद्मा'

कोई कोई निशा टेबुल बजा बजाकर गाते थे
मुसलमानी गान

'देश नष्ट हो गया है अब कौन पढ़ेगा
मासिक पत्रिका मोहम्मदी में छपी मेरी कविताएँ
आनंद बाज़ार पत्रिका से कहो मुझे भूल जाए'

सबके नाम ऐसे ही नष्ट होंगे
किंतु उससे पहले देश नष्ट होगा
उससे पहले भाषा नष्ट होगी
जैसे हो गई नष्ट तुम्हारी हिंदी.

टाकाचोर


टाकाचोर
 
भृंगराजों के झुण्ड में शिकार करता
आ बैठा है टाकाचोरों का कुटुंब
देखना अशुभ है निमीलित आँखों से
कहता है शैलेंद्र

'कौआ है रे'अज्ञानी जन कहते हैं
'टाकाचोर टाकाचोर'
कहकर दौड़ता जाता है शैलेंद्र
आँखों को करतलों से ढँके

प्रातः निपटा चुका है बसंतों की पंगत में
निम्बोरियों के ढेर
उड़ती दीमकें खा चुका सकल

कितने पक्षियों के अण्डे खाकर
अब भृंगराजों के दल में यह
भुखमरा क्या खाने आया है

लग्गा लेकर टाकाचोर का  नीड़ उजाड़ने को
टॉर्च से खोज रहे है शैलेंद्र के पापा
सब ओर साँय साँय है
'टाकाचोर के रहते कोई और गृहस्थी नहीं कर सकता'

'भरी रात्रि क्यों किसी का नीड़ नष्ट करते हो
भीतर गरम कम्बल में जो
नष्ट नीड़ पढ़ते थे, वही जाकर पढ़ो न '

साँय साँय है टाकाचोर का ज़रा अंदेसा नहीं

प्रातः ही फिर स्वर किया, शर्करा
तो जल में ही घुलती है
तब वायु में कैसे घुलकर स्वर हो गई

'को कि ला को कि ला को कि ला'
श्रीमद्अमरसिंह ने शब्दकोश बनाने में
शताब्दियों पूर्व
कर दी थी बड़ी भारी मिस्टेक

टाकाचोर 'को कि ला को कि ला 'टेरता है
अज्ञानी जन हतप्रभ, कागला नहीं है
कोकिला है'

नीड़ नहीं किया पताकाओं के संग निकल गया
श्यामाओं की फ़िराक़ में.



फ्रांसीसी भाषा का प्रेमी

अग्नि हैं भाषा, पंख सा जलकर
भस्म हो जाऊँगा. नित्य सात बजे
सायंकाल फ्रांसीसी भाषा का प्रेमी
अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा
करता हैं, दिनभर की थकी, जिसका
मन बासे दूध सा फट फट
पड़ने को हैं, धीरज से क्रोशिया
बुनती हैं.

नित्य दिन के जाते जाते
फ्रांसीसी भाषा कहाँ खो जाती
हैं? शब्द गिनता हैं अँगुलियों पर वह,
मात्राएँ और उच्चारण में भेद भ्रमित
कर देता हैं अर्थ. यह भाषा जिसे सीख
रहा हैं प्रेयसी से, गद्य में, अपने अनर्थ में
भी कैसी कविता लगती हैं. वह कहती हैं
हैं  ''cava bien merci.''चन्द्रमा निकल
आता हैं सुदी प्रथमा को ही. कहो तो

फ्रांसीसी में क्या कहते हैं चन्द्रमा को.

________

अम्बर रंजना पाण्डेय 
दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं.

अन्यत्र : कस्बाई औरत की पहली विदेश यात्रा : प्रतिभा कटियार

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यात्राएँ मंजिल पर पहुंच कर समाप्त नहीं हो जातीं. दरअसल रास्ते भी यात्राओं में  शामिल हैं. 
और एक यात्रा खुद के अंदर भी चलती रहती है. ख़ासकर अगर कोई भारतीय ब्रिटेन जाए.
 उसकी विगत स्मृतियाँ भी साथ- साथ चलती हैं. इतिहास और उसमें झांकता किसी समय का ‘भारत भाग्य विधाता’ भी. 
यही वह देश हैं जहाँ के चंद सौदागर भारत उतरे थे और फिर भारत वह भारत नहीं रहा. 

वह सैलानी क्या करे उस शेक्सपीयर  का जिसे जब विलियम जोन्स ने महाकवि कालिदास से तुलनीय माना तब कैसी तीव्र प्रतिकिया हुई थी इसी इंलैंड में. 
दरअसल वह कहना तो यह चाह रहे थे कि शेक्सपीयर ब्रिटेन के कालिदास हैं पर उन्हें  कहना पड़ा कालिदास भारत के शेक्सपीयर हैं.  

बेहद दिलचस्प और प्रवाह लिए हुए यह संस्मरण आपके लिए. सम्पूर्ण.




कस्बाई औरत की पहली विदेश यात्रा                                      

प्रतिभा कटियार



जकल विदेश यात्राएं कोई कमाल की बात नहीं रहीं.लोगों का एक पैर हिंदुस्तान में रहता है, दूसरा किसी और देश में.मेरे ही तमाम दोस्त हैं जो आधे से ज्यादा वक्त पराये देशों में होते हैं.ऐसे में मेरी विदेश यात्रा में मैं क्या लिखूंगी जो पढ़ने लायक होगा, वो भी लंदन के बारे मेंकितना लिखा पढ़ा तो जा चुका है वहां के बारे में.कितने दोस्त हैं लंदन में जो वहां के किस्से बताया ही करते हैं.अब तो सारे देश लगता है पास ही हैं.जितनी देर में मैं देहरादून से लखनऊ पहुंचती हूं, उससे कम वक्त में दिल्ली से लंदन पहुंचने में लगी...फिर क्या हो गया आखिर ऐसा जो मुझे यात्रा से पहले इस कदर बेचैन किये था और यात्रा के बाद क्या कुछ हुआ जो अब पहले जैसा नहीं रहा.

असल में यह उत्तरी भारत के ग्रामीण परिवेश में जन्मी, कस्बाई परिवेश में पली-बढ़ी, संकोची, सरल, हिंदी प्रदेश की मध्य वय की एक स्त्री की पहली विदेश यात्रा की कथा है.सपनों की भरपूर उम्र, कुलांचे मारते उत्साह और कुछ भी कर गुजरने वाले जज्बे से इसका कोई लेना-देना नहीं.उस पर किशोरावस्था में अभी-अभी दाखिल हुई बिटिया की जिम्मेदारी बचे-खुचे खिलंदड़पन पर लगाम कसने, अति सतर्क होने, भीतर के भय और आशंकाओं से लगातार खामोश मुठभेड़ में धकेलने को काफी थी.पासपोर्ट ऑफिस में लगाये गये चक्कर पहले ही चेतावनी दे चुके थे कि यह सफर अब तक किये गये सफरों जितना आसान भी नहीं है.कोई देश तुम्हें अपने यहां यूं ही नहीं आने देगा.एक तरफ जहां मित्रों को, सहकर्मियों को लग रहा था कि मेरे उत्साह का पारावार न होगा, वहीं मेरा हाल बुरा था.अजीब बात है कि पहली विदेश यात्रा को लेकर न कोई रूमान था, न रोमांच बस एक जिम्मेदारी वाला भाव लिए सब किये जा रही थी कि बिटिया को विदेश घुमाने का एक अवसर है और यह उसके व्यक्तित्व को, उसकी जानकारी को, समझ को विकसित करेगा तो बस यह होना चाहिए.कभी-कभी लगता है कि हम कितने ही आजाद ख्याल हो लें हमारा परिवेश और परवरिश हमें ऐसा बनाकर छोड़ते हैं कि हम औरतें मां होते ही अपने आप को पीछे धकेलने लगती हैं.हालांकि इस सोच से लगातार झगड़ा चलता रहता है कि मां होना अपने होने को बिसरा देना भी नहीं, फिर भी कभी-कभी हार भी जाती ही हूं.बहरहाल, लंदन एक मां की यात्रा ही था अपनी बेटी के साथ...


लंदन ही क्यों-
जो कोई और मौका होता, अपनी पसंद से अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए कोई देश चुनना होता तो लंदन शायद बाद में ही होता कहीं.उसके बाद में होने के कारण निश्चित रूप से राजनैतिक और सामाजिक ही हैं.अंग्रेजों का हमारे देश में रहा लंबा शासन काल और उस दौरान हमारे क्रान्तिकारियों व देशवासियों के साथ उनका व्यवहार आसानी से भूला नहीं जा सकता.एक आम भारतीय की तरह मैं भी इन सबसे मुक्त नहीं ही हूं.पिछली अंडमान यात्रा के दौरान सेल्युलर जेल की दास्तानें, वो चीखें, वो फांसी के फंदे और वो जुल्म की बेहिसाब दास्तानें कहीं न कहीं सालती ही रहती हैं.बावजूद इसके कि मेरे लिए लंदन पिछले कुछ सालों कुछ और भी होने लगा है.ये कुछ और हो जाने और अरसे से मन में जो दर्ज है के बीच की यात्रा भी है.भाई और भाभी के वहां रहने के कारण मायका सा भी हो गया है लंदन.वहां के वक्त से, मौसम से, संस्कृति से तालमेल चलता रहता है.और यह किसी देश से, किसी शहर से जुड़ने की कम बड़ी वजह भी नहीं है.तो हमारे लंदन जाने की तैयारियों में भाई और भाभी के स्नेहिल आमंत्रण की सबसे बड़ी भूमिका रही और लाख टालमटोल करने के बावजूद कागजात तैयार हो ही गये और अंततः बैग भी पैक हो गये.

उत्साह का कारवां-यह एक मां की यात्रा थी बेटी को विदेश घुमाने की, एक बहन की यात्रा थी अपने छोटे भाई से मिलने जाने की और एक मां-बाप का सुख था बच्चों को इकट्ठे होते देखने का.दोस्तों का उत्साह था मुझे जाते हुए देखने का और बेटी का उत्साह तो पूरा घर महकाये था.दिन भर मामा मामी की रटंत और गूगल पर लंदन की पड़ताल...इन सबसे कोई विलग था तो वो मैं ही थी.जैसे एक बड़ा काम था, जिसे सलीके से अंजाम देना था.सबके सुख का कारण भी बनना था और अपना सुख...फिलहाल अपनी अंटी में एक ही सुख था भाई भाभी से मिलने का.बरसों बाद भाई के साथ कुछ वक्त बिता पाना, पहली बार नई नवेली भाभी अदिति के साथ समय गुजार पाना. दूर देश में परिवार महसूस करना.

अदिति अक्सर पूछती, दीदी आपको कहां-कहां घूमना है, मैं कहती मुझे तो सिर्फ तुम्हारे पास आना है, बाकी तुम जानो.तो इस तरह यह यात्रा शुरू हुई.



भारतीय रेल में आपका स्वागत है-
देहरादून से दिल्ली तक का सफर ट्रेन से तय करना था हमें.दो महीने पहले बुक कराई गई ट्रेन की टिकट भी आखिरी वक्त पर आरएसी पर अटककर मुस्कुरा दी.कोई चारा नहीं था.सामान जमाया और हम मां-बेटी ने एक ही बर्थ पर रतजगे और कभी-कभार ऊंघ लेने के लिए कमर कस ली.इसी के साथ तय यह भी हो गया कि अब ठीक से पैर फैलाकर लेट पाना लंदन में ही संभव होगा.

जब घर के दरवाजे पर ताला लगाकर निकल पड़ते हैं तो पीछे कितना कुछ छूट जाता है.निकलते वक्त पूरी चैतन्यता से दरवाजे खिड़की, स्विच, गैस, नलके बार-बार चेक करना, गमलों की देखभाल के लिए सुर्पुदगी और घर को प्यार से एक नज़र देखकर उससे विदा लेने की प्रक्रियाएं इस दफे ज्यादा वक्त ले रही थीं.मुझे याद नहीं कि 20 दिन के लिए पिछली बार कब घर से निकली हूं.ट्रेन में बैठकर भी चीजें रह-रहकर याद आती रहीं.एक घंटे के सफर के बाद ही हम मां-बेटी को यह एहसास होने लगा कि हमारी स्थिति तो काफी अच्छी है क्योंकि हमारे थर्ड एसी के उस डब्बे में इस कदर भीड़ हो गई थी कि पूछिये मत.ऐसे लोग जिनकी सीटें कनफर्म नहीं हुई थीं.ऐसे लोगों की आंखों की किरकिरी होते हैं, जिनकी कनफर्म हो जाती है.हमारी ऊपर वाली बर्थ पर चार स्त्रियों ने किस तरह रात गुजारी होगी यह भी एक अलग ही कहानी है.जिसमें उनके साथ एक बच्चा भी था.खैर, लुढ़कते ऊंघते हम दिल्ली पहुंचे.स्टेशन से एयरपोर्ट तक का सफर मेट्रो रेल के जरिये किया.और इसके साथ ही बहुत सारी भीड़, शोर, अफरा-तफरी से धीरे-धीरे दूरी बननी शुरू हो गई.

एयरपोर्ट टू एयरपोर्ट-इंदिरागांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहली बार कदम रखा.जाने कैसा-कैसा लग रहा था.डर, उत्साह, चौकन्नापन, अनाड़ीपन सब एक साथ निकलकर बाहर आने को था.एक ही बात को कई लोगों से बार-बार कनफर्म कर रही थी.वहां मौजूद हर व्यक्ति ऐसा लग रहा था, हमारी सुरक्षा की जांच के लिए ही आ रहा हो.हालांकि हमारे पास सामान ज्यादा नहीं था फिर भी डर लग रहा था कि कहीं सूटकेस खुलवा के न देखें.यह सब सोचने के पीछे हिंदी फिल्मों के कुछ दृश्य भी रहे होंगे शायद.

जब सामान चला गया और बोर्डिंग पास मिल गये तो राहत तो हुई लेकिन इमिग्रेशन इंटरव्यू का छोटा सा डर अभी बाकी था.इमिग्रेशन फॉर्म पूरी सावधानी से भरा.अपनी बारी का इंतजार एक लंबी लाइन में लगकर किया और जब नंबर आया तो एक गड़बड़ हो ही गई.......मुझसे नहीं जांच अधिकारी से.उन्होंने प्रतिभा कटियार को दुबई की फ्लाइट में बिठा दिया.आखिर हंसते हुए उन्होंने अपनी गलती सुधारी और हम सुरक्षा की कार्यवाहियों से निजात पाये.कितनी गहरी सांस आई थी.सच कहूं तो एयरपोर्ट पर नाचने का मन कर रहा था.जैसे कोई युद्ध जीत लिया हो.

जिन लोगों का एक पैर विदेश यात्राओं को बाहर ही निकला रहता है, या जो खूब आते-जाते हैं, उन्हें यह सब कितना अजीब लगेगा सुनकर कि एक जरा सी बात है विदेश जाना.और इतना हैरान-परेशान.लेकिन साहब ये एक जरा सी बात भर नहीं है.यह बात कितनी महत्वपूर्ण है उस स्त्री से पूछिये जिसे कभी अपने ही शहर में सिटी बस में या ऑटो में सफर करने में डर लगता रहा हो.जिसने कभी ट्रेन की टिकट खुद न खरीदी हो और कभी कोई सफर अकेले करने का सोचा भी न हो.सचमुच.बड़ी राहत महसूस हो रही थी.लग रहा था अब दो-चार घंटे यूं ही चिंताविहीन एयरपोर्ट पर टहलने दो.लेकिन भूख भी लग रही थी.और फ्लाइट का वक्त भी हो रहा था.हम मां-बेटी ने कुछ बिस्किट खाये और हवाई जहाज में मिलने वाले खाने के भरोसे खुद को छोड़ दिया.थोड़ी ही देर में हम बड़े से जहाज में बैठ चुके थे.

सबको फोन-वोन मिलाया, सामान जमाया और उड़ने का इंतजार करने लगे.इसी बीच शिवि ने कौन-कौन सी फिल्में देखनी हैं उनकी लिस्ट बना ली.लेकिन जहाज तो उड़ ही नहीं रहा था.उड़ान का वक्त बीत चुका था.एक घंटा बीत गया.जहाज न उड़ा, तब जाकर सूचना मिली कि जहाज में तकनीकी खराबी के चलते कुछ देरी हो रही है. तकरीबन ढाई घंटे की देरी से जहाज उड़ा लेकिन हमारा उत्साह तो ढाई घंटे पहले ही उड़ चुका था.शिवि सामने लगे स्क्रीन पर कुछ देखकर, खिड़की से बाहर झांककर बोर होकर सो चुकी थी.पेट की भूख भी हमें सता ही रही थी.करीब चार घंटे बाद हमें कुछ खाने को मिला लेकिन तब तक शिवि का खाने का मन मर चुका था.टर्बलेन्स के चलते प्लेन एकदम हिंडोला बना हुआ था...जिससे कुछ बच्चे डर भी रहे थे, कुछ रो भी रहे थे, और शिविमेरा हाथ पकड़े गोद में लेटी हुई थी.



ओय हीथ्रो, ज्यादा अकड़ मत-
मैंने इस दौरान 5 फिल्में निपटाईं.पढ़ा बिल्कुल नहीं.पहली बार सफर में कुछ पढ़ा नहीं हालांकि किताबें थीं, बस मन नहीं हुआ.सामने स्क्रीन पर कई फिल्में ऐसी दिखीं जो मेरी छूटी हुई थीं.तो मैंने वो सब एक-एक करके निपटाईं.नींद बिल्कुल नहीं थी.थकान बहुत थी.वाकई साढे़ दस घंटे की फ्लाइट और ढाई घंटे का विलंब काफी उबा देने वाला था.ऊपर से अभी हीथ्रो पहुंचकर आने वाली मुसीबत का डर.हीथ्रो पहुंचते ही मोबाइल काम करना बंद कर चुके थे.वाईफाई ऑन किया लेकिन वो कनेक्ट हुआ नहीं.भाई को पहुंचने की सूचना मात्र देने में 30 सेकेंड के 160 रुपये लग गये.आंसू आ गये कसम से.

इमिग्रेशन की लंबी लाइन ने लंदन पहुंचने के उत्साह पर ब्रेक लगा दिया.हां, एक ही राहत थी कि एयरपोर्ट के बाहर भाई खड़ा है.इमिग्रेशन के लिए बैठे फिरंगी अधिकारियों में वो सारे अंग्रेज चेहरे दिखने लगे, जिन्होंने हमें सताया था.एक तरफ जल्दी से बाहर निकलकर भाई से मिलने की इच्छा, दूसरी तरफ ये डरावने फिरंगी.मेरा इंटरव्यू लिया एक बुजर्ग सी दिखनी वाली महिला ने.जैसे ही मैं बिटिया का हाथ थामकर उसके सामने पहुंची वो ढेर सारे इंटरव्यू लेकर चिढ़ चुकी थी.उसने कहा, गो अवे, नॉट नाव.आई एम नॉट इन मूड नाव.हम दो कदम पीछे हटकर उनके मूड बनने का इंतजार करने लगे.उसके बात करने का ढंग काफी रूखा और लहजा काफी सख़्त था.खैर, दो ही मिनट में उसका मूड बन गया शायद और उसने हमसे कागजात मांगे.उलट-पुलट के देखते हुए कुछ सवाल किये जिन्हें मुश्किल से समझते हुए मैंने जवाब दिए.आखिरी सवाल जिसमें शायद उसने बिटिया से मेरा रिश्ता पूछा था, मैं समझ नहीं पाई और मैंने उससे कहा, सॉरी...पार्डन प्लीज.वो एकदम से भड़क गई, उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा, डू यू हैव हियरिंग प्रॉब्लम? मैं सन्न थी...ऐसा स्वागत...! एक हम भारतीय हैं अतिथि देवो भवके साथ दिया, आरती, फूल और टीका लेकर खड़े रहते हैं.

खैर, कार्रवाई पूरी हो चुकी थी.और डू यू हैव हियरिंग प्रॉब्लम के साथ हीथ्रो ने मेरा वेलकम किया था.यह बताने में कोई संकोच नहीं मुझे कि भारत के सरकारी स्कूलों में पढ़ने के बावजूद अंग्रेजी पढ़ने, सुनने, समझने में मुझे अधिकांशतः उतनी दिक्कत नहीं होती है लेकिन बातचीत में वो आत्मविश्वास अभी तक नहीं जमा पाई हूं जो कॉन्वेंटी लोगों का होता है, फिर भी काम चला ही लेती हूं.लेकिन इस बार सामने इंग्लैंड था और मेरी बोलती लगभग बंद.बहरहाल हीथ्रो के बाहर खड़े भाई को दूर से देखकर ही आंखों में आंसू आ गये, जैसे हर मुश्किल से पनाह मिल गई हो.
मौसम खुशगवार, लंदन -दो छोटे-छोटे सूटकेस लिए हम एयरपोर्ट के बाहर निकले जहां निकलते ही एक सर्द लहर ने हमारा स्वागत करते हुए कहा, वो जो एयरपोर्ट वाली मैडम ने कहा, वो भूल जाओ.वो भी थकी और परेशान रही होगी.आओ तुम लंदन शहर में तुम्हारा स्वागत है.यही वो पल था, जिस पल में मैंने खुद को एकदम से तनावमुक्त होता हुआ महसूस किया.बैग में रखे हुए ओवरकोट निकाले और भाई के साथ गाड़ी में बैठे.जरा सी देर में हम लंदन की सड़कों पर सरपट दौड़ रहे थे.

जब हम ज्यादा भरे होते हैं तब ज्यादा बात नहीं करते, ठीक उलट जब हम खाली होते हैं तब भी ज्यादा बात नहीं करते.मैं इस वक्त एक साथ खूब भरी भी थी और खूब खाली भी.चिंताओं से खाली, भावनाओं से भरी.ज़ाहिर है खामोश थी.देख रही थी, महसूस कर रही थी.सब कुछ.कुछ ही देर में हम बड़ौदाहाउस के भीतर थे.अचानक से एक शोख कमसिन सी लड़की कूदकर लगभग चिल्लाते हुए हमारे सामने आ खड़ी हुई.वो अदिति थी.हम गले मिले.और लंदन पहुंचना मुकम्मल हुआ.लंदन में हम अपने घर में थे.अपने घर में. 36 घंटों का लम्बा सफर, और ऐसी राहत...


अजनबी सुबह-
लंदन की पहली सुबह थी.मैं भरसक जितना सो सकती थी उतना सो चुकने के बाद जगी तो देखा कि पूरा घर सोया हुआ है.थोड़ी हैरत हुई.अमूमन जागने वालों में मेरा नंबर सबसे बाद में आया करता है.फिर मैंने घड़ी देखी, हिंदुस्तान के हिसाब से 11 बज रहे थे.यानी मैं कोई जल्दी नहीं उठी थी.मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था.लंदन की पहली सुबह.मैंने कमरे की खिड़कियां खोल दीं.ठंडी हवा का झोंका मेरे मुंह पर आ गिरा.सामने एक हरा मैदान मुस्कुरा रहा था.नीला आसमान भी.मैं देर तक आसमान पे निगाहें टिकाए रही.देश कोई भी हो, कुदरत का सम्मोहन हर कहीं एक जैसा ही होता है.खिड़की के सामने जो पतली सी सड़क जा रही थी उस पर बेहद सधे कदमों से कोई बुर्जुग गुजर रहे थे.फिर करीब पांच मिनट बाद कोई युवती गुजरी, फिर कोई नौजवान बैग हाथ में लिया गुजरा है, उसके कदमों की गति तेज थी, उसे शायद जल्दी थी कहीं पहुंचने की.

यूं खिड़की से बाहर लोगों को जाते हुए देखकर अचानक एक और खिड़की खुलती है, बचपन की खिड़की.तब मेरी उम्र शायद पांच या छह बरस की रही होगी.मां और पापा दोनों काम पे जाते थे तो अक्सर मुझे कमरे में बंद करके जाते थे.उसी कमरे में खाना-पीना होता था.खिड़की से बाहर देखते हुए उनके आने का इंतजार करना मेरा खेल हुआ करता था.उसी खिड़की पर रोते-रोते चुप हो जाना, आसमान पे उड़ती पतंगों का कटकर नीचे गिरते देखना, लड़कों के एक झुण्ड का उस पर लपकना, लोगों का गुजरते रहना.कुछ लोग मुस्कुराकर मेरी तरफ हाथ हिला देते थे.उस खिड़की से इस खिड़की के बीच कितना कुछ गुजर गया.उस रोज फेसबुक पर स्टेटस लिखते वक्त बहुत सुकून मिला.

लंदन की पहली सुबह गुनगुना रही है.मैं भारतीय समय के हिसाब से साढ़े दस बजे उठकर भी लंदन के समय से बहुत जल्दी उठी हूं.बाकी सब सो रहे हैं.सोचती हूं मां जिंदगी भर सुबह जल्दी उठने को कहती रहीं, आज जाके उनकी बात मान पाई हूं.मां को फोन भी किया ये बताने को कि देखो हम भारतीय कितनी ही देर से सोकर जागें, लंदन वालों से तो पहले ही जागते हैं.भाई भाभी से मिलने का सुख अंजुरियों में भरा है.

लगा कि इतनी दूर होकर भी दोस्तों से दूर नहीं हूं.सब हालचाल ले रहे थे, बात हो रही थी.यहां लंदन सुबह की नींद में ऊंघ रहा था वहां मेरा देश काम पर मुस्तैद था.

एक वो भी वक्त था जब बीस बरस पहले मां लंदन आई थीं.उनकी एक आईएसडी कॉल के लिए हम लैंडलाइन फोन घेरे बैठे रहते थे.एक या दो मिनट की कॉल में सब घर को बतियाना होता था, सब कुछ बताना होता था और सब कुछ पूछना होता था और सब रह जाता था.आज वाट्सएप और फेसबुक ने सारी दूरियां मिटा दी थीं.



बर्किंघम पैलेस और ट्रेफेल्गर स्क्वॉयर-
पहला दिन बर्किंघम पैलेस और ट्रेफेल्गर स्कॉवयर घूमने के लिए चुना गया था.हम पहली बार शहर में निकले थे.हर चीज को गौर से देखते हुए.सबसे ज्यादा आकर्षित कर रहा था हरा.जैसे हर तरफ हरे रंग की चादर बिछी हो.जब हम किसी नई जगह पर होते हैं तो हर चीज विस्मित करती है.उसे अकोर लेने का मन करता है हालांकि मैं तो पुरानी जगहों को भी बार-बार अकोरती रहती हूं.लेकिन जो लोग वहीं के रिहाइशी होते हैं, उन्हें ये सैलानीनुमा हर चीज को विस्मित होकर देखते तस्वीरें खींचते लोग थोड़े अजीब लगते हैं. इन दोनों के बीच के फासले में काफी कुछ होता है.लेकिन मुझे ये अनगढ़ सैलानी लोग हर पल को कैमरे में बेताब लोग मासूम से लगते हैं और याद दिलाते हैं उस गांव के मजदूर या किसान की जो पहली बार डरते हुए रेल में बैठकर दिल्ली आता है.उसके लिए रेल कोई बेहद खास चीज होती है.आजकल तो वो रेल के साथ सेल्फी भी लेता दिख सकता है, पहले लोग सुनाया करते थे पहली बार रेल देखने के रेल यात्रा के किस्से और लोगों का झुण्ड बड़े चाव से सुनता था वो किस्से.सबकुछ कहां बदलता है, पहली बार जहाज पर बैठते हुए हम सबने एक फोटो खिंचवाई जरूर होगी.ऐसे ही हर कुछ जुड़ा होता है....शायद...तो यहां मेरी हालत उसी पहली बार रेल में बैठे किसान के जैसी थी..सबकुछ विस्मित होकर देखना...सबसे ज्यादा हरा...एक तिनका हरा ही मुझे बहकाने के लिए काफी होता है और यहां तो हरे का पूरा समंदर बिछा था...तरह तरह का हरा...ढेर सारा हरा...

पहली बार हम ट्यूब में बैठे...ये तो एकदम दिल्ली की मेट्रो है, एनाउंसमेंट का तरीका भी वही...शिवि बोली मम्मा लग रहा है एनाउंसमेंट वाली आंटी कह रही हैं नेक्स्ट स्टेशन विल बी चावड़ी बाजार...हम चुपके से हंस लेते हैं.बर्किंघम पैलेस के सामने लोगों का जमावड़ा था.भव्य राजमहल...अपनी शोभा बिखेर रहा था.राजमहल के आसपास टहलते हुए तस्वीरें खींचते हुए सामने की सड़क पर नज़र पड़ी.ब्रिटिश झंडे सड़क के दोनों तरफ कदमताल करते हुए सड़क को मनमोहक बना रहे थे.

यूं लंदन की सड़कों पर पैदल घूमना काफी सुखकर लग रहा था.बिटिया खूब उछलकूद कर रही थी...रास्ते किसी हरी सुरंग से मिलते...उसके भीतर चलते हुए कैसा महसूस हो रहा था बताना मुश्किल है.पैदल चलने वालों के रास्ते इतने सुंदर मैंने नहीं देखे थे.इन रास्तों पर तो दिन भर चला जा सकता है.मैं जब भी फिल्मों में लंदन देखा करती थी तो मुझे यहां पैदल चलते लोग बहुत लुभाते थे...यूं मुझे खुद भी सर्द मौसम में लिपटकर मीलों पैदल चलते जाना खूब पसंद है...देहरादून की कितनी ही सड़कें, जंगल इसके गवाह हैं....

अब जब लंदन की सड़कें थीं, सर्द मौसम था और मैं इसमें पैदल चल रही थी तो यूं लग रहा था कि कोई ख्वाब है शायद जिसके भीतर हकीकत की एक छोटी सी खिड़की खुल गई है.यूं ही पैदल चलते हुए, अठखेलियां करते हुए चर्चिल हाउस के सामने से गुजरते हुए, हम ट्रेफल्गर स्क्वायर तक जा पहुंचे...बच्चों के लिए चीजों की भव्यता आकर्षक नहीं होती उनका आनन्द कहीं और होता है.एक ऊंचे बहुत ऊंचे से चबूतरे जैसी जगह पर बड़े से शेर के पास पहुंचने की कोशिश में बच्चों को बहुत मजा आ रहा था.धमाचौकड़ी मस्ती करते हुए हम चारों तरफ के इस भव्य दृश्य में खुद को महसूस कर रहे थे.यह ठीक वही जगह थी, जहां लंदन को पूरा का पूरा महसूस किया जा सकता था.कुछ बच्चे बुलबुले फुला रहे थे...कुछ बच्चे गेंद का पीछा कर रहे थे.एक दुबला-पतला किशोर लोगों को इकट्ठा करके कोई करतब दिखा रहा था.मुझे अपने देश की कस्बाई नुमाइशों का ख्याल आ रहा था.

फिर हम आर्ट गैलरी के भीतर दाखिल हुए.एक से एक खूबसूरत पेंन्टिग्स.एक सज्जन वहां लगी बड़ी सी कलाकृति का नाइट वर्जन यानी रात में वो कैसे दिखेगी उसे कैनवास पर उतार रहे थे...लिखते वक्त न जाने कितनी ही पेंटिंग्स जे़हन में घूम रही हैं...एक के बाद एक कलाकृतियों के सामने से गुजरते हुए यही ख्याल आ रहा था कि कलाओं का होना भर काफी नहीं उनका सहेजे जाना भी उतना ही जरूरी है, लोगों का अपनी कलाओं के प्रति प्यार और सम्मान होना भी जरूरी है.

लंदन शहर को बिना पैदल चले महसूस नहीं किया जा सकता...हालांकि यह बात और जगहों पर भी लागू होती ही है.तो पैदल चलते हुए ही हम वेस्टमिनिस्टर, बिग बेन, लंदन आई, और टॉवर ब्रिज के आसपास घूमते रहे, इस घूमने के दौरान थेम्स नदी लगातार हमारा हाथ थामे रही.जिन शहरों के बीच से नदी गुजरती है वो कितने खुशकिस्मत शहर होते हैं.इस दौरान यहां की सड़कें मुझे लगातार आकर्षित कर रही थीं.किस तरह सड़कों पर इस शहर ने अपना इतिहास संजोया है, उसके प्रति सम्मान संजोया है, वो ध्यान खींच रहा था.अपने देश में भी इसे चौराहों पर मूर्तियां लगवाकर किया जाता है शायद...

इस बीच भूख भी हमला बोल चुकी थी.वेजीटेरियन खाने की इच्छा हमें और चलने की ओर प्रेरित करती रही और बहुत सारा चलने के बाद आखिर एक जगह आलू टिक्की बर्गर और फ्रेंच फ्राईज जब मिले तो पैरों और पेट दोनों को आराम मिला.

घड़ी में रात के आठ बज चुके थे और सूरज ऐसे दमक रहा था जैसे उसे जाना ही नहीं था.गर्मियों के मौसम में लंदन इसीलिए अच्छा होता है कि दिन बहुत लंबे होते हैं...उजाला देर तक रहता है.जो भी हो हमारा शरीर भारतीय समय के हिसाब से चलने वाला हुआ तो इस वक्त शरीर हिंदुस्तान के रात के 1 बजे के मुताबिक नींद में लुढ़कने को बेताब था.घर पहुंचे तो यह तय होने लगा कि डिनर में क्या बनना है...हिंदुस्तानी समय के हिसाब से रात के 3 बजे आखिर हमारे शरीर लुढ़क ही गये...



ग्रीनविच, वक्त को यहां से देखो-
अगले दिन हमें सुबह-सुबह ग्रीनविच के लिए निकलना था.यह जगह सेन्ट्रल लंदन से 9 किलोमीटर की दूरी पर है.लेकिन इस 9 किलोमीटर की दूरी में ही शहर की चहल-पहल कुछ छूट गई सी मालूम होती है.हम वहां ट्रेन से गये.बाद में इसी जगह हम क्रूज से भी गये थे तब यह सिर्फ टूरिस्ट प्वाइंट ही लगा था.शहर के बाहर निकलने पर जो हिस्सा हाथ आता है वो कुछ अलग सा ही रूमान बचाये होता है.आपाधापी कम होती है, ऐसा मालूम होता है लोग हड़बड़ी में उस तरह नहीं हैं...पैदल शहर में घूमना उसे महसूस करना सुकूनदायक था.सड़कों के किनारे दुकानें मानो शहर की खूबसूरती में इजाफा करने को उगायी गई हों.उस रोज धूप थी और शनिवार भी तो इत्मिनान पूरे ग्रीनविच पर तारी था.लोग घरों के बाहर लॉन में धूप में बैठकर नाश्ता करते भी दिखे.

अदिति शिवि को जगह के बारे में बता रही थीं कि ये प्राइम मैरीडियन है.दुनिया भर के समय का निर्धारण यहीं से होता है.वो रेखा जो समय विभाजक है, यहां से भी होकर गुजरती है.हमने यहां की रॉयल ऑब्जर्वेट्री का रुख किया लेकिन उसके पहले शिवि को बहुत मजा आ रहा था एक बड़ी सी धरती पर बने ग्लोब पर घूमने में.उसके पास सारी दुनिया पर दौड़ते-फिरने का सा सुख था.सबसे पहले वो दौड़कर हिंदुस्तान पहुंच गई.

रॉयल ऑब्जर्वेट्री पहुंचने का रास्ता मोहक था.एक ऊंची पहाड़ी पर लोगों का जमावड़ा था.सब एक ही तरफ देख रहे थे, चुपचाप.पलटकर देखा तो स्तब्ध थी, सामने जिस खूबसूरती को देखकर मन लहक रहा था, पीठ के पीछे उससे कहीं ज्यादा सौंदर्य मुस्कुरा रहा था.समूचा शहर पेड़ों की ओट से झांकता हुआ और ऊपर बादलों का डेरा.....असीम सुख के पलों में हम अपने और अपनों के कितना करीब आ जाते हैं इसका नज़ारा वहां देखते ही बन रहा था.कितने ही जोड़े हाथों में हाथ डाले चुपचाप बैठे थे, कहीं स्नेहासिक्त चुम्बन भी थे...सब शांत...गहराई में उतरते हुए से...

शिवि को ऑर्ब्जेवेट्री के भीतर समय का विज्ञान समझने एक दोस्त स्वाति के साथ भेजकर मैं अदिति और भाई के साथ उसी मंजर में डूबने उतराने लगे.

सुख से भरे हुए लोग अक्सर कम बात करते हैं...हम सब चुपचाप वापसी को चल पड़े.हरी सुरंगों में से गुजरते हुए एक हरे समंदर में पसर जाने का मन हुआ तो हम सब कुछ देर सुस्ताने को बैठ गये.समय के सुंदरतम पलों को जीते हुए समय के विज्ञान को न तो समझने का जी किया, न उस पर बात करने का.क्या फर्क पड़ता है कि हिंदुस्तान के वक्त को निर्धारित करने वाली कौन सी रेखा कहां से गुजरती है, हिंदुस्तान का वक्त तो अभी आना बाकी ही है...

रॉयल ऑब्जर्वेट्री से लौटते हुए हम सेन्ट्रल लंदन पर यूं ही टहलने को उतरे.लंदन ब्रिज, टॉवर ब्रिज, वॉकी-टॉकी बिल्डिंग, लंदन की सबसे बड़ी इमारत शार्ड इनके इर्द-गिर्द घूमना, आईसक्रीम खाना, थेम्स को बहते हुए देखना और महसूस करना शहर के बीच से एक नदी के गुजरने के मायने को...एक खूबसूरत दिन को शाम की चुनर में बांधने का वक्त आ गया था.इसलिए नहीं कि दिन ढल गया था बल्कि इसलिए कि हम थक गए थे...

जी में आया यहां का सूरज आंचल में बांधकर हिंदुस्तान लेती जाउं जहां हम लड़कियों को बचपन से ही सूरज ढलने से पहले लौट आने की ताकीद की जाती है.उन लड़कियों को थमा दूं ये लगभग कभी न बुझने वाला सूरज कि जाओ घूमो बेफिक्र...जब तक जी चाहे तब तक...सूरज का ढलना कोई दीवार न रहे.हालांकि शहरों में खासकर मेट्रोपॉलिटन सिटीज में लड़कियों ने सूरज को काफी हद तक कब्जे में करना सीख लिया है...लेकिन अभी बहुत सारी लड़कियां को अपना सूरज खुद जलाना और खुद बुझाना सीखना बाकी है...



शेक्सपियर का गांव-
जब हम खुद को किसी के हवाले कर देते हैं तो यकीन मानिए कई बार जितनी उम्मीद होती है, जितनी समझ होती है उससे भी ज्यादा मिलता है.अदिति को मैंने जब यह कहा होगा कि मैं नहीं तुम तय करोगी कि मुझे कहां-कहां घूमना है तो उसने कितने प्यार से चुनी होंगी मेरी तमाम यात्राएं.अगला दिन इतवार का था और रात को ही बता दिया गया था अगले दिन जल्दी सुबह उठना है और जाना है शेक्सपियर के गांव.स्ट्रेटफोर्ड अपॉन एवन...यही नाम है इस जगह का.यह सेन्ट्रल लंदन से 163 किलोमीटर की दूरी पर है.हम यहां ट्रेन से गये, मुझे इस तरह की ट्रेन में बैठने का भी बहुत मन था.कुदरत के बीच से सरसराते हुए गुजरने का सुख....सारे रास्ते हम खाते-पीते, गप्पें मारते, बाहर का हरा आंखों में अकोरते करीब ढाई घंटे में गंतव्य पर पहुंचे.

किसी रूमानी उपन्यास का पन्ना खुल गया हो जैसे.ऐसी तृप्ति बरस रही थी स्टेशन पर कि क्या कहूं.छोटा सा स्टेशन, छोटा सा एक पुल, खूबसूरती से सजा संवरा...कम लोग....ये सौन्दर्य ऐसा था जैसे किसी कमसिन नई ब्याही लड़की ने खूब लाड़ से, दुलार से अपना घर सजाया हो.मैं स्टेशन पर ही घंटों गुजार सकती थी लेकिन जाना तो कहीं और था...शेक्सपियर साहब के गांव का चप्पा-चप्पा छान लेने की इच्छा भी थी.इन जगहों पर ये जो पैदल चलने का सुख था वो भी कमाल था.एक पर्यटक को खूब पैदल चलना आना ही चाहिए यह बात अब समझ में आ रही थी.पैदल चलते हुए धरती आसमान, सड़कें, मौसम और शहर का मिज़ाज सब एक साथ पकड़ में आता है.

हम गंतव्य पर पहुंच चुके थे.सामने लिखा था शेक्सपियर्स हाउस.यह एक कस्बे सा है.चौड़ी सड़क, दोनों तरफ दुकानें, रेस्टोरेंट्स...पेट की भूख और पैरों की थकन दोनों ने इसरार किया कि बैठकर कुछ खा लें पहले फिर आगे का सफर...शेक्सपियर के घर के ठीक सामने वाले रेस्टोरेंट में हमने कॉफी ऑर्डर की और खाना भी...ऐसे में हमारे लिए क्या ऑर्डर करें कि उलझन भी कम बड़ी नहीं होती थी.बहरहाल कुछ मैदे से बने पराठेनुमा आए जिन्हें क्रेप्स कहा जाता था.जिसके अंदर शुगर, स्वीटकॉर्न और चीज भरा हुआ था उसे खाया मैंने और बेटू ने, अदिति ने स्ट्राबेरी क्रेप्स, पनीनी और आईसक्रीम की डिश और भाई ने भुने हुए आलू के बीच चीज डालकर खाया, ऑमलेट भी.पता चला कि पुर्तगाली डिश है ये क्रेप और पनीनी जो हमने खाई.


शेक्सपियर हाउस में अंदर जाते ही शेक्सपियर का संसार, उनका जीवन, उनकी रचनाओं का एक के बाद एक खुलना शुरू हुआ.शेक्सपियर की बड़ी-बड़ी पेन्टिंग्स में उनकी जिन्दगी की घटनाएं दर्ज थीं, जो लोग उनकी जिंदगी में अहम स्थान रखते थे वो सब वहां मौजूद थे.बड़े से व्यक्तित्व की, जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों को बड़े प्यार से संभालकर रखा गया था.एक प्रेक्षागृह नुमा गैलरी की दीवार पर शेक्सपियर के नाटकों के टुकडे़ चल रहे थे और बाहर लॉन में शेक्सपियर वॉल थी.एक दीवार जिस पर कॉमिक स्ट्रिप के रूप में उनके तमाम नाटकों के संक्षिप्त संस्करण मौजूद थे.यह एक कमाल का अनुभव था, दो मिनट में पढ़ लेना पूरा ओथैली, जूलियस सीजर, ट्वेल्थ नाइट, क्लियोपैट्रा वगैरह...उसी लॉन में एक पुरानी बेंच थी जिसे सहेजा गया था जहां शेक्सपियर शायद बैठा करते होंगे.इसके बाद हमने उस घर के अंदर प्रवेश किया.शेक्सपियर के पिता जो हाथ के दस्ताने बनाया करते थे को दस्ताने बनाते दिखाया गया था...उन्हीं असल चीजों के साथ सहेजी गई मूर्तिनुमा स्ट्रक्चर.छोटे-छोटे कमरों से गुजरना, वो मेज जहां वो नाश्ता करते थे, वो कमरा जहां उनका जन्म हुआ, जहां वो सोते थे, वो टेबल जहां वो लिखा करते थे....सब किस प्यार से सहेजा गया था.घर से बाहर निकलने पर लॉन में एक गोल घेरे में कुछ लोग बैठे मिले.अगर आप चाहें तो वो आपको शेक्सपियर का कोई नाटक या उसकी एक झलक उसी वक्त दिखा सकते हैं.

वहां हमें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोरकी मूर्ति भी मिली.यहां उन लोगों को भी पूरा सम्मान व जगह मिली दिखी जिन्होंने शेक्सपियर से प्रेरित होकर काम किया यो जो उनके समकालीन थे.मन में एक बात लगातार चल रही थी कि हमने अपने देश के महान लेखकों के साथ क्या किया है.क्या हम लमहीको सहेज सके हैं? यह तुलनात्मक नज़रिए से चीजों को देखकर अपने देश को कमतर समझने वाली बात नहीं बल्कि सीखने की इच्छा की बात है.एक देश को समाज को अपने यहां के साहित्य, संस्कृति और कलाओं का सम्मान करना आना ही चाहिए...लेकिन हमारे यहां उनकी स्मृतियों को सहेजना तो दूर की बात है जीते जी वो लेखक, कलाकार ही दवाइयों के इंतजार में दम तोड़ देते हों तो सोचना तो पड़ेगा.

यह समूचा शहर शेक्सपियर का है...शहर या गांव कुछ भी कहें...शहर के तीन अलग-अलग हिस्सों में तीन घर हैं.उन सबसे गुजरते हुए हम सड़कों से गुजरने का सुख बटोरते हुए एक पार्क में जा पहुंचे.एकदम इत्मिनान के साथ हरी घास पर लुढकते हुए शेक्सपियर को आत्मसात् करने लगे.पास में एक झील थी, बच्चों का कोलाहल, प्रेमियों की आसक्तियां, युवाओं की शोखियां....सब कुछ.
लौटते वक्त काफी भरा-भरा सा महसूस हो रहा था...शहरों को भी कलाओं की साहित्य की जरूरत होती है याद आ रहा था...कोई शहर किस तरह एक किताब सा हो जाता है और उसकी हर गली, हर मोड़ किसी पन्ने सा खुलता है.हम कितनी ही जगह पर बुकमार्क लगाकर छोड़कर उस किताब को बंद करके लौट रहे थे....शेक्सपियर को पूरा कहां पढ़ पाई हूं...उनके अधूरे से पढ़े की तरह उस शहर को भी और घूमने की इच्छा के साथ बंद करके लौट रही थी.



मैडम तुषाद म्यूज़ियम, ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट, शॉपिंग, मस्ती-
अगले दिन की मुट्ठी में कितना सारा आनंद है यह पलकें झपकाती रातों को पूरी तरह पता नहीं होता था.जादू सा दिन अपनी मुट्ठी खोलता और हम लम्हे बटोरते...चूंकि मैडम तुषाद म्यूजियम घर से ज्यादा दूरी पर नहीं था और वहां जाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी इसलिए देर तक सोने और इत्मिनान से निकलने का भी आनंद था.आज हम मां-बेटी अकेले निकले थे, पहली बार.हम रोमांचित थे.यह वही मैडम तुषाद म्यूजियम था, जिसके बारे में खूब सुनते रहते थे, पढ़ते रहते थे.यह सचमुच एक सुंदर संसार था.मोम से बनी मूर्तियों का यह संग्रहालय दुनियाभर में मशहूर भी तो कम नहीं.अंदर पहुंचते ही पहला सामना हुआ जूलिया रॉबर्ट्स से...उसके बाद तो एक के बाद एक लोगों के साथ तस्वीरें खिंचवाने, मस्ती करने का सिलसिला चलता ही गया.लोगों का उत्साह उफान पर था.दाहिनी तरफ एक गलियारा था, जिसमें हिंदुस्तानी बॉलीवुड स्टार्स मौजूद थे.अमिताभ, सलमान, शाहरुख, कैटरीना, माधुरीलेकिन सच कहूं तो ये पुतले उतने स्वाभाविक नहीं लग रहे थे जितने बाकी दूसरे पुतले.ऐसा महसूस हुआ कि यहां भी कोई भेदभाव तारी है, हालांकि आगे जाकर सचिन और गांधीजी के अच्छे पुतले देखकर थोड़ी राहत भी हुई.


मर्लिन मुनरो, आइन्स्टीन, पिकासोके पुतले काफी अच्छे लगे...हालांकि राजघराने के जो पुतले थे, खासकर क्वीन का उसका तो कोई जवाब ही नहीं...ऐसा लग रहा था मानो अभी बोल ही पड़ेंगी.शिवि सारे पुतलों के साथ खेल रही थी.मैं उसका उत्साह कैमरे में कैद कर रही थी.एंग्रीबर्ड्स, स्टारवार्स, श्रेक, जाइंट, टिंकरबेल इन सबके बीच बच्चे खूब खुश थे.यह एक अलग सी दुनिया थी, जहां लोग खूब आनन्द ले रहे थे.इस मस्ती के समंदर में मैं भी कम नहीं डूबी...पिकासो के साथ तस्वीर खिंचवाना हो या नेल्शन मंडेला गांधी के साथ या फिर बराक ओबामा के साथ मौका जाने नहीं ही दिया.तकरीबन तीन-चार घंटे अंदर बिताकर हम बाहर आये.
योजना के अनुसार शेरलक होम्सकी स्टेचू के पास बेकर स्ट्रीट के करीब वहां हमें हमारी दोस्त स्वाति मिलने वाली थी.उससे फोन पर बात हुई, उसे आने में थोड़ी देर थी तब तक रोडसाइड शॉपिंग में मशगूल हो गये.वही दोस्तों के लिए कुछ छोटे-छोटे तोहफे लेने थे, सो लिए.तब तक स्वाति आ गई और उसके पास एक अलग योजना थी आगे के दिन की.वो हमें ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट ले गयी.सारे रास्ते हम तीनों खूब मस्ती करते जाते. 

ऊंची इमारतों को देखते, सजी-धजी सड़कों को देखते, सड़क के किनारे कोई नवयुवक गिटार बजाता भी मिला.एचएमवी का स्टोर देखकर कदम ठिठके भी...हमें चूंकि कोई शॉपिंग करनी नहीं थी इसलिए मन एकदम आजाद था.किसी भी दुकान में जाना, चीजें देखना और वापस आ जाना...यह वही मार्केट है जहां बॉलीवुड स्टार अक्सर शॉपिंग करने आते रहते हैं.दुकानों के अंदर जाहिर है बाजार ही था, कीमतों के बारे में बात न ही करूं तो ही ठीक.लेकिन इतना बताना जरूरी लग रहा है कि पौंड और रुपये के बीच का फासला हमें चीजों से बहुत दूर कर देता था.

इस बीच हम बीबीसी की बिल्डिंग के करीब से गुजरे, फिलहाल वहां कोई दोस्त नहीं था जिससे मिलने जाना होता सो बाहर से ही देखकर वापस हो लिए.इस दौरान भूख भी अपना रास्ता बना चुकी थी और चलते-चलते पांव भी थकने लगे थे.अब शुरू हुई कुछ अच्छा वेजीटेरियन खाने की तलाश.स्वाति एक अच्छे काठी रोल वाले का पता जानती थी लेकिन वो थोड़ी दूर था.लेकिन हमने अच्छा खाना चुना और जाहिर है चलना भी.जब तक हम वहां पहुंचे हमारी हालत पस्त हो चुकी थी.जैसे ही दुकान दिखी जैसे कोई खजाना मिल गया हो.हम तीनों पसर गये दुकान में और वेजिटेरियन काठी रोल के आने का इंतजार करने लगे.यह एक बांग्लादेशी की छोटी सी दुकान थी.काठी रोल का स्वाद तमाम थकान का ईनाम था.हम खाकर एकदम तरोताजा हो चुके थे...जैसा कि मैं बता ही चुकी हूं दिन जैसे ढलता ही न हो यहां...तो ढलती हुई शाम और आती हुई रात नहीं पैरों की ताकत तय करती थी लौटने का वक्त.

आखिर हमने कुछ शॉपिंग करने का मूड बना ही लिया.मां-पापा के लिए कुछ लेना था कुछ दोस्तों के लिए भी तो एक शॉपिंग मॉल में चले ही गए.शॉपिंग अगर बीमारी न हो और बजट के बाहर न जाये तो उसका सुख होता है.हमारे पास वक़्त इफरात था, चीजों को देखना, ड्रेस का ट्रायल लेना लेकिन खरीदना वही जो जरूरी था.हिंदुस्तान में ऐसी फुरसतिया शॉपिंग कब की थी याद ही नहीं.विंडो शॉपिंग का असल मजा लिया लंदन में और लौटकर घर आये तो कुछ चीजें हाथ में थी ढेर सारा उत्साह, सुख, अनुभव जेहन में.हां, थोड़ी सी थकन भी.



एक दिन का ब्रेक-
अगले दिन के लिए शिवि ने रात में ही ऐलान कर दिया कि कहीं नहीं जायेंगे.घर पर रहकर मस्ती करेंगे.ज़ाहिर है देर तक सोना उस मस्ती में शामिल था.उसकी मस्ती में एक और चीज भी शामिल थी, बुलबुले फुलाना.वो बड़े-बड़े बुलबुले फुलाने वाली एक मशीन जैसी कोई चीज शेक्सपियर के गांव से लाई थी, जब मौका मिलता बालकनी में जाकर उससे बुलबुले फुलाती.अगले दिन हम चूंकि कहीं गये नहीं इसलिए घर के आसपास जो पार्कनुमा हरा मैदान था उसमें घूमते रहे, बुलबुले फुलाते रहे और लंदन को महसूस करते रहे.किसी शहर को सिर्फ उसके टूरिस्ट प्वाइंट्स पर जाकर ही नहीं समझा जा सकता, उसे समझा जा सकता वहां दूध, सब्जी खरीदकर, बेसबब उसकी गलियों में घूमकर, भटककर.महसूस कर पा रही थी कि अब मेरे मन ने इस शहर से दोस्ती स्वीकार कर ली है.रात संगीत की महफिल भी सजी...देर तक गिटार बजता रहा...गाना भी हुआ, गुनगुनाना भी.


थेम्स की लहरें, सी लाईफ-
अगला दिन फिर किसी जादू की पुड़िया सा खुला.यह दिन हमें सी-लाईफ देखने जाना था और थेम्स की बोट राइड.मामला यह था कि एक टिकट था पास जो तीन दिन तक की वैधता रखता था.क्रूज लंदन के तमाम पर्यटन स्थलों पर रुकते हुए चलते रहते थे.कहीं भी उतरकर कितनी ही देर घूमकर किसी भी दूसरे क्रूज पर बैठकर आगे भी जाया जा सकता था या पीछे लौटा भी जा सकता था.सुनकर ही मजेदार लग रहा है न? वो थेम्स जिसके आसपास घूमते हुए कई दिन बीत चुके थे आखिर उसके भीतर उतरे बगैर बात बनती कैसे.लेकिन सुबह गूगल ने बताया कि मौसम खराब है और थेम्स में हाई टाइड की संभावना है.यानी तेज लहरों वाला तूफान आ सकता था.तभी फोन पर एक दोस्त ने बताया कि आज थेम्स में जाना ठीक नहीं है.लेकिन पानी से डरने वाले तो हम थे नहीं.सो जाना तय किया.नदी के किनारे पहुंचे तो तेज बारिश आ गई और भागते हुए हमने पहले सी-लाइफ देखना तय किया.

मैं और शिवि एक्वेरियम के अंदर पहुंचे. शुरू-शुरू में हमें इसमें खास मजा नहीं आया.हमने पहले भी बहुत शानदार सी लाईफ देखी थी.पोर्ट ब्लेयर वाली यादगार अंडर वॉटर वॉक के दौरान जो सी लाईफ देखी उसका तो कोई मुकाबला संभव ही नहीं था.खैर, चूंकि अदिति ने हमारे लिए यह चुना था तो जरूर कोई तो बात होगी यही सोचकर हम आगे चलते गये.जल्दी ही हमें समझ में आ गया था कि हम यहां क्यों भेजे गए हैं.आपके पांव के तले मछलियां, सर के ऊपर से गुजरती मछलियां, दाहिनी तरफ समुद्री जीव, बायीं तरफ भी.बिना भीगे पानी में चलने का सा एहसास.बड़ी-बड़ी मछलियां, छोटी-छोटी रंगीन मछलियां...बहुत सुंंदर अहसास था.लेकिन असल अहसास तो अभी होना बाकी था जब हम ग्लेशियर नुमा कमरे मेंपहुंचे.जैसे बर्फ के मैदान में आ पहुंचे हों, तभी सामने से पोलर बियर, पेंग्विन आते दिखे, और जल्द ही हम उनसे घिर से गये.क्या कोई जादू देख रहे थे हम...वो मंजर कमाल का था.शिवि मुझे देख रही थी.मम्मा आपको कित्ता मजा आ रहा है न? हां, वाकई मुझे बहुत रोमांच हो रहा था.

सी-लाईफ देखने के बाद क्रूज में बैठकर घूमने का रोमांच हमारा इंतजार कर रहा था और तेज बारिश भी.नदी के इस पार सी-लाईफ थी उस पार क्रूज.बीच में एक पुल था.हमने भीगना चुना.हम दोनों मां-बेटी भीगते हुए लंदन की सड़कों का, पुल का आनंद लेने लगे.उधर क्रूज तैयार था और कुछ ही पलों में हम उसके भीतर थे.चूंकि बारिश थी इसलिए ज्यादातर लोग नीचे ही बैठे थे लेकिन शिवि ने कहा मम्मा ऊपर चलना है तो हम भीगने की लिए ही ऊपर चल पड़े.कैमरा छुपाया, मोबाइल छुपाया और नदी की बीच धार में खुद को महसूस करना शुरू किया.वहां से शहर को देखना शुरू किया.

यह बहुत सुंदर एहसास था, बारिश ने इसे और भी खूबसूरत बना दिया था.नीचे पानी ऊपर पानी, चारां तरफ पानी ही पानी...नदी की प्यास नदी से बेहतर कौन जान सकता है.थेम्स के कान में मैंने धीरे से कहा, तुम गंगा से मिली हो? उसने मुस्कुराकर कहा, गंगा...तुम जैसी ही होगी...और तुम मुझ जैसी...एक ही वक्त में वहां गंगा...थेम्स और मैं मुस्कुराई...आसमान से गिरती बूंदों ने देखा यह संगम...

आज जो भीगता हुआ लंदन सामने से गुजर रहा था, वो उस भागते हुए लंदन से अलग था जो अब तक हम देख रहे थे.क्रूज पर हो रही कॉमेन्टरी में कोई कह रहा था अगर आप लंदन की जिंदगी से उकता गये हैं इसका मतलब है आप जिंदगी से उकता गये हैं...यह इतना जिंदा शहर है...मेरे सामने भीगता हुआ टॉवर ब्रिज, भीगता हुआ वेस्टमिनिस्टर, लंदन ब्रिज, शार्ड, ग्रीनविच था...तभी हमने टॉवर ब्रिज को दोबारा खुलते देखा, न सिर्फ खुलते देखा उसके नीचे से गुजरे भी.हम दो जगह क्रूज से उतरे...और थोड़ा घूमकर वापस आ जाते...चूंकि लंदन की वो सारी जगहें जहां लोग घूमने के लिए उतर रहे थे, हम पहले ही खूब घूम चुके थे इसलिए हमारा सारा आनंद थेम्स की लहरों में हिचकोले खाने का था.बारिश रुकी तो कैमरों को आजादी मिली, कुछ तस्वीरें खिंचीं लेकिन यकीन मानिए दुनिया का कोई कैमरा उस सुख को सहेज नहीं सकता जो उस क्रूज पर महसूस हुआ, उस भीगने का सुख, उन कंपा देने वाली हवाओं का सुख...वो भीगा हुआ सा दिन अब तक महक रहा है...



वेम्बले, शॉपिंग, सर्वनाभवन-
लंदन शहर में एक छोटा सा हिंदुस्तान भी मिला.वैम्बले में.एक रोज वहां जाना भी बनता ही था.यह ऐसी जगह है जहां आकर आपको हिंदुस्तान में होने का का सा सुख महसूस हो सकता है.वैसी ही दुकानें, वही सामान, वही लाली लिपिस्टिक, पान की दुकानें, हिंदी गाने, चाट, पकौड़ी, दुकानों बाहर हैंगर में टंगे कपड़े, शलवार कमीज, साड़ी, दुपट्टा, जलेबी समोसा सब मिलेगा यहां उसी देसी अंदाज में.लंदन में बसे हिंदुस्तानियों का यह प्रिय ठिकाना जरूर होगा, ऐसा मुझे लगता है.बहरहाल, सर्वनाभवन देखकर हमारी भूख भी इसरार करने ही लगी कि लंदन वाले इंडिया में खाना खिलाओ न.आखिर हम मसाला दोसा का ऑर्डर कर रहे थे.दोसा खाकर फिर से ताकत आ गई थी तो फिर निकलने पड़े घूमने.शॉपिंग तो करनी नहीं थी लेकिन दुकानों का जायजा कम नहीं लिया.इतनी फुरसत से हिंदुस्तान में कभी घूमी हूं याद नहीं.बार-बार दुकानों में जाते, जायजा लेते और खाली हाथ वापस.यही सबसे अच्छी बात रही कि शॉपिंग के चस्के से बचे हुए हैं हम.



ख़्वाब शहर...स्कॉटलैण्ड-
हमने अगली सुबह की तैयारी रात को ही कर ली थी.ठीक पांच बजे घर छोड़ दिया.मन में उत्साह कुलांचे मार रहा था.स्कॉटलैण्ड देखने का मन तो जाने कबसे था, शायद लंदन से भी पहले.स्कॉटलैण्ड के बैगपाइपर्स, वहां के गोल्फ मैदान, झीलें, वहां का थियेटर, कैसल...सबके बारे में सुना था.

615 किलोमीटर की लंदन से एडिनबरा की दूरी पांच घंटे के ट्रेन के सफर से पूरी हुई.उसके बाद वो शहर हमारी आंखों के सामने किसी जादुई अफसाने सा खुला.शहर ने सबसे पहले आकर एक अपने यहां की खास सर्द हवा से हमारा इस्तेकबाल किया.हमने अपने-अपने ओवरकोट के भीतर भी सिहरन महसूस की.दो कमरे का घर पहले से ही वॉट्सन क्रीसेन्ट नामक जगह पर तय किया जा चुका था.हम अपने तयशुदा दो दिन के घर की तलाश में बंजारों की तरह निकल पड़े.मोबाइल का जीपीएस हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहा था.यह खेल मुझे वाकई दिलचस्प लगा था यहां.घर से निकलते हैं जीपीएस के भरोसे और पहुंच जाते हैं सही ठिकाने पर.हालांकि अब हिंदुस्तान में भी जीपीएस का इस्तेमाल होने लगा लेकिन बड़े शहरों में ही.बहरहाल, रास्ते ढूंढने का काम अदिति और विप्लव का था और मैं और शिवि एडिनबरा शहर को देख रहे थे. 

रास्ते में एक दुकान से हमने दूध, ब्रेड, मैगी जैसी जरूरी चीजें लीं और फिर घर की खोज में लग गए...जीपीएस था, सड़कें थीं और आनंद था.घर भी होगा ही कहीं न कहीं यह इत्मिनान भी था.बहरहाल, कुछ देर की मशक्कत और मटरगश्ती के बाद आखिर हम पहुंच गये उस दो दिवसीय घर में.वहां के मालिक ने हमें चाबियां दीं और दो दिन का मालिक नियुक्त किया.कमरे में पहुंचते ही लगा वाकई घर मिल गया हो.यहां आकर पैदल खूब चलने लगी थी मैं.मजे की बात यह रही कि शिवि भी खूब चलती थी, बैकपैक के साथ.पहुंचकर चाय और मैगी का जो आनंद मिला उसके बाद कुछ घंटे सोने का सुख भी आ जुड़ा.

तीन बजे के करीब हम शहर घूमने निकले.पूरा शहर पैदल घूमते रहे, कुछ कुछ खाते पीते, मस्ती करते.किंग्स थियेटर, कैसल, यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा के करीब से गुजरते हुए.रात का डिनर इंडियन करना था यह सबने तय किया और फिर गूगल को काम पर लगा दिया गया कि बताओ, जहां हम हैं वहां के आसपास कौन से हैं इंडियन रेस्टोरेंट.एक लंबी सूची हमारे सामने थी और कुछ ही देर में हम भारतीय रेस्टोरेंट में भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुर लहरियों के बीच पूड़ी सब्जी और कढ़ाई पनीर व बटर नान खाने पर टूटे पड़े थे.इस डिनर के बाद फिर एक बहुत लंबी वॉक करके वापस लौटना था.अगली सुबह फिर जल्द उगने वाली थी क्योंकि मुझे और शिवि को एक टूरिस्ट बस पकड़नी थी जो हमें साढ़े बारह घंटे में लगभग पूरा एडिनबरा घुमाने वाली थी.

एक ख्वाब का खुलना और हमारा उसमें होना-जानना कई बार नुकसानदेह होता है और कई बार फायदेमंद भी.लेकिन कुदरत के बारे में मेरा अनुभव है कि कुदरत के पास हमेशा आपके जाने हुए से ज्यादा होता है.ऐसा ही उस रोज हुआ जब एडिनबरा घूमने के लिए टूरिस्ट बस में चढ़े.सुबह तकरीबन एक घंटे की तेज कदमों वाली पैदल वॉक के बाद भी हम बस में पहुंचने वाले सबसे अंतिम यात्री थे.सफर की शुरुआत अच्छी नहीं रही.मुझे सीट मिली बस के आखिर में और शिवि को सबसे आगे.हम दोनों के मुंह उतर गए और उत्साह इस चिंता में बदल गया कि कैसे हम एक-दूसरे के पास बैठ सकें.वो बार-बार मुझे पलटकर देख रही थी और मेरी नज़र उस पर ही थी.अब कुछ हो भी नहीं सकता था.बस चल रही थी और ड्राइवर की चेतावनी भी कि बेल्ट न पहनने पर कितना जुर्माना है, अगर वापस वक्त पर न आये तो बस चली जायेगी, और जिम्मेदारी नहीं लेगी वगैरह.मैंने सोचा बस जब दो घंटे बाद रुकेगी तो ड्राइवर से आग्रह करके साथ बैठने का जुगाड़ कर लूंगी.ध्यान बाहर के मौसम पर लगाने की कोशिश की.मौसम बेहद खुशनुमा था.

बस पूरी भरी हुई थी लेकिन अंदर कोई आवाज नहीं थी सिर्फ ड्राइवर जॉन जो कि गाइड भी था उसकी आवाज गूंज रही थी.वो रास्ते में गुजरने वाले इलाकों के बारे में वहां का इतिहास और संस्कृतियों के बारे में बता रहा था.एक नज़र शिवि पर और दूसरी नज़र बस के बाहर थी.मौसम धीरे-धीरे भीतर उमड़-घुमड़ रहे चिंता के बादलों को समेट रहा था.आखिर बस का पहला पड़ाव आ गया.मैंने शिवि को आश्वस्त किया कि मैं ड्राइवर से बात करके साथ बैठने का जुगाड़ कर लूंगी.आखिर यह जरा सी ही तो बात है.लेकिन यह जरा सी बात नहीं थी.ड्राइवर ने साफ इनकार कर दिया कि वो कुछ नहीं कर सकता.क्योंकि मैं देर से आई थी इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता.मुझे लगा यह तो पूरे सफर की बैण्ड बज गई.शिवि का चेहरा उतर गया.मेरा भी.फिर मैंने एक-एक यात्री से रिक्वेस्ट की लेकिन किसी ने नहीं सुनी, कोई अपने प्रेमी के साथ था तो कोई अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ.आखिर में एक कोरियन लड़की जो अकेले सफर पर निकली थी, उसने मेरी बात सुनी और वो तुरंत खुशी से मान गई.असल में हमारा यह सफर अब शुरू हुआ.



उस पल में कोई न था...
एडिनबरा को अगर झीलों का शहर कहा जाए तो गलत नहीं होगा.सारे रास्ते हमारा गाइड बताता जा रहा था कि अब हम किस झील के पास से गुजर रहे हैं, किस गांव के पास से, वहां का क्या इतिहास है, कौन सा किला किसका है और किस तरह इन जगहों का आजादी की लड़ाई में योगदान रहा, किसकी शहादत की दास्तान किस झील में दर्ज है.बीच-बीच में गाइड चुप हो जाता और हमें बाहर के अप्रतिम सौंदर्य को महसूस करने के लिए छोड़ देता था.बस के भीतर कोई स्कॉटिश धुन धीरे-धीरे उभरती और बाहर बहती हवा को, पहाड़ों को रास्तों को जंगलों को महसूस करने में हमारी मदद करती.कोई बादल का टुकड़ा हमारे साथ-साथ चलने लगता कोई झील का किनारा आंखों से कभी पेड़ों की ओट से लुकाछिपी खेलते हुए एकदम से सामने आ खड़ा होता और....और....भीतर सुख का कोई सागर उमड़ता.

इस पूरी यात्रा में मैंने कई बार अपनी आंखों को सचमुच बहते हुए महसूस किया.यही...ठीक यही वो लम्हा था, यही वो अनुभूति जो किसी यात्रा का हासिल होती है...उस एक पल में मैंने खुद को जीवन की तमाम जद्दोजहद से मुक्त होते हुए महसूस किया, कोई बेचैनी नहीं, कोई कामना नहीं...बस अविरल बहता कोई सुख...अध्यात्म में संभवतः इसे ही ईश्वर दर्शन होना कहते होंगे.प्रकृति के साथ साक्षात्कार करते हुए यह मेरे जीवन का तीसरा अनुभव था...जब मैं अपने केंद्र पर थी संपूर्ण रूप से और तमाम दुनियादारी से एकदम मुक्त...पहली बार गुलमर्ग के रास्तों पर...दूसरी बार अंडमान में समंदर के ठीक बीचोबीच...और तीसरी बार यहां एडिनबरा में....वो पल जिसमें न कोई और था न मैं खुद...

तभी बस एक ब्रेक के लिए रुकी.मानो ड्राइवर को भी सिर्फ बस ड्राइव करना नहीं आता था बल्कि हमारे जे़हन भी ड्राइव करना आता था.ठीक उस जगह, ठीक उस वक्त वो बस में ब्रेक लगाता था जब हमारे भीतर की तमाम कसावटें टूट रही होती थीं.बस से उतरते ही ठंडी हवाएं हमें सहलातीं...और हम कुदरत के उस असीम सौन्दर्य को एकटक ताकते रहते...कुछ तस्वीरों में सहेजने की कोशिश भी करते लेकिन वो जो महसूस हो रहा था उसे कैद कर पाना कैमरों के बस की बात ही नहीं थी.समूची यात्रा लगातार सघन होती जा रही थी. अंदर की यात्रा भी.संभवतः यही हाल औरों का भी था इसीलिए कम ही लोग एक-दूसरे से बात कर रहे थे.ऐसे ही पलों में कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को और सटा लेता अपने पास और कोई प्रेमिका अपने प्रेमी का चुंबन लेने से खुद को रोक नहीं पाती.इन प्रेमी प्रेमिकाओं को अगर उम्र में बांधकर सोच रहे हैं आप तो गलत हैं.क्योंकि यहां बुजुर्ग प्रेमी जोड़े भी खूब दिखते हैं.

अगला ब्रेक हमारा लंच ब्रेक था.हमारा लंच हमारे बैग में था.कुछ चिप्स, बिस्किट और जूस.बाहर से खरीदकर खाने में वेज मांगने पर भी नॉनवेज निकल आने का जो रिस्क था वो लेना हमारे बस का नहीं था सो वो चिप्स और बिस्किट ही भले लग रहे थे हमें जो चलते वक्त अदिति ने बैग में रख दिए थे.हमने लंच के नाम पर एक कोक जरूर खरीदी.चूंकि लंच का चक्कर नहीं था इसलिए हमारे पास बाकियों से ज्यादा वक्त था.मैं और बेटू आसपास के दृश्यों को देखते हुए घूमते रहे.इस लंच ब्रेक के बाद हमें लॉकनेस में क्रूज से जाना था.लॉक यहां लेक को ही कहते हैं.

क्रूज झील के ठीक बीच में था और मैं जीवन के ठीक बीच में...चारों तरफ पानी...दूर पहाड़ियां, पहाड़ियों पर अठखेलियां करते बादल और जिस्म को छूती हवाएं...उन हवाओं में जादू था, उन पहाड़ियों में भी, उस झील में भी...पूरी झील का चक्कर लगाकर एक पुराने किले को देखते हुए हम करीब एक डेढ़ घंटे में लौटे.मैं महसूस कर पा रही थी कि भीतर का मौन लगातार सघन होता जा रहा है. कुछ है जो भीतर बदल रहा है.कुछ जो छूट रहा है, कुछ जो उग रहा है...किसी यात्रा का यही हासिल होता है....आज इसे लिखते हुए महसूस कर रही हूं वही भीतर रेंगता हुआ सुख.वापसी में बस कुछ और जगहों पर भी रुकी लेकिन एक बार अगर आप उत्कर्ष पर पहुंच जाएं तो बाकी चीजें अस्तित्व में होकर भी नहीं सी ही रह जाती हैं.हम वापस लौट रहे थे लेकिन मैंने महसूस किया कि जो मैं गई थी, वो मैं लौट नहीं रही थी.वापस आकर एडिनबरा शहर में हमने डिनर किया.आज भारतीय खाना नहीं, पुर्तगाली. हमसनाम की कोई चीज़ थी और पीटा ब्रेड...अच्छी लग रही थी.रात को नींद की चादर ओढ़ने से पहले एक बार खुद को टटोलने का जी किया...कोई अकराहट, कोई कड़वाहट कोई दुविधा कहीं नहीं थी.

तीसरा दिन स्कॉटलैण्ड की कैसल और आर्ट गैलरी के नाम था लेकिन शहर ने मुस्कुराते हुए कहा कि बारिशां की लाडली को बारिशों का तोहफा देना तो जरूरी है....सचमुच दिन ऐसा खुशनुमा हो उठा, महक उठा एडिनबरा की उस बारिश में...बार-बार बूंदें हथेलियों से फिसलते हुए पत्तियों पर गिरती रहतीं...जब मेरा जी भर गया तो बारिश ने खुद को समेटकर हमें एडिनबरा की सड़कों पर ले जाकर खड़ा कर दिया.तीन दिन में मानो इस शहर के चप्पे-चप्पे से हमारी वाक़िफियत हो चुकी थी.एडिनबरा यूनिवर्सिटी का हरा हमारी हथेलियों में ठहरने को तैयार ही नहीं था, रास्ते कहते आओ और पास आओ, कोई लड़का गिटार की धुन छेड़ता कुछ गाता भी...कोई उसकी टोपी में कुछ पौण्ड या पेंस रख भी देता लेकिन इससे उसके गाने की लय नहीं टूटती.एक स्त्री खाली बच्चा गाड़ी के सामने रोते हुए दुःख की समाधि में लीन सी दिखती.शहर की इमारतें सलीकेमंदी से खड़ा होना सिखाती हैं.हम शहर में जीकर, जी लगाकर वापस लौटते हैं, बार-बार मुड़ मुड़कर देखते हुए.

लीड्स- अगर तुम यह सोचती हो कि मुझसे मिले बिना लंदन से चली जाओगी तो ऐसा तो मैं होने नहीं दूंगी...बस यही वो अधिकार भरा प्यार था एक दोस्त का कि मैं बेटू का हाथ पकड़कर लीड्स जाने वाली बस में जा बैठी.नीरा त्यागी यही नाम है दोस्त का.आज के जमाने की दोस्तियां भी अजीब हैं, कोई इन्हें फेसबुकिया दोस्ती कहता तो दोस्ती को कम करके आंकने जैसा लगता है.नीरा दी और मैं एक-दूसरे को एक-दूसरे के पढ़े-लिखे से बरसों से जानते हैं.बिना मिले, बिना बात किये.लीड्स लंदन से बस से तय की जाने वाली साढ़े चार घंटे की दूरी पर है.नीरा दी इसे लंदन का गांव कहती हैं.असल में उनका घर लीड्स से भी करीब दस किलोमीटर की दूरी पर है.सारा रास्ता हमें लुभाता रहा और लीड्स से उनके गांवस्कारक्रॉफ्ट तक की दूरी और भी.घर पहुंचते ही हमने पेटपूजा की और निकल पड़े घूमने.कसम से शाम की इतनी सुंदर वॉक करते हुए ऐसा लग रहा था किसी बड़े बजट वाली बॉलीवुड फिल्म के किसी दृश्य के अंदर हमें एंट्री मिल गई हो जैसे.सारे रास्ते फूलों से भरे हुए थे, फिर पीले फूलों वाले खेत शुरू हुए, कच्ची मिट्टी पे हमारे कदमों के निशान दर्ज होने लगे, रास्ते में कई जगह घोड़ों के चरागाह मिले.कोई लड़की घोडे़ की मालिश करती भी दिखी.सारे रास्ते खरगोश उछलकूद करते नजर आते रहे...कितना सुंदर रास्ता था, कबसे चलते ही जा रहे थे, थक ही नहीं रहे थे...वापस आकर मुंह से यही निकला यह तो वाकई जन्नत है.



यॉर्क म्यूजियम और आर्ट गैलरी-
हमारी मुट्ठियां एकदम खाली थीं इन पर हर दिन किसी ख्वाब सा उगता था और लहलहाता था.मजा यह था कि हमारे लिए ये जादू भरी पोटलियां हमारे अपने तैयार कर रहे थे.हम चैन से सोते थे और सुबह हमारी हथेलियों पर एक खूबसूरत दिन रख दिया जाता.लीड्स में नीरा दी और उनके पति रंजीत जी ने हमें यॉर्क घुमाने का प्लान किया था.यह एकदम से नई खुली खिड़की थी.लंदन के एक गांव में रहने के खूबसूरत अनुभव के साथ यॉर्क शहर घूमना तो बोनस ही था.


यॉर्क हम स्कारक्राफ्ट से तकरीबन आधे घंटे की ड्राइव पर था.सारे रास्ते लहलहाते खेत, हरे मैदान...शहर से बाहर होने का सुख से भर रहे थे.यॉर्क पहुंचते ही एक नदी हमसे मिलने को बेकरार मिली.बड़ी शांत से सी नदी.नाम था ओउस...जैसे नींद से जागी हो...बत्तखों का ऐसा जमावड़ा कि उन्हीं के बीच रह जाने को जी करे...कहा जाता है 13वीं सदी में इस शहर को रोमन्स ने खोजा था.यह असल में दीवारों का शहर है...खूबसूरत दीवारें...कलाओं से भरपूर शहर के जर्रे-जर्रे में आपको महसूस होगा कि आप किसी पेंटिग के भीतर प्रवेश कर चुके हैं और चल रहे हैं.इत्मिनान के साथ हम शहर को महसूस करते हुए पैदल चलते रहे...चलते रहे...यहां का थियेटर, इमारतें, चर्च सब आसपास थे...शहर को महसूसना भी एक इल्म होता है, हुनर होता है.शहर में जाना शहर से जुड़ना नहीं होता...इस यात्रा में इस जाने हुए में थोड़ा और इज़ाफा हो रहा था.किस तरह कोई शहर अपनी कला, अपनी सभ्यता, अपने इतिहास को संजोकर रखता है, उसके प्रति विनम्र और प्रेमपूर्ण होता है यह मुझे शेक्सपियर के गांव में भी महसूस हुआ और यहां भी, हां एडिनबरा में भी.एक बेहद पुरसुकून दिन बिताकर हम लौटे...तो लीड्स मुस्कुराता हुआ मिला.अगले दिन हमारी वापसी थी.

डर्डल डोर-एक किताब के खत्म होने के तुरंत दूसरी किताब उठाने का मन नहीं करता, उसके असर को महसूस करने का मन करता है वैसा ही यात्राओं भी में होता है शायद.हम एक जगह से आते और इस कदर भरे होते कि उसे ठहरकर जीने को जी चाहता...लीड्स से लौटकर एक दिन हमने आराम, शॉपिंग के नाम पर कुछ घूमने का रखा.क्योंकि डर्डल डोर जो कि लंदन से 128 किलोमीटर की दूरी पर है वहां हमें अगले रोज जाना था.डर्डर डोर खूबसूरत समंदर के किनारे पर प्राकृतिक रूप से बना चट्टान का खूबसूरत दरवाजा है.उसे हमने कई फिल्मों में देखा था.असल में यह वेल्स परिवार की निजी संपत्ति है, जिसे उन्होंने लोगों के सुख के लिए सार्वजनिक तौर पर खोल दिया दिया है.

यहां मौसम काफी बदला हुआ मिला लेकिन समंदर नदारद.सामने तो एक पहाड़ खड़ा था.बेहद खूबसूरत पहाड़.अदिति ने मुस्कुराकर कहा पहले इस पहाड़ को चढ़ना है, फिर उसे उतना ही उतरना है तब मिलेगा समंदर...एक बार को तो सहम सा गया मन.लेकिन हिम्मत जुटाई.जैसे-जैसे कदम आगे बढ़ते मन प्रसन्न होता जाता.जन्नत जिसे कहते हैं लोग, वो यही होगी शायद.इतना सौन्दर्य कि आंखों में समेटन लेने को मन बेताब हो उठे.पहाड़ी के टॉप पर पहुंचकर खूबसूरत बेहद नीला समंदर दिखाई दिया.एक तरफ हरा घास का मैदान और वो पहाड़ी रास्ता जिस पर हम चढ़कर आये थे दूसरी तरफ समंदर को उतरता रास्ता और सामने समंदर.हम पहाड़ी के सबसे उंचे टीले पर कुछ देर ठहरे.चारों तरफ बादल ही बादल....बीच में वो पहाड़ी और उसमें बैठे हम...इसके बाद क्या कोई इच्छा बाकी बचती है?

लेकिन जैसा कि दोस्तों का कहना था कि अभी तो असल खूबसूरती देखना बाकी है.हम फिर लुढ़कने लगे पहाड़ से नीचे की ओर...लगातार समंदर के करीब जाते हुए अच्छा लग रहा था.आखिर हम पहुंच गये उस डर्डल डोर के सामने जिसने आवाज देकर पुकारा था.नीले और हल्के हरे समंदर के बीच वो खूबसूरत सा दरवाजा मानो किसी ने बनाया हो...मानो कह रहा हो...इस पार दुनिया है, दुनियादारी है उस पर सुकून है...मुक्ति है...और इस पार से उस पार जाना है जीवन सागर से गुजरकर ही.लोग तरह-तरह से तस्वीरों में दर्ज होना चाह रहे थे, इस खूबसूरत मंजर के साथ...पानी बेहद ठंडा था मानो बर्फ की सिल्ली पर पांव रख दिया हो...फिर भी उत्साह में लोग पानी के भीतर जाने से रोक खुद को रोक नहीं पा रहे थे.खूब इत्मिनान से हमने डर्डल डोर को आंखों में भरा और विदा ली...वापसी थकान भरी थी और भूख भी. फिर वही गूगल...वही जीपीएस और एक और समंदर की तलाश.डर्डल डोर से कुछ दूरी पर एक और समंदर था जिसके किनारे बलुई थे...डर्डर डोर के किनारे पर बजरी थी तो वहां ज्यादा दूर तक पैदल चलना आसान तो नहीं था.

उस रोज वापसी में देर तो होना तय था.पहली बार रात का लंदन घूम रहे थे हम...तकरीबन रात के एक बजे हम घर पहुंचे...थके...तृप्त.

अगले रोज हमें मार्क्स की मजार पे जाना था.लेकिन सब के सब इस कदर थके हुए थे एक दिन में कई दिनों को जीने की थकान जो थी...किसी की हिम्मत न हुई.अगले दिन वतन वापसी थी तो इत्मिनान से घर पर सबके साथ वक्त बिताने का लालच भी था.पूरा दिन हम घर पर मटरगश्ती करते रहे...खाना...पीना...सोना...फिल्में...सब.अगले दिन निकलना था तो पैकिंग भी हो गई और तय हुआ कि सुबह को हम मार्क्स की कब्र पर होकर आयेंगे शाम की फ्लाइट से वापसी...लेकिन सुबह से जो बारिश शुरू हुई कि होती रही....शहर जानता था कि बारिशों को चाहने वाली लड़की वहां आई हुई है...वो उसे बारिशों से भर देना चाहता था.बारिश के चलते हमने मार्क्स की कब्र पर जाना आखिर स्थगित ही किया...बिटिया ने हंसकर कहा, वहां नहीं गई तो क्या असल तो थॉट होते हैं वो तो हैं ही आपके साथ...बच्चे भी कैसे बड़े हो जाते हैं न? दिन बरसता रहा और मन यहां बिताये अठारह दिनों को समेटने लगा...


वापसी एक शहर को लेकर-
शाम को जब हम और शिवि सुरक्षा जांचों के तमाम चक्रव्यूहों को भेदकर बोर्डिग पास लेकर हीथ्रो एयरपोर्ट पर मस्ती कर रहे थे...तो मैंने महसूस किया कि मैं वो नहीं थी जो मैं आई थी...जाने सुरक्षा जांचों में क्या जांचा जाता है...कोई नहीं जांच पाता कि किस तरह शहर हमारे साथ ही जा रहा है और किस तरह बिना वीजा पासपोर्ट के एक मन हम वहीं छोड़कर जा रहे हैं....यात्राएं हमारे भीतर की तमाम अकुलाहट को, कड़वाहट को थामती हैं, हमें हमसे मिलाती हैं...

दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचकर उस यात्रा के हासिल के साथ घर वापसी का सुख भी हाथ आ गया...वापस लौट आने के सुख को महसूस करने के लिए जाना सचमुच जरूरी होता है...डरी सहमी, सकुचाई, घबराई वो स्त्री जो पहली विदेश यात्रा को निकली थी जो लौटी है वो आत्मविश्वास से भरी, साहस और ऊर्जा को लेकर लौटी है.टटोलती हूं तो पाती हूं कि मेरी उम्र के कुछ साल भी वहीं थेम्स में गिर गये हैं शायद...ज्यादा युवा महसूस कर रही हूं...शिवि के साथ चॉकलेट के लिए लड़ाई करते हुए मुस्कुराती हूं...


__________
प्रतिभा कटियार
21जुलाई 1975, कानपुर, उत्तर प्रदेश
कविता, कहानी, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, लेख, साक्षात्कार, संपादन

चर्चा हमारा (मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कारों का संपादन), खूब कही (व्यंग्य संग्रह - संपादन), लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित.
kpratibha.katiyar@gmail.com

बोली हमरी पूरबी : शंख घोष की 10 कविताएँ

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बांग्ला कविताओं की अपनी जमीन है, उस में आदिम मनुष्यता की बची हुई जो महक है. प्रेम की लरजती हुई जो लौ है वह अभी बुझी नहीं है.  दिक्कत यह है कि इस महक और लौ को आप मूल में ही महसूस कर सकते हैं.  पर अगर सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी जैसे दोनों भाषाओँ के गहरे जानकार हिंदी में हैं तो ये आपके लिए इसे भी संभव कर सकते हैं.


क्या शानदार कविताएँ हैं. और क्या अनुवाद है. इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूँ. इसे आप बार लौट लौटकर पढ़ेंगे.




शंख घोष की 10 कविताएँ                                           

मूल बांग्ला से अनुवाद – सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी


समकालीन बांग्ला कविता-जगत के प्रतिष्ठित कवि और आलोचक शंख घोष का जन्म अविभाजित बंगाल के चाँदपुर (अब बांग्लादेश) में हुआ था. इनका मूल नाम चित्तप्रिय घोष है. प्रारंभिक शिक्षा अविभाजित बंगाल में समाप्त कर बंगाल के विभाजन के बाद कलकता से बांग्ला भाषा में परास्नातक किया, जादवपुर, दिल्ली और विश्वभारती विश्वविद्यालयों में बांग्ला साहित्यका अध्यापन किया.

उन्होंने कविता के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए हैं. शंखघोष की कविताओं का परिपेक्ष्य इस कदर व्यापक है कि कभी उनकी कविता सूफियाना प्रतीत होती है तो कभी इंकलाबी; कभी उनकी कविता निज से संवाद करती है तो कभी आसपास के समाज से. प्रेम से लेकर सामजिक विसंगतियों तक और धर्म से लेकर दर्शन तक शायद ही कोई विषय उनकी कलम से अछूता रह पाया हो. घोष कवि, आलोचक और शिक्षाविद् के साथ–साथ रवीन्द्र साहित्य के विशेषज्ञ विद्वान भी हैं. उनकी लेखनी में मनुष्य, समाज, देश और सभ्यता को दिया गया महत्व उनकी गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है. वह अपने काव्य में शब्दों का इस्तेमाल किसी शिल्पी की मानिंद करते हैं. अपनी कविता “जन्मदिन” में लिखते हैं -

“तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि
कल से हर रोज़ होगा मेरा जन्मदिन”

अपनी कविता को वह किसी धारदार तलवार की तरह इस्तेमाल करते दिखते हैं. उनके काव्य संसार में शब्दों की वैचारिकता से भी अधिक महत्व व्यंगात्मकता को दी गई है जो उनकी कविता “कलकत्ता” में स्पष्ट झलकती है –

“कलकत्ता की सड़कों पर भले ही सब दुष्ट हों
खुद तो कोई भी दुष्ट नहीं ”

शंखघोष को साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, रवीन्द्र पुरस्कार, पद्मभूषण, कबीर सम्मान जैसे अनेकों सम्मान के साथ वर्ष २०१६ के लिए देश का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ दिया गया है. ८५ वर्ष कीउ म्र में भी उनका लेखन कर्म नियमित रूप से जारी है और उनके लेखन से हमारा काव्य समाज और भी समृद्ध होगा. उनके शब्दों में कहें तो उन्होंने अपने काव्य में समय को“जड़ से कसकर पकड़” रखा है.


सुलोचना वर्मा










1.
चाहत का तूफ़ान

इस छोर से उस छोर तक घूमती नि:शब्द निर्जनता में
अँधेरी शाम की तेज़ अकेली हवा में
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठंडा,चाँद की तरह पांडुर
नीरक्त,सफ़ेद चेहरा
विपुल आकाश की ओर.

दूर देस में मैं काँपता हूँ
चाहत की असह्य वेदना से --—
तुम्हारे श्वेत पाषाण-सदृश मुख को घेरे
काँपती हैं-
आर्त प्रार्थना में उठी हज़ार उँगलियों की तरह-
बालों की पतली लटें, बिखरी अलकें
अँधेरी हवा में.
घिर आये बादल अपने ही भार से आकाश के एक कोने में जमा हो गये —
उस पुंज के बीच बार-बार ज़ोर से कौंधती है
कामना की तड़ित् ;
प्रचंड आवेग से फेनिल होता प्रेम का अबाध्य प्रवाह
अंधकार के सीमाहीन अंतराल और
विचारमग्न, स्थिर धरित्री की घन कांति को
अस्थिर करता है.
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठंडा, चाँद की तरह पांडुर मुख,
रोते-रोते थककर चुप हुई धरती के उठते-गिरते स्तन,
प्रार्थना में क्लांत,विकल,दुर्बल, दीर्घ प्रत्याशा के हाथ,
विपुल, विक्षुब्ध आकाश की ओर उठे —
और सबको घेरकर फैला अंधकार, तुम्हारे विरल केश,
असीम, एकाकी हवा में असंख्य स्वरों वाले वाद्य.

धीरे-धीरे सृष्टि प्रस्तुत होती है,मानो
मर्मभेदी एक मधुर मुहूर्त में दु:सह वज्र बनकर टूटता है उसकी चाहत का बादल
तुम्हारे उद्धत, उत्सुक, प्रसारित, विदारित वक्ष के मध्य
मिलन की पूर्ण प्रेमाकुलता के साथ -  
उसके बाद भीगी, अस्तव्यस्त,भग्न पृथ्वी की गंदगी साफ़ कर
आता है सुंदर, शीतल, ममता-भरा विहान
              
(काव्य संग्रह “दिनगुलि रातगुलि” (1956) में संकलित, मूल शीर्षक- आकांखार झड़)




2.
बाउल

कहा था तुम्हें लेकर जाऊँगा दूर के दूसरे देश में
सोचता हूँ वह बात
दौड़ती रहती है दूर-दूर तक जीवन की वह सातों माया
सोचता हूँ वह बात
तकती रहती है पृथ्वी, तुमसे हार मानकर वह 
बचेगी कैसे !
जहाँ भी जाओ अतृप्ति और तृप्ति दोनों चलती है जोड़े में
बाहर भी, अंदर भी.
उदासीन नहीं कुछ से-- समझ सकता हूँ तुम्हारे सीने में
है कुछ और,
यंत्रणा खोलती है हृदय को अपनी हर गिरह में, उस खुलने का
है अर्थ कुछ और .
नींद में देखता हूँ प्रकाश के पूर्ण- कुसुम को नीलांशुक में
नहीं बाँध सकता है ये
जगते ही देखता हूँ कितनी विचित्र बात है, एक भी खरोंच नहीं लगी
उसके प्रेम की देह पर
कहा था तुम्हें मैं फैला दूँगा दूर हवा में
सोचता हूँ वह बात
तुम्हारे सीने के अन्धकार में बजा है सुख मदमत्त हाथों से
सोचता हूँ वह बात.


(दिनगुलि रातगुलि, मूल शीर्षक-वही)






3. 
त्रिताल

तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
सीने पर कुठार सहन करने के सिवाय
पाताल का मुख अचानक खुल जाने की स्थिति में 
दोनों ओर हाथ फैलाने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है,
इस शून्यता को भरने के सिवाय .
श्मशान से फेंक देता है श्‍मशान
तुम्हारे ही शरीर को टुकड़ों में
दुः समय तब तुम जानते हो
ज्वाला नहीं, जीवन बुनता है जरी .
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है उस वक़्त
प्रहर जुड़ा त्रिताल सिर्फ गुँथा
मद्य पीकर तो मत्त होते सब
सिर्फ कवि ही होता है अपने दम पर मत्त्त.


(मूल शीर्षक - वही, प्रकाशन-तिथि की सूचना अभी अप्राप्त)



4.
जल

क्या जल समझता है तुम्हारी किसी व्यथा को? फिर क्यों, फिर क्यों
जाओगे तुम जल में क्यों छोड़ गहन की सजलता को?
क्या जल तुम्हारे सीने में देता है दर्द? फिर क्यों, फिर क्यों
क्यों छोड़ जाना चाहते हो दिन रात का जलभार?

      


5.
जन्मदिन

तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा
कि फिर हमारी मुलाक़ात होगी कभी
होगी मुलाक़ात तुलसी चौरे पर, होगी मुलाक़ात बाँस के पुल पर
होगी मुलाक़ात सुपाड़ी वन के किनारे
हम घूमते फिरेंगे शहर में डामर की टूटी सड़कों पर
दहकते दोपहर में या अविश्वास की रात में
लेकिन हमें घेरे रहेंगी कितनी अदृश्य सुतनुका हवाएँ
उस तुलसी या पुल या सुपाड़ी की
हाथ उठाकर कहूँगा, यह रहा, ऐसा ही, सिर्फ
दो-एक तकलीफें बाकी रह गईं आज भी
जब जाने का समय हो आए, आँखों की चाहनाओं से भिगो लूँगा आँख
सीने पर छू जाऊँगा ऊँगली का एक पंख
जैसे कि हमारे सामने कहीं भी और कोई अपघात नहीं
मृत्यु नहीं दिगंत अवधि
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि
कल से हर रोज़ होगा मेरा जन्मदिन .

('जन्मदिन'और 'जल'कविताएं इन्हीं नामों से "निहित पातालछाया" (1961) में संकलित हैं.)


  

6.
कलकत्ता

हे बापजान
कलकत्ता जाकर देखा हर कोई जानता है सब कुछ
सिर्फ मैं ही कुछ नहीं जानता
मुझे कोई पूछता नहीं था
कलकत्ता की सड़कों पर भले ही सब दुष्ट हों
खुद तो कोई भी दुष्ट नहीं

कलकत्ता की लाश में
जिसकी ओर देखता हूँ उसके ही मुँह पर है आदिकाल का ठहरा हुआ पोखर
जिसमें तैरते हैं सड़े शैवाल

ओ सोना बीबी अमीना
मुझे तू बाँधे रखना
जीवन भर मैं तो अब नहीं जाऊँगा कलकत्ता.


(“आदिम लतागुल्ममय” (1972) में संकलित, मूल शीर्षक-कोलकाता)




7.
बौड़म

ख़ूब भले बचे अपन
क़िस्मत ही अच्छी है,
धोखे की दुनिया में
आँखों पे पट्टी है.
किसी को छू लेता हूँ,
पूछता हूँ यारा,
“गली-गली फिरता है
क्यों मारा-मारा ?
इससे भला था, सब
परपंच भुलाकर
एक बार बेपरवा’
हँसता ठठाकर.“
सुनकर वे कहते हैं
“कौन मनहूस है?
छुपा-छुपा फिरता है
निश्चय जासूस है.“
हद्द ! बोले कल के    
वो छोकरे चिल्लाकर
‘बौड़म’, हमाई ओर
उंगली उठाकर.
बस तब से बौड़म बन
श्याम बाजार के
आसपास रहता हूँ
वही रूप धार के.


(आदिम लतागुल्ममय, मूल शीर्षक - बोका)




8.
मुखौटे

तब, जब सब सो जाते
दु:खीजन जग उठता.
आसमान आँखों के आगे झूले
नीचे शहर झूलता, और मकान
तारों-जैसे एक दूसरे से मिलते हैं –
रात्रिकाल का निर्जन रस्ता,
गालों पर आँसू की लंबी रेखा-जैसा
समय तैरता जलस्रोत पर,
और
सब कोई जब सोते हों, तब
दिन के मुखौटे उतारकर रख
हिम्मत करके सच्ची-सच्ची बोल.


(‘मूर्ख बड़ो, सामाजिक नय’ (1974) में संकलित, मूल शीर्षक- मुखोशमाला)




9.
अकेला

कितनी उम्र थी, दिल भी क्या था
पद्मा नदी ने जब दे दी थी मुझे विदा !
आज मन ही मन जानता हूँ कि तुम नहीं, तुम नहीं,
मैं ही ख़ुद को छोड़ आया था आधी रात.

उसी अपराध का फल है,नूरुल, कि तू अकेला
मेरे बग़ैर ही लड़ाई को चला गया
उसी अपराध के कारण आज बैठा-बैठा देख रहा हूँ तुझ
अकेले का दु:ख, मृत्यु, विजय.


(आदिम लतागुल्ममय, मूल शीर्षक- एका)





10.
बना दो भिखारी पर ऐसी गौरी तो नहीं हो तुम

मुझे हासिल करना है?इतनी ज़री बिखेरती, ओ सुंदरी,
झालरें गिराती दोनों हाथों से!

ग्रहण करोगी मुझे?कभी न देखा इन आँखों
ऐसा अतुल्य प्रेम.

तुम्हारा मृदु हास मेरे लिए दुनिया पाने के आसपास,
तुम्हारे होठों में आणविक छटा की ऊष्मा.

ले जाना है मुझे? किस सूने खेत से?
तुम बनीं आज अन्नपूर्णा,हाय!

समर्पण चाहिए बस तुम्हें,बारी-बारी सब निकालना है –
मेद,मज्जा,दिल,दिमाग़.

उसके बाद चाहती हो मैं घुटने तोड़ सरेआम रास्ते पर बैठूँ
हाथ में अल्मुनिये का कटोरा लेकर.

लपेट लो रेशमी रस्सी, ख़ूब बिखेरो ज़री, सुंदरी,
रोज़-ब-रोज़ मुझे अपने पैरों के तले लाना चाहो.
बना दो भिखारी , पर
तुम्हारे मन में कभी यह ख़्याल नहीं आया
कि ऐसी  गौरी तो नहीं हो तुम !



(तुमि तो तेमन गौरी न’ओ (1978) में संकलित, मूल शीर्षक – भिखारी बाना’ओ किन्तु तुमि तो तेमन गौरी न’ओ)
_____________

शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.

tewarisk@yahoocom

परख : पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज : मो. क. गाँधी

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गांधी मनुष्यता के महात्मा थे.
हिंसक वर्चस्व से प्रतिरोध का हिंसारहित असहयोग और अवज्ञा का उनका रास्ता मनुष्यता की उनकी अवधारणा की ही तरह उदात्त है.

आज उनके चिन्तन और आख़िरी आदमी की उनकी चिंता पर संगठित हमले हो रहे हैं.
ऐसे में उनको बचाने का एक ही तरीका है कि उन्हें अधिक से अधिक पढ़ा जाए, उनके रास्ते पर चलकर एक लोकतान्त्रिक, उदार, सुसंकृत, सहिष्णु सभ्यता को पनपने और पसरने के लिए 
वातावरण निर्मित किया जाए.

गाँधी के समय-समय पर दिए गए वक्तव्यों-भाषणों-लेखों को एकसाथ समाहित कर राजीव रंजन गिरि ने यह पुस्तक संपादित कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है.

इसकी सुंदर समीक्षा अनुपमा शर्मा ने की है.



पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज                         
अनुपमा शर्मा





गांधी पर लिखना और बोलना मेरे लिए हमेशा से बहुत कठिन रहा है, इसका एक बहुत बड़ा कारण  उनको सम्पूर्णता में पढने का अभाव भी रहा. जितना कम जाना-समझा उनमें भी उनकी बहुत सी बातों पर मेरी असहमति ही दर्ज़ हुई. इन असहमतियों के बीच भी एक सत्य हमेशा यह भी  रहा कि मैं गांधी के दर्शन पर आक्षेप करती हूँ, पर उसी दर्शन को आधार मान उसके समान्तर अपने  एक दर्शन विशेष की निर्मिति करती हूँ जो उसी गाँधी की बनी ज़मीन पर उपजता है. आप गांधीवादी हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. पर इस सत्य को झुठला नहीं सकते कि गांधीवाद एक दर्शन है, एक जीवन-पद्धति है, ऐसी जीवन पद्धति जिसका यदि कालांतर में विश्व अनुसरण कर पाता है तो यह मानवता के उस सुन्दर स्वप्न का साकार होना होगा, जिसे गाँधी ज़ामा पहनाना चाहते थे.


गाँधी को पढना सत्य को शोधना जैसा है. जिस प्रकार सत्य के शोधन के बाद हमारे भीतर एक प्रकार की विवेक-संपन्नता एवं पवित्रता आती है कि हम समय के सत्य को स्वीकार कर पाते है, उन्हें झटके में खारिज़ नहीं करते, दुत्कारते नहीं. पिछले दिनों राजीव रंजन गिरि के सम्पादन में  मोहनदास करमचंद गाँधी पर निकली एक पुस्तक पुरुषार्थ, त्याग और स्वराजपढ़ी, जिसमें गाँधी के समय समय पर दिए गए वक्तव्यों-भाषणों-लेखों को एकसाथ समाहित किया गया है. यह संकलन इस मायने में भी अनूठा है कि इसमें संग्रहीत लेख व भाषण कुछ कभी गुजराती में लिखे या दिए गए, कभी अंग्रेजी में. वे सभी अनुदित रूप में इस पुस्तक में समाहित किए गए है. इसमें उनके बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दिए वक्तव्य, यंग इंडिया, सर्चलाईट, हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स एवं हरिजनमें छपे अंग्रेजी लेखों, गुज़राती पत्र नवजीवन में छपे लेख, उनके जब-तब दिए गए भाषणों-वक्तव्यों को माला में पिरोने का काम किया गया है. इसके लिए सम्पादक राजीव रंजन गिरि साधुवाद के पात्र हैं. भिन्न-भिन्न अवसरों एवं विषयों पर लिखे ये लेख गाँधी एवं गांधीवाद को समझने में प्रेरक-सूत्र का काम करते हैं. इसमें पुरुषार्थ, असहयोग, अनुशासन, दृढ़ता, वीरता, चरित्र, स्वराज, स्वतंत्रता, सत्य, ईश्वर, लोकतंत्र, अहिंसा विषयक गाँधी के विचार हैं, जो हमें एक दिशा देने में सार्थक भूमिका निभाते है. गाँधी को मानने के लिए उन्हें जानना बेहद ज़रूरी है, यह पुस्तक उसका एक अच्छा एवं सफल माध्यम हो सकती है. 

गाँधी के इन दिए भाषणों एवं लिखे लेखों में कई बार उनकी ही स्वयं की बातों में विरोधाभास भी प्रकट होता है, उन्होंने स्वयं कहा कि वे प्रयोग की प्रक्रिया पर है, इसीलिए जहाँ ज़रूरी लगा, अपना मत-परिवर्तन करने से घबराए नहीं. उनका चिंतन एक जगह ठहरा हुआ नहीं, कदम-दर-कदम बढ़ता गया, इस शर्त पर कि उनके आदर्शों पर आधारित नई मानवीय सभ्यता की रचना हो सके. उन्होंने स्वयं कहा भी- जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी पर विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से, मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने.
राजीव रंजन गिरि

 
आलोचक राजीव रंजन गिरि ने पुस्तक को संपादित करते हुए राष्ट्रपिता का प्रत्यय’  शीर्षक से भूमिका अध्याय लिखा है, जिसमें असल में गाँधी के गाँधी बनने की प्रक्रिया है, कि किन-किन पडावों को पार करते, किन दुर्गम पहाड़ों को चढ़कर गाँधी ने जीवन की गहरी सतहों का अर्जन किया था. किस प्रकार मोहनदास करमचंद ने महात्मा गाँधी बनने तक की यात्रा तय की है. भूमिका में सम्पादक ने गाँधी जीवन के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के प्रारम्भिक संघर्षों को बताते हुए लिखा है- गाँधी ने संघर्ष की राह चुनी. वे सार्वजनिक जीवन की तरफ कदम-दर-कदम बढ़ने लगे. लोगों से जुड़ते गए. संस्था बनाई, संगठन बनाया. सामने आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करते चले. एक ओर रंगभेदी निजाम की नीतियों के विरुद्ध संघर्ष था, तो दूसरी ओर इस रंगभेद के मार्फ़त विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से, उनके दृष्टिकोण से संघर्ष. इस संघर्ष के पक्ष में लोगों को बनाए रखने के लिए गाँधी ने कई भाषण दिए, लेख लिखे. नतीज़ा यह हुआ कि दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष में, गांधीजी केन्द्रीय शख्सियत के रूप में उभरे.

इस पुस्तक में कई लेख गाँधी के स्वर्णिम संकल्पना हिन्द स्वराजकी पूर्वपीठिका के रूप में हैं. पुरुषार्थ से ही मिलेगा स्वराज’, ‘स्वराज के लिए त्याग’, ‘स्वराज के लिए आवश्यक है निर्भयताउसी कड़ी से जुड़ते लेख हैं. गांधीजी ने सत्ता के स्वरूप, सत्य और उसकी साधना, समकालीन जीवन में परिव्याप्त गुण-दोष, समकालीन विश्व में भारत की भूमिका और भारत का स्वधर्म, तथा राज्य और समाज के आपसी संबंधों, समाज के मर्म तथा विस्तार की गहरी मीमांसा 'हिन्द स्वराज'में प्रस्तुत की है. हिन्द स्वराजकी रचना तो मात्र दस दिन में हुई, परन्तु इसका गर्भकाल बहुत लंबा लगभग बीस वर्ष का है.  इसका प्रमाण यह भी है कि इसकी अभिव्यक्ति में एक सामाजिक दायित्वबोधप्रश्नाकुलतावैज्ञानिकता और भविष्यद्रष्टा होने के जितने परिपक्व अभिप्राय प्रकट होने थेहुएया कम से कम उनकी नींव पड़ी. गांधी देख रहे थे कि इन दिनों मानव सभ्यता एक आंतरिक क्रूरता की दिशा में बढ़ रही है और उसकी आंतरिक कोमलता की कुर्बानी देकर तथाकथित सभ्यता का ठाठ रचा जा रहा है. इसलिए गांधीजी ने यह बार-बार कहा कि ''मानव परिवार को आंतरिक कोमलता का बलिदान नहीं करना चाहिए.''


अपनी सोच को अमलीजामा पहनाने के लिए गाँधी ने कई प्रयोग भी किए. जो सोचा, उस पर अपने विचार ज़ाहिर किए, उस मार्ग पर स्वयं पहला कदम बढ़ाया. अपने मूल दृष्टिकोण सत्य एवं अहिंसा का पक्ष अनेक अवसरों पर स्पष्ट किया. इस पुस्तक में भी सम्पादक राजीव रंजन गिरि ने कुछ लेख इन प्रयोगों पर भी संग्रहीत किए है, जिनमें बिम्बित होता चलता है कि गाँधी जिनके लिए लड रहे थे और जिनसे संघर्ष कर रहे थे, उन्हें समझाने का भरपूर प्रयास करते कि वे एक नई सभ्यता की रचना के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कोई उनका दुश्मन नहीं है. अपने विचार को ज़ाहिर करने के लिए ही गांधी ने हिन्द-स्वराज रचा.  जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान की वास्तविक दशा बताई और अपने विचार की दिशा भी दिखाई. यह किताब गाँधी दर्शन का मौलिक-सूत्र है, जो गाँधी की चेतना एवं चिंतन की बुनियाद भी है और बुलंदी भी. तभी तो 20वीं सदी के प्रसिध्द लेखक मिडल्टन मेरी को कहना पड़ा-  ''मुझे लगता है कि आधुनिक ज़माने में लिखी गई पुस्तकों में 'हिन्द स्वराज'सबसे महान पुस्तक है. मैं इसे दुनिया के आध्यात्मिक महाग्रन्थों में एक महाग्रन्थ मानता हूं.


गाँधी आतंरिक जकडबंदियों से तो लड़ ही रहे थे, पर एक पक्ष बाह्य भी था कि भारतीय मानस औपनिवेशिक मूल्यों को आत्मसात करता जा रहा था. इससे संघर्ष करना बेहद मुश्किल उपक्रम था. उपनिवेशवादी मूल्य आधुनिक शिक्षा, आधुनिकता और इससे उत्पन्न विभिन्न विचारधारात्मक संरचनागत निर्मितियों की मार्फ़त, औपनिवेशिक हुकूमत से संघर्ष करने वाले भारतीयों की मानसिक बुनावट में जगह बना रहे थे. इसकी शिनाख्त के बाद ही आधुनिकता की समूची संकल्पना को गाँधी मानव-विरोधी समझकर इसके भौतिक आधार और सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अधिरचना को खारिज़ करते हैं.

चूँकि गाँधी भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र को एक-दुसरे से काटकर नहीं देखते. आधुनिकता की संकल्पना जिस मनुष्य का निर्माण करती है, उसमें स्वायत्त आध्यात्म के लिए स्थान नहीं है. गाँधी के अनुसार सम्पूर्ण मनुष्य की रचना के लिए भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है. गाँधी भावी खतरों को भांप गए थे. उनके डर आज साक्षात आँखों के आगे है. एक ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हुजूम खड़ा है तो दूसरी ओर मैक्ड़ोनाल्ड संस्कृति मुँह बाए खड़ी है. जिनकी गिरफ़्त में आज पूरा समाज है. गाँधी भविष्यदृष्टा थे, उनके डर आज घटित हो रहे हैं, भारतीय पूँजी का निरंतर होता दोहन आज इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. गाँधी ने यूँही हस्तकला-शिल्प, लघु-कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की, खादी-धारण करने की पैरवी अकारण ही नहीं की थी. वे भविष्य में आ पड़ने वाली इन चुनौतियों को देख एवं समझ रहे थे. 


गांधीजी ने सदा यह माना कि समाज राज्य से बड़ा है और राज्य समाज की सेवा के लिए है. इसी प्रकार उन्होंने यह भी माना कि समाज और मनुष्य की सेवा के लिए उद्योग हैं. उद्योग का विस्तार और उद्योगवाद में बहुत बड़ा फर्क है. उद्योगवाद का अर्थ है, किसी खास तरह के उद्योग-तंत्र को ही मानव जाति का लक्ष्य मान लेना. व्यवहार में इसका अर्थ यह होता है कि एक खास तरह की उद्यमशीलता यानी पुरुषार्थ के पक्ष में शेष सब तरह के पुरुषार्थों की यानी उद्यमशीलता की स्वतंत्र संभावनाओं को नष्ट कर देना और इस प्रकार मानव समाज के स्वत्व का अपहरण कर उसे मुट्ठी भर लोगों की अधीनता में ले आना. गांधीजी ऐसी उद्योगवादी सभ्यता को शैतानी सभ्यता और पापपूर्ण सभ्यता कहते हैं. इसी प्रकार जो राज्य समाज की सेवा का एक माध्यम न होकर स्वयं ही लक्ष्य बन जाए, वह राज्यवादी राज्य कहलाएगा और उसकी रक्षा तथा विस्तार के लिए कोशिश में जुटे लोग राष्ट्रभक्त नहीं बल्कि राज्यवादी राज्यभक्त कहलाएंगे. यह राज्यवाद भी पापपूर्ण ही है.


स्वतंत्र भारत में यूरोपीय सभ्यता नाम की कोई सीधी चीज नहीं है. यदि स्वयं गांधीजी की बात को मानें तो सभ्यता का अर्थ है श्रेष्ठ आचरण की शक्ति. लेकिन दूसरी ओर वे यह भी दिखाते हैं कि यूरोपीय सभ्यता तो अधर्म और विकृति को ही बढ़ाती है. अत: स्पष्ट है कि सभ्यता का अर्थ है आचरण की शक्ति. इसलिए स्वाधीन भारत में जो लोग आज जैसा आचरण कर रहे हैं वह समकालीन भारतीय सभ्यता की ही शक्ति या विकृति है. यह शक्ति या विकृति यूरोप से सीखी हुई हो सकती है, लेकिन सीखने वाले भारतीय ही हैं. अत: उनका दोष समकालीन भारतीय सभ्यता का ही दोष है. भारत में आज भारतीय सभ्यता के ही अच्छे और बुरे, श्रेष्ठ और निकृष्ट रूपों के बीच टकराहट है. इसीलिए इस टकराहट को पहले से भी अधिक बौद्धिक तथा संवादपूर्ण होना चाहिए. भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों को आपस में उससे अधिक बातचीत करते दिखना चाहिए जितनी कि उन दिनों भारतीय राजनैतिक दल अंग्रेजों से करते दिखते थे. सच्चाई तो यह है कि आज के बड़े राजनैतिक दल आपसी बातचीत का केवल अवैध या छिपा हुआ रिश्ता ही रखते हैं. गाँधी के लिखे ये लेख चरित्र की शुद्धि पर विशेष महत्व देते हैं. सम्पादक राजीव रंजन गिरि की सदाशयता इस रूप में भी प्रकट होती है कि उन्होंने समय की इस आवश्यकता को समझते हुए ही गाँधी के इन विषयक लेखों का चयन किया है.


जो असहमति का रास्ता चुनता है, उसके लिए स्पेस यानी जगह कम से कमतर होती चली जाती है. राजसत्ता का दायित्व है कि वो असहमति के स्पेस को फलने-फूलने दे.  गाँधी अकेले अपनी राह पर चलते जा रहे थे, वे जानते थे कि भले ही वे अकेले हों किन्तु सही राह पर है, यही रास्ता मुक्ति का एवं स्वराज का मार्ग प्रशस्त करेगा. शायद अकेला पड़ जाना ही किसी भी गांधी की नियति है. गांधी ने नोआखली में प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस से यह बात कही थी कि- "मैं सफल होकर मरना चाहता हूं, विफल होकर नहीं. पर हो सकता है कि विफल ही मरूं."असफल होना भी गांधी होने की नियति है. मगर गांधी के बिना न तो गांधी हुआ जा सकता है न लोकतांत्रिक. इसीलिए वो असफल आदमी आज भी हमारे अंदर ज़िंदा बचा हुआ है. यह अनायास नहीं है कि बुद्ध के बाद गाँधी को वही महत्व दिया गया. 


राजीव रंजन गिरि द्वारा संपादित इस पुस्तक के सभी लेख गाँधी की सोद्देश्यता को ही प्रकट करते हैं, गाँधी वस्तुत उस नयी सभ्यता के खिल़ाफ थे, जो आत्मवंचना पर टिकी हुई है. वे पश्चिम और विकसित के नाम पर विश्व पर छा जाने की कामना रखने वाली उस सभ्यता और जीवन-पद्धति में बुनियादी परिवर्तन लाना चाहते थेजो अबाध भोगघोर हिंसाआतंकवादक्रूरताशोषणरंगभेदस्वार्थपरता आदि की भावना पर आश्रित थी. तमाम सुख-सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद आज मनुष्य अपने को जितना असहाय पाता है, उतना शायद ही उसने कभी अनुभव किया हो. गाँधी इससे बेखबर नहीं थे. इस दृष्टि से गाँधी के ये लेख आज के अंधकारमय समय में एक नई रोशनी देने का कार्य करते हैं.
पुस्तक- पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज
लेखक- मो. क. गाँधी
सम्पादक- राजीव रंजन गिरि
प्रकाशन- गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली
मूल्य- 50रूपए

अनुपमा शर्मा
anupamasharma89@gmail.com

निज घर : मेरा घर कहॉं है ? पिको अय्यर

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पिको अय्यर के नाम से ख्यात सिद्धार्थ पिको राघवन अय्यर खुद को विश्व नागरिक मानते हैं, हाँलाकि वे भारतीय मूल के ब्रिटेन में जा बसे अध्यापक माता पिता की संतान हैं.निबंध और यात्रा वृत्तांत लिखने के अतिरिक्त उन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं. उनके लेखन और कृतियों को टाइम, न्यूयॉर्क टाइम्स, हार्पर्स, नेशनल जियोग्राफिक,फाइनेंशियल टाइम्स सरीखे प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं ने प्रमुखता के साथ छापा। अनेक भाषाओँ में उनकी अंग्रेज़ी में लिखी कृतियों के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं.वीडियो नाइट इन काठमाण्डू, द लेडी एंड द मौंक, द ग्लोबल सोल, द मैं विदिन माई हेड उनकी प्रमुख किताबें हैं.


2013 में दिये उनके प्रतिष्ठित "टेड (TED)लेक्चर"के एक अंश का अनुवाद यादवेन्द्र ने ख़ास आपके लिए किया है.



मेरा घर कहॉं है ?                               
पिको अय्यर 





मुझसे लोग अक्‍सर पूछते हैंआप किस देश के वासी हैं और उन्‍हें उम्‍मीद रहती है कि मैं भारत का नाम लूँ. अपनी जगह पर वे बिल्‍कुल सही हैं क्‍योंकि मेरा रक्त  और विरासत दोनों भारत से शत-प्रतिशत जुड़े हुए हैं. बावज़ूद  इसके कि मैं किसी एक दिन के लिए भी भारत में नहीं रहा. मैं इसकी बाइस हजार भाषाओं और बोलियों में से किसी का भी एक  शब्‍द बोल नहीं सकता, इसलिए मुझे लगता है कि मुझे खुद को भारतीय कहने का कोई अधिकार नहीं है. जहॉं तक किस देश के वासी हैं  जैसे प्रश्‍न का अर्थ यदि आप कहॉं पैदा हुए हैं, पले-बढ़े और शिक्षित हुए हैं है तो मेरा जवाब होगा – "इंग्‍लैण्‍ड जैसा छोटा सा और मज़ेदार देश".

हालॉंकि इंग्‍लैण्‍ड के साथ मेरा रिश्‍ता महज़ इतना है कि मैंने अपनी अण्‍डर ग्रेजुएट शिक्षा वहॉं प्राप्‍त की और चलता बना. वहॉं की अपनी पढ़ाई के दौरान भी पूरी क्‍लास में मैं अकेला विद्यार्थी होता था जो किताबों में वर्णित पारम्‍परिक अंग्रेज  नायकों से बिल्‍कुल भिन्‍न दिखता था. यदि  आप किस देश के वासी हैं  का अर्थ  आप अपने टैक्‍स किस देश में जमा करते हैं, बीमार होने पर किस देश के डॉक्‍टर या डेंटिस्‍ट के पास जाते हैं  हुआ तो बिना एक पल लगाए मैं बोलूँगा - "अमेरिका". जहॉं मैं अपने बचपन के बाद से पिछले अड़तालीस वर्षों से रह रहा हूँ – बावज़ूद उन वर्षों के जिनमें  मैं हरी लाइनों वाले गुलाबी कार्ड (पिंक कार्ड) को अपने माथे पर चिपकाए हुए भागता फिरता रहा हूँ, गोया मैं कोई इन्‍सान ना होकर किसी दूसरे ग्रह से आया एलियन हूँ. मैं जितने समय वहॉं रहा हर दिन बीतने के बाद मुझे लगता है मैं ज्‍यादा एलियन बनता जा रहा हूँ.

यदि  आप किस देश के वासी हैं  का अर्थ  आपके मन के अंदर कौन सा देश सबसे अंदर तक बसा हुआ है और कहॉं आप जीवन का सबसे ज्‍यादा समय बिताना चाहेंगे  हुआ तो मैं बड़ी बेबाकी से खु़द को जापानी कहूँगा क्‍योंकि पिछले पच्‍चीस वर्षों में मुझे जब-जब भी मौका मिला मैं सबसे ज्‍यादा समय जापान में रहा, हालॉंकि इनमें से ज्‍यादा समय टूरिस्‍ट वीज़ा पर रहा और मेरे मन में यह एकदम साफ है कि ज्‍यादातर जापानी मुझे अपना भाई-बंधु  मानने को तैयार नहीं होंगे.

मैं यें सब बातें यह स्‍पष्‍ट करने के लिए बता रहा हूँ कि मेरी पृष्‍ठभूमि कितनी पुरातनपंथी और बेलागलपेट (स्ट्रेटफॉरवर्ड) है. मैं जब हॉंगकॉंग या सिडनी या वैन्‍कुवर जाता हूँ तो देखता हूँ कि ज्‍यादातर बच्‍चे मेरे मुकाबले ज्‍यादा अंतर्राष्‍ट्रीय और बहुसांस्‍कृतिक हैं. इनमें से ज्‍यादातर बच्‍चों का एक घर उनके माता-पिता से जुड़ा होता है, दूसरा उनके पार्टनर से जुड़ा होता है, तीसरा घर जहॉं वें रहते हैं वह होता है और चौथा उनका सपनों का घर होता है जहॉं दरअसल वे रहना चाहते हैं. इनके अलावा और भी जाने कितने घर होते हैं. उनका पूरा जीवन भिन्‍न-भिन्‍न  जगहों में बिताए कालखण्‍डों को एक साथ जोड़कर निर्मित होता है. उनके लिए घर कोई ठहरी हुई जड़ चीज़  नहीं होती बल्कि निरंतर निर्मित होती हुई एक कलाकृति  है. एक ऐसे प्रोजेक्‍ट की तरह जिसमें वे निरंतर चीजें जोड़ते-घटाते रहते हैं, सुधार करते हैं और निखारते जाते हैं.

हममें से अधिकांश लोगों के लिए घर की अवधारणा मिट्टी की तुलना में रूह (soul) से ज्‍यादा जुड़ी होती है. मुझसे कोई अचानक यह पूछ ले कि   आपका घर कहॉं है  तो मेरा मन फौरन मेरी प्रियतमा या अंतरंग मित्रों या उन गीतों की तरफ ताकने लगेगा जिन्‍हें साथ लिए-लिए मैं दुनिया भर में घूमता रहता हूँ .

मैं शुरू से ऐसा ही सोचता  रहा हूँ पर कुछ साल पहले बड़ी शिद्दत के साथ मुझे इसका एहसास हुआ, जब मैं कैलिफोर्निया के उस घर की सीढि़यॉं चढ़ रहा था जिसमें मेरे माता-पिता रहते हैं ........ घर मे घुसते ही खिड़कियों से बाहर देखा तो आग की सत्‍तर फीट तक ऊँची  लपटें घर को घेरती जा रहीं थीं. कैलिफोर्निया के पहाड़ी इलाकों के लिए ऐसी आग खा़सी चिरपरिचित है. तीन घण्‍टे बाद मेरा घर पूरी तरह से ख़ाक हो चुका था ... ..... वहॉं साबुत बची रहने वाली चीज़  सिर्फ मैं था. अगली सुबह जब उठा तो मेरे पास सिवाय उस टूथब्रश के कुछ भी नहीं था जो मैंने रातभर खुले रहने वाले सुपर मार्केट से खरीदा था- वैसे मैं सोया भी अपने मित्र के घर था.  ऐसी हालत में यदि कोई मुझसे पूछता कि आपका घर कहॉं है  तो निश्‍चय ही मेरा जवाब किसी भौतिक निर्मिति  के बारे में बिल्‍कुल नहीं होता. मेरा घर सिर्फ़  वही होता, जो भाव रूप में मेरे अंदर बसा हुआ है.

एक नहीं अनेक स्‍तरों पर देखने पर मुझे लगता है कि यह मुक्ति की चरम सीमा है ........ जब मेरे दादा-दादी जन्‍में होंगे तो उनमें निश्‍चय ही घर का भाव प्रबल रहा होगा, समुदाय का भाव भी. यहॉं तक कि जन्‍म के साथ विरासत की तरह उन्‍हें शत्रुता का भाव भी ज़रूर मिला होगा .... और उनसे बाहर निकल पाने की कोई सूरत शायद ही उन्‍हें सूझी होगी. और आजकल की बात करें तो मेरी तरह कुछ ऐसे लोग तो होंगे ही जो अपनी मर्ज़ी से अपना घर चुन सकें, समुदाय संजो सकें और ऐसा करते हुए दादा-दादी के श्‍वेत-श्‍याम विभाजन से थोड़ा परे जाकर नज़रें दौड़ा सकें.

यह महज संयोग नहीं है कि इस धरती के सबसे शक्तिशाली देश का राष्‍ट्रपति आधा कीनियाई है, जिसकी शुरूआती परवरिश इण्‍डोनेशिया में हुई है और जिसका बहनोई चीनी-कनेडियन मूल का है.

दुनिया भर में 22 करोड़ लोग ऐसे हैं अपने-अपने जन्‍म के देशों में नहीं बल्कि दूसरी धरती पर रहते हैं ...... भले ही हमें यह संख्‍या अविश्‍वसनीय लगे पर यह वास्‍तविकता है कि कनाडा  और ऑस्‍ट्रेलिया की आबादी को मिला दिया जाए, और इस मिली-जुली आबादी को दो गुना कर दिया जाए- एक नहीं दो बार- तब भी इंसानों की यह संख्‍या यहॉं वहॉं आवारा बादलों की तरह विचरती आबादी से कम ही रहेगी.

राष्‍ट्र राज्‍य की पारम्‍परिक परिभाषा से बाहर जीवन बसर कर रहे मुझ जैसे इंसानों की संख्‍या पिछले बारह वर्षों में छ: करोड़ चालीस लाख बढ़ी है- यह संख्‍या पूरे अमेरिका की आबादी से ज्‍यादा है. यह हाल उस देश का है जो धरती पर पॉंचवा सबसे बड़ा राष्‍ट्र है. उदाहरण के लिए कनाडा  के सबसे बड़े शहर टोरंटो को देखें तो मालूम होगा कि वहॉं का एक औसत वासी कनाडा  में नहीं बल्कि किसी दूसरे देश में जन्‍मा हुआ है - जिसे बोलचाल में हम विदेशी कहेंगे.


मुझे हमेशा लगता रहा है कि विदेशियों से घिरे रहने की खू़बसूरती यह  है कि आप निरंतर जागृत /सजग बने रहते हैं आप किसी बात को अपने अनुकूल मानकर निश्चिंत नहीं हो सकते. यात्राऍं मेरे लिए प्रेम करने जैसी होती हैं क्‍योंकि अचानक किसी पल एक झटके के साथ आपकी सभी अनुभूतियोँ  को चालू (ऑन ) हो जाना पड़ता है. 


 यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अंकिता आनंद

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युवा अंकिता आनंद की कविताओं के लिए Gigi Scariaकी कृति  ‘Shadow of the Ancestors’ को प्रस्तुत करते हुए मैं एक बारगी ठिठक गया. क्या बढियां, अर्थगर्भित शीर्षक है और किस तरह वीराने में  पेड़ के तने का एक सूखा हुआ हिस्सा हमें अपनी ही सभ्यागत दुर्घटना/विभीषिका के सामने खड़ा कर देता है. कलाएं तमाम तरह से इस सच को अभिव्यक्त कर रही हैं. एक भी कविता, एक भी पेंटिग, और एक भी कृति मैंने इस वर्तमान सभ्यता के गुणगान में नहीं देखी -पढ़ी है.

अंकिता आनंद की कविताओं को पढ़ते हुए भी यह अहसास बराबर बना रहता है. वह हर चीज पर प्रश्न उठाती हैं. जो चीजें हमें ‘नार्मल’ लग रही हैं वे हैं नहीं. तमाम आम प्रसंगों से वह कविता का ख़ास खोज लेती हैं.

उनकी दस नई कविताएँ आपके लिए.




अंकिता आनंद की कविताएँ                          





1.
कवि नामक प्रेमी के लिए 

उसके अधखुले होंठ 
किसी हया, तमन्ना या हर्षोन्माद का इशारा नहीं. 
वे डोल रहे हैं उम्मीद और मायूसी के बीच 

ये विचारते कि क्या उनकी आवाज़ 
तुम्हारे कानों तक पहुँच सकेगी 
जिनमें तुम्हारे दिवास्वप्न की "वाह-वाह"
अभी से भिनभिनाने लगी है,

जिसे सुन अधीरता से उसका हाथ छोड़ 
तुम कलम साधने लगे हो
उस म्लान चेहरे की रेखाएं अंकित करने 
अपनी नई कविता में. 


  2.
घटनाक्रम
ड्रायवर जी का अलग घर, अलग आँगन
पेड़, रंगा चबूतरा 
हमारे घर के पीछे 
एक नई दुनिया 
एक नया दोस्त 
ड्रायवर जी का बेटा 
शांत और कोमल 
दोस्त के स्वभाव जैसा
एक दिन साथ छुआ-छुई खेलना-
जिसको छू दिया वो चोर. 
मेरा दोस्त के पीछे भागना 
गिरने का नाटक करना
दोस्त का आना, घबराना 
उसके घबराने में परिपक्वता होना 
हमउम्र होने के बाद भी उसे हमारे बीच का फ़र्क पता होना
उस फ़र्क की फ़िक्र का उसके चेहरे पर दिखना 
मेरा उसे झट से छूकर चोर बना देना 
उसका हँसना, राहत पाना.
"देर"का मतलब समझे बिना मेरा घर पहुँचना 
घबराए घरवालों का सवाल पूछ्ना 
"उनके"बच्चों के साथ खेलने की बात जानकर खुश न होना 
मेरा उनकी थोड़ी कही ज़्यादा समझना,
दोबारा वहाँ न जाना.




3.
नॉर्मल
मेहमानोंकेलिएखानेमेंक्याबनेगा,
इसके
अलावाकोईऔरबातकरनेवाले 
मेरे
अंकल-आँटीनॉर्मलथे.
मेरीदोस्तकाफ्रॉक 
उठाकर
देखनेवाले 
उसके
पड़ोसीअंकलभीनॉर्मलथे.
अपनेबच्चोंकीकिताबमें 
""से
"डर"वालेपन्नेपरजिनकीफोटोप्रकटहोतीथी 
वो
पापानॉर्मलथे.
डैडीकीपसंदकीकंपनीमेंकामकरता 
कभी
नामुस्कुरानेवाला 
लड़का
बिलकुलनॉर्मलथा.
तलाकसेबेहतर 
पिटाई
कोमाननेवाली 
बहू
बहुतनॉर्मलथी.
मानवतासेबढ़कर 
मानचित्र
कोसमझनेवाली 
जनता
भीफुल्टूनॉर्मलथी.
कातिलकोसरगनाचुनकर 
उसे
कंधेपरघुमानेवाले 
लोग
सौटकानॉर्मलथे.
x x x
ज़राचेककरें,
कहीं
आपकानॉर्मललीकतोनहींकररहा?




4.
पड़ाव
फ़र्क है 
पकड़ने और 
थामने में.
दूसरे में 
थम जाना होता है 
साथ.
कभी साथ चलने से 
कहीं ज़रूरी हो जाता है 
साथ ठहरना.


  
5.
नैशनल कैपिटल टेरिटरी
हमारा शहर धुँधला है. 
सफेदी की चमकार ऐसी 
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता.
और आप चाहते हैं 
कश्मीर, छत्तीसगढ़, मणिपुर, उड़ीसा . . .
सब तरफ़ हमारी नज़र पहुँचे.
कहाँ से?



6.
पर्याप्त
एक टोकरी आम
पर्याप्त होने चाहिए,
मेरे पिता ने सोचा 
जब वो नाना के लिए उन्हें लेकर आए. 

होने भी चाहिए थे
(पर्याप्त),
पर नाना के लिए 
जो अब है, वो सब है. 

सो जब उन्होंने पाए 
केवल चार आम जो 
पर्याप्त
रूप से पके हुए थे, तुरंत खाए जा सकते थे,

वे बाहर निकले, उस गति से जो 
पर्याप्त
थी फलवाले तक पहुँच 
एक उपयुक्त पाँचवे को ढूँढ़ने के लिए. 

उनकी पत्नी और दामाद सिर हिलाते 
उनकी पीठ को धुँधला होते देखते रहे,
हाँलाकि बीते सालों में वे जान चुके थे 
पर्याप्त

ये समझने के लिए कि 
हर आम के साथ वे जीवन का पूरा स्वाद 
चूसते जाते थे, ताकि वो हो सके 
पर्याप्त

अगली गर्मी तक और पिछली कई गर्मियों के 
अभाव को मिटाने के लिए,
जिसे वो जी चुके थे, जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर चुके थे 
पर्याप्त.  



7.
प्रत्यक्ष, प्रमाण
आसमान को चीर कर जाने की कोशिश में रहती है हमारी आवाज़ 
जब हम बलात्कारियों के लिए फाँसी माँगते हैं 
क्योंकि हम वो श्राप सुनाना चाहते हैं 
सिर्फ़ उन बर्बर लोगों को, या न्याय व्यवस्था, या प्रशासन को नहीं,
पर घर-पड़ोस के हर उस हाथ को 
जिसने रात सोते वक़्त हमें छुआ,
जिसके दिन में सामने आने से 
हम उसे बाँध नहीं पाते 
उस रस्सी के एक छोर से 
जो हम बनाते हैं औरों की फाँसी के लिए,
और हर रोज़ उसे सामने देख,
उसके सामने हाथ जोड़ मुस्कुराते हुए,
हमारे नारे, हमारी चीख का स्वर तीव्र होता जाता है,
फाँसी बँटती जाती है,
वहीं रहते हैं वो हाथ हमारे साथ तालियाँ बजाते, नारे उछालते, हमें टटोलते हुए.


  
8.
विस्मरण

मंडी से आया आलू 
घंटों पानी के कटोरे में पड़ा रहता है,
फिर रगड़ा जाता है 
दृढ़निश्चयी अंगूठों द्वारा. 
मिट्टी के हर कण से मुक्त कर,
छील-काट कर,
उसका रूप बदल दिया जाता है,
हल्दी उसे अपने रंग में सराबोर कर देती है.
थाली तक आते-आते 
भूल चुका होता है वो भी 
मिट्टी से सने उन हाथों को 
जो धरती के भीतर जा,
उसे दुनिया में लेकर आए थे.
और ये उसके हित में है,
क्योंकि नाज़ुक, उजले काँच की प्लेटें 
भरभरा कर टूट जाएँगी 
अगर उनके ज़हन पर आ पड़ा 
ऊबड़-खाबड़ भूरी हथेलियों की 
स्मृति का बोझ,
आलू फिर से हो जाएगा
धूल धूसरित.





9.
पहाड़-पेड़-पीठ 

पहाड़ पर देखा कि गाय की पीठ पर खुजली हुई 
तो देवदार की खुरदुरी छाल से पीठ रगड़ 
उसने राहत पा ली.

चरवाहे को थकान हुई,
तो सागवान से टेक लगा 
सुस्ता लिया.

पेड़ और पहाड़ को तिलांजलि देकर 
हम अब एक दूसरे की पीठ खुजाने का काम करते हैं.
पीठ को टिकाने के ठिकाने के अभाव में.
उसे सीधी ना कर पाने की स्थिति में,
बेलें बन एक-दूसरे पर लदे रहने को बाध्य हैं.




10.
समझदारी 

दाँत कींच के 
"मार देंगे
बोलने से 
तुमपे आनेवाला गुस्सा कटेगा. 

लेकिन इससे 
"नारीवादी होके मौखिक घरेलू हिंसा कैसे"
वाला बात सब उठ जाएगा. 

सब सभ्य रूप से करना होगा,
अपने जीभ में ही दाँत काट के रह जाना बेहतर है,

काम चलाना होगा. 

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अंकिता आनंद ‘आतिश’ नाट्य समिति और ‘पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स’ की सदस्य हैं. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और ‘समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सव’ से था. यत्र तत्र कविताएँ प्रकाशित हैं.
anandankita2@gmail.com

मीमांसा : स्पिनोज़ा - दर्शन और अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर

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कार्टून- डेविड लेविन














यहूदी मूल के महान डच दार्शनिक स्पिनोज़ा (२४ नवम्बर १६३२ : २१ फ़रवरी १६७७) की कृतियों का हिन्दी में  समुचित अनुवाद हो और सम्बन्धित दार्शनिक प्रत्ययों पर उचित चर्चा हो, समालोचन पर ही प्रचण्ड प्रवीर के लेख बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें? की चर्चा के दरमियाँ  यह बात निकली थी.   

बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रत्यूष पुष्कर ने इसकी शुरुआत कर दी है. उनका लेख तथा ‘थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल ट्रीटी’ और ‘ईथिका  ऑर्डिन जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता’ जिसे एथिक्स के नाम जाना जाता के कुछ अनुवाद भी यहाँ दिए जा रहे हैं.

दर्शन पर गम्भीरता से संवाद की उम्मीद के साथ .





स्पिनोज़ा की दार्शनिक अवधारणाएँ
प्रत्यूष पुष्कर
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स्पिनोज़ा को पश्चिम के दर्शन का पहला नास्तिक भी कहा गया है कई जगहों पर, एक ऐसा नास्तिक जिसने ईश के अनुपस्थिति के बदले, प्रकृति और ईश के एकीकृत होने की बात कही. स्पिनोज़ा की आलोचना ज्यादातर फ्री विल सिद्धांत के विपक्ष में होने के कारण भी हुई. प्रख्यात ब्रिटिश लेखक, जोनाथन इजराइल ने, जिनका ज्यादातर काम डच इतिहास, रेडिकल एनलाइटनमेंट, और यूरोपियन यहूदियों के इर्द गिर्द रहा है, बारुच को रेडिकल एनलाइटनमेंट का प्रणेता भी माना है.

सोलहंवी शताब्दी के यूरोप दर्शन काल कों श्रेष्ठतर पुनर्जागरण का काल कहा जाता है. हालाँकि इस काल के दर्शन और साहित्य दोनों पर धार्मिक अधिष्ठानों का प्रभाव यथावत ही रहा. यही कारण था कि यहूदियों और ईसाईयों दोनों के द्वारा स्पिनोज़ा का बहिष्कार किया गया.

स्पिनोज़ा ने अपने प्रारंभिक रचनाओं में ही आत्मा के अमरत्व का खंडन किया, मीमांसा को अस्वीकार किया, अब्राहम, आइज़क, जैकब के ईश को अतार्किक माना, और दावा किया कि सृष्टि के वो नियम जिनका अनुपालन यहूदी या इसाई करते हैं, वो इश्वरप्रदत्त नहीं बल्कि मानव कृत है,

स्पिनोज़ा कों बाइबल के ऐतिहासिक आलोचना का जनक भी माना गया है. स्पिनोज़ा ने ही पहली बार बाइबल की भाषावैज्ञानिक-ऐतिहासिक व्याख्या भी की. सन 1670में अज्ञात रूप से प्रकाशित अपनी किताब थिओलोजिकल-पोलिटिकल ट्रीटीज़में स्पिनोज़ा ने सीधे तौर पर मानवीय संवाद और ईश्वरीय संवाद कों पृथक किया, और मानव की उस इच्छा पर जहाँ पर वह ईश से अपनी भाषानुगत संवाद की आकांक्षा रखता है, प्रश्न खड़े किये. कहा कि अगर ईश का कोई संवाद है भी तो वह केवल किसी अन्योक्ति सा विवेचनीय है, और मानवीय भाषाई समीकरणों से मुक्त है. स्पिनोज़ा ने कहा कि ईश प्रकृति के मूल समीकरणों से अलग नहीं है, और अगर मानव कों ईश की खोज करनी हो तो वह ईश कों प्रकृति में ढूंढें, रुढ़िवादी धार्मिक ग्रंथों में नहीं.

स्पिनोज़ा ने यह भी कहा कि इश्वर प्रकृति का कोई निर्देशक नहीं जो प्रकृति की यात्रा को किसी नाटक की तरह एक निर्धारित अंत तक पहुंचाने के लिए हो. सीधे तौर पर उस विधि के विधानको खारिज किया जिससे मानव अपने दिशा निर्धारण या दिशा निर्धारण में मदद की उम्मीद रखता हो.

उन्होंने इजरेलियों की उस अवधारणा को हास्यास्पद बताया जो यह मानता है कि प्राचीन इजरायली किसी विशेष ध्येय से पृथ्वी पर प्रकट हुए थे.

स्पिनोज़ा के सपनों का समाज एक ईश के भय से मुक्त, तर्काधारित, धर्मनिरपेक्ष समाज था जो अपने क्रमागत विकास की हर सीढ़ी पर प्रकृति से एक अन्तरंग सम्बन्ध रखता, और प्रकृति में हुए आंशिक परिवर्तनों में भी अपने ईश का कथ, व्यक्त ढूंढता.

स्पिनोज़ा ने हालाँकि धर्मके अस्तितिव का खंडन नहीं किया कभी, माना कि ज्यादातर जिसे हम धर्म कहते है मूलत: अंधविश्वास है. स्पिनोज़ा ने सर्वदा इन अन्ध्विश्वासों कों इंगित किया और इनपर तीखे प्रहार किये.
धारयति इति धर्म:और धारण करने योग्य वह हो जो कारण, तर्क, और शोध के बाद सामने आया हो.

थिओलोजिकल-पोलिटिकल ट्रीटीज़में स्पिनोज़ा ने धर्म और अन्धविश्वास को समझने को पृथक करने के लिए उन्हीं साधनों का इस्तेमाल किया, जो साधन आगे चलकर मनोविज्ञान और समजिकविज्ञान का अभिन्न अंग बने. स्पिनोज़ा ने भी धर्म की अवधारणा को सबसे पहले व्यक्ति की निजी मनोवस्था से जोड़कर यह समझाने की कोशिश की जिसे हम धर्म कहते है, वो उस व्यक्ति के, जो आशाओं और अपने प्रागैतिहासिक भय के कारकों के बीच कहीं झूलता हो, साथ किये अन्य चालाक व्यक्ति या किसी समूह के छलप्रयोजन का नतीजा है, कि बाइबल मोज़ेज को नभ से उतरे किसी ने हाथ में नहीं धरा बल्कि अलग अलग जगहों पर अलग अलग समय में  अलग अलग लोगों ने उसे लिखा, संयोजित किया, और फिर प्रयोजनमुखी सम्पादन के बाद जनसाधारण तक पहुँचाया.


स्पिनोज़ा ने मोज़ेज कों एक राजनैतिक नेता के रूप में देखा जिसके पास यथोचित अनुभव और जानकारियाँ थी. स्पिनोज़ा ने यहूदी धर्म कों कल्पना की परिणति बताया और कहा कि यहूदी धर्म कों अन्धविश्वास से पृथक तभी किया जा सकता है जब इसकी तमाम अवधारणाओं को आधुनिक विज्ञान के नजरिये से देखा जा सके, और चमत्कारों की जगह, शोधपरक उत्तरों की आकांक्षा की जा सके.

स्पिनोज़ा ने ब्रह्माण्ड के बारे में जो धारणा सबके सामने राखी वो एक निर्धारित या डेटरमाइंड किस्म की विचारधारा थी. ईश एक ब्रह्मतत्व और यह ब्रह्माण्ड उस ईश का एक डेरीवेटिव. स्पिनोज़ा के ईश कों हालांकि ब्रह्म भी कहा जा सकता है, लेकिन ईश कों स्पिनोज़ा ने चूँकि के धर्म के सन्दर्भ में भी रखा है, और इनमें से कई धर्म है जो ब्रह्म की अवधारणा पर एकमत नहीं रखते.

स्पिनोजा जिस ईश की बात करते हैं वह सत्व ब्रह्म सा तब लगने लगता है जब स्पिनोज़ा इंट्यूशन या अंत:प्रज्ञा को ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताते है, हालाँकि उसे भी एक निर्धारित संरचना के भीतर ही रखते हैं और किसी अन्य तत्व के अस्तित्व कों संदेहास्पद ही बताते है . जिस तरीके से स्पिनोज़ा ईश की बात करते है, वह कोई चेतन-ब्रह्म लगता है. प्लेटो के आईडियलिस्म का वह हिस्सा जो यह कहता है कि आल मैटर इस अ डेरीवेटिव ऑफ़ कांशसनेस’, तो स्पिनोज़ा का ईश उसी कांशसनेस या चेतना की तरह लगने लगता है. हालाँकि स्पिनोज़ा के हिसाब से यह चेतना बाइनरी है, निर्धारणात्मक है. एक सार्वभौमिक सत्व. जो ईश भी है, प्रकृति भी, ब्रह्म भी.

एथिक्स के की अपने प्रस्ताव ११ में स्पिनोज़ा यह बात रखते हैं कि अगर कुछ अस्तित्व में नहीं है, या नहीं रहा है तो इसके पीछे कारण और स्पष्टीकरण का होना तय है कि वह क्यूँ नहीं है. इसके पीछे के कारण या तो उस चीज़ की अपनी प्रवृत्ति हो सकती है, या कुछ बाह्य कारकों का योगदान भी. जैसे हज़ार मील चौड़ी झील के खो जाने का कारण झील के बाहर से आता है, जो कोई भूवैज्ञानिक कारण हो सकता है. लेकिन किसी तत्व के अस्तित्वहीनता के के के कारण भी हो सकते हैं, और इनमें से सब बाह्य हो ऐसा ज़रूरी नहीं. हो सकता है अंतर और बाह्य के समन्वय के समीकरणों में बदलाव एक संयुक्त कारण भी हो. इस अंत: और बाह्य के समीरकण को जब स्पिनोज़ा समझाते है तो वहां एक विवाद उत्पन्न होता है. जिसकी चर्चा हम, ‘स्पिनोज़ा के तत्व की आलोचना में पढेंगे

एक बड़े पटल पर फिर वो धर्म की पड़ताल भी कुछ यूँ ही करते है. हालाँकि स्पिनोज़ा के काम का अधूरापन आधुनिक दर्शन में के जगहों पर उनके वाद को कमजोर करता दिखता है, जिससे उनकी महत्ता पर कोई विशेष प्रभाव पड़ता नही दिखता लेकिन उसकी असम्पूर्णता एक शोध का विषय बन जाती है.

थिओलोजिकल पोलिटिकल ट्रीटीज़ में कई जगहों पर स्पिनोज़ा के वाद में त्रुटियाँ या असम्पूर्णता दिखती है, जैसे जब वह यह राजनैतिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए यह कह देते हैं कि सरकारों के पास धर्म के अधिकार या अभिव्यक्ति क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं हो, यहाँ पर कहीं ना कहीं स्पिनोज़ा स्वयं अपने प्रारंभिक विचारों के विरुद्ध खड़े मालूम होतेहै. कई आधुनिक दार्शनिकों ने इसका खंडन करते हुए यह वाद रखा कि धर्म के ऊपर एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का अंकुश होना आवश्यक है. जैसा हम किसी भी धार्मिक तौर पर उन्मादित प्रजातंत्र या राजतंत्र में देख सकते है. और फिर यह भी कि स्पिनोज़ा जिस शासक वर्ग की कल्पना करते हैं ना उस वर्ग के अधिकारों और कर्तव्यों कों स्पष्टता से रख पाते हैं, ना उस शासक के अधीनस्थ जीवन वहां करते व्यक्ति की ही. वो शासक के अधिकार और कर्तव्यों कों कहीं ना कहीं उसकी विवेकशीलता पर छोड़ देते हैं, और ज्यादातर जगहों पर स्पिनोज़ा के शासक या सरकार, प्लेटो के दार्शनिक राजाओंकी तरह लगने लगते है, और दोनों में से कोई भी एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में नहीं अपनाये जा सकते.

जब स्पिनोज़ा ज्यादातर लोगों कों तर्कहीन या विवेकरहित मानते ही हैं तो वो कैसे उन्हीं के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से ऐसी विवेकशीलता की उम्मीद कर सकते है यह भी वाद का विषय है.

स्पिनोज़ा कहीं कहीं अधिकार और शक्ति को एक सा मानते हुए भी दिख जाते है, और जब अधिकार का निर्धारण शक्ति से या शक्ति का निर्धारण अधिकारों से करने की बात करते हैं तो वहां भी विवाद उत्पन्न होता है, जिसके बारे में हम अगले आलेख में पढेंगे.



स्पिनोज़ा दर्शन के मील के पत्थरों में से एक हैं, और उन्हें समझने का सबसे सही तरीका, उनके वादों पर प्रश्न खड़ा करना ही लगता है, क्यूंकि जिस यहूदी सिनेगोग से स्पिनोज़ा कों बहिष्कृत किया गया था, वहां से वो केवल प्रश्न लेकर निकले थे, और आज भी, वो प्रश्न समसामयिक है और आने वाले समय में भी रहेंगे. आशा है कि हम भी उन वाद-विवादों में सम्मिलित हो सकेंगे और इस आलेख के बाद भी स्पिनोज़ा को पढ़ा जायेगा, और उनका अनुवाद किया जाएगा. 




अनुवाद
थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल ट्रीटीज़
प्रत्यूष पुष्कर
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स्पिनोज़ा की थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल ट्रीटीज़ (अंग्रेजी में अनुवाद जोनाथन इजराइल और माइकल सिल्वरथोर्न, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस) के अध्याय ऑन मिरेकल्स’ (चमत्कारों के बारे में) के हिंदी में अनुवाद का एक अंश.


“...जैसा कि लोग आदतन हर उस सूचना या ज्ञान को आसानी से देवीयकी संज्ञा दे देते है जो उनकी समझ और तर्क से परे है, ठीक वैसे ही वो घटनाएँ जिनका कारण अनभिज्ञ है, साधारण लोगों  के द्वारा दिव्यया इश्वर के काम के रूप में वर्गीकृत कर दी जाती हैं. आम लोगों के लिए ईश्वरीय शक्ति और विधान तब जाकर और सुदृढ़ और स्पष्ट हो जाते है जब वो सामान्य से विपरीत कुछ होता हुआ देख लें, प्रकृति को अपने अभ्यस्त विचारों से इतर कार्य करता हुआ देख ले, खासकर तब और ज्यादा जब ये बदलाव उनके समर्थन और फायदे में हुआ हो.

वो ये भी मान लेते है कि ईश के अस्तित्व का सबसे स्पष्ट प्रमाण प्रकृति के गाहे बगाहे  अपने प्रकृतिस्थ पथ से भटक जाना है. इसी कारण से वो यह भी मान लेते है कि जो भी ऐसी घटनाओं या चमत्कारोंका प्राकृतिक कारणों से व्याख्या करने का प्रयत्न करते है, वो ईश या विधि के विधान कों जबरन खारिज करने का प्रयत्न करते है.

वो इस विचारधारा पर अडिग होते है कि जबतक प्रकृति अपने प्रकृतिस्थ रूप से कार्य कर रही होती है तब ईश निष्क्रिय होते है और जब ईश सक्रिय होते है तो प्रकृति अपने सामान्य पथ से इतर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती है और प्रकृति में अतिरेक आता है.

ऐसे ही, वो कल्पना कर लेते हैं दो अलग अलग शक्तियों कि, जो एक दूसरे से भिन्न हो, ईश की शक्ति, और प्राकृतिक घटकों की शक्ति, और यह कि प्रकृति के शक्तियों का निर्धारण ईश के हाथों में हैं क्यूंकि उन्हें ये भी लगता है कि मानव का निर्माण प्रकृति ने नहीं बल्कि ईश ने किया है. लेकिन वो इन शक्तियों में अंतर कर पाने में भी ज्यदातर स्वयं कों अक्षम पाते है, उन्हें ऐसा लगता है मानो ईश की शक्ति कोई राजकीय प्राधिकारी के नियंत्रण सा हो, और प्रकृति कोई बल या संवेग मात्र, जो ईश के शक्ति के अधीन कार्य करती हो.

ज्यादातर लोग इसीलिए प्रकृति के असामान्य परिघटनाओं कों ईश का चमत्कार या कार्य मान लेते है और उसके पीछे के प्राकृतिक कारण कों जानने की मंशा नहीं रखते, जिसके पीछे कारण उनकी निष्ठा और प्रकृति के दर्शन को समझने की कोशिश करते लोगों का विरोध करने का धुन मात्र हैं.

वो केवल वही सुनना चाहते हैं जो उन्हें अद्भुत लगता है और सही कारणों से अनभिज्ञ रखता है, ऐसा इसीलिए भी हैं क्यूंकि उनसे केवल इतनी ही अपेक्षा की जा सकती है कि वो ईश की अराधना करें, और सभी चीज़ों को उसके निश्चय और नियंत्रण पर मढ़ सकें, प्राकृतिक कारणों की उपेक्षा कर, प्रकृति के सामान्य पथ से इतर सबकुछ ईश पर थोपकर, ऐसा बर्ताव करना चाहे मानो प्रकृति ईश के वशीभूत हो.

इस बर्ताव की शुरुआत ऐसा लगता है मानो यहूदियों से हुई हो, उन्होंने ही चमत्कारिक घटनाओं का वर्णन किया था अपने समय के पेगंस से यह मनवाने के लिए कि वो जिन दृश्य देवताओं की अराधना करते थे, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु...आदि, वो ८२ देवता कमजोर, अस्थिर और परिवर्तनशील थे, और अदृश्य ईश के अधीनस्थ मात्र थे...





अनुवाद
ईथिका ऑर्डिन जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता
प्रत्यूष पुष्कर




स्पिनोज़ा की किताब ईथिका,ऑर्डिन जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता/ एथिक्स / नीतिशास्त्र (अंग्रेजी अनुवाद R.H.M. Elwes) के हिंदी अनुवाद से अंश.



अनुबंध पूर्व : 

“...व्यक्ति का अस्तित्व उसका प्रभुत्वसंपन्न प्राकृतिक अधिकार है, परिणामत:, अपने प्रकृति या जिसे हम चरित्र भी कहते है, से अधीनस्थ होकर वह कार्य करता है, इसी प्रकृति के आधार पर वह सुनिश्चित करता है कि क्या सही है और क्या गलत है, अपने स्वभावानुसार अपने हितों का ध्यान रखता है, अपने साथ हुए नाइन्साफियों का प्रतिशोध लेता है, और उद्यम करता है उसे बचाने की जिससे वह प्रेम करता है, और उसे नष्ट करने की जिससे वह घृणा करता है.

अब, अगर व्यक्ति तर्क के नेतृत्व में अपना जीवन वहन करे, तब भी उसके अधिकार उसी के रहेंगे, और वह अपने पर्यावरण और पड़ोसियों कों चोट भी नहीं पहुचायेगा, लेकिन व्यक्ति चूँकि ज्यादातर अपने भावनाओं के अधीनस्थ ही रहता है, और ये भावनाएं या उसकी मनोदशा, मानव शक्ति और मानवीय गुणों को ज्यादातर दरकिनार कर देती है, इसीलिए वो अलग अलग दिशाओं में भटक जाता है, एक दूसरे से विलग लेकिन एक दूसरे के मदद की आस में जीता है.

लोगों के एक साथ एक समरसता में रहने के लिए और एक दूसरे की अप्रायोजित सहायता कर सकने के लिए, यह ज़रूरी है कि वो अपने प्राकृतिक अधिकारों को परिष्कृत करें, उनमें से कुछ का त्याग करें, और  केवल सुरक्षा के नाम पर उन सभी कार्यों से विरत रहें जो उनके साथियों कों किसी भी तरह से चोट पहुंचाता हो...



अनुबंध १ :

“मैंने अबतक यह दिखाने की कोशिश की है कि ब्रह्म है, एक है, एक सत्व है, और वह केवल अपने प्रकृति की आवश्यकतानुसार कार्य करता है, वह सभी चीज़ों के पीछे का एक मुक्त कारण सा है, और सभी चीज़ें उस ब्रह्म में समावेशित है, उसपर निर्भर है, और बगैर उसके ना किसी चीज़ का अस्तित्व है, ना कल्पना ही, आखिरकार, सभी चीज़े उसी ब्रह्म के द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं, इसके पीछे ब्रह्म की कोई स्वेच्छा या उसके किसी हुक्मनामे जैसा कुछ भी नहीं, केवल उसकी प्रकृति है, और उसकी अनंत शक्ति.


आगे बढ़ते हुए मैंने, जिन जिन अवसरों पर आवश्यकता हुई है, मैंने किसी भी तरह के पूर्वाग्रह को हटाने की भरसक कोशिश की है, जो मेरे प्रतिपादित सिद्धांतो को उनके मूलस्वरूप में समझ पाने में अड़चन का काम करें, लेकिन फिर भी कुछ गलतफहमियां है, जो जैसा मैंने समझाने या श्रृंखलाबद्ध करने की कोशिश की है, उसमें बाधा बन सकें. इसीलिए मैंने प्रयत्न कर इन सभी गलतफहमियों और भ्रांतियों कों एक तर्क के घेरे में लाकर समझाने की कोशिश की है.


ये भ्रांतियां इसीलिए भी पैदा होती है क्यूंकि हम साधारणत: यह मान लेते है कि प्रकृति में सब कुछ ठीक वैसे ही बर्ताव करता है जैसे मनुष्य, एक अंत कों दिमाग में रखकर. ऐसा आसानी से निश्चित मान लिया जाता है कि कोई ईश स्वयं सभी घटनाओं कों एक निर्धारित अंत तक पहुँचाने का कार्य करता है (और चूँकि ईश ने सभी साधनों का निर्माण किया है मनुष्य के लिए, तो एवज में मनुष्य उसकी अराधना करता है). इसीलिए मैं, इस विचारधारा को ध्यान में रखकर, सबसे पहले यह प्रश्न खड़ा करूँगा कि यह सोच कैसे एक साधारण दृढ विश्वास सा बन जाता है, और क्यूँ सभी मनुष्य प्राकृतिक रूप से इसको अपनाने पर बाध्य हो जाते है.

दूसरा, मैं इस अवधारणा के छद्म को इंगित करूँगा, और आखिरकार, यह दिखलाने की कोशिश करूँगा कि कैसे इस अवधारणा ने समाज को पक्षपात से पाट दिया है, जैसे, अच्छा और बुरा, सही और गलत, प्रशंसा और दोष, क्रम और संभ्रम, सुन्दर और वीभत्स आदि. हालांकि इस पुस्तक में यह वह जगह नहीं है जहाँ इन भ्रांतियों का मनुष्य की प्रवृत्ति से निगमन किया जाए, यहाँ यही पर्याप्त होगा अगर मैं सीधा यह मान लूँ, और जो एक सार्वभौमिक घटना भी है,कि मनुष्य की यह प्राथमिक इच्छा होती है कि उन चीज़ों कों ढूँढने की जो उसके लिए  उपयोगी हो, वह इस इच्छा के बारे में सचेत तो होता है लेकिन इसके पीछे के कारण के बारे में ज्यादातर अनभिग्य.



पहली बात यह कि लोगों को लगता है कि वो इन इच्छाओं और इन इच्छाओं के पीछे कार्यरत इच्छाशक्ति में स्वयं स्वतंत्र और सचेत महसूस कर रहें होते हैं, और वो स्वप्न में भी, अपने अनभिज्ञता से संकुचित होकर, इस इच्छा और इच्छाशक्ति के पीछे कार्यक्रत कारकों के बारे में नहीं सोचते जो उनकी चेतना में इनका प्रतिपादन करता है.

दूसरी बात यह कि लोग सभी कार्य एक अंत कों दिमाग में रखकर करते है, एक ऐसा अंत जो उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो,
और जो वो ढूंढ रहें हो. इसीलिए सभी घटनाओं से एक ऐसा विचार निकलकर सामने आता है कि लोग केवल घटनाओं के अंत की जानकारी और केवल उस अंत पीछे के कारण को ढूंढते है, पूरी प्रक्रिया की नहीं, और जब उन्हें इस अंत का पता चल जाता है, वो संतुष्ट हो जाते है, और इससे आगे या पहले के शंकाओं के प्रति अबोध रह जाते हैं या अबोध रह जाना चुनते है.

और जब वो इन कारणों के बारे में बाह्य श्रोत से भी जानकारी नहीं जमा कर पाते तो वह फिर से स्वयं को केंद्र में रखकर, फिर से घटनाओं के उस अंत के बारे में सोचना शुरू कर देते है, जिनमें उनका अहम् समावेशित हो, और इसीलिए वो किसी घटना से जुड़े दूसरों के चरित्र या प्रकृति का निर्धारण अपने हिसाब से करना शुरू कर देते है.





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प्रत्यूष पुष्कर
लेखक/कवि. बहुआयामी कलाकार. संगीतज्ञ.

शिक्षा : जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
reachingpushkar@gmail.com


प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें? 

निज घर : प्रतिभाशाली मित्र : प्रचण्ड प्रवीर

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(Joan Miro की  पेंटिग : Harlequin's Carnival)



प्रचण्ड प्रवीर तरह-तरह से साहित्य और विचार को समृद्ध कर रहे हैं. उनका उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले', कहानी संग्रह  ‘Bhootnath Meets Bhairavi, तथा  'जाना नहीं दिल से दूरके साथ ही अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय', आदि प्रकाशित है.

इधर वह दैनंदिन अनुभवों को लेकर डायरी शैली में कुछ प्रयोग करते हुए श्रृंखला कल की बातलिख रहे हैं, जो रोचक तो है ही आज के  युवाओं के  मनोजगत की यात्रा भी है. एक हिस्सा आपके लिए. 




प्रतिभाशाली मित्र                                  
प्रचण्ड प्रवीर




ल की बात है. जैसे ही मैंने ऑफिस के बिल्डिंग के बाहर कदम रखा, हमारे पुराने जिगरी दोस्त मोहन प्यारेनज़र आ गये. करीब छः साल बाद उनसे अचानक मुलाकात हो रही थी. मोहन प्यारे ने चमचमाती सफ़ेद शर्ट और इस्तरी से दमकती नेवी-ब्लू पैंट पहन रखी थी. हम दोनों एक दूसरे को देख कर थोड़ा अचकचा गए. पहले तो प्रेम से गले मिलें, फिर मोहन प्यारे ने बताया कि इसी बिल्डिंग के पाँचवी फ्लोर पर एक कम्पनी में वो पिछले चार महीनों से काम कर रहे हैं. बस छुट्टी का समय ऐसा अजब है कि बड़ी मुश्किल से मिलना हो पाया.

तुमने बताया नहीं कि तुम यहाँ काम करते हो?”

मोहन प्यारे ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, “तुमने बताने का मौका कहाँ दिया? सोशल नेटवर्क पर सबको इत्तला कर दिये थे. तुमको हम स्पेशल तार दे सकते थे, लेकिन अब भारत सरकार तार सेवा बंद कर दिया है. रहा बात चिट्ठी लिखने का, हम बहुत दिन से सोच रहे थे कि एक अंतर्देशीय पत्र खरीद के तुमको चिट्ठी लिखें, पर मौका नहीं मिला.

किसका मौका भाई, लिखने का या अंतर्देशीय खरीदने का? ई-मेल कर सकते थे.उलाहने को अनदेखा कर के मोहन प्यारे कहने लगे, “छोड़ो भी, ये क्या दाढ़ी-वाढी बढ़ा रखी है शाहजहाँ की तरह.

मैंने ग़मगीन हो कर कहा, “तुम्हारी ही कंपनी में एक झुम्मा नाम की लड़की काम करती है. उसी के ना मिलने के ग़म में दाढ़ी बढ़ा रखी है.

कौन है झुम्मा? कुछ हुलिया बताओ.मोहन प्यारे ने पूछा. जानकारी पर गौर करने के बाद मोहन प्यारे फरमाये, “महानगर आ कर भी तुम नहीं बदले! ऊँची हील वाली मोटी लड़की, लिपस्टिक घिसने वाले, खुल्ले बालों वाली... समझ गये, उसी को तुम झुम्माबुलाते हो? हमारे यहाँ कोई उसको भाव नहीं देता, और तुम लोग उसको भाव देते हो इसलिए उसका दिमाग चढ़ा हुआ है.

ऐसी क्या ख़राबी है उसमें?” मुझे उत्सुकता हुई.

ख़राबी ही ख़राबी है. हिन्दी बोलने वालों से नाराज़ रहती है. एक दिन हम जा के उससे पूछे कि ऐ जी, तुम कैसी हो, और सुनाओ तुम्हारी कुतिया कैसी हैं. हम खाली इतना ही पूछे, वो बोली कि वो ठीक है और साथ में ये बोलती है आप मेरी डॉगी को कुतिया मत कहिये. हम बोले आपके तरह स्त्रीलिंग-पुल्लिंग मिला दें क्या? सही बात यही है कि हमसे स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का गलती हो जाता है, पर जानबूझ के हम कोई गलती नहीं करना चाहते हैं. छोकरिया हमको बोलती है कि आप उसको बिचबोलिये, लेकिन कुतिया नहीं. हम पूछे, ‘बिचबोलना ठीक लगता है और कुतियाबोलने में ख़राबी बुझाता है? बोली कि कुतिया बोलना वैसासा लगता है. 

इससे आगे हम क्या पूछे लेडीज़ लोग का बात. साला, कुछ अच्छा लगेगा कुछ ख़राब. इसलिये हम बोलना ही छोड़ दिए हैं कि जाओ ऐसे ही खुश रहो. बिना मोहन के किसी राधा का कल्याण हुआ है क्या? कल्याण नहीं होगा तो ऐसे ही भटकेगी. एक न एक दिन मेरी शरण में आना ही पड़ेगा. वैसे तुमको एक सुझाव देते हैं. गाड़ी लिए हो? नहीं लिए हो? एक गाड़ी खरीदो. उसकी कार नीचे खड़ी होती है बेसमेंट में. पाँच दिन उसकी गाड़ी के ठीक पीछे-पीछे अपनी गाड़ी ले कर जाओ. एक दिन खुद पूछ लेगी कि क्या बात है? क्यों पीछा कर रहे हो? तुम बोलना मैडम, पर्यावरण के नाम पर सन्देश देना था. ईंधन बचायें, साथ साथ गाड़ी चलायें. या आप हमारी गाड़ी में आ जाइये, या फिर हम आपकी गाड़ी में बैठ जायें.

बिलकुल नहीं बदले तुम. अभी भी पूरा स्टाइल वैसा ही है. सुने कि बीच में तुम फिल्म बनाने वाले थे.

बहुत काम करने वाले थे. एक आदमी मिला, बड़ा भारी ज्योतिष था. बोला कि आपका चलने का अंदाज़, बॉडी लैंग्वेज एकदम दूसरे टाइप का है. दूसरा टाइप समझते हो न? मतलब बहुत प्रभावशाली. इसलिये पहले सोचे कि शेयर मार्किट में पैसा लगायें, वहीं पे ट्रेडिंग का काम करेंगे. कुछ दिन किये देखें कि ले लोटा, साला सारा पैसे डूब रहा है. फिर हम सोचे कि बॉडी लैंग्वेज का दूसरा जगह इस्तेमाल करते हैं. इसलिए फिल्म बनाने का सोचे.

भोजपुरी फिल्म?”

तुम सत्तूखोर ... भोजपुरी काहे बनायेंगे? हिन्दी फिल्म बनाने का सोचे. बजट फ़िल्म. पटना में बहुत बिल्डर लोग है. जब हम उन लोग से बात किये तो उन लोग को भी लगा कि ब्लैक मनीको ह्वाईटबनाने के लिये ये किया जा सकता है. वो लोग हमसे बोला कि वो लोग भी हमारे बॉडी लैंग्वेज से एकदम प्रभावित है. उनलोग का एक गुज़ारिश था कि पटना में शूटिंग किया जाये, थोड़ा उन लोग के घर-परिवार के आदमी को भी रोल मिल जाये. हमको लगा कि एकदम जेन्युइन बात बोला है. पैसा जब लगायेगा तो अपना घर परिवार वाला को फिल्म में एक-आधा सीन में तो डाल ही देगा. हमको कोई बुराई नहीं लगा इसमें.

फिर क्या हुआ?”

अरे ये भी इतना आसान नहीं था. बजट फिल्म के लिये पैसा बहुत चाहिये, सो बहुत सा फिनान्सर से बात किये थे. एक हमसे पूछा कि मोहन जी, आप में क्या प्रतिभा है? हम बोले प्रतिभा... साला प्रतिभा तो ऐसा कूट-कूट के भरा है कि सुनोगे तो तुम लोग का होशे उड़ जायेगा. हम बोले कि, देखो हम झूठ नहीं बोल रहे हैं, बहुत सारा गवाह भी है इस बात का, हम उन लोग को बोले कि एक दिन हम ऐसे ही बैठे बैठे बोले थे कि कल जापान में भूकंप आयेगा. फिर ऐसा भूकंप आया वहाँ कि न्यूक्लियर रिएक्टर बंद करना पड़ा. अब ऐसा-ऐसा प्रतिभा भगवान् के तरफ से आता है. वो लोग बोला इसमें प्रतिभा का क्या बात है, ये तो एक तरह प्रेडिक्शन है. हम बोले ये भी प्रतिभा है. एक दिन हम ऐसे ही बोले थे कि गाँधी मैदान में बम फूटेगा, और उसी दिन फूट गया. ऐसे कोई सुन के हमको पागल समझेगा, लेकिन प्रतिभा तो यही है. बाकी सब क्या है- 

अभ्यास है, साधना है. फ़रक बूझो तुम!
फिनान्सर माना फिर? पैसा दिया?”

बोला कि धीरे-धीरे कर के लगायेगा. पहले हमको स्क्रिप्ट लिखने कहा है. अभी एक साल से हम स्क्रिप्ट लिख रहे हैं. इसके ख़तम होने के बाद शूटिंग चालू करेंगे. आराम से बनेगा फिल्म.
फिल्म का हीरो-हेरोइन कौन है? क्या नाम रखे हो फिल्म का?”

नायक-निर्देशक तो हम स्वयं हैं. हीरोइन अभी सोचे नहीं हैं. सोचे हैं कि नीतू चन्द्रा से बात करेंगे. मोहल्ला-टोला के नाम पर मान जायेगी. बचपन की फ्रेंडहै हमारी.

तब तक मैं इस योजना से बहुत प्रभावित हो चुका था. मोहन प्यारे ने धीमी आवाज़ में आगे राज खोला, “विशुद्ध हिन्दी फ़िल्म बनेगी. फ़िल्म का नाम है दिल का चोट्टा.
क्या? दिल का चोट्टा?

मेरी हँसी से चिढ कर मोहन प्यारे भुनभुना गये, “सत्तूखोर... साहित्य पढ़ते हो. चोट्टा का मतलब मालूम भी है जो हँस रहे हो? जाओ पहले शब्दकोष देखो. चोट्टा का मतलब होता है चोर. साधारण हिन्दी में मतलब हुआ दिल का चोर. अब दिल का चोट्टानाम देने से शॉक वैल्यूआयेगा. सेंसर बोर्ड वाला गाली देगा, फिर अंत में थक-हार कर पास कर देगा. हम इसका गाना भी लिख लिए हैं.

अच्छा .. धुन भी बना लिये होगे?”

हाँ. हम सोच रहे हैं इसको लद्दाख में फिल्मायें. हम काला जींस, काला चश्मा, हैट लगा के और बैकग्राउंड में लद्दाख में जो झील है ... और पीछे पहाड़ ... वहीं पे नीतू चन्द्रा को लहंगा चोली में, और बहुत लम्बा नारंगी दुपट्टा गले के चारो तरफ पहनवा के डांस करेंगे पीछे से तेज हवा चल रहा होगा .... तू .... तू ...तू दिल का चोट्टा है ... हाँ.. .हाँ ... मैं दिल का चोट्टा हूँ ... तू ...तू... दिल का चोट्टा है ... हाँ ...हाँ.. मैं दिल का चोट्टा हूँ ... जब हाँ कहना होगा, उस समय अपना मुंडी और कमर दोनों को एक साथ सिम्पल हार्मोनिक मोशन में हिलाना है. ऐसे ... देखो ... साथ में हाथ को आगे ले जा कर उँगली दर्शक की तरफ दिखाना है, मतलब हम ही नहीं, दर्शक भी दिल का चोट्टा ही है.

मोहन प्यारे ने फिर गाते हुये अपनी मुण्डी सिम्पल हार्मोनिक मोशन में घुमाई – ‘हाँ... हाँ ... मैं दिल का चोट्टा हूँ.

उसकी रचनात्मकता पर मुग्ध हो कर मैंने तालियाँ बजा कर उसे बधाई दी, “फिर यहाँ क्या कर रहे हो? स्क्रिप्ट पूरी करो और शूटिंग करो.

आम लोगों के बीच में रहने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. उनके बीच क्या चल रहा है, इसको जानने के लिए इस तरह की छोटी-मोटी नौकरी करनी पड़ती है.

झुम्मा से बात करा दो न!मैंने चिरौरी की.

बात तो करा देंगे, पर तुम उसको बोलोगे क्या?” मोहन प्यारे के इस सवाल पर मैं खामोश हो गया. मोहन प्यारे ने फिर रास्ता भी सुझाया, “अब तुम भी बन जाओ 'दिल का चोट्टा'. मिल के मीर की ग़ज़ल सुना देना.” 

वहीं दूर से झुम्मा हम दोनों को देख कर तेज-तेज क़दमों से बिल्डिंग की चक्कर लगाती निकल रही थी।

​चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ए'तिबार रखते हैं

फिर भी करते हैं 'मीर'साहब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं


ये थी कल की बात!
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