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मीमांसा : संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम : तुषार धवल

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तुषार धवल कवि, चित्रकार  और अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं पर मराठी साहित्य पर उनकी गहरी पकड़ का अंदाज़ा इस विद्वतापूर्ण आलेख को पढ़कर लगा. संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम के जीवन, दर्शन, संघर्ष पर यह बहुत सारगर्भित आलेख है. किस तरह से भक्ति का मार्ग धर्म की रुढियों से लड़ते हुए निर्मित हुआ इसे पढना आज और भी जरूरी है.



संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम : भक्ति काव्य और आधुनिकता के बीज

तुषार धवल





(1)

संत ज्ञानदेव (ज्ञानेश्वर, ज्ञानोबा) के जीवन काल के प्रामाणिक ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन उनका काव्य, उनके जीवन से जुड़ी लोक कथाएं, संत नामदेव रचित श्री ज्ञानदेव समाधि वर्णनम्में उनकी जीवंत समाधि की घटना और लोक गीतों में मौजूद उनसे जुड़ी घटनाओं और उनके प्रति संबोधित भावों के आधार पर विद्वानों ने उनका जीवन चरित पुनर्गठित किया है.

उनका जन्म महाराष्ट्र में सन 1273-75ई. के आसपास माना जाता है. ऐसी मान्यता भी है कि महज 22वर्ष की उम्र में ही ज्ञानदेव ने पूर्णत्व प्राप्ति के बाद जीवंत समाधि ले लिया था. भक्ति साहित्य और मराठी लोक वांङ्मय में इसके अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं. ज्ञानदेव के पिता श्री विट्ठल पन्त नाथ पंथ के सिद्ध गुरु गहिनीनाथ के शिष्य थे और विवाहोपरांत उन्होंने संन्यास ले लिया था. संन्यास के कुछ वर्ष बाद अपने गुरु के आदेश पर वे पुनः गृहस्थ जीवन में लौट आये. कालान्तर में उनकी चार संताने हुईं. निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव और मुक्ताबाई. ये चारों संतानें भविष्य में महान संतों के रूप में समादृत हुईं और चारों ने ही अलग अलग समय पर जीवंत समाधि का वरण किया.

इस बीच, क्योंकि विट्ठल पन्त संन्यास वरण करके उसका त्याग करके पुनः गृहस्थ जीवन में लौट आये थे, उनके ब्राह्मण समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया. उस समाज में यह धर्म विरुद्ध था कि कोई संन्यास लेने के बाद पुनः वैवाहिक जीवन में लौट आये. संन्यास लेने का अर्थ था सामाजिक मृत्यु. जो व्यक्ति सामाजिक रूप से मृत हो चुका है, वह पुनः समाज में कैसे लौट सकता है, सामाजिक जीवन कैसे प्राप्त कर सकता है ? इस सामाजिक बहिष्कार से दुखी हो कर उन्होंने उन्हीं ब्राह्मणों से इस पापका निदान पूछा. निदान यही था कि वे अपने धर्म पतितजीवन का अंत कर दें. फलतः विट्ठल पन्त ने डूब कर अपने जीवन का अंत कर दिया. इससे व्यथित उनकी पत्नी ने भी पति की ही तरह अपना जीवन भी त्याग दिया.

अल्पायु में ही चारों भाई बहन अनाथ हो गए. बाल्यकाल में ही चारों संतानों में सबसे बड़े निवृत्तिनाथ को गहिनीनाथ ने, जो उनके पिता विट्ठल पन्त के भी गुरु थे, शक्तिपात द्वारा नाथ पंथ में दीक्षित किया. कुछ ही समय बाद निवृत्तिनाथ एक सिद्ध योगी हो गए. निवृत्तिनाथ ने अपने अनुज ज्ञानदेव को भी शक्तिपात द्वारा दीक्षित किया और ज्ञानदेव अपने बड़े भाई के शिष्य रूप में स्थापित हुए.        



माता पिता द्वारा प्रायश्चित स्वरुप जीवन का त्याग भी इन चारों भाई बहनों को ब्राह्मण समाज में वह स्थान ना दिला सका और वे भी उस समाज में बहिष्कृत से ही रहे. ऐसी कथा है कि जब वे ब्राह्मणों से सामाजिक मान्यता प्राप्त करने गए तो उन्हें अपमानित होना पड़ा. फलस्वरूप ज्ञानदेव ने वहाँ से गुजर रही एक भैंस के मुँह से ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ करवा कर उन सभी ब्राह्मणों को चमत्कृत कर दिया.



संत ज्ञानेश्वर नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों द्वारा दीक्षित हुए थे. भारत में, विशेषतः महाराष्ट्र, दक्षिण भारत के दक्खिनी पठारी इलाकों और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में नाथ पंथ का बहुत बोल बाला रहा है. नाथ पंथ के संत शैव मतानुयायी सिद्ध योगी थे जिनकी साधना का आरम्भ गुरु द्वारा शक्तिपात प्राप्त करने से होता था. यह परम्परा आज क्षीण रूप में ही सही, लेकिन कायम है. शक्तिपात दीक्षा उसी साधक को दी जाती है जो इसे प्राप्त करने के लायक हो चुका है. शक्तिपात द्वारा गुरु अपनी शक्ति शिष्य में प्रवाहित कर उसकी कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर देता है. शक्तिपात के क्षणों में शिष्य को दिव्य प्रतीति होती है और उसे अपने मूल स्वरुप की पहली झांकी प्राप्त होती है.

दीक्षित होने के बाद शिष्य की पूरी साधना ही कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर उसे मूलाधार चक्र से उर्ध्वगमित कर शरीर में अवस्थित सात चक्रों, यथा, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार, का भेदन करते हुए सिर में स्थित सहस्रार चक्र (सहस्र दल कमल के आकार का) में समाहित और वहीं उसे अवस्थित करने की तरफ प्रेरित होती है. यह एक जटिल यौगिक प्रक्रिया है और इसे किसी सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही पूरा किया जा सकता है. कुण्डलिनी शक्ति के सहस्रार में स्थिर होते ही साधक को शिवत्व की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है और वह शिवोहम्भाव में लीन हो जाता है. यह परम आनंद की अवस्था और मोक्ष है. ऐसी अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो भव बंधन से उबर कर अपने शास्वत स्वरुप में, जो शिव है, सदा के लिए अवस्थित हो जाता है. नाथ पंथ की मान्यताएं कश्मीरी शैव दर्शनसे भिन्न नहीं हैं. 



कश्मीरी शैव दर्शन शिव सूत्र से उदित होता है. अन्य अगमों की तरह ही शिव सूत्र का भी एक मिथकीय आविर्भाव माना गया है. मान्यता के अनुसार शिव सूत्र संभवतया आठवीं शताब्दी के अंत या नवमी शताब्दी के पूर्वार्ध में वसुगुप्त पर प्रकट हुए थे. कल्लट के अनुसार खुद शिव ने उनके गुरु वसुगुप्त को शिव सूत्र का ज्ञान दिया था. सत्य की मीमांसा जो शिव सूत्र के माध्यम से प्रकट हुई है और जिसके अनुसार शिव ही एक मात्र परम चैतन्य है जिससे हर कुछ उदित हो कर उसी में अस्त होता है, चार शताब्दी बाद महाराष्ट्र के नाथ पंथ में भी उसी प्रबलता से व्यक्त और प्रतिपादित हुई है. यह दर्शन संत ज्ञानेश्वर कीअनुभवामृतमें बहुत प्रखर और उद्दात्त कवित्व के साथ प्रकट हुआ है.



"अनुभवामृत"का दिलीप चित्रेने चालीस वर्षों की अथक मिहनत से अँग्रेजी में "Anubhawamrut: An Immortal Experience of Being”के नाम से  अनुवाद किया है जो 1996में साहित्य अकादमी से प्रकाशित हुआ.      



अनुभावामृतसंत ज्ञानेश्वर की दूसरी रचना है. उनकी पहली रचना ज्ञानेश्वरीतब संभव हुई थी जब वे महज 16वर्ष की आयु के थे. ज्ञानेश्वरी श्रीमद्भगवद्गीतापर संत ज्ञानेश्वर की 18अध्यायों में की गई काव्य व्याख्या है जिसमें चार चार पंक्तियों की 9000ओवी (मराठी काव्य में प्रयोग में आने वाले छंद का ही एक प्रकार) हैं. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह व्याख्या रूप काव्य मराठी भाषा में है. यह एक सायास यत्न था कि इस ईश्वर के गीतको अति संशिलष्ट और परिमार्जित संस्कृत भाषा से, जिस पर सिर्फ ब्राह्मणों का नियंत्रण था, निकाल कर लोक  भाषा में लोक सुलभ कराया जाए. यह एक ही साथ ज्ञान, भक्ति और भाषा का लोकतंत्र रचने का प्रयास था जो सत्य सम्बंधित गूढ़ चिंतन को ब्राह्मणों और अभिजात के नियंत्रण से निकाल कर वर्ण, जाति और लिंग के विभाजनों को अस्वीकार करते हुए जन जन तक पहुंचाने का माध्यम बना.  वह भी तब, जब उस जन भाषा का कोई साहित्यिक अस्तित्व नहीं था. इससे ज्ञान के वे सीमान्त भी खुल गए जो तब तक ब्राह्मणों के अलावा स्त्रियों और अन्य जातियों के लिए वर्जित थे. और इसका मुख्य कारण था कि वेद उपनिषद आदि शास्त्रों की रचना देव भाषासंस्कृत में हुई थी जिस पर सिर्फ ब्राह्मणों का नियंत्रण हुआ करता था. प्रवचन करना समकालीन श्रोताओं का निर्माण करता है जब कि लिखित पाठ भविष्य के पाठकों तक पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँच कर एक नए और विस्तृत क्षितिज का निर्माण करता है.

यह बोली गई भाषा के मर्त्य रूप को लिखी हुई भाषा के अमर्त्य रूप में रूपांतरित करता है. संत ज्ञानेश्वर का लोक भाषा में काव्य रचने का यह संकल्प मराठी साहित्य के बीज बोने का ऐसा ही प्रयास था. यह काव्य सिर्फ इसलिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसमें जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, वह तब साहित्य के रूप में बिलकुल नई थी बल्कि इसलिए भी कि इसी नई भाषा में काव्य की अद्भुत संभावनाओं और अर्थों का विस्तार कर कवि ने उसे नई शक्ति और वह अर्थवत्ता प्रदान किया जो आज भी मराठी साहित्य का पोषण कर रही है. अनुभवामृतसंभवतया ज्ञानेश्वरीके बाद रचा गया था और संभवतया इसका रचना काल सन 1296में संत ज्ञानेश्वर द्वारा 22वर्ष की आयु में पुणे के पास स्थित आलंदी में ली गई संजीवन समाधि के ठीक पहले का है. ज्ञानेश्वर की इस जीवंत समाधि का वर्णन संत नामदेव रचित श्री ज्ञानदेव समाधी वर्णनममें मिलता है. संत नामदेव ज्ञानेश्वर के समकालीन तो थे ही उनके सहयोगी, साथी और शिष्य भी थे.

मान्यताओं के अनुसार वे संत ज्ञानदेव द्वारा ली गई जीवंत समाधि के प्रत्यक्षदर्शी भी थे. कुछ विद्वान इससे सहमत नहीं हैं क्योंकि उनके अनुसार संत नामदेव का जन्म 1306ई. में हुआ था जो ज्ञानदेव की समाधि के 10वर्ष बाद का समय है. नामदेव ने संत ज्ञानेश्वर की समाधि के बाद उनके दो भाई और बहन, क्रमशः, निवृत्तिनाथ, सोपानदेव और मुक्ताबाई के भी समाधि लेने का वर्णन किया है.

भारत के उत्तर में स्थित कश्मीर में 8वीं- 9वीं शताब्दी में कश्मीरी शैव दर्शन के आविर्भाव का असर भारत के दक्षिण पश्चिम इलाकों में चार शताब्दी बाद कैसे पहुँचा, इस पर कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है. इसे एक तरफ वर्षों तक होने वाले संतों और लोगों के आवागमन से जोड़ कर देखा जा सकता है, वहीं दूसरी तरफ कुछ नाथ मतानुयायियों के अनुसार, यह उसी परम सत्य तक पहुँचने की बात है, जिस तक कश्मीरी संत अपने ढंग से पहुंचे और नाथ सिद्ध अपनी तरह से. क्योंकि सत्य एक ही है और सिर्फ वही है, इसीलिए जब भी कोई सत्य की बात करेगा वह वही कहेगा जो विश्व में कहीं भी उस सत्य तक पहुँचा हुआ कोई भी व्यक्ति करेगा. इसलिए, इसे दो अलग अलग देश काल में हुए स्वाधीन शोध की तरह ही देखा जाना चाहिए. नाथ पंथ के अनुसार, यह ज्ञान मत्स्येन्द्रनाथ को तब मिला जब वे मत्स्य रूप में उस ताल में तैर रहे थे जिसके पास आदि गुरु शिव आदि शिष्या पार्वती को परम सत्य का ज्ञान दे रहे थे. कथाओं के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ ने मत्स्य रूप में रहते हुए उस ज्ञान को सुना और उसे आत्मसात कर लिया. उनके द्वारा यह ज्ञान उनके अनुयाइयों तक पहुँचा और फिर यही नाथ पंथ के लिए परम ज्ञान का स्रोत बना.


संत ज्ञानदेव नाथ सिद्ध थे जिन्हें अपने बड़े भाई निवृत्तिनाथ से दीक्षा प्राप्त हुई थी. निवृत्तिनाथ को गहिनीनाथ से दीक्षा मिली थी जो खुद उस आध्यात्मिक परम्परा के थे जिसका प्रादुर्भाव गोरखनाथ से हुआ माना जाता है.  

लेकिन अपने चिंतन और स्वभाव में कश्मीरी शैव मत और नाथ शैव मत सामान हैं. नाथ सिद्धों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान अनुभवामृतमें काव्य रूप में प्रकट हुआ है. यह ज्ञान ब्रम्हांड को एक चैतन्य ऊर्जा की तरह देखता है जो शाश्वत, स्वतंत्र और सृजनशील है. वह अपनी इच्छा से प्रेरित होता है और उसी के आनंद में सृजनशील होता है. यह सृष्टि उसी चैतन्य का खेल है, विलास है, उसका चिद्विलासहै. आधुनिक युग में Quantum Physics के तथा अन्य कई विषयों के विद्वान इसे ‘Nature’, ‘Cosmic Intelligence’, ‘Cosmic Consciousness’ आदि नामों से संबोधित करते हैं. इन मान्यताओं के अनुसार भी एक विस्फोट (Big Bang) से ही ब्रम्हांड की उतपत्ति हुई है और उसका विकास एवं संचालन ऊर्जा से होता है, ऐसी ऊर्जा जो ‘intelligent’ है, चैतन्य है.

सभी पदार्थ के मूल में अणु परमाणु के बाद भी यदि कुछ है तो वह है एक धडकती हुई ऊर्जा. कुछ लोग इसे उसी ब्रम्हाण्डीय ऊर्जा से जोड़ कर देखते हैं जो चैतन्य है और समस्त सृष्टि को चला रही है. इस विषय पर अभी कई विवाद हैं तथा सृष्टि के मूल में क्या है, इस बात पर आधुनिक विज्ञान अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया है. यहाँ तक कि ‘Big Bang’ के सिद्धांत पर भी वैज्ञानिकों में मतभेद है. अतः चैतन्यम आत्माके शिव सूत्र के पहले सिद्धांत को अभी भी एक धार्मिक दर्शन ही माना जता है जिसे कल्पना और मिथक के वर्ग में रखा जाता है.

विषय पर लौटते हैं.

शैव मत ने एक और एक मात्र परम चैतन्य की धारणा को प्रतिपादित किया जिसे शिवकी संज्ञा दी गई. शिव एक समाधिस्थ चैतन्य है. वह निष्कंप चेतना है. आत्मावलोकन की प्रेरणा से उसकी चेतना उसमें शक्ति को जन्म देती है जो शिव को उसके समाधिस्थ संकुचन की अवस्था से निकाल कर उसका प्रसार करने लगती है और इसी तरह सृष्टि का सृजन होता है. संत गोरखनाथ के अनुसार, “प्रसारम भाषयेत शक्ति: संकोचम भाषयेत शिव:.यह सृष्टि शिव और शक्ति के योग से बनती और प्रसार पाती है. शिव अकल्पनीय आयामों का शाश्वत आत्म है. शिव निष्कंप चेतना है जिसका प्रसार शक्ति द्वारा होता है. शक्ति प्रसार में व्यक्त होती है और शिव संकुचन में. प्रसार उन्मेषतथा संकुचन निमेषहै. प्रसार और संकुचन का यह चक्र स्पंदकहलाता है. शिव और शक्ति के इस उन्मेष और निमेष को ज्ञानेश्वर ने एक अपृथक, अविभाज्य देह के रूप में वर्णित किया है जो बेतहाशा, बेसुध, बेलगाम मैथुन में निरंतर मग्न है. यह एक शास्वत मैथुन है. इस शास्वत मैथुन के अविरत वेग की तीव्रता में प्रेमी एक दूसरे को निगलते उगलते रहते हैं. यह क्रिया अनादि अनंत और शास्वत है. यही वह धड़कता हुआ अनादि स्पंदन है जो सृष्टि का निर्माण, प्रसार और विध्वंस करता रहता है. शिव और शक्ति एक दूसरे से अलग नहीं वरन एक ही देह हैं. शिव निष्कंप है जिसमें सृष्टि की इच्छा उसमें निहित शक्ति को उभार देती है और शक्ति धड़धड़ाती हुई शिव का प्रसार कर उठती है.

परम चेतना (परम चैतन्य) इस तरह अपनी सृजनात्मक ऊर्जा का विस्तार पाते हुए आनंदित होती है. यही आनंद सृष्टि का मूल स्वभाव है. अतः सृष्टि के अन्य घटकों की तरह ही यह मनुष्य का भी मूल स्वभाव है. यही कारण है कि मनुष्य हमेशा आनंद की तरफ जाना चाहता है, आनंद की खोज में रहता है, जो उसका मूल स्वभाव है. इस परम आनंद का परम बोध उसे तब प्राप्त होते ही उसे इस बात की अनुभूति होने लगती कि वह भी शिव है; वह शिव ही है, अन्य कुछ भी नहीं.

शक्ति से स्पंदित शिव के प्रसार में, प्रसार के आनंद में, शिव अलग अलग तत्त्व, द्रव्य और रूप ग्रहण करता चला जाता है, जिसके अणु, परमाणु रूप के बाद भी वह ऊर्जा रूप में हर अणु, हर परमाणु और उसके बाद की हर अवस्था में मौजूद रहता है. प्रसार के इच्छित चरम पर पहुँच कर शिव खुद को खुद में समेट लेता है, संकुचन की तरफ प्रेरित होता है और शक्ति को समेट लेता है और तब शिव सिर्फ चैतन्य रूप में रह जाता है. सृष्टि का लोप हो जाता है. इस आधार पर यह कहा जाता है कि शिव में शक्ति, शक्ति में शिव है. शक्ति में निहित शिव में भी शक्ति है और उस शक्ति में भी शिव है. दोनों अपृथक हैं, एक दूसरे में कुछ इस तरह अवस्थित हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता. वे दो नहीं हैं, एक हैं, उनमें अद्वैत है. यही शिवाद्वैतहै. अतः यह सृष्टि शिव यानि परम चैतन्य का आनंद है, उसकी क्रीड़ा है. इसीलिए समस्त सृजन को चिद्विलास भी कहते हैं.

यह शिव के विलास का, उसकी इच्छा और आनंद का प्रतिफलन है. सृष्टि मात्र शिव है, आनंद है. सब कुछ केवल और केवल शिव है. यही अद्वैत है, चरम और परम सत्य है. शिव से परे कुछ भी नहीं, उसके बाद कुछ भी नहीं है. यह कुछ नहींभी शिव ही है. यही अनुत्तरहै. शिवाद्वय के इस अपृथक अविभाज्य रूप को मैथुन रत अवस्था में भाषित करते हुए ज्ञानेश्वर ने अद्भुत काव्य सृष्टि की है जिसमें श्रृंगार, अद्भुत, रौद्र और शांत रसों का प्रगल्भ संयोजन हुआ है. इस सम्पूर्ण अनुभव के सत-चित-आनंद, सच्चिदानंद को उन्होंने अनुभवामृतका नाम दिया है.


अनुभवामृतपर अंग्रेज़ी में लिखे अपने एक अप्रकाशित और अधूरे लेख में दिलीप चित्रेके अनुसार, “अनुभवामृत की पहली 64  ओवी शिवाद्वयकी काम-रत धारणा पर केन्द्रित है जिसमें ईश्वर को मनुष्य देह में दर्शाया गया है, एक ऐसी देह जिसमें स्त्री पुरूष एक ही साथ हैं, अलग नहीं. यह देह लगातार दोलन की अवस्था में है जिसमें देह का एक हिस्सा दूसरे पर हावी होने को उद्धत रहता है. ज्ञानदेव ने यहाँ बेसुध, बेकाबू, बेतहाशा और तीव्र गति से चल रहे अनंत मैथुन के रूपक का प्रयोग किया है जो यदि दिव्य और अनादि सन्दर्भों में नहीं होता तो यह मर्यादाओं का जघन्य उल्लंघन होता. अनुभवामृतकी शुरुआती ओवी को यौनिक क्रियाओं का, जिसमें तमाम काम केलियाँ, मुख मैथुन और लैंगिक मैथुन आदि समाहित हैं, निर्भीक (निर्लज्ज भी) वर्णन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. काम-रत यह युगल कई बार कामोत्कर्ष (orgasm) का अनुभव करता है पर पृथक  नहीं होता. वह शाश्वत रूप से आपस में गुंथा रहता है. ऐसा करते हुए ज्ञानदेव दरअसल कश्मीरी शैव दर्शन के पहले सिद्धांत को प्रतिपादित करते है जिसके अनुसार शिव और शक्ति अविभाजित- अपृथक हैं और लगातार अनत:क्रिया-मग्न रहते हैं.

शिव सूत्र का पहला सूत्र है : चैतन्यम आत्माजिसमें चेतना शक्ति और आत्मा शिव है. प्रथम स्पन्द्कारिका के अनुसार शिव को शक्तिचक्रविभवप्रभावमकी तरह वर्णित किया गया है. ज्ञानदेव चैतन्यकी व्याख्या शक्ति या प्रेयसी के रूप में और आत्माकी प्रेमी या शिव के रूप में करते हैं. इच्छा के धड़धडाते वेग को वे शिव की इच्छाऔर उसके स्वातंत्र्यके रूप में व्याख्यायित करते हैं. अनुभवामृतकी 29-31ओवी में ज्ञानेश्वर शक्तिचक्रविभवप्रभावमकी व्याख्या करते हैं जिसका सार है कि शक्ति अपने स्वामी को अपनी देह में धारण करती है और उसी से सहज आनंद के वेग में फूटती है. इस बात से लज्जित कि उसका स्वामी कहीं नजर नहीं आता वह सृष्टि को उसके अलग अलग नामों और उसके अलग अलग रूपों में आभूषण स्वरुप धारण कर लेती है. अपने मिलन को सीमित पा कर वह अपनी कामनाओं का राग और उमंग से अपनी प्रचुरता में उत्सव करती है. (दिलीप चित्रे के अंग्रेज़ी में काव्यानुवाद “Anubhavamrut, The Immortal Experience of Being, pg. 28पर आधारित). 


शंकर (समकर) प्रकाश का आदिम स्पंद है जिससे तरंग रूप में प्रवाहित शक्ति ऊर्जा के अनगिन रूपों का तेज बुनती प्रसारित होती है. शक्ति शिव का अनवरत प्रस्फुटन है और यही आदिस्पंदका मूल रूप है. अपने अनादी निस्पंद रूप के अतल से शिव में आत्मावलोकन की इच्छा प्रेरित होती है. शिवात्म एक ही साथ वस्तु भी बन जाता है और खुद उसका साक्षी भी हो जाता है. यहीं से उस दिव्य कामेक्षा का उद्भव होता है और शक्ति शिव का प्रसार करने लगती है. शिव विविध रूप धारण करने लगता है. ये सभी रूप शिव के आत्म का ही प्रक्षेप हैं. ये प्रक्षेप शिव का उन्मेषहैं शक्ति जिसका विमर्शहै.

अपने आत्मसे बेसुध शिव शक्ति को अपने अस्तित्व की छोर तक ले जाना चाहता है लेकिन शिव का कोई छोर नहीं है, इसकी भिज्ञता आते ही कि सब कुछ अनंत शिव है, शिव खुद को खुद में समेट लेता है और अनादि चैतन्य के स्पंद में संकुचित हो जाता है. ज्ञानेश्वर इस निमिषोन्मेषको शिव-शक्ति की दो ध्रुवीय अनवरतता के रूप में वर्णित करते हैं जो प्रबल काम के आवेग में संलिप्त हो कर सृष्टि को आकार दे रहा है. ऐसा करते हुए वे वास्तव में बताते है कि भक्ति और भक्त एक ही हैं. भक्त शिव है और भक्ति शक्ति है. इस तरह भक्त ही भक्ति भी है. शिव और शक्ति सब उसी परम चैतन्य शिव के रूप हैं. यह अनवरत प्रेमानंद ही सृष्टि का स्वरुप है और यही भक्त और भक्ति का, शिव और शक्ति का अद्वैत है. यही है शिवोहमऔर यही है प्रत्ययाभिज्ञता’. यही है वह सामरस्यताजो प्रेमी एक दूसरे को पाते हुए अपने अहं को विलीन करते हुए परम आनंद की अवस्था में पाते है.

इस दर्शन के अनुसार शिव ही सम्पूर्ण सृष्टि है और इस सृष्टि का हर एक अवयव स्पंदसे जुड़ा हुआ है. स्पंद से परे कुछ भी नहीं है. शिव शक्ति को शास्वत प्रेम में रमे एक अविभाज्य शरीर की तरह कल्पित करते हुए ज्ञानेश्वर ने स्पंद को उनके शास्वत मैथुन के रूप में रूपायित किया है. उनकी दृष्टि में (यह शैव  दर्शन से ही प्रभावित दृष्टि है) सृष्टि उस दिव्य प्रेम और विलास की लगातार बदलती, अनगिनत रूप लेती सृजनात्मक आत्माभिव्यक्ति है. यही चिद्विलासहै, ‘समकरकी वह अवस्था है जो जीवनमुक्तप्राप्त करता है. ईश्वर प्रेम है और प्रेम से परे कुछ भी नहीं. भक्ति उसी प्रेम के पूर्णत्व की प्राप्ति है.
प्रेम का यह पूर्ण विश्व ही कविता और कला की पूर्ण शिव-स्वरूप अभिव्यक्ति है. ज्ञानदेव के लिए यह पूरी सृष्टि शिव का चिद्विलास है, और कविता का उत्कृष्टतम स्वरुप भी चिद्विलास ही है. इसे यूँ भी व्याख्यायित किया जा सकता है कि सृजन के क्षण में कवि भी उसी सर्वव्यापी शास्वत चैतन्य से आत्मा के स्तर पर सामरस्य की अवस्था में आ जाता है. वही आदि स्पंदऔर वही चैतन्य कविता के सृजन का आधार है. अतः जिस कविता ने उस आदि स्पंदको छू लिया वह उस चिद्विलास से एकीकृत हो जाती है. ज्ञानेश्वर ने कविता को उसी समकरी विद्याया शंकरी विद्याके चरम स्थल तक पहुँचा कर कविता को चिद्विलास के रूप में प्राप्त कर लिया.

इसकी समझ ही हमें संत ज्ञानदेव और संत तुकाराम की कविताओं के मर्म तक पहुँचा सकती है. यही वह प्रस्थान बिंदु या नाभि स्थल है जहाँ से परवर्ती मराठी कविता का उद्गम स्थल सृजित होता है. इस लिहाज से, ‘अनुभवामृतन केवल शिवानुभूति या आत्म साक्षात्कार पर आधारित काव्य है, बल्कि अपने कवित्व के उद्दाम शिखर पर गूँजताआने वाले समय की मराठी कविताओं का आधार भी है.



(2)

संत तुकाराम (1608-1650) का जन्म वर्तमान पुणे जिले के अनतर्गत देहू नामक स्थान पर एक धनाढ्य वैश्य परिवार में हुआ था जो कृषक था और कृषक उत्पादों के व्यापार के अलावा ब्याज पर ऋण भी दिया करता था. राज्य व्यवस्था ने उनके पूर्वजों को गाँव के महाजनका पद दिया था जिस पर बाद में तुकाराम भी आसीन हुए. किशोरावस्था में विवाहोपरांत वे एक गृहस्थ जीवन बिताते हुए एक बड़े संयुक्त परिवार का भरण पोषण कर रहे थे. कुछ समय बाद उनका दूसरा विवाह भी हुआ जिससे उनकी सांसारिक जिम्मेदारियाँ और भी बढ़ गईं. सन 1620के दशक में लगातार तीन वर्षों तक पड़े भयानक अकाल ने उनके जीवन की गति और दिशा को बदल दिया. अकाल के दौरान लोगों को भूख से बचाने के लिए उन्होंने अपने अनाज का भंडार खोल दिया, जब वह भण्डार ख़तम हो गया तो उन्होंने अपनी संपत्ति गिरवी रख कर अनाज का प्रबंध किया और भूखे लोगों में बाँट दिया. लेकिन हालात नहीं सुधरे और लोग भूख से मरते ही चले गए, उनकी संपत्ति ख़त्म हो गई और अब उनके पास अपने परिवार को भोजन देने लायक कुछ भी नहीं बचा. भूख से तड़प कर उनकी पहली पत्नी की भी मृत्यु हो गयी और गिरवी पड़ी संपत्ति को छुड़ा पाने की उनकी असमर्थता की वजह से महाजनका पद भी छिन गया.

अब पूरे गाँव में उनकी थू थू हो गई. हताशा में वे बिलकुल चुप हो गए और लोगों से कतराने लगे. घंटों एकांत में बैठे तुकाराम का जी जीवन से ऊचाट होने लगा और वे अंतर्मुख हो गए. दुनियादारी से विमुख, वे अपनी गृहस्थी भी भूल गए और हर तरफ से तिरस्कृत होने लगे. अपने इर्द गिर्द इतनी मृत्यु, दुःख दर्द, असफलता, बीमारी और कष्ट की स्थितियों से हुए घोर संताप और निराशा में वे अपने कुल देवता विट्ठल की तरफ मुड़े और प्रार्थना करने लगे. विट्ठल ने संत नामदेव के साथ उनके स्वप्न में प्रकट हो कर उन्हें आदेश दिया कि तुम कवितायें (अभंग) लिखो, वही तुम्हारा असली पेशा है. इन बेकार की चीज़ों में मत रमो. उन्हें यह भी कहा गया कि नामदेव ने संकल्प किया था कि वे विट्ठल के लिए 10लाख अभंग लिखेंगे लेकिन वे उस संकल्प को पूरा नहीं कर पाए. इसलिए, बाकी अभंगों को लिखने का काम तुकाराम को स्वप्न में विट्ठल ने सौंप दिया. इस स्वप्न के बाद तुकाराम कहीं निकल गए और कई दिनों के बाद पुनः प्रकट हुए. अब वे कवि थे और कविता के माध्यम से वे विट्ठल से सीधा संवाद करते थे. इस बात से विचलित ब्राह्मणों के एक वर्ग ने उन्हें कविता करने से मना किया और उनके लिखे को धृष्ट कर्म बताते हुए उनकी कविताओं को इंद्रायणी नदी में डुबो दिया.

उन्होंने तुकाराम से कहा कि यदि विट्ठल सचमुच तुमसे संपर्क में हैं तो अब इन्हीं डुबोई गई कविताओं को वापस ला कर दिखाओ. व्यथित तुकाराम अन्न-जल त्याग कर वहीं इंद्रायणी नदी के किनारे बैठ गए और जिद से भर कर विट्ठल की प्रार्थना करने लगे कि अब तो तुम्हें ही सम्हालना होगा. अब प्रतिष्ठा का सवाल है. तुम अब जब तक वे कवितायें वापस नहीं लाओगे, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा. कथाओं के अनुसार तुकाराम इंद्रायणी के तट पर 13दिनों तक अन्न-जल का त्याग कर बैठे रहे और अंत में अचानक वे सभी कवितायें नदी की सतह पर उभर कर तैरने लगीं. वे उसी रूप में वापस आ गईं जिस रूप में डुबोये जाने के पहले वे थीं. इस घटना ने उनकी ख्याति चहुँ ओर फैला दिया. अब वे संत तुकाराम थे. वे आजीवन सिर्फ और सिर्फ कविताएं ही लिखते और गाते रहे जो आज भी लोक परम्पराओं में और श्रुतियों में उपलब्ध मिलती हैं. नदी से प्राप्त हुई कविताओं की घटना का जिक्र उनकी कविता में भी मिलता है.

ऐसा माना जाता है कि सन 1650ई  के किसी एक दिन वे अचानक कहीं गायब हो गए और फिर कभी किसी को नज़र नहीं आये. उंनका क्या हुआ, इसकी जानकारी किसी को नहीं है, हाँ उनसे जुड़ी कई कथाएं लोक मानस में अवश्य दर्ज हैं. वारकरी सम्प्रदाय में प्रचलित मान्यता के अनुसार उस दिन खुद विट्ठल उन्हें लेने आये थे और रोशनी से सजे एक रथ पर उन्हें वे अपने साथ ले गए. कुछ लोगों का मानना है कि विट्ठल के गीत गाते गाते तुकाराम सूक्ष्म हवा में विलीन हो गए. एक अन्य मत के अनुसार उन्होंने नदी में डूब कर अपना प्राण त्याग दिया. कुछ विद्वानों ने यह भी शंका प्रकट किया है कि संभवतः ब्राह्मणों ने उनकी हत्या करवा दिया था. लेकिन किसी भी एक वजह पर कोई मतैक्य नहीं है. आजीवन कविता लिखने वाले इस संत कवि ने कितनी कवितायें लिखी है इस पर कोई मतैक्य नहीं है. विद्वानों का मत है कि उन्होंने जीवन में 5000से 8000तक कविताओं/ अभंगों की रचना की जिनमें अब कुछ ही कवितायें उपलब्ध हैं. दिलीप चित्रे ने तुकाराम की कविताओं का अनुवाद ‘Says Tuka’ शीर्षक से किया है जिसमें उनकी 750कविताओं/अभंगों का अनुवाद है. 



तुकाराम की कविताओं/ अभंगों की विशेषता है उनका ईमानदार आत्म कथन. वे कवि बनने से पहले भी एक समर्पित सत्यवादी माने जाते थे और अपना व्यापार भी पूरी ईमानदारी से किया करते थे. विट्ठल से आदेश मिलने के बाद उनकी तकलीफ और भी बढ़ गई कि जिस विट्ठल की उन्हें अनुभूति ही नहीं हुई है, वे उनके बारे में क्या और कैसे लिखेंगे. अपनी इस समस्या को उन्होंने अपने अभंगों में बहुत स्पष्ट जगह दी है. जैसे जैसे विट्ठल की उन्हें अनुभूति होने लगी वैसे वैसे उन्होंने और भी सघन काव्य की रचना की.



उनका काव्य ईमानदार आत्म कथन है जिसमें वे अपने जीवन और समय की सभी स्थितियों और संकटों का ब्यौरा देते हैं और उन्हीं ऐहिक स्थितियों के बीच वे पारलौकिक सत्य को ढूँढ लेते हैं.  वे अस्तित्व के ईश्वरीय अनुभव की खोज करते हैं जिसमें आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ का भेद, व्यक्ति और विश्व का भेद घुल जाता है , ‘नाहीस’ (चित्रे की कविताओं में आया नाहीसाशब्द) यानि नहीं-साहो जाता है, मिट जाता है. वे अपनी चेतना को एक ब्रम्हांडीय और वैश्विक घटना की तरह देखते हैं जिसकी जड़ रोज मर्रा के जीवन में गहरे धँसी हुई है लेकिन जो बोध की अनंतता तक फैला हुआ है जो अणु से भी लघु और आकाश से भी व्यापकहै. 

दिलीप चित्रे ने उन्हें मध्यकालीन और आधुनिक मराठी काव्य के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की तरह देखा है और यह भी स्थापना की है कि संत तुकाराम में आधुनिक कविता के सभी तत्त्व मौजूद थे. उन्होंने भक्ति को ही एक अस्तित्ववादी आयाम दे दिया है जिसमें भाव और चिंतन का अद्भुत सामंजस्य है. उनकी कविताओं में आधुनिक मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न, उसके उल्लास और संकट, पीड़ा, घुटन और संत्रास, उसके भय और उसकी व्याग्रताएं, दुःख दर्द, विषाद, और सुख शान्ति की चाह के बीच छटपटाता मनुष्य, सभी एक गूढ़ विनोदकी तरह आते हैं. स्वतंत्रता जहाँ अस्तित्व के आत्मनिर्धारण की स्वतन्त्रता है, वैसी जीवन स्थिति की चाह भक्ति काव्य के माध्यम से उनकी कविताओं में व्यक्त होती रही है.

उनका काव्य ऐहिक विश्व की रोज मर्रा की समस्याओं, मानव स्थितियों के चित्रण, जीवन के प्रति दार्शनिक बोध और इन सबके जरिये रचा एक अद्भुत काव्य है जो सतह के नीचे बहुत ही गहरी अर्थ छवियों और गंभीर चिंतन लिए बहता चला जाता है. चित्रे ने तुकाराम को विरोधाभासों का कवि बताते हुए कहा है कि वे ऐहिक अनुराग के योगी हैं, वे ऐसे घनघोर भक्त हैं जो अपने ईश्वर की प्रतिमा को भी प्रेम में डूब कर तोड़ सकता है, जिसे यह बोध है कि वह अपने भाव और अपने काव्य का अधिपति है. चित्रे ने तुकाराम को एक आधुनिक अस्तित्ववादी कवि कहते हुए उन्हें भारतीय काव्य के लिए अग्रेज़ी काव्य में शेक्सपीयर और जर्मन काव्य में गेथे के समतुल्य माना है.  



संत कवियों का काव्य आज भी लोक मानस में श्रुतियों के रूप में बसा हुआ है. मराठी समाज में श्रुतियों के रूप में लोक काव्य के अन्य स्वरुप भी मिलते हैं, मसलन, ‘ओवी’. ‘ओवीएक प्रकार का लोक छंद है जिसे महिलायें अक्सर घरेलू काम करती हुई, जाँता (चक्की) चलाती हुई, चावल चुनती हुई, या एक समूह में कोई भी काम करती हुई गाती गुनगुनाती हैं. ओवीछंद का प्रयोग संत कवियों के काव्य में भी प्रचुर मात्रा में हुआ है. ओवीके अलावा पोवड़ाया पावड़ा भी एक प्रकार का लोक काव्य है जिसे साहिरगाते हैं. साहिर उत्तर भारत में पाए जाने वाले चारण कवियों की ही तरह राजाओं की प्रशंसा और उनकी विरुदावली गाने वाले कवि हैं. आज के सन्दर्भ में इसे राजनैतिक नारे बाजी के गीतों के रूप में उपलब्ध माना जा सकता है.


इसी तरह लोक काव्य लावणीऔर तमाशाके रूप में भी अभिव्यक्त होता है. ये दोनों ही काव्य को गीत और नृत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं और किसी घटना का विवरण करते हैं. इनकी छटा में एक अल्हड़पन, मस्ती और ठेठ किस्म की खुरदुरी रूमानियत होती है जो यौनिक अभिप्रायों से भरी होती है. इरॉटिकबिम्ब कभी सांकेतिक तो कभी प्रकट रूप से इन दोनों माध्यमों में पाए जाते हैं. इन्हीं माध्यमों से मराठी लोक थियेटर का विकास हुआ है जो आगे चल कर नाट्यशास्त्र और पश्चिमी थिएटर के मिले जुले प्रभावों से आज के मराठी रंगमंच और माराठी सिनेमा और यहाँ के ‘‘पॉपसंगीत का स्वरुप और आकार तय करता है.


कुल मिला कर जहाँ संत ज्ञानेश्वर ने भाषा, काव्य, ज्ञान और भक्ति को शास्त्रों की जकड़ से मुक्त कर उसका लोकतांत्रिकरण कर, लोक भाषा में पहला साहित्य रचा और ईश्वर और भक्ति को जन-सुलभ करते हुए सामंतवादी परिपाटी से विद्रोह कर आधुनिक मानवतावाद का बीज बोया, वहीं संत तुकाराम ने कविता में ईमानदार आत्मकथन और रोज- मर्रा के जीवन और उसकी समस्याओं को ईश्वर से संवाद के रूप में प्रमुख स्थान दिया. महाराष्ट्र का पूरा का पूरा भक्तिकाव्य ही सामंतवाद से विद्रोह कर आम जनता की महत्ता को स्थापित करता है और रोज रोज के जीये जीवन को अपने काव्य में प्रमुख स्थान देता है. आधुनिक कविता में आने वाले ये तत्व मराठी भक्तिकाव्य में बहुत पहले से मौजूद रहे हैं.

_________________
तुषार धवल

22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)
पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद
दिलीप चित्र की कविताओं का हिंदी में अनुवाद
कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनयचित्रकला और छायांकन में भी रूचि

सम्प्रति : भारतीय राजस्व  सेवा में
tushardhawalsingh@gmail.com

प्रमोद पाठक की कविताएँ

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डिजिटल माध्यम में हिंदी साहित्य को सुरुचि के साथ समृद्ध करने वालों में मनोज पटेल प्रमुखता से शामिल हैं. छोटे से कस्बे में अपने सीमित संसाधनों से विवादों और साहित्य की कूटनीति से दूर रहकर वह कविताओं और सार्थक गद्य को करीने से  प्रस्तुत करने का कार्य अनथक करते रहे. यह बड़ी बात है. अनका असमय अवसान भारी क्षति है. 
युवा कवि  प्रमोद पाठक की ये कविताएँ मनोज पटेल को समर्पित हैं. 

“मैंइनकविताओंकोमनोजपटेलकोसमर्पितकरनाचाहताहूँ. उन्होंने दुनिया भर कीकविताओंसेपरिचयकरवायाथा. आजसुबहमुझेउनकेरहनेकीखबरमिलीतब सेमनबेचैनहै. ऐसाकमहीहोताहैकि आपअनजानेकिसी के लिए इतनेबेचैनहों. लेकिन कुछथाजोउनकामुझपरदेयथा. शायदयहदुनियाभरकीकविताकाधागाथाजोउनसेबांधताथा. ऋणीहोनेकीएकबैचेनीहैजिसकाकुछअंशअदाकरनाचाहताहूँ.उनकेअनुवादोंसेकविताभाषाकोलेकरबहुतकुछसीखनेकोमिलाहै.
प्रमोद पाठक




प्रमोद पाठक की कविताएँ



जिद जो प्रार्थना की वि‍नम्रता से भरी है 
आसमान को हरा होना था

लेकिन उसने अपने लिए नीला होना चुना

और हरा समंदर के लिए छोड़ दिया

समंदर ने भी कुछ हरा अपने पास रखा
और उसमें आसमान की परछाई का नीला मिला
बाकी हरा सारा घास को सौंप दिया
घास ने एक जिद की तरह उसे बचाए रखा
एक ऐसी जिद जो प्रार्थना की वि‍नम्रता से भरी है






मकड़ी



मनुष्य ने बहुत बाद में जाना होगा ज्यामिति को

उससे सहस्राब्दियों पहले तुम उसे रच चुकी होगी

कताई इतनी नफीस और महीन हो सकती है

अपनी कारीगरी से तुमने ही सिखाया होगा हमें
तुम्हें देख कर ही पहली बार आया होगा यह खयाल
कि अपने रहने के लिए रचा जा सकता है एक संसार

अंत में तुम्हीं ने सुझाया होगा यह रूपक कि संसार एक माया जाल है.




 रेल- 1.


इस रेल में उसी लोहे का अंश है

जिससे मेरा रक्त बना है

मैंने तुम्हारी देह का नमक चखा
उस नमक के साथ तुम्हारा कुछ लोहा भी घुल कर आ गया
अब इस रक्त में तुम्हारी देह का नमक और लोहा घुला है
इस नमक से दुनिया की चीजों में स्वाद भरा जा चुका है और लोहे से गढ़ी जा चुकी हैं इस रेल की तरह तमाम चीजें
मैं तुम्हारे नमक का ऋणी हूँ और लोहे का शुक्रगुजार
अब तुम इस रेल से गुजरती हो जैसे मुझसे गुजरती हो
अपने नमक के स्वाद की याद छोड़ जाती
अपना लोहा मुझे सौंप जाती
मेरा बहुत कुछ साथ ले जाती.




रेल- 2.



रेल तुम असफल प्रेम की तरह मेरे सपनों में छूट जाती हो हर रोज...




नागफनी -1


(के. सच्चिदानंदन की कविता 'कैक्‍टस 'को याद करते हुए )



रेगिस्‍तान में पानी की

और जीवन में प्‍यार की कमी थी

देह और जुबान पर काँटे लिए
अब नागफनी अपनी ही कोई प्रजाति लगती थी
कितना मुश्किल होता है इस तरह काँटे लिए जीना
कभी इस देह पर भी कोंपलें उगा करती थी
नर्म सुर्ख कत्‍थई कोंपलें
अपने हक के पानी और प्‍यार की माँग ही तो की थी हमने
पर उसके बदले मिली निष्‍ठुरता के चलते ना जाने कब ये काँटों में तब्‍दील हो गईं  

आज भी हर काँटे के नीचे याद की तरह बचा ही रहता है
इस सूखे के लिए संचित किया बूँद-बूँद प्‍यार और पानी
और काँटे के टूटने पर रिसता है घाव की तरह.

  

नागफनी -2

समय में पीछे जाकर देखो तो पाओगे
मेरी भाषा में भी फूल और पत्तियों के कोमल बिंब हुआ करते थे
मगर अब काँटों भरी है जुबान 

ऐसे ही नहीं आ गया है यह बदलाव
बहुत अपमान हैं इसके पीछे
अस्तित्‍व की एक लंबी लड़ाई का नतीजा है यह
बहुत मुश्किल से अर्जित किया है इस कँटीलेपन को

अब यही मेरा सौंदर्य है
जो ध्‍वस्‍त करता है सौंदर्य के पुराने सभी मानक.






चाँद

रात के सघन खेत में खिला फूल है पूनम का चाँद
अपना यह रंग सरकंडे के फूल से उधार लाया है


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प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्‍चों के लिए भी लि‍खते हैं. उनकी लि‍खी बच्‍चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्‍चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्‍था 'रूम टू रीडद्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताएँ चकमकअहा जिन्‍दगीप्रतिलिपीडेली न्‍यूज आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्‍चों के साथ रचनात्‍मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं.
सम्पर्क :
27 एएकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगरदुर्गापुराजयपुर302018/राजस्‍थान

मो. : 9460986289
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प्रमोद पाठक  की कुछ कविताएँ यहाँ  पढ़ें, और यहाँ  भी

प्रवास में कविताएँ : सीरज सक्सेना

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हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि पेंटिग और अन्य ललित कलाओं में रूचि रखते हैं.  उनकी कविताओं में ललित कलाओं के प्रभाव देखे जा सकते हैं. ऐसे कवियों की इस तरह की कविताओं के संकलन का विचार बुरा नहीं है.

कई प्रसिद्ध चित्रकार, आर्टिस्ट हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. इसे भी रेखांकित किया जाना चाहिए. समालोचन में ही आपने जगदीश स्वामीनाथनकी कविताएँ और अखिलेशके गद्य पढ़े हैं. 

आज चित्रकार और सिरेमिक आर्टिस्ट सीरज सक्सेना की कविताएँ ख़ास आपके लिए, सीरज सक्सेना पोलैंड प्रवास पर हैं और ये कविताएँ वहीं से अंकुरित हुई हैं. ललित कलाकारों की कविताओं के संकलन का विचार भी अच्छा है.
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“अमूमन यात्रा के दौरान या यात्रा पर लिखना होता है. इस बार यूरोप में यह प्रवास कुछ लम्बा है. बतौर कलाकार यहाँ कुछ नये माध्यमों में रचने व प्रयोग करने का सुखद अवसर मिल रहा है. यहाँ के गाँव और छोटे शहरों व उनका स्थापत्य देखना, दृष्टि और कल्पनाशक्ति को विस्तार देने वाला अनुभव है. नये कलाकार मित्रों के चित्र एवं शिल्प देखना और लगभग हर शाम कला, जीवन पर चर्चा करते हुए पोलिश लोक संगीत व पेय का आनन्द रोमांचित करता है. इसी रोमांच को अपने सीमित शब्दकोश में कुछ सहेजने व अपनी भाषा के साथ में बने रहने की कोशिश है ये कविताएँ .”


सीरज सक्सेना 


प्रवास में कविताएँ                     
सीरज सक्सेना



शहर बेलेस्वावियत्स --



ज़मीन से उठ रही फ़व्वारों की बूँदों से

कुछ बच्चे भीग चुके हैं

कुछ उछल-उछल कर भीगने में मग्न हैं

पानी का यह रेखा रूप
आकर्षित करता है उन्हें
वे उसे छूते हैं पर
उनकी पकड़ में नहीं आता पानी

खिलौने की तरह बह रहा है
शहर के मध्य यह खिलौना-पानी

गिरिजाघर के पास रेस्त्रॉ में


बैठा निहार रहा हूँ

दूर से शहर का मानचित्र


समय पर बज उठती है
प्रार्थना की घण्टी :
अनवरत

बहती प्रार्थना


--- भाषा और समय से





शहर बेलेस्वावियत्स---



फिर लौटता है वह

तुम्हारे पास

दूर तक फैले
हरे
पीले
खेतों को पार कर




खुले नीले आकाश में अब भी

बादलों के गुच्छ ठहरे हैं



द्वितीय विश्वयुद्ध की चिंगारी

अब चुप हो चुकी है

लौट आया है तुम्हारा देश

फिर मानचित्र पर



राख अब भी

मिट्टी को सम्भाले है
ऊँचे तापमान पर पक चुके चीनी मिट्टी के बर्तन
हैं तुम्हारा श्रृंगार
तुम्हारे नीले बिन्दु
पा चुके हैं ख्याति

अधेड़ तुम्हारी देह
अब भी चमक रही है
बुब्र के किनारे
अभी अभी खिले
पीले फूल सी


तुम्हारी प्रतीक्षा में ही ठहरता है

प्रेम उसका



मिट्टी, अग्नि

देह और भाषा

अपने मौन में

बाँटते हैं अपना एकान्त



घूमते चाक पर बढ़त लेता है एक संवाद

--- प्रेम की जगह दूर नहीं


शहर बोलेस्वावियत्स -३

बारिश आज यहॉ ख़ूब रुकी.

तेज़ बौछारों से धुल चुका है शहर
चमक उठी है गिरिजाघर की
ऊँची मीनार और छत.

बूँदों से गुज़रता प्रकाश
धुँधला रहा है
शहर का मुख्य चौक.

कारों की पारदर्शी सतह पर
बूँदें अब भी ठहरी हैं.

ख़त्म होने के बाद भी
वृक्षों पर देर तक
ठहरी है बारिश.

ताजा़ हो गए हैं
चौराहों पर रखे
चीनी मिट्टी के
बड़े पात्र.

ठंडी हो चुकी है भट्टी.

पक चुके है फिर नए
मिट्टी के बर्तन.

शहर और देश के
मानचित्र के बाहर
बिखरेगी
ये सौंघी ख़ुशबू.



पोलैण्ड की दोपहर -



तेज़ चमकते सूरज की तरह चुभते हैं

खुले नीले आकाश में

यहाँ-वहाँ बिखरे बादल
अपने एकान्त में तो कभी समूह में




यहाँ प्रेम भाषा में नहीं बल्कि

परिपक्व स्पर्शों से गुँथा है



हरा अपनी भाषा

पीले में लिखता है



नीला आकाश प्रेम-भाषा की इबारत है






बुब्र के किनारे



इस पतली नदी के किनारे बच्चे खेल रहे हैं

कुम्हार माँ अपनी बच्ची को सिखा रही है भाषा और चलना
बैंच पर बैठा एक विदेशी चित्रकार पढ़ रहा है लम्बी कहानी
छोटे पक्षी इधर-उधर फुदकते व्याकुल हैं

चीनी मिट्टी के शिल्प सूख कर
पा चुके हैं त्वचा
भट्टी में पक रहा है कोई पात्र



दूध, सब्जियाँ और बीयर ले कर तुम

अभी-अभी आयी हो

तुम्हारे चश्मे के पार से नीली नेत्र भेद रहे हैं
यहाँ पसरा मौन



गिरिजाघर से प्रार्थना की घण्टी समय पर बज उठती है

यहाँ शाम देर रात तक ठहरती है
यहाँ सुबह जल्दी होती है



कहीं पल भर का भी चैन नहीं



जल्दी होती सुबह और देर से आती शाम के बीच

--- बुब्र के किनारे---

तुम्हारे आँगन में रखे मेरे सफ़ेद शिल्प छूते हैं

मिवोश के कुछ शब्द





रेल यात्रा



गंतव्य आते-आते उतर चुके हैं कई लोग

अब तक बारी बारी



यात्रा के आरम्भ में हुई हड़बड़ी

अब इस लगभग ख़ाली से डिब्बे में
घुल कर अपना उत्साह खो चुकी है



टिकट देखने के बाद

कन्डक्टर स्त्री कुछ लिख रही है

अभी पिछले स्टेशन से चढ़ा सायकल सवार
हुक पर अपनी सवारी टाँगे
नींद में एक डुबकी लगा चुका है



कोई संदेश पढ़ मंद मंद हँस रही है

पास बैठी युवती


अपने गन्तव्य से बेख़बर दूर धीरे-धीरे चलती
पवन चक्कियों को देख रहा हूँ

--- खिड़की के पास बैठा



तुम्हारे चलने की आहट और तुम्हारे

होने की ख़ुशबू अब मेरे समीप है



बुब्र पर बने सेतु पर रेंगती है रेल और

फिर रुक जाती है

अपना सामान उठाये उतरता हूँ

--- एक यात्री कलाकार



तुम्हारे

भूगोल में





स्पर्श का समय



कुछ देर तक ठहरने के बाद विलीन हो जाते हैं

मेरी उँगलियों के निशान पलक झपकते ही
तुम्हारी पीठ पर



स्पर्श के बाद ही मिट्टी में

उपजता है आकार

--- प्रेम
     का ताप पा कर

ठहर जाता है समय



वीथिका के प्रकाश में जैसे है 

शिल्प अविराम प्रकाशमान



तुम्हारी थिरकन में

फिर जीवित होता है

समय




गरबात्का काष्ठकला शिविर



बीज याद आता है

फिर वृक्ष :

कितनी बार ओढ़ी होगी इस वृक्ष ने बर्फ़ की चादर

कौन लाया है इसे यहाँ वन से


मशीनों के शोर और कानों को सुन्न कर देने वाली

कर्कश ध्वनि के बीच

शिल्पकार छील रहे हैं

छाँट रहे हैं

काट रहे हैं
--- अनचाही लकड़ी

अपनी ऊर्जा और विधि से दे रहे हैं
कुछ मनचाहा, कुछ मनमाना रूप

याद आते हैं बस्तर के वे आदिवासी
और उनके स्मृति-खम्ब

उसी परिपक्व दृष्टि के भार से
अपनी छैनी और लकड़ी की हथौड़ी से छील रहा हूँ
देह सी पसरी सपाट, सीधी और सफ़ेद लम्बी लकड़ी
जो बीज, पौध और वृक्ष का लम्बा सफ़र तय कर एक

कला माध्यम के रूप में अपने पवित्र कौमार्य के साथ मौन है


अपनी रूप-स्मृति में बिसर गये आकारों को

एक नया अर्थ दे रहा हूँ

लकड़ी के लम्बे और चौकोर खम्बे रच रहा हूँ

आठों दिशाओं में अपनी छोटी देह से घूम कर


इस जीवन में मिली सीधी-टेढ़ी रेखाओं और

ज्यामितीय आकारों से उकेर रहा हूँ अपना होना

टाँक रहा हूँ अवकाश छिद्रों में चिर परिचित विचार


भूलता नहीं हूँ---
वृक्ष हर हाल में जीवित रहते हैं
पूर्वजों की तरह : मेरे शिल्प
वृक्ष देह पर गोदना हैं


siirajsaxena@gmail.com
______________________________

कवि संपादक पीयूष दईया के सौजन्य से कविताएँ मिली हैं.  चित्र पोलैंड के जाने माने चित्रकार और शिल्पकार सिल्वेस्टर के कैमरे से हैं.

सहजि सहजि गुन रमैं : असीमा भट्ट

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कलाकृति - Louise Bourgeois



असीमा भट्ट की पहचान रंगमंच और अभिनय से है, वह एक समर्थ कवयित्री भी हैं. असीमा भट्ट की कविताएँ भरपूर हैं.  इन कविताओं में स्त्री होने का अहसास है और इस अहसास पर आक्रामक तमाम मनुष्य विरोधी ताकतों की पहचान है. ये कविताएँ मंच पर प्रस्तुत की जा सकती हैं इनमें एक तरह की कथात्मकता है. अनुभव और अनुभूति की गहराई और प्रमाणिकता है. स्त्री चेतना का खरा स्वर यहाँ है जो सिर्फ किताबी नहीं है. उनकी कुछ नई कविताएँ.


असीमा भट्ट की कविताएँ                      






बाहर मत जाओ

बाहर मत जाओ
कहते हुए तुमने मुझे जकड़ लिया था अपनी बाहों में
कहा था - बहुत भयावह है बाहर की दुनिया
सुरक्षित नहीं बचोगी कतई
मैंने जाना था तुम्हें ही अपनी पूरी दुनिया
सर्वस्व

तुम्हारी बांहों के फंदे होने लगे थे धीरे धीरे और भी ज़्यादा मज़बूत
कसमसाने लगी थी मैं
घुटने लगा था मेरा दम

मैंने कहा- खुल कर सांस लेना चाहती हूं
थोड़ी हवा चाहिए मुझे

तुमने कहा था - 'पूरा घर तुम्हारा है जो मर्ज़ी चाहे करो लेकिन घर के अंदर रहो'
कहते हुए जड़ दिये दरवाज़े पर सबसे भारी ताले जिसकी चाभी न जाने कहां फेंक
आये किसी मंदार की गुफ़ाओं में या अरब सागर की खाड़ी में

मैं बहलाती रही अपनेआप को
चारदीवारी को अपना संसार समझती
जहां पर्दे भी मेरी पसंद के नहीं थे
मुझे नहीं था अधिकार अपनी पसंद का रंग चुनने का जो थे चटख और जीवंत
तुम कहते थे - बहुत घटिया है तुम्हारी पसंद

तुम बार बार अपनी प्रेमिका का हवाला देते हुए कहते थे -
उनसे पूछो, उन्हें साथ ले जाओ, वो पसंद करेंगी, वो हैं तुमसे ज़्यादा अनुभवी
जहां तुम मेरे ख्यालों में भी किसी को नहीं देखना चाहते थे वहीं तुम्हारी
'वो'तीसरी की उपस्थिति मुझे उपेक्षा और हीन भावना से भर देता था
नहीं था कुछ भी वहां मेरा
जिसे मेरा घर और दुनिया कहा सकता था
वहाँ मेरी सहमति-असहमति कोई मायने नहीं रखती थी
रसोई से बिस्तर तक, सब पर था तुम्हारा एकाधिकार

खिड़की पर खड़ी होकर आसमान भी देखना कितना अजनबी लगता था
चांद से भी कम होने लगी थी बातें और मुलाक़ातें
जबकि तुम अच्छी तरह जानते थे
कितना अच्छा लगता था मुझे चांद
मन मसोस कर जीते और तितली की तरह फड़फड़ाते घर की चहारदीवारी में लहूलुहान
था मेरा मन
घर की जंज़ीरे कितनी भयानक थी
रियायत में मिली ज़िन्दगी मुक्ति के लिए छटपटा रही थी
तुमने और घने कर दिये थे अपने बाड़े यह कहते हुए - 'तुम मंगलेश डबराल की
कविता की वह नायिका हो जो पूरी दुनिया को समझती है अपनी गोद में बैठा हुआ
बच्चा'

ओह! तुम्हारी सोच में तुम्हारी दुनिया कितनी जकड़ी हुई और निर्मम थी
अब जबकि तोड़ आयी झटके से तुम्हारी टैंक जैसी दीवार
मैं जानती हूं खुले आसमान और खुली चांदनी में सांस लेने का अहसास
सचमुच यह दुनिया मेरी गोद में बैठा हुआ बच्चा है.
सबसे सुंदर, सबसे प्यारा
जीने की तमाम तमन्नाओं से भरपूर.






पोस्ट मॉडर्ननिज्म वाला इश्क़

कौन थे वे लोग
जिन्होंने मोहब्बत की ख़ातिर जान दी

यह भोगने का युग है
भोगिये और ख़ुश रहिये !
अब प्रेम किसे चाहिए
किसी को नहीं
अब सिर्फ़ जिस्म होगा जिस्म
देह ....देह ....
सिर्फ़... देह... !
और प्रेम सिसक रहा होगा
पड़ा किसी कोने में .

"सच्चा प्यार नहीं मिला जीवन में ...
किसी ने नहीं चाहा शिद्दत से ..."
अक्सर यह शिकायत करते वही लोग पाये जाते हैं
जो कपड़ों की तरह रिश्ते बदलते हैं
यहाँ भी दर्द प्रेम का नहीं,
देह को भोगने का ही होता है ...
ज़िन्दगी में रिश्ते के आकड़े बताते हुए अकड़ दिखाते हुए
पूछते हैं - स्कोर क्या है ?

अब प्रेम किसी को नहीं चाहिए
वह क्या होता है जनाब ?

देह! जब पूरी की पूरी देह है
आपके पास..
आपके बिस्तर पर
देह ! बिलकुल खोखली, नंग-धडंग
खुली देह, खाली देह
बेजान ...  !
जो दिखाई देती है
खुली खुली आँखों से

प्रेम-प्यार तो दिखाई भी नही देता
इसे देखने के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म
संवेदनशील दिल चाहिए
महसूस करने वाला
दिल

देह, देख रहे हैं,
देह, ख़रीद रहे हैं
देह, भोग रहे हैं
थोड़ी चालाकी से
थोड़े लालच से
थोड़ी मक्कारी से
थोड़े धोखे से
थोड़े झूठ से
और थोड़े पैसों से
जैसे ख़रीदते हैं कोई ऐशो आराम का सामान
मंहगी जींस, जूते, पर्फुम, महंगी कार और 'शराब'

यह जिस्म प्यार करना नहीं जानता
जानता है तो सिर्फ़ भूख
जिस्म की भूख...
प्रेम पाना और देना उसके बस की बात कहाँ !
जो उम्र भर तड़पते हैं सच्चे प्यार के लिए
और आह भरते हैं
अकेलेपन का रोना रोते हुए हमसफ़र, सोलमेट तलाशते हैं
जिंदगी में कभी जब सच्चा प्यार मिल भी जाता है तो
पाना भी नहीं चाहते
मुकर जाते  हैं

मर्लिन मुनरो एक स्वछन्द चिड़िया
लुटाना चाहती थी अपना प्रेम
दोनों हाथों से
दुनिया में
बदले में उसे मिली नींद की गोलियां
अंतहीन नींद ...

अन्ना केरेनिना प्रेम की तलाश में
 भटकती हुई चली गई
रेल की पटरियों पर
जिंदगी और प्यार की वजाय उसे मिली
वीभत्स मौत

"वीर-ज़ारा"तो भी कोई कोई ही होता है
बिना किसी वादे के एक दूसरे के लिए तमाम उम्र गुज़ार देना

'पोस्ट मॉडर्निज़्म'है
प्रेम हो गया है 'आउट डेटेड'
'ना वो इश्क में रहीं गर्मियां, ना वो हुस्न में रहीं शोखियाँ'

ढूढने वालो !
ढुढोगे प्यार
तो पाओगे
ग़ालिब और निजामुद्दीनऔलिया की मज़ार पर

पागल थे वे लोग
जिन्होंने प्यार किया और पत्थर खाये
और कहा -

"उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है ..."




मेरे सबकुछ *

ओ मेरे सबकुछ !
लिखना चाहती हूँ तुम्हे
मेरे 'सबकुछ' ,
मेरे प्यारे
मेरे अच्छे
मेरे अपने
"मेरे सबकुछ ...."

चलो ! मैं ले चलूँ
तुम्हें चाँद के उस पार

ना जाने, क्या हो वहां ...
बचपन से सुनती आयी हूँ.
"चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो ....."
चलो मेरे 'सबकुछहम हैं तैयार चलो ....

चलो कि चलें रेगिस्तान की सेहराओं में
जहाँ रेत चमकती है  'हीर'की नाक के नगीना की तरह
और मालूम होता है, पानी ही पानी हो हर तरफ
बुझा लूंमैं उसमें अपनी बर्षों की प्यार की प्यास
जो लोग समझते हैं कि वो रेत
मृगतृष्णा है
और मृगतृष्णा से प्यास कहाँ बुझती है ...

बहुत सयाने हैं वो लोग !
हम नहीं होना चाहते
उतने सयाने
मैं अपनी प्यास को बुझाने की तलब और तलाश बरकरार रखना चाहती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
"मेरे सबकुछ"

मैं झूम जाना चाहती हूँ तुम्हारी दोनों बाँहों में
सावन के झूले की तरह
- कि छु लूं आकाश का एक कोना
तुम्हारी बाँहों के सहारे
और लिख दूं आकाश के उस हिस्से पर तुम्हारा नाम

'मेरे सबकुछ'
चलो. कश्मीर चलें
गर धरती पर  जन्नत है तो - यहीं है, यहीं हैं, यहीं है...
मर कर जन्नत किसने देखा है ...!
चलो, मैं बना दूं लाल चिनार के पत्तों से तेरा सेहरा
और बना लूं तुम्हे अपना
 "मेरे सबकुछ"

'मेरे सबकुछ'
मुझे ले चलना समुद्र के पार
जहाँ देखना है समुंद को अपनी सतह से ऊपर उठते हुए
कि लहरों को रौंद कर,
कर देती है
सबकुछ एक बराबर
 समुन्द्र और आसमान का फर्क मिट जाता है
 पता ही नहीं चलता कि समुद्र में आसमान है या आसमान में समुद्र
तुम्हारे साथ जाना है मुझे ज़र्रे  ज़र्रे  में
हद बेहद से पार

हम तुम पार कर आयें उम्र की हर धुरी
पार कर लीं हर लकीरें
जहां खत्म हुई उम्र की सीमा और
शुरु हुआ हमारा प्यार
मैंने खुद को पाया तुममें

मेरे सबकुछ...
अब हो कोई भी राह, कोई भी डगर, कोई भी मोड़
कभी अकेली मत छोड़ना मुझे
थक गई हूं इस अकेलेपन से
उम्र से लंबा मेरा संघर्ष
अकेलापन, तन्हाई, सूनापन
डर लगता है इससे
जैसे डरता है बच्चा
अंधेरे से
और घबरा कर रोते हुए पुकारता है -मां.........
वैसी ही पुकारती हूं तुम्हें
मेरे सबकुछ...

मेरे सबकुछ! यह दुनिया हो या वो दुनिया
मैं हमेशा  साथ रहूँगी.
अगर  मर भी  गयी तो मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
मैं तैनू फिर मिलांगी
मैं तैनू फिर मिलांगी ...

(अमृता प्रीतम, इमरोज़ को "मेरे सबकुछ"बुलाती थीं. यह कविता उन तमाम 'अमृता'के लिए, जो अपने अपने 'इमरोज़'की तलाश में है)





यह कविता नहीं सच्ची घटना है

१.
यह कविता नहीं सच्ची घटना है
या यूं भी कह सकते हैं कि यह कविता सच्ची घटना पर आधारित है
संथालपरगना के एक छोटे से गाँव में रहती थी
काली संथाली लड़की कौसली
जो काम करती थी  बाबूघर ज़मीदार के यहाँ
ज़मीनदारी चली गयी थी  ठाट बाक़ी बचा था

सूरज से पहले जग जाती थी
ओस से भींगी  ज़मीन पर नंगे पाँव ठिठुरती जाती थी महुआ चुनने
और साथ  लेकर लौटती  गाय दुहने के लिए हरी घास
चढ़ जाती थी पीपल की सबसे ऊँची फुनगी पर टूंगने नये कोमल पत्ते और गाती
कोयल जैसी मीठे कंठ से प्रेमगीत
पिया से मोहके भेंट न भेअलेS, मोरा मन अकुलाय गेले रे...
एक दिन गांव  के बाबूघर घर आया एक मेहमान
कौसली घर के अहाते में गोयठा (उपले) पार रही थी
हाथ पकड़ लिया उसका उस किशोर आदमीने जो पूरा मर्द भी नहीं बना था
दाढ़ी मूंछ ठीक से उगी नहीं थी  लेकिन ज़ोरू पर ज़ोर आज़माना सीख गया था

कौसली ने उठा लिया पूरा गांव अपने सर पर
बैठी पंचायत
मेहमान बाबू पर लगा पांच हज़ार रूपये का ज़ुर्माना और कभी न उस गांव में आने की बंदिश
कौसली से उसी गांव के किसुन ने की शादी
किसुन और पांच बच्चे के साथ साथ अपनी खेती और गाय-बैलों के साथ रहती है ख़ुशी ख़ुशी
आज भी पीपल की फुनगी पर गाती है प्रेमगीत
जो गूंजता है हवाओं के साथ दसो दिशाओं में


२.
महानगर के एक महाविद्यालय में पढ़ाते थे दोनों पति-पत्नी
दोनों थे बुद्धिजीवी
पत्नी जब थी उम्मीद से
देखभाल के लिए गांव से मंगवाई एक आदिवासी लड़की
जबतक पत्नी माँ बनती उस मासूस को भी बना दिया माँ
जबकि  तब वह नहीं जानती थी कैसे  बनते हैं माँ

उसे मारा-पीटा, कोसा
धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया


३.
पत्नी फेसबुक पर अपने जीवन साथी की तस्वीर टांग रही है
दोनों खुश दिख रहे हैं
लिखते हैं आज हमने ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन के पचीस साल पूरे किये
बिना यह जाने कि वह काली मासूम लड़की
कैसी होगी कहाँ होगी किस हाल में होगी
क्या हुआ उसका जिसके पेट में था उसके ही बड़े बेटे के बराबर का बच्चा....

याद रहे यह कविता नहीं सच्ची घटना है !


(9 जून, बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर लिखी गयी)



________________
असीमा भट्ट
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से  स्नातक और  फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) से फिल्म एप्रेसियेशन पाठ्यक्रम उपाधि प्राप्त असीमा भट्ट का कार्यक्षेत्र फिल्मों  एवं मंच पर अभिनय के साथ साथ लेखन है.  अपने एकल नाटकों एवं प्रस्तुतियों- एक अनजान औरत का खत, द्रौपदी, शहर के नाम, मीरा नाची, नाजिम हिकमत की कविताएँ, एलेक्जेंडर पूश्किनकी कविताएँ आदि के कारण विशेष रूप से चर्चित रही हैं. आत्मजा, मोहे रंग दे, बैरी पिया, हीरोइन, रिश्तों से बड़ी प्रथा तथा तुम देना साथ मेरा आदि उनके द्वारा अभिनीत कुछ प्रमुख धारावाहिक हैं. उन्होंने अमेरिकन डे लाइट, महोत्सव, स्ट्रिकर, देख भई देखआदि फिल्मों में भी अभिनय किया है. इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक लघु फिल्मों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं. 
असीमा नियमित रूप से पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण, और लेख आदि लिखती रही हैं.
asimabhatt@gmail.com 

मंगलाचार : अभिषेक अनिक्का

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अभिषेक अनिक्का द्विभाषी लेखक एवं कवि हैं जिनकी रूचि राजनीति, दर्शन, जेंडर अध्ययन और फिल्मों में है. अभिषेक ने अपनी पढ़ाई दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज एवं मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस से की है. पिछले कई वर्षों से बिहार एवं दिल्ली में सामाजिक विषयों पर काम कर रहे हैं. उनकी कुछ कविताएँ .




अभिषेक अनिक्का की कविताएँ              


दिल्ली

दिल्ली
कितने बड़े हो गए तुम
सरक ही गए आखिर
ज़ौक़ के साये से
तुम्हारी पुरानी इमारतें
तुम्हारी चमकती सड़कें
तुम्हारे गोल चक्कर
तुम्हारे रिंग रोड
अब फ़ीके से लगते है
ना तुम मुझे कहते हो
जान, आज प्यार करो
ना मैं कभी सोच पाता हूँ
हाँ, जाड़े की रोमानी रात
या लुट्येन्स की बरसात में
तुमको गले लगाने का मन
अब भी करता है
पर देखो न
तुम भी धुंए में डूबे
और मैं भी तुम्हारे साथ
कश पे कश
लिए जा रहा हूँ
क्या हम उन जोड़ों की तरह हैं
जो साथ जी तो पाते नहीं
पर मरते साथ हैं.




विकल्प

उसने कहा
मेट्रो ही अच्छी है
बस होती
तो मर्दाना शरीर भीड़ के नाम पर
छूते रहते उसके शरीर को

उसने कहा
सलवार कुर्ती ही ठीक है
स्कर्ट होती
तो मर्दाना आँखें देखने के नाम पर
चीर देते उसके कपड़ों को

उसने कहा
वर्जिन ही सही
सेक्स किया होता
तो मर्दाना ढाँचे नैतिकता के नाम पर
कुचल देते उसके चरित्र को

वो खोजती रहती है
कैब में, घर में, पार्क में
साड़ी में, लेगिंग में, शॉर्ट्स में
शादी में, प्यार में, लीव इन में
बस, खोजती ही रहती है
विकल्प
जीवन जीने के
जितना खोजती है
उतना ही खोती जाती है, खुदको



 आलसी सपने

जाड़े में अधपके सपने भी
बिलकुल धीरे धीरे सीझते हैं
कभी स्वेटर में, कभी रजाई में
इतराकर उमड़कर पसीजते हैं
पारा गिरने पर, आग जलने पर
कल्पना की हर करवट पर
सच और सम्भावना
आपस में रीझते हैं

 सर्दी

सुबह सर्द है
कम्बल गर्म
शब्दों का आलसी साया
धूप के इंतज़ार में लेटा है




प्रेम / कहानी

कभी मैं ओस
कभी तुम पानी
फ़िर भी यह प्रेम कहानी
बारिश के इंतज़ार में बैठी



आर्गुमेंट

दो गूंजती आवाज़ों के बीच
खोजते हैं हम दोनों
हमारे रिश्ते के हर हर्फ़ को

कमरे में लैंप की धीमी रौशनी
पकाती है कुछ यादों को
आँच धीमी है, अच्छा है

लकड़ी से बनी ये पलंग
कल रात फ़िर ताबूत बन गई
हर रोज़ एक नयी कब्रगाह
पर साथ दफ़न हम दोनों

आधी रात है
तुम चुप, मैं चुप
क्या अंदर की खामोशी कम थी

इससे अच्छा तो चिल्ला ही लेते
एक दूसरे पर
खामोशी वाली प्रेम कहानी
ऐसे भी किसी और की है



दिल्ली में बिहार

दिल्ली की सड़कों पर बिहार
अपनी ही मगन में चलता है
रिक्शे की ट्रिंग ट्रिंग के बीच
कच्ची कमाई और बड़े अरमानों
के साए में हिचक कर पलता है
ऊँची बिल्डिगों में, कारखानों में
कभी गार्ड, कभी ऑटो
कभी दिहाड़ी, कभी मौसमी
पसीने का बिहारी रस
हर कोने से टप टप निकलता है
अंगिका और मैथिली का स्वाद
हवा में जब तैरता मिलता है
तो मन करता है लपक लूँ
और रख लूँ अपनी जेब में
शायद मैं भी एक दिन के लिए
फिर से बिहार बन जाऊं


 एक बेमानी कविता

टूटी सड़कों पर सन्नाटा चलता है
टूटे हुए तंत्र की कहानी गढ़ता है
बिना तालों की चाभियाँ
बिना डॉक्टर के अस्पताल
बिना तेल का एम्बुलेंस
बिना दवा की शीशियाँ
बिना शिक्षक के स्कूल
बिना पानी के नल
बिना फसल के हल
बिना आवाज़ के बल


जनतंत्र जब जन के बिना ही चलता है
तो केवल बेमानी कविताएं लिखता है.

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abyjha@gmail.com


सबद भेद : हजारीप्रसाद द्विवेदी : शिरीष कुमार मौर्य

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यह महीना हजारीप्रसाद द्विवेदी का है. ११० वर्ष पहले इसी महीने के १९ वीं तारीख को बलिया जिले के ‘दुबे का छपरा’ गाँव में आपका जन्म हुआ था. आचार्य द्विवेदी मुकम्मल साहित्य हैं. साहित्य का इतिहास हो, संस्कृत की वाग्धारा का उज्जवल  प्रवाह हो, अकुंठ अप्रदूषित भारतीय सौन्दर्य दृष्टि हो, लोक की पहचान, उसकी स्थापना का उद्य्यम हो, कथा-रस का सृजन हो. अध्यापन और प्रतिभाओं को तराशने की आकाशधर्मा दृष्टि हो. सबसे में अद्विद्तीय. ऐसे ही व्यक्ति इतिहास (साहित्य)की धारा को बदल देते हैं.

व्याख्यान की एक विशेषता जो मुझे बहुत प्रिय है वह है उसकी संप्रेषणीयता. हजारीप्रसाद द्विवेदी खुद अपने सहज व्याख्यानों के लिए जाने जाते हैं.  

कवि आलोचक शिरीष कुमार मौर्य का यह व्याख्यान हजारीप्रसाद द्विवेदी की अध्यापन शैली, उनकी इतिहास दृष्टि और उनके पत्रों से बाहर आते उनके उदात्त जीवन मूल्यों पर केन्द्रित है. इसमें कई नई बातें सहजता से कही गयीं हैं. 


हजारीप्रसाद द्विवेदी : अध्यापन, इतिहास-लेखन और पत्र               
शिरीष कुमार मौर्य



आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेखन और व्यक्तित्व बहुआयामी है और हर आयाम अपने-आप में पूर्ण है. यहाँ हम इनमें से तीन आयामों की चर्चा करेंगे - अध्यापन, इतिहास-लेखन और आचार्य के वे पत्र, जिनसे उनके व्यक्तित्व के कुछ नए पक्ष सामने आते हैं.



ll अध्यापन ll

हिंदी में कार्यरत हम सभी जन अमूमन अध्यापक ही हैं इसलिए मैं सबसे पहले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अध्यापनशैली पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि निबंधकार, इतिहासकार, आलोचक, कथाकार इत्यादि होने से पहले हजारी प्रसाद जी एक अध्यापक हैं. यह एक ऐसी चीज़ है, जो हमें उनकी संवेदना से सीधे जोड़ देती है या कहें कि उन्हें हमारी संवेदना से सीधे जोड़ देती है. हजारी प्रसाद जी के प्राध्यापन का स्वर्णिम काल शांतिनिकेतनका है और दो टुकड़ों में अत्यन्त सार्थक समय बी.एच.यू.का भी. इसके अलावा वे चंडीगढ़भी रहे, जिसका उनके प्राध्यापकीय तो नहीं पर व्यक्तिगत जीवन में अत्यधिक महत्व है. इस पर आगे बात होगी. उनके विद्यार्थियों में से कई ने हिन्दी साहित्य में अपार कीर्ति अर्जित की है और वे आज भी साहित्य के शिखर पर हैं. हम सब उनके बारे में जानते ही हैं, मुझे शायद नाम गिनाने की ज़रूरत नहीं है.

मैं हजारीप्रसाद जी की अध्यापन शैली के बारे में कुछ कहूँ तो सबसे पहले मुझेशिवानीका एक आत्मीय संस्मरण याद आता है जो बहुत पहले धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था. इसमें हजारीप्रसाद जी का अजब रूप दिखाई देता है. एक मस्तमौला आदमी जो अपने घर के बरामदे से लेकर आम और नीम के पेड़ के नीचे तक कहीं भी पढ़ाने बैठ जाता है. और ज़रूरी नहीं कि सीधे-सीधे पाठ्यक्रम ही पढ़ाए - जीवन के कई अवांतर प्रसंगों में जाते और उन्हें पाठ से जोड़ते हुए वह विद्यार्थियों को किसी और लोक में ले जाता है. विश्वनाथ त्रिपाठी भी कहते हैं कि अपने सबसे अच्छे व्याख्यान हजारीप्रसाद जी ने ऐसी ही कई-कई अनौपचारिक कक्षाओं में दिए हैं और अफ़सोस कि वे लिखित रूप में कहीं दर्ज़ नहीं है.1 

हजारीप्रसाद जी के ही हवाले से कहूँ तो उन्होंने जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा , उसका अधिकांश हिस्सा बीज रूप में शांति निकेतन प्रवास के दौरान उनके मन में अंकुराया. 2उदाहरण के तौर पर उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हिन्दी साहित्य की भूमिकाऔर कबीर! इन्हें हम उन्हीं व्याख्यानों का परिमार्जित और लिखित रूप मान सकते हैं. बाणभट्ट की आत्मकथामें कहीं पर खुद को उलींच कर दे देने की बात आती है - मैं इसे हजारीप्रसाद जी के अध्यापन में पाता हूँ. वे पढाने के दौरान असल में खुद को उलींच रहे होते थे. उलीचने के लिए ठंडा-मीठा जल भी चाहिए - ऐसा जल, जिसे चखकर प्यास और भी भड़क जाए -  और हजारीप्रसाद जी के भीतर इसका कोई अमरकोश था. उनकी विद्वता पर हमेशा ही उनका हँसमुख स्वभाव हावी रहा जो उन्हें अपने विद्यार्थियों के लिए अधिक आत्मीय और ग्राह्य बना देता था.

मैं हजारीप्रसाद जी के इस रूप को ध्यान में रखकर कुछ बातें कहना चाहता हूँ. आज विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी लगातार कम होते जा रहे हैं तो शायद उसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि हमने साहित्य के प्राध्यापन को शास्त्रीय बना दिया है.  हम शायद बच्चों को वाग्जाल में उलझा देते हैं और फलस्वरूप उन्हें कुंजी-गाइड जैसे स्तरहीन माध्यम की शरण लेनी पड़ती है. हजारी प्रसाद जी पर बात करने के साथ -साथ मैं इस मुद्दे को भी अपनी कार्यसूची में देखता हूँ. हमें अपने विद्यार्थियों का सामना इतनी सहजता और आत्मीयता से करना चाहिए कि उन्हें हमारे सिवा कहीं और जाने की आवश्यकता ही न पड़े. हमारी तो नौकरी ही विद्यार्थियों के लिए कठिन को आसान बनाने की है. इसके लिए पहले हमें आसान होना पड़ेगा. हमें देखना पड़ेगा कि हम हिन्दी साहित्य के विभिन्न अनुशासनों में कैसे पेश आते हैं. और मित्रों आप सभी जानते हैं कि मुश्किल हो जाना बहुत आसान है लेकिन आसान हो जाना बहुत मुश्किल! बाबा ग़ालिब के शब्दों में

बस कि दुश्वार है हरेक काम का आसाँ होना!
आदमी को भी मयस्सर नहीं  इंसाँ होना ! 3 

हमें अगर विद्यार्थियों में साहित्य को लोकप्रिय बनाना और उसे एक सार्थक विषय के रूप में बचाए रखना है तो हमें अपने औजार बदलने होंगे और यहाँ हजारीप्रसाद जी हमारे आदर्श हो सकते हैं.

हजारीप्रसाद जी से आपका परिचय कैसे हुआ, मैं नहीं जानता पर मेरा परिचय उनके उपन्यासों बाणभट्ट की आत्मकथाऔर अनामदास का पोथाके ज़रिये हुआ. मेरा सौभाग्य है कि मेरा यह परिचय महज हिन्दी के एक साधारण पाठक की तरह था. मैंने उन्हें पहली बार अपनी इच्छा से पढ़ा न कि साहित्य का विद्यार्थी होने की मजबूरी में. सच कहूँ तो मैं आचार्य नामधारी लोगों के लिखे से दूर भागता था और इन उपन्यासों ने मेरी इस धारणा को बहुत सही वक़्त पर तोड़ा. यह एक अनोखा संसार था. फिर हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी हो जाने के बाद उनके निबंध और इतिहास पुस्तकें भी पढ़ीं. मैंने जाना कि सच्चे अर्थ में आचार्य होना क्या है.

मुझे हजारी प्रसाद जी के रचना संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह लगी कि उन्होंने हिन्दी में आचार्यत्व की रूढ़ि को तोड़ा. इसलिए उन पर ही यह शब्द सबसे ज़्यादा सोहता है. तमाम शास्त्रों की जानकारी और बेहद गम्भीर विषयों पर लिखने के बावजूद उन्होंने अपने गिर्द पांडित्य की धूल नहीं उड़ने दी. वह धूल जो किसी की भी आँखें लाल कर सकती है. उन्हें शास्त्रों का जानकार होने के बावजूद शास्त्र-निरपेक्ष हो जाना ही भाता है. मेरा अपना भी यह मानना है कि गम्भीरता स्थिति की माँग हो सकती है लेकिन आदमी का मूल स्वभाव नहीं. हर वक़्त गम्भीरता और पांडित्य लादे रहने का अर्थ है कि किसी मनोचिकित्सक से मिलने का समय करीब है. हजारी प्रसाद जी की सभी रचनाओं में एक सीधा-सादा, सच्चा, हँसमुख और भोला आदमी हर कहीं मौजूद है. मैं जोर देकर कहूँगा कि हजारीप्रसाद जी ने भोलेपनऔर निश्छल हासको अपने साहित्य में एक ज़रूरी जीवनमूल्य की तरह स्थापित किया है. इस स्थापना को उनके उपन्यासों और निबन्धों में बहुत साफ तौर पर देखा जा सकता है. मैंने उनके बारे में उनके सुयोग्य शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठीजी के हवाले से जो कुछ सुना है उसमें उनके अट्टहास का ज़िक्र अनिवार्य रूप से आता है. आसमान तक जाता एक खुला ठहाका जो अपने आसपास की हर चीज़ को पारदर्शी बना देता है. शिवानी ने भी अपने संस्मरण हजारीप्रसाद हास छेमें इस ठहाके का सुमिरन किया है. एक अध्यापक पढ़ा रहा थे कि बच्चों ने बगल की कक्षा से आता एक बादलों जैसा स्वर सुना और डर गए- अध्यापक ने उन्हें बताया कि डरो मत ! यह तो हजारीप्रसाद हँस रहे हैं! ऐसी हँसी जिस आदमी के जीवन में रही, वह कितना गहरा रहा होगा, इसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं. मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उन्हें कभी देख नहीं पाया. अपने जीवन में जिन लोगों को साकार न देख पाने का दुःख है उनमें मुक्तिबोध, चित्रकार भाऊ समर्थ, हरिशंकर परसाई जी और इन तीनों से बहुत पहले कहीं हजारी प्रसाद जी भी हैं.

अपने अध्यापक को नामवर जी की सबसे आत्मीय भेंट दूसरी परम्परा की खोजनामक एक पतली-सी पुस्तक है. मैं इस पुस्तक को नामवर जी की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में मानता हूँ. मुझे पूरा विश्वास है कि सभी जागरूक साथियों ने इस किताब को ज़रूर पढ़ा होगा. मैंने इसे एम.ए. में पढ़ने के दौरान पढ़ा था और इसकी एक स्थायी स्मृति मेरे मन में है. आख़िर यह दूसरी परम्परा क्या है? और उससे भी पहले यह कि पहली परम्परा क्या है? नामवर जी के इस प्रयास पर कई आपत्तियाँ भी हिन्दी के ठस विद्वज्जनों ने लगाई. मुझे तो हर्ज नहीं लगता कि कोई दूसरी परम्परा खोजे. लेकिन इसे पहली परम्परा का विरोध न माना जाए. आपसी तुलना तो होगी ही, वह हमारे जीवन का हिस्सा है. अगर कोई दूसरी या समानान्तर परम्परा है तो उसे सामने लाया जाना चाहिए. यह परम्परा अध्यापन में भी है और मैं चाहता हूँ कि वह सामने आये. उसके सामने आने से विद्यार्थियों में हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि बची रहेगी. निवेदन है कि इस बात पर सबसे ज़्यादा ध्यान दें कि इस पुस्तक पर एक ख़ास तरह का विरोध बनारस से आया था. बनारस ! एक शहर जो हिन्दी साहित्य के सीने पर ठुका हुआ है, जिसके बगैर साहित्य में अधिक देर तक बात करना सम्भव नहीं. वही शहर जो संत कबीर और भक्त तुलसी सेलेकर समकालीन हिन्दी साहित्य तक में बार-बार आता है. इसने अपनी महानता के अहसास में कई महान आत्माओं को ठुकराया है और इन ठोकरों से ही वे लोग वह बन पाए, जिसके लिए आज उनका नाम है. हिन्दी साहित्य का इतिहास सभी जानते हैं, मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है.

इस प्रकरण के अंत में हजारीप्रसाद जीके विद्यार्थी विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठीके संस्मरण का यह अंश मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ, जिससे उनके व्यक्तित्व के इस पहलू पर कुछ और रोशनी पड़ेगी - पंडित जी रात छत पर सोये. रात करीब दो बजे मुझे पैरों के तले में गुदगुदी महसूस हुई. उठा तो देखा पंडित जी खड़े हैं - फुसफुसाते हुए उन्होंने पूछा - छत पर कोई टायलेट है? सोते हुए आदमी को जगाने का यह उनका तरीका था. मैं उनका ऐसा शिष्य था जिसे उन्होंने विद्या ही नहीं दी थी - खाने पीने का इन्तजाम भी किया था. मुझे नैनीताल और दिल्ली में नौकरी भी उन्हीं की कृपा से मिली थी. मुझ तक को उन्होंने जोर से बोल कर या झकझोर कर नहीं उठाया. यह उनका सहज जीवन व्यापार था. 4

यहाँ हम देख सकते हैं कि कैसे एक बड़ा आचार्य और गुरु इतना सहज हो सकता है कि अपने शिष्य के पैरों तक जा पहुँचे. यह हद है, लेकिन इस बात में अध्यापक और विद्यार्थी के सम्बन्धों का जो अद्भुत सूत्र छुपा है, आशा है हम उसे पहचानेंगे और उसकी कद्र करेंगे.



ll इतिहास ll

मुझसे पहले कई विद्वानों ने हजारीप्रसाद जी के इतिहास लेखन पर अपने अभिमत दिए हैं और जाहिर है कि सभी ने इस बारे में काफी कुछ पढ़ा भी है. मैं किसी विस्तार में नहीं जाऊँगा और एक ख़ास पहलू पर बात करूँगा. हो सकता है किसी ने इस पर बात की हो, तब भी मैं बात करूँगा. वह बात यह है कि हिन्दी साहित्य आख़िर किन लोगों का साहित्य है?

खेद का विषय है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्लने वीरगाथा काल के चारण साहित्य को तो वीरता का गान कहा लेकिन भक्तिकाल का आरम्भिक परिचय ही कुछ इस भंगिमा में दिया - देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया. उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे. ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे.......... अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था5

आचार्य शुक्ल का इतिहास हिन्दी साहित्य के सबसे लोकप्रिय इतिहासों में एक है और देखा गया है कि पाठ्यपुस्तकों में दिया गया इतिहास भी अधिकांशतः इसी पर आधारित होता है. ऊपर दिए उद्धरण से कुछ प्रश्न पैदा होते हैं -

1.  क्या हिन्दी साहित्य सिर्फ हिन्दू जाति की सम्पत्ति है? और वह भी एक हतदर्प-पराजित हिन्दू  जाति की
2. क्या इस्लाम ने भारत आकर सचमुच किसी बड़ी मानव सभ्यता का नाश कर दिया?
3. उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन क्या सिर्फ इसलिए अस्तित्व में आया क्योंकि हिन्दू इस्लाम     से डरे और हारे हुए थे?

अध्यापक के तौर पर हमें आनेवाली पीढ़ियों को यह इतिहास पढ़ाना है. क्या हमें इन प्रश्नों पर विचार किए बिना ही उसे ज्यों का त्यों पढ़ा देना है?

सूफियों के सम्बन्ध में भी आचार्य शुक्ल का मंतव्य ध्यान देने योग्य है - इतिहास और जनश्रुति में इस बात का पता लगता है कि सूफी फकीरों और पीरों के द्वारा इस्लाम को जनप्रिय बनाने का उद्योग भारत में बहुत दिनों तक चलता रहा.(पृ0 11, संस्करण 1972) 6
यहाँ फिर कुछ सवाल उठते हैं

1.  क्या सूफियों को भारत में इस्लाम की स्थापना के षड़यंत्र के लिए राजनीतिक रूप से भेजा गया था?
2. उद्योग शब्द का क्या तात्पर्य है? क्या उन प्रेम दीवानों का इस तरह के उद्योग में विश्वास था?
3. और फिर ख़ुद इन सूफियों की इस्लाम में क्या स्थिति थी और इस्लाम के पैरोकार इन्हें
किस  नज़र से देखते थे?

मेरे लिए ये प्रश्न आज के नहीं हैं. ये पहली बार मेरे मन में तब आए जब मैं एम.ए. का छात्र था और मैंने इतिहास के अध्ययन के लिए पहली किताब आचार्य शुक्ल की पढ़ी थी. इन प्रश्नों के उत्तर की खोज मुझे दूसरी किताबों तक ले गई. मुझे राहुल जी के विचार जानने का अवसर मिला लेकिन वे एक तरह से हिन्दी साहित्य के प्राध्यापकीय अनुशासन के व्यक्ति नहीं थे. इस अनुशासन में मुझे हजारीप्रसाद जी की किताबें मिलीं और उनमें इन प्रश्नों के उत्तर भी.

हजारीप्रसाद जी की किताबों में सबसे पहली बात यह दर्ज़ है कि वे साफ़ तौर पर हिन्दी साहित्य को जनभाषाओं का साहित्य मानते हैं और यह भी कहना नहीं भूलते की इसी साहित्य ने इन जनभाषाओं को राजकीय सम्मान भी दिलाया. मुझे तो हजारीप्रसाद जी के इस जन का विस्तार हमारे समय की जनवादी अवधारणा तक दिखाई पड़ता है. दूसरी ख़ास बात को उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य की भूमिकाके पहले ही पृष्ठ पर लिखा है - दुर्भाग्यवश, हिन्दी साहित्य के अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने ऊपर लिया है , वे भी हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध हिन्दू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं - एक यह कि हिन्दी साहित्य एक हतदर्प-पराजित जाति की सम्पत्ति है और इसलिए उसका महत्व उस जाति के राजनीतिक उत्थान-पतन के साथ सम्बद्ध है और दूसरा यह कि ऐसा न भी हो तो भी वह एक निरन्तर पतनशील जाति की चिन्ताओं का मूर्त प्रतीक है.7  इस बात को पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि वह अनजान आदमी मैं ही हूँ. इसी क्रम में हजारीप्रसाद जी ने आगे लिखा कि मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है. 8

यह एक नई साहित्य और इतिहास दृष्टि थी. मैं इसकी ओर खिंचा चला गया. इसमें विशुद्ध ऐतिहासिक तर्क भी थे और अपने समकाल और भविष्य को भाँपने की अद्भुत योग्यता भी. हजारीप्रसाद जी ने भारत में इस्लाम के आगमन को सात्मीकरण से जोड़कर देखा. मुसलमान इस धरती पर आए पहले आक्रमणकारी नहीं थे. उनसे पहले आर्य, यवन, हूण और शक यहाँ आ चुके थे. भारत के अन्दर भी जैन और बौद्ध जैसे धर्मों का बोलबाला था. दक्षिण, उत्तर और सुदूर उत्तरपूर्व की संस्कृतियों और जीवन शैली में भिन्नता थी. इस्लाम के आगमन ने इसमें एक नया पन्ना जोड़ा. टकराव होना ही था और हुआ भी लेकिन बाद में यह टकराव सात्मीकरण में बदलता गया. दो संस्कृतियों के मिलन का यह सबसे अच्छा और तर्कसंगत सिद्धान्त है. हम सबको यह आवश्यक जानकारी रखनी होगी कि कबीर से पहले भी बारहवीं शताब्दी में अब्दुर्रहमान नाम का जुलाहा कवि हुआ है, उसके रचनाओं का संकलन और संपादन संदेश-रासकके रूप में हजारीप्रसाद जी ने अपने शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ मिलकर किया है.

हजारीप्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य के ऊपर से हिन्दू का बिल्ला उतार उसके स्रोतों  को सैद्धान्तिक रूप से बौद्ध सिद्धों और जैन मुनियों की वाणी में खोजा. इस तरह वे राजाओं की गाथाओं में न जाकर जनमानस का हृदय टटोल रहे थे. संत कबीर पर उनकी पुस्तक इसी तरह के प्रयत्नों का फल है. सूफियों पर उनका यह वक्तव्य ध्यान देने योग्य है - निर्गुण भाव के शास्त्र-निरपेक्ष साधकों की भाँति इन कवियों में अधिकतर शास्त्र-ज्ञान-विरहित थे, पर निस्संदेह पहुँचे हुए प्रेमी थे. इन्होंने प्रेम के जिस एकांतिक रूप का चित्रण किया है, वह भारतीय साहित्य में नई चीज़ है. प्रेम की इस पीर के आगे ये लोकाचार की कुछ परवाह नहीं करते थे. भारतीय काव्य-साधना में प्रेम की ऐसी उत्कट तन्मयता दुर्लभ थी. 9

गौरतलब है हजारीप्रसाद जी प्रेम की एकांतिक साधना का ज़िक्र कर रहे हैं,जो आचार्य शुक्ल के इस्लाम को फैलाने के उद्योग से बिल्कुल अलग ज़मीन पर कही गई बात है. वास्तविकता यही है कि सूफियों ने भारतीय संस्कृति में एक नया अध्याय जोड़ा, जिसका विस्तार साहित्य से लेकर अध्यात्म और संगीत के क्षेत्र तक मिलता है. हिन्दी साहित्य की भूमिका (पृ0 50, संस्करण 1978) में हजारीप्रसाद जी ने दो-टूक शब्दों में लिखा कि यह कहना तो और भी उपाहास्पद है कि जब मुसलमान हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने लगे तो हताश होकर हिन्दू लोग भजन-भाव में जुट गए. 10  उन्होंने उत्तर में भक्ति आन्दोलन के उद्भव को दक्षिण के आलवार भक्तों से जोड़ा, जिनमें कई अछूत जातियों के भक्त थे और इस बारे में यह कहा कि आलवारों का भक्तिमतवाद भी जनसाधारण की चीज़ था. 11यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसे हजारीप्रसाद जी ने महत्व दिया. उनके लिए जनसाधारण का भी असाधारण महत्व था. मेरा आग्रह है कि आचार्य शुक्ल के लोकके बरअक्स हजारीप्रसाद जी के जनको रखकर अवश्य देखा जाए. ऐसा करने पर आपको शास्त्रज्ञ होने और शास्त्र पढ़कर भी शास्त्र-निरपेक्ष रह पाने का आशय और महत्व समझ में आ जाएगा. कृपया स्पष्ट कर लें कि मैं किसी आचार्य के महत्व और महानता पर प्रश्न नहीं उठा रहा लेकिन सही की खोज में तुलना करना भी ज़रूरी हो जाता है. इस तरह की बहस हिन्दी में चलती रही हैं और मेरा यह मानना है कि तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए. इससे किसी विद्वान का महत्व कम नहीं होता बल्कि कुछ ऐतिहासिक भूलों का पता चलता है और हम उन्हें सुधार सकते हैं.

चाहे उपन्यासों के सन्दर्भ लें, चाहे निबन्धों के या फिर इतिहास के - आप पायेंगे कि हजारीप्रसाद जी संस्कृति को बहती नदी मानते हैं, जिसमें चारों ओर से आकर जलधाराएँ मिलती हैं और उसे अधिक सम्पन्न बनाती हैं. अपने पूर्ववर्ती लेखकों के बरअक्स हजारीप्रसाद जी धर्म और संस्कृति के घालमेल को भी ठुकराते हैं. उदाहरण के लिए सूफियों के भारत आगमन के सन्दर्भ में उनके विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सूफी अपने साथ धर्म से अधिक प्रेम की संस्कृति लाए थे. ऐसी संस्कृति जिसे इस्लाम का कट्टरपंथ अस्वीकार करता था और उसका विरोध करता था. भारत के जनसाधारण ने इसे हृदय से स्वीकार किया. 12उनके द्वारा लिखित साहित्य के इतिहास में यह बात कई जगह आती है.  उपन्यासों और निबंधों पर बहुत बार चर्चा होती रही है. मैं इस विस्तार में नहीं जाऊँगा और संकेत की सार्थकता तक ही सीमित रहूँगा. इतना ज़रूर कहूँगा कि हजारीप्रसाद जी जब संस्कृति और साहित्य के इतिहास जैसे विषयों पर लिखते हैं तो उनके भीतर कहीं एक ऐसा इतिहासकार जाग उठता है, जो सिर्फ ऐतिहासिक स्रोतों और तथ्यों पर यकीन करता है और अपने पारम्परिक संस्कार उस पर नहीं थोपता. उनका इतिहास-बोध उनके पहले और उनके समय के दूसरे हिन्दी लेखकों से कहीं अधिक पुख़्ता और विचार-विशेष से संचालित है. राहुल जी में भी यह बात भरपूर है लेकिन उन्हें आज का विद्यार्थी न तो पढ़ता है और न उसे पढ़ाया जाता है. गनीमत है कि हजारीप्रसाद जी को पढ़ाया जाता है. पता नहीं कोई मुझसे सहमत होगा या नहीं पर मुझे तो हजारीप्रसाद जी और राहुल सांकृत्यायन इतिहास-बोध की एक ही भावभूमि पर खड़े नज़र आते हैं.


ll पत्र ll 

कुछ समय पहले हजारीप्रसाद जी के लिखे हुए पत्रों का एक संकलन मैं पढ़ रहा था और मेरे मन में उसे सबके साथ बाँटने का विचार बार-बार आता रहा. इन पत्रों में हजारीप्रसाद जी का व्यक्तित्व बहुत खुलकर सामने आता है. इनमें जीवन और साहित्य के कई प्रसंग हैं, जिन्हें जानना हमारे लिए रोचक भी है और ज़रूरी भी. उदाहरण के लिए 1936में विशाल भारत के सम्पादक को लिखे पत्र का यह अंश - इस अंक में अज्ञेय जी के लेख की यह बात मेरे मन की है कि हिन्दी एक प्रादेशिक भाषा है. इसका रूप, इसकी प्रगति अभी लोगो को निर्माण करना चाहिए. अगर यह राष्ट्रभाषा है तो दूसरों के लिए. हमारे लिए तो मातृभाषा है और हमारा और इसका जीवन-मरण का सम्बन्ध है. दूसरों के लिए राष्ट्रभाषा का सवाल प्रयोजन और सुविधा का है. हमारे लिए यह प्रयोजन और अप्रयोजन से परे है. हमारे हास और अश्रु, प्रेम और रोष, भक्ति और श्रद्धा को रूप देनेवाली भाषा को अगर कोई राष्ट्रीय, व्यवहारिक या राजनीतिक कारणों से सुविधाजनक मान ले तो हम पर कृपा नहीं कर रहा है............. पर यह भी ठीक है कि हिन्दी भाषा सरल होनी चाहिए. इसलिए नहीं कि बाहर वालों को इससे सुविधा होगी बल्कि इसलिएकि हमारे साहित्य का विकास होगा. लघुभार भाषा आसानी से उद्देश्य सिद्धि की ओर अग्रसर हो सकती है. 13 

इस उद्धरण में राष्ट्रभाषा को लेकर जिस राजनीति की बात कही गई उसका साकार रूप आज़ादी के कुछ समय बाद हुए भाषायी दंगों में देखा जा सकता है. हिन्दी के सरल होने के सवाल पर हजारीप्रसाद जी का साफ दृष्टिकोण दरअसल उसी तथ्य से संचालित है, जिसे ख़ुद हजारीप्रसाद जी ने अपने शब्दों में शास्त्र-निरपेक्षताकहा है. मुझे तो यह तथ्य जीवनसूत्र की तरह लगता है कि आदमी शास्त्रों का ज्ञाता तो हो पर शास्त्र-निरपेक्ष भी रहे. 1938में लिखे गए इसी तरह के एक और पत्र में भाषा का सवाल फिर आया. पत्र में ज़िक्र है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर एक ख़राब हिन्दी काव्य-संकलन के हवाले से उन्हें कुछ बताते हैं और हजारीप्रसाद जी की स्थिति कुछ यों होती है - मैं लज्जा से तब और भी गड़ गया जब उस पुस्तक में सचमुच ही उन कविताओं के बल पर राष्ट्रभाषा का डिण्डिम घोष किया गया था. मैं कहता हूँ कि क्यों हिन्दी को हिन्दी नहीं कहा जाता, क्यों उसे मातृभाषा नहीं कहा जाता, क्यों इस बात को स्वीकार करने में हम हिचकते हैं कि उसके द्वारा करोड़ों का सुख-दुख अभिव्यक्त होता है? राष्ट्रभाषा अर्थात व्यापार की भाषा, राजनीति की भाषा, कामचलाऊ भाषा - यही चीज़ प्रधान हो गई है और मातृभाषा, साहित्य भाषा, हमारे रूदन-हास्य की भाषा गौण! 14 

1939में फिर हजारीप्रसाद जी लिखते हैं कि यदि हिन्दी के ज़रिये हम कम से कम सारे भारतीयों की आशा आकांक्षा को व्यक्त नहीं कर सकते तो राष्ट्रभाषा का शोरगुल व्यर्थ का परिश्रम है. 15  मैं कहना चाहता हूँ कि यदि सिर्फ भाषा सम्बन्धी इन विचारों को ही हम एकत्र करें तो एक पूरा शोधपत्र बन सकता है.

स्त्री विमर्श के इस आधुनिक युग में भी मैं हजारीप्रसाद जी के दो-एक पत्रों का  हवाला देना चाहूँगा, जिससे उनकी भावनाओं पर प्रकाश पड़ता है. सब जानते हैं कि कथा-साहित्य मे उनके स्त्री पात्रों का रचाव कैसा है? ये पत्र इसमें कुछ और जोड़ते हैं. बनारसीदास चतुर्वेदीको उन्होंने लिखा कि महिला अंक में हैवलाक एलिस का फैमिलीनामक प्रबन्ध ज़रूर अनुवाद करके दीजिए. इसमें इस विषय के संसार के सर्वश्रेष्ठ मनीषी का सभी समस्याओं पर बड़ा सुन्दर विवेचन है. यह लेख छोटा ज़रूर है पर बहुत उपयोगी है. सन्तति नियमन के सम्बन्ध में दोनो पक्षों की दलील आवश्यक हैं 16 - 1936के ज़माने में हजारीप्रसाद जी का स्त्री विषयक चिन्तन और अध्ययन इतना आधुनिक था, यह जानकर मुझे हैरत हुई. हैवलाक एलिस के इस लेख को मैंने उनकी एक चर्चित किताब सेक्स साइकॉलोजी में पढ़ा है और यह सन्तान के जन्म और यौनक्रिया के दौरान स्त्री के अधिकारों की वकालत करता है. कुछ और लोगों ने भी शायद पढ़ा हो. हजारीप्रसाद जी उस वक़्त इस लेख की ज़रूरत एक गाँधीवादी सम्पादक को समझा रहे थे, जब इस तरह के विषयों पर साहित्य में चर्चा लगभग वर्जित थी.

मुझे नहीं लगता कि हमने आज तक हजारीप्रसाद जी के इस पहलू को जाना होगा. इसी तरह 1936के ही एक पत्र में उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरीकी भर्त्सना की है - आप कितनी भी अधिक युक्ति देकर उस आदमी को कैसे कायल कर सकते हैं जिसने मान लिया है कि नाचना और गाना स्त्रियों के लिए सबसे बड़ा विधातक पाप है क्योंकि योगी के सम्पादक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं. उनके विचार कितने उलझे हुए हैं जो वेश्यावृत्ति भी नष्ट करना चाहते हैं, संगीत और कला की प्रतिष्ठा भी करना चाहते हैं और गृहदेवियों को इससे अलग रखने का भी उपदेश देते हैं. 17 

विषयान्तर होगा पर मुझे हजारीप्रसाद जी के इस कथन से आज के प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा की ये काव्यपंक्तियाँ याद आती हैं कि तुम जो/पत्नियों को अलग रखते हो/ वेश्याओं से/ और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो / पत्नियों से / कितना आतंकित होते हो/जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है/ ढूँढती हुई/ अपना व्यक्तित्व/एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों/ और प्रेमिकाओं में ! 18हम देख सकते हैं कि दो अलग वक़्तों में दो अलग तरह के व्यक्ति किस तरह एक ही बात कह रहे हैं. इससे भी सिद्ध होता है कि आधुनिकता और प्रगतिशीलता हजारीप्रसाद जी के व्यक्तित्व और उसके रचाव का एक स्वाभाविक हिस्सा थी. यह एक ऐसी चीज़ है जो शास्त्रों के बंद सीलनभरे दरवाजों में प्रवेश नहीं कर पाती - इसके लिए खुला हवापानी चाहिए. हजारीप्रसाद जी के जीवन में प्रगतिशीलता के प्रमाण खोजे जाने की ज़रूरत नहीं है तब भी प्रसंग आया है तो बताना चाहूँगा कि उन्होंने अपने दो पुत्रों का अन्तर्जातीय विवाह किया. अपने एक समधी चोपड़ा जी को लिखे उनके कुछ पत्रों से यह पता चलता है कि उन्होंने कितनी प्रसन्न भावुकता के साथ यह रिश्ता बनाया था.

हजारीप्रसाद जी के पत्रों में कई जगह हिन्दी साहित्य को लेकर उनकी चिन्ता जाहिर होती है. शांतिनिकेतन में हिन्दी भवन के बनने और उससे जुड़ी कई योजनाओं का जिक्र इन पत्रों में है. देखने की बात है कि अपने उन उर्वर  दिनों भी वे किन संकटों से घिरे थे - आपसे कहने में कोई संकोच नहीं. शांतिनिकेतन में रहकर मैं जो कुछ साहित्यिक कार्य कर सकता हूँ, वह नहीं कर सकता. मुझे 30-35पीरियड प्रति सप्ताह काम करने के बाद भी प्रतिदिन पेट की चिंता के लिए कई अनावश्यक यांत्रिक कार्य करने पड़ते हैं. जो क्लास मैं लेता हूँ उनमें 11घंटे संस्कृत में, 2घंटे स्त्रोत में, 6घंटे गणित पढ़ाने में सम्मिलित हैं. हिंदी का कार्य कुल 10-11घंटे करता हूँ. इस प्रकार 19घंटे मेरा कम करके साहित्यिक रचनाकार्य में लगाया जा सकता है. 19 (बनारसीदास जी को 1937में लिखा पत्र)

मुक्तिबोध ने ख़ुद के और सभी लेखकों के लिए समाज में एक भूमिका तय करते हुए कहा है कि जैसी है यह दुनिया इससे बेहतर चाहिए/इसे साफ करने को एक मेहतरचाहिए ! हजारीप्रसाद जी के 1940में लिखे एक पत्र में यही भंगिमा दिखाई देती है - यदि किसी साहित्यिक में सम्पूर्ण समाज की आन्तरिक और बाह्य सुन्दरता प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा है तो उसे न तो मोरी साफ करने में कोई संकोच होगा और न उन गंदे विचारों को साफ़ करने में, जिनके कारण मोरिया जी रही हैं. 20

हिन्दी साहित्य के स्वभाव पर उनकी यह रोचक टिप्पणी हमेशा याद रखने लायक है - साहित्य की दुनिया तो थर्ड क्लास का डिब्बा है. किसी नए चढ़ने वाले को देखते ही झगड़ने की इच्छा होती है. और ऐसा भी है कि कुछ लोग बिना टिकट ही इसमें चढ़ जाते हैं. 211947के एक पत्र में कही गई यह बात मुझे पिछले दिनों बहुत प्रासंगिक लगी जब नया ज्ञानोदय के युवा पीढ़ी अंक में विख्यात चिंतक और लेखक विजय कुमार ने अपने लेख में नए लेखकों को हद से बाहर जाकर खरीखोटी सुनाई. साथ ही यह टिप्पणी उन कई लेखकों पर भी है जो नौकरशाही और मिल-मालिकों की अपनी दूसरी परालौकिक दुनिया से आकर जबरन थर्ड क्लास के उस डिब्बे में बैठना ही नहीं, बल्कि उसे ख़रीद भी लेना चाहते हैं. आप समझ रहे होंगे कि मेरा इशारा किस तरफ है.

हजारीप्रसाद जी के कुछ पत्र मुझे ऐसे मिले, जिसमें उत्तराखंड का आत्मीय ज़िक्र है. उन्होंने 1975में कोटद्वार की यात्रा की और हेमवतीनंदन बहुगुणाजी को पत्र में अपने उद्गार बताए. वे कोटद्वार स्थित कण्वाश्रममें मालिनी के तट तक जाकर अभीभूत थे. कालिदास उन्हें बहुत प्रिय थे और कोटद्वार में उन्हें उनकी आत्मा दिखाई दी. एक पत्र में वे लिखते हैं कि मेरा दृढ़ विश्वास है कि मैदान में रहने वालों को नई स्फूर्ति पाने के लिए इन पहाड़ों, जंगलों और नदी-नालों को ज़रूर देखना चाहिए. 22  मुझे इस बात से याद आती हैं भारतभूषण अग्रवालकी ये पंक्तियाँ- सब समतल में ही इठलाते- इतराते हैं/ पहाड़ों पर / आदमी तो आदमी/ पेड़ तक सीधे हो जाते हैं ! 23

अन्त में अब आइए थोड़ा व्यक्तिगत हो जाएँ. हमने हजारीप्रसाद जी के ठहाकों के बारे में सुना है. इन पत्रों में दुख की वह नदी भी है, जिसमें डूब कर वह गहराई हासिल होती कि आसमान तक जाता ठहाका लगाया जा सके. ख़ुद हजारीप्रसाद जी के शब्दों में जो रोया नहीं उसे हँसने का भी अधिकार नहीं. 24इन पत्रों में दर्ज़ है उनकी पत्नी की गम्भीर बीमारी और बेटी का असमय देहान्त. जीवन भर मर-खट कर भी उधार चुकाने की चिन्ता, साहित्य में अकारण हुआ विरोध, बनारस की टीसती याद और ऐसा ही बहुत कुछ.

मुझे याद पड़ता है कि रवीन्दनाथ टैगोर ने एक प्रसिद्ध गीत में कहा है कि पथ आमारे पथ देखाबेयानी रास्ता ही मुझे रास्ता दिखाएगा. हजारीप्रसाद जी ने इस बात को आत्मसात किया और पहले से दूसरों की तय की हुई मंजिलों की तरफ नहीं बढ़े. जब भी हजारीप्रसाद जी को पढ़ता हूँ तो मुझे अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवालकी ये पंक्ति गूँजती हुई-सी महसूस होती है कि पोथी पतरा ज्ञान कपट से बहुत बड़ा है मानव.  पोथे-पतरे-ज्ञान-कपट को पहचानने और दूसरों को उसकी पहचान कराने वाला एक लेखक हमारी परम्परा में हजारीप्रसाद जी के रूप में मौजूद रहा है, इस बात का मुझे गर्व है. ज्ञान-कपट से मुक्त इस ख़ुदमुख़्तार इंसान और हिन्दी के अद्भुत लेखक को हमारी विनम्र याद उन्हीं की इन कुछ काव्यपंक्तियों के साथ --

मार्ग बहुत सुन्दर है
गाड़ियाँ, घोड़े, पदातिक सभी के उपयुक्त
सुना है उसको पकड़कर चल सके कोई
पहुँचता लक्ष्य तक निर्भ्रान्त

जानता हूँ मानता हूँ
लक्ष्य तक निर्भ्रान्त जाना चाहता हूँ
सड़क पक्की और छायादार यह है

किन्तु मैं मजबूर हूँ
कंकड़ों में
कंटकों में
दूर जंगल में -
भटकना है बदा
नहीं तो जी नहीं सकता

कोई न देता ध्यान
मैं भटकता बढ़ रहा हूँ
लक्ष्य से अनजान

सोचता हूँ  क्या यही है लक्ष्य जीवन का
जीते जाओ
पीते जाओ
अपने क्षोभ को ही

दूरवाले समझते हैं आदमी यह प्राणवन्त महान
कंकड़ों पर चल रहा है
कंटकों को दल रहा है
किन्तु मैं हूँ जानता इस रास्ते की मार

और मैं हूँ जानता
पक्की सड़क के नहीं पाने का
भयंकर घाव

सोचता हूँ रौंदकर क्या
बन न सकता एक सुन्दर मार्ग
जिसे जीने की ललकवाले
करें उपयोग? 25

(एकेडेमिक स्टाफ कालेज, कुमाऊँ विश्वविद्यालय द्वारा एस.एस.जे परिसर अल्मोड़ा में आयोजित पुनश्चर्या पाठ्यक्रम (7दिसम्बर से 27दिसम्बर 2007) में विषय विशेषज्ञ के रूप में दिया गया व्याख्यान)

______________________
सन्दर्भ
1. बाँदा में हुई एक व्यक्तिगत बातचीत से
2. हिन्दी साहित्य की भूमिका, निवेदन, संस्करण 1978
3. ग़ालिब, दीवान-ए-गालिब / संपादक अली सरदार जाफरी, संस्करण 1999, पृ0 39
4. तद्भव -12, पृ0 135
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण 1972, पृ0 43
6. वही, पृ0 11
7. हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृ0 13
8. वही, पृ0वही
9. वही, पृ0 61
10. वही, पृ0 50
11. वही, पृ0 51
12, वही, पृ0 58-59
13. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-11, दूसरा संस्करण 1998, पृ0 294
14. वही, पृ0 305
15. वही, पृ0 312
16. वही, पृ0 292
17. वही, पृ0 291
18. दुनिया रोज़ बनती है, संस्करण 2002, पृ0 45
19. गंथावली-11, दूसरा संस्करण 1998, पृ0 302
20. वही, पृ0 328
21. वही, पृ0 366
22वही, पृ0 331

23. उतना वह सूरज है, पृ0  27
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पहला क़दम, शब्दों के झुरमुट में, पृथ्वी पर एक जगह, जैसे कोई सुनता हो मुझे (कविता संग्रह )
लिखत-पढ़त, शानी का संसार(आलोचना
धरती जानती है (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद का संग्रह) कू-सेंग की कविताएँ (अनुवाद)

धनुष पर चिड़िया (चंद्रकांत देवताले की स्‍त्रीविषयक कविताओं संग्रह) (संपादन ) आदि
shirish.mourya@rediffmail.com

हस्तक्षेप : ख़ुदा की वापसी : अपर्णा मनोज

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स्वाधीन भारत में मुस्लिम औरतों  ने शाहबानो से सायरा बानो तक लम्बा सफर तय किया है. यह लड़ाई उन्होंने खुद अपने दम पर लड़ी है. अगर शाहबानो केस में तब की सरकार और मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने औरतों का साथ दिया होता तो न केवल इन औरतों की स्थिति बेहतर हुई होती, भारतीय राजनीति का यह दक्षिणपंथी उभार भी शायद इस रूप में नहीं दीखता.

यह ऐतिहासिक बदलाव है, इसे और आगे बढ़ते जाना है जबतक हर क्षेत्र में औरत और मर्द बराबरी और समान सम्मान के हकदार नहीं हो जाते.

लेखिका अपर्णा मनोज इधर मुस्लिम औरतों की स्थिति पर शोध कार्य में व्यस्त हैं. एकमुश्त तीन तलाक पर  सुप्रीम कोर्ट के इस रोक की घटना पर उन्होंने नासिर शर्मा के कहानी-संग्रह ‘ख़ुदा की वापसी’ को ध्यान में रखते हुए इससे जुड़े तमाम मसले उठायें हैं.


ज़ाहिर है इससे इन मुद्दों पर रौशनी तो पड़ती ही है एक समझ भी विकसित होती है.

ख़ुदा की वापसी                                  
अपर्णा मनोज 


रवरी, सन् 2016 को सायरा बानो की तीन तलाक, निकाह-हलाला और बहुविवाह  को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी याचिका और इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा किन्हीं दो केसों की सुनवाई के दौरान तीन तलाक और बहुविवाह को असंवैधानिक एवं क्रूरतापूर्ण मानते हुए इन्हें मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल मानना, फिर से उस प्रस्थान बिंदु की तरफ़ ले जाता है – जहाँ 60 साल की शाहबानो गुज़ारे भत्ते की गुहार लगाती, अपनी पीडाओं के साथ आज भी खड़ी है और सर्वोच्च न्यायालय का उसके हक़ में फ़ैसला मील का पत्थर साबित होने के बाद भी 1986 का विधेयक मुस्लिम स्त्री को उप-मानव में तब्दील कर देता है.

मुस्लिम औरत की लड़ाई मजहब की लड़ाई नहीं है वरन यह उस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था से लड़ाई है जिसनें मजहब के नाम पर कई मुखौटे पहन लिए हैं और औरत की घेराबंदी की है. औरत ही इस दुर्ग को तोड़ेगी. स्त्री-चिंतन की जो धाराएं मगरिब से मशरिक तक आती हैं या मशरिक से चलकर मगरिब को प्रभावित करती हैं, वे भी अपने आप में नितांत अकेली और सक्षम नहीं हैं –कहीं वे साम्राज्यवाद की दहलीज़ को फांदकर आई हैं तो कहीं उपनिवेशवाद के कैदखानों से लड़कर निकलीं हैं, लेकिन उनके अतीत की लम्बी परछाइयाँ अभी भी उनके साथ हैं. ये लड़ाइयाँ अकेली हौवा की लड़ाई नहीं है –उसका सामना एक समूचे भूगोल से होता है. पूरे इतिहास और कालखंड से वह टकराती है.

इस्लाम में औरत भी हर जगह अलग-अलग मोर्चों पर अपनी तरह संघर्षरत है. बहुसंख्यक मुस्लिम देशों में उसकी स्थिति भिन्न है, शरिया की भ्रामक या पितृसत्तामक व्याख्याएँ उनके विकास में बाधक रही हैं; इसके विपरीत पश्चिम में मुस्लिम निजी विधि न होने से कई बार उनकी स्थिति वंचितों जैसी है. हिंदुस्तान जैसे प्रजातान्त्रिक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में भी मुस्लिम समाज की महिलाएँ बदहाली में हैं. मुस्लिम स्त्री की इस दशा पर बात करते हुए ज़ोया हसनकहती हैं कि “मुसलमान और मुस्लिम औरत के बारे में हिंदुस्तान में और दुनिया में जो नज़रिया है, वह बंधा-बंधाया है. मुस्लिम औरत की स्थिति पर बात हमेशा इस्लाम के नज़रिए से की जाती है. यह नज़रिया ही गलत है. कुरआन में औरतों के बारे में क्या लिखा है, इस नज़रिए से मुस्लिम औरत की स्थिति पर बात करना गलत दृष्टिकोण है. दूसरे धर्म की औरतों पर बात करते समय धर्म केंद्र में नहीं होता, बल्कि उनकी स्थिति को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आधारों पर परखते हैं.”[i]

असगर अली कठमुल्लापन और जड़ता को इसके मूल में देखते हैं. तीन तलाक जैसी कुरीति को वह गैर इस्लामिक मानते हुए कुरआन का ही तर्क देते हैं, “अगर तुम दोनों के बीच बिगाड़ का डर हो तो एक न्यायकर्ता उसके (पति) पक्ष और दूसरा न्यायकर्ता स्त्री के लोगों में से नियुक्त करो. अगर वे दोनों आपस में सुलह का मन रखेंगे तो अल्लाह उनके बीच अनुकूलता पैदा कर देगा.” (सूरा 4:35) लेकिन कुरआन की इस हिदायत के बाद भी तीन तलाक को समाज में लोग अनुमोदित करते हैं जबकि एक ही झटके और एक ही सांस में वह वैवाहिक जीवन उजाड़ देता है. ऐसे कृत्य को इस्लामिक कैसे कहा जा सकता है? यह स्त्री पर सबसे बड़ा कहर है और घोर अन्याय. जबकि न्याय कुरआन की मुख्य तालीम है.[ii]अतः कुरआन तलाक को निम्न मानता है और पूर्व तलाक के पश्चात केवल अत्यावश्यक दशाओं में अनुज्ञा देता है, इसलिए मुस्लिम पति अपनी पत्नी को उमंग तथा शौक से तलाक नहीं दे सकता. (जीनत फ़ातिमा राशिद बनाम मु. इकबाल अनवर, 1 (1993) डी.एम्.सी. 49 गुवहाटी)[iii]

नासिरा शर्मा औरत की बदनसीबी का कारण उसके मज़हब के आधे-अधूरे ज्ञान को मानती हैं. शौहर उसका मजाज़ी खुदा है और उसकी बात मानना जन्नत की कुंजी है. “हिन्दुस्तानी औरत धर्म और शरीयत क़ानून की बारीकी को नहीं समझती, इस कारण वह साऊदी अरब की नई नस्ल की तरह निकाहना में में बयान शर्तों में कुछ और शर्तों का इज़ाफ़ा नहीं करवा पाती है..जो शर्तें बढ़ाई हैं वे बेहद दिलचस्प हैं कि पति तनख्वाह पत्नी के हाथ में लाकर दे, सास-बहू में पट न रही हो या कोई अन्य कारण, जैसे मकान छोटा हो, तो पत्नी को इसका अधिकार है कि वह अलग घर में पति के साथ जाकर रहे. पति को हफ्ते में एक बार चाहे जुमा या जुमेरात को घर- गृहस्थी का बोझ उठाना है, क्योंकि वह भी इस घर में रहता है. ईराक में बिना कारण के दूसरी शादी करना ज़ुर्म है. यदि तलाक होता है, तो घर पति छोड़ के जाएगा. बच्चे हैं तो लालन-पालन का तब तक खर्च देगा, जब तक वे बालिग़ नहीं हो जाते हैं.”[iv]

शरीयत कानूनों को समझकर दुनियाभर में मुस्लिम स्त्रियाँ अपनी उन्नति के लिए इस्लाम की नवीन व्याख्याएँ कर रही हैं, फ़ातिमा मेरिनिस्सी, रिफ़अत हसन, लीला अहमद, अमीना वदूद, असमा बरलसआदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं जो शरीयत लॉ को समझने के लिए न केवल यत्न करती रहीं बल्कि धर्म में सालों से घुस आई कुरीतियों, प्रथाओं, परम्पराओं के जाले भी साफ़ करती रही हैं, फलतः विश्व स्तर पर आंदोलन चल पड़े हैं और कई देशों ने प्रगतिशील रुख अपनाते हुए जरूरी सुधार किये हैं, जो इस्लाम में तकलीद की जगह इज्तिहाद के फलसफे को तरजीह देने का सकारात्मक प्रयास है. 1943 में मिस्र ने अपने उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन किया. 1953 में सीरिया ने निकाह और तलाक कानूनों को दुरुस्त किया. मोरक्को और ईराक ने इस दिशा में कई बेहतर प्रयास किये. मोरक्कोमें मोडावना नई परिवार-संहिता लेकर आया. सन् 2000 में इसका ड्राफ्ट बना और सन् 2003 में यह लागू हुआ. क़ानून बनने के बाद भी उन्हें लागू करना आसान नहीं होता. परम्पराओं, प्रथाओं और क़ानून के बीच तालमेल बैठाने में सालों लग जाते हैं.

भारत में  बदलाव की गति बहुत धीमी रही है. ऐसा कोई ठोस आन्दोलन दिखाई नहीं देता जो किसी विचारधारा और प्रारूप को लेकर चल पड़ा हो. कहीं क्रमिकता दिखाई नहीं देती. तात्कालिकता की आग में सपने जलकर राख हो जाते हैं, लेकिन कोई हल नहीं निकलता.

समकालीन परिदृश्य में जब तक एक मिलाजुला संवाद स्थापित नहीं होगा, तब तक किसी भी तरह का विमर्श मुकाम पर नहीं पहुँच सकेगा. अंतः संवाद साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, विधिवेत्ताओं और समाज सुधारकों के बीच स्थापित होने पर ही नए मोर्चे बनेंगे और नया मिजाज़ बनेगा –जहाँ बेहतर तब्दीलियों की संभावनाएं होंगी.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के 22 अगस्त 2017 के ऐतिहासिक फैसले ने संवाद और उम्मीदों का रास्ता खोला है. 365 पेज का यह फैसला भारतीय मुस्लिम स्त्री को राहत देते हुए कहता है कि ‘3:2 के बहुमत से दर्ज की गयी अलग-अलग राय के मद्देनज़र ‘तलाक-ए-बिद्दत’ तीन तलाक को निरस्त किया जाता है.’

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का तहे दिल से स्वागत. इस फैसले का अनुमोदन करते हुए मुझे दो किताबें याद आ रही हैं – एक तोनासिरा शर्माकी ‘ख़ुदा की वापसी’और दूसरी नूर ज़हीरकी ‘डिनाइड बाय अल्लाह’.

नासिरा शर्मा के बहुआयामी लेखन ने इधर कई खिड़कियाँ स्त्रियों के लिए खोली हैं. मधुरेश उनकी कहानियों को महिला लेखन में अंतर्वस्तु के विस्तार का उल्लेखनीय उदाहरण कहते हैं.[v]औरत उनकी कहानियों में अपने समग्र वज़ूद और क़ुव्वत के साथ पैबस्त है. कामगार औरतें, मजदूर औरतें, खुद मुख्तार औरतें अपनी लड़ाई बीच में ही मुल्तवी नहीं करतीं; परिवेश के दबाबों से वे खुद को बरख़ास्त नहीं करतीं, बल्कि कफ़न और दफ़न के बाद भी वे अपना संघर्ष छोड़ जाती हैं. नासिरा शर्मा के केंद्र में औरतें हैं क्योंकि, “कोई भी कहानी औरत के बिना अधूरी है. ख़ुदा के बाद अगर किसी को रचना और सृष्टि की ताकत मिली है, तो वह औरत है. सवाल यह है कि जब अपने आसपास के वातावरण को कहानी में लाते हैं तो उसमें जो प्रगतिशील और गतिशील चीज़ें ही लाते हैं. मर्द का जो व्यक्तित्व है वह पिछले पांच हज़ार साल से उतना बदला नहीं है जितना औरत का और यह बदलाव ही सामाजिक चेतना को प्रेरित करता है.”[vi]

‘शामी कागज़’, ‘पत्थर गली’, ‘संगसार’, इब्ने मरियम’, ‘सबीना के चालीस चोर’, ‘ख़ुदा की वापसी’, ‘बुतखाना’, ‘दूसरा ताजमहल’, ‘इंसानी नस्ल’ उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं.



‘ख़ुदा की वापसी’सन् 2001 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. इसमें कुल नौ कहानियां हैं. इन कहानियों के केंद्र में शरीयत क़ानून है और बहुत बारीकी से लेखिका स्त्रियों की उन पीड़ाओं की दरयाफ्त करते चलती हैं, जिनकी वजहें या तो शरीयत का कुपाठ है या फिर अंधी तक्लीदें, जिन्होनें सदियों से औरत की दुर्गबंदी की है. कहानियां एक तरह से शरीयत का उत्तर बुनियादी पाठ भी रचती हैं. यानी बुनियाद में रहकर बुनियाद के बाहर निकलती हैं. बुनियाद को डीकंस्ट्रक्ट करके रचनात्मक परिवेश बनाती है ताकि स्त्री अपने अधिकारों का उपयोग करना सीख सके. 


नासिरा शर्मा अपनी कहानियों के प्राक्कथन में संग्रह को लेकर अपने डर भी बयां करती हैं, कि जब हर तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा हो, उस समय ये कहानियां कहीं उसी का पाठ न समझ ली जाएँ.[vii]कहानियों को पढ़ते वक्त एक तल्ख़ अहसास होता है कि लेखिका मजहब के पास नहीं गईं बल्कि उस आहत सायकी या चित्त से रू-ब-रू हुईं जिसने दोहरी मार खायी – समाज की मार और शरिये की आड़ में पितृसत्ता और धर्म की मार. जिस शरिये ने उसे गढ़ा है, यह वह शरिया नहीं है जिसने 1400 साल पहले उसे कई अधिकार दिए थे, बल्कि यह वह शरिया है जिसे आदतन अपनी सहूलियत से पुरुष पढ़ता रहा और लोक में ये सहूलियतें स्त्री के लिए चारदीवारी बन गईं. इन कहानियों से नासिरा शर्मा वे ताले खोलती हैं जो मजहब का ज़िक्र करके पुरुष ने उसकी चेतना पर डाल दिए हैं. नासिरा इन कहानियों के संदर्भ में कहती हैं कि, “पिछले कई वर्षों में शरीयत क़ानून का मैंने अध्ययन किया और जो औरत के लाभ में जाने वाले क़ानून –जैसे औरत भी मर्द को तलाक दे सकती है यदि वह विवाह धर्म नहीं निभा पा रहा हो या फिर मेहर क्या है? विवाह के लिए किन चीज़ों का होना अतिआवश्यक है? विवाह में औरत की  मर्ज़ी के बिना निकाह स्वीकार नहीं हो सकता है. वह विवाह अवैध माना जाएगा. इन सारे कानूनों को लेकर मैंने कहानियां भी लिखीं, ताकि वह पात्रों की व्यथा द्वारा पाठकों के दिमाग में घर कर जाएँ. सारी कहानियों को एक संग्रह का रूप दिया. इस संग्रह का नाम ख़ुदा की वापसी रखा.”[viii]

मेहर की इस्लामिक विवाह संस्था में महत्त्वपूर्ण स्थिति है. यह मात्र प्रतिफल नहीं है जो विवाह की संविदा के समय सुनिश्चित हो जाता है. यह पति द्वारा पत्नी के प्रति दायित्व एवं सम्मान का प्रतीक है. मेहर मुस्लिम विवाह का अभिन्न अंग है और इसके बिना विवाह शून्य हो जाता है. मुस्लिम विधि के अनुसार, “मेहर वह धनराशि या संपत्ति है जिसका कुछ मौद्रिक मूल्य होता है और इसे प्राप्त करने के लिए पत्नी अधिकृत है. इसे वह विवाह के प्रतिफल स्वरुप प्राप्त करती है.”[ix]मेहर दो तरह से दिया जाता है – तुरंत मेहर (इसका भुगतान विवाह के तुरंत बाद होता है) और स्थगित मेहर( इसका भुगतान पत्नी को विनिर्दिष्ट अवधि के बीतने के पश्चात किया जाता है. विवाह विच्छेद या पक्षकार की मृत्यु होने पर इसका तुरंत भुगतान होता है)

कहानी ‘ख़ुदा की वापसी’ इसी मेहर के इर्द-गिर्द घूमती है. नायिका फरज़ाना पढ़ी-लिखी लड़की है. उसका विवाह जुबैर से होता है और निकाहनामे के साथ पचास हज़ार का मेहर बंधता है. पहली रात है. दूल्हा-दुलहन साथ हैं. जुबैर मज़हब और कानूनी किताबों के हवाले से कहता है कि “वह औरत शौहर के लिए बहुत मुबारक होती है जो पहली रात अपने शौहर का मेहर माफ़ कर देती है. वह बड़ी पाकदामन समझी जाती है.”[x]यही वह पैराडाइम है जहाँ से फरज़ाना की जद्दो-जहद शुरू होती है. बात मेहर अदायगी की नहीं है, बात उस रिश्ते की शुरुआत से है जो एक छद्म बुनियाद पर खड़ा है. फरज़ाना शरीयत क़ानून की छान-बीन करती है और अंत में उसका द्वंद्व उस ज़मीन पर खत्म होता है जब इमाम अली उससे कहते हैं, “किरदार का हथियार दौलत, ताकत, शोहरत के हथियारों से कहीं तेज़ और चमकदार होता है, क्योंकि वह इंसानी वज़ूद को कायम रखता है.”

फरज़ाना जुबैर से अपना हक़ मांगती है. फरज़ाना जुबैर को छोड़कर पीहर चली जाती है. जुबैर हालात से फरार होना चाहता है. वह पांच साल के अनुबंध पर सऊदी चला जाता है. फरज़ाना अकेली है और बार-बार एक सवाल खुद से पूछती है कि “जो बसेरा छोड़ आई उसकी आस क्या? वहां तुझे समझने वाला कौन बैठा था?”लेकिन फरज़ाना की लड़ाई उन स्त्रियों जैसी लड़ाई नहीं है जो मुक्ति की तलाश में युद्ध की भंगिमाओं को अपनाकर खुद को अमानवीकृत पौरुष की उस आखिरी विकृति को निभाने की सज़ा सुना देती हैं जिसका एकमात्र परिणाम आत्महत्या जैसा विशिष्ट मर्दाना अंत है.[xi]फरज़ाना तनहा पर ईमान की जिंदगी का चुनाव करती है और सपना देखती है कि जुबैर बदल रहा है, जैसे आधी दुनिया बदल रही है.


कहानी ‘दिलआरा’ का कथानक विवाह संस्था के कई पहलुओं को लेकर चलती है, यथा इस्लाम में स्त्री को अपनी पसंद से शादी और मर्ज़ी से तलाक (खुला) का अधिकार है. बेवा साजदा बेगमअपना मदरसा चलाती हैं जो वहां के मौलवी के लिए खुली चुनौती है, पर साजदा अटल है. साजदा के पास दिलआरा अक्सर आती है और शरीयत के उसूलों को ध्यान से सुनती है. वह जमाल से विवाह करना चाहती किन्तु जमाल गरीब परिवार से है. दिलआरा का निकाह उसके माँ –पिता कहीं और करना चाहते हैं, लेकिन वह अपनी पसंद पर कायम है और शादी से इनकार कर देती है. जमाल की अपनी मजबूरियां हैं. वह दिलआरा से निकाह नहीं कर सकता और दिलआरा – जिसको वह पसंद नहीं करती, उससे शादी क्यों करे? कहानी इस टोन पर खत्म होती है कि किरदार अपनी कहानी खुद लिखेगा. कहानी का इथॉस एकदम घुटन के बरअक्स खुले आकाश में विचरण करना चाहता है और इस आज़ादी को वह वहीँ से हासिल करता है जब साजदा कहती है कि “जैसी रिवायत है कि हज़रत ख़दीज़ा ने खुद अपनी पसंद का इज़हार करते हुए पैगंबर से शादी की बात कही थी.”[xii]रिवायत यह भी है कि “पैगंबर साहब की एक बीबी असमा थीं. निकाह के बाद हुज़ूर अकरम उनके पास जाते, इससे पहले उन्होंने तलाक की ख्वाहिश ज़ाहिर की और उनकी मर्ज़ी का लिहाज़ कर हुज़ूर ने उन्हें खूलाह की आज़ादी दी.”[xiii]कहानी परम्परा के बहाने समकाल में पैर रखती है और मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियों के लिए स्पेस क्रिएट करती है. कहानी की सीमा है कि वह बागी होकर शरीयत के फ्रेम से बाहर नहीं आ पाती और उसी में प्रतिगामी ताकतों से लड़ने को मजबूर है. वह अपने इतिहास और स्मृतियों में ही जन्म लेती है और वहीँ चुक जाती है.


‘पुराना क़ानून’ कहानी मुस्लिम विधि के स्रोत और निर्वचन ‘इज्मा’ का अप्रत्त्यक्ष रूप से प्रवर्तन करती है, यथा “जब अनेक व्यक्ति जो मुस्लिम विधि में विद्वान हों तथा किसी प्रकार की विधि शास्त्रियों की श्रेणी को प्राप्त किये हों, किसी विशेष प्रश्न पर सहमत हों, उनकी राय बाध्यकारी होती है तथा विधि का बल रखती है. वास्तव में इस सम्बन्ध में पैगंबर मुहम्मद साहब की सुज्ञात परम्परा है कि, मेरे लोग गलती पर सहमत नहीं होंगे.”[xiv]


कहानी में नन्हे माली की बेटी अफसाना का फ़साना है. माली बिरादरी के एक लड़के शमीम से अफ़साना का निकाह होता है. शमीम छोटा-मोटा फ्लोरिस्ट है. उसका सपना है कि उसका अपना फूल कॉर्नर हो. अफ़साना फैशनेबल लड़कियों की तरह रहना सीखे पर अफ़साना की विडंबना है कि यदि वह ऐसा करती है तो उसे मोहल्ला, घर और माहौल तीनों को बदलना पड़ेगा और फिर मालिनों की बिरादरी में उसकी गुज़र कैसे होती? वह बदल नहीं सकती और शमीम उसके साथ निभा नहीं सकता. उसके फूल कॉर्नर पर रुबीना आया करती है. दोनों की मुलाकातें होने लगती हैं पर रुबीना से उसकी शादी असंभव है और अफ़साना के साथ बसर नामुमकिन. शमीम तिहरे तलाक का नोटिस अफ़साना के पास भिजवा देता है और खुद लापता हो जाता है. सारी बिरादरी इस शोक में शामिल है. अफ़साना अब तलाकशुदा है और बिना हलाला के वह शमीम के पास लौट नहीं सकती, यानी अफ़साना किसी और मर्द से निकाह कर उसके साथ रात गुज़ारे. फिर सुबह उसे तलाक लेकर शमीम से दोबारा निकाह पढ़वाया जाए.[xv]
नासिरा शर्मा 


उधर शमीम इरफ़ान दर्जी शमीम को घर दमादू के रूप में स्वीकार चुके थे. बिरादरी के कहने पर शमीम की फोटो अखबार में छपवा दी गयी थी. अखबार में शमीम की तस्वीर देखकर इरफ़ान दर्जी सकते में आ जाता है. वह किसी तरह के कानूनी दाँव-पेच में नहीं पड़ना चाहता. मजबूरन शमीम घर लौट आता है. “बैठक शमीम के पिता लुबान के घर के सामने वाले चबूतरे पर बैठी. चाय पानी का खर्चा भी उन्हीं के मत्थे रखा गया. दोनों तरफ के लोग जमा हुए...लम्बे सवाल-जवाब के बाद फैसला सुना दिया गया, जो पहले से तय था कि शमीम अपनी लुगाई साथ रखेगा. यदि उसे पत्नी से शिकायत है तो जांच-पड़ताल की जायेगी. तब उसे शरी तौर पर तलाक लेने की मंजूरी मिलेगी वरना नहीं. चूँकि उसने न केवल शरीयत बल्कि माली रिवायत के विरुद्ध कदम उठाया है. इस जुर्म की सज़ा के तौर पर उसे पांच सौ रुपये बतौर जुर्माना अफ़साना को देना है और सारी बिरादरी से माफ़ी मांगनी है.”[xvi]


लब्बोलुबाब है कि शमीम के मिजाज़ की कमान टूटते टूटते टूट गयी और अब वह बाप की तरह तहमत पहन उसी की तरह सफ़ेद किरोशिया की जालीदार टोपी लगाए, साइकिल के पीछे बड़ा टोकरा बांधे गुलाबबाड़ी की तरफ़ जाता है और अफ़साना का दिल कई दिनों में जाकर मोम हुआ.

कहानी बिरादरी की पंचायत जो विभिन्न मुस्लिम स्थानीय उपसांस्कृतिक समूहों की विशेषता है, उसे भी साथ लेकर चलती है. इसे गंगा-जमुनी प्रभाव के चलते भी देखा जा सकता है, लेकिन पैगंबर साहब के द्वारा की गयी इज्मा की व्यवस्था अधिक अनुकूल जान पड़ती है.

लेकिन इस कहानी की सीमा है कि इसकी ‘अफ़साना’ शायरा बानो, इशरत जहाँ, गुलशन परवीन, आतिया साबरी और आफरीन रहमान की तरह जुझारू नहीं है, बल्कि पीड़िता पूरी तरह बिरादरी की रवायतों और उसूलों के सुरक्षा कवच में कमज़ोर साँसें लेती है. अफ़सानाओं की त्रासदी के कई डिसजॉइंट्स हैं. मैं इम्तियाज़ अहमदद्वारा सम्पादित पुस्तक ‘डाइवोर्स एंड रिमैरिज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया’में आनंदिता दासगुप्ताके लेख ‘बिटवीन टू वर्ल्डस: डाइवोर्स अमंग असमिया मुस्लिम्स ऑफ़ गोहाटी’का उल्लेख करना चाहती हूँ जो असमिया  सन्दर्भ में इस्लामिक विवाह को कॉन्ट्रैक्ट की तरह स्वीकार नहीं करता. वह किसी भी तरह के निकाहनामे, मेहर की परम्परा के साथ अपने को जोड़कर नहीं देख पाता. विवाह को वह जीवनभर का रिश्ता मानता है. तलाक यहाँ इतना सामान्य नहीं जितना अन्य प्रान्तों में है. आसाम की ब्रह्मपुत्रा घाटी में तलाक-ए-बिद्दत प्रचलन में नहीं है, जबकि बराक घाटी के ना-असमिया मुसलमानों में तिहरा तलाक सामान्य है. बहु-विवाह भी इसलिए यहाँ प्रचलित है जबकि ब्रह्मपुत्रा घाटी में यह बुरी नज़र से देखा जाता है और इसे हतोत्साहित किया जाता है. घाटी में निकाहनामे पर दस्तख़त और मेहर बाँधने की रस्म तभी की जाती है जब लड़कियों का विवाह गैर-असमिया मुसलमानों के साथ संपन्न होता है.

बाहर विवाह होने की स्थिति में पढ़ी-लिखी लड़कियों की हालत भी ‘अफ़साना’ जैसी हो जाती है, यथा शमा सुल्तानगोलाघाट की रहने वाली हैं. मुंबई विश्वविद्यालय से उसने पोस्टग्रेजुएट किया. राहिल अली जो बिहारी मुस्लिम है, से उसका प्रेम विवाह हुआ. राहिल के तबादले होते रहते थे इसलिए उसने कोशिश करके किसी भी तरह अपनी पोस्टिंग पटना करवा ली. शमा संयुक्त परिवार में आ गयी. वह यहाँ के रस्मों-रिवाज़ से अनभिज्ञ थी. फिर उनके कोई संतान भी नहीं थी. धीरे-धीरे वह पारिवारिक हिंसा का शिकार होती गयी. उसका पति दूसरी शादी करना चाहता था. सौतन असमिया मुस्लिम स्त्रियों के लिए टेबू है. फिर तलाकनामे पर दस्तख़त लेकर और मेहर अदा करके पक्के मुसलमान की तरह राहिल उससे अलग हो गया. शमा अपने घर लौट आई.[xvii]स्ट्रेटीफिकेशन और पितृसत्ता में शमा और अफ़साना अपनी-अपनी तरह से अन्तः स्थापित हैं. क्या नए कानून, विधेयक पूरी तरह से इस देश की लड़कियों को न्याय दिलवाने में सक्षम होंगे?

इस संग्रह की लगभग सभी कहानियां शरीयत के इर्द-गिर्द घूमती हैं और स्थापित करती हैं कि, “जो औरतें पिछड़ी हैं, जिन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है, वे दुखी हैं. मर्द को बेलगाम अधिकार इस्लाम ने नहीं दिए. उसने औरत की कमजोरी के कारण धर्म के नाम पर बेलगाम अधिकार प्राप्त कर लिए हैं.[xviii]

इस तरह इस संग्रह की सभी कहानियां परम्परा को संजोते हुए आधुनिक कलेवर में पाठक तक आती हैं और यही इस संग्रह की ताकत है.
सन्दर्भ

[i]हंस अगस्त-2003, पृ. 15
[ii]इंजीनियर अली असगर, मुस्लिम्स एंड इंडिया, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, एडिशन 2006, पृ 271
[iii]अहमद ज़फर, मुस्लिम विधि, ओरियेंट पब्लिशिंग कंपनी, प्रथम संस्करण 2015, पृ 92
[iv]शर्मा नासिरा, राष्ट्र और मुसलमान, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011 पृ 95
[v]मधुरेश, हिंदी कहानी का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, प्रथम संस्करण 2009, पृ 187
[vi]शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ 170
[vii]शर्मा नासिरा, कहानी समग्र -2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011, पृ 383
[viii]शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ 87
[ix]नकवी अकबर खुर्शीद, मुस्लिम विधि, ओरियेंट पब्लिशर्स, इलाहाबाद, दूसरा संस्करण 2015, पृ 224
[x]शर्मा नासिरा, कहानी समग्र -2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011, पृ 393
[xi]ग्रीयर जर्मेन, बधिया स्त्री, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2005, पृ 286
[xii]शर्मा नासिरा, कहानी समग्र -2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011, पृ 463
[xiii]वही, पृ 463
[xiv]अहमद ज़फर, मुस्लिम विधि, ओरिएंट पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण 2015, पृ 19
[xv]शर्मा नासिरा, कहानी समग्र -2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011, पृ 483
[xvi]वही, पृ 491
[xvii]अहमद इम्तियाज़, डाइवोर्स एंड रिमैरिज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया, मनोहर पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण 2003, पृ 61
[xviii]शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ 188



अपर्णा भटनागर
लेखिका, अनुवादक, शोधार्थी
 aparnashrey@gmail.com 

नरेंद्र पुंडरीक की कविताएँ

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कवि नरेंद्र पुंडरीकके कवि-कर्म  पर सुशील कुमार की टिप्पणी और साथ में कुछ नई कविताएँ. 




नरेंद्र पुंडरीक नब्बे के दशक और इक्कीसवीं सदी के एक ऐसे ही वरिष्ठ लोकधर्मी कवि हैं जिनकी कविताओं के लोक का द्वन्द्व और संघर्ष उनके सच्चे "इतिहास-बोध"से पैदा हुआ है.वे केदार बाबू की धरती बांदा (ऊ प्र) के रहने वाले हैं.उन्होंने न केवल केदार बाबू की काव्य परम्परा को एक नई शगल और शिल्प दिया है, बल्कि उसका बहुत प्रसन्न विकास भी किया है.
कविता में बिना इतिहास-बोध के लोकचेतना आ नहीं सकती। तब वह लोक के बजाए फोक (folk) की चेतना हो जाती है. इतिहास-बोध ही कवि के अंदर वर्तमान परिवेश के प्रति द्वन्द्व को जन्म देता है. वर्तमान और भूत के इन्हीं अनुभवों का संस्कार नरेंद्र पुंडरीक की कविताओं में पाया जाता है.

रेंद्र पुंडरीक की कविताओं का इतिहास बोध उसकी इतिवृत्तात्मकता से मिलकर एक अपूर्व नाटकीय संवेग (मोमेंटम) पैदा करता है. यह लोकचेतना का नवीन आयाम है जिसे उनकी प्रायः हर कविता में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है.

कवि जब कविता में कोई कथाक्रम रचता है तो वहां इतिहास-बोध की बहुत जरूरत होती है. यही इतिहास-बोध उसे युगबोध में बदलता है वरना कविता केवल समय का बयान भर बनकर रह जाती है. इस फन में नरेंद्र का कवि बहुत माहिर हैं.

नरेंद्र पुंडरीक की कविताएँ अपने समय का जो लोक रच रही हैं, वह बाजार के विरुद्ध खड़ी है और जन के पक्ष में वकालत करती है, उसमें कला या फैटेसी का कोई आग्रह नहीं। कवि से कला का जो क्षण अनजाने में छूट जाता है, वह ही उनकी कविता में कला के रूप में प्रकट होता है. इसे ही हम कलाहीन कला (artless art) कहते हैं जो जनवादी कविता को द्युति प्रदान करती है.”
सुशील कुमार 








रेखांकन : लाल रत्नाकर

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ  
                           






मेरे पढे़ लिखे में
                  
मैं लिखनें में लगा रहता हूं
पत्नी आकर धीरे से
चाय रख जाती है,

मैं पढ़ने में लगा रहता हूं
पत्नी आती है.
स्टूल खिसका कर धीरे से
रख देती है नाश्ते की प्लेट ,

मेरे नाश्ता खत्म करते करते
पत्नी आती है लेकर
पानी का गिलास
धीरे से कहती है
खानें में क्या लेंगें ,

मैं कहता हूं
जो मन कहे बना लेना
लेकिन थेडा़ सा खाउंगा
पत्नी बिना कुछ कहे चली जाती है ,

मैं लिखे पन्नों को उठाता हूं
लिखे को पढ़ता हूं
पढे़ को लिखता हूं
मेरे पढे़ लिखे में
कहीं नहीं दिखती
आती जाती
नाश्ता पानी लाती पत्नी .




पिता की डायरी

पिता रोज अपने होनें की डायरी लिखते थे
डायरी में पिता के साथ
होती थी गांव की सुदी बदी

पिता की डायरी पिता के साथ
गांव की इबारत थी
जिसमें नदी ,पहाड़, खेत
बाग,बन सब होते थे
होते थे गाय, बेंल भैस ,लेरु, पडेरु ,

डायरी में दर्ज होते थे
सोवर -शुदक ,जमा और कर्ज
डायरी में लिखा था दशहरे की छुटटी के बाद
आज स्कूल खुले
जगदीश ,किरन , नारायण स्कूल पढ़नें गये
रात में भूरी भैंस पडिया बियायी
सुबह भौनिया दीक्षित नहीं रहे
दोपहर में खेली त्रिवेदी और चुन्नी लाल के बीच
फौजदारी हुई चुन्नी लाल घायल हुये
बिल्लर तिवारी के पोता हुआ
आज दिन भर गाते में जुताई हुई
आधा खेत अभी बाकी रहा
गैदी केवट छावनी हार की बाकी
पैंसठ रुपये दे गया
भोला तिवारी के यहां से
दो मन गेहूं सवाई पर लाया
बुल्ला अहीर आज काम पर नहीं आया ,

पिता की डायरी के पन्नें
पिता के जीवन की सलवटें थी
जिन्हें मैं अक्सर अकेले में
पढ़ा और गिना करता था
जो पिता के चेहरे में मुझे
कभी नहीं दिखाई देती थी ,

पिता कीडायरी पिता की आत्मकथा नहीं थी
वह कथा थी उनकी
जिनके जीवन की कोई कथा नही होती
जिनके जीनें मरनें का
कोई लेखा नहीं होता दुनियां में
उनकां  लेखा थी पिता की डायरी ,

हर साल बदलती पिता की डायरी के
खाली रह गये पन्नों को हम
हसरत से देखते थे
क्योंकि हमें पढ़ाई के लिए अक्सर
खाली पन्नों का टोटा रहता था

क्या समय था वह जब
शब्द कागज में उतरनें के लिए व्याकुल रहते थे
तो कागज नहीं थे इतने
आज जब कागज की ही माया है
तो शब्द नहीं हैं
कागज में उतरनें को तैयार .






हर कहीं होता है थोड़ा थोड़ा
                         
डी.ए.वी. कालेज की कक्षाओं में जहां
एक दिन पहले लगी
मेज कुर्सियों में पढ़ रहे थे पढ़ेरी
वहां बिछी हैं चारपाइयां
एक में बैठे हैं तकिया का कुछ सहारा लेकर
कुछ टिके से विश्वनाथ त्रिपाठी
सुन कर बार बार
कृष्ण मुरारी की कविता
‘‘पूज्य पिता पानी ले आये
मां ने सौपी अपनी माटी ’’
गद् गद् हो रहे है ,

उनके ही बगल में
कुछ अन्तर से चारपाई में
उकडू से बैठे
शिवकुमार मिश्र और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
सुन रहे हैं ध्यान से
त्रिलोचन शास्त्री की भाषाई झप्प ,

कुबेरदत्त डाईरेक्टर  दूर दर्शन ठहरे हैं
यहां से पांच कि0मीटर दूर
भूरागढ़ के गेस्ट हाउस में
सरकारी गाड़ी से कर रहे हैं आवा जाही ,

रामविलास शर्मा तो आगये थे
आज से आठ दिन पहले
केदारनाथ अग्रवाल के यहां
खा रहे हैं सरसों का साग
और हथपोई रोटियां ,

इस शहर के लोगों को नहीं मालूम था कि
केदार नाथ अग्रवाल इतने बडे कवि हैं
लोग दौडे़ चले आ रहे
देश के हर कोनें कतरे से
शहर के लोगों को बस मालूम थाकि
केदार बाबू एक वकील हैं
जो बस अडडे् के पीछे रहते हैं और
मुवक्किलों के पीछे नहीं भागते ,

बस इतना काफी था उनका जानना
वह यह खूब जानते थे कि
वकालत का ईमानदारी से
कोई  मतलब नहीं होता क्योंकि
ईमानदार का अलग से अपना कोई
घर नहीं होता दुनियां में
दुनियां ही होती है उसका घर
हर कहीं होता है वह थेड़ा थेड़ा
यही थेड़ी सी कमाई थी
जो दिख रही थी आज
इस छोटे से  शहर में ,

रात को हुये कविता पाठ में
अदम गोड़वीं और रमेश रंजक को सुन
बहुत खुश हुये थे शहर के लोग
पहली बार उन्हें लगा था कि
कविता हमारे लिये कुछ कर रही हे ,

अदम गोंड़वी तो अभी तक
अलटते पलटते रहे
रमेश रंजक तो यहा से जाते ही
खाली कर दिये थे मैंदान
जो अब तक वैसे ही खाली पड़ा है
कविता के बिना .





प्रेम की अनन्त कथा
                         
यह कोई 1963-64की बात होगी
मैं छठी - सातवीं में पढ़ रहा था
चीन के युध्द की झांई चेहरों में छाई हुयी थी
मन को लगता था कि
इस सबसे अपने को उबारनें के लिए
पढ़ना ही एक सही रास्ता है
सो रात में देर से सोनें और
सुबह पढ़ते हुये उठनें की आदत बन चुकी थी
चूंकि दिन में बचे हुये समय में
बंटानें पड़ते थे पिता के हाथ
मां को देना होता था
सहारे का बोध ,

रात में अक्सर जब पुस्तकों के
अधूरे पाठ को बीच में रोक कर
सुबह जल्दी जगनें के वायदे के साथ
सोंनें की कर रहे होते थे तैयारी
अचानक आनें लगती थी पिछवाडे़ से
पीर भरी आवाजें
जो गाते गाते रोतीं थी
और रोते रोते गाती थी
इस रोनें और गानें के बीच
और कोई नहीं
हमेशा एक औरत होती थी
जिसे एक रोते रोते गाता था
दूसरा हुकारी भरते हुये रोता था ,

मुश्किल से लगी बडे़ दादा की नींद
इस रोनें और गानें के बीच
अक्सर खुल जाती थी
वे लेटे लेटे चिल्ला उठते थे
अरे भिखुवा सोनें दे रे
दिन में ससुरे मेहरियों की डन्डा बाजी करतें हैं
रात में उन्हीं मेहरियों के लिए धार धार रोते हैं
भिखुवा कहता बस महराज
मिलन करवा  दूं नही तो यह
रात भर तड़पेंगे
हमका भी नींद नहीं आयेगी ,

यह प्रेम की अनन्त कथा
जहां से टूटती थी
दूसरे दिन रात में
फिर वहीं से बिना भूले हुये
बढ़ जाती थी आगे .
___________________________
नरेन्द्र पुण्डरीक
(15 जनवरी1958) 
कविता संग्रह : नगे पांव का रास्तासातों आकाशों की लाडलीइन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया,इस पृथ्वी की विराटता में आदि


सचिव : केदार शोध पीठ न्यास, (बाँदा) 
मो. 8948647444
pundriknarendr549k@gmail.com

कथा - गाथा : जस्ट डांस : कैलाश वानखेड़े

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हंस के संपादक और कथाकार  राजेन्द्र यादव की स्मृति में उनके जन्म दिन (२८ अगस्त) के अवसर पर "राजेन्द्र यादव हंस कथा-सम्मान"हर वर्ष हंस में ही प्रकाशित कहानियों में किसी एक चयनित कहानी को प्रदान किया जाता है.

इस वर्ष यह सम्मान कैलाश वानखेड़े की कहानी ‘जस्ट डांस’ को दिया जा रहा है, निर्णायक हैं निर्मला जैन. कैलाश जी को बहुत - बहुत बधाई.

युवा आलोचक राकेश बिहारी  के स्तम्भ  ‘भूमंडलोत्तर कहानी  विवेचना क्रम’ की तेरहवीं कड़ी इसी कहानी को आधार बनाकर लिखी गयी है. ऐसे अवसरों पर अतिरेक का खतरा रहता है पर राकेश बिहारी हमेशा की तरह संयत होकर कृति को विवेचित करते हैं.


कहानी आपके समक्ष है, उसका एक पाठ भी आपके सामने है.  आपका भी एक पाठ होगा, समालोचन उसे भी महत्वपूर्ण समझता है. आप पढिये और फिर लिखिए. 


जस्‍ट डांस                        
कैलाश वानखेड़े




सने कहा था, मैंने सुना था. वो चली गई थी. उसके जाने का वक्‍त अभी भी धड़क रहा है. न जाने ऐसा क्यों लग रहा है कि वह लौटेगी सधे कदम से, खुद को संभालती हुई. मुस्‍कुराहट को दबाती हुई धीमे से अपने पैंरो को देखते हुए आंख और चेहरे को नीचे कर कुर्सी पर बैठने के बाद कहेगीं. वह ऐसा ही करती है वो ऐसा ही करेगीं अभी. अभी लगातार दरवाजे की तरफ देख रहा हूं. लग रहा है वो बैठकर अपने बालों को ठीक करने के अंदाज के साथ बोलेगी, “बात यह है कि.....

बात यह है कि वो जा चुकी है. जब जा रही थी तब लगा था उससे रूकने का आग्रह करूं. तब अजीब सी लड़खडाहट आ गई थी आवाज में. बोल नहीं पाया था. बस इतना कहा था मैंने, “ठीक है.कह नहीं पाया था अपना ख्‍याल रखना. कोई बात हो तो बताना. तब लगा था कि ठीक है, सुनने के बाद वो कुछ कहेगी लेकिन उसने कुछ नहीं कहा. क्‍या कहेगी?क्‍या सुनना था मुझे? नहीं मालूम पंखे को देखने लगा जो घूम रहा है. दरवाजे को देखा जो बन्‍द है.

वो अब निकल चुकी होगी. बस स्‍टैण्‍ड से बस राईट टाईम पर निकल जाती है. नहीं रूकेगीं बस. बस को अगला शहर समय पर पकड़ना है. लग रहा है बस खराब हो गई होगी. खराब बस जा नहीं सकती है. बस स्टैंड पर कोई इतनी देर रुकने की बजाय वो लौट आएगी. कमरे का दरवाजा खुलेगा और आकर कुर्सी पर बैठेगी. ख़याल इन्तजार के इर्द गिर्द चक्कर लगाते हुए अटक गये.

उस वक्‍त कमरा तप रहा था. पंखे की बस से बाहर था तापमान को एक जैसा रखना. मुश्किल और बैचेनी में तमाम पूर्वानुमान के बावजूद बरसात इस जगह नहीं हुई है. सूरज तेज धूप के साथ पूरी मुस्‍तैदी से अपनी डयूटी निभा रहा था. खेत में अंकुरित बीज झुलसते हुए खुद को बचा रहे है. धरती से गीलापन नमी छोड़कर जा चुकी है.

चार दिन चार सूरज चार चांद और हजारों हजार चांदनियों के बावजूद करोड़ रूपधारी अंधेरे के बीच कैसे रह पाऊंगा अकेला. अखबार में दूसरी आजादी, अन्ना की खबर पसरी हुई है. इस पेपर से पंखा करने का मन होता है लेकिन उसी वक्‍त बिना किसी को कुछ कहे उठता हूँ. निकल आया हूँ बाहर.

इधर उधर भटक कर जब थक गया तब घर आया रात में. टीवी के इस रियलिटी शो में विदेशों में जाकर ऑडियंश लिया गया. सुभाष जिसके पुरखे बंगाल छोड़कर विदेश चले गए. जज बनी सराह खान ने पूछा, “तुम किसी से प्‍यार करते हो?” सुभाष ने बिना सोचे, बिना वक्‍त गवाये कह दिया, हां. इस धधकते सवाल का जवाब इतनी जल्‍दी कैसे दे सकता है कोई? प्‍यार शब्‍द ध्‍वनि अभी कान के गलियारे में ही पहुंची होगी और सुभाष की जबान ने झट से हां कह दिया. इस हां को सुनकर आश्‍चर्य में पड़ गई सराह खान. वो जज जिसने अंतरजातीय, अंतरधर्मीय विवाह किया था उसे यकीन ही नहीं हुआ कि कोई इतनी जल्‍दी सबके सामने प्‍यार को मंजूर करेगा. मैं प्‍यार करता हूँ, सरेआम कहना गुनाह माना गया. अपराध. सामाजिक अपराध जबकि चोरी छिपे प्‍यार करना और उस अहसास को सीने से लगाये रखने के दौर में, देश में देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ. सुभाष जो मंच पर है, लंदन के हॉल में है. सबके सामने बेधड़क निर्भिक होकर कहता है, “हॉ मैं प्‍यार करता हूँ”,

मैं अकेले में, एक कमरे के भीतर बोल नहीं पाया और वो चली गई. हॉ, शब्‍द फैसले से उबर नहीं पाई सराह खान कि अपने को समझाने के लिए सवाल करती है, “किससे?” सराह खान उलझी हुई दिखती है जबकि मैं खुद से बोल चुका  था,“किससे प्‍यार करते हो सुभाष?

तुम मुझे प्‍यार दो मैं तुम्‍हें प्‍यार दूंगा, का नारा देश विदेश में छा जाएगा. सुभाष ने रेडियो की जगह टीवी पर सबके सामने कह दिया. उस हॉ में चमक थी. रोशनी थी. दंग से भरा, संगीत में डूबा था पूरा माहौल टीवी में और मेरे घर के भीतर टीवी की रोशनी के अलावा कुछ नहीं था. बल्‍ब नहीं जल रहा था. भीतर कुछ जल रहा था. कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ. सराह खान वो जज है कि वो उलझन में है अब कौन सा सवाल करे, सुभाष से? सुभाष की आंखे, चेहरा और जबान के साथ कदम तैयार थे. जो चाहे पूछो, जो चाहे करने को कहो, वह तैयार है पूरी तैयारी के साथ मंच पर लेकिन सराह खान के साथ वैभवी जो दूसरी जज है, वो भी हतप्रभ थी. सराह बोली, फिर?”

सुभाष बोला, उसके मां-बाप पंजाबी है. वे नहीं चाहते है कि उनकी बेटी की शादी डांसर से हो. वे चाहते है इंजीनियर या डेंटिस्‍ट दामाद. जिसकी कमाई पचास हजार डॉलर हर महीने हो. वो प्रेमी की बजाय इंजीनियर या डेंटिस्‍ट से शादी करवाना चाहते है. कमाई से शादी करवाने वाले मां-बाप की बात सुनकर, मेरे भीतर कुछ टूटा. तभी खड़ा हो गया मैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस सुभाष को आजादी मिलेगी या नहीं. उस लंदन में जहाँ रहता है सुभाष, जहाँ रहती है लड़की, वहाँ बेबस दिख रहा है. निराशा की तरफ जाती हुई खाई के मुहाने पर खड़ा है. उसको उस जगह पर देखता हुआ, खुद को अकेला महसूस करने लगा. तभी तो जब कुछ सूझा नहीं सराह खान को तो बोली, “हमारे देश में तो हालात बदले है, इस तरह की बातें नहीं की जाती है, यहाँ....यहाँ विदेश में? ताज्‍जुब है.अपनी अस्थिरता को छिपाने के लिए सराह खान ने अपने बालों में दोनों हाथों की उंगलियां डाली. इस बहाने कुछ सुलझ जाए लेकिन उलझ गया था मैं, हैरान था कि हमारे देश में, बोलते हुए सराह खान किस जगह की बात कर रही है? बतौर नागरिक भले ही इस देश की हो लेकिन वो बॉलीवुड की है, जो सच नहीं दिखाता है, वो सपने बेचता है, सपने को ही हकिकत मानता है उसमें प्रेम सुहावना लगता है, आसान लगता है, कितना मुश्किल है प्रेम, मुझसे पूछो, मेरी बात सुनो,

कोई नहीं है सुनने वाला. अकेला हूँ और खाना पकाना है. उसे हमेशा भूल जाता हूँ याद नहीं रहता. याद करना नहीं चाहता कि खाना पकाऊँ. याद रहता है कि उसे कहूँगा. याद रहता है उसका चेहरा, उसकी बात, उसकी हंसी, आइनें में उसकी ही तस्‍वीर दिखती है. तभी ख्‍याल आता है कि सुभाष को एक सैल्‍यूट दू. नजर टीवी पर गई तो सुभाष नहीं दिखा. अंधेरा फक्‍क से हो गया. बिजली चली गई. कभी भी जाती है. कभी भी आती है. उसके होने न होने से कोई विशेष असर नहीं पड़ता मुझे. अब आंख बन्‍द कर वहीं लेट गया हु. जमीन पर, सोचता रहा और ठंडी जमीन सुकून देती रही.उसका चेहरा आंखों के भीतर नाचता रहा.

सभी चैनलों पर नाचना गाना हो रहा है, जिसे रियलिटी शो कहा जा रहा है. इसे नाचना गाना नहीं कहते. एक हल्‍कापन लगता है सुनने में. नृत्‍य कहते ही आभिजात्‍यपन आ जाता है पर नहीं कहा जा रहा है नृत्‍य. लिखते है नृत्‍य लेकिन शो का नाम नहीं है. नृत्‍य के नाम जो सिखाया या किया जाता है, उससे दूर हैं लोग, नृत्‍य शुद्धतावादी के कमरो में, हॉल में है वह यहाँ-वहाँ नहीं दिखता, दिखता है डांस, जिसे चाहे वो कर सकता है, करना चाहता हूँ मैं भी डांस. उठता हूँ कि बिजली आ जाती है, टीवी चालू करता हूँ,

सिगड़ी का प्‍लग लगाता हूँ, टीवी बन्‍द हो जाता है. बल्‍ब की रोशनी एकदम कम हो जाती है. खाना पकाने की सिगड़ी के तारों का गर्म होना टीवी को स्‍वीकार नहीं है.अपने घर में अपने हाथ से खाना पकाना टीवी को, बल्‍ब को मंजूर नहीं है. सिगड़ी जलेगी तो हम बंद हो जाएंगें, एक धमकी है, डांस देखूँ या खाना पकाऊँ?

आटा गूंथता हूँ. उसके ख्‍याल में होता हूँ. सिगड़ी पर खुद को पाता हूँ और गूंथते आटे में उसको. लगता है कि वो टीवी देखते हुए बैठी है और मैं आटा गूंथ रहा हूँ. पानी के हल्‍के से छिंटे जैसे ही आटे पर डालता हूँ लगता है उसके चेहरे पर छिंटे मारे है. वो मुस्‍कुराती है उठती है और एक गिलास पानी डालने के लिए बढ़ती है कि उसका हाथ पकड़ लेता हूँ. छलकता है गिलास में से रह-रहकर पानी कि हमारी इस पकड़-जकड़ में बरसती है भीतर बाहर कोई कल-कल करती नदी. भिंगोती है कि डूबाती है कि हम बहते चले जाते है. पता नही कहां जाना है. बस बहते रहना है. आटा गूंथते हुए बहता जा रहा हूँ कि अचानक लगता है गर्माहट हो रही है. सिगड़ी की आग अपने चरम पर है.उसकी आग में अपने चहेरे का ताप है. लगता है कि सिगड़ी बन गया हूँ.
तवा रखता हूँ, सिगड़ी पर. रोटी बेलता हूँ कि बल्‍ब का वॉल्‍टेज बढ़ जाता है कि अब टीवी भी चलाई जा सकती है. नहीं करना ऑन. सिगड़ी बना हुआ हूँ कि नदी बनना चाहता हूँ कि कहना चाहता हूँ.

टीवी चलाया. समाचार चैनल लगाया. डेढ़ सौ साल से बन्‍द पद्मानाथन मंदिर के तहखाने को खोलने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था. सात में से पांच तहखाने खुले है. माना जा रहा है कि डेढ़ लाख करोड़ की संपति है. हीरा-मोती, सोने-चांदी के जेवरात, सिक्‍के, प्रतीक चिन्‍ह मिल रहे है कि इतनी राशि का मतलब है केरल का तीन साल का बजट, मनरेगा की तीन साल की राशि है. दुनिया का सबसे महंगा मंदिर. इस मंदिर ने तिरूपति मंदिर को शिखर से हटा दिया, जिस मंदिर में सदी का महानायक अपने बेटे के वैवाहिक जीवन के लिए मन्‍नत मांगता है. डरा हुआ महानायक पैदल चलता है. टीवी वालों को बुलाता है. दिखता है टीवी पर कि वह दिखना चाहता है टीवी पर, समाचार पत्रों में कि होने वाली बहू के कुंडली के मांगलिक दोष निवारण के लिए भागता है कि बेटे की सगाई अब न टूट जाए कि जिससे इश्‍क किया था, वो तो नहीं मिली लेकिन जिसने इश्‍क किया था सल्‍लू से विवेक से वो अरेंज होने के बाद बनी रहे.

इस डरे हुए डराये हुए समाज में प्रेम डर का नाम बन गया कि समाचार के बजाय जस्‍ट डांस देख लूं कि महानायक के डांस में संगीत नहीं है. लय नहीं है, सुर नही है, न गायन है कि रोमानिया की लड़की पिया बसंती रे काहे सताये आजा, पर डांस करने के बाद गाने का अर्थ बताते हुए आंसुओं में डूब जाती है कि उसका मंगेतर बाहर खड़ा डबडबाई आंखों से स्‍क्रीन पर देखता है. वैभवी भावुक हो गई है, सबने देखा उसके आंसू, डबडबाई आंखे, भावुकता को. मेरी आंखे नम है, इंतजार में बैठा हुआ हूँ कि गुन-गुनाना चाहता हूँ, काहे सताए आजा ....पिया बसंती रे....
दरवाजे के खटखटाने की आवाज आई. सांकल को लगातार दरवाजे के पटिये पर बजाया जा रहा है कि सताने के इस दूसरे तरीके पर उठता हूँ. इस ख्‍याल के साथ कि वो आ गई है, उसने ही दरवाजा खटखटाया है, दरवाजा खोलते ही फटाक से वो अन्‍दर आ जाता है.

क्‍या कर रहा था बे? कब से बजा रहा हूँ.ख्‍यालों की छत भर-भराकर टूटती है कि उस मलबे में दब जाता हूँ. हवा नहीं है. रोशनी नहीं है, फिर भी उसकी याद में ही हूँ कि वो कैसे आ सकती है? इतनी रात में वो अकेली कैसे आ सकती है? वह आना चाहती है कि डरती है. देख न ले कोई उसे, मेरे घर के भीतर जाते हुए. अंधेरी रात में एक लड़की किसी के घर में चली गई, यह एक आंख से, एक जबान से निकलकर इस कस्‍बे की आवाज लाउड स्‍पीकर में बदल जायेगी और जगह-जगह खड़े एंकर पूछेगें, “सारा देश जानना चाह रहा है कि आप किसलिए गई थीं? सारा देश देख रहा है, बताईये क्‍या किया अन्‍दर? सारे देश की नजर आप पर है, क्‍यों डर रहीं है आप, क्‍या किया ऐसा जो इतना डर रहीं है? सारा देश जानना चाह रहा है, बताइये..बताइये...

और देश को बताना नहीं चाहती है वो. वो इश्‍क में है, प्रेम में है. प्रेम में जो होता है, इश्‍क में जो डूबी रहती है, उसे किस निगाह से देखते हो कि पीठ पर धौल जमाते हुए प्रेमशंकर कहता है, क्‍या कर रहा था बे, किसी के साथ या अकेले-अकेले..वो हंसता है. वो जोर से चिखते हुए हंसना चाहता है कि जानना चाहता है क्‍या कर रहा था मैं.
चुपकर जस्‍ट डांस देख, जस्‍ट.मैं कहता हूँ कि अभी भी दिमाग में वही छाई हुई है,
फिल्‍म देखनी है. बोर हो रहा था.वो टीवी के रिमोट को ढूंढ रहा है.
फिल्‍म नहीं जस्‍ट डांस देख. देख कि विदेश में भी अपने देश वाला पैसे वाले को दामाद बनाना चाहता है.
वो तो सब जगे है, गरीब की जोरू कौन बनना चाहती है? कौन बनेगी तेरी जोरू?” हंसता है प्रेमशंकर. इस तरह कि मेरे चेहरे पर चिपकी हुई रोशनीको हटाने के लिए फूंक मार रहा हो.
प्‍यारे बता तू गरीब है या नही.
तू ही बोल.अभी उसके खयालों में हूँ कि सब्जी पकाने के लिए दाल ढूंढ रहा हु.
तेरे पास पंखा है. मतलब तू गरीब नही है.उसने फैसला दे दिया.  मैंने कहा,ये तो चाइना मेड है. सस्ता है.
जब देखा जाता है सरकारी नजर से तब सस्‍ता महंगा नही देखते. पंखा है न और फिर तेरे पास पक्‍की दीवार वाला घर है मतलब गरीब नही है.
अरे ये कौन सी बात है ये तो किराये का मकान है
हां मतलब तो आवासहीन नही है. खुले में नहीं सोता मतलब गरीब नही है रे तू.भावुकता वाले अदांज में उसने कहा.
अरे छत तो होनी चाहिये सिर छिपाने के लिये.
टीवी...ये सबसे कीमती सामान है. अब तू कुछ भी कर ले, तू गरीब हो ही नही सकता. चल जस्‍ट डांस करते है.वो हंसते हुये अपनी कमर हिलाने लगा. ये तो ईएमआई पे है, वो भी दिल्‍ली मेड.विवशता में तब्‍दील होता जा रहा हूँ मैं कि प्रेमशंकर बोलता है, “तू गरीबी रेखा के नीचे नही आ सकता है. तू तो गरीबी के ऊपर है. ऊपर चढ़ा हुआ.हंसता है कामुकता से भरी हुई हंसी में डूबा हुआ है.
ऊपर नीचे..?”
बंधु सरकार तेरे को गरीब मानती नही और लोग तुझे अमीर समझते नही.
अभी तो बोल रहा था कि गरीब नही हूं और अब...उसने मेरी बात काट दी और बोला, “देख भाभी की नजर में तो तू गरीब है. तेरे पास कार नही है. तेरे पास खुद का मकान नही है. बहुत अच्‍छी कॉलोनी में रहता नही है. नौकरी भी परमानेंट नही है. चिटफंड कंपनी का डिब्‍बा कभी भी गोल हो सकता है. छोड़, जस्‍ट डांस ही देख लेता हूँ. अरे ये तो रिपिट है. वैसे भी अगले राउंड में जाने वाले को एक करोड़ मिलेगें.” “एक करोड़ मिल जाये तो...
तो भी भाभी नही मिलेगी.अठ्ठाहास था सपनों को फूंक देने वाला अचानक गिरा देने वाला. जैसे आसमान में उछलकर भाग गया अब धरती पर पटक दिया. बुरा लगा. बहुत बुरा. मूड़ खराब हो गया. चेहरा उतर गया. चाकू ढूंढने लगा हूँ.

प्‍याज काटते वक्‍त नम हुई आंख. प्‍याज का असर नही था. सपनों की टूटन थी. प्रेमशंकर टीवी देखते हुए बोला,   “करोड़पति बनना और जिससे प्‍यार करते हो उसका पति बनना दोनों अलग-अलग है. प्‍यार करो अपनी तरफ से. वो चाहे न चाहे. आगे बढे न बढे. एक बात बताऊँ सच्‍चा प्‍यार तो एक तरफा होता है. अपने धुन में मगन रहना. सपनो को खोजना. सपनो में होना. शादी वादी का इससे कोई लेना देना नही है. प्‍यार को प्‍यार ही रहने दो इसे कोई नाम न दो.वो गुनगुनाता है. मैं चुप हूं कि अब जस्‍ट डांस चल रहा है.

सौमित्रा को एंकर बंगाली बताता है,भारत माता बनकर करती है डांस, गाने के शुरुआत में गूंजती है आवाज हमारी भारत माता जकड़ी है,आतंकवाद, भ्रष्‍टाचार, तानाशाही में आरक्षण में....भारतमाता बनी हुई सौमित्रा ने देश भक्ति की लहर फैला दी. ये किसकी भारतमाता है,जो आरक्षण से भी जकडी है?सवाल दिमाग में घूम रहा है.

प्रेम शंकर जस्‍ट डांस देखते हुए कहता है,“अबे सारा देश आजादी की बात कर रहा है और तू जस्‍ट डांस देख रहा है. तू तो पक्‍का देशद्रोही है.वो हंसता है. ब्रेक आते ही चैनल बदलता है. समाचार चैनलों में दूसरी आजादी जनलोकपाल, भ्रष्‍टाचार के अलावा कोई शब्‍द सुनाई नही दे रहा है. कोई-सा भी चैनल लगा दो, यही बात यही चेहरे है. जैसे कोई विज्ञापन हर चैनल पर दिखता है. एक ही वाक्‍य है.एक ही भाव. एक लाइन में विज्ञापन एजेंसी सारे चैनल से खरीद लेती है. चाहो न चाहो वो वाला विज्ञापन देखना ही पड़ता है. विवशता, सहजता में बदल दी गई है. अब गुस्‍सा नही आता है. वही वाला विज्ञापन हर जगह होगा तो चुप रहो, देखो सुनो उसी तरह का यह मामला है, चुप रहो और हां इसके खिलाफ कोई भी सवाल किया तो सब ऐसे टूट पड़ते है कि लगता है, गुनाह किया है. मैनें फेसबुक पर इसे अतिरंजित परिवर्तन की बात कही, जो किसी और के दिमाग से चल रहा है. जिसका मकसद स्पष्ट नही है, तो कईओं ने अनफ्रेन्‍ड कर दिया. असहमति पढ़ना सुनना ही नही चाहते है. और दाल चढ़ा देता हूं मैं सिगड़ी पर.
प्रेम शंकर बताता है,“देखो किरण कैसे डांस कर रही है. विश्‍वास का कपड़ा किरण ने सिर पर डाला और डांस....भाषण के बीच में डांस होना चाहिये कि नही?”
ये तो जस्‍ट डांस का प्रायोजित रियलिटी शो है.कुकर की सीटी ढूंढ रहा हूँ. सीटी बजाने के लिये जरूरी है. प्रेम शंकर को गुस्‍सा आ गया, “यार ये बता भ्रष्‍टाचार से सभी परेशान है. है कि नही. सब चाहते है भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो देश.
हां चाहते है सब लेकिन होना नही चाहते और ये जो आंदोलन है न जिस भ्रष्‍टाचार को रोकने की बात कर रहे है,उसके नियम कायदे कानून सब पहले से है बस उन्‍हें इम्‍प्‍लीमेंट करना है. उसे छोड़कर नया ढांचा खड़ा करना मतलब आयोग बनाने जैसा है और तू जानता है आयोग क्‍या करते है? कैसे करते है काम. किसी एक का काम नाम बता जो पूरी ईमानदारी के साथ अपना काम कर रहा हो.
लेकिन विरोध करना तो गलत है.
जो मुझे ठीक न लगे, जिसके तौर तरीके,उद्देश्य, जमा हुए लोगों के स्‍वार्थ दिख रहे है, तो क्‍या अपने आपसे झूठ बोलूँ? अपने साथ मैं क्‍यों करूं भ्रष्‍टाचार?”
सच तुमको दिखता नही. ये जिस चिटफंड कंपनी में काम कर रहे हो न, वो किसको सहारा देगी? किसे दिया है? तुम लोग अपना मुनाफा देख रहे हो. चिटफंड कंपनी का कर्ताधर्ता अपना पैसा बना रहा है और बेवकूफ कौन बन रहा है. जनता और तू आंदोलन का विरोध कर रहा है, तू...
उस लोकपाल में चिटफंड कंपनी शामिल नही है. वो सिर्फ बातें है और हां ये भी बता दूं ये दूसरी आजादी की बात मुझे अपील नही करती है.कुकर की सीटी बजती है बातों को रोकती है.

अपने घर से इतनी दूर आकर अकेला रहता हूँ. इस कंपनी से भागने का सालभर से सोच रहा हूँ लेकिन मेरा पैसा अटका पड़ा है. हर बार आश्‍वासन दे रहे है. कमीशन के आकर्षक पैकेज के अलावा इस कंपनी का बड़ा नाम, बड़े काम देखे थे तो लगा कि लाइफ बन जाएगी लेकिन पगार के लाले पड़ रहे है. बड़े-बड़े विज्ञापन में भारत माता दिखाता है मालिक. मालिक का फोटो अपने बेटे-बहुओं के साथ इस तरह से दिखाता है कि लगता है ये ही है राष्‍ट्र निर्माता परिवार. सोचते हुए मन ही मन में हंसी आती है. इसने भारत माता की जय बोला और अब दूसरी आजादी वालों को देखता हूं तो लगता है आजादी की बात तो सब करते हैं, सब एक जैसे है. सोचता हूँ बोलना नहीं क्‍योंकि असहमति व्यक्त करना गुनाह बना दिया गया है.

इतनी देर में घूम-फिरकर फिर जस्‍ट डांस देखने लगा हूँ. पता नहीं पुराने एपिसोड एक के बाद एक क्‍यों दिखा रहे हैं. इतना टाइम है कि उसे खपाने के लिए बस जस्‍ट डांस...

शरमाता हुआ लड़का आया. बेहद दुबला पतला. जज बनी हुई सराह खान मजे लेने लगी हैं. उसने नाम बताया जयेश. अप्रवासी भारतीय, एन.आर.आई. जिनके भीतर गाने और देश प्रेम भरा हुआ है, बताता है कि गुजराती है. खुश होकर सराह खान बताती है कि वैभवी भी गुजराती है. उसका अन्‍दाज इस तरह का है कि वैभवी भावी दुल्‍हन है. वैभवी इस तरह से भाव बनाती है कि वह भावी दूल्‍हे को देख रही हो. गुजराती होने से लगा प्रांत, भाषा मैच कर गए. तो सराह ने कहा कौन हो? वो भाषा प्रांत के बाद जाति पर पहुंच गई.

मेरे कान खड़े हो गए. मेरे भीतर का कोई बाहर आने वाला है कि जैसे मुझसे पूछ लिया गया हो, तुम्‍हारा सरनेम क्‍या है? मैं बोलता उसके पहले जयेश बोला,“पहचानो.”मैं दंग हूँ. सरेआम जाति पहचानो अभियान चल रहा है. अखबार की वैवाहिकी से विज्ञापन पढने लगे हैं ये. प्रेम शंकर अधीरता में दोनों जज का सहयोगी बन गया. सरनेम पूछा जाना, मतलब विवाह की सबसे बड़ी शर्त की पूर्ति. कि इठलाती है वैभवी और शर्माती हुई सराह पूछती है,
पटेल हो?

ना.”वो माइक हाथ में लेकर अपनी कमर को इस तरह से हिलाता है कि उसका शरीर हिलने लगता है.वो कहता है,“सोचो?” भारतवंशी नये लड़के को यह गर्व है कि वह उसकी जाति जानने वालों के जिज्ञासा में है. बोलती है वैभवी, “शाह हो.”और वह लड़का उछलता है कि मुझे पहचान लिया गया है. खुशी है उसके भीतर. वो बिखर रही है कि दोनों जज खुश हैं कि शाह मिल गया शाह... जाति आखिर पहचान ली गई. वे तीनों खुश हैं. खुश है तमाशबीन कि देखो, ये जान गए जाति को.

सराह को अपने ज्ञान के परिपूर्ण का अहसास हुआ. मुझे अपूर्णता का अहसास हुआ कि कैसे जान लिया? रंग है, रूप है, शरीर है, कपड़े हैं, तो किस आधार पर तय कर लिया कि ये कौन है? सुभाष को पंजाबियों ने क्‍यों खारिज किया? सुभाष की उदासी मेरे भीतर उतर आई, क्‍या सुभाष पंजाबी होता तो 50 हजार डॉलर कमाने वाली शर्त लागू होती? विदेश में रहकर इतना प्‍यार करने वाले का पेशा तय करता है कि किससे शादी करने दी जाएगी. प्‍यार या पेशा? पेशा से पैसा बनता है, पैसा चुनेंगे. पैसा पेशे से आएगा, तो पेशा किससे आएगा? हमारे देश में पेशा किससे आया?वर्ण व्यवस्था से आया है पेशा और फिर इससे जाति.

जयेश के डांस पर सराह हंस रही है, वैभवी लोट-पोट है कि सब हंस रहे हैं, ये डांस नहीं था. एक मिक्‍चर था, जिसमें न लय है न ताल इसलिए सब हंस-हंसकर बेहाल हो रहे हैं कि मैं अभी उदास हूं कि वैभवी ने किस आधार पर तय किया कि ये पटेल नहीं है, तो शाह ही होगा?

मेरे गांव झापादरा से गुजरात की सीमा करीब बीस कि.मी. है. हमारे इस इलाके में दूर-दूर तक हम ही हम रिश्‍तेदार हैं और कोई भी नहीं है पटेल या शाह. तो जिस गुजराती को मैं जानता हूं, उसे ये जज क्‍यों नहीं जानते, क्‍यों नहीं उनकी जुबान पर आया कि तुम भूरिया हो, परमार, बुनकर हो?

सुबह हो गई. प्रेम शंकर अपने घर नही गया और मै सपने देख रहा था. वो आएगी और दरवाजा खटखटाएगी. अहसास हुआ कि सचमुच मेरे ही घर का दरवाजा खटखट कर रहा है. जागते हुए लगा कि दरवाजा तो पिटा जा रहा है. इतनी सुबह कौन हो सकता है? हल्‍की सी रोशनी दरवाजे के भीतर से आ रही है. लाईट बंद करके सोता हूँ तो सुबह का अहसास बाआसानी से हो जाता है फिर आज तो इतवार है और नौ से पहले उठता नही हूँ. इतनी जल्‍दी कौन होगा? आंख मलता हूँ और पूछता हूँ कौन?उस आदमी ने अनायास पूछ लिया, “चल भई अपना नाम बता”उसके हाथ छोटा सा काला बैग है. समझ ही नही पाया क्या हो रहा है.

क्‍यों?” जानना चाह रहा हु कि ये आदमी जिसके हाथ में रजिस्‍टर, फार्म, बैग है, वो इस तरह कैसे नाम पूछ सकता है. वो बोला जाति वाली सेंसस है, जनगणना. आई समझ में.गुस्‍सा था उसकी बात में जैसे मैंने कोई गुनाह किया हो. मेरा नाम पूछने से पहले यह बताना था. लेकिन वो ठिठका सा खड़ा देखता रहा. चुप था. मैं भी कुछ बोला नही. वो थोड़ी देर बाद बोला,” नहीं बताना हो तो मत बता.कोई जरूरी तो नही है? जाऊँ क्‍या?”
आप तो बुरा मान गए.मैंने कहा. जबकि उसको यह कहना था. फिर मैंने क्यों कहा? नींद,सपना,दरवाजा पिटने से बड़ा गंदा उसका बर्ताव लग रहा है.
चलो छोड़ो. नाम बताओं?” उसका पेन तैयार था.
आकाश भूरिया.
पिता का नाम?”
शान्तिलाल भूरिया.
उम्र?”
26
शादी तो हो ही गई होगी?”
नहीं
हमारे यहां तो इस उमर में दो तीन बच्‍चे होके मामला खत्म हो जाता है.पेन वाला ही ही करने लगा. उसका इस तरह ही ही करते हुए हंसना बुरा सा लगने लगा.
उसने कहा, “लो इस पर साईन करों.
मैंने कहा क्‍या लिखा है? जरा देखूँ.उसने कह,“हम टीचर है. गलत नहीं भरते. काहे का टाईम खराब कर रहे हो?” मेरी जिज्ञासा को उसने अनावश्‍यक समझा और थोडी देर चुप रहने के बाद भरा हुआ फार्म मेरी तरफ सरका दिया. मैंने हंसते हुए कहा, “आपने तो मेरी जाति भी लिख दी. मुझसे बिना पूछे.
टीचर हूँ सब जानता हूं और वैसे भी सबको पता है भूरिया एसटी में आते है.वो अपनी जानकारी सगर्व उंडेलता हुआ बोला. मैंने कहा, “धर्म में ये क्‍या लिख दिया आपने, बिना पूछे ही.
तो मुसलमान कर दूँ?” वो चिढ़ते हुए बोला. उससे सवाल करना अर्थात उस पर भरोसा न करना जैसे लग रहा था उसे.
क्‍यों?”
तो वैसे भी वनवासी इसाई कर्न्‍वटेड होते है झाबुआ के.
आपको नहीं लग रहा कि आप कुछ ज्‍यादा बोल रहे है. वैसे भी जातिवार जनगणना में सारी जानकारी पूछकर ही लिखनी चाहिए. आपने तो मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरी भाषा सब अपने मन से भर दी.
तो क्‍या गलत भरी?” टीचर अपने अंहकार के शिखर पर जा रहा था.
हॉ गलत लिखी है जानकारी.मैं अपनी नाराजगी जाहिर करता हूँ. वो जो ज्ञानी बन बैठा था जिसे लग रहा था कि वो सारी जानकारी सही सही भर चुका है. वह बोला,” धर्म में क्‍या लिखवाना चाहते हो, बता दो?”
आदिवासी
आदिवासी?” आदिवासी कोई धर्म नहीं होता है.
आप इसका फैसला करेंगे? हम जो कहे वो आपको लिखना पड़ेगा.
इसमें धमकाने की कोई बात नहीं है मेरे बाप का क्‍या जाता है, जो कहोगें वो लिखूंगा...लिख दिया अब और क्‍या बदलवाना है बता?”
भाषा? भीली है. भीली लिखिए. मेरी मातृभाषा हिन्‍दी नहीं है.
भीली, भिलीली, निमाडी, मालवी, मारवाडी, सब हिन्‍दी ही तो है.
इसमें तो आप वहीं लिखिए जो लिखवा रहा हूं और यह भी बता दूँ ये हिन्‍दी नहीं है.
कौन सा फरक पड़े, कुछ भी लिखवाओ.उसे जाने की जल्दबाजी थी. उसे उम्मीद नही थी कि कोई इस तरह कहेगा,टोकेगा.
फरक तो बड़ा पड़े. आपने मेरी जाति, भाषा, धर्म, व्‍यवसाय कुछ भी नहीं पूछा. आपने सब अपने मन से लिखा.

सड़क को देखकर पूछूँ, तेरा रंग क्‍या है? डामर के साथ क्या मिलाया? ये तो बेवकूफी होगी न. क्योंकि ये सब मेरको मालूम है. मालूम है तुम लोग वनवासी होते हो. झाबुआ,भूरिया तो तुमने बताया बाकी तुम्‍हें देख सुनके सब लिख लिया तो क्‍या गलत लिखा मैंने?” मेरी खिल्‍ली उड़ाने, अपने आपको सर्वज्ञानी समझते हुए उसका अंहकार बोला. मेरे बदन पर मेरे दिमाग में अपने अधूरे गंदे ज्ञान को डलवाने की कोशिश, सर्वे करने वाला कर रहा था. उस किचड़ को साफ करने के इरादे से पूरी मजबूती से मैंने कहा,”आपने मेरा धर्म अपने मन से मान लिया. मेरे सरनेम से आपको पता चल गया कि मैं कौन हूँ?आपको पता है कि झाबुआ में सफाई करने वाले का भी सरनेम भूरिया है. टोकरी बनाने वाला भी भूरिया है. तीर चलाने वाला भी.. फिर कैसे तय कर लिया कि मेरी जाति क्या है? आपने मेरी भाषा क्‍या है? यह तक नहीं पूछा, लिख दिया, हिन्‍दी. मुझे अपनी भाषा लिखवानी है, मेरी भाषा भीली है. भीली और मैं आदिवासी हूँ. भील. भील लिखिए.

वो समझ गया. पेन निकालकर बोला,“अपना क्‍या जाता है, जो सामने वाला लिखवाता है, वो लिख लेते है. टाईम खोटी नहीं हो इसलिए झटपट लिख लिया. बुरा मानने की तो कोई बात ही नहीं है. इस तरह बोलने की जरूरत ही नहीं थी कोई.उसके भीतर का संचित ज्ञान टूटने का अहसास उसके चेहरे से,उसकी आवाज से महसूस कर रहा हूं. अपने आपको मजबूती के अहसास की राह पर चलता देख रहा हूं.
मैंने कहा चाय पियेगें?”

भोत कुछ पिला दिया, अब कुछ नहीं पीना है, धन्‍यवाद श्रीमान आपका. आप तो यहां सब पढ़-पूढ़कर साईन करों दो बस.इस आदमी का चेहरा हाव भाव देखकर लगा कि ये जस्ट डांस का एक प्रतिभागी है,जिसे अपनी प्रस्तुती पर शाबाशी नही मिली और इसलिए नाराज सा हो गया है. मुझे लगा मेरे आसपास न जाने कितने लोग है जो जस्ट डांस करते है या करना चाहते है. उन्हें लगता है कि लोग उनके बारे में पूछे,बात करे और शाबाशी दे. वे किसी की तारीफ़ नही करेंगें. ढंग से बात नही करेंगे लेकिन चाहेंगे कि सामने वाला उसके सामने बिछ जाए. दरी चादर बन जाए.

घर के भीतर जयशंकर से एनडीटीवी कह रहा है,“जीत गए अन्‍ना जीत गया इण्डिया.” जश्‍न मनाओ दोस्‍त ने कहा. उसने बताया कल सुबह १० बजे अन्‍ना का अनशन टूटेगा. स्‍टार न्‍यूज ने आधी जीत का जश्‍न बताया है. मैंने कुछ नहीं कहा. देश जीत गया, इस पर अटक गया था. यह कौन सा खेल है और देश के नाम पर क्‍यों खेला जा रहा है? पूछना था लेकिन यह दौर ऐसे सवालों को सुनने वाला नहीं है. यहां जवाब नहीं मिलेंगे ऐसे सवालों के बस वे जो कह रहें हैं. मान लो जैसे टीचर ने मान लिया था.उसके बारे में सब कुछ. अब लोग टीचर में बदल गए है और मेरा दोस्‍त टी.वी. बन गया था जो नाच रहा है, नचवा रहा है.सारा जंहा डांस कर रहा है सब कर रहें हैं डांस. समाचार डांस के इस रियलिटी शो का सीधा प्रसारण देखने की बजाय मैं मनोरंजन चैनल पर जस्‍ट डांस देखने लगा कि याद आया पिछली बार इस शो में एंकर ने जज वैभवी से कहा था आप स्‍टेज पर आकर डांस करें तो नहीं मानी वैभवी जो दूसरों को नचवाती है कि एंकर कहता है, “सारा देश चाहता है. ये पब्लिक है और आपको डांस करना पडेगा.” देश की बात सुनकर वैभवी डांस करती है.
इतवार की सुबह में उजाले में मैंने साईन कर उसे धन्‍यवाद कहा. जयशंकर अपने घर गया. नहा धोकर खाना पकाना शुरू ही किया था कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. फिर उसकी याद आते ही मुस्कुराहट छा गई. गिलकी काटते काटते चाक़ू हाथ में लेकर खडा हो गया.

“मैं.” मैं से तत्‍काल अन्‍दाज लग जाता है ये चपरासी, चौकीदार, घरेलू नौकर, सारे काम करने वाला गुलाब. गुलाब नाम है इनका. दरवाजा खुलते ही गुलाब बोलता है सेठजी ने बुलाया है.
एरिया मैनेजर को ये आदमी सर,साब नही बोल पाया. उसकी निगाह में ये सेठ है. सेठ...हंसी आती है लेकिन उससे सवाल करता हूँ,”क्‍यों?”

नी पता बोले जल्‍दी बुलाके ला जैसा है वैसा ही. टेम नी करने का बोला.” उसकी आवाज में सेठजी का हुकुम था. उसके शरीर में नौकर का अहसास था. उसकी आंखों में हुकुम तामीली सफलता पूर्वक पूरा करने का अनुरोध था. विनय था नम्रता से लाचारी थी. उसे इस तरह से भरकर भेजा गया था कि वो यहां वहां से तरह तरह से बिखर रहा था. संभलते नहीं बन रहा था उसे. बस यह हाव भाव थे कि मुझे उठाकर साथ में ले आना. उसे देखकर सिर्फ पानी पिया और ताला लगाकर अपनी मोटर साईकिल पर उसे बैठाकर निकल गया.

खेत में बसी नई कॉलोनी में है हमारे एरिया मैनेजर का नया मकान, बंगला. जिसे सडक कहा गया था वो बरसात में बह गई है. खेत की काली मिट्टी का किचड़ है. जा नहीं सकते. किचड़ में फंसने और गंदा होने के डर के कारण में बाइक कोने में खडा कर देता हूं. साबुत जगह को देखता हूं पैर रखता हूं गुलाब की निगाह साबुत जगह नहीं देख रही है. वो अपने प्‍लास्टिक के जूतेके साथ किचड़ की परवाह किये बिना आगे निकल जाता है. वक्त से पहले पहुंचकर दिखाना है सेठजी को कि देखो, जो हुकुम दिया वो कर आया. आदेश का पालन कर लिया. उसकी तरफ नही देखता है एरिया मैनेजर. वो मोबाइल पर भड़भडा़ रहा है. उसने गुलाब के विजयी भाव को देखा ही नहीं और मोबाइल कान से हटाकर पीठ की तरफ कर बोलता है, “अरे वो नालायक भूरिया कहां है?”

उसकी तल्ख आवाज मेरी कानों में पडी. लगा जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे भी समझता है. तभी तो इतनी बेअदबी, इतनी वाहियात ढंग से बोला. मेरे सामने हमेशा मीठा बोलने वाला मेरा हित चिंतक मुझे क्या समझता है? कुछ टूट गया. वो बोलते बोलते दरवाजे के पास आया. उसने देखा. झेपा. कुछ गलत हो गया का अहसास उसे हुआ. उसने कहा,“अरे आकाश... सॉरी यार इतनी सुबह तुम्‍हें कष्‍ट दिया. आय एम रियली सॉरी. किंतु बात ही कुछ ऐसी थी कि बुलाना पडा. तुम तो जानते हो यहां तुम्‍हारे सिवा मेरा कौन है?एरिया मैनेजर का पोर-पोर माफी, विनम्रता और मेरे सिवा और कोई न होने के कारण अपना होने का अहसास दिलाना चाह रहा है. इसका मुझ पर असर नहीं पडा. चांटे के बाद गाल सहलाने से दिल के भीतर की टूटन इतनी आसानी से नहीं जुडती.

“प्‍लीज यार. कार स्टार्ट नही हो रही है और अर्जेंट जाना है. तुम्हें पता ही होगा. दूसरी आजादी मिल गई है. सेलिब्रेट करना है. दिल्ली में वो ज्यूस पियेंगे इधर हम भी ज्यूस पियेंगे..अंगूर का....चलो जल्दी करो. तुम दोनों कार को धक्‍का लगा दो. मै स्‍टार्ट करता हूं. जल्‍दी... प्‍लीज जाना है.” विनय और परेशानी के हावभाव के साथ बोलते बोलते वो वो कार की चाबी लेने घर के अंदर जाता है. लगता है ये भी डांस कर रहा है. जस्ट डांस करों और करोड़ जीतों,देश को जीत लो.बस एक डांस. सोचता हूँ और चुप होकर बाहर खड़ा हो जाता हूँ. मेरे साथ गुलाब भी खड़ा है,जमीन में नजर धंसाकर. उसकी नजर उप्पर उठ जाए कि गुलाब से पूछता हूं, “कहाँ जा रहे है साब?”
“नी पता. बोल रहे थे दोस्‍तों के साथ कोलार डेम निकलना है. पाल्टी है.”
काटो तो खून नहीं का अहसास हुआ, अरे ये कौन सा तरीका है कार को धक्‍का लगाने के लिए और वो भी पिकनिक के लिए? सुबह सुबह बुलाया. मैं समझ ही नहीं पाया. तभी वो हडबडाता हुआ नाचता हुआ आया और बोला,” तुम दोनों धक्का मारो. मैं स्‍टार्ट करता हूं.”
“कार मैं भी चला लेता हूं. स्‍टार्ट मैं करता हूं.” मैंने चाबी के लिए हाथ बढाया तो एरिया मैनेजर का चेहरा फक् से उतरा गया. “क्‍या बात करता है? तू धक्‍का लगा मेरे दोस्‍त.” मुस्कारने की असफल कोशिश करते हुए बोला.

“धक्का आप लगा लो. स्‍टार्ट मैं करता हूं.मै अडिग था. मेरे इरादे स्‍पष्‍ट थे. किचड़ में खडे होकर पीछे से धक्‍का लगाते हुये किचड झेलने का मन नहीं था. इस आदमी ने जिस तरीके से नालायक कहा है वो पता नहीं मुझे क्‍या समझता है. उसे देखता हूँ वो हक्‍का-बक्‍का है. उसे समझ नहीं आ रहा कि मेरा मातहत, मेरे से नीचे वाला ये भूरिया कैसे ऐसे बोल सकता है. मैं समझ चुका था इस आदमी की निगाह में, मैं झाबुआ का आदिवासी हूं जो मजदूरी करता है. सुबह हो या रात बस मजदूरी. हर बात मानने वाला और अब नहीं मान रहा है. वो कुछ सोच रहा था कि बोला, “रहने दो आकाश. तुम जाओ.” मुझसे नजर मिलाये बगैर वो अपने घर के भीतर घुस गया. उसे अभी भी उम्‍मीद थी कि मै कह दूंगा, ठीक है धक्‍का लगाता हूं लेकिन मैंने कहा नहीं.
गुलाब, चल भाई. कीचड़ में कब तक खडा रहेगा?” मैं कहता हूँ.

वो झिझकता है. हाथ के इशारे से उसे बुलाता हूँ .गुलाब कीचड़ से बाहर निकलने के लिए कदम उठाता है. 
______________________
सत्यापनकहानी संकलन 2013 में आधार प्रकाशन से प्रकाशित
हंस,परिकथा,कथादेश,पाखी,बया,शुक्रवार वार्षिकी,दलित अस्मिता आदि में दर्जन कहानिया प्रकाशित.

सम्प्रति- म.प्र.राज्य प्रशासनिक सेवा. 
kailashwankhede70@gmail.com

भूमंडलोत्तर कहानी (१३) : जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े) : राकेश बिहारी

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Pablo Picasso










भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी- 1-लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), 2-शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे), 3-नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), 4-अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज),  5-पानी (मनोज कुमार पांडेय), 6-कायांतर (जयश्री राय), 7-उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय), 8-नीला घर (अपर्णा मनोज), 9-दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो(तरुण भटनागर), 10-कउने खोतवा में लुकइलू (राकेश दुबे),11-चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर) 12-अधजली (सिनीवाली शर्मा)

आज प्रस्तुत है इस वर्ष के ‘राजेन्द्र यादव कथा सम्मान’ से सम्मानित कहानी ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े) पर युवा आलोचक राकेश बिहारी का आलेख ‘विमर्श और कहन के सवालों के बीच जस्ट डांस.
 

भूमंडलोत्तर कहानी – 13

विमर्श और कहन के सवालों के बीच जस्ट डांस               

राकेश बिहारी 



हंस (जून 2017) में प्रकाशित कैलाश वानखेड़े की कहानी जस्ट डांसपर बात करना सिर्फ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है कि इसे इस वर्ष का राजेन्द्र यादव हंस कथा-सम्मानप्राप्त हुआ है, बल्कि इसकी चर्चा इसलिए भी होनी चाहिए कि यह कहानी कथा में विमर्श और कहानी के क्राफ्ट दोनों के समकालीन जटिल विस्तार और संकुचन पर बात करने का अवसर एक साथ प्रदान करती है.

अनुभवजन्य प्रामाणिकता के साथ दलित सरोकारों को कथात्मक विन्यास और विस्तार प्रदान करना कैलाश के कथाकार की विशेषता रही है. विवेच्य कहानी में नैरेटर का आदिवासी होना उन दलित सरोकारों का ही सार्थक विस्तार है जो बहुजन और सर्वहारा की अवधारणा को भी नए सिरे से रेखांकित करता है. अस्मिता विमर्श के दौर में कई बार अलग-अलग व्यक्ति समूहों की चेतना अपने सीमित दायरे में ही इस तरह निमग्न होती हैं कि उनके बीच परस्पर जुड़ाव के बदले एक अलग तरह की दूरियाँ और हितों की टकराहट पैदा होने लगती हैं. यह कहानी अलग-अलग पॉकेट में होने वाले अस्मिता विमर्श के बीच उग आए या कि उगा दिये गए ऐसे बाड़ों को तोड़ने का सार्थक जतन करती है. बावजूद इसके क्राफ्ट और कहन की कतिपय असावधानियों और भाषा-विन्यास की  जटिलताओं के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि यह कहानी कैलाश वानखेड़े के अबतक के कथात्मक अवदान में कोई उल्लेखनीय अभिवृद्धि करती है. लेकिन जिस चौकन्नेपन के साथ यह कहानी वर्तमान समय और इसकी राजनैतिक चालबाजियों की सूक्ष्मताओं को रेखांकित करती है उसे समझा जाना बहुत जरूरी है. समकालीन कहानी से सरोकार और राजनैतिक चेतना के गायब होने की शिकायत करने वाले पाठकों-आलोचकों को भी यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए.

कैलाश एक समय सजग कथाकार हैं. वे किसी लेखकीय युक्ति या चतुराई के तहत देश-काल के संदर्भों को अपनी कहानी के परिसर से दूर नहीं रखते बल्कि अपने समय की आँखों में आँखें डाल कर उससे सीधी बात करते हैं. हाँ, कहानी के समय संदर्भ को एक ठूंठ सूचकांक की तरह महज उल्लिखित कर देने के बजाय संदर्भित समय पर मारक टिप्पणी करते हुये अपनी पक्षधरता प्रदर्शित कर जाना भी कैलाश के कहानीकार की उल्लेखनीय विशेषता है. संदर्भित कहानी अपना काल-संदर्भ  देते हुये लगभग शुरुआत में ही कहती है - `अखबार में दूसरी आज़ादी, अन्ना की खबर पसरी हुई है. इस पेपर से पंखा करने का मन होता है.` रेखांकित किया जाना चाहिए कि `यह वही समय था जब...` के फैशनपरस्त जुमलों के साथ सूचना-समय की कहानी होने का भ्रम रचने वाली कहानियों से यह बहुत अलग तरह की बात है. एक वाक्य में अपने कथा समय को रेखांकित करना और दूसरे ही वाक्य में उस समय को एक खास संवेदना से जोड़ अपनी पक्षधरता प्रदर्शित करना इस कहानी और इसके कथाकार को विशिष्ट बना देता है.

किसी और संदर्भ में कही गई अपनी ही बात को मैं यहाँ दुहराना चाहता हूँ कि एक अच्छी कहानी में  लेखक की तटस्थता से ज्यादा उसकी पक्षधरता बोलती है. मुक्तिबोध ने इसे ही और मुखर शब्दों में बहुत पहले कहा था- `पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?` कैलाश वानखेड़े की कहानियाँ अपनी पॉलिटिक्स पर किसी तरह का पर्दा नहीं डालतीं बल्कि उसे दिन के उजाले की तरह साफ-साफ उजागर कर देती हैं. जाहिर है कैलाश इस कहानी में सिर्फ यह नहीं बताते कि इस कहानी का कालखंड अन्ना आंदोलन का समय है, बल्कि उस आंदोलन की सार्थकता और दिशाहीनता को भी प्रश्नांकित करते हैं. तत्काल मेरी स्मृति में नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) के उस आंदोलन को लेकर लिखी गई कोई अन्य कहानी याद नहीं आ रही. हाँ, यहाँ मैं कैलाश वानखेड़े की ही एक और कहानी जो संयोग से हंस में ही छपी थी- `कंटीले तार` को जरूर याद करना चाहता हूँ जो मेरी दृष्टि में अन्ना आंदोलन की सार्थकता को प्रश्नांकित करने वाली पहली कहानी है. मेरा आग्रह है कि `जस्ट डांस` और कंटीले तार` को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए. टेलीविज़न पर दिखाये जाने वाले खबर जीत गए अन्ना, जीत गया इंडियाको देखते हुये  जस्ट डांसका कथानायक आकाश पूछता है- यह कौन सा खेल है और देश के नाम पर क्यों खेला जा रहा है?’ ‘कंटीले तारमें मेश्राम की जो चिंताएँ हैं जस्ट डांसके नैरेटर के सवालों में कैलाश उन्हीं चिंताओं का विस्तार रचते हैं. भारतीय नागरिक समाज के अलग-अलग घटक अपने हितों के संयुक्त संधान के साथ ऊपर से सरकार के खिलाफ संघर्ष करते जरूर दिखते हैं पर अंदरखाने में शोषित-वंचित समूहों को और दबाने का खेल तथाकथित नागरिक समाज के आंदोलनों की आड़ में खूब चलता है. ये कहानियाँ अंदरखाने के उस खेल की बारीकियों को भले न दिखाती हों लेकिन इनके पात्र उस महीन राजनीति की आग की भयावहता को भली भांति समझतेऔर उससे उद्वेलित होते हैं.
कैलाश वानखेड़े

मैं शैली में लिखी गई यह कहानी एक प्रेम कहानी की तरह शुरू होती है. आकाश की महिला दोस्त जिसे वह मन ही मन प्रेम करता था पर कभी उससे कह नहीं पाया, किन्हीं कारणों से उससे दूर चली गई है. उसे उम्मीद है कि वह एकदिन जरूर लौटेगी. उसके जाने के बाद की बेचैनी और उद्विगनता के बीच थोड़ी देर इधर-उधर भटकने के बाद वह अपने घर में आकर टी वी के सामने बैठ जाता है, जिस पर एक डांस रियलिटी शो आ रहा है. अंतिम दृश्य को छोड़कर लगभग पूरी कहानी टीवी पर जारी रियलिटी शो के बीच उस शो के दौरान सेट पर और उसे देखते हुये आकाश के घर पर घटित हुये छोटे-छोटे दृश्यखंडों के कोलाज से निर्मित होती है. समाज का एक बडा वर्ग जो शोषित-वंचित है के विरुद्ध इलीट क्लास की मानसिकता कैसी होती है और उसके प्रति उन वंचितों के भीतर किस तरह का आक्रोश और प्रतिरोध कुलबुलाता है, को यह कहानी अपने दृश्यों से परत-दर-परत जीवंत करती है. कहानी के ब्योरे बहुत सूक्ष्म हैं.

लेखक की नजर प्रत्यक्ष के पीछे की मानसिकता और तथाकथित सभ्य समाज के उस अनुकूलन तक को खंगाल जाती है जिसमें दलितों-वंचितों की उपस्थिति तक को किस सहजता से एक वर्ग द्वारा भुला दिया जाता है. ऐसे ही एक दृश्य में रियलिटी शो के एक प्रतिभागी की जाति पहचानने के क्रम में एक जज के द्वारा दो ही विकल्प शाहऔर पटेलपर विचार करते हुये सही जानकारी तक पहुँचने के दौरान आकाश  की चिंता कितनी बारीक है –‘सराह को अपने ज्ञान के परिपूर्ण का अहसास हुआ, मुझे अपूर्णता का अहसास हुआ कि कैसे जान लिया? रंग है, रूप है, शरीर है, कपड़े हैं, तो किस आधार पर तय कर लिया कि ये कौन है?’ किसी की जाति पहचानने के क्रम में कोई व्यक्ति किन जातियों को विकल्प के रूप में सोचता है यह किसी के लिए एक सामान्य और निर्दोष बात हो सकती है पर ऊपर से सामान्य दिखनेवाली यह घटना सामान्य है नहीं. आकाश इस बात के पीछे की असामान्य स्थितियों को समझता है. तभी तो वह इस पर आगे सोचता है- मेरे गाँव झापादरा से गुजरात की सीमा करीब बीस किलोमीटर है. हमारे इस इलाके में दूर-दूर तक हम ही हम रिश्तेदार हैं और कोई भी नहीं है पटेल या शाह. तो जिस गुजराती को मैं जानता हूँ, उसे ये जज क्यों नहीं जानते, क्यों नहीं उनकी जुबान पर आया कि तुम भूरिया हो, परमार,बुनकर हो?’ आकाश को इस कदर विचलित करने वाला यह सवाल बहुत बारीक और महत्वपूर्ण है.

आखिर कितनी भायवह है यह स्थिति जहां एक पूरा का पूरा समूह एक वर्ग की स्मृतियों का हिस्सा तक नहीं बन पाता? किसी समूह विशेष की उपस्थिति से कोई इतना बेखबर कैसे हो सकता है? इस कहानी की विशेषता इन्हीं छोटे-छोटे ब्योरों में है. इस प्रसंग को समझने के लिए मेरे प्रिय मित्र और प्रखर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने पिछले दिनों इसी कहानी पर हो रही चर्चा के दौरान एक व्हाट्सऐप ग्रुप में ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठनके सविता प्रसंग की उचित ही याद दिलाईहै जिसमें कुलकर्णी परिवार की सविता जो वाल्मीकि जी से स्नेह भाव रखती थी, उनके द्वारा अपनी जाति बताए जानेपर इस बात को मानना ही नहीं चाहती की वे दलित हैं. ये कुछ ऐसी जातिजन्य  स्वाभाविकतायें हैं जो स्वाभाविक लगते हुये भी एक खास तरह के श्रेष्ठताबोध से संचालित होती हैं.

किसी जाति की सम्पूर्ण उपस्थिति को भूल जाने या जानबूझ कर भुला देने की स्थिति के विरुद्ध कथानायक की बेचैनी हो या फिर बिना उससे पूछे ही जनगणना अधिकारी द्वारा जातिगत जनगणना पत्र में अपनी मर्जी से उसकी जाति-धर्म से संबन्धित जानकारी लिख लिया जाना,इन सबके प्रति उसका चैतन्य अस्मिता बोध उसकी रगों में दौड़ता फिरता है, इसकी सराहना होनी चाहिए.पर उसकी दिक्कतें तब शुरू होती है जब वह स्त्रीअस्मिता के प्रति न सिर्फ लापरवाह हो जाता है बल्कि उसकी भाषा आपत्तिजनक होने के हद तक स्त्रीविरोधी हो जाती है. इस संदर्भ में चैनल पर सदी के महानायकको अपने बेटे के मांगलिक दोष के निवारण के लिएमंदिरों के चक्कर लगातेदेख आकाश के आत्मकथन को देखा जा सकता है- डरा हुआ महानायक पैदल चलता है, टीवी वालों को बुलाता है. दिखता है टीवी पर कि वह दिखना चाहता टी वी पर, समाचार-पत्रों में कि होनेवाली बहूके कुंडली के मांगलिक दोष निवारण के लिए मांगता है कि बेटे की सगाई अब न टूट जाय कि जिससे इश्क किया था, वो तो नहीं मिली लेकिन जिसने इश्क किया था सल्लू से, विवेक से वो अरेंज होने के बाद बनी रहे.प्रश्न किया जाना चाहिए कि वह कथानायक जो अपने जातिगत अस्मिता बोध को लेकर लगातार चैतन्य है वही एक स्त्री का संदर्भ आते ही इतना बेपरवाह कैसे हो जाता है?नहीं, यह महज लापरवाही नहीं, उसके भीतर कहीं गहरे बैठी वह पुरुष वृत्ति है जो स्त्रियों को न सिर्फ दोयम दर्जे का नागरिक समझती है बल्कि उस पर संपत्ति की तरह अपना हक भी जताती है.

अव्वल तो यह कि यह प्रसंग ही कहानी में गैरजरूरी है और दूसरी बात यह कि एक खास अस्मिता विमर्श के जागरूक प्रहरी को दूसरे वंचित समूह की अस्मिता के प्रति भी उतना ही चैतन्य होना चाहिए.

अस्मिता विमर्श की दृष्टि से कहानी का अंत विशेष चर्चा की मांग करता है. डांस रियलिटि शो देखने के बाद आकाश के दफ्तर का एक चतुर्थवर्गीय कर्मचारी गुलाब एरिया मैनेजर के कहने पर उसे को बुला लाता है. वहाँ जा जाकर उसे पता चलता है कि देश को दूसरी आज़ादी मिल गई है जिसे सेलिब्रेट करने वह बाहर जाना चाहता है लेकिन उसकी कार स्टार्ट नहीं हो रही अतः वह चाहता है कि दोनों उसकी कार को धक्का देकर स्टार्ट करा दें. आकाश यह कहते हुये गाड़ी को धक्का देने से इंकार करता है कि कार मैं भी चला लेता हूँ, स्टार्ट मैं ही करता हूँ. कहानी इस बात के संकेत देती है कि अपनी जातीय अस्मिताबोध से प्रेरित हो कर ही आकाश कार को धक्का देने से इंकार करता है. किसी को उसकी जाति के कारण कमतर या हीन समझे जाने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध जरूरी है. पर एक सवाल जो यहाँ मेरे मन में उठता है, वह यह है कि एरिया मैनेजर ने कार को धक्का लगाने केलिए उसे क्यों कहा एक सवर्ण होने के नाते या बॉस होने के नाते? कहानी में एरिया मैनेजर और गुलाब दोनों की जाति का उल्लेख नहीं है.

कल्पना कीजिये कि आकाश ओहदे में ऊंचा होता तो क्या उसका एरिया मैनेजर उससे ऐसा कह पाता? शायद नहीं. मतलब यह कि इस प्रसंग में एरिया मैनेजर की श्रेष्ठता ग्रंथि उसके वर्ग बोध से संचालित है न कि जाति बोध से. शोषण वर्ग के नाम पर हो या जाति के नाम पर दोनों का प्रतिरोध जरूरी है और होना भी चाहिए. लेकिन वर्ग आधारित शोषण को जाति आधारित शोषण में रिड्यूस क्योंकिया जाय?यहाँ इस बात का भी उल्लेख जरूरी है कि एरिया मैनेजर के प्रति आकाश के गुस्सा का असली कारण अपने लिए उसके द्वारा अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाना है –‘अरे वो नालायक भूरिया कहाँ है?उसकी तल्ख आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. लगा जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे भी समझता है. तभी तो इतनी बेअदबी, इतने वाहियात ढंग से बोला.’‘जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे  भी समझता हैइस कंडिका पर गौर किया जाना चाहिए.  इसका मतलब तो यह है कि आकाश को इससे कोई एतराज नहीं है कि बॉस गुलाब को क्या समझता है, उसे ऐतराज इस बात से है कि उसे वैसा ही क्यों समझ रहा है. क्या पूरी कहानी में जातिगत अस्मिताबोध की जो चिंता आकाश को बेचैन किए दे रही थी, वह नकली है? या यूं कहें कि वह खुद एक वर्गीय उच्चता बोध से ग्रस्त है.
राजेन्द्र यादव 

आकाश के चरित्र के इन अंतर्विरोधों और एरिया मैनेजर की वर्गीय श्रेष्ठता ग्रंथि को नजरअंदाज करते हुये कहानी के अंत पर जातीय अस्मिताबोध को आरोपित किया जाना इस कहानी के विमर्श को कमजोर करता है. जातीय अस्मिताबोध की बात अनुचित नहीं, पर इसके लिए कहानी के चरित्रों को अलग तरीके से विकसित किए जाने की जरूरत थी. चरित्र विकास के वर्तमान स्वरूप को यथावत रखना था तो क्या ही अच्छा होता कि यह कहानी जातीय अस्मिताबोध के प्रति अपनी चिंता जाहिर करने के समानान्तर उसके इन अंतर्विरोधों को भी उजागर करती!

इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि इसके जटिल भाषा-विन्यास तथा कहन और क्राफ्ट की उन कुछ असावधानियों की चर्चा न की जाये जिसका इशारा इस आलेख के आरंभ में किया गया था. जिन लोगों ने कैलाश वानखेड़े की अन्य कहानियाँ पढ़ रखी हैं वे उनके जटिल भाषा-विन्यास से परिचित हैं. लेकिन मैं जिम्मेवारी के साथ कहना चाहता हूँ कि यह जटिलता उनकी इधर की कहानियों में बढ़ी है. कथानक की बहुपरतीय संश्लिष्टता के निर्वाह के लिए  भाषा का जटिल होना जरूरी नहीं होता. कुछ तो प्रयोग और कुछ भाषाई अशुद्धियाँ दोनों मिलकर पाठ को दुरूह बनाते हैं. नतीजतन भाषा में निहित भावों को ठीक-ठीक समझने के लिए यह कहानी पाठकों से बहुत सतर्क और सावधान पाठ का मांग करती हैं. इस आलेख में उद्धृत विवेच्य कहानी के अंशों में भी कुछ हद तक इसे महसूस किया जा सकता है. एक-एक शब्द को बहुत ध्यान से पढ़ना होता है नहीं तो सावधानी हटी दुर्घटना घटीके तर्ज पर पाठ के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बना रहता है. आकाश का मित्र जिसे आधी कहानी में प्रेमशंकर बताया गया है आधे के बाद जयशंकर हो जाता है. ऐसी असावधानियाँ भी पाठ में दिक्कतें पैदा करती हैं. कैलाश और हंसदोनों को ऐसी भूलों के प्रति भविष्य में सावधान रहने की जरूरत है.

जैसा कि पहले उल्लेख हुआ है कि यह कहानी एक प्रेम कहानी की तरह शुरू होती है, जहां आकाश अपनी महिला मित्र के चले जाने से बहुत बेचैन और व्याकुल है. हर आहट में उसे उसकी ही आहट सुनाई पड़ती है. कहानी के पूर्वार्ध में जल्दी-जल्दी और बाद में अपेक्षाकृत कुछ देर से उसकी आहटों की गूंज कहानी में मौजूद रहती है. लेकिन जैसे-जैसे कहानी में आरोपित विमर्श का शोर बढ़ता है उसकी आहटें कहानी से पूरी तरह गायब हो जाती हैं. नतीजतन समय, समाज, जाति, अस्मिता आदि की सार्थक उपस्थितिके बावजूद कहानी अपूर्ण रह जाती है. कहानी के आखिरी हिस्से में आकाश के महिला मित्र के चरित्र की कोई तार्किक परिणति कहानी को मुकम्मल बना सकती थी. कहानियों से विमर्श खड़ा हो यह तो जरूरी है लेकिन विमर्श का पीछा करते हुये कहानी का हाथ से छूट जाना कहानी और कहानीकार दोनों के लिए चिंताजनक है.

कैलाश वानखेड़े एक समर्थ कथाकार हैं. राजेन्द्र यादव हंस कथा-सम्मान ने उनकी जिम्मेवारियों को और बढ़ा दिया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बढ़ी हुयी जिम्मेदारियों का अहसास उनके कथाकार को भविष्य में और निखारेगा.  
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राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी विंध्यनगर, जिला- सिंगरौली 486 885 (म. प्र.)
मोबाईल- 09425823033 ईमेल –brakesh1110@gmail.com

ग़ज़ल : श्याम बिहारी श्यामल

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श्‍याम बिहारी श्‍यामल पत्रकार हैं. उपन्यास प्रकाशित हुए हैं. महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन और उनके युग पर आधारित उनके उपन्यास की प्रतीक्षा है. ग़ज़लें भी लिखते हैं. पेश है पांच ग़ज़लें. 







श्‍याम बिहारी श्‍यामल की ग़ज़लें  



II एक II

कहीं और कली कोई खिलती नहीं मिली
दूरबीनें थक गईं दूसरी धरती नहीं मिली

लाखों साल से दिलों को धड़का रहा था
उस चांद की नाड़ी चलती नहीं मिली

जैसा सोचा वैसा ही सूर्ख़ निकला मंगल
लेकिन हवा कोई वहां बहती नहीं मिली

बेहिसाब बड़ा है बेशक ओर-छोर नहीं
उस आसमां की अपनी हस्‍ती नहीं मिली

जाने कब होगी पूरी बेतहाशा यह तलाश
अभी तक तो हवा में बस्‍ती नहीं मिली

श्‍यामल आसपास यह नजारा है कैसा
किसी आंख में ज़मीं बलती नहीं मिली




II दो II

बेमिसाल निशानी है दाम न कर
ताजमहल यह मेरे नाम न कर

ख़ाली हो जाए यह जरूरी नहीं
पैमाना-ए-सहबा तमाम न कर

मुद्दतों बाद सुब्‍ह नसीब हुई है 
जिद न कर इसे शाम न कर

दर्द ओढ़े सोया यहां कोई गज़ीदा
नींद टूट जाए, ऐसा काम न कर

गुमश्‍ता गुमनाम गुमराह है वह
आशिक न कह उसे बदनाम न कर

ख्‍़वाब ख़ुश्‍क नहीं ख्‍़वाहिशें ख़ालिस
श्‍यामल अक़बर कहां सलाम न कर



II तीन II

रोशनी यह कैसी मुकाबिल यहाँ
पलकें उठाना भी मुश्किल यहाँ

ज़मीं पर कभी-कभी नमूदार होते
हलफ़नामे में उनके सारा जहाँ

ताके तो सुब्ह आंखें मूंदते ही शब
ज़माने में मसीहा ऐसा और कहाँ

देखते ही सिहर उठा ताज़महल
कैसा आया है नया शाहजहां

श्यामल चुप रहना मुमकिन अब कहां
खिंचती ही जा रही काली रात जवां




II चार II

हर सांस कैफियत है
मिट्टी ही हैसियत है

चुप्पी तो बयान है
जब शोर सियासत है

यह सुब्ह इन्कलाब है
वह रात रियासत है

जबानों की दुनिया में
लफ़्ज मिल्कियत है

आग को छू ले श्‍यामल
गज़ब मुलायमियत है




II पांच II

महुए की डाली यह पलामू
पलाश की लाली है पलामू

लाह की गज़ब ललौंही दुनिया
कोयल-जल की प्याली पलामू

कनहर राग दामोदर की टेर
अमृत जैसा पानी पलामू

भूमि नीलांबर पीतांबर की
प्यार की राजधानी पलामू

अदब से पेश आ ए वक्त यहाँ
मेदिनी की मथानी यह पलामू

महाप्रभु का जो वृंदावन कभी
फ़िर बने चैतन्य-बानी पलामू

खत्म हो चला धपेलों का खेल
जगा रहा नई जवानी पलामू

हवा हो अब पनसोखों का झुंड
श्यामल सजल कहानी पलामू

________
श्‍याम बिहारी श्‍यामल
20जनवरी 1965, पलामू के डाल्‍टनगंज (झारखंड)

करीब तीन दशक से लेखन और पत्रकारिता. पहली किताब 'लघुकथाएं अंजुरी भर' ( कथाकार सत्‍यनारायण नाटे के साथ साझा संग्रह) 1984में छपी. 1998में प्रकाशित उपन्‍यास 'धपेल' (पलामू के अकाल की गाथा, राजकमल प्रकाशन) और 2001में प्रकाशित '‍अग्निपुरुष' (भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध संघर्ष का आख्‍यान, राजकमल पेपरबैक्‍स) चर्चित. 1998में ही कविता-पुस्तिका 'प्रेम के अकाल में'छपी. लंबे अंतराल के बाद 2013में कहानी संग्रह 'चना चबेना गंग जल' (ज्‍योतिपर्व प्रकाशन) से प्रकाशित. दशक भर के श्रम से तैयार नया उपन्‍यास 'कंथा' ('नवनीत'में धारावाहिक प्रकाशित, महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन और उनके युग पर आधारित) प्रकाश्‍य.

संप्रति : मुख्‍य उप संपादक, दैनिक जागरण, वाराणसी (उप्र)
संपर्क नंबर : 09450955978, ई मेल आईडी : shyambiharishyamal1965@gmail.com

परख : आगे जो पीछे था (मनीष पुष्कले) : प्रभात त्रिपाठी

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पिछले वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ से चित्रकार मनीष पुष्कले के प्रकाशित उपन्यास “आगे जो पीछे था” को पढ़ते हुए प्रभात त्रिपाठी ने  अपनी डायरी में उसे कुछ इस तरह से दर्ज़ किया है.  

कृति से संवाद का यह आत्मीय ढंग भी एक ज़रिया है कृति तक पहुचने का.


मनीष पुष्कले चित्रकार है और दिल्ली में, हौज़ खास में रहते हैं. जन्म १९७३ म.प्र. के भोपाल में हुआ. मनीष कभी-कभी अपने रंगों से बिदक कर अपनी कलम से शब्दों को तराशते हैं. अपनी शिक्षा से मनीष भूगर्भ शास्त्री हैं.


प्रख्यात चित्रकार रज़ा के प्रिय शिष्य रहे और और उन्ही के द्वारा स्थापित रजा न्यास के आप न्यासी भी हैं. मनीष ने यशस्वी कथा-शिल्पी कृष्ण बलदेव वैद को समर्पित वैद सम्मान की स्थापना की है जिसके अंतर्गत अभी तक ५ लेखकों को समानित किया जा चुका है ! मनीष ने इसके अलावा 'सफ़ेद-साखी' (पियूष दईया के साथ चित्र-तत्व चिंतन), "को देखता रहा' (विभिन्न विषयों पर लिखे लेखों का संकलन), ‘अकथ'(अशोक वाजपेयी को लिखे पत्रों का संपादन ) और हाल ही में "आगे जो पीछे था"नाम का एक उपन्यास भी लिखा है



आगे जो पीछे था : डायरी में नोट्स                    
प्रभात त्रिपाठी



2मई 2017
आज इस डायरी में अकस्मात आया.

आने के पहले बिना किसी योजना के बिलकुल ही अचानक, मैंने मनीष पुष्कले के उपन्यास, ’आगे जो पीछे था,’ का पहला अध्याय पढ़ा.

मुझे अच्छा लगा. जैसे अपने को, संसार को, जानने की, कहीं आत्मबोध के स्तर पर उसके शब्दों की अमूर्त्तता और सगुणता और निर्गुणता और निराकारता में पाने की, उन्हें देखते हुए कितना कुछ और देखने की, उसी देखे में अदेखे को शामिल करने की, एक सिहरन सी देह के भीतर सरसरायी, वहीं भीतरके आसमान से चमकती गिरी कुछ भीतर ही, बाहर भी कुछ था, जो रोजमर्रे के कबाड़ के अन्दर आत्मसा ही चमक रहा था. मुझे लगा, कि उसके चित्रों को देखने का अवसर चाहे मुझे न मिल पाया हो,उसके शब्दों को ’देखने’ का अवसर भी कम सर्जनात्मक नहीं है, क्योंकि अन्ततः यह भी आत्मान्वेषण की गझिन दुनिया के असंख्य रस्तों पर ले जाता है.



4मई 2017
आज भी मनीष पुष्कले की कथा कृति के शुरुआती दो तीन अध्याय पढ़े.

एक बिलकुल ही अलग अनुभव देते हैं शब्द, कृति को देखने या पढ़ने से कहीं अधिक तीव्रता से खुद को देखने की दिशा सुझाते. बल्कि दिशा सुझाते ही नहीं, खोजने को उकसाते उनके शब्द, पता नहींकिन या कैसी मानसिक स्थितियों में उन तक आए होंगे, पर मुझ तक आते आते, वे इतने मेरे हो गए हैं,कि मैं उन्हें उनकी किताब में स्थित शब्दों की तरह नहीं देख पा रहा. ना, मैं यह नहीं कह रहा, किउनके अनुभव से उत्कट साझेदारी के चलते यह संभव हुआ है, बल्कि मुझे लगता है, कि इन शब्दों ने मुझे आत्म के बीहड़ों में धकेल दिया है. निश्चय ही हर कलाकार, लेखक के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब वह ’आत्म’ को सर्वात्म या विश्वात्म के व्यापक सन्दर्भ या समय और समयातीत से मिला हुआ देखने को बेचैन सा होने लगता है, लेकिन शब्द कर्म में तो यह महज अभिव्यक्ति का कौशल नहीं, बल्कि शब्द की प्रकृति को भेदने की भी अपेक्षा रखता है. सो मामला निरा तकनीकी नहीं लगता. दूसरे मुझे यह भी लगता है, कि एक तरफ भाषा में मूर्तिमंत अहिंसा का संयम है, तो दूसरी तरफ खोजने की ऐसी बेचैनी,जो पाठक को किताब के पन्नों की व्याख्या में ही नहीं अटकाए रखे. सामान्य वर्णनों में भी एक ऐसी गहराई सृजित होती जाती है, जैसे वह भीतर की गहराई तक उतरने की अनन्त राह हो. ’’जैसे प्रकृतिअपने खालीपन पर यहीं उतरती थी, यहीं उसका खाली खाली, बहुत खुला खुला दीखता था.’’


कहने का मन होता है
, कि सिर्फ प्रारब्ध कुमार या मनुष्यों के अनुभव में नहीं, अपनी मासंल ऐन्द्रिक और प्रायवेट निजता में भी कई बार यह अनुभव होता है, कि हम अपने खालीपन को बहुत खुला खुलादेख रहे हैं, सड़क के उसी किनारे पर, जहाँ मनुष्य निर्मित जगह से थोड़ी रिक्त सी जगह पर उतरती आयी है प्रकृति ? क्या ऐसे रस्तों पर आदिमकाल से नहीं चलता आया है आदमी, जहाँ वह अपने प्रकृततक जा सके या उसको पा सके ?
क्या पता प्रारब्ध उसे कहाँ ले जाता है ?



6मई 2017
सुबह से ही मेरे मन में लिखने का खयाल कुलबुलाता रहता है.

अभी फिर मनीष के तथाकथित उपन्यास पर सोचने लगा था. पर सोच वहीं नहीं टिकी थी. इधर पढ़ना काफी कम हो गया है. तीन दिन में उसकी कृति के तीन चार छोटे छोटे अध्याय ही पढ़े हैं. बेशक थोड़े रैण्डमली बीच के कुछ हिस्से भी पढ़े हैं. उसकी नजर आती वैचारिकता से झाँकती कुछ बातों से असहमति भी हुई है. लगा है, कि एक तरह से यह सुदूर के अतीत को कल्पना से महिमा मण्डित करना भी हो सकता है? पर कई जगहों पर भाषा वास्तविक आत्मान्वेषण की दिशाओं में बढ़ती नजर आती है. राजनीति, भूगोल, इतिहास से परे, जैसे सचमुच उस ’भाषा’ को देखती हुई, जिसकी विविध और विचित्रवर्णाढ्यता ’आत्म’ को तरह तरह के रूपाकारों में दिखाती हुई, बुनियादी अभेदत्व की ओर संकेत करती रहती है.





15मई 2017
शायद हर कलाकार, लेखक या सृजनधर्मी व्यक्ति के मन में अपने होने के रहस्यों को और संभव हो तो पूरी सृष्टि में व्याप्त रहस्यों को जानने की एक जिज्ञासा रहती ही है. वह अभी और यहाँ के रोजमर्रे में रहता हुआ, समय और सभ्यता के दंश सहता हुआ भी, होने की आस्तित्विक जटिलता और रहस्यमयता से निरंतर टकराता रहता है. इस टकराहट की, इस अतिसूक्ष्म अनुभूति की, अभिव्यक्ति के रस्ते खोजता रहता है. उसके लिए ये प्रश्न महज अकादमिक अर्थ में ’दर्शन’ के सवाल भर नहीं होते. मनीष की यह कथा भी आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को ’कथा’ के एक ऐसे रूप में रचना चाहती है, जहाँ वह सामान्य सामाजिक, व्याकरणिक विन्यास में बंधी हुई भाषा को, अपनी खाजे के अनुभव के एक नये रूप में रचसके. शायद स्वभावतः ऐसा कोई रूप पाठक को कथा के किसी रैखिक प्रयोजन की ओर बढ़ने का निर्देश देता नहीं लगता.

अभी मैंने इस उपन्यास के सात आठ अध्यायों को थोड़े सरसरी तौर पर ही पढ़ा है और उसी सेमुझे लग रहा है, कि सामान्य वाक्य विन्यासों,या वर्णनों के बावजूद, वहाँ एक बहुलार्थी व्यंजकता है. उनके बहाव में, हम उनके आपसी रिश्तों को, उस मुक्तता में जानते हैं, जहाँ शब्द निरे वर्णन या कथन भर नहीं रह जाते.




17मई 2017
आज लगभग महीने भर बाद भी मैं इस ’उपन्यास’ को पूरा नहीं पढ़ पाया हूँ.

पर इसी अति धीमे पाठ के दौरान मुझे लगता रहा है, कि यह कथा एक गहरे व्यापक अर्थ में आज की भयावह आध्यात्मिक रिक्तता की कथा है. यह आध्यात्मिक रिक्तता, एक ओर तो परिप्रेक्ष्य के बतौर ऐतिहासिक और साभ्यतिक संदर्भों  को लिए है, पर इसकी संवदेनात्मक और ज्ञानात्मक कल्पनाशीलता में व्यक्ति का अन्तर्मन ही, अपनी पूरी व्यापकता और गहराई में विन्यस्त हुआ महसूस होता है. शब्द वाक्य,वर्णन, जगहें और कितनी सारी शाब्दिक उपस्थितयों की व्यंजक वाचकता को आत्मसात करना ही इस उपन्यास के पाठ के सार्थक रस्ते हो सकते हैं, लेकिन फिर भी इसमें एक तरह का कथा कौशल है, जो निरी चतुराई या स्किल का द्योतक नहीं है. 

अभी जब मैं इस कथा के’ ना सुनी आवाज के फासले’ सेलेकर, निसर्ग के निषेध वाले अध्यायों से गुजरा हूँ, तो एक बात मुझे यह भी महसूस हो रही है, कि यह निरी ऐकांतिक साधना, या ऐतिहासिक आलोचना से जुड़ी आध्यात्मिक रिक्तता की अनुभूति से ही रचितनहीं है. दुपहर की सूनी सड़क पर, एक लड़की से हुई मुलाकात के बाद, अपने शीशमहल के तलघर की खिड़कियों के रस्ते झरते टुकड़ों से बाहर के अपने भीतर को, देखने और रचने की कोशिश करता यह चित्रकार वाचक नायक, मानव संबंध की गहन अन्तरंगता में भी आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को जारी रखे है.रात्रि’ से मुलाकात के बाद के काव्यात्मक आशयों, अभिप्रायों से दीप्त अध्याय, जैसे कथा विन्यास के सारपर संबंधों में सतत उपस्थित संभाव्य आध्यात्मिकता के संकेतों से भरे लगते हैं.



23मई 2017
पिछले दिनों मैंने रात्रि और प्रारब्ध कुमार के मिलने और परिचय के हिस्से को पढ़ते हुए महसूस किया, कि मामला किसी तलाश में निकले व्यक्ति का, किसी अत्यन्त सुन्दर स्त्री से आकस्मिक मुलाकातकी ऐसी ’घटना’ भर नहीं है, जिसे हम सम्बन्ध के एक पारम्परिक सामाजिक अर्थ में ही पढ़ कर संतुष्ट हो सकें. दरअस्ल इस पूरी अन्तर्यात्रा में शब्द, स्वयँ अपना अर्थ खोजते नजर आते हैं और लगभग ’ध्वनि’ की तरह पाठक के भीतर आते यह भी महसूस कराते हैं, कि इस तलाश और अचानक के संयोग से होनेवाले मिलन को, किसी तरह की जड़ निर्दिष्टता में पढ़ पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है. उन दोनों के भीतर की सोच की प्रक्रिया में उमड़ते शब्द हमें बार बार सुझाते हैं, कि उनसे उभरनेवाले सामान्यीकरणों को किसी स्थिर दार्शनिक सिद्धान्त की तरह पढ़ना संभव नहीं है. 

'रात्रि’ नाम सुनने के बाद, परिचय के स्वरूप’ को दैहिक मूर्तता में देखने के बजाय, शायद बेहतर यही है, कि इन शब्दों में अन्तर्निहित सोच को, अपनी कल्पना की व्यंजकता में पढ़ने की कोशिश करें. तब शायद हम यह महसूस करते हैं, किजगह जगह पर सूक्ति की दार्शनिकता सुझाते ये शब्द भी, प्रसंग सीमित नहीं है और स्थिर सांकेतिकतातो इनमें कहीं नहीं है. अभी तक जो पढ़ा है, उससे तो लगता है, कि किस्सा या कथ्य या कथा, किसी भी पाठक को एकाग्रता के साथ सँरचना में मौजूद शब्दों और वाक्यों को अपने ’अर्थ’ से नहीं, अपनी ध्वनि से जोड़ती है, ध्वनि सिर्फ आवाज के अर्थ में नहीं, व्यंजकता के अर्थ में भी.



25मई 2017
अभी मैंने मनीष के उपन्यास के कुछ पृष्ठ दुबारा पढ़े हैं. पर मुझे लगता है, कि इसे विचार सार, या कथा सारांश की तरह प्रस्तुत कर सकना मेरे लिए कतई मुमकिन नहीं है. भाषा, यहाँ उनके प्रयोजन की केन्द्रीयता की ओर किसी तरह का संकेत नहीं करती, बल्कि अपने भीतर उतरने के लिए उकसाती, उद्बुद्ध करती है. ’ सैर की दूसरी संभावनाएँ से लेकर ’ हम अचूक संभावनाओं से बने हुए हैं,’ तक का पाठ, यह अनुभव जरूर देता है, कि एक तरफ आत्म की खाजे और रात्रि के साथ संपर्क और परिचय में, एक तरह की कलात्मक जिज्ञासा का कंपन है, तो अपने पुरखों के पौराणिक ऐतिहासिक निजी स्मृति केआलेखन में एक तरह की आधुनिक बौद्धिकता का संयमित संस्पर्श है. खासकर प्रारब्ध और रात्रि की बातचीत को पढ़ते हुए, स्त्री पुरुष सम्बन्ध के अन्तरंग की जो लय हमें घेरती है, उसमें एक तरह का आत्मीय खिलंदड़ापन ही नहीं, बल्कि एक अबूझ और रहस्यपूर्ण गहराई भी है, जो किसी ’दिशा ज्ञान’ से ज्यादा,  'दिशा खोज’ के अथाह में भटकाती है. रोचक यह है, कि दोनों की बातचीत के भाषिक विन्यास में एक तरह की संप्रेष्य साधारणता है, जो चिन्तनशीलता और अनुभूतिदोनों ही स्तरों पर, एक आत्मीय असाधारणता में रूपान्तरित होती दिखाई देती है.

इसके विपरीत अपनी सदाशयता और अपनी आदर्शोन्मुख परम्पराप्रियता में ठीक उसके बाद केअध्यायों में, ’शायद’ के केन्द्रीय मुहावरे के बावजूद, एक तरह की निश्चयात्मकता है, जो पाठ को थोड़ाविश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक ही नहीं बनाती, बल्कि एक तरह की प्रयोजन सीमित रैखिकता की ओरले जाती दिखती है. बेशक पुरखों के साथ पश्चिम की टकराहट को,वे निरे विरोध के भाव से नहीं रचतेऔर इस तथ्य से भी थोड़ी सहमति हो सकती है, कि पश्चिम के टकराव के बाद, भारतीय व्यक्ति केआत्मबोध की प्रक्रिया को एक गहरा झटका लगा, पर इस तथ्य को उस तरह की सर्जनात्मक कल्पना कीभाषा में शायद मनीष व्यक्त नहीं कर पाए हैं, जैसी भाषा के अन्तरंग में, अपनी जिज्ञासा और अपनीसर्जनात्मकता को आनुभूतिक स्तर पर महसूस करते हुए हम विचरते रहे हैं. यह अंश आलोचनात्मकअधिक और कम सर्जनात्मक लगता है. एक सामान्य पाठक के रूप में प्राचीन इतिहास के इस विवरणको, मैंने थोड़े आधुनिक स्केप्टिक की तरह ही पढ़ा है.



30 मई 2017
अचूक संभावनाः’ और ’आगे जो पीछे है’ जैसे दो अध्यायों को पढ़ते हुए अभी फिर लगा कि, यह कथा या कि इसमें शामिल अलग अलग किये गये अध्याय, किस्से की शैली के बावजूद, शब्द चिन्तन, अस्तित्व और समय को एक अलग तरह की कविता में पकड़ने का प्रयास है. इसके ’पाठ’ में गहरी एकाग्रता की जरूरत है. निष्कर्षात्मक ढंग से, थोड़ी मुखरता के साथ व्यक्त किए गए, इसके इस इरादे में, कि यह ’जड़ समाज’ की जड़ता को आत्मान्वेषण के स्तर पर पहचानने की कथा है, इसे पढ़ना, निश्चय ही इसकी बहुलार्थी व्यंजकता को सीमित कर देना और शायद इसकी जटिलता और गहराई दोनों को सरलीकृत करना होगा. ऊपर उद्धृत दोनों ही अध्यायों में बातचीत, मानवीय अस्तित्व के गहरे प्रश्नों से ही संबंधित और संदर्भित लगती है, इतिहास में हुए न्याय अन्याय से नहीं. 

बेशक सर्जक के इतिहासबोध और उसकी कल्पनाशीलता के संबंध को रेखांकित करने के लिए, श्रुति परंपरा से विच्छिन्नता के सन्दर्भ को एक जरूरी, बल्कि शायद उपयोगी सन्दर्भ की तरह याद रखा जा सकता है, पर मामला इतिहास की छानबीन का नहीं, आत्म की खोज और भाषिक सर्जनात्मकता का ही है, जिसे बहुलार्थी और व्यंजक पाठ की तरह ही पढ़ा जाना उचित है. शायद मेरी बातों में काफी दुहराव है.



 7जून 2017
मनीष के उपन्यास के अन्त तक आते आते मुझे लग रहा है, कि अब तक पाठ प्रक्रिया के दौरान जो कुछ भी पाठकीय जैसा कुछ, मैं लिखता रहा हूँ , वह उपन्यास की गहराई जटिलता और नानार्थता की समझ के लिए कतई नाकाफी है. रात्रि तथा प्रारब्ध और चेतन के एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में यात्रा की शुरुआत के बाद तो, सलीब’ वाले प्रसंग तक आते आते, उसमें कई ऐसे नये अर्थ संबोधि के स्तर पर फूटते हैं, कि उसे अन्त के निष्कर्षात्मक अध्यायों की तरह पढ़ना उचित नहीं लगा. सच तो यह है, कि उचित यह भी नहीं लगता, कि मात्र एक बार के त्वरित पाठ’ के आधार पर, इस कृति के बारे में कुछ भी कहा जाए, लेकिन यह कृति इतनी ज्यादा अलग और थोड़ी विचित्र भी है, कि इसे पढ़ते हुए, इसे अपने भीतर लाते हुए, आत्मचिन्तन ना सही, आत्मालाप को रोक पाना थोड़ा कठिन लगने लगता है. 

मनीष की यह कृति हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में एक अद्वितीय कृति की तरह ही याद की जा सकती है. वे इसमें भारतीय समाज के आत्मान्वेषण की प्रक्रिया को, आत्मानुभव और आत्मचिन्तन की कल्पनाशील और परंपरापोषित भाषा में लिखते हैं. मुझ जैसे अल्पज्ञ पाठक के लिए तो इस पूरी कथा में अन्तः सलिल कविता और उसकी अशेष व्यंजकता ही, इसके प्रति आकर्षण का मूल कारण है.

_________________

प्रभात त्रिपाठी
14/09/1941, रायगढ़ (छत्‍तीसगढ़)

कविता संग्रह- खिड़की से बरसात, नहीं लिख सका मैं, आवाज, जग से ओझल, सड़क पर चुपचाप, साकार समय में, लिखा मुझे वृक्षों ने
आलोचना- प्रतिबध्दता और मुक्तिबोध का काव्‍य, रचना के साथ
उपन्यास- सपना शुरू, अनात्मकथा आदि

सम्मान
वागीश्वरी पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,उ.प्र. द्वारा सौहार्द्र पुरस्‍कार

pktripathi180@gmail.com

मेघ - दूत : रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविताएँ : संतोष अर्श

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२० वीं सदी के महत्वपूर्ण अमेरिकन कवि रॉबर्ट ली फ्रॉस्ट (Robert Lee Frost : March 26, 1874 – January 29, 1963) अपनी कविताओं के यथार्थवादी रुझान के लिए चर्चित रहे हैं. उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद युवा कवि और अध्येता संतोष अर्श ने किया है.






ज़दीद अमरीकी कवियों में रॉबर्ट ली फ्रॉस्ट अपील करता है. वह देशज, रोमानी प्रकृति में बिंबित मनुष्य की उदासी से भरी अपनी कविताओं के लिए विश्वप्रसिद्ध हुआ. उदासी के साथ उसके यहाँ पिछली सदी का प्रारम्भिक दर्शन और आशा की छवियाँ हैं. एक निश्चय भी है. उसकी छोटी-छोटी कविताओं में बर्फ़ सी उजली ठंडक और पीले जंगलों की रहस्यमय छटा है. यहाँ फ्रॉस्ट की कुछ ऐसी ही कविताओं का अनुवाद करने की कोशिश है. संभव है इनमें से कुछ का अनुवाद पहले भी हो चुका हो,किन्तु यह बात इनसे गुज़रने के लिए नहीं रोकेगी. भाषा की संस्कृति को पकड़ने के लिए उसे सहज ही रखा है. 

कविताओं की रचनात्मकता न नष्ट हो इसलिए अनुवाद करने में अपने भीतर के कवि से बचा हूँ. एहतियात’, ‘जीवन का पाटऔर सब कुछ वहाँ नहींस्वतंत्र कविताएँ न होकर कविता ‘Ten Mills’का एक हिस्सा हैं,जो दिलचस्प था. बाक़ी स्वतंत्र कविताएँ Fire and Ice, Dust of snow, Nothing gold can stay, Devotion, Lodge, A minor bird, The Rose family,और Hannibalहैं. Hannibal अमेरिका के मिसीसिपी नदी के किनारे के एक क़स्बे का नाम है,इसलिए उसके स्थान पर एक क़स्बारख दिया है. सहजता के लिए. मूल कविता को बचाने में यदि भाषा और भाव लड़खड़ाए तो उन्हें लड़खड़ाने दिया है. कविता का अनुवाद जटिल है,क्योंकि इस प्रक्रिया में वह पुनर्रचना बन जाती है. इनमें कुछ कविताएँ ऐसी भी थीं जो वर्स में हैं,जिन्हें हिन्दी में साधने से अर्थ संक्रमित हो जाता.
__संतोष अर्श





रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविताएँ                                     



बर्फ़ और आग

कहते हैं कुछ लोग दुनिया आग में ख़त्म होगी,
कुछ लोग कहते हैं बर्फ़ में.
उसके कारण,जो मैंने वासना में चखा है
मैं उनके साथ खड़ा हूँ,जो आग के पक्ष में हैं.
लेकिन यदि यह सर्वनाश दोबारा होगा,
तो सोचता हूँ कि,घृणा को मैं पर्याप्त जानता हूँ
यह कहने के लिए कि,नाश हेतु
बर्फ़ भी बहुत उपयुक्त है.
और यह काफ़ी होगी.  



हिम-धूलि

जिस तरह एक कौव्वा
हिलते हुए झुकता है मुझ पर
बर्फ़ की धूल
एक सदाबहार पेड़ से.
जंगल के एक बदलाव ने
मेरा हृदय दे दिया है
और बचा लिया है कुछ भाग
एक दिन का,जो मैंने गंवा दिया था.



सोने सा कुछ भी नहीं ठहरता

प्रकृति की प्रथम हरीतिमा सोना है,
बाँध कर रोकने के लिए,उसकी प्रगाढ़तम पुकार.
उसकी पल्लवियाँ एक फूल हैं
लेकिन कुछ घड़ियों भर.
फिर पत्ती दर पत्ती उतर जाएगी.
इसलिए बच्चा दु:ख में डूब गया
इसलिए भोर दिन के तल में डूब जाती है.
सोने सा कुछ भी नहीं ठहरता. 


आस्था

सागर तट होने से बढ़कर
हृदय किसी लगन के बारे नहीं सोच सकता-
एक अवस्थिति का कटाव लिए हुए
अनंत दोहरावों को गिनते हुए.



पड़ाव   

बारिश ने हवा से कहा
तुम धक्का दो और मैं बरसूंगी.
बगीचे के बिस्तर को उन्होंने इस तरह धुना
कि फूल सचमुच घुटनों पर आ गए
और निश्चल पड़े रहे
यद्यपि मरे नहीं.
मैं जनता हूँ फूलों ने क्या अनुभव किया.  



एक अवयस्क चिड़िया  

मैंने चाहा कि चिड़िया कहीं दूर उड़ जाएगी
और पूरे दिन मेरे घर के आस-पास नहीं गाएगी:
मैंने दरवाज़े से,उस पर अपने हाथों से ज़ोर की ताली बजायी
जब ऐसा लगने लगा कि,मैं इसे और अधिक सहन नहीं कर सकता.
अंशतः कमी अवश्य मुझमें रही होगी
चिड़िया पर इसके लिए आरोप नहीं लगाया जा सकता.
और वास्तव में कुछ गलत ज़रूर है
किसी तरह का गीत ख़मोश करने की चाह में. 
 

गुलाब परिवार   

गुलाब एक गुलाब है
और हमेशा एक गुलाब था.
लेकिन यह बात अब जाती है
अब सेब भी एक गुलाब है
और नाशपाती भी,और इसलिए
आलूबुखारा भी,मैं समझता हूँ.
केवल प्रिय जानता है
आगामी क्या एक गुलाब साबित करेगा-
लेकिन हमेशा एक गुलाब था.     


एक क़स्बा

यहाँ तक कि,वहाँ एक वज़ह भी खो गई
एक वज़ह जो बहुत पहले,कभी गुम गई थी
या फिर व्यर्थ में चुक गए समय की तरह दिखी
जवानी के तीक्ष्ण आँसुओं के लिए और गीत ?


एहतियात

मैंने जवानी में उग्र होने का साहस कभी नहीं किया
इस भय से कि वृद्ध होने पर यह मुझे कठमुल्ला बना देगा.


जीवन का पाट

बूढ़ा कुत्ता बिना उठे मेरे पीछे भौंक रहा है
मैं याद कर सकता हूँ कि वह कभी एक पिल्ला था.



सबकुछ वहाँ नहीं

संसार की उदासी के बारे में
मैं ईश्वर से बात करने के लिए मुड़ा
लेकिन बुरे को बदतर बनाने के लिए
मैंने पाया,ईश्वर वहाँ नहीं था.
ईश्वर मुझसे बात करने को मुड़ा
(कोई जन हँसो मत)
ईश्वर ने देखा,मैं वहाँ नहीं था
कम से कम आधे से अधिक नहीं.    

_____________________________________

संतोष अर्श 
(1987, बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)

ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.


फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी  
 poetarshbbk@gmail.com                 

सबद - भेद : इक शम्अ है दलील-ए-सहर : अच्युतानंद मिश्र

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मुक्तिबोध फिर चर्चा में हैं. उनकी मृत्यु के बाद जो चर्चा चली थी उसमें उन्हें एक बड़े कवि के रूप में पहचाना गया. मुक्तिबोध जयशंकर प्रसाद के बाद दूसरे ऐसे बड़े कवि हैं जिनका गद्य भी मजबूत है. मुक्तिबोध के साहित्य का केन्द्रीय शब्द है आत्मसंघर्ष. चित्त सम्मोहन के इस दौर में रचनाकारों और विचारकों को इसकी आज सबसे अधिक जरूरत है.    

अब इस वर्तमान बहस में मुक्तिबोध की कविताओं को गहरे संदेह  से  कुछ युवा देख परख रहे हैं. ऐसे में युवा आलोचक अच्युतानंद मिश्र के इस सुचिंतित आलेख को पढ़ा जाना चाहिए.  
    


इक शम्अ है दलील-ए-सहर #
अच्युतानंद मिश्र


मुक्तिबोध की मृत्यु 1964 में हुई. 1964 में ही नेहरू की भी मृत्यु एवं कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ. तब से लेकर अब तक आधी सदी का समय गुजरा है. इस आधी सदी में न सिर्फ राजनीतिक अपितु बुनियादी सामाजिक एवं सांकृतिक परिवर्तन भी हुए हैं. अगर मुक्तिबोध की कविता का संदर्भ इन पचास वर्षों के बीच हुए बुनियादी परिवर्तनों से जुड़ता है तो वह हमारे वर्तमान की जटिलताओं को देखने का एक जरिया हो सकता है. इसी अर्थ में यह भी देखना गैर मुनासिब न होगा कि मुक्तिबोध की कविताओं को हम देश-काल की सीमाओं से परे गतिशील पाठ के रूप में, किस तरह व्याख्यायित कर सकते हैं? किसी लेखक या कृति के कालजयी होने के क्रम में, यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.

50’ वर्षों के हमारे सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक समय की गतिकी के बीच मुक्तिबोध की कविता किस तरह हमारे काम आती है? अपने समय की प्रवृत्तियों को आत्मसात करते हुए जिस तरह कोई युग बढ़ता है और परिवर्तित होता है, उसी तरह के परिवर्तनों से हर कृति को भी गुजरना होता है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण नहीं कि मुक्तिबोध की कविता भविष्य की कविता है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि बनते हुए भविष्य के समानांतर चलती हुयी कविता, वह है कि नहीं !

मुक्तिबोध की कविताओं को 50-60 के दशक में रखकर देखने की कोशिशें अधिक हुई. ऐसा नहीं है कि यह जरूरी नहीं था. लेकिन जिस तरह हर युग की कुछ प्रवृतियाँ भविष्योन्मुखी होती हैं, उसी तरह मुक्तिबोध की कविताएँ भी भविष्योन्मुखी थी. ज्यों ही हम उनका मूल्यांकन सम-सामयिकता या समय केन्द्रीयता के आधार पर करने लगते हैं,एक बड़ा यथार्थ हमसे छूटने लगता है. यह कुछ-कुछ हाईजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत की तरह है, अगर आपने स्थिति का ठीक-ठीक पता लगाने की कोशिश की तो गति आपके हाथ से निकल जायेगी. ऐसे में आपको स्थिति और गति के बीच थोड़े अनिश्चय का संतुलन विकसित करना होगा. मुक्तिबोध की कविता भी अमूमन उन लोगो को अधिक अमूर्त जटिल या अव्याख्येय लगती है, जो लोग निश्चितता के पक्षधर होते हैं. इसी जमीन पर मुक्तिबोध को लेकर एक बहस साठ के दशक में हुयी. उस बहस के मूल में एक ओर जहाँ साठ के दशक की वैश्विक सामाजिक एवं राजनीतिक परस्थितियाँ थीं, वहीं कुछ स्थिर और रूढ़ मान्यताएं भी थी. मुक्तिबोध को इन रास्तों से मुक्कमल तौर पर समझना आसन न था. हाँ उनके विषय में इस रास्ते परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते थे, वह हुआ.

मुक्तिबोध को पढ़ते हुए जो सबसे जरुरी सवाल सामने आता है वह है, हम हिंदी कविता में मुक्तिबोध को कहां रखें? यह प्रश्न इसलिए भी कि समकालीन कविता के संदर्भ में अक्सर मुक्तिबोध की परम्परा का हवाला दिया जाता है लेकिन आमतौर पर वह दोनों ही को अर्थात समकालीन कविता और मुक्तिबोध को अव्याख्यायित रख छोड़ने की कवायद ही साबित होती है. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि हम इस प्रश्न को बार-बार पूछे कि मुक्तिबोध की काव्य परम्परा से हम क्या समझे? कहना न होगा कि मुक्तिबोध के संदर्भ में इस प्रश्न को काफी पीछे छोड़ दिया गया है. परन्तु मुक्तिबोध पर शुरू होने वाली हर नई कोशिश को इस प्रश्न से बार बार गुजरना होगा.

मुक्तिबोध के संदर्भ में यह बात काबिले गौर है कि वे तमाम पुराने रास्तों को तोड़ते हैं. तोड़-फोड़ तो निराला से अधिक आधुनिक हिंदी कविता में शायद ही किसी ने किया हो, लेकिन मुक्तिबोध की उलझन दूसरी है. वे कविता, जीवन और जीवन दर्शन को एक साथ रखने की कोशिश करते हैं. वे अतीत वर्तमान और भविष्य को एक सीधी रेखा में नहीं रखते. वे इसका एक त्रिकोण बनाते हैं. यही वजह है कि यहाँ अतीत से भी भविष्य में जा सकते है.

तुम मेरी ही परम्परा हो प्रिय
तुम हो भविष्य –धरा दुर्जय
तुममे मैं सतत प्रवाहित हूँ
तुममे रहकर ही जीवित हूँ
तुम मृत न मुझे समझो
मेरी भविष्यवानियाँ सुनों !! (भविष्य-धारा, 116/2)

मुक्तिबोध भविष्य के रास्ते ही अतीत में प्रवेश करते हैं. वे जानते हैं, जो जीवित रहेगा, वह भविष्य ही है. इसलिए अतीत का सबकुछ निर्मित होने वाले भविष्य पर निर्भर करता है. मुक्तिबोध, इतिहास को रूढ़ि या पहले से स्थापित किसी सत्ता के रूप में नहीं देखते. वे इसे लगातार आगे बढ़ रहे समय की धारा में खोजने की कोशिश करते हैं. वह समय जो इतिहास से टकराता है. परम्परा को चुनौती देता है. ऐसा करते हुए सबसे बड़ा संकट है दिशा-हारा होने का. मुक्तिबोध इतिहास से टकराते जरुर हैं, परम्परा को चुनौती देते हैं, लेकिन वे न तो इसे नकारते हैं और न ही उसे छोड़ते हैं. सहज भाषा में कहें तो मुक्तिबोध के लिए एक बौद्धिक की जिम्मेदारी है कि वह इतिहास से टकराकर इतिहास का पुनर्निर्माण करे.

आधुनिक हिंदी कविता, विशेषकर बीसवीं सदी की हिंदी कविता में दो रास्ते नज़र आते हैं. एक रास्ता है निराला का दूसरा मुक्तिबोध का. आप किसी सरलीकरण के रास्ते मुक्तिबोध को निराला से सम्बद्ध नहीं कर सकते. दोनों कवियों के मध्य फासला सिर्फ दो दशकों का है. बावजूद इसके एक बात जो दोनों को करीब लाती है, वह है,जिस तरह निराला को महज़ छायावाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता, ठीक उसी तरह मुक्तिबोध को भी नई कविता और प्रयोगवाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता है.

निराला की कविता के केन्द्र में किसान जीवन है. भारतीयता का एक अर्थ उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान विकसित हुआ. साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ते हुए यहाँ की जनता ने जो मूलतः किसान थी या किसान परम्परा से सम्बद्ध थी, एक राष्ट्र,एक राज्य के रूप में खुद को सुगठित किया. आधुनिक हिंदी कविता का मूल स्वर विशेषकर 1857 -1947 के बीच इसी चेतना से जुड़ा. निराला इस चेतना की सर्वाधिक अग्रगामी आवाज़ थे. किसान जीवन की कुछ मान्यताएं एवं परम्पराएँ थी, जो नये मूल्यबोध को रचती थी. आप पाएंगे कि तमाम नये मूल्यबोधों की सर्वाधिक प्रखर पहचान निराला के यहाँ मिलती है. 

किसान जीवन में एक खास तरह की एकरूपता होती है. सोच स्वभाव और आकांक्षा के स्तर पर भी. इसलिए किसी व्यक्ति के द्वारा भी समाज को निरुपित किया जा सकता है. किसान जीवन की बड़ी विशेषता यही है कि वहां व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी इकाइयों के रूप में नहीं, बल्कि एक दूसरे से सम्बद्ध इकाई के रूप में देखा जा सकता है. निराला की कविताओं में आ रहा व्यक्ति इस अर्थ में समाज की चेतना को इंगित करता है. वहां व्यक्ति और समाज का द्वंद्व महत्वपूर्ण नहीं है. वहां महत्वपूर्ण है, व्यक्ति के आत्मविस्तार की संभावना. ऐसे में निराला जिस अकेलेपन की बात करते हैं, वह एक रुमान और वेदना से हमें भर देता है. मध्यवर्ग का हर व्यक्ति अपने स्वप्न में निराला के इस गहन अकेलेपन को पाना चाहता है. क्यों? क्योंकि वहां जीवन का रोमांच है. वह है, क्योंकि मनुष्य की संवेदनाएं व्यापक होती हैं. वे अपने भीतर एक दुनिया से साक्षात होती है.

यह तेरी रण-तरी
भरी आकाँक्षाओं से
घन, भेरी –गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के ,आशाओं से
नवजीवन की ,ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !(निराला रचनावली ,135/1)

किसान जब भी अकेला होता है, वह प्रकृति के पास जाता है. दूसरे अर्थों में प्रकृति, मनुष्य के भीतर के शून्य को अपनी तरह से भर देती है. उसे पूर्ण कर देती है.

आज़ादी के पश्चात भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुयी. किसानों का बड़े पैमाने पर दिहाड़ी मजदूरों के रूप में रूपांतरण होने लगा .नये रूप में शहर विकसित होने लगे. विस्थापन की हर नई लहर ने परिधि की नई परिमिति को रचा.

मुक्तिबोध किसान जीवन और उसकी रागात्मक संवेदना को नहीं लिखते. वे भविष्य के भारत में विकसित हो रही औद्योगिक संस्कृति को लिखते हैं. औद्योगिक संस्कृति के परिणामस्वरुप बहुत तेज़ी से सामूहिकता की चेतना का विघटन होने लगता है. निराला की कविताओं में इसलिए जहाँ पारिवारिक सम्बन्ध या उस सम्बन्ध की संवेदना से संचालित मानवीयता एवं उद्दातता नज़र आती है, वहीँ मुक्तिबोध की कविताओं में उस संवेदना से छूटे हुए मनुष्य की वेदना, आत्महीनता एवं डर अधिक नज़र आता है. औद्योगिकीकरण भारतीय संस्कृति के विलोम को रचा. मुक्तिबोध की कविता, इस विलोम का आलोचनात्मक भाष्य बनती है. एक तरह से कहें तो मुक्तिबोध की कविताओं की भावभूमि यही है. वे सामूहिकता के मूल्यों के छीजने और उसके परिणामस्वरूप विकसित हो रही संस्कृति को लिखते हैं.

अधूरी और सतही जिंदगी के गर्म रास्तों पर
हमारा गुप्त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्सी एक गहरा स्याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमिटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्द !! (चकमक की चिनगारियां ,232/2)

जिंदगी के अधूरेपन ने इस गुप्त मन को रचा है. दूर कहीं स्मृतियों में वह भरीपूरी ज़िन्दगी मुस्कुराती है लेकिन स्मृतियों के पार चिलचिलाते यथार्थ की तपन में गुप्त मन अपराधबोध से भरकर बिलबिलाता है. मुक्तिबोध की बेचैनी यही है. पुराना समाज लौट नहीं सकता. नया समाज एक विकृति को रच रहा है. अनिश्चितता का यह द्वंद्व मुक्तिबोध को कचोटता भी है और कुछ न कर सकने के अपराध से भी भर देता है. इस अपराध बोध से मुक्त होने के लिए मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष की ओर बढ़ते हैं, लेकिन मुक्तिबोध इस आत्मसंघर्ष को बुद्धि और संवेदना के द्वैत से निर्मित करते हैं. इसे महज़ एक भाववादी आत्मसंघर्ष समझना मुक्तिबोध की मूल चेतना को ही नसमझने की कोशिश है. 

मुक्तिबोध की यह उलझन ही उस रचनात्मक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया है, जिसमे वर्तमान का आलोचनात्मक विवेक निर्मित होता है. रामविलास शर्मा जब मुक्तिबोध के आपराधबोध को महज एक मानसिक कवायद मानकर उसे नकारने लगते हैं, वही वे अपने भाववादी निष्कर्षों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने लगते हैं. मुक्तिबोध पर ऐसा करते हुए वे इतनी दूर निकल आते हैं जहाँ से मुक्तिबोध की कविता का कोई सम्बन्ध शेष नहीं रह जाता. 

औद्योगिक सभ्यता जनित विलगाव को मुक्तिबोध चिन्हित करते हैं. किसान जीवन अपने अर्थों में एक भरा पूरा जीवन था. वहां व्यक्ति ,परिवार और समाज की इकाइयों में बनता था. मनुष्य के हर राग-रंग के केंद्र में प्रकृति थी. औद्योगिक सभ्यता प्रकृति को जीवन से निकाल फेंकती है.

औद्योगिक सभ्यता ने खुद को जायज़ बनाने के लिए संस्थाओं का निर्माण किया. संस्थाओं के रास्ते एक नये तरह की सामाजिकता का विकास हुआ. मनुष्य के हर तरह के सम्बन्धों को संस्थाओं ने अपने गिरफ्त में ले लिया. संस्थाओं का उद्देश्य था, जीवन की प्रक्रिया का वस्तुकरण. वस्तुकरण की प्रक्रिया ही इस नई सामाजिकता की जड़ में थी. इसे संस्थाओं के द्वारा रोजमर्रा की संवेदना में स्वाभाविक बनाया गया. इस प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की संवेदना में तीव्र बदलाव आता गया. ऐसे में जिस तरह की पूर्णता और संवेदनात्मक भराव हम निराला में देखते हैं, मुक्तिबोध के यहाँ उसके ना हो पाने को समझा जा सकता है. मुक्तिबोध की तमाम कविताओं को ले, उसमें उनका मन किसी मित्र ,किसी प्रेमिका, किसी संगी से बात करने को व्याकुल नज़र आता है. क्यों? क्योंकि जीवन व्यापार-से उस सामाजिकता, संवादपरकता को निथार लिया गया है. उसका स्थान एक सूक्ष्म यांत्रिकता ने ले लिया है . मुक्तिबोध की हर कहानी, हर लेख संवाद से ही शुरू होती है, यहाँ तक कि उनकी तमाम कविताओं में भी एकायामी स्वर नहीं है. 

स्वरों की यह बहु-आयामिता मुक्तिबोध लेकर आते हैं. हिंदी में इस ओर कम ध्यान गया आखिर वे कौन सी जरूरतें थीं, कौन से कारण थे कि मुक्तिबोध को डायरी की शक्ल में आलोचना लिखनी पड़ी? क्यों वे आपनी कविताओं में स्वयं से ही संवाद करने लगते हैं? मुक्तिबोध का आत्मसंवाद इतना व्यापक गूढ़ और बेचैन करने वाला क्यों है? क्या इस आत्मसंवाद के द्वारा मुक्तिबोध के लिए आपने अंतःकरण की बेचैनी को अधिक संगत रूप में रखना संभव नहीं होता? मुक्तिबोध को पढ़ते हुए लगता है कि इस संवाद-परकता के द्वारा समाज की सामूहिक चेतना को एकायामी होने से बचाया जा सकता है. मुक्तिबोध की बेचैनी के मूल में समाजपरकता को नये सिरे से विकसित करने की कोशिश है.

मनुष्य नगरों में आ चुका है. कृषि जीवन–समाज से बाहर आ चुके मनुष्य को सामाजिकता की तलाश है. यह तलाश उसे स्मृतियों में ले जाती है. वह स्वप्न जगत में विचरण करने लगता है. बाहर सड़कें हैं संस्थाएं हैं, पत्रकार हैं, डोमाजी उस्ताद और हत्यारा बलवान है. ये सब सिर्फ बाहर हैं ,लेकिन भीतर प्रवेश पाने को आतुर. औद्योगिक समाज ने भीतर की दुनिया के खालीपन को विस्तृत कर दिया है. एक काफ्काई संसार रच दिया है. मुक्तिबोध की कविता इस अंधेरी दुनिया को अभिव्यक्त करती है. उसके अभिव्यक्त करने में ही उसका प्रतिकार अंतर्निहित है.

कि इतने में
उसी अँधेरे में
हाथ में लेकर एक रहस्यमय लालटेन
नंगे पाँव , लगातार तेज़ चलता हुआ ,
ढूंढता हुआ हमें
कोई लक्ष्य आता है
जिसे देख
आभ्यन्तर ग्रन्थियां, बहि:समस्याएं.
चीख-चीख उठती हैं. (एक स्वप्न कथा 268-269/2)

मुक्तिबोध अन्दर और बाहर के द्वंद्व को आधुनिक परिस्थितियों में अभिव्यक्त करते हैं. आधुनिक परिस्थिति का अर्थ क्या? वह ये कि एक छद्म बाहरी दुनिया बना दी गयी है, उस छद्म के परिणाम- स्वरुप एक छद्म अन्तस् भी निर्मित हो गया है. मनुष्य का यथार्थबोध कहीं गुम हो गया है. उसकी चेतना इस छद्म में लुप्त हो रही है. वह प्रतिरोध के छद्म से अपने को बचा लेना चाहता है, लेकिन वह जितनी कोशिश करता है, उतना ही वह इस छद्म के कीचड़ में फंसता जाता है. रास्ता क्या है? मुक्तिबोध को लगता है मनुष्य की इस निष्क्रिय होती चेतना को रोकने के लिए यह जरुरी है कि हम अपने इन्द्रिय-संवेदन को पुनः जागृत करे. बाहर की दुनिया के छद्म को ठीक-ठीक समझने के लिए यह जरुरी है कि हमारा इन्द्रिय-संवेदन दोष रहित रहे .

खूंखार सिनिक संशयवादी
शायद मैं कहीं न हो जाऊं
इसलिए, बुद्धि के हाथों पैरों की बेड़ी
जंजीरे खनकाकर तोड़ी (मेरे सहचर मित्र 251/2)

जंजीरे जब भी टूटेंगी खनक तो होगी ही. लेकिन उसे सुनने के लिए यह जरुरी है कि हम संज्ञाशून्य न हो. इसलिए मुक्तिबोध अलग से बल देकर लिखते हैं कि जंजीरे खनकार तोड़ी, क्योंकि खनकने में इन्द्रियों को संवेदित करने की प्रक्रिया का संदर्भ है.




(दो)
मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति इतनी भयावह क्यों नज़र आती है? निराला पन्त या प्रसाद की कविताओं में प्रकृति और मनुष्य का एक सहचर रूप नज़र आता है. निराला के यहाँ प्रकृति मनुष्य की दृढ़ता, सौन्दर्यबोध और अनुराग को प्रदर्शित करती है. एक स्तर पर मनुष्य की चेतना का उद्दीपन भी करती है. कमोबेश यह बात छायावाद के तमाम कवि और नई कविता के अधिकांश कवियों के विषय में कही जा सकती है. कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं.

क्यों मानव सुलभ सहज
आकांक्षाओं के तरु
यों ठूंठ हुए वृन्दावन के ,
मानव-आदर्शों के गुम्बद से आज यहाँ
उलटे लटके चिमगादड़ पापी
भावों के.
क्यों स्वार्थ-घृणा-कुत्सा के
थूहर जंगल में
हैं भटक गये ये लक्ष्य (मेरे सहचर मित्र ,252/2)

XXXXXX

वह कारण, सामाजिक जंगल का
घुग्घू है,
है घुग्घू का संगठन, रात का तम्बू है.
यह भीतर की जिन्दगी नहाती रहती है.
हिय के विक्षोभों के खूनी फव्वारों में ,
अंगारे में.(मेरे सहचर मित्र ,253/2)

XXXXX

कटे उठे पठारों का दर्रों का
धँसानों का बियाबान इलाका .
गुंजन रात
अजनबी हवाओं की तेज़ मार धाड़,
बरगदों बबूलों को तोड़-ताड़ फाड़,
क्षितिज पर अड़े हुए पहाड़ों से छेड़-छाड़,
नहीं कोई आड़. (चम्बल की घाटी में ,401/2)

मुक्तिबोध की कविताओं से ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. प्रकृति का यह भयवाह दुर्दमनीय एवं कठोर रूप हिंदी कविता में अन्यत्र नज़र नहीं आता. आखिर प्रकृति का यह भयवाह रूप क्यों ? क्यों मुक्तिबोध की कविताओं में घुग्घू, उल्लू जैसे बिम्ब आते हैं. गतिशील और उद्दाम नदियों के स्थान पर ठहरे काले जल से भरी सुनसान बावरी क्यों है. भुतहे पीपल का जिक्र यहाँ वहां उनकी कविताओं में भरा परा है. आखिर मुक्तिबोध प्रकृति को इस तरह क्यों देखते हैं. क्या इस देखने में कोई संकेत, कोई दृष्टि नज़र आती है . मुक्तिबोध के संदर्भ ये जरूरी प्रश्न हैं.

मनुष्य और प्रकृति के बीच एक अटूट ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है. प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध उत्तरोतर विकसित होता गया. मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है. वह प्रकृति से संघर्ष भी करता है और मनुष्य होने की प्रक्रिया में प्रकृति के और निकट चलता जाता है. प्रकृति का बोध ही उसके भीतर सौन्दर्य बोध को उद्भूत करता है. प्रकृति की दुरुहता ही मनुष्य को साहस और दृढ़ता की नई मंजिलों तक लेकर जाती है. संक्षेप में हम प्रकृति के बगैर किसी मनुष्यता की कल्पना नहीं कर सकते हैं.

औद्योगिक क्रांति नें इस सम्बन्ध को विकृत करना शुरू किया. मनुष्य प्रकृति से संघर्ष करता था, लेकिन हर बार जीत –हार से परे मनुष्य नये सोपान चढ़ता जाता था. प्रकृति की दुरुहता से संघर्ष करते हुए मनुष्य ने श्रम के सौन्दर्यबोध को अर्जित किया. नैतिकता, ईमानदारी सदयता जैसे मानवीय गुण इसी सौन्दर्यबोध के द्वारा समाज में स्वीकृत होते गये. कला संगीत कविता आदि की जरूरत मनुष्य को प्रकृति के और नजदीक लाती गयी. परन्तु औद्योगिक क्रांति ने इस सम्बन्ध को असंतुलित कर दिया. मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष द्विआयामी नहीं रह गया. औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप एक तीसरी चीज़ विकसित हुयी. आरम्भ में मनुष्य ने यंत्रों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप निर्मित करना शुरू किया. मनुष्य के हाथों की तुलना में यंत्रों की गति अबाध थी. हर नई कोशिश उस गति को और तीव्र करती जाती थी. 

श्रम की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की सामाजिकता का भी विकास और विस्तार होता गया. यंत्रों ने उसे भी प्रभावित करना शुरू कर दिया. एक तरफ समाज-विहीनता की स्थिति तो दूसरी तरफ मशीनों से लगातार पिछड़ने का आत्मबोध. इन दोनों के सम्यक प्रभाव ने मनुष्य के भीतर एक विकृत सौन्दर्यबोध को रचना शुरू किया. वर्चस्व के बोध ने मनुष्य के भीतर एक बड़े शून्य को रचा. पश्चिम ने इसी वर्चस्व बोध के रास्ते पूरब को निगल लेना चाहा. यह देखना कठिन नहीं है कि साम्राज्यवादी न सिर्फ पूरब के लोगों से घृणा करते थे, अपितु वहां की प्रकृति से भी नफरत करते थे. वे सब कुछ का उन्मूलन चाहते थे.

द्विवेदी युग से लेकर छायावाद तक की हिंदी कविता में प्रकृति पर जोर है. बाह्य दृश्यात्मकता अधिक है. ऐसा इसलिए भी कि वे पूरब की प्रतिरोध की चेतना को प्रकृति के वर्णन के द्वारा भी रच रहे थे. प्रकृति वर्णन इस अर्थ में साम्राज्यवाद विरोध का एक तरीका था. आज़ादी के पश्चात भारत स्वयं पश्चिम के रास्ते पर चल पड़ा. वर्चस्ववादी आधुनिकता ने देश में जड़े जमानी शुरू की. औद्योगीकरण का एकायामी मार्ग विकसित होने लगा. इस बात पर बल दिया जाने लगा कि स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान देश लगातार पिछड़ता गया है. उसकी भरपाई के लिए यह जरुरी है कि तीव्र आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया जाए. 

इस चेतना ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना में एक चौड़ी दरार उत्पन्न कर दी. मुक्तिबोध के समग्र लेखन में भारतीय चेतना में आई इस दरार को महसूस किया जा सकता है. मुक्तिबोध देश पर आसन्न संकट को प्रकृति की भयावहता के रूप में इंगित करते हैं. तीव्र औद्योकीकरण के असंतुलन ने उस चेतना को ही निगल लिया, जिसके रास्ते भारत की आधुनिक चेतना का निर्माण हुआ था, हो रहा था. मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति की भयावहता दरअसल उस असंतुलन को रेखांकित करने की कोशिश है. मुक्तिबोध प्रकृति में सघन मनुष्यता को महसूस करते हैं लेकिन यथार्थ में उन्हें में सब कुछ जालों से भरा भुतहा और अपसकुनकी सूचना देने वाला प्रतीत होता है.

यह महज़ मुक्तिबोध की कल्पना और यथार्थ भर का विभाजन नहीं है, बल्कि देश की मूल चेतना और वर्तमान की वर्चस्ववादी चेतना का भी विभाजन है. कहने का तात्पर्य यह कि मुक्तिबोध प्रकृति के जरिये जब मानवीय चित्रों को कल्पना और स्मृति में अभिव्यक्त करते हैं तो वे देश की वांछित चेतना को रेखांकित कर रहे होते हैं,  लेकिन ज्यों ही वे यथार्थ की भावभूमि पर उतरते हैं, उन्हें एक भयवाह और दुश्चिंताओं से भरा समय और समाज नज़र आता है.

इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, ज्वाल नहीं है.
सिर्फ धुएं के बादल-दल हैं
और धुआंते हुए पुराने हवामहल हैं
लाख लाख घुमती चिंगारियां हैं मुतफ़न्नी (एक प्रदीर्घ कविता ,295/2)

इस उद्धरण में चाँद सूरज और ज्वाल के स्थान पर धुंएँ के बादल-दल का होना बताता है कि मुक्तिबोध आधुनिक वर्चस्ववादी सभ्यता को किस तरह देख रहे थे. इसी कविता में आगे वे लिखते हैं कि वे बच्चे जो कभी जनता की आँगन में नंगे खेले थे-

किन्तु आज उनके चेहरे पर
विद्युत वज्र गिरानेवाले
बादल की कठोर छाया है
तारक मंडल पार पुरानी
ठंडकभरी सुदूर दूरियों की परछाई
उनके मुख पर
नंदन-वन की रूपाकारी
लन्दन-वन की फैली झांईं उनके मुख पर (एक प्रदीर्घ कविता, 297-298/2)

इस अंश में बादल और लन्दन –वन से स्पष्ट समझा जा सकता है कि मुक्तिबोध वर्तमान को कैसे देख रहे थे. लन्दन-वन साम्राज्यवाद रूपक भी है और उस चेतना को भी इंगित करता है जिसपर भविष्य के भारत की नींव रखी गयी है.

मुक्तिबोध के लेखन की बड़ी खूबी यह है कि वे विधाओं का अतिक्रमण करते हैं. उनके साहित्य को आप किसी विधा की चौहद्दियों में रखकर समझ नहीं सकेंगे. उनकी आलोचना, कविता या कहानी सभी पारम्परिक अर्थों में विधाओं के निश्चित दायरे से बाहर निकल आती हैं. तो क्या मुक्तिबोध शिल्प के स्तर पर अपूर्ण साबित होते हैं? दरअसल मुक्तिबोध वैचारिक प्रवाह और अन्तराल के लेखक हैं ,वे मनुष्य की चिंताओं का आन्तरिकीकरण करते हैं . यानी बाहर की दुनिया के समनांतर, भीतर भी एक दुनिया का निर्माण. ऐसा करते हुए मुक्तिबोध जानते हैं कि यह हुबहू करना संभव नहीं है. इनके बीच कोई न कोई अन्तराल छूट ही जाता है. मुक्तिबोध उन अंतरालों को सूत्रों में गढ़ते हैं. विधाओं के पूर्वनिर्मित दायरों में मुक्तिबोध को लगता है कि रचनाशीलता बाधित एवं विकृत होती है . उनका मूल उद्देश्य बाह्य का अन्तरिकीकरण और फिर उस अन्तः का बाह्यकरण है. रचना का वास्तविक सौन्दर्य अंतर-बाह्य के इस द्वंद्व में ही घटित होता है. यह कुछ न कुछ छूट जाने से ही उत्पन्न होता है. 

यही वह बिंदु है जहाँ लेखक विचार को रचना में बदलता है. इस प्रक्रिया को मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदना के संवेदनात्मक ज्ञान में रूपांतरण के तौर पर चिन्हित करते हैं. मुक्तिबोध इसे एकायामी मार्ग नहीं मानते. वे दोनों दिशाओं की सतत यात्रा को रचनाकार के लिए जरूरी मानते हैं. इस प्रक्रिया में लेखक की भूमिका तीसरे की है. वह छिपा हुआ है, परन्तु वह दोनों में मौजूद भी है और उसे दोनों से मुक्त भी होना है. मूल लेखकीय समस्या यहीं से उत्त्पन्न होती है. आमतौर पर रचनाकार स्वयं को बद्ध होने से रोक नहीं पाता.

मुक्तिबोध के इस सूत्र में दो प्रक्रियाओं का जिक्र है. क्या ये दोनों प्रक्रिया एक क्रमिकता को रचते हैं. मुक्तिबोध यह नहीं मानते. वे इनके बीच मौजूद अंतरालों को महत्व देते हैं. रचनाकार का निर्माण इन्हीं अंतरालों में होता है. मनुष्य की संवेदनाओं का प्रकटीकरण भी अंतरालों में ही होता है. शब्दों के बीच के अन्तराल, वाक्यों के बीच के अन्तराल, सम्बन्धों के बीच के अन्तराल. मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता को इन्हीं अंतरालों में विकसित करता है. यही वह पक्ष है जहाँ एक मौलिक रचनाशीलता विकसित होती है. 

संवेदना का निज आत्म-चेतस रूप विकसित होता है.औद्योगिक सभ्यता अंतरालों को नष्ट करती है. वह अंतरालों को वस्तुओं के अपरिमत संसार से भरती है. यह सतत वस्तुपरकता मनुष्य की संवेदनाओं को नष्ट करती जाती है. इसीलिए मुक्तिबोध ज्ञान और वस्तु के वर्चस्व को संवेदनात्मक विस्तार से रोकते हैं. वे इस सतत वस्तुपरकता के विरुद्ध सहज संवाद-परकता की परिकल्पना रखते हैं. क्योंकि मनुष्य के बीच इस वस्तुपरकता ने अजनबियत के बीज बो दिए हैं. मुक्तिबोध को लगता है –

अपने  समाज में अकेला हूँ बिलकुल
मुझमें जो भयानक छटपटाहट है
नहीं वह किसी में ,
इसलिए अपना ही श्रेणीगत
साम्य है जिनसे, उनसे ही गहरा है विद्वेष-
विरोध, विरोध, विरोध
किन्तु जो दूर हैं
अलग, पृथक हैं
जो अति भिन्न हैं
वे प्रियदर्शन सहचर मित्र हैं मेरे (चम्बल की घाटी में ,416/2)

यही वजह है कि मुक्तिबोध सतत विरोध की संवेदना का सृजन करते हैं. वे इसी का सौन्दर्यबोध रचते हैं.

मुक्तिबोध के संदर्भ में फैंटेसी की बात अक्सर होती है. उसे अमूमन उनकी काव्य कला या टेकनिक से जोड़कर देखा जाता है. इस बात पर कम ही विचार किया गया है कि आखिर मुक्तिबोध को फैंटेसी की जरूरत क्यों पड़ती है. क्यों वे कल्पना-लोक को शब्दों में परिवर्तित करते हैं? अपने समय के दबावों से तो मुक्तिबोध कहीं इस ओर नहीं मुड़ते? मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा को सझने के क्रम में ये जरूरी प्रश्न हैं. मुक्तिबोध की काव्य चेतना सतत विकासमान रही. वे तार सप्तक से शुरू करते हैं लेकिन वे धीरे धीरे अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं. बाद की उनकी कविता अभिव्यक्ति के नये रूपों की तलाश करती है. 

मुक्तिबोध के लेखन को रूप और अंतर्वस्तु के तौर पर ज्यों ही हम विभाजित कर देखने की कोशिश करते हैं त्यों ही हमसे उनका सूक्ष्म यथार्थबोध छूटने लगता है. आज़ादी के बाद के बन रहे देश की दशा और दिशा को जिस तरह मुक्तिबोध ने 50’ के दशक में पढ़ लिया था, वह अद्वितीय है. मुक्तिबोध जिसे लिख रहे थे, वह भविष्य का यथार्थ था. उसे सिर्फ वर्तमान के कार्य-कारण सम्बन्ध से स्पष्ट नहीं समझा जा सकता है. ऐसे में मुक्तिबोध के लिए फैंटेसी प्रकट-यथार्थ से एक रचनात्मक दूरी की तरह है, जिसमें वे भविष्य की घटनाओं को कल्पना चित्रों के द्वारा गढ़ते हैं.

एकाएक मुझे भान होता है जग का,
अख़बारी दुनिया का फैलाव,
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
पत्ते न खड़के,
सेना ने घेर ली हैं सड़कें.
बुद्धि की मेरी रग
गिनती है समय की धक्-धक्.
यह सब क्या है
किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह
मॉर्शल-लॉ है!( अँधेरे में ,331/2)

इस अंश को को शिल्प और अंतर्वस्तु के विभाजन के तौर पर नहीं देखा जा सकता .यहाँ समय की गति से संवेदना की गति का मिलान होता है. एक लय निर्मित होती है . संवेदनात्मक प्रवाह इसी लय में मौजूद है. जो कवि के अवचेतन में घटित हो रहा है, उसे वह अपनी चेतना के बोध में लाता है. मुक्तिबोध की चिंता यही है कि जो संभाव्य है, जिसे इन्द्रिय अपनी जाग्रत संवेदना से देख पा रही हैं उसे यथार्थ अनुभव में कैसे बदला जाये. मुक्तिबोध की फैंटेसी को हम उनके अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं. यह मनोवैज्ञानिक उपक्रम भर नहीं है. समूची अँधेरे मेंकविता एक भविष्यकाल को निरुपित करती है. लेकिन मुक्तिबोध उस अनुभव को अपने अवचेतन से चेतन में बाहर निकाल लेते हैं. यही उस कविता को एक सफल कविता बनाती है. वह कविता अपने समय की चौहद्दियों को तोडती है. 

60’ के दशक के यथार्थबोध में, समाज में उस तरह डोमाजी उस्ताद या हत्यारा बलवान या नगर सेठ उपस्थित न हो लेकिन मुक्तिबोध का अति संवेदन शील जागरूक मन, उसे संभाव्य मानकर अपने अवचेतन में दर्ज़ करता है. वह एक स्याह डर के रूप में, एक काले धब्बे के रूप में वहां अंकित है. भय का सृजन मुक्तिबोध के यहाँ अवचेतन से प्राप्त इन्हीं अनुभवों से होता है. वे इन अनुभवों को सामान्य अनुभव में फैंटेसी के माध्यम से बदलते हैं. मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा एक गंभीर और सैद्धांतिक विश्लेषण की मांग करती है, ज्यों ही हम उसे शिल्प या टेकनिक तक महदूद करते हैं हम उसके प्रभाव को कम कर आंकने लगते हैं.

मुक्तिबोध को पढने के भिन्न भिन्न तरीकों को इजाद किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध के लेखन से यह तो स्पष्ट ही है कि वे पारम्परिक पाठ विधि से स्पष्ट नहीं होते. वे एक ही समय में कई दिशाओं में विचार कर रहे होते हैं. सामान्य रूप से हम एक दिशा में विचार करते हैं,उसके पश्चात हम दूसरी तरफ बढ़ते हैं. मुक्तिबोध के साथ ऐसा नहीं है. वे एक समय में कई दिशाओं में वैचारिक यात्रा कर रहे होते हैं.उनकी विचार प्रक्रिया बहुआयामी है. 

इस बात को दरकिनार कर जब हम सामान्य बोध के साथ या सहज बुद्धि के साथ मुक्तिबोध को पढने की कोशिश करते हैं तो दो तरह की कोशिशों की ओर मुब्तिला होते हैं. अव्वल तो हम मुक्तिबोध को खारिज कर दें, दूसरे हम अपने स्वीकृत तर्कों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने की कोशिश करें. दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना की दोनों परम्पराओंने इन्हीं रास्तों का अनुपालन किया है, और कहना न होगा कि इस रास्ते जो मुक्तिबोध का विश्लेषण नज़र आता है वह किसी समग्रता की बजाय अधूरेपन की तरफ ही ले जाता है.

मुक्तिबोध के समग्र लेखन में विधाओं की सीमाओं के परे, चेतना के विभिन्न एकात्मकताओं और द्वैत की तलाश की जानी चाहिए. मसलन उनकी किसी कविता के अंश को उनकी किसी कहानी के टुकड़े के साथ जोड़कर पढने की कोशिश की जा सकती है या डायरी के किसी अंश में मौजूद विचार को कविता में व्यक्त किसी संवेदना से मिलकर देखा जा सकता है.  

जिस तरह का समय और समाज हमारे इर्द गिर्द निर्मित हो रहा है उसमें मुक्तिबोध को नये सिरे से समझने की जरुरत महसूस होती है. मुक्तिबोध ने समाज को कभी एकायामी नहीं माना. वे राजनीति को केंद्र में रखकर समाज और संस्कृति को देखने के पक्षधर नहीं थे. पिछले पचास साल में यानी मुक्तिबोध के गुजर जाने के बाद से समाज और संस्कृति के रास्ते बुनियादी बदलाव किये गये हैं . मनुष्य की अवधारणा को ही बदल दिया गया. एक सतत समाजविहीनता क्रूरता और हिंसा समाज का स्थायी भाव होता जा रहा है. मनुष्य अपने ही खिलाफ साजिश में लगा हुआ है. उसके आत्म को ही अनुकूलित कर दिया गया है. मुक्तिबोध ने तो आत्मसंघर्ष, आत्मालोचना, आत्मचेतस जैसे पद दिए. हमारे लिए अब भी उन रास्तों पर चलना एक चुनौती है. वर्तमान स्थिति में तो अनिवार्यता भी है. मुक्तिबोध को वर्तमान में पढने का एक अर्थ यह भी है कि हम उस आत्म-संघर्ष आत्म-चेतना और आत्मालोचना की यात्रा फिर से आरम्भ करें.बकौल मुक्तिबोध-

प्रकांड अनबन ,
निज से ही संघर्ष
चाहिए मुझको दीप्त अनवस्था
इतनी कि स्वयं ही टूटकर
शून्य गगन में
ब्रह्माण्ड धूल के परदे सा बन जाऊं
फ़ैल जाऊं तन जाऊं !!(चम्बल की घाटी में, 408/2)

मुक्तिबोध ने निज से संघर्ष कर ही इस दीप्त अनवस्था को आर्जित किया था. उनकी इस अनवस्था ने रचनात्मक विस्फोट के जिस चरम को रचा, वह आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है. वहीं से अपलक ताकती दो ईमानदार आँखें हैं जो हर दम हमारी पीठ पर गड़ी हुयी हैं.
_______________________
# ग़ालिब के एक शेर से उद्धृत
(ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है l
इक शम्अ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है ll)

$ सभी उद्धरण मुक्तिबोध रचनावली से लिए गये हैं 
______________________________________

अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबेARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com


मंगलाचार : राहुल द्विवेदी - कविता

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राहुल द्विवेदी कविताएँ लिखते हैं. छिटपुट प्रकाशन भी हुआ है. अन्तराल के बाद फिर सक्रिय हुए हैं. यह कविता मुझे ठीक लगी. निरंतरता बनाएं रखें और संग्रह भी जल्दी आए इसी उम्मीद के साथ यह  कविता 


आख़िर पुरुषों को रोने से रोका क्यों जाता है ? जबकि यह एक मानवीय सहज प्रक्रिया है. पुरुष बने रहने के लिए समाज उससे न जाने कौन कौन से  अ-मानवीय कार्य कराता है. 



कविता 
चूंकि पुरुष रोते नहीं हैं !                            
राहुल द्विवेदी





(1)
याद आता है मुझे
कि बचपन में,
भाई के गुजर जाने पर ,
जब आँसू छलक ही आए थे
पिता की आंखों में ...
हौले से कंधे को दबाकर
रोक दिया था बाबा ने...
और कहा था
तुम पुरुष हो...
देखना है तुम्हें बहुत कुछ
संभालना है परिवार
और जंग लड़नी है तुम्हें
बनना है एक आदर्श.....
इसलिए  गांठ बांध लो तुम

पुरुष रोते नहीं हैं.


(2)
बाबा को निश्चित ही
परंपरा में  मिला रहा होगा
यह सबक....
पीढ़ी दर पीढ़ी
सतत...

शायद इसीलिए वो,
जूझते रहे ताउम्र......
अपने आपसे,
अपनी बेबसी से,
गरीबी से ….
चूंकि वह एक पुरुष थे,
(और पुरुष रोता नहीं है भले ही झुक जाएँ उसके कंधे)
वो हमेशा दिखते रहे एक चट्टान की तरह...

उनका चेहरा हमेशा रहा भावना शून्य
जबकि आजी,
कितनी ही  रातों को सिसकती रही
उस घटना के बाद ...
पर,
नामालूम  क्यों
मुझे आज भी रात के सन्नाटे में
सुनाई देती है एक हूक
अक्सर---
जैसे कि घोंट ली  हो
किसी ने अपनी आवाज ....

निश्चय ही वो हूक
मुझे लगता है
बाबा की है,
जो सुनाई देती है बदस्तूर
लमहा दर लमहा
साल दर साल
उनके चले जाने के बाद भी........



(3)
इधर जज़्ब हो गए
आँसू पिता के......
चूंकि उन्हे देखना था परिवार
संभालना था छोटे भाइयों को
बूढ़ी माँ को,
उस बाप को भी---
जो  कि था एक पुरुष....
और हाँ,
अपने परिवार को भी.......
सचमुच----
नहीं देखा मैंने कभी
रोते हुये अपने पिता को
जबकि,
ये महसूसा है मैंने
कि अचानक बूढ़े हो गए
उस दिन के बाद से वो.......

बेसाख्ता ठहाका  नहीं गूँजता अब घर में
कुछ कुछ कठोर से हो गए हैं
मेरे पिता....

गुमसुम गुमसुम से रहने लगे हैं वो
अब.....
ना जाने क्या क्या ढूंढते रहते  हैं
किताबों में,
कोई पुराने पन्ने
जिसमे छिपी हो कोई मुस्कान
शायद......

और फिर चुपके से
देख लेते हैं  सूनी निगाहों से
आसमान की तरफ.



(4)
बचपन में  मुझे भी
समझाया था उन्होनें  कितनी बार
नहीं  रोते इस तरह...
जब मैं मचल उठता था किसी बात पर
और चुप हो जाता था मैं
ये सुनकर कि,
पुरुष रोते नहीं हैं....

पर मालूम है-मेरे पिता !
तुमसे छिप कर,
न जाने कितनी - कितनी बार,
बाथरूम में  खुले नल के नीचे ,
गिरते पानी के धार  में
धुल गए हैं मेरे आँसू...
जब मैं हारता था
अपने आप से .

........और उस बार तो,
खूब रोया था सर रख कर
पत्नी के कंधों पर
जबकि वह थी बीमार
बहुत- बहुत  बीमार....

पर आश्चर्य है !
वह बन गई थी एक पुरुष उस क्षण......
उसके कमजोर कंधे हो गए थे बलिष्ठ----
उसने ही,
हाँ सचमुच उसने ही
पोछे थे मेरे आँसू---
ये कहते हुये एक फीकी हंसी के साथ
कि कुछ नहीं होगा मुझे......



(5)
क्षमा करना मेरे पुरखों  !
मैं रोक न सका अपने आँसू
और अक्सर ही------
मैं नहीं दे पाता सांत्वना
अपनी पत्नी को,
या फिर किसी भी स्त्री को
जब वह रोती है
तब मैं नहीं बन पाता पुरुष
छलक ही जाते हैं मेरे आँसू
उनके आंसुओं के साथ...।

हे पूर्वजों ,
फिर से क्षमा करना मुझे !
कि नहीं रोक पाता मैं  बेटे को
जब रोता है वह,तब......
नहीं बताता मैं उसे
कि पुरुष हो तुम
और पुरुष रोते नहीं हैं
(जिसकी आड़ मे खो गए हैं युवा इस अहंकार के साथ कि वो एक पुरुष हैं ....)
जी हाँ ,
नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
हावी हो उस पर....
वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
तो सहम जाय
जैसे कि बेटियाँ........

{बेटियाँ असुरक्षित हैं}

______________________

राहुल द्विवेदी
05/10/1974
एम.एससी. (रासयानिक शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय

सम्पर्क :
अवर सचिव , भारत सरकार

कमरा नंबर : सी 1, 1009, संचार भवन , नई दिल्ली
 rdwivedi574@gmail.com

दलित कविता और जय प्रकाश लीलवान : बजरंग बिहारी तिवारी

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मलखान सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि और जय प्रकाश लीलवान समकालीन हिंदी दलित कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं.
जय प्रकाश लीलवान केअब हमें ही चलना है (2002), ‘नए क्षितिजों की ओर(2009), समय की आदमखोर धुन (2009), ‘ओ भारत माता! हमारा इंतजार करना (2013), ‘लबालब प्यास (2017), कविता के कारखाने में(2017), धरती के गीतों का गणित (2017), गरिमा के गीतों का गणित (2017), ‘मेरे देश के गुलामों के गीततथा हमारी सहस्राब्दी के समयों की आदमखोर धुनआदि कविता संग्रह प्रकाशित हैं.

6 अगस्त, 2017 को वह हमसे हमेशा के लिए विदा हो गए पर सदा अपनी कृतियों में मौजूद रहेंगे. उनके महत्व और योगदान को रेखांकित करता आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी का यह आलेख .


दलित कविता बरास्ते जय प्रकाश लीलवान                   
बजरंग बिहारी तिवारी





(क)
समकालीन दलित कविता परिदृश्य में जय प्रकाश लीलवान अत्यंत समादृत नाम है. हिंदी दलित कविता के दो प्रमुख हस्ताक्षरों- मलखान सिंह और ओमप्रकाश वाल्मीकि की काव्यधारा को अगर संयुक्त कर दिया जाए तो लीलवान की कविता का वृत्त बनता दिखाई देगा. उनकी कविता में मलखान सिंह का आक्रोश, आर्थिक प्रश्नों पर तवज्जो, विचारधारात्मक निर्मितियों का संज्ञान शामिल है तो ओमप्रकाश वाल्मीकि की शिल्प-सजगता, धर्मशास्त्रों पर प्रहार, और तीव्र बदलाव की आकुलता का समावेश है. लेकिन, लीलवान की काव्य-संवेदना का अपना वैशिष्ट्य है. वे समय के साथ उभरे नए सवालों से टकराते हैं और दासता की पुरानी संरचना के साथ गुलाम बनाने के नए सांचों की पहचान कराकर उसके प्रति क्षोभ पैदा करने का जतन करते हैं. दलित साहित्यान्दोलन की विसंगतियों पर भी लीलवान ने बराबर निगाह रखी है. जब और जहाँ उन्हें उचित लगा, उन्होंने अपनी स्पष्ट राय दी है. उनकी पैनी दृष्टि राजनीति पर भी हमेशा रहती आई है. दलित जनता की तरफ से उन्होंने राजनीतिक दलों पर, उनके वास्तविक और दिखावटी इरादों पर तथा राजसत्ता पर हमेशा निर्भीक और यथावसर तल्ख़ टिप्पणियाँ की हैं.

मानव-मुक्ति लीलवान की कविता का केंद्रीय लक्ष्य है. अस्मिता के सवालों को पूरी संजीदगी से उठाते हुए भी वे अस्मितावाद की संकीर्णताओं से दूरी बनाए रखते हैं. उनकी कविताएं मात्र अनुभवों की पुनर्प्रस्तुति नहीं हैं. वे अनुभव को इतिहास, विचारधारा और आकांक्षा के परिप्रेक्ष्य में रखकर अपने सृजन का रसायन तैयार करते हैं. उनकी कविताएं अक्सर इसी कारण भाव सघनता, तर्कशीलता और अर्थ-घनत्व का विरल उदाहरण बनती हैं. उत्पीड़ित समुदाय से ईमानदार वैचारिक जुड़ाव के चलते उनकी कविताएं सहज ही रोषपूरित होती हैं. यह रोष कई बार उफनते गुस्से में अभिव्यक्ति पाता है. ऊष्मा का आधिक्य और तज्जन्य ताप का प्रवाह कविता के शिल्प पर गहरा असर डाले, यह स्वाभाविक है. ‘गरिमा के गीतों का गणितनामक संग्रह की कविताएं इस असर की गवाह हैं. प्रतिरोध के नियमन, आक्रोश के प्रबंधन और कविता के शिल्प में इन सबके प्रकटन को लीलवान के सुबुद्ध पाठक प्रेम और धीरज से स्वीकारेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. एक सीमा के बाद शिल्पगत नवाचार जोखिम भरा मामला बन जाता है. ऐसे में समीक्षक को कवि के विवेक पर भरोसा करना चाहिए.




(ख)
किसी भी साहित्यान्दोलन को चुनौतियों की पहचान करते रहना चाहिए. हाशिए की अस्मिताओं के लिए तो यह बहुत जरूरी कार्यभार है. जब प्रतिपक्ष सन्नद्ध हो और गतिशील सृजनधर्मी आंदोलन को ठप्प करने के साधनों की खोज में लगा हो तो चुनौतियों को चिन्हित करना बहुत नाजुक मसला बन जाता है. दलित साहित्य को उचित ही आन्दोलनधर्मी लेखन के रूप में देखा जाता है. तब, यह और भी आवश्यक हो जाता है कि उसकी आन्दोलनधर्मिता की परख होती रहे. आन्दोलनधर्मिता के तीन स्तर नजर आते हैं. पहला, दलित साहित्य का अपना आन्दोलनधर्मी स्वभाव; दूसरा, व्यापक सामाजिक मुक्ति आन्दोलनों से जुड़ाव; और तीसरा, दलित रचनाकारों की तमाम आन्दोलनों में प्रत्यक्ष और सक्रिय भागीदारी.

पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बहुत तेजी आई है. इसी अनुपात में प्रतिरोधी आन्दोलन भी तेजी से उभरे हैं. हैदराबाद और गुजरात की परिघटनाएं इसकी ताजातरीन मिसालें हैं. देखना यह चाहिए इन नए आन्दोलन रूपों से साहित्यान्दोलन ने किस तरह का रिश्ता बनाया है. क्या उसका प्रतिसाद तदनुरूप तीक्ष्ण, संवेदी, अद्यतन और समावेशी दिखता है? इस प्रश्न का तुरंत कोई जवाब देना जोखिम भरा होगा. साहित्य के अपने स्वभाव के चलते और इस संबंध में किसी सर्वेक्षणात्मक अध्ययन की अनुपलब्धता के कारण. इस संदर्भ में यह बात गौरतलब है कि नई पीढ़ी के दलित रचनाकारों ने अपने समाज के राजनेताओं के प्रति मुखर आलोचनात्मक रवैया प्रदर्शित करना शुरू किया है. पहले इस मामले में उनका रूख प्रकट रूप से उदासीनता का था. यह विस्मृत करना उनके लिए संभव नहीं कि गुजरात के उना में दलितों की जो पिटाई हुई और तदुपरांत पूरे दलित समुदाय का जो अपमान हुआ उसमें किन लोगों का निकट और दूर का सहयोग था. आंबेडकरवादी चिंतक और साहित्यकार तुलसीराम ने अपने कई लेखों में गुजरात 2002हादसे के बाद के आम चुनाव में हिन्दुत्ववादियों को समर्थन और सहयोग करने वाले (कथित दलित) राजनीतिक दल और उसके नेतृत्व को तल्ख़ शब्दों में सावधान किया था. उनकी चेतावनी को अनसुना करने का परिणाम सामने है.

नए दलित रचनाकारों का बढ़ता असंतोष किसी सार्थक पहल और परिणाम में घटित होगा. इस उम्मीद को इतिहास का समर्थन प्राप्त है. बाबासाहेब के परिनिर्वाण के बाद बनी रिपब्लिकन पार्टी की गतिविधियों और उसके कतिपय नेताओं की सत्ताकांक्षा ने जिस असंतोष को जन्म दिया था उसी का नतीजा दलित पैंथर (1973) का निर्माण था. दलित पैंथर बड़े सर्जनात्मक अर्थों में सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसका नेतृत्व युवतर पीढ़ी के एक्टिविस्ट रचनाकार कर रहे थे. समकालीन मोहभंग को निश्चय ही कार्यकर्ता-रचनाकारों की आज की पीढ़ी मूल्यवान दिशा और आकार देगी. पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी में कई उल्लेखनीय अंतर रेखांकित किए जा सकते हैं. सर्वाधिक उल्लेखनीय और ऐतिहासिक भिन्नता यह कि दलित आन्दोलन के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में दलित स्त्री एक्टिविस्ट-रचनाकार अगली पंक्ति में हैं.

दलित साहित्यान्दोलन के समक्ष बाहरी चुनौतियाँ तो हैं ही, आंतरिक प्रश्न भी मौजूद हैं. तमाम दलित जाति-समुदायों के शिक्षित युवा सामने आ रहे हैं. ये अपने कुनबों के प्रथम शिक्षित लोग हैं. इनके अनुभव कम विस्फोटक, कम व्यथापूरित, कम अर्थवान नहीं हैं. इन्हें अनुकूल माहौल और उत्प्रेरक परिवेश उपलब्ध कराना समय की मांग है. वर्गीय दृष्टि से ये संभावनाशील रचनाकार सबसे निचले पायदान पर हैं. यह जिम्मेदारी नए मध्यवर्ग पर आयद होती है कि वह अपने वर्गीय हितों के अनपहचाने, अलक्षित दबावों को पहचाने और उनसे हर मुमकिन निजात पाने की कोशिश करे. ऐसा न हो कि दलित साहित्य में अभिनव स्वरों के आगमन पर वर्गीय स्वार्थ प्रतिकूल असर डालने में सफल हों.

बदलते समय के साथ साहित्य की अंतर्वस्तु में परिवर्तन आना स्वाभाविक है. दोहराव से बचने की आवश्यकता तब महसूस होती है जब आप नए पाठक वर्ग से रूबरू होते हैं. दलित साहित्य के पाठकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है और उसका दायरा भी विस्तृत हुआ है. पाठकों की नई जमात ओमप्रकाश वाल्मीकि या मलखान सिंह के रचनाजगत से अवगत है. आज की रचनाशीलता में इन सर्जकों की अनुगूंज मौजूद हो मगर उनकी यथारूप आवृत्ति से बचा जाए. मराठी के दलित विचारक रावसाहब कसबे जोर देकर कहते हैं कि स्फुट विचार न तो टिकाऊ होते हैं और न सत्ता संरचना में तोड़-फोड़ कर पाते हैं. जरूरत प्रणालीबद्ध चिंतन और लेखन की है. रचनाकार यदि एक सिस्टम से मुखातिब है तो उसे बिखरी भावनाओं, छिटके पड़े विचारों और परस्पर विच्छिन्न अंतर्दृष्टियों को एक प्रणाली में ढालकर देखना तथा अपने लेखन में पिरोना होगा. परिप्रेक्ष्य पाकर ही कोई रचनात्मक कौंध व्यवस्था परिवर्तन के संगठित अभियान में अपनी भूमिका निभा सकती है.

एक चुनौती भाषा प्रयोग की है. भाषा प्रयोग का आशय शब्द-शक्तियों के विनियोजन से है. दलित साहित्य में अभिधामूलक रचनाओं की बहुलता है. यहाँ इसे सपाटबयानी के समतुल्य समझा जाए. सपाटबयानी के महत्त्व पर पर्याप्त विमर्श प्रगतिवाद के प्रारंभिक दौर में हो चुका है. यह शैली अनुभवकेंद्रित लेखन के माकूल पड़ती है. दलित लेखकों ने सहज प्रज्ञा से अभिधा की ताकत पहचान कर अपने लिए इसे चुना. अब ऐसी रचनाओं की प्रचुरता हो चली है. नया समय और नया पाठक-वर्ग व्यंजना-व्यंग्य प्रधान रचनाओं की मांग कर रहा है. सावधान सर्जक उसका संज्ञान भी ले रहा है. ‘गरिमा के गीतों का गणितमें एक कविता है- खंजरों की खरोंच’. कविता उन खरोंचों की तरफ ध्यान खींचती है जो ब्राह्मण-राज के वैचारिक ढांचों ने अधीनस्थ समुदाय के मर्म पर लगाए हैं. इन

वैचारिक ढाँचों के खंजरों की
खरोंचों ने
मेरे देश!

तुम्हें अपने ही दिल की
चींटियों का
गीत महसूस करने से
तेरी सारी इन्द्रियों और अंगों को
सुन्न कर रखा है.” 

संवेदन-जगत में लगी खरोंच से उपजी पीड़ा और सवालों का समाधान जिस माध्यम से खोजा जाएगा उसे अपनी प्रकृति में व्यंजनाप्रधान होना है. जाति-वर्ग-जेंडर की संश्लिष्ट त्रयी ही भारतीय वर्चस्व की निर्माता और नियामक है. इस वर्चस्व को भेदने में अब तक चूक होती रही है. मुक्ति-आंदोलनों ने कभी वर्ग संघर्ष को ही सब कुछ मान लिया, कभी वर्ण-जाति को तो कभी जेंडर तक सिमटे रहे. इससे उनकी शक्ति विभाजित रही और वर्चस्व की त्रयी मजबूत होती गई. इस संश्लिष्टता की मीमांसा और व्यवच्छेदन गझिन व्यंजक भाषा में ही किया जा सकता है. दलित स्त्रियों के रचना परिदृश्य में आने से भाषा व्यवहार में युगांतर आना तय-सा लग रहा है. सपाट आक्रामकता मारक व्यंजकता में तब्दील हो रही है.


हिंसा कायरता से, आत्मिक खोखलेपन से, बुजदिली से उपजती है. इस रिश्ते को न समझने से हिंसा करने वाला शक्तिशाली मान लिया जाता है. जातिवादी हिंसा इससे भिन्न नहीं है. जिस ब्राह्मणवाद को शक्तिसंपन्न समझ लिया गया है वह समझ सांस्कृतिक सम्मोहन का परिणाम है. ब्राह्मणवादियों ने जो गाँठ रची है उसकी जड़ें उसके विरोधियों तक में पसरी हुई हैं. ब्राह्मणी शक्ति का गुणगान बहुत हो चुका. दलित विमर्श ने प्रकारांतर से इस गुणगान में खूब योगदान किया है. अब समय है कि सम्मोहन से मुक्त हुआ जाए. हिंसक सवर्ण सत्ता को अनावृत किया जाए. ऐसी कृतियाँ रची जाएं जो हिंसा बरपाने वालों की अनदेखी अनजानी असलियत उघाड़ सकें. दहाड़ती जातिवादी क्रूरता में छिपी थरथराती भयाक्रांत मानसिकता अपने समूचे लाव-लश्कर के साथ एकबारगी प्रकाशवृत्त में आकर सार्वजनिक हो उठे.




(ग)
दलित कविता सिर्फ कथ्य नहीं है. वह कथ्य एक फॉर्म में प्रस्तुत होता है. फॉर्म का महत्त्व इसीलिए कथ्य जितना मानना चाहिए. ऊपर से भले ही लगता हो कि फॉर्म का चयन रचनाकार की मर्जी का मामला है लेकिन इसमें कई कारकों की निर्णायक भूमिका होती है. काव्य-वस्तु काव्य-रूप के निर्धारण में अहम भूमिका निभाती है; साथ ही कवि की गति, अभीष्ट पाठक-वर्ग की स्थिति और समय की मांग भी द्वंद्वात्मक भूमिकाओं में होते हैं. जन से जीवंत जुड़ाव कवि को यादृच्छिक शिल्प अपनाने से सावधान करता चलता है.

क्रमिक परिवर्तनका तर्क तकनीकी रूप से सही माना जा सकता है किंतु बहुधा इस तर्क का इस्तेमाल यथास्थिति को सह्य बनाने के लिए किया जाता है. जाति-वर्ण से मिले विशेषाधिकारों का लाभ उठाते हुए उदारलोग समझाते मिल जाते हैं कि दीर्घ काल से चले आते संस्कार धीरे-धीरे बदलते हैं. प्रकारांतर से यह जातिवादी हिंसा को अप्रत्यक्ष वैधता देने का प्रयास होता है. दलित कवि इस प्रविधि से अवगत हैं. वे स्थगन के किसी अगर-मगर में उलझे बगैर तत्काल उत्पीड़न का खात्मा चाहते हैं. ‘अब और नहींलिखने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि हों या ज्वालामुखी के मुहाने परके कवि मलखान सिंह, सभी दमन की तुरंत समाप्ति का स्वर बुलंद कर रहे हैं. जय प्रकाश लीलवान के प्रस्तुत संग्रह में ऐसी कविताएं पर्याप्त संख्या में हैं जो अभी और इसी समयजातिवादी ढांचे का उन्मूलन चाहती हैं. अपनी पहली कविता बर्दाश्त नहींमें वे कहते हैं-

हमारी क्यारियों के
फूल रौंदती रही
इन ऋतुओं के आगमन की
रुकावटें बर्दाश्त नहीं.”

बुनावटकविता में वे विकराल गैर बराबरियों और दमन के बीजों से टकराने का संकल्प व्यक्त करते हैं तो ताना बानामें जाति प्रथा के बेशर्म और बेरहम ताने-बाने से दलितों की मुक्ति का बेसब्र गीत छेड़ते हैं. ‘बसशीर्षक कविता में वे खुद को धरती के बदन पर दमन झेलती जनता के/ जख्मों से रिसता हुआ राज़बताते हैं. ‘ढाँचों के होंठकी पहचान कराते हुए वे कहते हैं कि

ये जाति प्रथा के होंठ
गालियाँ बकने और
गंदगी मलने के लिए ही
खुले रहते हैं.’

यह भी कि सही किस्म के संगीत की तलाश/ इस ढाँचे से नहीं मिलेगी.’ ‘उदासीनतामें जख्मी काया के प्रति उदासीनता को अस्वीकार्य बताते हुए वे उस चाहतका इजहार करते हैं जब ढाँचों की बदबू का सामना उसके अंत की चाहत से लबालब भरकर किया जाएगा. ‘आज भीकविता में वे धर्मतंत्र, धनतंत्र, शासनतंत्र और जनतंत्र में व्याप्त क्रूरता का पर्दाफाश करते हैं. ‘इस देश के शासककविता का लक्ष्य अपमानजनक चिंतन का खंडन करना है. ‘आज तक भीकविता में लीलवान संस्कृति के शिकारी कुत्तों के रंग-बिरंगे झुंड की शिनाख्त करवाते हैं. ‘साजिशों के पतेमें उनका कहना है-

ओ वर्ण व्यवस्था!
तेरी साजिशों के सारे पते
हमारे देश की
दर्दनाक चीखों के
लिफाफों पर

साफ़ साफ़ लिखे हैं.” 


दमन की गूँजमें जातिप्रथा का मर्मभेदन है तो पाठ्यक्रममें विकराल गैर बराबरियों के व्यभिचारी/ पाठ्क्रमों से निकले प्रश्नों को/ देश से खदेड़कर हीसुकून महसूस करने की बात कही गई है. ‘कोई भी समयमें लीलवान कहते हैं कि हमारे लिए कोई भी समय कभी शांत बैठने का नहीं रहा है.’ ‘जिस दिनमें उनका निष्कर्ष है कि उत्पीड़ित जिस दिन दमन का सामना करने को उठ खड़े होंगे, जुल्म का नामोंनिशान मिट जाएगा. ‘आतंकवादकविता में वे पुराण परंपरा से निकले आतंक की चर्चा करते हैं. कवि देश कि सुबकियों की मद्धिम आवाज कानाफूसीकविता में सुनता है. ‘मौलिक इलाजकी खोज में निकला कवि अपने गीतों की गूँज से सारी बीमारियों का इलाज करना चाहता है. ‘अस्तित्व का संगीतलीलवान की प्रेम कविता है. वर्णवादी ढाँचे के प्रति वे जितने असहिष्णु, मुखर और आक्रोशित हैं प्रेम के सिलसिले में वे उतने ही कोमल, मृदुभाषी और संवेदनशील. प्रेम की उनकी समझ पूर्णता की ओर ले जाती है. यह प्रेम कतई अशरीरी नहीं है. उनकी प्रेम कविताएं प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की भाव-भूमि का स्मरण कराती हैं. जीवनोत्सव के कवि के रूप में जय प्रकाश लीलवान अपनी एक रचना में बताते हैं-

मैं असली आजादी के
अंतहीन और अद्भुत
गीत गाने वाला
एक दलित राजकुमार हूँ.”
_________________
bajrangbihari@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : नीलेश रघुवंशी

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नीलेश रघुवंशी की कविताओं  में स्त्री जीवन और उस जीवन के उतार – चढ़ाव, उस जीवन में जन्म से ही चुभते, गड़ते कील कांटे हैं. तमाम तरह की बंदिशों से मुक्त एक मनुष्य के सहज जीवन की सरल सी इच्छाएं हैं.

ज़ाहिर है ये कविताएँ समकालीन सचेत स्त्री के स्वप्न हैं. समाज की संरचना में क्रूरता कितनी गहरी है और यह हिंसा स्त्रियों पर ही गिरती है.  

नीलेश रघुवंशी का नया संग्रह आया है ‘खिड़की खुलने के बाद’ , ये कविताएँ इसी संग्रह से हैं.



नीलेश रघुवंशी की कविताएँ                       



बेखटके

नींद इतनी कम और जलन इतनी ज्यादा कि
सड़क किनारे
सोते कुत्ते को देख भर जाती हूँ जलन से
इतनी कमियाँ हैं जीवन में कि
पानी के तोड़ को भी देखने लगी हूँ उम्मीद से
अंतिम इच्छा कहें या कहें पहली इच्छा
मैं बेखटके जीना चाहती हूँ .

निकलना चाहती हूँ आधी रात को बेखटके
रात बारह का  शोदेखकर
रेलवे स्टेशन पर घूमूँ जेब में हाथ डाले
कभी प्रतीक्षालय में जाऊँ तो कभी दूर कोने की
खाली बैंच को भर दूँ अपनी बेखटकी इच्छाओं से
इतनी रात गए
सूने प्लेटफार्म पर समझ न ले कोई ऐसी-वैसी
मैं ऐसी-वैसीन समझी जाऊँ और
नुक्कड़ की इकलौती गुमटी पर चाय पीते
इत्मीनान से खींच सकूँ आधी रात का चित्र
क्षितिज के भी पार जा सके मेरी आँख
एक दृश्य रचने के लिए
मिलें मुझे भी पर्याप्त शब्द और रंग .

जरूरत न हो
आधी रात में हाथ में पत्थर लेकर चलने की
आधी रात हो और जीने का पूरा मन हो
कोई मुझे देखे तो देखे एक नागरिक की तरह
यह देह भी क्या तुच्छ चीज है
बिगाड़कर रख दिये जिसने नागरिक होने के सारे अर्थ .

उठती है रीढ़ में एक सर्द लहर
कैलेंडर, र्होर्डग्ंस, विज्ञापन, आइटम साँग
परदे पर दिखती सुंदर बिकाऊ देह
होर्डिग्ंस पर पसरे देह के सौंदर्य से चौंधियाती हैं आँखें
देखती हूँ जितना आँख उठाकर
झुकती जाती है उतनी ही रीढ़
फिरती हूँ गली-गली
रीढ़हीन आत्मा के साथ चमकती देह लिए
जाने कौन कब उसे उघाड़कर रख दे
तिस पर जमाने को पीठ दिखाते
आधी रात में
बेखटके घूमकर पानी को आकार देना चाहती हूँ मैं .





दो हिस्से

1. आत्मकथ्य

मेरे प्राण मेरी कमीज़ के बाहर
आधी उधड़ चुकी जेब में लटके हैं
मेरी जेब में उसका फोटो है
रौंपा जा रहा है जिसके दिल में
फूल विस्मरण का .

झूठ फरेबी चार सौ बीसी
जाने कितने मामले दर्ज़ हैं मेरे ऊपर
इस भ्रष्ट और अंधे तंत्र से
लड़ने का कारगर हथियार नहीं मेरे पास
घृणा आततायी को जन्म देती है
आततायी निरंकुशता को
प्रेम किसको जन्म देता है ?

अपना सूखा कंठ लिए
रोता हूँ फूट फूटकर
मेरी जेब में तुम्हारा फोटो है
कर गए चस्पा उसी पर
नोटिस गुमशुदा की तलाश का .






2. एक बूढ़ी औरत का बयान

“मथुरा की परकम्मा करने गए थे हम
वहीं रेलवे स्टेशन पे भैया .....

रोओ मत 
पहले बात पूरी करो फिर रोना जी भर के .

“साब भीड़ में हाथ छूट गए हमारे
पूरे दो दिन स्टेशन पर बैठी रही
मनो वे नहीं मिले
ढूँढत-ढूँढत आँखें पथरा गई भैया मेरी
अब आप ही कुछ दया करम करो बाबूजी ’’

दो चार दिन और इंतज़ार करो बाई
आ जाएँगे खुद ब खुद  .

“नहीं आ पाएँगे बेटा वे
पूरो एक महीना और पन्द्रह दिन हो गए
वे सुन नहीं पाते और
दिखता भी नहीं उन्हें अच्छे से ’’

बुढ़ापे में चैन से बैठते नहीं बनता घर में 
जाओ और करो परकम्मा
कहाँ की रहने वाली हो ?

“अशोक नगर के .’’

घर में और कोई नहीं है क्या ?

“हैं . नाती पोता सब हैं भैया ’’

फिर तुम अकेली क्यों आती हो ?
लड़कों को भेजना चाहिए था न रिपोर्ट लिखाने .

‘‘वे नहीं आ रहे, न वे ढूँढ रहे
कहते हैं
तुम्हीं गुमा के आई हो सो तुम्हीं ढूँढो .

लाल सुर्ख साड़ी में एकदम जवान
दद्दा के साथ कितनी खूबसूरत बूढ़ी औरत
उसी फोटो पर चस्पा
नोटिस गुमशुदा की तलाश का.    





सम्बोधन

दर्द और राहत एक हो गए
चीख और कराह घुल-मिल गए
जन्म देने की प्रक्रिया पूरी हुई
सयानापन और सन्नाटा उठ खड़े हुए
रोने की पहली आवाज़ सुने बिना माँ बेसुध हुई
क्या हुआ, क्या हुआ की आकुलता इतनी भयानक कि
घर की स्त्रियों में क्या हुआको लेकर द्वंद्व मच गया .

बूढ़ी सयानी दाई रो पड़ी
थरथराते हाथों से सर पर कलश रखते
देहरी पार की उसने
लड़के के जन्मने पर जय श्री कृष्ण
लड़की के जन्मने पर जय माता दी
हर प्रसव के बाद इसी तरह बताना होता है
लड़का हुआ है कि लड़की हुई है .

कलश का पानी छलका
जिसने शब्दों और अर्थों को पानी-पानी कर दिया
देहरी पार कहती है दाई‘‘जय माता दी
बरात द्वारे आई है बिठाना है कि लौटाना है ’’
‘‘लौटाना है, लौटाना है जय माता दी’’
मद्विम स्वर में एक मत से बोल उठा समूह
‘‘हे देवी
हमारे यहाँ न पघारो, प्रस्थान करो, प्रस्थान करो’’


देव की पूजा, देवी से प्रार्थना
साधारण मानुष का जन्म लेते ही वध .

दाई ने सर पर रखे कलश को
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह गाड़ दिया जमीन में
चाँद पेड़ की ओट में छिप गया
अंधेरे का फायदा उठाते अपने नवजात बच्चे को
दाँतों के बीच दबाए बिल्ली दबे पाँव निकल गई
माँ के कंठ से निकली रूलाई ने
प्रसव कक्ष में बिना तकिए के दम तोड़ दिया .

एक स्त्री ने स्त्री को जन्म दिया
स्त्री की स्त्री से नाल एक स्त्री ने काटी
एक स्त्री ने स्त्री को जमीन में गाड़ दिया
पितृसत्ता का कैसा भयानक कुचक्र कि
स्त्री ने ही स्त्री का समूल नाश किया .

यह किसी मध्ययुगीन नाटक का दृष्य नहीं
आधुनिक जीवन का दृष्य है
जिसमें आज भी निर्णायक पुरूष मूकदर्शक है .
(आषा मिश्र के लिए)




साँकल

कितने दिन हुए
किसी रैली जुलूस में शामिल हुए बिना
दिन कितने हुए
किसी जुल्म जोर जबरदस्ती के खिलाफ
नहीं लगाया कोई नारा
हुए दिन कितने नहीं बैठी धरने पर
किसी सत्याग्रह, पदयात्रा में नहीं चली जाने कितने दिनों से
कैंडल लाईट मार्चमें तो शामिल नहीं हुई आज तक
तो क्या
सब कुछ ठीक हो गया है अब ?

इन दिनों क्या करना चाहिए
ऐसी ही आवाज़ों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखना चाहिए
चुपलगाकर घर में बैठे रहना चाहिए
या इतनी जोर से हुंकार भरना चाहिए कि
निर्लज्जता से डकार रहे हैं जो दूसरों के हिस्से
उठ सके उनके पेट में मरोड़ 
यह और बात है कि
सड़कें इतनी छोटी और दुकानें इतनी फैल गई हैं कि
जुलूस भी तब्दील हो जाते हैं भीड़ में


विरोध के बिना जीवन कैसा होगा
घर के दरवाजे पर साँकल होगी
लेकिन उसमें खटखटाहट ना होगी
साँकल खटखटाए बिना दरवाजे के पार जाएँगे
तो चोर समझ लिए जाएँगे
चाँद आधा निकला होगा और कहा जाएगा हमसे
कहो- पूरा निकला है चाँद  .






साईकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए
जमीन पर रहते हुए भी
जमीन से ऊपर उठी मैं .
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि
रास्ता काटती बिल्ली भी रूक गई दम साधकर
ढलान से ऐसे उतरी
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि
पहाड़ों को पारकर पहुँचना है सपनों के टीलों तक .
साइकिल चलाते ही जाना
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर
शहर को पार करते हुए जाना
नदी न होती तो
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गईं होतीं
पहला पहिया न होता तो
कुछ करने की जीतने की ज़िद न होती .

खड़ी हूँ आज
उसी सड़क पर बगल में साईकिल दबाए
पैदल चलते लोगों को देख
घबरा जाती हैं अब सड़कें
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच
देखा नहीं आज तक
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में
मृत्यु का आभास होते ही
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे
क्या साईकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में
रौंप दी जाएगी क्या
साईकिल भी  किसी स्मृति वन में  .
साईकिल में जंग भी नहीं लगी और
रास्ते पथरीले हुए बिना खत्म हो गए
फिर भी भोर के सपने की तरह

दिख ही जाती है सड़क पर साईकिल .

_________
नीलेश रघुवंशी                                         
4अगस्त 1969, गंज बासौदा (म.प्र.)

कविता संग्रह : घर-निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में
उपन्यास : एक कस्बे के नोट्स

नाट्य आलेख : छूटी हुई जगह (स्त्री कविता पर नाट्य आलेख), भी ना होगा मेरा अंत  (निराला पर नाट्य आलेख), ए क्रिएटिव लीजेंड (सैयद हैदर रजा एवं ब. व. कारंत पर नाट्य आलेख)
बाल नाटक : एलिस इन वंडरलैंडडॉन क्विगजोटझाँसी की रानी

सम्मान
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, युवा लेखन पुरस्कार (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता) आदि

संपर्क

40, आकृति गार्डन्स, नेहरू नगर, भोपाल, मध्य प्रदेश
neeleshraghuwanshi67@gmail.com

लवली गोस्वामी की नई कविताएँ

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लवली गोस्वामी का अभी कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है, उनकी कविताएँ भी इधर ही समाने आयी हैं. पर जिस तरह से उन्होंने हिंदी कविता के सह्रदय सचेत पाठकों को हैरान किया है, वैसा देखने में कम आता है.

उनकी मूल संवदेना प्रेम की है. पर इस जटिल समय में  स्त्री - पुरुष के जटिलतर सम्बन्धों को जिस तरह से और जिस भाषा में वह विन्यस्त करती हैं वह एक समृद्ध सृजनात्मक अनुभव की ओर ले जाता है. उनकी कुछ नई कविताएँ




लवली गोस्वामी की कविताएँ                            






असंवाद की एक रात


जितनी नमी है तुम्हारे भीतर
उतने कदम नापती हूँ मैं पानी के ऊपर
जितना पत्थर है तुम्हारे अन्दर
उतना तराशती हूँ अपना मन

किसी समय के पास संवाद बहुत होते हैं
लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं होता
जब अर्थ अनगिनत दिशाओं में बहते हैं
बात बेमानी हो जाती है

इच्छाओं की जो हरी पत्तियाँ असमय झरीं
वे गलीं मन के भीतर ही, अपनी ही जड़ों के पास
खाद पाकर अबकी जो इच्छाएँ फलीं
वे अधिक घनेरी थीं , इनकी बाढ़ भी
गुज़िश्ता इच्छाओं से अधिक चीमड़ थी

                        कुछ स्मृतियों से बहुत सारे निष्कर्ष निकालती आज मैं
आदिहीन स्मृतियों और अंतहीन निष्कर्षों के बीच खड़ी हूँ   

तुम्हारा आना सूरज का उगना नहीं रहा कभी
तुम हमेशा गहराती रातों में कंदील की धीमी लय बनकर आये
तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता था
कि मुझे चौंधियाती रौशनियाँ पसंद नहीं हैं

चुप्पियों के कई लबादे ओढ़ कर अलाव तापने बैठी है रौशनी
अँधेरे इन दिनों खोह की मिट्टी हवा में उलीच रहे हैं

मेरा अंधियारों में गुम हो जाना आसान था
तुम्हारी काया थी जो अंधकार में
दीपक की लौ की तरह झिलमिलाती थी
तुम्हारी उपस्थिति में मुझे कोई भी पढ़ सकता था

हम उस चिठ्ठी को बार - बार पढ़ते हैं
जिसमें वह नहीं लिखा होता
जो हम पढना चाहते थे

क्षमाओंकी प्रार्थना
अपने सबसे सुन्दर रूप में कविता है
भले ही आप गुनाहों में शामिल न हों.



होने की बातें

तुम धरती पर पर्वत की तरह करवट लेटना
तुमपर नदियाँ चाहना से भरी देह लिए इठलाती बहेंगी

तुम भव्यता और मामूलीपन की दांतकाटी दोस्ती में बदल जाना
तुमपर लोक कथाएँ अपनी गीली साड़ियाँ सुखायेंगी

तुम रात के आकाश का नक्षत्री विस्तार हो जाओ
दिशाज्ञान के जिज्ञासु तुम्हारा सत्कार करें

तुम पानी की वह बूँद होना
जो कुमारसंभव की तपस्यारत पार्वती की पलकों पर गिरी
जिसने माथे के दर्प से ह्रदय के प्रेमतक की यात्रा पूरी की
तुम चरम तपस्या में की गई वह अदम्य कामना होना

अगर होना ही है तो लता का वह हिस्सा होना
जो एक तरफ मूर्छा से उठी वसंतसेना थामती है
दूसरी तरफ भिक्षु संवाहक
तुम आसक्ति और सन्यास की संधि होना

तुम्हारी निश्छल आँखों में संध्या तारा बनकर फूटे बेला की कलियाँ
नेह से भर आये स्वर में प्राप्तियों की मचलती मछलियाँ गोता लगायें

तुम मन की  ऊँची उड़ान से ऊब कर टूटा पंख बनना
कोई आदिवासिन नृत्यांगनातुम्हें जुड़े में खोंसेगी
तुम उसकी कदमताल पर थिरकना

जो तुम्हें माथे सजाये
उसकी चाल की लय पर डूबना – उबरना.


पेंटिग : Tom Sierak




कुछ सचों के बारे में

कविता का एक सच सुनो
जब सब तेज़ तर्रार चौकन्ने झूठ सोते हैं
शर्मीली सच्चाईयाँ कविता में अंकुरती
जागती हैं

जब सदिच्छाएँ हारने लगती है
वे कला की शरण ले लेती हैं

तुम्हारी याद मुँह लटकाए
घर की सबसे छोटी चारदीवारी पर बैठी है
उसे अशरीरी उपस्थिति के लज़ीज़ दिलासे नहीं पसंद
शाखाओं की जड़ें पेड़ के अंदर फूटती हैं
प्रेम की शाखाएँ स्मृतियों के अन्दर फूटती हैं

मिठास रंग में डूबा हुआ ऊन का गोला है
जिसे बहते पानी बीच रख दो
तो रंग तमाम उम्र एक गाढ़ी लकीर बन बहता रहता है  

प्रेम के गहनतम क्षणों में तुम्हारी हथेलियों बीच मेरा चेहरा
पहली किरण की गुनगुनाहट समोए
ओस के सितारे की तरह टिमटिमाता है

मेरे केश तुम्हारी उँगलियों से झरकर चादर पर
सपनों की जड़ों की तरह फैलते हैं
देह तुम्हारी ओर शाखाओं की तरह उमड़ती है

सघन मेघों की तरह मुझपर झुके तुम मेरे सपने सींचते हो
मेरा स्वप्नफल तुम्हारी नाभि पर आदम के सेब की तरह उभरा है
तुमने देखा? स्वयंभू  शिव की भी नाभि होती है
कवि कुछ भी हो, अपने हजारवें अंश में सचों का पहरूवा होता है

हवा की रेल खुशबू को न्योतती नहीं है
खुशबू अनाधिकार हवा में प्रवेश नहीं करती
कुछ लोग बने ही होते हैं एक दूसरे में मिल जाने के लिए

अधिकतर मामलों में
हमें दुःख सिर्फ वहीदे सकता है
जिससे हम सुख चाहते हैं        

जिसके अंदर इच्छा ना हो
उसपर अत्याचार तो किया जा सकता है
लेकिनउसका शोषण नहीं किया जा सकता.



रात एक मील का पत्थर है

बहुत जान कर मैंने यह जाना है
जीवन का मतलब घाव पाना है

बहुत देखकर देखती हूँ
तो मनमरे परिंदे की तरह
टहनियों के कुचक्र मेंफंसा
बेजान लटका नज़र आता है

रात एक मील का पत्थर है
जिसपर बैठा मन दोहरा रहा हैतुम्हारा नाम
भूले हुए अधूरे जादू की तरह

सदियों में एक रात ऐसी आती है
जब सब तारे रात की चादर से फिसलकर
ज़मींन पर गिर जाते हैं

फिसले हुए ये तारे देर रात
झींगुरों की लय पररौशनी की बूंदों की तरह
जुगनू बनकर टिमटिमाते हैं

सदियों में एक रात ऐसी आती है
जब समुद्र गर्जना के स्वर कलश में रखकर
मिट्टी में गाड़ देता है

सदियों बाद एक रात
आवाजें धरोहर हो जाती हैं
ध्वनियाँ स्वाद पैदा करती हैं
कलरव आनन्द मनाते हैं
स्वर मनुहार करते हैं

सदियों के बाद एक रात
भुलायी गयी सब कहानियां
झुण्ड बनाकर चांदनी में बिछी ओस से
केश धोने निकलती है

सदियों में एक रात ऐसी आती है
जब तुम्हारा आश्वस्ति देने को छूना भी
दुलार के मारे सहा नहीं जाता

सदियों बाद आयी इस रात में प्रेम
नवजात शिशु के केशों से भी अधिक कोमल है

आज सदियों बाद
बातें हामी भरती है
पुकारें उम्मीद जगाती है
हुँकारीगुजारिशें करती हैं

सदियों बाद आयी इस रात में
अस्थि- आँते  सब देह की अलगनीसे
गीले कपडे की तरह गिर गई हैं

तुम आओ और मुझमेअंतड़ियों की जगह
इन्द्रधनुष की सुतरियों के लच्छे भर दो

आओ और देह में अस्थियों की जगह
गीतों की सुनहरी पंक्तियाँ रख दो

आँधियों के बाद टूटी टहनियों की दहाड़ें
मरी चिड़ियों के पंखों की फड़फड़ाहटों से भरीं हैं

कलियाँ पौधों की बंद मुठ्ठियाँ हैं
रौशनी नहीं मानती, वह रोज़ आती है
एक दिन कलियाँ बंद मुठ्ठी खोलकर
रौशनी से हाथ मिलाती है

इन दिनों खुद को सह नहीं पा रही हूँ मैं
आओ और मुझे सहने लायक बना दो


आओ कि मैं जानती हूँ
सुन लिया जाना
आवाजों की मृत्यु नहीं है

तुम भी तो जानते हो
आँखें दुखाती चमचमाती रौशनी में झुर्रियाँ
सिर्फ हिलोरें मारता पानी पैदा कर सकता है



अधूरी नींद का गीत 

तुम मिलते हो पूछते हो कैसी हो”?
मैं कहती हूँ  “अच्छी हूँ”..

(जबकि जवाब सिर्फ इतना है
जिन रास्तों को नही मिलता उनपर चलने वालों का साथ
उन्हें सूखे पत्ते भी जुर्अत करके दफना देते है

एक दिन इश्क़ में मांगी गयी तमाम रियायतें
दूर से किसी को मुस्कराते देख सकने तक सीमित हो जाती हैं
मुश्क़िल यह है,यह इतनी सी बात भी
दुनिया भर के देवताओं को मंज़ूर नहीं होती
इसलिए मैं दुनिया के सब देवताओं से नफरत करती हूँ
 
(देवता सिर्फ स्वर्गी जीव नहीं होते)

मैं तुम्हारे लौटने की जगह हूँ

(कोई यह न सोचे कि जगहें हमेशा
स्थिर और निष्क्रिय ही होती हैं )

प्रेम को जितना समझ सकी मैं ये जाना
प्रेम में कोई भी क्षण विदा का क्षण हो सकता है
किसी भी पल डुबो सकती है धार
अपने ऊपर अठखेलियां करती नाव को

(यह कहकर मैं नाविकों का मनोबल नहीं तोड़ना चाहती
लेकिन अधिकतर नावों को समुद्र लील जाते हैं )  

जिन्हें समुद्र न डुबोये उन नावों के तख़्ते अंत में बस
चूल्हे की आग बारने के काम आते हैं
पानी की सहेली क्यों चाहेगी ऐसा जीवन
जिसके अंत में आग मिले ?

(समुद्र का तल क्या नावों का निर्वाण नहीं है
जैसे
डूबना या टूटना सिर्फ नकारात्मक शब्द नहीं हैं)

तुम्हारे बिना नहीं जिया जाता मुझसे
यह वाक्य सिर्फ इसलिए तुमसे कभी कह न सकी मैं
क्योंकि तुम्हारे बिना मैं मर जाती ऐसा नहीं था

(मुझे हमेशा से लगता है विपरीतार्थक शब्दों का चलन
शब्दों की स्वतंत्र परिभाषा के खिलाफ एक क़िस्म की साजिश है )

हम इतने भावुक थे कि पढ़ सकते थे
एक दूसरे के चेहरे पर किसी बीते प्रेम का दुःख
मौजूदा आकर्षण की लिखावट

 (सवाल सिर्फ इतना था कि
कहाँ से लाती मैं अवसान के दिनों में उठान की लय
कहाँ से लाते तुम चीमड़ हो चुके मन में लोच की वय)

ताज़्ज़ुब है कि न मैं हारती हूँ,न प्रेम हारता है
मुझे विश्वाश है तुम अपने लिए ढूंढ कर लाओगे
फिर से एक दिन छलकती ख़ुशी
मैं तुम्हें खुश देखकर खुश होऊँगी
एक दिन जब तुम उदास होगे
तुम्हारे साथ मुट्ठी भर आँसू रोऊँगी

(हाँ, इन आँसूओं में मेरी भी नाक़ामियों की गंध मिली होगी

लेकिन फ़िलहाल
इन सब बातों से अलग
अभी तुम सो रहे हो

तुम सो रहे हो
जैसे प्रशांत महासागर में
हवाई के द्वीप सोते हैं 
तुम सो रहे हो
लहरों की अनगिनत दानवी दहाड़ों में घिरे शांत
पानी से ढंकी - उघरी देह लिए लेकिन शांत
तुम सो रहे हो
धरती का सब पानी रह - रह उमड़ता है
तुम्हारी देह के कोर छूता है खुद को धोता है
तुमसे कम्पनों का उपहार पाकर लौट जाता है 
तुम सो रहे हो
स्याह बादल तुमपर झुकते,उमड़ते हैं
बरसते हुए ही हारकर दूर चले जाते हैं  
तुम सो रहे हो
सुखद आश्चर्य की तरह शांत
मैं अनावरण की बाट जोहते
रहस्य की तरह अशांत जाग रही हूँ.
_______________
# l.k.goswami@gmail.com

हस्तक्षेप : जनतंत्र, नागरिक समाज और आज का भारत : अरुण माहेश्वरी

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चित्र : स्लावोय जिजेक

जनता कभी-कभी अप्रत्याशित निर्णय लेती है. अराजकता, अकुशलता, साम्प्रदायिकता, हिंसा, भ्रष्टाचार, पक्षपात आदि से व्यथित होकर वह प्रतिपक्ष में खड़े व्यक्ति या संगठन को अपना समर्थन देती है. पर उसके बाद क्या ? क्या यह प्रतिपक्ष जो अब सत्ता पर काबिज़ है. जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरता है ? कई बार तो वह और भी बुरा साबित होता है? ऐसा क्यों ?

सत्ता परिवर्तन व्यवस्था परिवर्तन नहीं है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनता की चेतना में सकारात्मक परिवर्तन ही एक रास्ता है.

समकालीन  दार्शनिक स्लावोय जिजेककी  'डे आफ्टर'की अवधारणा पर लेखक और राजनितिक विश्लेषक अरुण माहेश्वरी की महत्वपूर्ण टिप्पणी.




जनतंत्र, नागरिक समाज और आज का भारत                  
अरुण माहेश्वरी 





अंतोनिओ ग्राम्शी ने अपनी 'प्रिजन नोटबुक'में नागरिक समाज पर काफी गंभीरता से चर्चा की है. जनतंत्र में नागरिक समाज उसी की एक उपज होता है तो उसकी रक्षा का एक बड़ा कवच भी. यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूरी संरचना में एक ऐसे लोच को तैयार करता है जो उसे किसी भी क्रांतिकारी या प्रति-क्रांतिकारी सीधे हमले से बचाता है.

ग्राम्शी के पहले 1925में हेराल्ड लास्की ने 'अ ग्रामर आफ पालिटिक्स'लिखी थी. यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की संरचना के व्याकरण पर लिखा गया ग्रंथ है. लास्की इसमें संसदीय व्यवस्था में राजनीति और नौकरशाही के पूरे ढाँचे को अपना विषय बनाते हैं. वे अपने विषय में इस मूलभूत प्रस्थापना के साथ प्रवेश करते है कि राजशाही के बजाय जनतंत्र का अर्थ है राजा के हितों की रक्षा के लिये एक शासन व्यवस्था के बजाय जनता के हितों की रक्षा के लिये शासन व्यवस्था.

शासन की इस नई संरचना की परेशानी तब शुरू होती है जब किसी भी बड़े संघर्ष के बाद राजशाही तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन उसकी जगह जनता के हितों को साधने वाली व्यवस्था की संरचना तैयारशुदा उपलब्ध नहीं होती है. इसे सुचिंतित ढंग से निर्मित करना होता है. हमारे आज के समय के बहुचर्चित दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब पूरी गंभीरता और आवेग के साथ 'डे आफ्टर' ( कल क्या) की बात करते हैं तो उनका संकेत इसी बात की ओर होता है. येन केन प्रकारेण किसी एक को हटा कर दूसरे का सत्ता में आना उतना बड़ा विषय नहीं है, जितना बड़ा प्रश्न यह है कि सत्ता पर आने के बाद क्या? तुनीसिया के बाद मिस्र के काहिरा में तहरीर स्क्वायर (जनवरी 2011) पर लाखों लोगों के उतर जाने से सालों से सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाये बैठी होस्नी मुबारक की सरकार का पतन होगया, अफ़्रीका और मध्यपूर्व की अरब दुनिया में 'अरब वसंत'का प्रारंभ होगया, लेकिन इस विद्रोह की लंबी श्रृंखला के बाद क्या? आज का सच यह है कि अफ़्रीका और पश्चिमी एशिया का यह पूरा क्षेत्र चरम अराजकता, तबाही और साम्राज्यवादियों के हथियारों के परीक्षण का क्षेत्र बन गया है.

अर्थात, एक विद्रोह मात्र से, सत्ता में परिवर्तन मात्र से सामाजिक जीवन में कोई सुनिश्चित परिवर्तन तय नहीं होता है. सामाजिक परिवर्तन उस शासकीय संरचना के बीच से मूर्त होते हैं, जो विद्रोह के दिन के बाद की एक लंबी रचनात्मक राजनीतिक संस्थागत प्रक्रिया के बीच से तैयार की जाती है.

भारत से अंग्रेज़ों का चला जाना मात्र हमारी आजादी की रक्षा का कारक नहीं बन सकता था. सन् 47के बाद तीन साल में हमने अपने गणतंत्र के संविधान को अपनाया और तिल-तिल कर अनेक सांस्थानिक परिवर्तनों के बीच से एक जन-कल्याणकारी राज्य की दिशा में काम शुरू किया. इसके रास्ते में तमाम बाधाएँ आती रही है और उनके संदर्भ में हम आज तक अपनी इस शासकीय संरचना को जनता के हितों की सेवा के लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए उन्नत करने की लड़ाई में लगे हुए हैं.

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के बारे में 9जजों की बेंच का जो सर्व-सम्मत फैसला सुनाया, उसे इस लगातार जारी प्रक्रिया में हाल के दिनों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हम देख सकते हैं.

यहां इस चर्चा का मूल विषय है - 'डे आफ्टर' !लास्की ने जब संसदीय लोकतंत्र की संरचना पर विचार शुरू किया तो इसकी पहली सबसे बड़ी विशेषता या कमज़ोरी, जो भी कहे, यह बताया कि यह एक ऐसे प्रकल्प के प्रारंभ की तरह है जिसमें राजसत्ता को उस जनता के हितों को साधना होता है जो आम तौर पर अपने हितों के प्रति जागरूक नहीं होती, प्राय: अचेत होती है. उसके जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ही उसके विवेक-सम्मत मानसिक विकास में बाधक बनती है.

इसलिये इन परिस्थितियों में शासन के उस नौकरशाही ताने-बाने का का असीम महत्व हो जाता है जो जन-हितकारी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के जरिये प्रशिक्षित और चालित होते हैं और जनता के हितों को परिभाषित करते हैं. राजनीति और समाज में बौद्धिकों और जागरूक लोगों के इन अक्सर अल्पमत तबक़ों को ही जनतंत्र का नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) कहते हैं.

पश्चिमी समाजों की जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती गई, आम लोगों में शिक्षा और चेतना का प्रसार होता गया, उसी अनुपात में इस नागरिक समाज का भी, अर्थात अपेक्षाकृत चेतना संपन्न तबक़ों का भी लगातार विकास होता गया है. यह ग़रीबी और पिछड़ेपन के बहुमत वाले समाज के वृत्त से निकल कर समृद्ध और विकसित चेतना के समाज के नये वृत्त में प्रत्यावर्त्तन उन समाजों को एक पूरी तरह से भिन्न आधार पर स्थापित कर देता है, जिसकी पहले के समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. संसदीय लोकतंत्र के आंतरिक विकास के इस नये चरण में शासन की पूरी संरचना अनोखे ढंग से पूर्ण स्वतंत्र और स्वायत्त अनेक सांस्थानिक समुच्चय का नया रूप ले लेती है. आज जिस दिन अमेरिका का 'महाबली'समझा जाने वाला राष्ट्रपति चुन कर सत्ता संभालता है उसी दिन अमेरिकी प्रेस का बड़ा तबका उसके प्रति अपनी खुली शत्रुता की घोषणा करने से परहेज़ नहीं करता. और वहाँ का सुप्रीम कोर्ट उसके पहले आप्रवासन संबंधी प्रशासनिक फैसले को कानून सम्मत न मान कर खारिज करने में देरी नहीं लगाता. इसी का एक परिणाम यह अभी है कि नागरिक समाज और उसकी संस्थाओं के सामने सरकारी नौकरशाही अक्सर एकदम बौनी दिखाई देने लगती है.

ग्राम्शी जब फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि में ही इन समाजों में समाजवादी क्रांति की समस्याओं पर मनन कर रहे थे, उन्होंने जनतंत्र में इस बढ़ते हुए नागरिक समाज की उपस्थिति के सच को बहुत गहराई से समझा था . और इसीलिये, पश्चिमी समाजों में एक झटके में, किसी क्रांतिकारी प्रहार के जरिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की रूस की तरह की क्रांति को संभव नहीं पाया था. सचाई के उनके इसी अवबोध पर उनके प्रभुत्व (hegemony) के पूरे सिद्धांत की इमारत खड़ी है जिसमें झटके से होने वाली क्रांति और राजसत्ता पर क़ब्ज़े के बजाय वैचारिक संघर्ष की एक लंबी, समाज के नागरिक समाज पर विचारधारात्मक प्रभुत्व कायम करने की लड़ाई पर बल दिया गया था.

संसदीय जनतंत्र और नागरिक समाज के संबंधों की इस चर्चा की पृष्ठभूमि में जब हम अपने भारतीय जनतंत्र के यथार्थ को देखते हैयहाँ की स्थिति बेहद जटिल और पेचीदा दिखाई देने लगती है. सत्तर साल की आजादी के बीच से यहाँ भी समाज के ऐसे प्राय: सभी हिस्सों में, जिनमें हज़ारों सालों के बीच भी कभी शिक्षा और अधिकार-चेतना की रोशनी का प्रवेश नहीं हुआ था, शिक्षा का किंचित प्रवेश हुआ है और सभी समाजों का अपना एक बौद्धिक समुदाय भी पैदा हुआ है . कुल मिला कर देखने पर भारतीय समाज में ऐसे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके की एक बड़ी जमात को पाया जा सकता है, जो शायद संख्या की दृष्टि से दूसरे किसी भी देश के नागरिक समाज से बड़ी हो सकती है. लेकिन फिर भी, आबादी के अनुपात में, इसका विस्तार इतना कम है कि हम अपने समाज को पश्चिमी समाजों की तरह पूरी तरह से अधिकार चेतना से संपन्न नागरिक समाज नहीं कह सकते हैं. इसीलिये सरकार और नौकरशाही पर अपना निर्णायक दबाव बनाने की दृष्टि से यह अब भी जनतंत्र के बिल्कुल आदिम स्तर पर ही बना हुआ है जिसमें व्यापक जनता, जिसके मतों से सरकारें बना करती है, अपने ख़ुद के हितों के प्रति ही पूरी तरह से अचेत बनी हुई है.

इसीलिये हमारे यहाँ आज भी '30-'40के ज़माने तक के यूरोप की वे सारी परिस्थितियाँ मौजूद है जिसमें किसी भी प्रकार से राज सत्ता पर क़ब्ज़ा करके कोई भी शासक गिरोह समाज को मनमाने ढंग से चला सकता है. चुनावों में सांप्रदायिकता और जातिवाद की तरह की भीड़ की आदिम-चेतना की प्रमुखता का मायने यही है कि नये जनतांत्रिक नागरिक समाज में आदिम ग़ैर-जनतांत्रिक समाज के वृत्त का प्रत्यावर्त्तन नहीं हो पा रहा है. और इसीलिये हमारे यहाँ दुनिया में जातीय नफरत से किये जाने वाले जन-संहारों के इतने भयानक अनुभवों के बावजूद फासीवाद-नाज़ीवाद का ख़तरा एक सबसे ज्वलंत सचाई के तौर पर बना हुआ है.

यहीं पर हम फिर एक बार 'डे आफ्टर'के विषय को विचार के दायरे में लाना चाहते हैं . हमारी आजादी के बाद भारत का शासन जिन ताकतों ने संभाला उनके सामने पश्चिम के पूँजीवादी विकास और संसदीय राजनीति और जनतांत्रिक समाज का एक साफ ख़ाका था. सांप्रदायिकता के आधार पर बँटवारे के बावजूद चूँकि यह नेतृत्व सारी दुनिया में जातीय हिंसा के जघन्यतम रूपों के प्रति जागरूक था, इसने धर्म-निरपेक्षता, भाईचारा और सामाजिक न्याय के रास्ते पर तमाम स्तर पर सांस्थानिक विकास का एक सिलसिला शुरू किया . लेकिन इस नवोदित राष्ट्र के साथ जन्म से सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का जो रोग लग गया था, उससे मुक़ाबले के लिये शिक्षा और चेतना के विस्तार से जिस तेज़ी से नागरिक समाज का विकास करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया. वोट और भीड़ की राजनीति में यह एक सबसे जरूरी काम उपेक्षित रह गया.

आज तमाम राजनीतिक दलों में, जिनमें दक्षिणपंथियों के साथ ही वामपंथी और मध्यपंथी भी शामिल है, बौद्धिकता का महत्व दिन प्रतिदिन घटता चला गया है. भारत का नागरिक समाज आज राजनीतिक समर्थन से पूरी तरह से वंचित होने के कारण किसी भी समय से कहीं ज्यादा कमज़ोर और लुंजपुंज दिखाई देता है. और यही वजह है कि भारतीय मध्यवर्ग की सूरत पशुवत उपभोक्ता की तरह की ज्यादा दिखाई देने लगती है. शिक्षा और समृद्धि से  इनकी मानसिक चेतना का विकास न होने के कारण इनका एक हिस्सा सीधे तौर पर जनता के प्रति एक प्रकार की शत्रुता का भाव रखता है. वह फासीवादी ताकतों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है.

आज मोदी के नेतृत्व में जो लोग सत्ता पर आए है, उनके पास कोई प्रगतिशील भविष्य दृष्टि नहीं है. जनता के एक बड़े हिस्से का पिछड़ापन ही विरासत में मिली इनकी राजनीतिक पूँजी है.  इसीलिये केंद्र और अनेक राज्यों की सत्ता पर आ जाने के बावजूद जब भी ये 'आगे क्या?'की तरह के प्रश्न के सम्मुखीन होते हैं, ये पूरी तरह से ठिठक कर खड़े हो जाते हैं. इन्हें आगे भी गाय, गोबर, गो मूत्र'आदि से अधिक और कुछ नहीं दिखाई देता. ये सांप्रदायिक दंगों और पड़ौसियों से शत्रुता के आधार पर थोथे राष्ट्रवाद से आगे कुछ नहीं सोच पाते हैं. 'डे आफ्टर'के सवाल का कोई भी सकारात्मक समाधान जनतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक समाज के विस्तार से पूरे समाज के आधुनिकीकरण में निहित है. लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी में वे अपने ख़ुद के तात्विक विकास के अंत को देखते है.


यही वजह है कि मोदी-शाह-आरएसएस सिर्फ ये पाँच साल नहीं, वोट की तिकड़मों के जरिये भले आगे और भी कुछ सालों तक शासन में रह जाएँ, ये इस समाज को गाय, गोबर, गोमुत्र और सांप्रदायिक नफरत से अधिक और कुछ भी देने में असमर्थ है. सच्चे अर्थों में हमारे समाज के आधुनिकीकरण के लिये ये अपनी आत्माहुति के जरिये ही आगे का कोई रास्ता खोज पायेंगे. क्या गालियाँ बकने वाले ट्विटर हैंडलर्स के ज्ञान संदेश पर कान लगाये रखने वाले प्रधानमंत्री के लिये यह कभी भी संभव हो पायेगा ?

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अरुण माहेश्वरी (जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचकसामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार  

प्रकाशित पुस्तकें (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3)नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्मसंस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .


 संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेककोलकाता - 700064 
arunmaheshwari1951@gmail.

सबद भेद : मैत्री की मांग (मुक्तिबोध) : सुमन केशरी

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गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवंबर १९१७ : ११ सितंबर १९६४) ने कविता और आलोचना के साथ-साथ  कहानियाँ भी लिखी हैं. ‘काठ का सपना और ‘सतह से उठता आदमी’ उनके दो कहानी संग्रह हैं, ‘विपात्र’ शीर्षक से उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित है.

उनके कवि और आलोचक पर काफी कुछ लिखा गया है. पर उनके कथाकार को अभी और विवेचित करने की आवश्यकता बनी हुई है.

उन्हें स्मरण करते हुए उनकी कहानी  ‘मैत्री की माँग’ पर लेखिका सुमन केशरी का यह आलेख. 
इस कहानी में कहानी की पात्रा को कहानी के बाहर से एक स्त्री सचेत ढंग से देखती– परखती है. 
मैत्री की मांग क्या आज भी एक असंभव मांग है.  






स्त्री की ओर से एक असंभव-सी माँग                  
(परकाया प्रवेश की अन्यतम कोशिश करती मुक्तिबोध की कहानी- मैत्री की माँग’ पर कुछ बातें)
सुमन केशरी 





1984 में पहली बार गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी मैत्री की माँग’ पढ़ी थी. पढ़ कर मन जाने कैसा तो हो गया. उसके बाद कुछ नहीं तो पाँच-छह बार तो पढ़ ही ली होगी यह कहानी.
पर जब भी इस कहानी को पढ़ा तो कानों में गूंजने लगा यह गीत- ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू, हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्जाम न दो’.(बस ये ही शब्द, यही पंक्ति- हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्जाम न दो.)
क्यों पढ़ती हूँ मैं इस कहानी- मैत्री की मांग’- को यूबार बार?

क्या इसीलिए तो नहीं कि यह कहानी एक स्त्री के भावों को बहुत ईमानदारी से गूंथती है. क्या यह सच नहीं कि कितनी ही बार स्त्री, किसी पुरूष से आपसी लिंग-भेद से मुक्त ऐसी मित्रता करना चाहती है जो दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच होती है, बिना लैंगिक आकर्षण के. ऐसी मित्रता जो ज्ञान-विज्ञान की बातों, क्रांति-आंदोलन से जुड़ी मुलाकातों वाली, गप्पें लगाने वाली, दुख-सुख साझा करने वाली एक खालिस दोस्ती हो और घर-समाज भी जिसे दोस्ती भर माने, उस पर रिश्ते न थोपे न रिश्तों से उसे परिभाषित करने को कहे. ऐसी दोस्ती जो हवा के चलने, नदी के बहने, सांस लेने जैसी प्रकृत हो, उन्मुक्त हो. सरल-सहज हो. वैसी ही जैसी आमतौर से दो पुरूषों या दो स्त्रियों में होती है.
स्त्री-पुरूष के बीच ऐसी दोस्ती क्या असंभव है?
क्या मैत्री की मांग’  की नायिका सुशीला की मांग असंभव की मांग है?

एक रूप की प्रधानता हो जाने से अक्सरहा व्यक्ति के दूसरे रूप नेपथ्य में चले जाते हैं और वे वहीं दब कर, छिप कर रह जाते हैं. जितनी बार भी मैंने मैत्री की मांग’  को पढ़ा उतनी बार ही रंगमंच से संबंधित यह रूपक मेरे सामने प्रकट हो गया. कहानी फिर भी छिपी रही नेपथ्य के किसी अंधेरे कोने में.

मुक्तिबोध पर बात करते हुए हम उनके राजनीतिक तेवर की रचनाओं पर ही चर्चा में उलझ जाते हैं. निश्चित रूप से उनकी राजनीतिक चेतना बहुत प्रखर है और साहित्य की विविध विधाओं में उसका प्रकटन भी बहुत प्रभावी ढंग से हुआ है. अंधेरे में’ की छाया उनके साहित्य के मूल्यांकन में दीख ही पड़ती है, परंतु मुक्तिबोध जैसे संवेदनशील प्रखर व्यक्ति की दृष्टि सिर्फ प्रत्यक्ष राजनीतिक मुद्दों पर ही सीमित रहती तो उनमें संवेदना की वो गहराई न दीख पड़ती जो बहुत साफ है. और तो और अगर राजनीतिक शब्दावली में ही देखें तो  आत्मीय- पारिवारिक संबंधों में निहित पितृसत्तात्मक-सामंती सोच की राजनीति से वे भला तटस्थ कैसे रह सकते थे. जिस कवि-लेखक को कदम-कदम पर चौराहे दिखते हो बांहें फैलाए, वह स्त्री-पुरूष संबंधों के एकाधिक रूपों पर कलम न चलाए यह कैसे हो सकता था भला?
मैत्री की मांग’ कुल ग्यारह पेज की छोटी-सी कहानी है. 1942 से 1947  के बीच लिखी यह कहानी स्त्री मन की सरल-सहज भावनाओं और चाहतों को बुनती है. यह स्त्री-पुरूष संबंधों की पड़ताल करती कहानी है. कोई कह सकता है कि यहाँ भी विवाहेतर संबंध की संभावनाओं को उकेरा गया है पर अगर औरत की नजर से कहानी पढ़ें तो ये संबंध प्रेम-त्रिकोण के संबंध नहीं है. ये दाम्पत्य को नकार कर प्रेमी के साथ संबंध बनाने और उसके मजे लेने वाले संबंध भी नहीं है. सुशीला के लिए यह पति से इतर किसी अन्य पुरूष से सहज मैत्री’ का संबंध बनाने की मांग है. 

मुक्तिबोध ‘सहज मैत्री’ पद का प्रयोग बार बार करते हैं- सुशीला की ओर से. ध्यान करें सुशीला की ओर से- अन्य किसी पात्र की ओर से नहीं. क्योंकि यह सुशीला के मन की सोच है. बाकियों के लिए तो स्त्री-पुरूष के बीच बिना किसी नाम के, मैत्री असंभव ही है. यहाँ तक कि उस व्यक्ति- माधवराव के लिए भी,जिससे सुशीला मैत्री रखना चाहती है. वह भी इस तरह के मैत्री भाव को समझ नहीं पाता. कहानी के तीन मुख्य पात्र हैं- सुशीला, रामराव और माधवराव. जैसा कि ऊपर कहा गया है, सुशीला वह स्त्री है जिसके इर्द-गिर्द यह कहानी गूंथी गई है. रामराव सुशीला का पति है और माधवराव, इलाहाबाद से उस कस्बे में जहाँ सुशीला अपने पति और सास के साथ रहती है, कुछ दिनों के लिए आया वह व्यक्ति है जिससे मैत्री करने के लिए सुशीला का मन आतुर है.  सुशीला अपने लिए  एक खालिस मित्र चाहती है जिससे वह बराबरी से बात कर सके. जो उसका स्वामी न हो और जिसके प्रति गृहस्थी से, संस्कार से, देह से जुड़े उसके कर्तव्य न हों. जो रामराव की तरह उसे मायके जाने से मना न कर दे. जो माधवराव से उसके मिलने-जुलने से परेशान न हो. वह तो अपने पति रामराव, अपनी सास और कुएं  वाली अपनी सखी चंपा से भी इसकी अपेक्षा करती है कि वे सहज समझ लें कि माधवराव के प्रति उसका रुझान एक व्यक्ति के प्रति उसका रुझान है

यह स्त्री पुरूष का लैंगिक आकर्षण नहीं है. सुशीला की सास और चंपा वे दो अन्य चरित्र हैं, जो अपनी उपस्थिति से ही जीवन के ताने बाने को प्रभावित करते हैं. वे सीधे कुछ नहीं कहते पर उनकी सोच, उसी परंपरागत सोच को मजबूत करती सोच है, जिनके लिए स्त्री और पुरूष दो अलग अलग दुनिया के बाशिंदे हैं. वे बृहतर समाज के प्रतिनिधि हैं. उनके लिए स्त्री और पुरूष के बीच केवल सामाजिक खांचों के भीतर पनप और अँट सकने वालेसंबंध- यानी पिता, भाई, पति, पुत्र और तद्निर्भर संबंधही जायज हैं. कोई स्त्री इससे अधिक की माँग अपने तईं करे, यह वे सोच भी नहीं सकते.

सच कहें तो कहानी मुख्यतः सुशीला की ही कहानी है, उसके जीवन और उसके मन के ताने-बाने की कहानी. रामराव, सुशीला का पति होने को कारण उसके जीवन को निर्धारित करने वाला, उसे नियमित-व्यवस्थित करने का अधिकार रखने वाला पुरूष है. माधवराव वह व्यक्ति है जिसके प्रति सुशीला का आकर्षण तो मात्र उस व्यक्ति की सज्जनता के चारों ओर, विद्या, सम्पन्नता और शिष्टता के तेजोवलय के प्रति था..”और यह भी कि सुशीला के कल्पना-प्रिय मन ने उस व्यक्ति के आस-पास चक्कर काटा था. कारण?
कारण पर बात करते हुए कहानीकार एकदम साफ़ है- वह मानो सुशीला के मन को, गहरे पैठ कर देख-पढ़ पा रहा है.
मुक्तिबोध कहते हैं- कारण, कारण- सुशीला से न पूछो. वह स्वयं नहीं जानती. पर क्या वह रामराव के मूर्त सजीव आधार और आध्यात्मिक आश्रय को मात्र फूहड़पन में त्यागने का संकल्प कर सकती है? संकल्प क्या, कल्पना भी कर सकती है? अगर लेखक स्वयं सुशीला को जाकर यह पूछे तो एक जोरदार चाँटे के अलावा और कुछ न मिलेगा. ...वह जान न सकी थी कि उस व्यक्ति (माधवराव) के प्रति उसका जो आकर्षण है वह रामराव के पतित्व और अपने पत्नीत्व के आधार को कहीं भी धक्का नहीं पहुँचाता.
सुशीला का मन साफ है कि वह माधवराव से मैत्री करना चाहती है ताकी वह अपनी समझ का विस्तार कर सके. जान सके इलाहाबाद और अन्य जगहों के बारे में. अपनी दैनंदिन निर्धनता को भूल सके.इसीलिए तोसुशीला का कल्पना-प्रिय मन उस व्यक्ति के आस-पास चक्कर काटना चाह रहा था. कहानी कहती है कि बालटी को ऊपर खींचते समय भी वह (सुशीला का) मुख दो खंभों के बीच बार बार दीख जाता था. परंतु माधवराव को फिर अंतिम बार उस स्तब्ध पूर्ण मुख (पर) दो नारी आँखें अपनी सहज मैत्री का भाव कह गईं.... सुशीला की आँखों में ऐसा कुछ न था जिसका लज्जा-लावण्य से कोई संबंध हो. फिर भी उसमें स्तब्ध मांग थी. एक बूझ थी कि तुम कौन हो जो यहाँ चले आए हो इलाहाबाद से...सुशीला की आँखों में कल्पनाएँ ही कल्पनाएं (छा जाती) थीं.
क्यों नहीं था सुशीला को कोई संकोच क्योंकि वह  खुद को और  माधवराव को क्रमशः स्त्री-पुरूष...नर-मादा की तरह नहीं बल्कि व्यक्तियों की तरह देख रही थी. यह बात न तो चंपा को समझ आ सकती है न रामराव नामक सुशीला के पति को, जिनके लिए स्त्री-पुरूष संबंध की केवल एक व्याख्या हो सकती है और वह है शरीर और संबंधों के दायरे के भीतर !
और जब अंततः सुशीला और माधवराव एक संध्या खिड़की के आर-पार से बात करते हैं तो उससे बात करने के बाद सुशीला के हृदय में मीठे आँसू के सौ-सौ- फ़व्वारे फूटना चाहने लगे. पर इसे विडंबना ही कहें या कि पुरुष मन को ठीक-ठीक बूझती, लेखक की गहरी अंतर्दृष्टि कि स्वयं माधवराव भी इस परंपरागत सोच से विलग नहीं है. वह जो कादंबरी देता है, सुशीला के पढ़ने के लिए उसमें सुशीला के शब्दों में  ..पर उस स्त्री केइतनेथे पर मित्र तो एक भी  न था! सुशीला ने मित्र शब्द इतने जोर से कहा कि माधवराव समझते हुए भी कुछ नहीं समझा. सुशीला के चेहरे से उसे ऐसा लगा मानो वह पूछ रही हो, तुम मेरे मित्र हो सकते हो?
ये इतने क्या थे? पुरूष थे- प्रेमी”?? के रूप में या शरीर के रूप में..
माधवराव ने देखा था कि मैत्री की माँग करने वाली सुशीला की आँखों में संकोच का लेश भी न था, यानी उसकी मैत्री की माँग’ एक अलग किस्म की माँग थी, पर वह उसे न बूझ सका. वह उसके लिए वही कादंबरी लाया जिसमें एक स्त्री के कई पुरूषथे पर मित्र एक न था!
मित्र माने जिससे दिल खोल कर बिना किसी अपेक्षा के बात की जा सके. अपेक्षा- संबंधों की ..सामाजिक ताने-बाने के मर्यादा की.
सुशीला को मित्र की दरकार थी. जिससे सुशीला हर तरह के सवाल नदी के समान बेरोक होकर पूछ सके.
मैत्री की मांग’ कहानी की एक विशेषता यह भी है कि मन के भीतर की भावनाएँऔर बाहर के परिवेश को मुक्तिबोध साथ साथ लेकर चलते हैं. कहानी शुरू होती है सुशीला के जीवन के बंदरंग होते चले जाने से, जिसमें उस परिवार की विपन्नता से लेकर बाहर मैदान के धूसरपन तक पर लेखक की सजग दृष्टि है- झखंड बिरवे, कँटीली झाड़ियाँ, जो जमीन से एक फुट भी ऊपर नहीं उठ पाती हैं, तपती पीली जमीन के नंगे विस्तार को ढांपने के बजाय उग्र रूप से उघाड़ रही हैं.और ऐसे में बाल-बच्चे रहित सुशीला का अलोनाजीवन, जिसे उसका परिवेश और उभार कर रख देता है- सुशीला ने आँखें फैलाकर कचहरी की गेरुई इमारतों की ओर देखा. एक निसंग एकस्वरता सब दूर काँप रही थी. आजकल सुशीला को अपना जीवन अलोना अलोना-सा लग रहा है.और इस स्त्री की उम्र है मात्र उन्नीस साल! और इस उन्नीस साल की युवती सुशीला का हृदय-पथ समय के नालदार जूतों और उसकी ठोकरों से घिसकर घनी निर्जीव धूल की एकरूपता में परिवर्तित हो गया है. अब उसके हृदय में कोई आनंद, कोई मोह, कोई स्वप्न, ऐसा कि जिसको वह अपना कह सके, नहीं रहा.
कभी कभी लगता है कि पहले, खासतौर से स्वतंत्रता पूर्व और उसके कुछ सालों बाद तक, भारत की स्त्रियाँ कितनी जल्दी बड़ी हो जाती थीं, उनके बचपन और जवानी का वय कितना अल्प रहा करता होगा. उन्नीस साल की सुशीला कई संतानों को धारण कर चुकी है और उसकी एक संतान तो दो साल जीकर और अनेक कष्ट देकर और पाकर काल-कलवित हो चुकी है. देखें तो, यह कहानी उस काल के भारत में स्त्रियों की सामाजिक अवस्था, उनके स्वास्थ्य की दारुण स्थिति पर भी कमेंट करने वाली कहानी है. उस समय और बाद में भी और सच कहें तो आज तक, निम्नमध्य वर्गीय पर-निर्भर स्त्रियों का जीवन कैसा अलोना-बेरंग जीवन है, जिसमें वे कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले सकतीं बावजूद इसके कि बकौल कथाकार, रामराव और सुशीला दोनों के जीवन में आधुनिकता प्रवेश कर गई थी. और आज तो हम आधुनिक क्या उत्तर आधुनिकता के भी उत्तर युग में हैं.पर सुशीला और आज की निम्न-वर्ग की पर-निर्भर स्त्रियों के जीवन क्रम में इस दृष्टि से कोई खास फर्क नहीं आया.
तो मुक्तिबोध पूरी कहानी में लगातार बाहरी वातावरण और सुशीला के मन के रंग को गोया समानांतर पेंट करते चलते हैं. माधवराव से मुलाकात के बाद सुशीला का मन उल्लसित है, तो माधवराव को शाम के समय सफेद पैंट शर्ट में आते देख न केवल आसमान बल्कि पेड़ भी सधन और रंगीन हो उठते  हैं.  औरसुशीला और माधवराव की पहली बातचीत के बाद सांझ आकाश में खिल उठती है.
इसे ऑब्जेक्टिव को-रिलेटिव ही कहेंगे.
पर सुशीला की यह मैत्री परवान नहीं चढ़ती. रामराव को सुशीला के मुँह से माधवराव के बारे में बातचीत और उसकी प्रशंसा रास नहीं आती-रात को सुशीला रामराव के पास जब माधवराव के बारे में अधिक बात करना चाहने लगी, तो उसके पति को ताव आ गया.... सुशीला समझी कि रामराव उसे माधवराव से बात करने से मना कर रहे हैं, जो कि समाज-मर्यादानुकूल पति का कर्तव्य है.चंपा को भी उनका यूं मिलना कुछ सुहाता नहीं. कहानी में केवल एक बार रामराव, सुशीला को यूँ खुलेआम माधवराव से मिलने-जुलने को टोकता है. सीधे-सीधे मना तब भी नहीं करता. पर संस्कार का दबाव हम सबके चित्त में इतना होता है कि सुशीला को यह बात समझ में आ जाती है कि पति को उसका माधवराव से मिलना पसंद नहीं. खुद रामराव भी तो वापस जाते हुए मिलने आए माधवराव को जल्द से जल्द रवाना कर देने को आतुर है. पितृसत्तात्मक समाज इसी तरह संस्कार के स्तर पर स्त्रियों के कदम रोकता है. हर बात को शब्द नहीं दिया जाता, जेस्चर ही काफी हैं. मुक्तिबोध इसे बखूबी व्यक्त करते हैं.  
इस तरह सुशीला की मैत्री की सहज सरल मांग स्त्री-पुरूष आकर्षण के भार तले दब जाती है, जिसे सुशीला भारी मन से ही सही स्वीकार कर लेती है और खुद के जीवन को और अंधकार से भर देती है. वह उस समय कुएँ पर जाना छोड़ देती है, जबकि माधवराव आता जाता था. जो जो माधवराव के फुरसत के समय थे तब सुशीला जानबूझकर काम में अधिक व्यस्त हो जाती है. यही नहीं जब माधवराव वापस जाने के पहले भी उसके घर पर रामराव (?) से मिलने आता है तो भी सुशीला की छाया तक को वह नहीं देख पाता, उसके कपड़ों की सरसराहट को भी नहीं सुन पाता. रामराव को हड़बड़ी है कि माधवराव जल्दी चला जाए ताकी उसकी बस न निकल जाए ,मानो कहीं वह फिर बस्ती में ही रुक न जाए, क्योंकि पहले भी वह अपना जाना टाल चुका है. पुरूष मन के लिए जाने की बात टालना अलग मायने रखता है पर स्त्री मन के लिए वह पुरुष की चंचलवृत्ति का सूचक है. सुशीला को खेदमय आश्चर्य होता है कि पुरुष कैसे होते हैं जो अपना वचन नहीं रख सकते.यानी अगर फलाँ तारीख को जाने के लिए सोच लिया तो चले जाओ. कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध को स्त्री मन की भी गहरी समझ है. आमतौर पर सुशीला सरीखी साफ समझ की स्त्रियाँ तीन-तेरह में नहीं पड़तीं.
पर जो स्त्री माधवराव की मौजूदगी में अपनी झलक तक नहीं दिखलाती, क्योंकि उसे इस बात का क्रोध है कि उसका पति और जीवनसाथी उसकी मैत्री की मांग’ का अर्थ न बूझ पाया और उसने कह दिया था कि माधवराव से इतना अधिक बोलना जन-लज्जा के कुछ प्रतिकूल है.वही सुशीला एक बार फिर अपनी चाहत को अभिव्यक्त करने से खुद को रोक नहीं पाती. यह वह पल है जब मन की बात को न कह देना अपने और उस व्यक्ति के साथ अन्याय होता जिससे उसने मैत्री की मांग’ की थी, उसके दिए कादंबरी के अभिप्राय से अलगाते हुए मैत्री की मांग-और क्या आज्ञा है?कह कर माधवराव ने अकस्मात् सुशीला का ठंडा गीला हाथ अपने हाथ में ले लिया. उस निर्जन में सूर्य की लाल किरणें उन दोनों के बीच में से कुएँ पर छा रही थीं.
सुशीला ने हाथ तुरंत खींच लिया. कहा, दी हुई कादम्बरी पढ़ ली.
अच्छी लगी?माधवराव ने पूछा.
अच्छी है, पर उस स्त्री केइतनेथे पर मित्र तो एक भी नहीं था!
सुशीला नेमित्रशब्द इतने जोर से कहा कि माधवराव समझते हुए भी कुछ नहीं समझा. सुशीला के चेहरे से उसे लगा मानो वह पूछ रही हो.”तुम मेरे मित्र हो सकते हो?
(यह सब साभिप्राय दुबारा लिखा गया है.)
इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में कहानी का अंतिम दृष्य और मार्मिक हो जाता है. दरअसल इसी बातचीत के दौरान चंपा उन्हें देख लेती है और इसी के बाद रामराव, सुशीला को माधवराव से ज्यादा बातचीत करने को मना करता है.
कहानी के अंत में, यानी माधवराव के चले जाने के बादयूँ तो सड़क किनारे खड़ा पीपल सूने में अपनी डाल हिला विदा करता है किंतु उसके ठीक पहले-तांगे के चल देने के बाद माधवराव यकायक देखता है कि रामराव के रसोईघर की काली खिड़की खुली, और वही स्तब्ध पूर्णमुख, आँखों में न्याय्य मैत्री की माँग करने वाला करुण दुर्दम चेहरा, वही स्तब्ध मूर्त भाव.
माधवराव के हृदय की मानो खड़ाखड़-खड़ाखड़ (खिड़कियाँ) खुल गईं और एक बेरौक प्रकाश का तूफान अंदर घुस गया और छाने लगा.
यहाँन्याय्यशब्द का प्रयोग मानीखेज है, जिसे रेखांकित किया जाना आवश्यक है. यह कवि-अनुकूल प्रयोग है- सटीक और मंतव्य को एकदम व्यंजित करता हुआ.
क्या इसका अर्थ यह मानें कि जाते हुए माधवराव को सुशीला की मैत्री का मर्म समझ में आता है और उसके हृदय की खिड़कियाँ खड़ाखड़ खड़ाखड़ खुल जाती हैं और माँग की न्याय्यता उसके पल्ले पड़ जाती है...या फिर... वह अभी भी सुशीला को एक स्त्री के रूप में ही देख रहा है, एक ऐसी स्त्री जिसे वह छू सके. मुक्तिबोध सुशीला और माधवराव के दो बार हुए संक्षिप्त मुलाकात में दोनों बार माधवराव की स्त्री को छूने की पुरुषोचित इच्छा को रेखांकित करना नहीं भूलते और इस बात को भी कि सुशीला अपना हाथ छुड़ा लेती है...वह स्पर्श से रिश्ते को दूर रखना चाहती है (हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो...) मुक्तिबोध ऐसा करते हुए इस पर गोया बल देना चाहते हैं कि सुशीला को एक दोस्त की दरकार थी और माधवराव भी अंततः एक पुरूष निकला. पर कहानी के अंत में ... वापस जाते हुए माधवराव के हृदय की खिड़कियाँ खुलने और बेरोकप्रकाश छाने का अर्थ...क्या मुक्तिबोध का नायक, स्त्री मन को बूझ ले गया...यह प्रश्न मन में बना रह जाता है...
मैत्री की मांगकहानी की प्रासंगिकता इस तथ्य में भी है कि जिस निखालिस मैत्री के लिए सुशीला बीसवीं सदी के चौथे दशक में लालायित थी, किसी हद तक स्त्री-पुरूष की वह निखालिस मैत्री आज भी एक मृगमरीचिका ही है !
तो क्या औरत के मन की बात कि...हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो...मन में ही रह गई या वह गूंजी माधवराव के मन में भी...
क्या हम यह कह सकते हैं?
स्त्री-पुरूष की मैत्री को स्त्री की नजर से देखने वाले मुक्तिबोध सचमुच में एक बड़े रचनाकार हैं...प्रासंगिक रचनाकार हैं
परकाया प्रवेश की बेहतरीन उदाहरण है, ‘मैत्री की मांग’ नामक यह कहानी और बेहद समसामयिक भी है और देशकाल की सीमा को लांघने वाली भी

शुक्रिया मुक्तिबोध स्त्री के मन की तहों को यूँ साफ़ साफ़ बूझने के लिए.
_________________


सुमन केशरी 
sumankeshari@gmail.com

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