अबीर आनंद
मुँहमें ठूँस देते, प्यास हो न हो निगल लेता जहर….सिर्फ मैं मरा होता. …जङों में सींच दिया, पुश्तें बरबाद कर दीं.
दरअसल इस पूरी व्यवस्था का पीड़ित कोई है ही नहीं.चेहरे उतने ही हैं.देहाड़ी पर ईंट और गारा उठाते मजदूर हों, बैलों वाले हों या ट्रैक्टर वाले किसान हों, या रेलवे के कुली; या फिर वर्दी में टशन से पेश आते पुलिसिये, इन्टरनेट पर आँखें गढ़ाए आयकर रिटर्न दाखिल करते सूट-बूट वाले नई पीढ़ी के पेशेवर, नोटबंदी की झुलसती कतारों में अपने सप्ताह भर के लेन-देन की जद्दोजहद करते छोटे व्यापारी, नौकरशाही के बड़े अफसर, नेता, मंत्री चपरासी सब के सब....इन सब चेहरों में एक भी चेहरा पीड़ित नहीं है.फिर भी पीड़ा दिखती है.अस्पताल में दवाओं के अभाव में दम तोड़ते मरीजों के चेहरों पर दिखती है, डॉक्टर की लाइलाज लापरवाही से बीमार के खौफ़ज़दा चेहरे में दिखती है, डॉक्टरों के अपर्याप्त कमीशन में दिखती है, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के अधूरे रह गए टारगेट में दिखती है, दवा कम्पनियों के गिरते शेयर भाव में दिखती है, वसूली करती बैंकों की बैलेंस शीट में दिखती है.
हर उस जगह, जहाँ-जहाँ सूरज नियम से रोजाना व्यर्थ रोशनी बिखेरने चला आता है, जिसके लिए न कहीं अज़ान पढ़ी जाती है और न आरती उतारी जाती है, पीड़ित चेहरे दिखाई देते हैं.पर पीड़ित कोई नहीं है.हर चेहरा इसे अपने रुआब की सलवटों में दबाए घूमता रहता है, इसलिए दिखाई नहीं देती.इन सलवटों की परतें सहूलियत के हिसाब से खोली जाती हैं.एक अवसर देखकर, जैसे कि मुहूर्त निकाला जाता है, चेहरे के रंग उतरते दिखाई देते हैं.सलवटों के बीच गुथी हुई गन्दगी को पीड़ा की शक्ल देकर प्रस्तुत किया जाता है क्योंकि सामने कोई है जो इसे खरीदने में दिलचस्पी रखता है.जैसे दरवाजे पर आए रद्दी खरीदने वाले के साथ पुराने बेज़ार अखबारों का मोल-तोल होता है, वैसे ही इस गन्दगी का भी एक भाव होता है.जिस दिन, जिस जगह किसी खरीदार की बोली सही मिल जाती है, अखबारों की सलवटें खोल दी जाती हैं.पीड़ा उघड़ जाती है और वह इश्तिहारों का, खबरों का हिस्सा बन जाती है.शब्दकोष की परिभाषा के अनुसार एक सफल ‘पीड़ित’ वह है जो अपनी चालाकियों के हुनर अनुसार सलवटों की गन्दगी का अधिकतम मूल्य वसूलने में सफल हो जाता है.सच, यही पीड़ा की सही परिभाषा है.बाकी सब कोरी बकवास है.
(एक)
रात न जाने क्या पिया नोटों ने, सुबह उठे तो बदचलन होकर उठे.छोटे नोट बच गए, होश में थे.पर बङे नोट सब के सब स्याह हो गए.न्यूज़ चैनलों पर खबर चल रही थी.सरकार कह रही थी कि यदि ज़रुरत पड़ी तो ऐसा दोबारा किया जा सकता है.पहले कभी ऐसा हुआ नहीं इसलिए अर्थशास्त्री इस रायते को हज़म करने में अक्षम नज़र आ रहे थे.कोई कह रहा था स्वादिष्ट है तो कोई कह रहा था कि नीम कड़वा है.कुछ ही दिनों में नए नोट निकाले जाएँगे.कई लोगों को भरपूर तसल्ली तब जाकर मिली जब सरकारी वक्तव्यों से स्पष्ट हो गया कि नए नोटों पर भी गाँधी बाबा ही होंगे, उसी मुद्रा में मुस्कुराते हुए, जैसे कुछ हुआ ही न हो.ब्लैक मनी, आतंकवाद, कर चोरी, कैशलेस जैसे कई संवेदनशील मुद्दों को जानबूझकर दरकिनार करते हुए पचपेड़ा में कई बुढ़बक थे जो ये सवाल पूछ रहे थे कि आखिर बड़े नोट ही क्यों.जिज्ञासा ऐसी कोई तीव्र नहीं थी पर कुछ अधपके ज्ञानियों को ठहाका लगाने का अवसर मिला तो कैसे चूकते.
“जैसे-जैसे गाँधी बाबा का कद बढ़ेगा...और गाँधी बाबा क्या...किसी का भी.....जैसे-जैसे किसी का कद बढ़ेगा, उसके बदचलन होने की संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी.”
हीरा सिंह को अक्सर गाँव में काम-धंधा नहीं रहता था.गाँव के बाकी पढ़े-लिखे लोगों से वह खुद को ज्यादा उस्ताद समझता था.वह अकेला ही था जिसने बीए और एमए दोनों ही फर्स्ट क्लास में पास किये थे और फिर भी गाँव की ख़ाक छानने को मजबूर था.एक-आध बार मथुरा रिफाइनरी के कांट्रेक्टरों ने उसे रुपये-पैसे का लेन-देन सँभालने का काम भी दिया था, पर वह कहता था कि उसे ‘जमता नहीं’ है.नौकरी पर नया-नया लगा था तो ईमानदारी का गज़ब फितूर था.स्कूल के मास्टरों ने पहली कक्षा से घोट-घोट कर पिला दिया था-आनेस्टी इज बेस्ट पॉलिसी,सो नए-नए गुलाम को सेवा का पहला अवसर मिला तो उड़ेलने लगा अपनी सारी पढ़ाई अपने व्यवहार में.कुछ तो ईमानदारी के फितूर का उतर जाना था और कुछ बार-बार मालिकों की डपटने की आदत...जिसने उस ठेठ जाट के अंदरूनी सिस्टम को हिला दिया.उसने अलविदा कहा और वापस गाँव आकर खेती-बाड़ी में लग गया.अनपढ़ आदमी अगर शहर जाकर किसी के द्वार पर चौकीदार भी हो जाए, गाँव वापस आने पर भी साहब ही कहलाता है.पर एक पढ़ा-लिखा एमए पास लड़का अगर गाँव में ही बैठा रहे तो भी मजदूर-किसान ही कहलाता है.खैर, उसकी समझ इतनी भी नहीं विकसित हुई थी कि उसे अपने व्यक्तित्व की परिभाषा में कोई विशेष रूचि हो.
आठ नवम्बर को जब नोटबंदी का एलान हुआ तो पूरे देश में अफरा तफरी का माहौल था पर हीरा के चेहरे पर शिकन तक न थी. “जब नोट चालू हते तब कछू न उखरो हम पे, तो अब का उखार लिंगे.”और सचमुच दो तरह के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा था.एक वे जिन के पास अपार संपत्ति थी, अब रंग चाहे कुछ भी हो...सफ़ेद या काला...अपार संपत्ति, अपार संपत्ति होती है; और दूजे वे जिनकी न पिछली सात पुश्तों ने भरपेट भोजन खाया और न आगे आने वाली सात पुश्तों के खाने की उम्मीद है.एक वे हैं जो अपना पैर जहाँ जमा देते हैं लाइन वहाँ से शुरू होती है और दूसरे वे हैं जो अपने दोनों पैर हाथों में लिए फिरते हैं कि न जाने कल की लाइन कहाँ से शुरू करनी पड़े.इन दोनों ही तबकों को नोटबंदी से कोई मतलब नहीं था.जिन दो तबकों को नोटबंदी की प्रत्यक्ष या परोक्ष मार पड़ने वाली थी उनमें एक लोअर मिडिल क्लास यानी निम्न मध्यम वर्ग.बच्चे की स्कूल फीस, पढ़ाई का खर्च, घर का किराया, रसोई, राशन और शाम की दारु का खर्च सब में ही लेन-देन कैश में चलता था.कुछ वाजिब खर्च महीने के अंत में आते थे पर रोज़ शाम की दारु का खर्च अक्सर ऊपरी इनकम से निकलता था.और अब नोट बंद...मतलब ऊपरी इनकम बंद.
अपर मिडिल क्लास भी प्रभावित था पर उसकी समस्याओं का गणित कुछ और था.पैसा छुपाएँ कहाँ? इनकम टैक्स को पता चल गया तो? अब तक क्यों 'डिक्लेअर'नहीं किया? कभी-कभी लगता है कि कैसा लचर क़ानून है.अगर कानून में जेल भेजने का प्रावधान है तो भेज दो...एक बार उतरेगी इज्जत...उतर जाने दो...बस.दिक्कत तब आती है जब क़ानून गीला होकर सॉफ्ट हो जाता है.सॉफ्ट होने के इंतज़ार में और उससे बच निकलने की तृष्णा में आदमी जो तिल-तिल पिसता है वह बहुत तकलीफदेह है.शिकंजे में तो आ गए और ये भी पता है कि बच ही जाना है...फिर भी साली एक साँस लटकी रहती है कि कहीं कड़क अफसर आ गया तो...? कहीं नहीं माना तो...?
जब तक नोट बंदी को एक पखवाड़ा गुजर नहीं गया, हीरा को अपना सही-सही वर्गीकरण पता ही नहीं चला.उसे लगता था वह सबसे निचले पायदान पर है और नोट बंदी उस जैसे लोगों का कुछ नहीं उखाड़ सकती.कुछ दिन उसने इस भ्रम को बखूबी निभाया भी.गाँवों में अव्वल तो भाजी-तरकारी लगती नहीं और जो थोड़ी बहुत लगती है उसकी जरूरत खेत-खलिहान से पूरी हो जाती है.चाय-पानी, मजूरी का उसका उधार खाता चलता ही था...तो वहाँ भी कोई दिक्कत नहीं थी.पहली बार दिक्कत उसे तब आई जब उसकी जेब का कैश ख़त्म हो गया और दारू तक के लिए पैसे नहीं थे.अब ठेके वाला तो उधारी चढ़ाने से रहा.उसे खेतों में कम पानी मंज़ूर था, दाल में कम दाल मंजूर थी, सब्जी में कम सब्जी मंजूर थी पर दो चीज़ें ऐसी थीं जो उसे कतई मंजूर नहीं थीं.एक तो उसके बालों में कम तेल और दूसरा उसके दिन भर की दारू की कम ख़ुराक.छोटे, गरीब परन्तु पढ़े-लिखे किसानों की सज्जनता के दो ही पहचान चिन्ह हैं.एक तो उनके इस्तरी किए हुए नए से लगने वाले कपड़े और दूसरे उनके करीने से कढ़े हुए बाल जो भयंकर आँधी-तूफ़ान में भी एक दूसरे से चिपके रहने का माद्दा रखते हों.अब वह ऐसा कोई रईस तो था नहीं कि रोज नए कड़े बदल कर पहनता.तेल, मगर सस्ता था और वह कम से कम बालों में तेल चुपड़ कर अपने शिक्षित होने की साख बरकरार रख सकता था.बालों में तेल चुपड़े जाने और हर शाम शराब का पउआ पीने को लेकर वह सनक की हद तक नियमित था.इन दोनों में से कौन सी चीज़ को लेकर उसकी सनक बड़ी थी, ये वह खुद नहीं जानता था.माना कि शौक सिर्फ बड़े लोगों का फैशन हैं पर कुछेक छोटे-मोटे शौक तो गरीब आदमी भी निभा सकता था.जब उसके जेब के सिक्कों की खनक बंद हो गई तो नोटबंदी के मारे दूसरे आम लोगों की तरह उसने भी बैंकों की लाइन में लगना शुरू कर दिया.दिन भर धूप में तपता वह बैंक से कुछ रुपये निकाल लाता और शाम को ठेके की लाइन में लग जाता.हालाँकि ठेके पर कोई लाइन नहीं रहती थी पर सुबह से बैंक की लाइन में लगे हुए ही उसे यह आभास होता था कि वह ठेके की लाइन में ही लगा है.जो अंतिम उद्देश्य होता है, सारा संघर्ष उसी से परिभाषित होता है.बैंकों की लाइन में कोई रूपया निकालने नहीं लगता, वह लगता है अपने बच्चे की फीस भरने, तरकारियाँ खरीदने और बिजली का बिल भरने के उद्देश्य से.इसलिए ये संघर्ष भी फीस, तरकारियों और बिलों का संघर्ष है...न कि सरकार की नीतियों का और न ही एटीएम में रुपया मुहय्या न कराने वाले बैंकों के दिवालियेपन का.पत्नी खूब धौंस देती, मर जाने की धमकियाँ देती पर शराब पीकर जो अमरत्व हीरा पा चुका था उस पर इन गीदड़ भभकियों का कैसा असर?
उस दिन सुबह-सुबह हीरा की चौपाल में पुलिस वाले आ धमके.बच्चों की भीड़ जैसे गाँव में घुसती हुई कार को कुतूहलवश घेर लिया करती करती है या फिर चुनाव के दौरान नेताओं के हेलीकोप्टरों के आस-पास उमड़ पड़ती है, वैसी ही गाँव वालों की भीड़ उस दिन पुलिस को देख कर हीरा की चौपाल पर उमड़ पड़ी थी.कुतूहल इस बात का नहीं था कि पुलिस क्यों आई है बल्कि इस बात का था कि जैसे फिल्मों में दिखाते हैं पुलिसवालों को पूछ-ताछ करते हुए क्या पुलिस वाकई वैसे ही पूछ-ताछ करती है.हीरा का पूरा परिवार जमा था.उसकी बूढ़ी अम्मा की खाँसी बता रही थी कि अभी-अभी घटिया सी तम्बाकू की चिलिम के चार-छः कश लगा कर आई है.बड़ा भाई धनपत जिसे गाँव की जल्दबाजी ने धनिया कह कर प्रचारित कर दिया था, मुँह लटकाए एक ओर खड़ा था.रजावल और हसनगढ़ दोनों थानों के दरोगा दो अलग-अलग खाटों पर आमने-सामने बैठे थे.हीरा दयनीय स्थिति में उन दोनों खाटों के बीच ज़मीन पर बैठा था.गाँव की भीड़ चारों ओर से उन्हें घेरे हुए खड़ी थी.
“छोरा!!! दरोगा जी के काजे चाय ले आ.”दूर खड़े धनपत ने एक लड़के को डपटते हुए कहा.
“चाय तो पी लोगे दरोगा जी...?”उसने सुनिश्चित करने हेतु आगे पूछा.
“नहीं नहीं...रहन देयो.”रजावल के दरोगा जी बोले.
“पेट में कब्ज़ है गई ऐ, लाल चाय ना पीयें दरोगा जी...बस ग्रीन टी पीयें....ग्रीन टी होए तो ले आबो.”
धनपत बगलें झाँकने लगा.कुछ समझ न आया तो हसनगढ़ के दरोगा से मुखातिब हुआ.
“आप लेओगे लाल चाय?”
“हाँ इनके लये मँगा दो.”हसनगढ़ के दरोगा के साथ का अर्दली बोला.
“जाओ...ले आओ.”
सीमाओं का अपना अलग समीकरण है, अपना अलग चरित्र.फिर चाहे सीमाएँ देश की हों, समुद्र की, आकाश की, गाँव-देहात की, खेतों की या फिर इंसानों की.दुनिया के सारे बुद्धिजीवी सीमाओं के गणित को एक सिरे से नकार देते हैं और सभ्यता की प्रगति के लिए गैर ज़रूरी मानते हैं.यहाँ तक कि उन्हें कोई सिर्फ ‘बुद्धिजीवी’ शब्द की सीमाओं में बाँधना चाहे तो भी वे विद्रोह कर उठते हैं.हसनगढ़ के दरोगा को सूचना मिली थी कि रज्जो की लाश एक खेत में मिली जो उनके थाना क्षेत्र की सीमा में आता है.पचपेड़ा गाँव रजावल की सीमा में पड़ता था और रजावल थाने के दरोगा को सूचना मिली थी कि रज्जो की लाश घर से बरामद हुई है.हसनगढ़ थाने के दरोगा ने चाय के लिए स्वीकृति दी तो दूसरे दरोगा आश्वस्त हो गए कि चाय पी कर वह चले जाएँगे और सीमा का विवाद समाप्त हो जाएगा.विवाद को अंतिम रूप से समाप्त करने के लिए रजावल के दरोगा ने हीरा से औपचारिक हामी भी भरवा ली.
“क्यों हीरा? जे घर मेंई तो भयो...?”
“हाँ दरोगा जी.” हीरा ने उनकी आँखों से आँखें मिलाकर सहमति जताई.
“कौन्ने देखी लाश...? सबसे पहले किसने देखी थी लाश?”रजावल के दरोगा कुँवर सिंह ने पूछा.
“या छोरी ने देखी...अम्मा के संग कमरे मेंई सोई हती.”धनपत बोला.
हीरा की सत्रह साल की बेटी भीड़ में से निकलकर थोड़ी आगे आ गई.
“शुरू से बता...क्या हुआ था?”
“साब हमें काम पे जाने है...आज जरूरी है....कोर्ट की तारीख है.” हीरा ने विनती की.
“जे तेरी जोरू से बड़ी है कोर्ट की तारीख?”दरोगा ने ऊंचे स्वर में डपटते हुए कहा.
“तेरी जोरू मरी है और तोये कोर्ट की तारीख की पड़ी है?”
उठता हुआ हीरा दरोगा की डपट सुनकर फिर वहीं बैठ गया.
“ठीक है कुँवर साब...कोई बात नहीं..गलती है गई..कोई बात ना.”चाय ख़त्म करके हसनगढ़ के दरोगा जी चलने के लिए उठ खड़े हुए.
“हाँ..बताओ...शुरू से बताओ और सब कुछ बताओ.”सत्यवीर सिंह के चले जाने के बाद रजावल का दरोगा कुँवर सिंह हीरा की बेटी सुषमा की ओर मुड़ा.
जिस कमरे में वह सुषमा के साथ सोई थी, रज्जो की लाश उसी कमरे के गाटर में झूलती पाई गई थी.घर वालों ने जब लाश उतारी तो उसका गला सुषमा के दुपट्टे का सहारा लेकर लटका हुआ था.सुषमा संभवतः वह दुपट्टा अपने सिरहाने रखकर सोई होगी.
हर पुलिस केस का अपना एक आकाश होता है.कभी-कभी ये आकाश एक छतरी के नीचे समा जाता है और कभी-कभी आसमान के दूर वाले छोर पर इन्द्रधनुष की तरह छँटकर खिलता है.जैसे शिकारी हिरण के शिकार के लिए घात लगाकर उसका पीछा करता है...पर हर हिरण का नहीं.वह उन्हीं हिरणों का पीछा करता है जिनके धरातल में सुगंध होती है.और सुगन्धित धरातल उन्हीं हिरणों के होते हैं जिनकी नाभि में कस्तूरी होती है.
धनपत और हीरा दो भाईयों के बीच अठारह एकड़ जमीन है.होली के बाद वाले महीने में जब गेहूँ की बालियाँ थ्रेशर के डैने जैसे मुँह का ग्रास बनती हैं तो थ्रेशर के सामने खड़े हुए धनपत को सोनार होने का एहसास होता है.गेहूँ के दाने तो छोड़ दीजिये, सोने की चमक उन बालियों से निकले हुए भूसे के सामने पानी माँगती है.धनपत अनपढ़ रह गया.स्कूल जाता था पर मास्टर से उसका उजड्ड रवैया सहन न हुआ.वह बड़े बुजुर्गों से सुनता आया था ‘विद्या ददाति विनयम’....फिर एक दिन उसने गाँव में किसी बड़े बुजुर्ग से अपनी शंका का समाधान करते हुए पूछा, ‘ताऊ, जे ‘विनयम’ आ गई तौ ऐसो तो नाय कि हम जाटई न रह जाएँ’.
ताऊ उसके सवाल पर हँसने लगा और बोला, ‘तेरो शक एक दम सई है, ‘विनियम’ आय गई तौ तू जाट ना रह जाएगो...कल्ल से तेरो स्कूल जानो बंद’.ताऊ ने उसके पिताजी से कह दी और उसका स्कूल छूट गया.हीरा को पढ़ाई में रुचि इसलिए हो गई क्योंकि उसे अपने खेतों में मजदूरी करना पसंद नहीं था.स्कूल जाने लगा तो कम से कम पानी काटने और हल जोतने के काम से तो बच गया.हीरा के घर में एक ट्रैक्टर था, एक पुरानी सेकंड हैण्ड मारुती वैन थी और एक मोटर साइकिल थी.पत्नी के लटक कर जान देने के उपलक्ष्य में दो-दो थानों के दरोगा वहाँ इसलिए पहुँच गए थे क्योंकि उन्होंने हिरणी की नाभि में कस्तूरी की सुगंध सूँघ ली थी.अर्थशास्त्र के किसी भी बेंचमार्क पर हीरा और धनपत गरीब नहीं कहे जा सकते....पर ये रज्जो की मृत्यु के पहले की बात थी.उनके घर का एक सदस्य गले में दुपट्टा लगाकर मर गया था और दो-दो थानों के दरोगा गिद्ध बनकर उनके सामने बैठे लार टपका रहे थे.अब वे पीड़ित थे और पीड़ित...गरीब होता है.
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कृति : saad-qureshi |
(दो)
“कौन के बुँदे उठा लाई?”विनोद ने पूछा.
“अम्मा के हैं...उतार के बक्से में रखे थे...पहन आई...कैसे हैं?”
“अच्छे हैं....”
करतार सिंह के बगीचे में सुषमा आम के घने पेड़ के नीचे बैठी थी.लगसमा इंटर कॉलेज में वह विनोद के साथ बारहवीं में आई थी.पढ़ाई में दोनों ही अच्छे थे.त्रिकोणमिति के एक प्रश्न में जब वह उलझी तो उसे विनोद के सिवा कोई दिखाई न दिया जो उसकी मदद कर सकता था.दूसरे वह उसके गाँव का भी था.त्रिकोणमिति का सवाल तो हल हो गया पर एक नए सवाल ने अनजाने में ही सिर उठा दिया.बात-चीत में बात शाहरुख़ खान की निकल आई और मानो दोनों ने समर्पण कर दिया.उस दशक के लड़कों को माँ-बाप द्वारा ये सख्त हिदायत दी जानी चाहिए थी कि किसी लडकी से किसी भी विषय पर बात भले कर लेना पर कभी शाहरुख़ खान की बात मत करना.शाहरुख़ खान का ज़िक्र आया नहीं कि लड़की के ड्रीम सीक्वेंस चालू.
“एक बात कैनी ऐ.”विनोद बोला.
“बोल.”
वह कुछ देर चुप रहा.रज्जो को लगा कि थोड़ी देर में सोच-समझ कर बोलेगा.आखिर इज़हार में कोई नाज़-ओ-अंदाज़ भी होना चाहिए.
“अरे बोलेगौ के जाऊँ मैं?”सुषमा एक नया ड्रीम सीक्वेंस बुनते हुए अधीर हुई जा रही थी.
“मैं जब छोटो हतो तौ एक दिन ताऊजी बगीचे में जेई जगह बैठे हते...दोपहरिया में हलके होन आये हते.”विनोद हलके से मुस्कुराने लगा.सुषमा का ड्रीम सीक्वेंस टूटा तो वह गुस्सा करने लगी.
“बावरे...तू बावरो को बावरोई रेगो.मोए घर जानो ऐ.”वह बोली.
“अरे पूरी बात तो सुन जा.”वह एक नई उम्मीद में बैठ गई.
“उस दिन मैं पेड़ के ऊपर बैठके हलको है रहो ओ.वो वाली डाली है न...उस पे बैठ के... !” इतना कह कर वह जोर से हँसा.
रज्जो उसके इस मज़ाक पर जोर से चिल्लाई.उनकी आवाजें किसी के कानों में पड़ीं और देखते ही देखते धनपत अपने साथ आधा दर्ज़न लठैतों को लेकर आ पहुँचा.गुस्से का लावा उसकी आँखों से उतरकर उसके लट्ठ में समा गया.उसने विनोद की पीठ पर एक ज़ोरदार प्रहार किया.तभी किसी ने उसकी लाठी पकड़ ली.
“जे पंचायत को मामलो है...मार पीट करैगो तो पुलिस केस बनैगो....”
अन्य लोगों ने समर्थ किया तो धनपत रुक गया.
उसी दिन शाम को पंचायत जुड़ी और तय हुआ कि गाँव की खुशहाली और शान्ति के हित में विनोद सुषमा से कभी नहीं मिलेगा.
पचपेड़ा के पिछले हिस्से में जिसके किनारे लग कर एक चौड़ी और गहरी नहर बहती है, एक कुम्हारों की बस्ती है.उस नहर के आस-पास उपजाऊ जमीन में फसलें लहलहाती हैं.कभी मक्का की, बाजरा की, गेहूँ की, चरी, गन्ने और अरहर की.नहर के पानी से फसलों के साथ कुछ आम और जामुन के बगीचे भी तर जाते हैं.उस नहर के दूर वाले छोर पर एक पुल बना है, खेतों से काफी ऊँचाई पर; इस पुल पर चढ़कर आस-पास के गाँवों में नहर के पानी का बरसता हुआ आशीर्वाद देखा जा सकता है.नहर तकरीबन पूरे साल ही पानी से भरी रहती है.
शहरों में फ्रिज जरूर आ गए हैं पर गाँवों में आज भी ठंडा पानी घड़े ही मुहय्या कराते हैं.उसी तरह दीवाली की चकाचौंध पर शहरों में जरूर फाइबर और प्लास्टिक के चीनी सामानों ने अँधेरा पोत दिया है पर गाँवों में आज भी दिये और मोमबत्तियाँ ही उजियारा करती हैं.कुम्हारों का व्यवसाय गर्मी के घड़ों और दीवाली के दियों तक सिमट गया तो वे आस-पास के खेतों में देहाड़ी मजदूरी करने लगे.खेत जुतवा देते, निराई, गुड़ाई से लेकर बुवाई, सिंचाई और कटाई सब में अपना हाथ बँटाने लगे.गाँव के ठाकुरों में जिनके पास बड़ी जमीनें उनके बच्चों को वैसे भी अब खेती में रूचि न रह गई थी.कुम्हारों से काम कराते समय उन्हें जो मालिकाना एहसास होता था अब बस उसी एहसास ने जातीय अर्थशास्त्र को सँभाल रखा था.दिये और घड़े बनाकर वे वर्ण व्यवस्था की जिस सीढ़ी पर पहले खड़े थे, आज भी वहीं खड़े थे.भूमिहरों पर जितने आश्रित पहले थे आज भी उतने ही थे.कहीं एक चिंगारी जरूर थी जो दिए की लौ से दूर गिरकर इधर-उधर भटकने लगी थी.समयांतराल में समाज की जागरूकता और सरकारों के साक्षरता अभियानों ने जोर पकड़ा, तो क्या जाट और क्या कुम्हार, सब के सब इसके हिस्सेदार बन गए.ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ कुम्हारों ने ही शिक्षा में अपने बच्चों का भविष्य देखा.जाटों में भी ऐसे जागरूक लोग थे जिन्होंने शिक्षा के चमत्कार को स्वीकारा और अपने बच्चों को कॉलेज और विश्वविद्यालयों में जाने के लिए प्रेरित किया.दिक्कत ये थी कि अच्छी शिक्षा को जाति-बिरादरी का अंतर बिलकुल मालूम न था.इसलिए जब हाई स्कूल में, इंटर में या डिग्री कॉलेज में गाँव का कोई कुम्हार किसी जाट को पछाड़ कर आगे निकल जाता तो गाँव में दबे-पाँव एक तनाव सा घुस आता.पहले-पहल इस तनाव ने कॉलेज जाते नई उम्र के लड़कों पर वार किया.धीरे-धीरे जब पंचायतें इसे समझने और रोकने में विफल हो गईं तो कॉलेज के छोटे-मोटे झगड़े गाँव में वर्ग संघर्ष का रूप धरने लगे.नए उभरते आर्थिक समीकरणों ने दोनों ही वर्गों की एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ा दी थी.होना यह चाहिए था कि वर्गों के बीच बढ़ते हुए संपर्क से जाति-भेद की दूरियाँ कम होतीं पर हुआ इसका उल्टा.कॉलेज जाने वाले पढ़े-लिखे समझदार युवाओं ने नंबरों की आपसी होड़ को फिर से वर्ग-भेद का जामा पहना दिया.
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कृति : saad-qureshi |
(तीन)
“हीरा सींग...!”अर्दली ने पुकारा.
“हम्बे...!” उसने उत्तर दिया.
“आओ बैठो और पूरी बात बताओ....देखो हीरा सीधी-सीधी बात करुंगो मैं....इन्वेस्टिगेशन में साफ़-साफ़ नज़र आ रो है कि तुमने अपनी बीवी की हत्या करी है...चौंकि तुम्हारी लड़की को चक्कर हतो कुम्हारन के लौंडा विनोद सै...और तुम्हारी बीवी लड़की की शादी उस लौंडे से करने के फेवर में थी.जे बात तुम्हें और तुम्हारे पूरे घर को पसंद नाई.”
“जे सब झूठ है साब.”
“तो फिर तुमने हमें सुषमा के चक्कर वारी बात पहले चौं ना बताई?”
इंटर की परीक्षा देते ही विनोद और सुषमा घर से भाग गए.विनोद के दोस्तों ने जोखिम उठाकर शहर में उनके रहने की व्यवस्था की.कुछ दिनों लुका-छुपी खेलने के बाद दोनों एक लॉज में पकड़ लिए गए.वह खुद भी चाहते थे कि पकड़ लिए जाएँ क्योंकि लॉज का खर्चा अब उनके बस के बाहर हो चला था.गाँव में भी कुम्हारों के परिवारों पर दवाब था कि जो व्यवस्था चली आ रही है फ़िज़ूल उसके साथ छेड़खानी न की जाए.हिंसा नहीं भड़की थी पर इतना ज़रूर था कि अगर मामला जल्दी ही सुलटा न लिया गया तो कोई न कोई काण्ड ज़रूर हो जाएगा.हीरा ने बदनामी के डर से पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई थी पर उसकी अपनी छान-बीन चल रही थी.पकड़े जाने के बाद दोनों पक्षों ने पंचायत के सामने लड़के की पिटाई की और उसे हिदायत दी कि ऐसा दोबारा हुआ तो दोनों की लाशें निकलेंगी.
“बदनामी के डर से ना बताई साब.”
“और भी कुछ है जो तुमने छुपाओ है.”दरोगा कुँवर सिंह का सुर सख्त हो गया.हीरा ने बस हामी में अपना सिर हिलाया.
“कछू दिना पहले....धनपत की सगाई तय भई ऐ.”
“का? थारे बड़े भाई की? कितने साल कौ है बो?”
“पचपन साल कौ?”
“और कौन दै रौ वे वाये अपनी छोरी?”
“पचास हज़ार में करी ऐ.सुनी-सुनाई बता रौ ऊँ.”
दरोगा कुँवर सिंह के लिए केस में नया मोड़ था.केस के नज़रिए से चौंकाने वाली बात थी पर दरोगा के व्यक्तिगत नज़रिए से नहीं.इलाके में लड़कियों की संख्या कम है.सब मर्दों की शादियाँ नहीं हो पातीं.धनपत के मामले में बात कुछ और थी.शुरू-शुरू में जय गुरुदेव का भक्त हो गया था...सो कहने लगा कि शादी नहीं करेगा.घर वालों ने लड़की पसंद कर ली थी पर जब दूल्हा ही अड़ जाए तो क्या किया जा सकता है.कुछ दिन माँ-बाप ने मान-मनौव्वल किया पर उसका निर्णय अटल रहा.थक हार कर उन्होंने उसी लड़की से हीरा की शादी करा दी.
केस को एक सप्ताह से ज्यादा हो चला था औए कुँवर सिंह ने रत्ती भर भी जाँच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की.एक बार गाँव में जाकर ही पूछ लिया होता तो किस्से की सारी गाँठें खुल जातीं.बिना कोई ठोस पड़ताल किये वह सिर्फ इस जुगाड़ में था कि किसी भी तरह सौदा फाइनल हो जाए.अपने मन में उसने सारा गणित लगा लिया था.जमीन से कितनी आमदनी होती होगी? घर में दो-दो वाहन हैं...ऊपर से हीरा भी शहर में किसी वकील के यहाँ कोई काम करता है.अगर रोज़ भी पउआ पीता होगा तब भी खर्चा कोई ज्यादा नहीं होगा.कुल मिलाकर उसके मन में डेढ़ लाख की छवि उभरी.अगर हीरा सिंह डेढ़ लाख रुपये दे दे तो केस फ़ौरन वहीं का वहीं सुलट जाए.पर हीरा सिंह कोई मिस्री की डली न था कि मुंह में डाली और चूस ली.साम, दाम, दंड, भेद...हमारे शास्त्रों में जिन कलाओं का वर्णन है उन्हें सही समय पर इस्तेमाल में लाना चाहिए नहीं तो कस्तूरी तो दूर हिरणी की पूछ भी न मिले.
कुछ दिन और गुजरे पर कोई सुराग न मिला.कुँवर सिंह झुंझलाने लगा.स्टाफ के लोग क्या कहेंगे? थू-थू होगी कि इतना हलवा केस और इतनी तगड़ी पार्टी और दरोगा जी हैं कि बस रेगिस्तान में बुलेट दौड़ाए घूम रहे हैं.जल्दी कुछ करना होगा नहीं तो जिले के सारे थानों में खबर फ़ैल जाएगी.विडम्बना ये भी है कि अगर दरोगा के नीचे काम करने वाले सिपाही और अर्दली जान लें कि दरोगा में कोई ‘पोटेंशियल’ नहीं है तो वे भी उसके साथ सहयोग नहीं करते.न दरोगा का रौब रह जाता है और न कमाई.समय हाथ से निकलता देख एक दिन उन्होंने धनपत को थाने में तलब किया.
“ब्याह चौं ना करौ?”कुँवर सिंह ने पहले ही सवाल में उसकी नस कुचल दी.
“भगत है गयो हतो...ना करौ ब्याह.”जमीन पर गर्दन झुकाए बैठा था, गर्दन झुकाए ही उत्तर दिया.
“रज्जो तैने मारी?”
उसने गर्दन ऊपर उठाई और दरोगा की आँखों में आँखें डालकर देखने लगा.ट्रैक्टर के पहिये के नीचे जब साँप की पूँछ आ जाती है तो वह गर्दन उठाकर ऐसे ही फुंफकारता है.उसके एक कान में सोने की छोटी सी बाली थी, जिसका सुनहरापन उसके कानों के ऊपर से रिसते हुए पसीने की बूंदों ने हर लिया था.उसकी सुनहरी दमक में एक बासीपन था.सर पर साफा था.मेज़ के ऊपर सरकारी पंखा ‘घें घें’ की आवाज में चल रहा था.वातावरण में गर्मी थी पर आर्द्रता नहीं थी.उस कमरे की छत काफी ऊँचाई पर थी और थाने के विशाल प्रांगण में हरे-भरे पेड़ थे.केस हल हों न हों, नियम से हर साल अफसर, सिपाही, अर्दली, नौकर, माली, कैदी सब के सब विश्व पर्यावरण दिवस पर थाने में वृक्षारोपण कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे.जेठ की उस दोपहरी में बाहर सूरज आग उगल रहा था पर उस कमरे में, जहाँ दरोगा धनपत से पूछ-ताछ कर रहा था, मौसम सुहाना था.
“ये दीदे नीचे कर और बता...चौं मारी रज्जो?”
दरोगा ने अपने हाथ का डंडा उसके सिर पर दवाब देकर रखा.धनपत एक झटके में मुस्कुरा उठा.उसके दाँतों में दबी तम्बाकू की पुड़िया पूरी मसली जा चुकी थी और उसने दाँतों के बीच के रिक्त स्थान को सजावटी डिज़ाइन से भर दिया था.
रज्जो धनपत की शादी के खिलाफ थी.और दो महीने पहले जब उसने लड़की लाने की बात कही तब से नहीं बल्कि जब से वह हीरा को ब्याह कर आई तब से.अठारह एकड़ जमीन का बँटवारा होता तो हीरा के हिस्से में रह जाती नौ एकड़.और वह नौ एकड़ भी किसी काम की न रहती क्योंकि हीरा खेती का काम बिलकुल नहीं देखता था.पूरी की पूरी खेती धनपत सँभालता था और बहुत अच्छे से सँभालता था.हीरा को जैसे बचपन में खेती-किसानी रास न आती थी, बड़ा होकर भी उसे कोई रस न आया.जिस तरह खेती के घरेलू कामों से बचने के लिए बचपन में उसने स्कूल का सहारा लिया था, बड़े होकर नौकरी का सहारा लिया.शहर में एक वकील है पुरुषोत्तम अग्रवाल जिनकी वकालत एक जमाने में बहुत चलती थी.नई काबिलियत के नए वकील आ गए तो जैसे धन्धा ही ठप्प हो गया.धनपत उसी के यहाँ काम पर जाता है.काम ऐसा है कि आने-जाने की कोई पाबंदी नहीं है.जब जेबखर्च उठाना हो तो वकील के यहाँ हाजिरी लगा ली, नहीं तो सुबह से शाम तक शहर में यार-दोस्तों के साथ पंचायत जोड़ी और शाम को पी-पिला कर घर वापस.कोई झूठा गवाह जुटाना हो, या किसी गवाह को रुपया-पैसा देकर मुकरवाना हो, कभी-कभी मौका लगे तो खुद गवाह बन जाना, वह यही सब ओछे धंधे वह उस वकील के यहाँ करता था.दवा-दारू का खर्चा निकल आता था.नसीब से कभी कोई बड़ा केस लग गया तो अच्छी आमदनी भी हो जाती थी.इसके अलावा एक वकील के कर्मचारी की हैसियत से कभी मन हुआ तो तहसील में खड़ा होकर ‘कंसल्टेंसी’ भी कर लेता था.एमए पास था और दिमाग का तेज़ था तो तहसील में खड़ा होने भर से शाम भर का इंतजाम आसानी से कर लेता था.ऐसे ‘टैलेंटेड’ लोगों की क़द्र अक्सर उनकी पत्नियों को नहीं होती और पत्नियाँ सदा उस आदमी की ओर हसरत भरी नज़रों से देखती हैं जिसमें सारे ऐब हों बस वो एक ऐब न हो जो उनके पति में है.
हीरा भी जानता था कि ओछी कमाई से बरकत नहीं होती पर उसे बरकत चाहिए ही कहाँ थी.वह तो बल्कि इस सोच से भी दो कदम आगे था..ठीक है...ओछी कमाई से बरकत नहीं होती न सही.कम से कम बुरे व्यसनों में तो मेहनत की कमाई मत लगाओ.वह समझ नहीं पाता था कि अपने शराब के व्यसन को संतुष्ट करने के लिए वह ओछी कमाई करता था या फिर उसकी कमाई ओछी थी इसलिए वह व्यसन करता था.
ब्याह के कुछ महीनों तक तो उस पर रज्जो छायी रही.तब उसे शराब की लत भी नहीं थी.बस उसे घर में रुकना और खेती करना बिलकुल पसंद न था.
ईश्वर की सौगंध... ये महज़ एक इत्तेफाक ही था कि जिस भगतपने में धनपत ने रज्जो से ब्याह करने से इनकार किया था वही रज्जो ब्याह के दो महीने बाद ही उसको भाने लगी थी.हीरा वकील की खिदमत में घर से बाहर रहता था और रज्जो खेती-बाड़ी में धनपत का हाथ बँटाती थी.तब उनके पिताजी जिन्दा थे और अम्मा को मोतियाबिंद नहीं हुआ था.रज्जो का भरा-पूरा माँसल शरीर, चेहरे पर कटार की सी धार लिए नैन-नक्श, उसके सीने में घुसकर घाव देते और वह इस सिहरन में दोहरा हो जाता कि भला इतनी रूपवान स्त्री को कोई अपने भगतिये फितूर के लिए कैसे मना कर सकता है.खेती-बाड़ी से लेकर जानवरों को चारा देने तक, स्त्रियाँ घर के किसी काम-काज में मर्दों से कम सहयोग नहीं करतीं.गृहकार्य के इस निर्वाह में अनजाने में कभी-कभी ओढ़नी सिर से सरक भी जाती है.पुरानी सूती धोती में कमर झुकाकर रज्जो जब बैलों का चारा मींड़ती तो उसके पेट के हिस्से से हटी हुई धोती देखकर धनपत के सीने पर साँप लोटता था.आसमान से रोज़ ही न जाने कितने ही तारे टूट कर गिरते होंगे पर हर रोज़ कोई अपनी तकदीर आजमाने उन्हें देखने नहीं आता.वह तारा...जो टूट कर आपकी सुनहरी तकदीर के बहुत पास से गुजरा हो, उस तारे को बस एक बार और टूटकर गिरने की चाह लिए अगर कोई अपनी ज़िन्दगी भर की नींद गँवा दे तो भी अफ़सोस नहीं.
धनपत को रज्जो से ब्याह करने के लिए हामी भर लेनी चाहिए थी.
वह रोज़ रज्जो को देखता और अपनी फूटी तकदीर को कोसता.उसकी बिना आवाज वाली मुस्कान, जब वह उसे हँसाने के लिए जान-बूझ कर कोई मसखरी करता, सीधे उसके दिल पर घाव करती.हाथों में सिन्दूर लिए आईना देखकर जब वह अपनी माँग में उँगलियों का हल खींचती तो बरबस ही उसका मन होता कि वह आगे बढ़े और उन थकी-मादी उँगलियों का बैल बन जाए.एक दिन जब उसे भरपूर एहसास हो गया कि उसे रज्जो से इश्क़ हो गया है तो उसने फैसला किया कि वह भी अपने लिए रज्जो लाएगा.वह भी ब्याह करेगा.उसने अपने मन की बात अपने माँ-बाप के अलावा हीरा और रज्जो को भी बताई.रज्जो के ब्याह को छः महीने हो गए थे और हीरा के साथ अग्नि को साक्षी मानकर लिए गए फेरों की गाँठें आहिस्ता-आहिस्ता ढीली पड़ने लगी थीं.किसी विवाह के उम्र के आँकलन में अक्सर ये मायने नहीं रखता कि शिकायतें कितनी हैं पर ये ज़रूर मायने रखता है कि उन शिकायतों की उम्र क्या है.इसलिए शिकायतें चाहे कितनी भी हों, उन्हें कतरते रहना चाहिए.हीरा से रज्जो की शिकायतें बढ़ती गईं और हीरा कभी उन्हें कतरने की अभिलाषा न जुटा पाया.
धनपत के विवाह का निर्णय सुन हीरा बिलबिला उठा.उसकी आज़ादी का क्या होगा? अपना हिस्सा लेकर धनपत तो अपनी गाड़ी चला ले जाएगा पर उसका क्या होगा.धनपत का विवाह उसकी आज़ादी पर कुठाराघात था.रज्जो भी नहीं चाहती थी कि जोड़ीदार बनकर उसका साथ देने वाला बैल किसी और के खूँटे से जा बँधे.हीरा मतलबी है...और वह तो बैल बनकर जुतने से रहा.रज्जो को समझ आ गया कि अगर धनपत का ब्याह हुआ तो जायदाद का तो बँटवारा होगा ही होगा, जिम्मेदारियों का सारा भार भी उसी के कंधे आ गिरेगा.अभी समय ही कितना हुआ है? अभी तो उसके बच्चे होंगे, उनका जीवन होगा.नौ एकड़ से क्या होगा? और चार बच्चे हो गए तो? जमीन उस फटे हुए नोट की तरह हो जाएगी जिसके टुकड़ों की कोई कीमत नहीं होती.अगर वह धनपत को ब्याह करने से रोक सकी तो पूरा अठारह एकड़ का नोट वह अपने बच्चों को साबुत दे सकेगी.
“ज्वान आदमी साब...भगत पने में भटक गयो...पर रज्जो ने सारो बुखार उतार दियो...बिना ब्याह...बिना परिवार...बिना बच्चे...आगे को सारो जीवन कँटीलो सो लगन लग्यो...एक दम सूखो...दरदरो...धूप ई धूप...पसीना ई पसीना...बो कँटीले जंगल में एक मुलायम पगडण्डी की तरियाँ थी जिसके दोनों किनारे घने पेड़ हते...औरत की छाँव... आदमी के सारे अंधड़ पुचकार के बहला ले जाए साब...पर हीरा को कोई क़द्र ना ई वाकी...”
“चौं मारी रज्जो?”
धनपत की कहानी लम्बी खिंच रही थी.दरोगा का धीरज जवाब दे रहा था.उसके मस्तिष्क के पूरे वजूद पर डेढ़ लाख की नए लाल-लाल नोटों की गड्डी ने कब्ज़ा जमा रखा था. उसकी कहानी लम्बी होने लगती तो उस गड्डी की छवि धूमिल होने लगती थी.और फिर अचानक एक खुशबू आती...और लगता कि वह एक ‘पीड़ित’ को जन्म देने के बेहद करीब है.उन कुछ पलों में वह गड्डी उसके पटल पर उतराने लगती, वैसे ही जैसे प्राण छोड़ देने के बाद हल्का हुआ शरीर नदी के पानी में उतराने लगता है.
धनपत के विवाह करने के फैसले से उसके माँ-बाप को छोड़ कर घर में कोई खुश न था.पर घर में सत्ता हीरा की थी.वह पढ़ा-लिखा था, दुनियादारी समझता था.सत्ता का थोड़ा सा हिस्सा रज्जो ने अधिकार वश हथिया लिया था.धनपत बस उन दोनों के इशारों पर एक-एक कदम चलने वाला प्यादा था.सत्ताधारियों के समझाने पर भी जब धनपत ने ब्याह की रट न छोड़ी तो रज्जो ने उसकी सब्जी का नमक निकाल कर उसकी रोटियों में मिलाना शुरू कर दिया.चूल्हे में ईंधन उतना ही जलता था पर अब धनपत के हिस्से में आने वाली रोटियाँ कोयले की राख की तरह जली हुई होती थीं.एक रोज़ हीरा शहर गया तो रात को वापस नहीं लौटा.लोग बता रहे थे कि रात भर दारू पी के वकील के अहाते में पड़ा रहा.वह बरसात की रात थी.घर में क्लेश चल रहा था सो उस शाम धनपत भी ठेके पर गया और दो पउआ उड़ेल आया.कभी-कभी एक-आध पउआ पी लेता था पर हीरा की तरह व्यसनी नहीं था.धनपत की थाली में उस रात खाने का रंग आकर्षक था, चखा तो सब्जी में नमक बराबर था, दाल भी थी...एक दम ढाबे वाली जिसमें मक्खन का पंजाबी तड़का संतुष्टि से लगाया गया था.चाँद के रंग की रोटियाँ थीं और बाज़ार से खरीदा हुआ बासमती चावल भी था.उसे चावल बहुत पसंद था.उसके मुँह से शराब की दुर्गन्ध का भभका निकलकर सीधा रज्जो के नथुनों पर पड़ रहा था.चूल्हे के बगल में बैठकर वह खाना नहीं चाहता था पर रज्जो ने प्यार से पुकारा, ‘गरम-गरम फुल्के हैं, यहीं खा लो...’ और वह उसकी बात टाल न सका.
कमरे में घुप्प अँधेरा था.दालान में बँधे बैलों के गले में जब एक के बाद एक घंटी बजी तो धनपत को विचार आया होगा कि शायद बिजली जोर से कड़की है.उसे पूरी तरह याद नहीं पर एक साया था जो उसके कमरे में घुसा होगा, जिसने बाहर रास्ते की तरफ खुलने वाली खिड़की की सटकनी ‘चट’ की आवाज के साथ ऊपर खिसकाई होगी और तेज़ हवाओं के असर से खिड़की के दोनों पाट खुल गए होंगे.रसभरी के फल में जब कुदरत ठूँस-ठूँस कर हुस्न भरती है तब उस हुस्न के तनाव से उसका आवरण आहिस्ता-आहिस्ता दरकने लगता है.हदें पार करते हुए उस तनाव से एक दिन उस आवरण की सारी चौकीदारी किसी बासी फूल की पंखुड़ियों की मानिंद टूट कर बिखर जाती है.फर्क बस इतना रहा होगा कि खिड़की के पाटों का खुलना धनपत को एक रफ़्तार से गुजरता हुआ अंधड़ जान पड़ा होगा जबकि रसभरी का हुस्न दबे पाँव बड़ी होशियारी से, आहिस्ता से अपने आवरण में दरारें पैदा कर रहा होगा.बाहर छम-छम गिरती बारिश ने जमीन की ढीली मिट्टी को अपने में घोल लिया होगा क्योंकि ठंडी बयारों के साथ एक सोंधी सी खुशबू उन पाटों के खुल जाने से कमरे में घुस आई थी.वह सुगंध रज्जो की काँखों के सूख गए पसीने की सुगंध के संगम से धनपत के सीने में हाहाकार कर रही होगी.शराब का सारा सुरूर जो शायद उसके मन में रिश्तों की सीमाओं का प्रतिरोध पैदा करता, ऊँचाई से गिरे काँच के गिलास की मानिंद टूट कर बिखर गया होगा.उसके दिल की धड़कन उसके हाथों में उतर आई होगी जब उसने रज्जो की कमर में हाथ डाला होगा.
“मैंने ना मारी रज्जो!”दरोगा के बढ़ते दवाब को उसने नकारते हुए कहा.उसके हाथों में रज्जो की कमर का स्पर्श जिंदा हो चला था.वह बिलबिला उठा और दोहराते हुए बोला.
“मैंने ना मारी रज्जो, साब!”
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कृति : saad-qureshi |
(चार)
एक महीने के ऊपर हो चला था.कुँवर सिंह की गड्डी का पता अब भी मुकम्मल न हुआ था.वह खीझने लगा.वह लाचार और पीड़ित महसूस करने लगा.पुलिस विभाग की सारी साख और उसका बीस साल का पुलिसिया अनुभव दाँव पर लगा था.वह मेहनत करता तो और भी सुराग मिलते पर मेहनत करके रुपया कमाने में जैसे उसे बैल के सींग चुभते थे.उसने अपनी सारी ज़िन्दगी एक ही कला सीखी थी...दवाब बनाओ और माल कमाओ.एक दिन उसके खबरी ने खबर निकाली कि हसनगढ़ का दरोगा हीरा से मिला था.पहले तो उसे लगा कि अपना रोना रोने गया होगा.उसकी आत्मा की खुजली जब बढ़ गई तो उसने हीरा को दोबारा थाने में तलब किया.इस बार उसने उसकी बेटी सुषमा को भी बुलाया था.घर की जनानी को केस में लपेट लो तो घर के मर्दों पर केस सुलटाने का दवाब बढ़ जाता है.पूछ-ताछ के लिए पहले सुषमा को कमरे में बुलाया गया.साथ में एक महिला कांस्टेबल भी थी.कमरे का पंखा ‘घें घें’ की आवाज के साथ धीरे-धीरे रेंग रहा था.
“विनोद के साथ सिर्फ चक्कर हतो या सम्बन्ध हते?”महिला कांस्टेबल ने पूछा.
“हम प्यार करे ए वासे.”उसने छोटा सा बेधड़क जवाब दिया.
“बहुत तेज़ है छोरी...!”कुँवर सिंह ने बीच में चुटकी ली और एक हलकी सी मुस्कान उसके होठों पर पसर गई.
गहराइयों में न जाने कौन सा आकर्षण होता है कि साँप की चाल से रेंगता हुआ पानी उसके आगोश में आकर मुक्त हो जाता है.पानी जब आदमी के अन्दर जाता है तो प्यास बुझाने के सुकून से आत्मा को तर देता है पर जब आदमी पानी के अन्दर जाता है वह छटपटाता है.गहराइयाँ उस रीतेपन को भरने के लिए, जिसे उमड़ता-घुमड़ता पानी नहीं भर पाता, मिट्टी की तलाश में रहती हैं.मिट्टी छटपटाती है उनकी गोद में समा जाने के बाद पर पुल के नीचे उस भँवर का पानी अपने स्थिर अंतर्मन से पुकार लगाता है और मिट्टी उस गहन स्थिरता के वशीभूत उसके बाहुपाश में चली आती है.
उस पुल के नीचे विनोद ने सुषमा को नहर का वह बिंदु दिखाया था जहाँ अक्सर भँवर जन्म लेती थी.कैनाल इंजिनियरों ने एक गड्ढा छोड़ दिया था उस पुल के नीचे जो शांत ठहरे हुए पानी की गहराइयों में ले जाता था.एक कयास ये था कि सरकार ने उनका वेतन ठीक से न दिया हो इसलिए इंजीनियरों ने शरारत की हो.दूसरा किस्सा ये था कि शायद सरकार की उस नहर के विस्तार की कोई योजना रही हो या फिर समयांतराल में, जब नहर में पानी का स्तर बढ़ जाए, उस पुल को और ऊँचा करने की योजना रही हो, उस जगह बुर्ज बनाने के लिए गड्ढा छोड़ा था.भविष्य की रेखाकृति जो भी रही हो, वर्तमान में उस गड्ढे की गहराई पानियों को दूर-दूर से आकर्षित कर अपने में समाहित कर लेती थी.छः साल पहले केहर सिंह के घर का पानी उस भँवर में आ समाया था.गाँव के एक जाट लड़के से उसे इश्क़ हो गया और गाँव की भाई-बंधु वाली रिश्तेदारी में पंचायत वालों को पानी का उल्टा बहाव पसंद नहीं आया.पिछले तेरह सालों में, तेरह साल इसलिए क्योंकि उसके पहले के पानियों के किस्से गाँव की किंवदंतियों के डैशबोर्ड से सूख चुके थे, पांच घरों के पानी उस भँवर की गहराई में झोंके जा चुके थे.गहराई इतनी भूखी थी कि वह आज भी मुँह बाए सुषमा की ओर आशा भरी नज़रों से निहार रही थी. विनोद उसे बता रहा था उन कुछ पानियों का सच जो उसकी याददाश्त में ताज़ा मौजूद थे.
लॉज से पकड़कर जब सुषमा और विनोद को वापस लाया गया तो पुलिस की बिना दखलंदाजी के, पंचायत ने विनोद को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया.सुषमा को पंचायत ने ये धमकी देकर छोड़ दिया कि अगर आज के बाद दोनों के साए भी एक साथ नज़र आये तो पेड़ से चपेट कर जिंदा जला दिया जाएगा.पंचायत का ऐलान सुनकर भँवर की गहराई को निराशा हुई होगी.पंचायत ने भले उसे औरत जात समझ कर छोड़ दिया था पर हीरा और रज्जो ने घर आकर उसे इतना पीटा कि शहर से डॉक्टर बुलाना पड़ा.इटकुर्रे की चोट ने उसके माथे पर एक गहरा निशान छोड़ दिया.भँवर की गहराई को उस इटकुर्रे पर भी गुस्सा आया होगा.सुषमा समझ गई कि रज्जो और हीरा के रहते गाँव से उनका भागना असंभव है, वे उसे कुछ भी करके दुनिया के किसी भी कोने से आखिर ढूँढ ही निकालेंगे.विनोद के घर से इतनी दिक्कत नहीं थी.विनोद लड़का था, उसके घर वाले बस यही प्रार्थना करते थे कि वह चाहे जहाँ भी रहे, जिंदा रहे.
धनपत के ब्याह से हट कर फोकस सुषमा की बदचलनी पर आ गया था.तीन दिन से भी कम समय में अपनी माँ पर है सुन्दर सुघड़ सुषमा पीड़िता बन गई थी.वह पढ़ी-लिखी थी. ‘पीड़ित’ की शब्दकोष परिभाषा उसे भली-भाँति आती थी. ‘पीड़ित वह है जो चालाकियों के हुनर से अपनी सलवटों की गन्दगी की अधिकतम कीमत वसूल सके.’
“विनोद के संग दुबारा भागने की नाय सोची?”दरोगा ने पूछा.
वह चुप रही.अपने झूठ को छुपाने के लिए बस ‘ना’ में सिर हिलाया.
सुषमा, रज्जो और हीरा को विश्वास दिलाने में सफल हो गई कि वह विनोद से कभी नहीं मिलेगी और उनकी मर्ज़ी के अनुसार ब्याह के लिए राज़ी हो जाएगी.धनपत सुषमा को लेकर छिड़ी महाभारत देख रहा था.उसने हस्तक्षेप करना उचित न समझा.पंचायत और उसके परिवार की मिली-भगत एक मूक समझौता थी.अधेड़ उम्र के अविवाहित पुरुषों के लिए नई उम्र की लडकियाँ खरीदकर ब्याह लाने की रीत कोई नई नहीं थी और न ही बहुत पुरानी थी.पंचायतों ने वहाँ इसलिए दखल नहीं दिया क्योंकि यह पुरुष प्रधान पंचायतों के विशेषाधिकार का प्रश्न था और प्रश्न था उस आस्था का जिसके वशीभूत वे अपने वंश की लाज अक्षुण्ण रखने के लिए अपने घर के पानियों को भँवर के हवाले करते आये थे.हर घर को लड़का चाहिए था और लड़कों की इस अंधी होड़ में उनके अपने लड़कों के लिए लडकियाँ कम पड़ने लगीं.शहर का डॉक्टर कुछ रुपये लेकर आपको चाहे कुछ भी उपाय क्यों न बता दे, जमीनों को तो अपने हिस्से के वारिस से मतलब है.लड़कियों का अकाल पड़ गया और लड़के बिनब्याहे रहने को विवश हो गए पर ज़मीन थी कि वारिस की माँग वापस ही न लेती थी.जो धनी थे, और वारिसों की दरकार धनी वर्ग को ही होती थी, वे खरीद कर लडकियाँ लाने लगे.अपनी जाति की लड़कियों का एक अरसे तक इंतज़ार किया जाता पर लडकियाँ कहीं होतीं तब तो मिलतीं.अंततः अधेड़ उम्र में जब उनका शरीर वारिस देने की ज़द्दोज़हद के आख़िरी दौर में पहुँच जाता, वे ब्याह करते.वारिस कभी मिलता तो कभी नहीं भी मिलता.
धनपत बोलना चाहता था पर नहीं बोला.उसे डर था कि अपने घर के पानी को बचाने की फिराक में कहीं उसके ही ब्याह पर पंचायत बवाल न कर दे.अपने निढाल बदन को चारपाई पर फेंक उसने सुषमा की चीत्कार सुनी पर वह चुप रहा.अक्सर जब रज्जो और हीरा उसे मार पीट कर रिहा कर देते तो वह सुषमा के खून से लथपथ चेहरे पर मरहम लगा देता.उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आशीष देते हुए कुछ बुदबुदाता और फिर वापस जाकर अपने बदन को उसी चारपाई की अधबाइन में फेंक देता.सुषमा के आश्वासन के बाद फोकस फिर से धनपत के ब्याह पर आ गया.हीरा और रज्जो का एक रात धनपत से इतना भीषण झगड़ा हुआ कि रज्जो ने धमकी दे डाली.उसने कहा कि अगर धनपत ने ब्याह किया तो वह फाँसी लगा लेगी और धनपत के सिर पर इलज़ाम की चिट्ठी छोड़ जाएगी.सुषमा सुन रही थी.रोशनी की एक हलकी सी किरण उसे दिखाई दी.कोई था जो उसकी सलवटों की गन्दगी खरीदने में दिलचस्पी ले रहा था.विनोद को पाने के लिए उसे अब मासूमियत और बेचारगी की गुड़िया बनने का नाटक करना था जो उसने उसी पल से शुरू कर दिया.उन तीनों के झगड़े में उसने बीच-बचाव किया.समझदार लोगों की तरह उन्हें समस्या का हल निकालने का सुझाव दिया.जब झगड़ा ठंडा पड़ गया तो ताऊ धनपत के पास आकर वह देर तक बातें करती रही, उन्हें समझाती रही.अगले दिन उसने माँ को भी समझाया कि आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं होता.कुछ दिन ठण्ड बनी रही पर ब्याह का फितूर और वारिस का मोह धनपत के सिर से उतरा ही नहीं.दोबारा झगड़ा हुआ तो सुषमा ने माँ को समझाया कि आत्महत्या करने की जगह अगर आत्महत्या का नाटक भर करने से बात बन जाती है तो क्या बुराई है.रज्जो जानती थी कि सुषमा दिमाग की तेज़ है.उसे बात भा गई.
“रज्जो ने पहले भी आत्महत्या की कोशिश करी हती?”दरोगा ने प्यार से पूछा.
सुषमा ने बस हाँ में सिर हिलाया.कुँवर सिंह मन ही मन झल्ला उठा.केस में एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं और उसके खबरी चार आने की खबर भी निकाल कर न ला सके.लानत है.ज्यों-ज्यों केस इस पुख्ता उपसंहार की ओर बढ़ता कि रज्जो न आत्महत्या की है, नोटों की गड्डी की छवि उसके मन-मस्तिष्क से ओझल हो जाती और उसकी खीझ और बढ़ जाती.
“वा रात तू अम्मा के संग सोई थी?”दरोगा ने पूछा.
उसने फिर हामी में सिर हिलाया.
“फिर?”
“मैं पानी पीने उठी थी...मैंने देखी अम्मा लटकी पड़ी थी.”वह सुबुकने लगी.
दरोगा कुँवर सिंह ने महिला कांस्टेबल को सुषमा को ले जाने का इशारा किया और ताकीद की कि उसे दूसरे कमरे में बिठा कर पानी पिलाया जाए.दूसरे कमरे का पंखा भी उसी ‘घें घें’ की आवाज के साथ चल रहा था.सुषमा ने अपना सिर ऊपर उठाकर उसे एक पल निहारा.भँवर से उठी पानी के घुमड़ने की आवाज उसके कानों में घुल रही थी.दरोगा बाहर निकला और एक सिगरेट जला ली.चिंता की लकीरें उसकी माथे की सलवटों में पसीना बुहार रही थीं.सिगरेट पी कर वह वापस आया तो उसने हीरा को कमरे में बुला लिया.हमेशा की तरह हीरा चुपचाप जाकर जमीन पर उखडू बैठ गया.न जाने दरोगा के मन में क्या विचार आया कि उसने हीरा को ऊपर कुर्सी पर बैठने का आमंत्रण दे डाला.उसके दिमाग में संभवतः रहा होगा कि जब घी उँगली टेढ़ी कर के भी न निकले तो एक बार दोबारा सीधी ऊँगली से प्रयास ज़रूर करना चाहिए.
“हीरा सिंह!अब मैं बस मुद्दे की बात करूंगौ....या हाथ डेढ़ लाख रुपये धर और थारी छुटटी.”
उसकी कुंठा अब लिहाज के सारे तटबंध तोड़ चुकी थी.
“कहाँ धरे मोपै डेढ़ लाख? एक फूटी कौड़ी नाय मोपै.”
“बैंक का कितना लोन है?”
“तीन लाख रुपय्या.”
“और कहाँ गए बो तीन लाख?”
“सब उड़ा दिए...दारू में...मारुती के तेल में...सब उड़ गए.”
देश-दुनिया में किसानों की आत्महत्या के लिए सरकारों का अर्थशास्त्री जिम्मेदार नहीं है.बल्कि वह शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार है जो अर्थशास्त्र की बेसिक यानि कि आधारभूत प्रैक्टिकल शिक्षा भी उन किसानों को मुहय्या नहीं करवा पाती.मसला वित्तमंत्री का नहीं वरन शिक्षा मंत्री का है.जो किसान ये समझते हैं कि ईमानदारी से अन्न उगाना और सरकार के समर्थन मूल्य पर बेचकर निश्चिन्त हो जाना, कि जिसने पैदा किया है वह खाना भी देगा, उनके अस्तित्व के लिए पर्याप्त है, वे दरअसल और कुछ नहीं बस लोगों का भटका हुआ झुण्ड है.एक दिग्भ्रमित कारवाँ.उन्हें जो सबक हीरा सिंह दे सकता है वह सबक दुनिया का कोई अर्थशास्त्री नहीं दे सकता.वह जब भी अखबार में ऐसी खबरें पढ़ता वह उनकी मंदबुद्धि पर अट्टहास किये बिना न रह पाता.हर किसान को अपने जीवन के आख़िरी पल तक बैंक का लोन अपने सिर पर चढ़ाकर रखना चाहिए.पांच साल में दो बार, एक बार राज्य चुनाव में और एक बार केंद्र चुनाव में. ऐसी स्थिति जरूर उभरती है जब विचारहीन राजनैतिक पार्टियाँ लोन माफ़ी की गाजर लटकाती हैं.ऐसा अवसर यदि भुनाया जा सके तो ठीक नहीं तो हिसाब-किताब तब देखा जाएगा जब बैंक अधिकारी वसूली करने आएगा.और हर किसान को इस लोन माफ़ी की गाजर का इस्तेमाल अपने हक की तरह करना चाहिए. ‘ईमानदार टैक्स पेयर’और उनकी गाढ़ी कमाई से जमा किए गए टैक्स का जो प्रपंच रचा गया है तथाकथित देशभक्त क़ानून संगत किसानों के मन में, ये कोरा ढकोसला है.हीरा सिंह से पूछो इन सब के पीछे के तार्किक अर्थ शास्त्र.
“किसान की फसल गई सस्ते में....बिचौलियों ने बेची महँगे में....वेयर हाउस वालों ने बेची और महँगे में....रिटेलरों ने बेची और-और महँगे में.अब देखो टैक्स किसने भरा...जिसकी कमाई मोटी है ....बिचौलियों ने... वेयर हाउस वालों ने और रिटेलरों ने... .तो जो टैक्स बीच के दलाल भरते हैं वही टैक्स हम किसानों को लोन माफ़ी करके रिफंड मिलता है.सरकार कोई एहसान ना करै हम पे.”
“लोन तौ माफ़ है गौ तुम्हारो....वा लोन में से दै देओ हमाये पैसा...!”दरोगा का स्वर याचना में बदल गया.
“हमाई मेहनत की कमाई है दरोगा जी....” उसने दरोगा की आँखों में आँखें डालकर देखा.दोनों कुर्सी पर बैठे थे और दोनों की आँखें एक दूसरे के ठीक आमने-सामने थीं.
“सुषमा कौन की छोरी है?” दरोगा का स्वर फिर कठोर हो गया.
“हमाई छोरी है.”उसकी आँखें नहीं झुकीं.वे अब भी दरोगा की आँखों में अटकी थीं.
“ब्याह के छः साल बाद भई थी? उसके बाद दो बार और रज्जो पेट से भई और दोनों बार छोरी निकरीं...पेट में ई ख़तम कर दीं....डॉक्टर के चार जूते पड़े और सारे ने सब उगल दियो.”
अब उसकी नज़रें कुछ ढीली पड़ीं.
“अब बता कौन की छोरी है सुषमा?”
उस बरसात की रात जो खिड़की के पाट खुले तो फिर कभी बंद ही नहीं हुए.बरसात आए या न आए, रज्जो की मिट्टी की खुशबू धनपत की मिट्टी की खुशबू से मिलकर एकाकार होने लगी.धनपत को मन माँगी मुराद मिल गई थी.खेती-किसानी का काम हो या घर का कोई काम, धनपत अब और मन लगाकर करने लगा था.रोटियों से नमक गायब हो गया था और सब्जी के साथ मक्खन के तड़के वाली दाल मिलने लगी थी.शुरुआत में रज्जो उससे सम्बन्ध बनाने में सावधानी रखती थी कि कहीं हीरा को भनक न लग जाए.तीन साल बीत गए पर हीरा को भनक न लगी.एक रात जब काफी देर होने पर भी हीरा शहर से वापस न लौटा तो अवसर पाकर दोनों एक हो गए.रात के करीब दो बजे हीरा दबे पाँव घर में घुसा.ये वो समय रहा होगा जब हीरा को तड़के वाली दाल का राज़ पता चल गया होगा.भाई और बीवी को एक ही कमरे में सोता देख उसने हंगामा खड़ा कर दिया.माँ-बाप बीच बचाव में सामने आ गए.उस रोज़ के बाद हीरा की शराब बढ़ गई और आए दिन वह रज्जो को पीटने लगा.फिर एक दिन डॉक्टर के परीक्षण में पता चला कि वह बाप नहीं बन सकता.उसका मन फिर गया.तमाम विपदाओं से घिरी हुई आत्मा को जैसे मोक्ष मिल जाता, हीरा को जिम्मेदारियों से भागने का एक सुनहरा अवसर मिल गया....‘मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं’.सिर से पाँव तक वह शराब में डूब गया.वारिस के लिए उसने मन ही मन स्वीकार कर लिया कि बीज किसी का भी हो, धनपत का या हीरा का, कम से कम उसकी अठारह एकड़ ज़मीन को वारिस तो मिल जाएगा.तीन साल से जिस मिट्टी की खुशबू परदे में या रात के अँधेरे में उड़ती थी अब वह दिन-दहाड़े उड़ने लगी.इस नई व्यवस्था को सब ने स्वीकार कर लिया था.हीरा ने भी और उसके माँ-बाप ने भी.वारिस की चाह में पानी का मटमैलापन सबने अनदेखा कर दिया.
रज्जो के ब्याह के छः साल बाद सुषमा पैदा हुई.तब रज्जो का अल्ट्रासाउंड इसलिए नहीं कराया कि इतनी भी क्या बेसब्री है.इस बार नहीं तो अगली बार बेटा मिल ही जाएगा.अगली बार रज्जो गर्भवती हुई तो अल्ट्रासाउंड ने बेटी का आकार दिखाया.धनपत और हीरा दोनों ने मिलकर तय किया कि उन्हें बेटी नहीं चाहिए.तीसरी बार फिर अल्ट्रासाउंड ने उन्हें बेटी दिखाई.धनपत और हीरा का फैसला अटल था-उन्हें बेटा ही चाहिए था.उसके बाद न जाने हीरा को क्या हुआ-उसे लगा कि अब उसके भाग में वारिस है ही नहीं.उसे लगा कि धनपत और रज्जो मज़े कर रहे हैं और एक वह है कि वारिस की चाह में घुटता जा रहा है.उसने रज्जो को वापस हासिल करने की मुहिम छेड़ दी पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.रज्जो तन-मन-धन से धनपत की हो चुकी थी.रज्जो को एक डर यह भी था कि अगर धनपत छुट्टा हो गया तो कहीं फिर ब्याह रचाने की सनक न पाल ले.तनाव ने एक बार फिर दस्तक दी.तनाव था पर फिर भी हीरा अपने में मग्न था.अपनी मर्ज़ी की ज़िन्दगी जीने के लिए अब वह पहले से कहीं ज्यादा आज़ाद था.तकदीर का लिखा कुछ ऐसा था कि हीरा को वारिस मिलना ही नहीं था.तनाव के बावजूद धनपत और रज्जो एकाकार होते रहे पर संभवतः दो बच्चियों की भ्रूण हत्या से देवता रुष्ट हो गए होंगे और उन्हें वारिस दिया ही न होगा.
“सुषमा धनपत की छोरी है.....”वह फुंफकारते हुए बोला.
दरोगा के चेहरे पर विजयी मुस्कान जो शायद बादशाह अकबर के होठों पर तब खिली होगी जब पानीपत की जंग में उसने हेमू को धूल चटाई होगी.
“तौ अब चार्ज बनैगो के अपनी जोरू की बदचलनी से तंग हैके हीरा ने रज्जो को मार डालो.”
“मैंने रज्जो ना मारी....और मेरौ इकरारनामा लेनौ तुमाये बस की बात नाय दरोगा...जे भी अच्छी तरियाँ समझ लेओ....”
अपने सारे ज़ख्म खोले वह आकाश तले बैठा था.दुनिया में कोई ईश्वर नहीं जो उसके ज़ख्मों का पर मरहम फूँक सके.वह अब पीड़ित था....और वह दरोगा उसकी गन्दगी का मोल कौड़ियों में लगा रहा था.अपनी पूरी ज़िन्दगी की पीड़ा उसने अपने चेहरे के शोरूम में सजाकर परोस दी थी और दरोगा था कि उनकी नीलामी का मोल चुकाने के बदले उसी से कीमत माँग रहा था.
“तेरे जैसे छत्तीस देखे हैं हमने...योंई दरोगा ना बन बैठे...पिछवाड़े पे मूसल चलेगो न...तुमाये परदादा हाज़िर हो जाएंगे इकरारनामा देने.”
“जब तक नीचे बैठो हो, निचले आदमी की बात करी...अब बरब्बर में बैठो ऊँ दरोगा...ज़बान संभार के बात कर...वरना तू जाने है जाट के ठाट....जो माचिस से तू सिगरेट सुलगावे है ना उसी माचिस से सगरो थानों फूंक दूंगो....जे तन की मिट्टी तौ वैसेई कीचड़ है गई ऐ...इसमें पाँव डारैगो, धँस जाएगौ.”
दरोगा अपनी कुर्सी से उठा और एक थप्पड़ रसीद कर दिया.ऐसी गीदड़ भभकियाँ वह आए दिन सुनता रहता था.हीरा पर उनमें से नहीं था.जीवन की बुझती होलिका में वह आख़िरी अंगारा था जिसकी आँच फड़फड़ा ज़रूर रही थी पर जिंदा थी और जिसके आस-पास सब कुछ राख हो चुका था.थप्पड़ मार कर दरोगा संभल भी न पाया था कि हीरा ने उसकी सर्विस रिवाल्वर खींच कर उसके सामने तान दी.हडकंप मच गया, सिपाही आए, अर्दली आए.हीरा को अलग करके सींखचों के पीछे डाल दिया और रात के बारह बजे तक उसकी जम कर धुनाई की.वह बेसुध हो जाता तो सिपाही उसे फिर से होश में लाते और फिर मारने लगते.भोर के चार बजे उसे पुल के नीचे उस भँवर में ले जाकर छोड़ दिया.हीरा की मिट्टी उसके पानी में समा गई.नहर का वह हिस्सा हसनगढ़ थाने में पड़ता था.
(पांच)
सत्यवीर सिंह ने इस बार अधिकार से चाय मँगाई.कुँवर सिंह ने भी चाय मँगाई.शायद उनकी कब्ज़ कुछ शांत हो गई थी.वहीं चौपाल पर आमने-सामने चारपाई पर बैठे दोनों दरोगाओं ने लाल चाय का आनंद लिया.वही भीड़ थी जो पहले थी और जिसमें पंचायत के कुछ लोग भी शामिल थे.धनपत की अम्मा वही पुरानी तम्बाकू के कश लगाकर आई लगती थी.वह भँवर ज़रूर हसनगढ़ थाने की सीमा में आती थी पर जो मरा था, वह दरोगा कुँवर सिंह के केस का संदिग्ध था.कुँवर सिंह ने आग्रह किया कि हीरा का केस भी उन्हीं को दिया जाए.सत्यवीर सिंह तैयार तो हो गए पर इतना ज़रूर बोले कि एक बार जिला कोतवाली में बात करके औपचारिक परमिशन ले लें.कुँवर सिंह सहमत हो गए.कुँवर सिंह का चेहरा एक बार फिर खिल उठा.उनकी गड्डी अब भी दूर से हाथ देकर उन्हें पुकार रही थी, शायद कुछ मोटी भी हो गई थी.
“एक और बात हती दरोगा जी...”सत्य वीर सिंह बोले.
“हुकुम करो सर.. .”कुँवर सिंह ने कृतज्ञता पूर्वक कहा.
“ऐसो करो आप...जे कोतवाली की परमिशन के चक्कर में मत पड़ो....हीरा की लाश नहर की बजाय यहीं घर में मिली दिखाय देओ...कम से कम ये कोतवाली के चक्कर से तो छूट जाएंगे नहीं तो दोनों की खामखाँ परेड है जाएगी ससुरी....आप क्या कहते हो?”
कुँवर साब कुछ देर सोचने के बाद बोले...
“जेऊ तरीका सई ऐ...हमें तो काम से मतलब है....ठीक है...ऐसो कल्लेओ.”कुँवर सिंह ने सहमति जताई.
उनके साथ आए अर्दली ने धनपत के हाथों में रस्सी की हथकड़ी लगाईं और जीप में बिठा लिया.जीप धूल उड़ाती चली गई.लोगों का कुतूहल ख़त्म हुआ तो वे अपने दैनिक कार्यों की ओर प्रस्थान करने लगे.
सुषमा की आँखों में आँसू थमने के नाम नहीं ले रहे थे.शायद वह जानती थी कि धनपत उसका पिता है.केस की पड़ताल के दौरान उजागर हुए पहलुओं में से कुछ पहलू गाँव वालों के ज़रिये सुषमा तक पहुंचे होंगे.संभव है न पहुंचे हों, या फिर ये भी संभव है कि उसे सब कुछ बहुत पहले से मालूम था और वह अपने दादी-बाबा की तरह सब कुछ स्वीकार कर चुकी थी.कभी-कभी लगता है कि उसके प्रति धनपत का स्नेह भी उसके मन में शंका उत्पन्न करता होगा.रज्जो और हीरा जब उसे पीटते थे तो धनपत से उसे अपार स्नेह मिलता था जिसका औचित्य उसके ताऊ के रिश्ते में कुछ फिट नहीं बैठता था.
उस रात जब रज्जो ने आत्महत्या की धमकी दी तो सुषमा को एक खरीदार मिल गया था.धनपत ने उसे अपने पास बुलाया.उस अभागी के सिर पर आशीष का हाथ फेरा और कहा कि वह चाहता है कि विनोद के साथ ब्याह करके अपना जीवन सँवारे.इस सलाह में सुषमा को कुछ भी अजीब नज़र नहीं आया.वह बचपन से ही उसपर हीरा से ज्यादा स्नेह लुटाता आया था.सुषमा ने उस पर विश्वास नहीं किया होगा.क्योंकि उसे मालूम था कि यदि वह पंचायत के विरुद्ध जाएगा तो उसके अपने ब्याह का सपना खटाई में पड़ सकता है.धनपत ने उसे फिर एक रास्ता सुझाया.विनोद के साथ भागने में धनपत उसकी मदद कर सकता है.उसके बदले में सुषमा को भी धनपत की मदद करनी होगी.सुषमा विनोद के लिए कुछ भी करने को तैयार थी.ताऊ के साथ अवैध संबंधों के चलते वह माँ से नफरत करने लगी होगी.वैसे भी पकड़े जाने पर माँ ने भी हड्डी-पसली तोड़ने में कौन सी कसर रख छोड़ी थी.सुषमा के दिल में रज्जो के लिए अथाह नफरत रही होगी.बदले में धनपत ने उससे कहा होगा कि वह अपनी माँ को समझाए कि उसके ब्याह में टांग न अड़ाए.पर रज्जो अपनी जिद पर अड़ी रही होगी.सुषमा ने उसे मना लिया होगा कि आत्महत्या करने से बेहतर है कि आत्महत्या का सिर्फ नाटक किया जाए.
(छह)
सुबह के करीब चार बजे थे.हीरा चौपाल पर सो रहा था पर दालान में लेटे धनपत की आँखों से नींद गायब थी.करीब सवा तीन बजे धमक हुई और विनोद अपने एक दोस्त के साथ आ धमका.रज्जो और सुषमा अपने कमरे में आत्महत्या के नाटक की तैयारियाँ कर रहे थे.सुषमा का दुपट्टा वह गाटर पर टांग चुकी थी.नीचे एक स्टूल रखकर उसे कुछ देर के लिए झूलने का नाटक करना था.रज्जो के फाँसी लगाने के समाचार को बाहर तक पहुँचाने के लिए सुषमा को चिल्लाना था और जब वह आश्वस्त हो जाए कि सबकी नींद टूट चुकी होगी तब उसे रज्जो को सहारा देकर आहिस्ता से नीचे उतारना था.योजनानुसार जब विनोद सुषमा के कमरे में दाखिल हुआ तो सुषमा रज्जो के पैरों के नीचे से स्टूल खिसका चुकी थी.रज्जो ने उसे देखा तो चिल्लाने का प्रयास किया पर तब तक दुपट्टे ने उसका गला जकड़ लिया था.वह जिंदा थी पर आवाज नहीं निकाल सकती थी.तभी धनपत रज्जो के कमरे में घुसा और विनोद और सुषमा को वहाँ से भाग जाने के लिए कहा.एक बार सुषमा ने जरूर सोचा होगा कि क्या सब वैसे ही हो रहा है जैसे कि धनपत ताऊ की योजना में था.रज्जो की साँस धीरे-धीरे छूट रही थी.विनोद के साथ रज्जो बाहर निकल भी न पाई थी कि धनपत चिल्लाने लगा.
“चोर.... चोर.... चोर....!”
ताऊ की आवाज सुनकर सुषमा को करेंट लगा होगा क्योंकि उसका चिल्लाना योजना का हिस्सा नहीं था.चिल्लाने से पहले धनपत आश्वस्त हो गया था कि रज्जो मर चुकी है.इससे पहले कि सुषमा ताऊ की योजना को किसी और सन्दर्भ में समझ पाती, उसने पीछे से भागकर सुषमा को धर दबोचा.हीरा चौपाल से भागकर दालान में आ गया.हड़बड़ी में विनोद अपनी जान बचाकर भागा.रज्जो के कमरे में आकर हीरा ने देखा कि वह छत से लटकी हुई थी.धनपत रज्जो का हाथ कस कर थामे हुए रज्जो के लटके हुए शरीर को निहार रहा था.संभवतः सुषमा को ताऊ का सारा खेल अब तक समझ आय गया होगा.
जीप में थाने जाते वक़्त धनपत ने कुँवर साहब से आग्रह किया कि वह उनके हाथ खोल दें.उसने कहा कि कलाई और हथेली के बीच में जो हिस्सा है वहाँ रस्सी की रगड़ से उसे खुजली महसूस होती है.उसके आग्रह को स्वीकार करते हुए दरोगा ने उसकी हथकड़ी खोल दी.धनपत के रवैये में आत्मसमर्पण का भाव था.दो हट्टे-हट्टे अर्दली बगल में बैठे थे.हथकड़ी खोलने में ऐसा भी कोई जोखिम नहीं था.
“एक बात समझ नाय आई धनपत.जि तेरे बाल एक दम मस्त मौला हवा में लहरावें और तेरो भाई हतो जो एक दम कड़क तेल चुपड़े हुए बाल राखे ओ...ऐसो चौं?”
“अरे हर काऊ की अपनी पसंद होबे....अब तू का उसके बालों में भी हथकड़ी डारैगो?” कुँवर साब ने तल्खी के साथ हलकी सी मुस्कराहट झलका दी.
“हाँ इतनो फर्क तो हतो हम दोनों में... .पर मैं एक बात सोचूँ...बड़ो बेवकूफ हतो हीरा जो अपने बालों की ऐंठ के लये अपनो सिर कटा आयो.”यह कहकर उसने दरोगा की हँसी के साथ अपनी हँसी जोड़ दी.
जीप थाने के प्रांगण में पहुँची और कुँवर सिंह सीधे उसे पूछ-ताछ वाले कमरे में न ले जाकर अपने दफ्तर वाले कमरे में ले गया.उसे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा.उसने कृतज्ञता से सिर नवाया और कुर्सी पर बैठ गया.
“बिलकुल सई बात कही तैने....हीरा बेवकूफ थो निरो बेवकूफ.”
“तो बताओ धनपत....जी...रज्जो चौं मारी....और हीरा चौं मारो?”
“चाय-वाय पिलाओ दरोगा जी...बो ग्रीन टी पिलाओ...हम भी तो चख के देखें हरियाली में कित्तो दम है?”
“चौं मारी रज्जो?” दरोगा ने उसने आग्रह को सिरे से अनदेखा कर दिया.
“आपके मन में कित्ते की तस्वीर डोल रई ऐ?” उसने पूछा.
कुँवर सिंह पहले तो थोडा सकपका गया फिर उसने सोचा चलो अच्छा है वह खुद ही सीधे मुद्दे पर आ गया.कई डुबकियों के बाद गड्डी की छवि उसके मस्तिष्क में फिर उभर आई थी, थोड़ी मोटी होकर.उसने अर्दली को आवाज दी और दो ग्रीन टी लाने को कहा.
“दो लाख!”कुँवर सिंह ने मन की बात रख दी.
“ठीक है साब...मोये हफ्ताभर को टाइम देयो...देखो जी अभी तो मेये ढिंगे एक फूटी कौड़ी नाय...पचास हज़ार ब्याह के लये दै दये..उत्तेई रूपया हते जो खेती-बाड़ी के हिस्से में से बचे हते...एक हफ्ता दै देओ बस...जमीन बेचने की जुगाड़ में हूँ....दो चार दिन में बयाना मिलेगौ....इधर बयाना मिलौ और उधर मैं हाज़िर.”
दरोगा उसकी बात ध्यान से सुन रहा था.वह उसकी बात से संतुष्ट सा लगा.
“ठीक है...जब रुपैया म्हारे हाथ में आबेगौ तबही केस बंद होएगौ...और चालाकी मत करियो...बालों की अकड़ की खातिर सिर न कट जाए.”
“बेफिकर रहो आप.”
“लो चाय पियो... .”अर्दली चाय लेकर आ चुका था.
धनपत की चमचमाती नज़रें चाय के दृश्य को आत्मसात कर उठीं और दरोगा की आँखों से जा टकराईं.
“धन्यवाद!”उसने कहा और चाय उठाकर अपनी नाक के पास ले गया.उसने बिना पिए ही चाय मेज़ पर वापस रख दी.दरोगा उसकी गँवार सी हरकत को देखता रहा.
“जिस मिट्टी में और जिस चाय में खुशबू न हो दरोगा साब, उसे चूसने में कोई मज़ा नाय....कभी गाँव आबौ...खुशबू वाली चाय पिबाएंगे तुमै....राम राम सा....”
ठीक तीन दिन बाद धनपत ने दरोगा कुँवर सिंह को फोन किया.
“रुपया मिल गयो है...कहो तो कल थाने आ जाऊँ देने.....”
“न न...थाने में ना...मैं बताउंगो जगह.”दरोगा बोला.
“आप जो बुरौ न मानो तो हमें भी खातिरदारी को मौको देओ....गाँव आ जाओ...आज, कल जब मन होए...खुशबू वाली चाय पिबायेंगे...और हाँ कल बामन आय रौ ऐ हमाये घर... हमारे ब्याह को मुहूरत निकारन...आप भी आ जाओ तो कल ही मिल बैठेंगे...और सुनौ सत्यवीर साहब भी आ रहे हैं.”
“अच्छा...नहीं, मौको तो अच्छो है.कल सबेरे बताऊँगौ...राम राम .”
गड्डी की लहलहाती तस्वीर ने उसे रात भर सोने न दिया.सुबह उठते ही उसने धनपत को फोन लगाकर कहा कि वह आएगा.उसने तुरंत धन्यवाद व्यक्त किया और फोन काट दिया.धनपत ने सत्यवीर सिंह का नंबर डायल किया.
“राम राम!”
“हाँ, कुँवर साब आ रहे हैं....”
“जी..राम राम.”इतना कहकर धनपत ने फोन काट दिया.
शाम ढल चुकी थी.मेहमानों के आने का समय हो चला था.सत्यवीर सिंह ने अपनी भारी-भरकम बुलेट पर कुँवर सिंह को पिक कर लिया.
उस पुल के नीचे भँवर की गहराई राह देख रह थी.धनपत उन्हें वहीं मिल गया.धनपत ने दो हज़ार के नए नोटों की एक गड्डी कुँवर सिंह के हाथ में रख दी.मोटर साइकिल पेड़ों की आढ़ में खड़ी करके वहीं पैग बनाने लगे.उस रात भँवर के घुमड़ते पानी ने जोर की डकार ली.
अगले दिन सत्यवीर सिंह ने हसनगढ़ थाने में खुद को चश्मदीद बताते हुए रिपोर्ट दर्ज की कि बीती शाम सत्यवीर सिंह के साथ नहर के किनारे शराब पीते हुए कुँवर सिंह का पैर फिसला और वे भँवर में गिर गए.सत्यवीर सिंह की लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें निकाला न जा सका.
बावन साल के सत्यवीर सिंह कुंवारे थे.धनपत की तरह उन्हें कोई भगतपने के फितूर ने नहीं डसा था.कॉलेज में एक लड़की से प्रेम हुआ था पर फलीभूत नहीं हुआ.दिल टूटा और उसे भुलाने में छः साल बरबाद कर दिए.दोबारा शादी का मन बना तब तक देर हो चुकी थी.जात-बिरादरी में लडकियाँ वैसे ही कम थीं.जो थोड़ी पढ़ी-लिखी और सुन्दर थीं सब की सब पहले ही ब्याही जा चुकी थीं.उम्र गुजरती गई तो अकेले रहने की आदत भी डाल ली.शादी का ख्याल दोबारा तब आया जब गाँव की पुश्तैनी जमीन के लिए उन्हें एक वारिस की ज़रुरत आन पड़ी.एक दलाल जो ऐसे अधेड़ कुंवारों के लिए कम उम्र की, वारिस पैदा करने वाली लड़कियों का प्रबंध करता था सत्यवीर सिंह और धनपत दोनों के संपर्क में था.बातों-बातों में बात निकली तो धनपत एक लाख रुपये के सौदे पर सुषमा का हाथ उसके हाथ में देने को राजी हो गया.पचास हज़ार में अपने लिए एक लड़की पसंद की.इस दोहरे सौदे में उसे पचास हज़ार का फायदा हुआ.
पंद्रह दिन के अंतराल पर सुषमा का सत्यवीर के साथ और धनपत का उन्नीस साल की अपर्णा के साथ धूम-धाम से ब्याह हो गया.
विनोद कभी उस पुल से गुजरता है तो मुस्कुराते हुए उसकी निश्छल गहराई में समा जाता है.
भ्रूण हत्या एक भँवर है...लड़कों की चाह में लड़कियों की संख्या कृत्रिम उपायों से नियंत्रित की जाती है...फिर अधेड़ उम्र पुरुष वारिस की चाह में लडकियाँ खरीदने को विवश हैं और वारिस की चाह फिर भ्रूण हत्या का कारण बनती है.
मिट्टी... जो पुलिस के रिकॉर्ड में उस भँवर के गर्त में समाई... और जो गाँव की किंवदंतियों का हिस्सा बनी... और जिसके सहारे पंचायतें भटकती हुई सभ्यता को राह पर लाने का दंभ भरती हैं,
वह तो बस मृत शरीरों की मिटटी थी. ![]()
जो पुलिस के रिकॉर्ड तक कभी पहुँची ही नहीं,
हज़ारों युवा लड़कियों की मृत आत्माओं की मिट्टी,
जिन्हें कुछ रुपयों के लिए या एक अदद वारिस की चाह में अधेड़ उम्र पुरुषों की अर्धांगिनी बना दिया गया,
उस मिट्टी के समाने के लिए कैनाल इंजीनियरों को न जाने और कितनी नहरें,
और कितनी भँवरें खोदनी होंगी. पीड़ित कोई नहीं है...सब अपनी सलवटों की गन्दगी का खरीदार ढूंढ रहे हैं.
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