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रुस्तम : तब भी, इस बाहुल्य में

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(Virginie Demont Breton - FISHERMAN'S WIFE AFTER BATHING CHILDREN , 1881)




रुस्तम जीवन में भी मितभाषी हैं और यह समझते हैं कि जीवन आराम से जीने वाली चीज है जिससे कि आप दीगर आवाज़ों को भी सुन सकें जो शोर और भागमभाग में अनसुनी रह जाती हैं. बहुत तेज़, भव्य और आक्रामक जीवन शैली दरअसल बाज़ार और पूंजी का खेल है जिसमें आप भी एक वस्तु बन जाते हैं.
इधर उनके मनन और लेखन के केंद्र में पृथ्वी  बनी हुई है. पशु-पक्षी-नदी-पहाड़-हवा-पानी और मनुष्यता के सवाल इस ग्रह के अस्तित्व से ही जुड़े हैं.
आज उनका जन्म दिनहै ६३ साल को हो गए हैं. उनके सृजनात्मक जीवन की शुभकामनाएं.

लम्बी कविता
तब भी, इस बाहुल्य में                                 
रुस्तम 





तब भी
इस बाहुल्य में
कहीं कोई कमी है ---
जहाँ ‘प्रेम’ ने अपनी परिभाषा बदल ली है,
जहाँ ‘नहीं’ में भी ‘हाँ’ ही आकर बैठ गया है, और
‘नहीं छुअन’ भी अब केवल छुअन, छुअन है,
‘नहीं’ शब्द
टूटता है.
फूल के
(अ)हृदय में
राख उड़ रही है.



* * *
जो कमी है (इस भयंकर प्रेम में भी) उस प्रकाश में है जो अपने भीतर ही एक बिन्दु पर आहत है, अक्षम है.
इसी एक बिन्दु से (वह जो अन्धेरा है) एक बिलख की आवाज़ फूटती है और मेरे कानोँ में सुनायी पड़ती है.
कौन है यह आवाज़ ? क्यों चहुँ ओर भटकती फिरती है ? अपने केंद्र से छिटक गयी (?) हिरणी जो अब केवल कहानियों में मिलती है.
इस आवाज़ की देह छोटी, मुँह विकराल है. इस आवाज़ ही से मुझे जूझना है यह मुझे पता है. अब यही मेरे (कवि) कर्म की स्थली होने जा रही है.
निश्चित ही इस आवाज़ का सम्बन्ध मेरी देह से है. देह वो आँगन नहीं है जहाँ देवगण उतरते हैं और एक झुण्ड में इकट्ठे होकर शून्य का मनन करते हैं.
स्वयं शून्य ही नहीं हैं क्या ये देवगण ? फिर भी वे उतरते हैं यदि उन्हें निश्चय कर बुलाया जाये.
यह निश्चय
देह को रौंदता है.
रौंद दी जाकर भी देह वापिस उठ खड़ी होती है. वह कड़ी है.
कड़ी, यानि बिलख. अश्रु.
ये अश्रु विरह के भी हैं जब देह स्वयं से अलग होती है, और एक अन्य देह से भी.
तब भी, क्या यह न्यायपूर्ण नहीं है ?
उस आवाज़ से जूझना इस प्रश्न से भी जूझना है.
कौन पूछता है यह प्रश्न ? केवल ‘मैं’ नहीं या ‘तुम’ (यह जो ‘मस्तिष्क’ है या ‘दम्भ’, यह जो ‘मानस’ है).
स्वयं देह भी यह प्रश्न पूछती है जब वह हट रही होती है. यह भी न्याय ही है.
तब भी कैसा है यह न्याय ! अश्रुओं से भरा हुआ ! या अश्रुओं से खाली. यह प्रश्न मुझे ही क्यों पूछना था.
मेरे ही हिस्से में आना था यह मनन, देह-विहीन यह तपस्या देह की. क्या मैं भाग्यशाली हूँ कि इस दुःख के लिए केवल मुझे ही चुना गया ?
देवगण मुझ पर प्रसन्न हैं, मैं उनका प्रिय हूँ. वे रातों के मौन में उतरते हैं, मेरे यहाँ आते हैं, अब मेरे दिनों को भी रातों में बदलने के लिए, मुझे इस तीखी रोशनी से बचाने के लिए, मुझे संसार से मुक्त कराने.
देह यह संसार है. प्रेम उसका उद्दात्त रूप है, पर रूप इसी का है, रूप ही बस, इसका प्रत्यक्ष, इसका प्रकटन भर.
मुझे प्रेम से मुक्त होना है, यह तय है.
प्रेम से मुक्ति काव्य से मेरी मुक्ति होगी. यह दुःख है.
काव्य प्रेम ही है. काव्य मोह है, आसक्ति. काव्य आसंग है, यानि यह संसार.




* * *
तो मैं कवि नहीं रहूँगा ! यह सुख भी मुझे लौटा देना होगा ? मेरा हृदय फट रहा है. चिन्तित हैं देवगण. उनके चेहरों पर मेरे लिए करुणा है. यह करुणा अब मेरा भी लक्ष्ण होने जा रही है. मेरा मन दौड़ रहा है दो उल्टी दिशाओं में. मैं बंट गया हूँ. मुझे चीरा जा रहा है स्वचिन्तन की धार से. देखो मैं लथपथ हूँ. यह मेरा ही रक्त है जो बह रहा है. चिन्तित हैं देवगण. चिन्तित हैं और प्रसन्न हैं. मैं भी प्रसन्न हूँ. मैं तपस्या में हूँ. काव्य-चिन्तन कर रहा हूँ. काव्य नहीं, काव्य-चिन्तन ही मुझे मिला है. यही मेरे कर्मों का प्रतिफल है. देह को त्यागने की यही मेरी सज़ा है.
आगे
फिर वही आवाज़ है.



* * *
बार-बार आती है यह आवाज़ – यह बिलख – इस पाठ में, अपनी जगह बनाने या अपनी जगह बताने, इस तरह कि जैसे यह पहले ही से उसकी जगह है, उसका न्यायसंगत स्थान. वैध, जो उसका हक है.
यह आवाज़ काव्य की आवाज़ है चिन्तन के भीतर में, उसे काव्य-चिन्तन बनाते हुए.
काव्य-चिन्तन,
यानि लयपूर्ण सोच,
लयपूर्ण मनन,
या मननपूर्ण लय.
मननपूर्ण सामंजस्य, या आवर्तनक्योंकि वह आखण्ड है, निरन्तर है और इसलिए अभग्न भी है,
अभंग है.
इस तरह यह मात्र ‘होने’ से, ससीम से परे चला जाता है.
‘होने’ से परे जाना उसका देह से परे जाना है. और यही मुझे मिला है.
पर यह दुःख ही है.



* * *
यह दुःख मेरी देह का दुःख है. इन शब्दों में देह मेरी बोल रही है.

यह बोलना (या लिखना) देह का अपने ‘भीतर’ से संवाद है, अपनी ‘हस्ती’ से, अपने ‘मूल’ से जहाँ वह ‘आदि’ है, ‘आद्य’ है और इसलिए ‘अनादि’ भी है.

इस तरह देह भी चिरन्तन है, अध्वन्स्य है. पर यह संसार का चिरन्तन है.

देह मुक्त नहीं है. वह अपनी अमुक्ति में चिरन्तन है. इसीलिए वह दुखी भी है.

इस पाठ में (और अब यही मेरा पाठ रहे होने जा रहा है) मुझे इस अमुक्ति में से निकलना है, वह आँगन बनाना है जिसमें स्वप्न नहीं है. मौन का आँगन, रोशनी और वाचालता से बचा हुआ.

इस पाठ में मुझे उस अन्धेरे बिन्दु को फैलाना है जहाँ से बिलख फूटती है और रोशनी से टकराती है.




* * *

यह पाठ तपस्वी है, संन्यासी है. यह प्रेम से विमुख है, पर विरह से च्युत नहीं है. न ही यह विरह दुःख है. वह दुःख से परे, उससे बड़ी है. उसकी संगिनी भी नहीं है. इस विरह का रूप विराट है, फिर भी वह मनुष्यी है, मनुष्य ही की जनी हुई है.

उसे नाम नहीं दूँगा.

उसे नाम नहीं दूँगा.

मुझे देवगणों का प्रिय बने रहना है.




* * *

आते हैं देवगण. उन्हें देख मैं फफक पड़ा हूँ.

मेरा हृदय फट चुका है, मृत्यु को पा चुका है. तब भी बिलख का अन्धेरा वहाँ बना हुआ है.

नाम नहीं दूँगा.

मैं किस विरह से ग्रसित हूँ ?

नाम नहीं दूँगा. मत कहो कि इसे नाम दूँ, उस विरह को जो अपना नाम छोड़ चुकी है.

उस नाम की जगह एक अन्धेरा बिन्दु है, एक विश्व खुला हुआ.

नाम नहीं दूँगा. मैं कैसे उसे नाम दूँ ? कहाँ से लाऊँ वो औज़ार जो उस सौन्दर्य को उतार लें, उसे खड़ा कर दें ?

यह अलंकर्ण असम्भव है.




* * *

फफक रहे हैं देवगण.

उनकी गालों पर अन्धेरा किर रहा है.

जो स्पर्श्य नहीं है, उसे क्या नाम दूँ ? मेरी उँगलियों के पोरों पर अन्धेरा है.

नाम नहीं दूँगा. मात्र इसमें रहूँगा. स्वयं देवगण मेरे लिए विह्व्ल हैं.

कहाँ से आते हैं ?

कहाँ लौट जाते हैं ?

कौन हैं वे, रोशनी में अन्धेरे के समुद्र ?

नाम नहीं दूँगा. मैं उन्हें नाम नहीं दूँगा. नाम देकर मैं उन्हें अपवित्र नहीं करूँगा, क्योंकि सर्वत्र नाम ही है. नाम जो कि ‘चिन्ह’ है, वह जो ‘पदार्थ’ है. पद जमा अर्थ, जिस तरह वह ‘प्रेम’ में है. ‘प्रेम’ जो कि नाम ही है, एक वाचाल शब्द,

मौन

का

भंजक. नाम नहीं दूँगा. नाम बहुत रोशन है. वह सूर्य है, दिन है. उसमें   

शोर है, खड़खड़ है. नाम नहीं दूँगा. नाम में दर्शन है. दर्शन, यानि ‘दम्भ’. नाम नहीं देने का यह श्रम प्रेम के श्रम से कहीं ज़्यादा मुश्किल है. मुझे इस पाठ को नाम से बचाना है. इसलिए मैं इसे उस शब्द की तरह पढूँगा जो कि अभी नहीं है.

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कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : ३०  अक्तूबर 1955) "रुस्तम"नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह "मेरी आत्मा काँपती है"सूर्य प्रकाशन मन्दिरबीकानेरसे २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह "रुस्तम की कविताएँ"वाणी प्रकाशननयी दिल्ली,से २००३ में छपा था. "तेजी और रुस्तम की कविताएँ"नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ीतेलुगुमराठीमलयालीस्वीडी,नॉर्वीजीएस्टोनि तथा फ्रांसीसी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. किशोरों के लिए ‘पेड़ नीला था और अन्य कविताएँ'  एकलव्य प्रकाशन से २०१६ में प्रकाशित हुई हैं.
उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगे तथा लार्श आमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें "सात हवाएँ" तथा "शब्द के पीछे छाया है" शीर्षकों से वाणी प्रकाशन,दिल्लीसे प्रकाशित हुईं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थानशिमलातथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्रदिल्लीमें फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली", मुंबईके सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धाकी अंग्रेजी पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेजडिस्कोर्स,राइटिंग" के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयनयी दिल्लीमें विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com  
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कविता वीरेन : सदाशिव श्रोत्रिय

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कविता पढ़ते हुए हाशिये पर हम उसका प्रभाव या कोई बात जो इस बीच अंकुरित हुई है लिखते चलते हैं. यह भी एक तरीका है संवाद का. वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं के संग्रह ‘कविता वीरने’ पर ये टिप्पणीयाँ इसी तरह की हैं. कविता को समझती और खोलती हुईं.


विता    वीरेन                                  

सदाशिव श्रोत्रिय        




वीरेन डंगवाल की कविता का मूल मंत्र  प्रेम है. प्रेम-भाव से यह कवि लबालब भरा है. अपने इस प्रेम के दायरे में वह न केवल “पेप्पोर,रद्दी पेप्पोर !” (कविता वीरेन, नवारुण प्रकाशन. 2018, पृष्ठ 254) के बैसाख की तपती गर्मी में रद्दी की तलाश मे निकले किसी बच्चे को ले सकता है, वह उसमें चिड़ियों,बंदरों,हाथियों आदि को भी ले लेने में समर्थ है :


चीं चीं चूं चूं चीख चिरौटे ने की मां की आफ़त
तीन दिनों से खिला रही है तू फूलों की लुगदी
उससे पहले लाई जो भंवरा कितना कड़वा था
आज मुझे लाकर देना तू पांच चींटियां लाल
वरना मैं खु‌द निकल पड़ूंगा तब तू बैठी रोना
जैसे तब रोई थी जब भैया को उठा ले गई थी चील
याद है बाद में उसकी खु‌शी भरी टिटकारी ? ’
                            
(मानवीकरण , वही, पृष्ठ 268 )


इस कवि की यह विशिष्ट प्रेम-क्षमता इतनी अद्भुत है कि वह डीज़ल इंजन, जलेबी,समोसे, लहसुन आदि निर्जीव कही जाने वाली वस्तुओं को भी प्रेम की ऐसी नज़र से देख सकता है कि वे एकबारगी उसकी कविता का विषय बन जाएं :


आओ जी, आओ लोहे के बनवारी
अपनी चीकट में सने-बने


यह बिना हवा की पुष्ट देह, यह भों-पों-भों
आओ पटरी पर खड़कताल की संगत में विस्मृत हों सारे आर्त्तनाद

आओ, आओ चोखे लाल
आओ चिकने बाल
आओ, आओ दुलकी चाल
पीली पट्टी लाल रुमाल

आओ रे, अरे उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे
के रे, केरे ?
                                            
(डीज़ल इंजन , वही, पृष्ठ 185 )

कवि के रूप में वीरेन डंगवाल का यह गुण दुर्लभ और आश्चर्यजनक है क्योंकि आज की दुनिया में जिस चीज़ की तेज़ी से कमी होती जा रही है वह प्रेम ही है. प्रेम का उलट आत्मकेंद्रितता है और हम देख रहे हैं कि व्यक्तिवाद और आत्मकेंद्रितता में दिन-दूना रात-चौगुना इज़ाफ़ा हो रहा है. ऐसे में यह बात मन में आती है कि  व्यापारिक मानसिकता से उपजी इस स्वार्थपरता का काट क्या कहीं वीरेन डंगवाल जैसे संवेदनशील कवियों की कविता में भी ढ़ूंढा जा सकता है ?

परम्परिक दाम्पत्य सम्बंधों में भी प्रेम की जिस आत्मीय गहराई तक यह कवि पहुंचता-पहुंचाता है वह सचमुच विलक्षण है. “प्रेम कविता” (वही, पृष्ठ 51) में वह एक बुद्धिजीवी पति और उसकी समर्पित भाव से गृहस्थी चलाने वाली पत्नी के बीच के जटिल-मधुर-कोमल सम्बंधों का अत्यंत काव्यात्मक चित्रण करता है :

प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जलूल
बेसर-पैर कहां-से-कहां तेरे बोल !

कभी पहुंच जाती है अपने बचपन में
जामुन की रपटन-भरी डालों पर
कूदती हुई फल झाड़ती
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से ,
कभी सोचती है अपने बच्चे को
भांति-भांति की पोशाकों में ,
मुदित होती है


इस कविता के माध्यम से कवि यह  साबित कर देता है कि गृहस्थी का वह रूप भी, जो कि बहुत ज़्यादा नारी-स्वातंत्र्य या गैरबराबरी के नारों से  संचालित नहीं है, जिसमें पति और पत्नी की रुचियां अलग-अलग तरह की और अलग-अलग स्तर की हैं  और जिसमें पति और पत्नी की भूमिकाएं  परम्परा द्वारा पूर्वनिर्धारित और पूर्वस्वीकृत हैं, एक अप्रकट किंतु आत्मीय और अत्यंत गहरे दाम्पत्य-प्रेम की संभावनाओं को छिपाए रख सकता है :


हाई स्कूल में होमसाइंस थी
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फिल्में तो धन्य
प्यारी !
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुंह से उसांसें छोड़ती है फू-फू
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हंसी नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती आंखें
बिना मुझे छोटा बनाये हल्का-सा शर्मिंदा कर देती है
प्यारी


किंतु इसी कविता में  आगे जब यह कवि इस दाम्पत्य-प्रेम के एक अनूठे ब्रह्मांडीय आयाम से अपने पाठक का परिचय करवाता है तब हमें उसकी दुर्लभ रचनात्मक क्षमता का सही-सही अनुमान हो पाता है :

दोपहर बाद अचानक में उसे देखा है मैंने
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाये
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र
यों कई शतब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !


समूची मानवता को जोड़ कर देखने वाला एक विश्वव्यापी प्रेम हमें वीरेन डंगवाल की अनेक कविताओं में यत्र-तत्र बिखरा मिलता है. उदाहरण के लिए उनकी “ उठा लंगर खोल इंजन” (वही, पृष्ठ 288) को ही लिया जा सकता है जिसे वे  अपने जहाजी बेटे पाखू के लिए लिखी एक स्कूली

कविताकहते हैं :
उठा लंगर, छोड़ बंदरगाह !
नए होंगे देश,भाषा,लोग, जीवन
नया भोजन,नई होगी आंख
पर यही होंगे सितारे
ये ही जलधि-जल
यह आकाश
ममता यही
पृथ्वी यही अपनी प्राणप्यारी
नएपन की मां हमारी धरा.

हवाएं रास्ता बतलाएंगी
पता देगा अडिग ध्रुव         चम-चम-चमचमाता
प्रेम अपना
दिशा देगा
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा
लिहाज़ा,
उठा लंगर खोल इंजन छोड़ बंदरगाह !

यह वह कवि है जो निराशापूर्ण से निराशापूर्ण स्थितियों में भी अपना हौसला बनाए रखता है और आशावादिता का दामन नहीं छोड़ता :

आदमी है  आदमी है  आदमी
आदमी कम्ब‌‌ख़्त का सानी नहीं है
फोड़ कर दीवार कारागार की इंसाफ़ की ख़ातिर
तलहटी तक ढूंढता है स्वयं अपनी थाह.


उसे पूरा विश्वास है कि तमाम सामाजिक,वैचारिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों के बावजूद मानवता की प्रगति कभी रुकेगी नहीं :

हम नए हैं
पुनर्नव संकल्प अपने
नया अपना तेज़
उपकरण अपने नए
उत्कट और अपनी चाह

सो धड़धड़ा कर चला इंजन

उठा लंगर
छोड़ बंदरगाह.

वीरेन जी के अदमनीय आत्मविश्वास का एक अनूठा उदाहरण मैं उनकी कविता “बांदा” (वही, पृष्ठ 152) में भी पाता हूँ. यह छोटी कविता इस तरह है :

मैं रात, मैं चांद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल.

मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास.
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल.
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार.


इस कविता में हम दो भिन्न- भिन्न प्रकृति  के बिम्ब  देखते हैं. एक ओर जहाँ इसमें  मोटे कांच के गिलास, ख़ुद पर टूटती हुई लहर, अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में फैलते अपने अकेलेपन, चुपचाप रोती एक बूढ़ी ठठरी भैंस, खाली पुरानेपन की बास और “खपडै़ल” के नकारात्मक बिम्ब हैं वहीं  दूसरी ओर  इसमें चाँद, नींद , चांदनी , जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार, केदार जी, तीर्थस्थल केदारनाथ और अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध तीर्थ बूढ़े केदार के सकारात्मक बिम्ब भी हैं.

भिन्न प्रकृति के इन  बिम्बों के माध्यम से यह कवि इस कविता में क्या  कहना  चाहता है ?


बाँदा के वातावरण में  यह कवि आज  शायद  एक प्रकार की पतनशीलता को व्याप्त पाता है. वह नगर जो पहले कभी कृष्ण राय, मस्तानी, बाजीराव के नाम  और उनके नवाबी ठाठ–बाट से जुड़ा रहा  था अब जैसे  बदहाली, प्रगतिशून्यता, साधनविहीनता, भुखमरी और जर्जरता से घिर गया  है.



कोई भी पाठक अनुमान लगा सकता है कि कवि की बांदा यात्रा के दौरान उसे किसी पुराने रेस्टहाउस में ठहराया गया है जो शायद अब अक्सर खाली रहता है और जिसमें  आवश्यक रखरखाव की कमी और साफ़- सफ़ाई न होने  के  कारण कोई पुरानी  बदबू बराबर बनी रहती है. रेस्ट हाउस के किसी कमरे में  कुछ देर सोने  के बाद कवि की नींद उड़ गई है और अब वह पुनः सो नहीं पा  रहा है. कुछ देर बाद उसे दूर से किसी कुत्ते का मनहूस  रुदन सुनाई देता है और  कुत्ते के इस रुदन में कवि जैसे अपने खुद  के अकेलेपन को फैलता हुआ महसूस करता है. रेस्ट हाउस के बाहर फ़ैली चांदनी में  कवि को एक  बूढ़ी भैंस दिखाई दे जाती है जो पर्याप्त घास के अभाव में ठठरी हो  गई है.  भूख और अभाव को कवि व्यापक रूप से उस पर्यावरण के  ही एक हिस्से के रूप में देखता है   जिसमें कवि स्वयं  जी रहा है. इसीलिए वह भैंस के निःशब्द रुदन को भी सुन सकता है. रेस्ट हाउस खाली-खाली, महंगी कटलरी  से शून्य और पुराना है. जैसे इस अभाव, फटेहाली और सौन्दर्यात्मक पतन को अभिव्यक्ति देने के लिए ही  कवि के मन में खपरैल के बजाय खपड़ैल शब्द उभरता है.


पतनशीलता (decadence) का भाव कविता में स्पष्ट  है. बांदा अब वह नगर  नहीं रहा जो वह पहले कभी हुआ करता था. यहाँ के अतिथि-गृहों में पतले कांच वाली  महंगी  कटलरी का स्थान अब मोटे कांच के गिलासों ने ले लिया  है. अतिथिगृह के आसपास का रात्रिकालीन वातावरण श्वान-रुदन के अशुभ और आशंकापूर्ण  संकेतों और भैंस की  मरणान्तक भुखमरी के दृश्यों से भरा है.

पर एक कवि इस निराशा और पतनशीलता के  बीच भी  सौन्दर्य और अमरत्व खोजने  की अपनी कोशिश नहीं छोड़ता. इस खोज में उसकी आत्मा उन चीज़ों में प्रवेश करती है जो समय  के साथ भी सौंदर्यविहीन, पुरानी  और आनंदशून्य नहीं हुई हैं  :

मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार.


एक कवि के नाते वीरेन केदारजी के साथ अपना साम्य खोज लेते हैं. वे केदार जी की तुलना में कम अनुभवी, कम परिपक्व और कम प्रसिद्ध कवि हैं. पर फिर भी वे एक केदार की उपस्थिति अपने भीतर भी महसूस करते हैं. कविता में  केदार और बूढ़ा केदार का साथ-साथ प्रयोग उसे एक अतिरिक्त आयाम भी दे देता है– किसी तीर्थस्थल की सी  पावनता का आयाम.  कवि होने के नाते वह अपनी कल्पना उस चहुँओर व्याप्त  पतनशीलता से अप्रभावित इन्सान  के रूप में भी कर पाता है. अन्य लोगों की तुलना में  उसमें कुछ विशिष्ट है: जैसे अन्य स्थानों की तुलना में एक तीर्थस्थान में कुछ विशिष्ट होता है.


अपने बारे में यह विशिष्टता-बोध ही अंतत: कवि को उस निराशा भाव से बचा लेता है जो पतनशीलता के इस वातावरण में उसे पूरी तरह लील लेने को उतारू है. अपने आत्मविश्वास और आशावादिता को इस तरह यह कवि इस कविता के माध्यम से एक बार पुन: अपने लिए लौटाने में कामयाब होता है.
_____________________                                5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,
उदयपुर -313001, राजस्थान.
मोबाइल -8290479063  

रूमी की ग़ज़लें : अनुवाद बलराम शुक्ल

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(रूमी का मक़बरा,कोन्या, तुर्की)








शायर-सूफी मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी (३० सितम्बर, १२०७) की रूबाईयां और ग़ज़लें विश्व की सभी भाषाओँ में अनूदित हुईं हैं, एक ही भाषा में कई-कई बार हुईं हैं. पर इन कविताओं का नशा कहीं से भी कम होता नज़र नहीं आता. हर पीढ़ी अपने लिए रूमी को खोज़ती है और मायने तलाश करती है. प्रेम, वियोग, अध्यात्म और काव्य-सौन्दर्य के इस सागर में अब भी ताज़गी है.

संस्कृत के कवि और फ़ारसी के विद्वान बलराम शुक्ल ने रूमी की ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद किया है. तीन गज़लें मूल (देवनागरी लिपि) और अनुवाद के साथ आपके लिए.



           



रूमी की ग़ज़लें              
(फ़ारसी से हिंदी अनुवाद बलराम शुक्ल)






 दीदे ए दिल दीदे

१.
आशिक़ शुदे ई ऐ दिल, सौदा-त मुबारक बाद
अज़ जानो मकान रस्ती, आन्जा-त मुबारक बाद



इश्क़ हो गया है तुम्हें ऐ दिल! तुम्हारा यह जुनून तुम्हारे लिए मुबारक हो.
जहाँ (प्रेम के राज्य में) जाकर तुम जानो जहान से छूट गये, वह जगह तुम्हारे लिए मुबारक हो.



२.
अज़ हर दो जहान बुग्ज़र, तन्हा ज़नो तनहा ख़्वर
ता मुल्को मलक गूयन्द तन्हा-त मुबारक बाद



अब तो तुम दोनों जहान से किनारा कर लो. अकेले ही ढालोअकेले ही पिओ
ताकि इस संसार के आदमी और उस संसार के फ़रिश्ते, दोनों कह उठें- तुम्हारी तनहाई तुम्हारे लिए मुबारक हो. 


३.
 कुफ़्र-त हमगी दीन शुद तल्ख़-त हमे शीरीन् शुद
हल्वा शुदे ई कुल्ली हल्वा-त मुबारक बाद



तुम्हारा सारा अधर्म धर्म में बदल गया, तुम्हारी सारी कटुता मधुरता में बदल गयी.
तुम नख से सिख तक हल्वा बन गये हो. यह हल्वा तुम्हें मुबारक हो.



४.
दर ख़ानक़हे सीने ग़ौग़ा-स्त फ़क़ीरान् रा
ऐ सीने ए बी कीने ग़ौग़ा-त मुबारक बाद


दिल के ख़ानक़ाह में  फ़क़ीरों का शोरो गुल मचा हुआ है.
ऐ मेरे निर्बैर दिल! ये शोरो गुल तुम्हें मुबारक हो.



५.
ईन् दीदे ए दिलदीदे अश्की बुदो दर्या शुद
दर्या-श हमी गूयद दर्या-त मुबारक बाद


आँखों ने मेरे दिल को देख लिया है. पहले ये आँखें आँसू थीं अब समन्दर हो गयी हैं.
इन आँखों का दरिया तुमसे कहता है कि ये दरिया तुम्हें मुबारक हो.



६.
ऐ आशिक़े पिन्हानी आन् यार क़रीन-त बाद
ऐ तालिबे बालाई, बाला-त मुबारक बाद




ऐ छिपे हुए आशिक़! तुम्हारा यार तुम्हारे नज़दीक हो जाये.
ऐ ऊँचाई की ख़ाहिश रखने वाले! तुम्हारा क़द तुम्हें मुबारक हो.



७.
ऐ जाने पसन्दीदे, जूयीदे व कूशीदे
परहा-त बेरूयीदे परहा-त मुबारक बाद



ऐ मेरे प्रेमास्पद प्राण! तुमने बहुत खोज की, बहुत मेहनत की.
अब तुम्हारे पंख उग आये हैं. ये पंख तुम्हें मुबारक हों.




८.
ख़ामुश कुनो पिन्हान् कुन बाज़ार निकू कर्दी
कालाअजब बुर्दी काला-त मुबारक बाद



चुप भी हो जाओ, अब बन्द भी करो. प्रेम के बाज़ार में तुमने नफ़े ही नफ़े कमाये.
अद्भुत चीज़ें ख़रीद लीं तुमने. तुम्हारी ख़रीद तुम्हें मुबारक हो.





 आबे हयाते इश्क़


१.
आबे हयाते इश्क़ रा दर रगे मन रवाने कुन
आइने ए सबूह रा तर्जुमे ए शबाने कुन



प्रेम के अमृत को हमारी नसों में प्रवाहित करो,
रात में जो बीती, सुबह के शराब के आइने को उसका अनुवादक बनाओ.





२.
ऐ पिदरे निशाते नौ! दर रगे जाने मा बोरौ
जामे फ़लकनुमाय् शौ, ,ज़ दो जहान् कराने कुन


तुम हमारे इस नये आनन्द के जनक हो, हमारी आत्मा की धमनियों में बहो.
तुम वह जाम बन जाओ जिसमें सारे आसमान दिखायी पड़ने लगें और फिर दोनों जहान से किनारा कर लो.




३.
ऐ ख़िरदम शिकारे तू! तीर ज़दन शुआरे तू
शस्ते दिल-म बे दस्त कुन जाने मरा निशाने कुन



तुम्हारी तीर चलाने की आदत ने मेरी बुद्धि को अपना शिकार बना लिया है.
मेरे दिल का कमान अपने हाथों में लो और मेरी आत्मा को भी अपना निशाना बना डालो.



४.
गर अससे ख़िरद तो रा मन्अ कुनद अज़् ईन् रविश
हीले कुनो अज़ू बिजह दफ़्अ देह-श, बहाने कुन



अगर तुम्हारा अक़्ल पहरेदार की तरह तुम्हें ऐसा करने से रोकता है
तो कोई भी बहाना करके, किसी भी तरीक़े से, या तो उससे भाग जाओ या उसे भगा दो.




५.
ऐ कि ज़े ला,बे अख़्तरान् मात् ओ पयादे गश्ते ई
अस्ब गुज़ीन्, फ़ुरूज़ रुख़ जानिबे शह दवाने कुन



तुम सितारों के उलझाऊ खेल में हार कर पैदल हो गये हो.
अब अपना घोड़ा ख़ुद चुनो और चमकते हुए चेहरे के साथ शह (प्रिय) की ओर दौड़ पड़ो




६.
ख़ीज़, कुलाहे कज़ बिनेह, ,ज़ हमे दाअम-हा बिजेह
बर रुख़े रूह बूसे देह ज़ुल्फ़े निशात शाने कुन



उठ जाओ, अपनी तिरछी टोपी पहन लो और सभी बन्धनों से छलांग लगा लो.
 आत्मा के गालों पर चुम्बन जड़ दो और आनन्द के बालों में कंघी करो.





७.     
चून्कि ख़याले ख़ूबे ऊ ख़ाने गिरिफ़्त दर दिल-त
चून् तू ख़याल गश्ते ई दर दिलो अक़्ल ख़ाने कुन




उस प्रिय के हसीन ख़यालों ने अगर तुम्हारे दिल में घर बना लिया है
तो तुम भी ख़याल की तरह होकर (उसके) दिल और अक़्ल में घर बना लो.





८.     
शश जिहत-स्त ईन् वतन क़िब्ले दर् ऊ यकी मजू
बीवतनी,स्त क़िब्लागह, दर अदम् आशियाने कुन



तुम्हारा घर छहों दिशाओं में है.
तुम किसी एक दिशा में क़िब्ला (प्रार्थना की दिशा) मत खोजो. तुम्हारा क़िब्ला बेवतनी है.
अपना घर अनस्तित्व में बसाओ.


९.     
कुहने गर,स्त ईन् ज़मान् उम्रेअबद मजू दर् आन
मरत्ए उम्रे ख़ुल्द रा ख़ारिजे ई ज़माने कुन


काल का काम ही है बूढ़ा बनाना. इसलिए अनन्त जीवन की इच्छा मत रखो.
स्वर्ग के हरे भरे निरन्तर जीवन को इसी क्षण पर न्यौछावर कर दो.




१०.    
हस्त ज़बान् बिरूने दर, हल्क़ादर चि मी शवी
दर् बिशिकन् बे जाने तू सूरवान् रवाने कुन



भाषा दरवाज़े से बाहर की वस्तु है. तुम दरवाज़े की कुंडी क्यों बन रहे हो?
जान भर जोर लगा कर दरवाज़ा तोड़ डालो और आत्मा की ओर दौड़ पड़ो.


            






तू मरौ


१.
गर रवद दीदे ओ अक़्लो ख़िरद् ओ जान, तू मरौ
कि म-रा दीदने तू बेहतर अज़् ईशान, तू मरौ




अगर मेरी आँखें, अक़्ल, दानिश और जान, ये सारी चीज़ें चली जाती हैं तो चली जायें.
बस तुम न जाना. क्योंकि तुम्हें देखते रहना, मेरे लिए इन सबके होने से बेहतर है.
बस तुम न जाना!





२.
आफ़ताब् ओ फ़लक् अन्दर कनफ़े साये ए तू-स्त
गर रवद ईन फ़लक् ओ अख़्तरे ताबानतू मरौ



यह सूरज और यह आसमान सब तुम्हारी छाया में है.
अगर यह आसमान या यह चमकदार सितारा गुम हो जाता है, तो  हो जाये.
बस तुम न जाना!



३.
ऐ कि दुर्दे सुख़न-त साफ़तर् अज़ तब्ए लतीफ़
गर रवद सफ़्वते ईन तब्ए सुख़नदान, तू मरौ



तुम्हारी बातों की तलछट भी मेरे लिए प्रभावपूर्ण वक्तृत्वों की अपेक्षा प्रियतर है.
अगर सुख़नशनासों की सुन्दर बातें गुम भी हो जाए तो भी तुम मत जाना!



४.
अह्ले ईमान् हमे दर ख़ौफ़े दमे ख़ातिमतन्द
ख़ौफ़-म् अज़ रफ़्तने तू-स्त्, ऐ शहे ईमान, तू मरौ



सारे ईमान वाले मौत के डर से डरे हुए होते हैं.
लेकिन मुझे तो सिर्फ़ तुम्हारे जाने से डर लगता है.
ऐ मेरे शाहे ईमान, तुम कहीं न जाना!



५.
तू मरौ, गर बेरवी, जाने मरा बा खुद बर
,र मरा मी न बरी बा ख़ुद अज़् ईन् ख़ान तू मरौ




तुम न जाओ, और अगर जाना ही है, तो मेरी जान भी साथ लेते जाओ.
और अगर मेरी जान नहीं ले जा सकते तो तुम भी इस जगह से मत हिलो!




६.
बा तो हर जुज़्वे जहान् बाग़चे ओ बुस्तान-स्त
दर ख़ज़ान् गर बेरवद रौनक़े बुस्तान, तू मरौ



                   तुम्हारे साथ संसार का कण कण बग़ीचा और गुलिस्तान की तरह है.
अगर तुम्हारे बिना गुलिस्तान की रौनक़ पतझड़ बन जाती है तो तुम जा ही क्यों रहे हो?



७.
हिज्रे ख़ीश-म मनुमा, हिज्रे तू बस संगदिल-स्त
ऐ शुदे ला,ल ज़ तू संगे बदख़्शान तू मरौ



अपना विरह मुझे न दिखाना, तुम्हारा विरह बड़ा ही पत्थर दिल है.
तुम्हारे सम्पर्क में आने से तो बदख़्शाँ  प्रान्त के पत्थर भी माणिक हो जाते हैं, तुम न जाना!


८.
के बुवद ज़र्रे कि गूयदतू मरौ ऐ ख़ुर्शीद
कि बुवद बन्दे कि गूयद बे तू सुल्तानतू मरौ



एक ज़र्रे की क्या बिसात कि वह सूरज से कहे कि तू न जा!
 किसी ग़ुलाम की क्या हिम्मत कि वह सुल्तान से कहे कि तू न जा!




९.
लीक तू आबे हयाती हमे ख़िल्क़ान् माही
अज़ कमाले करम् ओ रह्मत् ओ एहसान तू मरौ



लेकिन, तुम तो अमृत के स्रोत हो और बाक़ी सारे प्राणी मछलियों की तरह है.
 अपनी कृपा, रह्मत और उपकार भाव से विवश होकर तुमन जाओ!



१०.
हस्त तूमारे दिले मन बे दराज़ी ए अबद
बर नविश्ते ज़े सरश ता सू ए पायान तू मरौ 


मेरे दिल की बही अनन्त काल की तरह लम्बी है.
  जिस पर शुरुआत से अन्त तक बस यही लिखा हुआ हैतू न जा! तू न जा!
_______
(‘नि: शब्द नूपुर’ पुस्तक ईरान सरकार, वर्धा अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के सहयोग से राजकमल ने छापी है.)
_______________________________



डा. बलराम शुक्ल : (19 जनवरी 1982, गोरखपुर) 
संस्कृत और फारसी के अध्येता
बा̆न विश्वविद्यालय जर्मनी द्वारा पोस्ट डा̆क्टोरल के लिये चयनित, राष्ट्रपति द्वारा युवा संस्कृतविद्वान् के रूप में बादरायण व्यास पुरस्कार ” से सम्मानित, द्वितीय ईरान विश्वकवि सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु तेहरान तथा शीराज में आमन्त्रित. 
 संस्कृत कविता संकलन परीवाहः” तथा “लघुसन्देशम्” का प्रकाशन. 
मुहतशम काशानी के फ़ारसी मर्सिये का हिन्दी पद्यानुवाद– रामपुर रज़ा लाइब्रेरीआदि आदि
सम्प्रति : सहायक प्रोफेसर
संस्कृत विभागदिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली ११०००७
ईमेल संकेत– shuklabalram82@gmail.com/

सहजि सहजि गुन रमैं : सुघोष मिश्र

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(फोटो आभार : H. C. Bresson)



हिंदी कविता की दुनिया युवतर कवियों से आबाद है. ये कवि अपनी समझ और निपुणता के साथ जब सामने आते हैं तो विस्मय  होता है और आत्मिक ख़ुशी का कारण बनते हैं.

एक नए कवि से जो आप उम्मीद रखते हैं, सुघोष की कविताएँ उन्हें पूरा करती हैं. आकार में अपेक्षाकृत लम्बी कविताओं को साध कर उन्होंने कुछ अतिरिक्त भी किया है. इसके साथ यह भी कि वह एक अच्छे फोटोग्राफर भी हैं.    

उनकी पांच कविताएँ आपके लिए.




सुघोष   मिश्र   की  कविताएँ                      







ईश्वर


अंतिम बार देखा गया उसे
सूखे वटवृक्ष के तले
अपराजेय का विशेषण खो चुके
किसी महान योद्धा की तरह
घुटनों पर बैठे
किसी अकिंचन की भाँति दीन
चिंतातुर और शोकग्रस्त
जैसे कोई असफल रचनाकार
अपनी किसी कल्पना से पराजित
अपनी ही आत्मा से निर्वासित.

चाँदनी नदी में सेवार-से बिखरे
केश श्वेत सर्प-मंडली-से दिखते
चिंता की श्रेणियों-सी उलझी दाढ़ी
बरोहों-सी लटकती भू छूती
जिसमें झूलती थीं मकड़ियाँ और मृत तितलियाँ
वटवृक्ष के जड़ों-सी बेडौल अंगुलियाँ
किसी साधक के निश्चय-सी दृढ़
प्रिय के कटुवचन-सी नुकीली
धरती को ऐसे जकड़ती थीं
जैसे प्रेम छूटने से पहले गहता है हृदय
कवि पकड़ता है अपनी अस्वीकृत कृति
मृत्यु से पूर्व थामता है कोई चारपाई के पाट.

निर्बल बाहु काँपती थी परोपकारों के भार से
गर्दन झुक गई थी स्तुतियों की मार से
मुख अनवरत दैवीय स्मित से दुखता था
वह अपनी ही धूप में जलता
अपनी ही बारिश में भीगता
अपनी ही शीत में ठिठुरता था
उसके दिल के कोटर में रहती थी गिलहरी मरी हुई
उसकी सूखी आँखों से झाँकती थी तड़पती मछली.

उसकी कल्पनाएँ ब्रह्मांड से विराट थीं कभी
पराक्रम शताधिक आकाशों से ऊँचा
सृजनशीलता सहस्र महासागरों से गहरी
और ऊर्जा कोटि सूर्यों से बढ़कर थी
उसकी श्वासों से गतिमान थे तारकपुंज
धमनियों में तिरती थीं आकाशगंगाएँ
उन्माद के चरम पर पहुँच
विखंडित हो गया वह अनंत तत्त्वों में
बनाया एक मंजुल चित्रफलक
कुछ रंग चुनकर रची चराचर सृष्टि
ऊर्जा और चेतना की कूँचियों से
भर दिया उन्हें विभिन्न आकृतियों में
स्वयं को सौंप दिया कला को सम्पूर्ण
अंत:स्थ को सकुशल पुनर्रचित कर
श्रम सिंचित सौंदर्य बिखेर दिया
रूप-शब्द-रस-गंध और स्पर्श में,
पुनः देखा पूर्वप्रयासों की ओर
और नवनिर्मित को भर लिया अंक में
एक सद्य:प्रसूता के औत्सुक्य से निहारा उसे
डूब गया सृजन के असीम सुख और अपूर्व थकान में.

तदनन्तर देखा उसने
उसकी अपनी वह कृति
छिटक चली जा रही दूर
बना रही नई आकृतियाँ स्वयं
भर रही नए रंग
उसमें अब नई कलाएँ और सभ्यताएँ हैं
भूख है, शोषण है, दमन है
नए-नए ईश्वर हैं : शक्तिशाली किंतु नश्वर
परिश्रमी ग़ुलाम उनके : कलावंत कृशकाय
अपनी रचना से पीड़ित
वह अधिक निष्ठुरता से करती
निर्माण और ध्वंस
ध्वंस और निर्माण
अंशपूर्ण सौंदर्य को करती अस्वीकार
दैवीय नियंत्रण से मुक्त
वह अग्रसर होती पूर्णता की ओर
अपने समूचे बिखराव के साथ.

सृष्टि उसकी युगों की साधना थी
एक अभूतपूर्व विराट स्वप्न
यथार्थ में स्वातंत्र्य-पक्षधर
प्रथम विद्रोही
जो कामना से उपजी थी
और प्रेम बन गई
मात्र कला न रह जीवन बन गई
कर्ता को कर गई
एकाकीपन के लिए चिर अभिशप्त
सशंकित उसने चीख़ते हुए कहा
ईश्वर से नहीं हो सकतीं ग़लतियाँ !
कौन है मेरी प्रेरणा के पीछे ?
कहाँ है मेरा निर्माता ?

उसने हरसंभव शोध किये किंतु गया हार
निर्वात की नीरवता को मथ डाला
प्रचंड विक्षोभ से
किंतु नष्ट न कर सका अपनी कृति को
मोहवश
प्रायश्चित के तरीक़े अपनाए अनंत
किंतु असंतुष्ट रहा
कृतियाँ नष्ट कर देती हैं कर्ता को
स्वयं रह जाती हैं सुरक्षित
कलाएँ दीर्घायु होती हैं
कलाकार का रक्तपान कर ,
वह हताश हो उठा
विचारों के ज्यामितिक संतुलन पर टिकी
भावों की अमूर्त ऊष्मा से अनुप्राणित
सृष्टि को आरम्भ में ही
छोड़ चला गया अधूरी
उस पर अंकित कर
अस्पष्ट अज्ञात हस्ताक्षर.

अब वह प्रकाश को भी देदीप्यमान करता
प्रकट नहीं होता
अभेद्य अंधेरों में विलीन हो गया है
अपनी कलाओं से उपेक्षित
कृतियों से तिरस्कृत
रचनात्मक व्याधियों से पीड़ाग्रस्त संक्रमित
वह न्याय की गुहार नहीं लगा सकता
किसी चिकित्सक के पास नहीं जा सकता
सिर्फ़ हँसता है या रो देता
ख़ुद पर तरस नहीं खाता
ज्ञान-भक्ति-योग की कोई राह नहीं पहुँचती उस तक
कलात्मक महत्त्वाकांक्षाओं के तड़ित में
झलक जाता है कभी-कभार.

वह शोक से ऊबकर रहस्य बन गया
अपनी ही परछाईं से भयभीत
छुप गया ग़लतियों के गह्वर में
किसी मासूम कीड़े की तरह
ओह !
ईश्वर !
वह एक पागल कलाकार था.




सूखी बावली

एक शहर है दिल्ली
जिसके एकांत में हर जगह
प्रेमरत युगल या सम्भोगरत कबूतर आश्रय पाते हैं
दिन ढलने के बाद यहाँ प्रेत उड़ते होंगे शायद
या प्रेमियों के स्वप्न जागते होंगे
नशे के धंधे होते होंगे या वेश्यावृत्ति
मालूम नहीं
ये बूढ़ा चौकीदार बता सकता है या कुछ पुलिस वाले.

मुझे यहाँ एक परछाईं भर की तलाश है
जो मेरे एकांत में तनिक झाँक ही जाय तो चैन मिले
इतना ख़ाली हूँ भीतर से कि भरा-भरा रहने लगा हूँ
कहाँ-कहाँ नहीं भटकता-फिरता हूँ,
इस वासंती साँझ जहाँ बैठा हूँ
धूप किसी पीले अजगर-सी थकी
सरकती जा रही है बादलों पर
जो ख़ुद उतर जाएगी पश्चिम की घाटी में
विशालकाय लाल कीड़े को खाने
और यहाँ छोड़ जाएगी लम्बी परछाईं का केंचुल
अजीब है ये दिल्ली की साँझ !

दिल की फ़ितरत भी अजीब है
पत्थर हो जाने पर भी धड़कनों का सोता फूटता रहता है
आत्मा गीली रहती है आख़िरी साँस तक
अनुपस्थितियाँ काई-सी जमी रहती हैं स्मृतियों में
रिक्तियाँ चमगादड़ों-सी चीख़ती हैं खण्डहरों में
सुख-दुःख ताक-झाँक जाते जब-तब खिड़कियों से
सीढ़ियों से उतरता प्रेम लहू के निशान छोड़ जाता है
आत्मीयताएँ व्यतीत होकर नष्ट नहीं होतीं किंतु
चमक खोकर भी वैभवशाली बनी रहती हैं,
बीतता समय दर्ज होता रहता है मिट्टी की डायरी में
इतिहास समय का रथ है कलाएँ उसमें जुते घोड़े
कलाकर है सारथी : मनस्वी अनुशासित शक्तिमान.

यह अग्रसेन की बावली है
दिल्ली के सीने में धँसी हुई
किसी हत्यारे के तीर की तरह नहीं
माधवी के प्रेम-सी गहरी और शीतल
रानी जब उतरती थी बावली की सीढ़ियाँ
लाल-बलुए-पत्थर पलाश-फूल-से दहकते थे
भीगने से मुख पर आसंजनित केश
नाग-चन्द्र-सम्बंध का औचित्य सिद्ध करते थे
राजा के दुकूल बावली के दोनों सिरे छूते थे,
अहंकारी अट्टालिकाएँ आहों तले दब जाती हैं
प्रेम के प्रतीक बचे रहते हैं युगों तक
बावली बची है अब पानी सूख चुका है ...
गुम गया यहाँ रात्रिविश्राम करते शहंशाहों, फ़क़ीरों, व्यापारियों, बंजारों का इतिहास
उनके कहकहे, थकान और गीत बचे हैं
तृप्ति बची है उदासियाँ बची हैं,
किंवदंती है कि सूखने से पहले
इसमें जमा हो गया था काला पानी
जिसमें डूब गए अनगिनत सम्मोहित जन
ये दिल्ली की प्रेतबाधित जगहों में शामिल है इन दिनों
यहाँ से सिर्फ़ ढाई किलोमीटर दूरी पर है संसद भवन.

वैसे मैं अधिक उम्मीद नहीं कर सकता इस जगह से
इसकी गहराई मेरे विषाद को और गहराती है
कितनी देर से मेरी आँखें लगी हैं इसकी सतह पर
कितनी बार मेरी दृष्टि लुढ़कती रही इन सीढ़ियों पर
कितनी बार मैं ख़ुद को गिराता रहा हूँ कितनी ही नीचाईयों में
ओह! यह बावली
मुझे धरती के गर्भ तक नहीं पहुँचा देगी
मूल तक पहुँचने की सारी संभावनाएँ चुक गई हैं,
व्यर्थ है यहाँ बैठना जीवन जितना
मुझे तत्काल जलानी होगी सिगरेट
उठ जाना होगा पागलपन का बोझ उठाए
पहाड़गंज में पीनी होगी शराब
रात भर मुझे सड़कों पर लगेंगी ठोकरें
रात भर मैं तारों से करूँगा बात
रात भर मेरी आँखों से झड़ती रहेगी रेत
रात भर मैं चाँदनी से धुलूँगा अपनी आँख.


















यात्रा


असफलता मात्र एक स्थिति है
अभाव है अस्थाई समस्या
असामाजिकता कायरतापूर्ण बचाव.

एकांत है दैनंदिन युद्धभूमि में हत्यारों से लड़ने का पूर्वाभ्यास
अँधकार एक मलहम है अंत:स्थ घावों के लिए
प्रकाश आत्महत्या के विरुद्ध एक जिजीविषा.

आँखें साक्षी हैं सब कुछ पीछे छूटते जाने की
दृष्टि है अतीत की धूल झाड़ती हुई
वर्तमान में धँसकर देखने की तमीज़.

अनगिनत अग्निपथों का ताप सहते हुए पाँव हैं
कई नरकों से बाहर निकल आने की उम्मीद.

जीवन जो एक बहुमूल्य हार है
शृंखलाबद्ध दुर्घटनाओं से जड़ित
मृत्यु है इसके परित्याग का स्थाई सुख.

यात्रा इन सबके बीच एक सम्भावना है
खिड़की एक खुला आसमान
अतीत के चलचित्र देखती डूबती यादें हैं.

प्राची की सेज पर अलसाई है मुग्धा भोर
दिवस को सुकृत से कांतिमय बनाती दिव्या दोपहर है
अंशुमाली की बाट जोहती बैठी है आगतपतिका शाम
प्रेयस् को नीलकमल से लुभाती अभिसारिका रात है.

साथ हैं
स्त्रियाँ, पुरुष और बच्चे
हिजड़े, भिखमंगे, चने और चाय वाले
ड्राइवर, गॉर्ड, टीटी, पुलिस
मज़दूर, किसान, नेता और चोर
कवि, क्रांतिकारी, भूखे हुए लोग
हत्यारे, दलाल, खाकर अघाए लोग
पागल और मरीज़
शराबी और प्रेमी,
बीड़ी-सिगरेट पीते लोग
समोसे-पकौड़े खाते लोग
उलटियाँ करते और नाक-भौंह सिकोड़ते लोग
झूठ के धंधे करने वाले
सच की बेगारी करने वाले
न जाने कितने सारे लोग
देसी-परदेसी और विदेशी लोग.

बेजान पटरियों पर
चिंगारियों के फूल खिलाती
मिलन-बिछोह के दो स्टेशनों बीच
उम्र भर भागती,
हवाओं का हृदय बींधती हुई
रेलगाड़ी
एक कविता है
जो यात्रियों को उपमाओं की तरह नहीं ढो रही.



















मृत्यु

(मेघ गर्जन)

वर्षा का नैरंतर्य टूटता नहीं :
युद्धभूमि बन जाती कीचसनी
मुक्त आकाशीय मंच,
नाटक यह त्रासद
अभिनेता नहीं योद्धा यहाँ
सहृदय प्रेक्षक नहीं कोई
निर्मम हत्यारे हैं.

अगनपाखी-से उड़ते अस्त्र
बिखेरते भूमि पर ऊष्ण गाढ़ा रक्त
तड़ित-सी गोलियाँ घातक
बेंधतीं हुई बूँदों को
कवचहीन करतीं आत्मा
तीव्र रोशनियाँ
दृष्टि रहीं छीन
विस्फोटक ध्वनियाँ
करतीं देह को विदीर्ण
हिंसा का सुंदर समायोजन है.

नायक चीख़ता है
देख अपनी कटी वज्रबाहु
नायक युद्ध करता हारता है
देखता है
सैकड़ों लाशें लिपटती
सैकड़ों परदों में
बारिश हो रही है
बदलते जा रहे हैं दृश्य.

पहले दृश्य में
है भीगता एक श्वान
चुपचाप घर के द्वार पर मायूस
सामने छूटी पड़ी हैं
चप्पलें टूटी नन्हें किसी बच्चे की,
अगले दृश्य में
वह देखता है खिड़कियाँ
दो झाँकते चेहरे
नमित मुख सौम्य
आँखों में जमी है भूख
होंठों पर शिकायत, नहीं करते,
सिर्फ़ सूखी टहनियों से
हैं बनाते चित्र
गीली भूमि पर एक आइना है
जिसमें झाँककर वह सिहर जाता है.

और फिर वह देखता है
व्योम श्यामल अति भयावह
तीर बरसाता छतों पर बारिशों की
भीगती है अलगनी सब वस्त्र अस्त-व्यस्त
नहीं आती जो तुरंत ही पहुँच जाती थी
कहाँ है वह ?
आत्मीया छवि सजीली
कहाँ है वह ?
दीखती ही नहीं प्यारी !
ध्यान देती नहीं व्यग्र पुकार पर !
वह रोक देना चाहता है एक पल को
देख ले और चूम ले सुकुमार उसके हाथ
असहाय जीवन का प्रफुल्लित साथ
नहीं सम्भव प्रेम भी इस एक पल को.

अंतिम दृश्य में वह स्वयं है
पर देखता है नहीं ख़ुद को
रक्त और कीच से लिपटा
झुकाए माथ अपने
अस्त्र-शस्त्र विहीन
गोलियों से बिंधी है देह
नष्ट हुई नीड़
से उड़ गई चिड़िया मुलायम पंख वाली ,
वह गिरा ज्यों आख़िरी उम्मीद
फिसलता गया गहरे गर्त में
काग़ज़ की नाव-सा तिरता
भूमि पर खींचता शोक का दीर्घ परदा
नष्ट होते अंत का वह अंत करता.

(वर्षा में मृत्यु सर्वाधिक कारुणिक दृश्य है)





इन दिनों  

नींद के इंतज़ार में सुबह हो गई
पसीने की सफ़ेदी पर पानी पोंछ
क़मीज़ दिन भर हाँफती भागती रही
उम्मीदें धक्के खाती रहीं बसों और कार्यालयों में
जीवन महानगरीय गतियों और चालों तले कुचलता रहा,
कीचड़ का बोझ ढोती चप्पल
लँगड़ाती हुई खोजती रही
किसी मोची की दुकान
दृष्टि इतनी रही पस्त
कि एक बार भी देख न पायी आसमान,
सिक्के खनकना बंद होने तक लुटते रहे
जेबकतरों, दलालों, भिखमंगों और सुंदरियों से
क़लम की नोंक तीखी होती रही
प्रार्थना-पत्रों पर
चाक़ू मारते रहे
शोर
और
शब्द.

सड़कों पर
कुत्ते कूड़े में खोजते रहे अपना प्राप्य
कोई टटोलता रहा धूल में खोया भाग्य
दिन भर

कल्पनाएँ दरवाज़े पर पहुँच कर चाभी-सी खो गईं
हथौड़े की चोट से टूट गई लय
बिम्ब खिड़कियों के जालों में जा लगे
प्रतीक घुल गए स्थायी ख़ालीपन में
अनुभव गंधाते मिले दो दिन के जूठे बर्तनों में,
दीवाल की सीलन पर संतुलन साधती रही
भाषा सहमी हुई छिपकली-सी ताकती रही
रस रिसता रहा आँखों से लगातार,
शिल्प को उखड़ती खूँटी पर टाँगकर
अंधेरे में कोई विषय खोजती हारती
पसीने और चिंता में बूड़ी
कविता
थककर
सो
गई.
________________
सुघोष मिश्र
एम फ़िल (हिंदी साहित्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय
sughosh0990@gmail.com

कथा-गाथा : सफारी : दी जंगल यात्रा : नरेश गोस्वामी

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प्राची अपनी सहेलियों शालिनी और सौम्या  के साथ जंगल-यात्रा पर सपरिवार निकलती तो हैं. पर ये लोग कहाँ फंस जाते हैंताकत, पूंजी और मनोविज्ञान के इस खेल में क्या ये खुद आखेट नहीं बन जाते ?


नरेश गोस्वामी की कहानी सफारी : दी जंगल यात्राअंत तक अपनी दिलचस्पी बनाये रखती है और सबल ढंग से सफारी के नाम पर हो रहे खेल का गणित सामने लाती है. और एक बड़ा सवाल छोड़ जाती है कि यह प्रकृति और जीव-जानवर मनुष्यों के लिए नहीं बने हैं, इनका अपना खुद का जीवन है. 



सफारी :  दी   जंगल   यात्रा                          
नरेश गोस्‍वामी




भी तक यह होता आ रहा था कि वैभव और प्राची अपने बेटी अप्‍पी के साथ साल में दो बार पहाड़ पर जाया करते थे. एक बार गर्मी के अंत और दूसरी बार सर्दियों की शुरुआत में. उनके चलने का कार्यक्रम तब बनता जब ज्‍यादातर परिचित, रिश्‍तेदार और दोस्‍त मई-जून की छुट्टियों में घूम घाम कर टूर की बातें भूलने लगते थे. प्राची से उसकी फ्रेंड शालिनी अक्‍सर कहा करती थी, ‘यार, तुम लोगों का कुछ समझ नहीं आता... जब जाने का पीक टाइम होता है तो तुम दिल्‍ली में सड़ते हो और जब ख़ुद यहां बारिश होने लगती है तो तुम लोग पहाड़ का प्रोग्रैम बना रहे होते हो’. इस पर सौम्‍या कान के पास तर्जनी को ख़ास गोल-गोल ढंग से घुमाते हुए ठहाका लगाकर कहती, ‘बेबी, हस्‍बैंड आर्टिस्‍ट हो तो बीवी भी थोड़ा खिसक जाती है’. और प्राची गुस्‍सा दिखाते हुए हंस कर रह जाती.

इसलिए, एक दिन जब शालिनी और सौम्‍या ने प्राची से कॉमन टूर बनाने के लिए कहा तो प्राची ने वैभव से बात किए बिना ही कह दिया कि, ‘ठीक है, अब की बार तुम लोगों के साथ पक्‍का रहा’. हालांकि रात के खाने के बाद उन दोनों के साथ सोसायटी के पार्क में घूमते हुए प्राची ने कॉमन टूर के प्रस्‍ताव पर हां तो भर दी थी, लेकिन अपने भीतर उसे कुछ बुरा भी लगा था कि वह वैभव की राय जाने बिना हां कर रही है. वह जानती है कि वैभव अपने तमाम अनगढ़पन, समाज के स्‍वीकृत मूल्‍यों के प्रति अपने विद्रोही स्‍वभावख़ास तौर पर नव-धनिकों के प्रति लगभग असहनीय घृणा के बावजूद रोज़मर्रा के व्‍यवहार में लोगों से बोलचाल का रिश्‍ता बनाए रखता है. लेकिन, फिर भी वह किसी के इतना नजदीक नहीं जाता कि कोई उसके जीवन में दखल करने लगे और घर में सास-बहू या आर्ट ऑफ़ लिविंग टाइप माहौल बनने लगे. उसने अलग तरह का जीवन चुना है तो उसे बनाए रखने के लिए सजग भी रहता है. वह यह भी जानती थी कि वैभव कभी यह नौबत नहीं आने देता कि उसे शर्मिंदा होना पड़े.
       
घर लौटते ही प्राची सीधे वैभव के कमरे की ओर दौड़ गयी. वह यूट्यूब पर कोई डॉक्‍यूमेंट्री देख रहा था. प्राची ने एक क्षण के लिए वैभव के मूड का जायज़ा लिया और जब आश्‍वस्‍त हो गयी तो बिना भूमिका के सारी बात कह डाली: ‘वैभव, थोड़ी गड़बड़ हो गयी यार. मैंने तुमसे पूछे बिना ही कमिट कर लिया’. वैभव अभी उसकी बात सुनने के लिए व्‍यवस्थित नहीं हो पाया था. उसने फिल्‍म को पॉज करते हुए पूछा: सॉरी, फिर से बताओ. मैं ठीक से सुन नहीं पाया’. प्राची को लगा कि वह बात कहने से पहले जो भूमिका नहीं बांध पाई, वह शायद अब खुद ही बंध गयी है.

‘अरे, हुआ क्‍या कि अभी जब मैं, शालिनी और सौम्‍या पार्क में घूम रहे थे तो दोनों कहने लगी कि चलो इस बार कॉर्बेट चलते हैं. इससे पहले कि मैं कुछ सोच पाती दोनों ने सब कुछ फिक्‍स ही कर दिया...’. प्राची ने वैभव की प्रतिक्रिया देखने के लिए अपनी बात में बीच में छोड़ दी.   वैभव कुछ क्षण चुप बैठा रहा और फिर उसके बाएं होठों से एक मुस्‍कान चलकर पूरे चेहरे पर फैल गयी. प्राची जानती थी कि वैभव जब किसी तर्क, प्रस्‍ताव या किसी की बात को ध्‍वस्‍त करना शुरु करता है तो उसके चेहरे पर ठीक ऐसी ही मुस्‍कान उभरती है.

‘यानी मोहतरमा’, वैभव ने शब्‍दों को चबाते हुए कहा, ‘आखिर आप भी इस टाइगर के खेल में फंस गयी’. यह सुनते ही प्राची के माथे की नसें खिंच आईं.
‘टाइगर का खेल... मैं कुछ समझ नहीं पाई’. प्राची असमंजस में खड़ी थी.
‘अरे, पहले तुम बैठो. ये कोई रहस्‍यमय बात नहीं है’. वैभव ने प्राची की बेचैनी दूर करने की गरज से कहा.
‘मिसेज शालिनी और मिसेज सौम्‍या का परिवार वहां टाइगर देखने के लिए ही जा रहे हैं ना ’!. वैभव ने अपने अनुमान को सवाल की शक़्ल में रखते हुए कहा.

प्राची को पूरी बात समझ आई तो वह बेधड़क होकर बोली: हां, और किस बात के लिए कॉर्बेट जाते हैं लोग... सारा चार्म तो टाइगर का ही होता है’. उसकी बात ख़त्‍म होते ही वैभव लगभग विजयी भाव से ताली बजाते हुए बोला: ‘देखो! हुई न वही बात. मैं ठीक यही सोच रहा था... कॉर्बेट का मतलब टाइगर’. और वह ठठाकर हंस दिया.

प्राची को लगा कि बात फिर घूम गयी है. ‘यार, तुम पहेली मत बुझाओ. सीधे बताओ कि ये कॉर्बेट और टाइगर का चक्‍कर क्‍या है’. प्राची ने खीझते हुए कहा.

‘भई, कहा ना कि कोई ख़ास चक्‍कर नहीं है. बस इतना पूछना चाहता हूं कि क्‍या तुम भी सिर्फ टाइगर को देखने के लिए ही जा रही हो?

‘नहीं, तुम्‍हें पता है कि मैं कोई ख़ास टाइगर-प्रेमी नहीं हूं... और हुजूर के साथ इतने साल रहने के बाद किस की हिम्‍मत है कि टाइगर में दिलचस्‍पी ले सके’. प्राची ने वैभव को चिढ़ाते हुए कहा.

‘तो फिर एक काम और कर लो. अप्‍पी खेल कर आ जाए तो उससे पूछ लो कि वह इस टूर में कितनी इंटे‍रेस्टिड हैं’. वैभव ने पूरा कार्यक्रम प्राची के हाथों में सौंप दिया.

प्राची ने राहत की सांस ली कि वैभव को कम से कम शालिनी और सौम्‍या के परिवारों के साथ जाने में कोई मानसिक या सैद्धांतिक दिक़्क़त नहीं है. फिर भी वह एक बार और पक्‍का करना चाहती थी कि वैभव को शालिनी के वकील और सौम्‍या के सीए पति के साथ एडजस्‍ट करने में कोई समस्‍या तो नहीं होगी. प्राची जानती है कि वैभव उस तरह का भी नकचढ़ा नहीं है. सोसायटी में होली और लोहड़ी जैसे त्‍योहारों पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में बहुत खिलंदड़ अंदाज़ में न सही, लेकिन शामिल ज़रूर होता है. और इन मौकों पर उन लोगों के साथ एक दो ड्रिंक भी मार लेता है.

लेकिन किसी टूर में साथ जाने का यह पहला अवसर है. किसी को एक दो घंटों के लिए झेलना एक बात है लेकिन किसी के साथ पूरे दो दिन रहना और बात होती है. पता नहीं कौन कब किससे सनक खा जाए! इसलिए वह वैभव से सब कुछ स्‍पष्‍ट जानना चाहती थी.

‘जहां तक मेरी बात है तो तुम यह जानती हो कि एक बार जब मैं समझ जाता हूं कि मुझे फलां  आदमी के साथ निभानी है तो मैं ख़ुद को ढीला छोड़ देता हूं. इसलिए मेरी ओर से बेफिक्र रहो’, और मेरा तो यह सौभाग्‍य होगा कि इस उम्र में दो सुंदरियों की संगत का अवसर मिलेगा...’ वैभव ने आखि़री बात प्राची की तरफ़ दाईं आंख दबाते हुए की थी और दोनों इस तरह हंसे थे जिस तरह कॉलेज जाने वाले लड़के सेक्‍स की किसी बात पर ठहाके लगाते हुए दोहरे हो जाते हैं.

‘लेकिन अप्‍पी से बात ज़रूर कर लेना’. हंसी की लहर गिरते ही वैभव ने कहा.

प्राची वैभव की ओर से तो आश्‍वस्‍त हो गयी. लेकिन अप्‍पी जिस तूफानी दौर से गुजर रही है, उसमें उसके जिद्दीपन से निपटना मुश्किल है. एक दम बाप पर गयी है. अभी पंद्रहवें साल में चल रही है लेकिन रस्किन बांड को पूरा चाट चुकी है. एक बार वैभव ने कहा था कि प्रेमचंद को पढ़े बिना हमारी संवेदनशीलता विकसित नहीं हो सकती तो एक हफ़्ते में प्रेमचंद की तीस कहानियां चट कर गयी. पहाड़ पर जाते हैं तो प्राची देर तक सोई रहती है और ये मोहतरमा अपने पापा के साथ सुबह-सुबह सैर पर निकल जाती है. लौट कर आती है तो हाथों में और जेबों में तरह-तरह के फूल, पत्तियां, सूखी टहनियां और छोटे-छोटे पत्‍थर भरे रहते हैं. 

एक बार तो सुबह के निकले दोपहर एक बजे गेस्‍ट हाउस पहुंचे. प्राची चिंतित हो गयी. उसने कई बार फ़ोन किया, लेकिन मिल नहीं पाया. आखि़र में अप्‍पी का ही फ़ोन आया. वह कुछ खाते हुए फ़ोन कर रही थी. प्राची चिल्‍लाने को हुई लेकिन फिर फोन पर स्‍थानीय बोली बोलते बच्‍चों और औरतों की आवाज़ें सुनाई दी तो संभल गयी. गुस्‍से में सिर्फ इतना कह पाई कि ये क्‍या तरीका होता है. लेकिन मोहतरमा खाए जा रही थी और बताती जा रही थी कि, ‘ममा, सुबह जब पापा के साथ जा रही थी तो रास्‍ते में घसियारिनें मिल गयीं. पापा उनसे बातें करने लगें. बात करते करते उनमें एक महिला ने बताया कि उनका गांव वहीं नीचे है. बस पापा ने कहा कि चाय नहीं पिलाओगे और उनके साथ गांव में पहुंच गए. और अब यहीं बैठकर खिचड़ी खा रहे हैं’. अप्‍पी हंसती जा रही थी.

अप्‍पी की रूचियों को देखकर प्राची थोड़ा शंकित थी. जैसे वैभव परिचित जगहों या हिल स्‍टशनों पर जाने की बात पर नाक-भौं सिकोड़ने लगता है, वैसे ही अप्‍पी भी कहने लगी है कि  ‘ममा, अगर यहां से निकल कर भी शोर शराबे में ही जाना है तो यहीं क्‍या बुरा है. अगर कहीं जा ही रहे हो तो ऐसी जगह जाओ जहां रात को आसमान में तारे देख सकें’.





(दो)   
अगले हफ़्ते शुक्रवार के दिन सुबह जब सुबह पांच बजे ‘ला ग्‍लोरिया’ से तीन गाडि़यां निकली तो उनमें सबसे आगे वैभव-प्राची की वैगन आर, उससे पीछे शालिनी की डस्‍टर और सबसे पीछे सौम्‍या की होंडा सिटी थी. प्राची ने वैभव को तैयारी के दौरान ही आगाह कर दिया था कि वह टाइगर वाली बात पर मज़ाक का माहौल न बनाए. उसे पता था कि वैभव और अप्‍पी की जब जुगलबंदी होती है तो वे किसी का भी विकेट उखाड़ सकते हैं. इसलिए रामनगर पहुंचने तक वैभव कभी जिम कॉर्बेट के बचपन के बारे में बताता रहा. कभी दि मैनईटिंग लेपर्ड ऑफ़ रूद्रप्रयागकी रोमांचक कथाएं सुनाता रहा, कभी तराई और पहाड़ों के भूगोल और वन‍स्‍पतियों का अंतर बताता रहा और बीच में ड्रार्इविंग की जि़म्‍मेदारी प्राची को सौंपकर पिछली सीट पर खर्राटे भरता रहा.

चूंकि बुकिंग पहले ही करा ली गयी थी इसलिए सभी लोग सीधे कॉर्बेट पहुंचे. लेकिन दो बजे सारे लोग पस्‍त हो चुके थे. वैसे भी कॉर्बेट के अंदर जिप्सियों से यात्रा कराने वाले लोग इस समय आमतौर पर आराम फरमा रहे होते हैं. इसलिए रिसोर्ट में पहुंचते ही सब लोग अपने-अपने कमरों में चित्‍त हो गए. टाइगर के बारे में वैभव ने पहली टिप्‍पणी यहीं की. प्राची और अप्‍पी जब अपना सामान रखकर बैड पर धराशायी हुए तो वैभव अपने जूते खोलते हुए कह रहा था: तो अब शुरु होगा आदमी और टाइगर का मुकाबला!ढणटणण...

अप्‍पी बहुत थकी हुई लग रही थी लेकिन वैभव की बात सुनते ही खिलखिला पड़ी. अप्‍पी की हंसी सुनकर प्राची एक क्षण के लिए असहज हो गयी. उसे लगा कि अगर वैभव और अप्‍पी की यह जुगलबंदी कल सफ़ारी के वक़्त शुरु हो गयी तो पता नहीं कौन नाराज़ हो जाए. इसलिए प्राची ने बिस्‍तर पर लेटे लेटे फरमान जारी कर दिया: ‘तुम दोनों लोग एक बात ध्‍यान से सुन लो. कल कुछ ऐसी खुसर-पुसर शुरु मत कर देना कि किसी का मूड बिगड़ जाए’.

‘जी, हुजूरे आला’. वैभव ने एक हाथ को लंबा झुलाते हुए दरबारी अंदाज़ में कहा तो कमरे में थकान और उनींदेपन के बावजूद ठहाका गूंज गया.

उस दिन शाम का और कोई कार्यक्रम संभव नहीं था. रिसोर्ट के मैनेजर और बाक़ी लोगों से पूछताछ के बाद पता लगा कि इस समय केवल गर्जिया माता के मंदिर में जाया जा सकता है. रिसोर्ट में काम करने वाले एक पहाड़ी लड़के ने बताया कि गर्जिया माता की मान्‍यता बहुत दूर-दूर तक है. इस सिलसिले में उसने कई किस्‍से ऐसे सुनाए जिन्‍हें आप किसी भी धार्मिक स्‍थल पर सुन सकते हैं. मसलन, फलां दिल्‍ली का बहुत बड़ा उद्योगपति है, लेकिन बंदा हर सीजन में मां की मनौती के लिए आता है या फलां मुंबई का बड़ा बिल्‍डर है लेकिन गर्जिया माता पर बहुत आस्‍था रखता है, और साल में दो बार जरूर यहां आता है.

मंदिर जाने और वहां से लौटने के दौरान यह लगभग तय हो चुका था कि सब लोग खुले में एक साथ डिनर करेंगे ताकि इस बहाने अगले दिन के कार्यक्रम पर भी बात हो जाए. सामने लॉन में सबके लिए कुर्सियां डाल दी गयी. एक कोने में ड्रिंक का साजोसामान तैयार था.

वकील साहब, सीए, शालिनी, सौम्‍या और उनके बच्‍चे कल की सफ़ारी को लेकर बेहद उत्‍सुक थे. थोड़ी देर बाद पूरा माहौल टाइगरमय हो गया. कोई उसकी दौड़ने की गति पर टिप्‍पणी कर रहा था, कोई उसके शिकार के तरीके का एक्‍सपर्ट बना हुआ था. अगर लॉन से दूर खड़ा व्‍यक्ति उनकी बात सुनता तो फौरन समझ जाता कि यहां कोई जंगल देखने नहीं सब टाइगर देखने आए हैं.



(तीन)

अगले दिन सुबह ग्‍यारह बजे जब तीनों परिवार जिप्सियों पर सवार होकर बिजरानी जोन में दाखिल होने के लिए तैयारी कर रहे थे तो वैभव ने अपनी जिप्‍सी जानबूझकर सबसे पीछे रखवाई. प्राची वैभव की हरकत को तुरंत ताड़ गयी कि वह और अप्‍पी अपनी जुगलबंदी से बाज नहीं आएगा. लेकिन प्राची यह सोचकर चिंतामुक्‍त हो गयी थी कि सब लोग अलग-अलग जिप्सियों में हैं. इसीलिए उनकी बात किसी के कानों में नहीं पड़ेंगी.
उनकी जिप्‍सी में ड्राईवर के अलावा दो और लड़के थे. लड़कों की उम्र बमुश्किल बीस-इक्‍कीस साल रही होगी. गोरे रंग और इकहरे बदन वाले इन लड़कों ने कारगो और टीशर्ट पहन रखी थी. देखने-भालने में किसी टूरिस्‍ट से कम नहीं लग रहे थे. अच्‍छी बात ये थी कि मैदानी लड़कों की तरह वे जिप्‍सी में बैठी सवारियों में कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखा रहे थे. पक्‍के प्रोफ़ेशनल. जब आपस में बोलते तो पहाड़ी में बात करते लेकिन एकदम शहरी हिंदी-हिंगलिश में भी जवाब के लिए तैयार रहते थे. दो नाकों पर चैकिंग और वन-अधिकारियों के निर्देश सुनने के बाद जब जिप्‍सी वाक़ई जंगल में दाखिल हुई तो वैभव ने गहरी सांस खींचते हुए इन लड़कों की ओर सवाल उछाल दिया: ‘गुरु, एक बात बताओ यहां आमतौर पर टाइगर मिलने की पॉसिबिलिटी कितनी रहती है’.

लड़के शायद इतनी जल्‍दी सवालबाजी के लिए तैयार नहीं थे. शुरू में ड्राईवर कुछ कहना चाहता था, लेकिन फिर वह चुप लगा गया. कुछ नापतौल के बाद एक लड़के ने कहना शुरू किया:         
‘सर, सारा चांस का गेम है. कभी एकही राउंड में दो बार मिल जाता है और कभी कई महीने दिखाई नहीं देता’.

‘पर क्‍या तुम लोगों को कुछ आइडिया रहता है कि टाइगर कब-कब या कहां मिल सकता है?’     
लड़कों से इस तरह के सवाल कम ही लोग पूछते होंगे. इसलिए उनमें से एक ने बहुत संकोच के साथ कहा: सर, ये हम कैसे जान सकते हैं. जंगली जानवर है. उसकी मर्जी, पता नहीं कहां मिल जाएं’.

जिप्‍सी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी जंगल गहराता जा रहा था. दो-तीन किलोमीटर संकरे रास्‍ते पर चलने के बाद अचानक एक खुला मैदान आया तो ड्राईवर ने गाड़ी एक तरफ़ कर ली. प्राची ने ध्‍यान दिया कि शालिनी और सौम्‍या का परिवार जिन गाडि़यों में था, वे भी आसपास खड़ी थीं. उस खुली जगह के टीले वाले हिस्‍से में एक मचान सा बना था. अप्‍पी ने प्राची का हाथ पकड़ते हुए बताया कि शालिनी और सौम्‍या आंटी ऊपर मचान पर खड़ी हाथ हिला कर उन्‍हें ऊपर आने के लिए कह रही हैं. वकील और सीए साहब भी वहीं नज़र आ रहे थे. हां, बच्‍चे वहीं मचान के आधार के पास खड़े दोस्‍तो से फ़ोन पर बतियाने और सेल्‍फ़ी लेने में व्‍यस्‍त थे.

प्राची ने अभ्‍यस्‍त नज़र से एक बार वैभव की तरफ़ देखा. वैभव ने उसी अभ्‍यस्‍त नजर से संकेत में कहा कि वह ख़ुद ऊपर चली जाए और अप्‍पी को वहीं रहने दे. प्राची मचान की ओर बढ़ी तो वैभव और अप्‍पी टूरिस्‍टों की भीड़ से कुछ दूर जाकर खड़े हो गए.

‘तुम कुछ देख रही हो?’ वैभव ने अप्‍पी से पूछा.
‘क्‍या’

‘यह खुलापन, खुली हवा, जंगल की असंख्‍य आवाज़ें, हिरण, लंगूर, बारहसिंगा, जंगली सूअर, इतने अलग-अलग रंगों की चिडि़यां और इनके अलावा अनाम और दिखाई न देने वाले जीव-जंतु— बस यही है जंगल... जंगल का मतलब टाइगर नहीं होता बाबू!’.

अप्‍पी अपने बाइनॉक्‍यूलर से कहीं ओर देख रही थी. उसने ऐसे ही कहा, ‘हां, पापा! वह देखो, हिरण के उस बच्‍चे को... उसकी पूंछ कैसे हिल रही है... बिल्‍कुल ऐसे जैसे कार के पिछले शीशे का टुन्‍नू सा वाईपर गोल-गोल घूमता रहता है’.

वैभव को लगा कि उसे अप्‍पी को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं रह गयी है.

थोड़ी देर बाद हलचल सी शुरु हुई. जिप्‍सी वाले बंदे लोगों को चलने का संकेत कर रहे थे. मचान पर चढ़े लोग धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे. चूंकि सबसे पास उन्‍हीं की गाड़ी खड़ी थी इ‍सलिए वैभव और अप्‍पी सबसे पहले बैठे.

गाडि़यों का कारवां फिर आगे सरकने लगा.  रास्‍ते के एक तरफ़ पलाश के पेड़ों की कतार चली गयी थी. नीचे दूर तक लाल फूलों का गलीचा बिछा था. हवा थोड़ा अब भी गर्म थी लेकिन खुलेपन और जब तब रास्‍ते के बीच पड़ती छांव के कारण असहनीय महसूस हो रही थी.

‘ममा, वहां देखो’. अप्‍पी ने प्राची का हाथ दबाते हुए इशारा किया. सामने के मोड़ से दायीं ओर ढलान से नीचे हाथियों का एक झुण्‍ड नदी में नहा रहा था. हाथी का एक बहुत छोटा बच्‍चा शायद पानी में नहीं जाना चाहता था जबकि उसकी मां उसे पीछे से धकेले जा रही थी. अप्‍पी इस दृश्‍य से इतनी आह्लादित थी कि प्राची से गाड़ी रुकवाने के लिए कहने लगी.

‘ममा, थोड़ी देर यहीं रुककर देखते हैं ना’. अप्‍पी जिद कर रही थी.

‘और उस पहाड़ से हाथी को तो देखो, उसने अपना एक कान कैसे हमारी तरफ़ कर रखा है’    यह आवाज़ वैभव की थी.

‘तुम्‍हें पता है अप्‍पी, वह शायद हाथियों के इस झुण्‍ड का लीडर है. वह जिस तरह खड़ा है, उसका मतलब ये है कि वह आसपास की चीज़ों पर नज़र रखे हुए है’. वैभव ने जैसे अप्‍पी को और प्रोत्‍साहित करते हुए कहा.

प्राची ने देखा कि बाकी दोनों गाडि़यां आगे निकल गयी हैं. और ड्राईवर उनका इंतज़ार कर रहे हैं. वे हाथियों को नहाता छोड़ आगे बढ़ गए हैं. अप्‍पी शायद इस दृश्‍य को अभी और देखना चाहती थी. ‘क्‍या उन लोगों को यह दृश्‍य अच्‍छा नहीं लगा’. अप्‍पी ने प्राची को खीझ भरी निगाह से देखते हुए कहा. ‘बेटा, सबके अपने-अपने इंटेरेस्‍ट होते हैं’. प्राची ने अप्‍पी को समझाने की कोशिश करते हुए कहा. वैभव बहुत देर से हर गतिविधी पर नज़र रखे हुए था. वह अचानक बोल उठा: बाबू, वे यहां हाथी देखने नहीं आए हैं, उन्‍हें सिर्फ टाइगर चाहिए. मैंने तुम्‍हारी ममा को पहले भी बताया था’. लेकिन वैभव की बात में कोई उलाहना नहीं था.

वैभव की जिप्‍सी बाक़ी गाडि़यों के पास पहुंची तो वकील और सीए साहब सफारी कराने वाले लड़कों से कह रहे थे: अबे यार, एक घंटा हो चुका है धूल फांकते हुए... कहीं कुछ दिखाई भी देगा या इन्‍हीं चिडि़यों, हिरण और हाथियों को ही देखते रहेंगे’. वैभव ने देखा कि उनके चेहरों पर धूल के अलावा खीझ भी चिपकी हुई है. तुनकमिजाज़ टूरिस्‍टों से निपटना लड़कों के लिए रोज का काम था. वे इस काम में कब के दक्ष हो चुके थे.

‘सर, ऐसा है कि सब कुछ भाग्‍य पर डिपेंड करता है. अभी पिछले महीने इसी ट्रैक से गुजर रहे थे. कोई सोच भी नहीं सकता था कि वहां बीच वाले नाले से अचानक टाइगर उछला और जिप्‍सी के ऊपर से छलांग मारता हुआ गुजर गया’. वकील वाली जिप्‍सी पर खड़ा लड़का कह रहा था.

‘अबे, रावत, तुझे पिछले साल की याद है जब हम कलकत्‍ता वाली पार्टी के साथ जा रहे थे...बॉस, पूरी ट्रिप खाली जा रही थी. यूं मानों की आखिरी नाके पर पहुंच लिए थे कि तभी वह पेड़ो के बीच दिखाई दिया. और बॉस गाड़ी के पीछे पड़ गया. वो तो आशीष ने स्‍पीड पर पूरा पंजा गड़ा दिया. यूं मानों कि गाड़ी तीन सेकंड में दो सौ की रफ़्तार में पहुंचा दी वर्ना उस दिन तो खेल ख़त्‍म था भाई’. सीए वाली जिप्‍सी पर खड़े लड़के ने पिछला किस्‍सा लपक कर बात आगे बढ़ा थी.

लड़कों ने थोड़ी देर के लिए टाइगर की अनुपस्थिति को उसके किस्‍से से पूरा कर दिया था. सारे लोग उनकी तरफ़ ठगे से देखे जा रहे थे. अभी कुछ क्षण पहले जिन चेहरों पर ऊब और खीझ झलक रही थी, उन पर अचानक रोमांच उतर आया था.

‘तो सर जंगल में कुछ भी पहले से तय नहीं होता’. इस बार वैभव की जीप वाले लड़के ने बात का समाहार करते हुए कहा. ज्ञान और रोमांच की इस खुराक के बाद वकील और सीए साहब शांत हो गए थे और गाडि़यां फिर आगे बढ़ने लगी थीं.

प्राची ने देखा कि वैभव के होटों पर एक टेढ़ी मुस्‍कान उभर रही है. वह जानती है कि वैभव के चेहरे पर इस तरह की मुस्‍कान तब आती है जब वह कुछ भविष्‍यवाणी के लहजे़ में कहना चाहता है. जैसे ही उनकी और अगली गाड़ी में थोड़ा फासला बढ़ा वैभव प्राची के कान के पास जाकर फुसफुसाने लगा: ‘अभी देखना, पांच-‍दस मिनट बाद गाडि़या फिर रोकी जाएंगी. जिप्‍सी वाले अचानक होटों पर उंगली रखकर सबको चुप हो जाने का इशारा करेंगे. सबको लगेगा कि टाइगर यहीं आसपास है. हकीकत ये है कि टाइगर कहीं नहीं होगा, लेकिन उनके पास रोमांच पैदा करने का आखिरी मौक़ा यही होता है’.

‘तुम ये चीज़ें कहां से सोच कर लाते हो’?प्राची की हंसी छूटते-छूटते बची. उसने हंसी रोकने के लिए अपने निचले होट पर दांत गड़ा दिए.

‘नहीं, मैं मज़ाक नहीं कर रहा... देखना अब कुछ-कुछ ऐसा ही होने वाला है’. वैभव ने अपना मुंह प्राची के कान से हटा कर गर्दन सीधी करते हुए और इस बीच सो चुकी अप्‍पी को दुबारा कंधे से लगाते हुए कहा.

इसके बाद बमुश्किल पांच मिनट बीते होंगे कि सामने चल रही गाडि़यां रुकने लगीं. प्राची ने वैभव की तरफ़ देखा. वह विस्मित थी और वैभव के चेहरे पर वही टेढ़ी मु‍स्‍कान उतर आई.

‘अभी तो पूरे दस मिनट भी नहीं हुए’. अब प्राची भी मुस्‍कुरा रही थी.

जिप्‍सी वाले लड़कों ने एक दूसरे को गाडि़यों के इंजन बंद करने का इशारा किया. इंजन बंद होते ही जंगल का सन्‍नाटा बोलने लगा. लड़़के बड़े-बड़े कद्दावर पेड़ों और झाडि़यों के बीच टकटकी लगाए थे. पत्तियों पर किसी जानवर के दबे पांव चलने की आवाज़ हुई. सब लोग दम साध कर बैठ गए. पांच मिनट के लिए सब कुछ निस्‍पंद हो गया. सब की निगाहें उस अजूबे पर लगी थी जिसकी प्रत्‍याशा में लोगबाग पिछले दो घंटों से टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते नापते आ रहे थे. अंदर अचानक किसी पक्षी ने पंख फड़फ़डाए तो झाडि़यों में खड़ा हिरण कूदकर बाहर की ओर दौड़ गया. इस आवाज़ से सारे लोग अचानक सिहर गए थे. लेकिन जब उन्‍होंने हिरण को कुदान भरते देखा तो चेहरों पर तना रोमांच पल भर में फुर्र हो गया. गाडि़यां दुबारा आगे बढ़ीं तो वैभव प्राची के कान में फिर टेढ़ी मुस्‍कान के साथ फुसफुसाया: ‘शायद गलत आइटम की डिलिवरी हो गयी है’. 

रास्‍ता पूरा होने के बाद जिप्स्यिों ने जैसे ही आखिरी मोड़ लिया तो सामने बिजरानी जोन का प्रवेश द्वार दिखाई दे रहा था. मतलब सफारी समाप्‍त हो गयी थी.

द्वार पर पहुंचकर जब लोग गाडि़यों से उतरे तो लग रहा था जैसे कहीं लुट पिट कर आ रहे हैं. वकील साहब शायद पहले से जले-भुने बैठे थे. वे टांग सीधी करते हुए बड़बड़ा रहे थे: साला, पांच हज़ार रूपयों में आग लग गयी और भैं... टाइगर की पूंछ तक दिखाई नहीं दी’. सीए साहब मुंह पर पानी के छींटे मारते हुए वैभव से कह रहे थे: ‘सब साला फुद्दू बनाने का खेल है’. शालिनी टिश्‍यू पेपर से अपने गॉगल्‍स की धूल साफ़ कर रही थी. सौम्‍या वॉशरूम के लिए पूछ रही थी और उनके बच्‍चे नीचे उतरते ही अपने-अपने फ़ोन पर पिल पड़े थे. अप्‍पी अभी थोड़ी देर पहले जगी थी. इसलिए सुस्‍ती के कारण प्राची के कंधे से लगी सब कुछ निर्विकार भाव से देख रही थी.



(चार)
उस दिन शाम को अपने स्‍वीट की बाल्‍कनी में बैठी प्राची वैभव से कह रही थी: मुझे यक़ीन नहीं हो रहा... तुम इतने श्‍योर कैसे थे... ये तुम्‍हारा पहले का अनुभव बोल रहा था या ?

वैभव ने प्राची की बात बीच में काटते हुए कहा: सिर्फ अनुभव की बात नहीं है यार. दरअसल, यह एक खेल बन चुका है. टाइगर मतलब ताकत, आक्रामकता और बला की तेज़ी... टूरिज्‍म, जंगल सफारी और रिसोर्ट्स के इस खेल को ध्‍यान से देखो तो टाइगर अब जानवर नहीं मर्द बन चुका है. यह पूंजी और मनोविज्ञान का बड़ा महीन खेल है जो चुपके-चुपके यह सिखाता है कि शिकार पर नज़र रखो और उसे प्रोफेशनली एग्‍ज़ीक्‍यूट करो. हमें रात दिन टाइगर की तस्‍वीरें दिखाई जाती हैं. कभी शिकार पर कूदने से पहली उसकी आंखों में चमकती ठंड़ी निर्णायकता दिखाई जाती है, कभी जमीन से ऊपर हवा में उसकी खिंची और तनी हुई देह दिखाई जाती है, कभी उसके पंजों के निशान छापकर टीशर्ट तैयार की जाती हैं... और मजे़ की बात ये है कि जिस टाइगर के इर्दगिर्द यह खेल रचा गया है, उसे इससे कोई मतलब नहीं है. जिस समय लोग टाइगर की झलक पाने के लिए जंगल में घूम रहे होते हैं, वह कहीं सोया पड़ा रहता है. कुल बात ये है कि लोगबाग टाइगर की छवि, उसके बारे में सुनी हुई बातों और किस्‍सों में जीते हैं. लोगों को लगता है कि हमने सफारी के पैसे दे दिए हैं तो हमें टाइगर दिख ही जाएगा. लेकिन वे यह बात भूल जाते हैं कि टाइगर हो या कोई और जानवर, वह उनके लिए नहीं अपने लिए पैदा होता है....

बात करते हुए दोनों को ध्‍यान ही नहीं रहा कि सूरज डूबने लगा है और जंगल चिडियों और अनाम जीव-जंतुओं की आवाज़ों से भरने लगा है.
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नरेश गोस्‍वामी  

समाज विज्ञान विश्वकोश (सं. अभय कुमार दुबे, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)  में पैंसठ प्रविष्टियों का योगदान; भारतीय संविधान की रचना-प्रक्रिया पर केंद्रित ग्रेनविल ऑस्टिन की क्लासिक कृति द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ़ अ नेशन  का हिंदी अनुवाद-- भारतीय संविधान: राष्ट्र की आधारशिला .
सम्प्रति: सीएसडीएस, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान  में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com 

मंगलाचार : वसु गन्धर्व

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कविताएँ दरअसल अंधरे में रौशन दीये हैं. अपनी मिट्टी से अंकुरित सौन्दर्य और विवेक की लौ. इसी संयमित प्रकाश में मनुष्यता लिखी गयी है.

यह अलोक जहाँ-तहां आज भी बिखरा है,  हाँ ‘लाईट’ की अश्लीलता और शोर में इधर अब ध्यान कम जाता है.

हिंदी में कविताएँ चराग और मशाल दोनों का काम करती हैं. कवियों की नई पौध आदम की बस्तियों में अंकुरित हो रही है, और यह एक उम्मीद है कि ये बस्तियां आबाद रहेंगी.

वसु गन्धर्व अठारह साल के हैं अभी और उनकी रूचि और गति शास्त्रीय संगीत में भी है. क्या कमाल की कविताएँ लिखते हैं.

दीप –पर्व पर इससे बेहतर अब और क्या हो सकता है. कविताएँ आपके लिए.







वसु  गन्धर्व  की   कविताएँ
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हम तलाशेंगे


हम तलाशेंगे मौसमों को
इस बियाबान में अपनी देह भर जगह के भीतर
खिलने देंगे एक फूल

हम तलाशेंगे सदियों की यंत्रणाओं के नीचे छिपा 
एक चुम्बन 
अनगिनत मृगतृष्णाओं के हुजूम के नीचे दबी
एक घूंट प्यास भर नदी

प्रेम का अस्पृश्य बोझ
वेदना का असंभव निदाघ
छंटाक भर पानी में डूबा चंद्रमा बहता हुआ दूर

हम तलाशेंगे
अंतिम पराजय के बाद
ह्रदय की अबोध सरलता भर एक गीत
कि उसमें डूब कर
अपनी उदास चुप में विन्यस्त हो सके मानव स्वर

हम तलाशेंगे.





निकलो रात

अंधकार के अपने झूठे आवरण से
किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से
किसी दुख के बासी हो चुके
प्राचीन वृतांत से निकलो बाहर
उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो

निकलो शहरज़ादी की उनींदी कहानियों से
और हर कहानी के खत्म होने पर सुनाई देने वाली
मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से

अंधी स्मृतियों में बसे
उन पागल वसन्तों के
अनगढ़ व्याख्यान से निकलो

निकल आओ
आकाश से.





पुकार


रात के समंदर में
रात की मछलियां
रात के नमक के बीच तैरती हैं

ऐसी उत्तेजना से लिपटता है
अंधकार का यह पेड़ रात की देह से
कि इसकी उपमा
मां के वक्ष से लिपटते बच्चे
या प्रेमियों के उन्माद से भी नहीं दी जा सकती

दिन के पक्षी का अंतिम शोर समाप्त हो चुका है
अंतिम चिट्ठी को पढ़ कर
अंतिम बार उदास होकर मर चुकी है बुढ़िया
कभी ना लौट सकने वाला जहाज
ओझल हो चुका है बंदरगाह से

ऐसे में अतीत के किसी मरुथल से आती पुकार
आखिर कितना झकझोर सकती है हृदय को?





लौट कर

वसंत वापस लौट कर
इसी धूसर चौराहे पर खड़ा हो जाएगा
अपना म्लान मुख
और फटी कमीज लिए
वर्षा इसी शब्दहीन उदासी के साथ
गिरती रहेगी इस गंदगी नाली पर अनवरत
जाड़ा हर बार खोजता ही रह जाएगा
अपना टूटा चश्मा जमीन पर धूल में

उन संकीर्ण दरारों में
जहां भाषा का एक कतरा भी नहीं घुस पाता
वहीं से फूट पड़ेगा
कभी अधूरा छोड़ दिया गया वह गीत
जैसे धुंधलके में कौंध पड़ेगा
अपना खोया चेहरा
तब वापस आएगा चांद
तब वापस आएंगी रात की फुसफुसाहटें 
तब वापस आएंगे विस्मृत दृश्य
विस्मृत ध्वनियां

हटाकर पुरातत्व का जंजाल
तब वापस आएगी
पहली कविता.




आवाज़


निःशब्दता के किसी कोने में
रात अपने पंख फड़फड़ाती है
इसी से टूटती है चुप्पी
सिहरने लगता है पुराने पोखर का पानी
जिसकी तहों में से
बूंद बूंद कर के बाहर आता है चंद्रमा

तख्त पर किसी ठोस चीज को रखते
एक समकालीन ठप
इतना ही काफी है
इतिहास के समवेत आर्तनाद को
एक निर्विवाद चुप में बदल देने के लिए

यह शाम किसी सार्वजनिक चुप से टूटा
एक आवारा पक्षी के पंख का टुकड़ा है
जिसके हवा में भटकने में दिशाहीन
गुजरी सभी शामों की चुप्पियां हैं

पास पड़े टूटी मूर्तियों के ढबरे में
जैसे अनुगूंज होता हो
प्रार्थनाओं का पुराना स्वर.






परंपरा

सांपों की इन्हीं पुरातन बांबियों में
अब रस्सियां भटकती हैं दिशाहीन
इतिहास के सबसे क्रूरतम कथन के नीचे सरसराता है एक कराहता प्रेम निवेदन का शब्द
जो अनसुना ही रह गया सदियों तक

झाड़ियों में अब तक ठिठका है
हरीतिमा का कोई स्वर
जिसकी लय में चहचहाती हैं
घास पर लिखी अनगिनत कविताएं

पिता की स्मृतियों के किसी कोने में बसे
उस पुरखे पूर्वजों के गांव के नाम का जिक्र आते ही पुरानी लोककथाओं की किताब के धूमिल पन्नों की ओर ताकने लगते हैं हम अचकचा कर

दूर किसी बंजारे का स्वर सुनाई देता रहता है
सिहरता हुआ.





लिखा-अनलिखा

लिखा हुआ है आकाश
जिसमें एक लिखे हुए पंछी की
लिखी हुई उड़ान प्रतिबिम्बित हो रही है

वह पेड़ जिसका चुप उकेरा हुआ है कलम से
उसका पुरातत्व बुन रहा है उसके चारों ओर
एक शाश्वत पतझड़ की पतली परत
जिसे नहीं उतार पाएगा अपने आयतन में
कोई शब्द या कोई चित्र कभी भी

कागजों पर उतरी
किसी रात की लिखित उदासी में
कोई पुरानी धुन
स्याही के दिशाहीन टपकने में
ढूंढ रही है
अपना भूला रस्ता

अंदर किसी अलिखित कविता भर ही
बचा है जीवन.




कहना

सब कुछ कह दिए जाने के बाद
एक छोटी स्वीकृति
या अस्वीकृति भर जगह में ही पनपता है आश्वासन
अंतिम गद्य के
अंतिम वाक्य के आगे स्थित है कविता
सिकुड़ी हुई
सीलन भरी दरार में
प्रेम की सभी संभावनाओं के आगे
लटकता है दुख का चमगादड़
सूखे हुए समुद्र भर खालीपन
और हजारों वर्षों के बंजर आयतन के पार
रेगिस्तान में उभरता है एक सुराब

भाषा से भी पहले की ध्वनि में बंद है
सभ्यता के आखिरी वाक्य के बाद का चुप.





अन्धेरा

कहे हुए का आयतन
जब हो चुका हो इतना बोझिल
तो दुहराओ उन्हीं वाक्यों की चुप्पियों को
उसी लय में उसी आश्वासन के साथ दुहराओ
छूटे अंतरालओं को बार-बार

प्रेम के बीच जो छूटा हुआ चुप है
उसी में बंद है पुतलियों में अस्त होती सुबह
किसी प्राचीन ऋषि के अदम्य तप से रूग्ण
शिलाखंडों के नीचे अभी बह रही है तपस्या की राख

जीवन की क्षणभंगुरता में
इसी अंतराल में कैद रहने की जिद के बीच
धीरे धीरे पैठता है अंधकार
बिखरती जाती है ध्वनि.




मृतकों के लिए

तस्वीर के उस पार
मृत्यु की बावड़ी के उधर
गेंदे के फूल और प्रार्थनाओं की राख के कोहरे से
वे झांकते हैं संशयित इस पार

कोई रुदन का विस्तार नहीं उनके लिए
कोई प्रतीक्षा का झूठ नहीं
कोई बारिश नहीं

यहां शाम में जो पीलापन बिखरा है
उन्हीं के लिए किए गए क्रंदन का अतिरेक है
कि देख ले मुरझाते हुए सूरज को
और उदास हो जाए मन.




नीली धूप

किन्हीं दरख़्तों की सिहरन से
मेरे पास आए थे कुछ नीले ख़त
जिनके उधड़े जिस्म पर
मलहम लगा रही थी नीली हवा
कुछ थीं अनजान मृत्यु की खबरें
जैसे अचकचा कर बहुत गहरी खाई में
गिर गया था बहुत पुराना दोस्त
जिसका मर्सिया पढ़ रही थी नीली दोपहर की चुप्पी

जैसे अनुपस्थिति के किसी तालाब के ऊपर
छितराई हुई थी
नीली धूप.





कोई नहीं है

कोई नहीं आएगा इस बोझिल अरण्य में
वृक्ष नहीं खोजेगा तितली के पंख भर प्रेम
नींद नहीं खोजेगी रात की सिहरती देह

मौसमों के बंद दराज़ों में
एक पुरातन स्पर्श फड़फड़ाएगा अपने पंख

कातरता में बरसता रहेगा
वही बादल अनवरत

अंधकार पर बारिश
सुनाती रहेगी वही गीत.

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वसु गन्धर्व
(8फरवरी, 2001)

बचपन अम्बिकापुर में बीता. अभी रायपुर में रिहाईश का ये दूसरा साल है.
दिल्ली पब्लिक स्कूल रायपुर में कक्षा बारह में पढ़ रहे हैं.


शास्त्रीय संगीत के गंभीर छात्र हैं. अभी बनारस घराने के पंडित दिवाकर कश्यप जी से गायन सीख रहे  हैं. रायपुर, भिलाई, चंडीगढ़, दिल्ली इत्यादि जगहों पर हुए संगीत आयोजनों में शिरकत की है. 
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कविता : यक्षिणी ( कथान्तर ) : विनय कुमार

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(फोटो द्वारा अरुण देव )


विनय कुमार मनोचिकित्सक हैं और हिंदी के लेखक भी. 'एक मनोचिकित्सक की डायरी', मनोचिकित्सा संवाद, 'मॉल में कबूतर', ‘आम्रपाली और अन्य कविताएँ’ आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं.

यक्षिणी की मूर्तियाँ भारत के कई भागों में पायी गयीं हैं. शिल्प में थोड़े बहुत अंतर के बावजूद वे लगभग एक जैसी ही हैं. एक तरह से भारतीय सौन्दर्य-बोध की प्रतिमूर्ति.

विनय कुमार ने यक्षिणी को केंद्र में रखकर लम्बी कविता लिखी है जिसका अंतिम भाग ‘कथान्तर’ यहाँ प्रस्तुत है. यह संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है.

विनय कुमार इस कविता को लिखते हुए यक्षिणी की मूर्ति के शिल्प को कविता के शिल्प में कुछ इस तरह विन्यस्त करते हैं कि शिल्प का समय और समय के आघात दोनों आलोकित हो उठते हैं, प्रवाह इसे और भी अचूक बनाता है.








यक्षिणी
कथान्तर                                           
विनय कुमार




(एक)

मैं एक साधारण मनुष्य हूँ
श्रमिक, कुशल श्रमिक भी कह सकते हैं
मेरी कोई कथा नहीं
कुछ घटनाएँ है जो मेरे स्वेद से भींगी है
और एक शूल जो मेरे रक्त से
एक स्पर्श जो मेरे अंतस का वैभव है
एक स्मृति जो मेरी साँस
और एक अनुपस्थिति जो उच्छ्वास
मेरी कथा सगुण मिट्टी
और निर्गुण वायु के बीच की है.


(दो)

मैंने वह समय देखा है
जो राज-प्रासाद में रहता है
मैंने उस समय को चखा है
जो कुछ भी खा लेता है
मैंने वह शक्ति देखी है
जिसके कशाघात से काँपता है समय
और वह यश-कातरता भी देखी है
जो कथा के मंदिर में करबद्ध नतशीश
एक उपमा एक विरुद के लिए आतुर

कथा में जाने के लिए क्या नहीं किया जाता
घोड़े घूमकर आते हैं और मार दिए जाते हैं
कवि आश्रयहीन कर दिया जाता है
कि कविता में मुकुट वैसा नहीं कौंधता
जैसा किसी कूँचीधारी के चित्र में
और कई हाथ इसलिए ख़ाली रह जाते हैं
कि माटी की सोंधी-सोंधी मूरतें बनाते हैं
और ऐसी मूरतें महल में तो नहीं रह सकतीं नऽ

कथा में जाने के लिए खोदे जाते हैं अगम कूप
कलिंग को शवों से पाट दिया जाता है
और धर्म के चीवर से पोंछे जाते हैं रक्त के छींटे

कथा में जाने के लिए
सिंहासन पर बैठकर
संतान को संन्यासी या नेत्रहीन होते देखना होता है

कथा में साधारण मनुष्य भी जाते हैं
मगर नाम और तिथि के साथ नहीं
और बैठे-बैठे तो विस्मरणीय कथा में भी नहीं

बैठे-बैठे आप अनाम श्रोता हो सकते हैं या भाग्यहीन शव

गति ही मुझे भी ले गयी वहाँ
जहाँ पहुँचने-भर से
मेरा अतीत और भविष्य कथा की वस्तु हुए
वहीं से आरम्भ .....



(तीन)

मैं नगर के अंतिम घर का वासी हूँ
थोड़ी ही दूर बाद एक गाँव है दर्शनपुर
वहाँ वे रहते हैं जो नगर में नहीं रह सकते
मैं भी वहीं रहता था कभी
और तराशता था शिवलिंग और अर्घ्य

किंतु एक दिन
.....किसी श्रेष्ठि के लिए
बनायी एक मूर्ति कुबेर की
जो सम्राट को अर्पित हो गई
(अपने आराध्य को खोए बिना धन नहीं आता कवि !)

और एक दिन मैं
पाटलिपुत्र की राजसभा में उपस्थित किया गया
पहली बार देखा कि क्या होती है राजसभा
पहली बार जाना
कि जो मुख नृत्य देख कहते हैं साधु! साधु!
वही वध का आदेश भी देते हैं
और वह भी कितनी निर्लिप्तता से
पहली बार जाना कि सम्राट होना क्या होता है
और क्या है कृपा के बरसने का व्याकरण

मुकुट को चाहिए अमरत्व
कथा की तरह वायवीय और शिला की तरह दृढ़
यानी कवि भी चाहिए और शिल्पी भी

और मैं राजशिल्पियों के समूह का अंग
नगर में निवास जहाँ से देखता हूँ पूरब
तो दिखता है गाँव जो अब भी मेरा है
हाँ, मैं उसका नहीं

लता को छोड़ते हैं फूल
फूल को छोड़ती है सुगंध
मिट्टी ऐसे ही छूटती है
ऐसे ही छूटते हैं उसके गुण



(चार)

कहते थे गुरु
कला का कर्म कठिन है
कठिनतर कला-धर्म का निर्वाह
किंतु सबसे कठिन कह पाना
कि कोई भी कला अपने सर्जक को क्या देगी
दण्ड या पुरस्कार
वह पुरस्कार का पथ था
जो मुझे साम्राज्ञी के उपवन तक ले गया
जिसकी नवीन सज्जा करनी थी मुझे
वहीं मैंने देखा उसे    देते आदेश

देखो, यह रही मल्लिका
वो उधर वहाँ होंगे पाटल
रजनीगंधा वहाँ गवाक्ष के निकट
यहाँ होगा बीच में साम्राज्ञी का आसन
यही उनकी इच्छा है
देखो और समझो कि कैसे सजाओगे
कितनी और कैसी मूर्तियाँ लगाओगे
   पूरी स्वतंत्रता

अंतिम दो शब्द कहते समय
झटके से मुखमंडल प्रकट हुआ पूरा
दर्प का कवच तनिक दरका
पाटल की कालिकाएँ खिलीं
श्वेत कलिकाओं की पंक्ति तनिक झलकी
कंदुक से उछले दो शब्द -पूरी स्वतंत्रता

और मैं दास हुआ

उसने भी देखा मुझे तनिक देर
काँप उठा मैं
शनै:-शनै: निकट आयी साधिकार पूछा
-किस पुर के वासी हो
- जी, दर्शनपुर
- दर्शनीय भी हो
पाहन हुई जीभ
- कार्य की प्रगति की निरीक्षिका मैं ही
पाहन हुए प्राण
- कार्यारम्भ शीघ्र हो, जाओ
पाहन हुए पैर
- पूछना है कुछ
पर्वत हुआ मैं
कि सहसा निकट आयी वह
छू मेरी ठुड्डी चपलता से बोली
-जाओ युवा शिल्पी साम्राज्ञी का उपवन है

फिरा मैं
जाने किन पहियों पर चला
जाने किन मार्गों से कार्यशाला पहुँचा
टकराया अपने ही आधे बने शिल्प से
तब जाकर चेत आया
हाय! मूर्ति का टूटना घोर अपशकुन!
किंतु दूसरे ही क्षण ठुड्डी जो सिहरी
तो मेघों के बीच मैं!



(पांच)

शीत नहीं ताप नहीं
पूजा नहीं जाप नहीं
वर नहीं शाप नहीं
पुण्य नहीं पाप नहीं
क्षुधा नहीं क्लांति नहीं
भय नहीं भ्रांति नहीं
सिंधु-सा विकल मन
शांति नहीं शांति नहीं
कर्म कर्म कला कर्म
कोई विश्रांति नहीं.



(छह)

कुंदन-सी काया कुमुदिनी मुस्कान
अतिपुष्ट जूड़े में कसे हुए केश
फूलों से भरी एक लहराती डाल
गरिमामयी चाल
ग्रीष्म-सी खुली पावस-सी सरस
स्वर में वसंत आँखों में इतना अनंत
कि उड़ने को जी चाहे.



(सात)

साम्राज्ञी की ओर से आती रही वह
छवियाँ छिटकाती रही किंतु अपनी ओर से
धूप में छाया-सी छाया में धूप-सी

भान तो होगा ही उसे भी कि क्या है
कि आते ही शिल्पी के हाथ धड़क उठते हैं
पत्थर और लोहे की झड़प ताल बनती है
सृजन-राग सप्तम पर.



(आठ)

अंतस की अग्नि से पाहन पिघलते रहे
मूर्तियाँ निकलती रहीं
सब में वह प्रतिबिम्बित तनिक-तनिक
कहीं अधर कहीं केशराशि
कटि कपोल वक्ष कहीं बाहों के वर्तुल

समझे कवि,
पत्थर भी निर्मल जल-दर्पण हो सकता है



(नौ)

किसी भी स्त्री को अंगों में बाँटकर देखना पाप है
किंतु पुरुष जाति को श्राप है - ऐसा ही करेगा

वही थी
उड़ते हुए मेघ पर खड़ी बिलकुल वही थी
जैसे कोई यक्षिणी दिगंत में
उसी का था स्वर
ताना-सा मारा और बह गयी

रात थी नींद थी स्वप्न था
किंतु, मेरी सहमी हुई चेतना का जागना सत्य था



(दस)

दिवस है तो दिवस रात्रि है तो रात्रि
जब जितना प्रकाश
उतने में आँखें खोलकर देखता हूँ

कोई गोधूलि नहीं
बातें करता हूँ
साझा करता हूँ कला के रहस्य
मन के सब गोपन
दर्शनपुर के सुख
दुःख पाटलिपुत्र के

बड़े धैर्य के साथ सब सुनती वह

पूछ भी लेती कभी-कभी
कैसे सीखा
कौन-सी मूर्ति कब, क्यों और कैसे बनायी
और मैं सीखने के दिनों को याद करता
यह भी कि कैसे छिटकती है छेनी
और एक बच्चे की कोमल उँगली रक्त से भींग जाती है
कि कैसे बिदकता है हथौड़ा और
पिता के श्रम की नाक टूट जाती है
और कितनी क्षिप्रता से लहराती है
एक हताश हथेली और बच्चे के गाल पर छप जाती है

सब सुनती वह     इतनी तन्मय होकर
मानों अपनी ही किसी त्रासद स्मृति के वन में खो गयी हो
और धीरे-धीरे उसके गालों की चम्पई आभा मलिन हो जाती

एक दिन ऐसी ही धूमिल बतरस के बीच
उसके दुःख ने लील लिया था मुझे
मगर हथौड़ियाँ कब मानती हैं
कब रुकती हैं छेनियाँ
पत्थर में लुप्त अंगों की खोज जारी
कि थोड़ी देर बाद सुनी
गुड़ के दानेदार शर्बत सी गीली आवाज़
मैं मुड़ा
हाय, वह तो रो रही थी

चाहा तो बहुत कि पोंछ दूँ
करुणा के जल से भींगा सारा मालिन्य
मगर कहाँ वे चम्पई गाल
और कहाँ मेरी गाँठदार मैली हथेली
वस्त्र भी पत्थर के कणों से अटे
कोरे-कुँवारे इस मन के सिवा
कुछ भी तो नहीं था स्वच्छ



(ग्यारह)

तुम्हारे बाल उड़ रहे हैं
और मेरा आकाश ढक गया है
तुम्हारी आँखें खुली हैं
और सृष्टि के सारे मेघ शरणागत हैं

एक पीली आभा है
यानी मैं तुम्हें देख पा रहा हूँ
और मेरी सृष्टि में धूप है
जैसे तुम हँस रही हो

लानतें भेजता हूँ उन्हें
जो प्रकृति को कृति कहकर
कहीं और देखने लग जाते हैं.




(बारह)

एक दिन आयी वह हल्के नीले वस्त्र में
जैसे पहने हो कार्तिक मास का निर्मल आकाश
उजले-पीले फूल तारों की तरह चमक रहे थे
लगा कि कंधे पर रेशमी चँवर धारे
कोई यक्षिणी अभिसार को निकली हो

मैंने परिहास किया
-आज का निरीक्षक तो मैं हूँ देवि
-प्रस्तुत हूँ
कहा उसने इठलाकर

मैं उसे घूम-घूम देखता रहा
कभी आगे कभी पीछे
कभी दाएँ कभी बाएँ
निहारता रहा ईश्वर का सुलेख
काया की कूटभाषा पढ़ता रहा बार-बार
साम्राज्ञी की सहचरी थी वह
गरिमा और धैर्य की क्या सीमा

सारी की सारी सृष्टि निस्पंद
जागृत बस दो
मेरी समाधि और उसकी मुस्कान

ऐसी समाधि कि
घड़ी बरस दिवस नहीं युग बीते
जाने किस युग में हम थे
कि आयी एक अनुचरी
-देवि, साम्राज्ञी ने आपको बुलाया है

और वह यंत्रवत चल पड़ी
तनिक आगे बढ़ी
तो मेरे मुख से नियति ने पुकारा -
हे निरीक्षिके! आना अब एक मास बाद
उपवन की सारी मूर्तियाँ तैयार मिलेंगी

सुनकर वह मुड़ी
कंदुक से उछले दो शब्द - पूरी स्वतंत्रता
और वह गयी
काँपता रहा दूर तक उसका गजनौटा
देर तक उड़ती रही उसकी मुस्कान
धूल-धूसरित कार्यशाला को धन्य कर



(तेरह)

एक मास बाद क्षुधा और क्लांति थी
विकट विश्रांति थी
भूमि की शय्या पर निद्रा के सिंधु में निमग्न था मैं
कि उद्धत प्रतिहारी ने झिंझोड़कर जगाया
उठो शिल्पी, उठो, दोपहर होने को आयी, उठो
साम्राज्ञी स्वयं आ रही हैं मूर्तियाँ निरीक्षण को

मैं घबराकर उठा
मुँह धोकर डाल एक उत्तरीय
यथाशीघ्र प्रस्तुत हुआ ही था
कि सुरभियुक्त वायु ने सचेत किया

मूर्तियाँ आवृत क्यों है शिल्पी
एक-एक कर अनावृत की जाएँ
उसी का स्वर था किंतु वह नहीं
साम्राज्ञी की मुख्य परिचरिका बोल रही थी
और मैं नतशीश यंत्रवत
एक के बाद एक दस मूर्तियाँ अनावृत कीं

साधु!   साधु!  साधु!

पहली बार सुनी वह ध्वनि
कानों के परदे पर
मन की जीभ पर
राजसी मिठास के छींटे पहली बार पड़े

और यह ऊँची मूर्ति
इसे भी अनावृत करो शिल्पी

मैं धन्य
कला की ऊष्मा
सत्ता को कैसे कोमल कर देती है

और मैंने शिशु सुलभ चपलता से आवरण हटाया
और पहली बार देखा महादेवी की ओर

हाय!  यह क्या साम्राज्ञी के नेत्र तो विस्फारित
किंतु ईर्ष्या और क्रोध की लपटें क्यों
क्यों देख रहीं वे एक बार मूर्ति को
और दूसरी बार उसे
और उसका मुख इतना विवर्ण क्यों

मैं हतप्रभ…..

साम्राज्ञी मुड़ीं और कहा प्रतिहारी से
इस मूर्ति को अंग-भंग
और शिल्पी को दंडित मूर्ति के साथ
नगर से निष्कासन मिले

वे गयीं और गया सारा दल
साथ में वह भी
जैसे भागते हुए शकट से बँधी एक आहत मृगी
मुड़कर एक बार भी नहीं देखा



(चौदह)

-लेकिन क्यों
कला की कोमलता को इतना कठोर दंड क्यों
क्या अपराध है मेरा

-अपनी सबसे ऊँची मूर्ति को देखो शिल्पी
दंडाधिकारी का उत्तर था

-क्यों देखूँ भला
ज्ञात है मुझे
वह मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति है
शुभांगी है विचित्रा प्रसन्नवदना है वह
ऐसी कि पत्थर के आगे भी रख दो
तो जीवन मुस्का दे

-इसीलिए कहता हूँ शिल्पी
इससे पहले कि अंगों का भंग हो
देख लो अंतिम अखंड छवि अपनी विशिष्टा की

और मैंने देखा
अरे! यह तो वही है बिलकुल वही
इसे मैंने कब रचा
मैं तो सतर्क था
कि शिल्प में मेरे वह हो तो अवश्य
किंतु इतना ही मात्र कि वह जाने मैं जानूँ
और जग कहे कि साधु साधु सुंदर अति सुंदर

असफल हूँ मैं पूर्णतया असफल
शिल्पी नहीं अपराधी
दास हूँ अनंग का
आत्मा का पाप हूँ
अपनी ही सृष्टि पर शाप हूँ
शिल्प क्यों शिल्पी हो दण्डित
अंग-भंग मेरा करो

हाय !
प्रथम छवि अंतिम
प्रथम स्पर्श अंतिम
और मात्र एक आधा-अधूरा अभिसार
शेष संहार…….....शेष संहार


(पन्द्रह)

यह गंगा का तट है कवि
उस गंगा का जो कथाओं में ही नहीं
बाहर भी बहती है
यहीं रहता हूँ
वो रही मेरी पर्णकुटी

मैं उसके स्नान के लिए जल लेने आया हूँ
बस, हमीं दोनों रहते हैं और क्या
क्या नगर   क्या पुर
खंडित मूर्ति और दंडित शिल्पी के लिए
कहीं स्थान नहीं

क्या करता हूँ
हाहाहाहाहाहा
प्रार्थना करता हूँ प्रार्थना
ईश्वर के ईश्वर से
कि ईश्वर के शिल्प को
शिल्प के ईश्वर दंड से मुक्त करें
और दंड ही देना हो
तो मुक्ति का दंड दें
मुक्ति का दंड हाहाहाहाहाहा

और क्या
उसे मैं निहारता हूँ
मुझे वह निहारती है
खेलता हूँ टकटकी लगाने का खेल
और कवि उसकी ढिठाई तो देखो
कभी नहीं हारती
चलता है चलने दो
जैसे वह प्रसन्न रहे
सच तो यही कि उसकी ही स्मिति से किरणें छिटकती हैं
दिन की उजास उसी की आभा से
उसी की थकान से गगन सँवलाता है 
उसी की देह के घावों का कृष्ण रक्त तिमिर बन बहता है 
उसी की पीड़ा से रात की निविड़ता
विकल वनस्पतियों में वही सिसकती है

-और अब क्या कहूँ  
आपस में करते हैं बातें चुपचाप
सोचो तुम, कौन अधिक पत्थर है !
______________________

विनय कुमार
(९ जून १९६१), जहानाबाद , बिहार
एम. डी मनोचिक्तिसा

Hony General Secretary:Indian Psychiatric Society
Chairperson, Publication Committee: Indian Psychiatric Society (2016-18)
Hony Treasurer: Indian Association for Social Psychiatry
Past Hony. Treasurer : Indian Psychiatric Society (2012-16)
Past Chairperson, Election Commission: Indian Psychiatric Society
Editor: Manoveda Digest (1st Hindi Mental Health Magazine)
Chairman: Vijay Memorial Trust
Consultant Psychiatrist
Manoved Mind Hospital & Research Centre

NC-116, SBI Officer's Colony, Kankarbag, Patna. India
+91 9431011775


 dr.vinaykr@gmail.com

परख : कोरियाई कविता के हिंदी अनुवाद की समस्या : पंकज मोहन

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दो भाषाओँ के बीच अनुवाद सांस्कृतिक प्रक्रिया है, मुझे लगता ही कि जैसे साहित्य से उस समाज का पता चलता है उसी प्रकार जिस भाषा में अनुवाद हो रहे हैं, उसकी गुणवत्ता से उस समाज की समृद्धि और सुरुचि का भी अंदाज़ा लग जाता है.

अच्छे अनुवाद भाषाओँ के ज्ञान, पर्याप्त समय और धन तथा उच्च सास्कृतिक बौद्धिक स्तर के बिना संभव नहीं हैं. यूरोपीय देश ज्यों-ज्यों समृद्ध होते गये उनकी भाषाओँ में अनुवाद की गुणवत्ता निखरती गयी. 

भारत और हिंदी जैसी भाषाओँ में अनुवाद झमेले का काम है ख़ासकर जब ये अंग्रेजी के अलावा किसी विदेशी भाषा से हिंदी में हो रहे हों. एक तो मूल से अनुवाद नहीं हो पाते, अगर होते हैं तो उन दोनों भाषाओँ के जानकार पुनरवलोककनहीं मिल पाते.  

हिंदी के कवि दिविक रमेश की पुस्तक "कोरियाई कविता यात्रा"१९९९ में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई पर जब कोरियाई भाषा में रूचि और गति रखने वाले पंकज मोहन ने इसे परखा तो तमाम झोल सामने आ गए.

यह लेख आपके लिए.




कोरियाई कविता के हिंदी अनुवाद  की समस्या              
पंकज मोहन,

(यशस्वी साहित्यसेवी श्री विष्णु खरे जिन्होंने अनूदित कृतियों पर संतुलित तथा तथ्यपरक समीक्षात्मक लेख लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया,की स्मृति में इस विषाद-कुसुमांजलि को सश्रद्ध अर्पित करता हूँ.)

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निराला रचनावली (खंड 6) में अनुवाद से सम्बंधित निराला-द्विवेदी वार्ता के कुछ अंश संकलित हैं:


"एक बार मै हिंदी के धुरंधर आचार्य पूज्यपाद पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी के दर्शन करने गया था. एकाएक अनुवाद का प्रसंग चल पड़ा. मैंने उनसे उसके नियम पूछे. द्विवेदीजी ने कहा, उभय भाषाओं पर अनुवादक का पूर्ण अधिकार होना चाहिए. उभय भाषाओं के मुहाबरे बिना जाने अनुवाद में सफलता नहीं होती. दूसरे, अनुवाद के लिए यह कोई नियम नहीं कि मूल की अर्थध्वनि कुछ और हो और अनुवाद की कुछ और. अनुवादक को सर्वदा मूल के अर्थ पर ध्यान रखना चाहिए. उसी अर्थ को दूसरी भाषा में परिस्फुट कर देने की चेष्टा करनी चाहिए. सारांश यह कि मूल की भाषा और भावों से अनुवाद की भाषा और भाव क शिथिल न होने देना चाहिए."

हिंदी में साहित्य के अनुवाद का श्रीगणेश उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ,किन्तुद्विवेदीयुगमेंइसविधाकाविशेषविकासहुआ. द्विवेदीजीने"ग्रंथकारोंसेविनय" (सरस्वती1905) शीर्षककविताकीरचनाकरअनुवादकीआवश्यकतापरजोरदियाथा::

इंग्लिश का ग्रन्थ बहुत भारी है
अति विस्तृत जलधि समान देहधारी है
संस्कृत भी इसके लिए सौख्यकारी है
उसका भी ज्ञानागार हृदयहारी है
इन दोनों में से ग्रन्थ-रत्न ले लीजै
हिंदी अर्पण उन्हें प्रेमयुत कीजै


परवर्ती काल में अंग्रेजी, संस्कृत और भारत की दूसरी भाषाओं के अनूदित ग्रंथों से हिंदी निस्संदेह अत्यंत समृद्ध हुयी. उभय भाषाओं में निष्णात और अनुवाद-कला को नयी ऊंचाई प्रदान करने वाले अविस्मरणीय साहित्य-साधकों की श्रेणी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, निराला, बौद्ध शास्त्र-सूत्र अनुवाद के वृहतत्रयी राहुल सांकृत्यायन, भिक्षु जगदीश कश्यप और आनंद कौसल्यायन , बंगला साहित्य के तलस्पर्शी विद्वान हंस कुमार तिवारी,, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर, बच्चन आदि पांक्तेय हैं. फिर भी यह हिंदी साहित्यिक परिदृश्य का एक कटु यथार्थहै कि एशिया की साहित्यिक कृति को बिना अंग्रेजी अनुवाद की बैसाखी का सहारा लिए मूल भाषा से अनुवाद करने की क्षमता रखने वाले वाले साहित्य-साधक आज भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं.


आचार्य द्विवेदी ने जिन नियमों का प्रतिपादन किया है, वे सार्वभौम, सर्वयुगीन और स्वत-सिद्ध सत्य हैं. चूँकि मैं कई दशकों से कोरियाई भाषा से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए मैंने यह जानने की कोशिश की कि अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर होकर कोरियाई कविता के मूल भाव और संवेदना को हिंदी में उतारना संभव है या नहीं. पिछले दो दशकों में आधुनिक कोरियाई कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हुए हैं. इस आलेख में दिविक रमेशकी पुस्तक "कोरियाई कविता यात्रा" (साहित्य अकादेमी, 1999) से कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत काव्यानुवाद की कठिनाइओं और खतरों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा.


.
बंटवारा

मेरे प्यार, मेरे हाथों में अपने हाथ दो
दिखते हैं अँधेरे में तुम्हारे मोम-रंगे हाथ
मेरे प्यार, मुझसे बोलो, मेरी आँखों से
उपयुक्त होता है मौन, सन्नाटे के लिए.
क्या होना चाहिए हमें अलग, होना चाहिए हमें तुम्हे और मुझे?
क्या हम डूब जायेगें समुद्र में और हो जायेगें नागराज
और नागरानी ? पागलपन में
हो जाने की बजाय अलग 
(दि.. पृष्ठ 56-57 )


मूल कविता से मिलाकर देखने पर मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया की दिविक रमेश का अनुवाद मूल कोरियाई में व्यक्त भाव और विचार से बहुत दूर चला गया है. इस कविता को मैंने इस तरह समझा है.


विछोह

प्रिय, दो अपने हाथ, थाम लो मेरे हाथ
अँधेरे में भी दिखते अपने मोमवर्णी, धवल हाथों में
प्रिय, बोलो, डाल दो मेरी आँखों में
अपने अवरुद्ध कंठ से फूटे मौन के स्वर.

कैसे हो सकते हम एक दूसरे से पृथक
आखिर कैसे रह पायेगें हमएक दूसरे से दूर ?
विरह-अग्नि में दग्ध हो हम हो जायेगें विक्षिप्त..
अच्छा है इससे कि हम साथ डूब मरें इस समुद्र में
और साथ जीएं, बनकर यक्ष और यक्षिणी.


.
गिरती पंखुरियाँ

ऐसा न हो कि रहे एकांत में
सुन्दर आत्मा
जानना होगा लौकिक दिमागों को
हैं मेरे पास कुछ आशंकाएं
जब गिरती हैं सुबह-सुबह पंखुरियाँ
चाहता हूँ मैं चीखना कलेजा निकालकर

अब दिविक रमेश के उपरोक्त अनुवाद को मेरे अनुवाद से मिलाकर देखिये.

झड़ते फूल

मैं नहीं जानता
कि कहीं कोई है
जो समझ सके एकाकी जीवन जीते एक व्यक्ति के
निश्छल, निष्कलुष ह्रदय को
प्रातःकाल जब टहनियों से झरते हैं फूल
घिर जाता हूँ उदासी से.

कुछ ऐसे ही भाव केदारजी की एक कविता में व्यक्त हुयी है: "झरने लगे नीम के पत्ते/बढ़ने लगी उदासी मन की."

अब तीसरे उदाहरण पर दृष्टिपात करें.

3.
हृदय में पताका
है कोई दोस्त, सुनहरे ह्रदय वाला
फैला
रेशमी रेत सा
जहां डूब चुकी हो संतप्त समाधि राजसी आदेश-सी


इस कविता के भाव को मैंने इस तरह अभिव्यक्त किया है:

है कोई मित्र
जिसका हृदय हो रुपहली बालुका राशि-सा
निःशेष जो सोख ले
उस गहरे विषाद की धारा को
जो प्रवाहित होता है एक पराजित राजसम्राट के ह्रदय में
आत्समर्पण की घोषणा करते समय .(संकल्प ध्वज)


यहां यह ध्यातव्य है कि मूल कविता के भाव को आत्मसात करने की अक्षमता तथा अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त शब्दों के निहितार्थ को गहराई से समझने की विफलता के कारण दिविक रमेश के अनुवाद में मूल कविता की चेतना और भावना विकृत हो गयी है. "झड़ते फूल"कविता की अंतिम पंक्ति "चाहता हूँ मैं चीखना कलेजा निकालकर "अंग्रेजी वाक्य " I wish to cry my heart out"का यांत्रिक, कृत्रिम अनुवाद है और "ह्रदय में पताका"कविता में प्रयुक्त शब्द "Grief grave as royal edict"को समझने में अनुवादक ने ऐसी चूक कर दी है कि हिंदी अनुवाद ("संतप्त समाधि /राजसी आदेश-सी ") अर्थ का अनर्थ कर देता है.


दिविक रमेश की पुस्तक में ऐसे अनेक अनुवाद हैं जिसमे मूल रचना तो दूर की बात है, अंग्रेजी अनुवाद से भी बहुत फासला बन गया है. "छिंदालय"की पहली पंक्ति का "भ्रामक अनुवाद "जाओगी जब दूर मेरी बढ़ती हुयी उदासियों से"अंग्रेजी वाक्य  "If you go away, through with me"पर आधृत है, यद्यपि कवि का अभिप्रेत है, "ऊबकर मुझसे अगर मुंह मोड़ लोगे."


दिविक रमेश ने एक लोकप्रिय कविता की पहली पंक्ति "Come July in my village town" . का अनुवाद किया है, "आना जुलाई मेरे गाँव" (p. 39), जबकि कवि कहना चाहता है, "आता है जब जुलाई का महीना मेरे गाँव".इसी कविता में कवि कहता है, "दूर-दराज से एक मित्र आता है, मेरे साथ बैठ, साथ साथ अंगूर का साथ मजा लेने". दिविक रमेश की समझ में "share grapes"का अर्थ है, "वह आता है अंगूर बांटने को".


कवियत्रीमो यून -सुक की एक कविता में निःस्वार्थ प्रेम की बेदी पर प्रेमिका के प्राणोत्सर्ग के प्राण का उल्लेख है और इस भावना को एक कोरियाई अनवादक KIm Jaihiun ने "I will not spare my life""के रूप में अभिव्यक्त किया है. दिविक रमेश का अनुवाद है, मैं नहीं माफ़ करूंगी अपने जीवन को. उसी कविता में एक वाक्य है, Debts throw me out of wits .. जिसे हिंदी में "बोझ फेंक रहा है मुझे समझ के बाहर"के रूप में व्यक्त किया गया है.


इस कविता का मेरा अनुवाद है:

"अगर तुम कहोगे, जीओ, जीऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए, हे परम प्रिय, प्राणाधार
अगर मुट्ठी भर दाने के लिए तरसना पड़े, तो भी जीऊँगी, रहकर निराहार
ऋण के दुर्वह भार से दबना पड़े , तो भी जीऊँगी, सहकर साहूकार का प्रहार
और फिर सहर्ष वरण करूंगी मृत्यु का, अगर उससे होता हो तुम्हारा उपकार".


दिविक रमेश की पुस्तक में एक छोटी-सी कविता "सागर और तितली" (पेज 77) का अनुवाद है: "(तितली) उतरती है समुद्र पर/ समझ/ बस एक टुकड़ा भर नीली मूली का", जबकि कवि कहना चाहता है, "तितली उतरती है समुद्र पर/ समझकर उसे एक हरा-भरा विशाल खेत, मूली का.


दिविकरमेशकीपुस्तकमेंदिएगएप्रायःसभी  कवि  परिचयकुछकांट-छांट  केसाथ  Jaijiun Kim   द्वाराअनूदित  औरसम्पादितकाव्य-संकलन"The Immortal Voice: Anthology of Modern Korean Poetry"सेउठायेहुएहैं. उदाहरणार्थभिक्षु-कवि  हान  योंग-उनकापरिचयकिमनेइसतरहदियाहै:

“Born in Hongsong-gun, Chungchóng namdo, in the south. A devoted Buddhist monk since his early years. Han was one of the 33 members who in 1919 signed the historical document to declare Korean independence of the Japanese colonial rule. His poems concern his philosophical meditation on nature and the mystery of human existence.
Silence of Love (1926); Complete Works of Han Yong-un (1973)

अबदिविककीपुस्तककेपृष्ठ42 परदिएगएअनुवादपरनजरडालें.

"होंगसांगमेंजन्म. शुरूसेहीसमर्पितबौद्धभिक्षु.देशभक्त.कविताओंमेंविशेषरूपसेदार्शनिकचिन्तनयुक्तप्रकृतिऔरमानवसत्ता. उन३३सदस्योंमेंसेएक, जिन्होंने 1919 मेंजापानीउपनिवेशवादसेकोरियाकीमुक्तिसम्बन्धीऐतिहासिकदस्ताबेजपरहस्ताक्षरकियेथे.प्रसिद्धकृतियोंमें"प्यारकामौन (1926) औरहानयोंग-उनकासंपूर्णसाहित्य (1973) है.”


हिंदीपाठकोंकोदक्षिणकोरियाकेहोंगसंगजिले को  होंगसांगकेरूपमेंपरिचितकरानाअनुत्तरदायित्वकीपराकाष्ठाहै. अगरहिंदीसाहित्यकाकोईविदेशीअनुवादकपंतजीकेबारेमेंकहेकिउनकाजन्मअलमीरामेंहुआथा, तोजिज्ञासुविदेशीपाठक, अलमीरानमकस्थानकोभारतकेमानचित्रमेंकैसेढूंढपायेगा? औरपरिचयकीदूसरीपंक्ति"शुरूसेहीसमर्पितबौद्धभिक्षु"काक्याअर्थहोताहै? क्याउन्होंनेअपनेजीवनकेआरम्भमेंहीचीवरधारणकरलियाथा? क्यावेजन्मजातबौद्धधर्मकेप्रतिसमर्पितव्यक्तिथे? वस्तुतः१३वर्षकीअवस्थामेंपारम्परिकरीतिसेउनकाविवाहहुआ, औरसन 1904 में 25 वर्षकीआयुमेंउन्होंनेबौद्धधर्मकीचोग्येपरंपरामेंप्रव्रज्यादीक्षाधारणकी. 1933 मेंयुसुक-वननामकमहिलासेउनकापुनर्विवाहहुआ. 1 मार्च 1919 कोहानयोंग-उननेबौद्ध -प्रतिनिधि  रूपमेंदूसरेधर्मोंके३१अन्यप्रतिनिधियोंकेसाथ  कोरियाकीस्वतन्त्रताकेऐतिहासिकघोषणा-पत्रपरहस्ताक्षरकियाजोकोरियाकेअसहयोगआंदोलनकाशंखनादथा.जापानीसाम्राज्यवादकोचुनौतीदेनेकेजुर्ममेंउन्हेंकारावासकीसजाभुगतनीपडी.कविताओंमेंविशेषरूपसेदार्शनिकचिन्तनयुक्तप्रकृतिऔरमानवसत्ता” “philosophical meditation on nature and the mystery of human existence” कागलतअनुवादहीनहींहै, यहऐसी  अभिव्यक्तिहै  जिसेसमझनेकेलिएमूलपाठ  कोदेखनाआवश्यकहोजाताहै.


अंग्रेजीअनुवादककिमकाअभिप्रेतहै, हानयोंग-उनकेकाव्यकीभाव-भूमि  मानव-अस्तित्वकी  प्रकृतिऔररहस्यमयता  हैऔरउसमेआध्यात्मिकऔरदार्शनिकतत्वअनुस्यूतहै. कवि परिचय के अंतिम भाग में उन्होंने अपनी तरफ से तीन शब्द (प्रसिद्धकृतियोंमेंजोड़ दिए हैं. मूल टेक्स्ट में लिखा हुआ है,Silence of Love (1926); Complete Works of Han Yong-un (1973). अब प्रश्न यह उठता है कि हानयोंग-उनकी मृत्यु के 29 साल बाद प्रकशित ग्रंथावली को क्या हम उनकी प्रसिद्द कृति में परिगणित क रसकते है? प्रेमचंद की प्रसिद्ध कृतियाँ सेवासदन, गोदान, कफ़न आदि हैं, बीस जिल्दों में प्रकाशित प्रेमचंद रचनावली नहीं.


कवि-परिचय भी कितना भ्रामक है,इस तथ्य के सम्यक निरूपण के लिए कुछ और त्रुटियों पर विचार करना आवश्यक है.ओसांग-सुन (जिसे दिविक रमेश ओसंगसन के रूप में लिप्यन्तरित करते हैं) के बारे में अंग्रेजी अनुवादक कहते हैं, “”Despairing of the national situation after the defeat of the Independence Movement, he gave himself up for a while to nihilistic abandon”(p. 32).


दिविक रमेश इस वाक्य को इस तरह संक्षिप्त करते हैं कि वाक्य पंगु बन जाता है.दिविक रमेश के वाक्य  "एक बार स्वतन्त्रता आंदोलन के विफल हो जाने के कारण बहुत निराश हो गए थे"को पढ़कर पाठक यही सोचेगा कि क्या यह भी कोई सूचना है.स्वतन्त्रता आंदोलन के निराश होने पर उस आंदोलन में भाग लेने वाले लेखक का दुखी होना कोई ऐसी सूचना नहीं है जो उसके जीवन को पारिभाषित करता है.


इस पुस्तक की दो और खामियां हैं, एक है अंग्रेजी शब्दों का अर्थ न जानने के कारण उनका उट पटांगअर्थ लगाना या अंग्रेजी शब्दों को ही अपने अनुवाद में घुसा देना और दूसरा कोरियाई नामों या शब्दों का सदोष लिप्यंतरण. पृष्ठ१२५ पर दी गयी कविता में एक शव यात्रा का वर्णन है.शव यात्रा में कुछ लोगों के हाथ में streamer अर्थात रंगीन झंडियां हैं, कुछ के हाथ में घंटियाँ, लेकिन दिविक रमेश streamer का अनुवाद कतार करते हैं, और हाथ की घंटियाँ, हाथी की घंटियाँ बन जाती हैं. Listless शब्द का अर्थ है मायूसकिन्तु दिविक रमेश उस शब्द की व्याख्या  "लावारिश"के रूप में करते हैं. (.१२५). बिजली, टेलीफोन या तार के खम्भे को कहा जाता है, लेकिन दिविक रमेश की लेखनी इसे"उपयोगी खम्भे"बना देती है.


हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग भी पाठक के गले में अटकते हैं.नन से भी ज्यादा अकेली" (P. 59) में नन के बदले भिक्षुणी, तपस्विनी या साध्वी का प्रयोग किया जा सकता था."एक हो जाएँ हमारे ह्रदय वेल्ड होकर" (. ५६) में वेल्ड होकर के बदले अगर"जुड़कर""मिलकर"आदि किसी हिंदी शब्द का प्रयोग अपेक्षित था.


कोरियाई भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण दिविक रमेश एक ही नाम को अलग-अलग जगहों पर भिन्न-भिन्न रूपों में लिप्यन्तरित करते हैं.कोरियाई उपनाम CHOE   चो, छवै, छोचोए, छए आदि रूपों में अवतरित होता है. पुस्तक के विभिन्न स्थलों पर कोरिया के प्रांत चन नाम को चोनाम, चोन्नाम, चन्नाम और क्यंगसांग को ग्योंगसांग, क्योंगसोंग, ग्योंगसांग आदि रूपों में लिप्यंतरी कृत किया गया है. अनुवादक अगर कोरियाई भाषा और साहित्य की थोड़ी-बहुत जानकारी रखनेवाले किसी व्यक्ति की सहायता लेते तो इन गलतियों से बचा जा सकता था और कोरियाई कवियों के नाम के लिप्यंतरण में भी विकृति नहीं आती. कोरियाई साहित्य की अमर विभूति किमसोवल को किमसॅावॉल के रूप में याचुयोहान को छूयोहन अथवा चूयोहन के रूप में देखने काफी खटकता है.


काव्यानुवाद शव-साधना है, पुनर्सृजन की प्रक्रिया है.विदेशी जमीन के पौधे को अपने जीवंत भाषिक सन्दर्भ में ढालना और उसे नया संस्कार देना तभी संभव है जब अनुवादक श्रोत भाषा के काव्य में अन्तर्निहित भाव-गाम्भीर्य को ही नहीं, शब्द-सौष्ठव, नाद योजना और छंद विधान को भी बारी की से समझता हो. मई 1924 के मतवाला में शरत बाबू के उपन्यास"चरित्रहीन"के हिंदी अनुवाद की समीक्षा करते हुए निराला ने लिखा था कि मूल में कोई चमत्कार हो तो अनुवाद में भी चमत्कार दिखाना चाहिए, किन्तु अनुवादक महोदय की कृपा से चमत्कार तो दूर रहा, मूल का अर्थ भी गायब हो गया है.यह दुःख के साथ कहना पड़ता है कि दिविक रमेश की अनूदित पुस्तक पर निराला का कथन अक्षरशःलागू होता है.

__________


Appendix
이별을하느니 (이상화)
애인(愛人)아손을다오어둠속에도보이는납색(蠟色)의손을내손에쥐어다오.
애인(愛人)아말해다오벙어리입이말하는침묵(沈黙)의말을내눈에일러다오.
어쩌면너와나떠나야겠으며아무래도우리는나누어져야겠느냐?
우리둘이나누어져미치고마느니차라리바다에빠져두머리인어(人魚)로나되어서살자!

Parting by Yi sang-hwa

Love, give me your hand; place in mine your
Hand, wax-coloured, that can be seen in the darkness.
Love, speak to me, to my eyes, the silent words
Fit for the dumb.

Must we part?  Must we, you and I?
Shall we drown into the sea and be a merman and mermaid
Rather than live apart and mad.


2.
낙화(조지훈)
묻혀서사는이의
고운마음을

아는있을까
저허하노니

지는아침은
울고싶어라.

Shedding of Petals by Cho Chi-hun

Lest the lovely soul
Living in Seclusion

Be known to the seular world
I have some misgivings.

When the petals fall in the morning
I wish to cry my heart out.

3.
정념의기 (김남조)

황제의항서(降書)와도같은무거운비애가
맑게가라앉은
하얀모래펄같은마음씨의
벗은없을까

A heart’s Flag by Kim Nam-cho

Is there a friend  with a heart golden
As the stretch of white sands
Where grief grave as an imperial edict has sunk?
________

पंकज मोहन
प्रोफेसर और डीन, इतिहास  संकाय
नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर
pankaj@nalandauniv.edu.in




विजया सिंह की कविताएँ

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इधर किसी अत्यंत प्रतिभाशाली कवयित्री विजया सिंह की कुछ आश्चर्यजनक अनूठी कविताएँ आपने अपने मिलते-जुलते नाम विजया सिंह से छपा ली हैं. इस कृत्य की यूँ तो निंदा की जानी चाहिए थी किन्तु उसे ऐसी  हाथ की सफ़ाई से ही सही किन्तु प्रकाश में लाने के लिए आपकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है.

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विष्णु खरे 
The Baffled Hercule Poirot
(समालोचन पर पहली बार विजया सिंह की कविताएँ प्रकाशित होने पर विष्णु जी का विनोद,दिसम्बर -२०१३)






विजया सिंह की कविताएँ             




दफ़्तर का ताला

पिछले पांच सालों से मेरे दफ्तर का ताला नहीं बदला
पर आज भी हमारा स्पर्श एक दूसरे के लिये अजनबी है
हमेशा, वो मुझसे मुँह टेड़ा करके ही मुख़ातिब होता है
उसका अर्ध-चंद्राकार मुँह कभी दायें, कभी बायें, कभी ऊपर घूमा मिलता है
जब तक कन्धे पर लटका बैग खिसक कर कोहनी तक न आ जाये
बगल में दबी क़िताब
और हाथ से टिफ़िन न गिर पड़े
उसका मुँह सीधा नहीं होता
मजाल है कभी एक बार में चाबी घुस जाये
जाते वक्त मैं उसे ठीक-ठाक ही छोड़ कर जाती हूँ
पता नहीं रात में कौन से सपने उसे बेचैन किये रहते हैं
कि सुबह उसका मूड बिगड़ा ही मिलता है
न दुआ, न सलाम, बस अकड़ा हुआ
कि आज नहीं खुलूँगा
लाख समझाया उसे
तुम अलीबाबा की गुफा की पहरेदारी नहीं कर रहे
और न ही हम खेल रहे हैं शिनाख्ती लफ़्जों का कोई प्यारा सा खेल
तुम हैरिसन के मामूली से स्टील के ताले हो
जिसे मैंने परचून की दुकान से पचास रूपए में ख़रीदा है
तुम्हारे साथ तीन चाबियाँ आयीं हैं, हूर की परियां नहीं
एक बार तो उसने मुझे पूरे दो घंटे बाहर बैठाये रखा
हथोड़ा देख घबराया
और चोट लगे इससे पहले ही खुल गया
अब फिर लुका-छिपी का खेल जारी है
कुल मिला कर  बात यह है कि बात बन नहीं रही
बन पहले भी नहीं रही थी
पर अब तो बिलकुल ही नहीं बन रही
दरअसल सच तो यह है
कि वह ताला न होकर कुछ और होना चाहता है
मैंने जबरन उसे दफ़्तर के दरवाज़े पर रोका हुआ है
उसके सपने उसकी सच्चाई से मेल नहीं खाते




दफ़्तर

दफ़्तर का दरवाज़ा बिना धक्के के नहीं खुलता
और न बंद ही होता है
बरसात में तो उसका कराहना सहा नहीं जाता
लगता है जैसे बरसों का साइटिका का दर्द उभर आया हो
मॉनसून में इतना पानी सोख लेता है
कि चमड़ी हाथ में रह जाये
पर्दों का रंग किसी भी चीज़ से मेल नहीं खाता 
भारी-भरकम, शांत एक कोने में दुबके रहते हैं
न दार्शनिक, न वाचाल 
बस दिन-रात धूल जुटाते हैं
दो पंखे हैं जिनमें से सिर्फ एक चलता है
दूसरा दीवार पर टंगा लगातार मुझे देखता रहता है
अब तक मुझे उससे प्यार हो जाना चाहिए था
पर उसकी निष्क्रियता आड़े आती है
उसका एक पंख भी अब तक मेरे लिये नहीं हिला
अलमारी में रखी किताबें बाहर आने उम्मीद खो चुकी हैं
और इस कदर पीछे धकेली जा चुकी हैं
कि सामूहिक अवचेतन का हिस्सा बनकर
कॉलेज के सपनों में घुसने का प्रयास करती रहती हैं
जिस अलमारी में वे रखी हैं
उसका एक पलड़ा इस कदर जकड़ा है कि सिर्फ चौथाई खुलता है
गर्दन को एक विशेष कोण पर घुमा कर ही उसके भीतर झाँका जा सकता है
मुझसे पहले जिस किसी के हिस्से वह अलमारी थी
उसने वहां एक शीशा रख छोड़ा है
जिसका प्लास्टिक फ्रेम किसी रासायनिक प्रक्रिया के तहत
अलमारी की दीवार से ऐसे सहम के चिपका है
जैसे बन्दर का बच्चा माँ के पेट से
वहां से वह क्या देख पाता होगा यह तो पता नहीं
पर कभी शीशा सहमा लगता है, तो कभी शक्लें
यह कहना भी मुश्किल है
कि इस छोटे से शहर के इस छोटे से सरकारी कोने में
कौन कब शीशा है, और कौन कब, कब सहमा है





ख़रगोश  या पत्थर

ख़रगोश, सफ़ेद पत्थर हो गए
या सफ़ेद पत्थर ही ख़रगोश थे ?
माँ की देह
खरगोश थी या पत्थर ?
किस धातु की गंध आती थी उसके पोरों से ?
क्या पिघला लोहा ?
कौन सा फल था जिसे वह बेहद पसंद करती थी?
तरबूज शायद ?
क्योंकि, वह विस्मयकारी नहीं था ?
उसका हरा रंग और असंख्य बीज सामान्य थे
सुदूर नहीं, पास की नदी के तट पर उपजा
लम्बी यात्राओं से न थकने वाला
रस से भरपूर
चार बच्चों की ऊष्मा के लिये पर्याप्त ठंड़ा 
कौन सा व्यंजन था जिसे वह सप्ताह के अंत में बनाती थी?
सांभर -इडली ?
सांभर-थकी सब्जियों का बोझ ले सकता था
और खमीर के रहस्य से उपजी इडली
कोई रोमांच जरूर भरती होगी उसके थके क़दमों में
पिता के पीछे
असम, अरुणाचल, नागालैंड, पठानकोट
ढ़ेर सारे सामान और बच्चों के साथ रेल में
खिड़की से बाहर झांकते
तीसरी कसम की वहीदा रेहमान
छूटती जाती थी
गाँव, खलिहान, मेलों
और अपने आप से




आधी रात की दो कविताएँ

(एक).

साल की तेरह रातें
जब पूर्णमासी का चाँद बढ़ता है
तो घटता है मेरे अंदर का आकाश
कम से कम इन तेरह दिनों के मेरे गुनाह माफ़ हों
इन दिनों में अपने आप से कुछ कम, कमतर होती जाती हूँ
कि मैं ज्यादा रोती हूँ
ज्यादा महसूस करती हूँ
हर तिरस्कार मुझे माँ का दिया देशनिकाला लगता है
दूसरे स्थान की नियति मैंने नहीं, चन्द्रमा ने मुझे प्रस्तुत की
जन्म ही से तय कीं उसने मेरी खारे पानी की डुबकियां
और यह भी कि सब सच उलटे लटक जायेंगे
मैं कभी समझ नहीं पाऊँगी
सच और झूठ का अधूरापन
चन्द्रमा का इतिहास धरती की बेरुखी का बयान ही तो है
पास आने की उम्मीद में घटता-बढ़ता, गायब होता
वह कहीं नहीं पहुँचता
यह कौन कह सकता है



(दो)
जहाँ हम सबसे कोमल हैं
ठीक वहीँ चुभेंगीं कीलें
हमारे नर्म तलुवों पर
कि हम न चल पाएंगे न ठहर
भीतर ही भीतर जलेगा
अहम् के साथ बहुत कुछ
यह जानेंगें हम
कि नाकाफी हैं हमारी उपलब्धियाँ
हमारी रोमांचित करने वाली कहानियाँ
महंगें कपड़े , जूते और घड़ियाँ
किताबों से भरी अलमारियाँ
फूलों से लदी क्यारियाँ
टेक्नोलॉजी के उपकरण
और वे तमाम चीज़ें
जिनका वैभव जलाता है हमारे पड़ोसियों को
हमारा मनोहारी चेहरा, हमारी ज़हीन बातें
नहीं बचा पाएंगे ये सब हमें दूसरे की कठोरता से

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विजया सिंहचंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब  Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, हाल ही में Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है:  Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016).

दलित साहित्य - २०१८ : बजरंग बिहारी तिवारी

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हिंदी का दलित साहित्य अब कलमी पौधा न होकर एक भरा पूरा वृक्ष है. सिर्फ आत्मकथाएं नहीं, उपन्यास, कहानी, कविता, अनुवाद आलोचना सभी क्षेत्रों में आत्मविश्वास और परिपक्वता दिखती है.

आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने वर्षों से दलित साहित्य को अपने अध्ययन का केंद्र बना रखा है और  इस विषय पर उनका विस्तृत लेखन प्रकशित है.

इस वर्ष के दलित साहित्य का लेखा–जोखा उन्होंने लिया है. हो सकता है कुछ पुस्तकें छूट भी गयीं हों. आप टिप्पणी में चाहें तो उनका संज्ञान ले सकते हैं.



हिंदी दलित साहित्य – २०१८
आक्रोश से विसंगतियों की ओर                                 
बजरंग बिहारी तिवारी


अन्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में हिंदी दलित साहित्य इस मायने में भिन्न है कि यहाँ रचनाकारों की नई पीढ़ी अपेक्षाकृत अधिक संख्या में पूरे दमखम के साथ लिख रही है. दिल्ली स्थित दलित लेखक संघ (दलेस) ने इस वर्ष अपनी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’का प्रकाशन शुरू किया है. पत्रिका की नियमितता अगर बनी रही तो आने वाले दिनों में यह महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकेगी. दलेस अपनी पत्रिका के माध्यम से नए लेखकों की टीम उभार सकती है. बहुत पहले ऐसा ही काम ‘अपेक्षा’पत्रिका ने किया था. यह पत्रिका भी दलेस की थी. इसे बाद में दलेस के पूर्व अध्यक्ष डॉ. तेजसिंहने अपनी तरफ से निकालना जारी रखा था. पत्रिका का संगठनात्मक स्वरूप इस तरह वैयक्तिक हो गया था.

‘अपेक्षा’ पत्रिका से जुड़े सम्पादकीय टीम के सदस्य इसका पुनर्प्रकाशन शुरू करें तो रिक्त हुए स्थान को भरा जा सकता है. अपनी नियमितता बनाए रखने वाली पत्रिका है ‘दलित अस्मिता’. प्रो. विमल थोरातऔर दिलीप कठेरियाके कुशल नेतृत्व में निकलने वाली ‘दलित अस्मिता’ने लगातार यादगार अंक निकाले हैं. पिछले वर्ष पत्रिका ने कई स्तंभ आरंभ किए थे. इनमें एक स्तंभ रजनी तिलक का था. यह स्तंभ कई कारणों से ऐतिहासिक बन रहा था लेकिन इस वर्ष 30 मार्च को रजनी तिलक के आकस्मिक निधन से यह स्तंभ बंद हो गया. दलित रचनात्मकता को सामने लाने वाली अन्य पत्रिकाओं में ‘अम्बेडकर इन इंडिया’(दयानाथ निगम, लखनऊ) और ‘दलित दस्तक’ (अशोक कुमार, दिल्ली) उल्लेखनीय हैं.
      
इस वर्ष दूसरी विधाओं की तुलना में कविता संग्रहों का प्रकाशन ज्यादा रहा. प्रायः हर साल यही स्थिति देखने में आती है. गुण और परिमाण दोनों स्तरों पर कविता विधा आगे दिखती है. इस साल वरिष्ठ कवि असंगघोषका संग्रह ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’वाणी प्रकाशन, दिल्ली से आया है. 111 पेजी संग्रह में कुल 66 कविताएँ हैं. संग्रह का फ्लैप जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है. असंगघोष की कविता से पाठकों को रूबरू कराते हुए कर्दम जी लिखते हैं-
“कवि का हृदय वर्जनाओं से मुक्त हो बग़ावत करने के लिए व्याकुल है. इस व्याकुलता में उसके ‘अंतर्मन से निकलते हैं नफ़रतों भरे/ बग़ावत के गीत’ और इन गीतों को वह खुद पर आजमाता है. इन गीतों की अपनी भाषा है, अपनी लय, छंद, जिनमें समता और स्वातंत्र्य की चाह और मनुष्यता की राह है.”
कर्दम जी के फ्लैप से किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इस काव्य-संग्रह में गीत हैं. संग्रह में एक भी गीत नहीं है. ‘फ्री वर्स’ में लिखी बग़ावती कविताएँ हैं. इस बग़ावत का अपना रंग-ढंग है. कुछ कविताओं के शीर्षक से इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है- ‘फूँकूँगा तूझे मैं ही’, ‘भेड़िये का सामना करना होगा’, ‘लगाऊँगा डायनामाइट’, ‘थामनी है हत्यारी तलवार’, ‘ज्वालामुखी फटना ही है’. बानगी के तौर पर ‘उठाओ लट्ठ’ कविता का यह अंश देखा जा सकता है-
“तुम्हारे हाथों में
लट्ठ है ...
बस हमारे साथ चल सको
जातिवाद दूर करने
तो हाथों में लट्ठ ले चल पड़ो
ताकि इस मनुवादी का पिछवाडा
तबियत से कूट सकें,
बिना कूटे इसे समझ आयेगी नहीं.”   
   
 सिर्फ दलित साहित्य में ही नहीं, इस समय समूचे हिंदी साहित्य में अगर कुछ बेहतर गीतकारों की सूची बनानी हो तो उसमें निश्चय ही जगदीश पंकजका नाम रहेगा. भाव, भाषा, अंतर्वस्तु, तेवर, वैचारिकी और शिल्प विधान सभी दृष्टियों से जगदीश पंकज श्रेष्ठ गीतकार ठहरते हैं. अपने स्तंभ में दलित कविता पर प्रकाशित अपेक्षाकृत विस्तृत निबंध में उनके गीतों पर कुछ लिख चुका हूँ. इस वर्ष उनका तीसरा संग्रह ‘समय है संभावना का’ (ए. आर. पब्लिशिंग कंपनी, नवीन शाहदरा, दिल्ली) आया है. आक्रोश जगदीश पंकज के गीतों का प्राण-तत्व है लेकिन वह गीत के विन्यास में इतना घुला-मिला होता है कि उसका अहसास ही किया जा सकता है. उनके एक गीत में विन्यस्त बिडंबना-बोध को देखिए-

मन प्रफुल्लित
तन प्रफुल्लित, और गद्गद्
आ रहे हैं, सुखद दिन अच्छे हमारे

हवा में बहने लगे सुविचार जिनसे
यह सदन फिर से
संवारा जायेगा
और पौराणिक कथाओं के मिथक को
झाड़ कर फिर से
निखारा जायेगा

पूर्व-विस्मृत हो गए पूजा घरों को
फिर मिलेंगे मौन सत्ता के सहारे

हर दिशा में पैर फैलाये गए हैं
हर दबा कूड़ा
कुरेदा जाएगा
उत्खनन की हर नई तकनीक लेकर
श्रेष्ठता का दंभ फिर गहराएगा

गंदगी अपनी बहाकर मुग्ध हैं हम
अब मिलेंगे स्वच्छ गंगा के किनारे
    
जिस संग्रह की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी वह दो कर्मठ कवियों-  मुसाफ़िर बैठाऔर कर्मानन्द आर्यके संपादन में छपकर इस साल प्रकाशित हो गया है. संग्रह का नाम है- ‘बिहार-झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ (बोधि प्रकाशन, जयपुर). इस संग्रह में कुल 56 कवियों की 333 कविताएँ हैं. संपादक-द्वय ने बड़े श्रम से कई आयु-वर्ग वाले कवियों की कविताओं को संजोया है. दोनों संपादकों ने अलग-अलग संपादकीय लिखकर इस परियोजना के उद्देश्य और अपनी चिंताओं को शब्द दिए हैं. ‘अज्ञात कुलशील कवियों के अनिवार पदचाप’ शीर्षक से लिखे अपने संपादकीय में डॉ. मुसाफ़िर बैठा ने दलित मुक्ति की शुरुआत का श्रेय अंगरेजी शासन को दिया है. अंगरेजों के शासनकाल में ही दलितों को
“अभिव्यक्ति के औजार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर” मिले. अंगरेजी भाषा की शिक्षा ने इस मुक्ति अभियान में केन्द्रीय भूमिका अदा की- “अंग्रेजी शासकों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जो दरवाजा खोला वह इन समुदायों के लिए अचरजकारी वरदान के समान था.” संपादक के अनुसार सर्वाधिक वंदनीय नाम लार्ड मैकाले का है- “अंग्रेजी नौकरशाह एवं भारत शिक्षा मंत्री लॉर्ड मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा का द्वार दलित, शूद्र एवं आम स्त्री तबके के लिए खोला जाना वंदना पाने योग्य काम है.”

इस संपादकीय का दूसरा मुद्दा मध्यकाल है. इस काल में तुलसीदास अपनी “बेहूदी कल्पनाओं, कथाओं की जड़ धार्मिक चाल में रह व रम कर अंधविश्वासी विभ्रमों को अपनी रचनाओं के माध्यम से गति दे रहे थे वहीं उनके समकालीन कबीर और रैदास धार्मिक अंधविश्वासों एवं कुरीतियों पर प्रहार करने वाली लक्षणा और व्यंजना में लगभग वैज्ञानिक मिजाज की जनसमस्या-बिद्ध कविताई बाँच रहे थे.”

संपादक ने इस विरोधाभास के निराकरण की तरफ ध्यान नहीं दिया है कि जब दलित तबके को दो सौ साल पहले पहली बार अंग्रेजों ने अभिव्यक्ति के औजार और अवसर दिए तो छह सौ साल पूर्व दलित पृष्ठभूमि वाले संत कवि वैज्ञानिक मिजाज की जनसमस्याबिद्ध कविताई किस प्रकार रच रहे थे? अंगरेजों को प्रथम मुक्तिदाता मानने का परिणाम यह निकला कि सन् नब्बे के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो मकड़जाल पसरा है, उसे विचार के दायरे से बाहर रखा गया है. एक-एक कर तमाम सार्वजनिक/सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंप देने का जो सिलसिला चल निकला है उसका वंचित तबके पर क्या असर हो रहा है उसकी तरफ ध्यान देने की जरूरत संपादक को नहीं महसूस हुई है. लेकिन, इस बात के लिए संपादक की खुले मन से तारीफ करनी चाहिए कि अपनी ‘स्थापनाओं’ को उन्होंने निर्भ्रांत तरीके से रखा है. ऐसी दो स्थापनाएँ बानगी के लिए-
1) “मेरा तो यहाँ तक मानना है कि तुलसी के काव्य में अपनी भक्ति अर्पित करते हुए काव्य सौंदर्य की प्रशंसा में रत होना बलात्कार की घटना में सौंदर्यशास्त्र ढूँढने और उसकी वकालत करने के बराबर है.”
2) “विस्मय तो तब होता है जब कथित वामपंथी खेमे के लेखकों एवं आलोचकों द्वारा मार्क्सवादी माने जाने वाले कवि मुक्तिबोध को सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरा दिया जाता है मगर इन मुक्तिबोध के यहाँ एक भी कविता ऐसी नहीं मिलती जो दलित हित को संबोधित हो अथवा ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद की नब्ज पकड़ती हो.”
    
संग्रह के दूसरे संपादकीय ‘बिहार क्षेत्र में दलित रचनाशीलता की जमीन’ में डॉ. कर्मानन्द आर्य का ज़ोर स्थिति की विवेचना करने पर अधिक है, ‘स्थापना’ देने पर कम. बिहार के इतिहास का खाका पेश करते हुए कर्मानन्द ने उन पूर्वग्रहों का स्मरण कराया है जिनकी वजह से यह प्रदेश नाइंसाफी का शिकार रहा है. वे बताते हैं कि पिछली सदी के आठवें दशक तक बिहार में तीन बड़े आंदोलन देखने को मिले- वामपंथी, समाजवादी और नक्सल. “तीनों ही आंदोलनों में जो मुद्दा प्रमुखता से सामने आया वह है सामाजिक प्रतिष्ठा, जातीय अपमान और गैर बराबरी के खिलाफ़ लड़ाई. वामपंथी आंदोलन में सबसे अहम भूमिका जिन वर्गों की रही, उनमें सबसे ज्यादा दबे-कुचले वर्ग के लोग हैं.”

बिहार के दलित रचनाकारों का परिचय कराते हुए संपादक ने इन्हें तीन पीढ़ियों में रखा है. नवीनतम पीढ़ी भाव-भाषा और सौंदर्यबोधीय आयामों को लेकर खासा सजग है, यह बात आश्वस्तिकारी है. अपने संपादकीय के समापन अंश में डॉ. कर्मानन्द ने लिखा है- “अमूमन यह माना जाता है कि दलित रचनाकारों की रचनाओं में आक्रोश का स्वर अधिक है और यहाँ पर प्रेम, साहचर्य और सहअस्तित्व की रचनाएँ बहुत कम हैं पर इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए आपकी यह अवधारणा विखंडित हो सकती है. जहाँ दमन होता है, मुक्ति की शुरुआत वहीं से होती है.” किसी संग्रह की भूमिका लिखने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि नए पाठक बनाए जाएँ और पुराने पाठक समुदाय को सफलतापूर्वक संग्रह की तरफ आकृष्ट किया जाए. कर्मानन्द की ‘भूमिका’ इस चुनौती या दायित्व को बखूबी समझती है.
    
‘द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, इग्नू रोड, दिल्ली से इस वर्ष दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘विभीषण का दुःख’ (मुसाफ़िर बैठा) और ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ (कर्मानन्द आर्य). मुसाफ़िर बैठा के एक सौ बीस पेजी संग्रह में चौहत्तर कविताएँ हैं. मुख्यतः विचारप्रधान कविताएँ लिखने वाले मुसाफ़िर आक्रोश से आपूरित हैं. उनका आक्रोश उचित ही ब्राह्मणी व्यवस्था के प्रति है. वे अपनी कविताओं में व्यवस्था के छल-छद्मों को शीघ्रता से बेनकाब करते हैं. उनका रोष वामपंथ के प्रति भी है क्योंकि यह ‘आयातित’ है. वामपंथ को स्वीकारने वाले भी उनकी नज़र में खटक रहे हैं क्योंकि वे अपनी असलियत छुपाने के लिए इसकी ओर आए हैं-
“प्रगतिशीलता या कि वाम उनके फैशन में जो है/ दूर देश के मार्क्स का नाम बेच/ पता नहीं/ यह होशियार जीवन जीना/ उनने कैसे सीखा?” इस सचाई से वाकिफ़ कवि ने रोहित वेमुला पर लिखी अपनी हायकु-माला का उपसंहार इस हायकु से किया है- “बहा शोणित/ तेरा, कन्हैया हुआ/ मालामाल क्यों?” संग्रह के (पिछले) कवर पृष्ठ पर
विष्णु खरेका एक वक्तव्य दिया गया है. इस वक्तव्य के अनुसार मुसाफिर बैठा “उत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ दलित कवि हैं और अब से उन्हें उसी तरह लिया-जाना जाए.” 
    
कर्मानन्द आर्य का संग्रह 116 पृष्ठों का है. इसमें कुल 83 कविताएँ हैं. इस संग्रह के बैक कवर पर दो वरिष्ठ लेखकों के वक्तव्य हैं. अरुण कमल के इस कथन की ताईद संग्रह की कविताएँ करती हैं कि “यहाँ प्रायः हर कविता अपने समय का बिम्ब है.   
”बिम्ब रचने की क्षमता कवि की संभावनाओं की साक्षी होती है. कर्मानन्द की बिम्बधर्मिता के तमाम साक्ष्य इस संग्रह में देखे जा सकते हैं- “सूरज रोज सुबह भैंसे की तरह गुर्राता है/ चिड़िया की आत्मा भैंसे की आँख में झाँक लेती है.” कई कविताओं का तेवर क्रांतिकारी कवि जय प्रकाश लीलवान का स्मरण कराता है. एक ऐसी ही बिम्ब-समृद्ध कविता देखें- “मक्खियों की तरह सत्ता का शहद बनाने वाले/ कूकुरों की तरह एक टुकड़े पर लोट जाने वाले/ सरकार की भाषा में मुस्कुराने वाले/ हमारे आदर्श नहीं हो सकते.”
    
उर्दू में इतने वर्षों बाद भी दलित साहित्य की कोई धारा विकसित नहीं हुई है. कभी-कभार असम्बद्ध प्रयास जरूर दिखाई देते हैं. यह भाषा उसी इलाके की है जहाँ जाति व्यवस्था की क्रूरताएँ आए दिन दिखाई देती हैं. ऐसे में यह देखना सुखद है कि इस वर्ष उर्दू के कवि हनीफ तरीन ने नागरी लिपि में अपनी दलित संवेदना की कविताओं का संग्रह ‘दलित आक्रोश’ (सम्यक प्रकाशन, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली) शीर्षक से छपवाया है. संग्रह की प्रस्तावना तीन लोगों- मूलचंद गौतम, छाया कोरेगांवकर तथा वरिष्ठ दलित लेखक कर्मशील भारती ने लिखी है. करीब 100 पन्नों वाले इस संग्रह की समस्त कविताएँ कुल पाँच अध्यायों में रखी गई हैं. कविताएँ उद्बोधनपरक हैं. ये दलित-मुस्लिम एकता की जरूरत का अहसास कराती हैं-
“जो दलितों का अज्म बढ़ाएं
अपने ऐसे प्यारे कवि की
आओ मिलकर नज्में गाएँ
दलित मुसलमानों से मिलकर
कट्टरवाद से भारत माँ को
पूरी तरह छुटकारा दिलाएँ
नस्लवाद से देश बचाएँ.”

हनीफ तरीन पेशे से चिकित्सक हैं. उनमें उत्साह भरपूर है और कुछ करने का जज्बा भी कम नहीं. दलित समुदाय को लेकर उनकी चिंताएँ भी वाजिब हैं. अगर वे अपनी शायरी को लेकर भी थोड़े संजीदा हो सकें तो अच्छा. इस संग्रह की कविताएँ बहुत सपाट हैं.
    
गुजराती दलित साहित्य अकादमी, अहमदाबाद दलित साहित्य के प्रकाशन में सर्वाधिक सक्रिय संस्थाओं में शुमार किए जाने योग्य है. यह संस्था गुजराती भाषा के साथ-साथ हिंदी और अंगरेजी में भी दलित साहित्य के ग्रंथ छापती है. अकादमी से अब तक शताधिक ग्रंथ छपे होंगे. इस वर्ष अकादमी ने नई पहल करते हुए भारतीय दलित कविता का प्रतिनिधि संचयन संस्कृत अनुवाद में ‘सूर्यगेहे तमिस्रा’ शीर्षक से प्रकाशित किया है. इस संग्रह के अनुवादक-संपादक डॉ. ऋषिराज जानी हैं. 140 पृष्ठ के इस संग्रह में कुल 36 कवियों की कविताएँ हैं. इनमें गुजराती के 14, हिंदी के 15, मराठी के 1, असमिया के 2, पंजाबी के 1, बांग्ला के 1 और संस्कृत के 2 कवियों को सम्मिलित किया गया है. अपने वक्तव्य में अकादमी के महामंत्री हरीश मंगलम ने दलित साहित्य के अनुवाद का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए जन-जन तक उसकी पहुँच पर ज़ोर दिया है. किताब के अंत में गुजराती दलित कविता के विकास-क्रम पर एक मुकम्मल निबंध दिया गया है. इससे प्रस्तुत किताब की उपादेयता बढ़ गई है. ऐसा ही अगर संस्कृत कविता में जाति-विरोधी लेखन पर एक निबंध दिया जाता तो संग्रह की मूल्यवत्ता और बढ़ जाती. अनुवाद के ऐसे और संग्रह आने चाहिए. इस संग्रह में मराठी दलित कविता का प्रतिनिधित्व बहुत कम हुआ है, न के बराबर. अन्य कई भाषाओँ मसलन उड़िया, मलयालम, कन्नड़ आदि की दलित कविता का प्रतिनिधित्व नहीं है.

राजस्थान के संस्कृत कवि-आलोचक-अनुवादक कौशल तिवारी ने पिछले वर्ष साहित्य अकादमी की संस्कृत पत्रिका में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ कविताओं का अनुवाद प्रकाशित कराया था. वे भी अगर इस परियोजना पर काम कर सकें तो बड़ा अच्छा हो.  
    
आत्मकथा विधा में इस वर्ष दलित स्त्रीवादी लेखिका अनिता भारती का आत्मवृत्त ‘छूटे पन्नों की उड़ान’ (स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली) छपा है. 19 शीर्षकों और लगभग 100 पन्नों का यह आत्मवृत्त एक महानगर में दलित परिवार की जद्दोजहद को सामने लाता है. एक दलित लड़की का सामाजिक और घरेलू परिवेश, शिक्षा, अपनी मर्जी से अंतरजातीय विवाह, नौकरी, एक्टिविज्म, लेखन और व्यवस्था में पिसती, जूझती अन्य स्त्रियों के जीवन का लेखा-जोखा इस आत्मवृत्त को आकार देते हैं. किताब के प्राक्कथन ‘कच्चे घड़े-सा जीवन’ में अनिता भारती ने लिखा है-

“मेरा अंतरजातीय विवाह भी मेरी जिंदगी की किताब का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पन्ना है. अंतरजातीय विवाह के अपने खूब फसाड़ होते हैं. दोनों परिवारों की इतनी पॉलिटिक्स होती है कि अपने विवाह को बचाने और अपने रिश्ते को बचाने में खूब समय चला जाता है. सबसे ज्यादा मुश्किल तो लड़की की होती है जिसकी इच्छाओं और जरूरतों को कोई समझना नहीं चाहता. ... पर मैं इसे अपनी उपलब्धि ही कहूँगी कि मुझे ऐसा जीवन-साथी मिला जो साहित्य बेशक न समझता हो, पर अपने अंदर सारी खूबियों को समेटे सही मायनों में एक सच्चा संवेदनशील दोस्त व फेमिनिस्ट पति साबित हुआ.”

‘छूटे पन्नों की उड़ान’ में कई बार अति संक्षिप्तता खटक जाती है. कुछ महत्त्वपूर्ण जीवन प्रसंगों को अपेक्षित विस्तार दिया जाना था. बतौर पाठक हम लेखिका से उनकी आत्मकथा के अगले खंड की आशा करते हैं. 
    

दलित नाटक अपेक्षाकृत उपेक्षित विधा है. दलित नाट्यांदोलन के क्षेत्र में पर्याप्त सक्रियता न होने से नाट्य लेखन में सुस्ती नज़र आती है. ऐसे में इस वर्ष वरिष्ठ कथाकार रत्न कुमार सांभरिया का नाटक ‘भभूल्या’ (स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली) का प्रकाशन स्वागत योग्य घटना है. लेखक ने दलित दायरे का विस्तार करते हुए घुमंतू कुचबंदा जाति को अपने नाटक का कथ्य बनाया है. नाटक का नायक धियानाराम पुलिसिया दुश्चक्र में इस तरह फाँस लिया जाता है कि समूचे तंत्र की क्रूरता का रेशा-रेशा सामने आ जाता है. रत्न कुमार ने इसी ‘भभूल्या’ शीर्षक से पहले एक कहानी लिखी थी जो ‘हंस’ पत्रिका का अक्टूबर 2016 अंक में छपी थी. मजबूत कथा-पात्रों के सृजन के लिए चर्चित रत्न कुमार सांभरिया के इस नाटक का नायक धियानाराम अपने जिगर के टुकड़े बकरे को बचाने का हर संभव जतन करता है. हेड कांस्टेबल प्रेमसुख से शुरू होकर एस.एच.ओ. और एस.पी. पर जाकर सिलसिला रुकता है. सबकी नज़र धियानाराम के बकरे पर है. दिन 15 अगस्त का और मीट का इंतज़ाम बाज़ार से नहीं हो सकता. ऐसे में स्वाधीनता दिवस का अर्थ दो फाड़ में बंट जाता है. इस दिन का जो अर्थ पुलिस तंत्र के लिए है उसका विलोम धियानाराम और अमरत जैसे पात्रों के लिए. भरपूर नाटकीयता लिए यह कृति मंचन के सर्वथा योग्य प्रतीत होती है. ‘मेरी बात’ में नाटककार ने लिखा है-

“दलित नाटक का रूपबंध भावबोध की तपोभूमि है. चेतना का ताप हर दलित के अंतस तक पहुँचाना उसका लक्ष्य. यहाँ गणना (क्वांटिटी) नहीं, गुणवत्ता (क्वालिटी) की महत्ता है. दलित नाटक की जमीन उसकी प्रामाणिकता है. शिक्षा, पद, विकास और पुनर्वास के साथ आज का सच उजागर होना चाहिए. उसे प्रयोगधर्मी होने के बजाए यथार्थवादी होना है.”
    
पिछले वर्ष के अंत में कैलाश चंद चौहान का उपन्यास ‘विद्रोह’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) प्रकाशित हुआ था. विकट परिस्थितियों के समक्ष हार न मानने वाले विक्रम की संघर्ष गाथा के समानांतर पूजा की संकल्प यात्रा गतिमान होती है. विक्रम को अपने सहकर्मियों की जातिवादी घृणा का मुकाबला करना पड़ता है तो पूजा को अपने परिवार जनों से जूझना पड़ता है क्योंकि उसने करवाचौथ के व्रत से लेकर तमाम अंधविश्वासों को मानने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया है. विद्रोह की यह बहुपरतीय कथा उपन्यास को मूल्यवान बना देती है.

इस बरस जो उपन्यास छपा उसके लेखक हैं किशन लाल और उपन्यास है ‘किधर जाऊँ’ (लोकोदय प्रकाशन, छितवापुर रोड, लखनऊ) किशन लाल पेशे से पत्रकार हैं और उन्हें दलित जीवन की दुश्वारियों का निजी के साथ सार्वजनिक अनुभव भी है. उपन्यास के कवर पर छपी टिप्पणी के अनुसार, “’किधर जाऊँ’ मोची जाति पर भी और किशन लाल का भी पहला उपन्यास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के मेहनती चर्मकारों का जितना विश्वसनीय और मर्मस्पर्शी चित्रण इसमें किया है वह इस समाज के मन-मस्तिष्क में मच रही उथल-पुथल को शिद्दत से बयाँ करती है. इस उपन्यास में मोची समाज की दिनचर्या, कामकाज, लोक परंपरा, रीति रिवाजों के साथ ही दलित समाज के सामजिक-राजनैतिक संघर्षों का एक अलग ही सच उजागर होता है.”
    
स्थापित कवि-कथाकार सुशीला टाकभौरे इधर अपने उपन्यासों के निरंतर प्रकाशन से चर्चा में हैं. इस साल वाणी प्रकाशन से उनका उपन्यास ‘वह लड़की’ छपा है. इसी वर्ष उन्होंने शिल्पायन प्रकाशन से अपने पत्रों का संग्रह ‘संवादों के सफ़र...’ प्रकाशित कराया है. दलित विमर्श पर शोध करने वाले अध्येताओं के लिए ये पत्र बड़े काम के साबित हो सकते हैं. लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. पूरन सिंह का संग्रह ’64 दलित लघु कथाएँ’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) से छपा है. 128 पृष्ठों की इस किताब में चुभती हुई लघु कथाएँ हैं. कहीं ये लघु कथाएँ जातिगत हिंसा को सामने लाती हैं तो कहीं दलितों के मुंहतोड़ जवाब को उभारती हैं. धार्मिक पाखंडों का पर्दाफाश, अवसरवादी दलित नेताओं की असलियत इन लघु कथाओं की कथावस्तु का मुख्य हिस्सा हैं. ये कथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छप चुकी हैं और कहा जाना चाहिए कि पाठकों के जेहन में अपनी जगह घेर चुकी हैं.    

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Email – bajrangbihari@gmail.com


अनूप सेठी की कविताएँ : चौबारे पर एकालाप संग्रह

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लगभग पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में अनूप सेठी (२० जून, १९५८) का दूसरा कविता संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’इस वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है. ‘जगत में मेला’ (२००२) उनका पहला संग्रह है.  

विजय कुमारने इस संग्रह के लिए लिखा है कि ‘अपने इस दूसरे कविता-संग्रह में अनूप सेठी की ये कविताएँ एक विडम्बनात्मक समय-बोध के साथ जीने के एहसास को और सघन बनाती हैं. औसत का सन्दर्भ, नये समय के नये सम्बन्ध, खुरदुरापन, स्थितियों के बेढब ढांचें, वजूद की अजीबोगरीब  शर्तें, तेजी से बदलता परिवेश जिनमें जीवन की बुनियादी लय ही गड़बड़ायी हुई है. अपने इस वर्तमान को कवि देखता है, रचता है और कई बार उसका यह बिडम्बना बोध सिनिकल होने की हदों तक छूने लगता है.”


अनूप सेठी हिंदी कविता की नई सदी के इस अर्थ में कवि हैं कि उनकी कविताएँ इस सदी की यांत्रिकता और अतिवाद से जूझती हैं. उनकी कविताएँ आप समालोचन पर पढ़ते रहें हैं. उनके नये संग्रह से पांच कविताएँ आपके लिए.


  



अनूप   सेठी   की   कविताएँ              
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रिश्‍तों की गर्मी

रेलगाड़ी छूट न जाए इस हड़बड़ाहट में
चार जनों  को पूछ लेने के बाद जब मेरी चमकती जेब दिखी
तो लपक के मांग ली मुझसे कलम
मैं झिझका पहले इस महंगे फाउटेंन पेन की निब भोंथरी न कर दे कहीं पर
हाथ ने मेरे निकाल कर दे दी अपने आप 

निरच्‍छर दिखती मौसी ने खुद से आधी उमर की धीया से
पर्ची पर लिखवा कर मुट्ठी में भींच लिया मोबाइल नंबर
धीया ने भी मुसे हुए रुमाल में लुका ली अपनी पर्ची टीप करके पकड़ाने के बाद
अतिकीमती सामान की तरह फिर गहरी तहों में ओझल कर दिया रुमाल 

रेलगाड़ी से निकल जाएंगी ये गंवनियां सजी-धजी दुनिया के हाशिए फलांगती
खूंदने अपनी अपनी जिंदगानियां
किसी अपने का नंबर है दोनों के पास
दो संसारों को जोड़ता अनदीखती सी आस जैसा
बैठा हुआ कोई बहुत ही पास जैसा
मीलों लंबी दूरी में भी जुड़े अपनेपन के बेतार वाले तार जैसा 

फाउटेंन पेन आया जब लौट कर रिश्‍तों की गर्मी की ले-दे में पगा हुआ
अपनी हेकड़ी से शर्मसार किंचित झुका झुका
मेरी धड़कन बढ़ाता रहा
सीने पर मेरी जेब में पड़ा पड़ा 



विजेताओं का आतंक

इतनी जोर का शोर होता था कि खुशी की भी डर के मारे चीख निकल जाती थी 
असल में वो खुशी का ही इजहार होता था जो शोर में बदल जाता था   
खुशी को और विजय को पटाखों की पूंछ में पलीता लगा कर मनाने का चलन था 
सदियों से 
ये सरहदों को रोंद कर दूसरे मुल्‍कों को फतह करने वाले नहीं थे 
ये तो अपनी ही जमीन पर ताजपोशी के जश्‍नों से उठने वालों का कोलाहल होता था
धमाके इतने कर्णभेदी होते थे कि पटाखे चलाना कहना तो मजाक लगता था 
विस्‍फोट ही सही शब्‍द था बेलगाम खुशी और महाविजय के इस इजहार के लिए 
ए के फॉर्टी सेवन की दनदनाती हुई मृत्‍यु वर्षा की तरह 

धुंए और ध्‍वनि का घटाटोप था आसमान में ऐसा कि हवा सूज गई थी 
गूमड़ बन गए थे जगह जगह, कोढ़ के फोड़ों की तरह
जिस भूखंड में जितनी ज्‍यादा खुशी वहां के अंबर में उतना ही बड़ा और सख्‍त गूमड़

प्राचीन सम्राटों के अट्टहास ऊपर उठ कर पत्‍थरों की मानिंद अटके हुए थे 
पृथ्‍वी की गुरुत्‍वाकर्षण की सीमारेखा पर
उनके नीचे बादशाहों के फिर 
राजाओं रजवाड़ों सामंतों जमींदारों सरमाएदारों के ठहाकों के रोड़े
हैरानी तो यह थी लोकतंत्री राजाओं जिन्‍हें जनता के प्रतिनिधि कहा जाता था
उनकी पांच साला जीतों का विस्‍फोट भी 
आसमान में चढ़ कर सबके सिरों पर लटक  गया था  
गूमड़ दर  गूमड़ 

वायुमंडल में बनी इस ऊबड़-खाबड़ लोहे जैसी छत में
परत दर परत पत्‍थर हो चुकी खुशियां थीं 
असंख्‍य विजेताओं पूर्वविजेताओं की  
धरती से ऊपर उठती 
आसमान का इस्‍पाती ढक्‍कन बनी हुई 

दंभ का सिंहनाद 
गूमड़दार लोहे की छत की तरह था 
जिसमें से देवता क्‍या ईश्‍वर भी नहीं झांक सकता था 

दनदनाते विजेताओं के रौंदने से उड़ रही धूल ने सब प्राणियों की आंखों को लगभग फोड़ ही डाला था 
पीढ़ी दर पीढ़ी
जीत की किरचों से खून के आंसू बहते थे अनवरत
जिसे आंखों में नशीले लाल डोरे कहा जाता था 
जड़ता के खोल में बंधुआ होती जनता को 
हर दिन महाकाय होते जश्‍न का चश्‍मदीद गवाह घोषित किया जाता था 
सदियों से



ब्‍लेड की धार पर

कार के एफ एम में जैसे ही विज्ञापन बजा
बिस्‍तर पर जाने से पहले फलाने ब्‍लेड से शेव करो वरना
बीवी पास नहीं फटकने देगी
चिकना चेहरा दिखलाओगे दफ्तर में
बीवी को दाढ़ी चुभाओगे यह नहीं चलेगा
याद आया ओह!रेजर रह गया बाथरूम में बाल फंसा झाग सना

आदतन कार चलती चली जाती थी वो मुस्‍काराया
यह औरतों को बराबरी देने का बाजारी नुस्‍खा है या
ब्‍लेड की सेल बढ़ाने का इमोशनल पेंतरा
फिर उसे लगा सच में ही चुभती होगी दाढ़ी पर
कभी बोली नहीं
उसे प्‍यार आया बीवी पर
और वो स्‍वप्‍न-लोक में चला गया
जैसे ही देहों के रुपहले पट खुलने की कामना करने लगा

दुःस्‍वप्‍न ने डंक मारा मानो वो नर-वृषभ है
नारि‍यों के रक्‍त सने हैं उसके हाथ
मदमत्‍त वह चिंघाड़ता हुआ दौड़ रहा सड़क पर
रोड़ी की तरह बि‍खराता चला जा रहा संज्ञाविहीन नारी देह
एक के बाद एक अखंड भूखंड पर
तभी उसकी दौड़ती कार की विंड स्‍क्रीन पर
टीवी मटकने लगता है जिसमें
लाइव टेलिकास्‍ट आ रहा है दौड़ती बस का
फेंकती जाती नारी देहों का
बस के स्‍टीयरिंग पर वही है, कंडक्‍टर वही
सहस्रमुखी अमानुष वही है
हड़बड़ाहट में चैनल बदलता है
उसके हाथ की रॉड यहां मोमबत्‍ती बन गई है
दुख और क्रोध और हताशा और अपराध-बोध में गड़ा जाता
खड़ा पाता खुद को महिलाओं के साथ

नृप-वृषभों के सम्‍मुख है
सींग अड़ाता वही है युवा-वृष
सारे दृश्‍य को तत्‍काल बदल डालने को आतुर
कोमल और सुकुमार और मानवीय रचना को व्‍याकुल
जैसे टीवी की चैनल न बदली दुनिया बदल डाली

तभी सिग्‍नल पर उसकी कार धीमी पड़ती है
बगल से ट्रैफिक पुलिस शीशा खटखटाता है
कार के शीशे काले क्‍यों हैं
चलान कटवाइए या लाइसेंस लाइए
वह झुंझलाता है निकाल दूगा हां निकाल दूंगा
अभेद्य पर्दे तमाम
फिर भी कितना पारदर्शी दि‍खूंगा
और करोगे रक्षा क्‍या तुम भी इन्‍स्‍पेक्‍टर
हाथ फैलाए खड़ा वह रहा वर्दीधारी नर-पुंगव
भिक्षा की मुद्रा में फैली यह हथेली
दरअस्‍ल काठ के प्रधानमंत्री की हथेली थी
जिस पर देश का भविष्‍य अथाह कटी-फटी रेखाओं के जाले में फंसा था

बिना कुछ किए वो हरी बत्‍ती की पूंछ पकड़ कर
चौराहे का भंवर पार कर गया
अब विंड स्‍क्रीन से उसका बाथरूम दिखने लगा था
जहां बीवी ने उसका रेजर ही नहीं
चड्ढी बनियान भी धोए और
अब वो फर्श पोंछ रही थी
एफ एम वह कब का बंद कर चुका था
सोच रहा था विंड स्‍क्रीन पर निरंतर चलते चैनलों का रिमोट
हासिल करने के लिए
क्‍या वह पीआईएल दायर करे
करे तो करे पर कहां करे




अकेले खाना खाने वाला आदमी

अकेला आदमी खाना खा रहा था
जैसे पृथ्वी पर पहला मनुष्य जठराग्नि का शमन कर रहा था
एक कौर पीस ही रहे होते दांत
अंगुलियां दूसरा चारा डाल आतीं मुंह की चक्की में
आंखें अदृश्य में पीछा करना चाह रही थीं स्वाद का
लेकिन इससे पहले हलक के नीचे ढूंढ रहा था
पेट की खोह में जा कहां रहा है कौर दर कौर
इच्छा तेजी से तृप्ति पाने की थी
मशीन धीमी चल रही थी
नतीजतन गाल एक गेंद में बदल गए थे
और दंदेदार गोले की मानिंद हिल रहे थे

मैं मक्खी की तरह उड़ान भरके देखने गया था खाने का जलवा पर
झापड़ खाकर मेज के कोने में दुबक गया था पंख तुड़ाकर

खाना खाने की मशीन धीमी थी पर मदहोश थी
तृप्ति के तलाश के अधरस्ते में
आंखों के कोने से दो बूंद ढुलक पड़ीं
थाली के किनारे जा बैठीं वो औरतें थीं
जो अकेले खाना खाते आदमी के जीवन में आईं थी
अब तक और आगे भी आने वालीं थीं
किसी ने हाथ से खिलाया था किसी ने छाती से लगाया था

धीरे धीरे होश में आने लगी अकेले खाना खाते आदमी की मशीन
झूमने सी लगी उसकी देह
पीछे हट गए लोग बाग जो उसके जी का जंजाल बने हुए थे
और खाना खाते देखने न जाने कब से
उसकी थाली के इर्द गिर्द जमा हो गए थे
यह सोच कर कि यहां मदारी का तमाशा हो रहा है
किरकिल डंठल कच्ची रोटी की शक्ल में
खाने की मेज की शान बिगाड़ रहे थे ये तमाशबीन 

जब पानी पीने की बारी आई
अकेले खाना खाते आदमी की खाना खा चुकने के बाद तो
नमी सी छा गई सारे माहौल में
सभ्यता में लौटने की हवाएं चलने लगीं

खाने का बिल चुकाने के बाद
अकेले आदमी के माथे पर बल पड़ गए
जहां लिखा था दाम फिर बढ़ गए हैं
पेट भराई का अब कम दामी ठिकाना ढूंढना होगा

अचानक मैंने खुद को उड़ते हुए पाया
जूठन से लिथड़ी हुई थाली के किनारे पर
पीछे मेज चमका दिया गया था चकाचक
अब यहां विराजेगा
अगला अकेला खाना खाने वाला आदमी 


रोजनामचा 

मैं 365दिन वही करता हूं जो
उसके अगले दिन करता हूं
मुझे मालूम है कि मैं 365दिन वही करता हूं और
मुझे 365दिन यही करना है
वही वही नई बार करता हूं
हर बार वही वही नई बार करता हूं
कई कई बार नई नई बार करता हूं
नए को हर बार की तरह
हर बार को नए की तरह करता हूं
वार को पखवाड़े पखवाड़े को महीने महीने को साल साल को दशक दशक को सम्वत् की तरह
सम्वत् को सांस की तरह भरता हूं
फांस की तरह गड़ता हूं सांस सांस
फांस फांस सांस फांस
न अखरता हूं न अटकता हूं
भटकने का तो यहां कोई सवाल ही नहीं
अजी यहां तो सवाल का ही कोई सवाल नहीं
उस तरह देखें तो यहां ऐसा कुछ नहीं
जो लाजवाब नहीं
, मेरे पास लाल रंग का कोई रुमाल नहीं
न मैं गोर्वाचोव हूं जिसने  फाड़ दिया था
न वो बच्चा हूं जिसके पास था
और कि जो 365दिन की  रेल को रोक दे
कोई खटका नहीं झटका नहीं
कभी कहीं अटका नहीं
ऐसी बेजोड़ है 365दिन की
अनंत सुमिरनी
घिस घिस के चमकती
कहीं कोई जोड़ नहीं
न सिर न सिरफिरा
बस गोल गोल फिरा फिरा मारा मारा फिरा
और फिर यहीं कहीं कहीं नहीं गिरा
गिरा गिरा गिरा 
________________


अनूप सेठी
बी-1404, क्षितिज, ग्रेट ईस्टर्न लिंक्स, 
राम मंदिर रोड, गोरेगांव (प.), मुंबई 400104.
 मो. : 0 98206 96684. 
anupsethi@gmail.com 

सेरेना विलियम्स : अख़बार का वह पहला आर्टिकल (अनुवाद - यादवेन्द्र)

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१९८१ में जन्मी दुनिया की सबसे महान टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स कोई लेखक नहीं हैं- खेल में उनकी अप्रतिम उपलब्धियों का कोई सानी नहीं है. १४ साल की उम्र से प्रोफेशनल टेनिस खेल रही सेरेना अपने रंग,मुखर स्वभाव और शारीरिक शक्ति के लिए अक्सर आलोचनाओं का निशाना बनती हैं. समाज हो या  खेल,इनमें किसी तरह के भेदभाव का वे कड़ा विरोध करती रही हैं.  अमेरिकी समाज में अश्वेतों और स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा  के खिलाफ  भी वे समय समय पर बोलती रही हैं. टेनिस खेल कर  वे कमाई के शीर्ष पर पहुँचीं- साथ साथ फैशन और विज्ञापन के क्षेत्र में भी वे कमाई के शीर्ष पर रही हैं- पर उन्होंने गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे समुदाय के लिए अनेक चैरिटी कार्यक्रम चला रखे हैं. स्टेज शो,मनोरंजन के कार्यक्रम में वे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं और उन्होंने कुछ किताबें भी लिखी हैं - डेनियल पेसनर के साथ मिल कर लिखी "ऑन द लाइन"और "माई लाइफ : क्वीन ऑफ़ द कोर्ट"उनकी आत्मकथात्मक पुस्तकें हैं.   

यहाँ प्रस्तुत अंश उनकी किताब "ऑन द लाइन"से लिया गया है जो पारम्परिक रूप में कहानी तो नहीं है पर उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग कहानी के लालित्य के साथ प्रस्तुत करता है
 यादवेन्द्र




सेरेना विलियम्स 
अख़बार  का वह पहला आर्टिकल                       
अनुवाद - यादवेन्द्र 





मुझे अब भी वह पहला आर्टिकल याद है जो वीनस के बारे में छपा था, मुझे क्या वह हम सब को याद है क्योंकि उसने हमारे परिवार में एक बड़ी घटना- या दुर्घटना कहें- को जन्म दिया था. वह एक लोकल अखबार "कॉम्प्टन गैजेट"में छपा था. मैं तब सात या आठ साल की थी. हाँलाकि वह लेख ख़ास तौर पर वीनस पर केंद्रित था पर  था वह हम सब के बारे में था कि कैसे हम सब पूरा परिवार मिल कर शहर के पब्लिक कोर्ट में टेनिस की प्रैक्टिस किया करते हैं... कि कैसे बगैर किसी कोच के हमारे डैडी  और ममा  ही हमें खेलना सिखाते हैं और टेनिस की दुनिया में हमें चमकते सितारे बनाने के सपने उनकी आँखों में तैरते रहते हैं. 

वह आर्टिकल देख कर डैडी गर्व से इतने भर गए कि उन्हें लगा लोगों को दिखाने के लिए जितने मिलें उतने अखबार इकट्ठे कर लूँ- जैसे वह अखबार में छपा कोई आर्टिकल न होकर कोई स्मृति चिह्न हो. उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न अपने इलाके के सभी घरों के सामने डाले हुए अखबार लोगों के दरवाजा खोलने से पहले इकट्ठे कर लिए जाएँ- जाहिर है यह कोई पडोसी धर्म नहीं था... और न ही कोई व्यावहारिक तरीका. उन्हें बस लगता था कि पहली बार टेनिस के कारण हमारे परिवार को कोई सकारात्मक प्रचार मिल रहा है..... पर इस अति उत्साह में वे यह भूल गए कि जिन पड़ोसियों और आस पास वालों को वे इस उपलब्धि के बारे में बताना चाहते थे उनके घरों के सामने से अखबार उठा कर वे उलटा काम कर रहे हैं- जब वे अखबार पढ़ेंगे नहीं तो हमारे बारे में जान कहाँ से पाएँगे.  वे अखबार के दफ्तर फोन करते और उनसे अतिरिक्त प्रतियाँ माँग लेते.... या वे पास की उस दूकान पर जाकर जितने चाहते उतने अखबार खरीद लेते - बीस सेंट प्रति अखबार - पर यह सब कोई विचार उनके मन में उस समय नहीं आया. 

हमारा पूरा परिवार अखबार लूट के इस अभियान में निकल पड़ा हाँलाकि यह तर्कसंगत बिलकुल नहीं था. डैडी सड़क पर धीरे-धीरे वैन आगे बढ़ा रहे थे और जहाँ कहीं भी उन्हें अखबार दीखता गाडी रोक कर वे उतरते और चुपके से घरों के सामने से अखबार उठा लाते. जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वे वैन तक लौटते और आगे बढ़ जाते. हम बहनें पिछली सीट  पर बैठी यह सारा तमाशा देख रही थीं और डैडी के इस  अजूबे बर्ताव पर हँसी ठट्ठा कर रही थीं- इस बीच ईशा को एक बात सूझी और उसने डैडी को सुझाव दिया कि वह वैन चलाती है और डैडी समेत सब मिल कर  अखबार इकठ्ठा करें तो कम समय में ज्यादा काम हो जाएगा. बाकी की हम बहनें इस सुझाव से कतई खुश नहीं थीं क्योंकि जल्दी ढेर सारे अखबार इकट्ठे कर लेने का मतलब था जल्दी प्रैक्टिस के लिए निकल पड़ना- असल बात यह थी कि हम थोड़ी देर को ही सही प्रैक्टिस से बचे रहते. जब जब भी बारिश या किसी और कारण से हमें  प्रैक्टिस से छुटकारा मिलता हम बहने बड़ी खुशियाँ मनाते. 



डैडी ने ईशा की बात सुनी,कुछ देर सोचा और बेहतर मान कर इसपर हामी भर दी-उन्हें फायदा भले ही और होता दिखा हो पर  हमें जल्दी से जल्दी प्रैक्टिस पर ले जाने की बात उनके मन में सबसे अहम थी. मुश्किल बस एक ही थी - ईशा महज तेरह साल की थी और इस उम्र में गाडी ड्राइव करना गैरकानूनी था.

ईशा बोली : "कोई मुश्किल तो नहीं  आएगी ,डैडी ?"
डैडी ने जवाब दिया ;'तुम्हें खुद पर तो भरोसा है न ?"
"हाँ डैडी ... मुझे आता है,मैं ड्राइव कर सकती हूँ. ", ईशा ने तपाक से जवाब दिया. 
यह हम सभी बहनों के साथ था- दुनिया में कोई काम ऐसा नहीं था जिसके सामने हम घुटने तक दें. 

सो ऐसा ही तय हुआ - भले ही यह बहुत अच्छा प्लान न हो पर यही तय हुआ. ईशा उठ कर ड्राइविंग सीट पर आ गयी,मैं वीनस और लिन के साथ पीछे वाली सीट पर बैठी रहीं. डैडी नीचे उतर  कर लम्बे लम्बे डग भरते वैन के साथ साथ चलने लगे,हम उनके पीछे पीछे हो लिए. ईशा को गाड़ी चलाना आता तो था पर वह कोई तजुर्बेकार और एक्सपर्ट नहीं थी - दूसरी गाड़ियों,इंसानों और चीजों से कितनी दूरी बना कर चलना है इस बारे में वह अनजान थी. सो चलते चलते वह वैन लेकर सड़क किनारे खड़ी एक गाड़ी से टकरा गयी....

घिसटती  हुई वैन एक के बाद दूसरी और तीसरी गाड़ी से जा टकराई. कई गाड़ियों के साइड मिरर उखड़ कर नीचे गिर पड़े - हम बच्चे भौंचक्के होकर यह नजारा देख रहे थे,हमें समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाये. 

ईशा के वैन पर से कंट्रोल खत्म होने से पहले डैडी कुछ अखबार इकठ्ठा कर पाए थे पर अब वे सब कुछ छोड़ कर वैन के साथ साथ दौड़ रहे थे और बार-बार चिल्ला कर ईशा को ब्रेक लगाने को कह रहे थे. पर ऊपर से चिल्लाते शोर मचाते डैडी अंदर से एकदम शांत थे - मुझे उनका यह  बर्ताव समझ में नहीं आ  रहा था. 

"ब्रेक मारो ईशा .... ब्रेक मारो. ", वे चिल्लाते जा रहे थे. जब ईशा ने उनके कहे से वैन रोकी तो डैडी उसकी खिड़की के पास आये और बोले : "तुम ठीक तो हो न ईशा ?"यह कहते हुए उनकी आवाज शांत थी,उसमें जरा भी बदहवासी नहीं थी. हर बार की तरह वे किसी तरह की घबराहट में नहीं थे - डैडी की यह बात ही मुझे सबसे अच्छी लगती है. हम तो बच्चे थे,उनको समय समय पर ऐसी मुश्किलों में डालते रहते थे पर वे थे कि  पहले लम्बी साँसे भरते जिससे मन की उद्विग्नता धीरे धीरे सहज भाव से छँट जाए .... उसके बाद जैसी भी परिस्थिति होती उससे शांत होकर धैर्यपूर्वक निबटते. 



इस सब तमाशा जब हो रहा था हम तीनों बहनें पीछे की सीट से उछल कर खिड़की से बाहर निकलने की जुगत भिड़ा रही थीं- हमारी घिग्घी बँधी हुई थी और ईशा थी कि रो रो कर उसका बुरा हाल हुआ जा रहा था. उसकी चीख पुकार सुनकर डैडी एकदम से घबरा गए- प्लान उल्टा पड़   जाने की ग्लानि उन्हें ज्यादा सता रही थी. अब उन्हें वहाँ रुकना होगा और जिसका भी जो नुक्सान हुआ है उसकी भरपाई करनी होगी - उनकी हालत देख कर तरस आ रहा था. उन्होंने किसी से यह नहीं कहा  कि हम उनका अखबार उठा लाये थे....

उन्हें एटीएम ले जाकर उन्होंने नुक्सान के लिए पैसे चुकाए. यह हाल तब हुआ जब हमारे पास अपनी जरूरत के लिए ही पर्याप्त पैसे नहीं हुआ करते थे - मुझे जहाँ तक याद पड़ता है तब डैडी को कम से कम सौ डॉलर चुकाने पड़े थे ... यदि हम दूकान से जाकर अखबार खरीद लेते तो हद से हद कुल जमा पाँच या छह डॉलर लगते. 

यह सब जब निबट गया तो हम सब ठहाके लगा कर हँस पड़े- देर तक हमारी हँसी हवा में गूँजती रही. 
(2009 में डेनियल पेसनर के साथ मिल कर लिखी आत्मकथा "ऑन द लाइन" से उद्धृत) 
________________

यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294              

अब मैं साँस ले रहा हूँ : असंगघोष की कविताएँ

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साहित्य के इतिहास में किसी काल-खंड में किसी ख़ास प्रवृत्ति को लक्षित कर उसे समझने और उसकी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए उसका नामकरण किया जाता है. हिंदी में दलित जीवन और दर्शन को केंद्र में रखकर जो साहित्य रचा जा रहा है उसे दलित-साहित्य कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती (अंक -सितंबर 1914) में प्रकाशित हीरा डोमकी कविता ‘अछूत की शिकायत’से इसकी शुरुआत हुई है.

आधुनिक हिंदी दलित कविताएँ शिकायत से होती हुईं चेतना, आक्रोश, विडम्बना और आत्मविश्वास की ओर बढ़ी हैं. वे शिल्प को लेकर भी सतर्क हुई हैं.

‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’कवि असंगघोष (२९ अक्टूबर, १९६२) का सातवाँ कविता संग्रह है जो इस वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. जयप्रकाश कर्दमके अनुसार – “एक ओर इस संग्रह की कविताएँ हमारी मानवीय संवेदना को झकझोरती हैं तो दूसरी ओर अन्याय, शोषण और असमानता के विरुद्ध प्रतिकार की चेतना का संचार करती हैं. इन कविताओं में सर्वत्र मनुष्यता की पहचान, मनुष्यता की माँग और मनुष्यता की कामना है.”

इस संग्रह से पांच कविताएँ आपके लिए.









असंगघोष की कविताएँ                              






कौन जात हो

उसे लगा
कि मैं ऊँची जात का हूँ
मारे उत्सुकता के
वह पूछ बैठा
कौन जात हो
मेरे लिए तो
यह प्रश्न सामान्य था
रोज़ झेलता आया हूँ,
जवाब दिया मैंने
चमार!
यह सुनकर
उसका मुँह कसैला हो उठा
मैं ज़ोर से चिल्लाया
थूँक मत
निगल साले.




स्वानुभूति

मैं लिखता हूँ
आपबीती पर कविता
जिसे पढ़ते ही
तुम तपाक से कह देते हो
कि कविता में कल्पनाओं को
कवि ने ठेल दिया है
सचमुच मेरी आपबीती
तुम्हारे लिए कल्पना ही है
भला शोषक कहाँ मानता हैं
कि उसने या उसके द्वारा
कभी कोई शोषण किया गया

चलो, एक काम करो
मेरे साथ चलो कुछ दिन बिताओ
मेरे कल्पनालोक में
मैं तुम्हें दिखाता चलूंगा
अपना कल्पनालोक
बस एक शर्त है
बोलना मत
चुपचाप देखते,सुनते,महसूसते रहना
वरना कल्पनाएँ
छोड़ कर चली जायेगी
मेरी कविताओं के साथ कहीं विचरने
और तुम रह आओगे
अपने अहम में डूबते-डुबाते
कि विश्‍वगुरू हो
सबकुछ जानते हो.




सुनो द्रोणाचार्य!

सुनो
द्रोणाचार्य!
जिस एकलव्य का
अँगूठा कटवाया था तुमने
वह अपनी दो अँगुलियों से तीर
चलाना सीख गया है,
और उसके निशाने पर
तुम ही हो
हाँ,तुम ही

आख़िर यह तुम्हारा कलयुग है
घोर कलयुग
जिसमें तुम हो
तुणीर में तीर है
अब दो अँगुलियों से
तुम पर निशाना साधता
आज का एकलव्य है,

अन्तिम बार
सुन लो
आज का एकलव्य सीधा नहीं है
वह अपना अँगूठा
अब नहीं गँवाता,
उसे माँगने वाले का सिर
उतारना आता है.





मेरा चयन

पिता ने
निब को पत्थर पर
घीस
एक क़लम बना
मेरे हाथों में थमाई.

पिता ने
उसी लाल पत्थर पर
राँपी
घिसकर
मेरे हाथों में थमाई.

मुझे
पढ़ना और चमड़ा काटना
दोनों सिखाया
इसके साथ ही
दोनों में से
कोई एक रास्ता
चुनने का विकल्प दिया
और कहा
‘ख़ुद तुम्हें ही चुनना है
इन दोनों में से कोई एक’

मैं आज क़लम को
राँपी की तरह चला रहा हूँ.
      





पाय लागी हुज़ूर

वह दलित है
उसे महादलित भी कह सकते हो
जब ज़रुरत होती है
उसे आधी रात बुला भेजते हो
जचगी कराने अपने घर,
जिसे सम्पन्न कराने पूरे गाँव में
वह अकेली ही हुनरमन्द है.

सधे हुए हाथों से तुम्हारे घरों में
जचगी कराने के बाद भी
इन सब जगहों पर वह रहती है अछूत ही,
इसके बावजूद उसे कोई शिकन नहीं आती
यह काम करना उसकी मजबूरी है

उसके साथ न केवल तुम
उसके अपने भी ठीक से व्यवहार नहीं करते
यह देख मन में टीस उठती है
उसे न काम का सम्मान मिला है
ना उसके श्रम का उचित मूल्य
उसके जचगी कराये बच्चे
कुछ ही माह बाद
मूतासूत्र पहन लेते है

तो कुछ उसे दुत्कार निकल जाते है
उसे बन्दगी में झुक,कहना ही पड़ता है
हूल जोहार!
घणी खम्मा अन्नदाता!
पाय लागी हुज़ूर!
पाय लागी महाराज!

ऐसे पाँवों को
कोई तोड़ क्यों नहीं देता.
______________________



असंगघोष का जन्म मध्य प्रदेश के जावद नामक छोटे से कस्‍बे में दलित परिवार में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्‍बे में और लंबे अंतराल के बाद रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय, जबलपुर से स्‍वाध्‍यायी छात्र के रूप में एवं इसके बाद इग्‍नू जबलपुर सेंटर से एम.ए. (इतिहास), एम.ए. (ग्रामीण विकास), एम.बी.ए. (मानव संसाधन), तथा पीएच.डी. की पढ़ाई पूरी की. बचपन से पिताजी के जूता बनाने के काम में सहयोग कर काम सीखा बाद में लगभग 10 वर्ष स्‍टेट बैंक की नौकरी आरै अब सरकारी सेवा में रहते हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा तक का लंबा सफर तय किया. आप प्रारंभ में बैंक कर्मियों के मार्क्‍सवादी आंदोलन से जुडे एवं कई आंदोलनों शरीक रहे बाद में 1990 के आसपास अम्‍बेडकरवादी आंदोलन से जुडाव हुआ और दलित लेखन में कविता विधा को अपनाया. आज हिन्‍दी दलित साहित्‍य के प्रमुख कवियों में शामिल किये जाते हैं. आपके संपादन में जबलपुर से दलित साहित्‍य की प्रमुख एवं प्रखर पत्रिका 'तीसरा पक्ष'का नियमित प्रकाशन हो रहा है.
asangghosg@gmail.com      

सहजि सहजि गुन रमैं : पूनम अरोड़ा

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पूनम अरोड़ा कहानियाँ और कविताएँ लिखती हैं, नृत्य और संगीत में भी गति है. कविताओं की  भाषा और उसके बर्ताव में ताज़गी और चमक है. बिम्बों की संगति पर और ध्यान अपेक्षित है.

उनकी पांच कविताएँ आपके लिए






पूनम   अरोड़ा   की   कविताएँ        







(एक)

एक रात के अलाव से
जो लावा निकला था
उसने अबोध स्त्री के माथे पर शिशु उगा दिया

शिशु जब-जब रोया
अकेला रोया

अबोध स्त्री के हाथ अपरिपक्व थे और स्तन सूखे
किसी बहरूपिये ने एक रात एक लम्बी नींद स्त्री के हाथ पर रख एक गीत गाया

शिशु किलकारी मारने लगा
देवताओं ने चुपचाप सृष्टि में तारों वाली रात बना दी

गीत गूँजता रहा सदियों तक
अबोध स्त्रियाँ जनती रहीं कल्पनाओं के शिशु और बहरूपिये पिता सुनाते रहे
समुद्री लोरियाँ.






(दो)

मेरा बचपन गले तक भरा है
रक्तिम विभाजन के जख्मों से
मैंने इतनी कहानियां सुनी हैं नानी से सात बरस की उम्र से
कि अब वो गदराए मृत लोग चुपचाप बैठे रहते हैं मेरी पीठ से पीठ टिकाकर

वो कहते हैं फुसफुसा कर
कि रक्त का हर थक्का जम गया था कच्ची सड़कों, चौराहों और सीमेंट की फूलदार झालरों के फर्श पर
जिसकी जात का फंदा टूटा था

हमारे ऊंट जिन पर लदा था
मुल्तान के डेरा गाजी खां की हॉट को ले जाने वाला सामान
बढ़िया खजूर, मुन्नका और अखरोट
वे सब भी रक्त के मातम में भीड़ के पैरों तले कुचले जा रहे थे

एक नई दुल्हन थी 'अर्शी'
जिसके खातिर अरब से पश्मीना मंगवाया था उसके दूल्हे ने
मेरे व्यापारी पुरखों से

कहता था इसे पहन कर
वो सर्दी में बिरयानी और गोश्त पकाएगी

सिंध नदी के पास के क़स्बे से आये उसके व्यापारी मित्रों के लिए

सुबह माँ को सावी चाय देने जाते हुए
इसी शहतूती रंग के पश्मीना से सर को ढकेगी
और रात में इसी का पर्दा हटाएगी अपनी भरी छातियों पर से

इन कहानियों को बरसों बीत गए
और मैं कविताएं लिखते हुए
कभी-कभी हल्का दबाव महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर

सूरज रोज़ एक तंज करता है
कि मैंने कितनी कहानियां और अपने पुरखों की पीली आँखे भुला दी

मैं सोचती हूँ
क्या सच में ऐसा हुआ है.






(तीन)

बचपन में हर एक चीज को पाना बहुत कठिन था मेरे लिए
सलाइयाँ चलाते हुए
अपनी उम्र की ईर्ष्या से मैं हार जाती थी

अपनी छोटी चाहतों में मैं अक्सर खाली रहती थी
मेरे गायन-वादन सुगंधहीन और आहत थे

यहाँ तक कि मेरा पसंदीदा
सफेद फूल वाला पौधा भी
मुझे दुःख में ताकता था

सफ़ेद से नाता था तो वो केवल तारे थे
जो ठीक मेरे सर के ऊपर उगते थे हर रात

एक सुराही जो रहस्यमय हो जाती थी रात को
मेरी फुसफुसाहट के मोरपंखी रंग
उसके मुंह से उसके पेट में चले जाते थे

माँ कहती ये सुराही रात में ही ख़ाली कैसे हो जाती है
मेरा अवचेतन अपने मुँह को दबाकर
हँसने की दुविधा को
पूरी कोशिश से रोकता था

मैं कहना चाहती थी जो काम तुम नहीं करती
वो सुराही करती है मेरे लिए

स्वप्न जो स्वप्न में भी एक स्वप्न था
मेरे बचपन में भटकता था वो स्वप्न अक्सर

खिड़की से झांकता
छिपकली की पूंछ से बंधा
उस दीवार पर मेरे साथ तब तक चलता
जब तक मैं ऊंचाई का अंदाज़ा नहीं लगा लेती थी

मुझे नहीं पता था कि मृत्यु
ऐसे ही मोड़ पर किसी जोकर की तरह मुग्ध करती है हमें

बेहोशी से पहले
मेरी कल्पनाएं भयभीत होकर निढाल होना चाहती थीं

मुझे घर के सब रंग पता थे
फिर भी
मैं उन्हें किसी और रंग में रंगना चाहती थी

किसी ऐसे रंग में
जिसमें पिता के दुष्चरित्र होने की जंगली खुम्ब सी गंध न हो

न हो उसमें माँ की वहशी नफरत पिता के लिए

सारे तारे जब सो जाते तो जागता था एक साँप और परियाँ
तीन पहर मेरी कल्पनाओं के और चौथा पहर
मेरी अस्तव्यस्त नींद का

जागने और सोने के बीच का
वो असहाय और बेचैन पल
जब मुझे दिखायीं देती थीं
आसमान में उड़ती परियाँ

और छत पर बेसुध पड़ा एक बांस का डंडा

जो हर रात
एक साँप में तब्दील हो जाया करता था

डर ज़रूरी था मेरी नींद के लिए
डर बहुत ही आसानी से चले आने वाला
एक शब्द था मेरी स्मृतियों के लिए

स्मृतियां, जिनमें भूखे कुत्ते
अपनी काली आत्मा के लाल होंठो से
नई कच्ची छातियाँ चूसते थे

स्मृतियां,जिनमें ज़िस्म पर चलते
लिसलिसे केंचुएं थे.
जिन्हें भीड़ में सरक कर नितम्ब छूना
किसी हसीन दुनिया में स्खलन करने सा लगता


अनजानी ग्लानियों के पार जाने का कोई पुल नहीं होता

होता है तो केवल वो क्षण जिसे जीते हुए
हमें याद आते रहें पिछले पाप

पापों से गुज़रना सरल है
लेकिन सरल नहीं है उनको सहेज कर रखना

दो दुनिया चलती रही मेरे साथ
दो आसमान और दो सितारे भी

अब तक कितने ही बिम्ब और उपमाएं
चली आईं कविता में

लेकिन मैं सोचती हूँ
कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मेरी स्मृतियों ने बचपन खोने में

हम अक्सर चूक जाते हैं
उस अपरिहार्य पल को चूमने से

जिसके आँसू पर हम बेरहमी से रख देते हैं अपने जूते.





(चार)

मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगी
कि आज मेरे कमरे में
जो घना अंधेरा साँप की तरह रेंग रहा है
उसका बोझ धीरे से
बहुत धीरे से और चुपचाप
तुम्हारे उज्ज्वल निश्चयों की प्रतिध्वनि बन गया

यह भी सच है कि
तुमने सरोवर में खिलते कमल देखें होंगे
और तभी से रंगों में सोना तुम्हारी आदत में आया होगा
मुमकिन यह भी है कि
तभी तुमने मेरी तरफ कभी न देखने के अनजान भ्रम को
बाज़ार में दुकानों में गिरा दिया होगा

फिर एक दिन
किसी आक्रामक सिरहन ने तुम्हें कहा होगा
नींद के साथ नींद सोती है
और परछाई के पास परछाई अपनी आवाज़ लिखती है

सूक्ष्म जीवों के पास कोई भेस नहीं होता
जैसे चरित्र बदल जाते हैं ध्वनि, प्रकाश और संवादों के मध्य
और देह तैरने देती है ख़ुद को कामोद्दीप्त यज्ञ में

मैं बहुत दिनों से इस असमंजस में हूँ
कि तुमसे कहूँ
ले जा सकते हो तुम मेरी सघन देह का प्रत्येक प्रतिमान
और अनेक प्रसंगों से पुता
जड़ हुआ अभिमान

छलकना अगर कोई सीखता
तो मैं कहती
तुम बेपरवाह और मीठे जल का एक ख़्याल हो

मेरी त्वचा की उत्सुक और मोम में लिपटी उदासियाँ
क्या आ सकती हैं
तुम्हारे किसी काम?




(पांच)

मन भिक्षुणी होना चाहता है

नंगे पांव सुदूर यात्रा पर निकलना चाहता है
हड़बड़ाहट में बेसाख्ता किसी व्यंग्य पर हैरान होना चाहता है

किसी एक हस्तमुद्रा पर ध्यान लगाकर
अपने अतीत के रेशम में
वो नर्म कीड़े खोजना चाहता है
जिन्होंने संसार में अपनी आस्था रखी थी

टापुओं की ठंडक में ह्रदय अपनी आँखें वहीं छोड़ आता है
आग बनकर किसी पूर्व की स्मृति में
देर तक खुद को आहूत करता हुआ.

समुद्री भाषा रात भर देह पर सरसराहट करती है
यह तलाश के क्या नये बिंदु नहीं मन पर

निस्तब्ध ख्याली मन
शोक में चांदी का एक तार बुनता रहता है
सो चुकी मकड़ियां ऐसा तार नहीं बुन पाती
न ही जागने पर वे शोकगीत गाती हैं

मीलों तक माँ अकेली चलती दिखाई देती है.
रोशनी की एक बारीक लकीर पर.
और मुझे याद भी नहीं रहता
कि मैं उसे पा रही हूँ या खो रही हूँ

पांच हज़ार वर्ष पूर्व में
किसी स्त्री की एक 'आह'
आज भी स्त्रियों के कंठों में अटकी है
प्रश्न वहीं के वहीं है
स्थिर और ठिठके

मुख के विचलित भावों में
एक चिड़िया सी सुबह तब मेरी दीवार पर बैठ जाती है
जब एक मोरपंख मेरी पीठ को  सहलाता है
और मैं नीला कृष्ण बन जाती हूँ

मेरे वश के सभी प्रश्न
एक स्पर्श मात्र से पिघल जाते हैं.
_________


पूनम अरोड़ा ( २६ नवम्बर, फरीदाबाद हरियाणा में निवासश्री श्री नाम से भी लेखन करती हैं. इतिहास और मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर उपाधियाँ. हिंदी स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रही हैं. नेचुरोपैथी के अंतर्गत हीलिंग मुद्रा और योग में डिप्लोमा कोर्स किया है. कुछ समय के लिए मॉस कम्युनिकेशन फैकल्टी के तौर पर अध्यापन भी किया है. भारतीय शास्त्रीय नृत्य भरतनाट्यम की विधिवत शिक्षा ली है. पूनम ने कहानी, कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज में कई रेडियो शो भी किये हैं.

इनकी दो कहानियों 'आदि संगीत'और 'एक नूर से सब जग उपजे'को हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है. 2016 में एक अन्य कहानी 'नवम्बर की नीली रातें'भी पुरस्कृत है और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित एक किताब में संकलित हुई है. कविता, कहानियां, आलेख आदि देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.

संपर्क : shreekaya@gmail.com

रंग-राग : स्त्री का रहस्य : सिद्धेश्वर सिंह

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कवि सिद्धेश्वर सिंह निर्देशक अमर कौशिककी फ़िल्म ‘स्त्री’देखने गए, वहाँ उन्हें स्त्रियों पर लिखी कविताएँ भी याद आईं. डरना-वरना तो क्या ? यह टिप्पणी उन्होंने जरुर भेज दी मुझे. आप भी पढिये इसे.  



प्रेम,भय और एक स्त्री का रहस्यलोक !                          
___________
सिद्धेश्वर सिंह





जिस जगह अपना हाल मुकाम है वहाँ रहते हुए अगर के किसी दिन सिनेमाघर में बैठकर  सिनेमा देखने का मन करे  तो एक तरफ से कम से कम नब्बे किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ सकती  है.यह यात्रा बस से , ट्रेन से  या फिर किराए के या निजी वाहन से की जा सकेगी.यह अलग बात है कि आज से दो दशक पहले तक कस्बे में कुल तीन  'जीवित'सिनेमाघर  हुआ करते थे. वे अपनी देह को लगभग ढोते हुए अब भी  विद्यमान हैं लेकिन वे तीनो अब 'बंद टाकीज'हैं.'बंद टाकीज'बस्तर निवासी अपने कविमित्र  और 'सूत्र सम्मान'के सूत्रधार विजय सिंह का कविता संग्रह है.जब  भी किसी उजाड़ ,परित्यक्त,अबैनडंड, बंद हो चुके सिनेमाघर को देखता हूँ तो एक बार को सहज ही  'बंद टाकीज'कविता की याद आ जाती है :


मेरे लिए हमेशा यह कौतूहल का विषय रहा है कि टाकीज़ की अंदर की खाली कुर्सियों में कौन बैठता होगा ?
वहाँ चूहे तो जरूर उछल कूद करतें होंगे
मकड़ियाँ जाले बुन ठाठ करती होंगी
दीवारों से चिपकी छिपकलियाँ
क्या जानती हैं बाहर की दुनियाँ के बारे में
क्या सोचती हैं बाहर की दुनिया के बारे में
इतने सालों से रूके पंखे क्या एक जगह खड़े -खड़े ऊब नहीं गए होगें ?
क्या उनका मन
पृथ्वी की तरह घूमने का नहीं करता होगा ?


अभी कुछ दिन पहले ऐसा संयोग बना कि  अपने कस्बे से सैकड़ो किलोमीटर दूर एक 'सचमुच'के सिनेमाघर में फ़िल्म देखने का अवसर  उपलब्ध हो गया. फिल्म का शीर्षक था - स्त्री. आजकल की भाषा 'नई वाली हिंदीका चलन है कि अब  फिल्म के ट्रेलर को टीज़र कहा जाता है- मतलब कि बानगी जैसा कुछ. बेटे अंचल ने नेट के जरिए इस इसका टीजर  दिखाया लेकिन कुछ खास उत्सुकता नहीं हुई लेकिन उस मल्टीप्लेक्स में उस दिन जितनी भी मूवीज चल रही थीं उनमें 'स्त्रीही सबसे ठीक-सी लगी. यह 'स्त्री'शीर्षक  बहुत आकर्षक लगा. अक्सर ऐसा (भी) होता है कि कोई शीर्षक, कोई संज्ञा,कोई नाम भी अपनी ओर खींच ले जाता है.

बहुत साल पहले  मैंने  'स्त्री'शीर्षक से एक फ़िल्म अपने गांव के सबसे पास वाले कस्बे दिलदार नगर (जिला - गाजीपुर,उत्तर प्रदेश) के कमसार टॉकीज में देखी थी. उस 'स्त्री'की  एक धुंधली-सी  स्मृति-छवि है कि वह कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुंतलमपर आधारित वी. शांताराम की फिल्म थी. एक बार को ऐसा अनुमान करने का मन हुआ कि हो सकता है कि यह वाली 'स्त्री'उसी पुरानी वाली 'स्त्री'का रीमेक हो लेकिन वह 'टीज़र'इस संभावना के  विपरीत संकेत कर रहा था. नई 'स्त्री'के दृश्य,भाव,भंगिमा और भाषा में एक अनगढ़ भदेसपन प्रकट हो रहा था जो कि कालिदास और वी. शांताराम के से नैकट्य के निषेध का स्पष्ट द्योतक था.

'स्त्री'शीर्षक से इधर हाल के वर्षों में लिखी गई ढेर सारी कविताएं भी मन में घुमड़ रही थीं. बहुत सी किताबों के शीर्षक भी याद आ रहे थे  जैसे कि पवन करणकी 'स्त्री मेरे भीतर'और 'स्त्री शतक', रेखा चमोली की 'पेड़ बनी स्त्री'आदि लेकिन जब सुना कि 'स्त्री'एक हॉरर कॉमेडी फिल्म है जिसमे राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की जोड़ी  ने अभिनय किया है तो मन को समझाया कि एक आम मुम्बइया  हिंदी फिल्म को फिल्म समझ कर ही देखा जाना चाहिए. इसके निमित्त  कविता और साहित्य के अवान्तर प्रसंगों की वीथिका में डोलना-भटकना ठीक बात नहीं लेकिन कविता से दैनंदिन का ऐसा नाता  जैसा कुछ बन गया है कि वह अपनी उपस्थिति के लिए राह खोज ही लेती है. 'हॉरर'शब्द से डर शब्द प्रकट हुआ और 'डर'तथा 'स्त्री'शब्द के विलयन से कात्यायनी की कविता 'इस स्त्री से डरो'की  याद  हो आई :

यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में.

उससे पूछो
पिंजरे के बारे में पूछो
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में.

जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है.

यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में एक गीत.

रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबासियाँ
इन्हें समझो,
इस स्त्री से डरो.

हमें फिल्म देखनी थी ; हम फिल्म देखने गए. हमारे लिए यह एक ऐसी फिल्म थी जिसके कथानक के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी. अखबारों में इसके बारे में कुछ खास पढ़ा भी न था. यह न तो बॉयोपिक थी और न ही ऐतिहासिक छौंक वाली कोई कॉस्ट्यूम ड्रामा. वैसे यह पता चला था कि यह उस तरह की 'भूतिया'फिल्म भी नहीं है जैसी कि किसी जमाने में रामसे ब्रदर्स वगैरह बनाया करते थे और न ही 'महल'जैसी क्लासिक ही है.

खैर, 'स्त्री'शुरू हुई. रात के नीम अंधेरे में डूबे किसी पुरावशेषी कस्बे की सर्पिल टाइलों वाली गलियों में घूमता कैमरा हर मकान पर लाल रंग से लिखे एक वाक्य को फोकस कर रहा है - ओ स्त्री कल आना. कहानी बस इतनी सी लग रही है कि प्रेम में डूबी हुई एक स्त्री अपने बिछुड़े हुए प्रेमी को पाने के लिए भटक रही है  और इस भटकन में  वह कस्बे के हर पुरुष में अपने प्रेमी के होने को खोज रही है- देह और विदेह दोनों रूपों में. वह स्त्री एक साथ शरीर भी है  और आत्मा भी. इस जरा-सी कहानी को कहने के लिए  इसमें कुछ घटनाएँ हैं, कुछ पात्र हैं और इतिहास की टेक लगाकर ऊंघता हुआ एक कस्बा है.

इस फिल्म को देखते हुए मुझे  यह अनुभव हो रहा  था कि में एक ऐसे कस्बे में पाँव पैदल विचरण कर रहा हूँ जो कि इतिहास के बोसीदा पन्नों से निकल कर चमकदार और ग्लॉसी बनने को विकल नहीं है. इस तेज रफ्तार दुनिया में वह अपनी मंथर चाल और अपने साधारण होने पर कुंठित नहीं है.वह अपने होने में संतुष्ट है और उसके पास जो भी,जैसा भी हुनर है उसकी कद्र करने वाले विरल भले ही हो गए हों विलुप्त नहीं हुए हैं. इस कस्बे में  दर्जी की दुकान पर अब भी भीड़ होती है. संकट में पड़े हुए दोस्त को न छोड़ कर जाने में  अब भी सचमुच की हिचक और शर्म बाकी है. पूरा कस्बा एक नवयुवक के मातृपक्ष के रहस्य को गोपन बनाए रखने पर आश्चर्यजनक रूप से एकमत है और कुल मिलाकर इस कस्बे में एक ऐसी स्त्री का भय है जिसको प्रेम के सिवाय और किसी चीज की दरकार नहीं. इस कस्बे का नाम है चन्देरी.

अगर मानचित्र में इसकी निशानदेही आप खोजना चाहें तो मध्य प्रदेश में कहीं एक बिंदु जैसा कुछ शायद दिखाई दे जाय. हिंदी के सुपरिचित-चर्चित कवि कुमार अम्बुज की एक कविता का शीर्षक है - 'चन्देरी'. इस कविता में वह ब्रांड बन चुकी चंदेरी  की साड़ियों की बात करते - करते करघे, कारीगर और महाजन तक जब पहुंचते हैं तब उन्हें कुछ और दिखने लगता है या कि यों कहें कि कविदृष्टि  उस डर पर ठहर जाती है जो कि तमाम कलावत्ता के बावजूद चन्देरी में व्याप्त है :

मेरे शहर और चंदेरी के बीच
बिछी हुई है साड़ियों की कारीगरी
इस तरफ से साड़ियों का छोर खींचो तो
दूसरी तरफ हिलती हैं चन्देरी की गलियाँ

मैं कई रातों से परेशान हूँ
चन्देरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे
धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर

चंदेरी की साड़ियों की दूर दूर तक माँग है
मुझे दूर जाकर पता चलता है


'स्त्री'देखकर अपन हाल से बाहर निकल आए और सोचते रहे कि कि अपने साथ क्या कोई कथा,कोई पात्र,कोई दृश्य साथ जा रहा है?क्या कुछ है जो 'अरे यायावर रहेगा याद !'की तरह याद रहेगा? यह ठीक है कि अपने अभिनय के लिए राजकुमार राव,पंकज त्रिपाठी,अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बनर्जी कुछ समय तक याद रहेंगे लेकिन श्रद्धा कपूर प्रभाव नहीं छोड़ सकीं.

निर्देशक अमर कौशिक का काम ठीक ठाक है. पटकथा और संवाद भी ठीक बन पड़े है. कुल मिलाकर इस फ़िल्म को एक बार इसलिए देखा जा सकता है कि यह भय  और हास्य का एक ऐसा विलयन प्रस्तुत करती है जो कि हिंदी की मुख्यधारा के सिनेमा के लिए नया तो है ही. जो नया  है उस पर बात जरूर की जानी चाहिए और बात जब स्त्री,खासतौर पर प्रेम में डूबी हुई स्त्री को केंद्र में रखकर की जा रही हो तब तो अवश्य ही जैसा कि मनीषा पांडेयकी कविता 'प्यार में डूबी लड़कियाँ'आगाह करती  है कि

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों से
सब डरते हैं

डरता है समाज
माँ डरती है,
पिता को नींद नहीं आती रात-भर,
भाई क्रोध से फुँफकारते हैं,
पड़ोसी दाँतों तले उँगली दबाते
रहस्‍य से पर्दा उठाते हैं...!


काश यह फिल्म जिसका शीर्षक 'स्त्री'है अपने रहस्य को ठीक से बरत पाती !
______


sidhshail@gmail.com 


मेघ-दूत : आर्थर रैम्बो की कविताएँ : अनुवाद मदन पाल सिंह

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कुछ कवि अधूरे प्रेम की तरह होते हैं जहाँ बार–बार लौटने का मन करता है. फ्रेंच कवि (Jean Nicolas Arthur Rimbaud  : 20 October 1854 10 November 1891)आर्थर रैम्बो इसी तरह के कवि हैं.  मात्र ३७ वर्ष की अवस्था में उन्होंने आवेग से भरी हुई जिन को जन्म दिया वे अभी भी उतनी ही वेगवान हैं, अर्थवान हैं. 

उनकी छह प्रसिद्ध कविताओं का फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद मदन पाल सिंह ने किया है. वे पिछले चौदह वर्षों से पेरिस  में रह रहे हैं. अनुवाद की उनकी दो किताबें भी प्रकाशित हैं. रैम्बो के जीवन और कविताओं पर उनकी किताब प्रकाशित होने वाली है.

इन कविताओं को शिव किशोर तिवारी ने देखा- परखा है, उनके सुझावों और संशोधनों से यह पाठ और सटीक हुआ है. उनका आभार



आपके लिए ये कविताएँ 


  "रैम्बो की मृत्यु को एक शताब्दी से भी ज्यादा समय गुजर चुका है, फिर भी अभी तक कवि के अल्पकालिक साहित्यिक जीवन के आलोक में उनके मूल्यांकन को लेकर विभ्रम की स्थिति बनी हुई है. इस विभ्रम के अनेक कारण भी हैं. रैम्बो को शैतान का भी तमग़ा दिया गया और उन्हें भविष्य में झॉंकने वाले भविष्यदर्शी पैगम्बर के रूप में भी देखा गया. उन्हें एक ओर उनकी यायावर प्रवृति के कारण अन्वेषक माना गया, तो दूसरे छोर पर अक्खड़-आवारा कहकर ख़ारिज कर दिया गया. रैम्बो ने अल्पायु में ही कवि-मर्म और कविता के संवेग में अपने आपको समाधिस्थ कर लिया था. उन्हें अतियथार्थवाद और प्रतीकवाद से भी जोड़ कर देखा जाता है."
मदन पाल सिंह





फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद : मदन पाल सिंह
आर्थर रैम्बो की कविताएँ

चिकित्सा का जाल और वीरेन डंगवाल : सदाशिव श्रोत्रिय

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आधुनिक चिकित्सा का तन्त्र कितना जानलेवा है इसे बड़ी कही जाने वाली बिमारियों से जूझते हुए रोगी और उनके परिजन समझते हैं, अब यह तन्त्र एक निर्मम व्यवसाय में बदल गया है. हिंदी के प्यारे कवि वीरेन डंगवाल कैंसर से लड़ते रहे और अंतत: हार गए, उनकी कविताओं में यह यन्त्रणा दर्ज़ है. वह यह भी देखते हैं कि बीमार होने पर इलाज की प्रक्रिया भी किसी यातना से कम नहीं. यमदूत से बचाने की बात करने वाले डॉक्टर मुनाफ़ाखोरों के दूत हो चले हैं.  

सदाशिव श्रोत्रिय ने वीरेन की कविताओं पर यहीं पहले भी लिखा है, उनका यह लगाव इस बीच और प्रगाढ़ हुआ है. यह लेख आपके लिए. कविताओं को समझने का यह एक मार्मिक प्रसंग है.        




चिकित्सा का जाल और वीरेन डंगवाल                        
सदाशिव श्रोत्रिय




मारे आज के समय का वही कवि कोई बड़ा कवि होने का दावा कर सकता है जो हमारे इस आज के समय को वाणी दे सके. जो आज की ठगी और मुनाफ़ाखोरी को, आज की सांस्कृतिक अवनति को, आज की बेईमानियों और भ्रष्टाचार को, सामन्यजन की पीड़ाओं और कष्टों को अपनी कृतियों में अभिव्यक्ति दे सके और साथ ही मानवता के शाश्वत रूप से वरेण्य मूल्यों को जीवित और जागृत रखने में सहयोग कर सके वही अंतत: एक बड़ा कवि साबित हो सकता है. ऐसा कर पाना उसी कवि के लिए सम्भव है जो अपने समय को पूरी सचाई,पूरी संवेदनशीलता और मानवता के प्रति पूरी प्रतिबद्धता के साथ जिए. जिन कवियों का उद्देश्य  केवल तत्कालिक प्रतिष्ठा से सम्भावित लाभ प्राप्त करना है और जो इसके लिए कैसे भी हथकंडे इस्तेमाल कर सकते हैं वे कभी हमारे समय के सच्चे कवि नहीं हो सकते.


आधुनिक चिकित्सातंत्र के मकड़जाल में फंस कर किसी असाध्य रोग के रोगी की आज जो दशा होती है उसके बारे में गद्य में तो हमें काफ़ी कुछ पढ़ने को मिल सकता है पर उस कष्ट को भोगने वाला जिस मनोदशा से गुज़रता है इसका मार्मिक और विचलित कर देने वाला वर्णन मुझे केवल वीरेन डंगवाल की उन कविताओं में देखने को मिला जो अब तक असंकलित रही थीं और जिनका प्रकाशनकविता वीरेन शीर्षक से  अभी नवारुण ने किया है. इस संग्रह के पृष्ठ 397 पर मुद्रित कविता जिसका शीर्षक “दो” है उस कठिन दशा का दिल दहला देने वाला वर्णन करती है जिससे आज शायद आजकल अधिकतर असाध्य रोगों के रोगियों के परिवारों को गुज़रना पड़ता है :

शरणार्थियों की तरह कहीं भी
अपनी पोटली खोल कर खा लेते हैं हम रोटी
हम चले सिवार में दलदल में रेते में गन्ने के धारदार खेतों में चले हम
अपने बच्चों के साथ पूस की भयावनी रातों में
उनके कोमल पैर लहूलुहान

पैसे देकर भी हमने धक्के खाये
तमाम अस्पतालों में
हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया
सिला गया भूंजा गया झुलसाया गया
तोड़ डाली गई हमारी हड्डियां
और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजहद
हमें हिफाजत से रखने की थी.


कवि के रूप में वीरेनजी की विशेषता अपने कष्टदायक अनुभवों के लिए एक सही तरह का वह बिम्ब या बिम्ब-विधान खोज लेना है जो पाठक को भी उस अनुभूति तक ले जा सके. शल्य-चिकित्सा के दौरान जिस तरह मरीज़ की चीर-फाड़ के बाद उसके शरीर में टांके लगते हैं, उसकी हड्डियों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है, उसका कॉटराइज़ेशन किया जाता है,केमोथेरपी और रेडिएशन थेरपी के दौरान उसे जिन पीड़ादायक अनुभवों से गुज़रता होता है वह सब किसी कवि के सम्वेदनशील मन को जिस तरह प्रभावित करता है इसका अनुमान हमें उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ते हुए होता है. रोगी के शारीरिक और भावनात्मक अनुभव का एक और भी अधिक मार्मिक वर्णन मुझे उनकी एक अन्य कविता तिमिर दारण मिहिर( पृष्ठ 367) में  मिला :

बकरी के झीने चमड़े से ज्यों मढ़ी हुई
इस दुर्बल ढ़ांचे पर यह काया
काठ बने हाड़-जोड़
बंधे हुए कच्ची सुतली से जैसे
दर्द पोर-पोर
वाणी अवरुद्ध
करुणा से ज़्यादा जुगुप्सा उपजाती है
खु‌द अपने ऊपर काया अपनी.
फिर भी यह जीवित रहने की चाहना
इच्छा प्रेम की
लिप्सा क्या लिप्सा है घृणायोग्य लिप्सा ?

पाठक स्वयं देख सकता है कि कैंसर जैसे किसी असाध्य रोग का शिकार हो जाने पर व्यक्ति के लिए शरीर भी कैसे एक प्रकार का भार हो जाता है तब वह कैसे जीवन के प्रति अपनी आस्था खोने लगता है.  वीरेनजी की विशिष्टता इस बात में  है कि दारुण शारीरिक कष्ट की दशा में भी उनकी कवि-प्रतिभा उन्हें लगातार ऐसे बिम्ब या बिम्ब-विधान सुझाती रहती थी जो उनकी कविता के पाठकों को उस पीड़ा का आभास दे सके जो उन्हें उस समय झेलनी पड़ रही थी :

अपनी ही मुख गुहा में उतरता हूँ रोज
अधसूखे रक्त और बालू से चिपचिपाती
उस सुर्ख धड़कती हुई भूलभुलैया में
अपने खटारा स्कूटर पर
कई राहें उतरती हैं इधर-उधर
भोजन और सांस की
या कानों की तरफ जातीं

__

दहकती हुई लाल-लाल
दर्द की शिराएं हैं
अधटूटे दांत चीखते हैं
मैं बार-बार ‌‌खु‌द को मुश्किल से खींचकर
स्कूटर समेत अपने ही मुख से बाहर लाता हूँ
इतनी कठिन और रपटन भरी यह डगर है

एक कौर चावल खाना भी
बेहद श्रमसाध्य और दुष्कर
जैसे रेत का फंका निगलना हो
फिर भी जीते चले जाने का यह उपक्रम
क्या यह लिप्सा है घृणास्पद चिपचिपी
लिप्सा तो नहीं है यह ?

अस्वस्थता के कारण जिसका जीवन केवल भार और कष्ट का पर्याय बन गया हो वह अपने आप से अपने जीने की सार्थकता और उद्देश्य के बारे में तरह तरह के प्रश्न करने लगता है. इन प्रश्नों की प्रकृति का  अनुमान हम इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियों से लगा सकते हैं :

मित्रों का संग साथ चाहना
नई योजनाएं
शिशुओं से अंट-शंट बात
करना हिमालय की बहुविध छवियों को याद
और नरेंद्र मोदी की कलाई पर बंधी घड़ियों को
सोचना विनायक सेन कोबाड गांधी
और इरोम शर्मिला सरीखों के बारे में.
समाचार पुस्तकें कविता संगीत आदि
इनमें लिप्तता लिप्सा नहीं है ?

किंतु इस कवि की चेतना का एक ब्रह्मांडीय आयाम सदैव उसे क्षुद्रता से बचाए रखता है और यह उसे अपने मानवीय अस्तित्व को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने में सफल बनाता है  :

बजा रहा है महाकाल
सृष्टि का विलक्षण संगीत
विविध नैसर्गिक-अप्राकृतिक
ध्वनियों-प्रतिध्वनियों
कोलाहल-हाहाकार की पृष्ठभूमि में
उसी सतत गुंजरण के बीच रची है मनुष्य ने
यह अनिर्वचनीय दुनिया


और इसी व्यापक संदर्भ में वह अंतत: अपने अस्तित्व और जीवन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्याख्यायित करता है :

हे महाजीवन, हे महाजीवन
मेरी यह लालसा
वास्तव में अभ्यर्थना है तेरी
अपनी इस चाहना से मैं तेरा अभिषेक करता हूँ.
यह जो सर्वव्यापी हत्यारा कुचक्र
चलता दिखाई देता है भुवन मंडल में
मुनाफे के लिए
मनुष्य की आत्मा को रौंद डालने वाला
रचा जाता है यह जो घमासान
ब्लू फिल्मों वालमार्टों हथियारों धर्मों
और विचारों के माध्यम से
उकसाने वाला युद्धों बलात्कारों और व्यभिचार के लिए
अहर्निश चलते इस महासंग्राम में
हे महाजीवन चल सकूं कम से कम
एक कदम तेरे साथ
___

उन शिशुओं के लिए जिन्होंने चलना सीखा ही है अभी
और बहुराष्ट्रीय पूंजी के कुत्ते
देखो उन्हें चींथने के लिए अभी से घात लगाए हैं

उसी आदमखोर जबड़े को थोड़ा भी टूटता हुआ
देखने के लालच से भरे हुए हैं
मेरे  ये युद्धाहत देह और प्राण !


इस संग्रह की “मेरी निराशा” (पृष्ठ 374), “नीली फाइल”( पृष्ठ 378), “गोली बाबू और दादू (पृष्ठ 372) आदि अन्य कविताओं में भी हम एक असाध्य रोग के साथ संघर्षरत एक जीवट वाले कवि की छवि देख सकते हैं.


पर अंतत: अपने महाप्रयाण के समय को निकट जान कर दिनांक 4.7.2014 को “मैं नहीं तनहा (पृष्ठ 388) शीर्षक जो कविता वीरेन डंगवाल ने लिखी उसके जोड़ की कोई कविता आज तक कहीं मेरे देखने में नहीं आई है. यह  कविता जहाँ एक ओर अपने आप को इस विराट ब्रह्मांड के साथ पूरी निर्भयता के साथ एकाकार कर लेने की तैयारी का एक काव्यत्मक प्रमाण प्रस्तुत करती है वहीं दूसरी ओर उस चिकित्सा-तंत्र को भी पूरी काव्यात्मकता के साथ कोसने का काम करती है जो आजकल अक्सर लोगों को कष्ट में राहत देने के बजाय केवल चिकित्सकों-चिकित्सालयों-निदान केंद्रों–फार्मेसी आदि की साठ-गांठ से कई बार केवल उनके लत्ते छीनने की कोशिश में लगा दिखाई देता है :

मैं नहीं तनहा, सुबह के चांद ओ ठंडी हवाओं
भोर के तारों
तुम्हारे साथ हूँ मैं,
वक्त गाड़ी का चला है हो
मुझे मालूम है ये
बस ज़रा सा नहा ही लूं और कपड़े बदल डालूं रात के ,
चप्पल पहन लूं
साथ रख लूं चार उबले हुए आलू –
हंसो मत तुम इस तरह से,
आसरे इनके हमन ने काट डाली उम्र !
और डाक्टर साहब
अब हटाइये भी अपना ये टिटिम्बा-नलियां और सुइयां
छेद डाला आपने इतने दिनों से
इन्हीं का रुतबा दिखाकर आप
मुनाफ़ाखोरों के बने हैं दूत !

दृष्टव्य है कि उबले हुए आलुओं का ज़िक्र और हमनशब्द का प्रयोग किस तरह इस कविता को एक विशिष्ठ कबीराना आयाम दे देता है.
__________________                  
यह लेख भी पढ़ें : कविता वीरेन




5/126 ,गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी,सेक्टर 14,
उदयपुर -313001 (राजस्थान)
मोबाइल : 8290479063 



कथा-गाथा : छिपकलियाँ : नरेश गोस्वामी

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किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा.’

नरेश गोस्वामी की कहानी ‘छिपकलियाँ’ पढ़ते हुए निदा फ़ाज़ली का यह शेर याद आता रहा. ‘देस वीराना’ की कोई न कोई कथा हर शहरी के पास है. महानगर ईटों के ही नहीं यादों के भी खंडहर पर आबाद हुए हैं. यह एक विराट सांस्कृतिक अपघटन भी है.

नरेश गोस्वामी ने बड़ी ही संवेदनशीलता से छूटे हुए घर को याद रह जाने वाली कहानी में बदल दिया है.

प्रस्तुत है कहानी
  
  
छिपकलियाँ
नरेश गोस्‍वामी  





ली में घुसते ही मन और बोझिल हो गया है. मुझे एक गहरे संकोच ने ग्रस लिया है कि अगर इस बीच कोई परिचित मिल गया तो समय की कमी के कारण उससे ढ़ंग से बात भी नहीं कर पाऊंगा. हालांकि यह मेरा ही कस्‍बा है. मैं यहीं पैदा हुआ था. पांचवी कक्षा तक यहीं पढ़ा था. इसके गली-मुहल्‍लों के एक-एक मोड़ से परिचित हूं. लेकिन पिछले पच्‍चीस बरसों में मैं यहां इतना कम आया हूं कि खुद को अजनबी महसूस करने लगा हूं. युवाओं की एक पूरी पीढ़ी है जिसे मैं पहचानता नहीं. पहले जब मेरा यहां आना इतना अनियमित नहीं हुआ था तो मैं कभी-कभी किसी का चेहरा देखकर चोरी-चोरी मिलान करता था कि अब यौवन की बेपरवाही और चमक के आखि़री निशान संभालता वह चेहरा कहीं उस बच्‍चे का तो नहीं है जो मेरे बीए करने के दौरान दस बरस का रहा होगा. और ऐसे में जब मेरा अनुमान सही निकलता था तो मैं एक अजीब सी आश्‍वस्ति से भर जाता था कि मेरा कस्‍बा मेरे अंदर अभी भी बचा हुआ है.. कि मैं दिल्‍ली के उन तमाम लोगों में शामिल नहीं हूं जिनके पास अपने गांव या कस्‍बे की कोई स्‍मृति नहीं है और जिन्‍हें सिर्फ़ अपनी मूल जगहों के नाम याद रह गये हैं... न कभी वे उन जगहों पर गए, न किसी ने उन्‍हें बुलाया !

लेकिन इन वर्षों में मेरा यहां आना-जाना लगभग ख़त्‍म हो गया है. कभी आया भी तो किसी की मौत या बीमारी पर और वह भी इस तरह कि दोपहर को पहुंचा और शाम तक दिल्‍ली वापस हो गया.

इसलिए, आज जब तहसील के क्‍लर्क ने अपनी कुर्सी से उठते हुए कहा कि ‘अब तो लंच का टाइम हो रहा है. आपका डॉमिसाइल चार बजे तक मिल पाएगा’ तो मैं अचानक निराश और बेचैन हो गया.   इसका मतलब था कि मुझे अभी तीन घंटे और इंतज़ार करना पड़ेगा. मैं यह वक़्त तहसील के इस परिसर में गुजारने की कल्‍पना मात्र से थर्रा गया था. टीन-टपरियों के नीचे बैठे वकीलों, मु‍वक्किलों और आने जाने वालों की भीड़, हवा में टंगी धूल और समोसे-छोले-भठूरे की महक के बीच तीन घंटे निरूद्देश्‍य बैठे रहना असंभव था. हालांकि मैं इन तीन घंटों को फील्‍डवर्क का नाम देकर और कुछ नोट्स तैयार करके उन्‍हें भविष्‍य के किसी लेख में इस्‍तेमाल कर सकता था. लेकिन फिलहाल मेरे भीतर ऐसी कोई चौकन्‍नी इच्‍छा मौजूद नहीं रह गयी थी. दिमाग का जितना भी हिस्‍सा काम कर रहा था, वह इन तीन घंटों के बारे में सोच कर हलकान हुआ जा रहा था.

तहसील के बरामदे से बाहर आते हुए एक बार तो वह क्षण भी आया कि मैं अपनी ही भर्त्‍सना करने लगा: साले, तुम्‍हें इस चक्‍कर में पड़ने की ज़रूरत ही क्‍या थी? क्‍या तुम वाक़ई कभी दिल्‍ली  छोड़कर कस्‍बे के बाहर बन रही इस इस टाउनशिप में रहने आ जाओगे ?मुझे तब वे बहुत से साहित्‍यकार और परिचित भी याद आए जो कभी चालीस पचास साल पहले नौकरी के सिलसिले में दिल्‍ली आए थे, और जो अपनी कविताओं में हमेशा अमराई, पीपल की छांव और गांव-खेतों की पगडंडियों को याद करते हुए कविताएं लिखते रहते थे, लेकिन अपने जीते जी वे कभी अपनी मूल जगह नहीं लौट पाए.

पर मेरा मामला कुछ अलग था. असल में, जब दिल्‍ली से लगे हमारे कस्‍बे के बाहर सार्वजनिक क्षेत्र की एक नामी कंस्‍ट्रक्‍शन कंपनी ने नयी टाउनशिप बसाने का निर्णय लिया और उसमें एक प्रावधान यह रखा कि कस्‍बे के मूल निवासियों को फ़्लैट खरीदने पर ख़ास डिस्‍काउंट दिया जाएगा तो दोस्‍त और भाई लोग ज़ोर देने लगे कि अगर मौक़ा हाथ आ रहा है तो उसे छोड़ क्‍यों रहे हो. कुल मसला एक लाख के डिस्‍काउंट और दिल्‍ली की भीड़ से दूर भाग कर हरे-भरे खेतों के बीच ‘एक्‍सट्रा’ जगह हासिल करना था जहां जहां कभी-कभी फुर्सत के वक़्त जाया जा सके. वर्ना तब तक कस्‍बा ही बदल चुका था. मेरे मुहल्‍ले के कई लोग इस प्रस्‍तावित टाउनशिप में फ़्लैट के लिए एप्‍लीकेशन डाल चुके थे.

लेकिन जब तहसील के परिसर से बाहर निकल कर सड़क पर पहुंचा तो याद आया कि सुबह दिल्‍ली से चलते समय पिता ने कस्‍बे के इस घर की चाबी देते हुए कहा था कि ‘अगर तहसील का काम जल्‍दी निपट जाए तो एक बार घर खोल कर हवा-बाल लगवा देना’. लेकिन पता नहीं क्‍या है कि कस्‍बे के इस घर का ख़याल आते ही मन कसैला हो जाता है. असल में, कई चीज़ें तह दर तह उलझी हुईं हैं. उस घर में बीता अधूरा बचपन, मां की असमय मृत्‍यु, परिवार का बिखराव और मेरा बरसों बरस हॉस्‍टल में सिर्फ़ इसलिए पड़े रहना कि मेरे पास लौटने के लिए कोई घर ही नहीं रह गया था. ये सब चीज़ें मेरे भीतर शायद टिड्डियों की तरह सोई रहती हैं, लेकिन जब जगती हैं तो देखते-देखते मन उजाड़ हो जाता है.

मैं गाहे-बगाहे ख़ुद को याद दिलाता रहता हूं कि मैं अब बच्‍चा नहीं रह गया हूं. कि मैं छियालिस-सैंतालिस साल का एक अधेड़ आदमी हूं जो जीवन के इन वर्षों में बहुत से घरों को टूटते और लोगों को अपनी जगह से पलायन करते देख चुका है. कभी मैं ख़ुद को यह समझाने की कोशिश करता हूं कि संयुक्‍त परिवार कोई महान या दैवीय आदर्श नहीं होता, वह महज़ खेतिहर अर्थव्‍यवस्‍था का लक्षण होता है... चूंकि इस प्रकार की अर्थव्‍यवस्‍था में तकनीकी विकास का स्‍तर बहुत उन्‍नत नहीं होता इसलिए परिवार के बहुत सारे सदस्‍यों को एक साथ मिलकर काम करना पड़ता है.

अपनी भावुकता से बचने के लिए मैं ख़ुद को कस्‍बे के कई अन्‍य परिवारों के हश्र की याद भी दिलाता हूं: ‘अच्‍छा, अपनी गली में ही हरबीर मास्‍टर के परिवार का क्‍या हुआ? छह बेटों के परिवार में सिर्फ़ एक बेटा कस्‍बे में बचा. बाकी सब दिल्‍ली-एनसीआर के निवासी हो गए. हरबीर कभी एक के पास जाकर रहते हैं कभी दूसरे के पास. और जब हर जगह से दुखी हो जाते हैं तो वापस कस्‍बे में लौट आते हैं ’.

कई बार मैं ख़ुद से कहता हूं: ‘...और तुम्‍हारा परिवार तो कभी खेतिहर था भी नहीं. यह तो पहले से तय था कि देर सबेर सब लोगों को अपनी जीविका के लिए बाहर निकलना ही पड़ेगा. फिर ऐसा परिवार एकजुट कैसे रह सकता था?

लेकिन इन बातों को बखूबी समझने और ख़ुद से कही हुई दलीलों का मर्म जानते हुए भी मैं कस्‍बे के घर के प्रति अपनी भावुकता से पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो पाया. मुझे हमेशा लगता रहा कि अगर मुझसे बड़े थोड़ी समझदारी दिखाते तो यह घर कभी इस तरह खड़े खड़े खण्‍डहर न होता. धीरे-धीरे मेरी यह भावुकता एक कट्टर उदासीनता में बदल गयी और मैं उन अवसरों पर भी आने से कतराने लगा जब परिवार के बाक़ी लोग किसी शादी-ब्‍याह के सिलसिले में पूजा-पाठ करने के लिए यहां एक-दो दिन के लिए इकट्ठा हो जाया करते थे. बाद में एक समय यह भी आया कि मैं इस घर और कस्‍बे से इतना अनासक्‍त हो गया कि पिता से घर को बेचने के लिए कहने लगा.



(दो)
कस्‍बे के बड़े बाज़ार से गुजरते हुए मन में कई बार आया कि घर जाने के बजाय बाज़ार का एक चक्‍कर लगाकर रेलवे स्‍टेशन की तरफ़ निकल जाऊं. लेकिन फिर लगा कि अगर शाम को उन्‍होंने पूछ लिया तो क्‍या जवाब दूंगा ! पहले पिता से झूठ बोलते हुए मुझे संकोच नहीं होता था. उन्‍हें फौरी तौर पर संतुष्‍ट करने के लिए मैं फटाक से झूठ बोल देता था और वे आश्‍वस्‍त हो जाते थे. लेकिन जब से वे बूढ़े हो गए हैं, मैं उनसे झूठ नहीं बोल पाता.

बचपन में बड़े बाज़ार से घर की दूरी कितनी लंबी लगती थी. लेकिन आज बाज़ार से निकला तो बमुश्किल पांच मिनट बाद अपनी गली में पहुंच गया.

पहले के मुकाबले दौरान गली के ज्‍यादातर मकान दुमंजिले और सुंदर हो गए हैं. कई घरों के बाहर स्‍टील की चमचमाती रेलिंग दिख रही है. बचपन के सपाट खिड़की-दरवाजों के मुकाबले नए-नए डिजाइन आ गए हैं. बैठक इन्‍हीं मकानों के बीच खड़ी है. बरसों से बेरंग और भुरभुरी. चबूतरे की रेलिंग का रंग न जाने कब का उखड़ चुका है. बैठक के इस चूबतरे की ओर खुलते दरवाजे पर पिछले पेंट के केवल कुछ निशान बच गए हैं जिन्‍हें देखकर अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि अपने मूल रूप में इस पेंट का रंग कैसा रहा होगा. इस अहाते का मेन गेट तो मेरे बचपन में ही टूट चुका था. तब पिता ने कुनबे के बाक़ी लोगों से कहा था कि अगर दरवाज़ा सबका है तो उसे बनवाने में भी सभी को अपना योगदान देना चाहिए. इस पर तब बहुत किचकिच हुई थी. कुनबे के जो लोग बाहर जा बसे थे, उन्‍होंने यह कहते हुए पैसा देने से साफ़ मना कर दिया था कि जब हम वहां रहते ही नहीं तो पैसा किस बात का दें! बाकी़ दो परिवारों ने, जो अभी तक यहीं रह रहे हैं, तब यह कहा था कि अभी उनकी हालत पैसे देने की नहीं हैं इसलिए अगर फिलहाल गेट लगवाने का काम पिता कर लें तो बाद में वे एक-एक पाई चुका देंगे. बहरहाल, पिता ने उनकी बात पर यक़ीन नहीं किया. लिहाज़ा गेट लगने का सवाल हमेशा के लिए स्‍थगित हो गया.

हमारी बैठक इस नंगे दरवाजे़ के बाईं तरफ़ है. दरवाजे के सामने एक खुली गैलरी सी चली गयी है. यहां कुनबे के चाचा रामरूप की चारपाई बिछी है. अहाते में घुसते हुए मेरी नज़र सबसे पहले चाचा की चारपाई पर गयी थी इसलिए बैठक की तरफ़ मुड़ने से पहले मैं उन्‍हीं के पास पहुंचा. मैंने उन्‍हें राम-राम की, लेकिन उनकी ओर से कोई ख़ास जवाब नहीं आया. कुछ देर बाद उन्‍होंने बमुश्किल कम्‍बल से मुंह बाहर निकाला. अच्‍छा हुआ कि इसी बीच उनकी बड़ी बहू बाहर निकल आईं. बड़ी बहू मतलब कमलेश मुझे तब से जानती हैं जब मैं सात साल का था. उसने बताया कि चाचा ‘महीने भर से बीमार चल रहे हैं... पूरे बदन पर खाज हो गई है. नज़र और कान तो पहले से ही कमज़ोर हैं, एक बार में न किसी को पहचानते पाते हैं, न कुछ सुन पाते हैं’. मैं चाचा से बात करना चाहता था पर उनकी स्थिति देखकर हिम्‍मत नहीं हुई. मैंने कमलेश को इशारे में कहा कि चाचा को परेशान न किया जाए. और वह चाय की जिद करते हुए मुझे अंदर ले गई.  

कमलेश बता रही है कि चाचा के सबसे छोटे बेटे की शादी के बाद उनकी चारपाई घर की चौखट के बाहर रहने लगी है. घर के तीनों कमरे तीन बेटों में बंट गए हैं. मैं देख रहा हूं कि एक कोने में नल के बराबर बित्‍ते भर की जगह है जिसमें चाचा की संकरी चारपाई जैसे तैसे फंसी रहती है. छत पर एक नया कमरा बन जाने के कारण नल के ऊपर दिखाई देने वाला छोटा सा चौकोर आसमान अब पूरी तरह पट गया है. इस अंधेरी और लगभग दमघोंटू जगह का इस्‍तेमाल बारिश या गर्मियों की विकट स्थितियों से बचने के लिए ही किया जा सकता है. लिहाजा चाचा की चारपाई मौसम के अनुसार जगह बदलती रहती है.

सर्दियों में दस बजे के आसपास उनकी चारपाई सामने की खाली जगह में डाल दी जाती है. फिर दोपहर का खाना, सोना और तीन बजे की चाय— सब यहीं पर होता है. धूप ढलने पर चारपाई फिर चौखट वाली दीवार से सट जाती है. यह जगह कुनबे के दो लोगों की हैं जो बरसों पहले मेरठ जाकर बस गए थे. इस जगह का इस्‍तेमाल अब रामरूप के बच्‍चे और बहुएं ही करते हैं. लेकिन साल में जब एकाध बार जगह के मालिक यहां आते हैं तो इसके इस्‍तेमाल के सारे निशान मिटा दिए जाते हैं. यहां तक कि ईंटों की झिर्रियों में ठोकी गयी कीलें भी निकाल ली जाती हैं. उस दिन वहां न चाचा की चारपाई बिछती है, न कपड़े सुखाए जाते हैं.

मैंने पिता से कई बार कहा है कि जब इस बैठक में कोई रहता ही नहीं तो इसकी चाबी चाचा रामरूप को क्‍यों नहीं दे देते. आखिर इस बात की क्‍या तुक है कि यह महीनों बंद पड़ी रहे, इसमें जाले लगते रहें, दीवारों में सीलन फैलती रहे और आप यहां साल में कभी कभार आकर मरी हुई छिपकलियों को बुहारते रहें!मैं जानता हूं कि पिता ने मेरी इन बातों पर कभी ध्‍यान नहीं दिया. एक बार जब मैंने उनकी आध्‍यात्मिकता को आड़े लेकर कहा था कि अगर आप कण-कण में भगवान होने का दावा करते हैं तो आपका चाचा रामरूप की हालत पर ध्‍यान क्‍यों नहीं जाता ! घर में जगह की किल्‍लत के कारण उनकी चारपाई हमेशा खुले में पड़ी रहती है. बारिश और गर्मी के दिनों में उनका क्‍या हाल होता होगा!

इस पर पिता ने केवल इतना कहा था: ‘तुम तो यहां से बचपन में चले गए थे. तुम्‍हें इन लोगों के बारे में कुछ नहीं पता. ये हद दर्ज के चालाक और गंदे लोग हैं. कहां हमारा परिवार और कहां ये लोग !मैं उस दिन पिता से यह कहते हुए लगभग भिड़ गया था कि, ‘आपकी यह आध्‍यात्मिकता और नफ़ासत सिर्फ इसलिए बरकरार है क्‍योंकि इस परिवार में बाबा से लेकर आप तक नौकरी का सिलसिला रहा है और चाचा रामरूप का खानदान इसलिए चालाक और गंदा है क्‍योंकि इन सत्‍तर सालों में वे मजदूरी से आगे नहीं बढ़ पाए हैं’. मेरी बात सुनकर पिता ने खीझ भरे स्‍वर में कहा था: ‘तुम्‍हारी सोच ही अव्‍यावहारिक है, तुम हर चीज में आर्थिक पहलू घसीट लाते हो जबकि व्‍यक्ति अपनी मूल प्रकृति के कारण ही अच्‍छा या बुरा होता है’. पहले पिता के इन पदों— मूल प्रकृति, सात्विक और तामसिक प्रवृत्ति पर आए दिन बहस होती थी. फिर मुझे लगने लगा कि मैं अकेला ही क्‍या हम सब ऐसे ही पिताओं से घिरे हैं. और मैंने उनका प्रतिवाद करना छोड़ दिया.   



(तीन)
चाचा की चारपाई और बैठक के बीच की दूरी बमुश्किल बीस कदम होगी. लेकिन वहां से बैठक की ओर जाते हुए लगा जैसे मैं किसी गहरी कीचड़ में चल रहा हूं. बैठक का बरामदा, खिड़की-दरवाजे सब धूल से अंटे हैं. मेरी हिम्‍मत नहीं हो रही कि बैठक को अंदर से खोल कर देखूं. लेकिन फिर वही ख़याल आया कि शाम को जब दिल्‍ली लौटूंगा तो पिता को क्‍या जवाब दूंगा.

पता नहीं आज से पहले इस बैठक को कब खोलकर देखा गया होगा. एक कोने में खिड़की से लेकर कडि़यों तक मकड़ी का एक बहुत बड़ा जाला लग गया है. धूल के बोझ के कारण वह जाला कई जगह लटक सा गया है. छत और दीवार पर कई काली और मोटी छिपकलियां चल रही हैं. कुछ एक ही जगह चिपकी हुई हैं तो कुछ कच-कच-कच की आवाज़ करते हुए एक दूसरे से लड़ रही हैं. एक हमलावर छिपकली अचानक दूसरी छिपकली की ओर लपकी है. वह हमले से बचने के लिए दीवार पर बेतहाशा दौड़ते हुए फर्श पर जा गिरी है. इस बीच मैंने उनकी गिनती कर ली हैं. फिलहाल छत और दीवारों को मिलाकर पर बैठक में पूरी नौ छिपकलियां मौजूद हैं. मुझे अचानक एक वाहियात ख़याल आता है: आदमियों के जाने के बाद खाली घर में छिपकलियां क्‍या करती होंगी. पर मैं उसे झटक देता हूं. फर्श पर धूल की इतनी मोटी तह जमी है कि उस पर पैर रखते ही जूते का पूरा नक़्शा छप जाता है. दीवारों का पलस्‍तर कहीं फूल गया है तो कहीं उसमें पिछले बरसों के छिपे हुए रंग उभर आए हैं. अंदर एक ऐसी गंध है जो लोगों के चले जाने के बाद मकान में शायद उनकी जगह घेर लेती है.

उन्‍नीस सौ नब्‍बे के आसपास यह जगह पूरे मौहल्‍ले का दीवाने आम हुआ करती थी. गर्मियों की छुट्टियों में सुबह पांच बजे से लेकर रात के नौ बजे तक इसके दरवाज़े हमेशा खुले रहते. दिन का कोई वक़्त ऐसा नहीं होता था जब इस बैठक के भीतर पड़े तख्‍़त या कुर्सियों पर कोई आदमी लेटा या बैठा न मिलता हो. पिता के मित्रों के आने-जाने का सिलसिला अलसुबह शुरू हो जाता था. उनके एक मित्र महावीर तो शायद उससे भी पहले आ धमकते थे. वे दोनों सुबह की सैर के साथी थे. जब तक वे खेतों से टहल कर वापस आते, हम अपने बिस्‍तर और चारपाई उठाकर तैयार मिलते थे. महावीर बैठक में घुसते ही अख़बार उठा लिए करते थे. उस समय मुझे उनकी सबसे दिलचस्‍प बात यह लगती थी कि वे अख़बार हाथ में लेकर सबसे पहले अपना चश्मा आंखों से उठाकर माथे पर रख लिया करते थे. तब मुझे दूर या पास की नज़र के फ़र्क का नहीं पता था. महावीर अख़बार पढ़ते कम सुनाते ज्यादा थे. इसके साथ उनका तपसरा भी चलता रहता था. इस बीच हम अंदर से चाय ले आते थे और पिता मेज-कुर्सियों के पाये की धूल साफ़ करने में लगे रहते थे. धीरे-धीरे यहां-वहां पड़ी चीज़ों को करीने से लगाना उनका रोज़ का काम था. मुझे उनका यह सब करना थोड़ा सनक भरा काम लगता था,पर बेकार पड़ी चीज़ों को सहेज कर रखना उनकी आदत में शामिल था.

तब सामने की खुली अलमारी में एक तरफ़ हमारी किताबें और दूसरी तरफ़ अख़बार रखे रहते थे. अब वहां जूते का एक खाली डब्‍बा पड़ा है.

इतवार के दिन तो लोगों के आने का सिलसिला सुबह शुरु होकर शाम को ख़त्‍म होता. पिता के कई मित्र तो ऐसे थे जो सिर्फ दोपहर के भोजन के लिए विदा होते और एक घंटे के भीतर फिर लौट आते. हां, कभी कभी तब भी महसूस होता था कि हमारे यहां बाहर से कितने लोग आते हैं लेकिन चाचा रामरूप या उनके बेटे-पोते इस बैठक में कभी नहीं आते थे. बरामदे के सामने से वे इस तरह गुजर जाते जैसे कोई किसी को जानता ही नहीं है. हमारे परिचित लोगों के लिए भी उनका कोई वजूद नहीं था. लेकिन तब इस दूरी का कारण समझ नहीं आता था. और सच तो ये है कि तब मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता था. वह सब बाद में समझ आया.  
बड़े भाई के विवाह के बाद जब मैं हॉस्‍टल से कई महीने बाद वापस आया तो साफ़ महसूस हुआ कि अब चीज़ें पहले की तरह नहीं रहेंगी. बड़े भाई और भाभी को इतने लोगों का आना-जाना और उनके लिए चाय बनाना अच्छा नहीं लगता था. इसके बाद यह एहसास हर बार गहरा होता गया कि कहीं कुछ है जो तेज़ी से रीतता जा रहा है. लेकिन, चीज़ें घर के बाहर भी बदल रही थीं. एक बार पिता ने बताया था कि उनके लंगोटिया यार त्रिवेदी जी भी बच्‍चों के पास नोएडा चले गए हैं.

पिता के साथ उन सात-आठ रिटायर्ड और बूढ़े लोगों की दुनिया तेज़ी से बदल रही थी. उनके पोते-पोतियों का भविष्‍य कस्‍बे के बजाय दिल्‍ली, नोएडा और गुडगांव में था. लेकिन, इन बुढ़ाते लोगों की दिक़्क़त ये थी कि वे जीवन की लंबी पारी खेल कर कस्‍बे में वापस लौटे थे. इनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्‍होंने दिल्‍ली में जीवन भर नौकरी तो की, लेकिन वहां कभी घर नहीं बनाया.



(चार) 
मैं किसी भी तरह पुराने इतवार की कोई सुबह याद करना चाहता हूं जिसमें कुर्सी-मेज़,तख्त, चारपाई, संदूक, किताबें और अख़बार सब अपनी जगह करीने से लगे हों; अंदर से चाय के लिए आवाज़ आए, दस बजे तक वैद्य बाबा आ जाएं हमेशा की तरह कस्‍बे के रेलवे स्‍टेशन पर गांधी जी के आगमन का कई बार सुना हुआ किस्‍सा फिर सुनाएं; दोपहर के खाने के बाद हम तख्त पर चित्‍त हो जाएं और हमारी नींद के दौरान पिता सुबह के छूटे हुए कामों को पूरा करते रहें... लेकिन दिमाग़ में जैसे ही उस दौर की कोई सुखद स्‍मृति उचकती है तो मेरा ध्‍यान दीवार पर रेंगती छिपकलियों और आसपास जमी धूल और चीकट पर चला जाता है.    

‘देख लो भाईसाहब, कदी कितनी रमन्‍नक रहवै थी इस बैठक में और आज इसमें झाड़ू तक नहीं लगती... इससै तो अच्‍छा है कि ताऊ जी से कहके...’.यह आवाज़ रामरूप चाचा के लगभग मेरे हमउम्र बेटे संजीव की है. बात कहते-कहते उसकी आवाज़ में एक संकोच उतर आया है. मैं पलट कर देखता हूं. वह एक छोटी सी ट्रे में चाय का कप लेकर मेरे पीछे खड़ा है.

‘अगर यहीं बैठणे का जी हो तो किसी बच्‍चे से सफ़ाई करवा दूं’. वह मुझे चाय का कप थमाकर कहता है.   

बाहर गैलरी नुमा रास्‍ते की दीवार से सटी चारपाई पर पड़े चाचा खंखार भरी आवाज़ में किसी को पुकार रहे हैं. मुझे लग रहा है कि जैसे उनकी आवाज़ एक चक्राकार लहर बनकर धीरे-धीरे बरामदे और बैठक में पसरती जा रही है. मैं इस लहर से बचकर आखि़री बार बैठक की पुरानी रौनक को याद करना चाहता हूं. लेकिन, कमबख्‍़त मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा. मेरे भीतर अब किसी भी बीते हुए इतवार की सुबह साबुत नहीं बची है.  
____________
नरेश गोस्‍वामी  

समाज विज्ञान विश्वकोश (सं. अभय कुमार दुबेराजकमल प्रकाशन,दिल्ली)  में पैंसठ प्रविष्टियों का योगदानभारतीय संविधान की रचना-प्रक्रिया पर केंद्रित ग्रेनविल ऑस्टिन की क्लासिक कृति द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ़ अ नेशन  का हिंदी अनुवाद-- भारतीय संविधान: राष्ट्र की आधारशिला .


सम्प्रति: सीएसडीएसनयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान  में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com 

सबद भेद: मुक्तिबोध का कथा-साहित्य : सूरज पालीवाल

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मुक्तिबोध का साहित्य और उनका चिंतन उनके जीवन-संघर्ष और आत्म-संघर्ष का प्रतिफल है और साक्षी भी, उनके कथा-साहित्य में हम इसे खासतौर से पहचान सकते हैं.

आलोचक सूरज पालीवाल ने मुक्तिबोध की कहानियों और पत्रों में जीवन-स्थितियों को देखते हुए मुक्तिबोध की खुद की कहानी की भी तलाश की है.

मुक्तिबोध के कथा-साहित्य पर यह आलेख आपके लिए.





मेरी कहानी बड़ी उदास है :  मुक्तिबोध                       
सूरज पालीवाल








4मार्च, 1958को मुक्तिबोध ने अपने प्रिय मित्र और अभावों के साथी नेमिचंद्र जैन को पत्र लिखकर राजनांदगांव में अपनी नौकरी पक्की होने की सूचना के साथ अपने जीवन की दुख भरी कहानी के बारे में भी बताया.वे इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि -  

वहां के लोग मुझे चाहते हैं.वहां एक दल का दल है, जो अपने यहां अच्छे-अच्छे आदमियों को बुलाना चाहता है.बढ़ता-उभरता हुआ कालेज है.कुछ ही वर्षों में, समीपवर्ती रायपुर में एक विश्वविद्यालय खुलने वाला है.इस बात की पूरी संभावना है कि मुझे वहां लाभप्रद स्थान मिले.अब  आयु में प्रौढ़ हो जाने के कारण नयी पीढी के लोग मुझे हर तरह प्रोत्साहन देते रहते हैं.मेरे प्रति इस क्षेत्र में बहुत प्रेम और आदर है.शायद मैं ऐसे स्थानों में ही अपने को अधिक उपयोगी सिध्द कर सकता हूं. ... मुझे आशा है कि राजनांदगांव पहुंचकर मुझे कुछ आराम मिलेगा और स्वयं के साहित्यिक कार्य के लिये कुछ फुरसत मिलेगी.शहर छोटा होने के कारण जिंदगी का अस्तित्व बनाये रखने का संघर्ष भी कुछ कम होगा.नेमि बाबू, मेरी कहानी बड़ी उदास है, कहने से क्या लाभ ?’  

पत्र लंबा है इसलिये यह अजीब लग सकता है कि खुशी की खबर में उदासी कहां से आ गई.यह उदासी उनके जीवन का हिस्सा थी, वे नेमिबाबू को अपना अभिन्न मानते थे इसलिये उनसे कोई बात छुपाते भी नहीं थे.यही कारण है कि नौकरी पर तो गये अगस्त में लेकिन चार महीने पहले ही वे इस रहस्य को सार्वजनिक कर रहे हैं.आजकल तो नियुक्ति पत्र मिलने के बाद जब तक कार्यभार ग्रहण नहीं कर लेते तब तक अपने परम हितेषी तक को नहीं बताते कि पता नहीं कौंन भांजी मार दे और लगी नौकरी में व्यवधान उत्पन्न हो जाये.पर मुक्तिबोध ऐसे नहीं थे, वे घर वालों से पहले पत्नी के गर्भधारण तक की सूचना उन्हें देते हैं और अपने घर के अभावों की पूरी सूची देते हुये उनसे सहायता की उम्मीद भी करते हैं.ये विरल संबंध हैं, जिनका निर्वाह दोनों ओर से आजीवन हुआ.इस पत्र में वे यह आशंका भी व्यक्त करना नहीं भूलते कि -


एक अर्से से लेक्चररशिप की मेरी इच्छा रही है, वह भी पूर्ण हो जायेगी.यह भी बिलकुल ठीक है कि राजनांदगांव में मैं अधिक दिनों टिक नहीं पाऊंगा.मैं अभी से कहे देता हूं.किसी काम से जल्दी ही उकता जाने का मेरा स्वभाव है.

जल्दी उकता जाने, मनमाफिक वातावरण न मिलने, अधिकारी का मानवोचित व्यवहार न होने तथा वातावरण के अनुकूल न होने पर वे नौकरी तो क्या बड़ी से बड़ी चीज भी ठुकरा देते थे.चिर अभावों ने उन्हें कुछ ऐसा ही बना दिया था.आशंका में जीना उनकी आदत थी, जीवन के अंधेरे में वे रक्तस्नात अरूण कमल को पकड़ना चाहते थे, वे एक प्रकार के यूटोपिया में जीना चाहते थे.बेहद ईमानदार और संवेदनाओं से लबरेज जीवन उनकी पहली प्राथमिकता थी.समझौता या दुमुंहेपन से उन्हें नफरत थी, वे परिश्रम तो कर सकते थे लेकिन किसी की ताबेदारी नहीं.वे दुनिया को देख रहे थे, अनुभव भी गहरे स्तर पर कर रहे थे पर चालाकीभरा जीवन  उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था.इसलिये रात-दिन कठिन परिश्रम के बाद भी वे कर्जे में दबे रहते, सूदखोर उन्हें परेशान करते और उन्हें ग्लानि होती कि उन्हें सद्गृहस्थ होने के नाते जितना परिवार के लिये करना चाहिये, नहीं कर पा रहे हैं.लगातार चिंता ने उनका स्वास्थ्य चैपट कर दिया था.


चालीस वर्ष की अवस्था पार कर वे अपनी प्रिय लेक्चररी के लिये राजनांदगांव जा रहे थे तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं रह गया था फिर भी मन में यह विश्वास था कि अनुकूल आर्थिक स्थिति में वे परिवार और अपने स्वास्थ्य की अच्छी तरह देखभाल कर सकेंगे.कालेज में प्राध्यापक बनने के लिये उन्होंने किस-किसको पत्र नहीं लिखे.लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में वह मिलने जा रही है तो वे अत्यधिक उत्साहित हैं इसलिये कि पढ़ने-लिखने के लिये समय मिलेगा.आज  कालेज या विश्वविद्यालय में प्राध्यापक जिस तरह बन रहे हैं या बनाये जा रहे हैं, उनका ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है.वे मुक्तिबोध की परंपरा को अंगूठा दिखाकर मोटा वेतन और दायित्वरहित आभिजात्यपूर्ण जीवन जीने के लिये प्राध्यापक बन रहे हैं.पढ़ाई-लिखाई के नाम पर जो खेल तथाकथित पत्रिकाओं में चल रहा है, उससे कोई अछूता नहीं है.कहना न होगा कि मुक्तिबोध को वह वातावरण राजनांदगांव में नहीं मिला, जिसकी उम्मीद करके वे यहां आये थे.




कालेज के मुखिया बैठकबाज थे, उनके सामने बोलने और उनकी बैठकी से अनुपस्थित रहने का साहस किसी में नहीं था.यह साहस मुक्तिबोध ने दिखाया तो वे उनसे नाराज रहते थे. ‘विपात्रजैसी लंबी कहानी इसी शिक्षाविरोधी वातावरण में लिखी गई थी.कहते हैं कुछ चाटुकार और चुगलखोर प्राध्यापकों ने कालेज के रहनुमा किशोरीलाल शुक्लको इस कहानी के बारे में बताया था.वे चाहते थे कि शुक्लजी मुक्तिबोध से नाराज हो जायें.शुक्लजी पहले से मुक्तिबोध की आदतों से परेशान थे, वे उनके शहर के मजदूरों में जाने, गरीब लोगों के मुहल्ले की दुकानों पर चाय पीने तथा बैठकी में अनुपस्थित रहने से बहुत नाराज रहते थे.मुक्तिबोध को इस बात का अहसास था पर उन्हें इस व्यर्थ की बैठकी से नाराजगी भी थी इसलिये वे अपने मन मुताबिक उन मुहल्लों में जाते जहां जाने पर बॉस मना करते थे.

विपात्रमें वे लिखते हैं मैं क्या करता हूं ? ज्यादा से ज्यादा ढीमरों, महारों और कुनबियों के मुहल्ले में चाय पीता हूं.जी हां, मैंने वहां के दृश्य देखे हैं लेकिन साफ बात है कि मैं खुद महार, कुनबी, ढीमर, मुसलमान या ईसाई नहीं हो सकता ... जी हां, मेरे हमदर्दों ने मुझे हजार बार कहा कि यह छोटा शहर है, तुम यहां के बड़े आदमी हो, वहां जाकर चाय वगैरह न पिया करो.लेकिन मुझे वहां आराम मिलता है. कॉफी-हाउसों में यूं ही मेरे दिमाग में तनाव पैदा हो जाता है.

यह पीड़ा एक नये प्रकार की है.अच्छी और मनवांछित नौकरी मिली तो यह गुलामी भी.जहां बॉस चाहते हैं वहां उनका मन नहीं लगता और जहां वे नहीं चाहते वहां वे मन का खुलापन अनुभव करते हैं.इस विचित्र लेकिन दमघोटू वातावरण में मुक्तिबोध लगातार लिख और पढ़ रहे थे. विपात्रअन्य कहानियों की तरह उनकी अपनी राजनांदगांव के कालेज के तीखे अनुभवों की कहानी है.इससे न केवल मुक्तिबोध और बॉस के संबंध उजागर होते हैं बल्कि शिक्षा संस्थानों का शिक्षा विरोधी वातावरण भी स्पष्ट होता है.विपात्र को लिखे और छपे पचास वर्ष से अधिक समय हो गया अब तो शिक्षा संस्थान निजी सनक या निजी पूंजी की दुकानें हैं, जहां शिक्षा के अलावा सब कुछ मिलता है.मुक्तिबोध जैसे पढ़े-लिखे और विचारवान लोगों के लिये यहां अब कोई जगह शेष नहीं रह गई है.


सरकारी विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार लेन-देन के आधार पर कुलपतियों की नियुक्तियां हो रही हैं, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है कि वे शिक्षा के स्तर को सुधारने में मदद करेंगे, क्या वे कोई सपना या विजन लेकर विश्वविद्यालयों में जा रहे हैं ? वे जो देकर जा रहे हैं उससे कई गुणा कमाने जा रहे हैं.और निजी महाविद्यालय की चर्चा तो अब बेमानी हो गई है.एक समय तक निजी महाविद्यालय ट्रस्टों के द्वारा संचालित होते थे, जो अपनी ओर से देना तो चाहते थे लेकिन लेना बिल्कुल भी नहीं.पर अब तो निजी महाविद्यालय बेरोजगार युवकों, भूमाफियाओं, राजनेताओं तथा अपराधियों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं, जिनके मन में शिक्षा और शिक्षकों के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जो धन कमाने के लिये ही संचालित किये जा रहे हैं. विपात्रके बॉस अब स्थानीय नहीं रह गये हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय हो गये हैं और सारी दुनिया में अपने कारोबार को फैला रहे हैं.शिक्षा के व्यापारी अपनी तिजोरी भरने के लिये क्या-क्या नहीं कर रहे, इसे शिक्षा संस्थानों में देखा जा सकता है.अब किसी प्रतिभाशाली का नौकरी पा लेना कठिन होता जा रहा है, धन, जाति और प्रभाव की मार के आगे प्रतिभा दम तोड़ रही हैं.मुक्तिबोध की खीज, बेचैनी और उदासी इसी वातावरण को देखकर थी.वे जिस उम्मीद से आये थे, उसने दम तोड़ दिया था.शरीर पहले से ही थका और बीमार था, यहां आकर वे और अधिक बीमार और असहाय होते गये.
    

मुक्तिबोध की कहानियां उनके अपने निजी जीवन और अनुभवों की अभिव्यक्ति  हैं इसलिये अधिकतर में केंद्रीय पात्र की भूमिका वे स्वयं रहते हैं.उनके अंदर की बेचैनी और उदासी इन कहानियों में साफ-साफ देखी जा सकती है. विपात्रके अलावा समझौताकहानी भी उनकी मनःस्थिति को स्पष्ट करती है.जीवन में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया पर किसी से झगड़ा भी नहीं किया फिर भी नौकरियों में जो स्थितियां बनीं, वे बहुत सुखकर नहीं थीं.नेमिबाबू को उन्होंने लिखा-

नौ वर्ष की सरकारी नौकरी ने कुछ नहीं दिया, तोहमत दी, राजनैतिक और सामाजिक तोहमत.प्राइवेट कंपनियों की नौकरी पर भी अब भरोसा नहीं रहा.माया मिली न राम ! ऊपर से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चैपट हो गया.मैंने कभी किसी से झगड़ा-झांसा नहीं किया, साथ ही अपने अधिकारियों को खुश रखने की अजहद कोशिश की, फिर भी हानि की हानि.

उनकी यह मानसिक स्थिति समझौताकहानी में देखी जा सकती है. समझौतामें अधिकारी मेहरबान सिंह अपने अधीनस्थ सहायक से बिना गलती के ही हिदायत का स्पष्टीकरण देने के लिये कहता है, यानी शो काज का उत्तर.सहायक मना कर देता है तो वह धमकी देता है.कहानी के विवरणों को पढ़कर लगता है सहायक जैसे मुक्तिबोध ही हों.सहायक की जिद को दूर करने के लिये अधिकारी किस्सा सुनाता है


मुसीबत आती है तो चारों ओर से.जिंदगी में अकेला, निस्संग और बी.. पास एक व्यक्ति.नाम नहीं बताऊंगा.कई दिनों से आधा पेट.शरीर से कमजोर.जिंदगी से निराश.काम नहीं मिलता.शनि का चक्कर.हर भले आदमी से काम मांगता है.लोग सहायता भी करते हैं.चपरासीगिरी की तलाश है, लेकिन वह भी लापता.कपबशी धोने और चाय बनाने के काम से लगता है कि दो दिनों बाद अलग कर दिया जाता है.जेब में बी.. का सर्टिफिकेट है. लेकिन, किस काम का !

कहना न होगा कि लंबे समय तक मुक्तिबोध भी बी.. पास ही थे.एम.. बहुत बाद में नागपुर से किया था द्वितीय श्रेणी में.मुक्तिबोध ने नेमिबाबू को दि. 6.8.1949को पत्र लिखकर अपनी स्थिति भी ऐसी ही बताई जैसी कि मेहरबान सिंह बता रहे हैं


नागपुर में मैं अकेलापन अनुभव करता हूं, अलग और अंगभंग.मेरे जीवन का एक हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है.मेरी आवाज दबा दी गई है और परिस्थितियां एकदम खराब हो गई हैं.मेरे जीवन में कोई खुशी नहीं है तथा नौकरी जाने के भय ने मुझे असहाय बना दिया है.आर्थिक और मानसिक रूप से मैं स्थायी बीमार की तरह हूं.

इसी पत्र में वे आगे लिखते हैं


यदि मैं बाहर बीड़ी और तीन कप चाय रोजाना पीता हूं तो इसमें मेरी विवशता हूं.मैं रोजाना घर से पैदल सुबह 9बजे निकलता हूं और शाम को 6.30बजे लौटकर आता हूं.मेरी पत्नी दिनभर अपने दो छोटे बच्चों के साथ घर में अकेली रहती है.लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूं ? मैं असहाय हूं.मैं मानसिक रूप से अशांत हूं.ऐसी स्थितियों में मैं लिख नहीं सकता, कमा नहीं सकता तथा अपने भाइयों से भी कुछ नहीं मांग सकता.

6.2.1952को उन्होंने नागपुर से ही पत्र लिखकर अपनी मार्मिक और बेहद खराब हो गई स्थितियों के बारे में बताया तथा यह भी लिखा कि - हर महीने के अखिरी पांच दिन मैं और मेरी बीमार पत्नी केवल चाय पर जीवन यापन करते हैं.


इन परिस्थितियों में लिखना-पढ़ना तो दूर की बात थी,केवल सामान्य जीवन जीना भी कठिन था लेकिन मुक्तिबोध ने हिम्मत नहीं हारी थी. समझौताकहानी में अधिकारी ने जिन स्थितियों का जिक्र किया है, उन स्थितियों को मुक्तिबोध नागपुर में रोज झेल रहे थे.  अधिकारी एक लोककथा के माध्यम से यह समझाता है कि नौकरी करनी है तो पशु भी बनना पड़ेगा, आदमी और वह भी संवेदनशील आदमी बनकर नौकरी नही की जा सकती.वह अपना उदाहरण देकर कहता है ऐक्सप्लेनेशन देने की कला तुमको नहीं आई तो फिर सर्विस क्या की ? मैंने तीन सौ आठ एक्सप्लेनेशन दिये हैं.वार्निंग अलबत्ता मुझे नहीं मिली इसलिये कि मुझे ऐक्सप्लेनेशन लिखना आता है और इसलिये कि मैं शेर हूं, रीछ नहीं.तुमसे पहले पशु बना हूं.सीनियारिटी का मुझे फायदा भी तो है.


अधिकारी एक सर्कस का उदाहरण देकर बताता है कि कैसे एक बी.. पास आदमी मजबूरी में रीछ बनने को तैयार हो जाता है.रीछ बनने की प्रक्रिया आदमी के जानवर बनने की प्रक्रिया है.उसे उसी तरह प्रताड़ित किया जाता है जैसे जानवर को किया जाता है.भूख, प्यास, अकेलापन और लगातार हंटर की मार ने उसका आदमीपन छीन लिया है, वह भूल गया है कि वह भी आदमी था, बाहर की बेरोजगारी इससे भी अधिक भयावह है इसलिये वह सब कुछ सहन कर रहा है.एक दिन एक पिंजड़े में एक शेर आता है और उसकी छाती पर सवार होकर उसकी गर्दन को खाने का प्रयास करता है, वह डर जाता है तब शेर कहता है -


अबे डरता क्या है, मैं भी तेरी ही सरीखा हूं, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ मैं शेर की खाल पहने हूं, तू रीछ की.तुम पर चढ़ बैठने की सिर्फ कवायद करनी है, मैं तुझे खा डालने की कोशिश करूंगा, खाऊंगा नहीं.कवायद नहीं की तो हंटर पड़ेंगे तुमको और मुझको भी.मैं तुझे खा नहीं सकता.आओ, हम दोस्त बन जायें.अगर पशु की जिंदगी ही बितानी है तो ठाठ से बितायें, आपस में समझौता करके.

कहना न होगा कि अधिकारी पहले ही पशु बन चुका है, भले ही वह स्वयं को शेर कहता हो इसलिये लोककथा सुनने के बाद सहायक अचानक कहता है तो गोया आप शेर हैं और मैं रीछ.दोनों पशु, दोनों को जानवर बनकर रहना है, आदमी बनकर नौकरी नहीं की जा सकती.यह कैसा समझौता है जो जीविकोपार्जन की सहज प्रक्रिया में आदमी को पशु बना देता है ? यह कौन-सी व्यवस्था है, जो आदमी को आदमी नहीं रहने देती ? हम जिस मानवीयता और संवेदनशीलता की बात करते हैं, वह तो सिरे से गायब है.जिसके पास ताकत है वह उसका बर्बर तरीके से प्रयोग कर रहा है और जो शक्तिहीन है, वह भूखे पेट रो और गिड़गिड़ा रहा है लेकिन आदमी के रूप में उसकी कोई सुनने वाला नहीं है.पूरा तंत्र मानव विरोधी हो चुका है.बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जिस प्रकार बच्चों की भूख, प्यास और नींद गायब कर दी गई है उसके साथ उनके सपने भी छुपा दिये गये हैं.हमेशा एक डर के साये में वे जीवनयापन कर रहे हैं कि कब मेल के द्वारा उनकी नौकरी समाप्त कर दी जायेगी.यह डर उन्हें समाज से भी काट रहा है और परिवार से भी.उनका अपना कोई जीवन नहीं है और न उस जीवन के बारे में चर्चा करने का उन्हें अधिकार ही.रात-दिन वही लेपटाप और वही छोटा-सा केबिन.घर, परिवार, नाते-रिश्तेदार, बीमारी, थकावट और ऊब जैसी चीजों के बारे में सोचने का उनके पास समय ही नहीं है. 


जिस पर हम गर्व करते हैं कि हमारे पास जो तकनीकी ज्ञान है, उसके आगे अमेरिका भी पानी भरता है, वह ज्ञान नयी पीढ़ी को भय के कितने कोठारों में बंद किये हैं.बावजूद इसके अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पद संभालते ही विदेशी लोगों के लिये नौकरियों पर प्रतिबंध लगा दिया है.वीजा मिलना कठिन कर दिया है इसलिये एक और भय व्याप्त हो गया है कि अधिकांश नौकरियां समाप्त हो जायेंगी.नौकरियां तो पहले भी बहुतायत में कहां थीं, जो थीं उन पर भी अब संकट मंडराने लगा है.समझौता करके और जानवर बनकर भी अब नौकरियां नहीं मिलती हैं.यह कैसा समाज बनाया है, शोषणविहीन मानवीय समाज की तो अब संकल्पना भी नहीं की जा सकती.चारों ओर अंधेरा व्याप्त है, भूमंडलीकरण से चैंधियाये समाज के सामने अंधेरा है, निरुत्साह है.उजाला है तो केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकों और देसी धन्ना सेठों के लिये है, उनकी संपत्ति रात दिन बढ़ती जा रही है.अंबानी, अड़ानी और रामदेव की सम्पत्ति पिछले वर्षों में कितने गुना बढ़ी है, इसके आंकड़े सुनकर गरीबी बढ़ने के आंकड़ों पर सहसा विश्वास हो जाता है.


पचास वर्ष पहले लिखी गई यह कहानी आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है, मुक्तिबोध आज होते और समझौता नहीं करते तो नौकरी से निकाल दिये जाते, उनपर झूठे आरोप लगाकर बदनाम किया जाता, उन्हें अकेला किया जाता और फिर लगातार इस तरह उत्पीड़ित किया जाता कि वे या तो पागल हो जाते या साबुत आदमी बने रहने की सजा पा रहे होते.पशु तो पशु होता है, वह शेर है या रीछ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.एक कार्यालय में जो शेर है वही अपने से बड़े अधिकारी के सामने कुत्ता बन जाता है.यदि कुत्ता नहीं बनता तो उसे समझौताकहानी जैसी यातना देकर कुत्ता बनने को मजबूर किया जाता है.सवाल यह है कि वह व्यवस्था आजादी के समय जिसकी हमने उम्मीद की थी तथा वह व्यवस्था जो शोषण को जड़ से समाप्त करने का संकल्प दुनिया में फैला रही थी, किसके षड्यंत्र के तहत समाप्त हो गईं.अब यह किसी से छुपा हुआ नहीं है.अब सारी व्यवस्था और सारा तंत्र आदमी को पशु, अमानवीय और असंवेदनशील बनाने पर तुला हुआ है


समझौताकहानी का यह संदेश कितना मार्मिक है यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें-तुम्हें, सबको, रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाये हुये है.यह किसी से छुपा नहीं है कि वह मैनेजर कौन है जो आदमी का आदमीपन छीन रहा है.ऐसे समाज की कल्पना ही अंदर से डरा देती है, जिसमें आदमी के रूप में हिंसक पशु रहते हों.ऐसी व्यवस्था जो कमजोर, बेसहारा और भूख से बेचैन आदमी को हिंसक पशु बनाने पर तुली हुई हो, वह व्यवस्था आज अधिक फल और फूल रही है.
    
पंख केवल उड़ने के ही प्रतीक नहीं हैं बल्कि वे सपनों के भी प्रतीक हैं.पक्षी के पंख ले लिये जायें और आदमी के सपने तो फिर उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता.हमारा वर्तमान एक ओर तो चमकीली दुनिया के आकर्षण में भरमा रहा है तो दूसरी ओर हमारे सपने भी छीन रहा है.यह बाजार है जिसमें सब बिक रहा है, आदमी के सपने भी और पक्षियों के पंख भी. पक्षी और दीमककहानी में मुक्तिबोध ने इस यथार्थ को जिस प्रकार व्यक्त किया है वह आज के समय का यथार्थ है.एक नौजवान पक्षी गाड़ी वाले से दो दीमक लेता है और बदले में अपना एक पंख उसे दे देता है.कहना न होगा कि पक्षियों का स्वाभाविक भोज्य पदार्थ दीमक नहीं होता बल्कि हवा, पृथ्वी और जल में पाये जाने वाले तरह-तरह के कीड़े होते हैं जो सहजता में उन्हें मिल भी जाते हैं.उस नौजवान पक्षी के पिता उसे समझाते हुये कहते भी हैं कि बेटै, दीमकें हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हैं और उनके लिये अपने पंख तो हरगिज नहीं दिये जा सकते.पर उस नौजवान पक्षी ने बड़े ही गर्व से अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया.उसे जमीन पर उतरकर दीमकें खाने की चट लग गई थी.अब उसे न तो दूसरे कीड़े अच्छे लगते, न फल, न अनाज के दाने.दीमकों का शौक अब उस पर हावी हो गया था.


दीमक तो हर चीज को चट कर जाती है हरे-भरे पेड़ों से लेकर घर के चैखट-दरवाजों तक को.जैसे पंख प्रतीक हैं वैसे ही दीमक भी प्रतीक है.पक्षी नौजवान है वह भी प्रतीकात्मक है.बाजार ने ऐसा तंत्र विकसित किया है जो उनकी उड़ान और सपने ले रहा है और बदले में दीमक दे रहा है.दीमक बाजार में बिकती नहीं बल्कि उसे नष्ट करने की दवाई बिकती है.लेकिन आज दीमक और दवाई दोनों ही बिक रही हैं.जिनके सामने जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है वे अपने पंख और अपने सपने बेच रहे हैं.इन पंखों को खरीदने के लिये दुनियाभर का व्यापारी तरह-तरह से आकर्षित कर रहा है.वह व्यापारी समझता है पंखों की कीमत और पंखहीन पक्षी की दुर्गति.उसकी रुचि दोनों चीजों में है.वह न केवल पंखों को खरीदने का व्यापार करता है बल्कि दीमक जैसी निकृष्ट चीज बेचने का भी व्यापार करता है.व्यापार का एक काम यह भी है कि नौजवानों में ऐसे शौक पैदा कर दो जिसे पूरा करने के लिये वे अपने सपने भी बेचने को तैयार हो जायें.हमारा नौजवान उन आकर्षणों के व्यामोह में फंसकर कमजोर और असहाय होता जा रहा है.मुक्तिबोध लिखते हैं



लेकिन, ऐसा कितने दिनों तक चलता.उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई.अब वह, ऊंचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे.आकाश-यात्रा के दौरान उसे जल्दी-जल्दी पहाड़ी चट्टानों, पेड़ों की चोटियों, गुम्बदों और बुर्जो पर हांफते हुये बैठ जाना पड़ता.उसके परिवारवाले तथा मित्र ऊंचाइयों पर तैरते हुये आगे बढ़़ जाते.वह बहुत पिछड़ जाता.फिर भी दीमक खाने का उसका शौक कम नहीं हुआ.दीमकों के लिये गाड़ीवाले को वह अपने पंख तोड़-तोड़कर देता रहा.फिर, उसने सोचा कि आसमान में उड़ना ही फिजूल है.वह मूर्खों का काम है.उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़कर दूसरे पेड़ तक पहुंच पाता.धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई.और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर चलकर, फुदककर पहुंचता.लेकिन दीमक खाने का शौक नहीं छूटा.

मुक्तिबोध बार-बार यह उल्लेख कर रहे हैं कि लगातार कमजोर और असहाय होते जाने के बावजूद उसने दीमक खाना नहीं छोड़ा.वह देख रहा है अपने मित्रों और परिवारीजनों को कि वे कैसे उड़कर एक जगह से दूसरी जगह आ जा रहे हैं लेकिन फिर भी उसका शौक जारी रहा.यह शौक ही एक प्रकार का नशा है.नवयुवकों में इस प्रकार के शौक पैदा किये जा रहे हैं जो धीरे-धीरे जानलेवा सिध्द हो रहे हैं.परंपरागत विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों तथा प्रबंध या तकनीकी शिक्षण संस्थानों के अघाये विद्यार्थियों के शौक अलग प्रकार के हैं.प्रबंध या तकनीकी शिक्षण संस्थानों में जिस प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन हो रहा है उससे नवयुवक तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं या अवसाद में जाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं.नवयुवक पक्षी को दीमक खाने का शौक भी इसी प्रकार का नशा है, जो उसके जीवन को नष्ट कर देता है.असहाय होने पर उसे यह कुचक्र समझ में आता है और वह गाड़ीवाले से कहता है ये मेरी दीमकें ले लो और मेरे पंख मुझे वापस कर दो.तब गाड़ीवाला ठठाकर हंस पड़ा.उसने कहा, बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूं, पंख के बदले दीमक नहीं.पंख के बदले दीमक लेना बेवकूफी है, यह तब समझ में आया जब सब कुछ लुट चुका था.


यह कहानी एक प्रकार से आज के बाजारवाद पर चोट करती है.बाजार में जो तुरत-फुरत वाले पदार्थ हैं, वे नुकसान ही कर रहे हैं.बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले युवा-वर्ग पर इतना समय नहीं है  कि वह घंटों रसोई में खड़े होकर अपनी मनवांछित चीजों को पका सके, उसके पास इतना समय ही नहीं है.वह सारी चीजें तुरंत चाहता है-चाहे वे खाने की हों या अन्य प्रकार के प्रयोग में आने वाली.वह जीवन को भी इसी प्रकार लेता है इसलिये वे यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि आप साठ पेंसठ और इसके आगे भी स्वस्थ होकर जीते रह सकते हैं लेकिन हमारी उम्र हमें मालूम है चालीस तक जाते-जाते सब कुछ खत्म हो जायेगा.मुक्तिबोध की यह कहानी इसलिये आज अधिक प्रासंगिक है कि नवयुवकों को यह मालूम है कि उनका जीवन इस आपाधापी में नष्ट हो रहा है, जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो व्यवस्थित हो, फिर भी जी रहे हैं.सब कुछ जल्दी पा लेने की सनक में वे दीमक चाट रहे हैं और अपना सुंदर भविष्य दे रहे हैं.


काठ का सपना, सतह से उठता आदमी तथा क्लाड ईथरलीजैसी कहानियां मुक्तिबोध की बेचैनी को ही व्यक्त करती है.उनकी बेचैनी का कारण यह था कि वे कि उन स्थितियों से समझौता नहीं कर पा रहे थे जो स्थितियां केवल स्वार्थ की ओर ले जा रही थीं.उनके जीवन में भयानक अभाव थे, वे चाहते थे कि कुछ ऐसी व्यवस्था हो जिसमें उनका लिखना-पढ़ना निरंतर चलता रहे क्योंकि वे अपने समय का ही नहीं बल्कि भविष्य का सुंदर नक्शा बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे थे। लेकिन व्यवस्थित जीवन जीने के लिये जिस प्रकार के समझौतों की आवश्यकता होती है, उनसे उन्हें बेहद चिढ़ थी.इसलिये सतह से उठता आदमीके कृष्णस्वरूप के वैभव को देखकर वे गटर में थूंक देते हैं.यह थूंकना बताता है कि उन्हें इस प्रकार का बड़ा आदमी नहीं बनना.बड़ा आदमी बनने के लिये अपनी आत्मा बेचनी पड़ती है, जिसके लिये वे कभी भी तैयार नहीं थे.हिरोशिमा पर बम बरसाकर लाखों लोगों का जीवन समाप्त करने वाले क्लाड ईथरलीके पास वे इसलिये जाते हैं कि ईथरली ने वह काम नौकरी के दबाव में किया था और बाद में सारे जीवन उसका प्रायश्चित करता रहा.तंत्र प्रायश्चित नहीं चाहता, वह ऐसे आदमी को भी नहीं चाहता जिसकी आत्मा उसे धिक्कारती हो इसलिये उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.


मुक्तिबोध लिखते हैं 


जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है वह लेखक हो जाता है.आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है वह भोला-भाला, सीधा-सादा बेवकूफ है.जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है.लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है वह निहायत पागल है.पुराने जमाने में संत हो सकता था.आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.


कहना न होगा कि अपनी लगातार बेचैनी के कारण मुक्तिबोध स्वयं तंत्रिका रोग के शिकार हो गये थे जिसके इलाज के लिये उन्होंने 31.10.1951को नेमिबाबू को अर्जैंट पत्र लिखकर कहा कि एक बार आपने मुझसे कहा था, मुझे पक्का याद है कि पूरे भारत में केवल कलकत्ता में ही मनोचिकित्सा का एकमात्र स्थान है.और बाद में लिखा कि यह मरीज तंत्रिका रोग से पीड़ित है न कि किसी प्रकार के जुनूनसे.उन्होंने न्यूरोसिस और इन्सेनिटी शब्दों का प्रयोग करके इस रोग की गंभीरता के बारे में भी सूचना दी है.अपने समय के दबावों, पारिवारिक स्थितियों, कुछ नया करने की तीव्र आकांक्षाओं तथा आर्थिक अभावों के कारण मुक्तिबोध स्वयं तरह-तरह के रोगों से ग्रस्त हो गये थे जिनमें एक तंत्रिका रोग भी था जिसका उन्होंने अपने कई पत्रों में जिक्र किया है.


मुक्तिबोध की कहानियों का काल नयी कहानी आंदोलनका ही है लेकिन उनकी चर्चा बिल्कुल भी नहीं हुई, नामवर सिंह और देवीशंकर अवस्थी ने भी नहीं की.उनके कवि और आलोचक रूप पर ही चर्चा केंद्रित रही.आज जब उनका शताब्दी वर्ष चल रहा है तब उनकी कहानियों पर भी व्यापक और विशद चर्चा होनी चाहिये जिससे उनके निजी संघर्ष और जीवन अनुभव निखर कर आ सकें.मुक्तिबोध कहानियों से स्वयं को अलग नहीं कर पाये, ऐसी कोशिश भी उन्होंने नहीं की इसलिये उनके पत्रों में जो उनका संघर्ष है उससे मिलाकर देखिये तो कहानियां खुलती जाती हैं.उन्होंने जिस प्रकार का संघर्ष किया वह आज भी रोंगटे खड़ा करता है, अंदर तक डराता है. 

हिंदी का एक प्रतिभाशाली आलोचक, अनूठा कवि और ईमानदार कहानीकार जिन अभावों की दुनिया में था, वही दुनिया आज उन्हें सर-आंखों पर बिठाये हुये है, जैसे-जैसे उनका मूल्यांकन होगा, वैसे-वैसे वे और बड़े और बड़े होते जायेंगे.  
_______________________         

सूरज पालीवाल
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा 442001, 
मो.09421101128

सबद भेद : नरेश सक्सेना की कविताओं का मर्म : संतोष अर्श

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(फोटो आभार : Krishna Samiddha)

नरेश सक्सेना ने कहीं लिखा है कि ‘कविता ऐसी जो बुरे वक्त में काम आए.’ तमस से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर उसकी इसी अनवरत यात्रा ने उसे मनुष्यता का पर्याय बना रखा है. जब भी मनुष्य के सामूहिक विवेक पर खतरा दीखता है कविता अपनी तन्वंगी काया के साथ खड़ी हो जाती है, रोकती, टोकती और समझाती हुई.

बुरे वक्त से जूझने के लिए हमारे पास नरेश सक्सेना की कविताएँ हैं. नरेश सक्सेना (१६ जनवरी, १९३९) के दो कविता संग्रह ही अभी प्रकाशित हैं- ‘समुद्र पर हो रही है बारिश'और ‘सुनो चारुशीला’. उन्हें वैज्ञानिक कवि भी कहा जाता है. नरेश सक्सेना परफेक्शनिस्ट कवि हैं, किसी-किसी कविता पर तो उन्होंने वर्षों तक कार्य किया है. उनकी कविताओं का गहरा असर ख़ास-ओ-आम सभी पाठकों पर है.

उनकी कविताओं पर यह लेख संतोष अर्श ने लिखा है. यह लेख कविता और आलोचना दोनों के प्रति रूचि पैदा करता है और एक समझ विकसित करने में मदद भी करता है. संतोष से उम्मीदें बढ़ती जा रहीं हैं.

आपके लिए यह लेख.       




कविता की भौतिकी गणित और पर्यावरण                       
(नरेश सक्सेना की कविताओं का पाठ)

संतोष अर्श




“मेरा अनुभव रहा है कि विशेष परिस्थितियों में,वस्तुएँ मनुष्यों की तरह और मनुष्य वस्तुओं की तरह व्यवहार करने लगते हैं.”
नरेश सक्सेना 


रेश सक्सेना ने कविता कम रची. लेकिन जितनी रची है उसमें काव्य की जो आभा है वह उनकी कविता का पाठ करते समय ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती जाती है और बढ़ जाता है कविता पर भरोसा. साहित्य जिस समय उपेक्षा और वैश्वीकरण से उपजे निरादर से जूझ रहा है उस समय यह कविता आशा का दामन थामे रखने की बात कानों में खुसफुसाती है. ये तरल और सरल कवितायें संवेदनात्मक झनझनाहट पैदा करती हैं. ये उस जनसंस्कृति का आईना हैं जिसमें मनुष्यता की जीत की पूरी-पूरी संभावनाओं के साथ इस दुनिया की सलामती की प्रार्थना है.

इसमें संदेह नहीं कि अपने सौंदर्यबोध और अनुभूतियों के स्तर पर नरेश सक्सेना जन के निकट हैं. उनकी कविता में मानवीयता को बचाने की जो चिंता है वह कविता की प्रत्येक पंक्ति,प्रत्येक शब्द में इस तरह व्याप्त है कि जन-आस्था मानवीयता में सहृदय की प्रतिबद्धता को और भी प्रगाढ़ कर देती है. प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने मनुष्य की जीवनधारा के बिम्ब सिरजे हैं. उनके यहाँ वस्तुएँ भी मनुष्य जैसा व्यवहार करती हैं. ईंट,गारा,सरिया,सीमेंट, पुल,गिट्टी,मज़दूर उनकी कविता के सहचर हैं. उनकी कविताओं में निर्जीव वस्तुओं में भी प्राण हैं. यह जो वस्तुओं के प्रति कवि की सूक्ष्म दृष्टि है,यह उसका सौंदर्यबोध भी है और जनोन्मुख चेतना भी है,क्योंकि वस्तुएँ मनुष्य से उसी प्रकार जुड़ी हुई हैं जिस प्रकार उसका जीवन. पाठ हिस्साकविता से शुरू करते हैं-

बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है
जो बच रहेगा
टपक रहे ख़ून में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
जो बच रहेगा.........
..दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा है
तो फिर दुनिया भर में बहते हुए ख़ून और पसीने में
हमारा भी हिस्सा होना चाहिए


अपना हिस्सा माँगती हुई यह कविता पढ़ते हुए प्रख्यात खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक कार्ल सेगन की बात याद आती है कि, हमारे डीएनए में जो नाइट्रोजन है,दाँतों में जो कैल्शियम है,ख़ून में जो लोहा है,और हमारे फलों में जो कार्बन है वह सितारों की टक्कर से उत्पन्न धूल से निर्मित हुआ है. हम सब सितारों की धूलि से बने हुए स्टारस्टफ़ हैं.जन को सितारा बना देने की कवि की यह कोशिश उसकी जन-आस्था की गत्यात्मकता है. जन-आस्था के साथ शांत और सृजनात्मक कवि-चित्त नरेश सक्सेना की विशेषता है. यह बात उनकी कविता की प्रौढ़ता को प्रदर्शित करने के साथ ही उसकी रसमयता को भी मुखर करती है.

उनके दोनों कविता संग्रहों, समुद्र पर हो रही है बारिश (2001)और सुनो चारुशीला (2012)की कविताएँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत हैं. इसके पीछे उनका अभियांत्रिकी का पेशा रहा हो सकता है. उनकी कविताओं में बोली की लय है. पानी,पेड़,पुल,ईंट,पत्ते,बालू,मिट्टी,गिट्टी वाली इन कविताओं में नरेश सक्सेना की वैज्ञानिक दृष्टि का लिरिकल विस्तार है. और साथ में है गणित. ऐसी गणित जो चीज़ों को लय में सजाने के लिए काम आती है. जिससे बनते हैं लघुमानव के घरौंदे और जीवनयापन की आधारभूत संरचना. गैलीलियो को यह कुदरत एक पुस्तक की भाँति नज़र आती थी. और वह महान वैज्ञानिक कहा करता था कि यह प्रकृति एक पुस्तक है जो गणित की भाषा में लिखी हुई है. नरेश सक्सेना की कविताओं में वही गणित की सी लय है. नपी-तुली पंक्तियाँ,क़रीने से सजी हुईं,मितव्ययी,किफ़ायती कविताई. यह गणित जनवाद का गणित है. यह कुआर्डिनेशन जनता का है:      

ओ गिट्टी-लदे ट्रक पर सोये हुए आदमी
तुम नींद में हो या बेहोशी में
गिट्टी-लदा ट्रक और तलवों पर पिघलता हुआ कोलतार
ऐसे में क्या नींद आती है ?
दिन भर तुमने गिट्टियाँ नहीं अपनी हड्डियाँ तोड़ी हैं
और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया

हिसाब गणित का पुराना नाम और हिसाब-क़िताब है. मज़दूर का हिसाब-किताब करने के लिए पत्थर तोड़ कर बनाई गयी गिट्टियों को गिनना पड़ेगा. मज़दूर सारी मेहनत अपनी हड्डियों या अपने शारीरिक श्रम से ही करता है. उसके श्रम के बदले में उसे गिट्टियों के बराबर पारिश्रमिक भी नहीं मिलता है. यहाँ भाषा के मुहावरे (हाँड़ तोड़) का विशिष्ट प्रयोग है. किंतु शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूर की नींद की चिंता कवि की जनवादी चेतना का ही परिष्कृत संवेदनात्मक, कवित्वमय रूप है. यह मानववादी दृष्टिकोण वैज्ञानिक भौतिकवाद से संपृक्त है. कविताओं में काँक्रीट,पुल,ईंट,सीमेंट,गारा,सरिया,बालू आदि के आने के पार्श्व में एक तथ्य यह भी छुपा है कि यह सभी वस्तुएँ मनुष्य की बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं से जुड़ी हुई हैं. रोटी-कपड़ा-छत मनुष्य की अगुआ ज़रूरतें हैं,इसलिए इस ज़रूरत के आधार पर वह इन सभी वस्तुओं से गहरे जुड़ा हुआ है. इन्हीं वस्तुओं के क्रम में ईंटकविता का उल्लेख करना विषयानुकूल होगा-

घर एक ईंटों भरी अवधारणा है
जी बिलकुल ठीक सुना आपने
मकान नहीं घर......
ईंटों के चट्टे की छाया में
तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा
दो उसके बच्चे की खुड्डी बनी थीं
एक उसके थके हुए सिर के नीचे लगी थी....

कुल पाँच ईंटों से घर बन गया है. मकान और घर के फ़र्क़ को समझाती इस कविता में तीन ईंटों से बना हुआ चूल्हा जीवन में ईंट की उपयोगिता को इस प्रकार वर्णित करता है कि वे तीन ईंटें अमूल्य हो जाती हैं,क्योंकि उनसे बने हुए चूल्हे पर मज़दूरनी का खाना बनता है. यह ऐसी अर्थवान कविता है जो जन-जीवन के पहलुओं,उसके संघर्ष,उसके संतोष की अनूठी छवि प्रस्तुत करती है. ईंटें भी उसी मिट्टी से बनी हैं जिस मिट्टी से मनुष्य बने हैं. घर की ईंटों भरी अवधारणा ईंटों के चट्टे में ध्वनित है. ईंट शब्द कविता में घर का अर्थ बन गया है. या ईंट ही बन गई है घर.    

जिन मसलों को उठाने की सबसे अधिक आवश्यकता इन दिनों की कविता को रही उनमें पर्यावरण अवनयन प्रमुख है. एक सच्चे कवि या मनुष्य को सबसे पहले अवनयित,प्रदूषित पर्यावरण से आतंकित होना चाहिए. विशेष कर तब जब वह स्वयं उसे न नष्ट कर रहा हो. पूँजी के स्वामित्व वाले अंध-विकासवाद ने प्रकृति और पर्यावरण की जो दशा की है,उससे सम्पूर्ण मानवता को भयावह ख़तरा उत्पन्न हुआ है. यह जलता हुआ सत्य है कि इसका कारण भी दानवी पूँजीवादी, उपभोगवादी,भूमंडलीकृत मुनाफ़ाखोर प्रतिस्पर्धा रही है. जनवाद मानवता को बचाने की एक मुहिम भी है. जन के साथ उसका पर्यावरण भी है. पूरी पृथ्वी ही जन की है. उस पर किसी का अतिक्रमण हो सकता है,किन्तु अधिकार नहीं. पर्यावरण के लिए फ़िक्रमंद नरेश सक्सेना की कवितायें अपनी रचना में नितांत पुष्ट और नवीन हैं. इस संदर्भ में विष्णु खरेकी यह टिप्पणी संगत है:

दूसरी ओर उनकी कविता में पर्यावरण की कोई सीमा नहीं है. वह भौतिक से होता हुआ सामाजिक और निजी विश्व को भी समेट लेता है. हिन्दी कविता में पर्यावरण को लेकर इतनी सजगता और स्नेह बहुत कम कवियों के पास है. विज्ञान,तकनीकी,प्रकृति और पर्यावरण से गहरे सरोकारों के बावजूद नरेश सक्सेना की कविता कुछ अपूर्ण ही रहती यदि उसके केंद्र में असंदिग्ध मानव-प्रतिबद्धता,जिजीविषा और संघर्षशीलता न होती.” 

प्रकृति और पर्यावरण नरेश सक्सेना की प्रत्येक कविता में किसी न किसी रूप में मौजूद है. किसी प्राकृतिक बिम्ब के बिना उनकी कविता मुश्किल से ही पूरी हो पाती है. पारिस्थितिकीय-चिंतन के क्रम में नक्शेकविता की कुछ पंक्तियाँ देखते हैं-

नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं
नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं
नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
नक्शे में देश हैं लोग नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं....
...तफ़रीह की जगह नहीं है यह
नक्शों से फ़ौरन बाहर निकल आइए
मुझे लगता है एक दिन
सारे नक्शों को मोड़कर जेब में रख लेगा कोई मसख़रा
और चलता बनेगा.

नक्शे(कुछ) लंबी कविता है और इसमें इक्कीसवीं सदी का भयावह सच मुखर हुआ है. विश्व की प्रतिस्पर्धी शक्तियों पर कटाक्ष करती इस कविता की शुरुआती पंक्तियों से निर्मित बिम्ब ही पर्यावरण की फ़िक्र के साथ आया है. केवल दो पंक्तियाँ- नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं,नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहींइस भूमंडलीकृत नव-साम्राज्यवादी समय का कुरूप और सड़ांध भरा चेहरा खींच कर उभार देती हैं. नरेश सक्सेना की कविताओं में प्रतिबद्ध पारिस्थितिकीय संवेदना को देखते हुए उन्हें हरित कवि (Eco-Poet)की उपाधि दी जा सकती है. इस इकोलॉजिकल संवेदन में एक विश्व-दृष्टि भी है. यानी कवि सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए चिंतित है. यह बात दोनों संग्रहों में है. इनमें स्पष्ट पर्यावरणबोध की कवितायें हैं. समुद्र पर हो रही है बारिशसंग्रह में एक वृक्ष भी बचा रहे’, उसे ले गएकवितायें वृक्षों को आधार बना कर रची गई हैं. प्रथम कविता में कवि लिखता है-

लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में


उसे ले गएकविता में कवि इकोफेमिनिज़्म की सैद्धांतिकी तक पहुँचता है. कविता में आँगन का नीम कट रहा है और इस कटने का वृत्तान्त एक स्त्री (कविता में बेटे,बाबा,सखियों,झूलना,पालना,मनौती के आधार पर) सुना रही है. इकोफेमिनिस्ट पर्यावरण और प्रकृति के विषय पर स्त्री-पुरुष के विचार को भिन्न मानते हैं. उनका कहना है कि प्रकृति के प्रति स्त्री पुरुष से अधिक संवेदनशील और फ़िक्रमंद है,क्योंकि स्त्री की प्रकृति भी प्रकृति जैसी है. प्रकृति से स्त्री के संबंध (बनिस्बत पुरुष)अधिक रागात्मक हैं. इकोफेमिनिस्टफ्रंस्वा दि यूबोणका विचार है कि पुरुष स्त्री और प्रकृति दोनों का शोषण करता है. कविता में पुरुष की स्त्री क्या कह रही है?

अरे कोई देखो
मेरे आँगन में गिरा कट कर
गिरा मेरा नीम
गिरा मेरी सखियों का झूलना
बेटे का पालना गिरा

और स्त्री के इस आत्मीय नीम-वृक्ष के कट जाने के पश्चात अंत में क्या हुआ ?

बेटे ने गिन लिए रुपये
मेरे बेटे ने
देखो उसके बाबा ने कर लिया हिसाब
उसे ले गये
जैसे कोई ले जाये लावारिस लाश
ऐसे उसे ले गये


नीम के पेड़-छाल-पत्तियों के प्रति कवि में विशेष अनुराग है. उसने नीम की छाल घिस कर अपने घावों पर लगाई है. अपने घाव भरे हैं. नीम से यह प्रेम प्रकृति के प्रति लघुमानव की कृतज्ञता है. एहसानमंदी का नज़रिया है. ऐसा ही प्रकृति-प्रेम प्रकृति को बचा सकेगा. उसकी रक्षा कर पाएगा.   
     
सुनो चारुशीलासंग्रह में भी कई पर्यावरणवादी कवितायें हैं. जिनमें देखना जो ऐसा ही रहास्पष्ट पर्यावरणबोध की कविता है. इस कविता में कवि लिखता है-

देखना जो ऐसा ही रहा तो,एक दिन
पेड़ नहीं होंगे घोंसले नहीं होंगे
चिड़िया ज़रूर होंगी,लेकिन पिंजरों में
नदियाँ नहीं होंगी
झीलें नहीं होंगी
मछलियाँ ज़रूर होंगी लेकिन टोकरियों में
जंगल नहीं होंगे
झाड़ियाँ नहीं होंगी
खरगोश और हिरण ज़रूर होंगे
लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए
...सिर्फ बाज़ार होंगे
जहाँ होंगी कविताएँ
पेड़ों,नदियों,चिड़ियों,मछलियों और खरगोशों का
विज्ञापन करती हुई


नरेश सक्सेना की कविताओं का पर्यावरणबोध पर्यावरणवाद के लिए ही है. उसमें किसी तरह की विच्छिन्नता नहीं है. इस प्रकार कविता में जो पर्यावरणबोध आता है वह श्लेष न होकर केंद्रीय विषय के रूप में आता है. और यह पर्यावरणवाद की केन्द्रीयता इस प्रकार की है कि उनकी कविता हरित कविता (Green Poetry) बन जाती है. सबसे अहम है कि यह पारिस्थितिकीवाद वैज्ञानिक है. इसमें तंत्र-मंत्र,वेद-पुराण,मिथक आदि नहीं हैं. नरेश सक्सेना की कविता के इस पर्यावरणवाद पर कवि एकांत श्रीवास्तव की टिप्पणी सर्वथा उचित लगती है कि-

“प्रकृति का वे भरपूर रचनात्मक उपयोग अपनी कविता में करते हैं. और इस तरह वे अपनी कविता के संसार को सूखाग्रस्त नहीं होने देते. बल्कि कहना चाहिए कि प्रकृति और पर्यावरण सजगता जैसी उनके यहाँ दिखाई देती है,अन्यत्र प्रायः विरल ही दिखती है.”

घासकविता जन-प्रतिबद्धता की नज़ीर है. अब तक की साम्राज्यवादी शक्तियों की दुनिया पर राज करने की वासना पर यह कविता शालीनता से व्यंग्य करती है-

सारी दुनिया को था जिनके कब्जे का एहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास
धरती पर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले,घास यहाँ थी,बाद में होगी घास.

यह घास वाली पंक्तियाँ कबीर के यहाँ भी ऊपरि जामी घासके रूप में हैं,जिनसे हिन्दी का हर जनवादी कवि उत्तराधिकार में कुछ न कुछ ग्रहण करता है. कामायनी में प्रसाद ने प्रकृति को दुर्जेयकहा है. उत्तर-आधुनिकता का एक पहलू यह भी रहा है कि उसमें प्रकृति के प्रभुत्व में रहने की बात कही जाती रही है, लेकिन अति-औद्योगिक विकास की होड़ ने प्रकृति को सबसे अधिक नुकसान इसी दौर में पहुँचाया है. यह पंक्तियाँ उन ऐतिहासिक साम्राज्यवादियों की प्रभुता को धूल-धूसरित करती हैं जिन्हें पूरी पृथ्वी पर शासन करने का गर्व था. जनतंत्र ने उनके पते-ठिकानों पर उगती हुई घास देखी है. यह कबीराना लाघव है. इसका एक और उदाहरण है उनकी कविता ईश्वर की औकातजिसमें वे कहते हैं-

वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट
पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों,पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं को पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मंदिरों का
उद्धार करके इसे वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे ईश्वर को उसकी औकात बताते हैं !

यह जो तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाने की बात इस कविता में है,वह अंधभक्तीय परिदृश्य के विद्रूप चेहरे पर हँसता हुआ व्यंग्य भी है. यह समय सापेक्ष काव्य-चेष्टा है. इन दिनों यही सब हो रहा है. प्रतिदिन घट रहा है. सुजन-समाज हँस रहा है,किंतु हँसी के पीछे भय और बेबसी पोशीदा है. भौतिकवादी दर्शन चेतन द्वारा जड़ पदार्थों के संचालन होने के विचार में विश्वास रखता है. तभी यह बात सामने आती है कि रचनाकार अपने आस-पास की बाह्य जड़ वस्तुओं और पदार्थों से प्रभावित होता है. जबकि उसका प्रभाव उसकी चेतना पर पड़ता है. इस तथ्य को रचना-प्रक्रिया के संबंध में मुक्तिबोध ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में यों व्यक्त किया है-

“हमारे जन्मकाल से ही शुरू होने वाला हमारा जो जीवन है,वह बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण द्वारा ही सम्पन्न और विकसित होता है. यदि वह आभ्यंतरीकरण न हो तो हम कृमि-पानी का जीव हाइड्रा-बन जाएँगे. हमारी भाव-सम्पदा,ज्ञान-सम्पदा,अनुभव-समृद्धि उस अंतर्तत्व-व्यवस्था ही का अभिन्न अंग है,कि जो अंतर्तत्व-व्यवस्था हमने बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण से प्राप्त की है. हम मरते दम तक जीवन-जगत् का आभ्यंतरीकरण करते जाते हैं. किन्तु साथ ही,बातचीत,बहस,लेखन,भाषण,साहित्य और काव्य द्वारा हम निरंतर स्वयं का बाह्यीकरण करते जाते हैं. बाह्य का आभ्यंतरीकरण और आभ्यंतर का बाह्यीकरण एक निरंतर चक्र है. यह आभ्यंतरीकरण तथा बाह्यीकरण मात्र मननजन्य नहीं वरन् कर्मजन्य भी है. जो हो,कला आभ्यंतर के बाह्यीकरण का एक रूप है.” (मुक्तिबोध,नई कविता का आत्मसंघर्ष)

बाह्य जीवन को आभ्यंतर में परिष्कृत करना और उसे रचना-प्रक्रिया में ढालने का जो क्रम है वह नरेश सक्सेना की रचना-प्रक्रिया में गतिमान है किंतु उसमें उस तनाव की कमी है जिसकी अन्विति मुक्तिबोध के कथन में अनुभव की जा सकती है. 
 
घड़ियाँएक ऐसी कविता है जिसमें जनवादी स्वर अधिक मुखर हुआ है. यहाँ पर कुछ ब्यौरों की सहायता अवश्य ली गयी है,जिससे कुछ रूखी इतिवृत्तात्मकता आ गयी है और यह बात उनकी अन्य कविताओं से इस कविता को भिन्न करती है. इस कविता में कुछ व्यंग्य भी है और कुछ तनाव भी-

अपनी घड़ी देखिये जनाब,
जितनी देर मुझे यह बात कहने में लगी
उतने में तीन सौ हत्याएँ हो गईं,छह सौ बलात्कार
और बारह सौ अपहरण
इसी बीच भुखमरी से मर गए चौबीस सौ लोग
और घड़ियों के चेहरों पर शिकन तक नहीं

इस कविता का सम्बोधन उन व्यक्तिवादी लोगों से है जिन्हें अपने समय का अनुमान केवल अपनी घड़ी तक है. और घड़ियों के चेहरे पर शिकन तक नहींमें चेहरा घड़ी का नहीं है,चेहरा मध्यवर्गीय स्वार्थपरता का है. आगे देखते हैं-

ग़रीब कलाइयों वाली घड़ियाँ
लखनऊ से दिल्ली जाने का वक़्त दस घंटे बताती हैं
जबकि अमीर कलाइयों वाली बताती हैं
महज़ पैंतालीस मिनट की उड़ान

वर्गीय असमानता में प्रत्येक वस्तु असमान होती है. कलाइयाँ तक अमीर-ग़रीब होती हैं. उन पर बँधी घड़ियाँ अलग-अलग समय बताती हैं. यानी जो ग़रीब है वह देर से चल रहा है,वह पीछे रहेगा. पैंतालीस मिनट की उड़ान का समय बताने वाली घड़ी अमीर कलाई की है. और आगे-

देखिये अपने देश के पचपन करोड़ कुपोषित बच्चों को
उनके चेहरे बता रहे हैं उनका वक़्त
उनके चेहरों की झुर्रियाँ घड़ी हैं
उनकी बुझी हुई आँखें घड़ी हैं
उनके धँसे हुए पेट घड़ी हैं
उनकी उभरी हुई हड्डियाँ घड़ी हैं...

चेहरे की झुर्रियाँ,बुझी हुई आँखें,धँसे हुए पेट और उभरी हुई हड्डियाँ जो समय बता रही हैं,वह ज़ाहिर है कि हमारा ही समय है. हमारा यानी जन का समय है,जो शोषण और असमानता की अग्नि में जल रहा है. जिसका चेहरा एक ऐसी घड़ी है जो कभी सही वक़्त नहीं बताती. जो कह रही है तुम्हारा समय खराब है. कुछ कविताओं में सिद्धांत को व्यवहार में न अपना सकने के प्रति क्षोभ और रोष भी अभिव्यंजित होता है. वह सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं स्वयं कवि के लिए भी है तभी तो कवि कहता है-

भूख से बेहोश होते आदमी की चेतना में
शब्द नहीं
अन्न के दाने होते होंगे
अन्न का स्वाद होता होगा
अन्न की ख़ुशबू होती होगी
बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कहके नहीं,करके दिखानी होती थी.

कहके नहीं’, ‘करके दिखानेका जो भाव है वह कुछ-कुछ मुक्तिबोधीय है. यह सूक्ष्म आत्मभर्त्सना जन के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति को स्पष्ट करने हेतु है. कवि कहना चाहता है कि केवल शब्दों से काम नहीं चल सकता. कला-रचना के आधार के रूप में व्यवहार की अवधारणा से उपजा आत्मसंघर्ष कवि के मन को उद्वेलित करता है. यह प्रश्न बार-बार रचनाकार के मन में उठता है कि वह अपनी रचनात्मक सक्रियता से समाज में क्या परिवर्तन कर सकता है. इन अनुभूतियों से कविताओं में अति-गंभीरता आ जाती है,जिससे रचना-कर्म एक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य बन जाता है. मुक्तिबोध की कविताओं में यह बात बहुत है. नरेश सक्सेना की कविताओं में यह इसलिए कम है क्योंकि वे फैन्टेसी का प्रयोग लगभग नहीं करते हैं.

कलावादी हुए बिना भी जीवन के उत्स को कविता में जीना मुश्किल कार्य है. जनवादी-प्रगतिवादी कवियों पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि उनकी कविताओं में कलापक्ष पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता या कविता का वह हिस्सा शिथिल रहता है. नरेश सक्सेना की कवितायें इस बात का अपवाद ही हैं. कविताओं में कलात्मक अभिव्यक्ति के संग जीवन का उत्स भी है. जीवन का उत्स अपने पूरे आवेग और उल्लास के साथ है. पत्नी के दिवंगत होने के बाद भी उसके प्रेम का उल्लास उनके भीतर हिलोरें मारता है. यह जिए हुए साथ और किए हुए प्रेम का करुणामिश्रित अविस्मरणीय आनंद है. सुनो चारुशीलाकविता जिसके शीर्षक पर कविता संग्रह का नाम भी है, ऐसी ही कविता है-

सुनो चारुशीला !
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे हम तो फिर क्या होंगे
अच्छा जरा सोचकर बताओ
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुए

यह जो प्रेम में एकमेक होने का गणित है. जिसमें प्रत्येक योग का फल एक ही आता है,इसका उल्लास प्रेमगीतों में कभी नहीं अंटता.

रोशनी’, ‘सेतु’, ‘लोहे की रेलिंग’, ‘पानीआदि कविताओं में जो विज्ञान आया है यह बहुत जटिल या कविता की पठनीयता को प्रभावित करने वाला नहीं है. यह जनसुलभ विज्ञान है. ऐसा प्रतीत होता है कि यह विज्ञान की रोशनी से महरूम जनता का विज्ञान है,जिसे सत्य का जामा पहना कर,सरलीकृत करके कवि वहाँ तक पहुँचाना चाहता है. कविता पानी क्या कर रहा हैकी कुछ पंक्तियाँ लेते हैं-

यह चार डिग्री वह तापक्रम है दोस्तों
जिसके नीचे मछलियों का मरना शुरू हो जाता है
पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है
कि अगर वह और ठंडा हुआ
तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी......
तीन डिग्री हल्का
दो डिग्री और हल्का और
शून्य डिग्री होते ही,बर्फ़ बन कर
सतह पर जम जाता है
इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का
अब पड़ती रहे ठंड
नीचे गर्म पानी में मछलियाँ
जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं

यह ऐसी कविता है जिसमें जीवन में दूसरों के लिए कुछ करते रहने की प्रेरणा का अकिंचन भाव है. नरेश सक्सेना की कविताओं की एक विशेष बात यह भी है कि उसमें हर वस्तु (निर्जीव वस्तुएँ भी) किसी के लिए कुछ न कुछ कर रही है. पदार्थ और वस्तुओं के परमार्थ को प्रमाण के रूप में रख कर मनुष्य की स्वार्थपरता को आईना दिखाने के लिए उनकी कवितायें शब्द-शब्द तत्पर हैं. बर्टेंड रसेल की पदार्थवाद की अवधारणा स्मरण होती है. मुक्तिबोध के उपरोक्त कथन में भी पदार्थवादी प्रभाव है. कवि में बेचैनी है अपने इंद्रियप्रदत्त सत्य को और सरलीकृत कर के बताने की. कवि की इस टिप्पणी में भी पदार्थवादी दर्शन का अवबोध है:   

पानी कितना रहस्यमय होता है ! वस्तुएँ ठंडी होकर सिकुड़ती हैं और सघन होती हैं,लेकिन नदियों,झीलों और समुद्रों का पानी ठंड में सिकुड़ता और भारी होता हुआ जैसे ही चार डिग्री सेल्सियस पर पहुँचता है कि अचानक अपना व्यवहार उलट देता है. इससे ज़्यादा ठंडा होते ही वह भारी होकर नीचे बैठने की जगह,हल्का होकर ऊपर ही बना रहता है,अगर ऐसा न करे तो सारी मछलियाँ मर जाएँ. क्या पानी जानता है यह बात ?क्या वह मछलियों को बचाने के लिए ही ऐसा करता है.

पानी क्या कर रहा हैकविता के अंत में,कवि समाज में उस स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण करता है जहाँ कोई किसी को बचा नहीं पा रहा है या बचाना नहीं चाहता,या हर कोई इतना लाचार हो चुका है कि कुछ बचा नहीं सकता. जिन हालातों में कोई किसी को नहीं बचा पा रहा है,या बचाना नहीं चाहता उस समय भी प्रकृति अपनी परमार्थ की अद्भुत शक्ति और मनुष्य के साथ-साथ पृथ्वी के प्रत्येक जीव-जन्तु के साथ समान व्यवहार कर रही होती है. प्रकृति के समाजवाद से मनुष्य के समाजवाद कि तुलना करने वाली यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं दोस्तों
इस वक़्त
कोई कुछ बचा नहीं पा रहा
किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को
अपने हाथों से फसल को आग लगाए दे रहा है.....

यह सहजता जनोन्मुख प्रतिबद्धता का प्रमाण है.

आधा चाँद माँगता है पूरी रातशीर्षक कविता पूँजीवाद की सरल मार्क्सवादी आलोचना की कविता है जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति के आधार पर कुछ लोगों ने अधिकतर उत्पादन के स्रोतों और उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं पर आधिपत्य जमा रखा है. इतने में भी समाज के उस उच्चवर्गीय भाग को संतुष्टि नहीं है. यह वही चाँद है जिसके मुँह को मुक्तिबोध ने ऐतिहासिक ढंग से टेढ़ा कर दिया था-

कारखाना-अहाते के उस पार
कलमुँही चिमनियों के मीनार
उद्गार-चिह्नाकार.
मीनारों के बीचोबीच चाँद का है टेढ़ा मुँह
लटका,
मेरे दिल में खटका –

नरेश सक्सेना की कविता इस प्रकार है-

पूरे चाँद के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चाँद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ों लोग
आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते पूरे पाँव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में.


पूँजी की ज्यामितीय लाभेच्छा-युक्त वासना की पूर्ति धरती की आधी से अधिक आबादी के शोषण,उसकी भूख और मृत्यु से होती है. भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने पूँजी की इस प्रक्रिया को और भी ताक़तवर बनाया है. आधे इलाज की पूरी फीस देने की जो बात उपरोक्त कविता में कही गयी है उसका प्रमुख कारण इक्कीसवीं सदी की अतिशय मुनाफाखोरी और प्रत्येक सेवा का व्यावसायीकरण है. पेशे की ईमानदारी को भी मुनाफाखोरी ने लील लिया है. इस कविता में आउटडेटेड रेटोरिक है,किंतु एस्ट्रोनॉमिकल बिंबों से कुछ नवीनता का अर्जन हो सका है.     

आभिजात्यवाद का नकार नरेश सक्सेना की कविताओं में कड़े शब्दों में है. हालाँकि उनकी कविता का व्यंग्य बहुत शालीन और प्रगतिवादियों से भिन्न है. व्यंग्य भी वे बड़े शांत ढंग से करती हैं,जैसे विनम्रता से कोई तीखी बात कहे,उर्दू कवियों के वासोख्त सी ! लेकिन टीस चुभने वाली होती है. ज़िंदा लोगशीर्षक कविता इस संदर्भ में द्रष्टव्य है-

लाशों को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ़ चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह...

यह परिवर्तन करने की पुकार की कविता है. जिसमें दो अर्थ व्यंजित होते हैं. एक तो अभिजात लोगों के मुर्दा होने का और दूसरा यह प्रकट करने के लिए कि जीवित लोग जो श्रमशील और जीवन की प्यास से भरे हुए हैं उन्हें परिवर्तन करने के लिए अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए. क्योंकि जितनी प्रतीक्षा हम जीवित लोग कर रहे हैं उतनी प्रतीक्षा लाशें भी नहीं करती हैं. परमानन्द श्रीवास्तव और विश्वनाथ त्रिपाठी इसी कविता की बिना पर नरेश सक्सेना को ब्रेख्तियन लहजे का कवि कहते हैं.

काँक्रीटकविता मानवीय रिश्तों में व्यक्तित्व के लिए स्थान छोड़ने की बात पदार्थों के प्रतीकों के माध्यम से करती है. हालाँकि कविता में व्यक्तित्व स्वातंत्र्य की धारणा इस प्रकार है कि सामूहिकता का निषेध न हो. सामूहिकता का निषेध किए बगैर भी हम व्यक्ति स्वातंत्र्य का अनुसरण कर सकते हैं,और इस विचार को कविता इस प्रकार व्यक्त करती है-

....जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
ख़ाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत.....
सीमेंट कितनी महीन
और आपस में कितनी सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं ख़ाली जगहें
जिनमें समाता है पानी
और पानी में भी,ख़ैर छोड़िए


काँक्रीट की कथा यह बताती है कि रिश्तों की ताक़त बनी रहे इसलिए ज़रूरी है कि आप अपने बीच में थोड़ा सा रिक्त स्थान अवश्य रखें. स्पेस छोड़ने की यह बात कुँवर नारायण की भी किसी कविता में है. एक विशेष खाली स्थान प्रत्येक पदार्थ में है. यह रिक्त इस सृष्टि का डायनामिक्स है. और यही इस कविता का मूल-कथ्य है कि प्रगाढ़ता के लिए कुछ रिक्त स्थान होना वैज्ञानिक रूप से अपरिहार्य है.


नरेश सक्सेना की कविताएँ सच्ची जनवादी कविताएँ हैं. इनमें जनगीतों सा प्रभाव है. भाषा की लय के साथ बिंब भी लयात्मक हैं. दृश्य क्रमबद्ध हैं. कहीं-कहीं कवि भाषा में और कभी-कभी दृश्यों में सोचता है. यह प्रकृति को देखने की उसकी विज्ञानवादी दृष्टि का सुफल है. ब्रेख्तियन लहजे के कवि से इतर उनकी कविता में संचित-बिंबित-चित्रित प्रकृति से गुज़रते हुए हुए कई बार नेरुदा की याद आती है. समुद्र पर हो रही है बारिशका महाबिंब नेरुदा के समंदरों का स्मरण कराता है. कवि ने स्थूल और सूक्ष्म का जो संतुलन साधा है,उससे स्थूल के प्रति सूक्ष्म की विनम्रता जैसा बोध होता है.    

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना....
जन की नदी में उतरे बिना जनवादी नहीं हुआ जा सकता. पुल से गुजरकर नदी को नहीं जाना जा सकता. संघर्ष किए बिना जीवन के उल्लास को नहीं जाना जा सकता. नरेश सक्सेना की कवितायें जनसंघर्ष के उल्लास की कवितायें हैं.

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संतोष अर्श
poetarshbbk@gmail.com  
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