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भाष्य : लड़कियों के बाप (विष्णु खरे) : शिव किशोर तिवारी

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(फोटो : सौजन्य से मनीष गुप्ता)








कवि विष्णु खरे की कविताओं में ‘लड़कियों के बाप’ कविता का ख़ास महत्व है, यह हिंदी की कुछ  बेहतरीन कविताओं में से एक है. आज भी जब हम विष्णु खरे के कवि रूप की चर्चा करते हैं यह कविता सामने आ खड़ी होती है. यह विचलित करती है किसी शोक गीत की तरह.

विष्णु खरे की कविताओं में ‘गद्य की ऊंचाई’ और ‘तफ़सील की गहन बारीकी’ जैसी विशेषताओं की चर्चा होती रही है. रघुवीर सहाय मानते थे ‘कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है.’

यहाँ आप यह कविता पढ़ेंगे और इस कविता के मंतव्य और काव्य- सौन्दर्य को उद्घाटित करता शिव किशोर तिवारी का यह भाष्य भी. समालोचन वर्षों से काव्य-आस्वाद के इस स्तम्भ ‘भाष्य’ में प्रसिद्ध कविताओं की व्याख्या – पुनर्व्याख्या करता आ रहा है. शिव किशोर तिवारी अंग्रेजी ही नहीं भारतीय भाषाओं में भी लिखी जा रही कविताओं के सह्रदय पाठक और विवेचक हैं. 





लड़कियों   के बाप
विष्णु खरे


वे अक्सर वक्त के कुछ बाद पहुँचते हैं
हड़बड़ाए हुए बदहवास पसीने-पसीने
साइकिल या रिक्शों से
अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटरों के साथ
करीब-करीब गिरते हुए उतरते हुए
जो साइकिल से आते हैं वे गेट से बहुत पहले ही पैदल आते हैं


उनकी उम्र पचपन से साठ के बीच
उनकी लड़कियों की उम्र अठारह से पच्चीस के बीच
और टाइपराइटरों की उम्र उनके लिए दिए गए किराए के अनुपात में


क्लर्क-टाइपिस्ट की जगह के लिए टैस्ट और इन्टरव्यू हैं
सादा घरेलू और बेकार लड़कियों के बाप
अपनी बच्चियों और टाइपराइटरों के साथ पहुँच रहे हैं


लड़कियाँ जो हर इम्तहान में किसी तरह पास हो पाई हैं
दुबली-पतली बड़ी मुश्किल से कोई जवाब दे पाने वालीं
अंग्रेजी को अपने-अपने ढंग से ग़लत बोलनेवालीं
किसी के भी चेहरे पर सुख नहीं
हर एक के सीने सपाट
कपड़ों पर दाम और फ़ैशन की चमक नहीं
धूल से सने हुए दुबले चिड़ियों जैसे साँवले पंजों पर पुरानी चप्पलें


इम्तहान की जगह तक बड़े टाइपराइटर मैली चादरों में बँधे
उठाकर ले जाते हैं बाप
लड़कियाँ अगर दबे स्वर में मदद करने को कहती भी हैं
तो आज के विशेष दिन और मौके पर उपयुक्त प्रेमभरी झिड़की से मना कर देते हैं
ग्यारह किलो वज़न दूसरी मंज़िल तक पहुँचाते हुए हाँफते हुए


इम्तहान के हाल में वे ज़्यादा रुकना चाहते हैं
घबराना नहीं वगैरह कहते हुए लेकिन किसी भी जानकारी के लिए चौकन्ने
जब तक कि कोई चपरासी या बाबू
तंग आकर उन्हे झिड़के और बाहर कर दे
तिसपर भी वे उसे बार-बार हाथ जोड़ते हुए बाहर आते हैं


पता लगाने की कोशिश करते हुए कि डिक्टेशन कौन देगा
कौन जाँचेगा पर्चों को
फिर कौन बैठेगा इन्टरव्यू में
बड़े बाबुओं और अफ़सरों के पूरे नाम और पते पूछते हुए
कौन जानता है कोई बिरादरी का निकल आए
या दूर की ही जान-पहचान का
या अपने शहर या मुहल्ले का
उन्हें मालूम है ये चीज़ें कैसे होती हैं


मुमकिन है कि वे चाय पीने जाते हुए मुलाज़िमों के साथ हो लें
पैसे चुकाने का मौका ढूँढते हुए
अपनी बच्ची के लिए चाय और कोई खाने की चीज़ की तलाश के बहाने
उनके आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों को
सुना-अनसुना करते हुए नासमझ दोस्ताने में हँसते हुए
इस दफ़्तर में लगे हुए या मुल्क के बाहर बसे हुए
अपने बड़े रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए
वे हर अंदर आने वाली लड़की से वादा लेंगे
कि वह लौटकर अपनी सब बहनों को बताएगी कि क्या पूछते हैं
और उसके बाहर आने पर उसे घेर लेंगे
और उसकी उदासी से थोड़े ख़ुश और थोड़े दुखी होकर उसे ढाढस बँधाएँगे
अपनी-अपनी चुप और पसीने-पसीने निकलती लड़की को
उसकी अस्थायी सहेलियों और उनके पिताओं के सवालों के बाद
कुछ दूर ले जाकर तसल्ली देंगे
तू फिकर मत कर बेटा बहुत मेहनत की है तूने इस बार
भगवान करेगा तो तेरा ही हो जाएगा वगैरह कहते हुए
और लड़कियाँ सिर नीचा किए हुए उनसे कहती हुईं पापा अब चलो


लेकिन आख़िरी लड़की के निकल जाने तक
और उसके बाद भी
जब इन्टरव्यू लेने वाले अफसर अंग्रेजी में मज़ाक़ करते हुए
बाथरूम से लौटकर अपने अपने कमरों में जा चुके होते हैं
तब तक वे खड़े रहते हैं
जैसा भी होगा रिज़ल्ट बाद में घर भिजवा दिया जाएगा
बता दिए जाने के बावजूद
किसी ऐसे आदमी की उम्मीद करते हुए जो सिर्फ़ एक इशारा ही दे दे
आफ़िस फिर आफ़िस की तरह काम करने लगता है
फिर भी यक़ीन न करते हुए मुड़ मुड़कर पीछे देखते हुए
वे उतरते हैं भारी टाइपराइटर और मन के साथ
जो आए थे रिक्शों पर वे जाते हैं दूर तक
फिर से रिक्शे की तलाश में
बीच-बीच में चादर में बँधे टाइपराइटर को फ़ुटपाथ पर रखकर सुस्ताते हुए
ड्योढ़ा किराया माँगते हुए रिक्शेवाले और ज़माने के अंधेर पर बड़बड़ाते हुए
फिर अपनी लड़की का मुँह देखकर चुप होते हुए
जिनकी साइकिलें दफ्तर के स्टैंड पर हैं
वे बाँधते हैं टाइपराइटर कैरियर पर
स्टैंडवाला देर तक देखता रहता है नीची निगाह वाली लड़की को
जो पिता के साथ ठंडे पानी की मशीनवाले से पाँच पैसा गिलास पानी पीती है
और इमारत के अहाते से बाहर बैठती है साइकल पर सामने
दूर से वह अपने बाप की गोद में बैठी जाती हुई लगती है

_____________________________ 



वर्णन     का     काव्य                                                 
(विष्णु खरे की कविता ‘लड़कियों के बाप’)

शिव किशोर तिवारी


विष्णु खरे की कविता के विषय में कुछ बद्धमूल धारणायें बन चुकी हैं. केवल इनको पृष्ठभूमि में रखकर उनकी कविताओं की मीमांसा हो तो कुछ नुकसान नहीं होगा पर इन्हें उनकी कविता का पिंजड़ा बनाने से अजब-ग़ज़ब भाष्य पैदा होंगे. पहली धारणा है कि खरे का काव्य भाव और कल्पना को अति गौण करके विवेक पर आधारित है और पाठक को उसे भावात्मक स्तर के बजाय बौद्धिक स्तर पर ग्रहण करना चाहिए. यह विचार नया नहीं है.

अंग्रेज़ी के ऑगस्टन युग (18वीं शताब्दी) में कविता में भाव और कल्पना पर नियंत्रण तथा विवेक पर बल दिया गया. (देखें अलेक्ज़ांडर पोप : ऐन एसे ऑन क्रिटिसिज़्म). इसके विरोध में अंग्रेज़ी रोमैंटिक आंदोलन का सूत्रपात हुआ. रोमैंटिक कवियों ने सिद्ध किया कि श्रेष्ठ कविता पोप के विधि-निषेधों के बाहर न केवल लिखी जा सकती है बल्कि बेहतर लिखी जा सकती है. बौद्धिक कविता काव्य का विकसित रूप नहीं है, न भाव और कल्पना की कविता पिछड़ी है. ऐतिहासिक रूप से क्रम उल्टा भी रहा है. 

दूसरी धारणा यह है कि खरे का काव्य वर्णनात्मक है. वर्णनात्मक काव्य- परंपरा भी बहुत पुरानी है. 17 वीं शताब्दी के मध्य में वर्णनात्मक कविता का आरंभ इतिवृत्तात्मक काव्य में रूपक तथा अन्य अलंकरणों की अधिकता के प्रतिक्रिया- स्वरूप हुआ. यह परंपरा समाप्त नहीं हुई. वर्ड्सवर्थ की ‘परफ़ेक्ट वुमन’ और एमिली डिकिंसन की ‘समर शॉवर’ इसके अच्छे उदाहरण हैं. हिंदी में निराला की ‘भिक्षुक’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ वर्णनात्मक कविता के उदाहरण हैं. यह भ्रम है कि वर्णनात्मक कविता में बिम्ब और रूपकादि होते ही नहीं हैं. इस तरह की कविता में जटिल बिम्बात्मकता और अलंकरण को दूर रखते हैं परंतु शाब्दिक बिम्ब तो होते ही हैं और उपमा या रूपक का सीमित प्रयोग भी होता है. जिस कविता पर विचार करने जा रहे हैं उसमें भी एक उपमा, एक रूपक और एक उत्प्रेक्षा का प्रयोग हुआ है.

तीसरा आग्रह यह है कि खरे का काव्य-‘परसोना’ या वाचक तटस्थ है, उसके भाव या विचार कविता में प्रकट नहीं होते. यह पूरी तरह सही नहीं है. ‘एक कम’ कविता पूरी तरह काव्य- परसोना के विचारों के विषय में है. ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ एक ‘ड्रमैटिक मोनोलॉग’ है जिसमें वाचक की तटस्थता असंभव है. परंतु जिस कविता की चर्चा हम करने जा रहे हैं उसमें वाचक तटस्थ प्रतीत होता है.
(द्वारा अरुण देव )

यह भूमिका इसलिए आवश्यक हुई कि कविता ‘लड़कियों के बाप’ की इस टीका में परम्परागत उपकरणों का काफी प्रयोग होगा. कोई यह आपत्ति न उठाये कि खरे की कविता के लिए ये उपकरण अनुपयुक्त हैं. काव्यशास्त्र स्वयं एक विकासशील अनुशासन है, अत: नई आलोचना और उसकी परवर्ती विचारधाराओं को भी ध्यान में रखना होगा.

‘लड़कियों के बाप’ कई छोटे शब्द-चित्रों से निर्मित एक वर्णना है जो अपने आप में पूर्ण है. इसके ऊपर कोई निश्चित अर्थ आरोपित करना अनावश्यक है. इसमें सामाज या व्यवस्था के बारे में कोई सिद्धांत खोजना भी व्यर्थ ही है. परंतु यह वर्णना पाठक की कल्पना को किस तरह उत्तेजित करती है और उसकी सामाजिक समझ को किस तरह विस्तार देती है इसकी जाँच करना फलप्रद होगा.


पहली आठ पंक्तियों में जिनका चित्र है वे निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग से आये लग रहे हैं. लड़की को नौकरी की परीक्षा दिलाने लाये हैं. देर से पहुंचे हैं इसकी हड़बड़ी है. देर से न पहुंचते तब भी शायद हड़बड़ी में रहते. परीक्षा के बारे में उत्कंठा है, माहौल में असहज हो रहे हैं या हड़बड़ी स्थायी भाव है. जो साइकिल से आये हैं वे ऑफ़िस के गेट के पहले ही उतरकर पैदल आते हैं. ऑफ़िस और ऑफ़िस वालों के प्रति पूर्ण संभ्रम का भाव है – उनके सामने सवारी से उतरना ठीक नहीं लगता. हम कल्पना कर सकते हैं कि ये वे ग़रीब पिता हैं जो अपने वर्ग में प्रगतिशील हैं, लड़की को पढ़ाया-लिखाया है और स्वावलंबी बनाना चाहते हैं. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि वे लड़की को अकेले परीक्षा-भवन तक नहीं भेजते.


हम इन पिताओं के आय के एक ही कोष्ठक में होने का अनुमान करते हैं.साइकिल और रिक्शे से आने वालों की हैसियत में थोड़ा फ़र्क़ हो सकता है. बाद की पंक्तियों में आता है –

“और टाइपराइटरों की उम्र उनके लिए
दिये गये किराये के अनुपात में”.

इससे भी लगता है कि यह वर्ग पूरी तरह अविभक्त या ‘अनडिफ़रेंशिएटेड’ नहीं है.

कवि कूँची के ब्रॉड स्ट्रोक लगाकर रंग भरने का बहुत सा काम पाठक के लिए छोड़ देता है. हम अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर इन चरित्रों को, उनके घर-परिवार को, यहां तक कि उनकी शक्लों को कल्पित करते हैं और उनसे तादात्म्य स्थापित करते हैं. दो छोटे शब्द-चित्रों और कुछ शब्दों में कई पृष्ठों के गद्य का काम ले लिया. कुछ दिनों पहले एक टिप्पणी में मैंने कविता को शाब्दिक कंजूसी की कला कहा था. यहां यह कला पूरे निखार पर है. कथ्य के कितने आयाम चंद पंक्तियों में व्यक्त हुए हैं !

सात-आठ पंक्तियों में इम्तिहान देने आई लड़कियों का वर्णन है – सादा, घरेलू, दुबली-पतली, पढ़ाई-लिखाई में औसत या कम रही, ग़लत अंग्रेज़ी बोलने वाली, दब्बू आदि. फिर ये अनासक्त पंक्तियाँ जो अनासक्त होने के कारण और भी प्रभावोत्पादक  हो गई हैं –

´किसी के चेहरे पर सुख नहीं
हर एक के सीने सपाट
कपड़ों पर दाम और फ़ैशन की चमक नहीं
धूल से सने हुए दुबले चिड़ियों जैसे
सांवले पंजों पर पुरानी चप्पलें ’


इन पंक्तियों में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसका एक ही अर्थ हो. ‘चेहरे पर सुख नहीं‘ का अर्थ केवल ग़रीबी, बेकारी, अभाव, अनिश्चय और उद्देश्यहीनता का दु:ख नहीं है, बल्कि जीवन में किसी भी उस चीज़ का अभाव है जो सुख का कारण बन सके. जो चीज़ें अच्छी दिखती हैं , जैसे शिक्षा, वे भी सुखद अनुभव नहीं रहीं – “हर इम्तहान में किसी तरह पास” होना, बस. ग़रीब की साधारण शैक्षणिक उपलब्धि वाली लड़की का जीवन उन छोटे सुखों से भी वंचित है जो उसे अपढ़ रहकर मिल जाते. इसी तरह सपाट सीना केवल कुपोषण का रूपक नहीं है, मध्यवर्गीय सुरुचि प्राप्त करने के अवसर का अभाव, उसे व्यवहार मे परिणत करने के लिए अर्थ का अभाव, इनके सबके पीछे जाकर अपने को सुंदर दिखाने का विचार भी न आना आदि कई अर्थ गुंफित हैं. अंतिम दो पंक्तियों में चिड़िया के पैरों से लड़कियों के पांवों की तुलना भी ऐसी ही है. ‘सांवले पंजे’ एक रूपक है - परवाह न किये जाने का या परवाह करने की असमर्थता का. वरना यह तो संभव नहीं लगता कि सभी लड़कियां सांवली हों.

कहानी (यह कहानी ही है) का असली घटनाक्रम अब आरंभ होता है. इसके 5 पद हैं –

1.लड़की को परीक्षा कक्ष तक पहुंचाना,
2. ऑफ़िस में सोर्स-शिफ़ारिश की जुगत ढूंढ़ना
3. साक्षात्कार में सहायता करने की चेष्टा,
4. परिणाम पता करने की चेष्टा और
5. वापस लौटना.

इस समस्त घटनाक्रम के नायक पिता हैं. परीक्षा के बाद तीन संक्षिप्त शब्दों में वापस चलने के अनुरोध के अलावा लड़की चुप रहती है. मुद्रा या हरकत से भी पिता पर कोई भाव ज़ाहिर नहीं करती. पिता उसे टाइपराइटर सहित तीसरी मंज़िल पर स्थित कक्ष तक ले जाते हैं हालांकि लड़की आसानी से मशीन का बोझ उठा सकती है. कक्ष में पहुंचकर लड़की का उत्साह बढ़ाते हैं (और कदाचित् पहले से अधिक नर्वस कर जाते हैं); लेकिन असली उद्देश्य यह अंदाज़ा लगाना है कि परीक्षा के दौरान कोई मदद हो सकती है क्या. अंत में बाबू और चपरासी द्वारा भगाये जाते हैं. लड़की उनके व्यवहार पर लज्जित हुई होगी यह ख़्याल भी उनके दिमाग़ में नहीं आता.

दूसरे चरण में पिता पता करने की कोशिश करते हैं कि उनकी जाति या उनके इलाक़े का कोई है क्या जिससे मदद मिलने की उम्मीद हो. कोई पिता चाय पीने जाते हुए कुछ बाबुओं के पीछे लग जाते हैं और तमाम झूठ बोलकर उनसे संवाद बनाने का प्रयास करते हैं. बाबू उनकी पुत्री को लेकर कुछ अनुचित कहते हैं पर वे न सुनने-समझने का बहाना करते हैं. फिर भी बाबू लोग घास नहीं डालते.

साक्षात्कार के समय वे हर लड़की से आग्रह करते हैं कि उससे जो पूछा जाय वह अन्य लड़कियों से साझा करे. कोई लड़की साक्षात्कार खराब करके आती है तो वे कुछ दु:ख- प्रकाश करते हैं पर अंदर से ख़ुश भी होते हैं. जब उनकी लड़की बाहर आती है तब लगता है वह भी कुछ अच्छा करके नहीं आई है.

ऑफिस द्वारा सूचित किया जाता है कि परिणाम बाद में भेज दिया जायेगा.फिर भी देर तक पिता लोग इस चक्कर में मडराते रहते हैं कि शायद कुछ इशारा मिल जाय.

हारकर वापसी की तैयारी होती है. रिक्शा खोजने दूर तक जाना पड़ता है,दाम भी ड्योढ़े देने पड़ते हैं. साइकिल वाले कन्या को अपने सामने बिठाकर चलते हैं जिस पर वाचक की यह उत्प्रेक्षा है -

“दूर से वह अपने बाप की गोद में
बैठी हुई लगती है”


काव्य-विषय (Themes)

सबसे महत्त्वपूर्ण थीम अंतिम पंक्तियों में प्राय:स्पष्ट रूप में व्यक्त हुई है. पढ़ी-लिखी होकर भी लड़की का पिता से संबंध आश्रिता का है. नौकरी के इम्तहान में बैठना एक ऐसा काम है जिसमें उसे पूर्ण रूप से ख़ुदमुख़्तार होना चाहिए था पर बाप की भूमिका प्रबल मालूम पड़ रही है. शिक्षा बाप- बेटी के पारस्परिक संबंध में सत्ता या स्वायत्तता का हस्तांतर लड़की के पक्ष में नहीं कर पाई है. बल्कि शिक्षा ने लड़की को अपनी शक्तिहीनता का बोध कराकर उसका सुख और नष्ट ही किया है. परंतु यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कविता में एक पंक्ति भी ‘जजमेंटल’ नहीं है. कवि ने वस्तुसत्य के चित्र प्रस्तुत किये हैं; किसी पात्र को दोषी नहीं ठहराया.

दूसरी थीम साधारण व्यक्ति की शक्तिहीनता है. व्यवस्था उसके लिए एक रहस्यमय और आतंक पैदा करने वाली चीज़ है. कविता में स्पष्ट नहीं है नौकरी देने वाला कार्यालय सरकारी है या निजी. इतना स्पष्ट है कि कविता में कोई संकेत नहीं है कि परीक्षा में किसी प्रकार की अनियमितता हुई है या हो सकती है. परंतु सरकारी हो या निजी, व्यवस्था की संघटनात्मक संस्कृति में सामान्य जन का कोई स्थान नहीं है. इसलिए उसका व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण अविश्वास, भय और संशय से निर्धारित होता है.

तीसरी थीम गौण है फिर भी उल्लेखनीय है. लोगों ने अनियमितता, भ्रष्टाचार और अन्याय को जिस सहजता से सामान्य और स्वाभाविक मान लिया है वह चिंतनीय है. पिता लोग स्वयं अपनी पुत्रियों को अनुचित लाभ मिल जाय इस प्रयास मैं सारा समय बिताते हैं.


कथ्य
कविता में जो कथा कही गई है उसका अंत औपचारिक अंत के पहले ही इन शब्दों में हो जाता है –

 ‘तू फिकर मत कर बेटा बहुत मेहनत
 की है तुमने इस बार
 भगवान करेगा तो तेरा ही हो
 जायेगा वगैरह कहते हुए
 और लड़कियां सिर नीचा किये
 उनसे कहती हुईं पापा अब चलो.’

‘इस बार’ से लगता है लड़की पहले इस तरह की परीक्षाओं में असफल रही है. आज पिता की बातें उसे बल नहीं दे रही हैं, बल्कि और अवसादग्रस्त कर रही हैं. पिता की बात काटकर वह कहती है, “पापा अब चलो”. इन शब्दों में आज के परीक्षाफल के लिए निराशा, पिता के खोखले दिलासे के प्रति झुंझलाहट और अपनी परिस्थितियों से आजिज़ी एक साथ व्यक्त हुए हैं.

यह निम्नवर्गीय बेटियों और उनके बापों की ट्रैजिक कथा है जो कवि की भावशून्य कथन-शैली के ‘कंट्रास्ट’ द्वारा और गहन बन गई है. यह एक ग़रीब परंतु उच्चाकांक्षी वर्ग है जिसकी लड़कियां अपनी स्थिति को बदलने का प्रयास करती हैं. स्कूल या कॉलेज की शिक्षा में उनकी उपलब्धि औसत या कम है. फिर भी शिक्षा एक परिवर्तन का संकेत है. परंतु उनके परिवेश में कोई अंतर नहीं आया. पिता के साथ उनका संबंध ‘डिपेंडेंसी’ का है. सामाजिक रूप से वे अकुशल हैं –

...बड़ी मुश्किल से कोई
जवाब दे पाने वाली ’.

वे ग़रीब हैं और दिखती हैं. नौकरी के इंटरव्यू में उनके पिछड़े ढंग के पहरावे और सामाजिक कौशल की कमी का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. पिता का इतना रक्षणशील होना उन्हें सीमित करता है. पर लड़की की तरह पिता भी ‘विक्टिम’ है. न उसकी हैसियत है कि वह अपनी लड़की को स्वस्थ, पुष्ट, सुपरिहित, आकर्षक इत्यादि बना सके न उसमें इतनी वैचारिक सामर्थ्य है कि अपने आपको ही बदलना चाहे. जिस दुनिया में उसकी लड़की को प्रवेश चाहिए वह प्रतिकूल ही नहीं वैरपूर्ण है. यह ट्रेजेडी एक समूचे वर्ग की लड़कियों और उनके परिवारों की ट्रेजेडी है.



इस कथा में पिता थोड़ा हास्योत्पादक चरित्र लगता है. वह स्पष्टत:इतना जानकार या चतुर नहीं है जितना वह अपने आप को समझता है. वह मूर्खतापूर्ण हरकतें करता है और दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया से यह नहीं समझ पाता कि वह ऐसा कर रहा है. लड़की की राह में वह अनजाने बाधा भी बन रहा है. परंतु वह अपने व्यवहार की अनुपयुक्तता से पूरा बेख़बर है. उसके इरादे लड़की के लिए असंदिग्ध रूप से अच्छे हैं. बस उनका असर उल्टा होता है. यह विडंबना इस कथा के केंद्र में है.


कविता की वैकल्पिक व्याख्यायें संभव हैं – कि वह पितृसत्ता को निशाना बनाती है, व्यवस्था की एक वर्ग के प्रति ‘होस्टिलिटी’ को रेखांकित करती है, वर्ग-चेतना के अभाव में अलग-अलग भयभीत निम्नवर्गीयों की कथा कहती है, आदि. मेरे विचार से कार्य-कारण-भित्तिक ऐतिहासिक, सामाजिक और अर्थनीतिक विश्लेषण का आधार कविता के पाठ से नहीं बनता.
__________
शिव किशोर तिवारी
(१६ अप्रैल १९४७)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए.


२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoo.com

रंग-राग : मंटो जल बिच मीन पियासी रे : यादवेन्द्र

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सआदत हसन मन्टो (११ मई १९१२- १९५५) उर्दू ही नहीं विश्व के कुछ बड़े कथाकारों में एक हैं, बटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये, जहाँ मुफलिसी और गुमनामी में उनकी मौत हुई. आज भी उन्हें हिंदुस्तान का ही कथाकार समझा जाता है. युवाओं में उनके प्रति दिलचस्पी कभी कम नहीं हुई. फिराक गोरखपुर ने ठीक लक्ष्य किया है कि ‘मन्टो ग़ालिब की तरह हर एक बात में अपने को दूसरों से अलग रखना चाहते थे.’ जिस कथा-परम्परा में अभी सुधारवाद और सामजिक- चेतना के अंकुर फूट रहें हों उसमें एकदम से नग्न यथार्थवाद की उनकी स्थापना बड़ी छलांग थी.

उनके जीवन पर आधारित नंदिता दास की फ़िल्म मंटों इधर चर्चा में है. यादवेन्द्र ने इस फ़िल्म को दो बार देखा है. उनकी विवेचना आपके लिए.


मंटो : जल बिच मीन पियासी रे                             
यादवेन्द्र



हुत लंबी प्रतीक्षा करने के बाद नंदिता दास की फ़िल्म "मंटो"देखने को मिली- बतौर लेखक मंटो और बतौर फ़िल्म कलाकार नंदिता दास  मेरे प्रिय लोग हैं. मंटो को वैसे मैं उनकी कहानियों के माध्यम से ही जानता हूँ - यह स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म नहीं कि उनके निजी जीवन के बारे में थोड़ी सी जानकारी मुझे इस्मत चुगताई की आत्मकथा से हुई जिसमें वे खुद की और मंटो की कहानियों पर लगे अश्लीलता के मुक़दमे के बारे में बड़े खिलंदड़ अंदाज़ में पाठकों को बताती हैं कि मुक़दमे के बहाने उन्हें चाट पकौड़े खाने के भरपूर मौके मिले. इसके अलावा मैंने उनके जीवन के बारे में और कुछ नहीं पढ़ा- हाँ, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी  रचनाओं में बंबई की फ़िल्मी दुनिया के कुछ जाने माने नामों के बारे में लिखे उनके शब्दचित्रों में कहीं कहीं वे स्वयं उपस्थित हो जाते हैं- जैसे श्याम, नरगिस,अशोक कुमार इत्यादि के साथ साथ.

इन किरदारों में से दिल्लगी के "तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी"की ख्याति वाले श्याम नंदिता दास की फ़िल्म में एकाधिक बार अपनी अमिट छाप छोड़ते हुए प्रकट भी होते हैं.उनकी इतनी गहरी दोस्ती को दोनों के अपनी अपनी संस्कृतियों की दकियानूसी जीवनशैली के प्रति विद्रोही होना कहा जा सकता है. वास्तविकता जाने क्या है पर यह फ़िल्म श्याम के एक वाक्य को ही मंटो के अंततः भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले जाने का जिम्मेवार मानती है- उनका परिवार पहले से पाकिस्तान जा चुका था पर वे स्वयं बंबई की जबरदस्त मुहब्बत में गिरफ़्तार थे. जब भी उनसे कोई पाकिस्तान जाने के बारे में पूछता तो उनका सधा हुआ जवाब होता : "मैं चलता फिरता बंबई हूँ.हो सकता है अगर बंबई पाकिस्तान चला जाए तो उसके पीछे पीछे मैं भी चल पडूँ."

इतिहास गवाह है कि बंबई तो पाकिस्तान नहीं गया पर मंटो लाहौर चले गए और तंगहाली और अपमान झेलते-झेलते वहीँ सुपुर्दे ख़ाक हो गए. जिस शहर का नाम जपते जपते मंटो दुनिया से चले गए कोई अचरज नहीं कि जब उनका इंतकाल हुआ बंबई के किसी अखबार ने यह खबर छापना मुनासिब नहीं समझा- यह मेरा नहीं "हिंदुस्तान टाइम्स"की एक कॉलमिस्ट का कथन है-और जिस गली में कभी मंटो रहा करते थे उसका नाम बंबई कभी न आये मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम पर रख दिया गया है, मंटो मार्ग रखने पर कहीं कोई अश्लील न कह दे.विभाजनकारी शक्तियाँ इंसानी भावनाओं को कैसे मार डालती हैं इसका इस से वीभत्स सबूत और क्या हो सकता है.


नंदिता दास की फ़िल्म 1946 - 1950के बीच के पाँच सालों का बयान करती है - जाहिर है ये साल मंटो नामक इंसान के ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सबसे ज्यादा उथल पुथल वाले थे .... 

वास्तविकता यह है कि सौ सालों बाद भी आज मंटो को जिन कहानियों के कारण याद किया जाता है वे उसी दौर की खुरदुरी जमीन से उपजी थीं. सरहद के दोनों तरफ़ गैरबराबरी,गरीबी और मजहबी नफ़रत का सैलाब उमड़ रहा था और इनके बीच बार बार अपनी बेवाकी और समझौता विरोधी रुख के कारण मंटो तरह तरह से जलील किये जाते हैं- एक तरफ़ लेखकीय दायित्व था तो दूसरी तरफ़ परिवार की रोजाना की जरूरतें (उनकी पत्नी साफ़िया का भेस धारण करने वाली रसिका दुग्गल ने अपनी लाचार निगाहों के बीच पति के लिए प्यार और जिम्मेदारी की जो छवियाँ पेश की हैं वे महीनों तक दर्शकों का पीछा करती रहेंगी) और इनके बीच कोर्ट कचहरी के चक्कर काटता बे नौकरी बे सहारा लेखक .... और तो और फ़ैज जैसा तरक्कीपसंद शायर भी उनका हाथ थामने को सामने से तैयार नहीं होता (छुपछुप के वह अपनी सहानुभूति जरूर प्रदर्शित करता है) 

हालिया सालों में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार सबसे असरदार ढंग से निभाते हुए नसीरुद्दीन शाह ने जो ऊँचा पैमाना कायम किया था मुझे लगता है नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने उसको छूने की बहुत अच्छी और सफल कोशिश की है..... उन्होंने  अपने फ़िल्मी करियर में इससे ज्यादा भावपूर्ण और पारदर्शी अभिनय नहीं किया होगा. पर लगे हाथ यह बात मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ रेखांकित करना चाहूँगा कि रसिका दुग्गल अपनी भूमिका में जरा सा भी लडख़ड़ातीं तो मंटो का किरदार ऐसा सितारों जैसा चमचम न चमक पाता - इसका न्यायोचित श्रेय उन्हें जरूर दिया जाना चाहिए.

विडंबना देखिये कि कबीर की तरह अपने विचारों के लिए किसी भी हद तक जाने का जोखिम उठाने वाले आग्रही मंटो भी दो विरोधी ध्रुवों के बीच नींबू के फाँक की तरह आधा आधा बँटे रहे - सांस्कृतिक समझ रखने की छवि वाला अखबार  "जनसत्ता"फिल्म के बारे में लिखते हुए बार बार मंटो को पाकिस्तानी लेखक कहता है और उधर पाकिस्तान का प्रमुख अखबार "डॉन"एक साहित्यिक आलोचक असलम फ़ारुकी के हवाले से कहता है कि उनके देश में मंटो को हिंदुस्तानी लेखक माना जाता है. बकलम मंटो : "मैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लूँ, हिंदुस्तान को पाकिस्तान से और पाकिस्तान को हिंदुस्तान से अलग नहीं कर पाता हूँ."  फिल्म में हिन्दू टोपी और मुस्लिम टोपी का रूपक इस सांस्कृतिक विभाजन का प्रभावशाली वक्तव्य है.


नंदिता कहती हैं कि 2012में वे पहले पहल मंटो की कहानियों पर फ़िल्म बनाने को उद्यत हुईं पर धीरे धीरे लगने लगा कि मंटो की कहानियों को समझना है तो उनकी कहानियों के बीच से दर्शकों को गुजारना होगा- आखिर हर दर्शक मंटो की कहानियाँ  पढ़ कर तो फ़िल्म देखने नहीं आएगा. सही , पर मंटो के इंसानी किरदार के साथ कहानियों को बस आड़े तिरछे जोड़ दिया गया है जबकि दरकार महीन और कलात्मक तुरपाई की थी - यहाँ निर्देशक से बड़ी और अक्षम्य भूल हो गयी जिसको किताब की तरह अगले संस्करण में सुधारना शायद सम्भव नहीं होगा. हॉल में मेरे आसपास बैठे कई दर्शक अंतिम दृश्यों में टोबा टेक सिंह के बिशन सिंह को मंटो का आख़िरी रूप समझ बैठे थे- इस से एक तो यह हुआ कि उस कहानी का मारक प्रभाव भोथरा हो गया और दूसरा यह कि दर्शक पूरी फ़िल्म का गलत निष्कर्ष ले कर बाहर निकला.

"ठंडा गोश्त"वाला हिस्सा बेहद प्रभावशाली था पर आसपास बैठे दर्शकों की बातचीत से मालूम हुआ वे मंटो के जीवन से इसका क्या ताल्लुक था यह समझ नहीं पाए. फ़िल्म देखते हुए मुझे कोई पन्द्रह साल पहले फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों को उनके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के साथ जोड़ कर दिल्ली के श्रीराम सेंटर में प्रस्तुत संजय उपाध्याय का यादगार नाटक (शीर्षक याद नहीं आ रहा) याद आता रहा - कहानियों के बीच एक वाचक के तौर पर रेणु की उपस्थिति इतनी सहज थी कि कब नई कहानी शुरू हो गयी यह पता नहीं चलता था.इतना ही नहीं लतिका जी की सहज आवाजाही भी बनी रहती थी. उम्मीद है मेरी इस बात को प्रकारांतर नहीं समझा जाएगा.

वैसे नंदिता दास एक इंटरव्यू में कहती हैं कि जो कुछ भी उन्होंने फ़िल्म में दिखलाया वह 95फ़ीसदी प्रामाणिक है- मंटो और साफ़िया अपने अंतरंग पलों  में क्या बात करते थे उनकी तफ़सील छोड़ दें तो- पर इस्मत चुगताई की "लिहाफ़"कहानी की चर्चा वाला जो जो प्रसंग है मुझे याद आ रहा है कि उसके बारे में पूर्व प्रकाशित विवरण कुछ और कहते हैं - "इस्मत, तुम तो बिल्कुल औरत निकलीं", तथ्यात्मक हो या नहीं पर मंटो का यह जुमला लोक मानस में बसा हुआ है. उनका बार बार यह कहना है कि यथासंभव उन्होंने फिल्म स्क्रिप्ट की प्रमाणिकता के साथ कोई गड़बड़ी न हो इसके लिए मंटो की बेटियों, सफ़िया की बहन और अन्य परिजनों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखा.

जब नवाजुद्दीन यह कहते हैं कि उनके पास मंटो के चाल ढाल या बात करने की शैली को जान पाने का कोई जरिया नहीं था और अपने और निर्देशक के विवेक से हमने जो सही समझा उसी को परदे पर उतार दिया तो बाज़ार का वह दर्शन एक बारगी स्पष्ट हो जाता है जिसके चलते  राजकमल प्रकाशन की मंटो की कहानियों के नए संकलन के आवरण पर मंटो की वास्तविक तस्वीर छापने के बदले संवेदनशील पाठकों की भावनाओं की अनदेखी करते हुए नवाजुद्दीन सिद्दीकी की तस्वीर छापने का फ़ैसला किया जाता है. आम जन अब मंटो को नवाजुद्दीन की बॉडी लैंग्वेज से जाने पहचाने तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए बल्कि फ़िल्म की सफलता माना जाना चाहिए.इसका उदाहरण हाल में बंगाल की पाठ्यपुस्तक में मिल्खा सिंह के स्थान पर फ़रहान अख़्तर की तस्वीर छपने से मिल चुका है.


मंटो को कहानीकार के साथ साथ बंबई की फ़िल्मी दुनिया और उसके आसपास की दुनिया के शाब्दिक छायाकार के रूप में जाना जाता है और इस फ़िल्म में तमाम फ़िल्मी कलाकार(अभिनेता, संगीतकार, लेखक इत्यादि) परदे पर उपस्थित भी होते हैं - दर्शक की यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि मंटो की लिखी किसी फ़िल्म के बारे में कुछ देखे सुने. यदि उन दिनों उन्होंने रेडियो के लिए कुछ लिखा तो वह भी फ़िल्म में समेटा जाता तो अच्छा होता. इसी तरह जिन कालजयी कहानियों की चर्चा होती रही है उनके लिखने के कच्चे माल और उनको लिखने के लिए मजबूर करने वाले वास्तविक किरदारों के बारे में जानना मंटो को ज्यादा समग्रता के साथ जानना होता.

निर्देशक ने फ़िल्म की संकल्पना लगभग पूरी की पूरी दीवारों के अंदर (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो)की है इसीलिए इसका निर्माण भी इसी पैटर्न पर किया गया है - पर 1946से लेकर 1950का कालखंड अभूतपूर्व बाहरी उथल पुथल का ज्यादा रहा, सरहद के इधर  हो या उस पार. आज़ादी की लड़ाई के दौरान बंबई की सड़कों पर देश के अन्य भागों की तरह ही निश्चय ही राजनैतिक आंदोलनों और सांप्रदायिक लपटों का बोलबाला रहा होगा- मालूम नहीं यह फ़िल्म उन सभी तीखी क्रियाओं प्रतिक्रियाओं को समेटने से जानबूझ कर बचती रही है या अनजाने में ऐतिहासिक भूल हो गयी है. पूरी फ़िल्म में मंटो ऐसी किसी  ऐतिहासिक घटना, आंदोलन या शक्ख्सियत का ज़िक्र नहीं करते हैं - भारत या पाकिस्तान के- जो उनके साहित्यिक या व्यक्तिगत निर्माण में बड़ी भूमिका निभाए.

आखिर अपने जन्म और कर्म के देश से उखड़ कर धार्मिक उन्माद के धरातल पर बने दूसरे देश चले जाने का फैसला मंटो जैसे अधार्मिक इंसान के लिए आसान कभी नहीं रहा होगा- व्यावहारिकता कहती है कि अंतरंग मित्र श्याम का एक वाक्य इतने बड़े और जानलेवा फैसले का आधार कभी नहीं बन सकता. फ़िल्म में विभाजन की भयावहता और अमानवीयता ज्यादा वीभत्स रूप में  उभर कर आनी चाहिए थी - हाल के वर्षों में "तमस","पिंजर"  और "भाग मिल्खा भाग"इस वहशीपन को ज्यादा असरदार तरीके से उभार पाए थे. इस फ़िल्म में अशोक कुमार के साथ मंटो के दंगाइयों से घिर जाने वाला प्रसंग भी दर्शकों को ज्यादा विचलित नहीं करता.

पाकिस्तान में अपने जीवन के अंतिम दिनों में मंटो ने अंकल सैम को जो चिट्ठियाँ लिखी हैं वे इस बात की ताकीद करती  हैं कि वे गहरी राजनैतिक सोच और रुझान वाले बुद्धिजीवी थे - उन्होंने भारत पाकिस्तान बँटवारे पर "टोबा टेक सिंह"जैसा आख्यान लिखा तो इस विभाजन पर हमला करते हुए सीधी राजनैतिक टिप्पणियाँ भी जरूर की होंगी. उनकी सोच का खुलासा करने  के लिए यह उद्धरण ही काफ़ी है : यह मत कहो कि दस हजार हिन्दू मरे या दस हजार मुसलमानों का कत्ल कर दिया गया - सीधे सीधे यह कहो कि बीस हजार इंसान मौत के घात उतार दिए गए ....  आज के देश के साम्प्रदायिक माहौल को देखते हुए मंटो के राजनैतिक वक्तव्यों को ज्यादा जगह मिलती तो ज्यादा प्रासंगिक होता.

मंटो का कश्मीरी कनेक्शन अक्सर दरी के नीचे दबा छुपा दिया जाता है - उनकी आंतरिक बेचैनी और उबाल को इसके साथ जोड़ कर भी देखा जाना चाहिए .... देश के बँटवारे के गवाह रहे मंटो की कश्मीर के राजनैतिक हाल पर कोई राय न रही हो यह विश्वास करना मुश्किल है. यदि कोई ऐसा सन्दर्भ न मिलता हो जिसमें वे कश्मीर के बारे में अपनी राय बतायें तो फ़िल्म उसपर चुप न रहे तो क्या करे- पर मंटो के बोलचाल में थोड़ा कश्मीरी ऐक्सेंट डाल दिया जाता तो मुझे लगता है इस चरित्र की नाटकीयता थोड़ी और बढ़ जाती.

फ़िल्म जहाँ खत्म होती है और परदे पर क्रेडिट्स लिखे दिखाई देने लगते हैं तब महत्वपूर्ण गीत "बोल के लब आज़ाद हैं तेरे"(फ़ैज अहमद फ़ैज की कालजयी रचना) सुनाने का कोई मतलब नहीं रह जाता - क्रेडिट्स देख कर लोगबाग अपनी कुर्सियों से उठ कर बाहर निकलने लगते हैं. मेरा मानना है कि पूरी फ़िल्म को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होते हमले के सन्दर्भ में व्याख्यायित करने वाली निर्देशक को इस गीत को प्रमुखता से फ़िल्म का महत्वपूर्ण ही नहीं अनिवार्य हिस्सा बनाना चाहिए था- या तो छोड़ देना चाहिए था.और स्वयं दीपा मेहता की फिल्मों के खिलाफ़ हिंसक विरोधों का सामना कर चुकी नंदिता अपनी इस फ़िल्म को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का प्रतिरोध बताती  हैं पर अफ़सोस, यह प्रतिरोध इतना शाकाहारी और भद्र है कि हुड़दंगियों को इसकी आवाज़ सुनाई नहीं देगी- समय का तकाज़ा है कि उन्हें अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए ज्यादा आक्रामक और थोड़ा हिंसक (कलात्मक तौर पर) होना जरुरी है.

बुरा लगता है यह देख कर कि नंदिता दास जैसी बेहद सजग व मुखर ऐक्टिविस्ट की यह फ़िल्म  तमाम ईमानदारियों और सदिच्छाओं के बावजूद  मजहबी जुनूनियों और हिंसक भीड़तंत्र को चेता नहीं पाती कि यह देश सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है नालायकों, तुमसे बिलकुल इत्तेफ़ाक न रखने वाले हम भी इसी धरती के लाल हैं. 

अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि मंटो सिर्फ़ एक इंसान या कहानीकार नहीं थे, ख़ास कालखंड की निर्मिति और उसको प्रतिनिधि स्वर देने वाली प्रवृत्ति थे- काल और समाज में व्याप्त गैरबराबरी और पाखंड की प्रतिक्रिया से बनी एक क्रांतिकारी और विद्रोही निर्मिति थे जो हुकूमत की असीम शक्ति की परवाह किये बिना असहमति के झंडे सबको दिखाई दे इतने ऊपर ले जाकर लहराने से बाज नहीं आते थे  और सबकुछ जानते  बूझते  हुए असमय मौत के पाले में कूच कर जाते हैं.

उनकी गुर्राहट, ललकार, प्रताड़ित किये जाने पर निकलती चीख पुकार उनके हर शब्द से निकलती है- यह उनके अक्षर अक्षर का सिग्नेचर ट्यून है. फिल्म की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि मंटो की यह इंकलाबी चीत्कार फ़िल्म का मुख्य स्वर बनने से रह गई .... कुछ दृश्यों में दर्शक थोड़े हाथ पाँव हिला कर असहज होता है पर फ़िल्म दर्शकों के मन पर हथौड़े जैसी बजती नहीं- प्रतिगामी प्रवृत्तियों को पटखनी देने वाला सकारात्मक आक्रोश फ़िल्म का स्थाई भाव बनता तो ज्यादा अच्छा होता .... नंदिता, आपको दर्शकों को हँसते बतियाते हुए हॉल से बाहर नहीं जाने देना चाहिए था.रचनाओं के माध्यम से हमलोग जिस मंटो को जानते हैं वे इतने सट्ल प्रतिरोध के नायक तो नहीं थे - बेतरतीबी, रुखड़ापन, शोरशराबा और बदलाव के लिए बेसब्री तीखे प्रतिरोध के "मंटो हथियार"थे. जो मरने से पहले ख़ुदा को चुनौती दे दे कि बताओ कौन बड़ा अफ़साना निगार है - तुम या मैं ? उसकी फ़ितरत ही  इंसान और समाज के मन में उथल पुथल करने की है.

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रंग-राग : मंटो : नीम का कड़वा पत्ता : सत्यदेव त्रिपाठी

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नंदिता दास की फ़िल्म मंटों पर आपने यादवेन्द्र का विचारोत्तेजक आलेख पढ़ा, आज प्रस्तुत है सत्यदेव त्रिपाठी की यह विवेचना जो इस फिल्म की मुकम्मल पड़ताल करती है. 
सत्यदेव त्रिपाठी हिंदी में रंगमंच और फिल्मों पर लिखने वाले कुछ बेहतरीन लोगों में एक हैं. 


  
मंटो : नीम का कड़वा पत्ता                          
सत्यदेव त्रिपाठी








“मैं अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ, जिसमें समाज अपने को देख सके.”
“और यदि सूरत ही बुरी हो, तो आईने का क्या...?”
“मैं सोसाइटी के चोले क्या उतारूंगा, जो पहले से ही नंगी है !”
“यदि आप मेरी कहानियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो यह ज़माना ही नाक़ाबिलेबर्दाश्त है...”
आदि-आदि.



येतेवर हैं फिल्म ‘मण्टो’ में’ उर्दू के सरनाम अफ़सानानिग़ार सआदत हसन मंटो साहब के, जिसे बर्दाश्त न कर सके पिछली सदी के चौथे-पाँचवें दशक के मर्द, मज़हबी, हुक़्मरान, और फ़नकार व अदीब भी – उसी दौर के प्रगतिशील शायर फैज़ तक ने ‘ठण्डा गोश्त’ के ताल्लुक से मंटो की कहानियों को फ़ाहिश (अश्लील) न सही, साहित्य के दर्ज़े का नहीं माना. याने मंटो का पूरा समय उसे सह न सका.... लिहाज़ा मण्टो की कहानियों के आईने ही उसकी मरणांतक त्रासदी के सबब बने.... तो क्या आज मंटो पर जीवनीपरक फिल्म बनाकर नन्दिता दास यही तो नहीं पूछना चाह रहीं कि ऐसे तेवर को क्या बर्दाश्त कर सकेगा आज का समाज, सत्ता, साहित्य और कला – याने वही, आज का समय?

लेकिन इससे बडा सवाल यह कि क्या ऐसा तेवर आज बचा है लेखकों में? क्योंकि वे सच तो  वैसे ही हैं..., बल्कि आज कई गुना बडे गये हैं.... बडे होकर जीवन को झिंझोड भी रहे और झुलसा भी रहे हैं. जबकि आज जंग-ए-आज़ादी जैसी नृशंसता एवं मुल्क के बँटवारे जैसी वीभत्सता का कोई ऐतिहासिक हादसा भी नहीं है. तो क्या मण्टो का इतनी मरणांतक पीडा सहकर भी तीखे तेवर को बनाये रखने के ज़रिए नन्दिताजी आज के लेखकों को भी तो नहीं ललकार रही हैं?? जी हाँ, यही है इस फिल्म का सबब.... खराद पर हैं इसमें आज के सच और उसके मुक़ाबिल सत्ता भी, समाज भी और रचनाकार भी. यही है फिल्म ‘मण्टो’ के मौजूँ होने की धनक. 


फिल्म की संरचना इतनी सांकेतिक है कि 71 साल पहले के समय को आज से जोडने वाले सूत्र फिल्म के परिवेश में भी टँके मिलते हैं - पुरानी शैली की इमारतें – पत्थर और खपरैल की बनी भी, पुराने काट के कपडे, मुम्बई की लोकल, आज भी कहीं-कहीं दिख जाती घोडा गाडियां, पारसी-ईरानी होटेल्स, तब के बागीचे...आदि.

कहानियों के आईने में नुमायां उन सचों की चर्चा पर आने के पहले दो बातें और... पहली यह  कि काश, यह ललकार ‘संजू’ के हीरानी (हीरा+नी) भी सुनते और समझ पाते ‘बायोपिक’ का सही मतलब और मक़सद...!! दूसरी यह कि जीवनी पर बनी फिल्म कल्पना से बनी कथा (फिक्शन) नहीं, किसी जीवन का सच होती है, इसलिए कौन सी घटना या चरित्र कैसा और क्यों हो गया या वह कैसा होता, तो क्या सरोकार बनते, की समीक्षा यहाँ बेमानी होती है.


फिर जब 5-6 सालों से फ़िदाई की तरह इस फिल्म की पटकथा में डूबी नन्दिताजीजैसी प्रतिबद्ध व ज़हीन फिल्मकार के बर-अक्स तो ‘मण्टो’ में उकेरी सआदत हसन सम्बन्धी घटनाओं पर शक़ की गुंजाइश ही नहीं बनती – ये हौसला मुझको तेरे ‘कामों’ ने दिया है. बतौर उदाहरण मुम्बई के प्रेम में आकण्ठ डूबे मण्टो ने महज अपने गहरे हिन्दू मित्र की टिप्प्णी के नाते पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया, जो उनकी जिन्दगी के बर्बाद होने की प्रमुख वजह बना और फिल्म तथा मण्टो की जिन्दगी का निर्णायक मोड भी...; तो इतनी-सी बात पर जीवन भर का संत्रास ले लेने के लिए फिल्म ‘मण्टो’ या निर्देशिका पर शंका नहीं, इसे सआदत हसन की शख़्सियत का ख़ुलासा समझना होगा.


मित्र की भूमिका में श्याम बने ताहिर राज भसीनने ‘मर्दानी’ में जो छाप छोडी, वह यहाँ छूटी नहीं. इसी तरह फिल्म का हर टुकडा मण्टो के सोच व जिन्दगी के पट खोलता सिद्ध हुआ है और सिर्फ़ चार सालों (1946 से 50) पर अधारित यह बायोपिक मण्टो ही नहीं, आज तक के भारत-पाकिस्तान के सफर के लिए भी कितने अहम साबित हुए हैं, क्या बताने की ज़रूरत है?

(नंदिता दास)

यूँ तो फिल्म जगत में हमेशा ही कोई न कोई चलन (ट्रेण्ड) चलता रहता है और आजकल जीवनीपरक (बॉयोपिक) फिल्में चलन में हैं, जिसमें सबसे हिट है खेल और खिलाडियों का जीवन, जिनकी उपलब्धियां अधिकांशत: बाह्य होती हैं, साफ दिखती हैं- उनके श्रम में व उनकी सफलता में. लेकिन किसी लेखक-कवि पर फिल्म बनाना बहुत जटिल काम है, क्योंकि उनका जीवन जितना और जैसा बाहर से दिखता है, उससे कहीं अधिक अंतस् में पैठा रहता है, जिसके लिए मुहावरा बन गयी है बच्चनजी की पंक्ति – ‘कवि का पंथ अनंत सर्प-सा, बाहर-भीतर पूँछ छिपाये’.... और इसी जटिलता को साधने, मण्टो के अन्दरूनी पक्ष को खोलने की चुनौती के तोड के तहत नन्दिता ने उस काल के ज्वलंत इतिहास के साथ मण्टो की रचनाओं–ख़ासकर पाँच कहानियों- को भी जोड लिया है, जो फिल्मकार का ब्रह्मास्त्र साबित हुआ है. और बह्मास्त्र की ख़ासियत होती है- सब पर जीत की गैरण्टी और सबसे अकेला कर देना. 


तो यह रूपक यूँ सही उतरता है फिल्म पर कि मण्टो का अच्छा पाठक तो इस सिने-प्रक्रिया को, मण्टो की ज़हनियत को समझेगा और फिल्म का भरपूर लुत्फ़ उठायेगा, पर आम दर्शक से दूर हो जायेगी फिल्म. और इस रूप में फिल्म एक ख़ास समुदाय (क्लास) के लिए हो गयी है. नतीजा दिखा भी- बहुत कम सिनेमाघरों में लग पायी. कई छोटे शहरों में लगी ही नहीं – पूछ-ताछ होती रही. वितरकों के हवाले से इसी आशय की टिप्पणी की नन्दिता ने भी. और मुम्बई जैसे विराट नगर में जिन थोडी-सी जगहों पर लगी भी, उनमें पहले दिन (डे वन) से ही आलम यह रहा कि तीन-साढे तीन सौ लोगों की क्षमता वाले ‘जेमिनी’ (बान्द्रा - पश्चिम) में बमुश्क़िल 50-60 दर्शक थे.

इस मुद्दे पर कहना होगा कि दर्शक से भी थोडी-सी तैयारी (होम वर्क) की माँग करती है फिल्म – कम से कम इतनी कि निर्देशिका ने पाँच साल तैयारी की, तो दर्शक पाँच कहानियां तो पढे.... और उन 50-60 में 10-12 का एक समूह था, जो जानकार था और मण्टो के संवादों व अन्य पुरज़ोर अवसरों का लुत्फ़ ले ही नहीं रहा था, टिप्पणियों, क़हक़हों और तालियों आदि से सबके लिए लुत्फ़ लुटा भी रहा था.       

अब आइए, समय और हालात के साथ कहानियों को जोडने की प्रक्रिया का जायज़ा लें. दो ख़ास सच हैं मण्टो के लेखन में – स्त्री का तमामो रूपों में दैहिक शोषण और बँटवारे की मर्मांतक पीडा. यही दोनो सच मण्टो को मण्टो बनाते हैं. इतने रूप और चेहरे हैं इसके मण्टोनामे में कि क्या कहने... और एक से एक तंज लिए हुए तेज से तेजतर.... 


फिल्म में दो कहानियां खाँटी तौर से स्त्री पर हैं. शुरुआत ‘दस रुपये’से होती है, जिसमें किशोरी लडकी को वेश्या के रूप में ढाल दिया है घर वालों ने ही. और वह कार में ग्राहकों के साथ जाती है, समुद्र-तट पर पानी में खेलती है. खेलने की उम्र में खेल का यह विद्रूप!! फिर ‘सौ वॉट का बल्व’ में शायद पति है, पर औरतों का दलाल (परेश रावल) है.

चौराहे पर ग्राहक को पटाने में जितना विनम्र और दयनीय, कमरे में जाकर उतना ही पेशेवर. सोने-खाने का समय भी नहीं देता उस बेजान-सी काया को. अपनी बेबसी बताने पर खुशामद और संवेदना से मनाता है, पर न मानने पर उस मरेली-सी को मारपीट कर भी धन्धे के लिए भेजने में शातिर. इतना ही है फिल्म में- यह सवाल उठाता हुआ कि उसी धन्धे से खाने वाला यह मुस्टण्डा ख़ुद क्या करता है? इस तरह स्त्री के दो मुख्य पालक व पवित्र रिश्तों वाली कहानियां को चुनकर नन्दिताजी ने मण्टो के सोच का एक मुकम्मल आईना रखा है.

शेष तीनो कहानियां बहुत-बहुत मशहूर हैं, जिनमें अगली दो कहानियों ‘खोल दो’ ‘ठंडा गोश्त’ में बँटवारे के क़ाफिरेपन में स्त्री की शर्मनाक त्रासदी है. ‘ठण्डा गोश्त’ सर्वाधिक कुख्यात हुई. यही फिल्म का चरम (क्लाइमेक्स) है. पाकिस्तान में इसी पर मुक़दमा चलता है, जहाँ अदीब भी बेपर्द होते हैं. मरहूम फ़ैज़ की अदबी छबि उघडती है, तो आबिद अली आबिद बने चिरंजीव जावेद अख़्तर अपने अदा-ओ-अन्दाज़ में ठस्स होकर रह जाते हैं. फिल्म वहीं मण्टो के कहे को मण्टो बने नवाजुद्दीन से कहलवा कर अपने कला-कर्म को अंजाम देती है कि ऐसा करने वाला पूरा समाज (पति व माँ-बाप तक) आज़ाद है, पर इस घृणित सच को आईना दिखाने वाले लेखक पर केस चलता है.


इस चरम के बाद अंत होता है विभाजन की ख़ाँटी कहानी से. फिल्म के लिए सबसे धारदार व कई-कई मर्म भरे संकेतों से युक्त संयोजन में फिल्म-रूपायन की कला पाती है अपनी चरमरति (और्गाज़्म) के क्षण.... विभाजन में देश ही नहीं बँटा दो भागों में, वरन मण्टो का जीवन जहाँ गुज़रा, जहाँ दोस्त-यार रहे, जहाँ अफ़सानों के साथ हिन्दी फिल्मों आदि के लिए भी कहानियां लिखते हुए नाम-दाम पाया...और जहाँ माँ-पिता व बेटा भी दफ्न रहे, ऐसी बहुत-बहुत प्यारी, अज़ीज और दिलकश अपनी बम्बई (अब मुम्बई) ...जिसके छूटने और लाहौर जाकर ठौर पाने में मण्टो भी दो भागों में बँट गया था. और इस मुक़ाम पर आकर उसी का आईना बनते हुए फिल्म भी दो भागों में बँट गयी है.

फिर ऐसा कैसे सम्भव है कि बनाने वाली साबुत रह गयी हो? फिर फाँक होने से कैसे बच सकेगा कोई ज़हीन दर्शक भी? अंतिम हिस्से तक जाते-जाते इस फाँक का आईना तब फिल्म के आदमक़द हो जाता है, जब कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ का सन्दर्भ जुडता है. देश के बँटवारे के बाद किसी आम आदमी की समझ में यह कानून नहीं आया और उसका पालन कराने वाले फौजियों का सलूक समझ में नहीं आया कि कल तक जो घर सात पुस्तों से अपना था, जो पडोसी सदियों से दुख-सुख के साथी थे, वह घर पराया और पडोसी अज़नवी कैसे हो सकते हैं. 


इसी आम आदमी का प्रतिनिधि है वह सरदार टोबाटेक सिंह. मरता है दोनो देशों की सरहद पर – किसी की ज़मीन में नहीं (नो मैन्स लण्ड में). पर मरता कौन है? क्या सिर्फ सरदार? या सिर्फ़ मण्टो का प्रतिनिधि सरदार? महाभारत के कृष्ण ने ‘अन्धायुग’ में कहा है – हर सैनिक के साथ मैं ही तो मरा हूँ.... लेकिन यहाँ कोई कृष्ण नही है – सबके देश   तय हो गये थे.... सो, मरते हैं दो देश...!!

(मंटो का परिवार)


लेकिन इतने तीखे-कषैले-कडवे सचों को पालते-पालते और उनसे उबल-उबल कर उफनते-उफनते मण्टो बार-बार मर चुका था – जब-जब दुनिया ने इसके आईने में छबि अपनी देखी और पत्थर मण्टो को मारे...जब सम्पादक ने उसका कॉलम लौटाया, तो पन्ने फाडकर उसके मुंह पर फेंकते हुए मण्टो ही तो मरा... दोस्त के मुँह से अचानक ही सही, ताना सुनकर ‘इतना मुसलमान तो हूँ ही कि मारा जाऊं...’कहते हुए... ‘ठण्डा गोश्त’ के पन्ने वापस लेकर सीढियां उतरते हुए...कोर्ट में लोगों के आरोप सुनते हुए...और बेहद आजिज़ी से अपनी तक़रीर करते हुए...और सबके बाद दवा तक के लिए बेबस होते हुए... लेकिन सबसे त्रासद मौत तब हुई होगी, जब पत्नी सफिया से सुनना हुआ – तुम्हारे लिखने के कारण ही हम मरेंगे, लेकिन यह कहते हुए इतनी उदार-शालीन-सहयोगी सफिया भी जिन्दा कहाँ रही होगी? इन रूपों को अत्यंत संयम व सलीके से साकार करती सुरूपवती रसिका दुग्गल दर्शनीय ही नहीं, चिरकाल तक स्मरणीय रहेंगी.... लेकिन ग़रज़ ये कि सच का आईना दिखाने में मण्टो ने कितनी बडी कीमत चुकायी!!

पर फिल्म की अतल गहराई से रिसती है यह बात भी कि मण्टो ने भी सिर्फ आईना ही दिखाया. स्त्री-बेचकों को आईना दिखाया, सम्पादक के मुँह पर पन्ने दे मारे, पर जब बडा फिल्म -निर्माता (ऋषि कपूर) किसी औरत की जिस्म-नुमाई कर रहा था, तो देखकर भी अनदेखा करते हुए जो लौट आया, वो मण्टो ही था. सारे असह्य को सहने के लिए पानी से भी ज्यादा शराब में डूबा, सिगरेट में फुँका, पर कुछ करने की पहलक़दमी नहीं की. बख़्शती नहीं फिल्म इस लत तक को. बच्ची से कहलवा ही देती है – तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही.... याने फिल्मकार की ‘नज़रे-इनायत’ से बचता कोई नहीं, कुछ भी नहीं. लेकिन इतना सब करते हुए कुछ शेष नहीं छोडते नवाजुद्दीन भी...और मज़ा यह कि किसी दृश्य में नि:शेष होते भी नहीं दिखते – अभिव्यक्ति की भूख और सम्प्रेषण ऊर्जा का कोष इतना अजस्र है कि कितना भी उँडेलो, भरा-भरा ही रहता है.


शुरू में सुनगुन थी कि इरफान करेंगे यह भूमिका, पर नवाजुद्दीन को देखकर लगा कि इसी के लिए बने हैं वे – वे ही बने थे इसके लिए. बताया भी नवाज ने कि मण्टो जैसा चलना-बोलना-दिखना तो आसान है, पर उनकी विचार-चेतना (थॉट प्रोसेस) तक पहुँचना, उसे पाना आसान न था... मुहय्या कराया नन्दिता दास ने और इनके बनाये माहौल ने.... दास ने जो विधान रचा, उसमें मण्टो के आईने का रूपक यूँ फला-फूला कि सारे संवाद सांग रूपक (कम्पाउण्ड मेटॉफर) बन जाते हैं. फूहड-से दृश्यों में कला का सौन्दर्य झाँकने लगता है. और जो माहौल बना मण्टो के मुम्बई-जीवन का, उसमें इस्मत चुगताई (राजश्री देशपाण्डे) जद्दन बाई (इला अरुण) नरगिस (फरयाना वज़ैर) अशोक कुमार (भानु उदय)...आदि के मेले ने जो सतरंगी पृष्ठ्भूमि रची, उस पर आगे चलकर लाहौर का जो चिलचिलाता माहौल बरपा हुआ, वह खिला भले न हो विरोधाभास (कंट्रास्ट) में खुला है अवश्य ख़ूब.... और यह सब सृजित करने में नन्दिताजी तो ‘तरे, जे बूडे सब अंग’ हो गयी हैं. और इतना डूबने पर अभिव्यक्ति का जो परम सुख मिलता है, उसमें कहाँ ख्याल रह जाता है कि कौन देखेगा..., सो कोई समझौता नहीं. लेकिन वही संजीदा डूबना ही है कि पूरी फिल्म में कसकती-कराहती अभिव्यक्ति की त्रासदी से टकरा पाता है, उसे व्यक्त कर पाता है, उसे गहरा पाता है... ‘डूबकर हो जाओगे पार’ को सार्थक कर पाता है. 



फिल्म के गीत ‘अब क्या बताऊँ हाल...(शुभा जोशी), नगरी-नगरी (स्नेहा खानवेलकर)...आदि सबकुछ को महकाते भले न हों, भीने-भीने भिगाते ज़रूर हैं. नन्दिताजी ने भले फिल्म का अंत किया हो ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे...’ से – न जाने क्यों – फैज़ के किंचित स्याह नज़रिये को दिखाने के बावजूद...पर मैं तो लेख को सम्पन्न करूंगा मण्टो के सच के आईने के मुतालिक इस कथन से – ‘नीम के पत्ते कडवे भले होते हों, ख़ून तो साफ़ करते हैं...!!”

सवाई सिंह शेखावत की कविताएँ

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सवाई सिंह शेखावत (फरवरी १३, १९४७) के आठवें कविता संग्रह ‘निज कवि धातु बचाई मैंने (२०१७) को इस वर्ष राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. शेखावत राजस्थानी भाषा में भी लिखते हैं.

ईमानदारी, नैतिकता, सलीका और साहस कवि के बीज शब्द हैं जिनसे वे कविता का अपना संसार रचते हैं. 
उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.






सवाई सिंह शेखावत की कविताएँ                      






  

पुनर्वास

पुनर्वास एक जायज कार्रवाई है
बशर्ते वह दूसरों की जमीन न हड़पती हो
घर बसाने की कला हमें  दूब से सीखनी चाहिए
स्थानिकता की जड़ों में ठहरी
समय के निर्मम थपेड़ों को सहती
वह इंतजार करती है रात को झरती ओस का
हितैषी हवाओं और अनुकूल मौसम का
जब वह दीवार की संध में फिर से अंकुरित होगी
और ढाँप लेगी खंडहर महल के कंगूरों को.





स्नेह भरे गर्वीले

सीधे स्थिर खड़े घर को देखता हूँ
और अपने पुरखों को याद करता हूँ
पाँव तले की ज़मीन सिर पर का आसमान
आँगन का साझा सहकार याद करता हूँ
याद करता हूँ वह ज़बान जो माँ से सीखी
साँवली काली पड़ती माँ की त्वचा याद करता हूँ
विपदा की खरोचों के बीच बची यक़ीन की ज़मीन
खारी जुबान में छिपी मिठास याद करता हूँ
ठसाठस जिंदगी से भरा वह भरपूर अपनापन
एक तालाबंद गुमशुदगी का निज़ाम याद करता हूँ
घर के कोने अंतरों में बसी समूची स्निग्ध नमी
गाँव गली का विरल एतबार याद करता हूँ
      
दुनिया के तमाम-तमाम बेघर लोगों को
पनाह देने का ख़्वाहिशमंद नहीं मैं
बस इतना चाहता हूँ वे मेरे पड़ौसी हों
स्नेह भरे गर्वीले.



थोड़े पिता  थोड़ी-थोड़ी माँ

मैं जब भी कराहता हूँ मुझे माँ की याद आती है
मेरी यादों में पैबस्त है पिता का रुआबदार चेहरा
खुशी के पलों में मैं अक्सर माँ को बिसराए रहा
दुनिया को बरतते हुए पिता जब-तब याद आए
वैसे हर पिता में छिपी होती है थोड़ी-थोड़ी माँ भी
जो प्रकट होती है केवल जीवन के आर्द्र क्षणों में
ठीक वैसे ही माँ भी भीतर से मजबूत पिता होती है
लेकिन माँ में पिता का आधिपत्य होते ही
माँ अक्सर सिकन्दर हो जाती है फिर वह
घर-परिवार को सल्तनत की तरह चलाती है
जबकि पिता में माँ का होना उन्हें मानवीय बनाता है
ऐसे में ऊपर वाले से बस इतनी-सी दुआ है
बचे रहें माँ में थोड़े पिता, पिता में बची रहे थोड़ी-थोड़ी माँ.



अड़सठ का होने पर

अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ
अब तक ग़ैर की ज़मीन पर ही जिया
एक आधी-अधूरी और उधारी जिंदगी
समय को कोसते हुए कविताएँ लिखीं
ग़म की और छूँछी खुशी की भी
अक्सर डींग भरी और दैन्य भरी
भुला बैठा कि एक दिन मरना भी है

लेकिन कल से फ़र्क दिखेगा साफ़
अपनी रोज़मर्रा जिंदगी जीते हुए अब
हर पल बेहतर होने की कोशिश करूँगा
धीरजपूर्वक जानूँगा घनी चाहत का राज
वृक्षों से सीखूँगा उम्र में बढ़ने की कला
ताकि हो सके दुनियाँ फिर से हरी-भरी
अपराजेय आत्मा के लिए दुआ करूँगा
अपनी धरा, व्योम और दिक् में मरूँगा.
(ताद्यूश रूजे़विच की कविता से अनुप्रेरित)




सच्ची कविता

सच्ची कविता जय-पराजय का हिसाब नहीं रखती
वह न त्याग से लथपथ है न किसी भोग से
बेवजह चीजों से घिन करना भी उसका स्वभाव नहीं
वह किसी करिश्में की तलबगीर नहीं है
उसका कद सामान्य है और वजन भी सामान्य
उसे चीजों का वैसा ही होना पसंद है जैसी वे हैं
अपनी सीमाओं और विविधताओं में मौलिक
जहाँ अनेकता की एकता का सच्चा बसाव है
कोई वायदा, कोई आश्वासन नहीं है वहाँ
पर एक उम्मीद है जीवितों की भाषा में
पीढ़ियों से जिसकी रखवाली की है मनुष्यता ने
वह जानती है स्वतंत्र होने का मतलब
जिम्मेदार होना है हर शै के प्रति
वह हार सकती है स्वयं के विरुद्ध
पर दूसरे की जमीन नहीं हड़पेगी.
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shekhawat.sawai@gmail.com

रंग- राग : सुई-धागा : सारंग उपाध्याय

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समानांतर फिल्मों के दौर में निम्नमध्यवर्गीय कथानकों को आधार बनाकर निर्मित यथार्थवादी सिनेमा पुरानी पीढ़ी के दर्शकों ने देखा है. आज मुख्यधारा की सिनेमा के बीच ‘ऑफ बीट’ सिनेमा ने भी कुछ सार्थक फ़िल्में प्रस्तुत की हैं. शरत कटारिया द्वारा निर्देशित सुई-धागा मेड इन इंडिया’ इसी तरह की फ़िल्म है.

समस्या यह है कि कस्बों और छोटे शहरों मे  सिनेमा हाल संस्कृति के उजड़ जाने के बाद ये अपने सम्बोधित दर्शकों तक पहुंच नहीं पा रहीं हैं. ऐसे में ये महानगरों के मध्यवर्गीय प्रशंसकों तक सिमट कर रह जा रही हैं, इससे इनके कथ्य और शिल्प पर भी प्रभाव पड़ रहा है. एक सीमा के बाद ये महानगरीय माल कल्चर से बाहर नहीं निकल पातीं.

सारंग उपाध्याय पिछले कई वर्षों से सिनेमा पर लिखते आ रहे हैं. सुई–धागा हमे क्यों देखना चाहिए ? आइये उनकी कलम से पढ़ते हैं.  



सुई-धागा
: व्यवस्था से संघर्ष, जीत और जश्न की कहानी       
सारंग उपाध्याय



(शरत कटारिया)





निर्देशक शरत कटारिया और निर्माता मनीष शर्मा की फिल्म ‘सुई-धागा मेड इन इंडिया’कमियों, तकनीकी खामियों के बीच हाल ही के दिनों में आई एक बेहतर फिल्म है. यह फिल्म शहरी और महानगरीय कोनों में छिपे-दुबके निम्न और गरीब वर्ग के जीवनसंघर्ष की कहानी है. यह उन लोगों की जीवनगाथा है जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में लंबे समय से पिछड़े, बार-बार हाशिए पर धकेले गए हैं और अब इस सिस्टम से जूझकर मुख्यधारा में शामिल होने के लिए दो-दो हाथ कर रहे हैं.


यह फिल्म सम्मान से हक की रोजी-रोटी कमाने निकली नई पीढ़ी की है. उसके व्यवस्थागत और पारिवारिक संघर्ष का लेखा-जोखा है. यह उन जीवट
, जुझारू और ईमानदार व संवदेनशील लोगों की व्यथा है जो अक्सर हमें रुपहले पर्दे पर अपने यथार्थ के साथ छोड़ जाते हैं. लेकिन उनके यथार्थ को बदलने कोई नहीं आता.
इस फिल्म में यथार्थ को बदला गया है और उसे बदलने वाले वे ही लोग हैं.

सुई-धागा,धोखेबाज, जालसाज और क्रूर व्यवस्था से लड़-भिड़कर अपने सम्मान को हासिल करने वालों की दास्तां हैं. बाजार और उसके हथकंडों में पीड़ित, शोषित और ठगे गए तबके का दिलेरी से जगह बनाने का किस्सा है.

इस फिल्म को अस्तित्व की जद्दोजहद के बीच रचती-पगती एक सुंदर कहानी के लिए देखा जाना चाहिए. यह फिल्म औसत से बेहतर स्क्रीन प्ले,  गंभीर पार्श्व गीत-संगीत, अभिनेत्री अनुष्का शर्मारघुवीर यादव के बेजोड़ अभिनय और निर्देशक शरत कटारिया के अच्छे निर्देशन के लिए भी देखी जाने की मांग करती है.





बीते एक दशक में फिल्मी कैमरे ने व्यवस्था के निम्नवर्गीय और हाशिये पर पड़े पीड़ितजन की कहानियों पर फोकस तो किया है लेकिन इसमें केवल त्रासदियां, संघर्ष और शोषण दर्ज हुआ है. ऐसी फिल्में कम बनीं हैं जो इस वर्ग के सपने, आकांक्षा और इच्छाओं को संजोती हों और उन्हें पूरा करने का रास्ता बताती हो.

लेकिन सुई-धागा इस व्यवस्था से जंग, जीत और जश्न की कहानी है.

फिल्म एक ऐसे निम्नवर्गीय परिवार की कहानी है, जिनके पुरखे दर्जी रहे,कपड़ा सिलने, उसके रंग-रोंगन और सिलाई-बुनाई कढाई का काम करते रहे. फिल्म का केंद्रीय पात्र एक युवा दंपती है. पति शहर में एक सिलाई मशीन की दुकान पर काम करता है. यह नौकरी कम गुलामी ज्यादा है. सामंती संस्कारों की जी हुजूरी में मसखरी और मनोरंजन की सेवा. सेठ जलील करता है उसका बेटा भरी दुकान में इज्जत उछालता है.

मौजी (वरुण-धवन)की पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) को भरी शादी में सेठ की नई बहू के मनोरंजन के लिए कुत्ता बने पति का अपमान रास नहीं आता. ममता के कहने पर मौजी यह गुलामी छोड़ देता है. कोशिश स्वरोजगार की होती है.

मौजी खुद भी अच्छा टेलर है, लेकिन पिता की मनाही और अपने पुश्तैनी धंधे के अचानक डूब जाने का डर उसके आड़े आता है. एक ओर पिता का भय है तो दूसरी ओर गरीबी का. पत्नी हिम्मत देती है तो आगे बढ़ता है, लेकिन यह आगे बढ़ना इस व्यवस्था से जूझने, शोषित होने और अपमानित होकर इसमें थककर मिट जाने का उपक्रम है, जिसे फिल्म में खूबसूरती से फिल्माया गया है. 

पूरी फिल्म पात्र मौजी के इस व्यवस्था के आखिरी कोने से मुख्य सड़क तक पहुंचने के संघर्ष की है. सहारा केवल बाजार है और उसके बीच बड़े होते सपने हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया गया तो वह सपने ही उसे निगल जाएंगे. बाजार बलि ले लेगा. मौजी की कहानी इस व्यवस्था से संघर्ष कर थपेड़े झेलने की है.



फिल्म में आपको बुनकर, रंगरेज,कारीगर, ठेला चलाने वाले, ऑटो-रिक्शा वाले और छोटा-मोटा काम कर गुजर-बसर करने वालों की दुनिया दिखाई देती है. वर्ग में बंटी उस सामाजिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं जिसका हम भी हिस्सा हैं और उसे रोज महसूस करते हैं. फिल्मी पर्दे पर ऐसे दृश्य कई बार हमारी अपनी कहानी कहते हैं और जब पूरी फिल्म ही हमारी कहानी कहती है तो ऐसी फिल्में फिल्में भर नहीं रह जातीं, यह अपने दृश्यों, संवादों और कथानक में एक पूरी कविता होती है. हमारे दुखों का गान करती हुई.

फिल्म का स्क्रीन प्ले कसा हुआ है हालांकि कहीं-कहीं फिसलता भी है. लेकिन फिल्म की पृष्ठभूमिपरिदृश्य खामोशी में रचे गए दृश्य मन को छू लेते हैं. छोटी और तंग गलियां, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और कुरूतियों में फंसे मोहल्ले, तांक-झांक करते लोग, दैनंदिन जीवन संघर्षों में उलझे, काम से लौटते, काम तलाशते डरे-सहमे हुए पात्रों के दृश्य,एक लापरवाही के साथ शानदार रूप से बुने गए हैं.
यही दृश्य आपको कहानी के साथ बहा ले जाते हैं.

फिल्म के चुंटीले संवाद खूबसूरत हैं. कहानी इन्हीं से आगे बढ़ती है. विशेष रूप से केंद्रीय किरदारों के आपसी तंज, मनमुटाव, झगड़े, घटनाएं, हास-परिहास, दांपत्य जीवन के भीतर की खींचतान, आपको इस व्यवस्था के साथ एक संषर्घ यात्रा पर ले चलते हैं.
यह फिल्म दृश्यों से कहानी बुनती है और जिंदगी की उधेड़बुन दिखाती चलती है.

सुई-धागा निम्नवर्गीय जीवन की डेली डायरी है, जहां इच्छाओं का गला घोंटती नई ब्याहता है और घर के कामों में खटकर मर जाने वाली अधेड़ महिलाएं. यहां व्यवस्था में तितर-बितर होते युवा हैं और बचे रहने की उम्मीद में आत्मसम्मान का सौदा करने वाले बुजुर्ग.

मृत्यु यहां बेकारी, बेरोजगारी और कामधंधे के आगे बहुत छोटी है जबकि जीवन मांझी का पहाड़. सुई-धागा कस्बाई, ग्रामीण जीवन के संघर्ष का दस्तावेज है, जिसके कई पन्ने हमारी अपनी स्मृतियों में खुलते हैं और लंबे समय तक खुलते रहेंगे.  

ममता (अनुष्का शर्मा) और मौजी (वरुण-धवन) के कुछ दृश्य बेहद सुंदर और संवदेनशील बन पड़े हैं. विशेष रूप से सड़क पर पहली बार बैठकर खाना-खाना, जहां अनुष्का खाना खाते हुए रोने लगती है और रोने का कारण पूछने पर कहती है कि- जब से शादी की तब से पहली बार आज साथ में बैठकर खा रही.अनुष्का और वरुण का बस में चढ़ने वाला दृश्य अंदर कहीं छूकर चले जाता है. यह बेहद सुंदर सीन बन पड़ा है.

(बाबूजी) रघुबीर यादव और यामिनी दास (अम्मा) की कैमिस्ट्री माता-पिता के रूप दिल में उतर जाती है. यामिनी दास कैमरे पर मंझी हुईं नजर आती हैं. यह कलाकार पर्दे पर कम ही दिखी है और इनके बारे में जानकारी भी कम ही है, लेकिन फिल्म में पूरी तरह छाई हुई हैं. ये दोनों ही कलाकार संवादों और शरीर की भाषा से कब आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं आपको पता ही नहीं चलता.
फिल्म हमारे अपने जीवन का विस्तार है. नीचे से ऊपर उठने की कहानी. मुख्यधारा में आने की लड़ाई.

सटे हुए सीलन भरे मकानों और उसमें तंग और छोटे कमरों के बीच घूमता कैमरा आपको अपने गांव, मोहल्ले और कस्बे के भीतर ले जाएगा. लेकिन कुछ जगहों पर निर्देशक का कमर्शियल हो जाने का मोह आपका ध्यान भंग करता है. खासतौर पर दो हिस्से फिल्म की गंभीरता से छेड़छाड़ करते हैं और खटकते हैं.

पहला सीन- दुकान और शादी ब्याह के अवसरों पर नौकर को मालिक द्वारा कुत्ता बनाने का है और दूसरा अस्पताल में अचानक मां की मैक्सी देखकर रोगियों द्वारा भीड़ लगाकर ऑर्डर करने का है,जो फिल्म की कहानी को कमजोर करता है और उसे हल्का करता है. दोनों ही दृश्य फिल्म की लय को धक्का पहुंचाने वाले हैं.

हालांकि दूसरे दृश्य का ट्रीटमेंट ठीक होता तो उसे डाइजेस्ट किया जा सकता था क्योंकि विकासशील पूंजीवादी व्यवस्थाओं में अवसर ऐसे ही अनायास दस्तक देते हैं और जीवन बदल देते हैं. फिर भी बतौर पटकथा लेखक और निर्देशक शरत कटारिया को फिल्म के इन दोनों दृश्यों के बारे में सोचना चाहिए था. उन्हें धैर्य साधना था. इस तरह का ट्रीटमेंट फिल्म की बढ़ती कहानी के प्रति मोह भंग करता है.
फिल्म का संगीत बहुत सुंदर है और मन को छू लेता है. खासतौर पर यह गाना
कभी शीत लागा कभी ताप लागा
तेरे साथ का जो है श्राप लागा मनवा बौराया
तेरा चाव लागा जैसे कोई घाव लागा..!  

यह गाना काफी अच्छा है और सुनने लायक है. पपॉन और रोंकिणी गुप्ता ने इसे बहुत ही खूबसूरती से गाया है. यह जितना अच्छा गाया गया है,उतनी ही अच्छी लिरिक्स है. इस गाने को वरूण ग्रोवर ने लिखा है.
अनु मलिक मुझे दिनों बाद अच्छे लगे हैं. अच्छा संगीत रचने के लिए उन्हें बधाई.

बहरहाल, तमाम तकनीकी खामियों, जल्दबाजी और हल्की फिसलन के बाद सुई-धागा औसत से बेहतर फिल्म है और ऐसी फिल्में बननी चाहिए. यह फिल्म निम्नवर्ग के मुख्यधारा में शामिल होने के संघर्ष की रचना है. आर्थिक स्वतंत्रता चाहते ईमानदार, भोले-भाले और नियति व दुर्भाग्य की चोट से आहत पात्रों की कथा. उनके सम्मान से जीने की आकांक्षाओं, इच्छाओं और सपनों के पूरे होने की गाथा.

सुई-धागा में व्यवस्था अपनी खामियों, कमजोरियों और शोषण की परछाई के साथ मौजूद है. यहां व्यवस्था के कोने उघड़ते हैं और सामने आते हैं, जिन्हें देखकर सरकारें शर्मिंदा होती हैं और खाए-पिए अघाए और कमजोर का हिस्सा मारकर बैठे वर्ग की मोटी चमड़ी पर बल पड़ते हैं.

फिल्म के निर्देशक शरत कटारिया इससे पहले फिल्म दम लगा के हईशाबना चुके हैं,जो प्रभावित करने वाली फिल्म थी. उस फिल्म की कहानी और उसके केंद्रीय पात्र छोटे शहर के उसी मध्यवर्गीय धारा के थे जो कई कुंठाओं,  मानसिक विकृति,  हीन ग्रंथियों में गड्डमड्ड थे और वहीं से अपने जीवन की सुबह खोजते दिखाई दिए. इस लिहाज से यह फिल्म भी काफी अच्छी है.

दिल्ली से आने वाले शरत कटारिया नॉर्थ को बेहतर जानते हैं. वे पटकथा लेखक भी हैं और निर्देशक भी. बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म 10 एम लव थी. उन्होंने फिल्म भेजा फ्राय का लेखन भी किया है. वे सुई-धागा फिल्म के भी स्क्रीन प्ले राइटर हैं.
कमर्शियल और ग्लैमसर स्टार्स वरुण धवन और अनुष्का शर्मा के बीच ऐसी पटकथा के संतुलन को साधना अच्छे निर्देशन के संकेत हैं.

फिल्म में अनुष्का, रघुवीर यादव और यामिनी दास का अभिनय बेहतरीन है. अनुष्का कई किरदारों में खुदको साबित कर चुकी हैं. ममता भाभी का चेहरा आप भूलेंगे नहीं. अनुष्का का रोना, हंसना और उदास होना इस व्यवस्था में दबी, घुटी और बेचैन स्त्री का रोना, हंसना और उदास होना है. उनके चेहरे के सारे रंग एक कस्बाई स्त्री के चेहरे के रंग हैं जिसमें शोषण से उपजी पीड़ा छिपी है. यह किरदार यादगार बन गया है.

वरुण धवन एक कमजोर अभिनेता हैं. डायलॉग एक ही तरह से बोलते हैं. भावभंगिमा, ‘शारीरिक भाषा पर उन्हें बहुत काम करने की जरूरत है. जितनी फिल्में उन्होंनें अब तक की हैं उनमें वे निखरे नहीं हैं. एक्टिंग के लिहाज से फिल्म बदलापुर में उनका काम अच्छा था और उनसे उम्मीद थी कि वे और निखरेंगे लेकिन वे लगातार पीछे ही आए हैं. अभिनय के लिहाज से वे ढलान पर ही हैं. उन्हें बहुत कुछ सीखना है भले ही वे कचरा हिंदी वेबसाइट्स में आज तक फ्लॉप नहीं होने वाले बॉलीवुड स्टारका क्लि बेट हेडिंग लेकर घूमते रहें. वे एक मोनोटोनस अभिनेता हैं और उन्हें एक्टिंग ठीक से सीखना चाहिए.

फिल्म यशराज बैनर के तले निर्मित हुई है और इसके प्रोड्यूसर मनीष शर्मा हैं. वे डायरेक्टर, स्क्रीन प्ले राइटर भी हैं. बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म बैंड बाजा बाराज (2010)थी जिसके लिए उन्हें बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर का फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला है. वे शुद्ध देसी रोमांस, फैन और दम लगाके हईशा जैसी फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं. फिल्म दम लगा के हईशा को को नेशनल एवॉर्ड मिला है.
सुई-धागा मेड इन इंडिया फिल्म के लिए पूरी टीम को बधाई. इसे एक बार देखा जा सकता है.
________________ 


सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक 
Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi

sonu.upadhyay@gmail.com 

प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ

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कला अनुशासनों पर आधारित कविताओं का संग्रह ‘जन्म से ही जीवित है पृथ्वी’ प्रेमशंकर शुक्ल का पांचवाँ कविता संग्रह है.

प्रेमशंकर शुक्ल मुख्यत: प्रेम के शुक्ल पक्ष के कवि हैं. उनकी कविता की जमीन प्रेम की संवेदना से गीली है, उस मिट्टी को वह मनचाहा आकार देते चलते हैं कुछ इस तरह कि उनमें प्रेम की तरलता बची रहती है. वह करुणा से होते हुए प्रेम तक पहुंचते हैं. यह जीवन-दृष्टि  कला को वृहत्तर आयाम  देती है. वह उस लाईटमैन की कारीगरी भी देख लेते हैं जो मंच और दर्शकों पर नज़र रखे हुए है कि कब किसके आँसू दिखाने हैं, जिस पर अक्सर किसी की नज़र नहीं पड़ती. कवि बांसुरी से होता हुए बांस तक पहुंचता है और फिर उस पुकार तक जिसे कभी किसी प्रेमी ने अपना ह्रदय खोल कर अपनी प्रिया के लिए रची होगी. विरह का एक रूप यह भी हो सकता है-  

‘तितली फूल को उसकी टहनी में न पाकर
बिरह में है
जूड़े में वह फूल भी है अनमना बहुत
रह-रह कर आ रही है उसे अपनी प्रिया की गहरी याद’

कविता को हमेशा से संगीत का सहारा मिला है, इससे वह दीर्घजीवी हुई है. चित्रों और मूर्तियों के मंतव्य को उसकी गरिमा और संश्लिष्टता के साथ उसने अपने शब्द दिए हैं. कविता के घर में कलाओं की आवाजाही और बसावट कोई नई बात नहीं है, हिंदी कविता में कला अनुशासनों पर केन्द्रित इस संग्रह को पढ़ना एक समृद्ध अनुभव है. प्रेमशंकर शुक्ल ने कुछ इस तरह से इन्हें सृजित किया है कि कला-सहयोगी अपने भरेपूरे अस्तित्व के साथ जहाँ उपस्थित होते हैं वहीं वे कविता के शिल्प में ढलकर अपना एक रूपाकार भी ग्रहण करते चलते हैं. और यह जुगलबंदी कला को उसके अनुशासनों से मुक्त कर कुछ और कला बनाती है.

इस संग्रह के लिए बधाई.  आइये कुछ कविताएँ इसी संग्रह से पढ़ते हैं.  






प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ                                 






बाँसुरी

बाँसुरी चरवाहों का सिरजा वाद्य है
मुग्ध रहते हैं जिस पर झरने-जंगल-नदियाँ

बाँसुरी बजाना हवा के फेफड़े में
संगीत भरना है

बाँसुरी की लय पर नाव पार हो जाती है नदी

गीतों-पुराणों, कथाओं में बजती है कृष्ण की वंशी
इतिहास में नीरो की

चैन की वंशी अब केवल काहिलों के मुहावरे में बजती है

बाँसुरी बजा-बजा कर मेरा एक दोस्त
दुनिया घूम रहा है
लिए हुए कला की गहरी तलब

बाँसुरी बजाना मतलब पण्डित पन्नालाल घोष और
पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया को सुनना है निर्मल मन

बाँस बाँसुरी के पुरखे हैं
अपने पर गर्व करते हैं बाँस
बजती है जब बाँसुरी

पहाड़ बाँसुरी से प्रेम करते हैं अथाह
इसीलिए बाँसुरी के लिए बाँस देने में
होती है उन्हें अप्रतिम खुशी

बाँस-बाजा है बाँसुरी
उँगलियों का ऐसा रियाज कि बाँसुरी पर
बजा देती हैं राग का मन
जादू भी ऐसा कि बाँसुरी-रन्ध्र में
मिलन-बिरह गाती है हवा

सुषिर का चमत्कार है बाँसुरी
आत्मा का राधा-प्रेम एक चरवाहे ने
बाँसुरी पर ही बजाया था
जिसे सुनकर गाएँ भी अनकती खड़ी हो गयी थीं
भरकर आँखों में सुख-जल

बाँसुरी पर बज सकते हैं सारे रस
लेकिन करुणा-प्रेम में रमता है बाँसुरी का मन
चरवाहा जब अपनी प्रिया की टेर में
पहाड़ी तान खींचता है
बाँसुरी भर देती है सभी दिशाएँ

प्रेम भर नहीं प्रेम की परछाईं भी बजती है बाँसुरी पर

बाँसुरी पुकार का वाद्य है
लोकधुनें बाँसुरी के साथ
अपना हृदय खोल (घोल) देती हैं !!






पखावज
(श्रीअखिलेश गुन्देचा के लिए )

सुख की थाप दे-दे कर पखावज
आत्मा का ताप हरता है
और पखावज में बजता है
उल्लास-आवेग

हमारी सुप्त चेतना को जगाता
पखावज संगीत में बाहैसियत
ताल-मुखिया है

ध्वनि-ताल से भरता है
अनहद नाद का ओसार
धा-धमक में है शिवत्व का अँजोर

वीणा के साथ बजता है
तो छलकता है आनन्दातिरेक

ध्रुपद और पखावज की संगत
दो सुन्दरताओं का मनमिलन है

गायक के साथ गाता है पखावज
आलापचारी में मंच पर रहता है
मौनमन ध्यानस्थ

करतल-शक्ति को
पखावज ही देता है उत्कर्ष

काल में ताल बना रहे
अर्थात समय में रचा-बसा रहे संगीत
इसी में पखावज है लगातार मेहनत-मन

गणेशवाद्य, भक्तिवाद्य, ब्रह्मवाद्य, मृदंग
आदि-आदि हैं पखावज के नाम

पखावज की आध्यात्मिक गहराई ही है
कि पखावज से अथाह प्रेम करता है
भक्ति-संगीत

धूम किट, स्तुति परन
सुख की उपज-आनन्द की बढ़त
रचता है पखावज
जिसकी वजह से ठहर नहीं पाती वीरानगी

रागदारी में पारंगत है पखावज
गायक अपना सुर लगाता है
और पखावज
ताल दे-दे कर
लय, छन्द और प्रार्थना का विन्यास
पूरा करता रहता है !



  

इकतारा

इकतारा फक्कड़ वाद्य है
अपने एक तार पर गाता है
आख्यान-कविता, पद और लोकगीत

सन्यासियों, फकीरों को बेहद प्रिय है इकतारा

इकतारा से अधिक आँसूओं से भीगा
नहीं है अभी तक कोई वाद्य
इकतारा सुनना करुणा सुनना है
और बुनना है पूरे मन में उजाले का थान

इकतारा अकेले की विशालता है
मीरा-मन गाता रहता है अप्रतिम अध्यात्म

लोकगायक इकतारे के साथ
उलीच देते हैं भाव-अनुभाव
और करुणा-प्रेम से भीगता रहता है हमारा लोक

एक तार की ऐसी सामर्थ्य और उजास निहार
खुशमन इकतारे का साथ दे रही हैं उँगलियाँ

उमड़ी हुई है एक तार पर भक्ति
करुणा से भीज रही हैं दसों दिशाएँ
एक तार ने गा-गा कर चमका दिया है
करुणा-संवेदना की सारी धातु
और आलोड़न में बढ़ गया है अनुभूति का जल

सन्त कवियों के पद गाते-गाते
लोकगायक गा रहा है अब
श्रवणकुमार की कथा

कथा में जहाँ श्रवणकुमार को लगता है
राजा दशरथ का तीर
मुर्छित हो गया है वहीं इकतारा
और फूट नहीं रहे हैं तार-बोल

कुछ देर की चुप्पी के बाद
कथा के अनुरोध पर
इकतारा आगे बढ़ाता है कथा
जहाँ श्रवण के माता-पिता के शोक-संतप्त आँसू
गा नहीं पा रहा है गायक
और इकतारे के तार में भी
उठ रही है लगातार रोने की हिचकी

यह रोना चुपचाप रोना नहीं है
हत्या का पुरजोर विरोध है

शोक में डूबे हुए
इकतारे के सारे स्वर
सिसक रहे हैं
इकतारे के तुम्बे से ही
लगातार.

  
(फोटो सौजन्य : यादवेन्द्र)




तानपुरा

तानपुरा गुनगुनाहट का साज है
जैसे प्रेम में हमारी देह और आत्मा में
गुनगुनाती रहती है आँच

अपने तार पर संगीत के स्वर कातता रहता है तानपुरा
इसीलिए बेसुरे होते जा रहे हमारे समय के लिए
तानपुरे की जरूरत है लगातार

महफिल का मन बनाने में
तानपुरा से वाजिब और नहीं है कुछ

सुर लगाने में गायक के कण्ठ को
तानपुरा सहारा का साथ है
स्वरारोह को ऊपर जाने में मदद करता हुआ
अवरोह को उतरने में

कण्ठ का नाप या थाह लेने में
तानपुरा है तारसिद्ध
संगीत के कपास से तानपुरा की जबारी बनती है
इसीलिए तानपुरा की सेहत के लिए
जबारी का रखना चाहिए विशेष खयाल

कण्ठ की प्रकृति-अनुसार चलता है
तानपुरे का तार-व्यवहार
अपने चार तार से तानपुरा
सहेजता-सम्हालता है भारतीय संगीत का स्वर-सम्भार
ध्रुपद हो, खयाल, ठुमरी, दादरा या भजन
सब रखना चाहते हैं तानपुरे को अपने साथ

तानपुरा उँगलियों का स्पर्श-संगीत
आत्मा को साथ लेकर फैलाता है
अँजोरपूरित

साथ कैसे निभाया जाता है
तानपुरे में है इसकी बेहद तमीज
इसीलिए तानपुरा साथ का निकष भी है

पृथ्वी की गोद में बैठा तानपुरा
संग-साथ का गुरुकुल है

साथ की तान पूरी रहे और बेसुरी न हो जीवन-लय
तभी तो सुर की साधना के लिए
तानपुरा के तार पर
संगीत का दिन शुरू होता है !!







लाईटमैन

लाईटमैन रोशनी डालता है
पात्र पर
और मंच पर अँधेरा भी रखता है
उसी वजन का

रोने के दृश्य में पात्र रो रहा है
और आँसूओं से भीग
काँप रही है रोशनी

दर्शक चुपचाप हैं

लाईटमैन ने नहीं की है
दर्शकों के चेहरे पर रोशनी

अभिनय में पात्र रो रहा है पूरा शोक
लेकिन दर्शकों के भीतर
सचमुच में रो रही है कथा

दर्शकों के भीतर कथा रो रही है
लेकिन आँसू
दर्शकों की आँखों से छलछला रहा है

दृश्य बदलता है
दर्शक - दीर्घा में लाईटमैन फैलाता है प्रकाश
अपने-अपने आँसू छिपाने का
दर्शक अब
अभिनय कर रहे हैं !!

  





होंठ-बाजा
  
अपनी प्रिया को बुलाने के लिए
वनवासी युवक ने
होंठ बजाया
और देखते-देखते दौड़ी चली आयी
उसकी प्रिया

होंठ-बाजा
प्यार का साज है
जिसकी धुन-लय पर थिरकता है प्रेम

प्यार में देह का गोदना गाढ़ा हो गया और
भीजा रहा तन-मन

प्यार के बाद जाते हुए
होंठ-बाजा सुनकर
प्रिया का फिर पीछे मुड़कर मुस्कराते हुए निहारना
उपलब्ध उपमा से बहुत ऊँचे दर्जे की क्रिया है

पहाड़ों में
कविता ऐसे प्रेम से ही
सुख के झरने निकाला करती है !

  




किरदार

एक नाटक का किरदार
नाटक से भागकर चित्र बन गया
कुछ दिन चित्र में रहकर
फिर खण्डकाव्य में पढ़ा जाता रहा

विधाओं की दौड़-भाग और छुपा-छुपी में
वह तो पकड़ा ही न जाता अनगिनत युग

लेकिन मंच पर गाते हुए
गायक के कण्ठ में फँस गया उसका दुख
जिससे काँप-काँप गया किरदार
और शोकगीत भी थरथरा गया हर पंक्ति

शोकगीत में ही सबके सामने
बरामद कर लिया गया किरदार

तभी से
हर किरदार शोकगीत में जाने से
थरथराता है !!






धुन

धुन बजा रहा था संगीतकार
करुणा में बाँसुरी के आँसू झर रहे थे
श्रोता भीज रहे थे
सभागार में
उठना भूलकर

लोकधुनों में
लोक का आँसू
हर हमेश काँपता मिलता है !




(फोटो सौजन्य : यादवेन्द्र)



कोरस

पारी-पारी से उठते हैं स्त्री-पुरुष कण्ठ
और सभागार में छा जाता है गीत-सुख
स्त्री-स्वर जब विराम लेने लगता है
पुरुष-कण्ठ थाम लेता है गीत-पंक्ति
पुरुष-स्वर अवरोह की तरफ आ ही रहा होता है
कि स्त्री-कण्ठ आरोह में
गीत को देने लगता है अप्रतिम ऊँचाई
पारी-पारी से कभी  
कभी समूह स्वर में
गाया जा रहा है कोरस गीत
श्रोता आँखों से सुन रहे हैं
कानों से सहेज रहे हैं गीत की करुणा
हृदय मुग्ध-मौन है

कण्ठ-कण्ठ बह रहा है कोरस गीत
भीज रही है आत्मा

स्त्री-पुरुष के समूह स्वर में
मीठा हो चला है दरद
ऐसे कोरस गीतों से ही
रचे गए हैं
हमारे हृदय के स्पंदन
और हमारी धड़कनों को
संगीत-सुख भी मिला है !!






जूड़े में फूल

नायिका ने अपने जूड़े में
केवल फूल ही नहीं
सारा बसन्त बाँध रखा है

जूड़े के फूल
अपनी सुन्दरता में बसन्त महका रहे हैं
तितली का चूमा वह फूल भी है जूड़े में
जिसने तितली से फिर मिलने का वादा किया था
और तितली के पंख पर याद के लिए रख दिया था
अपना थोड़ा सा रंग

तितली फूल को उसकी टहनी में न पाकर
बिरह में है
जूड़े में वह फूल भी है अनमना बहुत
रह-रह कर आ रही है उसे अपनी प्रिया की गहरी याद

जूड़े में सुगन्ध का झरना बह रहा है
बसन्त-मन फैला हुआ है चहुँओर

लेकिन एक ही कविता में
बिरह और मिलन साथ रखने से
काव्याचार्य मुझसे बेहद खफा चल रहे हैं !

_______________ 


परख : तीतर फांद (कहानी संग्रह) : सत्यनारायण पटेल

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'गाँव भीतर गाँव'  उपन्यास से चर्चित कथाकार सत्यनारायण पटेल का चौथा कहानी संग्रह 'तीतर फांद'इस वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. इसमें उनकी सात कहानियाँ शामिल  हैं.
परख रहीं हैं रीता राम दास.







वक़्त से आँख मिलाता तीतर फांद’            
रीता दास राम
    

प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान और वागीश्वरी सम्मान से सम्मानित समकालीन कहानीकार सत्यनारायण पटेल की कहानी संग्रह तीतर फांदयथार्थ की कसौटी पर खरी ही नहीं उतरती बल्कि समाज को यथार्थ की कसौटी पर खरी-खरी सुनाती भी है.  

संग्रह की पहली कहानी ढम्म ...ढम्म...ढम्ममें आज के माहौल की गूंज साफ सुनाई देती है. घटनाएँ हमारे साथ साथ चलती ही रही है लेकिन जो शब्द गूँज रहा है जिससे व्यवस्थाएं भी सहमी हुई है. कहानी उसका परिपेक्ष्य प्रस्तुत करती है. असंभव वक्त में कलम भी शब्द के बदले गूँज में घोषित अनुगूँज को दर्शाना चाहते है क्योंकि शब्दों के मायने भी बदलाव लिए विस्तारित ही नहीं अर्थों के गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करने में असमर्थ है. दहशत की व्याख्या खौफ़ और डर लिख देने से पूरी नहीं होती और लिख देने से बहुत कुछ रह जाता है अधूरा जिसे पूरा होना होता है जैसे अंत के पहले अंतिम हो जाना. फिर भी सुनिए कहानी की पंक्ति कुछ कहती है, 


“मेरी अर्ध बेहोशी कायम है. कराह और बढ़ रही है. और मैं सुन रहा हूँ—भाssरत माँ की ! भा ss रत की माँ की ! भा ss रत की माँ की ...! खच्च...खच्च...खच्च...ढम्म...ढम्म...ढम्म !” 


समाज और समय को दृष्टि की नोक पर रख देखते घड़ी की टिक टिक में लेखक इंसानियत को ख़त्म होते देखते ही नहीं नैतिकता को रोपने की चाहत भी रखते हैं. ईमान का जर्जर मकान जो गिर रहा है लोगों पर और जबान फिर भी बत्तीस पहरेदारों के बीच सुरक्षित कहने,सुनाने को आतुर है. जहाँ आवाज़ चीलों के शोर और गिद्दों की हँसी में दबती जा रही है. देश में संहार युक्त दर्दनाक बदलाव जिसे बदलाव कम कत्लेआम की संज्ञा देती कहानी ढम्म ढम्म ढम्मअपने लहूलुहान शब्दों में अपना हाल,देश का हाल,देशवासियों का हाल बयान करती है. देश में आतंकवाद का आगमन हुआ है. जिसके आने से विकास,गति,भविष्य रुका पड़ा है. कारण हर ओर अर्ध-बेहोशी,कराह,चीख़ कायम है और हम सुन रहे है खच्च खच्च खच्च के साथ ढम्म ढम्म ढम्म और जैय ....... .

तीतर फांदसंग्रह है ऐसी कहानियों का जो नैतिकता का आगाज़ है. समाज़ को आईना दिखाता है. मूल्यों को सहेजती भारतीय संस्कृति स्तब्ध है. आज मूल्य बिखर रहे हैं. समाज में हर ओर एक रोष फैला हुआ है. मनमानी और अराजकता का बोलबाला है. ऐसे समय में लेखक न्यावद्वारा ऐसी कहानी बतौर उदाहरण पेश करते हैं जो संस्कृति और परिवार नामक सामाजिक संस्था के समक्ष प्रश्न खड़ा करती है. माता-पिता परिवार के प्रमुख और महत्वपूर्ण सदस्य हैं जो परिवार की जड़ें होते हुए घर को बनाएँ रखने में अपना सर्वस्व लगा देते हैं. न्यावऐसी माँ की कथा कहती है जो एक बलात्कारी पति और बाद में बेटे के कुकर्मों से क्षुब्ध है. जिसके लिए लड़कियों की अस्मत से खेलना ही जिंदगी का मक़सद था. पकड़े जाने पर लोगों द्वारा हुई पिटाई के बाद बाप के नक्शेकदम पर चलने वाले अपने बेटे के अंडकोष काट डालना,यही माँ का न्याय है. यह ऐसे भ्रूण पनपने देने का विरोध दर्ज करती है जो बलात्कारी बनाते हैं. पति की इन्हीं हरकतों की वजह से पैंतीस साल की उम्र में ही उनकी हत्या कर दी गई थी. रंगे हाथों पकड़े गए बेटे के लिए माँ को समाज से इस बुराई को हटाने के लिए इससे बेहतर कोई न्याय नहीं सूझता. वह कहती है ह्त्या से कुछ नहीं होता.
(सत्यनारायण पटेल)

लेखक के शब्द कहते है बलात्कारी माँ की कोख से नहीं जन्मता,जन्मता है तो व्यवस्था की कोख से. स्पष्ट है परिवार वह इकाई है जो समाज की धरोहर है. समाज के हलचल की छाप हम परिवार में देखते है. समाज में रहते हुए व्यवस्था से दूर नहीं हुआ जा सकता. इसका असर समाज के हर बंदे पर होता ही है. समाज में परिवर्तन के लिए हमें अगर शुरुआत परिवार नामक इकाई से करनी होगी तो व्यवस्था में सुधार और परिवर्तन भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है. जैसे कानून और कचहरी से उठ चुका भरोसा सदाचार की जड़े हिला रहा है. बलात्कारी में हुए अच्छे परिवर्तन ने भी समाज में माँ बेटे को जीने नहीं दिया. स्पर्धा बड़े से बड़े हादसे करा देती है जहाँ न ईमान बचता है ना इंसानियत. स्थानीय भाषा की छांव में न्यावन्याय का भाषिक बिगड़ा हुआ रूप है. 
    
भारतीय समाज की स्थिति और परिवार नामक संस्था की दुर्गति का दृश्य मैं यहीं खड़ा हूँमें देखने मिलता है. आज जहां स्त्री-पुरुष समानता की बात की जाती है नारी की स्थिति दुखद और शोचनीय है. बलात्कार इस आतंक से बेटी का पिता आज भी त्रस्त है. विकास और शिक्षित समाज होने के बावजूद आज भी अमानवीय व्यवहारों और त्रासदी से दो-चार होना पड़ रहा है. मानव समाज में पशुवत व्यवहारों की बड़ोत्तरी एक चिंताजनक मुद्दा है. आज भी समाज में ऐसा वर्ग मौजूद है जिसे व्यावहारिक शिक्षा की जरूरत है या हम विक्षिप्तता जी रहे हैं यह विमर्श का विषय है. मैं यहीं खड़ा हूँकहानी में एक पिता ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती सायकिल से बारिश में भीगती आती बेटी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बिटिया चौराहे की लालबत्ती क्रासिंग की लाईट तक आती है. फिर भीड़ के बीच हरी बत्ती का सिग्नल होने पर सब निकल जाते है. बिटिया कहीं दिखाई नहीं पड़ती. जाने कहाँ गायब हुई बिटिया आज ढाई साल हुए न वापस लौटी ना ही उसका कोई पता चला. लेखक कहते है, 

“हमारा इतना सामूहिक पतन हो गया है कि भरोसे का पंछी व्यवस्था के खंडहर से जाने कब से जा उड़ा था. व्यवस्था के सभी खंबों पर कालिख पुत चुकी थी. सदियों से भरोसे की सबसे बड़ी खान रहा बाप का सीना भी टिड़कने लगा था. कभी बाप की गोदी खुदा के घर से भी कहीं ज्यादा महफूज़ समझी जाती थी,जिसमें बेटी सिर रखकर सो जाया करती थी---बेफिक्र. लेकिन अब यदा-कदा बाप की गोदी में भी वासना गंधाने लगती.

वहीं देश ऐसे बाबाओं की गिरफ्त में हैं जो बेटियों के लिए खतरा है. दरअसल भेड़ियों के धड़ पर भक्तों के चेहरे लगे हैं और वे पकड़ और पहचान से परे हो चुके है. शहर जंगल में बदल रहा है. मूल्य दरकिनार होते जा रहे हैं. बलात्कार के किस्से सरेआम होने लगे है. ऐसे समय में बेटियों के प्रति माता-पिता की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है जिसे लेखक पेड़ के द्वारा कहलवाते हैं कि तुम्हें धूप और बूँदा-बाँदी से बचाना मेरी ज़िम्मेदारी थी. मैंने निभाई. तुम अपनी निभाओ. बाबाओं के पोल खुल रहे हैं. लोग देख रहे हैं. किस तरह लोगों के आँखों पर अंध विश्वास की पट्टी पड़ रही है और आँखों के सामने बच्चियाँ गायब हो रही है. यह प्रतिकात्मक कठोर कटाक्ष है कि चौरास्ते पर गाँधी के पीठ पीछे से बेटी कहाँ गई. सड़क निगल गई कि किसी भक्त कि गाड़ी ने दबोच ली. आज समाज का हर पिता अपनी बेटी के लिए शंकित और डरा हुआ है.
    
लेखक की दृष्टि समाज में उन बारीकियों को तलाशती है जिस पर कोई कुछ कहना नहीं चाहता बल्कि यूँ कहिए कोई कुछ कहने से भी डरता है. वहीं लेखक बेखौफ़ अपनी लेखनी चलाते हैं. विरोध जताते हैं. हो रहे शोषण पर कटाक्ष अंकित करते हैं. सत्ता में काबिज शक्तिशालियों के नाकाबिल ए बर्दाश्त व्यवहार एवं अराजकता से जनता त्रस्त है. चाँद,सूरज,मानवीय दैत्य और रंगों की चेतना द्वारा वे कहानी में अपनी बात कलात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं. उनका कहना है आम जनता जुल्मों से दबती जा रही है. आज इक्कीसवीं सदी में भी हम धर्मांधता की बातें कर रहे हैं जबकि सही गलत सबके सामने है.

नन्हा खिलाड़ीसामाजिक माहौल एवं व्यवस्था की चल रही मनमानी पर प्रतिकात्मक कटाक्ष प्रस्तुति है. लेखक जो कुछ समाज में देख रहे है वह उनके भीतर आंतरिक वेदना बन रिस रहा है. उदाहरण देखिए, 


“तारों सितारों से भरी विशाल आसमानी परात को चाट पोंछ कर यूँ साफ़ किया था कि जैसे जर्मन शेफर्ड कुतिया ने प्लेट से नॉन वेज़ साफ़ किया हो या किसी उद्योगपति ने बैंक लोन चाट लिया हो.”

समाज में कुछ वर्ग समूह चाँदनी का मज़ा ले रहे हैं तो कुछ लोग घनघोर अँधेरी रात याने संघर्ष और भीषण कठिनाई को जीने के लिए अभिशप्त हैं. धर्म संप्रदाय की ऐसी सड़ाँध फैली हुई है कि अँधेरी रात के प्रशंसा गीत गाए जाते हैं जिसके पीछे अन्यों का लुप्त होना भविष्य बताया जा रहा है. समाज में चलने वाले कृत्यों से उठती शौच सी गंध से पूरी कहानी गँधाती है जिसमें लोग जीने को प्रतिबद्ध है. मिलजुल कर रहना,एकजुटता,भाईचारा अघोषित रूप से प्रतिबंधित है. सामाजिक वातावरण की विभत्सिता गाली स्वरूप लगती है. लोग मानवीय दृष्टि को तरस रहे हैं. गूँगी औरतों के उदाहरण बताते हैं औरतों को चुपचाप जीना होगा और वें इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. इंसान श्वान होता जा रहा है. गंदगी के दलदल में उतर कर जिंदगी खोजने को मजबूर है. उम्मीद नन्हें खिलाड़ी की तरह हर ओर मौजूद है जो बदलाव की प्रतीक्षा कर रही है जिसमें समाज बेहतर जीवन की आशा के लिए लालायित है.

गोल टोपीनाम से ही इशारा समाज के एक खास वर्ग की ओर जाता है. आज समाज में अल्पसंख्यक दहशत के दौर से गुजर रहा है. आतंक का माहौल पूरे समाज पर छाया है. कुछ आतंकवादी घटनाएँ पूरे कौम को कटघरे पर खड़ा करती है. गोल टोपीमुस्लिम समाज पर पड़ती शंकित दृष्टि की गाथा प्रस्तुत करती है. देश पर हुए आतंकवादी हमले और पकड़े जाते रहे मुस्लिम वर्ग के लोगों के कारण हर मुसलमान को शक की नज़र से देखा जाता है. यह बात सुर्खियों में रही कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं पर हर आतंकवादी मुसलमान है. इस कारण मुसलमानों से सचेत रहने की एक वैचारिक दृष्टि फैलती जा रही है और अच्छे भले मुस्लिम जनता का जीना मुहाल हो गया है. कहानी में लेखक ने देश में युवाओं की स्थिति,जीने का ढंग,उनमें आते बदलाव का चित्रण किया है. युवा पीढ़ी अपनी जिंदगी में मनचाहा परिवर्तन चाहती है. किसी भी कार्य की प्रतिबद्धता नहीं चाहती. शादी के बंधन को झंझट और जंजाल समझती है. अपनी सुरक्षा,मनमर्जी और आजादी सभी को पसंद है. कहानी चाय वाले,तोता,मैना से होते हुए मुस्लिम वर्ग पर ठहरती है. चाय वाले के कारण खोए हुए मोबाईल के चोरी के शक की सुई गोल टोपी वाले पर घूमती है लेकिन वे ईमानदार बंदे अपने कौम पर दाग लगने नहीं देते और मोबाईल लौटा कर इस बात का सबूत देते हैं कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होते. यह कहानी समाज में मुस्लिम वर्ग के प्रति पनपती गलत धारणा में परिवर्तन देखना चाहती है जो सामाजिक सरोकार से जुड़ा दृष्टिकोण है.

भ्रष्टाचार,धांधलेबाजी और व्यवस्था में पनपती गंदगियाँ कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही फायदा कराती हैऔर समाज में निम्न वर्ग एवं मासूम लोगों की जिंदगी नरक में तब्दील होती जा रही है. जिससे भोगता इंसान विक्षिप्तता झेलने पर मजबूर होता जा रहा है. मिन्नी,मछली और साँडसामाजिक व्यवस्था,नियम,कानून-क़ायदे की तोड़-फोड़,गलत तरीके से फ़ायदा उठाना आदि कारणों से आहत होते लोगों की दास्तान है जो मासूमियत से अपने जीवन को ईमानदारी के रास्ते चलाते हुए जंग जीतना चाहते हैं किन्तु उच्चासीन पदों पर बैठे सत्ताधारी सरकार के नुमाइंदों के हाथों बर्बाद हो जाते हैं. विश्वस्तरीय खेल की प्रतियोगिताओं का सच उसमें निहित धोखा-धड़ी और जालसाज़ी ज़हीन व उम्दा खिलाड़ियों का साथ नहीं देते. उनकी उपलब्धि पर मिले उपहार और आर्थिक लाभांश को भी निगल जाने का मौका नहीं छोड़ते. लेखक इस कहानी द्वारा देश के योग्य,बेहतरीन व स्तरीय खिलाड़ियों के प्रति होते दुर्व्यवहार के प्रति समाज और व्यवस्था का ध्यानाकर्षण चाहते है. 


खिलाड़ियों के कोच और अपनों के सपने खिलाड़ियों की जीवन को यांत्रिक बना देते हैं. खेल मंत्रालय की भ्रष्ट होती राजनीति के कारण कई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त खिलाड़ी एक दिन दाने-दाने को मुहताज़ हो जाते हैं. चयन समिति के सदस्यों की मनमानी खिलाड़ियों के भविष्य एवं उनकी उपलब्धियों के रास्ते का रोड़ा बन जाती है. उनके हक का पैसा उन तक पहुँचने नहीं दिया जाता. भविष्य में उन्हें कोई मदद भी नहीं मिलती. देश के लिए गौरान्वित सफलता का उपहार लाते हुए खिलाड़ियों के प्रति लेखक,सरकार एवं समाज का संज्ञान लेना चाहते है कि किस तरह खिलाड़ी अपनी जिंदगी को ख़तरे में डालकर जोशीले उत्साह के साथ खेलते है.खिलाड़ी को एक दुर्घटना कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है. वें पूरी जिंदगी अपाहिज बनकर जीने को मजबूर हो जाते है. ऐसे सफलता प्राप्त और चोटिल हुए खिलाड़ी के प्रति सरकार ने सचेत होकर अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए. यह समाज की आशा नहीं बल्कि सरकार का दायित्व भी है.
    

समाज में चल रहे अव्यवस्था के आतंक से होते उतार-चढ़ाव,बेईमानी,धोखेबाज़ी,कमजोरों को दबाने,उनका फायदा उठाने,के प्रति आवाज़ बुलंद करती कहानी है ‘तीतर फांदजो  देश में हो रहे सत्ताधारियों की मनमानी पर सीधा कटाक्ष है. देश की स्थिति का बयान है. दुर्दशा सर चढ़ कर बोल रही है. देश की बेटियाँ बेहाल है. कहानी लेखक की भीतरी चीख है. समाज,असंभव से माहौल में पसरती आवाज़ है जिसकी गूँज दिलों में सुनी जा सकती है. पूंजीपतियों और कॉरपोरेट की दुनिया ने देश को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है. पूरा समाज यांत्रिकता का शिकार हो चुका है. इंसान इंसान न रह कर पशु-पक्षी तुल्य हो गए है. न किसानों की आह कोई सुन रहा है न जनता की तड़प. लोग गिनती में यूँ ही कम होते जा रहे है. देश देश न होते हुए महाजंगल हो चुका है. महाराजा अपनी नज़र में महा सेवक है जबकि धाराओं की रस्सियाँ जंगलद्रोह का फंदा बुनती है. तीतर,कबूतर,बटेर,दलित,आदिवासी,किसान,छात्र जो महाराजा की आरती न गाए फंदा उन्हें स्वतः कसता जाएगा. पंक्तियाँ देखिए, 


“सिर्फ़ तीतर के भक्षक ही नहीं बढ़ रहे,मजदूर,किसान,असुर और छात्र भी निशाने पर. जैसे हम सब इंसान नहीं,बल्कि किसी महाठग के महाझोले में बंद सवा अरब तीतर. महाठग ही महाराजा. महाठग ही महासेवक. महाठग ही महायात्री. महाठग धरती में फैले जंगलों की महा यात्रा कर रहा है. अनेक राजाओं को,शिकारियों को महाजंगल में आने का आमंत्रण दे रहा. कोई राजा,कोई शिकारी,अपनी खातिरदारी में कमी पेशी की आशंका जाहीर करे,महाठग हमारे सिर पर हाथ रख कर सौगंध खाए---किसान मेरे खीसे में. मजदूर मेरे खीसे में. व्यापारी मेरे खीसे में. दलित,असुर,आदिवासी और छात्र मेरे खीसे में. आप तो पधारो म्हारा देश. खुलकर करो इन्वेस्ट. कानून सब शिथिल कर दूंगा. लाल गलीचा बिछा दूंगा.”

यह लेखक की व्यथा है. ब्रह्मराक्षस सा महाराजा अपने भक्तों को सपनों के बगीचे की सैर का आश्वासन देता है. लेखक कहते हैं शिकारी तो बाज़ार है जिसने जगह-जगह लुभावने तीतर फाँद लगाए हुए हैं. लेखक का सीधा कटाक्ष है कि पूरी व्यवस्था विकृत व्यवस्था है. लोगों के लिए यह एक कुरूप फंदा है. लोग एक दूसरे का हक मार रहे हैं. लोग एक दूसरे को खा जाना चाहते है. लेखकचिंतातुर है धर्मांध उन्मादी भीड़ लोगों को कुचलती जा रही है. भीड़ में लोग गायब हो रहे हैं. बेटियों पर पहाड़ टूट रहे हैं. लेखक दुखी हैं कि प्यार से पाले पशु-पक्षी को लोग कैसे काट कर खाते है. यह परंपरा और मान्यता की बात है जो उन्हें आश्चर्यचकित करती है. तीतर के रूप में उन्होंने समाज में इंसानी हालात को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है. यह लेखक का अपना अनुभव है जो कहानी के रूप में पेश है. वें अपना विरोध रखते हैं तो आगाह भी करते हैं. दिशा भी दिखाना चाहते है तो वर्तमान स्थिति के लाभ और हानि से भी अवगत कराते हैं.

देश की विपरीत परिस्थितियाँ,सामाजिक माहौल,राजनीतिक पैंतरे,रीति-रिवाज़,परंपरा,धर्मांधता,जातिवाद,परोपकार,नैतिकता,भ्रष्टाचार,गड़बड़-घोटालों पर अपने सशक्त विचार संग्रह के विषय के केंद्रीय बिन्दु हैं जिसके द्वारा निडर होकर लेखक ने विरोध जताया है. अपनी बात रखी है. जबकि पत्रकार लेखकों साहित्यकारों पर आत्मघाती हमले और हत्याएँ खुलेआम हो रहे हैं. साहित्य समाज का आईना है यह बात इस संग्रह की कहानियाँ सिद्ध करती है. सत्या बहुत आम फ़हम और खुले शब्दों में अपनी रचना को कलम बद्ध करते है. कहानी में सच को कहने या प्रस्तुत करने का अंदाज़ प्रतिकात्मक है जो कथा को सरस बनाता है. पशु,पक्षी,पेड़-पौधों,प्रकृति,चाँद,सूरज आदि की गतिविधियों का अच्छा अध्ययन उनकी रचना में मिलता है. जिसका प्रतिकों के रूप में उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते है. लेखक धड़ल्ले से गाँव-ग्राम में प्रचलित बातों,आंचलिक भाषा व शब्दों का प्रयोग करते है जो उनमें रची-बसी है ऐसा प्रतीत होता है. संस्कृति को वे खुलकर और पूरे सम्मान के साथ जीते हैं. पूरी आत्मीयता और अव्यक्त आक्रोश को साथ लिए कहानी में वे अपना कहन पिरोते है. 

वह पाठक से खुलकर बात करती है सामाजिक तौर पर उन्हें अपना बनाती चलती है. कहानियाँ बेधड़क वह सब कहती है जो समाज़ बुन रहा है गुन रहा है धुन रहा है. सत्यनारायण पटेल समय की धारा पर कलम की धार रखने वाले लेखक है जिनके पास वक्त से आँख मिलाने का धीरज़ भी है और साहस भी.
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reeta.r.ram@gmail.com

संतोष अर्श की कविताएँ

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(पेंटिग: लाल रत्नाकर)


युवा संतोष अर्श शोध और आलोचना के क्षेत्र में जहाँ ध्यान खींच रहे हैं वहीँ उनकी कविताएँ भी अपनी पहचान निर्मित कर रहीं हैं. भाव और भाषा को लेकर उनकी काव्य-प्रक्रिया उन्हें सुगठित और संतुलित कर रही है. निम्नवर्गीय प्रसंगों से निर्मित इन कविताओं में सादगी और विचलित करने की शक्ति है.

संतोष अर्श की कुछ नई कविताएँ






संतोष अर्श की कविताएँ                                






वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे

जिन्होंने नहीं निगला बचपन में कोई सिक्का
जलाया नहीं किसी गर्म खाने की चीज़ से अपना तालू
(वो उबला हुआ ज़मीकंद हो या आलू)
नहीं लगवाए कभी चप्पलों में टाँके
छुआ नहीं सुई-डोरा
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने साइकिल खड़ी करने के लिए
कभी नहीं ढूँढी कोई दीवार या टेक
माँग कर पी नहीं बीड़ी एक
नहीं बढ़ी जिनकी हज़ामत
नहीं किया एक तरफ़ का अशरीरी प्रेम
संभाल कर नहीं रखीं कागज़ की पुर्जियाँ और ख़त लंबे
नहीं चूमे किसी साँवली लड़की के होंठ
नहीं ख़रीदी मज़दूरी के पैसों से कोई कविता की क़िताब
जो नहीं रहे कभी भूखे
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने नहीं पिया चुल्लू से पानी
नहीं हिचकिचाए कभी अपना पूरा नाम बताने में
चमकदार चीज़ों से सहमे नहीं
नहीं की बिना टिकट यात्रा
और रही जिनके पास हमेशा
स्कूल की यूनीफ़ार्म,पेंसिलें,कॉपी और टिफिन बॉक्स
जिन्होंने जमा कर दी समय पर अपनी फ़ीस
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

जिन्होंने नहीं दिया सूदख़ोर को सूद
बेकार नहीं बैठे रहे दिन भर
किसी गंदी चाय की ढाबली पर
गुजरते नहीं देखा गौर से क्रॉसिंग पर मालगाड़ी को
या एक हाथ से रिक्शा खींचते आदमी को
नहीं पी मुफ़्त की सस्ती शराब
नहीं किया बहुत सा समय यों ही ख़राब
वे मेरी कविताएँ नहीं समझ पाएंगे.

और जब नहीं समझ पाएंगे
तो समझने की कोशिश करेंगे
मैं ऐसी ही कविताएँ लिखना चाहता हूँ
जिन्हें मेरे लोग समझने की कोशिश करें.

   





प्रसाद

मेरे गाँव का बूढ़ा पुरोहित
जीवन भर सत्यनारायण की कथा बाँचता रहा
देखता रहा पत्तरा
बिचारता रहा तिथि,चीरता रहा
समय के थान से शुभ महूरत की पट्टियाँ
यज्ञोपवीत,भूमिपूजन,गृह-प्रवेश, दाह-संस्कार
करता रहा संपन्न रुद्राभिषेक,
महामृत्युंजय का जाप कराता रहा.

रक्षा-सूत्र बाँधता रहा,शंख बजाता रहा
घंटी हिला-बजा
नहलाता रहा शालिग्राम को
चरवाहों के ख़ून से
चरणामृत बनवाता रहा
मवेशियों के दूध से.

स्पर्श कराता रहा
ईश्वर से भयभीत लोगों से अपने चरण
बताता रहा स्वयं को ईश्वर का बिचौलिया.  

एक दिन साठे से दस बरस ज़्यादा का
वह पुरा-पुरोहित
अपने पड़ोस के मज़दूर की बच्ची की
अविकसित छातियाँ जब मसल रहा था
मैंने उसे देखा कि,
छातियाँ मसलने के बाद
उसने दिया बच्ची को प्रसाद
दो बताशे
जो वह यजमान से दक्षिणा में लाया था. 







बालमन पिता

पिता ने जब पहली बार  
साइकिल के डंडे पर बिठाया
तो बताया था
कि हैंडल कैसे पकड़ना है
कि न कुचलें ब्रेक की चुटकी में उँगलियाँ.

पिता जब पहली बार
साइकिल पर मुझे बिठा कर निकले थे
तो असाढ़ सावन के महीने थे. 
कच्ची सड़क के दोनों ओर
धान के अवधी खेत डब-डब भरे
मेड़ों के ऊपर से बहता था पानी
पीले-पीले मेढक भये थे राजा
देते थे राहगीरों को निर्देश
बादलों तक पहुँचा दे कोई
उनके गुप्त संदेश.

पिता ने जब पहली बार
झोलाछाप डॉक्टर एज़ाज से
चिराये थे मेरे फोड़े
और लगवाया था इंजेक्शन
तो खिलाये थे पेड़े
पिता का विश्वास था
कि बालमन मिठास से दर्द भूल जाता है.

पिता शक्कर मिल में मजूर थे
और ज़िंदगी में बहुत दर्द था
तो क्या पिता आजीवन बालमन रहे ?



(पेंटिग: लाल रत्नाकर


यक़ीन   

मैं नहीं जानता
कि आसमान में कितने नखत हैं
गिनने की कोशिश ज़रूर की
लेकिन मेरी दादी को सबके नाम याद थे
यद्यपि वह पहनती थी
विधवा चाँदनी-सी झक्क सफ़ेद धोती.

मैं नहीं जानता
समंदरों में कितना पानी है
लेकिन एक ही औरत उसे मथकर
निकाल सकती थी मक्खन
और वो थी मेरी नानी
जिसकी मथानी के मंद्रन को
रोकने को लटक-लटक जूझते थे हरामखोर देवता
और गिर जाते थे दुधहन में.

मैं नहीं जानता
पृथ्वी पर कितनी घास है
लेकिन मुझे अपने गाँव की घसियारिनों पर यक़ीन है
कि वे सारी पृथ्वी की घास काट कर गठरियों में बदल देंगी
उनके लिए यह पृथ्वी
घास की एक गठरी से अधिक कुछ नहीं है.

मुझे यक़ीन है
कि चरवाहे चरा डालेंगे
धरती का प्रत्येक कोना
यदि मिल जाये उनके मवेशियों को छूट
चरवाहे कहते हैं
उन्हें विश्वास है 
यह धरती सबसे पहले एक चरागाह थी
इसलिए मुहे भी विश्वास है
कि आसमान में होती अगर घास
तो चरवाहे वहाँ भी पहुँच जाते.

मुझे यक़ीन है कि मेरा नाना
एक जोड़ी बैल
और लकड़ी-लोहे के हल-जुएँ से
अकेले जोत सकता था पूरी धरती
बो सकता था गन्ना
और उसी में फूटने वाली फुटककड़ियाँ.
मेरा नाना कहता था
उसने भूत-प्रेतों को पिलाई है चिलम
खिलाई है तमाखू
और उजली रातों में जुतवाएँ हैं उनसे खेत
मुझे इस ख़ब्त पर यक़ीन है.

मैं नहीं जानता कि यक़ीन क्या है
और यक़ीन को लोग क्या समझते हैं
लेकिन मुझे यक़ीन है
कि पृथ्वी को
चरवाहे,घसियारिनें,मवेशी
और भूत-प्रेत ही बचाएंगे.   




दुनिया में

मन करता है
कि उबहन से खुल गई
किसी औरत की बाल्टी
कुएँ से निकाल दूँ.

सखियों से पीछे रह गई
अकेली घसियारिन की भारी घास की गठरी
उठवा कर उसके सिर पे रखवा दूँ
ठीक कर दूँ छाती पर उसका आँचल
पकड़ा दूँ एक हाथ में हँसिया-खुरपा.

निकलवा आऊँ किसी दुर्बल की
नाले में फंसी लागर गाय को
लगा आऊँ किसी निपूते दंपति के
छप्पर में काँधा
डाल दूँ किसी बुढ़िया की सुई में डोरा
जो तागती है गाँव भर की
कथरियाँ और रजाइयाँ.

लेकिन न जाने किस दुनिया में रहता हूँ
न कुएँ हैं न घसियारिनें
न मवेशी हैं न छप्पर.
न जाने कैसी दुनिया में रहता हूँ
कि मन बहुत कुछ करता है
लेकिन तन कुछ भी नहीं करता.
____________________________


संतोष अर्श 
(1987, बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.


फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी  
 poetarshbbk@gmail.com  

सबद भेद : छायावादी विषाद-तत्त्व : मिथक और यथार्थ : रवि रंजन

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यह छायावाद का शताब्दी वर्ष है. १९१८ से २०१८ के इन सौ वर्षों में छायावाद की कविताओं को लेकर शताधिक अकादमिक कार्य हुए हैं पर अभी भी बहुत कुछ ख़ास नहीं हुआ है.  

छायावाद मूलत: मुक्ति और आशा का काव्य है. मुक्ति उपनिवेश से लेकर तमाम सामाजिक पारम्परिक रुढियों से और उम्मीद निर्मित हो रहे राष्ट्र से. छायावाद का बीज शब्द अरुण है. और यही नव जागरण है.

जिस तरह से भक्ति काल की कविता बिना ईश्वर के पूरी नहीं होती उसी तरह छायावाद प्रेम और विषाद के बिना. यह कविता का उस समय का मुहावरा है. जैसे भक्त कवि ईश्वरीय आडम्बर के बीच अंतत: मानवतावाद लिखते हैं उसी तरह छायावाद निर्मित हो रहे राष्ट्र का जागरण लिखता है.

छायावाद के केंद्र में जयशंकर प्रसाद हैं. वह कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास तक में विस्तृत हैं. वह बींसवी शताब्दी के एकमात्र मुकम्मल साहित्यकार हैं.

आलोचक रवि  रंजन जी ने छायावाद में विषाद की खोज़ खबर ली है अपने इस आलेख में.

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छायावादी विषाद-तत्त्व : मिथक और यथार्थ                      
रवि रंजन 



चार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि छायावाद हजारों साल की भारतीय रचनाओं की प्रकृति व ‘टाइप’ को अस्वीकार करता है और इस प्रकार हमारा साहित्य एक नवीन क्षेत्र में पदार्पण करता है. स्पष्ट ही इस परिवर्तन के अपने सामाजिक कारण थे. कहना न होगा कि अपवादस्वरूप घनानद सरीखे कुछ गिनेचुने रचनाकारों को छोड़कर पहले के अधिकांश कवि किसी मिथकीय या ऐतिहासिक घटना, कहानी आदि में आए चरित्रों के बहाने प्रेम की कविता लिखते थे.  पर छायावादी कवि पहली बार हमारे साहित्य में अपने प्रेम की कविता लिखने के लिए अग्रसर होते हैं. सुमित्रानंदन पन्त ने ‘ग्रंथि’ में, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने ‘जुही की कली’ में तथा जयशंकर प्रसाद ने ‘आँसू’ में निजी प्रेम की कविता लिखी है.

बीसवीं सदी के आरम्भिक चरण में सामंती सामूहिकता के विरुद्ध व्यक्ति स्वातंत्र्य का आत्यंतिक आग्रह जब हिंदी कविता में रचनात्मक स्तर पर प्रकट होने लगा तो उसके बारे में  तद्युगीन प्रवाह-पतित पंडितों की प्रतिक्रिया क्या थी, यह जगजाहिर है. जहाँ तक इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल के मंतव्य का प्रश्न है, यह ध्यान रखना जरुरी है कि वे उस युग के एकमात्र ऐसे आलोचक हैं, जिनका रिश्ता अपने समकालीन छायावादी आन्दोलन के साथ द्वंद्वमूलक था. पर जैसा कि किसी आलोचक ने लिखा है कि इस द्वंद्व को झगड़े के रूप में अधिक और द्वंद्वात्मक (परस्परतापरक) रूप में कम देखा गया है. सही बात तो यह है कि समीक्षा का लक्ष्य समकालीन सर्जना के जिस द्वंद्व को पकड़ना होता है, छायावाद के सन्दर्भ में अधिकांश शुक्लोत्तर समीक्षक उसे पकड़ने में प्राय: असमर्थ सिद्ध हुए. परम्परा से आचरित सामाजिक बंधनों को नकारनेवाली नवीन रचनाशीलता को लेकर आचार्य नंददुलारे वाजपेयी या डॉ. नगेन्द्र की प्रतिक्रियाओं को उसे शास्त्रीय अनुशासन में बाँधने की एक पुरजोर कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसे सामाजिक स्वाधीनता के आकांक्षी नवीन चेतनासंपन्न कवियों ने अपनी रचनात्मक ऊर्जा से विफल कर दिया.

छायावादी रचनाभियान के मूल्यांकन को लेकर जहाँ तक प्रगतिशील समीक्षकों के रुख का प्रश्न है, हम पाते हैं कि आरम्भ में उनकी दृष्टि घोर प्रतिक्रियावादी थी. एक ज़माने से प्रगतिशीलता का दमामा पीटते-पीटते कालान्तर में अप्रासंगिकता की स्थिति में पहुँच जाने वाले प्रगतिशील आलोचक शिवदान सिंह चौहानने तो कभी यहाँ तक लिखा था कि ‘इस छायावाद की धारा ने हिंदी साहित्य को जितना धक्का पहुँचाया है उतना शायद ही भारत को हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग ने पहुँचाया हो.’ (1937, विशाल भारत)

बहरहाल, इस संदर्भ में सुखद बात यह है कि आगे चलकर प्रगतिशील समीक्षकों द्वारा ही छायावादी काव्यान्दोलन का ठीक-ठाक मूल्यांकन संभव हो सका. उस युग के साथ-साथ छायावादोत्तर काल के अनेकानेक आलोचकों को यदि छोड़ भी दें तो डॉ. रामविलास शर्मा या डॉ. नामवर सिंह के छायावाद विषयक आलोचनात्मक चिन्तन में जो सूक्ष्म दृष्टि है, उसके बरअक्स शांतिप्रिय द्विवेदी एवं जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे सहृदय प्रभाववादी समीक्षकों के आलोचकीय विवेक में कितनी गंभीरता है, यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है.

रचना के स्तर पर अभिव्यक्ति के लिए आकुल-आतुर जनता की मुक्ति की आकांक्षा को शास्त्रीय अनुशासन में बांधने की एक खतरनाक प्रवृत्ति हमें वहाँ भी दिखाई देती है, जब ‘छायावाद’ को अंग्रेजी की ‘रोमांटिक पोएट्री’ का पर्याय तथा इसी तर्ज पर छायावादी विषाद-तत्व को ‘रोमांटिक एगोनी’ की प्रतिलिपि बताने का उपक्रम किया जाता है. आज हम इक्कीसवीं  शताब्दी के आरंभिक चरण में है, जिसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है – उपनिवेशवाद की समाप्ति. छायावादी कविता की ‘रोमांटिक पोएट्री’ का पर्याय बताना तथा ‘रोमांटिक एगोनी’ की अवधारणा की पृष्टभूमि में रखकर ‘छायावादी विषाद-तत्व’ पर बातें करने से हिंदी कविता के मूल्यांकन के क्षेत्र में उसी औपनिवेशिक ज़ेहनियत का ख़तरा नज़र आता है, जिसकी समाप्ति पिछली  शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है.

प्रसंगवश आचार्य शुक्ल की ‘बीज भाव’ वाली बात मानीखेज़ प्रतीत होती है. ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ निबंध में शुक्ल जी ने ‘करुणा’ और ‘प्रेम’ को विश्व की तमाम उल्लेखनीय साहित्यिक कृतियों के ‘बीज भाव’ के रूप में मान्यता दी है. यह बात अलग है कि उन्होंने जिन कृतियों में ‘प्रेम’ को ‘बीजभाव’ बताते हुए उन्हें सिद्धावस्था का काव्य घोषित किया है, उनमें से भी अनेक में अंत:सलिला की तरह ‘करुणा’ प्रवहमान दिखाई देती है. भले ही वहाँ उतनी व्यापकता न हो, जितनी कि साधनावस्था वाले काव्य में होती है. जाहिर है कि इस तरह के विभाजन के अपने खतरे हैं और हमें नहीं भूलना चाहिए कि ‘छायावाद का ताजमहल’कही जाने वाली कृति ‘कामायनी’भले ही शुक्ल जी के विभाजन के अनुसार ‘साधनावस्था का काव्य’मानी जाए पर वहां भी अंतिम सर्ग ‘आनंद’है, जिसके उपभोग के लिए ही श्रध्दा और मनु कैलास की यात्रा करते हैं.

डॉ. परमानंद श्रीवास्तवने लिखा है कि ‘महान कविता अकेले क्रोध से पैदा नहीं होती वह पैदा होती है क्रोध और करुणा के तनाव में.’ (शब्द और मनुष्य, पृ. 198) आनंद्वर्द्धन ने वाल्मीकि रामायण पर टिप्पणी करते हुए कवि हृदय में उत्पन्न जिस विक्षोभ या शोक को ही श्लोक के रूप में अभिव्यक्त हुआ देख कर उसमें करुण रस की बात की है, वहाँ भी अन्यायी (व्याध) के प्रति क्रोध या आक्रोश की कमी नहीं है. सच तो यह है कि जब युगीन परिस्थितियों के दबाव या कई बार रचनाकार की निजी मनोवैज्ञानिक बुनावट के कारण इस ‘करुणा’ में से ‘आक्रोश’ गायब हो जाता है या कम हो जाता है तो ‘करुणा’ वहाँ अपनी रक्षणमूलक व्यापकता खोकर ‘विषाद’ के रूप में तत्वान्तरित हो जाती है. वाल्मीकि के राम जब कहते हैं कि –
‘राज्यं भ्रष्टं वने वास: सीता नष्टा मृतो द्विज:
ईदृशीयं ममा लक्ष्मीर्दहेदपि हि पावकम्.’

(राज्य गया, वनवास मिला, सीता नष्ट हुई, पिता का मित्र जटायु मारा गया. मेरा दुर्भाग्य ऐसा है कि वह अग्नि को भी जला दे.)

निश्चय ही यह विषादग्रस्त मनोदशा की अभिव्यक्ति है, जिसमें वह करुणाजन्य गत्वरता नहीं है, जिसकी प्रतिमूर्ति राम माने जाते हैं. संभवत: इसी परिप्रेक्ष्य में छायावाद के अग्रणी पुरोधाओं में एक जयशंकर प्रसाद ने एक स्थान पर ‘विषाद’ को ‘करुणा का विश्रांत चरण’ कहा है-

‘किसी ह्रदय का यह विषाद है
छेड़ो मत यह सुख का क्षण है
उत्तेजित कर मत दौड़ाओ
करुणा का विश्रांत चरण है.’


प्रसाद ने यहाँ ‘विषाद’ को ‘सुख का क्षण’ कह कर उसे जिस अतिरिक्त महिमा से मंडित किया है, वह न केवल प्रसाद की, बल्कि छायावाद की एक प्रमुख प्रवृत्ति रही है और शायद इसी कारण निराला को छोड़कर प्राय: सभी छायावादी कवि यथार्थ की भूमि पर इस अति वैयक्तिक ‘विषाद-तत्त्व’ के मूलभूत कारणों से जूझते नज़र नहीं आते. लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि छायावाद मनुष्य की आत्यंतिक वैयक्तिकता से निष्पन्न विषाद-भाव के नकारात्मक पक्ष से अपरिचित था:

ओ जीवन की मरू मरीचिका,
कायरता के अलस  विषाद !
अरे ! पुरातन अमृत अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद.   (कामायनी)

  
जयशंकर प्रसाद जब अपने एक प्रसिद्ध गीत में ‘विषाद-विष’ पद का प्रयोग करते हैं तो प्रकारातंर से वे इसी ओर संकेत करते हैं –

अपने विषाद-विष से मूर्च्छित
काँटों से बिंधकर बार-बार
धीरे से वह उठता पुकार
मुझको न मिला रे कभी प्यार !

  
महान कविता का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य प्राय: अत्यंत प्रच्छन्न होता है. इसलिए अच्छे पाठक का दायित्व है कि उसमें जहाँ कहीं भी आधारभूत वैचारिक पृष्ठभूमि अंतर्निहित हो, उसे वह खोज निकाले. छायावाद के संदर्भ में ऐसा ही महत्वपूर्ण कार्य गजानन माधव मुक्तिबोधने किया है. ‘कामायनी’ पर अपनी विलक्षण सूझ के साथ पुनर्विचार करते हुए मुक्तिबोध ने वहाँ विस्तार के साथ वर्णित जल-प्रलय के जातीय मिथक को सामन्ती सभ्यता के ध्वंस से जोड़ कर देखा है, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एक धक्के से छिन्न-भिन्न हो गयी थी. एलियट की शब्दावली में यदि कहें तो ‘कामायनी’ में वर्णित जल-प्रलय का मिथक बीसवीं सदी में सामन्ती सभ्यता के विघटन का ‘मूर्त विधान’ (ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव) है. प्रसाद जब कामायनी के ‘चिंता’ संर्ग में लिखते हैं –

‘भरी वासना सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह’

या

कंकण क्वणित रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार;
मुखरित था कलरव, गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार.’

-
तो वे देव जाति की विलासिता के वर्णन के बहाने प्रकारांतर से सामन्ती समाज की ही विलासिता को चित्रित करते हैं जिसके अनेक उदाहरण रीतिकाव्य में मिलते हैं:

(i) गुलगुली गिल में गलीचा है, गुणीजन हैं,
चाँदनी है, चिक है, चिरागन की माला है.  – पद्माकर

(ii) सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूंघट पट ढांकि,
पावक झर सी झमकि झरी, गयी झरोखा झाँकि. - बिहारी


रीतिकालीन कवियों द्वारा वर्णित सामन्ती विलासिता के चित्रों से मेल खाती अनेकानेक पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के काव्य में विद्यमान हैं. ‘कामायनी’ के मनु का सारा विषाद इसी सभ्यता के ध्वंस को लेकर हैं जिसका वह भी एक सदस्य था –

‘गया सभी कुछ गया, मधुरतम
सुरवालाओं का श्रृंगार ’


‘कामायनी’ के रचयिता ने मनु को देव-सभ्यता के विध्वंस के बाद जिस मानव सभ्यता के विकास के नेता के रूप में प्रस्तुत किया है वह वस्तुत: मध्यवर्गीय सभ्यता है, जिसे मार्क्सिस्ट जार्गन में ‘बुर्जुआ सभ्यता’ कहा जाता है. स्वार्थ, स्पर्धा और अहं की आधारभूमि पर खड़ी इस नयी सभ्यता में मनुष्य की चेतना का विघटन स्वाभाविक है. ‘कामायनी’ में मनु का व्यक्तित्व किसी व्यक्ति या नायक का व्यक्तित्व-मात्र नहीं है. सच तो यह है कि कवि ने उसे व्यापक संदर्भ में सम्पूर्ण मध्यवर्ग के प्रतिनिधि पात्र के रूप में रखा है तथा उसके द्वारा पौराणिक आख्यान की जमीन पर आधुनिक मध्यवर्गीय मनुष्य के शील एवं उसकी विषादग्रस्त विघटित चेतना का निरूपण किया है जो हमारे युग की एक महत्वपूर्ण समस्या है. आधुनिक मनुष्य के भीतर विषाद भरा हुआ है और इससे उसकी चेतना का कौशल खंडित हो गया है –

‘स्खलन चेतना के कौशल का
भूल जिसे कहते हैं
एक बिंदु जिसमें विषाद के
नर तिरते रहते हैं.’

‘चेतना का इतिहास’ लिखते हुए प्रसाद मनु के बहाने आधुनिक मनुष्य की चेतना में पैदा हो गई दरार को अभिव्यंजित करते हैं और स्पष्ट ही ऐसी विघटित चेतना वाला व्यक्ति कदापि सच्चे-प्रेम का वाहक नहीं हो सकता. ‘कामायनी’ के इड़ा सर्ग में मनु से काम कहता है –
                                          
‘तुमने  तो  पायी  सदैव    उसकी  सुन्दर  जड़  देह मात्र
सौन्दर्य जलधि से भर लाये केवल तुम अपना गरल पात्र.’

वस्तुत: गाँधी-युग में भारतीय सामाजिक जीवन में जो एक नैतिक वातावरण निर्मित हो रहा था, छायावाद भी कहीं-न-कहीं उससे अवश्य प्रभावित हो रहा था. निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ में भी यह प्रभाव छिटपुट रूप में देखा जा सकता है –

‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर.’

प्रसाद के अनुसार आधुनिक मध्यवर्गीय मनुष्य की चेतना में उत्पन्न इस दरार का मूल कारण इच्छा, क्रिया व् ज्ञान के क्षेत्रों में समन्वय का अभाव है. ‘कामायनी’ में आया ‘व्यस्त’ शब्द इसी बिखराव (डिसइंटीग्रेशन) की ओर इंगित करता है और इसे ‘समस्त’ या ‘इंटीग्रेटेड’ बनाये बिना मनुष्य पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता:

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
विकल बिखरे हों जो निरुपाय
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय.

 
‘कामायनी’ में श्रद्धा द्वारा गाए जाने वाले गीत के एक अंतरे में चेतना की जिस थकान की चर्चा है वह भी प्रकारांतर से आधुनिक मनुष्य की विघटित चेतना का ही संकेत है, जिसे दूर करने के लिए प्रसाद की श्रद्धा वहाँ मलय-पवन की तरह आती है –

‘विकल होकर नित्य चंचल
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक-सी रही तब
मैं मलय की वात रे मन.’


यहाँ चेनता का ‘थकना’, प्रसव-पीड़ा से उस माता का ‘थकना’ है, जो कालिदास की कल्पना में जब इंदुमती के रूप में आती हैं तव ‘रघुवंश’ में वे लिखते हैं – ‘पाश्चिमात यामिनी यामात प्रसादमिव चेतना.’ रात्रि के अंतिम प्रहर में जैसे चेतना प्रसार पाती है, वैसे ही प्रौढ़ावस्था में पुत्र को जन्म देकर इंदुमती ने अपनी चेतना का प्रसार पाया. यदि कोई चाहे तो ‘कामायनी’ के इस गीत में आई ‘मलय की बात’ की रचनात्मक प्रतिध्वनि रघुवंश में वर्णित शैशव की पुलक में सुन सकता है.

‘कामायनी’ की रचना से बहुत पहले जयशंकर प्रसाद ने लिखा था –

ओ री मानस की गहराई !
तेरा विषाद-द्रव तरल-तरल
मूर्च्छित न रहे ज्यों पिए गरल
* * * * *
तू हँस जीवन की सुघराई.

 
प्रसाद की रचनाशीलता के आरम्भिक चरण में आया ‘विषाद-द्रव’ ठोस कारण के साथ ‘कामायनी’ में अभिव्यंजित हुआ है. पर सवाल यह उठता है कि कवि ने जिस तरह मनु के मन में ‘नटराज का नर्तन’ कराकर उसके तमाम व्यभिचरण को कृति के अंतिम सर्ग में नष्ट होता हुआ दिखाया है, वह कहाँ तक स्वाभाविक लगता है. कहना होगा कि प्रसाद ने मनु को जिस मानव सभ्यता के विकास के नेता के रूप में प्रस्तुत करना चाहा है, उसके नवनिर्माण की प्रक्रिया में सबसे बड़ा बाधक तत्व उसका सामन्ती संस्कार है. वह किसी भी तरह से उदात्त नायक सिद्ध नहीं होता, जैसा कि डॉ. नगेन्द्र सिद्ध करते रहे हैं. कारण यह कि उसमें इंद्रियलिप्सा के साथ-साथ घोर अहंकार है. उसका अपना का वक्तव्य है –

(i)     
इन्द्रिय की अभिलाषा जितनी,
सतत  सफलता पावे
जहाँ हृदय की तृप्ति विलासी
मधुर मदिर कुछ गावे.


(ii)     
दौड़ कर मिला न जलनिधि अंक,                         
आह ! वैसा ही मैं पाखंड.

(iii)   
मेरा सब कुछ क्रोध-मोह के,                           
मृषा दान से गठित हुआ.
 
    
कोई कह सकता है कि व्यक्तिवाद का तिरोहण ‘कामायनी’ के नायक की उपलब्धि है. पर गंभीरतापूर्वक विचारने से कृति के अंतिम सर्ग में उसका हृदय जिस प्रकार परिवर्तित-सा होता दिखाया गया है, वह कतई स्वाभाविक नहीं लगता. कारण यह कि व्यक्तिवाद, छायावाद के साथ समाप्त नहीं हो जाता है, बल्कि उसके बाद उसका अत्यंत भयानक तथा ज्यादा घिनौना रूप समाज के सामने आया है. प्रसाद जिसे दर्शन की भाषा में इच्छा, क्रिया व् ज्ञान में बिखराव कहते हैं वह और वीभत्स रूप में आज के विषादाकुल पाखंडी बुद्धिजीवी की ‘ट्रैजेडी’ है, जो मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में व्यक्त हुई है –

आत्मचेतस किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस-बे-बनाव !!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !
…………………………………
पिस गया वह भीतरी
औ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रैजेडी है नीच !!


फ़र्क यह है कि जहाँ एक हद तक निराला को छोड़कर अन्य छायावादी कवियों ने आधुनिक मनुष्य की इस विषादग्रस्त रुग्ण मनोदशा का भाववादी ढंग से वर्णन-चित्रण तथा समाधान प्रस्तुत किया है, वहीँ निराला एवं उनकी परम्परा से जुड़े परवर्ती यथार्थवादी रचनाकारों में वास्तविकता की जमीन पर इस समस्या से जूझने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है.
__________
रवि रंजन

प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय,  हैदराबाद-500046. विजिटिंग प्रोफ़ेसर, वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड.  इ.मेल: raviranjan@uohyd.ac.in



रंग-राग : नवें जागरण फिल्मोत्सव से एक दर्शक : सत्यदेव त्रिपाठी

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जागरण फिल्मोत्सव-2018 (मुम्बई) में सत्यदेव त्रिपाठी ने तीन दिनों में अठारह फिल्में देख डालीं.जिनमें से डेविल’, साधो’, ‘करीम मोहम्मद’,‘अश्वथामा’, ‘तर्पण,‘पंचलाइट,माई डीयर वाइफकुछ देर और’ ‘नाच भिखारी नाच’ और  ‘आमो आखा एक से’ (अंतिम दोनों वृत्त चित्र) पर उन्होंने विस्तार से लिखा है.
इनमें से तर्पणशिवमूर्ति की कहानी, पंचलाइटरेणु की कहानी तथा ‘नाच भिखारी नाच’ भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित हैं. 
सत्यदेव त्रिपाठी रंगमंच और फिल्मों के गहरे जानकार और अनुभवी लेखक हैं. पढ़ते हुए उनकी पकड़ का अंदाज़ा होता है. साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में अक्सर उम्मीद से कम साबित होती हैं. सत्यदेव त्रिपाठी का यह विश्लेषण सहेजने योग्य है. इनमें से कुछ फिल्मों को तलाश कर देखने की तलब पैदा करता है.





नवें जागरण फिल्मोत्सव से एक दर्शक                        
सत्यदेव त्रिपाठी


इतने दिनों से भिन्न-भिन्न शहरों में भ्रमण कर रहे जागरण फिल्मोत्सव-2018’ से मेरी आँखमिचौली चल रही थी. जब मेरे गृहनगर बनारस में हो रहा था, तो मैं मुम्बई वाले घर था. इलाहाबाद भी जा सकता था, पर तब मैं भोपाल था. और जब जागरण उत्सव भोपाल गया, तो मैं बनारस था..... लेकिन आख़िर समापन के वक़्त मुम्बई में आँख मिल ही गयी...और अपनी सेवामुक्ति का फायदा और घर से नज़दीक ही फन रिपब्लिककी सुविधा के चलते 27से 30सितम्बर के चारो दिनों का मन बनाया.... सुबह 10से रात के 11बजे के दौरान चारो पर्दों पर दिखायी जा रही कुल सौ फिल्मे देखकर मन गदगदामान हो गया...लेकिन रोज़ के 12घण्टे में हर दिन की 3से 4फिल्म ही देखी जा सकती थी याने छोटी-बडी मिलाके अधिकतम 16-18फिल्में...पर अपनी आँखों की औक़ात व हिदायत के चलते हर दिन तीन के हिसाब से अपनी पसन्द की 12फिल्में देखने का हौसला बाँधा....

कुछ चयनित फिल्मों में गुजराती-मराठी-ब्रज-भोजपुरी की एक-एक फिल्म थी, पर पहले दिन ही उत्सव की (शायद) एकमात्र गुजराती फिल्म रतनबाग़निरस्त (कैंसिल) हो गयी. फिर सबसे अधिक निशाने पर रही वोदका डायरीज़’ (कुशल श्रीवास्तव), जो तकनीकी खराबी की बलि चढ गयी.... लेकिन दस-दस-बीस-बीस मिनट के अश्वासन पर दो घण्टे के इंतज़ार ने ऐसी ऊब पैदा की कि अगली फिल्म में बैठने की ताव न रही.... इन अनुभवों के चलते आदित्य की फिल्म मास्साहबके एक घण्टे देरी से शुरू होने की सूचना मिली, तो कहीं ऐसा न हो, यां भी वही क़ाफिर सनम निकलेके डर से तुरत भाग खडे हुए. कभी लाइन में पीछे होने के चलते हाउस फुलहो गयी दिनेश यादव की फिल्म टर्टिलमें प्रवेश ही नहीं पा सके. इसी तरह अधिकांश फिल्में लेट-लतीफ ही होती रहीं....

संक्षेप में व्यवस्था के इन हालात के ऊपर महाबप्पा यह भी कि क्षितिज शर्मा की डेविलमें राक्षसत्त्व का रूप देखने की आस लिये बैठे, तो बिस्तर पर मरणासन्न पडी अपनी विधवा माँ का इलाज़ नहीं करा पा रहा ऐसा बेरोज़गार बेटा मिला कि घर में खाने का ठिकाना तक नहीं. लेकिन इस बातन कहीको बंगला व लॉन के रूप में उसकी करोडों की सम्पत्ति की आँखन देखीके पाखण्ड के बाद आगे क्या देखते...!!

एनएसडी मास्टर क्लासका ऐक्टिंग मास्टर जब 15मिनट तक सब कुछ बोलता रहा, सिर्फ ऐक्टिंग को छोडकर, तो ज्यादा स्वास्थ्यकर जान पडी कैफ़े की चाय.... एनएसडी मास्टर ने दो-चार वाक्य अंग्रेजी में शुरू किये, फिर हिन्दी पर आ गया. और यही हाल अपनी फिल्म को प्रस्तुत करते हुए एवं बाद में उस पर चर्चा शुरू करते हुए सभी हिन्दी वालों का रहा. अपने पानी पर तो अंग्रेजी वाले ही रहते हैं. उन्हें हिन्दी का कोई लालच नहीं. किंतु हिन्दी में पूरी फिल्म बनाने वाले किसी निर्देशक का अंग्रेजी-मोह वस्तुत: उसके दिमाँगी दिवालियेपन का प्रमाण है. क्योंकि ख़ुद भी अंग्रेजी में पूरा न बोल सकने का पता होने और सामने बैठे हिन्दी दर्शकों के बावजूद इतना भी होश नहीं रह जाता कि फिर क्यों व किसके लिए अधकचरी अंग्रेजी बूकने से शुरुआत करते हैं...!!


इतने-इतने चक्रव्यूहों के बीच जो कुछ फिल्में देख सका, उनका सबसे बडा हासिल यह कि ख़ास अंचलों की समस्याओं पर बनने वाली समानांतर फिल्मों की शुरुआती प्रकृति आज खूब फूली-फली है - और-और गहन व गहरी होती जा रही है. पहले तो गुजरात के परिवेश, वहाँ की भाषा व समस्या से अनजान कोई बेनेगल भी फिल्म (मंथन) बना देता था, लेकिन अब समय व कला-विस्तार के साथ हर अंचल के लोग उभर कर आये हैं, जो यह काम अधिक शिद्दत व प्रामाणिकता से कर रहे हैं. अंचलों का नेतृत्त्व भी हो रहा है और अपनेपन का एक भीना संस्पर्श या उसी अपनत्त्व के चलते आक्रोश का जज़्बा भी समाहित हो जाता है, जिससे पूरी फिल्म संवेदनसिक्त हो उठती है.

फिल्मोत्सव में देखी साधो’, ‘करीम मोहम्मदअश्वथामा’...आदि फिल्में इसकी साखी हैं. सब अपने-अपने परिवेश की उपज हैं. सबके लहज़े व शैली अपने अंचल से लबरेज़ हैं, पर अश्वथामाको तो भाव के साथ भाषा की एकता स्थापित करने की रौ में ब्रज में ही हो जाना पडा. और कई अंचलों की सामान्य समस्या पर अधारित होने के बावजूद तर्पणके पुरज़ोर असर में लेखक शिवमूर्त्ति व उनकी कथा एवं निर्देशक नीलम सिंह का समान अंचल से होना भी बेहद कारग़र भूमिका निभाता है. साहित्य-समीक्षा की शब्दावली में इसे संवेदनात्मक कलाकहा जाता है, जबकि मंथनको कलात्मक संवेदन’. लेकिन इसके बाद फिल्मकार की अपनी हथौटी फिल्म को विविधता व निजता अता करती है, जिसमें इन फिल्मों के साक्ष्य पर अपनेपन की संसक्ति ही धीरे-धीरे या झटके से कभी आसक्ति में भी बदल जाती है.

निर्देशक पुष्पेन्द्र सिंह की फिल्म अश्वत्थामाडाकुओं के साये में जीते चम्बल के बीहड इलाके पर है. उन्होंने बताया कि ज्यादातर कलाकार उस अंचल के वास्तविक लोग हैं. इक्ष्वाकु बने नौ साल के आर्यन सिंह को देखकर विश्वास नहीं होता, पर करना पडता है. होश सँभालते से ही महाभारत के शापग्रस्त अश्वथामा के जंगलों में फिरने की कथा सुनते हुए यह बच्चा डाकुओं की नृशंसताओं से अनाथ हो जाता है. फिर पूरी फिल्म ननिहाल में जंगलों-पहाडियों में घूमते हुए बिताता है. अंत में घर वापस लौटते हुए पिता की बाइक से उसी में इरादतन खो जाना अश्वथामा हो जाने का प्रतीक पूर्ण हो जाता है. लेकिन वीहड की जिन्दगी व परिवेश को अति जीवंतता प्रदान करने की तकनीकी व कलात्मक कोशिश में फिल्म अमूर्त्त (ऐम्बिगुअस) व जटिल हो जाती है. किंतु पुष्पेन्द्र सिंह फिल्म पर होती बातचीत में अपने तकनीकी और कलात्मक कौशल को लेकर अति विश्वस्तता (ओवर कॉन्फीडेंस) के इतने शिकार लगे कि कुछ कहने का कोई मतलब न था.... शायद वे अपनी फिल्म कला को लेकर भवभूति की भूमिका में चले गये हैं कि समय अनंत है, पृथ्वी बहुत बडी है...कभी पैदा होगा कोई, जो इसे समझेगा – ‘उत्पस्यसे हि मम कोपि समानधर्मा कालो हि निरवधि विपुला च पृथ्वी’.

ऐसा न होता, तो श्वेत-श्याम (ब्लैक व्हाइट) में फिल्माते हुए, किसी पृष्ठ्भूमि व करीने के बिना चरित्रांकन करते हुए, बिखरी घटनाओं को व्यतिक्रम में पेश करते हुए, कहीं का कहीं दृश्यों को लाते हुए और उसे असीमित लम्बाई या झटकेदार कट देते हुए...आदि-आदि सब के दौरान कुछ तो सोचते कि दर्शक कोई अगम जानीतो है नहीं कि आपके मन-मष्तिष्क में क्या चल रहा है, जान ले और सबकुछ आपोआप जोड ले.... कुमार शाहनी व मणि कौल भी अमूर्त्त थे, पर उनमें क्रम व सिलसिला तो था. खैर, ब्रज भाषा की फिल्म घोषित हुई, पर उसके साथ भी न्याय न कर पाने का कोई न कोई ढाँसू तर्क या कलात्मकता के अनोखे आयाम भी होंगे उनके पास....   

बच्चे चुराने के सुनियोजित कारबार पर आधारित साधोमें तर्क व सम्भाव्यता की जगह आकस्मिकता और इत्तफाक़ की बहुतायत ने ऊलजलूलपन भर दिया है. कला जगत में बुलन्द इक़बाल दानिशसे दस्तबस्ता कहना चाहेंगे कि श्मशान में शवों को दफनाने वाले साधो का मृत बच्चे को जिन्दा पाकर उसके माँ-बाप के पास पहुँचाने का जज़्बा तो जीवन से खोते जाते इस भाव को पाने की बात है, पर इस प्रयत्न में जितने लोग अचानक मिलते हैं, सब बच्चे-बेचक गैंग के हैं, को कैसे मान लें. चलिए, उनका जाल इतना फैला है, भी मान लें, पर उस बच्चे के माँ-बाप दिल्ली जाते हुए कहाँ हादसे का शिकार होते हैं, कहाँ इलाज़ कराते हैं, कहाँ के हैं और कहाँ आते-जाते हैं कि ठीक अंत तक साधो से अचानक मिल जाते हैं - बिना किसी सूत्र के...! सबको जोड देना भानुमती का कुनबा ही है. बार-बार चोर-गिरोह से मिलना और बच-बचा कर निकल जाने में कुछ रोचकता अवश्य है, पर जब बच्चा हाथ में नहीं है, तो वह रफ-टफ साधो उस अकेले आदमी का मुकाबला क्यों नहीं करता? फिर किसी पुलिस या अस्पताल...आदि में क्यों नहीं जाता? उसकी कोई पृष्ठ्भूमि नहीं बतायी जाती कि पता लगे कि साधो नहीं करता जो कुछ या करता है, जो कुछ, वो क्यों और क्यों नहीं? फिर साधो को इतना घायल करने वाला बच्चे के बाप के सामने से भाग जाता है और बाप खडे ताकता रह जाता है...क्यों? कुछ करता क्यों नहीं? क्या एक बच्चे का बिकने से बचा पाना ही फिल्म की नेमत हो...!! जिस लापरवाही व बेवक़ूफी से कार-दुर्घटना होती है, उसे देखकर एक बार लगता है कि ऐसी आदतों को लताडना ही तो फिल्म का मक़सद नहीं, पर जब पूरी फिल्म उसे पागलों की याद की तरह भुला देती है, तो इतने सोचविहीन कारण पर दानिश का इक़बाल बुलन्द होता क़तई नहीं लगता.... आदिवासी इलाकों के परिवेश की अगूढता, विरलता अलग तरह की सुन्दरता दे रही थी...इसके साथ रानावि के सुकुमार टुडू ने मज़बूर व मूक साधो को जिस ख़ूबी से उतारा व जिया है, के अलावा फिल्म में कुछ भी पचता नहीं.

पवन कुमार शर्मा निर्देशित और बहु प्रशंसित फिल्म करीम मोहम्मदप्रकृति के रू-ब-रू और आतंक के साये में यायावरी जीवन जीते बकरवाल (गडेरिये) क़ौम की जातीय कथा है. पत्नी व सैकडों भेडों के परिवार के साथ हामिद की यह यात्रा ही बेटे करीम की निरक्षर पाठशाला है, जिसमें बातचीत के रूप में सिद्धांत व शास्त्र नहीं, राष्ट्रीयता, वफादारी तथा इनके लिए उत्सर्ग तक की निडरता व हिम्मत से भरी मुक़म्मल इंसानियत के आदर्श पाठ पढाये ही नहीं, जीवन में उतारे जाते हैं, जिसे करीम अपनी नवजात बहन को सिखाने का मंसूबा रखता है याने पीढी-दर-पीढी की पाठशाला-परम्परा...,जो फिल्म में आकर सबके लिए अनुकरणीय बन गयी है.

फिल्म में हामिद की बहन का गाँव सीमा पर बसा है. उसके जीजाभाई और गाँव के सभी लोग जिन्दगी के डर से आतंकियों को शरण देकर अपने को सुरक्षित रखने के भ्रमजन्य विश्वास में जीते हैं. इसके खिलाफ पूरे गाँव के सोये हुए ज़मीर को जगाने और आतंकवादियों को गिरफ़्तार कराने के प्रयत्न में पिता हामिद के क़ुर्बान हो जाने पर करीम इस प्रयत्न को आगे बढाता है... जिन्दगी बनाम ज़मीरकी वही चेतना गाँव वालों को आतंकियों के डर से मुक्त कराती है.

हिमांचल की वादियां खूबसूरत भी हैं और फिल्म-कला के लिए उपयोगी भी. हामिद-परिवार का मानुषिकता से बेहद प्लावित जीवन भी श्लाघ्य है...किंतु उन्हें उकेरने के आवेग में कथा और कथ्य का अनुपात थोडा गडबडाता-सा है. फिल्म की ही भाषा में कहूँ, तो फिल्म का 80प्रतिशत भाग जीवनमें सरफा हो जाता है और 20प्रतिशत में ही ज़मीरआ पाता है. यह अलग बात है कि 20%वाला ज़मीर पूरी फिल्म पर शासन करता है, जो वांच्छित भी है और सफलता का मानक भी, पर चौकन्ने दर्शक को 80%के दौरान कुछ ऊब होनी स्वाभाविक है. करीम बने हर्षित राजावत की उत्फुल्लता और संतुष्टि बेजोड है. पिता हामिद बने यशपाल शर्मा हमेशा की तरह सुयोग्य हैं और माँ बनी जूही सटीक सहयोगिनी.... 

उक्त फिल्मों की अपने परिवेश व जीवन में बसी आसक्ति से मुक्त है नीलम सिंह की फिल्म तर्पण’ - आँचलिक तत्त्वों से भरी-पूरी होने के बावजूद. कारण है शायद पहले के स्वतंत्र रूप से लिखे उपन्यास पर आधारित होना और उसे वैसे का वैसा फिल्म में उतार दिये जाना. लेकिन शायद इससे बडा कारण है उपन्यास में निहित दलित बनाम सवर्ण की संवेदना, जो पहले जैसी (शैवाल कृत व प्रकाश झा निर्मित दामुल..आदि) अंचल विशेष की न रहकर अब सामान्यीकृत (जनरलाइज़) हो गयी है. राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलित-उद्वेलित होते-होते अब यह मुद्दा न सवर्णों द्वारा पहले जैसा दलित-दमन रह गया है, न वर्ग-विभेद की हेय स्थिति. बल्कि यह वर्ग-संघर्ष में तब्दील हो गया है, जो ऐतिहासिक विकास का अपेक्षित सोपान था. तभी तो इसमें पहली बार चमटोल का प्यारे अपनी बेटी रजपतिया के साथ हुए बदफेली के मामले को पुलिस तक ले जाता है और साहित्य तथा सिनेमा नव-नवा हो जाता है. वाहक बनता है दलित नेता भाईजी, जिसकी पहुँच विधायक तक है. इस समीकरण के चलते कोई ब्राह्मण बच्चा चन्दर (फिल्म में गुण्डा जैसा हैकड) पहली बार जेल जाता है. अच्छा है कि दलित नेता भाईजी अपनी जमात के साथ ईमानदारी से प्रतिबद्ध है, वरना 1967में छपे उपन्यास अलग अलग वैतरणीका हरिजन नेता तो ठाकुरों को फ़रार पाकर मारे-सताये गये हरिजनों से ही पैसे ऐंठकर ख़ुद भी लेता है और औलिस को ब ही खिलाता है.... ऐसे में यह विकास भी क़ाबिलेगौर है.

लेकिन इस मुक़ाम पर अब प्रगति के नाम पर हुए आज के दाँव-पेंच हैं, जैसे को तैसा के वजन पर दोनो तरफ से अनेति और फ़रेब के हथियारों से मुक़ाबले की तैयारी है. ब्राह्मण-बच्चे को बडी सज़ा दिलाने के लिए बलात्कार की कोशिश को बलात्कार हुआलिख देने से दलित नेता को न गुरेज़ है, न इज्जत-बेइज्जती की परवाह. बेटी और उसकी माँ को परवाह है वे असली शिकार (विक्टिम) जो हैं. यहाँ स्त्री की पारपरिक संवेदना ही है या लिंग-भेद का संकेत भी? पिता प्यारे की सहमति उपन्यास में कम, फिल्म में कुछ अधिक है. फिल्म विधा देखने से बावस्ता है और दिखना यह है कि अब मामला सच का नहीं, सच के आग्रह का भी नहीं, हार और जीत का है. ताक़त की आज़माइश का है. फलत: कई तारीख़ों तक चन्दर को ज़मानत न मिलने का जश्न मनाया जाता है दलित बस्ती में. दोनो तरफ से जातीय और रसूख़ के रिश्तों के समीकरण बिठाये जाते हैं. कानूनी नुस्ख़ों की चालें चली जाती हैं. पैसे प्यारे के भी कम खर्च नहीं होते लुधियाने में कमाता बेटा भी आता है, लेकिन पण्डितजी तो पानी की तरह पैसे बहाते हैं.

ये सारी स्थितियां और सरंजाम आधुनिक हैं, लेकिन जेल से छूटकर आने पर चन्दर अकेले बन्दूक लेकर पूरी बस्ती में डाँफता है. प्यारे-परिवार घर में छुप जाता है. बेहद डर जाता है. ये सूरते हाल पुराने हैं. क्या लखनऊ-वासी होने के बाद लेखक को मालूम नहीं कि आज किसी की हिम्मत नहीं कि अकेले ऐसा कर पाये. इसी तरह गाँव से क़रीबी वास्ता होता, तो शिवमूर्त्ति बलात्कार की कोशिश मटर के खेत में न कराते. अरहर व गन्ने के खेत ही त्रिकाल में सरनाम व मुफीद रहे हैं इसके लिए. निर्देशक गन्ने का खेत लायीं, पर घटना बाहर करा दीं!! उनका चन्दर इतना भोहर है या कैमरा गन्ने के खेत में नहीं पहुँचता? ऐसी कुछ और वारदातों के अलावा नीलमजी ने उत्तर भारत के गाँव को जस का तस उतार दिया है. उपाध्याय घर-परिवार की ब्राह्मणी व अमीरी ठसक में सरहंग पण्डिताइन बनी वन्दना अस्थाना की ही तरह दुख व बेबसी में रजपतिया की माँ बनी पूनम खण्डारे ने ध्यान खींचा. सारी हीरोगीरी के बावजूद चन्दर बने अभिषेक मदरेचा सामान्य ही रहे, तो रजपतिया बनी नीलम कुमारी भी सामान्य से कुछ ही आगे चल पायीं. हाँ, भांजे व दीदी को सँभालने के लिए सारी उठापटक व जोड-तोड करने वाली अमिट छाप छोड्ते हैं अमरकांत के रूप में अरुणशेखर. नेता को सही साकार किया है संजय सोनू ने, पर इन सबसे ऊपर लवंगिया को क्लिक करती हैं पद्मजा रॉय.      

शिवमूर्त्ति ने गाँव का इस्तेमाल किया है, लोक का नहीं. और नीलम सिंह ने बारहा इसी का अनुसरण किया है बजुज एक गीत के, जिसमें लोक जीवंत हो उठा है काहे चस्का चिल्होर चोंच मारे.... चील्ह के घोसले में माँस!!के रूप में चिल्होर सरनाम है, जो चोंच मारनेसे जुडकर चन्दर की माँस-खोरी का सटीक व शातिर प्रतीक बन जाता है. सही-सही मौकों पर इसकी टेर ऐसा छौंक बन जाती है कि पूरी फिल्म का स्वाद बदल जाता है. लेकिन भोजपुरी-भाषी होने के बावजूद राकेश निराला ने तरपन को पुरखों का तर्पण काहे ना उतारेकरके मज़ा किरकिरा कर दिया है. और कवने चस्काको काहे चस्काकरके अशुद्ध व असड्ढल भी कर दिया है!! लेकिन आज की पीढी को इतनी बारीक फिट से वास्ता नहीं. वह हिट चाहती है, जो हो जाये, तो बस...और इंशा अल्लाह यह हो ही जायेगा.... गायक की कोशिश में करुणा की सिहरन आती है, पर करुण-सर में भींगना नहीं हो पाता - सराबोर होना तो दूर की बात.... फिर दूसरे-तीसरे बन्धों में सुधार की कामना और इसके लिए शब्दों के कटबैठी जोड तो करुणा को यूँ ही सोख लेते हैं, तो गायन भी रेत में नाव चलाना होगा ही...!!

यहाँ तक तो फिल्म में भरा है जीवन. उसमें कमाल की कला तब आती है, जब चन्दर की नाक काटता है बेटा मुन्ना और इल्ज़ाम सर ले लेता है बाप प्यारे. उत्तराखण्डी नन्द्किशोर पंत ने उत्तरप्रदेशी प्यारे के भाव-अदा-रंगत तथा सर्वाधिक भाषा को जिस संयम व सोच से साधा है, वह क़ाबिले तारीफ़ तो ख़ूब है, पर ज़हिराये बिना रहता नहीं. सवर्ण की नाक कटती है और कला की इज्जत आसमान छूने लगती है. प्यारे का वह जुनून और उसमें कला का सरोकार देखने लायक है. शम्बूक से आज तक की दलित-त्रासदी साकार हो उठी है. बस, निराकार रह जाता है अकेले दलित नेता के पास बन्दूक लेकर चन्दर का पहुँचना. काश उपन्यास में लवंगी से मिली सूचना पर चन्दर का वहाँ आना नीलमजी दिखा देतीं...!! इसी तरह रजपतिया की तय हो गयी शादी, उपाध्याय के नाते अच्छे कुल में चन्दर की शादी में रुकावट और अपनी जाति के खिलाफ खडी लवंगिया की वेदना...आदि-आदि के जिक्र भी आते, तो फिल्म का संतुलन ही नहीं बनता, अंचल की ख़ासियतों से फिल्म अधिक प्रामाणिक व समृद्ध होती. इन सबके बिना भी नीलम का तर्पणअच्छा है क़ाबिल कथा-चयन की बदौलत है, पर बेहतर करने एवं ऐसी कला को कालबद्ध से कालजयी बनाने के लिए और सोच व कौशल दरकार है....   
    
हम सबकी अजीज़ कहानी पंचलाइटथी साहित्यिक कृति पर जागरणमें पेश दूसरी हिन्दी फिल्म. लेखक राकेश कुमार और निर्देशक प्रेमप्रकाश मोदी की भयानक इल्मी युति ने रेणु की मासूम-सी पंचलाइटको इतना फिल्मी बना दिया कि रेणुजी भी देखें, तो गश खाके गिर पडें.... उस गाँव में कोई गोधन कहीं आडे-वल्ते किसी मुनरी को देख कर एकाध टुकडा फिल्मी गीत गा दे, तो वही बहुत होता है - प्यार कर लेने के लिए और पंचों द्वारा इसी का बहाना बनाकर उसके स्वाभिमान को तोडने के लिए तथा न टूटे, तो बिरादरी बाहर की सज़ा देने के लिए. भिन्न-भिन्न टोलों (मुहलों) की पंचायतों को आज की पार्टियों का रूपक दिया जा सकता था, जो वस्तुत: रेणुजी का इष्ट और तंज था. लेकिन ऐसी ज़हीन सोच क्यों और कैसे आये आज. यहाँ तो गोधन के चरित्र के उसी गाने का सिरा पकडकर पूरा कृष्णोत्सव मनवा दिया और गोधन को कृष्ण बनाकर गवा दिया...याने सारी सांकेतिकता को रंगीन-फ़हीम जलसे में डुबो दिया, तब जाके उनके लिए गोधन स्थापित हुआ.... फिर छडीदार को लम्पट व राधा का रूप देकर ब्रजेन्द्र काला की अदाकारी के उपयोग और सुन्दर पत्नी पर नज़र गडातों को डपटते पंच नगीना में यशपाल शर्मा को ज्यादा मौका (स्पैस) देने...आदि की कीमियागीरी भी हुईं.

मगर असली बात यह कि पूरे समय की (फुल लेंग्थ) फिल्म बन गयी. ग़नीमत हुई कि सिर्फ़ फ़ालतू का सब जोडा, रेणुजी में से कुछ काम का काटा नहीं. पर यह सब करना हो, तो दूसरी कहानी बना लो. रेणु को क्यों खींच-तान रहे...? लेकिन वैसी औक़ात नहीं और पंचलाइटकी लोकप्रियता को भुनाना है. ऐसा सभी कर रहे हैं आज सबसे बडे पैमाने पर भंसाली कर रहे हैं, पर हम तो कहेंगे – ‘सर जाये या रहे, न रहे हम कहे बगैर...’. और यह सब कतरब्योंत न होती, तो उक्त कलाकरों के साथ मस्त-ज़हीन आशुतोष नागपाल (गोधन) और ठीकठाक अनुराधा मुखर्जी (मुनरी)...जैसे अन्य कलाकारों से सजी फिल्म में अपने मुहल्ले की पंचायत की छबि के नाम पर ही सही, योग्यता की क़दर हुई तो सही... इन बुतों में वफ़ा है तो सही’....

चन्दन कुमार निर्देशित माई डीयर वाइफके पति साजन व पत्नी इला के जीवन में ऐसी कडवाहट आ गयी है कि हरदम लडते रहते हैं, पर कोई निर्णय नहीं ले पाते और साथ रहे बिना रह भी नहीं पाते. शराब और सिगरेट के साथ झगडे चरम पर भी पहुँचते रहते हैं. एक रात आमंत्रित युवा दम्पति ऐमी व विनीत आते हैं और देर रात तक पीने के दौरान वे भी साजन-इला जैसे ही झगडने लगते हैं.... दूसरा युग्म पहले के रू-ब-रू उसका आईना बन जाता है. बहुत करुण बनकर उभरता है माँ न बन पाने के कारण इला का मनोवैज्ञानिक केस बन जाना. दोनो युग्मों की कथा में प्रखर होकर सामने आते हैं मानव-जीवन के तीखे सच.....   

दो वृत्तचित्र इरादतन देखने थे. पहला, भिखारी ठाकुर पर शिल्पी गुलाटी व जैनेन्द्र का तैयार किया नाच भिखारी नाचदेखा. भिखारी जैसे जन्मजात कलाकार पर कुछ भी बने, श्रद्धा व प्यार उपजाता है, पर उसमें कुछ भी नियोजित व सुविचारित नहीं था. सवाल इतने रुटीन व कच्चे हैं सबसे वही के वही, तो जवाब भी वैसे ही होंगे. फिर भी उनके साथ काम किये लोगों से जो भी निकला है, भिखारीमय है. कलाकार व मनुष्य का सुमेल. खाँटीपने में अनगढ और अमूल्य. 

इसके ठीक विपरीत रहा आमो आखा एक से. प्रतिभा शर्मा निर्देशित ज़िला (या झिला) बाई पर बना महत्त्वाकांक्षी वृत्तचित्र. उस वीहड जीवट व अफाट इरादों वाली महिला को दृश्य-दर दृश्य हर ढाँचे में सक्रिय, ज़हीन, बेखटक व जुनूनी देखना लोमहर्षक रहा. सब कुछ सुनियोजित, सुचिंतित और सप्रयोजन.... तेजी-तुर्शी-तेवर के साथ गति-कैमरे-ऐक्शन के अद्भुत संयोजन में ज़िलाबाई के जीवन-कार्य का मक़सद बनते जाते कलाकर्म का नमूना. अपने प्रदेय तथा असर का समुचित आकलन-ग्रहण-सम्प्रेषण करता प्रस्तुति-विधान.... उनके चरित्र की ख़ासियतों का यथातथ्य निरूपण-प्रसारण.... सर्वांग सुन्दर आकुलित-उद्वेलित करता सधा-सुनिर्मित.

और अंतिम दिन के अंतिम शो में देखी कुछ देर और - सिर्फ 21साला युवक अनुराग क्वात्रा निर्देशित. शहर दिल्ली के इलाका चाँदनी चौक में बनती-चलती एक अल्हड विदेशी किशोरी कैरा व एक सीधे-सादे स्थानीय किशोर बिट्टू की कहानी, जिसमें चाँदनी चौक भी एक किरदार बन जाता है और वहीं विचरता शेरू कुत्ता भी. इसे खींच-तान के कैरा-बिट्टू के आत्मान्वेषण की कहानी भी कह लिया जा सकता है. लडकी अपने शोध के सिलसिले में चाँदनी चौक को छानना-जानना चाहती है और वहीं बिट्टू के स्वर्गीय पिता की दुकान है जलेबी की, जिसे पडोसी चाचा (राजेश नवमेन) चलाते हैं और बिट्टू भी वहाँ हाथ बँटाता है. सो, चाचा से पूछ-पूछ कर दो-तीन दिनों ले जाने के बाद फिर खुद जाने लगते हैं दोनो...भटकते हैं, बतियाते हैं.... फिल्म के बिना बताये आप को समझना पडता है कि दोनो रोज़ कुछ देर और...घूमना व साथ रहना चाहते हैं. बिट्टू का रोज़ कुछ देर और’... इंतज़ार सभी करते हैं - अजलस्त बीमार माँ (मीनू क्वात्रा) बिट्टू के आने (या अपने जीने?) का कुछ देर औरइंतज़ार करती है... चाची को माँ बनना है, नहीं बन पाती, पर कुछ देर औरकी आस उसे भी है, जिसमें बिट्टू का खाने के लिए आना भी है... दुकान को और बढाने तथा उसके लिए बिट्टू के कारगर सहयोग का रोज़ कुछ देर और...का लम्बा इंतज़ार चाचा को भी है...तथा शेरू को भी है खेलने-खाने के लिए...!!

लेकिन 56मिनट की फिल्म कब और कहाँ खत्म हो, का कुछ देर और..कुछ देर और’... इंतज़ार दर्शक को निरंतर और शायद सर्वाधिक.... फिर इंतज़ार खत्म होने पर ज़रा भी देर नहीं लगती समझने में कि कुछ देर औरचलती तो भी वही होता, जो शुरू हुई, तब हुआ...!! बिना कुछ बने जैसी बन गयी है फिल्म और बिना कुछ किये जैसे कर गये हैं सब कुछ सभी किरदार और कलाकार सर्वाधिक सजन कुमार (बिट्टू) और नीहारिका (कैरा)...कुछ कहे बिना क्या सब कुछ नहीं कह दिया गया...!!  



इस समूची कागद लेखीका आँखन देखीवाला पहलू नाम बडे और दर्शक थोडेके रूप में भी फलित हुआ. कल्कि कोच्चिन, केके मेनन, पंकल कपूर, यशपाल शर्मा...जैसे  कुछ और नाम नींमनाम वालों के प्रचार व मौजूदगी के बावजूद दो-चार गिनी-चुनी फिल्मों को छोडकर सभी में चौथाई भी नहीं भरे सभागार...बाज-बाज में तो दस-पाँच सर ही दिखते रहे लगातार.... और जो लोग आये, उनमें अधिकांश तो फिल्म से जुडे लोग थे तथा कुछ जुडे लोगों से जुडे लोग थे. थोडे-बहुत फिल्म में काम पाने के संघर्षी (स्ट्रगलर्स) नौनिहाल भी थे, जो मौका-मुहाल निकाल-पाके अपने रोज़गार की गुज़ारिश करने की लालसा लिये फिल्म देखने से अधिक वहाँ आने वाले कुछ सेमी स्टारों पर नज़र गडाये रहते.... वे फिल्म के बाद की बात-चीत में मौजूद निर्देशकों-अभिनेताओं की तारीफ़ों के पुल बाँधते और शहर की जमा (पूँजी) पूछनेकी तरह फिल्म का बजट पूछते पाये जाते.... ढाई-ढाई सौ के खर्च में 12घण्टे एसी में साथ बैठे इक्के-दुक्के प्रेमी युगल भी कभी दिखे, लेकिन सिर्फ़ फिल्में देखने के मक़सद के साथ समूचे सरंजाम पर काकदृष्टि गडाने वाले हम जैसे खलिहर तो दूसरा नहीं लखाया...!!
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कथा- गाथा : मानपत्र : संजीव

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उस्ताद अलाउद्दीन खां की बेटी अन्नपूर्णा के योग्य शिष्यों में हरिप्रसाद चौरसियाजैसे महान संगीतकार शामिल हैं. वह खुद सुर-बहार बजाती थीं. भारत-रत्न रविशंकर से उनका प्रेम विवाह हुआ था. उनका जीवन एक सतत चुभते हुए घाव की तरह था जिसे मूक होकर हमारा समाज वर्षों देखता रहा. जिसे हम रत्न कहते हैं उसकी चमक के पीछे कितना अँधेरा होता है.

वरिष्ठ कथाकार संजीव की कहानी मानपत्र अन्नपूर्णा और रविशंकर के प्रेम, विवाह, अभिमान, उपेक्षा, और अलगाव पर हे आधारित है. 

९१ वर्ष की अवस्था में अन्नपूर्णा का निधन हो गया है. उनको स्मरण करते हुए यह कहानी आपके लिए. 



मा न प त्र                           
संजीव




संगीत के शिखर पर दीप की तरह दीपित हे दीपकंर !
तुम्हें सैंकडों मानपत्र मिले होंगे, एक मानपत्र और!
यह आवाज़ विन्ध्य की उन घिसी हुई पहाडियों, दिल की तरह हजारों पान के पत्तों को छुपाए पनवाडियों, सूखते चश्मों और इंतजार में थके - बुढाए कस्बे से आ रही है, तुम्हारे स्पर्श मात्र से जिनमें कभी जान आ गयी थी. कामयाबी की इस बुलन्दी पर पहुंच जाने के बाद, क्या पता तुम उसे पहचान भी पाओगे या नहीं, मगर वह भले ही तुम्हारे दृष्टि - पथ से ओझल हो, तुम एक बार भी उसकी नजरों से ओझल नहीं हो पाए दीपंकर!

वह कौन - सा दिन था, कौन - सी बेला, कौन - सा मुहूर्त, जब बागेश्वरी के स्टेशन पर पहली बार तुम्हारे मुबारक कदम पडे थे! याद आ रहा है कुछ - स्टेशन से ही दिखता हुआ पर्वत के कलश पर वह शुभ्र मन्दिर, जिसे देखकर तुमने कहा था, ''ऐसा लग रहा है, मानो काले - नीले गजराज के मस्तक पर किसी ने श्वेत शंख रख दिया हो.''घिसी हुई पहाडियों से अनेक राहें जाती थीं ऊपर को, मगर ऊपर तक पहुंचने के लिये पहले नीचे के मुकाम तय करने होते हैं न!

इक्केवाला घाटी के उन चंदोवे ताने हुई पनवाडियों और आगे कस्बे की तंग गलियों से गुजर रहा था और दूर ही से घाटियों में घुंघरू की आवाज सुनायी दे रही थी किसी को, तांगेवाला तनिक चढाई पर बने एक अलग - थलग मकान पर ले आया था तुम्हें. तुमने ऊपर से नीचे देखा और नीचे से ऊपर - अगर मन्दिर वीणा का एक तम्बूरा था तो वह मकान दूसरा, जिन्हें पहाडी रास्तों के तार जोड रहे थे. सहसा झन्न - सा बजा तुम्हारे कानों में,  ''आप दीपंकर जी हैं न? एक सोलह - सत्रह साल की लडक़ी सवाल कर रही थी.
''हां.''
''अब्बू, आपका ही इंतजार कर रहे हैं, आइए! ''

सादा - सा बैठकखाना, दाढी - मूंछे सब सफेद, उस्ताद की आंखें चहक उठीं, ''दीपंकर! ''
तुमने पांव छूकर प्रणाम किया था
''मेरा खत मिल गया था गुरु जी?''
''पूरा घर तुम्हारे स्वागत में, क्या कहतें हैं, हां पलक - पांवडे यूं ही बिछाए बैठा है? ''दो शब्दों पर जोर दिया था उन्होंने - पूरा घर और पलक - पांवडे बिछाने के धराऊं शब्द! तुम तनिक झेंप से गये थे, मगर झेंपने की बारी तो अब थी -

''वो तो कहो, कैसे - कैसे तो मैं तुम्हें पहचान गया, वरना तुम तो कहां वो मलमल, मखमल - जरी और किमखाब ! कहां यह खद्दर का कुर्ता - धोती! ''वो तुम्हारी बदली हुई हुलिया को मुग्ध भाव से निहार रहे थे, ''अब तुम सीख लोगे, दीपंकर. वो क्या कहा था कबीर ने, सीस उतारे भुंईं धरे तब पैठे घर माहि! खैर छोडो वो बातें तो होती रहेंगी, पहले यह बताओ, कोई परेशानी तो नहीं हुई यहां तक पहुंचने में?''

''परेशानी काहे की परेशानी? आप ही के दम पर तो आबाद है बागेश्वरी.''
''तुम्हारे घरानेवालों में खुशामद की ऐसी बू भी क्या बर्खुरदार कि नाक ही फटी जाये है. अरे हम तो हम, ये कस्बा, ये स्टेशन - सब के सब बागेश्वरी देवी के दम से ही तो आबाद हैं - आज से नहीं सदियों से.''

तब तक वह लडक़ी चाय - नाश्ता ले आई थी.
''लो चाय पियो. यह मेरी बेटी आयशा है. यहां तशरीफ लाने वाले सारे उस्तादों ने मिलकर इसका दिमाग सातवें आसमान पर चढा रखा है कि यह वीणा बहुत अच्छा बजाती है. खैर तुम अपनी राय में तरफदारी न करना. चाय पी लो, गुसल - वुसल कर लो फिर बताते हैं.''

बेटी की तारीफों में उस्ताद की आवाज़ मृदंग - सी धिनक रही थी. लजाकर भागी थी आयशा, तुम्हारी चोर - नजरें परदे तक पीछा करती रहीं थीं उसका.

तुम ट्रेन के थके - मांदे सोये तो ऐसे सोये कि वक्त तक का खयाल न रहा. उस्ताद ने ही जगाया था, ''उठो दीपंकर, आओ चलें, वरना नसीब से मिली वो मुबारक घडी, क्या कहतें हैं, हां, शुभ घडी हाथ से निकल जायेगी. सूरज डूबने के पहले ही पहुंच जाना है देवी के मन्दिर में और अब ज्यादा वक्त नहीं रह गया है सूरज के डूबने में - फकत घण्टे भर! '' उस्ताद वाद्य यन्त्रों की ही भाषा जानते थे, सो वाक्य गढने , संवारने में देर लगती उन्हें.

पहाड पर अच्छा-खासा रास्ता बन गया था. उस्ताद को सहारा देने को कोई आगे बढता मगर उन्होंने मना कर दिया, हालांकि चढने में उन्हें खासी मशक्कत उठानी पड रही थी. मन्दिर नीचे से ही छोटा लग रहा था, जैसे तुम आगे बढते गये, पत्थरों, पेडों - लताओं से आंख - मिचौनी खेलता हुआ वह बडा होता गया. मौसिकी का यह काफिला जब ऊपर पहुंचा तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था. उसकी लाली से दिशाओं के रोसनदान सुर्ख हो रहे थे और उसका गुलाल पहाडों और घाटियों में बिखर रहा था. परिन्दे अपने - अपने बसेरों की ओर उडे आ रहे थे और उनकी मिली - जुली चहचहाहट से फज़ा गुलजार थी.

देवी को प्रणाम कर सामने के चबूतरे पर बैठ कर उस्ताद ने पहले नमाज अता की, फिर वीणा संभालने लगे. तुम्हें उनकी मशक्कत पर रहम आ रहा था, तभी उन्होंने टोका था, ''पहले तुम कुछ सुनाओ दीपकंर.''
तुम सकुचाए, ''मैं भला क्या सुना सकता हूं? ''
''कुछ भी, जो भी जंचे.''
''उस्ताद, सबसे अच्छा तो विहाग ही बजा सकता हूं, लेकिन इस वक्त? ''
हंस पडे थे उस्ताद, ''कहीं परिन्दों को वहम हो गया तो? वैसे तुम्हारा कसूर नहीं, अभी - अभी ही तो जगे हो नींद से.''

फिर तो उस्ताद जैसे खुद में ही खो गये. तारों को कसकर समताल करने के बाद ठीक सूर्यास्त को उन्होंने राग यमन का आलाप साधा. जोड पर करामत ने तबले पर थाप दी. तब तक तुम्हें यकीन न था कि झाला तक सब कुछ निर्विघ्न निभ जायेगा. लेकिन झाला तक आते - आते तुम चकित रह गये थे. जो शख्स पहाड पर ठीक से चढ भी नहीं पा रहा था, उसके हाथ किस तरह उठती - गिरती उंगलियों के साथ ऊपर नीचे दौड रहे थे. इन बूढी उंगलियों में क्या इत्ता कमाल अभी छुपा पडा है. पहाड क़ा जर्रा - ज़र्रा, फुनगी - फुनगी, पत्ते - पत्ते कान उठा कर कनमनाकर ताकने लगे थे. एक रूहानी झंकार थी कि पहाड से उतरते झरने की तरह पूरी घाटी में बह रही थी और अग - जग डूब - उतरा रहा था. घण्टे भर तक धरती गमकती रही फिर उस्ताद ने वीणा सिर पर रख कर एक साथ ही साज और बागेश्वरी दोनों को प्रणाम किया था.

''आप कमाल के बीनकार हैं.''
उस्ताद हांफ रहे थे. बोले - ''अब बुढापे में मुझसे नहीं होता. बागेश्वरी मेरी बेटी बजाएगी.''
और जब उस दुधमुंही लडक़ी ने राग बागेश्वरी बजाया तो ''जैसे अंधेरे की परतों को चीर कर तारे छिटकने लगे - अगणित निहारिकाएं खुल - खुल कर बिछने लगीं.''यह तुम्हारी ही टिप्पणी थी, याद है?

उस्ताद को सहारा देकर उतरने लगी आयशा, तो जैसे तुम्हारा कर्तव्यबोध जागा. आगे बढक़र तुमने दूसरी बांह पकड ली थी. उस्ताद ने अचकचाकर तुम्हें देखा और बोले, ''लगा, जैसे तुम्हारी जिल्द में मेरा बेटा निसार ही लौट आया है विदेश से.''

रात दस्तरखान पर उस्ताद ने फिर वही बात उठा ली थी,  ''जब वीणा बजाता हूं( उस्ताद की निगाह में वीणा और सितार एक ही थे. उनका बस चलता तो सरोद को भी वीणा ही कहते) तो पैंसठ-सत्तर का बूढा नहीं, बीस-पच्चीस का जवान हो जाता हूं और वीणा बन्द हुई नहीं कि भेडिये की तरह दुबका हुआ बुढापा अपने पंजों और दांतों से घायल करने लगता है. अब बुढापे में मुझसे बागेश्वरी देवी की सेवा नहीं होती, जी चाहता है, कोई इस सेवा और इस बेटी दोनों का भार थाम ले और मैं सुकून से रुखसत ले सकूं. या अल्लाह! ”

दिन भर उस्ताद लोगों को लेकर व्यस्त रहते - विन्ध्य के लुप्त होते साज, लुप्त होती स्वर सम्पदा. दूर-दूर से आये प्रशिक्षु. वे बारह - बारह घण्टों तक एक - एक सुर का रियाज क़रते. तुम्हें हैरानी होती.

फिर वह शाम! बूंदा-बांदी शुरु हो गई थी. उस्ताद को रोक लिया था आयशा ने. बागेश्वरी के पूजन के लिये सिर्फ आयशा थी, तुम थे टप - टप बरसती बूंदे थीं और भीगी-भीगी पुरवाई के साथ थी जंगली फूलों की भीनी - भीनी मदमस्त गन्ध! आते समय तुम जानबूझ कर फिसले थे कामिनी-कुंज के पास. संभाल लिया था आयशा ने तुम्हें.
''शुक्रिया.''
''किस बात का?''

वो कविता है न, सखि हौं तो गई जमुना जल को इतने में आइ विपति परी पानी लेने गई थी यमुना में, इतने में घटा घिर गई, दौडी बारिश से बचने को मगर बच न सकी. गिरी लेकिन भला हो नन्द के लाल का जिसने इस गरीब की बांह पकड ग़िरने से बचा लिया - चिर जीवहुं नन्द के लाल अहा, धरि बांह गरीब के ठाडि क़री''फिसले हुओं को संभालने में आपका कोई सानी नहीं.''उत्साह में पूरी कविता का ही पाठ कर डाला था तुमने. तुम्हें उम्मीद रही होगी कि आयशा कह उठेगी ''हजूर की जर्रानवाजी है,वरना मैं नाचीज क़िस काबिल हूं!''

मगर वह तो लत्ते की गुडिया-सी सिमट गयी-एकदम घरेलू किस्म की सपाट-भोली लडक़ी!

इतनी भोली तो नहीं थी आयशा! तुम्हें शायद आज भी न पता हो कि अकेले में कितनी बार चूमा था उसने कामिनी के उस दरख्त को. उसके नन्हें चबूतरे पर बैठ कर कितने ही सुरभीले सपने बुने थे उसने.

गति और दिशा के हिसाब किताब में तुम शुरु से सजग थे. एक दिन जा पहुँचे उस्ताद के पास,    ''उस्ताद मुझे शागिर्द बनाइयेगा? ''
''तुम मेरे शिष्य बनोगे दीपकंर? ''चकित वात्सल्य से छलछला उठी थीं उस्ताद की आंखें, ''देखो, घरानों की बातें हैं, यहां तो सभी खुद को दूसरों से ऊंचा मानते आये हैं. ईगो टसल! ''
''लेकिन बीनकार तो आपसे ऊंचा कोई है नहीं ! फिर घराने किसी फन से कैसे बडे हो सकते हैं? ''
''सोच लो, बहुत कठिन है डगर पनघट की! ''
''सोच लिया.''
''अच्छी बात है. फिर देर किस बात की? पण्डित हो ही, सगुन करो.''

और ठीक गुरुपूर्णिमा को बाबा ने गुरुवन्दना के - ''अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं तद् पदं दर्शितं येन्, तस्मै श्री गुरवे नम: .'' के बीच तुम्हारी कलाई में हरी - हरी दूब के साथ शिष्यत्व का काला धागा बांधा. तुमने कहीं से कर्ज लेकर एक नारियल, पांच सुपाडियां, शाल और एक सौ एक रूपए उनके कदमों पर रख दिये.

''यह क्या? ''तनिक संजीदा हो आये उस्ताद,  ''पौद को जिन्दा रहने के लिये पानी तो चाहिये, मगर वह पानी इतना ज्यादा भी न हो कि पौद सड - ग़ल ही जाये.''फिर हंस पडे उदास से,       ''बागेश्वरी में पंचम वर्जित है और पंचम ही तुम्हारा आधार है.''

हे बागेश्वरी के पंचम! पता नहीं कब बाबा ने क्या कहा और तुमने क्या सुना. जो भी हो शुरु हो गया विद्यादान. बाबा सैध्दान्तिक बातें बताते जाते, आयशा उसे बजाकर दिखाती.
उस दिन उस्ताद तुम्हें बता कर किसी काम से राजा साहब के यहां निकल गये. घर में आयशा थी और तुम थे. वह तुम्हें सिखा रही थी और तुम उसके चेहरे से लेकर नाखून तक सारी शख्सियत को मुग्ध - भाव से देख रहे थे. अचानक ही बोल पडे - ''आप बहुत सुन्दर बजाती हैं.''
''झूठ! ''शरमा जाती है आयशा.
''ओह! ये उठती - गिरती उंगलियां, ये ऊपर - नीचे दौडते हाथ, यह पूरी देह से निकलती झंकार, जैसे कोई धारा पत्थरों पर ऊपर से नीचे बहती जाये - तरंगायित,उच्छ्वसित, उल्लसित, उद्दाम यौवन से मदमाती''
''अगर मुझी पर सारी तारीफ खर्च कर डालेंगे तो बाबा के लिये क्या बचेगा?''
''बाबा में भी यही क्वालिटी है; मगर उनका बजाना पहाड क़े सीने से फूटती धारा है.''
''और मेरा?''
''आपका? आप जहां-जहां पोरों से गत को दबाती हैं, वहां-वहां रंगीन फौव्वारे फूट निकलते हैं. रक्स करती हैं, बेशक पैरों से नहीं, हाथ की उंगलियों से. कहां छुपी रहती है इत्ती मस्ती इन पोरों में?''

तुमने एकान्त पाकर आयशा की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया था. तारों के साथ निरन्तर छेडछाड से खुरदुरी हो आई उंगलियों की पोरों को सहलाने लगे थे तुम.
''लेकिन आप सिखाती नहीं ठीक से.''
''और आप? आप सीख रहे हैं ठीक से?''
''पहले मिजराब (नखी) लगाइये उंगलियों में.''
''वह ताके पर रख छोडा था, फिर मिला नहीं.''
''मैं बन जाऊं मिजराब?''और तुमने आयशा की उंगलियों को चूम लिया था. याद है?

लुक - छिप कर मिलने लगे थे तुम और आयशा - कभी मन्दिर में, कभी पनवाडियों में, कभी पहाड पर और जिस दिन अब्बू को इसकी भनक मिल गई, उस दिन?
भरे-भरे से बैठे थे बाबा! पखावज लेकर बैठ गये थे.
धम्म!
लगा कोई ईंट गिरी हो किले की बुर्ज से!
एक ईंट, फिर दूसरी, फिर तीसरी! खण्ड - खण्ड टूट कर गिरने लगे थे पत्थर, अर्राकर ढह रहीं थी बुर्जियां, मेहराबें, अटारियां. थमते - थमते थम गया था कोलाहल. श्मशानी शांति.
तुम सकते में आ गये. सहारे के लिये तुमने आयशा को देखा. वह खुद सहमी हुई थी.
ढम्म! अचानक फिर थाप पडी. स्वर बदला हुआ था इस बार. प्रलय के बाद सृष्टि का सुर! एक - एक ईंट चिनी जाने लगी खडा होता गया किला. सजती गईं अटारियां,खिलती गईं मेहराबें, चमकने लगे कंगूरे!

आयशा की रुकी सांस फिर चलने लगी. तुम्हारी जान में जान आई. पखावज का ऐसा बजाया जाना पहली बार सुना था तुमने.
''साक्षात शिव हैं अब्बू! नाराज हो जायें तो संहार! ताण्डव! खुश हो जायें तो निर्माण के वरदान!''आयशा ने कहा था.
''मगर मैं पखावज का दूसरा अनुभव नहीं लेना चाहता.''बाप रे! मेरी तो रूह ही चाक हो गय.''
''तब तो आपको सीधे अब्बा से बात करनी पडेग़ी. उनकी रजा के बगैर अब मैं नहीं मिल सकती.''

बिस्तर पर क्लान्त लेटे थे बाबा. तुमने जाते ही उनके पांव पकड लिये. परदे की ओट में खडी थी आयशा.
''क्या बात है पण्डित? पांव तो छोडो.''
''छोड दूंगा. बस एक बात कहने की इजाजत दे दें.''
''अमा इजाजत की क्या बात! कह भी डालो अब.''
''आपने कभी कहा था कि जी चाहता है, कोई बागेश्वरी देवी की सेवा और बेटी आयशा दोनों का भार थाम ले.''
''होगा.''
''मैं दोनों का दायित्व संभालने को तैयार हूं, अगर आप चाहें.''
''हूंऽऽ!''एक छोटी सी हुंकारी के बाद लम्बी चुप्पी पसर गई थी उनके होंठों पर.”


''क्या मेरे हिन्दू होने की वजह से आप सोच में पड ग़ये? ''तुमने उन्हें हौले से जगाया.
''हां भी और ना भी! ''उस्ताद धीरे से उठ कर बैठ गये, ''मुसलमानों ने काफी पहले ही मुझे काफिर मान लिया है. मैं इस बात से परेशान नहीं हूं कि ऐसा करने से उनकी राय पर ठप्पा लग जायेगा. धरम यहां क्या कहता है और मजहब के फतवे क्या कहते हैं - मुझे नहीं मालूम, जानना भी नहीं है. मौसिकी मेरे लिये सिर्फ मौसिकी है, फन सिर्फ फन. बागेश्वरी होती होंगी हिन्दुओं की कोई देवी, मेरे लिये वे सिर्फ मौसिकी की देवी हैं. चाहता मैं सिर्फ इतना हूं कि जिन हाथों में बेटी का हाथ दूं, उन हाथों में उसका फन और उसकी खुशी दोनों सलामत रहें. कहां तुम ऊंचे खानदान के पण्डित और कहां आयशा? उस्ताद की शक्ल में हमें सर पे बिठाते हैं हिन्दू, मगर एक दूरी से ही. फिर इस्लाम कुबूल करने से पहले हम भी तो छोटी कौम के हिन्दू ही थे. इन चीजों को तुम्हारा हिन्दूपना कतई बर्दाश्त नहीं करता. यानि एक के लिये एक मलेच्छ,दूसरे के लिये काफिर! इनसे भाग कर मैं मौसिकी की पनाह में आया हूं तो यहां महफूज हूं, मगर कब तक? जब तक नीचे न उतरूं! अभी तो जवानी है, जज्बा है, जुनून है, जीत लोगे जंग, मगर इनके उतरने के बाद?''
''आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं, उस्ताद! ''
''आयशा से पूछ ही लिया होगा? ''एक लम्बी खामोशी के बाद बोले उस्ताद.
''जी.''
''मां तो अब नहीं रही, अपने बाकि लोगों से?''
''पूछने की जरूरत नहीं है.''
''इसे हिन्दुआनी बनाओगे? ''
''मेरे लिये तो ये सिर्फ वीणा है.''

शब्दों के सटीक उपयोग तो कोई तुमसे सीखता, दीपंकर! बाबा को रिझाने के लिये तुम्हारे लिये सितार और वीणा, वीणा और आयशा के लिये अलग - अलग सम्बोधन नहीं -सिर्फ एक सम्बोधन था वीणा. बडा रोमान्टिक है न यह सम्बोधन!

उसी बागेश्वरी के मन्दिर में आयशा वीणा बन कर हो गयी तुम्हारी पत्नी! याद है न वो दिन, उस्ताद ने दुआ दी तुम्हारे ही पुराने अन्दाज में, ''तुम दोनों दो तम्बूरों की तरह प्रेम के तारों से जुड ग़ये आज - इसी तरह बंधे रहें तार, इसी तरह उठती रहे झंकार!
और उस मधु चन्द्रिका की मिलन यामिनी की सेज पर याद है वह मधु सम्वाद ?
''देखूं कितनी राग - रागिनियां सोई पडी हैं मेरी वीणा में?''यह तुम्हारा प्रश्न था.
''जितनी तुम जगा पाओ.''यह वीणा का उत्तर था.

तो हे वीणा वादक ! शुरु - शुरु में तुमने अपनी साधना में कोई कोताही नहीं बरती. मगर गुरूकुल की शिक्षा पूरी होते ही तुम्हें ऐसे लगा, जैसे बन्दीगृह से निजात मिल रही हो. उस्ताद का अहसास भी अब पहाड क़ी तरह खडा था तुम्हारी राह में. तुम्हें जगह-जगह से बुलावे आ रहे थे. उस्ताद कहते - ''चले जाओ''
''मगर देवी पूजा?''
''ओह वीणा है न!''उस्ताद भी अपनी बेटी को आयशा नहीं वीणा ही कह कर पुकारने लगे थे अब! कलकत्ते वाले ही थे कि अड ग़ये, ''हमें दीपंकर तो चाहिये ही, साथ में वीणा भी चाहिये.''
''ठीक है वीणा जायेगी.''

तुमने मुडक़र देखा, वीणा के पैर चलने से पहले तनिक कांपे थे, इस उम्र में घर से मन्दिर तक घिसटना पडेग़ा अब्बू को. मगर हुक्म भी अब्बू का ही था, सो वह गई, मगर उसका जाना!
कलकत्ते के उस संगीत समारोह में वीणा ने मालकोंश बजाया था और तुमने चन्द्रकोंश, फिर योगकोश पर दोनों की जुगलबन्दी. तालियों की गडग़डाहट से गूंजता रहा ऑडिटोरियम!
दूसरे दिन अखबारों में वीणा ही वीणा छाई हुई थी, दीपंकर की चर्चा महज रस्मी तौर पर हुई थी. तुमने एक उडती हुई नजर डाली, फिर सुबह-सुबह ही सज धज कर तैयार पत्नी पर आकर टिक गई तुम्हारी नजर. नजरों में सवाल था.

''वो अखबार वाले आ रहे हैं इम्टरव्यू के लिये.''वीणा ने सफाई देनी चाही.
''हूंऽऽ!''यह हूंऽऽ न कोई ध्रुपद था, न धमार, यह कुछ और ही था. इस हूंऽऽ की गूंज - अनुगूंज में बहुत कुछ सुन लिया था वीणा ने.

वीणा को आश्चर्य होता, आखिर तुम चाहते क्या थे. पहले तुम्हें वीणा से यह शिकायत थी कि वह नितान्त घरेलू औरत है, उसे तुम्हारी पत्नी के अनुरूप ढालना चाहिये, तनिक आधुनिक होना चाहिये. अब, जबकि वह हो रही थी तो तुम उसे घरेलू बनाने पर आमादा थे.
जैसे - तैसे समय बीता. बनारस के दो टिकट पकडाते हुए तुमने वीणा से कहा, ''इन्हें पर्स में रख लो''
''बनारस ?'' वीणा हैरान थी.
''क्यों ''
''क्यों बनारस के नाम पर ऐसे क्यों चौंक गईं जैसे तुम्हें मणिकर्णिका घाट ही भेज रहा हूं.''
चौंक गईं वीणा, ''मैं ने ऐसा कब कहा?''
''फिर?''
''वो बागेश्वरी में अकेले होंगे अब्बा''
''तो फिर तुम बागेश्वरी चली जाओ, मुझे तो बनारस ही जाना है.''
''मैं तुम्हारी छाया हूं, तुम जहां-जहां जाओगे, मैं तुम्हारे साथ जाऊंगी; लेकिन खुदा के लिये कम से कम यह तो बता दो कि बनारस में क्या कम है, कहीं भाई साहब के पास तो नहीं?''

तुमने जवाब देना जरूरी नहीं समझा, खुद ही पता किया वीणा ने कि तुम्हारे भाईसाहब की तबियत खराब चल रही है. मान धुल गया. द्रवित हो आया मन. मां का साया पहले ही तुम पर से उठ चुका था, ले - दे कर एक भाईसाहब ही तो बचे थे जो बीमार थे.
''तब तो मुझे भी बनारस चलना चाहिये. रास्ते में ही तो पडता है. पहले हम बनारस चलते हैं, फिर बागेश्वरी.''

भाईसाहब की हालत वाकई में नाजुक़ थी. वीणा अभी बनारस रुकना चाहती थी मगर तुम उसे बागेश्वरी जाने पर जोर दे रहे थे, ''मैं इन्हें संभाल लूंगा, तुम जाकर उन्हें संभालो.
''यह इन्हें और उन्हें कब से हो गये? क्या बाबा सिर्फ और सिर्फ मेरे हैं, और भाईसाहब सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे?''वीणा को ठेस लगी लेकिन प्रकटत: उसने कुछ कहा नहीं,लौट आई बागेश्वरी.

अखबारों से ही पता लगा कि बाद में तुमने बनारस और इलाहाबाद में कई कार्यक्रम किये. और इन पर प्रतिक्रिया उधर तुम्हारे भाई साहब तुम्हें सीख दे रहे थे कि तुम्हें अभी बाबा के पास रहना चाहिये था, इधर बाबा वीणा को सीख दे रहे थे कि तुम्हें दीपंकर के साथ ही रहना चाहिये था.

तुम बागेश्वरी आए तो कलकत्ते की काली छाया को धो - पौंछ कर. इलाहाबाद ने नई चमक भर दी थी. सबको बताते फिर रहे थे कि कलकत्ते में क्या था, गुणी, जानकार तो दरअसल इलाहाबाद में ही थे.
पांव छूते ही बाबा ने अपने अस्वस्थ घर्राते गले से पूछा, ''कैसे हो बर्खुरदार?''
''जी ठीक.''
''भाईसाहब?''
''वो भी ठीक हैं.''
''तो इलाहाबाद फतह कर आये?''
''जी, आपका आशीर्वाद है.''
''रेडियो में नौकरी करने जा रहे हो?''
''हां मिल तो रही है, मगर मैं खुद दुविधा में हूं.''
''कैसी दुविधा?''
''वचनबध्दता - बागेश्वरी देवी और वीणा के प्रति दायित्व निर्वाह की.''
रीझ रहे थे उस्ताद तुम्हारी कर्तव्य पारायणता पर.

वीणा से मिलतो ही तुमने उसे बांहों में कस लिया और चुम्बनों की बौछार कर दी.
''कैसे हैं भाईसाहब?''
''चंगे.''
''तुम्हारी संगीत - चिकित्सा से? ''
''इतनी क्रूर न बनो मलिका - ए - मौसिकी! तुम्हारे बिना मैं नहीं रह सकता. जानती हो, इलाहाबाद में जब पण्डित गुदई महाराज ने पूछा, आज क्यों तेरी वीणा मौन? तो मुझ पर क्या गुजरी! भाईसाहब ने तो सीधे छडी उठाई और यहां खदेड क़र दम लिया.''

वीणा को थकाकर तुम थक कर सो रहे थे और वीणा तुम्हारे सुन्दर सलोने चेहरे को देख - देख कर रीझ रही थी और तुम्हें सम्बोधित करते हुए सोलहवीं शताब्दी की नायिका की तरह मौन संलाप कर रही थी, ''मेरे नटखट शिशु, कलकत्ते में जो हुआ, उससे तुम रूठ गये न? रूठना ही था. एक तो एक ही विधा के लोग, प्रतियोगी भी न हों तो तमाशबीनों द्वारा बना दिये जाते हैं, दूजे मैं नारी तुम पुरुष. इगो की चरमराहट! अच्छा हुआ कि बनारस और इलाहाबाद ने भरपाई कर दी और तुम फिर ऊपर आ गये.तुम्हीं जीते, मैं ही हारी. ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे, काहे का झगडा बालम नई नई प्रीत रे खुश? तुम पर वारी जाऊं मेरे सलोने राजकुमार. तुम जैसे खुश रहो, मैं वही करुंगी बस एक ही इल्तजा ही मेरी, मुझसे रूठो मत!''

बाबा भी खुश थे अपनी बुढापे की बीमारी के बावजूद! और एक दिन मन्दिर जाने से रोक लिया उन्होंने तुम्हें. स्नेह से गाढे हो रहे थे, बोले- ''बेटे, मैं एक पका आम हूं, कब टपक पडूं कोई ठीक नहीं. जाने से पहले मैं चाहता हूं कि तुम्हें देवी की मूरत गढने के हुनर में उस्ताद बना दूं. तुम जानते हो कि यह हुनर कोई उस्ताद सिर्फ अपने खासमखास शागिर्द को ही देता है. गौर से सुनो, जिस तरह एक नायाब मूरतसाज माटी से मूरत गढता है देवी की - पांव, कमर, सीना, गर्दन, हाथ, उंगलियां, होंठ, कान,नाक, आंखउसी काम को एक मौसिकार अपनी मौसिकी से अंजाम देता है.''और उस्ताद ने वीणा की सहायता से तुम्हें मूर्ति गढना सिखलाना शुरु कर दिया.

चोरी - चोरी प्रेम के सुरभीले दिनों के बाद वे सबसे सुन्दर दिन थे वीणा की जिन्दगी के. मन्दिर परिसर में पति - पत्नी मूर्ति गढ रहे होते - तिन - तिन्न! धिन्न- धिन्न! की झंकार दूर - दूर की पहाडियां सूद सहित लौटा देतीं - ध्वनि भी प्रतिध्वनि भी! जैसे पूरी प्रकृति, पूरे विश्व, पूरे ब्रह्माण्ड में सिर्फ मूर्ति रची जा रही थी उन दिनों.
''मुझे लगता है मूर्ति का हाथ - पांव, चेहरा साफ हो गया, बस जरा आंखें नहीं सध पा रहीं हैं अभी. तुम सिखाने में कोताही बरतती हो.''
''आंख ही तो सबसे आखिर में खुलती है न?''
''बहुत जानकार हो गई हो.''
''एक मूरत खुद भी गढ रही हूं जो इन दिनों.''वीणा का चेहरा गुलाबी हो उठा था.
''अरे बाप! ''

उस्ताद ने परीक्षा ली तो बोले, ''अभी खुरदुरापन है, वीणा के साथ रियाज क़रते रहोगे तो बाकी बारीकियां भी आ जायेंगी.''तुमने खीज कर ताका था वीणा की ओर, जो दांतो - तले जीभ दबा रही थी.
''फन और हुनर की कोई इन्तहां नहीं होती, दीपंकर.तुम इसे हमेशा आगे बढाते रहोगे, दूसरों के फन को भी.''इसके साथ ही उन्होंने अपनी उखडी सांस को सम किया. तुम उनका सीना सहलाने लगे थे. उन्होंने अपना दाहिना हाथ तुम्हारे सिर पर रख दिया, ''इसके साथ ही मैं अपने पहले वचन से तुम्हें आजाद करता हूं- अब बागेश्वरी देवी की सेवा के लिये यहां बैठे रहना तुम्हारे लिये कतई जरूरी नहीं है, लेकिन दूसरा वचन. इसे चाहो तो एक बाप की कमजोरी कह लो, वीणा को खुश रखना वही मेरी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी, तुम्हारा, वो क्या कहते हैं, पत्नीव्रत और प्रेमिकाव्रत भी.''

हे पत्नीव्रती! यह तुम्हारे जीवन का नया अध्याय था, वीणा के जीवन का भी. संगीत समारोहों का दौर - दौरा फिर शुरु हो गया. वीणा की भूमिका तुम्हें सजा - सवांर कर मंच पर भेज देने की और सबसे पीछे तानपूरा लेकर बैठने तक ही सीमित हो गयी. फिर हुआ कला का जन्म, मगर यह कोई उल्लेखनीय घटना न बन सकी. इलाहबाद,बम्बई, कलकत्ते, दिल्ली में बंधकर रहने वाले जीव तुम थे नहीं, सो जैसे ही मौका मिला, तुम उड ग़ये अमरीका, साथ ही वीणा और कला भी. वह तुम्हारा पत्नीव्रत नहीं तुम्हारी अनिवार्यता थी, कारण, कौनसी पोशाक किस महफिल को लिये मौजूं है, यह सिर्फ वीणा को पता था - कभी मुगलिया, कभी नवाबी, कभी देसी रजवाडों की तो कभी साफ शफ्फाक सूफियाना, पर सुरुचिपूर्ण.

कब क्या खाना है, क्या पीना है, क्या बजाना है, पुराने शास्त्रीय संगीत मैं किस हद तक देसी पंच करना है - यह भी. तुम्हें दूल्हे की तरह या कहूं जादूगर दूल्हे की तरह मंच पर सजा - संवार कर बैठा देती और खुद तानपूरा लेकर पीछे बैठ जाती - स्वरों का आधार बनाती, उसकी उंगलियां तानपूरे के तारों पर फिसल रही होतीं, मिजराब के अभाव में खुरदुरे होते पोर, मगर अब तुम्हें उन्हें चूमने को कौन कहे, देखने की भी फुरसत न होती. मिलने वाले काफी हो गये थे,खासकर गोरी, चाकलेटी औरतें, जिनके सम्पर्क में आते ही तुम्हारा चेहरा खिल जाता. वीणा ने महसूस किया कि तुम उससे दूर होते जा रहे हो, मगर एक अजीब किस्म का ठण्डापन उसे घेरने लगा था.

वीणा चुपचाप देख रही थी कि तुम संगीत पर कम, उसके मायावी प्रदर्शन पर ज्यादा ध्यान देने लगे थे - मंच से लेकर लिबास तक. फिर तुमने समारोह के पूर्व अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन में एक वक्तव्य रखना शुरु किया जिससे तुम्हारे पाण्डित्य की धाक जमने लगी. निसार बीच - बीच में आते रहते. तुम दोनों की जुगलबन्दी भी हुई जो कि खासी चर्चित हुई. ये वे दिन थे जब लोकप्रियता पर तुम छोटे - मोटे प्रयोग करते ही रहते. उद्देश्य सिर्फ एक होता, मंच पर छा जाना, भले ही बाकि कलाकार अंधेरे में चले जायें. वीणा को उस दिन तुम्हारा लाइफ में इंटरव्यू पढ क़र कोई हैरानी नहीं हुई जब तुमने एक तरह से खुद को स्वनिर्मित प्रतिभा के रूप में पेश किया. प्रचार की चंग पर चढक़र तुम भारतीयता के प्रतीक बनते जा रहे थे.

हे भारतीयता के महान प्रतीक! पत्नी न सही, भ्राता न सही, गुरु के लिये हमारी संस्कृति में बहुत ही ऊंचा स्थान है , शिष्यत्व स्वीकार करते हुए तुम्हें अपनी गुरूवन्दना याद है -
गुरूर्बह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वर:
गुरूत्साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम:.

उसी गुरू ने कई बार कांपते हाथों से कलम उठाई होगी तुम्हें, वीणा या निसार को खत लिखने को, फिर रख दी होगी. कई बार उडी- उडी ख़बर मिली कि उनकी हालत नाजुक़ है, लेकिन तुमने उसे नजर अन्दाज क़िया.
यह तो निसार थे जो तुम सबों को जबरन वापस ले आये बागेश्वरी.

तुम्हें वीणा, एवं निसार के बीवी - बच्चों को देखकर बूढे ग़ुरिल्ला की तरह, अबूझ की तरह ताकने लगे थे बाबा. फिर बताये जाने पर एक - एक की कुशलक्षेम पूछने लगे. आखिर में टिक गई वीणा पर नजर, ''क्या बात है वीणा अखबारों में दीपकंर और निसार का नाम तो कभी - कभी झलक जाता है लेकिन तुम्हारा नहीं!''
''अब कला के चलते फुरसत कहां मिलती है अब्बू! ''
''बजाना तो नहीं छोडा न?''
''नहीं बाबा वो कैसे छोड सकती हूँ.''
''मेरा पूरा कुनबा मेरे सामने है. क्या पता, कल क्या हो. मेरी ख्वाहिश है कि आज रात एक महफिल हो जाए देवी के मन्दिर में.

पालकी पर ले जाया गया उस्ताद को. सबने कुछ न कुछ पेश किया मगर वीणा ने गायकी में अमीर खुसरो की वो ठुमरी उठायी, काहे को ब्याही बिदेस अरे लखिया बाबुल मोरे तो स्वर टूट रहा था. उस्ताद ने थोडी देर तक आंखों पर पलकों के परदे डाल लिए, बूंदों की धार बिंधती रही दाढी में. गीत बन्द हुआ तो धीरे - धीरे पलकें खोली उन्होंने. कोई कुछ नहीं बोल रहा था. देखते-देखते आंखों की रंगत बदली, शिशु - सा चकित हो उठे, ''निसार, शमा, दीपंकर, आयशा - जरा देखो तो हवा से हिलते पत्तों की झुरमुट में से झांकता चांद. दुनिया के तमाम फरेबों, तमाम गलाज़तों के ऊपर पाकीजग़ी के नूर - सी बरसती चांदनी, चकमक करते पत्ते, क्या खुदा की इस नेमत को मौसिकी में नहीं ढाल सकते? तुम, तुम? नहीं तू''निसार और दीपंकर के बाद वीणा से इसरार और उस रात वीणा ने अपनी सारी कला लगा दी प्रकृति के उस छन्द को स्वर देने में

वीणा रखकर वीणा ने जब सर उठाया तो फिर वही अब्बू की चकित शिशु सी चितवन!
''अब्बू?''
''अब्बूऽऽ?''
अब्बू जा चुके थे.

'गोरी सोवै सेज पर मुख पर डारे केस, चल खुसरो घर आपने रैन हुई चहुं देस. चार कहार मिल डोलिया उठाए बागेश्वरी बैंड की करुण धुन पर महाप्रयाण!
''उस्ताद तो महायात्रा पर निकल गये.''तुमने कहा था. वीणा ने खोई - खोई पलकें ऊपर उठाईं थीं.
''चलो पैक कर लो, परसों वापस चलना है.''
वीणा ने आहत नजरों से तुम्हें देखा. वह गई तो जरूर, मगर कहीं जी न लगता था उसका. ये वे दिन थे जब तुम पॉप सिंगर्स से मिलकर अपने प्रायोजक ढूंढते फिर रहे थे. तुम्हारा एक पांव अमरिका के लॉस एंजिल्स में, दसरा भारत में बीच में पूरी दुनिया थी और वीणा थी कि उसे अमरीका भी सूना लग रहा था, भारत भी और बाकी दुनिया भी. बहुत तेजी से बदल रहे थे तुम. अब तुम्हारी दुनिया बाख, बीथोवन, मोत्जार्ट और मैनहन तक फैल रही थी. अब तुम्हें बीथोवन के मूनलाइट सोना में रात में समुद्री लहरों के टूटने जैसा नाद ज्यादा सम्मोहित करने लगा था और उसमें तुम्हें रवीन्द्र संगीत की सी दिव्यता दिखाई देने लगी थी, साथ ही बाबा की पत्तों के झुरमुट से झांकती चांदनी और चकमक करते पत्ते भी किस चीज क़ो कब, कहाँ इस्तेमाल कर ज्यादा से ज्यादा लाभ बटोरा जा सकता है, इस पर तुम सदा सतर्क रहते. शास्त्रीय संगीत की समझ से रहित पश्चिम के दर्शकों, श्रोताओं में अपने संगीत को लोकप्रिय बनाने के लिये तुमने आलाप की बोरियत से पल्ला झाडा, जोड क़ो समृध्द किया और सीधा उतर शए झाले पर. इसी तरह पश्चिमी और पूरबी श्रोताओं को लुभाने के लिये तुमने कई पगडण्डियां तलाशीं और सवाल-जवाब जो यहां फूहड और छिछला माना जाता रहा, को ज्यादा से ज्यादा महत्व देने लगे.

वीणा ने एक दिन टोका भी,''हमारे यहां राग, ताल, लय या सुर एक दूसरे को समृध्द करते हैं. मिलित हंसध्वनि हो या जुगलबन्दियां, यहां एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बावजूद मुख्य उद्देश्य परस्पर सहायक का ही होता है, प्रतिस्पर्धा का नहीं. इसी तरह भारतीय संगीत की बाकी महान परंपराओं की भी तुम अनदेखी करने लगे हो. क्या तुम्हें नहीं लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है.''

हंस कर टाल गये तुम. बाद में प्रदर्शन के पूर्व वक्तव्यों में तुमने इसका खुलासा किया, ''कुछ शुध्दतावादियों को लगता है, भारतीय संगीत इतना महान है कि उसे साधारण जनता के बीच उतारा गया तो अपवित्र हो जायेगा. पर मैं पूछता हूँ कि संगीत या कला या साहित्य सिर्फ मुट्ठी भर पण्डितों के लिये है? जब तक कोई कला जनता के बीच नहीं उतरती वह सार्थक तो नहीं ही होती वह दीर्घजीवी भी नहीं हो सकती.''

बहुत तालियां बजी थीं तुम्हारे इस वक्तव्य पर. तुमने आगे कहा था - अब बात आती है प्रस्तुति पर - क्या पश करें., कैसे पेश करें. प्रकृति को देखिए कि उसे एक फूल पेश करना है तो कैसे करती है. मान लीजिये बोगवेलिया है. मात्र लवंग जितने लम्बे यानि नन्हे - नन्हे सफेद फूल गिनती में तीन - तीन. उन्हें पेश करने के लिये वह अपनी तमाम जाड - ड़ालें, पत्ते - कांटे सबसे पिण्ड छुडा लेती है. यहां तक कि पुष्प को समोने वाली पत्तियां भी लाल, गुलाबी या श्वेत यानि इतनी रंगारंग रहती हैं कि उन्हीं को लोग फूल की पंखुरी मान बैठें - भव्य से भव्यतम प्रदर्शन.''

और इतनी शानदार व्याख्याओं पर भला हथियार न डाल दे वीणा?

फिर कुछ दिन पति के साथ साए की तरह डोलते रहने का सिलसिला. तुम्हें महफिलों में सजा - सवांर कर भेज देती और खुद अब्बू के रिकॉर्डस लगा कर बैठ जाती.
तुम कभी रातों को देर से लौटते, कभी सुबह. तुम्हारे अन्दाज में कहें तो शाम -ए - अवध को जुदा होते तो सुबह - ए - बनारस को ही लौटते.
''आज किस घाट पर जल रहे थे? ''तल्ख पडती मानिनी वीणा. मगर उसके मान का तुम्हारी नजर में कोई मूल्य न होता. मन होता तो तटस्थ, निरपराध, बेगानी आवाज में सुना देते, ''आज डी एम पकड ले गये थे, आज मंत्री, आज फलां तो आज अलां! दम मारने की फुरसत नहीं.''

युनिवर्सिटी या राजकीय कार्यक्रमों, युध्दराहत या कल्याणकोशों के लिये तुम सदा तत्पर रहते, आयकर देने में प्रत्यक्षत: कोताही नहीं बरतते. लोगों की नजर में तुम्हारी छवि उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होती रही. चीजों को अनुकूलित करने में तुम निरन्तर सफल रहे. अब उनकी नजर तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्र और परिवार, सर्वोपरि फन के प्रति तुम्हारे एटीच्यूड पर न जाती, उलटे तुम महान से महानतम् घोषित किये जाते रहे, ठीक उन सेठों की तरह जा चींटियों को शक्कर के दाने देते हैं, और भिखारियों, बाह्मणों, विधवाओं,गरीब छात्रों, सामाजिक कल्याण की संस्थाओं को दान देते हैं, और अपनी मिल में अपने मजदूरों, घर में अपनी बीवी अपने नौकरों का शोषण करते हैं. व्यक्तिगत चरित्र में लम्पट और जातीय चरित्र के स्तर पर प्रथम श्रेणी के अपराधी! एक ही आदमी का बर्ताव एक स्थान पर एक जैसा, दूसरे स्थान पर दूसरे जैसा! क्या कोई लेखा - जोखा लेने आएगा कभी? कभी नहीं. नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेज, नथिंग फेल्स लाइक फेल्योर!

वीणा ने अपने ढीले पडे तारों को फिर कसा, मगर वह सुर कहाँ, वह साज क़हाँ! नवीनाओं की तुलनाओं में कहाँ टिकती है प्रवीणा!

दूसरी विदेश यात्राओं में तो तुम साथ भी नहीं ले गये उसे. पूरे चार महीने बागेश्वरी में अकेले गुजारे उसने - कभी अब्बू की कब्र पर, कभी बागेश्वरी देवी के मंदिर में. अकसर पहाड से देखा करती वह पश्चिम की ओर - कितनी दूर चले गये थे तुम! पनवाडियों को देख - देख कर पन्त की वह कविता याद आती, पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल वन का मर्मट, ज्यों वीणा के तारों में स्वर जिसे प्रेम के प्रारंभिक दिनों में दिलनुमा पान के पत्तों को देख - देख कर उस स्निग्ध आलोक छाया में तुम आवृति किया करते! वह कविता मारू विहाग के करुण रस में शिराओं में घुला करती अहरह!

लॉसएन्जिल्स, वियाना, लन्दन, पेरिस, म्युनिख, कहां - कहां नहीं जगमगाने लगा था तुम्हारा सितारा. नए - नए कितने ही रागों का सृजन किया तुमने. प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितने ही रागों का सृजन किया तुमने. प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितनी ही प्यारी धुनें दी हैं तुमने. अनायास ही तुम लोगों के दिलों में छाते जा रहे थे मगर तुम्हें इतने - भर से संतोष नहीं मिला, तुम अनन्य, अद्वितीय होना चाहते थे. हिंदी के लोकप्रिय कवि ने अपनी कृति को स्थापित करने के लिये जनभाषा,मंचन, अंधविश्वास, ढोंग और चमत्कार का सहारा लिया था. दीपकराग से दीप का जल जाना, मेघमल्हार से वर्षा की झडी लग जाना - संगीत में कुछ अंधविश्वास पहले से चले आ रहे थे. तुम्हारे चेलों ने भी प्रचारित करवाया कि एक पेड ज़ो तेज पश्चिमी धुन पर जड से उखड ग़या था, तुम्हारा संगीत सुन कर फिर से खडा हो गया.
चमत्कार!

वैसे हे चमत्कारी बाबा! तुम्हारा असली चमत्कार तो वीणा खुद है. तुम्हारे मारन मन्त्र से जड - मूल से उखडी हुई वीणा, जहां अहर्निश अन्दर एक जलती हुई आग है और बाहर आंसुओं की झडी. पता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक नारी होती है, जबकि हिंदी के उस सफल कवि ने भी अपनी उस पत्नी को वापस मुडक़र भी नहीं देखा, जिससे उसने कविताई का ककहरा सीखा( कुछ महापुरुषों को लें लें तो हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर या सिध्दार्थ ने भी नहीं). तुमने भी नहीं. पत्नियां शायद इसीलिये होती हैं कि सफलता के लिये उनकी बलि दी जा सके! दोनों ही उत्कट प्रेमी थे. उत्कट प्रेम की यह कैसी परिणति? शायद पति - पत्नी के बीच कोई तीसरा आ जाता है - सफलताजनित अहम्मन्यता का प्रेत!

याद है विवाह - वार्षिकी की रात? तुम बम्बई में थे, किसी फिल्म संगीत के सिलसिले में. जब देर रात भी न आए तो स्टूडियो जाकर पता किया था वीणा ने. तुम वहां से कब के जा चुके थे. पता करते - करते वीणा जा पहुंची थी उस होटल में. अन्दर बेड पर कोई नंगी लडक़ी थी और बाहर दुल्हन सी सजी पत्नी! दरवाजे पर रास्ता रोककर खडे तुम हडबडा कर कमरे को फिर बोल्ट करने लगे थे.
''प्लीज ड़ोन्ट क्रिएट एनी सीन. अपने कमरे में चलो, मैं तुम्हारे कठघरे में खडा हो जाऊंगा.''तुम गिडग़िडाए थे.
वीणा उसी दम लौट आई बागेश्वरी. उसे मनाने के लिये निसार को साथ लेकर आये थे तुम. बहुत कुछ समझाते रहे थे निसार अपनी बहन को - ''जो हुआ उसे एक बुरे सपने की तरह भूल जाओ. इसी में तुम दोनों की भर्लाई है और तुम्हारी बेटी की भी.''
''कैसे भूल जाऊं? ''बिफर पडी थी वीणा.
''बताऊं ! फिर से वीणा उठा कर.''


निसार भाई के साथ आई एक महिला पत्रकार ने वीणा से अकेले में कहा, ''मैं भी एक औरत हूँ, इसलिये तुम्हारी पीडा को आसानी से समझ सकती हूँ. मगर सच कहूँ यह कला की दुनिया ही अजीब है, वीणा. पता नहीं कौन सी चीज क़िसका प्रेरणास्त्रोत या उद्दीपक बन जाये! पिकासो को जानती हो न! एक बार एक मॉडल उनसे मिलने आई. उसे देखता रह गया वह. कहते हैं दो घण्टे तक भोगता रहा उसे. बाद में जो पेन्टिंग की वह नायाब थी. तो वह था उसका उत्प्रेरक तत्व! लेखकों से लेकर कलाकारों, इवन ॠषियों तक में ऐसे उदाहरण भरे पडे हैं इसे एक आवश्यक बुराई के रूप में लगभग मान लिया गया हे. पश्चिम में तो कोई परवाह भी नहीं करता ऐसी बातों की.''
''तो क्या एक कलाकार को एक हद के बाद स्वैराचार करने की छूट मिल जानी चाहिये सिर्फ इसलिये कि वह कलाकार है? ''

''करीब - करीब ऐसा ही. दीपंकर को भी तुम अगर एक महान कलाकार के रूप में देखना चाहती हो तो इतना कुछ बरदाश्त करना ही पडेग़ा. वो कहावत सुनी है न, लैला को प्यार करो तो उसके कुत्ते को भी प्यार करो.''

कोई तर्क नहीं उतर पा रहा था मानिनी वीणा के गले से. न तुम बाज आए, न वह. पता नहीं वह खुदी थी या बेखुदी, तुमने उसी कमरे में जहां कभी तुमने उस्ताद के पांव पकड क़र आयशा की भीख मांगी थी, कहा, ''आयशा मैं तुम्हें तलाक देता हूँ - तलाक! तलाक!! तलाक!!!''

''थू ! थू !! थू !!!''वीणा ने हंस कर थू थू किया, जैसे नजर उतार रही हो, किस नशे में तुम पण्डित से मुल्ला बन बैठे यकायक? आयशा मर चुकी म्यां दीपंकर. यह जो औरत तुम्हारे सामने खडी है, वीणा है वीणा! अमां, उत्ती कवायद करने की क्या जरूरत है, प्रेमी या पति की निगाह से गिर जाना ही काफी होता है एक हिंदुस्तानी औरत के लिये. मैं ने तुम्हें मां की तरह पाला है, बहन की तरह नेह से नवाजा है, पत्नी बन कर तुम्हारे प्यार पर परवान चढी - आज से नहीं, वर्षों से. यूं ही तुम्हें उजाले में लाने के लिये अंधेरों में गुम नहीं हुई मैं. मुझसे प्यार का ढोंग रचाकर मुसलमान से हिन्दु बनाकर पतिव्रता का लबादा ओढा दिया तुमने, मैं ने जब लबादा हटा कर तुम्हारे आचरण पर टीका - टिप्पणी करनी शुरु की तो चिढक़र मुसलमान की तरह तलाक दे डाला. तुम्हारी हवस किसी एक धर्म की खाल में समा ही नहीं सकती, तुम्हें चार नहीं, चार सौ नहीं, चार सहस्त्र औरतें भी कम पडेंग़ी. वही प्रेरणास्त्रोत है तो बन जाओ सहस्त्रयोनि. मैं इन्तजार कर लूंगी. उम्र और देह की कोई तो हद होगी. सहस्त्रयोनि से कभी तो सहस्त्राक्षु बन कर लौटोगे!''

खैर तुम अपने उजालों में लौट गये, वीणा अपने अंधेरों में. तुम दोनों के अलावा घर में एक तीसरा भी था - काठ की मूरत सी खडी मासूम कला. उफ! ये पहाडियां थी या अभिशप्त अहिल्याएं! ये पनवाडियां थीं या बन्द ताबूत! यह दुनिया थी या बेजान पेन्टिंग! खैर धीरे - धीरे वक्त बीता.

उस दिन जैसे मन का सारा जहर उगल कर शान्त पड ग़यी थी वीणा और शिथिल भाव से तुम्हारे दूसरे पैंतरे की प्रतीक्षा करने लगी, मगर दिन पर दिन बीतते गए और तुम्हारी ओर से कोई वार न हुआ. उलटे इधर तुम्हारे साक्षात्कारों में बाबा की उच्छवसित प्रशंसाएं आने लगीं तो खुद पर पश्चाताप का झीना - झीना आवरण छाने लगा. एक दिन तुम्हारे नाम से कोई पैकेट डाक से मिला. शायद कहीं भूल गये थ और तुम्हारे स्थायी पते के बहाने वीणा के पास आ गया था. तो इसका मतलब अभी भी स्थायी पता यही है और जो बीच में घटित हुआ, वह मात्र दु:स्वप्न! मान को हल्के से सहलाया हो जैसे तुमने. खोलकर लगी देखने. तुम्हारी अखबारी रपटों, चित्रों, वी दी ओ कैसेट्स का पुलिन्दा था, तुम्हारी आत्मकथा की पुस्तक थी और एक सूची थी तुम्हें मिले पुरस्कारों और सम्मानों की. बहुत दिनों या कहें वर्षों से तुम्हें देखा न था, सो सबसे पहले वी सी आर पर कैसेट्स लगा दिये.

तुम्हारी वही मोहिनी मुद्रा, मानो तुम एक पहुँचे हुए महात्मा थे और वह एक समस्याग्रस्त नारी, ''बताइये महात्मन, ऐसे में मैं क्या करुं? ''
तुमने कहा, ''खूंटियों को इतना मत कसो कि तार ही टूट जायें.''
तुमने कहा, ''वीणा को देह मत बनाओ. उसकी आत्मा को खोल दो. साधना से कहो कि तू अपना सीना खोल दे, फजां में दूध घोल दे - दूध! दूध!! दूध!!!


तुमने कहा, ''शब्द की ज्योति से ही विश्व उद्भासित है. एक जीवित शब्द आत्मा को आह्लाद से भर देता है''
तुमने कहा, बह्मनाद और संभोग का चरम - दोनों की आनन्दानुभूति एक है और यह अनुभूति अद्वितीय है. म्यूजिक़ इज ए सोल टू सोल रिफ्लेक्शन!

तुमने कहा, ''प्रकृति स्वायत्त रूप से रिद्मिक नृत्य कर रही है - तुम नृत्यरता, तुम ऊत्सवव्रता तरंगिणी! उसमें एक निश्चित लय या व्यवस्था है . उससे सामंजस्य करो. संगति बिठाओ. आप पाओगे कि आप उस अनहद् नाद को और सृष्टि किछन्द को अनुभूत कर पा रहे हो. आप देखोगे कि सुरों से सुरभि फूट रही है, प्रकाश फूट रहा है.''
बन्द कर दिया वी सी आर, लेकर बैठ गई तुम्हारी आत्मकथा. पूरी पढ ग़ई. उसमें वीणा का जिक़्र सिर्फ एक जगह किया गया था, बाकि कहीं नहीं, जैसे न उसके साथ कोई तुम्हारा वर्तामान था, न अतीत और न भविष्य- एक उल्का पिण्ड की तरह जल कर बुझ गया था नाम! खारिज!

''चलो अच्छा ही हुआ,''वीणा खुद पर हंसी, ''मन के किसी कोने में कोई लोभ था कि तुम्हारा कोई श्रेय स्वीकार मिल गया तो मैं अपने रीतने - बीतने को कुछ तो जस्टीफाइ कर सकूंगी, खुद को खुद के प्रति गुनहगार होने से थोडा तो बचा लूंगी, मगर नहीं! ''

तो हे परमहंस! तुम्हाराआप्त वचनों को ही आदर्श मान कर खुद को फिर से पा लेने की कितनी ही कोशिशें की वीणा ने मगर समय बीत चुका था और सब कुछ गलत होता चला गया. बाप का नाम भी बेच खाया. शराब तक पीने लगी, पीकर टुर्रऽऽ! बेटी कला तक के साथ न्याय न कर पायी. बुत बनती जा रही है बेचारी! वक्त का तकाजा था कि वीणा अग्निवीणा में तब्दील हो जाती मगर बन कर रह गई क्या - महज असाध्य वीणा!

तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिन्दगी! तुम्हारे हिसाब में क्या जायेगा - सीढी और सीढी! और उसके हिसाब में सांप और सांप! वह तुम्हारी सीढी तुम उसके सांप!

जमाने के लिये ये सारे अभियोग व्यर्थ हैं. इतिहास बडी विचित्र वस्तु है, जो कल, बल, छल, संयोग या सहयोग से फॉर फ्रंट पर आ जाता है, वही इतिहास बनता है बाकी सब कूडा. तुम्हारे जैसे लोग ही आज पद, पीठ, पुरस्कार बटोर रहे हैं. तुम इण्डिया टुडे ( आज के भारत) हो.

हे आज के इण्डिया! हमें मालूम है, मानपत्र की यह भाषा नहीं है, कम से कम तुम तो इस भाषा (कहें, नाद) के अभ्यस्त नहीं. वह तो पुष्प, अगरु की गन्ध बोझिल हवा में शंख, घण्टे, घडियाल, तुरही और मंत्रों के गहगहाते घमासान में कंचन थाल में नाचती लौ की नीराजना होती है, मगर इन तमाम उल्लासमयी ध्वनियों के आतंक के बीच उस रक्तपंकिल बलि की वेदी के दोनों ओर कटकर तडपते बलि - पशु की डूबती धडक़नों का भी एक मौन नाद होता है, वह भी एक मानपत्र ही होता है, कोई सुने न सुने,बांचे न बांचे.

नहीं, अब न कोई रार-तकरार न कोई आरोप, न उलाहना! सार्त्र ने कहा था, पति - पत्नी दो नहीं बल्कि एक ही सत्ता हैं, एक को दूसरे में विसर्जित हो जाना पडता है. चलो ठीक है, विसर्जित हो गई वीणा दीपंकर में. घुल गई रंजक साबुन की तरह अपना सारा रंग तुम पर चढा कर. उसे जलाओगे या दफनाओगे? जला ही देना, नामो - निशान ही मिट जाये. और चिता के लिये लडकियां? याद है, कामिनी कुंज जहां तुम दोनों का प्यार अंकुरित हुआ था. काफी होगा वह कामिनी - कुंज चिता के लिये.
 : तुम्हारी वीणा

पुन:श्च - सोचा था यह मानपत्र तुम्हें भेज दूंगी. इस बीच तुम आ गये. भेज न सकी. फिर सोचा, जाते समय तुम्हें हाथों - हाथ दे दूंगी. दे न सकी. कारण? इस बीच वह विस्फोट हो गया.

यह तो मालूम था कि तुमने फिर कोई शादी रचा ली है, मगर यह भी कोई बात नहीं. दिक्कत तो तब हुई जब तुम अचानक आ धमके और मुझसे कसम तोडक़र बोले, ''शादी का यह कतई मतलब नहीं है कि मैं तुम्हारी और कला के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहता हूँ. चाहता हूँ, उसकी शादी हो जाये. तुम उसके ज्यादा करीब रही हो, पहल तुम्हीं करो तो अच्छा हो.''

मैं ने बहुत सोचा, फिर तुम्हारी बात बाजिब लगी. कला कहीं बाहर जाने को तैयार हो रही थी कि पिछले दरवाजे से उसे पुकारा, ''बेटी, तुमसे एक बात कहनी थी.''

कला हमेशा की तरह मौन रही. धीरे - धीरे मैं अपने मकसद पर आयी, ''बेटी! मेरी जिन्दगी का कुछ भरोसा नहीं. तुम जवान हो चुकी हो. हम बूढे. मैं जीते - जी तुम्हारे हाथ पीले कर देना चाहती हूँ. तुम्हें कोई लडक़ा पसन्द हो तो बता दो, वरना हम खुद ढूंढ लेंगे.''

कला ने जैसे सुना ही नहीं. वह चुपचाप जूती पहनती रही, बैग सजाती रही फ़िर चल पडी, मगर उसे रुकना पडा, दूसरे दरवाजे पर तुम खडे थे रास्ता रोककर. एक दरवाजे पर मां थी, दूसरे पर पिता, दोनों तरफ से घेर रहे थे दोनों, जैसे वह कोई सिकार हो. ठिठक गई मां की ओर मुडी, ''इस खानदान की एक गौरवशाली परंपरा सुनी है, मां( पता नहीं क्यों सिखलाने पर भी उसने मम्मी, पापा नहीं कहा कभी!) कि बुजुर्ग जाते जाते अपनी सन्तानों को मूरत गढने की कला सिखाना नहीं भूलते. यह भी कुछ वैसा ही आयोजन है क्या?''
''यही समझ लो.''
''कौन सी मूरत छिन्नमस्ता की?''
''क्या कह रही हो?''मैं जो पहली बार उसके खुलकर बोलने पर खुश हुई थी, सहसा चौंक पडी.
''तो सुन लो मां, मैं वह मूरत गढने नहीं जा रही तुम्हारी तरह.''

लगा कला ने बाबा की पखावज उठा ली हो और किले की पहली ईंट गिरी हो हमारे सीने पर, ढम्म!
''वह विवाह प्रथा, जो किसी को बीहड - बंजर बना दे उसे मैं जूती की नोक पर रखती हूँ, थूकती हूँ महानता के चोंचलों पर, कला के नाम पर चलाए जा रहे तमाम ढकोसलों पर. आय हेट! आय हेट!! आय हेट सच ऑल हीनियस हिप्पोक्रेसीज, दीज मेल एण्ड फीमेले शोवेनिज्म्स!''
''पागल मत बनो बेटी! जरा सोचो, तुम्हारी सामाजिक सुरक्षा का क्या होगा? कहीं ऊंचे - नीचे पांव पड ग़या तो क्या होगा? ''प्राणपण से मैं ने रोकना चाहा उस विध्वंस को.
''सुरक्षा? यह तुम बोल रही हो मां? ऊंचे - नीचे पांव ? च्च! च्च्च!! इतनी फिक्र! नाहक दुबली हुई जा रही हो मां. जब जिसके साथ जी आयेगा रह लूंगी, जिसके साथ मन करेगा सो लूंगी. मुझे अहसास हो गया है कि देह ही ठोस सत्य है बाकी कला, प्रतिभा, सृजन देह की ऊर्जा का विस्तार! मुझे तुम दोनों की तरह न महान बनने का लोभ है,न अमर बनने का! सुनो मां, मैं अपनी एंटिटी से किसी भी खुदगर्ज को खिलवाड नहीं करने दूंगी - चाहे वह मां हो या बाप हो, पति हो या सन्तान हो या एक्स, वाई, जेड़,गैर कोई.''

बुर्जियां, मेहराबें, अटारियां, कंगूरे ही नहीं किले की एक - एक ईंट, एक - एक पत्थर ध्वस्त हो चुका था और उसकी जगह उभर कर आया था, वह क्या था! कितना हौलनाक!
मैं सन्न रह गई थी.
तुम कांपे और लडख़डा कर गिर पडे.
ख़ट - खट जूतियां खटकाती हुई दरवाजे से बाहर निकल गई कला. पीछे मुडक़र ताका भी नहीं.

जानते हो, पता नहीं क्यों, इन बर्बादियों के बावजूद मुझे अपनी कला पर नाज आ रहा था.

याद आया सैंकडों वर्ष पहले सेंट अगस्टाइन ने कहा था, ''मैं ने फूलों से निकलती हुई ध्वनियां सुनी हैं और वे ध्वनियां देखी हैं जो जल रही थीं.''

इति
कला की माँ

________________

मंगलाचार : दीपक जायसवाल (कविताएँ)

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दीपक जायसवाल (जन्म : ७ मई १९९१, कुशीनगर) दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में गोल्डमेडलिस्ट हैं (परास्नातक) और वहीं से शोध कार्य (पीएच. डी) भी कर रहे हैं. उनकी दो किताबें  प्रकाशित हैं– ‘कविता में उतरते हुए’ और ‘हिंदी गद्य की परम्परा और परिदृश्य’.
दीपक साहित्य की नयी संभावना हैं. उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.




दीपक  जायसवाल  की  कविताएँ                                                      





लामा

तिब्बत के पर्वतों से आते हैं लामा
बहुत कम बोलते हैं लामा
बड़े संवेदनशील होते हैं लामा
हर वो चीज जो बोलती है
उनको सुनते हैं लामा

जिन चीजों के पास
अपनी आवाज़ नहीं
उन्हें और गौर से सुनते हैं लामा

पत्थरों पर सोते हैं लामा
बहुत धीरे धीरे चलते हैं लामा
हमेशा ध्यान में होते हैं लामा
शंख रखते हैं लामा
शंखों से गुजरते वक्त हवाएं
लामाओं से बात करती हैं

जब कोई लामा आत्मदाह करता है
रुंध जाते हैं शंखों के गले

झुककर बोलते हैं लामा
लामाओं के बाल बड़े नहीं होते
चीवर ओढ़ते हैं लामा

जब कोई लामा मरता है तो
समुन्द्र छोड़ जाता है अपने किनारे
एक शंख
उस दिन बादल खूब बरसते हैं
फूल उस दिन नहीं खिलते
सूरज डूबते वक्त उस दिन
बहुत भारी हो जाता है.




पछछील्लो.....

पछछील्लों मेरे गाँव
के बच्चे खेलते हैं

मैंने सात पत्थर लिए
और उस पर सूरज को टिकाया
बिट्टू की गेंद से
साध कर निशाना लगाया
सारे देवता दौड़े
लाने गेंद
कि तब तक सजा दी थी बिट्टू ने
सारी गोटियाँ
देवता हो गए थे पराजित
बिट्टू हँस रहा था
पृथ्वी अब उसकी थी.





जन्म और मृत्यु

हम हर वक्त रिसते रहते हैं
जैसे रिसता है रक्त
जैसे रिसती है नदी
जैसे रिसता है रेत

हमारे भीतर हर वक्त
कुछ भरता रहता है
जैसे भरता है समुन्दर
जेसे भरता है घाव
जैसे आँखों में भरता है आँसू
जैसे बादल में भरता है पानी
जैसे फसलें भरती हो दाने
जैसे ट्रेन भरती है पैसेंजर

हाँ यह सच है
हम वक्त के साथ पीले होते जायेंगे
जैसे हर पतझर में हो जाते हैं पत्ते
हम डबडबाई आँखों से बह जायेंगे
जैसे बहता है आँसू
हमें पकने के बाद
काट लिए जाएंगे
और ट्रेन हमें न चाहते हुए भी उतार देगी
अगले यात्रियों के लिए.

लेकिन जन्म और मृत्यु
के बीच जो जीवन है
उसे हम भले जीत न सकते हों
पर जी सकते हैं.





मगध, दिल्ली और मुर्दों का हस्तक्षेप

मेरे देश के लोगों
हर देश की राजधानी की नींव
लकड़ी की बनी हुई होती है
दीमक हर वक्त उसे चालते रहते हैं

यदि जरूरी हस्तक्षेप नहीं हुआ तो
राजधानी ढह जाती है
फिर भरभराकर पूरा देश
और तब बचते हैं सिर्फ मुर्दे
जो एक राजधानी बनाने में वर्षों लगा देते हैं.




सिर्फ एक जूते का दिखना

एक जोड़ी जूते में
सिर्फ एक जूते का दिखना
एक त्रासद घटना है

उम्र भर साथ रहने के बाद
पति-पत्नी में से एक का
पीछे रह जाना

रेल की पटरियों में से एक
का उखड़ जाना
किसी उन्मादी युद्ध के बाद
सैनिक का एक पांव से घर लौटना
किसान के बैलों में से एक का मर जाना
जंगल में अकेले बाघिन का रह जाना
जीवन में सिर्फ दुःखों का भर जाना
साँस का अंदर आना
पर बाहर न निकल पाना
त्रासद घटना है
सिर्फ एक जूते का रह जाना.




लड़कियाँ.....

वे बारूद और बन्दूकों को नहीं चाहती
तितलियाँ, पंख, बारिश, फूल, गिटार,
को चाहती हैं

उनका दिल मोम, शहद और धातुओं
का बना होता है
वे प्रेम करती हैं
उनका दिल खूबसूरत और बड़ा होता है
वे रिश्तें बुनती हैं
चीजों को करीने से रखती हैं
वे संवेदनाओं को रचती हैं
युद्ध में कोई पुरुष नहीं मरता
सिर्फ स्त्रियाँ मरती हैं
कई दफ़ा

लाशों को नोंचते कौए
उनकी आत्मा को खाते हैं
उनकी आँखे जब उदास होती हैं
धरती अपनी उर्वरता खोने लगती हैं
तितलियाँ बूढ़ी होने लगती हैं
रंग मनहूसियत ओढ़ लेते हैं



गाँधी महात्मा

मेरी माँ बताती है कि
गाँधी देवता आदमी थे
उनके दो पैर, चार आँखें, बारह हाथ थे
और बड़ा सा दिमाग भी
उनका दिल मोम का बना था
उनको देखकर अंग्रेज थर थर काँपते थे
हवा पीकर बहुत दिन तक वे रह जाते थे

वे नंगे रहते थे
उनके कपड़े अंग्रेज़ चुरा ले गए थे
उनका चश्मा बहुत दूर तक देखता था
बुधिया के आंसूं उनके चश्में पर
जाकर गिरते थे

वे बकरी का दूध पीते थे
बच्चों के मानिन्द हँसते थे
उनके पास कई जिन्न थे

आजादी के बाद
संसद भवन में
बकरीद मनाई गई थी
उनकी लाठी खींचा-तानी में
चौदह अगस्त की रात टूट गयी थी

जिन्न
बहुत दिनों से एक पैर पर खड़े थे
अब उन्हें कुर्सी चाहिए थी
जब दंगे होने शुरू हुए
वे गलने लगे थे
वू बूढ़े हो गए थे.
___________________
deepakkumarj07@gmail.com 

व्यक्तिगत भी राजनीतिक है : कैरोल हैनिच (अनुवाद अपर्णा मनोज)

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जब कोई विचार समय की आवश्यकताओं को अचूक ढंग से अभिव्यक्त करने लगता है तब वह नारे में बदल जाता है जैसे ‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व’, ‘संसार के मजदूरों एक हो’, ‘अंग्रेजों भारत’ छोड़ों आदि. १९७० के आस पास स्त्रीवाद ने एक नारा दिया ‘Personal is political’. यह  कैरोल हैनिच के आलेख ‘Notes from the Second Year : Women’s Liberation’ से जुड़ कर सामने आया था. जिसे हम स्त्री–पुरुष का व्यक्तिगत कह कर टाल देते हैं उसके भी गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं.


इस लेख के प्रकाशन के लगभग ३६ साल बाद कैरोल हैनीच ने WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) पर पुनर्विचार करते हुए एक भूमिका (२००६)लिखी थी, जो आज ‘मी–टू’ के इस दौर में प्रासंगिक हो उठी है. फिलहाल इस भूमिका का अनुवाद आपके लिए.

समालोचन में अपर्णा की कविताएँ, कहानियां, लेख और अनुवाद आप पढ़ते रहे हैं. उनके कार्यों में गुणवत्ता रहती है. इस अनुवाद का पुनरीक्षण शिव किशोर तिवारी ने किया है.




व्यक्तिगत       भी     राजनीतिक   है                   
कैरोल हैनिच
(कैरोल)




‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ यह लेखपत्र मूलरूप से ‘नोट्स फ्रॉम द सेकंड इयर: विमेंस लिबरेशन इन 1970’ पुस्तिका में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था और बाद में व्यापक रूप से कई सालों तक पुनर्मुद्रित होकर आंदोलन और उसके परे लोगों तक पहुंचा. मैं इस बात से नितांत अनजान थी कि यह कितनी दूर तक पहुँच गया है. गूगल पर सर्च करने के उपरांत ही मुझे पता चला कि इस लेख पर नाना-भाषाओँ में ख़ासी बहस हुई है और यह खूब चर्चित हुआ है.


मैं इस बात की तसदीक करना चाहती हूँ कि इस लेख का शीर्षक ‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ मैंने नहीं दिया था. जहाँ तक मेरी जानकारी में है यह शीर्षक ‘नोट्स फ्रॉम द सेकंड इयर’ के संपादकों शूली फायरस्टोन और ऐनी कोट ने उस समय दिया था जब कैथी साराचाइल्ड ने इसे आरंभिक संग्रह में छापने  का प्रस्ताव रखा. और ‘राजनीतिक’ शब्द का इस्तेमाल यहाँ व्यापक अर्थों में किया गया था जो शक्ति–सम्बन्धों को इंगित करता था न कि चुनावी राजनीति के संकुचित अर्थ को.


दरअसल यह लेख फरवरी 1969 में फ्लोरिडा के गेन्सवेल में बतौर स्मृतिपत्र की तरह लिखा गया था. यह सदर्न कांफ्रेंस एजुकेशनल फंड की महिला बैठक के लिए भेजा गया था. मैं निर्वाह भत्ता आयोजक के रूप में दक्षिण के इस ग्रुप के लिए स्त्री मुक्ति प्रोजेक्ट हेतु अनुसंधानत्मक काम कर रही थी. विज्ञप्ति का शीर्षक मूलरूप से, “डॉटी के स्त्री मुक्ति संबंधी विचारों की प्रतिक्रिया स्वरुप कुछ विचार”रखा गया था. डॉटी ज़ेलनर जो स्टाफ मेंबर थीं उनकी एक विज्ञप्ति के जवाब में मैंने इसे लिखा था. उनका दावा था कि स्त्री जागृति बस एक तरह की मनोचिकित्सा है और उनका WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) से यह सवाल था कि इस तरह की चेतना क्या वाकई राजनीतिक है?


1969 के शुरूआती दौर में उग्र नारीवादी विचारों के प्रति यह कोई अजीबोगरीब प्रतिक्रिया नहीं थी. सारे देश बल्कि पूरी दुनिया में WLM जैसे संगठन पैदा हो रहे थे. मसलन नागरिक अधिकारों के लिए उग्र आन्दोलन, वियतनाम युद्ध विरोधी और नए-पुराने वामपंथी आंदोलन जिनसे हम जैसे पनपे थे, उन समूहों में भी पुरुषों का बोलबाला था और वे स्त्री मुक्ति को लेकर घबराये हुए थे, ख़ासतौर से कम समय में तेजी से विकसित होते उस स्त्री मुक्ति आन्दोलन की छाया से जिसकी मैं कट्टर हिमायती थी. मिसिसिप्पी नागरिक अधिकार आन्दोलन में दस माह तक हिस्सा लेने के बाद जब मैं न्यूयॉर्क पहुंची तो मैंने पाया कि SCEF कई संस्थाओं के अपेक्षाकृत कहीं अधिक गंभीर और प्रगतिशील संस्था थी.


‘न्यू डील’ के ज़माने से ही इसके नस्लीय, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के कामों से लोग वाकिफ़ थे और इसने अच्छा नाम कमाया था. 1966 में मैं इसके न्यूयॉर्क दफ्तर में बतौर व्यवस्थापक आई थी. SCEF के दफ्तर ने  न्यूयॉर्क की उग्र सुधारवादी स्त्रियों को सभा इत्यादि करने की छूट दे रखी थी और मेरी ही गुज़ारिश पर दक्षिण में WLM को स्थापित करने की संभावनाहेतु छान-बीन के लिए राज़ी हो गयी थी. लेकिन बाद में SCEF के कई स्त्री और पुरुष कर्मचारी उन स्त्री जागृति समुदायों की बाल की खाल निकालने लगे, जो अपने शोषण की कहानियां सुनाती थीं. वे उन स्त्रियों के दुखड़े को आत्मकेंद्रित और मनोउपचार की तरह देखते थे– और निश्चित रूप से उसे राजनीतिक नहीं मानते थे.


कभी- कभार वे इस बात से सहमत होते थे कि स्त्रियों पर ज़ुल्म ढहाए जाते हैं (लेकिन केवल व्यवस्था के कारण) और मानते थे कि हमें समान काम के लिए समान वेतन मिलना चाहिए और कुछ अधिकार भी मिलने चाहिए लेकिन अपनी तथाकथित निजी समस्याओं को सार्वजानिक करने के कारण वे हमें दोयम दर्जे का मानते थे- ख़ास तौर से देह संबंधी मसलों– जैसे यौन आकर्षण और गर्भपात आदि उठाने की वजह से. घर के कामों और बच्चों की देखभाल में हाथ बंटाने की मांग को स्त्री-पुरुष का व्यक्तिगत मामला मान लिया गया. हमारे विरोधी दावा करते थे कि यदि औरतें अपने पैरों पर खड़ी हो जाएँ और अपने जीवन की ज़िम्मेदारी स्वयं उठाने लगें तो उन्हें स्वतंत्र स्त्री मुक्ति आंदोलनों की जरूरत नहीं रहेगी. और यह भी कहा गया कि जिन समस्याओं को निजी पहलकदमी दूर न कर सकी उसे अब क्रांति दूर करेगी, ताहम हम अपना मुंह बंद रखें और अपने-अपने दायित्व का निर्वाह करें. ख़ुदा के वास्ते यह ज़ाहिर मत करो कि औरतों के शोषण का लाभ पुरुषों को मिलता है.



स्त्री उत्पीड़न के लिए स्त्री को दोषी ठहराने की जगह हमने पुरुष के वर्चस्व के खिलाफ मुहिम छेड़नी जरूरी समझी और इसी वजह से स्त्री के हक़ में खड़े होने वाली विचारधारा सामने आई. इसने उस पुरानी  स्त्री-विरोधी विचारधारा को अपने यथार्थ भौतिकवादी विश्लेषण से कि ‘औरतें वैसा क्यों करती हैं जैसा वे करती हैं’ द्वारा चुनौती दी जो स्त्री शोषण के लिए रूहानी, ज़हनी, आध्यात्मिक और छद्म ऐतिहासिक दलीलें पेश करती थी. लेकिन जैसे ही औरतों को यह समझ आने लगा कि “औरतें उत्पीड़न की शिकार हैं और उन्होंने कोई गलती नहीं की है” तब केंद्र बिंदु निज से हटकर वर्ग संघर्ष पर केन्द्रित हो गया, जिसके लिए एक अलहदा स्त्री मुक्ति आन्दोलन की जरूरत महसूस हुई जो पुरुष वर्चस्व से मोर्चा ले सकता.


इस स्त्री पक्षधर विचारधारा ने ‘लिंग आधारित भूमिका’ की अवधारण को भी चुनौती दी जो यह मानती थी कि स्त्रियाँ वैसा ही व्यवहार करती हैं जैसा समाज उनसे व्यवहार की अपेक्षा रखता है. (हम वैसा ही सोचते हैं जैसा हमें पाठ रटाया गया था. लेकिन जैसे ही वे दबाब हमने अपने ऊपर से हटा दिए तो हमने उस तरह सोचना और करना भी छोड़ दिया, जैसे हम किया करते थे. यह उस जागृति का ही असर था जिससे  हमारे निजी अनुभवों के आधार पर वैज्ञानिक समझ वाली स्त्री पक्षीय विचारधारा का जन्म हुआ जो इस बात का अवलोकन करती थी कि स्त्री के दमन से आखिर लाभान्वित कौन होता है? अपनी दमनकारी परिस्थितियों के लिए हम दोषी नहीं हैं और काल के संदर्भ में वे हमारे दिमाग की उपज नहीं हैं– इस समझ ने हमें आत्मविश्वास से भर दिया और हमारी मुक्ति की लड़ाई को ठोस पुख्ता ज़मीन दी.


‘निजी भी राजनीतिक है’ आलेख और उसमें निहित मेरे सिद्धांत SCEF और अन्य कट्टरपंथी आंदोलनों द्वारा हम पर हो रहे हमलों के खिलाफ़ हमारी प्रतिक्रिया थी. मैं समझती हूँ कि यह जान लेना बहुत जरूरी है कि यह आलेख संघर्ष का नतीजा था- इसमें केवल मेरा अपना संघर्ष ही शामिल नहीं था वरन WLM (स्त्री मुक्ति आन्दोलन) का संघर्ष भी शामिल था जिसे या तो रोकने की कोशिश की जा रही थी या फिर इसकी धार को कुंद करने की कोशिश हो रही थी.

धातव्य है कि यह प्रपत्र और इसमें शामिल सिद्धांत मेरे अकेले के दिमाग की उपज कतई नहीं हैं. इसका आना स्त्री मुक्ति आंदोलन और उसके भी एक ख़ास समूह की वजह से है (न्यूयॉर्क रेडिकल वुमन) और उसके भी भीतर औरतों के ख़ास धड़े की वजह से है, जिसे स्त्री पक्षीय धड़ा कहा जाता है.


निसंदेह, न्यू यॉर्क रेडिकल वीमेन और कुछ बड़े व्यापक आंदोलनों की महिलाओं ने भी आरम्भ से ही स्त्री जागृति की इस चेतना का विरोध किया और वे दावा करती रहीं कि औरतों को हमेशा से इस बात का यकीन दिला दिया गया है कि अपने दमन का वे खुद हथियार हैं और इस तर्क का आधार राजनीतिक न होकर सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक है. स्त्री-पक्षीय विचारधारा के मुकम्मल होने में उनका भी अप्रत्यक्ष हाथ है. हुआ ये कि तत्कालीन मान्यताओं के मापदंडों के कारण जो विरोध हमें मिला, उसने हमें मजबूर किया कि हम अपने मत को और अधिक मजबूती से स्पष्ट करें, उसे बेहतर तरीके से सान पर चढ़ा सकें, ज्यादा विकसित करें ताकि यह नया विचार व्यापक रूप से लोगों तक पहुंचे. अकसर न्यू यॉर्क रेडिकल वीमेन सभाओं के बाद स्त्री पक्षीय गुट की सदस्याएं पास के एक रेस्तरां ‘मितेराज़’ में आ जुटतीं जिसका  एप्पल पाई लाज़वाब होता था. वहां हम गए दिन दो-तीन बजे तक चली सभाओं और वहां रखे विचारों पर चर्चा करते. और इस तरह हमारे बीच चुनौतीपूर्ण बहस-मुबाहिसों का शानदार आदान-प्रदान होता. 


‘निजी भी राजनीतिक है’ के लिखने से तकरीबन छह माह पूर्व, सितम्बर 1968 में मिस अमेरिका प्रोटेस्ट का आगाज़ हुआ जिससे यह बात लोगों तक पहुंची कि स्त्री पक्षीय विचारधारा का अपने धड़े से बाहर निकलकर काम करना कितना महत्त्वपूर्ण है. अपने अन्य लेख जिसका शीर्षक ‘मिस अमेरिका विरोध की समालोचना’ था में मैंने लिखा था कि कैसे हम इस तरह की प्रतिस्पर्धा का विरोध करते-करते अपने मूल सन्देश से छिटक कर दूर हो गए हैं, कि कैसे सौन्दर्य के इन मानदंडों का खामियाज़ा समस्त स्त्री जाति यहाँ तक कि प्रतिभागियों को भी भुगतना पड़ता है. ‘मिस अमेरिका मुर्दाबाद,’ मिस अमेरिका फरेब है’, जैसे नारों से प्रतियोगी स्त्रियाँ ही हमें दुश्मन की तरह लगने लगीं जबकि वे पुरुष कर्ताधर्ता हमारे असल दुश्मन थे जिन्होंने सौन्दर्य के छद्म पैमाने इन स्त्रियों पर थोपे थे.


एक अच्छी राजनीतिक परिकल्पना की सही टेक उसका असल राजनीतिक संघर्ष और विमर्श है. अन्यथा हर सिद्धांत शब्द –गुच्छ के अतिरिक्त और क्या है; जिस पर विचार करना दिलचस्प लग सकता है; लेकिन जब तक यह आपके असल जीवन को प्रभावित नहीं करता तब तक यह मात्र शब्दाडम्बर है. ऐसे बहुत से सिद्धांत हमें सकारात्मक या नकारात्मक रूप से चकित कर जाते हैं, जब वे व्यावहारिक रूप से जीवन में उतारे जाते हैं.


आज के हालातों को मद्देनज़र रखते हुए यदि मैं अपने लेख ‘निजी भी राजनीतिक है’ को फिर से लिखने बैठूं तो इसमें क्या बदलाव करुँगी – तो यह जानकार मुझे अचरज हुआ कि समय की कसौटी पर यह लेख कितना खरा उतरा. हालांकि कुछ बातें हैं जिन्हें मैं आज और विस्तार से लिखती जैसे कि सामाजिक वर्गों की मेरी सरलीकृत परिभाषा या फिर मेरे अपने ही कुछ बयान जो अधिक स्पष्टता और विस्तार की मांग करते हैं. दो बातें जो मुझे बेतरह कचोटती हैं : “स्त्रियाँ इतनी चतुर सयानी तो हुई हैं कि अब वे संघर्ष का रास्ता अकेले नहीं अपनातीं” और दूसरी बात कि “घर में रहना नौकरी की चूहा-दौड़ से कुछबुरा नहीं हैं.”


पहले वक्तव्य का यह अर्थ नहीं है कि चतुर होने के कारण औरतें संघर्ष में पड़ना ही नहीं चाहतीं जैसा कि हमारी प्रो वुमन लाइन की कई स्त्रियों ने अर्थ लगाया. यह सच है कि औरतें कभी-कभी वाकई चतुरता दिखाती हैं और अकेले की लड़ाई का रास्ता अख्तियार नहीं करतीं. ऐसा तब होता है जब वे जीत की स्थिति में ही नहीं होतीं या फिर प्रतिरोध का रास्ता उत्पीड़न से भी अधिक बदतर होता है. फिर भी निजी संघर्ष आपको कुछ देकर ही जाते हैं. और तब जब WLM बहुत कम सक्रिय है या लगभग मंच से ओझल है तब हम अपने निजी संघर्षों से इसे जिलाए रख सकते हैं. सीमाओं को तोड़ने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए. अगर WLMअपने उरूज़ पर हो तब भी हमें निजी संघर्षों की जरूरत रहेगी क्योंकि हमारा दमन हमारी एकांगी परिस्थितियों से अधिक जुड़ा है. आंदोलन जिन वजहों के लिए खड़ा हुआ है उसमें प्रत्येक की भागीदारी इसे अधिक व्यावहारिक बनाएगी. यद्यपि निजी संघर्ष बहुत सीमित होते हैं; इसलिए हमें पहले से भी अधिक ऐसे मज़बूत आंदोलन की दरकार है जो चलते रहें और पुरुष वर्चस्व को ख़त्म किया जा सके.





जहाँ तक मेरे दूसरे बयान की बात है, मैं सूसन बी एंटोनी से पूरा एतबार रखती हूँ कि “मुक्त होने के लिए स्त्री की अपनी आय होनी चाहिए.” सार्वजानिक कार्य-स्थलों में भागीदारी के बिना वे आत्मनिर्भर नहीं बन सकतीं. इसका अभिप्राय यह भी है कि बच्चों की देखभाल की सार्वजानिक व्यवस्था, स्त्री-समानता को मद्देनज़र रखते हुए कार्य-स्थल की पुनार्निर्मिति के बीच बच्चों की परवरिश और घर के कामकाज में पुरुष की भी भागीदारी रहे ताकि औरत अकेले ही इन सबसे जूझती न रह जाए.


काश हम पहले ही इसे समझ पाते कि इन दो धारणाओं, “निजी भी राजनीतिक है” और “प्रो –वीमेन लाइन” को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है और इनका दुरुपयोग किया जा सकता है. स्त्री-पक्षीय गुट की अवधारणाओं को किस तरह बदल दिया गया, किस तरह पलट दिया गया कि उन्हीं अवधारणाओं का प्रयोग उनके मूल उद्देश्यों के खिलाफ़ हुआ. खैर, यह जरूरी है कि सिद्धांतों को वास्तविक दुनिया की चुनौतियों से भिड़ना पड़ता है ताकि उनकी सार्थकता सिद्ध हो सके. हमने यह भी सीखा कि एक बार कोई परिकल्पना हाथ से छूट निकलती है तो उसके दुरुपयोग और उसकी गलत व्याख्या से उसका बचाव भी जरूरी है.
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What follows is the original version of “The Personal Is Political” as edited from the memo for the 1970 anthology, Notes from the Second Year: Women’s Liberation, edited by Shulamith Firestone and Anne Koedt. — Carol Hanisch
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aparnashrey@gmail.com

कथा- गाथा : विप्लवी : निवेदिता

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निवेदिता रंगकर्मी, पत्रकार और एक्टिविस्ट के साथ-साथ कवयित्री भी हैं, उनके दो कविता संग्रह ‘ज़ख्म जितने थे’और ‘प्रेम में डर’प्रकाशित हैं. स्त्री मुद्दों पर वह लेखन से लेकर प्रदर्शन तक अनवरत, अनथक संघर्षरत हैं.

उनकी यह कहानी एक पत्रकार की है जो धार्मिक कट्टरता के समझ झुकता नहीं और मारा जाता है. जिस तरह का कट्टर और घृणा का हम समाज बना रहे हैं यह कहानी उसी की दारुण कथा कहती है.


विप्लवी                                
निवेदिता



दीदी काँप रही है.  अखबार के पन्ने हाथ में बेजान से पड़े हैं. मैंने दीदी को थामा और चुपचाप खड़ी रही. उसकी देह हिल रही थी जैसे हजार-हजार समुद्र की लहरें अपना सर पटक रही हो. मौत अख़बार  के पन्नों पर सिहर रही थी.  दीदी !  संभालो खुद को.  दीदी के चेहरे पर  सदियों  पुराने जख्म उभर आये.  हमदोनों  घर की तरफ चलने लगे-ऊबड़-खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएँ ढलती हुई धूप में सिमटने लगीं....ठहरो !  दीदी के  होंठ फड़क उठे, तुम्हें कब पता चला ?  कल रात की खबर है.  ओह इतनी भयानक मौत.  ये कैसे हुआ ?  हिंदूवादी  संगठनों के नाम आ रहें हैं.   कुछ देर तक वो कुछ नहीं बोली, फिर जैसे बांध टूट पड़ा. आँखें बरस पड़ी. इतने बरसों बाद उसकी खबर मिली भी तो इसतरह !

वर्षों से दिल में दफ़न कोई भूला हुआ सपना झाँकता है.  गुनगुनी सी  हवा, मार्च की पीली धूप,  घास के तिनकों पर बिछ गई है... मैं उसे सहारा देकर कमरे में ले आती हूँ.. ये कितना अजीब है न कोई अपना चला गया और मैं खुलकर शोक भी नहीं मना सकती.  दीदी पर जैसे हाल आया था. वो बोल रही थी मैं सुन रही थी. तुम्हें पता है हम पिछली बार कब मिले थे ?... जब नरेंद्र दाभोलकर  की हत्या हुयी थी. उस घटना ने उसे बुरी तरह हिला दिया था. वही से लौटकर मिला था  मुझ से. मुझे  क्या पता था की ये हमारी  अंतिम मुलाकात थी.  लेकिन शायद उसे कुछ आभास था.  चितरंजन पर  दो बार हमले हुए थे. जिसमें बाल–बाल बचा था.. वह अपनी रौ में बोल रही थी.  कभी बोलत–बोलते  रुक जाती, कभी अपनी यादों के भीतर हंसती.
पता है,
उसने मुझसे पूछा था
क्या हम फिर कभी मिलेंगे ?
क्यों ये सवाल क्यों कर रहे हो ?
बस यूँ हीं !
फिर भी बताओ क्यों पूछ रहे हो ?
मुझे लगता है मैं जिसे चाहता हूँ उसे खो देता हूँ.

मैंने उसकी पीठ पर एक  धौल जमाया बकवास मत करो. वो संजीदा हो गया. तुम्हें पता है मैंने  अपनी माँ को  सिर्फ आठ  साल की उम्र में उसे खो दिया. माँ  के लिए हमेशा रोता रहता था. एक दिन बाबा  ने कहा...तुम्हारी माँ अब असमान में नज़र आएगी.  तुम देखना जो सबसे चमकता तारा होगा वही तुम्हारी माँ  होगी. मैं अक्सर  रात को छत पर तारे निहारा करता. सोचता दुनिया में खोये  हुए लोगों को दुबारा पा लेना मुमकिन है क्या ? बाबा से पूछा तो उन्होंने कहा तुम्हें  पता है वैज्ञानिक क्या करते हैं ?  अंतरिक्ष में नया नक्षत्र खोजते हैं. तुम भी खोजों  मिल जाएगी. अगर हम किसी को बेपनाह मुहब्बत करते हैं तो वे हमारे पास आतें है ! बाबा कह रहे थे और उनकी आँखें भीग रही थी. माँ तो नहीं मिली पर मेरी रातें तारों के साथ गुजरने लगी. वो हंसा ! उसकी  हंसी दिल के भीतर धंस जाने वाली थी.   उसके चेहरे पर  अजीब –सा ख़ालीपन  था. उसकी निगाहें मुझपर ठहर गयी. मुझे ऐसे देखने लगा जैसे कोई खोयी  हुयी चीज़ मिल गयी हो... अजीब बात है न जो कल तक मेरे पास था आज  वह हमारी स्मृतियों का हिस्सा हो गया. दीदी की  आवाज बहुत धीमी हो गयी. चाँद  की हलकी रौशनी उसके चेहरे पर गिर रही थी.  उसका चेहरा सुलग रहा था.

मैंने उसे  वही थाम लिया. दीदी  बहुत देर हो गयी है, अब तुम्हें सोना चाहिए !   उसे  पलंग पर लिटा दिया. उसके सिराहने बैठ गयी.  थपकियाँ देने लगी. मैं चाहती  थी दीदी को नींद आ जाये. रात गहरी थी. आसमान  तारों से भर गया, एक हल्का सा आलोक चारों और फैला था.  दीदी अब नीद में थी. मैं  धीमें से पलंग से उठकर अपने कमरे की और मुड गयी, मुझे अजीब सा भ्रम हुआ जैसे चितरंजन दादा आसमान में झिलमिलाते तारों के बीच लेटे हों.

अगले सुबह अख़बार के पन्ने रंगे हुए थे. प्रधनमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री के बयान  थे. पता चला की उसकी शव यात्रा में पूरा शहर उमड़ आया था. चितरंजन दा से मेरी मुलाकात एक कॉलेज  में हुयी थी. दीदी वहां पढ़ाती थी. वे वहां रिसर्च के लिए आये थे. दीदी ने मिलवाया था. कनु ये मेरे दोस्त हैं चितरंजन. दीदी के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी. पहली ही मुलाकात में मुझे वे बेहद संजीदा किस्म के इन्सान लगे थे. गोरा रंग, लम्बा कद और ऐनक के पीछे झांकती खूबसूरत आँखें. उनदिनों वे  “धर्मनिरपेक्ष  और कट्टरपंथी वर्गों के अंतर्विरोध” पर काम  कर रहे थे. उनके कई आलेख अलग-अलग अखबारों की सुर्खिया बनती थी. उनका  आलेख इनदिनों काफी विवाद  में था. उन्होंने कट्टरपंथ की जड़ों को तलाशना शुरू किया था और किस तरह वो आतंकवाद में तब्दील होता है उसकी बहुत तर्कपूर्ण व्यख्या की थी. जो सवाल उठायें थे वो समाज से निकलकर सत्ता तक पहुँचते  थे.

एकदिन उन्होंने पूछा मेरे साथ चलोगी ? कहाँ दादा ? चलो तुम्हें अख़बार  के लिए कुछ खास न्यूज़ देते हैं. जुलाई की एक शाम को जब बेहद गर्मी पड रही थी  हमदोनों कई गलियों को पार कर  एक  मकान के पास पहुंचे, जिसके सामने गन्दा नाला बह रहा था. दूसरी और सड़क थी.  इस घर के कई हिस्से किराये पर थे. जिनमें हर तरह के मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग रहते थे. दर्जी, ताला बनाने वाला, बाबर्ची, कुछ बिहारी मजदूर. हम सीढियों से सबकी नज़रें बचाकर दाहिने तरह वाले दरवाजे में घुस गए. ये पीछेवाली सीढ़ी थी, अँधेरी और संकरी , सामने दरवाज़ा था. हमने घंटी बजायी. घंटी की इतनी कर्कस आवाज थी की हमलोग  चौक गए. घंटी पुराने  ताम्बे से बनी थी. दरवाज़े में से एक पतली सी दरार खुली. दरवाज़े के पीछे से दो आँखें दिखी. अंधरे में उसकी चमकती हुयी आँखों के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था. दादा ने कहा में हूँ चितरंजन. कमरा खुला.  आपलोग अन्दर आयें. उस छोटे से कमरे की दीवारों पर पीला रंग पुता हुआ था.  खिडकियों पर मलमल के परदे लगे हुए थे.फर्नीचर काफी पुराना था. कमरे में सोफा  था. सोफे के सामने अंडाकार मेज़ थी. हर चीज़ बहुत साफ –सुधरी.  वह लंबे कद और छरहरे बदन का नौजवान है. काले और घुंघराले बाल. गालों  पर तमतमाहट की लाली. पेशानी पर लाल रंग का टीका चमक रहा था. वह दोनों हाथों से अपना सीना दबाये उस कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक टहल रहा था. उसके होठ सूखे थे और उसकी साँस उखड़ी-उखड़ी चल रही थी.उसकी आखें ऐसे चमक रही थी जैसे बुखार में चमकती है. उसने बहुत कठोरता से हमदोनों को देखा –तो आप क्या जानना चाहते हैं ?  फिर बिना सवाल सुने  बोलने लगा. मैंने ये खून इसलिए नहीं किया कि मैं अपने परिवार को मदद करूँ -ये बकवास है ! मैंने यह खून इसलिए नहीं किया दौलत और ताकत हासिल करना चाहता था. मैंने बस कर दिया क्यूकि इसके पीछे विचार था. कुछ लोग हमारे धर्म के लिए खतरा है. वे जेहादी हैं. ज्यादा बच्चे पैदा कर हमारे मुल्क पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. वे हिन्दू धर्म के लिए खतरनाक हैं.  क्या मुझे उस तरह के कीड़ों का खून करने का अधिकार नहीं है ? ये बोलते हुए वो हाँफ रहा था. उसने मुझे सख्त नज़रों  से  देखा और बोलने लगा.

वे हमारे देश को नष्ट कर रहे हैं. हमारी लड़कियां उनकी मुहब्बत में गिरफ्तार हो रहीं हैं. वे हमारी नस्ल को बर्बाद कर रहें हैं. मेरा चेहरा तमतमा उठा. मैंने उन्हें  रोकते हुए कहा.....आप ये किस तरह कह सकते हैं ?   बीच में मत बोलें.  मुझे ये पसंद नहीं. मैं जनता हूँ आप जैसी लडकियों को ही  वे लोग टारगेट करते हैं. वे अपनी लडकियों पर पावंदी रखते हैं और हमारी लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसा कर धर्म परिवर्तन करते हैं. वह  मेरी तरह देखते हुए गहरे घृणा और तिरस्कार से मुस्कुराया और अपनी दोनों कुहनियाँ घुटनों पर टिकाकर उसने अपना सर दोनों हाथों से जकड लिया.  तुम कितना दुःख झेल रहे हो दादा ने कहा. वो जोर से हंसा दुःख..! हाँ ये सब अच्छे  दिनों के खातिर !  क्या आप ये समझते हैं कि मैंने ये सबकुछ बिना सोचे समझे किया है? अरे नहीं ,मैंने बड़ी चालाकी से ये सब कुछ किया. पूरी योजना के साथ.

मैंने उसका खून किया जब वो सजदे में था. एक ही वार में काम  तमाम कर दिया. हाहाहा..उसके अल्लाह भी उसे नहीं बचा पायें. आप मेरी खबर छापें ताकि फिर कोई मुसलमान अपना सर इस मुल्क में उठा कर नहीं चल सके. उसके होठ तिरस्कार भरी मुस्कराहट से खुल गए. वे मुझे पकड़ नहीं पाएंगे उनके पास कोई भी पक्का सबूत नहीं है. मेरे लोग सारे इल्जामों से मुझे बरी करा लेंगे. बहुत होगा तो वे कुछ  दिन जेल में डालेंगे. फिर उन्हें मुझे छोड़ना पड़ेगा. उनके पास मेरे खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है.. मुझे उम्मीद है आप इसे ठीक से छापेंगे. यह सब कुछ मैंने इसलिए बताया ताकि लोग हमारी “नवयुवक सेना” को जाने.   

इस देश में अगर मुसलमानों को रहना है तो उन्हें हमारी रहमों–करम पर ही  रहना होगा.  यह कह कर उसने हाथ जोड़ दिए. उम्मीद है इस बात चीत से आप समझ गए होंगे की  हम क्या चाहते हैं. दादा उठ खड़े हुए .  उसने फिर कहा आपको मेरी ताकीद याद  है ना ! दादा रुक गए...आपने अपना काम कर लिया अब मुझे अपना काम करने दें.हम क्या छापेंगे ये आप मुझ पर छोड़ दें. मेरी कलम ने कभी डरना  नहीं सीखा. उसने हिकारत से देखा. ठहरिये  जनाब अभी आपने डर को महसूस नहीं किया है. मैं आपके भले के लिए कह रहा हूँ. आपका नाम चितरंजन नहीं होता तो हमारी ये मुलाकात नहीं होती. दादा हँसे ! शुक्रिया आपका , मेरा नाम चितरंजन है इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है. ये नाम कुछ भी हो सकता था मसलन हामिद , तेग बहादूर सिंह या सुरेश विलियम. ये कह कर मेरा हाथ पकड़ दादा  तेजी से निकल गए.

मैं सकते में थी. दादा ने मेरे  गाल  पर चपत लगाते हुए कहा कनु डर गयी क्या ? अरे बाबा ये सब प्रोफेशनल हजार्ड है. “ ओह “! दादा तुम ये सब मत करो. मुझे तुम्हारे लिए डर लगता  है. तुम इतना डरती किस बात से हो ? कुछ नहीं होगा. ये हमारा काम है. इसे हमलोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?  हमदोनों सड़क पर थे. रात हो चुकी थी. पर मुम्बई में तो रात सोती नहीं. हम ट्रेन में बैठ चुके. खिड़की की बगल वाली सीट पर एक नौजवान बैठा था. ट्रेन से बाहर देखो तो हर चीज़ तेज रफ़्तार में भागती दिखती है. सड़कों के किनारे बड़ी बड़ी दुकानें. खंडरनुमा कुछ मकान, दूर तक फैली मलिन बस्ती. ये बस्तियां हमेशा याद दिलाती रहती हैं की मुम्बई के इस बैभव के पीछे हजारों कामगार मजदूरों का श्रम है. दादा  खिड़की  के बाहर देख रहे थे.  सपने में चुपचाप बहते हुए.  मैंने मज़ा लिया दीदी को याद कर रहे हो. आज तो तुम्हारी जमकर खबर लेगी. वो हंसने लगा. मीनाक्षी   का डांटना अच्छा लगता है. हम स्टेशन से घर के लिए निकल पड़े. स्टेशन से घर दूर नहीं है इसलिए हमदोनो पैदल निकल पड़े. सड़कें खाली थी.  फुटपाथ वीरान. पैदल चलते हुए दीवारों की इबारतें पढ़ने का अपना मज़ा है.  चुनावी पोस्टर, जगह जगह शिव सेना के इश्तहार.  एक नीम खाली चायखाने पर कुछ नौजवान मजमा लगाये थे. कुछ पुरानी सुन्दर  इमारतें.. इमारतों की खिड़कियाँ लम्बी और संकरी थीं.  एक सौ साल पुरानी मेहराब इतनी ऊँची थी की उसे सर को उठा कर देखना पड़ा. हम घर पहुंचे दो दीदी सो चुकी थी.

चिरंजन दा  अपना अख़बार निकालते थे. “भोर टाईम्स  समाचार पत्र मेरे हाथों में है  और नवयुवक सेना के साथ हुयी बातचीत का पूरा संवाद.... इस खबर ने देश में तहलका मचा दिया.  नव युवक  सेना के लोग अख़बार  के दफ्तर में आकर खूब तोड़ फोड़ कर गए..दादा को धमकाया. पुलिस  आई.  उन्होंने दादा से पूछा...क्या आप पुलिस सुरक्षा चाहतें हैं ?  क्या ये मेरे लिए ज़रूरी है ? मैं पत्रकार हूँ कहाँ-कहाँ सुरक्षा देंगे आप?  देखिये आपने जिनलोगों पर प्राथमिकी दर्ज की हमने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है. फिर भी आपको सचेत रहना चाहिए कहीं कुछ ऐसा –बैसा न हो जाए.  दादा हँसे...जो असली गुनाहगार हैं वे अभी बचे हुयें है.

शाम को दादा घर आये. दीदी बहुत परेशांन थी. दोनों एक दूसरे के बगल में बैठे  बहुत उदास लग रहे थे. जैसे तूफान के बाद डूबे हुए जहाज के यात्री  निर्जन तट पर आ लगे हों. चित्तो तुम यह  सब छोड़ दो. पहले भी तुम पर हमला हो चुका है. अख़बार निकालना क्या ज़रूरी है ? दीदी ने घबरायी आवाज़ में कहा.  ये तुम कह रही हो मीनाक्षी ! तुमने ही तो जोर देकर अख़बार निकालने को कहा था. याद है तुमने कहा था अपना अख़बार होता तो हम उनलोगों की आवाज़ बन पाते जिनकी बातें नहीं आ पाती हैं.  दीदी की आँखों में प्यार उमड़ आया. उनके चेहरे को देखने लगी. दादा के चेहरे पर उजली –सी  हंसी चमक रही थी.  दरवाजे पर घंटी बजी. कनु देखो कौन है. मामा आयें हैं दीदी. मामा को देखते दादा उठ गए. प्रणाम मामा. चित्तो मोशाय कैसे हैं ? ठीक हूँ मामा. भाई क्या करते रहते हैं आप ?  आज वे लोग दफ्तर  पर हमला किये कल आप पर हमला हो सकता है. आपकी खबर के बाद उसे गिरफ़तार किया गया है.  उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है . उसके लोग उसे शहीद बनाने  पर तुले हैं.  मामा के चेहरे पर चिंता झलक रही थी. देखो, मैं मानता हूँ कि सच के साथ खड़ा होना चाहिए. पर समय बुरा है. कल उसकी पेशी है देखो क्या होता है. 

मुकदमें के दौरान उसे कोई खास परेशानी नहीं हुयी. अपराधी अपने बयान पर अटल रहा था. कोर्ट में जब उससे जिरह किया गया तो उसने साफ कहा “ इसे अपराध नहीं मानता हूँ मैं... उन्माद से वशीभूत होकर उसने कहा “ मैंने उस आदमी  का सफाया किया. मुझे कोई अफ़सोस नहीं है. एक ऐसे कौम के सफाया जिससे हमारे महान हिन्दू धर्म को खतरा हो. मैं हिंदू हूँ. हिंदू कोई दल नहीं है. हिन्दू एक जाति है. हिन्दू धर्म मूढ़ को भी मानता है. ज्ञानी को भी मानता है. उसमें सभी दल समाहित है. पर इस्लाम सिर्फ एक परमात्मा पर यकीं करता है और खुद को सर्वश्रेष्ठ कहता है. वे बाहरी लोग हैं और हमारे धर्म पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. इस देश में उन्हें रहना है तो हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करना होगा. उसने अदालत को बताया कि उसने कब और कैसे हत्या की. उसने उस पूरी बात-चीत का ब्योरा दिया, और बताया कि  किस तरह  हत्या की. उसने साफ-साफ कहा कि उसने जो कुछ किया उसका कोई  मलाल नहीं है.  लम्बी जिरह के बाद  हत्या के आरोप में उसे सात साल की सजा हुयी.

फैसला आ गया. उस दौरान कोर्ट परिसर में काफी भीड़ थी. फैसले के खिलाफ नारेबाजी शुरू हो गयी. कोर्ट से बाहर मैं और दादा पैदल ही निकल पडे. मुझे तुरत खबर देनी थी  अख़बार को. गर्मी काफी थी. रास्ते में फल मंडी से गुजरते हुए  काजिम स्पेयर पार्ट्स एंड हार्डवेयर की दुकान के आगे भीड़ लगी थी. लोग जल्दी जल्दी दुकानें बंद कर रहे थे. उत्तेजित बेरोजगार नौजवान  चायखानो पर जमे थे. चाय की दुकान से आगे विशाल शो केश में महिलाओं के कपडे में सजी औरतों के पुतले खड़े थे. इस आड़े तिरछे रास्ते से शहर पार करने में हमें १५ मिनट लगे. तब तक शहर में हंगामा शुरु था. क्या मैं तुम्हें आफिस तक छोड़ दूँ ? नहीं दादा हम चले जायेंगे तुम जाओ, मुलाकात होती है.

चितरंजन मुंबई के झुग्गी से होता हुआ आगे मुख्य मार्ग पर आ गया. हजार साल पुराना विशालकाय गिरजाघर, सामने झुग्गियों से उठते धुएं की पतली लकीर. सामने बहता हुआ नाला, इन सारे दृश्यों से खामोश गुजरते हुए वो बहुत उदास था. अचानक उसे महसूस हुआ कोई उसके पीछे है. पर अंधरे में कुछ नज़र नहीं आया. उसे लगा शायद भ्रम हुआ है. तबतक उसे कुछ लोगों ने दबोच लिया. ये सब इतना अचानक हुआ की उसे कुछ सोचने का वक़्त नहीं मिला. अब वो कार में था. और अपनी पीठ पर बंदूक की नोक महसूस कर रहा था. उसकी नसों में डर पसरने लगा. फिर भी साहस बटोर कर पूछा. आपलोग कौन हैं ? मुझे कहाँ ले जा रहें हैं ? चेहरे पर नकाब लगाये उसके बगल में बैठे आदमी ने कहा पत्रकार महोदय चुपचाप बैठें. आपके सारे सवालों का जबाब दिया जाएगा. उसके लहजे में किसी घबराये हुए व्यक्ति की उत्तेजना थी. उसे आभास हो गया की ये लोग पेशेवर हत्यारे नहीं हैं. अंधरे सुरंग नुमा जगह से गुजरते हुए एक जर्जर इमारत के पास गाड़ी रुकी. उनलोगों ने उसे दबोचते हुए एक कमरे में धकेल दिया. कमरे में अँधेरा था.  इतना अँधेरा कि फर्नीचर की आकृतियाँ बमुश्किल से दिखाई दे रही थी.एक टूटी कुर्सी और पुरानी मेज़ पड़ी थी. बगल में एक पुराना पलंग था और उससे सटे बेत की कुर्सी. वो कुर्सी पर पड़े उन्धने लगा . 

लगभग आधे घंटे बाद बाहर गलियारे से किसी की क़दमों की आहट सुनाई पड़ी. वो सतर्क हो गया. एक नाटे कद का आदमी अन्दर दाखिल हुआ. वह सफ़ेद शर्ट और काले रंग का पतलून पहना था. उसके कंधे झुके हुए थे और तेल से चिपके  बाल के ऊपर पीले रंग की टोपी थी जिसपर लिखा था “गर्व से कहो हम हिन्दू हैं”.चेहरे से उसकी उम्र ३५, ४० के बीच लगती थी. उसकी छोटी –छोटी आँखें चर्बी की तहों में खोकर रह गयी थी. अचानक उसे कमजोरी महसूस होने लगी. उसकी पीठ में ऊपर से नीचे  तक सिहरन दौड़ गयी. उस आदमी ने उसकी तरफ देखा.

उसके होठ पर विजय की नफरत भरी मुस्कराहट थी.
तो तुम नास्तिक हो ?
और  मुसलमानों के लिए काम करते हो .
तुम्हें इस काम के लिए कितने पैसे मिलते हैं ?
देखिये आपको ग़लतफ़हमी हुयी है.
मैं पत्रकार हूँ !
वो हँसा !
तुम्हारी पत्रकारिता हिन्दुओं के खिलाफ काम करती है ?
पत्रकारों का जो काम है मैं वो करता हूँ.
हिन्दू और मुसलमान बनकर नहीं लिखता.
तुम हिन्दू होकर हिन्दुओं के खिलाफ लिखते हो.  
तुमने जो लिखा उसके कारण आज हमारा साथी जेल के सलाखों के पीछे है.
फिर भी हम तुमको इस शर्त पर छोड़ देंगे अगर तुम हमारे लिए लिखना शुरू करो.
अबतक चितरंजन संभल चुका था. उसने बहुत साफ और सधी हुयी आवाज में कहा..मैं पत्रकारिता करता हूँ दलाली नहीं. आप मुझसे कुछ और नहीं करा सकते.
पत्रकारिता के नाम पर तुम हिन्दू धर्म की आलोचना करते हो
नहीं मैं धर्म की नहीं  धर्म के नाम पर किसी कौम के साथ नफरत करने के खिलाफ लिखता हूँ
चाहे वो कोई धर्म रहे, मैंने इस्लाम के नाम पर की जा रही दहशतगर्दी के खिलाफ लिखा !
तब तो तुम दोनों धर्म के खिलाफ हो.
देखिये इस तरह की  बहस से कोई फायदा नहीं.
नहीं तुम बताओ कौन धर्म श्रेष्ठ है ?
देखिये मैं धर्म की श्रेष्ठता पर यकींन नहीं करता ,धर्म का काम है दुखी दिलों पर मरहम लगाना.
जो धर्म ये काम नहीं करता और इंसानों के बीच नफरत फैलता, उस धर्म से मेरा कोई नाता नहीं ! चितरंजन ने उसकी आँखों में आँख डाल कर कहा.

एक विचित्र मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आई  उसने अपनी छोटी-छोटी आँखों को सिकोड़ते हुए कहा..देखो मुझे अपने आप पर काबू रखना अच्छी तरह आता है पर एक बार गुस्सा फटा  तो मेरी पिस्तौल उनलोगों की खबर लेती है जो हमारा कहा नहीं मानते.
देखिये मेरा काम लिखना है और मैं ये ईमानदारी  से करता हूँ
तुम अगर ये लिख कर दो की तुमने हमारे साथी के बारे में जो लिखा और तथ्य दिए वो पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी के दबाव में दिए तो हमलोग तुम्हें छोड़ देंगे.
ये नहीं हो सकता ! और अगर तुम्हारा ख्याल है कि मुझे मार कर तुमलोग बच जाओगे तो ये ग़लतफ़हमी है
तो फिर तैयार हो जाओ, अपने आखिरी समय में भगवान को याद  कर लो !
चितरंजन के चेहरे पर हलकी सी मुस्कान  आयी
उसने गहरी आँखों से उसे देखा
इतनी निर्भीक आँखें !
उसने नफरत से देखा–एक फुत्कारती-सी  साँस. उसने सख्त हाथों से पिस्टल पकड़ा
एक गोली चलने की आवाज आयी
दो गोली चलने की आवाज
अगली सुबह लोगों ने देखा चितरंजन की लाश मुबई के मुख्य सड़कों पर पड़ी थी. उसकी आँखें हलकी खुली थी  और चेहरे पर नीरव शांति.
नील विस्तीर्ण आकाश के आलोक मंडल में चमकता हुआ सूरज डूब रहा था.

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मंगलाचार : विनिता यादव (कविताएँ)

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बमुश्किल २० साल की विनिता यादव फिलहाल मूर्तिकला और चित्रकला में कौशल हासिल कर रही हैं, पेंटिग बना रहीं हैं, कविताएँ लिख रहीं हैं.

अन्य कलाओं से सम्बद्ध कवियों की कविताओं में कुछ खूबियाँ अलग से नज़र आती हैं जो यहाँ भी हैं.

समालोचन में युवतर कवियों को आप पढ़ते आ रहे हैं. अस्मिता पाठक, अमृत रंजन के बाद अब विनिता यादव की दस कविताएँ ख़ास आपके लिए साथ में कुछ चित्र भी.

   


विनिता   यादव  की  कविताएँ                                 




(एक)
एक रौशनी - एक परछाई
एक परछाई की परछाई
एक रौशनी की परछाई
हल्का उजाला-हल्का अंधेरा
एक बिंदु-और सब स्पर्श
एक आकार और सब कल्पना अगोचर.




(दो)
जिस्म के भीतर कंपन जम गई है
उस रात के बाद

मेरे कमरे में जहाँ कोई आता जाता नहीं  
और चारों दीवारों पर साँसे  
लटक-लटक  कर कमरे से बाहर जाने का
रास्ता जोहती रहती हैं  
उसी ठहराव में पंखा घूमता रहता है

देख रही हूँ अपने ही बदन से उठते धुंए को
उसमें नशा उठता है
मैं उसी धुएँ मे लिप्त हूँ
बेरंग.



(तीन)
शांत कमरे में आती
बूँद की टिप टिप आवाज ही साक्षी थी
कि वक्त साँस ले रहा है
रंगीला ने आत्महत्या कर ली है वहाँ
उसकी आँखे बंद नही हुईं, कुएँ मे गिर गयी हैं  
फतिंगों का झुण्ड उसे ढूँढ रहा है
कुछ जोड़ो-तोड़ो इस खिलौने में
बच्चा रो रहा है
ऊबा नहीं, अभी वह जिंदगी से.




(चार)
दोहराई जाती हरकतो में वही पुराने शब्द
बीती याद मे जाकर
अपना वस्त्र उतारना
तुम्हारे सामने पहली बार
ऐसे पेश करना
जैसे मेरे जिस्म मे गौर करने लायक कुछ भी नही है
तुमने छुआ
अपना पूरा व्यक्तित्व
चादर कि तरह बगल मे फेंकते हुए
मेरी थरथराहट
नवंबर कि ठंड
हमारी पहली मुलाकात
ओर एक अजनबी शहर
फिर याद आता है.




(पांच)
एक शाम जब थोड़ी दूर चले जाना तो पुकारना
पत्थरों को पीट पीट के
उन्हे जगाना
फिर एक कल्पना करना हवाओं को समेट के
और उसे सूर्यास्त के संग मेरे पास भेज देना
जहां रात है
अंधेरा, घने पेड़ों का
जो सरसराहट की गोद मे लेटा हुआ है
मुझे गले लगाए.





(छह)
मुझे क्यों नही लगता, ये जो है यही जिंदगी है
देर रात तक, गुमशुदा होती  चली जाती रात-बदनाम है
रेशमी कपड़े की प्यास सबके गले मे एक-एक
बेहोश कातिल का किस्सा बनकर झूल रही है
जालीदार साये मे शर्मिंदगी का शहर
जिसमे पैदाइशी शिकायत इल्म की जम्हाई लेता है
वही इत्तेफाक काफिर से, बना देता है कितने किरदार-फिजूल ख्याल से.





(सात)
ये तुम हो तस्वीर में ?
तस्वीर कितनी पुरानी हो गई है न
सूखे पत्ते की तरह लगती है
नदी मे तैरती हुई
एक तिनके को पार ले जाती हुई
वो तिनका मैं हूँ.





(आठ)
खिसियाए पेड़ की डाल के पीछे से नजर आती
चाँद की गूंज
ऊल्लू की आँख
उदास मन का सिगरेट
ठुक-ठुकाता दो पल का जी
पाँच दिन के लिए नीर बना मेरा शरीर
तुम्हारी संतो की सी हवस
रोशनदान से आती थोड़ी सी धूप

एक अकेली दुनिया मैंने अभी भी रखी है
एक अकेली दुनिया में  

वो अभी खुद में मौजूद धुंध से डरी हुई है
जिस लबादे को उसने अभी उतार कर फेंका
वो किसी निर्जीव लडकी का था
मगर वो झोल अब भी आते है
उड-उड़ कर उसके इर्द -गिर्द
अब भी उसे चाँद को घेरते बादल
युध्द जैसे दिखाई पड़ते हैं
दिनभर के दृश्य से छनकर कौए, छिपकली
और झाकती  हुई आँखों के पुर्जे ही बचते हैं
आँखों मे अंधेरा ठहरा हुआ है
कमरा खाली है- अतीत को यहीं रौंद डाला
अब अस्तित्व?





(नौ)
मै कहाँ, अपने आप को किस रूप मे रखूँ
ये ख्याल मेरे उमंग को कचोटता है
मुझे डर लगता है लोगो में शामिल होने से
वो झाँकने लगते हैं मेरे रास्ते के किनारे बिछी खाई को
उसी खाई मे मेरा सबकुछ धँसा हुआ है.





(दस)
कितना कुछ रोज बचा लेती हूँ
टाल देती हूँ,
खिड़की से नजर आती हर उस चीज की तरफ जो अपनी लगती है
पता नहीं किस दिन के लिए
जमीन पर तैरने और पानी में डूबने का ये नाटक है
महज एक झूठ, जैसे यह शरीर
कुछ भी नही और सबकुछ के बीच रखा गया है.

________

विनिता यादव
(२८/१२/१९९८, अम्बिकापुर)
बीएफए – मूर्तिकला
आर्ट और फाइन आर्ट फैकल्टी लखनऊ यूनिवर्सिटी

Vinitayadav151298z@gmail.com 

कथा - गाथा : बावड़ी : कविता

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भारतीय समुदाय भी पुरुषवादी समुदाय है, जैसे दूसरे समुदायों ने अपनी गलतियों से सीखते हुए बेहतर, न्यायप्रिय और तार्किक समाज की स्थापना की है और कई इस प्रक्रिया में हैं, वैसे ही जेंडर को लेकर भारतीय समाज भी सचेत और सतर्क हो रहा है. कुछ वर्ष पहले तक ‘तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं /तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी’जिसे स्वाभाविक समझा जाता था वह आज खुलेआम धमकी है और आपको इसके लिए सज़ा हो सकती है.

कार्यस्थलों/घर पर स्त्रियों/बच्चियों का उत्पीड़न एक त्रासद सच्चाई है. हद तो यह है कि जब इसके ख़िलाफ आवाज़े उठती हैं तब अच्छे-खासे पढ़े लिखे लोग इन आवाजोंको ही प्रश्नांकित करने लगते हैं. संकीर्णता और कट्टरता जब किसी व्यक्ति को विक्षिप्त करने के लिए पर्याप्य हैं तब उस समुदाय का क्या होगा जिसका यह चरित्र ही बन जाए.

कथाकार कविता की ‘बावड़ी’ कहानी मुझे याद रही है. त्रासदी की मार्मिकता को उन्होंने पकड़ा है.      





कहानी
बावड़ी                  
कविता






सीढ़ीदर सीढ़ी उतरती मैं हाँफती हूँ. दिन में भी ऐसा घुप्प अँधेरा कि उँगलियों को उँगलियाँ न दिखाई दें... कब तक, आखिर कब तक चलती रहूँगी इस तरह... किस सफर में हूँ मैं कि दहशत है- रगो रेशे में. अब आखिर कहाँ जाना है... कितना भीतर... कि अंत क्यों नहीं आता आखिर. कैसी तलाश है यह... किसकी तलाश है आखिर...?

कौन सा सपना है यह जो हर रात मेरी नींद में बदस्तूर जागता है, खँगाल कर ले आता है मेरे भीतर का वह कुछ जो कि मुझे पता ही नहीं, कि है भी मेरे भीतर. पानी... पानी चाहिए मुझे. पर पानी न जाने कहाँ विलुप्त... कई दृश्य भय बन कर काँप उठते हैं मेरे रोम-रोम से जैसे मेरा भय बह निकला हो. आत्मा सूखी डिहाईड्रेटेड... मैं खुद जैसे निचुड़ी जा रही हूँ.

अनी अन्वी! मेरी आवाज किसी भूत बँगले की तरह गूँजती है उस सन्नाटे में... लौट आती है फिर मेरे ही पास. मैं दौड़ रही हूँ. हलक सूख रही है जीभ लटपटाई हुई, कि तभी अनी कहती है मुझे झकझोर कर - मम्मा पानी चाहिए? इसी टेबल पर तो है पानी. आप ही ने तो सोते वक्त रखा था. मैं उसे गले से लगा लेती हूँ. मेरी प्यास बुझ गई हो जैसे.

अनी की आँखें भी ठीक उसी की तरह हैं वाचाल, बातूनी. उसकी एक-एक चमक में हजारों किस्से. किस्सों में भी कितने किस्सेतर अफसाने... वह ठीक मेरे उलट है, यह अम्मा कहती है... यह सब कहते हैं. अन्वी कहीं ठहरती नहीं, टिकती नहीं... कभी भी, किसी हाल में, किसी के भी कहने से मुझे भी पसंद है यह. मैं उसको इसी तरह निडर बनाए रखना चाहती हूँ और उसे इसी तरह बनाए रखने के इसी उपक्रम में न जाने कितने डर, कितना संशय, कितनी अनाम पीड़ाएँ... यह शायद माँ हो कर ही समझा जा सकता है.

वे कहते हैं अक्सर, हद करती हो तुम भी. बेटी आँखों से ओझल नहीं हुई कि... उसे जीने दो उसका बचपन. इस तरह तो... सोचती हूँ मैं भी, इस तरह तो... जानती हूँ मैं भी इस तरह तो...

पर चारा कोई और नहीं हैं मेरे पास. मेरा भय दुःस्वप्न बन कर पीछा करता रहता है हमेशा. धुर जाड़े की रातों में पसीने से नहाई हुई उठती हूँ मैं और जानलेवा गर्मी में भी भय से थरथराती हुई. साँसें धीरे-धीरे थिर होती हैं. बगल में सोई अनी को नींद में मुस्कराते देख कर, कभी अपने गले में उसे गलबहियाँ डाले सोई जान कर, मैं अपनी बाँहें उसके इर्द-गिर्द कस कर लपेट लेती हूँ, इतना कस कर कि नींद में भी कई बार कसमसा उठती है वह. ...मुझे लगता है कि अब सुरक्षित है वह... कि अब कोई डर नहीं. फिर भी नींद है कि आते-आते आती है और स्वप्न है कि जाते-जाते भी नहीं जाता. ­­

­­मेरा पाँव अँधेरे में किसी ठोस चीज से टकराया है. चीख निकलती है बहुत तेज, पर जैसे गले में ही रुँध जाती है. सबकुछ बिल्कुल उसी सपने जैसा. मेरी साँस-साँस रो रही है. मेरा रोम-रोम जैसे किसी अज्ञात पीड़ा से लिथड़ा हुआ. तलगृह में जैसे और अँधेरा हो आया हो, घना घनघोर, घुप्प अँधेरा. अब अपना ही भान कहाँ रह गया है. अन्वी, अनी, मेरी प्यारी अनी... मैं अँधेरे में टटोलती-टोहती जब किसी भी ज्ञात-अज्ञात वस्तु से टकराती हूँ भीतर तक सिहर उठती हूँ. सिहरना सुकून बनता है पर थोड़ा ठहर कर. कुछ नहीं, कुछ भी नही, कुछ भी तो नहीं. सुकून आता है और फिर बिला जाता है. कहाँ हैं कहाँ है मेरी बिटिया अनी... मैं हमेशा की तरह उस सपने की गिरफ्त में हूँ. और हमेशा की तरह ही सोचना चाहती हूँ, समझाना चाहती हूँ खुद को, बेकार ही डरती हूँ मैं. ऐसा कभी कुछ नहीं हो सकता उसके साथ...

बच्ची जरूर है अनी पर समझदार भी है. उसे बनाया है मैंने समझदार. मैं कहती रहती हूँ उससे, बेटा कोई भी अगर प्यार करते-करते टच करना चाहे तो मत करने देना. किसी को किस्सू भी मत करने देना चेहरे पर, लिप्स पर तो कभी नहीं... डाँट देना उसे... समझीं आप? मैं जोड़ती हूँ मम्मा, पापा और अपने परिवार के लोगों को छोड़ कर. फिर कहते-कहते ठिठकती हूँ इस 'परिवार'शब्द पर. नहीं, सिर्फ मम्मा-पापा. वह चुप सुनती रहती है सब हमेशा के बिल्कुल विपरीत... बेटा, मैं आपको कुछ बता रही हूँ न सुन रही हैं न आप? हाँ, माँ... वह अपनी चंचल नजरों से थाहती रहती है आस पास... कुछ अनोखा, कुछ अलग-सा, नटखट-सा करने, हो सकने की संभावना की तलाश में... मुझे लगता है मेरी बातें तो बस यूँ ही... बेटा पहले मेरी बात पर ध्यान दीजिए. सुनिए
प्लीज... सुन तो रही हूँ मम्मा ... वह खीज भरे स्वरों में कहती है... इतने-इतने खिलौनों के बीच माँ की ये बेकार की बातें, नसीहतें.

पहली बार मन तभी हिला था क्षण भर को, जब तीन-साढ़े तीन की ही थी वह. टाउनशिप की अपनी सुविधाएँ... क्लब, जिम, किड्स रूम, लायब्रेरी... मैं शाम को थोड़ा वक्त निकाल लेती हूँ... अन्वी खेलती रहती है किड्स रूम में. मैं थोड़ा पढ़ लेती हूँ... पर पढ़ते-पढ़ते साँस अटकी होती है, बस अनी में. उठ-उठ कर झाँक आती हूँ. वह खेलने में मग्न होती है, दूसरे बच्चों के साथ. अन्वी को किड्स रूम का आकर्षण खींचता है. उसकी आँखों की चमक में दिखलाई देते हैं मुझे - 'सी-सॉ', 'स्लाइड्स', 'रोप्स'और झूले. उसके हाथों की लहक में होती है नन्हें चेस, टेबल टेनिस, कैरम, पजल्स और लूडो से खेलने की ललक. चीजों को हासिल करने की नन्हीं कोशिशें भी. वह दूसरे बच्चों से कभी-कभी लड़ती भी है. कभी-कभी रोती-रोती आती है मेरे पास... माँ गुल्लू ने मुझ से पिंग-पाँग छीन लिया... एंजल मुझे स्लाइड्स पर फिसलने नहीं देती. मैं झगड़े को सुलझाने की कोशिश में कभी कामयाब होती हूँ, कभी नाकामयाब. मैंने एक तरकीब निकाली है. किड्स रूम खुलते-खुलते ही मैं अनी को ले कर पहुँच जाती हूँ कि दूसरा कोई इतनी जल्दी कहाँ आ पाएगा. अनी खुश रहे, इन्ज्वाय करे, बस. और अनी भी शाम होते ही पूछती है, मम्मा लायब्रेरी नहीं जाना? मैं मुस्करा कर कहती हूँ, जाना है मेरी बच्ची.

जल्दी-जल्दी पहुँचने की यही ललक उस दिन थिराती है, डर बन कर बैठ जाती है मेरे भीतर और तभी शुरू होती है अंतहीन दुःस्वप्नों की यह श्रृंखला. मैं पढ़ रही हूँ आदतन, डूब कर, भूल कर सबकुछ... अन्वी नहीं आती देर तक. मैं सोचती हूँ खेल रही होगी वह. इस बियाबान में यही तो एक जगह है जहाँ कुछ ताजी पत्रिकाओं का चेहरा देख पाती हूँ. फिर थोड़ी देर को ही सही, अन्वी से अलग हो कर अपना कुछ लिख-पढ़ पाना. अन्वी नहीं आई है मेरे पास देर से, पर मुझे सुकून ही है. तभी, लिखते-लिखते थमती हूँ मैं. मेरे भीतर जैसे कुछ कौंधा हो. चौंकती हूँ मैं, मैं तेज कदमों से निकलती हूँ. बस चार कदमों की दूरी पर है किड्स रूम. पर मुझे लगता है न जाने कितनी दूर है वह... यह दरवाजा क्यों भिड़ा रखा है अनी ने... अनी बेटा, दरवाजा क्यों बंद किया, खोलो... अनी कुछ बोलती नहीं. मैं सहमी सी अनी को जल्दी से अपनी गोद में समेट लेती हूँ...
'संजय तुम? तुम यहाँ क्या कर रहे थे दरवाजा क्यों बंद था...'
'अंदर ठंडी हवा आ रही थी...'
'तो...?'मेरी आवाज तल्ख है.
'और बगल के कमरे में पार्टी चल रही है. बच्चे आ कर सारा सामान तितर-बितर कर देते हैं...'मेरी आवाज अब भी सम पर नहीं है... 'तो? ठीक करो. बच्चे तो खेलेंगे ही न तुम्हारा काम है ठीक करना.'

उसका सहमापन मेरी आवाज के तीखेपन को कुछ और कड़वाता है. क्षण भर को सोचती हूँ मैं, शायद ठीक कह रहा है यह तभी तो इतना... पर भीतर से आती दूसरी आवाज जैसे मेरे भय में और पलीता लगा देती है. सहमता वह है जिसके भीतर कुछ गलत हो. वह पीठ फेर लेता है सामान ठीक करने के उपक्रम में लग जाता है. मैं निकलते-निकलते भी कहती हूँ...'देखो आगे से कभी कोई बच्चा खेलता हो तो दरवाजा बंद नहीं होना चाहिए...'मैं अनी को लिए-लिए लायब्रेरी से अपना बैग उठाती हूँ और... मैं घर नहीं जाती, नीचे लॉन में लगे झूले पर आ बैठती हूँ. अन्वी बहुत सहमी सी है. क्यों... मेरा भय या कि माँ का यह रौद्र रूप देख कर... मै टटोलना चाहती हूँ उसे... पर कैसे? मै पूछती हूँ -'बेटा वो अंकल वहाँ क्या कर रहे थ्रे?'अनि कुछ भी नहीं कहती...

मैं फिर उससे पूछती हूँ... 'बैठे हुए थे? खेल रहे थे आपके साथ...? ट्वायज से या फिर...'
अनि छोटा सा उत्तर देती है - 'नहीं.'
'फिर...?'वह चुप है...
'बोलिए बेटा मम्मा तो आपकी फ्रेंड है न... मम्मा से तो आप सबकुछ बताते हैं...'
'वो...'अनी कह कर रुकती है थोड़ी देर को....
'वो क्या बेटा...? बोलिए...'

'अंकल मुझे प्यार कर रहे थे...''प्यार'शब्द मेरे भीतर गर्म लावे की तरह बहता है... यह ताप जैसे सहने लायक ही न हो...
'प्यार, कैसा प्यार...?'शायद मैं बच्ची पर चीखी हूँ... 'बोलिए बेटा, बोलिए कुछ... मम्मा से नहीं बताएँगी? आप उनके इतने पास क्यों बैठी हुई थी?'
'वो बातें कर रहे थे मुझसे...
'कौन सी बातें...?'
'कुछ नहीं मम्मा, बस ऐसे ही...'
मैं फिर नहीं कहती उससे कुछ. एक चॉकलेट ले कर आती हूँ उसके लिए. सोचती हूँ शायद वह अपने आप ही बताए कुछ.

...मैं सोचती हूँ, शायद अन्वी ठीक कह रही हो... शायद वह बस बातें कर रहा हो उससे... शायद मैं बेबात डर रही हूँ. कुछ होता तो अन्वी कहती नही?
शेखर को मैं फोन करती हूँ - 'जल्दी आओ...'
'कोई खास बात...? मैं साढ़े आठ तक घर आ जाऊँगा...'
'नहीं, अभी आओ. और घर नहीं, क्लब. मैं यहीं हूँ.'

शेखर का इंतजार करती मैं अन्वी को दूसरे बच्चों के साथ खेलने के लिए भेजती हूँ. शेखर आते हैं. मेरी बातें सुनते हैं ध्यान से. चुपचाप सुनते रहते हैं, कहते कुछ भी नहीं. मैं फिर चिढ़ उठती हूँ - 'बोल क्यों नहीं रहे कुछ?'
'क्या बोलूँ, यह सब तुम्हारा वहम है. इन टेंपररी स्टाफ की इतनी हिम्मत नहीं है कि.... और फिर मैं तो क्लब का सेक्रेटरी हूँ. वह ऐसा नहीं कर सकता, बस थोड़ा खयाल रखता है मेरे कारण. तुम बस ऐसे ही...'

मैं खीज और चिढ़ के आवेग से जैसे गुस्से से बाहर हो रही हूँ... 'ऐसा नहीं कर सकता... यह विश्वास कितना घातक हो सकता है तुम सोच भी नहीं सकते. इन छोटी-छोटी चीजों की अनदेखी करना दर असल हमारे डरपोक स्वभाव का ही परिचायक है. हम बुरी या फिर अप्रिय बातों के बारे में कुछ सोचना ही नहीं चाहते.... इसे स्वीकार करना हमारे लिए मुश्किल होता है. अघटित घटित हो ले वह ठीक, पर उसे.... ऐसा नहीं कर सकता क्यों? ऐसे ही टेंपररी टाइप के लोग जो अपनी पत्नी और परिवार से दूर रह कर दो पैसे कमा रहे हैं, उनके इन दुष्कर्मों में लिप्त होने की संभावना ज्यादा होती है. ज्यादा पैसे नहीं, सुविधा नहीं, मनोरंजन का कोई साधन नहीं, शिक्षा नहीं और ढेर सारा खाली वक्त... शैतान का घर तो यह हमारा दिमाग ही होता है. रोज अखबार और टीवी में खबरें देखते हो पर...'

'मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता. मेरी बेटी ठीक है, नॉर्मल है और मैं क्यों मानूँ तुम्हारी कोई उथली सी बात?'शेखर उठ कर बेटी को बुलाने चल देते हैं...

मैं भन्नाई सी उठ खड़ी होती हूँ. बेटी को लेती हूँ उनसे और चल देती हूँ इस पसोपेश के साथ कि शेखर नहीं मानेंगे ऐसा कुछ. वह मेरे साथ नहीं खड़े होंगे बेटी की सुरक्षा के इस मोर्चे पर. वे स्त्री नहीं हैं और औरतों के इस भय को नहीं समझ सकते वे. मुझे ही अन्वी की परछाईं बन कर रहना होगा, चलना होगा उसके साथ. परछाईं की प्रवृत्ति से भी इतर रहना होगा उसके साथ. धूप और साए, दिन और रात, सुबह और शाम सब में. उससे बनाना होगा वह रिश्ता कि कुछ भी... मेरी आँखों से अदेखा न छूट जाए. कोई गुंजाइश ही कहीं छूटी न रह जाए.
मैं उस रात पहली बार अनी को एक पल को भी अपनी बाँहों से अलग नहीं होने देती....

...उसी रात वह सपना जन्मा था मेरे भीतर, फिर पला-बढ़ा था. मेरी रातों के सुकून को किसी बाघ की तरह झपट्टा मार कर ले भागता. नींद के नाम से मैं डरने लगी थी उसी दिन से. जागना अच्छा लगने लगा था, सुकूनदेह. मैं ढूँढ़-ढूँढ़ कर काम निकालती, फिर निपटाती उसे देर रात तक. फिर कोई नया काम. सोना जब मजबूरी हो जाता तो सो लेती पर वैसे ही बेहिस, बेमन. आँखें दिन भर जले तो जले, थकान पूरे वजूद पर हावी हो तो हो. चेहरा चाहे जितना बुझा-बुझा लगे लेकिन कोई बात नहीं...

...मै सोचती हूँ, खूब सोचती हूँ इस सपने की बाबत और नकारना चाहती हूँ इसका अस्तित्व. तर्क ढूँढ़ती हूँ, समझाती हूँ खुद को चाहे वे तर्क कितने ही खोखले हों, कितने ही कमजोर. मैं कई वर्ष पीछे देखती हूँ... सपने में दिखनेवाली नीचे की ओर निरंतर जाती हुई वे सीढ़ियाँ... मुझे बावड़ियों की याद आती है...

दिल्ली में मेरे घूमने की मनपसंद जगहें, बावड़ियाँ... मतलब वो सीढ़ीदार कुएँ जिनका इस्तेमाल प्राचीन काल में जल संरक्षण और उपयोग के लिए होता था. मुगल काल और उससे भी पहले दिल्ली में लोगों की पानी संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए बादशाहों और राजाओं ने बावड़ियों का निर्माण करवाया, जहाँ मुसाफिर न सिर्फ अपनी प्यास बुझाते बल्कि आराम भी कर सकते थे.

हैली रोड की अग्रसेन की बावड़ी, कहते हैं, महाभारत काल में बनवाई गई वह बहुमंजिली बावड़ी है जो मुझे कभी भी किसी राजमहल से कम नहीं दिखी. इसकी कारीगरी मुझे मंत्रमुग्ध करती है. पंचमंजिले बावड़ी में छत की जगह छायादार नीम का बड़ा-सा पेड़, हर स्तर का आधा बुर्जीदार हिस्सा, लाल-पत्थर की इसकी सीढ़ियाँ सब मुझे बेतरह खींचती थीं. शेखर कहते भी थे तब, क्या मिलता है तुम्हें इस खंडहर में... पानी... कहाँ है पानी... वह नीचे गँदला सा कुछ? मै माँ से सुना हुआ मुहावरा दुहरा देती... 'गुजरा हुआ फिर भी मसूदाबाद है...'और सोचती हूँ मसूदाबाद से मतलब मुर्शिदाबाद, मुरादाबाद या कि कुछ और सोचती रहती.

पानी के लिए मेरी ललक से शेखर तब भी वाकिफ थे. नहाना, तैरना कभी मुझे अच्छा नहीं लगा. पर पैर डाल कर बैठना, पानी में खड़े होना मुझे बेहद पसंद है. पानी मुझे खींचता है बेतरह. सड़क मार्ग से जाते हुए अब भी कहीं छोटा सा जलाशय या कि पोखर मुझसे मिलने की जिद ठान लेता है और मैं बीच राह उतरने की. सारी थकान, सारी बेचैनी जैसे पानी खींच ले जाता है, मुझे मुक्त करता हुआ, नई जिंदगी देता हुआ. मुझे पानी से मतलब है, सिर्फ पानी से...

...वह दिल्ली थी. गरम, तपती, जलती, झुलसती दिल्ली और वहीं उन बावड़ियों का होना मेरे लिए राहत था. फ्रीलांसिंग के उस दौर में कहीं से कहीं जाती, गर्मी की दुपहरियों में रुक जाती ठिठक कर, खास कर कनॉट प्लेस या जनपथ में हुई तो अग्रसेन की बावड़ी पर. उनसे मिलना वैसा ही था जैसे अजनबी शहर में बहुत अपने से मिलना. सुख-दुख बतिया कर हल्का हो लेना. अतीत की कहानियाँ समेटे बावड़ियाँ मुझे नानी-दादी की तरह प्यारी लगतीं, अपनत्व और ममत्व से भरी हुई. अपने प्यार की छाँह में सबको समेट लेने को आतुर. राजों की बावड़ी (मेहरौली), खारी बावड़ी (चाँदनी चौक), फिरोजशाह कोटला की बावड़ियाँ... मैं तलाशती रहती अपने लिए एक नया ठौर. एक नई पनाहगाह. मुझे लगता और हमेशा लगता दिल्ली को किलों और मकबरों का शहर कहने के बजाय बावड़ियों का शहर भी कह सकते हैं और खूब-खूब कह सकते हैं...

...तो मुझे लगता और खूब-खूब लगता यह सपना कहीं उन बावड़ियों से हो कर चला आया है मुझ तक. वही बुर्जियाँ, वही मेहराब, वही सीढ़ियाँ और वही मेरी बेचैनी और छटपटाहट. जब कभी किसी अपने से दूर हो जाएँ तो पुकारते ही हैं वे. छटपटाती ही है आत्मा उनकी खातिर.

चारु कहती थी तब, तुम्हें डर नहीं लगता ऐसे एकांत में अकेले चल देने से, इन सुनसान जगहों पर. सेफ कहाँ होती हैं ऐसी जगहें, ऐसे मत जाया करो. मैं हँस देती, बस... अंदर का सन्नाटा बाहर के सन्नाटे से ज्यादा भयावह होता है.

पालिका बाजार के सेंट्रल पार्क में शाम दोपहर गुटर गूँ करते जोड़े, जंतर-मंतर के कोने-कंदरे में बैठी आपस में मशगूल जोड़ियाँ... पर पता नहीं क्यों, मैं उनमें से एक नहीं थी, न होना चाहती थी. शेखर के साथ होने के बावजूद मैं जिद करके अग्रसेन की बावड़ी ही जाती, और जाती तो जाती. शेखर भी तब साथ-साथ चल देते, पर आज की तरह कुढ़ते-खीजते हुए नहीं बल्कि दिल से.

मैं सोचती हूँ और खूब-खूब सोचती हूँ इस सपने का मतलब? कि तभी कुछ याद आता है... ठीक शादी से पहले की बात... शेखर के बहुत दोस्त थे, मेरे कम. शेखर बोलते थे, बातें करते थे और मैं घुन्नी... ऐसे में ही प्रशांत ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. मैंने दोस्ती की थी, पर लक्ष्मण रेखा तय करते हुए. उसे शेखर के बारे में बताया भी था धीरे-धीरे... अपनी वर्षों पुरानी दोस्ती.... हमारे सपने... हमारा परिवार... हमारी मुश्किलें... हमारी ख्वाहिशें... और एक दोस्त की तरह वह सबकुछ सुनता, दिल से सुनता. और मुझे लगता कि मैं बोल भी सकती हूँ किसी से इस तरह खुल कर. उस दिन जब मैं हिंदुस्तान के दफ्तर से लौट रही थी, वह अपने ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी ले कर आ गया था. उसी ने कहा था - इंडिया गेट चलते हैं, धूप में बैठ कर अच्छा लगेगा. मैं अपना हक दिखाते हुए कह गई थी नहीं, अग्रसेन की बावड़ी... इतिहास का वह विद्यार्थी चौंक पड़ा था क्षण भर को, यह कहाँ है? मैं उसी हक से उसकी हथेलियाँ खींचती हुई कहती हूँ, मैं ले चलती हूँ न. वहाँ पहुँचने के बाद मेरे अंदाजे के विपरीत वह खुश हुआ था. मुझे भी अच्छा लगा था. जाड़े का दिन सो इक्का-दुक्का लोग. सीढ़ियाँ उतरते वक्त वह इतना करीब था कि उसकी साँसें मेरी पसलियों को छू रही थीं. मैं थोड़ा अलग हो कर चलने लगी थी. वह ठिठका था थोड़ी देर को, फिर करीब आ कर पूछा था उसने - 'यार ये जगहें कहाँ से तलाश लेती हो तुम?...'
'क्यों, पसंद नहीं आई?'
'नहीं, बहुत पसंद आई इसीलिए तो...'उसकी फुसफुसाहट मेरी कान के लवों को गर्मा गई थी. मुझे लगा लौट जाना चाहिए. मेरी जिद ने कहा था - क्यों?
'और कहाँ तक चलना है?'
'मैंने कहा था न, इसकी गहराई डेढ़ सौ फुट है. सोचो अभी और कितना नीचे जाना होगा.'

'नीचे जाना मुझे बेहद पसंद है.'उसके स्वरों के रहस्य भाव में ऐसा कुछ था जिससे मैं चौंकी थी पहली बार. पर मैंने अपने चौंकने को एक चौकन्नेपन से ढँका था...'1975 तक इसमें खूब पानी था. पर अब जलस्तर थोड़ा नीचे चला गया है. बस एक मंजिल और, बीचवाली मंजिल से पानी दिखने लगता है...'मैं उसे जताना चाहती थी, मैं वैसी ही हूँ अब भी - निडर, निरपराध और निर्बोध...
मैं सबकुछ भूल कर खुशी से चिल्लाती हुई उसकी तरफ पलटती हूँ - 'प्रशांत, देखो पानी... वो देखो!'
पर प्रशांत की नजरों की तलाश की मंजिल कुछ और थी.... झुक कर उसने एक झटके से चूम लिए हैं मेरे दोनों होंठ... 'पानी ही तो तलाश रहा था मैं भी...'

मेरे होंठ बेबसी से ज्यादा सिले हैं या कि विस्मयविमूढ़ता से, कहना मुश्किल है. एक ही क्षण में बहते जल-सा साफ और पारदर्शी रिश्ता मैला और गँदला हो गया था और मैं मूक - हँसे-रोए बगैर...
मैं कब तक खड़ी थी चुपचाप मुझे नहीं पता. तंद्रा टूटी थी तो उसी की आवाज से... 'कम ऑन, तुम तो ऐसे शो कर रही हू जैसे कि तुम्हें किसी ने पहली बार छुआ हो. शेखर तो साथ ही रहता है न तुम्हारे, फिर....'
मैं बटोरती हूँ खुद को और कहती हूँ...'शेखर और मैं साथ जरूर रहते हैं पर अकेले नहीं और शेखर ने मुझे कभी इस तरह नहीं...'

उसके होंठों का विद्रूप बढ़ जाता है. व्यंग्य और तिलमिलाहट से चेहरा टेढ़ा और लाल... 'फिर किसी डॉक्टर से जा कर दिखलाओ उसे, मर्द ही है न...?'फिर थोड़ा रुक कर थोड़े संयत स्वरों में कहता है वह... 'तुम्हारी बेतकल्लुफी और संकेतों से ही तो... और तुम ऐसे दिखा रही हो...'
मेरा दुख, मेरी ग्लानि, मेरी पीड़ा सब थहरा देते हैं मुझे. मैं थकी-हारी सी बैठ जाती हूँ वहीं. खूब रोती हूँ. किसके लिए यह मुझे भी पता नहीं.

मेरे रोने से शायद ग्लानि जागी है उसके भीतर... कहता है वह - 'सॉरी, माफ कर दो मुझे.'उसके इस बार के कंधे छूने में कोई लस्ट नहीं है पर कोइ लगाव भी नहीं महसूसती मैं.
जो कुछ मरना था मर चुका है... खाली हो चुकी है वह कोई जगह... और मैं रोना चाहती हूँ बस... मैं कहती हूँ - 'तुम जाओ प्रशांत...'
'और तुम?...'
'मैं यहीं रहना चाहती हूँ.'
'यहाँ?'
'हाँ.'मेरा स्वर दृढ़ है. वह एक बार देखता है मुझे, फिर चला जाता है बिना मुड़े, रुके. मैं रोती हूँ - खूब रोती हूँ, वहीं बैठ कर... मेरा रोना तर्पण है एक रिश्ते का. तर्पित तो जल में ही करते हैं न सब ग्रहण करता है जल हमारी सारी इच्छाएँ, दुविधाएँ और वह सबकुछ जो हम समेट कर नहीं रख सकते या कि नहीं रखना चाहते. सचमुच गँदला हो आया है पानी का वह हिस्सा.

...मैं सोचती हूँ, यह सपना यहीं से उपजा होगा. अपने भीतर के उस टूटन से. फिर सोचती हूँ इस सपने से अन्वी का क्या वास्ता, उस सपने में अनी क्यों होती है आखिर? मैं एक कमजोर-सा ही सही पर नया तर्क तलाशती हूँ... मैं टूटने नहीं देना चाहती अनी के भीतर कहीं भी, कुछ भी. इसीलिए उस सपने में अपनी जगह अनी दिखती है मुझे, ठीक उसी जगह - हताश, टूटी हुई, निचुड़ी हुई-सी, कभी-कभी रोती-बिलखती, कभी बिसूरती, निस्सहाय, अकेली अनी. उसकी निर्भाव आँखें... और सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ उतरती, उसे खोजती हुई मैं.
शेखर मुझे इस तरह परेशान देख कर कहते हैं कभी-कभी, अभी तो बच्ची है वह. आज के दौर की बच्ची... कल को बड़ी होगी, उसे तुम्हारा इस तरह परछाईं बनना, पहरे देना भाएगा? कौन बच्चा पसंद करता है यह सब? तुम्हें पसंद था? कल बड़े होने पर वांछित-अवांछित कई तरह के संबंध होंगे उसकी जिंदगी में... देह भी कभी न कभी, कहीं न कहीं... कब तक उसे प्रोटेक्ट करती रहोगी?

...मुझे हैरत होती है, यह सब सुन कर. शेखर मुझे इतना ही समझते हैं.

मैं कहती हूँ और पूरी दृढ़ता से कहती हूँ, आगे क्या होगा, वह क्या करेगी, कैसे जीएगी वह उसका निर्णय होगा. अभी तो मसला है और एक ही है कि वह खुद निर्णय और फैसले लेने तक तो निर्बाध बड़ी हो ले, एक पुरसुकून बचपन जीते हुए. एक ऐसा बचपन, जिसकी स्मृतियाँ उसे कल उदास या दुखी नहीं बनाएँ. उससे जिंदगी को खुशी-खुशी जीने का जज्बा न छीन ले. मेरी कोशिश तो बस इतनी सी है, शेखर!

मैं जब अपनी सहेलियों को भीड़-भाड़ में आस-पड़ोस में, कहीं भी बच्चों को निर्द्वंद्व छोड़ती हुई देखती हूँ तो अच्छा तो लगता है पर हैरत भी होती है. इन्हें कभी भय नहीं होता या कि मैं ही कुछ ज्यादा... शायद शेखर ठीक ही कहते हैं, अनी के बचपने को बनाए रखने की कोशिश में मैं जो लगतार उससे छीनती रही हूँ वह उसका बचपन ही है... किसी आगत अनहोनी की आशंका में उससे उसका आज छीन रही हूँ मैं.

निधि मेरे थोड़ी करीब है. अपनी बच्ची को ले कर कुछ पजेसिव भी. मैं उससे बाँटती हूँ अपनी भावनाएँ, कहती हूँ कि जब भैया मायके में गर्मी के दिनों में अनी को अपने एसीवाले कमरे में सोने के लिए ले जाते हैं तो बारहा मना करती हूँ मैं और अगर तब भी वो ले ही गए तो मैं तब तक नहीं सोती जबतक अनी को वहाँ से किसी बहाने ले न आऊँ या कि वह खुद उठ कर आ न जाए मेरे पास... बराबर के भाइयों के साथ उसे अकेले न खेलने देना... मैं जानती हूँ इस तरह सोचना गलत है, रिश्तों पर इतना अविश्वास... पर मैं क्या करूँ.... पूछती हूँ मैं उससे कि क्या यह डर उसे भी सताता है, या कि मैं ही... वह पुष्ट करती है मेरे भय को. मुझे थोड़ा सुकून मिलता है.

अनी मेरे बगैर नहीं रह सकती. पाँच साल की बच्ची की उम्र ही कितनी और औकात ही क्या? जहाँ कहीं जाती हूँ, चाहते न चाहते चलना ही होता है उसे मेरे पीछे. इच्छा-अनिच्छा का यहाँ कोई महत्व नहीं रह जाता. चाहे मजबूरी ही सही पर लंबी-लंबी जर्नी, बाई रोड भी. यह समझते हुए भी कि उसे उल्टियाँ आएँगी, चक्कर आएगा, बीमार भी हो सकती है वह. फिर भी... माँ लोगों से मिले, बाहर निकले, घूमने या सेमिनार में बोलने जाए, अन्वी को बेहद पसंद है. कहीं से कोई बुलावा आया नहीं कि अनी का कूदना शुरु. मुझे माँ को बोलने के लिए ले कर जाना है... मैं अपनी मम्मा की सबसे अच्छी फ्रेंड हूँ न! मैं मम्मा को फलाँ जगह ले कर जा रही हूँ. अनी अपनी सहेलियों से ऐसी ही बातें करती है...

विजयनगरम जाने की बात से वह ऐसे ही फुदक रही थी और उसकी फुदकन मेरे भीतर भय जगा रही थी. दस घंटे की कार की सवारी, फिर ट्रेन, फिर तीन दिनों का सेमिनार. कैसे जाऊँगी मैं? कैसे सँभाल पाऊँगी उसे? पर सब उसकी आँखों की उसी चमक की खातिर...

होटल में उसका बेड अलग है. मैं समझाती हूँ उसे, माँ को हर जगह ले के जानेवाली बच्ची तो नहीं हो सकती न! अब तुम्हें बड़ों की तरह अकेले सोना भी सीखना होगा. वह घबड़ाती है, परेशान होती है पर मान जाती है धीरे-धीरे...

दिन भर फुदकती रहती है वह, ऊपर-नीचे, दूसरे कमरे तक, दूसरे लोगों के पास. उन्हें कविताएँ सुनाती है. मैं अपनी साँकल थोड़ी ढीली कर देती हूँ. वह खुश रहे, मुस्कराए बस...
...पर मुश्किलें हैं, और दूसरी हैं. अनी की हर पल कुछ न कुछ बोलते रहनेवाली जुबान बेचैन है. बोले तो किससे और क्या भाषा की दीवार चीन की दीवार हुई जाती है. फिर भी बगैर बोले-बतियाए वह बाँध ही लेती है लोगों को अपने नटखटपन से. साथ आए हिंदीभाषी लोगों को वह घोंट-घोंट कर कविताएँ पिलाती है.
अन्वी खुश है. अनी दौड़ती-भागती रहती है, बातें करती रहती है. मेरा डर भी घूमता रहता है मुझसे आँख-मिचौली का खेल खेलता हुआ. अनी स्वतंत्र है. पर यही तो है डर का सबब भी. मुझे पूरे दो सत्रों में मंच पर रहना है. बेचारी अनी... पहला दिन बीत जाता है, निःशंक दूसरा... मैं मंच से रह-रह कर देख रही हूँ, ऊबी हुई है वह शायद लंबे-लंबे वक्तव्यों से. अपनी मम्मा की बारी की प्रतीक्षा में है वह. इशारे-इशारे में कहती है वह - 'मम्मा आप कब बोलोगी?'मैं नजरें झुका लेती हूँ कोई देख न ले. समझ न ले इस मौन वार्तालाप को. मंच पर बैठने का अनुभव अभी बहुत नया-सा है. सो उसकी गरिमा का ध्यान थोड़ा ज्यादा. अपने से ज्यादा अपनी बेटी की खुशी में खुश हूँ मैं. उसकी आँखें खुशी से चमक रही हैं.

चमकविहीन आँखें कैसी होती हैं? कैसी होती है उनकी उदासी मैं जानती हूँ... मैं समझती हूँ... अनी के चेहरे पर उन आँखों की कल्पना भी असहनीय है मेरे लिए.

अनी कुछ देर तक दिखने के बाद गायब है. मैं सोचती हूँ, वह होगी इधर-उधर कहीं. मेरी बारी आती है चली जाती है. पर अनी नहीं आती. यह अनहोनी ही है. ऐसा कैसे हो सकता है आखिर. मैं घबड़ाती हूँ, बेचैन होती हूँ पर प्रयत्नशील भी कि ये बेचैनी चेहरे पर न आ जाए. मैं उठ कर देखना चाहती हूँ पर लगता है यह मंच की अवज्ञा होगी. मैं कुछ देर बाद धीरे से मंच से खिसक लेती हूँ... मैं ढूँढ़ती हूँ उसे हर तरफ, अपने कमरे में, परिचितों के कमरों में. कान्फ्रेन्स रूम के पीछे-आगे. रिसेप्शन पर पूछती हूँ, बच्ची है कुछ खरीदने न निकल गई हो... 'पीला फ्रॉक पहने कोई बच्ची बाहर गई है क्या?...''कौन?...''आपकी बच्ची?...''नहीं...'घबराती हूँ मैं, अब कहाँ कितने सारे डर, कितने सारे सपने सब इकट्ठे हो कर मेरे आँसुओं में निकलने लगते हैं.
मुझे खयाल आता है तलगृह का... कल बुक एक्जीवीशन तो उसी में था. तलगृह का खयाल मन में जैसे सारी आशंकाओं को जगा जाता है. मेरे हाथ-पाँव सब ठंडे मेरे लिए. कदम उठाऊँ तो कैसे, और जाऊँ तो कहाँ?

सीढ़ियाँ उतरते हुए मुझे खयाल आता है सपनों का, ऐसे ही तो बस सीढ़ियाँ-सीढ़ियाँ. मैं जिसे अब तक बावड़ी की सीढ़ियाँ समझती रही... मैं बेसमेंट के अँधेरे में टटोलती-टोहती हूँ, हर टकराहट मन में बेचैनी पैदा करती है. फिर शांत होती हूँ यह सोच कर कि अनी यहाँ नहीं है... बेचैनी फिर बढ़ती है, अनी यहाँ भी नहीं है. फिर कहाँ है आखिर?

मैं दौड़ती हूँ ऊपर की तरफ. कान्फ्रेन्स रूम के पास तक पहुँचती हूँ... अनी सामने से आती दिखती है. हाथों में जलेबियाँ लिए और किन्हीं एक महिला की उँगलियाँ थामे हुए. मैं चीख पड़ती हूँ, गले लगा लेती हूँ उसे... 'कहाँ चली गई थी मुझे बताए बगैर.'

वह शांत भाव से कहती है - 'मम्मा, आप तो ऊपर बैठी थीं न फिर आपसे कैसे कहती! और आपने ही तो कहा था कि वहाँ बातें नहीं करते.'
'फिर भी आप इशारे से कह कर जातीं.'मैं एक बेचारा-सा ही सही तर्क ढूँढ़ने की कोशिश करती हूँ.
'मम्मा आप तो मुझे देख भी नहीं रही थीं. देखतीं तब न!'

वह महिला हँसती है. मुझे पहले-पहल लगता है मुझ पर हँस रही है वो. मैं अपने आप से कहती हूँ, नहीं वह ऐसे ही हँस रही है... वो कहती है - 'बच्ची का मुँह मीठा करवाने ले गई थी. बहुत ही अच्छी कविताएँ सुनाती है. मैं इसे इसकी प्रतिभा के लिए प्रोत्साहित करना चाहती थी.'अहिंदीभाषी लोगों की शुद्ध-शुद्ध किताबी हिंदी में कहती है वह, फिर आगे की बात अंग्रेजी में... 'बाहर चॉकलेट की दुकानें बंद थीं, दोपहर के कारण, सो यहीं से जलेबियाँ दिलवा दीं. आप भी चलिए, भोजन लग चुका है.'

मैं पहले शर्मिंदा होती हूँ फिर धीरे-धीरे तटस्थ - 'शुक्रिया.'

रात हम माँ बेटी जब घूम-फिर कर कमरे में आती हैं तो अनी सोते-सोते मेरे गले में बाँहें डाल कर पूछती है, 'मम्मा, आप इतना डरती क्यों हैं?'
मैं बहुत देर तक चुप रहने और सोचने के बाद कहती हूँ... 'पता नहीं बेटे.'
अनी सो चुकी है. मैं धीरे से उसे अलगा कर उसे उसके बिछावन पर रख आती हूँ. तकिया कंबल सब लगा कर.

बत्तियाँ बंद कर चुकी हूँ मैं. कोई है जो अँधेरे का फायदा उठा कर मुझे कहीं ले जा रहा है, सीढ़ी-दर-सीढ़ी जैसे अपने भीतर ही उतर रही हूँ मैं... अँधेरे में कई दृश्य गड्डमड्ड हैं... क्या उस 'पता नहीं'के जवाब में...?

अनी का प्रश्न, अपना यह एकांत और अँधेरा सब मिल कर जैसे मुझे सामना करने का साहस देते हैं, अपने भीतर की उन अंधी बावड़ियों का जहाँ जाने से मैं खुद डरती हूँ... जिससे नजरें चुराते-चुराते भागती हूँ मैं और अनी के लिए अपने भय के लाख-लाख दूसरे कारण और तर्क ढूँढ़ती हूँ...

...नन्हीं सी मैं घर के उस ड्राइवर की गोद में हूँ जो सबका प्रिय है. जो अक्सर मुझे गोद में बिठा कर रखता है, जाँघों पर अपनी पूरी ताकत से दबा कर - जहाँ मेरा दम घुटता है...
ट्यूशन पढ़ानेवाले भैया की वो गंदी सी चुम्मियाँ जिनमें वो होंठ गालों से नहीं सटाते, होठों पर रगड़ते हैं, कस कर...
उस दूर के अधेड़ जीजा जी का पाँव दबवाने के बहाने जगह-जगह उँगलियाँ फिराना...
मैं चुप थी और चुप होती गई थी. कोई प्रतिरोध नहीं करना स्वभाव का एक हिस्सा बन गया हो जैसे. बस दुख... भीतर तक पसरता एक अजनबी, अनचाहा और अनजाना सा दर्द.

मैं सोचती हूँ, घर में इतने-इतने लोग... किसी को तो समझना था, किसी को बचा लेना था मुझे... खास कर माँ को. पर उतने भरे-पूरे परिवार में किसी को इतनी समझ नहीं थी. किसी के पास इतना वक्त नहीं था. सबके अपने हिस्से के काम, सबकी अपनी एक दुनिया. मैं फूट-फूट कर रोती हूँ, सिसकती हूँ, सिसकती रहती हूँ.

मैं उठ कर अनी के पास चली जाती हूँ. सुबकते-सुबकते मैं कब सो गई हूँ, अनी को अपनी बाँहों के घेरे में लिए हुए मुझे पता नहीं.


नींद में फिर वही सपना आया है लेकिन इस बार कुछ बदले रूप में. सपने में वैसी ही कोई बावड़ी है, कोई नीचे उतर रहा है चुपचाप, उदास... धीरे-धीरे... ध्यान से देखती हूँ, यह मैं हूँ और बावड़ी है, गंधकवाली बावड़ी, जिसे सुल्तान इल्तुतमिस ने कुतुबुद्दीन एबक के इस्तेमाल के लिए बनवाया था. कहते हैं, इसकी पानी में गंधक की मात्रा बहुतायत में है और यह चर्मरोगों और बहुत से अन्य रोगों के लिए रामबाण का काम करता है... नीचे उतर कर उलीच-उलीच कर उसके पानी से अपना अंग-अंग धोती हूँ, सोचती हूँ मन-ही-मन शायद मेरे भीतर के तलगृह में छुपी इन यादों को भी धो कर मिटा सके यह... मै निर्मल हो लूँ ऐसे कि मन में कुछ भी न बचा रह जाए, कुछ भी नहीं.
___________

कविता
कहानी संग्रह : मेरी नाप के कपड़े, उलटबाँसी, नदी जो अब भी बहती है,आवाज़ों वाली गली,गौरतलब कहानियाँ
उपन्यास : मेरा पता कोई और है,ये दिये रात की जरूरत थे
संपादन :मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आएगी (दोनों पुस्तकें राजेंद्र यादव के लेखों का संकलन), अब वे वहाँ नहीं रहते ( राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के एक दूसरे को लिखे गए पत्रों का संकलन), जवाब दो विक्रमादित्य (राजेंद्र यादव के साक्षात्कारों का संकलन) 


संपर्क – एन एच 3 / सी 76,एनटीपीसी,पो – विंध्यनगर – 486885 (म. प्र.)

सविता भार्गव की कविताएँ

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(यह अद्भुत फोटो विश्व प्रसिद्ध फोटोग्राफर H. C . Bresson द्वारा  
Romania में  1975. में कहीं लिया गया था. आभार के साथ)




राजकमल प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित कविता संग्रह ‘अपने आकाश में’ (२०१७) की कविताएँ पढ़ते हुए मैंने कवयित्री सविता भार्गव को जाना, इन कविताओं ने एकदम से वश में कर लिया. प्रेम, सौन्दर्य, स्त्रीत्व और प्रतिकार से बुनी इन कविताओं का अपना स्वर है जो किसी संगीत-संगत की तरह असर डालता है.

चकित हुआ यह देखकर कि इस बेहतरीन कवयित्री की कविताएँ डिजिटल माध्यम में कहीं हैं ही नहीं. उनसे कुछ नई कविताएँ समालोचन ने प्रकाशन के लिए मांगी थीं जो अब आपके समक्ष हैं.





सविता   भार्गव   की   कविताएँ                        
___________



भरोसा

मैं अँधेरे पर भरोसा करती हूँ
जो मुझे सहलाता है अज्ञात पंख से
और मैं काँपती पलकों में
सो जाती हूँ

मैं उजाले पर भरोसा करती हूँ
जो आँखें खोलते ही खिल उठता है
और मैं बहती चली जाती हूँ
उसकी तरफ

मैं अपने इस घर पर भरोसा करती हूँ
जिसमें मैं रहती हूँ सालों से
और जो बस गया है
मेरे भीतर

मैं अपने शहर की गलियों पर भरोसा करती हूँ
जो आपस में जुड़कर इधर से उधर मुड़ जाती हैं
और जहाँ ख़त्म होती है कोई गली
मुझे वहाँ मेरी धड़कन सुनाई पड़ती है

ऐ आदमी!
मुस्कुराते हुए जब तुम मुझमें खो जाते हो
मैं तुम पर भरोसा करती हूँ.





बतियाएँ

राह चलते
बतियाएँ
ठोकर खाएँ
नुकीले पत्थर पर
नज़र गड़ाएँ
और हँस कर रह जाएँ

पेड़ के नीचे
बतियाएँ
बारिश के इस मौसम पर
और पुरानी बातों की बारिश में
भीग जाएँ

सोते हुए साथ
बतियाएँ
झुक जाएँ इतना
एक दूसरे पर
कि शब्दों को पसीना आए

बतियाएँ
कि बातें ही रहती हैं
जीवित.






चीज़ों को देखना

मैंने घड़ी देखी
घड़ी में देखने वाली चीज़ सुई थी
सुई में अटका हुआ समय था
और उस समय में एक निर्धारित जगह पर
मेरे उपस्थित होने का आदेश था

मैंने दरवाज़े की तरफ देखा
जो भीतर से बंद था
और उसे खोलकर मुझे बाहर निकलना था

बाहर निकलकर उसे फिर से बंद करना था
सिस्टम वही था ताले को भीतर और बाहर से बंद करने का
लेकिन इस बार दिखाई पड़ा कि वह बाहर से बंद था
और इसका अर्थ था कि मैं यहाँ से जा सकती हूँ

मैंने रास्ते को देखा
वह बहुत दूर तक जाता था
लेकिन वह मुझे वहीं तक दिखाई पड़ा
जहाँ तक मुझे जाना था
उसके आगे वह अनजाना था

मैंने चेहरे देखे
कुछ जाने-पहचाने तो कुछ नये थे
और पता नहीं मैं किस सोच में पड़ गई थी
कि उनमें देखने वाली चीज़ ग़ायब थी

मुसीबत यही है
चीज़ों को देखने से ज़्यादा 
मैं सोचती हूँ.





उम्र

दिमाग़ पर उसका असर पहले से शुरू हो जाता है
लेकिन हम महसूस करते हैं उसे सबसे पहले
आँखों में घटती हुई रोशनी से
फिर सिलसिला चल पड़ता है
उसे महसूस करने का
चेहरे पर पड़ रही झुर्रियों के रूप में
पक रहे बालों के रूप में
और सबसे अधिक तब महसूस करते हैं
एक अच्छी खासी उमर का व्यक्ति
आंटी कहकर पुकारता है

दिमाग़ पर उसका असर शुरू हो जाता है
लेकिन दिल नहीं मानता है
रचते हैं हम स्वांग तरह-तरह के
फ़ैशन के हिसाब से थोड़ा आगे बढ़कर
करते हैं अपने लिए कपड़ों का चुनाव
कॉस्मेटिक का लेपन अधिक बढ़ा देते हैं
नियम से रंगते हैं बाल
और चलने के अन्दाज़ में करते हैं
चुस्ती का प्रदर्शन

हालाँकि हम जानते हैं
उम्र को झुठलाने का काम अच्छा नहीं होता

हम कई बार वह कर बैठते हैं
जो उस उम्र में नहीं करना चाहिए था
खाते कुछ हिसाब से अधिक हैं
जिसका असर दिल पर पड़ता है
सोचने के काम में देरी लगाते हैं
और भूल जाते हैं
यह दार्शनिक सत्य-
हम सोचते हैं, इसलिए
ज़िन्दा हैं!






दाम्पत्य और कविता

कविताएँ मेरे पास आएँ
उसके पहले मैं रसोई तक पहुँच गई होऊँगी
बिस्तर झाड़ते
सँवारते घर
इतनी सहज साधारण दिख रही होऊँगी
कि शब्द उछलकर अलमारी की किताबों में
दुबक गए होंगे

मानती हूँ शब्द का जीवन से रिश्ता है
लेकिन शब्द मानते नहीं
उनकी एक ही रट है
एकान्त में दुबको
या उड़ो
उन्हें नहीं चाहिए मेरा
सुकून
उदासी चाहिए लेकिन नहीं चाहिए
ओढ़ी हुई उदासी

जीवन जो पहचान में आए नया
उसी में देखते हैं शब्द
अपनी पहचान

अब आप बताएँ
दाम्पत्य सँवारूँ
कि कविता करूँ.







शुक्रगुज़ार हूँ मैं ऐसी ख़बरों की


ख़बर फैली
मैंने अमुक से पीछा छुड़ा लिया है
और ख़ाली हो गई हूँ
माँज कर रखी हुई थाली की तरह

ख़बर कितनी फैली
इसे पढ़ा जा सकता था
लोगों के मुस्कुराने के अन्दाज़ में

बात ज़रा सी पुरानी पड़ने लगी
तो ख़बर दूसरी उड़ने लगी
जिसमें लम्बी सूची थी
मेरे नए चाहने वालों की

मेरी छह-सात घंटे की नींद में भी
कई आहें सुनाई पड़ने लगीं
हर आह में दूसरी आह के प्रति
शक़ और नफ़रत थी

शक़ और नफ़रत के बीच
मेरी मादकता
बढ़ रही थी

शुक्रगुज़ार हूँ मैं ऐसी ख़बरों की
सिंक में बासी पड़े बरतनों जैसी औरतों से अलग
जिसने मेरी पहचान दी थी.





दिल से

स्त्री तुम्हें देती है
प्रेम
जैसे फूल देते हैं
फल
जैसे टिमटिमाते तारे देते हैं
उम्मीद

स्त्री तुम्हें देती है
अपने अन्दर की पूरी की पूरी जगह
जहाँ ज़मीन और आसमान
मिलते दिखाई देते हैं

हालाँकि तुम चाहो तो जी सकते हो
स्त्री रहित ज़िन्दगी
कर सकते हो स्त्री रहित प्रेम

इस तरह
तुम सिर्फ़ खो सकते हो
सृष्टि का विश्वास

और स्त्री?

वह तुम पर बस रो सकती है
दिल से.






आओ


कल्पना करती हूँ
जीवन के इस परिच्छेद में
नए प्रेमी की
और एक कथानक रच डालती हूँ
जिसमें सारे दृश्य फ़्लैशबैक के हैं

तुम कल्पना करो
मैं तुम्हारी नई प्रेमिका हूँ
और रच डालो
शमशान तक पहुँचने के
सारे दृश्य

अतीत और भविष्य के
इस मिलन बिन्दु पर
आओ
थोड़ा जी लें.





तो कविता लिखूँ

बारिश हो
अगर रात भर
तो कविता लिखूँ

प्लास्टिक की चिड़िया
अगर फुदक पड़े
तो कविता लिखूँ

अजनबियों के बीच
अगर कोई प्यारा लगे
तो कविता लिखूँ

भाषा अपनी सीधी सपाट
अगर ढल जाए मौन में
तो कविता लिखूँ.





पुरुष : दो छवियाँ

उन्हें देखा ख़यालों में
कई रंग थे उनके
सबसे प्यारा रंग साँवला था
कई तरह के पोशाक थे उनके
सबसे प्यारा पोशाक खुले बाहों की
कमीज़ थी
अधपकी दाढ़ी उनके चेहरे पर
खूब फबती थी
सबसे प्यारा पोशाक खुले बाहों की
कमीज़ थी
अधपकी दाढ़ी उनके चेहरे पर
खूब फबती थी
सबसे अच्छी बात थी कि उनकी आँखों में
प्यार पाने की जबर्दस्त लालसा थी
कि अब या तब में मुझे बाहों में भरकर
आकाश में आरोहण करने लगेंगे

उनके बिना
एक स्त्री होने के नाते मेरा कोई भी ख़याल
अधूरा था

देखा उन्हें हक़ीकत में
सिंह शर्मा पांडे लगे थे उनके नाम के आगे
बड़ी-बड़ी मूँछें थीं
गले में सोने की मोटी चेन
भृकुटियों के बीच लाल टीका
और आँखें तो ऐसी थीं
कि अब या तब में
मुझे चीर कर रख देंगी

उन्हें देखना
एक स्त्री होने के नाते
अपादमस्तक मैला हो जाना था.

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सविता भार्गव
प्राचीन नगरी विदिशा में 5सितम्बर को जन्म. हिंदी साहित्य में डी. लिट्
कविता के अतिरिक्त थिएटर और सिनेमा में काम. कुछ आलोचनात्मक लेखन. शमशेर पर एक आलोचना पुस्तक 'कवियों के कवि शमशेर'दो कविता-संग्रह 'किसका है आसमान'और अपने आकाश में.
सम्प्रति :
विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी उच्च शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश शासन, भोपाल.

परख : फोटो अंकल (कहानी संग्रह) : प्रेम भारद्वाज

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२०१८ में राजकमल प्रकाशन संस्थान से  प्रकाशित  प्रेम भारद्वाज
के कहानी संग्रह की समीक्षा मीना बुद्धिराजा की  कलम से.   







मानवीय संवेदनाओं की त्रासदी का दस्तावेज़                      
मीना बुद्धिराजा




हानी अगर साहित्य की केंद्रीय विधा के रूप में आज अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा चुकी है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. कहानी आख्यान में जीवन के एक खण्ड का चित्रण करते हुए भी जीवन की समग्रता को आत्मसात कर लेती है. इस अर्थ में कहानी का उद्देश्य जीवन को खंडित करना नहीं बल्कि एक अंश में उसकी संपूर्णता का और लघु में विराट का अह्सास कराना है तभी कहानी सार्थक बनती है. जीवन के व्यापक अंतर्विरोधों को गहरे समझते हुए कहानी सभ्यता और समय के संकट को उसकी उत्कटता में पकड़ती है. अत: कहानी अपने समय की वैचारिकी से एक जीवंत और नाज़ुक रिश्ता कायम करती है और यह संबंध किसी विचारधारा से आक्रांत नहीं,संवेदना बनकर कथाकार की मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है. प्रत्येक रचनाकार अपने सृजन में समय की प्रवृत्तियों, दबावों और तनावों से मुठभेड़ करता है परंतु समकालीनता का कालबोध कभी भी रचनाकार की सीमा नहीं बनना चाहिये. वह रचनात्मक उर्जा लेते हुए वह भावबोध और शिल्प के स्तर पर अपने समय से जुड़ा रहकर भी भविष्य की संभावनाएं जरूर तलाश करता है.



समकालीन कथा-लेखन के परिदृश्य में मानवीय संवेदनाओं को गहराई से स्पर्श करते हुए अपनी जीवंत सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिये प्रसिद्ध आज के सशक्त कथाकार प्रेम भारद्वाजसमसामयिक कहानी के चर्चित और सक्रिय हस्ताक्षर हैं. हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ के कुशल एवं सजग संपादक के रूप में भी साहित्य और सत्ता के स्वभाव और संरचना को समझने का निरतंर आत्मसंघर्ष उनकी रचनात्मक विशिष्टता है. उनकी प्रमुख रचनाओं में इंतज़ार पांचवें सपने का (कथा-संग्रह), हाशिये पर हर्फ (वैचारिक लेख), नामवर सिंह: एक मूल्याकंन, शोर के बीच संवाद (सम्पादन) उल्लेखनीय रही हैं. इसी रचनात्मक कड़ी में हिंदी कथा-संसार में समकालीन मनुष्य के एकांत और त्रासद यथार्थ की सर्वव्यापी पीड़ा को केंद्र में रखकर कथा लेखक प्रेम भारद्वाजका नया कहानी-संग्रह इसी वर्ष ‘फोटो अंकल’ शीर्षक से प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशनसे प्रकाशित हुआ है.

इन कहानियों में कथ्य के स्तर पर अदृश्य सी लगने वाली जीवन की वास्तविक कटु सच्चाईयों को उजागर करने का प्रयास है तो साथ ही गहन मानवीय संवेदनाओं के आंतरिक गह्ररों में उतरकर नयी अर्थ-छवियों के संकेत भी इनमें मिलते हैं. इन कहानियों में एक प्रतिबद्ध रचनाकार का रूप स्पष्ट दिखायी देता है जो विषय वैविध्य में नयी कथा-दृष्टि के दायित्व के साथ समकालीन पीढ़ी के कथाकारों में उन्हें एकअलग पहचान भी देता है. विचार और संवेदना के समवेत संतुलन से बुनी गई ये सभी कहानियाँ हमारे समय की क्रूरता और अमानवीयता की चुनौतियों से मुठभेड़ करती हैं. कथा-संरचना के पारंपरिक फार्मऔर शिल्प से जिरह करती ये मार्मिक कहानियाँ पाठक की संवेदना को झकझोर देती हैं.

इस संग्रह की सभी दस कहानियाँ जीवन के उसी व्यापक कैनवास से उठाई गयी हैं जो मुख्यत: कहानी लेखन में कथ्य का आधार होता है. लेकिन उसके संबध में लेखक के अनुभव की मौलिकता,निजताजीवन-यथार्थ की उसकी व्यापक पकड़ और भाषा-शिल्प की नवीन प्रयोग भंगिमा इन कहानियों को समकालीन कथा परिदृश्य में एक नया और भिन्न आयाम देती है जो इनकी सार्थकता मानी जा सकती है.

‘प्रेम भारद्वाज’ एक कहानीकार  के रूप में काव्यात्मक संवेदना से समृद्ध रचनाकार हैं. वे जैसे कहानी को न दूर बैठकर देखते हैं न ही पाठकों से फासला रखते हुए सुनाते हैं. कथ्य और पात्रों को आत्मीय गहराई से अनुभव करते समूचे वज़ूद के साथ उसमें जज़्ब हो जाते हैं. पहली कहानी ‘फिज़ा में फैज़पुरानी पीढ़ी के साथ ही समाप्त हो चुके प्रेम  की बहुमूल्य संवेदना की खोज, तड़प तथा निराशा, हताशा और अवसाद की सघन छाया में छोटे-छोटे सुखों की तलाश करते चरित्र की कहानी है. बहुत तेज़ी से बदलती दुनिया में समय की रफ्तार में पीछे छूट गये लोग जिन्होनें जीवन और प्रेम को सच्चाई से समझने की कोशिश की लेकिन आज ये चरित्र समाज में अप्रासंगिक बना दिये गयें हैं. अपने जीवन की त्रासदी को रेडियो के पुराने गीतों और संगीत से जोड़ने की दीवानगी बिना किसी नाटकीयता के सहजता से इस पीढ़ी की नियति का करुण चित्रण करती है. भावनात्मक रूप से शुष्क हो चुकी दुनिया में एकाकीपन का यह जटिल और नया यथार्थ है. कहानी में इस पुरानी पीढ़ी केलिए मूल्यवान उदात्त और अशरीरी प्रेम के बरक्स नयी पीढी के लिये यह सिर्फ क्षणिक और अस्थायी आनंद और जरुरत की वस्तु है. अंत में फैज़ की आवाज़ फिज़ा में गूंजती है और कहानी का गहन अर्थ संकेत पाठक को भी अपनी संवेदनशील गुज़ारिश से निरूत्तर कर देता है- ‘और भी गम है ज़माने  में मोह्ब्बत के सिवा..मुझसे पहली सी मोह्ब्बत मेरे महबूब न माँग..!’

एक ऐसे समय में जीवन जहां हमेशा उन जरूरतों से संचालित है जिनमें कोई ठहराव और राहत नहीं. भयावह हो रहे मानवीय संकट के समय में संवेदना और नैतिकता की खोज करना अब निरर्थक भ्रम है और रचनाकार की गहरी चिंता उस आत्मा के बचाव का जोखिम है जिसकी सत्ता को आज बाज़ार में झोंक दिया गया है. दूसरी कहानी ‘था मैं नही’आज के समय और परिवेश में जेल से लेकर दफ्तर और टीवीके रियलिटी शोके विभिन्न दृश्यों का कोलाज़ बनाकर अलग-अलग परिस्थितियों में अपने वज़ूद के लिये आत्मसंघर्ष करते अतृप्त चरित्रों को उसके सही रूप में पहचानने की कोशिश करती है.जीवन की अनिश्तितायें,बेरोजगारी और भौतिक सुखों की भीषण लालसा सभी पारिवारिकसंरचना को भीतर से कितना खोखला कर रही है. पिता-पुत्र के रिश्ते और पति-पत्नि के संबधों मे भी करोड़ों रुपये कमाने का लालच खड़ा हो गया है और भरोसे आसानी से कत्ल हो रहे हैं. आज की इस त्रासद विडंबना को कहानी में बहुत बारीकी से उभारा गया है जिसके आरंभ में ही लेखक ने स्पष्ट किया है- ‘इस कहानी के तमाम पात्र वास्तविक हैं. इनका कल्पना से कोई लेना-देना-नहीं है.’

तीसरी कहानी ‘प्लीज मम्मी,किल मी’स्थूल यथार्थ की सतह को तोड़कर मानवीय चेतना की गहराई में छिपे सत्य का साक्षात्कार कराने वाली मार्मिक कहानी है. एक माँ जो दस साल से एक जीवित लाश के रूप में अस्पताल में चेतनाशून्य बेटे की तकलीफ, दर्द और लाचारी को सहन न कर सकते हुए अंत में उसकी इच्छा मृत्यु की गुज़ारिश करती है लेकिन अपील अस्वीकार हो जाने पर वह जो निर्णय लेती है वो दिल दहलाने वाला और पाठक की संवेदना को झकझोर देता है. एक माँ की बेटे के लिये असीम ममता और आत्मिक विलाप जिस तरह दोनों के जीवन का अंत करते हैं वह इस समय और मानवीय नियति का कड़वा और निर्मम सच है जिसका सामना हम नहीं करना चाहते. व्यवस्था की विसंगतियों में जहाँ लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं,बेरोजगारीअन्याय के शिकार युवा हैंजो विक्षिप्त होने के लिये मज़बूर हैं वहाँ एक माँ के लिये हत्या और आत्महत्या का फर्क करना नामुमकिन सा हो जाता है.अगली कहानी कवरेज एरिया के बाहरके केंद्र में एक संवेदनहीन समाज के बीच अलगाव, अकेलेपन, उपेक्षा, निरर्थकता और बेगानेपन की यंत्रणा को झेलते युवक कबीर की बेचैनी,विवशता और नाउम्मीद होकर आत्महत्या के निर्णय तक पहुंचने की त्रासदी है. पारिवारिक संरचना के विघटन औरसोशल मीडिया के आभासी मित्रों के संसार में स्थायी, सच्चे और आत्मीय संबध की खोज में भटकते और टूटते मनुष्य की समस्या हमारे नये समय की जीती-जागती वास्तविकता है.

अपने समय और समाज से पूरी तरह जुड़ी कहानी में सच्चाई तटस्थ नहीं बल्कि हमेशा मानवता की पक्षधर के रूप में उपस्थित होती है. वह एक बेहतर मनुष्य के समाज का स्वप्न देखती और बहस करती है. रचनाकार, कलाकार, बुद्धिजीवी और चिंतक के लिये  निहित स्वार्थों से परे सार्थक, संघर्षशील और व्यापक दृष्टि को केंद्र में रखती है. ‘फोटो अंकल’इसी व्यापक कैनवास पर लिखी गई इस संग्रह की केंद्रीय और बहुत सशक्त शीर्षक कहानी है जो एक संवेदनशील रचनाकार के महसूस किये गये दर्द की छ्टपटाहट भरी अभिव्यक्ति है. जो उन्होनें अपने आस-पास, सरोकारों के नाम पर तथाकथित बौद्धिक कहलाने वाली दुनिया में देखा. कहानी 1984 की भोपाल गैस त्रासदीके दौरान जब इसांन क्षणों मे लाशों में तबदील हो रहे थे. उस समय प्रसिद्ध भारतीय फोटोग्राफर रघु रायद्वारा लिये गये एक एक छोटे बच्चे के शव को दफनाते समय खींची गई दर्दनाक फोटो और उससे जुड़ी घटना पर आधारित है. इस फोटो ने फोटोग्राफर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सम्मान दिलाया लेकिन उसके अदंर का अपराधबोध  और पश्चाताप उसे चैन से नहीं जीने देता और अपनी सारी कला और प्रसिद्धि उसे निरर्थक लगने लगती है. कहानी रोचक और रहस्यमय तरीके से न्याय के लिये भटकते बच्चे की फैंटेसी का प्रयोग करके उस त्रासदी के शिकार और पीड़ित लोगों की यंत्रणा और समाजराजनीतिसत्ता , मीडिया और न्यायव्यवस्था की नाकामी जिसने उस बहुराष्ट्रीय कंपनी को खुले-आम बख्श दिया. इन सभी संदर्भों में आज की भ्रष्ट और विसंगत व्यवस्था पर भी कहानी बहुत से असुविधाजनक सवाल उठाती है जिनका जवाब किसी के पास नहीं है.

कला और समाज के अंतर्विरोधों और कला- साहित्य  की सामाजिक उपयोगिता की बहस को उठाते हुए यह कहानी दोनों के संबध को कई कोणो से दिखने का गंभीर प्रयास भी करती है. विकल्पहीन नाउम्मीद समय में अँधेरों में रहकर नहीं बल्कि उजालों में रहकर शोषित- पीड़ित के लियेप्रतिरोध संघर्ष और स्याह ज़िंदंगी की तस्वीरें खींचना ही कला का नैतिक दायित्व और कला की ईमानदारी है.कोई विचार खतरनाक नहीं है सोचना खुद में ही खतरनाक है-हाना आरेन्टलेकिन तस्वीर भी तभी बदलती है।कहानी में बीच-बीच में लोर्का, कबीर, मुक्तिबोध की डायरी,गालिब और निदा फाज़ली का आना इस नाकाबिल-ए-बर्दाश्त माहौल और भयावह समय में कुछ राहत की साँसे पाठक को देकर जाते हैं.

स्त्री विमर्श के वर्तमान दौर में स्त्री जीवन की दैहिक-मानसिक पीड़ा और और उसकी परतंत्रता को पुरूष लेखक भी उसी शिद्दत से महसूस कर सकते हैं. इसका प्रमाण बहुत भावनात्मक कहानी पिजंडे वाली मुनिया’ स्त्री के इसी अनकहे दु:ख और घुटन का जीवंत बयान है. पुरुषसत्ता में घर-परिवार के सभी कर्तव्य और मर्यादा को निभाते और सुख-सुविधा से भरे जीवन में भी उसकी स्वतंत्र अस्मिता और स्वप्नों का आकाश सामने है जिसमें वह अपने लिये निर्धारित सभी बंधन तोड़कर उड़ना चाहती है. शारिरिक और दैहिक सुख से आगे मानसिक आज़ादी,सच्चे उदात्त प्रेम का अनुभव और अपनी वैचारिक आकाक्षाओं को पूरा करना चाहती है.  

इसी प्रकार सूने महल मेंकहानी कथा नायिका के रूप में स्त्री के गहन अंतर्मन में छिपे बरसों पुराने प्रेम के प्रति एकनिष्ठ समपर्ण की टीस और गरिमा की मार्मिक कहानी है. जिसे वह अंत तक संजोए रखती है और उन स्मृतियों के खंडहर होते महल में भी प्रेम की अलौकिक लौ को जीवित रखती है. यह रूमानीपन यथार्थ से पलायन का नहीं बल्कि स्त्री के लिए क्रूर यथार्थ से मुक्ति का व्यंजक है जो कहानी को मौलिक बनाता है.

आज के निर्मम उपभोक्तावादी समय में ये कहानियाँ अमानवीयता, क्रूरता और क्षुद्र स्वार्थों के बरक्स संवेदनशीलता और त्रासदियों के बीच भीमूल्यों की खोज  बहुत गहराई से करती हैं. आत्मनिर्वासन का त्रासद स्वर इन कहानियों की विशिष्ट पहचान है जो एक स्वप्नदर्शी समाज और  बेहतर विकल्प को तलाश करने का जोखिम उठाता है. इस दृष्टि से अत्यंत मार्मिक कहानीशब्द भर जीवन उर्फ दास्तान-ए-नगमानिगारआज के स्थूल और चकाचौंध से भरे यथार्थ की परतों के नीचे दबी भावना और संवेदना का वह आदिम राग है जो एक धुन की तरह उठते हुए द्रुत से विलंबित की यात्रा करती है. कहानी के केंद्र मे दिल्ली जैसे निर्मम महानगर में एक बहुत संज़ीदा कवि और साहित्यकार का चरित्र हैं जो अपने में रिक्त और तिक्त होते ऐसे अभिशप्त उदास लेखक की कहानी है जो आज के भौतिक,आत्मकेंद्रित और अवसरवादी समय में प्रासंगिक नहीं रह गया है.

लेखकीय जीवन के अतंस्थलों की पड़ताल करते हुए साहित्य जगत की भीतरी सच्चाई और कथित सफलता के रहस्य को बेबाकी से कहानी में दिखाया गया है. यहां मुख्य चरित्र के रूप में संवेदनशील कवि यथार्थ के बहुत निकट लगता है जिन्हें छद्म और पाखंड नहीं आता, जो व्यावहारिक नहीं और सफलता के तंत्र को कभी नहीं साध पाता. अतिशय भावुकता,समाज को बदलने के आदर्शवाद के कारण जिस विवाह का नैतिक जोखिम वे उठाते हैं वह भी उनके जीवन को नारकीय बना देता है और अतंत: वे टूट कर बिखर जाते हैं. उनकी बेचैनीविक्षिप्तता,बौद्धिक और आत्मिक द्वंद्व को कहानी में अंकित करने की लेखन ने विलक्षण कोशिश की है और एक ट्रैजिकअंत के साथ पाठक के आत्मको भी कहानी झकझोर देती है.

कहानी में बीच-बीच में गुरुदत्त, मुक्तिबोध, निराला,भुवनेश्वर और स्वदेश दीपक, गोरख पाण्डे के प्रसंग कहानी के दर्द का विस्तार करने हुए अपनी अमिट विरासत के साथ एक अदृश्य वेदना को भी पाठक के साथ छोड़ जाते हैं. अपनी संवेदनात्मक तरलता, भाषा की अर्थमयता और यत्रंणा के साथ यह एक अविस्मरणीय कहानी है और फ्रांज़ काफ्काके असफल नियति के नायकों की याद दिला देती है जो बस संघर्ष करते हैं और सफलता में अपनी मृत्यु देखते हैं.

रचनाकार के सरोकार अपने समय के संकट और सामाजिक-राजनीतिक दबावों और उसके प्रभाव से कभी अनजान नहीं रह सकते जिसमे नैतिक संवेदनाओं का लगातार पतन हुआ है. समकालीन सत्ता-सरंचना और उसके तंत्र के तमाम प्रप्रंचों और कुटिल अवसरवादिता को कहानी कसम उस्ताद कीबहुत बेबाकी और व्यंग्य के धारदार तरीके से खोलती है. साधारण जनता लक्ष्यहीन राजनीति और लोकतंत्र के इस तमाशे में सिर्फ एक मोहरा है और इस व्यवस्था के  निरतंर दु:स्वप्न का टूटना मुश्किल है.

समाज को सुंदर बनाने और  दुनिया को बदलने का स्वप्न और अपने वज़ूद के लिये संघर्ष प्रत्येक युग और व्यवस्था में देखा जाता है जो प्रतिरोध के रूप में चेतनाशील युवा मन को बार-बार लड़ने के लिये प्रेरित करता है. लेकिन आर्थिक विषमताएं,समाज और सत्ता की मारक क्षमता का शिकार बनते सपनेभयानक आत्मसंघर्ष और विफल आकांक्षाये हमेशा अस्तित्व को कुचलकर उसके भविष्य को गहन अंधकार तक पहुंचा देती हैं. अंतिम कहानी “मकतल में रहम करना’ व्यवस्था के जानलेवा तंत्र के मर्मांतक और भयावह माहौल में कथानायक के आत्मस्वीकार की कहानी है जो फाँसी पर चढ़ने से पहले अपने जीवन का विशलेषण ही पाठक के सामने रख देता है. वह विचारों के साथ जीने की कल्पना करता और चाँद को ज़मीन पर ला देने की ज़िदऔर बेचैनी. नॉस्टेल्जिया यहाँ तल्ख सच्चाईयों के रूप में सामने आता है.

अन्याय से लड़कर इस फूहड़ताकत और शोषण पर बनी असहनीय दुनिया को जीने लायक बनाने का जूनून और दिल में आग भी। एक जख्म की तरह पूरा सफर जिसमें टूटते सपनेऔर सिर्फ माँ के आँसू और दर्द ही आखिर तक साथ रहे और माँ की गुज़ारिश कि बेटे कोफाँसी देते समय उसे ज्यादा दर्द न हो. लेकिन अंत में वधस्थल में-  “ठीक जिस क्षण वह रोशनी के बारे में सोच रहा था. उसके चेहरे को काले कपड़े से ढक दिया गया.”यहाँ कहानी पाठक को नाउम्मीद,  और झकझोर कर निस्तब्ध सोचने के लिये विवश खामोश छोड़ देती है. यथार्थ और स्वप्न के कन्ट्रास्टसे उपज़ा द्वंद्व और तनाव इस कहानी की संवेदना और भाषा में सभी जगह व्याप्त है.

यह कहानी-संग्रह लेखक की समकालीन यथार्थ को समझने की गहन,अचूक अन्तर्दृष्टि,पारदर्शी संवेदना और आत्मीय जीवन-विवेक के साथ समकालीन कथा-लेखन के एक बड़े अंतराल को भरता है जिसमें समकालीन निर्मम यथार्थ की भावात्मक प्रतिध्वनियां सुनी जा सकती हैं. कई अर्थो में हमारे समाज और समय की चिंताओं को बहुआयामिता से जानने के लिये यह अनिवार्य पुस्तक है. प्रखर वैचारिकता के साथ ही जीवन के लिये प्रेम, उम्मीद और राग को बचा लेने की कोशिश इन कहानियों की विशिष्ट उपलब्धि है. मानवीय संवेदनाओं को अनूठे भाषिक शिल्प में ढ़ाल लेने का कौशल भी कथा-लेखक के पास है जिसमें हिनी-उर्दू शब्दों की सहज रवानगी है. आवरण पृष्ठ पर हिंदी- आलोचना के शिखर नामवर सिंहजी का कथन है-
“प्रेम भारद्वाज की भाषा यहाँ काबिले तारीफ है, इनकी अधिकतर कहानियाँ विषय में विविधता के साथ उपन्यास की संवेदना लिये रहती हैं.”प्रसिद्ध आलोचक ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ने भी सीधी भाषा में जीवन की वास्तविकताओं को मार्मिकता और गहराई से चित्रित करने की दृष्टि से इन्हें लेखक की सफल कहानियाँ माना है.  कथाकार ‘अल्पना मिश्र’और कथा-लेखक ‘अवधेश प्रीत’ने भी फोटो अंकलकहानी संग्रह को गंभीरता से विश्लेषित करते हुए गहन मानवीय संवेदना और विचार के सही संतुलन के साथ एक नयी कथा-भाषा और नयी प्रतिबद्ध कथा-दृष्टि से समकालीन नयी पीढ़ी के कथाकारों में प्रेम भारद्वाजकी सशक्त रचनात्मक उपस्थिति को स्वीकार किया है.

नि:संदेह वर्तमान क्रूर यथार्थ और खौफनाक होते समय में तमाम हताशा, भय, अवसाद और विकल्पहीनता  के बीच भी भविष्य और बदलाव के लिये संभावनाएं हो सकती हैं क्योंकि प्रतिबद्ध नैतिक रचनाकार अपने शब्दों पर भरोसा करना कभी नहीं छोड़ सकता जो अंतत: मानव की बुनियादी अस्मिता को बचा लेते हैं. इस दृष्टि से मनुष्य की आत्मिक और सामाजिक चेतना के दोनों धरातलों पर यह कहानी- संग्रह जीवन और रचना के अंतर्संबंधों की गहरी शिनाख्त करता है तथा समकालीन कथा-लेखन के आधुनिक परिदृश्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है.
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मीना बुद्धिराजा
सह- प्रोफेसर , अदिति कॉलेज, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्विद्यालय
संपर्क-9873806557

कथा-गाथा : बंद कोठरी का दरवाज़ा : रश्मि शर्मा

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(पेंटिग : Raphael Perez : आभार के साथ)



एक आदमी को मेरी सौत बना दि‍ए तुम तो...”
(इसी कहानी से)



एलजीबीटी समुदाय (lesbian, gay, bisexual, and transgender) को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियों में इस्मत चुगताई की उर्दू कहानी ‘लिहाफ़’पहली हिन्दुस्तानी लेस्बियन प्रेम कहानी है जिसका प्रकाशन १९४२ में हुआ था और जिसके लिए इस्मत को कोर्ट केस लड़ना पड़ा, जिसमें उनकी जीत हुई थी.

सुरेन्द्र वर्मा का ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’पुरुष समलैंगिकता और उसके बाज़ार पर लिखा गया एक पठनीय उपन्यास है.  

अब धारा ३७७ के समाप्त होने के बाद यह अपराध नहीं है और इस समुदाय के लिए भी शांतिपूर्ण ढंग से जीने की स्थितियां बनीं हैं.

हिंदी कहानी का समकालीन लेखन इसे किस तरह देख रहा है और क्या लिख रहा है ?

युवा कथाकार रश्मि शर्मा की यह नई कहानी ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’इसी क्रम में आपके समक्ष प्रकाशित की जा रही है. अपने शौहर की इस ‘बेवफाई’ पर नसरीन का द्वंद्व और शौहर की विवशता का वर्णन बेहतर है.  






कहानी
बंद    कोठरी   का   दरवाज़ा                     
रश्मि शर्मा





रेक सुबह की तरह सलमा आपा ने अपनी नज़र का चश्‍मा नाक पर चढ़ा कर अख़बार के पन्‍ने पलटना शुरू ही कि‍या था कि‍ उनकी नज़रें एक खबर पर ठहर गईं. हैडिंग के बाद बड़ी तेज़ी से उनकी नि‍गाहें नीचे फि‍सलती गईं और ख़़बर पढ़ते ही उन्‍होंने नसरीन-नसरीनका ऐसा शोर मचाया कि‍ नसरीन रसोई से सालन पकाना छोड़कर बदहवास बाहर दौड़ी आई.
सहन में आकर देखा कि‍ सलमा आपा के हाथ में अख़बार है और उनके मुंह से लगातार गालि‍यां नि‍कल रही है....
मुहंझौंसे  कहीं के...अपने मने कुछो फैसला कर लेते हैं ये लोग.....जरा भी नहीं सोचते कि‍ कि‍सी के जिनगानी में क्‍या फर्क पड़ेगा एही से. अरे दोजख नसीब हो ऐसे मिनाईन को, अल्लाह गारत करे .....

सलमा आपा को गुस्‍सा आता है तो उनकी पान से रंगी जुबान खांटी देसी लहजे में चलने लगती है और बड़ी-बड़ी आँखें कपार पर चढ़ जाती हैं. उन्‍हें सुनकर कोई यकीन नहीं कर सकता कि‍ वह एक पढ़ी-लि‍खी महि‍ला हैं और कोई सुबह ऐसी नहीं गुजरती जब अख़बार का कोई पन्‍ना उनकी नजर से अछूता जाए.

इस शोर को सुन नसरीन के साथ-साथ घर की तमाम औरतें इकट्ठा हो गईं. क्‍या हुआ– क्‍या हुआ कहते हुए सब सलमा आपा को घेरकर खड़ी हो गई और पूछने लगीं.. ‘’बोलि‍ए न आपी....ऐसे कि‍सको गरिया रहीं सुब्बे सुब्बे. हाँ हाँ बताइएउनके देवर शफीक मियां की दुल्हन सबकी तरफ से बोली कि‍सने क्‍या बि‍गाड़ दि‍या आपका..क्‍या ख़बर आई है ?


इस घर में कई औरतें थीं. दरअसल रफीक मि‍यां का घर-घर जैसा नहीं किसी छोटे-मोटे महल जैसी एक बड़ी हवेली है, चार दालान और तीन मंजिलों वाली जिसका नाम भी एहतेराम मंजिलहै. नसरीन के श्‍वसुर रफीक मि‍यां खानदानी अमीर हैं. ऐसे रईस लोगों का कुनबा भी बड़ा होता है. उन्‍होंने तीन शादि‍यां की हैं. पहली पत्‍नी जवानी में ही गुजर गईं तो बाद में एक के बाद एक दो शादि‍यां कर लीं. वैसे भी इस्‍लाम में चार औरत रखने की इजाजत है. तो तीन बीवि‍यों से कुल मि‍लाकर रफीक मि‍यां की 14 संताने हैं और ख़ुदा की मेहरबानी है कि‍ सब एक ही छत के नीचे रहते हैं. छह बेटे हैं और आठ बेटि‍यां. अल्लाह के फज़ल से सबका नि‍काह हो गया है. छह भाइयों में रेहान सबसे छोटा था. 

सलमा आपा दूसरी बीवी के पहले साहबजादे की शरीके हयात हैं. मैट्रि‍क पास सलमा वैसे तो उम्र में नसरीन से बहुत बड़ी हैं मगर दोनों में बहनापा है. नसरीन रफीक मि‍यां की तीसरी बीवी के छठे और घर भर के सबसे छोटे औलाद रेहान की बीवी है. नसरीन ने संस्‍कृत में बीए कि‍या है महि‍ला कॉलेज चाईबासा से. उसकी दि‍ली ख्‍वाहिश है कि‍ वो एम.ए. की जमात भी संस्कृत से नि‍काल ले और कि‍सी कॉलेज में लेक्‍चरार की नौकरी कर ले. वैसे भी कि‍सी मुस्‍लि‍म लड़की के संस्‍कृत पढ़ने की बात सुनकर लोग-बाग़ उसकी ओर हैरत भरी नजरों से देखते थे और वह ऐसे में बहुत खास होने के अहसास से भर जाती है.

खुदा का करम है कि‍ उसके नाक-नक्‍श खासे तराशे हुए हैं. फिलवक्त उसका ख्‍वाब बस इतना ही है कि‍ वह ज्‍यादा से ज्‍यादा कॉलेज लेक्‍चरर और कम से कम कि‍सी सरकारी स्‍कूल की टीचर बन जाए.

संस्‍कृत भाषा एक ऐसा सब्जेक्ट है कि‍ उसमें नौकरी की जितनी जगहें निकलती हैंउतने टीचर्स नहीं मि‍लते, लडकियां तो और भी कम. इसलि‍ए नसरीन को लगता कि‍ बस उसके कम्‍पीटीशन इम्तिहान में बैठने की देर भर हैवो सेलेक्ट तो यूँ ही हो जायेगी, बस एक बार पढाई पूरी हो जाये. फि‍र वह भी नौकरीपेशा होकर अपनी कमाई हुई खुदमुख्तारी से जिंदगी गुजारेगी. ससुराल वालों पर भी उसका रौब रहेगा. अपनी बाकी फूफि‍यों या आपाओं की तरह चूल्हे फूंकने की बात कभी उसके ज़हन में भी नहीं आती थी. वह इसी ख्‍वाब के साथ रोज सुबह उठती और रात जब अपना बुर्का उतारकर अलमीरे में रखतीतो उसे लगता था कि‍ वह अपना सपना भी हर रात इसी एहति‍यात के साथ उतार कर रखती है और सुबह कॉलेज जाते वक्‍त अपने चेहरे पर उसी सपने को लपेटकर अम्‍मी को खुदा-हाफि़ज कहती हुई नि‍कल जाती.   

नसरीन की कि‍स्‍मत का सि‍तारा उसके परि‍वार वालों के हि‍साब से बुलंदी पर था मगर अब  खुद नसरीन का ऐसा मानना था कि‍ डूब चुका. हुआ ऐसा कि‍ वह सबसे बड़ी दीदी की ननद की नि‍काह में कलकत्‍ता जो अब कोलकाता हैगई. सोचा मौज-मजा कर के आएगी. इसी बहाने कोलकाता घूम लेगी. बहुत सुना है वि‍क्‍टोरि‍या महल के बारे में. एक बार देखने की तमन्‍ना तो बहुत पहले से थी. अब शादी के घर में तो नाते-रि‍श्‍तेदारों की भीड़ लगी ही रहती है. बहुत से लोगों में एक लड़का भी था. यही रफीक़ मियाँ के साहबजादे यानी रेहान, जो नसरीन की दीदी राफि‍या का ममेरा देवर था. शादी की गहमा-गहमी में लड़कि‍यों का सजना-संवरना तो होता ही है.

नसरीन भी सब्‍ज रंग के शरारे में कयामत ढा रही थी नि‍काह वाले रोज़. रेहान की नजरों का तो पता नहीं मगर उसकी अम्‍मी को इतनी पसंद आ गई वो कि‍ रि‍श्‍ता नसरीन की दीदी राफि‍या तक पहुंच गया.

अब दीदी इतनी बड़ी खुशखबरी का सेहरा कि‍सी और के सर क्‍यों बंधने देती. वह झट से अम्‍मी-अब्‍बू को सारी बात बताते हुए यह भी समझाइश दे दी कि‍ इतना अच्‍छा लड़का हाथ से नि‍कल गया तो दुबारा जाने जिंदगी में ऐसा लड़का मि‍ले कि‍ नहीं. दरअसल, उस खानदान में रेहान ही इकलौता ऐसा लड़का था जो ‘बि‍ट्स पि‍लानी’ से इंजनीयरिंग पढ़कर नि‍कला था और अब कोलकाता में एक बड़े सरकारी महकमे में नौकरी कर रहा था. रईस खानदान और इंजीनि‍यर लड़काकौन परि‍वार ऐसा होगा जो मौका चूकेउस पर सामने से चलकर आया रि‍श्‍ता. गोरा चिट्टा रेहान चेहरे-मोहरे से भी दिलकश और स्‍मार्ट था.

सच तो यह है कि‍ नसरीन को कुछ सोचने का मौका ही नहीं मि‍ला और वह चट मंगनी पट ब्‍याह वाले तरीके से दो महीने बाद ही अपने ससुराल में थी. दरअसल, इस रि‍श्‍ते में उसे सबसे अच्‍छी चीज यह लगी थी कि‍ रेहान उसके अपने परिवार का हिस्‍सा नहीं. वह अपनी सहेलियों से हमेशा कहती थी कि‍ मैं जिससे शादी करूंगी वो मेरी मुमानी का बेटा या चचाजाद भाई नहीं होना चाहिए. वह नजदीकी रिश्ते  में बंधने के खि‍लाफ थी. ऐसे घरेलू रि‍श्‍ते से उपजे खि‍चपि‍च से हमेशा उसका सामना होता आया है. इसलि‍ए जब यह रि‍श्‍ता आया तो उसे एक तरह से खुशी हुई थी कि‍ वह अपने परि‍वार की दूसरी लड़कि‍यों से थोड़ी अलग है.  इसलि‍ए वह  बाखुशी शादी के लि‍ए तैयार हो गई और नि‍काह कुबूल कर लि‍या.

जब ससुराल की देहरी पर पांव धरा नसरीन ने तो अपने इस्तकबाल में बहुत सारे लोगों को देखकर उसे तसल्‍ली हुई कि‍ अच्‍छे बात-व्‍यवहार के लोग हैं ससुराल वाले, तभी इतने पड़ोसी जमा हैं. एहतेराम मंजिलकी सीढ़ि‍यां चढ़़ते हुए उसे अपने नसीब पर नाज हो आया. तब उसे पता नहीं था अपने बड़े खानदान के बारे में. रेहान दो बहनों का इकलौता भाई हैइतना ही मालूम था. दूसरे ही दि‍न उसे पता चल गया कि‍ सब के सब उसके अपने घरवाले ही हैं. रेहान की तीनों मां से उसकी आठ ननदें थीं. उसे अपने ससुर पर अचरज हुआ कि‍ वह इतना बड़ा खानदान कैसे चला रहे हैंउस पर सब लोग एक ही छत के नीचे रहते हैं.
 
दुर्गापुर के उसी घर के आंगन में सलमा आपा की गालि‍यों की बौछार सुन सब जमा हो गए. नसरीन ने आपा से कहा–  “अब आप बताएंगी भी कि‍ नहीं आपी... कहीं सालन जल गई तो फि‍र से मेहनत करनी पड़ेगी.”सब आपा की तरफ ही मुखति‍ब थे. आपा ने कहा- “नसरीन तुम खुद ही पढ़ लो.”

नसरीन की सांस हैडिंग देखकर ही अटक गई जैसे और वह एक ही सांस में पूरी खबर पढ़ गई. सलमा आपा अख़बार पढ़ती नसरीन का चेहरा पढ़ रही थी.  उन्‍हें हैरत हुई कि‍ नसरीन के चेहरे पर जैसे अमनो-चैन पसरता  जा रहा  हैजबकि‍ उन्‍हें अंदेशा था कि‍ इस खबर को पढ़कर नसरीन और परेशान हो जाएगी. नसरीन ने एक लंबी सांस भरी और आपा को अख़बार वापस पकड़ाते हुए कहा-

“सलमा आपा...यह तो बहुत अच्‍छी खबर है.”यह कहकर र्निवि‍कार भाव से वह रसोई की ओर चल पड़ी. रसोईघर में गैस की लौ धीमी कर कलछी चलाती नसरीन अतीत में जा पहुंची...

वह नि‍काह के बाद ससुराल में पहली रात थी. भरे-पूरे परि‍वार में सबसे मि‍लते-जुलते वह बुरी तरह थक गई थी. उसे अपने फूलों भरे बि‍स्‍तर को देखकर नींद आने लगी मगर इंतज़ार था रेहान काजो अपने यार-दोस्‍तों की चुहलबाजि‍यों में व्‍यस्‍त थे. लगता था रेहान के दोस्‍त आज उसे आने नहीं देंगे. इंतजार करती नसरीन कब नींद के आगोश में चली गईउसे पता भी नहीं चला.

सुबह जब नींद खुली तो पाया कि‍ वह रात वाले भारी पहनावे के साथ अपने बि‍स्‍तर पर है और सामने सोफे पर रेहान गहरी नींद में है. नसरीन को अफसोस हुआ कि‍ वह ऐसे कैसे सो गईमगर दूसरी तरफ रेहान का शांत और सरल चेहरा देखकर प्‍यार उमड़ आया कि‍ कि‍तना अच्‍छा शौहर मिला है उसे जो पहली रात से ही इस बात का ख्‍याल रख रहा कि‍ उसकी नींद में खलल न पड़े. 

नसरीन उठकर गुसलखाने गई और नहा के तैयार होने के बाद रेहान को उठाया. वह चाय लेकर आई थी. रेहान एक बार अचकचा गए उसे देखकर, फि‍र कहा - रात आप इतनी गहरी नींद सो रही थीं कि‍ जगाने की इच्‍छा नहीं हुई.‘’ ‘’शुक्रि‍या’’ शर्मीली सी मुस्कराहट  के साथ नसरीन ने जवाब दि‍या. फि‍र पूछा- 
“आपने मेरे सो जाने का बुरा तो नहीं माना. माफ़ कीजि‍एगामैं बहुत थक गई थी.”
“माफी की क्‍या बात है इसमें. मैं भी समझ सकता हूँ कि शादी-ब्‍याह में कि‍तनी थकान हो जाती है. ‘’

नसरीन ने महसूस कि‍या कि‍ रेहान बहुत अच्‍छे स्‍वभाव के थे और पूरा परि‍वार भी कमोबेश ठीक था. दूसरे दि‍न जब उसकी सास ने कहा – “बहू... यहां तुम्‍हारी सलवार नहीं चलेगी. तुम्‍हें शरारा पहनना होगा.” उसने सर झुकाकर बात मान ली मगर इससे बहुत असुवि‍धा होती थी.

चूंकि‍ नौकर-चाकर के होने के बाद भी खाना बहुएं ही बनाती थी सो उसे रसोई का काम भी करना पड़ता और इसमें शरारा पहनने से बहुत दि‍क्‍कत होती. मगर रेहान ने समझाया कि‍ अभी नई-नई होसबकी नजर तुम पर है. कुछ दि‍न पहन लोफि‍र सब ठीक हो जाएगा.

नसरीन ने बीए फाइनल इयर की परीक्षा दे दी थी. उसका रि‍जल्‍ट दो-एक महीने में आ जाता फि‍र उसे प्री. पी.जी. इम्तिहान की तैयारी करनी थी. उसने इस बारे में रेहान से बात कर ली थी और कह दि‍या था कि‍ वह जिंदगी में आगे कुछ करना चाहती है. महज़ खाना पका-खाकर जिंदगी नहीं गुजारनी उसे. इसलि‍ए रेहान उसे पढ़ने से नहीं रोके और अपने अम्‍मी-अब्‍बू को मनाने का काम भी उसी का है. रेहान की हां थीक्‍योंकि‍ वह पढ़ा लि‍खा था और तालीम की अहमियत समझता था. वह नसरीन से कहता कि‍ “कुछ दि‍न यहां रह लो फि‍र मैं तुम्‍हें अपने क्‍वार्टर कोलकाता ले जाऊंगा. वहां तुम अपनी मर्जी से पढ़ाई करना और कपड़े भी अपने मुताबि‍क पहनना.”

नसरीन इस वादे से खुश हो जाती. रेहान वास्‍तव में उसे प्‍यार करता और हर शनि‍वार कोलकाता से घर दुर्गापुर आने पर छुपाकर उसके लि‍ए कोई न कोई तोहफा लाता. वैसे तो दुर्गापुर कोलकाता के मुकाबले  छोटा शहर है,  मगर नसरीन के लॉंग ड्राइव के शौक को पूरा करने के लि‍ए उसे हर इतवार को अपनी एस यू वी में जरूर घुमाने ले जाता. शादी के बाद दोनों एक सप्‍ताह के लि‍ए दीघा गए थे हनीमून के लि‍‍ए. सब कुछ अच्‍छा था. रेहान बहुत ध्‍यान रखता. दोनों सारा दि‍न घूमतेसमुद्र में अठखेलि‍यां करते मगर रात को जब लौटकर आतेरेहान बि‍स्‍तर पर पड़ते  ही सो जाता. दो दि‍न तो ऐसे ही नि‍कले..फि‍र तीसरी रात लौटकर डि‍नर करते वक्‍त नसरीन ने पूछ लि‍या रेहान से

“रेहान..आपको मैं पसंद तो हूं न
 ?’’    
“हां, पर ऐसे क्‍यों पूछ रही हो?‘’ रेहान ने सवाल कि‍या.
“नहीं..बस ऐसे ही. आप अभी तक मेरे करीब नहीं आए..’’ नसरीन की आवाज़ में हल्की-सी झिझक थी.

रेहान ने उसकी नर्म हथेलियों को हौले से अपने हाथों में थाम लिया था – “अभी तो हमारी जिंदगी शुरू हुई है. पहले हम एक- दसरे को ठीक से समझ तो लें..’’  

नसरीन खुश हुई कि‍ रेहान महज एक मर्द ही नहीं, ज़हीन इंसान भी है. नहीं तो बाकी शौहर तो शादी के बाद बस......  उन दोनों ने हनीमून खूब इंज्‍वाय कि‍या. वापसी के बाद रेहान को अपनी नौकरी पर कोलकाता वापस जाना था. सब बातें तो ठीक थीं मगर नसरीन रेहान के साथ एकांत  के लि‍ए तरस कर रह जाती. हर शनि‍वार आता रेहान और सोमवार सुबह चला जाता. रेहान जब घर आता तो सबके बीच घि‍रा रहता. रात को जब दोनों मि‍लते तो  सप्‍ताह भर की बातें सुनाता और थका हूं सफर से”,  कहकर सो जाता. रवि‍वार को वह दोस्‍तों से मि‍लने चला जाता मगर देर शाम नसरीन को लॉंग ड्राइव पर ले जाना नहीं भूलता. डि‍नर अमूमन वो बाहर ही करते. आते हुये रात को देर हो जाती और लौटते ही सो जाते. 

अतीत की गलियों से बाहर खींच लाई उसकी छोटी ननद की बेटी नाज ने. ठुनकती हुई रसोई में नाज अपनी गुड़ि‍या के साथ आई और उसका दुपट्टा पकड़कर शि‍कायत करते हुए कहा – “मामी.. मेरी गुड़ि‍या के बाल बना दो न..उलझ गए हैं. मुझसे नहीं बन रहे. अम्‍मी गंदी हैमेरी बात नहीं सुनती.”

नसरीन ने उसका सर सहलाते हुए कहा – “लाओ..मैं बना दूं तुम्‍हारी गुड़ि‍या की चोटी.” उसने गैस का नॉब कम कि‍या और नाज को प्‍यार कर उसकी गुड़ि‍या को संवार कर दे दि‍या.  

उसके सामने जीवन के पि‍छले पन्‍ने अब भी फड़फड़ा रहे थे...  

उन दि‍नों उसका सारा वक्‍त रसोईघर और अपनी गोतनि‍यों के कि‍स्‍सों में कटने लगा था. उसे उम्‍मीद थी कि‍ जल्‍दी ही यहां सब छोड़कर वह रेहान के पास चली जाएगी,  जहां उजला कल उसका इंतजार कर रहा. उसे सोमवार से जुम्‍मे रात तक रेहान का इंतजार होता और उसके बाद कोई दुनि‍या नहीं दि‍खती. रेहान भी दो दि‍नों तक पूरा वक्‍त और प्‍यार देतामगर आज तक उसे वह नहीं मि‍ला जि‍सका इंतजार शादी के बाद हर लड़की को रहता है. वो आज तक कुंवारी ही थी.

नसरीन को बच्‍चों से लगाव था. तब यह नाज और छोटी थी. ऐसे ही एक दि‍न वह नाज के छोटे-छोटे कदमों पर मुग्‍ध होती हुई उसके  पीछे घर के दूसरी तरफ चली गई. उस कोठे की बनावट ऐसी है कि‍ एक बड़े से आंगन के चारों तरफ कई कमरे बने हुए थे. सबका दरवाजा आंगन में खुलता. कमरे पास-पास ही थे और एक गोल चक्र की तरह सबकी शादी होती गई और सभी कमरे आबाद होते गए.  घर के अंदर आते दाहि‍नी तरफ का पहला कमरा सबसे बड़े बेटे - बहू को मि‍ला. इसी तरह अंति‍म कमरे में नसरीन रहती थी.

बड़े होते बच्‍चेजो मां के साथ नहीं सोतेउनके लि‍ए ऊपरी तल्‍ले में कमरे बने थे. कई तो बंद ही हैं. कुछ स्‍टोर रूम के काम आते हैं तो कई कमरे बेटि‍यों को मायके आने पर खुलते. बड़ी और छोटी बहू के कमरे के बीच वाली जगह पर रसोईघर था. लगता है रेहान के दादा जी जब मकान बना रहे होंगे तो उनके मन में यह बात रही होगी कि‍ रसोई सामने रहने से सबके बीच बात-व्‍यवहार बना रहेगा. इसलि‍ए मकान की ऐसी बनावट है.

मगर घर के पीछे की तरफ अलग तरह की बसावट थी. पश्‍चि‍म की तरफ से रास्‍ता खुलता था. अगर कोई सदर दरवाजे से अंदर न आने चाहे या बहुओं से पर्देदारी का ख्याल हो तो वह पीछे के दरवाजे से अन्दर आ सकता था. उधर एक खुला आंगन था. वहां रफीक बैठकर धूप का आनंद लेते. कई बार उनके हमउम्र लोगों की महफि‍ल भी जमती थी उधर. पांच कमरे थे पास-पास. दो कमरों में उसकी दोनों सास रहती थीं. बीच में ससुर का कमरा और फि‍र उसके बाद दो और कमरे जो सदा बंद ही रहते. 

नाज के पीछे-पीछे आंगन में घूम रही थी नसरीन भरी दोपहर में. अचानक देखा कि‍ उसके ससुर का कमरा खुला और वहां से महरी नि‍कली जो घर में बर्तन मांजने का काम करती थी. नसरीन को बड़ी हैरत हुई कि‍ यह महरी उसके ससुर के कमरे में क्‍या कर रही थी. उसने उसे रोककर पूछा- तुम क्‍या करने गई थी थी उनके कमरे में ?  

महरी ने हंसी दबाते हुए कहा- “दुल्हि‍न ...तुम्‍हारे ससुर को तेल लगाने गई थी. उनके बदन में दर्द रहता है न!” महरी ने तेल का कटोरा हाथ में पकड़ा था. बहुत अजीब बात लगी नसरीन को कि‍ उसके ससुर एक औरत से मालि‍श करा रहे हैं. अच्‍छा नहीं लगा उसे और तय कि‍या कि‍ रेहान जब आएगा तो उसे यह बात बताएगी. शनि‍वार रात जब रेहान से मुलाकात हुई तो उससे सब कह दि‍या. कहते समय वह रोष में थी ...”बोलि‍ए रेहान... क्‍या ये शरीफ घराने के तौर-तरीके हैंक्‍या असर पड़ेगा घर के बच्‍चों पर इसका.‘’ वह बोले जा रही थी और रेहान उस की बातों से बेपरवाह टीवी पर नि‍गाहें गड़ाए हुए था.

झुंझला गई नसरीन.... “आपको कुछ सुनाई पड़ रहा है कि‍ नहीं ?’’
उदासीन भाव से  रेहान ने  कहा – “तुम्‍हें अचरज  हो रहा होगामेरे लि‍ए नई बात नहीं. बचपन से देखता आया हूं. उनके शौक ही कुछ ऐसे हैं.
“इसका मतलब... इसका मतलब...आपकी अम्‍मी भी जानती हैं ये बात....’’ हैरत भरी आँखें फाड़कर हकलाते हुए नसरीन बोली.
“हां...सब जानते हैं और मर्दों के लि‍ए यह आम बात है. मेरे दादा जी की मालि‍श भी औरत ही करती थी.”

झटका लगा था नसरीन को रेहान के जवाब से. उसे यकीन था कि‍ जब रेहान को इन बातों का पता चलेगा तो वह अब्‍बू को उनकी हरकतों के लि‍ए मना करेंगे. मगर.....रेहान तो इतने समझदार हैं. वह औरत के मन को समझते हैं
इसलि‍ए तो मेरे साथ एक आशिक की तरह पेश आते हैं. कभी जिस्म की बात नहीं होती हमारे बीच. फि‍र ऐसा आदमी अपनी मां और उनके हकूक को इस तरह बंटता देखकर कैसे चुप रह जाता है. उस पर अपने अब्बू की तरफदारी भी कर रहे हैं.

उस दि‍न नसरीन के मन में पहली बार शक़ का बीज पड़ा. उसे लगने लगा कि‍ कहीं रेहान कि‍सी और को तो पसंद नहीं करते. उनकी यह शादी जबरदस्‍ती की तो नहीं है. उनकी जिंदगी में कोई और औरत तो नहींजि‍स कारण आज तक उसके जि‍स्‍मानी ताल्‍लुकात नहीं बने.

उन्‍हीं दि‍नों सलमा आपा से उसकी नजदीकि‍यां बढ़ी. एक रोज बातों-बातों में नसरीन ने कहा– “आपाआप तो तब से जानती हैं न रेहान कोजब वो कॉलेज में थे. उनका कि‍सी से अफेयर तो नहीं था. मुझे बताइए न !’’  
“मुझे तो ऐसी कोई जानकारी नहीं छोटी दुल्हन... मैंने कभी नहीं सुना कि‍सी लड़की के बारे में. ऐसा होता तो घर में जरूर बात होती.”  उन्होंने दिलासा दिया .
नसरीन जवाब से पूरी तरह मुतमईन नहीं हुई. मगर ऐसा कुछ नजर नहीं आता कि‍ वह शक करे. रेहान नि‍यमि‍त रूप से शनि‍वार रात आता और सोमवार सुबह चला जाता. उसने जि‍द की कोलकाता चलने की, तो कहा कि‍ कुछ दि‍नों में ले जाऊंगा. अभी बहुत छोटा फ्लैट है.

वाकई यह बात सच थी. एक बार रेहान नसरीन और अपनी बहन रजि‍या, नाज की मां को ले गया था कोलकाता घुमाने. एक बेडरूम के फ्लैट में रहता था वो. नसरीन को भी लगा कि‍ एक छोटे से कमरे में रहने पर उसका दम घुट जाएगा. इसलि‍ए अब वह जि‍द करने लगी कि‍ कोई बड़ा फ्लैट ले ले रेहान कि‍राए परतब वह जाए. 

शादी के तीन महीने गुजर गए थे. नसरीन को मायके की याद सताने लगी तो रेहान आया था उसे छोड़ने. घर में खूब मेहमानवाजी हुई उसकी. कुछ सहेलि‍यां भी मि‍लने आई उन दोनों से. मायके में अपने भाई-बहनों के साथ नसरीन का खूब मन लगता. यहां वह अपने मन से कपड़े पहनती और खूब आराम करती. कभी-कभी सहेलि‍यों से मि‍लने चली जाती या फि‍र बच्‍चों के साथ फि‍ल्‍म देखने या घूमने. मायके-सा सुख ससुराल में कहां ?

संयोग से उन्‍हीं दि‍नों उसकी सहेली अपूर्वा भी आई हुई थी मायके. दोनों की बहुत अच्‍छी दोस्‍ती थी कॉलेज के दि‍नों में. जब मि‍लीं तो अपूर्वा छेड़ने लगी उसे...’’ बताओ...सब ठीक है न ... वो सब?

जवाब में फीकी मुस्‍कान उभरी नसरीन के चेहरे पर. अपूर्वा ने नसरीन को टटोला “बता क्‍या बात है...नई शादी की उमंग तेरे चेहरे पर दि‍ख नहीं रही. ससुराल में सब ठीक तो है रेहान प्‍यार करते तो हैं?
उसने कहा – “हांप्‍यार बहुत करते हैं. मगर आज तक हमारे बीच कोई जि‍स्‍मानी ताल्‍लुक नहीं बना.”  फि‍र पहली रात से आज तक की सारी दास्‍तान सुना दी उसे. हैरत हुई अपूर्वा को.
उसने कहा – “कोई कि‍तना भी रोमांटि‍क होतीन महीने गुजर गए. कुछ गड़बड़ है जरूर. तू पता कर. कोई अफेयर तो नहीं ?’’ 
जब नसरीन ने कहा कि‍ ऐसा कुछ नहींतो उसने कहा- ”फि‍र ऐसा कर..अपनी तरफ से पहल कर. कह अपने शौहर को कि‍ तुम्‍हें जरूरत है. न कह पाओ तो कहना-


आपकी अम्मी कह रही है कि‍ जल्‍दी पोता चाहि‍ए उन्हें. तुझे बच्‍चों से प्‍यार हैसब जानते हैं. तू कोई भी बहाना कर और अपनी जरूरत जता. ऐसे काम नहीं चलेगा.

अपूर्वा समझाकर चली गई. नसरीन के मन में शक ने पैर पसारना शुरू कर दिया था. उसे यकीन हो चला कि‍ जरूर कोई न कोई बात है. कहीं ऐसा तो नहीं कि‍ कोलकाता में कोई और लड़की होजि‍सके साथ रेहान रहते हों और यहां दि‍खावे के लि‍ए आते हैं. बेचैन रहने लगी नसरीन. उसे लगने लगा कि‍ अब बात करनी ही पड़ेगी खुलकर.

पन्द्रह दिनों के बाद वापस आई नसरीन अपने ससुराल. सब कुछ वैसा ही चल रहा था. उसे इंतजार था शनि‍वार का जब रेहान आएं. सोच लि‍या था कि‍ कुछ पूछने से पहले वह अपनी तरफ से पहल करेगी. देखे तो सहीक्‍या रि‍स्‍पांस मि‍लता है. क्‍या पताझि‍झकते हों रेहान.

देर शाम आए रेहान. दोनों में खूब बातचीत हुई और सोने चले गए. रेहान तो आराम से सो गए मगर नसरीन करवटें बदलती रही. कई बार इच्‍छा हुई कि‍ रेहान को जगाकर अपने मन की बातें करे. पर यह सोचकर कि इतनी दूर से आए हैं... थके होंगे... मन मसोसकर रह गई नसरीन. 

रवि‍वार सुबह हमेशा की तरह रेहान अपनी मि‍त्रमंडली में चले गए. नसरीन सारा दि‍न इंतजार करती रही. आज उसे बात करनी थी इसलि‍ए उसे यह इंतजार बर्दाश्‍त नहीं हो रहा था. 

शाम होने को थी.  जब रेहान लौटे, नसरीन कमरे में नहीं थी. उसे ढूंढने लगे तो पता लगा वह छत पर है. सीढ़ि‍यों के बगल में एक कमरा था जो स्‍टोर के काम आता था. कभी-कभी शाम की चाय वो दोनों वहीं पी लेते थे. रेहान को पता था कि‍ नसरीन छत पर नहीं होगी, तो उस कमरे में जरूर होगी. सर्दियों के दि‍न थे. छत पर पूरी धूप उतरती थी और जब शाम नीचे का सारा घर ठंढा हो जाता तो ऊपर वाला वह कमरा हल्‍का गर्म रहता. रेहान ने ही बताया था नसरीन को कि‍ जब उसे अकेला  रहने का मन होता तो वह उस कमरे में चला जाता.

सीढ़ि‍यों पर नीम अंधेरा था. कमरे का दरवाजा खुला था पर बत्‍ति‍यां बुझी थी. नसरीन- नसरीनकी आवाज लगाता हुआ वह कमरे के अंदर गया. कोई जवाब नहीं मि‍ला उसे. लगा कि‍ नसरीन यहां नहीं है. तभी कि‍सी ने अचानक पीछे से उसे बाहों में जकड़ लि‍या था. 

ओह... तुमने तो मुझे डरा ही दि‍या...” नसरीन को खींच कर आगे करते हुये रेहान ने बत्ती जला दी थी. 

रौशनी में उसे देखकर सहम सा गया रेहान. नसरीन ने बहुत झीना कपड़ा पहना था. ऐसे कपड़े कभी नहीं पहनती. रेहान ने समझते हुये भी नासमझ बने रहने की कोशिश की –“चलो नीचे चलते हैं, यहां बहुत सर्दी है.” 

कुछ नहीं कहा नसरीन ने. बस बिजली की-सी फुर्ती के साथ जोर से लि‍पट गई रेहान से. क्‍या  पागलपन है नसरीनइस तरह छत में ऐसे कपड़ों में हो. सर्दी खा जाओगी. चलो अब कमरे में. रेहान ने नसरीन के हाथों को हौले से खुद से अलग करने की कोशिश की.

नसरीन ने नहीं छोड़ा उसे. धीरे से उसकी कानों में बुदबुदाने लगी... “रेहान... मुझे प्‍यार करोकरीब आओ.नसरीन की आंखें बंद थीं और उसकी फुसफुसाहट अंधेरे कमरे में बहुत साफ-साफ फैल रही थी... कितनी बार अकेले में अभ्यास करने के बावजूद वह अपने व्यवहार के स्वाभाविक दिखने के प्रति भीतर से आश्वस्त नहीं थी... उसके शब्दों में एक ओढ़ी हुई लरज थी... पर यह सब इतना औचक और अनायास था कि रेहान समझ नहीं पाया... नसरीन की हरकतें उसके लिए अप्रत्याशित थी.  

रेहान जड़ खड़ा रहा..न हि‍ला न आगे बढ़ा. नसरीन आवेग में थी, उसने बहुत मुलायमि‍यत से रेहान के दोनों हाथों को खींचकर अपने गुदाज सीने पर रखते हुये एक मीठा-सा दबाव बनाया ही था कि‍ रेहान ने ऐसे अपना हाथ खींच लि‍या जैसे बि‍जली का करंट लगा हो....

कोई सपना टूटा हो ... अचानक किसी सहरा में रेत का तूफ़ान उठा. एक हाहाकार सा.. दरिया उफान पर था.. थमी हुई कायनात में शोर उठा हो जैसे .... बि‍फर पड़ी नसरीन...
क्‍यों..क्‍यों दूर रहते हो मुझसे...क्‍या मैं पसंद नहीं हूं?’ क्‍या कमी है मुझमें...बोलो” उसे झिंझोड़  रही थी वह. 

ऐसी कोई बात नहीं...” रेहान  की सहमी हुई आवाज बहुत धीरे से उभरी...बहुत कोशिश के बाद कोई बात बाहर आए जैसे. 

फि‍र क्‍यों...क्‍या आपकी जिंदगी में कोई और औरत है ? आप कि‍सी और को प्‍यार करते हो तो बता दो. आखि‍र ऐसा क्‍या है कि‍ आप पास नहीं आते.” बोलते-बोलते हांफने लगी थी नसरीन. 

रेहान की आवाज़ में जैसे मिमियाहट-सी उतार आई थी- “नहीं नसरीन..कोई और नहीं मेरी जिंदगी में...प्‍लीज समझो तुम” 

नहीं समझ आता मुझे...आखि‍र क्‍यों रेहान...हमारा रि‍श्‍ता ऐसा क्‍यों हैं. आपको आज मुझे जवाब देना ही होगा.” जि‍द पर उतर आई थी नसरीन. 

रेहान सूनी नि‍गाहों से उसकी ओर चुपचाप देखता रहा...रोती नसरीन से केवल इतना कहा - अभी तुम बहुत गुस्‍से में हो.... हम फि‍र बात करेंगे. ठंढ बढ़ रही हैनीचे चलो. रेहान ने नसरीन का हाथ थाम पर जरा खींचा ही था कि‍ गुस्‍से में आकर जोर का धक्‍का मारा उसने.
मायूस नजरों से देखता हुआ रेहान नीचे चला गया.

अपमान और ठुकराए जाने का ज़ख्म  सीने पर लि‍ए नसरीन सारी रात सुलगती रही. औरत के लि‍ए सुनना बहुत मुश्किल होता है. अपनी मांग की बेईज्ज़ती बर्दाश्‍त नहीं कर सकती वह.
अपने कमरे में नहीं गई. उसे लगने लगा कि‍ ऐसे साथ का क्‍या मायने हैं. जब रेहान की जिंदगी में उसका कोई वजूद ही नहीं तो वह यहां रहे या कहीं और....क्‍या फर्क पड़ता है.


सुबुकती नसरीन को यह ख्‍याल बार-बार आता रहा कि‍ जरूर ये बेमन की शादी है. रेहान के जीवन में कोई और है जि‍सने उस से करार लिया है कि‍ अपनी बीवी से जि‍स्‍मानी ताल्‍लुक बनाना भी उसके लि‍ए गुनाहे अज़ीम है. जो भी हो..आज या कलसच जानकर कर रहेगी वोइस रात उसने खुद से वादा कि‍या.

उस दि‍न के बाद उन दोनों के रि‍श्‍ते में खिंचाव आ गया. नसरीन ने खुद को एक खोल में बंद कर लि‍या. वह घुटने लगी थी. पहले रेहान प्‍यार से पेश आता था, उसे घुमाने ले जाता थामगर इन दि‍नों घर आने पर एक दूरी रहती. बि‍स्‍तर पर भी कोई बात नहीं होती. नसरीन उस दि‍न का अपमान नहीं भूली थी. अब वह चौकन्‍नी हो गई. रेहान के हर क्रि‍याकलाप पर उसकी नजर होती. वह खुद को दूर रख कर रेहान को अहसास दि‍लाना चाह रही थी कि‍ नाराज है उससे. 

अब रेहान हर शनि‍वार न आकर पन्‍द्रह दि‍नों में आने लगा था. घर के लोग भी इस खिंचाव से अनजान नहीं थे. सलमा आपा ने पूछा भी कई बार कि‍ सब ठीक है न. जवाब में नसरीन सर की जुम्बिश से खामोश हामी भर देती. 

ऐसे ही एक शनि‍वार  रेहान आया एक लड़के को लेकर. बताया कि‍ उसके ऑफि‍स में नया आया है. उसे दुर्गापुर आने की बहुत इच्‍छा थी इसलि‍ए साथ ले आया. गोरा और खूबसूरत लड़का. अगर औरतों के लिबास पहन ले तो बि‍ल्‍कुल लड़की दि‍खेऐसा पहली बार उसे देखकर नसरीन के मन में ख्‍याल आया. उसे बचपन में देखे गए रामलीला वाली सीता की याद हो आई. बि‍ल्‍कुल ऐसा ही जनाना चेहरा था उस आदमी का जो हर बार सीता बनता.

रामलीला के बाद भी बच्‍चे उस सीता बने आदमी को सीता-सीता चि‍ढ़ाते हुए घूमते थे. रेहान ने उसे नसरीन से मि‍लाया- ये सज्जाद  है...मेरा दोस्‍त. दो दि‍न मेरे साथ रहेगा. इसे अपना शहर घुमाना है. तुम भी साथ चलना.”  नसरीन भी मान गई. वैसे भी दोनों के बीच पसरा सन्‍नाटा ज्‍यादा घना होने लगा था इन दि‍नों. दो दि‍नों तक रहा सज्जाद और खूब घूमे वो लोग. नसरीन को भी अच्‍छा लगा. जिंदगी की एकरसता से उब गई थी वो. सज्जाद हंसमुख लड़का था.

धीरे-धीरे सज्जाद ने घर के अनि‍वार्य सदस्‍य के रूप में जगह बना लि‍या. अब अक्‍सर रेहान के साथ आने लगा सज्जाद. घर में इससे कि‍सी को कोई फर्क नहीं पड़ता  हांएक दो बार सलमा आपा ने जरूर टोका - "ये मुआ सज्जाद हरदम क्‍यों चला आता है घर में. इसे भगाओ. दाल-भात में मूसलचंद.

नसरीन हंस पड़ी - "रेहान के दोस्‍त हैं आपा. उनका घर बहुत दूर है. एक दि‍न के लि‍ए जा नहीं सकते इसलि‍ए आ जाते हैं अक्‍सर.  

सलमा आपा ने कहा- क्‍या हैकि‍ इसके जनाना चाल-चलन मुझे नहीं सुहाते. इसकी चाल देखी है तूने ? कैसे मटक-मटक कर चलता है.”    

आप भी न आपा...कोई लड़की होती तो मुझे डर भी होता. एक लड़के से क्‍या डर. और मेरे सामने तो बहुत इज्‍जत से पेश आता है. रहम खाओ इस पर” कहते-कहते नसरीन जोर से हंस पड़ी.
मगर सलमा आपा हंस नहीं पाई. दि‍न गुजरते गए. 
नसरीन जि‍न हालात से गुजर रही थीउसे लगता कि‍ उसकी जिंदगी बेकार हो गई है. जब बहुत घबराहट होने लगी तो रेहान से कहकर दस दिनों के लिए अपने मायके आ गई.
मुश्‍कि‍ल यह थी कि‍ सब बातें अपने खानदान में कि‍सी से बता नहीं सकती. बेकार बात बढ़ जाएगी. उसके मन में था कि‍ जरूर कोई औरत है उसकी जिंदगी में. वह प्‍यार से पूछ लेगी एक न एक दि‍न रेहान से. 
ऐसे ही एक शाम वह सहेलि‍यों के साथ बि‍ताकर देर से घर लौटी. अम्‍मी ने कहा- तेरी सलमा आपा का फोन आया था दो बार. बात कर लेना.नसरीन थोड़ा घबराई कि‍ क्‍या बात हुई. ऐसे तो कभी फोन नहीं करती आपा. और उधर रेहान से दो-तीन दि‍न के अंतराल में बात हो ही जाती थी. जाने ऐसी क्‍या बात हो गई. कहीं आपा बीमार तो नहीं ?  

तमाम तरह की हैरानियों के दरमियाँ  उसने फोन मि‍लाया. सलमा आपा ने कहा ”सुनो नसरीन..जल्‍दी  लौट आओ. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा. नसरीन ने पूछा’- “क्‍या हो गया आपा. वहां सब ठीक तो है न. ससुर जी नई शादी तो करने नहीं जा रहे? “ 

यह कहते हुए नसरीन की आंखों में वह दि‍न कौंध गया जब उसने देखा था कि‍ करीमा की मां पीछे दालान में झाडू लगा रही थी और उससे ससुर रफीक मि‍यां बड़े गौर से उसे देख रहे थे. जब वह वापस आने लगी तो उसका आंचल पकड़कर अपनी ओर खींचने लगे. तभी नसरीन को सामने देख झट छोड़ दि‍या आंचल और बोले- “जरा ढंग से कपड़े संभाल कर चलो करीमा की अम्मी. देखो मेरी कुर्सी में फंस गया. 

नसरीन के जेहन में यह सब बात चल ही रही थी कि‍ उधर से आपा ने कहा ” ससुर की बात जाने दे. सब जानते हैं उनके ऐब. तू तो आकर अपने रेहान को देख. तुम नहीं हो फि‍र भी वह सज्जाद को लेकर आया है. इस बार दोनों घर में ही घुसे रहते हैं. देख छोटी...कहीं बात कोई और न हो.

नसरीन इशारा समझ रही थी सलमा आपा का. वह यह भी जानती है कि‍ पूरे परि‍वार में उसे कोई प्‍यार करता है तो वह सलमा आपा ही है. इसलि‍ए उसकी ज्‍यादा फि‍क्र करतीं है. उसने सोचा कि‍ इस बार वापस जाकर रेहान से बात करेगी. कहेगी कि‍ जब घर वाले उनकी दोस्‍ती को गलत नि‍गाह से देख रहे है तो हर छुट्टी में उसे यहां न लाया करे.   

नसरीन दस दिनों के बजाय छह दि‍नों में ही अपने भाई के साथ मायके से वापस आ गई. इस बीच झगड़े का असर कम होने लगा. दोनों में ठीक-ठाक बातचीत होने लगी थी. रेहान को पता लगा तो उसे हैरानी हुईपर नसरीन ने कहा कि‍ मन नहीं लग रहा था आपके बि‍नातो रेहान को तसल्‍ली हुई. उसके पूछने से पहले ही रेहान ने कहा कि‍ मेरा भी मन नहीं लगता तुम्‍हारे बि‍न. इसलि‍ए इस बार जि‍द करके मैं सज्जाद को ले आया. वो आना नहीं चाह रहा था. नसरीन को भी तसल्ली हो गई. 

महीने भर बाद उसे अपनी फूफी सास के घर जाना पड़ा. उनके बेटे की शादी थी. रेहान के अब्‍बू-अम्‍मीबड़ी अम्‍मी और दो भाई के साथ उनकी पत्‍नि‍यां और रेहान अपने पूरे परि‍वार को लेकर गया. इस बार  सज्जाद भी साथ था. रेहान ने बताया कि‍ उसे नि‍काह देखना पसंद हैइसलि‍ए साथ जाना चाहता है.  चूंकि‍ पूरे परि‍वार के साथ जा रहा था,  इसलि‍ए नसरीन को कोई भी शुबहा नहीं हुआ. सब लोग चार दि‍न वहां रहे.  वहां सारी औरतें एक साथ अंदर के कमरे में सोतीं और सारे मर्द बाहर वाले कमरे में.

वापसी से एक दि‍न पहले की बात है. रात को फूफी सास ने नसरीन को बुलाया और पूछा -  
“नसरीन बि‍टि‍या बता तोये सज्जाद कैसा दोस्‍त है रेहान का?’’  
नसरीन बोली- “उनका कुलीग है फूफू. साथ काम करते हैं.”

तो उसे साथ-साथ लेकर क्‍यों घूमता है ये रेहान?’’ फूफी की आंखों में सवाल और शक के रेशे एक ही साथ उभर आए थे...  नसरीन खामोश थी. उसे जो रेहान ने कहा थावही दुहरा दि‍या.
“तू बच्‍ची है अभी. दुनि‍या नहीं देखी है. मामला कुछ गड़बड़ लगता है. छोटी दुल्हन, जरा ध्‍यान दो नहीं तो तुम्‍हारी गृहस्‍थी तबाह हो जाएगी.” फूफी की चिंताएँ उनके शब्दों तक आ पहुंची थीं.
इस बार नसरीन के भीतर भी डर ने अपने पैर फैलाये थे...  सलमा आपा ने भी यही कहा था फूफी...पर कैसे, क्‍या है ये. मैंने कुछ तो ऐसा नहीं देखा. रेहान कुछ बताते नहीं. कहीं पैसे लेने के चक्‍कर में तो नहीं चि‍पका रहता यह ”.

बुआ बोली – “सुन...कड़ी नजर रख इस पर. मैं अपने खानदान के लोगों को जानती हूं. दादा - परदादा की बात भी खूब सुनी है. और ये रेहान....इसका बचपन तो मेरे आंखों में गुजरा है. जब ये स्‍कूल में था तो एक लड़के के साथ इसकी खूब दोस्‍ती थी. रात-बि‍रात साथ रहते थे ये... ‘’

बुआ ज़रा और करीब आई और फुसफुसाते हुए नसरीन के कान में बोली- “एक बार उसे पकड़ा भी था लोगों ने उसी दोस्‍त के साथ खेत में. बात भाईजान तक पहुंची. मार भी खाया था इसने. इसकी संगति‍ छुड़ाने को ही भैया ने इसे बाहर पढ़ने भेज दि‍या. तब से कुछ नहीं सुना. फि‍र तुझसे शादी हो गई तो लगा सब ठीक है. बचपन की भूल थीसुधार ली इसने. मगर अब वक्‍त रहते संभाल ले. बाद में पछताने से बेहतर है समय रहते संभल जाना.” 

नसरीन को यकीन नहीं हो रहा था अब भी. उसने इस तरह से तो कभी सोचा ही नहीं. फि‍र भी अब जब दो लोगों ने एक बात कही तो वह नजर रखेगीइसका फैसला कि‍या उसने. नसरीन को वि‍श्‍वास है कि‍ गलत नि‍कलेगा सबका अंदेशामगर कम से कम उसे तसल्‍ली तो हो जाएगी.

उस दि‍न रवि‍वार था.  रेहान इस बार भी सज्जाद के साथ आया था. नसरीन सलमा आपा के साथ बाजार नि‍कली. ईद की तैयारि‍यां जोरों पर थी. अपनी पसंद के सलवार-कमीज के कपड़े लेकर तुरंत दर्जी को दे देना था क्‍योंकि‍ भीड़ अधि‍क होने से समय पर सि‍ल कर नहीं मि‍लते कपड़े. सो रेहान को कहकर वह दो घंटे के लिए बाहर निकाल गई. रेहान बोला- “ठीक है, तुम जब आओगी तब हम साथ खाना खाएंगे.

वह खुश-खुश सलमा आपा के साथ गई क्‍योंकि‍ आज उनलोगों को रि‍क्‍शा में जाना था. नसरीन को खुली हवा में घूमना पसंद है और उसकी इस इच्‍छा को आज सलमा आपा पूरी करने वाली थी.. उसने सलमा आपा को बोला भी कि‍ आपके साथ मुझे ऐसा लगता है कि‍ मैं अपनी सगी बहन के साथ हूं. आपने बहन की कमी पूरी कर दी.


वो दोनों खरीददारी में व्‍यस्‍त ही थी कि‍ अचानक नसरीन के पेट में मरोड़ उठने लगे. कुछ देर तो बर्दाश्‍त करने की कोशि‍श की मगर जब असहनीय हो गया तो सलमा को बताया. सलमा फौरन उठ गर्इ और उसका हाथ पकड़कर बाहर आ गई. सलमा आपा ने कहा - ” रेहान को बुला लेते हैं. पहले डाक्‍टर को दि‍खा लेंगे फि‍र घर चलेंगे ”. सलमा  रेहान को फोन लगाने लगी मगर फोन ऑफ मि‍ला. मजबूरी में रि‍क्‍शा बुलवाया और सलमा डाक्‍टर के पास ले जाने लगी तो नसरीन ने मना कि‍या. कहा - आराम करूंगी घर पर. डरने जैसी कोई बात नहीं. कल से तला-भुना खा रही है इस कारण तकलीफ है.घर पहुंचकर देखा तो कमरे में रेहान नहीं थे.  पूछने पर बाहर खेल रहे बच्‍चों ने ऊंगली से इशारा कि‍या कि‍ ऊपर वाले कमरे में है.

नसरीन समझ गई कि‍ ऊपर अपने पसंदीदा कमरे में होंगे रेहान. सीढ़ि‍यां चढ़कर ऊपर गई तो देखा दरवाजा बंद था. पहले सोचा खटखटाकर खुलवा ले दरवाजा मगर फूफी की याद आ गई – “छोटी दुल्हन, जरा ध्‍यान दो नहीं तो तुम्‍हारी गृहस्‍थी तबाह हो जाएगी.उसने की-होलसे अंदर झांका..... जहाँ उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा भूचाल उसका इंतज़ार कर रहा था .....दीवान पर रेहान और सज्जाद आपस में...

चक्‍कर खाकर धड़ाम से गि‍री नसरीन. सलमा आपा को कुछ अंदेशा हो ही रहा था. वह सीढि‍यों के नीचे उसके इंतजार में खड़ी थी. वह दौड़कर ऊपर गई. गि‍रने की आवाज से तब तक सभी आ गए. रेहान और सज्जाद भी बाहर थे. उसे सहारा देकर नीचे कमरे तक लाया रेहान और बि‍स्‍तर पर लि‍टा दि‍या. पानी के छींटे मारने पर उसे होश आया. नसरीन ने देखा कि‍ उसके हाथ पर रेहान का हाथ है....उसने इतनी नफरत से रेहान का हाथ झटका जैसे कोई घि‍नौनीलि‍जलि‍जी चीज छू ली हो.

एक-एक कर सभी बाहर चले गए. एक बार फि‍र छूने  की कोशि‍श की रेहान ने....फुत्‍कार उठी नसरीन - “ खबरदार!  जो मुझे हाथ लगाया तो..
“ मैंने कि‍या क्‍या है?’’  रेहान अनजान बनने का नाटक कर रहे थे.
नसरीन रो पड़ी... “क्‍या कमी थी मुझमें...क्‍यों कि‍या ऐसा. मैं खूबसूरत नहींजवान नहीं या तुम्‍हें वो सुख देने लायक नहीं. अरे.... कोई औरत होती तो मैं भी तुम्‍हारी अम्‍मी की तरह उसे बर्दाश्‍त कर लेती या तुम्‍हारी खुशी के लि‍ए तुम्‍हें उसके साथ छोड़कर चली जाती.”

अवरुद्ध गले से बोल रही थी नसरीन – “ये आदमी.... एक आदमी को मेरी सौत बना दि‍ए तुम तो....मुझे घृणा हो रही है तुमसे. आज से मेरा-तुम्‍हारा नाता खत्‍म. भूल से भी मुझे छूना नहीं.”

बि‍स्‍तर के पायताने बैठा रेहान सहसा कांपने लगा. नसरीन ने चौंक कर उसकी तरफ देखा...वह सि‍सक रहा था.  उसकी सि‍सकि‍यां साफ़ सुनी जा सकती थी. नसरीन जड़ हो गई.

उसके अपने आंसू थम गए और उसकी आंखे रेहान के चेहरे पर अटक गईं.

मुझे माफ कर दो नसरीन. मैं तुम्‍हारा गुनाहगार हूं. मगर क्‍या करूं.....मैं ऐसा ही हूं बचपन से. मेरा कि‍सी औरत की तरफ कभी जी नहीं ललचाया. मैं उस लायक ही नहीं! ”

अब नसरीन चौंकी...क्‍या?  मतलब तुम गे हो ? “

हां” ...कहकर सि‍सकता रहा रेहान. 

फि‍र क्‍यों की मुझसे शादी ? मेरी जिंदगी बर्बाद करने का तुम्‍हें क्‍या हक हैमना क्‍यों नहीं कि‍या ?” हैरत और फि‍र गुस्‍से से कांप रही थी नसरीन. 

रेहान की सफाई उसकी सिसकियों के साथ निकल रही थी - बचपन से लड़कि‍यों के साथ पला-बढ़ा. जब पैदा हुआ तो मेरी आठों बहनों ने हाथों-हाथ लि‍या. सब कहते हैं बहुत खूबसूरत बच्‍चा था मैं. जब थोड़ा बड़ा हुआ तो वो सब खेल-खेल में मुझे लड़की बना देती. मुझे भी काजलटीका लगा कर बहुत अच्‍छा लगता. दुपट्टे से सर ढंक कर मैं नाचता तो सभी मेरी बलैया लेते नहीं थकते. धीरे-धीरे बड़ा होता गया मगर इसकी मेरी आदत नहीं गई.  मुझे लड़के पसंद आते. मैं दसवीं में था तो स्‍कूल का एक लड़का मुझे पसंद आ गया. हम दोनों साथ-साथ ज्‍यादा वक्‍त बि‍ताने लगे.‘’

फि‍र...तुम्‍हारे घरवालों ने तुम्‍हें रोका नहीं ?”  नसरीन ने बेचैनी से पहलू बदलते हुए पूछा.

हां...एक बार हम पकड़े गए. अब्‍बू बेहद नाराज हुए. उन्‍होंने बहुत मारा मुझे. कहा- हमारे खानदान में ऐसा नहीं चलता. तुम्‍हें औरतों की कोई कमी नहीं. जि‍से चाहे.... मगर खबरदार...

रेहान ऐसे कांप उठा जैसे उसके अब्‍बू सामने खड़े होकर उस पर चि‍ल्‍ला रहे हों.

मैं डर गया बहुत. मुझे हास्‍टल भेज दि‍या गया. वहां मन लगाकर पढ़ाई करने लगा. इन सब बातों से बि‍ल्‍कुल दूर हो गया. मेरी लड़कि‍यों से दोस्‍ती थी मगर कि‍सी को उस नजर से देख ही नहीं पाया. मुझे लड़के अच्‍छे लगते थे. मगर यह ऐसी बात थी जो मैं अपने घरवालों से नहीं कह सकता था.

‘’तुमने कभी भी बताने की कोशि‍श नहीं की ?  अपनी बहनों से भी नहीं शेयर कि‍या ?’’  नसरीन हैरान थी कि‍ हर क्षेत्र में अव्‍वल रहने वाला रेहानजो आज एक कामयाब इंजीनि‍यर हैखूब अच्‍छी तन्‍ख्‍वाह है जि‍सकीवो अंदर से इतना दब्‍बू है कि‍ अपने मन को आजतक किसी के आगे खोल तक नहीं पाया..

मैंने एक-दो बार कोशि‍श की थी. शुरू में मैंने शादी करने से इंकार भी किया... मगर तुम्हें देखने के बाद तो जैसे सबने एक सुर में तय कर लिया सबकुछ... अब्‍बू को अनुमान था शायद मेरी परेशानी का, पर उन्‍होंने यह कहकर मेरे ना को खारिज कर दिया कि‍ उन्‍होंने दुनि‍या देखी है. शादी के बाद सब ठीक हो जाता है.”

क्‍या तुमने भी यही सोचा था? ” नसरीन के सवाल में एक नई तकलीफ आ घुली थी.
ठंढ में भी रेहान के माथे पर पसीने चुहचुहा गए.
मैं कुछ समझ नहीं पाया. लगाइतने सालों से ऐसे कोई संबंध नहीं मेरे. तो शायद अब्‍बू सही कहते होंगे. मगर कुछ नहीं हो सका. मैं क्‍या करूंअब तुम्‍हीं बताओ नसरीनतुम्‍हारा साथ पसंद है मगर मैं उस तरह नहीं रह सकता.

नसरीन के माथे के दोनों तरफ की नसें तड़कने लगी. लग रहा था माथा दर्द से फट जाएगा. बहुत अजीब-सी स्‍थि‍ति‍ में फंस गई थी वह. देर तक स्तब्‍ध सी बैठी रही...शि‍थि‍ल..स्‍थि‍र..शब्‍दहीन. 
कुछ पलों तक मौन पसरा रहा दोनों के दरम्‍यां. कमरे में घड़ी की टि‍कटि‍क के अलावा कोई और स्‍वर नहीं था.

मुझे तलाक चाहि‍ए” नसरीन की आवाज में कोई आक्रोशआवेश या उत्‍तेजना नहीं थी

अचकचा गया रेहान और दूसरे ही पल उसने नसरीन के पैर पकड़ लि‍ए- नहीं नसरीननहीं! ऐसा नहीं कर सकता मैं. तुम्‍हें तलाक देने का मतलब हैमेरी यह बात जग जाहि‍र हो जाना. बहुत बदनामी होगी मेरे खानदान की. किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रह जाऊंगा मैं.

नसरीन किसी तूफान के मुहाने पर बैठी थी... कुछ देर वैसे ही बैठी रही, फि‍र धीरे से रेहान के हाथों पर अपना हाथ रखकर दबाया जैसे मौन आश्‍वस्‍ति‍ दे रही हो. फि‍र धीरे से उसके हाथों को अपने पैरों से वि‍लग कि‍या और दरवाजा खोल बाहर नि‍कल गई....नीरव अंधकार मेंजाने कहां...अकेली. 

नसरीन की तकलीफ में रेहान की गिड़गिड़ाहट का बोझ भी शामिल हो गया था. इस दर्द को सम्हालने का हर संभव जतन करती वह, पर दर्द था कि सहा नहीं जाता... कुछ दि‍नों बाद ही वह सलमा आपा के आगे रो पड़ी. उसे लगा था सलमा आपा उसकी तकलीफ को समझेंगी... मगर उम्‍मीद के वि‍परीत सलमा ने उसे ही समझाइश दी थी – “माफ़ कर दो दुल्‍हि‍न रेहान को. गलती हो जाती है. और हमारे मजहब में तो चार औरतें रखने की छूट है. शुक्र करकोई औरत नहीं रखी उसने. अगर नि‍काह कर के ले आता तो तू क्‍या कर सकती थीतू तो कि‍स्‍मत वाली है कि‍ रेहान प्‍यार करता है तुझे और ऐसे संबंध हमेशा नहीं रहते. तू अपने प्‍यार से खींच ला वापस उसे.”

नसरीन की तकलीफ पर बेबसी की परत जम आई थी... “आपा! रेहान शुरू से ऐसे ही हैं. ऐसे लोगों के जीन में यह प्रवृति‍ होती हैऔर ऐसे लोग शादी नहीं करते. यह आपलोगों की गलती है कि‍ उसे जबरदस्‍ती के इस बंधन में बांध दि‍या. अब हम दोनों छटपटा रहे हैं. हमारा जीवन कभी सामान्‍य नहीं हो सकता.

सलमा की आंखे नसरीन के चेहरे पर टि‍की थीं. सफ़ेद, श्रीहीन चेहरा, जैसे नसों का सारा लहू निचोड़ लिया हो किसी ने. नसरीन को समझ नहीं आ रहा कि‍ उसका दुख बड़ा है या रेहान का? वह भी तो घुट-घुट कर जी रहा है. उसे तो यह अब झेलना पड़ रहा है मगर रेहान तो बचपन से अपने मन को मारता आया है. नसरीन को उससे हमदर्दी-सी होती है, मगर अपने आगे फैला शून्य बेतरह मथता है उसे.
रेहान अब सज्जाद को नहीं लाता घर. उसने नसरीन की बात मान ली है कि जब कोलकाता में उसके पास जगह है ही तो फिर उसे यहाँ लाकर यह बदनामी क्यों मोल लेना? रेहान के भीतर नसरीन के लिए कृतज्ञता का भाव उभर आया है...


नसरीन को महसूस  होता है कि‍ वह प्रेत की तरह जी रही है. उसे पहले रेहान के आने का इंतजार होता था. मगर जब से उसे यह सब पता चला हैरेहान के प्रति‍ वह प्‍यार नहीं महसूस कर पाती. एक दोस्‍त की तरह उसकी जरूरतों का ख्‍याल रखती है. कई बार मन होता कि रेहान की फि‍क्र छोड़कर वह चली जाए यहां से. सबको बता दे कि‍ रेहान गेहै और उसके साथ कोई भवि‍ष्‍य नहीं उसका. पर हर बार रेहान की उस कातर गिड़गिड़ाहट की स्मृतियाँ उसके बढ़े कदमों को पीछे खींच लेती है और वह किसी कुशल अभिनेत्री की तरह सुखी दांपत्य का अभिनय करने लगती है.



नसरीन को बच्‍चे बेहद पसंद हैं. उसके मायके से लेकर आस-पड़ोस तक सब कहने लगे हैं कि‍ अब एक बच्‍चा हो जाना चाहि‍ए... हर ऐसी बात नसरीन को नए सिरे से छलनी कर जाती है... अपनी जरूरतों और ख़्वाहिशों की आंच में झुलसती नसरीन जागी आँखों से करवटें बदलते हुये कई-कई रातें गुजार देती है... अपनी चाहतों और ख्‍वाहि‍शों का कफ़न ओढे किसी जिंदा लाश की तरह हो गई है वह...

मन ही मन वह रेहान के पुनः ठीक हो जाने की दुआएं भी करती... वह यह भी जानती थी कि सिर्फ दुआओं से कोई क्रान्ति नहीं होने वाली और ऐसे ही किसी दिन उसने किसी सायकेट्रिस्ट की तलाश में जस्ट डायल में जाकर सर्च किया था...  

डॉ. रुबीना एक तजुर्बेकार और संजीदा-सी औरत थीं. उनके सहज साथ की ऊष्मा के आगे जब  नसरीन कतरा-कतरा पिघल चुकी उन्होने सधे हुये शब्दों में कहा था- इम्पोटेंसी दो तरह की होती है- कुछ केसेज में टेम्पररी तो कुछ में परमानेंट. बेहतर होता कि आप अपने शौहर के साथ आतीं. कुछ जांच जरुरी है, किसी भी नतीजे पर पहुँचने से पहले. मगर आपकी बातों से एक बात तो साफ है कि‍ आपके शौहर की दि‍लचस्‍पी औरतों में नहीं. ऐसे लोग औरतों का साथ खूब इंज्‍वाय करते हैं. बल्कि खुद को उनके ज्यादा करीब पाने की कारण उन्हें औरतों का साथ खूब भाता है, मगर उनका शारीरि‍क आकर्षण पुरुषों के प्रति‍ ज्‍यादा होता है. 

नसरीन जैसे सारी संभावनाओं के दरवाजे एक ही साथ तलाश लेना चाहती थी - क्‍या कोई नि‍दान नहीं इसका ? उस लड़के से दूर  होने पर क्‍या इनकी दि‍लचस्‍पी मुझ में जागेगी ?आपा कहती हैं कि‍ प्‍यार से मैं उन्हें अपनी तरफ कर सकती हूँ...

चश्में से झाँकती रूबीना की अनुभवी आँखें नसरीन पर टिकी हैं... समझने की कोशि‍श कीजि‍ए. यह कोई रोग नहीं है जि‍सका इलाज हो सके. यह मनोवृति‍ है. इसे बदलना लगभग असंभव है. मैं अपने तजुर्बे से कह सकती हूँ कि यह मामला परमानेंट इम्पोटेंसी का है.”

रसोईघर में कलछी चलाती नसरीन के कानों में डाक्टर रूबीना के शब्द एक बार फिर से बहुत साफ-साफ सुनाई पड़ रहे हैं... - आपके सामने दो ही रास्‍ते हैं - या तो आप यथास्‍थि‍ति‍ को स्‍वीकार कर उनके साथ ऐसे ही रहि‍ए या फि‍र अपना रास्‍ता अलग कर लीजि‍ए. बेवजह की उम्‍मीद मत पालि‍ए.” 

अपने चश्मे की काँच को आँचल से साफ करने के बाद कोर्ट के फैसले पर बडबड़ाती सलमा आपा ने अख़बार का पन्ना पलट दिया था... गैस का नॉब ऑफ करते हुये नसरीन ने सोचा- सलमा आपा जो भी कहें, सरकार ने धारा 377में बदलाव लाकर उसके लि‍ए मुक्‍ति‍ का द्वार खोल दि‍या है. कानूनन अपराध नहीं है, रेहान और सज्जाद का रिश्ता... रेहान जैसा हैवह वैसा ही रहे... लेकिन, माशरे से छुपकर कि‍तने दि‍न ऐसे गुजार सकता है कोई ? उसे हि‍म्‍मत करनी होगी... रेहान की झूठी शान और आबरू की खाति‍र वह भी अब खुद से और नहीं लड़ेगी.


उसने तय किया अब उसे अपने लिए जीना है... इस सोच ने मुस्‍कराहट ला दी नसरीन के चेहरे पर... बंद कोठरी के दरवाजे खोलने को बेताब नसरीन की उँगलियों में एक नई जुंबिश-सी हुई... उसने सोचा.. जिंदगी इतनी भी बुरी नहीं.

______
रश्‍मि‍ शर्मा


विभिन्न राष्‍ट्रीय-अन्‍तरराष्‍ट्रीय पत्र-पत्रि‍काओं में कवि‍ता, कहानी, लेख, यात्रा-वृतांत, बाल कथा, इत्‍यादि‍ का नि‍यमि‍त प्रकाशन.
दो काव्‍य संग्रह 'नदी को सोचने दो'और 'मन हुआ पलाश'प्रकाशि‍त.
एक दशक तक सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद अब पूर्णकालिक रचनात्मक लेखन एवं स्‍वतंत्र पत्रकारिता.

संपर्क-
रमा नर्सिंग होम, मेन रोड, रांची
झारखंड 834001.

फ़ोन नंबर- 9204055686/मेल- rashmiarashmi@gmail.com 

मेघ-दूत : द बेल रिंगर : जॉन बर्नसाइड

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अंग्रेजी साहित्य के समकालीन कवि, लेखक और पर्यावरणविद जॉन बर्नसाइड की कहानी "द बेल रिंगर"का अनुवाद यादवेन्द्र ने हिंदी में किया है और एक सुंदर टिप्पणी भी लिखी है. यह दोनों आपके लिए.



मार्च 2008में "द न्यू यॉर्कर"में छपी इस कहानी का शीर्षक "द बेल रिंगर"है जिसका  हू--हू और शब्दशः  हिंदी में अनुवाद करना मुश्किल है क्योंकि भारतीय समाज में  ऊँचे टावर में  टँगे धातुई घंटों को रस्सा खींच कर बजाने की कोई परम्परा नहीं है. स्कॉटलैंड जैसे पारम्परिक ईसाई समाज में भी यह धार्मिक अनुष्ठान धीरे धीरे लुप्त हो रहा है- जैसे भारत की  नई पीढ़ी शाम के समय  मंदिरों में कीर्तन करने और सामूहिक रूप से आरती करने की परिपाटी से विलग हो गयी है- और धार्मिक पुनरुत्थानवादी इस लुप्तप्राय परिपाटी को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं. अनुवाद करते समय बहुत सोच विचार के बाद  मैंने कहानी की भाव भूमि का ध्यान रखते हुए मूल शीर्षक बदल कर  "गूँज अनुगूँज"रखने का निर्णय किया.

63वर्षीय जॉन बर्नसाइड स्कॉटलैंड के बहु सम्मानित कवि लेखक और पर्यावरणविद हैं जिन्हें अपनी किताबों के लिए यूरोप के लगभग सभी बड़े साहित्यिक पुरस्कार मिल चुके हैं. वैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई  करने वाले बर्नसाइड ने अपने करियर की शुरुआत सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के साथ की (दिलचस्प बात है कि वे लिखने के लिए न तो टाइपराइटर न ही कम्प्यूटर का प्रयोग करते हैं, न फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों से जुड़े  हैं और यहाँ तक कि उनकी कोई वेबसाइट भी नहीं है. टेलीफोन भी वे बहुत कम इस्तेमाल करत हैं.) पर साहित्यप्रेम उन्हें कविताओं की ओर खींच ले गया पर अनेक प्रशंसित पुरस्कृत कविता संकलनों के बाद वे कहानी, उपन्यास और आत्मकथात्मक संस्मरणों के लिए भी उतने ही ख्यात हुए. जहाँ तक जीविका का सवाल है वे एक युनिवर्सिटी में सृजनात्मक लेखन के प्रोफ़ेसर हैं. वे रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लिटरेचर के फ़ेलो भी हैं.

विभिन्न विधाओं में लेखन को वे कोई मुश्किल या नियोजित काम नहीं मानते. अपने लेखन में वे अपने अपारम्परिक विचारों को अभिव्यक्त करते हैं- आस पास की परिस्थितियों या किसी की उम्मीदों पर खरा उतरने का दबाव उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं ... सम्पूर्णता का संधान उनके लेखन का केन्द्रीय तत्व है. "न्यू स्टेट्समैन"में पर्यावरण पर नियमित कॉलम लिखने वाले  जॉन बर्नसाइड अपनी रचनाओं में आने वाले प्राकृतिक विवरणों को लेकर बड़े सजग हैं... "मैं अपने किरदारों और परिवेश को लेकर हद दर्जे तक  संवेदनशील और जिद्दी हूँ. मेरी रचनाओं में जो भी पेड़ आएँ  वे बिलकुल सही प्रजाति के होने चाहिए ,यदि कहीं रेत  का वर्णन  है तो रेत की मात्रा बिलकुल उपयुक्त होनी चाहिए .... सुबह सुबह खुलने पर पब में ऊँची खिड़की से अंदर झाँकती रोशनी  में जरा सा भी हेर फेर  मुझे नहीं बर्दाश्त - सब कुछ एकदम यथार्थवादी होना चाहिए. ",  एक इंटरव्यू में वे कहते हैं.

यहाँ  प्रस्तुत कहानी के सन्दर्भ में उनका यह कथन ध्यान देने योग्य है : "मैं अनुमान लगाने में अच्छा हूँ और मुझे लगता है अपनी रचनाओं में इस काम को बेहतर ढंग से करने के अतिरिक्त मैं और कुछ ख़ास नहीं करता .... मेरा मानना है कि वह  समय दूर नहीं जब लोगबाग अपने जीवन में गोपनीयता बनाये रखने के लिए बड़े जोखिम उठाने की ओर कदम बढ़ाएँगे,भले ही सामाजिक तौर पर इसे अच्छा न माना जाये - वे खुद को सार्वजनिक बनने से बचाने के लिए कानून का उल्लंघन कर अपराध तक करने को तत्पर हो सकते हैं."

ख़ामोशी और संवाद तथा बोरियत और उत्तेजना की दो अतियों के बीच मानव मन के अंदर कहीं गहरी छुपी भावनाओं ,अव्यक्त ख्वाहिशों और आशंकाओं तथा नितांत अंतरंग अकेलेपन को बड़ी बारीकी से बुनने वाली यह कहानी पाठकों के मन को अपनी ध्वनियों से झंकृत करेगी,ऐसी आशा है. 


गूँजअनुगूँज                                  
जॉनबर्नसाइड 




लाठोकर मिल के बोर्ड के आधा मील आगे चल कर ईवा लोवे मेन रोड से मुड़ी और किनेल्डी जंगल के अन्दर जा रहे रास्ते में दाखिल हो गयी. हाँलाकि गाँव में आने का यह सबसे सीधा  रास्ता नहीं था पर उसके पिता को यह बहुत प्रिय था हो सकता है  इसको देख कर उनको पीछे छूट चुके स्लोवाकिया की याद आती हो और माँ के जिन्दा रहते तक अक्सर इतवार को वे उधर घूमने आया करते थे.


अँधेरा हो चला था --- अँधेरा भी खूब गहरा और चारों ओर सघन हरियाली -- बाउण्ड्री वॉल पर झाड़ियाँ उग आयी थीं और ऊँचे दरख्तों के नीचे नमी पसरी हुई थी. औरों के लिए यह रास्ता उदासी और हताशा का प्रतीक था पर ईवा को यह बिलकुल घर के आहाते जैसा लगता -- ख़ास तौर पर अब जब चीड़ के माथे और पहाड़ी ढ़लानों पर ताज़ा ताज़ा बर्फ़ गिरी हुई हो.  उसको यह नज़ारा बिलकुल बच्चों की सचित्र किताबों जैसा लगता जिसमें किसी निष्ठुर परी के कोप से हँसता खेलता पूरा साम्राज्य कँटीली झाड़ियों और मकड़ी के घने जालों के बीच सौ साल तक दबे होने को अभिशप्त हो और उसके ऊपर बर्फ़ की चादर बिछ गयी हो. उसके पिता को  यह परीकथा खूब प्रिय थी और उसने अपने पास अबतक वह किताब सँभाल कर रखी हुई है बचपन में जिस से पढ़ कर वे  उसको कहानी सुनाया करते थे .... किताब हाथ में लेते ही वे अक्सर कहते कि उन चित्रों को देख कर उनको अपने बचपन और गाँव याद आने लगती है. किताब में बने वे चित्र उसको पिता के वास्तविक स्मृति चिह्न लगते .... बचपन से बार बार देखी  हुई वह किताब हरी पत्तियों,नीले आसमान और गाढ़े बैंगनी रंग के फलों से भरी हुई दुनिया के चटक वाटर कलर चित्रों की थी पर अब दुर्भाग्य से उस लुभावनी दुनिया के पन्नों पर मवेशियों भरे ट्रक और बगैर नाम पते वाली  हजारों कब्रें पसर गयी हैं.


उसके पिता लम्बे समय तक बीमार रहे और ऐसे मौके बार बार आते रहे जिनमें लगता था जैसे अब उनका  आखिरी पल आ पहुँचा है .... मैट उनको लेकर अपना धीरज खो बैठा था. मुँह  से उसने कभी कहा नहीं कि उसके मन में क्या चल रहा है पर  हाव भाव देख कर अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि ईवा का पिता के साथ अस्पताल में इतना समय बिताना उसे बिलकुल पसंद नहीं .... ईवा को भी वैसे मौकों  का इन्तजार रहने लगा था जब मैट नॉर्थ सी में किसी रिग का इंस्पेक्शन या मिस्र या नाइजीरिया में कोई निर्माण कार्य करते हुए हफ़्तों बिताने वाला हो. पिता की  मृत्यु के आखिरी महीने में तो वह लगभग पूरा पूरा अनुपस्थित रहा, पर ईवा के लिए मैट का न रहना ज्यादा सुकून देने वाला था. उसके सामने न रहने से  ईवा को पिता के हमेशा के लिए प्रस्थान कर जाने के कारण  पैदा हो गए खालीपन के  साथ सामंजस्य बिठाने में मदद मिली ख़ामोशी में उनकी बातों और आवाज़ का स्मरण करने का मौका भी मिला, जब उसकी स्मृति में एक एक कर के उनकी अपनी मातृभाषा में बचपन में सुनाये हुए गीत और लोक कथाएँ तरो ताज़ा हो गयीं.


मृत्यु बाद की  सारी औपचारिकताएँ जब पूरी हो गयीं तब उसको महसूस हुआ कि इतने बड़े पर बूढ़े पुराने फ़ार्म हाउस में वह निपट  अकेली रह गयी  है और उसके पास न करने को कुछ है और न ही बातचीत के लिए कोई संगी साथी है. हाँ , मैट की बहन मार्था जरूर शनिवार को सुबह सुबह केक और सेबों की टोकरी लेकर उसके  पास आ कर बैठने बतियाने लगी. मार्था इसका ध्यान रखती कि जब मैट घर पर हो वहाँ नहीं जाना है. यह लगभग एक रूटीन जैसा बन गया -- हर शनिवार सुबह साढ़े दस बजे मार्था को आना है , गमलों के बाजू में बैठना  है और घंटों बतियाना है.... कई कई बार यह सिलसिला और भी लम्बा खिंच जाता और मार्था के कारण पहले से सोचे किसी काम में कभी कभी देर भी हो जाती, पर ईवा इन बातों को लेकर बहुत अफरा तफरी नहीं मचाती. कम से कम इतना तो हुआ ही कि मार्था ने नए नए आन पड़े दुःख के उन शुरूआती दिनों में उसका साथ निभाया था जब वह बिलकुल अकेली पड़ गयी थी. यह अलग बात कि मार्था को सेल्फ हेल्प वाली किताबों और महिलाओं की पत्रिकाओं की बातें धड़ल्ले से कहने में महारत हासिल थी  पर उस समय वह  जिस हाल में थी उसकी बातों ने  ईवा पर कारगर असर किया -- ईवा मार्था के आने का बड़ी बेसब्री से इन्तजार करती और घंटों एक प्लेट बिस्किट के साथ उस से बतियाती रहती .... जीवन में अचानक आने वाली किसी बड़ी तब्दीली के पहले तक लोगबाग क्या कर रहे होते हैं और बाद में उन बातों को कैसे याद करते हैं ,लब्बो लुबाब यही सब था.


ईवा जब ठहर कर अपने जीवन को देखती है तो उसको समझ आता है कि पिता की मृत्यु दर असल कोई अचानक आया हुआ बदलाव नहीं था .... उसको बहुत पहले से इसका एहसास था कि पिता अब ज्यादा दिन नहीं बचेंगे ,और उसने इस क्षति के लिए खुद को भरसक तैयार कर रखा था --हाँलाकि मार्था का कहना था कि आप चाहे जितनी कोशिश कर लें, अपने किसी प्रिय की  मृत्यु के लिए वास्तव में तैयार हो नहीं पाते और वह भी तब जब वह इतनी कष्टपूर्ण और धीमी गति से कदम आगे बढ़ा रही हो. पर पिता की अंतिम क्रिया के बाद ईवा को एकदम से यह महसूस हुआ कि सारी दुनिया अचानक अपने आप में सिमट कर एकदम चुप हो गयी  है .... और उस को सबसे ज्यादा आघात पिता की  अनुपस्थिति से नहीं बल्कि अपनी शादी से लगा था.


मैट मृत्यु बाद के कामों में हाथ बँटाने दो चार दिनों के लिए आया था और न चाहते हुए भी ईवा की निगाहों से  इस लम्बे खिंचते चले आ रहे प्रसंग के पटाक्षेप से मैट के राहत की साँस लेने के भाव छुपे नहीं रह सके कि और अब वह निश्चिन्त होकर फिर से अपने काम पर लौट सकेगा. इस से पहले तक जब भी ईवा अकेली होती और रातों में खिड़की से बाहर खेतों और बाग़ को देखती तो उसको लगता कि पति का अभाव उसको अन्दर ही अन्दर खाये जा रहा है. ये खेत और बाग़ थे तो मैट के परिवार के, पर अब उनको किराये पर पड़ोसियों को दे दिया गया था. कभी कभी उसको वे शुरूआती दिन याद आते जब वह पहली दफ़ा मैट से मिली थी


उसका बाँकपन, हँसी ठिठोली करते रहने का चुलबुल स्वभाव और ईवा को प्रसन्न करने के लिए तरह तरह के खेल गढ़ते रहना. वह अक्सर ईवा के लिए बाग़ से ताज़े सुन्दर फूल या रसीले फल लेकर आता .... और जब यह स्पष्ट हो गया कि दोनों एक दूसरे के साथ जीवन बिताने को लेकर गम्भीर हैं,तो वह अक्सर यह कहता फिरता कि दोनों के शरीर पर बिलकुल एक जैसे टैटू हैं-- दिल, गुलाब, केल्टिक आकृतियाँ .... और दोनों के शरीरों के उन अंदरूनी अंगों पर टँकी हुई नन्हीं नीली चिड़िया जिन्हें सिर्फ वे ही देख सकते हैं, कोई और नहीं.


उनके साझा जीवन का पहला साल बीतते बीतते रोमांटिक भाव पूरी तरह से तिरोहित हो चुके थे, पर ईवा को वह सब गुदगुदाने वाला घटनाक्रम अब भी पूरी तरह याद था. शुरू-शुरू में मैट जब बाहर जाया करता, बड़ी निष्ठा और जिम्मेदारी से ईवा उन बातों को सायास याद किया करती मन ही मन यह बात बार बार दुहराया करती कि जब एक समय उन दोनों ने इतना सघन प्यार किया है तो भले ही बीच में कुछ ख़ला आ गया हो पर प्यार भरे दिन दुबारा जरूर लौट आयेंगे. हाँलाकि ईवा मन ही मन यह बखूबी जानती थी कि मैट के साथ प्यार के पलों को इस तरह बार-बार याद करने के लिए उसको काफी मशक्कत करनी पड़ती, पर अपने मन के अंदरूनी कोनों में जागृत एहसास भी था कि अकेले रहते हुए वह किसी चीज़ का अभाव महसूस तो करती है पर वह  कुछ और था, मैट नहींयकीनन.  
 

वास्तविकता यह थी कि अपने में सिमट कर रहने में ईवा को कोई परेशानी नहीं महसूस होती,बस बड़े से घर में अकेला रहना उसको अच्छा नहीं लगता था. यदि वह इस घर की  बज़ाय किसी और घर में रहती होती -- यदि मैट ने यह घर बेच दिया होता और किसी दूसरे गाँव में जमीन खरीद ली होती,जैसा उसने करने का मन लगभग बना भी लिया था, पर आखिरी पलों में उससे किनारा कर लिया --- तब उसको कोई परेशानी नहीं थी. मैट जब महीने भर के लिए भी घर से बाहर गया होता, बगैर उसके हस्तक्षेप के अपना जीवन अलग ढंग से जी रहा होता, ईवा को कई कई दिनों तक फोन नहीं करता


जब करता भी तो यह जताना  नहीं भूलता कि अभी उसके सिर पर दुनिया जहान के काम का जिम्मा है -- और अभी जो फोन वह कर भी रहा है वह एक घरेलू दायित्व से ज्यादा कुछ और नहीं. कभी कभी वह फोन बीच में रख देती, फिर किसी खूब प्रकाशित कमरे में लोगों से घिरे उसके बैठे होने की कल्पना करती --- सोचती वह कॉन्फ्रेंस रूम हो सकता है, कोई होटल भी हो सकता है --- मैट अपने सहकर्मियों के साथ किसी भारी भरकम विषय पर विचार विमर्श में मशगूल है, विषय कुछ भी हो सकता है.... इंजीनियरिंग से लेकर राजनीति  तक .... और बातचीत  इतनी ऊँची आवाज़ में भी हो सकती है कि आस पास से गुजरती हुई वेटरेस को भी सब कुछ स्पष्ट सुनायी दे. सम्भव है वह उन सजी धजी युवतियों के साथ कुछ फ्लर्ट भी करता हो, या बात इस से आगे भी चली जाती हो. आँखें बंद करके वह मैट को उन युवतियों के साथ मज़ाक करते देखती, उनके बीच घुलमिल कर बैठा  मैट कितना बाँका और सुन्दर दिख रहा है.


ऐसे लुभावने जवान के आस पास मँडराने  और उसको खुश करने का मौका कोई भी  युवती भला कैसे छोड़ देगी. जब जब वह ऐसी बातें सोचती लगता जैसे पूरा घर -- अँधेरा, सीलन भरा, सालों साल से एक जैसी दशा में पड़ा हुआ, पीढ़ी दर पीढ़ी वहाँ जीवन गुजार चुके वासिंदों की  स्मृतियों की प्रतिध्वनियों से भरा भरा --- सिमटता हुआ पास आकर उसको अपने पाश में बाँधता जा रहा है.


उसको महसूस होता जैसे लोवे खानदान के  छोटी कद काठी और गठीले बदन वाले तमाम लोग अपनी चमकीली काली आँखों से खूब फैले हुए घर के कोने अँतरे से चुप्पी साधे  हुए झाँक-झाँक  कर उसके सारे क्रिया कलाप पर नजर गड़ाए हुए है -- वे सब बातें सुनते रहते हैं जो वह फोन पर करती है, सुनते ही नहीं वे सब उसको घूरते भी रहते हैं .... और उनपर अपने फैसले भी थोपते  रहते हैं. कई बार उसको लगता जैसे सचमुच उसने अपनी नंगी आँखों से उनको देखा भी  है हाँलाकि इस बात पर वह पक्के तौर पर टिक नहीं पाती थी कि सचमुच किसी फैंटम को देखा या सिर्फ़ देखने का भरम भर हुआ.


मैट प्यार के शुरूआती दिनों में उसको घर में विचरण करने वाले फैंटम की कहानियाँ  खूब सुनाया करता -- जैसे, उधर देखो बूढ़ा जॉन लोवे अपने हाथ में लालटेन थामे हुए बाग़ से निकल कर इधर आ रहा है या जुड़वाँ  बहनें मेबेथ और कैथी झंडे वाले ठण्डे चबूतरे पर  बिलौटों (बिल्ली के बच्चों) से घिरी बैठी मस्ती कर रही हैं .... बला की  सुन्दर एलिनॉर भरी जवानी में गेस्ट रूम में बिस्तर पर पड़ी पड़ी दम तोड़ रही है.  ईवा  जब भी घर में अकेली होती, इनमें से सब के सब जरूर कोई न कोई ऐसी हरकत जाहिरा तौर पर करते  जिनसे उनका वज़ूद साबित हो सके साफ़-साफ़ उनको देखना मुमकिन नहीं था पर वे निरंतर यहाँ वहाँ जिस ढंग से मँडराया करते उस  से ईवा को लगने लगता जैसे वे सब मिलकर कुछ घटने का इन्तज़ार कर रहे हैं. थोड़ी देर इस माहौल में रहने के बाद जब ईवा थोड़ी सहज होती तो खुद को बोलती बतियाती पाती....खुद से नहीं बल्कि उन सब के साथ, जैसे छुटकारा पाने के लिए उनको भरोसे में लेने और बहलाने की कोशिश कर रही हो.


उसको समझ नहीं आ रहा था कि आज कौन सा काम पहले पूरा करे, सो बाज़ार का काम निबटा कर वह घर न जा कर गाँव में ही किसी सैलानी की तरह यहाँ वहाँ टहलती रही-- चर्च,पब और वे भी दो-दो, स्कूल. 


स्कूल खूब खुला-खुला और हराभरा था, दक्षिण दिशा में ऊँचे दरख्तों की सीधी  कतार. वहीँ गाँव में उसका घर भी था, पर उसको कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि वह यहीं की रहने वाली है. उसके पिता अपनी जवानी के दिनों में वहाँ आ बसे थे वह वहीँ के स्कूल में पढ़ी लिखी  है .... उसकी माँ कसाई की दूकान में औरतों की  लाइन में खड़ी रह कर गोश्त खरीदा करतीं, उन दिनों गोश्त थमाने वाला कसाई खून लगे हाथों से पैसे नहीं लेता था बल्कि दूकान में पैसे लेने का काउन्टर  अलग से हुआ करता था-- माँ को कसाई का यह इंतजाम अच्छा लगता. कसाई भला आदमी था और माँ के साथ उसका रिश्ता दोस्ताना था -- वह हमेशा माँ के साथ अच्छी तरह से बात करता और गोश्त के  सबसे उम्दा टुकड़े उनके पैकेट में डालना न भूलता.


कसाई की बीवी कुटिल और घुन्ना औरत थी --- कई बार माँ के हाथ से नोट ले  कर  अपने हाथ में पकडे हुए उसको देर तक निहारती रहती जैसे वह पहली बार नजरों के सामने आया हुआ कोई विदेशी नोट हो …… पर वे लोग ऐसे ही थे, उनको अपने बीच में आकर बस गया कोई बाहरी शख्स बिलकुल नहीं सुहाता था -- तब तो और भी नहीं जब उनकी बिरादरी की ही कोई युवती उसको दिल दे बैठी हो और शादी की ठान ले. अब तो वे सब लोग ख़ुदा को प्यारे हो गए.


ठीक चार बजे चर्च की घंटी बजी, वह उठ कर अपनी कार तक जाने को हुई कि लगा कम्युनिटी सेंटर तक घूम आये. वहाँ एक कैफ़े था और उसके अंदर कुछ न कुछ गतिविधियाँ  चलती रहतींकभी फ्लावर अरेंजमेंट तो कभी इटैलियन क्लासेज़.  कभी- कभी वे वुमेन इंस्टीच्यूट भी चलाते. खुद के बारे में उसको लगता था कि  वह वुमेन इंस्टीच्यूट टाइप स्त्री नहीं है --- खुद को लेकर दूसरी गतिविधियों के बारे में उसकी राय बहुत स्पष्ट नहीं थी, फिर भी वह कैफ़े के अंदर चली गयी. नोटिस बोर्ड  में चस्पाँ पन्नों को एक एक कर पढ़ने लगी विभिन्न कार्यक्रमों के टाइम टेबुल,कराटे की  सफ़ेद ड्रेस में बच्चों की  फ़ोटो इत्यादि. उसका ध्यान योग सिखाने की सूचना पर भी गया और उसको लगा कि उस से तनाव कम करने में मदद मिलेगी पर फ़ौरन ही उसको समझ आ गया कि योग के लिए जिस सादे लम्बे लिबास को पहनना पड़ेगा उसमें ईवा अच्छी चुस्त दुरुस्त नहीं दिखेगी , सो यह विचार सिरे से खारिज. बुधवार की रातों में फ्रेंच सिखाने की शुरूआती क्लासें लगती हैं ---


स्कूल में उसने भी फ्रेंच पढ़ी थी पर अब दिमाग से सब साफ़ --- उसने लगभग तय कर लिया था कि वह दुबारा से फ्रेंच सीखना शुरू करेगी कि तभी उसकी नजर सभी पन्नों से अलग रखे एक सफ़ेद पोस्टकार्ड पर पड़ गयी जिसमें लिखा था कि चर्च में घंटी बजाने का काम करने वाले बेल रिंगिंग क्लब को नए सदस्यों की दरकार है. इसके लिए बगैर किसी ख़ास शर्त के सभी आमंत्रित हैं, और किसी पूर्व अनुभव की बाध्यता भी नहीं है.


यदि कभी किसी ने ईवा लोवे को बेल रिंगर्स की कल्पना करने को कहा होता तो उसके मन में अपना अधिकाँश समय घर की  बजाय चर्च में गुजारने वाली, हाथ से बुने हुए पुरानी शैली के कार्डिगन पहनी हुई अनब्याही अधेड़ औरतें आतीं या ट्वीड के हैट सिर पर रखे, फौजी स्वेटर पहने मर्द आते. पर यह नोटिस पढ़ते ही ईवा के मन में अचानक बेल टावर के अन्दर खड़ी खुद का ख्याल जाने कैसे कौंध गया एक समान काम में दिलचस्पी रखने वाले लोगों का  एक गोल बना कर खड़े रहने, सबके चेहरों पर लैम्प से निकलती हुई गुनगुनी और ताम्बई रंग की रोशनी पड़ने और चर्च के पूरे विस्तृत आहाते में बजती हुई घंटी की  ध्वनि के पसर जाने का मंजर एकदम से जीवंत हो गया. वह कभी भी धार्मिक इंसान नहीं रही पर चर्च उसको अलग कारणों से लुभाते रहे, ख़ास तौर पर तब जब क्रिसमस से पहले वाली रात इनमें रोशनी की जाती.... या फसल काटने के समय जौ और पके हुए फलों के चढ़ावे का भण्डार इनके आहातों में इकठ्ठा किया जाता. जब वह बच्ची थी तो एकाध बार लंच टाइम में टहलते हुए स्कूल से लगी  हुई  कब्रगाह में चली गयी थी …  अन्य बच्चे तो खेल कूद में मशगूल रहे पर वह एक एक कब्र के पास जा कर उसपर लिखे नाम पढ़ती रही. उसके पिता ने ऐसा करने से मना किया हुआ था, उनका कहना था कि ईश्वर निरा ढकोसला और झूठ है और स्वर्ग नाम की कोई जगह वास्तव में नहीं होती बस कपोल कल्पना में होती है. इन सबके बावज़ूद ईवा को लगता था कि कब्रगाह से ईश्वर या उसके फरिश्तों का कुछ लेना देना नहीं....बल्कि यह तो सिर्फ उन कामनाओं का प्रतीक है जिसमें पहले से चली आ रही परम्पराओं को बगैर किसी छेड़ छाड़ के यथावत  चलने देने की  निर्दोष  कोशिश है. ईस्टर, फसल कटाई, क्रिसमस --- सदियों से चले आ रहे हैं, और इनमें कभी कहीं कुछ नहीं बदला.


उसको लगा यह प्रतिमा पूजन जैसी कामना है और वह स्थान भी प्रतिमा पूजन का स्थान है -- सदाबहार की घनी झाड़ियों और खूब छितरी गुलाब की डालियों के बीचों बीच खड़ा पत्थर का वह चर्च, उसकी वेदी (ऑल्टर) और पवित्र जल रखने वाला पात्र (फॉन्ट) …… सबसे बढ़ कर उसकी भारी भरकम घंटियाँ.  क्लब के सब के सब सदस्य टॉवर के ऊपर लगी घण्टी के इर्द गिर्द विराजमान ठण्डी और ठहरी हुई हवा के केंद्र में सिमटे हुए, जैसे किसी ऐसे पल का बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं जब कोई आएगा और उनमें दुबारा प्राण फूँक कर पुनर्जीवित कर देगा. उसको खुद पर भी ताज्जुब हो रहा था कि वहाँ खड़े खड़े उसके मन में एकसाथ इतनी सारी बातें आ कैसे गयीं....... सिर्फ एक अदना सा पोस्ट कार्ड पढ़ते-पढ़ते. उसने अपने पर्स में से खरीदने वाले सामानों की लिस्ट वाला कागज़ निकाला और उसपर   बेल रिंगिंग क्लब का फोन नंबर लिख लिया.


संपर्क करने पर मालूम हुआ कि वह फोन नंबर जिस महिला का था वह उसके साथ स्कूल में पढ़ी हुई थी .... हाँलाकि फ़ोन पर वह ठीक तरह से ईवा को पहचान नहीं पायी, पर उसका बर्ताव उसके साथ बेहद अनौपचारिक और प्रेमपूर्ण था. क्लब के अन्य सदस्य भी भले और समझदार लोग थे, ईवा का खूब ख़याल रखते और कभी घंटी बजाने में उस से कोई गलती हो जाती तो विनम्रता से उसे समझाते. मैट जब घर लौट कर आया और ईवा ने चर्च में घण्टी बजाने वाली बात उसको बतायी तो वह जोर से हँस पड़ा. उसके यह काम शुरू करने के तीन हफ्ते बाद वह घर लौटा था और जब ईवा ने बड़े उत्साह से अपने अनुभव सुनाने शुरू किये तो मैट कुछ मिनटों बाद ही उखड़ गया और अपना सिर झटक कर वहाँ  से उठ कर चल दिया.

"चलो, मुझे यह जानकार अच्छा लगा कि तुम्हें कोई ऐसा काम मिल गया जिसमें तुम्हारा मन लग रहा है "मैट ने कहा,"पर ईमानदारी से कहूँ तो मुझे लगता है तुम्हारा दिमाग फिर गया है तुम बावली हो गयी हो पर तुम्हारा मन जब इसी में लगता है तो ……".  मैट को दिखाई दे गया कि ईवा उसकी बातें सुनकर अनमनी हो गयी थी ,और उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दे रही थी पर सबकुछ देख सुन कर भी उसने मामले को समझदारी के साथ सम्भाल लेने का कोई यत्न नहीं किया जैसे इस से उसकी सेहत पर कोई फ़र्क न पड़ता हो. मैट जब घर पर होता है , घंटों फोन पर लगा रहता है या फिर अपने पुराने दोस्तों के साथ ज्यादा समय पब में बिताता है .... 

और यूँ ही देखते देखते उसके वापस जाने का समय आ जाता. ईवा को इसकी उम्मीद कतई नहीं थी कि मैट को अपने किये की कभी समझ आएगी , फिर भी उसके इतने बेफिक्र और उपेक्षापूर्ण ढंग से बर्ताव करने से उसको गहरा धक्का लगा था. मार्था से इस घटना के बारे में बात करने के बाद उसको मैट पर क्रोध भी आया था , हाँलाकि पहले उसके मन में अपमान का भाव था …… जब अपने भाई के ऐसे बर्ताव पर मार्था क्रोध से तिलमिला गयी तो  ईवा  के मन का   गुस्सा नाक तक जा पहुँचा. जब ईवा ने अपने नए काम के बारे में मार्था को बताया तो उसने उसकी हौसला अफ़जाई की सिर्फ यह सोच कर नहीं कि ईवा को दिल बहलाये रखने के लिए किसी हॉबी की दरकार है बल्कि इसलिए भी कि ईवा को चर्च और उसका सारा माहौल आकर्षित करता था -- ख़ास तौर पर उसकी रोशनी , उसकी भारी भरकम घण्टी और उनसे निकलती हुई सम्मोहित कर देने वाली झंकार जो धीरे धीरे गाँव की विस्तृत हरियाली को अपने आगोश में ले लेती है. मार्था दर असल पहले  से ऐसी ही थी. 

उसको शुरू से मालूम था कि भले ही उसके  --- और मैट के  भी -- मन में लोवे खानदान और उसके इतिहास को लेकर  गहरे फ़ख्र  का भाव था, पर खानदान के बाहर से आयी हुई ईवा उनसब को लेकर असहज हो जाती थी .... और लोवे खानदान की  स्मृतियाँ संजोये इस घर के साथ भी ईवा का यही भाव बरकरार रहा. सच्चाई तो यह है कि ईवा उस बड़े से घर में रहते हुए अपना सामाजिक कद बढ़ा हुआ महसूस करती थी, और मार्था के साथ निकटता बढ़ते जाने के साथ उसके मन में एक निश्चिन्तता घर करने लगी कि उस खानदान का कम से कम एक व्यक्ति ऐसा है -- मार्था --- जो उसके पक्ष में खड़ा हुआ रहता है.

उस सुबह ईवा और मार्था के बीच जो बातचीत हुई वह एकदम चौंकाने वाली थी बिजली के किसी झटके जैसी मार्था ने बात करते करते घुमा फिरा कर यह स्वीकार किया कि उसका कोई अफेयर चल रहा है, हाँलाकि  उसने अपनी तरफ़ से यह ज़ाहिर न होने देने की  भरसक कोशिश की कि  इसमें चौंकने जैसी कोई बात है. बात की गम्भीरता को कम करने करने की नीयत से ही वो उसदिन किचेन में आकर बैठी थी और साथ में शराब भी मँगा कर रख ली थी. जहाँ तक ईवा का सवाल है उसको दिन में ड्रिंक करने की आदत नहीं है, पर क्रिसमस सिर पर होने की  वजह से उसने भी कोई ना नुकुर नहीं की और मार्था के कहने पर फ्रिज से व्हाइट वाइन की एक बोतल निकाल कर ले आयी .... आम तौर पर वह मार्था के साथ बातचीत करते हुए बिस्किट और कॉफ़ी साथ रखती है.

मार्था दूसरा पैग लेने के बाद से खुलती चली गयी .... कि जेम्स के साथ वह कितना  यातनापूर्ण जीवन  बिता रही है .... और अब यह बात उस के बर्दाश्त से बाहर हो गयी  है कि कोई उसके मन की कोई बात न सुने और बस एक के बाद एक अपनी मर्ज़ी उसके ऊपर थोपता चला जाए. 

"मैं औरों के साथ छल या दिखावा तो कर सकती हूँ ईवा .... पर खुद को कैसे भरम में रखूँ ?"मार्था बोली और यह बोलते हुए वह ऐसी कोई ख़ास विचलित या भावुक नहीं दिखाई दे रही थी. ईवा का स्वभाव ऐसा था कि जब सामने बैठे लोगबाग अपनी परेशानियों की दास्तान  सुनाते रहते हैं तब वह मन ही मन सोचती है कि ऐसा कर के वे उन परेशानियों से पार पाने के अपने अपनाये हुए उपायों पर उसकी सहमति की मुहर लगवाना चाहते होते हैं ....... पर वह इस मसले में उन्हें गलत या सही होने का सर्टिफिकेट देने वाली आख़िर होती कौन है ? ईवा  मार्था की बातें सुन कर उसकी बाबत अनवरत सोचती रही ,और उसको लगा कि मार्था जो कह रही है उसपर उसकी सहमति है पर मुँह से बोली सिर्फ इतना कि "कोई इन्सान  घुट घुट कर मर जाएगा यदि उसके जीवन से मनफ़ी हो जाये. "

ईवा के हाव भाव से लग रहा था कि उसको मार्था से यह सुनकर ख़ासा अफ़सोस हुआ है .... और वह मार्था के कुछ और खुलासा करने की उम्मीद कर रही है  .... आगे न वह कुछ बोली, न उसकी उम्मीद पूरी हो पायी.

"संग साथ नजदीकी "मार्था ने अधूरा वाक्य पूरा किया और ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर संतुष्टि का भाव साफ़ उभर आया. उसने ईवा की ओर इस तरह देखा जैसे अभी आगे उस से कुछ और पूछने जा रही हो पर लगता है  एकदम से उसका मन बदल गया और उसने सिर्फ यह कहा : "ईवा ,मैं इस वक्त सेक्स की बात नहीं कर रही हूँ या यह कह लो कि सिर्फ और सिर्फ सेक्स की बात नहीं कर रही हूँ मैं दर असल संग, साथ, नजदीकी की बात कर रही हूँ ……  एक आलिंगन एक छुअन बस इतना काफ़ी है."

यह कहने के बाद वह कुछ पल को ठहरी ,और हलकी सी मोहक हँसी के साथ मार्था ने अपनी बात पूरी की :"ठीक है चलो मान लो  कि इस समय मैं सेक्स की ही बात कर रही हूँ. "

ईवा को मार्था की बातें सुनकर अचानक हँसी छूट गयी, हांलाकि अपने इस बर्ताव पर उसको अचरज नहीं हुआ .... पूछा :"इस मसले पर जेम्स की क्या राय है ?"

मार्था यह सवाल सुनकर भड़क गयी,तमक कर बोली :"भाड़ में गया उल्लू का पट्ठा जेम्स."मार्था जब गुस्से में होती है तो जाने क्यों वह अपनी उम्र से ज्यादा की दिखने लगती और जैसी है उस से कम सुन्दर भी उसको शायद इसका एहसास है क्योंकि गुस्सा आने पर वह अपना माथा जान बूझ कर नीचे झुका लेती है. वैसे ही सिर झुकाये हुए थोडा ठहर कर मार्था बोली : "मुझे अच्छी तरह मालूम है ईवा कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है .... यह मुझे कहीं नहीं ले जायेगा "यह  बोलते हुए मार्था ने अपना माथा ऊपर उठाया ,उसके चेहते पर निश्चय  और सन्तुष्टि के मिश्रित भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे: "बस ये सब कुछ यँर ही हो गया .... अचानक बगैर किसी सोची समझी योजना के....हमारे बगैर कुछ किये , बस यूँ ही. "

मार्था की बातें सुनकर ईवा को समझ नहीं आया कि जवाब में कहे तो क्या कहे .... हाँ, कभी पहले उसकी कही हुई यह बात जरूर उसको  इस मौके पर याद आ गयी कि जेम्स वैसे है तो बहुत घुन्ना और शातिर , पर उसको को इस बात की कोई खबर हो ऐसा लगता नहीं. वह बड़े रसूख वाला आदमी है और उसके हाथ बहुत दूर तक पहुँच सकते हैं कहीं तक भी वह जा कर अपना लक्ष्य हासिल  कर सकता है ,कीमत चाहे जो भी अदा करनी पड़े.  मार्था की जेम्स के बारे में कही बात इस वक्त ईवा को मैट पर भी एकदम सटीक बैठती हुई दिखाई दी अक्षर शः सत्य. ऊपर से देखने पर सीधे सादे  और चिकने चुपड़े, पर साथ वाले के प्रति पूर्णतया संवेदन शून्य और निर्मम. किसी को कानों कान खबर न हो और दूर तक का हिसाब किताब देख कर  षड्यंत्र के जाल बुन कर पल भर में इकतरफ़ा और क्रूर  फैसले ले लेने वाले लोग, जिनके जीवन में कभी न बदलने वाले दकियानूसी मूल्यों से साधा गया सिर्फ और सिर्फ उनका इकलौता हित होता है बाकी दुनिया गयी  भाड़ में.

जेम्स को जैसे ही इस अफ़ेयर का पता चलेगा वह बड़ा सा कसाई वाला छुरा लेकर मार्था और उसके प्रेमी को सड़क पर दौड़ाने से तो रहा और भी बेहतर तरीके उसको मालूम हैं --- कानूनी तरीका, हो सकता है --- जिस से वह उन दोनों का इस भरी दुनिया में  जीना पल भर में  दूभर कर सकता है.

मार्था मुस्कुरायी .... वह अपने ख्यालों में गहरे कहीं खोयी हुई थी. .... "मुझे अच्छी तरह मालूम है ईवा कि इस से मेरे जीवन में कोई बदलाव आ जाएगा ऐसा बिलकुल नहीं है"यह प्रकट रूप में तो वह ईवा को सम्बोधित कर के कह रही थी, पर जाहिर है खुद से ज्यादा मुखातिब थी.  यह कहने के बाद कोई एक मिनट वह चुप रही, फिर कहा : "जानती हो ईवा, जीवन जीने को सिर्फ एक बार ही मिलता है....दुबारा नहीं ……  बोलो ,क्या यह सच नहीं ?"

 ईवा ने अपना माथा हिलाया और उठ खड़ी हुई .... जैसे अचानक उसको कोई काम याद आ गया हो. उसको भली प्रकार मालूम था कि मार्था को उसका बीच में से ऐसे उठ जाना नागवार गुजरेगा, पर उसके लिए अब वहाँ और बैठना मुमकिन नहीं था .... उसको घर से बाहर निकलना ही होगा उस घर से जो मार्था के पूर्वजों का था और वे उसकी सारी बातें सुन रहे थे …… वह उस क्षण मैट की स्मृतियों से भी मुक्त होने को व्याकुल हो गयी थीकल्पना करने लगी कि जैसे ही मैट को मार्था के अफ़ेयर का पता चलेगा, उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी ?

और तो और वह क्या सोचेगा जब उसको आगे यह पता चलेगा कि ईवा को मार्था के अफ़ेयर के बारे में पहले से सब कुछ पता था. ईवा ने अपना ग्लास उठाया और किचेन के सिंक में रखते हुए बोल पड़ी :"हाय राम ,जरा घड़ी की ओर तो ताको .... कितना समय हो गया. "यह कहते हुए भी ईवा को अपने इस अजीबोगरीब और अशिष्ट बर्ताव का पता था. उसने पलट कर मार्था को देखा .... मन में कहीं उसको ऐसा करते अफ़सोस हो रहा था ,पर वह वास्तव में बुरी तरह खीझ गयी थी …  हो सकता है इसकी वजह यह रही हो कि वह इस दुराव छुपाव के खेल की  भागीदारी से बचना चाहती हो या यह कि वह अपने मन को संग साथ नजदीकी जैसे भावों और अफेयर की परत दर परत बारीकियों के झमेलों से दूर रखना चाहती हो …  या इन दुर्बल करने वाले भावों से पूर्णतया मुक्ति चाहती हो.

उसकी बातों का मार्था ने बुरा नहीं माना ,पर वह चौंक जरूर गयी …… "तुम्हें कहीं जाना है क्या ईवा ?"  उसने पूछ ही लिया.

"सॉरी ,मुझे बस.... मैं चर्च में बेल रिंगिंग के लिए लेट हो जाऊँगी मार्था."ईवा ने कहा और अपनी नजरें दूसरी ओर फेर लीं पर उसको यह समझ नहीं आया कि इसमें ऐसी क्या बात थी कि अचानक उसकी आँखों में आँसू छलक आये --- इतना ही नहीं, अंदर से बाहर निकलने को जोर लगाती जबर्दस्त रुलाई को रोकने के लिए उसको भरसक जोर लगाना पड़ा …… यदि वह रुलाई उसके रोके न रूकती और फूट पड़ती तो कितने  शर्म की बात हो जाती.

पर मार्था थी कि उसके चेहरे के भाव बिलकुल नहीं बदले .... जैसे भाड़ में गयीं उसकी अपनी परेशानियाँ, अभी इस पल तो ईवा के प्रति उसकी जवाबदेही सबसे पहले थी. वह बोली : "सॉरी ईवामुझे अपने इस मसल का पिटारा इस तरह तुम्हारे सामने फैलाना नहीं चाहिए था .... मुझसे शायद गलती हो गयी. "फिर उसने अपने गिलास की ओर देखा, लगभग खाली हो चुका था. वह दुबारा अपनी जगह बैठ गयी उदास सी मुस्कुराहट मार्था के चेहरे पर छा गयी.

"कुछ राज ऐसे होते हैं ईवा जिन्हें राज ही रहने दिया जाये तो  अच्छा होता है . "मार्था लगभग फुसफुसाते हुए बोली.

ईवा ने असहमति में सिर हिलाया ,कहा :"ऐसा नहीं है मार्था .... मुझे लगता है तुम्हें  इससे ख़ुशी बेशक मिलेगी .... तुम्हें अच्छा लगेगा. "

यह बात सुनकर मार्था की  बेसाख्ता हँसी छूट गयी ,"पर मुझे इसका भरोसा नहीं हो  रहा ईवा "य़ह कहते कहते उसकी आवाज़ में रुखाई का भाव आ गया. वह एकटक ईवा की और निहारती रही ,फिर अपना सिर मोड़ते हुए दुबारा हँस पड़ी :"मुझे शक है ईवा कि इस से हममें से किसी को भी कोई ख़ुशी मिल पायेगी .... सब के सब दुःख ही पायेंगे. "

मार्था ने यह सब निष्कर्ष इतने धड़ल्ले से निकाल लिया कि ईवा को उनका विश्लेषण करने का मौका ही नहीं मिला .... मार्था भी यह सब कहते हुए अफ़सोसज़दा नहीं लग रही थी , "चलो ईवा, अब तुम यहाँ से निकलो. "

पल भर को मार्था ठिठकी और वहाँ से बाहर निकलने के लिए मुड़ती ईवा को निहारती रही. उसको फिर से हँसी आ गयी उसने गिलास थामे हुए अपनी बाँह ऊपर उठा ली.

"अब चलो जाओ  ईवा .... एकदम अभी इसी पल. "यह कहते हुए मार्था के स्वर में न तो मजाकियापन था और न ही हताशा का भाव.  उठ कर उसने अपने गिलास में दुबारा वाइन उड़ेल ली.

"और ईश्वर हमारे ऊपर मेहरबान बना रहे हम सब के ऊपर. "बाहर निकलने के लिए कोट पहनते पहनते ईवा बोली.

आनन फानन में चर्च पहुँच कर ईवा ने देखा कि क्लब के बाकी सारे लोग पहले ही आ चुके थे पर वह इतनी लेट भी नहीं हुई थी जितने का उसको अंदेशा था, और सब उसकी प्रतीक्षा में ठहरे हुए थे उन्होने घण्टी बजाना चालू नहीं किया था, सब उसकी  राह   देख रहे थे. किसी ने ईवा को कुछ कहा नहीं ....वैसे भी कभी वे उसकी टोका टाकी  नहीं करते थे.  उसकी पहचान उन लोगों के साथ वहाँ आ कर ही हुई,पहले से कोई वाकफ़ियत नहीं थी .... बस ये था कि वे सभी समान विचारों वाले लोग थे जो अपनी अपनी इच्छा से इस काम में जुट गए थे हाँ , उनको एक समानता समूह में बाँधे हुए थी.

चर्च से बाहर की दुनिया में वे कहाँ कैसे रहते हैं और क्या करते हैं,वह एकदम से अलहदा मुद्दा था. रिचर्ड ,कैथरीन,ग्रेस, सिमॉन , जॉन : जैसे ही वे अपने अपने कोट पहनते हैं और स्कार्फ़ गले में डालते है -- वे भिन्न भिन्न लोग हैं पर ईवा को बिलकुल वैसे ही   दिखाई देते हैं  घण्टी बजाने वाले लोगों के क्लब में जिनके हावभाव और पहनावे की  यहाँ आते हुए उसने कल्पना की थी....ट्वीड के कैप और साइकिल की क्लिप , दीन  हीन  से दिखाई देते ,चेहरे की  रंगत उड़ी उड़ी, ऊपरी हावभाव से मन के अन्दर के रहस्यों को दबाते हुए. शुरूआती कुछ हफ़्तों में वह कुछ हैरान परेशान भी रही --- उसने यह सोच कर क्लब ज्वाइन किया था कि वहाँ जाकर कुछ नए नवेले चेहरे वाले दोस्त बना पायेगी पर यहाँ आकर मालूम हुआ कि क्लब के सदस्यों को नियत समय पर वहाँ एकत्र होने ,घण्टी बजाने और अपने अपने घर लौट जाने के सिवा किसी और बात से मतलब नहीं था.


क्लब के सदस्यों में सिर्फ़ एक अपवाद हर्ले था -- वह क्लब का  सबसे नया सदस्य था,और व्यवहार में अन्य सदस्यों से अलहदा भी था. उसके आने पर ईवा को अच्छा लगा था जवान, अनौपचारिक से कपड़े पहनने वाला, बेहद  खूबसूरत और लुभावना अमेरिका के इलिनॉय या आयोवा से आया हुआ ,पर ईवा को ठीक ठीक उसके शहर का पता नहीं था. शुरू शुरू में वह जिज्ञासा वश चर्च में आया .... इस ढंग से चर्च में घण्टी बजाना उसको विस्मृत हो चुकी पुरातन दुनिया की अनोखी परम्परा जैसा लगा,जैसे गुनगुनी बीयर हो या   पीढ़ियों पहले क्रिसमस के समय बनाया जाने वाला कोई पारम्परिक स्कॉटिश पकवान …… और यहाँ स्कॉटलैंड में रहते हुए ऐसे मौकों को  देखने महसूस करने के अवसर हाथ से जाने देना शर्म की बात होती. उसने क्लब के बारे में सुना तो उसमें शामिल होने की इच्छा जाहिर की, और क्लब के सदस्यों ने भी उसको शामिल करने में कोई कोताही नहीं बरती हाँलाकि उसकी उम्र , बोलने का  भिन्न लहजा  और अजीबो गरीब जुमले लिखे हुए खूब चटक रंग के स्वेटशर्ट पहनने का शौक क्लब के अन्य सदस्यों से बिलकुल मेल नहीं खाता था. ख़ास तौर पर कैथरीन उसको खूब पसंद करती और अक्सर उसके लिए अपने बाग़ से ताज़े सेब और खाने पीने का ढ़ेर सारा सामान लेकर आती. उम्र की देखें तो वह उसकी माँ जैसी होगी, पर कई बार ईवा को महसूस होता कि कैथरीन की नजरों में सिर्फ मातृत्व भाव नहीं और कुछ भी था. आम तौर पर जैसे अमेरिकी होते हैं, हर्ले भी उसके साथ बड़ी अदब के साथ पेश आता ....


देखने पर बेहद विनम्र और घनिष्ठ,पर उतने ही निर्विकार भी .... जैसे सामने वाले की बला से, उसके निजी जीवन में जो होना हो होता रहे.


जहाँ तक ईवा का सवाल था वह हर्ले के साथ कोमलता के साथ पेश आती पर बेहद सजगता भी बरतती सायास एक दूरी भी बनाये रखती. पर अक्सर वह मन ही मन उसके साथ साझा पलों के ख्वाब भी बुनती .... सेक्स नहीं, पर किस ढंग का साथ इसका बहुत स्पष्ट खाका या तस्वीर उसके मन में भी साफ़ नहीं थी .... हाँ ,साथ की ख्वाहिश स्पष्ट जरूर थी. वह पिकनिक हो सकती थी या लाठोकर के घने जंगलों में साथ साथ लम्बी दूरी तक सैर करना हो सकता था.  जब जब भी ईवा ऐसे पलों के बारे में कल्पना करती, ईवा और हर्ले के शरीर कभी एक दूसरे के साथ छूते नहीं --- ऐसा नहीं था कि हर्ले को देख कर उसके बदन में सुरसुरी नहीं उठती पर उसको इधर यह महसूस होने लगा था कि वह खुद ऊपर से चाहे जैसी दिखाई दे मन के अन्दर से वह हद दर्जे की दकियानूस और अंधविश्वासी प्रकृति की है


इतना  ही नहीं वह इस बात की कल्पना करने से डरती बचती भी थी जो उसके मन में हर्ले को लेकर अक्सर ताज़ा हवा के एक झोंके की मानिन्द आया करती थी. उसको अंदेशा था कि जैसे ही वह उनके बारे में तस्वीर बनाना शुरू करेगी , वे असम्भव के बियावान में जाकर कहीं गुम  हो जायेंगे


हाँलाकि वह मार्था की कही हुई बातों को अपने ध्यान में आने से रोक नहीं पायी और जब घण्टी तक ले जाने वाले सँकरे और अंधेरे गलियारे में ईवा हर्ले के साथ साथ चल रही थी तब बार बार उसकी निगाहें हर्ले के हाथों पर जाकर टिक जातीं -- और मर्दों से कितने अलग बला के सुन्दर, नाज़ुक और कोमल हाथ हैं.... पर दुर्बल नहीं, किसी पियानो बजाने वाले या डांसर की तरह भरपूर शक्तिशाली. हाथ देख कर जैसे ही उसके मन में जन्म लेती कल्पना अपने  साजो सामान का पिटारा खोलने लगी, ईवा ने डर कर  निर्ममता के साथ उनपर ठण्डे पानी की तेज़ बौछार कर दी --- उसको लगा हर्ले के बारे में उसका ऐसा सोचना उचित नहीं. हाँ, चंचल   उड़नशील मन था कि बार बार हर्ले के उसी ठिकाने पर लौट आता था -- उसकी काली आँखें, चलने का उसका अनूठा ढ़ंग ,उसके हाथों का सलोनापन ध्यान बँटाने की उसकी भरसक कोशिशें  नाकाम हुई जा रही थीं. उन हाथों को ईवा अपने बदन पर महसूस करना चाहती थी हौले से , भरपूर कोमलता के साथ , शालीनता के साथ


उनमें भारीपन और कब्ज़े का कोई भाव  कतई न हो .... इतने हल्केपन के साथ जैसे कोई परिन्दा नीचे आ  कर दरख़्त की किसी शाखा पर या शिला पर उतरता है---  पक्का ठिकाना बनाने के विचार से बिलकुल निरपेक्ष सिर्फ़ कुछ समय के लिए कन्धा टिकाने को ---- इतने हौले से कि अगले ही पल उड़ने की नौबत आन पड़े तो मुश्किल न हो.

इन तमाम दिनों में -- जब चर्च के पूरे आसपास बर्फ की परत दर परत मोटी चादर बिछती रही , ईवा का ध्यान निरन्तर हर्ले की ओर ही लगा रहा. बेल रिंगर्स इस समाज के जीवन के केंद्र में रची बसी प्राचीन परिपाटी को पुनर्जीवित करने का यत्न करते रहे, और ईवा यह सोच सोच कर रोमांचित हुआ करती रही कि अभी एक पीढ़ी ही तो गुजरी है जब गाँव समाज की सड़कों और मैदानों में जब जब चर्च की घण्टियों की ध्वनि सुनायी देती लोगबाग सुनते ही यह  समझ जाते ये कह क्या रही हैं --- कि ये पूजा के लिए कह रही हैं, या किसी राजसी विवाह की सूचना दे रही हैं या युद्ध विराम की  या कि दुश्मन के हमला करने की बात.

तत्कालीन समाज में कोई ऐसा नहीं  था जिसको घण्टियों की ध्वनि के अंदर समाहित यह सन्देश समझ न आये --- उस समय का चलन यही था, जीवन शैली यही थी. पर कहीं इस से ज्यादा भी कुछ था .... कुछ धुनें ज़रूर ऐसी थीं जो सार्वजनिक तौर पर ऊपर से सुनायी नहीं देती थीं पर कहीं कुछ ऐसे कुदरती प्रतिभा सम्पन्न लोग ज़रूर बसते होंगे जिनमें उन स्वर लहरियों के अन्दर की धड़कनें सुन सकने की क्षमता होगी ,वे उसको पकड़ सकते होंगे, स्पर्श कर सकते होंगे एक ध्वनि  के उत्पन्न होने पर दूसरी ध्वनि कैसे प्रतिक्रिया करती हैया घण्टी बजाते बजाते कोई रिंगर अचानक कैसे ठहर जाता है --- अनिर्णय के शिकार होकर .... या कि किसी आशंका से सहम कर

या फिर आसन्न मृत्यु की कल्पना करते हुए. अभी ,इस पल, घण्टियों की ध्वनियाँ महज़ पृष्ठ भूमि के तौर पर काम करती लगती हों पर इस मरण शील संसार में कुछ गिनी चुनी रूहें ज़रूर विचरण करती होंगी जो घण्टी बजाने वाले इन्सानों के मन के अन्दर चल रहे ख़ामोश व्यापार की आहट एकदम से पढ़ लेती होंगी. यदि ऐसा सोचना सही है तो ईवा भी उनसे कहाँ बच पायेगी उसके  मन के अन्दर कैसी हिलोरें उठ रही हैं इसकी ख़बर भी उन्हें आसानी से पलक झपकते ही मिल जायेगी .... चाहे उसकी शादी का दिखावटी झूठापन हो ,हर्ले के बारे में उसके मन के अन्दर चल रही उथल पुथल हो, इन जंजालों से मुक्त होकर कहीं भाग जाने के कई बार सिर  उठाने वाले उसके अधकचरे ख़याल हों.

घण्टी बजाने के लिए एक एक कर खींचा गया रस्सा गाँव के आख़िरी छोर पर बैठे किसी बूढ़े बुज़ुर्ग को ज़रूर यह ज़ाहिर कर देता होगा कि ईवा के मन के अन्दर उस पल क्या भाव पालथी मार कर बैठे हुए हैं .... या जंगल के अन्दर बनी हुई झोपड़ी में आख़िरी साँस लेती हुई किसी बुढ़िया  की नजरों से कुछ भी छुपा नहीं रह पाता होगा ....  या घण्टियों  की ध्वनियाँ समझने में महारत हासिल कोई इन्सान असहज होकर हाथ में थामी किताब परे रख देता होगा और बदली हुई आवाज़ों की परतें खोलने लगता होगा कहीं इनमें से किसी को पता न चल जाये कि उस बेल रिंगर की असलियत क्या है जिसका  अन्तर्मन घण्टियों की इन ध्वनियों के साथ साथ बह कर बाहर चला आ रहा है. उसको इस स्थिति से खौफ़ होता --- मन का एक छोर खौफ़ का भाव पैदा करता तो दूसरा सिरा पुलकित आनन्दित भी करता .... बात यह थी कि कहीं गहरे रूप में उसका मन इस बात की ज़िद भी करता कि एक बारगी वह खुल कर सब कुछ ज़ाहिरा तौर पर स्पष्ट क्यों नहीं  कर देती … कि बेशक  वह ऊपर से एक भली और वफ़ादार पत्नी दिखाई देती हो  पर वास्तव में यह निरा ढ़कोसला है .... सच्चाई उस से एकदम विपरीत है और प्रकट रूप में वह जैसी दिखाई देती है वैसी है बिलकुल नहीं .... उसका दिल बार बार ईवा को मजबूर करता कि वह अपनी वास्तविकता उजागर कर दे और वह भी अकेले में कन्फेशन बॉक्स के अन्दर फुसफुसाते हुए नहीं बल्कि सबको जोर जोर से सुनाते हुए अपने मन की बात साहस जुटा कर कह ही डाले.

ईवा चर्च से जब बाहर निकली तब भी बर्फ़ गिर रही थी हरे भरे पेड़ों को अपने आगोश में लिए हुए .... क्रिसमस के लिए सजी धजी दूकानों में रंग बिरंगी रोशनी जली हुई थी. कसाई और ग्रोसर की दूकान के खिड़की दरवाज़े पर नीले रंग की  पट्टियाँ चमक रही थीं. अब ईवा को क्रिसमस से भी घबराहट होने लगी थी ,त्यौहार के नाम पर हर बार की तरह जेम्स और मार्था मिलने घर ज़रूर  आयेंगे .... और उसको उनके साथ यह जतलाते हुए बैठना भी पड़ेगा कि उसके और मैट के बीच सब कुछ एकदम सहज सामान्य चल रहा है गप्पें मारते हुए शराब के दौर में साथ बैठना भी पड़ेगा

खाते पीते हुए मैट जब आदतन उसकी बनायीं मिन्स पाई का मज़ाक उड़ायेगा  तब भी उसको किसी  हाल में अपना आपा  नहीं  खोना होगा .... ईवा ने तय कर लिया है कि इस बार वह मिन्स पाई ख़ुद नहीं बनायेगी बल्कि नयी खुली दूकान से खरीद कर ले आयेगी और खामोशी से इंतज़ार करेगी कि देखें, कोई घर की बनी और बाज़ार से खरीद कर लायी हुई मिन्स पाई में अन्तर कर पाता है या नहीं 

बल्कि बेहतर तो यह होगा कि उस दिन वह चुपचाप  बिना बताये घर से बाहर निकल पड़े  और जंगल में लम्बी सैर  कर आए. .... ताज़ा पड़ी बर्फ़  पर अपने कदमों के निशान  छोड़ती हुई काफ़ी आगे निकल कर ठहरे ,पीछे मुड़े और वहाँ से उनकी लम्बी रेखा को निहारे -- बचपन में उसके पिता अक्सर ऐसा किया करते थे. यह सोचते सोचते एकबारगी उसको एहसास हुआ कि पिता की मृत्यु के बाद से शायद ही वह कभी जंगल में सैर को आयी होया घास के उन प्रशस्त मैदानों में निकली हो गर्मी की शामों में जहाँ पिता उसको फतिंगों  के झुण्ड दिखाने लाया करते थे .... उन फतिंगों के अलग अलग नाम पहले तो वे उस स्थानीय भाषा में बताते जिसे ईवा बोलती समझती है,फिर अपनी मातृभाषा में …… हाँलाकि कई फतिंगे ऐसे भी होते जो सिर्फ़ इस इलाके में होते हैं पिता के छूट चुके देश में नहीं.

"हाय …… कैसी हो ?"
आवाज़  सुन कर ईवा मुड़ी तो पीछे के पोर्च में उसको हर्ले दिखाई पड़ा …… कोट के बटन ऊपर तक बंद किये, अपनी ऊनी कैप से कान ढँके. ईवा को ध्यान आया कभी किसी बात में उसने बताया था कि ठण्डे मौसम और बर्फ़बारी का उसको अभ्यास है ,वह ऐसे ही ठण्डे इलाके का रहने वाला है. उसे लगा हर्ले के अपने शहर के बारे में उसको पता होना चाहिए था कि वह हरियाली रहित मैदानी इलाके का रहने वाला है ,या घने जंगली इलाके का ?

"मुझे लग रहा है जैसे इस बार क्रिसमस पर  चारों ओर बर्फ़ ही बर्फ़ दिखेगी ",वह बोली …… "पर ऐसे मौसम के तुम शायद अभ्यस्त हो .... वैसे तुम रहते कहाँ हो ?"

"हाँ ,हमारी तरफ़ भी खूब बर्फ़ पड़ती है .... ऐसी ही ,झड़ी की झड़ी "मुस्कुराते हुए उसने जवाब दियाफिर थोड़ी देर को चुप खड़ा रहा तो ईवा को लगा जैसे उसके चेहरे पर उसने अचानक कुछ देख लिया हो स्मृति ,या हो सकता है घर के प्रति थोड़ा सा क्षणिक खिंचाव. उसको देख कर ऐसा लग रहा था कि उसका मन कुछ कुछ उलझा हुआ सा है, जैसे कोई गुत्थी बार बार कौंध रही हो पर साफ़ साफ़ दिखायी न दे रही हो समझ न आ रही हो. हो सकता है हर्ले किसी लड़की के बारे में सोचने लग गया हो. वैसे इस उम्र में वह किसी लड़की के बारे में क्यों न सोचे भला सुन्दर कमसिन सी लड़की, इलिनॉय में या  आयोवा में घने काले केश वाली लड़की जिसकी आँखों पर पढ़ाई के समय चश्मा चढ़ा हुआ रहे और उसको पहनते ही वह खासी सीरियस दिखने लगे खूबसूरत, तेज तर्रार और मज़ाकिया भी …… हर्ले की तुलना में खूब ज्यादा बोलने वाली लड़की, तभी तो वह उस से प्यार करने लगा होगा क्या  मालूम, इस कारण उस लड़की का ही मन हर्ले पर आ गया हो. 

"क्रिसमस में तुम अपने घर जा रहे हो ?"ईवा ने जानना चाहा.
यह अप्रत्याशित सवाल सुनकर पहले तो वह थोडा सकपका सा गया जैसे ऐसा पूछना किसी की निजी ज़िन्दगी में बिला वजह ताक झाँक करने जैसा और शालीनता के विपरीत हो. .... फिर कुछ सोच कर बोला :"ओह,नहीं मैं घर नहीं कहीं बाहर जाने की सोच हूँ .... हो सकता है पेरिस चला जाऊँ. '

"पेरिस ?"ईवा को यह जवाब बड़ा अटपटा लगा .... उसको लग रहा था कि जाना हो तो त्योहार के इस मौके पर उसको घर जाना चाहिये अपने परिवार में, या फिर उस लड़की के पास नितांत अजनबी लोगों के बीच किसी विदेशी शहर में क्रिसमस मनाने का आखिर क्या तुक ?वह बोल पड़ी : "सचमुच ?"

हर्ले फिर हँस पड़ा ,बोला : "मैं भी पक्के तौर पर नहीं जानता हो सकता है पेरिस, या कहीं और अभी कह नहीं सकता. "यह  कहते हुए उसने पोर्च से बाहर सिर निकाल कर आस पास देखा बर्फ़ अब भी गिरती जा रही थी ,बोला : "यह भी सम्भव है कि मैं कहीं न जाऊँ .... यहीं रह जाऊँ. "

ईवा को उसका यह जवाब बिलकुल नहीं भाया , बोली : "भूल कर भी ऐसा नहीं करना .... जाना हो तो चले जाओ पेरिस …… वहाँ स्कीइंग करो .... या और भी जो जी में आये करो .... पर यहाँ बिलकुल मत रहना, त्योहार का समय जो है. "

हर्ले को ईवा की बेसब्री देख कर हँसी आ गयी पर जैसे ही उसकी नजर ईवा के धीर गम्भीर चेहरे पर पड़ी वह हामी भरने की मुद्रा में आ गया. ईवा ने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की, पर जैसे ही उसको आभास हुआ कि कुछ बेहद प्रिय वस्तु उस से दूर चली जायेगी उसका मन फिर से भारी हो गया

उसको हर्ले पर तरस आया, आयोवा की उस खूबसूरत और तेज तर्रार लड़की पर भी तरस आया जो अपनी किताबे और चश्मा थामे ना उम्मीदी में यूँ ही खड़ी खड़ी हर्ले का रास्ता ताकती रह जायेगी. सोच की  इस श्रृंखला के बीच ईवा को अपनी बेवकूफ़ाना हरकत पर अफ़सोस  भी हुआ पर उसने इस विचार को फ़ौरन झटक कर खुद से परे फेंक दिया .... हर्ले उसके मन के अन्दर के इस उथल पुथल को शायद भाँप गया था, तभी तो पास आकर हौले से  उसने ईवा के कोट की बाँह पर अपना हाथ रख दिया पर अगले ही पल एक झटके के साथ हाथ हटा भी लियाजैसे ऐसा कर के वह एकाएक खुद ही चौंक भी गया हो ,बोला : "सॉरी, मुझे अभी कहीं जाना है अच्छी रहना , ओ के. "


ईवा ने जवाब में सिर हिलाया, थोड़ी मुस्कराहट उसके चेहरे पर लौटी भी पर हर्ले तो उलटी दिशा में अपने कदम बढ़ाने लगा था उस से दूर, बाहर निकलने वाले गेट  की ओर, लम्बे लम्बे डग भरता हुआ बाहर निकल कर सड़क पर चलते हुए आसमान से गिरती हुई बर्फ़ उसके कोट और ऊनी कैप को ढँकने लगी थी. इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से ईवा हतप्रभ थी और उसको लगने लगा  कि अब इस पल घर लौट जाने के सिवा कोई और उपाय नहीं था पर उसका मन था कि किसी भी सूरत में पति के घर लौटने को राजी नहीं था .... सो काफी देर तक अन्यमनस्क भाव से वह वहीँ पोर्च में खड़ी रही, बर्फ़ भी बिना रुके जहाँ तक निगाह जाती दूर दूर तक गिरती ही दिखाई दे रही थी. हर्ले चला गया .... और अंततः निगाहों से ओझल भी हो गया.


ईवा सोचने लगी, अभी अभी तो यहीं पास में खड़ा था, यहाँ से निकल के सड़क पर चलता हुआ भी दिखायी दे रहा था .... इस तरह अचानक गुम कहाँ हो गया. उसको तो यह भी नहीं मालूम कि  वह रहता कहाँ है, इतना ही  पता है कि गाँव के बाहर किसी ऐसे मकान में रहता हैं जहाँ कुछ और भी लोग रहते हैं .... शायद जंगल पार कर के पश्चिम दिशा में पड़ता है उसका कमरा, यहाँ से आधा मील दूर होगा हो सकता है ज्यादा ही दूर हो .... एकदम से उसका मन ग्लानि से भर गया कि इस क्रूर मौसम में आखिर उसने अपनी कार में बिठा कर हर्ले को उसके कमरे तक क्यों नहीं छोड़ दिया.  पर उसने ही तो बताया था कि ठण्डे मौसम का उसको भरपूर अनुभव है .... और बर्फ़ की मोटी चादर ओढ़ी सड़क पर उसको अपनी कार में बिठा कर छोड़ने जाना ख़तरनाक भी तो हो सकता था …  बिलकुल सुनसान रास्ते में सिर्फ़ उसके साथ कार के अंदरवह भी अंधेरे में बर्फ़बारी के बीच शायद उसके मुँह से कुछ ऐसा वैसा निकल जाता जिसके लिए जीवन भर उसको पश्चात्ताप करना पड़ता .... कुछ भी तो हो सकता था.

पर यहाँ से निकल जाने के  बाद भी पेड़ों की कतार के उस पार दूर दूर तक हर्ले  का कोई नामो निशान नहीं .... आखिर कहाँ गुम हो गया .... ईवा  के मन में यह जिज्ञासा इसलिए नहीं पैदा हुई कि दौड़ कर वह हर्ले के पीछे हो लेगी .... या अपनी कार ले जाकर उसके बगल में रोक देगी और लिफ्ट देकर उसको कमरे तक छोड़ आएगी .... उसके मन के अंदर लोभ का कोई भाव नहीं था, बल्कि सामान्य जिज्ञासा उत्सुकता मात्र थी. इसी उत्सुकता ने उसे बाहर बर्फ़ में निकलने पर मजबूर किया और खीच कर बाहर निकलने वाले गेट तक ले आयी जैसे कोई बाजीगर उसके ऊपर अपने हाथ की सफ़ाई आजमा  रहा हो .... ऐसे दुर्लभ मौकों पर आप वशीभूत होकर चुपचाप सब कुछ अकल्पनीय  होता हुआ देखते रहते हैं, घटना क्रम की बखिया उधेड़ने नहीं बैठ जाते.ईवा को भी ऐसे ही जादुई सम्मोहन की अनुभूति हो रही थी, हाँलाकि हर्ले की शक्ल दूर दूर तक नहीं  दिखायी पड़  रही थी ....

जाहिर था वहाँ  उसकी मौज़ूदगी नहीं थी, वह पहले ही वहाँ से निकल चूका था. क्लब के नया सदस्य भी जा चुके थे, सिवा कैथरीन के जो थोड़ी दूरी पर अपनी कार में कुछ सामान रखते दिखायी दे रही थी. दुकानों के अंदर भी कोई खरीदार नहीं सिर्फ वहाँ काम करने वाले लोग ही बचे थे  …. ग्रोसर के यहाँ काम करने वाली लड़की अपने काउंटर से उठ कर आयी थी और खिड़की पर माथा टिकाये हुए बाहर की  बर्फ़बारी निहार रही थी. दिन भर की गहमा गहमी के बाद कसाई सफ़ेद कोट डाले अब दूकान की सफ़ाई में जुटा हुआ था.

ईवा को लगा जैसे हर्ले ने सोच समझ कर उसके साथ कोई चालाकी की हो, मन में यह बात आते ही वह एकदम से चौंक गयी -- थोडा घबरा भी गयी --- हर्ले ने आखिर ऐसा क्यों किया होगा ?.... क्या उसको पता चल गया कि वह उसके बारे में मन ही मन क्या क्या बातें सोचती रहती है ?…… क्या हर्ले ने उसकी कोमल भावनाओं का मज़ाक उड़ाने के लिए ऐसा किया ?.... या उसको ईवा का यह सब करते रहना अन्दर ही अन्दर अच्छा लगता है? .... क्या वह भी चाहता था कि ईवा उसको अपनी कार से कमरे तक छोड़ आये ?

तो फिर उसने ऐसा खुल कर कहा क्यों नहीं ?हो सकता हो, उनको लगा हो ईवा एक शादीशुदा औरत है  और वह खुद ठहरा  एक परदेसी .... पर  बात चाहे जो भी हो उन गुज़र चुके पलों में जो कुछ भी हुआ वह बड़ा बेतुका था .... एकदम से बेवकूफ़ाना. पर कड़वी सच्चाई थी कि हर्ले ईवा के वज़ूद को भूल कर वहाँ से निकल कर आगे बढ़ चुका था ,बर्फ़  की दूर दूर तक फैली चादर को धता बताता हुआ--- बर्फ़बारी का अभ्यस्त एक अदद नौजवान अपने कमरे की ओर जा रहा था जहाँ से उसकी सूरत दिखाई नहीं देगी, चाहे ईवा कितनी भी कोशिशें क्यों न कर ले.

यह बात सोलह आना सही है, ईवा ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की …… फिर भी उसकी आँखें थीं कि सड़क पर उधर ही लगी रहीं इस बावली  उम्मीद में कि शायद हर्ले आगे जाकर कुछ सोचे और वापस लौट आये और यह भी हो सकता है कि उनके बीच चल रही अधूरी छूट गयी बातचीत दुबारा शुरू हो जाए हर्ले ने उसके चेहरे पर जरूर कुछ कुछ ख़ास देखा है, पढ़ा है .... सिर्फ़ एक बार नहीं ,शुरू से ही  और निरन्तर.

ईवा गेट पर यथावत खड़ी रही उसके कोट ,चेहरे और हाथ पर बर्फ़ की परतें गिरती ठहरती रहीं , हाँलाकि ठण्ड इतनी ज्यादा थी कि शरीर के अंग प्रत्यंग यूँ भी संज्ञा शून्य हो रहे थे सभी प्रतिकूलताओं को परे धकेल कर वह वहाँ खड़ी टुकुर टुकुर ताकती रहीइस आशा में कि कहीं कुछ असोचे समझे बदलेगा ज़रूर उसका  मन था कि बार बार कहता धीरज रखो ईवा ,कुछ भला घटना अवश्यम्भावी है.  सोच का यह अबाध सिलसिला  चल ही रहा था कि अचानक एक जानी पहचानी कार वहाँ से गुजरी .... ईवा की नजरों से बहुत  धीमी रफ़्तार से रेंगती हुई चल रही कार की ड्राइवर सीट वाली खिड़की बच नहीं सकी ,ऐसी बर्फ़बारी में भी उसका शीशा नीचे गिरा हुआ था.  खिड़की खुली होने की  वजह से ईवा मार्था को फ़ौरन पहचान गयी ,उसके माथे पर बर्फ़ के फाहे गिरे हुए थे

मार्था बड़ी बेकली के साथ चर्च की ओर टकटकी लगा कर देखे जा रही थी. पल भर को ईवा खीझ गयी, उसको लगा मार्था उसको ढूँढने चर्च तक आयी है. फिर भी बगैर कुछ सोचे समझे ,इस सम्भावना को भी दर किनार करते हुए कि अपने अफेयर वाली बात में मार्था फिर से उसको  घसीट सकती है --- ईवा ने मार्था की ओर अपनी बाँहें लहराईंउसे बुलाया .... एक बार , दो बार बार बार…  पर मार्था का ध्यान उस ओर नहीं गया. बिलकुल उसी क्षण ---- जहाँ  वह खड़ी थी उस से बाँयी ओर, मामूली  दूरी पर --- एक विशालकाय वृक्ष की काली छतरी से निकल का एक परछाँई बाहर निकली और तेज क़दमों से सड़क पार कर गयी. 

ईवा को उसके चलने के ढंग से एकदम से लगा  जैसे वह परछाँई को जानती हो शुरू में तो उसको ध्यान नहीं आया कि कैसे --- और ऐसा होना बहुत स्वाभाविक भी था--- पर पलक  झपकते कार का पीछा करती हुई वह काली परछाँई हर्ले में तब्दील हो गयी, दूसरी ओर का गेट खोल कर परछाँई कार के अन्दर सामने वाली सीट पर बैठ गयी, ईवा को उसके हाव भाव देख कर समझ आ गया कि परछांई पहली बार वहाँ नहीं बैठ  रही  थी बल्कि उसकी कार से पुरानी वाकफ़ियत है. उसके बैठते ही कार आगे चल पड़ीगाँव से बाहर  पश्चिम दिशा की ओर उधर तो बर्फ़ की परतें और भी गहरी होंगी .... समय भी रात का ,घने अंधेरे  का .... सफेदी की मोटी चादर पर सड़क दिखाने वाला कोई निशान  भी तो नहीं है उधर.हाँ ,कुछ दूर तक टायर के छोड़े हुए निशान  मिलेंगे,बस  उसको पार करते ही सब कुछ सफेदी के समुन्दर में समा जाएगा.
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यादवेन्द्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014
मोबाइल - +91 9411100294



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