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सबद भेद : असहमति का रूपक : आशुतोष भारद्वाज






वर्चस्व की सभी सत्ताओं के समानांतर प्रतिरोध और असहमति का प्रति संसार भी है.  लम्बे अंतराल में उनके रूप बदल गए, वे अब रूपकों के रूप में सुरक्षित हैं. परिवार,समाज,धर्म, राज्य की इन सत्ताओं के प्रतिरोध की आदिकथाओं को विखंडित कर समझने की जरूरत अभी भी बची और बनी हुई है.

लेखक और प्रतिष्ठा प्राप्त ‘रामनाथ गोयनका पुरस्कार से चार बार सम्मानित पत्रकार आशुतोष भारद्वाज के आदिवासियों में असहमति के रूपकों पर यह आलेख ख़ास आपके लिए.
  

आदि कथा : असहमति का रूपक                                     
आशुतोष भारद्वाज


था असहमति और विरोध का रूपक भी होती है. मानव समुदाय अक्सर अपनी कथाओं के जरिये अपनी अस्मिता और अस्तित्व का उद्घोष करते हैं, अपनी चेतना पर आरोपित की जा रही नैतिक संहिता और भौतिक कानूनों का विरोध करते हैं. अगर किसी समाज में यह प्रक्रिया अत्यंत सजग और सुविचारित ढंग से घटित होती है जहाँ उस संस्कृति के आख्यायक अपनी अस्मिता को कागज पर दर्ज करते हैं (मसलन मिलान कुंदेरा द्वारा अपनी कथाओं के जरिये चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप का विरोध), तो किन्हीं समाजों में यह प्रतिरोध मौखिक आख्यान के स्वरुप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता है.

मध्य भारत के जंगलों में भटकने और वहाँ रहते निवासियों से मुलाकात से पहले यह तो मालूम था कि यह समुदाय हिन्दू देवी-देवताओं को अक्सर लोहे के चिमटे से पकड़ते हैं, उन्हें महुए की लकड़ियों की आंच पर भून कर उनका अचार बनाते हैं, इस तरह संस्कृत की कथाओं में गजब की सेंध मारते हैं, इन देवताओं  का पवित्र चेहरा और स्वभाव पलट कर रख देते हैं. लेकिन यह एहसास यहीं आकर हुआ कि शायद इसके पीछे असहमति का स्वर भी रहा होगा, संस्कृत की सांस्कृतिक शक्ति का रचनात्मक प्रतिरोध करने की आकांक्षा भी रही होगी.

हालाँकि यह भी सही है कि भले ही एक कथित बहुसंख्यक प्रवृत्ति इन देवी-देवताओं का एकायामी और मानकीकृत स्वरुप प्रस्तावित करती हो लेकिन इनका कोई एक निर्धारित चेहरा नहीं है. भारत के तमाम इलाकों में अनेक समुदाय इन देवी देवताओं का स्वरुप अपनी कथानुसार बदल लेते हैं. लेकिन इसके बावजूद क्या यह कहा जा सकता है कि प्रचलित हिन्दू मिथकों को उलट कर रख देने की, उनके चरित्र को लगभग विलोम बना देने की यह प्रवृत्ति उन समुदायों में अधिक है जो किसी राजसत्ता का प्रश्रय प्राप्त किसी व्याकरणीकृत भाषा (मसलन अतीत में संस्कृत, इन दिनों हिंदी, तमिल इत्यादि) और लिखित आख्यान से परे अपनी कथा मौखिक आख्यानों के जरिये कहते हैं, जिन पर किसी शक्तिशाली राज्य के डैने और पंजे हमेशा मंडराते रहते हैं, और जो अमूमन जंगल या इस तरह के अपेक्षाकृत अलक्षित इलाकों में पाए जाते हैं, जिन्हें नगरीय समाज अमूमन अपने से निचले पायदान पर रखता है, और जिनके पास सर्जनात्मक प्रत्युत्तर ही अक्सर एकमात्र रास्ता होता है?

इसका एक विलक्षण उदाहरण छत्तीसगढ़ के रामनामी या रामरामीसमाज में मिलता है. महानदी के दोनों तरफ, रायगढ़, बलौदा बाज़ार और जांजगीर चांपा जिलों में इस अति पिछड़े दलित समाज के सदस्य रहते हैं. इस समुदाय का गठन लगभग सवा सौ साल पहले हुआ था जब उन्होंने रामकथा में एक विलक्षण हस्तक्षेप के जरिये अपनी विशिष्ट अस्मिता को रच दिया था.

इस गठन की पूर्व-पीठिका यह थी कि चूँकि नगरीय समाज इन्हें मंदिर जाने, राम का नाम लेने से रोकता था (यह स्थिति अभी भी कई जगहों पर बनी हुई है) कि अपनी जुबान से राम का नाम लेकर ये लोग राम को अपवित्र कर देंगे तो इन्होंने जिद में आकर अपने समूचे शरीर पर राम नाम के असंख्य गोदने गुदवाने शुरू कर दिए, यहाँ तक कि अपनी जीभ और गुप्तांगों पर भी. राम के नाम को अपने गुप्तांग पर गुदवा कर वे मर्यादा पुरुषोत्तम को उन जगहों पर, उन लम्हों में ले गए जिसकी कल्पना से ही कई राम भक्त सिहर जायेंगे.

ऐसी ही अद्भुत है इस समाज द्वारा की गयी रामचरितमानस की व्याख्या.

मानस की एक चर्चित चौपाई है ---
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना।।
यानि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो,उसकी पूजा करनी ही चाहिए, जबकि शूद्र गुण ज्ञान से रहित होता है.

रामनामी समाज इसकी व्याख्या एकदम उलट देता है-
ब्राह्मण अगर शील और गुण से रहित हो, तो उसे पूज देना (हत्या कर देनी) चाहिए, शूद्र गुण ज्ञान में हमेशा प्रवीण होते हैं.

दिलचस्प यह है कि पूज देनाक्रिया की यह व्याख्या अनिवार्यतः दोषयुक्त नहीं है क्योंकि बोलचाल की भाषा में पूज देना, ‘पूज दियाका यह अर्थ ( मार दिया) भी अक्सर होता है.

ऐसी ही एक धनकुल की कथा  है. धनकुल जगार या तीजा जगार (जगार यानि रात भर जाग कर किया गया अनुष्ठान) बस्तर का एक लोक महाकाव्य है (बस्तर के अपूर्व विद्वान हरिहर वैष्णव ने बस्तर के चार लोक महाकाव्यों को चिन्हित किया है, यह उनमें से एक है.) जिसे आदिवासी स्त्रियाँ हल्बी बोली में गाती है, इन लोक गायिकाओं को गुरुमाय (गुरुमाता) कहते हैं. पुरुष इस जगार में यानि इस महाकाव्य के अनुष्ठान में सिर्फ सहभागी गायक होते हैं.

इस महाकाव्य की संक्षिप्त कथा यह है कि एक बार महादेव शिव बाली गवरा नाम की एक लड़की पर मोहित हो जाते हैं, जो उनके भांजे की बेटी यानि रिश्ते में पोती है और पार्वती की रिश्ते में बहन भी. महादेव अपने प्रेम का प्रस्ताव लेकर बाली के पास कई बार जाते हैं लेकिन वह हर बार उन्हें मना कर देती हैं. यहाँ तक कि जब बाली गवरा तपस्यारत हैं, तब भी शिव उनकी तपस्या भंग करने पहुँच जाते हैं. जब बाली का ध्यान फिर भी उनकी तरफ नहीं जाता तब शिव अपनी डोंगी तालाब में डुबोने का अभिनय करते हैं, और तब बाली डूबते हुए इंसान को बचाने के लिए तालाब में कूद जाती हैं, शिव उन्हें पकड़ गहरे पानी के अन्दर ले जाते हैं, फिर से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं. इस बार बाली हामी भर देती हैं, दोनों पानी के अंदर ही शादी कर लेते हैं.

पार्वती से छुपाने के उद्देश्य से शिव बाली को अपनी जटाओं में छुपा घर लेकर आते हैं। जब पार्वती शिव की देह पर पुती हुई हल्दी देख उनसे इस बारे में पूछती हैं तो वे झूठ बोल देते हैं कि वे किसी की शादी में गए थे वहाँ किसी ने हल्दी पोत दी। जल्दी ही लेकिन पार्वती को शिव की नयी पत्नी के बारे में पता चल जाता है. वे सौतिया डाह में सुलग जाती हैं, नववधू को कई तरह की यातनाएं देती हैं. हार कर बाली आत्महत्या कर लेती हैं. अपने प्रेम के विछोह में शिव बाली की अस्थियों को गले में लटका कर तपस्या करने बैठ जाते हैं. कई बरस बीत जाते हैं. इस दरमियाँ बाली किसी दूसरे घर में फिर से लड़की के रूप में पुनर्जन्म लेती हैं, इस बार उनका नाम डिली गवरारखा जाता है.

शिव के दुःख को न सह पाने के कारण पार्वती तय करती हैं कि वे उनकी शादी डिली से करवा देंगी. वे डिली का हाथ अपने पति के लिए मांगने डिली के माता-पिता के पास जाती हैं, लेकिन वे यह कह कर मना कर देते हैं कि उस घर में पिछली बार बाली को घनघोर यातना झेलनी पड़ी थी.

जब पार्वती वायदा करती हैं कि इस बार ऐसा नहीं होगा, डिली की शादी महादेव से हो जाती है. पार्वती दोनों को सुखमय जीवन की शुभकामनायें देकर, डिली को कैलाश पर्वत का घर सौंप चली जाती हैं.


यह विलक्षण कथा है. शिव की छवि एक घनघोर पत्नी-भक्त देवता की है. समूचे हिन्दू देवताओं के समूह में शायद सिर्फ राम और शिव ही हैं जो अपनी पत्नी के अलावा किसी दूसरी औरत की तरफ कभी आसक्त होते दिखाई नहीं देते. हालाँकि कुछ अवसरों पर विष्णु ने मोहिनी रूप धर शिव को अपनी तरफ आसक्त कर लिया था, लेकिन यह लगभग अपवाद ही है. शिव की प्रचलित छवि इंद्र जैसे अन्य देवताओं की नहीं है. राम भले ही किसी दूसरी स्त्री के लिए कभी भी विचलित नहीं होते, लेकिन राम का सीता के प्रति नाजुक लम्हों पर व्यवहार हमेशा ही प्रश्नांकित रहा है, उन्हें आदर्श राजा भले माना गया हो, आम अवधारणा में आदर्श पति तो वे नहीं हैं. लड़कियां व्रत, पूजा इत्यादि भी शिव जैसा पति ही पाने के लिए करती हैं, राम नहीं.

शिव का यह चित्रण, जब वे अपने शिवत्व को पूरी तरह भस्म कर अपनी पोती के लिए बौराए जा रहे हैं, और आखिर में पार्वती ही उन्हें छोड़ कर चली जाती हैं, क्या बस्तर के आदिवासी समुदाय का, उनकी मातृभूमि जंगल का नगरीय संस्कृति को एक रचनात्मक प्रत्युत्तर है?

यहाँ यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि बस्तर के आदिवासी ख़ुद अपने स्थानीय देवताओं के साथ भी पुरज़ोर ठिठोली करते हैं. चूँकि उनकी नैतिकता की अवधारणा भी नगरीय संस्कृति से भिन्न है इसलिए शिव को इस रूप में बरतना उनके लिए सहज कर्म रहा होगा। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि नगरीय संस्कृति शिव को अमूमन पार्वती के समर्पित पति और मृत्यु के विराट देवता बतौर ही बरतती है. उनके इस रूप को बस्तर ने नहीं स्वीकारा, क्या यह नगरीय कथा का, उसके मूल्यों का नकार है?


एक हालिया उदाहरण महिषासुर उत्सवका भी है जो पिछले कुछ वर्षों से बंगाल, झारखण्ड के कई आदिवासी इलाकों में मनाया जा रहा है. असुर नामक एक आदिवासी समुदाय जिसे भारत सरकार ने विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह (Particularly Vulnerable Tribal Group)” घोषित किया हुआ है, खुद को महिषासुर का वंशज मानता है और दुर्गा, जिन्होंने महिषासुर वध किया था, का तीखे शब्दों में तिरस्कार करता है. दुर्गा पूजा का विराट त्यौहार महिषासुर मर्दन का उत्सव मनाता है, लेकिन असुर समुदाय उन दिनों उसकी मृत्यु का शोक करता है.

महिषासुर पर यह आख्यान संभवतः सदियों से चला आ रहा होगा लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस पर विमर्श गहराया है, यहाँ तक कि असुर समुदाय के साथ अनुसूचित जातियों और अन्य जनजातियों ने भी महिषासुर शहादत दिवस मनाया है यह कहते हुए कि वे बहुसंख्यक हिन्दू संस्कृति का विरोध करते हैं जो दमित समुदायों के शोषण पर केंद्रित है. उनके तर्क की प्रमाणिकता को परखना यहाँ उद्देश्य नहीं है, प्रयोजन उनके तर्क यानि प्रतिरोध की वजह को टटोलना है, साथ ही यह रेखांकित करना भी कि शाक्त संप्रदाय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती में दर्ज महिषासुर कथा की व्याख्या को उलट देना दुर्गा से जुड़े मूल्य और मिथक का रचनात्मक नकार ही है.




इस प्रतिरोध की वजहों पर आने से पहले इन समुदायों की मातृभूमि यानि जंगल और नगर के संबंध को टटोलना जरुरी है. यह सम्बन्ध जंगल की कथा पर अपनी गहरी परछाईं छोड़ता है.



संस्कृत साहित्य में जंगल की एक द्विविधात्मक छवि उभरती है. यह ऋषि-मुनियों का निवास है, एक पवित्र भूमि जहाँ मनुष्य एकांत में ज्ञान और आत्म-बोध हासिल करने जाता है; युवा राजकुमार इन ऋषियों के आश्रमों में उनसे शिक्षा और आशीर्वाद लेने जाते हैं; यह वन वनवास और अज्ञातवास पर भेजे गए राजाओं को आश्रय भी देता है, रामायण और महाभारत इसी अज्ञातवास के रूपक के इर्द-गिर्द बुने गए हैं (आशीस नंदी: एन अम्बिगुअस जर्नी टू द सिटी); वानप्रस्थ आश्रम का निर्वाह यहीं होता है; जंगल नगरीय सभ्यता से परे जी रहे कई मानव समुदायों और गैर-मनुष्य प्राणियों का घर भी है, ये सभी राजाओं और राजकुमारों की मदद करते हैं; वन में यक्ष और गन्धर्व जैसे कई मिथकीय प्राणी भी विचरण करते हैं, और साथ ही राक्षस और दैत्य जैसे प्राणियों का का निवास भी यही है. राजशाही वन और इसके कई किस्म के निवासियों को कई वजहों से बचाए रखना चाहती है, लेकिन दैत्य और राक्षसों को ख़त्म करना भी राजा का धर्म है इसलिए राजा अक्सर वन पर हमला करते हैं, जिसके फलस्वरूप वन के कई निर्दोष निवासी और वनस्पति-वृक्ष भी नष्ट हो जाते हैं. महाभारत में पांडव एक नए शहर इन्द्रप्रस्थ को बसाने के लिए खांडवप्रस्थ नामक वन और उसमें रहते आये तमाम प्राणियों, जीव-जंतुओं को पूरी तरह भस्म कर देते हैं. 

दो लगभग विरोधी गुणों से निर्मित होता जंगल का यह द्विविधात्मक स्वभाव नगर की सांस्कृतिक और साहित्यिक कल्पना में जंगल को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है. यह श्रेष्ठतम ऋषियों की भूमि है जो धर्म को परिभाषित करते हैं लेकिन वे समुदाय भी यहाँ रहते हैं जो धर्म या वैदिक संहिता को नहीं मानते (रोमिला थापर: पर्सीविंग द फोरेस्ट). इस दृष्टि से शहर या सत्ता की दृष्टि में जंगल एक ऐसी भौगोलिक इकाई है जिसकी स्वायत्तता बचाए रखना जरुरी है, लेकिन जिसके विरुद्ध कई अवसरों पर युद्ध भी लड़ा जाना है, जिसे दुष्ट शक्तियों से बचाना भी है, और उन दुष्ट शक्तियों का वध करने के लिए अगर जंगल भी नष्ट होता हो तो उसकी परवाह नहीं करनी है.

यानि जंगल के लिए नगर अगर एक आक्रान्ता भी है, तो नगर के लिए जंगल एक शासित और अनुशासित कर रखने की इकाई भी. यह शासन सिर्फ हथियार और हमलों की नींव पर ही नहीं केंद्रित नहीं था, है, बल्कि सांस्कृतिक प्रभुत्व भी उद्देश्य था, है.

भले ही जंगल की कथाएं नगर तक कम पहुँचती थीं क्योंकि जंगल के पास साधन, संसाधन और शायद आकांक्षा और जरूरत भी नहीं थी अपनी कथाओं का प्रसार करने की, लेकिन नगर की विस्तारवादी हसरत के परिणामस्वरूप नगरीय साहित्य और उसके मिथक और महाकाव्य और इस तरह उनके जरिये नगरीय सत्ता की नैतिक और धार्मिक आचार संहिता भी जंगल पहुँचती थी, यानि जंगल और नगर का संघर्ष सिर्फ युद्धभूमि पर ही नहीं, बल्कि कथा की अपूर्व उर्वर जमीन पर भी घटित होता था.

जंगल के निवासी के पास निश्चित ही नगर की राजसत्ता को परास्त करने के लिए पर्याप्त हथियार और भौतिक संसाधन नहीं थे, नगर की सत्ता को देवताओं इत्यादि का समर्थन भी हासिल था, लेकिन जंगल के पास कहीं बड़ा हथियार था --- कथा. जंगल युद्धभूमि में नगर को परास्त नहीं कर सकता था लेकिन कथा-भूमि अभी शेष थी.

शायद इसलिए जब नगरीय संस्कृति के मिथक जंगल पहुँचते थे, जंगल के कथाकार उन कथाओं को उलट कर रख देते थे मसलन नगर और उसकी कथाओं और उसकी वासना के प्रति यही उनके विरोध का, अपनी विशिष्ट अस्मिता  को बचाए रखने का तरीका हो.

इसका मेरे पास कोई ऐतिहासिक दस्तावेज या प्रमाण नहीं है कि संस्कृत और नगरीय कथाओं में जंगल के निवासियों द्वारा इस कदर हस्तक्षेप एक सुविचारित प्रयास था, क्योंकि जंगल के इस कथाकार ने लिखित संहिता या टीकाएँ या जंगल-स्मृति जैसे ग्रन्थ अपने पीछे नहीं छोड़े हैं, लेकिन महिषासुर विवाद पर जिस तरह असुर समुदाय ने अपनी अस्मिता का प्रश्न उठाया और अन्य दमित जातियां उनके साथ आ खड़ी हुईं, उससे यह निष्कर्ष संभव दिखता है कि शिव और दुर्गा जैसे भव्य हिन्दू प्रतीकों से उनका दैवत्व छीन, उन्हें विलोम बना देना एक विराट रचनात्मक प्रक्रिया है.

इस प्रस्तावना के पीछे यह विश्वास भी है कि कथा कोई मुर्दा सम्भावना नहीं होती, यह एक जीवंत सत्ता है, जो कथावाचक के समुदाय और सरोकारों को आगामी पीढ़ियों तक पहुंचाती है.



(तीन)
इस दृष्टि से जब हम वर्तमान में आते हैं तो पाते हैं कि पिछले दशकों में नगर और सत्ता की वासना कहीं अधिक क्रूर और निरंकुश हो गयी है, डेढ़ सौ साल पहले तक जंगल के साथ नगर का एक बहुलार्थी सम्बन्ध था, जंगल नगर का अनिवार्य विलोम नहीं था, उसके लिए शरणगाह भी था, अरण्य भी. लेकिन जबसे सत्ता और व्यापार को इस जंगल में सोये तमाम खनिजों मसलन लोहा, कोयला के बारे में मालूम हुआ, उसका जंगल और उसके निवासियों के प्रति रवैया ही बदल गया. अब जंगल विलक्षण खनिजों और धातुओं से भरी एक ऐसी इकाई है जिन्हें जल्द से जल्द धरती के भीतर से निकाल लेना है. इस जंगल में अनपढ़, जाहिल लोग रहते हैं जिनकी कतई परवाह नहीं करनी है.

नेहरु युग तक, जब केंद्र सरकार ने वेरियर एल्विनको उत्तर पूर्व के लिए आदिवासी मसलों का सलाहकार बनाया था, जंगल के निवासियों की स्थिति पर, इन इलाकों के प्रति सरकार की क्या नीति हो, इस पर कम अस कम एक विमर्श हुआ करता था, राजनीति इस मसले पर विभाजित थी कि जंगल को जंगल ही रहने दिया जाये या यहाँ कारखाने इत्यादि लगा दिए जाएँ. इस विमर्श में जंगल की आवाज को भी जगह मिलती थी.

मसलन एल्विन की १९५८ की किताब अ फिलोसोफी फॉर नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसीकी भूमिका में नेहरु ने लिखा था कि हमें इन इलाकों में प्रशासन को बहुत अधिक हावी नहीं होने देना है, न ही ढेर सारी (सरकारी) योजनायें झोंक देनी हैं. हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के जरिये ही काम करना है, उनके विरोध में नहीं.

इस सन्दर्भ में एक दिलचस्प किस्सा है कि जब एल्विन नेहरु के संज्ञान में यह लाये कि आदिवासी अपना जीवन वर्तुलाकार ढंग से जीते हैं, जबकि असम में जो नए घर और सरकारी कार्यालय बने हैं वे सीधी रेखा में हैं, नेहरु ने असम के मुख्य मंत्री बिमला प्रसाद चलिहाको टोका कि अगर किसी आदिवासी गाँव में बने स्कूल या दवाखाने गाँव की (भवन) शैली से एकदम विपरीत हैं, तो यह पूरे गाँव में किसी बाहरी तत्व की तरह एकदम अलग नजर आयेंगे...अगर हमें आदिवासियों का हमारे अधिकारियों के साथ सहज सम्बंध बनाना है तो अधिकारियों को ऐसी इमारतों में नहीं रहना चाहिए जो उनके परिवेश से जरा भी मेल नहीं खाती हों. (नेहरु का चलिहा को १ अगस्त, १९५८ का ख़त). 

नेहरु और एल्विन की इस विचारधारा के कई विरोधी भी थे, जो मानते थे कि इस तरह जंगल अजायबघर में तब्दील हो जायेंगे, लेकिन यह संवाद एक समृद्ध जंगल की सम्भावना बनाता था.

पिछले कुछ दशकों से यह विमर्श लगभग ख़त्म हो गया है, अब कुछेक कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार, विश्विद्यालय के प्रोफेसर इत्यादि के सिवाय जंगल की फ़िक्र शायद किसी को नहीं है, और उन्हें भी सत्ता विकास-विरोधी, ‘नक्सली-समर्थककहकर बदनाम करती है.

जाहिर है ऐसे में जंगल की कथा का स्वरुप बदल जायेगा, बदल गया है. एक समय शिव के मिथक में हस्तक्षेप से ही जंगल की कथा पूर्ण हो जाती थी, लेकिन अब जब लड़ाई सीधी है, जल, जंगल और जमीन को बचाने की है, तो जंगल की कथा मृत्यु-कथा में तब्दील होती है. जंगल के कथावाचक लुप्त हो रहे हैं, वे सत्ता और जंगल के बीच छिड़ी जंग के सिपाही बन गए हैं --- कुछ खाकी वर्दी पहन सत्ता की तरफ चले गए हैं, कई अन्य माओवादियों की छापामार गुरिल्ला सेना में भर्ती हो गए हैं. विकल्प दोनों में से किसी के पास नहीं. महाभारत का युद्ध यह. बस्तर के एक ही घर में जन्मे दो भाई, दोनों सेनाओं में बंट-खप गए हैं.

अंत में कोई भी बचा रहे, विनाश महाभारत के युद्ध की तरह ही होगा, हो भी रहा है. जीत किसी की भी नहीं होगी, यह युद्ध शायद एक अनिवार्य और विराट हार में परिणत होने को अभिशप्त है. बस्तर नष्ट हो चुका होगा. सैकड़ों भीष्म शर शैया पर लेटे अपने अंत का इंतजार करते होंगे. अनेक गुरु द्रोण का शीश उनके ही प्रिय शिष्य धोखे से काट चुके होंगे, क्योंकि कथाकार का अंगूठा और जुबान पहले ही छीने जा चुके होंगे.

जो सभ्यतायें कथा के लिए जगह छीनती जातीं हैं, वे इसी तरह विनाश की ओर चलती जाती हैं. कथा मनुष्य को अपनी रूह को झिंझोड़ती हसरतें, वासना, ईर्ष्या, कुंठा, घुटन इत्यादि व्यक्त करने का, उनसे मुक्त हो जाने का स्पेस देती है. जब किसी सभ्यता में कथा के लिए जगह नहीं बची रह जाती, मृत्यु उसकी काया में चुपके से प्रवेश कर जाती है. नक्सल कथा इसी विध्वंस की कथा है.

संस्कृत काव्यों में जंगल में तपस्या करने ऋषि आते थे, वनवास के लिए राजकुमार और उनके जरिये नगर की हवाएं और खुशबुएँ भी आती थीं, अब केवल सत्ता के नुमाइंदे आते हैं नाप-तोल करने, जमीन का सौदा करने.

दंतेवाडा भारत के सबसे बेहतरीन लोहे को अपने भीतर लिए जी रहा है. सत्ता और व्यापार को यह लोहा किसी भी कीमत पर चाहिए. राष्ट्रीय खनिज विकास निगम का यहाँ विराट उद्योग है, एस्सार का भी. कांग्रेस विधायक कवासी लखमा, साम्यवादी नेता मनीष कुंजाम समेत लगभग सभी दलों के स्थानीय आदिवासी नेता अरसे से मांग कर रहे हैं कि उनकी जमीन, उनका खनिज. माइनिंग के अधिकार उन्हें मिलने चाहिए.

एक बार एक स्थानीय युवक ने एस्सार के विशाल प्लांट पर इशारा करते हुए मुझसे कहा था ---- शहर से आये जींस-कमीज पहने लोग आपकी जमीन आपसे छीन उस पर बड़ी इमारत बना लेते हैं, आपकी मिट्टी से मुनाफा कमा आपके सामने मुर्गा और बकरा खाते हैं, और आप फटा अंडरवियर पहने पत्ते पर भात और इमली की चटनी लिए उस महाकाय इमारत और उससे निकलती गाड़ियों को देखते रहते हो. क्या करोगे आप ऐसे में?”

इस इंसान की कथा जाहिर है किसी विध्वंसक रूप में व्यक्त होगी.
संस्कृत कवि योग वशिष्ठ में लिख गया है: यह सृष्टि किसी कथा के बचे रह गए प्रभाव की तरह है.शायद यह कोई अतृप्त कथा रही होगी, जो अपनी अधूरी हसरतें आगामी पीढ़ियों के जरिये पूरी करना चाहती होगी.

क्या दंडकारण्य भी किसी अतृप्त कथा की वासना है जो मृत्यु के जरिये खुद को व्यक्त कर रही है? एक ऐसी कथा जिससे सुनने, समझने की इच्छा और इच्छा-शक्ति भारतीय समाज में शायद नहीं है, इसलिए किसी रचनात्मक प्रतिरोध की अनुपस्थिति में मृत्यु अपना बीहड़ उत्सव मना रही है.

जब नगर के महाकाव्य जंगल पहुंचा करते थे, जंगल उनका प्रतिकार अपनी विशिष्ट कथा रच कर किया करता था, अब जंगल अपना मृत्यु-काव्य नगर को सुना रहा है, लेकिन नगर अभी भी इस भ्रम में जी रहा है कि वह अपने गांडीव की टंकार और पाञ्चजन्य के नाद से जंगल की कथा को डुबो देगा. वह भूल रहा है कि इसके बाद भी कथा अपनी बची रह गयी अनुपस्थिति की तरह, और इस तरह कहीं अधिक दुर्निवार होकर, बची रह जाएगी.

(यह साहित्य अकादेमी की दिल्ली में हुई आदिवासी साहित्य पर राष्ट्रीय सेमिनार में पढ़े गए अंग्रेजी आलेख ‘Tribal Tales: A Metaphor of Protest’ का हिंदी प्रारूप है.)
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सभी चित्र  indianexpress.com से साभार.


पत्रकारकथाकार. आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रहकुछ अनुवाद,आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं. कथादेश के विशेषांक कल्प कल्प का गल्प” का  संपादन किया है. नक्सल प्रभावित इलाक़ों में फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखते रहते हैं.
अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेसमें कार्यरत हैं
ई पता : abharwdaj@gmail
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आशुतोष के आलेख यहाँ पढ़ें
१. अज्ञेय और मैं 
२. उत्तर - अशोक

रसा : हरजीत सिंह : शेर और ग़ज़लें










आपने हरजीत सिंह का नाम सुना होगा ?
यह शेर सुना होगा –

आईं चिड़िया तो मैंने यह जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था

हिंदी शायरी केवल दुष्यंत कुमार तक ठिठकी हुई नहीं है. वह अपने रास्ते  आगे बढ़ रही है. हरजीत सिंह इसी रास्ते के शायर हैं. 

प्रसिद्ध कवयित्री तेजी ग्रोवर की टिप्पणी के साथ हरजीत सिंह की ग़ज़लें ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए.





हरजीत सिंह
__________________________

1959में देहरादून में जन्मे हरजीत सिंह हिंदी के लोकप्रिय शायर थे जिन्होंने अपनी असमय मृत्यु से पहले कई मुशायरे और काव्य-गोष्ठियों में शिरकत की थी, और जो लोगों की स्मृति में आज भी दर्ज हैं. पेशे से वे बढ़ई थे जिन्हें कभी  ठीक से किसी भी चीज़ का मेहनताना नहीं मिला. एक विख्यात स्वीडी उपन्यासकार उनके बहु-आयामी जीवन से इस हद तक मुतासिर हुए थे की उनके उपन्यास BERGET (परबत) का अहम् किरदार हरजीत से हुई उनकी मुलाकातों की बुनियाद पर टिका है. ऐसा किरदार जो मुफ़लिसी का भी जश्न मनाते हुए भी अपनी टूटी हुई छत से उड़ कर कमरे में आयी चिड़िया के बारे में भी इस तरह के आशू शेर कह लेता है :

आईं चिड़िया तो मैंने यह जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था

जिस गोष्ठी-मुशायरे में भी हरजीत सिंह जाते, नौजवान लोग बेसब्री से उनकी ग़ज़लों और ऐसे फुटकर अशआर को अपनी डायरी में नोट करने लगते. लेकिन मुशायरे लूट ले जाने वाले हरजीत एक आला दर्जे के छायाकार भी थे और उनके बनाये रेखांकन और तस्वीरें कई पत्र-पत्रिकाओं, किताबों में छपते भी थे. मित्रों की किताबों के आवरणों की परिकल्पना करना उनकी बेशुमार लतों में शामिल था और अपने इस फ़न की  बदौलत भी हरजीत शिद्दत से हमारे बीच मौजूद हैं. 1999 की  देहरादूनी गर्मी के दौरान SPIC MACAYके एक कार्यक्रम में दरियां बिछाते हुए वे लू का शिकार हुए और हिंदी शायरी का यह अनूठा हस्ताक्षर किस्सों-किंवदन्तियों का विषय बन गया. उनके मित्रों-प्रशंसकों के पास आज भी उनके लिखे निहायत मर्मस्पर्शी और सुन्दर खत सहेज कर रखे हुए हैं, जिन्हें उनकी ग़ज़लों के साथ ही छपवाने की संभावनाएं बन रही हैं. उन्होंने दिल्ली की किसी प्रेस से उपने दो संग्रह छपवाए थे: “ये हरे पेड़ हैं” और “एक पुल”और 1999 में अपने नयी हस्तलिखित पाण्डुलिपि “खेल”वे दोस्तों के हवाले कर गए. अपने एक दोस्त की नज़र किया यह शेर दरअसल ख़ुद हरजीत की शख्सियत को बखूबी बयान करता है:

तमाम शहर में कोई नहीं है उस जैसा
उसे यह बात पता है यही तो मुश्किल है
_________________________________________तेजी ग्रोवर







 ll  हरजीत  सिंह के शेर  व  ग़ज़लें  ll



(शेर)
ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगो
इनके जलने से बहुत रोज़ धुआँ रहता है





1.
सूरज हज़ार हमको यहाँ दर--दर मिले
अपनी ही रौशनी में परीशाँ मगर मिले

नक़्शे सा बिछ चुका है हमारा नगर यहाँ
आँखें ये ढूँढती हैं कहीं अपना घर मिले

फिर कौन हमको धूप की बातें सुनायेगा
तुम भी मिले तो हमसे बहुत मुख़्तसर मिले

कच्चे मकान खेत कुँए बैल गाड़ियाँ
मुद्दत हुई है गाँव की कोई ख़बर मिले

नदियों के पुल बनेंगे ख़बर जब से आई है
कश्ती चलाने वाले झुकाकर नज़र मिले

2.
शहरों में थे न गाँव में न बस्तियों में थे
वो लोग कुछ पुलों की तरह रास्तों में थे

सड़कों पे नंगे पाँव जो फिरते हैं दर-बदर
कल ही की बात है ये बच्चे घरों में थे

फिर यूँ हुआ कि फूल बहुत सख़्त हो गये
कुछ ऐसे हादसे भी गुज़रती रुतों में थे

उनकी ज़ुबाँ भी तेज़ थी लहज़ा भी तुर्श था
लेकिन वे लोग कैद खुद अपने घरों में थे

अब जैसे तुमने ख़ून बहाया नगर-नगर
लगता है इससे पहले कहीं जंगलों में थे


3.
आते लम्हों को ध्यान में रखिये
तीर कुछ तो कमान में रखिये

एक तुर्शी बयान में रखिये
एक लज़्ज़त ज़बान में रखिये

यूँ भी नज़दीकियाँ निखरती हैं
फ़ासले दरमियान में रखिये

वरना परवाज़ भूल जायेंगे
इन परों को उड़ान में रखिये

आप अपनी ज़मीन से दूर न हों
खुद को यूँ आसमान में रखिये

हर ख़रीदार खुद को पहचाने
आईने भी दुकान में रखिये             





4.
जलते मौसम  में  कुछ ऐसी पनाह था पानी
सोये तो   साथ  सिरहाने के रख लिया पानी

सिसकियाँ लेते हुए   मैंने तब सुना पानी
मुझसे तपते  हुये  लोहे  पे पड़ गया पानी

इस मरज़ का तो यहाँ  अब कोई इलाज नहीं
शहर बदलो कि  बदलना  है अब हवा-पानी

आसमां  रंग न  बदले तो  इस  समन्दर से
ऊब ही  जायें  जो देखें   फ़क़त  हरा पानी

शहर के  एक  किनारे  पे   लोग प्यासे थे
शहर के बीच फवारे  में   जब कि था पानी

उस जगह अब तो फ़क़त ख़ुश्क सतह बाक़ी है
कल  जहाँ देखा था हम सबने  खौलता पानी

जब समंदर से मिलेगा    तो  चैन पायेगा
देर से भागती नदियों का     हाँफता पानी

5.
रेत  बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद  गुस्ताख़ हवाओं से  जो डर जाता है

इन पहाड़ो से  उतर कर ही मिलेगी बस्ती
राज़ ये जिसको पता है  वो उतर जाता है

बादलों ने  जो किया  बंद सभी रस्तों को
देखना  है  कि धुआँ उठके किधर जाता है

लोग सदियों से  किनारे पे  रुके रहते है
कोई होता है जो  दरिया के उधर जाता है

घर कि इक नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो  दीवार उठाता है   तो मर जाता है

6.
जब भी  आँगन  धुएं से भरता है
दिल  हवाओं को  याद  करता है

साफ़ चादर पे इक शिकन कि तरह
मेरी  यादों  में  तू     उभरता है

उड़ने लगता है  हर   तरफ़ पानी
इस  नदी से  तू  जब गुज़रता है

दिन-ब-दिन पा रहा हूँ  मैं तुझको
जैसे  नशा  कोई     उतरता है

रात  जुगनू  से  बातचीत  हुई
अब  अंधेरों से वो भी डरता है

हम लकीरें  ही  खींच सकते हैं
रंग  तो उनमें  वक़्त भरता है


7.
उसके लहजे  में  इत्मिनान भी था
और  वो शख्स   बदगुमान भी था

फिर मुझे  दोस्त  कह  रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था

सब   अचानक नहीं  हुआ   यारो
ऐसा होने का   कुछ गुमान भी था
 
देख सकते  थे  छू  न  सकते थे
काँच का पर्दा  दरमियान  भी था

रात भर  उसके   साथ  रहना था
रतजगा  भी था  इम्तिहान  भी था

आईं चिडियां  तो  मैंने   ये जाना
मेरे  कमरे  में  आस्मान भी  था



8.
कोई दिल ही में छुपा हो जैसे
दिल  उसे  ढूँढ  रहा हो जैसे

साये – साये वो चले आते है
धूप से उनको गिला हो जैसे

जश्न के बावजूद लगता है
कोई आया न गया हो जैसे

वो तो ख़ामोश नहीं हो सकता
उसको ख़ामोश किया हो जैसे

आपसे कुछ भी नहीं कहता हूँ
आपसे कुछ न छुपा हो जैसे

दर्द सावन में खूब खिलता है
दर्द का  रंग  हरा  हो जैसे

9.
फूल सभी अब नींद में गुम हैं  महके अब पुरवाई क्या
इतने दिनों में   याद जो तेरी  आई भी तो आई क्या

मैं भी तन्हा  तुम भी तन्हा     दिन तन्हा  रातें तन्हा
सब कुछ   तन्हा-तन्हा  सा है  इतनी भी  तन्हाई क्या

खिंचते चले आते हैं    सफ़ीने  देख के उसके रंगों को
तुमने इक गुमनाम इमारत   साहिल पर बनवाई क्या

सारे परिंदे  सारे पत्ते    जब शाखों को  छोड़ गये
उस मौसम में  याद से तेरी  हमने राहत पाई क्या

काँच पे धूल जमी देखी तो    हमने  तेरा नाम लिखा
काग़ज़ पे ख़त   लिखने की भी तुमने रस्म बनाई क्या

आ अब उस मंज़िल पर पहुँचें जिस मंज़िल के बाद हमें
छू न सकें दुनिया की बातें  शोहरत क्या रुसवाई क्या


10.
दोस्त बन कर  ज़िन्दगी में  आ गयी है चाँदनी
अब मुझे   अच्छी तरह  पहचानती है चाँदनी

दूर रहना उसकी मज़बूरी भी है  अच्छा भी है
मुझसे जब मिलती है   लगता है नई है चाँदनी

मैंने कुछ लोगों की  आँखों से चुराया है उसे
मैं वो इक बादल हूँ जिसमें  घिर गई है चाँदनी

मेरा यह तन्हाईयों का शहर उसका शहर है
जिसके रस्ते जिसके आँगन चूमती है चाँदनी

जिस नदी में रोज़ सूरज डूबता है शाम को
रात उस काली नदी में  नाचती है चाँदनी

धूप से मैं उसकी कोई बात भी क्यूँ कर कहूँ
धूप  कह देगी  कि हाँ मुझसे बनी है चाँदनी


11.
सीढ़ियाँ  कितनी बड़ी हैं सीढ़ियाँ
मुझको छत से जोड़ती हैं सीढ़ियाँ

गाँव के  घर में बुज़ुर्गों की तरह
आजकल सूनी पड़ी हैं  सीढ़ियाँ

इन घरों में  लोग लौटे ही नहीं
धूल में लिपटी हुई हैं  सीढ़ियाँ

सिर्फ  बच्चों की कहानी के लिए
आसमानों में   बनी हैं सीढ़ियाँ

इस महल में रास्ते थे अनगिनत
अब गवाही  दे रही हैं सीढ़ियाँ

उस नगर को जोड़ते हैं सिर्फ पुल
उस नगर की ज़िन्दगी हैं सीढ़ियाँ

इस इमारत में है  ऐसा इंतजाम
हम रुकें तो  भागती हैं सीढ़ियाँ 
__________________
(हरजीत सिंह का फोटो रुस्तम सिंह के सौजन्य से )
पक्षियों के श्वेत -स्याम फोटो गूगल से साभार.

स्त्री -चेतना : अज्ञात हिंदू महिला: रोहिणी अग्रवाल












भारतेंदु काल में लेखिका ‘एक अज्ञात हिन्दू महिला’  'सीमंतनी उपदेश' (1882) लिखती हैं जो उस समय की सोच से आगे की रचना थी. यह किताब एक सदी तक विलुप्त रही. डॉ. धर्मवीर के प्रयास से 1984में यह प्रकाशित हुई. इस तरह की कई और लेखिकाएं हैं.

जिसे हम नवजागरण कहते हैं उसमें इन लेखिकाओं की कैसी भागीदारी थी और उनका क्या योगदान है ? इसपर अभी और अन्वेषण- विश्लेषण की जरूरत बनी हुई है.

आलोचक रोहिणी अग्रवाल के स्तम्भ ‘स्त्री –चेतना’ की शुरुआत अज्ञात हिंदू महिला से की जा रही है.




अज्ञात हिंदू महिला 
तीखे आक्रामक  तेवरों  में कड़वी  सच्ची बात


रोहिणी अग्रवाल



बेशक नवजागरण आंदोलन की पीठिका पर ही हिंदी साहित्य का आधुनिक काल टिका हुआ है, लेकिन यह भी तय है कि समाजसुधार के इस वैचारिक आंदोलन में उदारतावादी दृष्टिकोण और सामंती सोच की जड़ताओं का घालमेल अवश्य हुआ है. स्त्री की स्थिति में सुधार की कामना के स्त्री-पुरुष संबंधों और पारिवारिक ढांचे को ज्यों का त्यों बनाए रखने की ललक इस दौर के चिंतकों-लेखकों में दिखाई देती है. इसका प्रमाण है कि स्त्री-शिक्षा के पाठ्यक्रम से लेकर स्त्री के विवाह की न्यूनतक आयु के निर्धारण को लेकर चली लंबी-लंबी बहसें. यह दौर बहुविवाह, बालविवाह जैसी कुरीतियों के विरोध और स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह जैसी अग्रगामी सोच के समर्थन में अपनी उपस्थिति तर्ज कराना चाहता है, लेकिन कानूनी तौर पर और पारिवारिक स्तर पर स्त्रियों को ज्यादा अधिकार देने का हिमायती नहीं है. स्त्री शिक्षा के मुद्दे पर ही यदि भारतेंदु, स्वामी दयानंद सरस्वती और लाला लाजपत राय की टिप्पणियों को सामने रख कर तद्युगीन सामाजिक-साहित्यिक परिदृश्य का आकलन करना चाहें तो स्थितियां कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं हैं. मसलन, भारतेंदु 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है'में अपने मंतव्य का खुलासा करते हैं - ''लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती हैं जिससे उपकार के बदले बुराई होती है. ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखें. पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें.''


ठीक इसी आशय की पुनरावृत्ति हुई है स्वामी दयानंद सरस्वती की टिप्पणी में कि ''लड़कियों की शिक्षा का चरित्र लड़कों की शिक्षा से भिन्न होना चाहिए.  . . . हिंदू लड़की को हिंदू लड़कों से भिन्न प्रकृति के कार्य करने होते हैं. अतः मैं उस व्यवस्था को प्रोत्साहित नहीं करूंगा जो उन्हें उनके राष्ट्रीय चारित्रिक गुणों से वंचित कर दे. हम अपनी लड़कियों को ऐसी शिक्षा नहीं देंगे जो उनकी सोच को बदल दे.''

लाला लाजपत राय की मान्यता भी इनसे कुछ भिन्न नहीं - ''अतीत से लेकर वर्तमान तक मेरी यह दृढ़ मान्यता रही है कि पुरुषों में शिक्षा प्रसार की सख्त तथा महत्वपूर्ण जरूरत है परंतु स्त्रियों की शिक्षा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कोई सहयोग दे, यह आवश्यक नहीं.''

मजे की बात यह है कि उसी दौर की अलक्षित कर दी गई स्त्री-रचनाकार एक नई दृष्टि, स्फूर्ति और दृढ़ता के साथ इन मुद्दों पर बात करती हैं. इनमें प्रमुख हैं मराठीभाषी रमाबाई और ताराबाई शिंदे के अतिरिक्त मल्ल्किा देवी, अज्ञात हिंदू महिला, दुखिनीबाला, और बंग महिला. उल्लेखनीय है कि इस दौर का पुरुषरचित साहित्य थोड़ा-बहुत हाथ-पैर मारने के बाद शोधार्थी को सुलभ हो जाता है, लेकिन स्त्री-रचनाकारों की पुस्तकों को जुटाना टेढ़ी खीर है. यही नहीं, नवजागरणकालीन अधिकांश लेखिकाओं से हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी ने न केवल उनका नाम और निजी पहचान छीनी है, बल्कि उनकी रचनाओं को जमींदोज करके साहित्येतिहास लेखन के उस उर्वर दौर में उन्हें जानबूझ कर परिदृश्य से बाहर कर दिया गया है. पितृसत्ता के गहरे दबावों तले स्त्री को दोयम दर्जे का मानने की जड़ मानसिकता के अतिरिक्त इसका भलाक्या अन्य कारण रहा होगा? यहां तक कि आचार्य शुक्ल भी बंगमहिला के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री रचनाकार को अपने इतिहास में स्थान नहीं देते. क्या इसलिए कि अज्ञात हिंदू महिला का विलोम रचते हुए बंगमहिला पितृसत्ता से अनुकूलित सोच के साथ साहित्य सृजन करके पुरुष-मंतव्यों को पुष्ट करती हैं?

बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में वैश्वीकरण के दौर में यदि अस्मिता विमर्श ने जोर न मारा होता, और अपने इतिहास और धरोहर को जानने की व्यग्रता में विख्चारकों ने समय का उत्खनन करने की चेष्टा न की होती, तो शायद हम जानबूझ कर अलक्षित कर दी गई स्त्री-रचनाकारों की कृतियों से आज भी महरूम होते.
यहां इस तथ्य का उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि 1882में रचे जाने के बावजूद 'सीमंतनी उपदेश'डॉ. धर्मवीर के प्रयास से 1984में प्रकाश में आई, और जुलाई 1915से मार्च 1916तक 'स्त्री दर्पण'में धारावाहिक रूप से प्रकाशित पुस्तक 'सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी' (दुखिनीबाला) को प्रज्ञा पाठक ने 2005में 'कथादेश'में प्रकाशित कराया.

''जैसे गन्ने का रस निकाल लेने से छिलका रह जाता है, वैसे ही हमारी हालत हैबनाम ''अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए''

29छोटे-बड़े अध्यायों में विभक्त सीमंतनी उपदेश'सौ से भी कम पृष्ठों की एक 'बड़ी'किताब है. उग्र और तिलमिला देने वानी शैली में रचित यह पुस्तक न केवल अपने समय में प्रचलित सभी विवादास्पद और ज्वलंत स्त्री-सरोकारों को उठाती है, बल्कि अपने समय की जड़ताओं का सृजन करती कट्टरताओं से उतने ही बेबाक ढंग से गरियाती और लोहा लेती है. शायद इस किताब को अलक्षित कर देने का कारण भी यही रहा कयोंकि स्त्री की स्वतंत्रता को बाधित करने वाली सामाजिक संस्थाओं और धर्मशास्त्रों को सबसे पहले यहीं चुनौती मिली जो यथास्थितिवाद की चूलें हिला देने के लिए काफी थी.

लेखिका अज्ञात हिंदू महिला स्वयं बाल विधवा हैं और आर्य समाज के प्रभावस्वरूप स्त्रियों को शिक्षित करने का एजेण्डा लेकर चल रही हैं. इसलिए कहीं उद्बोधनात्मक शैली में समूची स्त्री जाति का आह्वान करते हुए उसे अपनी स्थिति के प्रति चेताने का आग्रह करती हैं तो कहीं शास्त्रार्थ मुद्रा में धर्मशास्त्र को चुनौती देती हैं. शास्त्रसम्मत नैतिकता के दोहरे मानदंडों से अलग अज्ञात हिंदू महिला स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान प्रतिमान और आचार-संहिता बनाना चाहती हैं.  वे शास्त्रसम्मत मान्यता का उद्धरण देते हुए तक करती हैं कि यदि स्त्री-पुरुष दोनों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है तो यह कैसा इन्साफ कि ''आधा जिस्म मर्द का औरत के मरने से दूसरी शादी कर सके और आधा जिस्म औरत का शादी बगैर जेलखाने में मार दिया जावे.'' (सीमंतनी उपदेश, पृ0 76)

बेशक याज्ञवल्क्य मुनि असाध्य रोग से ग्रस्त पति की पत्नी को दूसरे विवाह की अनुमति देते हैं, किंतु अज्ञात हिंदू महिला इसे घोर अनैतिक एवं स्वार्थी कृत्य मानती हैं -''जब तक औरत-मर्द तंदरुस्त रहें, साथ रहें, और जब किसी तरह की आफत आवे या एक को बीमारी हो तब एक दूसरे को छोड़ दें. नहीं, हरगिज ऐसा न करना चाहिए. जब तक हर दो में हर एक का दम बाकी है, साथ रहें, जब परमेश्वर जुदा करे, अखत्यार है दोनों को चाहे शादी करें चाहे न करें.''(पृ0 78) 

व्यक्तिगत तौर पर अज्ञात हिंदू महिला विधवा पुनर्विववाह से सहमत नहीं. 'पुरुष की हर रोज की मार खाने से रांड रहना अच्छा है'शीर्षक निबंध में वे संतानवती विधवाओं को तो पुनर्विववाह के लिए हतोत्साह करती ही हैं, पति की हिंसा से बचने के लिए भी अकेले रहने को बेहतर विकल्प मानती हैं. सैद्धांतिक तौर पर वे विधवाओं पर ढाए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ खड़ी हैं. वे जन सामान्य/ब्रिटिश सरकार को बता देना चाहती हैं कि भले ही सती प्रथा देश में समाप्त हो गई है, लेकिन हिंदू घरों में विधवाओं को तिल-तिल जला कर सती करते रहने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है. (पृ0 97) 

रांडों पर सितम'शीर्षक निबंध में वे बताती हैं कि पंजाब में विधवा को इतनी अमानुषिक यातनाएं दी जाती हैं कि वह स्वयं ही तड़प-तड़प कर मर जाए. (पृ0 89-97) पति की मृत्यु होते ही नाखून द्वारा नाक, कान, गले, पांव और बांह के सारे जेवर उतारे जाते हैं; कांच की चूड़ियों को पत्थर से फोड़ा जाता है चाहे इस प्रयास में कलाई लहूलुहान ही क्यों न हो जाए; अर्थी उठने पर दो नाइनों के साथ उसे मुंह-सिर लपेट कर दरिया नहलाने ले जाया जाता है. एक नाइन आगे रास्ता प्रशस्त करती चलती है ताकि सधवा इसका मुंह न देख सके. दरिया या तालाब में उसे कपड़ों समेत धक्का दे दिया जाता है और जब तक सब स्त्रिायां नहाने-मुंह हाथ धोने का दस्तूर पूरा कर वहां से रवाना नहीं हो जातीं, उसे उसी तरह पानी में पड़े रहने को मजबूर किया जाता है. नहाने के बाद उन्हीं गीले कपड़ों में घर की ओर रवानगी होती है - माघ का महीना हो तो भी ठंड से बचाने की कोई जुगत नहीं. घर पहुंच कर उन्हीं गीले कपड़ों में अलग एक कोने में बैठा दी जाती है. खाना और पानी जैसी जरूरतों की ओर ध्यान देने का तो सवाल ही नहीं. दुनिया भर की बदरहमियों में सिकुड़ी यह विधवा सात बरस की हो या सत्तर की, अगर मरती नहीं तो जिंदों में भी नहीं रहती. लेखिका कुछ अंतर्विरोधों की ओर इशारा भी करती हैं कि मां अपनी विधवा लड़की को जेवर जरूर पहनाती है क्योंकि नंगी-बुच्ची बेटी को देख कर उसका कलेजा फटता है; लेकिन मन में अंगड़ाई लेती कामनाओं को पहचान कर उसके पुनर्विवाह का उद्योग नहीं करती क्योंकि वह धर्मपरायणा है. अज्ञात हिंदू महिला इस पाखंड पर जल कर आग-भभूका हो जाती हैं - ''वाह री समझ! कोई पूछे इनसे, जब आप पलंग पर गर्म होती हैं, उस वक्त लड़की के मन का क्या बंदोबस्त करती हो? सच है, जेवर बिना नहीं देखी जाती, खाविंद बगैर देखी जाती है. खाविंद बिना उम्र कट जाएगी, जेवर बिना कटनी बड़ी मुश्किल है.'' (पृ0 95)

लेखिका प्राणपण से जतन करती हैं कि विधवाओं से तमाम लौकिक खुशियां छीन लेने वाली रिवायतों के खिलाफ जन-चेतना पैदा की जाए. वे उन्हें धिक्कारती भी हैं और पुचकारती भी हैं कि ऐ हिंद की विधवाओं को मारने वालियो, क्यों अपने वास्ते कांटों को फूल समझती हो - एक ऐसी वहमी रिवाज के पीछे जिसका न किसी मजहब से ताल्लुक है, न . . . हिंदुओं की किताब में इसका जिक्र है. महाभारत, जिसमें बेशुमार रांड हुईं, कहीं इस रस्म का नामोनिशान नहीं पाया जाता. फिर न मालूम आप कौन से धर्मशास्त्रा की रीत पर किस पंडित के कहने से इन जान लेने वाली बदरस्मों को नहीं छोड़तीं.'' (पृ0 97) वे इस बात पर बार-बार बल देती हैं कि विधवा पुनर्विववाह वैध है. यदि इन्द्रिय संयम रखना कठिन हो तो पथभ्रष्ट होने की अपेक्षा विवाह कर लेने में कोई हानि नहीं.

विधवाओं की स्थिति पर विचार करने के अतिरिक्त अज्ञात हिंदू महिला के स्त्री-प्रश्न पर दो सरोकार खास ध्यान खींचते हैं. एक, विवाह संस्था का पुनरीक्षण, और दूसरे, पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष समानता की अवधारणा पर बल. इसके लिए वे हिंदू शास्त्रों से भी टकराती हैं और मूर्ख स्त्रियों को फटकारने में भी कोताही नहीं करतीं. विचित्र लग सकता है कि अज्ञात हिंदू महिला जिस कड़क आवाज में आंदोलनधर्मी जनून के साथ विधवा पुनर्विववाह की पैरवी करती हैं, उसी उत्साह के साथ विधवाओं को विवाह-मंडप तक ले जाने की अगुवाई करती प्रतीत नहीं होतीं. यह उनकी कथनी-करनी का अंतर नहीं, वरन् हिंदू समाज में विवाह संस्था के अमानुषिक स्वरूप की पड़ताल के बाद उभरा निष्कर्ष है. लेखिका इक्कीसवीं सदी की स्त्रीवादी चिंतक की भांति विवाह संस्था के मौजूदा दमनकारी स्वरूप से क्षुब्ध भर ही नहीं, वरन् उसके खिलाफ अपनी पुरजोर आपत्ति भी दर्ज कराती हैं. ''शादी करने से अपने अखत्यारात दूसरे के अखत्यार में देने पड़ते हैं. जब आपने जिस्मी अखत्यार दूसरे को दिए तब दुनिया में अपनी क्या चीज बाकी रही? अगर इस दुनिया में कुछ खुशी है तो उन्हीं को है जो अपने तईं आजाद रखते हैं. हिंदुस्तानी औरतों को तो आजादी किसी हालत में नहीं हो सकती. बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार - सभी हुकूमत करते हैं. मगर जिस कद्र खाविंद जुल्म करता है, उतना कोई नहीं करता. लौंडी तो यह सारी उम्र सब ही की रहती है, पर शादी करने से बिल्कुल जरखरीद हो जाती है.'' (पृ0 84-85)

उन्हें लगता है कि रंडापा ओढ़ कर दूनी उम्र जीने वाली विधवाओं की निर्लज्जता को लेकर समाज में जो मिथक फैला है, वह सही है. फर्क यह है कि समाज इसे तिरस्करणीय दृष्टि से देखता है और लेखिका एक ठोस और श्लाघनीय सच्चाई के रूप में. वे मानती हैं कि ताकतों का जाया न होना और आजादी के सुख को भोगना - इसी का नाम रंडापा है. इस प्रकार मीराबाई के बाद वे हिंदी की दूसरी स्त्रीविमर्शकार हैं जो पातिव्रत्य धर्म की चुंधियाती रोशनी के पीछे छिपे जानलेवा अंधेरों को साफ-साफ देख सकी हैं. वे मानती हैं कि हजार में दस दम्पत्ति ही सही मायने में सुखी दाम्पत्य जीवन भोगते होंगे. शेष सब ''जूतीबाजी का तमाशा पड़ोसियों को दिखाया करते हैं.''उनकी दृष्टि में विघटित सम्बन्ध का कारण है पुरुष का व्यभिचारी स्वभाव. ''रंडीबाज, लौंडीबाज, जुआबाज'पुरुष तक नेकचलन पतिव्रता स्त्री की धर्म की पुकारें नहीं पहुंचतीं. विवाह का अर्थ यदि पति की लातें खाकर उन चरणों को पूजना है तो अज्ञात हिंदू महिला डट कर इस विवाह संस्था का विरोध करती हैं. वे खुल कर कहती हैं - ''शादी से बड़ी-बड़ी तकलीफें उठानी पड़ती हैं.'' (पृ0 84) फलतः विधवाओं को चेता देना चाहती हैं कि पहले दूसरों के मजबूर करने पर जिस काम में दुख उठाया, अब उसी बला को जानबूझ कर अपने ऊपर लेने में क्या बुद्धिमानी है - ''पुनर्विववाह करने की इच्छा करने वालियों को याद रखना चाहिए कि हमें भी शादी करने के पीछे इन्हीं के मानिंद रोना पड़ेगा. जहां हजार लाख करोड़ को ठोकर खाते देखा, हमको चाहिए कि हम भी अंधों की माफिक अपने तईं गिरावें नहीं बल्कि देख के कदम रख उसको जीत लेवें.. . . हे प्यारी बहनो, वही काम करो जिससे तुम्हें इस दुनिया में सुख मिले. बड़े भारी दुखों की जड़ काम है. पहले काम को रोको. इसको रोकने की यह अच्छी तजवीज है कि जब इसका ख्याल पैदा हो तक इसके दुखों का ख्याल करो.'' (पृ0 88)

चूंकि अज्ञात हिंदू महिला स्त्री को विवाह संस्था की जकड़न से मुक्त एक स्वतंत्रा मनुष्य के रूप में देखने का विवेक अर्जित कर पाई हैं, इसलिए वे सधवाओं की रोजमर्रा की गतिशीलता को बाधित करते भारी-भरकम जेवरों और सुहाग-चिन्हों के विरुद्ध बोलने का साहस बटोर पाई हैं. सिर से पैर तक आभूषणों से लदी स्त्री उनके लिए न सौन्दर्य के मानक गढ़ती है, न पति की सम्पन्नता की मिसाल पेश करती है वरन् वह उन्हें कैदी या ढोर-डंगर की याद दिलाती है जिसे मालिक द्वारा बोझ से लाद दिए जाने पर भी काम करते रहना पड़ता है. तिरस्कारपूर्ण उपहास के साथ वे एक-एक जेवर का परिचय देती चलती हैं. मसलन हाथी के पांव की सांकल सरीखी पांवों की सांकल; कैदी की हथकड़ी जैसे हाथों के कड़े; नकेल सरीखी नाक की जंजीर. सिर में खूंटे के मानिंद गाड़े जाने वाला जेवर 'चौक'और उसके साथ एड़ी तक लटकता परांदा - सोने में कितनी ही तकलीफ क्यों न हो, पति के जीते जी इस सुहाग-चिन्ह को बदन से अलग करना संभव नहीं. पांव की उंगली के मांस को गला डालने वाला 'बिछुवा'. माथे पर बंदी, बैना, तावीज, झूमर, मोरनी, चांद, शीशफूल जिनकी 'कशिश से खून नसों में आने-जाने से रुक जाता है. कानों में चलनी की मानिंद छेद कर पिरोए गए पत्ते, बाली, बूंदे, चांद, मछ, झुमके, कर्णफूल, ठेंठी, ढेडू, डंडी, तदोड़े - कान कट कर पीप-मवाद की नदियां न बहाएं तो क्या करें. गले में गुलूबंद, कंठा, जुगनी, चंपाकली, मालाहार, तिलड़ी, दोलड़ी, पचलड़ी, सतलड़ी, पानहार, हमायल, गुलूबंद, बद्धी  ; पांवों में कड़े, पाजेब, छड़े, बांक, गुजरी, अनोखे, रमझोल, नूपुर - कम से कम पांच-पांच सेर का बोझ एक-एक पांव में. फिर पगापन - एक जेवर जो पांवों के ऊपर जंजीरों से बांध दिया जाता है. पांव उठाना तो दरकिनार, एक बालिश्त भर कदम रखना भी संभव नहीं.

आभूषण-चर्चा के बाद वे स्त्री समाज को सवालों से रू-ब-रू कराना चाहती हैं. एक, जेवरों को सुहाग के साथ जोड़ने की कुरीतियों की निरर्थकता; और दूसरे, अपनी मुक्ति के लिए अकेले लड़ाई लड़ने की नैतिक क्षमता. ताराबाई शिंदे की तरह बेहद कड़वाहट और आक्रामकता के साथ वे धर्मशास्त्रों और पुरुष वर्चस्व के खिलाफ आग उगलती हैं कि सुहागिन स्त्रिायों को यदि ये सब जेवर धारण करने की बाध्यता हे तो 'सुहागे मर्दों'को क्यों नहीं; कि क्या हिंदुस्तानी मर्दों के प्राण स्त्रिायों द्वारा धारण किए गए जेवरों में ही निहित हैं? यदि हां, तो ब्याह होने से पहले तक वह किसके सगुन करने से जीता रहता है और स्त्री की मृत्यु के साथ क्यों नही मर जाता? वे तर्क देती हैं कि सुहाग-चिन्ह धर्मशास्त्रों ने नहीं बनाए हैं - ''फिर मैं पूछती हूं- कौन से धर्मशास्त्रा में इसका पहनना सुहाग में दाखिल है? मनुस्मृति . . . के कौन से अध्याय में इस नाक काटने वाली (नथ) का जिक्र है? और विवाह पद्धति के कौन से श्लोक में लिखा है? . . .  बस, साफ जाहिर हो जाएगा कि यह रस्म पुरखों की बनाई नहीं, यह आप ही की ईजाद है.'' (पृ0 51) लेकिन यदि बनाई भी हो तो जड़-जर्जर कुरीतियों को दूर करने में देरी ही क्यों? ''जैसे उन्होंने (हमारे पूर्वजों) अपने बड़ों की अच्छी रस्म तोड़ बुरी रस्में निकालीं क्योंकि यह रस्म पुरानी किसी किताब में नहीं . . . तुमको भी चाहिए जो खराब दुख देने वाली रस्म हैं, उनको तोड़ अच्छी रस्म निकालो . . .तुम उनकी पैरवी न करो. जैसी उसकी अकल थी, वैसी उन्होंने रस्म निकाली. परमेश्वर की कृपा से तुम भी अकल रखती हो . . . खूब याद रखो, जब तक खुद इन बेड़ियों को न उतारोगी . . . जब तक खुद अपने ऊपर रहम न करोगी, मुमकिन नहीं कि हिंदुस्तानी तुम पर रहम करें.'' (पृ0 51-56)

यहां अनायास भारी-भरकम जडाऊ गहनों से लकदक लिबरेटेड वुमैन का मिथ रचती टी .वी . सीरियलों में दिखाई लाने वाली स्त्री याद आ जाती है. सवाल यह नहीं है कि तिकड़म और व्यूह रचती यह स्त्री जिस आत्मनिर्भर मुक्त स्त्री की नई छवि को बनाती है, वह कितनी नकारात्मक-सकारात्मक, तिरस्करणीय-वरेण्य है; वरन् चिंता का विषय यह है कि क्या यह स्त्री वाकई मुक्त, आत्मनिर्भर, 'शिक्षित'और नैतिक रूप से दृढ़ विवेकशील प्राणी है? भारतीय नवजागरण की क्रांतिकारी समाजसुधारक महिलाओं ने जिन रूढ़ियों-संकीर्णताओं, प्रलोभनों और लिप्साओं से उसे मुक्त करने का प्रयास किया था, क्या वे दूने वेग से लौटा कर आज आधुनिकता के अंधड़ में उसकी हस्ती को नेस्तनाबूद कर उड़ाए नहीं जा रही हैं? बीसवीं सदी के साठ-सत्तर और कुछ हद तक अस्सी तक के दशक के भारतीय परिदृश्य में मूल्यों की इतनी आपाधापी और रपटने की होड़ नहीं थी. सादगी और त्याग, आदर्श और वैचारिक क्षमताओं को उन्नततर करने का आग्रह, जियो और जीने दो जैसे आप्तवचनों को रोजमर्रा की जीवन-शैली में उतार कर समाज के पुनरुद्धार करने का संकल्प हाशिए पर पड़ी अस्मिताओं के लिए एक सम्मानजनक स्पेस का विश्वास देता था. आज भले ही केन्द्र और हाशिया गड्डमड्ड हो गया है और अस्मिता विमर्श का स्वर तीव्रतर, लेकिन बदहवासी और लूटखसोट व्यक्ति को 'मनुष्य'रहने ही नहीं देती. ऐसे में परिवर्तन को प्रगति या पतन के पैमाने पर नापने का धीरज और अवकाश किसे है?

'सीमंतनी उपदेश'की रचयिता जड़ताओं से आबद्ध प्रतिगामी माहौल में अपने क्रंदन को ललकार बनाने का हौसला रखती हैं. वे पश्चिमी स्त्रीवादी विचारकों की तरह अपनी आवेगपूर्ण आत्माभिव्यक्ति को सिद्धांत-कथन का रूप नहीं दे पातीं, लेकिन जे .एस .मिल की तरह स्त्री को पराधीन बनाने वाली विवाह संस्था  तथा मेरी वोल्स्टनक्राफ्रट की तरह पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा स्त्रियों के सौन्दर्य एवं आभूषणों के प्रति गर्हित अभिरुचि को  प्रश्रय देने की साजिशों को समझ जाती हैं. लोक-व्यवहार से जुड़ कर वे गहनों यानी 'स्त्री धन'के महत्व और अनिवार्यता को स्वीकारना नहीं भूलतीं, लेकिन उस 'धन'को अमूल्य किंतु हल्के-फुल्के गहनों में तब्दील करने के हुनर को अंगीकार करने की पैरवी करती हैं.  दूसरे, वे परम्परागत विधि-निषेधों से ऊपर उठ कर स्त्रियों को पांव में जूती पहनने की सलाह देती हैं. स्वयं स्त्री होने के कारण स्त्री-जीवन के लगभग अलक्षित जिन पहलुओं को वे बारीकी से देख सकी हैं, वे भारतीय नवजागरण के व्यापक एजेंडे में कहीं स्थान नहीं पाते. 'सीमंतनी उपदेश'को छोड़ कर शायद ही किसी रचना में इस तथ्य की ओर उल्लेख किया गया हो कि स्त्रिायों को पांव में जूते आदि पहनने की स्वतंत्राता नहीं थी. दरअसल 'गाय-बैलों के खुर से भी ज्यादा सख्त'पांवों की पीड़ा झेलने वाली स्त्री ही बिवाइयों के दर्द और मरहम की जरूरत सकती है. अलबत्ता एक बात अवश्य खटकती है कि लेखिका ने पूरी पुस्तक में स्त्री शिक्षा और स्त्रिायों के आर्थिक स्वावजम्बन की आवश्यकता जैसे आधारभूत मुद्दों को एक बार भी नहीं उठाया.

'सीमंतनी उपदेश'के लेखों से ज्ञात होता है कि अज्ञात हिंदू महिला न केवल सुशिक्षित थीं, अपितु स्त्री मुद्दों के साथ संजीदगी से जुड़े समाजसुधारकों के निरंतर साहचर्य में भी थीं. वैचारिक दृष्टि से वे आर्यसमाजी हैं और जहां भी अवसर मिला है, उन्होंने पुस्तक में ब्राह्मणों को 'श्री शृगाल वृत्ति शर्मा', 'श्री वराहवृत्ति शर्मा', 'श्री काक वृत्ति शर्मा', श्री कूर्म वृत्ति शर्मा'सरीखे तिरस्करणीय सम्बोधनों से सम्बोधित किया है. वे स्वामी दयानंद सरस्वती से बेहद प्रभावित हैं और आश्वस्त हैं कि आर्यसमाज की स्थापना से हिंदुस्तान से जहालत का पर्दा उठाने और स्त्रिायों को 'अविद्या के घोर सागर से निकालने'का मिशन वे अवश्य पूरा कर लेंगे. स्वामी दयानंद सरस्वती के अतिरिक्त वे तीन अन्य समाजसुधारकों  - मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी, पं0शिवनारायण अग्निहोत्री, एडिटर 'बरादर हिंद'और राय नोवीन चंद - की सक्रियता का प्रशंसापूर्वक उल्लेख करती हैं. लेकिन साथ ही वे दो तथ्यों की ओर भी संकेत करती हैं. एक, ''तमाम हिंदुस्तान से तलाश करने से शायद सौ-पचास ही निकलेंगे जो स्त्रिायों को भी इंसान जानते हैं.'' (पृ0 43) दूसरे, स्त्री-मुक्ति के लिए स्वयं स्त्रिायों को आगे आने का आह्वान करती हैं - ''अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए . . . बेशक, पहले हमारी हिंदी बहनों को बुरा मालूम होगा, मगर जरा गौर को दिल में जगह देंगी तब खुद मालूम कर लेंगी कि हम पर किस कद्र मुसीबत है.'' (पृ0 45)

आश्चर्य होता है कि स्त्री की पीड़ा और आरोपित नियति के कारणों को तफसील से जानते हुए भी लेखिका ने स्वयं सावित्रीबाई फुले या रमाबाई की तरह घूम-घूम कर स्त्रिायों को जाग्रत करने का प्रयास क्यों नहीं किया? पंजाब में उस समय आर्यसमाज से दीक्षित उपदेशिकाएं स्त्री-जागृति प्रसार में योगदान दे रही थीं. भगवती माई का नाम इस दिशा में विशेष रूप से लिया जाता है.  या हो सकता हे पुस्तक की तरह उनके सक्रिय योगदान को भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की दीर्घायु और कुलवधुओं के स्वास्थ्य के लिए नजरअंदाज कर दिया गया हो क्योंकि पुस्तक में संग्रहीत निबंधों की शैली मेे भावना, आक्रोश, उद्बोधन का जो अतिरेक है, वह एकांत में बैठ कर लिखे गए निबंधों की शैली से मेल नहीं खाता. ये निबंध भाषण और प्रचार की शैली मे रचे गए हैं जहां भावनाओं को उभार कर अपने संदेश को आरोपित करना प्रमुख लक्ष्य रहता है, स्थिति का समग्र एवं गहन विश्लेषण कर पूरी समाजशास्त्रीय व्यवस्था की पड़ताल करना नहीं. बहरहाल, भडकाऊ अंदाज में कड़वा सच बोल-लिख कर स्त्रिायों को उकसाने (चेतन करने) के अपराध में अज्ञात हिंदू महिला ने एक लम्बे अरसे तक हिंदी साहित्य से निर्वासन का दंड तो भोगा ही.

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प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभागमहर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा

सहजि सहजि गुन रमैं : राजेश जोशी






































राजेश जोशी पिछले चार दशकों से हिंदी कविता में अपनी महत्वपूर्ण  उपस्थिति बनाए हुए हैं, सार्थक बने हुए हैं. कोई लगातार अच्छी कविताएँ कैसे लिख सकता है ?

यह काव्य- यात्रा अपने समय में गहरे घंस कर तय की गयी है. उनकी  कविताओं में बीसवीं सदी के ढलान पर लुढकते, गिरते भारतीय महाद्वीप के चोटों के रिसते हुए खून हैं, उघडे घावों के निशान हैं.

राजेश जोशी की कविताएँ समकालीन लूट, झूठ, हिंसा, अँधेरे, असहायता को समझने और उनसे जूझने में मशाल की तरह रौशन हैं.

विचार  और सरोकार से होती हुई, कविता की अपनी शर्तों पर टिकी ये कविताएँ मजबूत और सुंदर कविताएँ हैं. 


राजेश जोशी की ये सात कविताएँ ख़ास आपके लिए.



राजेश  जोशी  की  कविताएँ


बेघरों का गाना

घर के बसने से ज़्यादा उसके उजड़ने उखड़ने की कथाएँ हैं
कथाओं में बिंधी अनगिनत स्मृतियाँ,सपने और सिसकियाँ
कितनी ठोकरे,कितनी गालियाँ, कितना अपमान
हमारे बर्तनों में लगे दोंचे
और हमारी चप्पलों की उखड़ी हुई बद्दियाँ
हमारे विस्थापन की कथा का सारांश हैं.

हमारी स्मृति में अपना कहने को ज़मीन का कोई टुकड़ा नहीं
कि जिस पर तामीर हो सके एक झोपड़ा भी 
अनगिनत रंग बिरंगे मिट्टी के टुकड़ों से बनी
ज़मीन की एक कथरी है  
इसी की पोटरी लादे अपने सपनों में
हम भाग रहे हैं यहाँ से वहाँ
अलग अलग बम्बों का पानी पीते
शहर दर शहर
हमारा समय बेघरों का गाना हे !

दिन,दोपहर,रात बिरात कभी भी आ जाते हैं वो
कहते हैं खाली करो,खाली करो, खाली करो ज़मीन
कि इस ज़मीन पर महाजनों ने धर दी है अपनी उंगली
अब यह ज़मीन उनकी हुई 
अब यहाँ सोन चिरैया आयेगी
कहना चाहते है हम कि मालिक सोन चिरैया सिर्फ कथाओं में होती है
लेकिन तब तक वो गला फाड़ कर गाने लगते हैं
सोन चिरैया आयेगी
सोन चिरैया गायेगी

घोंसला यहीं बनायेगी
अंडे देगी, सेएगी,
बच्चों को उड़ना गाना यहीं सिखाएगी

देस बिदेस से देखने को पर्यटक आयेंगे
खाली करो,खाली करो, खाली करो ज़मीन
रूक गया है चालीस गाँवों का सारा काम काज
किसी मिथक कथा से निकले दैत्य की तरह
बढ़ा चला आ रहा है बुलडोज़र
मुआवजे की कतार में भी खड़े हैं उन्हीं के कारिन्दे
हमारे छप्पर की टीन , हमारी खिड़की , हमारा ही दरवज्जा लिए
ऐलान करती घूम रही है गाड़ी
जल्दी करो....जल्दी करो ........
खाली करो ज़मीन
कि सोन चिरैया के आने का समय हुआ......
                      खाली करो ज़मीन !
(16.12.15)



अभिशप्त सपने और समुद्र के फूल

उठती है जितनी तेजी से ऊपर
चढ़ते ज्वार की लहर          
गिरती है उतनी ही तेजी से नीचे
लौटते हुए लेकिन धीरे धीरे
धीमी होती जाती उसकी गति
घर की ओर वापस लौटते हुए
रास्ता जैसे हमेशा लम्बा लगता है

किनारे की रेत पर बचा रहता है
बहुत देर तक लौटती लहर का गीलापन 
बचे रहते हैं रेत पर
लहर के वापस लौटने के निशान
रेत पर बनी लहरों के बीच
मैं समुद्र की ओर जाते और वापस लौटते
अपने पाँवों के निशान बनाता हूँ
हर अगली लहर ले जाती हैं जिन्हें अपने साथ

स्मृति में समुद्र की,होंगे करोड़ों पाँवों के निशान
रेत पर लिखे हमारे नाम और हमारे घरोंदे
हर बार अपने साथ ले जायेगी लहर
फिरभी न हम लिखना छोड़ेंगे अपना नाम
न समुद्र छोड़ेगा साथ ले जाना उन्हें
बुद्ध की जातक कथा के कौवे
नहीं आयेंगे समुद्र को उलीच कर
हमारे नाम, हमारे घरोंदे या पाँवों के निशानों को वापस लाने
गोताखोर समुद्र की गहराइयों में लगायेंगे छलांग
खोज कर लायेंगे तरह तरह की चीजें
उनमें हमारे नाम, हमारे सपने, हमारे घरोंदे
नहीं होंगे कहीं........

तब तक शायद वो कॅारेल्स बन चुके होंगे
क्या हमारे अधूरे अभिशप्त सपने बन जाते हैं एक दिन
तारे या समुद्री फूल 
जब तुम उन सुन्दर और आकर्षक फूलों को छुओगे
तो मन ही मन पूछोगे कि ये इतने कठोर क्यों हैं
क्यों चुभते हैं इनके किनारे काँटों की तरह
तब हमारे समय के पन्नों को पलटना
तुम जान जाओगे कि यह फूल बनने से पहले सपने थे
इसलिए अब भी सुन्दर थे और आकार्षक भी
कि हर कोई उनको आकार लेता देखना चाहता था
ये हमारे सपने ही थे जिन्हें एक नृशंस समय ने
इतना कठोर और नुकीला बना दिया
पर शायद इसीलिए ये आज भी 
                मिटने से बच गये !

(30.3.17)

उल्लघंन

उल्लंघन कभी जानबूझ कर किये और कभी अनजाने में
बंद दरवाजे मुझे बचपन से ही पसन्द नहीं रहे
एक पाँव हमेशा घर की देहरी से बाहर ही रहा मेरा  
व्याकरण के नियम जानना कभी मैंने ज़रूरी नहीं समझा
इसी कारण मुझे कभी दीमक के कीड़ों को खाने की लत नहीं लगी
और किसी व्यापारी के हाथ मैंने अपना पंख देकर
उन्हें खरीदा नहीं .1.
बहुत मुश्किल से हासिल हुई थी आज़ादी
और उससे भी ज़्यादा मुश्किल था हर पल उसकी हिफ़ाज़त करना  
कोई न कोई बाज झपट्टा मारने को , आँख गड़ाए
बैठा ही रहता था किसी न किसी डगाल पर
कोई साँप रेंगता हुआ चुपचाप चला आता था
घोंसले तक अण्डे चुराने
मैंने तो अपनी आँख ही तब खोली
जब सविनय अवज्ञा के आव्हान पर सड़कों पर निकल आया देश
उसके नारे ही मेरे कानों में बोले गये पहले शब्द थे
मुझे नहीं पता कि मैं कितनी चीज़ों को उलांघ गया
उलांघी गयी चीज़ों की बाढ़ रूक जाती है
ऐसा माना जाता था

कई बार लगता है कि उल्लंघन की प्रक्रिया
उलटबाँसी बन कर रह गयी है हमारे मुल्क में
हमने सोचा था कि लांघ आये हैं हम बहुत सारी मूर्खताओं को
अब वो कभी सिर नहीं उठायेंगी
लेकिन एक दिन वो पहाड़ सी खड़ी नज़र आयीं 
और हम उनकी तलहटी में खड़े बौने थे

पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं हताश होकर बैठ जाऊँगा
उल्लंघन की आदत तो मेरी रग रग में मौजूद हैं
इसे अपने पूर्वजों से पाया है मैंने
बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया के बीच

मैं एक कवि हूँ
और कविता तो हमेशा से ही एक हुक़्म उदूली है
हुकूमत के हर फ़रमान को ठेंगा दिखाती
कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है
व्याकरण के तमाम नियमों और
भाषा की तमाम सीमाओं का उल्लंघन करती
वह अपने आप ही पहुँच जाती है वहाँ
जहाँ पहुँचने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था मैंने 
एक कवि ने कहा था कभी कि स्वाधीनता घटना नहीं , प्रक्रिया है 2.
उसे पाना होता है बार बार ......लगातार
तभी से न जाने कितने नियमों की अविनय सविनय अवज्ञा करता
पहुँचा हूँ मैं यहाँ तक.
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1.संदर्भ मुक्तिबोध की कहानी,पक्षी और दीमक.
2.अज्ञेय का कथन.




खरीदार नहींहूँ

बाज़ार में खड़ा हूँ
हाथ में लुकाठी नहीं , जेब में छदाम नहीं
किससे कहूँ और कैसे कहूँ कि साथ चल
मेरा तो कोई घर नहीं , गाम नहीं

कहता है वह, चिन्ता की इसमें कोई बात नहीं
बिकने को रखी चीज़ों की जेब नहीं होती
होती भी है तो एकदम खाली होती है
शोकेस में सजी जैसे कमीज़ें और पतलून
इतनी कड़क इस्त्री होती है उनकी जेब पर
कि हवा भी नहीं घुस सकती अंदर
उनमें तारे रखे जा सकते हैं, न चाँद
आकाश भी ताक-झाँक कर सके मुमकिन नहीं

बस पाला बदलते ही बदल जाता है सबकुछ
खेल के नियम तुमने नहीं बनाये हैं

नहीं नहीं,लेकिन मैं ग्राहक बनूँगा
न बना सकते हो तुम मुझे जिंस
मैं बिकने को तैयार नहीं
मैं चीखकर कहता हूँ 

हँसता है वह, कहता है
फिर तुम आये ही क्यों यहाँ
बाज़ार में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं
हालांकि यह तुम पर मयस्सर नहीं कि तुम खरीदार नहीं
कि तुम जिंस बनने को तैयार नहीं
खेल के नियम जिसने बनाये हैं
खेल उसी के हिसाब से खेला जायेगा
वह जब चाहेगा और जब उसे लगेगा
कि तुम भी काम की चीज़ हो
तब तुम चाहो न चाहो 
वह तुम्हें बदल देगा
कभी जिंस में, कभी खरीदार में.

(21.6.11)

कृतज्ञता

सिरहाने जो खिड़की थी
वहॉँ घूमती हवा रातभर मेरी नींद की रखवाली करती थी
बगल में स्टूल पर रखे लोटे मे भरा पानी
रात भर मेरी प्यास की रखवाली करता था
खिड़की के बाहर आसमान पर हजारों तारे थे
और एक चाँद था
जो घूम घूम कर रखवाली करता था
मेरी नींद की
नींद में भटकते सपनों की

सपनों पर हर पल हमला करती कम नहीं थीं
पल पल घटती घटनाएँ
समय जंगली जानवर सा घात लगाये बैठा था
लेकिन सिरहाने के पास रखने को लोहे के औजार थे
और पत्थरों को रगड़कर आग जलाने का हुनर
हम भूले नहीं थे
आग के भीतर हमारी आवाज़ सुरक्षित थी

सपनों की रखवाली करती खुशबुएँ
फूलों के सिरहाने रतजगा करती थीं 

चिड़ियें सुबह सुबह जिनकी कृतज्ञता का
गीत गाती थीं.



एक पल में दो पल

एक पल स्मृति में बंद है
और बाहर एक पल तेजी से गुजर रहा है
चीज़ों की शक़्ल बदलता हुआ

सामने रखी तस्वीर में
सेब खाती मेरी बेटी
छह बरस की है
बाहर जबकि तीस पूरे कर चुकी वह
दोनों को अगल बगल रख कर
एक बेटी को दो बेटियों की तरह देखता हूँ

कई बरस पहले का दिन अचानक दरवाजे सा खुलता है
मैं उससे भीतर जाता हूँ
हवा को गोद में उठाता हूँ
हवा छह बरस की बेटी की तरह 
हल्की फुल्की है
फिर भी मुँह बनाता हूँ, कहता हूँ
ओह कितनी भारी है तू !

(5.3.07)

नहीं सीरिया

मैंने कहा समय 
प्रतिध्वनित होकर लौटी आवाज़ -सीरिया !
मैंने एक बार फिर दोहराया
सीरिया नहीं .....समय.....समय
एक बार फिर प्रतिध्वनित होकर लौटी आवाज़
सीरिया........सीरिया !

शुब्हः हुआ मुझे अपने कानों पर
कहीं ऐसा तो नहीं
कि मैं ही सुन रहा हूँ कुछ गलत !
कहीं ऐसा तो नहीं
कि विस्थापन का पर्यायवाची शब्द बन गया है सीरिया !
कि हमारा समय ही
बदल गया है एक ऐसे दुःसमय में
कि कहता हूँ समय
तो सुनाई पड़ता है सीरिया !

(15.12.15)

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11निराला नगर , भदभदा रोड , भोपाल 462003 . मोबाइल : 09424579277

भाष्य : राजेश जोशी की कविता और बिजली : सदाशिव श्रोत्रिय

























राजेश जोशी के दूसरे कविता संग्रह‘एक दिन बोलेंगे पेड़’(१९८०) में एक कविता संकलित है ‘बिजली सुधारने वाले’.सदाशिव श्रोत्रिय ने इस कविता पर यह टिप्पणी भेजी है जो कविता के अर्थ और आलोक का विस्तार करती है.

‘बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत’शीर्षक से उनकी एक और कविता है जो उनके पांचवें कविता संग्रह ‘दो पंक्तियों के बीच’ शामिल है उसे भी यहाँ दिया जा रहा है.

यह देखना त्रासद है कि बीस वर्षों के अन्तराल में जो बिजली अंधरे के बरक्स एक उम्मीद थी वह अब हमें अँधेरे का अभ्यस्त बनाने की कोई एक हिकमत बन गयी है.     






बिजली सुधारने वाले
राजेश जोशी



अक्सर झड़ी के दिनों में
जब सन्नाट पड़ती है बौछाट
और अंधड़ चलते हैं
आपस में गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं
कई तार

या
बिजली के खम्बे पर
कोई नंगा तार
पानी में भीगता
चिंगारियों में चटकता है.
एक फूल आग का
बड़े तारे –सा
झरता है
अचानक
उमड़ आई
अँधेरे की नदी में.

मोहल्ले के मोहल्ले
घुप्प अँधेरे में
डूब जाते हैं

वे आते हैं
बिजली सुधारने वाले.

पानी से तर-ब-तर टोप लगाए
पुरानी बरसातियों की दरारों
और कालर से रिसता पानी
अन्दर तक
भिगो चुका
होता है उन्हें.
भीगते -भागते
वे आते हैं
अँधेरे की दीवार को
अपनी छोटी-सी टार्च से
छेद हुए.


वे आते हैं
हाथों में
रबर के दस्ताने चढ़ाए
साइकिल पर लटकाए
एल्युमीनियम की फोल्डिंग नसेनी
लकड़ी की लम्बी छड़
और एक पुराने झोले में
तार,पेंचकस,टेस्टर
और जाने क्या-क्या
भरे हुए.

वे आते हैं
खम्बे पर टिकाते हैं
अपनी नसेनी को लंबा करते हुए
और चीनी मिट्टी के कानों को उमेठते
एक-एक कर खींचते हैं
देखते हैं
परखते हैं
और फिर कस देते हैं किसी में
एक पतला-सा तार.

एक बार फिर
जग-मग हो जाती है
हर एक घर की आँख.

वे अपनी नसेनी उतारकर
बढ़ जाते हैं
अगले मोहल्ले की तरफ़
अगले अंधेरे की ओर

अपनी सूची में दर्ज
शिकायतों पर
निशान लगाते हुए. 

_____________






किसी भी अच्छी कविता की एक विशेषता यह होती है कि उसे बार-बार पढ़ने या सुनने पर भी उससे पाठक या श्रोता का मन नहीं अघाता. एक ऐसी ही बिरली कविता राजेश जोशी की ‘बिजली सुधारने वालेभी है.

इस तरह की कविताएं तभी जन्म ले पाती हैं जब कोई विचारधारा किसी कवि को संवेदना के स्तर पर प्रभावित करने में समर्थ होती है. तब उस कवि की कल्पना अपने दैनंदिन जीवन से कुछ ऐसे सार्थक बिम्ब खोज लेती है जो उस विचारधारा को सहज ही अभिव्यक्त कर देते हैं.
                        
श्रम और श्रमिको के बग़ैर यह समूची दुनिया अंधेरे में डूब जायेगी और यदि श्रम के प्रति हमने अपना सहज अनुराग खो दिया तो इस धरती पर जीवन दुश्वार हो जायेगा इस बात को चाहे गांधी कहे या टाॅल्सटाॅय, थोरो कहे या मार्क्स, वह हमारी संवेदना को कभी भी उस तरह नहीं प्रभावित कर पाती जिस तरह वह बात राजेश जोशी जैसे एक जन्मजात कवि के उसकी एक कविता के माध्यम से कहने पर हमें प्रभावित करती है, ‘बिजली सुधारने वालेको इस अर्थ में हम एक सफल कविता कहेंगे.

कविता के प्रारंभिक हिस्से में बरसात के उन आंधी-अंधड़ और बौछार भरे दिनों का वर्णन है जो हमारी बिजली से जगमगाती और सुव्यवस्थित रूप से चलती दुनिया को अचानक अस्त-व्यस्त कर देते हैं. रूपक के तौर पर इस वर्णन को किसी के भी सामान्य रूप से चल रहे जीवन में अचानक आ जाने वाले उस संकट काल की भांति देखा जा सकता है जिसका शिकार कोई भी और कभी भी हो सकता है. ऐसा ही काल हमारे वास्तविक हितैषियों और मित्रों से भी हमारा परिचय करवाता है. कविता के तीसरे, चौथे और पांचवें बंद में कवि अंधेरे-उजाले के सशक्त काव्यात्मक बिम्बों की सृष्टि करता है जो पाठकीय चेतना को गहराई तक प्रभावित करती है:
                         
एक फूल आग का
बड़े तारे-सा
झरता है
                         
अचानक
उमड़ आयी
अंधेरे की नदी में

मोहल्ले के मोहल्ले
घुप्प अंधेरे में
डूब जाते हैं
                                                           

उमड़ आते अंधेरे की तुलना किसी नदी की बाढ़ से करना कविता के प्रारंभिक बिम्ब-विधान से भी सीधे-सीधे मेल खाता है और की अब तक की कल्पनात्मक प्रगति में कोई व्यतिक्रम नहीं उत्पन्न करता,

इसके बाद बिजली सुधारने वालों का जो वर्णन आता है वह सहज ही उन्हें उन निस्वार्थ फ़रिश्तों की श्रेणी में ला देता है जो स्वयं कष्ट पाकर भी दूसरों का दुख-दर्द मिटाने के लिए रात-दिन कार्यरत रहते हैं. ये वे देवदूत हैं जो अंधकार में डूबे लोगों को फ़िर से रोशनी की दुनिया में लाने की सामर्थ्य रखते हैं और जो अपना काम बग़ैर कोई ढोल पीटे, लगभग गुमनामी में करते रहते हैं. बरसात के कारण उन्हें हो रही असुविधा या कष्ट का कोई ख्याल न करके वे चुपचाप अपना काम करते रहते हैं:

पानी से तर-ब-तर टोप लगाए
पुरानी बरसातियों की दरारों
और कॉलर से रिसता पानी
अंदर तक
भिगो चुका
होता है उन्हें.

कविता के सातवें, आठवें और नवें बंद में इन फ़रिश्तों के उन क्रिया-कलापों का वर्णन है जो लोगों को उनके चारों ओर अचानक घिर आए अंधेरे से निजात दिलाता है. नवें बंद के इनके क्रिया-कलापों को कवि की कल्पना हमारे सामने एक अनूठी जीवन्तता के साथ पेश करती है:
                        
वे आते हैं
...................
और चीनी मिट्टी के कानों को उमेठते
एक-एक करके खींचते हैं
देखते हैं
परखते हैं
फिर कस देते हैं किसी में
एक पतला-सा तार

कविता की ये पंक्तियां अलग-अलग पाठकों/श्रोताओं की कल्पना को अलग-अलग तरह से प्रभावित कर सकती है और यही इनकी विशेषता भी है. उदाहरणार्थ मेरे जैसे किसी पाठक के मन में यह किसी सुंदर बालिका के कानों को छेद कर उसके उस सौंदर्य को निखारने के बिम्ब को भी ला सकती है जो उसे निहारने वाली हर आंख को जगमग कर देता है.
                                                      
अपने अथक श्रम में लगे हुए और उसके द्वारा एक के बाद दूसरों को राहत पहुंचाने को ही अपना जीवन धर्म मानने वाले इन निरहंकारी श्रमिकों का एक सीधा सादा किन्तु फिर भी एक विशिष्ट गरिमायुक्त वर्णन हमें इस कविता की अंतिम पंक्तियों में मिलता है जो उन्हें सहज ही उन तमाम लोगों से अलग कर देता है जो एक पूंजीवादी व्यवस्था में बग़ैर दूसरों के लिए कुछ किये ऐशोआराम भरा, अहंकारपूर्ण किन्तु फिर भी एक सर्वथा निरर्थक जीवन जीते रहते हैं:

वे अपनी नसेनी उतार कर
बढ़ जाते हैं
अगले मोहल्ले की तरफ़
अगले अंधेरे की ओर

अपनी सूची में दर्ज़
शिकायतों पर

निशान लगाते हुए.

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बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत
राजेश जोशी

बाहर का दरवाज़ा खोल कर दाखिल होता है
बिजली का मीटर पढ़ने वाला
टार्च की रोशनी डाल कर पढ़ता है मीटर
एक हाथ में उसके बिल बनाने की मशीन है
जिसमें दाखिल करता है वह एक संख्या
जो बताती है कि
कितनी यूनिट बिजली खर्च की मैंने
अपने घर की रोशनी के लिए

क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी हिक़मत है
अपनी आवाज़ को थोड़ा -सा मज़ाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
हम लोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन महँगी होती जाती है रोशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार
चेहरा घुमा कर घूरता है वह मुझे
चिढ़ कर कहता है
मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ
और तुम राजनीतिक बक़वास कर रहे हो मुझसे!

अरे नहीं नहीं....समझाने की कोशिश करता हूँ मैं उसे
मैं तो एक साधारण आदमी हूँ अदना-सा मुलाजिम
और मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं
हमारे समय की यह भी एक अजीब दिक्क़त है
एक सीधे-सादे वाक्य को भी लोग सीधे-सादे वाक्य की तरह नहीं लेते

हमेशा ढूँढने लगते हैं उसमें एक दूसरा अर्थ
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सबद भेद : प्रतिरोध और साहित्य : कात्यायनी


























(फोटो द्वारा - Constantine Manos)



साहित्य से सत्ता (धर्म, राज्य, समाज, परिवार) के तनावपूर्ण सम्बन्धों को देखा-समझा जाता रहा है, उसकी भूमिका और उसके महत्व पर भी लिखा गया है. २१ वीं सदी के  भारत में प्रतिरोध की उसकी अपनी  ज़िम्मेदारी में क्या कोई बदलाव आया है ? वह दिलचस्प और जटित हो क्या यही पर्याप्त है ? उसकी जनपक्षधर धार  को संस्कृति को उद्योग में बदल देनी वाली ताकतों ने क्या कुतर दिया है ?

लेखिका कात्‍यायनी का आलेख - साहित्‍य का प्रतिरोध और प्रतिरोध का साहित्‍य आपके लिए.
   

साहित्‍य का प्रतिरोध और प्रतिरोध का साहित्‍य                        
कात्‍यायनी



बसे पहले तो मैं इस बहु प्रचारित युक्ति पर ही सवाल उठाना चाहूँगी कि साहित्‍य अपनी प्रकृति  में सत्‍ता का प्रतिपक्ष होता है. जीवन के हर क्षेत्र की तरह साहित्‍य भी वर्ग संघर्ष की एक समर-भूमि है और वहाँ विचारधारात्‍मक वर्ग-संघर्ष निरन्‍तर, विविध और सघन रूपों में जारी रहता है. पूँजीवादी समाज में यह संघर्ष अपने उच्‍चतम धरातल पर पहुँच जाता है, क्‍योंकि सर्वाधिक चेतनशील शासक वर्ग के रूप में पूँजीपति वर्ग अपने प्रभुत्‍व को क़ायम रखने के लिए राज्‍यसत्‍ता के दमनतन्‍त्र के अतिरिक्‍त वर्चस्‍व (हेजेमनी) के विचारधारात्‍मक उपकरणों का कुशलतम सचेतन इस्‍तेमाल करता है और यह काम वह मुख्‍यत: साहित्‍य-कला, सांस्‍कृतिक प्रचार-तन्‍त्र और मीडिया के दायरे में करता है.

बेशक साहित्‍य की बुनियादी प्रकृति और स्‍वाभाविकता के साथ यदि कोई छेड़छाड़ न की जाये तो कहा जा सकता है कि वह प्रकृति से राज्‍यसत्‍ता विरोधी होता है.

कारण यह है कि साहित्‍य जिस जीवन का परावर्तन और कलात्‍मक पुनर्सृजन करता है, वह सतत गतिमान होता है. इसलिए साहित्‍य को जीवन से सतत अन्‍तर्क्रिया में संलग्‍न रहना पड़ता है. दूसरी ओर राज्‍यसत्‍ता को बलात उन स्‍थापित उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों और सामाजिक सम्‍बन्‍धों को बनाये रखना होता है, जो शोषक-शासक वर्गों का हित पोषण करते हैं. राज्‍य अपनी प्रकृति से ही सापेक्षत: स्‍थैतिक या गतिहीन संस्‍था है जबकि साहित्‍य-कला अपने आप में जीवन की अविराम गति के उत्‍सव हैं.

कला और वाचिक रूप में साहित्‍य की आयु राज्‍यसत्‍ता की आयु से बहुत अधिक है. जब निजी स्‍वामित्‍व और राज्‍यसत्‍ता का जन्‍म नहीं हुआ था, तभी गीत-संगीत-नृत्‍य और चित्रकला का विकास हो चुका था और वाचिक गीतात्‍मक आख्‍यान रचे जाने लगे थे. किसी हद तक सामाजिक श्रम-विभाजन की प्रक्रिया ने मनुष्‍य की आत्मिक सम्‍पदा या मानवीय सारतत्‍व के अविरल विकास की इस प्रक्रिया को बाधित किया और फिर राज्‍यसत्‍ता ने बलात इसका गला घोंटना शुरू किया. पूँजीवाद पूर्व ऐतिहासिक युगों में शासक वर्गों के मनोरंजन के लिए दरबारी कला- साहित्‍य का जन्‍म हुआ. यह दरबारी कला-साहित्‍य शासकों के सौन्‍दर्य-बोध और जीवन-दृष्टि के अनुसार जीवन की विकृति-विरूपित छवियाँ प्रस्‍तुत करता था, और इसका लक्ष्‍य आम जन समुदाय नहीं होता था. आम जन-समुदाय की पृथक लोक कला और लोक साहित्‍य की पृथक समानान्‍तर उपस्थिति होती थी. दरबारी कला-साहित्‍य से अलग सत्ता-संरक्षित, संस्‍थाबद्ध धर्मों से जुड़े कला-साहित्‍य की मौजूदगी थी, पर उसकी भी जन समुदाय तक सी‍मित ही पहुँच होती थी. जन समुदायों के बीच अपनी अलग-अलग धार्मिक लोक परम्‍पराओं और धार्मिक साहित्‍य की मौजूदगी थी तथा शास्‍त्र और लोक का टकराव यहाँ वैचारिक वर्ग-संघर्ष के एक रूप में मौजूद था. समकालीन सन्‍दर्भों तक जल्‍दी पहुँचने के लिए, एक हद तक सरलीकरण का जोखिम मोल लेते हुए, हमने यह चर्चा अतिसंक्षेप में की है.

इतिहास के प्राक् पूँजीवादी दौरों में साहित्‍य-कला के क्षेत्र में शासक और शासित के बीच का, राज्‍यसत्‍ता और जनसमुदाय के बीच का टकराव वैसा क़तई नहीं था, जैसा कि वह पूँजीवाद के युग में विकसित हुआ है. प्राक् पूँजीवादी युगों में शासक वर्ग का कला-साहित्‍य मुख्‍यत: शासक वर्ग के लिए होता था, उसके टारगेट उपभोक्‍ता आम लोग लगभग नहीं हुआ करते थे. इसके विप‍रीत आज का जो बुर्जुआ कला-साहित्‍य है, बेशक उसका अत्‍यन्‍त छोटा-सा हिस्‍सा बुर्जुआ अभिजन समाज के लिए होता है, लेकिन उसका बड़ा हिस्‍सा आम जनसमुदाय में खपत के लिए होता है और एक छोटा-सा हिस्‍सा ऐसा भी होता है जिसका उद्देश्‍य जनता के पक्ष में खड़े बौद्धिक समुदाय को दिग्‍भ्रमित करना तथा ढुलमुल और यथास्थितिवादी बनाना होता है. बुर्जुआ वर्ग पहला ऐसा शासक वर्ग है जो कला-साहित्‍य का सचेत तौर पर विचारधारात्‍मक उपकरण के रूप में इस्‍तेमाल करता है और अपने शासन को स्‍वीकार करने के लिए इसके माध्‍यम से जनसमुदाय का मानसिक अनुकूलन (कण्‍डीशनिंग) करता है. इस तरह वह अपने शासन के लिए जनता की प्रत्‍यक्ष-प्ररोक्ष ''सहमति''हासिल करता है. यही बुर्जुआ जनवादकी विशिष्‍टता है. ग्राम्‍शी की 'वर्चस्‍व'की अवधारणा का वही सारतत्‍व है. बुर्जुआ वर्ग के इस वर्चस्‍व की स्‍थापना में विचारधारात्‍मक-सांस्‍कृतिक राजकीय तन्‍त्र से भी कहीं अधिक भूमिका वह वैज्ञानिक समुदाय निभाता है, जिसे 'नागरिक समाज'कहकर प्राय: महिमामण्डित किया जाता है.
बुर्जुआ साहित्‍य अपने विविध रूपों में सामाजिक जीवन के भौतिक-आत्मिक यथार्थ को, या तो खण्डित-विरूपित रूप में परावर्तित करता है, या फिर पाठक को आभासी यथार्थ की सतह को भेदकर सारभूत यथार्थ तक पहुँचने नहीं देता. उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में जब पूँजीवाद ने प्रबोधनकालीन आदर्शों और बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के घोषित लक्ष्‍यों को तिलांजलि देकर, यूरोप में पूँजी के शासन को नग्‍नतम रूप में स्‍थापित किया था तो स्‍वच्‍छंदतावादी कवियों और आलोचनात्‍मक यथार्थवादी उपन्‍यासों-कथाकारों ने अपनी बुर्जुआ जीवन-दृष्टि के बावजूद पूँजी और श्रम के अन्‍तरविरोधों के इर्द-गिर्द संगठित सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करते हुए प्रतिरोध का साहित्‍य रचा था. लेकिन बीसवीं शताब्‍दी में, साम्राज्‍यवाद की अवस्‍था में, पूँजीवाद की प्रकृति इतनी संश्लिष्‍ट होती चली गयी कि अनुभवसंगत दृष्टि से उसकी अन्‍तर्वस्‍तु का उद्घाटन कठिन होता चला गया और आलोचनात्‍मक यथार्थवाद की सीमाएँ ज्‍यादा से ज्‍यादा उजागर होती चली गयीं. उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों में, जहाँ पूँजीवाद का विकास विलम्बित और बाधित रहा, आलोचनात्‍मक यथार्थवादी और स्‍वच्‍छन्‍दतावादी दृष्टि से लिखे जाने वाले राष्‍ट्रीय जनवादी साहित्‍य की प्रासंगिकता बीसवीं सदी में भी लम्‍बे समय तक बनी रही, लेकिन उसके साथ-साथ वहाँ भी सर्वहारा यथार्थवाद की वह धारा प्रवाहित होने लगी थी जो यूरोप और रूस में उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्‍त में ही अस्तित्‍व में आ चुकी थी.

उत्‍तर औपनिवेशिक समाजों में पूँजीवाद जैसे-जैसे विकसित हुआ, वैसे-वैसे यहाँ भी आलोचनात्‍मक यथार्थवादी दृष्टि की सीमाएँ स्‍पष्‍ट होती चली गयीं. भूमण्‍डलीकरण या नवउदारवाद के इस दौर में, वित्‍तीय पूँजी के विश्‍वव्‍यापी वर्चस्‍व के इस दौर में सत्‍ता के पक्ष में खड़े साहित्‍य के बड़े हिस्‍से ने उत्‍तर आधुनिकतावाद, अस्मितावादी राजनीति, उत्‍तर मार्क्‍सवाद आदि को वरण करके अपनी यथार्थवादी प्रतिबद्धताओं को घोषित तौर पर छोड़ दिया है. वह या तो यथार्थ के खण्डित, विरूपित और आभासी चित्र प्रस्‍तुत कर रहा है या यथार्थ के वस्‍तुगत अस्तित्‍व को ही ख़ारिज़ करते हुए भाषाशास्‍त्रीय रूपवाद (लिंग्विस्टिक फॉर्मलिज्‍़म) के नये-नये संस्‍करण प्रस्‍तुत कर रहा है. विविध सामाजिक अस्मिताओं के खण्‍ड-खण्‍ड संघर्ष पर बल देते हुए एक नकली और आकर्षक रैडिकल तेवर अपनाकर, अस्मिता राजनीति की वैचारिकी पर आधारित छद्म यथार्थवाद की कई नयी धाराएँ वर्ग और वर्ग संघर्ष की केन्‍द्रीय स्थिति को ख़ारिज़ कर रही हैं और भारी विभ्रम फैला रही हैं. तात्‍पर्य यह कि आज की दुनिया में साहित्‍य-कला के क्षेत्र में विचारधारात्‍मक वर्ग संघर्ष पहले हमेशा से अधिक सघन, उग्र और जटिल हो गया है. दूसरे सामाजिक यथार्थ का चरित्र बेहद जटिल और संश्लिष्‍ट हो गया है. साहित्‍य के क्षेत्र में जारी विचारधारात्‍मक वर्ग-संघर्ष में सत्ता पक्ष का प्रभावी प्रतिरोध करने के लिए और रचनात्‍मक लेखन में जीवन के सारभूत यथार्थ को उद्घाटित करने के लिए - इन दोनों कामों के लिए आज रचनाकार का वैचारिक रूप से, वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि और इतिहास-बोध से लैस होना ज़रूरी है.

प्रतिरोध का सच्‍चा साहित्‍य वही है, जो डेनिश लेखक हान्‍स क्रिश्चियन एण्‍डरसनकी कहानी के बच्‍चे की तरह राजा को नंगा देख लेता है और साफ़ शब्‍दों मे कहता है कि 'राजा नंगा है.'जो यथार्थ को अधूरे और खण्डित रूप में देखकर सत्‍ता और पूँजीवाद-साम्राज्‍यवाद की आलोचना प्रस्‍तुत करते हैं, वे कहते हैं कि राजा के कपड़े फटे हैं, पुराने हैं या उसके आर-पार बहुत कुछ दीख रहा है, पर वे राजा को न तो अलफ़ नंगा देख पाते हैं, न बोल ही पाते हैं. वैचारिक अन्धता की शिकार इस विकृत विकलांग यथार्थवादी दृष्टि से आज का सच्‍चा प्रतिरोध का साहित्‍य नहीं लिखा जा सकता. कई बार साहित्‍य-कला की दुनिया में प्रतिरोध के साहित्‍य का एक मिथ्‍याभास रचा जाता है, जहाँ प्रतिरोध व्‍यवस्‍था द्वारा तय की गयी चौहद्दी में क़ैद होता है या फिर दिशाहीन अथवा ग़लत दिशा वाला होता है. प्रतिरोध के साहित्‍य का काम राजा को इज्‍़ज़त ढापने वाला कपड़े पहनने की राय देना और इस व्‍यवस्‍था को पैबन्‍दसाजी से ठीक करने का सुझाव देना क़तई नहीं हो सकता. उसे राजा को नंगा दिखलाना होता है, लोगों में से उसका आतंक मिटाना होता है और सड़क पर उसे घेर लेने के लिए उकसाना होता है.

आज की बुर्जुआ व्‍यवस्‍था की सबसे बड़ी शक्ति प्रतिरोध को ख़रीदकर उसके दाँत और सींग प्‍यार से तोड़ देने की ताक़त है. जनता के पक्ष में खड़े साहित्‍यकार भी मध्‍यवर्ग से ही आते हैं. हम अपने देश को ही लें, जहाँ पिछले 70वर्षों के भीतर ग़रीबी बदहाली बढ़ने के साथ ही मध्‍यवर्गीय बौद्धिक जमातों के लिए सापेक्षिक रूप में सुविधाओं का भारी विस्‍तार हुआ है. मेहनतकशों की तुलना में उन प्राध्‍यापकों, डॉक्‍टरों, इंजीनियरों, वकीलों, सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों का जीवन-स्‍तर आप देख सकते हैं. जिनके बीच से बड़ी संख्‍या में लेखक-बुद्धिजीवी आते हैं. पिछले 40-50वर्षों के भीतर यह सामाजिक तबक़ा उत्‍पादन में लगे शोषित वर्गों के जीवन और संघर्षों से दूर होता चला गया है. नतीजतन अपनी सदिच्‍छाओं के बावजूद और यथास्थिति से असन्‍तोष के बावजूद मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों का यह तबक़ा अपना जुझारूपन खोता चला गया है और बदलते सामाजिक यथार्थ पर इसकी पकड़ भी कमजोर होती चली गया है. बीसवीं शताब्‍दी के सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम संस्‍करणों की वक्‍़ती विफलता ने भी इस तबक़े के बड़े हिस्‍से को स्‍वप्‍नहीन बनाकर अन्‍दर से कमजोर किया है क्‍योंकि इसके पास समाजवाद की समस्‍याओं और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के कारणों को, तथा अक्‍टूबर क्रान्ति के नये संस्‍करणों के निर्माण की ज़मीन को समझने वाली वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव था. इसकी वजह हमारे देश के वाम राजनीतिक आन्‍दोलन की अपनी वैचारिक कमजोरियाँ थीं, जो अलग से चर्चा का विषय है.

इसके अतिरिक्‍त एक और कारण है जो विचारणीय है. देश जब राष्‍ट्रीय मुक्ति और जनवाद के लिए लड़ रहा था तो मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा हिस्‍सा रैडिकल था और आम जनता के साथ उसका जीवन नज़दीकी से जुड़ा हुआ था. राष्‍ट्रीय मुक्ति के बाद विकृत-विकलांग रूप में ही सही, जो बुर्जुआ जनवाद क़ायम हुआ उसने समाज के मध्‍यवर्गीय संस्‍तरों में लगातार अपने सामाजिक आधार का विस्‍तार किया. मध्‍यवर्ग का बड़ा हिस्‍सा धीरे-धीरे अपने सहज वर्ग-बोध से पूँजीवाद के भीतर ही जीने और अपना भविष्‍य खोजने का आदी हो गया. अब सत्‍ता के प्रतिपक्ष में और आम मेहनतकश जनसमुदाय के पक्ष में सिर्फ़ वही मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी खड़ा हो सकता है जो पूँजी और श्रम के अन्‍तरविरोध में स्‍पष्‍ट: श्रम के पक्ष में खड़ा हो. इसके लिए रैडिकल और साहसी होने के साथ ही गहराई से वैज्ञानिक दृष्टि-सम्‍पन्‍न होना भी ज़रूरी है.

इन्‍हीं सब कारणों का कुल योग वह प्रभाव है जिसके चलते आज बुर्जुआ व्‍यवस्‍था की, प्रतिरोध को ख़़रीद लेने की ताक़त का विस्‍तार हुआ है और प्रतिरोध के साहित्‍य की स्थिति, अन्‍दर से भी सापेक्षत: कमजोर हुई है. आज व्‍यवस्‍था के पद-पीठ-पुरस्‍कारों के व्‍यापक प्रलोभक मकड़जाल और वाम प्रगतिशील धारा के साहित्‍यकारों तक के बीच पैठी हुई अवसरवाद, वैचारिक विभ्रम और अराजकता की प्रवृत्तियों के बुनियादी कारणों को इस पृष्‍ठभूमि और परिप्रेक्ष्‍य में ही सही-सन्‍तुलित ढंग से समझा जा सकता है.

राज्‍यसत्‍ता प्रतिरोध के साहित्‍य की धार को, यदि लेखकों-कलाकारों को प्रलोभन देकर और ख़रीदकर कुंठित नहीं कर पाती है तो फिर वह अपने पुराने आज़मूदा हथकण्‍डों का सहारा लेती है, यानी निर्वासन देना या उसके लिए बाध्‍य करना, जेल और हत्‍या. मैं समझती हूँ इसके बारे में ज्‍़यादा चर्चा की आवश्‍यकता नहीं है. हिटलर, मुसोलिनी, फ़्रांको के शासनकाल के दौरान, अमेरिका में मैकार्थीवाद के दौरान, लातिन अमेरिका, अफ़्रीका तथा इण्‍डोनेशिया और फ़ि‍लीपीन्स में, तानाशाहों के शासनकाल में तथा ईरान और अरब देशों में आजतक, सत्‍ता के विरोध में मुखर साहित्‍यकारों के निर्वासन, जेल और हत्‍या की घटनाओं से आप सभी परिचित होंगे.

भारत में भी 1967से लेकर आपातकाल के अन्‍त तक ऐसा बहुत कुछ देखा गया और आज के भारत में पानसारे-डाभोलकर-कलबुर्गी और गौरी लंकेशकी हत्‍या और गत कुछ वर्षों के दौरान पचासों लेखकों-कलाकारों को धमकाये जाने से लेकर उन पर हमले किये जाने तक की घटनाओं से भला कौन परिचित नहीं है.

यहीं पर ज़रूरी है कि हम नवउदारवाद के दौर में फासीवाद के नये सिरे से विश्‍वव्‍यापी उभार और भारत में फासीवादी उभार की परिघटना पर भी थोड़ी चर्चा कर लें क्‍योंकि आज प्रतिरोध का साहित्‍य इसी परिवेश में रचा जाना है और हर तरह का जोखिम उठाकर कहना है कि 'राजा नंगा है.'सबसे पहले तो इस बात को समझने की ज़रूरत है कि नवउदारवाद का वर्तमान विश्‍वव्‍यापी प्रभुत्‍व पूँजीवाद की सफलता से अधिक इसके असाध्‍य व्‍यवस्‍थागत संकट की अभिव्‍यक्ति है. 1920के दशक और आज के दौर में, पूँजीवादी संकट और फासीवादी उभार - दोनों में ही कुछ बुनियादी परिवर्तन आये हैं. 1920के दशक के समान अब संकट और तेज़ी के दौरों के बारी-बारी से आने की प्रक्रिया नहीं चल रही है, बल्कि आज का आर्थिक संकट विश्‍व पूँजीवाद की स्‍थाई परिघटना है. यह 1970के दशक से मन्‍द मन्‍दी और सघन मन्‍दी के दौरों के रूप में लगातार जारी है, जिसे असाध्‍य संरचनागत या व्‍यवस्‍थागत संकट का नाम दिया जा रहा है. फासीवाद इस उत्‍तरकालीन पूँजीवाद के दौर की स्‍थायी परिघटना बन चुका है. आज यह भारत और लातिन अमेरिकी देशों से लेकर यूनान तक में एक राजनीतिक धारा के रूप में मौजूद है. सत्‍ता में रहने और न रहने - दोनों ही स्थितियों में यह पूँजीवादी समाजों में एक उत्‍पाती ताक़त के रूप में मौजूद रहेगा और दोनों ही सूरतों में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन के प्रतिकार के रूप में, बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा के लिए मध्‍यवर्गीय रूमानी उभार पैदा करता रहेगा.

फासीवाद मध्‍यवर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन है, जो तृणमूल स्‍तर से एक कैडर आधारित संगठन के नेतृत्‍व में संगठित है. इसे व्‍यापक मेहनतकश जनता का तृणमूल स्‍तर से एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा करके और उस आन्‍दोलन से मध्‍यवर्ग के प्रगतिशील हिस्‍सों को जोड़कर ही पीछे धकेला जा सकता है. यह संघर्ष दीर्घकालिक है और साहित्‍य-संस्‍कृति के मोर्चे पर भी हमें इसी हिसाब से रणनीति बनानी होगी. फासीवाद ने इस लड़ाई में, समाज के भीतर अपनी खन्‍दकें खोद रखी हैं. प्रगतिशील शक्तियों को भी ऐसा ही करना होगा. इस काम में क्रान्तिकारी सांस्‍कृतिक कामों की एक महत्‍वपूर्ण भूमिका होगी. लेखकों-कलाकारों को प्रतीकात्‍मक विरोधों से आगे जाना होगा. साहित्य के प्रतिरोध को प्रतिरोध का साहित्‍य लिखने मात्र से आगे ले जाना और सड़कों पर उतरना आज समय की माँग है. हमें अन्‍धराष्‍ट्रवाद, धर्मान्‍धता, पितृसत्‍तात्‍मकता और जाति-व्‍यवस्‍थाके उन मूल्‍यों के विरुद्ध व्‍यापक जनता में तृणमूल स्‍तर पर काम करना होगा, तभी ''राजनीति के संस्‍कृतिकरण''की फासीवादी रणनीति का जवाब ''संस्‍कृति के राजनीतिकरण''की क्रान्तिकारी रणनीति से दिया जा सकेगा.

मेहनतकशों के मात्र आर्थिक संघर्षों से काम नहीं चलेगा. उनके सामाजिक और सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन तृणमूल स्‍तर से संगठित करने होंगे. तभी फासीवादियों के लोकरंजकतावादी प्रचार के घटाटोप का मुकाबला किया जा सकेगा. इसके लिए हमें वामपन्‍थी बौद्धिक एक्टिविज़्म के टापुओं की संकुचित चौहद्दी से बाहर निकलना होगा और वैकल्पिक मीडिया और सांस्‍कृतिक प्रचार तन्‍त्र का ताना-बाना बुनने के साथ ही गाँवों-शहरों के मेहनतकशों के बीच सघन सांस्‍कृतिक काम करना होगा और नयी-नयी सांस्‍कृतिक संस्‍थाएँ खड़ी करनी होंगी. फासीवाद के विरुद्ध जितना भयंकर युद्ध राजनीतिक धरातल पर लड़ा जाना है, उतना ही भयंकर युद्ध कला-साहित्‍य-संस्‍कृति की रणभूमि में भी लड़ा जाना है.

सवाल यह है कि इस देश के जनपक्षधर साहित्‍यकार और संस्‍कृतिकर्मी क्‍या इस चुनौती को स्‍वीकारने के लिए तैयार हैं. यदि हम इस चुनौती को स्‍वीकार करते हैं तो हार भी सकते हैं लेकिन जीत भी सकते हैं. और इससे यदि मुँह चुराते हैं, तब तो पहले ही हार चुके हैं.


कात्यायनी : 7मई, 1959, गोरखपुर (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम. फिल.

निम्नमध्यवर्गीय परिवार में जन्म. परम्परा तोड़कर प्रेम और विवाह एक सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता से. 1980से सांस्कृतिक-राजनीतिक सक्रियता. 1986से कविताएँ लिखना और वैचारिक लेखन प्रारम्भ.

नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत और दिनमान टाइम्स आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी. अंग्रेज़ी, जर्मन, स्पेनिश और नेपाली में कविताएँ अनूदित. बंगला, मराठी, पंजाबी, गुजराती, मैथिल में भी अनेक रचनाएँ अनूदित-प्रकाशित.कई विश्वविद्यालयों में कात्यायनी की  कविताओं पर करीब दो दर्जन शोध प्रबंध.

किताबें :
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, राख-अँधेरे की बारिश में, फुटपाथ पर कुर्सी (कविता संकलन)

दुर्ग द्वार पर दस्तक, षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच, कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त, प्रेम, परम्परा और विद्रोह (स्त्री-प्रश्न, समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों के संकलन). आदि

मेघ - दूत : सातवाँ आदमी - हारुकी मुराकामी : सुशांत सुप्रिय



























जापानी भाषा के ख्यात कथाकार हारुकी मुराकामी की कहानी ‘The Seventh Man’ का हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है. यह हिंदी अनुवाद ‘फ़िलिप गैब्रिएल’ और ‘जे रूबिन’ के जापानी से अंग्रेज़ी में किए गए अनुवाद पर आधारित है.


The Seventh Man’ मुराकामी के कहानी संग्रह ‘Blind Willow, Sleeping Woman’ में संकलित है जिसका अंग्रेजी में प्रकाशन 2006 में हुआ था, इसमें 1981 से 2005के बीच की लिखी कहानियां संग्रहीत हैं.

हारुकी मुराकामी  बेहद पठनीय हैं और  विश्व के कुछ बेहद लोकप्रिय कथाकारों में शामिल हैं. यह कहानी उस आदमी की है जिसका प्रिय मित्र ‘क’ समुद्र किनारे दैत्याकार  लहरों में गुम हो गया था और फिर कथा- वाचक के जीवन के बेशकीमती साल उस घटना से पैदा हुए उतने ही डरावने दैत्याकार भावनाओं के ज्वार से उबरने में लगे.



सातवाँ आदमी
हारुकी मुराकामी                                                       
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

लल्द्यद के ललवाख : अग्निशेखर











लगभग चार महीने पहले वेदराही के उपन्यास ‘ललद्यद’ की योगिता यादव द्वारा लिखी समीक्षा समालोचन पर प्रकाशित हुई थी. उस समय यह विचार हुआ था कि उनकी कविताओं (‘वाखों’) के मूल कश्मीरी से हिंदी में अनुवाद प्रकाशित किए जाएँ. और तब एक ही नाम सामने आया – और वह थे हिंदी और कश्मीरी के कवि अग्निशेखर.

‘लल्द्यद’ के ४१ वाखों’ का अनुवाद आपके समक्ष है और ‘लल्द्यद’ के महत्व को रेखांकित करता साथ में यह आलेख भी.

अग्निशेखर ने तमाम संकटों  और दीगर दबावों के बीच यह महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया है. सभी पाठकों की तरफ से समालोचन आभार व्यक्त करता है.

  
लल्द्यद : दुर्गम  तुंग  हिमालय  धवल  श्रृंग                      
अग्निशेखर




"लल्द्यद माउंट एवरेस्ट हैं. पिछले पांच हजार वर्ष में कश्मीर की संस्कृति और सभ्यता की एकमात्र प्रतिनिधि हैं लल्द्यद. देखा जाए तो पूर्व में दो ही महान हस्तियाँ पैदा हुई हैं - रूमी और लल्द्यद. रही बात नुंदऋषि की,वह तो लल्द्यद का शिष्य था जो उसने अपनी कविता में माना भी है. इस तरह लल्द्यद कश्मीर है और कश्मीर लल्द्यद है."

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यह सुविचारित वक्तव्य जब प्रतिष्ठित कश्मीरी समालोचक और विचारक मुहम्मद यूसुफ टेंग ने 15 जनवरी २०१५ को जे. एल, भट, की अंग्रेजी पुस्तक ‘लल्द्यद’का जम्मू के. के. एल. सहगल हाल में लोकार्पण करते हुए दिया तो मेरे मन में हिंदी के दिग्गज समालोचक और विचारक डॉ. नामवर सिंह की यह बात  कौंध गयी-

"अग्निशेखर,महान कवयित्री के अलावा लल्द्यद भारतीय भाषा नवजागरण की प्रणेता हैं."अवसर था  दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला. नामवर जी के यह पूछने पर कि मैं इधर क्या लिख रहा था,जब मैंने उन्हें बताया कि लल्द्यद के ललवाखों का अनुवाद कर रहा हूँ तो वह इतने आह्लादित हुए कि बार-बार  मुझसे आश्वस्त होना चाह रहे थे कि मैं सच में ललद्यद के काव्य का रूपांतरण कर रहा हूँ. ऐसा नहीं है कि चौदहवीं शताब्दी की कश्मीरी आदि कवयित्री के वाखों  (संस्कृत वाक्) का अनुवाद न हुआ हो या उनके जीवन तथा उनके अवदान पर हिंदी में न लिखा गया हो. शायद जैसा सटीक, प्रामाणिक और हिंदी के भाषायी  स्वभाव के अनुरूप लिखे जाने की अनिवार्यता की उनकी अपेक्षा रही हो ऐसा मानक लेखन या अनुवाद न बना हो.

यों तो यह हर कालजयी रचनाकार के साथ होता है. इसीलिए किसी बड़े रचनाकार की महत्त्वपूर्ण कृति के हमारे पास एकाधिक अनुवाद उपलब्ध होने के बावजूद भी नये-नये अनुवाद किए जाने के मोह का संवरण न होता हो.

मुझे याद है सन् १९७७ -७८ की बात होगी. नामवर जी कश्मीर विश्वविद्यालय के हमारे हिंदी विभाग में कोई विस्तार भाषण देने आए थे. छात्रों और प्राध्यापकों के अलावा कश्मीरीउर्दू, अंग्रेजी और हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों, कवियों और अन्य बुद्धिजीवियों से भरे कक्ष में लल्द्यद का प्रसंग आने पर उन्होंने जय लाल कौल की अंग्रेजी में लिखी 'लल द्यद'की भूरि भूरि प्रशंसा की थी.

कार्यक्रम की समाप्ति पर विभाग के बरामदे में खड़े खड़े उन्होंने हमसे कहा था कि जय लाल कौल की जैसी पुस्तक हिंदी में आनी चाहिए .उनके वाखों का ढंग का अनुवाद भी हिंदी में आना चाहिए .

यह वास्तव में लल्द्यद के युगांतरकारी संत कवयित्री होने का ही प्रमाण है कि आज सात सौ वर्षों के बाद भी वह मध्यकालीन बर्बरताओं से आक्रांत कश्मीर की धरती पर उग आयी ऐसी अक्षय 'बून्य' (भवानी वृक्ष,फारसी नाम चिनार) हैं जिसकी शीतल और घनी हरियर छाँव में बैठकर कश्मीर की जनता अपनी थकान  उतारती है,आश्वस्त होती है,नयी आशाओं से ऊर्जस्वित और गौरवान्वित होती है. आज भी कश्मीरी हिंदुओं या मुसलमानों के विवाह उत्सवों या अन्य अवसरों पर आयोजित संगीत समारोह लल्द्यद के वाखों से ही शुरुआत होते हैं मंगलाचरण की तरह.

मैंने यहाँ हिंदी पाठकों के लिए लल्द्यद को लेकर कश्मीरी और हिंदी साहित्य के दो बड़े समालोचकों के ही निष्कर्ष वाक्य उद्धृत किए. लल्द्यद पर कश्मीरी विद्वानों,लेखकों सहित अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों ने खूब कलम चलाई है. कुछ-कुछ अनुवाद भी किए हैं. ग्रियर्सन,बूह्लर और टेंपल का तो विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए .

अनुवाद की दृष्टि से सबसे पहले १८ वीं शताब्दी में पं.भास्कर राजानकने लल्द्यद के साठ वाखों का कश्मीरी से संस्कृत में अनुवाद किया जो प्रामाणिक माने जाते हैं.

पं.भास्कर राजानक ने साठ ही वाखों तक  अपने अनुवादों को सीमित क्यों रखा,इसको लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. लल्द्यद के वाखों की संख्या एक सौ अड़तीस से दो ढाई सौ,तीन सौ तक की बताई जाती है.

लल्द्यद ने 'वाख'कहे हैं जो एक तरह से चतुष्पदी छंद हैं. कुछ वाख उनके नाम पर चलाए गये लगते हैं. कुछ उनके मौलिक लगते हुए भी अर्वाचीन फारसी शब्दों के लबादे में हमारे सामने हैं.

लल्द्यद की वैचारिक पृष्ठभूमि में कश्मीर शैव दर्शन था. श्रीनगर के पास वितस्ता के किनारे वर्तमान पांद्रेठन (सं. पुराण-अधिष्ठान ) या स्यमपुर गाँव के एक बहुपठित पैतृक परिवार से थीं. घर में सिद्ध श्रीकंठ जैसे शैवाचार्य का आना जाना लगा रहता. यह सिद्ध श्रीकंठ   प्रसिद्ध शैवाचार्य शितिकंठ के वंशज बताए गये हैं .

यही लल्द्यद के गुरु भी थे. बचपन से ही शैव दर्शन तथा अन्य विमर्शों पर चर्चाएँ सुनने से उनके पुष्ट आध्यात्मिक संस्कार बने जान पड़ते हैं. उनके ललवाखों में अपने सीधे सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों के अलावा ऐसे संकेत हैं जिनसे उनके पढ़े लिखे होने के पर्याप्त  प्रमाण मिलते हैं. जैसे एक जगह कहती हैं :

‘पढ़ी गीता 
और पढ़ रही हूँ ...'

ऐसी निष्णात्, प्रतिभाशाली तथा संवेदनशील शिव भक्त लल्द्यद ने जब ससुराल में सास और पति के अकल्पनीय अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ दिया और खुले में एक घुमंतु विदुषी संत का जीवन जीने लगी,उसने वाख कहे. वो भी संस्कृत की अविरल परंपरा एक ओर छोड़कर तत्कालीन कश्मीरी भाषा में. यह संत कबीर से कोई तीन दशक पूर्व की घटना है जिस कारण डॉ. नामवर सिंह उन्हें भारतीय भाषा नवजागरण की पहली श्लाका पुरुष कहते हैं.

यह क्रांतिकारी बात  थी. ऐसे कश्मीर में जहाँ संस्कृत की अविच्छिन्न परंपरा रही हो. समूचे भारतीय काव्यशास्त्र के आधार ग्रंथ जहाँ कलासिकीय संस्कृत में लिखे गये हों. आचार्य वसुगुप्त के शिवसूत्रों से लेकर,आचार्य अभिनवगुप्त के विश्व प्रसिद्ध 'तंत्रालोक'और  कल्हण की राजतरंगिणी आदि अनेक युग प्रवर्तक ग्रंथ संस्कृत में रचे गये हों, वहाँ एक विद्रोही और गृह त्यागने वाली स्त्री मातृभाषा कश्मीरी में वाख कहकर संस्कृत की प्रतिष्ठा धूल धूसरित कर बैठे !

यह एक बड़ा कारण है कि इस विद्रोही आदि कवयित्री की  तत्कालीन किसी ग्रंथकार ने लल्द्यद की नोटिस नहीं ली. यहाँ तक कि द्वितीय राजतरंगिणि के  इतिहासकारपं. जोनराज तक ने उसके नाम तक का सीधा उल्लेख तक न किया.

लल्द्यद को अपने समय के दिग्गजों के इस पंडिताऊ दर्प और नकारु रवैये से कोई अंतर न पड़ा.

उसने सर्वव्यापी शैव सम्विति का प्रसार मातृभाषा में किया. यह लल्द्यद को समय की ज़रूरत महसूस हुई होगी. उसकी बात सीधे जन जन के हृदय को छू गयी. उसने बाह्याडंबरों का,भेदभाव का,कुरीतियों और प्रदर्शनकारी कर्मकांड का विरोध किया. उसने मूर्ति पूजा का विरोध किया परंतु मुस्लिम कट्टरपंथी  शासकों द्वारा मंदिर और मूर्तियों के तोड़ने का समर्थन नहीं किया.

वह  चौदहवीं शताब्दी के कश्मीर के इतिहास में ऐसे समय में हुईं जब पारंपरिक हिंदू शासन के अक्स्मात् नाटकीय अंत के साथ ही तिब्बती रेंचनशाह के बाद स्वात (मध्य एशिया) से आए शहमीर के मुस्लिम शासन परंपरा को शुरू हुए बहुत अधिक समय न हुआ था.
 
यह वो समय था जब मध्य एशिया में तैमूर के आतंक से मुस्लिम कट्टरपंथी सैयद वहाँ से भाग रहे थे. कश्मीर में तख्ता पलट हो चुका था.

यहाँ यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि तैमूर के आतंक से सात सौ शिष्यों के साथ भागकर कश्मीर आए सैयद मीर अली हमदानीकी लल्द्यद से कथित भेंट  ऐतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध है. वे दोनों आपस में मिले ही नहीं हैं,ऐसा निष्णात् पंडित जय लाल कौल ने अपनी अप्रतिम पुस्तक 'लल द्यद'में अकाट्य तथ्यों से र्सिद्ध किया है.

किंवदंती गढी गयी कि विवस्त्र घूमने वाली लल्द्यद ने एक दिन सामने से आ रहे मीर अली हमदानी, जिसे कश्मीरी मुसलमान अमीर-ऐ- कबीरकहकर पुकारते हैं, को देखा तो उसे मर्द जानकर वह अपनी लाज छिपाने के लिए पहले एक तेली की दुकान में गयी. तेली ने शरण न दी. लल्द्यद एक नानवायी की दुकान में घुसकर उसके दहकते तंदूर में कूदी. वहाँ से सोने के वस्त्र पहनकर उसके सामने गयीं.   लल्द्यद उनके संपर्क में आकर इस्लाम से प्रभावित हुईं.

यही नहीं आगे एक अन्य किंवदंती के अनुसार सैयद सेमनान साहब ने उन्हें इस्लाम अपनाने को प्रेरित भी किया और वह मुसलमान बन गयीं.

यह सत्य है किन्तु लल्द्यद के जीवनकाल में  इस्लाम एक आंधी की तरह कश्मीर घाटी में कब का प्रवेश कर चुका था.तुर्क दुलचा जैसे महाविनाशकारी हमलावर कश्मीर को रौंदकर चला गया था. सुलतान शहमीर के विश्वासघात के चलते अपने स्वाभिमान की रक्षा में अंतिम हिंदू शासक कोटा रानीकी आत्महत्या से पूरी घाटी दहल चुकी थी.

विध्वंस और धर्म परिवर्तन शुरू हो चुके थे. भले ही उसकी गतिकी अपेक्षाकृत धीमी रही हो. ऐसे में एक सर्वथा नयी और क्रांतिकारी सामी सोच वाली संस्कृतिके साथ पारंपरिक संस्कृति के वर्चस्व की टकराहट के हताश दिनों में लल्द्यद एक विदुषी और  वत्सल माँ की तरह कश्मीर की उपत्यका में उभरी. एक आश्वासन की तरह. एक कौंध की तरह. एक समभाव की तरह. सहिष्णु प्रतीक की तरह. हालाँकि एक वैरागन होने के कारण उसने अपने काव्य में अपने समय के या पूर्ववर्ती राजनीतिक घटनाक्रम पर कहीं भी बात नहीं की. बल्कि उसने अपने  वाखों में भी शैव दर्शन  के गूढ और दृष्टांतिक सिद्धांत मात्र नहीं बखाने. अपनी सृजनात्मक रचनाशीलता को गौण नहीं  होने दिया.

उनकी कविता में जो बिंब विधान,रूपक,प्रतीक योजना या उपमान मिलते हैं, सब लोक-जीवन से लिए गये हैं. यहाँ तक कि उनके वाखों में शिव भी एक सजीव और सामान्य व्यक्ति के रूप में हमें मिलते हैं. वह जीवनानुभवों को, अपने बोध को शैव पृष्ठभूमि में स्वर्ग देती हैं.

घर त्यागने के बाद लल्द्यद जगह जगह घूमीं. अनिकेत थी. बेसहारा थीं. घर हाँट करता रहा होगा. लोकापवादों से घिरीं. उसने परवाह न की. शिवत्व की तलाश थी उसे. छोड़े हुए घर ने रूपाकार बदला. वह घर भव सागर पार का विराट घर बना, जहाँ वह पहुँचना चाहने लगी. उसने तीर्थाटन किए. समय और समाज को निकट से देखा.

लोगों को आश्चर्य हुआ होगा. दुख भी. लेकिन लल्द्यद का विद्रोह, विद्वता,वैराग्य, उनके ज्ञानात्मक कथन आदि से वे चमत्कृत भी हुए होंगे.

उसने वाख कहे. उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया. कर सकती थीं. वह मोह से ऊपर उठ चुकी थीं. मौखिक परंपरा में उसके वाख,जिसे लोगों ने उसके नाम ललेश्वरी के लाघवीकृत नाम 'लल'से जोड़कर 'ललवाख'से अभिहित किया.

ये वाख लोकमानस में घर कर गये. कुछ छूट गये होंगे. कुछ टूट गये होंगे .स्त्रियों ने विशेषकर ललद्यद ,जिसका मायकै का नाम ललेश्वरी और विवाह उपरांत ससुराल का नाम पदमावती रखा गया था, की नियति के साथ स्वयं को जोडा.

लल्द्यद के बारे में सोचने मात्र से हम उनके ऐसे विलग अनुभव-संसार में तथा उनके विषय में रचे बुने कथालोक में  पहुँच जाते हैं जहाँ उनका संघर्ष,सत्य, सौन्दर्य, कविता,स्वप्न और कश्मीर शैव दर्शन की ऐसी सम्विति व्याप्त है कि आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते.

लल्द्यद के साहित्यिक अवदान पर,उनके जीवन-दर्शन पर,काव्यानुभवों पर,उनकी अनुमानित मूल  काव्य भाषा के तत्कालीन स्वरूप ,स्वभाव और प्रकृति पर तो सुधी पाठकों ने बेहद जटिल और बौद्धिक चर्चाएँ -परिचर्चाएं सुनी और पढ़ी हैं. आज भी उनपर लेखन जारी है. कश्मीर में भी और कश्मीर से बाहर भी. विस्थापन साहित्य में वह अक्सर प्रतीक और रूपक के रूप में आती हैं .
लल्द्यद को लेकर, उसके जीवन को लेकर कई कई कपोल कल्पित किस्से कहानियाँ, विवाद, पूर्वाग्रह हैं. कुछ तो सच में उसके जीवन काल के प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण से जनित हैं और अनेक तो धार्मिक -राजनीतिक कारणों से गढे गये लगते हैं. यह बेसिर पैर की किंवदंतियां आश्चर्य में डालने वाली हैं .

कुछ उदाहरण देखें :

लल्द्यद घर त्यागने के बाद नंगी घूमती थी. विवस्त्र. अपनी लज्जा छिपाने के लिए उसने अपनी अलौकिक शक्ति से पेट की तोंद को लटकाया था. तोंद को कश्मीरी भाषा में ‘लल'कहते हैं .इसलिए वह लल-द्यद अर्थात तोंद वाली द्यद (दादी माँ)कहलाई.

लल्द्यद महान थीं क्योंकि उसपर इस्लाम का प्रभाव था. लल्द्यद धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनी थीं और विजबिहारा में उसकी कब्र है. इन मनगढंत कुतर्कों को पुष्ट करने हेतु उनके नाम पर   ऐसे कृत्रिम वाख भी चलाए गये जो परवान चढे. कभी कभी यह बात भीतर दबी जुबान से कही जाने लगी कि कोई प्रामाणिक साक्ष्य न होने के कारण यह कैसे माना जाए कि कोई लल्द्यद हुई भी थीं. इस तर्क को मानें तो कल्हण की राजतरंगिणि में सहस्राब्दी पुरूष आचार्य अभिनवगुप्त का उल्लेख नहीं. तब भी आचार्य अभिनवगुप्त थे और हैं.

लल्द्यद अपने जीवनानुभवों में तथा उसकी काव्य व्यंजना में अद्वितीय ऊंचाइयों को छूती नज़र आती हैं. वह शून्य के मैदान लांघती हैं. वह जन्मों के पार देखती हैं. वह दिक् और काल से ऊपर उठी मिलती हैं. एक वाख में देखिए :

वाख मनस अक्वल न अते
छ़पि मुद्रि अति ना प्रवीश.
रोज़आन शिव शाक्त न अते
म्वच़ई कुंह तुम सुय वोपदीश..
अर्थात्

जहाँ वाक्,मानस,
कुल अकुल नहीं
जहाँ नहीं मौन व मुद्रा से भी
संभव प्रवेश
जहाँ नहीं शिव और शक्ति भी
उसके इतर है जो
इंगित मेरा उपदेश उधार
--

है न लल्द्यद तुंग हिमालय धवल श्रृंग  !


__________


लल्द्यद के ललवाख

(1)
मैं खींच रही कच्चे धागे से
समुद्र में नाव
काश, सुन लें देव मेरे
 
तारें मुझको भी उस पार
मैं छीज रही
मिट्टी के कच्चे सकोरों में
 
ज्यों पानी
मेरा जी भरम रहा
कब घर लौटूं.
 


(2)
मैं बैन विलाप करूँगी लय में 
रे चित्त! तू रमा मोह में इतना
 
परछायी तक साथ न देगी माया की
बिसर गया तू निज स्वरूप, हा.
 


(3)
है नीचे खाई
और ऊपर तू नाच रहा
प्यारे, मन कैसे देता है साथ तुम्हारा
सब जोड़ बटोरकर है यहीं छूटता
प्यारे, अन्न तुझे है कैसे रुचता.
 


(4)
मेरे काठ धनुष का बाण
बन गया घास का
बुद्धू मिला बढ़ई मेरे इस राजभवन को
बिन ताले के हाट सी हुई बाजार में
 
हो गयी तीर्थ शून्य मैं
 
कौन जाने पीर यह मेरी.
  


(5)
आई मैं सीधे पथ से
गई न सीधी राह
स्व-मन सेतु पर चलते चलते
अस्त हो गया दिवस मेरा
एक न पाई कौडी जेब में
 
क्या दूंगा अब नाविक को
 
पार तरावा.
  


(6)
मैं करूँ क्या
इन पाँच*,दस*,और
 
ग्यारह* का
 
जो खुरच गये
 
भीतर हंडिया मेरी
काश, खींच चलते एक ही रस्सी को सब
 मिलकर
फिर कहां खो जाती
ग्यारहों की गाय*.
--
*पाँच=पंचभूत,दस=इंद्रियां,ग्यारह =मन सहित दस इंद्रियां, ग्यारह गवालों की गाय खो जाना लोकोक्ति परक है.


(7)
अविच्छिन्न
हमारा आना जाना
चलते चलना
दिन और रात
जिधर से आए
 
उधर ही जाना
कुछ तो है, कुछ है
कुछ.
 



(8)
किस दिशा
किस पथ से मैं आई
किस दिशि जाऊँ
 
वो पथ कैसे जानूं
अंत में वहाँ कौन सा
 
धन दाय आएगा काम
इस निरी श्वास साधना का
क्या विश्वास.
      


(9)
एक बुद्धिमान को देखा
भूखों मरते
पूस की हवा में ज्यों
 
पत्ते देखे झरते
 
एक बुद्धिहीन को देखा
रसोइए को पीटते
 
तब से मैं लली
 
बाट जोह रही
कब मेरा मोह टूटे.



(10)
अभी देखी नदी उफनती
अभी न सेतु
 
न कोई पार
फूलों लदी
 
अभी टहनी देखी
अभी न पुष्प
 
न कोई शूल.





(11)
अभी देखा जलता चूल्हा
अभी धुआँ न कहीं आग
अभी थी वह
 
पांडवों की माता
अभी कुम्हारिन मौसी
अज्ञातवास.



(12)
अभी थी
मैं नन्हीं बालिका
अभी थी
यौवना भरपूर
 
अभी थी
 
खूब घूम फिर रही
अभी जलकर हुई.
 



(13)
ये चँवर,छत्र,
रथ और सिंहासन
 
ये आह्लाद,नाट्य-रस,
और सजी सेज
 
क्या समझे हो
थिर हैं साथ चलेंगे
 
कैसे निपटोगे
 
मृत्यु भय से.



(14)
क्यों डूबे 
भव सागर मोह में
क्यों धंसे
तमस पंक में बांध तोड़
 
जब यम किंकर
 
ले जाएंगे घसीट
तब मृत्यु का भय
निवारेगा कौन.



(15)
मनुष्य रे,क्यों बटते हो
रेत की रस्सी
 
इससे नहीं खिंचेगी तेरी नाव
तेरे लेखे जो लिख गये नारायण
 
उसे न बदल सके कोई
 
सुत मेरे.



(16)
क्यों चित्त, रे !
चढ़ी पर-मदिरा है तुम पर
क्यों भासित तुम्हें
सत्य हुआ झूठ
निष्बुद्ध ने किया
तुमको है पर-धर्म के वशीभूत
फँस गये हो
जन्म मरण के क्रम में.




(17)
तूने चर्म उतारी अपनी
फैलाई
 
खूँटों से बाँधी
ऐसा क्या बोया तूने
फलित होता जो
तेरे लेखे
मूढ़ को देना उपदेस
है मृण्भाण्ड को फोड़ना
कंकरिया से.





(18)
की थी गर्भ में
प्रतिज्ञा तूने
कब चेतोगे
याद करोगे
मर जाओ जीते जी
मान बढ़ेगा
मरणोपरांत तेरा.



       

(19)
नहीं मूढ़ को बतलाना
ज्ञान की बातें
 
काहे खर को गुड़ खिलाना
समय गवाँना
कभी न करना
बालूचर में बीज बुआई
भूसी रोटी को
चूपडी करना
तेल गवाँना.
__________
पाठभेद :
दूध से
नहीं सींचना बिच्छू-बहूटी
कभी न सेना सांपिन के अंडे
करेगा जो जैसा
 
भरेगा वैसा
गिरना मत कुएँ में
 तुम






(20)
जान सकती हूँ 
कब दक्षिण से छाएँगे मेघ
पीठ पर लाद सकती हूँ
 
मैं समुद्र
 
कर सकती हूँ
 
असाध्य रोग का उपचार
 
मूढ़ को समझा न पाई बात.





(21)
कडुवा है मधुर
विष है मीठा
जिस क्षण जो अनुभव
 
जिसका जैसा
जिसने ठान लिया
कठिन को पाना
वही पहुँचा ध्येय प्रदेश.




    (22)
कहा गुरु ने 
वचन एक ही मुझसे
 
चली जा बाहर से
  
निज में भीतर
सध गया वही वाक् वचन
मुझ लली को
लगी नाचने तभी
मैं निरावरण.





(23)
खड्ग हस्त जो
राज्यसुख भागी
स्वर्ग का भागी
दान तप करें जो
गुरु का सुने जो
सहज पद का भागी  
स्वयं ही हम पाते
पुण्य पाप का फल.




(24)
कांधे धरी कूजा मिश्री की
गाँठ पड़ गयी ढीली
धनुष सी मेरी
हुई देह टेढ़ी
अब कैसे भार ढोऊं
गुरु-कथन से झेली
खोने की अंगार सी पीड़ा
मैं रेवड़
बिना गडरिये सी हुई
अब क्या हो.




(25)
पूछा गुरु से
सहस्रों बार मैंने
जो अनाम है
क्या है उसका नाम
पूछ पूछ मैं थक हारी
अस्त हुई
कुछ है वो जिसमें से
प्रकट हुआ कुछ.

  


(26)
पाया जन्म 
नहीं सराहा वैभव मैंने
लोभ भोग में रमा न मन
अतुलित जाना सम-आहार
झेले दुःख अभाव झेला
साध लिया देव.





(27)
आई भी हूँ सीधे
जाऊँगी भी सीधे
मैं सीधी सादी
कर लेगा कोई क्या मेरा
मैं अनादि से
चिर विदित उसकी
निर्भय उसकी मैं वत्सला, विज्ञ.





(28)
खा खाकर नित पेट भरोगे
क्या होगा
अन्न तजोगे दंभ जगेगा
क्या होगा
सम-भाव रहेगा
कम न अधिक खा
सम-अन्न ग्रहण से
बंद खुलेंगे द्वार.




(29)
सहन है
बिजलियां कौंधतीं और गाज
सहन है
मध्याह्न में अंधकार
सहन है
चक्की से निकलना पिसकर
तू धैर्य धर ले
वह स्वयं मिलेगा.

  


(30)
चल चित्तवा ,
भयभीत न हो
स्वयं अनादि को चिंता तेरी
कब तेरी क्षुधा हरण हो
तू क्या जाने
चेत ले केवल नाद उसी का.





(31)
खाने पीने से
न वस्त्र सज्जा से होगा
शमित मन
भरम तजा जिन्होंने
चढ़े शिखर
शास्त्र सुनकर मृत्युभय
लगता है क्रूर
वो धनी जो पड़ा नहीं
इसके फेरे.




 
(32)
देह चेतना में ही
घिरे रहे तुम
देह को जाना
अपना रूप
भोगी यह देह
विलास किया
खिलाए कितने इसे
भोग मीठे
पर  शेष बचेगी
राख इसकी.





(33)
इस तन में खोज उसे
सच्चे मन से
यह तन सोहे और सुरूप
लोभ-मोह रहित यह तन
निखरेगी भव्य रूप
तेजस्वी,सूर्य सी उज्ज्वल.





(34)
शीत निवारें वो पहनो अंबर
क्षुधा निवारे
वो अन्न ग्रहण कर
चित्त है नृप
सुविचारी बन
रे चित्त! इस देह को*
क्या ज्ञान बघारूं मैं.
___________________
पाठभेद :
यह देह वन-कागों का आहार




(35)
तरसाओ नहीं
भूख-प्यास से देह को
लगे भूख से बुझने 
तुरंत सुध लो इसकी
वृथा है व्रत धारणा
संवरना तेरा
परोपकार है साधना
असल में.





(36)
पकड़ मत छोड़
गधे की तू
चर्चजाएगा लोगों की
केसर- बगिया
कौन वहाँ तेरे बदले
अपनी पीठ
करेगा आगे
जब तलवार पड़ेगी
नंगी देह पर तेरी.




(37)
लोभ,काम और मद
ये मारे जिसने
तीनों चोर
पथ-दस्युओं का वध करके
जो बना रहा
दास भाव में
उसी ने जाना सब भस्मावशेष.




(38)
मारो मारभूतों* को
मारक हैं तुम्हारे
ये मारेंगे वरन्
बाणों से तुमको ही
मन से इन्हें खिलाओ
यदि अल्प भी (--)**
तब शुष्क होंगी इच्छाएं.

---
* काम,क्रोध, लोभ का अभिप्राय
**स्व-विचार भी मिलता है पाठांतर में .
***यह वाख मैंने ''ललवाक्याणि"-ग्रियर्सन से अनुवाद हेतु चुना है.





(39)
वे गाली दें मुझको
या बोल कसें
जो मन में आए
कह दें मुझको
चाहे पूजा करें
     कुसुमों से मेरी
मैं अ-मलिन
निर्लिप्त रहूंगी.





(40)
हँस लें मुझपर
बोल हजारों कस लें
क्षुब्ध नहीं है मेरा मन
यदि शंकर की 
हूँ मैं भक्तिन
तो दर्पण को
क्या मिलन करेगी राख.




(41)
मूढ दिखो ज्ञानी होकर
देखकर भी
दिखो जैसे हो अंधे 
मूक बधिर दिखो सुनकर
जैसे हो तुम जड़ रूप
जो बोले जैसा
वैसा उससे बोलो*
है तत्त्वविद् का अभ्यास यही
___________________
पाठभेद :

* जो कोई बोले जितना
उतना ही तू सुन
_________________


कश्मीर में जन्में अग्निशेखर हिंदी के सुपरिचित कवि और लेखक हैंलोक -जीवन, संगीत  तथा पर्वतारोहण में गहरी रूचि रही है,लोकवार्ता  सम्बंधी लेख चर्चित रहे हैं.

'किसी भी समय ' (1992 ), 'मुझसे  छीन ली गयी मेरी नदी' (1996), 'कालवृक्ष की छाया में’’ (2002), 'जवाहर टनल '(2009 ) और 'मेरी प्रिय कविताएँ 'जैसी कविता  पुस्तकों  के अतिरिक्त 'मिथक नंदिकेश्वर 'एवं आतंक ग्रस्त कश्मीर - केंद्रित अलग अलग भाषाओँ  की कहानियों का  संकलन 'दोज़ख'सम्पादित.'अंग्रेजी में अनूदित उनकी  हिंदी कविताओं का संकलन  'No Earth Under Our  Feet'प्रकाश्य.

इनकी अनेक रचनाओं के तेलुगु, कन्नड, तमिल, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, उर्दू में अनुवाद हुए हैं.  अग्निशेखर ने क़श्मीरी  से प्रतिनिधि आधुनिक कश्मीरी कवियों की रचनाएं हिंदी में अनूदित की हैं.प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका 'पहल'- 36 , और 'वसुधा' -74, के चर्चित कश्मीरी अंकों का इन्होंने अतिथि संपादन किया.एक कहानी पर 'शीन'शीर्षक से फ़िल्म भी बनी.

राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के हाथों 1994में केंद्रीय हिंदी निदेशालय  का हिंदी लेखक पुरस्कार, 2003में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर तथा 2006में वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल के हाथों 'सूत्र - सम्मान'से  सम्मानित.कविता - संग्रह 'जवाहर टनल'पर घोषित जम्मू - कश्मीर की कला, संस्कृति और भाषा अकादमी का वर्ष 2010  का  सर्व-श्रेष्ठ पुस्तक  पुरस्कार लेखकीय स्वाभिमान और विरोध के चलते ठुकरा दिया. इक्यावन हज़ार की धन-राशि, महंगे शॉल और ट्रॉफी वाले इस पुरस्कार की राज्य में सर्वोच्च मान्यता है.

सन 1990से अलगाववाद और जेहादी आतंकवाद के चलते कश्मीर से निर्वासित अग्निशेखर  धार्मिक कट्टरता, 'जीनोसाइड 'तथा 'एक्सोडस के विरुद्ध  लगातार सक्रिय,हिटलिस्ट पर होने के बावजूद  विस्थापितों के भू - राजनैतिक प्रश्न और मांगों  के लिए जुलूसों, जलसों, धरनों, जेल भरो  अभियानों के अलावा वह हेग, एम्स्टर्डम, लन्दन, अमेरिका , फ्रांस  के अन्तरराष्ट्रीय मंचों  पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहे हैं.

संपर्क :बी - 90 /12, भवानी नगर, जानीपुर, जम्मू -180007
ई - मेल : agnishekharinexile @gmail.com   मोबाइल : 09697003775

केदारनाथ सिंह का जाना





























केदारनाथ सिंह का जाना                                    



जब कोई कवि मरता है
पृथ्वी पर
सबसे पहले छलकती है
ईश्वर की आँख.
(एक अरबी कविता, द्वारा उदय प्रकाश)


बाबुषा : पूर्व-कथन


  
कविता भाषा में लिखी जाती है, भाषा समुदाय की गतिविधियों के समुच्चय का प्रतिफल है. उसमें स्मृतियों से लेकर सपने तक समाएं हुए हैं. दार्शनिक इस सामुदायिक गतिविधियों के प्रकटन के केंद्र की तलाश करते हैं, मूढ़ धर्माधिकारी उसे ईश्वर आदि कहकर सरलीकरण का रास्ता अख्तियार कर अंतत: भाषा को जकड़ देते हैं. भाषा ही यथार्थ निर्मित करती है. जो भाषा में है वही यथार्थ है.  कवि भाषा को इस लायक बनाता है कि वह और भी कुछ देख सके. एक तरह से वह भाषा का कारीगर है. कविताओं में यह भी देखा जाना चाहिए कि भाषा में कितनी जान है और कविता किस अछूते दृश्य की ओर इशारा कर रही है.

  
बाबुषा को आप उनकी काव्य- यात्रा के आरम्भ से ही समालोचन पर पढ़ते रहे हैं. उनकी सिग्नेचर कविता ‘ब्रेक-अप’यहीं प्रकाशित हुई थी. २१ वीं सदी की कविता के स्वरों में उनका अपना एक अलग सुर है. पढ़ते हैं उनकी  कविता – ‘पूर्व-कथन’




बाबुषा की कविता                          
     पूर्व-कथन






[ अंतर ]

और कितनी ही बार बताया तुम्हें
कि हाथों में दास्ताने और चेहरे पर मास्क पहन कर प्रवेश करते हैं लैब में
विज्ञान संकाय के विद्यार्थी
ख़ुद को महफ़ूज़ रखते हुए मिलाते-घोलते या पलटते
परखनलियों का रंगीन पानी
नोटबुक में क़रीने से दर्ज करते एक्सपेरिमेंट

वह,
जो काग़ज़ में दर्ज इबारतें फाड़ता-उड़ाता
प्रयोगों में हाथ जला बैठता;
दरअसल वह; विज्ञान का विद्यार्थी है

इसे याद रखना-
विज्ञान संकाय का होना, विज्ञान का होना नहीं है

मेरे बच्चो,
विज्ञान संकाय का घंटा बीतता है पथरीली चहारदीवारियों के बीच
विज्ञान का अर्थ और अभिप्राय उन दीवारों के बाहर
पथरीले जीवन में संपन्नहोता है.






कथन-1
[ जीवनी के बाहर ]


सापेक्षता के सिद्धांत से नहीं फूटती
आइन्श्टाइन के वायलिन की अलौकिक धुन
न ही 'पेल ब्लूडॉट'के व्याख्याकार सेगन ने किसी खगोलशाला में
पृथ्वीवासियों के लिए आविष्कृत किया मनुष्यता का फ़ॉर्मूला

कल्पना चावला ने घेरा जितना भी आकाश
उससे कम (और कमतर) नहीं मैरीओलिवर की कल्पना में
वह निष्पक्ष विस्तार

आइन्श्टाइन या सेगन अपनी जीवनी में नहीं मिलते
वे जीवन में मिलते हैं


मेरे बच्चो,
साइंसदानों से विज्ञान संकाय की कक्षा में भर मत मिलना
इनसे मिलना विज्ञान में; उतार कर दास्ताने
अपने सुरक्षा कवच उतार कर मिलना.






कथन-2
[ हंस और बकरियाँ ]

स्पेस,
किसी अहमक बरेदी के चाचा स्टीफ़नहॉकिंग का खेत है ? तो रहा आए.
किसी आवारा असदुल्लाहख़ाँ ग़ालिब की बदतमीज़ भतीजी छोड़ती रहेगी
उनके खेतों में अपनी बकरियाँ.

सुन रहे हो  ?
अबे ! क्या-क्या हँकालोगे ?
भूख ? कि इनके दाने की तलाश ? कि इनकी प्यास ?

ये बकरियाँ गाभिन हैं
इनके भ्रूण में विकसित हो रहा नवजात ग्रह
इन्हें पानी को पूछो
पूछो; इनसे हरे नरम पात- खली-चुनी को पूछो
चाचा के अनहद खेत की रखवाली में मत गलो
ग़ालिब की भतीजी की गीली गाली में गलो

तुम जब अपने डंडे को तेल पिलाते हो
डंडे के डर को धता बताते, सुदूर अंतरिक्ष में उड़ जाते मालवा के हंस
किसी अज्ञात समुद्र की टोह लेने
खोजने धवल मोती

जीवनियों के बाहर सुध-बुध खो बैठते आइन्श्टाइन और सेगन
भरे जोबन में आकाशगंगाएँ जोगन हुई जाती हैं जब कुमार गन्धर्व
अपने काँधे से टिका लेते तानपुरा
एक हाथ उठा कर आकाश थाम लेते हैं

टेक लेते सुर
ब्रह्मलीन


कभी खेत में उतर जाते हंस मोती चरने
कभी उड़तीं समुद्र में बकरियाँ
चुगतीं पानी में चारा.






उत्तर-कथन
[ दमकना और टिमटिमाना ]

एक पाँव पर अडिग खड़ा ध्रुव जानता है
उत्तर की रग-रग
रग-रग का उत्तर वह जानता है.
साँवले प्रश्नों के देता उजले उत्तर
केवल ब्रह्म-मुहूर्त में.

दिप-दिप दमकता
अडोल

सघन तम से जूझते
सघनतम साध के पक्के सात ऋषि
बूझते धरती थामे रहते रात भर आकाश
टिमटिमाते प्रश्न चिह्न बन

वह,
जो दमकता है
जान पाता मात्र उत्तर के उजास को
टिमटिमाते पुंज चीन्ह लेते उजाले-अँधेले की सत्ता बराबरी से;
मद्धिम लौ में

कौन भीगा
मध्य-रात्रि जलने वाली कंदील के आँसुओं से ?
कौन पहुँचा आकाश के अंतिम छोर में बँधी गाँठ खोलने ?
किसके काँधे पर टँगी गठरी है पृथ्वी ?

सप्तऋषि गुनगुनाते तम और प्रकाश
मद्धम लय में
कभी खींच लेते उजियारे के प्राण
कभी रूखे अँधेले को सींच देते.



भाष्य : पतंग (आलोकधन्वा) : सदाशिव श्रोत्रिय






































१९७६ में लिखी गयी ‘पतंग’ कविता आलोकधन्वा के एकमात्र संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’ (प्रकाशन -१९९८) में संकलित  है.  यह आलोकधन्वा  की कुछ बेहतरीन कविताओं में से एक है, जो कई जगह पाठ्य-पुस्तकों में भी शामिल है. बच्चों के मनोविज्ञान और वयस्कों के हिसंक साम्राज्य के बीच पतंग निडरता के प्रतीक की तरह आकाश में ऊँची उड़ती है, यह आकाश  बेहतर और संवेदनशील दुनिया की कामना का ही विस्तार है. 

  
कविताओं की  मर्म-यात्रा पर निकले सदाशिव श्रोत्रिय आज इसी कविता पर ठहरे हैं. इससे पहले आपने विष्णु खरे, राजेश जोशी और दूधनाथ सिंह की कविताओं पर उनके भाष्य यहीं समालोचन पर पढ़ा है.





पतंग : आलोकधन्वा


एक

उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे
और
हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं

धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो-
हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ
                                       पर रस छोड़ता रहता है

तेज़ आँधी आती है और चली जाती है
तेज़ बारिश आती है और खो जाती है
तेज़ लू आती है और मिट जाती है
लेकिन वे लगातार इंतज़ार करते रहते हैं कि
कब सूरज कोमल हो कि कब सूरज कोमल हो कि
कब सूरज कोमल हो और खुले
कि कब दिन सरल हों
कि कब दिन इतने सरल हों
कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाज़ुक दुनिया




दो

सबसे काली रातें भादों की गयीं
सबसे काले मेघ भादों के गये
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूतलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती
डंका पीटती- तेज़ बौछारें
कुओं और तलाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं
ऐसे अँधेरे में सिर्फ़ दादी ही सुनाती है तब
अपनी सबसे लंबी कहानियाँ
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चों को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियो से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते-टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूँढ लिया दीवार में एक बड़ा-सा सूखा छेद !

चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं-
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चेप बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासको !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी




तीन

सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ानेवाले बच्चों के झुंड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके-
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड़ सके
दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके-
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके-
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया

जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के खतरनाक किनारों तक-
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे


अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास.

1976



___________________



पतंग : आलोकधन्वा
सदाशिव श्रोत्रिय



वि आलोकधन्वा की विशेषता मैं इस बात में मानता हूँ  कि वे जब तक स्वयं यह नहीं मान लेते कि कोई   कविता लिख कर उन्होंने किसी नए काव्य-अनुभव का सृजन किया है तब तक वे शायद उसे प्रकाशित नहीं करवाते. कवि रूप में उनका यह संयम हमारे इस समय में विशेष प्रशंसा की मांग करता  है जब लोगों में कवि कहलाने की जैसे होड़ सी लगी है. इस सम्बन्ध  में चीज़ें अब शायद  पहले की तुलना में कुछ आसान भी हो गई हैं. आलोकधन्वा की प्रशंसा इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि उन्होंने उस विशिष्ट भावभूमि में हमेशा के लिए कैद हो जाने को भी आवश्यक नहीं माना जिस पर खड़े रह कर उन्होंने सबसे पहले पाठकों का ध्यान आकर्षित किया था. बाद वाले दौर की उनकी कविताएँ उनकी इस रचनात्मक ईमानदारी को प्रमाणित करती है.

आलोकधन्वा की कविताओं में “पतंग” मुझे  विशिष्ट लगती है क्योंकि यह  बच्चों की दुनिया की  काफ़ी गहराई से छानबीन करती है और उसे सफलतापूर्वक बड़ों की समझ के दायरे में  ले आती है.

कविता के पहले भाग में  बच्चों को, उनकी धमनियों में बहने वाले रक्त को,पतंग को,कपास को, कपास से बनने वाले और पतंग उड़ाने में इस्तेमाल किए जाने वाले धागों को और हवा की उन ऊर्द्ध्वगामी विशाल धाराओं को जिनके साथ ऊपर उठ कर ये धागे  पतंगों को आसमान तक पहुंचाते हैं कवि प्रकृति के और सृष्टि के ही विभिन्न और अविभाज्य अंगों के रूप में देखता है . कवि जब कहता है कि :

उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे
                    या
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं

तो उसका आशय यही होता  है कि प्रकृति किसी  बच्चे को पतंग उड़ाने की तीव्र इच्छा के साथ ही जन्म देती है .
अगली पंक्तियों :

धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो –
हलचल से भरे नीबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ पर रस छोड़ता रहता है

यहाँ कवि धूप और समय के बिम्बों को भी  एकमेक कर  देता है. इसका कारण शायद यह है कि बच्चे समय जैसी अमूर्त और अभौतिक वस्तु को भी उसके मूर्त और भौतिक रूप में ही ग्रहण कर पाते हैं. भविष्य के किसी मज़ेदार और  उत्तेजक  समय की कल्पना हर बच्चे को शायद नीबू के रस जैसी ही चटखारेदार लगती है.

ग्रीष्म और वर्षा काल में तेज़ आंधी, बारिश और लू के आने-जाने के दौरान कविता में वर्णित बच्चे  जिस  गतिविधि की प्रतीक्षा करते  हैं वह  इस काव्य-रचना में पतंग उड़ाने की यह उत्तेजक गतिविधि ही तो है :

तेज़ आंधी आती है और चली जाती है
तेज़ बारिश आती है और खो जाती है
तेज़ लू आती है और मिट जाती है
लेकिन वे लगातार इंतज़ार करते रहते हैं कि
कब सूरज कोमल हो कि कब सूरज कोमल हो कि
कब सूरज कोमल हो और खुले
कि कब दिन सरल हों
कि कब दिन इतने सरल हों
कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाज़ुक दुनिया
बच्चों  और चिड़ियों की आँखों की इतनी नाज़ुक दुनिया

‘कब सूरज कोमल हो’ और ‘कब दिन सरल हों ’ के दोहरान–तिहरान से कवि विलम्ब और प्रतीक्षा के भावों को जिस तरह अभिव्यक्ति देता है उसे किसी  भी पाठक द्वारा बड़ी आसानी से देखा–समझा जा  सकता है.

कविता के दूसरे भाग में कवि उन बलों का वर्णन करता है जो विनाश और हिंसा के बल हैं. अपनी संवेदनहीनता और नियंत्रणविहीनता में  ये विनाशक बल कोमल और असहाय प्राणियों को नष्ट करने पर आमादा रहते हैं :

सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूलों को झुकाती , नगाड़ों को गुंजाती
डंका पीटती – तेज़ बौछारें
कुओं और तालाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं

जहाँ मस्तूलों, कुओं और तालाबों जैसी बड़ी और ताकतवर चीज़ों का वर्णन  करते हुए कवि इन बलों के शक्तिशाली होने की घोषणा करता है , वहीं लालटेनों और मोमबत्तियों के बिम्बों से वह इन बलों के प्रकाश से अंधकार की ओर ले जाने वाले होने का भी आभास देता है.  ताकत और विनाश के इस खेल के बीच कवि उन रक्षात्मक बलों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है जो अपने  स्नेह  और करुणा से कोमलता को, निरीहता को,और शरण ढूँढती उन संभावनाओं को बचाए  रखते हैं जिनमें आने वाले समय की खुशियां और संगीत छिपा रहता  है  :

ऐसे अँधेरे में दादी ही सुनाती है ..
अपनी सबसे लम्बी कहानियां
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चों को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियों से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से  टटोलते – टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूंढ लिया दीवार में एक बड़ा-सा सूखा छेद !

पर इस दूसरे भाग के बाद वाले हिस्से में कवि उन क्रूर और हत्यारे बलों को कोसता है जो इस दुनिया से सुन्दरता और भोलेपन को मिटाने पर तुले  हैं. कवि की वाणी ही जैसे कविता के इस भाग में एक रक्षा-कवच का रूप ले  लेती है जो भयानक से भयानक हथियारों को भी गला सकने में समर्थ है :

चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं –
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासकों !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी

इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ने वाला पाठक समझ सकता है कि इन्हें कहने वाला ( पर्सोना ) एक मजबूर और सताया हुआ व्यक्ति है जो उसके साथ होने वाली क्रूरता का प्रतिकार करने में समर्थ नहीं  है और जो असंभव के  संभव हो जाने की सिर्फ़ कामना ही कर सकता है. वह इसीलिए बर्फ़ द्वारा हथियारों को गला दिए जाने की भोली और  व्यथापूर्ण बात करता है जो वस्तुतः एक सुचिंतित वक्तव्य न होकर महज एक शाप है. क्रांति के जो बीज किसी  कविता में छिपे हो सकते हैं उन्हें  हम इस कविता में भली भांति देख सकते हैं .
किन्तु कविता  “पतंग” को कविता बनाने वाला तो वस्तुतः इसका  तीसरा और अंतिम भाग ही है . इसी भाग  में बच्चों की  उस गतिविधि का वर्णन है जो उन्हें इस धरती के विशिष्ट प्राणियों के रूप में प्रस्तुत करती हैं.  इस गतिविधि के लिए ये बच्चे वर्ष के  जिस काल की प्रतीक्षा करते रहे हैं वह शरद काल  कविता के इस  तीसरे भाग में ही पहुंच पाता है. वह आकर हमारी इस आंधी-तूफ़ान भरी दुनिया को इन पतंग उड़ने वाले बच्चों के अनुकूल बनाता है. प्रकृति के लिए जैसे  यह अनिवार्य  है कि वह हर वर्ष कम से कम एक बार  इन पतंग उड़ाने वाले बच्चों के लिए  अनुकूल वातावरण तैयार करे. प्रकृति पर असली शासन इन बच्चों का ही  है. इस सृष्टि में  वे और चिड़ियाँ इतनी कमज़ोर और कम महत्वपूर्ण नहीं  कि आप उनके साथ मनमानी ज़्यादतियां किए जाएँ. शरद के आगमन  के लिए कवि जिस तरह के  बिम्बों का प्रयोग करता है वे अपनी ध्वन्यात्मकता ,चमकीलेपन  और स्पष्टता से  हमें  अंग्रेज़ी के बिम्बवादी कवियों की याद दिलाते हैं :

शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ानेवाले बच्चों के झुण्ड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके –
..................

कि शुरू हो सके सीटियों ,किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया

बच्चों की इस अलौकिक दुनिया का गुणगान कवि यहीं समाप्त नहीं करता. प्रकृति बच्चों की स्वामिनी  नहीं है बल्कि वे उसके स्वामी  हैं और उसे अपने इशारों  पर नचा सकते हैं. इस बात को भी कवि इस कविता की अगली कुछ पंक्तियों में स्पष्ट  करता है :
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए

पतंग उड़ाने वाले इन प्रसन्न बच्चों की उपस्थिति कठोर छतों को भी किसी मुलायम गद्दे सी नरम बना देती है और  पृथ्वी की समस्त दिशाओं को ख़ुशी और संगीत से भर देती है ( और इसीलिए वे हमारे विशेष सम्मान  के अधिकारी  हैं ).

कवि बच्चों में  बहुमूल्यता और अमरत्व का वह तत्व देखता और दिखाता है जिसे साधने की कोशिश प्रकृति की भी  हर चीज़ करती है  :

जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के खतरनाक किनारों तक –
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे  

प्रकृति की जो हवा पतंगों को उड़ा ऊंचे आसमान तक ले जा रही है वही हवा उनके नासा-रंध्रों से प्रवाहित होकर उन्हें भी उत्साह और प्रसन्नता से भर रही है ; पतंग के जो धागे उन्हें उड़ा कर आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा रहे हैं वे ही किसी रहस्यमय तरीके से मज़बूत रस्से की भांति उन्हें भी थामे हुए हैं.

बच्चों की ख़ुशी की अदमनीयता को रेखांकित करते हुए कवि इस कविता के अंत में कहता है कि पतंगबाज़ी के दौरान छतों से गिर कर बच जाने वाले बच्चों के बारे में यदि कोई यह धारणा बनाए कि वे इस तरह की दुर्घटना के बाद हमेशा के लिए पतंग उड़ाना छोड़ देते होंगे तो इसका मतलब यह है कि उसे बाल-प्रकृति और बाल-मनोविज्ञान  का  ज़रा भी ज्ञान  नहीं है. वास्तविकता यह है कि ऐसे बच्चे ठीक हो जाने पर दुगुने जोश और आत्मविश्वास के साथ फिर से वैसे ही जोखिम भरे और  साहसिक कार्यों में भाग लेते हैं और पृथ्वी भी उनके साथ जैसे किसी अदृश्य बंधन से बंधी दुगुनी तेज़ी से घूमती हुई उन्हें थामने के लिए पहले से भी अधिक  आदर से उनके पैरों के पास आ खड़ी होती  है :

अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास.

कविता को पढ़ते समय पाठक के लिए  यह जानना आवश्यक है कि कवि का सच हमारी आम दुनिया के सच से कई बार काफ़ी भिन्न हो सकता है. उदाहरणार्थ बच्चों की  जिन गतिविधियों को  कवि इस कविता में अलौकिक व प्रशंसनीय कह रहा है उन्हें  एक विशेष सामाजिक-पारिवारिक-राजनीतिक  व्यवस्था दमनीय, दंडनीय और अपराधपूर्ण भी कह सकती है.  इसीलिए केवल वही पाठक इन कविताओं के मर्म को ठीक से समझ पाता है जो अपनी काव्य-संवेदना के विकास को एक स्तर-विशेष तक ला पाया है . यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था उस संवेदना- विकास को कोई महत्त्व नहीं देती जो किसी विद्यार्थी को केवल अधिक कमाने और अधिक खर्च कर सकने वाले उपभोक्ता के बजाय एक खुशमिजाज़  ,संवेदनशील और सृजनशील इन्सान बनाती है.

बच्चे इस कविता में इन्सान के निरंतर ऊपर उठते रहने के प्रतीक हैं. उनमें कुछ ऐसा तत्व है जो उन्हें बंधन-मुक्त रखने की कोशिश करता है और ऊर्ध्वगामी बनाता है. इस ऊर्ध्व्गामिता  के बिना इन्सान कैसे एक विकासशील प्राणी बना रह सकता है . प्रकृति ने निरंतर ऊपर उठने का यह गुण उसमें रखा है जिसे कवि प्रतीकात्मक रूप से इस कविता में प्रकट करता है. बच्चे निरंतर ऊपर उठते रहना और आगे बढ़ते रहना चाहने वाले प्राणी है और इस मायने में उनका साम्य चिड़ियों में ही खोजा जा सकता है. कवि इसी उद्देश्य से विभिन्न सन्दर्भों में उन्हें चिड़ियों के  साथ चित्रित करता है . पतंग उड़ाते समय वे चिड़ियों की सी फुर्ती, निडरता और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं. चिड़ियों और बच्चों के सन्दर्भ में भूख, महामारी,बाढ़ और बन्दूक की गोलियों का वर्णन ही इस कविता में वह विशेष अपील पैदा करता है जो इसे हमारे आज के समय की कविता बनाती है.

कविता के दूसरे भाग में कवि ने  एक शरणस्थल का बिम्ब प्रस्तुत किया  है – यह  एक ऐसे घर का चित्र है जिसकी लालटेनें और मोमबत्तियां  बाहर के  तेज़ आंधी –तूफ़ान की वजह से बुझ गई हैं और जो इस समय रात के अँधेरे में डूब गया है. पर इस अँधेरे में भी एक दादी है जो बाहर कड़कती बिजली से अभी –अभी जगे  हुए बच्चों को लम्बी कहानियां सुना रही है. यह कहानियां न केवल ये बच्चे सुन रहे हैं बल्कि वे डरी हुई चिड़ियाँ भी सुन रही हैं जो बाहर के आंधी तूफ़ान के कारण उखड़ गई और अब किसी बाढ़ आई नदी में बह रही उन झाड़ियों से उड़ कर आई हैं जिनमें उनके घोंसले बने हुए थे. उनके पर और चोंचें भीग गई हैं पर उन्होंने इन्हीं से टटोलते- टटोलते इसी घर  की दीवार में एक बड़ा सा  सूखा छेद ढूंढ लिया है और अब वे उसी में आ बैठी हैं. इस विशिष्ट बिम्ब द्वारा भी  कवि बच्चों और चिड़ियों के बीच  एक सहज सम्बन्ध कायम  करने में सफल होता है. इस डरावने अँधेरे में दादी माँ की कहानियों की आवाज़  न केवल बच्चों को बल्कि उन्हें भी ढाढ़स बंधाती हैं और इस तरह चिड़ियों और बच्चों के बीच एक अदृश्य मैत्री स्थापित  कर देती है.

आज के समय की संवेदना में जीने वाला कोई भी पाठक बड़ी आसानी से समझ सकता है कि इस कविता का वास्तविक उत्स वस्तुतः बच्चों के पतंग उड़ाने में नहीं है . कवि की संवेदना को झकझोरने और उसे यह कविता लिखने की प्रेरणा देने वाला भाव इस कविता से बाहर  कहीं अन्यत्र है .  कविता में वह बच्चों के पतंग उड़ाने की गतिविधि से सम्बंधित कोई लयबद्ध गीत नहीं गा रहा है. उसका रोष  प्रमुखतः उस क्रूरता और अन्याय के प्रति है जिससे परिचालित होकर नक्सलवादी या किसी अन्य गतिविधि के नाम पर अनेक बच्चों को उसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाता है जिस तरह कोई चिड़ियों को नुकसान पहुँचाने वाले पक्षी कह कर अथवा किसी अन्य बहाने बन्दूक का निशाना बना देते हैं. कवि का रोष उस अमानवीयता के विरुद्ध है जिसने आज बच्चों को बच्चों की तरह देखना बंद कर दिया है. बाल-जीवन  के उच्चतर और काव्यात्मक पक्षों को उजागर करना इस कविता के प्रमुख उद्देश्यों में से एक  रहा है .



सदाशिव श्रोत्रिय
(12 दिसम्बर 1941 - बिजयनगर, अजमेर) 

एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस. टॉमस के लेखन पर  शोध कार्य.
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयनाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त (1999)

1989 में प्रथम काव्य-संग्रह 'प्रथमातथा 2015 में दूसरा काव्य-संग्रह 'बावन कविताएं'प्रकाशित
2011 में लेख संग्रह मूल्य संक्रमण के दौर मेंतथा 2013 में दूसरा निबंध संग्रह ‘सतत विचार की ज़रूरत प्रकाशित. 

स्पिक मैके से लगभग 15 वर्षों से जुड़े हुए हैं आदि
सम्पर्क:
आनन्द कुटीरनई हवेलीनाथद्वारा -313301
मोबाइल:8290479063, 9352723690/ ईमेल: sadashivshrotriya1941@gmail

केदारनाथ सिंह : सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता की कविता : रवि रंजन









केदारनाथ सिंह की मानवीय उपस्थिति और उनके कवि-–कर्म का हिंदी साहित्य पर पड़े गहरे प्रभाव को लक्षित किया जाता रहा है. अब जब वह नहीं हैं उनकी कविताएँ हमारे आस- पास और मुखर हो उठी हैं.

वह बीसवीं सदी के महत्वपूर्ण कवि हैं. अपने समकालीन किस कवि से बड़े/छोटे हैं और कितने महान हैं’ की चर्चा बे-फजूल है.

उनकी कविता की सामाजिक संवेदनशीलता और सौन्दर्य-बोध को देखने-समझने का यही समय है.

प्रो. रवि रंजन का यह आलेख केदारनाथ सिंह के कवि-–कर्म पर केंद्रित है. ‘यहाँ से देखो’ श्रृंखला में आप आगे भी केदारनाथ सिंह की कविताई पर आलेख पढ़ेंगे.


यहाँ से देखो (एक)


सौन्दर्यात्मक   संवेदनशीलता   की    कविता
(केदारनाथ सिंह का कवि-कर्म)

रवि रंजन 



1.
कवि केदारनाथ सिंह जी के निधन की खबर से देश-विदेश में उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने और हिन्दी पढ़ने-पढ़ानेवालों साथ ही सम्पूर्ण शब्द-चेतन समुदाय शोकमग्न है. दिनांक 23मार्च, 2018को वारसा,पोलैंड स्थित भारतीय राजदूतावास और वारसा विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘विश्व हिन्दी दिवस’के दौरान केदार जी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया और प्रोफ़ेसर दनूता स्तासिकतथा सुश्री कासा निस्काद्वारा उनकी कुछ कविताओं और उनका पोलिश भाषा में अनूदित पाठ का वाचन करके उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी. कार्यक्रम में हिन्दी प्रेमी कार्यकारी राजदूत  (चार्ज डी.अफेयर्स) माननीय श्री अमरजीत सिंहताखी, दूतावास के अधिकारीगण, भारतीय समुदाय के सदस्य तथा पोलैंड के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने-पढ़ानेवाले छात्र और अध्यापक बड़ी संख्या में उपस्थित थे.

संभवत:सन1996-97 में हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में केदार जी के कई व्याख्यान हुए थे. वे विश्वविद्यालय के अतिथिगृह में लगभग तीन दिनों तकरुके थे और हमसबने उनके सानिध्य का सारस्वत लाभ उठाया था.
अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'कविता पर केन्द्रित व्याख्यान के एक दिन पहले पुस्तकालय से सुप्रसिद्ध विद्वान भोलाभाई पटेलकी पुस्तक मंगवाकर और उसे पढ़कर पूरी तैयारी के साथ दिए उनके अद्भुत व्याख्यान की याद आजकल बार-बार आ रही है. प्रश्नोत्तर के दौरान अज्ञेय की सुप्रसिद्ध ‘साँप’कविता पर केदार जी के कवि-मित्र राजेन्द्र प्रसाद सिंहद्वारा हिन्दी में पहली बार उल्लिखित (‘अग्रज कवियों की अभ्यर्थना: समझ और सीख’, ‘ऋतुगंध’-5. मुज़फ्फ़रपुर,बिहार) बारहवीं सदी में आचार्य शेखर द्वारा प्रणीत ‘सूक्ति संग्रह:सर्प वर्ग’के निम्नलिखित श्लोक के प्रत्यक्ष प्रभाव की ओर ध्यान आकृष्ट किये जाने पर उन जैसे वरिष्ठ विद्वान-कवि की जिज्ञासा नयी पीढ़ी के अध्येताओं के लिए अनुकरणीय है. उन्होंने मंच से कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंहका आलेख उपलब्ध कराने का आग्रह किया था:
“रे सर्प नैव त्वमभू खलु सभ्यजंतु:
नैवं भविष्यसि तथा नागरेपि वसतुम
जानासि नैव यदि दास्यसि सत्यमुत्तरं
दंश: वचसादम शिक्षि वचसा पीवै विषम ?”

उसी दौरान शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में उनका परिचय देते हुए केदार जी के ‘नूर मियाँ’ सरीखे एक भोलेभाले कविता-प्रेमी सज्जन द्वारा असावधानीवश ‘अकाल में सारस’ को ‘अकाल में सरस’ बोल दिए जाने के पर उनकी निश्छल हँसी आँखों के सामने तैर रही है.
विभागाध्यक्ष के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान केदार जी की अनौपचारिक स्वीकृति मिलने पर हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें एक सत्र के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर आमंत्रित किया गया था,पर निजी कारणों से वे आ नहीं पाए.

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के बाद केदार जी संभवत: सन2014 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग द्वारा 'समकालीन कविता और केदारनाथ सिंह'विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में विभाग के विशेष आग्रह पर आए थे और लगभग सारे सत्रों में उपस्थित रहे. उदघाटन सत्र में वरिष्ठ कवि अरुण कमलके बीज व्याख्यान के पहले विभागीय सहयोगी प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तवद्वारा दिए गए किंचित दीर्घ स्वागत भाषण में अपने रचना-कर्म के सन्दर्भ में रेखांकित कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को सुनकर मुस्कुराते हुए केदार जी ने पूछा  कि इसके बाद अरुण जी का काम आसान हो गया या मुश्किल ? आदरणीय अरुण जी का विनम्र उत्तर था कि “बीज व्याख्यान तो हो चुका...अब तो बस ‘बची-खुची कबिरा कही’ वाली स्थिति है.’’  
अपने कृतित्व पर अरुण कमल, अनामिका, प्रोफ़ेसर गोविन्द प्रसादसमेत अनेक विद्वानों के व्याख्यान और प्रपत्र सुनने के बाद अंतिम सत्र में आत्मवक्तव्य प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विनोदपूर्ण ढंग से कहा था:
“आज अनुभव हुआ कि अपनी कविताओं के बारे में दूसरों के मूल्यवान विचारों के बावजूद अपनी ही कविताओं के उद्धरणों को बार-बार सुनकर बर्दाश्त कर पाना कितना मुश्किल है. भारतीय काव्यशास्त्र में कहा गया है कि जीवित कवियों पर विचार नहीं करना चाहिए. इसमें  जोड़ना चाहूँगा कि यदि कवि सामने बैठा हो तब तो हरगिज नहीं.’’
           



2.
आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया की पहचान और पुनरावलोकन हमें भारतीय सन्दर्भ में करना चाहिए....आधुनिकता संबंधी बहस ख़त्म हो गयी है, लेकिन आधुनिकता की प्रक्रिया अपने ख़ास ढंग से पूरे भारतीय सन्दर्भ में आज भी जारी है. यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी. यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी ख़ास ज़रूरतों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही सन्दर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए.”
केदारनाथ सिंह (मेरे समय के शब्द)

एफ.आर.लिविस ने लिखा है कि “कविता में शब्द हमें सोचने के लिए या फैसला सुनाने के लिए आमंत्रित नहीं करते, बल्कि वे छूने, टटोलने, स्पर्श करने, कुछ निर्मित करने के लिए बुलाते हैं.” जाहिर है कि एक अच्छी कविता से गुजरकर न केवल पाठक या आलोचक की अपने परिवेश के बारे में समझ में ही वृद्धि होती है, बल्कि सौन्दर्यबोध की दृष्टि से भी वह पहले की अपेक्षा अधिक समृद्धि का अनुभव करता है.

कालिदास के ‘मेघदूत’ के एक छंद का विवेचन-विश्लेषण करते हुए निराला ने रचना को साहित्य का ह्रदय और आलोचना को मस्तिष्क कहा है. इसलिए जहाँ श्रेष्ठ रचनाएँ विश्लेषण के लिए किसी क्षमतावान आलोचक को बाध्य कर देती है, वहीं अच्छी आलोचना भी रचनाकारों के मन:मस्तिष्क को एक सीमा तक अवश्य प्रभावित करती रही है.

किन्तु, इसके लिए ज़रूरी है कि आलोचक किसी रचनाकार के एक सामान्य वक्तव्य या सन्देश के आधार पर उसकी कविता पर मूल्य-निर्णय देने के बजाय कवि की रचनात्मक आकांक्षा से भरपूर नैतिक विकलता को व्यक्त करने वाले शब्दों के संगीत को धैर्यपूर्वक सुनने और खुद को छूने, टटोलने तथा स्पर्श करने के लिए बुलाने वाले कविता में आए ‘चित्रों के आनयन’ के लिए पर्याप्त कोशिश करे. और, जाहिर है कि यह महत कार्य केवल शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली में संपन्न नहीं किया जा सकता. अर्नाल्ड हाउजरने तो ‘कला का समाजशास्त्र’ (द सोशियोलोजी ऑफ़ आर्ट) पुस्तक मेंस्पष्ट लिखा है कि ‘कला की व्याख्या केवल समाजशास्त्रीय शब्दावली में कतई नहीं की जा सकती.’यह बात कला-साहित्य की व्याख्या और विश्लेषण के लिए उपयोग किए जानेवाले काव्यशास्त्र व सौंदर्यशास्त्र समेत अन्य शास्त्रों की प्रविधि के बारे में भी कही जा सकती है. 

कहना न होगा कि कविता के आस्वाद में गहरे उतरने के बजाय जब प्रबुद्ध पाठक या आलोचक अपने अनेकानेक पूर्वाग्रहों तथा संरक्षणवादी रवैये के तहत कई बार रचना के मूल्यांकन के दौरान जल्दबाज़ी करता है, तो वह स्वभावतः शब्दकर्म के प्रति गहरी आस्था की कोख से उपजी सघन काव्यानुभूति को जाने-अनजाने नज़रअंदाज करते हुए प्रायः शिथिल संरचना में विन्यस्त सस्ती भावुकता व नारेबाज़ी को क्रमशः जातीय परम्परा व क्रांतिकारिता के नाम पर उछालने के लिए अभिशप्त होता है. ऐसे महानुभावों को याद दिलाना शायद ज़रूरी हो कि रचना-क्षेत्र में क्रांतिकारिता के नाम पर ‘सरलता’, ‘सहजता’ एवं ‘सादगी’ का मतलब सपाटबयानी कदापि नहीं होता. इस प्रसंग में यू.आर. अनंतमूर्तिके एक निबंध का स्मरण स्वाभाविक है, जिसमें कहा गया है कि ‘एक बुरा साहित्य हरगिज अच्छी राजनीति नहीं हो सकता.’ (“ए बैड लिटरेचर कैन नॉट बी ए गुड पोलिटिक्स ऐट आल”) आज जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि कविता में तथाकथित ‘सरलता’, ‘सहजता’ एवं ‘सादगी’ आधुनिक व उत्तर-आधुनिक मनुष्य की जटिल संवेदनशीलता व गहरे अंतर्विरोधों से उपजे तनाव का बोझ उठा पाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.

कवि केदारनाथ सिंह जब कहते हैं कि वे जो भाषा बोलना चाहते हैं, वह दांतों के लिए बीच की जगहों में सटी है, तो अनायास पाणिनि द्वारा शब्दों के उच्चारण को लेकर दिये गये एक वक्तव्य की याद हो आती है:
 “शब्दों का उच्चारण वैसे ही करना चाहिए, जिस प्रकार व्याघ्री अपने बच्चे को मुँह में दबाकर चलती हुई, न तो उसे अधिक दबाए रहती है कि उसे पीड़ा हो, न ही इतनी ढिलाई से कि शावक जमीन पर गिर जाए.”

केदारनाथ सिंह कविता के संरचनात्मक गठन को लेकर आरम्भ से ही अत्यंत जागरुक रहे हैं. ‘तीसरा सप्तक’में अपने वक्तव्य में उन्होंने लिखा था : “कविता में सबसे अधिक ध्यान देता हूँ बिम्ब-विधान पर.” बावजूद इसके, उन्हें किन्हीं अर्थों में केवल बिम्बवादी कवि कहना, कविता के गठन को लेकर एक सचेत कवि की ईमानदारी का मखौल उड़ाना होगा.

एज़रापाउण्ड मानते थे किकविताको भी गद्यकीतरहसुलिखितहोना चाहिए औरकहने की आवश्यकता नहीं कि बिम्बवादीकविताएँराइम'केबजायरिद्म'या लयकोकेन्द्रमेंरखकररचितहोने के साथ ही प्राय: सुलिखितहुआकरतीहैं. उनसे गुजरते हुए एक विशिष्ट निर्मिति का बोध होता है.सचतोयहहैकिहमारेजमानेमेंभीअच्छीकविताएँप्रायःवेहीकविलिखरहेहैं, जिन्हें गद्य की लय को काव्यलय में पुनर्रचित करने की कलामेंमहारत हासिल है:


“उसके बारे में कविता करना
हिमाक़त की बात होगी
और वह मैं नहीं करूंगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
उस आगतक चलें
उस चूल्हे तक –जहाँ वह पाक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा  के साथ
समूची आग को गंध में बदलती हुई
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है

और पकना
लौटना नहीं है जड़ों की ओर

वह आगे बढ़  रही है
धीरे-धीरे
झपट्टा मारने को तैयार
वह आगे बढ़ रही है
उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद
और विचारों तक

मुझे विश्वास है कि आप उसका सामना कर रहे हैं

मैंने उसका शिकार किया है
मुझे हर बार ऐसा ही लगता है
जबमैं उसे आग से निकलते देखता हूँ

मेरे हाथ खोजने लगते हैं
अपने तीर  औरधनुष
मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं
जब मैं उसे खाना शुरू करता   हूँ

मैंने जब भी उसे तोड़ा है
मुझे हर बार वह पहले से ज्यादा स्वादिष्ट लगी   है
पहले से ज्यादा गोल
और खूबसूरत
पहले से ज्यादा सूर्ख और पकी हुई

आप विश्वास करें
मैं कविता नहीं कर रहा
सिर्फ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ
वह पक रही है
और आप देखेंगे-यह भूख के बारे में
आग का   बयान है
जो दीवारों पर लिखा जा रहा है

आप देखेंगे
दीवारें धीरे-धीरे
स्वाद
में बदल रही हैं..”  
                                                (केदारनाथ सिंह: ‘रोटी’, 1978)


बावजूद इसके, यह सच है कि रचना में कई बार ‘इंटेंशनल फैलेसी’ तो होती है, लेकिन ‘इंटेशन’ की परिणति हमेशा ‘फैलेसी’ में ही हो यह ज़रूरी नहीं है. डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने  लिखा है कि कवि के ‘संकल्प’ और ‘कल्प’ में हमेशा भिन्नता या विपरीतता ही नहीं होती. ‘संकल्प’ उसकी ‘कल्प-सृष्टि’ को समझने में सहायक भी हो सकता है. चूँकि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं के माध्यम से काव्यात्मक स्थितियों के अपने अनुभव को जिन चित्रों में व्यक्त करते हैं, वे पाठक के भीतर उन्हें पुनःसृजित कर देते हैं, इसलिए उनके किसी एक वक्तव्य के आधार पर ही उनकी कविता पर बिम्बवादी अस्पष्टता का लांछन लगाना आलोचना के नाम पर रचना के साथ गैररचनात्मक व्यवहार करने जैसा है. इस प्रसंग में ‘कविता के नये प्रतिमान’ में आए नामवर सिंह के एक बयान की याद न हो आए,यह मुमकिन नहीं:

“किसी कविता को अस्पष्ट बताने वाले के भीतर अस्पष्टता का अर्थ स्पष्ट होना चाहिए. पाठकों में केवल किसी रचना की अस्पष्टता का बोध जगाना-मात्र स्पष्टता नहीं है... कविता में एक अस्पष्टता वह होती है, जिसे बच्चे समझ लेते हैं, पर विद्वान चकरा जाते हैं.”
  
तात्पर्य यह है कि यदि आधुनिक संवेदनशीलता का वाहक भारतीय मनुष्य आज अनेकानेक अन्तर्द्वन्द्वों, तनावों व जटिलताओं के चलते बेचैन है, तो उसके इस अनुभव-लोक की काव्यात्मक अभिव्यक्ति कतई सपाट नहीं हो सकती. कवि अगर आज अपने परिवेश, आधुनिक या उत्तर-आधुनिक कहे जानेवाले मनुष्य की अनुभूतिगत जटिलता और अपनी वास्तविक स्थिति को भुलाकर या झुठलाकर कविता लिखेगा, तो उसकी रचना वस्तुगत यथार्थ के बजाय विभ्रम और ज़मीनी हक़ीकत के बजाय जन्नत की हक़ीकत (?) का मायाजाल होगी.

साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करते हुए केदारनाथ सिंह ने एक मानीखेज़ बात कही थी: “नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना के बीच जब-तब मैंने एक ख़ास किस्म के तनाव का भी अनुभव किया है. यह तनाव हमारे दैनिक सामाजिक जीवन की एक ऐसी जानी-पहचानी वास्तविकता है जिसकी ओर अलग से हमारा ध्यान कम ही जाता है. मेरे लिए यह अनुभव एक एस्थेटिक बोध भी है और एक गहरे अर्थ में मेरी नैतिक चेतना का एक अविच्छिन्न हिस्सा भी. अपने रचना कर्म में मेरी कोशिश यह होती है कि उसमें अनुभव के इन दोनों स्तरों की अंत:क्रिया किसी हद तक समाहित हो सके. यह किस हद तक संभव हो पाती है, यह बताना मेरे लिए कठिन है,पर वह मेरी रचना-प्रक्रिया का एक ज़रूरी हिस्सा है,इसे मैं भूलना नहीं चाहता.”

अपने इस समावेशी सौन्दर्य-बोध के तहत उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कवितायेँ रची हैं, पर ‘मातृभाषा’, ’मेरी भाषा के लोग’,’भोजपुरी’,जे.एन.यू. में हिन्दी’, ‘बनारस’, ‘पानी में घिरे हुए लोग’,’भिखारी ठाकुर’जैसी ज़मीन से जुड़ी श्रेष्ठ कविताओं और स्वयं और अपने लोगों के बीच दिल्ली को न आने देने की कामना के बावजूद यह अलग से रेखांकित करना ज़रूरी नहीं है कि ‘नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना...के बीच ...तनाव’ में कवि केदारनाथ सिंह के यहाँ ग्रामीण संवेदना की तुलना में नागरिक संवेदनशीलता का पलड़ा भारी है. इसीलिए उनके यहाँ ‘नूर मियाँ’ तो हैं, पर त्रिलोचन का ‘नगई महरा’ नहीं है. बावजूद इसके, केदार जी की कविताओं में बौद्धिकता का कोई आतंक या नारेबाजी नहीं है. सच तो यह है कि
‘रुको आँचल में तुम्हारे यह समीरन बाँध दूँ
यह टूटता प्रण बाँध दूँ !
एक जो इन उँगलियों में कहीं उलझा रह गया है
फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !’

या

‘झरने लगे नीम के पत्ते
बढ़ने लगी उदासी मन की’

जैसी प्रगीतामक रचनाओं के साथ हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवेश  करनेवाले केदारनाथ सिंह की आगे चलकर रचित लम्बी कविताओं में भी अंत:सलिला की तरह मौजूद प्रगीतात्मकता यथार्थ विरोधी होने के बजाय अपने समय के तमाम अंतर्विरोधों का यथार्थ चित्रण करने में समर्थ है. याद आते हैं थियोडोर अडोर्नो,जिन्होंने ‘लिरिक पोएट्री एंड सोसायटी’शीर्षक विख्यात निबंध में लिखा है कि ‘प्रगीत तत्त्वत: सामाजिक होता है.’

केदारनाथ सिंह की एक कविता है- ‘नमक’.चूँकि एक लम्बे समय से भारत के वर्चस्वशाली वर्ग के इशारे पर नाचने वाली ज़्यादातर सरकारों की प्राथमिकताओं की सूची में से नमक और रोटी धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, इसलिए इनको मुद्दा बनाकर सीधे-सीधे राजनीतिक कविता लिखने वाले कवियों की आज कमी नहीं है. किन्तु, केदारनाथ सिंह की इस कविता की वैधानिक और भाषिक संरचनात्मक वैशिष्ट्य की यदि पड़ताल की जाय तो स्पष्ट होगा कि यह कविता हमारे चित्त में जो चित्र-विधान व संवेदनशीलता पैदा करती है, वह भारतीय पारिवारिक जीवन की ज़मीनी हक़ीकत के क़रीब होने के बावजूद काव्यात्मकता के नये नियमों की खोज से उत्पन्न एक भिन्न प्रकार के काव्यबोध से परिपूर्ण है. इसमें एक अपेक्षाकृत भरे-पुरे मध्यवर्गीय तथाकथित आधुनिक परिवार में पुरुष-वर्चस्व के चलते व्याप्त लगभग दहशत-भरे माहौल में स्त्री की करुण बेबसी और कुल मिलाकर परिवार में मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा के अभाव को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है. निराला की शब्दावली का प्रयोग करते हुए कहा जाय तो ऐसे दमघोंटू वातावरण में एक घरेलू स्त्री खुद को बाहर से ही बाहर नहीं, बल्कि भीतर से भी बाहर कर दी गई-सी महसूस करती है :

एक शाम शहर से गुजरते हुए
नमक ने सोचा
मैं क्यों नमक हूँ
और जब कुछ नहीं सूझा
तो वह चुपके से घुस गया एक घर में
घर सुन्दर था
जैसा कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर के शुरू में

***

और ठीक समय पर
जब सज गई मेज
और शुरू हुआ खाना
तो सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे उसकी जीभ
अपने ही स्वाद का इन्तजार कर रही हो
कि ठीक उसी समय
पुरुष जो कि सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला-
“दाल फीकी है”
फीकी है ?
स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
“हाँ फीकी है –
मैं कहता हूँ दाल फीकी है”
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक दूसरे को ताकते हुए
फिर सबसे पहले पुरुष उठा
फिर बारी-बारी मेज से उठ गये सब
***
न सही दाल में
कुछ न कुछ फीका ज़रूर है
सब सोच रहे थे
लेकिन वह क्या है?


यह सीधी सरल भाषा में आज के संवेदनहीन होते जा रहे पारिवारिक जीवन के यथार्थ की जटिलताओं की सकारात्मक तथा अर्थबहुल पहचान कराने वाली कविता है. कथित सरलता की लीक से हटकर रचित सरल कविता में बुनियादी सरलता के निहितार्थ कितने जटिल हो सकते हैं, ‘नमक’ कविता उसका सार्थक उदाहरण है.

राजकिशोरने सही लिखा है कि न तो सारा का सारा पुरुष-लेखन ‘पुरुषवादी’ लेखन है और न ही ‘सवर्ण’ कहे जानेवालों का सम्पूर्ण लेखन ‘सवर्णवादी’ लेखन. जिस तरह एक असावधान स्त्री-लेखक जाने-अनजाने पितृसतात्मक मूल्यों का शिकार हो जा सकती है, उसी तरह एक सावधान पुरुष लेखक स्त्रीपक्षीय मूल्यों का विकास कर सकता है या उसमें सहायक हो सकता है. दूसरे शब्दों में, केवल स्त्री-शरीर धारण करने-मात्र से स्त्री में ‘स्त्रीवादी-चेतना’ उत्पन्न हो ही जायेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ‘नारी भावना’ और ‘नारी चेतना’ नितांत अलग-अलग मनोदशाएँ हैं. ‘भावना’ स्वाभाविक है, जबकि चेतना  अर्जित करनी पड़ती है. मुक्तिबोध के शब्द उधार लेकर कहें, तो चेतना अर्जित करने के लिए ‘बाह्य का अभ्यन्तरीकरण’ (इंटरनलाइजेशन) एक बुनियादी शर्त है और इस कसौटी पर खरा उतरने वाला पुरुष-लेखक भी एक सीमा तक ‘स्त्री-चेतना’ से लैस हो सकता है. इस दृष्टि से विचार करने पर कवि केदारनाथ सिंह के ‘अंतःकरण का आयतन’ काफी विस्तृत प्रतीत होता है. भारतीय समाज एवं परिवार में मौजूद पितृसत्ता की महीन बख़िया उधेड़ते हुए उन्होंने जो कविताएँ लिखी हैं, उनमें एक है- ‘जाना’, जो कवि के शब्दों में हिंदी की सबसे ‘ख़ौफ़नाक क्रिया’ है :

मैं जा रही हूँ -  उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है.


प्रसंगवश सिमोन द बोउआरका एक कथन स्मरणीय है कि “जो व्यक्ति दूसरों की यातना के लिए ह्रदयहीन हो सकता है, वह खुद अपनी तकलीफ़ के लिए पहले ही संवेदनहीन हो चुका होता है.”
इसलिए परिवार व समाज में जहाँ कहीं भी ऐसी स्थिति हो, वहाँ हमें उत्तेजन के बजाय संवेदनशून्यता ही देखनी चाहिए. भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में दाम्पत्य व प्रेम संबंधों में एक ओर यदि अतिशय आवेश-उत्साह के दर्शन होते हैं, तो दूसरी ओर कालांतर में उन्हीं संबंधों के प्रति तटस्थता, उपेक्षा एवं संवेदनशून्यता की स्थिति भी दिखाई पड़ती है, जिसके मूल में हमारी समाजव्यवस्था के अंतर्विरोधों से पैदा हुई ‘अलगाव’ (एलियनेशन) की भावना अन्तर्निहित है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘जाना’ कविता में इसी अलगाव से उत्पन्न संवेदनशून्यता का प्रतिपक्ष रचा गया है.

अपनी कई कविताओं में अलगाव का शिकार बनने के लिए अभिशप्त आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कहे जानेवाले मनुष्य के जीवन की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए केदारनाथ सिंह ने लिखा है :

“बरसों तक साथ-साथ
रहने के बाद
जब वे विधिवत अलग हुए
तो सारे फैसले में
यह छोटी-सी बात कहीं नहीं थी
कि जहाँ वे लौटकर जाना चाहते हैं
वह अपना अकेलापन
 वे परस्पर गँवा चुके थे .”
________

यही हुआ पिछली बार
यही होगा अगली बार
हम फिर मिलेंगे
किसी दूसरे शहर में
और ताकते रह जाएँगे
एक-दूसरे का मुँह.


याद रहे कि ‘नयी कविता’ के दौर में ‘व्यक्तित्व की खोज’ और ‘पहचान की तलाश’ जैसे जोरशोर से उछाले गए नारों का सम्बन्ध सुविधाहीन भूखे-नंगे बहुसंख्यक लोगों के बीच सुविधासंपन्न जीवन व्यतीत करनेवाले उच्चवर्गीय एवं उच्च्मध्यवर्गीय सुखासीन अवकाशभोगी आधुनिक मनुष्य के उस एकान्तवादी एवं व्यक्तिनिष्ठ पहलू से रहा है, जिसमें एक ओर वह अपने पूरे अस्तित्व का सामूहिक नियति से ‘अलगाव’ अनुभव करने लगता है.पर दूसरी ओर समूह से जुड़ा रहने के लिए खुद को विवश अनुभव करता है. अपने इस आतंरिक क्षोभ के कारण वह समूह में रहते हुए समूह से भिन्न एवं विशिष्ट दीखने के लिए ‘पहचान की तलाश’ करते हुए अंतत: स्वयं से भी अलगाव (सेल्फ एलियनेशन) का शिकार होता है.जिसकी    भयानक परिणति यह होती है कि केवल पाशव कर्म ही उसे जीवंत और मानवीय कर्म उबाऊ प्रतीत होने लगता है. उदारीकरण के बाद व्यवस्थापोषक राजनीति और ख़ास तौर पर अर्थनीति के कारण गरीब-अमीर ही नहीं, बल्कि गाँव और शहर के बीच लगातार चौड़ी होती जा रही खाई का नतीज़ा है पश्चिम की तरह भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि.

स्त्री रचनाकारों के ‘एक्टिविस्ट’ होने की ज़रूरत पर बल देने वाली और अपनी ज़मीन से जुड़ी स्त्रीवादी विचारक एवं कवयित्री कात्यायनीने ‘यथार्थवादी प्रेमी की कविता’ में लिखा है :

प्यार करना
आसमान तक ऊपर उठ जाना
जैसे कि-
जरुरी है
प्यार करते हुए
धरती पर रहना.

ज़ाहिर है कि यहाँ ‘प्यार’-विषयक वायवीय धारणाओं के बरअक्स रोज़मर्रा के जीवन की वास्तविकताओं की भूमि पर खड़े होकर किये जाने वाले ‘प्यार’ को ज्यादा मानवीय बताया गया है. केदारनाथ सिंहकी प्रेम कविताएँ भी ‘नई कविता’ के दौर में रुग्ण एकांतिकता, ऊब और तनाव आदि से उपजी अनेकानेक प्रेम कविताओं से ही नहीं, बल्कि हमारे समय में रची जा रही   प्रेम कविताओं से भी नितांत भिन्न और स्वस्थ सामाजिकता की संवेदना से सम्पृक्त हैं, जिसकी वजह से उनकी प्रेम कविताओं में भी अनेकस्तरीय ध्वन्यार्थ मिलते हैं :

इस शहर में
हर आदमी छिपा रहा है
अपनी प्रेमिका का नाम
सिवा उस हॉकर के
जो सड़क पर चिल्ला रहा है
वियतनाम ! वियतनाम !
__________________________________

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.


हमारे समाज में आम तौर पर प्रेमालाप को व्यक्तिगत और कई बार नितांत गोपनीय प्रक्रिया माना जाता है,पर इस प्रसंग में दुनिया के सुन्दर होने की कवि की कामना की वजह से यह कविता हिन्दी में लिखी जानेवाली प्रेम कविताओं से भिन्न एवं विशष्ट है. वस्तुत: केदार जी की इस कविता की अंतर्ध्वनि अज्ञेय की
‘आह ! मेरा श्वास है उत्तप्त
धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धार
तुम कहाँ हो नारी !’

से तो भिन्न है ही, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन एवं शमशेर जैसे प्रगतिशील कवियों द्वारा रचित सैकड़ों अद्भुत प्रेम कविताओं के बीच भी यह अलग से पहचानी जा सकती है. त्रिलोचन की ‘हाथों के दिन आएँगे,वे कब आएँगे’ या केदारनाथ अग्रवाल की ‘छोटे हाथ सबेरा होते लाल कमल से खिल उठते हैं/करनी करने को उत्सुक हो धूप हवा में हिल उठते है’जैसी कविताओं से नितांत भिन्न तेवर की केदारनाथ सिंह की ‘हाथ’ कविता कवि के सौन्दर्यबोध में निहित सामाजिक निहितार्थ को चुपके से सामने लाती है.

 ‘प्रयोगवाद’ और ‘नई कविता’ वाले दौर में हिंदी कविता में व्याप्त यथार्थविरोधी रुझान को डॉ. नामवर सिंह ने ‘नई कविता पर क्षण भर’ शीर्षक लेखमाला के अंतर्गत रेखांकित करते हुए सितम्बर, 1963 के ‘ज्ञानोदय’ में लिखा था : “इसे विरोधाभास ही कहना चाहिए कि जब से कविता में बिम्बों की प्रवृत्ति बढ़ी है, सामाजिक जीवन के सजीव चित्र दुर्लभ हो चले. सुंदर बिम्बों के चयन की कवियों की ऐसी प्रवृत्ति हुई कि प्रस्तुत गौण हो गया और अप्रस्तुत प्रधान. इस तरह कविता का दायरा भी सीमित हो गया – पहले जीवन से खिंचकर प्रकृति की ओर और फिर प्रकृति से भी विशेष प्रकार की रमणीयता की ओर : यहाँ तक कि वातावरण का संकेत देने वाले बिम्ब भी सिमटकर एक कमरे की वस्तुओं के रूप में रह गये और बाहरी दुनिया एक खिड़की की तस्वीर के सहारे बैठ गयी. कविता को चित्र बनाने का नतीजा क्या होता है, यह बात पिछले पंद्रह वर्षों के अनुभव से स्पष्ट हो गयी है. यही हाल प्रतीक संकेत पद्धति का हुआ...... यदि इतने पर भी इस कविता के विरुद्ध प्रतिक्रिया न होती, तो विनाश – निश्चित था – विनाश सामाजिक और मानवीयता का ही नहीं, बुद्धि, ह्रदय और सृजनशीलता का भी.”

अपने रचना-कर्म के आरंभिक चरण में केदारनाथ सिंह ने जिसे ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ कहा था,वह कुलमिलाकर उस जमाने में ‘संग्रह-त्याग’ के विवेक के साथ परम्परा से जूझकर अपने लिए नयी राह की तलाश करने के लिए बेचैन नई पीढ़ी के सामने खड़ा एक सामाजिक प्रश्न भी था, जिसे ‘पहचान की राजनीति’ से जोड़कर देखना वास्तविकता का अन्याथाकरण माना जाएगा: 

छोटे से आंगन में
माँ ने लगाए हैं
तुलसी के बिरवे दो

पिता ने उगाया है
बरगद छतनार

मैं अपना नन्हा गुलाब
कहाँ रोप दूँ!

मुट्ठी में प्रश्न लिये
दौड़ रहा हूं वन-वन ,
पर्वत -पर्वत,
रेती-रेती...
बेकार.
(1957)

‘मेरे समय के शब्द’ में केदारनाथ सिंह की लिखी एक बात ‘पहचान की राजनीति’ के इस युग में संभवत: और अधिक प्रासंगिक है : “हमारा देश सामंतवाद के विरुद्ध एक लम्बे संघर्ष के बावजूद अपने मूल्यों और आचरण में सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है.उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था,जो हमारे चारों ओर है. अपने सारे मानववाद के बावजूद हम एक जाति-विशेष के सदस्य माने जाते हैं. यह हमारी सामाजिक संरचना की ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और क्षत-विक्षत होती है.”

केदारनाथ सिंह के रचना-संसार में एक से बढ़कर एक सुन्दर एवं प्रभावशाली बिम्बों के रचना-विधान में निहित अनुभूति की संरचना और कवि के सामाजिक विवेक की मौजूदगी के मद्देनज़र वहाँ सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता का सामाजिकता से विरोध के बजाय जो तालमेल है, वही उनकी कविता को सार्थक बनाता है. आज यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि युवा पीढ़ी के अनेक हिन्दी कवि आने-अनजाने उनकी रचनाशीलता से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित हैं.

पहले की तरह हमारे समय के सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों में भी कविता की कोई बहुत बड़ी भूमिका भले न हो, पर वह मनुष्य को और अधिक बेहतर मनुष्य बनाने और इस उद्देश्य से मनुष्य को सामाजिक और समाज को अपनी शक्तिऔर सीमा में अधिक से अधिक मानवीय बनाने के लिए किये जा रहे सांस्कृतिक प्रयास का संवेदनात्मक साक्ष्य अवश्य है. ऐसे में शब्दकर्म के प्रति केदार जी की अनन्य निष्ठा उल्लेखनीय है :

 ‘मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
तो मैं लिखने बैठ गया हूँ.


……………………………………………..

पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ.’                      
(मुक्ति,1978)

अंतिम बात यह कि जब कविता पर अनुभूति के बजाय कोरी कल्पनाशीलता हावी होने लगती है, तो यथार्थ अपने आप बरतरफ़ हो जाता है. केदारनाथ सिंह की कविता में कल्पनाशीलता की जगह अनुभवाश्रित कल्पना के रचाव की परिधि का नाभिकीय बिंदु यथार्थ ही है, पर कवि ने उसका इस्तेमाल भोजन में नमक की तरह किया है.
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प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष,हिन्दी विभाग,मानविकी संकाय, हैदराबाद-500046.
विजिटिंग प्रोफ़ेसर, वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड.

इ.मेल: raviranjan@uohyd.ac.in

रुस्तम की कुछ और कविताएँ



कुछ कवि हमेशा ऐसे होते हैं जो आपको विचलित कर देते हैं. यह विचलन बहुत गहरा होता है, चुप्पा-आत्म और मुखर-अस्तित्व दोनों को झकझोर देते हैं. यह विस्मित ही करता है कि रुस्तम जैसा कवि हिंदी में  पिछले कई दशकों से लिख रहा है और लगभग ओझल है. इन कविताओं में मनुष्यता की सादगी है जिसे जीवन की गरिमा की तरह पढ़ा जाना चहिए. नश्वरता जैसी चीज जो निश्चित एकमात्र है, लगभग स्थायी टेक की तरह सभी कविताओं के पार्श्व में धीमे-धीमे सुलग रही है.

ये कविताओं आपको कहीं अंदर लेकर जाती हैं. यह तलघर जो सबका है जिधर अब हम जाना बिसरा चुके हैं. क्या ये एक दार्शनिक की भी कविताएँ हैं .

रुस्तम की पन्द्रह नई कविताएँ और साथ में उनके पेंटिग और फोटोग्राफ भी.



रुस्तम  की  कुछ  और  कविताएँ                              



पूरा विश्व जल रहा है
पूरा विश्व जल रहा है.
जल रहा है मेरा हिया.
भीतर, बाहर
आग ही आग है.
और धुआँ.
वो जो आग में से निकला था
वह जल रहा है.
वो जो बर्फ़ जैसा ठण्डा था
वह जल रहा है.
आग सुलग रही है.
आग भभक रही है.
उठ रहा है धुआँ.
जुट रहा है धुआँ.
नदियाँ.
जंगल.
समुद्र.
पर्वत.
हर चीज़ में से
आग निकल रही है.
जल रही है हवा.
पानी जल रहा है.
बुझ रहा है दिया.
यह तुमने क्या किया?
यह तुमने क्या किया?


न तो मैं कुछ कह रहा था
न तो मैं कुछ कह रहा था,
न वे मुझे सुन रहे थे.
हालाँकि होंठ मेरे हिल रहे थे
और कान उनके खुले थे,
पर हम
दो भिन्न
नक्षत्रों पर खड़े थे
और एक अजब बेगानापन
हमारे बीच था
जिससे कि हम डर रहे थे.
इस डर को लिए हुए ही
मैं मंच से उतरा,
वे खड़े हुए.
मेरी आँखें झुकी हुई थीं,
उनके चेहरे मुड़े हुए थे
एक अन्य दिशा में
जब हम
हॉल से निकले
वहाँ जहाँ रात थी.
एक लम्बी साँस
मेरे फेफड़ों में चली गयी.



मेरे सामने
किस चीज़ को देखूँ? किस चीज़ पर सोचूँ? किस चीज़ पर मनन करूँ?
इस वक्त एक झाड़ू मेरे सामने है. वह दीवार के सहारे खड़ा है. एक पाईप है ज़मीन पर लेटी हुई, एक सोंटी उस पर पड़ी है. एक सरिया भी है उनको छू रहा : वह बीच में से मुड़ा हुआ है. लोहे की एक पत्ती सोंटी से सटी है, बस सटी हुई है, हिल नहीं रही, जैसे सटी रहना चाहती हो. और अन्य सब भी शान्त हैं, स्थिर हैं अपनी जगह, जैसे यही उनकी जगह हो --- जैसे कि वे सदियों से यहाँ पड़े हों, बिना हिले, बिना काँपे, बिना किसी चिन्ता के.
इस दौरान, यहीं मेरे सामने, एक खोपरे में, पानी हिल रहा है, हिल रहा है.


सब चाहते थे
सब चाहते थे
कि मैं अपना मुँह नहीं खोलूँ.
सब चाहते थे
कि वे खुद तो बोलें
पर मैं नहीं बोलूँ.
उस वाचाल ज़माने में वे सब मुझे सिर्फ अपनी बात बताना चाहते थे.
तुमने उसे पैगम्बर कहा और उसे एक काली कोठड़ी में डाल दिया.
तुमने उसे
एक अन्धे कुएँ में धकेल दिया
क्योंकि उसका स्वर
कर्कश था
और वह
केवल सच बोलता था.
धीरे-धीरे उन्होंने
मेरे होंठ सिल दिए.





हर वस्तु भारी होती जा रही है
हर वस्तु भारी होती जा रही है
दूरियाँ बढ़ रही हैं मेरे और स्थानों के बीच.
सीढ़ियाँ उतरता हूँ तो पुट्ठे वज़न नहीं लेते.
बाहर निकलता हूँ तो चक्कर खाता हूँ.
पत्नी नींद की गोलियाँ लेती है.
मैं देर रात तक बैठता हूँ, फिर अनिच्छा से सोने जाता हूँ
और सोचता हूँ :
मैं कब जिया? कब जिया? कब जिया?
मैं मृत्युलोक में पैदा हुआ, मृत्युलोक में रहा, मृत्युलोक में ही
विलीन हो जाऊँगा.
जीवन
न कभी था, न है, न होगा.










तीन कविताएँ
1.
यहीं बैठता हूँ.
यह जगह मुझे यहीं बैठने को कह रही है.



2.
आओ,
यहाँ बैठो,
यहीं बैठे रहो.
चाहो तो कुछ भी नहीं कहो.



3.
न कहूँ
कुछ भी,
इसीलिए आया हूँ
यहाँ
इस जगह
जहाँ
कुछ भी नहीं कहना है.




तुम रह गये पीछे

तुम रह गये पीछे
इसीलिए हम मिल पाए.
वो निकल गये सब आगे,
इसीलिए है
यहाँ
यह एकान्त.
तुमने जो कहा,
था वह इतना शान्त
कि उस शोरगुल में
केवल उसी को मैंने सुना ---
“यह वह समय है
जब कुछ न कहा जाए.”





किस-किस को सुनना होगा?
किस-किस को सुनना होगा?
अभी किस को सुनना बाकी है?
मत फटको
मेरे पास.
क्या है जो कहना चाहते हो ---
जो किसी और ने नहीं कहा?
तम्हारी तरह,
तुम्हारे भान्ति ही,
वे भी लगातार बतियाते हैं,
बकते-झकते हैं.
इसीलिए
ईश्वर छोड़ गये हैं तुम्हें
और केवल मनुष्य तुम्हारे साथी हैं. 
   
जब वह
जब वह
तुम्हारे पास आती है,
वह कैसे, कैसे,
कितना
तुम्हारे पास आती है.
जब वह तुम्हें छोड़ती है,
वह
और कहीं नहीं जाती है.
वह खण्डहर से भी कम है.
वह
किसी तरह भी
ख़ुद से
बच नहीं पाती है.






तुम जवान थीं और हँसमुख
तुम जवान थीं
और हँसमुख
और उस रेस्तराँ में काम करती थीं
जिसका नाम अब मुझे याद नहीं.
खुशकिस्मत था मैं
कि उस अजनबी शहर में
मैंने तुम्हें देखा.
सीवा था तुम्हारा नाम.
हालाँकि
मैं तुम्हें
दुबारा कभी नहीं देखूँगा,
पर तुम रहोगी
मेरे हृदय के बिल्कुल पास.
 (ताल्लिन, इस्टोनिया, २०१४)
यह दुनिया मेरे लिए नहीं
यह दुनिया मेरे लिए नहीं.
मैं यहाँ वापिस नहीं आऊँगा.
सगे,
सम्बन्धी,
सब चले जाते हैं.
मैं यहाँ वापिस नहीं आऊँगा.
अब कौन है तुम्हारा?
अब किसलिए तुम ज़िन्दा हो?
अब चले जाना ही ठीक होगा.
वे कभी नहीं लौटेंगे.
कभी नहीं.






चहुँ ओर आँखें हैं
चहुँ ओर आँखें हैं.
मैं छिपता फिरता हूँ.
वे सब मुझे देख रही हैं.
चाहें तो
वे सड़क पर भी
मुझे नग्न कर सकती हैं,
झाँक सकती हैं
मेरी आत्मा में.
अब
घर में भी
मैं ढँका हुआ नहीं हूँ.
वे छत को चीर सकती हैं.
तीखी है उनकी नज़र
और उनकी पहुँच
लम्बी है.








ज्ञान क्या है

ज्ञान क्या है
यदि
जानते तुम होते,
कितना कम,
कितना कम
जानना तुम चाहते !







तुम जीते, मैं हारा
तुम जीते,
मैं हारा.
नीच,
तुम मुझसे बड़े हो,
मुझसे ज़्यादा.






कहते हो कि तुम कवि हो
कहते हो कि तुम कवि हो,
पर कितने खोखले हो !

मनुष्य नहीं,
ईश्वर ही लिख पाते हैं कविताएँ.




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कवि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.
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 रुस्तम की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ें.

परख : क़िरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ)







 कहानी संग्रह - क़िरदार
 लेखिका- मनीषा कुलश्रेष्ठ
 प्रकाशक- राजपाल एण्ड संन्ज़दिल्ली
 मूल्य- रू- 195
 प्रथम संस्करण-2018






समीक्षा
बदलते    वक्त      के    रू-ब-रू      क़िरदार
मीना बुद्धिराजा










थार्थ का वर्णन कथाकार के लिए जरूरी है लेकिन एक अच्छी कहानी के लिये इसका कोई तयशुदा फार्मूला नहीं होता. यथार्थ पहले से मौजूद कोई वस्तु नहीं,जिसे सिर्फ आख्यान या कहानी के अंदर डाल देने की जरूरत होती है. अपने  समय के संकटों और चुनौतियों से जूझते और संघर्ष करते हुएजैसे जीवन चलता रहता  हैवैसे ही कहानी भी. संवेदन शील रचनाकार प्राय: यथार्थ का अतिक्रमण करता है,जो वास्तव में  यथार्थ का विरोधी नहीं होता बशर्ते कथाकार की दृष्टि जीवन की गहराई में उतर सकती हो. जीवन की जटिल स्थितियों के दबाव में लेखक उसे कैसे रचना में अभिव्यक्त करता हैयह एक कथाकार के रूप में उसकी रचनात्मक शक्तियां अपने समय से किस प्रकार का संवाद कायम करती हैं, उस पर भी निर्भर करता है.

इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में हिंदी कथा- साहित्य में जिन चुनिंदा श्रेष्ठ स्त्री- कथाकारों ने अपनी विशिष्ट व अलग पहचान बनाई, उनमें प्रतिनिधि सुप्रसिद्ध युवा-कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठका नाम विशेष उल्लेखनीय है. उन्होनें अपनी रचनाओं में स्त्री- अस्मिता को एक नई पहचान देने के साथ हिंदी कथा- साहित्य को नई संभावनाओं,संवेदना और अनुभव के व्यापक दायरे से भी समृद्ध किया है. समकालीन कथा लेखन में सार्थक हस्तक्षेप करते हुए वे सतत सक्रिय कथा लेखिका हैं,जिनके अब तक छ: कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इनमें कठपुतलियाँ, शिगाफ,स्वप्नपाश,गंधर्व गाथा, पंचकन्याजैसी अनेक रचनायें हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय और पुरस्कृत हो चुकी हैं. अनेक महत्वपूर्ण कथा सम्मानों से अंलकृत मनीषा जी रचना कर्म के प्रति अपनी गंभीरता, ईमानदारी  और मौलिक विषयों के  अन्वेषण के लिये जानी जाती हैं. नये- नये विषयों का पुनर्संधान करते हुए कथ्य के नये प्रयोग, अछूते क़िरदार और परिवेश की विविधता मनीषा कुलश्रेष्ठ के उत्कृष्ट लेखन की पहचान है. स्त्री- मन की आकांक्षाओं और त्रासदियों के बेहद निकट जाकर मनीषा जी उनके जीवन की उन आवाज़ों को अपनी कहानियों में उकेरती हैं, जो सामान्य तौर पर अनसुनी रहती हैं और समाज में अभिव्यक्त नहीं हो पातीं. उनके यहां विषय- वैविध्य का बेशकीमती  और जीवन के अनुभवों से समृद्धविभिन्न रूप-रंगों का अथाह खजाना है जो पंरपरागत किस्सागोई सेअलग अपने अनूठे नयेपन में उन्हें आज के समय का कहानीकार बनाता है.

एक रचनाकार के रूप में मनीषा कुलश्रेष्ठ लेखन को मात्र भाषा विलास न मानकर उसे मानवीय जीवन की अनिवार्य शर्त मानती हैं. अपने अनुभवों के व्यापक वृत्त मेंआए समय और सत्य के कुछ विशेष प्रंसगों और विचलित करने वाली स्थितियों को रचनात्मक विवेक और संवेदनात्मक घनत्व से कहानी में ढ़ालकर वे पाठकों से जीवंत संवाद करती हैं. उनकी इस अनवरत कथायात्रा के एक महत्वपूर्ण मुकाम के रूप में उनका नवीनतम कहानी संग्रह क़िरदारअभी हाल में ही राजपाल एंड संन्ज़प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. स्त्री-मन, प्रेम,स्वप्न और द्वंद्व की अविस्मरणीय कहानियों को समेटे ये सभी कहानियाँ कुछ दुर्लभ पंरतु हमारे ही वक्त के सजीव क़िरदारों के माध्यम से हमारे समय का आईना हैं. इन कहानियों के पार्श्व में कुछ मूल्यगत चिंताएं,कुछ मानवीय सरोकार और स्त्री जीवन की कुछ बेचैनियां हैं जो दृश्य- अदृश्य रूप में उपस्थित होकर आज के अर्थहीनजटिल और आक्रामक समय में जब संवेदनशीलता लगभग अपराध है,वहां जीवन की सार्थकता की खोज करती हैं. अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे मनीषा जी ने स्वंय कहा है कि-

“मेरे क़िरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से कुछ दूरी बरतते हुए. मेरी कहानियों में फ्रीकभी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे ज़हन में रहते हैं. जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये क़िरदार मुझे विवश करते हैं , उतारो न हमें कागज़ पर. कोई कठपुतली वाले की लीक से हटकर चली पत्नी,कोई बहुरूपिया, कोई डायन करार कर दी गई आवारा औरत,बिगड़ेल टीनेजर,न्यूड माडलिंग करने वाली....’’  

विषयों की यही आधुनिकता,वैविध्य और मौलिक क़िरदार उनकी कहानियों की अंदरूनी शक्ति है जो प्रस्तुत कहानी -संग्रह में भी एक नयी कथा-संस्कृति का प्रतीक बनकर उभरती है.

पहली कहानी एक ढ़ोलो दूजी मरवण...तीजो कसमूल रंगकिसी कस्बे की एक यात्रा के बहाने अव्यक्त और खामोश प्रेम की गरिमा को अत्यंत मार्मिकता से व्यंजित करती है. महानगरों में तथाकथित महान प्रेम संबंध जो खोखले, अस्थायी तथा मृतप्राय: हो चुके हैं और परिस्थितियों से समझौतों के आधार पर टिके हैंउसके बरक्स बस मे सफर कर रहे दो साधारण क़िरदारों के बीच स्थिर, मौन और अज्ञात सा दिखता,अपनी लघुता में भी गहरा और विराट प्रेम अविश्वनीय रूप से पाठक को  भी चकित कर देता है. मध्यवय कथानायिका और उसके प्रेमीके रूप में एक उच्च- मध्यवर्गीय चित्रकार- कलाकार जोड़ा, जो दुनियादारी के नियमों के हिसाब से आधुनिक और बौद्धिक हैउन्हें भी सच्चा  और पवित्र प्रेम एक गंवई- कस्बे की यात्रा के दौरान अनुभव होता है. एक लोकप्रिय राजस्थानी लोक गीत के मुखड़े पर आधारित शीर्षक इस कहानी में यह अदैहिक, अशरीरी और उदात्त प्रेम एक खामोश और मीठी सी धुन के रूप में पाठक के मन में भी बहुत समय तक गूंजता रह जाता है और वेदना का कोई प्रगाढ़ कसमूल रंगरागचेतना पर छा सा जाता है.

आर्किडकहानी सुदूर पूर्वोत्तर के मणिपुर राज्य में सैनिक शासन के दौरान सेना और स्थानीय निवासियों के बीच होने वाले तनाव, विरोधों, झड़पों और तमाम तरह के जोखिम के  मध्य  वहां के जीवन की कटु और निर्मम सच्चाईयों को प्रस्तुत करती है. अपने अधिकारों और आज़ादी के लिये लड़ने वाले राज्य के लोग आपदा के समय सेना और उनके अस्पतालों पर निर्भर हैं. उनके बनते- बिगड‌ते संबधों के बीच मानवीय संबधों की गहरी पड़ताल यह कहानी जीवंत रूप से करती है. आर्किड के सुंदर फूल की तरह खिलने वाला प्रदेश राजनीतिक लड़ाईयों में उलझकर अपनी सहजता और सरलता को खो चुका है. कहानी के दोनों मुख्य क़िरदार मिलिटरी अस्पताल में कार्यरत डॉ. वाशी और उनकी सहायक वहां की स्थानीय नागरिक लड़की प्रिश्का के बीच के जटिल रिश्ते कई स्तरों पर और कई आयामों में परिवेश और यथार्थ की क्रूरता को झेलते हुए भी निष्कपट मानवीय संबंधो के आदर्श की एक भावुक अमिट छाप छोड़ जाते हैं.

एक सजग रचनाकार के रूप में मनीषा कुलश्रेष्ठ समय,समाज और उसके विद्रूपों तथा चुनौतियों के प्रति भी सचेत हैं. उनकी कहानियाँ स्त्री अस्तित्व के पक्ष में हमेशा खड़ी हैं और उसके सामाजिक शोषण की भयावह परिणतियों पर भी संवेदंनशील हैं. लापता पीली तितलीकहानी में  बचपन मे हुए यौन- शोषण की शिकार युवती की मानसिक पीड़ा का मनोवैज्ञानिक चित्रण है, जो आज के समय का भी अमानवीय सच है. सभ्य कहे जाने वाले समाज की कुत्सित मानसिकता और रिश्तेदारों, पडोसियों या फिर परिचितों के द्वारा यौन हिंसा से पीड़ित अबोध बच्चियों और महिलाओं को कभी उचित न्याय नहीं मिल पाता. इस अनिश्चित और असुरक्षित माहौल में बालिकाएं अपने अनुभवों से जिस जीवन-दर्शन को सीखती हैं, वह अपमान और खौफ के रूप में उनके व्यक्तित्व और आत्मविश्वास को हमेशा पराजित करता रहता है . समाज कीइस भयावह सच्चाई को कहानी यथार्थपूर्ण तरीके से सामने लाती है.


आज के तेजतर्रार युग में हम कई  युग और संस्कृतियां एक साथ जी रहे हैं. जैनरेशन गैप के विकट बिंदु पर आकर पुरानी पीढ़ी नये जीवन मूल्यों और आकाक्षांओं को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाती.ब्लैक होल्सकहानी   एक गहरी नज़र से नई पीढ़ी की गतिविधियों और भावनाओं को आंकने का उपक्रम है. कहानी के अंत में एक पिता के पश्चाताप और बेटी से पराजित व्यक्ति के रूप में बजुर्ग पीढ़ी की शिकस्त और आत्मग्लानि भी छिपी हैजो बदलाव के लिये नये-पुराने के सामंजस्य के रूप में समाधान का विकल्प भी देती है. अतिनैतिकता औरसुरक्षित आदर्शों के भीषण दबाव से मूक विद्रोह करते और लीक से अलग हटकर दिखते,कहीं ज्यादा संवेदनशील और नि:स्वार्थ प्रेम से युवा चरित्र अनिंद्या और रोहन पाठक के दिल को छू जाते हैं.

मनीषा जी सोद्देश्यपूर्ण कहानियाँ लिखती हैं,किसी एक समस्या, सामाजिक विडबंना और कठोर सत्य को केंद्र में रखते हुए वे उसे संवेदना का विस्तार देती हैं. स्त्री की मानवीय गरिमा और स्त्री की नियति के कठिन प्रश्नों को अपनी कहानियों में वे पूरी सजगता से उठाती हैं .ठगिनीकहानी तथाकथित भारी- भरकम नारी विमर्शों से हटकर पितृसत्ता के षडयत्रों की शिकार स्त्री- अस्मिता की जीवंत व मार्मिक कहानी है. कहानी में पुरुष सत्ता की क्रूर मानसिकता और स्त्री के अस्तित्व को कुचलने वालीसदियों से चल रही नवजात कन्या-हत्या की  बर्बर कुरीति का पर्दाफाश करते हुए मुख्य चरित्र युवती कंचन के रूप में उसके जीवन की संचित पीड़ा,त्रासदी और अस्तित्व शून्यता का सजीव चित्रण है. सघन संवेदना से परिपूर्ण यह क़िरदार भी पाठक की मानसिकता को दूर तक प्रभावित करता है. राजस्थान के गांव-ढाणी,बीहड़- मरुस्थल का लोक- परिवेश और स्थानीय शब्दों का भाषिक प्रयोग कहानी में गतिशीलता और दृश्यात्मक प्रभाव को बढ़ा‌ने के साथ उसे रोचक और पठनीय रूप भी देता है.

साइबर संचार युग व उत्तराधुनिक संभावनाओं का जो नया माहौल आज विज्ञान और मनोचिकित्सा के क्षेत्र में देखा जा रहा है , उसे ग़ंभीरता से उठाते हुए समुद्री घोड़ाकहानी ट्रांसजेंडर मातृत्व जैसे अछूते विषय के साथ ही महानगरों की यांत्रिक जिंदगी,असामान्य होते तनावपूर्ण संबधों के साथ स्त्री-पुरुष समानता की फेमिनिस्ट बहसों को भी सामने लाती है. कहानी का विषय अत्याधुनिक होते हुए भी आज समाज के सामने बेबाकी से उपस्थित हैंइससे इनकार नहीं किया जा सकता. वक्त की नई आहटों को सुनने और भांपने की दृष्टि से  यह एक नये अछूते कथानक और क़िरदारों की प्रयोगशील कहानी कही जा सकती है.

और आखिर में इस किताब की सबसे सशक्त और प्रतिनिधि कहानी क़िरदारकी बात की जाए तो कहानी की नायिका और मुख्य चरित्र मधुराके रूप में स्त्री -मन के भीतर हो रही उथल-पुथल, अतंर्मन की विकल आकांक्षाओं और अंतर्द्वंद्व को लेखिका बड़ी बारीक संवेदना से उकेरती हैं, जो अंत तक आतेहुए पाठक के मन को भी झकझोर कर विस्मित कर देती है . “मेरे क़िरदार में मुज़्मर है तुम्हारा क़िरदार’’आरंभ मे  कही गई भूमिका की यह पंक्तियाँ इस कहानी का एक संकेत जैसे दे देती हैं . स्त्री-जीवन के सच, उससे जुड़े कई  असुविधाजनक सवाल और उसके पीछे क़िरदार की बेचैनी,अंतहीन त्रासदी, अस्तित्व की उद्विग्नता और संवादहीनता के तनाव को कहानी गहराई से रेखांकित करती है. 


मधुरा की आत्महत्या जैसे इस बेहद कठोर,कला और प्रेम विहीन दुनिया से अपने को अलग कर लेने का एक आत्मघातीखामोश विद्रोह और प्रतिशोध का प्रतीक बन जाती है. मधुरा के इर्द- गिर्द इस कहानी का संसार रचते हुए स्त्री- मनोविज्ञान और समाज मेंक्रियेटिवक़िरदारों की आंतरिक दुनिया का एक अलग और अछूते धरातल पर बारीक और संवेदंनशील विश्लेषण किया गया हैजो मनीषा जी की लेखन शैली की अद्भुत विशेषता है. यह परिपक्व मेधा  और गहन अंतर्दृष्टि के साथ एक नये अनुभव को लेकर स्त्री के साधारण से दिखते जीवन की असाधारण गाथा है. एकचेतना और कला-संपन्न क़िरदार के भीतर कितना विराट शून्य और अकेलापन आग की तरह धीरे-धीरे सुलगता रहता है-प्रेम की कोई फुहार क्षण- भर को उसे शीतल तो कर सकती है. परंतु उस परम- प्रेमएब्सॉल्यूट लव की परिभाषा मधुरा को कभी नहीं मिल पाती,इसलिये परिवार और समाज में अपनी सभी भूमिकाएं  निभाने के बावजूद स्त्री के रूप में उसके अपने स्वतंत्र अस्तित्व कीयहखोज अनवरत कहानी के बाद भी जारी रहती है-

“जिस क़िरदार को निभाने में कोई सुख,कोई अदा, कोई शोखी, खूबसूरती तो हो . तुम मुझे एक खास अंदाज़ में रहने को कहते हो. मैं रंगों, स्याहियों, सुरों और आलापों में व्यक्त होना चाहती हूं .…..

मैं गहरे हरे रंग वाली नोटबुक उठाता हूं . जिससे पन्ना फाड़कर मधुरा ने सुसाईड नोट लिखा था .......एक आखिरी पन्ने पर कुछ लिख कर काटा है पेन गड़ा-गड़ा कर. मैंनें अपना क़िरदार पूरे जोश से निभाया , अब और नहीं सॉरी !”

कहानी मधुरा के जीवन के अंतर्संघर्ष,बेचैनी और अपूर्णता में ही उसकी पूर्णता को खोजने का प्रयास करती है, उसके अंदर छिपे रहस्यमय अँधेरे को लेखिका की सजग-संवेदंनशील आँख पहचानती है. विश्व के असाधारण फ्रेंच अस्तित्ववादी लेखक और अतियथार्थवादी फिल्मकार माइकेलेजेंलो एंतोनिओनी  ने कहा है कि- “कला में किसी चीज को पूर्णता में कैसे पकड़ा जा सकता है,जब जीवन ही उसी तरह का नहीं है .” कहानी में पात्रों के मनोविज्ञान पर, उनके आपसी संबधों पर कथा- लेखिका का कुशल सधाव,घटनाओं के ताने- बाने में उभरता मोहक कथा- शिल्प,विचार और भावनाओं के झंझावात मे घिरकर एक नयी भाषाका प्रवाह और अनोखीकथन भंगिमाका दुर्लभ संयोग एक रचनाकार के रूप में लेखिका के कलात्मक उत्कर्ष और अद्भुत कथा- कौशल का प्रमाण है .

एक नयी और अनूठी किताब के रूप में क़िरदारकी सभी कहानियाँ बेहद पठनीय, रोचक और कथ्य की विविधता के साथ ही पाठक की संवेदनाऔर वैचारिकता को दूर तक प्रभावित करते हुए दिलो- दिमाग में बहुत समय तक याद रह जाती हैं. उनके क़िरदार अपने स्वंतत्र अस्तित्व में सांस लेते हैं. अपने सुख,दु:ख,घुटन और कठिनाईयों के साथ टूटते- बिखरते,जीते हुए संघर्ष करते हैं, इसलिये अधिक मानवीय और विश्वसनीय हैं, कृत्रिम नहीं. व्यक्तिगत तौर पर भी मनीषा जी की कहानियाँ पाठकों को हॉंन्टकरती हैं, वे जाने- पहचाने कथानक और चरित्रों से अलग हटकर नई लीक पर चलने का जोखिम उठाती हैं. उन अँधेरे चरित्रों की ओर ले जाती हैंजिन्हें आज की चमक- दमक में हम देखना नहीं चाहते. ज़िंदगी के विविध रूप-रंगों से जुड़े ये सभी क़िरदार कहीं बेसब्रबेतरतीब, बेझिझक और कभी शर्मीले,बेचैनबेअदब और अलग मिज़ाज के होते हुए भी बेहद आत्मीय लगते हैं. हर क़िरदार की अपनी विशिष्टता और अपना एकाकीपन है. सच में ये क़िरदार थोड़े ढ़के-छिपे लेकिन हमारे आस-पास ही मौज़ूद हैं. 

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स्त्री- जीवन इन कहानियों में कई मायनों में ज्यादा जटिल और बहुआयामी होकर आता है,इसलिये ये कहानियाँ भी बनी- बनाई लीक से हटकर इनके नये पाठ और मूल्यांकन के नये पैमानों की चुनौती भी प्रस्तुत करती हैं.
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मीना बुद्धिराजा
हिंदी विभाग
अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क- 9873806557

meenabudhiraja67@gmail.

स्पिनोज़ा : नीतिशास्त्र - ५ – (अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर)






















17  veen शताब्दी के महान मीमांसक, प्रत्यक्षवादी दर्शनिक स्पिनोज़ा (24 November 163221 February 1677)  का प्रत्यक्ष प्रभाव १८ वीं सदी के यूरोपीय पुनर्जागरण पर रहा है. उनकी   कृति 'नीतिशास्त्र' (1677)  का हिंदी अनुवाद आप समालोचन पर नियमित पढ़ रहे हैं.  इसके दूसरे खंड का पहला हिस्सायहाँ प्रस्तुत है जो ‘चित्त की प्रकृति और उत्पत्ति के बारे में’ है. इस जटिल दार्शनिक ग्रन्थ का अनुवाद हिंदी के युवा प्रतिभाशाली लेखक-द्वय : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर द्वारा किया जा रहा है.


महेश वर्मा की कविताएँ













महेश वर्मा का पहला कविता संग्रह धूल की जगहइसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.  २१ वीं सदी की हिंदी कविता के वह एक प्रमुख कवि हैं.

नींद और रात को लेकर उनकी कुछ नई कविताएँ  प्रस्तुत हैं.  इन्हें प्रेम कविताएँ कहना एक तरह का सरलीकरण होगा.  ये कविताएँ स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की तरह ही जटिल हैं और यौनिकताकी ही तरह हिस्र मादक.   





महेश   वर्मा   की   कविताएँ                  





नींद की कमीज़

नींद की कमीज की बाहें लंबी हैं, कांख पर सिलाई उधड़ी हुई, वहाँ से झांकते हैं रात के चांद सितारे. जेब में अफ़साने भरे हैं लोरियां आंसू और थपकियां खत्म हो चुके. कमीज का रंग आसमानी है, थोड़ा उड़ा हुआ सा और पुरातन. इसके लिए धागे तैयार करने में कोई नहीं सिसका था. इसकी तासीर इतनी ठंडी है कि विश्वासघात के शिकार प्रेमी भी इसे पहन कर चैन की नींद सो सकते हैं. ऊंचाई से गिरने और किसी गफ़लत में कत्ल कर दिए जाने के डरावने सपने पहली ही धुलाई में, बह गए थे मोरी से बाहर.






नींदकीशमीज़

नींदकीशमीज़अन्यपुरुषकीवासनाकोजगासकतीहै. इनवक्षोंकोचूमाहीजानाचाहिएथा, इसदेहगंधमेंडूबाहीजानाचाहिएथा, यहसूतीकाकोमलस्पर्शनथुनोंमेंभराहीजानाचाहिएथा, इसअपनीस्त्रीकोसोनेनहींहीदियाजानाचाहिएथा.
यहफिरभीएकभिन्नवस्त्रहै, स्त्रीकेसबसेनिजीसपनेऔरसबसेनिजीपसीनेकीगंधभरीहैइसमें.
इसेतारपरउदाससूखतादेखकरआपइसमेंखौलतीकामनाकाअनुमानकभीनहींलगापाएंगे.

by Julia H.



नींद की चादर

नींद की चादर पर सबसे कोमल नींद के तकिए रखे हैं. तकियों में तेल की खुशबू नहीं है न नीचे कोई हेयर पिन रखा है, सिर्फ एक पैर का का पायल जरूर यहां मौजूद है अपना ठंडा चांदी का बदन समेटे.

                             चादर पर सिलवटें कम हैंआसमान अधिक.

                             चादर पर करवटें कम है, आसमान अधिक.

                             चादर पर उदासियाँ कम हैं, आसमान अधिक.



इसका सफ़ेद रंग रात की देह पर अधिक सोहता है. इसके नज़दीक जाने से पहले पानी पास रख लो वरना नींद की रेत पर प्यास से तड़पते, तुम्हारी देह रात के सभी तिलस्म तोड़-फोड़ देगी.


इस चादर के पास अपना जादू है, अपना रहस्य है और अनेक यौनिक संस्मरण.
इसे अब बुन ही लिया जाना चाहिये.





नींदकेबाहर

ऐसेहीनींदकेबाहरबैठेरहोचुपचाप. नींदकीरखवालीकरो. बसबुरेख़्वाबोंकोनींदसेबाहररोकलेनाऔरसांसकीलयपरकोईरागतैयारकरलेना. ख़ूबसूरतख़्वाबोंकेभीतरचुपकेसेझांकलेनातबनींदकेदरवाज़ेकेभीतरजानेदेना. थोड़ीदेरकोयेचाँदनीबुझादो, जबमुझेगाढ़ीनींदजायेतबफ़िरइसकीरौशनीतेज़करदेना. अभीबुझादोऐसेहीबैठेरहोचुपचाप. देवताकीराहमेंमारेगएहरजानवरकाख़ूनमेरीनींदपरटपकताहैतुमउसेपहलेहीअपनीजीभपरलेलेना. सुबहतुम्हेंसबसेपवित्रनदीमेंनहलाकर, माथेपरभस्ममलकरविदाकियाजायेगा.





रात की चाबी


ये मेरी नींद में कौन सी चाबी ढूंढ रहे हो तुम लोग? इतनी रात कौन सा ताला खोलना है? अभी सो जाओ. रात जब अपने आप को बंद कर लेती है तभी उसके भीतर नींद पकती है, अभी सो जाओ.

रात की चाबी प्रिया के पास है.

रात की चाबी प्रिया के पास है, उसकी सुंदर कमर और  सुंदर करधनी के बीच संगीत सुनती, अपना चुप बनाए रखती, वहीं है.

रात घर है तो उसके तीन दरवाजे तीन ओर खुलते हैं, चांद की ओर तारों की ओर और चुप की ओर. मुझे उस रात वहां सपनों का दरवाजा मिला ही नहीं.



रात के रहस्य


रात के जलसे में जो भी आए थे, रात के रहस्य उन सबके पास हैं टुकड़ा-टुकड़ा। पड़ोस की नदी, रात की हवाएं, चांद, प्रिया के नयन किसी से पूछ लो. सब के पास हैं टुकड़ा-टुकड़ा. इन टुकड़ों को सही सही जगह जोड़ना. क्रम भंग से कथा बदल जाएगी.







रात से पहले


रात से बहुत पहले रात के उत्सव शुरू हो चुके थे जैसे बहुत ठंडे पानी से नहाना और बेवजह मुस्कुराना. टेलीफोन घंटे से अपनी धड़कनों को बांध देना फिर उसी धड़कन की आवाज से खुद ही चौंक जाना.

रात तुम क्या-क्या लेकर आओगी, बताओगी या रहस्य ही रहने दोगी?

रात से पहले सुरमा लगाया जाता है, रात से पहले चंद्रमा को खुला छोड़ दिया जाता है.

रात से पहले गिन लो साँसें.

नमक और आंसुओं का हिसाब लिख लो, अचानक धड़क पड़ेगा दिल ये बेहिसाब,

लिख लो.
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महेश वर्मा
३० अक्टूबर १९६९, अंबिकापुर (छ्त्तीसगढ)
 ई-पता : maheshverma1@gmail.com

सबद भेद : विद्रोही की काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध : संतोष अर्श
















कवि विद्रोही सालों तक अपनी कविता को ओढ़ते – बिछाते रहे. जिस तरह से उनके जीवन का कोई मध्यवर्गीय अनुशासन नहीं था उसी तरह से अपनी कविताओं को भी उन्होंने इस धरती और आकाश के बीच खुला और अकेला छोड़ दिया था. 

वह अक्सर अपनी कविताओं का खंडित पाठ किया करते थे जैसे वे इस अर्ध सामन्ती – अर्थ पूंजीवादी, ज्ञान और संवेदना से लगभग च्युत किसी भी तार्किकता के प्रति हिंसक समाज में रह रहे एक अकेले व्यक्ति का रूपक हों. उनके थोड़े से चाहने और सराहने वाले लोग थे, प्रबुद्ध माने जाने वाले विश्वविद्यालय जैसी जगह में भी उन्हें खदेड़ा ही जाता रहा. उनके होने को संदेह से देखा जाता था. उनकी कविताएँ और उनके विचारों से यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह कवि राजनीतिक रूप से कितना चेतनशील था.

उनकी कविताओं का संकलन किया गया है जो ‘नयी खेतीके नाम से प्रकाशित है. उनकी कविताओं को समझने और मूल्यांकित करने के भी प्रयास हो रहे हैं. संतोष अर्श के इस आलेख को इसी क्रम में समझना चाहिए. विस्तार से विद्रोही की काव्य-संवेदना पर चर्चा की गयी है. ‘तगड़ा’ आलेख है.



ये विद्रोहीभी क्या तगड़ा कवि है !

    (रमाशंकर यादव विद्रोही : काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध का विवेक)
    संतोष अर्श 

विद्रोही के व्यक्तित्व और उनकी कविताओं को चाहना शहराती और अपवर्डली मोबाइलसंवेदना के लोगों के लिए मुश्किल है. चाहे वे स्वयं साहित्य के सर्जक ही क्यों न हों. जब तक ऐसे लोग अपने भीतर झाँक कर अपनी आलोचना का रुख न अपनाएँ,विद्रोही से वे घृणा या हद से हद ईर्ष्या ही कर सकते हैं. दूसरी ओर हमने देखा कि पिछले साल पटना में जब विद्रोही गाँधी मैदान के इर्द-गिर्द चौराहों पर अपनी कविताएँ सुना चुके तो ठेले,खोमचे रखने वाले और दूसरे मेहनतकश जानना चाहते थे कि यह कवि कौन था,जो हमारी बातें कर रहा था.
-विद्रोही के संग्रह नयी खेतीकी भूमिका में प्रणय कृष्ण

रमाशंकर यादव विद्रोहीजिस वक़्त कविता रच और सुना रहे थे वह समय हिन्दी में कवियों की अधिकता और कविता की कमी का समय था. बहुत से अभिजात अफ़सर-प्रोफ़ेसर और मध्यमवर्गीय गिरोही,सांस्थानिक-अकादमिक,अघोषित-स्वघोषित,प्रचारित-प्रकाशित-स्थापित,पालित और जुगाड़ू कवियों से इतर विद्रोही अपनी भाषा की कविता में एलिएनेट होकर किनारे छूट गए (थे) या कर दिये गए.

जेएनयू कैंपस की पथरीली ज़मीन पर उगी झाड़ियों की सुरंग में किसी विक्षिप्त की भाँति रहने वाले विद्रोही से कविता का साथ नहीं छूट सका. हिंदी समाज ने उन्हें तीसरी दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की चहारदीवारी के भीतर महदूद या क़ैद कर देने की पूरी कोशिश की लेकिन विद्रोही की आवाज़ बहुत बुलंद है. जिसने भी उनको कविता बाँचते सुना है,उसने इस बुलंदी को ज़रूर महसूस किया है. विद्रोहीको हिन्दी के दूसरे कवियों की तरह सामाजिक प्रतिष्ठा लखटकिया,दसलखटकिया इनामो-इकराम,तमगे आदि भले ही नहीं मिले लेकिन कविता के अपने समय में वे पढ़ने-लिखने वाले आंदोलनकारी युवाओं के सबसे प्रिय कवि बने और उनकी कविताएँ जिस उर्वर ज़मीन से अंकुरित हुईं थीं उसमें फूलने-फलने और पकने के बाद उन्हें हाथो-हाथ लिया गया,स्वीकारा गया और उनकी गूँज जनता की आवाज़ बन कर वर्चस्व की सत्ताओं तक पहुँची. इस तरह विद्रोही के कवि-कर्म ने उन्हें जनकवि बनाया और उनकी कविताओं की लोकप्रियता ने उन्हें लोक का कवि घोषित किया.            

जनकविरमाशंकर यादव विद्रोहीवर्तमान हिंदी कविता के समानान्तर एक बोहेमियन कवि साबित हुए. उनकी लोकप्रियता का पता हिंदी समाज को उनकी मृत्यु पर चला जब उनका नाम सोशल मीडिया के महत्त्वपूर्ण मंच फ़ेसबुक पर ट्रेंड कर रहा था. सिगरेट-चाय माँगकर पीने वाले अराजक कवि की यह लोकप्रियता देख कर दसियों संग्रहों में छपे और ज़बरदस्ती व्याख्यायित-आलोचित-शोधित सुकवि भौंचक्के रह गए. छपास रोग से मुक्त विद्रोहीवाचिक परंपरा के कवि थे,क्योंकि वे कविताएँ लिख कर पढ़ने के स्थान पर,खड़े होकर जबानी तैयार की गयी कविताओं का पाठ करते थे. इस कारण उनकी बहुत सी कविताएँ इधर-उधर बिखर गईं. किन्तु जन संस्कृति मंच ने उनकी बिखरी हुई तमाम कविताओं को एकत्र कर उनके एकमात्र संग्रह के रूप में प्रकाशित किया,जो नयी खेतीके नाम से प्रसिद्ध है.

नाम के अनुरूप विद्रोहीकी काव्य-संवेदना विद्रोही है जिसमें व्यवस्था और सत्ता के बने-बनाए ढाँचे का एक नकार है,जो अपनी ध्वन्यात्मकता और आवृत्ति से मजबूत प्रतिरोध उत्पन्न करती है. विद्रोही की कविता में चाल-पछोर कर निकाला गया गद्य का वह रूखा, रूपवादी आभिजात्य नहीं है जो इधर की हिंदी कविता पर कोहरे की भाँति छाया हुआ है. इसलिए इन कविताओं में मध्यवर्गीय रूपवादी शाब्दिक कलाभ्रम का अभाव है,जो वास्तव में वृद्ध पूँजीवाद की परछाई है. इनमें वर्तमान कवि-कर्म की वह सजगता भी नहीं है जो कवि को पुरस्कार-सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाती है. इन सब के स्थान पर एक खाँटीपन है,एक बेपरवाही है जो इस बात का प्रमाण देती है कि विद्रोही ख़ालिस जनकवि हैं. विद्रोही की कविता उस अपवंचित जन की कविता है जो गाँव-कस्बों,खेत-खलिहानों,कारख़ानों में जुटा हुआ है. या जो महानगरों के फुटपाथों पर रात गुज़ार रहा है,कुलीगीरी कर रहा है,रिक्शा खींच रहा है या खोमचे लगा रहा है. इसलिए विचार के स्तर पर विद्रोही हिंदी में नागार्जुन और अदम गोंडवी की काव्य-संवेदना को आगे बढ़ाते हैं. उनकी परंपरा का विकास करते हैं.   

विद्रोही ने अपने कवि व्यक्तित्व को स्वयं गढ़ा है इसलिए कवि और कविता पर अभिव्यक्त हुए उनके विचार उनकी फक्कड़ छवि को कविताओं की संरचना तक खींच लाती है. जैसे अपने स्वयं के कवि के बारे में वे कहते हैं-

न तो मैं सबल हूँ
न तो मैं निर्बल हूँ
मैं कवि हूँ.
मैं ही अकबर हूँ,
मैं ही बीरबल हूँ. 

और कविता के बारे में विद्रोही अपनी एक कविता में कहते हैं-

तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते हैं ?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भाँजो !
मगर ठहरो !
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूँ.  

विद्रोही कविता को लाठी की तरह भाँजना और इसे दूसरों के हाथ में भी देना चाहते हैं. यह लाठी वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध है जिसे विद्रोही का कवि अपने हाथ में लिए खड़ा है. यह लाठी कविता है. कविता को लाठी की तरह भाँजने के लिए भाँजनाआना चाहिए. भाँजने का एक गूढ़ भाषिक अर्थ है. इसलिए विद्रोही जब अपनी कविताओं में कहीं कविता की परिभाषा देते हैं तो कविता को अपने व्यक्तित्व के और भी नज़दीक खींचने की कोशिश करते हैं. यह कोशिश भी कविता से प्रतिरोध उत्पन्न करने की कोशिश जैसी लगती है. जैसे कविता के विषय में उनका एक काव्यात्मक विचार है:

कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है,
बाप का सूद है,माँ की रोटी है. 

कविता को बाप के सूद और माँ की रोटी से जोड़ने के पीछे कवि का वर्गीय दृष्टिकोण है. कवि या कलाकार अपने साहित्य में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. विद्रोही का वर्ग निम्न मध्यवर्गीय किसान-मज़दूर वर्ग है. यह वर्ग वर्चस्व और पूँजी की सत्ताओं द्वारा शोषित है. न केवल शोषित है बल्कि उसकी आइडेंटिटी भी वैश्विक पूँजीवाद के घटाटोप में धुँधली हो गई है. विद्रोही की कविताएँ इन वर्चस्व की सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध रचती हैं.

चूँकि विद्रोही वाचक कवि हैं इसलिए उनकी कविताओं में भावावेग अधिक है. यह भावावेग उन्हें लोकानुरागी कवि बनाते हैं. भावाकुलता लोक-साहित्य की परंपरा का विशेष लक्षण है. बिना भावावेगों के साहित्य से लोक को जोड़ पाना जटिल है. इसीलिए विद्रोही की कविता में एक सरल बहाव है जो सामान्य-साधारण जन को भी अपनी ओर खींचता है. लोगों में स्वयं को घुलाकर यानी कवि द्वारा अपनी अस्मिता को अपने वर्ग की अस्मिता में मिलाकर काव्य रचना की गयी है. समूह के दु:ख और मुक्ति के नग्में कविता में आवेगों से ही स्थान बना पाते हैं. अतः विद्रोही की कविता का आवेगमय प्रवाह परिवर्तन और मुक्ति का प्रयोजन है. इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW)में अपने लेख विद्रोही: एक बाग़ी वाचकमें विद्रोही की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए धर्मराज कुमार ने लिखा है:

Those who have heard him reciting poetry know that his poetry recitation always appeared to be the true embodiment of ‘the spontaneous overflow of powerful feelings.’ Rather, it is not only ‘recollected in tranquility’, it is ‘recollected in turbulence’ as well. In the gap between every word lies love, affection and memory. His literariness is expressed through language bereft of pedantic diction. Reading his poetry is like celebrating the people’s revolt against all forms of religious bigotry, injustice and violence.
  
( Vidrohi: A rebel Reciter, Economic & Political weekly, voll- 10, March, 2017 )                        

धर्मराज कुमार के उपर्युक्त कथन का अभिप्राय यह है कि विद्रोही की कविता संवेदनात्मक आवेगों के सहज प्रवाह का मूर्तीकरण है. वर्ड्सवर्थ के प्रसिद्ध कथन की शांतचित्तताके स्थान पर उन्होंने विक्षोभरख दिया है. इस कथन का सत्व यह भी है कि विद्रोही अपने शब्द-विन्यास में जन-प्रेम के दु:ख और स्मृतियों को गूँथ कर कविता में एक उल्लास रचते हैं. प्रत्येक तरह की धर्मांधता,अन्याय और हिंसा के प्रति विद्रोह करते हैं.    

विद्रोही की कविताओं में प्रतिरोध मुखर है,संश्लिष्ट भी है. यह वर्गीय शोषकों के प्रति आक्रोश के रूप में है. धर्म,ईश्वर की सत्ता और उसकी कट्टरता,हिंसा के विरुद्ध है. स्त्री की ओर से उसके शोषकों और उन पितृसत्तात्मक सामाजिक ढर्रों के विरुद्ध है जो स्त्री-अस्मिता की चोरी करते हैं. जातीय विद्रूपताओं के बरक्स है,उन धारणाओं के विरुद्ध जो जाति आधारित शोषण की संस्कृति निर्मित करती हैं. विद्रोही का प्रतिरोध सभी तरह की शोषक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संरचनाओं के विरुद्ध है. उन्हें पूँजीवादी शोषण के समक्ष जनता की शक्ति पर यक़ीन है. और यह जन-आस्था आवेग बन कर विद्रोही की कविताओं में हिलोरें मारती है:

हम एक बित्ता कफ़न के लिए
तुम्हारे थानों के थान फूँक देंगे
और जिस दिन बाहों से बाहों को जोड़कर
हूमेगी ये जनता
तो तुम नाक से खून ढकेल दोगे मेरे दोस्त  

जनता के दु:खों का घड़ा जब भर जाएगा तब वह अपने दु:खों का हिसाब लेने के लिए खड़ी होगी ऐसा विश्वास कवि की कविताओं में अभिव्यंजित होता है. वस्तुतः सच्चा जनकवि वही है,जिसमें प्रगाढ़ जन-आस्था हो. विद्रोही जन-आस्था के कवि हैं. और यह जन-आस्था जन-प्रतिरोध बनकर उनकी कविताओं में अर्थ ग्रहण करती है:

जनता मारती जाती है और रोती जाती है
और जब मारती है तो
किसी की सुनती नहीं
क्योंकि सुनने के लिए उसके पास
अपने ही बड़े दु:ख होते हैं

जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं का बीज भाव है. उनकी तमाम कविताओं में जन अपनी वर्गीय विषमताओं के साथ खड़ा होता है. उसे साधारण से विशिष्ट बनाने के लिए कवि भी कविता में उसके साथ खड़ा होता है. कवि उसके दु:खों का ऐतिहासिक कारण उसे बताता है,और उसे सहज करने के प्रयास कविता में करता है. जनप्रतिबद्धता विद्रोही की कविताओं में एक संकल्प की भाँति है:
मेरी पब्लिक ने मुझको हुक्म है दिया
कि चाँद तारों को मैं नोंच कर फेंक दूँ
या कि जिनके घरों में अगिन ही नहीं
रोटियाँ उनकी सूरज पर मैं सेंक दूँ    

विद्रोही जनता के सत्य को सरल बनाने और उसे प्रमाणित करने के लिए वैश्विक प्रसंगों को कविता में प्रस्तुत करते हैं. विद्रोही की यह वैश्विक दृष्टि विश्व राजनीति और उसकी भौगोलिक संस्कृति से निर्मित होती है. उनकी लंबी कविताओं में अब्राहम लिंकन से लेकर चे ग्वेरा,फिदेल कास्त्रो,बिल क्लिंटन,हेमिंग्वे,स्पार्टकस तक आते हैं. सवाना के जंगलों से लेकर बंगाल के मैदानों तक की वैश्विक भौगोलिकता भी उनकी कविताओं में रचाव ग्रहण करती है. प्राचीन सभ्यताओं- सिंधु,मोहनजोदड़ो,बेबीलोनिया,मेसोपोटामियाके उल्लेख से वे अपनी कविताओं को ऐतिहासिक और भौगोलिक विस्तार देते हैं. यह सभी लक्षण विद्रोही की सजग विश्वदृष्टि का परिचय देते हैं और उनकी कविताओं की सांद्रता में वृद्धि करते हैं.

विद्रोही की काव्य-संवेदना में आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के रंग-ढंग एक साथ मिलते हैं. स्वयं पर बनी बायोग्राफिकल डाक्युमेंट्री फ़िल्म मैं तुम्हारा कवि हूँ (निर्देशक नितिन पमनानी) में वे एक स्थान पर आधुनिकता की स्वनिर्मित परिभाषा देते हुए पहले आधुनिकता पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार को उद्धृत करते हैं. वे कहते हैं कि टैगोर ने आधुनिकता की परिभाषा दी, True modernism is freedom of thought and independence of mind (सच्ची आधुनिकता विचार की स्वतन्त्रता और मस्तिष्क की स्वाधीनता है),लेकिन इसे मैं इस प्रकार कहता हूँ कि, true modernity is fearlessness of consciousness (सच्ची आधुनिकता चेतना की भयमुक्तता है).भारतीय समाज की वर्गीय और जातीय विषमता इस प्रकार की है कि उसके सत्य को कविताओं से प्रकट करने के लिए विद्रोही कहीं आधुनिक हैं और कहीं उत्तर आधुनिक हैं. अपनी एक कविता में वे स्वयं कह रहे हैं कि वे उत्तर आधुनिक हैं:

मैं फैंटास्टिक होने लगता हूँ
और सारा भूगोल
उस भूगोल का ग्लोब
मेरी हथेलियों पर नाचने लगता है.
और मैं महसूसने लगता हूँ
कि मैं खुद में एक प्रोफाउंड
उत्तर आधुनिक पुरुष पुरातन हूँ.
मैं कृष्ण भगवान हूँ
अंतर सिर्फ यह है कि
मेरे हाथों में चक्र की जगह
भूगोल है,उसका ग्लोब है.
मेरे विचार सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं.
मैं सोचता हूँ कि इतिहास को
भूगोल के माध्यम से,एक कदम आगे ले जाऊँ
कि भूगोल की जगह
खगोल लिख दूँ.

आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के ये भिन्न रंग विद्रोही की कविताओं में परिलक्षित होते हैं. हाशिए की अस्मिताओं की ओर से विद्रोही की कविताओं में जो प्रतिरोध है,निश्चय ही वह उत्तर-आधुनिक प्रभाव हैं. विद्रोही अपनी कविताओं में पुरुष नारीवादी हैं. इस नारीवाद को शार्प करने के लिए उन्होंने जो भाषा-शैली अपनाई है वह उनके समकाल के कवियों से भिन्न और उत्तर-आधुनिक प्रभावों वाली है. स्त्री को लेकर विद्रोही ने सुंदर कवितायें रची हैं,जो रचनात्मक,कलात्मक स्त्रीवाद का एक रूप हैं. वे स्त्री अस्मिता की तलाश में मोहनजोदड़ो के तालाब की अंतिम सीढ़ी तक जाते हैं,जहाँ एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है:
मैं वहाँ से बोल रहा हूँ
जहाँ मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं
इसी तरह एक औरत की जली हुई लाश
आपको बेबीलोनिया में भी मिल जाएगी  

विद्रोही के स्त्रीवाद में भावुक सरलता है. उसमें उलझाव और जटिलता नहीं है. विद्रोही के सत्य को सरलीकृत करने के मासूम प्रयास उनकी स्त्रीवादी कविताओं में और भी स्पष्ट दिखाई देते हैं: 

एक औरत जो माँ हो सकती है
बहिन हो सकती है
बेटी हो सकती है
मैं कहता हूँ
हट जाओ मेरे सामने से
मेरा ख़ून कलकला रहा है
मेरा कलेजा सुलग रहा है
मेरी देह जल रही है
मेरी माँ को,मेरी बहिन को,मेरी बीवी को
मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिनें आसमान में आर्तनाद कर रही हैं.
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर
सिर पटक कर जान दे देता
अगर मेरी एक बेटी न होती तो...
और बेटी है कि कहती है
कि पापा तुम बेवजह ही
हम लड़कियों के बारे में इतने भावुक होते हो !
हम लड़कियाँ तो लकड़ियाँ होती हैं
जो बड़ी होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं

भारतीय समाज में पितृसत्ता की खोज के लिए विद्रोही प्रचलित दंतकथाओं और मिथकों में भी सेंध लगाते हैं. उनमें पितृसत्ता के प्रारम्भ और उसकी स्थापना को ढूँढने की जो बेचैनी है,वह स्त्रीवाद की ओर से,या स्त्री-अस्मिता के साथ निष्ठा से खड़े होने के उद्देश्य के लिए है. वे पितृसत्ता की स्थापना को ढूँढ भी लेते हैं:

इतिहास में पहली स्त्री की हत्या
उसके बेटे ने उसके बाप के कहने पर की
जमदग्नि ने कहा कि ओ परशुराम
मैं तुमसे कहता हूँ कि अपनी माँ का वध कर दो
और परशुराम ने कर दिया.
इस तरह से पुत्र पिता का हुआ
और पितृसत्ता आई  

विद्रोही का स्त्रीवाद भारतीय समाज की अंतिम स्त्री तक पहुँचता है. वह केवल उस स्त्री तक सीमित नहीं है,जिसके समक्ष केवल देह और आर्थिक असमानता के प्रश्न हैं. विद्रोही का स्त्रीवाद गाँव-कस्बों की औरतों तक पहुँचता है. अपने समाज में स्त्रियों की स्थिति पर वे सिर्फ़ कारुणिक सहानुभूति प्रकट नहीं करते,बल्कि उसके साथ खड़े हो कर,उसके लिए संघर्ष करने के लिए तैयार हैं. इस संदर्भ में विद्रोही की औरतेंनाम की लंबी कविता समकालीन हिंदी कविता में विशेष आलोच्य है:

कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएँ में कूद कर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज़ है.
और कुछ औरतें
चिता में जल कर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है
....मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित
दोनों को एक ही साथ
औरतों की अदालत में तलब कर दूँगा
और बीच की सारी अदालतों को
मंसूख कर दूँगा.   

विद्रोही की औरतेंकविता में स्त्री की वर्गीय स्थिति पर भी ज़ोर है. जैसे कि विद्रोही जानते हैं कि स्त्री की वर्गीय स्थितियाँ भिन्न होती हैं. वर्गीय स्थितियों के अनुसार स्त्री के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार भी भिन्न होते हैं. भारत जैसे समाज में जहाँ केवल लैंगिक असमानता ही नहीं है,वर्गीय और जातीय असमानताएँ भी हैं,वहाँ विद्रोही उस स्त्री के साथ अपनी कविता में पूरे विवेक साथ खड़े हैं,जो सबसे कमज़ोर स्थिति में,सबसे उपेक्षित स्थान पर खड़ी है:

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता
नौकरानियों की होती है
जिनके पति जिंदा हैं
और बेचारे रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई औरतों को मारना भी
ख़राब नहीं लगता.
औरतें रोती जाती हैं
मरद मारते जाते हैं
औरतें और ज़ोर से रोती हैं
मरद और ज़ोर से मारते हैं.
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतने ज़ोर से मारते हैं कि
वे मर जाती हैं.

औरतेंकविता पुरुष कवि की मुखर और ठोस स्त्री-प्रतिरोध की रचना है. इसमें भारतीय पितृसत्ता के ऐतिहासिक स्वरूप की परतें खोली गईं हैं. पितृसत्ता को धर्म और ईश्वर के साथ-साथ राजनीतिक सत्ताओं का भी प्रश्रय मिलता रहा है. तभी पितृसत्ता ऐतिहासिक रूप से शक्तिशाली रही है और जिससे स्वतंत्र होने के लिए स्त्री अभी तक संघर्ष कर रही है. विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के इसी ऐतिहासिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए उसकी ओर से प्रतिरोध रचते हैं:

एक औरत की लाश
धरती माता की तरह होती है दोस्तों
जो खुले में फैल जाती है
थानों से अदालतों तक.
मैं देख रहा हूँ कि
ज़ुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है.
चन्दन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित
और तमगों से लैस सीनों को फुलाए हुए सैनिक
महाराज की जय बोल रहे हैं
वे महाराज जो मर चुके हैं
और महारानियाँ सती होने की तैयारियाँ कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी
तो नौकरानियाँ क्या करेंगी ?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के वक़ील बन जाते हैं और पीड़ित स्त्रियों की वकालत करते हैं. इस एडवोकेसी में उनके पास सही दलीलें और मजबूत साक्ष्य हैं,तर्क हैं. उनके पास स्त्री पर हुए ऐतिहासिक अत्याचारों के पुलिंदे हैं. वे दस्तावेज़ हैं जो पितृसत्ता को स्त्रियों के लिए बर्बर और अमानवीय सिद्ध करते हैं. विद्रोही ने स्त्री की वर्गीय स्थितियों को बड़े धैर्य से निहारा है. इस निहारने में स्नेह और करुणा की बीनाई इस्तेमाल होती है जो कविता की आँख में प्रस्फुटित होती है. इस निगाह से कवि स्त्री को सही तरह से जानने का दावा करता है:
मैं उन औरतों को
जो कुएँ में कूदकर या चिता में जल कर मरी हैं
फिर से जिंदा करूँगा
और उनके बयानात को
दुबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कि कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपनी सात बित्ते की देह को ता-ज़िंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं. 


विद्रोही की कविताओं की स्त्री संवेदना न केवल पितृसत्ता और स्त्री को उत्पीड़ित करने वाली सत्ताओं के विरुद्ध एक प्रतिरोध रचती है,वरन हमें मर्माहत करके भीतर तक झकझोर देती है. इन कविताओं में स्त्री का सामाजिक रूप चित्रित हुआ है. वह कहीं भी सौंदर्य के मांसल रूप में नहीं है,वह बहन,बेटी और दादी-नानी के रूप में है. मेहनतकश के रूप में है, वह वर्गीय स्थितियों के साथ है और विद्रोही का पुरुष उसके साथ है.

विद्रोही की कविताओं में धर्म और ईश्वर के प्रति भी एक प्रतिरोध है. यह प्रतिरोध धर्म और ईश्वर के बल पर होने वाले शोषण के बरक्स रचा गया है. विद्रोही वैज्ञानिक वैचारिकी के कवि हैं. वे ऐतिहासिक भौतिकवाद से प्राप्त सत्य को सरलीकृत करने का प्रयास अपनी कविताओं में करते हैं. इस सत्य में, मनुष्य-मनुष्य समान है,स्त्री-पुरुष समान हैं. उनमें भेद पैदा करने वाली शक्तियों के सामने ही उनकी कविता प्रतिरोध रचती है. मनुष्य का शोषण करने वाली किसी भी तरह की सत्ता उन्हें स्वीकार्य नहीं है. धर्म और ईश्वर की सत्ता वर्चस्ववादी है क्योंकि उससे जुड़ा हुआ आनुषंगिक दर्शन शोषण को सही ठहरा देता है. वे धर्म के राजनीतिक रूप को पहचानते हैं. धर्म का राजनीतिक रूप पूँजीवादी शोषण की राह आसान कर देता है. इसलिए विद्रोही अपनी धरमशीर्षक कविता में लिखते हैं:

धर्म आख़िर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी गमकता है
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाज़ा

भारत में जाति आधारित शोषण धर्म के आनुषंगिक रूपों से जुड़ा रहा है. वर्ण-व्यवस्था जातीय आधार पर होने वाले भेद-भाव को भी धर्म से जोड़ देती थी और उसे न्यायसंगत ठहरा देती थी. जाति-भेद को एक धार्मिक अनुमति प्रदान रही है. धर्म के सहारे इसे स्वीकार्यता मिलती थी. विद्रोही अपनी कविता में इसे सोदाहरण प्रस्तुत करते हैं:

मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक़
काट लेते हैं एकलव्यों का अँगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ़
तमाम झूठी दस्तख़तें. 

धर्माधारित जातीय श्रेष्ठता की भावना जातिभेद को जन्म देती है. जातीय श्रेष्ठता की भावना को स्थापित करने में शास्त्रों और धर्मग्रंथों का विशेष प्रयोग किया गया है. तमाम धर्मग्रंथों में वर्ण और जाति के आधार पर भारतीय समाज के लोगों को उच्च-हीन,हेय-श्रेष्ठ बताया गया है. जाति-भेद पूँजीवादी शोषण का मार्ग और भी समतल कर देता है. इस प्रकार समाज के कमज़ोर वर्गों के दोहरे शोषण की प्रक्रिया जन्म लेती है:

धरम देश से बड़ा है
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमज़ोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाहें
क्योंकि बाह्मन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है.

धर्म से ही ईश्वर का जन्म होता है. धर्म ईश्वर को मनचाहा रूप दे देता है. विद्रोही ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार जड़-जगत को ही सत्य मानते हैं और जन के सिवाय किसी अन्य पारलौकिक सत्ता पर संदेह जताते हैं,उसे अस्वीकार करते हैं. इस एथिस्टिकल या अनीश्वरवादी एप्रोच से वर्चस्व की शोषणकारी सत्ताओं का प्रतिरोध करते हैं. वे ईश्वर को राजा यानी वर्चस्व या पूँजी की सत्ता का सहयोगी मानते हैं:

और ईश्वर तो ख़ैर राजा के घोड़ों की
घास ही छीलता रहा
बड़ा नेक था बेचारा ईश्वर
राजा का स्वामिभक्त
पर अफ़सोस है कि अब नहीं रहा
बहुत दिन हुए मर गया
और जब मरा तो राजा ने उसे क़फ़न भी नहीं दिया
दफ़न के लिए दो गज़ ज़मीन भी नहीं दी.
किसी को नहीं पता है कि ईश्वर को कहाँ दफ़नाया गया.
ख़ैर ईश्वर मरा अंततोगत्वा
और उसका मरना ऐतिहासिक सिद्ध हुआ
ऐसा इतिहासकारों का मत है
इतिहासकारों का मत ये भी है
कि राजा भी मरा
उसकी रानी भी मरी
और उसका बेटा भी मर गया
राजा लड़ाई में मर गया
रानी कढ़ाई में मर गयी
और बेटा,कहते हैं कि पढ़ाई में मर गया. 

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जर्मन दार्शनिक फ़्रेडरिक नीत्शे ने ईश्वर की मृत्यु की घोषणा कर दी थी. दुनिया के बड़े हिस्से में धर्म और ईश्वर पर आधारित अंधविश्वास व पाखण्ड भौतिकवादी जीवन के समक्ष अशक्त हो गया. विज्ञान के आविष्कारों और नवीन ज्ञान की प्रशाखाओं ने मनुष्य का जीवन पहले से अधिक सुलभ और सरल कर दिया. किन्तु भारत में धर्म और ईश्वर आधारित पाखण्ड,अंधविश्वास और शोषण बरकरार रहा. विशेष कर विद्रोही के वर्ग के समाज में,जहाँ ज्ञानोदय की किरणें अब तक अपने वास्तविक रूप में नहीं पहुँच सकीं. विद्रोही ईश्वर की झूठी घोषणाओं के प्रतिपक्ष में अपनी बात रखते हैं:        

ये ख़ुदा का हल्ला झूठा है
ये मेरा हाजी कहता है
लुकमे के लिए लुक़मान अली
अल्ला-अल्ला चिल्लाता है 

नयी खेतीशीर्षक कविता जिसके नाम पर उनके संग्रह का भी नाम है. ईश्वर के विरुद्ध एक घोषणा है. जनकवियों ने ईश्वर के विरुद्ध हमेशा एक प्रतिरोध रचा है क्योंकि वे ईश्वर के नाम पर होने वाले शोषण को वर्गीय दृष्टिकोण से देखते रहते थे. नागार्जुन ने कभीकल्पना के पुत्र हे भगवानजैसी कविता लिखी थी. विद्रोही की नई खेती कविता का किसान कहता है कि ईश्वर है नहीं,उसे उगाया गया है:

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले घोघले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है.

धर्म,क्षेत्र और जाति के अलगाव पर होने वाले सांप्रदायिक क्षेत्रीय दंगों की पड़ताल भी विद्रोही करते चलते हैं. उनकी कविताओं में मज़हबी दंगों के साथ-साथ अन्य तरह के सामाजिक विभेदों पर होने वाले रक्तपात और खूँरेज़ी पर गहरी चोट है. वे समझाते चलते हैं कि ये विभेद अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने के लिए हैं. और इन विभेदों का सहयोगी नव-साम्राज्यवाद है:

यह हादसा है
यहाँ से वहाँ तक दंगे
जातीय दंगे
सांप्रदायिक दंगे
क्षेत्रीय दंगे भाषाई दंगे
यहाँ तक कि क़बीलाई दंगे
आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे
यहाँ राजधानी दिल्ली तक होते हैं
और जो दंगों के व्यापारी हैं
वे यह भी नहीं सोचते कि इस तरह तो
यह जो जम्बूद्वीप है
शाल्मल द्वीप में बदल जाएगा
और यह जो भारत खंड है,अखंड नहीं रहेगा
खंड-खंड हो जाएगा

पूँजीवाद के उत्तर आधुनिक रूप ने अस्मिताओं की टकराहट बढ़ा दी है. उसने राजनीति को समाज-केंद्रितता से हटा कर व्यक्ति केन्द्रित किया है. सांस्कृतिक अतीतमोह और जातीय श्रेष्ठता की मिथ्या भावना का नव-संचार हमारे समय की राजनीति ने किया है. इसलिए अस्मिताओं का द्वंद्व बढ़ता जा रहा है. यह नव-साम्राज्यवाद का सहयोगी पक्ष है. जितना अधिक सामाजिक विभेद होगा,राजनीति और सत्ताएँ उतनी निरंकुश होती जाएंगी तथा शोषण की प्रक्रिया उतनी ही आसान होती जाएगी. अमरीकी संस्कृति के उपभोग ने भारत के सभी वर्गों में अस्मिता का संकट बढ़ाया है. यह खाते-पीते,क्रयक्षमतायुक्त मध्यवर्ग में अधिक है. राजनीति का रुख़ भी दिन प्रतिदिन ऐसा ही होता जा रहा है:

ये बदमाश लोग कुछ मान नहीं रहे हैं
न सामाजिक न्याय मान रहे हैं
न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं
एक मध्ययुगीन सांस्कृतिक तनाव के चलते
तनाव पैदा कर रहे हैं
टेंशन पैदा कर रहे हैं/
जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है.
ऐसा हमने पढ़ा है
यह सब बातें मैंने मनगढ़ंत नहीं गढ़ी हैं
पढ़ा है और अब लिख रहा हूँ
कि दंगों का व्यापारी
मुल्ला के अधिकार की बात उठा रहे हैं
साहूकारों,सेठो,रजवाड़ों के अधिकार की बात उठा रहे हैं.

सांप्रदायिक राजनीति में पूँजीवाद के हित निहित होते हैं. सांप्रदायिकता को हवा देकर पूँजी अपने साम्राज्य का विस्तार करती है. फ़ासीवाद हमेशा पूँजी के रथ पर सवार हो कर आता है. विद्रोही की कवितायें इस उत्तर आधुनिक नव-साम्राज्यवाद को चिह्नित करती हैं. वे अत्याधुनिक साम्राज्यवाद की पहचान करने की दृष्टि देती हैं. विद्रोही साम्राज्यवाद के ऐतिहासिक लक्षणों को अपनी कविता में उद्धृत करते हैं और उसे अपने समय के साम्राज्यवाद से जोड़ते हैं. विद्रोही का यह इतिहासबोध उनके पाठक को उसके समय को जानने का अवकाश देता है. यह अवकाश प्रतिरोध की संवेदना को मुखर करता है:

साम्राज्य आख़िर साम्राज्य ही होता है
चाहे वो रोमन साम्राज्य हो
चाहे वो ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अतिआधुनिक अमरीकी साम्राज्य.
जिसका एक ही काम है कि
पहाड़ों पर
पठारों पर
नदी किनारे
सागर तीरे
मैदानों में इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर देना.
जो इतिहास को तीन वाक्यों में
पूरा करने का दावा पेश करता है
कि हमने धरती पर शोले भड़का दिए
कि हमने धरती में शरारे भर दिए
कि हमने धरती पर इन्सानों की हड्डियाँ बिखेर दीं.

विद्रोही की कवितायें ऐतिहासिक और कालिक साम्राज्यों के विरोध में हैं. ये साम्राज्यवादी नीतियों के सामने एक एक्टिविस्ट की भाँति खड़ी होने की व्यंजना से भरी हुई हैं. विद्रोही की काव्य-संवेदना भाषिक और ध्वन्यात्मक विन्यास से प्रतिरोध रचती है. नयी खेतीसंग्रह की लंबी कवितायें इस प्रतिरोधात्मक सम्प्रेषण को धारण किए हुए हैं. लंबी कविता के रचाव में जो तनाव होता है,वह विद्रोही की लंबी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है. यह तनाव प्रतिरोध का तनाव है. वाचक कवि जन-संवाद करने के लिए जिस जनभाषा का प्रयोग करते हैं विद्रोही की कवितायें उसी जन-भाषा से रची गयी हैं. विद्रोही इक्कीसवीं सदी की विसंगतियों के प्रतिरोधी कवि हैं. विद्रोही की कविताएँ सांस्कृतिक अवबोध की प्रतिरोधी कविताएँ हैं.

विद्रोही की कविताओं का शिल्प क़ाबिले-गौर है. इसमें कुछ बातें हिंदी की समकालिक कविता से बेहद ज़ुदा हैं. कुछ लंबी कविताएँ हैं जिनमें पंक्तियों का दोहराव है और जिन्हें विद्रोही साँसों के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ते थे. जिन्हें ये कविताएँ उनकी आवाज़ में सुनने को मिली हैं वे इस दोहराव का मूल्य समझ सकते हैं. यह लोक परंपरा का दोहराव है. इसमें अंत्यानुप्रासिक शब्द प्रयोग के साथ वाक्य का दोहराव भी है. जैसे कि एक कविता में-

राजा लड़ाई में मर गया
रानी कढ़ाई में मर गयी
और बेटा,कहते हैं कि
पढ़ाई में मर गया.

लड़ाई,कढ़ाई और पढ़ाई के काफ़िए से कविता में नाटकीयता पैदा होती है और वाचक के श्रोता को बाँधती है. इसी प्रकार यह प्रयोग हम औरतेंकविता में भी देखते हैं. यह नाटकीयता पैदा करने में सफल प्रयोग है: 
औरतें रोती जाती हैं
मरद मारते जाते हैं 
औरतें और ज़ोर से रोती हैं
मरद और ज़ोर से मारते हैं

व्यंग्य पैदा करने में ऐसे प्रयोग ख़ूब सफल हुए हैं. डार्विन सूत्रकविता एक ऐसी कविता है जिसमेंमनुष्य मनुष्य की समानता को बताने के लिए ऐसा ही प्रयोग किया गया है:

लेकिन मैं कहता हूँ कि
यही मज़ाक किसी दिन सुज़ाक हो जाएगा
क्योंकि जनता बहुत कज़्ज़ाक है.         

शिल्प में स्मृति और भौगोलिकता का प्रयोग भी अत्यंत बहाव के साथ लंबी कविताओं में देखा जा सकता है. स्मृति में दादी-नानी हैं. नानीकविता इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है. नानी की स्मृति को भौगोलिकता और ऐतिहासिक आर्किटेक्चर से उपमा देकर उदात्त बनाने के प्रयास इस कविता में दीखते हैं. यह स्मृति को भौगोलिकता के विस्तार और वास्तु के अनूठेपन से प्रगाढ़ कर देती है.

और मेरी नानी की नाक,नाक नहीं पीसा की मीनार थी
और मेरी नानी की देह,देह नहीं आर्मीनिया की गाँठ थी
पमीर के पठार की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी
जब कोई चीज़ उठाने के लिए ज़मीन पर झुकती थी
तो लगता था
जैसे बाल्कन झील में काकेसस की पहाड़ी झुक गयी हो
बिलकुल एस्किमो बालक की तरह लगती थी मेरी नानी
और जब घर से निकलती थीं
तो लगता था जैसे,हिमालय से गंगा निकल रही हो... 

कहीं-कहीं उपमाएँ देने के इस प्रयोग में उत्प्रेक्षा का फलन है. और इन उपमाओं में त्वरा के साथ नयापन भी है. ऐसे बहुत प्रयोग हैं,जिनमें से कुछ देखने चाहिए-
और जब चीख कर डाँटती थी
तो ज़मीन इंजन की तरह हाँफने लगती थी....
और गला,द्वितीया के चंद्रमा की तरह
मेरी नानी का गला पता ही नहीं चलता था
कि हँसुली गले में फँसी है या गला हँसुली में फँसा है... 

ये उपमाएँ लोकजीवन के अनुपम सौंदर्य को धारण किए हुए हैं जो कवि के लोकजीवी मन की रसना उसकी कविताओं में घोल देता है. हँसुलीएक आभूषण है जो चंद्रमा की भाँति दिखता था और चाँदी का ही बनता था. लेकिन विद्रोही की नानी का गला ही द्वितीया के चंद्रमा जैसा है. अर्थालंकारों का अतिक्रमण करने के लिए विद्रोही ने एक सचमुच के अलंकार का प्रयोग किया है इस कविता में. लोकजीवन का प्रमुख भाग उसमें प्रचलित मुहावरे और वे दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ भी हैं जिनमें लोक उलझता सुलझता रहता है. विद्रोही ने अपनी कविताओं में इन दंतकथाओं के पात्रों और घटनाक्रमों का काव्यात्मक प्रयोग किया है. इनसे जो व्यंग्य ध्वनित हुआ है उससे कविताओं को अर्थविस्तार की प्राप्ति हुई है. दंतकथाओं के पात्रों के नाम और उनके उद्धरण से कवि अपनी बात कहता है क्योंकि वह लोक की रुचियों से परिचित है. मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज,उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव’, ‘तू तो है सुकन्या,और तेरा नूर मियाँ है च्यवन ऋषि’, ‘हे राजा दक्ष की प्रजाओं ! अब तुम मुझ व्यास से सुनो वह कथा’, ‘और इधर साधू बनिया का जहाज,लतापत्र हो चुका है,कन्या कलावती हठधर्मिता कर रही हैजैसे लोकजीवन की कथाओं के उद्धरण और पात्रों के नामों को काव्यपंक्तियों में प्रयोग कर विद्रोही उन्हें डिकोड करते हैं. यह उनकी कविताओं के शिल्प का ही एक भाग है.

विद्रोही की भाषा पूर्वी अवधी की मिठास है जिस पर भोजपुरी का पतला वरक़ सा चमकता है. ग़ज़ल और शेर कहने के मश्क में उर्दू-अरबी की इज़ाफ़त भी उनकी भाषा तक पहुँची है. ग़ज़लों और नज़्मों में शहरे-मदीना,नूरे-ख़ुदा,सज़्दा-ए-नमाज़ी,दीदे-ग़म जैसी सामान्य इज़ाफ़त और नस्ल,वस्ल,महज़बीं,शमशीर जैसे शब्द हैं. अवधी गीतों में अवधी का निखरा हुआ रंग है तो खड़ी बोली की कविताओं में भी अवधी के आंजनजैसे बेहद पुराने शब्द मिलते हैं. अवधी के गीत अवध के किसान जीवन की श्रमसिक्त भाषा की मिट्टी से रचे गए हैं-

अमवा इमिलिया महुअवा की छइयाँ
जेठ बइसखवा बिरमइ दुपहरिया
धान कइ कटोरा मोरि अवध कइ जमिनिया
धरती अगोरइ मोरि बरख बदरिया   

शेर कहने की कोशिश विद्रोही की बड़ी मासूम है. इस नाकामी में वज़ह उनका रेटोरिक ही है. फिर भी उनके शेरी मिज़ाज की टोह लेने के लिए दो शेर देखे जा सकते हैं-

ना तो मैं रंगीन हूँ ना तो मैं ग़मगीन हूँ. 
दोस्तों मैं आपकी बंदूक की संगीन हूँ.. 
आग भड़काने के पीछे अपना ही घर फूँक डालें. 
सोचिएगा मत के ख़ाली शायरी करते हैं हम..  

विद्रोही की लंबी कविताएँ उनकी रचनात्मक क्षमता का पता देती हैं. इतनी लंबी कविताएँ ज़बानी याद रखना ही गैरमामूली रचनाशीलता है. विद्रोही की कविताओं में एक ख़ास तरह की बुज़ुर्गी के साथ जो नौजवानी है वह भारतीय ग्रामीण जीवन की शुद्धतम संवेदना से संपृक्त है. इसमें व्यंग्य मिश्रित ठिठोली भी है और द्रवीभूत कर देने वाली गहरी संवेदना भी. जो श्रोता और पाठक के अंतस्थ को भेद देती है. व्यंग्य मुँह बिराने जैसा नहीं है,बल्कि वेदना से परिहास कर उसे घनीभूत करने के लिए है. विद्रोही अपनी सामने वाली जेब में एक बाघ को सुलाने वाले कवि हैं. जब उनके सामने वाली जेब में एकाध बाघ पड़े हों,तो उन्हें कविता सुनाने में सुभीता रहता है. विद्रोही को अपनी कविता से,अपने बोहेमियन जीवन से प्रेम है. उनका यह प्रेम उनकी कविताओं में छलकता और बहता है.

विद्रोही की आंदोलनकारी छवि उनके शब्दों और काव्य-पंक्तियों में रह-रह कर उभरती है,जो यह बताती है कि एक्टिविस्ट कवि एक बड़ा कवि होता है और आठ-दस अच्छी कविताएँ लिख कर भी वह काव्य में आठ-दस संग्रहों जितना अवदान दे सकता है. विद्रोही को अपने कवि में कोई ओछापन नहीं दिखता यह जानते हुए भी कि वह हिंदी कविता की मुख्यधारा से बहिष्कृत हैं. जब भी उन्हें यह लगा उन्होंने एक अच्छी कविता लिख कर हिंदी कविता की दुनिया को चुनौती दी कि देखो तुम्हारे कवियों से कम अच्छी कविता मैं नहीं लिखता.

हिंदी के बड़े और अलग स्वाद के कवि केदारनाथ सिंह ने सन् 47 को याद करते हुएशीर्षक से विभाजन पर एक कविता लिखी है. जिसकी प्रतिस्पर्धा में विद्रोही ने हिंदी को एक अनमोल कविता नूर मियाँदी है. केदारनाथ सिंह की कविता के नूर मियाँ भी सुरमा बेचते थे और विद्रोही के नूर मियाँ भी. लेकिन विद्रोही के नूर मियाँ के सामने केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ कहीं नहीं ठहरते. विद्रोही की इस कविता में एक कथानक है,जिसमें कवि की दादी को नूर मियाँ का सुरमा बेहद पसंद है. कवि की दादी नूर मियाँ का एक सींक सुरमा डालती है तो आँखें गंगा-जमुना की तरह भर्रा जाती हैं. भारत के बँटवारे में नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए और कवि की दादी का देहांत हो गया. लेकिन इस कविता में उदात्त गंगा-जमुनी तहज़ीब का जो चित्र उभरा है,ऐसा हिंदी कविता की दुनिया में दुर्लभ है. बिना किसी अतिशयोक्ति और संदेह के विद्रोही की नूर मियाँहिंदी में विभाजन पर रची गई सर्वश्रेष्ठ रचना है. वे लोग अत्यंत भाग्यशाली होंगे जिन्होंने विद्रोही की खनकदार आवाज़ में ये कविता सुनी होगी. इस कविता का अंतिम पैरा बड़ा मार्मिक है. इतना कि पाठक-श्रोता को भिगो जाए. जिस नूर मियाँ का सुरमा आँखों में डाल कर कवि की दादी बिटौनी बनी फिरतीथीं और बुढ़ापे में भी सुई में डोरा डाल लेती थीं,वे नूर मियाँ विभाजन में पाकिस्तान चले गए. कवि कहता है:

और मेरा जी करे कहूँ
कि ओ रे बुढ़िया
तू तो है सुकन्या
और नूर मियाँ है तेरा च्यवन ऋषि
नूर मियाँ का सुरमा तेरी आँखों का च्यवनप्राश है

केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ बस्ती छोड़ कर जाने कहाँ चले गए. पाकिस्तान ही गए होंगे. लेकिन केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ का जाना उद्वेलित नहीं करता. सामान्य सी बात लगता है:

कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़ कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका या मुल्तान में
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में        
(सन् 47 को याद करते हुए,  केदारनाथ सिंह)
इस जाने में एक बेगानापन है. केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ केवल केदारनाथ सिंह के हैं. स्लेट पर जोड़-घटाव करके वे नूर मियाँ का मुद्दा उलझा रहे हैं,नूर मियाँ के ग़म से बेगाना कर रहे हैं. विद्रोही के नूर मियाँ का जाना हृदय में टीस पैदा करता है. वे केवल उनके ही नूर मियाँ नहीं थे बल्कि उनकी सुकन्या दादी के च्यवन ऋषि भी थे. उनका जाना भारतीय लोकजीवन की तहज़ीबी रवायतों का मर जाना है:

और वही नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए
क्यों चले गए पाकिस्तान नूर मियाँ ?
कहते हैं कि नूर मियाँ के कोई था नहीं
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के ?
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान ?
बिना हमको बताए?
बिना हमारी दादी को बताए हुए
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान ? 

तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के ?यह प्रश्न जिस अदालत में खड़ा किया गया है उसमें विभाजन की त्रासदी का सन्नाटा पसरा हुआ है. नूर मियाँ का सुरमा च्यवनप्राश ही नहीं सिन्नी और मलीदा भी था. च्यवनप्राश के संग सिन्नी-मलीदा भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के इतने बड़े प्रतीक हैं कि विद्रोही की यह कविता विभाजन पर हिंदी पट्टी की चुप्पी की भरपाई अकेले कर देती है. विभाजन पर जो भी साहित्य लिखा गया,हिंदी पट्टी के बाहर के लेखकों द्वारा लिखा गया. इस पर हिंदी पट्टी बहुत बुरी तरह से चुप रही थी. विद्रोही की इस कविता का अंत किसी महाआख्यान के अंत जैसा है. नूर मियाँ का बनाया हुआ,गाय के असली घी का सुरमा लगाने वाली दादी के अंतिम संस्कार के समय कवि नूर मियाँ को याद करता है,वे नूर मियाँ जो पाकिस्तान चले गए:

और अब न वे सुरमे रहे और न वो आँखें
मेरी दादी जिस घाट से आई थीं
उसी घाट गईं.
नदी पार से ब्याह कर आई थीं मेरी दादी
और नदी पार ही जाकर जलीं.
और जब मैं उनकी राख को
नदी में फेंक रहा था तो
मुझे लगा ये नदी,नदी नहीं
मेरी दादी की आँखें हैं
और ये राख,राख नहीं
नूर मियाँ का सुरमा है
जो मेरी दादी की आँखों में पड़ रहा है.
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आँखों में
नूर मियाँ का सुरमा लगाया.    

दादी और नूर मियाँ की पात्रता में विभाजन का जो आख्यान विद्रोही ने इस कविता में रचा है वह शब्दों की सृजनात्मक संभावनाओं को निचोड़ लेने की कविता की प्रवृत्ति से अवगत करा देता है. विद्रोही की काव्य प्रवृत्तियाँ कविता में सामान्य जन को रिझा लेने के रस से डब-डब भरी हुई हैं. विद्रोही कहीं ऐसे किसान हैं जो ईश्वर को धरती से उखाड़ने के लिए आसमान में धान बो रहे हैं और कहीं ऐसे अहीरहैं जो इस दुनिया को अपनी भैंस समझ कर दुहना चाहता है. यह किसान और पशुपालक अपनी कविता में ज़माने से ऊँची आवाज़ में पूछ लेता है कि चरवाहों और घसियारिनों के ख़ून में कितना ख़ून होता है और कितना पानी. विद्रोही की कविता में श्रमशील जनता की मुक्ति की जो आस है,वह अपनी भी मुक्ति के साथ है. मुक्तिबोध कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले नहीं मिलती’,विद्रोही अकेले मुक्ति के चक्कर में नहीं थे. परिवर्तन की चाह ने उन्हें एक्टिविस्ट कवि बनाया. ऐसा कवि जिसे किसी तरह की उम्मीद नहीं थी. जो कहता था कि इंडियन सोसाइटी एक बास्टर्ड सोसाइटी है. जो न तो कवि को ईनाम देती है न उसे दंड देती है.कवि जो छात्र आंदोलनों में सत्ता की बैरिकेडिंग से अपना शोषित देह का सीना भिड़ा कर कविताएँ पढ़ता था. छात्र उनकी कविताओं पर हँसते-रोते-गाते थे. लड़ने की ऊर्जा पाते थे. विद्रोही बड़े-बड़े लोगों को मार कर मारना चाहते थे. लेकिन उनकी मृत्यु एक छात्र आंदोलन के दौरान ही हुई. पता नहीं उस समय दानों में दूधऔर आम में बौरआया था कि नहीं. क्योंकि इस विद्रोही कवि ने अपनी मृत्यु की योजना एक कविता में कुछ ऐसी बनाई थी-
फिर मैं मरूँ- आराम से
उधर चल कर बसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आम में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुआ चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मार कर तब मरा.

सचमुच विद्रोही बहुत तगड़ा कवि है. और तगड़े कवि कभी मरते नहीं हैं,उनके शब्द वनबेला की तरह फूलते और महुए की भाँति चूते रहते हैं. 

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कथा- गाथा : क से ‘कहानी’ ज से ‘जंगल’ घ से ‘घर’ : कविता





by Cristina Arrivillaga

कविता का नाम हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है. उनके पांच कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं.  उनकी इस नई कहानी में व्यर्थताबोध और सृजनात्मकता के संकट से जूझते लेखक को केंद्र में रखा गया है.



  

कहानी
 से कहानी से जंगल  से घर
कविता




र एक मकान के किस्मत में घर होना नहीं बदा होता, पर हर मकान घर होने का सपना अपने भीतर लेकर पैदा होता है. मेरे भीतर भी यह सपना मेरे जन्म के साथ-साथ ही पैदा हुआ होगा, सहोदरों से ज्यादा मेरे किसी जुड़वा की नाईं. सपनों की उम्र हमारे जितनी भले हो सकती है, आँखें चाहे जितनी भी चमकीली हो उनकी, पर जीना उन्हें किसी गरीब और सतमासे बच्चे की तरह ही होता है. हर सांस पर जिसका दम फूले, जिसे जिन्दगी की दुश्वारियां सीधा डग तक भी भरने की इजाजत न दें. मैं समझाता रहा था ताउम्र खुद को, मैं तो एक अतिथिगृह हूँ.

अतिथिगृह रैनबसेरों की नाई होते हैं. तिस पर भी मैं सुंदरवन के घनघोर जंगल में बना हुआ एक अतिथिगृह. छः महीने से भी अधिक चक्रवातों से घिरा रहनेवाला. जहाँ कुछ ख़ास महीनों में पर्यटकों को भी आने की मनाही है.

कुलांचे मारते हिरन, रंग बिरंगे पंछियों से भरा आकाश, लाल केकड़े, कछुए, तितलियाँमुझको बाँधतेतो हैं लेकिन बस पल छिन को. सैलानियों के लिएयह जंगल कुदरत का एक करिश्मा ठहरा, जादू जैसा खूबसूरत और पल-पल नवीन होनेवाला, पर मेरे लिए ये सारे रंग देखे-भाले और पुराने हैं.

मैन्ग्रोव की पत्तियों का रंग पीले-हरे रंग की चितकबरियों से बुना होता है ताकि रॉयल टाइगर जिन्हें दूर-दूर से देखने लोग यहाँ आते हैं, इन पत्तियों में आसानी से घुल मिल और छिपकर रह सकें... कि कोई आसानी से इनका शिकार नहीं कर सके. हालाँकि शिकार अब प्रतिबंधित है यहाँ, पर जब प्रतिबन्ध नहीं था, या फिर चोरी छुपे जब इन नियमों को बाहरी लोग तोड़ते रहते थे तब भी ये पेड़माँ की आँचल की तरह समेटे रहते रहते थे इन्हें ताकि देखने वालों को इनके वजूद की अलग से कोई पहचान ही नहीं हो पाए. यही नहीं ममतालु माँ की नाईउनके लिए भोजन-पानी सब परोसते रहते हैं, बिना किसी ख़ास प्रयत्न के.निरीह जानवर देख-समझ नही पाते दूर से इन पत्तियों के मध्य इन शेरों का लुका छिपा होना औरआसानी से इनका शिकार हो जाते हैं.

मैन्ग्रोव के इन्हीं 11 -12 फीट ऊँचे,लम्बे पेड़ों से घिरे होने के बाबजूद सुन्दरी के वृक्षों से लगातार बतियाते हुए भी मैं रह जाता हूँ सिरे से खाली और अकेला...

 54 द्वीपों से घिरे इसवन मेंजिसका कुछ हिस्सा बांग्लादेश से जा जुड़ता है, के हिन्दुस्तान के भीतर आनेवाले हिस्से के ठीक मध्य में बसा हुआ हूँ मैं. यहाँ मुसाफिर आते हैं और चले जाते हैं.

फिर सपनों की पूरी क्यारी मन में आंगन में बसाए रखने की भला मुझे जरूरत भी क्या ठहरी . यूं भी जिन्दगी को हमेशा सच से जोड़कर देखे जाने की जरूरत होती है. कल्पनाओं के कितने भी रंगीन तम्बू इसके इर्द-गिर्द भले ही टांग लिए जाए, एक दिन सच की धूप इन पर्दों को फाड़कर या फिर कमजोर और बदरंग करती हुई उसके भीतर आ ही जाती है. तो अकेलापन कैसी और कौन सी बला है, यह मुझसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है .

जानता हूँ एक ही बात अलग अलग तरीके से बार-बार दुहरा रहाँ हूँ मैं, पर इससे मेरी बेचैनी का अंदाजा लगा सकते हैं आप, मैं अपने दर्द को अभिव्यक्ति देना चाहता हूँ और इसी बहाने उस कहानी को भी, जिसका सूत्र मैं अभी तक अपनी बातों में नहीं छोड़ पाया...
पर चाहता हूँ वह कहानी आपको बताऊँ...

उस कहानी को आपतक पहुंचाने की जद्दोजहद ही समझिये इसे, हालाँकि वह कहानी मेरी भी उतनी ही है जितनी उनकी. याकि उनके बहाने यह मेरी ही कहानी है, मेरी अभिशप्तता भरी जिन्दगी की.

हाँ तो मैं कह रहा था, मौसम बदलने की चेतावनी के उन ख़ास दिनों में बिलकुल अकेला होता हूँ, बाशिंदे तो मेरे लिए कल्पना की बात ठहरे, आदमजात का चेहरा देखने को भी तरस जाता हूँ मैं उन कुछ ख़ास महीनों में.

उन दिनों में खासकर जिनके लिए बौखलाता-कुहकता हूँ मैं वो हैं- मासूम बच्चों की भोली मुस्कुराहटें खिलखिलाहटें...कि उनके होने से, आ जाने भर से, उनकी शैतानियों की गूँज में क्षण भर को अपनी अभिशप्तता फना होती लगती है मुझे. शायद इसलिए भी की दीवारों वाले घर हमेशा इंसानों को ढूंढते हैं कि बस उनकी बसावट में ही जी लें और बस लें वो थोडा-थोड़ा... वरना ईंट गारे से बनी दीवारों का क्या कब ढह-ढनमाना लेंगी कौन जानता है भला? कोई घर उतना ही जीता है और खुश रहता है, उसी क्षण तक जबतक कि उसमें बसे लोग जीते और खुश रहते हैं.

मुझे पता था यह हमेशा से,  मेरी आबादगी मुझतक आने और जाने वाले लोग हैं. कुछ पल-छिन जीना अगर है तो इनकी खुशियों में ही जी लूं, पर अपनी विदेहता को संजोते और कायम रखते हुए... यह बूझते हुए भी कि ये मुसाफिर ठहरे गर आयें हैं तो इनका जाना भी तय है. दिल लगाने का कोई सवाल फिर यहाँ कहाँ बच जाता था? मैं बच्चों की हंसी में क्षण भर को जीता, उनकी मुस्कुराहटों में क्षण भर मुस्कुराता उनके साथ. फिर अपनी जात, अपना वजूद और अपना धरम याद कर निस्पृह हो लेता इन सब चीजों से. हाँ अतिथिगृह होने का अपना धर्म, निस्पृह बने रहने का अपना कर्तव्य...

चूंकि यह जानता था मैं हमेशा से सो कभी अपनी नियति से कोई शिकायत भी नहीं रही. कभी इस या उस जैसी चाहत ने आकर घर भी नहीं किया मेरे भीतर...
पर ठहरिये यह कहना गलत होगा सरासर... मैं सही करता हूँ अपना कथन...
उनके आने से पहले और लौट जाने के बाद कभी मुझमें यह चाहत नहीं जगी ...
अब सोचता हूँ तो लगता है किसी घोर नींद में देखा हुआ एक नितांत बेतुका सा सपना था वो जो नींद से जागते ही बेमकसद और बेमतलब जान पड़ा था. मैंने धो-पोंछ के निकाल बाहर किया उसे अपनी स्मृति से ...
फिर भी खलिश थी कि उस सपने के व्यर्थताबोध को जानने के बाबजूद जाती ही नहीं थी दिल से. उनका चेहरा टीसता रहता किसी घाव की तरह, उससे भी ज्यादा किसी नासूर की तरह रह-रहकर मेरे मन में ...
पूर्व जनम में कभी अगर विश्वास किया होता मैंने तो मैं ये कहता कि पिछले जनम वे दोनों सहयात्री रहे होंगे जीवन यात्रा के और मैं उनका प्रिय और पावन घर... या आदम और हव्वा की शक्लें बिलकुल इन जैसी ही रही होंगी. यहीं कहीं तोड़कर खाया होगा उन्होंने वर्जित फल.और निष्कासित हो गये होंगे अपने इस स्वर्ग से...
लेकिन मैं चाहता था वे कभी भी न जाएं इस दुनिया से कि यहीं कहीं रह लें हमेशा की खातिर...मछलियाँ पकड़ें, लकड़ियाँ चुने, भोजन पकाएं,  हँसे- खिलखिलाएं-गुनगुनाएं, प्रेम में आकंठ डूबे रहकर और यहीं जन्म दें अपनी संततियों को ...
मैं जानता था उनकी दृष्टि में यह बेबकूफी वाली बात होगी... आगे से पीछे की और पलटना होगा यह- विकास से प्रारम्भ की तरफ लौटने जैसा कुछ... पर मैं इसे जीवन और सहजता की तरफ लौटने की तरह देखता और समझता था. जानता हूँ उनकी दृष्टि से ऐसा बिलकुल भी सही नहीं था. सो उनकी नजरों से देखें तो ऐसा सोचना सरासर बेबकूफी के सिवा और क्या हो सकता था? इसीलिए उन्हें लगा हो कि नहीं, मुझे उनके विदा होते ही यह लगा मेरी जिन्दगी बस उसी रात की थी, बाकी जो जीया सो यूं ही अकारथ...
मैं असमय ढहने लगा था, जीर्ण होने लगा था, पलस्तर और ईंटें गिरने लगी थी मेरे शरीर से...यूं कि जैसे किसी बूढ़े मनुष्य के शरीर का एक-एक अंग धीरे-धीरे साथ छोड़ता है उसका.
मैं घूम फिरकर अपने उसी मैं-मैं पर लौट रहा हूँ जबकि पहुंचना तो मुझे उन तक था, उनकी कहानी तक ...
जी...नहीं ... नहीं बन रहा मुझसे उन तक याकि उनकी उस कहानी तक आना. सो मैं सीधे आप सबको उस रात तक ले चलता हूँ, ठीक उन्हीं संवादों तक जहाँ मुझे अपनी बेजुबानी, अपनी निरीहता सबसे ज्यादा चुभी और खली थी...

हालाँकिउसके आगे और पीछे भी बहुत सारे सूत्र फैले हैं इस कहानी के. अब वो उस बातचीत में आ जाते हैं, तो ठीक वरना इतने से ही काम चलाना होगा आप सबको.

उसके मतलब पुरुष लेखक के भीतर समानांतर गति से एक कहानी चल रही थी उन दिनों जबकि कागज़ पर लिखे उसे बरसों बीत गए थे. हाँ, वह मन ही मन उसे लिख रहा था... लिख लिखकर मिटा और संशोधित कर रहा था...कभी खाली दरारों को पाटता, कभी अतिरिक्त कहे गए को मिटाता, संशोधित करता...

बरसों बाद कहानी जागी थी, चलने लगी भीतरभीतर...

वह खुश हुआ था- कुछ हद तक ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई स्त्री पहली बार अपने गर्भ को अपने भीतर जानकर खुश होती याकि महसूस करती है. उसी पीड़ा और सुख के मिले जुले भाव के साथ... हालाँकि यह पहली किताब नहीं थी उसकी... तो यूं भी कह लें कि लम्बे अंतराल के बाद या फिर कई गर्भपातों के बाद गर्भ ठहरने की ख़ुशी की तरह ...
अबकी भी...
अबकी तो...

कहानियों के सिरे हाथ से न जाने कब से छूटे पड़े थे. एक बेचैनी थी मन के भीतर और उससे भी ज्यादा संशय. कई बार मन ही मन रची गई कहानियों के सूत्र मन के भीतर ही दबे रह जाते हैं ...उन्हें मन ही मन इतनी बार लिख और पढा जा चुका होता कि लगता है ख़त्म हुई यह कहानी भीतर से...कोई चार्म नहीं बचा रहता उसे लिखे जाने का... बाकायदा उसे कागज़ और स्क्रीन पर रचने की चाह जैसे वहीं कहीं अधबीच दम तोड़ देती है.

पिछली किताब को आये लगभग पांच वर्ष बीत चुके थे... उतना ही जितना कि ऐना को उसकी जिन्दगी से गये हुए. ऐना की शिकायत यही थी और लगातार थी- लेखक का घर मतलब जंगल. लेखक के साथ रहने वाले दूसरे को कुछ यूं ही वीरानियों और अकेलेपन में दिन बिताने होते हैं जैसे किसी जंगल में दिन काट रहा हो वह, अकेले और निचाट दिन... कोई किसी जंगल में ऐसे अकेले कैसे जी सकता है भला?

वह नहीं कह सकता उसे कबसे लगने लगा था ऐसा- रोबर्ट के उसकी जिन्दगी में आने से पहले से ही या फिर उसके बाद...
हालांकि प्रेम के दिनों से ही उसे पता था कि वह लेखक है, हार्डकोर लेखक.

किसी के साथ होकर भी नहीं होना उसे दण्डित करने जैसा होता है. अपने अनुभव से जानता है वह. इसलिए उसने सर झुकाकर ऐना की बात मान ली थी. हालांकि दिल से चाहता था वो ऐना रुक जाए...

इसीलिए जंगल-जंगल भटकता रहा था वो, देश और विदेश सब जगह... पर कोई भी जंगल उसे उस तरह जंगल जैसा जंगल नहीं दिखता था.देश विदेश सब जगह उसकी आने की खबर उसके पहुँचने से पहले पहुँच चुकी होती थी. कैसी विडम्बना थी यह, जब वह एक-एक अक्षर को तरस रहा था, मन लायक एक पंक्ति के लिए खुद से झगड़ता फिरता... एक लेखक के रूप में उसकी मकबूलियत उन्हीं दिनों सबसे अधिक थी और जब दिन-रात वह रच रहा था लोग उसकी लेखन शैली पर सैकड़ो प्रश्नचिंह लगाते थे... ठीक उन्हीं दिनों उसे किसी ने सुंदरवन के बारे में कहा था.

जब वह जंगल देखने आया तो तय करके आया था कुछ दिन उन्हीं वीरानियों में जिएगा. किसी को अपने आसपास फटकने भी नहीं देगा. ऐना के भीतर की वीरानगी को महसूसना चाहता था वह. यह उसका खुद के लिए, खुद की सजा में निर्धारित किया गया दंड था. यहाँ तक वह सिर्फ इसीलिए तो आया था कि वह ऐना के दुःख को जी सके, जान सके ...

पर गजब यह कि यह जंगल भी जंगल नहीं लगा था उसे... उसके अन्दर के जंगल शायद ज्यादा घनेरे और भयावने थे इस बाहर के जंगल से. या फिर उसके होने भर से यह करिश्मा घटित हुआ था... पर वही तो नहीं थी, तमाम और लोग भी थे साथ.

उसने यह तय कर रखा था कि किसी को इर्द-गिर्द फटकने नहीं देना, इतना पास आने ही नहीं देना कि कोई झाँक सके उसके मन के भीतर .. और फिर वह तो ऐसे थी, जैसे होकर भी वहां न हो.

इस बार भी ठीक वही घटित हुआ था कि उसके पहुँचने से पहले उसके आने की खबर पहुँच गई थी सबके बीच.

अकेला लेखन ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ लोग एक लेखक के रूप में अपनी मृत्यु के बाद भी अपने मरे हुए को ताउम्र सेलिब्रेट करते हैं या कर पाते हैं. अपने लेखन के कब्र पर चढ़कर वे अपनी प्रसिद्धि को ताउम्र जीते और भोगते हैं. बहुत कम लोगों को इससे गरज होता है कि आपने पिछला लिखा तो क्या?

कहाँ अटकी रह गई आपके लेखन के घडी की सुई. यह फ़िक्र बस आलोचकों की ठहरी. आम पाठक अटके होते हैं पीछे कहीं किसी एक किताब, किसी आधी अधूरी पंक्ति, किसी अधजीए चरित्र में. उनका यही लगाव, यह भावावेश उसे परेशान करता है, हमेशा-हमेशा से. सबसे ज्यादा उसे उनकी अपेक्षाओं की फ़िक्र होती ऐसे में. अपनी तुच्छता उसे इन हालातों में और ज्यादा सताती. हलक में अटक आये किसी मछली के कांटे की तरह रह-रहकर चुभती और गड़ती रहती यह टीस.

उस पूरे टूर में सबलोग उनका परिचय जानकर उछल पड़ते थे, घूमते थे उसके आगे पीछे, जबरन साथ होकर सेल्फियाँ लेते थे- वे भी जिनका साहित्य सिर्फ उतना ही वास्ता रहा हो जितना उन्होंने जेनरल नौलेज की परीक्षाओं के लिए कभी रट्टा भर मारा हो या कोर्स में मजबूरन पढ़ लिया हो...
पर वही अकेली थी ऐसी जिसे उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसका ऐसा होना उन्हें सहज बनाये रखने वाला था. सुकून देने वाला. यह तो वे बाद में जान सके थे, वह भी...

चौकीदार ने सख्त ताकीद की थी- रात को कोई बाहर न निकालें. , कैम्पस में भी नहीं. पर यह गजब कि कहकर ही जैसे उसने अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली हो. वह मेरी दीवार से लगा ऊँघ रहा था, उसकी ऊँघी और बोझिल साँसे मुझे भी उनींदा कर रही थी. नींद की खुमारी ने भी किसी घुसपैठिये की तरह मेरी ईंट ईंट में घुसना और अपना कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया था.

मैं लेखक की तेज चहलकदमी से नीन्द में ही थोड़ा कुनमुनाया था- अजीब नस्ल के होते हैं ये लोग, भरी पूरी रात यूं ही चहलकमिदयों में बिता देने वाले... कागज फाड़-फाड़कर बस ढेर लगाते रहेंगे.नींद से तो इनका जन्म का बैर ठहरा ...और रात सेउतना ही गहरा राबता...

लेखक ने चहारवारी पर बैठे उस उल्लू को देखा था, और देखता रहा था उसे. जैसे न जाने क्या अद्भुत देख लिया हो. उसे हंसी आई थी बेसाख्ता .
बाहर हवा कि सायं सायं थी... अनाम सी सरसराहटें थी. डाक बंगले का बीहड़ सन्नाटा था और कई तरह के भरम थे...
कि इसी भरम में उसने किसी का अपने पास होना महसूसा था. हां, वह दिखी थी और उसने जैसे यूं ही बस कुछ भी कहने की खातिर कहा था...
यूं कहा था जैसे किसी और से मुखातिब न होकर वह खुद से ही मुखातिब हो-बस कुछ लिखते लिखते यूंही बाहर निकल आई .
शायद इसीलिए,  कि बात इसी तरह शुरू हो सकती थी...
कि बात से ज्यादा यह सफाई हो जैसे... और वह भी किसी और से ज्यादा खुद को ही दी गई.
मुझे भी कुछ यूं ही लगा, शायद इसलिए भी कि और कोई तरीका या तजवीज हो ही नहीं सकता था आपसी बातचीत का ....
कि शायद दिन का वह जंगल उनके साथ ही चला आया था उनके भीतर ....
और इसी तरह वे दोनों भी चले आये थे थोड़े-थोड़े एक दूसरे के हिस्से ...
वे ठीक इसी जंगल की भाषा में बतिया रहे थे. मुहावरेदारी के उनके बिम्ब और प्रतीक सब इसी जंगल से उड़ाकर लाये हुए थे. और यूं वो जंगल उनके साथ चला आया था.चल रहा था ..और भीतर... भीतर ...

कहानियाँ तितलियों की तरह होती है. चिड़ियों की तरह होती है. हसीन, खुशमिजाज, सतरंगी और चंचल. आप जिंदगी भर उनके पीछे भागते रहते हैं...और वो हैं कि कभी आपके हाथ आती ही नहीं... बस एक नन्हीं सी झलक दिखाती हैं और आप जबतक उनकी सुध लेंआपके दायें-बाएं, ऊपर या नीचे से सर्र निकल लेती हैं .....

आप ठगे से खड़े रहते हैं- वही,उसी पुराने मोड़ पर.
चेहरा अभी भी यूं ,जैसे उसने कुछ कहने भर के लिए ही कहा हो यह सब. बस इसलिए की सन्नाटा और अजनबीयत टूटे...बीच की पसरी हुई चुप्पी टूटे... टूटे सबकुछ या कुछ भी टूटे.
जबकि वह जानता है कि तोड़ना इतना आसान नहीं होता... गरचे टूटते टूटते ही टूटता है कुछ भी...

तोड़ने-टूटने की कोशिश में ही इधर उसका सारा वक़्त बीता है. अकेलापन, उनींदापन, दिमागी शून्यता, लेखकीय जड़ता...इधर तो खासकर अपने जीवन का वह निविड़ सन्नाटा... जिसको तोड़ने की कोशिश में उसके मन और तन सब लहूलुहान हुए जा रहेथे ...
कोशिश करना उसका स्वभाव ठहरा. जिद ...या फिर कहें कि आदत .

हाँ ...और आप देर तक और दूर तक खड़े रह जाते हैं, ठगे से उसे निहारते हुए. वह ऐसे देख रही थी निविड़ शून्य में, जैसे कि वह तितली अभी-अभी उसके बगल से गुजरी हो.
या फिर किसी लोकप्रिय विज्ञापन की तरह अभी-अभी बस उसके कांधे से उड़कर गई ही हो.

जाहिर है कि वे बिलकुल भी वह नहीं कह रहे थे, जोकि उन्हें कहना था ... पर इसका मतलब यह भी नहीं था कि वे जो कह रहे थे वह कोई बेमानी और बेमकसद जैसी बात थी....
उसने गौर किया ...वह उस खेल में सायास शरीक हो आई थी, जिसे लोग आम बोलचाल की भाषा मेंबातचीतकहते हैं . पुरुष लेखक की तरह या फिर कहें तो उसके साथ-साथ मैं भी हैरान हो आया था ...
सचमुच यह हैरत वाली बात थी, कल तक उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी इस शख्स में. रास्ते भर ठीक से एक बार भी उसने झांका तक नहीं होगा इस शख्स की ओर... यह जानने के बाद भी कि वह भी लेखक है.

उसे दूसरी भाषाओं को जानने-पढने में कभी दिलचस्पी नहीं रही. हद हुआ तो कुछ अनुवाद-शनुवाद पढ़ लिया...वह भी इसलिए कि सब इसे एक लेखक के तौर पर उसकी सबसे बड़ी जरुरत बताते थे, हालांकि उसकी दृष्टि में यह दकियानूस होने जैसा ही कुछ था-अब लिखने का इस उस भाषा की किताबों से भला क्या सम्बन्ध..दुहराना है क्या यहाँ वहां की किताबों को...अनूठा लिखने के लिए अनुभव बिलकुल रॉ होने चाहिए, और शैली बिलकुल निजी और अनूठी...और यह सब कहीं भीतर होते है हमारे...इस या फिर उस भाषा की किसी किताब में नहीं...

और अब तो शिखर भी नहीं थे, की जिद करते ...कहतें कुछ. सर पर ला पटकते कुछ अनुवादित किताबें ही, हमेशा की तरह.

लेकिन न जाने क्यों उसे आज पहली बार अपने सीमित अंग्रेजी ज्ञान का दुःख साल और कचोट रहा था. गोकि वह शख्स बोल रहा था- काम लायक हिंदी, समझने लायक अंग्रेजी के शब्द...क्योंकि दिन में ही शायद उसकी भाषिक सीमा को बूझ चुका था वह .

पर उसे लग रहा था कि काश वह धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल सकती और ठीक-ठीक वही कह समझ और समझा पाती, जोकि वह कहना चाहती थी एकदम.

चाहतें और शिकायतें साथ चलती हैं जिन्दगी में... पर वह तो ठीक-ठीक यह भी नहीं समझ पा रही थी कि वह क्या चाह रही है?  जो चाह रही है कुछ तो वह ऐसा चाह ही क्यूं रही थी आखिर?

फिर भी वह कहने की कोशिश में लगातार प्रयासरत थी...
यूं कि बरसों बाद किसी से और वह भी किसी गैर से ...
क्या कुछ था जो जोड़ रहा था उसे उससे?
बस उनके पेशे की वह बाह्य एकरूपता?
लेकिन लेखक तो वह दिन में भी था ...
साथ भी कई दिनों से...

उसे उस पल लगा इस जंगल में, इसकी हवा में ही कोई जादू है...अजीब जैसी कोई महक...जो उसे सबकुछ भूलने को,किसी से मन भर बतियाने को बेबस कर रही है.

जो चाहती है इस वक्त, कोई हो जो उसकी बात सुनें. कोई हो जिससे कह सके वह अपने मन में इस पल उमड़ता-घुमड़ता सब कुछ...

उसने हवा की उसी मादक गंध को महसूसते हुए खुद की ही सोच को संशोधित किया था- नहीं जंगल से ज्यादा इस डाक बंगले में, इसके कोने कतरे में...इसकी सायबानों, चहारदीवारियों और दालानों में 

..एक अजीब सी सुलगती और चिलकती हुई सी कोई गंध...जो किसी के पास, बहुत पास होने की कामना रचती हो जैसे...
और अपने इस सोच पे ही जैसे चिढ और झल्ला गई हो वह ...फालतू बात...फालतू खयाल ...

खुद को बेतरह झिड़कते हुए उसने फिर से बातों का सूत्र थामा था जैसे खुद की सोच से उबरने का यही और यही एकमात्र रास्ता हो.

कुछ कहानियाँ बचपन की सखियों सी होती हैं, या फिर नन्हीं मुन्नी बिटिया सी...बुरा लगता है इनका छूट जाना याकि फिर रूठ जाना  ...’
जिनसे न आप उंगलियाँ छुडाना चाहते है, न जिनकी उंगलियाँ छोड़ना. उनका पीछे छूट जाना आपका अकेले खलाओं में छूट जाना होता है.

बिना हवा, बिना पानी. बिना ख़ुशी और खुशबू के एकबारगी शून्य हो जाना जैसे. उसकी ऊंगलियों ने उसे समझाने की खातिर एक शून्य रचा था निर्वात में.

इन्हें लिखना भी बहुत लाड़ से लिखना होता है, रुककर, ठहरकर, ठमककर. महसूसते हुए इन्हें, इनके गंध और अपनाहियत को...

वह जान रहा था....वह अपनी नई कहानी की बात कर रही शायद. जैसे वह जान रही थी, वो अपने ही डर, कहानियों के अक्सरहां खो जाने के भय को कह कर रहा है. पर उसके इस रुक रुक कर कहने का कारण भी वह समझ रहा था या नहीं उसे यह ठीक तरीके से नहीं पता था.

वह फिर कुछ कह रहा था कुछ कहानियाँ जंगली फूलों सी होती हैं, बहुत खूबसूरत.और साथ ही रस,रंग और गंध से सहज परिपूर्ण...कहते हुए पर न जाने वह देख क्यों रहा था उसे लगातार...एक अजीब सी मासूम और सलोनी दृष्टि से ...

उसने उन निगाहों से नजरें चुराते हुए बात के सिरे को आआगे बढाया था,और कुछ कटी-छंटी,  संवरी. नख से शिख तक सानुपातिक रूप से सुन्दर..
दोनों ही कहानियाँ ही तो हैं,  किसे पसंद करें और किसे क्यों नापसंद करें..यह तो पाठकों का मसला है न?
मुत्तासिर होने के भी तो अपने अपने अंदाज होते है.
यह तो पाठक की सोच है या फिर जिम्मेदारी की वह अपने मन की जमीन किसे दे...
बड़ी देर की चुप्पी के बाद, जैसे हवा में रेंगती हुई किसी बनैली गंध को मुठ्ठियों में बांधते हुए उसने कहा था- 


कुछ कहानियों के जिस्म पर नुकीले कांटे होते हैं...शाही या फिर मगर जैसे...वह लिखने और पढनेवाले दोनों को बराबर मात्रा में लहूलूहान करती है....'

लिखने वाले को ज्यादा. वह कहता है.
याकि यह लगता भर है हमें,  क्योकि रचनाकार है हम. अपने हर दर्द को कहना. ग्लोरिफाई करना हमारी आदत ठहरी...

इसे गलत अर्थों में न लें, उसके चेहरे पर उग आये बेजुबान बिल्लियों के चेहरे को भांपते हुए उससे कहा था उसनेक्योंकि महसूस तो ज्यादा अपनी ही तकलीफ सकते हैं न हम..

‘रचनाकार सिर्फ अपना दर्द नहीं समझता-भोगता. सबके दर्द को भोगता और आत्मसात करता है. पात्रों की पीड़ा को भी कई बार जबरन उधारी ले लेते हैं हम’ ...

वह अपने कहे के पक्ष में थोड़ा निठुर हो चला था, थोड़ा -थोड़ा आग्रही.

भोगना अलग बात है और उधार लेना अलग... द्रष्टाऔर भोक्ता होने का फर्क है यह... हम कितना भी जुड़े हों किसी कहानी से पर भोक्ता नहीं होते. एक महीन-सी सूत भर फांक कहीं न कहीं बची रह ही जाती है...

उसने सोचा, क्या ठीक वही अंतर या कि अंतराल उन दोनों के बीच पसरा हुआ है फिलवक्त?

शायद ... शायद नहीं सचमुच...उसने उसकी बात मान ली थी कि कोई चारा ही नहीं था इतनी मासूमियत भरे जिद से कही गई बात को दरकिनार कर देने का....

उसकी हां में हां मिलाने के क्रम में ही जैसे एक नई बात, एक नया तर्क आ लगा था हाथ उसके- कुछ कहानियाँ शेरनी की तरह होती हैं, आप भागते रहते हैं उससे दूर और वो दहाड़ती हुई आती रहती हैं आपके पीछे. ये कहानियाँ हर पल आपको चबाने की ताक और फ़िराक में बनी रहती हैं. कबीर ने कहा है न –‘सेज हमारी स्यंध भई, जब सोउं तब खाए...

वह हैरत में थी...अंग्रेजी भाषा का यह लेखक और तुलना किससे, कबीर से?

एक वह है कि भागती रहती है दूसरी भाषाओ, उनके लेखकों और किताबों से ...वह छोटी होने लगी थी अपनी नजरों में... उसे अपना कद अभी बहुत घिसा हुआ-सा जान पड़ा था...बित्ता भर का होता हुआ सा ...

वह उसकी हैरत को न ताड़ लें, उसके इस बौनेपन को भी, इसलिए बहुत हड़बड़ी और थोड़ी जल्दबाजी में ही उसने कुछ अन्य बुद्धिमानी वाले रूपक गढे थे -कुछ कहानियों की बहुत लम्बी पूंछ होती है...और कुछ कहानियाँ बे- पर(की) भी उड़ती हैं... और कहकर न जाने क्यों हंस दी थी एक मासूम-सी हंसी...

मैं हैरत में रह गया था,  हंसी उसेआती थी अभी भी. उसके झरझर –खिल-खिल हंसने की आवाज से मेरे कंधों से उड़कर एक गीध पंख फड़फडाता हुआ निकल उड़ा था, औरत के काँधे को छूता हुआ...
वह जैसे उसके निकट हो आई थी बिलकुल...
उसने उसे पनाह दिया था. ऐसे जैसे घेरे हुए भी उसे, उससे सूत भर दूर ही रहे उसका तन...पर आत्मा ने आत्मा के ऊपर एक आवरण लपेट दिया था.
वे अलग हुए थे... और वहीं सीढ़ियों पर बैठ गए थे एक साथ. पता नहीं कहने को कितनी बातें एक साथ दोनों के मन में उमड़ी थी.
पर एक साथ उन्होंने जैसे सुला दिया था सबको, थपकी देकर. मीठी लोरियां सुनाकर.
कहा था तो बस औरत ने... और बड़े उदास और मुलामियत वाले लहजे में... कहानियों के जंगले में घुस जाने का रास्ता बहुत आसान है, पर लौटने वाली राह बहुत मुश्किल.
आप फिर भटकते रहते हैं उसमें हमेशा, अग-जग सब भूल भुलाकर. और यह भटकाती रहती है आपको दुनियादारी,  रिश्ते-नातेदोस्त-दुश्मन, रीत-प्रीत सब भुलाकर ...
आम शिष्टाचार और समीकरण भी ..
पर मुझे न ज़ाने यह क्यों लगा, अबकी उसने कहानी के बदले प्रेम कहा है.
पुरुष लेखक ने सुना था कि नहीं. पर मेरे बूढ़े कान अभी भी सुनते थे, वह भी कि जिसे मन में भी कह और बुदबुदा रहा हो कोई. अकेला और अभिशप्त होना बहुत कुछ सुनने और समझने की शक्ति दे देता है शायद.
फिर यह आपका चुनाव नहीं होता. मजबूरी होती है आपकी ...
और मजबूर होना, क्या सजायाफ्ता होना नहीं है...मैंने उनदोनों से कहा था, बहुत हौले से ...
उन्होंने सुना कि नहीं मैं नहीं जानता, पर वे दोनों सिहरे थे एक साथ, लगभग ...
सुबह होने होने को आई थी...
और वे दोनों वहीं, सीढ़ियों पर बैठे कहते सुनते रहे थे न जाने क्या क्या ...
रात को डूबते और सुबह को उगते उन्होंने देखा था एक साथ...पर न जाने रात क्यों अटकी रह गई थी वहीं की वहीं...
जाते-जाते उन दोनों ने कुछ भी नहीं कहा एक दूसरे से ...
पर बारी बारी मैने दोनों की आँखों में छपी इबारतों को आदतन पढ़ा था- कहानियों के जंगल से लौट भले ही आओ, वे फिर भी दबे पाँव पीछे चली आती हैं. साथ-साथ चलती होती हैं, अकसर आपके जाने-अनजाने...
दरअसल जंगलों से लौट आने का रास्ता एक भ्रम है..
शायद लौटना ही एक भ्रम ...
कहानियों का जंगल हमारे भीतर ही होता है.
सारे जंगल तो दरअसल हमारे भीतर ही होते हैं...
और भीतर से बाहर आनेवाली राह हर एक के हिस्से नहीं होती...अबकी मैंने उनके सुनने न सुनने की परवाह छोड़ बहुत ऊँचे स्वरों में कहा था...
कुछ तो हुआ या घटा थाअलग-अलग राह जाते वे दोनों एकबारगी रुके थे.
मेरी और उन्होंने भर नजर देखा था...
उन आँखों की लबरेजियत में न जाने कितना कुछ था अनकहा-सा, मैं जिसे समझते हुए भी जिसकी तर्जुमानी के लिए न जाने कौन कौन-कौन सी भाषाएँ इजाद कर रहा था...
 कि एकबारगी लगा- ये मेरी गलतअन्दाजी ही थी शायद
उन्होंने जाते-जाते बहुत निचाट और सादी-सी निगाहों से एक बार-बस एक दूसरे को एक टुक देखा था...
 सुबह के उगते सूरज का कोई अक्स, कोई रंग नहीं था उन आँखों में...
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कविता
15अगस्त, मुजफ्फरपुर (बिहार)

मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है,आवाज़ों वाली गली, गौरतलब कहानियाँ (कहानी संग्रह), मेरा पता कोई और है, ये दिये रात की ज़रूरत थे (उपन्यास).

मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आयेगी (संपादन), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार), अब वे वहां नहीं रहते (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)

मेरी नाप के कपड़े,कहानी के लिये अमृत लाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार.
चर्चित कहानी उलटबांसीका अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित (हर पीस ऑफ स्काईमें शामिल).
कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित


सम्पर्क : एन एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, पो. विन्ध्यनगर, जि. सिंगरौली,486885  (म.प्र.)/07509977020/kavitasonsi@gmail.com

मति का धीर : राहुल सांकृत्यायन : विमल कुमार



























आज राहुल सांकृत्यायन  जीवित रहते थे तो  अपना १२५ वाँ जन्म दिन मना रहे होते. पर जब वह आज नहीं हैं (और इतना लम्बा भौतिक जीवन संभव भी नहीं है) क्या हिंदी समाज को उनका यह जन्म दिन किसी जातीय समारोह की तरह नहीं मनाना चाहिए. 

लेखन और जीवन में सतत जिज्ञासा के प्रतीक और एक बेहतर समाज के लिए प्रतिबद्ध राहुल जी कायदे से तो हमारे नायक होने चाहिए थे. एक ऐसा दुर्गम नायक जो सनातन हिन्दू, आर्य समाजी, बौद्ध, कम्युनिस्ट से होते हुए एक देशी विचारक के रूप में हमारे सामने खड़ा होता है. खड़ा ही नहीं होता हमारे संघर्षों में हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ता है. अगर राहुल न होते तो भारत में बौद्ध साहित्य कितना क्षीण होता इसकी आप कल्पना कर सकते हैं.

इस अवसर पर विमल कुमार का यह आलेख कि इसे बस आरम्भ समझा जाए. 




वैचारिक संकीर्णता   के  खिलाफ  थे   राहुल  सांकृत्यायन  
विमल कुमार



“इस्लाम  को भारतीय बनना चाहिए– उसका भारतीयता के प्रति यह विद्वेष सदियों से चला आया है. किन्तु नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किये बिना फल फूल नहीं सकता. इसाई, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से ऐतराज नहीं, फिर इस्लाम ही क्यों ? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्य, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव  के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य एशिया के प्रजातंत्रों में किया है.”

“सारे  संघ की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि  हिंदी ही होनी चाहिए. उर्दू भाषा और लिपि के लिए वहां कोई स्थान नहीं है.”

राहुल  सांकृत्यायन  





ये दोनों उद्धरण महापंडित राहुल संकृत्यायन के हैं जो उन्होंने १९४७ के दिसंबर में मुम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अपने भाषण में सभापति के रूप में दिए थे. यह भाषण पहले ही छप  चुका था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने पहले ही पढ़ लिया था और उन्होंने इस पर आपत्ति  व्यक्त की थी. वे चाहते थे कि इस अंश को हटा लिया जाये लेकिन राहुल जी इसके लिए तैयार  नहीं थे. इस   मुद्दे  पर  उनका  पार्टी से सम्बन्ध विच्छेद  तक हो गया.


राहुल जी के जीवनीकार  गुणाकर  मुले ने लिखा कि  राहुल जी लेखकीय अभिव्यक्ति की  आज़ादी के समर्थक और वामपंथी संकीर्णता के विरोधी थे. लेकिन आज़ादी के बाद  उन्हें  रामविलास शर्मा की तीखी आलोचना का शिकार होना पडा था जिससे वे मर्माहत हुए थे.

आज  नौ अप्रैल  है. महापंडित  राहुल संकृत्यायन की १२५ वीं जयन्ती  हैं. किसी भाषा  और  साहित्य  में राहुल  जैसे  लेखक विरले ही होते   हैं.  लेकिन दुर्भाग्य  की बात  है कि आज उनकी इस १२५ वीं  जयन्ती को  वाम लेखक संगठनों द्वारा जिस तरह एकजुट होकर  एक मंच पर  संयुक्त  रूप से  मनाया जाना चाहिए था और राष्ट्रीय  स्तर पर  विशाल आयोजन होना चाहिए था, वह नहीं हुआ.  प्रगतिशील  लेखक संघ  ने  बेगुसराय  में स्थानीय  स्तर  पर जरुर आयोजन किया   है और उनके  ननिहाल  पन्दहा  और  गाँव कनैला में आयोजन  जरुर स्थानीय  स्तर  पर हुए,  लेकिन राहुल जी के विराट  व्यक्तित्व  और  अवदान को  देखते हुए यह उनके अनुरूप नहीं कहा जा सकता है.

देश की राजधानी दिल्ली जो लेखकों  का गढ़ है और जहाँ साहित्य अकादमी और हिन्दी अकादमी जैसे संस्थान  हैं, तथा तीन वाम लेखक संगठन हैं,  वहां राहुल जी की १२५ वीं जयन्ती का अलक्षित रह जाना बहुत चिंता की बात  है.  क्या हम इतने आत्ममुग्ध और आत्मलीन हो गए  हैं कि राहुल जी के लिए एक राष्ट्रीय  स्तर पर आयोजन नहीं  कर सकते.  भारतीय ज्ञानपीठ के लीलाधर मंडलोई,  बी.एच.यू की चन्द्रकला त्रिपाठी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय  के कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने जरुर अपनी संवेदनशीलता दिखाई है और  राहुल जी की १२५वीं जयन्ती का सूत्रपात कर दिया है. ज्ञानोदय और आजकल पत्रिकाओं ने विशेष अंक निकाल कर नवजागरण के पुनर्पाठ पर बहस शुरू की है.

राहुल जी के योगदान को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरुजनते थे. शायद  यही कारण है कि १९३७ में  इलाहाबाद  के एक समारोह  में जिसमे  राहुल जी को हमारी कमजोरियां विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था, नेहरु जी ने समारोह के  सभापति के रूप  में कहा था  कि राहुल जी जैसे आदमी  विश्वविद्यालय की दुनिया में  क्यों नहीं होते.  नेहरु जी राहुल जी की विद्वता को बखूबी  जानते थे और उनकी किताब मध्य एशिया  का इतिहास के मुरीद थे जिस  पर राहुल जी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था. लेकिन यह दुर्भाग्य  है कि  आज का राजनीतिक  नेतृत्त्व  राहुल जी के योगदान से  पूरी तरह परिचित नहीं है और अगर परिचित है तो उनके प्रति वह सम्मान  व्यक्त नहीं करना चाहता,  शायद  यही कारण है  कि  पिछले एक साल से  सरकार के पास यह प्रस्ताव  लंबित   है कि  राहुल जी की १२५ वीं  जयन्ती देश भर में राष्ट्रीय स्तर पर  बनाई जाये.  यूँ तो मौजूदा  सरकार खुद को हिन्दी प्रेमी  कहती है पर चार  सालों में कोई ऐसा कदम या निर्णय नज़र नहीं आता जिसमे हिन्दी के भविष्य को लेकर उम्मीद बंधे.  


बहरहाल, राहुल जी जैसे व्यक्तिव की १२५ वीं जयन्ती   मानाने  के लिए देश के नेतृत्त्व को साल भर प्रस्ताव पर विचार करना पड़े या उस पर तनिक ध्यान न दिया जाये  या उसे  गंभीरता से न  लिया जाये तो यह  जरुर कहा जा सकता है कि सत्ता  और साहित्यकार का रिश्ता   बहुत मधुर   नहीं  है.  खसकर अवार्ड वापसी की घटना के बाद हिन्दी के लेखकों से सत्ता  के रिश्ते और  बिगड़  गए हैं.  वैसे तो यह भी कहा जा सकता है कि सत्ता  विशेषकर   मौजूदा सत्ता से साहित्यकारों विशेषकर  प्रगतिशील  लेखकों के सम्बन्ध कभी मधुर नहीं रहे.  राहुल जी एक प्रगतिशील  लेखक  थे.  वे कम्युनिस्ट पार्टी में  थे,  आज़ादी  की लडाई में   चार बार जेल गए थे. किसान आन्दोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था.  देशरत्न राजेंद्र प्रसाद  के साथ किसानों के आन्दोलन को संबोधित किया था.  ऐसे राहुल क्या वर्तमान सरकार के लिए वैचारिक रूप  से अनुकूल  नहीं  हैं ? क्या इसीलिए  सरकार  को कोई निर्णय लेने में हिचक हो रही है  या उनको लेकर बेरुखी का  भाव है.

यह बेरुखी कांग्रेस  के ज़माने में भी रही है. यही कारण है कि कांग्रेस  यू.पी.ए. के कार्यकाल में   महावीरप्रसाद दिवेदी की 150 वीं जयन्ती धूमधाम से मनाने  के लिए आगे  नहीं आती. यहाँ तक कि  एक डाक टिकट भी जारी नहीं हुआ उस वर्ष.  दिवेदी जी हिन्दी नवजागरण के सबसे  बड़े  नायक हैं.  बीसवीं सदी के हिन्दी के पहले प्रकाश स्तम्भ. वे राय बरेली इलाके के थे जो इंदिरा जी, सोनिया जी का  चुनाव क्षेत्र  रहा है. दिवेदी जी ने हिन्दी की जो सेवा  की उसका  शतांश भी पिछले राजनीतिक नेतृव ने नहीं चुकाया है. दरअसल किसी भी सत्ता  और सरकार  के लिए  हिन्दी से  कोई आत्मीय मानवीय एवं अन्तरंग  सम्बन्ध  नहीं रहा.  आजादी के बाद भी भाषा की गुलामी   जारी रही और भारतीय  नौकरशाहों में तथा राजनीतिक नेतृव में वह संवेदनशीलता  नहीं रही जो हिन्दी की इस आत्मा को पहचाने, उसके लिए कुछ करें.

साहित्य अकादेमी, केन्द्रीय  हिन्दी संस्थान, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, उत्तर प्रदेश  हिंदी संस्थान और ग्रन्थ अकादमियां सब कांग्रेस  शासन की देन रहीं और  वे आज़ादी के बाद धीरे- धीरे  मरने लगीं. काशीनागरी प्रचारिणी आज जर्जर स्थिति में है. यह उस शहर  की विरासत है जिसे टोकियो बनाने की बात  जोर शोर से कही जा रही ही.  वह शहर प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र  है. चार साल बीत गए लेकिन उस मृत संस्था को जीवित करने  का कोई प्रयास  नहीं किया गया. उसी शहर में रायकृष्ण दास जैसा व्यक्तित्व हुआ जिसकी १२५ वीं जयेंती पिछले दिसम्बर में थी  लेकिन प्रधानमंत्री को उनकी सुध कभी नहीं आयी. उनकी स्मृति में किसी समारोह का कोई उद्घाटन किया हो ऐसी खबर मीडिया  में नहीं आयी. प्रधानमंत्री  हिन्दी में ही भाषण  देते हैं. कुछ लोग उनके भाषण की बहुत तारीफ़ भी करते हैं. लेकिन क्या उनका हिन्दी प्रेम  केवल भाषण तक ही सीमित  है या उनके इस प्रेम का कोई सार्थक अर्थ भी हैं. अगर होता तो वे रायकृष्ण दास को जरुर याद करते.

राय कृष्णदास का हिन्दी प्रेम देखिये कि उन्होंने १९३२ में  ही बाबू श्यामसुंदर के साथ दिवेदीजी को  अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट  करने की योजना   बनाई थी और १९४०-४२ में  भारतीय कला पर हिन्दी में मौलिक ग्रन्थ लिखे.  शायद मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व को राय कृष्णदास के  योगदान के बारे में नहीं पता हो और अगर पता हो तो कुछ करने की इच्छाशक्ति   न हो.  अगर इच्छा शक्ति होती तो वे कहते कि हमें राहुल जी पर गर्व है जो ३२ भाषाएँ जानते थे,  जिन्होंने  १४२ ग्रन्थ लिखे, कोष बनाये,  एक  लाख तिब्बती  पांडुलिपियों  को खुद लालटेन की रौशनी में कागज  पर लिखकर सूची बद्ध किया.  तब कंप्यूटर  नहीं था. राष्ट्रीय  पाण्डुलिपि मिशन भी नहीं था और तिब्बत में बल्ब की रौशनी भी नहीं थी.  आजादी की लडाई में   हिन्दी हिन्दुस्तानी के विवाद में  राहुल जी हिन्दी के साथ थे और कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन से अलग थे जिनके कारण उन्हें पार्टी से निकाल  दिया गया. हमारे देश में शुरू  से ही वैचारिक स्वतन्त्रता की कमी व्यवहारिक स्तर पर दिखती है.

पार्टी  और सत्ता दोनों वैचारिक स्वाधीनता के विरोधी रहे हैं. लेकिन लेखक को स्वतंत्रता चाहिए. उसे अपने युग का सच कहने के लिए स्पेस चाहिए.  राहुल जी कांग्रेसी होते हुए भी कांग्रेस से लाभ नहीं उठा पाए.  वामपंथी होते हुए पार्टी से हिन्दी और इस्लाम के सवाल पर उनके  मतभेद हुए.  उनका व्यक्तिगत  सम्बन्ध राजेंद्र बाबू से था पर अपनी पत्नी के लिए कोलकत्ता विश्विद्यालय में लेक्चररशिप भी नहीं दिलवा  सके. इसे विडंबना ही कहा जाये कि वे भारत में कहीं  लेकचरार नहीं बन सके पर श्रीलंका और रूस की सरकारों ने  उन्हें अतिथि   प्रोफेसर  बनाया. बाद में उन्हें जयप्रकाश  नारायण, दिनकर और शिवपूजन सहाय  के साथ  भागलपुर विश्विद्यालय से मानद डी. लिट् की उपाधि मिली  और जिस साल उनका निधन हुआ था,  उस वर्ष उन्हें पद्मभूषण मिला जबकि उनसे काफी युवा दिनकर को पद्मभूषण मिल गया था. राहुल जी का अपने समय  में सत्ता से बहुत मधुर रिश्ता  कभी नहीं रहा यद्यपि उस दौर के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक उन्हें व्यक्तिगत  रूप से जानते थे.  

आज जब लेखकों और सत्ता के बीच संवाद  लगभग टूट   गया है  बल्कि दोनो  मे छत्तीस का आंकडा  है,  वैसे कुछ साहित्यकार वर्तमान सरकार से  उसी तरह तालमेल जुटाने  मे  लगें हैं जैसे  कांग्रेस  के ज़माने में कुछ धर्मनिरपेक्ष और कलावादी  लेखक. लेकिन उन्होंने राहुल जी  की १२५ वीं जयन्ती  मानाने के लिए सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया गया. 

हिन्दी की लडाई अब जीतना मुश्किल है क्योंकि वह गुट और विचारधारा के कुचक्र  में फंस चुकी है. अगर तीनों वाम लेखक संगठनों में एकता होती तो आज राष्ट्रीय स्तर पर धूमधाम से १२५ वीं जयन्ती मनाई  जाती  और राहुल जी की पुत्री को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर  उन्हें स्मरण नहीं करना पड़ता कि एक साल पहले हिन्दी के कई लेखकों ने उन्हें पत्र लिखकर १२५ वीं जयन्ती   मानाने की मांग की थी, लेकिन एक साल में सरकार  कोई निर्णय ही नहीं ले पायी. इस से पता चलता है कि पिछली सत्ताओं की तरह वर्तमान  सत्ता में हिन्दी को लेकर कितना सच्चा प्रेम और गौरव का भाव है.


राहुल जी हिन्दी के बड़े प्रतीक हैं. प्रेमचंद्र और निराला की तरह. कई मायनों में  उनसे भी बड़े  प्रतीक. राहुल जी के लेखन और व्यक्तित्व में जो विविधता है और जितने जोखिम उन्होंने लिए हैं उतने किसी लेखक ने नहीं उठाये. सत्रह दिन में वे सिंह सेनापति उपन्यास लिख देते हैं तो बीस दिन में वोल्गा से गंगाजैसी कृति. इस से अनुमान लगाया जा सकता  है कि उनमे कितनी सृजनात्मक ऊर्जा है. हालाँकि कई लोगों का यह मानना है कि राहुल जी के लेखन में  प्रेमचंद और निराला की तरह गुणवत्ता  नहीं क्योंकि वह एक्टिविस्ट  लेखक हैं. हिन्दी में जो एक्टिविस्ट  लेखक हुए हैं उनकी थोड़ी उपेक्षा हुई है मूल्याङ्कन में. राहुल के बाद बेनीपुरी  दूसरे एक्टिविस्ट  लेखक  हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राहुल जी ने हिन्दी को जो योगदान दिया है वह अद्भुत है अक्सर हम उन्हें यात्रा वृत्तान्तकार कहकर उनके योगदान को  कम आंकते  हैं. वह सत्य  के यायावर थे. किसानों और देश की गरीब जनता के मुक्तिदाता थे. धर्म के पाखंड  के विरोधी. समतामूलक समाज बनाने के स्वप्नदर्शी. भागो नहीं दुनिया को बदलने का नारा देने वाले  क्रांतिदूत. इस क्रांतिदूत की १२५ वीं  जयन्ती के लिए हिन्दी के युवा लेखक आगे आयें क्योंकि वही इसके  रहनुमा  हो सकते हैं.
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विमल कुमार:
(९-१२-१९६०) गंगाढ़ी, बक्सर

तीन कविता संग्रह प्रकाशित- सपने में एक औरत से बातचीत (१९९२), यह मुखौटा किसका है (२००२) और पानी का दुखड़ा(२००९) भारत भूषण अग्रवाल(१९८७), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान,शरद बिल्लौरे सम्मान ,हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
कहानी संग्रह कालगर्ल (२०१०)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)  
पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता
ई-पता: vimalchorpuran@gmail.com /9968400416

निज घर : राकेश श्रीमाल
































राकेश श्रीमाल की रचनात्मकता के वृत्त में कविता, कथा, कला, संपादन, पत्रकारिता सब एक दूसरे में घुले मिले हैं. उपन्यास लिखते –लिखते कविताएँ लिखने बैठ जाते हैं, तो कभी इनके बीच सृजनात्मक गद्य के तमाम प्रयोग कर बैठते हैं. अभी कोलकाता में रह रहे हैं और ‘लोक-शास्त्रीयपरम्परा-आधुनिकतापर आधारित पत्रिका ताना-बाना’ का संपादन कर रहे हैं.

‘डायरी के अंश शीर्षक’ से उनके सृजनात्मक गद्य के कुछ यहाँ हिस्से प्रस्तुत हैं जिनमें स्वप्न केन्द्रीय भूमिका में है.


राकेश श्रीमाल  की  डायरी  के अंश                              








ना जी पाने का समेटना
      
वर्षों से नहीं मिले हमारे परिचितों से एकाएक जब स्वप्न में मुलाकात हो जाती है, तब उस स्वप्न की स्मृति करते वक्त, हम स्वप्न की नहीं वर्षों से नहीं मिले उन परिचितों की याद करने लगते है. ऐसा क्या घटता है कि वे अचानक स्वप्न में आकर हमें बहुत पीछे की दुनिया में खींच कर ले जाते हैं. मानो यह जता रहे हो कि यह जीवन भी तुमने जिया है, जिसकी वर्तमान में अब कोई जरूरत नहीं रही.


क्या स्वप्न हमारे जीवन की पटकथा को अदृश्य मानकर संतुलित हो, अपनी आंख से आगत-विगत सब कुछ देखता रहता है. ऐसे में वह किसी का पक्षपाती नहीं रहता. केवल स्वप्न रहता है और जीवन रहता है, जो कभी वास्तव में घटता है तो कभी नहीं घट पाता. जीवन में ऐसा बहुत कुछ शामिल रहता है, जो घट नहीं पाता. लेकिन उसके अपरोक्ष प्रभाव जीवन में ही इधर-उधर बिखरे दिखाई देते हैं जिसे थोड़ा बहुत हम समेट भी लेते हैं. यह ना जी पाने का समेटना है, जिसमें सबसे अधिक मदद स्वप्न ही करता है.

आखिर हम जिसे जी ही नहीं सके, उसे समेट कर क्या करते हैं. क्या हमारे मन के भीतर कोई ऐसी पोटली अपनी ढीली गाँठ बांधे पड़ी रहती है, जिसे हम जब चाहे खोलकर, इस ना जिए को भी उस पोटली में रख उसे फिर बांध देते हैं. जीवन में यह कितनी बार होता है. कितनी मर्तबा हमें वह पोटली खोलनी होती है और फिर उसमें धीरे से गांठ लगा दी जाती है, ताकि आइंदा उसे खोलने में मशक्कत नहीं करनी पड़े.

इस जीवन में उस पोटली में ना जाने कितना कुछ इकट्ठा होता रहता है, क्या वही थोड़ा-थोड़ा हमारे स्वप्न में भी कभी-कभी आ जाता है. उस पोटली में तो ऐसा भी बहुत कुछ होता है, जिसे हम भूल चुके होते हैं और ऐसा भी बहुत कुछ होता है, जिसे हम हमेशा याद रखना चाहते हैं.
हमारे नहीं रहने पर वह पोटली स्वतः ही खुल कर इस संसार में बिखर जाती है और कभी-कभार उसमें बिखरे दृश्य स्वप्न बनकर लोगों की नींद में प्रवेश कर जाते हैं, जो अभी दुनिया में उपस्थित है. स्वप्न क्या कभी मरते नहीं है.वे एक ही देह से निकल दूसरे की देह में समय-समय पर यात्राएं करते रहते हैं.

यह ना जी पाने का समेटना हमारे जीने के बाद भी समेटा हुआ रहता है. उस पर केवल उसी का थोड़ी देर का अधिकार होता है जब वह स्वप्न में यह देख रहा होता है.

फिर भी उस पोटली में हम बहुत कुछ ऐसा समेटते रहते हैं, जो हमें सबसे प्रिय है लेकिन हम से दूर हैं.
(20मार्च 2018, सुबह)




अनछुए  का  छुआ


प्रेम जब अकेला हो जाता है, तब न जाने किस-किस तरह से, किस-किस परिधान में और ना जाने किन-किन मौसम में वह स्वप्न में साथ देने लगता है. ऐसे प्रेम की स्मृति कुछ देर के लिए हमें हमारे प्रेम के पास चुपचाप बैठा देती है. थोड़ी सी ढलती साँझ होती है, कुछ शब्द बुदबुदाते हैं, देह सम्मान जनक तरीके से एक दूसरे को छूती रहती है. जिसे अनछुए का छुआ कहा जा सकता है. ऐसे में उसका दायां हाथ मेरे बाएं हाथ में अदृश्य हो छुप जाता है. धीरे-धीरे मैं उसे अपनी पूरी देह में महसूस करने लगता हूं. अब वह मेरे पास नहीं बैठी है. वह मेरे भीतर बैठी है जिसे मेरे सिवाय और कोई देख नहीं सकता.

क्या इस स्वप्न में वह जान रही है कि वह मेरे भीतर बैठी है और गहरी नींद में सोई हुई है. क्या मेरी देह में बैठे गहरी नींद लेते हुए वह कोई दूसरा स्वप्न देख रही है. अगर मैं उसके देखे जा रहे स्वप्न में हूं, तो मुझे नहीं पता कि मैं क्या कर रहा था. क्या मैं उसके पास बैठ उससे बात कर रहा हूँगा या फिर उसकी देह में अदृश्य होकर गहरी नींद में बिना कोई स्वप्न देखे सो रहा हूँगा.

आखिर मैं या वह कितनी जगह नींद निकाल सकते हैं और कितनी नींदों में स्वप्न देख सकते हैं. क्या स्वप्न में निभाई जा रही भूमिका हमारे भीतर चुपचाप दुबका बैठा व्यक्ति इसलिए करता है कि वह भी थोड़ी दुविधा और थोड़े आपसी संबंधों को देख ले. अपनी भूमिका खेल वह वापस अपनी जगह चला जाता होगा और उस स्वप्न की स्मृति में हम उसे अपने आप की तरह मान लेते हैं.

वैसे भी हमें, अपने आप को इस तरह से देखने और अनुभव करने को कम ही मिलता है.
(17मार्च 2018, सुबह)





असंभव से बाहर


कभी-कभी स्वप्न में ऐसा कुछ दिख जाता है, जो कि असंभव होता है. माँ के साथ उसका बैठना, बहुत काम करने पर माँ की धीमे से हंसते हुए डांट सुनना, मेरा चुपचाप बैठे रहना. जैसे स्वप्न में मैं मेरी ही जगह बैठकर उस स्वप्न को सुन रहा था. शायद माँ के लिहाज से उसने भी साड़ी पहन रखी थी.

इस स्वप्न की स्मृति को स्पर्श करते हुए मैं असंभव को संभव की तरह देख पा रहा हूं. अपने निधन के पहले क्या माँ के अवचेतन में ऐसा ही कुछ रहा था? क्या माँ भविष्य में यह लाने की क्षमता रखती थी. क्या माँ ने अपने किसी स्वप्न में उसकी शक्ल-सूरत एक अनजान व्यक्ति की तरह देख ली थी और क्या तब ही वह समझ गई थी कि उसके बेटे की इच्छा कभी इसी के साथ जीवन गुजारने की होगी.

लेकिन वह तो माँ की फोटो के सिवाय जानती ही नहीं थी. अलबत्ता माँ की स्मृति का स्मरण जरूर करती होगी. तब फिर वह स्वप्न में माँ से कैसे बात कर रही थी. वह भी आपस में इतना घुलमिलकर, कि मैं कुछ भी बोल नहीं पा रहा था या बोलने के लायक उस संवाद परिधि में मेरी कोई जगह नहीं थी. यह भी हो सकता है कि उस स्वप्न में माँ को और उसको यह भी पता नहीं हो कि मैं बैठा हुआ हूं. तब क्या मैं उस स्वप्न में अदृश्य होकर बैठा था. और अपनी अदृश्यता में ही उन दोनों को साथ बैठे देख रहा था जो कि वास्तविक जीवन में कभी नहीं घटा था.

स्वप्न का स्पर्श करते हुए लगता है कि वे हमारे अधूरे जीवन को अपने तई जैसे-तैसे पूरा करने का भोला प्रयास करने लगते हैं. वह हमारे जीवन को अपनी ऊंचाई से ढक कर सहज और सरल बनाने की कोशिश करते हैं. वास्तविक जीवन ठीक इसके विपरीत हमें हमारे ही प्रेम का उपयोग करने और फिर धीरे-धीरे दूर रहने की कुटिलताएँ सिखाता रहता है.
(19मार्च 2018, सुबह)





स्मृति का भूगोल


हमें पता भी नहीं रहता, जब हम गहरी नींद में सोए रहते हैं. अचानक हम किसी स्वप्न को देखने लगते हैं और उसमें भागीदारी करने लगते हैं. यह स्वप्न-गाथा बिना किसी आधार के कहीं से भी शुरू हो सकती है यह जीवन केहमारे परिचित घटनाक्रम के अंत के बाद भी शुरू हो सकती है या फिर बिना किसी सिरे के बंद आंखों से खोले गए किसी चितवन के पल की तरह उस पृष्ठ से पहले क्या लिखा था, यह उस समय ना स्वप्न को पता है, ना उसके दर्शक यानी मुझे. स्वप्न की कथा, अगर कोई कथा होती हो तो, कहां से शुरू होती है और कहां नींद के अचानक खुलने से उसका पटाक्षेप हो जाता है, कोई कभी नहीं समझ पाया.

स्वप्न की स्मृति से जब हम उसे समझने की कोशिश करते हैं, तो और अधिक उलझ जाते हैं. जैसे समय कोई घड़ी की सुई को घुमा रहा है और जब वह एकाएक कहीं भी उसे रोक लेता है, तब स्वप्न का समय शुरू हो जाता है, पता नहीं कितनी देर के लिए.  क्या रात की गहरी-बोझिल नींद में स्वप्न अपनी सेंध लगाकर समय के अस्थिर होने को थोड़ी देर के लिए स्थिर बनाकर उसे विराम दे देता है. ना मालूम ऐसे कितने स्वप्न  होते हैं, जो हमारे समय को अदृश्य विराम देकर गुम हो जाते हैं और कभी याद नहीं रह पाते.  हमारा देखा हुआभोगा हुआ और जिया हुआ ऐसा बहुत कुछ होता है, जो हमारी स्मृति में जगह नहीं बना पाता. हमारी स्मृति का भूगोल, जीवन के भूगोल से बहुत छोटा होता है. हम उस स्मृति केसीमित भूगोल में वही सब समेटते हैं, जो हमें प्रिय है, जिसे हमें अपनाया है या फिर जिसके लिए यह जीवन जिया जा रहा है.
(17मार्च 2018, दोपहर)




स्वप्न  के  आर  पार


जीवन में स्वप्न की प्रतीक्षा कभी नहीं की जा सकती. स्वप्न अप्रत्याशित ही आता है हमारा काम केवल उसे देखना भर होता है. देखना और उसमें शामिल हो जाना. नींद खुलने पर उसे याद किया जाना या कि यह बिल्कुल भुला दिया जाना कि बीती रात हमने स्वप्न देखा था, यह भी कुछ निश्चित नहीं होता. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि स्वप्न के कुछ हिस्से याद भर रह जाते हैं शेष विस्मृति में चला जाता है.

जो याद नहीं रहता, क्या वह स्मृति के लिए जरूरी नहीं होता? या वह इसलिए स्मृति में नहीं बना रहता कि हम उससे कभी मिल ना पाएँ, उसे स्पर्श ना कर सके.

जैसे हम किसी की प्रतीक्षा करते-करते समय बीतने के साथ-साथ थोड़ा उकता जाते हैं, थोड़ा झुंझला जाते हैं, लेकिन जैसे ही प्रतीक्षा पूरी होती है, हम हमारी खीझ को भूल मिलने लगते हैं. जैसे प्रतीक्षा करना कुछ हो ही नहीं. बिना किसी प्रतीक्षा के स्वप्न को भी हम उसी तरह गले लगा कर मिलते हैं, जैसे किसी अन्य का लंबी प्रतीक्षा के बाद.

स्वप्न देखते-देखते अचानक स्वप्न का गुम हो जाना हमें किसी प्रतीक्षा में अवाक् अकेला कर देता है. अपने साथ प्रतीक्षा स्वप्न के खत्म होने के बाद शुरू होती है, उसकी स्मृति की प्रतीक्षा से, स्मृति पर ज़ोर दिए  जाने की प्रतीक्षा से.

किसी आते स्वप्न का स्पर्श किसी प्रतीक्षा को छूने जैसा होता है.दृश्यमान स्वप्न में यह छूना इतना अदृश्य रहता है कि हम उसे छूते हुए स्वप्न की काया के आर-पार निकल जाते हैं.

क्या स्वप्न हमारी काया में रमे होते हैं?
(1मार्च 2018, सुबह)




बिना किसी पटकथा के


जीवन उतना  पारदर्शी नहीं होता, जितना कि स्वप्न होते हैं. हम उनकी स्मृति में भी उनके आर-पार जा सकते हैं. विभिन्न धरातलों पर उनकी कही अनकही बातें और दिख रहे को छूकर टटोल सकते हैं. कि यह असली है या नकल. यह दीगर बात है कि जीवन के असली या नकली होने को पकड़ना आसान खेल नहीं होता. उसके लिए एक पूरा जीवन लगता है और जब हम यह समझने लगते हैं, तब हमारी ही विदाई हमें पुकार रही होती है.

स्वप्न नकली हो सकते हैं, लेकिन वे धोखा नहीं देते. हम जिसे धोखा समझते हैं, वह खुद ही उसे उपस्थित करते हैं और धोखे की तरह अनुभव करने लगते हैं. जीवन धोखा दे सकता है, लेकिन स्वप्न नहीं. अगर नींद स्वप्न-रहित हो जाए, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि व्यक्ति सोया और जाग गया. उसने कुछ किया ही नहीं. तब क्या स्वप्न देखना हमारी नींद की प्रक्रिया का कोई ऐसा हिस्सा है, जिसे हम कुछ करना कहसकें. हमारे अपने जीवन के बाहर कुछ करना, हमारे करने की परिधि से बाहर आ कुछ करना. स्वप्न देखना यानी कुछ ऐसा करना, किसी कोई भी पूर्व-योजना हम ने नहीं बनाई थी. हम सो रहे होते हैं और करवट बदलते रहते हैं कि अचानक कोई स्वप्न शुरू हो जाता है. हम उसमें बेहद चुपके से शामिल हो जाते हैं. और कभी-कभी अपना ही किरदार निभाने लगते हैं, बिना किसी पटकथा को पढ़े हुए स्वप्न के सभी पात्र अपने संवाद बोलते रहते हैं. जो कि किसी आश्चर्य की तरह हमारी-अपनी बोलचाल की भाषा में ही होते हैं.

हम स्वप्न देखते समय उन संवादों का अर्थ समझ लेते हैं. लेकिन उस स्वप्न की स्मृति में उन शब्दों का अर्थ खोजते रहते हैं.
(15मार्च 2018, दोपहर)




भले और अपने


कभी-कभी जीवन इतना सहज और सरल लगने लगता है, जैसे कि एक-दो दिन से अभी लग रहा है, मानो उसका कोई विशेष अर्थ ही ना हो. अर्थहीन होने से नहीं, बल्कि अर्थ विशेष की व्यर्थता तमाम इतिहास से लगभग हाँफती हुई, वर्तमान में कुलाँचे मारने लगती है.

ऐसा ही कुछ स्वप्नों की स्मृति के साथ भी लगने लगा है. उतनी ही सहज और सरल, उतनी ही अर्थबोधता से अलग-थलग खड़ी हुई. सच तो यह है कि जीवन का कोई भी अर्थ, विशेषकर व्यवहारिक अर्थ मुझे इन दिनों कुछ अधिक ही नापसंद आने लगा है. क्या सहजता और सरलता बिना किसी अर्थ के संभव नहीं है. तब क्या स्वप्न देखने का कोई विशेष अर्थ इसलिए भी नहीं है की वह सहज और सरल है. लेकिन बाद में उस स्वप्न को याद करते हुए उसे स्पर्श करते हुए हम उसका मनचाहा अर्थ निकाल लेते हैं. ऐसा अर्थ जो हमारी सुविधानुसार होभले ही वह सच ना हो.

कभी कभी बिना सच के भी सहजता और सरलता सच से अधिक भावपूर्ण लगने लगती है. क्योंकि हम उसे पसंद करते हैं और उसमें एक विशिष्ट किस्म का सुख हमें मिलता है जो किसी दूसरे को दिखाई नहीं देता अक्सर व्यक्ति दूसरों के सच को ही अपना सच समझने की गलतफहमी में रहता है. स्वप्न शायद इसी गलतफहमी को दूर करते हैं. हमारे स्वप्न किसी दूसरे को पता नहीं चलते, इसलिए वह चाहे जो भी हो, लेकिन पराए नहीं लगते. भले ही हमारे वास्तविक जीवन में स्वप्न के पात्र पराए हों. वे स्वप्न में भले और अपने से लगते हैं.
(16मार्च 2018, शाम)






मेरी  आंखों  को  ढके  उसके  बाल


कभी-कभी कुछ स्वप्न अपने घटने में भी और फिर उस की स्मृतियों में जादुई असर छोड़ देते हैं. जैसे हमने कोई स्वप्न नहीं, असल में बिना किसी पूर्व योजना के अचानक जादू ही देख लिया हो. कुछ हतप्रभ और कुछ विस्मृत रहते हुए. ऐसे स्वप्न देखते हुए हम भी उस जादुई स्वप्न के पास हो जाते हैं.मानों जादू करते भी हैं और देखते भी हैं. जादूगर की वेशभूषा और सफ़ेद लंबी टोपी भले ही अनुपस्थित रहती हो, लेकिन कुछ ऐसा घटता है, जिसे केवल जादू ही कहा जा सकता है.

ऐसे में वह पानी में तैरती रहती है, मैं उसके बहुत नीचे तैरता रहता हूं. हमारे तैरने की आवाज़ें सांसो की तरह निशब्द लयकारी कर रही होती हैं. हम दोनों एक दूसरे की विपरीत दिशा में तैर रहे हैं लेकिन फिर भी साथ-साथ ही तैर रहे हैं.  हम तैरते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, पानी का रंग भी धीरे-धीरे बदलने लगता है. हमने पानी को कभी उस रंग में नहीं देखा था. कभी-कभी लगता कि हम पानी में नहीं, हवा में तैर रहे हैं.हम्मरी देह से टकराने पर वृक्षों पर लगी पत्तियों की सरसराहट सुनाई दे रही है. हवा में तैरते-तैरते हम किसी बरगद के बहुत पुराने पेड़ के एक बड़े तने पर लेट गए हैं. वहां खूब सारे पक्षी पहले से सोए हुए हैं. एकाएक हवा में ठंडक जैसी महसूस हुई और फिर हवा में एक नई गंध फैल गई कुछ कुछ क्लोरोफॉर्म जैसी. जिसमें हॉस्पिटल में ऑपरेशन से पहले देह विशेष को निष्क्रिय कर दिया जाता है. हमें भी उसकी गंध से नींद आने लगी. हम दोनों एक दूसरे से टिक कर सो गए. उसका पता नहीं, लेकिन मैं यह पहली बार स्वप्न में खुद को सोते हुए देख रहा था जबकि उसके सिर के बाल मेरी आंखों को ढके हुए थे.
(14मार्च 2018, शाम)




जीवन  और  स्वप्न  के  बीच


पार्क की पार्क की तरफ जाने वाली सड़क जहां खत्म होती, वहीं से पार्क का घुमाने वाला लोहे का छोटा दरवाजा शुरू हो जाता. भीतर कुछ बच्चे गेंद को फुटबॉल की तरह खेलते रहते. हम शाम को थोड़ी देर पार्क की जिस बेंच पर बैठे रहते, वह गेंद रूपी फुटबॉल ठीक हमारे बीच आ गिरती.वह गेंद स्वप्न की सूत्रधार बन जाती. और हमें पता ही नहीं चलता कि हम पार्क में बैठे हैं या स्वप्न की किसी अदृश्य बेंच पर. वह गेंद  उठा लेती और बच्चों के साथ खेलने लगती.यह उसे सबसे अधिक खुशी देता और मुझे भी यह सब देखते हुए अच्छा ही लगता.वह बच्चों को खेलने के कुछ गुण भी सिखाने लगती है. ऐसे में उसका व्यक्तित्व किसी कोच जैसा नहीं, बल्कि उन बच्चों के बीच सहज रुप से घुला मिला रहता है. एकाएक वह बच्चों के बीच से गुम हो जाती और बेंच के पीछे की तरफ से आकर मेरे पास मुस्कुराते हुए बैठ जाती.
                      
मैं उसे छेड़ता,‘चलने का मन है,चलें.
किधर’, वह बोलती.
उसकी आंखों में देख बोलता- या तो जीवन में वापिस चलते हैं या स्वप्न में.
दोनों जगह चलते हैं नावह चिर परिचित नालगाकर बोलती.
अभी हम कहां पर हैं. जीवन में या स्वप्न में.मैं उससे पूछता.
फिलहाल तो दोनों के बीच में खड़े हैं.वह बोलती.

तभी एक बच्चा अपने हाथ में गेंद लेकर आता और उससे कहने लगता - दीदी, सभी बच्चे आपके साथ थोड़ी देर और खेलना चाहते हैं.”  वह मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए उन बच्चों की तरफ चली जाती.

मैं सोच रहा हूं कि मेरे साथ कोई खेल रहा है? कहीं मैं ही तो अकेला अपने साथ नहीं खेल रहा.
(15मार्च 2018, सुबह)





अतल  पातल  की  गूँज


वह अधनींद थी या आधा-अधूरा अवचेतन.  वह स्वप्न था, या स्वप्न जैसा मैं देख रहा था. उसमें वह भी दिखाई नहीं दी थी. मेरे नाम को उसने अपने उच्चारण में सहानुभूति के साथ पुकारा था. उस नाम के पहले ना कोई शक्ल, और ना ही उसके बाद में. नाम भी केवल एक बार बोला गया. वह मेरे मन में बहुत देर तक ऐसे गूँजता रहा, जैसे उसने मेरे नाम की वह आवाज़ मेरे मन के गहरे और अतल पाताल में से लगाई हो.और वह रह रह कर मेरे भीतर ही गूँज रही हो. उसके पुकारे गए मेरे नाम में एक दर्द, एक कशिश महसूस हुई थी. लग रहा था जैसे कोई साथ में बैठकर मेरे हाथों को सहलाकर मुझे ना मालूम क्या तसल्ली दे रहा हो. पर सच तो यह है कि मुझे अच्छा लगा था. आख़िर इतना भी कौन करता है और क्यों करेगा.

अगर वह वास्तव में ऐसा कर रही थी, तो क्यों कर रही थी. क्या अपने बहुत सारे बिखरे हुए मन के किसी छोटे हिस्से में वह मुझे भी यूँ ही सहेजे हुए है. कभी कभी अपनी स्मृतियों को टटोलने के लिए.

क्या वह अपने स्वप्नों में इन स्मृतियों को खोजती होगी और कभी-कभी उन्हें स्पर्श भी करती होगी. क्या वह वैसा ही सानिध्य स्पर्श होता होगा, जब वह सब वास्तव में किसी मौसम में घट रहा होगा. तब की बजाय उस घटे हुए को स्वप्न में देखते हुए उसे स्पर्श करना अधिक सुखकर लगता होगा. उसके अवचेतन का कुछ हिस्सा भी इसी सुख में डूब जाता होगा.
(14मार्च 2018सुबह)




स्वप्न  की  ओट  में

वह किसी गांव के खेतों के बीच बनी बड़ी पगडंडी थी. उस परवह धीरे-धीरे बैलगाड़ी को खुद जोतते हुए जा रही थी.  मैं खेत के मुहाने पर वृक्षों के ऐसे झुरमुट के पीछे खड़ा था, जहां से मैं तो उसे देख सकता था, लेकिन वह मुझे नहीं देख पा रही थी.  वह बैलगाड़ी रोककर मुझे ही देख रही थी. मुझे लगा कि मैं उसके देखे जा रहे स्वप्न की ओट में कहीं दुबक कर खड़ा हूं.

स्वप्न की ओट में खड़े रहकर स्वप्न को देखना क्या स्वप्न में शामिल होना नहीं होता है? हम रहते भी हैं और नहीं भी रहते. जैसा कि प्रेम में अक्सर होता है. वह क्षुद्र किस्म के स्वार्थों और तात्कालिक फायदों में ही अपने को परिपूर्ण समझ लेता है. और हम सच की ओट में जैसे ठिठके खड़े रहते हैं.

भाषा-शास्त्र भले ही ना माने, जीवन में कई मर्तबा ऐसी अनुभूति होती है कि शायद प्रेम और स्वप्न  एक दूसरे के पर्याय हैं. कभी कोई स्वप्न प्रेम की तरह घटता रहता है, तो कभी प्रेम किसी स्वप्न की तरह.स्वप्न भी उसी तरह धीरे-धीरे अंतर्मन में रचता-बसता होगा, जैसा कि प्रेम. प्रेम क्या वास्तव में कुछ और नहीं है सिवाय स्वप्न के. थोड़े से अंतराल के बाद खत्म होने वाला.फिर स्वप्न में ही कभी-कभी अपने ही प्रतिरूप की तरह दिखाई देने वाला. या फिर स्वप्न में ही हमेशा घटने वाला. या जीवन में ही स्वप्न की तरह घटने वाला.
(14मार्च 2018, दोपहर)





स्वप्न  की  काया


कभी-कभी लगता है कि समय तेजी से नष्ट होता जा रहा है. मैं वह नहीं कर पा रहा हूं, जो मैं सोचता रहता हूं. जैसे स्वप्न आते हैं और आपके जीवन में उससे कभी कुछ फर्क नहीं पड़ता.सिवाय उसकी मानसिकता में थोड़ा सा सकारात्मक या नकारात्मक बदलाव लाने के.

जब हम स्वप्न को याद कर रहे होते हैं, एक तरह से उसे स्पर्श कर रहे होते हैं. उसकी उसकाया को, जिसे हम बहुलता में कई अर्थों में हमारे सोचने में देख पाते हैं. स्वप्न को इस तरह से देखना ही स्वप्न का स्पर्श करना है. लेकिन क्या स्वप्न भी इस स्पर्श को महसूस कर पाता होगा. वह क्या हमारे देखने की काया को स्पर्श कर पाता होगा या फिर हमारी अपनी काया को. शायद दोनों को ही नहीं. हम तो स्वप्न को देख सकते हैं, लेकिन स्वप्न शायद हमें नहीं देख पाता होगा.

बीते समय के घने-बीहड़-अंधेरे जंगलों से होते हुए पर्वतों के सिरहाने रखी चट्टानों को पाटकर हमारे पास पहुंचते होंगे स्वप्न. उनकी पटकथा भी क्या वे ही लिखते होंगे या बीता हुआ समय अपने कुछ टुकड़ों को जोड़कर एक ऐसी फ़तांसी रच देता होगा, जिसमें सच क्या है? और झूठ क्या? घटा क्या है? और घटने वाला क्या है? यह स्वप्न देखने वाले को मालूम ही नहीं रहता. वह तो स्वप्न देखते समय केवल यही सोचता रहता है कि वह जीवन ही जी रहा है. जिसे बाद में शायद वह अपनी स्मृति में स्पर्श कर पाए.
(12मार्च 2018)





समझ  से  परे  घटता  समय


एक बार उसने फोन पर कहा था  मैं अब समझ गई हूं आपको.अब यह याद नहीं कि उसने ऐसा वास्तव में कहा था या स्वप्न में.स्वप्न भी कभी-कभी सच बोल देता है और वास्तविक जीवन झूठ. लेकिन यह कौन करता है? बोलने वाला आया सुनने वाला. दोनों अगर एक मेल नहीं है तो कोई तो एक है जो गलत सोच रहा है, निरर्थक अर्थ निकाल रहा है. लेकिन यह कोई सर्वमान्य नियम नहीं है कि एक व्यक्ति के लिए जो गलत हो सकता है, वह खुद अपने को पूर्णतया सही मानता हो.

क्या एक-दो घटनाओं से कोई व्यक्ति किसी को ठीक-ठीक समझ भी सकता है. या ऐसा कहना उसकी सहज तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है.यह भी भला कोई कैसे समझ सकता है?

हम किसी व्यक्ति के बारे में जो भी कुछ समझना चाहते हैं, दरअसल वह व्यक्ति खुद ना तो इसे समझ पाता है और ना ही समझना चाहता है. जीवन में बहुत कुछ समझ से परे भी घटता है और एकाएक इतनी जल्दी घटता है कि उसके घट जाने के बाद भी हम पूर्ववत उसकी तरफ से नासमझ ही होते हैं.अलबत्ता, कुछ दिनों तक वह घटा हुआ हमारे साथ इस तरह चस्पाँ रहता है कि हम उसे अलग करके खुद को देख ही नहीं पाते.

स्वप्न का स्पर्श भी हमारे मन की किसी अबूझ जगह पर चस्पाँ रहता है. हम नहीं, उसे केवल समय ही उखाड़ सकता है.

समय इतने सारे लोगों के अनगिनत स्वप्नों को उखाड़कर आखिर इस ब्रम्हांड में किस जगह एकत्र करता होगा.
(13मार्च 2018)




कोई  दूसरा  ही  जीवन


लिखना अब मेरे लिए उतना ही जरूरी लगता है जैसे नींद आने के पहले अपना मनचाहा स्वप्न देखने की सहज इच्छा. लिखना मुझे अवचेतन स्थिति में ले आता है या फिर मैं अपनी अवचेतना में ही लिख पाता हूं. यह ठीक-ठीक पता नहीं. लेकिन फिलहाल यह गर्मी की शुरुआती  दोपहर  है  और  मैं  यह लिख रहा हूं.

कई दिनों से सड़क पर नहीं निकला हूं. ना ही किसी परिचित से कोई बात हो पाई है. फोन नहीं है, इंटरनेट का तो सवाल ही नहीं. अखबार देखे भी अरसा हो गया है. खुद के साथ रहते हुए ऐसा लग रहा है, जैसे खुद को ही सबसे अधिक भूल गया हूं. अलबत्ता खुद का नाम जरूर याद रहता है.

यह कोई दूसर ही जीवन है, जो मैं पहली बार जी रहा हूं. ना कोई इच्छा शेष है, ना कोई विस्मृति. कभी-कभी स्मृतियां अधनींद में जरूर खींचकर ले जाती हैं. लेकिन खुद ही मुस्कुराने का सिलसिला शुरू नहीं हो पाता.स्मृतियाँ पूरी देह को भिगो जरूर देती है. लेकिन आंखों तक आते-आते वह सारी नमी शुष्क हो जाती है. और पीछे की तरफ देखना जैसे किसी सूखे कोटर से झांकना हो.

अब कभी-कभी लगने लगता है कि किसी को याद करने से आखिर क्या होता है? क्या वह भी हमें याद करने लगे, यह जरूरी तो नहीं. लेकिन फिर भी याद करना एक भला, भोला और अच्छा काम लगता है.याद करना जैसे किसी पार्क की बेंच पर साथ-साथ चुप बैठे रहना.

किसी को याद करना भी अपने आप में चुपचाप हो जाना होता है. वैसे भी, चुप हुए बिना हम किसी को याद कर नहीं सकते.
(10मार्च 2018)





स्पष्ट  भाषा  की बुदबुदाहट


उसके ऐसे बहुत सारे अनकहे शब्द मेरी अपनी स्मृतियों में किसी जादुई लिपि की तरह रखे हुए हैं. बीच-बीच में कुछ शब्द निकाल कर उसे अपने ही अर्थों में पढ़ लेता हूं और थोड़ी देर के लिए खुश हो जाता हूं.   क्या यह मेरा पागलपन है? या फिर कोई ऐसा विश्वास, जिसे मैं आजीवन संतुलित हो बनाए रखना चाहता हूं. भला इसमें किसी का नुकसान तो नहीं हो रहा है? उसका भी तो नहीं, जिसकी अनकही बातें मेरी स्मृतियों की गुफाओं में ना समझ आने वाली अस्पष्ट भाषा में बुदबुदा रही है. ऐसा करके क्या वह अपने आप से ही बात कर रही है. या फिर वह ऐसा कुछ बोलना चाह रही है जो कि वह बोल नहीं पा रही. उसके बुदबुदाया गए शब्दों की परिधि जब भी मेरे मन से टकराकर किसी प्रतिध्वनि की तरह उसकी तरफ लौटती होगी, तब भी क्या वह उसका अर्थ नहीं समझ पाती होगी.

क्या वैसे भी वह स्पष्ट रूप से बोले गए शब्दों का अर्थ कभी-कभी समझ पाती है? वह प्रतिक्रिया देने में इतनी तत्पर रहती है मानो वह केवल इस तरह के सवाल का ही इंतजार कर रही हो. अमूमन अतीत और भविष्य उसके जवाब में शामिल नहीं होता. वह तत्काल में उत्तर देती है और प्रायः तत्काल में ही गुम रहती है. अपने ही भविष्य के प्रति अनजाना डर ज़रूर उसके मन के किसी कोने में ना मालूम किन-किन फ़िक्रों के नीचे छिपा ज़रूर रहता होगा.
(11मार्च 2018, सुबह)

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राकेश श्रीमाल
         (१९६३, मध्य-प्रदेश)
tanabana2015@gmail.com

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