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परख : नरेन्द्र पुण्डरीक : लोकचेतना और इतिहासबोध : सुशील कुमार
















समकालीन महत्वपूर्ण कवि नरेन्द्र पुण्डरीक के चार कविता संग्रह – ‘नगें पाँव का रास्ता’ (१९९२), ‘सातों आकाशों की लाडली’ (२०००), ‘इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया’ (२०१४) तथा ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ (२०१४) प्रकाशित हैं. नरेन्द्र पुण्डरीक ने केदारनाथ अग्रवाल के साहित्य पर आधारित नौ पुस्तकों का संपादन भी किया है.

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में लोकचेतना और उनके इतिहास बोध पर सुशील कुमार का यह आलेख हिंदी कविता की प्रचलित प्रगतिवादी सौन्दर्य चेतना से मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि के बहस का परिणाम है.     





नरेन्द्र पुण्डरीक : लोकचेतना और इतिहासबोध   
सुशील कुमार



रेन्द्र पुण्डरीक नब्बे के दशक और इक्कीसवीं सदी के एक ऐसे ही वरिष्ठ लोकधर्मी कवि हैं जिनकी कविताओं के लोक का द्वन्द्व और संघर्ष उनके सच्चे "इतिहास-बोध"से पैदा हुआ है. वे केदारबाबू की धरती बांदा (ऊ.प्र.) के रहने वाले हैं. उन्होंने न केवल केदारबाबू की काव्य परम्परा को एक नई शक्ल और शिल्प दिया है, बल्कि उसका बहुत प्रसन्न विकास भी किया है.

यह देखने वाली बात है कि कविता में बिना इतिहास-बोध के लोकचेतना आ नहीं सकती. तब वह लोक के बजाए फोक (folk) की चेतना हो जाती है. इतिहास-बोध ही कवि के अंदर वर्तमान परिवेश के प्रति द्वन्द्व को जन्म देता है. वर्तमान और भूत के इन्हीं अनुभवों का संस्कार नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में पाया जाता है. आइए, नरेन्द्र जी की कविताओं के इतिहास बोध को समझने के लिए इनकी एक कविता 'घर मर जाते हैं'देखते हैं -

"कितना सच है
महमूद दरवेश का यह कहना
जब रहने वाले कहीं और चले जाते हैं तो
घर मर जाते हैं.

मैं सोच रहा हूँ
ऐसे ही बिना किसी युध्द के
एक भी कतरा खूंन का गिराये
हमने छोड़ दिया
मरने के लिए घर को.

मुझे लगता है जीवित नहीं बचे हम
उसी दिन से शुरु हो गया था
टुकड़ों-टुकड़ों में हमारा मरना,

न यहां बेरुत है
न इज़़राइल
न ताशकन्द
न तेहरान
न बगदाद
पर चालू है घरों का मरना
बिना टूटे दीवारें उसांसें लेती हैं
बंद ताले लगें दरवाजों को देख
बिल्लियां देती हैं बद दुआयें
कुत्ते नाम को लेकर रोतें हैं
जब घर मरते हैं.

युध्द से लड़े जूझे घरों में
लोग लौट आते हैं
हाथों से पोछते हुये
बन्द खुले किवाड़ों के आंसू,

जिन घरों को दीवालें
मानकर छोड़ दिया जाता है
उन घरों में कभी नहीं लौटते लोग
कितनी भयानक होती है घर की मौत
छूटते घर की गोहार सुन
सबसे पहले उसकी दीवारें हदसियाती हैं
जिनसे कभी तनी थी छाती."

इस कविता में घर केवल घर नहीं, यह जितनी संज्ञा है उतना ही विशेषण. जितना अर्थगर्भी प्रतीकों का समुच्चय  है, उतना ही सघन बिम्बों का सपुंजन. घर के मरने की समाजशास्त्रीय विवेचना हमें  विकसित होती मानव सभ्यता के उन जायज सवालों से जोड़ती है जो उसके छीजते सुख-संस्कार, सौम्यता, आदि के साथ विघटित होती मानवीयता को व्यापकता से प्रदर्शित करती है और हमारा मुठभेड़ कराती है. बिना युद्ध किए , बिना एक कतरा खून बहाए हम घर को मरने के लिए छोड़ कर कहीं चले जाते हैं. यह कितनी बड़ी सामाजिक त्रासदी है! विस्थापन की यह प्रक्रिया निरन्तर हमारे जीवन में चलता रहता है. हम कथित विकास के अगले  पायदान पर कदम रखते जाते हैं. घर को छोड़ने का विकास फल  यह होता है कि टुकड़ों-टुकड़ों में हमारे मरने का सिलसिला चालू हो जाता है .

आप महसूस करेंगे कि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में सघन ऐन्द्रिक बोध है जिसमें उनकी दैनंदिन मुहावरे का भी बड़ा महत्व है. यह मुहावरे कविता में आकर समकालीन युगबोध और सामाजिक चेतना को बड़े सलीके से प्रकट करते हैं-

'बिना टूटे दीवारें उसांसें लेती हैं
बंद ताले लगे दरवाजों को देख
बिल्लियां देती हैं बददुआयें
कुत्ते नाम को लेकर रोतें हैं
जब घर मरते हैं'

देखने वाली बात है कि इन पंक्तियों में घर का मानवीयकरण कवि ने बड़े ही काव्यकौशल से किया है. दीवारों के उसाँसे भरना,  बिल्लियों की बद दुआएँ और नाम लेकर कुत्तों का रोना - इन मुहावरों ने घर के मृत्युशोक की सम्वेदना को न केवल आंखों के सामने साक्षात किया है, बल्कि वह  स्थानिकता के रंग-ढंग में ढलकर इतनी सजीव हो उठी है कि परिवार नामक संस्था के टूटने की व्यथा को अपनी पूरी सामाजिक भंगिमा और दारुणता में कवि व्यक्त करता है.  महानगरीय सुख-सुविधाओं की मृग-मरीचिका में हम अपने गांव-घर से पलायन को मजबूर हैं. यह सामाजिकार्थिक करुण दृश्य आज हर सभ्यता का सच बन गया है जो कविता में कवि की अनुभूति को वैश्विक बनाता है.

कह सकते हैं कि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं का इतिहास बोध उसकी इतिवृत्तात्मकता से मिलकर एक अपूर्व नाटकीय संवेग (मोमेंटम) पैदा करता है. यह लोकचेतना का नवीन आयाम है जिसे उनकी प्रायः हर कविता में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है.

कवि जब कविता में कोई कथाक्रम रचता है तो वहां इतिहास-बोध की बहुत जरूरत होती है. यही इतिहास-बोध उसे युगबोध में बदलता है वरना कविता केवल समय का बयान भर बनकर रह जाती है. इस फन में नरेन्द्र का कवि बहुत माहिर हैं. वह कविता में कथाक्रम रचते हुए उसे विष्णु खरे की कविताओं जैसी बोझिल, लद्धड़ गद्य कविता की सीमा तक नहीं जाते. उनमें लय और कला-सौष्ठव का पूरा ध्यान रखते हैं.

नरेन्द्र जी की एक कविता है - 'पढ़ानें वाले मास्टर गद्दार थे'.शीर्षक जैसा है, वैसा उसका भाव नहीं. यह शीर्षक की आकर्षक अभिव्यंजना है,  समय की विद्रूपता पर प्रहार है.  मास्टर गद्दार थे, मतलब समय की पहचान की शिक्षा उसने विद्यार्थियों नहीं दी थी, बल्कि आने वाले समय की विद्रूपता की समझ सभ्यता के निर्मित मनुष्यों में गौण-क्षीण हो गई थी जो इस कविता का मुख्य प्रेय है. इसे बिगड़ते समय पर एक  करारा चोट के तौर पर देखा जा सकता है. इसकी कुछ पंक्तियों से कवि की इतिवृत्तात्मक बुद्धि  को कवि की शैली में समझा जाना चाहिए -

"यह वह समय था
जो हम देखते थे वह हमें बनाता भी था"

_

"कालेज से निकल कर जब हम
बाहर आये तो देखा कि
बेराजगारों की यह लाइन और लम्बी हो चुकी थी
जहां मैं अपने साथियों सहित
निचाट लपलपाती धूप में खड़ा था
निचाट धूप में खडे़ हुये
मुझे पहली बार लगा कि
जो किताबों में पढ़कर आये थे
वह एक धोखा था और
पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे
जो लिखे को उल्था करते हुये
हमें कभी समय की इस धूप के बारे में नहीं बताया था
जो हमारें सपनों के रंगों को सुखाने के लिए
बाहर तैयार हो रही थी."

पूरी कविता इतिहास बोध से युगीन तत्वों का सत्व ग्रहण करती है और उसे काव्यात्मक कलेवर में रचती हुई उस इतिवृत्ति में खुलती है जिसका प्रसार लोक के उन नवयुवकों की बेरोजगारी के सामयिक चेतना से होता है जो आज का कटु सत्य है, जिसकी थाह कवि ने चेतस ऐन्द्रिक राह से गुजरकर ली है. बड़ी बात यह है कि आज की गद्य कविता की तरह यह प्रयोजनहीन और नीरस नहीं. साथ ही कथानकों में न तो शब्दों की वाचालता है, न भावों का फूहड़पन. कविता की इतिवृत्तात्मक शैली बोलचाल की भाषा का वरन करती हुई कवि की ऐन्द्रिक सजगता के साथ उसके लोकमन को समय की गहनता में व्यक्त करती है.

इसलिए नरेन्द्र पुण्डरीक के कवि का इतिहास-बोध जिन युगीन समस्याओं से कविता में टकराता और रचनाव्यूह की उत्पत्ति करता है,वह उनकी प्रखर इंद्रियबोधात्मक काव्य-मेधा के कारण सम्भव हुआ जान पड़ता है. इनका लोक द्वन्द्व जीवन का लोकद्वंद्व है जिसमें युगीन चेतना का संस्कार बहुत सलीके से फलित हुआ देखा जा सकता है.

हमने प्रायः उनकी सभी कविताओं में देखा है कि उनकी कविताओं में इतिहास-बोध का जो तत्व है, वह युग-बोध का प्रतिनिधित्व करता है. इसी इतिवृत्तात्मकता और गहन जीवनानुभव के गुण के कारण समकालीन लोकधर्मी कविताओं की दुनिया में ये कविताएँ अपनी एक अलग पहचान बनाती हैं.

अब मैं उनकी कविताओं की जनपक्षधरता की बात करूंगा कि जन का पक्ष लेते हुए वह कलावादी कविताओं से कैसे अलग है. जब तक कवि का ध्यान कविता के ‘कंटेन्ट’ पर न होकर उसकी कला पर होता है, तब तक उसकी कविताएं जन का पक्ष  नहीं ले सकती क्योंकि उसमें कवि का श्रम कविताओं के कंटेन्ट पर जाने के बजाए उसकी कला पर जाता है. कवि के अंदर यह धारणा और पसीना कहीं न कहीं उसके भीतर गुप्त पूंजी की धारणाओं और उसके स्वार्थगत सुख-स्वप्न से फलित होता है. इसी कारण कलावादी कवि की आत्मा अपने कविता-कर्म को निरपेक्ष सामाजिक धर्म मानने से चूक जाती है, गोया कि वह व्यक्तिगत यशोगान के लिए कला की ओर मुड़ती है. उसकी इस लिप्सा में बाजार उसका पूर्ण सहयोग करता है. बाजार का सम्पूर्ण अस्तित्व ही संप्रति जीवन-जगत के उन क्रिया-व्यापारों से साबका रखता है जो मनुष्य की हर कला, चिंतन और अंतरंगता को बेच सके. इनमें प्रेम सहित वे सारी चीजें शामिल हैं जो बाजार की वस्तु बन और बिक सके. पर यह भी उतना ही सच है कि सच्ची कला और कविता सदैव बाजार के विरोध में अभिव्यक्त होती रही है. उसका जुड़ाव मनुष्य के हृदय से हैं, उसके खालिस मन से नहीं. वह मनुष्य की भावनाओं पर कभी बलाघात नहीं करता, बल्कि उसे रचता और समृद्ध करता है. इसलिए बाजार उन भावनाओं का तिरस्कार करता है.

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ अपने समय का जो लोक रच रही हैं , वह बाजार के विरुद्ध खड़ी है और जन के पक्ष में वकालत करती है, उसमें कला या फैटेसी का कोई आग्रह नहीं. कवि से कला का जो क्षण अनजाने में छूट जाता है, वह ही उनकी कविता में कला के रूप में प्रकट होता है. इसे ही हम कला हीन कला (artless art) कहते हैं जो जनवादी कविता को द्युति प्रदान करती है. 

कविता में जनपक्ष से उसके कलापक्ष की तुलना करने के लिए हम यहाँ एक कलावादी कवि उदय प्रकाश की कविता ‘राजधानी में बैल’ सीरीज से लिखी छः कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन नरेन्द्र पुण्डरीक की “लाली” की कविताओं से करना चाहते हैं. लाली नरेन्द्र जी के बैल का नाम है.  उदय प्रकाश जी का बैल गाँव से शहर  पहुँच चुका है. दोनों की कविताओं का पाठ करें तो आप पाएंगे कि उदय प्रकाश जी के चौथे संकलन ‘भाषा जो हुआ करती है’ में ‘राजधानी में बैल’ सीरीज की छह कविता हैं.          

ख्यात आलोचक स्व. परमानंद श्रीवास्तव इसे उदय प्रकाश जी की काव्य-क्षमता और वस्तुगत नवीनता के विस्तार का साक्ष्य मानते हैं और कहते हैं कि -
“गहरी ऐंद्रिकता के कारण उदय प्रकाश के लिए राजधानी में बैल की उपस्थिति एक बड़ी दुर्घटना है.
'बादलों को सींग पर उठाए /खड़ा है आकाश की पुलक के नीचे / एक बूंद के अचानक गिरने से / देर तक सिहरती है उसकी त्वचा / देखता हुआ उसे / भीगता हूं मैं / देर तक!' आगे-
'उसकी स्मृतियों में अभी तक हैं खेत /  अपनी स्मृतियों की घास को चबाते हुए / उसके जबड़े से बाहर कभी-कभी टपकता है समय/झाग की तरह / . . .
यह संकेत है कि उदय प्रकाश की विश्वदृष्टि से 'चारागाह''‘ढेला’  ‘पितर-पुरखे'ओझल नहीं हैं. कविता हमारे समय में एक साथ वैश्विक और स्थानीय है.”

परमानंद श्रीवास्तव ने कविता के नए (पाश्चात्य) प्रतिमानों को प्रमोट करने की दिशा में इन कलावादी कवियों की संवेदना की नवीनता पर जो आलोचना की है, उसके पुनर्पाठ के साथ-साथ इन कविताओं के भी पुनर्पाठ की गहरी जरूरत महसूस होती है. बैल-शृंखला की इन कविताओं को खुद ध्यान दें तो आपको पता चल जाएगा कि नामवर आलोचकों ने कविता को देखने की कितनी स्थूल और अवैज्ञानिक प्रविधि अपनाई है. यह भारतीय चित्त को बिना समझे पाश्चात्य काव्य-कला का अंधानुकरण ही कहा जाएगा, जिसमें हर वस्तु या उपागम मनोरंजन-सिक्त है यानि कि,बारिश की अचानक एक बूंद के गिरने से बैल की मोटी त्वचा देर तक सिहरती है. यह पुलक कहाँ है ? उदय प्रकाश  ने ‘आकाश की पुलक’ के नीचे बैल को लाकर खड़ा कर दिया है. बैल पहली कविता में बादलों को सींग पर उठाए हुए है तो दूसरी कविता में आकाश को, तीसरे में सूर्य बैल के सिंग पर उतरता है. शब्दों की बातुनीगिरी यहाँ तक है कि कवि बैल, आकाश और पृथ्वी को अपने छोटे से एक छाते से ही भींगने से बचाना चाहता है. राजधानी में बैल की उपस्थिति को डॉ. परमानंद श्रीवास्तव एक दुर्घटना मानते हैं (क्योंकि उसे गाँव और खेत में होना चाहिए, जबकि वह शहर में पड़ा है). पर कविता में यह कितना विरोधाभास है कि खेत की ओर लौटने के अभिप्सु बैल को कवि बारिश से बचाना चाहता है जहाँ उसकी लौटने की अदम्य चाह होगी!
कवि के ही शब्दों मे, ‘पितरों – पुरखों के गाँव की ओर / जहाँ नहीं बचे हैं अब चारागाह / या फिर कनॉटप्लेस या पालम हवाई अड्डे की दिशा में / जहाँ निषिद्ध है सदा के लिए / उसका प्रवेश. (बैल-6)
‘उसके कानों में गूँजती रहती है / पुरखों के रँभाने की आवाज़ें / स्मृतियों से बार-बार उसे पुकारती हुई उनकी व्याकुल टेर’ तो फिर कवि क्यों यह कहता है कि ‘मेरा छाता / धरती को पानी में घुल जाने से / बचाने के लिए हवा में फड़फड़ाता है’.
एक ओर, बैल की त्वचा पर गिरी एक बूंद देखता हुआ कवि स्वयं देर तक भींगता है तो दूसरी ओर वह धरती को भी जल-सिक्त होने से बचाना चाहता है. प्रत्युत्पन्न विरोधाभास कविता के संवेदन-सृजन में कवि की भारी भूल की ओर संकेत करता है जो डॉ. परमानंद श्रीवास्तव जी को दृष्टिगत नहीं हुई. अब तक उदय प्रकाश ने कविताओं में यही किया है. संवेदना की आधुनिकी की सृष्टि में वे इतना खो जाते हैं कि उनकी संवेदना ज्ञानात्मक और विवेकी होने से चूक जाती है. ऐसा क्यों होता है ? उत्तर स्पष्ट है - कवि की आभिजात्य प्रवृत्ति कविता पर भारी पड़ती है जो उनकी संवेदना को तहस-नहस कर देती है. इस कारण कला के अंतिम (तीसरे) क्षण तक आते-आते कविता दम तोड़ देती है.

इस प्रसंग में आप इसी बैल पर 'लाली'-  सीरीज से लिखी नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं को देखें. ये भारतीय चित्त की अनुपम कविताएँ हैं. लाली -1 कविता में कवि कहता है –

“लाली !
लाल था उगते सूरज की तरह
वैसे ही ताजा दम
धुले हुए मुख की तरह
उसके सींग धरती के
राजा के मुकुट की तरह थे
सिर पर वैसे ही दीप्त हो रहे थे,

उसके कंधे दुनिया के
बेमिशाल कंधे थे
इस धरती का हर राजा
उसके कंधों पर मुग्ध
और सींगों से भयभीत था

उसके चलने से
खुरों की रगड़ से
धरती रज बनती थी,
जब वह अपनी चाल से
होता था सूरज के घोड़े
उसे रास्ता देकर
उसके कंधों को हिकारत से देखते थे
देर तक लाली की
उठी हुई पूंछ.”


‘लाली’ सीरीज की यह पहली कविता ही गौर करने से पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि नरेन्द्र पुण्डरीक का बैल गाँव में है, खेत में है. वह उदय प्रकाश के बैल की तरह राजधानी में नहीं है. किसी शहरी वस्तु का देहात में होना या देहाती चीज का शहर में होना महज संयोग होता है जो प्रकृति में विरल होता है, पर जब कवि का उद्देश्य ही चमत्कार और फैंटेसी के माध्यम से पाठक को विस्मित करना हो तो वह कविता का कंटेन्ट उसी घटनाक्रम या कथाक्रम को बनाता है जिसकी अंतर्वस्तु पाठक में कोई स्थायी भावबोध के सृजन के बजाए उसे केवल चौंकाए. ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि इन कृत्रिम संवेदनाओं का खरीदार पूरा बाजार है जो कवि से न केवल ऐसी कविताएँ लिखवाता है, बल्कि उसे खरीदवाता भी है.

नरेन्द्र की लाली सीरीज की कविताओं में एकनिष्ठ भारतीय चित्त है जहां न कोई रोमांच है न पुलक. उदय प्रकाश का बैल पहली कविता में बादलों को सींग पर उठाए हुए है तो दूसरी कविता में आकाश को, तीसरे में सूर्य बैल के सिंग पर उतरता है. पर नरेन्द्र के बैल का सींग धरती के राजा के मुकुट की तरह हैं जिनसे राजा भी भय खाता है. यह बड़ी बात है क्योंकि राजा भी उस स्वाभिमान से डरता है. उसके चलने और उसके खुरों की रगड़ से धरती का जुतना श्रम-सौंदर्य की अनुपम अभिव्यक्ति है. यहाँ सूर्य के लिए लाली बैल न होकर उस घोड़े की तरह हैं जो दिन के उठान पर दीप्त हो जाते हैं. यही है कविता का जनवादी सौंदर्य.

कवि का इतिहास-बोध केवल उसके अध्ययन से नहीं बनता. इसमें उसके जीवन के वे अनुभव व अनुभूतियाँ भी शामिल होती हैं जिसे वह अपने कठिन परिश्रम और सजगता से उपार्जित करता है. किन्तु जिस कवि में वर्ग-चेतना का विकास नहीं होता, उसका इतिहास-बोध छिछला या सतही होता है.

गौर करें तो आप पाएंगे कि कवि के स्वयं के जीवन के संघर्ष से ही कविता के रूपकों और बिम्बों की निर्मिति होती है. कवि ने जीवन के यथार्थ को जिस रूप में भोगा-जिया है, उसी का रचना में प्रतिबिंबन होगा. मसलन, उदय प्रकाश की कविताओं में अगर रूपक और बिम्ब पात्र-जीवन की भावदशाओं को वास्तविक रूप में व्यक्त नहीं करते तो इसका क्या मतलब है ? वह केदारनाथ सिंह की तरह कहन में दार्शनिक अधिक हो उठते हैं. उसी प्रकार एकांत श्रीवास्तव और अरुण कमल लोकजीवन को कविता में लाते तो जरूर हैं , पर बिम्बों की लड़ियाँ रचकर उसे लोक के नए रूपवाद की ओर धकेल देते हैं.  विजेंद्र भी कहीं न कहीं श्रम-सौंदर्य का एक आभासी संसार ही बनाते हैं. वह  कवि के रूप में इतने 'पोएटिक'होते हैं कि जीवन की सच्चाई से कट जाते हैं, उससे श्रम के बिम्बों का जाल बुन देते हैं. उसी प्रकार आलोक धन्वा कविता के 'पोस्टर ब्यॉय'बनकर रह जाते हैं. उनके यहाँ कविता केवल कथन बनकर रह जाती है. आखिर ऐसा क्यों होता है ?, इस सवाल पर गम्भीरता पूर्वक मनन करने की जरूरत है. उत्तर यही है कि इनकी कविताओं में वर्गचेतना या तो एक सिरे से गायब है या बनावटी है. इन्होंने जो जीवन जिया है , उसका एक 'क्लोज्डसिंड्रोम'ही इनकी कविताओं में दृष्टिगत होता है. वह अवचेतन मन की आँख से लोकचेतना को देखते हैं. फलतः इनके बिम्ब और रूपक लोकधर्मी होने के बजाय लोकरंजक हो जाते हैं. यही इनकी और उन कवियों की काव्यात्मक संरचना में सूक्ष्म अंतर है  जिनका अपना जीवन उनके काव्य-जीवन अलग  है. इसलिए इनमें वर्गसंघर्ष बहुधा गायब होता है.   

लेकिन नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं की वर्गचेतना उपयुक्त कवियों से भिन्न और जनसंघर्ष से लबरेज है. ऊपर'लाली'सीरीज की पहली कविता से हम रूबरू हुए थे. 'लाली'कवि नरेन्द्र जी के उस बैल का नाम है जिसे उनके पिता ने अपने घर लाया था. इस सीरीज में सात कविताएं हैं. इन कविताओं में मनुष्य का पशु-प्रेम बहुत मार्मिक ढंग से प्रकट होता है -

‘बीस साल कम नहीं होते
इतने साल में तो एक लड़की
किसी से भी प्रेम करने को
स्वतंत्र हो जाती है,
लाली बीस साल तक
कातता रहा
हमारे सपनों के धागे, ' (अंश-कविता लाली-3)
           
पशु के प्रति इस मानवीय प्रेम में उसके श्रम का आदर उसके घनत्व को और भी बढ़ा देता है-
‘लाली! पूरा बैल था
पूरे तीस मन लादकर
अपने जोड़ीदार से
दो फुट आगे चलता था,
लाली जैसा था
वैसा पूरी पसगैयत का
अकेला बैल था'(अंश-कविता लाली 4)

फिर, पशु में प्रत्यारोपित मानवीय गुणों के बखान को स्वयं में ढालकर कवि कविता के अभीष्ट को सिद्ध कर देता है-

'मैं लाली होना चाहता हूँ
मैं दिखना चाहता हूँ
वैसा ही सुन्दर औ सुडौल
धरती को
वैसे ही जोत कर
पाना चाहता हूँ खुशी
मैं लाली होना चाहता हूँ.' ( अंश: कविता लाली 7)

आप महसूस कर सकते हैं कि कवि की श्रम के प्रति आस्था का यह स्वर धरती को धन-धान्य बनाने की दिशा में कितनी लोचदार, संवेगात्मकसम्वेदना से युक्त है!  कवि का बैल उसके परिवार का सदस्य हो गया है. बैल के गुजर जाने पर उसकी यादें कवि के जीवन में उसी तरह विद्यमान रहती हैं, जैसे कोई अपना चिर-परिचित या घर के सदस्य के चले जाने पर होता है. यह सम्वेदना जितनी भावात्मक है, उतनी ही समकालीन परिप्रेक्ष्य में जरूरी, जब पशुओं के प्रति मानवीय अत्याचार बढ़ गए हो! सभ्यता जब बनैले पशुओं की असभ्यता से भी ज्यादा हिंस्र हो गई हो तो इन कविताओं का महत्व बढ़ जाता है-
"लाली नहीं है
उसकी याद है,
हमारे सपनों में
रंग है हमारे सपनों में
उसके भरे हार-पतार में
अब भी उसकी
मेघ-ध्वनि हैं
जो सुनी जा सकती है,"( लाली 5 का कवितांश)

इस तरह की कविताएं कवि अपनी “भ्रांत चेतना”  से नहीं लिख सकता . "मार्क्सवादी विचारधारा के अंतर्गत “भ्रांत चेतना” (False consciousness) को ऐसी अवस्था माना जाता है जिसमें सर्वहारा वर्ग को स्वयं यह ज्ञात नहीं होता कि उसके हित वास्तव में किस राजनीतिक दल-समूह, विचारधारा से जुड़े हुए हैं और इतिहास में उसकी वास्तविक भूमिका क्या है. वे ऐसी विचारधारा के प्रभाव में रहते हैं जो उनके हितों के विरुद्ध होती है. 'भ्रांत चेतना'पैदा करके शासक वर्ग सर्वहारा के उत्पीड़न और शोषण की स्थितियाँ बनाये रखता है और सर्वहारा स्वयं उस शोषण को सही मानने लगता है. किसी भी दौर के शासक वर्ग के विचार ही शासक-विचार होते हैं यानी सत्तारूढ़ वर्ग के विचार ही सर्वाधिक प्रभावशाली विचार बन जाते हैं. इस सामाजिक चेतना तथा प्रभावशाली विचारों का संबंध भी भ्रांत चेतना से है क्योंकि सर्वहारा निजी चेतना के विकास के स्थान पर शासक वर्ग द्वारा विकसित चेतना को अपना लेता है. मार्क्स के अनुसार यह थोपी हुई अर्थात् झूठी चेतना होती है. कालांतर में सर्वहारा यह समझने लगता है कि सत्तारूढ़ वर्ग ने वास्तविकता के प्रति जो चेतना पैदा की है, वह उनके वर्ग हितों के अनुरूप नहीं है और फिर भ्रांत चेतना के स्थान पर वास्तविक वर्ग-चेतना पैदा हो जाती है." (विकिपीडिया से)

उदय प्रकाश की बैल सीरीज की कविताएं इसी भ्रांत चेतना का प्रतिफलन है. उसमें शासक वर्ग द्वारा विकसित चेतना को अपनाकर बैल सीरीज की कविताएं लिखी गई हैं जबकि नरेन्द्र जी की लाली सीरीज की बैल पर कविताएं वर्गचेतना का अनूठा उदाहरण है.

अब नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में प्रयुक्त  बिम्बों और रूपकों पर भी थोड़ा विचार कर लें. इनके रूपक के द्वारा रचित बिंब की एक महत्वपूर्ण कविता साँड़ सीरीज की है. यह पांच खण्डों में है. 

साँड़ रूपक दो असमान तथा स्वतंत्र इकाइयों में अंतर्मूत साम्य को प्रत्यक्षीकृत करता है.  एक प्रकार की गद्यात्मक या नीरस समानता या तुलना से आगे बढ़कर साँड़ रूपक पूँजीवादी-फासीवादी ताकतों के साथ एक ऐसा तादात्म्य उपस्थित करता है, जिसमें कवि के द्वारा अमरीकी/ पूंजीवादी कार्य-व्यापारों का देसी साँड़ से समेकन (फ्यूज़न) कराकर एक नयी छवि उभारने की कोशिश की गई है, जिसमें दोनों ही पदार्थों या कार्य-व्यापारों की विशिष्टताएँ समाहित होती हैं. दोनों के बीच की यह तुलना तर्कपूर्ण हैं जिसमें बौद्धिकता से उठाये गये प्रश्र उसके सौंदर्य को समाप्त कर देंगे. 

साँड़ का एक सुंदर बिम्ब सृजित कर कवि का अभिप्रेत पाठक तक पहुँचता है. इस प्रकार 'साँड़'रूपक अपने चतुर्दिक एक पूँजी पोषित सत्ता के पूंजीभूत प्रकाश-वृत्त उत्पन्न करता है, जिसके प्रकाश में कवि की वर्गचेतना और वर्गसंघर्षपूर्णत: भाषित हो उठता है. काव्य की यह प्रवृत्ति असमतामूलक समाज का दृश्य उपस्थित करने में अपनी व्यापकता के साथ सक्षम साबित होती है. इसलिए 'रूपकत्व (अलंकार रूप में मात्र 'रूपक नहीं) नरेन्द्र के कवि कर्म का मूलाधार कहा जा सकता है. यह कवि की 'रूपक चेतना ('मेटाफिरिकलकांशयसनेस) ही है, जो अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों में, विभिन्न अलंकारों के द्वारा, प्रकाशित हो उठती है. लोक का ऐसा रूपक आपको बहुत कम कवियों में मिलेगा. उपमान चयन के आधार पर उपमा का औपम्य का प्रयोग तो कोई साधारण कवि भी कर सकता है, किंतु 'रूपकत्व का सुंदर और प्रभावी प्रयोग नरेन्द्र पुण्डरीक जैसा कोई निष्णात कवि ही कर सकता है. तुलसीदास की लोकप्रियता और महानता का बहुत बड़ा रहस्य उनकी अभिव्यक्ति में इसी श्रेष्ठ रूपक-चेतना का है. देखिए नरेन्द्र पुण्डरीक की यह कविता जिसमें साँड़ के रूपक कितना जीवन्त और सफल प्रयोग हुआ है-

साँड़-5
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"सांड ने नहीं ढ़ोया कभी
अपने कंधों से ,
इस पृथ्वी का रत्ती भर भार ,
न जोती कभी इंच भर जमीन
सिर्फ अपने कंधों के गुमान से भरा
डोलता रहता है अवढर दानी बना
पीठ पर लादे प्रलयंकर
दहशत फैलता घूमता रहता है
मुल्क दर मुल्क,

इतिहास के पन्नो में
काली छायाओ  की तरह पसरी पड़ी है
साँड़ की शौर्य गाथाएँ,
साँड़ के सामने दुनियां के सारे बुद्धिजीवी
कम अक्ल होते है ,

तर्क से दूर भागता सांड
जो कुछ हो रहा है
उसे ईश्वर की रजा बतलाता है
ईश्वर की रजा में
मौज उठाता है साँड़

साँड़ के सामने सब कुछ फिजूल है
फिजूल है दुनियां के सारे रंग
सबसे उम्दा है साँड़ का सनातनी रंग
जो दुनियां के सारे पूजा घरों में फहरा रहा है
साँड़ के सामने सब बकवास है
सिवा उन महान  परम्पराओ के
जो उसके सुडौल कंधों में उकेरी जाती है
महा विनाश की भव्यता से भरपूर.’’


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नरेन्द्र पुण्डरीक की काव्य संवेदना में इतिहासबोध और इतिवृत्तात्मकता का यह संयोग समकालीन लोक धर्मी कविता में विरल ही दिखता है जो उनके कवि को जनकवि का एक मजबूत आधार प्रदान करता है.
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सुशील कुमार
सहायक निदेशक,
प्राथमिक शिक्षा निदेशालय
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग
एमडी आई भवन (प्रथम तल) / पोस्ट : धुर्वा , रांची-834004

मोबाईल न : 9006740311/ और7004353450

कथा - गाथा : संझा : किरण सिंह









कथाकार किरण सिंह की  कहानी ‘संझा’दो लिंगों में विभक्त समाज में उभय लिंग (ट्रांसजेंडर) की त्रासद उपस्थिति की विडम्बनात्मक कथा है.  इसे ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’और प्रथम‘हंस कथा सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है.  इस कहानी पर आधारित कुछ  रंगमंचीय प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं.

कथा- आलोचक   राकेश बिहारी ने अपने चर्चित स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी”  के १८ वें क्रम में इस कहानी का चुनाव विवेचन – विश्लेषण के लिया किया है. अपने इस श्रृंखला में उन्होंने कहानियों के चयन में अलग- अलग विषय वस्तुओं का  ख्याल रखा है.  

‘उभय लिंग’  मनुष्य सभ्यता के ही ‘अंग’ हैं. मनुष्य ज्यों ज्यों ‘सभ्य’ होता गया वह इस ट्रांसजेंडर के प्रति उतना ही क्रूर होता गया.  राकेश बिहारी ने  इस कथा से होते हुए गम्भीरता से इस निर्मित मन: स्थिति को समझा है, परखा है. 

यह स्तम्भ अब पुस्तक आकार में आधार –प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है.





कहानी :
संझा                                                         

किरण सिंह




(तुम लोगों में से कोई बुड्ढा कह गया है कि दुख कई तरह के होते हैं. खालिस बकवास. दुख एक है- बिछड़ना. धन हो कि स्वास्थ्य कि अपने लोग...इन तीन से बिछड़ना. तो करोड़ों साल से एक ही तरह के दुख और एक ही तरह से दुखी लोगों को देखते-देखते मैं ऊब गया हूँ. तुम्हें बताऊँ, मैंने इस बार, एक नये किस्म का दुख रचा है. आओ मेरे साथ. क्या ? तुम लोग दूसरों के दुख में मजा नहीं लेते! दाई से पेट छिपाते हो बे!)



हमान खेड़ा गाँव के लोग नदी के तीर-तीर बसते चले गए. इस तरह चार गाँव बन गए-बंजरपुर, मुरसीभान, गुलरपुर और रहमानखेड़ा  तो पहले से था ही. चारों गाँवों में कुल मिला कर सौ घर होंगे. यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगलों से घिरा है. यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है. इसलिए यह इलाका गरीब है. बेदखल है. और स्वायत्त है.

चारों गाँवों में एक-एक परिवार ही बढ़ई, धोबी, दर्जी,कुम्हार और लुहारहंै. और एक ही वैद्य जी हैं. वह चैगाँवा के सबसे इज्जतदार आदमी हैं. इसलिए इज्जत उतारने के लिए उन्ही को चुना गया है. इन्ही वैद्य महाराज के घर आठ बर्ष बाद संतान जन्म ले रही है.

ये मूड़ी बाहर निकली...चेहरा...पेट...नाभि...वैद्य जी ने साँस रोक ली...लड़का है कि लड़की. एक चीख....निकलने से पहले ही वैद्य जी ने दोनों हथलियों से मुँह दाब लिया है- ‘‘रात-बिरात कोई दवा के लिए दरवाजे पर ठाढ़ होगा. सुन लेगा!’’


‘‘ पूत है कि धिया ? बोलते काहे नहीं ?’
दर्द से थकी बैदाइन सोना चाहती थीं.

‘‘ पता नाहीं!’’

‘‘ पता नाहीं ? पता नाही! पता नाहींऽऽ’’


सौरी के दरवाजे पर रखी बोरसी के गोइठे से भभका उठा. सपनों के कपाल क्रिया की चिराईंध गंध कोठरी में भर गई.

संतोख रखो वैदाइन! आठ बरस बाद कोई पानी को पूछने वाला तो आया घर में.’’आज वैद जी के काटने से नाल खींच रही थी. वैदाइन को दर्द का भान नहीं था.

सुबह चैगाँव रंग में था. ‘‘बेटी सतमासा भइ ह तो का ! बंस तो आगे बढ़ा! परती धरती का कलंक तो छूटा! हलवाई बैठाना पड़ेगा बैद जी! खुसी का मौका है.’’

छठी-बरही दोनों दिन सबको न्योतना पड़ा. गाँव भर बेटी को गोद में खिलाने की हठ पर अड़ा था. वैद्य जी ने सबके प्रेम का सत्कार करते हुए हाथ जोड़ा और कहा-

‘‘सतमासी लड़की बहुत कमजोर है. बाहर निकालने पर हवा-बतास लग जाएगी. दो चार रोज ठहर जाइए.’’

वैद-वैदाइन ने बेटी का नाम रखा है-संझा.

(संझा! हुँह!इनकी बेटी में दिन और रात, दोनां का मिलन है. इसलिए वह सिर्फ दिन और सिर्फ रात से अधिक पूर्ण-पहर है.)

संझा के जन्म से पहले बैदाइन दिन भर घर से बाहर रहतीं थीं. हवा खाओं नाहीं तो दवावैद्य जी के टोकने पर उनका जवाब होता. अब बैदाइन ने अपने को एक कोठरी में समेट लिया था.

‘‘एक कोठरी से काम नहीं चलेगा बैदाइन! संझा ठेहुन-ठेहुन चलेगी तो जगह चाहिए.’’वैद्य जी ने पिछवाड़े के खेतों को घेरते हुए जेल जितनी ऊँची मिट्टी की चहारदीवारी उठवा दी.

‘‘भला काम किया आपने बैद महराज. मैं रोज पानी छिड़क दूँगी. घर ठंडा रहेगा. सोधी गंध उठेगी.’’बईदायिन ने लंबी साँस भरी. खुली हवा की साँस जैसे मिले न मिले.

‘‘सियार चाहे भेडि़ए दीवार पर चढ़के भीतर कूद जाएँगे. हमारी बेटी को उठवा ले जाएँगे.’’आँगन के ऊपर और घर की खिड़की में बैद्य जी ने जाली लगवा दी.

‘‘ठीक महराज! मैं इस पर लतर फैला दूँगी. मेरी बेटी के साथ-साथ बढे़गा.’’बैदाइन ने आसमान को जी भर देखते हुए कहा.

सखियाँ-सहेलियाँ बैदाइन को संदेशा भिजवाती कि ‘‘तुम छौड़ी के जनम के बाद गरबीली हो गई हो.’’बैदाइन बिना मन के सखियों से मिलने बाहर निकलती. ‘‘बिटिया को काहे नहीं लाई. हमने उसे देखा तक नही.’’सबके पूछने पर बैदाइन कहतीं-ं संझा सुरु के साल दुआर पर भी नहीं निकली न! अब बाहर निकलते ही रोने लगती है. आप के नजीक दो घड़ी हम बैठ भी न पाते. फिर सतमासा के नाते बहत सुकुवार हैं.’’

(मैं चाहता था कि संझा को प्रेम न मिले. जिससे वह किसी को प्रेम दे भी न पाए. और हर तरह से बंजर रहे. लेकिन कोई बात नहीं. सतरंगा संसार देख लेने के बाद, आँखो की रोशनी छिन जाए, तो जन्मांध से अधिक पीड़ा होगी.)

चहारदीवारी में बन्द बैदाइन पीली पड़ती जा ही थीं. ‘‘मेरी संझा का क्या होगा ! मेरी संझा का क्या होगा बैद जी!’’वह संझा को गोद मे लिए यही रटती रहतीं.

( कितना भी पढ़े हों, परीक्षा में सफलता का तनाव लेने वाले फेल हो जाते हं. )

तीन बरस की संझा सोच रही थी कि माँ सोई है. वह माँ की बाँह पर लेट गई थी. बैद जी बड़बड़ा रहे थे-
‘‘बैदाइन धोखा दे गई तुम. तुमने भँवर में साथ छोड़ा है बैदाइन! बस कहने को बैद जी महराज, कहने को संझा रानी ! मन में न मेरी चिन्ता थी न बेटी की!’’

‘‘बेटी की चिन्ता! रात में चिता नहीं जलती. नरक मिलता है. लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा. गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे.’’

‘‘जो जिन्दा है, उसे देखना है.’’उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया. लाल साड़ी में लपेटा.
खटिया पर बाँधा. सोई हुई संझा को कंधे पर लादा. एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे. सुबह गाँव वालों से कहा- ‘‘बरम्ह मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुन्य योग बन रहा था. आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता.’’

( अच्छे भले बच्चे को तो पिता सँभाल नहीं पाते संझा तो... अब भेद खुलने ही वाला है. वे लोग भी दाहिनी पहाड़ी पर पहुँचने लगे हैं. )

वैद जी मुँह-अँधेरे उठ जाते. बेटी को बुकवा-तेल मलते, नहलाते-धुलाते. बेटी की इलास्टिक लगी कच्छियाँ मोरी में बहा दी थी. वैदाइन की कुछ सूती साडि़यों से लँगोट बना लिये थे. सूने घर में भी बेटी को लँगोट पर पैजामी फिर लंबी फ्राक पहनाते. थुल थुल वैद्य जी, बेटी के साथ बड़े से आँगन में दौड़-दौड़ कर खेलते जिससे वह थक जाए. संझा के सोने के बाद उसकी कोठरी में बाहर से ताला बन्द करते और गद्दी पर औषधि देने के लिए बैठ जाते. लौट कर आते तो संझा टट्टी, पिशाब और आँसुओं में लिपटी मिलती.

जब बैदाइन थीं, भोर होने से दूसरे पहर तक, वैद्य जी जंगल में जड़ी छाँटते थे. अब वे संझा को अकेले छोड़ कर इतनी देर के लिए कैसे जाएँ ? उसे साथ लेकर तो बिलकुल नहीं जा सकते. गाँव वाले उसे गोद में लेने के लिए झपटने लगेगें. कही संझा ने पेशाब कर दिया और स्त्रियाँ उसकी पैजामी बदलने लगीं तो ?

औषधि के बिना चैगाँव के लोग निराश हो-हो कर लौटने लगे. एक दिन वैद्य जी के दरवाजे पर पंच इकट्ठा हुए -‘‘बैद महराज सिरफ अपनी छौड़ी को देख रहे है. हम सब भी तो आपके ही भरोस पर हैं. आप संझा बिटिया की देख भाल के लिए दूसरा लगन कर सकते हैं. हम दूसरा बैद कहाँ से पाएँगें ?’’

वैद्य जी ने बहुत सोच कर जवाब दिया- ‘‘बात संझा की बिलकुल नहीं है. बात ये है कि बैदाइन के जाने के साथ ही मेरे हाथ से जस भी चला गया. दवा फायदा नहीं करे तो इलाज से क्या फायदा. आप लोग पहाड़ी पार के कस्बे में जाइए.’’

(जब जान जाने लगती है तो बंदरिया भी अपने बच्चे को फेंक कर तैरने लगती है.)

रोगी आने बन्द हो गए. वैद्य जी के घर का एक-एक सामान, गाँव वालों के हाथ, जोन्हरी और कोदो के बदले बिकने लगा. आज वैद्य जी ने जाँत में फँसे जौ के आटे को झाड़ कर इकट्ठा किया. भून कर संझा को पिला दिया था.

‘‘मैं भी मर गया तो! नहीं, नहीं! ... मुझे जीने की सारी शर्तें मंजूर हैं.’’
उन्होंने सोच लिया-‘‘लोगों का मुझ पर से भरोसा उठ गया तो क्या! मैं उन्हें खुद पर भरोसा करने की औषधि दूँगा.’’संझा ने देखा कि उसके बाउदी खड़े होने पर गिर रहे हैं. फिर साँप की तरह रेंगते हुए जंगल की दिशा में जा रहे हैं.

पेड के नीचे सुस्ताते, रहमान खेड़ा के किसान से वैद्य जी ने कहा- ‘‘ मुझे कुछ खाने को दो, तुरन्त. बदले में मैं तुम्हें मर्दाना ताकत की शर्तिया कारगर औषधि दूँगा.’’ उसकी स्त्री से कहा-‘‘इससे तुम्हारा बाँझपन भी दूर होगा.’’

महीना भीतर, सूरज निकलने से पहले ही, वैद्य जी के ओसारे में लोग जगह छेका कर बैठने लगे. जंगल से बहुतायत में उगी मुसली तोड़ने में वैद्य जी को समय न लगता और इसे लेने वाले पैसे भी तुरन्त दे देते. कभी, मरते हुए आदमी के सभी अंगों में जुंबिश भर देने वाले वैद्य जी, एक अंग तक सीमित हो कर रह गए थे.

‘‘बाउदी! आप की फंकी में फफूँद लग रही है. इमाम दस्ते में दवा कूटते समय आपके आँसू गिरते रहते हैं ! अपने मन भर जड़ी नहीं बटोर पाते इसलिए न! आज से जंगल में औषधि के लिए मैं जाऊँ बाउदी!’’


‘‘नहीं! नहीं! बाहर निकलते ही तुम्हें छूत लग जाएगी. एकदम भयंकर! लाइलाज बीमारी! मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया है.’’
‘‘कौनो बीमारी नहीं लगेगी. मैं बहुत ताकतवर हूँ.’’
बैद हम हैं कि तुम. फिर चैगाँवा में लड़कियाँ बाहर नहीं निकलती.’’
‘‘आपने मुझसे तीली माँगी थी. जब मेरी उमिर की लड़की की उँगली कट गई थी. वह बन में चरी काटने गई थी न! ’’
‘‘तुम बूटियाँ नहीं पहचान पाओगी. बिलकुल नहीं. ’’
‘‘बाबूजी! आपने मुझे औषधि बनाना सिखाया हैं. पढ़ना लिखना सिखाया है...मैंने लाल जिल्द वाली किताब में पढ़ा है...सर्पगंधा की झाड़ से साँप नहीं गोबर की बास आती है. मजीठी..”
‘‘बाहर की दुनिया बहुत खतरनाक है संझा!’’
‘‘आप भी बाउदी! आप जब औषधि देते हैं, मैं दरवाजे की झिर्री से झाँकती रहती हूँ. सब आदमी- औरत आपके आगे हाथ जोड़े रहते है...सब पीड़ा में कराहते हैं. बेचारे लोग...आप झूठ्ठे डर रहे हैं बाउदी ?’’
‘‘मैं तुमको इस संसार के बारे में कैसे समझाऊँ बेटी!’’
‘‘आपने मुझे दुनियादारी सिखाने के लिए कितनी सारी कहानियाँ सुनाई तो हैं... बृहन्नला की... शिखंडी की...
अर्धनारीस्वर की... कृष्ण के चूडि़हारिन बनने की....’’

बैद्य जी उठ कर बाहर चले गए. वह समझ गए कि समय आ गया हैं.

वैद्य जी ने बारह साल से बन्द खिड़की की, जंग लगी सिटकनी खोल दी. उस खिड़की पर, वह पतली जाली लगी हुई थी, जिससे भीतर से बाहर सब कुछ देखा जा सकता था किन्तु बाहर से भीतर का कुछ भी नहीं दिखाई देता था. वैद्य जी ने दूसरा काम यह किया कि पानी की कमी वाले उस इलाके में, खिड़की से पचास कदम की दूरी पर, खूब गहरी बोंिरंग का हैण्डपम्प लगवा दिया.

‘‘रोटी बनाने के बाद यहाँ से दुनिया देखना बेटी.’’
कहते हुए बैद्य जी बाहर निकल गए.
वैद्य जी को आज, अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे रोगी टोक दे रहे थे-‘‘ बैद्य जी! अपना भी दवा-दारु कीजिए. आपके हाथ से फंकी गिर-गिर जा रही है.’’

‘‘हाँ-हाँ.. वो सूरत भाभी होंगी, जो मस्से निकलने से परेशान है. खूब लंबी...वो तो बाउदी की मीना बहिनी ही हैं. खाँसते-खँासते जिनका चेहरा लाल हो जा रहा है वो कमलेसर चाचा होंगे. गुलबतिया...हाँ, वही है, जिसके घुटने पर बड़े फोडे का दाग है. वो रमजीत्ता होगा, बैल जैसे कंधों वाला.’’
वैद्य जी, संझा को गाँव के हरेक आदमी का नक्शा बता चुके थे. एक दूसरे पर गीली मिटटी फेंकते, नहाते, बतियाते, पुट्ठे पर हाथ मार कर हँसते लोग-‘‘बाप रे! सब कितना अच्छा है...मेरी अम्मा जैसा.’’

संझा ने बाउदी से चहक-चहक कर सब कुछ बताया, कई बार बताया- ‘‘देखा बाउदी! कहाँ लगी छूत की बीमारी! नहीं लगी न! सब मेरे फुआ, चाचा, बाबा, आजी ही तो थे. मैं औषधि लेने जंगल में निकल सकती हूँ.’’

‘‘अभी रुको बिटिया!सँभल के संझा! महीने भर तक तुम्हें कोई बीमारी नहीं लगी तब सोचूँगा.
खिड़की खुलने के बाद, बाउदी के झुकते जाते कंधे, संझा अपनी ख़ुशी के आगे देख नहीं पा रही थी.

दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी. उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी. माएँ नहा रही थीं. खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं. वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं. उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे.

‘‘ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के हैं न ! फिर इनका सब कुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है ?
‘‘हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों.’’

(अपाहिज माँ का इकलौता बेटा मर जाए तो वह असंभव बातें कहती है- उसकी साँस चल रही थी. लोग अपना काम खतम करने के लिए हड़बड़ी में दफना कर घाट से लौट आए.)

‘‘ऐसा तो नहीं कि मुझ में ही गड़बड़ी हैं. वो चीज उन सबकी की एक जैसी थीं. मैंने बाउदी की किताबों में ऐसी फोटुएँ देखी तो थीं. लेकिन ये क्या हैं, तब मैं बूझ नहीं पाई थी.

... नहीं! बाउदी ने बताया है कि मैं चैगाँव की सारी छौडि़यों में सबसे अच्छी हू. फिर उमिर के साथ सारे अंग बढ़ते हैं. याद है, अँगूठेभर का मुखिया का लड़का बाउदी की दवा से एकदम से खींच गया था. इसके बढ़ने की भी कोई दवा जरुर होगी. मेरे बाउदी तो मरते आदमी को जिन्दा कर देते हैं.’’

सब कुछ ठीक है. तब संझा की रोटियाँ क्यों जलने लगी थी और हाथ भी. बाउदी के सामने बिना बात उसकी नजरें हत्यारिन जैसी झुकी क्यों रहने लगीं थीं.
वैद्य जी चुपचाप अपनी टूटी-फूटी संझा के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

वैद्यजी देख रहे थे कि उनकी बेटी सो नहीं रही है. वह, उनके बाहर निकलने का इंतजार करती है और खिड़की पर बैठ जाती है. हैण्डपम्प पर नहाते लोगों के एक-एक अंग को खा जाने वाली निगाह से देखती है. रात में वैद्य जी जल्दी ही आँखों पर हाथ रख कर लेट जाते. संझा तुरन्त उठकर ढिबरी की बत्ती चढ़ा लेती. आयुर्वेद की पोथियों के अक्षर जोड़ कर रात-रात भर पढ़ती. चैथे पहर फिर खिड़की पर.

छः महीने बीतने को आ गए. संझा के बाउदी ने तो संझा को यही बताया हैं कि चरक, सुश्रुत, धनवन्तरिसे कुछ भी छूटा नहीं है. बाउदी अपनी संझा से झूठ थोड़े कहेंगे. लेकिन जो तकलीफ संझा को है, कहीं उसकी चर्चा नहीं, नाम निशान कुछ नहीं. जबकि बहुत-बहुत घिनौनी बीमारी के बारे में तक तो लिखा है.

‘‘कहीं इस कमी को पाप तो नहीं मान लिया गया है, जिसकी चर्चा तक छिः मानुख है. बाउदी हो !’’
...कुछ नहीं. बाउदी ने जो दवा मुखिया के लड़के को दी थी, उस दवा को खाते हैं. दो-चार महीने बीतते-बीतते
सब अच्छा हो जाएगा. बाउदी से बात करने की.... कौन जरुरत ? वो भी यही औषधि देंगे.’’

छः महीने और बीतने के साथ ही संझा का चैदहवाँ साल लग गया. उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे. उस समय संझा का बदन तेल पिए हुए लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठें उभर रही थीं. उसकी नसें बैगनी और त्वचा मोटी हो रही थी. उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर भूरे रोंएँ उग रहे थे. गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोन में लंबा हो रहा था. किन्तु एक अंग वैसा ही था, सुई की नोक के बराबर. वह शीशे के सामने खड़ी रहती. गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती. एक छेद उसके दिल में होता जा रहा था जिससे वह बन्द कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी.

एक आखिरी उपाय. उसके बाद वह बाबा से बात करेगी. बाबा ने वरदराज की कथा सुनाई थी. उसके हाथ में बिद्या की रेखा नहीं थी तो उसने हथेली चीर कर बिद्या रेखा बना ली थी. वह भी अपनी किस्मत बदल देगी.

(बिल में पानी भरने से चूहे बाहर निकलते हैं. साँिपन को निकालना हो तो बिल में आग लगानी पड़ती है.)

संझा उन्माद में थी. उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी. आँगन में लगी, नीम-तुलसी की पत्ती पीस कर रख लिया. बन्द कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया. शरीर को धनुष की तरह तान लिया. अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया. भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया. लंबी साँस ली. साँस रोकी. और चाकू की फाल धँसा लिया. वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी. लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा. आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी. मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’

वैद्यजी को लगा कि वह तो संझा को लेकर सपने में भी डरे रहते हैं. हंर समय लगता है कि बेटी पुकार रही है. दुबारा-तीबारा वही आवाज सुनकर कोठरी की ओर भागे.

‘‘संझा आँख खुली रखना. सोना मत संझा! संझा! संझा सोना मत!’’वैद्यजी चिल्लाते हुए पिछवाड़े के जंगल की दिशा में दौड़ रहे थे. मूसली के सिवाय घर में रखी शेष औषधियों में फफूँद लग चुका था.
वैद्यजी बेटी को गोद में लिए नित्य क्रिया कराते. नीम के पानी से घाव धोते. लेप लगाते और संझा के दोनों पाँव जाँघ के पास से बैदाइन की धोती से बाँध देते जिससे दरार जुड़ती चली जाए.

सातवें दिन वैद्य जी ने संझा से कहा- ‘‘तुमको ऐसा नही करना चाहिए था बेटी. तुम्हारी जिन्दगी चली जाती.’’
‘‘बाउदी क्या अगला जनम होता है.’’
‘‘क्या तुमने मेरे मुँह से कभी सुना है कि तुम मेरे पिछले जन्म के पाप की सजा हो.’’
‘‘नहीं बाउदी’’
‘‘जब पूर्व जन्म नहीं होता तो पुर्नजन्म भी नहीं होता.’’
‘‘क्या कोई रास्ता नहीं बाउदी !’’
‘‘किस्मत ने एक जरुरी अंग हटा कर तुमको पैदा किया है, बेटी!”
जीवन के लिए सबसे जरुरी तो आँख हैं. जोगी चाचा अंधे पैदा हुए. जरुरी तो हाथ है. बिन्दा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा है. रामाधा भइया तो शुरु से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है. बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का. क्या.. वो..वो आँख, कान, हाथ, पाँव, दिमाग से भी बढ़ कर होता है ?


‘‘ तुम बंस नहीं बढ़ा सकती.’’
‘‘गाँव में ऊसर औरतें भी हैं, मान से रहती हैं.’’
‘‘बाउदी आप चुप क्यों हैं. क्या मैं किसी के काम की नहीं.’’
‘‘.इस धरती के बासिन्दों ने तुम्हारी जाति के लिए हलाहल नरक की व्यवस्था की है. उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आ कर बस गए हैं. वे लोग कपड़े उठा कर नाचते हैं और भीख माँगते हैं. लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, थूकते हैं, उनके मुँह पर दरवाजा बन्द कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं. वे जिस इलाके में बसे हों, वहाँ कोई भी अपराध हो, इन पर ही इलजाम लगता है. वे डरे और जले हुए लोग अपनी बिरादरी बढ़ाना चाहते हैं. तुम्हारे बारे में पता चल गया तो वो लोग तुम्हें छीनने आ जाएँगे और चैगाँव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे.”
‘‘मुझे छूत की बीमारी नही लगेगी. मैं इस समाज के लिए अछूत हूँ...घिन्न खाने लायक हूँ.’’
‘‘तुम्हें जिन्दगी भर अपने आप को छिपाना है संझा!’’
‘‘मैं बाहर निकलना चाहती हूँ बाउदी! मै औषधि की पत्तियाँ छूना चाहती हूँ. बहता पानी...गीली मिट्टी...जंगल..आसमान देखना चाहती हूँ! बाउदी! मैं दौड़ना चाहती हूँ... खूब जोर से हँसना चाहती हूँ....सबके जैसे जीना चाहती हूँ. आपके कहने से मैं ऐसे रह तो जाऊँगी लेकिन दो चार दिन की ही रह जाऊँगी बाउदी!’’
‘‘मेरी गुडि़या! तुम आज रात से बाहर निकलोगी. मैं उपाय करता हूँ.’’

वैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे. बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है. पास आओ, उस रात डकैत आए थे. ’’‘‘डकैत!’’


‘‘हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर. मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे. संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया. मैं ने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया. बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ. अरे हाँ सुनो! भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़ कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहंेगे. मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे. इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत.’’

‘‘धन्न! बैद महराज! आपकी दवा-पट्टी से ठीक होकर वे हमें ही लूटते. आपने अपने पर जोखिम लेकर हमको बचाया.’’
(बुड्ढा वैद्य सती बाप है.)

संझा के घर के पिछवाड़े से, जंगल तक की, बेर के कांटों भरी पगडंडी, राजपथ बन गई. जिस पर वह दो-चार दिन अपने बाउदी की ऊँगली पकड़ कर लड़खड़ाते हुए चली. उसके बाद उड़ने लगी.

वह बन की रात में, जुगनओं से भरी ओढ़नी, माथे पर टार्च की तरह बाँध लेती. वह रात भर की राजकुमारी के सिर पर हीरों का ताज था. पके हुए कटहल से कोया निकाल कर पखेरुओं के खाने के लिए बिखेर देती. कटहल की खोइलरी में छेद कर के बरगद की जटाएँ फँसाती और कमर से लटका लेती. यह औषधि का थैला था. पाँवों में चप्पल की तरह पुआल बाँध लेती और हरेक पेड़ को छूते हुए, कांटों पर बेधड़क दौड़ती. युवा पेड़ों का पानी, संझा के छूने से, देर तक काँप कर ठहरता. बूढ़े और बच्चे पेड़ों को, अपनी नींद के लिए, संझा की थपकियों की आदत पड़ चुकी थी. ‘‘देखें डाँट खाने पर कैसा लगता है!’’ वह बरगद की डाल को झकझोर देती. अधेड़ कौए उस पर मिल कर चिल्लाते. सोए हुए जानवर आँखें खोल कर संझा को देखते, मुस्कुराते और ऐसे सो जाते जैसे माँ को बगल में देख कर बच्चे सोते हैं.

जंगल  में, कोई संझा को देख लेता तो सबसे यही कहता- ‘‘ मैंने कल रात उड़ने वाली हरियल साँपिन को देखा है.’’

संझा महसूस करती कि रात में हवा सम पर चलती है क्योंकि सोए हुए पेड़ बराबर से साँस लेते हैं. पेड़ों को झकझोरने पर, रात में सन्नाटा रहता है तब भी, दिन जितनी आवाज नहीं होती. हरा रंग, काले रंग से गाढ़ा होता है. तभी तो, दूर अँधेरे में, पेड़ की मोटी जड़ नहीं दिखाई देती, किन्तु नन्हीं पत्ती दिखती है.

तीसरे पहर वह औषधि बटोरती. ‘‘कल हैण्ड पम्प चलाते समय सहचन दादा की नकसीर फूट गई थी. उसकी नाक में टपकाने के लिए दूब का रस और लेप के लिए नदी की मिट्टी ठीक रहेगी. बुन्नू दादी की गठिया के लिए नागरमोथा...अर्जुन...अरे वही जो बृहन्नला बना था...उसकी छाल करेजे की औषधि है ? बहुत अच्छा! आज तो मधु के लिए मधुमाखी के भी हाथ जोड़ना है भाई ! बाउदी ने कहा था.....कतरो की माहवारी नहीं साफ आ रहा है...माहवारी ? ये कौन सी बीमारी हैं ? उँह! बीमरियों के बारे में जितना कम जानो अच्छा.’’

वह थकने लगती तब पानी में उतर जाती. चिडियाँ जब संजा को चेताना शुरु करतीं कि सुंबह होने को है, संझा पानी से खेलना छोड़े और घर जाए, तब वह अध्र्य देती और कहती- ‘‘हे सूर्ज हे! हे जंगल! हे जल! मुझ अछूत को ऐसी सिफत देना कि मेरे छूने से औषधि अमरित बन जाए. ’’

संझा और उसके साथ की लडकियाँ कपड़े पहने हुए ही नहाने लगी हैं.


अन्तर शर्म और शर्मिन्दगी का है. उसके साथ की लड़कियों के पास, भौंरो वाले सूरजमुखी से लदी चोटियाँ थीं, उस समय वह पठार का पठार ही रह गई. बदन पर कड़े होते बाल, पठार पर सूखी घास की तरह थे. वह इतनी लम्बी है कि माँ की साडि़याँ छोटी पड़ती हैं. बैगनी नसों और अँगूठे पर उगे रोएँ वाला पाँव छिपाने के लिए उसे कमर से बहुत नीचे साड़ी बाँधनी पड़ती थी. ठुड्डी और होंठों के ऊपर की रोमावली ढकने के लिए वह पल्लू को सिर से लेने के बाद, नाक के नीचे से उस कान तक, तर्जनी-अँगूठे से पकड़े रहती. चेहरे पर सिर्फ आँखें दिखती और पीछे पूरी कमर खुली रहती.

संझा कभी नही जान पाएगी कि लंबाई के कारण उसकी कमर में, नदी के अचानक मुड़ जाने जैसा कटाव बनता है. उसकी उभरी-चिकनी रीढ़ की घिर्रीयाँ, नदी में उतरती सीढि़याँ लगती हैं.

(ये संझवा हरियल नाहीं, पनियल साँपिन है. काहें कि साली की लचक से मेरे मन में ऐसी लहरें उठने लगी हैं
जइसे पनियल साँपिन के चलने से पानी में उठती हैं.)

संझा की समझ में यही आया कि उसे हम उमिर लड़कियों को देख कर घबराहट होती है. इस कारण, उसे लड़कों को देखना अच्छा लगने लगा है.

‘‘बाउदी! वो हर शनिचर पहाड़ी से औषधि लेने उतरता है, कौन है ?
‘‘ललिता महाराज का गोद लिया हुआ बेटा है. तुमने देखा होगा ललिता महराज को. भक्ति में नाचते-बजाते पहाड़ी पर चले आते हैं.”
‘‘नाचने-बजाने की आवाज से कँपनी चढ़ने लगती है बाउदी! ’’
‘‘तुम्हारे साथ की लड़कियाँ ब्याही जा रही हैं. सारे गाँव में रोज ढोल घूमेगा. अपने को थामे रहना बेटी!’’



चैगाँव की बेटियों के बाप हल्दी और अच्छत लेकर सबसे पहले वैद्य जी को न्योतने पहुँचते. उस समय वैद्य जी का चेहरा पीला-सफेद पड़ जाता.
(मैं वर्तमान के भय से, भविष्य के भूत पैदा करता हूँ)


चैगाँव आपस में बात करने लगा कि संझा बिटिया को हल्दी नही लगेगी क्या ?
‘‘वैद्य जी साँसे-ढेकार नही ले रहे हैं.”
‘‘संझा बिटिया के भाग से बूढ़ा बैद कोठिला भर-भर धन-जस कमा रहा है. तो काहें ब्याह करेगा. ’’

चार पंच जन वैद्य जी के दरवाजे पहुँचे-‘‘संझा के साथ की सब लड़कियाँ ब्याह दी गई हैं बैद जी!’’

‘‘अरे हाँ! बैदाइन होती तो ध्यान दिलातीं...मैं आज से ही बर खोजने निकलता हूँ.’’बैद जी जवाब देकर बैठ गए.

‘‘संझा के साथ की लड़कियाँ बाल-बच्चेदार हो गई हैं बैद जी! वे नाती-पोतों वाली हो जाएँ तब संझा को बियाहिएगा का ?’’

‘‘देख रहा हूँ. यहाँ-वहाँ गया था. पनही टूट गई...’’

छठें-आठवें साल बैद्य जी आजिज आ गए-‘‘मेरी गुनवन्ती बेटी जोग दामाद भी तो जोड़ का मिले. मेरी बेटी मछरी तो है नही जो सड़ रही हो! उठा कर गड़ही में फेंक दूँ.’’

चैगाँव के लोग तिलमिला गए.‘‘ हमारी बेटिया सड़ी मछरी थीं और इनकी संझा में सुरखाब के पंख जड़े हैं." 

‘‘इसका कहना है कि हमने अपनी बेटियों को गड़ही में फेंक दिया.’’
‘‘चैबासे में तो लेन-देन भी नहीं चलता.’’
‘‘फिर बैदा संझा का ब्याह क्यों नही करना चाहता ?’’
‘‘बैद ने वैदाइन के मरने के बाद अपना ब्याह भी क्यों नहीं किया. जबकि हमारे यहाँ की कई उनके साथ बैठने को तैयार थी ?’’
‘‘बैद...बैदाइन के मरने के बाद औषधि छोड़ कर मूसली क्यों बेचने लगा ?
‘‘कहीं बाप ही...’’

‘‘संझा को इसलिए बाहर नहीं निकलने देता कि वह सब बता न दे!’’

(संझा को जन्म लिए सत्ताइस साल हो गए. बूढ़ा वैद्य पहले ही संझा को घर से निकाल देता, तो मुझे आज अपने खरबों बर्ष के जीवन मे, पहली बार इतना पतित न होना पड़ता. खैर! दुनिया तक यह फरमान जाना ही
चाहिए-‘‘किस्मत से लड़ा जा सकता है. हराया नहीं जा सकता.’’)

वैद्य जी दाहिनी पहाड़ी पर चढ़ते. उधर किन्नरों की बस्ती थी. दूसरे दिन बाएँ हाथ की पहाड़ी पर चढ़ते. जिधर चैगाँव देवता का मन्दिर था. वह दोनों ओर हाथ जोड़ते और लौट आते.

‘‘बेटी! तुमने एक दिन कहा था-अपनी जिन्दगी बनाए ंरखोगी, किसी भी हाल में.’’
‘‘मैं अपनी जिन्दगी नहीं खतम कर रही हूँ बाउदी! आप मुझे आदमखोरों के बीच भेज रहे हैं.”
‘‘मैं मजबूर हूँ.’’
‘‘मुझे बचाने से बढ़ कर क्या मजबूरी हो सकती है बाउदी!
‘‘मै बता नहीं सकता.’’
‘‘मेरी बात मुझसे ही नही बता सकते ?’’
‘‘मैं ने देखा कि तुम हर शनिवार....वो पहाडि़यों से उतरता हुआ लड़का...कनाई...अच्छा मानुख है...’’
‘‘वो लड़का और आप लोग मानुख हैं. मैं छिः मानुख हूँ बाउदी!’’

वैद्य जी ने आज पहली बार संझा को जोर से बोलते हुए सुना था. वे चैंक गए-‘‘ तुम बिदाई के समय चुप रहना. रोना मत बेटी!’’


वैद्य जी दीवार के सहारे पीठ टिकाए बैठे रहते . चैगाँव की परिपाटी के अनुसार, बेटी के ब्याह में सभी जुट कर काम कर रहे थे -‘‘वैद्य जी को ललिला महराज जैसे नचनिया का घर ही मिला था ब्याह के लिए. कनाई उनका सगा बेटा भी नहीं है. वृंदावन के मन्दिर में फेंका मिला था.’’
‘‘ संझा की उमिर भी तो बैद ने घर में बैठा कर बढा़ दी. कैसा भी सासुरा हो लड़की को अपना घर तो मिला.’’
‘‘देखों कैसा हाथ डाले बैठा है बैदा! कुछ नहीं कर रहा पापी!’’

विदाई के समय, संझा अपनी कोठरी से निकलने को तैयार नहीं हो रही थी. उसने कई दिन से खाना छोड़ दिया था और जमीन पर लस्त पड़ी थी. लाल साड़ी में बँधी हुई संझा को, कंधे में हाथ देकर चैगाँव की स्त्रियाँ, घसीटते हुए, डोली में बैठाने के लिए बाहर ला रही थीं.

वैद्य जी संझा को एकटक देख रहे थे. उन्हें लगा कि वह लाल कफन से ढकी, खटिया पर घिसटती वैदाइन हैं. ‘‘अरे वैदाइन हो ! सब छोड़ चले!’’अपने बाउदी का कलपना सुन कर संझा का बन्द मुँह खुल गया.
‘‘ऐसे ही करना था तो अपने हाथ से माहुर दे दिए होते बाउदी! बली खातिर बकरी सयान किए बाउदी! आखिरी भंेट! हे बुन्नू चाची! तिल्लो मौसी! सुब्बू भइया! मेरे बाउदी का खयाल रखिएगा. अरे बाउदी हो बाउदी!’’ भूखी संझा कराहते हुए, छाती पीटते हुए रो रही थी.

पिता-पुत्री के प्रेम को देख कर सभी आपस में कहने लगे-‘‘हमारी बेटियाँ भी बिदा र्हुइं. ऐसा कलेजा बेध देने वाला बिलाप तो चैगाँव में आज तक नहीं सुना. बाप की कितनी चिन्ता! इसी मारे संझा ही ब्याह नहीं करना चाहती होगी. हाँ, येही बात थी. ’’


ललिता महाराज के मन में उसी समय से संझा के लिए गाँठ पड़ गई. ‘‘ऐसा चिग्घाड़ रही है जैसे मेरे घर रेतने ले जाई जा रही है. आवाज देखो इसकी-मर्दाना.’’

‘‘संझा! मैंने रोने को मना किया था न! जिस दिन से ब्याह तय हुआ है, इतना रोई है कि गला फट गया है.’’वैद्य जी ने ललिता महराज और गाँव को सुना कर कहा.

(आज मैंने बूढ़े वैद्य के हाथ से संझा को छीन लिया है. आज वह अकेली है. आज मेरे खेल का चरम है. आज कनाई संझा के वस्त्र उतारेगा. फिर उसे कपड़े पहनने का मौका नहीं देगा. संझा गिड़गिड़ाएगी, बाप की इज्जत की भीख माँगेगी. उसी हालत में बालों से खींचता-कूटता-लतियाता हुआ, दाहिनी पहाड़ी से उन लोगों की ओर ढकेल देगा. जिस औरत का रोया रोया रो रहा हो उस औरत का नृत्य देखा है कभी, एक अलग मजा मिलता है. कोठे हर शहर में होते है, बीबियाँ होती हैं, प्रेमिकाएँ होती हैं फिर भी बलात्कार होते है कि नहीं. इसी मजे के लिए. )

संझा जमीन बैठी थी. वह खटिया का पावा पकड़े थी. ताखे नुमा रोशनदान से चाँदनी, प्रोजेक्टर की रोशनी की तरह, संझा के बदन पर पड़ रही थी. रोशनी में, लाखों धूल के कण, बेचैन गति से इधर-उधर दौड़ रहे थे. ढिबरी की लौ संझा के बाएँ वक्ष पर पड रही थी. हवा साँस थामे थी. फिर भी ढिबरी की लौ बुझने-बुझने को होकर लपलपा उठती थी.

‘‘धोखा हुआ है! ’’कनाई पाटी पर बैठ चुका था.
खून बहने से खून सूख जाने का दर्द ज्यादा ठंडा होता है.
‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बता देना चाहता हूँ. तुम मेरी बात सुन रही हो न ?’’
स्ंाझा ने हाँ में सिर हिला दिया- ‘‘ये तो कोई अपनी बात बता रहा है.’’
‘‘जनमास्टमी का दिन था. बसुकि के चारों भाइयों ने मुझे मन्दिर के पीछे वाली चट्टान पर चित्त पटक दिया. तीन भाई मुझे लात से दबाए हुए थे. उसका चचेरा भाई, पहवारी नाम है उसका, वही लाठी से मेरी ढोढ़ी (नाभि)से नीचे की नसों को तोड़ने लगा. जइसे मूसल से चिउड़ा कूट रहा हो. वे चारों चीख रहे थे कि मैं एक नचनिया की गोद ली हुई औलाद हूँ. बेर खाकर गुजारा करता हूँ. मेरी औकात कैसे हुई उनकी बहन को छूने की.’’देवथान में गोपिका गीत, झाल-करताल, मँजीरा, अपने उठान पर था. चिरई भी मेरी बचाने की पुकार-गुहार नहीं सुन सकी.

....जान चली जाती तो भी मैं बसुकि को नही छोड़ता. लेकिन उस दिन के बाद मैं किसी काम लायक नही रह गया .

...तुम्हारे बाउदी के पास मैं हर शनिचर अपने जिन्दा रहने की आस लेने जाता था. इधर कुछ दिनों से मैने निराश होकर जाना बन्द कर दिया था. वैद्य जी ने इसका यह अरथ निकाल लिया कि मैं ठीक हो गया हूॅ. मैं भी सबसे अपनी बात छिपाना चाहता था. इसके लिए विवाह करना जरुरी था, सो चुप रहा.
... तुम दिन में मेरे साथ दिखावे के लिए बनी रहना. रात में अपने जिस प्रेमी के पास कहोगी, मैं खुद पहुँचा कर आऊँगा. मैंने तुम्हें धोखा दिया है. मैं बधिया कर दिया गया हूँ.’’कनाई संझा के पाँव पर अपना माथा रख चुका था.
स्ंाझा ने अचकचा कर कनाई को सीने से लगा लिया.

कनाई को संझा की खपच्चियाँ उस पिंजरे की तरह लगीं, जहाँ बसान करके, वह उड़ान भले न भर पाए लेकिन सुरक्षित है-‘‘मैं बेर और लाख की रखवारी के लिए बन के मचान पर ही रहता हूँ. सुबह के पहर यहाँ आता हूँ, दो-तीन घण्टे देवथान का काम करना होता है. तुम यहाँ मेरी अम्मा की कोठरी में रहोगी या मेरे साथ चलोगी ?’’

संझा ने कनाई की हथेली में अपनी सकुच-हथेली रख दी.

(प्रेम करने वाले का दिमाग संसार का सबसे तेज दिमाग होता है. मैं सोच रहा था कि मैं उस बुड्ढे बाप की पीठ पर चढ़ा हूँ. वह चुप इसलिए था कि क्योंकि उसको मुझे पीठ पर चढ़ा कर तगड़ा धोबी पाट देना था.)

मचान पर, कनाई के नाक बजने की आवाज सुन कर संझा ने घूँघट उठाया. वह एक पहर तक कनाई को देखती रही. कोई उसके इतने पास है, उसका सगा है- ‘‘बाउदी ने गोपाल को उसके फाड़ (आँचल) में डाला है. वह जान लगा लग़ा देगी उसमें जान डालने के लिए.’’


उस रात की सुबह, बेर के कांटों भरे जंगल में, हरी पत्तियों के बीच पीले-सिन्दूरी बेर थे. भूरी डालियों पर की लाख, सुहागी लाल थी.

मचान पर औधें लेटा हुआ कनाई, दूर नदी की ओर देख रहा था. नदी से उठते कोहरे की कमर पर भृंगराज की पत्तियाँ कैसे लिपटी है ? ओह यह तो संझा है जो नदी में खड़ी डुबकी ले रही थी. रात के तीसरे पहर संझा ने भृंगराज और कोइन यानी महुए के बीज को कूँच कर तेल बनाया, गोपाल की पीठ पर बैठ कर उसकी मालिश की, उसे केले की जड़ का रस पिलाया था. चैथे पहर नदी की ओर निकल गई थी.


‘‘संझा! देर हो गई, देवथान चलो जल्दी. तुम्हारे छूने से जो आराम मिला है वो ललिता महराज कुटम्मस करके बढा़ देगे.’’

“संझा ने आँचल से हाथ बाहर निकाल कर बरजने का इशारा किया-‘‘मुझे यही छोड़ दीजिए. ’’

‘‘नहीं!नही! तुम, चलो!’’गोपाल ने संझा की पीपल के पत्तों जैसी नसों वाली काँपती हथेली थाम ली और खींचता हुआ ले आया.


संझा ने बाहरी दुनिया का एक अनुमान लगाया था. उसकी ससुराल का, उसके अनुमान की दुनिया से, कोई मेल नहीं था. उसकी ससुराल में तीन पत्थर की कोठरियाँ थीं. जिसके दरवाजे जान बूझ कर छोटे बनाए गए थे कि गर्दन झुकानी पड़े. एक कोठरी में चैगाँव देवा स्थापित थे. दूसरी कोठरी में उसके ससुर के उतारे कपड़े रखे थे. तीसरी कोठरी में सास ने अपनी लाठी रख दी थी. महाराज जी ‘‘गिरा कर मारुँगा’’ कहते हुए उनके हाथ से जब तब लाठी छीन लेते थे. कम उम्र में ही उसकी सास झुक-झूल गईं थीं. आँगन के कोने में रखे फूटे बर्तनों में बरसात का पानी भरा था, जिसमें मुर्दा मकड़ी तैर रही थी.

‘‘कनइवा की माई!’’

संझा वैदाइन की साडि़याँ ही पहनती थी. वे पुरानी-सूती साडि़याँ, बदन और सिर से चिपकी रहती, फिसलती नहीं थी. उसका घूँघट उसके लिए मायके की खिड़की की तरह था. उस खिड़की से उसने आवाज की दिशा में देखा. उसकी आँख पत्थर की आँख की तरह पलक झपकाना भूल गई.

उसके ससुर के हाथ पैर चेहरे पर एक भी बाल नहीं था. उनकी आँख में अमावस की रात में बनाया गया चैडा़ काजल था. होंठों पर अढ़उल की पंखुरियों को मसल कर तैयार की गई लाली थी. नाक से लगायत माँग के आखिरी छोर तक, अभ्रक मिला सिन्दूर रगड़ा हुआ था. वह राधानामी घाघरा और कुर्ता पहने थे. लाल गमछे को सिर पर ओढ़नी की तरह लपेटे हुए थे. उनका बदन, सिन्दूर से टीके गए मुगदर जैसा था.

‘‘कनइवा की माई! ये नई दुलहिन है ? पुरानी मारकीन क्यों पहने है ? सजी-बजी काहें नही है ? इससे कह दो, परसों साइत है. उस समय इसकी मुँह दिखाई करुँगा. इस पर जल छिड़क कर इसका नया नाम रखूँगा-रास मणि.’’संझा पर ललिता महराज की एक्सरे-नजर थी. वह देख रहे थे कि संझा एक हाथ से चुन्नट को जाँघों में दबा रही है. दूसरे हाथ से पल्लू को सीने पर कस रही है.

‘‘ये साडि़याँ इसके माँ की असीस की नाई इससे ढके रहती होगी...हैं न बहुरिया ! आओ मेरे साथ काम सीखो.’’ उसकी सास, उसेे ससुर के सामने से हटा ले गई थीं.

‘‘तुम्हारे ससुर माने ललिता महराज जी, किसुन लीला में राधा रानी बनते थे. वृन्दावन में राधा रानी इनके सिर पर्र आइं और महराज जी से कहा कि तुम मेरी सखी ललिता हो. जाओ चैगाँव देवता के मन्दिर में प्रान प्रतिसठा करो. वहीं रह कर हमारी सेवा करो.
...संजोग देखो उस बेरी ये अँगना में कह कर गए थे कि नौटंकी में घूमते-घूमते बदन को थाका मार गया है. अब यही चैगाँव में, एक असथान पर रहने का मन है. लेकिन बैठ जाऊँगा तो खाऊँगा क्या ? देखो देबी ने सब कैसे जान लिया ? सिद्ध पुरुख हैं महराज जी!’’  संझा की सास ने, जमीन पर जैसे ललिता महराज के पाँव हों, इस भाव से माथा टेकते हुए कहा.

‘‘नाहीं दुलहिन! अभी कौनो काम मत करो. चार रोज सो-बैठ लो. मचान पर निकलने से पहिले मन्दिर में हाथ जोड़ लेना. एक दम हउले से, महराज जी जाप में बैठे होंगें.’’

संझा को देख कर कनाई को बार बार भ्रम क्यों होता है. शाम की पहाडि़यों से उतरती, संझा को देखकर उसे लग रहा है कि वह अपना रंग आसमान को दे कर उतर रही है. सन्ध्या स्नान करती हुई संझा, नदी को अपनी सखी बना कर, उसके साथ अपना सिंदूर बाँट रही है.

संझा ने कनाई की दाढ़ी बनाने का इशारा करते हुए चोली से औजार निकाल लिया.
‘‘ये तुमको कैसे मिला.’’
संझा ने साँस खींच कर अपनी आँखें बन्द कर लीं और तर्जनीपर अँगूठा चढ़ा लिया.
‘‘अच्छा! ललिता महराज जाप में बैठे थे, तब तुमने चुरा लिया. वाह! मन से मस्त हो लेकिन जबान से नहीं बोलती, काहें ?’’संझा ने नजरें झुका लीं.
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(Kalki Subramaniam) अपनी एक पेंटिग के साथ.)
‘‘लाज लगती है ?’’


संझा ने सिर हिला दिया.
‘‘इसीलिए इतना ढके तोपे भी रहती हो अपने को. खानदानी घर की बेटी हो न! ’’


संझा ने कनाई से दाढ़ी बनाना सीख कर उसकी दाढ़ी बनाई. उसे मालिश करके नहलाया और औषधि देकर सुला दिया. इस दौरान कनाई बिना रुके-थके बोलता रहा. लगता था कोई पहली बार उसे सुनने वाला मिला है.

कनाई ने संझा को बताया कि ललिता महराज उससे कहते हैं -‘‘ तुम तो भूसा घास कुछ भी खा लोगे भगठी-छिनार की औलाद, लेकिन देवता को तो ये नहीं खिला दोगे. देवता के लिए असली घी की एक्इस पूड़ी और गाय के दूध का बड़ा कटोरा भर खीर का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा, कहीं ले आओ.’’दो चार भगत-साधु मन्दिर में बने ही रहते थे. जिनके लिए प्रसाद बढ़ा कर बनाना पड़ता है. कनाई और उसकी माँ के हिस्से में बेर बचता है. कनाई ने आमदनी बढाने के लिए दो साल से बेर बेचने के साथ लाख की खेती भी शुरु की है. लेकिन उसके पास बढि़या उपज योग्य न ताकत बची है न लागत है.



वह कनाई का सब कुछ लौटाएगी. ताकत भी लागत भी. ‘‘कहीं ठीक होकर कनाई उसी पर मर्दानगी दिखाने को उतावला हुआ तो! तो ? वह अपने को बचाने के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दे ? नहीं, उसके बाउदी ने उसे धरम सिखाया है. जब कनाई ठीक जाएगा तब वह कनाई से कह देगी कि वह बरम्हचारी रहना चाहती है. वह बसुकि से ब्याह कर ले. वह कनाई के लिए इतना कर रही है तो कनाई बदले में उसकी हर बात मानेगा. हाँ ये सही है.’’

संझा को सबसे पहले कनाई, अपनी सास और अपने लिए भरपेट भोजन का इंतजाम करना था. उसकी समझ में यही आया कि वह लाख की खेती में मेहनत बढ़ा देगी. साथ-साथ जंगल में अपने काम-काज से आए लोगों को औषधि देना शुरु करेगी.

यही सब सोचती हुई संझा, अगली सुबह, दोनों हाथों में भरी-बड़ी बालटी लेकर मन्दिर धोने के लिए चढ़ रही थी. उसने देखा कि पहाड़ी पर खड़े ललिता महराज अचरज से उसे देख रहे हैं. उसने लड़खडा़ कर बाल्टी का पानी गिरा दिया. मानों उसने पानी भर तो लिया था लेकिन अब इतनी ताकत नहीं है कि लेकर चढ़ सके.

‘‘बइठो बहुरिया! माथ से आँचल तनिक पीछे सरका लो.’’

मुँह दिखाई के समय संझा की आँखें बन्द थी. उसे भान हो रहा था कि ललिता महराज की आँखें उसके चेहरे पर नाच रही हैं. ललिता महराज जो खोज रहे थे वह कल रात नदी तीरे गड्ढा खोद कर दफना दिया गया था-संझा के बदन,चेहरे के बाल, कनाई के मचान पर सो जाने के बाद.

संझा मनुष्यों की दुनिया में धीरे-धीरे शामिल हो रही थी.

शुरु के महीनों में वह, उजाला और आदमियों से इतना डरती थी, मानो वह इंसान नहीं कोई प्रेतात्मा हो. उजाले में उसके कपड़ों के पीछे तक का सब कुछ दिख जाएगा. आदमी उसे बोतल में बन्द करके नदी में फेंक देगे. जैसे उस रोग के कीटाणु को मारने के लिए उसी रोग के टीके लगाए जाते हैं, भयानक भय को जीतने, और अपने को बचाए रखने की धुन में संझा केे भीतर प्रेतीली ताकत पैदा हो रही थी. इसी प्रक्रिया में वह चैदह साल की उम्र से अपनी नींद भूल चुकी है. वह पेड़, थुंबी या दीवार के सहारे झपकी लेती है और प्रेत की तरह काम करती है.

अपने को जिन्दा रखने के लिए वह सबकी जरुरत बन जाना चाहती थी.

‘‘संझा! अपने को हवा क्यों नही लगने देती हो ? पल्लू हटा कर बैठ लो पल भर! तुमने गर्दन पीछे करके पानी में अपना ये हिस्सा देखा है कभी!”कनाई बहाने से संझा की कमर पर हाथ फेर रहा था. वह संझा के इतने पास आ गया कि उसकी साँस का महुआ संझा की साँस में चढ़ने लगा.

संझा ने नशा तोड़ने के लिए खट् से बेर की लक्खी डाल तोड़ दी. कनाई चैंक गया. संझा, बेर की लाख से भरी डालियों की गुल्ली काटती जा रही थी. अपने लंबे हाथों से बेर की ऊँची शाखाएँ झुका कर उनमें गुल्ली बाँधती जा रही थी. उसके बाद वह उन गुल्लियों पर पुआल लपेट देती. लाख बनाने वाले करियालक्का कीड़े गर्मी पाकर जल्दी बढ़ते हैं. उसने कनाई से इशारा किया कि आओ काम में हाथ बटाओ.

कनाई ने भी इशारे में जवाब दिया कि मैं मचान पर आराम से लेट कर तुम्हें देखूँगा. एक यही काम मुझे अच्छा लगता है.

कनाई जब सोकर उठा तब संझा नदी पर थी. कुल्थी का साग तोड़ती स्त्रियों को इशारे से बता रही थी.. ये किसी के ठेहुनों में दरद होतो...ये भूख न लगती हो तो. संझा उनके सामने ही जड़ या पत्ती का टुकड़ा तोड़ कर पहले खुद खा रही थी-

‘‘देखो माहुर नहीं दे रही हूँ. मैं बैद जी की बेटी हूँ. सही औषधि दे रही हूँ.’’गाँव की स्त्रियाँ संझा के इशारे समझने की तकलीफ क्यों उठाए ? इसलिए संझा को औषधि देते समय बोलना पड़ रहा था.

‘‘तुम ? हमरे बैद महराज की बेटी हो!”

‘‘तबियत में सुधार हो तब आना-दो आना पैसा, चाहें पाव-आध पाव जोन्हरी-कोदो, जो तुम्हारी सरधा हो, लेती आना चाची. सिमरा फुआ का हाल अब कैसा है ?’’

‘‘ऊ चंगी हो रही हैं. बिदाई के समय रोते-रोते तुम्हारी आवाज फट गई थी वो अभी ठीक नहीं हुई क्या संझा ?’’
‘‘अरे चाची! अभी चैगाँव को मुझ पर भरोसा नहीं न! सबके सामने औषधि खानी पड़ती है. उसी में गलती से सिन्दूर का फल खा लिया. अब तो ये आवाज कबहु नहीं ठीक होगी.’’

संझा को अपने पर अचरज हुआ. किसी ने उसके उसके बारे में कुछ पूछा नहीं कि दिमाग सन्न! हो जाता था. आज कैसे उसे अपनी भारी और फटी आवाज का हमेशा के लिए जवाब मिल गया ? कोई उसे जवाब भेज रहा है, बचा रहा है-बाउदी !

‘‘बहुरिया! आज महराज जी पूजा नहीं करेंगे. तुम्हें ही करना है.’’अगली सुबह देवथान आने पर उसकी सास ने कहा.
‘‘क्यों ?’’संझा की दो पल की चुप्पी में यह सवाल था.
‘‘महीना हुए हैं. तीन दिन असुद्ध रहंगे.’’



तीन दिन बाद संझा ने अपनी माँ की पुरानी साड़ी फाड़ी. उस पर सहतूत कूच कर लगाया. जहाँ ललिता महराज की माहवारी के कपड़े धोकर फैलाए गए थे, वहीं वो कपड़े फैला दिए. पेड़ पर धारी खींचने लगी कि सत्ताइसवाँ दिन याद रहे. वह तो कहो कि गाँव की स्त्रियों से उनकी पीड़ा के बारे में सीधे बात करने के बाद वह माहवारी के बारे में जान गई थी.

‘‘तुम तीन दिन मचान पर लेटी रहोगी तो त्राहि त्राहि मच जाएगी बहुरिया!’‘चैगाँव की घसियारिनें कहने लगीं. संझा ने तीन दिन कनाई से फंकी कुटवाई और पुडि़या बँधवा कर जरुरतमंदों को दिया. सत्ताइस दिन बीतते न बीतते चैगाँव की स्त्रियाँ खुद कहने लगती-‘‘बहुरिया औषधि पहले ही बना कर रख लेना. कनाई से कहना तीन दिन कहीं जाए नहीं. ’’

‘‘ये लोग मुझसे नहीं, अपनी जरुरतों से प्रेम करते हैं. मैं अपनी असलियत भूल रही हूँ. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. मुझे प्रेम की आदत पड़ रही है. एक दिन सब कुछ छिन जाएगा. कनाई...चैगाँव... सबके प्रेम के बिना...सबकी घिन्न के साथ...उसे जिन्दा रहना पड़ेगा अगर !’’

संझा की झपकी उचट जाती. वह बदहवास सी, चैगाँव के बाकी किसानों की डालियों पर भी पाल बाँधने लगती. चैगाँव के लिए, कनाई के लिए, अपनी सास के लिए, इसको-उसको, सबको स्वस्थ रखने की औषधि तैयार करने लगती.

चैगाँव के लोग अगली सुबह अपनी पाल बँधी डालिया देखते तो कहते-‘‘संझा बिटिया के कारन यहाँ की हवा बदल रही है.

‘‘वह बन देबी है. कुँवारेपन से उसके लच्छन देबियो जैसे थे.’’
‘‘हम अपनी तकलीफ के लिए मुँह खोलते ही हैं कि आगे बीमारी का लच्छन वो खुद ही बताने लगती है.’’

‘‘मैं रात में उसके पास धावता हुआ गया तो क्या देखता हूँ कि पहले से ही औषधि लिए खड़ी है.’’

‘‘हाँ! हाँ! हमारे साथ भी ऐसे ही हुआ है.’’

चरी काटने, पाल बाँधने, बेर तोड़ने, लकड़ी बटोरने, नदी नहाने आई स्त्रियाँ, संझा से गाँव-जवार का एक-एक सुख-दुख बतियाती. हारी-बीमारी की चर्चा जरुर करती थीं. इससे संझा को अंदाज लग जाता था कि किसकी बीमारी रात के एकांत में हमलावर हो जाएगी. उसकी औषधि की जड़ी पत्तियाँ वह कूट-छान कर रख लेती थी.

कुछ और बीमारियाँ भी थी जिसकी दवा लेने वाले रात में ही आते थे.

‘‘मैं बसुकी!’’
‘‘हम आपको बिन देखे पहचानते हैं.’’

‘‘आप मेरी तकलीफ के बारे में कइसे जानती हैं.’’

‘‘क्योंकि तुम सुन्दर हो. गाँव की स्त्रियाँ तुम्हारी चुगली कर रही थीं. कह रहीं थी कि बसुकि संझा बनना चाहती है. तीन महीने से घर के बाहर नहीं निकली. यह सुन कर मैंने बुलवाया. तुमको इतनी देर नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘दीदी! कनाई से मत बताइएगा.’’

‘‘नहीं, किसी को कुछ नहीं.’’

‘‘मेरी साड़ी पहनो. ये जड़ी खालो. मेरे साथ सोन नदी के किनारे चलो.’’

बसुकि के देह से खण्ड-खण्ड, कट-बह कर निकलता रहा. संजा उस पर मिट्टी डालती रही और बसुकि के बदन पर पानी. उजाला होने से पहले, बसुकि को सहारा देकर, उसके घर के दरवाजे तक छोड़ आई.


सात दिन की औषधि खत्म होने के बाद, बसुकि, रातों को संझा और कनाई से मिलने आने लगी. संझा उन दोनों को मचान पर छोड़ कर बहाने से उतर आती और चारों दिशाओं में पहरा देती.

भादो का महीना लग गया था. पीले बेर फटने लगे थे. बेर की अपनी आधी डालियाँ भूरी और लाख से लदी डालियाँ लाल हो चुकी थीं. लंबी-लंबे बास का गुलेल बनाकर लाख की डालियों को टिकाया जाने लगा था. लाख की लाली और पानी के बादलों के कारण जंगल दिन में भी शाम की तरह लाल-साँवला रहने लगा था. काँस छाती तक चढ़ आया था और गोजर-बिच्छुओं का मन बढ़ गया था.

हर साल भादों के कृष्ण पक्ष में ललिता महराज कृष्ण लीला करवाते थे. इस बार संझा के कारण घर में धन था. देश-देश से सखी और भक्त जन आए थे. चैगाँव से भी दो लोगों ने ललिता महराज से मन्त्र ले लिया था. दिन भर कीर्तन चलता. कई बार प्रसाद बँटता.

दिन भर सखी लोग सोती थीं. शाम से, संझा उसकी सास और चैगाँव की कई स्त्रियाँ सखी लोगों की सेवा करके पुन्य बटोरतीं. आठों सखियों को चिरौंजी का उबटन मला जाता, कुएँ की जगत पर बैठा कर नहलाया जाता, पीले-लाल रंग की पुडिया से रँगे बाडी,पेटीकोट, साड़ी, ब्लाउज,महावर, चूड़ी, बिन्दी चढ़ाव पर दिया जाता. चैगाँव के बच्चे भीड़ लगाकर उन्हें देखते और गरीब-गुरबा उनका जूठन खाकर जनम सुद्ध करने के लिए बैठेरहते.

शाम से कृष्ण लीला होती. रात्रि के दूसरे पहर सखी लोग भक्ति भाव में नाचती-गाती, रासलीला की झाँकी दिखातीं. तीसरे पहर मन्दिर का कपाट बन्द कर दिया जाता. बन्द कपाट के पीछे प्रकृति और पुरुष का चिरंतन नृत्य होता, जिसमें सिर्फ सखी लोग शामिल होतीं. नित्य लीला कोई भूल से भी देख ले तो अंधा हो जाएगा.

संझा की सास, ललिता महराज और सखी लोगों के कपड़े धोते हुए, पिछले चार दिनों की तरह, आज भी उलटी कर रहीं थी. संझा उन्हें काम करने से मना करते हुए उनके हाथ से कपड़े छीनने गई थी. वह देखने लगी कि गेरुए कपडों पर नाक बहने जैसा क्या लगा है ? उसी समय देवथान पठार के नीचे की समतल जगह से हल्ला उठा-


‘‘ललिता महराज! कनाई को बाहर निकालो! ये हमारी बहन बेटियों को खराब कर रहा है.’’

नीचे समूचा चैगाँव इकट्ठा था. ललिता महाराज नींद से उठकर बाहर निकले. हाथ के इशारे से शांत हो जाने को कहा लेकिन...

‘‘हम उस हरामी को हमेशा के लिए ठंडा करने आए हैं. बहुत गरमी चढ़ी है साले को. आप कनाई को हमें सौंप दीजिए.’’ये बसुकि के भाई थे जिनमें पहवारी सबसे आगे था.
‘‘कनाई ने ऐसा क्या कर दिया ?’’
‘‘उसने हमारी बसुकि को... कहते जीभ कट रही है...गरभ ठहरा दिया था.’’
‘‘कनाई! कनाइवा! हमारे जइसे धरमी के साथ रह कर भी छिनार की औलाद ही निकला. आप लोग निचिन्त रहिए. ललिता महराज के दरबार में आए हैं. न्याय होगा. मैं कनाई को आप सब को सौंपता हूँ. कनाई! ’’



संझा की सास चैगाँव देवता से गुहार करती हुई जमीन पर लोटने लगी. दरवाजे की ओट में खड़ी संझा समझ नहीं पा रही थी कि कनाई को कैसे बचाए ? भीड़ के सामने जाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी. वह बसुकि के बारे में सब को बता दे... नहीं बेचारी कितने लोगों के साथ बदनाम होगी.’’

‘‘सुनो कनाई! तुम कह दो कि ठीक है....पंच लोग आज ही बसुकि से तुम्हारा ब्याह कर दें. ’’संझा ने किवाड़ की ओट से कहा.
‘‘नहीं! बसुकि के भाई लाठी के हुरे से मेरा कपार फाड़ डालेंगे. मैं सब सही-सही बता दूँगा.’’
‘‘कनाइवा! मैं तुम्हें लेने आऊँ कि तुम खुदे आ रहे हो ?’’ललिता महराज क्रोध में चीख रहे थे.
‘‘मैंने कुछ नहीं किया है ललिता महराज! चैगाँव के लोगों.’’कनाई ने देख लिया कि पहवारी उसे दिखा कर,अपनी लाठी से, मिट्टी को धान की तरह कूट रहा है.

‘‘मैं...मैं नपुंसक हूँ...’’

‘‘झूठ्ठे हो तुम! संझा जैसी ताकतवर औरत को तुम सँभाल न पाते तो वो कबका तुम्हें छोड़ कर किसी मर्द के साथ बैठ गई होती! ललिता महराज! इसे पहाड़ी से ढकेलिए ! हमें सौंपिए. आज सारा चैगाँव सबक सीखेगा.’’

‘‘नहीं रुकिए! मेरी बात सुनिए आप लोग... संझा मुझे इसलिए छोड़ कर नहीं गई कि....वो ....वो हिजड़ा है. एक दिन बिसेसर चाचा को नींद के लिए पोस्ता दाना देने से पहले इसने खुद चख लिया था. उस रात, मेरी जानकारी में ये पहली बार सो गई थी. इसकी साड़ी इसके सिर पर चढ़ गई थी और पल्लू हट गया था. तब मैंने देखा था-

‘‘...कि संझा का ऊपर बेर है और नीचे बेर का कांटा...’’
‘‘मुझको तो उसकी चाल और आवाज के कारन बिदाई के दिन से सुबहा था.’’
‘‘आदमियों से भी ज्यादा तो उसकी ताकत है तभी तो हमसे बढ़ कर काम कर लेती है.’’

‘‘उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीना चाहिए लेकिन उसने पूरे गाँव को अपने हाथ से औषधि पीस कर कई-कई दिन तक पिलाया है.’’

‘‘वह हम सबको अपने जैसा बनाना चाहती थी. इसलिए हम सबको असुद्ध कर रही थी.’’
‘‘वह तीस साल से सबको धोखा देकर हमारे बीच रह रही है.’’

‘‘उसने चैगाँव की माटी को...बन को...नदी को मैला किया है.’’

‘‘उसने मेरे देवथान को अपवित्तर किया है. इसको नग्न करके इसका बाल मूँड़ दो. मुँह पर कालिख पोत कर पूरे चैगाँव में मारते हुए घुमाओ. उसके बाद उन लोगों को खबर कर दो इसे आकर ले जाएँ. राधे!राधे! पूरे चैगाँव को सुद्ध करने के लिए जाप बैठाना पड़ेगा. सखी लोगों के रुकने की अवधि बढ़ानी पड़ेगी.’’

बसुकि के भाई संझा के केश पकड़ घसीटते हुए नीचे ले आ रहे थे. कंकड़ ओर बेर के यहाँ-वहाँ बिखरे काँटों पर रगड़ती हुई संझा कहना चाहती थी ‘‘चैगाँव देवा! रच्छा करो’’लेकिन उसके मुँह से निकला ‘‘बाऽऽउदी! बाऽऽउदी! ये लोग आपकी संझा को मार रहे हैं!’’ संजा की डेकरती हुई आवाज पहाडि़यों से टकराती हुई बैद्यजी की तक पहुँचती, उसके पहले ही बूढ़ा बाप बैचेन होकर, हाँफता हुआ संझा के ससुराल की दिशा में दौड़ चुका था.

चैगाँव के लोगों में संझा को नंगा करने की होड़ मची थी. उसकी माँ की सफेद धोती हवा में छोटे-छोटे टुकड़ों में उछल रही थी. चैगाँव के जवान मर्द, उत्तेजना मंे चिल्ला रहे थे कि देखें हिजड़े का कैसा होता है. संझा, सैकड़ों चोट करती हथेलियों के बीच जमीन पर पड़ी थी. उसकी आँखें माँ की चिन्दी-चिन्दी उड़ती साड़ी देख रही थी, अपनी स्मृति में वह मरी हुई माँ की बाँह पर सोई थी...बाबा से ससुराल के लिए बिदा ले रही थी. उसके कान में कनाई के संझा!संझा!कह कर रोने, ललिता महराज के ‘‘इसके खून से देवथान धुलेगा तब पवित्तर होगा’’ कहने और लोगों के हँसने की आवाज पड़ रही थी, लेकिन दिल और दिमाग को सिर्फ एक बात साफ तौर पर सुनाई दी-

‘‘संझा! मेरी गुडि़या...तुम्हारे जनम के बाद मैंने और तुम्हारी माँ ने तुम्हें पालने के अलावा कोई काम नहीं किया... हमारा प्रेम हारने मत देना मेरी बच्ची!’’अपने ऊपर झुके हुए पाँवों की दरार से संझा को बाउदी की खुली हथलियाँ दिखार्द दी.

‘‘जिस सच्चाई को छिपाने के लिए तीस साल, मैं और मेरा बूढ़ा बाप, हर पल डरते रहे, उस सच्चाई के खुलने का ही डर था, खुल गई तो अब कैसा डर! अब कोई डर नहीं.’’

संझा ने पीठ के नीचे दबी, नुकीली कांटों वाली वह साख निकाल ली जो अब तक उसे धँस रही थी. उसने पूरी ताकत से उसे लहराया. आधी भीड़ चीखती हुई पीछे हट गई.

‘‘सुनो चैगाँव के बासिन्दों!’’संझा की फटी आवाज की तरंगो से कंकड़ भरभरा कर लुढ़कने लगे.

पहाड़ी पर खड़ी संझा को देख कर चैगाँव जड़ हो गया. उसके बदन पर लँगोट बची थी. अगरबत्ती के धुएँ के रंग जैसी त्वचा पर, जगह-जगह काँटे और कंकड़ धँसे थे. कई जगह से रक्त की पतली-पतली धार बह रही थी, जिस पर लतर-पत्तियाँ चिपकी थीं. माथे का सिंदूर आधे गाल पर फैल गया था. उसके हाथ में बेर की फल-कांटेदार डाल थी.


वह अच्छा करने पर फल और बुरा करने पर कांटे देने वाली दिखाई दे रही थी. सभी देख रहे थे कि रक्त की धारियों को पोंछ दिया जाए, तो चैगाँव देवता की मूर्ति बिलकुल ऐसी ही है.

हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों- 


‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ामर्द है. मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेकर सुनाऊँ क्या ? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया...उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था...जब खून नहीं रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...चैगाँव के एक एक आदमी की जन्मकुडली है मेरे पास.

न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ. मैं वो हूँ जिसमें मुझमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ. सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ. अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है. मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी. तुम लोग अपनी सोचो. तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे.’’


(मैं अब तक भाग्य था. लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजडा़ हूँ.)


(सभी पेंटिग Kalki Subramaniam के हैं जो खुद ट्रांसजेंडर हैं)
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kiransingh66@gmail.com


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इस कहानी पर आधारित राकेश बिहारी का आलेख पढने के लिए यहाँ क्लिक करेंकहानी के साथ एक बेतरतीब वार्तालाप उर्फ आत्मालाप या आत्म-प्रलाप...

भूमंडलोत्तर कहानी – १८ ( संझा : किरण सिंह ) : राकेश बिहारी

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(Cavan Ó Raghallaigh is a father, a spouse,
 a political activist and a transgender man)






कथाकार किरण सिंह की  कहानी  ‘संझा’दो लिंगों में विभक्त समाज में उभय लिंग (ट्रांसजेंडर) की त्रासद उपस्थिति की विडम्बनात्मक कथा है.  इसे ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’और प्रथम‘हंस कथा सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है.  इस कहानी पर आधारित कुछ  रंगमंचीय प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं.

कथा- आलोचक   राकेश बिहारी ने अपने चर्चित स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी”  के १८ वें क्रम में इस कहानी का चुनाव विवेचन – विश्लेषण के लिया किया है. अपने इस श्रृंखला में उन्होंने कहानियों के चयन में अलग- अलग विषय वस्तुओं का  ख्याल रखा है.  

‘उभय लिंग’  मनुष्य सभ्यता के ही ‘अंग’ हैं. मनुष्य ज्यों ज्यों ‘सभ्य’ होता गया वह इस ट्रांसजेंडर के प्रति उतना ही क्रूर होता गया.  राकेश बिहारी ने  इस कथा से होते हुए गम्भीरता से इस निर्मित मन: स्थिति को समझा है, परखा है. 


यह स्तम्भ अब पुस्तक आकार में आधार –प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है.




भूमंडलोत्तर कहानी १८
कहानी के साथ एक बेतरतीब वार्तालाप उर्फ आत्मालाप या आत्म-प्रलाप...
(संदर्भ: किरण सिंह की कहानी ‘संझा’)

राकेश बिहारी



मालोचन पर इस स्तम्भ की शुरुआत मई 2014 में हुई थी. उसके कुछ ही दिनों पूर्व उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को तृतीय लिंग की मान्यता देने का महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया था. चूंकि इस स्तम्भ को मैं कहानियों के बहाने अपने समय की समीक्षा की तरह देखना चाहता हूँ, मैंने  किरण सिंह की कहानी ‘संझा’पर लिखना तभी तय कर लिया था. पर कई बार कहानी पढ़ लेने और उस पर बात करने की पर्याप्त मानसिक तैयारी कर चुकने के बावजूद कतिपय कारणों से उस पर लिखा जाना स्थगित होता रहा. अब जब यह स्तम्भ समापन के बहुत करीब आ चला है, कुछ अलग से लिखने की कोशिश करने के बजाय अपनी डायरी के उन पन्नों को ही आपके समक्ष रख रहा हूँ, जो उच्चतम नयायालय के निर्णय के बाद ‘संझा’ कहानी को पढ़ते हुये कभी लिखी गई थी. जहां तक मुझे याद है, टुकड़ों-टुकड़ों में यह डायरी करीब पंद्रह-बीस दिनों में लिखी गई थी, पर अब गौर करने पर पाया कि पहले दिन के बाद मैंने कहीं कोई तारीख दर्ज नहीं की है. इसलिए आप चाहें तो इसे कहानी के बहाने खुद से की गई बातचीत, आत्मालाप, एक पाठक-आलोचक के बेतरतीब नोट्स या फिर कुछ और भी कह सकते हैं. प्रस्तावना अनावश्यक लंबी हो जाये उसके पहले आइये सीधे आपको अपनी डायरी तक लिए चलता हूँ.  



पन्द्रह  अप्रैल, 2014
 राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ और अन्यके मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए के सीकरी की खंडपीठ ने आज एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है. यह निर्णय इन अर्थों में ऐतिहासिक कहा जाना चाहिए कि इसमें उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगो को तृतीय लिंग (थर्ड सेक्स) के रूप में पहचान देने के साथ उन्हें सभी विधिक और संवैधानिक अधिकार प्रदान करने का निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को दिया है. यह भी गौरतलब है कि अपने इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर शब्द के साथ ट्रांससेक्सुअल और ‘हिजड़ा’ शब्द का प्रयोग करते हुये उनके उस अधिकार की रक्षा की बात भी की है जिसके तहत वे अपनी लैंगिक पहचान को तृतीय लिंग की तरह स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त कर सकें.

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को पढ़ते हुये मुझे कोई 20 महीने पहले हंस (सितंबर, 2012) में छपी किरण सिंहकी कहानी ‘संझा’ की याद हो आई. उस कहानी की नायिका संझा एक किन्नर स्त्री है जो अपने जीवन के 30 वर्षों तक अपनी लैंगिक पहचान दुनिया से छुपाते हुये खुद को वैद्यिकी का हुनर सीखने में झोंक देती है और एक दिन जब गाँव वालों को उसकी लैंगिक हकीकत का पता चलता है, भीषण हुंकार करते हुये वह स्व-अर्जित सामर्थ्य, कौशल और दक्षता के बूते अपनी अस्मिता का दावा करती है. संझा का वह हुंकार उन सभी गाँव वालों की बोलती बंद कर देता है जो उसकी लैंगिक पहचान से अवगत होने के बाद उसे अपमानित करते हुये अपने समाज से बाहर कर देना चाहते हैं.

यूं तो किन्नरों के जीवन की विडम्बनाओं को दिखानेवाली कई फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें फौरन मुझे बॉम्बे, दरम्यान, तमन्ना आदि फिल्मों के नाम याद आ रहे हैं. इस विषय पर लिखे कुछ उपन्यास यथा- तीसरी ताली (प्रदीप सौरभ) पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा...(चित्रा मुद्गल) आदि भी खूब चर्चित हुये हैं. लेकिन हाल के वर्षों में लिखी गई कोई दूसरी कहानी तुरंत याद नहीं आ रही जिसमें किसी तृतीयलिंगी पात्र को इस प्रभावशाली तरीके से कहानी की केन्द्रीयता प्रदान की गई हो. हिन्दी संसार ने ‘संझा’कहानी की इस विशिष्टता का सम्मान करते हुये इसे खूब प्यार दिया है. 2012-13 के दौरान दो महत्वपूर्ण सम्मानों- रमाकांत स्मृति पुरस्कारऔर प्रथम हंस कथा सम्मान (जो अब राजेन्द्र जी के दिवंगत हो जाने के बाद राजेन्द्र यादव स्मृति हंस कथा सम्मानके नाम से जाना जाता है) से विभूषित इस कहानी की नायिका संझा को आलोचकों ने इधर की कहानियों में एक महत्वपूर्ण चरित्र की तरह रेखांकित किया है. मैंने हंसका वह अंक निकाल कर उस कहानी को आज फिर से पढ़ा.


किरण सिंह की यह शुरुआती कहानियों में से है, पर कहानी के ब्योरे, कहानी के पर्यावरण की रचना, कहानी को एक लाइव नाटक की तरह पेश करने की शिल्प-सजगता आदि सब काबिले तारीफ हैं. हाँ, आद्योपांत कहानी में एक सूत्रधार की उपस्थिति -जिसकी टिप्पणियों को लेखिका ने हमेशा कोष्ठक में रखा है,शुरुआत में किसी पहेली या उलझन की तरह जरूर पेश आती है, लेकिन अंत तक आते-आते जब यह स्पष्ट होता है कि वह सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि खलनायक भाग्य है, जो कदम-कदम पर संझा के लिए मुसीबतें खड़ा कर रहा था, तो जैसे कहानी के तमाम दृश्य संझा को उसके चरित्र की बृहत्तता के साथ सामने ला खड़ा करते हैं – संझा यानी, अपने कर्म और हुनर की लंबी लकीर खींच कर भाग्य की लकीर को हमेशा के लिए छोटी कर देने वाली स्वघोषित नायिका! सम्मान के अवसर पर दिये गए अनुशंसामूलक वक्तव्यों की स्मृतियों के बीच निर्मित कहानी के सम्मोहन के बावजूद किन्तु-परंतु की कुछ लकीरें भी दिमाग में बन-बिगड़ रही हैं, पर उन पर कोई दृढ़ राय बनाने के पहले मैं सभी बाहरी दबावों से मुक्त होना चाहता हूँ.  कल इसे फिर पढ़ूँगा- महत्वपूर्ण या कि खटकने वाले या फिर दोनों ही तरह के अंशों को बाकायदा रेखांकित करते हुये... 



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आज फिर से कहानी पढ़ना शुरू किया. यह कहानी कुल जमा सौ परिवारों से बने एक चौगांव (चार गावों के समूह) में घटित होती है. कहानी के अनुसार ‘यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगल से घिरा है. यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है, न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है. इसलिए यह इलाका गरीब है. बेदखल है. स्वायत्त है.’  इसी चौगांव के सबसे इज्जतदार व्यक्ति जो एक वैद्य हैं के घर आठ वर्षों के बाद संझा का जन्म हुआ है. संझा के जन्म से लेकर उसके तीस वर्ष की होने तक इस कहानी में चौंगांव का स्वरूप लगभग एक जैसा बना रहता है. हालांकि बैद्य जी द्वारा हैंडपंप लगवाया जाना और गाँव की एक स्त्री कुनाकी का गर्भाशय निकलवाना दो ऐसी घटनाएँ कहानी में जरूर वर्णित हैं जो इस बात की ओर संकेत करती हैं कि इस गाँव का पास के कस्बे या शहर से संबंध था, लेकिन बावजूद इसके, अद्योपांत कहानी में गाव का एक जैसा रह जाना सायास लगता है.  तीस वर्ष का समय कोई छोटा काल खंड नहीं होता है. इसलिए इस कहानी से गुजरते हुये यह प्रश्न लगातार मेरा पीछा करता रहा कि वह कौन सा स्थान है जो तीस वर्षो का लंबा वक्फ़ा बीत जाने के बावजूद लेश मात्र भी नहीं बदलता? शायद इस प्रश्न का जवाब इस प्रश्न के उत्तर में छिपा हो कि यह कहानी कब की है?लेकिन कहानी ऐसे भी कोई संकेत नहीं देती जिससे उसके काल का सही-सही अंदाज़ा लगाया जा सके. कुछ लोग देश-कालको कहानी के लिए जरूरी नहीं मानते. कुछ कहानियाँ ऐसी होती भी हैं जिनके लिए देश-काल का कोई संदर्भ जरूरी नहीं होता. लेकिन एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग अपनी पहचान और अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हों,  नेपाल (2007) सहित दुनिया के कई देशों में भारत के उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से पहले उनके हक में कानून बन चुके हों, ‘संझा’ जैसी कहानी को देश-काल से संदर्भरहित होने की छूट भला कैसे दी जा सकती है?

संझा जन्मना किन्नर है जबकि उसका पति कनाई नपुंसक है. कहानी का एक अन्य  पात्र ललिता महाराज जो संझा का ससुर है और जिसने कनाई को गोद लिया हुआ है, सखी संप्रदायमें दीक्षित एक पुजारी है जो अपने संप्रदाय की मान्यताओं के अनुरूप पुरुष होते हुये भी स्त्री का जीवन जीता है. इस तरह इस कहानी के ये  तीनों पात्र  अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि और नियतियों के बावजूद लगभग एक-सा लैंगिक जीवन जीते हैं. लैंगिक आचार-व्यवहार के मामले में एक जैसे धरातल पर खड़ा  होने के बावजूद इन तीनों के प्रति समाज किस तरह अलग-अलग बर्ताव करता है, उसे इस कहानी के ब्योरों में बहुत बारीकी से समझा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि धर्म की आड़ में स्त्री की तरह जीनेवाला एक पुरुष जहां आदरणीय और श्रद्धेय की तरह समाज को स्वीकार्य है, वहीं अपनी तथाकथित लंपटई के लिए दंडस्वरूप नपुंसक बना दिया गया कनाई अपनी तमाम हरकतों और करतूतों के बावजूद समाज से बहिष्कृत नहीं है. बल्कि इन दोनों के ठीक उलट जन्मना किन्नर संझा जिसकी लैंगिक नियति में उसकी कोई भूमिका नहीं है, कदम-दर-कदम अपनी पहचान छुपा कर शर्मिंदगी का जीवन जीने को अभिशप्त है. लगभग एक जैसी लैंगिक नियति वाले अलग-अलग व्यक्तियों के प्रति समाज का यह  अलग-अलग व्यवहार धर्म और पितृसत्ता के गठजोड़ से निर्मित न्याय और नैतिकता की दोषपूर्ण आचार-संहिताओं का नतीजा है.

प्रभावोत्पादक भाषावाली में ब्योरों का चाक्षुष अंकन किरण सिंह के कथाकार की बड़ी विशेषता है.  दृश्य रचना और पात्रों (खास कर संझा) के मनोविज्ञान को समझने के क्रम में  भाषा और वर्णनात्मकता के जिन अर्थगर्भी पुलों की संरचना इस कहानी में  हुई है, वह निश्चित तौर पर स्पर्शी और उद्वेलित करने वाले हैं. अपने लैंगिक अभाव से परिचित होने के बाद संझा की मनोग्रंथियों को विश्लेषित करने वाले कई दृश्य बहुत ही प्रभावशाली और विचलित कर देने वाले हैं. लेकिन संझा द्वारा मनचाही लैंगिक संरचना को चाकू से काट कर हासिल करने वाला दृश्य बहुत ही मार्मिक है. उस हिस्से को रेखांकित करते हुये चाकू की नोक को अपनी त्वचा पर महसूस करते हुये संझा के चीत्कार को सुनना एक विरल पाठकीय अनुभव है, जो अब भी मेरी शिराओं में एक अजीब तरह की बेचैनी और सिहरन भरे जा रहा है-

“संझा उन्माद में थी. उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी. आँगन में लगीनीम-तुलसी की पत्ती  पीस कर रख लिया. बंद कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया. शरीर को धनुष की तरह तान लिया. अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया. भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया. लंबी साँस ली. साँस रोकी. और चाकू की फाल धँसा लिया. वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी. लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा. आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी.मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’

संझा कहानी के चाक्षुष दृश्य विधान और सघन वर्णांत्मकता के लिए मेरे मन में अनुशंसा और आश्वस्ति का जो भाव है, कहानी की घटनाओं तथा उसकी विश्वसनीयता  और तार्किकता को लेकर वही भरोसा पैदा नहीं हुआ. संझा के जन्म के तीन वर्ष बाद बैदाइन यानी उसकी माँ का देहांत, संझा के जन्म के बारह वर्षों बाद घर के सामने पचास कदम की दूरी पर वैद जी का हैंडपंप लगवाना, उसके बाद के दो-तीन वर्षों में अपने लिंग के प्रति संझा की सजगता के बीच अपनी असामान्य जैविक संरचना के कारण उसके भीतर एक खास तरह की ग्रंथि का निर्माण,तत्पश्चात बाहरी दुनिया को देखने-समझने की उसकी सहज-सामान्य लालसा के बाद उसके बाहर निकलने के लिए उसके पिता द्वारा किया गया उपाय,पच्चीस-सत्ताईस की उम्र पार करने के बावजूद  शादी न होने के संभावित कारणों पर गाँव में चल रही कानाफूसियों के बीच संझा की शादी,विवाहोपरांत संझा के निजी,पारिवारिक और सामाजिक जीवन के द्वंद्व आदि से गुजरते हुये लगभग तीस वर्षों के बाद उसकी लैंगिक पहचान जाहिर होने के बाद गाँव वालों की प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के बीच संझा का अपनी अस्मिता के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना.... ये घटनाएँ इस कहानी के वे महत्वपूर्ण पड़ाव हैं जहां से न सिर्फ कहानी को एक नई दिशा मिलती है बल्कि इन अभिसन्धियों के बहाने लेखिका इस कहानी की घटनाओं को अपनी तरफ से एक तार्किकता प्रदान करने की कोशिश भी करती हैं. संझा की विकास-यात्रा की इन महत्वपूर्ण अभिसंधियों पर मैं कई-कई बार ठिठका या यूं कहूँ कि इस कहानी के इन संधि-स्थलों ने मेरे पाठ को बार-बार अवरुद्ध किया.

गौर करने की बात है कि तीस वर्षों के लंबे कालखंड को समेटने वाली कहानी की ये सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ अंततः संझा की लैंगिक पहचान को छुपाए रखने का ही जतन करती हैं. अव्वल तो तीस वर्षों तक एक किन्नर का पहचान छुपा कर रहना अपने आप में असंभव जैसा लगता है पर सवाल यह है कि कहानी में ऐसा घटित कराते हुये लेखिका जिन युक्तियों का सहारा लेती हैं, क्या उन्हें हमारा पाठकीय विश्वास अर्जित हो पाता है?



***
कल कहानी को पढ़ते हुये इसकी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की विश्वसनीयता पर मन में सवाल उठे. उन पंक्तियों को मैंने रेखांकित कर रखा है.
पहली घटना संझा की माँ के अंतिम संस्कार की है-
बेटी की चिता! रात में चिता नहीं जलती. नरक मिलता है. लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा. गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे. जो जिन्दा है, उसे देखना है. उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया. लाल साड़ी में लपेटा. खटिया पर बाँधा. सोई हुई संझा को कंधे पर लादा. एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे. सुबह गाँव वालों से कहा-‘‘ब्रह्म मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुण्य योग बन रहा था. आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता.’’
एक व्यक्ति द्वारा तीन साल की बच्ची को कंधे पर लेकर किसी लाश को खटिया से बांध कर खींचते हुये गाँव से श्मशान ले जाकर अग्नि को सौंप कर इस तरह लौट आना कि किसी को कानों कान खबर तक न लगे और फिर इसके पक्ष में गढे गए तर्क का गाँव वालों द्वारा मान लिया जाना किसी भी तरह गले नहीं उतरता.

दूसरी घटना घर से पचास कदम दूर लगे हैंडपंप पर कुछ स्त्रियॉं और हमउम्र लड़कियों को देखने के बाद संझा का अपने लैंगिक अभाव के तरफ ध्यान जाने की है-
“दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी. उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी. माएँ नहा रही थीं. खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं. वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं. उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे.
ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के है न! फिर इनका सबकुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है?
हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों."

जाहिर है कि इस दृश्य में खिड़की पर बैठी बारह वर्षीया संझा अपनी हमउम्र लड़कियों को शौच करते देख रही है. हैंडपंप से लोटे या बोतल में पानी ले कर मुंह अंधेरे गाँव से दूर समूह में स्त्रियॉं का शौच के लिए जाना पिछड़े ग्रामीण इलाकों के लिए कोई अनहोनी बात नहीं है. पर लाख कोशिशों के बावजूद मैं कोई ऐसे गाँव या समाज की कल्पना नहीं कर पा रहा हूँ जहां स्त्रियाँ और किशोरियाँ किसी के दरवाजे पर  (वह भी गाँव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के) इस तरह शौच के लिए जाती हों.
तीसरी घटना बैद्यजी द्वारा संझा के लिए घर से बाहर निकलने की युक्ति निकालने की है -
‘‘मेरी गुडि़यातुम आज रात से बाहर निकलोगी.मैं उपाय करता हूँ."

बैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे. बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है. पास आओ, उस रात डकैत आए थे.’’
 ‘‘डकैत!’’
‘‘
हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर. मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे. संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया. मैंने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया. बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ. अरे हाँ सुनो!भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहेंगे. मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे. इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत.’’


गौरतलब है कि बैद्य जी के घर के पीछे डाकुओं के छिपे होने की यह कहानी गाँव वाले सच मानकर उधर जाना छोड़ देते हैं और चौदह की उम्र पार कर चुकी संझा रात के समय जंगल जाकर औषधि लेकर आने का काम शुरू कर देती है जो उसकी शादी होने तक बदस्तूर जारी रहता है आर इस दौरान वह अपनी लैंगिक पहचान छुपाने में पूरी तरह कामयाब हो जाती है. यह भी उल्लेखनीय है कि बैद्य जी के अनुसार उस  रात उनेक ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने का एक कारण यह भी था कि गाँव वाले जाग जाएँ. संझा की माँ की मृत्यु के वक़्त बैद्य जी द्वारा उसकी लाश अकेले खींच कर श्मशान ले जाने के दौरान गहरी निद्रा में सोये रहने वाले गाँव का एक भी आदमी बैद्य जी के चिल्लाने से भला कैसे जागता! तभी दो दिनों बाद गाँव वाले बैद्य जी से उनके चिल्लाने का कारण पूछने आते हैं. हास्यास्पद होने के हद तक की यह अतार्किक घटना शायद ही किसी पाठक का भरोसा जीत पाये. पहले पाठ के दौरान कहानी की समृद्ध वर्णनात्मकता पर जिस तरह मैं रीझ रहा था,इन घटनाओं की अविश्वसनीय  कृत्रिमता मन में उतनी ही खीझ पैदा कर रही है.

***
“बहुरिया! आज महराज जी पूजा नहीं करेंगे. तुम्हें ही करना है.” अगली सुबह देवथान आने पर उसकी सास ने कहा.
‘‘क्यों?’’ संझा की दो पल की चुप्पी में यह सवाल था.
‘‘महीना हुए हैं. तीन दिन असुद्ध रहंगे.’’

तीन दिन बाद संझा ने अपनी माँ की पुरानी साड़ी फाड़ी. उस पर सहतूत कूच कर लगाया. जहाँ ललिता महराज की माहवारी के कपड़े धोकर फैलाए गए थे, वहीं वो कपड़े फैला दिए. पेड़ पर धारी खींचने लगी कि सत्ताइसवाँ दिन याद रहे. वह तो कहो कि गाँव की स्त्रियों से उनकी पीड़ा के बारे में सीधे बात करने के बाद वह माहवारी के बारे में जान गई थी.

पहले पाठ में शायद इस हिस्से को मैं ठीक से नहीं समझ पाया था,पर आज इस हिस्से तक आते-आते रुक गया. ललिता महाराज तो पुरुष हैं! फिर उन्हें माहवारी?बात बहुत अटपटी लगी,पर किरण सिंहजैसी लेखिका से ऐसी चूक कैसे हो सकती है. सहज संकोच और झिझक को किसी तरह परे धकेलते हुए मैंने आज उन्हें फोन किया. सखी संप्रदाय के लोग स्त्रियॉं सा जीवन जीते हैं,यह तो मुझे मालूम था,पर महीने के तीन दिन वे रजस्वला होने का अभिनय करते हुये खुद को अशुद्ध मानते हैं,  यह मुझे आज किरण सिंह से पता चला. निश्चित तौर पर वे एक शोध-समृद्ध लेखिका हैं. पर क्या सखी संप्रदाय की इस विशेषता का संकेत कहानी में नहीं दिया जाना चाहिए था कि मेरे जैसे लोगों के पाठ में कोई गतिरोध न उत्पन्न हो?

किरण सिंह एक तर्क-सजग कहानीकार की तरह कहानी में वर्णित तथ्यों की तार्किकता के पक्ष में प्रमाण भी जुटाती चलती हैं. तभी आयुर्वेद की तमाम पुस्तकों के अध्ययन के बावजूद तृतीय लिंग के बारे में संझा को कोई जानकारी न होने का कारण बताते हुये वे एक जगह कहती हैं कि जो तकलीफ संझा को है उसकी चर्चा चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरितक की किताबों में नहीं. हालांकि इस प्रसंग के कुछ ही  अनुच्छेद पूर्व कहानी में यह भी उल्लिखित है कि संझा ने बाउदी की किताब में अपनी लैंगिक संरचना जैसी फोटुयेँ तो देखी थी,पर तब वह इसे बूझ नहीँ पाई थे. मुझे  इस बात का ज्ञान नहीँ कि आयुर्वेद में तृतीय लिंग की जैविक संरचना के बारे में कोई जिक्र है या नहीं,लेकिन संझा की ये परस्पर विरोधी बातें उलझनें पैदा करती हैं. उल्लेखनीय है कि संझा ने आयुर्वेद का ज्ञान अपने बैद्य पिता के सान्निध्य में प्राप्त किया है. इस क्रम में उसने आयुर्वेद की किताबों का गहन अध्ययन भी किया है. ऐसे में गाँव की स्त्रियॉं से उनकी पीड़ा के बारे में बात करते हुये उसे माहवारी के बारे में  पता चलना भी तर्कसंगत नहीँ लगता है. मतलब यह कि ससुराल में संझा द्वारा अपनी लैंगिक पहचान छुपाने का तरकीब ढूँढने के क्रम में कपड़े में शहतूत लगाकर माहवारी का भ्रम रचने के चक्कर में लेखिका कुछ ऐसा भी कह गई हैं जिससे कहानी में वर्णित अन्य प्रसंगों की तार्किकता भी विखंडित होती है.

उल्लेखनीय है कि संझा के पिता उसकी लैंगिक पहचान इसलिए छुपाए रखना चाहते हैं कि यह पता चलने के बाद किन्नर समुदाय के लोग उसे छीनने आ जाएँगे. लेकिन आश्चर्य है कि इस गाँव के पास की पहाड़ी पर बसने वाले किन्नर इस गाँव की तरफ तीस वर्षों में एक बार भी नहीं आते. किन्नरों का गाँव-गाँव घूम कर बच्चों के जन्म पर बधाई गाना या जन्मना किन्नरों की टोह में जचगी वाले घरों का पता करते रहना एक आम बात है. पर एक गढ़ी हुई घटना को अंजाम देने के लिए कहानीकार ने उन्हें सायास इस गाँव से दूर रखा है जिससे कहानी की स्वाभाविकता क्षतिग्रस्त हुई है.

***
इस कहानी से गुजरते हुए जो सबसे बड़ा प्रश्न मेरे मन में चलता रहा वह है - तृतीय लिंग की समस्या बनाम अस्मिता की पहचान का. गौर किया जाना चाहिए कि शुरू से अंत तक लगभग तीस वर्षों की लबी समयावधि में संझा के लैंगिक पहचान को छिपाए रखने का जो अविश्वसनीय उपक्रम चलता हैं,लगभग नब्बे प्रतिशत कहानी उसी की नाटकीय परिणति है. कहानी के लगभग आखिर में संयोगवश अपनी लैंगिक पहचान जाहिर हो जाने के बाद संझा जिस तरह अपना प्रतिरोध दर्ज करती है, वह भी कम नाटकीय नहीँ है-

“हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों -‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ा मर्द है. मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेककर सुनाऊँ क्या? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया... उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था... जब खून नहीँ रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...  चैगाँवके एक एक आदमी की जन्मकुंडली है मेरे पास.
न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ.न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ.मैं वो हूँ जिसमें मुझमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन.तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ.सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ.अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है.मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी.तुम लोग अपनी सोचो.तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे.’’

संझा द्वारा अपने सम्मान का यह मेलोड्रामाई दावा अस्मिता की पहचान के लिए एक शोषित का उठ खड़ा होना है या दूसरे पक्ष की कमजोरियों को जानते हुये एक तरह का ब्लैकमेल या बंद कमरे में घिर जाने के बाद किसी बिल्ली की आक्रामकता इस पर बहस की जा सकती है लेकिन पूरी कहानी में संझा के लैंगिक पहचान को छुपा कर रखने की कोशिश इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. किसी विशेष और दुर्गम स्थिति में पहचान छुपाना की युक्ति को अपवाद मान लें तो, अस्मिता का संघर्ष अपनी पहचान को जाहिर करने के बाद उत्पन्न हुई प्रतिकूलताओं का सामना करते हुये अपनी जगह पुख्ता करने में ही निहित होता है. पर जिस तरह यह कहानी संझा की लैंगिक पहचान छुपाने का हर जतन करती है उसे देखते हुये यह प्रश्न सहज ही उठता है कि यदि किन्हीं कारणों से संझा की लैंगिक पहचान जाहिर न हुई होती तो?कहने की जरूरत नहीं कि तब सबकुछ उसी तरह चलता रहता- संझा लोगों की आँखों में धूल झोंक कर न सिर्फ अपनी पहचान छुपाए रहती बल्कि बैदई के हुनर की बदौलत चैगाँवमें व्याप्त तमाम कुत्सित और अनैतिक गतिविधियों को जारी रखने में अपना योगदान भी देती रहती. संझा के इस कृत्रिम प्रतिरोध के बरक्स मुझे थर्ड जेंडर समुदाय के उन नायक-नायिकाओं की कहानियाँ भी याद आ रही हैं जिन्होंने अपनी पहचान को जाहिर करते हुये न सिर्फ विभिन्न क्षेत्रों में अपने लिए मजबूत जगहें बनाई हैं बल्कि अपने समुदाय के अधिकार और पहचान के लिए सतत संघर्षरत भी हैं. दो-दो विषयों में स्नातकोत्तर तथा चर्चित समाजसेवी और पत्रकार कल्कि सुब्रमण्यम, प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना मिस ट्रांसजेंडरपद्मिनी प्रकाश, रायगढ़ (छतीसगढ़) की मेयरमधु बाई किन्नर, कृष्णानगर महिला महाविद्यालय (पश्चिम बंगाल)की प्राचार्यमानबी बंदोपाध्याय, प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगनालक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जैसे असली जिंदगी के तृतीयलिंगी नायक/नायिकाओं के सामने संझा का व्यक्तित्व कहीं नहीं ठहरता तो उसका बड़ा कारण उसकी लैंगिक पहचान नहीं जाहिर होने देने का उपक्रम ही है. नतीजतन प्रभावशाली भाषा, चाक्षुष दृश्य रचना और सजग शिल्पबोध के बावजूद  संझा ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधि चेहरा नहीं बन पाती है. एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों को अपनी लैंगिक पहचान को अभिव्यक्त करने का अधिकार दिया जा रहा हो, संझा कहानी का कदमताल अपने समकाल से बहुत पीछे छूट गया है.

***
इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि संझा और उसेक पिता को छोड़ दें तो कहानीकार ने अन्य सभी पात्रों को सायास खल पात्र बना दिया है. कहानी की घटनाओं के बीच कहानी में वर्णित ‘स्वायत्त’ गाँव का जो स्वरूप निकल कर आता है वह एकांगी होने के हद तक विद्रूप है. ‘गंवई गंध’ के सम्मोहन के विरुद्ध गाँव का यह (वि)रूप सच के कितना करीब है इस पर भी बात की जानी चाहिए.   

और अंत में भाग्य
कहानी के अंत में भाग्य का कथन ‘किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजड़ा हूँ’ में हिजड़ा शब्द का जिस हिकारत के साथ प्रयोग हुआ है, वह मुझे लगातार परेशान कर रहा है. कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि भाग्य से कहलवाए जाने के कारण यहाँ हिजड़ा शब्द को उसके परंपरागत अर्थबोध के साथ ही ग्रहण किया जाना चाहिए. पर जब पूरी कहानी ही एक शिल्प-सजग गढ़ंत हो तो कहानीकार से ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने की मांग क्यों नहीँ की जानी चाहिए?

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भाष्य : विष्णु खरे : सदाशिव श्रोत्रिय

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(आभार : मनीष गुप्ता)





















समालोचन का  ‘भाष्य’  कृतियों  की व्याख्या, पुनर्व्याख्या, पुर्नमूल्यांकन आदि का  स्तम्भ है. हिंदी कविता को समझने के लिए उसकी जटिलता, शब्द लाघव, अर्थछबियाँ, बहु स्तरीयता, वैचारिकी आदि को बार-बार देखते दिखाते रहना चाहिए.

विष्णु खरे बीसवीं शताब्दी (उत्तर) की हिंदी कविता के बड़े और विलक्षण कवि हैं. कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में ‘एक ऐसा कवि जो गद्य को कविता की ऊँचाई तक ले जाता है’. कुँवर नारायण उनकी कविता में  ‘अनुभवों की अधिक अमूर्त शक्तियों का एहसास’ करते हैं. इस वर्ष उनके दो संग्रह (‘और अन्य कविताएँ’तथा ‘प्रतिनिधि कविताएँ’)प्रकाशित हुए हैं.

सदाशिव श्रोत्रिय ने विष्णु खरे की कविताओं का आस्वाद करते हुए उनका एक सार्थक पाठ भी तैयार किया है जो समालोचन के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है.


विष्णु खरे की कविता                                                   
सदाशिव श्रोत्रिय 



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विष्णु खरे की कविता पढ़ते हुए लगता  है कि रहस्यमयता उनकी  कविता का  एक विशिष्ट  गुण है. अपनी कविता के माध्यम से यह कवि  कुछ उन भाव-स्थितियों  से हमारा परिचय करवाता है जिन तक सामान्यतः हमारी पहुँच नहीं होती. विष्णुजी की कविता में हम घटनाओं के जो लम्बे वर्णन देखते हैं वे दरअसल उनके द्वारा सृजित वे मार्ग हैं जिन पर चलते हुए  कविता के किसी सहृदय और संवेदनशील पाठक द्वारा भाव- चेतना के उन  विशिष्ट अनुभवों  तक पहुंचा जा सकता हैभाव-चेतना की जिस स्थिति को  सामान्य तरीके से व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी  को व्यक्त करने की कोशिश मुझे उनकी अधिकतर कविताओं में नज़र आती है. उदाहरणार्थ यदि पिछला बाक़ीसंग्रह से उनकी कविता अव्यक्त  ( पेज 18 ) को ही लिया जाए तो हम देखते हैं कि इसमें वर्णित छात्र (जो संभवतः कवि स्वयं ही है मुझे खरे जी की कविता में बहुत से वर्णन आत्मकथात्मक लगते हैं वे शायद इसे छिपाना भी नहीं चाहते इसी संग्रह की पहली कविता टेबल  में उनके वंश की चार पीढ़ियों का वर्णन मिल जाता है)  एक दिन मध्यांतर के बाद क्लास में न लौट कर समीप के एक बगीचे में जा बैठता है और वहां से सुनाई देने वाली आवाज़ों से  उन तमाम गतिविधियों का अनुमान लगाने की कोशिश करता है जो उस समय स्कूल में या आसपास  हो रही होंगी. ऐसा करते हुए वह  अपने आप को सामान्य जन की दुनिया से बाहर हो गया महसूस करता है जैसे वह अपने  शरीर से विच्छिन्न एक अदृश्य आत्मा हो गया हो  जिसके लिए  दूसरों को देख पाना संभव है  पर जिसे अब  कोई नहीं देख सकता. एक अकेले रह गए बच्चे के लिए यह निश्चय ही एक असामान्य और कुछ  भयभीत सा करने वाला अनुभव है  :

मेरे आसपास सिर्फ़ दूर से आती हुई आवाज़ें थीं
जिन्हें मैं धुंधले रूप से पहचान रहा था
.................
किन्तु अचानक उस क्षण और उसके बाद
वहां बैठे रहना मेरे लिए दूभर हो गया एक अजीब साँसत में था मैं
एक अव्यक्त सुखद भय से घिरता हुआ
...................
भयावह क्षण था वह अपने सब कुछ परिचित से कटने का
और एक अस्पृश्य विराट से जुड़ने का
...................
उसके बाद अपनी परिचित चीज़ों और लोगों को
उसके पहले की तरह देखना मेरे लिए कठिन हो गया

कविता की अगली कुछ  पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि इस स्थिति में इस तरह  का कोई  विचार कि अपनी क्लास छोड़ कर बगीचे में जा बैठने का काम शायद वही कर सकता है जो या तो पूरी तरह होशोहवास में न हो या जो किसी भूत-बाधा  से प्रभावित हो गया हो संभवतः कवि के मन से बहुत दूर नहीं रहा होगा :

मैं यह भी साफ़ कर दूं कि मैं पूरी तरह होशोहवास में था
और वह जगह भूत-प्रेत की अफवाहों से मुक्त थी

पार्थिव  अनुभवों के माध्यम से रहस्यमय और कुछ कुछ अव्याख्येय चेतना-स्थितियों तक पहुँचने का यह सिलसिला विष्णु जी की कविता में बराबर जारी रहता है. गर्मियों की शाम ( पेज 20 ) में यह कवि अपने वयःसंधिकाल को और उस समय  के यौनवर्जना वाले  उस  मध्यवर्गीय कस्बाई  समाज को याद करता है जिसमें  माता-पिता अपने बच्चों को अपनी  निगरानी में रखते हुए आगे बढ़ाना  चाहते थे. इस कविता में वर्णित ऐसे कुछ  माता-पिता  शाम के समय अपने लड़के-लड़कियों  को साथ-साथ  घूमने की छूट देते हैं :

यही समय है जब एक मास्टर का ,एक वकील का , एक डाक्टर का और एक साइकिलवाले सेठ का

चार लड़के दसवीं क्लास के निकलते हैं घूमने के लिए
डाक्टर और सेठ के लड़कों के साथ एक-एक बहन भी है लगभग हमउम्र
चारों पिता आश्वस्त हैं अपने लड़कों के दोस्तों से
इन लड़कों की आंखों में डर है , अदब है , पढ़ने में अच्छे हैं
बड़ों के घर में आते ही वे अच्छा अब जाते हैं कहकर चले जाते हैं
और क्या चाहिए

यौन-वर्जना में इस थोड़ी सी ढील से वयःसंधिकाल में हासिल विशिष्ट  खुशी के भाव का  इस कविता में  जो वर्णन विष्णु खरे करते हैं उससे किसी भी कस्बाई  व्यक्ति को, जो अतीत के उस दौर से गुज़रा है अपना वयःसंधिकाल  किसी न किसी रूप में याद आए बिना नहीं रहता उसके   मन में वह शायद  एक खास तरह की नोस्टेलजिक याद  भी छोड़ जाता है. कविता में  इस सायंकालीन  भ्रमण के दौरान :

अचानक जेल के बगीचे से एक कोयल बोलती है
और लड़कियां कह उठती हैं अहा कोयल कितना अच्छा बोली
इस गर्मी में पहली बार सुना
कोयल की बोली पर आम सहमति है
 लेकिन एक लड़का चुप है और उससे पूछा जाता है

 मुझे नहीं अच्छा लगता कोयल का इस वक़्त बोलना वह कहता है
अजीब हो तुम लड़के कहते हैं
एक लड़की पूछती है अँधेरे में गौर से उसे देखने की कोशिश करती हुई
क्यों अच्छा नहीं लगता
पता नहीं क्यों वह जैसे अपने-आप को समझाता हुआ कहता है
यौवानागम- काल में भविष्य के स्वप्न देखते हुए अपने  हमउम्र लड़के-लड़कियों के साथ घूमने और किसी लड़के के साथ की लड़कियों को अपने ढंग से प्रभावित करने  का विशिष्ट चेतनानुभव ही इस कविता का केन्द्रीय   विषय है किन्तु कवि अपने पाठक को इस अनुभव तक उस पूरे घटनाक्रम के माध्यम से ही ले जा सकता है जो इस कविता का कलेवर है.

अपने वयःसंधिकाल के इन्हीं दिनों को याद करते हुए विष्णुजी ने एक और कविता सरोज-स्मृति  लिखी है जो और अन्य कविताएंके पृष्ठ 105पर संकलित है . यह इस उम्र के लड़के-लड़कियों के बीच विकसित होने वाले एक बहुत नाज़ुक किस्म के प्रेम की कविता है जिसे विष्णुजी जैसे पुराने कवि ही अब अपनी कविता में दर्ज़ कर सकते हैं. कविता का नायक एक दिन अचानक अपने क़स्बे की किसी गली में  इस सरोज नाम की कनकछरी जैसी लड़की से टकरा जाता है जिसके परिवार के लोग कभी :

...... उसके यहाँ पांच रुपए किराए से रहते थे
और वह पढ़ने के बहाने उसे सरोता कहकर चिढ़ाता था

यह किशोरी अब  लोगों के घरों में पानी भरने का वही काम कर रही है जो उसकी माँ देउकी और बाप लक्खू गोंड करते थे जबकि नायक अपना क़स्बा छोड़ कर अब उच्च शिक्षा के लिए खंडवा चला गया है. नायिका के सर पर कँसेड़ी रखी है जिससे पानी उसके हर बोल पर उसके माथे आंखों और पोलके तक छलक आता है

उसे और उस लड़के को
अब चौराहे के नुक्कड़ों के पानवालों
और बनारसी होटल के गाहक
कुछ अजीब निगाहों से देखने लगे थे
................

और तभी कवि उस नाजुक किस्म के किशोर प्रेम का काव्यात्मक वर्णन करता है :

उसके मन में आया
कि चुम्हरी समेत उसकी गागर अपने सिर पर रख ले
और उसके साथ बरौआ  बनकर उस घर तक चला जाए
जहाँ उसे यह पानी भरना था
लेकिन उससे तमाशा खड़ा हो जाता

अपने बाल्यकाल में पूरे परिवार की सुरक्षा के साथ रेलयात्रा के एक इसी तरह के एक अन्य अत्यंत सुखद और आत्मीय  अनुभव की पुनर्रचना  विष्णु खरेपाठांतरकी एक कविता किसलिए  (पेज 40) में करते हैं और उसके अब हमेशा के लिए  खो जाने के कारण  गहरी हताशा से भर उठते हैं :

.... सिग्नलों की जगमगाती हरी बत्ती और झिलमिलाते तारों
 का जादू
पहली बार मुझ पर उतर रहा है , लेकिन सबसे बढ़ कर वह खुशी
बाबू, भौजी ,बुआओं , मन्नू जी और चच्चा की वह खुशी ,
जिसे मैं चुपचाप देखता रहा कि अपन सब ऐसे ही रहें , ऐसे ही रहें , ऐसे
ही रहें .
ईश्वर,अपने जीवन की उस सबसे खुश शाम को मैं सो कब गया .
और सोया तो जागा किसलिए .

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बचपन में माँ की मृत्यु का ट्रॉमेटिक अनुभव विष्णुजी की अनेक कविताओं को प्रभावित करता है . 1946की एक रात ( पाठांतर ,पृष्ठ 13) जैसी कविता जहाँ  उस मृत्यु की मर्मान्तक वेदना को व्यक्त करती है वहीं चोर सिपाही (पाठांतर , पृष्ठ 9 )या हँसी ( पिछला बाकी ,पृष्ठ 23) जैसी कविताएं एक मातृविहीन बालक के अकेलेपन को पूरी शिद्दत और मार्मिकता  के साथ चित्रित करती हैं. हँसी  कविता के उदाहरण से यह भलीभांति समझा जा सकता है कि इस कविता के पर्सोना की हँसी को ठीक से समझने के लिए वह विस्तृत वर्णन ज़रूरी है जिसके लिए यह कविता लिखी गई है. उस हँसी के पूरे अर्थ और कारण तक पाठक उस लम्बे वर्णन के माध्यम से ही पहुँच सकता है .

मानव जीवन के अनेक रहस्यों  और अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के बारे में , जो अब भी विभिन्न रूपों में हमारे आज के संसार में भी अक्सर खड़े नज़र आते  हैं ,कविता लिखना विष्णु खरे को निषिद्ध नहीं लगता. पाठांतर की एक कविता फिर भी ( पृष्ठ 52 ) में वे  पुनर्जन्म को एक संभावना के रूप में देखते  हुए  एक ऐसी  स्थिति की कल्पना  करते  हैं  जिसमें किसी अगले जन्म में उनके परिवार के सभी लोग कहीं अचानक उनसे टकरा जाएंगे  और तब उन्हें लगेगा कि वे लोग पहले भी कहीं एक दूसरे को देख  चुके हैं. कवि-कल्पना के  उस अगले जन्म में  इस परिवार का मुखिया उनके जैसा गंभीर प्रकृति का  व्यक्ति न होकर कोई दूसरा ही हँसमुखव्यक्ति होगा.

और जब वह उन्हें ध्यान से देखेगा
तो अचानक उसे लगेगा कौन औरत है यह कौन बच्चे
कहाँ देखा है इन्हें
उसे अपनी तरफ़ इस तरह देखते हुए देखकर
वे भी कुछ अस्तव्यस्त हो जाएंगे
वे उसे फिर भी पहचान नहीं पाएंगे
लेकिन एक क्षण के लिए
कौन कैसा आदमी है यह
उनके चेहरों पर आकर चला जाएगा
हँसमुख मुखिया सपरिवार अपना परिचय देकर
स्थिति सहज करेगा

विचित्र और रहस्यमय की खोज कवि को किसी की  मानसिक रूप से असामान्य स्थिति  और अंधविश्वासों  तक भी ले जा सकती हैं. गिद्धों व उल्लुओं जैसे पक्षियों से जुड़ी मान्यताएं जहाँ उन्हें चित्तौड़ :विहंगावलोकन (पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 55 ) और उल्लू ( पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 53  ) जैसी कविताएँ लिखने  के लिए प्रेरित करती हैं वहीं पाठांतर की कविताआगाही (पृष्ठ 74 ) में वे कुत्ते के रोने से जुड़े प्रचलित अंधविश्वासों का इस्तेमाल कर लेते हैं :

रात काफ़ी गुज़र जाने पर कहीं कोई जो कुत्ता रोने लगता है ...वह लगातार एक अजीब सुर निकालता है जो बेशक रात के बियाबान में भयावह लगता है जिससे सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उन्हें अपने पर विपत्ति की तबाही की और मृत्यु तक की डरावनी कल्पनाएँ आने लगती हैं क्योंकि ऐसा खौफज़दा विश्वास चला आता है कि कुत्ता ऐसा तभी करता है जब उसे कुछ ऐसा अपने आसपास आता दिखायी या सुनायी देता है या कोई पूर्वाभास हो जाता है जो आदमियों को नहीं होता ........

और अन्य कविताएं की तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि (पृष्ठ 65) में वे अपने क़स्बे छिन्दवाड़ा के एक कथावाचक सोनीजी (जिन्हें वहाँ के कुछ लोग गोसांई तुलसीदास का अवतार मानते थे ) और उनकी कथा सुनने आने वाले एक व्यक्ति का वर्णन करते हैं जिसे लोग हनुमानजी समझते थे :

सब मानते थे कि वह हनुमानजी हैं
किन्तु आपस में भी ऐसा कहने और बताने की मनाही थी
.............

कुछ दुस्साहसी भक्तों ने पता लगाने का जोखिम उठाया
कि वे किस दिशा से प्रकट होते हैं और कहाँ अदृश्य
लेकिन सिंगारे मास्साब वाले अँधियारे चौराहे के बाद वह दीखते न थे
कहते हैं कि कोमल इसीलिए पागल हो गया था कि
एक रात उसने कुछ देख लिया था
फिर कथा में उसका आना बंद करना पड़ा
क्योंकि हनुमानजी को देखते ही वह अचेत होकर गिर पड़ता था

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महत्वपूर्ण यह है कि इन सब विचित्र बातों का वर्णन करते हुए और पाठक को उन विशिष्ट भाव -स्थितियों तक ले जाने की कोशिश करते हुए भी यह कवि कभी अपने सोच में अवैज्ञानिक होने का आभास नहीं देता. वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक के बीच के इस संतुलन को साधना कवि से विशिष्ट कुशलता की अपेक्षा रखता है जिसका निर्वाह विष्णुजी पूरी मुस्तैदी से करते हैं. पाठांतर की कविता प्रतिरोध (पृष्ठ 35) में  वे गणेश जीसे सम्बंधित कथा का उपयोग करते हुए  जो मज़ेदार प्रश्न करते हैं वे अपने आप में एक रोचक व पठनीय कविता का रूप ले लेते हैं :

जब हाथी का मस्तक काट कर
मानव धड़ पर जोड़ा जा सकता था
तो माता की आज्ञा को पिता के आदेश से अधिक मान्य समझाने वाले
मातृप्रिय पुत्र का मूल शिर ही क्यों नहीं

या कदाचित् उसे उस हत  कुंजर का यूथ उठा ले गया
आंसू बहाते हुए उसके माता पिता के साथ
और हाथियों के उस झुण्ड ने
शीर्षहीन कबंध एवं कबंधहीन शीर्ष को एक साथ गाड़ दिया
इसी संग्रह की एक अन्य कविता दम्यत्  (पृष्ठ 71)में वे एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के मनोरोगी हो जाने का किस्सा सुनाते हुए एक खास तरह के काव्यानुभव के सृजन का प्रयत्न करते हैं :
हक्के - बक्के रह गए नर्सिंग-होम के सब लोग छोटी बहू को काटो तो खून नहीं
ज़िंदगी में पहली बार सुने थे उसने ऐसे शब्द
लेकिन हिम्मती थी वह उसने फिर कहा मैं हूं बाबूजी आपकी सावित्री बिटिया
आँखें तो खोलिए
लेकिन भाईजी के मूर्च्छित मस्तिष्क ने दुहराया
तेरी माँ की चूत

रोती हुई लगभग भागी बहू अपने पति की शरण में

अपने काव्य-सृजन के लिए विष्णु खरे और भी कई तरह की विशिष्ठ स्थितियों का उपयोग  कर लेते हैं . पिछला बाक़ी संग्रह की कविताप्रारंभ  ( पेज 28 ), या पाठांतर की ग़र रोयी हूँ ज़िंदगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए (पृष्ठ 28) अथवा परस्पर  (पृष्ठ 64) में वे एक कम उम्र लड़की और एक अनुभवी और उमरयाफ़्ता व्यक्ति के बीच विकसित होने वाले रूमानी संबंधों की पड़ताल करते हैं और इस तरह अपने पाठक को  एक ख़ास तरह  की चेतना-स्थिति तक ले जाने का प्रयास करते हैं :

अठारह वर्ष की उम्र से मैं उन आँखों की
इस चमक को जानता हूं- यह नीली कौंध
जिसकी चिंगारियां पिघलती हुई
सीधी आत्मा नामक किसी चीज़ में समा जाती हैं
संगीत के उस स्वरूप में ढलती हुई जिसे शायद
सिर्फ़ ओइस्त्राख़ जानता होगा अपने अमाती पर
मोत्सार्ट की व्याख्या करता हुआ
(प्रारंभ)

हमेशा यह होता है
जब किसी को बेख़ुदी की हद तक चाहना
एक बेहतरीन सपने की तरह टूट जाता है
लेकिन सत्रह बरस की तू भला इसे क्या जानती थी
 (“ग़र रोयी हूँ ज़िंदगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए ” )

साथ का आख़िर यह भी कैसा मक़ाम
कि  आलिंगन और चुम्बन तक से अटपटा लगने लगे
ऐसे और बाक़ी शब्द भी अतिशयोक्ति मालूम हों
इसलिए उन्हें एकांत किसी जगह पर भी
महज़ एक-दूसरे के हाथ छूते हुए से बैठना होगा
(परस्पर)

और अन्य कविताएं के मुखपृष्ठ पर आलैन के चित्र को लेकर साहित्य-प्रेमियों में  काफ़ी विवाद रहा है पर जिस कवि की अनेक कविताएं जीवनेतर अस्तित्व का ज़िक्र लिए हुए हो उसके लिए आलैन के भाग्य से प्रभावित होना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोटे तौर पर  मानवीय क्रूरता और हृदयहीनता का एक ज्वलंत दस्तावेज़ बन गया है. पाठांतरकी 1946की एक रात  (पृष्ठ 13 ) की मरणासन्न माँ को याद करते हुए एक दिवंगत माँ के दृष्टिकोण से उसके मासूम बच्चे का यह चित्रण उस अमानवीयता और असंवेदनशीलता को पुनः रेखांकित करता प्रतीत होता है जिसकी ओर ध्यान दिलाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इस चित्र का इतना व्यापक उपयोग किया था :

चल अब उठ छोड़ इस सर्द रेत  के बिछौने को
............
मिलें तो मिलने दे फूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर
.........
उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान
हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे
...........
चाहे तो देख ले पलटकर  इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे
चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन

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वर्ग वैषम्य और नागरिक असमानता की मार झेलते हुए लोगों के प्रति उनकी  गहरी सहानुभूति को प्रमाणित करने वाली कविताएं हमें विष्णुजी के संग्रहों में काफ़ी बड़ी संख्या में मिल जाएंगी . पिछला बाक़ी की अकेला आदमी(पृष्ठ 31),कोमल (पृष्ठ 67),कार्यकर्त्ता (पृष्ठ 74),वापस (पृष्ठ 80),पाठांतर की शुरूआत  (पृष्ठ 68), करना पड़ता है (पृष्ठ 76 ),हिन्दी मालवी में एक अरज (पृष्ठ 81),शिवांगी (पृष्ठ 86),फ़रोख्त (पृष्ठ 95 ) और और अन्य कविताएं की तुम्हें (पृष्ठ 70),और नाज़ मैं किस पर करूँ (पृष्ठ 101),सरोज- स्मृति (पृष्ठ 105) आदि में हम वंचितों के प्रति उनकी गहरी हमदर्दी को निकट से महसूस कर सकते हैं .

अपनी रुचि के व्यक्तियों की कुछ चारित्रिक विशेषताओं की सूक्ष्म पहचान और हृदयग्राही वर्णन में  खरेजी को  काफ़ी महारत  हासिल है . इसे  उनकी  पिछला बाक़ी की कोमल (पृष्ठ 67 )और गूँगा (पृष्ठ 84) जैसी कविताओं में आसानी से देखा  जा सकता है पिछला बाक़ी की दोस्त (पृष्ठ 70) शीर्षक कविता में वे एक नौजवान पुलिस सब इंस्पैक्टर का वर्णन  करते हैं :

तुम पाओगे कि तुम्हारी ही तरह
वह गेहुँआ और छरहरा है ,उसे टोपी लगाना और वर्दी पहनना
पसंद नहीं है
.........
तुम्हें इसका भी पता चलेगा कि उसने सर्किल इंस्पैक्टर  से कह कर
अपनी ड्यूटी वाहन लगा ली है जहाँ लड़कियों के कॉलिज हैं
............
उससे हाथ मिलाने पर
तुम्हें उसकी क़रीब-क़रीब लड़कीनुमा कोमलता पर आश्चर्य होगा .

इसी कविता के अगले भाग में वे इस नौजवान में कुछ समय की पुलिस नौकरी के कारण आ जाने वाले परिवर्तनों का प्रभावी वर्णन करते हैं :

लेकिन दो -तीन बरस बाद तुम अचानक पाओगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगा कर बंद कर दी गई है
............
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास ही की दूकान से बैंच उठवा कर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रख कर .
.........
बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा , अब तुम बढ़ लो ,ये मादरचोद आ रहे हैं .

इसी तरह पाठांतर की कविता सिला (पृष्ठ 22) में  सही मूल्यों के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध किसी योग्य   राजनेता के आवश्यक  रूप से राजनीतिक पदों की दौड़ में पिछड़ जाने का जो वर्णन  वे अर्जुनसिंह के माध्यम से करते हैं वह  हमारे देश के आज के  राजनीतिक परिदृश्य पर एक सशक्त और मार्मिक टिप्पणी  का रूप ले लेता है  :

क्या नहीं था तुम्हारे पास
अच्छी शिक्षा-दीक्षा उम्दा बुद्धि बढ़िया वक्तृत्व शक्ति
पचास वर्षों का राजनीतिक अनुभव .....
...........
गांधी-नेहरू के मूल्यों में आस्था
सबसे बड़ी बात इंदिरा संजय राजीव सहित
अब सोनिया राहुल और प्रियंका परिवार तक का अकुंठ समर्थन
...........
लेकिन सोनिया गाँधी ने बनाया मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री
तुम्हें नहीं अर्जुनसिंह
...........
अपने इसी झुनझुने में मगन रहो चुरहट के राजकुँवर
कि तुम्हें शिक्षा और बच्चों को मुक्त करना है नफ़रतों के ज़हर से
देते रहो चुनौती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
विहिप शिवसेना भाजपा बजरंगियों को
...................
................
अपनी त्रासदी पहचानो अर्जुनसिंह
सिर्फ़ वफ़ादारी काफ़ी नहीं
पूरी तरह से मौन बिछना पड़ता है
..............
वक़्त आ चुका है कि तुम पुस्तकों संस्थाओं और देश के
शुद्धीकरण का यह ख़ब्त छोड़ो
अपनाओ सौम्य सवर्ण हिंदुत्व को
............
वर्ना नमरूदों की इस ख़ुदाई में
तुम्हारी तरह की बंदगी से तुम जैसों का तो भला होने से रहा

एक और विशेष बात जिसे हम विष्णुजी की कविता में साफ़ साफ़  देख सकते हैं वह ज़मीन से जुड़े साधारण लोगों में असाधारणता कभी कभी तो महानता के स्तर को छूती असाधारणता को पहचान लेने  की उनकी क्षमता है. एक विशिष्ट और असाधारण चेतना-स्थिति की उनकी तलाश इस तरह की कविताएं लिखते हुए भी जारी रहती है. पाठांतर की कविता जिनकी अपनी कोई दूकान नहीं होती (पृष्ठ 59 ) को, जिसमें कुछ अजीब खटमिट्ठे फल या कोई अप्रचलित सब्ज़ी-भाजी / या मिट्टी के खिलौने पोत-गुरिया और ऐसा ही मनिहारी का सामान /या कारीगर हुए तो काठ या लोहे की अनगढ़ चीज़ें / एक बरते हुए कपड़े पर बिछा कर बेचने के वास्ते सड़क किनारे कहीं भी बैठ जाने वाले लोगों का वर्णन है,मैं उनकी एक ऐसी ही कविता पाता हूं :

इसीलिए  अजीब शुब्हा होता है
कि सड़क के किनारे बिला नागा़
इस तरह अपनी पोटली बिछाकर बैठ जाने के पीछे
शायद वे जताना चाहते हैं कि वे
बाज़ार में बैठे हैं बेचवाल नहीं हैं
उनका मक़सद शायद सिर्फ़ सब लोगों सारी दूकानों को देखना है
शायद वे उन सबकी खुशी देखकर खुश होते हों
जिनका कुछ बिक पाया और जो कुछ खरीद सके
और उन सभी का दुःख देख कर दुखी होते हों
जिनका सब बिन बिका रह गया और जो कुछ भी ले नहीं पाए
शायद यह पूरी सड़क ये सारे लोग ये इतनी दूकानें
तमाम शोरूम समूचे शॉपिंग मॉल ही
उन्हें अपनी अजीब निजी दूकान लगते हों और उनमें वे ही उनके
गुज़रे ग्राहक

कहना न होगा कि खरे जी की इस कविता को वह पाठक कुछ  दूसरे ही दार्शनिक अंदाज़ में  पढ़ेगा जो के एल सहगल के गाए दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं से परिचित है ; ठीक उसी तरह ,जैसे  और अन्य कविताएं की झूठे तार  (पृष्ठ 61) को सहगल और शेक्सपियर की कृतियों  से परिचित पाठक अधिक गहराई  और अधिक  काव्यानंद के साथ पढ़ पाएगा .

विष्णु जी की कविता की एक विशेषता उसका ब्रह्मांडीय आयाम है जो उनकी रचनाओं में तरह तरह से प्रकट होता है. पाठांतर की द्विगुणित  (पृष्ठ 83 ) जैसी कविताओं में वे सीधे सीधेसमानांतर ब्रह्माण्डजैसी किसी आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा के हवाले से जीवन की रहस्यमयता से हमारा परिचय करवाते हैं :

बताता है सृष्टिविज्ञान
कि जिस तरह हमारी यह पृथ्वी है
ठीक उसकी  दर्पणछाया या प्रतिलिपि की तरह
सौ प्रतिशत वैसी ही एक दुनिया और है

वहाँ एक और बैठा हुआ हूं मैं
और वैसे ही तुम
हर पल वही देखते सोचते करते जीते मरते हुए
इतने ही अरब बाशिंदे

या वहाँ ( पाठांतर,पृष्ठ 34 ) जैसी किसी कविता में सृष्टि,पृथ्वी,मनुष्य और ईश्वर के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उठाते हैं:

इस पृथ्वी की पहेली जिसमें इतनी प्रकृति इतने जीवन
और उसमें मानव का अस्तित्व और उसका प्रयोजन
दो मानव अर्द्धांशों  के परस्पर पूरक आकर्षण का आदिम क़िस्सा अलग
साथ में आदमी का आदमी के प्रति वात्सल्य सख्य चिंता और निबद्धता
सबके लिए समता न्याय सृजन सार्थक श्रम जीवन का सहस्वप्न

किन्तु अन्य विषयों पर  लिखी उनकी कविताओं में भी कई बार यह ब्रह्मांडीय सन्दर्भ परोक्ष रूप से विद्यमान रहता है. उदाहरणार्थ यदि और अन्य कविताएं की उनकी कविता ABANDONED  (पृष्ठ 18 ) को लिया  जाए जिसमें वे उन परित्यक्त  मकानात की बात करते हैं जिन्हें  रेलवे लाइन बिछाने जैसा कोई  काम पूरा हो जाने के बाद यूं ही उजड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है तो हम पाते हैं कि इस कविता का अंत भी वे इसे एक ब्रह्मांडीय मोड़ देते हुए करते हैं :
कभी एक फंतासी में एक अनंत अन्तरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूं देखने
कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर
या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से
कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे
परित्यक्त

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अव्याख्येय , अनंत और रहस्यमय तक विष्णुजी की यात्रा कई बार काफ़ी परोक्ष और सांकेतिक तरीके से होती है. इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण मैं और अन्य कविताएं की एक कविता संकेत  (पृष्ठ 47) में पाता हूं. इस कविता में एक उम्रदराज़  आदमी , जो अब अपने जीवन के अंत को शायद  बहुत दूर नहीं देख रहा है , किसी जाती ठंड की शाम को किसी वृक्ष के तने के पास / एक चलायमान पहिए की छोटी आकृति में / परिक्रमा करते हुए कुछ जुगनुओं को देखता है . इनमें से एक जुगनू अपने वर्तुल से अलग होकर उस आदमी की बांह पर बैठने की कोशिश करता है जैसे उसे खींचता हो  और फिर से उसी वर्तुल में जा मिलता है . इस संकेत को यह आदमी जिस तरह व्याख्यायित करता है वह इस कविता को विष्णु खरेकी विशिष्ट कविता बना देता है :

हाँ लगता है मैं समझ गया जो तुम कहने आए थे
लेकिन इतने अचानक कि इसी लम्हा मेरी तैयारी नहीं है
बस मैं आ ही रहा हूं तुम्हारे पीछे पीछे तुम्हारे सहारे
मेरे लिए कोई भी एक जगह रखना
तुम्हारा यह आवर्त मेरे बस का नहीं
लेकिन इतने हों तो एक की ख़ामियां छिपा ही लेते हैं
और फिर उसके बाद कहीं रुकना या लौटना तो है नहीं

हमारे समय में आ रहे बहुत से सामाजिक और पारिवारिक परिवर्तन इस कवि को भी अप्रभावित नहीं छोड़ते और किसी नई कविता का कारण बन जाते हैं . निरंतर बढ़ती हुई आत्मकेन्द्रितता  और असंवेदनशीलता के हम आए दिन जो एक से एक बड़े उदाहरण देखते हैं उनमें से एक उस अधेड़ आदमी और उसकी घरवाली का भी है जिनका चित्र कवि  के मित्र-पत्रकार के केबिन में लगा रहता था और अन्य कविताएं   की फ़ासला (पृष्ठ 58)  शीर्षक कविता में कवि इस चित्र का वर्णन इस तरह करता है :

थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी
अपने बाएं कंधे पर एक झूलती सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ
जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है
जिसके बाएं पैर पर पंजे से लेकर घुटने तक पलस्तर
दोनों के बदन पर फ़कत एकदम ज़रूरी कपड़े
अलबत्ता दोनों नंगे पांव
उनकी दिखती हुई पीठों से अंदाज़ होता है
कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे

कविता में कवि आगे लिखता है कि दुपहर के समय सूनी सड़क पर बड़ी मुश्किल से अस्पताल की ओर जाते इन कष्ट पाते लोगों को देख कर भी आज के समय में  इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि कोई उनकी सहायता के लिए आया होगा :

मुझे अभी तक दिख रहा है
कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं
गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं
लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं
बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है

इसी संग्रह की कविता फाँक ( पृष्ठ 114 ) इसी तरह हमारे परिवारों में तेज़ी से आ रहे एक अन्य प्रकार के परिवर्तन के सम्बन्ध में है. यदि परिवार का मुखिया किसी गंभीर गतिविधि से जुड़ा हुआ और उसके लिए प्रतिबद्ध व्यक्ति है तो आजकल हम देखते हैं कि उसकी पत्नी और बड़ी उम्र के बच्चे ( जो अक्सर पूरी तरह  आज की उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ़्त में आए हुए होते हैं ) उसे सनकी और असामान्य कह कर उसके  हाल पर छोड़ देते हैं और एक तरह से उसके खिलाफ़ एक पारिवारिक मोर्चा सा बना लेते हैं :

वे चारों सामने के बड़े कमरे में बैठे हुए हैं
सामने टीवी चल रहा है लेकिन कोई देख नहीं रहा है
एक-साँस गप्पागोष्ठी हाहाहीही धौलधप्पा चाय कॉफ़ी
अचानक होम-डिलीवरी से खाने को कुछ स्पेशल
यूँ तो सभी ख़ुश हैं लेकिन माँ सबसे ज़्यादा बौराई हुई है
और उनकी हम- या कमउम्र सहेली बनी हुई है
इस गंभीर मुखिया का बीच में आ जाना सभी को अखरता है ,इसीलिए
अब उसने अपनी एकतरफ़ा शिरकत बंद कर दी है
................
यही बहुत है कि बीच-बीच में उससे पूछ लिया जाए
हम लोग चाय बना रहे हैं तुम भी पिओगे क्या
या फिर
बच्चों ने इतना अच्छा पित्ज़ा मंगवाया है
तुम भी यह एक स्लाइस खाकर देखो
यहाँ दिन भर सूमड़े जैसे पड़े रहते हो

भाषाओं के साथ तरह तरह के रचनात्मक प्रयोग भी विष्णुजी ने अपनी कई कविताओं में अत्यंत सफलतापूर्वक किए हैं. पाठांतर की हिन्दी मालवी में एक अरज (पृष्ठ 81) जैसी कविता में तो उनकी इस प्रयोगात्मकता को साफ़-साफ़ देखा ही जा सकता है पर और अन्य कविताएं की दज्जाल (पृष्ठ 54) और जा, हम्मामबादगर्द की ख़बर ला (पृष्ठ 56) भी मुझे मुख्यतः इस भाषाई प्रयोगात्मकता से प्रेरित लगती हैं .

विष्णु खरे के संग्रहों की कुछ अन्य कविताएं भी भाषा के साथ उनके खिलंदड़ेपन का परिणाम लगती हैं ,जैसे और अन्य कविताएं की नई रोशनी  (पृष्ठ 35) :

अव्वल चाचा नेहरू आए
नई रोशनी वे ही लाए
इन्दू बिटिया उनके बाद
नई रोशनी जिंदाबाद
.............
यह जो पूरा खानदान है
राष्ट्रीय रोशनीदान है
............
उनकी ऐसी नई रोशनी में जीवन जीना पड़ता है
यह क्लेश कलेजे में ज़ंग लगे कीले-सा हर पल गड़ता है

पिछला बाक़ीकी डरो (पृष्ठ 48) और  पाठांतरकी लगेंगे हर बरस मेले  (पृष्ठ 98) तथा क़ानून और व्यवस्था का उप-मुख्य सलाहकार सचिव चिंतित प्रमुखमंत्री को परामर्श दे रहा है (पृष्ठ 25) को भी मैं उनके इस तरह के आधे गंभीर राजनीतिक और आधे  हास्य-व्यंग के भाषाई प्रयोगों के रूप में देखता हूं. पाठांतर की कविता आगाही  (पृष्ठ 74) को मैं उनका एक खास तरह का भाषा प्रयोग मानता हूं  जिसमें पूरी कविता जैसे एक ही वाक्य में लिख दी गई है. कल्पना की उड़ान और भाषा पर अधिकार की विष्णुजी की रेंज का अनुमान हम  उनकी दो कविताओं अंधी घाटी( पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 92) और संकेत (और अन्य कविताएं ,पृष्ठ 90) से भी भली भांति लगा सकते  हैं.

............................


सदाशिव श्रोत्रिय
 (12दिसम्बर 1941को बिजयनगर, अजमेर) 
एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस. टॉमस के लेखन पर  शोध कार्य.
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त (1999)

1989में प्रथम काव्य-संग्रह प्रथमा तथा 1915में दूसरा काव्य-संग्रह बावन कविताएं प्रकाशित
2011में लेख संग्रह ‘मूल्य संक्रमण के दौर में’ तथा 2013में दूसरा निबंध संग्रह सतत विचार की ज़रूरतप्रकाशित. 
2014में आचार्य निरंजननाथ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान

स्पिक मैके से लगभग 15वर्षों से जुड़े हुए हैं आदि
सम्पर्क:
आनन्द कुटीर, नई हवेली, नाथद्वारा -313301
मोबाइल: 8290479063, 9352723690/ ईमेल: sadashivshrotriya1941@gmail.com  

परिप्रेक्ष्य : गांधी वाद रहे न रहे : राजीव रंजन गिरि






















भारत में रहने वाला यह विविध और विशाल मानव समुदाय अपने आप को तभी एक रख सकता है जब वह अपने आंतरिक मसले धैर्य से कह-सुन सके और शांति से उसका न्यायोचित निपटारा हो. तमाम अस्मिताओं और अंतर्विरोधों वाले इस देश में प्रगति का रास्ता सहिष्णुता और अहिंसा से ही निर्मित हो सकता है. अंतर्विरोधों को धूर्तता से दबाकर और न्यायोचित मांगों को हिंसा से  कुचलकर आप एक सभ्य और प्रबुद्ध समाज कभी नहीं बन सकते.


गांधी यहीं याद आते हैं. नए वर्ष की शुरुआत इस प्रकाश से करें. राजीव रंजन गिरि गांधी दर्शन पर उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं. गांधी जी कभी नहीं चाहते थे कि उनके विचार किसी संकीर्ण सम्प्रदाय में सिकुड़ जाएँ. गांधी सम्पूर्ण मानवता के लिए हैं.    



गांधी वाद रहे न रहे                              
राजीव रंजन गिरि



गांधी  सेवा संघ के मलिकंदा सम्मेलन में गांधी  और गांधी जनों के समक्ष विरोध में नारे लगे. गांधी वाद ध्वंस होचिल्ला रहे थे कई लोग. ऐसे नारों से गांधी जन आहत हुए. पर गांधी जी परेशान नहीं हुए. नारेबाजी के बाद जो भाषण गांधी जी ने दिया, उससे यह पता चलता है. गांधी जी ने अपने लोगों को समझाया. उन्होंने कहा कि जो लोग गांधी वाद के विरुद्ध कुछ कहना चाहते हैं, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए. इतना ही नहीं, विरोध में नारेबाजी करनेवालों से किसी प्रकार का द्वेष या वैर न करने की सलाह दी. यहाँ भी अहिंसा की कसौटी की याद दिलायी. अहिंसा के लिये जरूरी बताया कि विरोधियों के साथ शांति से निबाहें.

गांधी जी के समक्ष उनके शब्द और कर्म के विरोध में नारेबाजी का यह पहला वाकया नहीं था. दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही ऐसा होता रहा था. पहले व्यक्ति गांधी  का विरोध शुरू हुआ. फिर उनके विचारों का. पर गांधी जी के यहाँ अपने विरोधियो के प्रति भी वैरभाव का साक्ष्य नहीं दिखता.

इतिहास के उस दौर में गांधी  के विचार लीक से हटकर थे. लोगों को अपने से भिन्न सोच दिखता था उनके चिंता और चिंतन में. विचार की इस भिन्नता को लक्षित करते हुए उसे गांधी वाद कहा गया. जैसेजैसे गांधी जी की स्वीकार्यता का दायरा बढ़ा, उनके विचारदर्शन से प्रभावित और उस राह पर चलने वालों को गांधी वादीकहा जाने लगा.

किसी भी व्यक्ति या विचार को खाँचे में बाँटकर देखने में, देखनेवालों को सुविधा होती है. जिस किसी व्यक्ति या विचार में समाज को कुछ अलग, थोड़ा भिन्न--जिसे वह मौलिक मानने की भी जिद करता है--दिखता है, उसकी एक अलग कोटि बना देता है. उस व्यक्ति या विचार को वाद’, ‘सम्प्रदायया पंथका नामकरण करता है. मानवइतिहास पर गौर करने पर दिखता है कि कई दफे उस विचार के नाम पर वाद’, ‘सम्प्रदायया पंथप्रत्यय चस्पा किया जाता है तो कई बार विचारप्रणेता या प्रवक्ता के नाम के साथ. कभी उस प्रणेता के जीवनकाल में ही वाद, सम्प्रदाय, पंथ बनने लगते हैं अथवा इसकी संज्ञा मिलने लगती है तो कभी उसके मरणोपरांत.

कोटिनिर्माण का यह कार्य कभी प्रशंसक, समर्थक, अनुयायी, भक्त करते हैं तो कभी उससे घनघोर अहसमति रखने वाले भी. यदाकदा यह भी दिखता है कि विचारपरम्परा को समझने के दौरान अध्येता खास विचार को रेखांकित करने, उस पर अतिक्ति बल देने के लिए उसे विचारधाराया वादकहकर संबोधित करते हैं.

इतिहास में ऐेसे उदाहरण भी मिलते हैं जब किसी व्यक्ति या समूह ने पंथ, मठ, गढ़ की सत्तासंरचना के खिलाफ विचार व्यक्त किए, कालांतर में उसे भी खास पंथ, मठ या गढ़ में तब्दील कर दिया गया. विरोधी ऐसा करें तो समझा जा सकता है.  पर विडंबना यह कि चाहने वाले भी ऐसा करते हैं. संत कबीर इसकी बेहतरीन मिसाल हैं .

महात्मा गांधी  के जीवनकाल में ही उनके नाम के साथ वादजोड़ दिया गया. मानव सभ्यता के इतिहास में गांधी जी विरले हैं, जिन्होंने कई दफे इसे अस्वीकार किया. साथ ही जोर देकर कहा कि मैंने कोई नये सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किये हैं, बल्कि पुराने सिद्धांतों को ही पुन:प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया है .

 यंग इण्डिया’ (25अगस्त 1921) में उन्होंने लिखा,
मैं स्वयं को भारत और मानवता का एक अदना सेवक मानता हूँ और इसी प्रकार सेवा करते हुए मर जाना पसंद करूँगा. मुझे कोई संप्रदाय चलाने की कामना नहीं है. मैं सचमुच इतना महत्वाकांक्षी हूँ कि मेरा अनुगमन केवल एक संप्रदाय करे, इससे मुझे संतोष नहीं होगा.चूँकि मैं किन्हीं नये सत्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, मैं (चिरंतन) सत्य का, जैसा कि उसे जानता हूँ, अनुगमन और प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करता हूँ. हाँ, यह अवश्य है कि मैं अनेक पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालता हूँ.

यहाँ गांधी जी ने स्वयं के बारे में जो कही है और जो कामना की है, महत्त्वपूर्ण हैं. वे खुद को भारत का सेवक मानते हैं, अदना सेवक. मानो गांधी  यह जताना चाहते हों कि सिर्फ सेवक कहने से थोड़े अहंकार का गंध आता है, इसलिए अदना जोड़ दिया. अहंकार किसी किस्म का हो, किसी का भी, सेवक या स्वामी काय उन्हें गवारा नहीं. वे मृत्युपर्यंत सेवक बने रहना चाहते हैं, कुछ और नहीं. सेवक भी सिर्फ भारत का नहीं, मानवता का भी. मानवता भारत की सीमाओं से बंधी नहीं है. इसमें सम्पूर्ण संसार समा गया है. मानवता शब्द में निहित व्यापकता और गहराई इतनी है कि यह मनुष्य जाति तक सीमित नहीं रह सकती. इसमें गोचरअगोचर सभी शामिल हैं. गांधी  को जानने वाले इस की तस्दीक करेंगे कि मानवता तमाम हदबंदी के पार जाती है. हद और बेहद दोनों को तज देती है, कबीर की तरह. इसमें समूची प्रकृति के लिए चिंता और संवेदना है. तब यह पारे की तरह साफ है कि इस सेवक के लिए भारतसेवा और संपूर्ण मानवता की सेवा के बीच लेशमात्र भी फर्क नहीं. गांधी  की भारतसेवा समूची मानवता की सेवा है. भारत उनकी चिंता के केंद्र में है और यह चिंता उनके हिसाब से मानवता की चिंता ही है .
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(गांधी रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ)

यह सवाल किया जा सकता है कि अगर कभी नौबत आए, जब भारतहितसाधना मानवता को नजरअंदाज करे, तब गांधी मार्ग क्या होगा ? इसमें दो मत नहीं कि गांधी  मानवता की फिक्रमंदी की राह चलते.

देशकाल ने जब कभी ऐसा प्रश्न गांधी  के समक्ष प्रस्तुत किया, उन्होंने मानवता की पूरी परवाह की. उनकी अगुवाई में चल रहे स्वाधीनतासंग्राम--जिसे वे सच्चे मायने में मानवता को सिद्धांत देने की व्यावहारिक कार्रवाई बनाना चाहते थे-- में ऐसे अवसरों की पहचान कर सनद किया जा सकता है. इतिहास ने तलवार की धार पर चलने जैसी, इस तरह की, चुनौती जब कभी गांधी  के सामने प्रस्तुत की, वे डिगे नहीं. उन्होंने मानवता का साथ न छोड़ा. कीमत की परवाह किये बगैर. तब खूब आलोचना हुई गांधी  की. निंदा तक को स्पर्श करते हुए.

जो लोग गांधी  में विश्वास प्रगट करते थे, वे भी दुविधाग्रस्त दिखे, ऐसे निर्णयों पर. कई तो हिल भी गए. गांधी  अडिग दिखे. संभव है कि ऐसे मौके गांधी  के आस्तिक मन को भी संशय में डालने में सफल होते हों पर वे निर्णय मानवता के पक्ष में ही करते थे. ऐसे प्रश्नों पर गांधी  के द्वारा लिये गए फैसले अब बताते हैं कि दुविधा का कुहासा छँटने में देर न लगता था.

कहना न होगा कि ऐसे ही संदर्भ और प्रसंग गांधी जी को अपने दौर का, न सिर्फ भारत अपितु दुनिया का एक महान नेता साबित करते हैं. ये अवसर और निर्णय गांधी जी को तत्कालीन ऐसे नेताओं, जो किसी समूह, जाति, धर्म, भाषा या भूगोल के प्रतिनिधि थे, से अलग करते हैं, साथ ही विशिष्ट और श्रेष्ठ भी साबित करते हैं .     

संप्रदाय चलाने की कामना से जिद भरा इंकार करने वाले गांधी जी यह भी कहते हैं कि उनका अनुगमन केवल एक सम्प्रदाय करे, उतने से संतोष नहीं होगाकि उनकी महत्वाकांक्षा की भरपाई नहीं होगी. इनको संतोष तब मिलेगा जब सम्प्रदायों की सीमायें मिटाकर सभी आएं. ऐसा लगता है कि गांधी जी भारत में मौजूद विभिन्न सम्प्रदायों की प्रकृति, आदर्श और असलियत नजदीक से देख रहे थे. इन सम्प्रदायों की विचारधारात्मक दीवारें इतनी मजबूत और ऊँची थीं कि इतर सम्प्रदायों के गुण और सुगंध बाहर रोक देती थीं. गांधी  सरीखा व्यक्ति ऐसे सम्प्रदायों से हमनवाई कैसे रख सकता था! इनका तो स्पष्ट मानना था कि अपने विचार की जमीन पर पैर टिके रहे और खिड़कियाँ भी खुली रहे ताकि बाहर की हवा आजा सके. दरअसल सम्प्रदाय किसीकिसी सत्य पर निर्मित होते हैं, पर धीरेधीरे ऐसा बन जाते हैं कि दूसरे सम्प्रदायों का सत्य स्वीकार नहीं कर पाते . गांधी जी के मुताबिक यह भारतीय विचार नहीं हो सकता, जिसमें भिन्न सत्यों की स्वीकृति न हो.

गांधी  सत्य की बहुलता के समर्थक थे. अपना सत्य मानते थे पर दूसरों के सत्य के प्रति भी संवेदनशील एवं उदार रूख अख्तियार करते थे. वे सत्य को बहुवचनात्मक प्रत्यय मानते थे, एकास्मिक नहीं. सत्यके स्थान पर सत्योंका प्रयोग संबंधी समझ गांधी चिंतन का महत्वपूर्ण और मजबूत पक्ष है. उनका यह कहना काबिलेगौर है कि मैं किन्हीं नये सत्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करता. जो सत्य गांधी  जानतेमानते हैं, जो उनके विचार में चिरंतन हैं, उसका अनुगमन और प्रतिनिधित्व करने की कोशिश भी करते हैं. गांधी चिंतन में सत्यकेंद्रबिंदु है. वे अनुगमन और प्रतिनिधित्व अगर किसी का करते हैं तो इसी सत्यका, किसी और का हरगिज नहीं.

वे साफ शब्दों में कहते हैं कि अनेक पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालता हूँ. गांधी जी की दृष्टि में पुराना, चिरंतन सत्यभी एक नहीं, अनेक हैं और नया सत्य भी. वे पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालते हैं. नये परिप्रेक्ष्य में पुराने सत्यों की व्याख्या करते हैंय उसे नवीन संदर्भ और अर्थवत्ता प्रदान करते हैं. जिन्हें विचार की व्यापक परम्परा का अभिज्ञान नहीं, उन्हें यह मौलिक लगता है. गांधी जी इससे भलीभाँति अवगत हैं, फिर वे स्वयं को किसी नये सत्य का प्रस्तावक कैसे कहें ? पर लोग हैं कि उन्हें पुराने सत्य नहीं दिखते, वे नयी रोशनी मात्र ही देख पाते हैं. और इस रोशनी को ही नया सत्य माननेबताने की जिद करते हैं. जो लोग इस रोशनी के पार जाकर अनेक सत्यों की बहुल परंपरा देखने में सफल होते हैं, वे मानते हैं कि गांधी जी भारत की विशाल परम्परा के मौलिक प्रतिनिधि हैं. इसलिए गांधी चिंतन के इंद्रधनुष में वे अनेक रंगों को लक्षित भी कर पाते हैं. विचारदर्शन परम्पराओं के ये इंद्रधनुषी रंग गांधी , विचार को सौंदर्य एवं गहराई प्रदान करते हैं और मजबूत भी बनाते हैं.

2दिसंबर 1926के यंग इंडियामें भी उन्होंने इसरार किया कि 


मैंने कोई नये सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किए हैं बल्कि  पुराने सिद्धांतों को ही पुन: स्थापित करने का प्रयास किया है .

गांधी वाद की चर्चा जोरशोर से होती थी. यही वजह है कि अलगअलग संदर्भ और प्रसंग में गांधी जी इस पर जोर देकर अपना मत स्पष्ट करते थे. हरिजन’ (28मार्च 1936) में उन्होंने पूरी साफगोई से कहा है


गांधी वाद जैसी कोई चीज नहीं है और मैं अपने बाद कोई सम्प्रदाय छोड़कर जाना नहीं चाहता. मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है. मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भी किया है––– दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है. सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत. मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़ेसेबड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है. ऐसा करते समय मुझसे गलतियाँ हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है. इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है.
 
गांधी  की मनोभूमि के मुताबिक कोई उनका अनुगामी भी नहीं हो सकता, भक्त तो दूर की बात है. इस लिहाज से गांधी  अपवादस्वरूप हैं. ऐसे देशकाल में जब कई बड़े समझे जाने वाले लोग भी इस लोभ का संवरण नहीं कर पाते और अपने साथियों तक को अनुयायी बनने के लिए पे्ररित करते हैंय यह प्रचारितप्रसारित करते हैं कि उन्होंने सत्य की खोज कर ली है और एक मात्र सत्य यही है, शेष सबको महज अनुगमन करना है. तमाम ज्ञानविज्ञान के विकास के बावजूद यह प्रवृत्ति आज और भी प्रबल हुई है, यह कहने की जरूरत नहीं! गांधी  किसी को अपना अनुगामी नहीं मानते. वे साफसाफ शब्दों में (2मार्च 1940हरिजन) कहते हैं, कोई यह न कहे कि वह गांधी  का अनुगामी है. अपना अनुगमन मैं स्वयं करूँ, यही काफी है. मुझे पता है, मैं अपना कितना अपूर्ण अनुगामी हूँ, क्योंकि मैं अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता. आप मेरे अनुगामी नहीं हैं बल्कि सहपाठी हैं, सहयात्री हैं, सहखोजी हैं और सहकर्मी हैं.

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Crowd flanked Mahatma Gandhi when he left the Friends' Meeting House, 
Euston Road, after attending the Round Table Conference on 
Indian constitutional reform. Getty Images
यहाँ दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. एक, ऐसा व्यक्ति जो संख्या के लिहाज से खुद को अपना अनुगमन करने हेतु पर्याप्त मानता हो, साथ ही स्वयं को भी खुद का अपूर्ण अनुगामी कहता हो, यह समझता हो कि मैं भी अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता और वह व्यक्ति महात्मा गांधी  होय तो उसकी आस्था की विराटता का अनुमान किया जा सकता है. दूसरी बात यह कि गांधी  के यहाँ कोई अनुगामी नहीं है. गांधी  जिस सत्य की तलाश में अहिंसा की राह पर चल रहे हैं,जिसे हम गांधी मार्ग कह सकते हैं, उस पर विश्वासपूर्वक चलने वाले सहपाठी, सहयात्री, सहखोजी और सहकर्मीतो हो सकते हैं, अनुगामी या अनुयायीतो कतई नहीं. गांधी जी के बारे में सभी वाकिफ हैं कि वे ऐसा कुछ नहीं कहते जिस पर पहला कदम खुद न उठा सकें . यह उनका जीवनसत्य है. ऐसा शख्स भी स्वयं को खुद का अपूर्ण अनुगामी कहे तो इसकी अभिव्यंजना सहज ही समझी जा सकती है.

अव्वल तो यह कि गांधी जी ऐसे किसी व्यक्ति को अपना अनुगामी बनाना नहीं चाहते जो उनके हर कहेअनकहे का अनुसरण करे. वे लोगों को परामर्श देते हैं. गोया उन्हें परामर्शदाता की भूमिका से परहेज नहीं; शर्त इतनी भर कि जब तक गांधी जी का परामर्श उस व्यक्ति के दिलोदिमाग को सही न लगे, तब तक उसे मानने की जरूरत नहीं. ऐसे वक्त में जब अनेक लोग गांधी जी के एक कथन पर अपना पूरा जीवन होम करने के लिए तत्पर हों, वे जोर देकर कहते हैं (हरिजन, 15जुलाई 1939) कि जिसे सचमुच अपने अंदर की आवाज सुनाई देती है, उसे मेरा परामर्श मानने की खातिर अपने अंदर की आवाज की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए. अपनी यह बात दूसरे शब्दों में भी अभिव्यक्त करते हैं,


 “मेरा परामर्श उन्हीं के अनुसरण के लिए है जिन्हें अपने अंदर की आवाज का बोध नहीं है और जिन्हें मेरे अपेक्षाकृत अधिक अनुभव तथा सही निर्णय लेने की क्षमता पर भरोसा है.
मतलब साफ है. वे किसी को न तो अनुगामी बनाना चाहते हैं और न ही अंधभक्त. इसलिए इसरार करते हैं कि जिसे सचमुच अंदर की आवाज सुनाई देती हो, उसे अपनी सुननी चाहिएय न कि गांधी जी की. गांधी जी अपने सुनने वालों से अपेक्षा करते हैं कि केवल भावातिरेक में उनकी बातों पर अमल न करे. वे दिल और दिमाग दोनों पर जोर देते हैं. आशय है कि निर्णय में भावना और बुद्धि दोनों का सामंजस्य हो. गांधीमार्ग पर चलने वालों से कामना सिर्फ इतनी कि भावना और बुद्धि किसी की उपेक्षा न करें. किसी एक को दूसरे से कमतर न मानें. दिल भावना पर जोर देता है तो दिमाग तर्क पर. दोनों साथ होते हैं तो भावना तर्क से पुष्ट होती है और तर्क भी महज बुद्धिविलास का अभिपे्रत नहीं होता. तर्क विहीन भावना विवेक शून्य बना देती है और अंधभक्ति के लिए पे्ररित करती है. भावना रहित तर्क चालाकी और धूर्तता की जमीन तैयार करता है, संवेदनहीन भी बना देता है. कहना होगा कि सिर्फ तर्क की भावना मनुष्य की संवेदनाशीलता और मानवीयता को निगल जाती है तो केवल भावना का तर्क--भावना मात्र पर आधरित तर्क--भी दूसरे का पक्ष देखनेसमझने से इंकार कर असंवेदनशील बनने की दिशा में धकेल देता है. इसलिए गांधी मार्ग पर चलने का सच्चे मायने में अधिकारी वही है जिसका भावनात्मक लगाव तर्क से परिचालित हो और तार्किकता भावना रहित न हो. दरअसल तर्क और भावना (बुद्धि और हृदय) को निहायत भिन्न और परस्पर विरोधी देखनेसमझने की बौद्धिक रवायत रही है. गांधी  के शब्द और कर्म इसका रचनात्मक प्रतिवाद करते हैं. हमें भूलना नहीं चाहिए कि तर्क की भी भावना होती है और भावना का भी तर्क होता है.

मलिकंदा सम्मेलन में गांधी जी ने इसरार किया कि 

‘‘आपको गांधी वादनाम को ही छोड़ देना चाहिएय नहीं तो आप अंधकूप में जाकर गिरेंगे.’’ 

इन्होंने वादकी परिणति सम्प्रदाय बनने और बनाने में देखी . कहा कि-

‘‘आप सांप्रदायिक न बनें. (यह) मेरे ख्वाब में भी नहीं आया. मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर अगर कोई सम्प्रदाय निकला तो मेरी आत्मा रूदन करेगी. इतने बरसों तक हमने जो चीज चलाई, वह कोई वाद नहीं है. हमें किसी वाद में नहीं पड़ना है, मौन धारण करके अपने सिद्धांतों के अनुसार सेवा करते रहना है. लोग चाहे जो कहें, सेवा का कोई सम्प्रदाय नहीं बन सकता . वह तो सबके लिए है. हम सबको स्वीकार करेंगे. सबके साथ चलने की कोशिश करेंगे. यही अहिंसा का रास्ता है. अगर हमारा कोई वाद है तो वह यही है . गांधी वाद कोई चीज नहीं.’’

गांधी  का रास्ता अहिंसा का है. इसमें सबके लिए सेवाभाव है. गांधी  की भाषा कोमल होती थी. यह सौम्यता की भाषा है. अपवादस्वरूप ही कठोर भाषा का प्रयोग दिखता है उनके लेखन या भाषण में . वादके बारे में वे कहते हैं कि यह निकम्मी चीजहै. इसलिए वे सम्प्रदाय के अर्थ में गांधी वादसे सहमत नहीं हैं . वे कहते हैं -

गांधी वाद का ध्वंस होकी आवाज मुझे प्यारी लगती है. वाद का तो नाश ही होना उचित है. वाद तो निकम्मी चीज है. असली चीज अहिंसा है. वह अमर है. वह जिंदा रहे, इतना मेरे लिए काफी है . गांधी वाद का ध्वंस तो मैं शीघ्र ही देखना चाहता हूँ.’’

इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले कि किसी नेता, विचारक या दार्शनिक ने इतनी स्पष्टता से अपने नाम के साथ जुड़े वादके प्रति निरपेक्ष भाव से विचार प्रकट किया हो.

जेहन में यह सवाल उठता है कि लोग गांधी वादका अभिप्राय क्या समझते थे ? इसके विरोधी हों या समर्थक, इस शब्द के जरिये क्या अर्थ ग्रहण करते थे ? और आज भी इससे क्या मतलब हासिल करते हैं ?

गांधी  का नाम लेते ही एकबारगी दो शब्द मस्तिष्क में आते हैं, सत्य और अहिंसा. ये गांधी  के बीज भाव हैं. गांधी चिंतन में सत्य और अहिंसा परस्पर संबद्ध विचारप्रत्यय के रूप में दिखते हैं. दुनिया के तमाम विचार, धर्म, दर्शन, ‘सत्यके नाम पर ही सामने आये. पर, अपने सत्यके नाम पर दूसरों के सत्यका कितना हनन हुआ, मानवसभ्यता इसकी गवाह है.

गांधी दर्शन में अहिंसा का वितान काफी विस्तृत है और बहुआयामी भी. मूल्य के तौर पर अहिंसा साधन भी है और साध्य भी. गांधी  के लिए सत्य और अहिंसा सिद्धांत मात्र नहीं हैं. वे लिखते हैं, ‘‘सत्य और अहिंसा कोई आकाशपुष्प नहीं हैं. वे हमारे प्रत्येक शब्द, व्यापार और कर्म से प्रकट होने चाहिए.वे सत्य और अहिंसा को दुनियावी जीवन में उतारना चाहते हैं. इसे सिद्धान्त से आगे  जीवन के हर क्षेत्र में सिद्ध करना चाहते हैं. सत्य के संदर्भ में कहते हैं.

‘‘आज कहा जाता है कि सत्य व्यापार में नहीं चलता, राजप्रकरण में नहीं चलता. तो फिर वह कहाँ चलता है ? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रों में और सभी व्यवहारों में नहीं चल सकता, तो वह कौड़ी कीमत की चीज नहीं है. जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा ? मैं तो जीवन के हर व्यवहार में उसके उपयोग का नित्य नया दर्शन पाता हूँ.’’

गांधी  के दौर से लेकर आज तक सत्य को सबसे बड़ा मूल्य स्वीकार करते हैं लोग य पर साथ ही राजनीति, व्यापार सरीखे क्षेत्र के लिए इसे अनुपयुक्त मानते हैं . सत्यमें ईश्वर तक का दर्शन करने वाले गांधी  का आस्तिक मन आहत होता था ऐसे विचारों से. कारण कि वे जीवन के हर क्षेत्र, प्रत्येक आयाम और सभी व्यवहार में इसे आजमाते थे, प्रयोग करते थे और कारगर भी पाते थे. इसके जरिये सत्य का नित्य नवल दर्शन करते थे. अगर कभी कारगर न पाते तो इसे अपनी कमी मानते न कि सत्य की. वे पुनह प्रयोग करते. फिर आजमाते. उनका दृढ़ विश्वास था सत्य पर. कहना न होगा कि गांधी जी सत्य को लाभलोभ के परिप्रेक्ष्य में नहीं आँकते. जो लोग तात्कालिक लाभलोभ की परवाह करते हैं, वे सत्य को जीवन के सभी कार्यव्यापार में कारगर नहीं मानते. बावजूद इसके, सिद्धांत के रूप में सत्य की महत्ता कोई अस्वीकार नहीं करता. अलबत्ता अहिंसा का विरोध गांधी काल में भी खूब हुआ और आज भी देखनेसुनने को मिलता है.


अहिंसा का विरोध करने वाले सभी लोगों के तर्क एकसे नहीं हैं. अहिंसा को मानने वालों की राय में भी एका नहीं है. इसे स्वीकार और विरोध करने वाले ऐसे बहुतायत में मिलते हैं जो निजी गुण के रूप में इसे जायज मानते हैं. ऐसे लोगों के लिए व्यक्तिगत गुण के तौर पर अहिंसा स्वीकृत हो सकती है, सार्वजनिक विशेषता के रूप में नहीं. गांधी विचार में ऐसा नहीं है. उनके यहाँ हिंसा न तो सिर्फ मनोवैज्ञानिक समस्या है और न अहिंसा व्यक्तिगत गुण मात्र. गांधी  इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं--

‘‘अहिंसा अगर व्यक्तिगत गुण है तो वह मेरे लिए त्याज्य वस्तु है. मेरी अहिंसा की कल्पना व्यापक है. वह करोड़ों की नहीं हो सकती, वह मेरे लिए त्याज्य है, और मेरे साथियों के लिए भी त्याज्य ही होनी चाहिए. हम तो यह सिद्ध करने के लिए पैदा हुए हैं कि सत्य और अहिंसा केवल व्यक्तिगत आचार के नियम नहीं हैं. वह समुदाय, जाति और राष्ट्र की नीति हो सकती है. मेरी श्रद्धा इतनी गहरी है. इसे सिद्ध करने के लिए मैं जीऊँगा और उसी प्रयत्न में मरूँग. मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशा के लिए है. वह आत्मा का गुण है, इसलिए वह व्यापक है, क्योंकि आत्मा तो सभी के होती है. अहिंसा सबके लिए है, सब जगहों के लिए है, सब समय के लिए है . अगर वह दरअसल आत्मा का गुण है, तो हम सबके लिए वह सहज हो जाना चाहिए.’’

ऐसी अगाध श्रद्धा थी गांधी  की अहिंसा पर. अदम्य विश्वास था उनका. क्या यह कहने की जरूरत है कि सत्य और अहिंसा की राह पर चलना ही वह कारण था कि एक क्रूर पागल ने उनकी हत्या की.
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An admiring East End crowd gathers to witness the arrival of
Mahatma Gandhi on September 22, 1931 in
East London, as he calls upon Charlie Chaplin. Getty Images

गांधी दर्शन में सत्यअहिंसा की व्यापकता इतनी अधिक है कि वह हर जगह मुमकिन है. धरती के हर कोने में. यह आकाशकुसुम नहीं है कि मस्तिष्क के विचारव्यापार में ही रहे . बुद्धिविलास के लिए यह हरगिज नहीं है. इसकी भौतिक जमीन है. यह भाववादी प्रत्यय तो बिल्कुल नहीं है. अहिंसा की जड़ें समाज और संस्कृति में नहीं देख पाने के कारण कई लोग इसे भाववाद से जोड़ते हैं. ऐसे लोगों को हिंसा का भौतिकवाद से रिश्ता दिखता है, पर अहिंसा का नहीं. दरअसल हिंसा की विचारधारा और विचारधारा की हिंसा ऐसे लोगों के अवचेतन में जड़ जमा लेती है. ऐसे लोग हिंसा को ऊपरी तौर पर स्वीकार करने से परहेज करें, पर विचारधारात्मक हिंसा का कारण ढूँढ ही लेते हैं, भले ही भौतिकवाद के नाम पर. गांधी  की प्रौढ़ बातसमझ न पाने के कारण अनेक लोग यह आरोप उल्टे गांधी  पर मढ़ देते हैं कि हिंसा की भौतिक संरचना की उपेक्षा कर रहे हैंय  कि उसे मनोवैज्ञानिक सवाल मान रहे हैं.

क्या यह कहने की जरूरत है कि अभी भी अहिंसा का शास्त्र पूर्णरूपेण बन नहीं पाया है, भले ही अहिंसा चाहे जितनी पुरानी हो. मनुष्य जाति की जितनी प्रतिभा हिंसा के विभिन्न उपकरणोंउपादानों की खोज में लगती है, उसका अल्पांश ही हिंसा की शास्त्रनिर्मिति में लगता है. हिंसा के संरचनानिर्माण में मानवसभ्यता का बहुलांश लगा है. यह गांधी  को चिंतित करता था. वे अपने साथियों से सत्यअहिंसा का शास्त्र गढ़ने, इस दिशा में नयेनये शोध करने के लिए अपील करते थे,

‘‘हिंसा के आधार पर बना हुआ समाज भी विशारदों द्वारा ही चलता है. हम एक नये समाज का निर्माण सत्य और अहिंसा के आधार पर करना चाहते हैं. उनका शास्त्र बनाने के लिए हमें विशारदों की जरूरत है . जिस तरह से आज जगत चल रहा है, वह हिंसा और अहिंसा का मिश्रण है. जगत का बाह्य रूप  उसकी भीतरी हालत का प्रतीक है . जर्मनी जैसा मुल्क जो हिंसा को ही ईश्वर मानता है, रातदिन उसी के विकास में लगा है, उसी को सुशोभित करने की कोशिश में लगा हुआ है . हिंसा के पुजारी जोजो कर रहे हैं, हम देख रहे हैं.’’

गांधी जी यह समझ रहे थे कि,
‘‘हिंसा का मार्ग पुराना और रूढ़ है. उसमें खोज करना उतना कठिन नहीं है, अहिंसा का रास्ता नया है . अहिंसा का शास्त्र अभी बन रहा है. हम उसके सारे अंग नहीं जानते. इसमें खोज और प्रयोग का विशाल क्षेत्र पड़ा है . आप अपनी सारी बुद्धि लगा सकते हैं .’’

क्या यह कहने की आवश्यकता है कि कितने विशारदों ने अपनी बुद्धि लगायी अहिंसा के विशाल क्षेत्र की खोज में या अहिंसा का प्रयोग करने में . अब तो लगभग सारी दुनिया के देश जर्मनी की राह पर ही दौड़ रहे हैं . गांधी  के दौर की जर्मनी को पछाड़ भी चुके हैं.  तमाम विशारदों की बुद्धि भी इसी में अपना लाभ और भविष्य देख रही है .

हिंसा की तुलना में अहिंसा का दर्शन नया है. अहिंसा का विचार समाज में मौजूद रहा है. इसकी जड़ें गहरी धँसी हैं. लेकिन जैसे जीवनजगत के हर क्षेत्र में, राजकाज से समाजकाज तक, गांधी जी प्रयोग कर रहे थे, उस तरह बड़े पैमाने पर उसके प्रयोग की मिसाल न के बराबर रही है . इसीलिए गांधी जी अहिंसा को लेकर लगातार प्रयोग पर बल दे रहे थे.  अहिंसा के संदर्भ में नयेनये शोध करने के लिए बुद्धिविशारदों से अपील भी कर रहे थे.

सत्य और अहिंसा को लेकर प्रतिरोध के नये तरीकों की खोज करते हुए गांधी जी सत्याग्रहतक पहुँचे थे . इसमें विसम्मति प्रगट करने से लेकर विरोध में सड़क पर उतरना भी शामिल था. संघर्ष का यह रास्ता इतना नया और जोखिम भरा था कि लोग इसे सर्वथा अपरिचित मान रहे थे. गांधी  सत्य और अहिंसा पर आधारित ढाँचा और साँचा तैयार कर रहे थे. इसका नूतन होना मालूम था उन्हें.

‘‘हमने एक अनोखी नीति को लिया है. उस नीति के प्रयोग के साधन भी अनोखे होंगे. वे क्या होंगे, उसकी मैं खोज करता रहता हूँ. प्रयोग कर रहा हूँ . बदलती हुई परिस्थिति में मुझे अपने तरीके भी बदलने पड़ते हैं . लेकिन मेरे पास कोई बनाबनाया शास्त्र नहीं है. हमारा प्रयोग एकदम नया है. उसके कदमों का क्रम कहीं निश्चित नहीं है . मैं तो एक जिज्ञासु हूँ . सत्याग्रह के विज्ञान की खोज और विकास मैं धीरज के साथ कर रहा हूँ . इस खोज से नित नया ज्ञान और नित नया प्रकाश पा रहा हूँ .’’

लोग संघर्ष के इस तरीकों को गांधी  से जोड़कर गांधी वादकहते थे . जबकि प्रयोग में परिस्थिति के साथ आये बदलावों को भी विकासक्रम में नहीं देख पा रहे थे . और उसका विरोध भी करते थे. अहिंसा पर आधारित यह संघर्ष गांधी  के मुताबिक वीरों का धर्म हैय पर लोग इसे डरपोक का मजबूरी में उठाया कदम समझ रहे थे . गांधी  की मजबूती के पर्याय को कमजोर का अस्त्र समझने की भूल हो रही थी. ऐसी गलती सिर्फ अहिंसा के विरोधी ही कर रहे होते तो उतनी चिंता की बात न थी. गांधी  के पीछे चलने वालों में से भी कुछ ऐसा भाव रखते थे, यह तथ्य उन्हें ज्यादा व्याकुल करता था.

‘‘अगर हमारी अहिंसा वीर की अहिंसा न होकर कमजोर की अहिंसा है, अगर वह हिंसा के सामने झुकती है, हिंसा के आगे लज्जित और बेकार हो जाती है तो ऐसे गांधी वाद का भी ध्वंस होना चाहिए. उसका ध्वंस होने ही वाला है. हम अंग्रेजों से लड़े, मगर उसमें हमने अशक्त लोगों के शस्त्र के रूप में अहिंसा का प्रयोग किया. अब हम उसे बुलंद, शक्तिशाली का शस्त्र बनाना चाहते हैं. अहिंसा एक हद तक अशक्तों का शस्त्र भी हो सकती है . लेकिन एक हद तक ही . परंतु वह बुजदिलों का, कायरों का शस्त्र तो हरगिज नहीं हो सकती.’’

सत्य और अहिंसा के बारे में गांधी  की निजी भावना उदात्त है. इसमें वे किसी तरह का हीलाहवाला नहीं देते . कोई समझौता नहीं करते. अगर इसका पालन ठीक से नहीं होता तो वे जरा भी नहीं बख्शते . चाहे इसका नाम गांधी  से जोड़कर गांधी वादही क्यों न कहा जा रहा हो, उसके नाश की कामना करने में लेश भर भी नहीं हिचकते.

सत्य और अहिंसा गांधी चिंतन के निर्गुणभाव हैं. जीवनजगत में भले ही हर पल देखामहसूस किया जाता हो और व्यवहार में भी लाया जाता हो, पर है तो निराकार ही . उनके चिंतन का सगुण भाव है चरखा. गांधी  का नाम लेने पर जैसे सत्य और अहिंसा शब्द मस्तिष्क में उगते हैं, वैसे ही चरखा का बिंब या चित्र आंखों के सामने बनता है.

लोकमान्य तिलक के निधनोपरांत गांधी जी ने तिलक स्वराज फंड बनाकर इसके जरिये चरखे का व्यापक प्रचारप्रसार किया. इसके सकर्मक प्रयासों के कारण चरखा राष्ट्रीय आंदोलन का अनिवार्य उपादान बना. इसके माध्यम से स्वदेशी आंदोलन मजबूत हुआ और गहरा भी. गांधी जी ने चरखे के जरिये अंग्रेजी साम्राज्यवाद की अर्थव्यवस्था को चुनौती दी . चरखा से हाथों को काम मिला. इसके सूत से लोगों को मिला पेट के लिए भोजन और तन ढँकने के लिए कपड़ा . इस हुनर ने लोगों को स्वावलंबी बनाया. आत्मसम्मान की भावना पल्लवित हुई . आम लोग स्वाधीनता की आर्थिकी समझने लगे. गांधी जी के चरखाप्रयोग पर बल देने के कारण इसकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि उनके नाम के साथ चरखा चस्पां हो गया. धीरेधीरे चरखा स्वाधीनता आंदोलन का प्रतीक बन गया.

जिक्रतलब यह है कि गांधी जी किसी भी विचार या वस्तु को प्रतीक बनाने के पक्षधर नहीं . प्रतीकीकरण उनके विचार से मेल नहीं खाता. आखिर प्रतीक से वे परहेज क्यों करते थे ? इसका सीधा जवाब प्रतीक के साथ अनिवार्यतह जुड़ा इसका कमजोर पक्ष है. प्रतीक में जितनी पवित्रता और प्रतिबद्धता अपेक्षित होती है, वह धीरेधीरे नष्ट होती जाती है. समय के साथ एक कामचलाऊपन की प्रवृत्ति पनपने लगती है. प्रतिबद्धता के स्थान पर प्रतीक के साथ कट्टरता पैदा होती है और अंधश्रद्धा भी . इसके इर्दगिर्द पाखण्ड भी निर्मित होने लगता है. गांधी  का मानस इसे स्वीकार नहीं कर सकता.
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(Mahatma Gandhi and George Lansbury (1859 - 1940) grin as t
hey pose with a group of children in London, in 1931. Getty Images)

लोग भले चरखे में स्वदेशी की आर्थिकी और स्वराजप्राप्ति का मार्ग देख रहे हों, साथ ही गांधी जी द्वारा चरखा को केन्द्र में रखकर विकास की रूपरेखा को भी बड़े पैमाने पर समझ रहे हों, पर गांधी जी के लिए चरखा इतना ही नहीं था. वे इसकी ध्वनि मेें संगीत सुनते थे. इसको चलाना आध्यात्मिक अनुभव था. उनके लिए चरखा अहिंसा से जुदा नहीं था. उनका चरखा व्यापक और बहुआयामी अर्थबोध से भरा था. वे चरखा को सूत कातने वाला महज यंत्र नहीं समझते थे, पर विरोध करने वाले स्वर इससे ज्यादा देख नहीं पा रहे थे. और इसे सीमित कर रहे थे . विडंबना तो यह है कि चरखा चलाने वाले काफी लोग और गांधी  से जुड़े कतिपय नेता भी चरखा को यंत्र मात्र ही समझते थे. कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा दौर में भी गांधी  की आलोचना की एक बड़ी वजह चरखा है . इस चरखा के कारण लोग उन्हें तकनीक विरोधी समझ लेते हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के नियंता भी यह सोचते थे, आज भी ऐसा सुनने को मिलता हैµकि चरखा चलायेंगे तो देश पीछे रह जायेगा .

चरखा प्राथमिक तौर पर यंत्र है. गांधी  ने चरखा में काफी अनुसंधान करवाया था. विकास भी हुआ चरखे का. पर इस यंत्र के साथ गांधी  ने जिस संरचना की कल्पना की थी उसकी भरपूर उपेक्षा हुई. दिलचस्प यह है कि एक तरफ चरखा पर आधारित उनकी कल्पित संरचना विचारविमर्श से बाहर रखी गयी, चरखाभावना की कद्र तक न की गईय दूसरी तरफ लोगों ने चरखा को यंत्र मात्र मानकर गांधी  की एक छवि बनाई और समाज के सामने प्रस्तुत की. गांधी  की पीड़ा कितनी बढ़ जाती होगी यह देखकर कि विरोधी और समर्थक दोनों उसकी भावना को समझ नहीं पा रहे हैं और चरखा को सिर्फ यंत्र समझ रहे हैं . उनके कथन से इस अभिप्राय को समझा जा सकता है.

‘‘अगर गांधी वाद का अर्थ सिर्फ यंत्र की तरह चरखा चलाना ही है तो उसका ध्वंस होना ही ईष्ट है. –––सिर्फ चरखा चलाने से देश का कल्याण नहीं होगा. पुराने जमाने में भी कई पंगु और स्त्रियाँ चरखा चलाती थीं तो वे भी गुलामी में डूबी हुई थीं . कौटिल्य ने जो लिखा है कि उस जमाने में चरखे चलाये जाते थे, उसी के साथसाथ उन्होंने यह भी लिखा है कि राजदंड के डर से चरखा चलवाया जाता था. चरखा चलाने वाले अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से, बेगार के तौर पर, चरखा चलाते थे. औरतें चरखा चलाने के लिर हारबंद (कतार में) बैठती थीं, लेकिन वह सब जबरदस्ती का मामला था. –––अगर हमारा मतलब फिर से उसी चरखे को जारी करने से है, तब तो उस चरखे का ध्वंस ही होना चाहिए और उस चरखे का महत्त्व मानने वाले गांधी वाद का भी ध्वंस होना चाहिए.’’

गांधी  का अभिप्राय था कि जो कोई चरखा चलाये वह स्वेच्छा से चलाये . इसकी अहमियत समझकर सूत काते. इसके साथ ही चरखा पर टिकी संरचना को भी समझे .
गांधी विचार का जब कभी सम्मेलन होता था, चरखा चलता था. पर सिर्फ  इसे चलता देख खुश नहीं होते थे गांधी . वे कहते थे,

‘‘हमें यह देखना चाहिए कि हम चरखा चलाते हैं तो क्या उसमें से हममें अहिंसा की शक्ति पैदा होती है ? सम्मेलन में सूत्रयज्ञ के समय मात्र दो से चार तक चरखा चलाते हैं, क्या उस वक्त आप उसका अहिंसा से अनुसंधान करते हैं . क्या उसमें से आपकी अहिंसा की शक्ति नित्य बढ़ती रहती है ? कोई दो घंटे में छह सौ गज काते या एक घंटे में छह सौ गज काते, उसका महत्व तो है, लेकिन सबसे महत्त्व का सवाल तो यह है कि क्या कातने से हमारी अहिंसा शक्ति बढ़ी ? हमारा अहिंसा का दर्शन बढ़ा ? अगर हमारा चरखा हमारी अहिंसा को नित नया बल नहीं देता, हमारा अहिंसा का दर्शन नहीं बढ़ता तो मैं कहता हूँ कि गांधी वाद का ध्वंस हो .’’

अहिंसादर्शन की श्रीवृद्धि के साथ असम्बद्ध मानकर चरखा चलाने और उससे अच्छाभला सूत कात लेने वाले की तुलना गांधी जी ने जड़वत माला फेरने वाले से की और इसे आत्मवंचना माना. यही वजह है कि वे देश में तमाम चरखा चलाने वालों को गांधी  सेवा संघमें शामिल नहीं करना चाहते. स्मरणीय तथ्य है कि प्राथमिक तौर पर चरखा और उससे काते गए सूत की आर्थिकी को गांधी  तवज्जो देते थे पर चरखे की भूमिका यहीं तक सीमित नहीं मानते थे. वे इसकी भूमिका वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखते थे. तभी वे यह कहते थे कि ‘‘चरखे मेंे जो अर्थ भरे हैं उनको न समझकर अगर आप चरखा चलाते हैं तो या तो उसे पद्मा नदी में फेंक दीजिए या जलाकर जाइए . तब सच्चा गांधी वाद प्रकट होगा. सिर्फ चरखा चलाने तक ही जो गांधी वाद सीमित है, उसके लिए तो मैं भी कहूंगा कि गांधी वाद का ध्वंस हो .’’        

उन्होंने यह याद दिलाया है कि ‘‘वे लोग ध्वंस के नारे पागलपन में लगा रहे हैं, रोष में आकर कह रहे हैं. लेकिन मैं तो बुद्धिपूर्वक कह रहा हूँ.’’

गांधी  के हिसाब से अहिंसा का अनुसंधान करते हुए ध्यान पूर्वक चरखा चलाना है . चरखा और अहिंसा गांधी दर्शन में एकदूसरे से गहरे सम्बद्ध हैं और पूरक भी. ये गांधी दर्शन के सगुण और निर्गुण रूप हैं .

गांधी जी के शब्दकर्म और संदेश की भावना को न समझ इसे यंत्रवत मानने वाले नयी चुनौतियों के संदर्भ में गांधी मार्ग को देखने में असफल साबित होते हैं . गांधी  ने व्यक्ति, प्रकृति, समाज, देश और दुनिया के आपसी सम्बन्धों को जिस रूप में व्याख्यायित किया,अपने युग की चुनौतियों को समझा और हल निकाला, कहना होगा कि उसमें अंतर्निहित विचारभाव आज की समस्याओं में भी राह सुझाते हैं .

गांधीदर्शन में गत्यात्मकता है. जहाँ गति होगी, परिवर्तन भी होगा. इसलिए उसमें परिवर्तनशीलता भी है. गांधीविचार नदी की कलकल बहती धारा है, किसी सरोवर का ठहरा पानी नहीं. गांधी बदलती परिस्थितियों के हिसाब से विचार बदलने में हिचकते नहीं थे . करणीय और अकरणीय का जाग्रत विवेक था उनके पास . पहले कोई बात कह दी, इसलिए सदा उसका बचाव करना हैय इसे ठीक नहीं मानते थे. पूर्ववर्ती विचार की कमी का अहसास होते ही उसे नूतन समझ से परिवर्तित कर लेते थे. उनके विचार के प्रवाह को जो देखते हैं, उन्हें परेशानी नहीं होती. जो साँचे और खाँचे में देखने के आदी हैं, वे विचारों की प्रवहमानता को देख उलझ जाते हैं . गांधी के यहाँ नित्य नवनीत की अपेक्षा है . आपने पाठकों से वे (29अप्रैल, 1933, ‘हरिजन’) इसरार भी करते हैं,

मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन  करनेवालों और उनमें दिलचस्पी लेनेवालों से, मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है. सत्य की अपनी खोज में, मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूँ . उमर में भले मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता है कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा. मुझे एक ही बात की चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्यनारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता . इसलिए जब किसी पाठक को, मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे, दो लेखों में से, मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने.

इस प्रवहमानता को गर ‘गांधी वाद’कहने का लोभ संवरण न किया जाए (गांधी जी के बारबार रोकने के बावजूद) तब यह सोचना होगा कि इस नवनीत अर्थ में भी गांधी वादरहे या न रहे ? स्वयं गांधी  क्या सोचते ? गांधी जी कतई नहीं चाहते कि केवल विचार मात्र के तौर पर उनके मत की मौजूदगी बनी रहे. कारण कि विचारदर्शन प्रस्तावित करना उनके चिंतन का नियामक नहीं था. वे तो अपने देशकाल की चुनौतियों की नदी में गहरे उतरे थे . उससे पार पाने के क्रम में विचारों का हिलोरा निर्मित हुआ था . यही वजह है कि गांधी को जब अपना विचार नयी चुनौतियों के लिए नाकाफी लगता, स्वयं रद्दोबदल करते थे.

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 लिहाजा वे वादके रूप में बचने या बचाये रखने का मोह क्यों करते! गांधी कामना करते थे मानवीय सभ्यता और संस्कृति के आदर्श रूप की, जो मनुष्य, परिवार, समाज, देशदुनिया और प्रकृति के तमाम अंगोंउपांगों में बराबरी व अहिंसा के मूल्यों और पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित हो, अगर यह कायम होता है तब भी वादके तौर पर क्यों कर रहे!
_________

राजीव रंजन गिरि
हिंदी विभाग
राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
राजा गार्डेन/ नयी दिल्ली 110015

परख : लेखक का सिनेमा (कुँवर नारायण) : आशुतोष भारद्वाज




















‘बढ़ती हुई व्यावसायिकता और स्पर्धा
से जो अभी भी बचे हुए हैं
उनको समर्पित’

-          कुँवर नारायण

कुँवर नारायण हिंदी के जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े वह फिल्मों के आलोचक होंगे, यह मान लेना ज्यादती होगी. एक सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व  की रूचि और गति के वृत्त में साहित्य, सिनेमा, संगीत आदि होते ही हैं.  ‘लेखक का सिनेमा’  कुँवर नारायण की एक ऐसी ही कृति है जिसमें १९७६ से लेकर २००८ तक के लिखे उनके लेख शामिल हैं,जिसका सुरुचिपूर्ण संपादन कवि गीत चतुर्वेदी ने किया है.  ज़ाहिर है इससे कवि के ‘अंतर्ध्यान’प्रवाह’ का पता तो चलता ही है, उनके कवि को समझने में मदद भी मिलती है.

आशुतोष भारद्वाज का लेखन हिंदी की उस रूढ़ और मुखापेक्षी तथाकथित आलोचनात्मक  लेखन से अलहदा है जो आलोच्य कृति में सबकुछ खोज़ लेता है और एकतरफा बयाँ में घिरकर अप्रमाणिक बन जाता है.  इस कृति की परख वह सिनेमा की शर्तों पर करते हैं.



संकोची समीक्षक का सिनेमा                                      
आशुतोष भारद्वाज





ब कोई पाठक किसी वरिष्ठ कवि की किताब के पास जाता है जिसका नाम लेखक का सिनेमा है तो सहज ही यह उम्मीद बनती है कि यह किताब उस कवि के सिनेमा से सम्बन्ध को बतलाएगी और यह भी कि सिनेमा ने किस तरह उसकी लेखनी को प्रभावित या समृद्ध किया. चूँकि तमाम मशहूर फिल्मकारों ने विख्यात कहानियों और उपन्यासों पर फिल्में बनायीं है, पाठक को उम्मीद होती है कि यह किताब, जो उस वरिष्ठ रचनाकार के जीवन के अंतिम वर्ष में आयी है और जिसमें तमाम फिल्मकारों का जिक्र है, कला की एकाधिक विधाओं को समेटते हुए एक विरल रचनात्मक दस्तावेज होगी. एक ऐसा दस्तावेज जिसके पन्नों में पाठक गहरी फिल्म आलोचना से रूबरू होगा, यह हासिल करेगा कि किस तरह कोई फ़िल्मकार किसी कृति से इस कदर चमत्कृत हो जाता है कि वह उस कथा को कैमरे की आंख से देखना चाहता है. साथ ही वह पाठक यह भी देख सकेगा कि वह कवि अपने रचनाकाल के किस मोड़ पर कौन सी फ़िल्में देख रहा था, उसके शब्दों में, उसकी कविताओं की पंक्तिओं में कौन सी फिल्मों के किन किरदारों की परछाईं उतर आयी थी.

कुँवर नारायण की लेखक का सिनेमा के साथ लेकिन यह उम्मीदें अधूरी रह जाती हैं. युवा लेखक गीत चतुर्वेदीद्वारा सम्पादित दो खण्डों में विभाजित इस किताब के पहले भाग में उन लेखों, फिल्म समीक्षाओं और फिल्म महोत्सवों की रपटों का संकलन है जो कुँवर नारायण ने कभी पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखीं थीं. दूसरे खंड में आठ पाठ हैं, जिसमें एक के सिवाय सभी सत्यजित राय पर केन्द्रित है.

सबसे पहले पहला खंड. इसमें लेखक और उसकी लेखनी का सिनेमा के साथ सम्बन्ध का कोई खास उल्लेख नहीं है, कुछेक अंशों को छोड़कर सिनेमा विधा या चुनिन्दा फिल्मों की आलोचना या गहरा विश्लेषण भी नहीं है, यह निरा समीक्षाई लेखन है जो अमूमन अपने विषय से सम्बंधित सिर्फ कुछ तथ्यों को जुटा देने में ही चुक जाता है. यह लेखक का नहीं, बहुत हद तक समीक्षक का सिनेमा है. इन रपटों का बहुत बड़ा हिस्सा इस तरह की जानकारी में खप गया है कि किस साल, कहाँ कौन सी फ़िल्में दिखाई गयीं, कौन निर्देशक और कौन किरदार थे. कुछेक स्थलों के सिवाय यह किताब सिनेमा के बारे में समझ नहीं सूचना देती है, अंतर्दृष्टि नहीं जानकारी देती है. इसकी भाषा एक कवि की नहीं किसी अखबारी समीक्षक की नजर आती है जहाँ संवेदना लगभग अनुपस्थित है.

मसलनसलाम बॉम्बे पर धर्मयुगके लिए उनकी यह समीक्षा जो फरवरी १९८९ में छपी थी. सलाम बॉम्बे में कथ्य को कथानक से ज्यादा महत्व दिया गया है...वृत्तचित्र शैली इसलिए इस फिल्म पर अपनी पक्की छाप छोडती है. इस मामले में मीरा नायर के वृत्तचित्रों के उनके पिछले अनुभव उनका अच्छा साथ देते हैं. कहानी को शायद इसलिए भी गौण रखा गया है कि विषय की गंभीरता ज्यादा उभर सके. फिल्म में जगहों और लोगों का भी न केवल विश्वसनीय विवरण है, दोनों के बीच अनिवार्य रूप से चलती रहने वाली अंतर्प्रक्रियाओं को भी सटीक बिम्बों और प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया गया है. प्रत्येक द्रश्य व प्रसंग अपने आप में एक सम्पूर्ण वक्तव्य भी लगता है और फिल्म की पूरी योजना में एक मजबूत कड़ी भी. टूला गोयनका द्वारा इस फिल्म का सम्पादन कुशलतापूर्वक किया गया है. कृष्णा, सोलासाल और मंजू की कोमल भावनाएं जिस कठोरता से बार-बार टकराकर आहट होती हैं, उसका दृश्य-संयोजन बहुत अर्थपूर्ण ढंग से किया गया है.

क्या उपरोक्त अंश कहीं से यह गुमान कराता है कि यह किसी फिल्म-आलोचक या फिल्म रसिक ने लिखा है?कथ्य को कथानक से ज्यादा महत्व”,  “जगहों और लोगों का विश्वसनीय विवरण”,  अर्थपूर्ण दृश्य-संयोजनजैसी सूखी, रंगहीन और झुर्रीदार पदावलियाँ किसी अखबारी पत्रकार को भले जंचे, एक कवि की कलम से उतरी नहीं लगतीं.

श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकालपर वे लिखते हैं:  बेनेगल की त्रिकालमें कुछ बहुत अच्छे प्रसंग हैं और कुछ उतने ही ख़राब और कमजोर प्रसंग भी. गोवा की पृष्ठभूमि पर पुर्तगाली वातावरण का रंग-रोगन एक अतीत की याद दिलाता है, लेकिन अगर त्रिकालका मतलब उस अतीत तक ही सीमित रह जाना नहीं था, तो यह फिल्म वर्तमान या भविष्य के लिए कोई बहुत उद्देश्यपूर्ण संकेत नहीं देती. आजादी के लिए लड़ाई के आदर्श को जरुर बीच-बीच में डाल दिया गया है... एक नयी तरह की फिल्म होते हुए भी बहुत सफल या सशक्त फिल्म नहीं कही जा सकती.

इसी तरह एक अन्य लेख में यह वाक्य --- जज की भूमिका में प्रसिद्द अभिनेता फीलीप न्वारे का अभिनय अपनी स्पष्टता और सादगी से आकर्षित करता है.

और इस किताब के पहले लेख सात फ्रेंच फ़िल्में का यह अंश: क्लोद सोते की फिल्म विन्सेन्त, फ्रांस्वा, पॉल एंड अदर्सकुछ पात्रों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों को केंद्र में रखकर मनुष्य के जटिल आपसी रिश्तों की छानबीन प्रस्तुत करती है. व्यापार में अचानक घाटा, ऋण की समस्या, मदद की जरूरत, वैवाहिक सम्बन्ध की असफलता आदि अनेक व्यावहारिक प्रसंगों को छूते हुए भी फिल्म एक कलात्मक सौष्ठव और बारीकी बनाये रखती है.

अच्छे प्रसंग”, “कमजोर प्रसंग”, “वर्तमान या भविष्य के लिए कोई बहुत उद्देश्यपूर्ण संकेत नहीं देती”, अभिनय की स्पष्टता और सादगी”, “मनुष्य के जटिल आपसी रिश्तों की छानबीन प्रस्तुत करती है” ---- यह निपट समीक्षाई भाषा है जो हफ्ते का कॉलम भरने के लिए लिखी गयी प्रतीत होती है. यह लगभग बुझे हुए शब्दों में अपने को कहती है जिसमें ताप है न आंच.

समीक्षा का निश्चित ही महत्व है, मसलन लेखक का सिनेमा किताब पर यह लिखत भी खुद एक समीक्षा ही है, किसी आलोचना होने के मुगालते में नहीं है, लेकिन यह लिखत अपने को लेखक का सिनेमाया सिनेमा विमर्शजैसे भारी विश्लेषणों के तले लाने से न सिर्फ परहेज करेगी, बल्कि यह भी स्पष्ट बतलाएगी कि यह एक किताब पर एक पत्रिका के लिए लिखी गयी काम-भर की, तात्कालिक पढ़त हेतु महज समीक्षा थी, अरसे बाद भी पढ़े जाने वाली आलोचना होने का स्वप्न कतई नहीं देखती थी.
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कुँवर नारायण

कुँवर नारायण की किताब सतह से थोड़ा ऊपर तब उठती है जब वे सिनेमा में गहरे उतरते हैं (ऐसे प्रसंग बहुत अधिक नहीं हैं), मसलन जब वे यूरोपीय सिनेमा की तुलना अमरीकी और लैटिन अमरीकी सिनेमा से करते हैं:

आज भी यूरोप के राजनीतिक मन पर हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन का भूत मंडरा रहा है. इस दहशत को हम बराबर उनकी फिल्मों में पाते हैं. कभी द्वितीय महायुद्ध की यादों के रूप में तो कभी तृतीय महायुद्ध की सम्भावना के रूप में...अमेरिकी फिल्मों में अगर आतंक का शोर है तो यूरोपीय फिल्मों में उसकी आत्मा को कंपा देने वाली वाली ठंडी सिहरन.

बुनुएल ( स्पेनिश फ़िल्मकार लुई बुनुएल) और साउरा (स्पेनिश फ़िल्मकार कार्लोस साउरा) की फिल्मों में अगर गहरी अंतर्द्वन्दात्मकता, आत्मनिरीक्षण, विक्षोभ और लगभग एक अपराध बोध -सा व्याप्त लगता है, तो लातीनी अमेरिकी फिल्मों में उसके बरक्स एक क्रुद्ध प्रदर्श्नात्मकता दीखती है. ब्राजील, क्यूबा, आर्हेंतीना, मिस्र आदि देशों की फिल्मों में एक स्पष्ट प्रतिहिंसात्मक उग्रता है --- लगभग जुलूसी उग्रता...इन फिल्मों में वैसा आत्मनिरीक्षण नहीं, जो अपनी गुलामी के ऐतिहासिक कारणों को बाह्य के साथ-साथ अपने भीतरी सन्दर्भों से भी जोड़े.

बहुत कम और सधे शब्दों में वे दक्षिणी अमेरिकी फिल्मों की अस्तित्वगत समस्या को रेखांकित कर देते हैं. इसी पाठ में वे यूरोप के महान फिल्मकारों की राजनीतिक चेतना को भी बारीकी से उकेर देते हैं.

गोदार, एन्जेलोपुलोस, कोस्ता-गावरास की राजनीतिक फिल्मों की त्वचा ऊपर से अपेक्षाकृत स्थिर रहते हुए भी गहरे राजनीतिक इरादों, आशयों और मानसिकताओं की पेचीदगी और आतंक की कला है. उनमें उपरी उथल-पुथल की अतिनाटकीयता या मेलोड्रामा भले ही न हों, परन्तु भीतर-भीतर चलने वाले महाभारत का जो विकट आभास है, वह न केवल आदमी के निजी व सामूहिक मनोविज्ञान, बल्कि सीधे उन कारणों तक जाता है, राजनीति जिसकी एक शाखा है. वे राजनीति के नाटक को जिंदगी के नाटक से बड़ा नहीं मानते, उसी का एक हिस्सा मानते हैं.रूसी फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की पर उनकी टिप्पणियां इस किताब के बेहतरीन अंशों में है. उनके पात्र विचारों के वाहक की तरह ठोस नहीं लगते, विचारों के भोक्ता की तरह उन्हीं में घुले हुए लगते हैं. इसलिए शायद तारकोवस्की की फिल्मों को सिर्फ देखना नहीं, एक किताब की तरह पढना, समझना और व्याख्यित भी करना पड़ता है --- तभी हम उनके उस एकांत चिंतन में हिस्सेदारी बरत पाते हैं....तारकोवस्की की फ़िल्में खुली जगहों से भरी पड़ी हैं और कितना अजीब है यह अनुभव कि यह खुलापन भी कभी तो एकदम संकुचित और दमघोंटू हो जाता है और कभी इतना उदात्त और सरल.

उनकी प्रसिद्धि के साथ कोई धूमधाम, भीड़भाड़ नहीं जुड़ी है --- एक अनुत्तेजिक, एकान्तिक गरिमा है --- लगभग एक निष्कासित मन की उदासी लिए.

क्या उपरोक्त अंश की ध्वनियाँ और त्वचा पिछले उदाहरणों से एकदम अलहदा सुनाई और महसूस होती हैं? अगर हाँ, तो जैसाकि कहा यह लेखक के अपेक्षाकृत बेहतर अंश हैं. लेकिन इसके साथ ही यहाँ तारकोवस्की की आत्मकथा स्कल्पटिंग इन टाइम के इन अंशों पर ध्यान देना ठीक रहेगा: महान कलाकृतियाँ अपने नैतिक आदर्शों को अभिव्यक्त करने के लिए कलाकार के भीतर चलते संघर्ष से जन्म लेती हैं. उसकी संवेदनाएं और प्रत्यय निश्चय ही इन्हीं आदर्शों द्वारा रेखांकित होते हैं.  अगर वह जीवन से प्रेम करता है, वह अपने भीतर इसे समझने, बदलने, बेहतर बनाने की घनघोर जरुरत महसूस करता है...तब उसकी रचना अनिवार्यतः एक आध्यात्मिक कर्म होगी जो मनुष्य को अधिक सम्पूर्ण बनाने की हसरत लिए रहेगी: सृष्टि की एक ऐसी छवि जो हमें अनुभूति और विचार के समन्वय व अपने संयम और कुलीनता द्वारा सम्मोहित करेगी.
क्या फ़िल्मकार तारकोवस्की का गद्य कुँवर नारायण के उन पर लिखे शब्दों से कहीं बड़े धरातल पर स्थित नहीं है? इसकी क्या वजह है? इसकी चर्चा थोड़ी देर में. 


***
कुँवर नारायण के साथ समस्या यह है कि दुनिया भर की फिल्मों के रसिक दर्शक होने के बावजूद (उनकी किताब उनके सिनेमा प्रेम को पुरजोर बतलाती है) वे फिल्म समीक्षा विधा में कोई हस्तक्षेप करते नहीं दिखाई देते. फिल्म के तमाम तकनीकी पक्ष मसलन कैमरे का कोण, संगीत, सम्पादन इत्यादि का विश्लेषण लगभग नहीं हैं.

हिंदी अख़बार-पत्रिकाओं में समीक्षा की स्थिति अमूमन दयनीय रही है. किसी फिल्म या उपन्यास पर लिखते वक्त समीक्षक अक्सर उसकी कहानी सुना देते हैं, एकदम घिस चुके शब्दों में दो-चार मरियल टिप्पणियां बेबस-से स्वर में कर देते हैं. कुँवर नारायण की किताब बतलाती है कि उस समय की बड़ी पत्रिकाओं मसलन सारिका, घर्मयुग इत्यादि के बड़े संपादकों ने उन पर भरोसा किया था. वे कलकत्ता, हैदराबाद, दिल्ली इत्यादि तमाम शहरों में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में जाकर फिल्म देख रहे थे, उन पर रपट लिख रहे थे. कुँवर नारायण के पास यह अवसर था कि वे फिल्म पत्रकारिता में एक बड़ा हस्तक्षेप कर जाते, लेकिन ऐसा नहीं होता.

यहाँ यह भी जोर देना चाहिए कि अखबार या पत्रिका की रपट अपने में कोई कमतर या कमजोर लेखन नहीं है. यहाँ चुनौती यह है कि आपको रातोंरात ही लिख देना है, किसी कृति के मर्म को बींध देना है. अगर इस चुनौती के समक्ष अमूमन लेखक धराशायी हो जाते हैं, तो कुछ बड़ी प्रतिभाओं के प्रतिमान भी हमारे सामने हैं. मसलन रिचर्ड बार्थलोम्यु (कला), जे स्वामीनाथन ( कलाकारों पर लिखी समीक्षाएँ), नेमिचन्द्र जैन (रंगमंच), शामलाल (किताबों और लेखकों पर समीक्षा) इत्यादि. असल मसला यह है कि आप इस "तात्कालिक लेखनको बरतते कैसे हैं.

जब कुँवर नारायण की यह समीक्षाएं तीस-चालीस साल पहले प्रकाशित होती होंगी तब निश्चय ही इनका उन अख़बार-पत्रिकाओं के पाठकों के लिए महत्व रहा होगा कि इन्टरनेट-विहीन दौर में यह उस दौरान चल रहे फिल्म महोत्सवों से पाठक को परिचित कराती होंगी. लेकिन आज इनमें से कई सारी रपटों का महत्व अमूमन ऐतिहासिक ही है कि यह एक बड़े रचनाकार का पुराना लेखन है. लेकिन सभी लिखा तो सहेजने योग्य शायद नहीं होता. काफी सारी लिखत भूल जाने या पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाने के लिए होती है.

किसी वरिष्ठ रचनाकार से यह अपेक्षा बेमानी नहीं थी कि उम्र के नवें दशक में जब वे अपनी पिछली लिखत को समेटने बैठेंगे तो अपने हरेक लिखे शब्द को शायद किसी संकलन में शामिल करने से थोड़ा संकोच करेंगे. इसमें से आधे को भी अगर शामिल नहीं किया होता तो शायद कुछेक सूचनाओं में भले कमी आई होती, मसलन यह कि किस वर्ष कौन सा फिल्म महोत्सव हिंदुस्तान के किस शहर में हुआ और कौन सी फ़िल्में वहाँ दिखाई गयीं, लेकिन फिल्मों की समझ के बारे में कोई खास फर्क नहीं पड़ता, बल्कि किताब कहीं मुकम्मल और मजबूत होती.
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सत्यजित राय

जब हम पहले खंड को पार कर दूसरे में पहुँचते हैं तो उम्मीद फिर जागती है कि चूँकि यहाँ अखबारी रपटों के बजाय लेखक के डायरी अंश और निबंध है, और चूँकि लेखक की सत्यजित रायके साथ मित्रता थी, वे शतरंज के खिलाड़ी के फिल्मांकन के दौरान राय के साथ थे, इसलिए अब हमें एक महान फ़िल्मकार के काम के बारे में अंतर्दृष्टि हासिल होगी. दो बड़े कलाकारों यानि एक कवि और एक फिल्मकार के आपसी संवाद की अंतर्ध्वनियां सुनायीं देंगीं. लेकिन यह उम्मीद भी पूरी नहीं होती. यह खंड पहले से थोड़ा बेहतर है, लेकिन कई जगहों पर कुँवर नारायण राय के सिनेमा के बारे में वही परिचित बातें दोहराते दीखते हैं, मसलन यह वाक्य: गहरी भावनाओं के चित्रण में राय लगभग सटीक हैं और उन्हें चरित्रों व चेहरे को पढने में अचूक महारत हासिल है.

उनकी डायरियां और संस्मरण राय के जीवन में गहरे उतरते नहीं दिखाई देते. वे पर्याप्त संकेत तो देते हैं अपनी करीबी का, मसलन किस तरह राय पत्रों के जवाब खुद ही लिखते थे और अंत तक उनकी लिखावट आश्चर्यजनक रूप से दृढ़ और सधी हुई थी”; एक मर्तबा जब सईद जाफरी के कहने पर कुँवर नारायण को डबिंग के दौरान कमरे से बाहर आना पड़ा तो सत्यजित राय ने कलकत्ता पहुँच कर उन्हें पत्र लिख इस घटना पर अपना क्षोभ प्रकट किया”. कुँवर नारायण यह तो बतलाते हैं कि उनके घर पर राय के साथ लम्बी, विविध और बहुत ही रोचक बातचीतहोतीं थीं लेकिन उन रोचक और विविध रंगों को उजागर नहीं करते.

क्या यह संकोच कुँवर नारायण का स्वभाव है? मसलन उनकी किताब दिशाओं का खुला आकाश जो कहने को तो लेखक की डायरियों का संकलन है लेकिन यह किताब लेखक के अंतर्द्वंदों से लगभग अछूते गुजर जाती है, जिसकी किसी डायरी से अमूमन अपेक्षा होती है. कलाकार का यह संकोच जीवन में निश्चय ही बड़ा मूल्य है, लेकिन अगर यह संकोच उसके लेखन की अंतड़ियों, मांसपेशियों और धमनियों में उतर कर बहने लगता है तो इसकी वजह से अक्सर लेखक उन दरवाजों के भीतर जाने से हिचक जाता है जहाँ से कला का तिलिस्म शुरू होता है. क्या कुँवर नारायण के साथ यही होता है? क्या उनकी संवेदनात्मक बुनावट में, भाषा के प्रति उनके बर्ताव में कुछ ऐसा अन्तर्निहित है कि सिनेमा के प्रति प्रेम के बावजूद, कवि दृष्टि की उपस्थिति के बावजूद उनके शब्द बीच रास्ते में ही ठिठक जाते हैं

मसलन पहले खंड में वे एक जगह संकेत देते हैं कि सिनेमा और टीवी  ने उपन्यास की विधा को परिवर्तित किया है, आगे जोड़ते हैं कि साहित्य और सिनेमा के संबंधों को एकतरफा न मानकर आपसी मानना मुझे ज्यादा ठीक लगता है”. वे लेकिन इन आपसी संबंधों को नहीं टटोलते कि किस तरह सिनेमा ने साहित्य को सींचा है, अपने निशान शब्दों की देह पर अंकित किये हैं.

उनकी शक्ति वहाँ दिखती है जब वे राय की बारीक़ और सटीक आलोचना करते हैं. मसलन जाति प्रथा पर प्रेमचंद की कहानी सद्गति पर राय की बनायी फिल्म पर वे लिखते हैं - हमारे राजनीतिक व सामाजिक रूप से विभाजित जीवन में इस समस्या की इतनी विविध व बनैली जटिलताएं विद्यमान हैं कि उनके सामने सद्गतिएकायामी लगती है...(यह फिल्म) अपेक्षाओं पर पूरी खरी नहीं उतर पाती, इसलिए नहीं कि यह समस्या अब यथार्थ जीवन में नहीं रही, बल्कि इसलिए कि समस्या जितनी बड़ी होगी, उसे गल्प या किंवदंती में तब्दील हो जाने से बचाने की कोशिशें भी उतनी बड़ी होनी चाहिए”.

एक अन्य जगह वे लिखते हैं: पाथेर पांचाली या अपूर संसार में राय के गुण जितने विलक्षण जान पड़े हैं, दूसरी फिल्मों में जहाँ फिल्म का विषय एक अलग किस्म की छवियों की आक्रामकता की मांग करता हो, वहाँ वह उतना सफल नहीं हो पाते. छवियों व दृश्यों का क्रम आपस में टकराता नहीं, उनमें कोई विस्फोट नहीं होता, बल्कि यह क्रम सिर्फ प्रतीक्षा करता है. अशनि संकेतऔर जन अरण्यमें भी राय उस सटीक फॉर्म की खोज  नहीं कर पाए हैं, जो उनके विषय के लिए अनिवार्य था.

अगर यह बेबाकी उनके स्वर में सर्वव्याप्त रही होती तो यह किताब कहीं बड़ी और महत्वपूर्ण हो सकती थी. साहित्य और सिनेमा के संबंधों पर एक अच्छा पैराग्राफ इसी खंड में है: कई फिल्मकारों के लिए प्रेमचंद पराभव की भूमि साबित हुए हैं, या शायद इसलिए कि एक साहित्यिक महाकृति दूसरे कला माध्यम में पहुँचने के प्रति थोड़ा कम सहनशील होती है. यह एक महाकृति को एक दूसरी भाषा की एक दूसरी कला में अनुवाद करने जैसा है. मूल जितना मजबूत होगा, उसका अनुवाद या पुनर्सृजन उतना ही मुश्किल होगा.

लेकिन यहाँ यह देखना भी ठीक होगा कि उनके प्रिय फ़िल्मकार ने साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध पर क्या लिखा था, जिसके जरिये कुँवर नारायण के गद्य की भी पड़ताल हो सकेगी. तारकोवस्की स्कल्पटिंग इन टाइम में लिखते हैं:
हरेक गद्य रचना स्क्रीन पर रूपांतरित नहीं हो सकती. कुछ कृतियों में एक सम्पूर्णता का भाव होता है, वे एक मौलिक और अचूक साहित्यिक छवि से अभिसिंचित होती हैं; इनके किरदार अतल गहराइयों के भीतर रचे जाते हैं; रचना अपने भीतर सम्मोहित कर देने की असाधारण क्षमता लिए रहती है; रचयिता का अद्भुत और अद्वितीय व्यक्तित्व पन्नों के दरमियाँ बहता चलता है; इस तरह की किताबें मास्टरपीस होती हैं, और सिर्फ वही उन्हें स्क्रीन पर लाने की इच्छा अपने भीतर ला सकता है जो असल में बेहतरीन गद्य और सिनेमा दोनों के प्रति बेरुखी रखता हो. 


क्या इन दोनों अंशों में कोई साम्य है? क्या यह कह सकते हैं कि लेखक होते हुए भी कुँवर नारायण जहाँ रुक जाते हैं, फ़िल्मकार तारकोवस्की का गद्य वहाँ से शुरू होता है? अगर हाँ, तो इसके बीज कवि के संकोच में निहित हैं या यह उनकी दृष्टि की सीमा है? यह प्रश्न बड़ी आलोचना की अपेक्षा करते हैं. लेखक का सिनेमा को कहाँ रखा जायेगा? अगर दुनिया भर की फिल्मों की जानकारी हासिल करना ही ध्येय हो (हालांकि यहाँ उल्लेख लगभग उन्हीं फिल्मों का है जो कुंवर नारायण ने फ़िल्म महोत्सवों में देखीं, कई बड़े निर्देशक जो शायद उनके प्रिय भी रहे होंगे, उनका जिक्र इसमें लगभग नहीं है), तो यह किताब एक बार पढ़ी जा सकती है, लेकिन अगर सिनेमा विधा और विभिन्न सिनेमा कृतियों पर अंतर्दृष्टि हासिल करने की उम्मीद हो तो शायद यह किताब बहुत दूर तक नहीं ले जाएगी.  इसी किताब में कुँवर नारायण मृणाल सेनकी फिल्म खंडहर पर जो लिखते हैं उसे पलट कर खुद इसी किताब के बारे में लिखा जा सकता है लेखक का सिनेमा विफल किताब नहीं है लेकिन उतनी सफल भी नहीं है कि मैं उसे बेधड़क कुँवर नारायण की उत्कृष्ट कृतियों में गिन सकूँ. मेरी ज्यादती हो सकती है कि मैं इस किताब के पास बड़ी उम्मीद लेकर आया था लेकिन अगर एक वरिष्ठ कवि के पास उम्मीद लेकर नहीं जायेंगे तो आखिर कौन ठौर खोजेंगे?   
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पत्रकार, कथाकार. आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं. कथादेश के विशेषांक कल्प कल्प का गल्पका  संपादन किया है.
अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस'में कार्यरत हैं

ई पता : abharwdaj@gmail


मैं कहता आँखिन देखी : रामदेव धुरंधर









प्रवासी लेखन (Diaspora literature) आज विश्व में चर्चा और चिंतन का विषय बना हुआ है. हिंदी प्रवासी लेखकों में मारीशस के वरिष्ठ कथाकार रामदेव धुरंधरका अहम मुकाम है. प्रवासी किसानों मजदूरों के जीवट और संघर्ष पर आधारित उनका महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘पथरीला सोना’ छह भागों में प्रकाशित है, इसके साथ ही उनके ‘छोटी मछली-बड़ी मछली’,‘चेहरों का आदमी’,‘बनते-बिगड़ते रिश्ते’, ‘पूछो इस माटी सेजैसे उपन्यास भी खासे चर्चित रहे हैं.  ‘विषमंथन’तथा‘जन्म की एक भूल’ नाम से उनके दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं.

२०१७ के श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान से श्री रामदेव धुरंधर को सम्मानित किया गया है. उनके अनुभवों और रचनाशीलता पर यह दिलचस्प  संवाद गोवर्धन यादव के द्वारा आपके लिए.





रामदेव धुरंधर से  गोवर्धन यादव की बातचीत  


१)  लगभग देढ़-दो सौ साल पहले बिहार से कुछ लोगों को बतौर ठेके पर/मजदूर बनाकर मॉरिशस लाया गया था. संभवतः आपकी यह चौथी अथवा पांचवीं पीढी होगी. क्या विस्थापन का दर्द आज भी आपको सालता है?

भारतीय मज़दूरों का पहला जत्था सन् 1834 में मॉरिशस लाया गया था. मेरे पिता का जन्म - वर्ष 1897 था. प्रथम भारतीयों का मॉरिशस आगमन (1834) और मेरे पिता के जन्म के बीच 63 सालों का फासला है. तब भी भारत से लोगों को इस देश में लाया जाना ज़ारी था. इस दृष्टि से मेरे पिता मेरे लिए इतिहास के सबल साक्षी थे. भारतीयों को लाकर गोरों की ज़मींदारी के झोंपड़ीनुमा घरों में बसाया जाता था. तब भारतीयों के दो वर्ग हो जाते थे. एक वर्ग के लोग वे होते थे जिन्हें जहाज़ से उतरने पर गोरों की ओर से बनाये गये झोंपड़ीनुमा घरों में रखा जाता था. वे गोरों के बंधुआ जैसे मज़दूर होते थे. दूसरे वर्ग के लोग वे हुए जो भारत से सब के साथ जहाज़ में आते थे, लेकिन काट - छाँट जैसी नीति में पगे होने से वे गोरों के खेमे में चले जाते थे. वे सरदार और पहरेदार बन कर अपने ही लोगों पर कोडों की मार बरसाते थे.

विस्थापन का दर्द तो उन अतीत जीवियों का हुआ जो इस के भुक्तभोगी थे. मैं उन लोगों के विस्थापन वाले इतिहास से बहुत दूर पड़ जाता हूँ. परंतु मैं पीढ़ियों की इस दूरी का खंडन भी कर रहा हूँ. कहने का मेरा तात्पर्य है उन लोगों का विस्थापन मेरे अंतस में अपनी तरह से एक कोना जमाये बैठा होता है और मैं उसे बड़े प्यार से संजोये रखता हूँ. इसी बात पर मेरा मनोबल यह बनता है कि मैं भारतीयों के विस्थापन को मानसिक स्तर पर जीता आया हूँ. यहीं नहीं, बल्कि मैं तो कहूँ अपने छुटपन में मैं अपने छोटे पाँवों से इतिहास की गलियों में बहुत दूर तक चला भी था.


2. कहावत है कि धरती से एक पौधे को उखाड़ कर दूसरी जगह लगाया जाता है तो उसे पनपने में काफ़ी समय लगता है / कभी पनप भी नहीं पाता. शायद यही स्थिति आदमी के साथ भी होती है कि उसे विस्थापन का असह्य दर्द झेलना पडता है और अनेक कठिनाइयों / अवरोधों के बाद वह सामान्य जिंदगी जी पाता है. उन तमाम लोगो के पास वह कौनसा साधन था कि वे अपने को जिंदा रख पाए और अपनी अस्मिता बचाए रख सके?
जहाज़ में तमाम उत्पीड़न झेलते ये लोग मॉरिशस पहुँचे थे. अपना जन्म देश पीछे छूट जाने का दर्द इन के सीने में सदा के लिए रह गया था. इस देश में आने पर सब से पहले इन की महत्त्वाकाक्षाएँ ध्वस्त हुई थीं इसलिए विस्थापन इन्हें बहुत सालता रहा होगा. बहुत से लोग तो बंदरगाह में डाँट - फटकार और तमाम शोषण जैसी प्रवृत्तियों से टूट कर रोने लगते थे और उन के ओठों पर एक ही चीत्कार होता था मुझे मेरे देश वापस भेज दिया जाए. यह मान्यता अब भी मॉरिशस में पुख्त ही चलती आई है कि भारतीयों को इस ठगी से लाया गया था वहाँ पत्थर उलाटने पर सोना पाओगे. उन लोगों की महत्त्वाकाक्षाओं में से यह एक रही हो, लेकिन इस का विखंडन तो तभी शुरु हो गया होगा जब वे जहाज़ में सवार होने पर अत्याचार से चिथड़े हो रहे होंगे. ओछी मानसिकता के बंधन में यहाँ आने पर कौन याद रखता. क्या - क्या पाने इस देश में आए थे. बल्कि जो मन का संस्कार था, इज्ज़त आबरू का अपना जो अपार पारिवारिक वैभव था सब दाव पर ही तो लगते चले गए थे. तब तो दर्द यहाँ ज्यों - ज्यों गहराता होगा विस्थापन की आह प्रश्न बन कर ओठों पर छा जाती होगी --अपनी मातृभूमि छोड़ने की मूर्खता भरी अक्ल किस स्रोत से आई होगी?

भारत से विस्थापित लोगों का 1834 के आस पास मॉरिशस आगमन शुरु जब हुआ था तब उन में ऐसे लोग तो निश्चित ही थे जो भारतीय वांङ्मय के अच्छे जानकार थे. उन्हीं लोगों ने तुलसी मीरा कबीर तथा अन्यान्य कवियों की कृतियों का यहाँ प्रचार किया था. शादी के गीत, भक्ति काव्य और इस तरह से भारतीय कृतियों और संस्कृति का इस देश में विस्तार होता चला गया था. जो साधारण लोग थे उन के अंतस में भी समाने लगा था कि अपने भारत की इतनी सारी धरोहर होने से हम इस देश में अपने को धन्य पा रहे हैं. कालांतर में भोलानाथनाम के एक सिक्ख सिपाही ने सत्यार्थ प्रकाशला कर यहाँ के लोगों को उस से परिचित करवाया. इस देश में यथाशीघ्र आर्य समाज की लहर चल पड़ी थी. यह सामाजिक चेतना की कृति थी. इस की आवश्यकता थी और यह सही वक्त पर लोगों को उपलब्ध हुई थी.



३. मॉरिशस गन्ने की खेती के लिए मशहूर रहा है. निश्चित ही आपके पिताश्री भी गन्ने के खेतों में काम करते रहे होंगे. वे बीते दिनों की तकलीफ़ों के बारे में आपको सुनाते  भी रहे होंगे कि किस तरह से उन्हें पराई धरती पर यातनाएं सहनी पड़ी थी.?

मेरे किशोर काल में मेरे पिता मुझे इस देश में आ कर बसे हुए भारतीयों की वेदनाजनित कहानियाँ सुनाया करते थे. अपने पिता से सुना हुआ भारतीयों का दुख - दर्द मेरी धमनियों में बहुत गहरे उतरता था. यह तो बाद की बात हुई कि मैं लेखक हुआ. परंतु कौन जाने मेरे पिता अप्रत्यक्ष रूप से मुझे लेखन कर्म के लिए तैयार करते थे. वे मेरे लिए अच्छी कलम खरीदते थे. पाटी, पुस्तक और पढ़ाई के दूसरे साधनों से मानो वे मुझे माला माल करते थे. मेरे पिता अनपढ़ थे, लेकिन उन्हें ज्ञात था सरस्वती नाम की एक देवी है जिस के हाथों में वीणा होती है और उसे विद्या की देवी कहा जाता है. मेरे पिता ने सरस्वती का कैलेंडर दीवार पर टांग कर मुझ से कहा था विद्या प्राप्ति के लिए नित्य उस का वंदन करूँ. वह एक साल के लिए कैलेंडर था, लेकिन उसे मूर्ति मान कर हटाया नहीं जाता था. वर्षों बाद हमारा नया घर बनने के बाद ही किसी और रूप में मेरे जीवन में सरस्वती की स्थापना हुई थी.



४. निश्चित ही उनकी उस भयावह स्थिति की कल्पना मात्र से आप भी विचलित हुए होंगे और एक साहित्यकार होने के नाते आपने उस पीडा को अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है?

मैंने बहुत सी विधाओं में लेखन किया है और अपने देश से ले कर अंतरसीमाओं तक मेरी दृष्टि जाती रही है. यहाँ मेरे पूर्वजों के विस्थापन का संदर्भ अपने तमाम प्रश्नों के साथ मेरे साथ जुड़ जाने से मैं अपने उसी लेखन की यहाँ बात करूँगा जो विस्थापन से संबंध रखता है.

मैंने इतिहास का दर्दशीर्षक से एक नाटक  (1976)लिखा था जो पूरे देश में साल तक विभिन्न जगहों में मंचित होता रहा था. यह पूर्णत: भारतीयों के विस्थापन पर आधारित था. मेरे लिखे शब्दों को पात्र मंच पर जब बोलते थे मुझे लगता था ये प्रत्यक्षत: वे ही भारतीय विस्थापित लोग हैं जो मॉरिशस आए हैं और आपस में सुख - दुख की बातें करने के साथ इस सोच से गुजर रहे हैं कि मॉरिशस में अपने पाँव जमाने के लिए कौन से उपायों से अपने को आजमाना ज़रूरी होगा.

अपने लेखन के लिए मैंने भारतीयों का विस्थापन लिया तो यह अपने आप सिद्ध हो जाता है मैंने उन के सुख - दुख, आँसू, शोषण, गरीबी, रिश्ते सब के सब लिये. मैंने लिखा भी है मैं आप लोगों के नाम लेने के साथ आप की आत्मा भी ले रहा हूँ. मैं आप को शब्दों का अर्घ्य समर्पित करना चाहता हूँ, अत: मेरा सहयोगी बन जाइए. उन से इतना लेने में हुआ यह कि मैं भी वही हो गया जो वे लोग होते थे. किसी को आश्चर्य होना नहीं चाहिए अपने देश के इतिहास पर आधारित अपना छ: खंडीय उपन्यास पथरीला सोनालिखने के लिए जब मैं चिंतन प्रक्रिया से गुजर रहा था तब मैं उन नष्टप्राय भित्तियों के पास जा कर बैठता था जिन भित्तियों के कंधों पर भारतीयों के फूस से निर्मित मकान तने होते थे. जैसा कि मैंने ऊपर में कहा ये मकान उन के अपने न हो कर फ्रांसीसी गोरों के होते थे. उन मकानों में वे बंधुआ होते थे. मैंने उन लोगों से बंधुआ जैसे जीवन से ही तारतम्य स्थापित किया और लिखा तो मानो उन्हीं की छाँव में बैठ कर. बात यह भी थी कि भारतीयों के उन मकानों या भित्तियों का मुझे चाहे एक का ही प्रत्यक्षता से दर्शन हुआ हो, अपनी संवेदना और कल्पना से मैंने उसे बहुत विस्तार दिया है. तभी तो मुझे कहने का हौसला हो पाता है मैंने उसे भावना के स्तर पर जिया है. 

पर्वत की तराइयों के पास जाने पर मुझे एक आम का पेड़ दिख जाए तो मेरी कल्पना में उतर आता है मेरे पूर्वजों ने अपने संगी साथियों के साथ मिल कर इसे रोपा था. मेरे देश में तमाम नदियाँ बहती हैं जिन्हें मैंने मिला कर मनुआ नदी नाम दिया है. इसी तरह पर्वत यहाँ अनेक होने से मैंने बिंदा पर्वत नाम रख लिया और आज मुझे सभी पर्वत बिंदा पर्वत लगते हैं. मैंने सुना है दुखों से परेशान विस्थापित भारतीयों की त्रासदी ऐसी भी रही थी कि पर्वत के पार भागते वक्त उन के पीछे कुत्ते दौड़ाये जाते थे. कुआँ खोदने के लिए भेजे जाने पर ऊपर से पत्थर लुढ़का कर यहाँ जान तक ली गई हैं. बच्चे खेल रहे हों और कोई गोरा अपनी घोड़ा बग्गी में जा रहा हो तो आफ़त आ जाती थी. यह न पूछा जाता था स्कूल क्यों नहीं जाता. कहा जाता था बड़े हो गए हो तो खेतों में नौकरी करने क्यों नहीं आते हो. पर ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में यह लिखित मिलने की कोई आशा न करे,क्योंकि लिखने की कलम उन दिनों केवल फ्रांसीसी गोरों की होती थी.


५. भारत छॊडने से पहले लोग अपने साथ धार्मिक ग्रंथों को भी ले गए थे. कठिन श्रम करने के बाद वे इन ग्रंथों का पाठ करते और अपने दुखों को कम करने का प्रयास करते थे. इस तरह वे अपनी परम्परा और संस्कार को बचा पाए. यह वह समय था जब क्रिस्चियन मिशनरी अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए प्रयासरत थे. निश्चित ही वे इन पर दबाव जरुर बनाते रहे होंगे कि भारतीयता छोड़कर ईसाई बन जाओ.

भारतीय मज़दूरों के मॉरिशस आगमन के उन दिनों में यहाँ विशेष रूप से धर्म,संस्कृति, आचरण, पूजा, रामायण गान, संस्कार, नीति जैसे बहुमूल्य सिद्धांतों पर विशेष रूप से बल दिया जाता था. उन दिनों की स्थिति को देखते हुए  ऐसा होना हर कोण से आवश्यक था. ऐसा न होता तो मॉरिशस का भारतीय मन डगमगा गया होता और तब अनर्थ की काली स्याही सब के चेहरे पर पुत जाती. इस देश के उस क्रूर इतिहास को आज भी याद रखता जाता है. ईसाईयत के प्रचार के लिए ईसाई वर्ग के लोग भारतीय वंशजों के घर पहुँचते थे और लंबे समय तक द्वार पर खड़े हो कर उन के दिमाग में डालने की कोशिश करते थे आप इतनी आज्ञा तो दें ताकि हम आप के घर में ईसाईयत का पौधा बो कर ही लौटेंगे. आप हमारे लिए इतना करें हमारे दिये हुए मंत्रों से उस पौधे का सींचन करते रहें. 

फिर एक दिन ऐसा आएगा जब ईसाईयत का वह पौधा बढ़ कर छतनार हो जाएगा तब बड़ी सुविधा के साथ आप के बच्चे उस की छाया में पनाह पाना अपने लिए सौभाग्य मानेंगे. ईसाईयत की उस लहर ने यदि अपनी चाह के अनुरूप हमारे घरों में प्रवेश पा ही लिया होता तो बहुत पहले मॉरिशस में भारतीयता की छवि धूमिल हो गई होती. सौभाग्य कहें कि भारतीय संस्कार लोगों के सिर पर चढ़ कर बोलता था तभी तो लोग बाहरी झाँसे में भ्रमित होने की अपेक्षा अपने संस्कार में और गहरी श्रद्धा से आबद्ध होते जाते थे. निस्सन्देह धार्मिक संस्थाओं ने इस क्षेत्र में बहुत काम किया था. प्रसंगवश यहाँ मुझे कहना पड़ रहा है आज की तरह विच्छृंखल संस्थाएँ न हो कर उस ज़माने की संस्थाएँ अपने लोगों के प्रति समर्पित और भाव प्रवण हुआ करती थीं. सेवा करो और बदले में फल की कामना मत करो. ईश्वर को इस बात के लिए आज हम धन्यवाद तो दें अपनी ही फूट और ईर्ष्या जैसे अनाचार के बावजूद हमारी सांस्कृतिक विरासत निश्चित ही व्यापक अडिग और सर्वमान्य चली आ रही है. विशेष कर धार्मिक कृतियाँ पूजा पाठ और धार्मिक वंदन की गरिमा को उच्चतर बनाने में अपना सहयोग ज्ञापित करने में कोई कमी नहीं छोड़तीं.


६. उन दिनों वहां की सरकार जनता पर निर्ममता से अत्याचार करती रहती थी. निश्चित ही आपका परिवार इस भीषण यंत्रणा का शिकार हुआ होगा? इस अत्याचार को परिवार ने कैसे झेला और आप पर इसका कितना असर हुआआपकी पढ़ाई-लिखाई पर कितना असर पड़ा?


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ज़मीन फ्रांसीसी गोरो की होती थी जो लोगों को पट्टे पर ईख बोने के लिए दी जाती थी. मेरे पिता के भी खेत हुए. गोरों ने जब देखा था भारतीय मन के लोग उन के बंधन से मुक्त होने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो उन्होंने देश व्यापी अपना अभियान चला कर एक साल के भीतर लोगों के सारे खेत छीन लिये थे. मेरे पिता खेत छीने जाने के दुख के कारण मानो निष्प्राण हो गए थे. दोनों बैलगाड़ियाँ बिक गईं. गौशाला में दो गाएँ थीं तो माँ ने किसी तरह दिल पर पत्थर रख कर एक गाय बेची और एक गाय को अपने बच्चों के दूध के लिए बचा लिया. पथरीला सोना उपन्यास में मैंने लालबिहारी और इनायत नाम के दो पात्रों के माध्यम से इस घटना का मर्मभेदी वर्णन किया है. मेरे पिता के सिर पर कर्ज़ था. घर के सभी को मिल कर किसी तरह कर्ज़ से उबरना था. परिवार की शाखें बढ़ते जाने से आवश्यक था मकान बड़ा हो. ऐसा नहीं कि यह सब हौआ हो जो हम को लील जाए. हिम्मत से इन सारी कठिनाइयों पर जय की जा सकती थी और हम जय कर भी रहे थे. बस हमारी गरीबी की चादर बहुत दूर तक फैल गई थी. योजना से काम लेना पड़ता था ताकि अपने लक्ष्य पर पहुँच कर तसल्ली कर पाएँ कि हम ने कुछ तो किया. 

मुझ से बड़े मेरे दो भाई थे. मुझ से छोटी एक बहन और एक भाई. दोनों बड़े भाई खेत के कामों में पिता का हाथ बँटाते थे. गरीबी और अस्त व्यस्तता की उस दयनीय रौ में मेरी पढ़ाई छूट सकती थी. पता नहीं मेरे परिवार में वातावरण कैसे इस तरह बन आया था कि केवल मैं पढ़ाई में आगे निकलता जाऊँ और मेरे भाई बहन मानो कुछ - कुछ पढ़ाई से अपनी उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते जाएँ. पर आने वाले दिनों में मेरी पढ़ाई गंभीर रूप से बाधित हुई. मेरी पढ़ाई व्यवस्थित रूप से न  हो सकी तो इस का कारण घर का बँटवारा था. दोनों बड़े भाइयों की शादी होने पर वे अपने कुनबे की चिंता करने लगे थे. उन के अलग होने पर हम माता - पिता और तीन बच्चे साथ जीने के लिए  छूट गए. यहाँ भी वही हुआ हमें जीना था तो हम जी लिये. यहीं मुझे मज़दूरी करने के लिए कुदाल थामनी पड़ी जो वर्षों छूटी नहीं. इस बीच पिता बीमार हुए तो स्वस्थ हो पाना उन के लिए स्वप्न बन गया.     

 
७. मेरा अपना मानना है कि किसी भी भाषा को यदि बचपन से सीखा जाए तो वह जल्दी ही आत्मसात  हो जाती  है. जब आपने हिन्दी सीखना शुरु किया तब तक तो  आपकी उम्र लगभग 20-21  वर्ष की हो चुकी होगी. इस बढ़ी उम्र में आपको निश्चित ही दिक्कतें भी खूब आयी होंगी?

बचपन में मुझे अपने पिता की ओर से हिन्दी का संस्कार मिला था. जिसे वास्तविक हिन्दी का ज्ञान कहेंगे वह बाद में मेरे हिस्से आया. मैं आत्म गौरव से कहता रहा हूँ हमारे देश में हिन्दी के उत्थान के लिए काम करने वाली हिन्दी प्रचारिणी सभा के सौजन्य से मैं व्याकरण सम्मत हिन्दी सीख पाया था. हम तीस तक विद्यार्थी एक कक्षा में पढ़ते थे जिन में से दो तिहाई विवाहित थे. स्वयं मेरे दो बच्चे थे. एक महिला की तो दो बेटियों की शादी हो गई थी. मेरी निजी बात यह है मेरी गरीबी के बादल मेरे सिर पर तने हुए थे परिणाम स्वरूप बस का भाड़ा चुका कर जाने में मुझे तंगहाली से गुजरना पड़ता था. पढ़ाई का लक्ष्य यही था हिन्दी सीख लूँ ताकि हिन्दी अध्यापक बनने का मेरा रास्ता सहज हो सके. वैसे, मैंने इस बीच पुलिस बनने के लिए हाथ - पाँव मारने की कोशिश की थी. यदि पुलिस की नौकरी मुझे पहले मिल जाती तो मैं इधर का आदमी न हो कर उधर का होता. मैंने चोरों की गिरेबान पर हाथ खूब रखा होता और उसी अनुपात से अपना ईमान रिश्वत को प्रतिदान में दे कर सोचता कि मैं तो उसी धारा में बह रहा हूँ जिस धारा का सभी भक्ति वंदन कर रहे हैं. मेरे बिना हिन्दी अनाथ तो न होती, लेकिन मैं स्वयं के साक्ष्य में कह रहा हूँ मेरे नाम से हिन्दी की इतनी कृतियाँ नहीं होतीं. मैं हिन्दी का पर्याय न होता और हिन्दी की दुनिया मुझे जानती तक नहीं. आज हिन्दी से अपनी पहचान का मुझे बहुत फक्र है. हिन्दी मेरे प्रति हुई भी ऐसी उस ने मुझे अनाथ नहीं छोड़ा. हिन्दी ने मुझे रोटी दी और मैंने इसी भाषा के बूते अपने बच्चों को पढ़ाया.


८. मारीशस में आम बोलचाल  की भाषा कृओल है जबकि सरकारी भाषा अंग्रेजी है.  इन दो भाषाओं के बीच हिन्दी अपना स्थान कैसे बना पायी? क्या कोई ऎसी संस्था उस वक्त काम कर रहीं थी, जो हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कटिबद्ध थी?

भारतीयों के आरंभिक दिनों में तो निश्चित ही बहुत अंधेर था. कालांतर में हिन्दी का गवाक्ष खुला और वह अपनी मंजिल की तलाश के लिए व्याकुल हो उठी. जैसे तैसे हिन्दी परवान चढ़ती गई और उस ने देश व्यापी बन कर जन जन के मन में जैसे लिखा मैं इस देश में समर्थ भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ. हिन्दी ने नाम तो पाया, लेकिन दुख तो मानेंगे उसे आज भी वह शिखर न मिल पा रहा है जिस की अपेक्षा में उस ने हिन्दी के दावेदारों का दरवाज़ा खटखटाया था. अब इतना ही कहा जा सकता है हिन्दी को कुछ तो सुलभ हो सका और इस हिन्दी में लिखने वाले उसे अपनी रचनाओं का अर्घ्य समर्पित कर सके. फिलहाल इसी पर हमें संतोष करना पड़ता है. दो संस्थाओं का जिक्र करना यहाँ मैं आवश्यक मान रहा हूँ. वे दोनों संस्थाएँ हैं मॉरिशस आर्य सभा और हिन्दी प्रचारिणी सभा. आर्य सभा ने धर्म को बचाओऔर हिन्दी को विस्तार दोजैसी भावनाओं से एक शती का सफ़र अब तक इस देश में पूरा कर लिया है. हिन्दी प्रचारिणी सभा ने विशेष रूप से व्याकरण सम्मत हिन्दी पर ज़ोर दिया और इसी पर टिक कर उस ने मॉरिशस को सिखाया कैसे शुद्ध हिन्दी को थामा जा सकता है. यहीं से हम सब को प्रेमचंद, प्रसाद, निराला महादेवी वर्मा आदि हिन्दी के मूर्द्धन्य साहित्यकारों को जानने और पढ़ने का अवसर मिला.


९. लघुकथाओं से लेकर कहानी, लेख-आलेख तथा उपन्यास तक आपका सारा लेखन हिन्दी में हुआ है. हिन्दी लेखन से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ ?

यह तो तय है जिस ने भी इस देश में हिन्दी के लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की है उस के लिए भारत के हिन्दी  के रचनाकार अपने आदर्श रहे हैं. ज़रूरी नहीं सब एक ही लेखक का नाम लें. अभिमन्यु अनत और मैंने महात्मा गांधी संस्थान में पचीस साल एक साथ काम किया. हमारा एक और मित्र था जिस का नाम पूजानन्द नेमा था. वह गजब का कवि और चिंतक था. रोज़ हम तीनों घंटों साहित्यिक चर्चा करते थे. अभिमन्यु एक ही भारतीय लेखक से अपने को प्रभावित बताते थे वे थे शरतचंद चटोपाध्याय. मैंने प्रेमचंद को अधिकाधिक पसंद किया. पूजानन्द नेमा के लिए निराला आदर्श कवि थे. 

मॉरिशस के प्राथमिक कवियों में ब्रजेन्द्र कुमार भगत हुए जिन्हें हमारे देश के स्थापित कवि के रूप स्वीकारा जाता है. वे मैथिलीशरण गुप्त से प्रभावित थे. वे मैथिलीशरण गुप्त की ही तरह कविता रचने का प्रयास करते थे. इस तरह मॉरिशस में शुरुआती कवियों और कहानीकारों के अपने - अपने आदर्श होने से वे प्राय: उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश करते रहे, लेकिन कालांतर में सोच और अभिव्यक्ति में सब को स्वयं की ज़मीन तो तलाशनी ही थी. अभिमन्यु अनत ने मॉरिशस की मिट्टी का बेटा बन कर वही लिखा जिस में उस की अपनी मिट्टी की सुगंध हो. इसी तरह पूजानन्द नेमा, सूर्यदेव सिबरतसोमदत्त बखोरी, दीपचंद बिहारी, भानुमती नागदान और स्वयं मैं हम सभी अपनी - अपनी रचनाओं में अपने - अपने नज़रिये से अपने देश को आँकते रहे. 

१०.  अच्छी हिन्दी सीख लेने के बाद आपने भी अपनी ओर से हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया होगा? इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें?

मैंने प्रयास अवश्य बहुत किया है. मैं स्थानीय रेडियो में दस साल हर सप्ताह तीन साहित्यिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता था. इस में एक रेडियो नाटक होता था. मैं एकांकी लिख कर कलाकारों के साथ रेडियो से प्रसारित करता था. मैं समझता हूँ हिन्दी को निखार  देने में मेरा यह श्रम समुचित था. मैं 1972 - 1980 के वर्षों में हर शनिवार और रविवार की सुबह से दो बजे तक एक कालेज में एक कमरा ले कर वयस्कों को हिन्दी पढ़ाता था. मेरे विद्यार्थियों में पचास की उम्र तक के लोग होते थे और मैं पढ़ाने वाला चालीस के आस पास की उम्र में जीवन की साँसें लेता था. ये लोग हिन्दी सरकारी स्कूलों में शिक्षक थे. मेरा विज्ञापन इस रूप में हो गया था कि मैं व्याकरण पढ़ाने में मास्टर हुआ करता हूँ. यह सही था मैं शुद्ध हिन्दी पर बल देता था और मेरे साथ पढ़ने वालों को लगता था मेरे साथ पढ़ें तो हिन्दी ठीक से जान लेंगे. मैं व्याकरण के लिए काली श्यामपट को उजली खड़ी से रंग कर मिटाया करता था. लगे हाथ मेरा ध्यान इस बात पर रहता था इन लोगों को परीक्षा में सफल करवाना है. जयशंकर की कविता पढ़ाना चाहे मेरे लिए दुरुह होता था, लेकिन तैयारी करने पर निश्चित ही वह मेरे लिए सहज हो जाता था. एक बात मेरे लिए बहुत ही अच्छी होती थी मैं स्वयं सीखता भी था. छंद पढ़ाएँ तो मात्रा की समझ से संपृक्त कैसे न होंगे. 
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(रामदेव धुरंधर के साथ गोवर्धन यादव)

मैं एक उद्देश्य से अपने उस अतीत की चर्चा कर रहा हूँ. मेरा विशेष तात्पर्य यह है मैं अपने वयस्क विद्यार्थियों में लिखने का भाव अंकुरित करने का प्रयास करता था. हर महीने के अंतिम सप्ताह को मैं आधा दिन लेखन को समर्पित करता था. मेरे विद्यार्थियों में से बहुतों ने बाद में कुछ न कुछ लिखा. मैं महात्मा गांधी संस्थान में प्रकाशन विभाग से जब से जुड़ा लेखक - कवि तैयार करने में मेरा ध्यान बराबर लगा रहता था. किसी किसी की तो आधी कहानी को मैंने लिख कर पूरा किया और बिना अपना जिक्र किये उन्हीं के नाम से छापा. लोग कविता ले कर मेरे घर आते थे. मैं संशोधन करने के साथ यह कहते उन का मनोबल बढ़ाता था अच्छी कविता की तुम में पूरी संभावना है. मैंने भारत में प्रकाशकों से बात कर के दो चार लोगों की पुस्तकें भी छपवायी हैं. अब साहित्यकार के रूप में मेरी पहचान बनते जाने से लोग मेरे साथ जुड़ने के लिए और भी तत्पर रहते हैं. बल्कि मैं भी उन की और दृष्टि उठाये रखता हूँ. हम सब की कामना एक ही होती है हमारे देश में हिन्दी का अपना एक दमदार साहित्य हो.

११. हिन्दी के प्रचार-प्रसार करने के लिए आपको यात्राएं भी करनी होती होगी, आने-जाने का खर्च भी आपको उठाना पड़ता होगा. यह सब आप कैसे कर पाते थे? क्या विध्यार्थियो से कोई शुल्क वसूल करते थे?


मैं रेडियो में प्रोग्राम करता था तो मुझे पैसा मिलता था. बाकी मैंने निशुल्क ही पढ़ाया है. साल के अंत में हम विदाई का समारोह आयोजित करते थे. हम सभी पैसे लगा कर पेय और मिठाई खरीदते थे. उस अवसर पर विद्यार्थी उपहारों से मुझे लाद देते थे. एक महिला पढ़ने आती थी. वे लोग प्याज की खेती करते थे. अपने पति के साथ वह अकसर प्याज ले कर मेरे घर पहुँचती थी. हिन्दी और हिन्दी लेखन का ऐसा भी संसार मैंने बनाया था. विद्यार्थी तो हर साल बदलते रहते थे, लेकिन पुराने लोगों से मेरा नाता बना रहता था. इस तरह से दो सौ तक लोगों को मैंने हिन्दी की गरिमा के लिए तैयार कर लिया था.

रही यह बात कि विदेश गमन के लिए मेरा खर्च कैसे पूरा होता है. बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा हिन्दी ने अनेकों बार स्वयं मेरा खर्च वहन किया है. 1970 में मैं पहली बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भारत गया था. मेरी कहानियाँ धर्मयुग,आजकल,सारिका आदि में प्रकाशित होती थीं. इसी के बल पर मुझे नागपुर के लिए सरकार की ओर से हवाई टिकट मिला था. सूरीनाम जाना हुआ तो इस का खर्च भी भारत सरकार ने पूरा किया. साहित्य आकादेमी, नेहरू संग्रहालय तथा इस तरह से और भी अनेक जगहों से मुझे टिकट मिलते रहे हैं. पर साथ ही मैंने अपना भी खर्च किया है. 


१२. उन दिनों आपकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी. हिन्दी सीखने वालों के मन में हिन्दी के प्रति ललक जगाने के लिए  आप पत्रिकाऒं का जिक्र भी जरुर करते रहे होंगे?

बेशक, मैं बहुत जिक्र करता था. ईश्वर की कृपा से रुचि जगाने का कौशल मुझे आता था. मेरा प्रभाव अपने विद्यार्थियों पर इसलिए तो निश्चित ही पड़ता था क्योंकि मैं साहित्य जगत में जाना जाता था. धर्मयुग, सारिका, आजकल जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ छपने पर मैं अपने विद्यार्थियों को प्रति दिखा कर कहता था मेरी कहानी छपी. मैं प्रकाशित कहानी किसी विद्यार्थी से पढ़वा कर मंच को खुला छोड़ता था कि जिसे उस कहानी पर कुछ बोलना हो खुल कर बोले.     मैं उन दिनों की अपनी एक खास उपलब्धि यह भी मानता हूँ कि मैंने लिखने की चाह पैदा करने में ही अपने कार्य की इतिश्री नहीं मानी थी. मैंने विद्यार्थियों से कहा था चलें एक पत्रिका का प्रकाशन शुरु करते हैं. लिखने वाले तुम लोग तो होगें ही. देश के रचनाकारों से भी रचना मांग कर पत्रिका में चार चांद लगाएँगे. पत्रिका प्रकाशित करने के लिए पैसा लगता और मेरे विद्यार्थी पैसा लगाने के लिए तैयार थे. मैंने पत्रिका का नाम रखा था -- निर्माण. पर दुर्भाग्य इस का एक ही अंक निकल पाया था. एक तो अगले साल विद्यार्थी बदल गए. रही मेरी बात, अब वक्त कम पड़ते जाने से मैं पढाने से विमुख हो जाना चाहता था.   

१३. कहानीकार होने के साथ ही आपका नाट्य लेखन भी निरन्तर जारी था. निश्चित ही आपके नाटक के किरदार आपके विद्यार्थी ही रहे होंगे. क्या आपने भी कभी इसमे अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया होगा?

सच कहूँ तो अब वह ज़माना एक सपना लगता है. मैं अपने विद्यार्थियों के साथ मिल कर नाटक तैयार करता था. नाटक मेरे लिखे होते थे और कलाकार मेरे विद्यार्थी होते थे. रेडियो और टी. वी. पर हमारे नाटक उन दिनों खूब आते थे. राष्ट्रीय स्तर पर मंत्रालय की ओर से नाटक प्रतियोगिता का आयोजन होता था जिस में हमारे नाटक अकसर फाइनिल के लिए चुने जाते थे. नाट्य लेखक के रूप में मुझे पुरस्कार मिलते थे और मेरे कलाकार भी पुरस्कृत होते थे. मेरी चर्चा तो भारतीय पत्रिका धर्मयुगतक में हुई थी. नाटक की मुख्य धारा में होने से ही मुझे अंधायुग नाटक से जुड़ने का अवसर मिला था. जैसा कि मैं कहता हूँ श्रद्धेय धर्मवीर भारती का नाटक अंधा युग होने से और उन की धर्मयुग पत्रिका में मेरी कहानियाँ छपने से मेरे द्वार खुलते गए थे. प्रथम विश्व सम्मेलन नागपुर में हमारी ओर से यह नाटक मंचित हुआ था. निर्देशक भारतीय रंगकर्मी मोहन महर्षि थे और मैं सह निर्देशक था. पर मैंने किसी नाटक में कलाकार की हैसियत से कभी भाग नहीं लिया. यह मेरी रुचि का हिस्सा बनता नहीं था.

१४. हिन्दी से संबंधित आप के जीवन में कोई विस्मयकारी घटना घटी होगी?
आप ने इस प्रश्न से मेरी रगों को बहुत गहरे छुआ. मैं 1970 में जब सरकारी अध्यापक बनने के लिए इन्टरव्यू देने गया था तो यहाँ मेरे साथ एक बहुत ही विस्मयकारी घटना घटी थी. पूरे मॉरिशस से सरकारी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने के लिए पूरे साल में तीस तक लोगों को लिया जाता था. इस में बड़े - बड़े प्रमाण पत्र वाले होते थे. मेरे पास केवल उतने ही प्रमाण पत्र थे जिनके बल पर मैंने आवेदन की खानापूर्ति की थी. मुझे जब भीतर बुलाया गया था तो प्रोफेसर रामप्रकाश ने मेरा नाम पूछा था. वे भारतीय थे. 

यहाँ के शिक्षा मंत्रालय के बुलाने पर वे प्रशिक्षण देने आए थे. उन के पूछने पर मैंने नाम तो कहा था और लगे हाथ मेरी नज़र अनुरागपत्रिका पर चली गई थी जो चार - पाँच दिन पहले प्रकाशित हुई थी. उस में मेरी लिखी पहली कहानी प्रतिज्ञाप्रकाशित हुई थी. इन्टरव्यू के लिए प्रश्नकर्ता तीन सज्जन थे. एक मंत्रालय का प्रतिनिधि था, एक अंग्रेज़ी - फ़ेंच में पूछता और प्रोफ़ेसर रामप्रकाश हिन्दी में. मैंने हिम्मत की थी और सीधे प्रोफेसर रामप्रकाश से कहा था इस पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी है. वे खुश हो गए थे. उन्होंने खोल कर कहानी देखने पर मुझे बधाई दी थी. आश्चर्य, इतने में ही मेरा इन्टरव्यू पूरा हो गया था और दो दिन बाद मेरी भर्ती के लिए टेलिग्राम मेरे घर पहुँच गया था.
                                                                                                                           
१५. मॉरिशस में हिन्दी की क्या स्थिति है- ?
आज मॉरिशस में हिन्दी का तो बहुत ही व्यापकता से बोलबाला हो चला है. सर्वत्र हिन्दी की पढ़ाई का शोर मचा हुआ है. परंतु हिन्दी में लेखन की बात होने से हमें दिल पर हाथ रख कर सोचना पड़ जाता है एक यही कोना क्यों सूना - सूना प्रतीत होता है. इस पर मैं अधिक बोलने से अपने को बचा लेना यथेष्ट मान रहा हूँ क्योंकि एक यही मैदान होता है जहाँ अनदेखी तलवार की झनझनाहट बहुत होती है. परंतु हाँ, मैं आज की युवा पीढ़ी पर बहुत भरोसा करता हूँ. आज नौकरी से रिटायर हो जाने के बाद मुझे बाहरी हवा का कुछ खास ज्ञान नहीं रहता. पर साहित्यिक गोष्ठियों में इन लोगो से मुलाकात हो जाया करती है. 

मुझे लगता है कक्षागत पढ़ाई में ही ये लोग आ कर ठहर जाते हैं. लिखने वाले दो तीन ही दिखते हैं और इस के आगे अंधेरे का आभास होता रहता है. किसी से उस का प्रिय लेखक पूछ लें तो शायद उस के पास जवाब न हो. तो इस तरह से छोटी - छोटी बातें हैं जो चट्टान जैसे भारीपन से हमारे सिर पर लदे होते हैं. ऐसा नहीं कि इस का निराकरण हो नहीं सकता. निराकरण कोई त्याग तपस्या नहीं मांगता. वह लगन और निष्ठा मांगता है. अब तो मॉरिशस में पढ़ाई पूरी करने में पूरी सुविधा होती है. सरकार ने अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी के पठन पाठन के लिए निशुल्कता का प्रावधान कर रखा है. आओ और हिन्दी ले जाओ. ऐसे में मुझे नहीं लगता हिन्दी में लेखन का कोई अमावस चलना चाहिए.

१६.  उम्र के सत्तरवें पड़ाव में आने से पहले तक आपका एक कहानी संग्रह विष मंथन, दो लघुकथा संग्रह- चेहरे मेरे-तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ ( प्रत्येक में लगभग ३०० लघुकथाएं हैं.), छः उपन्यास-छॊटी मछली बड़ी मछली, चेहरों का आदमी, पूछॊ इस माटी से,बनते बिगड़ते रिश्ते, सहमें हुए सच और अभी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास पथरीला सोना ( छः खण्डॊ में, जिसमे हर एक खण्ड ४००-५०० पेज के हैं.) और सौ से अधिक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है. इस सीमा पर पहुंचकर और आगे क्या करने का मानस बना है आपका?

अब केवल लिखना मेरा काम होता है और अपने इस काम से मुझे बहुत प्रेम है. इनदिनों मैं एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ. इस के बाद मेरा विचार केवल कहानियाँ लिखने का है. मेरी प्रतिनिधि कहानियों का एक संग्रह इसी महीने प्रकाशित हुआ है.

१७. आपकी निरन्तरता, सक्रियता और श्रम-साध्य लेखनी के चलते आपको अनेकानेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है. आप अपने सम्मानों का एक ब्योरा देते तो बहुत ठीक होता.

2003 में सूरीनाम में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में मुझे विश्व हिन्दी सम्मान से विभूषित किया गया था. लेखन में बराबर निष्ठा बनाये रखने से तब से सम्मानित होता आया हूँ. 2017 में मेरे दो सम्मान विशेष रुप में चर्चा में आए. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ से मुझे विश्व हिन्दी प्रसार सम्मान मिला और इस के साथ मुझे एक लाख रूपए प्राप्त हुए थे. कुछ महीनों बाद मुझे देवरिया बुला कर विश्व नागरी रत्न सम्मान प्रदान किया गया. सम्मानों की इस कड़ी में अब मेरे साथ एक और महत्पूर्ण अध्याय जुड़ गया है. 

मुझे श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान, जिस में ग्यारह लाख रूपए जुड़े हुए थे,पर इस राशि का मतलब मेरे लिए इतना ही नहीं है. मेरा देश याद रखेगा हिन्दी के लेखक रामदेव धुरंधर का महत्व विश्व हिन्दी में आँका गया था. इतनी बड़ी राशि के अक्स में मेरी परछाईं की कल्पना करने वाले लोग ज़रूर कहेंगे मैंने अपने को तपाया था और नष्ट न हो कर कुंदन बने बाहर निकला था.

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गोवर्धन यादव
17-07-1944 (जिला बैतूल,म.प्र.)                                     
                                    
महुआ के वृक्ष, तीस बरस घाटी, अपने समय को लिखते हुए (कविता संग्रह)
अब नगर शांत है ( लघुकथा संग्रह), दो हंसों का जोड़ा ( बाल-साहित्य)  आदि प्रकाशित

हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए थाईलैण्ड, नेपाल, मारीशस, इन्डोनेशिया, मलेशिया, क्वालामपुर  देशों की यात्राएं.                   
संप्रति   *अध्यक्ष/संयोजक मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाड़ा
संपर्क- 103कावेरी नगर छिन्दवाड़ा(म.प्र.) 480-001                                              
094243-56400/goverdhanyadav44@gmail.com               

सहजि सहजि गुन रमैं : अंचित







कालजयी रचनाकार काल को इसीलिए जीत लेते हैं कि उनसे हमेशा अंकुर फूटते रहते हैं, उनमें यह संभावना रहती है. देश–काल से परे भी उनके सभ्यागत निहितार्थ होते हैं. कोलम्बिया के उपन्यासकार गैबरिएल गार्सिया मार्केज ऐसे ही लेखक हैं, उन्होंने हिंदी कहानी को तो सबल ढंग से प्रभावित किया ही है एक युवा कवि की कविताओं में भी वह इतने नवोन्मेषी होंगे ?

अंचित की ये कविताएं उसी आतुर प्रेम के इर्द गिर्द हैं जिस प्रेम के आसपास मार्केज अपने को सृजित करते हैं.



अंचित की कविताएँ                              
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ll मार्केज के पुनर्पाठ ll






विषय प्रवेश
 
जितनी दूर जाता हूँ तुमसे
उतना तुम्हारे पास

दुनिया के अलग अलग शहरों में  
अलग अलग सीढ़ियाँ हैं
और क़दमों को तो बस चलते जाना है

प्रेम का जीव विज्ञान पैदा होता है  
रात्रि के उदर से  
और तुमसे दूर अपनी निर्मिति-अनिर्मिति से उलझा हुआ  
स्वयं -हंता

एक मन डूबता है -  
पराए आसमान में

एक असफल प्रयास कि  
आत्मा अपनी यात्रा समाप्त करे.  

तुम मेरी हार की सहयात्री हो - 
मेरे साथ ही टूट कर बिखरी हुई
निराशा के समय प्यास की पूर्ति.  

बताओ  
हम अपनी उम्मीदों का क्या करें-  
जब तक वे नहीं टूटती  
हम अपने प्रेमों का क्या करें - 
जब तक वे असफल नहीं होते
हम अपनी बाँहों का क्या करें कि  
बार बार हमने इनमें नए प्रेम भरे

आख़िरी सवाल अपनी संतुष्टि से करना चाहिए.  
उसके पैरों में भँवर पड़ेइसका दोषी कौन है


तुम जिस बिछौने पर सोयी हो - 
उसका रास्ता अबूझ है  
और मेरी महत्वाकांक्षा फिर रही है  
दूसरे दूसरे शयनकक्षों में.   




फ़्लॉरेंटीनो अराइज़ा के ख़त   

जहाँ सड़क ख़त्म होती थी वहाँ दूर बहुत दूर रात डूब जाती थी  
और जहाँ सड़क शुरू होती थीवहाँ एक कोने में बैठा मैं  
रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करता था

इंतज़ार करते हुए जलता था चाँद से
उसकी चमड़ी को दाग़ देना चाहता
वैसे छूना था तुम्हारा जिस्म
चाँद छूता था जैसे

अपनी लाल शाल से जितना ऊन मैंने उधेड़ा
हर धागा भरा तुम्हारे ना होने की बेचैनी से.  

प्रेम खोए बिना कैसे प्रेम होता है ये मैं नहीं जानता  
इसीलिए भी तुम्हारा  दिखना ज़रूरी था

चाँद से चिढ़तामैं जिस जिस स्त्री के पास गया
उन सब की गोदों में समंदर थे और  
मेरे अंदर की आग को और भड़काते रहे.  

हर एक दिन जिस दिन तुमने मुझे याद नहीं किया  
मेरा एक एक केश सफ़ेद होता रहा

जिस जिस रात तुम सोयी मुझसे दूर,  
अपनी शर्मिंदगी को एक ताबीज़ में बांधे  
बंदरगाहों पर भटकता रहा,समंदर खोजता

तुम दिखोगी तब बसंत आएगा,  
जब बसंत आएगा,मेरे शरीर पर फिर फूल उगेंगे.  

तुम आओगी तो प्यार करोगी
तुम आओगी तो मेरी ज़िंदगी भर जाएगी रातों से

मैं यही सपना देखता था बिना सोए  
और इसने ही मुझे जिलाए रखा . 




शायर दोस्त राहुल के लिए  

और औरतें होंगी  
जो इंतज़ार करेंगी तुम्हारा  
कि तुम लौटो जंगों से उनकी तरफ़
तुम्हारे घाव उनकी संवेदना के पात्र बनेंगे  
उनकी याद में तुम कई बार विरह गीत बनोगे  
वो सुंदर होंगीतुम्हारी आत्मा में,उनके जितने भी चित्र होंगे... 
वो तुम्हारे पूर्व प्रेमों के चिन्ह सहलाती हुई  
तुमसे प्रेम करेंगी,तुम्हारे शयनकक्ष में छोड़ेंगी अपने स्वप्न 
उनके कोमल वक्ष तुम्हारी कामना में फिर देवता बनेंगे  
प्रेम की आख़िरी पंक्ति से एक दिन,मेरे यात्री  
लौटोगे तुम फिर मंच की ओर वापस  
अपनी यात्रा समाप्त करते हुए - 
उनकी लालसाओं के लिए  
अपने दंभ घसने के दिन फिर आएँगे

फिर से -  

उन औरतों के तुम पहले पुरुष नहीं होगे
जैसे वो तुम्हारी पहली औरतें नहीं होंगी

भूल जाने की अचूक दवा  
कोई नहीं है दुनिया में

फिर भी आगे बढ़ते हुए हम अलग अलग गंधों में बिचरेंगे 
हम और कुछ कर नहीं सकते,  
कुछ बस में नहीं है
प्रेम एक दुर्घटना की तरह ही याद रहता है
अगली दुर्घटना तक.  

दुखता हुआ घाव भर जाता है समय के साथ
हमारा नायक़त्व इन सचों से बचता हुआ,मुँडेरें ढूँढता
सूरज में जलता रहेगा

प्रेम करते हुए और कविता करते हुए  
हम भूलते रहेंगे सही और ग़लत कि अंत में  
सिर्फ़ प्रेमी होना ही अंतिम लक्ष्य

मान कर हम चलेंगे  
युद्ध की ओर कि एक आदर्श औरत बैठी है  
पूरी दुनिया से विद्रोह कर हमारे लिए अपनी बाहें खोले  
एक शयनकक्ष है स्वपन की सबसे अंदर की दीर्घ गुफ़ाओं में  
जहाँ तुम उसकी कमर से उलझे हुए हो

जीवन हमारी भिक्षा की थैली में कुछ नहीं डालता,और आदर्श के तालु 
सिर्फ़ संघर्ष का स्वाद क़बूल करते हैं.  

हमारा प्रयोजन सिर्फ़ प्रेम करना है और युद्ध - 
दिन इसी संकल्प के साथ शुरू होगा.  



तीन  

मेरे अंदर कुछ बार बार चिंहुकता है 
अपने  गाँव की उस दीवार 
(जिस के पास खड़ा  कर लोगों को गोलियाँ मारी जाती थीं
 से सटकर खड़े होते ही,  
मेरे अंदर कोई लहर उठती है
और बहुत दूर जो समंदर है  
उससे मिल जाना चाहती है

वेदना के जिस खारे समंदर पर कोई पुल नहीं है
तुम एक टापू की तरह इंतज़ार करती हो.  

याद करना कि मैं भी इंतज़ार करता हूँ
सब सूरजों और चाँदों के बीतते हुए,  
लकड़ियों के गीले होते और सूखते हुए,  
परछाइयों को दीवार बनते हुए देखते हुए  
स्मृति-दोषों के साधारणीकरण के बाद भी,  
हर दूसरी स्त्री के कान चूमते हुए,  
बार बार लौट जाता हूँ अपने अंदर.  

भीड़ के छोटे छोटे चौखाने,  
आत्मा पर जोंक की तरह चिपकते हैं  
और एकांत का परिश्रमआईनों को चमकाने भर ही फ़लिभूत होता है
मिट्टी की ओर लौट जाना तबगाढ़ी भूरी मिट्टी,जिससे सनी हुई  
ख़ून की एक मोटी जमती हुई लहर,  
और तीन सौ लोग - नोचते हुए मेरी आत्मा.  

जितनी बार लौटता हूँ बाहर
सन्न करती है भीड़आपाधापी
कि कुछ नहीं बदलता हर बार,  
बिना फ़िल्टर का शोर और सब ध्वनियों को काट फेंकने की जदोजहद.  
एक भयंकर तूफ़ान आता है और मेरा जहाज़ ऐसे थपेड़े खाता है  
मानों पानी हमदोनो का पाप हो-  
खींचता हुआ बार बार और हम बार बार विरह उद्वेलित समर्पण करते हुए.  

(मैं नाविक हूँमेरे पैर में घिरनी बनी हैकोई साइरन नहीं  
जैसे ग्रीक समंदरों में होती हैपानी का छद्म काफ़ी है.) 

फिर भी तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ  
क्योंकि लैम्प की रोशनी में जलती हुई रातों का प्रयोजन यही है,  
क्योंकि पीली  धूप और बरसातों को मैंने और किसी तरह नहीं देखा,  
क्योंकि मेरी आत्मा जहाँ सिली हुई है मेरे माँस से,  
वहाँ जब भी चोट लगती हैमुझे महसूस होता है कि 
मैं रेगिस्तान में टंगा हुआ जब भी आसमान की तरफ़ देखूँगा,  
मेरी हथेलियों में जब भी मोटी कीलों से छेद किए जाएँगे
मुझे सर ऊपर उठाए ये चीख़ना नहीं पड़ेगा कि  
तुमने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया?  
_____________________________________ 
 अंचित
 (उम्र २७ के आस-पास)

 पटना में रहते हैं. गद्य कविताओं का संग्रह, ‘ऑफनोट पोयम्स’ के नाम से प्रकाशित है.
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(सभी फ़िल्म -फोटो मार्केज़ के उपन्यास  Love In the Time of Cholera पर इसी नाम से निर्देशक Mike Newell की फ़िल्म से)

सबद भेद : ‘गोदान’ से ‘मोहन दास’ तक : संतोष अर्श





















प्रेमचंद के ‘गोदान’ और उदय प्रकाश के ‘मोहन दास’ के बीच समय का बड़ा फासला है पर इन कृतियों के पात्रों के जीवन स्तर में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है. तमाम तरह  के सामाजिक, धार्मिक, शासकीय प्रपंचों में ये अब भी हलकान हैं लहूलुहान हैं.

अपनी  तीक्ष्ण और तार्किक दृष्टि से कृतियों की विवेचना के कारण चर्चा में आए संतोष अर्श का यह विवेचनात्मक आलेख उनकी आलोचना दृष्टि के सुगठित होने का प्रमाण देता है. इस आलेख में होरी और मोहनदास के बीच फैला हुआ हमारा ही समय है.


गोदानसे मोहन दासतक किसानों की त्रासदी                       

संतोष अर्श 

‘Farming is a profession of hope.’ ____Brian Brett

गोदान (मुंशी प्रेमचंद- 1936) और मोहन दास (उदय प्रकाश- 2006) के प्रकाशन वर्षों के मध्य सत्तर वर्षों का फ़ासला है. गोदान औपनिवेशिक भारत के किसान जीवन पर लिखी गई तीन सौ से अधिक पुस्तकीय पृष्ठों की महाकाव्यात्मक औपन्यासिक कृति है. निर्विवाद रूप से यह हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ उपन्यास है जो औपनिवेशिक भारतीय किसान जीवन का रचनात्मक यथार्थ प्रस्तुत करता है. वहीं भूमंडलीकृत भारत की रचना मोहन दास लगभग अस्सी-नब्बे पृष्ठों की लंबी कहानी है जिसे उपन्यासिका कहने में कोई हर्ज़ नहीं होनी चाहिए. मोहन दास का कथानक क्षेत्र मध्य प्रदेश जिला अनूपपुर का है. गोदान का कथानक क्षेत्र अवध के सीतापुर-शाहजहाँपुर जनपदों को माना जाता है जिस पर मतांतर हो सकते हैं. गोदान के दूसरे प्रकरण में लेखक ने स्वयं लिखा है:
“सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रांत के गाँव हैं. जिले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं.”  (गोदान)  
गोदान का नायक होरीराम महतोहै. अवध में महतो (अवधी में महतव) लक़ब उपाधि के रूप में दो ही जातियों के साथ जुड़ता है एक कुर्मी और दूसरी अहीर. गोदान के पात्र भोलाके साथ लेखक ने ग्वाला और अहीर शब्द का प्रयोग किया है इसलिए होरी का कुर्मी होना पुष्ट हो जाता है. गोदान के शीर्षस्थ और बेहतरीन व्याख्याकार गोपाल राय ने होरी महतो को कुर्मी जाति का नायक होना स्वीकार किया है. मोहन दास के नायक मोहना की जाति भी उदय प्रकाश ने स्पष्ट की है. उन्होंने अपनी कृति मोहन दास के नायक का बंसोरहोना स्वीकार किया है. संजीव खुदशाह ने अपनी पुस्तक आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गमें बंसोर को अति-पिछड़ी उत्पादक जाति के रूप में वर्गीकृत किया है. मोहनदास का परिचय उपन्यास में इस तरह दिया गया है:
“मोहनदास बल्द काबा दास जाति विश्वकर्मा,साकिन पुरबनरा,थाना और जिला अनूपपुर,मध्य प्रदेश.” (मोहन दास)
उत्तर-मण्डल रचना होने के बाद भी मोहन दास की जाति को लेकर एक अस्पष्टता कथानक में दिखाई देती है. वास्तव में ऐसा इसलिए है कि भारतीय समाज हज़ारों जातियों में विभक्त रहा है, और संवैधानिक उपचारों के दायरे में लाने के उपक्रम में बहुत सी जातियाँ इधर-उधर हो गईं. उदय प्रकाश ने मोहन दास के कथानक में एक अन्य स्थान पर लिखा है:
“गाँव में वैसे भी कबीरपंथी बंसहर-पलिहा नीची जात के माने जाते थे. वे अनुसूचित जाति के हैं या आदिवासी या आदिम जनजाति,अभी तक सरकारी गजेट में यह स्पष्ट नहीं था. दस साल पहले हुई जन-गणना में उनकी जाति के आगे सिर्फ़ बंसोरया पलिहालिखा हुआ था. दूसरे कागज़ात में धर्म हिंदूऔर राष्ट्रीयता भारतीय.”    (मोहन दास)       
जाति के आधार पर समाज का बँटवारा नितांत अवैज्ञानिक है,किंतु भारतीय समाज की संरचना जाति आधारित है. जिसमें परंपरागत रूप से उत्पादक और अनुत्पादक जातियों को चिह्नित किया जा सकता है. गोदान और मोहन दास में लंबा समयान्तर होने के बावज़ूद दोनों ही रचनाओं में ब्राह्मणवादी पूँजीवाद के चंगुल में फँसा हुआ भारत का बृहत् उत्पादक समाज है. एक ओर औपनिवेशिक ब्राह्मणवादी महाजनी सभ्यता का मारा हुआ होरी है,दूसरी तरफ़ भूमंडलीकृत ब्राह्मणवादी पूँजीवाद का मारा हुआ मोहन दास है. होरी की तबाही के पीछे ब्रिटिश राज और ब्राह्मणवादी महाजनी सभ्यता की अत्यंत शोषणकारी व्यवस्था है और मोहन दास की किसान आइडेंटिटी चोरी करने में वैश्विक अमरीकी अर्थव्यवस्था और भारतीय ब्राह्मणवाद का मणिकांचन योग है.     
गोदान और मोहन दास दोनों में गाँधीवाद की व्यंग्यात्मक अनुगूँज भी है. गोदान का नायक होरी अपने खेत गँवा कर मजूर बनता है और मज़दूरी करते हुए मर जाता है. सुतली कात कर कमाए गए बीस आने पैसे से उसका गोदान करा के प्रेमचंद यह बता देते हैं कि गाँधीवाद से मोहभंग हो गया है. उदय प्रकाश अपने नायक मोहन दास का नामकरण गाँधीवाद की व्यंजना के लिए करते हैं क्योंकि मोहन दास के परिवार का नाम उन्होंने राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी के परिवार के नाम पर किया है. मोहन दास में लेखक ने मोहन दास के पिता का नाम काबा दास,माता का नाम पुतली और पत्नी का नाम कस्तूरी रखा है. उदय प्रकाश अपनी रचनाओं के शिल्प को और चमकाने के लिए पात्रों के नामकरण में लक्षित सजगता बरतते हैं. जबकि प्रेमचंद धनिया,झुनिया,सिलिया,चुहिया कुछ भी नाम दे देते हैं. होरी की त्रासदीपूर्ण मौत मोहन दास में जा कर और भी बड़ी त्रासदी बन जाती है. मोहन दास की नौकरी और उसकी पहचान छीन कर उसे विक्षिप्त अवस्था में पहुँचा दिया गया है. होरी और मोहन दास दोनों ही उत्पादक जाति के नायक हैं. जिस प्रकार कर्ज़ में डूबा हुआ होरी कभी बाँस बेच कर या सुतली कात कर मामूली अर्थोपार्जन के प्रयास करता है उसी प्रकार मोहन दास भी सब्जियों की खेती करके या बाँस की टोकरियाँ और चटाई बुन कर आर्थिक उत्पादन के यत्न करता है. फ़र्क़ यह है कि होरी धर्मभीरु अशिक्षित किसान है और मोहन दास फर्स्ट क्लास बी.ए. पास है. बी.ए. पास मोहन दास नौकरी भी प्राप्त कर लेता है,लेकिन वह नौकरी दसवीं फेल विश्वनाथ तिवारी (जिसे व्यंजना में उदय प्रकाश बिसनाथलिखते हैं) ब्राह्मणवादी नेक्सस के बल पर हड़प लेता है और फ़र्ज़ी मोहन दास बन कर आपराधिक ढंग से उसकी नौकरी करते हुए सुख-सुविधाएँ भोगता है. बी.ए. पास मोहन दास को पुनः जीविका के लिए अपनी छोटी सी जोत की कृषि की ओर लौटना पड़ता है. जो कठिना नदी के पानी के ऊपर निर्भर है. अपने साथ हो रहे अन्याय और नौकरी हड़प लिए जाने के कारण मोहन दास की ज़िंदगी तनाव में गुज़र रही है. उस तनाव में भी वह ज़िंदा रहने के लिए कृषि करता है:
“मोहन दास उस रात खाना खाने के बाद घर में नहीं सोया. कस्तूरी से सुबह लौटने की कह कर,कंधे पर कुदाल और रोपा टाँग कर वह कठिना नदी के तट पर चला आया और सारी रात किसी पागल प्रेत की तरह मतीरा,खरबूज,लौकी,तरबूज,टमाटर,भाँटा,ककड़ी लगाने के लिए पलिया बनाने में लगा रहा. सुबह साढ़े चार बजे के आस-पास,जब उत्तर में ध्रुव तारा पूरी आभा में,दूसरे तारों के एक-एक कर निष्प्रभ होकर बुझ जाने के बावजूद,चमक रहा था,मोहन दास ने अपने ललाट और छाती के पसीने को पोंछा और धीरे-धीरे रेंगता हुआ कठिना की धार में खड़ा हो गया. अंजुली में पानी भर कर उसने अपने सिर पर छींटा मारा और दोनों हाथ जोड़ कर भरे गले से कहा- बस तुम भर आंखी मत काढ़ना कठिना माई. तुम्हें मलइहा माई की किरिया. मेरे बेटे देव दास की किरिया....मेरे पसीने की उपज से अपने पेट की जठर आगी मत बुझाना कठिना माई...! नहीं तो...दयऊ की कसम,बीच असाढ़ तुम्हारी धार में बाल-बच्चा समेत कूद कर तुम्हारा पेट मैं भरूँगा...!” (मोहन दास)
मोहन दास का यह प्रसंग अत्यंत मार्मिक और त्रासदीपूर्ण है जब फर्स्ट क्लास स्नातक युवा किसान एक नदी से प्रार्थना कर रहा है कि अगर उसने उसकी फ़सल का ध्यान नहीं रखा तो परिवार के साथ उसी में कूद कर आत्महत्या कर लेगा. यह 2005 का किसान है. यहाँ किसानी और शिक्षा दोनों में नाकाम होने की आयरनी है. मोहन दास के उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक उद्धरण से पता चलता है कि,किसान किन परिस्थितियों में आत्महत्या करता है. गोदान का होरी कातर होता है,क़र्ज़ में फँसा हुआ छटपटाता है किन्तु आत्महत्या करने की नहीं सोचता. संभवतः सोचता,लेकिन उसकी त्रासद मृत्यु हो जाती है.
   गोदान का होरी केवल औपनिवेशिक महाजनी सभ्यता का और मोहन दास का मोहना केवल भूमंडलीकृत पूँजीवाद का मारा नहीं है. वे दोनों ब्राह्मणवाद के मारे भी हैं. सूद सहित अपना रुपया वसूलने के लिए पंडित नोखेराम एक ओर होरी की तीन बीघे ज़मीन पर नज़र गड़ाए हुए था और अंततः बेदख़ली का मुकदमा ही कर देता है. दूसरी तरफ़ पंडित दातादीन है जो होरी की बेटी रूपा का ब्याह होरी की उम्र के अधेड़ रामसेवक से कराने के लिए लोमड़ी की तरह घात लगाए हुए है क्योंकि उसमें उसे दलाली की राशि मिलने का स्वार्थ है. तनावग्रस्त होरी को बरगलाने और अपना मंसूबा पूरा करने के लिए पंडित दातादीन जब होरी के यहाँ आता है तो उसे समझाने में धर्म और राम कथा का पूरा प्रयोग करता है. तमाम सामाजिक आंदोलनों और फूले-अम्बेडकर-पेरियार जैसी विभूतियों के होने के बाद भी भारत की पिछड़ी जातियाँ आज तक धर्म के ब्राह्मणवादी शोषक पंजों से बच नहीं पाईं. धर्म के नाम पर वे हमेशा अमानवीय शोषण का शिकार रहे हैं. आज भी ठगे जा रहे हैं. गोदान में पंडित दातादीन होरी की बेटी का ब्याह बूढ़े रामसेवक से करवाना चाहता है क्योंकि उसके इसमें निहित स्वार्थ हैं. इन निहित स्वार्थों को पूर्ण करने हेतु अपने वाग्जाल में धर्मभीरु होरी को फाँसने और उसका ब्रेनवॉश करने के लिए वह धर्म और रामकथा को टूल बनाता है. प्रेमचंद ने दातादीन के मुँह से क्या ख़ूब कहलाया है, निश्चित ही यह व्यंग्य है:
“निराश होने की कोई बात नहीं. बस,इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है,दु:ख में कुछ और. सुख में आदमी दान देता है,मगर दु:ख में भीख तक माँगता है. उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है. शरीर अच्छा रहता है तो हम बिना असनान पूजा किए मुँह में पानी भी नहीं डालते;लेकिन बीमार हो जाते हैं,तो बिना नहाये-धोए,कपड़े पहने,खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं. उस समय का यही धरम है. यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है;लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता. ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठ कर खाते हैं. आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सेवरी के जूठे फल खाये थे,बालि का छिपकर बध किया था. जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्यादा टूट जाती है,तो हमारी तुम्हारी कौन बात है ?रामसेवक महतो को तो जानते हो न ?  (गोदान)
पंडित दातादीन अपने काम की बात कहने के लिए धर्म,सुख-दु:ख,जगन्नाथपुरी और रामकथा की लंबी भूमिका बाँधता है और अंत में अपने निहित स्वार्थ की बात कहता है- रामसेवक महतो को तो जानते हो न ?फूले,अम्बेडकर से लेकर उत्तर-आधुनिक विचारकों तक ने ब्राह्मणवाद को दुनिया की सबसे अश्लील और ख़तरनाक विचारधारा इसीलिए कहा है. जिस वक़्त कर्ज़ग्रस्त होरी अपने परिवार की जीविका का एकमात्र आधार तीन बीघे ज़मीन की बेदख़ली का मुक़दमा और घोर विपन्नता का तनाव झेल रहा है,उस समय पंडित दातादीन उसकी बेटी का ब्याह एक अधेड़ से कराने के लिए उसे धर्म और रामकथा पर प्रवचन दे रहा है. वह अपने निहित स्वार्थ पूर्ण करने में कामयाब होता है,और अपनी बेटी रूपा का ब्याह होरी दो सौ रुपए लेकर अपनी उम्र के बूढ़े रामसेवक के साथ कर देता है. यह भारत के किसान जीवन का औपनिवेशिक यथार्थ था.
औपनिवेशिक काल का यह ब्राह्मणवाद भूमंडलीकृत इक्कीसवीं सदी में और अश्लील हो जाता है. मोहन दास की नौकरी विश्वनाथ हड़प लेता है और किस तरह हड़प लेता है,इसका बेहतरीन वर्णन उदय प्रकाश ने अपनी रचना में किया है. गोदान के ब्राह्मणवादी नेक्सस को इक्कीसवीं सदी में बेहद जीवंत ढंग से प्रस्तुत करने में उदय प्रकाश की यह रचना अत्यंत सफल हुई है,और यह इसकी बहुत बड़ी सफलता है. गोदान का होरी अपनी तीन बीघे ज़मीन और मरज़ादगँवा कर एक बुरी,ट्रैजिक मौत मरता है लेकिन मोहन दास मरता नहीं है,वह इक्कीसवीं सदी के भारत के पूरे तंत्र को अपनी नंगी आंखों से देख कर विक्षिप्त हो जाता है. होरी की ज़मीन,मरज़ाद और ज़िंदगी छीनी जाती है,जिसका कारण अर्थशास्त्रीय दृष्टि से गोदान के कई आलोचकों ने औपनिवेशिक महाजनी व्यवस्था को माना है. प्रेमचंद का भी यही ख़याल था. मोहन दास अपनी नौकरी और आइडेंटिटी गँवाता नहीं है,उसे भी एक तंत्र छीन लेता है,लेकिन अब कारण बताने के लिए औपनिवेशिक व्यवस्था भी नहीं है. अब भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था का वह परिवेश है,जहाँ प्रत्येक नियंत्रण राष्ट्र-राज्य के हाथों से निकल कर विश्व बैंक के पास पहुँच चुका था. नेचर ऑफ सोसाइटीबताने के लिए उदय प्रकाश मोहन दास के विषय में बताते हैं:
“मोहन दास के बारे में लोग कहते हैं कि वह हमेशा कोई न कोई काम पकड़ कर रखता है क्योंकि उसे पानी पीने के लिए हर रोज एक नया कुआँ खोदना पड़ता है और खाने के लिए हर रोज़ रोटी की नयी फसल पैदा करनी पड़ती है.” (मोहन दास)
दूसरी ओर मोहन दास की नौकरी हड़पने वाले बिसनाथका सपरिवार विवरण उदय प्रकाश देते हैं :
“बिछिया गाँव के बड़े किसान और जीवन बीमा निगम में बाबूगीरी करने वाले नागेन्द्रनाथ की कलेक्टर से लेकर मंत्री तक पहुँच और साख-रसूख है. दो बार ग्राम पंचायत के सरपंच और एक बार जिला जनपद के उपाध्यक्ष रह चुके हैं. बिसनाथ प्रसाद,जिसके एक साल के बेटे को शारदा संभालती है,इन्हीं नगेंद्रनाथ  के पाँच में से एक बेटा है. हालाँकि उसका असली नाम विश्वनाथ प्रसाद है,लेकिन गाँव के लोग उसे बिसनाथ ही बुलाते हैं और पीठ पीछे कहते हैं- असल करैत है,बिसनाथ. गज़ब का बिसधारी.”  (वही)
विश्वनाथ तिवारी भारतीय समाज के एक जहरीले नेक्सस या विचारधारा का प्रतीक है. होरी को अपने नेक्सस में फँसाकर उसका घर-बार,ज़मीन,मरजाद,जिंदगी छीन लेने वाला पंडित नोखेराम कारकुन,पंडित दातादीन,झिंगुरी सिंह, लाला पटेश्वरी जैसों का गिरोह ही मोहन दास को भी अपने नेक्सस के बल पर उसकी आइडेंटिटी और नौकरी न केवल छीन लेता है,उसे विक्षिप्तावस्था में पहुँचाने तक प्रताड़ित भी करता है. गोदान का वह नेक्सस मोहन दास में और विकसित हुआ है. यह भारतीय व्यवस्था का वह तंत्र था जिसमें वर्ग और जाति-विशेष के लोगों ने प्राथमिकता से अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था,जिसे समझ लिए जाने के बाद सवर्णतंत्र कहा जाने लगा. गोदान और मोहन दास के ये दोनों तरह के नेक्सस यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय समाज सांस्कृतिक स्तर भी भ्रष्ट है और सांस्कृतिक स्तर का यह भ्रष्टाचार ही आर्थिक,राजनीतिक और तंत्र-आधारित भ्रष्टाचार में तब्दील हो जाता है. इन दोनों रचनाओं में हम देखते हैं कि औपनिवेशिक भारत भी उतना ही भ्रष्ट था जितना इक्कीसवीं सदी का भूमंडलीकृत है. वास्तव में यह भारतीय समाज का सांस्कृतिक भ्रष्टाचार है जिसका ग़ुलामी,आज़ादी से कोई संबंध नहीं है. भारत के सांस्कृतिक भ्रष्टाचार की व्युत्पत्ति मनुवादी,ब्राह्मणवादी व्यवस्था से होती है. मोहन दास से हमें यह भी पता चलता है कि इन सत्तर वर्षों के भीतर भारत में और कुछ भी परिवर्तन हुए हों,किन्तु ब्राह्मणवाद का स्वरूप वैसा ही है. सत्तर वर्षों में नेचर ऑफ सोसाइटीमें जो फ़र्क आया वो इतना था कि पंडित दातादीन जो उस वक़्त खुल कर कह सकते थे कि नीच जात लतियाए अच्छाअब विश्वनाथ तिवारी बन गया है,जो उल्टे बंसोर मोहन दास पर ही जातिवाद का आरोप लगा रहा है. यह दिलचस्प है कि भारतीय समाज का सबसे जातिवादी हिस्सा उनके जातिवाद के लंबे समय तक शिकार रहे लोगों पर जातिवादी होने का आरोप लगाता है. गोदान का दातादीन होरी की पत्नी धनिया के बारे में कहता है:
“मेरी आदत किसी की निंदा करने की नहीं है. संसार में क्या-क्या कुकर्म नहीं होता;अपने से क्या मतलब ?मगर वह राँड धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गई. भाइयों का हिस्सा दबाकर हाथ में चार पैसे क्या हो गए,तो अब कुपंथ से सिवा और क्या सूझेगी ?नीच जात,जहाँ पेट-भर रोटी खाई और टेढ़े चले,इसी से तो सासतरों में कहा है- नीच जात लतियाए अच्छा.”  (गोदान) 
गोदान का लाला पटेश्वरी मोहन दास में ओरिएंटल कोल माइंस का वेलफ़ेयर ऑफिसर ए. के. श्रीवास्तव बन गया है. जिसे अपनी पत्नी परोस कर विश्वनाथ तिवारी ग़लत जांच करवा लेता है और पकड़े जाने से बच जाता है. न केवल गलत जाँच करा लेता है बल्कि जाँच करने आए श्रीवास्तव से कहता है:
“मैं जानता हूँ किसकी कारस्तानी है ये. जातिवाद बहुत फैल रहा है आज कल. ये लोग अब सिर पर बैठेंगे. मैं जानता हूँ किसका किया कराया ये सारा खेल है,लेकिन जाने दीजिए. साँच को आँच क्या ?आप अपनी इंक्वायरी करिए बिल्कुल निष्पक्ष होकर.”   (मोहनदास)
सत्तर सालों में नेचर ऑफ सोसाइटीमें यह बड़ा परिवर्तन है. नीच जात लतियाये अच्छा, ये लोग अब सिर पर बैठेंगेमें बदल गया, यह परिवर्तन भी कुछ कम नहीं है. इस परिवर्तन के पीछे दलित-पिछड़ी जातियों और उनके नेताओं का राजनीतिक संघर्ष है. यद्यपि मोहन दास एक उत्तर-आधुनिक रचना है,तिस पर भी गोदान और मोहन दास में भाव-साम्य पैदा करने वाले प्रचुर तो नहीं,किन्तु कुछ तत्त्व अवश्य हैं. वस्तुतः दोनों रचनाओं में कुछ बुनियादी अंतर के साथ-साथ समय का भी बड़ा फ़र्क है. मोहन दास के सबइंस्पेक्टर विजय तिवारी का चरित्र देख कर गोदान के दारोगा गण्डा सिंह का अनायास ही स्मरण गंभीर पाठक को होना चाहिए. यह संयोग ही है कि उदय प्रकाश मोहन दास के ब्यौरों के मध्य प्रेमचंद का स्मरण कर उनका उल्लेख करते हैं. जो यों है:
“यहीं ठहरिए एक मिनट. आपको लग रहा होगा मैं हिन्दी के कथा सम्राट् मुंशी प्रेमचंद की सवा-सौवीं जयंती के अवसर पर समकालीन कहानी के बहाने आपको कोई सवा सौ साल पुराना किस्सा सुना रहा हूँ. लेकिन सच तो यह है कि ऐसी पिछड़ी हुई शैली,शिल्प और भाषा में जो ब्यौरा आपके सामने प्रस्तुत है,वह उसी समय का है जब 9-11 सितंबर हो चुका है और न्यूयार्क की दो इमारतों के गिरने की प्रतिक्रिया में एशिया के दो सार्वभौमिक,संप्रभुता संपन्न राष्ट्रों को धूल और मलबे में बदला जा चुका है.”   (वही)         
   किसानों के शोषण में नौकरशाही की ख़ासी भूमिका होती है. गोदान की औपनिवेशिक नौकरशाही में भारतीय हैं,लेकिन वे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में हैं. मोहन दास की उत्तर-आधुनिक ब्यूरोक्रेसी एक स्वतंत्र,विकासशील,संप्रभु राष्ट्र की ब्यूरोक्रेसी है,लेकिन किसानों के प्रति बर्ताव में दोनों में कुछ अधिक अंतर नहीं है. मोहन दास का सकारात्मक या उम्मीद पैदा करने वाला हिस्सा वह है,जिसमें दंडाधिकारी जी.एम. मुक्तिबोध जैसा चरित्र है. यानी इंसानियत पर भरोसा बना हुआ है. प्रेमचंद स्वयं कहते थे कि, प्रगतिशील होने की पहली शर्त इंसानियत पर भरोसा करना है. गोदान की औपनिवेशिक भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से कृषि पर निर्भर है,इसलिए नौकरशाही की सभी तरह की अतिरिक्त आय और सुविधाएँ भी किसान ही का ख़ून चूस कर पूर्ण होती थीं. मोहन दास की नौकरशाही पूँजीपति से नक़द रुपए लेकर कर्तव्य, न्याय और नैतिकता का गला घोटने वाली है. इस संदर्भ में इन दोनों रचनाकारों की सूक्ष्म समाजशास्त्रीय दृष्टि विशेष रूप से आलोच्य है. लेखक के ऐसे ऑब्जर्वेशन का नमूना कम दिखता है. गोदान में प्रेमचंद लिखते हैं:
“यहाँ जो किसान है,वह सबका नर्म चारा है. पटवारी का नज़राना और दस्तूरी न दे,तो गाँव में रहना मुश्किल. जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे तो निबाह न हो. थानेदार और कानसिटिबल तो जैसे उसके दामाद हैं. जब उनका दौरा गाँव में हो जाए,किसानों का धरम है,वह उनका आदर-सत्कार करें,नज़र-नयाज़ दें,नहीं एक रिपोर्ट में गाँव का गाँव बंध जाए. कभी कानूनगो आते हैं,कभी तहसीलदार,कभी डिप्टी कभी जंट,कभी कलक्टर,कभी कमिसनर. किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाज़िर रहना चाहिए.”  (गोदान)
मोहनदास में भी विश्वनाथ तिवारी रुपयों के बल पर पूरे सिस्टम को ख़रीद लेता है. पुलिस से लेकर गवाह तक. इस प्रसंग पर उदय प्रकाश ने भी भारतीय नौकरशाही के चरित्र का विवरण दिया है:
“विजय तिवारी खुद पुलिस की गाड़ी में बिसनाथ को बिठा कर पटवारियों को घूस पहुंचाने गया था. दरअसल,जैसी प्रशासनिक परिपाटी थी,उसमें कलेक्टर उर्फ जिलाधीश उर्फ़ डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट की इंक्वायरी का असली मतलब ही होता था- संबंधित तहसील या परगना के पटवारी द्वारा जाँच. अगर कोई अदालत कलेक्टर को किसी जाँच का आदेश देती थी,तो कलेक्टर नोट लगाकर उस आदेश को अपने मातहत,संबंधित इलाके के एस.डी.एम. को भेज देता था. एस.डी.एम. उसे तहसीलदार और तहसीलदार उसे नायब तहसीलदार के सुपुर्द कर देता था. इस तरह,रेवेन्यू इंस्पेक्टर उर्फ कानूनगो से होते हुए आखीर में वह आदेश पटवारी के पास पहुँच जाता था. यानी अंततः पटवारी ही कलेक्टर का आँख-नाक-कान बन जाता था.”   (मोहन दास)   
आज भी नौकरशाही का किसानों के प्रति रवैया बहुत बदल नहीं पाया है. अब जब इंजीनियरिंग और प्रबंधन पढ़ कर आने वाले ज़िलाधीश आने लगे हैं,तब समस्या और भी बढ़ गयी है. अंग्रेज़ी शिक्षित ये उच्चमध्यवर्गीय नौकरशाह खेती-किसानी के बारे में कितना जानते होंगे ?और इनमें भी तमाम उस वर्ग-वर्ण के होते हैं जिनके दादों-परदादों के समय से हल की मूठ छूने की मिथकीय मनाही है. रियल स्टेट के बिज़नेस और भू-माफ़ियाओं के उद्भव के साथ किसानों की स्थिति मछ्ली जैसी हो गई,जिसमें नौकरशाहों के साथ मिलकर, कांटें में केंचुआ लगाकर उन्हें फंसाया जाने लगा. कृषि योग्य भूमि की प्लाटिंग के लिए राजस्वकर्मियों से लेकर जिलधीशों तक को भूमाफ़ियाओं ने ख़रीदना शुरू किया और कृषि योग्य भूमि धड़ाधड़ आबादी की ज़मीन में बदली जाने लगी. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद से निजीकरण तीव्र हुआ और SEZके तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी किसानों के लिए एक चुनौती साबित हुई. इसका परिणाम छोटे-छोटे किसान आंदोलनों के रूप में सामने आया. हम आए दिन सुनते रहते हैं कि फलाँ स्थान पर किसानों पर गोली चल गयी और इतने किसान मर गए. अपने देश के किसानों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले नौकरशाह भले ही सत्ता के नुमाइंदे हों लेकिन भारतीय किसानों की ज़मीन की देशी-विदेशी लूट में वे भी उत्साह से शरीक़ हैं. शहर से लगे हुए गाँवों के पास कृषि योग्य ज़मीन की जैसी ख़रीद-फ़रोख्त पिछले एक दशक में हुई है,वह नौकरशाहों और भू-माफियाओं की संयुक्त लूट रही है. जिसमें छोटा किसान मजूर में बदल कर विलुप्त हो गया. शहर विस्तृत होते रहे और महानगरों में विस्थापित मजूरों,फुटपाथ पर सोने वालों की आबादी बढ़ती गयी.
   स्वतन्त्रता पश्चात भारतीय किसानों के मद्दे-नज़र तीन पड़ाव महत्वपूर्ण हैं. पहला आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन. दूसरा हरित क्रान्ति. और तीसरा भू-मंडलीकरण और उदारीकरण. ज़मींदारी उन्मूलन का सौ फ़ीसदी पूर्णता के साथ क्रियान्वयन नहीं हो सका. इसमें सवर्णों और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों के हाथ ही लंबी जोतें लगीं. मोहन दास के मोहना बंसोरजैसी अतिपिछड़ी जातियों के हिस्से में छोटी-मोटी तालाब या नदी के किनारे की जोतें आयीं. हम देखते हैं कि मोहन दास कठिना नदी के किनारे सब्ज़ी की खेती करता है. नदी में थोड़ी सी बाढ़ आई कि सारी मेहनत बह गई. इस पर अदम गोंडवी ने कभी बेहतरीन शेर कहा था-
“खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में.”
असल में मोहन दास जैसे लोगों को पट्टे की सनद ताल (तालाब) में या नदी की तराई में मिल रही थी. उन्हें उसी में मर-खप जाना था. हरित क्रान्ति के बाद खाद्यान्न संकट समाप्त हो गया और उत्पादन भी बढ़ गया. किन्तु भूमंडलीकरण के बाद से स्थिति बिगड़ गयी और मोहन दास बंसोर या होरी जैसे छोटी जोत वाले किसान पटापट आत्महत्या करने लगे. नवंबर 2005 में विख्यात पत्रकार पी. साईंनाथ ने दि हिन्दूकी अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि, वर्ष 1997 से 2005 के मध्य प्रत्येक आधे घंटे में एक भारतीय किसान आत्महत्या कर रहा था. यह ख़बर संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्वबैंक तक पहुँची थी. इन किसानों में अधिकतर मामूली कर्ज़दार होते थे. यह तथ्य उछाले जाने पर कि ये किसान महाजनों से महँगे सूद पर कर्ज़ लेते हैं,इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट लगाई कि आत्महत्या करने वाले किसानों में से 80 प्रतिशत राष्ट्रीय बैंकों के कर्ज़दार होते हैं.
   भारतीय इतिहास में किसानों की सर्वाधिक आत्महत्या वाला वर्ष 2004 है. आँकड़ों के अनुसार इस वर्ष 18,241 किसानों ने आत्महत्या की थी. यह मोहन दास के रचनाकाल के आस-पास का समय भी है. मोहन दास कहानी के रूप में 2005 में हंस में छप चुका था. 2006 में पुस्तकाकार छप कर आया. वह रचना कालजीवी होती है जिसमें अपने समय की अभिव्यक्ति होती है. उससे एक बारीक़ किन्तु साफ़ इतिहासबोध उत्पन्न होता है. उदय प्रकाश अपने समय की नब्ज़ पकड़कर चलने वाले रचनाकार हैं. मोहन दास में किसान आत्महत्याओं का उद्धरण मिलता भी है:
“घनश्याम ऐसे ही लोगों में से एक था. जात से कुर्मी था. हालाँकि वह ग़रीब नहीं था. तीस बीघे की खेती थी. बैंक से किस्तों पर उसने ट्रैक्टर ले रखा था. शाक-सब्ज़ी वगैरह उगाने के अलावा वह अपना ट्रैक्टर किराये पर उठाता. तब भी हर महीने साढ़े साथ हज़ार की किस्त पटा पाना उसके लिए मुश्किल होता. खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की क़ीमत ही बाज़ार में नहीं रह गयी थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर,जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज़ लेकर सोयाबीन की खेती की थी,दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़ कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था. छोटे किसान और खेत मज़दूर गाँव छोड़-छोड़ कर शहर भाग रहे थे.”  (मोहन दास)   
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि ज़मींदारी उन्मूलन के बाद कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों के हिस्से अच्छी और बड़ी जोतें आईं. लेकिन भूमंडलीकरण के बाद बिसेसर जैसे किसानों ने ख़ुदकुशी करनी शुरू कर दी. वर्ष 2004 में 18241 किसानों की आत्महत्या सही मायनों में केंद्र की तत्कालीन एनडीए सरकार की भयानक निजीकरण की नीति का परिणाम थी. भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया छोटे किसान के लिए मरीचिका जैसी थी. वैश्विक अर्थव्यवस्था ने भारतीय कृषि को पीट दिया था. 2004 में सत्ता परिवर्तन होता है और यूपीए-1 सरकार किसानों की ओर ध्यान देना शुरू करती है. 2005 में मनरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) एक्ट बनता है और फरवरी 2006 में उसे लागू कर दिया जाता है. दिलचस्प तथ्य है कि 1991 में ही नरेगा का प्रस्ताव पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में रखा जा चुका था. जिसे 2014 की डबल्यूडीआर (विश्व विकास रिपोर्ट) में विश्व बैंक ने “Stellar example of rural development” (ग्रामीण विकास की उत्कृष्ट योजना) कहा था. जिसे 2014 में भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की असफलताओं का स्मारक कहा था,भले ही उनके सामने इस योजना को ज़ारी रखने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था और उनके कार्यकाल में किसानों की आत्महत्या में 42 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई.
   नवंबर 2007 में पी. साईनाथ ने पुनः दि हिन्दूमें लिखा कि महाराष्ट्र राज्य किसानों की क़ब्रगाहबन गया है,जहाँ एक दशक में लगभग 30000 किसानों ने आत्महत्या की. इसी क्रम में यूपीए-2 सरकार ने 2008-9 के बजट में 60000 करोड़ रुपए की क़र्ज़माफ़ी का प्रावधान किया जिससे लगभग 3 करोड़ होरी और मोहन दास जैसे छोटी जोत के किसानों को लाभ पहुँचने का अनुमान था. लेकिन यह प्रयास नाकाफ़ी हुए. एनसीआरबी की मानें तो कृषि क्षेत्र में वर्ष 2013 में 11,772, 2014 में 12360 और 2015 में 12602 किसान आत्महत्याएँ हुईं. सरकारों की क़र्ज़माफ़ी और किसानों की आत्महत्या बदस्तूर ज़ारी है. इन दिनों किसानों की आय दोगुनी करने की बात भी राजनीतिक परिवेश पर छायी हुई है.
किसानों की आत्महत्या के पीछे सांस्कृतिक और सामाजिक कारण भी होते हैं. जैसा कि हम गोदान और मोहन दास में देखते हैं. तीन बीघे की जोत वाला औपनिवेशिक किसान होरी अपने बेटे गोबर को शिक्षा नहीं दे पाया और वह लखनऊ भाग कर मजूर बन गया. उन दिनों होरी के लिए उसको पढ़ा-लिखा सकना मुमकिन भी नहीं था. किन्तु कठिना नदी की तराई में सब्ज़ी उगाने और बांस की टोकरियाँ बनाने वाला काबा दास जिसे टीबी हो गई है,वह किसी तरह मोहन दास को पढ़ा लेता है. यह दीगर बात है कि काबा दास के जीते जी उसका बेटा नौकरी नहीं पा सका,और क्षयग्रस्त,निराश काबा दास खून खाँसते-थूकते मर गया. यह होरी से भी बुरी और त्रासद मृत्यु है. मोहन दास प्रतिभाशाली है और वह प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद एक कोल माइंस कंपनी में क्लर्क की नौकरी की लिखित परीक्षा भी पास कर लेता है और उसकी नियुक्ति होती इसके बीच में ब्राह्मणवाद घुस कर उसकी नौकरी हड़प लेता है. यदि हम कालक्रम और वर्ग की दृष्टि से देखें तो मोहन दास होरी के बेटे गोबर के बेटे मंगल के बेटे का बेटा होगा. क्योंकि इनके बीच में सत्तर सालों का फ़र्क है. लेकिन जाति के आधार पर देखें तो मोहन दास उस बंसोर चौधरी की पीढ़ियों का निकलेगा जिसे होरी अपने बांस बेचता है और मारते-मारते छोड़ता है.
प्रेमचंद लिखते हैं कि, किसान पक्का स्वार्थी होता है.इस बात से असहमत होने के बहुत से तार्किक कारण हैं. यह प्रेमचंद का एक लूज़ स्टेटमेंट है. इसे प्रेमचंद के किसान वर्ग से न होने की विवशता माना जा सकता है. सत्य यह है कि उत्तम खेती,मद्धम बानकी संस्कृति वाला भारतीय किसान स्वाभिमान और आत्मसम्मान से भरा होता है. इसका उदाहरण हम तब देखते हैं जब मजूर बन गए होरी से पंडित दातादीन मजूरी करवाता है. होरी जो कभी किसान था,उससे दातादीन बँधुआ मजूरों जैसा बर्ताव करता है और उसकी बातों के आघात से होरी की हालत बिगड़ जाती है. तब एक हलवाहा दातादीन से कहता है:
“मालिक,तुम्हें ऐसी बात न करनी चाहिए,जो आदमी को लग जाए. पानी मरते ही मरते तो मरेगा.”  (गोदान)
भारतीय किसान सांस्कृतिक रूप से पानीदार होता है. इससे पहले जब पंडित दातादीन होरी की पत्नी धनिया से कहता है कि, यही हाल रहा तो भीख भी मँगोगी.तब धनिया ब्राह्मण दातादीन से कहती है कि, भीख मांगो तुम,जो भिखमंगे की जात हो. हम तो मजूर ठहरे,जहाँ काम करेंगे वहीं चार पैसे मिल जाएँगे.एक तरफ़ धनिया का कृषक-स्त्री स्वाभिमान है,जो ब्राह्मण दातादीन को तमक कर जवाब देता है,दूसरी ओर होरी का ग़मखोर स्वाभिमान है जिसे हालात की चोट मरणासन्न कर देती है. यह किसान से मजूर बनने की भयानक त्रासदी है.

होरी जैसे बहुत से किसानों ने भारत में आत्महत्या की होगी. धीरे-धीरे तो छोटी जोत वाले किसानों का कृषि से मोहभंग ही हो गया. वैश्विक अर्थव्यवस्था ने छोटे किसान के जीवन का अंत कर दिया. लेकिन वे मजूर बनने के सिवा करेंगे क्या ?मोहन दास जैसे कुछ कृषक-युवा पढ़-लिख कर नौकरी लेने जाएँगे तो बिसनाथरूपी तंत्र नौकरी के साथ उनकी आइडेंटिटी भी छीन लेगा. मोहन दास पर हंस में आई किसी टिप्पणी में किसी ने लिखा था कि मोहन दास किसी भी जाति का हो सकता है,केवल बंसोर पलिहा जाति का नहीं. इससे असहमति जताई जा सकती है. भूमंडलीकरण के बाद से जैसे-जैसे निजी क्षेत्रों में रोज़गार की समृद्धि आई और मध्यवर्गीय लोगों की क्रय क्षमता में बढ़ोत्तरी हुई,गाँवों में रहने वाली सवर्ण आबादी शहरों की ओर भागने लगी. 

और अब इक्कीसवीं सदी का डेढ़ दशक बीतने के बाद सवर्ण आबादी शहरों में पूरी तरह स्थापित हो चुकी है. खेती जैसा घाटे का सौदा करने और गाँवों में रहने वाले मोहन दास जैसे छोटी जोत के किसानों के लिए अवसर अब बहुत कम हो चुके हैं. नौकरियाँ निजी क्षेत्रों में अधिक हैं जहाँ मोहन दास की एंट्री नहीं हो सकती. सार्वजनिक क्षेत्र का सिस्टम बिसनाथहै,जहाँ उसकी अस्मिता ही लील ली जाएगी. इसलिए अभी मोहन दास बंसोर पलिहा जाति का ही होगा. और उसके सामने आत्महत्या करने या विक्षिप्त हो जाने की त्रासदी खड़ी होगी. भूमंडलीकरण के पच्चीस वर्षों में या उससे पहले आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान किस जाति के रहे होंगे ?वे या तो तीन बीघे में ऊख-जौ-मटर बोने वाले,कर्ज़ग्रस्त,कुर्मी जाति के होरी महतो रहे होंगे या कठिना की तराई में ककड़ी,खरबूज और मतीरा बोने वाले बंसोर,पलिहा मोहन दास. अब भारतीय किसानों के जीवन और उनकी अस्मिता की चोरी में वैश्विक आर्थिक तंत्र और ब्राह्मणवादी भारतीय पूँजीवाद की समान भागीदारी है.     

परख : महिषासुर - मिथक व परम्परा : कँवल भारती








  

वर्तमान के संघर्ष का युद्ध- क्षेत्र अतीत होता है. औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय मिथकों को अपने हितों के सहयोगी इतिहास के रूप में सृजित किया. प्रतिक्रिया में मिथकों को समझने और व्यवस्थित करने की एक और कोशिश हुई जिसमें काशी प्रसाद जायसवाल, धर्मानंद कोसम्बी, दामोदर धर्मानंद कोसम्बी, वासुदेव शरण अग्रवाल, रामशरण शर्मा, रोमिला थापरआदि की बड़ी और महत्वपूर्ण  भूमिका है. यह अंतर्दृष्टि खुद उस समय के लेखकों में थी. जयशंकर प्रसादके नाटक मिथकों को साहित्य में बदलते हुए यही तो कर रहे थे. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबन्ध ‘अशोक के फूल’ में यही तो कहा गया है-  – “प्रकृत यह है कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था. जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा. असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं.”

मिथकों के पाठ-पुनर्पाठ की प्रक्रिया अभी थमी नहीं है अब इन्हें ‘वर्चस्ववादी अभिजात्य पाठ’ के बरक्स रखकर समझा जा रहा है. वह समय भी आएगा जब इनका एक ‘स्त्री-पाठ’ भी सामने आएगा.

प्रमोद रंजन के संपादन में प्रकाशित-‘महिषासुर : मिथक और परम्पराएँ’एक ऐसी कृति है जिसमें यात्रा, मिथक, संस्कृति का पठनीय और विचारणीय कोलाज़ मौजूद है. बेहद सरस, रोमांचक, और सोच- समझ को विस्तृत करने वाली यह कृति एक उपलब्धि की तरह है. इसका समीक्षा वरिष्ठ साहित्यकार कंवल भारती ने लिखी है.


क्या महिषासुर मिथक है?
कँवल भारती


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दलित साहित्य का एक शोध छात्र उस समय दुविधा में पड़ गया, जब दलित साहित्य में मिथकों का अध्याय उसे लिखना था. उसने अन्य अध्याय तो लिख लिए थे, पर मिथकों पर लिखने के लिए उसे कोई सामग्री नहीं मिल रही थी. उसने दलित साहित्य के कुछ बड़े लेखक को फोन करके जानकारी मांगी. जैसा कि उसने मुझे बताया, उसे कोई जानकारी नहीं मिली. अधिकांश ने कहा कि हम मिथक में विश्वास ही नहीं करते, तो कुछ ने दलित साहित्य में मिथकों पर काम होने से ही इनकार कर दिया. उसने मुझसे भी यही सवाल किया कि क्या दलित साहित्य में मिथकों पर काम नहीं हुआ है? मैंने कहा, ‘मिस्टर दलित साहित्य तो पैदा ही मिथकों से हुआ है. कौन कह रहा है कि मिथकों पर काम नहीं हुआ है.फिर मैंने उसे विस्तार से बताया.


मिथक पौराणिक कहानियों को कहते हैं. इन मिथकों पर सम्भवता: पहला बड़ा काम जोतिराव फुलेने किया था. उनकी किताब गुलामगिरीमिथकों का ही तार्किक विवेचन है. उन्होंने हिन्दू अवतारों के मिथकों के आधार पर ही मूलनिवासियों का इतिहास लिखा. दलित चिन्तन की मान्यता है कि भले ही मिथक इतिहास नहीं हैं, परन्तु उनमें इतिहास जरूर है. मिथकों पर दूसरा बड़ा काम डा. आंबेडकरने किया. उन्होंने मिथकों के अपने अध्ययन से ही आर्य-अनार्य-संघर्ष के इतिहास का विश्लेषण किया. वे पहले चिंतक थे, जिन्होंने दानव, राक्षस, दैत्य, किन्नर, नाग, यक्ष आदि असुर जातियों को मानव माना और उनके ऐतिहासिक संघर्ष को रेखांकित किया. डा. आंबेडकर ने दो तरह के धर्मशास्त्र माने थे, एक मिथिकल यानी पौराणिक और दूसरे सिविल यानी मानवीय. पौराणिक धर्मशास्त्र वे हैं, जिनमें देवताओं और उनकी लीलाओं (कारनामों) के वर्णन में कल्पना का समावेश रहता है. उन्होंने अपनी पुस्तक रिडिल्स इन हिन्दूइज्ममें हिन्दू मिथिकल थियोलोजी का गहन तार्किक विश्लेषण किया है. पहली बार डा. आंबेडकर ने ही सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली इन पांच देवियों के शौर्य और युद्ध पर सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि वैदिक देवियों ने कोई युद्ध क्यों नहीं लड़ा और पौराणिक देवियों ने ही क्यों युद्ध लड़ा? दूसरा प्रश्न उन्होंने यह उठाया कि ब्राह्मणों ने मात्र दुर्गा को ही वीरांगना क्यों घोषित किया, जिसने असुरों का संहार किया था? इन सवालों ने मिथकों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया.


हाल में प्रमोद रंजनके सम्पादन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक महिषासुर : मिथक व परम्पराएँफारवर्ड प्रेस और दि मार्जिनाइज्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई है, जिसमें दुर्गा और महिषासुर के मिथकों पर एक जीवंत इतिहास की यात्रा मिलती है. यद्यपि यह पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है, जो यात्रा वृतांत, मिथक व परम्पराएँ, आन्दोलन किसका, किसके लिए, असुर और साहित्य नाम से हैं, जबकि छठा खंड परिशिष्ट है, जिसमे महिषासुर दिवस से सम्बन्धित तथ्य दिए गए हैं. किन्तु इस पुस्तक में सबसे महत्वपूर्ण खंड यात्रा वृतांत है, जिसमें प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार औरअनिल वर्गीज की यात्राओं के वर्णन हैं.


प्रमोद रंजन ने इतिहास और पुरातत्व की नजर से सुदूर इलाकों में महिषासुर की खोज की है. यह बहुत ही दिलचस्प और रोमांचित कर देने वाला वृतांत है. इस वृतांत पर चर्चा करने से पहले किताब की भूमिकासे एक उद्धरण देना जरूरी है, जो महिषासुर के प्रति आदिवासी समाज की आस्था को दर्शाता है. प्रमोद रंजन लिखते हैं


कर्नाटक, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, ओड़िसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और गुजरात से सैकड़ों जगहों पर महिषासुर दिवस मनाए जाने की सूचनाएं आ रही हैं. लेकिन पहली बार ऐसी सूचनाएं भी आ रही हैं कि आदिवासियों ने महिषासुर और रावण के अपमान के खिलाफ थाने में शिकायत देकर स्थानीय दुर्गा-पूजा समिति पर कार्रवाई की मांग की. जय महिषासुरऔर जय राजा रावणके नारों के साथ (लोग) सड़कों पर उतरे भी तथा (उन्होंने) थाने व स्थानीय अधिकारियों का घेराव भी किया. कुछ राज्यों में विभिन्न संगठनों के लोगों ने सामूहिक रूप से अधिकारियों को आवेदन देकर दुर्गा-पूजा बंद करने की मांग की है. इस तरह के आवेदन देने वालों में निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं. दूसरी ओर देवी दुर्गा के अपमान को लेकर भी मुकदमे और पुलिस प्रताड़ना का सिलसिला जारी है. इस महीने (अक्टूबर 2017) दिल्ली, बुलंदशहर, जमशेदपुर, वर्धा, दादरा और नगरहवेली समेत कई जगहों पर दुर्गा के अपमान के मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए हैं. झारखंड में कुछ जगहों पर पुलिस ने महिषासुर दिवस को रोकने की कोशिश की है.


महिषासुर के प्रति यह आस्था आकस्मिक नहीं है, वरन इसके पीछे उस इतिहास की परम्परा है, जो लिखी नहीं गई, और नष्ट कर दी गई. इसी परम्परा की खोज प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार और अनिल वर्गीज की यात्राएँ करती हैं. पहले प्रमोद रंजन की यात्रा को देखते हैं. महोबा में महिषासुरशीर्षक के अंतर्गत वे लिखते हैं, ‘हमारे पास दो तस्वीरें हैं. एक तस्वीर में पत्थर का एक ढांचा है, जो न मन्दिर की तरह दिखता है, न ही घर की तरह. वह पत्थर की अनगढ़ सिल्लियों से बनी छोटी सी झोंपड़ी जैसा कुछ है. दूसरी तस्वीर में किसी सड़क पर लगा एक साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है—‘भारत सरकार : केन्द्रीय संरक्षित स्मारक, भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, लखनऊ मंडल, लखनऊ, उपमंडल महोबा, उत्तरप्रदेश.

ये दोनों तस्वीरें उन्हें इंडिया टुडे के पीयूष बाबेले ने 16अक्टूबर 2014को भेजी थीं. थोडा अप्रासंगिक जरूर लगेगा, मुझे याद आता है, लखनऊ में भी एक इलाका भैंसाकुंड के नाम से है. किसी समय यह ग्वालों का क्षेत्र रहा था. अगर खोज की जाय, तो भैंसाकुण्ड का सम्बन्ध भी महिषासुर से निकल सकता है. खैर. प्रमोद रंजन के पास यही दो तस्वीरें थी, जिन्हें खोजते हुए वे अपने साथी राजन के साथ महोबा पहुँच गए. यह कोई लक्जरी यात्रा नहीं थी, बल्कि रेल, बस, टेम्पो, ऑटो रिक्शा और पैदल की यात्रा थी. दिल को लगी हो, सो राहुल सांकृत्यायन की तरह लुटिया-डोर उठाकर पैदल भी चला जा सकता है, ऐसे लोग ही पत्थरों में से हीरा खोज लाते हैं, वरना तो लक्जरी कारों और हवाई जहाजों से बुद्धिजीवी यात्रा करते ही रहते हैं, और उनके हाथ कुछ नहीं लगता है. भटकते हुए तस्वीरें दिखाते हुए वे कुलपहाड़ पहुँचते हैं, तो पता चलता है कि यहाँ ऐसा कोई मन्दिर नहीं है. लेकिन वे निराश नहीं हुए. लोगों ने उन्हें कुलपहाड़ से 70-80किलोमीटर दूर चौका नामक स्थान पर भेज दिया. सम्भावना वहाँ भी नहीं थी. पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, एक ऑटो रिजर्ब किया और चौका के लिए रवाना हो गए. वे मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश करके हरपालपुर पहुँच गए. जब वे झांसी की ओर बढ़ने लगे, तो अचानक उन्हें हाइवे पर एक साइनबोर्ड दिखा, जिस पर वही लिखा था, जो उनके पास तस्वीर में था— ‘भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण.वे लिखते हैं, हम ख़ुशी से चीख पड़े. हम इतने प्रसन्न थे कि उस बोर्ड के साथ विक्ट्री साइन बनाते हुए एक-दूसरे की कई तस्वीरें उतार डालीं.


साइन बोर्ड के साथ तस्वीरें लेने के बाद वे उस जगह गए, जहाँ भैंसासुर स्मारक मन्दिर था. वे लिखते हैं कि एक ऊँचे टीले पर स्थित पत्थरों का वह ढांचा किसी कोण से भी मन्दिर की तरह नहीं दिखता था. मुख्य ढांचा एक छोटे कमरे जैसा था, जो प्राचीन प्रतीत होता था. उसमें एक द्वार था, जिस पर पुरातत्व विभाग ने लोहे का गेट लगवा दिया है. जिस गाँव में यह मन्दिर स्थित है, वह कोइरी (कुशवाहा) बहुल गाँव है. उसके बाद अहिरवारों की संख्या है, कुछ घर ब्राह्मणों और राजपूतों के हैं. आसपास के गाँव में पाल जाति के लोग बहुसंख्यक हैं. लेकिन पूरा गाँव गरीबी में डूबा है. गाँव में एक सुसज्जित दुर्गा मन्दिर भी है, जिसमें लोग खूब पूजा करते हैं, परन्तु भैंसासुर मन्दिर में कोई पूजा नहीं करता है. [पृष्ठ 21]


महोबा में घूमते हुए उन्हें गोखर पहाड़ी पर गोरख मन्दिर मिला. पता चला कि यहाँ गोरखनाथ ने अपने शिष्यों के साथ कुछ वर्षों तक प्रवास किया था. वहां एक गोरखपंथी साधु से उन्हें पता चला कि जहाँ से पहाड़ी पर चढ़ने का रास्ता है, वहीँ शंकर मन्दिर के सामने वाली जमीन पर मिटटी के एक बड़े त्रिभुजाकार आधार के ऊपर मिटटी की पांच छोटी आकृतियाँ बनी हैं, वही महिषासुर मन्दिर है. उन्होंने साधु के साथ अपनी लम्बी बातचीत को दर्ज किया है. उसके अनुसार इस इलाके में महिषासुर की पूजा मुख्य रूप से यादव और पाल लोग करते हैं. वे गाय-भैंसों के लिए पूजा करते हैं. साधु बताता है कि महोबा में गाँव-गाँव में महिषासुर के स्थल हैं. राजस्थान के झांझ में हैं. वहां वे कारस देव के नाम से जाने जाते हैं. उसके अनुसार कारस देव महिषासुर के भाई थे. उसने यह भी बताया कि मैकासुर के दो भाई भी थे. छोटे भाई का नाम उसे याद नहीं आ रहा था. पर बड़े भाई का नाम उसने अजय पार बताया. उसने कहा कि उनकी मड़ैया भी यहीं थोड़ी दूर पर है. महिषासुर, मैकासुर, कारस देव, करिया देव सब एक ही हैं. यहाँ इन्हें ग्वाल बाबा भी कहते हैं. [पृष्ठ 29]


गोरखपंथी साधु ने उन्हें महोबा के आसपास के गांवों में मौजूद कुछ प्रमुख महिषासुर स्थलों का भी पता बताया, जिसके बारे में प्रमोद लिखते हैं, वह एक ऐसी गुप्त सुरंग साबित हुई, जिसके भीतर से अनेक सुरंगें फूटती थीं और अंत में सभी प्राचीन काल की एक विशाल असुर-सभ्यता, उनकी उन्नत कृषि व पशुपालन तकनीक, प्रकृति-प्रेम, समतामूलक जीवन-मूल्य और अंत में एक भयानक हिंसा की ओर इशारा करते हुए बंद हो जाती थी. [पृष्ठ 30]


पहली सुरंग उन्हें महोबा में ही मिली, कीरत सागर के तट पर. लगभग तीन-चार सौ गज जमीन के चारों ओर बाउंड्रीवाल थी, जिसमें दो फुट का दरवाजा था. उसके ऊपर लिखा थाप्राचीन मैकासुर मन्दिर. पर उसमे न कोई भवन था और न कोई मूर्ति थी. केवल कोणस्तुपाकार की सात आकृतियाँ थीं. उन्हें एक ढाबे वाले ने बताया कि मैकासुर पशुओं को ठीक करते हैं. यहाँ लोग दूध और फूलगोभी चढ़ाते हैं. यहीं से उन्हें मोहारी गाँव में नवनिर्मित मैकासुर मन्दिर का पता चला. प्रमोद लिखते हैं कि जब वे मोहरी पहुंचे, तो देखा कि वहां भी कोई मन्दिर नहीं था. स्थापत्य की दृष्टि से तो कतई नहीं. यहाँ सीमेंट का एक चबूतरा था, जिस पर चार खम्भों की छत थी. एक भैस या भैसा की मूर्ति थी, जिसके दाहिने ओर घोड़े की लगाम पकड़े हुए एक महिला की मूर्ति थी. ऊपर मोर और एक ताख था.’ [पृष्ठ 32]


यहाँ प्रमोद रंजन कुछ प्रश्न उठाते हैं—‘क्या इस भूमि पर वास करने वाले लोग अपने को सांस्कृतिक रूप से भैंसा (महिष) से जोड़ते थे? क्या भैंसा उनका गोत्र चिन्ह था? या फिर महिषराजा, गणनायक का पर्याय है? लेकिन यह रमणी कौन है और मैकासुर के पास क्या कर रही है?’ वे यहाँ डीडी कौसम्बी को उद्धृत करते हैं—‘महोबा क्षेत्र में दुर्गा कहीं म्हसोबा (महिषासुर) का मर्दन (हत्या) करती दिखती है, तो कहीं वही उनकी संगिनी अथवा पत्नी के रूप में भी मौजूद है.इससे स्पष्ट है कि दुर्गा उसी अनार्य समुदाय की थी, जिसके महिषासुर थे. प्रमोद सवाल करते कि यह आर्यों का घोड़ा क्या है? क्या इस रमणी ने किसी प्रलोभन या दबाव के कारण महिषासुर की संगिनी बनने का स्वांग रचा था? [पृष्ठ 33]


वे आगे महत्वपूर्ण सूचना देते हैं— ‘मोहारी गाँव में अन्य मन्दिरों में ब्राह्मण पूजा करवाते हैं. लेकिन मैकासुर का पुजारी पाल जाति का ही हो सकता है. गड़रिया, कोइरी, अहीर और लोध समेत तमाम ओबीसी-दलित जातियां इनकी पूजा करती हैं. दलितों में अहिरवार इन्हें ज्यादा मानते हैं. धीरे-धीरे इन्हें शंकर का रूप दिया जा रहा है. गाँव में अलग-अलग जगहों पर जाकर हमने बुजुर्गों से पूछा कि इस इलाके में दुर्गा-पूजा कब आरम्भ हुई? सबका कमोबेश एक ही उत्तर था महज 15-16साल पहले. [पृष्ठ 34]


महोबा से वे खजुराहो पहुंचे. वहां वे एक मन्दिर में सींग के मुकुट और भैंस के चेहरे वाली मूर्ति को देखकर चकित रह गए. उस मूर्ति के चार हाथ थे, ऊपर उठे बाएं हाथ में त्रिशूल था, तो दाएँ हाथ में कोई अन्य वस्तु, शायद कोई अस्त्र.  सिर के ऊपर गोंडी धर्मचिन्ह जैसी कोई आकृति. पैरों की ओर झुका हुआ बायां हाथ कुछ देने की मुद्रा में सामने की ओर खुला हुआ व दाहिने हाथ में कमंडल जैसा कोई पात्र. वे लिखते हैं कि मन्दिर में इस तरह की लगभग एक दर्जन मूर्तियाँ थीं. वहां उन्हें खजुराहो की मूर्तिकला पर शोध करने वाली हिंदी लेखिका शरद सिंह ने उनको नंदी की मूर्तियाँ बताया. किन्तु प्रमोद का मत है कि जिस बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में महिषासुर के मन्दिर हैं, जिनके भैंसासुर, मैकासुर, कारस देव, ग्वाल बाबा आदि अनेकों नाम हैं. और यहाँ से 70किलोमीटर की दूरी पर चौका सोरा गाँव में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर स्मारक मन्दिरहै. ऐसे में इन मूर्तियों में भैंस का चेहरा होने की सम्भावना अधिक है या बैल होने की?’प्रमोद मानते हैं कि भारतीय मूर्ति व स्थापत्य कला पर बहुत कम काम हुआ है. गुणवत्तापूर्ण प्रामाणिक शोध तो नगण्य ही है. आने वाले समय में जब इस दिशा में बहुजन तबकों से आने वाले शोधार्थी सक्रिय होंगे, तो वे ब्राह्मणेत्तर परम्पराओं के आलोक में सही तथ्यों को पहिचानेंगे. [पृष्ठ 43-47]


अपनी यात्रा के निष्कर्ष में प्रमोद रंजन ने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं. वे कहते हैं, ‘बुंदेलखंड में  महिषासुर से सम्बन्धित जो बहुजन-श्रमण परम्पराएँ हैं, उनमें और ब्राह्मण परम्पराओं में एक बड़ा अंतर यह दृष्टिगोचर हो रहा है कि उनके ईश्वर मन्दिरों में रहते हैं, उन्हें रहने के लिए भवन चाहिए. किन्तु बहुजन-श्रमण परम्परा में ईश्वर है ही नहीं, पुरखे हैं, जो इनके घरों, खेतों और खलिहानों में रहते हैं, प्राय: खुले में. ब्राह्मण परम्परा में ईश्वर मूर्तियों में निवास करते हैं. उन्हें मूर्तियों के माध्यम से मानव का रूप दिया जाता है. बहुजन-श्रमण परम्परा में मूर्तियाँ प्राय: नहीं होतीँ हैं, चबूतरे होते हैं, जो शायद आरम्भ में विशिष्ट स्थल को चिन्हित भर करने के लिए बनाये जाते होंगे. बहुजन-श्रमण परम्परा में उनके पुरखे उनके जीवन और कार्यों का हिस्सा हैं, वे उन पर आते हैं, उनसे बात करते हैं. [पृष्ठ 49]


यह महिषासुर : मिथक व परम्पराएँपुस्तक का एक छोटा सा परिचय है. इस सम्बन्ध में नवल किशोर कुमार के छोटानागपुर के असुरऔर अनिल वर्गीज के लेख राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्रतलाश महिषासुर कीविशेष प्रकाश डालते हैं. इसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख गौरी लंकेश का महिषासुर : एक पुनर्खोजभी पठनीय है.
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उपन्यास - अंश : कफ़स : तरुण भटनागर

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(फोटो के लिए Tajnoor Khan  का आभार)









कथाकार तरुण भटनागर के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास कफ़समें एक चरित्र है - अदीब. जब वह पैदा हुआ तब उसके शरीर में औरत और आदमी दोनों के जननांग थे. उसके पिता उसे लडका बनाना चाहते थे. उसके कई-कई ऑपरेशन होते हैं.


इस अंश में ‘बेदावा लावारिस लाश’ के ‘शव विच्छेदन’ के बहाने व्यवस्था की विद्रूपता का पोस्टमार्टम किया गया है.   




दण्डकारण्य                             
तरुण भटनागर  



दूर जंगलों के एक अस्पताल की मर्चरी.

मर्चरी में घुसने से पहले डॉक्टर जे. जोसेफ ऊपर लिखे बोर्ड को देखते हैं. अंगरेजी में लिखा है- पोस्टमार्टम रुम, हिंदी में-शव विच्छेदन कक्ष.

कमरे में ठीक सामने टेबिल पर एक लाश पडी है. सफेद कपडों में लिपटी. डॉक्टर जोसेफ ने पहले प्लास्टिक के दस्ताने पहने फिर मुँह पर एक हरी पट्टी बाँधी. डॉक्टर जोसेफ का पूरा चेहरा ढंका है. चेहरे पर सिर्फ दो आँखें दीखती हैं. ऐसे वक़्त में वे आँखों से ही बातें करते हैं. पोस्टमार्टम रुम वाला स्वीपर उनकी आँखों के इशारे को पढकर आगे का काम करता है.

उन्होंने अभी-अभी लाश के साथ आये कागजों को उलट पलटकर देखा है.
उम्र- लगभग अठाईस साल. मजहब - मुसलमान.
नाम - अब तक पता नहीं.

स्वीपर लाश को फाडने के लिए खंजरों की धार की पडताल कर रहा है. उसने सुबह ही औज़ार तैय्यार कर लिये थे. वह ख़ंजरों को तेज़ धार रखता है. कभी-कभी पुरानी लाशों में ख़ाल इस तरह माँस पर चिपक जाती है कि उसे माँस से अलग काटना मुश्किल हो जाता है. इसलिए ख़ंजरों की धार तेज रखना जरुरी है. कुछ लाशें इतनी नाज़ुक हो जाती हैं कि खंजर की तेज़ धार भी कुछ नहीं कर पाती. चलती धार पर ख़ाल, माँस, हड्डी सब कटता जाता है. वह हथौडी और छेनी को परख लेता है. ये खोपडी को खोलने के काम आती हैं. माथे के ठीक बीच हड्डी में एक जोड होता है, उस पर छेनी रख हथौडी मारने पर माथा खुलता जाता है. वह सूजे की नोक और धागे की मजबूती पर तसल्ली होने पर ही यकीन कर पाता है. अगर लाश ही साथ न दे तो दीगर बात है, वर्ना उसका सारा सामान चाक चैबंद रहता ही है. 

वह इतना परफेक्ट है कि डॉक्टर के कहने पर विसरे के लिए लाश की आँत, पेट, गले की नली, एक तरफ का पूरा फेफडा या कोई और भी अंग काटकर बाटल में कैमिकल में डालकर सुरक्षित रख देता है. उसने सुबह ही इस लाश पर निशानात बना दिये थे. गर्दन के नीचे से छाती के नीचे तक और माथे पर एक लकीर खींच दी थी. इसी लकीर पर से उस लाश को फ़ाडा जाना था. डॉक्टर जोसेफ रोज पोस्टमार्टम करते हैं. कहीं कोई नई बात नहीं है.

स्वीपर लाश के ऊपर बने निशानों पर धारदार खंजर रखता जा रहा है.

डॉक्टर के आने से पहले ही स्वीपर ने लाश का सफेद कपडा काटकर अलग कर दिया था. जिस्म को फाडने से पहले डॉक्टर जोसेफ ने उसका मुआयना किया. वे पल भर को ठिठके. लाश पर सरकती उनकी आँखें पल भर को आहिस्ता हुईं और लाश के एक हिस्से को देखतीं थिर सी हो गईं. माथे पर पसीने की कुछ बूँदें उभर आईं. उनके जेहन से अंधेरों में जज़्ब एक दुनिया के अक्स गुजरते गये. काले पर्दों के पीछे की एक ख़ामोश दुनिया.

याद आया जैसे गुजिश्ता दिनों में कहीं उन्होंने ऑपरेशन के कई दिनों के बाद बडी हिम्मत के साथ मरीज से आँख मिलाई हो. जब वे मरीज से पूछते हैं- कैसे हो तुम- तो उनके भीतर कुछ दरकता है, कुछ चटक कर बिगडता है. वे दुनिया के उन सबसे कमतर शल्य चिकित्सकों में से एक हैं जो उस काली दुनिया को देखकर आया है. कहते हैं यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में आज भी कई डॉक्टर भिडे हैं उसी काली दुनिया में.... हिंदोस्तान में ऐसे डॉक्टर गिनती के ही हैं. डॉक्टर जोसेफ उनमें से एक थे.

पर एक दिन.......

एक दिन उन्होंने उस बडे अस्पताल के सुपरिटेण्डेन्ट के सामने अपना स्तीफा रखते हुए कहा था कि अब वे इस तरह का ऑपरेशन न करेंगे. सुपरिटेण्डेन्ट उन्हें मनमाफ़िक तनख़्वाह देने को तैय्यार था. पर वे राजी न हुए. इस तरह वे उस काम को छोडकर सरकारी महकमे में नौकरी पर आ गये.

दण्डकारण्य के इन जंगलों में हाल छह महीने पहले ही उनका तबादला हुआ है. सरकारी महकमें में दण्डकारण्य में तबादले को सजा के तौर पर देखा जाता है. दण्डकारण्य में तबादला याने सजा. लाल-धूसर मिट्टी पर पसरे सागौन और साल के जंगलों को देखते हुए उनके दिमाग में यही लफ़्ज सरकता है - सजा.....सजा - और वे मुस्कुराते हैं. अक्सर कालिख़ में लिपटी काली-सलेटी रात की ख़ामोशी जब पेडों के साथ गुर्राती है, तब यह लफ़्ज उनको देख मुस्कुराता है - सजा...सजा....सजा - वे मुँह फेर लेते हैं .

मरे हुए जिस्म को पल भर देखने के बाद उन्हें लगा कि वे यहाँ से कहीं चले जायें. काला अतीत उनकी आत्मा की सीढियों पर चढ रहा है, धमकता हुआ. उनके पास उससे छुटकारे का कोई उपाय ही न हो जैसे.

डॉक्टर जोसेफ को गुजिश्ता दिनों के पोस्ट आपरेटिव वार्ड से आती कराहें और चीखें सुनाई देती हैं.... वे मरीज़ को ढांढस बंधाते हैं. मरीज़ चीखता रहता है.

हर जिस्म में कुछ बेहद नाज़ुक अंग होते हैं. माँस और तंत्रिकाओं से बने अंग. उन अंगों से लिपटी होती है उस जिस्म की सबसे अहम संवेदना. डॉक्टर जोसेफ को कई मर्तबा उन अंगों को काटकर उस जिस्म से अलग करना पडता था. वे जानते थे कि उस जिस्म से सिर्फ वह अंग ही कटकर अलग नहीं होता था, उसके साथ-साथ कटकर अलग होती थी कोई बहुत अपनी सी संवेदना, कोई आत्मिक सा जज़्बात.....कटकर अलग होता था कोई ख़्वाब, कोई अक्स जिसमें अपने रंग भरती रहती थी वह बहुत गोपन सी भावना......

डॉक्टर जोसेफ ने लाश के सिर पर, बालों पर, दस्ताने में लिपटे अपने हाथ को रखा. जैसे माँ अपने बच्चे के सिर पर हाथ रखती है. स्वीपर ने पल भर को भौंचक नजरों से डॉक्टर जोसेफ को देखा. डॉक्टर जोसेफ सचमुच कहीं चले जाना चाहते हैं. पर इस तरह चले जाना आसान नहीं है. उन्हें अपना काम निबटाना है. जाने से पहले उन्हें कागजों पर दर्ज करनी है पोस्टमार्टम की रिपोर्ट.

लाश के साथ आई पुलिस की डायरी में सबसे ऊपर लिखा है - बेदावा लावारिस लाश...

डॉक्टर जोसेफ अपनी आँखें बंद कर लेते हैं. स्वीपर उन्हें घूरता रह जाता है.

डॉक्टर जोसेफ के जेहन में ओल्ड टेस्टामेण्ट की कोई इबारत गूँजती है. बंद आँखों के अंधेरों में पुलिस की डायरी पर लाल स्याही से अंकित तीन शब्द गुजरते रहते हैं - बेदावा लावारिस लाश.... शल्य चिकित्सा की उस स्याह दुनिया से आती कराहें सुनाई देती रहती हैं, कोई एकाकी विलाप उनके जेहन को काटता जाता है. आँखें बंद किये-किये दाहिने हाथ की उंगलियों से अपने माथे, गले, कंधे और छाती को छूते हुए वे क्रास का निशान बनाते हैं. ओल्ड टेस्टामेण्ट की प्रार्थना की अंतिम लाइनें बुदबुदाते हैं. अचानक आँखें खोल स्वीपर को आँखों से इशारा करते हैं, याने - लाश पर रखे खंजर हटा दो- स्वीपर उन्हें अचरज से देखता है.

डॉक्टर जोसेफ के मन में एक पाप आ गया है. अपने पेशे से दगा करने का पाप. एक ऐसा दगा जिसकी इंतिहा उनकी जिंदगी तबाह कर सकती है.

डॉक्टर जोसेफ ने फिर से लाश के साथ आये कागज पत्रों को पलटा. कागज के एक टुकडे पर वे रुके. एक फटी हुई मार्कशीट. जिसका ऊपरी और निचला हिस्सा फाडकर अलग किया जा चुका है. सिर्फ बीच का एक हिस्सा बचा है. जिसमें अल्हदा विषयों के नाम और उनके सामने उन विषयों में मिले नंबर लिखे हैं. उन्होंने विषयवार प्राप्त नंबरों पर सरसरी नजर दौडाई. गणित के नंबरों को उन्होंने गौर से देखा. चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे. उन्होंने फिर से गणित में प्राप्त नंबरों को पढा - चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे - उन्होंने तिबारा पढा - चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे - फिर कागज पत्रों को बंद कर दिया.

पुलिस के सबसे ऊपर के कागज में सबसे नीचे लिखा है - मृत्यु का कारण. 

डॉक्टर जोसेफ को इन कागज़ों में मृत्यु का कारणअंकित करना है. मृत्यु के कारण के नीचे ब्रैकेट में लिखा है - पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सक का अभिमत, याने वे क्या मानते हैं कि मृत्यु का कारण क्या है ? क्या वजह थी कि यह शख़्स मारा गया? मौत की वजह? वाजिब वजह

उन्हें शल्य चिकित्सा के दौर के वे जिस्म फिर से याद आये.

एक अधेड उम्र का बाप और उसके पीछे चलती उसकी कम उम्र वाली घरवाली डॉक्टर जोसेफ को अक्सर याद आते. बाप अक्सर गुजारिश सी करता कि वे उसकी औलाद को लडका बना दें. एक बार उनके सामने हाथ जोडकर खडा हो गया. उन्होंने उसे समझाया कि उनकी औलाद का जिस्म ऐसा है कि वह लडकी तो आसानी से बन सकता है पर लडका नहीं. पर वे न माने. वे उसे समझाते रहे पर उस पर इसका कोई असर न होता. बाद में एक दूसरे डॉक्टर से पता चला कि वह अस्पताल को मुँहमागी रकम देने को तैय्यार है. अस्पताल के लागे भी रजामंद थे - जब बाप चाहता है तो हमें क्या - वही दूसरा डॉक्टर उन्हें समझाता है - वह काफी पैसे दे रहा है, अस्पताल का डीन भी ऐसा ही चाहता है, कोई ऊपर से फोन भी आया है, क्यों पचडा पालना, कर देते हैं आपरेशन. ऑपरेशन के बाद वह मरीज पोस्ट आपरेटिव वार्ड में सो रहा था. 

पता नहीं वह क्या हो पाया है - डॉक्टर जोसेफ का मन ग्लानि से भर उठता - राम जाने वह क्या बन गया होगा, शायद थोडा लडका, शायद थोडा लडकी - वे उसके सोते चेहरे को गौर से देखते हैं - जैसे कोई लडकी, जैसे कोई लडका, जैसे इंसान की कोई औलाद, बस एक ही अंतर है कि उसे बार-बार अपने जिस्म पर चलवाने हैं चाकू, कटवाने हैं जिस्म के कुछ बेहद अंतरंग हिस्से - डॉक्टर जोसेफ सोचते हैं एक दिन वे यह काम बंद कर देंगे, एकदम बंद......

उन्होंने पल भर को लाश की ओर देखा और फिर खिडकी के बाहर देखने लगे.

मृत्यु का कारण.....

खिडकी के पार टीन की एक छत है. छत पर एक कौवा बैठा है. कव्वे के मुँह में माँस का एक टुकडा है. एक दूसरा कौवा उससे उस टुकडे को छीनने के लिए झपट रहा है.

मृत्यु का कारण.....

खिडकी के पार  कचरे का ढेर है. ढेर में अस्पताल से फेंके गये कटे-फटे मानव अंग पडे हैं, रक्त रंजित पट्टियों के टुकडे, पुराने सडे विसरे की बोतलें......ढेर में काले-लाल रक्त से सना एक प्लेसेन्टा पडा है जिसे एक कुत्ता अपने जबडों से खींच रहा है.

मृत्यु, मृत्यु....मृत्यु का कारण.....

सजा...दण्डकारण्य.....सजा....दण्डकारण्य.....

ऊपर गिद्धों का एक झुण्ड है. नीले आकाश में इत्मिनान से तैरता. कचरे के ढेर में पडे इंसानी जिस्म के टुकडों पर ललचाते. इंसानी माँस के टुकडों पर झपटने को आतुर....

मृत्यु का कारण....

वे लाश का मजहब जानते हैं, पर वे लाश का नाम नहीं जानते.....

पढाई के सबसे बेहतरीन नंबरों के आगे वे बडे इत्मिनान से लिख देते हैं - बेदावा लावारिस लाश....

स्वीपर हठात खडा है. उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं.

कौवों की काँव-काँव और गिद्धों की चाँव-चाँव से टूटती रहती है पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी. पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी एक तवायफ़ है. चुप्पियों के दलाल की तवायफ़. ख़ामोशी की बदचलनी पर बोलने का उसूल नहीं है. दुनियादारी के बीच उसकी हरमज़दगी का किस्सा कोई नहीं कहता. पैसों कि ख़ातिर जो सबकुछ बेचने को आतुर हो ऐसी बेगैरत ख़ामोशीसे लोग मुस्कुराकर बात करते हैं. ठीक वही ख़ामोशी.....वही असीम, अनंत और परम शांति....अनवरत, मुसलसल....क्या फ़र्क पडता है किसका जिस्म....क्या अंतर कि किस- किसकी लाश....शांति, शांति, शांति....क्या फ़र्क कि किसका पोस्टमार्टम, क्या मतलब कि कहाँ का, किसका और कौन सा जंगल...?

ख़ामोशख़ामोश... ऑर्डर- ऑर्डर. चुप बे,चुप.....

मृत्यु का कारण......

डॉक्टर जोसेफ लाल स्याही से पुलिस के कागज़ों में जल्दीबाजी में लिखते हैं - पीठ, छाती और चेहरे पर खरोंच के गहरे निशान (संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने चैस्ट की पाँच पसलियाँ टूटी हुईं, पेट के दाहिने हिस्से में गहरा घाव (किसी धारदार हथियार से हमले की वजह से), गर्दन के पीछे सरवाइकल स्पाइन टूटी हुई (वही संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने टैम्पोरल में गहरा घाव खोपडी के भीतर तक ( बंदूक की गोली लगने से), बाईं ह्यूमरस टूटी हुई......

मृत्यु का कारण......

लगातार हुआ रक्तस्राव और ब्रेन के अंदरुनी हिस्सों में गंभीर चोट......

कचरे के ढेर के पास कुत्ता भौंकता है. उसके रक्त रंजित दाँत दीखते हैं. अधखाया प्लेसेण्टा उसके मुँह से लटका है.

डॉक्टर जोसेफ तत्काल मर्चरी के बाहर आ जाते हैं. हडबडाये. और सीधे चलते चले जाते हैं. नाक की सीध में. लंबे डग भरते. बेचैन. कभी भी पलटकर न देखने.       

मृत्यु का कारण....

खिडकी से सिर बाहर कर कातर आवाज़ में स्वीपर पुकारता है -
कहाँ चल दिये सर. एकदम अचानक.

डॉक्टर जोसेफ पलटकर नहीं देखते. सीधे चले जाते हैं. सामने की ओर मुँह उठाये. खिडकी के बाहर झाँकता स्वीपर चीखता है-

कोई काम याद आ गया क्या सर.....?’

फिर वह पुलिस के कागज़ों पर लाल स्याही से दर्ज़ डॉक्टर की रिपोर्ट देखता है. रिपोर्ट के नीचे डॉक्टर जोसेफ ने दस्तख़त नहीं किये हैं. वह फिर से खिडकी की ओर लपकता है. डॉक्टर जोसेफ उसे दूर-दूर तक कहीं नहीं दीखते.

कहानी का एक हिस्सा किसी को नहीं पता. किसी को भी नहीं.

कहते हैं वह दण्डकारण्य के घने जंगलों में वह एक नई-नई रात थी.

अपने एक दोस्त की समझाइश पर अदीब ने अपनी मार्कशीट के तीन टुकडे किये. एक टुकडा जिसमें उसका नामउसकी वल्दियत, उसकी उम्र, उसका पता लिखा था, दूसरा टुकडा जिसमें उसके कालेज और विश्विविद्यालय का नाम लिखा था और जिसके नीचे विश्विविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त थे और तीसरा टुकडा जिसमें सब्जैक्टवार नंबर लिखे थे. दोस्त ने उससे कहा कि वह सिर्फ सब्जैक्टवार नंबर संभाल कर रख सकता है. दोस्त जाने के लिए उठा और उससे मुख़ातिब हुआ -

नंबर गणित की इजाद हैं. नंबरों की कोई जात नहीं. नंबरों का कोई मजहब नहीं. नंबर न आदमी होते हैं, न औरत. नंबरों का कोई मुल्क नहीं.

अदीब उसे एकटक देखता रहा. सामने आग जल रही थी. आग की लपटें दोस्त की आँखों में दमकती थीं-

नंबर ख़ालिस गणित हैं. नंबर सिर्फ और सिर्फ उसी के होते हैं जिसके ये होते हैं. नंबरों पर किसी और का अख़्तियार नहीं होता. नंबर इंसाफ़ का दूसरा नाम हैं.
वह जाने को मुडा. पर फिर उसकी ओर देखा-
हाँ....एक और बात.
क्या...?’
नंबरों का कोई घर नहीं होता. उनका कोई पता ठिकाना नहीं होता. सारी दुनिया उनका घर है......तुम सिर्फ नंबरों को सहेज कर रख सकते हो.

दूर कहीं सुधीर के पास अपर्णा बैठी थी. उसके हाथों में अदीब के स्टडी रुम से लाये कुछ कागज़ थे, जो वह वहाँ से उठा लाई थी. कागज़ों में वही सब था. इश्क के नंबरों की वही थ्योरम. उसने बडी मुश्किल से उस थ्योरम को समझ लिया था. वह सुधीर को वह थ्योरम बाँच रही थी. उसे सफेद बोर्ड पर हाईलाइटर चलाती अदीब की उंगलियाँ दीखीं, थ्योरम और एनामेलीज़ का सही-सही जवाब निकाल लाने को आतुर बेचैन उसकी आँखें दीखीं. उसने सुधीर को चूम लिया -

'गणित के नंबरों में से इश्क की ख़ुशबू आती है.....है न.
'गणित के नंबरों को देखो तो किसी सौदाई इश्कबाज़ की याद आती है....है न.
जाने से पहले दोस्त ने अदीब के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था.

अदीब ने सधे हाथों से मार्कशीट के दो टुकडों को आग में जला दिया. इस तरह धधकती आग में जल गया उसका नाम, उसकी वल्दियत, उसकी उम्र......रफ़्ता-रफ़्ता जला था उसके घर का पता....धूँ,धूँ कर जलता रहा था उसका कालेज, विश्वविद्यालय....लपटों में भस्म होते गये थे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त...... दूर खडा दोस्त मुस्कुरा रहा था. उसने गौर से देखा था, कि इन टुकडों को जलाते समय अदीब के हाथ जरा भी नहीं झिझके.

उन तमाम राखों में जो इश्क के अनकहे अफ़साने होकर सबसे पहले चिता पर ख़ाक होते हैं. जो दफ्न होते हैं मिट्टी होने किसी अनाम कब्र में. उडते फिरते धूल और राख़ होकर. उन्हीं में शुमार थी वह राख़ भी जो कागज़ के उन टुकडों को जलाने से उठी थी, बिखरी थी दण्डकारण्य के उस बियाबान में.  

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तरुण भटनागर :
गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’ (कहानी संग्रह), लौटती नहीं जो हंसी (उपन्यास) प्रकाशित 
  • tarun.bhatnagar.71@facebook.com


तरुण की कहनियां यहाँ पढ़ सकते हैं.
बाहरी दुनिया का फालतू   
ढिबरियों की कब्रगाह  आदि

परख : महिषासुर - मिथक व परम्परा : कँवल भारती








  

वर्तमान के संघर्ष का युद्ध- क्षेत्र अतीत होता है. औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय मिथकों को अपने हितों के सहयोगी इतिहास के रूप में सृजित किया. प्रतिक्रिया में मिथकों को समझने और व्यवस्थित करने की एक और कोशिश हुई जिसमें काशी प्रसाद जायसवाल, धर्मानंद कोसम्बी, दामोदर धर्मानंद कोसम्बी, वासुदेव शरण अग्रवाल, रामशरण शर्मा, रोमिला थापरआदि की बड़ी और महत्वपूर्ण  भूमिका है. यह अंतर्दृष्टि खुद उस समय के लेखकों में थी. जयशंकर प्रसादके नाटक मिथकों को साहित्य में बदलते हुए यही तो कर रहे थे. 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने  प्रसिद्ध निबन्ध ‘अशोक के फूल’ में कहते हैं   – “प्रकृत यह है कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था. जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा. असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं.”

मिथकों के पाठ-पुनर्पाठ की प्रक्रिया अभी थमी नहीं है अब इन्हें ‘वर्चस्ववादी अभिजात्य पाठ’ के बरक्स रखकर समझा जा रहा है. वह समय भी आएगा जब इनका एक ‘स्त्री-पाठ’ भी सामने होगा.

प्रमोद रंजन के संपादन में प्रकाशित-‘महिषासुर : मिथक और परम्पराएँ’एक ऐसी कृति है जिसमें यात्रा, मिथक, संस्कृति का पठनीय और विचारणीय कोलाज़ मौजूद है. बेहद सरस, रोमांचक, और सोच- समझ को विस्तृत करने वाली यह कृति एक उपलब्धि की तरह है. इसका समीक्षा वरिष्ठ साहित्यकार कंवल भारती ने लिखी है.


क्या महिषासुर मिथक है                   
कँवल भारती


लाहाबाद विश्वविद्यालय में दलित साहित्य का एक शोध छात्र उस समय दुविधा में पड़ गया, जब दलित साहित्य में मिथकों का अध्याय उसे लिखना था. उसने अन्य अध्याय तो लिख लिए थे, पर मिथकों पर लिखने के लिए उसे कोई सामग्री नहीं मिल रही थी. उसने दलित साहित्य के कुछ बड़े लेखक को फोन करके जानकारी मांगी. जैसा कि उसने मुझे बताया, उसे कोई जानकारी नहीं मिली. अधिकांश ने कहा कि हम मिथक में विश्वास ही नहीं करते, तो कुछ ने दलित साहित्य में मिथकों पर काम होने से ही इनकार कर दिया. उसने मुझसे भी यही सवाल किया कि क्या दलित साहित्य में मिथकों पर काम नहीं हुआ है? मैंने कहा, ‘मिस्टर दलित साहित्य तो पैदा ही मिथकों से हुआ है. कौन कह रहा है कि मिथकों पर काम नहीं हुआ है.फिर मैंने उसे विस्तार से बताया.

मिथक पौराणिक कहानियों को कहते हैं. इन मिथकों पर सम्भवता: पहला बड़ा काम जोतिराव फुलेने किया था. उनकी किताब गुलामगिरीमिथकों का ही तार्किक विवेचन है. उन्होंने हिन्दू अवतारों के मिथकों के आधार पर ही मूलनिवासियों का इतिहास लिखा. दलित चिन्तन की मान्यता है कि भले ही मिथक इतिहास नहीं हैं, परन्तु उनमें इतिहास जरूर है. मिथकों पर दूसरा बड़ा काम डा. आंबेडकरने किया. उन्होंने मिथकों के अपने अध्ययन से ही आर्य-अनार्य-संघर्ष के इतिहास का विश्लेषण किया. वे पहले चिंतक थे, जिन्होंने दानव, राक्षस, दैत्य, किन्नर, नाग, यक्ष आदि असुर जातियों को मानव माना और उनके ऐतिहासिक संघर्ष को रेखांकित किया. 


डा. आंबेडकर ने दो तरह के धर्मशास्त्र माने थे, एक मिथिकल यानी पौराणिक और दूसरे सिविल यानी मानवीय. पौराणिक धर्मशास्त्र वे हैं, जिनमें देवताओं और उनकी लीलाओं (कारनामों) के वर्णन में कल्पना का समावेश रहता है. उन्होंने अपनी पुस्तक रिडिल्स इन हिन्दूइज्ममें हिन्दू मिथिकल थियोलोजी का गहन तार्किक विश्लेषण किया है. पहली बार डा. आंबेडकर ने ही सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली इन पांच देवियों के शौर्य और युद्ध पर सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि वैदिक देवियों ने कोई युद्ध क्यों नहीं लड़ा और पौराणिक देवियों ने ही क्यों युद्ध लड़ा? दूसरा प्रश्न उन्होंने यह उठाया कि ब्राह्मणों ने मात्र दुर्गा को ही वीरांगना क्यों घोषित किया, जिसने असुरों का संहार किया था? इन सवालों ने मिथकों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया.

हाल में प्रमोद रंजनके सम्पादन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक महिषासुर : मिथक व परम्पराएँफारवर्ड प्रेस और दि मार्जिनाइज्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई है, जिसमें दुर्गा और महिषासुर के मिथकों पर एक जीवंत इतिहास की यात्रा मिलती है. यद्यपि यह पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है, जो यात्रा वृतांत, मिथक व परम्पराएँ, आन्दोलन किसका, किसके लिए, असुर और साहित्य नाम से हैं, जबकि छठा खंड परिशिष्ट है, जिसमे महिषासुर दिवस से सम्बन्धित तथ्य दिए गए हैं. किन्तु इस पुस्तक में सबसे महत्वपूर्ण खंड यात्रा वृतांत है, जिसमें प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार औरअनिल वर्गीज की यात्राओं के वर्णन हैं.

प्रमोद रंजन ने इतिहास और पुरातत्व की नजर से सुदूर इलाकों में महिषासुर की खोज की है. यह बहुत ही दिलचस्प और रोमांचित कर देने वाला वृतांत है. इस वृतांत पर चर्चा करने से पहले किताब की भूमिकासे एक उद्धरण देना जरूरी है, जो महिषासुर के प्रति आदिवासी समाज की आस्था को दर्शाता है. प्रमोद रंजन लिखते हैं— 
कर्नाटक, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, ओड़िसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और गुजरात से सैकड़ों जगहों पर महिषासुर दिवस मनाए जाने की सूचनाएं आ रही हैं. लेकिन पहली बार ऐसी सूचनाएं भी आ रही हैं कि आदिवासियों ने महिषासुर और रावण के अपमान के खिलाफ थाने में शिकायत देकर स्थानीय दुर्गा-पूजा समिति पर कार्रवाई की मांग की. जय महिषासुरऔर जय राजा रावणके नारों के साथ (लोग) सड़कों पर उतरे भी तथा (उन्होंने) थाने व स्थानीय अधिकारियों का घेराव भी किया. कुछ राज्यों में विभिन्न संगठनों के लोगों ने सामूहिक रूप से अधिकारियों को आवेदन देकर दुर्गा-पूजा बंद करने की मांग की है. इस तरह के आवेदन देने वालों में निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं. दूसरी ओर देवी दुर्गा के अपमान को लेकर भी मुकदमे और पुलिस प्रताड़ना का सिलसिला जारी है. इस महीने (अक्टूबर 2017) दिल्ली, बुलंदशहर, जमशेदपुर, वर्धा, दादरा और नगरहवेली समेत कई जगहों पर दुर्गा के अपमान के मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए हैं. झारखंड में कुछ जगहों पर पुलिस ने महिषासुर दिवस को रोकने की कोशिश की है.

महिषासुर के प्रति यह आस्था आकस्मिक नहीं है, वरन इसके पीछे उस इतिहास की परम्परा है, जो लिखी नहीं गई, और नष्ट कर दी गई. इसी परम्परा की खोज प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार और अनिल वर्गीज की यात्राएँ करती हैं. पहले प्रमोद रंजन की यात्रा को देखते हैं. महोबा में महिषासुरशीर्षक के अंतर्गत वे लिखते हैं, ‘हमारे पास दो तस्वीरें हैं. एक तस्वीर में पत्थर का एक ढांचा है, जो न मन्दिर की तरह दिखता है, न ही घर की तरह. वह पत्थर की अनगढ़ सिल्लियों से बनी छोटी सी झोंपड़ी जैसा कुछ है. दूसरी तस्वीर में किसी सड़क पर लगा एक साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है—‘भारत सरकार : केन्द्रीय संरक्षित स्मारक, भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, लखनऊ मंडल, लखनऊ, उपमंडल महोबा, उत्तरप्रदेश.

ये दोनों तस्वीरें उन्हें इंडिया टुडे के पीयूष बाबेले ने 16अक्टूबर 2014को भेजी थीं. थोडा अप्रासंगिक जरूर लगेगा, मुझे याद आता है, लखनऊ में भी एक इलाका भैंसाकुंड के नाम से है. किसी समय यह ग्वालों का क्षेत्र रहा था. अगर खोज की जाय, तो भैंसाकुण्ड का सम्बन्ध भी महिषासुर से निकल सकता है. खैर. प्रमोद रंजन के पास यही दो तस्वीरें थी, जिन्हें खोजते हुए वे अपने साथी राजन के साथ महोबा पहुँच गए. यह कोई लक्जरी यात्रा नहीं थी, बल्कि रेल, बस, टेम्पो, ऑटो रिक्शा और पैदल की यात्रा थी. दिल को लगी हो, सो राहुल सांकृत्यायन की तरह लुटिया-डोर उठाकर पैदल भी चला जा सकता है, ऐसे लोग ही पत्थरों में से हीरा खोज लाते हैं, वरना तो लक्जरी कारों और हवाई जहाजों से बुद्धिजीवी यात्रा करते ही रहते हैं, और उनके हाथ कुछ नहीं लगता है. भटकते हुए तस्वीरें दिखाते हुए वे कुलपहाड़ पहुँचते हैं, तो पता चलता है कि यहाँ ऐसा कोई मन्दिर नहीं है. लेकिन वे निराश नहीं हुए. लोगों ने उन्हें कुलपहाड़ से 70-80किलोमीटर दूर चौका नामक स्थान पर भेज दिया. सम्भावना वहाँ भी नहीं थी. पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, एक ऑटो रिजर्ब किया और चौका के लिए रवाना हो गए. वे मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश करके हरपालपुर पहुँच गए. जब वे झांसी की ओर बढ़ने लगे, तो अचानक उन्हें हाइवे पर एक साइनबोर्ड दिखा, जिस पर वही लिखा था, जो उनके पास तस्वीर में था— ‘भैंसासुर स्मारक मन्दिर, चौका तहसील, कुलपहाड़, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण.वे लिखते हैं, हम ख़ुशी से चीख पड़े. हम इतने प्रसन्न थे कि उस बोर्ड के साथ विक्ट्री साइन बनाते हुए एक-दूसरे की कई तस्वीरें उतार डालीं.

साइन बोर्ड के साथ तस्वीरें लेने के बाद वे उस जगह गए, जहाँ भैंसासुर स्मारक मन्दिर था. वे लिखते हैं कि एक ऊँचे टीले पर स्थित पत्थरों का वह ढांचा किसी कोण से भी मन्दिर की तरह नहीं दिखता था. मुख्य ढांचा एक छोटे कमरे जैसा था, जो प्राचीन प्रतीत होता था. उसमें एक द्वार था, जिस पर पुरातत्व विभाग ने लोहे का गेट लगवा दिया है. जिस गाँव में यह मन्दिर स्थित है, वह कोइरी (कुशवाहा) बहुल गाँव है. उसके बाद अहिरवारों की संख्या है, कुछ घर ब्राह्मणों और राजपूतों के हैं. आसपास के गाँव में पाल जाति के लोग बहुसंख्यक हैं. लेकिन पूरा गाँव गरीबी में डूबा है. गाँव में एक सुसज्जित दुर्गा मन्दिर भी है, जिसमें लोग खूब पूजा करते हैं, परन्तु भैंसासुर मन्दिर में कोई पूजा नहीं करता है. [पृष्ठ 21]
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(भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित भैंसासुर स्मारक मंदिर )

महोबा में घूमते हुए उन्हें गोखर पहाड़ी पर गोरख मन्दिर मिला. पता चला कि यहाँ गोरखनाथ ने अपने शिष्यों के साथ कुछ वर्षों तक प्रवास किया था. वहां एक गोरखपंथी साधु से उन्हें पता चला कि जहाँ से पहाड़ी पर चढ़ने का रास्ता है, वहीँ शंकर मन्दिर के सामने वाली जमीन पर मिटटी के एक बड़े त्रिभुजाकार आधार के ऊपर मिटटी की पांच छोटी आकृतियाँ बनी हैं, वही महिषासुर मन्दिर है. उन्होंने साधु के साथ अपनी लम्बी बातचीत को दर्ज किया है. उसके अनुसार इस इलाके में महिषासुर की पूजा मुख्य रूप से यादव और पाल लोग करते हैं. वे गाय-भैंसों के लिए पूजा करते हैं. साधु बताता है कि महोबा में गाँव-गाँव में महिषासुर के स्थल हैं. राजस्थान के झांझ में हैं. वहां वे कारस देव के नाम से जाने जाते हैं. उसके अनुसार कारस देव महिषासुर के भाई थे. उसने यह भी बताया कि मैकासुर के दो भाई भी थे. छोटे भाई का नाम उसे याद नहीं आ रहा था. पर बड़े भाई का नाम उसने अजय पार बताया. उसने कहा कि उनकी मड़ैया भी यहीं थोड़ी दूर पर है. महिषासुर, मैकासुर, कारस देव, करिया देव सब एक ही हैं. यहाँ इन्हें ग्वाल बाबा भी कहते हैं. [पृष्ठ 29]

गोरखपंथी साधु ने उन्हें महोबा के आसपास के गांवों में मौजूद कुछ प्रमुख महिषासुर स्थलों का भी पता बताया, जिसके बारे में प्रमोद लिखते हैं, वह एक ऐसी गुप्त सुरंग साबित हुई, जिसके भीतर से अनेक सुरंगें फूटती थीं और अंत में सभी प्राचीन काल की एक विशाल असुर-सभ्यता, उनकी उन्नत कृषि व पशुपालन तकनीक, प्रकृति-प्रेम, समतामूलक जीवन-मूल्य और अंत में एक भयानक हिंसा की ओर इशारा करते हुए बंद हो जाती थी. [पृष्ठ 30]

पहली सुरंग उन्हें महोबा में ही मिली, कीरत सागर के तट पर. लगभग तीन-चार सौ गज जमीन के चारों ओर बाउंड्रीवाल थी, जिसमें दो फुट का दरवाजा था. उसके ऊपर लिखा थाप्राचीन मैकासुर मन्दिर. पर उसमे न कोई भवन था और न कोई मूर्ति थी. केवल कोणस्तुपाकार की सात आकृतियाँ थीं. उन्हें एक ढाबे वाले ने बताया कि मैकासुर पशुओं को ठीक करते हैं. यहाँ लोग दूध और फूलगोभी चढ़ाते हैं. यहीं से उन्हें मोहारी गाँव में नवनिर्मित मैकासुर मन्दिर का पता चला. प्रमोद लिखते हैं कि जब वे मोहरी पहुंचे, तो देखा कि वहां भी कोई मन्दिर नहीं था. स्थापत्य की दृष्टि से तो कतई नहीं. यहाँ सीमेंट का एक चबूतरा था, जिस पर चार खम्भों की छत थी. एक भैस या भैसा की मूर्ति थी, जिसके दाहिने ओर घोड़े की लगाम पकड़े हुए एक महिला की मूर्ति थी. ऊपर मोर और एक ताख था.’ [पृष्ठ 32]

यहाँ प्रमोद रंजन कुछ प्रश्न उठाते हैं—‘क्या इस भूमि पर वास करने वाले लोग अपने को सांस्कृतिक रूप से भैंसा (महिष) से जोड़ते थे? क्या भैंसा उनका गोत्र चिन्ह था? या फिर महिषराजा, गणनायक का पर्याय है? लेकिन यह रमणी कौन है और मैकासुर के पास क्या कर रही है?’ वे यहाँ डीडी कौसम्बी को उद्धृत करते हैं—‘महोबा क्षेत्र में दुर्गा कहीं म्हसोबा (महिषासुर) का मर्दन (हत्या) करती दिखती है, तो कहीं वही उनकी संगिनी अथवा पत्नी के रूप में भी मौजूद है.इससे स्पष्ट है कि दुर्गा उसी अनार्य समुदाय की थी, जिसके महिषासुर थे. प्रमोद सवाल करते कि यह आर्यों का घोड़ा क्या है? क्या इस रमणी ने किसी प्रलोभन या दबाव के कारण महिषासुर की संगिनी बनने का स्वांग रचा था? [पृष्ठ 33]

वे आगे महत्वपूर्ण सूचना देते हैं— ‘मोहारी गाँव में अन्य मन्दिरों में ब्राह्मण पूजा करवाते हैं. लेकिन मैकासुर का पुजारी पाल जाति का ही हो सकता है. गड़रिया, कोइरी, अहीर और लोध समेत तमाम ओबीसी-दलित जातियां इनकी पूजा करती हैं. दलितों में अहिरवार इन्हें ज्यादा मानते हैं. धीरे-धीरे इन्हें शंकर का रूप दिया जा रहा है. गाँव में अलग-अलग जगहों पर जाकर हमने बुजुर्गों से पूछा कि इस इलाके में दुर्गा-पूजा कब आरम्भ हुई? सबका कमोबेश एक ही उत्तर था महज 15-16साल पहले. [पृष्ठ 34]

महोबा से वे खजुराहो पहुंचे. वहां वे एक मन्दिर में सींग के मुकुट और भैंस के चेहरे वाली मूर्ति को देखकर चकित रह गए. उस मूर्ति के चार हाथ थे, ऊपर उठे बाएं हाथ में त्रिशूल था, तो दाएँ हाथ में कोई अन्य वस्तु, शायद कोई अस्त्र.  सिर के ऊपर गोंडी धर्मचिन्ह जैसी कोई आकृति. पैरों की ओर झुका हुआ बायां हाथ कुछ देने की मुद्रा में सामने की ओर खुला हुआ व दाहिने हाथ में कमंडल जैसा कोई पात्र. वे लिखते हैं कि मन्दिर में इस तरह की लगभग एक दर्जन मूर्तियाँ थीं. वहां उन्हें खजुराहो की मूर्तिकला पर शोध करने वाली हिंदी लेखिका शरद सिंह ने उनको नंदी की मूर्तियाँ बताया. किन्तु प्रमोद का मत है कि जिस बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में महिषासुर के मन्दिर हैं, जिनके भैंसासुर, मैकासुर, कारस देव, ग्वाल बाबा आदि अनेकों नाम हैं. और यहाँ से 70किलोमीटर की दूरी पर चौका सोरा गाँव में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर स्मारक मन्दिरहै. ऐसे में इन मूर्तियों में भैंस का चेहरा होने की सम्भावना अधिक है या बैल होने की?’प्रमोद मानते हैं कि भारतीय मूर्ति व स्थापत्य कला पर बहुत कम काम हुआ है. गुणवत्तापूर्ण प्रामाणिक शोध तो नगण्य ही है. आने वाले समय में जब इस दिशा में बहुजन तबकों से आने वाले शोधार्थी सक्रिय होंगे, तो वे ब्राह्मणेत्तर परम्पराओं के आलोक में सही तथ्यों को पहिचानेंगे. [पृष्ठ 43-47]

अपनी यात्रा के निष्कर्ष में प्रमोद रंजन ने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं. वे कहते हैं, ‘बुंदेलखंड में  महिषासुर से सम्बन्धित जो बहुजन-श्रमण परम्पराएँ हैं, उनमें और ब्राह्मण परम्पराओं में एक बड़ा अंतर यह दृष्टिगोचर हो रहा है कि उनके ईश्वर मन्दिरों में रहते हैं, उन्हें रहने के लिए भवन चाहिए. किन्तु बहुजन-श्रमण परम्परा में ईश्वर है ही नहीं, पुरखे हैं, जो इनके घरों, खेतों और खलिहानों में रहते हैं, प्राय: खुले में. ब्राह्मण परम्परा में ईश्वर मूर्तियों में निवास करते हैं. उन्हें मूर्तियों के माध्यम से मानव का रूप दिया जाता है. बहुजन-श्रमण परम्परा में मूर्तियाँ प्राय: नहीं होतीँ हैं, चबूतरे होते हैं, जो शायद आरम्भ में विशिष्ट स्थल को चिन्हित भर करने के लिए बनाये जाते होंगे. बहुजन-श्रमण परम्परा में उनके पुरखे उनके जीवन और कार्यों का हिस्सा हैं, वे उन पर आते हैं, उनसे बात करते हैं. [पृष्ठ 49]

यह महिषासुर : मिथक व परम्पराएँपुस्तक का एक छोटा सा परिचय है. इस सम्बन्ध में नवल किशोर कुमार के छोटानागपुर के असुरऔर अनिल वर्गीज के लेख राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्रतलाश महिषासुर कीविशेष प्रकाश डालते हैं. इसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख गौरी लंकेश का महिषासुर : एक पुनर्खोजभी पठनीय है.
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कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आम्बेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं. दलित साहित्य की अवधारणा’ ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिताआदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं.उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था.
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अम्बर रंजना पाण्डेय की कविताएँ




























Vita, orrenda cosa che mi piaco tanto
-Aldo Palazzeschi

1.
ट्रैफ़िक
कोलाहल भी शब्द है क्योंकि इसमें अनेक अर्थों की अनुगूँज है ऐल्यूमिनीयम के रंगवाले धुँए से भरी. रात चकाचौंध है. असंख्य इंजनों के शोर में कुछ तो है जो फ़िल्टर होकर गूँजता है अंदर- शब्द का भी कोई सूक्ष्म तत्त्व, अर्थ बहुत स्थूल लगता है उसके आगे. ट्रैफ़िक का शोरगुल, ध्वनि के क्यूब कोई जमा देता है प्रत्येक दिन, रात को डेढ़ बजते बजते दिखाई नहीं पड़ते होते वहीं है जैसे दोपहर के सवा दो बजते बजते, बहुत ज़्यादा ट्रैफ़िकवाली सड़क की तरफ़ बने मकान में, जिसकी दीवारें काग़ज़ से भी पतली हो गई है- फ़िल्म के किसी दृश्य में एक किशोरी किसी बयालीस साल के पुरुष से प्यार करने आती है- वही दृश्य है मेरी अंतिम आशा- वयस्क सिनेमाओं के आँखों में  चलते ट्रैफ़िक में- एकमात्र. इतनी भीड़ है कि भीड़ में इच्छाएँ  साफ़ साफ़ दिखती हैं- बिना फ़िल्टर के फ़ोटोग्राफ़ की तरह.



2.
ध्वनि स्थगन
ध्वनि स्थगन ही संगीत था- विशुद्ध, अद्वय किंतु युवा. अंदर १७ डिग्री सेल्सियस तापमान की वायु इतनी स्थिर कि वह और मैं उसे मेरे दाढ़ी बनाने के आवर्धक दर्पण में देख सकते है स्नानगृह में. बाहर प्रचंड धूप और दिगंत में स्थिर हवाईयान. प्राणायाम से श्वासनली साफ़ और खुली हुई है कोई आवाज़ नहीं. चुम्बन भी ध्वनिहीन. इतना निस्संग हूँ. अब इतनी नीरवता कि कोई नहीं आता इस तरफ़. तीव्र कामावेग जो दो होने पर ही था अब जब कोई दूसरा नहीं तब शान्त है सब; फ्रिज में काँच की बोतल में रखे उबले हुए पानी की तरह.


3. 
ह्रदय के सड़े हुए भाग का विवरण
सेबफल पर लगे घाव की तरह बहुत जल्दी लाल होता है. सेबफल तो फल भी नहीं- वनस्पति के डिंबाशय का पूर्णपक्व भाग. ह्रदय डिंबाशय का सबसे कच्चा, कठोर और संकुचित भाग है. पुरुषों में ह्रदय अदृश्य डिंबाशय का भाग है. किसी भी प्रकार के कीटाणु, विषमय रसायन, पारद से भरी वायु, प्रेम, आलोक के आने की जगह नहीं है जहाँ पर ह्रदय है. तब भी ह्रदय का भाग किसी रात्रि अख़बार पढ़ते या दिन की रसीदें देखते हुए सड़ने लगता है. निर्वात में इसकी कोशिकाएँ मटमैले तरल पदार्थ से भरकर फूल जाती हैं. देर तक देखने पर वह कोशिकाएँ कीटों की तरह दिखती है कीट होती नहीं है.



4.
पण्डितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर पूर्ण करने के पश्चात
यहीं पंचमंदाकिनी घाट पर
दिलआरा बेगम के पीछे प्राण दे दिए थे
जब मथुरा के किसी भटकते चौबे ने उन्हें स्मरण कराया था कि विप्रलब्ध में वह कितने कृशकाय हो गए है
वह तेज़ी से घाट का जीना उतरते
गंगा जहाँ सबसे गहरी थी
जहाँ जल सबसे अधिक श्याम
और सबसे अधिक शीतल था- वहाँ डूब मरें
उस समय जहांगीर को कहाँ ज्ञात था
कि उसकी सभा के पण्डितराज ने
रक़ीबपसंद दिलआरा बेगम के पीछे प्राण दे दिए
तब उसे यह भी ज्ञात नहीं था
कि जिस दीवार पर गुलदावदी का हार पहने
अपनी छाँह को देखकर
पण्डित जगन्नाथ को दिलआरा बेगम का भ्रम हुआ था
बेनीमाधौ का वह मंदिर उसका पोता एक दिन गिरवा देगा
प्रेम में और राजा बनकर
तब अंधे होने का चलन था
आज भी है.


5.
काशी की मेरी एक पूर्व प्रेयसी का  पत्र

गंगा तक भी पहुँच नहीं पाओगे
कवि तुम मरोगे काशी की किसी कीचभरीअँधेरी, खुलते है जिस ओर पुरानी चाल के शौचालय मंदभाग्य गली में
इसी गली के दाएँ से दूसरा
जो गृह है भारतेंदु की गुप्त रखेली का
इस भवन के सरिए हिल चुके है
बारियाँ खोलो तो छत हिलती है
हिण्डोलों की तरह
यहीं पर कितनी रात्रियाँ
छुपकर अपने पति से, सास-ननदों से,
जेठ-बहनोई से, मोदी के भक्तों से
कॉग्रेसियों से जो ख़ुद को वामपंथी बताते थे
मैं आई तुमसे मिलने- कोई बूढ़ा
इसी गली में ठीक उसी समय जब मैं आती थी
न जाने क्यों बजाया करता था राग श्री
सुनकर ही ह्रदय उचट जाता था
एमए हिंदी में पढ़े अभिसारिकाओं के सब
प्रसंगों से
कान ऐसे लाल हो जाते जैसे किसी पूर्व प्रेमी ने
उमेठे हो; जान मैं तुमसे मिलने आती हूँ
और कानों को छूते मेरे कज्जलपेटिका से नयन
कभी इधर देखे कभी उधर
शुकदेव पंडित की चेली की तरह
दूर, पान खाता कोई शराबी समझता
हाव-भाव दिखा रही हूँ उसे
कहता, 'ताल ऊँची नीची आगे पीछे है बिटिया'
जो अपने-पराए वाक्य में भेद नहीं करता
जो आभरनों को जल्दी से जल्दी
उतार देना चाहता हो
जो इतना लठैत हो कि वस्त्र खोलने में
तनिक भी देर न करता हो
जिसे उल्लुओं और चमगादड़ों से भरे भग्न भवन में
एक दोपहरी नये ख़रीदे वेनिस के दर्पण के ऊपर
अपने मोबाइल से आलोक कर
चुम्बन लेने और अपनी स्त्री के नितम्बों को
रामलीलावालों से चुराए गए लीलाकमलों से
प्रताड़ित करने में
कोई लज्जा न हो, वह हो नहीं सकता कवि
जिसके लिए मेरा अपने देवताओं जैसे पति से
छल करना, जिसके लिए अपनी संतति को
सोता छोड़ आना, उससे मिलना
केवल कविता का विषय हो
और वह ढीठ, मेरा नाम- पति सहित मेरा नाम
'कविता केशव शुक्ल'लिखकर कविता बनाए
और उसे प्रेमचंद की पत्रिका में प्रकाशित करें
वह हो ही नहीं सकता कवि
और इस प्रेमचंद की ऐसी की तैसी.

दामोदर गुप्त   तुम्हारे प्रेम में
नहीं घुघरुओं के विकट कोलाहल के कारण
सो नहीं सका कभी

लौटकर बम्बई में बाबुलनाथ शिवालय के निकट
अपने घर में भी नींद नहीं आई
लेमिंगटन रोड पर भटकता रहा पूरी पूरी रात
एक बोहरों की धर्मशाला से आता था
घुँघरुओं का ताल दीपक में मढ़ा शोर, थोड़ी थोड़ी आँख लगती

तब नींद में बड़बड़ाता, बनारस की सबसे बदनाम सबसे
बेवफ़ा नारी से क्यों किया प्रेम
तुम इस ज़माने में भी तीन छत्ता, वाराणसी पोस्ट ऑफ़िस से
लम्बे लम्बे पत्र लिखती

'अम्बर, प्रेम में नारी बदनाम होती है
मर्द मशहूर होता है.'
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मसीह अलीनेजाद से बातचीत : वर्षा सिंह







मसीह अलीनेजादअब किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं. औरतों की आज़ादी और खुदमुख्तारी के लिए उनका संघर्ष ईरान से निकलकर पूरी दुनिया में फैल चुका है. मसीह अलीनेजाद से बात की है लेखिका और पत्रकार वर्षा सिंह ने.




एक ईरानी लड़की की जंग और हमारी बातचीत               
वर्षा सिंह


फेसबुक पर एक खूबसूरत और आज़ाद ख्याल पन्ना है जिसने दुनियाभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. इस पन्ने का नाम है "my stealthy freedom", यानी मेरी छुपी हुई आज़ादी. ये पन्ना एक ईरानी आज़ाद ख़्याल लड़की और पत्रकार मसीह अलीनेजाद ने बनाया. मसीह ने इस पन्ने में अपनी तस्वीरें साझा कीं. हम ईरान की बात कर रहे हैं. जहां एक लड़की खुल कर दुनिया के सामने नहीं आ सकती. तस्वीरें साझा करना तो दूर की बात है. मसीह ने हिम्मत दिखाते हुए खुले बालों में अपनी तस्वीरें इस फेसबुक पन्ने पर डालीं. ईरान में लड़कियों के लिए ये अपराध समान माना जाता है.


मसीह के लिए ये करना आसान नहीं था. उसने एक कदम आगे बढ़ाया और उनके साथ कई और सहेलियां भी इस पन्ने पर आ जुड़ीं. उन्होंने भी अपनी आजाद ख्याल तस्वीरें इस फेसबुक पन्ने पर डालीं. हर तस्वीर के साथ पन्ने पर लाइक्स की गिनती बढ़ती रही. हम भी इसी तरह इस पेज पर पहुंचे. लगा कि ये बात जितने ज्यादा लोग जानें उतना ही अच्छा है. क्योंकि हमारे यहां भी लड़कियों के हाल, ईरान से बेहतर तो हैं, लेकिन बहुत अच्छे नहीं. हमारी आजादी अभी आधी अधूरी, नकली और दिखावटी ज्यादा है. खुद आत्मनिर्भर लड़कियां भी अपनी गुलाम सोच से मुक्त नहीं. तो चलिए मसीह से बात करते हैं. इंटरनेट ने उनसे बातचीत की सुविधा उपलब्ध कराई. ईमेल पर साक्षात्कार हुआ. मसीह की इस मुहिम से जुड़े वाहिद युसेसॉय (Vahid Yücesoy)ने उनकी ओर से ये जवाब दिए.



सवाल 1. मसीह ये पूरी मुहिम कैसे शुरू हुआ?  कब शुरू हुई?इस तरह की मुहिम शुरू करने का ख्याल कैसे आया?




इस मुहिम की शुरुआत करीब दो साल पहले हुई जब मसीह ने बिना किसी नकाब के अपनी एक तस्वीर फेसबुक पर साझा की. इस तस्वीर में वो अपने बालों में हवा को महसूस कर रही थीं और ये एक तस्वीर के रूप में बहुत खूबसूरत था.
पश्चिम की दुनिया में मसीह जिस आजादी को जी रही थीं, ईरान की उसकी महिला मित्रों को इस पर जलन महसूस हुई. मसीह ने उन्हें भी लोगों की नजरों से दूर, चोरी छिपे कमाए, अपने ऐसे ही आजाद लम्हों की तस्वीरें साझा करने का सुझाव दिया. उसने ईरान में ली हुई अपनी एक तस्वीर भी साझा की. इस तस्वीर में गाड़ी चलाने के दौरान उसने अपना नक़ाब हटा दिया था. बस इसके कुछ देर बाद ही, उसका निजी फेसबुक पन्ना ऐसी तस्वीरों से भर गया जिसमें तमाम ईरानी महिलाओं ने सार्वजनिक स्थलों पर बिना किसी नक़ाब के अपनी तस्वीरें ली थीं. इस तरह मसीह के इस जोरदार मुहिम ने जन्म लिया.



सवाल 2.क्या इस मुहिम का कोई ठोस उद्देश्य था ?
इस मुहिमा का मूलभूत उद्देश्य बहुत सीधा सा था- इसका मक़सद ईरानी महिलाओं को अपने'चुनने का अधिकार'हासिल करना था कि वे नकाब पहनना चाहती हैं या नहीं. ईरानी महिलाएं पिछले तीन दशक से इस मूलभूत अधिकार से वंचित हैं. ईरान का मीडिया भी औरतों की इस आजादी के बारे में रिपोर्टिंग करने को इच्छुक नहीं है. यहां तक कि ईरान के सुरक्षा बलों ने खुद ये स्वीकार किया है कि उन्होंने वर्ष 2014 में 3.6 मिलियन से अधिक औरतों को खराब तरह से नक़ाब पहनने को लेकर चेतावनी दी है. इस मुहिम का मकसद यही था कि नक़ाब पहनना जरूरी करना महिलाओं पर जुल्म की सबसे उजागर तस्वीर थी. हालांकि, हम नक़ाब के खिलाफ नहीं हैं. हम अपने 'चुनने के अधिकार'को प्रोत्साहित कर रहे हैं.



सवाल 3. ईरान की सरकार इस मुहिम को कैसे देखती है?
जब यह मुहिम शुरु हुई, ईरान के अधिकारी पहले तो मसीह लीनेजाद को बदनाम करने की कोशिश में जुट गए. उन्होंने आरोप लगाया कि लंदन के एक ट्यूब स्टेशन में मसीह का उसके बच्चे के सामने बलात्कार हुआ, जिसकी वजह से उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. उसकी वेबसाइट पर ही लगातार ईरान की साइबर आर्मी के हमले होते रहे. उसका फेसबुक अकाउंट चोरी किया गया. उसके पास सैंकड़ों की तादाद में अवांछनीय ईमेल आए. सत्तासीन लोग साफतौर पर इस मुहिम की बढ़ती लोकप्रियता से नाराज दिख रहे थे.



सवाल 4.  क्या इस मुहिम के प्रतिभागियों ने अब तक किसी तरह का खतरा झेला हैं?अगर हां, तो क्या आप कुछ उदाहरण दे सकती हैं.
हमारी जानकारी के मुताबिक, हमारे साथ अपनी तस्वीर साझा करने वाली किसी भी प्रतिभागी ने किसी तरह खतरे का कोई सामना नहीं किया है. यह कहा जाता है, ईरान में एक औरत होना और लैंगिक समानता के लिए लड़ना अपने आप में खतरे वाली बात है. तो अपनी तस्वीरें हमें भेजकर उन्होंने कुछ ऐसा अलग नहीं किया जो वो अपनी रोज़ की ज़िंदगी में किया करती थीं.



सवाल 5. ईरानी महिलाएं ड्रेस कोड के खिलाफ अभी क्यों हैं?ईरान में ड्रेस कोड संबंधित नियम 1979 की क्रांति के समय से ही लागू हैं. तो अभी क्यों?ईरानी समाज में क्या बदलाव आ रहे हैं?
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वास्तव में, ड्रेसकोड का पक्षपाती नियम ईरान में तीन दशक से अधिक समय से लागू है. इस मुहिम को शुरू करने के समय को लेकर हम कम से कम दो वजहें बता सकते हैं. सबसे पहले, इन वर्षों में, धर्म के नाम पर सामाजिक दबाव बनाकर ईरान की बर्बादी के बाद जैसे जैसे लोगों ने शिक्षा हासिल की, ईरान के समाज में बेहतर बदलाव देखे गए. आम लोगों में सामाजिक रीति-रिवाज ज्यादा उदार होते गए और इससे शासन और लोगों के बीच दूरियां बढ़ती गईं. दूसरा, पहली वजह के उप-सिद्धांत के रूप में, बेहतर शिक्षा के साथ बड़ी होती नई पीढ़ी में नकाब के प्रति असंतुष्टि बढ़ने लगी. इस असंतुष्टि को एक उत्प्रेरक की जरूरत है जो इसे सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त कर सके. माई स्टेल्दी फ्रीडम यानी मेरी छुपी हुई आज़ादी कैंपेन ने इस मौजूद असंतुष्टि को पकड़ लिया और इसलिए यह मुहिम फौरन सफल हो गई. ये गौर करने वाली बात है कि धार्मिक परिवारों से जुड़े बहुत से लोग (जैसे मसीह अलीनेजाद) अनिवार्य नकाब से परेशान हो गए हैं और आवाज़ उठा रहे हैं.



सवाल 6.क्या आपके इस विरोध आंदोलन और 2009 के ग्रीन मूवमेंट में कोई संबंध है?
ग्रीन मूवमेंट समाज के बहुत सारे वर्गों में व्यापक पैमाने पर सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्य को लेकर शुरू किया गया था जबकि माई स्टेल्दी फ्रीडम औरतों और उनके ड्रेस कोड को लेकर शुरु किया गया है. ग्रीन मूवमेंट अनिवार्य नकाब को लेकर कुछ भी खुलकर नहीं कहता. इस बात को कम नहीं आंकना चाहिए कि ज्यादातर लोग जो ग्रीन मूवमेंट के साथ खड़े थे, वे ईरानी महिलाओं के चुनने के अधिकार को लेकर भी साथ रहेंगे. ईरान में साफ तौर पर सामाजिक बदलाव दिखता है.



सवाल 7.आप आधुनिक ईरान में महिलाओं की स्थिति किस तरह देखती हैं?क्या यह बदल रहा है?क्या महिलाएं ये कोशिश कर रही हैं कि उनकी आवाज़ सुनी जाए?
निश्चित तौर पर बदलाव आ रहा है और ईरान की कैद में महिलाओं की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है. बहुत सारी महिलाएं कैद में हैं क्योंकि उन्होंने लैंगिक असमानता के खिलाफ आवाज़ उठाई. फेमेनिज्म शब्द को ईरान के प्रशासनिक वर्ग में बेहद तिरस्कार के भाव के साथ देखा जाता है. यहां तक कि सर्वोच्च अध्यक्ष भी फेमेनिस्ट शब्द को इस्लामिक रिपब्लिक के विरोध से जोड़कर देखते हैं.



सवाल 8. ईरान के पुरुष यहां की महिलाओं के आंदोलन को किस तरह लेते हैं?क्या वे इसे प्रोत्साहित करते हैं? आपकी मुहिम से लगता है कि वे ऐसा करते हैं, क्या ये सही है?
जिस तरह का सामाजिक बदलाव ईरान में जगह ले रहा है, यहां के पुरुष भी महिलाओं के अपनी मर्जी से कपड़े पहनने के अधिकार को प्रोत्साहित करते हैं. ईरान के शासन का कहना है कि बिना नकाब की महिलाएं, आदमियों को उकसाने का काम करेंगी, यहां तक कि जब भी वे बिना नकाब या गलत तरह से पहनी गई नकाब में महिलाओं को देखेंगे तो वे सड़कों पर औरतों के साथ बुरा सुलूक करेंगे. हालांकि, हमारे कुछ सहयोगियों ने तेहरान में ऐसे सामाजिक प्रयोगों के वीडियो भेजे हैं. इन वीडियो में, महिलाएं बिना सिर ढंके तेहरान की सड़कों पर जा रही हैं और एक भी आदमी उन पर हमला नहीं करता, न ही अपनी नापसंदगी जताता है. ये बताता है कि ईरान के पुरुष यहां की महिलाओं के चुनने के अधिकार के खिलाफ नहीं हैं, हमें पूरा विश्वास है कि हमारी इस मुहिम को समर्थन देने वाले पुरुषों की संख्या में इजाफा होगा, जैसा कि यह अब भी हो रहा है, हमें पुरुषों से लगातार समर्थन मिल रहा है.


तो ये थी मसीह से फेसबुक और फिर जीमेल पर हुई मेरी बातचीत. ईरान में नकाब पहनना अनिवार्य है. नकाब न पहनने पर या खराब तरह से पहनने पर जुर्माने से लेकर सजा तक का प्रावधान है. मसीह जैसी हमारी आजाद ख्याल सहेलियां मूलभूत अधिकार के इस जंग को लड़ रही हैं. हमारे यहां भी फेमेनिज्म की लड़ाई अभी लंबी है. जो कपड़ों से शुरू होकर, खुल सोच, सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप तक जाती है. 
__________


वर्षा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार15 वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (सहारा समयआउटलुक वेब) में  कार्यरत. 
फिलहाल देहरादून के DD News में बतौर असिस्टेंट न्यूज़ एडिटर.
ईमेल- bareesh@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : शैलेन्द्र दुबे

कृति : Gigi-scaria



कवि चित्रकार शैलेन्द्र दुबे का एक संग्रह ‘हमने ख़ुशी के कुछ दिन तय किये’ २०१५ में प्रकाशित हुआ था. शैलेन्द्र की कविताएँ अपनी भंगिमा में मुखर नहीं है पर अपने अर्थात में वे गहरी हैं. प्रकाशित कविताओ में वह मनुष्य द्वारा अर्जित अभिव्यक्ति के प्रखरतम रूप शब्दों से होते हुए कविता तक जाते हैं. ये कविताएँ सोच-विचार के तलघर तक जाती हैं, इनमें एक दार्शनिक रुझान हैं. इन कविताओं को उपलब्ध कराने के लिए समालोचन रुस्तम सिंह के प्रति आभार प्रकट करता है.



शैलेन्द्र दुबे की कविताएँ               




(एक)

पलक झपकते ही
सारा शब्द-महल
ढह गया
आँखों के सपने
बह गये
अन्तर अवाक्
मुख-नेत्र खोले
झरता रहा

शब्द-महल
कितने नाजुक हैं
भाई
अब नहीं बनाऊंगा
अपनी ही करुणा को
आँख
नहीं दिखाऊंगा

मैं
मेरा जल जाये
आत्म-प्रसन्नता बह जाये
अब शब्दों को कष्ट
नहीं दूँगा
वे प्रिय, आत्मीय हैं
आपसे ज्यादा मेरे
उन्हें व्यर्थ नहीं जाने दूँगा.






(दो)

मेरी नाल आज भी उस मिट्टी में
दबी हुई है
जन्म-मरण-कर्तव्यबोध
हिंसात्मक अहिंसक स्नेह
प्रेम भी,
प्रातः की सुवासित नम वायु
का
सजीव धड़कना भी

वृक्ष अन्य मौसम को
अन्य भूभाग पर
जड़ समेत
रोंपता है,
मिट्टी-कण, नमी छूट जाते हुए
बिलखते हैं

रच-रच कर ही प्राण पाती
जिजीविषा


  


(तीन)

समय
छिद्र से बहा था
बह रहा है
बह गया

बचे (अवशेष) में
स्थूल आशायें, इच्छायें
मछली-सी फड़फड़ा रही हैं

अनंत आकाश भी
जीवन के इस
हृदय-विदारक खेल में
न चाहकर भी
भागीदार होता है.






(चार)

विचार-आलोढन
सतह पर
क्या फेंकता है
कहना कठिनतर है,
ज्वालामुखी और अन्तःकरण
समानधर्मी हैं.






(पांच)

थकाने के लिये जरूरी नहीं
सिर्फ श्रम

अनेकों बिम्ब-प्रवाह की
बाढ़ में
सीधे-साधे सरल शब्द
हाथ ऊँचाये
बचाओ-बचाओ
चीख रहे हैं

कवि-गण अपनी कश्तियों में
डूबने-उतराने के
मनोहर दृश्य देख
ख़ुशी से आँखें भींच रहे हैं

स्व-आह्लाद समस्त दुखों को
रौंद रहा है
आती-जाती लहरों का
रूद्र-रूप
कौंध रहा है

हे कविगण!
उद्दाम वेग की धारा में
अपने-अपने अहं सिरा दो
कोई निहत्था शब्द
जो
ढंक-टंक सकता कविता में
अपनी कश्ती उधर घुमा दो
दे हाथ स्वयं
उन दीनों को
तुम ही उनको

पार लगा दो.
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शैलेन्द्र दुबे
(11 अक्टूबर, 1964)
कवि, चित्रकार

बहुवचन, साक्षात्कार, पुरोवाक, समकालीन भारतीय साहित्य, उद्भावना, हंस, प्रेरणा, प्रतिलिपि (वेब-पत्रिका) तथा अनेक अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. गद्य-कविता “सुग्राह्यता” सहित कुछ अन्य कवितायें भारतीय कविता के स्वीडी संकलन INNAN GANGES ‘FLYTER’ IN I NATTEN में प्रकाशित. वर्ष 2015 में प्रथम कविता संग्रह “हमने ख़ुशी के कुछ दिन तय किये” (सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर) से प्रकाशित.

वर्ष 1997 से चित्रकला में भी सार्थक हस्तक्षेप. अनेक सामूहिक चित्रकला प्रदर्शनियों में भागीदारी के अलावा उज्जैन की वाकणकर कला दीर्घा तथा दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में एकल प्रदर्शनियाँ. वर्ष 2003 में भारत भवन वार्षिकी चित्रकला प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक चित्र पुरुस्कृत.

इन दिनों RAJDHANI MANDIR INC, CHANTILLY, VIRGINIA, USA में कार्यरत.
संपर्क –         13930 ROCKLAND VILLAGE DRIVE,
CHANTILLY, VIRGINIA 20151 USA
ईमेल - s_dubey1@hotmail.com
मोबाइल -       703-677-5443

नेपाली कविताएँ : अनुवाद : चन्द्र गुरुंग

























(फोटो - चन्द्र गुरुंग) 


चन्द्र गुरुंग नेपाली भाषा के युवा कवि हैं. वह समकालीन नेपाली कविताओं का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद भी करते हैं. उनके किए अनुवाद समालोचन में पहले भी प्रकाशित होते रहे हैं.






नेपाली कविताएँ
______________________________________

अनुवाद : चन्द्र गुरुंग




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खुद को बेचने के बाद
बिमल निभा


एकदम से उसका बैँक बैलेंस बढ़ा.

उस के बाद, उसने हाथ बेच दिया
और खरीदा एक गर्म पंजा 
पैर बेच दिए
और खरीदा एक चमकीला जूता
माथा बेच दिया
और खरीदा एक टीका
छाती बेच दी
और खरीदा एक तमगा
दृष्टि बेच दी
और खरीदा एक चश्मा
शरीर बेच दिया
और खरीदी एक पोशाक
चेतना बेच दी, गौरव बेच दिया
विश्वास बेच दिया, आशा बेच दी
गति बेच दी, आत्मा बेच दी
और खरीदी बहुत सारी वस्तुएँ
जिसकी सूची उसने नही बनाई है.

सारे सामान को ड्रॉइंग रूम में
सजाने के बाद
एक दिन उसने सोचा
ये सारी चीजें किस के लिए ?
क्योंकि उसने तो खुद को बेच दिया है.



कालीन बुनने वालों का गीत
अविनाश श्रेष्ठ

आङ्निमा जब करधा छूती है
सब से पहले वह परिवार का खाना बुनती है, दाल बुनती है
शरीर ढकने के थोड़े से कपड़े बुनती है.

फिर आकाश बुनती है, हवा बुनती है
चाँद बुनती है, धूप बुनती है
थोड़ा-सा देश का नाम बुनती है.

पानी, नदी, पहाड़, धुंध
पक्षियों की आवाज, मिट्टी की खुशबू
जंगल की मीठी सिसकारी बुनती है
आङ्निमा जब करधा छूती है.



ठंड की रात

अविनाश श्रेष्ठ



नींद
जेब में
हाथ
डालकर
उधर
खड़ी है
चुपचाप.


फुटपाथ पर  
ठिठुरकर
काँपते हुए
नग्न
तन पर
जाग रही है
अकेली
उदास
ठंड की
रात .

 __________________
chandu_901@hotmail.com

मीमांसा : काव्य से मुक्ति : कौशल तिवारी

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by georgemckim






कविता क्या है, किसलिए है ? 
आदि की जिज्ञाषाएं प्राचीनतम है. हर भाषा के काव्यशास्त्र में इनपर कुछ न कुछ सोच – विचार आपको मिलेगा. संस्कृत काव्यशास्त्र में आनंद, सीख, यश आदि कविता के प्रयोजन माने गए हैं.  पर क्या उसका उद्देश्य ‘मुक्ति’ है.  

कौशल तिवारी ने पाश्चात्य विद्वानों को भी ध्यान में रखते हुए  इस पर रोचक ढंग से विचार किया है.   

  
काव्य से मुक्ति पुनरवलोकन                                
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कौशल तिवारी



काव्य प्रयोजन पर विचार करते हुए आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठीअपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रम्में कहते हैं- मुक्तिस्तस्य प्रयोजनम्,मुक्ति उसका (काव्य का) प्रयोजन है.

संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा में यह अभिनव विचार है.  आचार्य त्रिपाठी अन्य स्वीकृत काव्यप्रयोजनों को या तो स्वाभिमत प्रयोजन में गतार्थ मान लेते हैं या उन्हें अकिंचित्कर मानते हैं. यह मुक्ति कैसी है,तो कहते हैं-
मुक्तिश्चावरणभंगः,आवरणं च संकुचितप्रमातृत्वम्,आवरणभंग ही मुक्ति है.संकुचित प्रमातृत्व आवरण है.

आगे कहते हैं कि कवि और सहृदय दोनों प्रमाता हैं तथा उनके चैतन्य का संकोच ही संकुचितत्व है- प्रमाता च कविः सहृदयश्च,तदीयचैतन्यसंकोचः
संकुचितत्वम्. इस मुक्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए वृत्तिभाग में कहते हैं कि काव्य के श्रवण और पाठ  से,नाटक के दर्शन से तथा अन्य कलाओं के प्रत्यक्ष से प्रमाता सहृदय का चैतन्य आनन्त्य को प्राप्त होता है. आनन्त्य का यह अनुभव ही मुक्ति है. काव्यानुभूति में तो सहृदयों को प्रत्यक्ष ही मुक्ति का अनुभव होता है. काव्य की रचना करके कवि की मुक्ति होती है तथा उसका आस्वाद प्राप्त करके सहृदय की मुक्ति होती है. अन्यों के काव्यप्रयोजन के खण्डन के प्रसंग में वृत्ति भाग में तैत्तिरीय उपनिषद् की उक्ति को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि काव्यकर्म का भी आनन्दरूप प्रयोजन स्वीकार करना चाहिए.

यहां निम्न निष्कर्ष निकलते हैं-

मुक्ति ही काव्य का एकमात्र प्रयोजन है.
यह मुक्ति आवरणभंग से होती है.
काव्य की रचना से काव्य के पठन,दर्शन से चैतन्य का आनन्त्य होता है,उसका विस्तार होता है और उससे आवरणभंग होकर मुक्ति का अनुभव होता है.
यह प्रयोजन आनन्दरूप है.
 काव्य से मुक्ति कवि एवं सहृदय दोनों को होती है. अतः ये दोनों ही प्रमाता कहे गये हैं.

अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रम्के विमर्शकार डा. रमाकान्त पाण्डेय कहते हैं कि मुक्ति की यह अवधारणा प्रायः भारतीयदर्शनों या काव्यशास्त्र में व्याख्यात नहीं हुई है. वर्ड्सवर्थ आदि कतिपय आचार्य आनन्द को काव्य का प्रयोजन अवश्य मानते हैं किन्तु उनकी भी अवधारणा अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रकार की मुक्तिविषयक अवधारणा से भिन्न है. प्राचीन एवं अर्वाचीनभारतीय काव्यशास्त्रपरम्परा और पाश्चात्यकाव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में आचार्य त्रिपाठी द्वारा मान्य काव्यप्रयोजन को देखना आवश्यक है.

प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में-
प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा में स्पष्टतया कहीं भी मुक्ति को काव्य का प्रयोजन नहीं कहा गया है. किन्तु आनन्द को कहीं-कहीं काव्य के एक प्रयोजन के रूप में कहा अवश्य गया है. वामानाचार्यएवं आचार्य भोजने यश के साथ प्रीति (आनन्द) को काव्य का प्रयोजन माना है-

काव्यं सद् दृष्टादृष्टार्थं प्रीतिकीर्तिहेतुत्वात्
रसान्वितः कविः कुर्वन् कीर्तिं प्रीतिं च विन्दति

यहां हम देखते हैं कि भरत ने नाट्य की चर्चा करते हुए जिस विश्रान्तिजनन की बात कही थी कालान्तर में वही आनन्दरूप आस्वाद्य में परिणत हो गया.
आचार्य अभिनवगुप्त ने अवश्य तत्कालविगलितपरिमितप्रमातृभाव...... इत्यादि कहकर आवरणभंग एवं प्रमातृत्व पर विचार किया है. यहां ध्यातव्य है कि एक ओर आचार्य अभिनवगुप्त काश्मीर शैवदर्शन के अद्भुत आचार्य हैं और तन्त्रालोकपरमार्थसार जैसे महनीय ग्रन्थों के रचयिता हैं  तो दूसरी ओर अभिनवभारती आदि रचनाओं के माध्यम से वे साहित्य के भी मूर्धन्य आचार्य भी हैं. अतः स्वाभाविक है कि उनके साहित्य सम्बन्धी विचारों पर उनके शैवदर्शन के विचारों का प्रभाव पडा है. जिस आवरणभंग एवं प्रमातृत्व की बात तब अभिनवगुप्त एवं अब आचार्य त्रिपाठी कर रहे हैं,वह सीधा-सीधा काश्मीर शैव दर्शन से जुडा हुआ है.

प्रमाता अज्ञानवश माया को स्वीकार कर बंध जाता है. तदुपरान्त आवरणभंग हो जाने से वह मुक्त हो जाता है. शैव दर्शन में लोक रचना शिव की शक्ति (पार्वती) की क्रीडा है,जो शिव की लीला सखी होने के कारण ललिता भी कही गई हैं. इस क्रीडा में उन्हें रस या आनन्द आता है,अतः कला का प्रयोजन हुआ - आनन्द का विस्तार. आचार्य अभिनवगुप्तकी बात को ही आगे बढाते हुए मम्मटाचार्यसद्यःपरनिवृत्तये को सकलप्रयोजनमौलिभूतम् कहकर विगलितवेद्यान्तरानन्दम्की बात करते हैं. यही आनन्दप्राप्ति विकसित रूप में आचार्य त्रिपाठी जी की मुक्ति की अवधारणा बन जाती है और उसे वे सकलप्रयोजनमौलिभूतन कहकर एकमात्र प्रयोजन मानते हैं. आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पणमें पुरुषार्थचतुष्ट्यकी बात करते हुए काव्य से होने वाली मुक्ति कि ओर संकेत किया ही है- चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि काव्यादेव.

पाश्चात्यकाव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में-

प्लेटो (लगभग 437ई.पू.) का उदय एथेन्स के पतनकाल के दौरान हुआ. प्लेटो कवियों के लिए आदर्श-राज्य में प्रवेश निषेध करते हैं. प्लेटो से पूर्व होमर ने अपने काव्यों में कई स्थलों पर आग्रहपूर्वक कहा कि काव्य का लक्षण आनन्द देना है  किन्तु हेसिओड काव्य का उद्देश्य शिक्षा देना मानता था. अरिस्टो्रफेनिस ने अपनी नाट्यकृति frogsमें इन दोनों मतो के समन्वय करने का प्रयास किया. प्लेटो केवल बौद्धिक आनन्द की बात स्वीकार करता है,ऐन्द्रिय आनन्द की नहीं. अतः काव्यजन्य आनन्द, जिसका सम्बन्ध इन्द्रियों से है,उसे मान्य न था.
अरस्तू काव्य के दो प्रयोजन मानता है- ज्ञानार्जन एवं आनन्द. अरस्तू का काव्यानन्द न तो कोरा ऐन्द्रिय आनन्द है,न बौद्धिक आनन्द है,न सामान्य आनन्द है,न आध्यात्मिक आनन्द है,अपितु यह तो अनुकरणजन्य प्रत्यभिज्ञान का आनन्द है. यहां ध्यातव्य है कि प्रत्यभिज्ञा का उल्लेख काश्मीर शैव दर्शन में प्राप्त होता है. वहां प्रत्यभिज्ञा काश्मीर शैव दर्शन की एक शाखा ही है. प्रत्यभिज्ञा का शाब्दिक अर्थ है - पहले से देखे हुए को पहचानना. 

नव्य-प्लेटोवाद के उदयकाल में प्लाटिनस ने यह कहते हुए कि कविता परम चैतन्य तक पहुंचने की सीढी का काम करती है, काव्य के दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं- आनन्द और परम चेतना के सौन्दर्य का साक्षात्कार.

लांजाइनस ने अपने ग्रन्थपरिइप्सुसमें कहा है कि कवियों की असाधारण  प्रतिभा से प्रणीत लेखन पाठक के प्रबोधन मात्र के लिये नही होता अपितु उसके मन में आह्लाद उत्पन्न करने में सक्षम होता है. महान् सृजन महान् आत्मा की प्रतिध्वनि है. साथ ही लांजाइनस कहता है कि महान् काव्य वही है जो सभी को सब कालों में आनन्द प्रदान करे और समय जिसे पुराना न कर सके,वह नूतन प्रतीत होता रहे. इस प्रकार लांजाइनस के अनुसार आनन्द ही साहित्य का प्रधान प्रयोजन है.

१८वीं सदी में इंग्लैंड में नव-आभिजात्यवाद neo classicismका प्रवेश हुआ. सैम्युल जोंस,अलेक्जेंडर पॉप,जोसेफ एडिसनआदि ने साहित्य प्रयोजन के सन्दर्भ में आनन्द और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्त्व दिया. नव-आभिजात्यवादी नियम-संयम-रुढिबद्धता के विरोध में स्वच्छन्दतावाद ने जन्म लिया. विलियम ब्लेक,वर्डवर्थस,शैले,कीट्स,बायरन आदि इसी वाद से जुडे रहे. इन के  अनुसार काव्य का प्रयोजन है- आत्मसाक्षात्कार,आत्मसृजन व आत्माभिव्यक्ति.इस तरह हम देखते हैं कि मानव की मुक्ति की कामना ही कहीं न कहीं स्वच्छन्दतावाद में काव्यसृजन का प्रयेाजन बनकर उपस्थित होती है. वर्डवर्थस ने लिरिकल बैलेड्स की भूमिका में कहा कि कविता हमें आनन्द प्रदान करती है. डॉ. नगेन्द्रने रससिद्धान्त में स्वच्छन्दतावाद एवं भारतीय रससिद्धान्त की तुलना करते हुए कहा है- स्वच्छन्दतावाद का आनन्दवाद के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है. शैले,वर्डवर्थस,कॉलरिज -यहां तक कि रुग्ण कीट्स औरआस्थाविहीन बायरनमें भी आनन्द का स्वर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मुखर है. शैले की सौन्दर्य की प्रति उल्लासपूर्ण आस्था और बायरन का जीवन के प्रति अबाध उत्त्साह आनन्दवाद के ही विभिन्न रूप हैं.

स्वच्छन्दतावाद की प्रवृत्ति ने ही कलावाद का रूप धारण किया. १८१८में फ्रांस में विक्टर कूजेने कला कला के लिये  के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया. आस्कर वाइल्ड,ब्रेडलेआदि ने इस सिद्धान्त को अपना मुक्त समर्थन दिया. इस सिद्धान्त का मानना है कि कला का उद्देश्य धार्मिक या नैतिक न होकर स्वयं अपनी पूर्णता है. इसके अनुसार कला की एक मात्र कसौटी है- सौन्दर्य-चेतना की तृप्ति. कला उस सौन्दर्यानुभूति की वाहक है. काव्य का एकमात्र प्रयोजन आनन्द की सृष्टि माना गया है. काव्य से होने वाला जो आनन्द है वह पृथक् तरह का है,उसकी तुलना हम अन्य आनन्द की कोटियों से नहीं कर सकते.

इसके विपरित एक और सिद्धान्त है जो कला जीवन के लिये की अवधारणा पर चलता है. यह कलावाद को पलायनवाद,घटिया भोगवाद का समर्थक कहता है. इस सिद्धान्त के सबसे बडे समर्थकों में मार्क्सवाद है जो साहित्य का उद्देश्य मानव कल्याण भावना की अभिव्यक्ति को मानता है. लोकमंगल भावना को ही यहां साहित्य का प्रमुख प्रयोजन स्वीकारा गया है.

इस तरह पश्चिम में काव्य के प्रयोजन को लेकर दो मत प्रचलित हुए-

आनन्दवादी मूल्यों  को महत्त्व देने वाले
  कल्याणकारी मूल्यों को महत्त्व देने वाले

हिन्दी साहित्य में कला जीवन के लिये सिद्धान्त के समान ही लोकमंगल को काव्य का प्रयोजन माना,जिनमें महावीरप्रसाद द्विवेदी,मैथिलीशरण गुप्त आदि प्रमुख हैं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की है. इसके विपरित छायावादी कवियों ने काव्य को मानव-मुक्ति-चेतना कि ओर प्रवृत्त किया. सुमित्रानन्द पंत ने पल्लव की भूमिका में रीतिवाद की कठोर निन्दा की और मुक्त जीवन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया. जयशंकर प्रसाद ने काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध में रस की शैवाद्धैतवादी-आनन्दवादी  परम्परा का समर्थन किया और श्रेयमयी प्रेय ज्ञानधारा करे कविता कहा जिसमें आनन्द और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य मिलता है.

उपर्युक्त विवेचन से यह प्रतीत होता है कि आचार्य त्रिपाठीद्वारा काव्यप्रयोजन रूप में स्वीकृत मुक्ति काश्मीर शैव दर्शन की विचारधारा से प्रभावित दिखाई देती है. यद्यपि प्राचीन काव्यशास्त्र में आनन्द की बात काव्यप्रयोजन के सन्दर्भ में कहीं गई है तथापि उस आनन्द की दार्शनिक व्याख्या नहीं की गई है और न ही उसे स्पष्ट रूप  से काव्य का एकमात्र प्रयोजन कहा गया है. प्राचीन आचार्य आनन्द प्राप्ति तक आते तो हैं किन्तु उसकी विशद व्याख्या नहीं करते,न ही वे मुक्ति की अवधारणा की और बढते दिखाई देते हैं. इसी तरह पाश्चात्य विचारक आनन्द की बात करते हुए मुक्ति की अवधारणा के मार्ग पर  चलते तो हैं किन्तु उसे स्पष्ट रूप में व्याख्यात नहीं करते. यद्यपि वे इस सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्रियों से कुछ आगे हैं. आचार्य त्रिपाठी विगलितवेद्यान्तर की स्थिति को मुक्ति की धारणा तक पहुंचा देते हैं क्योंकि उस स्थिति में मुक्ति की अवस्था के समान ही स्व में स्थित हुआ जाता है.

आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठीके काव्यप्रयोजन में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य विचारणीय है कि यह मुक्ति केवल व्यक्ति की मुक्ति नहीं है अपितु यह मुक्ति सभी की मुक्ति है. लोक में कोई भी एक व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करें और दूसरा अमुक्त रहे,यह कैसे सम्भव है क्योंकि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मुक्त नहीं है. यहां आकर पाठक  उलझ जाता है क्योंकि वह तो दर्शन की परम्परा में यही पढता,सुनता आया है कि अमुक व्यक्ति ने प्राप्त की. इसका समाधान यह हो सकता है कि आचार्य त्रिपाठी जिस मुक्ति की बात यहां कर रहे हैं वह काव्य,नाट्य के पठन,श्रवण,दर्शन से होती है. नाट्य के दर्शन या काव्यों के सामूहिक श्रवण के समय यह मुक्ति व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाती है,जो दर्शनों में मानी गई मुक्ति से भिन्न अलौकिक ही है. महनीय नाट्यों के मंचन या भागवत आदि के वाचन के समय सामूहिक मुक्ति की बात देखी जा सकती है. 

स्मरण कीजिये कि कैसे महाभारत का वाचन सबके सामने यज्ञ के असवर पर किया गया. अतः जो सामूहिक रूप में काव्य,नाट्य से आनन्द प्राप्त करेगा उसकी सामूहिक मुक्ति होगी. वैसे दर्शन की भाषा में सभी मुक्त पुरुष ही हैं केवल अपने स्वरूप  को विस्मृत कर दिये जाने से,आवरण से आच्छादित हो जाने से पुरुष बंधा हुआ प्रतीत होता है तदुपरान्त आवरणभंग हो जाने पर मुक्त हो जाता है. मुक्ति की इस दशा में वैयक्तिता जैसी कोई बात नहीं रह जाती अपितु व्यक्तिगतचेतना समाजगतचेतना में लीन हो जाती है और समाजगतचेतना ब्रह्माण्डगतचेतना में.

आचार्य अभिराज राजेन्द्र मिश्र मुक्तिस्तस्य प्रयोजनम् की आलोचना करते हुए कहते हैं कि मुक्ति तो मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाला आनन्द है-मुक्तिसौख्यं मरणान्तरमेवोपभोक्तुं शक्यते. इसके प्रत्युत्तर में डॉ. रमाकान्त पाण्डेयकहते हैं कि -अभिनवकाव्यालंकारसूत्रकार की मुक्ति मृत्यु के बाद होने वाला मोक्षसुख न होकर काव्य के पठन,श्रवण या नाट्यदर्शन से जन्य प्रमाता कवि या सहृदय का चैतन्यविस्तार है. अतः आचार्य मिश्र का यह आक्षेप अकिंचित्कर है.

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वस्तुतः यह योग द्वारा समाधि की फलित दशा में प्राप्त मुक्ति नहीं है अपितु यह काव्य,नाट्य से होने वाली मुक्ति है. अतः उस मुक्ति से विलक्षण मुक्ति है. यहां यह भी ध्यातव्य है कि काव्य से होने वाली मुक्ति नित्य मुक्ति नहीं है. यहां हम मुक्ति को दो प्रकार का मान सकते हैं- एक मुक्ति वह जो समाधि की दशा में फलित होती है, इसके भी दो रूप होते हैं-जीवनमुक्ति एवं विदेहमुक्ति और दूसरी मुक्ति वह जो काव्य के द्वारा फलित होती है,इसे हम काव्यमुक्ति की संज्ञा दे सकते हैं.
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Dr. Kaushal Tiwari
Maladevi Mohalla 
Ward No. 36
Baran
District Baran
Pin-325205


09460004244 / kaushal.tiwari199@gmail.com 

कथा - गाथा : अगिन असनान : आशुतोष

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(Suttee by James Atkinson, 1831)











समकालीन हिंदी कथा-साहित्य पर आधारित स्तम्भ, भूमंडलोत्तर कहानीके अंतर्गत आशुतोष की कहानी – ‘अगिन असनान’ की विवेचना आप आज पढ़ेंगे.  यह कहानी ‘सती’ के बहाने समाज के उस हिंसक सच से आपका परिचय कराती है जिसपर व्यवस्था के सभी अंग पर्दा डालना चाहते हैं. युवा आलोचक राकेश बिहारी ने इस कहानी के सामाजिक, आर्थिक आयामों को ध्यान में रखते हुए इसका विश्लेष्ण किया है. यह स्तम्भ अब पूर्णता की ओर अग्रसर है और शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाश्य है.



अगिन असनान                                       
आशुतोष



मेशा से चुहुलगुल बहावलपुर में अब सन्नाटा था. आस्था, भय और रहस्य में लिपटी एक अजीब किस्म की खामोशी पूरे गाँव में फैली हुई थी. दिन तो जैसे तैसे कट जा रहे थे पर रातें इतनी भयावह हो रहीं थी कि जैसे सब कुछ को निगल कर ही मानेंगी. ऐसे में तीन दिन और तीन रात बीत गए, पर कुछ हो नहीं रहा था. कुछ नहीं होने से गाँव वाले और अधिक डरे हुए थे. लोरिक का पूरा परिवार फरार था, कहाँ? ये किसी को मालूम नहीं. उनके दरवाजे पर बंधी गाय भूखी-प्यासी रम्भाती रही, पर रात में किसी ने गाय का पगहा काट दिया, वो भी पता नहीं कहाँ चली गयी. अब लोरिक के परिवार के बारे में बताने वाला कोई नहीं था. वैसे गाय होती भी तो क्या बताती.

चौथे दिन एक बड़े अखबार का एक क्षेत्रीय पत्रकार बहावलपुर में पहुँचा. और पाँचवें दिन पूरे जनपद की सुबह इस खबर से हुई कि 'बहावलपुर में हुआ सती कांड.'पहली बार उस अखबार में उस क्षेत्रीय पत्रकार के नाम से कोई खबर छपी थी इसीलिए उसने उस खबर को लिखने में अपनी कलम तोड़ दी थी. कलम तोड़ना मुहावरे में नहीं है, उसने सचमुच में तोड़ दी थी. खैर! खबर का सार यह था कि 'बहावलपुर के लोरिक पुत्र जियावन के बड़े बेटे मगरु की तबियत काफी दिनों से दिक् थी. घर वाले उनका दवा-दारू करा कर आजिज आ चुके थे. पर रोग ठीक नहीं हुआ. उसी रोग के कारण चार दिन पहले वे शांत हो गए. मगरु की मृत्यु से दुखी उनकी पत्नी सुनैना देवी ने सती होने की घोषणा के साथ कि अपने पति मगरु की लाश को अपने गोद में लेकर अग्नि स्नान कर लिया.’

फिर क्या था, एक साथ पूरा जनपद जाग गया. कुछ आस्था में, कुछ आक्रोश में तो कुछ नौकरी की महज औपचारिकता में.

दोपहर होते-होते पूरा बहावलपुर गर्दा-गर्दा हो गया. बहावलपुर में सबसे पहले पहुँचने वालों में थाने के दारोगा और सिपाही थे. दारोगा जी केस से जुड़े हुए सभी मामलों की जाँच-पड़ताल कर चुके थे. उनकी जाँच रिपोर्ट और अखबार में छपी खबर में कहन के लहजे के अलावा कोई विशेष फर्क नहीं था. सती कांड के अपने बारह मिनट के ब्यौरे में दारोगा जी ने चौदह बार यह कहा कि 'साहिब इते पैले नम्बर हम आये ते.'बहावलपुर में सबसे पहले पहुँचने वाली बात पर दारोगा जी को इतना जोर देते देख कप्तान साहब चिढ़ गए. नौकरी होती ही ऐसी है बड़ा से बड़ा ओहदेदार अपने मातहतों को कभी किसी बात का श्रेय नहीं लेने देता. मातहत श्रेय लेने की नहीं, नाकामियों की जिम्मेदारी लेने की नौकरी करते हैं. देश की सबसे बड़ी परीक्षा पास कर पुलिस अधीक्षक बने साहब को उस दिन दारोगा ही सबसे बड़ा प्रतियोगी नजर आने लगा. कप्तान ने दारोगा को पुलिस की आवाज में घुड़क़ा'ये क्या लगा रखा है, सबसे पहले पहुँचे?'

दरोगा जी ऐसे ही नहीं कई वर्षों से दरोगा थे, वे तुरन्त समझ गए 'मनो आप आये, पाछे से हम पहुँचे.'कप्तान साहब अभी थोड़ा आश्वस्त होते कि कलेक्टर साहब भड़क़ गए 'तुम लोगों ने ये क्या ड्रामा फैला रखा है? आयं, सारी खबर तुम्हीं लोगों की थी, मुझे तो जैसे कुछ पता ही नहीं. मैं कल रात को ही गृह सचिव साहब के साथ एक पार्टी में था, मुझे तभी पता लग गया था.'कलेक्टर साहब को रात में ही इस घटना की खबर हो गयी थी, इस बात का तो नहीं पर गृह सचिव साहब के जिक्र का पर्याप्त असर कप्तान साहब पर हुआ. वे लपक कर बोले 'एस एस सर! पहले आप आये और उसके तुरन्त बाद मैं पहुँचा.'दरोगा जी को लगा कि कहीं उनकी आमद की बात दब न जाय, उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी 'और आप के पिछारे से हम पौंचे.'सिपाहियों ने भीड़ को हटाने की गरज से डंडा फटकारा, उन लोगों ने शब्दों में तो नहीं पर डंडे की भाषा में बता दिया कि 'हमौरे सोई आये ते.'

सारे हाकिम-हुक्काम आ तो गए थे, पर एक मुश्किल यह आ रही थी कि बहावलपुर का कोई आदमी सुनैना देवी के सती होने पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था. जिससे पूछते वो खुद को मासूम और अंजान बता भीड़ में जाकर खड़ा हो जाता. आस-पास के गाँवों से ट्रैक्टर-ट्राली, जीप, बलेरो, मोटर साइकिलों से भर-भर कर लोग आते जा रहे थे. दोपहर से शाम हो गयी. पर सुनैना देवी सती कांड के बारे में सही वस्तु स्थिति का कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था. जहाँ सुनैना देवी सती हुई थीं, उस जगह को पुलिस ने बाँस की बल्लियों से घेर दिया था. वहाँ पुलिस के दो जवान तैनात थे. किसी को भी वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी. प्रशासन को डर था कि सती स्थान पर कोई पूजा आदि न करने लगे. भीड़ बढ़ती जा रही थी. जैसे पूरे जिले की सडक़ों का रूख बहावलपुर की ओर हो गया था. सुरक्षा के मद्देनजर कलेक्टर साहब ने मुख्यालय से एक बड़ा जनरेटर मगवा लिया. मामला इतना संवेदनशील था कि दोनों अधिकारियों को बहावलपुर में ही कैम्प करने का निर्णय लेना पड़ा. साहबों का यह कार्यक्रम ए.डी.एम., एस.डी.एम. पटवारी से होते हुए पंचायत सचिव तक संक्रमित हुआ. सरकारी वाहन बहावलपुर से जिला मुख्यालय तक चीखते हुए दौड़ रहे थे. सरकारी धन के गबन में निलम्बित पंचायत सचिव के तो जैसे चार जोड़े हाथ-पैर उग आये. उसने मन ही मन सुनैना देवी सती मैया से मन्नत माँगी कि 'बहाली करा दो मैया, तुमाओ बलिदान व्यर्थ ने जान देहें.'इस तरह सुनैना देवी से माँगी गयी वह पहली मन्नत थी. वो भी एक निलम्बित सरकारी कर्मचारी द्वारा. उसने आनन-फानन में अधिकारियों के लिए दो शानदार टेंट लगवा दिए. तय हुआ कि दिशा फरागत के लिए साहब लोग सरपंच जी का शौचालय इस्तेमाल करेंगे. इतना सुनते ही सरपंच और सरपंचाइन जो खाने-धोने के अलावा कभी कोई काम अपने हाथ से नहीं करते थे, शाम से ही बाल्टी झाड़ू लेकर शौचालय चमकाने लगे. कलेक्टर और कप्तान बरसों बाद किसी गाँव में आये थे. 


टेंट में बैठते ही उनकी ए.सी. पालित देह त्राहि-त्राहि करने लगी. कलेक्टर-कप्तान देहों की वह आर्त पुकार मुख्यालय शहर के सबसे बड़े बिल्डर ने सुनी. आये होंगे कभी भगवान गजराज की आर्त पुकार सुनकर, पर उस दिन तो घंटे भर के भीतर शहर का नामी बिल्डर कम्पनी का कसा हुआ दो ए.सी. लेकर बहावलपुर में अवतरित हुआ. कोई और समय रहा होता तो वह हर बार की तरह अपने साथ जयकारा लगाने वालों को भी लाया होता. पर बहावलपुर की हालात में ये संभव नहीं था. कलेक्टर-कप्तान देहें ए.सी. देखते ही इठलाने लगीं. ठेकेदार की श्रद्धा पर मुदित कलेक्टर साहब ने कहा 'इसकी क्या जरूरत थी.'बिल्डर मन ही मन अधिकारियों के चरण कमलों में लोट-पोट होते हुए बोला 'कैसी बात कर रहे हैं साहब, आपका यह स्वर्ण तन....'तब तक कप्तान साहब ने संकेत कर उसे चुप करा दिया. बिल्डर अपनी चिचचिप भाषा में बहुत कुछ बहुत देर तक बोल सकता था, इसकी पूरी संभावना थी. क्योंकि बिल्डर-जीवन के इतिहास के कुछ हर्फ आसाराम बापू की भक्ति में रंगे हुए थे, ऐसा वो कई बार कप्तान साहब की महफिल में विलायती पेय के आचमन के बाद बता चुका था. बिल्डर के चुप होते ही कलेक्टर साहब आराम करने का संकेत कर टेंट में चले गए.

रात आधी ही गयी थी और आधी ही नीद में गए थे कलेक्टर-कप्तान कि बहावलपुर के उस नवोदित सती चौरा पर कई सारी विचित्र प्रकार की गाडिय़ाँ आ धमकीं. थोड़ी ही देर में स्थिति साफ हो गयी. सती कांड को कवर करने आठ सौ सरसठ किलोमीटर दूर देश की राजधानी से चैनलों के बड़े-बड़े पत्रकार बड़ी-बड़ी ओ.वी. वैन के साथ आ धमके थे. फिर तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ शेष तीनों स्तम्भों को बिना पानी पिये कोसने लगा. पत्रकार सती कांड को लेकर अपने-अपने दावे कर रहे थे. बहावलपुर की वादियों में स्त्री-विमर्श, पितृसत्ता, विमेन्स वायलेंस, लार्ड विलियम बैंटिंग, राजाराम मोहन राय जैसे बिल्कुल अपरिचित शब्द गूँजने लगे. इस पूरे हो हल्ले में लोरिक और उनके परिवार की गुमशुदगी और सुनैना देवी के सती होने का सच सिरे से गायब था. बात सिर्फ इतनी थी कि बहावलपुर के सती चौरा से लाइव प्रसारण शुरू हो चुका था.

छठवें दिन की सुबह सती स्थान पर आरती-भजन के साथ हुई. प्रशासन की तमाम पहरेदारी के बावजूद किसी ने सती स्थान पर सिन्दूर, चूड़ी और श्रृंगार के अन्य सामान चढ़ा दिया था. दूसरी ओर भजन, कीर्तन और भंडारा भी शुरू हो चुका था. कुछ लोगों का मानना था कि इलेक्ट्रानिक चैनलों के लिए ऐसे कैमरा प्रिय दृश्य रचना कोई बड़ी बात नहीं थी. कुछ एक चैनल और अखबारों के पत्रकार उस घटना के तह में जाने की नाकाम कोशिश कर चुके थे. कहीं से कुछ सुराग नहीं मिल रहा था. सातवें दिन देश की संसद में बहावलपुर कांड पर विपक्षी दल की ओर से सवाल भी पूछे गए. पर वहाँ हो रहे हो हल्ले में सब कुछ ऊब डूब जा रहा था.

आठवें दिन तो बहावलपुर में दूसरे जिलों और पड़ोसी राज्यों से भी श्रद्धालु आने लगे. कलेक्टर-कप्तान ने अपनी सरकारी भाषा और लहजे में कहना शरू कर दिया था 'जाँच चल रही है, दोषियों को किसी भी सूरत में बक्शा नहीं जायेगा. धैर्य रखिए कानून अपना काम कर रहा है.'बहावलपुर के लोग खुश थे 'सब सती मैया की कृपा है, उनके आने से ही गाँव में पहली बार कानून आया है, वह भी काम करने.'

नवें से तेरहवें दिन के बीच में बहावलपुर के मानचित्र में व्यापक परिवर्तन हुए. सती स्थान पर मेला लग गया. होटल खुल गए. एक छोटा सा सर्कस आ गया था. शहर से आये पाकेटमारों ने भी अपना काम संभाल लिया था. सती चौरा के बगल वाले खेत के मालिक ने अपना खेत प्रोजेक्टर पर फिल्म दिखाने वाले को दे दिया. किसान को किराये में लगभग तीन सालों की फसल के बराबर का धन मिल चुका था. बहावलपुर वालों को विकास का यह नया अर्थशास्त्र जंच रहा था. मंत्रियों, नेताओं और अधिकारियों के लगातार दौरे हो रहे थे. जिला प्रशासन ने जिला मुख्यालय से बहावलपुर तक पक्की सडक़ बनवा दिया. गाँव में पहली बार बिजली के खम्भे गड़े और तेइस घंटे की बिजली आपूर्ति शुरू हो गयी. शहर के सबसे बड़े बिल्डर ने अपने दादा के नाम पर बहावलपुर में धर्मशाला बनवाने की न सिर्फ घोषणा की बल्कि काम भी शुरू करा दिया. बहावलपुर वालों के लिए ये सब किसी सपने के साकार होने जैसी था. वे इन सबको सती मैया का आशीर्वाद मान रहे थे.

चौदहवें दिन दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुईं. पहली-सरकार ने एक रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक समिति बनाकर बहावलपुर की पूरी घटना की न्याययिक जाँच के आदेश दे दिए. और दूसरी, लोरिक अपनी पत्नी, दोनों बेटों-बहुओं और बेटी के साथ डरे सहमें से बहावलपुर में प्रकट हुए. टी.आर.पी. के लिहाज से दूसरी घटना पहली घटना पर भारी पड़ गयी. सती मैया के परिवार वालों के आने की खबर मिलते ही भक्तों की श्रद्धा और उत्साह चरम पर पहुँच गया. खबरिया चैनलों ने लोरिक परिवार को घेर लिया. सारे चैनल यही पूछ रहे थे कि इतने दिन तक आप लोग कहाँ थे? सामने क्यों नहीं आ रहे थे? पहले लोरिक परिवार कुछ घबराया किन्तु चारों ओर गूँजते जयकारे और चढ़ावे ने उन्हें रास्ता दिया, और लोरिक ने धीरे से कहा 'जो कछु भओ, ओ में सती माई की ही मंशा थी.'मझले बेटे ने जोड़ा 'हमाओ पूरा परिवार सती माता की इच्छा अनुसार एकांत में तपस्या करने गओ तो.'मझली बहू ने बताया कि 'हमें अपने देवर मगरू कीं तेरईं (श्राद्ध) भी करनी थी, येई लिए हम तेरह दिन तक गांव से दूर रहे.'एक स्त्रीवादी पत्रकार ने मझली बहू से प्रति प्रश्न किया कि 'केवल मगरू का ही क्यों, श्राद्ध तो सुनैना देवी का भी होना चाहिए था.'इस प्रश्न पर मझली बहू अचकचा गई. उसको तुरन्त कुछ सूझ नहीं रहा था. तब उसके देवर ने पूरे भक्ति भाव से कहा 'तेरईं केवल मनुष्यों को होत है, देवताओं को नहीं. सुनैना देवी तो माता रानी थीं, ऐसी देवियाँ जन्म नहीं अवतार लेत हैं और उनको मरन नहीं होत, वे तो बस चोला बदल लेत हैं. सती माता ने अगिन असनान से पहले हमें यही बताया था, और तेरईं करने से मना करी थी.'अभी कुछ और सवाल होते तब तक भक्तों के एक जत्थे ने पूरे परिवार की आरती, पूजा करने की घोषणा कर दी.

जाँच समिति ने अपना काम प्रारम्भ कर दिया था. हजारों लोगों के बयान लिए गए. बहावलपुर के सरपंच और लगभग सभी ग्रामीणों ने अपना बयान दर्ज कराया. जाँच समिति के सदस्यों ने लोरिक उनकी पत्नी, दोनों बेटे, बहुएँ और बेटी सभी से कई-कई बार पूछ-ताछ की. लोरिक से जांच समिति के सदस्यों ने कई तरह से पूछ-ताछ की. पर लोरिक ने हर बार एक ही बयान दिया. लोरिक ही नहीं उनके पूरे परिवार ने भी एक भाषा और एक शब्दावली में बिल्कुल एक सा बयान दर्ज कराया. 

'मगरू की तबियत काफी दिनों से खराब थी. सुनैना के साथ पूरे घर वाले तन मन धन से उनकी सेवा कर रहे थे. लेकिन कुछ दिन पहले सुनैना ने घर वालों को बताया कि मगरू को छूत का रोग है, इसलिए वह उनको लेकर सबसे अलग खेत पर बने घर में रहेगी. मगरू की भी यही इच्छा थी. रोगी की इच्छा जान कर लोरिक और उनके परिवार वाले भारी मन से सुनैना और मगरू के अलग रहने पर तैयार हो गए. खेत वाले घर पर जाकर मगरू धीरे-धीरे ठीक हो रहे थे. घटना के एक दिन पहले मगरू और सुनैना गाँव वाले घर पर आये थे और सबके साथ रात का खाना भी खाया था. खाने के बाद थोड़ी देर तक सबके साथ बातचीत कर मगरू और सुनैना खेत वाले घर पर चले गए. लगभग तीन से चार के बीच लोरिक लघुशंका के लिए उठे तो देखा कि खेत वाले घर की ओर कुछ हलचल हो रही है. लोरिक के मन में कुछ शंका हुई उन्होंने आनन-फानन में अपने बेटों का जगाया, और मगरू के घर की ओर चल पड़े. पीछे-पीछे घर की महिलाएँ भी आ गई. वहाँ का दृश्य देख सब सन्न रह गए. सुनैना खेत में चिता साज कर चिता के बीच में बैठी है. सुनैना की गोद में मगरू की मृत देह थी. उसके एक हाथ में मगरू का सिर और दूसरे हाथ में रखे मटके में अग्नि जल रही है. घर वाले यह दृश्य देखकर घबड़ा गए. महिलाएँ तो चीख-पुकार मचाने लगीं. सुनैना ने बताया कि 'मगरू ने तो उसको विधवा बना दिया पर वह अपने तप से मगरू का परलोक सुधारने के लिए अगिन असनान करने जा रही है.


लोरिक और उनके घर की स्त्रियाँ रोने लगीं. सबने हजार मन्नते कीं पर वह नहीं मानी. पास जाने की कोशिश करने पर वह सबको अगिन असनान कराने की धमकी देने लगी. वह केवल यही कहती रही कि 'हम अपने पति के साथ अगिन असनान करेंगे. यहीं तक हमारी इस दुनिया की यात्रा रही है. हमारा देह नहीं रहेगा पर हम रहेंगे इसी स्थान पर, इसी गाँव में. हमारे बाद इसी स्थान पर हमारा मंदिर बनवाना और हमारी पूजा करना. इससे पूरे गाँव का समय बदलेगा.'इतना कह कर सुनैना ने हाथ में लिया हुआ आग का मटका अपने सिर पर पलट लिया. किसी को कुछ सोचने-विचारने का मौका मिलता तब तक चिता भभक उठी. घटना के समय वहाँ उपस्थिति लोरिक और उनके परिवार के दूसरे सदस्य सुनैना द्वारा निर्मित दैवी वातावरण में सम्मोहित हो गए थे. सुबह होते-होते सुनैना देवी ने अपने पति की लाश के साथ अगिन असनान कर लिया था.'

गाँव के दूसरे लोग चीख-पुकार सुन कर वहाँ पहुँचे थे, तब तक चिता की आग विकराल हो चुकी थी. वह पूरी घटना जिस तरह से घटित हुई थी, उसको लेकर गाँव वालों के मन में पहले कुछ संदेह भी था, किन्तु लोरिक और उनके परिवार वालों के बयान का नाटकीय रूपान्तरण चैनलों ने इतनी बार दिखाया कि सबके मन का संदेह धुल गया. अब उस घटना के सन्दर्भ में सबके पास मीडिया द्वारा रचित रंग-बिरंगे नाटकीय दृश्य ही सबसे बड़े सच थे. गाँव वालों ने उस घटना के सन्दर्भ में जाँच समिति के समक्ष जो अपने बयान दर्ज कराये वह सब चैनलों में दिखाये गए उस नाटकीय रूपान्तरण की भाषायी प्रस्तुति मात्र थी. लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ने उस घटना को जिस तरह से प्रसारित किया, उसका गहरा प्रभाव लोक और तंत्र दोनों पर पड़ा. बहावलपुर वाले अपने ही गांव में घटी घटना के बारें में अब मीडिया को ही सबसे विश्वसनीय माने लगे थे. अब सती कांड के बारे में सब कुछ मीडिया से तय हो रहा था. उसका स्वर भले आलोचनात्मक था पर बहावलपुर से सीधा प्रसारण के नाम पर उसने सती कांड को इतने तरह से दिखाया कि उसका देश भर में खूब प्रचार हुआ. दीन बदलते गए, मजमा लगता गया. मीडिया किस तरह जनरुचियों को बनाता है इसका बेजोड़ नमूना लोरिक का परिवार था. इधर के दो-एक दिनों में लोरिक के परिवार को भी यह विश्वास हो गया कि सुनैना सचमुच की सती थी और सब कुछ सती मैया की ही इच्छा से हुआ है.

वैसे तो लोरिक के घर वाले और दूसरे गाँव वालों ने बहुत सारी बातें भी बतायी थी, लेकिन जाँच समिति और सरकारी काम-काज की मर्यादा के कारण वह सब सरकारी रिकार्ड में तो नहीं, पर गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के जुबान पर वह सब दर्ज था. मसलन कि 'जलते वक्त सुनैना देवी मुस्कुरा रहीं थीं.', 'चिता के ऊपर धुआँ गोल-गोल घूम रहा था', 'ऊपर आसमान में एक तेज रोशनी हो रही थी', 'चारों ओर से ढोल, मजीरे और शहनाई की आवाज आ रही थी', 'सब कुछ सती मैया की ही इच्छा से हुआ.'कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि 'रोशनी से बना हुआ एक रथ ऊपर आसमान से में बहुत देर तक खड़ा था, सबका ध्यान उधर जाता तब तक वह गायब हो गया.'

जाँच समिति द्वारा तमाम बयानों, अखबारों के कतरन, चैनलों के कुछ विजुअल्स आदि सब एकत्रित किये जा रहे थे. पर सारे गवाह, सारे सबूत यही कह रहे थे कि 'सब कुछ सती मैया की इच्छा से ही हुआ है. उसमें किसी जीवित मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है.'जाँच समिति कानून से बंधी थी. तथ्य और सबूत ही उसके नाक, कान और मुँह थे. समिति ऐसे ही किसी निष्कर्ष तक पहुँचने से पहले उस पत्रकार का बयान लेना चाहती थी, जिसने सबसे पहले इस घटना को प्रकाशित किया था. चैनलों के हो हल्ले के बीच उसने अखबार में बहावलपुर कांड से संबंधित दो और खोज रिपोर्ट प्रकाशित किया. उन दोनों खबरों में सुनैना देवी सती कांड पर कुछ बुनियादी सवाल उठाये गये थे. उन खबरों को बहुत ही कम लोगों ने पढ़ा. जिनने पढ़ा उनमें शहर का मशहूर बिल्डर भी था. जो अपने दादा के नाम पर बहावलपुर में धर्मशाला बनवा रहा था. वह उस अखबार को कभी अपने तो कभी अपने बच्चों के जन्मदिन के बहाने बड़े-बड़े शुभकामना विज्ञापन देता था. उन विज्ञापनों से अखबार को ठीक-ठाक पैसा मिलता था. बिल्डर के वे सारे विज्ञापन वह पत्रकार ही ले आता था. उसके एवज में पत्रकार को मिलने वाली कमीशन की रकम बहुत ज्यादे थी. लेकिन सती कांड को हत्या साबित करने वाली खबर पढ़ कर बिल्डर नाराज हो गया. क्योंकि बहावलपुर में उभरते धार्मिक पर्यटन का भविष्य देखकर तो उसने वहाँ इतना अधिक इन्वेस्टमेंट किया था. यदि बहावलपुर में हुए सती कांड को लेकर किसी तरह का कोई किन्तु-परन्तु का माहौल बना तो सबसे ज्यादा उस बिल्डर का नुकसान होता.

इसी के चलते बिल्डर ने अखबार के संपादक को और फिर संपादक ने अखबार के मालिक को फोन किया. दूसरे दिन पत्रकार जब दफ्तर आया, तो संपादक ने उसे उसके अब तक के कार्य का अनुभव प्रमाण-पत्र और सेलरी के हिसाब-किताब के साथ कुल सात हजार चार सौ पैंतीस रुपये का लिफाफा देकर माफी मांग ली. पत्रकार हैरान था. उसने संपादक से पूछा 'यह क्या है सर?'संपादक ने अपना सिर बिना उठाये अंगुली से ऊपर की ओर इशारा किया. पत्रकार समझ नहीं पा रहा था कि ऊपर वाला कौन मालिक, भगवान या कि वही सती मैया? वह धीरे से उठा और चुपचाप अखबार के दफ्तर से चला आया. पहली बार उसे खुद के एक पुर्जा मात्र होने का एहसास हुआ.

जाँच समिति ने पत्रकार को पूछ-ताछ के लिए हाजिर होने के लिए पत्र भेजा. नियत समय पर पत्रकार हाजिर हो गया. एक सदस्य ने पत्रकार से यह जानना चाहा कि वह इतने दिनों तक कहाँ गायब था. पत्रकार ने बताया कि वह गायब नहीं हुआ था, बल्कि वह चुपचाप इस मामले की छानबीन कर रहा था. छानबीन का नाम सुनकर समिति के सदस्य थोड़े से खीझे ‘तो महान पत्रकार साहेब, क्या छान और क्या बीन कर लाये हैं आप?'उनके इस व्यंग्यात्मक लहजे से पत्रकार को थोड़ा गुस्सा आया, पर उसने संयम बरता 'छान-बीन तो आप लोग कर हैं साहेब, हम तो सिर्फ यह पता लगा रहे थे कि सच क्या है?'इस पर जज साहब झल्लाते हुए बोले 'हां तो बताइए कि सच क्या है? समिति के समक्ष पत्रकार ने जो कुछ बताया वह गुस्सा, आक्रोश, भय, संवेदना, भावुकता और तथ्यों से भरी हुई एक लम्बी कहानी थी. जिसका सारांश यह था कि 'सुनैना देवी सती नहीं हुई हैं बल्कि उनकी हत्या की गयी थी.'

बहावलपुर के लोरिक का भरा-पूरा परिवार था. परिवार के पास बारह एकड़ जमीन थी. लोरिक गाँव में महतो का दर्जा रखते थे. वे अपने माँ-बाप के एकल संतान थे. इसीलिए बच्चों के जन्म के मामले में काफी उदार रहे. उनकी पत्नी के कुल आठ बच्चों में पाँच पुत्रियाँ और तीन पुत्र थे. चार पुत्रियाँ बड़ी थीं, जो जन्म के एकाध साल में चल बसी थीं. जब चौथी बच्ची की मृत्यु हुई तब तक लोरिक अपने अगातम को लेकर उदास हो चुके थे. उनको बार-बार यह लगता कि वे लावारिस मरेंगे, और कोई आग देने वाला भी नहीं रहेगा. तमाम देवी-देवताओं के समक्ष अरदास लगा चुके थे. पूजा-प्रार्थना के बीच उनकी पत्नी को पाँचवीं बार गर्भ ठहरा. पूरा गर्भकाल सकुशल बिताने के बाद लोरिक की पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया. मंगलवार के दिन बच्चे का जन्म हुआ था इसलिए उसका नाम मंगरू रखा गया. वारिस मिलने की खुशी में लोरिक का तन-मन सब उछाह में था. उसी उछाह में उनकी पत्नी को तीन बार और गर्भ ठहरा. दो बार बेटे और तीसरी बार लड़क़ी हुई. अब लोरिक बाहर से भीतर तक आबाद हो गए थे. धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे और उनके साथ ही बढ़ने लगा लोरिक का रुतबा भी. मगरू सबसे बड़े थे, कुल दीपक. उनका ख्याल सबसे ज्यादा रखा जाता था. 


लेकिन मगरू जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनके हाव-भाव में एक भिन्न प्रकार का परिवर्तन आने लगा. घर-गाँव के लिए मगरू में आ रहा वह परिवर्तन भय और उत्सुकता का सबब बनता जा रहा था. मगरू को बाहर लड़क़ों के साथ खेलने में कम, घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता था. उनकी रुचियाँ भी अपने हम उम्र लडक़ों से भिन्न थीं. उनसे छोटे दोनों भाइयों की देह समय के साथ गठीला होती गयी. पर मगरू का देह-मन नाजुक और कमनीय बना रहा. घरवाले पहले तो लोगों से मगरू में हो रहे इन परिवर्तनों को छुपाते रहे. पर मन ही मन मगरू को अपने खानदान पर एक धब्बा मानने लगे थे. गाँव में मगरू अब चर्चा का विषय बन रहे थे. लोरिक के डर से कोई खुले आम कुछ नहीं कहता. किन्तु मगरू को देखकर लोगों की ईशारेबाजी लोरिक से छुपी न थी. मगरू अब गैर मर्द ही नहीं, अपने बाप-भाइयों के सामने भी असहज हो जाते थे. पर अपनी माँ के साथ उनकी खूब छनती थी. दौड़-दौड़ कर अपनी माँ के काम-काज में हाथ बटाते, पर अपने पिता और भाइयों को देख कर सहम जाते. मगरू को देखते ही लोरिक जल-भुन जाते. उनको और कुछ नहीं सूझता तो अपनी पत्नी के हाथ-पैर बाँध कर मारते.

लोगों की जुबान कब तक कोई रोक सकता है. बहावलपुर में धीरे-धीरे दबी जुबान से ही सही यह चर्चा आम हो गयी थी कि मगरू नपुसंक हैं. यह बात मगरू को कैसी लगती थी इसके ठीक-ठीक साक्ष्य नहीं मिलते, पर मगरू की नपुंसकता की चर्चा लोरिक के लिए बोझ बनती जा रही थी. पर महतो का रुतबा, सच्चाई को स्वीकारने की जगह लोरिक ने मगरू के विवाह का मन बना लिया. मगरू के विवाह करने के पीछे दो कारण थे, पहला यह कि इससे मगरू की नपुंसकता को लेकर फैला लोकोपवाद खत्म होगा और दूसरा कि औरत के संसर्ग से मगरू का सुप्त पड़ा पौरुष लहलहा उठेगा. इसी योजना के तहत लोरिक ने एक दिन बगल गाँव से अपने पुरोहित जी को बुलवाया और उनके प्रति अपना आदर निवेदित कर कहा ‘महाराज! हमाई इच्छा है कि, हम पन्द्रह दिनों के भीतर तुमाअे और पंडिताइन के लानें दो सेट कपड़ा, घर के लानें जरूरत के सबरे बर्तन और ऊपर से एक्कइस सौ रुपैया रख के प्रणाम करहें.'दक्षिणा की सामग्री और रकम सुनकर पंडित जी के रोम-रोम से लार चूने लगा.

पंडित जी विवाह जोड़ुआ की अपनी महान भूमिका में जुट गए. जल्दी ही उन्होंने दूर के एक गाँव की एक निर्धन किन्तु लोरिक की स्वजातीय कन्या सुनैना से मगरू का विवाह पक्का करा दिया. लोरिक नहीं चाहते थे कि विवाह के पहले सुनैना के घर वालों को मगरू की सच्चाई का पता चले. इसलिए विवाह पूर्व तक सुनैना के गाँव-घर के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया गया. सुनैना ने अपने माता-पिता को नहीं देखा था, होश सम्भालते ही उसने अपने भइया-भाभी को ही सब कुछ माना. सुनैना के भाई भूमिहीन दिहाड़ी मजदूर थे. बहन का विवाह उनके लिए पहाड़ सरकाने जैसा था. ऐसे में लोरिक के पुत्र मगरू का विवाह प्र्रस्ताव उनको किसी ईश्वरीय कृपा जैसा लगा.

बहुत धूम-धाम से मगरू-सुनैना का विवाह हुआ. लोरिक ने मगरू के तन की कमी को अपने मन के उछाह से ढंक दिया. गाजा-बाजा, खाना-पीना और खातिरदारी के जोर पर मगरू-प्रसंग कुछ दिनों के लिए दब गया.

पर विवाह के तीन साल के बाद भी सुनैना और मगरू के दरमियान कुछ नया नहीं हुआ. वैसे तो मगरू की सच्चाई को सुनैना ने विवाह के पहले हफ्ते में ही जान लिया था. किन्तु औरत का धैर्य धरती की तरह होता है. सुनैना ने मगरू के पौरुष का बहुत दिनों तक इन्तजार किया. पर मगरू का मन-मेघ रह-रह कर उमड़-घुमड़ आता पर तन की अनासक्ति के कारण बिना बरसे लौट जाता. सुनैना का मन मगरू की इस पराजय से खिन्न रहने लगा था. धीरे-धीरे उसके मन की खिन्नता पहले आक्रोश और बाद में दु:ख में बदल गयी. सुनैना अपने ससुराल में मौजूद खाने-पहनने के सुख और अपने पति के दु:ख में कैद थी. स्त्रियों के सुख अजब होते हैं और दु:ख उससे अजीब. सुनैना न तो अपने सुख को लेकर इतरा सकती थी और न अपने दु:ख को किसी से कह पा रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपने दु:ख के बारे में किसी से कैसे कहे, और क्या कहे. वह सदेह एक आतुर पुकार बन गयी थी और मगरू पलटे हुए गवाह. सुनैना अपने साथ हुए इस धोखे से हार गयी थी. नैहर में भी भाई-भौजाई के पास उसके लिए क्या रखा था कि वहाँ चली जाती. दूसरे वहाँ जाकर कहती भी क्या? एक बार संकोच के साथ आपनी भौजाई से कुछ-कुछ इशारे में कहा भी तो, भौजाई ने यह कहते हुए बात खत्म कर दी कि 'उते कौन बात की कमी है, अच्छो खावे और पहरवे ओढवे खों तो मिलतई है.'अब इसके बाद भाई से कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था.

बाद के दिनों में मगरू को देखते ही सुनैना का मन घृणा और आक्रोश से भर उठता. वह मगरू की छाया से भी बचना चाहती थी. पर मगरू किसी कोने-अतरे से चुपचाप सुनैना को देखते रहते. सुनैना को अपनी सखी सहेलियों के साथ का वो हँसी-मजाक भी खूब याद आता है. सभी सखियां अपने विवाह और अपने भावी दुल्हें के बारे छुप-छुप कितनी बातें करती थीं. सुनैना ने अपनी शादी और दूल्हे के बारे में जैसा सोचा था वैसा नहीं मिला तो कोई बात नहीं पर मगरू मिले इसकी कल्पना भी सुनैना तो क्या कोई भी लडक़ी नहीं करना चाहेगी. आज उन सारी बातों को याद कर सुनैना रात-रात भर रोती है. जैसाकि स्त्रियों का होता है, वैसे ही सुनैना का भी रात और रूलाई से बचपन का नाता था. अब तो उसकी रूलाई में और उसकी रातों में कोई फर्क नहीं बचा था. उसकी रूलाई रात की तरह अंधेरी और गहरी होती और रातें उसकी रूलाई की तरह तन्हा और उदास. मर्द अपनी जिस प्यास के बूते पर मर्द माना जाता है, औरत अपनी उसी प्यास को जाहिर करते ही चरित्रहीन ठहरा दी जाती है. सुनैना इसी लोकलाज के डर से अपना दु:ख किसी से कह नहीं पाती. नियति, समाज और मगरू द्वारा प्रदत्त दु:ख से खुद को बरी करने के लिए वह स्वयं को घर के कार्यों में उलझाये रहती. इससे भीतर के टूट-फूट को ज़माने की नजरों से बचाये रखने का उसे सुभीता मिल जाता था.

कुछ दिन बीतते लोरिक के दोनों छोटे बेटों का भी ब्याह हुआ. सुनैना ने अपनी सास और ननद के साथ दो-दो देवरानी उतारा. पहले तो देवरानियों का बात-व्यवहार उसके प्रति ठीक था, किन्तु धीरे-धीरे वे देवरानियों की परपंरागत भूमिका में उतर आयीं. सुनैना मुँहअंधेरे उठती और सबके सोने के बाद काम से फुर्सत पाती. फुर्सत काम से पाती दु:ख से नहीं. दिन यदि बक्श देते तो उसे उदास और तन्हा रातें डस लेतीं, और रात से बचती तो उसे दिन निगल लेते.

सास-ससुर, देवर-देवरानी और ननद के लिए सुनैना लौड़ी बन गयी थी. कहीं थोड़ी सी भी चूक होने पर सास, ननद, देवरानी की गालियां सुनती. किसी को उसकी कोई परवाह नहीं थी, शिवाय मगरू के. मगरू उसे देखते और सब समझते. पर कर कुछ नहीं पाते. उन्होंने कई बार चाहा कि सुनैना को इतना काम करने और सबकी सेवा करने से बरज दें, पर..., पर सुनैना ने तो तीन बरस से अबोला ठान रखा था. जब वे सुनैना को मुक्ति नहीं दिला सके तो खुद को बाहर के कार्यों में लगा लिया. अब वे भी मुँहअंधेरे उठ कर मवेशियों के लिए दाना-पानी लाते, और मिल जाने पर कुछ कलेवा कर खेतों की ओर चले जाते. दिन भर खेतों में खटते. लोरिक के परिवार में अब सबकी मौज ही मौज थी. घर का सब कुछ सुनैना के और बाहर का सब कुछ मगरू के भरोसे चल पड़ा.

एक दिन सुनैना आँगन में बैठ कर सिल-बट्टे पर मसाला पीस रही थी कि दरवाजे पर कुछ शोर सुनाई पड़ा. बाहर आकर देखा तो मगरू को कुछ लोग चारपाई पर लिटाए चले आ रहे हैं. मगरू को इस हालत में देखकर गाँव के कई सारे लोग जुट गए. उनकी बातों से पता चला कि मगरू खेत में पड़े कराह रहे थे, उनका पूरा शरीर बुखार में तप रहा था. उधर से गुजरने वाले चरवाहों ने देखा और उठा कर ले आये. उनका शरीर चारपाई पर पड़ा काँप रहा था. मगरू को उस हालत में देखकर सुनैना का मन पता नहीं कैसा तो हो गया. मगरू को खाना-पानी उनकी माँ ही देती थीं. माँ के अलावा वे न किसी से कुछ माँगते थे और न कोई उन्हें कुछ देता था. मगरू की माँ यानी सुनैना की सास को तो अपने मायके गए दो दिन हो गए. तो क्या मगरू दो दिन से..... यह ख्याल आते ही सुनैना भीतर तक हिल गयी. उसको लग रहा था कि वह सबके सामने चोरी करते हुए रंगे हाथ पकड़ ली गयी है. मगरू की कराह से उसकी आत्मा छिल रही थी. जाने वो कौन सा आवेग था कि उसके हाथ अपने आप जुड़ते चले गए 'हे दुर्गा माई! हे माता बाई! रच्क्षा करिओ.'

वो सुनैना की दुख भरी पुरानी रात्रि का तीसरा पहर था, जब वह दबे पाँव सहमते हुए अपनी कोठरी से बाहर निकली. दरवाजे पर बाहर की ओर बने खपरैल के बैठक में दवा खिलाकर मगरू को सुलाया गया था. सुनैना मगरू के चारपाई के पास पहुँच तो गयी पर समझ नहीं पा रही थी कि आगे क्या करे. क्या कह मगरू को बुलाये. मगरू को सम्बोधित करने के लिए कोई संज्ञा-सर्वनाम उसका साथ नहीं दे रहे थे. उसे यह भी ध्यान आया कि तीन बरस से ऊपर हुआ उसने मगरू को पुकारा नहीं है. पल भर को उसका मन अपनी इस बेरूखी से आहत हुआ, पर तुरन्त ही वह मान कर बैठी कि इतने दिन बीते मगरू ने भी तो उसे आवाज नहीं दी. सुनैना को लग रहा था कि उसके पाँवों के नीचे कोई दलदल है और वह उसमें धंसी जा रही है. मन अपने उस प्राचीन अंधेरे में लौटने को कह रहा था तो तन मगरू की कराह से खिंचा जा रहा था. अजीब चिकने पल थे कि हर भाव फिसल कर गुम हुए जा रहे थे. 


उसने मन कड़ा किया. उसे अपने साथ हुए सारे छल याद आने लगे. उसमें मगरू की खामोश सहभागिता का ख्याल आते ही उसके भीतर का अंधेरा और बढ़ गया. वह बिना देरी किए उस अंधेरे का छोर पकड़ वापस अपने कोठरी की ओर मुड़ी ही थी कि मगरू ने करवट लिया और किसी सहरा में भटके बेबस राही की तरह आर्त स्वर में पुकारा 'को आये?'पता नहीं उस आवाज में कितनी आतुरता, कितनी बेधकता और कितनी निरीहता थी कि एक झटके के साथ सुनैना पलटी और मगरू के बिलखते शब्दों को अपनी अंजुरी में संभाल लिया. औरतें होती ही ऐसी हैं कि वे चाह कर भी आतुर और निरीह आवाजों को अनसुना नहीं कर पातीं.

रात के एक परिंदे ने अपने प्रेम की खुशबू में सुवासित एक शब्द उचारा 'मगरू', तो दूसरे परिंदे ने उसे अपनी आँसुओं का अघ्र्य दिया 'सुनैना.'फिर तो गहरे आवेग वाली उस रात्रि के तीसरे पहर में जब चिरई-चुरुंग, रोगी, भोगी और योगी सब सो चुके थे, तब खपरैल के उस पुराने छाजन के तले दो परिंदे, एक अनलिखी प्रार्थना की इबारत मुकम्मल कर रहे थे.

बाद के दिनों में लोरिक के परिवार में बहुत कुछ बदल गया था. उनका मझला बेटा दो बच्चों का पिता बनने के बाद पंचायत के चुनाव में भाग्य आजमाने की फिराक में लगा रहता और छोटा बेटा एक बच्ची के जन्म के बाद लडक़ी होने के गम में शराब के ठेके पर बैठा रहता था. इन सबके बावजूद लोरिक के महतोपन में कहीं कुछ कमी नहीं आयी थी. घर में सबसे बड़ा बदलाव तो सुनैना में हुआ था. हमेशा गुमसुम रह कर काम में उलझी रहने वाली सुनैना अब साज-श्रृंगार करने लगी थी. रोटियां सेंकते हुए या कपड़े धोते हुए अक्सर कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती. वह सबके सामने पूरे अधिकार पूर्वक मगरू से बात ही नहीं हँसी ठिठोली भी करने लगी थी. वह खाना बनाती तो मगरू को चौके में बैठा कर उन्हें गर्म-गर्म रोटियां सेंक कर खिलाती. 


सुबह के समय में वह खाना बनाती और शाम का खाना उसकी देवरानियां बनाती. पहले दोनों समय सुनैना को ही खटना पड़ता था. पर इधर कि दिनों में सुनैना ने ही खाना बनाने को लेकर यह नई व्यवस्था बना दिया था. पहले तो देवरानियों ने इस नई व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, किन्तु मगरू ने कड़े शब्दों में कहा कि 'सुनैना तो बस भिन्सारे को कलेवा बनेहें.'देवरानियों ने पहली बार अपने जेठ को किसी मामले में इतने निष्कर्षात्मक लहजे में बोलते सुना था, सो वे कुछ अपने जेठ का लिहाज और कुछ उनकी उस आवाज के ताप से उस नई व्यवस्था को स्वीकार कर लिया. जिस दिन मगरू ने सुनैना के हक में बोला था, उस दिन सुनैना खुशी के पंख लगाए उड़ती रही. इस नई व्यवस्था के तहत सुनैना सुबह उठ कर चौका-बर्तन करती, खाना बनाती, मगरू को खिलाती, कुछ अपने खाती और कपड़े के टुकड़े में चार रोटियां अचार के साथ बाँध कर मगरू के साथ खेतों की ओर चल देती. मगरू के साथ वाले सुनैना के वे सुहाने दिन थे. मगरू और सुनैना खेतों में काम करते, खेतों में आराम करते, खेतों में बड़े बन जाते और खेतों में ही बच्चे बन खेलने लगते. सुनैना गेहूँ की बालियां बन जाती और मगरू उजास बन उन बालियों से लिपट जाते. दोनों खेतों से मुँहअंधेरे उजले हो लौटते. अब सुनैना के हिस्से में गुनगुने दिन ज्यादे थे. रातें भी थीं, पर पहले की तरह उदास और तन्हां नहीं; बल्कि महकती और बोलती हुईं.

लोरिक के दोनों छोटे बेटों ने घर के काम-काज से खुद को पूरी तरह से अलग कर लिया. मझले को अपनी नेतागिरी से और छोटे को अपनी शराबखोरी से फुर्सत नहीं थी. खेती-खलिहानी का काम मगरू और सुनैना के भरोसे पहले से बेहतर चल रहा था. इससे मगरू का आत्मविश्वास भी बढ़ता जा रहा था. अब वे घर के मुआमले में अपनी राय भी देने लगे थे. घर वाले मन मार कर उनकी बातों को सुनने भी लगे थे. धीरे-धीरे मगरू-सुनैना की अहमियत और उनके छोटे भाइयों और उनकी पत्नियों की कुंठा बढे लगी थी. इसी कुंठा में देवरानियाँ घर के बर्तन फोड़ती और पति उनका सिर. सुनैना के देवर-देवरानियों की कुंठा से उपजा कलह अब रोज की बात थी. अपनी पत्नियों को उनकी छोटी सी भी गलती पर मैली धोती की तरह कचारना लोरिक के परिवार का आनुवंशिक गुण था. इसमें कोई पीछे नहीं था. दाल में नमक कम हो जाने पर बूढ़े लोरिक कुछ कहते नहीं, अपने कांपते हाथों से पूरी गर्म दाल अपनी बुढिय़ा के ऊपर फेंक देते. उनकी मर्दानगी ऐसे कई सारे अभिलेख उनकी पत्नी की बूढ़ी पीठ और पर अंकित है. आज भी. बुढ़ापे में लोरिक का शरीर उस तरह साथ नहीं देता, इसलिए वे अपने पुरुषत्व का इजहार अपनी पत्नी के मुँह पर थूक कर करते हैं. अब लोरिक का मझला और छोटा बेटा अपनी पत्नियों की देह पर पिता की ही भाषा में मर्दानगी की रोज नई कहानियाँ लिखने लगे थे. 


यह सब करते हुए वे खुद को लोरिक महतो की मर्दानगी के असली उत्तराधिकारी सिद्ध कर रहे थे. पर पारिवारिक उत्तराधिकार के हर मुआमले में मगरू ने तो जैसे पंक्ति भेद करने की कसम खा रखी थी. बच्चे पैदा कर नहीं सकते थे तो नहीं किया पर पत्नी को तो पीट तो सकते थे. पर नहीं, मगरू ने कभी अपनी पत्नी को अपने पिता और भाइयों की तरह पीटा नहीं; बस प्यार किया. तीन बरस के अबोले के बाद जब मगरू और सुनैना के तार जुड़े तबसे जितना प्यार और सम्मान सुनैना मगरू को देती, उसमें कुछ न कुछ मिला कर मगरू उसे लौटा देते. मगरू के उसी स्नेह की छाँव में सुनैना को यह विश्वास हो गया था कि 'मर्द वह नहीं है जो अपनी मर्दानगी से औरत की कोख हरा कर दे, बल्कि वह है जिसके प्यार और सम्मान से समूचा औरतपन अपने आप हरा हो जाय.'इसीलिए इन 'दुधो नहाई, पूतों फलीं'स्त्रियों की देह पर हाथ-लात और डंडे से अपने पौरुष की गाथा लिखते देवर सुनैना को पूरे नामर्द लगते.

उस दिन लोरिक का मझला बेटा अपने पिता के साथ किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने बैंक गया था. मगरू गाय के दाना-पानी में जुटे हुए थे. अचानक आँगन से चीखने की आवाज आयी. सब भागे हुए घर में दाखिल हुए. वहाँ वही पुरानी कहानी नये सिरे से दुहरायी जा रही थी. लोरिक का छोटा बेटा दारू के लिए पैसा नहीं देने पर अपनी पत्नी को आँगन में घसीट-घसीट कर मार रहा था. वह बेतहाशा चिल्ला रही थी. उसकी बच्ची डरी सहमी सी कोने में खड़ी थी. जेठानी के बच्चे डर के मारे बाहर भाग गए और जेठानी चारपाई पर बैठी पैर हिला रही थी. सास-ननद छुड़ाने की असफल कोशिश कर रही थी. भावज से देह न छुआने के लोकाचार से बँधे होने के कारण मगरू दूर से ही भाई को बरज रहे थे. पर उस दिन छोटका पर जैसे भूत सवार था. उसके हाथ में जो कुछ आ रहा था, उसी से अपनी पत्नी को मार रहा था. देवरानी की आवाज बैठती जा रही थी. मगरू को जब और कुछ नहीं सूझा उन्होंने सुनैना को हांक लगाई. मगरू की आवाज सुन सुनैना भागी हुई आयी और देवर का हाथ पकड़ कर रोक दिया. देवर गुस्से से फटा जा रहा था 'तू माँयें भग भौजाई, आज हम इखों जिंदा ना छोड़ हैं.'सुनैना ने उसे डपटा 'अरे, कैसे मार दे हो, तुमाअे बाप को राज है का के जो मन में आये वो करहो?'

देवर और भडक़ गया 'हओ, हमाअे बापई को राज है इते, जा हमाई घरवारी आये और हम ईके मरद.’सुनैना ने उसको ललकारा 'हूँ, लुगाई जनी पे हाथ चलात तोय लाज नईं आत और बड़ो आओ है मर्द बनवे.'देवर बौखला गया था 'तू का बतै हे मरद का होत, तोय तो मिलोई नईयां.'छोटे भाई से अपने बारे में ऐसा सुन कर मगरू पर तो जैसे घड़ो पानी पड़ गया. वे अपना माथा पकड़ कर वहीं भहरा कर बैठ गए. पति का ऐसा अपमान देखकर सुनैना पार्वती की तरह क्षुब्ध हो गयी. उसने सीधे हाथ से देवर का बाल पकड़ कर खिंचा और उल्टे हाथ से एक भरपूर तमाचा उसके मूँह पर जड़ दिया. सुनैना से इस प्रतिक्रिया की उम्मीद देवर तो क्या किसी को नहीं थी. गुस्से में उसने भी सुनैना पर हाथ छोड़ा पर सुनैना तो सिंहनी में बदल गयी थी. बड़ी मुश्किल से सास-ननद, जेठानी ने सुनैना को पकड़ा. सुनैना गुस्से और अपमान में चीख रही थी 'हओ, सुन ले नासमिटे, तुमाई ठठरी बंधे, नईं मिलो हमे मरद, मनों तोरे जैसे नीच मरद से हमाओ नामरद अच्छो है.'इतना सुनते ही देवर दौड़ा आया और सुनैना को पकड़ उसका सिर दीवार में टकरा दिया. सुनैना का माथा फूट गया. वह वहीं आँगन में गिर पड़ी. सुनैना की चीख सुन कर मगरू को जैसे होश आया, वे अपने छोटे भाई को पकड़ते तब तक वह कूद कर बाहर भाग गया. भाई का पीछा करना छोड़ मगरू ने सुनैना को उठाया और उसका सिर गोद में रखकर बिलख-बिलख कर रोते रहे. रोती रही सुनैना भी.

थोड़ी रात गये छोटे बेटे के अलावा लोरिक का पूरा परिवार आँगन में बैठा था. छोटा बेटा दोपहर का भागा अभी भी नहीं लौटा था. सब कुछ सुन कर लोरिक ने गम्भीर आवाज में कहा 'आन दे ऊखों, हम समझात हैं.'

'तुम समझात रहिओ, हमें हमाओ हिस्सा दे दो; हम सुनैना के संगे अलग रैहैं.'मगरू का स्वर एकदम स्थिर था. लोरिक को तो काटो खून नहीं. पहले वाले मगरू होते तो अब तक लोरिक उनको डपट कर चुप करा चुके होते किन्तु ये वाले मगरू लोरिक के बेटे ही नहीं सुनैना के पति भी हैं. इसलिए वे बेबस आवाज में बोले 'अइसों नईं सोचत बेटा, तुम हमौरों से अलग हो जेहो तो गाँव के का कैहें ? खानदान की तो नाकई कट जे है.'
'तुमाओ खानदान तो हमसें आगे बढ़ने नइयां, ईसें तुम और तुमाअे मोड़ा रओ संगे, और बढ़ात रओ खानदान, जित्तो बढ़ाने होय.'मगरू ने तो जैसे फैसला कर लिया था.
यह सुन लोरिक मौन हो गए, लेकिन उनके मझले बेटे ने मगरू को घुड़क़ते हुए कहा 'जो अच्छो नईं कर रअे बड्डे! कहे देत हैं, तुमाअे संगे बहौत गलत हो जेहै.'

मगरू ने मझले भाई की बात को अनसुना कर लोरिक से कहा 'सोच लो दद्दा, हमाओ हिस्सा हमें दे दो, नईं तो कल हम पंचात बुलाहैं. फिर तुम बचइयो अपने खानदान की इज्जत.'
मझला बेटा कुछ कहने को हुआ किन्तु लोरिक ने उसे रोक कर हारे हुए जुआरी के स्वर में कहा 'ठीक है बेटा, जैंसी तुमाअी इच्छा.'

बाद के दिनों में एक नई व्यवस्था के तहत सुनैना और मगरू खेत पर बने घर में रहने चले गए. लोरिक के तीन बेटों के बीच बारह एकड़ की खेती थी. लोरिक अपने हिस्से के चार एकड़ लेकर अलग जोतने-बोने लगे. सुनैना और लोरिक की जिंदगी के वो सबसे उर्वर दिन थे. खेत में घर था और घर में खेत था. दोनों दिन रात घर से खेत तक उमड़ते रहते. मगरू और सुनैना अपने निश्छल श्रम से सुख की नई कथा लिख रहे थे. मगरू ने खेत के एक ओर जमीन से पाँच हाथ ऊपर एक मचान बना लिया था. जो लकड़ी के चार खंभों पर चारों ओर से खुला हुआ एक ढाँचा था. वही उन दोनों का नया रिहाइश बना. चारों ओर से दरवाजे, दीवारों और छतों में कैद घर का इस्तेमाल वे खेती के औंजार, बर्तन और अनाज रखने के लिए करते थे. दिन भर खेतों में काम करते और संध्या के समय मचान के नीचे दोनों मिल कर गाकड़ पकाते, खाते और मचान के ऊपर, आसमान के नीचे एक दूसरे को ओढ़ कर सो जाते. वे दोनों अपने परिश्रम से चार एकड़ में जितना अनाज उपजा रहे थे उतना लोरिक के आठ एकड़ में कभी नहीं हो पाया. लोरिक के बेटों और उनकी पत्नियों में आपसी कलह बढ़ता जा रहा था. पुराने घर से इस नए घर पर अब कोई नहीं आता. मगरू की माँ भी नहीं. लोरिक ने उसे अपनी कसम दे रखी थी कि 'मगरू से मिलहौ तो हमाऔ मरो मुंह देख हो.'मगरू जब कभी अपनी माँ के बारे में सोच कर उदास हो जाते, तब सुनैना उनका सिर अपने गोद में लेकर उनकी माँ बन जाती.

मगरू और सुनैना का सुख देखकर मगरू का पूरा परिवार जला-भूना हुआ था. लोरिक इन सबकी जड़ सुनैना को मानते कि 'उसी ने उनके गऊ समान बेटे को बागी बना दिया.'पर कर कुछ नहीं पा रहे थे. सुनैना के प्रति बदले की भावना से भरा हुआ लोरिक-परिवार उसको अपमानित कराने के लिए योजनाबद्ध ढंग से बाँझ कह कर प्रचारित करने लगा. इन वर्षों में सुनैना ने बहुत सारा छल-प्रपंच देखा-सहा था, किन्तु बाँझ वाली बात पर वह बिफर पड़ती 'कमी हममें नइयां, तुमईंरे खून में आहे, जा तुमौरें सोई खूब जानत हौ, और हम भी. सब कछु जानत भए हमने कबहूं मगरू में कछु कमी नईं निकारी. मनो तुमौरे हो के अपनी कमी हमाअे माथे मुड़ रअे. हमनें तो बस प्यार-इज्जत चाही है और कछु नहीं. हम जानत हैं कि मगरू मरद भले नइयां, मनो मानुष सबसे बड़े आयें.'मगरू मर्द भले नहीं हैं पर मनुष्य सबसे बड़े हैं, यह सुनैना की अपनी निजी कमायी थी. पर लोरिक के खून में कमी है, सुनैना की इस सार्वजनिक घोषणा से लोरिक की बूढ़ी और उनके बेटों की जवान हड्डियों का ताप बढ़ने लगा था. 


सुनैना तो ऐसी ही थी, एक का जवाब चार से देती. लोरिक-परिवार का मन सुनैना के प्रति खट्टा तो पहले से ही था पर उनको इस बात का दु:ख सबसे ज्यादा था कि मगरू भी सुनैना का ही साथ दे रहा है. दोनों परिवारों के बीच का खट्टापन उस दिन से ज़हर में बदलने लगा, जबसे सुनैना ने अपने भाई के बच्चे को अपने पास बुला लिया. भतीजे को साथ रखने का तात्कालिक कारण तो सिर्फ इतना था कि सुनैना की भौजाई एक बार फिर पेट से थी. भाई के यहाँ खाने-पहनने की दिक्कत तो पहले से थी, ऊपर से भौजाई का चढ़े हुए दिन. इसलिए सुनैना ने मगरू को भेज भतीजे को अपने पास बुलवा लिया. भतीजे के आने के बाद सुनैना और मगरू के दिन रात थोड़े और सुहाने हो चले थे. मगरू बच्चे को जब अपने कंधे पर बैठाकर घूमते तब उन्हें देख सुनैना निहाल हो जाती और लोरिक-परिवार बेहाल.

ऐसे ही एक दिन मगरू बच्चे को कंधे पर बिठाये खेत से आ रहे थे कि सामने उनका मझला भाई पड़ गया. मझले ने गुस्से में मगरू को टोका 'काय दद्दा! सुनैनिया खों मूड़ पर चढ़ाकें जी नईं भरो, सो अब वा की भतीजे खों....'मगरू ने पलट कर जबाब दिया 'हओ, हम एखों भी मूड़ पे चढ़ैहें, और सुनो! जोई हमाओ मोड़ा आये, हम हमाओ सब कछु एई खों देहें.'यह सुन महरू का मझला भाई सन्न रह गया. मगरू ने जो कुछ अपने भाई से कहा, उस पर न तो वे और न ही सुनैना ने कभी विचार किया था. बस उस दिन क्रोध में या यूँ ही वह सब उनके मूँह से निकल गया.

मगरू की उस बात ने लोरिक-परिवार को सकते में डाल दिया. मगरू के हिस्से में चार एकड़ की खूब लगनहार खेती थी. जो लोरिक के बाप-दादा की कमाई थी. अपनी पुस्तैनी जमीन को सुनैना के भतीजे के पास चले जाने की कल्पना मात्र से लोरिक-परिवार नफरत और हिंसा की आग में जल उठा. जमीन की भूख होती ही ऐसी है. लोग-बाग उसकी एवज में कुछ भी कुर्बान करने से नहीं हिचकते. मगरू और सुनैना की बिसात ही क्या थी. एक दिन लोरीक का छोटा बेटा शराब के नशे में खेत पर चढ़ आया. सुनैना और मगरू के सामने ही सुनैना के भतीजे को जान से मार देने की धमकी देता रहा. सुनैना भतीजे को गोद में लेकर सोयाबीन के खेतों की तरफ भाग गयी. थोड़ी देर तक वह गाली-गलौज कर वापस चला गया. उसकी बातें सुन कर सुनैना को पहली बार डर लगा. रात में मचान पर दोनों के बीच भतीजा सोया हुआ था, और वे उदास बैठे भतीजे को एकटक देख रहे थे.

मगरू ने सुनैना को गुमसुम देख पूछा 'काय सुनैना, का सोचत हौ.'सुनैना ने बहुत धीरे से कहा 'चलो कल, इखों भइया के इते छोड़ आयें. दूसरे को धन; हम कबलौं रखवारी करहैं.'दूसरे ही दिन सुनैना मगरू के साथ भतीजे को लेकर अपने मायके चली गयी. जैसे ही सुनैना मायके की चौखट पर पहुँची, उसी समय भौजाई ने एक गोल-मटोल बच्ची को जन्म दिया. उसके भइया बेटी और बहन को एक साथ पाकर निहाल हुए. भतीजी को देख कर सुनैना अपना सारा दु:ख भूल गयी. उसने पूरे उत्साह से बधाई के गीत गाया और भौजाई की सेवा की. इसी राजी-खुशी में तीन दिन बीत गए. न चाहते हुए भी उन्हें वापस अपने खेतों के बीच लौटना पड़ रहा था. भाई-भौजाई ने बहुत मनुहार किया पर मगरू-सुनैना ने अगले सावन में आने का वादा कर लौट आये.

इन तीनों की गैर हाजिरी के बाद जब मगरू-सुनैना घर लौटे तब वहाँ की फिजा बदली हुई थी. लोरिक के परिवार से जुड़ा हर आदमी उन्हें बहुत ही सशंकित नजरों से देख रहा था. इन्हीं सब बातों को सोचते हुए वे दोनों मचान पर लेटे थे. बहुत सारी पुरानी बातें याद आ ही थीं. उन्हीं बातों के बीच दोनों रो रहे थे, दोनों जाग रहे थे, कि अचानक मगरू के सिर पर एक मोटा डंडा आकर लगा. मगरू उछल कर मचान से नीचे आ गिरे. सुनैना कुछ समझ पाती तब तक उसके दोनों देवर मगरू के घायल देह पर चढ़ बैठे. सुनैना मगरू को छुड़ाने के लिए लपकी किन्तु ससुर ने उसे बीच में ही पकड़ कर उसका मुँह दबा दिया. मगरू के सिर से खून बहकर उनकी आँखों में समा रहा था. जिससे अनकी आँखों के सामने का अंधेरा और अधिक गाढा हो गया था. क्रोध से बिलबिलाता हुआ मझला बोला 'काय बड्डे, लिख दऔ खेत भतीजे खों. अब हमाअे मोंड़ा-मोंड़ी का खैहैं.'छोटे भाई ने मगरू की गर्दन को डंडे से दबा रखा था. मगरू छटपटा रहे थे. उनके गले से गो,.गों की आवाज निकली. 


मझले चीखा 'मजाल तो देखो इस पींदा की, हाँ, कै रओ है.'सुनैना लोरिक के हाथों में छटपटाती रही. उनके छोटे बेटे ने मगरू के गर्दन पर रखे डंडे को अपने पैर से दबा दिया. लोरिक के देह में हल्की सी जुम्बिश हुई, और सब कुछ ठहर सा गया. कोई कुछ समझ पाता इससे पहले लोरिक का छोटा बेटा भागते हुए अंधेरे में गुम हो गया. लोरिक और उनका मझला बेटा हक्के-बक्के रह गए. शायद यह करने की उनकी योजना नही थी. पर जो होना था, वह हो चुका था. लोरिक का मझला बेटा धीरे से उठा और उनके छोटे बेटे की तरह ही अंधेरे में गुम हो गया. दोनों बेटों को इस तरह साथ छोड़ते देख लोरिक क्रोध से उबल पड़े. उसी बीच उनके के हाथों से छूट कर सुनैना मगरू की मृत देह पर गिर पड़ी.

इसके बात की कथा ठीक-ठीक लोरिक को मालूम है. वे अपना बयान दर्ज करा चुके थे. इसके बाद की घटना को एक समकालीन कथाकार कई तरह से दर्ज कर सकता है. जैसे जब लोरिक के दोनों बेटे उनको छोड़ कर भाग गए. तब इस वारदात में खुद को फंसा देख वे घबरा गए हों. उसी घबराहट में उन्होंने हर सबूत मिटाने की गरज से सुनैना की हत्या कर दी हो. यहाँ एक सवाल यह है कि लोरिक जैसा बूढ़ा आदमी क्या सुनैना की हत्या कर सकता है? क्या सुनैना ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की होगी? इसके बारे में कथाकार कह सकता हैं कि सुनैना मगरू की मृत देह पर गिर कर अचेत हो गयी होगी, जिससे लोरिक ने आसानी से उसकी हत्या कर दी होगी. अगर यही हुआ होगा जैसा कथाकार कह रहा है तो इसका अर्थ है कि अचेत रहने के कारण स्वयं सुनैना भी नहीं जान पायी होगी कि उसकी हत्या किसने की है. दूसरा कथाकार इस घटना को इस रूप में भी बता सकता है कि मझले बेटे के बाद लोरिक भी वहाँ से भाग कर घर आये होगें, दोनों बेटों को खोज कर साथ लिया होगा. वापस खेत पर पहुँच कर सुनैना को सबने मिल कर मारा होगा. फिर एक साथ मिल कर दोनों की एक ही चिता पर रख जला दिया होगा. यहाँ एक और सवाल है कि यदि ऐसा हुआ होगा तो सुनैना के सती होने वाली कथा का जन्म कैसे हुआ? इस सम्बन्ध में पहले वाला कथाकार कह सकता है कि सुनैना को सती बनाने वाला आइडिया निश्चित ही लोरिक के मझले बेटे ने दिया होगा. 


क्योंकि चार-पाँच वर्षों से वह कई सारे नेताओं के साथ दिल्ली, भोपाल, लखनऊ आदि राजधानियों की यात्रा कर रहा है. इस बात पर दूसरा कथाकार पहले वाले से सहमत हो सकता है. क्योंकि कथाकारों का समकालीन राजनीति के सन्दर्भ में लगभग एक सा दृष्टिकोण हो सकता है. दूसरा वाला कथाकार इस प्रसंग को थोड़ा और आगे तक ले जा सकता है, जैसे कि लोरिक और उनके पुत्रों को मगरू के मृत्यु के बाद सुनैना से डर लगने लगा हो, कि वह इन लोगों के खिलाफ थाने भी जा सकती है. लोरिक के छोटे बेटे को तो पूरा विश्वास था कि, वह थाने जायेगी ही, और उसको ही नामजद करेगी. या फिर सुनैना अचेत न हुई हो, उसने खुद ही उन लोगों से कहा कि वह मगरू की लाश को लेकर जिले के कप्तान के यहाँ धरना देगी या हाइवे जाम करेगी. जितना वे लोग सुनैना को जानते थे, उस हिसाब से सुनैना वो सब करती है, जो वो कहती है. इसलिए उसकी हत्या जरूरी हो गयी हो. हत्या के बाद उसे सती कांड में बदल दिया गया होगा. सती कांड को आस्था का रंग देने के लिए सिकटार से बाजा वालों को बुला लिया गया होगा.

कथाकारों की बातें कथाकार जाने. मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि आदमी अपनी अज्ञानता में एक गलती करता है, चतुराई में उसे छिपाता है और अहंकार में उस गलती को अपराध में बदल देता है. हो सकता है कि लोरिक-परिवार ने भी इसी तरह गलती से अपराध तक का सफर पूरा किया हो. दूसरे यह कि सुनैना-लोरिक की मौत एक असामान्य घटना थी. और असामान्य घटनाओं का अंत अक्सर रहस्य, राजनीति या फिर आस्था में होता है.

पत्रकार का सच जाँच समिति के रिपोर्ट से बिल्कुल भिन्न था. चार हजार रूपए की नौकरी वाले पत्रकार का सच लाख रूपए वाले सरकारी अधिकारी के सच से बड़ा कैसे हो सकता है. जाँच समिति के सदस्यों के मुँह का स्वाद बिगड़ गया. एक सदस्य ने पत्रकार से पूछा 'आप पत्रकारिता के साथ कहानी ओहानी भी लिखते हो क्या?'पत्रकार ने प्रतिप्रश्न किया 'क्यों, आपको ऐसा क्यों लगा?'सदस्य ने कहा 'लगना क्या है, आप जिस तरह इस घटना को कहानी बना कर पेश कर रहें है, उसी से यह विचार आया.'पत्रकार ने प्रतिवाद किया 'किन्तु यह कहानी सच्ची है.'दूसरे सदस्य ने घुडक़ते हुए टोका 'क्या इन्होंने यह कहा कि कहानियाँ झूठी होती हैं, कहा क्या?'पत्रकार ने सहमते हुए कहा 'नहीं.''तो, जितना पूछा जाय उतना ही बोलिए.'

पत्रकार कुछ और कहता तब तक जज साहब ने पूछा 'ये सारी बातें आपको पता कैसे चलीं, हम इतने दिनों से जाँच कर रहे हैं, हमें तो ये सारी बातें यहाँ किसी ने नहीं बताया.'पत्रकार ने सफाई दी 'ये सारी बातें मुझे सुनैना देवी की भाभी ने बताया, वो यहाँ नहीं सुनैना देवी के मायके में रहती हैं, उन्हीं का बच्चा सुनैना के पास रहता था. पर लोरिक और उनके बेटे की नियति देख कर सुनैना को अपनी या भतीजे की हत्या की आशंका हो गयी थी. इसीलिए वे भतीजे को जब अपने मायको पहुँचाने गयी थीं, तब ये सब उन्होने अपनी भाभी से बताया था.'

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जज साहब ने पूछा 'चलो मान लेते हैं कि जो कुछ आप कह रहे हैं वो सब सच है, पर इससे यह कैसे साबित होता है कि मगरू और सुनैना की हत्या हुई थी, सुनैना स्वयं सती नहीं हुई थी. कोई सबूत कोई गवाह हैं आप के पास?'पत्रकार ने थोड़ी देर सोचा और कहा 'आप चाहें तो बशरूदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला से पूछ सकते हैं.'एक अन्य सदस्य ने टोका 'अब ये सब कौन हैं?''ये बगल के गांव के लोग हैं जो चिता जलाने के समय बाजा बजा रहे थे.''बाजा बजा रहे थे,'जज साहब ने आश्चर्य व्यक्त किया. फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने पत्रकार को विदा कर बशरूदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला को हाजिर करने का हुक्म दिया.

बशरूदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला बहावलपुर के पड़ोसी गाँव सिकटार में रहते थे. वैसे तो सिकटार के मूल निवासी बशरूदीन और झड़ेला ही थे. रमई और लियाकत बहुत पहले छिन्दवाड़ा एक कार्यक्रम में मिले थे. बशरूदीन और झड़ेला बैंड लेकर छिन्दवाड़ा गए थे. लियाकत और रमई बारात में रोड लाइट लेकर चल रहे थे. दूसरे दिन सुबह बारात की विदाई के समय रात की रोशनी के स्रोत बने लियाकत और रमई, बशरूदीन के पास आये और उनके साथ चलने का आग्रह करने लगे. वे दोनों खानाबदोश थे. जब जैसा काम मिलता उसी से अपना जीवन चला रहे थे. कभी स्टेशन पर तो कभी किसी पुलिया में सोकर रात बिता लेते. उस रात बशरूदीन और झड़ेला का करतब देख इन दोनों ने अपना भविष्य तय कर लिया था. 


अपने घर परिवार के बारे में न उन दोनों ने बताया और न ही किसी ने पूछा कि वे रहने वाले कहाँ के हैं? फिर तो वापसी के समय सिकटार में दो जन और लौटे थे. सिकटार में बशरूदीन की एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी, पत्नी काफी पहले गुजर गयी थी. दूसरी शादी नहीं की, बैंड को ही अपनी जीवन संगिनी बना लिया था. रमई और लियाकत का भी बशरूदीन की झोपड़ी में गृह प्रवेश हो गया. झड़ेला परिवार वाले थे किन्तु उनका परिवार उनकी लुगाई रामदेई से ही शुरू और रामदेई पर ही खत्म होता था. बाल-बच्चे नहीं हुए. ढोल-मजीरे को ही अपनी औलाद की तरह स्नेह करते रहे. कुछ दिनों के संगत के बाद रमई और लियाकत भी बजाने में पक्के हो गए. अपने समय में इन चारों ने खूब बैंड बजाया और खूब नाम कमाया.

लोग बताते हैं कि बशरूदीन, झड़ेला, लियाकत और रमई एक समय था जब इनके बैंड की बड़ी प्रतिष्ठा थी. पर समय की मार इनकी कला पर तो नहीं इनके बैंड पर खूब पड़ी. समय के साथ लोगों के मनोरंजन के मजहब बदलने लगे थे. अब डी.जे. पर तूफानी फिल्मी गानों पर कमरतोड़ू नृत्य करती अधनंगी लड़कियाँ सबको भाने लगी थीं. धीरे-धीरे बशरूदीन के बैंड को काम मिलना बंद हो गया. उनके बैंड के दूसरे साथी भुखमरी से बचने के लिए लुधियाना, पंजाब, दिल्ली आदि शहरों में जाकर मजदूर बन गए. बशरूदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला कहाँ जाते. ये चारों भूमिहीन थे. इनके पास न तो बी.पी.एल कार्ड बनवाने की संसारिक सामथ्र्य थी और न ही कहीं बाहर जाने का किराया. इसलिए ये गाँव में रहकर कभी मिल जाने पर मजदूरी आदि कर अपना जीवन चलाते रहे. एक बात इनमें खास थी. वह यह कि ये चारों जब भी खाली रहते गाँव के बाहर वाले तालाब के किनारे बैठ कर अपने टूटे-फूटे बाजों के साथ रियाज करते रहते. शादी-ब्याह जैसे मांगलिक अवसरों पर इनकी की कोई उपयोगिता नहीं थी, बस अब कभी-कभी कोई इन्हें गमी में बाजा बजाने के लिए बुला लेता था. इसमें भी वे लोग खुश थे. ऐसे में कोई इनके पुराने दिनों की याद दिलाता तो ये कहते 'बहौत ब्याओ करा लअै मालक! अब गमी में बजा रये हैं, ब्याओ हो या गमी, हमें तो बस बाजो बजाने हैं.'

स्थानीय पुलिस ने फौरन से पेश्तर बशरूदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला को जज साहब के सामने हाजिर कर दिया. इन कलाकारों की उम्र पैंतालीस से पचास के बीच की थी. पर ये अपनी उम्र से दस-पन्द्रह साल ज्यादे दिख रहे थे. पहली बार इतने बड़े साहब को सामने आकर वे लोग भय से दुहरे हुए जा रहे थे.

जज साहब ने पूछा 'तुममें सरगना कौन है.'
बशरूदीन ने कहा 'हम कलाकार हैं मालक, कोऊ राज-पाठ को काम हम नई जानत, हमौरों में सरगना कोई नई होत. जौन खों जो कला आवत है, ओयी ओमें आगे रेत है.'
'अच्छा ठीक है, तुम लोगों का नाम क्या है, और कौन सा बाजा बजाते हो?'जज साहब ने प्रश्न किया. एक सदस्य ने उन्हे हिदायत दी 'एक-एक कर बताना.'
सबसे पहले लियाकत ने जबाब दिया 'हमाओ नाम लियाकत है, हम मृदंगिया आयें.'
'हम झड़ेला डोम हैं साब, हम अलगोजा खूबई बजा लेत हैं.'
'रमई हुजूर! ऊँसें तो हम नगडिय़ा बजात हैं, मनो सेनाई बजावे में खूब मजा आत है.'
आखिर में बशरूदीन ने अपना परिचय दिया 'हम बशरूदीन आयें मालक!, हम झूला और मजीरा बजात हैं.
जज साहब को संदेह हुआ 'क्या ये सब वाद्य-यंत्रों के नाम हैं?'
झड़ेला बोले 'नई साब, जे बाजे आयें.'
जज : 'मैंने तो कभी इनका नाम नहीं सुना?'
बशरूदीन ने कारण बताया 'सुन हो कैसे साब, आप तो जूड़े कोठा में रेत हो, जे सब हमाये गाँव देहात के बाजे आयें. जे इतईं मिलत हैं.'
जज ने समिति के एक सदस्य से पूछा 'जूड़े कोठा?'
सदस्य ने जज साहब को बताया 'जूड़े कोठा मिन्स ए.सी. कूल्ड रूम'
जज : 'ओ एस.'
जज साहब ने आगे पूछा 'तुम लोग लोरिक को जानते हो?'
बशरूदीन ने बताया 'हओ साब! इतईं बहौलपुर के आयें, जौन की बहू अभईं सती भईं.'
सदस्य ने डांटा 'जितना पूछा जाय, उतना ही बताओ.'
'गलती हो गई मालक! माफी दे दो.'लियाकत मियां बोले.
जज साहब ने आगे पूछा 'तुम लोग उस दिन कहां थे,?'
रमई ने कहा 'हमौरें तो उतईं बाजे बजा रए ते.'
दूसरे सदस्य ने पूछा 'वहां तुम लोगों ने क्या-क्या देखा?'

बशरूदीन ने बताया कि 'साब हमौरें हते तो उतईं, मनो मुतके दिनों में बाजे बजावे को मौका मिलो तो, एई सें हमौरों को धियान बाजों की धुन में हतो. सांची कएँ तो हमौरों ने इत्तोई देखों की चिता श्रृंगारी गयी और बा में मगरू और वा की घरवारी सुनैना की लाश खों लिटा के दाग दौ गओ तो. हमौरें मरघटा पे दूर खों बैठे 'वैष्णव जन जेते कहिए, पीर पराई जान रे'की धुन निकार रये ते.'

कुछ देर तक वहां खामोशी फैली रही. फिर कुछ सोचते हुए जज साहब ने बशरूदीन, रमई, झड़ेला और लियाकत को जाने की अनुमति दे दी, पर इस हिदायत के साथ कि वे लोग अपना गाँव छोडक़र कहीं नहीं जायेंगे.
सुनैना देवी सती कांड में पत्रकार के सच ने संदेह उत्पन्न कर दिया था. दूसरे बशरूदीन, नौबत और लियाकत ने अपने बयान में कहा कि चिता सजाने के बाद मगरू और सुनैना की लाश का चिता में लिटाया गया. जबकि लोरिक परिवार और दूसरे बहावलपुर वाले कह रहे थे कि मगरू की मृत्यु के बाद सुनैना देवी ने अपने सती होने की घोषणा की और पति की लाश को गोद में लेकर अगिन असनान कर लिया. बहुत उम्मीद से जांच समिति ने सुनैना के भाभी को बुला कर उसका भी बयान दर्ज कराया. पर पता नहीं वह डर गयी कि किसी ने उसको कुछ समझा दिया था कि वह उस पत्रकार को ही पहचानने से मुकर गयी. सुनैना देवी के मायके की ओर से भी लोरिक-परिवार के प्रति कोई शिकायत नहीं दर्ज करायी गयी थी. इस पूरे घटनाक्रम में अपराध भी था सुनैना देवी की हत्या, मोटिफ भी था मगरू-सुनैना की जमीन का लालच, पर सबूत कुछ भी नहीं था. किन्तु न्याय होते तो दिखना ही चाहिए. इसी गरज से जांच समिति ने रिपोर्ट पेश कर दी.

सुनैना देवी सती कांड के ठीक पन्द्रहवें दिन की बहुत सुबह बशरूदीन, रमई, झड़ेला और लियाकत गाँव के बाहर तालाब के किनारे बैठकर अपने-अपने साज के साथ रियाज कर रहे थे. ये उनका रोज का कार्यक्रम था. उनके लिए सारे दिन एक समान थे, उदास, बेरंग और बेजान. हवा में हल्की सी ठंड थी. गांव अभी ठीक से जगा नहीं था. ये चारों कलाकार गांधी जी का प्रिय भजन, जो अब उनकी जीविका का बचा-खुचा साधन था, 'वैष्णव जन जेते कहिए, पीर पराई जान रे'बजा रहे थे.

उस सुबह आखिरी बार वे चारों गाँधी जी के प्रिय भजन के साथ सिकटार में देखे गए थे.

घटना के सोलहवें दिन तक आते-आते सती स्थान एक सिद्ध पीठ में बदल चुका था. हजार से ज्यादा लोग रोज दर्शन कर रहे थे. लोरिक उस पीठ के महंत बन गए थे. वे अब सचमुच के भक्त हो गए थे. जन आस्था, व्यावसायिक आवश्यकता और मीडिया के प्रभाव वश वे घंटो सती स्थान के समक्ष साष्टांग पड़े रहते. उसी भक्ति के सहारे उन्होंने खुद को माफ कर दिया था और यह मान लिया था कि उन्होंने जो कुछ किया-कराया, वो सब सती मइया की लीला थी. वे तो बस उसकी लीला के निमित्त मात्र थे. सुनैना सचमुच की सती थी, जो कुछ हुआ वह सब सती मइया की इच्छा से ही हुआ. उनके परिवार के अन्य लोग यथायोग्य उसी पीठ से जुड़े गए थे. सिद्ध पीठ के कोठार का देख रेख सुनैना के भाई-भाभी के पास था.

बहावलपुर एक तीर्थ में और बहावलपुर की प्रत्येक चीज बिक्रय की वस्तु में बदल गयी थी. निलम्बित पंचायत सचिव को उस पर लगे गबन के सारे आरोपों से मुक्त कर बहाल कर दिया गया था. अखबार के बाहर के बेरोजगार दिनों में पत्रकार को नौकरी में बने रहने का महान ज्ञान प्राप्त हो चुका था. अब वह इस कोशिश में था कि अखबार किसी तरह उसको एक मौका दे दे तो वह उस सती सिद्ध पीठ के बारे में एक शानदार झूठ लिखेगा.

सुनैना देवी सती कांड के ठीक अठरहवें दिन की सुबह से ही अखबारों, चैनलों में हंगामा मचा हुआ था कि 'अब तक का सबसे बड़ा खुलासा.', 'सुनैना देवी सती कांड की जांच रिपोर्ट पेश.', 'सती हुईं थी सुनैना देवी.', 'सुनैना देवी को अगिन असनान के लिए प्रेरित करने और घटना के समय बाजा बजा कर उनको उत्साहित करने वाले चार लोग गिरफ्तार. 'मौके से वारदात में इस्तेमाल बैंडबाजा बरामद.', 'आरोपियों को ताजिराते हिन्द की धारा 107, 299, 300, 305, 307, 308 के तहत जेल भेज दिया गया.'

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उस गिरफ्तारी और आज के बीच बहुत लम्बा समय गुजर चुका है. सिकटार में बाजा बजाना तो दूर, अब कोई किसी बाजा का नाम तक नहीं लेता. तब से आज तक बेगुनाहों की गिरफ्तारी का सिलसिला जारी है. गिरफ्तार लोगों के बारे में बोलने-सोचने पर भी एक अघोषित-अदृश्य पहरा है. बहुत दिन हो गए बेगुनाही के पक्ष में कोई बयान दर्ज नहीं हुआ है.

हाँ, कुछ दिन पहले एक बुढिय़ा के बारे में सुना था, जो सिकटार के आस-पास घूम-घूम कर लोगों से पूछती रहती थी 'काय मालक, 'वैष्णव जन....'गावे बारो हमाओ डोकरा कबे आ है.'
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संपर्क:
हिंदी विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय
सागर-470003 (म.प्र.)/ मो. 09479398591

भूमंडलोत्तर कहानी – १९ (अगिन असनान - आशुतोष) : राकेश बिहारी







समकालीन हिंदी कथा-साहित्य पर आधारित स्तम्भ –‘भूमंडलोत्तर कहानीके अंतर्गत आशुतोष की कहानी – ‘अगिन असनान’ की विवेचना आप आज पढ़ेंगे.  यह कहानी ‘सती’ के बहाने समाज के उस हिंसक सच से आपका परिचय कराती है जिसपर व्यवस्था के सभी अंग पर्दा डालना चाहते हैं. युवा आलोचक राकेश बिहारी ने इस कहानी के सामाजिक, आर्थिक आयामों को ध्यान में रखते हुए इसका विश्लेष्ण किया है. यह स्तम्भ अब पूर्णता की ओर अग्रसर है और शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाश्य है.


भूमंडलोत्तरकहानी१९
गति और ठहराव की अभिसंधि पर निर्वासित  गांधी  की प्रतीक्षा

(संदर्भ: आशुतोषकीकहानीअगिनअसनान)



मंगलाचार : शुभम अग्रवाल

























(Naiza Khan : On the Front Line)


याचनाएं
जिनका व्यर्थ होना
निश्चित था.’

पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर २७ वर्षीय शुभम अग्रवाल अपने पहले कविता संग्रह की तैयारी में हैं.

शीर्षकविहीन इन कविताओं में मृत्यु, स्मृति, आत्म, अस्तित्व, अलगाव से संवाद की रचनात्मकता दिखती है. ये अंदर की ओर झुकी कविताएँ हैं.  इनमें संयम है.   



शुभम की ११ कविताएँ यहाँ प्रकाशित हो रही हैं. 


शुभम अग्रवाल की कविताएँ                             




१.         
चलते चलते
ठिठक जाती है औरत

सर झुकाये
आगे बढ़ जाता है नवागंतुक

व्याकुल मन
डूब जाना चाहता है प्याले में

श्वासें अगर रुक भी गयीं
तो वह ढूँढ लेंगे

एक अनियंत्रित लालसा

लील लेती है सूर्य को
एक उत्कण्ठा

भटकता मनुष्य
अनुभव करना चाहता है
मृत्यु का.



२.
वेदनाएँ छद्म थीं

अंतस में पड़ा
तोड़ा
या टूटा हुआ
मोरपंख
बिलख रहा था

बिल्ली के दांतों में फंसा
चूहे का बच्चा
निढाल

अंगुलियाँ थिरकते हुए
पहुँच जाती थीं
बाहरी लोक में

यातनाओं में
अस्तित्व का एहसास
न के बराबर था
इसलिए उनमें  होना
कम कष्टदायी था.


३.
गर्म पाँव
चलते है पृथ्वी पर

सीढ़ियों से उतरती है छाया

सहलाती है बालों को

पिपासा जागती है
पर उमड़ नहीं पाती

परिंदे घूमते रहते हैं
पर चुगते नहीं

मेरे जाने की बाट जोहता है
आकाशदीप

जाना किधर को है
स्मरण नहीं होता.



४.
एक धुरी पर आकर
ठहर जाता है समय

उत्सुकता में
बाहर निकालता है मुख
कोई जलप्राणी
और  लुप्त हो जाता है

सरकंडों में कराहती है
बची हुई हवा

जिन बिम्बों में से
उग आये थे कमल,
उनसे अलगाव ही
ले जायेगा मुझे

वैराग्य में भी
नहीं मिल पाती वह

याचनाएं
जिनका व्यर्थ होना
निश्चित था.



५.
उस बिंदु के आगे
नही पहुँच पाता
कष्ट

अधीर मन से
प्रश्न पूछती हैं
खिड़कियाँ

प्रत्यंचा का तनाव
असहनीय हो जाता है

मुट्ठियों में भिंचा हुआ
सत्य
छूट जाना चाहता है

मैं दोहराता हूँ बार बार
अपनी निर्धनता को

जिन घावों के बीच
खोते
और मिल जाते थे हम
उन्हीं घावों के गोलार्द्ध में
घूमते घूमते
चुक जाना था हमें.




६.
क्यारियों में
ठहरा हुआ जल
पी जाते हैं
पशु

वह रास्ता
जो निकलता है मुख से

उसकी लम्बी उँगलियाँ
पैठ जाती हैं
गहरे में

कंठ में पड़े
शब्दों की नियति
आखिर क्या हो सकती है

कपोलों के भाव
परिवर्तित होते होते
पारदर्शी हो जाते हैं

आत्मबोध का क्षण
कहीं नहीं जाता

सूर्य में से
निकला था

सूर्य ही में
लीन हो जायेगा

जीवन.


७.
उस गंध के परे
नहीं पहुँच पाते
विचार

नदी का बहना
और
कविता का स्फुटन
कब आरम्भ हुआ

सुख जितना
दुर्लभ था संसार

मोमबत्तियों में
दोहरायी जाती थी
गाथा

अँधेरे भारी कदम
लौट जाते थे
भविष्य में

केंचुओं की तरह
मुड़ जाता था
विवेक

छुप जाना
किरणों से
होठों से
वक्षों से
एकमात्र ध्येय था.



८.
स्वप्न में
चलता रहता है
काठ का मानस

निकल जाता है
सामने से
प्रेम की कल्पना में
डूबा हुआ तारा

जिन डोरियों से
बंधीं थीं कलाईयाँ

जिन छायाओं में
खड़े थे वृक्ष

मनुष्य
एकाकी
पृथ्वी के छोर पर बैठा
सोखता है
सबकुछ

रचनाएं
जो उसकी थीं
पर नहीं थीं

उपत्यकाएँ
जो उसकी नहीं थीं
पर थीं.


९.
बुख़ार
उठता है नाभि में

उसकी चाल
अनुभव की जा सकती है
प्रतिक्षण

उसको खाते हुए देखना

जबड़ों का चलना

उँगलियों की उड़ान

उसका निजी संसार
जिसके निकट जाना भी
दूभर था

उसकी दृष्टि
ठहरती है अनंत में
फिर लौट आती है
आत्म में

श्वासों को रुकना था
इसी जगह

फूलदानों का आविर्भाव
फूलों के आसपास होना था.



१०.
वृक्षों के घनत्व में
दिखती
लोप होती
चली जाती है
वनकन्या

देह को छूते हुए
उड़ जाता है
चिड़ियों का जोड़ा

त्वचा का रूपांतरित होना

एक दूसरे में
उलझे हुए
सर्पों के झुण्ड

वह राह
जिसकी टोह में
जागती रहती हैं
बन्दर की ऑंखें

उस चेतना से विमुख
चाहता है कोई
बिता देना
जीवन.



११.
एक लड़की
पड़ी हुई कुर्सी पर
झुकी

उसके पाँव
जूतों में
अध घुसे

उंगलियाँ कांपती हैं

देखती हैं
अनस्तित्व को
जाते हुए
एक आदमी
पड़ा हुआ धरती पर
देखता है
गाढ़ी ठण्डी सफ़ेद
छत को

एक पहचानी हुई
आकृति
धंस जाती है
और भी अधिक

कल्पना में.
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