Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all 1573 articles
Browse latest View live

नीलोत्पल की कुछ नई कविताएँ

$
0
0




























(कृति द्वारा नीलोत्पल) 

‘पहाड़ एक फूल चुनता है
आसमान एक बादल
दोनों झर जाते हैं वृहत्तर सांझ के लिए’


२१ वीं सदी की हिंदी कविता का जो परिसर है उसमें नीलोत्पल अपने मासूम और अनछुए प्रेम – आसक्ति के साथ उपस्थित हैं. 
प्रेम कविता में ढलते हुए कवि के लिए तमाम चुनौतियाँ साथ-साथ लिए चलता है.
प्रेम के रसायन में जब तक नवोन्मेष है, प्रेम जिंदा है और बची है मनुष्यता.
इसी नवोन्मेष को कवि अर्जित करता है और लिखता है.


नीलोत्पल की कुछ नई कविताएँ.




नीलोत्पल की कविताएं                      




हमारे बीच जाने कितने समुंदर हैं

उस पुराने जर्जर मकान की तरह
जहां अब कोई नहीं रहता
वहां प्यार, उत्सव, संघर्ष दफ़न है
जो किसी के नहीं
सिवाए उस राख के
जो चुन ली गई नदी के बहाव में
काटती लहर को

मैं आता हूं वह स्मृति लिए
तुम्हारे पास
मैं चाहता हूं कि
जो सुंदर और अनाम चीजें दफ़न हैं
उसे हम देखें

हमारे बीच जाने कितने समुंदर हैं
जाने कितनी फैली वृक्षों की जड़ें
लेकिन कितना बिखराव !

मैं तुम्हें उसी तरह चूमना चाहता हूं
कि वह नष्ट संसार
हमें अपनी अधूरी आंखों से देखे
और दे सके हमें वे निर्जीव शब्द
जिसके लिए एक आदमी जीता है
अपनी मृत्यु के बाद भी

होगा यह कि
हम मरेंगे अपनी-अपनी यादों के साथ
खाली आकाश से देखते हुए
नीचे वह घर अभी
ज़िंदा है उखड़ती सांसों में

प्यार अमर नहीं होगा
कुछ है जो बुदबुदाया जाएगा
सम्बलों की गहराई में

मैं तुम्हारी उंगलियों और आँखों के सहारे
महसूस करता रहूंगा
अपने जीवन के वे तमाम क्षण
जिन्हें हमने ताप और प्यार से रचा
जो किसी तरह घर होंगे
उखड़ते पोपडे़, सीलन और दरारों के बीच
धीमे-धीमे सांस लेते.



प्रेम की आदिम गुफाओं में

हम कोई शुरूआत नहीं करते
हम सिर्फ़ प्रेम करना चाहते हैं
ऐसा करते हुए
हम सिर्फ़ दो हैं जो नहीं चाहते
कोई अंत.




तुम्हारे ख़्याल से
मैं एक पहाड़ हूं और तुम एक चिड़िया
तुम ऊंचाई और नीचाई पर समान रुप से जाती हो
जबकि मैं मेंढक की नन्हीं उछाल भी नहीं ले पाता
लेकिन हमारा यह असामान्य गुण काटता नहीं एक-दूसरे को
हम सिर्फ़ कुछ चीज़ें चाहते हैं; मसलन
खिडकियां, पत्तियां, रोशनी, चन्द लम्हें एक-दूसरे को
भुलाने और याद करने के.




वह घिसा पत्थर जिस पर तुमने चटनी बनाई
उस पत्थर के भीतर
तुमने रख छोडे़ अपने गीत
और न जाने कितने न मालूम अहसास
जब तुम निकल जाती हो आईने के पार
मैं सुनता हूं उस पत्थर को

मैं सुनता हूं उस पत्थर को
कैसे तुमने उसे नदी बना दिया है
जो तैर रहा है अब मेरे भीतर.




प्यार के रास्ते होते है बेहतर
हम एक शुरुआत करते हैं शब्दों से
जो किसी ईश्वर के भीतर नहीं रहते
हम देते हैं उसे पनाह
उसे रचते हैं

हम आज्ञाएं नहीं ढोते
हमने स्वतंत्र कर रखा है उन्हें

जो नहीं चाहते प्यार
क्या वे प्रेम की उन आदिम गुफाओं में
जा पाएंगे
जहां हमने जनम दिया
अपने भीतर बसे हुए मासूम शब्दों को.



 एक बार तुम खो दो अपनी आवाज़

तुम खोल लो अपनी बांहें
और बीत जाने दो बारिश

देखो पेड़ के भीतर उतर रही चिड़िया
कितनी शांत और सहज है
वह धूप की स्याही से लिखती है एक पंक्ति
जो हमें नहीं दिखती
बड़े मज़े से वह गुनगुनाती है
पेड़ और नदी एक साथ बहते हैं

पहाड़ एक फूल चुनता है
आसमान एक बादल
दोनों झर जाते हैं वृहत्तर सांझ के लिए

एक बार तुम खो दो अपनी आवाज़
भूल जाओ पहनावे,
वे भटकाव जो चुने थे जीवन की ख़ातिर

आहिस्ते-आहिस्ते रख दो
अशांत पत्तियों पर अपनी नींद

तुम्हारी मुलाकात उन चिडियाओं से
जिन्होंने तुम्हारे लिए घोंसले बनाए

वे फूल, वे बादल जो रोपे गए
झरने के बाद तुम्हारे सपनों में

सुनो बारिश जारी है....
क्या तुमने खोल लिए हैं दरवाजे
जो स्वर्ग की तरफ नहीं
खुलते हैं जंगलों की अनगढ़ सुबहों में




गीले पेड़

शायद मुझे सभी गलत कहेंगे
लेकिन कोई नहीं जानता
जीवन की काली गुफाओं में
कितना अंधेरा था जब मैंने प्रवेश किया
मैंने एक पत्थर पर हाथ रखा
और उस पर अपना संतुलन नहीं रख पाई
वह पत्थर तैरता था, मैं नहीं
मेरे हाथों की रेखाएं गिर गई
और किताबों और लोगों के
अनगिनत संग भी छुट गए मुझसे

मैं नहीं जान पाई ख़ालीपन के विशाल बोगदे में
कैसे मैंने कुछ तय कर लिया
यह सब जैसे होना था
मैं तो सिर्फ़
बादलों के अश्वेत रंगों में छिपा रही थी
अपने पैरों की महावर
जिसे मैंने खुद ही रच लिया
आपत्तियां थी

मैंने भी सोचा अंधेरे में खड़ी ट्रेन में चढने से पहले
पैर उठते ही नहीं
जैसे किसी ने पहाड़ के अंतिम सिरे पर खड़ा कर दिया हो
मेरे लिए सोचना नामुमकिन था उस वक्त
आख़िर मैं हारी भी तो किससे
अपने अजन्में प्यार से
मैंने कदम बढाएं
आख़िर जिन पर मेरा वश नहीं था

मेरा इरादा बजते हुए संगीत में
घुल जाने का है, एक हो जाने का है

मैं चाहती थी बस
गीले पेड़
जिनसे बारिश की जमी बूंदे गिरती रहे
और उनसे गुजरते हुए मैं भींगती रहूं
जीवन पर्यंत.



मैं तुममें घटकर बढ़ता हूं

मैं तुम्हें करता हूं प्यार
इन उंचाईयों से
जहां मैं सांस लेता हूं
तुम्हारे मुख,
तुम्हारे हाथ और आंखों से

मैं तुम्हें चाहता हूं
इन नीचाईयों से
जहां मैं गिरता हूं
तुम्हारे होंठ, तुम्हारे बालों
तुम्हारी जांघ  और नाखूनों में

मैं तुममें अतृप्त होकर तृप्त होता हूं
मैं तुममें घटकर बढता हूं

मैं कितनी देर तक देखता हूं तुम्हें
कि याद नहीं रहती कोई वजह

मेरे पास कुछ नहीं कीमती
सिवाय तुम्हारे खत और चुम्बनों के

बस यह क्षितिज जो कहीं खतम नहीं
तुम आती हो अपने पैरों से चलकर
एक बिंदू
एक नक्षत्र
एक रिक्तता बनकर

यह पृथ्वी एक आलापहीन औरत की तरह
बैठी है ललचाती हुई
तुम्हारे मुंख से बरस पड़ने को.



   लिखता हूं पानी की सतह पर



मैं तुम पर क्यों लिखता हूं
इसकी मेरे पास कोई वजह नहीं

मैं सब वजहें और कारण भूलता हूं

मैं लिखता हूं और गुम हो जाता हूं

मैं छिपता हूं तुमसे
भागता हूं
तेजी से रास्ते पार करते हुए
गिर पड़ता हूं

मैं नहीं जानता ऐसा क्यों है
जबकि तुम नहीं होती आसपास

मेरे पास कुछ नहीं  है
न शब्द, न उपहार, न आवाज़

मैं अपने गूंगेपन में तुम्हें गाता हूं
लिखता हूं पानी की सतह पर
तुम्हारे सपने और उम्मीदें

मैं तुम्हें भेंट करता हूं
पिघलता गिलेशियर
मैं तुम्हें बूंद-बूंद टपकते देखता हूं

उफ! कितनी शांत आती हो तुम
जैसे एक गांव सो रहा है
तुम्हारी मूंदी पलकों के भीतर
तुम्हारी नग्न और बैलोस आंखें
चमकती है जुगनुओं की तरह

मैं तुम पर जो रचता हूं
वह तुम्हारे लिए नहीं होता

यह बात यहां ख़त्म होती है
बाकी सब मेरे ध्वस्त अस्तित्व का हिस्सा है
जैसे तुम पर रचा सब कुछ.



मुझे तुमसे प्रेम है

मैं जीतता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं पराजित होता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं शब्दों में रचता हूं तुम्हें
शब्दों से छूता हूं
शब्दों में भोगता हूं

मैं चाहता हूं हर शब्द तुम्हारे लिए हो-

ये अग्निशिखर हैं,
ऊंची उठती मीनारें हैं,
न लौटे हुए समुद्र में भटकते जहाज हैं,
किले में दफ़्न एक खामोश मक़बरा है,

पहाड़ी ढ़लान से उतरती बारीश है,
गिरती बिजलियों में दमकता तुम्हारा सूर्ख चेहरा,
छाती पर उभरा रात का सूरज,
खोयी कल्पनाओं की बंद सीपियां

ये फर्श, छायाएं और आलोडन
कुर्सियां, किताबें और परदे
खिड़कियां, तस्वीरें और जालियां
लकडी, शहद और इत्र

सब तुम्हारे लिए
हां सब तुम्हारे लिए
मैं इनमें धंसता हूं
चिन्ह्ता हूं अपने विजेता शब्द

मैं रीतता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है.
______
नीलोत्पल
(23जून 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश.)


पहला कविता संकलन अनाज पकने का समयभारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2009में तथादूसरा संग्रह   "पृथ्वी को हमने जड़ें दीं"बोधि प्रकाशन से  वर्ष 2014में प्रकाशित.

पत्रिका समावर्तन के युवा द्वादशमें कविताएं संकलित

पुरस्कार : वर्ष 2009में विनय दुबे स्मृति सम्मान,वर्ष 2014में वागीश्वरी सम्मान.

सम्प्रति: दवा व्यवसाय
सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर
उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश/ मो.:     0-94248-50594

अन्यत्र : घाटशिला : राहुल राजेश

$
0
0






















वरिष्ठ कथाकार सतीश जायसवाल साहित्य से जुड़े अपने अनूठे आयोजनों के लिए जाने जाते हैं. एक ऐसे समय में जब तड़क-भड़क वाले साहित्य-उत्सवों की भरमार है, वहाँ निरलंकार पर सुरुचिपूर्ण साहित्य उपक्रमों के लिए भी जगहें बची रहनी चाहिए.   

कुछ लेखक, पाठक, सह्रदय एक साथ 'घाटशिला'के लिए निकले, यह घूमने- फिरने के साथ रचनाशीलता का भी सफर था. कवि राहुल राजेश इस यात्रा में शामिल थे. यह मनभावन स्मृतियाँ इसी साहित्य- यात्रा से हैं.




यात्रा-संस्मरण
घाटशिला बुला रही थी,                    
मेरे पाँवों के होंठ सुवर्णरेखा​ का जल चूमना चाहते थे.
_______________________________

 राहुल राजेश




सुबह-सुबह​ उठना मेरे लिए बहुत कठिन है. देर रात तक जागना कहीं आसान. पर शनिवार, आठ जुलाई, 2017 को सुबह-सुबह घाटशिला के लिए रेलगाड़ी पकड़नी थी. लालमाटी एक्सप्रेस. घाटशिला का आकर्षण तो था ही. घाटशिला जाने वाली रेलगाड़ी का नाम भी मुझे आकर्षक लगा! कितना तो प्यारा नाम है- लालमाटी  एक्सप्रेस! गंतव्य और गंतव्य तक ले जाने वाली रेलगाड़ी- दोनों ने ही मुझे सुबह-सुबह जग जाने का बल दिया! घाटशिला घूमने और उससे कहीं ज्यादा सतीश जयसवालजी से लंबी लुकाछिपी के बाद आखिर मिलने का सुयोग पाने के उत्साह में मैं सुबह-सुबह​ उठकर, नहा-धोकर तैयार हो गया और सात बजे टैक्सी पकड़ कर हावड़ा स्टेशन के लिए चल दिया. इस उत्साह के बीच, नींद में बेसुध  सोई अपनी दोनों नन्ही बेटियों- पुलकिता और आलोकिता को गले लगाए बिना और उनसे विदा लिए बिना चल देने का हल्का-सा दुख कुछ दूर तक साथ बना रहा... जब से पिता बना हूँ, यह सुख मुझे बांधे रखता है! और अब तो मैं अपने परिचय में खुद को दो प्यारी-प्यारी बेटियों का पिता ही बताता हूँ! अब यही मेरा सबसे सुंदर परिचय है!


हावड़ा स्टेशन पर कोलकाता से ही श्री राकेश श्रीमालऔर उनके छात्र श्री रजनीशऔर बर्धमान से श्रीमती श्यामाश्री सरकारतथा उनके पति हमारे कारवां में जुड़ने वाले थे. श्यामाश्री जी ने ही लालमाटी एक्सप्रेस में टिकट बुक कराने की सलाह दी थी. बिलासपुर से सतीश जी अपने दो साथियों- श्री तनवीर हसन और डॉ. धीरेन्द्र बहादुर सिंहके साथ सीधे घाटशिला पहुँचने वाले थे. स्टेशन पर पहले श्रीमाल जी और रजनीश मिले. फिर कुछ देर में ही श्यामाश्री और उनके पति श्री तृप्तिमय सरकार. हम सब एक दूसरे से नितांत पहली बार मिल रहे थे पर अपरिचय नहीं था. फोन पर बतियाना और फेसबुक पर मिलना-जुलना हो चुका था. शायद इसलिए भी श्यामाश्री जी ने मुझे मुझसे पहले पहचान लिया! मैंने जो गाढ़े नीले रंग की छींटदार कमीज पहन रखी थी, उससे यकीनन उनको मुझे पहचानने में मदद मिली होगी और इस मौजूं मदद के लिए फेसबुक को शुक्रिया तो कहा ही जा सकता था!





हरियाली और रास्ता


हम हावड़ा के दक्षिण-पूर्व रेलवे यानी नए वाले स्टेशन पर थे. लालमाटी एक्सप्रेस पहले बीस नंबर प्लेटफार्म पर आने वाली थी. पर आई बाईस नंबर प्लेटफार्म पर. चूंकि हम सब अकेले-अकेले और बिल्कुल कम सामान के साथ थे, इसलिए हमने भारतीय रेल की इस चिर-परिचित अदा का बगैर किसी अफरातफरी के, हँसते-हँसाते भरपूर मजा लिया! अपनी बोगी पर सवार होने से लेकर अपनी आरक्षित-अनारक्षित सीट पर विराजमान होने तक अमूमन जो खट्टे-मीठे, चुटीले-चटपटे-अटपटे अनुभव प्रायः हर यात्री को होते हैं, उन सबसे  सहर्ष और सहज भाव से गुजरते हुए, अंततः मैं बर्षों बाद रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में बैठने के सुख और पहली बार घाटशिला जाने के रोमांच में डूब गया!


घाटशिला मेरे अपने ही गृहराज्य झारखंड में है. पर कभी जाने की नहीं सोची. नाम सुन रखा था पर कभी जाने की उत्सुकता नहीं बनी. अपने गृह जिला दुमका से जमशेदपुर तक तो गया था पर आगे जाना नहीं हुआ कभी. हम अक्सर देश-दुनिया की सैर करने के मंसूबे मन में लिए घूमते रहते हैं पर हम अपने ही नगर, अपने ही राज्य के सैलानी नक्शे पर कभी नजर तक नहीं फेरते! यह तो सतीश जी की बहुत पुरानी जिद थी कि घाटशिला जाने का संयोग बन गया! सतीश जी से ही मैंने यह बात सीखी कि छोटी-छोटी और अनजानी-अनसुनी जगहों पर जाने का सुख क्या होता है!

गाड़ी अपने हिसाब से चल रही थी पर हम तय समय से देर से ही घाटशिला पहुँच पाएँगे, यह तय हो गया था. पर मुझे भी कोई हड़बड़ी नहीं थी. राकेश श्रीमालजी से चूंकि पहली बार मिल रहा था, इसलिए कुछ देर बतियाना भाया. फिर मैं कभी  बरास्ते खिड़की, कभी बरास्ते गाड़ी के दरवाजे, बाहर की दुनिया से एकमेक होता रहा. वैसे भी मुझे सफर में किताबों का हमसफर बनने से कहीं ज्यादा, खिड़की से बाहर सरपट भागती दुनिया का हमसफर होना ज्यादा सुहाता है! रास्ते में बारिश तो नहीं थी पर बादलों की गश्त जारी थी. बरसात में वैसे भी प्रकृति पूरे शवाब पर थी! बंगाल से भाया खड़गपुरझारखंड के टाटानगर को जाती यह पट्टी वैसे भी हरदम हरी-भरी ही रहती होगी. बरसात में बस यह हरियाली तीज में सजी-संवरी दुल्हन की तरह लग रही थी! मुदित, मादक और मनमोहिनी!




लाल माटी ने मन मोह लिया!


एक-एक कर स्टेशन पार हो रहे थे. प्रायः छोटे-छोटे, अनसुने नाम वाले. हाँ, झारग्राम सुना हुआ नाम था. हर जगह गाड़ी रूकती थी. चूंकि मैं इस मार्ग पर पहली बार यात्रा कर रहा था और इसी मार्ग पर खड़गपुर भी था तो मन में आईआईटी से ज्यादा देश के सबसे लंबे प्लेटफार्म को देखने की उत्सुकता थी! खड़गपुर आया तो एक-दो मिनट नीचे उतरकर प्लेटफार्म की लंबाई महसूस करने की गुपचुप कोशिश की. पर कुछ अनुमान न हो सका. यह स्टेशन और प्लेटफार्म भी मुझे अन्य स्टेशनों की तरह ही सामान्य लगा. शायद यहाँ इत्मीनान से ठहरकर कुछ देखता-महसूसता तो शायद कुछ अलग-अनूठा दिख सकता था. खैर, हमारी गाड़ी जैसे-जैसे घाटशिला के नजदीक पहुँचती जा रही थी, दोनों तरफ हरियाली भी बढ़ती जा रही थी. और वहाँ की मिट्टी भी लाल रंग की नजर आने लगी थी. इस लाल माटी ने एकबारगी मेरा मन मोह लिया! मुझे समझते देर न लगी कि इस रेलगाड़ी का नाम लालमाटी एक्सप्रेस क्यों रखा गया था!

हम घाटशिला पहुँचने वाले थे. इस बीच किसी छोटे-से स्टेशन पर एक नेत्रहीन गवैया टेपरिकॉर्डर पर हिंदी के पुराने सुहाने गाने गाते-बजाते हमारे डिब्बे में दाखिल हुआ. बंगाल में रेलगाड़ियों में तरह-तरह से तरह-तरह के सामान बेचने वाले, पीठ खुजाने से लेकर कान खुजाने के नायाब औजार तक बेचने वाले तो चढ़ते ही हैं, इस तरह गाने गा-सुनाकर दो-चार रुपए जुटाने-कमाने वाले भी खूब चढ़ते हैं. रोजाना के एकरंगे सफर में ये कुछ रंग और रस घोल देते हैं! लोग उनसे अपनी पसंद और फरमाइश के गाने सुनते हैं और बदले में उन्हें कुछ पैसे दे देते हैं.


हमारी गाड़ी किसी गाँव के सीमांत से गुजर रही थी. मैंने देखा- उस गाँव में मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर सब एक ही जगह बने हुए थे! मुझे यह परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे का बहुत अनूठा उदाहरण लगा! महज चंद सेकेंड में दिखा यह दृश्य मुझे उम्र भर याद रहेगा. कह सकता हूँ, हमारे असली भारत के निशान इन जैसे हजारों गाँवों में अब भी साबूत बचे हुए हैं, जिन्हें कोई सत्ता हरगिज नहीं मिटा पाएगी!






घाटशिला स्टेशन की बुद्ध जैसी मुस्कान!

जब हम घाटशिला के छोटे-से शांत-सलोने स्टेशन पर उतरे तो मन जुड़ा गया! छोटे स्टेशनों का आलस भरा खालीपन और खुलापन मन को एक चिर-प्रतीक्षित शांति के सुख से भर देता है! प्लेटफार्म की दूसरी तरफ़ हरियाली ही हरियाली थी! बिल्कुल पास तक पसरे खेत थे, बिल्कुल पास तक झुके हरे-भरे, छोटे-बड़े पेड़-पौधे थे और सुदूर पहाड़ियों की शिरोरेखाएँ बिल्कुल पास दिख रही थीं! 

प्लेटफार्म से बाहर निकलने के लिए कोई धकमपेल नहीं करनी पड़ी. स्टेशन के प्रवेश-निकास द्वार पर बड़े स्टेशनों जैसा तामझाम नहीं था, शांत-स्थिर विनम्रता थी. पुरानी रंग-रोगन और छोटी-सी पुरानी इमारत में धड़कते इस स्टेशन के द्वार के ऊपर सीमेंट की पट्टी पर पीली पृष्ठभूमि पर काले रंग में लिखा 'घाटशिला'जरूर चमक रहा था! मुझे लगा, वह मुझे देखकर, मेरे स्वागत में मुस्कुरा रहा था! मुझे उसकी मुस्कान बुद्ध जैसी लगी! मैंने भी मद्धम-सी मुस्कान के साथ उसका अभिवादन किया. बाहर ऑटो लगे थे पर यात्रियों को घेर-घारकर अपने ऑटो में बैठा लेने वाली चिल्लपों नहीं थी. मानो सब जानते हों, हम उनके अतिथि हैं और उन्हें अतिथियों का सत्कार करना आता था! हमने एक ऑटो किया और चल दिए अपने ठहरने के ठिकाने - रामकृष्ण मठ की ओर!

रिक्शा या ऑटो  में सवार होकर, शहर की गलियों- मुहल्लों से गुजरते हुए, आँखों से शहर की नब्ज टटोलने की कौतूहल भरी कोशिश करते हुए गंतव्य तक पहुँचने का मजा ही कुछ और होता है! इतनी देर में हम अलग तरह के रोमांच और उत्सुकता से भरे होते हैं! हम इस मजे में बस डूबे ही थे कि हमारा सफर समाप्त हो चुका था. यही तो छोटी जगहों की खासियत होती है! उन्हें आप पैदल भी नाप सकते हैं!  हम कुछ मिनटों में ही रामकृष्ण मठ के मुख्य द्वार पर थे!





रामकृष्ण मठ का आत्मीय आतिथ्य


मठ में प्रवेश करते ही मठ के वातावरण ने मन मोह लिया! हमारे ठहरने के लिए यहाँ कमरे बुक थे. कमरे में पहुँचकर तसल्ली हुई. मठ का विश्राम-गृह भी इतना सुंदर-सुसज्जित होगा, सोचा न था! यहाँ के कमरे भी किसी होटल के कमरों से कम न थे. तभी सतीश जी का फोन आया, जल्दी से भोजन के लिए आ जाओ! देर न करो. हम सब और स्वामी जी प्रतीक्षा कर रहे हैं. दोपहर के पौने दो बज चुके थे. मैं झटपट हाथ-मुंह धोकर भोजन के लिए चल दिया. मठ में मठ के निर्देश, नियम, अनुशासन के अनुसार ही हमें चलना होगा. 

मठ के मंदिर में जल्दी से प्रणाम कर भोजन-कक्ष में पहुँचा तो देखा कि सतीश जी और उनके साथी भोजन कर रहे हैं और कोलकाता से पहुँचे हम पांच लोगों के लिए थाली लगी हुई है! स्वामी जी को प्रणाम किया तो उन्होंने सीधे पूछा, बाकी लोग कहाँ हैं? भोजन का समय समाप्त हो चुका था, इसलिए वे हमारी देरी पर थोड़े नाराज हो रहे थे. खैर, मैं भोजन के लिए बैठ गया. स्टील की थाली में एक-एक कर भात, दाल, तरकारी, चटनी, पापड़ परोसी गई. फिर थोड़ी-सी पायस यानी खीर. मुझे तेज भूख लगी थी और खाने में गजब मीठा, सात्विक स्वाद था! मैं बहुत दिनों बाद बाहर इतना स्वादिष्ट भोजन खा रहा था, मानो घर में ही खा रहा हूँ! ऊपर से स्वामी जी का सहज अपनापन! मैं भरपेट और मांग-मांगकर, तृप्त होकर खाया. कहीं और, किसी होटल में खाता तो न तो इतना स्वादिष्ट, सात्विक भोजन मिलता और न ही इतनी आत्मिक तृप्ति मिलती!

मठ के नियम के अनुसार भोजन के बाद अपनी थाली खुद धोनी थी. थाली धोते समय सहसा मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गए! स्कूल के दिनों में हम हॉस्टल के मेस में खाते थे और अपनी थाली खुद धोते थे. आज कितने वर्षों बाद वे दिन और वे अनुभव दुबारा जीवंत हो उठे! मठ में थाली खुद धोने के नियम के पीछे सेवा भाव, संन्यास भाव और स्वावलंबन भाव तो थे ही, यह बात भी निहित थी कि हर कोई थाली मन से, अच्छे से धोएँ क्योंकि अगली बार भोजन आपके धोए थाली में ही परोसा जाएगा! मुझे मठ के भोजन के साथ-साथ यह नियम भी खूब भाया! तन-मन दोनों को ही खूब तृप्ति और आनंद की अनुभूति हुई!

कमरे में लौटकर थोड़ी देर लेट गया. कुछ ही देर में हम सबको घाटशिला घूमने निकलना था. कमरे में लेटे-लेटे ही सतीश जी से कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं. लंबे समय से संपर्क में रहने के बावजूद मैं उनसे पहली बार मिल रहा था तो मेरे मन में भी कुछ उत्सुकता तो थी ही! बातचीत में ही उन्होंने कहा- मैंने शादी नहीं की! मुझे कुछ अचरज हुआ. कुछ सवाल मेरे मन में कुलबुला रहे थे पर बातचीत किसी दूसरी तरफ घूम गई. कुछ ही देर में श्री रवि रंजन जी आ गए. वे घाटशिला के ही किसी कॉलेज में पढ़ाते हैं और कुछ ही दिनों पहले उनका यहाँ तबादला हुआ है. उन्होंने ही रामकृष्ण मठ में हमारे ठहरने की व्यवस्था की थी. वे हमारे स्थानीय गाइड भी थे. हम सब उनकी अगुवाई में घाटशिला घूमने निकल पड़े.




बुरूडीह झील के पानी में पहाड़ के होंठ तैर रहे थे!

तय यह हुआ कि हम सबसे पहले बुरूडीह झील देखने चलेंगे क्योंकि यह घाटशिला से करीब बारह किलोमीटर दूर है और हमें सूर्यास्त से पहले लौट आना होगा. इसके बाद हम सुवर्णरेखा नदी देखने जाएंगे और अंत में बांग्ला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विभूति भूषण बंदोपाध्याय का घर देखने जाएंगे. तो हम लोगों ने दो ऑटो बुक किया और चल दिए बुरूडीह झील की ओर. एक ऑटो में राकेश श्रीमाल, रजनीश, श्यामाश्री और तृप्तिमयसवार थे. दूसरे ऑटो में सतीश जी, रवि रंजन, धीरेन्द्र बहादुर सिंह, तनवीर हसनऔर मैं सवार थे. पहले वाला ऑटो तो पटाक से काफी आगे निकल गया लेकिन हमारा ऑटो ड्राइवर हाईवे से निकलने की फिराक में टाटा-कोलकाता को जोड़ने वाले निर्माणाधीन हाईवे पर चढ़ने का रास्ता ढूंढ़ने में ही काफी वक्त गंवा चुका था! खैर, हम कुछ देर से ही सही, बुरूडीह के रास्ते में थे. मैंने मजाक में कहा कि पहले वाले ऑटो का ड्राइवर जनमार्गी था, इसलिए वह  गली-कुचे से ही फुर्र से निकल गया! हमारा ऑटो ड्राइवर राजमार्गी है! इसलिए वह राजमार्ग पर ही सवार होने की जुगत ढूंढ़ने में हलकान था! रास्ते में कविता, साहित्य, राजनीति आदि पर कभी गंभीर, कभी चुटीली चर्चाओं से हमारा सफर और रसरंजक हो रहा था.

बुरूडीह का रास्ता गाँवों से होकर गुजरता था. रास्ते के दोनों तरफ हरियाली थी, कच्चे-पक्के घर थे. मिट्टी के घरों की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी. आदिवासी समेत प्रायः सभी ग्रामीण क्षेत्रों में  दीवारों पर ऐसी चित्रकारी देखने को मिलती है. चाहे वे राजस्थान के गाँव हों या झारखंड के. मिट्टी की दीवारों पर प्रायः फूल-पत्तियों और पशु-पक्षियों के चित्र मांड़े जाते हैं. और रंगों और शैलियों में भी प्रायः अधिक अंतर नहीं होता. प्रकृति के संग-साथ जीवन-यापन करने वाले समाज खुद को प्रायः एक ही तरह से अभिव्यक्त करते हैं शायद! घरों के आगे बड़े-बड़े, औसत से कहीं अधिक ऊँचे-ऊँचे देशी मुर्गे देखकर हम सब जरूर हैरान थे! 


गाँवों-बस्तियों और हरे-भरे उजाड़ों से गुजरते हुए हम जब बुरूडीह झील पहुंचे तो दंग रह गए! हमें एकबारगी लगा कि हम  घने जंगलों-पहाड़ों से घिरी, एकदम हरी-भरी किसी घाटी में आ गए हैं! यह  तीन तरफ से घनी पहाड़ियों से घिरी, पहाड़ियों की गोद में बनी बड़ी झील थी. झील की परीधि पहाड़ियों की तलहटियों को छूती थी. झील के पानी में पहाड़ियों की परछाइयां कुछ इस तरह तैर रही थीं मानो झील में खुद पहाड़ियाँ ही तैर रही हों! झील में एक जगह दो-तीन पहाड़ियों और उनकी इकट्ठी परछाई कुछ इस तरह बन रही थी मानो आकाश और पानी में खूबसूरत होंठ तैर रहे हों!


वहाँ के मनोरम दृश्य ने सबके मन को बाँध लिया था. सब झील के तटबंध से इस दृश्य को अपनी आँखों और कैमरों में बाँधने में मगन थे. पर मेरा मन झील के पानी में उतरने को आतुर था! इसलिए मैं तटबंध से लगी सीमेंट की सीढ़ियों से झील के पानी तक चला आया और चप्पलें उतार कर पानी में ठेहुना भर उतर आया! पानी में उतरते ही एक अलग-सी सुखद अनुभूति हुई और लगा कि अब जाकर यहाँ आना पूर्ण हुआ! एक-एक कर सब पानी तक चले आए! सब पानी में उतर आए! यहाँ से चारों ओर का नजारा और भी सुंदर दिख रहा था. हम सबने पानी में खूब छपाछप किया, खूब तस्वीरें लीं और फिर वापस तटबंध पर आ गए. वहाँ चाय की एक गुमटी थी. हमने चाय पी और शाम ढलने से पहले वहाँ से सुवर्णरेखा नदी के लिए चल दिए! मन में बुरूडीह झील बस गई थी. लग रहा था, काश, यहाँ कुछ देर और ठहर पाता!





मेरे पाँवों के होंठ सुवर्णरेखा का जल चूमना चाहते थे!


जिस रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से लौट रहे थे. पर इस बार कुछ अलग अनुभूति हो रही थी! हम दोपहर में आए थे और गोधूलि में लौट रहे थे. इसलिए दोपहर के दृश्य उतर चुके थे और प्रकृति और जीवन- दोनों के कैनवास पर नए यानी साँझ के दृश्य उभर आए थे!

शहर भी शाम का चोला पहनने लगा था! इस बार हम अलग दिशा में थे. शहर का नजारा भी अलग था. सड़कें अधिक खुली-खुली और सा़फ-सुथरी थीं. दोनों तरफ सरकारी पीली इमारतें ज्यादा दिख रही थीं. हमारा ऑटो ड्राइवर हमारा लोकल गाइड बना हुआ था. सुवर्णरेखा नदी तक के रास्ते में उसने कई खास जगहों के बारे में जानकारी दी. उसने ही वह डाक-बंगला दिखाया जहां 'सत्यकाम'फिल्म की शूटिंग के लिए धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोरठहरी थीं. उसने ही 'हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड'के दफ्तर, प्लांट और गेस्ट हाउस दिखाए. उसने ही बताया कि साहब, यहाँ तीस तरह के मेटल रिफाइन होते हैं! कॉपर प्लांट के मेन गेट पर सिक्योरिटी के पास सारे मेटल एक बॉक्स में डिस्प्ले किए हुए हैं. यकीन न हो तो जाकर देख सकते हैं! उसने ही एक तरफ लगे काले-काले ढेरों की तरफ इशारा करते हुए बताया कि ये जो ढेर देख रहे हैं न, ये कॉपर प्लांट से ही कचरा के रूप में निकलता है. लेकिन इसमें भी बहुत मेटल बच जाता है. इसका भी टेंडर हो चुका है. बाहर की कंपनी है जो रोज सारा माल उठाकर उड़ीसा ले जाती है. उसने ही बताया कि ये जो कचरा है न, इससे बड़े-बड़े जहाजों की काई साफ की जाती है. इसलिए भी इसकी डिमांड है! वह अपनी रौ और उत्साह में कई रोचक बातें बताए जा रहा था.


हम सुवर्णरेखा नदी पर बने पुल पर पहुँच गए थे. नदी की काया दिखने लगी थी. पुल से गुजरते हुए भी रोमांच महसूस हो रहा था. ऑटो वाले ने पुल पारकर कच्चे रास्ते से हमें एकदम नदी के किनारे तक ले आया. यहाँ से नदी, उसपर बना पुल, पुल के उस पार से दिख रहा हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड के प्लांट से उठता धुंआ, पुल पर से गुजरती इक्का-दुक्का गाड़ियाँ - सब मिलकर एक सम्मोहक दृश्य रच रहे थे!


हम सुवर्णरेखा के तट पर खड़े-खड़े, सुवर्णरेखा के विस्तार को, उसकी दुबली हो गई काया को, उसपर तिरते बादलों को, उसपर झुक आए आकाश को, उसपर ढल रही शाम को, उसपर बंधे पुल को, पुल पर से थोड़ी-थोड़ी देर में गुजरती गाड़ियों, ट्रकों, टेम्पुओं को, पुल के उस पार कॉपर प्लांट की चिमनियों से उठते धुओं को, नदी के बीच अवशेष की तरह बच गई पुरानी पुलिये पर बैठ जाल फेंक-समेट रहे लोगों को देर तक निहारते रहे. आपस में बतियाते रहे. पहले वाले ऑटो के ड्राइवर ने नदी के बीच एक चट्टान की तरफ इशारा करते हुए बताया कि उस पत्थर को हाथी पत्थर कहते हैं. बरसात में जब यह पत्थर डूब जाता है तो नदी का पानी पुल तक आ जाता है. उसी ने बताया कि हम जहाँ खड़े हैं, उस जगह को मौहबंदर कहते हैं क्योंकि पहले यहाँ महुआ खूब होता था. इन दोनों ही ऑटो ड्राइवरों ने हमें कई स्थानीय जानकारी दीं. पर मेरा मन अब बातों में नहीं, नदी में नहाना चाहता था. मेरे पाँवों के होंठ सुवर्णरेखा का जल चूमना चाहते थे!


मैं पगडंडी पकड़कर पुरानी पुलिये तक उतर आया. कुछ लोग पानी में सड़ाए पटसन से रस्सी बांट रहे थे. कुछ उलझे जाल सुलझा रहे थे. कम उम्र के एक दो युवक पुलिया के नीचे ओट में बैठे बतिया रहे थे. एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल लेकर एकदम पुलिया के बीचोबीच चला आया था. पुलिये पर पानी से छनकर निकले खर-पतवार पसरे थे. उन्हीं के बीच से लकीर-सा पतला फिसलन-भरा रास्ता बना हुआ था. संभल-संभलकर कदम रखते मैं पुलिया के आखिर तक गया. वहाँ से नदी बहुत पास लगी और उसके बहते पानी का कलकल स्वर मेरे कानों तक पहुंचने लगा था. कुछ देर ठहरकर मैं लौट आया. बीच में बैठे लोगों के पास कुछ देर बैठा, एक छोटे-से बालक को थोड़ा पुचकारा, उनके साथ एकाध सेल्फी खींची.

अब तक सुवर्णरेखा के जल के स्पर्श का जुगत नहीं बन पाया था. लौटते समय एक जगह लगा कि यहाँ से नदी में उतरा जा सकता है और मैं झटपट उतर गया. सुवर्णरेखा के जल में पाँव रखते ही, मेरे पाँवों के होंठ मानो रोमांच और तृप्ति के सुख में बुदबुदा उठे! मैं कुछ देर तक सुवर्णरेखा के जल में पाँव डुबोये रखा. पानी पारदर्शी था और मेरे मुदित पाँव पानी से बाहर झांक रहे थे. मैंने सुवर्णरेखा के जल में मगन-मुदित अपने पाँवों की कुछ तस्वीरें लीं. पानी से झांक रहे पाँवों के साथ कुछ सेल्फी खींची और सुवर्णरेखा को अपना प्रणाम अर्पित कर बाहर आ गया. पाँवों में सुवर्णरेखा का साबुनी चिकनाई वाला जल कुछ दूर तक साथ चलता रहा!




बिभूति के आंगन में चाँद शामियाना ताने हमारा इंतजार कर रहा था!

बिभूति बाबू का घर हमारा अंतिम गंतव्य था. सूरज कब का जा चुका था पर उजाला बाकी था. शाम के  छह नहीं बजे थे. इसलिए दर्शन के लिए हमें उनका घर खुला मिला. यह कोई हवेली नहीं थी. एक लेखक का घर जैसा होता है, वैसा ही था. दो-तीन कमरे, बाहर एक बरामदा, उसके सामने एक तुलसी चौरा और एक खुली जगह. बाहर बिभूति बाबूकी एक मूर्ति लगी थी. भीतर के कमरों में उनके कपड़े, उनकी लेखनी के नमूने, उनके पत्र, उनके उपन्यासों की प्रतियाँ सजाकर रखी हुई थी. कहा जाता है कि जंगल की ड्यूटी करते हुए ही यहीं पर उन्होने अपने सारे उपन्यास लिखे थे.

बरामदे में कुछ देर बिभूति बाबू से जुड़ी बातों की चर्चा हुई. फिर मैं बाहर आ गया. बाहर चाँद आसमान में पुरकश चमक रहा था मानो चाँदनी का शामियाना ताने हमारा ही इंतजार कर रहा था! बाहर खाली पाँव घास पर टहलना अच्छा लगा. खुले आकाश में  चमकता पूरा गोल चाँद देखना भी अच्छा लगा! इसी अनुभूति के साथ हम बिभूति के आंगन से मठ के प्रांगण में लौट आए.




विदा से पहले कविता

अब तक रात के लगभग आठ बज चुके थे. हम सब  अपनी थकान धो-पोंछकर एकबार फिर तरोताजा हो चुके थे. हम सब अपनी कविताओं के साथ अब मठ के एक बड़े-से बरामदे में उपस्थित थे. इस बार चक्रधरपुरसे आए उमरचंद जायसवालऔर रामावतार अग्रवालभी शामिल थे. यह कोई साहित्यिक आयोजन नहीं था. यहाँ न तो कोई आयोजक था और न ही कोई प्रायोजक. इसलिए इसका स्वरूप नितांत अनौपचारिक और खुला था. सबने एक-एक कर अपनी-अपनी कविताएँ सुनाईं. मैंने भी अपने दूसरे कविता-संग्रह 'क्या हुआ जो'से कुछ कविताएँ सुनाई, जिनपर संक्षिप्त चर्चा हुई. कविता से ऊबने का कोई कारण तो नहीं था पर फिलहाल मेरा मन दिन भर की अनुभूतियों से अबतक रोमांचित था, शायद इसलिए मेरा मन कविता में बंध में नहीं पा रहा था. खैर, कविता सुनने-सुनाने का दौर जल्दी ही समाप्त हो गया क्योंकि सतीश जी और उनके साथियों को वाया टाटानगर, बिलासपुर के लिए रात में ही निकलना था. मठ में रात का भोजन कर हम सब एकबार फिर जुटे, पर इस बार एक दूसरे को विदा करने के लिए!


भोजन के बाद मठ के स्वामी जी से कुछ देर बातचीत हुई. वे मठ के प्रमुख महंत हैं और उनका पूरा नाम  स्वामी विज्ञानानंदजी है. उन्होंने बताया कि वे मूलतः मद्रास के हैं लेकिन तीस-चालीस वर्षों से वे यहाँ हैं. उनका व्यवहार बहुत आत्मीय था और वे सबका खूब ख्याल रख रहे थे. सतीश जी और उनके साथियों को विदा करने के बाद श्यामाश्री, उनके पति तृप्तिमय और मैं मठ में कुछ देर टहलते रहे. मठ की नीरव शांति, तारों भरा आकाश और मंद-मंद बहती हवा तन-मन को शीतल कर रही थी. लग रहा था, कुछ देर और टहल लूँ. लेकिन श्यामाश्री को भी एकदम सुबह-सुबह ही निकलना था, इसलिए हम सब एक-दूसरे से विदा लेकर अपने-अपने कमरे में लौट आए.





बारिश की ख्वाईश पूरी हुई!

अगले दिन कलकत्ते के लिए हमारी रेलगाड़ी दोपहर बाद थी. इसलिए मुझे सुबह उठने की जल्दी नहीं थी. थकान खूब थी, इसलिए नींद जल्दी आ गई. सुबह नहा-धोकर तैयार हो गया और समय से नाश्ता करने पहुँच गया. स्वामी जी से वहीं भेंट हो गई. आज गुरु पूर्णिमा था, इसलिए नाश्ते में भी विशेष व्यंजन बने थे. भरपेट नाश्ता करने के बाद मैं और रजनीश घाटशिला में ही स्थित रणकिनी मंदिर के दर्शन को निकल पड़े. मठ से दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर अपने स्थापत्य, शिल्प और आकार-प्रकार में है तो बिल्कुल साधारण, पर है ऐतिहासिक महत्व का. जादूगोड़ा के पहाड़ पर भी रणकिनी मंदिर है पर वहाँ जाने-आने के लिए हमारे पास अधिक समय नहीं था. इसलिए हम घंटे-भर में ही मठ लौट आए. मठ के कार्यालय में जाकर कुछ औपचारिकताएँ पूरी की और मठ में आश्रय देने के लिए हृदय से आभार व्यक्त किया. मठ के मंदिर में प्रणाम किया और अपने कमरे में लौट आए.


दोपहर का भोजन कर थोड़ी देर आराम करने के बाद हम कोलकाता लौटने के लिए घाटशिला स्टेशन आ गए. इस्पात एक्सप्रेस आने में देरी थी. इसलिए हम रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर ही टहलते-उबते रहे. नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे बाद हमारी गाड़ी आई. खैर, हम घाटशिला के ढेर सारे अनुभव और रोमांच के साथ गाड़ी पर सवार हो गए. मैंने इस बार संकोच त्यागकर खिड़की वाली सीट ले ली. पूरे घाटशिला-भ्रमण के दौरान कहीं बारिश नहीं मिली थी पर वापसी में मूसलाधार बारिश मिली! बारिश की ख्वाईश पूरी हुई! मैं खिड़की से अपने हाथ बाहर कर भींगता रहा! बारिश को महसूसता रहा. अपने हाथों को ही भिंगोकर अपना तन-मन बारिश में नहलाता रहा!

लगभग पूरे रास्ते बारिश होती रही और मैं घाटशिला की ढेर सारी स्मृतियों और बारिश की बूंदों के निर्बाध चुंबनों से तृप्त होकर अपने घर लौट आया! हाँ, मन में दुबारा फिर कभी घाटशिला जाने और रामकृष्ण मठ में ही कुछ दिन ठहरने की चाह जरूर घर कर चुकी थी!

(सभी फोटो राहुल राजेश के कैमरे से)
________________________________


संपर्क:-
राहुल राजेश
बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वार्टर्स
16/5, डोवर लेन
गड़ियाहाट, कोलकाता-700029. 

मोबाइल नं. 09429608159. 
rahulrajesh2006@gmail.com

उपन्यास - अंश : कफ़स : तरुण भटनागर

$
0
0
(फोटो के लिए Tajnoor Khan  का आभार)









कथाकार तरुण भटनागर के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास कफ़समें एक चरित्र है - अदीब. जब वह पैदा हुआ तब उसके शरीर में औरत और आदमी दोनों के जननांग थे. उसके पिता उसे लडका बनाना चाहते थे. उसके कई-कई ऑपरेशन होते हैं.


इस अंश में ‘बेदावा लावारिस लाश’ के ‘शव विच्छेदन’ के बहाने व्यवस्था की विद्रूपता का पोस्टमार्टम किया गया है.   




दण्डकारण्य                             
तरुण भटनागर  



दूर जंगलों के एक अस्पताल की मर्चरी.

मर्चरी में घुसने से पहले डॉक्टर जे. जोसेफ ऊपर लिखे बोर्ड को देखते हैं. अंगरेजी में लिखा है- पोस्टमार्टम रुम, हिंदी में-शव विच्छेदन कक्ष.

कमरे में ठीक सामने टेबिल पर एक लाश पडी है. सफेद कपडों में लिपटी. डॉक्टर जोसेफ ने पहले प्लास्टिक के दस्ताने पहने फिर मुँह पर एक हरी पट्टी बाँधी. डॉक्टर जोसेफ का पूरा चेहरा ढंका है. चेहरे पर सिर्फ दो आँखें दीखती हैं. ऐसे वक़्त में वे आँखों से ही बातें करते हैं. पोस्टमार्टम रुम वाला स्वीपर उनकी आँखों के इशारे को पढकर आगे का काम करता है.

उन्होंने अभी-अभी लाश के साथ आये कागजों को उलट पलटकर देखा है.
उम्र- लगभग अठाईस साल. मजहब - मुसलमान.
नाम - अब तक पता नहीं.

स्वीपर लाश को फाडने के लिए खंजरों की धार की पडताल कर रहा है. उसने सुबह ही औज़ार तैय्यार कर लिये थे. वह ख़ंजरों को तेज़ धार रखता है. कभी-कभी पुरानी लाशों में ख़ाल इस तरह माँस पर चिपक जाती है कि उसे माँस से अलग काटना मुश्किल हो जाता है. इसलिए ख़ंजरों की धार तेज रखना जरुरी है. कुछ लाशें इतनी नाज़ुक हो जाती हैं कि खंजर की तेज़ धार भी कुछ नहीं कर पाती. चलती धार पर ख़ाल, माँस, हड्डी सब कटता जाता है. वह हथौडी और छेनी को परख लेता है. ये खोपडी को खोलने के काम आती हैं. माथे के ठीक बीच हड्डी में एक जोड होता है, उस पर छेनी रख हथौडी मारने पर माथा खुलता जाता है. वह सूजे की नोक और धागे की मजबूती पर तसल्ली होने पर ही यकीन कर पाता है. अगर लाश ही साथ न दे तो दीगर बात है, वर्ना उसका सारा सामान चाक चैबंद रहता ही है. 

वह इतना परफेक्ट है कि डॉक्टर के कहने पर विसरे के लिए लाश की आँत, पेट, गले की नली, एक तरफ का पूरा फेफडा या कोई और भी अंग काटकर बाटल में कैमिकल में डालकर सुरक्षित रख देता है. उसने सुबह ही इस लाश पर निशानात बना दिये थे. गर्दन के नीचे से छाती के नीचे तक और माथे पर एक लकीर खींच दी थी. इसी लकीर पर से उस लाश को फ़ाडा जाना था. डॉक्टर जोसेफ रोज पोस्टमार्टम करते हैं. कहीं कोई नई बात नहीं है.

स्वीपर लाश के ऊपर बने निशानों पर धारदार खंजर रखता जा रहा है.

डॉक्टर के आने से पहले ही स्वीपर ने लाश का सफेद कपडा काटकर अलग कर दिया था. जिस्म को फाडने से पहले डॉक्टर जोसेफ ने उसका मुआयना किया. वे पल भर को ठिठके. लाश पर सरकती उनकी आँखें पल भर को आहिस्ता हुईं और लाश के एक हिस्से को देखतीं थिर सी हो गईं. माथे पर पसीने की कुछ बूँदें उभर आईं. उनके जेहन से अंधेरों में जज़्ब एक दुनिया के अक्स गुजरते गये. काले पर्दों के पीछे की एक ख़ामोश दुनिया.

याद आया जैसे गुजिश्ता दिनों में कहीं उन्होंने ऑपरेशन के कई दिनों के बाद बडी हिम्मत के साथ मरीज से आँख मिलाई हो. जब वे मरीज से पूछते हैं- कैसे हो तुम- तो उनके भीतर कुछ दरकता है, कुछ चटक कर बिगडता है. वे दुनिया के उन सबसे कमतर शल्य चिकित्सकों में से एक हैं जो उस काली दुनिया को देखकर आया है. कहते हैं यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में आज भी कई डॉक्टर भिडे हैं उसी काली दुनिया में.... हिंदोस्तान में ऐसे डॉक्टर गिनती के ही हैं. डॉक्टर जोसेफ उनमें से एक थे.

पर एक दिन.......

एक दिन उन्होंने उस बडे अस्पताल के सुपरिटेण्डेन्ट के सामने अपना स्तीफा रखते हुए कहा था कि अब वे इस तरह का ऑपरेशन न करेंगे. सुपरिटेण्डेन्ट उन्हें मनमाफ़िक तनख़्वाह देने को तैय्यार था. पर वे राजी न हुए. इस तरह वे उस काम को छोडकर सरकारी महकमे में नौकरी पर आ गये.

दण्डकारण्य के इन जंगलों में हाल छह महीने पहले ही उनका तबादला हुआ है. सरकारी महकमें में दण्डकारण्य में तबादले को सजा के तौर पर देखा जाता है. दण्डकारण्य में तबादला याने सजा. लाल-धूसर मिट्टी पर पसरे सागौन और साल के जंगलों को देखते हुए उनके दिमाग में यही लफ़्ज सरकता है - सजा.....सजा - और वे मुस्कुराते हैं. अक्सर कालिख़ में लिपटी काली-सलेटी रात की ख़ामोशी जब पेडों के साथ गुर्राती है, तब यह लफ़्ज उनको देख मुस्कुराता है - सजा...सजा....सजा - वे मुँह फेर लेते हैं .

मरे हुए जिस्म को पल भर देखने के बाद उन्हें लगा कि वे यहाँ से कहीं चले जायें. काला अतीत उनकी आत्मा की सीढियों पर चढ रहा है, धमकता हुआ. उनके पास उससे छुटकारे का कोई उपाय ही न हो जैसे.

डॉक्टर जोसेफ को गुजिश्ता दिनों के पोस्ट आपरेटिव वार्ड से आती कराहें और चीखें सुनाई देती हैं.... वे मरीज़ को ढांढस बंधाते हैं. मरीज़ चीखता रहता है.

हर जिस्म में कुछ बेहद नाज़ुक अंग होते हैं. माँस और तंत्रिकाओं से बने अंग. उन अंगों से लिपटी होती है उस जिस्म की सबसे अहम संवेदना. डॉक्टर जोसेफ को कई मर्तबा उन अंगों को काटकर उस जिस्म से अलग करना पडता था. वे जानते थे कि उस जिस्म से सिर्फ वह अंग ही कटकर अलग नहीं होता था, उसके साथ-साथ कटकर अलग होती थी कोई बहुत अपनी सी संवेदना, कोई आत्मिक सा जज़्बात.....कटकर अलग होता था कोई ख़्वाब, कोई अक्स जिसमें अपने रंग भरती रहती थी वह बहुत गोपन सी भावना......

डॉक्टर जोसेफ ने लाश के सिर पर, बालों पर, दस्ताने में लिपटे अपने हाथ को रखा. जैसे माँ अपने बच्चे के सिर पर हाथ रखती है. स्वीपर ने पल भर को भौंचक नजरों से डॉक्टर जोसेफ को देखा. डॉक्टर जोसेफ सचमुच कहीं चले जाना चाहते हैं. पर इस तरह चले जाना आसान नहीं है. उन्हें अपना काम निबटाना है. जाने से पहले उन्हें कागजों पर दर्ज करनी है पोस्टमार्टम की रिपोर्ट.

लाश के साथ आई पुलिस की डायरी में सबसे ऊपर लिखा है - बेदावा लावारिस लाश...

डॉक्टर जोसेफ अपनी आँखें बंद कर लेते हैं. स्वीपर उन्हें घूरता रह जाता है.

डॉक्टर जोसेफ के जेहन में ओल्ड टेस्टामेण्ट की कोई इबारत गूँजती है. बंद आँखों के अंधेरों में पुलिस की डायरी पर लाल स्याही से अंकित तीन शब्द गुजरते रहते हैं - बेदावा लावारिस लाश.... शल्य चिकित्सा की उस स्याह दुनिया से आती कराहें सुनाई देती रहती हैं, कोई एकाकी विलाप उनके जेहन को काटता जाता है. आँखें बंद किये-किये दाहिने हाथ की उंगलियों से अपने माथे, गले, कंधे और छाती को छूते हुए वे क्रास का निशान बनाते हैं. ओल्ड टेस्टामेण्ट की प्रार्थना की अंतिम लाइनें बुदबुदाते हैं. अचानक आँखें खोल स्वीपर को आँखों से इशारा करते हैं, याने - लाश पर रखे खंजर हटा दो- स्वीपर उन्हें अचरज से देखता है.

डॉक्टर जोसेफ के मन में एक पाप आ गया है. अपने पेशे से दगा करने का पाप. एक ऐसा दगा जिसकी इंतिहा उनकी जिंदगी तबाह कर सकती है.

डॉक्टर जोसेफ ने फिर से लाश के साथ आये कागज पत्रों को पलटा. कागज के एक टुकडे पर वे रुके. एक फटी हुई मार्कशीट. जिसका ऊपरी और निचला हिस्सा फाडकर अलग किया जा चुका है. सिर्फ बीच का एक हिस्सा बचा है. जिसमें अल्हदा विषयों के नाम और उनके सामने उन विषयों में मिले नंबर लिखे हैं. उन्होंने विषयवार प्राप्त नंबरों पर सरसरी नजर दौडाई. गणित के नंबरों को उन्होंने गौर से देखा. चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे. उन्होंने फिर से गणित में प्राप्त नंबरों को पढा - चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे - उन्होंने तिबारा पढा - चार सौ में से तीन सौ अन्ठान्बे - फिर कागज पत्रों को बंद कर दिया.

पुलिस के सबसे ऊपर के कागज में सबसे नीचे लिखा है - मृत्यु का कारण. 

डॉक्टर जोसेफ को इन कागज़ों में मृत्यु का कारणअंकित करना है. मृत्यु के कारण के नीचे ब्रैकेट में लिखा है - पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सक का अभिमत, याने वे क्या मानते हैं कि मृत्यु का कारण क्या है ? क्या वजह थी कि यह शख़्स मारा गया? मौत की वजह? वाजिब वजह

उन्हें शल्य चिकित्सा के दौर के वे जिस्म फिर से याद आये.

एक अधेड उम्र का बाप और उसके पीछे चलती उसकी कम उम्र वाली घरवाली डॉक्टर जोसेफ को अक्सर याद आते. बाप अक्सर गुजारिश सी करता कि वे उसकी औलाद को लडका बना दें. एक बार उनके सामने हाथ जोडकर खडा हो गया. उन्होंने उसे समझाया कि उनकी औलाद का जिस्म ऐसा है कि वह लडकी तो आसानी से बन सकता है पर लडका नहीं. पर वे न माने. वे उसे समझाते रहे पर उस पर इसका कोई असर न होता. बाद में एक दूसरे डॉक्टर से पता चला कि वह अस्पताल को मुँहमागी रकम देने को तैय्यार है. अस्पताल के लागे भी रजामंद थे - जब बाप चाहता है तो हमें क्या - वही दूसरा डॉक्टर उन्हें समझाता है - वह काफी पैसे दे रहा है, अस्पताल का डीन भी ऐसा ही चाहता है, कोई ऊपर से फोन भी आया है, क्यों पचडा पालना, कर देते हैं आपरेशन. ऑपरेशन के बाद वह मरीज पोस्ट आपरेटिव वार्ड में सो रहा था. 

पता नहीं वह क्या हो पाया है - डॉक्टर जोसेफ का मन ग्लानि से भर उठता - राम जाने वह क्या बन गया होगा, शायद थोडा लडका, शायद थोडा लडकी - वे उसके सोते चेहरे को गौर से देखते हैं - जैसे कोई लडकी, जैसे कोई लडका, जैसे इंसान की कोई औलाद, बस एक ही अंतर है कि उसे बार-बार अपने जिस्म पर चलवाने हैं चाकू, कटवाने हैं जिस्म के कुछ बेहद अंतरंग हिस्से - डॉक्टर जोसेफ सोचते हैं एक दिन वे यह काम बंद कर देंगे, एकदम बंद......

उन्होंने पल भर को लाश की ओर देखा और फिर खिडकी के बाहर देखने लगे.

मृत्यु का कारण.....

खिडकी के पार टीन की एक छत है. छत पर एक कौवा बैठा है. कव्वे के मुँह में माँस का एक टुकडा है. एक दूसरा कौवा उससे उस टुकडे को छीनने के लिए झपट रहा है.

मृत्यु का कारण.....

खिडकी के पार  कचरे का ढेर है. ढेर में अस्पताल से फेंके गये कटे-फटे मानव अंग पडे हैं, रक्त रंजित पट्टियों के टुकडे, पुराने सडे विसरे की बोतलें......ढेर में काले-लाल रक्त से सना एक प्लेसेन्टा पडा है जिसे एक कुत्ता अपने जबडों से खींच रहा है.

मृत्यु, मृत्यु....मृत्यु का कारण.....

सजा...दण्डकारण्य.....सजा....दण्डकारण्य.....

ऊपर गिद्धों का एक झुण्ड है. नीले आकाश में इत्मिनान से तैरता. कचरे के ढेर में पडे इंसानी जिस्म के टुकडों पर ललचाते. इंसानी माँस के टुकडों पर झपटने को आतुर....

मृत्यु का कारण....

वे लाश का मजहब जानते हैं, पर वे लाश का नाम नहीं जानते.....

पढाई के सबसे बेहतरीन नंबरों के आगे वे बडे इत्मिनान से लिख देते हैं - बेदावा लावारिस लाश....

स्वीपर हठात खडा है. उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं.

कौवों की काँव-काँव और गिद्धों की चाँव-चाँव से टूटती रहती है पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी. पोस्टमार्टम रुम की ख़ामोशी एक तवायफ़ है. चुप्पियों के दलाल की तवायफ़. ख़ामोशी की बदचलनी पर बोलने का उसूल नहीं है. दुनियादारी के बीच उसकी हरमज़दगी का किस्सा कोई नहीं कहता. पैसों कि ख़ातिर जो सबकुछ बेचने को आतुर हो ऐसी बेगैरत ख़ामोशीसे लोग मुस्कुराकर बात करते हैं. ठीक वही ख़ामोशी.....वही असीम, अनंत और परम शांति....अनवरत, मुसलसल....क्या फ़र्क पडता है किसका जिस्म....क्या अंतर कि किस- किसकी लाश....शांति, शांति, शांति....क्या फ़र्क कि किसका पोस्टमार्टम, क्या मतलब कि कहाँ का, किसका और कौन सा जंगल...?

ख़ामोशख़ामोश... ऑर्डर- ऑर्डर. चुप बे,चुप.....

मृत्यु का कारण......

डॉक्टर जोसेफ लाल स्याही से पुलिस के कागज़ों में जल्दीबाजी में लिखते हैं - पीठ, छाती और चेहरे पर खरोंच के गहरे निशान (संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने चैस्ट की पाँच पसलियाँ टूटी हुईं, पेट के दाहिने हिस्से में गहरा घाव (किसी धारदार हथियार से हमले की वजह से), गर्दन के पीछे सरवाइकल स्पाइन टूटी हुई (वही संभवतः पथरीली जमीन पर खसीटे जाने की वजह से), दाहिने टैम्पोरल में गहरा घाव खोपडी के भीतर तक ( बंदूक की गोली लगने से), बाईं ह्यूमरस टूटी हुई......

मृत्यु का कारण......

लगातार हुआ रक्तस्राव और ब्रेन के अंदरुनी हिस्सों में गंभीर चोट......

कचरे के ढेर के पास कुत्ता भौंकता है. उसके रक्त रंजित दाँत दीखते हैं. अधखाया प्लेसेण्टा उसके मुँह से लटका है.

डॉक्टर जोसेफ तत्काल मर्चरी के बाहर आ जाते हैं. हडबडाये. और सीधे चलते चले जाते हैं. नाक की सीध में. लंबे डग भरते. बेचैन. कभी भी पलटकर न देखने.       

मृत्यु का कारण....

खिडकी से सिर बाहर कर कातर आवाज़ में स्वीपर पुकारता है -
कहाँ चल दिये सर. एकदम अचानक.

डॉक्टर जोसेफ पलटकर नहीं देखते. सीधे चले जाते हैं. सामने की ओर मुँह उठाये. खिडकी के बाहर झाँकता स्वीपर चीखता है-

कोई काम याद आ गया क्या सर.....?’

फिर वह पुलिस के कागज़ों पर लाल स्याही से दर्ज़ डॉक्टर की रिपोर्ट देखता है. रिपोर्ट के नीचे डॉक्टर जोसेफ ने दस्तख़त नहीं किये हैं. वह फिर से खिडकी की ओर लपकता है. डॉक्टर जोसेफ उसे दूर-दूर तक कहीं नहीं दीखते.

कहानी का एक हिस्सा किसी को नहीं पता. किसी को भी नहीं.

कहते हैं वह दण्डकारण्य के घने जंगलों में वह एक नई-नई रात थी.

अपने एक दोस्त की समझाइश पर अदीब ने अपनी मार्कशीट के तीन टुकडे किये. एक टुकडा जिसमें उसका नामउसकी वल्दियत, उसकी उम्र, उसका पता लिखा था, दूसरा टुकडा जिसमें उसके कालेज और विश्विविद्यालय का नाम लिखा था और जिसके नीचे विश्विविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त थे और तीसरा टुकडा जिसमें सब्जैक्टवार नंबर लिखे थे. दोस्त ने उससे कहा कि वह सिर्फ सब्जैक्टवार नंबर संभाल कर रख सकता है. दोस्त जाने के लिए उठा और उससे मुख़ातिब हुआ -

नंबर गणित की इजाद हैं. नंबरों की कोई जात नहीं. नंबरों का कोई मजहब नहीं. नंबर न आदमी होते हैं, न औरत. नंबरों का कोई मुल्क नहीं.

अदीब उसे एकटक देखता रहा. सामने आग जल रही थी. आग की लपटें दोस्त की आँखों में दमकती थीं-

नंबर ख़ालिस गणित हैं. नंबर सिर्फ और सिर्फ उसी के होते हैं जिसके ये होते हैं. नंबरों पर किसी और का अख़्तियार नहीं होता. नंबर इंसाफ़ का दूसरा नाम हैं.
वह जाने को मुडा. पर फिर उसकी ओर देखा-
हाँ....एक और बात.
क्या...?’
नंबरों का कोई घर नहीं होता. उनका कोई पता ठिकाना नहीं होता. सारी दुनिया उनका घर है......तुम सिर्फ नंबरों को सहेज कर रख सकते हो.

दूर कहीं सुधीर के पास अपर्णा बैठी थी. उसके हाथों में अदीब के स्टडी रुम से लाये कुछ कागज़ थे, जो वह वहाँ से उठा लाई थी. कागज़ों में वही सब था. इश्क के नंबरों की वही थ्योरम. उसने बडी मुश्किल से उस थ्योरम को समझ लिया था. वह सुधीर को वह थ्योरम बाँच रही थी. उसे सफेद बोर्ड पर हाईलाइटर चलाती अदीब की उंगलियाँ दीखीं, थ्योरम और एनामेलीज़ का सही-सही जवाब निकाल लाने को आतुर बेचैन उसकी आँखें दीखीं. उसने सुधीर को चूम लिया -

'गणित के नंबरों में से इश्क की ख़ुशबू आती है.....है न.
'गणित के नंबरों को देखो तो किसी सौदाई इश्कबाज़ की याद आती है....है न.
जाने से पहले दोस्त ने अदीब के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था.

अदीब ने सधे हाथों से मार्कशीट के दो टुकडों को आग में जला दिया. इस तरह धधकती आग में जल गया उसका नाम, उसकी वल्दियत, उसकी उम्र......रफ़्ता-रफ़्ता जला था उसके घर का पता....धूँ,धूँ कर जलता रहा था उसका कालेज, विश्वविद्यालय....लपटों में भस्म होते गये थे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के दस्तख़त...... दूर खडा दोस्त मुस्कुरा रहा था. उसने गौर से देखा था, कि इन टुकडों को जलाते समय अदीब के हाथ जरा भी नहीं झिझके.

उन तमाम राखों में जो इश्क के अनकहे अफ़साने होकर सबसे पहले चिता पर ख़ाक होते हैं. जो दफ्न होते हैं मिट्टी होने किसी अनाम कब्र में. उडते फिरते धूल और राख़ होकर. उन्हीं में शुमार थी वह राख़ भी जो कागज़ के उन टुकडों को जलाने से उठी थी, बिखरी थी दण्डकारण्य के उस बियाबान में.  

____________
तरुण भटनागर :
गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’ (कहानी संग्रह), लौटती नहीं जो हंसी (उपन्यास) प्रकाशित 
  • tarun.bhatnagar.71@facebook.com


तरुण की कहनियां यहाँ पढ़ सकते हैं.
बाहरी दुनिया का फालतू   
ढिबरियों की कब्रगाह  आदि

मसीह अलीनेजाद से बातचीत : वर्षा सिंह

$
0
0






मसीह अलीनेजादअब किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं. औरतों की आज़ादी और खुदमुख्तारी के लिए उनका संघर्ष ईरान से निकलकर पूरी दुनिया में फैल चुका है. मसीह अलीनेजाद से बात की है लेखिका और पत्रकार वर्षा सिंह ने.




एक ईरानी लड़की की जंग और हमारी बातचीत               
वर्षा सिंह


फेसबुक पर एक खूबसूरत और आज़ाद ख्याल पन्ना है जिसने दुनियाभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. इस पन्ने का नाम है "my stealthy freedom", यानी मेरी छुपी हुई आज़ादी. ये पन्ना एक ईरानी आज़ाद ख़्याल लड़की और पत्रकार मसीह अलीनेजाद ने बनाया. मसीह ने इस पन्ने में अपनी तस्वीरें साझा कीं. हम ईरान की बात कर रहे हैं. जहां एक लड़की खुल कर दुनिया के सामने नहीं आ सकती. तस्वीरें साझा करना तो दूर की बात है. मसीह ने हिम्मत दिखाते हुए खुले बालों में अपनी तस्वीरें इस फेसबुक पन्ने पर डालीं. ईरान में लड़कियों के लिए ये अपराध समान माना जाता है.


मसीह के लिए ये करना आसान नहीं था. उसने एक कदम आगे बढ़ाया और उनके साथ कई और सहेलियां भी इस पन्ने पर आ जुड़ीं. उन्होंने भी अपनी आजाद ख्याल तस्वीरें इस फेसबुक पन्ने पर डालीं. हर तस्वीर के साथ पन्ने पर लाइक्स की गिनती बढ़ती रही. हम भी इसी तरह इस पेज पर पहुंचे. लगा कि ये बात जितने ज्यादा लोग जानें उतना ही अच्छा है. क्योंकि हमारे यहां भी लड़कियों के हाल, ईरान से बेहतर तो हैं, लेकिन बहुत अच्छे नहीं. हमारी आजादी अभी आधी अधूरी, नकली और दिखावटी ज्यादा है. खुद आत्मनिर्भर लड़कियां भी अपनी गुलाम सोच से मुक्त नहीं. तो चलिए मसीह से बात करते हैं. इंटरनेट ने उनसे बातचीत की सुविधा उपलब्ध कराई. ईमेल पर साक्षात्कार हुआ. मसीह की इस मुहिम से जुड़े वाहिद युसेसॉय (Vahid Yücesoy)ने उनकी ओर से ये जवाब दिए.



सवाल 1. मसीह ये पूरी मुहिम कैसे शुरू हुआ?  कब शुरू हुई?इस तरह की मुहिम शुरू करने का ख्याल कैसे आया?




इस मुहिम की शुरुआत करीब दो साल पहले हुई जब मसीह ने बिना किसी नकाब के अपनी एक तस्वीर फेसबुक पर साझा की. इस तस्वीर में वो अपने बालों में हवा को महसूस कर रही थीं और ये एक तस्वीर के रूप में बहुत खूबसूरत था.
पश्चिम की दुनिया में मसीह जिस आजादी को जी रही थीं, ईरान की उसकी महिला मित्रों को इस पर जलन महसूस हुई. मसीह ने उन्हें भी लोगों की नजरों से दूर, चोरी छिपे कमाए, अपने ऐसे ही आजाद लम्हों की तस्वीरें साझा करने का सुझाव दिया. उसने ईरान में ली हुई अपनी एक तस्वीर भी साझा की. इस तस्वीर में गाड़ी चलाने के दौरान उसने अपना नक़ाब हटा दिया था. बस इसके कुछ देर बाद ही, उसका निजी फेसबुक पन्ना ऐसी तस्वीरों से भर गया जिसमें तमाम ईरानी महिलाओं ने सार्वजनिक स्थलों पर बिना किसी नक़ाब के अपनी तस्वीरें ली थीं. इस तरह मसीह के इस जोरदार मुहिम ने जन्म लिया.



सवाल 2.क्या इस मुहिम का कोई ठोस उद्देश्य था ?
इस मुहिमा का मूलभूत उद्देश्य बहुत सीधा सा था- इसका मक़सद ईरानी महिलाओं को अपने'चुनने का अधिकार'हासिल करना था कि वे नकाब पहनना चाहती हैं या नहीं. ईरानी महिलाएं पिछले तीन दशक से इस मूलभूत अधिकार से वंचित हैं. ईरान का मीडिया भी औरतों की इस आजादी के बारे में रिपोर्टिंग करने को इच्छुक नहीं है. यहां तक कि ईरान के सुरक्षा बलों ने खुद ये स्वीकार किया है कि उन्होंने वर्ष 2014 में 3.6 मिलियन से अधिक औरतों को खराब तरह से नक़ाब पहनने को लेकर चेतावनी दी है. इस मुहिम का मकसद यही था कि नक़ाब पहनना जरूरी करना महिलाओं पर जुल्म की सबसे उजागर तस्वीर थी. हालांकि, हम नक़ाब के खिलाफ नहीं हैं. हम अपने 'चुनने के अधिकार'को प्रोत्साहित कर रहे हैं.



सवाल 3. ईरान की सरकार इस मुहिम को कैसे देखती है?
जब यह मुहिम शुरु हुई, ईरान के अधिकारी पहले तो मसीह लीनेजाद को बदनाम करने की कोशिश में जुट गए. उन्होंने आरोप लगाया कि लंदन के एक ट्यूब स्टेशन में मसीह का उसके बच्चे के सामने बलात्कार हुआ, जिसकी वजह से उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. उसकी वेबसाइट पर ही लगातार ईरान की साइबर आर्मी के हमले होते रहे. उसका फेसबुक अकाउंट चोरी किया गया. उसके पास सैंकड़ों की तादाद में अवांछनीय ईमेल आए. सत्तासीन लोग साफतौर पर इस मुहिम की बढ़ती लोकप्रियता से नाराज दिख रहे थे.



सवाल 4.  क्या इस मुहिम के प्रतिभागियों ने अब तक किसी तरह का खतरा झेला हैं?अगर हां, तो क्या आप कुछ उदाहरण दे सकती हैं.
हमारी जानकारी के मुताबिक, हमारे साथ अपनी तस्वीर साझा करने वाली किसी भी प्रतिभागी ने किसी तरह खतरे का कोई सामना नहीं किया है. यह कहा जाता है, ईरान में एक औरत होना और लैंगिक समानता के लिए लड़ना अपने आप में खतरे वाली बात है. तो अपनी तस्वीरें हमें भेजकर उन्होंने कुछ ऐसा अलग नहीं किया जो वो अपनी रोज़ की ज़िंदगी में किया करती थीं.



सवाल 5. ईरानी महिलाएं ड्रेस कोड के खिलाफ अभी क्यों हैं?ईरान में ड्रेस कोड संबंधित नियम 1979 की क्रांति के समय से ही लागू हैं. तो अभी क्यों?ईरानी समाज में क्या बदलाव आ रहे हैं?


वास्तव में, ड्रेसकोड का पक्षपाती नियम ईरान में तीन दशक से अधिक समय से लागू है. इस मुहिम को शुरू करने के समय को लेकर हम कम से कम दो वजहें बता सकते हैं. सबसे पहले, इन वर्षों में, धर्म के नाम पर सामाजिक दबाव बनाकर ईरान की बर्बादी के बाद जैसे जैसे लोगों ने शिक्षा हासिल की, ईरान के समाज में बेहतर बदलाव देखे गए. आम लोगों में सामाजिक रीति-रिवाज ज्यादा उदार होते गए और इससे शासन और लोगों के बीच दूरियां बढ़ती गईं. दूसरा, पहली वजह के उप-सिद्धांत के रूप में, बेहतर शिक्षा के साथ बड़ी होती नई पीढ़ी में नकाब के प्रति असंतुष्टि बढ़ने लगी. इस असंतुष्टि को एक उत्प्रेरक की जरूरत है जो इसे सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त कर सके. माई स्टेल्दी फ्रीडम यानी मेरी छुपी हुई आज़ादी कैंपेन ने इस मौजूद असंतुष्टि को पकड़ लिया और इसलिए यह मुहिम फौरन सफल हो गई. ये गौर करने वाली बात है कि धार्मिक परिवारों से जुड़े बहुत से लोग (जैसे मसीह अलीनेजाद) अनिवार्य नकाब से परेशान हो गए हैं और आवाज़ उठा रहे हैं.



सवाल 6.क्या आपके इस विरोध आंदोलन और 2009 के ग्रीन मूवमेंट में कोई संबंध है?
ग्रीन मूवमेंट समाज के बहुत सारे वर्गों में व्यापक पैमाने पर सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्य को लेकर शुरू किया गया था जबकि माई स्टेल्दी फ्रीडम औरतों और उनके ड्रेस कोड को लेकर शुरु किया गया है. ग्रीन मूवमेंट अनिवार्य नकाब को लेकर कुछ भी खुलकर नहीं कहता. इस बात को कम नहीं आंकना चाहिए कि ज्यादातर लोग जो ग्रीन मूवमेंट के साथ खड़े थे, वे ईरानी महिलाओं के चुनने के अधिकार को लेकर भी साथ रहेंगे. ईरान में साफ तौर पर सामाजिक बदलाव दिखता है.



सवाल 7.आप आधुनिक ईरान में महिलाओं की स्थिति किस तरह देखती हैं?क्या यह बदल रहा है?क्या महिलाएं ये कोशिश कर रही हैं कि उनकी आवाज़ सुनी जाए?
निश्चित तौर पर बदलाव आ रहा है और ईरान की कैद में महिलाओं की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है. बहुत सारी महिलाएं कैद में हैं क्योंकि उन्होंने लैंगिक असमानता के खिलाफ आवाज़ उठाई. फेमेनिज्म शब्द को ईरान के प्रशासनिक वर्ग में बेहद तिरस्कार के भाव के साथ देखा जाता है. यहां तक कि सर्वोच्च अध्यक्ष भी फेमेनिस्ट शब्द को इस्लामिक रिपब्लिक के विरोध से जोड़कर देखते हैं.



सवाल 8. ईरान के पुरुष यहां की महिलाओं के आंदोलन को किस तरह लेते हैं?क्या वे इसे प्रोत्साहित करते हैं? आपकी मुहिम से लगता है कि वे ऐसा करते हैं, क्या ये सही है?
जिस तरह का सामाजिक बदलाव ईरान में जगह ले रहा है, यहां के पुरुष भी महिलाओं के अपनी मर्जी से कपड़े पहनने के अधिकार को प्रोत्साहित करते हैं. ईरान के शासन का कहना है कि बिना नकाब की महिलाएं, आदमियों को उकसाने का काम करेंगी, यहां तक कि जब भी वे बिना नकाब या गलत तरह से पहनी गई नकाब में महिलाओं को देखेंगे तो वे सड़कों पर औरतों के साथ बुरा सुलूक करेंगे. हालांकि, हमारे कुछ सहयोगियों ने तेहरान में ऐसे सामाजिक प्रयोगों के वीडियो भेजे हैं. इन वीडियो में, महिलाएं बिना सिर ढंके तेहरान की सड़कों पर जा रही हैं और एक भी आदमी उन पर हमला नहीं करता, न ही अपनी नापसंदगी जताता है. ये बताता है कि ईरान के पुरुष यहां की महिलाओं के चुनने के अधिकार के खिलाफ नहीं हैं, हमें पूरा विश्वास है कि हमारी इस मुहिम को समर्थन देने वाले पुरुषों की संख्या में इजाफा होगा, जैसा कि यह अब भी हो रहा है, हमें पुरुषों से लगातार समर्थन मिल रहा है.


तो ये थी मसीह से फेसबुक और फिर जीमेल पर हुई मेरी बातचीत. ईरान में नकाब पहनना अनिवार्य है. नकाब न पहनने पर या खराब तरह से पहनने पर जुर्माने से लेकर सजा तक का प्रावधान है. मसीह जैसी हमारी आजाद ख्याल सहेलियां मूलभूत अधिकार के इस जंग को लड़ रही हैं. हमारे यहां भी फेमेनिज्म की लड़ाई अभी लंबी है. जो कपड़ों से शुरू होकर, खुल सोच, सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप तक जाती है. 
__________


वर्षा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार15 वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में (सहारा समय,आउटलुक वेब) कार्यरत
वर्तमान में आईएमएस ग़ाज़ियाबाद में असिस्टेंट प्रोफेसर
ईमेल- bareesh@gmail.com

मीमांसा : अभिनवगुप्त : एक हस्तक्षेप : अरुण माहेश्वरी

$
0
0












संस्कृत के प्रख्यात विद्वान राधावल्लभ  त्रिपाठी के लेख अभिनवगुप्त की कविता'पर अपनी आपत्तियों  से संवाद को आगे बढ़ा रहे हैं मार्क्सवादी आलोचक अरुण माहेश्वरी.

क्या ‘हिन्दू’ धर्म को किसी  सेमेटिक धर्म की तरह निर्मित करने की कुटिल राजनीति का आखेट हो रहे हैं अभिनवगुप्त ?

अरुण माहेश्वरी का दर्शन और राजनीति की गुत्थियों को सुलझाता यह आलेख आपके लिए.



अभिनवगुप्त :  एक हस्तक्षेप              
अरुण माहेश्वरी



'वागर्थ'पत्रिका के जुलाई 2017 के अंक में अनायास ही राधावल्लभ त्रिपाठी के अभिनवगुप्त ( 950 – 1016 AD)की कविताओं पर लेख ने हमारा ध्यान खींच लिया. लेख का शीर्षक है — ‘अभिनवगुप्त की कविता'.

लेख के पहले पैरा में ही कश्मीर के इस दार्शनिक, सौन्दर्यशास्त्री, भाषाशास्त्री, कवि और धर्मगुरू के महत्व को बहुत खूबसूरती से रखते हुए लिखा गया है —  “किसी चक्रवर्ती राजा को भी ऐसा सम्मान न मिला होगा, जैसा सम्मान अभिनवगुप्त को अपने जीवन काल में और उसके बाद लगभग एक सहस्त्राब्दी तक दिया गया.“”

इस कथन के बाद की पंक्ति है —“  “कश्मीर के उस समय के नाजुक हालातों में अभिनवगुप्त की लोकोद्धारक मसीहा जैसी छवि बनाई गई, उसके पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है. इन सबसे अभिनवगुप्त का जो आभामंडल बना, उससे एक अनर्थ यह हुआ कि उनकी असाधारण उपलब्धियों के विमर्श में उनकी कविता उपेक्षित और विस्मृत होती गई. विद्वान भूल गए कि अभिनवगुप्त एक कवि भी है.“”

और, इसी आधारभूमि पर राधावल्लभ जी आगे अभिनवगुप्त के कवि रूप का परिचय देने के लिये अपने इस लेख की पूरी इमारत को खड़ा करते हैं.

यहां हम त्रिपाठी जी के उपरोक्त कथन को थोड़ा ध्यान से पढ़ने, रुक कर उसका किंचित विखंडन करने का आग्रह करना चाहेंगे.


१.       सबसे पहले तो 'कश्मीर के उस समय (अभिनवगुप्त के समय) के नाजुक हालात'पर बात करते हैं. क्या थे वे हालात ?

२.      दूसरा वह कहते हैं, “अभिनवगुप्त की लोकोद्धारक मसीहा (शैवागमों की भाषा में उपाय, अर्थात मुक्तिदायी – अ.मा.) जैसी छवि बनाई गई, उसके पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है.“ 'लोकोद्धारक मसीहा अभिनवगुप्त'से त्रिपाठी जी का क्या तात्पर्य है ? उन्होंने अभिनव की प्रशस्ती में खुद लिखा है कि “किसी चक्रवर्ती राजा को भी ऐसा सम्मान न मिला होगा, जैसा सम्मान अभिनवगुप्त को अपने जीवन काल में और उसके बाद लगभग एक सहस्त्राब्दी तक दिया गया. जाहिर है, अभिनव कभी शासक नहीं रहे, और उनके बारे में न्यूनतम जानकारी रखने वाले भी जानते हैं कि उनकी न कभी वैसी कोई मंशा या वासना रही. तब उनकी 'लोकोद्धारक मसीहा'की छवि कैसे बनी ?

३.       तीसरा, त्रिपाठी उनकी 'आसाधारण उपलब्धियों'की चर्चा करते हैं. वे 'असाधारण उपलब्धियां'क्या थी ?

४.      चौथा, त्रिपाठी कहते हैं — उनकी ऐसी छवि बनाने के “पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है.“ सवाल उठता है, कौन सी रणनीति ? किसे अपदस्थ करके किसे स्थापित करने की रणनीति ?आगे वे कहते हैं, “इन सबसे अभिनवगुप्त का जो आभामंडल बना, उससे एक अनर्थ यह हुआ कि उनकी असाधारण उपलब्धियों के विमर्श में उनकी कविता उपेक्षित और विस्मृत होती गई.“ अर्थात उनका कवि रूप चर्चा में न आ सका.

त्रिपाठी जी के इस कथन की भंगिमा से यह भी जाहिर होता है कि अभिनव के इस विलक्षण आभामंडल से एक नहीं कई अनर्थ हुए थे जिनमें से एक, उनके विस्मृत कवि रूप पर प्रकाश डालने हेतु उन्होंने इस लेख की निर्मिति की है. अब यहीं पर यह प्रश्न भी उठ जाता है कि अभिनवगुप्त के इस विलक्षण आभामंडल के निर्माण से और कौन-कौन से अनर्थ हुए ?

५.       और अंतिम बात त्रिपाठी जी यह कहते हैं कि लगभग एक सहस्त्राब्दी तक सम्मान के ऊंचे पद पर रहने के कारण विद्वानों ने उनके कवि को विस्मृत कर दिया. सवाल उठता है कि एक सहस्त्राब्दी, अर्थात सन् 2000 तक, लगभग आज तक 'चक्रवर्ती राजा'की तरह के सम्मानित स्थान पर रहने के उपरांत अभिनव की आज स्थिति क्या है और क्यों है ?


हम यहां सबसे पहले अभिनवगुप्त के समय के कश्मीर के 'नाजुक हालात'पर बात करते हैं. जब अभिनवगुप्त के स्तर के एक धर्मगुरू, दार्शनिक, भाषा-शास्त्री, सौन्दर्यशास्त्री और कवि के संदर्भ में कोई देशकाल की बात करता है तो यह स्वाभाविक तौर पर ही तत्कालीन भारत के समग्र सांस्कृतिक हालात का मसला ही हो सकता है, धर्म, दर्शन, भाषाशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र से जुड़ा मसला. तो क्या थे वे हालात ?

                                                                                                                                                         
                                               
उत्पलदेवकी ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका और उसकी वृत्ति के अनुवादक रफायल तोरेल्लाने इसी अनुदित पुस्तक की अपनी भूमिका में कश्मीर में उस काल का एक चित्र खींचते हुए लिखा है कि शंकराचार्य के ठीक बाद 9वीं सदी के कश्मीर के सांस्कृतिक परिदृश्य में तत्कालीन भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धार्मिक-दार्शनिक प्रवृत्तियों की प्रमुख बाते पाई जाती हैं और उनके अंदर क्या कुछ नया विकसित हो रहा है जो उन्हें अपनी जड़ों से काफी दूर ले आया, और किन बातों का क्षय हो रहा हैं, उनके लक्षणों को भी देखा जा सकता हैं. कश्मीर घाटी में बौद्ध धर्म की परंपरा (जिसकी जड़ें वहां प्राचीन काल से थी) यथार्थवादी धाराओं  और विज्ञानवाद, दोनों रूपों में मौजूद थी जिसका तथाकथित महान 'तर्कशास्त्रीय पंथ'के रूप में विकास हुआ. यह बौद्ध धर्म की अभी की उन अनेक धाराओं में समग्र रूप में प्रस्फुटित हुई नहीं दिखाई देती हैं, जिनसे बौद्ध धर्म के आज के अनुयायी, उसके विरोधी और उसके विद्वान उसकी पहचान करते हैं. ब्राह्मणवादी कुलीन तो तब भी दिग्नाग और धर्मकीर्ति के सिद्धांतों की प्रत्युत्तर को साधने में ही डूबे हुए थे, कश्मीर में जिनके चलन को राजा जयपद के दरबार में बुलाये गये धर्मोत्तर द्वारा आगे और बढ़ाया जाना था.

(राजतरंगिनी, IV5.498) इसी से जयन्त भट्ट की 'न्याय मंजरी'और भास्वर्यज्ञ की 'न्याय भूषण'के स्तर की अत्यंत महत्वपूर्ण कृतियों की रचना हुई . इसके अलावा ब्राह्मणों के दायरे में भी, जिसे दूसरा पक्ष कहा जा सकता है, शंकर से स्वतंत्र वेदांत की और धाराओं का भी विकास हुआ था.इन सब धाराओं को इनमें मौजूद ब्राह्मण, माया, अविद्या, विवर्त आदि की तरह के कुछ बुनियादी तत्वों के अलग-अलग विन्यासों और उनके भिन्न-भिन्न नामों के आधार पर अलग करके देखा जाता है. मीमांसक पंथों की भी गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं. इनके अलावा इसी काल में साहित्य की आलोचना और सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की परंपरा भी काफी विकसित हुई.(Ingalls,1990 : 1-10)इसी प्रकार व्याकरण और सामान्य भाषाशास्त्र के अध्ययन की भी उतनी ही महत्वपूर्ण परंपरा मिलती है जिसमें भृतहरि की विरासत का एक प्रमुख स्थान है.(Raffaele Torella, The Isvarapratyabhijnakarika of Utpaldeva with the author’s Vritti, page – IX) 

एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में 'लोकोद्धारक'अभिनवगुप्त की छवि को यदि किसी एक बिंदु से समझा जा सकता है तो वह सिवाय एक 'धर्मगुरू'के अतिरिक्त और किसी रूप में नहीं हो सकती है क्योंकि राजा के अतिरिक्त सिर्फ धर्मगुरू ही हो सकता है जिसकी आम तौर पर लोक में एक उद्धारकर्ता की छवि हुआ करती है. अर्थात कश्मीरी शैव मत के एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी दार्शनिक और धर्मगुरू की छवि, जिसने दर्शनशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र की दीर्घ शास्त्रीय परंपरा के विकास को एक बिल्कुल नये स्तर तक ले जाने के साथ ही धर्म-प्राण जनता के हृदय में एक स्थायी स्थान बनाने के तमाम कर्मकांडी तौर-तरीकों को भी आयत्त किया था और वेदांती, पंचरात्र की वैष्णव परंपरा और बौद्धों की मंदिर और पूजा पाठ की परंपरा के विपरीत साधना के एकांतिक निजी मार्ग वाले शैवमत को भी कश्मीर में उन्होंने बाकायदा एक सांस्थानिक रूप दे दिया था. इसीलिये जब भी कोई अभिनवगुप्त के 'लोकोद्धारक'रूप पर चर्चा करता है तो वह अनिवार्य रूप में धर्मगुरू अभिनवगुप्त की ही चर्चा कर रहा होता है.




भारत में धर्मों के इतिहास के बारे में सभी जानते हैं कि यहां पंचरात्र की तरह ही शैवमत के सारे तत्व वैदिक काल से भी पहले से मौजूद रहे हैं. बाद में वैदिक मत के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ इसी मत के आधार पर लगातार सवाल उठाये जाते रहे, शैवमत के आगम ग्रंथों के अलावा जात-पात विरोधी कई धार्मिक पंथों का भी विकास हुआ जिनमें प्रमुख रूप से जो सबसे बड़े धर्म पैदा हुए उनमें बौद्ध धर्म का विस्तार तो सारी दुनिया में हुआ लेकिन हमारे यहाँ जैन धर्म और सबसे नये सिख धर्म के पीछे भी शैव मत के एकेश्वरवाद के तमाम सूत्र मौजूद थे, जो शंकर की वेदांती मान्यता के खिलाफ इस जगत को मिथ्या नहीं मानते थे बल्कि इसे ईश्वर के ही अनेक रूप, एक शिव के नाना रूपों में प्रकाश को मानने के कारण हर मनुष्य में ईश्वर को देखते थे और मनुवादी वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे. बौद्धों, जैनों और वैष्णवों के अलावा लगभग 92 शैवागमों पर आधारित शैवमत ब्राह्मणवादी वैदिक मत के खिलाफ भारत की व्यापक जनता का सबसे बड़ा धार्मिक मत रहा है, जिसे धर्म के कारोबारी ब्राह्मणों ने अपने कारोबार के हित के लिये ही ख़ुद भी मान कर चलने में ही अपनी भलाई को देखा और ब्रह्मा, विष्णु के साथ ही शिव को भी बैठा दिया. ब्रह्म प्रतीक थे वैदिक ब्रह्म के, विष्णु पंचरात्र से जुड़े वैष्णव मत के और शिव शैवमत के.


लेकिन और गहराई से देखने पर यह जाहिर होता है कि शैवागमों पर आधारित दक्षिण के शैव मत से लेकर कश्मीर के शैवमत और अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन का वैदिक मत से गहरा मतभेद रहा है. इसमें 11वीं सदी में इस्लाम के समानतावादी जात-पात विरोधी विचारों के आगमन के साथ ही भारत की जनता में शैवमत और वैष्णव मत की धारा को काफी बल मिला. मजे की बात यह है कि जहाँ तक इस्लामिक शासकों का सवाल है, खास तौर पर मुग़लों ने अपने दरबार में ब्राह्मणों को ज्यादा स्थान दिया बनिस्बत शैव गुरुओं को. शैवमत के गुरू और उनके अनुयायी स्वातंत्र्य के प्रति अपनी मूलभूत आस्था के कारण ही शासकों से दूर रहते थे और अपने तांत्रिक दार्शनिक विचारों तथा क्रियाओं के विकास के कार्यों में मसगूल. इसलिये भी बादशाहों का दरबार उन्हें रास नहीं आता था, लेकिन संस्कृत के पंडित ब्राह्मण उनके संरक्षण से अपने सामाजिक रुतबे को कायम रखने में सिद्धहस्त थे. आज जिसे हिंदी पट्टी कहा जाता है, इसमें राम नहीं, वैष्णव भक्तों का, नाथपंथी शैवों का और इस्लाम का ही प्रभुत्व रहा है . राम हजारों साल से एक महाकाव्य के ऐसे अत्यंत लोकप्रिय नायक थे, जिसने भारतवर्ष सहित पूरे जम्बू द्वीप में न जाने कितने लेखकों-कवियों की कल्पना को प्रेरित किया. ए के रामानुजन के तीन सौ रामायणों वाले लेख से ही पता चलता है इस चरित्र से जुड़ी कथाओं की व्याप्ती का. लेकिन जिसे एक ईश्वरीय सत्ता कहते है, उसके निर्माण में तुलसी के रामचरितमानस की बड़ी भूमिका रही है. वैसे शुरू से ही उन्हें मनु की सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करने वाले एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में कल्पित किया गया था जो मुगल काल में सहज ही सामाजिक पटल पर अपनी ताकत को गँवा चुके ब्राह्मणों के लिये एक संबल और आस्था के प्रतीक बन गये.


बहरहाल, वैदिक धर्म और शैवमत के बीच के टकरावों के, जो अतीत में किसी न किसी रूप में ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच खूनी संघर्षों के जरिये भी व्यक्त हुआ करता था,लंबे इतिहास पर विस्तार से जाने के बजाय सबसे दिलचस्प होगा, इस विषय के बिल्कुल ताज़ा उदाहरण कर्नाटक में लिंगायतों द्वारा ख़ुद को हिंदू धर्म से पूरी तरह स्वतंत्र एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने के लिये शुरू हुए ज़बर्दस्त आंदोलन की बिल्कुल ताज़ा घटनाओं को देखना. कल्पना कीजिये कि वैदिक धर्मों के प्रति शैव मत में कितनी गहरी अनास्था और तिरस्कार की भावना रही होगी कि आज भी 12 वी सदी के वीरशैव मत के कवि और दार्शनिक बासव के वचनों पर आधारित लिंगायत मतावलंबी हिंदुत्व को ठुकराते हुए लिंगायत को अलग धर्म मानने की आवाज उठा रहे हैं !


अभी चंद रोज पहले, इसी 10 सितंबर 2017 को लिंगायतों के कर्नाटक के सिद्दगंगा मठ के 110 साल की उम्र के वयोवृद्ध गुरू शिवकुमार स्वामी ने ज़ोरदार शब्दों में सरकार से यह माँग की है कि लिंगायत को पूरी तरह से स्वतंत्र, हिंदू धर्म से हर मायने में भिन्न एक अलग धर्म की मान्यता दी जाए.दक्षिण के शैवमत की एक धारा, कर्णाटक के बासवन्ना (12वीं सदी) के अनुयायी लिंगायतों (वीरशैव पंथ) ने अपने मंदिरों-मठों से यह आंदोलन छेड़ रखा हैं. वे वेदों को नहीं, बासव के 'वचनों'को अपना धर्मग्रंथ मानते हैं. बासव ने जिस पंथ की स्थापना की थी, वह वैदिक धर्मों के विरोध का पंथ था. इस एकेश्वरवादी धारा में परम सत्य अभेद है और इसी मान्यता पर बासव ने वेदों और शास्त्रों की मान्यताओं की व्याख्या के बारे में ब्राह्मणों के एकाधिपत्य को ठुकरा दिया था. वीरशैव, तिरूनेलवली शैव, पिल्लई, नडार, नाथों, नेपाल के पाशुपतों, कापालिकों की इस परंपरा के मठ और अनुयायी महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडू, केरल, गुजरात के व्यापक क्षेत्रों में फैले हुए थे. लिंगायत हिंदू धर्म को ठुकरा कर अपनी मूलभूत अस्मिता को हासिल करना चाहते हैं.इसके पहले अगस्त महीने में इनके तक़रीबन दो लाख अनुयायियों ने एक सभा करके यह प्रस्ताव पारित किया था. इनके वयोवृद्ध शिवकुमार स्वामी ने जब अपने इस निश्चय का ऐलान किया तो कर्नाटक की ही नहीं, पूरी भाजपा और आरएसएस में आतंक की सिहरन दौड़ गई. उसी दिन नरेन्द्र मोदी के दूत स्वामी के पास उन्हें मनाने पहुंच गये तथा और भी राजनीतिज्ञों का ताँता  लग गया. लेकिन सत्ता के दबावों से सदा मुक्त रहने की शैव परंपरा के अनुसार ही शिवकुमार स्वामी और उनके घोषित वारिस पर भी इसका कोई असर नहीं पड़ा है और वे अपनी इस सुचिंतित राय पर पूरी तरह से अटल है. यहाँ गौर करने की एक और बात यह भी है कि आज कर्नाटक में लिंगायतों की आबादी लगभग 17 प्रतिशत है. इनके अनुयायी बड़ी संख्या में केरल, तमिलनाड, आंध्र और महाराष्ट्र में भी फैले हुए हैं और चुनावों में इस संप्रदाय के लोग व्यवहारत: भाजपा के वोट बैंक बने हुए थे. कर्नाटक के सबसे बदनाम भाजपा के मुख्यमंत्री और आज भी सबसे शक्तिशाली नेता येदियुरप्पा भी लिंगायत हैं.


कश्मीर के पंडितों के बारे में भी ऐसे तमाम अध्ययन देखने को मिल जायेंगे जिनसे पता चलता है कि हिंदी वलय के हिंदुओं के साथ धार्मिक रीति-रिवाजों और पर्व-उत्सवों के बारे में वे बहुत कुछ अलग हैं.


दक्षिण के शैव मत से लेकर कश्मीर और उसके बीच के विशाल क्षेत्र में सिद्धों-नाथों की लंबी परंपरा के जो तमाम सूत्र मिलते हैं, आज भले ही इनमें अंतर्निहित मूलभूत वैविध्य को एक हिंदू धर्म की चादर से ढाप दिया जा रहा हो, लेकिन यह एक स्थापित सत्य है कि यह विविधता किसी एक हिंदू धर्मशास्त्रीय धारा के अलग-अलग रूपों की विविधता भर नहीं थी. नाना शैवागमों पर आधारित शैवमत और वेद-उपनिषदों की परंपरा और जैसा कि हमने पहले ही कहा, बौद्ध और वैष्णव परंपरा में निश्चित तौर पर कुछ मूलभूत मतभेद रहे हैं जो आज तक किसी न किसी रूप में हमारे सामाजिक जीवन में रह-रह कर प्रकट होते रहते हैं. हम भारत के धर्मशास्त्रीय दायरे में दिखाई दे रहे आज के कुछ प्रकट विरोधों के प्रति इसलिये भी ज्यादा आकर्षित है क्योंकि इन विरोधों में दर्शनशास्त्रीय चिंतन के ऐसे अनेक सूक्ष्म बिंदुओं को पाया जा सकता है जिनसे हम भारतीय दर्शनशास्त्र को एक जड़ और अवरुद्ध से दिखाई देते अद्वैतवादी स्वरूप से मुक्त करके तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की एक बहुत विकसित भारतीय तर्कशास्त्रीय प्रणाली तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.


इसीलिये राधावल्लभ त्रिपाठी अभिनवगुप्त के जरिये हुए यदि कुछ अनर्थों की ओर इशारा किया है तो, हम उनमें अनर्थ तो बहुत दूर की बात, बल्कि उनसे मिल रहे अनेक शुभ संकेतों को उनकी संभावनापूर्ण तार्किक परिणति तक ले जाने की प्रस्तावना करना चाहते हैं.


वैसे भी आज जिस समय हम यह चर्चा कर रहे हैं, उस समय ऐसे कुछ और भी विषयों को लेकर कई भ्रमों का अंत हुआ है. मसलन् भारत में आर्यों के आगमन का विषय ही लिया जा सकता है. नाना कारणों से इस विषय में तमाम भाषाशास्त्रीय और साहित्यिक-सांस्कृतिक और दूसरे साक्ष्यों के बावजूद नितांत सांप्रदायिक राजनीति के हितों को साधने और हिंदुओं की 'पुण्यभूमि'को लेकर एक प्रकार का झूठा गर्वबोध हासिल करने  के लिये इसे एक विवादित विषय बना दिया गया था. मजे की बात यह है कि इससेहिंदी के साहित्यकारों के एक तबके में भी भारत के इतिहास को लेकर अचानक एक प्रकार का अजीबोग़रीब सात्विक उत्साह दिखाई देने लगा. आर्य संबंधी ऐतिहासिक अध्ययन में चूँकि संस्कृत और भारोपीय भाषाओं के सूत्रों का काफी प्रयोग हुआ हैं, इसीलिये भाषा के औज़ारों से ही काम करने वाले साहित्यकारों में अपनी ऐतिहासिक अध्ययन की योग्यता के बारे में कोई भ्रम पैदा हो जाएँ तो आश्चर्य की बात नहीं थी !आर्यों के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्यों में भाषा और साहित्य से जुड़े तत्वों की प्रचुरता, लेकिन पुरातात्विक तत्वों की भारी कमी और आर्यों के आगमन के पहले सिंधु घाटी की सभ्यता के प्रभूत पुरातात्विक साक्ष्यों के बावजूद भाषा और साहित्य के साक्ष्यों की कमी ने कल्पनाशील साहित्यकारों को सहज ही इस बात के लिये प्रेरित कर दिया कि क्यों न सिंधुघाटी की सभ्यता के पुरातात्विक साक्ष्यों में आर्यों के साहित्य और भाषा को स्थापित करके इस भारत भूमि को हर लिहाज से विश्व की सबसे उन्नत सभ्यता का क्षेत्र घोषित कर दिया जाए !मुहनजोदाड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी के सभ्यता के अवशेषों में भाषा और लिपि के जो भी चिन्ह मिले हैं, वे आज तक पढ़े नहीं जा सके हैं. 

इसे ऐतिहासिक अध्ययन की वैज्ञानिक प्रणालियों की एक बड़ी कमी मान कर इतिहासकारों को इतिहास को पढ़ने की तमीज़ सिखाने, रोमिला थापर आदि के वर्षों के काम को चुटकियों में उड़ा देने के लिये ग़ैर-इतिहासकारों की एक पूरी टुकड़ी मैदान में उतर पड़ी थी. हिटलर के अनुयायियों के प्रभाव-विस्तार के काल में यह स्वाभाविक ही था उसके भारतीय अनुयायी यह ठान ले कि हिटलर यदि आर्यों की श्रेष्ठता का मिथक गढ़ सकता है तो उसी की तर्ज़ पर आर्यों की मूल भूमि भारतीय उपमहाद्वीप को मान कर दुनिया में हिंदू श्रेष्ठता की पताका क्यों न फहरा दी जाए !मध्य एशिया के रूमानिया से लेकर रूस तक फैले पोंटो कैस्पियन मैदान के इलाके में जहां पृथ्वी पर सबसे पहले घोड़ों को पालतू बनाया गया था, वहीं से घोड़े पर चढ़ कर आक्रमणकारियों के तौर अपनी भाषा और पितृ-सत्तात्मक समाज तथा जातिवाद की सामाजिक व्यवस्था के साथ आर्यों के भारत में आने के तमाम साक्ष्यों के होने के बावजूद लोग तमाम कुतर्कों के जरिये यह स्थापित करने में लग गये कि आर्यों को बाहर से आया मानने के बजाय क्यों न उनके यहाँ से बहिर्गमन के सिद्धांत को स्वीकारा जाएँ. सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष भारत में एक अत्यंत विकसित सभ्यता की उपस्थिति को प्रमाणित करते हैं और वेद-पुराण एक विकसित सभ्य जाति की श्रेष्ठ भाषा और साहित्य को साबित करते हैं, इसलिये इस महान भूमि को ही संस्कृत सहित सभी भारोपीय भाषाओं के उद्गम-स्थल के तौर पर क्यों न माना जाए ?


इसमें हिंदी में साहित्यकार भगवान सिंह ने अपनी पुस्तक 'हड़प्पा और वैदिक सभ्यता'के जरिये जो शुरुआत की उसे आश्चर्यजनक ढंग से मार्क्सवादी रामविलास शर्मा ने परवान चढ़ाने की कोशिश की. जो इतिहासकार उपलब्ध साक्ष्यों की गहराई से छानबीन करके आर्यों के आगमन की बातें कह रहे थे, उन पर एक प्रकार के हीनता बोध का लांक्षण लगाने से भी ये चूकते नहीं थे.


बहरहाल, अब प्राचीन इतिहास में खास तौर पर आबादियों के देशांतर से संबंधित तथ्यों की जांच की इतनी वैज्ञानिक आनुवंशिक विधि विकसित हो गई है कि ऐसे विषय अटकलबाजी के विषय नहीं बचे हैं . इस विषय में हाल में जो सबसे प्रामाणिक आनुवंशिक तथ्यों के आधार पर  अध्ययन किया गया है उससे साफ हो गया है कि भारत की तरह के एक नाना भाषा-भाषी आदिवासी और गैर-आदिवासी आबादियों के मिश्रित क्षेत्र की जटिलताओं के बावजूद यहां ईसा पूर्व 5000-3500 साल पहले ताम्र युग में मध्य एशिया से मुख्यतः पुरुषों का आगमन हुआ था जिन्होंने यहां पितृ-सत्तात्मक जातिवादी-विभाजन का सामाजिक ढांचा तैयार किया.
(देखेंhttps://bmcevolbiol.biomedcentral.com/track/pdf/10.1186/s12862-017-0936-9?site=bmcevolbiol.biomedcentral.comA genetic chronology for the Indian Subcontinent points to heavily sex-biased dispersals Marina Silva1† , Marisa Oliveira2,3† , Daniel Vieira4,5, Andreia Brandão2,3, Teresa Rito2,6,7, Joana B. Pereira2,3, Ross M. Fraser8,9, Bob Hudson10, Francesca Gandini1 , Ceiridwen Edwards1 , Maria Pala1 , John Koch11, James F. Wilson8,12, Luísa Pereira2,3, Martin B. Richards1*† and Pedro Soares)

इस लेख में इस प्रसंग को लाने का एक मात्र तात्पर्य यह है कि आर्यों का आगमन तो इस Holocenic (पिछले साढ़े ग्यारह हजार साल के नये युग) काल में भी बहुत बाद की घटना है, भारतीय समाज में अन्य जातियों के समाजों का अस्तित्व उसके काफी पहले से चला आ रहा हैं जिनके ज्ञान और नीति-नैतिकता का सब कुछ वेदों-उपनिषदों और संस्कृत साहित्य पर आधारित नहीं था और आक्रमणकारी आर्यों के वर्चस्व के बावजूद उनका सब कुछ खत्म नहीं हुआ था.


और जब हम इन संदर्भों में भारत में शैवमत की अति प्राचीन परंपरा को, वेदों से भी पुरानी परंपरा को देखते हैं, तब हमें 11वीं सदी अर्थात सिर्फ हजार साल पहले के, और आज तक 'विक्रमादित्य से भी ऊंचे आसन पर विराजमान'माने जा रहे इस मत के 'लोकोद्धारक'अभिनवगुप्त और उनके जरिये हुए 'अनर्थों'के विचारों की एक अलग ही असलियत दिखाई देने लगती है.

जहां तक अभिनवगुप्त के मत का सवाल है, उनका एक अध्येता हार्वे पाल आल्परखास तौर पर रेखांकित करता है कि दुर्भाग्य से शैवमत की अलग-अलग धाराओं पर अलग से जितने काम हुए हैं, उनमें न इंडोलोजिस्टों ने और न धार्मिक इतिहासकारों ने ठहर कर यह जानने की कोशिश की है कि शैवमत नाम की चीज से वे क्या समझते हैं ?सच यह है कि भारतीय जीवन में धर्मों के बारे में पश्चिमी विद्यार्थी मुख्यतः किसी न किसी रूप में ईसाई धार्मिक संगठनों के ढांचे के दायरे में ही सोचते रहे हैं . इसीलिये शैव मत को खुद में स्वतंत्र एक 'धर्म', हिंदू धर्म का ही एक 'पंथ'मान लिया गया,  अथवा इन दो देशव्यापी भिन्न ढांचों में, आदर्शों, विश्वासों और कर्मकांडों की एक आकारहीन 'धारा'जिसमें 'शिव'शब्द के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष उल्लेख के आधार पर सबको एक साथ कर दिया गया है.(Harvey Paul Alper ; Abhinavgupta’s concept of cognitive power : A translation of the Jnanasaktyahnika of the Isvarpratyabhijnavimarsini with commentary and introduction ; A dissertation in Religious Thought; 1976, page- 2)


हार्पर ने बहुत साफ शब्दों में शैवमत को इस तरह से सिर्फ भारतीय संदर्भ की एक ज्ञानमीमांसा के तौर पर देखने से इसकी तमाम उपधाराओं के अध्ययन में पैदा होने वाली कठिनाइयों पर विस्तार से चर्चा की है और इसीलिये इस बात पर जोर दिया है कि अभिनव को 9वीं सदी के कश्मीर की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, उस वक्त के धार्मिक परिवेश की पृष्ठभूमि में. उन्हें इस प्रकार से देखा जाना चाहिए ताकि धर्म के इतिहास में उनके स्थान को तय किया जा सके.राधामोहन त्रिपाठी उनके कवि रूप को स्थापित करना चाहते हैं, आल्पर उनका स्थान भारत के धर्मों के कहीं ज्याद बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं.

वैसे तो यह सही है कि शैवागमों को पूरी तरह से वेद-विरोधी या गैर-वैदिक नहीं कहा जा सकता है. लेकिन अगर हमें भारतीय धर्मशास्त्र में आगमिक तत्वों की कोई ठोस पहचान करनी है तो वह कुछ नकारात्मक दिशा से हो सकती है कि जो बौद्ध, वेदांती और वैयाकरणी सामग्री पर निर्भरशील नहीं है वे आगमिक हैं. ठीक उसी प्रकार जैसे मिशेल फुको कहता है कि पश्चिमी दर्शनशास्त्र के पूरे इतिहास को प्लैटोवाद से इंकार का इतिहास कहा जा सकता है. जैसे एलेन बदउ यूरोप में आधुनिक दर्शन के इतिहास को देकार्तेवाद से इंकार का इतिहास कहते हैं. जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि भारत में आर्यों के साथ पितृ-सत्तात्मक समाज आया और समाज के जातिवादी विभाजन की मनुवादी वैदिक परंपरा भी आई, जिसे पुराने पंचरात्र के सूत्रों से जोड़ कर वैष्णवों ने जन-जन तक पहुँचाने का काम किया. और भारत के शैवमत अथवा पंचरात्र से जुड़े वैष्णव मत में भी ऐसे अनेक तत्व पाए जाते हैं जो मनुवादी समाज के कायदे-कानूनों को अस्वीकारते हैं.और इस नकारवाद के सकारात्मक उत्तरण में ही पूरा शैव मत, अपने 92 शैवागमों के साथ शामिल है. 92 उपधाराओं को समेटे हुए शैवमत की एक धारा, और इसमें अभिनवगुप्त की विशेषता यह थी कि उन्होंने शैवमत के परंपरागत विकास में उत्पलदेव के क्रांतिकारी अवदान 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका'में सोमनंदा(875/900-925/950) के अवदान को अपने तंत्रालोक और प्रत्यभिज्ञादर्शन की व्याख्या के जरिये भारतीय दर्शन की भाववादी धारा के एक सबसे सुसंगत रूप में विकसित किया. हजारों सालों के बीच से रचित 92 शैवागमों को एक संगत रूप के अंतर्गत विन्यस्त किया.


हम इस प्रसंग को यहां इसलिये ला रहे है कि यह साफ तरह से कहा जा सके कि अभिनवगुप्त

(1)   धर्मशास्त्रीय कसौटी पर शैवमत के थे, वे शैवागमों की पदावली का ही प्रयोग किया करते थे, इसीलिये उनके यहां ईश्वर, परमेश्वर एक मात्र शिव थे.

(2)   चेतना की परम सत्ता को मानते हुए निश्चित तौर पर आध्यात्मिक चिंतन की परंपरा से जुड़े हुए थे जिसमे ध्यान, योग भी शामिल है और इसमें वे चित्त और संविद की तरह के पदों का आम तौर पर प्रयोग करते थे.

(3)उन्हें दूसरों से अलगाने वाला सबसे महत्वपूर्ण पहलू चेतना से ही संबद्ध आत्मवाद का है, जिसमें व्यक्ति की प्रमुखता, कर्त्तृत्व, स्वातंत्र्य और विमर्श की प्रधानता है. चेतना को वास्तविक जगत का अमूर्तन कहते हैं, लेकिन आत्मवाद में वास्तविक जगत को चेतना में निहित माना जाता है. अभिनवगुप्त के आत्मवाद में वह अस्तित्व से जुड़ी हुई है. विचारधारा के रूप में चेतना और अस्तित्व में निहित चेतना के बीच के फर्क के अर्थ को ऐसा कोई भी व्यक्ति पकड़ सकता है जो पश्चिम में भाववाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के बीच के फर्क के प्रसंग से परिचित है,

(4)   अभिनव काअन्य पहलू सौन्दर्यात्मकता का पहलू है, जिसमें आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक'पर उनकी टीका आती है. उनके प्रमुख दर्शनशास्त्रीय ग्रंथ 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी'की तुलना में यह एक गौण प्रसंग होने पर भी यह सच है कि एक सौन्दर्यशास्त्री के रूप में उनके इस काम का भी अतीव महत्व है. इसी संदर्भ  में चमत्कार, स्फुरण, औचक उपलब्धि की तरह के व्यक्ति के रचना कर्म में स्फोट के अंतिम चरण को परिभाषित करने वाले उनके तमाम पद और अवधारणाएं आते हैं.

फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अभिनव के दर्शन के ईश्वर के सामने उनकी पूजा-आराधना के ईश्वर का कम महत्व नही है. मनुष्य के आत्म-विस्तार के अपने तंत्रशास्त्र में वे मंत्रों के जाप, पूजा-पाठ, धूप-नैवेद्य आदि कर्मकांडों को उसके आत्म-विस्तार ( स्वात्मप्रकाश) का प्रथम सोपान कहते हैं. यह साधक द्वारा गुरू के उपदेशों को आत्मसात करने का वह स्तर है जहां से उसमें ज्ञान की सृष्टि होती है . यह ज्ञान भी तर्क के जरिये (सत्तर्क) आगे साधक की भूमिका को बदल देता है, उसमें स्व और सर्व का भेद मिट जाता है और तंत्रालोक की भाषा में उसमें 'परमेश द्वारा भावित दशा का स्फुरण'होता है. इस आत्म-साक्षात्कार स्वरूप ज्ञान को आत्मसात करने के बाद मनुष्य को किसी मंत्र, मुद्रा, जाप की जरूरत नहीं रहती. उपायों का समूह शिव को प्रकाशित नहीं करता है. विवेकशील व्यक्ति में एक कल्याण का भाव स्वाभाविक रूप में होता है. ऐसे स्वात्म-विश्रांत स्वतः आलोकमय साधक को समाधि योग, ब्रह्म मंत्र, मुद्रा, जप आदि की चर्या जहर की तरह लगने लगती है.

इस प्रकार अभिनवगुप्त के तंत्रालोक और प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी की यही विशेषता है कि इसमें धर्मशास्त्रीय और भाववादी चिंतन की श्रेणियों और पदावलियों को अलग-अलग नहीं किया जाता है. यही वह कारण भी है जिसके कारण एक दर्शनशास्त्री, धर्मशास्त्री, धर्मगुरू और भाषाशास्त्री, सौन्दर्यशास्त्री, और कवि की बहु-मुखी भूमिका में अभिनवगुप्त बिल्कुल स्वाभाविक और समान गति रखने वाले पारंगत साधक के रूप में दिखाई देते हैं. और जब आप एक बार इस स्वात्मविश्रांत, स्वतः आलोकित स्वातंत्र्य-प्रिय धर्मगुरू के सच को आत्मसात कर लेंगे तो त्रिपाठी जी की तरह कभी यह नहीं कहेंगे कि उनके आभामंडल ने उनके कवि रूप को पीछे ठेल दिया !

और, इसीलिये उनके कवि रूप की अपेक्षाकृत कम चर्चा को कोई इसी वजह से घटित अनर्थ नहीं कहेगा कि उनके अन्य रूप कम महत्वपूर्ण थे. विगत हजार साल में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व के हर कालखंड में अभिनव इसीलिये उपेक्षित रहे क्योंकि उनकी दार्शनिक और धर्मशास्त्रीय उपस्थिति ब्राह्मणवादी सोच के लिये हमेशा एक चुनौतीभरी उपस्थिति रही है. उनका बहुविध विपुल लेखन और उसमें मनुष्य के गहन स्वातंत्र्य बोध का अनंत विस्तार उन्हें किसी भी अन्य भारतीय दार्शनिक की तुलना में एक अनन्य स्थान का अधिकारी बना देता है. शंकर भी उनके सामने फीके दिखाई देते हैं. शंकर का वेदांत संसार को मिथ्या कहता है क्योंकि वह इस संसार के आवरण के बाहर का स्वातंत्र्य का कोई पथ नहीं बताता. शैवमत में पशुभाव को व्यक्ति भाव, तुच्छता और बौनेपन का भाव मानते हुए आत्म-विस्तार के लिये जिस पशुपति भाव की बात कही गयी है वह संसार की माया, उसके आवरणों से परे जाने का भाव है जिसके सामने जगत मिथ्या का वेदांती सिद्धांत निःसार है. इस संसार को परम शिव की लीला मान कर मनुष्य को वह हमेशा बंधनों से मुक्ति की दिशा में बढ़ता हुआ देखता है. शिव यहां विश्वरूप, विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण है, जीवन-मृत्यु के किसी भी क्रम से मुक्त . शंकर के वेदांत में चित्त (ब्रह्म) निष्क्रिय है.

पश्चिमी भाववादी दार्शनिकों में हाइडेगर को आत्मवादी सोच का एक परम उदाहरण और एक चरम चुनौती के तौर पर भी माना जाता है. वे ऐतिहासिकता की समस्या को एकदम भिन्न अनैतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर पेश करते हैं. अतीत के गह्वर के अंत तक जाने वाली ऐसी ऐतिहासिकता के रूप में जिसमें किसी ऐतिहासिक परम के उद्घाटन का कोई स्थान नहीं है. एक अनैतिहासिक औपचारिक-अतिन्द्रिय विश्लेषण (ahistorical formal-transcendental analysis)के जरिये प्राणी सत्ता के अस्तित्व और काल का संयोग मूलगामी ऐतिहासिकता में प्रत्यावर्त्तन में होता है ....हाइडेगर का इतिहासीकरण अतिन्द्रिय क्षितिजों का इतिहासीकरण है. इसमें प्राणीसत्ता स्वयं यथार्थ का एक संयोग बिंदु बन जाती है, इतिहास का एक परम विषय . मनुष्य परिमित है और ऐतिहासिक संयोग भी . परिमिति के इसी ढांचे में प्रच्छन्नता और प्रगटीकरण का वह क्रम चलता है जिसके अंत में वास्तव में कुछ भी नहीं होता है. यह एक अनैतिहासिकता है, लेकिन वही इतिहासीकरण का एक औपचारिक ढांचा है. (Slavoj Zizek, Absolute Recoil, Towards a new foundation of Dialectical Materialism, Verso, Page – 116)

गौर करने लायक बात यह है कि जिजेक हाइडेगर के इसी मूलगामी इतिहासीकरण के आधार पर उसे पौर्वात्यवाद से, खास तौर पर निर्वाण के शून्यवाद से पूरी तरह से अलगाते हैं. उनके अनुसार निर्वाण का शून्यवाद हाइडेगर के सोच के क्षितिज में निरर्थक है ; यह यथार्थ से प्रच्छन्नता की छाया को भी दूर करने का उपक्रम है. और मजे की बात यह है कि अभिनवगुप्त भी बिल्कुल इसी आधार पर बौद्ध दर्शन की अकाट्यता को अस्वीकारते हुए लिखते हैः

रागाद्यकलुषोऽस्म्यन्तःशून्योऽहं कर्तृतोज्झितः l
इत्थं समासव्यासाभयां ज्ञानं मुञ्चति तावतः llll (तंत्रालोक, 1/33)

मैं राग आदि के द्वारा मलिन नहीं हूँ (यह विज्ञानवादी बौद्धों का मत है), मैं अन्तःशून्य हूँ (यह माध्यमिकों का सिद्धांत है), मैं कर्तृत्व से रहित हूँ (यह सांख्यों का मत है) इस प्रकार का संपूर्ण रूप से अथवा पृथक-पृथक होने वाला ज्ञान उतने से ही मुक्ति प्रदान करता है.अर्थात बौद्ध वैष्णव आदि आगमों में प्रतिपादित ज्ञान एक सीमा के अन्तर्गत ही बंधन से मुक्त कर सकते हैं, सभी प्रकार के पाशों से मुक्ति नहीं दिला सकते. बौद्ध विचारों से सम्भवतः बौद्ध और वैष्णव विचारों से सम्भवतः वैष्णव ही मुक्त हो सकते हैं.

कब एक भाष्यकार अपने विषयों की गहन व्याख्याओँ की प्रक्रिया में खुद एक विचारों का प्रवर्त्तक, चिंतक और दार्शनिक में रूपांतरित हो जाता है, अनुमान ही नहीं लगता. अभिनवगुप्त ने अपना सारा जीवन सहस्त्र सालों के बीच लिखे गये शैवागमों के सूत्रों की व्याख्या में खपा कर अपनी प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में बहु-विध यथार्थ को आत्मसात करते हुए ज्ञान-दीप्ति का जो उदाहरण पेश किया, उसकी दार्शनिक और सौन्दर्यशास्त्रीय उपलब्धियां ही नहीं, उनके संपूर्ण चिंतन को, मनुष्य के आत्म-विस्तार की साधना के उनके तंत्रालोक को मानव मुक्ति की दिशा में भाववादी चिंतन की यात्रा के एक महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हमेशा माना जायेगा. उन्होंने मनुष्य के अंतर की संरचना, उसके मन-मस्तिष्क से लेकर जटिल शारीरिक गठन तक की संरचना में प्रवेश करके उसकी मुक्ति के पथ को खोजने की कोशिश की थी. उनके समस्त प्रयासों की एक ही मूल प्रेरणा थी कि मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं हो सकता है. एक भाववादी चिंतक की तरह वे मानते थे कि जीवन के यथार्थ में इस स्वतंत्रता के रास्ते में जितनी भी बाधाएं क्यों न हो, मनुष्य के अंतर को कुछ इस प्रकार साधा जा सकता है जागतिक जीवन की बाधाएं उनके सामने तुच्छ हो जाए. अंतहीन लालसाओं से भरे, लेकिन किसी से भी कोई अपेक्षा न रखने वाले स्वातंत्र्य के भैरव भाव में उन्होंने मनुष्य की मुक्ति के परम प्रकाश के स्फोट को देखा था. यह बिल्कुल वैसा ही रहा है जैसे हेगेल ने स्वतंत्रता को मानव इतिहास की प्रमुख चालिका शक्ति के रूप में देखा था. मार्क्स ने स्वतंत्रता की मनुष्य की इसी प्रचेष्टा को सभ्यता के इतिहास की प्रकट गति के संदर्भ में वर्ग संघर्ष का एक सामाजिक रूप दिया और अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के बल पर ऐतिहासिक भौतिकवाद की पूरी ऐतिहासिक श्रृंखला को चाक्षुस बना दिया. वे भी समाज की मुक्ति में यदि प्रत्येक व्यक्ति की मुक्ति देखते थे तो प्रत्येक व्यक्ति की मुक्ति में समाज की मुक्ति के लक्षणों को देखने से नहीं चूकते थे.


अभिनवगुप्त के स्फोट की पूरी अवधारणा बहु-आयामी जीवन में उन संयोगों का पहला संकेत देता है जहां से जीवन अपने एक वृत्त से मुक्त हो कर एक बिल्कुल नये वृत्त में प्रवेश करता है. जहां सिर्फ वर्तमान नहीं, अतीत तक की गहरी तहों तक जा कर जीवन-वृत्त का पूरा खोल ही उलट जाता है. अभिनव के इस पूर्ण प्रत्यावर्त्तन के तत्व को हम साफ तौर पर हेगेल के Total recoil से जोड़ सकते हैं.

इस पूरी चर्चा से एक बात साफ है कि शैवमत का अपना कोई एक धर्म ग्रंथ नहीं रहा है, जिसे आम तौर पर किसी भी स्वतंत्र धर्म के अस्तित्व के लिये जरूरी माना जाता है. लेकिन यही वह बात है जो शैव मत को दूसरे धर्मों से अलग भी करती है. यह अनेक आगम ग्रंथों पर आधारित एक अति-प्राचीन धारा है जिसे आगमिक धर्म की धारा कहा जाता है और इसके बाहर की वैदिक, बौद्ध या वैष्णव धारा को इसमें नैगमित धारा माना जाता है. शैव मत के 11 वीं सदी के अब तक के इस सबसे अप्रतिम गुरु, दार्शनिक, भाषाशास्त्री और कवि अभिनवगुप्त ने अपने समय तक के 92 शैवागमों का उल्लेख करते हुए यह बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि ये सभी परस्पर-विरोधी नहीं, बल्कि आवयविक रूप से एक है. इनमें से प्रत्येक के अनुयायी मुक्ति की दिशा में अनुसंधानरत है, ये संसार और जीवन में वैविध्य को स्वीकारते हैं, वैविध्य में एकता और पुन: एकता में वैविध्य इनकी मूलभत मान्यता है. यथार्थ के विविध पक्षों पर मनन का इनका यही तरीक़ा है . जीवन में विकल्पमूलकता और निर्विकल्प स्वातंत्र्य की खोज इनकी आस्था का विषय है.

किसी भी समाज में समरसता कायम करने के लिये मनुष्य की प्राणीसत्ता में स्वातंत्र्य के तत्व के असीम महत्व को मानते हुए अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जातिवाद - इन्हें आठ पाश अर्थात आठ बंधन बताया है . इनके परित्याग को ही इन पाशों पर विजय प्राप्त कर चुके पशुपति नाथ का संदेश बताया है. शूद्र को भी शिक्षा पाने का अधिकार है. वे कहते है कि कोई विप्र है लेकिन पापी है और कोई शूद्र है लेकिन पुण्यात्मा है - इसमें जाति-विचार कहाँ आता है ? इसीलिये वे शुद्धि को वस्तु का धर्म नहीं, बल्कि एक दुराग्रह मानते थे. एक ऐसे शैव मत, जिसके लाभ से संस्कृत साहित्य को नैगमिक धारा की श्रेष्ठता को बनाये रखने की जिद के चलते ही काफी हद तक वंचित रखा गया था, हज़ार साल के अंतराल पर लिंगायतों आदि के जरिये पुनरोदय का संकेत ही ब्राह्मणवादियों के माथे पर लकीरें खींचने के लिये काफी है.

इस विषय के अंत की ओर बढ़ने के पहले यहां हम एक और बात की ओर संकेत करना चाहेंगे. महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं. पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे. इसीलिये  जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि उन्हें फिर पुराने ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए. पांडवों के इस संन्यास के जरिये व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के बजाय राज्य-विहीन मानव की स्वातंत्र्य सत्ता का संदेश-वाहक बनाते है, शैवमत के भैरव-भाव का प्रतीक, जिस पाशुपत (अन्तर्यामी) के बारे में वे न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ चर्चा करते हैं. न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं.यह किसी भी राज्य से, बंधन से मुक्ति का भाव राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की भी एक परिकल्पना है. रवीन्द्रनाथ के शब्दों में 'आमरा सबाई राजा' (हम सब राजा है) का संदेश. और मजे की बात यह है कि अपने इस राजनीतिक संदेश के साथ अभिनवगुप्त समाज में वह मान अर्जित करते हैं, जिसे राधावल्लभ त्रिपाठी चक्रवर्ती राजा से कहीं ज्यादा सम्मान बताते हैं. वे दमनकारी हर सत्ता के विरोधी थे, इसीलिये चिर-विध्वंसक रहे. हर प्रकार के सत्ताधारियों के लिये बड़ी चुनौती बन कर व्यापक जन के हृदय पर राज करते रहे. और इसीलिये हर प्रकार के पुरोहितवाद के चक्षु-शूल.


बहरहाल, आज जिस काल में हम लिंगायतों के अलग धर्म के समर्थक प्रगतिशील लिंगायत एम एम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की उग्र ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के ध्वजाधारियों के द्वारा हत्याओं के दौर में जीने को मजबूर हैं, तब राधावल्लभ त्रिपाठी का अनायास ही कवि अभिनवगुप्त को प्रकाश में लाने के अपने सत् कार्य की विलक्षणता को बताने के लिये अभिनव के काल-खंड को नाजुक बताना और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण में कई अनर्थों की ओर इशारा करना हमारे कान खड़े करने के लिये काफी है. त्रिपाठी की उदारवादी सोच से हम परिचित है और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे धर्म रक्षार्थ भारतीय जीवन और दर्शन की मूल वैविध्यता को ही अपना मूल आधार बनाने वाले शैवमत के खिलाफ खड़ग्हस्त हुए हैं. फिर भी अपने किन्हीं खास कारणों से ही जब वे अभिनवगुप्त की दर्शनशास्त्रीय, धर्मशास्त्रीय उपलब्धियों को पृष्ठभूमि में डालने की कोशिश करते दिखाई देते हैं, तब उसका बिना प्रतिवाद किये यू ही नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. खास तौर पर तब, जब कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं में हम शैवमत-विरोध की हिंसक अभिव्यक्ति अपने सामने देख पा रहे हैं.

कर्नाटक विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहते हुए बसव के 'वचन'साहित्य पर उनके अमूल्य काम को सारी दुनिया स्वीकारती है. गौरी लंकेश भी लिंगायत थी. नास्तिक और वामपंथी विचारों की होने पर भी लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग मानती थी और इस पर कई मर्तबा उन्होंने लिखा भी था. कन्नड़ भाषा के बौद्धिक समुदाय की इन दो प्रमुख लिंगायत हस्तियों की एक ही प्रकार से सुनियोजित निर्मम हत्याएँ और इनमें उग्र हिंदुत्ववादियों (ऐसआईटी के अनुसार 'सनातन संस्था वालों) का हाथ होने के बारे में मिल रहे सबूतों से साफ पता चलता है कि हिन्दुत्ववादी ताक़तें शैव मत की विभिन्न धाराओं के इस नये उभार को अपने लिये कितना खतरनाक मान रही है ! आरएसएस का एकचालिकानुवर्तित्व का सिद्धांत कि संघ के एक मठ के निर्देशों पर पूरे भारत का संचालन किया जाए, भारत के मूलभूत, वैविध्य में एकता और एकता में वैविध्य को स्वीकार कर चलने के इस प्राचीनतम मत के विरुद्ध है और इसीलिये यह शैव मत की उस मूलभूत भावना के भी विरुद्ध है जिसके तत्वों को आत्मसात करके ही वास्तव में हिंदू धर्म ने भी भारत में अपने को आज तक मज़बूती से कायम कर रखा है. 


ऐसे में अकादमिक कामों पर भी प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप से उनके दबावों की एक प्रतिछवि हमें राधावल्लभ त्रिपाठी के लेख में भी नजर आई.

_____________
arunmaheshwari1951@gmail.

किताब : जानवर फ़ार्म (जॉर्ज ऑरवेल) : मंगलमूर्ति

$
0
0









जॉर्ज ऑरवेल (George Orwell) की किताब एनीमल फार्म’ (Animal Farm) १७ अगस्त १९४५ को अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी. ७२ साल बाद हिंदी में इसका मंगलमूर्ति द्वारा किया गया एक और अनुवाद प्रकाशित हुआ है. जॉर्ज ऑरवेल का जन्म मोतिहारी बिहार में २५ जून, १९०३ को हुआ था, उनके पिता वहां सरकारी (अंग्रेजी शासन) सेवा में थे.

इस रूपक कथा का विश्व की सभी भाषाओँ में अनुवाद हुआ है और माना जाता है कि अब तक इसकी एक करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं. विश्व साहित्य में  एनीमल फार्मजैसी सशक्त राजनीतिक रूपक कथा शायद ही कोई और हो.

आज जब शीत युद्ध का दौर खत्म हो गया है. पूंजीवादी शासन व्यवस्था ने सभी वैकल्पिक शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है तब इस ‘जानवर फार्म’ की क्या प्रासंगिकता रह जाती है ?

दरअसल यह किताब सत्ता के चरित्र और  बागी विचारों का सत्ता द्वारा धीरे- धीरे अनुकूलन की दमदार कथा  की किताब है. जो आज शिकार हैं कल वही शिकारी बन जाता है. शासन का कोई भी तरीका हो शासक लगभग एक जैसे बन जाते हैं. राजनीतिक दुरभिसंधियों, चापलूस प्रशस्तियों और नियंत्रित अफवाहों द्वारा असहमतियों को अपने लिए इस्तेमाल करने की बर्बर कुटिल तौर-तरीकों को यह जिस तरह बयां करती है लगता है हम समकालीन भारतीय रजनीति को देख रहे हों.  

इस लिहाज़ से यह किताब प्रासंगिक थी, है और रहेगी.


मंगलमूर्ति ने अनुवाद की जगह रूपान्तर शब्द का प्रयोग किया है. इस व्यंग्य कथा को जिस तरह उन्होंने  पुनर्सृजित किया है ऐसा लगता है कि जॉर्ज ऑरवेल ने इसे हिंदी में लिखा था. यह अनुवादक की बड़ी सफलता है.  हरिपाल त्यागी के रेखांकन ने  इसे और भी सुंदर बना दिया है. मंगलमूर्ति ने इसकी प्रबुद्ध भूमिका लिखी है. उसका एक अंश 

______________________

ALL ANIMALS ARE EQUAL,
 BUT
SOME ANIMALS
ARE
MORE EQUAL THAN OTHERS




जानवर फ़ार्मकी भूमिका का अंश                    



स्पेन-युद्ध (१९३६) से लौटने के बाद से ही ऑरवेल का स्तालिन-युगीन प्रतिगामी सोवियत साम्यवादी व्यवस्था से पूरी तरहं मोह-भंग हो चुका था, और अपने लेखन में वह इस मोह-भंग को एक लघु-उपन्यास का रूप देने की सोचता रहा था. अंततः १९४३-४४ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यही कृति एनिमल फार्मके रूप में लिखी गई, यद्यपि उन दिनों ब्रिटेन और सोवियत संघ मित्र-राष्ट्र थे. इसके युक्रेनियन अनुवाद के प्रकाशित संस्करण (१९४७) की भूमिका में ऑरवेल ने लिखा :


मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा था कि मेरी इस रचना का स्वरुप क्या हो. अचानक एक दिन एक गाँव में रहते हुए मुझे एक लड़का लगभग दस साल का –  एक पतली सड़क पर एक बड़ा-सा छकड़ा हांकते हुए दीखा. वह बार-बार अपने घोड़े को ठीक चलने के लिए चाबुक से मारता जाता था. तभी मुझे लगा कि ये मज़बूत जानवर यदि अपनी ताकत को सचमुच  पहचान लें तो आदमी कभी उनपर इस तरह ज़ुल्म नहीं कर सकेगा, और इस दृश्य को देख कर ही मुझे अचानक लगा कि वास्तव में तो आदमी जानवरों का शोषण उतनी ही क्रूरता से करता है जितना धनी-वर्ग गरीबोंकिसान-मजदूरों का शोषण करते हैं.”

ऑरवेल का यही अनुभव जानवर फ़ार्मकी इस कृति का मूल उत्स था. विश्व-युद्ध के पूर्व और उसके दौरान प्रतिगामी साम्यवादी व्यवस्था के प्रति निराशा और अमर्ष की जो भावना उसके मानस में उपजी थी उसका निरूपण उसने अंततः इसी कटु अनुभव के आधार पर एक पशु-कथा के रूप में किया. मनुष्यता और पशुता का यह परस्पर प्रतिरोध मानव-संवेदना का एक गंभीर संकट था जिसका विस्फोट एक बार फिर विश्व-युद्ध की शकल में अपने सबसे विकराल और क्रूरतम रूप में हुआ था जिसमें एक ओर, शुरू के दौर में, साम्राज्यवाद और साम्यवाद एक शामिल पाले में थे, और दूसरी ओर था नाजीवादी फासीवाद - और दोनों युद्ध की विश्व-विनाशी मुद्रा में आमने-सामने खड़े थे. युद्ध के बाद यह समीकरण बदल गया और साम्राज्यवादी पूंजीवाद का सीधा टकराव रूस और चीन के साम्यवाद से हुआ जो शीत युद्धका सफ़र तय करते हुए आज दोनों महाशक्तियों के बीच एक भयावह आणवीय प्रतिरोध का रूप ले चुका है.

एनिमल फ़ार्मएक राजनीतिक व्यंग्य-रूपक-कथा है जिसकी पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी पूंजीवाद और फासीवादी साम्यवाद का सीधा टकराव बराबर दिखाई देता है. और इस रूपक-पशु-कथा का दुहरा व्यंग्य-सन्देश यह है कि पहले एक दूसरे का प्रतिरोध करने वाली ये दोनों राजनीतिक विचारधाराएँ साम्राज्यवाद और साम्यवाद - अंततः घुल-मिल कर एक हो जाती हैं, और दोनों के चेहरे बिलकुल एक जैसे लगने लगते हैं . ध्यातव्य है कि ऑरवेल साम्राज्यवादी पूंजीवाद का उतना ही बड़ा विरोधी था जितना वह साम्यवाद और फासीवाद का विरोधी था. क्योंकि उसकी दृष्टि में साम्राज्यवाद और साम्यवाद - ये दोनों विचारधाराएँ अलग-अलग एक दूसरे का सीधा प्रतिरोध करती हुई भी अंततः पूर्णतः एकमेक हो जाती हैं, और अधिनायकवादी फासीवाद के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं . और इसी अर्थ में जॉर्ज ऑरवेल की इस कृति को हम स्पेन-युद्ध अथवा द्वितीय विश्व युद्ध के परिप्रेक्ष्य में केवल स्तालिनवादी या माओवादी साम्यवाद की कठोर व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में ही नहीं देख सकते, बल्कि विश्व-युद्ध के बाद भी विश्व-स्तर पर उभरने वाले ऐसे सारे राजनीतिक उपाख्यानों की व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में भी देख सकते हैं, जहाँ-जहाँ इस तरह के प्रतिरोध और विलयन एक अधिनायकवादी व्यवस्था के रूप में स्थापित होते दिखाई देते हैं.

एक पूंजीवाद-आधारित भ्रष्ट शोषणवादी व्यवस्था को एक जनांदोलन के बहाने विस्थापित कर एक नई तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना और फिर कुछ ही समय में उस व्यवस्था का एक अधिनायकवादी स्वरूप धारण कर लेना समकालीन वैश्विक परिदृश्य में भी
एक भयकारी यथार्थ बन चुका है. स्तालिन-युगीन रूस और माओवादी चीन के बाद उन देशों में, तथा अन्य बहुत से साम्यवादी देशों में, और बहुत सारे तथाकथित लोकतांत्रिक देशों में भी - यही नक्शा बनता-बिगड़ता दिखाई दे रहा है. और इसी अर्थ में ऑरवेल की इस कृति की प्रासंगिकता आज की दुनिया में भी उतनी ही, या शायद उससे कुछ ज्यादा ही, बनी हुई दिखाई देती है. आज इस कृति के पुनर्पाठ में इसकी इसी समकालीन प्रासंगिकता को रेखांकित करना इस हिंदी रूपांतर के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य है, जब कि प्रायः हर राजनीतिक परिदृश्य में लोकतंत्र के छद्म में उत्तरोत्तर अधिनायकवादी व्यवस्था की बुनावट दिखाई देने लगी है..

(प्रकाशक : आकृति प्रकाशन
F - 29, सादतपुर एक्स्टेंशन, दिल्ली - 110090)
__________________


श्री मंगलमूर्ति

Mob. 7985017549

मंगलाचार : शुभम अग्रवाल

$
0
0
























(Naiza Khan : On the Front Line)


याचनाएं
जिनका व्यर्थ होना
निश्चित था.’

पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर २७ वर्षीय शुभम अग्रवाल अपने पहले कविता संग्रह की तैयारी में हैं.

शीर्षकविहीन इन कविताओं में मृत्यु, स्मृति, आत्म, अस्तित्व, अलगाव से संवाद की रचनात्मकता दिखती है. ये अंदर की ओर झुकी कविताएँ हैं.  इनमें संयम है.   



शुभम की ११ कविताएँ यहाँ प्रकाशित हो रही हैं. 


शुभम अग्रवाल की कविताएँ                             




१.         
चलते चलते
ठिठक जाती है औरत

सर झुकाये
आगे बढ़ जाता है नवागंतुक

व्याकुल मन
डूब जाना चाहता है प्याले में

श्वासें अगर रुक भी गयीं
तो वह ढूँढ लेंगे

एक अनियंत्रित लालसा

लील लेती है सूर्य को
एक उत्कण्ठा

भटकता मनुष्य
अनुभव करना चाहता है
मृत्यु का.



२.
वेदनाएँ छद्म थीं

अंतस में पड़ा
तोड़ा
या टूटा हुआ
मोरपंख
बिलख रहा था

बिल्ली के दांतों में फंसा
चूहे का बच्चा
निढाल

अंगुलियाँ थिरकते हुए
पहुँच जाती थीं
बाहरी लोक में

यातनाओं में
अस्तित्व का एहसास
न के बराबर था
इसलिए उनमें  होना
कम कष्टदायी था.


३.
गर्म पाँव
चलते है पृथ्वी पर

सीढ़ियों से उतरती है छाया

सहलाती है बालों को

पिपासा जागती है
पर उमड़ नहीं पाती

परिंदे घूमते रहते हैं
पर चुगते नहीं

मेरे जाने की बाट जोहता है
आकाशदीप

जाना किधर को है
स्मरण नहीं होता.



४.
एक धुरी पर आकर
ठहर जाता है समय

उत्सुकता में
बाहर निकालता है मुख
कोई जलप्राणी
और  लुप्त हो जाता है

सरकंडों में कराहती है
बची हुई हवा

जिन बिम्बों में से
उग आये थे कमल,
उनसे अलगाव ही
ले जायेगा मुझे

वैराग्य में भी
नहीं मिल पाती वह

याचनाएं
जिनका व्यर्थ होना
निश्चित था.



५.
उस बिंदु के आगे
नही पहुँच पाता
कष्ट

अधीर मन से
प्रश्न पूछती हैं
खिड़कियाँ

प्रत्यंचा का तनाव
असहनीय हो जाता है

मुट्ठियों में भिंचा हुआ
सत्य
छूट जाना चाहता है

मैं दोहराता हूँ बार बार
अपनी निर्धनता को

जिन घावों के बीच
खोते
और मिल जाते थे हम
उन्हीं घावों के गोलार्द्ध में
घूमते घूमते
चुक जाना था हमें.




६.
क्यारियों में
ठहरा हुआ जल
पी जाते हैं
पशु

वह रास्ता
जो निकलता है मुख से

उसकी लम्बी उँगलियाँ
पैठ जाती हैं
गहरे में

कंठ में पड़े
शब्दों की नियति
आखिर क्या हो सकती है

कपोलों के भाव
परिवर्तित होते होते
पारदर्शी हो जाते हैं

आत्मबोध का क्षण
कहीं नहीं जाता

सूर्य में से
निकला था

सूर्य ही में
लीन हो जायेगा

जीवन.


७.
उस गंध के परे
नहीं पहुँच पाते
विचार

नदी का बहना
और
कविता का स्फुटन
कब आरम्भ हुआ

सुख जितना
दुर्लभ था संसार

मोमबत्तियों में
दोहरायी जाती थी
गाथा

अँधेरे भारी कदम
लौट जाते थे
भविष्य में

केंचुओं की तरह
मुड़ जाता था
विवेक

छुप जाना
किरणों से
होठों से
वक्षों से
एकमात्र ध्येय था.



८.
स्वप्न में
चलता रहता है
काठ का मानस

निकल जाता है
सामने से
प्रेम की कल्पना में
डूबा हुआ तारा

जिन डोरियों से
बंधीं थीं कलाईयाँ

जिन छायाओं में
खड़े थे वृक्ष

मनुष्य
एकाकी
पृथ्वी के छोर पर बैठा
सोखता है
सबकुछ

रचनाएं
जो उसकी थीं
पर नहीं थीं

उपत्यकाएँ
जो उसकी नहीं थीं
पर थीं.


९.
बुख़ार
उठता है नाभि में

उसकी चाल
अनुभव की जा सकती है
प्रतिक्षण

उसको खाते हुए देखना

जबड़ों का चलना

उँगलियों की उड़ान

उसका निजी संसार
जिसके निकट जाना भी
दूभर था

उसकी दृष्टि
ठहरती है अनंत में
फिर लौट आती है
आत्म में

श्वासों को रुकना था
इसी जगह

फूलदानों का आविर्भाव
फूलों के आसपास होना था.



१०.
वृक्षों के घनत्व में
दिखती
लोप होती
चली जाती है
वनकन्या

देह को छूते हुए
उड़ जाता है
चिड़ियों का जोड़ा

त्वचा का रूपांतरित होना

एक दूसरे में
उलझे हुए
सर्पों के झुण्ड

वह राह
जिसकी टोह में
जागती रहती हैं
बन्दर की ऑंखें

उस चेतना से विमुख
चाहता है कोई
बिता देना
जीवन.



११.
एक लड़की
पड़ी हुई कुर्सी पर
झुकी

उसके पाँव
जूतों में
अध घुसे

उंगलियाँ कांपती हैं

देखती हैं
अनस्तित्व को
जाते हुए
 
एक आदमी
पड़ा हुआ धरती पर
देखता है
गाढ़ी ठण्डी सफ़ेद
छत को

एक पहचानी हुई
आकृति
धंस जाती है
और भी अधिक

कल्पना में.
_________________
shubham02agarwal@gmail.com

कथा- गाथा : पिता- राष्ट्रपिता : राकेश मिश्र

$
0
0

























जिसके चिंतन और कर्म के केंद्र में सबसे अंतिम व्यक्ति है उसे क्रांतिकारी नहीं माना गया. जो यह कहता था कि अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो किसी दलित के घर हो उसे दलित विरोधी समझा गया. जो आजीवन एक आदर्श हिन्दूकी तरह जीवन व्यतीत करता रहा और मरते वक्त भी जिसके मुंह से रामनिकला उसे हिन्दू विरोधी कहा गया.

गांधी को लेकर अतिवाद की परिणति उनकी हत्या में हुई. आज  भी उनके विचार्रों को विकृत कर उन्हें धूमिल करने  की संगठित कोशिशें जारी हैं.

युवा कथाकार राकेश मिश्र की कहानी पिता से राष्ट्रपिता तक जाती है.    



पिता-राष्‍ट्रपिता                            
राकेश मिश्र



लाहाबाद तीसरी जगह थीजहाँ राकेश भाई ने मुझे बुलाया था बुलाया क्‍या,बुलवाया था बाक़ायदा ए. सी. द्वितीय श्रेणी का रेल किराया और तीन हजा़र रुपये मानधन के साथा स्‍थानीय अतिथ्‍य की व्‍यवस्‍था तो आमन्‍त्रण भेजनेवाली संस्‍था को करनी ही थी. राकेश भाई कम्‍युनिस्‍ट थे और फि़लहाल सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक गाँधीवादी संस्‍था के निदेशक थे. मैं दलित था और अभी नया-नया एक कॉलेज में गाँधी विचार पढ़ाने के लिए व्‍याख्‍याता नियुक्‍त हुआ था.

साल भर पहले ही उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी. हिन्‍द-स्‍वराज के शताब्‍दी वर्ष में मेरे कॉलेज ने यू. जी.सी. के अनुदान से एक सेमिनार आयोजित किया था. गाँधीवादी संस्‍था के निदेशक होने के नाते राकेश भाई उसमें बतौर मुख्‍य अतिथि आमन्त्रीत थे. गाँधी विचार का व्‍याख्‍याता होने के नाते मैंने भी उस सेमिनार में अपना परचा पढ़ा था. चूँकि वह मेरी कक्षा नहीं थी जहाँ पाठ्यक्रम की बारिश में गाँधीजी के रचनात्‍मक कार्यक्रम का गुणगान मेरी मजबूरी हो. लिहाजा़ मैंने गाँधीजी के हरिजन उद्धार और अस्‍पृश्‍यता निवारण जैसे कार्यक्रमों का खूब मजा़क उडा़या. मेरी नियुक्ति के बाद यह मेरा पहला अवसर था जहाँ मैं खुलकर अपनी बात कह पा रहा था इसलिए मैंने बाब साहेब के हवाले से गाँधीजी के तमाम ऐसे क्रियाकलापों को उनकी हिप्‍पोक्रेसी और यथास्थितिवाद के पोषक के तौर पर स्‍थापित किया. मेरे परचे में मेरी तमाम स्‍थापनाओं के समर्थन में सन्‍दर्भ थे. उन सन्‍दर्भों की एक संरचना थी,उनकी विश्‍वसनीयता थी,इ‍सलिए मेरे विभगाध्‍यक्ष की रोषपूर्ण दृष्टि भी मेरे समर्थन में बजनेवाली तालियों को रोक नहीं पायी.

अन्‍त तक आते-आते मैंने हिन्‍द स्‍वराज की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठा दिया कि जिस किताब में दलित-समस्‍या पर एक भी सवाल-जवाब नहीं हो,उस किताब को आखि़र इतनी तवज्‍जो क्‍यों दी जा रही है. क्‍यों इसे  गाँधीजी के सपनों के भारत का घोषणापत्र कहा जा रहा है ! क्‍या  गाँधीजी के सपनों के  भारत  में दलितों के लिए कोई जगह नहीं होनी थी.

अपना परचा समाप्‍त कर अपने विभागाध्‍यक्ष से नज़रें चुराता हुआ जब मैं अपनी सीट की तरफ़ बढ़ा रहा था, तो राकेश भाई ने मंच से उठकर मेरी पीठ थपथपाई, मुझसे हाथ मिलाया और हाथ छोड़ते हुए उन्‍होंने अपने शरीर को ऐसा लोच दिया, मानो मेरे गले लग रहे हों. फिर अपने अध्‍यक्षीय सम्‍बोधन में उन्‍होंने अपनी बातचीत का अधिकांश हिस्‍सामेरे परचे के ही इर्द-गिर्द रखा. उन्‍होंने मेरे नज़रिये की जो़रदार तारीफ़ की और इस बात पर जो़र दिया कि गाँधीजी को देवता मानकर उन्‍हें पूजने की जरुरत नहीं है  बल्कि एक इंसान के तौर पर उनकी खामियों,कमजो़रियोंके साथ उनके मूल्‍यांकन की आवश्‍यता है.

गाँधीजी की छठी औलाद मेरे विभागाध्‍यक्ष को यह सबकुछ नागवार लग रहा होगा,उनका वश चलता तो वे मुझे कब का बर्खास्‍त कर चुके होते और राकेश भाई को धक्‍के मारकर मंच से उतार चुके होते लेकिन वे सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक संस्‍था के निदेशक थे और चूँकि उन्‍होंने मेरी पुरजो़र तारीफ़ की थी, इसलिए मजबूरन मेरे विभागाध्‍यक्ष को इस बात पर गर्वित होना पड़ा कि उनके विभाग में मेरे जैसे हीरा अस्तित्‍वमान है,लगे हाथों उन्‍होंने इसी त्‍वरा में राकेश भाई की भी तारीफ़ कर डाली कि आखि़र हीरे की पहचान तो जौहरी को ही होती है.

कार्यक्रम ख़त्‍म होने के बाद राकेश भाई ने मुझसे बेतकल्‍लुफ़ होते हुए इस हीरे और जौहरी की जुगलबंदी पर जोरदार ठहाका लगाया. मैं उन्‍हें सरका सम्‍बोधन दे रहा था लेकिन उन्‍होंने फिर ठहाका लगाते हुए कहा कि वे सिर्फ़ अपने सरऔर पैर से जाना जाना नहीं चाहते. बल्कि उनके प्रति किये जा रहे सम्‍बोधन में उनका पूरा वजूददिखना चाहिए . उन्‍होंने ही बताया कि पहले कामरेडकहने से उनका यह मक़सद हल हो जाता था लेकिन इस संस्‍था में नियुक्‍त होने के बाद से उनको खुद ही यह सम्‍बोधन अटपटालगने लगा. थोड़ी देर रुककर खु़द ही उन्‍होंने कहा- यदि कहना ही है तो उन्‍हें राकेश भाई कहा जाय,इससे उन्‍हें बेहतर महसूस होगा. मेरी और उनकी उम्र में तक़रीबन तीस-पैंतीस वर्ष का फ़ासला था. एक दो बार भाईके सम्‍बोधन में मुझे थोड़ा अटपटा-सा लगा. लेकिन उनकी स्वाभाविकता से जल्‍द ही मैं इसका अभ्‍यस्‍त हो गया.

इसके बाद उन्‍होंने मेरे मराठी-भाषी होकर अच्‍छी हिन्‍दी बोलने पर आश्‍चर्य जताया,जिसके जवाब में मैने उन्‍हें बताया कि ग़रीबी के कारण मेरी पढ़ाई-लिखाई एक राजस्‍थानी सेठ के खैराती स्‍कूल और कॉलेज में हुई है,जिसका माध्‍यम हिन्‍दी था. फिर उन्‍होंने मेरे टाइटल सपकालेके बारेमें जानना चाहा,जिसकी व्‍याख्‍या करते हुए मैं थोड़ा स्‍याणबन गया. मैंने उन्‍हें बताया कि दर असल यह मेरे कुल का नाम है और बाबा साहेब डॉ. अम्‍बेडकर का भी यही कुलनामा है.

ओहो........ तो ये बात है मैं डॉ. अम्‍बेडकर के किसी वंशज से मुखा़बित हूँ ! कहते हुए उन्‍होंने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया. उन्‍होंने बताया कि इतना तो वे जानते थे कि अम्‍बेडकरटाइटिल बाबा  साहेब को उनके एक ब्राम्‍हण अध्‍यापक ने दी थी लेकिन वे सपकाले नहीं होकर सलपाले थे,  लेकिन बाबा साहेब का वंशज होने से जिस गर्व और विशिष्‍ट की अनुभूति मुझे हो रही थी,उसे मैं सत्‍यऔर ज्ञान के दबाव से व्‍यर्थ ही खोना नहीं चाह रहा था.

उस कार्यक्रम के बाद तो जैसे हमारी जोड़ी ही बन गयी. हिन्‍द स्‍वराज के उस शताब्‍दी वर्ष में देश भर में कार्यक्रम होने थे और अधिकांश जगहों पर राकेश भाई को मुख्‍य अतिथि बनना था,अध्‍यक्षता करनी थी,और उन अधिकांश जगहों पर उन्‍होंने मुझे भी बुलाये जाने की सिफ़ारिश की. मैं भी न सिर्फ हिन्‍द स्‍वराज बल्कि गाँधीजी की लिखी तमाम किताबों,आलेखों भाषणों से छाँट-छाँट कर उनसे हिप्‍पोक्रेसी और वर्णाश्रम समर्थक वक्‍तव्‍य छाँटता रहा,और हर सेमिनार में पहले से ज्‍या़दा आक्रामक और तल्‍ख होता गया. राकेश भाई को हर बार मेरी सिफ़ारिश पर गर्व होता था. गुजरात में तो जब मैंने गाँधीजी की आत्‍मकथा के हवाले  से  उनकी  भोजन सम्‍बन्‍धी  शुचिता और सबक्र का माखौल उडा़या,और यह स्‍थापित किया कि जिस देश का इतना बड़ा भाग मरे हुए जानवर का मांस खाने को अभिशप्‍त था,वहाँ शाकाहार और अन्‍नाहार का ऐसा सात्विक आग्रह एक क्रूर अभिजात्‍यता और अश्‍लील पाखंड के अलावा कुछ नहीं,तो राकेश भाई अश-अश कर उठे थे. मेरे यह कहने पर कि वास्‍तव में गाँधी जी की आत्‍मकथा का शीर्षक सत्‍य के साथ मेरे प्रयोगन होकर भोजन के साथ मेरे प्रयोगहोना चाहिए था तो सेमिनार के बाद गहरे आवेश और आवेग में वे बहुत देर तक मेरा हाथ थामे रहे- 


‘‘पार्टनर, अब तो हमारी पार्टी, उस का़बिल नहीं रही,लेकिन सोवियत संघ वाले ज़माने में यदि तुम मुझे मिलते तो ....... आज दुनिया देखती. एक हताश और आर्द्र-सी उनकी आवाज़ थी अभी तो पार्टी में जाना जैसे खु़द को डम्‍पकर लेना. अब तो हम जैसे लोग भी अपने होने को यहीं भोजन के प्रयोगों में ही तलाशते हैं .’’ 

कहते हुए उन्‍होंने वही अपना पुराना लेकिन असरकारक जो़रदार ठहाका लगाया जिसकी गर्मी में उनके अफ़सोस की आर्द्रता वाष्‍प बनकर उड़ गयी. और अब यह इलाहाबाद था जहाँ मैं गाँधी जी जैसे सनातनी हिन्‍दू के धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक राष्‍ट्रपिता होने की अवधारणा पर सवाल उठाने आया था. मैने फोन पर अपने  भाषण की रुपरेखा राकेश भाई को समझा दी थी,और वे इस संगोष्‍ठी के हँगामेदार होने को लकर आश्‍वस्‍त थे. जब मै फोन पर उनसे अपने पर्चे का यह अंश पढ़कर सुनाया था कि यदि किसी दुरभिसन्धि के फलस्‍वरुप गाँधीजी को राष्‍ट्रपिताकहना हमारी मजबूरी ही हो जाय तो मैं माँ के रुप में समादृत इस राष्‍ट्र की हत्‍या ही कर देना उपयुक्‍त समझूँगा. तो राकेश भाई की एक की एक चिहुँकती –सी आवाज आयी थी, ‘आग लगा दोगे! जल्‍दी आओ.

मेरे इलाहाबाद पहुँचने से पहले ही राकेश भाई वहाँ मौजूद थे. बल्कि मैं ट्रेन के लेट हो जाने के कारण लगभग चार-साढ़े चार बजे सुबह गेस्‍ट हाउस पहुँचा और अब सोउुँ की उधेड़बुन में ही था कि राकेश भाई मेरे कमरे में थे . ‘‘अरे मैं तो डर ही गया था कि कहीं ट्रेन इतनी लेट न हो जाय कि .......’’

“आग लगने से पहले ही बुझ जाय’’,कहकर मैंने कहकर मैंने उनकी ताल से ताल मिलायी और एक जोरदार ठहाके तथा एक जोरदार ठहाके तथा एक प्‍यारी धौल से लगभग अँकवार में भरकर उन्‍होंने मेरे स्‍वागत किया.

‘‘चलों,अब क्‍या सो पाओगे ....... चलकर कहीं चाय-वाय देखा जाय,फिर जल्‍दी से तैयार भी होना होगा. सेमिनार दस बजे से ही है .’’कहकर उन्‍होंने घड़ी को ऐसे देखा,मानो न जाने वह अब दस बजा ही दे कमबख्‍त़.

वह नवम्‍बर की गुणगुनी-सी सुबह थी,इलाहाबाद की सड़कों पर अभी उजाला पूरी तरह पसरा नहीं था,और सिविल लाइंस के चायवालों की नींद अभी तक खुली  नहीं थी,सिवा एक दुकान के जहाँ की अँगीठी से उठते धुएँ से दुकान खुल चुकने का अन्‍दाजा़ लगाते हम वहाँ पहुँचे थे. वहाँ पचास-बावन साल का एक अनुभवी दस-बारह साल के बच्‍चे को अँगीठी में कोयाला ठीक से डालने की नसीहत दे रहा था,और वह बच्‍चा उसकी सलाह से आजिज़-सा आकर ताबड़-तोड़ पंख झल रहा था . हमें दुकान में आया देख वह शख्‍स़ तपाक से खड़ा हो गया और ओस में भीगे बेंच को कपड़े से पोंछता हुआ बाला, ‘‘आइए साह‍ब ! बस थोड़ी ही देर में चाय हुआ चाहती है .’’

चाय के साथ  साथ हुआ चाहती हैके प्रयोग ने हम दोनों को जैसे ठिठका दिया. यह महसूस करतेत हुए भी कि अभी अँगीठी सुलगने में काफ़ी देर है,हम दोनों उसके अदब और लहजे के  लिहाज़ में बेंच पर बैठ गये.

वातावरण में हल्‍की ठंड थी और चाय बननेमें काफ़ी देर. यदि अँगीठी सुलग रही होती तो उसके पास थोड़ी देर बैठने में आनन्‍द आ जाता. हमें बेंच पर बैठाकर वह शक्‍स फिर से अँगीठी ठीक से कैसे सुलगाई जाती है,पर टिक गया और जवाब में वह बच्‍चा और जोर-जोर से पंखा झलने लगा.

हम  उसकी ओर से ध्‍यान हटाकर फिर अपनी बातचीत का सिरा पकड़ने की कोशिश में लग गये. राकेश भाई के अनुसार इस संगोष्‍ठी में का़फी सर फुटव्‍वल होने की सम्‍भावना थी क्‍योंकि इसमें गाँधी-गाँधी जपनेवाले कई उद्भट कि़स्‍म के विद्वान आमंत्रित थें. उनमें एक की ख्‍याति तो ऐसी थी कि उसने एक सभा में गाँधी जी के खि़लफ़ बोलनेवाले की कान ही चबा डाला था और बाद में इस बात पर आश्‍वस्‍त भी था कि उसने हिंसा भी गाँधीवादी तौर-तरीके़ से ही की थी !

 ‘‘देखना कहीं तुम उसकी ब़गल में ही नही बैठ जाना,नहीं तो इस बार वह तुम्‍हारी नाक पर हमला न कर बैठे .’’राकेश भाई ने चिन्‍ता मिश्रित शरारत से कहा .

‘‘आप निश्चिन्‍त रहें .’’कहते हुए मैंने एक सिगरेट सुलगा ली . ‘‘जब उनकी ही नाक कट जाएगी,तो वे क्‍या खाकर नाक पर हमला करेंगे.’’कुछ राकेश भाई की बेतकल्‍लुफी और कुछ मेरे भीतर पनप रहे नये आत्‍मविश्‍वास ने मुझे इतना बेपरवाह बना दिया था कि मैं गिरेट के धुएँ की दिशा से लापरवाह रहूँ !

राकेश भाई बहुत संजीदगी से मेरे पर्चे के सन्‍दर्भों को समझना चाह रहे थे ताकि मेरा भाषण कोरी ल़प्‍फाजी़ न रह जाय. वे बार-बार इस बात पर भी जो़र दे रहे थे कि यह इलाहाबाद है और यहाँ से गुज़रते वक्‍त मिर्जा़ गा़लिब को भी पसीने छूट गये थे. मैं बड़े आत्‍मविश्‍वास से धुआँ उड़ाता हुआ,सिगरेट की राख झाड़ता हुआ,उन्‍हें मुतमइन कर रहा था कि इस बार की हमारी जुगलबन्‍दी गाँधीवादियों की आत्‍मा तक को कँपा डालेगी.

अपनी धुनकी में हम उस अधेड़ से दिखनेवाले चायवाले और उसकी भाषा की नजा़कत को लगभग भूल चुके थे. तभी लगभग ख़लल डालने के से अन्‍दाज़ में उसकी आवाज़ आयी – ‘‘भाई साहब ! बुरा न मानें तो एक बात कहूँ .’’

हम लोग जिस तरह की बातचीत में थे,उसमें इस तरह का सवाल बुरा मानने वाली ही बात थी,लेकिन राकेश भाई अपनी ट्रेनिंग के कारण अनायास बोल पड़े  ‘‘नहीं . बोलो भाई . बातों से क्‍या बुरा मानना.’’ 

मेरा ध्‍यान इस पर भी गया कि वह काफी देर से हमारे सर पर खड़ा होकर हमारी बातें सुन रहा था और यह तो निहायत बुरा मानने वाली बात थी . मैंने एक आजिज़ और उचटती-सी नज़र उस पर डाली. मैंने भरसक अपनी मुद्रा ऐसी रखने की कोशिश की कि उसे ख़ुद बुरा लग जाए. लेकिन राकेश भाई के हौसले से उसे राह मिल चु‍की थी. वह इत्‍मीनान से हमारे सामनेवाली बेंच को अपने  अँगोछे से साफ़ करता हुआ राकेश भाई से मुखा़तिब हुआ, ‘‘भाई साहब !  आजकल के लौंडे अपने पद और रुतबे के आगे बुज़ुर्गियत और अनुभव को कोई तरजी़ह ही नहीं देते.’’

मेरे लौ सुर्ख हो उठे. राकेश भाई भी ऐसी किसी टिप्‍पणी के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन बुरा न मानने का य़किन वे पहले ही दिला चुके थे इसलिए मेरी तरफ़ एक लाचार मुस्‍कान उछालते हुए वे चुप ही रहे. मैंने गौ़र किया कि सिर्फ़ एक लौंडा़ शब्‍द ही भदेस था,नहीं तो भाषा की समूची संरचना परिष्‍कृत और तहजी़बियत लिये थी. शायद उसने मेरी नाराज़गीकी भंगिमा भाँपते हुए जानबूझकर मुझे चोट पहुँचाने के लिए लौंडे शब्‍द का इस्‍तेमाल किया था. वह यह जान भी गया था शायद इसलिए चोट पर मरहम रखनेकी कोशिश –सा करता बोला, ‘‘यह मैं आप लोगों के लिए नहीं कह रहा हूँ. अब देखिये न,मैं कई वर्षों से इस लौंडे को अँगीठी सही तरीके़ से सुलगाने की तरकी़ब सुझा रहा हूँ,लेकिन क्‍या मजाल कि वह कोयला ठीक तरीके़ से जमा ले.  जवान को अपनी ही ताक़त पर यकी़न है कि खू़ब जो़र से पंखा झलेंगे तो जैसे अँगीठी अपने आप सही तरीक़े से सुलग जाएगी. उसने सायास उस पंखा झलते बच्‍चे  भी बातचीत की ज़द में लपेटना चाहा,लेकिन उसने एक उपक्षित सी मुस्‍कान के अलावा उसे कोई तवज्‍जो नहीं दी,बल्कि हमने गौ़र किया कि उसकी बात सुनकर वह दुगनेवेग से पंखा झलने लगा. उस लड़के की उपेक्षा का उस आदमी पर कुछ खा़स असर नहीं हुआ, बल्कि जैसे वह उधर से निश्चित होकर पूरी तरह हमींसे मुखातिब हो गया- ‘‘सिर्फ़ इसी लड़के की बात क्‍यों !’’जब हम भी गदहहपचीसी में थे,तो कहाँ किसी को अपने आगे लगाते थे. किसी को क्‍यों हमने तो अपने बाप तक को कभी अपने पुट्ठे पर हाथ नहीं धरने दिया .’’

हम समझ गये कि यह अ‍ब अपनी राम कहानी सुनाने के मूड में आ चुका है,लेकिन हम उसे झेलने को तेयार नहीं थे. राकेश भाई ने उसे निरुत्‍साहित करते हुए और उसकी औका़त की याद दिलाते हुए टोका,

‘‘देखना,जरा चाय जल्‍दी मिल जाय .’’  
उसने इस टोकने का ज़रा भी नोटिस नहीं लिया,बल्कि धुआँती अँगीठी की ओर देखकर दार्शनिक भाव से मुस्‍कराया, ‘‘जल्‍दी तो साहब,साहबजा़दों को रहती है. आप तो काफ़ी इल्‍मवान  दिखाई देते हैं .’’

मुझे लगा कि वह जानबूझकर मुझे खिजा रहा है,नहीं तो फिर से वही राग छेड़ने की क्‍या  जरुरत थी. शायद मेरे किसी ओवर कांफिडेंटवाक्‍य ने उसे मुझसे रुष्‍ट कर दिया था. मैंने उसके आहत अहम को लगभग सहलाते हुए कहा – ‘‘कोई बात नहीं. हम आराम से हैं,आप इत्‍मीनान से चाय बनाइए.’’  लेकिन मेरी बात का जैसे उसपर उलटा असर हुआ, ‘‘वैसे बाबू ! आप इत्‍मीनान की  बात कर रहे हैं,जरुर लेकिन वह चेहरे पर दिखाई नहीं दे रहा,बल्कि साहब जल्‍दी की बात किये जरुर लेकिन निश्चिंत है कि पहले अँगीठी सुलगेगी,तभी तो चाय बनेगी .’’ 

उसकी इस ढिठाई पर हमारी सुलग रही थी,लेकिन वह कोई ऐसी खुली बदतमीजी़ भी नहीं कर रहा था कि सीधे-सीधे वहाँ से उठ  लिया जाय . हमारे सुलगने से बेपरवाह वह जारी था- ‘‘ये बात होती है,अनुभव की. अनुभव हमेशा जोश पर भारी पड़ता है. जैसे अब मेरा ही देखिए अपने अनुभव के दम पर मैं बता सकता हूँ कि बाबू आप कोई बडे़ अफ़सर होंगे .’’  उसने मुझे इंगित करते हुए कहा, ‘‘और साहब आप इनके मातहत तो नहीं लेकिन ओहदे  में छोटे होंगे.’’  राकेश भाई को देखते हुए उसने मंतव्‍य दिया.

पहले ही वाक्‍य से उसके अनुभव की पोल खुल गयी थी. उसका सारा अनुमान सम्‍भवतः हमारे पहने हुए कपड़ो से संचालित था. मैं ट्रेन से सीधे चाय दुकान पर था. इसलिए याञा के तैयार कपडो़ में अपटुडेट. जबकि राकेश भाई अपने रात के कपडो़ में पाजामा कमीज़ पहने थे. उसके अललटप्‍पू अनुमान और अनुभवी होने के दावे पर हम दोनों ज़रा खुलकर हँसे. और शायद राकेश भाई को अपने छोटे ओहदे वाली बात सुनकर मजा़ भी आ गया था. इस सस्‍पेंस को बाद में खोलने के इरादे से उन्‍होंने जैसे उसे चढ़ाया ‘‘बहुत ठीक अनुमान लगाये हो. और क्‍या बताता है तुम्‍हारा अनुभव. वैसे हमारा अनुभव कहता है कि तुम इधर के हो नहीं और वे धन्‍धा भी तुम्‍हारा बहुत पुराना नहीं है .’’       

‘‘अरे ! क्‍या बात पकड़ी है साहब,आपने. आखि़र इसी को तो अनुभव कहते हैं. बाबू तो हमको निरा चाय वाला ही समझ रहे होंगे .’’ मुझ पर अपने हमले में वह कोई कमी नहीं होने दे रहा था. मैं समझ गया कि मेरे कुछ और बोलने पर वह कुछ ज्‍या़दा ही तल्‍ख टिप्‍पणी करेगा इसलिए इस बार केवल मुस्‍कराकर रह गया .

मेरे मुस्‍कराने को जैसे उसने अपनी हेठी समझा. एकदम अकड़कर बोला, ‘‘हम फौज में थे साहब. असम राइफल्‍स. 36 बटालियन.’’  

‘‘उत्‍तर प्रदेश का आदमी,असम राइफल्‍स में. अच्‍छा. ’’मेरे मुँह से अनायास निकल गया.

‘‘वही तो आप तुरन्‍त शक कर रहे होंगे कि मैं यूँ ही हाँक रहा हूँ. लेकिन बाबू वह ज़माना दूसरा था,उस समय ऐसी कोई बात नहीं थी कि कोई दूसरे राज्‍य की यूनिट में भरती नहीं हो सकता.’’   

‘‘अब भी ऐसी कोई बात नहीं है. भारत का कोई भी नागरिक किसी भी रेजिमेंट या बटालियन में जा सकता है.’’  राकेश भाई ने अपने ज्ञान से उसे दुरुस्‍त किया.

तब उसने मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे मेरे अनुभवहीन होने की बात उसने कितनी सटीक कही थी ‘‘तो साहब,जैसे कि मैंने पहले बताया था, अपने बाप तक को कभी अपने आगे नहीं लगाया था,तो बाप से मेरी बनती नहीं थी !वो पक्‍का बनिया आदमी था साहब! यहीं इलाहाबाद में, कर्नलगंज में उसकी  किरोने की बड़ी-सी दुकान थी. तेल का भी अच्‍छा कारोबार था,आज भी आप कर्नलगंज में पीपा सेठके बारे में पूछेंगे,तो लोग उनकी कंजूसी और काइयाँगिरी के कि़स्‍से  सुनाने लगेंगे .’’बाप का जि़क्र करते हुए उसका चेहरा वाक़ई कसैला हो गया था.

‘‘तो साहब,अम्‍मा तो थीं नहीं और बाप थे कसाई,हमें भी अपने जैसा बनाना चाहते थे कसाई,हमे भी अपने जैसा बनाना चाहते थे,तो एक  दिन हमने भी बता दिया कि हम भी उन्‍हीं के लड़के हैं. गल्‍ले से सारा रुपया उठाया और स्‍टेशन पर पहली गाड़ी जहाँ की मिली,वहाँ नौ दो ग्‍यारह .’’  

तो कहाँ  की थी,पहली गाडी़.’’  उसके बताने के अन्‍दाज़ में मुझे भी रस आने लगा था. पहली बार उसने मेरे टोकने का कोई बुरा नहीं माना.

‘‘कलकत्‍ता की थी बाबू . और यदि जेब में पैसा हो तो कलकते का मजा़ तो पूछिये ही मत ! और यदि जेब में पैसा हो तो कलकते की रौनक़ कुछ कम नहीं थी. वहीं एक होटल में बैरे का काम पकड़ लिया,और अपनी  जिन्‍दगी अपने हाथ से लुटाने लायक़ बने रहे .’’   

‘‘लेकिन फिर फौज में.’’मेरी   जिज्ञासा बढ़ गयी थी. लेकिन इस बार मेरी बेसब्री उसे थोड़ी खल गयी. उसने फिर मेरे युवा होने को मेरी बेसब्री का मूल माना,और छोटे-से क्षेपक के बाद फिर जैसे मेरी जिज्ञासा शान्‍त करते हुए बोला- ‘‘उस समय बाबू,नौकरी की ऐसी मारा-मारी नहीं थी. भगवान की दया से मेरा अभी का शरीर तो आप देख ही रहे हैं,उस समय तो,माशा अल्‍लाह हम फूटते हुए गबरु जवान थे. खड़े हुए,दौडे़ और जैसे ही सीना फुलाकर माप देने लगे कि अफसर ने लपककर सीने से भींच लिया – स्‍साले ..... . क्‍या खाकर सीना बनाया है तूने, 36 चाहिए,56 है स्‍साले .

‘‘तो साहब ! पता चला कि हम तो आ गये,असम राइफल्‍स में,रातों रात .’’    

‘‘वाह गुरु ! ये तो रातो-रात कि़स्‍सत पलटने वाली बात हुई .’’  मेरी इस बात पर उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने कितनी ओछी बात कह दी हो .

‘‘कि़स्‍सत बाबू मेरी कब खराब थी. होटल में बैरा मैं अपनी मर्जी़ से था . और फौ़ज में भी अपनी मर्जी से ही गया था. इसमें कि़स्‍मत को क्‍यों घसीट रहे हो.’’उसने लगभग डाँटते हुए मुझे कहा .

राकेश भाई को उसका यूँ तैश में आना कुछ अच्‍छा नहीं लगा,उन्‍होंने लगभग टालते हुए कहा, ‘‘चलो ठीक है,तो तुम फ़ौज से रिटायर होकर इस ठिकाने पर हो,तभी तुम्‍हारी भाषा इधर की नही लगती .’’ 

‘‘भाषा तो साहब ! मेरी किधर की भी नहीं लगेगी आपको.  फ़ौज में तरह-तरह के लोग,तरह-तरह के लोग,तरह-तरह की उनकी बोली,तरह-तरह की उनकी आदतें ! अब जैसे मेरी आदत को ही लीजिए. इतना कडा़ अनुशासन या वहाँ सुबह-शाम परेड,फिजीकल, ड्रिल,लेकिन एक आदत हमारी छुटाये न छुटे-बीड़ी की आदत.’’ 

‘‘बीड़ी तो छुपकर पीने में बहुत मुश्किल होती होगी.’’मैने एक नयी सिगरेट सुलगाते हुए पूछा .

‘‘मुश्किल किस बात में नहीं होती है बाबू. ग़रीब आदमी को तो हर बात में मुश्किल है.’’वह अनायास दार्शनिक हो उठा. ‘‘ऐश तो बड़े आदमियों की ही है,आप जैसे बड़े अफ़सरों की है.’’  

मेरे बारे में किसी खा़स सूचना के बिना ही वह मुझ पर हमलावर था.’’   अब आप कितने आराम से सिगरेट फूँक रहे हैं जबकि साहब आपके पिता के उम्र के होंगे,लेकिन ये आपको कुछ नहीं कह सकते,क्‍योंकि आप अफ़सर हैं .’’            

उसका यह हमला इतना बेलौस और अचानक था कि मैं पल भर में ही एक अयायित झेंपू स्थिति में पहुँच गया था. अपने हाथ में सिगरेट थामें मैंने एक लाचार और लगभग कातर दृष्टि से राकेश भाई को देखा. राकेश भाई को लगा कि कहीं मैं उसके नैतिक हमले के दबाव में सिगरेट कुचल ही न दूँ,इसलिए उन्‍होंने हाथ बढ़ाकर मेरी उँगलियों से सिगरेट निकाल ली और मुट्ठी बंद कर एक जो़र का सुट्टा खींचकर फिर मेरी ओर बढ़ा दी. मैंने कभी उनको सिगरेट पीते नहीं देखा था,लेकिन अपने अनुभव से उन्‍होंने एक झटके में मुझे दुविधा से उबार लिया था. उनकी इस त्‍वरित कार्रवाई पर वह धीमे से मुस्‍करा उठा- ‘‘ग़जब साहब. आपने यूँ ही धूप में बाल नहीं पकाये हैं. नहीं तो बाबू तो अभी शर्मिन्‍दा हो ही गये थे.वह खुलकर हँसा. उसकी हँसी मेरे गले में ख़राश बनकर उतर गयी.

‘‘तो साहब,परेशानी तो थी ही छुपकर बीड़ी पीने में,आखि़र मैं कोई अफ़सर तो था नहीं..... लेकिन जहाँ चाह-वहाँ राह. ड्यूटी बाँटने वाला सूबेदार भी अपनी ही तरफ का था. बिहार का,गया जि़ले का.’’  

‘‘अच्‍छा, गया तो बहुत फेमस है बिहार में.’’राकेश भाई ने केवल बात पर एक ताल दी. लेकिन उसने उस ताल को अपनी बात में बात के लय में डुबो दिया.

‘‘तो बाबू हमने उससे कह सुनकर अपनी ड्यूटी लगवा ली थी गारद में ! गारद समझते हैं आप लोग.’’

‘‘अरे हाँ भाई ! खू़ब समझते हैं,गारद मतलब शास्‍त्रागार,जहाँ हथियार वगै़रह रखे जाते हैं.’’ राकेश भाई ने कहकर उसे विजेता के से अन्‍दाज में देखा. लेकिन वह तो जैसे उनसे पहले से ही पराजित था – ‘‘सही,एकदम सही साहब ! वही गारद होता है,और वहाँ चौबीस घंटे की पहरेदारी होती है. एकदम अटूट पहरेदारी,आठ-आठ घंटे की शिप्‍ट में,क्‍या मजाल कि पहरे पर कोई पलक भी झपका ले जाय.’’ गारद की पहरेदारी के बयान से जैसे उसका सीना फूलने लगा था.

‘‘तो उसी गारद में अपनी ड्यूटी लगवा ली थी मैंने. रात की शिप्‍टवाली. आराम से खना-वाना खाकर दस बजे गारद ड्यूटी  पर चले जाओ,और नींद तो हमको वैसे भी नहीं आ सकती थी.’’

‘‘क्‍यों,नींद से क्‍या बैर था भाई.’’ राकेश भाई अब तक उसकी बात में गा़लिब हो चुके थे.    

‘‘बैर-भाव कुछ नहीं,साहब. वैसे गारद की ड्यूटी का भौंकाल ही बड़ा होता है. एक –दो घंटे चुस्‍ती से खड़े रहिए,  फिर आराम से बारह-एक बजे के बाद बैठकर हमलोग तोश खेलते थे. और फिर मेरी वो आदत-बीड़ी पीने की. तो आराम से वहाँ बीड़ी पीजिए. रात में गारद की तरफ़ कौन आता है.’’

‘‘तब तो खूब मजे़ में कटी होगी तुम्‍हारी ..... ’’ ‘‘हाँ,कट ही रही थी,मजे़ में लेकिन कहते हैं न कि बहुत अधिक निश्चिन्‍तता कभी-कभी प्राणघातक हो जाती है.’’

प्राणघातक कहने से जैसे उसकी कहानी में अचानक वीर रस का संचार हो गया. हमारे भी कान किसी अनहोनी को सुनने लिए खड़े हो गये !

‘‘तो क्‍या,कभी गारद पर हमला हो गया था. असम में उग्रवादी भी तो बहुत होंगे उस समय.’’राकेश भाई ने अपने जानते सटीक रिजनिंग लगयी.

‘‘नहीं साहब. उग्रवादी तो थे ही,लेकिन वे सेना की टुकड़ीपर हमला करने की हिम्‍मत नहीं कर सकते. वो तो ज्‍या़दा-से-ज्‍या़दा सी.आर.पी.एफ. तक को अटैक कर सकते हैं ! हम भारतीय फौ़ज थे, इंडियन आर्मी. हम पर कौन अटैक कर सकता है.’’कहते-कहते वह खड़ा हो गया और हाथ-पैरों को वर्माअपहोने के स्‍टाइल में हिलाने लगा .   

‘‘तो प्राणधातक क्‍या हुआ था.’’  राकेश भाई उपने अनुमान के ग़लत हो जाने से शायद खीझ से गये थे.

‘‘साहब ! आर्मी में सबसे जानलेवा होता है,अनुशासन. जब तक आप पर कोई ध्‍यान नहीं दे रहा,तब तक तो आप मजे़ में हैं. लेकिन यदि आप  किसी अफ़सर की नज़र में चले गये तो फिर गये आप से आप ! अनुशासन मतलब अफसर की नज़र में ऑल राइट.’’

‘‘अच्‍छा’’  तो पकड़े गये तुम बीड़ी पीते हुए ... ’’राकेश भाई ने बात को जैसे गति देने की कोशिश की. नहीं तो उसकी सुई अनुशासन और अफ़सर पर ही अटक जाती .

‘‘हा ....हा.....हा...’’उसने जो़र का ठहाका लगाया. ‘‘यही तो बात है,साहब असली कहानी तो यही है .....’’ पक्‍के कहानीबाज़ की तरह उसने अपनी बात अधूरी छोड़ी .  ‘‘पकड़ा नहीं गया था ...... देखा गया था ....... बीड़ी पीते हुए .’’ ‘‘अरे देखे गये थे,मतलब पकड़े ही तो गये होंगे.’’मैंने बहुत देर बाद उसकी बात में दख़ल दिया !

‘‘यही तो बात है. देखा था अफ़सर ने मुझे बीड़ी पीते हुए,लेकिन पकड़ नहीं पाया.’’अपने मूँछों को सहलाते हुए उसने कहा. ‘‘दर असल उस दिन ठंड कुछ ज्‍या़दा ही थी. दस बजे हैं ड्यूटी पर गया और थोड़ी देर बाद ही मुझे जा़रों की तलब लगी. बन्‍दूक को कमर से टिकाये जैसे ही मैंने बीड़ी जलाने के लिए तीली जलाई,वैसे ही गाड़ी की एक तेज़ हेडलाइट मेरे चेहरे को छूती-सी गुज़र गयी. कर्नल साहब उस दिन क्‍लब से शायद देर से लौट रहे थे,और हमें पता ही नही था .
‘‘अच्‍छा. फिर ... ’’

‘‘हेडलाइट इतनी साफ़ पडी़ थी मेरे चेहरे पर कि मेरा कलेजा तो धक्‍क रह गया, कर्नल साहब यदि गाड़ी चला रहे थे तो उन्‍होंने जलती तीली ज़रुर देख ली होगी. और वह कर्नल था भी बड़ ख्‍ब्‍ती ! नयी उम्र का था,नया-नया अफ़सर. गुस्‍सा तो जैसे साले की नाक पर ही बैठा रहता था. और यदि उसने देख था मुझे इस हालत में तो उसे मेरे पास आना ही था.

‘‘और साहब ! मेरा अन्‍दाजा़ एकदम सही था. थोड़ी ही देर में सायरन बजने लगा. सावधान,होशियार की आवाजें आने लगीं. मैं समझ गया कि आज तो मेरा खु़द ही मालिक है. दस मिनट के अन्‍दर कर्नल की कार मेरेआगे. मैं दम साधे खड़ा रहा ! कर्नल गाड़ी से उतरा. नशे में धुत्‍त ! मैंने भी एड़ी पटककर जोरदार सैल्‍यूट ठोका – जय हिन्‍द सर !

‘‘उसने सैल्‍युट की कोई नोटिस नहीं ली. सीधा मेरे आगे खड़ा हो गया-तुम बीड़ी जला रहे थे. नशे की लरज़ के बावजूद उसकी आवाज़ ऐसी कड़कथी कि मेरे होश फ़ना हो गये .

‘‘लेकिन मैं भी साहब,जान का सवाल था,फिर एड़ी पटकी और कहा – नहीं सर ! ऐसा कुछ नहीं था.

‘‘अच्‍छा, हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला.’’ ‘‘हाँ साहब ! लेकिन कर्नल तो कर्नल,उसने तीली जलाते हुए मुझे साफ़ देखा था. एक क्षण के लिए उसे लगा कि कहीं नशे में होने के कारण उसे मतिभ्रम तो नहीं हो गया था. लेकिन वह कर्नल था,  फौज का कर्नल. यदि उसे ही मतिभ्रम होने लगे वो भी नशे में,तो यह उसके लिए जैसे डूब मरने की बात थी. वह मान ही नहीं सकता था कि उसे कुछ धोखा भी हो सकता है.

‘‘उसने कहा कुछ नहीं. केवल अपने साथ के कमांडेंट को मेरी तलाशी लेने को कहा. मैं चुपचाप खड़ा रहा. तलाशी पूरी हुई लेकिन मिला कुछ नहीं,मैं एकदम सावधान की मुद्र में डटा रहा.

‘‘कर्नल का  मिजा़ज भन्‍ना रहा था. उसने मुझे साफ़ तौर पर तीली जलाते हुए देखा था,और तलाशी में कुछ भी बरामद नहीं !

‘‘उसका वश चलता तो वहीं वह खड़े-खड़े मेरा कोर्टमार्शल कर देता,लेकिन उसके लिए पहले सबूत तो हो .’’

‘‘तो कहाँ छुपा दी थी,तुमने तीली और बीड़ी ? ’’राकेश भाई ने हँसते हुए पूछा.

‘‘यही तो साहब,कर्नल भी जानना रहा था. आखि़र उसने अपनी आँखों से देखा था.’’ 

‘‘उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था. उसने कमांडेंट के कान में कुछ कहा,और वापस चला गया. मैं जानता था कि वह यूँ ही वापस जानेवालों में नहीं था. आखि़र अफ़सर था,युवा था बाबू की तरह क्‍यों बाबू .’’ वह मेरी तरफ़ मुखातिब हुआ .

मैं जैसे नींद से जागा हाँ तो फिर क्‍या किया उसने. मेरी भी उत्‍सुकता बढ़ गयी थी.

‘‘करना क्‍या था. वापस आया वह,पूरे दल-बल के साथ. सर्चलाइट लिए हुए ! और लगभग आधे घंटे तक मेरे आसपास के आधे किलोमीटर के एरिया तक का एक-एक तिनका छान मारा उसने. लेकिन साहब,न तो वह बीड़ी हाथ आयी और नही वह जली हुई तीली.’’  

‘‘अच्‍छा कहाँ फेंक आये थे तुम.’’  राकेश भाई की आवाज़ में भी परम जिज्ञासा थी.

‘‘वही तो !’’  वह भी आसानी से कहानी के रोमांच को तोड़ना नहीं चाह रहा था.

‘‘
कर्नल परेशान,उसके लगुए- परेशान.  एकदम से ह़कीकत में जिसे कहते हैं,चप्‍पा-चप्‍पा छान मारना,वैसी तलाशी हुई उस दिन,लेकिन सबूत को नहीं मिलना था,नहीं मिला.

‘‘लाचार होकर कर्नल लौटा,जैसे अपनी कोई पोस्‍ट हार गया था वह ! वहाँ से गया,और कमरे में बन्‍द.  एकदम से तीन दिन तक बाहर नहीं निकला.’’  

‘‘अच्‍छा ! क्‍या करता रहा तीन दिन कमरे में.’’ 
करता क्‍या रहा. बाल नोचता रहा. शराब पीता  रहा. आखि़र उसने अपनी आँख से देखा था,साहब. वह कैसे मान ले कि यह केवल नज़र का धोखा था. और बात सच भी थी तीली तो जलाई थी ही मैंने और उसने देखा तो सही ही था.

‘‘तीन दिन बाद वह अपने कमरे से निकला. लोग उसकी हालत देखकर डरे हुए थे. आँखें लाल-लाल,बाल बिखरे हुए, पपोटे सूजे हुए.

‘‘उसने सारे ऑफि़सर्स को तलब किया और बोला,- यह हो नहीं सकता कि मेरी नज़र ने धोखा खाया हो,तीली  उस जवान ने जलायी थी और यह मैंने अपनी आँखों से देखा था. लेकिन यह भी सच है कि इस बात का कोई सबूत मेरे पास नहीं है. यदि मुझे सबूत नहीं मिला तो मुझे सेवा में रहने का कोई हक नहीं. मैं रिजा़इन कर दूँगा. उसने सारे ऑफ़सर्स  से राय माँगी कि वे किसी भी तरह उसके देखे हुए सच को सच साबित करें.’’  

“अच्‍छा, बात इतनी बढ़ गयी, अरे एक बीड़ी के  लिए.......’’  राकेश भाई ने उसे टोका .

‘‘बात अब बीड़ी कहाँ रह गयी थी साहब ! बात तो उस कर्नल की का़बिलियत तक चली गयी थी.  उसकी जि़द के लिए एक-एक तिनके को खोद डाला गया था और पूरी यूनिट इसकी गवाह थी. 

‘‘यदि सबूत नहीं मिला तो समूचे यूनिट में कर्नल की क्‍या इज्‍ज़त रह जाती.  एक शराबी की. जो कुछ भी धोखे से देख सकता है.

‘‘तो साहब !मीटिंग में जितने लोग,उतने सुझाव. किसी ने कहा दो झापड़ लगाकर सच उगलवा लेते हैं,कोई कोई तो थर्ड डिग्री तक उतर आया था.’’   

‘‘लेकिन वह कर्नल था,कोई ऐसी-वैसी बात जो का़नून सही न हो उसकी ईमेज को और गिरा सकती थी .’’   

‘‘हाँ सही बात है .’’मैंने एकदम से कहा . ‘‘ आखि़र जब सबूत ही नहीं है तो सजा़ किस बात की.’’

‘‘वही,वही बात थी.’’पहली बार वह मेरी प्रतिक्रिया के प्रति इतना उदार और सकारात्‍मक था . 

‘‘लेकिन उस मीटिंग में एक अनुभवी आदमी भी था साहब. आपकी ही उमर का रहा होगा,वह उस समय. वह राकेश भाई से मुखातिब था. सूबेदार था और दूसरे ही दिन रिटायर होने वाला था.’’

‘‘अच्‍छा.’’राकेश भाई ने मुस्‍कराते हुए मेरी तरफ़ देखा.

‘‘हाँ साहब !जब सब बोल चुके,तो उसने कहा, --सर ! वैसे तो मैं ओहदे में आप सबसे नीचे हूँ. लेकिन इजाज़त हो तो मुझे एक मौका़ आजमाने दिया जाय.

‘‘कोई और समय होता तो लोग उसे आँखों से ही चुप करा देते,लेकिन उसकी इस बात से कर्नल को जैसे कोई उम्‍मीद- सी जगती दिखी.

‘‘उसने कहा,-बिल्‍कुल इजाज़त है,कुछ भी  करों,लेकिन किसी भी तरह सबूत लाओ.
--सर लेकिन वचन देना होगा कि यदि जवान ने सच क़बूल लिया तो आप  फिर उसे कोई सजा़ नहीं देंगे. सूबेदार जैसे अपनी तरक़ीब पर आश्‍वस्‍त था.

‘‘साहब,कर्नल को उसे वचन देना पड़ा. आखि़र अब क्रोध और अनुशासन से मामला बन्‍द कर खु़द कर्नल के यकी़न  और भ्रम का हो गया था.

‘‘आखि़र सूबेदार के कहने पर मुझे बुलवाया गया.

‘‘मैं बाग़वानी की अपनी ड्यूटी पर था. मैं समझ गया था कि उसी मामले में मेरी पेशी है,लेकिन जब कुछ मिला ही नहीं,तो मुझे डरने की कोई ज़रुरत भी नहीं थी.

‘‘मैं सीधे मीटिंग रुम में ही लाया गया. यूनिट के तमाम ऑफि़सर्स को एक साथ देखकर मैं भी थोड़ी देर के लिए टहल गया. लेकिन चुपचाप सैल्‍यूट मारकर तनकर खड़ा रहा.’’

‘‘फिर’’हमारा तनाव भी चरम पर था. मैंने एक और  सिगरेट सुलगा ली.

‘‘फिर क्‍या साहब. उस अनुभवी सूबेदर ने सीधे मेरे कन्‍धे पर हाथ रखा और मेरी आँख में आँख डालकर बोला ,-- देखो बेटा,बात अब सजा़ और अनुशासन से बहुत ऊपर उठ चु‍की है.  बात अब कर्नल साहब के देखे हुए सच के यकि़न का है.  मैं सारी बातों को हटाकर,सिर्फ़ एक बाप होकर अपने बेटे से पूछता हूँ कि आखि़र सच क्‍या था.

‘‘साहब ! काश,उस सूबेदार को मेरे और मेरे बाप के रिश्‍ते के बारे में थोड़ा भी पता होता. बाप से मेरा क्‍या मतलब. उस बाप से  जिससे मैंने कभी कोई मतलब रखा ही नहीं.

‘‘लेकिन साहब. उस सूबेदार आँख में जाने क्‍या था,और उसकी पकड़ में क्‍या जादू था कि मुझे मेरे बाप की बेतरह याद आने लगी. उसकी याद से ज्‍या़दा,मेरा करम मुझे याद आने लगा,मेरी ज्‍या़दातियाँ जो मैंने उससे की थीं. आखि़र एक ही बेटा था मैं उसका और एक पल के लिए लगा कि जैसे मेरा बाप ही मेरे आगे गिड़गिड़ा रहा  हो.

‘‘और साहब ! बाप का वास्‍ता, ऐसा लगा मुझे  कि मैंने भी सोच लिया,जो होगा देखा जाएगा. सच बता ही देता हूँ. जब बाप ही इस हाल में सच की दुहाई दे रहा है तो मैं भी इसी बाप का बेटा हूँ.

‘‘मैंने भी तनकर कहा,-- चाचा! आप बाप बनकर ही पूछ रहे हैं,तो सच वही है जो कर्नल साहब ने देखा था. तीली जलाई थी मैंने.

‘‘सारे अफ़सर आवक्. कर्नल का चेहरा जैसा पिघल रहा था,उसकी काँपती-सी आवाज़ निकली लेकिन वो तीली....... वो बीड़ी .......”

‘‘साहब,आज भी है,राइफल नं. 292 के बैरल में,वह तीली और बीड़ी अभी भी मौजूद है. मैंने भी जान पर खेलकर सैल्‍यूट ठोकते हुए जवाब दिया. अब मुझे किसी बात की परवाह नहीं थी. बाप का हक़ अदा कर दिया था मैंने.

कहकर वह तनकर खड़ा हो गया और हम दोनों ने लक्ष्‍य किया  कि आखि़री वाक्‍य बोलते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गयी थी.‘‘फिर ...... . फिर क्‍या हुआ ...... मैं और आगे जानना चाह रहा था.’’

‘‘फिर क्‍या होना था इनाम – इकराम पार्टी-शार्टी और क्‍या’’कहता हुआ वह आगे बढ़ गया. तभी वह बच्‍चा चाय लेकर आ गया. हम तो जैसे चाय को भूल ही गये थे. हम चुपचाप चाय पीकर वापस हो लिये.

सेमिनार जब शुरु हुआ तो मैंने गाँधीजी पर बहुत साधरण-सी ही बातें कहीं. कहीं तो उनके त्‍याग और उपवास के प्रसंग पर मैं भावुक भी हो गया. राकेश भाई अवाक् थे कि यह अचानक मुझे क्‍या हो गया था. इस बात पर तो उन्‍होंने मुझे आँख तरेर कर भी देखा कि वे राष्‍ट्रपिता के तौर पर हमेशा हमारे भीतर एक सातत्‍व की तरह जीवित रहेंगे. लेकिन मैं इतने रौ और उत्‍साह में था कि राकेश भाई की तरफ़ से आँख फेर लेने में मुझे कोई झिझक या शर्म नहीं महसूस हुई.
_______________




राकेश मिश्र
मो. नं. 09970251140   

भूमंडलोत्तर कहानी – १७ ( पिता - राष्ट्रपिता : राकेश मिश्र ) : राकेश बिहारी

$
0
0










हिंदी कथा के अनूठे स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ के अंतर्गत कथा-आलोचक राकेश बिहारी पिछले तीन वर्षों से समकालीन कथा – साहित्य की विवेचना- विश्लेषण का कार्य  पूरी गम्भीरता से कर रहे हैं. अब तक १६ कहानियों पर उनकी कथा – आलोचना आप पढ़ चुके हैं. अब यह किताब के शक्ल में प्रकाशित होने वाली है.


इस कड़ी में आज राकेश मिश्र की कहानी पिता-राष्ट्रपितापर ‘पुनर्मूल्यांकन की जरूरत बनाम विरोध की राजनीति’ प्रस्तुत है. राकेश बिहारी ने  इस लेख  के द्वारा समकालीन राजनीति के अस्मितामूलक विमर्श की सीमाओं पर भी अपनी बात रखी है. एक विचलित करने वाली कहानी पर एक सोचने पर विवश करने वाला आलेख.




भूमंडलोत्तर कहानी १७
पुनर्मूल्यांकन की जरूरत बनाम विरोध की राजनीति
(संदर्भ: राकेश मिश्र की कहानी पिता-राष्ट्रपिता’)

राकेश बिहारी 



भूमंडलोत्तर कहानियों के विश्लेषण की इस श्रृंखला में इस बार मेरे सामने है,राकेश मिश्र की कहानी – ‘पिता-राष्ट्रपिता.राकेश अपने समय के बौद्धिक और राजनैतिक विमर्शों में सीधे-सीधे हस्तक्षेप करनेवाले कथाकार हैं.इन अर्थों में भी इनकी कहानियाँ अपने समाकालीन कथाकारों की कहानियों से अलग और विशिष्ट हैं कि ये अपनी संश्लिष्ट रचनात्मक बुनावट के भीतर मौजूद विमर्शों को डिकोड किए जाने के लिए पाठकों से एक खास तरह की बौद्धिक परिपक्वता या तैयारी की मांग करती हैं. नया ज्ञानोदय के फरवरी- 2014 अंक में प्रकाशित पिता-राष्ट्रपिताभी उनकी एक ऐसी ही कहानी है. यह कहानी बहुत ही मुखर और घोषित रूप से गांधी बनाम अंबेडकर के राजनैतिक विमर्श को रेखांकित करते हुये इस बात पर ज़ोर देती है कि गांधीजी को देवता मानकर उन्हें पूजने की जरूरत नहीं.बल्कि एक इंसान के तौर पर उनकी खामियों, कमजोरियों के साथ उनके मूल्यांकन की आवश्यकता है’.एक ही लक्ष्य को हासिल करने के उद्देश्य के साथ क्रियाशील होने के बावजूद अपनी वैचारिक भिन्नताओं के कारण गांधी और अंबेडकर स्वतन्त्रता पूर्व की भारतीय राजनीति में लगातार आमने-सामने होते रहे थे.लेकिन आज़ादी के बाद गांधी और अंबेडकर की वैचारिक असहमतियों की आड़ में एक सोची समझी रणनीति के तहत गांधी और अंबेडकर को एक दूसरे के दुश्मन की तरह पेश किया जाता रहा है.

गांधी बनाम अंबेडकर के द्वंद्व के बहाने गांधी के विचारों के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत की  बात न तो भारतीय राजनीति के लिये नई है न हीं, राकेश मिश्र और उनकी कहानियों के लिए.बहरहाल विवेच्य कहानी पर सीधे-सीधे आने के पहले मैं राकेश मिश्र के पहले कहानी-संग्रह बाकी धुआँ रहने दियामें संकलित और चर्चित उनकी एक कहानी तक्षशिला में आगकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ

इसी विश्वविद्यालय के कैंटीन के बोधिवृक्ष के नीचे प्रणयकान्त को इल्म हुआ कि गांधीजी ने हिंद स्वराज में अपनी भाषा में मर्दवादी रवैया अख़्तियार किया है जो समकालीन स्त्री विमर्श वाले समय में उचित नहीं है.कि इतिहास में उन वंचितों-पीड़ितों के लिए कोई जगह क्यों नहीं है, जो भारतीय समाज और इस राष्ट्र-राज्य के सबसे बड़े हिस्से हैं.

इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुये मैं यह भी याद करना चाहता हूँ कि राकेश मिश्र के उक्त संग्रह पर केन्द्रित अपने समीक्षा-आलेख के अंत में मैंने इन्हीं पंक्तियों को उस संग्रह की कहानियों के प्रतिपक्ष की तरह उद्धृत करते हुये यह भी कहा था कि राकेश को इन पंक्तियों से जूझ कर हीं अपनी आगामी कहानियों का रास्ता खोजना होगा.उस संग्रह के बाद राकेश की कहानियों ने इन पंक्तियों के आलोक में किस तरह की विकास-यात्रा तय की हैं यह एक अलग लेख का विषय हो सकता है,पर तक्षशिलामें आगऔर पिता-राष्ट्रपिताको एक साथ पढ़ते हुये यह तो स्पष्ट होता ही है कि तक्षशिला में आगका प्रणयकान्त जो तब एक विश्वविद्यालय का छात्र था अब कुछ और विकसित रूप में गांधी विचारों का व्याख्याता नियुक्त हो कर हमारे समक्ष पिता-राष्ट्रपिताके मैंकी तरह उपस्थित है. हाँ, इस बार वह घोषित रूप से दलित भी है.

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति लगातार मूल्यविहीनता का शिकार होते-होते आज वैचारिक अवसरवादिता तक की स्थिति में पहुँच चुकी है.तथाकथित वैचारिक प्रतिबद्धताऑ का फरेब रचते विचार-पुरुषों की व्यावहारिकतायें खाने और दिखाने के दाँतके मुहावरे को ही चरितार्थ कर रही हैं.बहुत ही मुखर और प्रखर रूप से गांधी-विरोध के बाने में दिखती कहानी  पिता-राष्ट्रपिताअपनी सूक्ष्मताओं में भारतीय राजनीति के इस दुहरेपन को भी उजागर करती है.इस कहानी के इस विनम्र पाठ से असहमत पाठक-आलोचक यह भी कह सकते हैं कि गांधी  के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को दबंग तेवर के साथ रेखांकित करने वाली इस कहानी के  पात्र खुद वैचारिक अवसरवाद के शिकार हैं.

अपने दो प्रमुख पात्रों का परिचय कराती इस कहानी की शुरुआती पंक्तियाँ देखियेराकेश भाई कम्युनिस्ट थे और फिलहाल सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक गांधीवादी संस्था के निदेशक थे.मैं दलित था और अभी नया-नया एक कॉलेज में गांधी विचार पढ़ाने के लिए व्याख्याता नियुक्त हुआ था.कम्युनिस्ट और दलित वैचारिकी ने  गांधी-दर्शन से अपनी असहमतियों को लगातार प्रकट किया है.ऐसे में किसी कम्युनिस्ट का एक सरकारी गांधीवादी संस्था का अध्यक्ष होना हो कि एक मुखर दलित का गांधी विचार का व्यायाख्याता नियुक्त होना कहीं न कहीं उनके राजनैतिक और वैचारिक अवसारवाद को ही  रेखांकित करते हैं. सिद्धांत और व्यवहार के बीच का फर्क कई बार जीवन की जटिलताओं से  उत्पन्न विवशताओं का नतीजा भी होता है जिसे देखने केलिए हम रवि बुलेकी कहानी लापता  नत्थू उर्फ दुनिया न मानेके नाथूराम गांधीकी तरफ देख सकते हैं.  लेकिन पिता-राष्ट्रपिताके ये दोनों पात्र जिस तरह मज़ाक उड़ाने की हद तक जा कर गाँधी विरोध के सुनियोजित और संयुक्त वैचारिक-उदयम में लगे हैं उसे देखते हुये उनकी वैचारिकता और व्यावहारिकता के बीच की खाई किसी विवशता या विडम्बना के बजाय उनकी अवसरवादिता को ही रेखांकित करती है.

हिन्द स्वराज के शताब्दी वर्ष में आयोजित एक सेमिनार में पढे गए अपने पर्चे के बारे में इस नवनियुक्त व्याख्याता की राय को इस संदर्भ में जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए

चूंकि वह मेरी कक्षा नहीं थी जहां पाठ्यक्रम के बारिश में गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का गुणगान मेरी मजबूरी हो.लिहाजा मैंने गांधीजी के हरिजन उद्धार और अस्पृश्यता निवारण जैसे कार्यक्रमों का खूब मज़ाक उड़ाया.
गौर किया जाना चाहिए कि इसी परचे के लिए राकेश भाई ने इन महाशय की पीठ भी थपथपाई थी और अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में गांधी के मूल्यांकन की आवश्यकता को भी रेखांकित किया था.यहाँ ठहरकर दो प्रश्नों पर विचार किए जाने की जरूरत हैपहला प्रश्न यह कि क्या मूल्यांकन और मज़ाक उड़ाया जाना दोनों एक ही बात है? और दूसरा प्रश्न यह कि मूल्यांकन सिर्फ गांधी के विचारों का ही क्यों? कहने की जरूरत नहीं कि मतभिन्नता वामपंथियों और दलित विमर्शकारों के बीच भी रही है.दो विचारों के बीच परस्पर संवाद भी होना चाहिए. अलग-अलग विचारधारों की शक्ति और सीमाओं का युगीन पुनर्मूल्यांकन करते हुये देश और समाज की प्रगति के लिए उनके बीच समन्वय स्थापित करते हुये किसी  साझे एजेंडे के तहत एक मंच पर खड़ा होना आज के समय की बड़ी जरूरत है. लेकिन एक मंच पर एक दूसरे के साथ आने का कारण येन केन प्रकारेण किसी तीसरे का विरोध (मूल्यांकन भी नहीं) ही हो जाये तो?जाहिर है ऐसी स्थितियाँ किसी रचनात्मक बदलाव की तरफ नहीं ले जातीं, बल्कि वैचारिक असहमतियों को निजी दुश्मनी और वैमनस्यता के कुत्सित मुहाने पर ला  khadaaखड़ा करती हैं.

पुनर्मूल्यांकन की आड़ में इस तरह की बातें आज आम हो गई हैं.अभी हाल ही में बीते वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन के अवसर पर उच्च संवैधानिक पदों की गरिमा तक की  परवाह किए बिना झूठी और मनगढ़ंत कहानियों के सहारे पटेल के प्रति नेहरू की तथाकथित वैमनस्यता को उद्धृत कर  आम नागरिकों के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने जो कोशिशें की गई वह विचारधाराओं की शल्य चिकित्सा के नाम पर किए जाने वाले कुत्सित खेलों का ही एक बड़ा उदाहरणहै.वैचारिक अवसरवादिता और दरिद्रता के ऐसे दौर में पिता-राष्ट्रपिताजैसी कहानियों को और गौर से पढे जाने की जरूरत है.

जिन लोगों ने यह कहानी नहीं पढ़ी है उनके लिए यह बताना जरूरी है कि विवेच्य कहानी के दोनों पात्र- राकेशभाई और कहानी का सूत्रधार मैं, जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है,किसी सेमिनार के दौरान मिलते हैं. कहानी के दलित सूत्रधार मैं का गांधी के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण और उसे पेश करने का आक्रामक तरीका विचारों से कम्युनिस्ट राकेश भाई को इस तरह प्रभावित करता है कि वे जगह-जगह उसे वक्ता के रूप में बुलाये जाने की अनुशंसा करते हैं और हर सेमिनार में गांधी विचारों का यह दलित व्याख्याता गांधी के विचारों की धज्जियां उड़ा कर रख देता है. ऐसे ही किसी दिन इलाहाबाद में एक सेमिनार के लिए सुनियोजित तरीके से इकट्ठा होना ही इस कहानी की पृष्ठभूमि है, जहां एक चायवाले की दूकान पर दोनों सुबह-सुबह चाय पीने के लिए जाते हैं

सेमिनार के लिए रणनीति तय करते इन दोनों महानुभावों की बातों को बहुत गौर से सुनता हुआ वह अधेड़ चायवाला इस बात पर दुख जताता है कि आज के युवा बुजुर्गों के जीवनानुभावों की कद्र नहीं करते.इसी क्रम मेंवह उन्हें अपने जीवन से जुडी एक कहानी सुनाता है कि कैसे एक दिन फौज की नौकरी के दौरानएक उच्च अधिकारी ने उसे बीड़ी पीते हुये देख लिया था.वह उसे इस कृत्य के लिए सजा देना चाहता था पर तमाम कोशिशों के बावजूद यह प्रमाणित नहीं कर पा रहा था कि वह फौजी बीड़ी पी रहा था.इस स्थिति ने उस कर्नल को बेतरह बेचैन कर रखा था. तब पिता की उम्र के एक दूसरे सहकर्मी के यह कहने पर कि वह उसे अपना पिता तुल्य समझे और सच बोले, उसने बीड़ी पीने का सच स्वीकार लिया थाफौजी के जीवन में घटित इस घटना  का प्रभाव कहानी के सूत्रधार मैंपर ऐसा पड़ता है कि वह उस दिन के सेमिनार में उस तरह गांधीजी की धज्जियां नहीँ उड़ा पाता जैसी योजना उसने राकेश भाई के साथ मिल कर बनाई थी, बल्कि कुछ जगहों पर वह गांधी दर्शन के प्रति भावुक भी हो जाता है.

जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा है, कि सूत्रधार और राकेश भाई की साझेदारी के मूल में किसी रचनात्मक सुधार या वैचारिक सामंजस्य को प्राप्त करने का उद्देश्य नहीं है.बल्कि उनका एकल उद्देश्य येन केन प्रकारेण गांधी-विरोध ही है. इस क्रम में कहानी उन दोनों के व्यावहारिक अंतर्विरोध और उनकी कथनी-करनी के अंतर को भी रेखांकित करती है. इस बात को समझने के लिए कहानी के दो प्रसंगों पर गौर किया जाना चाहिए.पहला प्रसंग तब का है जब कहानी का सूत्रधार मैंराकेश भाई को अपने बारे में बताते हुये खुद को डॉक्टर अंबेडकर के कुल का बताता है- मैं जानता था कि बाबा साहब सपकाले नहीँ सलपाले थे, लेकिन बाबा साहब का वंशज होने से जिस गर्व और विशिष्टता की अनुभूति मुझे हो रही थी, उसे मैं सत्यऔर ज्ञान के दबाव से व्यर्थ ही खोना नहीं चाहता था.’
वैचारिक संघर्ष और प्रतिबद्धता के लिहाज से दलित ही नहीँ एक गैर-दलित भी खुद को अंबेडकर के वृहतर वैचारिक कुल या परिवार का हिस्सा मान कर गर्व का अनुभव कर सकता है लेकिन यहाँ कुल का अर्थ वंश के सीमित अर्थों में ही लिया गया है.इतना ही नहीँ सच्चाई,जो गांधी-दर्शन का एक अपरिहार्य अवयव है,को यहाँ दबाव की तरह रेखांकित किया गया है.ठीक इसी तरह दूसरा प्रसंग चाय की दूकान का है जब चाय दूकान का मालिक   इन दोनों पात्रों से अपनी आपबीती साझा करना चाहता है – ‘हम समझ गए कि यह अब अपनी राम कहानी सुनाने के मूड में आ चुका है, लेकिन हम उसे झेलने को तैयार नहीँ थे.राकेशभाई ने उसे निरुत्साहित करते हुये और उसकी औकात की याद दिलाते हुये टोका, देखना, जरा चाय जल्दी मिल जाये! 

गांधी के विचारों का मज़ाक उड़ाने वाले एक दलित विचारक का सत्य को दबाव की तरह महसूस करते हुये खुद को अंबेडकर का वंशज बताने के लिए झूठ बोलना हो या कि एक कम्युनिस्ट का किसी चायवाले को उसकी औकात बताना ये दोनों ही प्रसंग समकालीन राजनैतिक परिदृश्य में रक्त की तरह प्रवाहित वैचारिक दोगलेपन को तो रेखांकित करते ही हैं राकेश भाई जैसे वामपंथियों और कहानी के सूत्रधार मैंजैसे दलित विचारकों से गांधी के पुनर्मूल्यांकन का अधिकारी होने के हक से भी वंचित कर देते हैं.इस तरह मुखर रूप से गांधी के विचारों का मूल्यांकन किए जाने की जरूरतों बात करती यह कहानी अपनी सूक्ष्मताओं और बारीकबयानी में कहीं न कहीं पुनर्मूल्यांकन की आड़ में विरोध के लिए विरोध करने वाले  सूरमाओं के वैचारिक अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करती है.

चाय की दूकान वाले एक पूर्व फौजी के सच स्वीकार करने की उपकथा और पिता-राष्ट्रपिताका क्लाइमेक्स जहां दलित विचारक अपनी तमाम तैयारियों के बावजूद गांधीजी के विचारों का विरोध नहीँ कर पाता है,के बीच एक गहरा संबंध है और इन दोनों घटनाओं के अंतर्संबंध में ही इस कहानी का मर्म भी मौजूद है. गौर किया जाना चाहिए कि वह फौजी जिसने पिता या पिता की छवि का वास्ता दिये जाने के बाद सच कबूल किया वास्तविक जीवन में अपने पिता से उसका कोई मतलब नहीँ था.उसी तरह इस कहानी केसूत्रधार मैंको भी गांधीजी की राष्ट्रपिता वाली छवि मंजूर नहीँ थी.लेकिन दिलचस्प यह है कि सेमिनार में बोलते हुये उसका गांधी के प्रभाव में आ जाने का मूल कारण भी उनकी राष्ट्रपिता वाली छवि ही है- सेमिनार जब शुरू हुआ तो मैंने गांधीजी पर बहुत साधारण-सी ही बातें कहीं.कहीं-कहीं उनके त्याग और उपवास के प्रसंग पर मैं भावुक भी हो गया.राकेश भाई अवाक थे कि यह अचानक मुझे क्या हो गया था.इस बात पर तो उन्होंनेमुझे आँख तरेर कर भी देखा कि वे राष्ट्रपिता के तौर पर हमेशा हमारे बीच सातत्व की तरह जीवित रहेंगे.लेकिन मैं इतने रौ में था कि राकेश भाई की तरफ से आँखें फेर लेने में मुझे कोई झिझक या शर्म नहीँ महसूस हुई.

कहानी का यह अंत लगभग दो परस्पर विरोधी निष्पत्तियों की ओर संकेत करता है.एक बात यह कि गांधी के महत्व और अवदान को ठीक-ठीक समझने के लिए स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी विशिष्ट अभिभावकीय भूमिका से अनुप्राणित उनकी राष्ट्रपिता वाली छवि को समझना बहुत जरूरी है.इसके ठीक विपरीत जिस दूसरी दिशा की ओर कहानी का यह अंत संकेत करता है वह यह है कि राष्ट्रपिता की छवि के प्रभाव से मुक्त हुये बिना समकालीन संदर्भों में गांधी के विचारों का सही मूल्यांकन नहीँ हो सकता है. यह भी दिलचस्प है कि कि इन दोनों ही निष्कर्षों तक पहुंचने के सूत्र और संकेत इस कहानी में समान रूप से मौजूद हैं.यूं तो हर पाठक इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह अपनी प्रसंगानुकूल सुविधा या वैचारिक झुकाव या प्रतिबद्धता के अनुरूप इसकी मनोनुकूल व्याख्या चुन ले.लेकिन इस कहानी के अलग-अलग और विपरीतधर्मी निष्कर्षों की संभावनाएं कुछ अर्थों में कथाकार की सूक्ष्म कलात्मक समझदारी तो  कुछ अर्थों में उसकी वैचारिक दुविधा दोनों को रेखांकित करते हैं.

एक ऐसे समय में जब सूचना-क्रान्ति के दबाव में बहुधा कहानियों से उसकी कलात्मकता गायब होती दिखती है, एक शुद्ध वैचारिक कहानी में कहानी के कला तत्व को कायम रख पाने के लिए राकेश मिश्र प्रशंसा के हकदार हैं.लेकिन जिसे मैं उनकी वैचारिक दुविधा कह रहा हूँ उससे मुक्त होने के लिए किसी एक ही विचार के मूल्यांकन की आड़ में उसके विरोध के आग्रह से मुक्त होकर इतिहास के उन संदर्भों की तरफ भी देखे जाने की जरूरत है जो तमाम असहमतियों के बावजूद गांधी और अंबेडकर के बीच परस्पर सम्मान और सौमनस्यता के संबंध की भी गवाहियाँ देते हैं.पूना समझौते के तुरंत बाद अंबेडकर का गांधी को यह कहना हो कि यदि आप अपने आप को केवल दलितों के कल्याण के लिए समर्पित कर दें, तो आप हमारे हीरो बन जाएंगे (संदर्भ राजमोहन गांधी की पुस्तक अण्डरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स) या फिर हरिजनपत्रिका के लिए  गांधीजी का अंबेडकर से संदेश लिखने का आग्रह, ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो असहमतियों के बीच सौमनस्य और सामंजस्य की जरूरतों को रेखांकित करते हैं.आज देश को गांधी के अनुशासन और अंबेडकर के संविधान दोनों की बराबर जरूरत है.यदि इस रचनात्मक जरूरत को नहीँ समझा गया तो बहुत संभव है कि सिर्फ विरोध के लिए गांधी के विरोध करने की वाम और दलित की इस साझेदारी में कल कोई संघी भी शामिल हो जाये.इसलिए गांधी बनाम अंबेडकरऔर नेहरू बनाम पटेलकी राजनीति के असली निहितार्थों को समझा जाना भी बहुत जरूरी है.  
_________________ 

कालजयी : गैंग्रीन : अज्ञेय

$
0
0




























अज्ञेय  सम्पूर्ण रचनाकार थे.  कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक, पत्रकार, गद्य लेखक आदि , अपनी बहुज्ञता और विविधता में जयशंकर प्रसाद की याद दिलाते हुए.  उनकी एक प्रसिद्ध कहानी है गैंग्रीन जो कई जगहों पर रोज़ के नाम से भी मिलती है.  जीवन की एकरसता और व्यर्थताबोध की यह अद्भुत कहानी है.



आलोचक रोहिणी अग्रवाल के स्तम्भ ‘कालजयी’ के अंतर्गत इस कहानी पर आप उनका विवेचन विश्लेषण पढ़ेंगे. आज रोहिणी जी का जन्म दिन भी है. समालोचन की तरफ से बहुत बधाई.


गैंग्रीन/ अज्ञेय
_____________________

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा,  मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था...

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली. मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी. उसने कहा, ‘‘आ जाओ.’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली. मैं भी उसके पीछे हो लिया.

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं. थोड़ी देर में आ जाएँगे. कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं.’’
‘‘कब से गये हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं.’’
मैं हूँकहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है. मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा.
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी. मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए.’’ पर वह नहीं मानी, बोली, ‘‘वाह. चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो. यहाँ तो...’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ मुझे दे दो.’’

वह शायद, ‘नाकरनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई हुँहकरके उठी और भीतर चली गयी.

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा. यह क्या है... यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है...
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है. हम बचपन से इकठ्ठे खेले हैं, इकठ्ठे लड़े और पिटे हंक और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकठ्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्या की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के, या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा...

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखने आया हूँ. जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लडक़ी ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है. इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है... और विशेषतया मालती पर...

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी. मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’
मालती ने बच्चों की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं.’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ...’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नजर देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने ली...
काफ़ी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की... यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ... चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती... पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए...

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’

यह हूँप्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण. इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठा रहा. मालती कुछ बोली ही नहीं, थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा. वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं. फिर भी मैंने देख, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुन: जगाकर गतिमान करने कभी, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए...

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये. मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं. जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी.
वे, यानी मालती के पति आए. मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फोटो से उन्हें पहचानता था. परिचय हुआ. मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में, और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर...

मालती के पति का नाम है महेश्वर. वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसकी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं. प्रात:काल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पातल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने... उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ. वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं...

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी. मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है...’’

पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देेखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मजा क्या ही आएगा ऐसे बेवक्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और भी अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा.’’
मालती टोककर बोली, ‘‘ऊहूँ, मेरे लिए तो यह नई बात नहीं है... रोज़ ही ऐसा होता है...’’
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी. बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था.
मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़हिचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है.’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुप कर.’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया. और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले.’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजनेवाले थे, महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, वहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा... दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है... थोड़ी ही देर में वह चले गये. मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ.’’

वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी. मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया.
दूर... शायद अस्पताल में ही, तीन खडक़े. एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है, ‘‘तीन बज गये...’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो...
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब कुछ तो...’’
‘‘बहुत था.’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था.’’ मैंने हँसकर कहा.
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्जी-वब्जी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आए पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है...’’
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नही है?’’
‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद दो-एक दिन में हो जाए.’’
‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’
‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी. मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’
‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’
‘‘रोज ही होता है... कभी वक्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे.’’
‘‘चलो तुम्हें सात बजे तक तो छुट्टी हुई’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’’
यही उसने कहा. मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने कह, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा. मैंने उसे दे दिया.
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’
मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’
‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है.’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न-सी हो गयी. मैं फिर नोट बुक की तरफ़ देखने लगा.
थोड़ी देर बाद मुझे ही ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती...
मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों ओर देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें.
‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी. वह हँसी कह रही थी, ‘‘यहाँ पढऩे को क्या?’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर जरूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा...’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया...
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल.’’
‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की.’’
‘‘आखिर तुमसे मिलने आया हूँ.’’
‘‘ऐसे ही आये हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है,सामान लेकर. मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ.’’
‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस...’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ.’’
‘‘नहीं बिलकुल नहीं थका.’’
‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?’’
‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे.’’

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर. तब मैं भी लेट गया और छत की ओर दखेने लगा... मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पडऩे लगे, मैं ऊँघने लगा...

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया-मौन हो गया. इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा...
चार खडक़ रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी...

वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार और उग्र रूप में. मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यन्त्रवत- वह भी थके हुए यन्त्र के-से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यन्त्रवत् फासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया... न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी.

तब छह कभी के बज चुके थे,जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैं ने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं, और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली. मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा. मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’
उन्होंने किंचित् ग्लानि -भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का ऑपरेशन करना ही पड़ा. एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है.’’
मैंने पूछा, ‘‘गैंग्रीन कैसे हो गया?’’
‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के...’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’
बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पताल में भी...’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, बोली,’’हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’
महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं...’’
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये, मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है. मैं तो रोज ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं आता. पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी.’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा, टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिप्...
मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी. खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोये जाने लगे हैं...
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़ मालती की ओर खिसकता हुआ चला. महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा.
महेश्वर बोले... ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी.’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’
‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अबकी नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे.’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘अच्छा तो बाहर ही सोएँगे. आपके आने का इतना लाभ ही होगा.’’
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था. महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ,’’ और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिया.

अब हम तीनों... महेश्वर, टिटी और मैं पलंग पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीचबीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्र्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था... और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे...
मालती बरतन धो चुकी थी. जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना.’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, कागज में लिपटे हुए.’’

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये. जिस कागज में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था. मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षीण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी... वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी.

मुझे एकाएक याद आया... बहुत दिनों की बात थी... जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे. जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाजिरी हो चुकने के बाद चोरी के क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों में चढक़र कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना. मुझे याद आया... कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था.

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगा, मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाडक़र फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पडऩे देती. जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया- ‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ मैं प्रश्न पूछूँगा,’’ तो चुप खड़ी रही. पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाडक़र फेंक दी है, मैं नहीं पढूँगी.’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है. इस समय मैं यही सोच रहा था कि वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है.... यह क्या, यह...
तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी?’’
‘‘बस अभी बनाती हूँ.’’

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्यभावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी,वह मालती की, ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठकर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई एक छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी...
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की, और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे.

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था. मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी. वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था. एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया.
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए.’’
वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे... अठारह मील पैदल चलकर आये हैं.’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया, ‘‘थका तो मैं भी हूँ.’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं.
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी.
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में-यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसककर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा.
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था.

मैंने देखा.. उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगनेवाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो...
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सूखकर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष... धीरे-धीरे गा रहे हों... कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं...

मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं...
मैंने देखा... दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं..

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने... महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी... ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है.’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजनेवाले हैं’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं... मालती ने वह सब कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए, रुकने को तैयार नहीं था...

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है, इस अलस जिज्ञासा ने मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसककर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा. महेश्वर ने चौंककर कहा, ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपटकर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस खट्शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के.’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए, हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है.’’

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा-मेरे मन ने भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला -’’माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो-और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है?’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उसके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं. इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया...

इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी था. महेश्वर फिर लेटकर ऊँघ रहे थे. टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपटकर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी. मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है. मालती चुपचाप आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठाकर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा. ग्यारह के पहले घंटे की खडक़न के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये...’’
________________________
(डलहौजी, मई 1934)

कालजयी : गैंग्रीन : रोहिणी अग्रवाल

$
0
0






अज्ञेय  सम्पूर्ण रचनाकार थे.  कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक, पत्रकार, गद्य लेखक आदि , अपनी बहुज्ञता और विविधता में जयशंकर प्रसाद की याद दिलाते हुए.  उनकी एक प्रसिद्ध कहानी है गैंग्रीन जो कई जगहों पर रोज़ के नाम से भी मिलती है.  जीवन की एकरसता और व्यर्थताबोध की यह अद्भुत कहानी है.

आलोचक रोहिणी अग्रवाल के स्तम्भ ‘कालजयी’ के अंतर्गत इस कहानी पर आप उनका विवेचन विश्लेष्ण पढ़ेंगे. आज रोहिणी जी का जन्म दिन भी है. समालोचन की तरफ से बहुत बधाई.




नित्यक्रमिकता गैंग्रीन बन कर रचनात्मकता को कतर देती है          

रोहिणी अग्रवाल 



बोलने वाली औरतकहानी से बाहर निकल आई हूं,लेकिन दीपशिखा की टीस के भीतर धधकता लावा भुलाए नहीं भूलता. नहीं, शायद गलत कह रही हूं. मनुस्मृतिएक हौलनाक अनुभव की तरह मेरे भीतर रिस-रिस कर ऐसे समा गई है कि उबरने की कोशिश में अग्निशिखाबनने का संकल्प लेती दीपशिखा की बांह को कस कर थाम लेना चाहती हूं. लेकिन पाती हूं कि बुलेट ट्रेन की गति से  आगे बढ़ते चले जाने के तमाम दावों और वादों के बावजूद हम रपटते हुए अतीत में चले जा रहे हैं. रपटने में गिरने की शर्म नहीं रहती, फिसल कर निश्चित खड्ड में समा जाने की उत्तेजना का वहशी आनंद आ जुड़ता है.

दीपशिखा मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गई है. धीरे-धीरे उसने गृहस्थी के बाड़े में बंद गाय की शक्ल अख्तियार कर ली है. गौ माता - दुधारु भी, और तमाम टंटे-फसादों को अंजाम देने का मासूम जरिया भी. सबकी इच्छाओं की पूर्ति करती इस कामधेनु को मालिक के हाथ में पकड़ा अपना पगहा छुड़ाने का मूलमंत्र ही न आया, मैं सोचती हूं, क्योंकि देख रही हूं पुरुष का भाग्यकहानी (अज्ञेय) की वह बंदिनी नायिका प्रतिमा पांच कदम की लंबाई में सिमटी जेल की कोठरी में आगे-पीछे, पीछे-आगे चक्कर लगा कर अपनी दिनचर्या पूरी कर रही है. अज्ञेय उस कोठरी को कोई नाम नहीं देते, लेकिन बंदिनी प्रतिमा मौन में गुंथी चुप्पियों के सहारे चीख-चीख कर उसे नाम दे रही है - पितृसत्ता की जेल. क्यों पांच कदम आगे और पांच कदम वापस?’’ वह इस नियतिबद्धता के खिलाफ विद्रोह करना चाहती है और आगे-पीछे का क्रम छोड़ कर कोठरी के चारों ओर चक्कर काटने लगती है. जानती है, यह गोल-गोल घूमना भी कोल्हू के बैल की तरह है - दिशाहीन, लक्ष्यहीन यात्रा का व्यर्थ श्रम, लेकिन इसके अतिरिक्त और विकल्प क्या बचता है उसके पास, खासकर तब जब यह अनंत यात्रा काले सींखचों से अंधी दीवार तक, अंधी दीवार से काले सींखचों तक ही जाती हो, जिसके आगे दूसरी दीवार के सींखचे हों और फिर दीवार और सींखचों की गोद में खुलता बंद दरवाजों का तिलिस्म.

मैं ठहर जाती हूं और एक उदास बेबसी से प्रतिमा की ओर देखने लगती हूं. प्रतिमा के चेहरे में बेचेहरा औरतों की बेशुमार सलवटें हैं. अचानक उस चेहरे के नाक-नक्श निर्विकार सपाट पीठ में तब्दील होने लगते हैं. शालिनी’! मैं इस चेहरे को पहचानती हूं. मृदुला गर्ग की कहानी वितृष्णाकी अधेड़ नायिका शालिनी से मेरा पुराना चरिचय है, लेकिन मैंने जब-जब अपने हृदय की भरपूर संवेदना उस पर उंडेलने की चेष्टा की है, हर बार हिस्सेदारी के लिए उसके पति दिनेश वहां आ खड़े होते हैं. शालिनी के लिए वह शख्स खलनायक है. न, खलनायक भी नहीं, जिस के क्रूर अस्तित्व के प्रति क्रोध और घृणा बरसा कर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति की जा सकती है. शालिनी के लिए तो दिनेश का वजूद ही नहीं - न घृणा, न विकार; न कोई अपेक्षा, न उलाहना. बस, एक ठंडी बेधक निर्लिप्तता जिसमें पत्नीत्व के दायित्वों को यंत्रवत निभाते चले जाने की यांत्रिक मुस्तैदी जरूर छुपी है. सोचती हूं, यदि दिनेश को केंद्र में रख कर किसी ने कहानी बुनी होती तो क्या उसकी यंत्रणा प्रतिमा से कम होती? यात्रा पांच कदम की हो या पांच सौ कदमों की, रोज-रोज उन्हीं कदमों से लौट आने और अगले दिन पिछले दिन की लाश ढोने की विभीषिका को झेलने की तैयारी में नींद के आगोश में लुढ़कने की यंत्रणा न आंखों में सपने बुनती है, न रग-रेशे को स्फूर्ति के ओज से भीरती है. सोच तो यह भी रही हूं कि दिनेश की यंत्रणा को उकेरने के लिए कोई कागज-कलम क्यों नहीं उठाता? क्या दिनेश जैसे स्वामी, सक्रिय समर्थ लोगों के पास यंत्रणा महसूसने की संवेदना’ (ज्यादा खटके तो इस शब्द को अवकाशसमझ कर भी पढ़ सकते हैं) नहीं है? या प्रभु वर्ग के पास शेयरिंग का सुख और अभिव्यक्ति की आजादी जैसी इंसानी नियामतें नहीं हुआ करतीं? शिनाख्त के लिए बींधती नजर लेकर मैं हिंदी कहानी की संकरी चक्कतदार गलियों में दाखिल होती हूं कि ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले अज्ञेय रास्ता रोक लेते हैं -  “गैंग्रीन कहानी पढ़ लो, शिकायत और शिनाख्त दोनों पूरी हो जाएंगी.’’
यानी वही कहानी जिसे बाद में आपने ‘रोजशीर्षक दिया!’’ मैंने नजर उठाई तो देखा सामने अज्ञेय नहीं, मालती और महेश्वर खड़े हैं – गैंग्रीनके नायक-नायिका. खिन्न, अवसन्न और अजनबियत में गुंथे प्रगाढ़तम रिश्ते को ढोते पति-पत्नी!
अज्ञेय के प्रति मेरा लगाव विश्वास की हद तक गहरा है. प्रेमचंद की तरह वे भी सामाजिक यथार्थ की परतों को अपने साहित्य में विष्लेषित करते हैं, लेकिन सतह पर दीखती सामाजिक समस्याओं को उठा कर जनमत बनाने की चेष्टा नहीं करते. चूंकि वे जैनेन्द्रकुमार की परंपरा के रचनाकार हैं, इसलिए व्यक्ति के मानस के भीतर प्रविष्ट होकर उन समस्याओं के उत्स और परिणाम देखने की कोशिश करते हैं.
“आप ठीक कहती हैं, पुरुष के पास न शेयरिंग का सुख होता है, न अभिव्यक्ति की आजादी. दरअसल उसके पास बतिया कर सुकून देने और पाने की न भाषा है, न संवेदना. खोखला अहंकार है बस, जो कानफोड़ू गूंज बन कर अपनी ही रिक्तियों का ऐलान करता घूमता है.’’ महेश्वर ने कहा तो उसकी खिसियानी हंसी में मुझे भीतर तक भिगो डालने वाली तरलता महसूस हुई.

कुछ देर चुप रहे महेश्वर मानो कन्फैशन के सुख को घूंट-घूंट पी रहे हों. फिर बोले, ’’कहानी में ज्यादातर मैं नेपथ्य में हूं, लेकिन आप चाहेंगी तो हर स्थिति में मालती के साथ मुझे भी मौजूद पाएंगी.’’ फिर एक स्निग्ध उजास से उनका चेहरा कांतिमान हो गया – “आप यह भी कह सकती हैं कि नेपथ्य में रह कर अपने को छुपाने की ग्रंथि सिर्फ मेरी नहीं, लेखक की भी है.’’
मैं आश्वस्त हुई. इंसान के वजूद में तरलता हो तो संवाद का सेतु आप ही आप बन जाता है.
ठीक कहते हैं महेश्वर, सतही दृष्टि से देखने पर ‘गैंग्रीनकहानी एक औसत स्त्री की जिंदगी में रोज-रोज घटने वाली नीरस और अनुत्पादक घटनाओं का ब्यौरा मात्र लगती है. पति के साथ सुदूर किसी पहाड़ी प्रदेश में गृहस्थी बसाती मालती नामक इस स्त्री के पास करने को कुछ भी नया नहीं है. घर के नित्यक्रमिक कामकाज, गोद के बच्चे टिटी की देखभाल और डॉक्टर पति महेश्वर  की प्रतीक्षा ़ ़ मालती की जिंदगी जैसे इन्हीं तीन सोपानों के इर्द गिर्द घूमते हुए ठहर गई है. मालती की जिंदगी का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि उसके सामने अपने को सिद्ध करने के लिए कोई चुनौती या संघर्ष नहीं है. घर के बाहर एक भरा-पूरा संसार है, लेकिन वहां उसकी कोई भागीदारी नहीं. दिमाग में निर्बाध बचपन और अलमस्त जीवन की स्मृतियां हैं, लेकिन अब जैसे वे गुजरे जमाने की बात हो गई हैं. वह उन्हें याद करना चाहती है, लेकिन वे इतनी अप्रासंगिक हो गई हैं कि स्वयं घबरा कर अपने पैर पीछे खींच लेती है, ’’मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जंतु का तौक डाल दिया गया हो. वह उसे उतार फेंकना चाहे, पर उतार न पाए.’’ घर के कामकाज और पति की प्रतीक्षा के बीच पसरे अकेलेपन को भरने के लिए उसके पास भविष्य की एक भी योजना नहीं. मानो घड़ी की सुइयों के साथ वक्त की निरर्थक परिक्रमा करते-करते वह हांफ गई हो.
बेशक कहानी के केन्द्र में मालती और उसकी छटपटाहट है, लेकिन अपने आपको देखने और पहचानने की दृष्टि उसके पास नहीं है. इसलिए कहानी में तीसरे व्यक्ति -नैरेटर- के आगमन से कहानी की घटनाविहीनता अर्थगर्भी, सांकेतिक और प्रतीकात्मकता हो सकी है. दरअसल नैरेटर कहानी-केन्द्रित स्थितियों का ऑब्जर्वर भी है और व्याख्याकार भी. वह मालती के दूर के रिष्ते का भाई है. दोनों का बचपन संग-संग गुजरा है. सख्य भाव ने दोनों के सम्बन्धों में विष्वास और सौहार्द के साथ-साथ आत्मीयता के कोमल अहसासों को भी सींचा है. अट्ठारह मील पैदल चल कर मालती के घर पहंचा नैरेटर उसके साथ बचपन की स्मृतियों को जीना चाहता है, लेकिन पाता है कि पहले की दबंग मस्तमौला मालती कहीं खो गई है. उसकी जगह जो उत्साहहीन, निरासक्त तरुणी उसके सामने खड़ी है, उसे तो वह जानता तक नहीं. ’’क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गई?’’ नैरेटर के उत्साह पर शंका सवार हो गई है, ’’या अब मुझे दूर - इस विशेष अंतर पर रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छंदता अब तो नहीं हो सकती ़ ़ ़ पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए.’’ वह देखता है दोनों ओर से संवाद की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन थोड़ी दूर लिथड़ कर संवाद दम तोड़ देता है. फलस्वरूप साथ-साथ बैठे रह कर भी दोनों अपनी-अपनी दुनिया में रम गए हैं. थकी और उकताई हुई मालती के सामने घरेलू जिम्म्ेदारियों और अभावों का पहाड़ खड़ा है. घर में नौकर नहीं है; शहर से दूर होने के कारण ताजा सब्जी-भाजी खरीदने की सुविधा नहीं है; बरतन मांजने हैं, लेकिन नल में पानी नहीं है. शाम को सात बजे जिस समय पानी आएगा, वही समय खाना बनाने का भी होगा. एक साथ दोनों काम कैसे निबटाए वह? खाना बनाने और रसोई समेटने में रात गहरा जाएगी. वह सोच रही है और सात बजने की प्रतीक्षा भी कर रही है. अपनी नोटबुक पढ़ने में तल्लीन नैरेटर साथ-साथ मालती की गतिविधियों की  टोह भी ले रहा है. वह देखता है कि घड़ी में तीन का बजर बजते ही मालती जैसे कुछ चैतन्य हुई है और फिर निरुद्वेग स्वर में बुदबुदा उठी है - तीन बज गए!’’ चार बजे भी ठीक वही बुदबुदाहट! ’’मैंने सुना, मालती एक बिल्कुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यंत्रवत् - वह भी थके हुए यंत्र के से स्वर में कह रही है - चार बज गया़ ़ ़ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो. वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यंत्रवत् फासला नापता जाता है, और यंत्रवत् विश्रांत स्वर में कहता है कि मैंने अपने अमित शून्य पथ का इतना अंश तय कर लिया ़ ़ ़ ’’.
उफ! कैसा दमघोंटू वातावरण! नैरेटर से ज्यादा मैं ताजा हवा के लिए छटपटा उठी हूं. बेसब्री से महेश्वर की प्रतीक्षा कर रही हूं कि वे आएं तो घेरे में बंद जड़ता टूटे. न सही बाहरी दुनिया की विराटता, उसका एक मिनिएचर मॉडल ही काफी है. लेकिन मालती का ही प्रतिरूप हैं महेश्वर. चुप्पा, उकताया हुआ, लकीर का फकीर! आजादी के तमाम एकाधिकारों के बावजूद गले में गुलामी की सुरक्षा का अदृश्य पट्टा बांधे हुए स्पंदनहीन और अचेतन प्राणी! व्यावसायिक कुशलता, डिग्रियों का जखीरा और घूमने की आजादी खुद को लिबरेट करने के मानदंड नहीं हुआ करते. महेश्वर के पास उन्मुक्त क्षितिज को थामने और उस पर सवारी गांठने का न हुनर है, न चाव. उन्होंने अनंत व्योम के एक कोने में घर और अस्पताल के बीच फैली दूरी में अपनी दुनिया बसा ली है. ’’नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयां.’’ महेश्वर  बताते हैं कि अस्पताल में हर दूसरे-चौथे दिन कांटा लगने से गैंग्रीन बन गए घाव को लेकर मरीज उनके पास आते रहते हैं. उन्हें किसी की बांह, किसी की टांग काट कर इलाज करना पड़ता है. शांत-मूक मालती कहानी में पहली बार मुखर होती है और उपहास करते हुए कहती है, ’’पहले तो दुनिया में कांटे ही नहीं हांते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि कांटों के चुभने से मर जाते हों.’’ फिर मानो अपनी ही मुखरता पर लज्जित होकर ठंडी अनासक्ति में अपने को लपेट लेती है कि ’’मैं तो रोज ऐसी बातें सुनती हूं. अब कोई मर-वर जाए तो ख्याल ही नहीं होता.’’ नैरेटर स्तब्ध है कि रोज नल में देरी से पानी आना या रोज टिटी का बिस्तर से गिर कर रोना और रोज गैंग्रीन से लोगों का अपंग होना क्या एक सी घटनाएं हैं? यह मालती की संवेदनशीलता है या व्यवस्था की जकड़न से उत्पन्न यांत्रिकता? लीक से बंधी मालती जीवन के हर पल को रोज की पुनरावृत्ति में विनष्ट कर रही है. नैरेटर जैसे भय से कांप उठा है. कहीं वह भी मालती की तरह तो नहीं़ ़ ़? वह अपने भीतर अंतरंग का कोना-कोना छान आता है और आश्वस्त है कि नहीं, हर पल को गुजरे पल से अलग करने की ऊर्जा उसे नियमित दिनचर्या में बंधने से रोक रही है. उसके भीतर उछाह है क्योंकि पांवों के नीचे खुरदरी जमीन के अहसास के साथ सिर पर छाए अनंत आसमान को सतरंगी सपनों से भर देने का चाव और साधन भी हैं उसके पास. जब तब हौसला है, और आगे बढ़ने के अवसर, वह हर पल को विशिष्ट बना देना चाहता है. लेकिन मालती और महेश्वर उसकी तरह अपने जीवन के कर्त्ता और सर्जक नहीं हैं. लीक पीटने को अपनी नियति मान कर वे जीवन के सहज उच्छ्वास को खो बैठे हैं. ’’मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुंब में कोई गहरी, भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गई है, उनका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं.’’
गैंग्रीनकहानी की शक्ति सांकेतिकता में निहित है. घटनाओं और ब्यौरों से बचते हुए लेखक वातावरण को इस प्रकार सर्जित करता है कि वह पात्रों के अंतःव्यक्तित्व का रूपक बन जाता है. उदाहरण के तौर पर नैरेटर के दो वक्तव्यों को लिया जा सकता है. पहला वक्तव्य कहानी का शुरुआती वाक्य है जो नैरेटर के ऑब्जर्वेशन के रूप में पाठक के सम्मुख आता है. मालती के घर में घुसते ही नैरेटर को महसूस होता है कि ’’मानो उस पर किसी शाप की छाया मंडरा रही हो, उसके उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य  किंतु फिर भी बोझिल और प्रकंपमय और घना सा फैल रहा था.’’ दूसरा वक्तव्य कहानी के अंतिम हिस्से में निष्कर्षात्मक मूल्यांकन के रूप में आया है जहां नैरेटर को संतोष है कि उसने मालती-महेश्वरर की यांत्रिक एवं अवसादपूर्ण दिनचर्या और सम्बन्धों के मूल कारण को समझ लिया है. लेकिन नैरेटर के साथ पूरी कहानी को तल्लीनतापूर्वक पढ़ लेने के बावजूद पाठक उस छायाको नहीं देख पाता. दरअसल इस दम्पती के जीवन को घुन की तरह खोखला करती छायाको समझने के लिए कहानी में से ही कुछ संकेतों को विश्लेषित करना जरूरी है. पहला संकेत मालती से अपने सम्बन्धों का खुलासा करते हुए नैरेटर का वक्तव्य है - ’’हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदता रही है. वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बंधनों में नहीं घिरा.’’ दोनों के स्वतःस्फूर्त जीवंत सम्बन्धों के विपरीत मालती-महेष्वर के सम्बन्ध नीरस-निर्जीव हैं. इसका मुख्य कारण है परंपरागत भारतीय परिवारों के दम्पतियों की तरह उनके सम्बन्ध में भी स्पेस का अभाव, जिसे सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदताके अभाव का नाम भी दिया जा सकता है. लेखक ने कहा नहीं है, लेकिन शब्दों अथवा शिकायतों का सहारा लिए बिना दोनों को एकल एवं असम्पृक्त भाव से अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाते हुए दिखाया गया है. साथ रहते हुए भी एक-दूसरे से अलग बने रहने की यह स्थिति धीरे-धीरे संवादहीनता को जन्म देती है जो संवेदनहीनता में ढल कर सम्बन्ध को यांत्रिकता में तब्दील कर देती है. परिवार के मुखिया, अर्जक सदस्य और शिक्षित अर्थात् विवेकशील होने के नाते महेश्वर  की स्थिति श्रेष्ठ है जबकि महेश्वर  के आश्रय में रहने वाली मालती की दिनचर्या उसके परिवार और सुविधाओं का ध्यान रखने के दायित्व से बंधी है. दो अलग-अलग धरातलों पर खड़े पति-पत्नी चाह कर भी सख्य भाव की स्वच्छंदता से अपने को मुक्त एवं समृद्ध नहीं कर पाते.
मैं एक बार फिर कहानी से छिटक कर अलग जा पड़ती हूं. इस बार स्मृति में अज्ञेय की ही एक और कहानी पगोड़ा वृक्षदस्तक दे रही है. पत्नी सुखदा चाह कर भी पति के साथ अंतरंगता महसूस नहीं कर पाती, बल्कि सतीत्व की सारी परिभाषाओं को अपने ऊपर लाद कर शर्मसार भी है कि पति की उपस्थिति में घुटन, कुढ़न, झुंझलाहट और उद्विग्नता महसूस करने वाली उसकी शख्सियत पति के काम पर चले जाने के बाद सुकून क्यों महसूसती है? कारणों की पड़ताल में वह स्थिति के भीतर जितना गहरा उतरती चलती है, उतना ही आहत और मुक्त एक साथ होती चलती है, क्योंकि पाती है कि ठीक ऐसी ही अजनबियत (जिसमें उपेक्षा का अतिरिक्त रेशा भी जुड़ा हुआ है) उसे लेकर उसके पति के भीतर भी है. तो क्या दांपत्य संबंध धर्म का आवरण पहना कर मुकर्रर किया गया सामाजिक-दैहिक समझौता भर है? लेकिन संबंध की बुनियादी शर्त तो हार्दिकता है न! तो क्या हार्दिकता के अभाव को ढांपने के लिए ही हम जोर-शोर से भारतीय संस्कृति के महिमामंडन के ढोल पीटना शुरु कर देते हैं?
मैं अपनी ही लगाम कस कर फिर से गैंग्रीनकहानी पर केंद्रित हो जाती हूं. छाया को समझने के प्रयास में कहानी में निहित दूसरे संकेत को पकड़ने के लिए मालती के अतीत और वर्तमान को एण्क-दूसरे के बरक्स रख कर देखने लगती हूं. एक ओर हर रोज किताब से दस-बीस पन्ने फाड़ कर पिता के सामने धृष्टतापूर्वक कभी न पढ़ने की घोषणा करने वाली बालिका मालती है तो दूसरी ओर अखबार में लिपटे आमों को एक ओर रख कर उस अधूरे बासी टुकड़े को पूरी तल्लीनता से पढ़ने की व्यग्रता हैकि दुनिया के किसी हिस्से की आधी-अधूरी खबर पढ़ कर वहां घूम आने का वर्चुअल सुख तो पा सकी. मालती के लिए जिंदगी नीरस ही नहीं, भविष्यहीन भी हो उठी है. उसका आज हर रोज एक ही रंग, स्वाद और पोषाक के साथ आता है. भविष्य के नाम पर बेहतरी की कोई उम्मीद बाकी नहीं, मानो बंद गली के आखिरी मकान में कैद है वह. मालती की जिजीविषा अपने लिए बाहरी दुनिया में कोई बेहतर भूमिका पा लेना चाहती है. जैनेन्द्रकुमार के उपन्यास सुनीताकी नायिका की तरह पूरी दुनिया से पीठ करके वह गृहस्थी में मुदित भाव से लिप्त नहीं हो सकती. वह जानती है, बाहर उत्तेजना और रोमांच नहीं, संघर्ष और असफलताएं हैं, लेकिन उनके बीच से गुजर कर अपने सपनों को पूरा करने की एक आस और सक्रियता भी है. गृहस्थी की नित्यक्रमिक दिनचर्या में जाखिम और असुविधा नहीं, लेकिन ऊब भरी अनुत्पादक जिंदगी जीने की यंत्रणा अवश्य  है. यह यंत्रणा यांत्रिकता बन कर मालती को स्वयं अपने भीतर के स्पंदनों से काट रही है. ’’रोज ऐसे ही गिरता है’’, अपने चोटिल शिशुके क्रंदन पर मालती का ठंडे लहजे में कंधे झटका देना मालती की हृदयहीनता को नहीं दर्शाता , मनुष्य के यंत्र में विघटित हो जाने की त्रासदी को व्यक्त करता है.
तीसरा संकेत महेश्वर की बात से उठाती हूं कि उसके मरीज पहले कांटा गड़ने से पैदा हुए मामूली से घाव के शिकार होते हैं, फिर देखते ही देखते गैंग्रीन के घातक रोग की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठते हैं. यानी कांटा अमूमन हर व्यक्ति की आवृत्तिपरक अनुत्पादक दिनचर्या का दंश है. परंपराओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के दबाव के कारण वह अनजाने ही इस दंश को नियति मानने लगता है. परिणामस्वरूप व्यवस्था के समानांतर अपनी हताशा, अवसाद या भीतरी अकुलाहटों को सुनने-समझने की कोशिश नहीं करता. अवसाद घातक बीमारी का रूप लेकर उसे मानसिक-वैचारिक रूप से अपाहिज बना देता है. अपनी जड़ता में घिर कर वह उस कांटे के चरित्र को समझ ही नहीं पाता जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के रूप में परिवार के ढांचे को, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को और व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विष्वास और सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध की अवधारणा को जर्जर कर रहा है.
सारी विडंबना अपनी विवशता के स्वीकार की है जो या तो शिकायतों का पुलिंदा खोल कर विलाप में सुख पाती है या अवसाद बन कर घुन की तरह अपनी ही रचनात्मक क्षमताओं को खाने लगती है. रात के सन्नाटे में चांदनी में नहाए आसमान के नीचे लेट कर नैरेटर प्रत्यक्षतया प्रकृति के सौन्दर्य को निहार रहा है, लेकिन सांकेतिक ढंग से वह मनुष्य की प्रवृत्ति और नियति को दो भिन्न कोणों से विश्लेषित कर रहा है. सबसे पहले वह देख रहा है कि ’’उस सरकारी क्वार्टर की दिन में दिन में अत्यंत शुष्क और नीरस लगने वाली, स्लेट की छत भी चांदनी में चमक रही है, अत्यंत शतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चंद्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो ़ ़ ़ ’’ यह बिंब दारुण यथार्थ को उसकी तमाम विकृतियों के साथ देखने का निमंत्रण नहीं देता, बल्कि परंपरा, पुनर्व्याख्या या विस्मरण की चादर चढ़ा कर उसका महिमामंडन करता है ताकि भदेस यथार्थ के नुकीले पहलुओं से बचा जा सके. यह अवस्था यथास्थितिवाद का घोषणा करती है. ’’नीरव उड़ान भरते हुए चमगादड़ोंका सुंदरदीखना स्थिति का सच नहीं है, ‘प्रकाश के धुंधले नीले आकाशकी पृष्ठभूमि में रचीगई प्रवंचना है. नैरेटर के जरिए लेखक ने बिंब को प्रतीक में रच कर और फिर प्रतीक में व्यंग्य भर कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की गहरी पड़ताल की है. यथार्थ और आरोपित यथार्थ के बीच जीवन जीती मानवीय संवेदनहीनता मालती को प्रतीक रूप में ग्रहण कर उस विकराल स्थिति की ओर संकेत करती है जहां चेतना और नेतृत्वपरक सक्रियता के अभाव में व्यक्ति महिमामंडन के छद्म को तो समझता है, लेकिन उससे दो-दो हाथ नहीं कर पाता. कहानी में एक गृहिणी, पत्नी और मां के रूप में मालती की ऊब और छटपटाहट बुनी गई है, लेकिन कहानी में निहित अंतर्ध्वनियां मालती को अपदस्थ कर इन तीनों भूमिकाओं के प्रति समाज और व्यवस्था के दृष्टिकोण को समझने का आग्रह करती हैं. मां के रूप में परिवार में स्त्री का स्थान सर्वोच्च माना जाता है. पत्नी के रूप में अर्धांगिनी का दर्जा पाकर वह परिवार के ताने-बाने में अनिवार्य अंग की तरह मौजूद है. बिन घरनी घर भूत का डेराजैसी उक्तियों के साथ अपने महत्व को निर्विवाद रूप से प्रतिपादित करती है. किंतु वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्वहीनता, निर्णय-अक्षमता और पराश्रितावस्था को उसके व्यक्तित्व की बुनियादी आवष्यकताएं बना दिया जाता है ताकि हाशिये  पर रखना आसान हो जाए. महेश्वर  अर्थात् पुरुष की स्थिति भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मालती अर्थात् स्त्री से भिन्न नहीं. रूढ़ भूमिकाओं के पालन करने के श्रेष्ठता अहंमें बंध कर वह भी लगभग निर्णयहीन स्थिति में एकरस, निरर्थक दिनचर्या जीने को अभिशप्त है. लेखक बता देना चाहता है कि अनुत्पादक आवृत्तिपरक भूमिका में अपने को दोहरा-बिसरा कर शून्य होती हर मानवीय अस्मिता के जीवन को ढंके हुए है अवसाद और निरर्थकता बोध की यह छाया. मालती और महेश्वर  की ठहरी हुई जिंदगी को लेखक इसीलिए उतने ही ठहरे और ऊबे ढंग से चित्रित करते हैं ताकि पाठक अपनी चिर-परिचित दिनचर्या को एक नई निगाह से देख कर स्वयं से पूछ सके कि निरर्थकता बोध का मूल कारण क्या है? कि क्या वह जानता है कि एक अजीब किस्म के अमित शून्य पथमें बंध कर अपना अमूल्य जीवन खांए जा रहा है वह? कि क्या निरर्थकता बोध से उबरने के लिए उसने अपनी ओर से कोई पहलकदमी की है? कहानी बेहद सूक्ष्म अर्थव्यंजनाओं से गुंथी है, इसलिए पाठक को लेखक से दूर छिटक कर स्वयं अपना विश्लेषणात्मक पाठ बुनने के कलिए प्रेरित करती है. स्पष्ट है कि नैरेटर के ऑब्जर्वेशन का यह अंश स्त्री, और पुरुष को भी, अपनी स्थिति पहचानने का विश्लेषणात्मक विवेक देता है.
पहचान के बाद प्रतिरोध का क्षण आता है. प्रतिरोध प्रतिशोध में ढल कर स्खलित भी हो सकता है और सृजनात्मक सक्रियता लेकर किसी स्वस्थ वैकल्पिक व्यवस्था का संकेत भी कर सकता है. अज्ञेय मूलतः आषा, उमंग और क्रांति के कवि हैं. प्रकृति में मनुष्य की गति और दिशा देख कर वे हर विसंगति से टकराने का माद्दा अपने भीतर पाते हैं. उन्हीं के अनुरूप है उनका नैरेटर जो मालती-महेष्वर की तरह नींद की बोझिल खुमारी में डूब कर प्रकृति-प्रदत्त संदेशों  को अनसुना नहीं करता. वह देखता है ’’दिन भर की तपन, अशांति, थकान, दाहपहाड़ों में से भाप की नाईं उठ कर वातावरण में खोए जा रहे हैं, और ऊपर से एक कोमल, शीतल सम्मोहन, आह्लाद सा बरस रहा है जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं  ने अपनी चीड़-वृक्ष सी भुजाएं आकाश की ओर बढ़ा रखी है.’’ लेखक/नैरेटर भी अपनी भुजाएं उठा कर समूचे आकाश  को थाम लेना चाहता है. ऊपरी तौर पर लेखक की यह आकांक्षा भले ही यूटोपिया लगे, लेकिन वास्तविकता यह है कि हर लड़ाई बेतुकी लगने वाली ऐसी कल्पनाओं के सहारे ही लड़ी जा सकती है. व्यवस्था की बेड़ियों को काटना इतना सरल नहीं क्योंकि सामूहिक चेतना के बिना जनांदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता. लेखक को समाज की भीतरी तह तक फैली जड़ता और परंपरा के स्वीकार की स्थिति का भान है, फिर भी वे सपने देखने का जोखिम उठाते हैं.निश्चय ही वे जानते हैं कि एक ही स्थान, एक ही कालखंड में पास-पास खड़े होने पर भी मालती और  नैरेटर अपनी वैचारिक सोच और भविष्य-दृष्टि के कारण बहुत दूर हैं. निष्चय ही मालती ने वह सब नहीं देखा जो पल की एक कौंध में नैरेटर ने देख लिया. मालती के पास अपनी धुरी से छिटक कर नक्षत्रों के पार से आने वाले मौन निमंत्रणों को सुनने-गुनने का न अवकाश है, न चेतना. ’’मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चंद्रमा की चंद्रिका के लिए, एक संसार के सौन्दर्य के लिए रुकने को तैयार नहीं था.’’ लेखक के लिए यह हताशा का बिंदु नहीं है, जड़ता से जूझने की चुनौती है. इस दृष्टि से कहानी को पुनः विश्लेषित  करें तो यह मध्यमवर्ग की एकरसता के कारण उत्पन्न वैचारिक-मानसिक जड़ता की कहानी नहीं रहती बल्कि स्थिति के प्रति सचेतन और सक्रिय प्रतिरोध के आह्वान की कहानी बन जाती है. प्रतिरोध की दिशाओं का आरेखन लेखक को नहीं, स्वयं समाज को करना होगा. चूंकि पाठक उसी समाज का एक अहम हिस्सा है, इसलिए लेखक ने कहानी को संवाद और संवाद को चुनौती बना कर पाठक को थमाया है.
अज्ञेय जिस कालखंड में अपनी रचनाओं और क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ सक्रिय रहे हैं, वह कालखंड परतंत्र देश को राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता दिलाने के साथ-साथ स्वतंत्र भारत में समाज के सामाजिक गठन को भी सुदृढ़ और समतामूलक बना लेना चाहता था. दलितों के साथ-साथ स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार के प्रति इस बृहद् कालखंड में एक विशेष आग्रह दिखाई पड़ता है. रोजमर्रा की चिरपरिचित जिंदगी को प्रचलित मुहावरों के जरिए पढ़ना और लैंगिक या जातिगत दुराग्रहों के साथ देखना न्यायोचित नहीं माना जा रहा था. इसलिए अति परिचित ढर्रे को नितांत नई आंख से देखने का चलने बढ़ा. इस क्रम में उन दरकनों पर ध्यान केन्द्रित किया गया जो एक लिंग/धर्म/वर्ण/सम्प्रदाय के नागरिक अधिकारों में कटौती करती थी. स्पष्ट है कि रोज़कहानी स्त्री के संदर्भ में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की समीक्षा का अवसर प्रदान करती है. संवेदना के स्तर पर यह कहानी एक ओर जहां जैनेन्द्रकुमार की कहानी पत्नीका विस्तार है तो वहीं प्रेमचंद की कहानी बड़े घर की बेटीका विलोम है जहां परंपरागत आदर्श भारतीय स्त्री की छवि को सुदृढ़ करने की कोशिश  में स्त्री की व्यक्तित्वहीनता को महिमामंडित किया गया है.

कहानी के प्रभाव को स्पष्ट एवं सांकेकि बनाने में भाषा का सर्जनात्मक उपयोग और कलात्मक सधाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है. मनःस्थितियों को बिंबों के जरिए उभारा गया है और कथाविहीनता को एक-दूसरे से असम्बद्ध छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से. पात्रों की वैचारिक-मानसिक जड़ता के प्रसार को एक स्तर पर संवादहीनता की स्थिति के माध्यम से उकेरा गया है तो दूसरे स्तर पर ठहरे हुए बोझिल वातावरण की सृष्टि करके. लेखक की गहरी और मार्मिक अंतर्दृष्टि के साथ निबद्ध होकर ये समूचे प्रसंग बिंबात्मकता और काव्यात्मकता के सोपानों से गुजरते हुए प्रतीक में ढल जाते हैं. इसलिए कहानी अंतिम पाठ में एक स्त्री - मालती-  की नित्य क्रमिक दिनचर्या से उत्पन्न एकरसता और अनुर्वरता की कहानी नहीं रहती, जड़ व्यवस्था के शिकंजे  में फंसे मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी बन जाती है. यह कहानी प्रासंगिक है क्योंकि देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यक्ति को अपने भीतर उतर कर अपनी स्थिति से साक्षात्कार करते रहने की निरंतरता का संदेश देती है.
________________

स्पिनोज़ा : नीतिशास्त्र - ३ - (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)

$
0
0






महान दार्शनिक स्पिनोज़ा(Baruch De Spinoza : २४ नवम्बर १६३२-२१ फ़रवरी १६७७)की प्रसिद्ध कृति नीतिशास्त्र’ (Ethics : १६७७) का प्रत्यूष पुष्करऔर प्रचण्ड प्रवीरद्वारा किया जा रहा हिंदी अनुवाद आप   समालोचन पर लगातार पढ़ रहे हैं.

जटिल दार्शनिक अवधारणाओं का हिंदी में अनुवाद अपने में एक चुनौती है. ये दोनों युवा अध्येता इस गुरुतर कार्य में जुटे हुए हैं. स्पिनोज़ा के नीतिशात्र के प्रस्तावित हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अपने आप में एक ऐतिहासिक कार्य होगा.

आज प्रत्यूष पुष्करका जन्म दिन भी है. समालोचन की तरफ से उन्हें बहुत बहुत बधाई.




स्पिनोजा :  नीतिशास्त्र (३)  
अनुवाद

 प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर


Part I.
Concerning God.

भाग
ईशकेबारेमें
(तीसराहिस्सा)


  

सहजि सहजि गुन रमैं : सरबजीत गरचा

$
0
0
सरबजीत गरचा हिंदी और अंग्रेजी में कविताएँ लिखते हैं. मराठी से हिंदी और अंग्रेजी में उनके किये अनुवाद सराहे गए हैं. यहाँ उनकी पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं.

इन कविताओं में सादगी है. इधर की हिंदी कविताओं में वक्रोक्ति का जो अतिवाद फैला हुआ है, और जिसकी अपनी एक रीति निर्मित हो गयी है और जो अब उबाने भी लगी है.

इन कविताओं की सहजता में ताज़गी है, सच्चाई है. इस काव्यांश की तरह

“आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा ” 


 सरबजीत गरचा की कविताएं             





ख़ुश रहो

दीवारों पर पलस्तर पूरा हो गया है साहब
अब हम चलते हैं
आप पानी मारते रहना
पानी जितना रिसेगा
उतनी ही मजबूत होगी दीवार
यह कहकर उस राजमिस्त्री ने
उस दिन की मज़दूरी के लिए
अपना हाथ आगे बढ़ाया
पिता ने पैसे थमाए और
धीरे से बंद कर दी मिस्त्री की मुट्ठी
मानो कह रहे हों इस घर की याद
अब तुम्हारे हाथ में है
इसे बड़े जतन से रखना

ताज़े पलस्तर की गंध से
पूरा घर महक रहा था
ठंडी दीवारों को बार-बार
हाथ लगाने और उनसे सटकर
खड़े रहने का मन करता था

छूने पर लगता जैसे
दीवार के ठीक पीछे खड़ा है मिस्त्री
मैं उससे कुछ कहना चाह रहा हूं
लेकिन वह मुझे सुन नहीं पा रहा है 
दूसरी तरफ़ जाने का भी कोई फ़ायदा नहीं
जब तक मैं वहां पहुंचूंगा वह जा चुका होगा  

सालों बाद अब उभरने लगी हैं
घर में दरारें
ख़ुश रहो कहना जो भूल गया था मिस्त्री को
और वह भी शायद किसी छोटी सी बात पर
नाहक गुस्सा होने से बच नहीं पाया होगा

उसने ज़ोर से भींची होगी अपनी मुट्ठी
तभी तिड़क गई होगी
उसके हाथों में संजोई
मेरे घर की स्मृति

अब मैं किसी को ख़ुश रहो
कहना नहीं भूलता




घर

जब लूंगा आख़री सांस
तब किस किताब का
कौन-सा पन्ना होगा खुला
आंखों के सामने?

किस कविता की किस पंक्ति पर
लगी होगी अंतिम टकटकी?

शायद एक ही विचार करेगा
दिल में रतजगा
निर्दोष पंक्तियों के सदोष रचेता को
क्यों न लगा पाया भींचकर गले

ढूंढता रहा सपनों के लिए जगह
शब्दों के लिए वजह
जो कुछ पाया
पुतलियों ने पिघलाया

यही तो थी वह जगह
जहां सपने बन जाते हैं
बिना पते वाली चिट्ठियां

था कोई डाकिया जो आता था
पीछे वाले दरवाज़े से
कभी दिखाई नहीं दिया वह

मैं भी कैसे कर सकता था दावा
कि जो चिट्ठियां मुझे मिलीं
वो मेरी ही थीं

दिन में जिनसे बात न कर सका
वही दोस्त मुझे दिखते रहे सपने में
एक धीमी नदी में छोड़ी
उनकी काग़ज़ की कश्तियां
मुझे रह-रहकर मिलती रहीं
मेरी भी मिली होंगी
कुछ और दोस्तों को
जिन्हें मैं किनारे बैठकर
देख नहीं सका था

पानी स्याही को मिटा नहीं पाया
शायद उसे भी कोई
लिखा हुआ संदेश भा गया था

संवाद नहीं हुआ
फिर भी कुछ पतों पर होता रहा
बातों का लेनदेन हमेशा

वही नदी न भी आई हो
सभी दोस्तों के सपने में
फिर भी सब ने दी
उस अदृश्य डाकिये को दुआ
जिसने बनाए हमारे घर
बिना पते वाली चिठ्ठियों के गंतव्य

बाक़ी घरों से मन ही मन जुड़ा हर घर
बन गया कवि का घर




अंतराल के बाद

लंबाई चौड़ाई गहराई
और इन्हें सुई की तरह बेधता समय
मिलकर बनते हैं चार आयाम
जिन्हें भौतिकीविद काल-अंतराल कहते हैं

इस काल-अंतराल में पनपते हैं सारे दु:स्वप्न
जो बार-बार हमसे टकराते हैं
नींद उन्हें बांधने में हमेशा नाकाम रहती है
दु:स्वप्न घूमते रहते हैं बेपरवाह
घुलते जाते हैं तेज़ी से बढ़ रही भीड़ में
डालते हैं एक विशाल काला परदा
दुनिया के सारे सुंदर दृश्यों पर

हमारी चेतना के रेशों से बुना धागा
सुई के छेद में एक ही तरफ़ से डाला जा सकता है
उस पर हमारी मर्ज़ी नहीं थोपी जा सकती
उसकी यात्रा की दिशा हमेशा
भूत से भविष्य की ओर रहती है
फिर भी दु:स्वप्न उससे जुड़े रहते हैं

हमारा अस्तित्व सुई के छेद के आकार
और गहराई में क़ैद है
उस महीन खिड़की में
वर्तमान सिर्फ़ एक इंतज़ार है

धागा हमें छूकर गुज़रता है
और उस पर लगी कालिमा को हम
काजल मानकर लगा लेते हैं अपनी आंखों में
लेकिन हम उस पर सवार होकर
या उसके सहारे झूलकर
किसी भी दिशा में नहीं जा सकते

इसके बावजूद दूर भविष्य में
हवा चाहे जितनी ख़ुश्क हो जाए
धागे में जगह-जगह समाई नमी को
सुखा नहीं पाएगी
धागे को आंखें मूंदकर छूने वाले हर प्रेमी को
एक दिन दिखाई देगी
सुई के छेद से छनकर आती स्वछ निर्मल रोशनी
जो कर देगी पृथ्वी पर पानी की
प्रत्येक बूंद को इतना प्रज्ज्वलित
कि बूंद-बूंद में झलकने लगेंगे एक के बाद एक
खिड़की के उस पार के समय में समाए वो सारे क्षण
जिनमें उसके अनगिनत अपनों ने बहाए थे आंसू
और किया था रोशनी को
दु:स्वप्नों की कालिमा से मुक्त




सलेटी धुआं

मेरे दादाजी 30नंबर ब्रैंड की बीड़ी पिया करते थे
पर कहते उसे एक नंबरी थे
बीड़ी के बंडल पर एक तस्वीर छपी होती थी
जिसमें एक जवान मर्द का दमकता चेहरा होता था

बेदाग़ माथा
सर के बाल पीछे काढ़े हुए
पैनी निगाह
और ज़बरदस्त अंदाज़
ये सब 30नंबर बीड़ी से ही मिलेगा
गोया यही उस तस्वीर का आदमी
अपने बंद होंठों से कहता था
हांलाकि उसके चेहरे की आकृति के इर्द-गिर्द
धुंए का नामो-निशान नहीं दिखता था
मुझे शक़ होता था कि वह
सचमुच बीड़ी पीता भी है या नहीं

ईंट की छोटी-सी दीवार को ही
बेंच बनाकर उस पर बैठा एक छैल-छबीला
गर्दन को थोड़ा टेढ़ा करके
बीती हुई शाम और धीरे-धीरे आती हुई
रात की ट्यूबलाइट वाली रोशनी में
अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से
बीड़ी पीते बुज़ुर्ग और
उसके पोते-पोतियों की रेलपेल को
घंटों देखने-सुनने की क़ाबिलियत रखता था
रबर के खिलौनों को 
ऊबने की सहूलियत जो नहीं होती

वह दबाने पर आवाज़ करने वाला गुड्डा था
पर उसकी दीवार की बुनियाद में लगी सीटी
ख़राब हो चुकी थी
दादाजी उसी सीटी के रास्ते
गुड्डे के शरीर में 
अपने मुंह से बीड़ी का सलेटी धुंआ
भर दिया करते और 
खिलौने को ब्लो हॉर्न की तरह दबा-दबाकर
पूरे कमरे में उस धुंए की पिचकारियां छोड़ते

कहीं आसपास ही रखे बीड़ी के बंडल पर 
छपी तस्वीर का आदमी भी
अब अपने ही कारखाने में
सूखे पत्ते में लपेटे गए तंबाकू के
धुंए से अनछुआ नहीं रह पाता था
और अब तक मैं भी अनछुआ नहीं रह पाया
नींद के सन्नाटे से जगाकर
मुझे सपनों की चहल-पहल में ठेलती
दादा की माचिस की तीली से
आती आवाज़ से

और एक तीली रोशनी से
जो दिल के बहुत पास वाली
किसी दूर की दुनिया को
जगमगाती है.


बिना कलई

आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा

कवि कभी कलई पर
आश्रित नहीं होता
बार-बार आंखों में
नौसादर झोंकने से
आंखें तो बंद हो जाएंगी
लेकिन बिना कलई वाली
आत्मा की दमक का
क्या करोगे

अस्तित्ववान हैं आज भी ऐसे धातु
जिनके लिए आग भी एक घर है
जिसमें वो सिर्फ़ धधकते हैं
दबकते कभी नहीं.
________________________

सरबजीत गरचा
कवि, अनुवादक, संपादक एवं प्रकाशक. अंग्रेज़ी में दो एवं हिंदी में एक कविता संग्रह और अनुवाद की दो पुस्तकें प्रकाशित. संस्कृति मंत्रालय की ओर से कनिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय फ़ेलोशिपप्राप्त. कॉपर कॉइन पब्लिशिंग के निदेशक एवं प्रमुख संपादक.

हिंदी-अंग्रेज़ी परस्पर अनुवाद और मराठी कविता के हिंदी एवं अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए चर्चित. अंग्रेज़ी में अगला कविता संग्रह, अ क्लॉक इन द फ़ार पास्ट,शीघ्र प्रकाश्य. 
sarabjeetgarcha@gmail.com

स्पिनोज़ा : : नीतिशास्त्र - ३ - (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)

$
0
0

















Part I.

Concerning God.


भाग
ईश के बारे में

(तीसरा हिस्सा)



PROP. XVI. From the necessity of the divine nature must follow an infinite number of things in infinite ways-that is, all things which can fall within the sphere of infinite intellect.

प्रस्ताव १६. दैवी प्रकृति के नियमितताओं से असंख्य चीज़ें अनगिणत तरीकों से निश्चित रूप से अनुसरित होती हैं,वे सभी चीज़ें जो असीमित मति के अन्तर्निहित हैं.
Proof. — This proposition will be clear to everyone, who remembers that from the given definition of any thing the intellect infers several properties, which really necessarily follow therefrom (that is, from the actual essence of the thing defined); and it infers more properties in proportion as the definition of the thing expresses more reality, that is, in proportion as the essence of the thing defined involves more reality. Now, as the divine nature has absolutely infinite attributes (by Def. vi.), of which each expresses infinite essence after its kind, it follows that from the necessity of its nature an infinite number of things (that is, everything which can fall within the sphere of an infinite intellect) must necessarily follow. Q.E.D.

प्रमाण:यह प्रस्ताव सबके लिए स्पष्ट होगा, जिन्हें याद है कि पहले दी हुई परिभाषाओं के अनुसार, मति किसी भी चीज़ के कई गुणों का अनुमान करती हैं, जहाँ से यह स्पष्ट है कि (परिभाषित चीज़ के वास्तविक सार से); और मति अधिक गुणों का अनुमान करती है, निर्धारण करती है, जितना उसके अनुपात में उस चीज़ की निर्धारित परिभाषा उसकी वास्तविकता अभिव्यक्त करती है. अब, चूँकि दैवी प्रकृति में अनंत गुणधर्म है (परिभाषा ६), जिसमें से प्रत्येक, अपने प्रकार के अनंत सार को अभिव्यक्त करती है. इसीलिए यह स्पष्ट है कि अपनी प्रकृति से अनिवार्यत: अनंत चीज़ें (जो असीमित मति के अंतर्गत आती हो) को होना होगा.
Corollary I.-Hence it follows, that God is the efficient cause of all that can fall within the sphere of an infinite intellect.

उप-प्रमेय १.अर्थात, ईश उन सभी चीज़ों का दक्ष कारण है जो असीमित ज्ञान में घेरे में आती है.

Corollary II.-It also follows that God is a cause in himself, and not through an accident of his nature.
उप-प्रमेय २.इसका अर्थ यह भी कि ईश स्वयं में एक कारण है, अपनी प्रकृति की कोई दुर्घटना नहीं.

Corollary III.—It follows, thirdly, that God is the absolutely first cause.

उप-प्रमेय ३.इसका तीसरा अर्थ यह है कि ईश निश्चितरूपेण पहला कारण हैं.

{अनुवादक की टिप्पणी: उपरोक्त प्रस्ताव का अर्थ यह हुआ कि वास्तविकता की अभिव्यक्ति बहुत से गुण-धर्मों से संयुक्त है.यह प्रस्ताव जैसे कलाकारों के लिए वास्तविकता के अनुकरण के लिये ब्रह्मवाक्य जैसा रहा है. उपन्यास मादाम बोवारी (1857) के प्रसिद्ध फ्रांसिसी लेखक गुस्ताव फ्लोवेर (
Gustave Flaubert : 1821-1880) की टिप्पणी Le bon Dieu est dans le détail” - अच्छा ईश्वर विवरणों में हैंऔर जर्मन वास्तुशास्त्री लुडविग मीस (Ludwig Mies van der Rohe : 1886 – 1969) का मशहूर कथन - ईश्वर विवरणों में हैं (God is in the details) इसी प्रस्ताव से प्रेरित सा प्रतीत होता है.}

PROP. XVII. God acts solely by the laws of his own nature, and is not constrained by anyone.

प्रस्ताव १७ . ईश केवल अपनी प्रकृति के नियमानुसार कार्य करता है
, और किसी के द्वारा विवश नहीं है.

Proof. — We have just shown (in Prop. xvi.), that solely from the necessity of the divine nature, or, what is the same thing, solely from the laws of his nature, an infinite number of things absolutely follow in an infinite number of ways; and we proved (in Prop. xv.), that without God nothing can be nor be conceived; but that all things are in God. Wherefore nothing can exist outside himself, whereby he can be conditioned or constrained to act. Wherefore God acts solely by the laws of his own nature, and is not constrained by anyone. Q.E.D.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द

constrained = विवश
प्रमाण.– हमनें अभी देखा (प्रस्ताव १६)दैवीय प्रकृति की अनिवार्यताओं या जिसे हम प्रकृति के नियमानुसार कहते हैं, अनंत चीज़ें, अनंत तरीकों से अस्तित्व या सत्ता में है, और (प्रस्ताव १५) से, ईश के बिना, कुछ भी संकल्पित नहीं है, सभी चीज़ें ईश में अन्तर्निहित भी है. इसीलिए कुछ भी उसकी परिमिति से बाहर अस्तित्व में नहीं है, और उसे विवश या सशर्त (अनुकूलित या बाध्य) नहीं किया जा सकता. अत:ईश केवल अपनी प्रकृति के नियमों से आबद्ध कार्य करता है और किसी के द्वारा विवश नहीं किया जा सकता.

Corollary I.-It follows: 1. That there can be no cause which, either extrinsically or intrinsically, besides the perfection of his own nature, moves God to act.

उपप्रेमय- १.अर्थात१. ऐसा कोई भी कारण नहीं हो सकता, जो बाह्य या आतंरिक रूप से, अपनी प्रकृति के पूर्णता के अलावा, ईश से कार्य करवा सकता है.

Corollary II.-It follows: 2. That God is the sole free cause. For God alone exists by the sole necessity of his nature (by Prop. xi. and Prop. xiv., Coroll. i.), and acts by the sole necessity of his own nature, wherefore God is (by Def. vii.) the sole free cause. Q.E.D.
उप-प्रमेय.अर्थात२. ईश ही केवल एक मुक्त कारण है, क्योंकि केवल ईश ही अपने प्रकृति के अनिवार्यता स्वरुप अस्तित्व या सत्ता में है (प्रस्ताव ११ और प्रस्ताव १५ के उप प्रमेय १ से), और केवल अपनी प्रकृति के अनिवार्यताओं से कार्य करता है (परिभाषा ७), इसीलिए ईश ही केवल मुक्त कारण है.
Note.—Others think that God is a free cause, because he can, as they think, bring it about, that those things which we have said follow from his nature—that is, which are in his power, should not come to pass, or should not be produced by him. But this is the same as if they said, that God could bring it about, that it should follow from the nature of a triangle that its three interior angles should not be equal to two right angles ; or that from a given cause no effect should follow, which is absurd.

नोट -कुछ लोग ऐसा सोचते हैं
, जैसा हमने पहले कहा है चीजें ईश की प्रकृति के अनुसार है (या ईश की शक्ति के अंतर्निहित है), कि ईश वह नहीं कर सकते क्योंकि जो नहीं हो सकते हैं इसलिये वह ईश के द्वारा नहीं पैदा किये गये. इससे वह यह सोचते हैं कि कि ईश एक मुक्त कारण है. पर यह ऐसा ही है अगर ऐसा कहा जाता कि ईश ऐसा भी कर सकते है कि त्रिभुज के तीन अंत:कोणों का योग दो समकोणों के बराबर न होता, या फिर किसी कारण से कोई कार्य न होगा, जो कि अनर्थक है.
Moreover, I will show below, without the aid of this proposition, that neither intellect nor will appertain to God’s nature. I know that there are many who think that they can show, that supreme intellect and free will do appertain to God’s nature ; for they say they know of nothing more perfect, which they can attribute to God, than that which is the highest perfection in ourselves.


अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
intellect = बुद्धि (मति)
will = संकल्प (इच्छा)(चूँकि desire के लिए भी इच्छा लिखा जा सकता है,हम will के लिये संकल्प का प्रयोग करना ठीक समझते हैं)
perfection = उत्कृष्टता
इसके अलावा, मैं नीचे यह दिखलाऊँगा कि बिना इस प्रस्तावना १७ के, कि न ही मति (बुद्धि) न ही संकल्प ईश की प्रकृति से सम्बन्धित हो सकती है. मैं जानता हूँ कि बहुत से ऐसे है जो सोचते हैं कि वे यह दिखा सकते हैं कि सर्वोपरि मति और स्वतंत्र संकल्प ईश की प्रकृति में है; क्योंकि वे ऐसा कहते हैं कि वे इनसे अधिक उत्कृष्ट कुछ भी नहीं जानते हैं जो ईश से कहे जा सकते हैं जो कि हमारे अति उत्कृष्टता से बढ़ कर हो.

Further, although they conceive God as actually supremely intelligent, they yet do not believe that he can bring into existence everything which he actually understands, for they think that they would thus destroy God’s power. If, they contend, God had created everything which is in his intellect, he would not be able to create anything more, and this, they think, would clash with God’s omnipotence ; therefore, they prefer to asset that God is indifferent to all things, and that he creates nothing except that which he has decided, by some absolute exercise of will, to create.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
omnipotence = सर्वशक्ति
will = संकल्प (इच्छा)
आगे, यद्यपि वे ईश को सर्वोपरि मतिमान मानते हैं, तब भी वे यह नहीं विश्वास करते कि ईश हर कुछ अस्तित्व में नहीं ला सकते हैं जो कि समझी जा सकने वाली वस्तुएँ हैं, क्योंकि वे ऐसा सोचते हैं कि यह ईश की शक्ति का विनाश कर देगा. यदि वे ऐसा दावा करते हैं कि  ईश ने सब कुछ बनाया है जो कि उसकी दैवी मति में था, वह कभी भी ऐसा कुछ नहीं बना सकता है जो कि ईश की सर्वशक्ति के विरुद्ध हो जाय; इसलिए, वे ऐसे विचारक यही सोचते हैं कि ईश का झुकाव किसी एक दिशा में हैं नहीं, और ईश ने कुछ ऐसा नहीं बनाया जो उसने मुक्त संकल्प में बनाया हो.

However, I think I have shown sufficiently clearly (by 
Prop. xvi.), that from God’s supreme power, or infinite nature, an infinite number of things-that is, all things have necessarily flowed forth in an infinite number of ways, or always flow from the same necessity ; in the same way as from the nature of a triangle it follows from eternity and for eternity, that its three interior angles are equal to two right angles. Wherefore the omnipotence of God has been displayed from all eternity, and will for all eternity remain in the same state of activity. This manner of treating the question attributes to God an omnipotence, in my opinion, far more perfect.

पर मुझे लगता है कि मैंने स्पष्टता से दिखा दिया है (प्रस्ताव १६ में) कि ईश की सर्वशक्ति या अनंत प्रकृति अनगिनत चीजों में अनगिनत तरहों से - यह कि सभी सम्भव वस्तुएँ अवश्य ही अनुसरण करती आयीं हैं या हमेशा अनुसरण करेंगी
, उन्हीं अनिवार्यताओं के साथ और उन्हीं तरह से जिस तरह त्रिभुज की प्रकृति निर्धारित होती है- जहाँ हम जानते हैं कि तीनों अंत:कोणों का योग दो समकोणों के बराबर होता है. इसलिए ईश की सर्वशक्ति दरअसल शाश्वत से है और उन्ही क्रियाओं के लिए शाश्वत तक यथावत रहेंगी. मैं समझता हूं कि ईश ईश की सर्वशक्ति को अच्छी तरह समझा सकता है कि इस विचार के कि कुछ ऐसी चीजें हैं जो ईश कर सकते हैं पर नहीं करने का चुनाव करते हैं.

 For, otherwise, we are compelled to confess that God understands an infinite number of creatable things, which he will never be able to create, for, if he created all that he understands, he would, according to this showing, exhaust his omnipotence, and render himself imperfect. Wherefore, in order to establish that God is perfect, we should be reduced to establishing at the same time, that he cannot bring to pass everything over which his power extends; this seems to be a hypothesis most absurd, and most repugnant to God’s omnipotence.

वस्तुत: - इस बारे में खुले ढंग से सोचे तो मेरे विरोधी ईश के सर्वशक्ति को नकारते मालूम होते हैं. क्योंकि वह यह तो मानते हैं कि ईश अनंत ऐसी चीजें समझते हैं जो कि उत्पन्न की जा सकती हैं पर ईश कभी उसे उत्पन्न नहीं कर सकेंगे. क्योंकि वह हर कुछ उत्पन्न करना जो ईश समझते हैं कि उत्पत्ति के योग्य है (उनके अनुसार) ईश की सर्वशक्ति को निचोड़ लेगी और इस तरह ईश अन-उत्कृष्ट हो जाएँगे. लेकिन इस बात को मानने के लिए कि ईश पूरी तरह उत्कृष्ट हैं
, इसलिए वे यह मानने लगते हैं कि ईश वह हर कुछ नहीं कर पाएँगे जो उनकी दैवी शक्ति के अंतर्निहित है. ईश के सर्वशक्तिशाली होने के विरोध में या इससे अधिक निरर्थक मुझे नहीं लगता कि कुछ और सोचा भी जा सकता है.

II. Further (to say a word here concerning the intellect and the will which we attribute to God), if intellect and will appertain to the eternal essence of God, we must take these words in some significance quite different from those they usually bear. For intellect and will, which should constitute the essence of God, would perforce be as far apart as the poles from the human intellect and will, in fact, would have nothing in common with them but the name; there would be about as much correspondence between the two as there is between the Dog, the heavenly constellation, and a dog, an animal that barks. This I will prove as follows.

मैं
बुद्धिऔर संकल्पके विषय में एक बिंदु और रखना चाहूँगा जिसे आम तौर पर ईश से सम्बन्धित ठहराया जाता ह. यदि संकल्प (इच्छा)और मतिदोनों ईश के शाश्वत सार से सम्बन्धित हैं, तब हमें अवश्य ही इन दोनों को अलग तरह से समझना चाहिये, जिस तरह से लोग आमतौर पर इसे समझते हैं. बुद्धिऔर संकल्पईश के सार को बनाती है, तो ये निश्चित तौर पर हमारी बुद्धि (मति) और संकल्पसे अलग है, जो कि नाम के अलावा किसी और तरह से मेल नहीं खाती. यही एक दूसरे से इससे ज्यादा नहीं मेल खाती जिस तरह से व्याध तारा मंडल (सिरियस) का श्वान तारा  एक भौंकने वाले जानवर से मेल खाता है. मैं इसे इस तरह से सिद्ध करता  हूँ :-

If intellect belongs to the divine nature, it cannot be in nature, as ours is generally thought to be, posterior to, or simultaneous with the things understood, inasmuch as God is prior to all things by reason of his causality (
Prop. xvi., Coroll. i.). On the contrary, the truth and formal essence of things is as it is, because it exists by representation as such in the intellect of God. Wherefore the intellect of God, in so far as it is conceived to constitute God’s essence, is, in reality, the cause of things, both of their essence and of their existence. This seems to have been recognized by those who have asserted, that God’s intellect, God’s will, and God’s power, are one and the same.

पहले बुद्धि को लेते हैं. हम इससे यह समझते हैं कि १. या तो यह समझने की क्रिया से पहले हैं (जैसा कि आम लोग सोचते हैं) २. या फिर यह समझने की क्रिया के बाद है. लेकिन यह दैवीय प्रकृति से सम्बन्धित है तो यह हमारी तरह नहीं हो सकती क्योंकि ईश (प्रस्ताव १६ के उपप्रमेय १ से) सभी चीजों के कार्यकारण सम्बन्ध से पूर्व है. अत: ईश की बुद्धि (मति) कुछ दर्शाती है तो वह ये कि वह वस्तु अस्तित्व में है. यह चीजों की मूलभूत प्रकृति है कि ईश की बुद्धि इस तरह से निरूपित है. इसलिए ईश की बुद्धि
, जो कि दैवी सार से बनी है, वस्तुत: सार और अस्तित्व का कारण है. कुछ लेखक इसको समझते हें इसलिए उन लोगों ने कहा है कि ईश की बुद्धि, संकल्प (इच्छा) और शक्ति एक ही है.

As, therefore, God’s intellect is the sole cause of things, namely, both of their essence and existence, it must necessarily differ from them in respect to its essence, and in respect to its existence. For a cause differs from a thing it causes, precisely in the quality which the latter gains from the former. For example, a man is the cause of another man’s existence, but not of his essence (for the latter is an eternal truth), and, therefore, the two men may be entirely similar in essence, but must be different in existence ; and hence if the existence of one of them cease, the existence of the other will not necessarily cease also ; but if the essence of one could be destroyed, and be made false, the essence of the other would be destroyed also.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
quality = विशिष्ट गुण
और इसीलिए, ईश की बुद्धि चीजों के सार और अस्तित्व का एकमात्र कारण है, ईश बाकी चीजों से उनके सार और अस्तित्व में भिन्न होने चाहिए. मैं इसकी व्याख्या करता हूँ, कोई वस्तु जो कार्य के रूप में उत्पन्न हुयी हैवह अपने कारण से उसी तरह से अलग है जो विशिष्ट गुण लेकर वह अपने कारण से उत्पन्न हुआ. उदाहरण के तौर पर, एक आदमी दूसरे के अस्तित्व का कारण बन सकता है, पर उसके सार का नहीं - वह यह कि उसकी मानवीय प्रकृति अलग होगी है - यह नहीं कि वह मानव ही न हो - यह दूसरा वाक्य तो शाश्वत सत्य है. इस तरह दोनों अपने सार में सहमति में है कि उन दोनों के पास मानवीय प्रकृति है. लेकिन दोनों अपने अस्तित्व में अंतर में हैं यदि एक का अस्तित्व नष्ट भी हो जाय तो जरूरी नहीं है कि दूसरे का भी अस्तित्व नष्ट हो जाये. पर यदि एक के सार का विनाश हो जाय और वह असत्य हो जाये - जैसे कि यह सोचा जाय कि कोई मानवीय प्रकृति है हीं नहीं, और वह मानव है हीं नहीं - फिर दूसरे का सार भी नष्ट हो जाएगा.

Wherefore, a thing which is the cause both of the essence and of the existence of a given effect, must differ from such effect both in respect to its essence, and also in respect to its existence. Now the intellect of God is the cause both of the essence and the existence of our intellect ; therefore, the intellect of God in so far as it is conceived to constitute the divine essence, differs from our intellect both in respect to essence and in respect to existence, nor can it in anywise agree therewith save in name, as we said before. The reasoning would be identical in the case of the will, as anyone can easily see.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Cause= कारण
Effect= कार्य (प्रभाव)

इसलिए यदि कोई कारण किसी कार्य के सार और अस्तित्व दोनों का निर्धारण कर रहा है, यह अपने कार्य से सार और अस्तित्व से अलग होना ही चाहिए. पर ईश की बुद्धि ही हमारी बुद्धि के सार और अस्तित्व का कारण है. इसलिए ईश की बुद्धि, जो कि दैवी सार को बनाती अवधारित की जाती है, हमारी बुद्धि से सार और अस्तित्व दोनों में अलग है और नाम के अलावा दोनों मे कोई साम्य नहीं है - यही मैंने कहा था. यह देखना आसान है कि इसी तरह हम ईश्वर के संकल्प और हमारे संकल्प में अंतर सिद्ध सकते हैं.



{अनुवादक की टिप्पणी :यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि स्पिनोजा इस तर्क में कारणकार्यवाद का सहारा लेते हैं,जो कि भारतीय दर्शनों में अधिकांशतय: वस्तु चिंतन के सम्बन्ध में प्रयुक्त किया जाता है. स्पिनोजा इस नोट में तदुत्पत्तिऔर तादात्म्यकी ही बात कर रहे हैं. स्पिनोजा का कहना है कि माँ-बेटे, बाप-बेटे का कारणकार्य सम्बन्ध तदुत्पत्ति’ (वैसी ही उत्पत्ति) का है, पर तादात्म्य’ (वैसी ही आत्मा) का नहीं. वे स्पष्ट कहते हैं कि तदुत्पत्ति का अर्थ अस्तित्व की परस्पर निर्भरता नहीं है और तादात्म्य के न होने का अर्थ गुण-धर्मों के नितांत असमानता नहीं है. इस तरह वे ईश के मति और संकल्प से मानव के मति और संकल्प की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहते हैं कि इनमें न तो तदुत्पत्तिहै न ही तादात्म्य’ - क्योंकि ईश का अस्तित्व शाश्वत है और ईश का सार अनगिणत गुण-धर्मों वाला. मानव की उत्पत्ति ईश से उसकी अनंत गुणधर्मिताया शाश्वत जैसी नहीं हुयी है.
विचारों के आधार पर ज्ञान का ऐसा निगमन भारतीय दर्शनों में अनुमान (inference)कहलाता है. कारणकार्यवाद अनुमान में मुख्य स्थान रखता है. भारतीय न्याय दर्शन में (जो वस्तुवादी दर्शन है) नैयायिकों नेकारणकार्यवादमें कारण की तीन विधाएँ निर्धारित की हैं :-
१.                        समवायि कारण  (उपादान कारण) – कार्य अपने समवायिकारण से समवाय सम्बन्ध में रहता है और उसमें पृथक नहीं है. जैसे घड़े का समवायिकारण मिट्टी है,गहने का समवायिकारण सोना या चाँदी है,कपड़े का समवायिकारण धागा है.
२.                        असमवायि कारण– जो समवाय सम्बन्ध रहते हुए कार्योत्पत्ति में सहायक हो,असमवायिकारण कहलाता है,जैसे कि कपास से धागा बनना समवायि है,धागे से कपड़ा बनना समवायि कारण है,पर कपास से कपड़ा असमवायिकारण है.
३.                        निमित्त कारण- जो अपनी शक्ति (कार्य करने की क्षमता) से समवायि कारण की उत्पत्ति करे , निमित्त कारण कहलाता है. कुम्हार, उसका चाक और दण्ड, सभी मिट्टी के घड़े का निमित्त कारण हैं. समवायि और असमवायि से भिन्न अन्यथासिद्धशून्य सभी कारण निमित्त कारण माने जाते हैं.
अद्वैत वेदांत मेंकारणकार्य का भेद तात्विक भेद न मान कर औपचारिक मानते हैं. इस मत को, विवर्तवाद कहते हैं.

धुएँ और आग (वह्नि) का सम्बन्ध कारणकार्य वाद का प्रमुख उदाहरण रहा है. प्रमाण के लिए पञ्चावयववाक्य का प्रयोग करते हैं

१. पर्वत वह्निमान है (प्रतिज्ञा)
२. क्योंकि वह धूमवान है (हेतु)
३. जो धूमवान है वह नियत रूप से वह्निमान है
,जैसे रसोइघर,भट्टी (उदाहरण)
४. पर्वत धूमवान है जिसका वह्निमान के साथ नियत साहचर्य है (उपनय)
५. अत: पर्वत वह्निमान है (निगमन)

यहाँ प्रतिज्ञा वाक्य में पक्ष में साध्य अर्थात सिद्ध की जाने वाली वस्तु का निर्देश है. हेतुवाक्य में अनुमान को सिद्ध करने वाले कारण का या साधन का निर्देश है.
उदाहरणवाक्य में हेतु और साध्य के व्याप्तिसम्बन्ध या नियतसाहचर्य सम्बन्ध का उल्लेख है. उपनय में व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता का ज्ञान होता है. पाँचवा वाक्य निगम या निष्कर्ष है,जिससे प्रतिज्ञा की सिद्धि होती है.

इस अनुमान का प्राण व्याप्ति सम्बन्धहै. धूम और वह्नि में व्याप्तिसम्बन्ध है
,पर वह्नि और धूम में व्याप्ति (नियत साहचर्य) नहीं है. सातवीं सदी के बौद्ध विचारक धर्मकीर्ति के अनुसार तादात्म्यएवं तदुत्पत्तिसम्बन्ध हेतु-साध्य का स्वभाव है और जिसका यह स्वभाव नहीं होता है उसमें अविनाभाव (स्वभाव प्रतिबद्धता – एक दूसरे के बिना न होना) नहीं रहता है. (न्यायबिंदु २.२३)

दसवीं सदी के पार्थसारथी मिश्र
,जो कुमारिल भट्ट की परम्परा के भाट्टमीमांसक हैं,धर्मकीर्ति का खण्डन करते हुए अपने ग्रन्थ शास्त्रदीपिका (?) में दो उदाहरण देते हैं- रस को पीकर रूप का अनुमान (आम के रस कोपीकर अनदेखे आम के रूप का अनुमान),वृष राशि के कृत्तिका नक्षत्र को देख कर वृष राशि के रोहिणी नक्षत्र के उदय होने का अनुमान,जिनमें न व्याप्ति है न अविनाभाव है. इन दोनों में न तो तादात्म्य सम्बन्ध है न ही कारणकार्य सम्बन्ध.

हालांकि यह बात हमें पूरी तरह ठीक नहीं लगती क्योंकि इनमें व्याप्ति नियम तो है ही. रस से रूप का अनुमान अनुभवजन्य व्याप्ति ज्ञान ही है
,वैसे ही कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्रों के उदय का नियत सम्बन्ध खगोलशास्त्र के नियमों की व्याप्ति से ही है. हालांकि यहाँ तादात्म्य और तदुत्पत्ति का अभाव है.

बौद्ध दर्शन और काश्मीर शिवाद्वयवाद में व्याप्ति सम्बन्ध निर्धारण और ग्रहण के लिये दो सार्वभौमिक नियमों पर आश्रित हैं -कार्यकारण भाव और सामानाधिकरण्यवाद
,इन्हें तदुत्पत्ति और तादात्म्य नियम कह कर पुकारते हैं. तादात्म्यनियम को स्वभावनियम और तदुत्पत्ति को हेतुहेतुमद्भाव की संज्ञा दी जाती है. यह वृक्ष है क्योंकि यह शीशम है– यहाँ पर तादात्म्यनियम और पर्वत में आग है क्योंकि वहाँ धुआँ है,तदुत्पत्तिनियम है. पहला स्वभाव-कारणता है और दूसरे में जनक-कारणता है.

दसवीं सदी के आचार्य अभिनवगुप्त ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवर्ती में इन नियम शब्द का अर्थ इस अर्थ में लेते हैं कि इसका निर्धारण एक व्यवस्था से अनुशासित और नियमित जिसे शिवाद्वयवादी नियति शक्ति कहते हैं. अभिनवगुप्त मालिनीविजयवार्तिक में लोलट नाम के गुरु का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि अनुमान के प्रामाण्य का एकमात्र निबन्धन उसका ईश्वरापेक्ष होना है.

अब स्पिनोजा जो कहते हैं कि कोई वस्तु जो कार्य के रूप में उत्पन्न हुयी है
, वह अपने कारण से उसी तरह से अलग है जो विशिष्ट गुण ले कर वह अपने कारण से उत्पन्न हुआ– इस तरह के प्रमाण में मीमांसक अपना विचार विशिष्ट तरीके से रखेंगे,ठीक बिल्कुल वैसे जैसे वे नैयायिकों का खण्डन करते हैं

   प्रमाण्यं स्वत: उत्पद्यते स्वत: ज्ञायते च.
   उत्पत्तौ स्वत:प्रामाण्यं ज्ञप्तौं च स्वत:प्रामाण्यम् .

प्रमाण्य की उत्पत्ति और प्रामाण्य का ज्ञान (ज्ञप्ति) दोनो
स्वत: (ज्ञान जनक सामग्री से) होते हैं. ज्ञान का प्रामाण्य और इस प्रमाण्य का ज्ञान दोनों ज्ञान के साथ ही उदित होते हैं और उसी सामग्री से होते हैं जिससे ज्ञान उत्पन्न होता है. मीमांसकों के अनुसार ज्ञान स्वत:प्रमाण होता है. प्रभाकर मिश्र और कुमारिल भट्ट दोनों का मत है कि ज्ञान का प्रामाण्य बाहर से नहीं आता. जबकि नैयायिक ज्ञान के लिये परत: प्रमाण मानते हैं. }

PROP. XVIII. God is the indwelling and not the transient cause of all things.

प्रस्ताव १८. ईश निबाहने/निर्वहन में हैं
, न कि सभी चीज़ों का कोई क्षणिकमात्र कारण.


अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
indwelling = निर्वहन
transient = क्षणिक

Proof. — All things which are, are in God, and must be conceived through God (by Prop. xv.), therefore (by Prop. xvi., Coroll. i.) God is the cause of those things which are in him. This is our first point. Further, besides God there can be no substance (by Prop. xiv.), that is nothing in itself external to God. This is our second point. God, therefore, is the indwelling and not the transient cause of all things. Q.E.D.

प्रमाण. –वे सभी चीज़ें जो ईश में है, ईश के द्वारा ही अवधारित हैं (प्रस्ताव १५), इसीलिए (प्रस्ताव १६, उप प्रमेय १) ईश उन सभी चीज़ों का कारण है जो उसमें अन्तर्निहित है. यह पहला निष्कर्ष है. आगे, ईश के अलावा कोई सत्त्व नहीं हो सकता (प्रस्ताव १६), अर्थ यह कि स्वयं में कुछ भी ऐसा नहीं है जो ईश से बाहर है. यह दूसरा निष्कर्ष है. ईश, इसीलिए, निबाहक है (या सभी चीजों में अन्तर्निवास करता है), सभी चीज़ों का क्षणिक कारण नहीं है. 

{अनुवादक की टिप्पणी:- चूँकि ईश सभी में निहित है, स्पिनोज़ा के इस मत कोशुरू में सर्वेश्वरवाद (panthesim) भी कहा गया.यह भारतीय दर्शनों जैसे कि अद्वैत दर्शनों में जैसे कि अद्वैत वेदांत और शिवाद्वयावाद में मुखर है.

यहाँ जैन तत्त्वमीमांसा उद्धृत करना श्रेयस्कर है जो कि ‘अनेकान्तवाद’ से सम्बन्धित है. यहाँ ‘अन्त’ पद का अर्थ ‘वस्तु’ और ‘धर्म’ दोनों से है. मतलब दुनिया में अनेक वस्तुएँ हैं और प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं. जैन मत में भौतिक जड़ पदार्थ को पुद्गल और चेतन को जीव कहते हैं, जहाँ चेतन जीव और अचेतन पुद्गल दोनों परस्पर भिन्न, स्वतन्त्र और नित्य हैं. जैन तत्त्वमीमांसा से जीव केवल मनुष्यों, पशुओं व वनस्पतियों में ही नहीं, बल्कि पत्थर और धातुओं जैसे जड़ पदार्थों में भी रहते हैं. चूँकि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, इसलिए कहते हैं कि एक वस्तु के सारे धर्मों को जान लेने से सारी वस्तुओं के सारे धर्मों को जान लिया जा सकता है. लेकिन हम कुछ ही वस्तुओं और धर्मों को जान सकते हैं, इसलिए हमारा ज्ञान सापेक्ष, अपूर्ण और सीमित है. इसी कारण से जैन ज्ञानमीमांसा ‘स्यादवाद’ से जाना जाता है. यह उदाहरण इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि तत्वमीमांसा की दृष्टि से ही ‘ज्ञानमीमांसा’ को बनाती है. तदुपरांत नैतिक दृष्टि भी इसी से संचालित होती है.

स्यादवाद की चर्चा चलने के कारण उसका थोड़ा परिचय देना भी आवश्यक है. यह ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है. इस विषय में हाथी के स्वरूप के निर्णय के विषय में चार अन्धों के पारस्परिक कलह का उदाहरण दिया गया है. जैसे एक अंधे का हाथी के पैर छूकर कहना कि हाथी खम्भे के समान है, दूसरे अंधे का हाथी के कान छू कर कहना कि हाथी सूप के समान है, तीसरे अंधे का हाथी की सूँड छू कर कहना कि हाथी विशाल अजगर के समान है और चौथे अंधे का हाथी की पूँछ को छूकर कहना कि हाथी रस्सी के समान है. प्रत्येक का कथन आंशिक रूप से सत्य है, परन्तु समग्र रूप से सभी असत्य है. जैन मत के अनुसार धार्मिक और दार्शनिक विवाद इस प्रकार के हैं.

}

PROP. XIX. God, and all the attributes of God, are eternal.

प्रस्ताव १९.ईश
, और ईश के सभी गुणधर्म, शाश्वत हैं.
Proof. — God (by Def. vi.) is substance, which (by Prop. xi.) necessarily exists, that is (by Prop. vii.) existence appertains to its nature, or (what is the same thing) follows from its definition; therefore, God is eternal (by Def. viii.). Further, by the attributes of God we must understand that which (by Def. iv.) expresses the essence of the divine substance-in other words, that which appertains to substance: that, I say, should be involved in the attributes of substance. Now eternity appertains to the nature of substance (as I have already shown in Prop. vii.); therefore, eternity must appertain to each of the attributes, and thus all are eternal. Q.E.D.

प्रमाण.ईश (परिभाषा ६ से) सत्त्व है. जो अनिवार्यत: अस्तित्व या सत्ता में है. अर्थ अर्थात (प्रस्ताव ७ से) अस्तित्व अपने प्रकृति का अनुगमन करता है, या अपने परिभाषा से (जो एक ही है) इसीलिए, ईश शाश्वत है (परिभाषा ७ से). आगे, ईश के गुणधर्म से हमें समझना चाहिए, वो जो (परिभाषा ४ से) दैवीय सत्त्व के सार को अभिव्यक्त करता है, जिसका सम्बन्ध सत्त्व से है; वह, जैसा मैं कहता हूँ, सत्त्व के गुणधर्मों में समावेशित है. अब, शाश्वतता का सम्बन्ध सत्त्व की प्रकृति से है (जैसा मैंने प्रस्ताव ७ में दिखाया है), इसीलिए, शाश्वत होने का सम्बन्ध सभी गुणधर्मों से है, और सभी गुणधर्म शाश्वत हैं.

Note
. — This proposition is also evident from the manner in which (in Prop. xi.) I demonstrated the existence of God; it is evident, I repeat, from that proof, that the existence of God, like his essence, is an eternal truth. Further (in Prop. xix. of my “Principles of the Cartesian Philosophy”), I have proved the eternity of God, in another manner, which I need not here repeat.
नोट.- यह प्रस्ताव उस तरीके से भी स्पष्ट है जिसमें (प्रस्ताव ११) मैंने ईश का अस्तित्व या सत्ता दिखाया है, यह स्पष्ट है, मैं दुबारा कहता हूँ, उस प्रमाण से, कि ईश का अस्तित्व या ईश की सत्ता, उसके सार की तरह, एक शाश्वत सत्य है. आगे (मेरे ग्रंथ देकार्त के दर्शन के सिद्धांतों के प्रस्ताव १९ से ((सत्रहवीं सदी के दार्शनिक रैने देकार्त के दर्शन पर स्पिनोज़ा का एक अन्य ग्रंथ है), मैंने ईश के शाश्वत होने को प्रमाणित किया है,उसी को फिर दूसरे तरीके सेदुहराने की आवश्यकता यहाँ मुझे नहीं लगती.

PROP. XX. The existence of God and his essence are one and the same.

प्रस्ताव २०. ईश का अस्तित्व या ईश की सत्ता और उसका सार एक ही है.
Proof. — God (by the last Prop.) and all his attributes are eternal, that is (by Def. viii.) each of his attributes expresses existence. Therefore the same attributes of God which explain his eternal essence, explain at the same time his eternal existence-in other words, that which constitutes God’s essence constitutes at the same time his existence. Wherefore God’s existence and God’s essence are one and the same. Q.E.D.

प्रमाण.– ईश (आखिरी प्रस्ताव से ) और उसके सभी गुणधर्म शाश्वत हैं, और उसके सभी गुणधर्म अस्तित्व या सत्ता को अभिव्यक्त करते है (परिभाषा ८ से). इसीलिए ईश के वो सभी गुणधर्म जो उसके शाश्वत सार को अभिप्रेषित करते हैं,दूसरे शब्दों में भी उसके शाश्वत सत्ता या अस्तित्व को व्यक्त करते हैं, वह जो ईश के सार का का निर्माण करता है, उसी समय में उसके अस्तित्व को भी निर्मित करता है. इसीलिए ईश का अस्तित्व/सत्ता और ईश का सार एक ही है.

Coroll. I.-Hence it follows that God’s existence, like his essence, is an eternal truth.
उप-प्रमेय.-इसका अर्थ यह भी कि ईश का अस्तित्व उसके सार की तरह ही एक शाश्वत सत्य है.

Coroll. II-Secondly, it follows that God, and all the attributes of God, are unchangeable. For if they could be changed in respect to existence, they must also be able to be changed in respect to essence-that is, obviously, be changed from true to false, which is absurd.
उप-प्रमेय २.दूसरा, इसका अर्थ यह भी कि ईश, और ईश के सभी गुणधर्म अपरिवर्तनीय हैं. क्योंकि अगर वो अस्तित्व के अनुसार बदल सकते तो वो सार के हिसाब से भी बदल सकते, सत्य से असत्य में भी, जो कि असंगत है.

PROP. XXI. All things which follow from the absolute nature of any attribute of God must always exist and be infinite, or, in other words, are eternal and infinite through the said attribute.

प्रस्ताव २१.   वे सभी चीज़ें जो ईश के किसी गुणधर्म की सम्पूर्ण प्रकृति से अनुसरित हैं
, अस्तित्व में हैं और अनंत हैं, दूसरे शब्दों मेंउसी गुणधर्म के माध्यम से शाश्वत और अनंत हैं.

Proof.— Conceive, if it be possible (supposing the proposition to be denied), that something in some attribute of God can follow from the absolute nature of the said attribute, and that at the same time it is finite, and has a conditioned existence or duration; for instance, the idea of God expressed in the attribute thought. Now thought, in so far as it is supposed to be an attribute of God, is necessarily (by Prop. xi.) in its nature infinite. But, in so far as it possesses the idea of God, it is supposed finite. It cannot, however, be conceived as finite, unless it be limited by thought (by Def. ii.); but it is not limited by thought itself, in so far as it has constituted the idea of God (for so far it is supposed to be finite); therefore, it is limited by thought, in so far as it has not constituted the idea of God, which nevertheless (by Prop. xi.) must necessarily exist.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
hypothesis = परिकल्पना
conditioned = सशर्त/ अनुकूलित/ बाध्य
finite = सीमित/ परिमित
प्रमाण.– परिकल्पना करें, अगर ऐसा मुमकिन हो (प्रस्ताव को खारिज करते हुए), कोई चीज़ ईश के किसी गुणधर्म से, उसके निर्धारित प्रकृति से से अस्तित्व में हैं, और साथ ही साथ, सीमित भी है, और जिसका अस्तित्व सशर्त है या कालावधि से बाध्य है, जैसे ईश का विचार, विचार गुणधर्म में अभिव्यक्त किया हुआ. अब ‘विचार’ जैसा कि माना गया है ईश का गुणधर्म है, (प्रस्ताव ९ से) अपनी प्रकृति में असीमित/अपरिमित है. लेकिन, जब यह, ईश का होना ध्येय में रखकर चलता है, तो सीमित मान लिया जाता है. इसे लेकिन तब तक सीमित नहीं माना जा सकता है, जब तक यह किसी अन्य विचार से ही परिमित न किया जाए (परिभाषा २ से), किन्तु यह स्वयं में विचार से परिमित नहीं है, जहाँ तक कि इसने ईश के विचार का संगठन किया है (जो हम अब तक सीमित मानकर चल रहें हैं); इसीलिए, यह विचार द्वारा परिमित है, क्यूंकि अभी तक इसने ईश का संगठन या निर्माण नहीं किया है, जो किसी भी परिस्थिति में (प्रस्ताव ११ से), अनिवार्यत: अस्तित्व या सत्ता में है.

We have now granted, therefore, thought not constituting the idea of God, and, accordingly, the idea of God does not naturally follow from its nature in so far as it is absolute thought (for it is conceived as constituting, and also as not constituting, the idea of God), which is against our hypothesis. Wherefore, if the idea of God expressed in the attribute thought, or, indeed, anything else in any attribute of God (for we may take any example, as the proof is of universal application) follows from the necessity of the absolute nature of the said attribute, the said thing must necessarily be infinite, which was our first point.

अब हमनें यह माना है इसीलिए, विचार ईश की अवधारणा से नहीं बनता है, और, इसी तरह, ईश का विचार अपनी प्रकृति से सहजता से अनुगमित नहीं होता है जब तक कि यह नितांत चिंतन हो (क्योंकि इसे ईश के विचार के घटक या ईश के विचार के बाहर सोचा गया है) जो कि हमारी परिकल्पना के विरुद्ध है. जब भी, यदि ईश का विचार चिंतन के गुणधर्म में अभिव्यक्त हो, या, बिल्कुल, ईश के किसी दूसरे गुणधर्म में निहित हो (जैसा कि हम कुछ भी उदाहरण के तौर पर ले लें, जिसकी सार्वभौमिक उपयोगिता हो) उस गुणधर्म की नितांत प्रकृति की अनिवार्यता से अनुगमित होता है, तब वह वस्तु अनिवार्यत: असीमित होगी, जो कि हमारा पहला बिंदु है.
Furthermore, a thing which thus follows from the necessity of the nature of any attribute cannot have a limited duration. For if it can, suppose a thing, which follows from the necessity of the nature of some attribute, to exist in some attribute of God, for instance, the idea of God expressed in the attribute thought, and let it be supposed at some time not to have existed, or to be about not to exist.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
limited = सीमित
duration = कालावधि
अर्थात, वह कोई भी चीज़ जो, किसी गुणधर्म के अनिवार्यता से अवधारित है, सीमित कालावधि से बाध्य नहीं हो सकती,. अगर हो सके तो, मान लेते है कि एक चीज़, जो किसी गुणधर्म के अनिवार्य प्रकृति से अनुगमित है, उसको ईश के किसी गुणधर्म के माध्यम से अस्तित्व में होने के लिए, जैसे कि ईश के होने के गुणधर्म ‘विचार’ में, ऐसा मान लेना कि किसी काल में यह नहीं होगा, या न होना बंद कर देगा.

Now thought being an attribute of God, must necessarily exist unchanged (by Prop. xi., and Prop. xx., Coroll. ii.); and beyond the limits of the duration of the idea of God (supposing the latter at some time not to have existed, or not to be going to exist) thought would perforce have existed without the idea of God, which is contrary to our hypothesis, for we supposed that, thought being given, the idea of God necessarily flowed therefrom. Therefore the idea of God expressed in thought, or anything which necessarily follows from the absolute nature of some attribute of God, cannot have a limited duration, but through the said attribute is eternal, which is our second point. Bear in mind that the same proposition may be affirmed of anything, which in any attribute necessarily follows from God’s absolute nature.
अब ‘विचार’ जो कि ईश का एक गुणधर्म है, उसे बिना किसी परिवर्तन के होना होगा (प्रस्ताव ११ व प्रस्ताव २० के उपप्रमेय २ से), और ईश के होने के विचार के समयसीमा से बाहर होना होगा (अगर ईश के होने का विचार अस्तित्व में न रहें, या न रह जाने वाला हो तब), बिना ईश के हुए विचार विवशतापूर्वक रह जाएगा, जो हमारे मूल परिकल्पना के विरुद्ध है, जहाँ हमनें ये माना था कि दिए गए विचार से ईश की उत्पत्ति है.
इसीलिए ईश की धारणा जो कि लिए हुए ‘विचार’ से अभिव्यक्त या अवधारित है, उसकी सीमित कालावधि नहीं हो सकती, क्यूंकि दिए हुए गुणधर्म शाश्वत हैं, जो हमारी दूसरी बात है. यह दिमाग में रखना होगा कि यही प्रस्ताव किसी भी चीज़ के बारे में पुख्ता हो सकती है, जो, ईश के नितांत प्रकृति से अवधारित है.  
PROP. XXII. Whatsoever follows from any attribute of God, in so far as it is modified by a modification, which exists necessarily and as infinite, through the said attribute, must also exist necessarily and as infinite.
Proof. — The proof of this proposition is similar to that of the preceding one.

प्रस्ताव २२. जो भी ईश के गुणधर्म से अनुसरित है, किसी प्रणाली द्वारा उपांतरित है, जो अनिवार्यत: अस्तित्व में है, असीमित है, उसी दिए हुए गुणधर्म से, अनिवार्यत: अस्तित्व में भी है, और असीमित है.

प्रमाण.– इसका प्रमाण पिछली प्रस्ताव के प्रमाण जैसा ही है.

PROP. XXIIIEvery mode, which exists both necessarily and as infinite, must necessarily follow either from the absolute nature of some attribute of God, or from an attribute modified by a modification which exists necessarily, and as infinite.
प्रस्ताव २३.सभी प्रणाली, जो अनिवार्यत: और असीमितरूप से है, या तो ईश के किसी सम्पूर्ण गुणधर्म से अवधारित है, या किसी उपांतरित गुणधर्म से किसी प्रणाली से, जो फिर से, अनिवार्यत: अस्तित्व में है, और असीमित है.
Proof. — A mode exists in something else, through which it must be conceived (Def. v.), that is (Prop. xv.), it exists solely in God, and solely through God can be conceived. If therefore a mode is conceived as necessarily existing and infinite, it must necessarily be inferred or perceived through some attribute of God, in so far as such attribute is conceived as expressing the infinity and necessity of existence, in other words (Def. viii.) eternity; that is, in so far as it is considered absolutely. A mode, therefore, which necessarily exists as infinite, must follow from the absolute nature of some attribute of God, either immediately (Prop. xxi.) or through the means of some modification, which follows from the absolute nature of the said attribute; that is (by Prop. xxii.), which exists necessarily and as infinite.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
mode = प्रणाली

प्रमाण -  प्रणाली से मेरा तात्पर्य सत्त्व के उपांतर, या वो जिससे सत्त्व स्व से इतर सारगर्भित या अवधारित होता है (परिभाषा ५), जिसका अर्थ (प्रस्ताव १५ से), यह कि वह केवल ईश में होता है, और ईश के द्वारा ही अवधारित होता है. और इसीलिए अगर कोई प्रणाली अनिवार्यत: अस्तित्व में है और असीमित है, तो इसका अर्थ यह कि वह ईश के ही किसी गुणधर्म से अवधारित है, जहाँ तक कि गुणधर्म असीमितता और अस्तित्व के अनिवार्यता को संप्रेषित करते है. एक प्रणाली, इसीलिए, जो अनिवार्यत: असीमित है, ईश के ही पूर्ण चरित्र प्रकृति के गुणधर्म से अवधारित है,या तो तात्कालिक रूप से अवधारित है या नहीं तो, किसी उपांतरण के द्वारा, जो उपांतरण उस गुणधर्म की नितान्त प्रकृति है, और जो (प्रस्ताव २२ से) अनिवार्यत: ही, और असीमित है.

PROP. XXIV. The essence of things produced by God does not involve existence.

प्रस्ताव २४. जो चीज़े ईश के द्वारा निर्मित हैं, उनके सार में अस्तित्व अन्तर्निहित नहीं है.
Proof. — This proposition is evident from Def. i. For that of which the nature (considered in itself) involves existence is self-caused, and exists by the sole necessity of its own nature.
प्रमाण. –यह प्रस्ताव परिभाषा १ से स्पष्ट है, वह जिससे प्रकृति अस्तित्व में है वह स्वयंभू (स्वकृत) है, और अपनी प्रकृति के अनिवार्यता के अनुसार अस्तित्व या सत्ता में है.
Corollary. — Hence it follows that God is not only the cause of things coming into existence, but also of their continuing in existence, that is, in scholastic phraseology, God is cause of the being of things (essendi rerum). For whether things exist, or do not exist, whenever we contemplate their essence, we see that it involves neither existence nor duration; consequently, it cannot be the cause of either the one or the other. God must be the sole cause, inasmuch as to him alone does existence appertain. (Prop. xiv. Coroll. i.) Q.E.D.

अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
scholastic phraseology = शैक्षणिक भाषा

उपप्रमेय -   इससे यह अर्थ निकलता है कि ईश न केवल चीज़ों के अस्तित्व में आने का कारणमात्र है, जबकि, उनके अस्तित्व की निरंतरता का भी. मतलब शैक्षणिक वाक्यांश या भाषा में, ईश ही चीज़ों के होने का कारण है. चाहे चीज़ें अस्तित्व में हो या न हो, हम जब भी उनके सार की अवधारणा करते है, हम देखते है कि न वो अस्तित्व न ही कालावधि से ही बाध्य होता है, परिणामत: यह किसी एक का भी कारण नहीं हो सकता. ईश ही केवल एक कारण हो सकता है. जिसमें सभी अस्तित्व सम्बन्धित हैं.

PROP. XXV. God is the efficient cause not only of the existence of things, but also of their essence.

प्रस्ताव २५: ईश केवल चीज़ों के अस्तित्व के लिए दक्ष कारण ही नहीं, बल्कि उनके सार का कारण भी है.

Proof.— If this be denied, then God is not the cause of the essence of things; and therefore the essence of things can (by Ax. iv.) be conceived without God. This (by Prop. xv.) is absurd. Therefore, God is the cause of the essence of things. Q.E.D.

प्रमाण-अगर इसे खारिज किया जाए,फिर ईश चीज़ों के सार का कारण नहीं होगा, और फिर चीज़ों का सार (स्वयंसिद्ध ४ से) ईश के बिना भी संकल्पित या अवधारित हो सकेगा. यह (प्रस्ताव १५ से) असंगत है. इसीलिए ईश ही चीज़ों के सार का कारण भी है.
Note. — This proposition follows more clearly from Prop. xvi. For it is evident thereby that, given the divine nature, the essence of things must be inferred from it, no less than their existence-in a word, God must be called the cause of all things, in the same sense as he is called the cause of himself. This will be made still clearer by the following corollary.

नोट.-यह प्रस्ताव प्रस्ताव १६ से स्पष्ट होता है. इसीलिए क्यूंकि उससे यह स्पष्ट है कि, दिए हुए दैवी प्रकृति से, चीज़ों का सार अवधारित होता है, ठीक वैसे ही जैसे उनका अस्तित्व भी, ईश सभी चीज़ों का कारण कहा जाता है, ठीक उसी रूप में जैसे वह स्वयं का कारण भी कहा जा सकता है. इसे अगले उपप्रमेय ज्यादा स्पष्ट करेंगे.

Corollary.— Individual things are nothing but modifications of the attributes of God, or modes by which the attributes of God are expressed in a fixed and definite manner. The proof appears from Prop. xv. and Def. v.

उपप्रमेय.-  अलग-अलग चीज़ें कुछ और नहीं बल्कि ईश के गुणधर्म का रूपांतरण हैं, या वो प्रणालियाँ है, जिनसे ईश के गुणधर्म एक सीमित परिमित रूप में अभिप्रेषित किये जाते है. यह प्रमाण प्रस्ताव १५ और परिभाषा ५ से निकलता है.

PROP. XXVI. A thing which is conditioned to act in a particular manner, has necessarily been thus conditioned by God; and that which has not been conditioned by God cannot condition itself to act.

प्रस्ताव २६. कोई चीज़ जो एक निर्धारित रूप में कार्य करने को बाध्य है, वह ईश के द्वारा बाध्य की गयी है, और वह जो ईश के द्वारा अनुकूलित या बाध्य नहीं, स्वयं को कार्य करने के लिए अनुकूलित नहीं कर सकता.
Proof.— That by which things are said to be conditioned to act in a particular manner is necessarily something positive (this is obvious); therefore both of its essence and of its existence God by the necessity of his nature is the efficient cause (Props. xxv. and xvi.); this is our first point. Our second point is plainly to be inferred therefrom. For if a thing, which has not been conditioned by God, could condition itself, the first part of our proof would be false, and this, as we have shown is absurd.

प्रमाण-वह जिसके द्वारा ऐसा कहा जाता है कि चीज़ें एक निर्धारित या अनुकूलित रूप में कार्य करती है वह अनिवार्यत: सकारात्मक ही होता है (यह स्पष्ट है); इसीलिए इसके सार और इसके अस्तित्व से, ईश अपनी प्रकृति से एक दक्ष कारण बनता है (प्रस्ताव २५ और १६ से), यह पहली बात हुई. दूसरी यह कि, जो कि पहले से अवधारित है, अगर कोई चीज़ ईश के द्वारा बाध्य या अनुकूलित नहीं हैं तो, वह स्वयं को अनुकूलित कर सकता है, जिससे हमारे प्रमाण का पहला हिस्सा ही गलत हो जायेगा, और जो कि हम दिखा चुके है कि अनर्थकही होगा.
PROP. XXVII. A thing, which has been conditioned by God to act in a particular way, cannot render itself unconditioned.
Proof. — This proposition is evident from the third axiom.


प्रस्ताव २७.कोई चीज़ जो ईश के द्वारा एक निश्चित रूप में कार्य करने को अनुकूलित या बाध्य है, स्वयं को इससे मुक्त नहीं कर सकता.

प्रमाण  —  यह प्रस्ताव तीसरे स्वयंसिद्ध से स्पष्ट है.

शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ

$
0
0



















हमारे समय के  महत्वपूर्ण कवि शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ आपके लिए.

शिरीष को समालोचन की तरफ से जन्म दिन की बहुत-बहुत बधाई.



शिरीष कुमार मौर्य 






भूस्‍खलन

सड़कों पर खंड-खंड पड़ा है
हृदय
मेरे पहाड़ का

वह ढह पड़ा अपने ही गांवों पर
घरों पर
पता नहीं उसे बारिश ने इतना नम कर दिया या भीतर के दु:ख ने
मलबे के भीतर दबे हुए मृतक अब उन पर गिरे हुए पत्‍थरों की तरह की बेआवाज़ हैं
मृतकों के पहाड़-से दु:खों पर उनके पहाड़ के दु:ख
सब कुछ के ऊपर बहती मटमैली जलधाराएं शोर करतीं रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम
रोने और चीख़ने के प्रसंग मलबे के बाहर बेमतलब हुए जाते हैं
मलबे के भीतर तक जाती है हो चुके को देखने आतीं कुछ कारों के हूटरों की आवाज़
दिन के उजाले में लाल-नीली बत्तियां सूरज से भी तेज़ चमकती हैं
आतताईयों के जीतने के दृश्‍य तो बनता है
मगर मनुष्‍यता के हारने का दृश्‍य नहीं बनता
कुछ लोग गैंती-कुदाल-फावड़े-तसले लेकर खोदते तलाशते रहते हैं

मृतकों के विक्षत शवों के अंतिम संस्‍कार
उन्‍हीं मटमैली जलधाराओं के किनारे
उसी रूदन से कुछ अधिक
चीख़ से कुछ कम शोर के बीच होते हैं

बारिश में भीगी लकड़ी बहुत कोशिशों के बाद पकड़ती है आग
उसकी आंच में हाथ सेंकने वाले
दूर राजधानी में बैठते हैं अपनी कुर्सियों पर वहां से देते हैं बयान
उनके चेहरे चमकते हैं
उनकी आंखों के नीचे सूजन रोने से नहीं
ज्‍़यादा शराब पीने से बनती है

एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा पागल हुआ जाता है भूस्‍खलन के बाद अपने भीतर के
भूस्‍खलन में लगातार दबता हुआ
वह कभी बाहर नहीं निकालेगा अपनी मृत कविताओं के शरीर
वे वहीं मलबे में दबी कंकाल बनेंगी

कभी जिन्‍दा शरीरों की हरकत और आवाज़ से कहीं कारगर हो सकती है
मृतकों की हड्डियों की आवाज़.  





मेरा अंतत:

मेरे लोग शब्‍दों की तरह मेरी भाषा में आते हैं
हताशा, अवसाद और क्रोध से भरे
मेरे शब्‍द लोगों की तरह मेरी भाषा से बाहर जाते हैं
मेरे भीतरी भूकम्‍प, बेचैनी और दु:खों की तरह
एक तथाकथित सुखमय
प्रमुदित संसार में
बिना लज्जित हुए 
बिना डरे

मैं अभी रच रहा हूं
बच रहा हूं मेरे जर्जर होते जीवन में
मसले रोज़ नए हैं
रोज़ नई लड़ाईयां
उन्‍हें संभालने की प्रक्रिया में रोज़ मृत्‍यु कुछ दूर
चली जाती है
रोज़ मेरा पदार्थ कुछ नष्‍ट होता है
ऊर्जा कुछ बढ़ जाती है
मेरा नियतांक
प्रकाश की गति नहीं
मेरे आसपास के अंधकार की क्षति है

मैं किसी विज्ञान से कविता में आया था
चला जाऊंगा किसी दिन कविता से फिर किसी विज्ञान में
एक असफल अनाड़ी अनाम वैज्ञानिक की तरह

लेकिन मेरी स्‍मृतियां कविता में होंगी
मैं शब्‍दों के किसी सरल समीकरण में बचूंगा
मेरा अंतत:
मेरी भाषा में वास करेगा. 






मैं स्वप्न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था
(चन्‍द्रकुंवर बर्त्‍वाल और वीरेन डंगवाल की विकल स्‍मृति के लिए)

मैं स्‍वप्‍न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था

साफ़ कर दूं
कि अपनी मृत्‍यु का स्‍वप्‍न नहीं देख रहा था
स्‍वप्‍न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था

मृत्‍यु कोई बनता हुआ बिम्‍ब नहीं थी स्‍वप्‍न में
घट रही घटना थी
उसमें सुकून नहीं था बेसम्‍भाल छटपटाहट थी
उसमें आखिरी शब्‍द बोलना जैसा कुछ नहीं था
घुटती-डूबती हुई
एक चीख़ थी

मेरे और उसके बीच सहमति नहीं थी
भरपूर ज़ोर-ज़बरदस्‍ती थी
वह अपने आगोश में नहीं ले रही थी मुझे
किसी सिद्धहस्‍त अपराधी की तरह
लूट रही थी

मैं मदद की पुकार नहीं लगा रहा था
लड़ रहा था
गालियां बक रहा था
एक गाली स्‍वप्‍न और नींद के बाहर छिटक गई थी
नोच-खसोट में एक खंरोंच माथे पर उभर आई थी
कुछ बाल तकिए पर गिर गए थे
ओढ़ना ज़मीन पर था आंखें खुलते हुए पलट गई थीं

मेरे जीवन ने झकझोर जगाया मुझको
कहा किससे लड़ते हो
किसके लिए लड़ते हो
अपनी नींदें
अपने स्‍वप्‍न किन फितूरों में बरबाद करते हो
जानता हूं तुम्‍हारे शरीर में मृत्‍यु कुछ अधिक उपस्थित है
पर उससे लड़ना बेकार है 

मेरे लिए लड़ो मेरी तरह लड़ो
मैं अपने लिए अपराधी की तरह नहीं लड़ता
तुम्‍हारे शरीर पर लगा हर घाव दरअस्‍ल मेरे ही वजूद पर
लगता है
मन पर लगी खंरोंचों से रक्‍त नहीं अवसाद
रिसता है
इस अवसाद से तुम अपने लिए कुछ ज़रूरी
विलोम बना सकते हो
कुछ नहीं कई दिन इस समाज में यूं ही लड़ते हुए बिता सकते हो

जर्जर स्‍वप्‍नों में बिस्‍तर पर रोग-जरा-मरण से लड़ते नहीं
मज़बूत क़दम चलते
धरा पर दिखो 

अचानक गालियों पर उतरते हुए फिर कहा उसने-

साले लिखो
एडियां रगड़-रगड़ मरने से पहले
और सिर्फ़ लिखो नहीं जैसा लिखते हो वैसे ही बसो मेरे भीतर
लिखने के अलावा कई ज़रूरी काम हैं
मनुष्‍यवत्
उन्‍हें भी करो बल्कि पहले उन्‍हें ही करो

इस तरह
हो सकता है तुम बच जाओ कुछ और दिन के लिए
संसार में
अपने चूतियापे साकार करने की खातिर. 






कितना होना है कितना नहीं

कई लोग कितना होना है कितना नहीं के बीच फंसे हैं

धर्म कितना हो कितना नहीं
इतना कि वोट मिल जाएं लोक-परलोक सध जाएं
इतना नहीं कि बहुर्राष्‍ट्रीय होने में आड़े आए

वाम कितना हो कितना नहीं
इतना कि बौद्धिक मान्‍यता और सहानुभूति मिल जाए
इतना नहीं कि बाज़ार जाएं और जेब ख़ाली रह जाए

प्रतिरोध कितना हो कितना नहीं
इतना कि मोमबत्तियां ले देर शाम इंडिया गेट घूम आएं
इतना नहीं कि दफ़्तर से छुट्टी लेनी पड़ जाए

जाति कितनी हो कितनी नहीं
इतनी कि आरक्षण पर अपना प्रिय विमर्श सम्‍भव कर पाएं
इतनी नहीं कि कोई अधीनस्‍थ पदोन्‍नति पा सर चढ़ जाए

नारी मुक्ति कितनी हो कितनी नहीं
इतनी कि पत्‍नी नौकरी पर जाए चार पैसे कमाए
इतनी नहीं कि लौटकर थकान के मारे खाना तक न पकाए

कितना हो कितना नहीं
संतुलन बताया जाने वाला अज़ाब है
समकालीन समाज में

लोग तय ही नहीं कर पा रहे
कल में रहें कि आज में  






नींद में

नींद में मुझे सुनाई दी एक आवाज़
मुझसे किसी ने कहा उठो

मैं पूछने लगा
कहां से उठूं
नींद से उठूं
कि सपने से उठूं

जहां बैठा हूं उठूं वहां से
उठ कर क्‍या करूं
कोई नहीं बताता

उठूं तो कैसे उठूं
कंठ में प्‍यास की तरह उठूं
आंख में किरकिरी की तरह
या एकदम उठ जाऊं
एक असम्‍भव बारिश में नदियों के पानी की तरह
घरों में घुस जाऊं

किस की तरह उठूं
बिल्‍ली की तरह चपल उठूं
चुपचाप
और हो रही सुबह का शिकार कर लूं
नभ हो जाए कुछ और लाल
या आदमी की तरह ही उठूं ऊंघता हुआ
बैठ जाऊं
कि मुझसे फिर कहा जाए उठो

एक ख्‍़वाब है कविता में
मीर की तरह उस गली से उस तरह उठूं
जिसे
जिस तरह उन्‍होंने
जैसे कोई जहां से उठता है
कहा था 

नींद को कविता में बदल दूं
मुझसे कोई कहे उठो
तो नींद से नहीं कविता से उठूं

उठकर कहीं चला जाऊं बिना बताए
बिना कोई निशान छोड़े

मुझे कोई न खोजे
दुनिया में नींद और कविता से भी बड़ी चीज़ें हैं

ज्‍़यादातर बड़ी ही चीज़ें हैं.




एक अनगढ़ वृत्‍तान्‍त

हो रही सुबह के बीच चिड़ियों का बोलना
जाहिर है उसकी रोशनी में दाने और कीड़ों के बेहतर दिखने के
स्‍वागत में बोलना है
मेरा रवैया इस प्रकरण में कवित्‍वपूर्ण न होकर व्‍यवहारिक और तथ्‍यपूर्ण अधिक है

सुबह होती है
चिड़ियें बोलती हैं
पेड़ हिलते हैं
हवा चलती है

इसी होती सुबह बोलती चिड़ियों हिलते पेड़ों चलती हवा के बीच
12 बरस का एक लड़का भवाली हल्‍द्वानी रोड पर
हरसौली से खुटानी मोड़ की ओर बढ़ता है तेज़ क़दम उसे अपने काम की दुकान पर
मालिक के पहले पहुंचना है पकौडियों के लिए तेल गर्म करना है
इस तरह काम पर आते हुए
रोज़ चूल्‍हे से पहले उसके दिल सुलगा है
इसमें कोई रूपक नहीं कि उसका किशोर चेहरा सिर्फ़ आग और धुंए की आंच में नहीं
दु:ख और क्रोध से भी झुलसा है

सुबह होती है चिड़ियें बोलती हैं पेड़ हिलते हैं हवा चलती है के इस अत्‍यन्‍त कवित्‍वपूर्ण प्रकरण को
मैं इस लड़के के नाम कर दूं
ये प्राकृतिक घटनाएं अपनी जगह सुन्‍दर और अनिवार्य हैं
पर रोज़-रोज़ सुबह की धुंध से भरी उस लड़के की आत्‍मा और उसका जीवन
प्राकृतिक घटना नहीं है
ठीक उसी तरह जैसे चालीस के क़रीब पहुंचकर उतनी सुबह
मेरा कार चलाना सीखना भी कोई प्राकृतिक घटना नहीं है

मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं कार चलाना सीखूं और साथ ही
उस लड़के की जाया हो रही सुबहों से तआल्‍लुक भी रक्‍खूं
मैं अपनी सुबह में से कार निकाल दूं
तो उसकी सुबह में कितना उजाला बढे़गा मैं नहीं जानता

ये सब इतने आसान हिसाब नहीं हैं
इनमें बहुत सारा अर्थशास्‍त्र लगता है बहुत सारी सांख्यिकी
इसकी एक अपनी है राजनीति
मैं ठीक इसी बारे में बात कर रहा था कविता की शुरूआत में
जब मैंने कहा -

हो रही सुबह के बीच चिड़ियों का बोलना
जाहिर है उसकी रोशनी में दाने और कीड़ों के बेहतर दिखने के
स्‍वागत में बोलना है

और इसी एक राजनीति की राह पर मैंने स्‍वीकार किया था -

मेरा रवैया इस प्रकरण में कवित्‍वपूर्ण न होकर व्‍यवहारिक और तथ्‍यपूर्ण अधिक है

किसी सुबह या किसी उम्‍मीद के बारे में लिखी जा रही कविता के समाप्‍त होने जाने की
यही सबसे मुफ़ीद जगह है

जहां एक अनगढ़ वृत्‍तांत पूरा होता है.


_________
शिरीष कुमार मौर्य
१३ दिसंबर १९७३ 

पहला क़दम (कविता पुस्तिका - १९९५ कथ्यरूप), शब्दों के झुरमुट (कविता संग्रह २००४),
पृथ्वी पर एक जगह (कविता संग्रह २००९)
धरती जानती है (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद का संग्रह अशोक पांडे के साथ- २००६)
कू सेंग की कविताएँ (२००८ पुनश्च पत्रिका द्वारा कविता पुस्तिका )
धनुष पर चिड़िया (चंद्रकांत देवताले की स्त्री विषयक कविताओं का संचयन २०१०)
लिखत पढ़त (वैचारिक गद्य २०१२)
शानी का संसार आलोचना, जैसे कोई सुनता हो मुझे - कविता संग्रह (शीघ्र प्रकाश्य)

सम्मान
२००४ में प्रथम अंकुर मिश्र  कविता पुरस्कार ,
२००९       में लक्ष्मण  प्रसाद मंडलोई सम्मान २०११ में वागीश्वरी सम्मान
सम्पर्क :  वसुंधरा ।।।, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा, रामनगर, जिला-नैनीताल(उत्तराखंड)
पिन- 244 715 

परिप्रेक्ष्य : मैकलुस्की गंज : सतीश जायसवाल

$
0
0





















(विकास कुमार झा , उषा उथुप और सतीश जायसवाल)




कैलकटा में मैकलुस्की गंज का एक दिन                 
सतीश जायसवाल



प्रभा खेतान फाउण्डेशन, कोलकता ने विकास कुमार झा के उपन्यास -- मैकलुस्कीगंज -- पर एक पैनल डिस्कशन का आयोजन किया. उस अवसर पर वहाँ मौजूद रहना मेरे लिए एक सार्थक अनुभव था.अपने अनुभव के अतिरिक्त भी मैंने वहाँ कुछ उल्लेखनीय पाया. वृहत्तर संवेदनाओं और सन्दर्भों में उल्लेखनीय. 

अपने उपन्यास--मैकलुस्कीगंज-- पर आयोजित इस "पैनल डिस्कशन"के अपने लेखकीय वक्तव्य में विकास  ने कहा – “यह उपन्यास मैंने नहीं लिखा बल्कि मैकलुस्कीगंज ने मुझसे यह उपन्यास लिखवा लिया. इस उपन्यास लेखन के लिए मैक्लुस्कीगंज ने मुझे अपना लेखक चुना."

विकास के इस भावनात्मक वक्तव्य को मंजूर करने में मुझे थोड़ी दुविधा हुयी. उनकी इस भावनात्मकता में मुझे एक आत्मीय अधिकार भाव दिखा. दम्भ की हद तक पहुंचता अधिकार भाव. लेकिन इसे तो होना ही था. मनुष्य जाति की एक बस्ती ने अपने उपन्यास लेखन के लिए जिस एक व्यक्ति का चयन किया उसके पास इस दम्भ को तो होना ही था. मनुष्य जाति की किसी एक जीती, जागती लेकिन अपने समय के लिए अपने पीछे एक गहरा अवसाद छोड़ती बस्ती का अंततः एक उपन्यास में रूपांतरित हो जाना साहित्य लेखन की एक असाधारण घटना होगी. और उतनी ही त्रासद भी. विकास कुमार झा का उपन्यास इस त्रासद घटना का एक रचनात्मक दस्तावेज़ीकरण है. यह उपन्यास मैकलुस्की गंज का जीवित-जागृत दस्तावेज़ है. इसमें मैकलुस्की गंज स्पन्दित मिलता है.





(एक)

विकास कुमार झा का यह उपन्यास मूल हिन्दी में २०१० में ही प्रकाशित हो चुका था. उसका इंग्लिश संस्करण अभी-अभी आया है, जिस पर  यह"पैनल डिस्कशन"आयोजित है.

अंग्रेजी के इस "पैनल डिस्कशन"के लिए हिन्दी में कोई पर्याय ढूंढने से अधिक सार्थक मुझे यह लगा कि मैं उसके यथासंभव नज़दीक तक पहुँच सकूं. हिन्दी में यह नज़दीकी मुझे "रचना-भागीदारी"में मिली.

प्रभा खेतान फाउण्डेशन द्वारा आयोजित यह पैनल डिस्कशन एक उपन्यास के साथ रचना-भागीदारी का ही अवसर था. इस आयोजन में मैकलुस्कीगंज की वह पीढ़ी मौजूद मिली जो अब वहाँ से कहीं और नहीं जाने वाली. और वह पीढ़ी भी मौजूद मिली जो अब वहाँ से बाहर रह रही है फिर भी वहाँ बनी हुयी है. अपनी जातीय स्मृतियों के साथ. इन दोनों पीढ़ियों के साथ उपन्यास लेखक की जान-पहिचान उनके नामों और उनके साथ आपसी बातचीत की हद तक निर्विरोध मिली. परस्पर संवादिता का वह एक बिलकुल अनौपचारिक और खुला अवसर था जिसमें उपन्यास के पात्र भी मौजूद हैं. अपने होने का पता दे रहे हैं. अपने लेखक के साथ बातचीत कर रहे हैं एक-दूसरे के हाल-चाल पूछ,बता रहे हैं. और हम, पढ़ने वाले लोग सुन रहे हैं, देख रहे हैं !





(दो )

दिसम्बर का महीना मेरे लिए भटकाने वाला होता है. कभी, बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी अपने ऐंग्लो इंडियन समुदाय से कुछ ऐसे ही आबाद थी जैसे ऐंग्लो-इंडियन समुदाय का अपना यह गांव -- मैकलुस्कीगंज. विकास ने मैकलुस्की गंज को उनका गांव ही कहा है. और अपने उपन्यास को इस गांव की महा-गाथा कहा है. गाथा कोई एक शब्द नहीं बल्कि एक परम्परा है. प्रेम गाथाओं की परम्परा को गाथा कहा गया. ये प्रेम गाथाएं शोकांतिकाएँ होती हैं. लेकिन उनका जीवन उनके बाद तक बना रहता है. हमारे समय में सुनने और सुनाने के लिए. 

बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी कभी अपने ऐंग्लो इण्डियन समुदाय से दर्शनीय थी. हमारे यहां दिसम्बर का महीना उनसे,उनके धर्म-पद गायन से और उनकी आराधनाओं से गूंजता था.क्रिसमस के बहुत पहले से उत्सव का मौसम बनने लगता था. लेकिन अब यहां विषाद व्यापता है. इस विषाद में एक पूरी की पूरी मनुष्य जाति के विस्थापन और उसकी संस्कृति के विलोपन की नियति-कथा का वाचन सुनाई पड़ता रहता है. किसी पतझड़ की टपकन की तरह. अब बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी में ऐंग्लो-इन्डियन नहीं रहे. 

शायद मैकलुस्की गंज में भी ऐसा ही कुछ होता होगा. शायद वहाँ यह विषाद इससे भी सघन होगा. लेकिन रचना- भागीदारी के उस सत्र में वहाँ उपस्थित एक सुन्दर सी ऐग्लो इण्डियन लड़की, प्रिसिला ओ'कॉनर्सने अपनी एक कविता पढ़कर सुनाई और विषाद के अर्थ को जीवनी शक्ति में बदल दिया. ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय को हाई-ब्रिड समुदाय कहा जाता है. एक समूची मनुष्य जाति की यह पहिचान व्यथित करने वाली हैं. लेकिन प्रिंसिला अपनी इस जातीय पहिचान के विरुद्ध अपनी कविता के साथ वहाँ खड़ी हुयी. और उस युवा कवयित्री ने हाईब्रिड समुदाय की अपनी पहिचान को वैश्विक समुदाय की पहिचान में परिभाषित कर दिया. अपनी वर्णसंकरता को वैश्विकता में परिभाषित कर रही उस उस युवा कवयित्री को देखना और उसकी कविता को सुनना किसी एक असाधारण घटना का साक्षात्कार ही था.





(तीन)

यद्यपि, वहाँ तल्खी भी थी. आरंभिक वक्तव्य बिलकुल सीधे और साफ़ शब्दों में सामने आया कि ब्रिटेन ने ऐंग्लो इंडियन समुदाय के साथ धोखा किया. अपने पितृ-कुल की तलाश में भटक रहे एक मनुष्य समुदाय के भीतर इस तल्खी को तो पनपना ही होगा. यह पीड़ा उस किसी भी मनुष्य जातीय समुदाय की पीड़ा से कहीं बड़ी और गहरी है जो अपने देश की तलाश में बेज़मीन घूमते रहे हैं. लेकिन एक युवा कवयित्री ने इस तल्खी को जिस तरह एक  क्षमाशील उदारता में बदल दिया वह विस्मित करने वाला था. अपने पितृ-कुल की तलाश में कभी ब्रिटेन, कभी ऑस्ट्रेलिया की तरफ भटक रहे एक समुदाय को विश्व समुदाय का बना दिया !





(चार)

ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय के लोग पूरी दुनिया में जहां कहीं भी मिलेंगे, भारतीय मूल के ही होंगे.

और भारत में हमें उनका मूल, शायद इस कैलकटा में ही ढूंढना होगा. इसकी तार्किक सम्भाव्यताएं भारत में ब्रिटिश उपनिवेश के इतिहास के साथ सीधे तौर पर जुडी हुयी मिलेंगी. और इसका विषाद पक्ष भी कैलकटा में ही किसी शोक गीत की तरह ध्वनित होता हुआ मिलेगा. संगीत में अपने जीवन-सौंदर्य को जीने वाली इस मनुष्य जातीय समुदाय के लिए रचा गया अंग्रेज़ी का एक यह मुहावरा हिन्दी वालों के लिए भी जाना-सुना हुआ है -- नेवर से डाय... लेकिन इस समुदाय की विलुप्तिकरण का अवसाद भी अपनी पूरी सघनता में यहीं, इस कैलकटा में ध्वनित होता हुआ मिलता है. तभी ''३६ चौरंगी लेन "जैसी हिन्दी फिल्म यहां बनती हैं. अवसाद की व्याप्ति किसी भी भाषा में एक जैसी होती है. और एक जैसी सम्प्रेषित होती है. वह अंग्रेज़ी में हो, हिन्दी में हो या किसी और भाषा में हो.

ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय पर आधारित वह हिन्दी फिल्म -- ३६ चौरंगी लेन -- अभी जिनकी स्मृतियों में बनी हुयी है, शायद वो लोग इस फिल्म में एक अलग तरह की जगह-ज़मीन की तलाश को देख सके होंगे. महानगर में प्रेम के लिए एक छोटी सी लेकिन किसी सुरक्षित जगह की तलाश.

"मैक्लुस्कीगंज"पर केन्द्रित रचना-भागीदारी के इस सत्र में "३६ चौरंगी लेन"के वह युवा नायक, धृत्तिमान चैटर्जी भी उपस्थित थे. मुझे,पता नहीं क्यों लग रहा था कि इस बारीक सी तलाश पर उनसे कुछ सुनने मिलेगा. फिर भी, वहाँ जेनिफर केंडल को याद किया गया. सच तो यह है कि "३६ चौरंगी लेन"जेनिफर पर ही केंद्रित होकर रह गयी थी. वहाँ शशि कपूर को भी याद किया गया, जो अभी-अभी ही अपनी दिवंगता पत्नी जेनिफर से मिलने के लिए चले गये. अब वह हमारे बीच नहीं, अपनी जेनिफर के पास होंगे. 

दोपहर के भोजन में मुझे उषा उथुप की खूब खुली-खिली हंसी मिली थी, जो बिलकुल उनकी ही तरह थी. फिर भी उनको सुनने का मन तो बाकी ही रहा था. इस रचना-भागीदारी के सत्र में भी वह हैं. एक तरह से इस सत्र का एक प्रमुख आकर्षण बनकर यहां हैं. विकास को उनका स्नेह प्राप्त है इसलिए भी वह यहां हैं. पॉप गायिका ने यहां गाकर सुनाया. पॉप गायिका ने गाना शुरू किया तो फिर सब के सब उनके साथ सुर मिलाकर गाने लगे. कुछ ऐसे जैसे इसी का रास्ता देख रहे थे. जो अभी तक दर्शक थे या सुन रहे थे, अब सब के सब गा रहे थे. और एक सुखद आश्चर्य रच रहे थे. एक उपन्यास पर केन्द्रित रचना-भागीदारी  के सत्र का किसी समूह-गान में बदल जाना ! संगीत की यह भागीदारी ! शायद, कोलकता में ही ऐसा हो सकता है. जहां उषा उथुपहों वहाँ ऐसा हो सकता है. क्योंकि उषा उथुप कैलकटा की हैं.





(पांच)

कितना अच्छा होता कि इस सुन्दर से अवसर पर घाटशिला के मेरे मित्र प्रोफ़ेसर रवि रंजन और अभी कोलकता में ही रह रहे राकेश श्रीमाल भी साथ होते. रवि रंजनको तो उनके कॉलेज से अवकाश नहीं मिला. इसलिए नहीं आ सके. लेकिन यहां, कोलकता में रहते हुए भी राकेश श्रीमालका नहीं आ पाना, मुझे दुखा गया. राकेश एक अच्छे कवि-आलोचक से अधिक एक संवेदनशील व्यक्ति हैं. इसलिए उनके प्रति मैं उतना ही संवेदनशील हूँ. लेकिन पता नहीं क्यों मैं उनके मन तक नहीं पहुँच पाया. राहुल राजेश भी तब पहुंचे जब सत्र अपने समापन की तरफ था.






(छह)

हाँ, सत्र के बाद हम वहीं, हयात रीजेंसी के लाउंज में  बैठकर देर तक बतियाते रहे. उषा उथुप, विकास कुमार झा, उनकी मौसी और उनकी बहिन, तनवीर हसन, राहुल राजेश और मैं. उषा उथुप किसी सांता क्लाज़ की तरह का कोई एक जादुई थैला सा लिए बैठी थीं. और उसमें से कुछ-कुछ निकाल कर कुछ-कुछ को कुछ-कुछ देती रहीं. सुपात्र पाते रहे. एक पॉप गायिका मोह-पाश रच रही थी. उनके जाने से वह मोह-पाश टूटा.

हम विकास के कमरे में आ गए. यहां कुछ देर की हमारी आपसदारियाँ थीं. इसके बाद फिर कब और कहाँ मिलना होगा ? क्या पता ! विकास के पास एक सधी हुयी और खुली हुई आवाज़ भी है. और उनका मन भी था गाने का,सुनाने का.  हमने भी उनके साथ अपनी ऊबड़-खाबड़ आवाज़ों की संगत की. और दोस्तों की विदा का वह समय समूह-गान में बदल गया.       
________
सतीश जायसवाल 
बृहस्पति बाज़ार चौक,
बिलासपुर (छ० ग०) ४९५ ००१ 
मोबाइल : ९४२५२ १९९३२ 

ई० मेल०  satishbilaspur@gmail.com 

‘द ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टी’ से दो पत्र : यादवेन्द्र

$
0
0







1992में प्रकाशित रॉबर्ट जेम्स वालर का उपन्यास "द ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टी"बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक बिकने वाले उपन्यासों में शुमार है और कहा जाता है कि अब तक इसकी चौंसठ संस्करणों में दो करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं. दुनिया की छत्तीस भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ है. न्यूयार्क टाइम्स की बेस्टसेलर्स की लिस्ट में लगातार 164हफ़्तों तक  अपनी जगह  बनाए रखने वाली यह अद्वितीय कृति है.

पेशे से मैनेजमेंट , इकोनोमिक्स और एप्लाइड मैथेमेटिक्स के प्रोफ़ेसर और कन्सल्टेंट रहे वालर ने अपने रचनात्मक शौक भी बड़ी ठसक से पूरे किये. बास्केटबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे, नाईट क्लबों और कन्सर्ट्स में म्यूजिशियन का काम किया और ऊँचे दर्ज़े के प्रोफेशनल फोटोग्राफर रहे. लम्बे प्रोफेशनल जीवन की सांध्य वेला में उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में मेधावी युवाओं के लिए अनेक छात्रवृत्तियाँ भी चला रखी हैं.
(Robert James Waller)

उपर्युक्त उपन्यास के अलावा उनके अन्य उपन्यास हैं : स्लो वाल्ट्ज इन सेडार बेंड , पुएर्टो वलार्ता स्क्वीज़ , बार्डर म्यूज़िक ,ए थाउजेंड कन्ट्री रोड्स.  कथा से इतर अनेक पुस्तकें भी उन्होंने लिखी हैं. 1995में क्लिंट ईस्टवुड ने इसी नाम से उपन्यास पर बेहतरीन फिल्म निर्देशित की जिसमें मुख्य स्त्री किरदार फ्रेंसेस्का की भूमिका निभाने के लिए मेरील स्ट्रीप को सर्वोत्तम अभिनेत्री के लिए एकेडेमी अवार्ड्स के लिए नामित किया गया. रचनात्मक और व्यावसायिक दोनों कसौटियों पर इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़े. 

यह फिल्म फ्रेंसेस्का जॉनसन नामक इतालियन मूल की एक विवाहित स्त्री की कहानी है जिसके जीवन में अचानक नेशनल जिओग्राफिक के लिए काम करने वाला एक अधेड़ उम्र का प्रोफेशनल फोटोग्राफर आता है.परिवार के अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में चार दिनों के लिए उनका मेल जोल होता है जो बगैर कभी दुबारा मिले हुए जीवन पर्यन्त चलता है. उद्दाम प्रेम की परिणति दोनों के साथ साथ रहने में नहीं बल्कि फ्रेंसेस्का के परिवार की खातिर जुदा जुदा रहने के फैसले में होती है. सारा मामला उजागर तब होता है जब माँ की मृत्यु के बाद बच्चे उसके सँजो कर रखे सामान खोल कर देखते हैं और उनको उसकी वसीयत के साथ साथ रॉबर्ट के पुराने कैमरे, नेशनल जिओग्राफिक के पुराने अंक और रॉबर्ट की फ्रेंसेस्का के नाम और फ्रेंसेस्का की बच्चों के नाम लिखी चिट्ठियाँ मिलती हैं -- शुरूआती अचरज और आक्रोश के बाद जैसे जैसे उनको पता चलता है कि उनके भविष्य को ध्यान में रख कर माँ ने अपने प्यार का बलिदान कर दिया था तो उनको अपने जीवन की कठिनाइयों को सुलझाने का रास्ता भी सूझने लगता है.
     
इस उपन्यास से लिए गए दोनों  पत्र यहाँ प्रस्तुत है जो उपन्यास की मुख्य अंतर्धारा को बड़ी ही सादगी पर भरपूर स्पष्टता के साथ उजागर करता है.
यादवेन्द्र

____________________



द  ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टीसे दो पत्र                               

यादवेन्द्र




7जनवरी, 1987
मेरे प्रिय कैरोलिन और माइकेल,


हाँलाकि मन से मैं अच्छी भली हूँ पर मुझे लगता है कि  अपने अफेयर्स के बारे में मौजूद कुछ गलतफहमियों के बारे में बातें कर लेने का सही वक्त आ पहुँचा है (मुझे ऐसा ही बताया गया है).

ये बातें ऐसी हैं जिनकी मेरे जीवन में बहुत अहम् जगह है ...बेहद महत्वपूर्ण ..तुम्हें भी इनके बारे में जान लेना एकदम जरूरी है. आज यह चिट्ठी मैं यही सब कुछ सोच कर लिखने बैठी  हूँ.  

मैं मान कर चल रही हूँ कि सेफ का दरवाजा खोल कर अब तक तुम लोगों ने 1965के वाटरमार्क वाला मेरे नाम का बड़ा मनीला इनवेलप खोल लिया होगा. निश्चय ही ऐसा करने के बाद यह चिट्ठी तुम्हारे हाथ में होगी. यदि कर सको तो तुम दोनों किचेन की पुरानी मेज पर बैठ कर इत्मीनान से इस चिट्ठी को पढना ... ख़त पढ़ते-पढ़ते जैसे ही थोडा आगे बढ़ोगे तुम्हें मेरी इस गुज़ारिश का मर्म समझ आ जायेगा.

मेरा यकीन करना, अपने बच्चों को ऐसा ख़त लिख पाना  मेरे लिए बेहद मुश्किल काम था पर मुझे लगा मेरे सामने इसका कोई विकल्प नहीं है -- ये चिट्ठी लिखी ही जानी थी. यहाँ  इस चिट्ठी को पढ़ते वक्त तुम लोगों को कुछ बातें इतनी कठोर लगेंगी ...कुछ इतनी खूबसूरत भी लगेंगी कि इनको अपने साथ साथ लिए हुए कब्र में जाकर सदा-सदा के लिए दफन कर देने का ख़याल मुझे बिलकुल बेतुका और अस्वीकार्य लगा. और यदि  तुम लोग साफ़-साफ़ यह जानना चाहते हो कि  तुम्हारी माँ की शख्सियत और हकीकत दरअसल क्या थी -- अच्छी और बुरी दोनों -- तो तुम्हें धैर्य खोये बिना वह सब सुनना भी पड़ेगा जो मैं कहने जा रही हूँ. खुद को इसके लिए तैयार कर लेना मेरे बच्चों.

अब तक तुम्हें पता चल चुका होगा कि मैं जिस व्यक्ति का जिक्र तुमसे करने जा रही हूँ उनका नाम रॉबर्ट किंकेड था . नाम के बीच में "एल"भी था वह किस शब्द का संक्षिप्त रूप था मुझे मालूम नहीं. वे एक फोटोग्राफर थे ...और 1965में वे हमारे घर के आस पास के ढँके हुए पुलों पर एक एसाइनमेंट करने आये थे.

मुझे अब भी बखूबी याद है जब नेशनल जिओग्राफ़िक में उनकी ढेर सारी फोटो छपीं तो पूरे  शहर ने कितना जश्न मनाया था -- तुम्हें भी याद होगा बच्चों --- तुम्हें शायद यह भी याद होगा कि उस इश्यू के बाद से मेरे नाम  से  नेशनल जिओग्राफ़िक घर पर नियमित आने लगा था. अब तुम्हें समझ आ गया होगा कि उस मैगेजीन में अचानक  मेरी इतनी रूचि कैसे जागृत हो गयी थी. बाई द वे, सेडार ब्रिजकी फोटो में उनके साथ साथ तुम लोग मुझे भी देख सकते हो .. उनके कैमरे का खाली थैला अपने कंधे पर लटकाये हुए. 

मुझे समझने की कोशिश करो ..मैं तुम्हारे पिता को बगैर बहुत मुखर हुए बिलकुल शांत भाव से प्यार करती थी. उस समय भी मैं यह बात उतनी ही शिद्दत से जानती थी जितनी अब जानती हूँ. उनका जीवन भर मेरे प्रति बहुत नेक बर्ताव रहा. उन्हीं ने मुझे तुम दोनों बच्चों  की सौगात दी. तुम दोनों मेरे जीवन की अमूल्य निधि हो जिनका मुझे हमेश से भरोसा रहा है. उम्मीद है तुम दोनों भी मेरी इस भावना को विस्मृत नहीं करोगे.

पर रॉबर्ट किंकेड बिलकुल दूसरी तरह के इंसान थे. इतने अलहदा कि अपने इतने लम्बे जीवन में मैंने उन जैसे किसी इंसान को न देखा, न सुना. ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में मैंने कभी पढ़ा भी नहीं. मैं लाख कोशिश कर लूँ उनकी शख्सियत को समग्र रूप को  तुम लोगों को समझा पाना  मेरे वश में नहीं. यदि इसकी वजहें ढूँढें तो शायद सबसे पहली वजह जो मेरी समझ में आयी वह है कि मैं मैं थी. तुम दोनों भले मेरे बच्चे हो पर तुम फ्रेंसेस्का नहीं कोई और हो. हम दोनों एक नहीं हो सकते.

दूसरे, उनको समझने के लिए तुम्हें उनके आस पास बने रहना पड़ता, उनके चलने फिरने का ढंग नजदीक से देखना पड़ता. खुद को इवोल्यूशन की प्रक्रिया में छिटक कर दूर जा गिरी किसी शाखा मानने के विचार को समझाने वाली उनकी  बातें सुननी पड़ती. यदि ऐसा हो पाता तो तुम्हारे लिए उनको समझ पाना सहज होता. उनकी सहेज कर रखी हुई नोटबुक और क्लिपिंग्स पढोगे तो शायद उनको समझ पाने के और नजदीक पहुँच सकोगे. पर मुझे लगता है ये चीजें भी उनको पूरा पूरा शायद न ही समझा पायें. 

एक तरह से देखें तो वे देखने में हमारी तरह के ही इंसान थे पर मैं कहूँगी कि इस धरती के नहीं थे ...किसी अन्य स्थान से वे यहाँ आ गए थे ...कम से कम मेरे मन में इस बात को कहते हुए कोई द्वंद्व नहीं है. मैं उनको हमेशा  से किसी ऐसे चीते के रूप में देखती रही हूँ जो किसी धूमकेतु की दुम पकड़ कर अपने ठिकाने से निकल आया ...मैंने उनको उसी चाल से चलते हुए देखा .. उनका बदन भी बिलकुल चीते जैसा ही लचीला था. रिश्तों की ऊष्मा और मानवीय करुणा को  जाने कैसे उन्होंने इतनी शिद्दत  के साथ अपने अन्दर समाहित किया था. पर इस अकूत ऊर्जा के बावजूद ट्रेजेडी की एक अस्पष्ट पर अक्सर दिख जाने वाली रेखा उनके व्यक्तित्व को हमेशा लपेटे रही. उनको बड़े गहरे स्तर पर यह आभास होने लगा था कि कम्प्यूटर और रोबोट के इस उभर रहे ज़माने में अब उनकी कला का कोई ख़ास स्थान रह नहीं गया था. उनकी उपयोगिता सिकुड़ने लगी थी. उनको लगता था कि काऊ ब्वाय की पीढ़ी के वे आखिरी वारिस हैं ...और खुद को वे old fangled  कह कर पुकारते भी थे. 

मैंने रॉबर्ट को उस दिन पहली बार देखा जब मुझे देख कर  उसने रोजमन ब्रिज का रास्ता पूछने के लिए  अपनी गाड़ी रोकी थी. उस दिन तुम तीनों इलिनॉय स्टेट फेयर देखने गए हुए थे और घर में मैं अकेली थी. मेरा यकीन करना, मैं किसी ऐडवेंचर के बारे में सोच कर कोई योजना बना कर बाहर खड़ी होऊँ  ऐसा बिलकुल नहीं था.  ऐसी कोई बात मेरे दिमाग में दूर दूर तक भी नहीं थी. पर मेरी निगाह उनपर पड़ी -- सिर्फ़, हाँ सिर्फ़ पाँच सेकेण्ड के लिए. और मुझे जाने क्यों एकदम से लग गया कि मैं उनको चाहने लगी हूँ.और उनकी ही राह ताक रही थी ...हाँलाकि बाद में जैसे-जैसे दिन बीतते गए मेरे मन में उनकी चाहत निरंतर बढती चली गयी.

बच्चों मेहरबानी कर के उनको -- रॉबर्ट को -- कोई कैसानोवा मत मान लेना जो यहाँ वहाँ गाँव की भोली लड़कियों को घूरता हुआ उनपर हाथ डालने मौका ढूँढता फिर रहा हो. रॉबर्ट वैसे तो बिलकुल नहीं थे ...इस से उलट वे खासे शर्मीले थे और मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि हमारे बीच जो कुछ भी पनपा और बढ़ा उसके लिए मैं भी उनके बराबर की हिस्सेदार हूँ ...सच कहूँ तो मैं रॉबर्ट से ज्यादा ज़िम्मेदार हूँ. उनके ब्रेसलेट के साथ मेरे हाथ का लिखा जो नोट खोंसा हुआ है वो मैंने मुलाकात के पहले दिन की शाम रोजमन ब्रिज पर उनके पढने के लिए चिपका दिया था जिस से सुबह आते ही उनकी निगाह सबसे पहले उसी  के ऊपर पड़े. उन्होंने मेरी जो फोटो खींची उनके आलावा मेरी सिर्फ यही एक दूसरी निशानी  रॉबर्ट के पास जीवन के शेष दिनों में रही जो एहसास कराती रही कि दुनिया में फ्रेंसेस्का नाम की किसी स्त्री का अस्तित्व है. उस से भी ज्यादा मेरे प्यारे बच्चों यही कागज का टुकड़ा उनको शेष दिनों में आश्वस्त करता रहा कि मैं हाड़ मांस की सजीव स्त्री थी, उनके ख्वाब में अनायास आ गया कोई सपना नहीं.

मुझे भली तरह से मालूम है कि बच्चों की अपने पेरेंट्स को एसेक्सुअल (यौन संवेदना से शून्य) रूप में देखने और मानने की प्रवृत्ति होती है ...इसीलिए मुझे भरोसा है कि जो मैं कहना चाहती हूँ उसको तुम सहानुभूति के साथ समझ सकोगे ...और खामखा किसी गैर जरूरी सदमे का शिकार नहीं बनोगे. और इसके साथ ही मुझे पक्का विश्वास है कि मेरी जो भी स्मृति या छवि तुम्हारे मनों के अन्दर बसी है उसको कोई ठेस नहीं पहुँचेगी.

पुराने किचेन में रॉबर्ट और मैंने घंटों साथ साथ बिताये हैं. बातें और बातें. दुनिया भर की बातों का अन्तहीन सिलसिला ...और हमने कैंडललाईट डांस भी किया ...और हाँ हमने वहाँ ...बेडरूम में ...और पिछवाड़े की नर्म दूब पर भी ...यहाँ तक कि जहाँ-जहाँ तक तुम्हारी कल्पना जा सकती है वहाँ-वहाँ भी ...हमने डूब कर एक दूसरे को प्यार किया ...अद्भुत अविश्वसनीय ऊर्जावान और जादुई सम्मोहन से लबालब भरा हुआ प्यार. एक दिन नहीं ..दिनों तक ..अनवरत अंतहीन प्यार. मैं उनके बारे में सोचते हुए जब भी कोई बात कहती हूँ तो उसमें अक्सर "पावरफुल"सबोधन ही उनके लिए मुँह से निकलता है ...लगता है जब हम पहली बार मिले तब भी वे वैसे ही थे ...और उनकी यह खासियत कभी कम नहीं हुई.

उनकी शख्सियत किसी नुकीले तीर जैसी थी -- उतने ही फुर्तीले और मारक. जब रॉबर्ट मुझसे प्यार करते थे तो मैं पूरी तरह असहाय हो जाती थी ..इसका अर्थ तुम किसी दुर्बलता या कमजोरी के सन्दर्भ में मत लेना ...ईमानदार सचाई यह है कि उनके साथ ऐसा तो एक पल को भी मुझे महसूस नहीं हुआ ...बल्कि उलटा ही मालूम होता था ...बस मैं उनकी घनघोर भावनात्मक और शारीरिक ऊर्जा के सामने चमत्कृत और बेबस हो जाती थी. एक बार ऐसे ही किसी मौके पर मैंने उनके कान में फुसफुसा कर अपना हाल बयान  किया तो बिना देर किये उनका सहज सा जवाब था : I am the highway and a peregrine and all the sails that ever went to sea.”

बाद में मैंने डिक्शनरी देखी तो मालूम हुआ कि peregrineकहते ही उसका सबसे पहला जो अर्थ लोगों के दिमाग में आता है वह है बाज. पर बाज के आलावा और भी अर्थ हैं और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कहते हुए रॉबर्ट को उन अर्थों के बारे में मालूम नहीं रहा होगा. एक मतलब है "परदेसी, दूसरे अजनबी इलाके से आया हुआ".एक और अर्थ मिला मुझे :"यायावर, निरुद्देश्य भटकता हुआ, प्रवासी".लैटिन में इसका अर्थ अजनबी होता है ...मुझे लगता है रॉबर्ट के व्यक्तित्व में इन सब अर्थों का समावेश था, बल्कि उनका व्यक्तित्व इन्हीं तमाम विशिष्टताओं से निर्मित हुआ था-- एक अजनबी ..परदेसी भी ..ज्यादा प्रचलित शब्दावली में कहूँ तो एक वास्तविक यायावर ...और बाज के गुणों से भरपूर तो थे ही जो बाद में धीरे-धीरे मन में स्पष्ट होता गया.

मेरे बच्चों, सोचो इस समय अपने जीवन की जिन सचाइयों को समझाने का जिम्मा मैंने अपने कन्धों पर लिया है उसको कुछ शब्दों में बाँधना संभव नहीं है ...पर मुझे हमेशा से जाने क्यों यह लगता रहा है कि जिन अनुभवों से मेरा जीवन गुजरा है उन जैसे क्षण भरपूर मात्रा  में  तुम्हारे जीवन में भी पूरी शिद्दत के साथ आयें ..हाँलाकि अब मैं यह भी सोचने लगी हूँ कि उनकी गुंजाइश बहुत कम बच गयी है. अक्सर मेरा मन कहता है कि आज के अपेक्षाकृत बुद्धिवादी (enlightened) दौर में मैं जो बातें तुमसे कह रही हूँ उनका प्रचलन नहीं रह गया है. रॉबर्ट किंकेड के पास ख़ास तरह की जो शक्ति थी मुझे नहीं लगता कि कोई स्त्री उस तरह की ताकत  संचित कर सकती है. इसलिए माइकेल , तुम्हारा तो पत्ता साफ़ ...और हाँ कैरोलिन तुम्हारे लिए निराश करने वाली खबर यह है कि रॉबर्ट तो एक ही नायाब इंसान था. कोई  उस जैसा दूसरा नहीं ...और अब रॉबर्ट खुद इस दुनिया में नहीं रहा ...अफ़सोस.

यदि तुम्हारे पिता और तुम दोनों का ख्याल मेरे मन में इस कदर हावी न होता तो मैं निश्चय है मैं उसी वक्त रॉबर्ट के साथ कहीं चली जाती .. उन्होंने मुझसे बार-बार चलने को कहा मेरी कितनी मिन्नतें कीं. बल्कि हाथ भी जोड़े ...पर मैं थी कि घर छोड़ कर गयी नहीं. वे भी इतने संवेदनशील और दूसरों का मन समझने वाले जिम्मेवार इंसान थे कि उस दिन के बाद से कभी भी --- एक बार भी नहीं --- उन्होंने हमारे जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप करने के बारे में सोचा नहीं.

पर मैं निरन्तर एक विडम्बना के साथ जीती रही हूँ ...यदि मेरे जीवन में रॉबर्ट किंकेड का प्रवेश नहीं हुआ होता तो मैं पक्के तौर पर नहीं जानती कि अपना बचा हुआ सारा जीवन मैं इस फार्म में बिता पाती या नहीं. उन गिने चुने चार दिनों में उन्होंने मुझे एक सम्पूर्ण जीवन जीने को दिया. एक पूरी कायनात से मुझे रु--रु करवाया. और सबसे बड़ी बात यह की कि मेरे व्यक्तित्व के जो अलग-अलग हिस्से थे उन सब को जोड़ कर मुझे एक मुकम्मल वजूद प्रदान किया. उसके बाद से मैं इतनी अभिभूत हुई कि एक पल को भी उनके बारे में सोचे बगैर नहीं रह पायी. सच कहूँ तो एक पल को भी नहीं. उस समय भी नहीं जब सचेतन रूप में मेरे मन के अन्दर उनकी उपस्थित दर्ज नहीं होती थी  तब भी मैं उनको कहीं अपने आस पास महसूस कर पाती थी. ऐसा कभी नहीं हुआ कि  मेरी चेतना से रॉबर्ट कभी अनुपस्थित रहे हों.

पर यह सब होते हुए भी ऐसा कभी  नहीं हुआ जब मैंने तुम दोनों के और तुम्हरे पिता के बारे में सोचना बंद किया हो. या उसमें कोई कोताही बरती हो. यदि सिर्फ अपने तईं बात करूँ तो निश्चय के साथ नहीं कह सकती कि जीवन का यह बड़ा फैसला मैंने सही सही किया. पर परिवार के पक्ष से देखती हूँ तो यह मानने में एक पल भी नहीं लगता कि मेरा फैसला बिलकुल उचित था.

अपनी सम्पूर्ण ईमानदारी को साक्षी रख कर कह रही हूँ कि हमेशा से रॉबर्ट मेरी तुलना में यह बात अच्छी तरह समझते रहे कि हम दोनों के बीच के इस साझेपन का मूल और केन्द्रीय सूत्र क्या है. जहाँ तक मेरा सवाल है इसका मर्म मुझे देर से समझ आया. और वह भी धीरे-धीरे. मैं आज स्वीकार सकती हूँ कि रॉबर्ट की तरह उनसे रु- ब- रु होते हुए मेरे मन में भी यदि उस क्षण ही यह स्पष्टता होती तो मैं संभवतः आज यहाँ नहीं होती- रॉबर्ट के साथ साथ चली गयी होती.

रॉबर्ट के मन में यह बात घर कर गयी थी कि अब आपसी रिश्तों पर  दुनियादारी और नफा नुक्सान हावी होता जा रहा है ...और जिस निश्छल जादू की शक्ति का उनको अटल  विशवास था उसके प्रति लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है. अब तो मुझे भी लगता है कि रॉबर्ट के साथ जाने- न- जाने के मेरे फैसले पर भी यही दुनियादारी और नफा नुक्सान का विचार शायद हावी रहा होगा.

मैं समझ सकती हूँ कि अपनी अंत्येष्टि के बारे में मैंने जो शर्तें तुम्हें बतायी थीं  उनको लेकर तुम लोग गहरे असमंजस और उलझन में रहे होगे ...यह भी सोचा होगा कि एक संशयग्रस्त बुढ़िया की खब्त है ये सब.  तुम जब 1982का सिएटल के एटॉर्नी का ख़त और मेरी डायरी पढोगे तो तुम्हें परत- दर- परत सब कुछ समझ आ जायेगा कि मैंने अपनी वसीयत में यह शर्त क्यों शामिल की. मैंने अपने परिवार को अपना सम्पूर्ण जीवन दे दिया. रॉबर्ट को वही दे पायी  जो इसके बाद मेरे आँचल  में शेष था.   

मुझे इस बात की आशंका है कि रिचर्ड को यह आभास हो गया था कि मेरे अन्दर ऐसा कोई कोन जरूर है जहाँ तक उनकी पहुँच नहीं हो पायी ...कभी कभी तो यह भी लगता है कि जब मैंने बेडरूम के सेफ़ के अन्दर सँभाल कर रखा तो उन्होंने वह बड़ा मनीला इनवेलप देख लिया था. अंतिम साँस  लेने से पहले जब थोड़ी देर के लिए मैं हास्पिटल में उनके सिरहाने बैठी हुई थी, रिचर्ड ने मुझसे कहा : 


"फ्रेंसेस्का, मुझे यह  बात खूब अच्छी तरह  पता है कि तुम्हारे मन के अन्दर अपने कुछ सपने बसे हुए थे,पर मैं उनको साकार करने में तुम्हारी मदद नहीं कर पाया."  

आज मैं बिना किसी शक सुबहे के यह स्वीकार कर सकती हूँ कि मेरे लम्बे विवाहित जीवन में उस से ज्यादा भावपूर्ण क्षण उसके सिवा कभी कोई और नहीं रहा.

ऐसी मेरी कोई मंशा नहीं है कि इस तरह की बातों से मैं तुमलोगों को किसी अपराधबोध या शर्मिंदगी के कटघरे में खड़ा कर दूँ ...इस बात के लिए यह चिट्ठी मैं लिख भी नहीं रही हूँ. इन बातों की मार्फ़त मैं तुमलोगों को सिर्फ यह महसूस कराने  की कोशिश कर रही हुई कि मैं रॉबर्ट किंकेड  से किस कदर प्यार करती थी ...मैं इन उद्वेगों और भावों से बिला नागा हर दिन --और वह भी सालों साल तक -- रू ब रू होती रही ...जैसे रॉबर्ट होते रहे.

हाँलाकि उन चार दिनों के बाद हमने एक दूसरे से कभी नहीं -- हाँ, एक बार भी नहीं -- बात की, पर एक दूसरे के साथ उस शिद्दत और नजदीकी से जुड़े रहे जिस अकूत शक्ति के साथ कोई भी दो प्राणी एक दूसरे के साथ जुड़ सकते हैं ...जुड़ाव की यदि कोई सीमा हो तो उसकी पराकाष्ठा तक.

मेरे बच्चों,इन तरल भावों को मुकम्मल तौर पर व्यक्त करने के लिए मेरे पास पर्याप्त और उचित शब्दावली नहीं है ...हाँ, रॉबर्ट अलबत्ता इसको ज्यादा उपयुक्त शैली में व्यक्त किया करते थे. जानते हो वे क्या कहते थे? कहते थे कि एक दूसरे से मिलने के बाद से हम दोनों वो रहे ही नहीं जो पहले हुआ करते थे ...हमारे मेल ने हमारे अलहदा अस्तित्व को एक दूसरे के अंदर समाहित कर लिया ...हम घुल कर दूसरे के साथ मिल गए और दो जुदा जुदा शख्सियतों के मेल से किसी तीसरे प्राणी की तरह हमारा इवोल्यूशन हुआ. और जो नया विकसित हुआ उसमें हमारी पुरानी छवियाँ धूमिल पड़ते पड़ते लोप हो गईं.

कैरोलिन,वो हलके गुलाबी रंग वाला ड्रेस याद है न एक बार जिसको लेकर तुमने मुझसे बड़ा झगड़ा किया था ...इतना बड़ा ड्रामा कि उसको भूल जाना मुमकिन नहीं. उस ड्रेस पर जैसे ही नज़र  पड़ी, तुमने उसको पहनने की जिद पकड़ ली. तुमने उसको लेने के लिए तमाम तर्क दिए ...जैसे कि आपको तो ये ड्रेस पहने हुए मैंने कभी देखा नहीं ममा ..सालों साल से जब यह ऐसे ही पड़ा  है तो मैं  अपने हिसाब से इसकी रीफिटिंग ही करा लेती हूँ ...और जाने क्या क्या. मैं आज तुमसे साझा कर रही हूँ कैरोलिन कि हलके गुलाबी रंग का यह ड्रेस वही है जो रॉबर्ट से प्रेम करते हुए मैंने पहली रात पहनी थी ..उस रात यह ड्रेस पहन कर इतनी सुन्दर लग रही थी ...सचमुच इतनी सुन्दर -- कि अपने इतने लम्बे जीवन में वैसी सजीली मैं कभी नहीं लगी थी. इतना बताने के बाद तुम अब अच्छी तरह समझ गयी होंगी मेरी बच्ची कि मैंने वो गुलाबी ड्रेस दुबारा कभी क्यों नहीं पहनी ...और एक बार भी तुम्हें क्यों नहीं पहनने दी ...जाहिर है उन अविस्मरणीय क्षणों की मेरे पास वही एकमात्र   निशानी बची रह गयी थी ... मामूली और मासूम सा स्मृतिचिन्ह. 

1965  में रॉबर्ट के यहाँ से चले जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि उनके बारे में मैं कितना कम जानती हूँ. कुछ भी तो नहीं सिवा इसके कि ओहायो के एक छोटे से शहर में उनका जन्म हुआ था , उनके माँ पिता दोनों गुजर चुके थे ...और उनके कोई भाई बहन नहीं थे,यानि इकलौती संतान. हांलाकि अरसे तक मैं इस मुगालते में रही कि मैं उनके बारे में सब कुछ जानती हूँ और ऐसा कुछ नहीं है जिसकी मुझे जानकारी न हो. पर यह भी सच है कि हमारे आपसी रिश्ते की बावत जिन जिन बातों का महत्त्व था उनमें ऐसा कुछ नहीं था जो मेरी जानकारी से बाहर था.  

जहाँ तक रॉबर्ट के निजी जीवन की बात है मुझे पक्के तौर पर इसकी जानकारी नहीं है कि वे कालेज गए थे या स्कूल से आगे नहीं पढ़ पाये ...पर इतना जरूर पता है कि उनके पास जो बुद्धि और समझ थी वो ऊपरी तौर पर भले ही अनगढ़, पुरातन और रहस्यवादी जैसी लगती हो ...पर थी विलक्षण ...और हाँ, दूसरे विश्वयुद्ध में वे साउथ पेसिफिक में मेरीन्स के साथ काम्बेट फ़ोटोग्राफ़र का काम भी कर चुके थे.

उन्होंने एक बार शादी की थी पर जल्द ही तलाक हो गया. मेरे साथ मिलने से बहुत साल पहले. शादी से उनका कोई बच्चा नहीं था. उनकी पत्नी म्यूजीशियन थीं ...शायद फ़ोक सिंगर, जहाँ तक मुझे याद आ रहा है रॉबर्ट ने मुझे यही बताया था. पर फोटोग्राफी के काम में उन्हें लम्बे लम्बे असाइनमेंट्स के लिए घर से बाहर रहना पड़ता था,सो शादी चल नहीं पायी ...हाँलाकि उन्होंने इस नाकामयाबी के लिए अपनी पत्नी को बुरा भला कभी नहीं कहा ...बस , सार दोष चुपचाप अपने माथे पर रख लिया और शादी से बाहर आ गए.

जहाँ तक मुझे पता है इस इकलौती शादी के अलावा रॉबर्ट का कोई और परिवार नहीं था. यही कारण है कि मैं तुम लोगों से गुजारिश कर रही हूँ कि रॉबर्ट को अपने परिवार में शामिल कर लो, हाँलाकि जानती हूँ कि यह बेहद कठिन और भावपूर्ण फैसला है. जहाँ तक मेरा सवाल है मेरे पास तो अपना परिवार था. और जैसा कि परिवार के परिवेश में होता है मुझे मेरे परिवार का सहारा था और मेरे जीवन को साझा करने वाले कई लोग थे ...पर रॉबर्ट के जीवन में कोई भी तो नहीं था जिसके साथ वे अपने दुःख दर्द या खुशियाँ साझा कर सकते. वे नितांत अकेले इंसान थे ...और यह रॉबर्ट जैसे स्नेही और सह्रदय व्यक्ति के साथ निहायत ज्यादती और नाइन्साफी थी ..कम से कम एक मैं थी जो इस बात को असलियत की गहराई में जानती थी.

मुझे बहुत अच्छा लगेगा ...और गहरा सुकून भी मिलेगा ...सही है कि नहीं जानती तुम लोगों को  कैसा लगेगा ...कि रॉबर्ट की स्मृति को और लोग बाग हमारे बारे में जो कुछ भी कहते हैं उसको ध्यान में रखते हुए यह सारा मामला जानसन परिवार के घेरे से बाहर न जाए तो बहुत अच्छा होगा. तुम लोगों के लिए यदि ऐसा करना सम्भव हो पाये तो मेरी बातों का मर्म समझना ...हाँलाकि उचित यही है कि सारा मसला मैं तुम लोगों के ऊपर डाल दूँ ...मेरी बात अपनी जगह है पर तुमलोग जैसा उचित समझो वही करना.

                        
कुछ भी हो मेरे और रॉबर्ट के बीच के संबंधों को लेकर मैं शर्मिंदा कतई नहीं हूँ .. एक पल को भी इसको लेकर मेरे मन में किसी तरह का  अपराध बोध उत्पन्न नहीं हुआ ...सच कहूँ तो हुआ इसका उल्टा ही ...मैं खुद को और मजबूत महसूस करने लगी. इन तमाम बरसों में मैं उनसे बेइंतहाँ प्यार करती रही,हाँलाकि इनमें मेरा स्वार्थ शामिल था. मेरे अपने नितांत निजी कारण थे जिन्होंने मुझे उनसे किसी तरह का संपर्क साधने से निरंतर रोके रखा, मैं उनसे जान बूझ कर परहेज करती  रही. एक बार ..हाँ,सिर्फ एक बार ...मैंने रॉबर्ट से संपर्क साधने की कोशिश की थी ...वह भी तुम्हारे पिता के इंतकाल के काफी अरसे बाद. दुर्भाग्य से मेरी यह कोशिश सफल नहीं हो पायी ..जो नम्बर  मेरे पास था उस पर किसी ने फोन नहीं उठाया. इस घटना  के बाद फिर कभी दुबारा  फोन करने का मैं  हौसला नहीं जुटा पायी. .मन में एक दहशत मजबूती से घर कर गयी ...जाने क्या खबर सुनने को मिले .. इस हादसे ने मुझे इतना भीरू और कातर बना दिया कि हमेशा लगता मुझमें सच्चाई सुनने या बर्दाश्त करने की कूबत अब बची नहीं है ...मैं अन्दर से टूट चुकी थी. जब मन की दशा ऐसी हो तो मेरे बच्चों,तुम आसानी से महसूस कर सकते हो मेरा मन कितना उद्वेलित हुआ होगा जब 1982  में एटॉर्नी के ख़त के साथ साथ यह पैकेट कोई मेरे पते पर लेकर पहुँचा  होगा.

मैंने पहले भी तुमसे कहा है ..एक बार फिर इस बात को दुहराती हूँ ...और उम्मीद करती हूँ कि तुम लोग मेरी ऊपर कही  सारी बातों को उनके सिलसिले और सन्दर्भों के साथ समझ  पाओगे ...और अपनी माँ को लेकर मन में किसी दुर्भावना को घर नहीं करने दोगे ...मेरा दृढ़ विशवास है की यदि तुम लोग अपनी माँ को सचमुच प्यार करते हो तो माँ के किये तमाम कामों और फैसलों को भी उसकी तरह ही भरपूर सम्मान दोगे ...उनके साथ मजबूती से खड़े रहोगे.

रॉबर्ट किंकेडने मुझे समझाया ...या ये कहूँ कि समझाया तो ज्यादा सही होगा ...कि औरत होने का वास्तविक अर्थ और मकसद क्या होता है ..और मैं इसको लेकर खुद को इतना भाग्यशाली मानती हूँ कि लगता है इस सर्वोच्च शिखर पर मैं ही मैं हूँ ..यह सौभाग्य सिर्फ मुझे प्राप्त हो पाया है किसी और स्त्री को नहीं. दुबारा कहने की दरकार नहीं समझती कि वे बेहद अच्छे,संवेदनशील और सह्रदय इंसान थे ...और शायद यही सबसे बड़ी वजह है कि वे तुम लोगों के सम्मान के ...और शायद प्यार के भी ... वास्तविक हकदार हैं.  मुझे अपने आप पर अपने बच्चों पर यह भरपूर भरोसा है ...और इसी भरोसे के दम पर मैं तुम लोगों को यह ख़त लिख रही हूँ कि तुम दोनों रॉबर्ट को ये दोनों चीजें दे पाओगे..सम्मान ...और प्यार भी. मेरा विश्वास  करना ...मैं यह पूरे भरोसे से तुम्हें बता सकती हूँ कि रॉबर्ट अपनी ख़ास शैली में तुम दोनों के हितों और भविष्य को लेकर हमेशा  सजग और कंसर्न्ड रहते थे ...उन्होंने हर कदम पर तुम लोगों का भला सोचा ...और किया भी ...यह अलग बात है कि तुमने उन्हें कभी सामने नहीं देखा ...पर मैंने जो कहा वह सब उन्हों निष्ठां के साथ किया ...मेरी मार्फ़त.

खूब अच्छे रहना ...मेरे प्यारे बच्चों ...
माँ                                       




-------------                   

प्रिय फ्रेंसेस्का ,


इस उम्मीद के साथ चिट्ठी लिख रहा हूँ कि तुम अच्छी भली होगी हाँलाकि इसका कोई अंदाज नहीं कि कितने दिनों और किस हाल में तुम्हें यह चिट्ठी मिल पायेगी .. मुझे लग रहा है कि मेरे यहाँ से रुखसत हो जाने के बाद ही शायद. मैंने उम्र के बासठ साल पूरे कर लिए हैं ...और मुझे वह तारीख अब भी एकदम याद है ... आज का ही दिन था,ठीक तेरह साल बीत चुके जब मैं किसी ठिकाने का पता पूछने तुम्हारे घर पर दस्तक देने रुका था.

मैं इस पैकेट की मार्फ़त तुम्हारे ऊपर एक दाँव लगा रहा हूँ इस निर्दोष उम्मीद के साथ कि  मेरी यह कोशिश किसी भी रूप में तुम्हारे जीवन में उथल पुथल का कारण नहीं बनेगी .. कितना भी मैंने अपने मन को समझाया पर यह इस बात के लिए राजी नहीं हुआ कि ये कैमरे किसी दूकान पर पुराने सेकेण्डहैण्ड सामानों के कोने में पड़े हुए धूल फाँकते रहें ...या फिर किसी अजनबी के हाथ पड़ें. मुझे इसका बखूबी एहसास है कि तुम्हारे पास पहुँचते पहुँचते इनकी शक्ल सूरत और भी बिगड़ चुकी होगी पर फ्रेंसेस्का  चारों तरफ निगाह फेरने के बाद भी मुझे तुम्हारे सिवा ...हाँ, सचमुच तुम्हारे सिवा ...और कोई नहीं सूझा जिसके पास इन्हें छोड़ने का हौसला कर पाऊँ ... तुम्हारे पास इन्हें भेज तो रहा हूँ पर मन में यह आशंका भी भरपूर है कि इनके कारण तुम खामखा किसी अप्रत्याशित संकट में न पड़ जाओ ...मेरी इस सनक के लिए मुझे माफ़ कर देना फ्रेंसेस्का ...

1965से लेकर 1975तक ... पूरे दस साल ... मेरे पैर निरंतर सफ़र ही सफ़र में चलते रहे ... अब तुमसे क्या छुपाना खुद के ऊपर ओढ़ी हुई इस व्यस्तता की बड़ी वजह तो यह थी कि मन के अन्दर लगातार सिर उठाती हुई इस ख्वाहिश के आगे कहीं मैं घुटने न टेक दूँ कि तुमसे फोन पर बात करनी है ...या सीधा तुम्हारे सामने जाकर खड़े हो जाना है ... तुम्हें छोड़ कर चले आने के बाद एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जब जगी हुई अवस्था के एक एक पल में मेरे मन में यह इच्छा बलवती न होती रही हो ....यही ख़ास वजह रही जो मुझे जबरदस्ती जितनी भी मिल पायें वैसी विदेशी असाइन्मेंट्स की और धकेलती रही. बार बार मन में यह आता भी था  कि आखिर भाग भाग कर कहाँ जा रहा हूँ मैं ...कर क्या रहा हूँ  ...भाड़ में जायें सारे असाइन्मेंट्स ...अब इसी पल मुझे  विंटरसेट,आयोवा की ओर रुख करना है ...और चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े मैं फ्रेंसेस्का को अपने साथ लेकर ही वहाँ  से चलूँगा ...उस  के बगैर अब एक पल भी नहीं जीना. 

पर जब-जब भी यह आवेग आता मुझे तुम्हारे शब्द सुनाई देते ... तुम्हारी भावनाओं की मेरे मन में बेहद कद्र है ...शायद तुम सही कहती भी थीं, मुझे इनका एहसास शायद नहीं हो पाता था. 


मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि शुक्रवार की उस बेहद गर्म सुबह तुम्हारी गली की ओर अंतिम बार देख कर पीठ करके वापसी का सफ़र शुरू कर देना मेरे जीवन की सबसे मुश्किल घड़ी थी ...

और जीवन की शेष घड़ी  में भी उस से ज्यादा कठिन फैसला मेरे सामने कभी नहीं आएगा ...अपनी ही बात क्यों करूँ,दरअसल शायद ही कुछ गिने चुने ऐसे बदनसीब मर्द होंगे जिनके सामने यह जान निकाल लेने वाली चुनौती पेश आई होगी.

मैंने 1975में "नेशनल जियोग्राफिक"का काम छोड़ दिया और बाद के तमाम सालों में अपनी मन मर्जी का काम करता रहा ...कभी कहीं कोई ऐसा कोई पसंदीदा काम मिल गया तो ठीक ...पर वह भी ऐसा जो मुझे घर से कुछ दिनों के लिए बाहर ले जाने वाला हो. हाँलाकि इस मनमौजी काम से पैसे नहीं मिलते और मेरे हाथ भी हमेशा तंग रहे,पर मैंने बगैर किसी गिले शिकवे  के जैसे -तैसे गुजारा कर ही लिया. अपनी सारी जिन्दगी में मैंने ऐसा ही तो किया है.  

मेरा ज्यादातर काम  पुगेट साउण्ड (वाशिंगटन के उत्तर पश्चिम में स्थित प्रशान्त महासागर का भाग)  के इर्द गिर्द घूमता रहा ...मुझे इसमें बहुत आनन्द आता रहा है ... मुझे लगने लगा  है फ्रेंसेस्का जैसे-जैसे आदमी की उम्र बढती जाती है पानी की ओर उसका खिंचाव भी बढ़ता जाता है.

और हाँ ...तुम्हें एक बात तो बताना ही भूल गया ...मैंने एक कुत्ता भी पाल लिया है,गोल्डन रीट्रीवर ...उसको मैं "हाइवे"कह कर पुकारता हूँ और अपने ज्यादातर  असाइन्मेंट्स में उसको साथ साथ भी ले जाता हूँ ...उसकी गर्दन गाड़ी की खिड़की से इस तरह बाहर निकली रहती है जैसे मैं नहीं असल में वो है जिसको एक अच्छे शानदार शॉट की तलाश है.

कुछ साल पहले की बात है ...शायद 1972की,मैं काम के सिलसिले में एकेडिया नेशनल पार्क गया हुआ था और संतुलन खो जाने पर एक पहाड़ी चोटी  से फिसल कर नीचे गिर पड़ा ...मेरा घुटना टूट गया. इसी गिरने के दौरान मेरी चेन और मेडेलियन भी टूट फूट गए, हाँलाकि गनीमत यह रही कि टूटे हुए टुकड़े मेरी नजरों के सामने ही दिखाई देते रहे. मैंने उन टुकड़ों को बटोरा और एक सुनार से दुबारा ठीक करा लिया.

तुम्हारे सामने मुझे यह कबूल करने में कोई शर्म नहीं कि मैंने अपने दिल के ऊपर समय की धूल गर्द की परतें जमने दी,उनको झाड पोंछ कर साफ़ करने का जतन कभी नहीं किया -- खुद को कम से कम मैं ऐसे ही देखता हूँ. 


ऐसा नहीं है कि तुम मेरे जीवन में आने वाली पहली स्त्री हो ... तुमसे पहले भी कुछ स्त्रियाँ मेरे जीवन में आयीं पर आज यह स्वीकार करते हुए मुझे फख्र होता है कि तुम्हारे साथ मुलाक़ात के बाद  किसी स्त्री को मैंने अपने घर के दरवाजे पर दस्तक नहीं देने दी. 

यह भी बिलकुल साफ़ है कि मुझे ब्रह्मचर्य या नैतिकता अनैतिकता जैसी किसी बात में यकीन नहीं है ... बस, तुमसे मिलने के बाद मुझमें किसी अन्य स्त्री के लिए दिलचस्पी की कहीं कोई गुंजाइश शेष नहीं रही.   

एक बार  किसी असाइन्मेंट के सिलसिले में मैं कनाडा गया हुआ था ...वहां मैंने एक नर बतख  देखा जिसकी मादा को शिकारियों ने गोली मार दी थी ...तुम्हें मालूम ही होगा फ्रेंसेस्का कि इन पक्षियों की शारीरिक बनावट ऐसी है जिसमें जीवन जीने के लिए सेक्स करने की अनिवार्यता है. व्यथित नर कई दिनों तक बावला होकर तालाब के चक्कर लगाता रहा ...काम ख़तम करके जब मैं वापस लौटने लगा तब भी वह पानी में बेचैन होकर अकेला चक्कर काट रहा था ... सभी दिशाओं में बार-बार गर्दन घुमा-घुमा कर आशा भरी नज़रों से देखता हुआ. मुझे भली भाँति एहसास है कि ऐसे समानार्थी उदाहरण आम तौर पर साहित्य की दुनिया में दिए जाते हैं पर मैंने उस अकेले बतख देखने के बाद से निरंतर खुद को उसके उसकी दयनीय दशा में ही पाया है ... क्या करूँ अपने इस मन का ?

जब जब भी मैं धुंध भरे सबेरे उठ कर पहली दफा अपनी आँखें खोलता हूँ ...या दोपहर बाद उत्तर पश्चिम दिशा में सूरज को पानी के साथ अठखेलियाँ करता हुआ देखता हूँ तो मेरा मन अचानक ही बड़ी शिद्दत से तुम्हें ढूँढने लगता है --- बेताबी यह जानने के लिए बढती जाती है कि  इस वक्त जब मैं तुम्हारे बारे में इस शिद्दत के साथ सोच रहा हूँ, तुम क्या कर रही होगी -- तुम्हें मेरी बेताबी का कुछ आभास होगा भी कि नहीं. और जानती हो फ्रेंसेस्का हमारे साथ को लेकर अपनी कल्पना में मैं कभी कुछ ख़ास या और उलझाने वाली बात नहीं सोचता --- बस सीधी  सरल छोटी छोटी मामूली बातें,जैसे  तुम्हारे घर के पिछवाड़े के गार्डन में टहलना, तुम्हारे सामने बरामदे में पोर्च पर बैठ जाना, तुम्हारी किचेन की सिंक के पास खड़े रहना ...ऐसी ही तमाम बातें जेहन में आती रहती हैं.


मेरी स्मृति में एक एक बात बिलकुल स्पष्ट तौर पर दर्ज है ..तुम्हारे बदन से कैसी महक आती थी, कैसे तुम्हें छूते ही  एकदम से गर्मियों के मौसम का आभास हो जाता था. मेरी देह के साथ तुम्हारी देह का छूना ...और उस अस्पष्ट सी तैरती हुई फुसफुसाहट का एक एक लफ्ज ...उसके आरोह अवरोह ... मुझे बखूबी याद है जो प्यार करते हुए तुम्हारे मुँह से निकले थे.

रॉबर्ट पेन वारेनने कभी एक मुहावरा इस्तेमाल किया था :"एक ऐसी दुनिया जिसको रुष्ट ईश्वर त्याग कर कहीं दूर चला गया"...बात किसी अधूरे आशियाने की भले ही हो पर मैं अक्सर तुम्हें याद करते हुए इस मुहावरे की छुअन महसूस करता हूँ. पर मेरी मजबूरी कि मैं इसी मनोदशा में हमेशा नहीं बना रह सकता ...अब तो यह एक लम्बा सिलसिला बन गया है ...मैं करता ये हूँ कि जब बार-बार सिर उठाते एहसास हद से ज्यादा कचोटने लगते हैं तो मैं अपनी गाड़ी  पर साजो सामान लादता हूँ और हाइवे को साथ में लेकर कुछ दिन के लिए घर से दूर कहीं बाहर निकल जाता हूँ. 

ऐसा बिलकुल नहीं है कि  मुझे अपने जीवन को लेकर कोई अफ़सोस या ग्लानि है --- तुम जानती हो मैं इस स्वभाव का इंसान भी नहीं हूँ ...साथ ही यह भी उतना ही सच है कि मैं हरदम ऐसी ही मनोदशा में नहीं रह सकता ...ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे  तुम तक पहुँचने का रास्ता सुझाया ...तुम मेरी अन्तरंग दुनिया में इस कदर  शामिल रहीं. यह भी तो हो सकता था कि  हम एक दूसरे  को देख कर आकाश में दो उल्काओं की मानिन्द चमकते और अगले ही क्षण अलग-अलग दिशाओं में जाकर एक दूजे का हाल जाने हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते.

अब कुदरती सन्तुलन या तरतीब की इस ख़ूबसूरत और सुगठित व्यवस्था को ही  देखो -- इसको ईश्वर कहें या ब्रह्माण्ड, या मन माफ़िक कोई और नाम दे दें -- यह धरती पर समय की हमारी परिचित रफ़्तार के अनुशासन को मान कर संचालित नहीं होता. इस खगोल तंत्र में हमारे चार दिन वैसे ही हैं जैसे चार बिलियन प्रकाश वर्ष -- आज की बात नहीं है प्रिय मैं हमेशा से इसी सोच का कायल रहा हूँ.    

पर कहने को कहूँ चाहे कुछ भी,ज़मीनी हकीकत यही है कि  मैं एक हाड़ मांस का बना मामूली इंसान हूँ  ...दुनिया जहान की तमाम दार्शनिक तार्किकताओं का वज़न एक तरफ़, और टूट कर तुम्हें चाहने की उतनी ही मूल्यवान निर्बन्ध कामना  दूसरी तरफ ---मैं चाहे कितना भी यत्न करूँ लाचार कर डालने वाली इस घनघोर चाहना से मेरी मुक्ति नहीं हो पायेगी ...एक एक दिन ...एक एक क्षण ...मेरे पूरे अस्तित्व पर हावी रहा है  लाचार अस्फुट रुदन का वह निर्मम समय जब मैं तुम्हारे साथ होने की कामना करता रहा हूँ पर वास्तव में ऐसा कर नहीं पाया ...मेरे माथे के अन्दर एक के बाद एक झंझावात अनवरत उभरते और टक्कर मारते रहे.

अंतिम सचाई यह है कि मैं तुमसे बेपनाह प्रेम करता हूँ ...भरपूर उद्वेग और सम्पूर्ण निष्ठा के साथ ...और अंतिम साँस लेते हुए भी ऐसे ही तुम्हें चाहता रहूँगा, इस से मेरी मुक्ति नहीं.

तुम्हारा बिछुड़ा हुआ  काऊब्वाय
रॉबर्ट

नोट :पिछली गर्मियों में मैंने अपनी गाड़ी में नया इंजन डलवा लिया था ...  यह बिलकुल ठीक ठाक और बढ़िया काम भी कर रहा है.  

 
(सभी चित्र 'द ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टी’ पर इसी नाम से बनी फ़िल्म से लिए गए हैं- मेरील स्ट्रीप और ईस्ट वुड क्रमश: फ्रेंसेस्का और रॉबर्ट की भूमिका में हैं. )
___________

यादवेन्द्र

बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.

रविवार,दिनमान,जनसत्तानवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला,प्रभात खबर इत्यादि में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन.

विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदयहंसकथादेशवागर्थशुक्रवारअहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और अनुनादकबाड़खानालिखो यहाँ वहाँख़्वाब का दर जैसे साहित्यिक ब्लॉगों में प्रकाशित.
मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित  "कथादेश" का अतिथि संपादन.  साहित्य के अलावा सैर सपाटासिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी  का शौक.

yapandey@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : सुजाता

$
0
0

























कृति : Rina Banerjee
सुजाता की कविताएँ पढ़ते हुए ‘कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह  की कुछ कविताएँ  याद आती हैं.  सघन संवेदना और तन्वंगी शिल्प, शब्दों को बरतने की वैसे ही  मितव्ययी शैली और सचेत राजनीतिक चेतना,  स्त्री के अस्तित्व, अहसास और उसके आस-पास निर्मित अमानुष परिवेश की परखती देखती दृष्टि.

 समालोचन में प्रकाशित इन कविताओं में  क्षत-विक्षत  बचपन  है जहाँ स्पर्श में भी काले सर्प अपना विष लिए घूमते हैं, जगह-जगह डसने के नीले निशान हैं.  इन से उलझती जिंदगी है और जिंदगी है तो प्यार भी है. 


सुजाता की कविताएँ                                        







क्षत-विक्षत अलाप



1.
बस्ते से निकाल रबड़
रगड़ती है पेट पर
मिटाती है गर्भ
बच्ची दस साल की.
खेलती है भीतर,खेलती है बाहर
दो नन्हीं जान.

2.
पजामा पहनते दोनों पैर
एक ही जगह फँसा लिए हैं
हँसती है माँ ...


रोती है
आँखें मूँद

देखना था यह भी...
देखूँ कैसे !
क्षत-विक्षत कोमलांग
रक्त से लथ-पथ
जल गईं कलियाँ कराहते स्निग्ध कोंपल
सिसकती उन पर ओस की बूंद
रक्तिम  

खाने का डब्बा छूटता था बस में
आज छूट गया बचपन !



3.

क्या भूली है रत्ती !
सुन्न क्यों है ?
व्यर्थ हुआ पाठ ?
गुड टच / बैड टच ?



4.
बिस्तर में गुड़िया अब क्या कहती होगी
सपनों में परियाँ अब क्या गाती होंगी
तेरा जो साथी होगा
सबसे निराला होगा
नोचेगा नहीं छाती
दूर से करेगा बातें मदमाती
पूछेगा तेरी राज़ी
देखना –
एकदम गुड्डा होगा !

5.
सोचती क्या हो शकुंतले !
प्रेम विहग उड़ रहा डाली से डाली
यौवन ने जीवन कमान ज्यों सम्भाली
धधकती श्वास अग्नि
थिरकती हैं अँगुलियाँ
काँख के ताल में
क्रीड़ारत मीन .
हास
      छलक गए मदिरा के प्याले हज़ार
      बावरी है हवा ,चुम्बनों से देती है
      लटों को सँवार

होगा क्या प्रथम यौवन उन्मत्त स्पर्श ऐसा ही ?
गाएगा क्या
कभी मन ?







अनर्गल

एक नदी मिली जिसे कहीं नहीं जाना था
आखिर मेरा दिल उसी नदी में डूबेगा
जहाँ सबसे तेज़ धड़कती होगी धरती
वहीं पड़ेगा मेरा पाँव

वह पेड़ मिला मुझे जो अब और उगना नही चाहता था 
एक गहरे प्यार में मैंने उसे चूमते हुए कहा --
उगने के अलावा कितना कुछ है करने को
मेरी जड़ें मुझे कबका छोड़ चुकी हैं
टिकने के लिए कम नहीं होता एक भ्रम भी
विश्वास सच्चा हो तो

घोंसले से मैंने कहा -
एक बहुत खूबसूरत प्यार में
धकिया दो चिड़िया को

ज़मीन तक आते-आते हवा के समुद्र में
कितनी लहरें बनीं होंगी...
मुझे उसकी घबराहट मिली 
जिसे मैंने बालों में खोंस लिया है
मेरे सुंदर बाल 
मैं कभी नहीँ हूँगी बौद्ध भिक्षुणी !







दु:ख


(1)
फिसलता है 
बाहों से दुःख 
बार बार
नवजात जैसे कम उम्र माँ की गोद से
पैरों पर खड़े हो जाने तक इसके 
फुरसत नहीं मिलेगी अब

जागती हूँ
मूर्त मुस्कान 
अमूर्त करती हूँ पीड़ा
डालती हूँ गीले की आदत
अबीर करती हूँ एकांत 
उड़ाती हूँ हवा में ...

(2)
सब पहाड़ी नदियाँ एक सी थीं
मैं ढूंढ रही थी एक पत्थर 
झरे कोनों वाला 
चिकना चमकीला

सब पत्थर एक से थे...



(3)
दर्द के बह जाने की प्रतीक्षा में
तट पर अवस्थित ...
        अंधेरा है कि घिर आया
        नदी है
        कि थमती ही नहीं
एक खाली घड़े से
इसे भर सकती हूँ
पार कर सकती हूँ इसे.


(4)
पुरखिन है
दुख
बाल सहलाती चुपचाप
बैठी है मेरे पीछे   
    
      चार दिन निकलूंगी नहीं बाहर
          एक वस्त्र में रहूंगी
          इसी कविता के भीतर.



(5)
हिलाओ मत
न छेड़ो
बख्शो

लेती हूँ वक़्त
टूटी हुई हड्डी सा
जुड़ती हूँ .






बेघर रात

स्थगित होती हूँ
ओ रात !
हमारे बीच अभी जो वक़्त है
फँसा
चट्टान की तहों में जीवाश्म
उसे छू
सहला



यह जो हमारे बीच चटक उजला दिन है
अपराधी सा
बस के बोनट पर सफर करता
पसीने में भीगता
मुँह लटका उतरता
गलत स्टॉप पर
पछताता
इसे छाया दे !



रक्त और धड़कन हो जा
दाँत दिखा मुँह खोल
मैले नाखून देख
लेट जा बेधड़क
फूला पेट ककड़ी टांगे फैला क्षितिज में
ओ रात !
खुल जा
मत हिचक
चहक बहक महक
आदिम नाच की थिरकन सी
लहक


चुप्पी हमारे बीच
भूख की लत से परेशान
दवाओं से नहीं टूटती
नहीं  आती वापस जंगली हँसी
अड़ियल है अड़ियल
जिनके दिन नहीं होते घर जैसे
चाहती क्या उनसे हो
ओ बेघर रात !    






नींद के बाहर


(1)
अनमनी आँखों में मुँद जाती तस्वीर तुम्हारी
दूर तक कानों में गूँजती हवा की गुदगुदी
तुमने पुकारा हो जैसे मेरा नाम...
आज नहीं सुनती कोई बात
तुम्हें सुनती हूँ
ऐसी ही होगी सृष्टि के पहले पुरुष की आवाज़ ...
आखेटक !
                
सधी हुई
माहिर
लयबद्ध
कलकल
सृष्टि का पहला झरना ...
पहले प्रेम में खिली लता सी
झूल गई हूँ इसे थाम ...



(2)

दिन सन्नाटा है
भटकती रही हूँ तुम्हारी आवाज़ में देर तक
अपने ही भीतर अपनी ही बात कहता उलझ जाए कोई जैसे
कुँआ है अतल...वह स्वर
भागती रस्सी दिगंत तक...उठती-गिरती
गहराती आवाज़
मनस्विनी पृथ्वी के भीतर से
फूटता अनहद नाद...
डूबती हूँ , थामती हूँ रस्सी
पिघलती है इंद्रधनुषी आवाज़
भीगती हूँ
भीगी होगी जैसे
सृष्टि की पहली स्त्री !


(3)

हवा के पर्दे में छिपी उदासी
आवाज़ जैसे गुफा अंधेरी ठण्डी और गहरी
चट्टानी और गीली
अतीत से बोझिल पुरानी अकेली
कोई शब्द रहस्यलोक
पाताल का वासी
नतसिर भीतर जाती मैं संकरे मुहाने आवाज़-गुफा के
अलाप है विरही सा कम्पन प्रलाप है
थरथर और मरमर
मंत्रों से बाधित प्रवेश
दुराती है करती निषेध

नतसिर जाती मैं भीतर धारण कर मौन की देह ...


 (4)
और अभी
जैसे अभी खिला सहस्र दल कमल
बरसता कम्बल और भीगता पानी
भीगती तरंगायित         
कण्ठ में तुम्हारे कमलिनी
कुँलाचें भरता प्यारा मृगछौना
गरमी उसांस की ...महमह
प्रेम के अक्षर उछलते लुढकते पहाड़ी से घाटी
पुकार
अथक
बकबक 
सशब्द

नि:शब्द ! 

___________


सुजाता
(9 फरवरी 1978,दिल्ली)

दिल्ली विश्विद्यालय से पीएच. डी. स्त्री मुद्दों पर पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन.  
कविता संकलन अनंतिम मौन के बीचभारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित.
कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई स्मृति सम्मान 2015 और वेणु गोपाल स्मृति सम्मान 2016.
एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य.


ई मेल-  Cokherbali78@gmail.com

कथा - गाथा : भंवर : अबीर आनंद

$
0
0
कृति :  saad-qureshi







पश्चिमी उत्तर प्रदेश (पीलीभीत) के अबीर आनंदसैनिक स्कूल घोड़ाखाल (नैनीताल),हरकोर्ट बटलर टेक्निकल यूनिवर्सिटी (कानपुर), आई. आई. टी. (खड़गपुर) और  IIM (कलकत्ता) से होते हुए इस्पात, आयल एंड गैस, ऑटोमोटिव और स्पेशिलिटी केमिकल जैसे क्षेत्रों में काम करके फिलहालवडोदरा स्थित एक केमिकल कंपनी में कार्यरत हैं. अबीर का कहानी संग्रह 'सिर्री'हाल ही मैं प्रकाशित हुआ है.  


कथाकार अबीर आनंद ने अपनी कहानी ‘भँवर’ में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ग्रामीण संरचना को बुना है. इस संरचना में ज़र, जोरू और जमीन के त्रिकोण में हत्याओं का सिलसिला है. कहानी आपको बाँध लेती है. अबीर अपनी कथा – शैली से आपको गहरे प्रभावित करते हैं.  



कहानी
भँवर
__________ 
अबीर आनंद    





मुँहमें ठूँस देते, प्यास हो न हो निगल लेता जहर….सिर्फ मैं मरा होता. जङों में सींच दिया, पुश्तें बरबाद कर दीं.


दरअसल इस पूरी व्यवस्था का पीड़ित कोई है ही नहीं.चेहरे उतने ही हैं.देहाड़ी पर ईंट और गारा उठाते मजदूर हों, बैलों वाले हों या ट्रैक्टर वाले किसान हों, या रेलवे के कुली; या फिर वर्दी में टशन से पेश आते पुलिसिये, इन्टरनेट पर आँखें गढ़ाए आयकर रिटर्न दाखिल करते सूट-बूट वाले नई पीढ़ी के पेशेवर, नोटबंदी की झुलसती कतारों में अपने सप्ताह भर के लेन-देन की जद्दोजहद करते छोटे व्यापारी, नौकरशाही के बड़े अफसर, नेता, मंत्री चपरासी सब के सब....इन सब चेहरों में एक भी चेहरा पीड़ित नहीं है.फिर भी पीड़ा दिखती है.अस्पताल में दवाओं के अभाव में दम तोड़ते मरीजों के चेहरों पर दिखती है, डॉक्टर की लाइलाज लापरवाही से बीमार के खौफ़ज़दा चेहरे में दिखती है, डॉक्टरों के अपर्याप्त कमीशन में दिखती है, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के अधूरे रह गए टारगेट में दिखती है, दवा कम्पनियों के गिरते शेयर भाव में दिखती है, वसूली करती बैंकों की बैलेंस शीट में दिखती है.

हर उस जगह, जहाँ-जहाँ सूरज नियम से रोजाना व्यर्थ रोशनी बिखेरने चला आता है, जिसके लिए न कहीं अज़ान पढ़ी जाती है और न आरती उतारी जाती है, पीड़ित चेहरे दिखाई देते हैं.पर पीड़ित कोई नहीं है.हर चेहरा इसे अपने रुआब की सलवटों में दबाए घूमता रहता है, इसलिए दिखाई नहीं देती.इन सलवटों की परतें सहूलियत के हिसाब से खोली जाती हैं.एक अवसर देखकर, जैसे कि मुहूर्त निकाला जाता है, चेहरे के रंग उतरते दिखाई देते हैं.सलवटों के बीच गुथी हुई गन्दगी को पीड़ा की शक्ल देकर प्रस्तुत किया जाता है क्योंकि सामने कोई है जो इसे खरीदने में दिलचस्पी रखता है.जैसे दरवाजे पर आए रद्दी खरीदने वाले के साथ पुराने बेज़ार अखबारों का मोल-तोल होता है, वैसे ही इस गन्दगी का भी एक भाव होता है.जिस दिन, जिस जगह किसी खरीदार की बोली सही मिल जाती है, अखबारों की सलवटें खोल दी जाती हैं.पीड़ा उघड़ जाती है और वह इश्तिहारों का, खबरों का हिस्सा बन जाती है.शब्दकोष की परिभाषा के अनुसार एक सफल पीड़ितवह है जो अपनी चालाकियों के हुनर अनुसार सलवटों की गन्दगी का अधिकतम मूल्य वसूलने में सफल हो जाता है.सच, यही पीड़ा की सही परिभाषा है.बाकी सब कोरी बकवास है.        



(एक)
रात न जाने क्या पिया नोटों ने, सुबह उठे तो बदचलन होकर उठे.छोटे नोट बच गए, होश में थे.पर बङे नोट सब के सब स्याह हो गए.न्यूज़ चैनलों पर खबर चल रही थी.सरकार कह रही थी कि यदि ज़रुरत पड़ी तो ऐसा दोबारा किया जा सकता है.पहले कभी ऐसा हुआ नहीं इसलिए अर्थशास्त्री इस रायते को हज़म करने में अक्षम नज़र आ रहे थे.कोई कह रहा था स्वादिष्ट है तो कोई कह रहा था कि नीम कड़वा है.कुछ ही दिनों में नए नोट निकाले जाएँगे.कई लोगों को भरपूर तसल्ली तब जाकर मिली जब सरकारी वक्तव्यों से स्पष्ट हो गया कि नए नोटों पर भी गाँधी बाबा ही होंगे, उसी मुद्रा में मुस्कुराते हुए, जैसे कुछ हुआ ही न हो.ब्लैक मनी, आतंकवाद, कर चोरी, कैशलेस जैसे कई संवेदनशील मुद्दों को जानबूझकर दरकिनार करते हुए पचपेड़ा में कई बुढ़बक थे जो ये सवाल पूछ रहे थे कि आखिर बड़े नोट ही क्यों.जिज्ञासा ऐसी कोई तीव्र नहीं थी पर कुछ अधपके ज्ञानियों को ठहाका लगाने का अवसर मिला तो कैसे चूकते.
जैसे-जैसे गाँधी बाबा का कद बढ़ेगा...और गाँधी बाबा क्या...किसी का भी.....जैसे-जैसे किसी का कद बढ़ेगा, उसके बदचलन होने की संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी.

हीरा सिंह को अक्सर गाँव में काम-धंधा नहीं रहता था.गाँव के बाकी पढ़े-लिखे लोगों से वह खुद को ज्यादा उस्ताद समझता था.वह अकेला ही था जिसने बीए और एमए दोनों ही फर्स्ट क्लास में पास किये थे और फिर भी गाँव की ख़ाक छानने को मजबूर था.एक-आध बार मथुरा रिफाइनरी के कांट्रेक्टरों ने उसे रुपये-पैसे का लेन-देन सँभालने का काम भी दिया था, पर वह कहता था कि उसे जमता नहींहै.नौकरी पर नया-नया लगा था तो ईमानदारी का गज़ब फितूर था.स्कूल के मास्टरों ने पहली कक्षा से घोट-घोट कर पिला दिया था-आनेस्टी इज बेस्ट पॉलिसी,सो नए-नए गुलाम को सेवा का पहला अवसर मिला तो उड़ेलने लगा अपनी सारी पढ़ाई अपने व्यवहार में.कुछ तो ईमानदारी के फितूर का उतर जाना था और कुछ बार-बार मालिकों की डपटने की आदत...जिसने उस ठेठ जाट के अंदरूनी सिस्टम को हिला दिया.उसने अलविदा कहा और वापस गाँव आकर खेती-बाड़ी में लग गया.अनपढ़ आदमी अगर शहर जाकर किसी के द्वार पर चौकीदार भी हो जाए, गाँव वापस आने पर भी साहब ही कहलाता है.पर एक पढ़ा-लिखा एमए पास लड़का अगर गाँव में ही बैठा रहे तो भी मजदूर-किसान ही कहलाता है.खैर, उसकी समझ इतनी भी नहीं विकसित हुई थी कि उसे अपने व्यक्तित्व की परिभाषा में कोई विशेष रूचि हो.

आठ नवम्बर को जब नोटबंदी का एलान हुआ तो पूरे देश में अफरा तफरी का माहौल था पर हीरा के चेहरे पर शिकन तक न थी. जब नोट चालू हते तब कछू न उखरो हम पे, तो अब का उखार लिंगे.और सचमुच दो तरह के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा था.एक वे जिन के पास अपार संपत्ति थी, अब रंग चाहे कुछ भी हो...सफ़ेद या काला...अपार संपत्ति, अपार संपत्ति होती है; और दूजे वे जिनकी न पिछली सात पुश्तों ने भरपेट भोजन खाया और न आगे आने वाली सात पुश्तों के खाने की उम्मीद है.एक वे हैं जो अपना पैर जहाँ जमा देते हैं लाइन वहाँ से शुरू होती है और दूसरे वे हैं जो अपने दोनों पैर हाथों में लिए फिरते हैं कि न जाने कल की लाइन कहाँ से शुरू करनी पड़े.इन दोनों ही तबकों को नोटबंदी से कोई मतलब नहीं था.जिन दो तबकों को नोटबंदी की प्रत्यक्ष या परोक्ष मार पड़ने वाली थी उनमें एक लोअर मिडिल क्लास यानी निम्न मध्यम वर्ग.बच्चे की स्कूल फीस, पढ़ाई का खर्च, घर का किराया, रसोई, राशन और शाम की दारु का खर्च सब में ही लेन-देन कैश में चलता था.कुछ वाजिब खर्च महीने के अंत में आते थे पर रोज़ शाम की दारु का खर्च अक्सर ऊपरी इनकम से निकलता था.और अब नोट बंद...मतलब ऊपरी इनकम बंद.

अपर मिडिल क्लास भी प्रभावित था पर उसकी समस्याओं का गणित कुछ और था.पैसा छुपाएँ कहाँ? इनकम टैक्स को पता चल गया तो? अब तक क्यों 'डिक्लेअर'नहीं किया? कभी-कभी लगता है कि कैसा लचर क़ानून है.अगर कानून में जेल भेजने का प्रावधान है तो भेज दो...एक बार उतरेगी इज्जत...उतर जाने दो...बस.दिक्कत तब आती है जब क़ानून गीला होकर सॉफ्ट हो जाता है.सॉफ्ट होने के इंतज़ार में और उससे बच निकलने की तृष्णा में आदमी जो तिल-तिल पिसता है वह बहुत तकलीफदेह है.शिकंजे में तो आ गए और ये भी पता है कि बच ही जाना है...फिर भी साली एक साँस लटकी रहती है कि कहीं कड़क अफसर आ गया तो...? कहीं नहीं माना तो...?

जब तक नोट बंदी को एक पखवाड़ा गुजर नहीं गया, हीरा को अपना सही-सही वर्गीकरण पता ही नहीं चला.उसे लगता था वह सबसे निचले पायदान पर है और नोट बंदी उस जैसे लोगों का कुछ नहीं उखाड़ सकती.कुछ दिन उसने इस भ्रम को बखूबी निभाया भी.गाँवों में अव्वल तो भाजी-तरकारी लगती नहीं और जो थोड़ी बहुत लगती है उसकी जरूरत खेत-खलिहान से पूरी हो जाती है.चाय-पानी, मजूरी का उसका उधार खाता चलता ही था...तो वहाँ भी कोई दिक्कत नहीं थी.पहली बार दिक्कत उसे तब आई जब उसकी जेब का कैश ख़त्म हो गया और दारू तक के लिए पैसे नहीं थे.अब ठेके वाला तो उधारी चढ़ाने से रहा.उसे खेतों में कम पानी मंज़ूर था, दाल में कम दाल मंजूर थी, सब्जी में कम सब्जी मंजूर थी पर दो चीज़ें ऐसी थीं जो उसे कतई मंजूर नहीं थीं.एक तो उसके बालों में कम तेल और दूसरा उसके दिन भर की दारू की कम ख़ुराक.छोटे, गरीब परन्तु पढ़े-लिखे किसानों की सज्जनता के दो ही पहचान चिन्ह हैं.एक तो उनके इस्तरी किए हुए नए से लगने वाले कपड़े और दूसरे उनके करीने से कढ़े हुए बाल जो भयंकर आँधी-तूफ़ान में भी एक दूसरे  से चिपके रहने का माद्दा रखते हों.अब वह ऐसा कोई रईस तो था नहीं कि रोज नए कड़े बदल कर पहनता.तेल, मगर सस्ता था और वह कम से कम बालों में तेल चुपड़ कर अपने शिक्षित होने की साख बरकरार रख सकता था.बालों में तेल चुपड़े जाने और हर शाम शराब का पउआ पीने को लेकर वह सनक की हद तक नियमित था.इन दोनों में से कौन सी चीज़ को लेकर उसकी सनक बड़ी थी, ये वह खुद नहीं जानता था.माना कि शौक सिर्फ बड़े लोगों का फैशन हैं पर कुछेक छोटे-मोटे शौक तो गरीब आदमी भी निभा सकता था.जब उसके जेब के सिक्कों की खनक बंद हो गई तो नोटबंदी के मारे दूसरे आम लोगों की तरह उसने भी बैंकों की लाइन में लगना शुरू कर दिया.दिन भर धूप में तपता वह बैंक से कुछ रुपये निकाल लाता और शाम को ठेके की लाइन में लग जाता.हालाँकि ठेके पर कोई लाइन नहीं रहती थी पर सुबह से बैंक की लाइन में लगे हुए ही उसे यह आभास होता था कि वह ठेके की लाइन में ही लगा है.जो अंतिम उद्देश्य होता है, सारा संघर्ष उसी से परिभाषित होता है.बैंकों की लाइन में कोई रूपया निकालने नहीं लगता, वह लगता है अपने बच्चे की फीस भरने, तरकारियाँ खरीदने और बिजली का बिल भरने के उद्देश्य से.इसलिए ये संघर्ष भी फीस, तरकारियों और बिलों का संघर्ष है...न कि सरकार की नीतियों का और न ही एटीएम में रुपया मुहय्या न कराने वाले बैंकों के दिवालियेपन का.पत्नी खूब धौंस देती, मर जाने की धमकियाँ देती पर शराब पीकर जो अमरत्व हीरा पा चुका था उस पर इन गीदड़ भभकियों का कैसा असर?


उस दिन सुबह-सुबह हीरा की चौपाल में पुलिस वाले आ धमके.बच्चों की भीड़ जैसे गाँव में घुसती हुई कार को कुतूहलवश घेर लिया करती करती है या फिर चुनाव के दौरान नेताओं के हेलीकोप्टरों के आस-पास उमड़ पड़ती है, वैसी ही गाँव वालों की भीड़ उस दिन पुलिस को देख कर हीरा की चौपाल पर उमड़ पड़ी थी.कुतूहल इस बात का नहीं था कि पुलिस क्यों आई है बल्कि इस बात का था कि जैसे फिल्मों में दिखाते हैं पुलिसवालों को पूछ-ताछ करते हुए क्या पुलिस वाकई वैसे ही पूछ-ताछ करती है.हीरा का पूरा परिवार जमा था.उसकी बूढ़ी अम्मा की खाँसी बता रही थी कि अभी-अभी घटिया सी तम्बाकू की चिलिम के चार-छः कश लगा कर आई है.बड़ा भाई धनपत जिसे गाँव की जल्दबाजी ने धनिया कह कर प्रचारित कर दिया था, मुँह लटकाए एक ओर खड़ा था.रजावल और हसनगढ़ दोनों थानों के दरोगा दो अलग-अलग खाटों पर आमने-सामने बैठे थे.हीरा दयनीय स्थिति में  उन दोनों खाटों के बीच ज़मीन पर बैठा था.गाँव की भीड़ चारों ओर से उन्हें घेरे हुए खड़ी थी.

छोरा!!! दरोगा जी के काजे चाय ले आ.दूर खड़े धनपत ने एक लड़के को डपटते हुए कहा.
चाय तो पी लोगे दरोगा जी...?”उसने सुनिश्चित करने हेतु आगे पूछा.
नहीं नहीं...रहन देयो.रजावल के दरोगा जी बोले.
पेट में कब्ज़ है गई ऐ, लाल चाय ना पीयें दरोगा जी...बस ग्रीन टी पीयें....ग्रीन टी होए तो ले आबो.
धनपत बगलें झाँकने लगा.कुछ समझ न आया तो हसनगढ़ के दरोगा से मुखातिब हुआ.
आप लेओगे लाल चाय?”
हाँ इनके लये मँगा दो.हसनगढ़ के दरोगा के साथ का अर्दली बोला.
जाओ...ले आओ.


सीमाओं का अपना अलग समीकरण है, अपना अलग चरित्र.फिर चाहे सीमाएँ देश की हों, समुद्र की, आकाश की, गाँव-देहात की, खेतों की या फिर इंसानों की.दुनिया के सारे बुद्धिजीवी सीमाओं के गणित को एक सिरे से नकार देते हैं और सभ्यता की प्रगति के लिए गैर ज़रूरी मानते हैं.यहाँ तक कि उन्हें कोई सिर्फ बुद्धिजीवीशब्द की सीमाओं में बाँधना चाहे तो भी वे विद्रोह कर उठते हैं.हसनगढ़ के दरोगा को सूचना मिली थी कि रज्जो की लाश एक खेत में मिली जो उनके थाना क्षेत्र की सीमा में आता है.पचपेड़ा गाँव रजावल की सीमा में पड़ता था और रजावल थाने के दरोगा को सूचना मिली थी कि रज्जो की लाश घर से बरामद हुई है.हसनगढ़ थाने के दरोगा ने चाय के लिए स्वीकृति दी तो दूसरे दरोगा आश्वस्त हो गए कि चाय पी कर वह चले जाएँगे और सीमा का विवाद समाप्त हो जाएगा.विवाद को अंतिम रूप से समाप्त करने के लिए रजावल के दरोगा ने हीरा से औपचारिक हामी भी भरवा ली.

क्यों हीरा? जे घर मेंई तो भयो...?”
हाँ दरोगा जी.हीरा ने उनकी आँखों से आँखें मिलाकर सहमति जताई.
कौन्ने देखी लाश...? सबसे पहले किसने देखी थी लाश?”रजावल के दरोगा कुँवर सिंह ने पूछा.
या छोरी ने देखी...अम्मा के संग कमरे मेंई सोई हती.धनपत बोला.
हीरा की सत्रह साल की बेटी भीड़ में से निकलकर थोड़ी आगे आ गई.
शुरू से बता...क्या हुआ था?”
साब हमें काम पे जाने है...आज जरूरी है....कोर्ट की तारीख है. हीरा ने विनती की.
जे तेरी जोरू से बड़ी है कोर्ट की तारीख?”दरोगा ने ऊंचे स्वर में डपटते हुए कहा.
तेरी जोरू मरी है और तोये कोर्ट की तारीख की पड़ी है?”
उठता हुआ हीरा दरोगा की डपट सुनकर फिर वहीं बैठ गया.
ठीक है कुँवर साब...कोई बात नहीं..गलती है गई..कोई बात ना.चाय ख़त्म करके हसनगढ़ के दरोगा जी चलने के लिए उठ खड़े हुए.
हाँ..बताओ...शुरू से बताओ और सब कुछ बताओ.सत्यवीर सिंह के चले जाने के बाद रजावल का दरोगा कुँवर सिंह हीरा की बेटी सुषमा की ओर मुड़ा.
जिस कमरे में वह सुषमा के साथ सोई थी, रज्जो की लाश उसी कमरे के गाटर में झूलती पाई गई थी.घर वालों ने जब लाश उतारी तो उसका गला सुषमा के दुपट्टे का सहारा लेकर लटका हुआ था.सुषमा संभवतः वह दुपट्टा अपने सिरहाने रखकर सोई होगी.

हर पुलिस केस का अपना एक आकाश होता है.कभी-कभी ये आकाश एक छतरी के नीचे समा जाता है और कभी-कभी आसमान के दूर वाले छोर पर इन्द्रधनुष की तरह छँटकर खिलता है.जैसे शिकारी हिरण के शिकार के लिए घात लगाकर उसका पीछा करता है...पर हर हिरण का नहीं.वह उन्हीं हिरणों का पीछा करता है जिनके धरातल में सुगंध होती है.और सुगन्धित धरातल उन्हीं हिरणों के होते हैं जिनकी नाभि में कस्तूरी होती है.

धनपत और हीरा दो भाईयों के बीच अठारह एकड़ जमीन है.होली के बाद वाले महीने में जब गेहूँ की बालियाँ थ्रेशर के डैने जैसे मुँह का ग्रास बनती हैं तो थ्रेशर के सामने खड़े हुए धनपत को सोनार होने का एहसास होता है.गेहूँ के दाने तो छोड़ दीजिये, सोने की चमक उन बालियों से निकले हुए भूसे के सामने पानी माँगती है.धनपत अनपढ़ रह गया.स्कूल जाता था पर मास्टर से उसका उजड्ड रवैया सहन न हुआ.वह बड़े बुजुर्गों से सुनता आया था विद्या ददाति विनयम....फिर एक दिन उसने गाँव में किसी बड़े बुजुर्ग से अपनी शंका का समाधान करते हुए पूछा, ताऊ, जे विनयमआ गई तौ ऐसो तो नाय कि हम जाटई न रह जाएँ.

ताऊ उसके सवाल पर हँसने लगा और बोला, तेरो शक एक दम सई है, ‘विनियमआय गई तौ तू जाट ना रह जाएगो...कल्ल से तेरो स्कूल जानो बंद.ताऊ ने उसके पिताजी से कह दी और उसका स्कूल छूट गया.हीरा को पढ़ाई में रुचि इसलिए हो गई क्योंकि उसे अपने खेतों में मजदूरी करना पसंद नहीं था.स्कूल जाने लगा तो कम से कम पानी काटने और हल जोतने के काम से तो बच गया.हीरा के घर में एक ट्रैक्टर था, एक पुरानी सेकंड हैण्ड मारुती वैन थी और एक मोटर साइकिल थी.पत्नी के लटक कर जान देने के उपलक्ष्य में  दो-दो थानों के दरोगा वहाँ इसलिए पहुँच गए थे क्योंकि उन्होंने हिरणी की नाभि में कस्तूरी की सुगंध सूँघ ली थी.अर्थशास्त्र के किसी भी बेंचमार्क पर हीरा और धनपत गरीब नहीं कहे जा सकते....पर ये रज्जो की मृत्यु के पहले की बात थी.उनके घर का एक सदस्य गले में दुपट्टा लगाकर मर गया था और दो-दो थानों के दरोगा गिद्ध बनकर उनके सामने बैठे लार टपका रहे थे.अब वे पीड़ित थे और पीड़ित...गरीब होता है.       
                                                        
      
कृति :  saad-qureshi
                                                 


(दो)
                                                                        
कौन के बुँदे उठा लाई?”विनोद ने पूछा.
अम्मा के हैं...उतार के बक्से में रखे थे...पहन आई...कैसे हैं?”
अच्छे हैं....
करतार सिंह के बगीचे में सुषमा आम के घने पेड़ के नीचे बैठी थी.लगसमा इंटर कॉलेज में वह विनोद के साथ बारहवीं में आई थी.पढ़ाई में दोनों ही अच्छे थे.त्रिकोणमिति के एक प्रश्न में जब वह उलझी तो उसे विनोद के सिवा कोई दिखाई न दिया जो उसकी मदद कर सकता था.दूसरे वह उसके गाँव का भी था.त्रिकोणमिति का सवाल तो हल हो गया पर एक नए सवाल ने अनजाने में ही सिर उठा दिया.बात-चीत में बात शाहरुख़ खान की निकल आई और मानो दोनों ने समर्पण कर दिया.उस दशक के लड़कों को माँ-बाप द्वारा ये सख्त हिदायत दी जानी चाहिए थी कि किसी लडकी से किसी भी विषय पर बात भले कर लेना पर कभी शाहरुख़ खान की बात मत करना.शाहरुख़ खान का ज़िक्र आया नहीं कि लड़की के ड्रीम सीक्वेंस चालू.
एक बात कैनी ऐ.विनोद बोला.
बोल.
वह कुछ देर चुप रहा.रज्जो को लगा कि थोड़ी देर में सोच-समझ कर बोलेगा.आखिर इज़हार में कोई नाज़--अंदाज़ भी होना चाहिए.
अरे बोलेगौ के जाऊँ मैं?”सुषमा एक नया ड्रीम सीक्वेंस बुनते हुए अधीर हुई जा रही थी.
मैं जब छोटो हतो तौ एक दिन ताऊजी बगीचे में जेई जगह बैठे हते...दोपहरिया में हलके होन आये हते.विनोद हलके से मुस्कुराने लगा.सुषमा का ड्रीम सीक्वेंस टूटा तो वह गुस्सा करने लगी.
बावरे...तू बावरो को बावरोई रेगो.मोए घर जानो ऐ.वह बोली.
अरे पूरी बात तो सुन जा.वह एक नई उम्मीद में बैठ गई.
उस दिन मैं पेड़ के ऊपर बैठके हलको है रहो ओ.वो वाली डाली है न...उस पे बैठ के... !इतना कह कर वह जोर से हँसा.

रज्जो उसके इस मज़ाक पर जोर से चिल्लाई.उनकी आवाजें किसी के कानों में पड़ीं और देखते ही देखते धनपत अपने साथ आधा दर्ज़न लठैतों को लेकर आ पहुँचा.गुस्से का लावा उसकी आँखों से उतरकर उसके लट्ठ में समा गया.उसने विनोद की पीठ पर एक ज़ोरदार प्रहार किया.तभी किसी ने उसकी लाठी पकड़ ली.
जे पंचायत को मामलो है...मार पीट करैगो तो पुलिस केस बनैगो....
अन्य लोगों ने समर्थ किया तो धनपत रुक गया.
उसी दिन शाम को पंचायत जुड़ी और तय हुआ कि गाँव की खुशहाली और शान्ति के हित में विनोद सुषमा से कभी नहीं मिलेगा.
पचपेड़ा के पिछले हिस्से में जिसके किनारे लग कर एक चौड़ी और गहरी नहर बहती है, एक कुम्हारों की बस्ती है.उस नहर के आस-पास उपजाऊ जमीन में फसलें लहलहाती हैं.कभी मक्का की, बाजरा की, गेहूँ की, चरी, गन्ने और अरहर की.नहर के पानी से फसलों के साथ कुछ आम और जामुन के बगीचे भी तर जाते हैं.उस नहर के दूर वाले छोर पर एक पुल बना है, खेतों से काफी ऊँचाई पर; इस पुल पर चढ़कर आस-पास के गाँवों में नहर के पानी का बरसता हुआ आशीर्वाद देखा जा सकता है.नहर तकरीबन पूरे साल ही पानी से भरी रहती है.

शहरों में फ्रिज जरूर आ गए हैं पर गाँवों में आज भी ठंडा पानी घड़े ही मुहय्या कराते हैं.उसी तरह दीवाली की चकाचौंध पर शहरों में जरूर फाइबर और प्लास्टिक के चीनी सामानों ने अँधेरा पोत दिया है पर गाँवों में आज भी दिये और मोमबत्तियाँ ही उजियारा करती हैं.कुम्हारों का व्यवसाय गर्मी के घड़ों और दीवाली के दियों तक सिमट गया तो वे आस-पास के खेतों में देहाड़ी मजदूरी करने लगे.खेत जुतवा देते, निराई, गुड़ाई से लेकर बुवाई, सिंचाई और कटाई सब में अपना हाथ बँटाने लगे.गाँव के ठाकुरों में जिनके पास बड़ी जमीनें उनके बच्चों को वैसे भी अब खेती में रूचि न रह गई थी.कुम्हारों से काम कराते समय उन्हें जो मालिकाना एहसास होता था अब बस उसी एहसास ने जातीय अर्थशास्त्र को सँभाल रखा था.दिये और घड़े बनाकर वे वर्ण व्यवस्था की जिस सीढ़ी पर पहले खड़े थे, आज भी वहीं खड़े थे.भूमिहरों पर जितने आश्रित पहले थे आज भी उतने ही थे.कहीं एक चिंगारी जरूर थी जो दिए की लौ से दूर गिरकर इधर-उधर भटकने लगी थी.समयांतराल में समाज की जागरूकता और सरकारों के साक्षरता अभियानों ने जोर पकड़ा, तो क्या जाट और क्या कुम्हार, सब के सब इसके हिस्सेदार बन गए.ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ कुम्हारों ने ही शिक्षा में अपने बच्चों का भविष्य देखा.जाटों में भी ऐसे जागरूक लोग थे जिन्होंने शिक्षा के चमत्कार को स्वीकारा और अपने बच्चों को कॉलेज और विश्वविद्यालयों में जाने के लिए प्रेरित किया.दिक्कत ये थी कि अच्छी शिक्षा को जाति-बिरादरी का अंतर बिलकुल मालूम न था.इसलिए जब हाई स्कूल में, इंटर में या डिग्री कॉलेज में गाँव का कोई कुम्हार किसी जाट को पछाड़ कर आगे निकल जाता तो गाँव में दबे-पाँव एक तनाव सा घुस आता.पहले-पहल इस तनाव ने कॉलेज जाते नई उम्र के लड़कों पर वार किया.धीरे-धीरे जब पंचायतें इसे समझने और रोकने में विफल हो गईं तो कॉलेज के छोटे-मोटे झगड़े गाँव में वर्ग संघर्ष का रूप धरने लगे.नए उभरते आर्थिक समीकरणों ने दोनों ही वर्गों की एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ा दी थी.होना यह चाहिए था कि वर्गों के बीच बढ़ते हुए संपर्क से जाति-भेद की दूरियाँ कम होतीं पर हुआ इसका उल्टा.कॉलेज जाने वाले पढ़े-लिखे समझदार युवाओं ने नंबरों की आपसी होड़ को फिर से वर्ग-भेद का जामा पहना दिया.

कृति :  saad-qureshi

                                                                             
(तीन)

हीरा सींग...!अर्दली ने पुकारा.
हम्बे...!उसने उत्तर दिया.
आओ बैठो और पूरी बात बताओ....देखो हीरा सीधी-सीधी बात करुंगो मैं....इन्वेस्टिगेशन में साफ़-साफ़ नज़र आ रो है कि तुमने अपनी बीवी की हत्या करी है...चौंकि तुम्हारी लड़की को चक्कर हतो कुम्हारन के लौंडा विनोद सै...और तुम्हारी बीवी लड़की की शादी उस लौंडे से करने के फेवर में थी.जे बात तुम्हें और तुम्हारे पूरे घर को पसंद नाई.
जे सब झूठ है साब.
तो फिर तुमने हमें सुषमा के चक्कर वारी बात पहले चौं ना बताई?”
इंटर की परीक्षा देते ही विनोद और सुषमा घर से भाग गए.विनोद के दोस्तों ने जोखिम उठाकर शहर में उनके रहने की व्यवस्था की.कुछ दिनों लुका-छुपी खेलने के बाद दोनों एक लॉज में पकड़ लिए गए.वह खुद भी चाहते थे कि पकड़ लिए जाएँ क्योंकि लॉज का खर्चा अब उनके बस के बाहर हो चला था.गाँव में भी कुम्हारों के परिवारों पर दवाब था कि जो व्यवस्था चली आ रही है फ़िज़ूल उसके साथ छेड़खानी न की जाए.हिंसा नहीं भड़की थी पर इतना ज़रूर था कि अगर मामला जल्दी ही सुलटा न लिया गया तो कोई न कोई काण्ड ज़रूर हो जाएगा.हीरा ने बदनामी के डर से पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई थी पर उसकी अपनी छान-बीन चल रही थी.पकड़े जाने के बाद दोनों पक्षों ने पंचायत के सामने लड़के की पिटाई की और उसे हिदायत दी कि ऐसा दोबारा हुआ तो दोनों की लाशें निकलेंगी.
बदनामी के डर से ना बताई साब.
और भी कुछ है जो तुमने छुपाओ है.दरोगा कुँवर सिंह का सुर सख्त हो गया.हीरा ने बस हामी में अपना सिर हिलाया.     
कछू दिना पहले....धनपत की सगाई तय भई ऐ.
का? थारे बड़े भाई की? कितने साल कौ है बो?”
पचपन साल कौ?”
और कौन दै रौ वे वाये अपनी छोरी?”
पचास हज़ार में करी ऐ.सुनी-सुनाई बता रौ ऊँ.

दरोगा कुँवर सिंह के लिए केस में नया मोड़ था.केस के नज़रिए से चौंकाने वाली बात थी पर दरोगा के व्यक्तिगत नज़रिए से नहीं.इलाके में लड़कियों की संख्या कम है.सब मर्दों की शादियाँ नहीं हो पातीं.धनपत के मामले में बात कुछ और थी.शुरू-शुरू में जय गुरुदेव का भक्त हो गया था...सो कहने लगा कि शादी नहीं करेगा.घर वालों ने लड़की पसंद कर ली थी पर जब दूल्हा ही अड़ जाए तो क्या किया जा सकता है.कुछ दिन माँ-बाप ने मान-मनौव्वल किया पर उसका निर्णय अटल रहा.थक हार कर उन्होंने उसी लड़की से हीरा की शादी करा दी.

केस को एक सप्ताह से ज्यादा हो चला था औए कुँवर सिंह ने रत्ती भर भी जाँच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की.एक बार गाँव में जाकर ही पूछ लिया होता तो किस्से की सारी गाँठें खुल जातीं.बिना कोई ठोस पड़ताल किये वह सिर्फ इस जुगाड़ में था कि किसी भी तरह सौदा फाइनल हो जाए.अपने मन में उसने सारा गणित लगा लिया था.जमीन से कितनी आमदनी होती होगी? घर में दो-दो वाहन हैं...ऊपर से हीरा भी शहर में किसी वकील के यहाँ कोई काम करता है.अगर रोज़ भी पउआ पीता होगा तब भी खर्चा कोई ज्यादा नहीं होगा.कुल मिलाकर उसके मन में डेढ़ लाख की छवि उभरी.अगर हीरा सिंह डेढ़ लाख रुपये दे दे तो केस फ़ौरन वहीं का वहीं सुलट जाए.पर हीरा सिंह कोई मिस्री की डली न था कि मुंह में डाली और चूस ली.साम, दाम, दंड, भेद...हमारे शास्त्रों में जिन कलाओं का वर्णन है उन्हें सही समय पर इस्तेमाल में लाना चाहिए नहीं तो कस्तूरी तो दूर हिरणी की पूछ भी न मिले.

कुछ दिन और गुजरे पर कोई सुराग न मिला.कुँवर सिंह झुंझलाने लगा.स्टाफ के लोग क्या कहेंगे? थू-थू होगी कि इतना हलवा केस और इतनी तगड़ी पार्टी और दरोगा जी हैं कि बस रेगिस्तान में बुलेट दौड़ाए घूम रहे हैं.जल्दी कुछ करना होगा नहीं तो जिले के सारे थानों में खबर फ़ैल जाएगी.विडम्बना ये भी है कि अगर दरोगा के नीचे काम करने वाले सिपाही और अर्दली जान लें कि दरोगा में कोई पोटेंशियलनहीं है तो वे भी उसके साथ सहयोग नहीं करते.न दरोगा का रौब रह जाता है और न कमाई.समय हाथ से निकलता देख एक दिन उन्होंने धनपत को थाने में तलब किया.
ब्याह चौं ना करौ?”कुँवर सिंह ने पहले ही सवाल में उसकी नस कुचल दी.
भगत है गयो हतो...ना करौ ब्याह.जमीन पर गर्दन झुकाए बैठा था, गर्दन झुकाए ही उत्तर दिया.
रज्जो तैने मारी?”

उसने गर्दन ऊपर उठाई और दरोगा की आँखों में आँखें डालकर देखने लगा.ट्रैक्टर के पहिये के नीचे जब साँप की पूँछ आ जाती है तो वह गर्दन उठाकर ऐसे ही फुंफकारता है.उसके एक कान में सोने की छोटी सी बाली थी, जिसका सुनहरापन उसके कानों के ऊपर से रिसते हुए पसीने की बूंदों ने हर लिया था.उसकी सुनहरी दमक में एक बासीपन था.सर पर साफा था.मेज़ के ऊपर सरकारी पंखा घें घेंकी आवाज में चल रहा था.वातावरण में गर्मी थी पर आर्द्रता नहीं थी.उस कमरे की छत काफी ऊँचाई पर थी और थाने के विशाल प्रांगण में हरे-भरे पेड़ थे.केस हल हों न हों, नियम से हर साल अफसर, सिपाही, अर्दली, नौकर, माली, कैदी सब के सब विश्व पर्यावरण दिवस पर थाने में वृक्षारोपण कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे.जेठ की उस दोपहरी में बाहर सूरज आग उगल रहा था पर उस कमरे में, जहाँ दरोगा धनपत से पूछ-ताछ कर रहा था, मौसम सुहाना था.
ये दीदे नीचे कर और बता...चौं मारी रज्जो?”
दरोगा ने अपने हाथ का डंडा उसके सिर पर दवाब देकर रखा.धनपत एक झटके में मुस्कुरा उठा.उसके दाँतों में दबी तम्बाकू की पुड़िया पूरी मसली जा चुकी थी और उसने दाँतों के बीच के रिक्त स्थान को सजावटी डिज़ाइन से भर दिया था.   

रज्जो धनपत की शादी के खिलाफ थी.और दो महीने पहले जब उसने लड़की लाने की बात कही तब से नहीं बल्कि जब से वह हीरा को ब्याह कर आई तब से.अठारह एकड़ जमीन का बँटवारा होता तो हीरा के हिस्से में रह जाती नौ एकड़.और वह नौ एकड़ भी किसी काम की न रहती क्योंकि हीरा खेती का काम बिलकुल नहीं देखता था.पूरी की पूरी खेती धनपत सँभालता था और बहुत अच्छे से सँभालता था.हीरा को जैसे बचपन में खेती-किसानी रास न आती थी, बड़ा होकर भी उसे कोई रस न आया.जिस तरह खेती के घरेलू कामों से बचने के लिए बचपन में उसने स्कूल का सहारा लिया था, बड़े होकर नौकरी का सहारा लिया.शहर में एक वकील है पुरुषोत्तम अग्रवाल जिनकी वकालत एक जमाने में बहुत चलती थी.नई काबिलियत के नए वकील आ गए तो जैसे धन्धा ही ठप्प हो गया.धनपत उसी के यहाँ काम पर जाता है.काम ऐसा है कि आने-जाने की कोई पाबंदी नहीं है.जब जेबखर्च उठाना हो तो वकील के यहाँ हाजिरी लगा ली, नहीं तो सुबह से शाम तक शहर में यार-दोस्तों के साथ पंचायत जोड़ी और शाम को पी-पिला कर घर वापस.कोई झूठा गवाह जुटाना हो, या किसी गवाह को रुपया-पैसा देकर मुकरवाना हो, कभी-कभी मौका लगे तो खुद गवाह बन जाना, वह यही सब ओछे धंधे वह उस वकील के यहाँ करता था.दवा-दारू का खर्चा निकल आता था.नसीब से कभी कोई बड़ा केस लग गया तो अच्छी आमदनी भी हो जाती थी.इसके अलावा एक वकील के कर्मचारी की हैसियत से कभी मन हुआ तो तहसील में खड़ा होकर कंसल्टेंसीभी कर लेता था.एमए पास था और दिमाग का तेज़ था तो तहसील में खड़ा होने भर से शाम भर का इंतजाम आसानी से कर लेता था.ऐसे टैलेंटेडलोगों की क़द्र अक्सर उनकी पत्नियों को नहीं होती और पत्नियाँ सदा उस आदमी की ओर हसरत भरी नज़रों से देखती हैं जिसमें सारे ऐब हों बस वो एक ऐब न हो जो उनके पति में है.

हीरा भी जानता था कि ओछी कमाई से बरकत नहीं होती पर उसे बरकत चाहिए ही कहाँ थी.वह तो बल्कि इस सोच से भी दो कदम आगे था..ठीक है...ओछी कमाई से बरकत नहीं होती न सही.कम से कम बुरे व्यसनों में तो मेहनत की कमाई मत लगाओ.वह समझ नहीं पाता था कि अपने शराब के व्यसन को संतुष्ट करने के लिए वह ओछी कमाई करता था या फिर उसकी कमाई ओछी थी इसलिए वह व्यसन करता था
ब्याह के कुछ महीनों तक तो उस पर रज्जो छायी रही.तब उसे शराब की लत भी नहीं थी.बस उसे घर में रुकना और खेती करना बिलकुल पसंद न था.

ईश्वर की सौगंध... ये महज़ एक इत्तेफाक ही था कि जिस भगतपने में धनपत ने रज्जो से ब्याह करने से इनकार किया था वही रज्जो ब्याह के दो महीने बाद ही उसको भाने लगी थी.हीरा वकील की खिदमत में घर से बाहर रहता था और रज्जो खेती-बाड़ी में धनपत का हाथ बँटाती थी.तब उनके पिताजी जिन्दा थे और अम्मा को मोतियाबिंद नहीं हुआ था.रज्जो का भरा-पूरा माँसल शरीर, चेहरे पर कटार की सी धार लिए नैन-नक्श, उसके सीने में घुसकर घाव देते और वह इस सिहरन में दोहरा हो जाता कि भला इतनी रूपवान स्त्री को कोई अपने भगतिये फितूर के लिए कैसे मना कर सकता है.खेती-बाड़ी से लेकर जानवरों को चारा देने तक, स्त्रियाँ घर के किसी काम-काज में मर्दों से कम सहयोग नहीं करतीं.गृहकार्य के इस निर्वाह में अनजाने में कभी-कभी ओढ़नी सिर से सरक भी जाती है.पुरानी सूती धोती में कमर झुकाकर रज्जो जब बैलों का चारा मींड़ती तो उसके पेट के हिस्से से हटी हुई धोती देखकर धनपत के सीने पर साँप लोटता था.आसमान से रोज़ ही न जाने कितने ही तारे टूट कर गिरते होंगे पर हर रोज़ कोई अपनी तकदीर आजमाने उन्हें देखने नहीं आता.वह तारा...जो टूट कर आपकी सुनहरी तकदीर के बहुत पास से गुजरा हो, उस तारे को बस एक बार और टूटकर गिरने की चाह लिए अगर कोई अपनी ज़िन्दगी भर की नींद गँवा दे तो भी अफ़सोस नहीं.
धनपत को रज्जो से ब्याह करने के लिए हामी भर लेनी चाहिए थी.          

वह रोज़ रज्जो को देखता और अपनी फूटी तकदीर को कोसता.उसकी बिना आवाज वाली मुस्कान, जब वह उसे हँसाने के लिए जान-बूझ कर कोई मसखरी करता, सीधे उसके दिल पर घाव करती.हाथों में सिन्दूर लिए आईना देखकर जब वह अपनी माँग में उँगलियों का हल खींचती तो बरबस ही उसका मन होता कि वह आगे बढ़े और उन थकी-मादी उँगलियों का बैल बन जाए.एक दिन जब उसे भरपूर एहसास हो गया कि उसे रज्जो से इश्क़ हो गया है तो उसने फैसला किया कि वह भी अपने लिए रज्जो लाएगा.वह भी ब्याह करेगा.उसने अपने मन की बात अपने माँ-बाप के अलावा हीरा और रज्जो को भी बताई.रज्जो के ब्याह को छः महीने हो गए थे और हीरा के साथ अग्नि को साक्षी मानकर लिए गए फेरों की गाँठें आहिस्ता-आहिस्ता ढीली पड़ने लगी थीं.किसी विवाह के उम्र के आँकलन में अक्सर ये मायने नहीं रखता कि शिकायतें कितनी हैं पर ये ज़रूर मायने रखता है कि उन शिकायतों की उम्र क्या है.इसलिए शिकायतें चाहे कितनी भी हों, उन्हें कतरते रहना चाहिए.हीरा से रज्जो की शिकायतें बढ़ती गईं और हीरा कभी उन्हें कतरने की अभिलाषा न जुटा पाया.

धनपत के विवाह का निर्णय सुन हीरा बिलबिला उठा.उसकी आज़ादी का क्या होगा? अपना हिस्सा लेकर धनपत तो अपनी गाड़ी चला ले जाएगा पर उसका क्या होगा.धनपत का विवाह उसकी आज़ादी पर कुठाराघात था.रज्जो भी नहीं चाहती थी कि जोड़ीदार बनकर उसका साथ देने वाला बैल किसी और के खूँटे से जा बँधे.हीरा मतलबी है...और वह तो बैल बनकर जुतने से रहा.रज्जो को समझ आ गया कि अगर धनपत का ब्याह हुआ तो जायदाद का तो बँटवारा होगा ही होगा, जिम्मेदारियों का सारा भार भी उसी के कंधे आ गिरेगा.अभी समय ही कितना हुआ है? अभी तो उसके बच्चे होंगे, उनका जीवन होगा.नौ एकड़ से क्या होगा? और चार बच्चे हो गए तो? जमीन उस फटे हुए नोट की तरह हो जाएगी जिसके टुकड़ों की कोई कीमत नहीं होती.अगर वह धनपत को ब्याह करने से रोक सकी तो पूरा अठारह एकड़ का नोट वह अपने बच्चों को साबुत दे सकेगी.

ज्वान आदमी साब...भगत पने में भटक गयो...पर रज्जो ने सारो बुखार उतार दियो...बिना ब्याह...बिना परिवार...बिना बच्चे...आगे को सारो जीवन कँटीलो सो लगन लग्यो...एक दम सूखो...दरदरो...धूप ई धूप...पसीना ई पसीना...बो कँटीले जंगल में एक मुलायम पगडण्डी की तरियाँ थी जिसके दोनों किनारे घने पेड़ हते...औरत की छाँव... आदमी के सारे अंधड़ पुचकार के बहला ले जाए साब...पर हीरा को कोई क़द्र ना ई वाकी...
चौं मारी रज्जो?”

धनपत की कहानी लम्बी खिंच रही थी.दरोगा का धीरज जवाब दे रहा था.उसके मस्तिष्क के पूरे वजूद पर डेढ़ लाख की नए लाल-लाल नोटों की गड्डी ने कब्ज़ा जमा रखा था. उसकी कहानी लम्बी होने लगती तो उस गड्डी की छवि धूमिल होने लगती थी.और फिर अचानक एक खुशबू आती...और लगता कि वह एक पीड़ितको जन्म देने के बेहद करीब है.उन कुछ पलों में वह गड्डी उसके पटल पर उतराने लगती, वैसे ही जैसे प्राण छोड़ देने के बाद हल्का हुआ शरीर नदी के पानी में उतराने लगता है.

धनपत के विवाह करने के फैसले से उसके माँ-बाप को छोड़ कर घर में कोई खुश न था.पर घर में सत्ता हीरा की थी.वह पढ़ा-लिखा था, दुनियादारी समझता था.सत्ता का थोड़ा सा हिस्सा रज्जो ने अधिकार वश हथिया लिया था.धनपत बस उन दोनों के इशारों पर एक-एक कदम चलने वाला प्यादा था.सत्ताधारियों के समझाने पर भी जब धनपत ने ब्याह की रट न छोड़ी तो रज्जो ने उसकी सब्जी का नमक निकाल कर उसकी रोटियों में मिलाना शुरू कर दिया.चूल्हे में ईंधन उतना ही जलता था पर अब धनपत के हिस्से में आने वाली रोटियाँ कोयले की राख की तरह जली हुई होती थीं.एक रोज़ हीरा शहर गया तो रात को वापस नहीं लौटा.लोग बता रहे थे कि रात भर दारू पी के वकील के अहाते में पड़ा रहा.वह बरसात की रात थी.घर में क्लेश चल रहा था सो उस शाम धनपत भी ठेके पर गया और दो पउआ उड़ेल आया.कभी-कभी एक-आध पउआ पी लेता था पर हीरा की तरह व्यसनी नहीं था.धनपत की थाली में उस रात खाने का रंग आकर्षक था, चखा तो सब्जी में नमक बराबर था, दाल भी थी...एक दम ढाबे वाली जिसमें मक्खन का पंजाबी तड़का संतुष्टि से लगाया गया था.चाँद के रंग की रोटियाँ थीं और बाज़ार से खरीदा हुआ बासमती चावल भी था.उसे चावल बहुत पसंद था.उसके मुँह से शराब की दुर्गन्ध का भभका निकलकर सीधा रज्जो के नथुनों पर पड़ रहा था.चूल्हे के बगल में बैठकर वह खाना नहीं चाहता था पर रज्जो ने प्यार से पुकारा, ‘गरम-गरम फुल्के हैं, यहीं खा लो...और वह उसकी बात टाल न सका.

कमरे में घुप्प अँधेरा था.दालान में बँधे बैलों के गले में जब एक के बाद एक घंटी बजी तो धनपत को विचार आया होगा कि शायद बिजली जोर से कड़की है.उसे पूरी तरह याद नहीं पर एक साया था जो उसके कमरे में घुसा होगा, जिसने बाहर रास्ते की तरफ खुलने वाली खिड़की की सटकनी चटकी आवाज के साथ ऊपर खिसकाई होगी और तेज़ हवाओं के असर से खिड़की के दोनों पाट खुल गए होंगे.रसभरी के फल में जब कुदरत ठूँस-ठूँस कर हुस्न भरती है तब उस हुस्न के तनाव से उसका आवरण आहिस्ता-आहिस्ता दरकने लगता है.हदें पार करते हुए उस तनाव से एक दिन उस आवरण की सारी चौकीदारी किसी बासी फूल की पंखुड़ियों की मानिंद टूट कर बिखर जाती है.फर्क बस इतना रहा होगा कि खिड़की के पाटों का खुलना धनपत को एक रफ़्तार से गुजरता हुआ अंधड़ जान पड़ा होगा जबकि रसभरी का हुस्न दबे पाँव बड़ी होशियारी से, आहिस्ता से अपने आवरण में दरारें पैदा कर रहा होगा.बाहर छम-छम गिरती बारिश ने जमीन की ढीली मिट्टी को अपने में घोल लिया होगा क्योंकि ठंडी बयारों के साथ एक सोंधी सी खुशबू उन पाटों के खुल जाने से कमरे में घुस आई थी.वह सुगंध रज्जो की काँखों के सूख गए पसीने की सुगंध के संगम से धनपत के सीने में हाहाकार कर रही होगी.शराब का सारा सुरूर जो शायद उसके मन में रिश्तों की सीमाओं का प्रतिरोध पैदा करता, ऊँचाई से गिरे काँच के गिलास की मानिंद टूट कर बिखर गया होगा.उसके दिल की धड़कन उसके हाथों में उतर आई होगी जब उसने रज्जो की कमर में हाथ डाला होगा.

मैंने ना मारी रज्जो!दरोगा के बढ़ते दवाब को उसने नकारते हुए कहा.उसके हाथों में रज्जो की कमर का स्पर्श जिंदा हो चला था.वह बिलबिला उठा और दोहराते हुए बोला.
मैंने ना मारी रज्जो, साब!

कृति :  saad-qureshi

                                                                             

(चार)

एक महीने के ऊपर हो चला था.कुँवर सिंह की गड्डी का पता अब भी मुकम्मल न हुआ था.वह खीझने लगा.वह लाचार और पीड़ित महसूस करने लगा.पुलिस विभाग की सारी साख और उसका बीस साल का पुलिसिया अनुभव दाँव पर लगा था.वह मेहनत करता तो और भी सुराग मिलते पर मेहनत करके रुपया कमाने में जैसे उसे बैल के सींग चुभते थे.उसने अपनी सारी ज़िन्दगी एक ही कला सीखी थी...दवाब बनाओ और माल कमाओ.एक दिन उसके खबरी ने खबर निकाली कि हसनगढ़ का दरोगा हीरा से मिला था.पहले तो उसे लगा कि अपना रोना रोने गया होगा.उसकी आत्मा की खुजली जब बढ़ गई तो उसने हीरा को दोबारा थाने में तलब किया.इस बार उसने उसकी बेटी सुषमा  को भी बुलाया था.घर की जनानी को केस में लपेट लो तो घर के मर्दों पर केस सुलटाने का दवाब बढ़ जाता है.पूछ-ताछ के लिए पहले सुषमा को कमरे में बुलाया गया.साथ में एक महिला कांस्टेबल भी थी.कमरे का पंखा घें घेंकी आवाज के साथ धीरे-धीरे रेंग रहा था.
विनोद के साथ सिर्फ चक्कर हतो या सम्बन्ध हते?”महिला कांस्टेबल ने पूछा.
हम प्यार करे ए वासे.उसने छोटा सा बेधड़क जवाब दिया.
बहुत तेज़ है छोरी...!कुँवर सिंह ने बीच में चुटकी ली और एक हलकी सी मुस्कान उसके होठों पर पसर गई.

गहराइयों में न जाने कौन सा आकर्षण होता है कि साँप की चाल से रेंगता हुआ पानी उसके आगोश में आकर मुक्त हो जाता है.पानी जब आदमी के अन्दर जाता है तो प्यास बुझाने के सुकून से आत्मा को तर देता है पर जब आदमी पानी के अन्दर जाता है वह छटपटाता है.गहराइयाँ उस रीतेपन को भरने के लिए, जिसे उमड़ता-घुमड़ता पानी नहीं भर पाता, मिट्टी की तलाश में रहती हैं.मिट्टी छटपटाती है उनकी गोद में समा जाने के बाद पर पुल के नीचे उस भँवर का पानी अपने स्थिर अंतर्मन से पुकार लगाता है और मिट्टी उस गहन स्थिरता के वशीभूत उसके बाहुपाश में चली आती है.

उस पुल के नीचे विनोद ने सुषमा को नहर का वह बिंदु दिखाया था जहाँ अक्सर भँवर जन्म लेती थी.कैनाल इंजिनियरों ने एक गड्ढा छोड़ दिया था उस पुल के नीचे जो शांत ठहरे हुए पानी की गहराइयों में ले जाता था.एक कयास ये था कि सरकार ने उनका वेतन ठीक से न दिया हो इसलिए इंजीनियरों ने शरारत की हो.दूसरा किस्सा ये था कि शायद सरकार की उस नहर के विस्तार की कोई योजना रही हो या फिर समयांतराल में, जब नहर में पानी का स्तर बढ़ जाए, उस पुल को और ऊँचा करने की योजना रही हो, उस जगह बुर्ज बनाने के लिए गड्ढा छोड़ा था.भविष्य की रेखाकृति जो भी रही हो, वर्तमान में उस गड्ढे की गहराई पानियों को दूर-दूर से आकर्षित कर अपने में समाहित कर लेती थी.छः साल पहले केहर सिंह के घर का पानी उस भँवर में आ समाया था.गाँव के एक जाट लड़के से उसे इश्क़ हो गया और गाँव की भाई-बंधु वाली रिश्तेदारी में पंचायत वालों को पानी का उल्टा बहाव पसंद नहीं आया.पिछले तेरह सालों में, तेरह साल इसलिए क्योंकि उसके पहले के पानियों के किस्से गाँव की किंवदंतियों के डैशबोर्ड से सूख चुके थे, पांच घरों के पानी उस भँवर की गहराई में झोंके जा चुके थे.गहराई इतनी भूखी थी कि वह आज भी मुँह बाए सुषमा की ओर आशा भरी नज़रों से निहार रही थी.  विनोद उसे बता रहा था उन कुछ पानियों का सच जो उसकी याददाश्त में ताज़ा मौजूद थे.

लॉज से पकड़कर जब सुषमा और विनोद को वापस लाया गया तो पुलिस की बिना दखलंदाजी के, पंचायत ने विनोद को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया.सुषमा को पंचायत ने ये धमकी देकर छोड़ दिया कि अगर आज के बाद दोनों के साए भी एक साथ नज़र आये तो पेड़ से चपेट कर जिंदा जला दिया जाएगा.पंचायत का ऐलान सुनकर भँवर की गहराई को निराशा हुई होगी.पंचायत ने भले उसे औरत जात समझ कर छोड़ दिया था पर हीरा और रज्जो ने घर आकर उसे इतना पीटा कि शहर से डॉक्टर बुलाना पड़ा.इटकुर्रे की चोट ने उसके माथे पर एक गहरा निशान छोड़ दिया.भँवर की गहराई को उस इटकुर्रे पर भी गुस्सा आया होगा.सुषमा समझ गई कि रज्जो और हीरा के रहते गाँव से उनका भागना असंभव है, वे उसे कुछ भी करके दुनिया के किसी भी कोने से आखिर ढूँढ ही निकालेंगे.विनोद के घर से इतनी दिक्कत नहीं थी.विनोद लड़का था, उसके घर वाले बस यही प्रार्थना करते थे कि वह चाहे जहाँ भी रहे, जिंदा रहे.

धनपत के ब्याह से हट कर फोकस सुषमा की बदचलनी पर आ गया था.तीन दिन से भी कम समय में अपनी माँ पर है सुन्दर सुघड़ सुषमा पीड़िता बन गई थी.वह पढ़ी-लिखी थी. पीड़ितकी शब्दकोष परिभाषा उसे भली-भाँति आती थी. पीड़ित वह है जो चालाकियों के हुनर से अपनी सलवटों की गन्दगी की अधिकतम कीमत वसूल सके.
विनोद के संग दुबारा भागने की नाय सोची?”दरोगा ने पूछा.
वह चुप रही.अपने झूठ को छुपाने के लिए बस नामें सिर हिलाया.   
सुषमा, रज्जो और हीरा को विश्वास दिलाने में सफल हो गई कि वह विनोद से कभी नहीं मिलेगी और उनकी मर्ज़ी के अनुसार ब्याह के लिए राज़ी हो जाएगी.धनपत सुषमा को लेकर छिड़ी महाभारत देख रहा था.उसने हस्तक्षेप करना उचित न समझा.पंचायत और उसके परिवार की मिली-भगत एक मूक समझौता थी.अधेड़ उम्र के अविवाहित पुरुषों के लिए नई उम्र की लडकियाँ खरीदकर ब्याह लाने की रीत कोई नई नहीं थी और न ही बहुत पुरानी थी.पंचायतों ने वहाँ इसलिए दखल नहीं दिया क्योंकि यह पुरुष प्रधान पंचायतों के विशेषाधिकार का प्रश्न था और प्रश्न था उस आस्था का जिसके वशीभूत वे अपने वंश की लाज अक्षुण्ण रखने के लिए अपने घर के पानियों को भँवर के हवाले करते आये थे.हर घर को लड़का चाहिए था और लड़कों की इस अंधी होड़ में उनके अपने लड़कों के लिए लडकियाँ कम पड़ने लगीं.शहर का डॉक्टर कुछ रुपये लेकर आपको चाहे कुछ भी उपाय क्यों न बता दे, जमीनों को तो अपने हिस्से के वारिस से मतलब है.लड़कियों का अकाल पड़ गया और लड़के बिनब्याहे रहने को विवश हो गए पर ज़मीन थी कि वारिस की माँग वापस ही न लेती थी.जो धनी थे, और वारिसों की दरकार धनी वर्ग को ही होती थी, वे खरीद कर लडकियाँ लाने लगे.अपनी जाति की लड़कियों का एक अरसे तक इंतज़ार किया जाता पर लडकियाँ कहीं होतीं तब तो मिलतीं.अंततः अधेड़ उम्र में जब उनका शरीर वारिस देने की ज़द्दोज़हद के आख़िरी दौर में पहुँच जाता, वे ब्याह करते.वारिस कभी मिलता तो कभी नहीं भी मिलता.

धनपत बोलना चाहता था पर नहीं बोला.उसे डर था कि अपने घर के पानी को बचाने की फिराक में कहीं उसके ही ब्याह पर पंचायत बवाल न कर दे.अपने निढाल बदन को चारपाई पर फेंक उसने सुषमा की चीत्कार सुनी पर वह चुप रहा.अक्सर जब रज्जो और हीरा उसे मार पीट कर रिहा कर देते तो वह सुषमा के खून से लथपथ चेहरे पर मरहम लगा देता.उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आशीष देते हुए कुछ बुदबुदाता और फिर वापस जाकर अपने बदन को उसी चारपाई की अधबाइन में फेंक देता.सुषमा के आश्वासन के बाद फोकस फिर से धनपत के ब्याह पर आ गया.हीरा और रज्जो का एक रात धनपत से इतना भीषण झगड़ा हुआ कि रज्जो ने धमकी दे डाली.उसने कहा कि अगर धनपत ने ब्याह किया तो वह फाँसी लगा लेगी और धनपत के सिर पर इलज़ाम की चिट्ठी छोड़ जाएगी.सुषमा सुन रही थी.रोशनी की एक हलकी सी किरण उसे दिखाई दी.कोई था जो उसकी सलवटों की गन्दगी खरीदने में दिलचस्पी ले रहा था.विनोद को पाने के लिए उसे अब मासूमियत और बेचारगी की गुड़िया बनने का नाटक करना था जो उसने उसी पल से शुरू कर दिया.उन तीनों के झगड़े में उसने बीच-बचाव किया.समझदार लोगों की तरह उन्हें समस्या का हल निकालने का सुझाव दिया.जब झगड़ा ठंडा पड़ गया तो ताऊ धनपत के पास आकर वह देर तक बातें करती रही, उन्हें समझाती रही.अगले दिन उसने माँ को भी समझाया कि आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं होता.कुछ दिन ठण्ड बनी रही पर ब्याह का फितूर और वारिस का मोह धनपत के सिर से उतरा ही नहीं.दोबारा झगड़ा हुआ तो सुषमा ने माँ को समझाया कि आत्महत्या करने की जगह अगर आत्महत्या का नाटक भर करने से बात बन जाती है तो क्या बुराई है.रज्जो जानती थी कि सुषमा दिमाग की तेज़ है.उसे बात भा गई.
रज्जो ने पहले भी आत्महत्या की कोशिश करी हती?”दरोगा ने प्यार से पूछा.
सुषमा ने बस हाँ में सिर हिलाया.कुँवर सिंह मन ही मन झल्ला उठा.केस में एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं और उसके खबरी चार आने की खबर भी निकाल कर न ला सके.लानत है.ज्यों-ज्यों केस इस पुख्ता उपसंहार की ओर बढ़ता कि रज्जो न आत्महत्या की है, नोटों की गड्डी की छवि उसके मन-मस्तिष्क से ओझल हो जाती और उसकी खीझ और बढ़ जाती.
वा रात तू अम्मा के संग सोई थी?”दरोगा ने पूछा.
उसने फिर हामी में सिर हिलाया.
फिर?”
मैं पानी पीने उठी थी...मैंने देखी अम्मा लटकी पड़ी थी.वह सुबुकने लगी.

दरोगा कुँवर सिंह ने महिला कांस्टेबल को सुषमा को ले जाने का इशारा किया और ताकीद की कि उसे दूसरे कमरे में बिठा कर पानी पिलाया जाए.दूसरे कमरे का पंखा भी उसी घें घेंकी आवाज के साथ चल रहा था.सुषमा ने अपना सिर ऊपर उठाकर उसे एक पल निहारा.भँवर से उठी पानी के घुमड़ने की आवाज उसके कानों में घुल रही थी.दरोगा बाहर निकला और एक सिगरेट जला ली.चिंता की लकीरें उसकी माथे की सलवटों में पसीना बुहार रही थीं.सिगरेट पी कर वह वापस आया तो उसने हीरा को कमरे में बुला लिया.हमेशा की तरह हीरा चुपचाप जाकर जमीन पर उखडू बैठ गया.न जाने दरोगा के मन में क्या विचार आया कि उसने हीरा को ऊपर कुर्सी पर बैठने का आमंत्रण दे डाला.उसके दिमाग में संभवतः रहा होगा कि जब घी उँगली टेढ़ी कर के भी न निकले तो एक बार दोबारा सीधी ऊँगली से प्रयास ज़रूर करना चाहिए.

हीरा सिंह!अब मैं बस मुद्दे की बात करूंगौ....या हाथ डेढ़ लाख रुपये धर और थारी छुटटी.
उसकी कुंठा अब लिहाज के सारे तटबंध तोड़ चुकी थी.       
कहाँ धरे मोपै डेढ़ लाख? एक फूटी कौड़ी नाय मोपै.
बैंक का कितना लोन है?”
तीन लाख रुपय्या.
और कहाँ गए बो तीन लाख?
सब उड़ा दिए...दारू में...मारुती के तेल में...सब उड़ गए.


देश-दुनिया में किसानों की आत्महत्या के लिए सरकारों का अर्थशास्त्री जिम्मेदार नहीं है.बल्कि वह शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार है जो अर्थशास्त्र की बेसिक यानि कि आधारभूत प्रैक्टिकल शिक्षा भी उन किसानों को मुहय्या नहीं करवा पाती.मसला वित्तमंत्री का नहीं वरन शिक्षा मंत्री का है.जो किसान ये समझते हैं कि ईमानदारी से अन्न उगाना और सरकार के समर्थन मूल्य पर बेचकर निश्चिन्त हो जाना, कि जिसने पैदा किया है वह खाना भी देगा, उनके अस्तित्व के लिए पर्याप्त है, वे दरअसल और कुछ नहीं बस लोगों का भटका हुआ झुण्ड है.एक दिग्भ्रमित कारवाँ.उन्हें जो सबक हीरा सिंह दे सकता है वह सबक दुनिया का कोई अर्थशास्त्री नहीं दे सकता.वह जब भी अखबार में ऐसी खबरें पढ़ता वह उनकी मंदबुद्धि पर अट्टहास किये बिना न रह पाता.हर किसान को अपने जीवन के आख़िरी पल तक बैंक का लोन अपने सिर पर चढ़ाकर रखना चाहिए.पांच साल में दो बार, एक बार राज्य चुनाव में और एक बार केंद्र चुनाव में. ऐसी स्थिति जरूर उभरती है जब विचारहीन राजनैतिक पार्टियाँ लोन माफ़ी की गाजर लटकाती हैं.ऐसा अवसर यदि भुनाया जा सके तो ठीक नहीं तो हिसाब-किताब तब देखा जाएगा जब बैंक अधिकारी वसूली करने आएगा.और हर किसान को इस लोन माफ़ी की गाजर का इस्तेमाल अपने हक की तरह करना चाहिए. ईमानदार टैक्स पेयरऔर उनकी गाढ़ी कमाई से जमा किए गए टैक्स का जो प्रपंच रचा गया है तथाकथित देशभक्त क़ानून संगत किसानों के मन में, ये कोरा ढकोसला है.हीरा सिंह से पूछो इन सब के पीछे के तार्किक अर्थ शास्त्र.
किसान की फसल गई सस्ते में....बिचौलियों ने बेची महँगे में....वेयर हाउस वालों ने बेची और महँगे में....रिटेलरों ने बेची और-और महँगे में.अब देखो टैक्स किसने भरा...जिसकी कमाई मोटी है ....बिचौलियों ने... वेयर हाउस वालों ने  और रिटेलरों ने... .तो जो टैक्स बीच के दलाल भरते हैं वही टैक्स हम किसानों को लोन माफ़ी करके रिफंड मिलता है.सरकार कोई एहसान ना करै हम पे.
लोन तौ माफ़ है गौ तुम्हारो....वा लोन में से दै देओ हमाये पैसा...!दरोगा का स्वर याचना में बदल गया.
हमाई मेहनत की कमाई है दरोगा जी....उसने दरोगा की आँखों में आँखें डालकर देखा.दोनों कुर्सी पर बैठे थे और दोनों की आँखें एक दूसरे के ठीक आमने-सामने थीं.              
सुषमा कौन की छोरी है?” दरोगा का स्वर फिर कठोर हो गया.
हमाई छोरी है.उसकी आँखें नहीं झुकीं.वे अब भी दरोगा की आँखों में अटकी थीं.
ब्याह के छः साल बाद भई थी? उसके बाद दो बार और रज्जो पेट से भई और दोनों बार छोरी निकरीं...पेट में ई ख़तम कर दीं....डॉक्टर के चार जूते पड़े और सारे ने सब उगल दियो.
अब उसकी नज़रें कुछ ढीली पड़ीं.
अब बता कौन की छोरी है सुषमा?”

उस बरसात की रात जो खिड़की के पाट खुले तो फिर कभी बंद ही नहीं हुए.बरसात आए या न आए, रज्जो की मिट्टी की खुशबू धनपत की मिट्टी की खुशबू से मिलकर एकाकार होने लगी.धनपत को मन माँगी मुराद मिल गई थी.खेती-किसानी का काम हो या घर का कोई काम, धनपत अब और मन लगाकर करने लगा था.रोटियों से नमक गायब हो गया था और सब्जी के साथ मक्खन के तड़के वाली दाल मिलने लगी थी.शुरुआत में रज्जो उससे सम्बन्ध बनाने में सावधानी रखती थी कि कहीं हीरा को भनक न लग जाए.तीन साल बीत गए पर हीरा को भनक न लगी.एक रात जब काफी देर होने पर भी हीरा शहर से वापस न लौटा तो अवसर पाकर दोनों एक हो गए.रात के करीब दो बजे हीरा दबे पाँव घर में घुसा.ये वो समय रहा होगा जब हीरा को तड़के वाली दाल का राज़ पता चल गया होगा.भाई और बीवी को एक ही कमरे में सोता देख उसने हंगामा खड़ा कर दिया.माँ-बाप बीच बचाव में सामने आ गए.उस रोज़ के बाद हीरा की शराब बढ़ गई और आए दिन वह रज्जो को पीटने लगा.फिर एक दिन डॉक्टर के परीक्षण में पता चला कि वह बाप नहीं बन सकता.उसका मन फिर गया.तमाम विपदाओं से घिरी हुई आत्मा को जैसे मोक्ष मिल जाता, हीरा को जिम्मेदारियों से भागने का एक सुनहरा अवसर मिल गया....मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं.सिर से पाँव तक वह शराब में डूब गया.वारिस के लिए उसने मन ही मन स्वीकार कर लिया कि बीज किसी का भी हो, धनपत का या हीरा का, कम से कम उसकी अठारह एकड़ ज़मीन को वारिस तो मिल जाएगा.तीन साल से जिस मिट्टी की खुशबू परदे में या रात के अँधेरे में उड़ती थी अब वह दिन-दहाड़े उड़ने लगी.इस नई व्यवस्था को सब ने स्वीकार कर लिया था.हीरा ने भी और उसके माँ-बाप ने भी.वारिस की चाह में पानी का मटमैलापन सबने अनदेखा कर दिया.

रज्जो के ब्याह के छः साल बाद सुषमा पैदा हुई.तब रज्जो का अल्ट्रासाउंड इसलिए नहीं कराया कि इतनी भी क्या बेसब्री है.इस बार नहीं तो अगली बार बेटा मिल ही जाएगा.अगली बार रज्जो गर्भवती हुई तो अल्ट्रासाउंड ने बेटी का आकार दिखाया.धनपत और हीरा दोनों ने मिलकर तय किया कि उन्हें बेटी नहीं चाहिए.तीसरी बार फिर अल्ट्रासाउंड ने उन्हें बेटी दिखाई.धनपत और हीरा का फैसला अटल था-उन्हें बेटा ही चाहिए था.उसके बाद न जाने हीरा को क्या हुआ-उसे लगा कि अब उसके भाग में वारिस है ही नहीं.उसे लगा कि धनपत और रज्जो मज़े कर रहे हैं और एक वह है कि वारिस की चाह में घुटता जा रहा है.उसने रज्जो को वापस हासिल करने की मुहिम छेड़ दी पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.रज्जो तन-मन-धन से धनपत की हो चुकी थी.रज्जो को एक डर यह भी था कि अगर धनपत छुट्टा हो गया तो कहीं फिर ब्याह रचाने की सनक न पाल ले.तनाव ने एक बार फिर दस्तक दी.तनाव था पर फिर भी हीरा अपने में मग्न था.अपनी मर्ज़ी की ज़िन्दगी जीने के लिए अब वह पहले से कहीं ज्यादा आज़ाद था.तकदीर का लिखा कुछ ऐसा था कि हीरा को वारिस मिलना ही नहीं था.तनाव के बावजूद धनपत और रज्जो एकाकार होते रहे पर संभवतः दो बच्चियों की भ्रूण हत्या से देवता रुष्ट हो गए होंगे और उन्हें वारिस दिया ही न होगा.         
 
सुषमा धनपत की छोरी है.....वह फुंफकारते हुए बोला.
दरोगा के चेहरे पर विजयी मुस्कान जो शायद बादशाह अकबर के होठों पर तब खिली होगी जब पानीपत की जंग में उसने हेमू को धूल चटाई होगी.
तौ अब चार्ज बनैगो के अपनी जोरू की बदचलनी से तंग हैके हीरा ने रज्जो को मार डालो.
मैंने रज्जो ना मारी....और मेरौ इकरारनामा लेनौ तुमाये बस की बात नाय दरोगा...जे भी अच्छी तरियाँ समझ लेओ....
अपने सारे ज़ख्म खोले वह आकाश तले बैठा था.दुनिया में कोई ईश्वर नहीं जो उसके ज़ख्मों का पर मरहम फूँक सके.वह अब पीड़ित था....और वह दरोगा उसकी गन्दगी का मोल कौड़ियों में लगा रहा था.अपनी पूरी ज़िन्दगी की पीड़ा उसने अपने चेहरे के शोरूम में सजाकर परोस दी थी और दरोगा था कि उनकी नीलामी का मोल चुकाने के बदले उसी से कीमत माँग रहा था.

तेरे जैसे छत्तीस देखे हैं हमने...योंई दरोगा ना बन बैठे...पिछवाड़े पे मूसल चलेगो न...तुमाये परदादा हाज़िर हो जाएंगे इकरारनामा देने.
जब तक नीचे बैठो हो, निचले आदमी की बात करी...अब बरब्बर में बैठो ऊँ दरोगा...ज़बान संभार के बात कर...वरना तू जाने है जाट के ठाट....जो माचिस से तू सिगरेट सुलगावे है ना उसी माचिस से सगरो थानों फूंक दूंगो....जे तन की मिट्टी तौ वैसेई कीचड़ है गई ऐ...इसमें पाँव डारैगो, धँस जाएगौ.

दरोगा अपनी कुर्सी से उठा और एक थप्पड़ रसीद कर दिया.ऐसी गीदड़ भभकियाँ वह आए दिन सुनता रहता था.हीरा पर उनमें से नहीं था.जीवन की बुझती होलिका में वह आख़िरी अंगारा था जिसकी आँच फड़फड़ा ज़रूर रही थी पर जिंदा थी और जिसके आस-पास सब कुछ राख हो चुका था.थप्पड़ मार कर दरोगा संभल भी न पाया था कि हीरा ने उसकी सर्विस रिवाल्वर खींच कर उसके सामने तान दी.हडकंप मच गया, सिपाही आए, अर्दली आए.हीरा को अलग करके सींखचों के पीछे डाल दिया और रात के बारह बजे तक उसकी जम कर धुनाई की.वह बेसुध हो जाता तो सिपाही उसे फिर से होश में लाते और फिर मारने लगते.भोर के चार बजे उसे पुल के नीचे उस भँवर में ले जाकर छोड़ दिया.हीरा की मिट्टी उसके पानी में समा गई.नहर का वह हिस्सा हसनगढ़ थाने में पड़ता था.

                                                                            
(पांच)

सत्यवीर सिंह ने इस बार अधिकार से चाय मँगाई.कुँवर सिंह ने भी चाय मँगाई.शायद उनकी कब्ज़ कुछ शांत हो गई थी.वहीं चौपाल पर आमने-सामने चारपाई पर बैठे दोनों दरोगाओं ने लाल चाय का आनंद लिया.वही भीड़ थी जो पहले थी और जिसमें पंचायत के कुछ लोग भी शामिल थे.धनपत की अम्मा वही पुरानी तम्बाकू के कश लगाकर आई लगती थी.वह भँवर ज़रूर हसनगढ़ थाने की सीमा में आती थी पर जो मरा था, वह दरोगा कुँवर सिंह के केस का संदिग्ध था.कुँवर सिंह ने आग्रह किया कि हीरा का केस भी उन्हीं को दिया जाए.सत्यवीर सिंह तैयार तो हो गए पर इतना ज़रूर बोले कि एक बार जिला कोतवाली में बात करके औपचारिक परमिशन ले लें.कुँवर सिंह सहमत हो गए.कुँवर सिंह का चेहरा एक बार फिर खिल उठा.उनकी गड्डी अब भी दूर से हाथ देकर उन्हें पुकार रही थी, शायद कुछ मोटी भी हो गई थी.

एक और बात हती दरोगा जी...सत्य वीर सिंह बोले.
हुकुम करो सर.. .कुँवर सिंह ने कृतज्ञता पूर्वक कहा.
ऐसो करो आप...जे कोतवाली की परमिशन के चक्कर में मत पड़ो....हीरा की लाश नहर की बजाय यहीं घर में मिली दिखाय देओ...कम से कम ये कोतवाली के चक्कर से तो छूट जाएंगे नहीं तो दोनों की खामखाँ परेड है जाएगी ससुरी....आप क्या कहते हो?”
कुँवर साब कुछ देर सोचने के बाद बोले...
जेऊ तरीका सई ऐ...हमें तो काम से मतलब है....ठीक है...ऐसो कल्लेओ.कुँवर सिंह ने सहमति जताई.
उनके साथ आए अर्दली ने धनपत के हाथों में रस्सी की हथकड़ी लगाईं और जीप में बिठा लिया.जीप धूल उड़ाती चली गई.लोगों का कुतूहल ख़त्म हुआ तो वे अपने दैनिक कार्यों की ओर प्रस्थान करने लगे.
सुषमा की आँखों में आँसू थमने के नाम नहीं ले रहे थे.शायद वह जानती थी कि धनपत उसका पिता है.केस की पड़ताल के दौरान उजागर हुए पहलुओं में से कुछ पहलू गाँव वालों के ज़रिये सुषमा तक पहुंचे होंगे.संभव है न पहुंचे हों, या फिर ये भी संभव है कि उसे सब कुछ बहुत पहले से मालूम था और वह अपने दादी-बाबा की तरह सब कुछ स्वीकार कर चुकी थी.कभी-कभी लगता है कि उसके प्रति धनपत का स्नेह भी उसके मन में शंका उत्पन्न करता होगा.रज्जो और हीरा जब उसे पीटते थे तो धनपत से उसे अपार स्नेह मिलता था जिसका औचित्य उसके ताऊ के रिश्ते में कुछ फिट नहीं बैठता था.

उस रात जब रज्जो ने आत्महत्या की धमकी दी तो सुषमा को एक खरीदार मिल गया था.धनपत ने उसे अपने पास बुलाया.उस अभागी के सिर पर आशीष का हाथ फेरा और कहा कि वह चाहता है कि विनोद के साथ ब्याह करके अपना जीवन सँवारे.इस सलाह में सुषमा को कुछ भी अजीब नज़र नहीं आया.वह बचपन से ही उसपर हीरा से ज्यादा स्नेह लुटाता आया था.सुषमा ने उस पर विश्वास नहीं किया होगा.क्योंकि उसे मालूम था कि यदि वह पंचायत के विरुद्ध जाएगा तो उसके अपने ब्याह का सपना खटाई में पड़ सकता है.धनपत ने उसे फिर एक रास्ता सुझाया.विनोद के साथ भागने में धनपत उसकी मदद कर सकता है.उसके बदले में सुषमा को भी धनपत की मदद करनी होगी.सुषमा विनोद के लिए कुछ भी करने को तैयार थी.ताऊ के साथ अवैध संबंधों के चलते वह माँ से नफरत करने लगी होगी.वैसे भी पकड़े जाने पर माँ ने भी हड्डी-पसली तोड़ने में कौन सी कसर रख छोड़ी थी.सुषमा के दिल में रज्जो के लिए अथाह नफरत रही होगी.बदले में धनपत ने उससे कहा होगा कि वह अपनी माँ को समझाए कि उसके ब्याह में टांग न अड़ाए.पर रज्जो अपनी जिद पर अड़ी रही होगी.सुषमा ने उसे मना लिया होगा कि आत्महत्या करने से बेहतर है कि आत्महत्या का सिर्फ नाटक किया जाए.

                                                                       
(छह)

सुबह के करीब चार बजे थे.हीरा चौपाल पर सो रहा था पर दालान में लेटे धनपत की आँखों से नींद गायब थी.करीब सवा तीन बजे धमक हुई और विनोद अपने एक दोस्त के साथ आ धमका.रज्जो और सुषमा अपने कमरे में आत्महत्या के नाटक की तैयारियाँ कर रहे थे.सुषमा का दुपट्टा वह गाटर पर टांग चुकी थी.नीचे एक स्टूल रखकर उसे कुछ देर के लिए झूलने का नाटक करना था.रज्जो के फाँसी लगाने के समाचार को बाहर तक पहुँचाने के लिए सुषमा को चिल्लाना था और जब वह आश्वस्त हो जाए कि सबकी नींद टूट चुकी होगी तब उसे रज्जो को सहारा देकर आहिस्ता से नीचे उतारना था.योजनानुसार जब विनोद सुषमा के कमरे में दाखिल हुआ तो सुषमा रज्जो के पैरों के नीचे से स्टूल खिसका चुकी थी.रज्जो ने उसे देखा तो चिल्लाने का प्रयास किया पर तब तक दुपट्टे ने उसका गला जकड़ लिया था.वह जिंदा थी पर आवाज नहीं निकाल सकती थी.तभी धनपत रज्जो के कमरे में घुसा और विनोद और सुषमा को वहाँ से भाग जाने के लिए कहा.एक बार सुषमा ने जरूर सोचा होगा कि क्या सब वैसे ही हो रहा है जैसे कि धनपत ताऊ की योजना में था.रज्जो की साँस धीरे-धीरे छूट रही थी.विनोद के साथ रज्जो बाहर निकल भी न पाई थी कि धनपत चिल्लाने लगा.
चोर.... चोर.... चोर....!

ताऊ की आवाज सुनकर सुषमा को करेंट लगा होगा क्योंकि उसका चिल्लाना योजना का हिस्सा नहीं था.चिल्लाने से पहले धनपत आश्वस्त हो गया था कि रज्जो मर चुकी है.इससे पहले कि सुषमा ताऊ की योजना को किसी और सन्दर्भ में समझ पाती, उसने पीछे से भागकर सुषमा को धर दबोचा.हीरा चौपाल से भागकर दालान में आ गया.हड़बड़ी में विनोद अपनी जान बचाकर भागा.रज्जो के कमरे में आकर हीरा ने देखा कि वह छत से लटकी हुई थी.धनपत रज्जो का हाथ कस कर थामे हुए रज्जो के लटके हुए शरीर को निहार रहा था.संभवतः सुषमा को ताऊ का सारा खेल अब तक समझ आय गया होगा.

जीप में थाने जाते वक़्त धनपत ने कुँवर साहब से आग्रह किया कि वह उनके हाथ खोल दें.उसने कहा कि कलाई और हथेली के बीच में जो हिस्सा है वहाँ रस्सी की रगड़ से उसे खुजली महसूस होती है.उसके आग्रह को स्वीकार करते हुए दरोगा ने उसकी हथकड़ी खोल दी.धनपत के रवैये में आत्मसमर्पण का भाव था.दो हट्टे-हट्टे अर्दली बगल में बैठे थे.हथकड़ी खोलने में ऐसा भी कोई जोखिम नहीं था.
एक बात समझ नाय आई धनपत.जि तेरे बाल एक दम मस्त मौला हवा में लहरावें और तेरो भाई हतो जो एक दम कड़क तेल चुपड़े हुए बाल राखे ओ...ऐसो चौं?”
अरे हर काऊ की अपनी पसंद होबे....अब तू का उसके बालों में भी हथकड़ी डारैगो?” कुँवर साब ने तल्खी के साथ हलकी सी मुस्कराहट झलका दी.
हाँ इतनो फर्क तो हतो हम दोनों में... .पर मैं एक बात सोचूँ...बड़ो बेवकूफ हतो हीरा जो अपने बालों की ऐंठ के लये अपनो सिर कटा आयो.यह कहकर उसने दरोगा की हँसी के साथ अपनी हँसी जोड़ दी.
जीप थाने के प्रांगण में पहुँची और कुँवर सिंह सीधे उसे पूछ-ताछ वाले कमरे में न ले जाकर अपने दफ्तर वाले कमरे में ले गया.उसे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा.उसने कृतज्ञता से सिर नवाया और कुर्सी पर बैठ गया.
बिलकुल सई बात कही तैने....हीरा बेवकूफ थो निरो बेवकूफ.
तो बताओ धनपत....जी...रज्जो चौं मारी....और हीरा चौं मारो?”
चाय-वाय पिलाओ दरोगा जी...बो ग्रीन टी पिलाओ...हम भी तो चख के देखें हरियाली में कित्तो दम है?”
चौं मारी रज्जो?” दरोगा ने उसने आग्रह को सिरे से अनदेखा कर दिया.
आपके मन में कित्ते की तस्वीर डोल रई ऐ?” उसने पूछा.
कुँवर सिंह पहले तो थोडा सकपका गया फिर उसने सोचा चलो अच्छा है वह खुद ही सीधे मुद्दे पर आ गया.कई डुबकियों के बाद गड्डी की छवि उसके मस्तिष्क में फिर उभर आई थी, थोड़ी मोटी होकर.उसने अर्दली को आवाज दी और दो ग्रीन टी लाने को कहा.
दो लाख!कुँवर सिंह ने मन की बात रख दी.

ठीक है साब...मोये हफ्ताभर को टाइम देयो...देखो जी अभी तो मेये ढिंगे एक फूटी कौड़ी नाय...पचास हज़ार ब्याह के लये दै दये..उत्तेई रूपया हते जो खेती-बाड़ी के हिस्से में से बचे हते...एक हफ्ता दै देओ बस...जमीन बेचने की जुगाड़ में हूँ....दो चार दिन में बयाना मिलेगौ....इधर बयाना मिलौ और उधर मैं हाज़िर.
दरोगा उसकी बात ध्यान से सुन रहा था.वह उसकी बात से संतुष्ट सा लगा.
ठीक है...जब रुपैया म्हारे हाथ में आबेगौ तबही केस बंद होएगौ...और चालाकी मत करियो...बालों की अकड़ की खातिर सिर न कट जाए.
बेफिकर रहो आप.
लो चाय पियो... .अर्दली चाय लेकर आ चुका था.
धनपत की चमचमाती नज़रें चाय के दृश्य को आत्मसात कर उठीं और दरोगा की आँखों से जा टकराईं.
धन्यवाद!उसने कहा और चाय उठाकर अपनी नाक के पास ले गया.उसने बिना पिए ही चाय मेज़ पर वापस रख दी.दरोगा उसकी गँवार सी हरकत को देखता रहा.
जिस मिट्टी में और जिस चाय में खुशबू न हो दरोगा साब, उसे चूसने में कोई मज़ा नाय....कभी गाँव आबौ...खुशबू वाली चाय पिबाएंगे तुमै....राम राम सा....

ठीक तीन दिन बाद धनपत ने दरोगा कुँवर सिंह को फोन किया.
रुपया मिल गयो है...कहो तो कल थाने आ जाऊँ देने.....
न न...थाने में ना...मैं बताउंगो जगह.दरोगा बोला.
आप जो बुरौ न मानो तो हमें भी खातिरदारी को मौको देओ....गाँव आ जाओ...आज, कल जब मन होए...खुशबू वाली चाय पिबायेंगे...और हाँ कल बामन आय रौ ऐ हमाये घर... हमारे ब्याह को मुहूरत निकारन...आप भी आ जाओ तो कल ही मिल बैठेंगे...और सुनौ सत्यवीर साहब भी आ रहे हैं.
अच्छा...नहीं, मौको तो अच्छो है.कल सबेरे बताऊँगौ...राम राम .
गड्डी की लहलहाती तस्वीर ने उसे रात भर सोने न दिया.सुबह उठते ही उसने धनपत को फोन लगाकर कहा कि वह आएगा.उसने तुरंत धन्यवाद व्यक्त किया और फोन काट दिया.धनपत ने सत्यवीर सिंह का नंबर डायल किया.
राम राम!
हाँ, कुँवर साब आ रहे हैं....
जी..राम राम.इतना कहकर धनपत ने फोन काट दिया.

शाम ढल चुकी थी.मेहमानों के आने का समय हो चला था.सत्यवीर सिंह ने अपनी भारी-भरकम बुलेट पर कुँवर सिंह को पिक कर लिया.
उस पुल के नीचे भँवर की गहराई राह देख रह थी.धनपत उन्हें वहीं मिल गया.धनपत ने दो हज़ार के नए नोटों की एक गड्डी कुँवर सिंह के हाथ में रख दी.मोटर साइकिल पेड़ों की आढ़ में खड़ी करके वहीं पैग बनाने लगे.उस रात भँवर के घुमड़ते पानी ने जोर की डकार ली.
अगले दिन सत्यवीर सिंह ने हसनगढ़ थाने में खुद को चश्मदीद बताते हुए रिपोर्ट दर्ज की कि बीती शाम सत्यवीर सिंह के साथ नहर के किनारे शराब पीते हुए कुँवर सिंह का पैर फिसला और वे भँवर में गिर गए.सत्यवीर सिंह की लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें निकाला न जा सका.

बावन साल के सत्यवीर सिंह कुंवारे थे.धनपत की तरह उन्हें कोई भगतपने के फितूर ने नहीं डसा था.कॉलेज में एक लड़की से प्रेम हुआ था पर फलीभूत नहीं हुआ.दिल टूटा और उसे भुलाने में छः साल बरबाद कर दिए.दोबारा शादी का मन बना तब तक देर हो चुकी थी.जात-बिरादरी में लडकियाँ वैसे ही कम थीं.जो थोड़ी पढ़ी-लिखी और सुन्दर थीं सब की सब पहले ही ब्याही जा चुकी थीं.उम्र गुजरती गई तो अकेले रहने की आदत भी डाल ली.शादी का ख्याल दोबारा तब आया जब गाँव की पुश्तैनी जमीन के लिए उन्हें एक वारिस की ज़रुरत आन पड़ी.एक दलाल जो ऐसे अधेड़ कुंवारों के लिए कम उम्र कीवारिस पैदा करने वाली लड़कियों का प्रबंध करता था सत्यवीर सिंह और धनपत दोनों के संपर्क में था.बातों-बातों में बात निकली तो धनपत एक लाख रुपये के सौदे पर सुषमा का हाथ उसके हाथ में देने को राजी हो गया.पचास हज़ार में अपने लिए एक लड़की पसंद की.इस दोहरे सौदे में उसे पचास हज़ार का फायदा हुआ.

पंद्रह दिन के अंतराल पर सुषमा का सत्यवीर के साथ और धनपत का उन्नीस साल की अपर्णा के साथ धूम-धाम से ब्याह हो गया.
विनोद कभी उस पुल से गुजरता है तो मुस्कुराते हुए उसकी निश्छल गहराई में समा जाता है.

भ्रूण हत्या एक भँवर है...लड़कों की चाह में लड़कियों की संख्या कृत्रिम उपायों से नियंत्रित की जाती है...फिर अधेड़ उम्र पुरुष वारिस की चाह में लडकियाँ खरीदने को विवश हैं और वारिस की चाह फिर भ्रूण हत्या का कारण बनती है.

मिट्टी... जो पुलिस के रिकॉर्ड में उस भँवर के गर्त में समाई... और जो गाँव की किंवदंतियों का हिस्सा बनी... और जिसके सहारे पंचायतें भटकती हुई सभ्यता को राह पर लाने का दंभ भरती हैं, वह तो बस मृत शरीरों की मिटटी थी. 


जो पुलिस के रिकॉर्ड तक कभी पहुँची ही नहीं, हज़ारों युवा लड़कियों की मृत आत्माओं  की मिट्टी, जिन्हें कुछ रुपयों के लिए या एक अदद वारिस की चाह में अधेड़ उम्र पुरुषों की अर्धांगिनी बना दिया गया, उस मिट्टी के समाने के लिए कैनाल इंजीनियरों को न जाने और  कितनी नहरें, और कितनी भँवरें खोदनी होंगी.                             

पीड़ित कोई नहीं है...सब अपनी सलवटों की गन्दगी का खरीदार ढूंढ रहे हैं.
_____________________
abbir.anand@gmail.com

मंगलाचार : अस्मिता पाठक

$
0
0
Aisha Khalid 


                                    
  सर

मैं कक्षा ११ की छात्र हूँ. मैं आपको अपनी एक कविता भेज रही हूँ. उम्मीद है, आप इसे पढकर अपने सुझाव देंगे तथा इसे अपनी प्रतिष्ठित आनलाईन पत्रिका - "समालोचन"में प्रकाशित करने का कष्ट करेंगे..






फिर अस्मिता ने कुछ और कविताएँ भेजीं. उम्र और अनुभव को देखते हुए मैं इन्हें पठनीय कविताएँ कहूँगा. पहली कविता में जो डर है वह अंदर तक रुला देता है हम अपनी बच्चियों को कैसी सहमी- सहमी सी शाम दे रहे हैं.

एक उमगते हुए उम्र का जो इन्द्रधनुषी वितान होता है वह भी यहाँ है. वह मासूमियत जो अब बच्चों तक से खो गयी है उसकी अल्हड गंध इन कविताओं में मिलेगी. एक पत्रिका के लिए इससे सुखद और सार्थक  क्या हो सकता है कि उसके पन्नों पर नई पीढ़ी सीढियाँ चढ़े.

अस्मिता को आपकी इन कविताओं पर राय चाहिए.



                    अस्मिता पाठक की कविताएँ             






वह सडक शांत हो चुकी है


वह सडक शांत हो चुकी है
तम और कोहरे में घुटकर
अब तुम अकेले
अपने घर तक का रास्ता कैसे नापोगी?

दरख्तों के पीछे छिपे जानवरों की आँखों की तरह
इनसानों की आँखें !
तुम्हें देखकर चमक सकती हैं

हवा के साथ उड़ते तुम्हारे लंबे बालों में
झलक रही तुम्हारी आज़ादी
तुम्हारी जैसी हर लडकी,
तुम्हारी जैसी हर औरत को ये आँखें चुभ सकती हैं

तुम रातों को,
इस तरह घूमोगी,
अकेले होकर,
अपने-आपको सबके आगे निडर साबित कर !

तुम हज़ारों घटनाओं की शिकार बन सकती हो !
बतियाने का  विषय बन सकती हो !

वो सडक शांत हो चुकी है
अब तुम अपने घर का रास्ता कैसे नापोगी ?
तुम निडर नहीं बनोगी,
तुम आज़ाद नही होगी,

तुम खोटी रोशनी में खडे होकर,
भाई और पिता के आने का इंतज़ार करोगी.





नैनीताल से लौटते वक्त

अरे पहाड,
ज़रा सुनो तो!
तुम्हें याद तो है ना ?
आज मुझे लौटना है

तुमने अपने हर कोने से आने वाली,
ठंडी हवाओं को
राज़ी तो कर लिया है न
महानगर के मेरे छोटे से कमरे में
रहने के लिए?

तुम्हारे भीतर वह जो झील समाई है,
उसकी चुल-बुल, नाज़ुक हँसी को,
पोटलियों में बाँध देना
उन्हें अपनी बालकनी में सजाऊंगी
उसे कहना कि उदास न हो,
मैंने बरसातों से कहा है,
इस बार उसे फिर लबा-लब भर देंगी

और मुझे तुम्हारे आसमान से,
थोडा रंग दिलवा दोगे?
मैं अपनी सोई सी दीवारों को
फिर से जगाना चाहती हूँ !

वह गौरया,
जो तुम्हारे पेडों की टहनियों पर,
हर वक्त फुदकती है !
कहना तो उसे,
मेरे पास बहुत सा बाजरा है,
मेरे साथ चले
मैं फिर से चहचाहट का संगीत,
अपने कानों में भर लूँगी

अब देर हो रही है,
मैं चलती हूँ...
नाराज़ न होना,
तुम से इतना कुछ जो,
माँग रही हूँ.





सपना

सपना तो ,
रात की फैलाई काली स्याही में
विचारों की घनघोर उथल-पुथल में भी
मुझे खोज लेगा,
ताकि कह सके,
चलो उडने चलते हैं
मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ
चाँद पर फुदकते छोटे-छोटे खरगोश
और बताना चाहता हूँ
कि सूरज पर खुशियों की ठंड भी है !

आओ उस मैदान में चलते हैं,
जहाँ कल्पनाओं की बरसात हो रही है,
तुम भीगना और देखना
कि हर बूँद कितनी नयी, कितनी
सुंदर है
और
इंद्रधनुष तो इन्हीं से मिलकर बना है !

क्यों न तुम सीखो कि
कैसे सफेद आसमान के हर कोने में,
थोडी लाली छिडकी जा सकती है,
और उल्लास को कुछ लम्हों के साथ मिलाकर,
धूप, चिडिया और बादल बनाए जा सकते हैं !

तुम झरने के पीछे की गुफाएँ या
लकडी का पुराना दरवाज़ा
न खोजना !

दूसरी दुनिया गुफा-दरवाज़ों से नहीं बनी,
जो हर किसी के लिए खुल जाए,
तुम बस आँखों से कहकर देखना,
वह तुम्हें सब कुछ दिखा देंगी.





तुम्हें पता है ?

तुम्हें पता है ?
बारिश बोल रही थी !
फीके रंग की एक दोपहर को,
गीली हवाओं को
चीरते हुए

तभी मेरी खिडकी के आगे
खडा पेड मुस्कराया था !
दो शब्दों की एक प्यास
कुछ डालियों की...
कुछ पत्तियों की ;
बुझाने को...
जो पिछले मौसम से अधूरी थी

तुमने देखा है ?
बारिश जादू करती है !
खाली सडकों को,
कुछ पल की
मीठी धडकन देने के लिए,
ताकि
तुम चलते-चलते
उसके ख्वाबों को न गुमा दो !
बस
यही वह  भाषा है !
जिसमें बारिश कुछ कहती है

और मुझे सीखनी है यह भाषा.






ज़रा ठहर जाओ

ज़रा ठहर जाओ, नींद !
उजाला हो गया है
पर,
सूरज को आने में वक्त है अभी,
अभी-अभी तो चाँद बादलों पर,
रवाना हुआ है.

देखो,
कागज़ पर खींची गई
काली लकीरों की निगाहें,
मुझ पर नहीं है
बस, तब तक
कुछ देर,
मेरी पलकों के नीचे तुम छिप जाओ

समय रात-भर पहरा दे रहा था,
उसकी आँख लग जाने दो..
मुझे पता है,
यह गलत है,
पर...
आज परछाईयों से लडकर,
हवाओं की नज़रों से बचकर,
कुछ देर ठहर जाने दो
आलस को.

ठीक यहाँ,
तुम्हारी
और मेरी
आँखों में.
_____________________



अस्मिता पाठक
क्क्षा- ११
एस एस चिल्ड्रन अकाडमी
काठ रोड, मुरादाबाद
२४४००१
asmitapathak17@gmail.com

Viewing all 1573 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>