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सहजि सहजि गुन रमैं : सुमीता ओझा

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने महत्वपूर्ण निबन्ध ‘कविता क्या है’ में लिखा है “ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा.”

और कविताएँ भी जटिल होती जाएँगी, इसमें यह और जोड़ देना चाहिए. कविता में ‘कठिन काव्य के प्रेत’ पहले भी रहें हैं. हिंदी कविता की परम्परा से जो वाकिफ नहीं है उन्हें मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ दे दी जाए तो बहुत संभव है उसकी नीदं उड़ जाए. और यही सार्थकता है इन कविताओं की. आप अपने ‘कंफर्ट जोन’ से बाहर कर दिए जाते हैं, बेचैन और विचलित.  इन कविताओ में भाव पक्ष के साथ-साथ विचार पक्ष भी बहुत मजबूत रहता है.


सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर पढ़ी हैं, उनकी कविताएँ गणितज्ञ की कविताएँ हैं ज़ाहिर है आपको ध्यान से उतरना होगा.


  


सुमीता ओझा की पाँच कविताएँ                      






ओरिगेमी

आँकी-बाँकी मुरकियों का
जादुई संगीत यह
कागज की आत्मा का
रहस्यमयी स्वर्णिम गीत है.

गणित, कला और विज्ञान के
त्रिविध, त्रिआयाम पर रचित जादुई यथार्थ.
यथार्थ!
जिसे साधता है
गणितज्ञ कलाकार
कागज के प्राणों में अपने प्राण गूँथ
किसी अलौकिक सोनिक सन्देश को डिकोड करते
मानस तरंगों की तल्लीनता में थिरकती
दस अंगुलियों के स्नेहिल स्पर्श से.

कागज!
जिसमें गुम्फित है पेड़ों का
समूचा जीवन रस
स्पन्दित है सभी प्राणियों का
जीवन-उत्ताप
अनुभूति-उच्छ्वास
वेदना-उत्साह...
अनादि-अनन्त काल की
द्रुत-मंथर
सरपट-सीधी
दुलकी-लहरीली
गतियों के
हर खोह-खड्डों, कॉमा-डॉटों को
सटीक कोण के साथ
झटके से मोड़ काट पार करते
कागज के वर्गाकार टुकड़ों से
रचित होता समान्तर संसार.

जहाँ नहीं है नश्तर
छेनी, हथौड़ी या कोई भी औजार
जोड़क की तरह ही सही
सूई तक की भी नहीं कोई दरकार
कागजी कोनों की गलबहियों में समाया
जगर-मगर संसार.

फूल और तितली, मेंढक-मछली
कुत्ते-बिल्ली, घोड़े-हाथी
तोता-मैना, हंस और बगुले
गाती कोयल, काले कौवे
मोर पंखों की एक-एक थिरकन
एम्परर पेंगुइन की राजसी सज-धज
गुड्डे-गुड़ियों, खेल-खिलौनों
भाँति-भाँति की पाँत
तरह-तरह के आदमजात
राज-रजवाड़े, राजा-रानी
सेवक, भिश्ती, पीर, बावर्ची
साफ-शफ़्फ़ाफ़  हीरे का वैभव कैसा अनमोल
जैसे कछुआ पीठ के सभी षट्कोण
तीन फलक पर तरह-तरह के
गोल-चौकोर पॉलीहेड्रॉन
नाव, जहाज, अंतरिक्ष यान
ग्रह-नक्षत्र, चंदा-तारे
खेचर, गोचर, वनचर, जलचर
संसार सकल, समग्र ब्रह्माण्ड...

सहस्त्ररंगी जीवन का कल्पनीय
सबकुछ विद्यमान है यहाँ.

चित्त में कलुष की जितनी परतें हों सम्भव
उतने ही मोड़ों से रचित चुड़ैल की
टेढ़ी नाक के नुकीलेपन से झाँकती
सारी वक्रता के काले जादू का
सामना करती बलिष्ठ सैनिक की
तलवार की धार का पैनापन
जिसकी प्रशस्ति-प्रशंसा में
उत्कण्ठित उज्जवल आँखों वाली
राजकुमारी की घेरदार पोशाक का
एक-एक चुन्नट...
इस राजकुमारी का नाम मैं रख देती हूँ
सदाकी ससाकी.

यूँ तो ख्यात जापानी इस विधा का
ज्ञात इतिहास हजार साल का है लेकिन
सदी भर से
सौन्दर्यशास्त्री गणितज्ञ अकीरा योशीझावा की
ऐन्द्रजालिक इस कला-प्रवीणता का सम्मोहन
दुनियाभर के वैज्ञानिक कलाकारों की
आँख का तारा बन बैठा
कुछ ऐसे कि गणितीय प्रमेयों-छन्दों से बेखबर
बच्चों की खिलंदड़ी हथेलियों में
हर पीढ़ी सौंपती रही
बेफिक्र-बेहिचक भवसागर तर जाने को
कागज की कश्ती.
उसी कश्ती का कागज
ग्यारह साला सदाकी ससाकी के हाथों से उड़ा
शान्तिदूत सारस बन-बन.

सदाकी, सन् पैंतालीस में
जिसके किमोनो के हजार चिथड़े
महानतम वैज्ञानिक उपलब्धि के सदके
आइन्स्टाइन की नींद की देहरी पर
उड़ते रहे तमाम उम्र...

नफरत के राज और दुनिया पर साम्राज्य की
अदम्य आदिम लिप्सा में
मथे जाते जीवन की फाँस पर लटके
लाखोंलाख दम तोड़ते मनुष्यों की
उखड़ती साँस के मुहाने पर
ध्यानस्थ बुद्ध हो गई सदाकी
गिनती की बची-खुची हर साँस जितने
बनाए उसने सारस.
विश्वास था उसे कि एक हजार सारस बनते ही
बहाल हो जाएगी शान्ति और
बन्धुत्व की आत्मीय डोर में बँध जाएगी दुनिया.
लेकिन निष्कलुष हृदयों की सत्कामना के चुग्गे पर
पलने वाली शान्ति की सोन-चिरैया को
साँस भी नहीं आई थी कि
छह सौ पैंतालीसवें सारस के साथ ही
उड़ चली सदाकी के प्राणों की मैना भी...

बचे हुए तीन सौ पचपन सारस
पूरा कर पाने की जुगत में
दुनिया भर में जहाँ-तहाँ
दत्तचित्त-प्रार्थनारत बैठे हैं
गणित के जादुई सौन्दर्य की इस विधा के
सभी सहृदय उपासक.


(ओरिगेमी: वर्गाकार कागज को विविध तरीके से मोड़कर तरह-तरह के आकार-प्रकार की कलात्मक वस्तुएँ बनाने की लोकप्रिय गणितीय जापानी विधा.)







अद्वैत की ज्यामिति


प्रकृति के अमूर्तन का
मूर्तिमान छन्द
गणित!
काव्यमयी सृष्टि की
पुनर्व्याख्या-कला-विधा का
अनूठा व्याकरण है.

सूक्ष्मातिसूक्ष्म से विराटातिविराट
नाप-जोख के कितने-कितने नियम
कैसे-कैसे कायदे
आँकी-बाँकी, सीधी-तिरछी, खुली-मिली
दृश्य-अदृश्य लकीरों,
ठोस-वायवी आकृतियों का सम्मोहक नृत्य
नृत्यरत विशिष्ट अनन्त आकृतियों का
अनवरत उमगना
और विलीन हो जाना शून्याकाश में
फिर-फिर से उमगना...
ब्रह्माण्डीय समुच्चय में
अविच्छिन्न अद्वैत की ज्यामिति.
(टोपोलॉजी जिसे कहता है आधुनिक गणित)

निर्व्याख्येय के प्रति अबूझ प्रीति
जिसकी निर्व्याज व्याख्या कर पाने की
सुव्यवस्थित सुरुचि में
अनहद हो गई सभी हदें...

यह सरल-जटिल भाषा अनुभूति की.
अनुभूति!
जो देवत्व की भाषा थी
किसी सुस्थिर ध्यानस्थ ब्रह्मर्षि की चेतना में
उतर आई थी
हृदय में उछाह से तेज हो गए
धड़कन की धुकधुक सा
बूँद में समुन्द कि समुन्द में बूँद के
उजागर हो गए रहस्य-रोमांच सा...

अनुभूतियों के सबसे सूक्ष्म, सबसे कोमल
कम्पनों को कह पाने को शोधित
हृदय छू लें ऐसे सटीक
शब्द, चित्र और आकृतियाँ
सबसे नायाब खोज हैं संसार की.

अनुभूतियाँ, शब्द, चित्र और आकृतियाँ
अद्वैत हो जाएँ जहाँ, अविच्छिन्न
घटित होती है यह पूरी पद्धति
ज्यामिति की.

  


लीलावती

तुम्हारी नथनी से मोती क्या गिरा
जलघड़ी में ठहर गए समय ने
अपनी दिशा ही बदल ली कि
टल गया मुहूर्त, टल गई शादी.

प्राची में उदीयमान भास्कर के
तेजोमय रविरश्मियों से प्रदीप्त
प्रकाण्ड पण्डित पिता की
वाणी वृथा नहीं हुई
न ही वृथा हुआ प्रण
लीलावती अब गहेगी गणित.

दस बरस की बच्ची के हाथों में
बदल गए खेल-खिलौने.
संख्याएँ हमजोली बनीं
मित्र बनें
कोटि-कोटि आकार-प्रकार
आचार-विचार.

दृश्य से अदृश्य तक
जागृति से स्वप्न तक
शून्य से अनन्त तक
गोते लगाती लीलावती ने
आत्मस्थ कर लिया
पहला शाश्वत पाठ:
हर इकाई होती है स्वयम् सम्पूर्ण!

काव्यमयी प्रकृति के अमूर्त
बीजमन्त्र छन्दों से भूषित भाषा के
अक्षर-अक्षर बाँचती वह
खोलती गई
सूत्रों, प्रमेयों के सभी मर्म.

'वेदांग ज्योतिष का उपांग गणित'
कौन-सी श्रेढ़ी बनेगी?
बताओ तो कन्ये लीलावती...
गणितज्ञ पिता ने प्रश्न उछाला
क्षणभर को सोचती प्रतिप्रश्न करती
उत्तर दिया तेजस्वी बालिका ने:
क्या इसे ज्यामितिक श्रेढ़ी कहना समुचित होगा?...”
पृथ्वी जिसका केन्द्र
आकाश के नैरंतैर्य को समाहित करती
अबूझ-अदृष्ट झिलमिल कुण्डली झलकी
मन्द स्मिति थिरक गई पिता की आँखों में...

पिता और पुत्री के बीच
प्रश्न और उत्तर अपनी जगहें बदलते रहे
और यूँ रचित होते रहे कालजयी ग्रन्थ
बीजगणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति
और रचित होती गई स्वयम् 'लीलावती'...

सहत्राब्दी बीती किन्तु
मेधा और तेज के भरेपूरेपन की साक्षात् अनुकृति
'विज्ञान की रानी'का सिरमौर बनी
आज भी जगमगा रही है लीलावती.


(लीलावती ग्यारहवीं शताब्दी के महान भारतीय गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य की बेटी थी का नाम था और 'लीलावती'नाम से ही उन्होंने गणित की प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की.

प्रचलित कथा के अनुसार लीलावती की कुंडली में शादी के लिए कोई शुभ मुहूर्त नहीं था जिसके बिना शादी किए जाने पर लीलावती का जल्द ही विधवा हो जाना तय था. ज्योतिषाचार्य पिता ने कठिन गणनाओं के उपरान्त एक शुभ मुहूर्त खोज ही निकाला और शादी की तैयारियाँ की. शुभ मुहूर्त के सटीक निर्णय के लिए जलघड़ी की व्यवस्था की गई. लेकिन जल-घडी में समय देखने की उत्सुकता में लीलावती के कपड़ों/गहनों से टूटकर कोई मणि गिर गई जिससे जलघड़ी में पानी का भरना रुक गया और शुभ मुहूर्त कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब लीलावती की शादी संभव नहीं थी. तो पिता ने उसे गणित में निष्णात बनाने का निर्णय किया. लीलावती को गणित पढ़ने के क्रम में उन्होंने अंकगणित का जो ग्रन्थ तैयार किया उसका नाम भी 'लीलावती'ही रखा.)




न्यूटन


सागर तट पर
सबसे चिकना पत्थर या
सबसे सुन्दर सीप
खोजने में तल्लीन
विस्मय भरी तुम्हारी अंगुलियाँ
पारे से दंशित हो जाती रहीं ...

जगतजननी की गोद बैठे
रोष भरे बालक!
तुम (प्रकृति के) कैसे शिशु थे ?
वह अपना सारा वैभव, सारे रहस्य
तुमपर करती रही निछावर
और उम्रभर
तुम करते रहे नफ़रत
कि माँ की छाया भर
छू लेने को आकुल
दूरस्थ चर्च के माथे जड़े क्रॉस के
तीन सिरों पर ध्यानस्थ तुम्हारी चेतना
ईश के त्रिविध-त्रिरूप
को गुपचुप धता बताती ही रही...

जैसे किसी उद्धत-उद्दंड खरगोश के बच्चे को
मिल गयी हो शेर की झलक-
सहमे और भयभीत तुम
हठ में या आत्मरक्षा में
जाने किस-किस के विरुद्ध चौतरफा
बेआवाज़ तर्कों के धारदार हथियार भाँजते हुए भी 
पवित्र आदेशों की
कर न सके अवहेलना.
(ईश्वर के प्रति जब-जब
खंडित हुई तुम्हारी आस्था
मानसिक आघातों ने द्वार खटखटाया.)

तुम तन्मय मौन के नीरव एकांत में
उतर गए
तर गए .

धरती के भीतर का दुर्निवार आकर्षण
एक सेव भर के गिरने से
समझ सकने वाले !
अपनी कमवय विधवा माता के
भरे-पूरे स्त्रीत्व का
(किसी अन्य पुरुष के प्रति)
सहज मानवीय उत्कंठित आकर्षण को
आजीवन कैसे रहे नकारते ?
यह जिद्दी दुराग्रह मात्र 
क्या तुम्हारी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला
के किसी प्रयोग का निकष था?
अँधियारे और उजाले के क्रमिक सह-अस्तित्व की तरह ?!
तुम्हारी सत्यान्वेषी उद्दात कुशाग्रता और
आलोचकों/प्रतिद्वंदियों के प्रति
क्रूर अनुदारता केमेल की तरह(बे) ?!

सत्य के संधान को एकाग्र तुम्हारी
अतिन्द्रिय अंतर्दृष्टि
शाश्वत सर्वज्ञ का तुम्हें दिया गया
अनमोल उपहार था.
सार्वकालिक गणितज्ञ के स्पंदनों से
सीधे जुड़े मनस्वी ब्रह्मर्षि!
तुम्हारी अचूक सूझ
तुम्हारी सतत साधना की
नायाब परिणति थी .
खगोलीय पिंडों के आपसी तनाव
और सप्तरंगी प्रकाश के बीच जारी
अनवरत लुकाछिपी
के अद्वितीय साक्षी !
आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति के अग्रदूत !
तुम्हारे भगीरथ प्रयत्नों से
लहालोट हुई धरती की वैज्ञानिक संवेदनाएं
और साकार होने लगी
मनुष्य की अतिरंजित कलपनाएँ

आधुनिक वैज्ञानिक जगत के परम पुरखे!
तुम्हारी उपलब्धिओं से उपकृत
तुम्हारे मस्तिष्क की कीमिया
समझने का प्रयास करती पीढ़ियाँ
तुम्हारी ही अँगुली थामकर चली.

न्यूटन !
हम नमन करते हैं तुम्हारा
और प्रार्थना भी
तुम फिर से उतर आओ पृथिवी पर
प्रकृति के मोद भरे बालक की तरह.
(न्यूटन: प्रसिद्ध वैज्ञानिक)





आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी

कलाबाज कलावंत !
तने आलाप पर अनगिन भावमुद्राओं में
थिरकती तुम्हारी आवाज का अचम्भा !
थोड़ी सी ढील देकर स्वर तार का
अचके खींचना
खींच लेना ध्यान.

केन्द्रस्थ सूर्य के गिर्द
जैसे थिरकते हैं ग्रह-नक्षत्र...
अपनी गूंज की धूरी पर
नाजुक कमनीयता के साथ
जैसे घूमता हो कोई रंगीन लट्टू...
या सौ-सौ रंग रंगी तुम्हारी तिलंगी
जटिल उलझी अपने ही रास्ते बुनती
वलयाकार सम्मोहक
गतियाँ अनूठी
कैसी-कैसी पेंचे
कितना नट कौशल
परिशुद्ध सधाव का सधा संतुलन !

चाहे जितना भी चक्कर काटते
कहीं भी घूम आते तुम सम पर ही
ठहरते हो कैसे ?
विकृत विवादी भी सुन्दर होते हैं इतने ?!
तुम्हारी लटाई में कितने आवर्तन हैं गायक ?

"बाकटी उस्ताद !"
कटता है अहम्
गलता है हृदय
अप्रतिम सुख का अन्तराल...

अस्तित्व : हवा के पंखों पर उड़ती
सेमल की रुई
निरभ्र गगनमंडल में ठहरी चौदस  की चांदनी
आवाज हो रही है झीनी-झीनी...

_________________



सुमीता ओझा
गणित विषय में गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्धपर शोध. इस शोध पर आधारित पुस्तक जल्द ही प्रकाश्य. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका स्टारडस्टमें कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक समाधाननामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.
मो.: 7390833435/ ईमेल: sumeetauo1@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : पूनम अरोड़ा

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पूनम अरोड़ा कहानियाँ और कविताएँ लिखती हैं, नृत्य और संगीत में भी गति है. कविताओं की  भाषा और उसके बर्ताव में ताज़गी और चमक है. बिम्बों की संगति पर और ध्यान अपेक्षित है.

उनकी पांच कविताएँ आपके लिए






पूनम   अरोड़ा   की   कविताएँ        







(एक)

एक रात के अलाव से
जो लावा निकला था
उसने अबोध स्त्री के माथे पर शिशु उगा दिया

शिशु जब-जब रोया
अकेला रोया

अबोध स्त्री के हाथ अपरिपक्व थे और स्तन सूखे
किसी बहरूपिये ने एक रात एक लम्बी नींद स्त्री के हाथ पर रख एक गीत गाया

शिशु किलकारी मारने लगा
देवताओं ने चुपचाप सृष्टि में तारों वाली रात बना दी

गीत गूँजता रहा सदियों तक
अबोध स्त्रियाँ जनती रहीं कल्पनाओं के शिशु और बहरूपिये पिता सुनाते रहे
समुद्री लोरियाँ.






(दो)

मेरा बचपन गले तक भरा है
रक्तिम विभाजन के जख्मों से
मैंने इतनी कहानियां सुनी हैं नानी से सात बरस की उम्र से
कि अब वो गदराए मृत लोग चुपचाप बैठे रहते हैं मेरी पीठ से पीठ टिकाकर

वो कहते हैं फुसफुसा कर
कि रक्त का हर थक्का जम गया था कच्ची सड़कों, चौराहों और सीमेंट की फूलदार झालरों के फर्श पर
जिसकी जात का फंदा टूटा था

हमारे ऊंट जिन पर लदा था
मुल्तान के डेरा गाजी खां की हॉट को ले जाने वाला सामान
बढ़िया खजूर, मुन्नका और अखरोट
वे सब भी रक्त के मातम में भीड़ के पैरों तले कुचले जा रहे थे

एक नई दुल्हन थी 'अर्शी'
जिसके खातिर अरब से पश्मीना मंगवाया था उसके दूल्हे ने
मेरे व्यापारी पुरखों से

कहता था इसे पहन कर
वो सर्दी में बिरयानी और गोश्त पकाएगी

सिंध नदी के पास के क़स्बे से आये उसके व्यापारी मित्रों के लिए

सुबह माँ को सावी चाय देने जाते हुए
इसी शहतूती रंग के पश्मीना से सर को ढकेगी
और रात में इसी का पर्दा हटाएगी अपनी भरी छातियों पर से

इन कहानियों को बरसों बीत गए
और मैं कविताएं लिखते हुए
कभी-कभी हल्का दबाव महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर

सूरज रोज़ एक तंज करता है
कि मैंने कितनी कहानियां और अपने पुरखों की पीली आँखे भुला दी

मैं सोचती हूँ
क्या सच में ऐसा हुआ है.






(तीन)

बचपन में हर एक चीज को पाना बहुत कठिन था मेरे लिए
सलाइयाँ चलाते हुए
अपनी उम्र की ईर्ष्या से मैं हार जाती थी

अपनी छोटी चाहतों में मैं अक्सर खाली रहती थी
मेरे गायन-वादन सुगंधहीन और आहत थे

यहाँ तक कि मेरा पसंदीदा
सफेद फूल वाला पौधा भी
मुझे दुःख में ताकता था

सफ़ेद से नाता था तो वो केवल तारे थे
जो ठीक मेरे सर के ऊपर उगते थे हर रात

एक सुराही जो रहस्यमय हो जाती थी रात को
मेरी फुसफुसाहट के मोरपंखी रंग
उसके मुंह से उसके पेट में चले जाते थे

माँ कहती ये सुराही रात में ही ख़ाली कैसे हो जाती है
मेरा अवचेतन अपने मुँह को दबाकर
हँसने की दुविधा को
पूरी कोशिश से रोकता था

मैं कहना चाहती थी जो काम तुम नहीं करती
वो सुराही करती है मेरे लिए

स्वप्न जो स्वप्न में भी एक स्वप्न था
मेरे बचपन में भटकता था वो स्वप्न अक्सर

खिड़की से झांकता
छिपकली की पूंछ से बंधा
उस दीवार पर मेरे साथ तब तक चलता
जब तक मैं ऊंचाई का अंदाज़ा नहीं लगा लेती थी

मुझे नहीं पता था कि मृत्यु
ऐसे ही मोड़ पर किसी जोकर की तरह मुग्ध करती है हमें

बेहोशी से पहले
मेरी कल्पनाएं भयभीत होकर निढाल होना चाहती थीं

मुझे घर के सब रंग पता थे
फिर भी
मैं उन्हें किसी और रंग में रंगना चाहती थी

किसी ऐसे रंग में
जिसमें पिता के दुष्चरित्र होने की जंगली खुम्ब सी गंध न हो

न हो उसमें माँ की वहशी नफरत पिता के लिए

सारे तारे जब सो जाते तो जागता था एक साँप और परियाँ
तीन पहर मेरी कल्पनाओं के और चौथा पहर
मेरी अस्तव्यस्त नींद का

जागने और सोने के बीच का
वो असहाय और बेचैन पल
जब मुझे दिखायीं देती थीं
आसमान में उड़ती परियाँ

और छत पर बेसुध पड़ा एक बांस का डंडा

जो हर रात
एक साँप में तब्दील हो जाया करता था

डर ज़रूरी था मेरी नींद के लिए
डर बहुत ही आसानी से चले आने वाला
एक शब्द था मेरी स्मृतियों के लिए

स्मृतियां, जिनमें भूखे कुत्ते
अपनी काली आत्मा के लाल होंठो से
नई कच्ची छातियाँ चूसते थे

स्मृतियां,जिनमें ज़िस्म पर चलते
लिसलिसे केंचुएं थे.
जिन्हें भीड़ में सरक कर नितम्ब छूना
किसी हसीन दुनिया में स्खलन करने सा लगता


अनजानी ग्लानियों के पार जाने का कोई पुल नहीं होता

होता है तो केवल वो क्षण जिसे जीते हुए
हमें याद आते रहें पिछले पाप

पापों से गुज़रना सरल है
लेकिन सरल नहीं है उनको सहेज कर रखना

दो दुनिया चलती रही मेरे साथ
दो आसमान और दो सितारे भी

अब तक कितने ही बिम्ब और उपमाएं
चली आईं कविता में

लेकिन मैं सोचती हूँ
कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मेरी स्मृतियों ने बचपन खोने में

हम अक्सर चूक जाते हैं
उस अपरिहार्य पल को चूमने से

जिसके आँसू पर हम बेरहमी से रख देते हैं अपने जूते.





(चार)

मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगी
कि आज मेरे कमरे में
जो घना अंधेरा साँप की तरह रेंग रहा है
उसका बोझ धीरे से
बहुत धीरे से और चुपचाप
तुम्हारे उज्ज्वल निश्चयों की प्रतिध्वनि बन गया

यह भी सच है कि
तुमने सरोवर में खिलते कमल देखें होंगे
और तभी से रंगों में सोना तुम्हारी आदत में आया होगा
मुमकिन यह भी है कि
तभी तुमने मेरी तरफ कभी न देखने के अनजान भ्रम को
बाज़ार में दुकानों में गिरा दिया होगा

फिर एक दिन
किसी आक्रामक सिरहन ने तुम्हें कहा होगा
नींद के साथ नींद सोती है
और परछाई के पास परछाई अपनी आवाज़ लिखती है

सूक्ष्म जीवों के पास कोई भेस नहीं होता
जैसे चरित्र बदल जाते हैं ध्वनि, प्रकाश और संवादों के मध्य
और देह तैरने देती है ख़ुद को कामोद्दीप्त यज्ञ में

मैं बहुत दिनों से इस असमंजस में हूँ
कि तुमसे कहूँ
ले जा सकते हो तुम मेरी सघन देह का प्रत्येक प्रतिमान
और अनेक प्रसंगों से पुता
जड़ हुआ अभिमान

छलकना अगर कोई सीखता
तो मैं कहती
तुम बेपरवाह और मीठे जल का एक ख़्याल हो

मेरी त्वचा की उत्सुक और मोम में लिपटी उदासियाँ
क्या आ सकती हैं
तुम्हारे किसी काम?




(पांच)

मन भिक्षुणी होना चाहता है

नंगे पांव सुदूर यात्रा पर निकलना चाहता है
हड़बड़ाहट में बेसाख्ता किसी व्यंग्य पर हैरान होना चाहता है

किसी एक हस्तमुद्रा पर ध्यान लगाकर
अपने अतीत के रेशम में
वो नर्म कीड़े खोजना चाहता है
जिन्होंने संसार में अपनी आस्था रखी थी

टापुओं की ठंडक में ह्रदय अपनी आँखें वहीं छोड़ आता है
आग बनकर किसी पूर्व की स्मृति में
देर तक खुद को आहूत करता हुआ.

समुद्री भाषा रात भर देह पर सरसराहट करती है
यह तलाश के क्या नये बिंदु नहीं मन पर

निस्तब्ध ख्याली मन
शोक में चांदी का एक तार बुनता रहता है
सो चुकी मकड़ियां ऐसा तार नहीं बुन पाती
न ही जागने पर वे शोकगीत गाती हैं

मीलों तक माँ अकेली चलती दिखाई देती है.
रोशनी की एक बारीक लकीर पर.
और मुझे याद भी नहीं रहता
कि मैं उसे पा रही हूँ या खो रही हूँ

पांच हज़ार वर्ष पूर्व में
किसी स्त्री की एक 'आह'
आज भी स्त्रियों के कंठों में अटकी है
प्रश्न वहीं के वहीं है
स्थिर और ठिठके

मुख के विचलित भावों में
एक चिड़िया सी सुबह तब मेरी दीवार पर बैठ जाती है
जब एक मोरपंख मेरी पीठ को  सहलाता है
और मैं नीला कृष्ण बन जाती हूँ

मेरे वश के सभी प्रश्न
एक स्पर्श मात्र से पिघल जाते हैं.
_________


पूनम अरोड़ा ( २६ नवम्बर, फरीदाबाद हरियाणा में निवासश्री श्री नाम से भी लेखन करती हैं. इतिहास और मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर उपाधियाँ. हिंदी स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रही हैं. नेचुरोपैथी के अंतर्गत हीलिंग मुद्रा और योग में डिप्लोमा कोर्स किया है. कुछ समय के लिए मॉस कम्युनिकेशन फैकल्टी के तौर पर अध्यापन भी किया है. भारतीय शास्त्रीय नृत्य भरतनाट्यम की विधिवत शिक्षा ली है. पूनम ने कहानी, कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज में कई रेडियो शो भी किये हैं.

इनकी दो कहानियों 'आदि संगीत'और 'एक नूर से सब जग उपजे'को हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है. 2016 में एक अन्य कहानी 'नवम्बर की नीली रातें'भी पुरस्कृत है और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित एक किताब में संकलित हुई है. कविता, कहानियां, आलेख आदि देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.

संपर्क : shreekaya@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : सुमीता ओझा

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने महत्वपूर्ण निबन्ध ‘कविता क्या है’ में लिखा है “ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा.”

और कविताएँ भी जटिल होती जाएँगी, इसमें यह और जोड़ देना चाहिए. कविता में ‘कठिन काव्य के प्रेत’ पहले भी रहें हैं. हिंदी कविता की परम्परा से जो वाकिफ नहीं है उन्हें मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ दे दी जाए तो बहुत संभव है उसकी नीदं उड़ जाए. और यही सार्थकता है इन कविताओं की. आप अपने ‘कंफर्ट जोन’ से बाहर कर दिए जाते हैं, बेचैन और विचलित.  

सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर पढ़ी हैं, उनकी कविताएँ गणितज्ञ की कविताएँ हैं ज़ाहिर है आपको ध्यान से उतरना होगा.


  


सुमीता ओझा की पाँच कविताएँ                      






ओरिगेमी

आँकी-बाँकी मुरकियों का
जादुई संगीत यह
कागज की आत्मा का
रहस्यमयी स्वर्णिम गीत है.

गणित, कला और विज्ञान के
त्रिविध, त्रिआयाम पर रचित जादुई यथार्थ.
यथार्थ!
जिसे साधता है
गणितज्ञ कलाकार
कागज के प्राणों में अपने प्राण गूँथ
किसी अलौकिक सोनिक सन्देश को डिकोड करते
मानस तरंगों की तल्लीनता में थिरकती
दस अंगुलियों के स्नेहिल स्पर्श से.

कागज!
जिसमें गुम्फित है पेड़ों का
समूचा जीवन रस
स्पन्दित है सभी प्राणियों का
जीवन-उत्ताप
अनुभूति-उच्छ्वास
वेदना-उत्साह...
अनादि-अनन्त काल की
द्रुत-मंथर
सरपट-सीधी
दुलकी-लहरीली
गतियों के
हर खोह-खड्डों, कॉमा-डॉटों को
सटीक कोण के साथ
झटके से मोड़ काट पार करते
कागज के वर्गाकार टुकड़ों से
रचित होता समान्तर संसार.

जहाँ नहीं है नश्तर
छेनी, हथौड़ी या कोई भी औजार
जोड़क की तरह ही सही
सूई तक की भी नहीं कोई दरकार
कागजी कोनों की गलबहियों में समाया
जगर-मगर संसार.

फूल और तितली, मेंढक-मछली
कुत्ते-बिल्ली, घोड़े-हाथी
तोता-मैना, हंस और बगुले
गाती कोयल, काले कौवे
मोर पंखों की एक-एक थिरकन
एम्परर पेंगुइन की राजसी सज-धज
गुड्डे-गुड़ियों, खेल-खिलौनों
भाँति-भाँति की पाँत
तरह-तरह के आदमजात
राज-रजवाड़े, राजा-रानी
सेवक, भिश्ती, पीर, बावर्ची
साफ-शफ़्फ़ाफ़  हीरे का वैभव कैसा अनमोल
जैसे कछुआ पीठ के सभी षट्कोण
तीन फलक पर तरह-तरह के
गोल-चौकोर पॉलीहेड्रॉन
नाव, जहाज, अंतरिक्ष यान
ग्रह-नक्षत्र, चंदा-तारे
खेचर, गोचर, वनचर, जलचर
संसार सकल, समग्र ब्रह्माण्ड...

सहस्त्ररंगी जीवन का कल्पनीय
सबकुछ विद्यमान है यहाँ.

चित्त में कलुष की जितनी परतें हों सम्भव
उतने ही मोड़ों से रचित चुड़ैल की
टेढ़ी नाक के नुकीलेपन से झाँकती
सारी वक्रता के काले जादू का
सामना करती बलिष्ठ सैनिक की
तलवार की धार का पैनापन
जिसकी प्रशस्ति-प्रशंसा में
उत्कण्ठित उज्जवल आँखों वाली
राजकुमारी की घेरदार पोशाक का
एक-एक चुन्नट...
इस राजकुमारी का नाम मैं रख देती हूँ
सदाकी ससाकी.

यूँ तो ख्यात जापानी इस विधा का
ज्ञात इतिहास हजार साल का है लेकिन
सदी भर से
सौन्दर्यशास्त्री गणितज्ञ अकीरा योशीझावा की
ऐन्द्रजालिक इस कला-प्रवीणता का सम्मोहन
दुनियाभर के वैज्ञानिक कलाकारों की
आँख का तारा बन बैठा
कुछ ऐसे कि गणितीय प्रमेयों-छन्दों से बेखबर
बच्चों की खिलंदड़ी हथेलियों में
हर पीढ़ी सौंपती रही
बेफिक्र-बेहिचक भवसागर तर जाने को
कागज की कश्ती.
उसी कश्ती का कागज
ग्यारह साला सदाकी ससाकी के हाथों से उड़ा
शान्तिदूत सारस बन-बन.

सदाकी, सन् पैंतालीस में
जिसके किमोनो के हजार चिथड़े
महानतम वैज्ञानिक उपलब्धि के सदके
आइन्स्टाइन की नींद की देहरी पर
उड़ते रहे तमाम उम्र...

नफरत के राज और दुनिया पर साम्राज्य की
अदम्य आदिम लिप्सा में
मथे जाते जीवन की फाँस पर लटके
लाखोंलाख दम तोड़ते मनुष्यों की
उखड़ती साँस के मुहाने पर
ध्यानस्थ बुद्ध हो गई सदाकी
गिनती की बची-खुची हर साँस जितने
बनाए उसने सारस.
विश्वास था उसे कि एक हजार सारस बनते ही
बहाल हो जाएगी शान्ति और
बन्धुत्व की आत्मीय डोर में बँध जाएगी दुनिया.
लेकिन निष्कलुष हृदयों की सत्कामना के चुग्गे पर
पलने वाली शान्ति की सोन-चिरैया को
साँस भी नहीं आई थी कि
छह सौ पैंतालीसवें सारस के साथ ही
उड़ चली सदाकी के प्राणों की मैना भी...

बचे हुए तीन सौ पचपन सारस
पूरा कर पाने की जुगत में
दुनिया भर में जहाँ-तहाँ
दत्तचित्त-प्रार्थनारत बैठे हैं
गणित के जादुई सौन्दर्य की इस विधा के
सभी सहृदय उपासक.


(ओरिगेमी: वर्गाकार कागज को विविध तरीके से मोड़कर तरह-तरह के आकार-प्रकार की कलात्मक वस्तुएँ बनाने की लोकप्रिय गणितीय जापानी विधा.)







अद्वैत की ज्यामिति


प्रकृति के अमूर्तन का
मूर्तिमान छन्द
गणित!
काव्यमयी सृष्टि की
पुनर्व्याख्या-कला-विधा का
अनूठा व्याकरण है.

सूक्ष्मातिसूक्ष्म से विराटातिविराट
नाप-जोख के कितने-कितने नियम
कैसे-कैसे कायदे
आँकी-बाँकी, सीधी-तिरछी, खुली-मिली
दृश्य-अदृश्य लकीरों,
ठोस-वायवी आकृतियों का सम्मोहक नृत्य
नृत्यरत विशिष्ट अनन्त आकृतियों का
अनवरत उमगना
और विलीन हो जाना शून्याकाश में
फिर-फिर से उमगना...
ब्रह्माण्डीय समुच्चय में
अविच्छिन्न अद्वैत की ज्यामिति.
(टोपोलॉजी जिसे कहता है आधुनिक गणित)

निर्व्याख्येय के प्रति अबूझ प्रीति
जिसकी निर्व्याज व्याख्या कर पाने की
सुव्यवस्थित सुरुचि में
अनहद हो गई सभी हदें...

यह सरल-जटिल भाषा अनुभूति की.
अनुभूति!
जो देवत्व की भाषा थी
किसी सुस्थिर ध्यानस्थ ब्रह्मर्षि की चेतना में
उतर आई थी
हृदय में उछाह से तेज हो गए
धड़कन की धुकधुक सा
बूँद में समुन्द कि समुन्द में बूँद के
उजागर हो गए रहस्य-रोमांच सा...

अनुभूतियों के सबसे सूक्ष्म, सबसे कोमल
कम्पनों को कह पाने को शोधित
हृदय छू लें ऐसे सटीक
शब्द, चित्र और आकृतियाँ
सबसे नायाब खोज हैं संसार की.

अनुभूतियाँ, शब्द, चित्र और आकृतियाँ
अद्वैत हो जाएँ जहाँ, अविच्छिन्न
घटित होती है यह पूरी पद्धति
ज्यामिति की.

  


लीलावती

तुम्हारी नथनी से मोती क्या गिरा
जलघड़ी में ठहर गए समय ने
अपनी दिशा ही बदल ली कि
टल गया मुहूर्त, टल गई शादी.

प्राची में उदीयमान भास्कर के
तेजोमय रविरश्मियों से प्रदीप्त
प्रकाण्ड पण्डित पिता की
वाणी वृथा नहीं हुई
न ही वृथा हुआ प्रण
लीलावती अब गहेगी गणित.

दस बरस की बच्ची के हाथों में
बदल गए खेल-खिलौने.
संख्याएँ हमजोली बनीं
मित्र बनें
कोटि-कोटि आकार-प्रकार
आचार-विचार.

दृश्य से अदृश्य तक
जागृति से स्वप्न तक
शून्य से अनन्त तक
गोते लगाती लीलावती ने
आत्मस्थ कर लिया
पहला शाश्वत पाठ:
हर इकाई होती है स्वयम् सम्पूर्ण!

काव्यमयी प्रकृति के अमूर्त
बीजमन्त्र छन्दों से भूषित भाषा के
अक्षर-अक्षर बाँचती वह
खोलती गई
सूत्रों, प्रमेयों के सभी मर्म.

'वेदांग ज्योतिष का उपांग गणित'
कौन-सी श्रेढ़ी बनेगी?
बताओ तो कन्ये लीलावती...
गणितज्ञ पिता ने प्रश्न उछाला
क्षणभर को सोचती प्रतिप्रश्न करती
उत्तर दिया तेजस्वी बालिका ने:
क्या इसे ज्यामितिक श्रेढ़ी कहना समुचित होगा?...”
पृथ्वी जिसका केन्द्र
आकाश के नैरंतैर्य को समाहित करती
अबूझ-अदृष्ट झिलमिल कुण्डली झलकी
मन्द स्मिति थिरक गई पिता की आँखों में...

पिता और पुत्री के बीच
प्रश्न और उत्तर अपनी जगहें बदलते रहे
और यूँ रचित होते रहे कालजयी ग्रन्थ
बीजगणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति
और रचित होती गई स्वयम् 'लीलावती'...

सहत्राब्दी बीती किन्तु
मेधा और तेज के भरेपूरेपन की साक्षात् अनुकृति
'विज्ञान की रानी'का सिरमौर बनी
आज भी जगमगा रही है लीलावती.


(लीलावती ग्यारहवीं शताब्दी के महान भारतीय गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य की बेटी थी का नाम था और 'लीलावती'नाम से ही उन्होंने गणित की प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की.

प्रचलित कथा के अनुसार लीलावती की कुंडली में शादी के लिए कोई शुभ मुहूर्त नहीं था जिसके बिना शादी किए जाने पर लीलावती का जल्द ही विधवा हो जाना तय था. ज्योतिषाचार्य पिता ने कठिन गणनाओं के उपरान्त एक शुभ मुहूर्त खोज ही निकाला और शादी की तैयारियाँ की. शुभ मुहूर्त के सटीक निर्णय के लिए जलघड़ी की व्यवस्था की गई. लेकिन जल-घडी में समय देखने की उत्सुकता में लीलावती के कपड़ों/गहनों से टूटकर कोई मणि गिर गई जिससे जलघड़ी में पानी का भरना रुक गया और शुभ मुहूर्त कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब लीलावती की शादी संभव नहीं थी. तो पिता ने उसे गणित में निष्णात बनाने का निर्णय किया. लीलावती को गणित पढ़ने के क्रम में उन्होंने अंकगणित का जो ग्रन्थ तैयार किया उसका नाम भी 'लीलावती'ही रखा.)




न्यूटन


सागर तट पर
सबसे चिकना पत्थर या
सबसे सुन्दर सीप
खोजने में तल्लीन
विस्मय भरी तुम्हारी अंगुलियाँ
पारे से दंशित हो जाती रहीं ...

जगतजननी की गोद बैठे
रोष भरे बालक!
तुम (प्रकृति के) कैसे शिशु थे ?
वह अपना सारा वैभव, सारे रहस्य
तुमपर करती रही निछावर
और उम्रभर
तुम करते रहे नफ़रत
कि माँ की छाया भर
छू लेने को आकुल
दूरस्थ चर्च के माथे जड़े क्रॉस के
तीन सिरों पर ध्यानस्थ तुम्हारी चेतना
ईश के त्रिविध-त्रिरूप
को गुपचुप धता बताती ही रही...

जैसे किसी उद्धत-उद्दंड खरगोश के बच्चे को
मिल गयी हो शेर की झलक-
सहमे और भयभीत तुम
हठ में या आत्मरक्षा में
जाने किस-किस के विरुद्ध चौतरफा
बेआवाज़ तर्कों के धारदार हथियार भाँजते हुए भी 
पवित्र आदेशों की
कर न सके अवहेलना.
(ईश्वर के प्रति जब-जब
खंडित हुई तुम्हारी आस्था
मानसिक आघातों ने द्वार खटखटाया.)

तुम तन्मय मौन के नीरव एकांत में
उतर गए
तर गए .

धरती के भीतर का दुर्निवार आकर्षण
एक सेव भर के गिरने से
समझ सकने वाले !
अपनी कमवय विधवा माता के
भरे-पूरे स्त्रीत्व का
(किसी अन्य पुरुष के प्रति)
सहज मानवीय उत्कंठित आकर्षण को
आजीवन कैसे रहे नकारते ?
यह जिद्दी दुराग्रह मात्र 
क्या तुम्हारी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला
के किसी प्रयोग का निकष था?
अँधियारे और उजाले के क्रमिक सह-अस्तित्व की तरह ?!
तुम्हारी सत्यान्वेषी उद्दात कुशाग्रता और
आलोचकों/प्रतिद्वंदियों के प्रति
क्रूर अनुदारता केमेल की तरह(बे) ?!

सत्य के संधान को एकाग्र तुम्हारी
अतिन्द्रिय अंतर्दृष्टि
शाश्वत सर्वज्ञ का तुम्हें दिया गया
अनमोल उपहार था.
सार्वकालिक गणितज्ञ के स्पंदनों से
सीधे जुड़े मनस्वी ब्रह्मर्षि!
तुम्हारी अचूक सूझ
तुम्हारी सतत साधना की
नायाब परिणति थी .
खगोलीय पिंडों के आपसी तनाव
और सप्तरंगी प्रकाश के बीच जारी
अनवरत लुकाछिपी
के अद्वितीय साक्षी !
आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति के अग्रदूत !
तुम्हारे भगीरथ प्रयत्नों से
लहालोट हुई धरती की वैज्ञानिक संवेदनाएं
और साकार होने लगी
मनुष्य की अतिरंजित कलपनाएँ

आधुनिक वैज्ञानिक जगत के परम पुरखे!
तुम्हारी उपलब्धिओं से उपकृत
तुम्हारे मस्तिष्क की कीमिया
समझने का प्रयास करती पीढ़ियाँ
तुम्हारी ही अँगुली थामकर चली.

न्यूटन !
हम नमन करते हैं तुम्हारा
और प्रार्थना भी
तुम फिर से उतर आओ पृथिवी पर
प्रकृति के मोद भरे बालक की तरह.
(न्यूटन: प्रसिद्ध वैज्ञानिक)





आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी

कलाबाज कलावंत !
तने आलाप पर अनगिन भावमुद्राओं में
थिरकती तुम्हारी आवाज का अचम्भा !
थोड़ी सी ढील देकर स्वर तार का
अचके खींचना
खींच लेना ध्यान.

केन्द्रस्थ सूर्य के गिर्द
जैसे थिरकते हैं ग्रह-नक्षत्र...
अपनी गूंज की धूरी पर
नाजुक कमनीयता के साथ
जैसे घूमता हो कोई रंगीन लट्टू...
या सौ-सौ रंग रंगी तुम्हारी तिलंगी
जटिल उलझी अपने ही रास्ते बुनती
वलयाकार सम्मोहक
गतियाँ अनूठी
कैसी-कैसी पेंचे
कितना नट कौशल
परिशुद्ध सधाव का सधा संतुलन !

चाहे जितना भी चक्कर काटते
कहीं भी घूम आते तुम सम पर ही
ठहरते हो कैसे ?
विकृत विवादी भी सुन्दर होते हैं इतने ?!
तुम्हारी लटाई में कितने आवर्तन हैं गायक ?

"बाकटी उस्ताद !"
कटता है अहम्
गलता है हृदय
अप्रतिम सुख का अन्तराल...

अस्तित्व : हवा के पंखों पर उड़ती
सेमल की रुई
निरभ्र गगनमंडल में ठहरी चौदस  की चांदनी
आवाज हो रही है झीनी-झीनी...

_________________



सुमीता ओझा
गणित विषय में गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्धपर शोध. इस शोध पर आधारित पुस्तक जल्द ही प्रकाश्य. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका स्टारडस्टमें कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक समाधाननामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.
मो.: 7390833435/ ईमेल: sumeetauo1@gmail.com

कथा- गाथा : ख़्यालनामा : वन्दना राग

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ख़्यालनामा                            

वन्दना राग










चारों ओर रेत का विस्तार है. चिलचिलाती धूप है. लगता है कि सोना बरस रहा है. अंधड़, सोने के उन कणों को आँखों में झोंक रहा है. कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. अब और चला भी नहीं जाता है. एक पैर उठता है तो दूसरा इन रेतीले खंदकों में धँस जाता है. यह बेदम, बोझिल शरीर गिरने वाला है. अब गिरा... तब गिरा. गिर ही गया. गिरने पर दिखलाई पड़ता है, अभी तक तो जलते सूरज के अलावा आसमान में कुछ नहीं था, फिर ये गिद्धों का मंडराता मंज़र कहाँ से पैदा हो गया? अरे ! ये गिद्ध तो अपनी चोंच नीचे झुका कर फड़फड़ाते हुए शरीर पर आ रहीं हैं. सीधा हमला है... आँखों पर. जल्दी से आँखें बंद कर लेनी चाहिए वर्ना नोच ली जाएँगी. झुलसता हुआ शरीर पिघल रहा है. अब पिघल कर गगरी भर द्रव्य बन गया है. खत्म... सब खत्म हो गया है.

ऊँह...ऊँह..ऽऽ! एक घुटी हुई सिसकी के साथ राघव रमण की आँखें खुलती हैं. चेतना का बोध होते ही, वे अपनी काँपती ऊँगलियों से अपनी आँखों को छूते हैं. आँखें हैं वहीं, मौजूद. वे कमरे में फैले घुप्प अंधेरे को देखती हैं. वहीं से, वे दुबारा मशक्कत करते हुए चीजों की षिनाख्त शुरू कर देती हैं. उन्हीं का अपना बेडरूम है यह. कोने में बेंत से बना लैम्प है, सामने टी.वी. का स्क्रीन अपने ही स्थान पर ठोस झिलमिला रहा है, कमरे की दायीं दीवार पर मकबूल फिदा हुसैन का रंगीन घोड़ों वाला प्रिंट टँगा है. बायीं ओर की खिड़की पर सफेद झीना पर्दा पड़ा है, जहाँ से नज़र आ रही है आम के पेड़ की शाखा और उससे ऊपर नज़र आता है, पीले कटे हुए चाँद का एक टुकड़ा. टुकड़ा चाँद बता रहा है कि अभी रात बीती नहीं हैं. रात ही का कोई पहर अभी भी चल रहा है. आँखें लौटकर बिस्तर पर आ जाती हैं. सफेद चादर पर वे लेटे हुए हैं. सफेद ही चादर ओढ़े हुए भी हैं. एयर कंडीशनर की हवा से चादरें ठंडी हो गई हैं. अचानक उन्हें भी ज़ोर की ठंड लगने लगी  है. क्या उनका शरीर भी ठंडा हो रहा है? नहीं.....यह तो शरीर से बहता ठंडा पसीना है जो ठंड पैदा कर रहा है. मतलब? मतलब वे हाल-हाल तक एक सपने में यात्रा कर रहे थे. डर की रस्सियों से बँधे, बेहाल, पसीने से तरबतर. वही डर, वही पसीना उस यात्रा से यहाँ तक ले आया है उन्हें. और प्यास? कितनी प्यास लग रही थी उन्हें. कितने युगों की प्यास थी वह. अभी भी लगातार सता रही है. वे हड़बड़ा कर उठते हैं. उनके हाथ में पलंग पर से उठाया रूमाल है. बत्ती जलाए बिना ही वे अपना पसीना पोंछने लगते हैं. रगड़-रगड़ कर. इतनी नृषंसता से कि पूरे शरीर पर लाल-लाल निशान उग जाते हैं. बत्ती जलाने पर दिखलाई पड़ता है, माथे पर उभरी चिंता की रेखाएँ लाल-लाल हो और गहरा गई हैं. वे उन्हें मिटा देना चाहते हैं, लेकिन ताज्जुब है कि वे और गहराती जाती हैं. अब तो दाग बनीं सजी रहेंगी कई दिनों तक. अपनी आक्रमकता पर उन्हें खुद ही हैरत होती है. उनकी पहचान तो शांति और सौम्यता से रही है, और ठीक उसके विपरीत आजकल वे अपने प्रति कितने अषांत व्यवहार का प्रदर्षन करने लगे हैं. ख़ासतौर से अकेले होने पर अपने प्रति कितने क्रूर हो जाते हैं वे, मानों अपने से नहीं किसी घृणित वस्तु से व्यवहार कर रहे हों.

वे तेज़ कदमों से चल कमरे के दूसरे छोर पर रखे पानी के गिलास को उठाने का प्रयास करते हैं, और पाते हैं, कि दिमागी आँकलन की अपेक्षा शारीरिक गति धीमी रह गई. मुझे तेज़ी से वहाँ पहुँचना हैउन्हांेने तय किया है मगर उनके कदम बोदे, षिथिल चाल से गिलास तक पहुँचे. इधर कुछ दिनों से इस प्रकार के बेगिनती विरोधाभासों के काँटे उनके आसपास उगते जा रहे थे. वे चाहते हैं, सारे काँटों को उखाड़ कर दूर फेंक दें. वे ऐसी कोशिश भी करते हैं, मगर जल्द थक जाते हैं. उन्हें थकना कभी पसंद नहीं था. फिर वे क्यों थक रहे हैं? मगर क्या पसंद की सारी चीजें कर पा रहे हैं वे आजकल? बिल्कुल नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिए आजकल बदली हुई पसंदों को अपनाना पड़ रहा है.

वे सुबह टहलने जाते हैं. दस साल पहले अपने जीवन के अड़सठवें वर्ष में इसे सिलसिला बतौर अपनाया था, वर्ना पर्यावरण में घनी रूचि के बावजूद उन्हें रोबोटिक ढंग से नियमानुसार टहलना कभी पसंद नहीं रहा था. वहीं कुछ महीनों पहले टहलते वक्त लोदी गार्डन में अनिकेत कुलकर्णी ने उन्हें पहली बार नमस्ते किया था. बहुत गौर से देखने पर समझ पाए थे, उन्हीं का शोध छात्र था वो.
क्या रोज टहलने आते हो?
जी. उसने आदर भाव से गर्दन को झुका लिया था.
वाह ! तब तो मुलाकात होती रहेगी.
जी.

उसके दुबारा सिर्फ जी में जवाब देने को लेकर वे पशोपेश में पड़ गए. क्या उसके ऊपर अनावश्यक दबाव बना दिया उन्होंने? रोज़ मिलने का प्रस्ताव निहायत आम किस्म का था, मगर क्या उनकी टोन से आम होने की अभिव्यक्ति प्रतिबिम्बित हुई थी? रोज़ मिलने से बात औपचारिकता छोड़ अनऔपचारिक हो सकती थी. मित्रता की संभावना हो सकती थी. एक अच्छा सा भरोसे का रिश्ता बन सकता था. क्या यही सब तो नहीं दर्षा दिया उन्होंने? यही सब, इसीलिए, क्योंकि यही सब वे तीव्रता से चाह रहे थे. वही प्रकट हो गया क्या? लगता है हो गया, क्योंकि अनिकेत कुलकर्णी तो मितव्यवहार कर रहा था. उत्साह ही नहीं दिखा रहा था. ओह! फिर गलती हो गई!

इधर बातों को तोलने में बार-बार गड़बड़ा रहे हैं वे. कहाँ किस बात को कितने वज़न से तोलना चाहिए तय करने में चूक हो रही है उनसे. उन्होंने लोदी गार्डन की पगडंडी को देखते हुए कहा आगे से कोशिश करेंगे, लोगों से बात करते वक्त इस तरह ही आतुरता ज़ाहिर ना हो, वह जो दयनीय नज़र आए.

बाद में अनिकेत कुलकर्णी से अंतरंग हो जाने पर, अपने पहले हुए वार्तालाप पर कोफ्त हुई थी राघव रमण को. वैसे मूर्खतापूर्ण वाचाल लम्हें कम आए थे उनके जीवन में. वह तो इधर के वर्षों में इस तरह के लम्हों की निरंतरता बढ़ती जा रही थी. अनियंत्रित ढंग से वे इतना सब कुछ सोचते रहे थे. और सबको एक लौजिकल कड़ी में पिरो, घटनाओं पर जो नियंत्रण चाहते थे, वह हो-ही नहीं पा रहा था.

उस दिन शाम को अचानक ही जब अनिकेत उनके घर पहुँच गया था, तो वे कैसे हड़बड़ा गए थे. घर में आजकल यूंही धोती लपेटे रहते थे, लुँगी की तरह, और ऊपर आधी बाँह की कुर्ती. गर्मी में धोती को आधा कर बाँधने लगे थे. खुले और ढीले कपड़े शरीर को शीतल सा एहसास देते थे. एक तरह की थपकी सा सूकून भरा स्पर्ष लगता था. खूब पसर कर टाँग टेबल पर रख बैठे हुए थे जब, अनिकेत को ठीक अपने सामने खड़ा पाया. एकदम से उठ भी नहीं पाए थे, मगर अपने कपड़ों और मुद्रा पर थोड़ी शर्म आई थी. शर्म आने के वाजिब कारणों में सिर्फ इतना ही एक कारण महत्वपूर्ण था कि उन्हें जीवन भर दूसरों के सामने खूब अच्छे चुस्त दुरूस्त कपड़े पहनने की आदत रही थी.

अरे तुम?
जी! आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?
नहीं-नहीं,  बैठो, मैं अभी आता हूँ.

वे उठे और बेडरूम की ओर चले गए. वहाँ बिखरी चीजों के बीच से अपनी पतलून ढूँढने लगे. एक ऐसी पतलून जो घर में पहनने वाली लगे, बाहर जाने वाली नहीं, अनिकेत के सामने यह ज़ाहिर करना बिल्कुल ठीक नहीं होगा कि वे अपनी स्थिति पर शर्म महसूस कर रहे हैं और उसे दिखाने के लिए सज रहे हैं. उन्हें आत्मप्रदर्शन करता, लाचार व्यक्ति नहीं नज़र आना चाहिए. वे नए ज़माने के टेर से वाकिफ हैं. अनिकेत जैसे नए ज़माने के लोग इन सब चीजों से विकर्षित हो जाते हैं. 
बहुत  ढूंढनें पर भी उन्हें लेकिन मनमुताबिक पतलून नहीं मिली, लिहाज़ा उन्होंने बाहर जाने वाली पतलून ही हैंगर से उतार, जल्दी-जल्दी पहननी शुरू कर दी. जल्दी करने से पैर फँसने लगा और दिमाग न जाने कहाँ दौड़ने लगा ऐसा कि एक ही पाँयचे में उन्होंने दोनों पैर डाल दिये. वह तो अलमारी की ओट पीछे थी, जिसने उन्हें गिरने से बचा लिया, वर्ना, उस दिन भारी चोट लग सकती थी. थक कर वे दुबारा कमरे में लौट आए, पतलून पहने बिना ही. अंदर एक सिसकी उठ कर गिर रही थी. बड़ी मुश्किल हुई थी उन्हें संयत होने में और अपनी देह को इस तरह बेतरतीब अध खुले ढंग से अनिकेत के सामने प्रस्तुत करने में.
उस दिन अनिकेत, ‘सरके साथ देर तक बैठने का मन बना के आया था. उनकी झिझक और उनका संकुचित महसूस करना, गाढ़ी बुनाई खोलने के समान, खोल कर, सुलझा दिया था उसने. वह वाकई सहज था. ढेर सारी बातें हुईं अनिकेत के साथ जिनके बीच तैरते हुए वे फिर से वैसा ही साहसी महसूस करने लगे जैसे हुआ करते थे.

वैसे-जैसे, छात्र जीवन में थे, अपनी नौकरी में थे. वह नौकरी जिसने उन्हें इतनी इज्जत और शोहरत दी. जिसके बावजूद उन्होंने कभी आत्मश्लाघा या श्रेष्ठता का छद्म सुख प्राप्त नहीं किया. इन भावों को छद्म ही माना, इसीलिए सुख मिला तो काम में मिला, ’महान पर्यावरणविद्या लीजेंडकहलाने में नहीं मिला. उनके साथी मानते थे, उनमें महत्वकांक्षा की आग नहीं, इसीलिए वे कभी अस्त-व्यस्त नहीं होते. वर्ना उनके जैसे प्रतिभाशाली लोग न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते, सरकार में होते, राज्यसभा में, और न जाने कहाँ .......कहाँ? उनके साथी उनके अदम्य साहस के भी कायल थे. सचमुच उनमें इतना अधिक साहस था कि अपने बारे में प्रचलित अनेक जिज्ञासाओं और व्यवहार संबंधी अफवाहों को लेकर वे कभी उद्धिग्न नहीं हुए, ना ही उन्होंने आत्मरक्षा में कभी कोई सफाई ही दी. अहाँऽऽ कभी ज़रूरत ही नहीं समझी!
आप अकेले रहते हैं? अनिकेत की आवाज़ में आश्चर्य से ज्यादा जानकारी ले लेने की औपचारिकता थी.
ओऽऽ हाँ? जवाब देते वक्त वे विष्वनीय सफाई देने की मुद्रा में आने लगे. यह कैसी बात हुई? अंदर एक तड़प सी उठी, ’वो साहस वाला भाव कहाँ बिला गया है’? उनके अकेले रहने के चुनाव के पीछे किसी भी प्रकार की योजना नहीं रही थी. सच तो ये है, उन्होंने जीवन जीने को लेकर कभी बहुत सोचा ही नहीं. घटनाएँ घटती चली गईं और पड़ाव पार होते चले गए. काम के बीच फुर्सत ही नहीं मिली, कि वे पारंपरिक घर बनाते. वैसे भी उन्हें परंपराओं से चिढ़ थी.

अनिकेत कुलकर्णी, तुम्हारे साथी तुम्हें क्या कह कर पुकारते हैं? उन्होंने बातों का रूख मोड़ा. ऐसी बातें की जाएं. जिनमें कुछ गढ़ने की मेहनत न लगे. किसी सफाई की आवश्यकता न हो.

अन्नू, बुलाते हैं सर. इसकी मितभाषिता इसकी फितरत है. राघव रमण इसे ही सत्य मान अपनाना चाहते हैं. ये उन्हें बल देता है. वर्ना अपने बारे में कितना कम बताता है ये नौजवान, कि उससे बात करने वाला, उसके भाव को ले असमंजस से घिर जाए.
अच्छा? आज से मैं भी तुम्हें अन्नू ही बुलाऊँगा. आज यहीं खाना खाओ. मगर उससे पहले बताओ क्या पीओगे?
नहीं सर, प्लीज परेशान न हों, मैं तो यूँ ही चला आया.
कोई बात नहीं, थोड़ी बियर तो चल जाएगी.
जी.
सोमेश, उन्होंने अपने यहाँ काम करने वाले वर्षों पुराने सेवक को आवाज़ दी,
बियर ले आओ!
जी, लाया....
बियर के तीसरे गिलास पर पहुँचने तक, उन्होंने अपने आप को कसे रखा. कुछ भी खुलने नहीं दिया, न इच्छा, अकांक्षा, न कसक और अतीत. अन्नू बोलता रहा, अपने विभिन्न प्रोजेक्टस की बात, पर्यावरण रिसर्च की नई बातें और वे सुनते रहे, उसी संतुष्ट शांत भाव से जिससे दुनिया परिचित थी. मगर उसके बाद, उनसे रहा नहीं गया, लगा एक पहाड़ी झरने से जूझते हुए, उसी के आवेग से नीचे बहा दिए जा रहे हों. कुछ बीयर पीने के बाद उनका नियंत्रण उनके मन मस्तिष्क से छूट कर बाहर आ गया. यह बेसंभाल होने वाली स्थिति भी उनके लिए, उनके व्यवहार की नई बात हो गई है. लिहाज़ा जो पहली निजी बात मन में आई उसे ही खट् से कह डाला.

अन्नू क्या तुम सपने देखते हो? कैसा वाहियात असंगत सवाल था यह. सवाल करते ही वे खुद समझ गए और शर्मसार हो गए. अपने अतिथि से नज़र न मिलाना पड़े इस उद्देष्य से कमरे में टहलने लगे.

अन्नू ने सवाल के बारे में, उसकी टाईमिंग के बारे में उनके बराबर सोचा ही नहीं. आराम से बोला,

नहीं सर, पता नहीं क्यों मुझे सपने नहीं आते. उनके लिए जवाब बहुत खुश करने वाला नहीं था. वे आतुरता से उसे अपने इधर के सपने बताना चाहते थे, कि, उन्हें कैसे-कैसे सपने आने लगे हैं, आजकल. अपने सपने बता वे अनिकेत के जवाबों से कुछ हल ढूँढना चाह रहे थे. सपनों से पैदा होती उधेड़बुनों से पलायन का रास्ता बनाना चाह रहे थे उसे, मगर अनिकेत का रवैया उस दूत समान कत्तई नजर नहीं आ रहा था, जो आगे बढ़कर उन्हें गले लगा उनकी आशंकाएं दूर करता. इससे वह यह सोचने पर मजबूर हो गए कि यही फर्क होता है, नौजवानों और उन जैसे लोगों में जिसे न चाहने पर भी, समय तय कर देता है. नौजवानों को सपने कैसे आएंगे, और यदि आएँगे तो याद कहाँ रह पाएँगे? कितनी गहरी नींद आती है, इस उम्र में. जब चाहे सो लें, फिर भी कम पड़ जाए. खुद उन्होंने कितनी डाँट खाई थी अपने पिता से इसी नींद को लेकर. वे जब भी सोते, पिता को लगता आवश्यकता से अधिक सो रहे हैं, समय जाया कर रहे हैं!
क्या हुआ सर? अन्नू को लगा सर कहीं खो गए हैं.
कुछ नहीं....! वे तन्द्रा से जगते हुए बोले.
उस दिन के बाद टहलने के अलावा एक और सिलसिला बन गया दोनों के जीवन का. दिन भर अनिकेत और सर अपने काम में व्यस्त रहते थे और शाम को अक्सर दोस्ताना ढंग से साथ. शहर में कहीं बाहर जाना हो तो भी साथ ही जाते थे. अनिकेत उनकी गाड़ी ड्राईव कर लेता था. एक दिन किसी आयोजन में राघव रमण को किसी ने टोक दिया था,
यह लड़का आपका बेटा है?
आपका रिष्तेदार है?
नहीं...नहीं, मित्र है मेरा. इस बार वे विश्वास से भरकर बोले थे. मिथ्या वाला, गढ़ा हुआ नहीं, सचमुच वाला. वह विश्वास जो अन्नू ने बार-बार अपनी उपस्थिति से उनके भीतर रोपा था.
अच्छा... उस व्यक्ति ने कहा था,
माफी चाहता हूँ मगर कुछ छूट ले सकता हूँ?
हाँ, हाँ, गो अहेड, राघव रमण मुस्कुरा कर बोले थे,

आप दोनों में बड़ी सिमिलेरिटी है, ट्विंस लगते हैं, एकदम जुड़वाँ! कमरे में एक ठहाका उछल पड़ा था. जिसपे राघव रमण घबरा गए थे. आषंका से भर उन्होंने अन्नू की ओर देखा था. वह सहज था, और बातों के मज़ाक को ही जी रहा था. कोई आवंतर अर्थ की षिकन उसके चेहरे पर नहीं थी. वह खूब हँस भी रहा था. इसके बावजूद उन्हें सहज नहीं लगा, कपड़ों के भीतर पसीना चुह-चुहा गया था. वे डरे गए थे. यदि अन्नू बातों को अन्यथा ले लेगा, तो उनसे मिलना बंद कर देगा. क्या कोई नौजवान आज की तारीख में उनका मित्र होना चाहेगा? क्यों चाहेगा? उनके पास किसी नौजवान को देने के लिए क्या था? या कुछ था? उनके साथ रहने से एक पहचान जरूर मिल सकती थी. एक नई आइडेटिंटी, विशय संबंधित कुछ सहूलियतें भी और...! सोचना चाहते तो फेहरिस्त लंबी हो जाती. सोचने से उबकाई भी आने लगी थी. साथ को लाभ के साथ जोड़ने पर. इसीलिए उन्होंने इस दिशा में सोचना बंद कर दिया. इस दिशा से दूसरी दिशा में चले गए. सोचने लगे, क्या फिर वही दयनीय आतुरता उन पर हावी हो गई है, जिसे व्यक्तित्व से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था बहुत बचपन से और जिसे ताजीवन निभाते भी रहे बखूबी? क्या अन्नू के लिए सहज वातावरण तैयार करने के लिए वे अन्नू जैसा ही आचरण करने लगे थे? क्योंकि अन्नू तो उनके जैसा आचरण करने से रहा.......क्या वे ही उसके रूप के बरअक्स अपने रूप को गढ़ने लगे थे?  इस व्यक्ति ने जो जुड़वाँ वाला ठप्पा लगा दिया था, उसके मायने क्या हुए? कैसे इंकार करें कि अनिकेत को मित्रता खो देने से बचाने के लिए, उन्होंने अपने अंदर अनजाने ही यह साम्य पैदा कर दिया होगा या जानबूझ कर ही करते जा रहे हैं? कैसे इंकार करें? उसे किसी कीमत पर खोना नहीं चाहते हैं? उसे अपने साथ बनाए रखने के लिए कुछ भी करेंगे वे. कुछ भी. ऐसा मन में आने लगा है. भले ही वह सब कुछ उनके इसके पहले वाले जीवन से भिन्न ही क्यों न हों? भले ही उन्हें अपने व्यक्तित्व के साथ कई समझौते भीकरने पड़ें.

सोमवार का दिन था जब वे टहल कर लौटे होंगे. सुबह-सुबह उनके भीगे लॉन की घास, तरावट देती थी, वे वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गए. सोमेश ने अखबार और मौसम्बी के जूस का गिलास उन्हें पकड़ा दिया. गिलास लेते वक्त, सोमेश ने देखा राघव रमण का हाथ एक क्षण के लिए काँप उठा था. उन्होंने देख लिया कि सोमेश ने उनके काँपते हाथ को देख लिया है. अजीब सी पराजय भावना से वे भर उठे,

क्या देख रहे हो?
वे आदत के विपरीत चिल्ला उठे.
कुछ नहीं,
वह सिर खुजाने लगा,
आप ठीक हैं, ?

हुँ, बड़े आए मेरा ख्याल रखने वाले, पहले अपने आप को देखो. पागलों की तरह पीते हो, रोज़ रोज़. लगता है मरना ही चाहते हो! अंतिम वाक्य बोलते-बोलते वे शब्दों को चबा गए, मानों कुछ शब्द सुनना चाहते ही नहीं भले ही वे उनकी अपनी ज़्ाुबा से निकले शब्द क्यों न हों.

सोमेश के आँखों की पतली डोरियाँ ललाई की अधिकता से फटने को तैयार दिखीं, वह सिटपिटाते हुआ अंदर चला गया. अभी ये नौबत नहीं आई है कि सोमेश उनके लिए चिंता का नाटक करे. वे अपनी चिंता कर लेंगे. करते ही हैं. आगे भी करेंगे. यह वाक्य उन्होंने ज़ोर से कहा. पूरी प्रकृति को सुना कर रहा. इसके बाद उन्होंने अखबार पर नज़र डाली.

अखबार का सातवां पन्ना इधर के वर्षों में उनका प्रिय पन्ना हो गया था. उस पन्ने पर चिकित्सा संबंधी खबरें छपती थीं. आज हेड लाईन थी स्टेम सेल थेरेपी’, कुछ ऐसा मजमून छपा था जिससे लगता था असाध्य से असाध्य रोगों का इलाज, स्टेम सेल थेरेपी में मौजूद है. खबर पढ़ते ही उनके समूचे शरीर में एक मधुर तरंग फैलने लगी. उन्होंने उत्साह से अपने डाक्टर मित्र को फोन मिला दिया. डाक्टर का स्वर हमेशा की तरह उत्साही मगर संवेदनाषून्य था. डाक्टर का यही अंदाज पेषेवर अंदाज था. जिससे उसके व्यक्तिगत अंदाज को अब अलग कर नहीं देखा जा सकता था. उन्होंने जब से इस सच से समझौता किया था, उन्हंे डाक्टर के रवैये से परेशानी नहीं होती थी.
कैसे हो?
- अच्छा हूँ, डाक्टर ऐसे ही फोन मिला दिया.
रियली?
डाक्टर ठठा के हँसा, मानो आगाह कर रहा हो, इससे ज्यादा झूठ वह पकड़ लेगा.
फिर भी बताओ कुछ? अचानक क्यों मेरी याद आई?

डाक्टर ने चुस्ती से इसरार किया. वह जानता था, कोई बात बाकी है, जिसे राघव रमण जल्दी नहीं खोलेंगे. उसने उन्हें कई बार समझाया था, डाक्टर को सारे सच जल्दी से बता देने चाहिए. डाक्टर से कैसा पर्दा? डाक्टर देख रहा था, मगर राघव रमण इधर, पहले के वनिस्बत कुछ और घुन्ने होते जा रहे थे. अपनी तकलीफों को लेकर और ज़्यादा. उसे हैरानी होती थी, उनके इस रूप पर. वह उनको अब लगभग बीस वर्षों से जानता था. उसने देखा था, उस आदमी के साहस को. कैसे सरकारों से लड़ना पड़ता था, पर्यावरण के मुद्दे को ले. सरकारी मुद्दों पर लड़ने के बावजूद सरकारें उसका सम्मान करती थीं. उसके परामर्ष के बिना कोई नई योजना नहीं बनती थीं. कितना भव्य उदात्त व्यक्तित्व रहा था उसका. लेकिन वही व्यक्ति कैसे पिछले दस वर्षों से सिमटने लगा था, संकोच और द्वंद्व के दो पायों में जकड़ा हुआ. सबसे छिपता फिरता.....! अपने आप से भी शायद!

आकर एक बार, मुझे देख लो. राघव रमण दबी जुबान से बोले.
क्या हुआ है? अब बताओ भी? डाक्टर की चिड़चिड़ाहट समय ज़ाया होने को लेकर नहीं थी, वह एक चिंता की वजह से गूँजी थी, मगर राघव रमण ने वही समझना स्वीकार किया जो नहीं था.
इट्स ओ के, कल बताता हूँ.
उनकी कायरता से डाक्टर और चिढ़ गया वह सर्द आवाज़ में बोला,
बताओ!
राघव रमण चिहुँक गए, दबे स्वर में बोले मानो कितनी लज्जाजनक बात कर रहे हों;
आजकल मेरे हाथ पैर काँपते हैं.
क्या हर वक्त?
नहीं, कभी कभी.
डाक्टर खासा चिंतामुक्त हुआ, उसने दुबारा टनक से कहा,
कल आके देखता हूँ तुम्हें....
कल नहीं, कल मैं एक सेमिनार में चंडीगढ़ जा रहा हूँ. लौटने पर काल करूँगा, तब आना.
ओ.के., रिलैक्स, तुम ठीक हो, बस टेक इट ईज़ी, डोंट ड्रिंक टू मच.
हाँ...! वे हताशा से ढल गए. वे डाक्टर से अखबार में छपी खबर का उत्सव बाँटना चाहते थे, मगर कह ही नहीं पाए, और मामूली सी फुसफुसी बात कह गए हाथ पैर कांपते हैं मेरे.
इसके बाद जल्दी-जल्दी में उनके हाथ अन्नू का नम्बर डायल करने लगे,
अन्नू कल चंडीगढ़ चलोगे मेरे साथ? काम से जाना है.
अरे सर अभी तो मिले थे, मगर आपने बताया नहीं?
वह उलाहना नहीं दे रहा था, मगर उन्हें अपने ऊपर खीज हुई, कैसे भूल गए उसे यह बताना?
हाँ यार, मिस हो गया, बताना. निमंत्रण कार्ड, कहीं रख दिया है, आज जब उनका फोन आया याद दिलाने के लिए तो याद पड़ा..... बहुत अच्छा होगा......चलोगे न इंटरनेशनल सेमिनार है?

उन्होंने लालसा और सम्मोहन में अपनी पेशकश को लपेटा, वे चाहते थे, बुरी तरह चाह रहे थे, अन्नू को अपने साथ ले जाना, बाहर अकेले जाने पर अजीब सी असुरक्षा होती थी उन्हें,
चलूँगा सर, क्यों नहीं चलूँगा. मेरे लिए तो यह ऑनर होगा सर, निष्चििंत रहें मैं पहुँच जाऊँगा आपके यहाँ, सुबह ही.
यह सुनकर राघव रमण में गजब की ऊर्जा भर गई, इतनी कि अखबार के बजाए वे कुर्सी उठाकर घर के अन्दर रखने लगे. यह देख सोमेश घबरा गया, ’हड्डी चटक जाएगी तो’, वह रसोई में खड़ा खड़ा ही चिल्लाया, सर कुर्सी मत उठाइए, हम रख देंगे.
चुप-नाष्ता लगाओ. वे हुँकारे.

सर की इतनी फुर्ती, और इतनी बेदिली सोमेश को नौजवानों सी ही लगी. वो मन ही मन बुदबुदाने लगा कैसे आदमी हैं? कैसा जीवन, जीते हैं? बुढ़ापे में जवानी दिखा रहे हैं बप्पा, कौन रहे इनके साथ, दिनों दिन सनकते जा रहे हैं. अगर हमारे परिवार को नहीं पाल रहे होते तो हम कब का छोड़ चुके होते इन्हें. आज कल कितने जिद्दी होते जा रहे हैं..? हर बात में जोश दिखाना चाहते हैं.
रात के खाने पर वे अकेले ही थे, उस दिन. खाने के पहले वाईन पी रहे थे. सोमेश खड़ा इंतजार कर रहा था. खुद तो रोज़ पीते हैं, हमको मना करते हैं.
खाना लगाऊँ? वह अपनी परिधि का अतिक्रमण कर उनके स्टडी रूम में पहुँच गया.
नहीं. वे किसी सोच में डूबे हुए थे.
यही न, अकेले बुढ्ढों के साथ यही प्रोबलम है, हमेशा सोचते रहते हैं जाने कौनसी बातें? आज यदि घर गिरस्ती बसाए होते तो ऐसा नहीं होता. अकेले पड़े-पड़े ऐसे सिर्फ सोचते नहीं रहते. अभी दो पोता-पोती तो जरूर होते. सोमेश कुढ़ रहा था.

क्या सोच रहे हो? वे उसकी सोच के बीच में टपके.
सोमेश घबराया, अच्छे हैं मगर ज़ालिम भी है, हमारे मन की बात समझ तो नहीं लिए?
पूरी इज्जत से बोला, कुछ नहीं सर - चलिए खाना खा लीजिए.
अच्छा. चलता हूँ. पत्नी और बच्चे आ गए तुम्हारे.
नहीं कुछ दिन में आएँगे.
हाँ.... वे धीरे से बोले मानो किसी और कि पत्नी और बच्चों को याद कर रहे हों इसपे सोमेश और कुढ़ गया.
जाओ खाना लगाओ.
जी.

सोमेश चला गया तो उन्हें वहयाद आने लगी. वही जिसे याद करते रहे थे, फिर मसरूफ वक्तों में, वह कहीं लुक सी गई थी, लेकिन आजकल फिर अक्सर याद आने लगी है.

पहली बार जब उससे मिले थे तो जिज्ञासा हुई थी कि जाने, कौन से शहर से आई हुई चिड़िया थी वह. हर वक्त फुदकती रहती थी. गर्मी की उस बरस की छुट्टियों में केरल के पुष्तैनी गाँव में सारे पास-दूर के रिष्तेदार इकट्ठा हुए थे. वह भी दूर की कोई रिष्तेदार की ही लकड़ी थी. तेरह वर्ष की उम्र थी उनकी और उस लड़की की रही होगी एक-दो वर्ष छोटी. शायद प्रेम जैसा ही कुछ हो गया था उससे. उन्हें याद है, उस लड़की का मुँह छोटी गौरय्या जैसा था. एक दिन उसने सबके सामने एक नृत्य प्रस्तुत किया था. वह जब अपना लहँगा थोड़ा सा उठाकर नृत्य करने लगी थी, तो उन्हें लगा था थप-थप-थप कर लड़की ज़मीन पर नहीं, उनकी ही छाती पर नाच रही है, और इस नृत्य के खत्म होते ही उन्हें उस लड़की को अपनी छाती पर गिरा कर चूम लेना चाहिए, एक बार, फिर लगता रहा, अनेक बार, अकस्मात, बार-बार. वह लड़की बड़ी सीधी थी, इसीलिए किसी को कभी बता नहीं पाई कि बाद के दिनों में कैसे राघव रमण ने उसे पहली बार चूमा था. ज़ोर से. इतने अधिक ज़ोर से कि उसका होंठ कट गया था और वह उस होंठ को अपने हाथ से दो दिन तक छिपाती फिरी थी. तीसरे दिन किसी ने जबरदस्ती उसके हाथ को खींच कर पूछा था,
ये क्या हुआ?
कुछ नहीं. उसने नज़रें नीची कर थरथराती आवाज़ में कहा था,
बोलते वक्त अपने ही दाँत से लग गया था.
लोग उसके बेशऊर होने पर खूब हँसे थे.

आज वही लड़की उनके ममरे भाई की पत्नी है. पिछली बार जब केरल गए तो उसके चेहरे में उसका छोटा गौरय्या सा मुँह ढँूढते ही रह गए थे. समय उसके प्रति बेमुरव्वत रहा था. उसकी त्वचा पर इतनी सारी महीन रेखाएँ बुनीं हुई थी, मानों चारों ओर थिलगियाँ सिली गईं थीं. जब वह उनसे ऊँसस कर कुछ बोली थी, तो उसका वही मुँह झलक भर दिखलाई पड़ा था, और उसके अंदर से दिखाई दिए थे उसके दाँत. सारे मध्यम आकार के थे, सारे के सारे बेहद संतुलित और व्यवस्थित.... सिहर पर राघव रमण ने अपने मुँह पर हाथ रख लिया था. षुक्र है, उनके दाँत अभी भी असली हैं.
खाना खाते वक्त वे उनका खूब, धीरे-धीरे, इस्तेमाल करते रहे, मानों कुदरत की इस नियामत को पोस रहे हों.

उन्हें चंडीगढ़ जाना, हमेशा से अच्छा लगता था. बहुत बार मन में आता था, अपने जाने की इच्छा को परमीता आनंद से न जोड़ें, युक्ति संगत नहीं है यह. मगर यह उनका मन ही तो था जो चंडीगढ़ से आए सारे निमंत्रणों को स्वीकार कर लेता था.

दस साल पहले से परमीता को जानते हैं. वह उन्हें अच्छी लगती थी, हमेशा से ही. जब बहुत व्यस्त रहते थे तब उससे पहला परिचय हुआ था. उन दिनांे विदेशी निमंत्रण बहुत आते थे उनके पास और वे उन्हें धड़ल्ले से स्वीकार भी कर लेते थे. परमीता काफी कमिटेड थी, काम को लेकर और उसकी उर्जा उन्हें प्रभावित करती थी, इसीलिए एक बार जब फ्राँस चलने का निमंत्रण दिया था उसे, तो भावावेश में वह उनके गले लग गई थी. वह चकित रह गए थे. वह सबकुछ खुले ढंग से व्यक्त करती थी. स्वस्थ कुंठा रहित जीवन था उसका. वे प्रभावित हुए थे, और  आज भी वह उन्हें अच्छी नहीं, बहुत अच्छी लगती है. वह उनके अंदर उस परिभाषित रोमाँच की संभावना जगाती है, जिसे आश्चर्यजनक ढंग से पहले कभी उन्होंने तरजीह ही नहीं दी, मगर आज जिसे वे लगभग व्याकुल हो खोजते हैं. वे अपने हृदय पर हाथ रखते हैं, धड़क रहा है हृदय. स्वस्थ है.

कार से चंडीगढ़ के सफर के दौरान वे कई बार मन ही मन दुहराते हैं तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो परमीता.मानो बार-बार कहने से रोमांच की ओर पहुँचने वाले क्रेसेंडो की भाव भूमि तैयार कर रहे हों. उन्हें लगता है अन्नू उनका कंधा झकझोर रहा है और उनसे कुछ पूछ रहा है.
सर... आप ठीक तो हैं?
ऐं...? वे अचकचा जाते हैं. लगता है झपकी आ गई थी उन्हें. ऐसा कैसे हो जा रहा है? बिना पूर्व सूचना के झपकी आ जाती है और उन्हें बेबस नींद में अनावृत कर देती है. क्या कुछ अनाप-शनाप बड़बड़ाए भी थे? कुछ न उद्घाटित करने वाला सत्य मुँह से निकल तो नहीं गया? ढेरों शंकाओं से लबालब उन्होंने पूछा
क्या, कुछ कह रहा था मैं?
हाँ सर, मगर सब अस्पष्ट था, कुछ समझ में नहीं आया. मुझे लगा किसी परेशानी में तो नहीं आप, इसीलिए उठा दिया. सॉरी.
अरेऽऽ नहीं.

उन्होंने बढ़ती धड़कन को रोकना चाहा, मगर चूँकि अन्नू की बातों पर विश्वास ठहर नहीं रहा था, इसीलिए धड़कन भी बढ़ी रही. और तो और उन्हें लगा अन्नू उन्हें अतिरिक्त सहानुभूति से देख रहा है. उनका शक बढ़ने लगा, ’जरूर इसने मेरे मुँह से निकली कोई बात सुन ली है.अब क्या उपाय था? उन्हें अब चालाकी बरतते हुए अन्नू से कबूलवाना पड़ेगा, कि आखिर उसने सुना तो क्या सुना.

वाह! चंडीगढ़ के नज़दीक पहुँचते ही मौसम कितना अच्छा हो गया! नहीं?
जी.
बड़ी रोमानी जगह है. षिमला के फुटहिल्स में होने की वजह से यहाँ का टेम्परेचर दिल्ली से कम रहता है और शहर का...? अरे कहना ही क्या, मुझे तो चप्पे-चप्पे रोमानी लगते हैं. तुम्हारा क्या ख्याल है?
जी, अच्छा शहर है. बहुत योजनाबद्व तरीके से बसा हुआ.

अन्नू की मितभाषिता से तो वे पहले से ही परिचित थे. पहले की मुलाकतों में उसके व्यवहार को ले तरह-तरह की शंका भी मन में उठती थी, मगर धीरे से उन्हें मानना पड़ा था कि अन्नू जानबूझकर ऐसा नहीं करता. वह है ही ऐसा. इसके बावजूद आजकी मितभाषिता उन्हें चकराने वाली लगी. दोनों के इतने आत्मीय रिष्ते के बावजूद वह अपनी निजी स्पेस पर उन्हें बढ़ने ही नहीं देता था. अब यह देखो हद ही तो  है, वे रोमान की बात छेड़ रहे हैं और यह शहर की संरचना की बात कर रहा है.

हाँ....हाँ, हो हो हो. वे नौसिखुआ खराब अभिनेता की तरह हँस पड़े और अपने कँधे उचकाने लगे.
अन्नू उनके कंधों को उचकते देख एक काली हँसी हँस पड़ा. हँसी तो उसकी हमेशा की तरह ही थी, लेकिन राघव रमण को वह रहस्मय काले रंगों में रंगी नज़र आई. उन्होंने दृढ़ता से माना, अन्नू की हँसी उनकी हँसी उड़ा रही थी. उन्हें अन्नू से बैचेन षिकायत होने लगी. रास्ते भर वे बैचेन बने रहे.

सेमिनार के बाद परमीता के घर डिनर था. अन्नू ने पहली बार परमीता को देखा, गोरी भारी बदनवाली खूबसूरत महिला थी वह. गुलाबी रंग की षिफान की साड़ी पहने हुए थी. उम्र लगभग पचास होगी, मगर उम्र से कम से कम दस वर्ष छोटी लगती थी. अच्छा खुला-खुला सा व्यवहार था उसका. अन्नू के संकोची स्वभाव के ठीक विपरीत सा. अन्नू को ज़्यादा वक्त नहीं लगा उससे प्रभावित होने में. राघव रमण दूर ही से, अन्नू की हरकतों का मुआयना कर रहे थे. उन्हें खुशी हुई कि अन्नू परमीता को पसंद कर रहा है. सही समय आने पर, परमीता से अपने लगाव की बात अन्नू को बता देने पर उज्र नहीं होगा उन्हें. लगाव का पात्र यदि सबकी पसंद का हो तो उस लगाव की बात किसी अपने से बाँटने में कितना सुख होगा? वे उस सुख को भोगना चाहते थे. वे अन्नू को अपने मन की सारी बातें निर्बाध रूप से खोल कर बताना चाहते थे. उन्होंने कभी किसी से अपने मन की सारी बातें नहीं बताई थीं. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. एक तो उनका स्वभाव ही ऐसा नहीं था, दूसरे उनके काम ने उनको खूब उलझाए रखा, जीवन भर. आजकल लेकिन उनके अंदर एक बढ़ती हुई ललक उभर रही थी, जो लोगों से खूब बतियाना चाहती थी. लोगों को अपना सारा आज और आने वाला कल बता देना चाहती थी. इधर वे खूब बतियाने भी लगे थे, फिर भी और चाहते थे, और...और.

उन्होंने चारों ओर देखा. कमरे में पसरी हल्की दूधिया रोशनी और कम वौल्यूम में बजता संगीत एक मादक रहस्यमय वातावरण निर्मित कर रहे थे. अब परमीता हल्के हल्के थिरकने लगी थी. उसने अन्नू को भी अपने साथ थिरकने के लिए बुला लिया. देखा-देखी और जोड़े भी उठने लगे. कमरे के बीचों बीच एक डांस, फ्लोर बन गया. आरोह-अवरोह के बीच कमरे में हँसी की हल्की फुहारें, नृत्य करने लगीं. राघव रमण ने देखा, अन्नू कमरे में उपस्थित सभी लोगों से ज्यादा आकर्षक और युवा था.

वे विचित्र से अभिमान के आनंद से भर गए. अन्नू ने उनका मित्र होना चुना था और वे ही अन्नू को यहाँ लाए थे. अपनी कृति की सफलता से मदमाते कलाकार की तरह वे अपनी जगह से उठने लगे. उठने में तकलीफ हुई उन्हें. लम्बी कार यात्रा ने कमर में पीड़ा के बल डाल दिए थे. उठने के पहले शरीर आगे झुकाना पड़ा, फिर एक कदम आगे बढ़े आधे-सीधे हुए, फिर और कुछ कदम चल, दोनों हाथ पीछे कमर पर रख पूरे सीधे हो पाए. अन्नू दूर से उन्हें ही देख रहा था. कैसे देख रहा था? नियंडरथल मैन को होमो सेपियन्स में बदलते क्या? जैसे ही यह एहसास मन में आया तो, पल भर पहले अन्नू के लिए उपजा अभिमान, फिर स्वामित्व बोध, तड़कते रष्क में तब्दील हो गया. उन्होंने अघोषित, अन्चीन्हें अपमान से भर सोचा, यही-यही... सच है न कि दुनिया नौजवानों की है, और वे अब नौजवान नहीं...? इसीलिए उनके अंदर के हास्यास्पद किरदार को अन्नू ने देखा..... ऊँह. डगमगाते हुए वे परमीता के नज़दीक पहुँचे और अन्नू को चिढ़ से देखा. देख तख़लीया’,  कहा नहीं, अन्नू ने बखूबी समझ लिया. वह लिहाज़ से परमीता से अलग हो गया, और शब्दों में दूसरे आदेश की प्रतीक्षा करने लगा. यदि वह सर की इस भाव भंगिमा से चक़ित हुआ भी तो उसने नहीं दर्षाया. नियंत्रण तो नौजवानों की योग्यता नहीं, मगर यह इतना नियंत्रित क्यों है? ये बौखलाता क्यों नहीं? इन सवालांे ने भी राघव रमण को परेशान कर दिया. अन्नू निर्दोश ढंग से मुस्कुराया, लेकिन राघव रमण को उसमें अनुग्रह का भाव दिखा. वे और चिढ़ गए;

सो, यंगमैन होटल वापस जाओगे? उन्होंने यंग मैन को ज़ोर देकर कहा.
जी सर, चलें?
मैं नहीं, उन्होंने परमीता आनंद को रोमानी अंदाज में देखते हुए कहा मानो दोनों के बीच के गूढ़ रहस्य को अनावृत करने का सुख अन्नू को दिया जा सकता था, जिससे अब उसे वंचित होना होगा.
तुम जाओ, यदि जाना चाहते हो तो. उन्होंने तिरस्कार से कहा.
जी. वही छोटा सा उत्तर.

वे खीजने लगे. और तो ओर अन्नू के जाने के बाद उन्हें कोई खुशी भी नहीं हुई. खोखला सा लगने लगा. खुद समझ नहीं पाए कि जिससे इतना स्नेह करते हैं, उसी से इतना कठोर व्यवहार क्यों कर रहे हैं? परमीता उन्हें नाचने के लिए उकसा रही थी. उन्होंने एक दो बार उसी की लय में अपने कंधे हिलाए. फिर परमीता को रूखाई से रोक उस मस्ती के क्षण में कह बैठे,
सारी परमीता, आज नाचने का जी नहीं, टायलेट जाऊँगा.

हाँ...हाँ वह शालीनता से बोली और घर की दूसरी मंजिल पर ले जाने लगी. वे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, कलेजे को हाथ में थामे, सतर्कता से. चिढ़ और थकान से उखड़ती साँसों को परमीता के सामने उद्घाटित करना कहाँ की अक्लमंदी होती?

वे टायलेट से निकले तो देखा टायलेट के बाहर लगे आईने में परमीता अपनी बिखरी लटों को सँवार रही थी. आईने के ऊपर लगे बल्व से उसका चेहरा आलोकित हो रहा था. गुलाबी, चमकदार. उन्होंने चुपके से पीछे से जाकर उसकी गर्दन की तलहटी में एक चुम्बन जड़ दिया. परमीता अनजाने पल में घिरने पर हैरत से भर गई,

ओहऽऽ! बस इतना ही कह पाई. लेकिन अगले ही पल उनके चेहरे की चमक देख, धीरे से बोली,
सर मेहमानों के जाने के बाद, कुछ देर रूक सकेंगे? वे परमीता की प्रतिक्रिया से अधिक अपनी ताकत की पुष्टि से प्रसन्न थे. उनके चुम्बन में अभी भी बड़ा दम था. चुम्बन गर्दन की तलहटी पर, बड़ी देर तक गहरा लाल बना रहा.
मेहमानों के जाने के बाद, ड्राईंगरूम में ही परमीता उनकी कुर्सी के पास जमीन पर एक बड़ा कुशन डाल बैठ गई, उनके पैरों से, उसके शरीर का बाँयाँ हिस्सा हल्के-हल्के छू रहा था.
सर, हीर सुनेंगे.
हाँ. उन्होंने आत्मविश्वास से भरी खुशी के संतोश से आँखें, आधी मूँद लीं.

परमीता गाने लगी. अपनी भारी नासीय आवाज़ में. गाते वक्त कभी-कभी वह, उनकी दिशा में देख मुस्कुराती जाती थी, इच्छा की लपट से जलती, खुशी से, हैरत से. अब उनके लिए उसके इतने पास यूँही, बैठा रहना दूभर हो गया. वे अपनी जगह से उठकर कमरे में धीरे-धीरे चहलकदमी करने लगे. वह आरोह की ओर बढ़ रही थी और गीत के दर्द से उसकी आँखें बंद होने लगी थी. वे उसे अपलक देखते रहे देर तक, और फिर समझ गए उन्हें परमीता इतनी अच्छी क्यों लगती थी. अंदर मानों एकसोता लबालब भर गया हो जैसे, वैसा महसूस करते हुए उन्होंने वह किया जो आज तक नहीं किया था, वे धीरे से झुककर परमीता के ठीक सामने बैठ गए, और बहुत एहतियात से कभी खत्म न होने वाली गिरफ्त में, परमीता के होठों को अपने होठों से बाँध लिया.
उस रात होटल लौटने पर उनके कमरे में, एक नन्हीं गौरय्या, न जाने कैसे सुबह होने से पहले ही चली आई थी और चीं-चीं करने लगी थी. वे चौंक कर उठ बैठे थे, मगर बहुत ढूँढने पर भी गौरय्या कहीं नहीं दिखी थी.
दिल्ली वापसी पर डाक्टर ने उन्हें देखते ही कह दिया,
राघव कुछ टेस्ट करवाने होंगे, जस्ट रूटीन चेकअप के लिए. बाकी तो फिट लग रहे हो. वैसे तुम आजकल अनुशासन तोड़ते जा रहे हो. खबर लगी है, मुझे....
कैसी खबर..... उनका दिल भागने लगा था कौन सी छिपी हुई बात जान गया था डाक्टर.

सुना है चंडीगढ़ में बहुत बैचेनी हुई थी तुम्हें? सफोकेशन और साँस नहीं आना जैसा कुछ. ऐसा क्या कर लिया था तुमने? हाँ? ये तो अच्छा हुआ अन्नू तुम्हारे साथ था, मगर हर बार तो वह तुम्हारे साथ नहीं हो सकता न. यू हैव टू बी केयरफुल.
उन्हें लगा वे अचानक नंगे कर दिए गए हैं और उनका षिक्षक उन्हें पूरी सच्चाई से जाहिर करवा रहा है कि वे गंदे बच्चे हैं और उन्होंने गंदे काम किए हैं. वे बेजा अपने आसपास के लोगों को तंग कर रहे हैं. अब उन्हें अच्छा बच्चा बनना शुरू कर देना चाहिए. उन्हें डाक्टर से नफरत हुई, हमेशा नन्हा बच्चा बना देता था उन्हें लेकिन उन्होंने अपनी नफरत को प्रकट नहीं किया, उल्टे भविष्य में अच्छा बन जाऊंगा वाले तरीके से हँसते हुए बोले,
मैं सावधान रहूँगा डाक्टर, आगे से किसी प्रकार की अति नहीं होगी. शायद उस दिन ड्रिंक्स...वे आगे की बात कैसे बताते? 
गुड! रिपोर्ट आ जाए तो खबर करना. इसके बाद डाक्टर चुस्ती से उठा और राघव रमण को गले लगाकर बोला,
यू आर फाईन राघव, बिलीव मी. कोई चिंता की बात नहीं है मैं तुमपे चिल्लाता जरूर हूँ लेकिन यूँही......!

इतना सुन राघव रमण के गले में कुछ अटकने लगा. डाक्टर जिसे वे इतने वर्षों से जानते थे जो कभी भावना में नहीं बहता था, आज भावुक हो रहा था, उनके लिए? क्या गर्त में जाने वाली फिसलन उनके बहुत नज़दीक पहुँच चुकी थी? उन्होंने गले में पैदा होने वाली अटकन को दबा दिया और अचानक चौकस हो गए. डाक्टर मेरी क्या देखभाल करेगा? और ये अन्नू बड़ी गोपनीय साँठगाँठ है इसकी डाक्टर के साथ. उस दिन, ऐसा भी कुछ नहीं हो गया था? ये दोनों मेरी क्या देखभाल कर पाएँगे ऊँह? ये तो सारे खुद डरे हुए लोग हैं. फिर उन्होंने अपने अंदर झाँका और समझने की कोशिश में लग गए कि, उनके अंदर क्या कोई नया डर पैदा हो रहा है? जो वे अब डाक्टर का सामना करने से भी हिचक रहे हैं? ना-ना....उन्होंने अपनी गर्दन खूब सीधी कर अपने चारों ओर देखा, और निष्कर्ष पर पहुंचे- उन्हें कभी किसी बात से डर नहीं लगा तो आज क्यों लगेगा? ’वे अपनी देखभाल खुद कर लेंगे. आज तक की है, आगे भी करेंगे आगे...आगे भी.
सोमेश का परिवार आ चुका था. उसके बच्चे के रोने की आवाज सुनाई पड़ी.
सोमेशऽऽ वे चिल्लाए,
ज़रा बच्चे को ले आओ.
सोमेश को चिड़चिड़ाहट हुई. आजकल बात बेबात उसके छोटे बच्चे को देखना चाहते हैं. फिर सोचा चलो ठीक ही है, देख कर कुछ न कुछ दे भी देते हैं.
बुलाने पर सोमेश की पत्नी सिर पर आँचल रखते हुए, दमकती चली आई. अपने पीहर वालों से मिलकर लौटी है, अभी भी मानती है, उसके अपने हैं वहाँ. सोमेश और बच्चों से अलग भी एक दुनिया है उसकी. उन्हें अच्छा लगा. महिलाओं की स्वायत्ता पसंद थी उन्हें.
ओऽहोऽ.. लड़का तो बड़ा हो गया?
लाओ, मेरी गोद में दो!
बच्चे की माँ हड़बड़ा गई, ’ये लेंगे गोद में? संभलेगा इनसे?’

सर अब इ बड़ा हो गया है. भारी है; खामख्वाह गोद लेने में आपको परेशानी होगी. उसने अटपटी स्थिति को अपने ढंग से टालने की कोशिश की और पति की ओर असमंजस से देखा. सोमेश ने इशारों में जवाब दिया, ’आजकल सनका रहे हैं, जाने दो......दे दो बच्चा गोद में.

बच्चे को उनकी गोद में डालते हुए जो बहुत हिचकी थी बच्चे की माँ, उस हिचकिचाहट को राघव रमण ने पकड़ लिया था. उन्होंने अपने बाजुओं में अपनी सारी ताकत केन्द्रित कर, बच्चे को ले उछालने दिया. बच्चा उन्हें नहीं पहचानता था, उछाले जाने पर बुरी तरह डर भी गया. ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और गोदी से उतरने को मचलने लगा. अजीब सी रस्साकशी का दृष्य उत्पन्न हो गया. वे बच्चे को गोदी में थामे रहने को जूझने लगे. इतने में बच्चे ने उनके सिर के बालों को अपनी नन्हीं मुट्ठी में समेटा और खींच दिया. वे दर्द से बिलबिला उठे और बच्चा उनकी गोदी से लगभग गिर चुका होता अगर बच्चे की माँ ने उसे उनकी गोद से खींच न लिया होता तो. इसके बाद वह अंड-बंड कुछ बोलने भी लगी. वे हतप्रभ देखने लगे, बच्चे के किए पर माफी मांगने की बजाए, वह उन्हें दोशी ठहरा रही थी,
सर कभी बुजरूग देखा नहीं है न, इसीलिए डर गया....
वे ठक से रह गए. उन्होंने अपने टूटे बालों को हाथ में बिन कर रखा और अपने कमरे में चले गए. कमरे का दरवाजा बंद कर वे आईने के सामने खड़े हो अपने अंगों को एक-एक कर परखने लगे. दिखाई पड़ा, कंधे कुछ झुक गए है. पोस्चर खूब सीधा नहीं रहा और...और क्या भयानक बदलाव हो गया है उनमें जो डरावना लगने लगा है? क्या है? उनके बाल? सफेद हैं मगर सिर भरा हुआ है उनसे. अन्नू कहता है वे बाल उन्हें भव्यता प्रदान करते हैं. हूँऽऽ. और रंग बहुत गुलाबी नहीं रहा उनका तो बहुत उजड़ा हुआ भी नही है. हाथ पैर सलामत हैं. हाथ की त्वचा जबसे थोड़ी झूली हुई नज़र आने लगी है तभी से हमेशा पूरी बाहों के कुर्ते पहनने लगे हैं. वह भी अपनी जगह ढका हुआ सच है. सबसे अंत में वे अपनी आँखों को परखते हैं. अपनी आँखों पर वे अब भी वैसे ही रीझ जाते हैं, जैसे कालेज के दिनों में लड़कियाँ उन्हें देख रीझ जाया करती थीं.

राघव तुम्हारी आँखें कितनी बड़ी हैं?
राघव उनमें ये बच्चों जैसा कौतूहल अभी तक कैसे बचा पाए हो? उन दिनों लड़कियाँ कहती ही रहती थीं, और प्रशंसा से भर हँसती जाती थीं.
उन्होंने गौर से देखा तो पाया कि, अरे, वह कौतूहल अभी भी मौजूद है. फिर लोग उन्हें देखने में क्यों गलती कर रहे हैं? वे राघव को ठीक से समझ क्यों नहीं पा रहे हैं? कायदे से लोगों को समझना चाहिए यदि किसी और वज़ह से ना सही, तो भी राघव रमण को दुनिया की अभी कितनी बातें देखनी बाकी हैं. और बस इतनी ही वजह क्या काफी नहीं है और वर्षों तक सक्रिय रहने के लिए, जीवन जीने के लिए? अगर लोग देखना चाहेंगे, तो देख ही लेंगे उनके अन्दर का वही कौतूहल तो आँखों में बसा हुआ है. उन्हें अपनी आँखें बहुत पसंद हैं और वे उन्हें बचाए रखेंगे.

उन्हें बिल्कुल समझ में नहीं आया कब उनका घर उनको ले हवा में उड़ने लगा था, एक दिन. उन्होंने खिड़की से झाँक कर नीचे देखा तो पाया अरे वे तो बहुत ऊपर थे, बादलों के पास.नीचे दिल्ली शहर था, और सुबह का लोदी गार्डन भी.अरे वह तो अन्नू है, उन्होंने किलक कर देखाअन्नू आज टहल नहीं रहा है, दौड़ रहा है, तो क्या उसे टहलने से ज़्यादा दौड़ना पसंद है? रोज जो वह उनके साथ टहलता है, उसके पीछे कोई दबाव है क्या? उन्हें खुश करने का दबाव? उन्हें सहज बनाए रखने का दबाव? नहीं-नहीं यह ठीक नहीं. उन्होंने तय किया कि वे आज ही अन्नू से साफ-साफ कह देंगे देखो अन्नू तुम्हें दौड़ना पसंद है तो दौड़ो, और जब पसंद है तब दौड़ो, मेरे साथ रोज़ मिलकर टहलने की यह कयावद जरूरी नहीं. इतना सोचते ही उन्हें लगा, पहले वाली बात कह देंगे, दूसरी वाली (रोज न मिलने वाली) कह भी सकते हैं और नहीं भी और यदि भूल से कह भी देते हैं तो थोड़ा जल्दी से कह देंगे, धूल उड़ाती लापरवाही से, क्योंकि अन्नू रोज नहीं मिलेगा तो...? उन्हें घर के साथ हवा में उड़ते हुए अन्नू की पसंद के बारे में ऐसा बोध हुआ, इसके लिए उन्हें घर के अंदर बिठाकर तागों से उनके घर को बाँध उड़ा रहे हैं बच्चे पर बड़ा प्यार आया, वह जो लटाई लिए हुए था और रंगबिरंगी पतंग उड़ा रहा था. डोर अपने हाथ में रखे हुए है शैतान.

सोमेश की समझ से बाहर की बात थी यह, ’जिस लड़के ने इतना तंग किया था कल, उसी के लिये सुबह सुबह नींद से जग, पाँच सौ का नोट पकड़ा रहे थे सर, यह कहते हुए कि बच्चे के लिए नए कपड़े ले लेना.
कैसे समझाते सोमेश को राघव रमण कि बच्चे द्वारा हवा में उड़ाया जाना कितनी अद्भुत घटना थी. आकश में उड़ना, कितना भार-रहित हो जाना है. चंडीगढ़ से लौटने के बाद पहली बार इतना हल्का लगा था उन्हें.
अन्नू से मिलने पर लिहाज़ा निहायत खुलेपन से पूछा था उन्होंने, उसी स्नेह से, जिससे भर वह अन्नू से मिला करते थे चंडीगढ़ जाने से पहले,
अन्नू दौड़ते हो तुम, मतलब दौड़ना पसंद है तुम्हें?
जी, सर.
पहले दौड़ता ही था.. बोल वह चुप हो गया.
शायद उसे लगा होगा सर इसमें भी कोई आवंतर अर्थ न ढूँढने लगें और परेशान हो जाएँ.
तो दौड़ा करो यार, जब मन में आए. जब मैं वहाँ टहलूंगा तो तुम वहाँ दौड़ना.
मन की बात भक्क से निकल गई अन्नू के.
सर, मैं शहर मैराथन में दौड़ने वाला हूँ, सोच ही रहा था, अब आपने भी कह दिया है तो दौडूंगा ही दौडूँगा. वह चंचल हो उठा था.

जानते हो? वे धीमे से बोले, मानों यदि यहाँ उन्होंने जल्दी कर दी तो बात की महत्ता कहीं खो जाएगी. मेरा भी स्वप्न है, शहर मैराथन! अन्दर एक पंछी फड़फड़ाने लगा. वह क्यों इतने दिन कैद रहा? आज़ाद हवा में उड़ने की उत्तेजना को उद्घाटित कर रहा था पंछी. उनके पैर उत्तेजना में धीरे धीरे काँपने लगे.
अरे वाह सर, ये तो बड़ी अच्छी बात है. लेट्स डू इट.

अन्नू के उत्साह पर उन्हें थोड़ी चिंता होने लगी. अन्नू महज हौसला अफज़ाई तो नहीं कर रहा? बातों को गुलाबी शायरी की तरह वाह-वाह कर भुला तो नहीं देगा? उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. वे बहुत गंभीरता से अपनी बात कह रहे हैं. अन्नू को बात की गंभीरता की कद्र करनी चाहिए. सचमुच उनका स्वप्न है यह.

ग्रीस था या रोम... याद नहीं पड़ रहा. कोई प्राचीन ऐतिहासिक शहर था जहाँ चालीस वर्ष पहले इसी तरह का मजमा देखा था उन्होंने. वहाँ कि तरह यहाँ भी भीड़ थी कि बढ़ती जाती थी. वेन्यू खचाखच भरा था. लगता था सारे दिल्ली वाले यहीं जमा हो गए थे. सब दिल्ली मैराथन शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. चालीस साल से वे भी इंतजार कर रहे थे. उन दिनों जब ग्रीस या रोम में साँस रोक जो दौड़ देखी थी, वह ऐतिहासिक इमारतों से शुरू होकर कहीं गुम हो गई थी. फिर कहीं और जाकर खत्म हुई थी किसी नए स्टेडियम में.

ऐसा ही कुछ आज भी होने वाला है. वे तैयार हैं. पूरी तरह तैयार. एक...दो...तीन, सीटी बजी और अब सब दौड़ने लगे हैं. राघव रमण की गति, सब तैयारियों के बावजूद दूसरों से कम है लेकिन वे इससे विचलित नहीं दिखते हैं. वे दौड़ रहे हैं, खुशनुमा नीली टी शर्ट और शाटर््स पहने. बचपन में ऐसे आसमानी नीले कपड़े पहनने पर माँ कहती थी, ’कितना सुंदर लग रहा है मेरा बेटा’, आज भी ज़रूर वे वैसे ही सुदर्षन लग रहे होंगे, क्योंकि लोगों की नज़र उन पर रह रहकर टिक जा रही थी. लोग-बनाम-दर्षक उन्हें गौर से देख रहे हैं. वे खूब दौड़ रहे हैं. कुछ देर बाद लगता है वे थकने लगे हैं. उन्होंने दौड़ते हुए ही, साईडटेबल पर रखे पानी के पाउच को उठा लिया है और दौड़ते हुए उसे खोल कर पीने लगे हैं उन्हें पता है, कि उन्हें साँसों को उखड़ने से बचाना है वर्ना डाक्टर उन्हें बिस्तर से बाँध देगा या अस्पताल में भर्ती कर देगा. वे अपनी आज़ादी खोना नहीं चाहते हैं लिहाजा सीमित गति से दौड़ रहे हैं. वे देख रहे हैं, सब पीछे छूटता चला जा रहा है. अब लेकिन उनका मुँह लाल होने लगा है. उन्हें खाँसी भी आने लगी है, मगर वे ठान चुके हैं, आज उन्हें अपनी दौड़ पूरी करनी ही होगी, लिहाज़ा वे रूकते नहीं. वे देखते जा रहे हैं रास्ते में हरे भरे पेड़ हैं, स्वस्थ सुंदर लोग हैं, दिल्ली की जानी पहचानी सड़कें हैं; और एक जगह तो उन्हें वह आम का पेड़ भी दिखलाई पड़ गया, जिसे उन्होंने दिल्ली के अपने पिता के आवास में, बचपन में रोपा था इस आशा के साथ कि गुठली को रोपते ही, पेड़ उग जाएगा, बढ़ जाएगा और ढेरों फल देने लगेगा. उनका जादुई पेड़ होगा वह. ऐसा जल्द हो जाए, उसके लिए कुछ अगड़म-बगड़म जादुई मंत्र भी पढ़े थे उन्होंने. आम का कैसा लोभ था उन्हें. बाद में पिता का वह आवास छूट गया था और वे, दिल्ली के कई ठिकानों के रिहायशी हुए थे, लेकिन इस पेड़ की याद बनी रही थी. कुछ यादें कैसे हमेशा बनी रहती हैं. उन्हें एक-एक कर अपनी पसंदें याद आ रही हैं. उन्हें दिल्ली बहुत पसंद है, उन्हें गौरय्या चिड़िया बहुत पसंद हैं. उन्हें परमीता भी बहुत पसंद है, उन्हें अन्नू पसंद और इन सबसे ज़्यादा और......और उन्हें आम बहुत पसंद हैं. उन्हें पसंद है...चुनौती, उन्हें अपने हक में हल भी बहुत पसंद है, इसीलिए आज उन्हें दौड़ पूरी किए बिना चैन नहीं मिलेगा.

वे लगातार दौड़ते जा रहे हैं, समय बीतता जा रहा है, क्या बहुत देर लगा रहे हैं वे? कौतूहल से भरी उनकी बड़ी आँखें और खुल गई हैं. लगता है पूरा दृष्य पी जाएंगी, वे बड़ी हो रही हैं... और बड़ी. वे देख रही है वृत्ताकार दृष्य के भीतर एक केन्द्र है, और वह बदलता जा रहा है. आज केन्द्र में अन्नू दिख रहा है, सामने. अरे, अन्नू तो दौड़ पूरी कर आ रहा है. वह उन्हीं के पास सबसे पहले आ रहा है. अब सबकुछ गड्डमड्ड हो रहा है. अरेरे... यह क्या, अब वे वे अन्नू हो गए हैं. वे दौड़ पूरी कर आ रहे हैं, अपनी तरफ, अपने से मिलने.
बधाई-बधाई-बधाई.

वे अपनी जगह पर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, मगर चारों ओर बहुत सारे लोग हैं, बड़ी आपाधापी है. वे हतप्रभ हैं. यह क्या हो रहा है? चारों ओर इतना शोर क्यों है? बाहर का शोर उनके भीतर भरने लगा है. उनके शरीर के तंतु नतीजे का संदेश मस्तिष्क की कोशिकाओं से चारों ओर संचारित करने का प्रयास करते हैं. राघव रमण पहले की अपेक्षा ठीक पैंतीस सेकेंड बाद शोर के सत्य को समझ पाते हैं. उस शोर से बचने के लिए राघव रमण को अपने कान बंद कर लेने चाहिए थे, मगर उन्होंने अपनी आँखें मींच लीं है.
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भूमंडलोत्तर कहानी – २३ : चयनित अकेलेपन का अनिवार्य उपोत्पाद (समापन)

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आलोचक और कथाकार राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ का समापन वन्दना राग की कहानी ‘ख़्यालनामा’ की विवेचना से हो रहा है, इसके अंतर्गत आपने निम्न कहानियों पर आधारित आलोचनात्मक आलेख पढ़ें हैं –

1)  लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले)
2)  शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे)
3)  नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4)  अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज)
5)  पानी (मनोज कुमार पांडेय)
6)  कायांतर (जयश्री राय)
7)  उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय)
8)  नीला घर (अपर्णा मनोज)
9)  दादी,मुल्तान और टचएण्डगो (तरुण भटनागर)
10)कउने खोतवा में लुकइलू ( राकेश दुबे)
11)चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर)
12)अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13)जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े)
14)मन्नत टेलर्स (प्रज्ञा)
15)कफन रिमिक्स (पंकज मित्र)
16)चोर- सिपाही (आरिफ)
17)पिता-राष्ट्रपिता(राकेश मिश्र)
18)संझा (किरण सिंह)
19)अगिन असनान (आशुतोष)
20)बारिश के देवता (प्रत्यक्षा)
21)गलत पते की चिट्ठियाँ(योगिता यादव)
22)बंद कोठरी का दरवाज़ा (रश्मि शर्मा)
23)ख़्यालनामा (वन्दना राग)


चयनित कथाकार और उनकी कहानियाँ ही श्रेष्ठ हैं ऐसा कोई प्रस्ताव यह श्रृंखला नहीं रखती है, इस उपक्रम का लक्ष्य समकालीन समय-सत्यों का अन्वेषण और उसकी विवेचना है. एक तरह से २१ वीं सदी की कथा-प्रवृत्तियों की पड़ताल की यह एक कोशिश रही है, अब यह पुस्तकाकार भी प्रकाशित होकर आपके समक्ष होगी. आलेखों के साथ संदर्भित कहानियाँ दी गयीं है जिससे यह ‘पाठ-चर्चा’ युवा अधेय्ताओं के लिए भी उपयोगी हो. कथा को समझने के अनेक औजार उन्हें यहाँ मिलेंगे.

आलोचना के लिए आलोचकीय विवेक, अन्वेषण और साहस की जरूरत होती है जो राकेश बिहारी के पास है. कहानियों की आलोचना के सिलसिले में वे पाठ तक ही केन्द्रित नहीं रहें हैं, पाठ के बाहर की बहसों और विमर्श तक वे जाते रहें हैं, शोध और खोज की जहाँ जरूरत थी वहाँ भी वे गये हैं.

लगभग चार वर्षो के इस आलोचकीय परिघटना का सहभागी और साक्षी समालोचन रहा है. यह स्तम्भ खूब पढ़ा जाता रहा है और इसने अपने समय को कई तरह से प्रभावित किया है. इस सार्थक श्रृंखला के पूर्ण होने पर राकेश बिहारी बधाई के हकदार हैं. जल्दी ही समकालीन उपन्यास पर अपने नये स्तम्भ के साथ वह समालोचन पर आपको मिलेंगे.




भूमंडलोत्तर कहानी – २३ (समापन क़िस्त)


चयनित अकेलेपन का अनिवार्य उपोत्पाद             
(संदर्भ: वंदना राग की कहानी `ख्यालनामा`)

राकेश बिहारी 




हिन्दी कहानी में किसी बुजुर्ग या वृद्ध का अकेलापन कोई दुर्लभ विषय नहीं है. बिना स्मृति पर ज़ोर डाले ही इस विषय पर अलग-अलग कोणों से लिखी गई कई अच्छी कहानियों का आस्वाद हमारे संवेदना तंतुओं में जाग्रत हो जाता है. निर्मल वर्मा की `सूखा`,शेखर जोशी की `कोसी का घटवार`राजेन्द्र यादव की ,उषा प्रियम्वदा की `वापसी`,सुषम वेदी की `गुनहगार`,आनंद हर्षुल की `उस बूढ़े आदमी के कमरे में`आदि कुछ ऐसी ही कहानियाँ हैं. `अकार`के रजत जयंती अंक में प्रकाशित वंदना राग की कहानी- `ख्यालनामा`को मैं बुजुर्गों के अकेलेपन पर लिखी गई इन कहानियों की समृद्ध शृंखला की भूमंडलोत्तर कड़ी के रूप में देखता हूँ. इस विषय पर अबतक लिखी गई कहानियों से गुजरते हुये बुजुर्गों की ज़िंदगी में व्याप्त अकेलेपन को सुविधा के लिए प्रकृतिप्रदत्त,समाजप्रदत्त और परिवारप्रदत्त की तीन श्रेणियों में विभाजित कर के देखा जा सकता है. `ख्यालनामा`के केंद्रीय चरित्र रघुवर शरण का अकेलापन इन सब से अलग बहुत हद तक उसी के द्वारा चयनित है. आध्यात्मिक और पारलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु परिवार के त्याग और अकेलेपन के चयन के उदाहरण तो प्राचीन भारतीय जीवन और साहित्य में खूब मिलते हैं,लेकिन कैरियर और पेशेगत काम के सिलसिले में इस कदर रम जाना कि परिवार बसाने की याद ही न रहे भारतीय समाज के लिए अपेक्षाकृत नया है. पाश्चात्य जीवन शैली से जोड़ कर देखे जाने  के कारण इस तरह के अकेलेपन को भारतीय समाज की समस्या के रूप में नहीं देखा जाता रहा है. पर अब ऐसा नहीं किया जा सकता. अकेलेपन का दंश झेलेते रघुवर शरण जैसे वृद्धों की संख्या भले आज भी भारतीय समाज में कम हो, लेकिन नवउदारवादी आर्थिक परिवेश में इस तरह के अकेलेपन का चयन करनेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है,जिन्हें भविष्य के रघुवर शरणों की तरह ही देखा जा सकता है. भविष्य के गर्भ में छिपे इन रघुवर शरणों की यह अनिवार्य संभावना मुझे `ख्यालनामा`को एक महत्वपूर्ण और जरूरी कहानी के रूप में रेखांकित करने का तर्क और दृष्टि प्रदान करती है.
दिलचस्प है कि `ख्यालनामा`से गुजरते हुये मुझे हिन्दी कथा साहित्य की एक अविस्मरणीय कहानी और हिन्दी साहित्य जगत के एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व की याद लगातार आती रही. कहानी- `कोसी का घटवार`और व्यक्ति- राजेन्द्र यादव! रघुवर शरण का अविवाहित होना,उसके पहले प्रेम की स्मृति और प्रेमिका से मिलना (हूबहू वैसा ही न होने के बावजूद) अपने मोटे साम्य के कारण जहां `कोसी का घटवार`की याद दिलाता है वहीं रघुवर शरण की जिजीविषा और हर पल युवा दिखने की चाहत राजेन्द्र यादव की. हाँ,इस सिलसिले में उसके सेवक सोमेश की सपरिवार (पत्नी और बच्चा सहित) उपस्थिति से राजेन्द्र जी के स्थायी परिचारक किशन और उसके परिवार की याद भी ताजा हो जाती है. यह इस कहानी का एक ऐसा पक्ष है जो मुझे बार-बार अपने तक खींच लाता है और हर बार मैं चाहते न चाहते भीतर से नम हो जाता हूँ. कई पाठकों के लिए अवांतर होने के बावजूद इसके जिक्र से न बच पाने का यही कारण है. हालांकि पाठक को अपने किसी जीवन प्रसंग से पल भर को जोड़ पाना भी मेरी नज़र में किसी कहानी की बड़ी सफलता है. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि प्रेरघुवर शरण के अविवाहित होने या उसके प्रथम प्रेम की स्मृति और एक अन्य प्रेमिका से मिलने के बावजूद कहानी के केंद्र में पात्रों के परस्पर संबंध से ज्यादा अकेलेपन और उसके भय से व्याप्त मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं का होना इसे `कोसी का घटवार`और `राजेन्द्र यादव`की स्मृति-छवियों से विमुक्त भी कर देता है. 
विविध अनुशासनों में उच्च शिक्षा के अवसरों की बढ़ती अधिकता और मेडिकल क्षेत्र में होने वाले नित  नए अनुसन्धानों से मनुष्यों की औसत आयु बढ़ी है. वहीं जीवन की नई जटिलताओं,बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और संकुचित होते जीवन-मूल्यों ने आज तरह-तरह की भौतिक,शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को जन्म दिया है. अकेलापन,उसके अनुसांगिक भय और परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाला अवसाद इस नई जीवन शैली के अनिवार्य उपोत्पाद हैं. जीवन के उत्तरार्ध में दोस्तों की कमी और तेज गति से बदलते समय के साथ तुकतान बिठाने में होनेवाली व्यावहारिक दिक्कतों के कारण ऊब,अकेलापन और अवसाद ऐसे लोगों के जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो जाते हैं. डर,आशंका और असुरक्षाबोध के त्रिकोण में फंसे रघुवर शरण के बदलते व्यवहारों के सूक्ष्म अंकन से यह कहानी इन नई जीवन-स्थितियों की विडंबनाओं को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से साकार करती है.
आयुवृद्धि को मनोवैज्ञानिकों ने एक चरणबद्ध शारीरिक प्रक्रिया कहा है जिसके साथ सामंजस्य स्थापित करने में सामाजिक संबंध और सामाजिकता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वैयक्तिक स्वतन्त्रता और निजता की चाहत का चाहे जितना भी उत्सवीकरण किया जाये,एक खास उम्र के बाद समाजविमुख निजता के आग्रह अकेलेपन, तनाव और अवसाद को ही जन्म देते हैं. परिवार के अभाव से उत्पन्न  अकेलेपन, समय के तमाम अंतरालों के बीच उग आए अजनबीपन,पल-पल सर उठाते असुरक्षाबोध और अवसाद में धकेलने वाले तमाम लक्षणों के बावजूद यदि रघुवर शरण की जिजीविषा कायम रहती है तो इसमें उनके शोध छात्र अनिकेत कुलकर्णी और सेवक सोमेश की सपरिवार उपस्थिति की बड़ी भूमिका है जो उनके लिए कहानी में परिवार का प्रतिस्थानापन्न हैं. 
रचनात्मक लेखन के लिए शोधात्मक प्रविधि का इस्तेमाल पहले भी किया जाता रहा है. सूचना क्रान्ति ने बहुअनुशासनिक शोध को जिज्ञासु और प्रयोगधर्मी लेखकों के लिए बहुत आसान बना दिया है. भूमंडलोत्तर समय की इस विशेषता को इधर की कई कहानियों में देखा जा सकता है. यह लेखिका की शोधवृत्ति का नतीजा है कि `ख्यालनामा` आयुवृद्धि के कारण और प्रभावों की बहुकोणीयता को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ही नहीं जैविक सिद्धांतों की कसौटी पर भी कसने का हरसंभव जतन करती हैं. राघव रमण की सामाजिक-पारिवारिक स्थिति, उसकी मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं के समानान्तर उसके भीतर पल रहे संशयों और चौकन्नेपन के परिणामस्वरूप `स्टेम सेल थेरेपी`की संभावनाओं के प्रति उसकी जिज्ञासा सब मिलकर उसके अकेलेपन की स्थिति का बहुकोणीय जायजा लेते हैं. राघव रमण के व्यवहारों में प्रसिद्ध चीनी वैज्ञानिक वॉन्ग द्वारा प्रतिपादित क्षति-संचय सिद्धान्त से लेकर आयुवृद्धि से संबन्धित गतिविधि सिद्धान्त तक की मान्यताओं के लक्षण देखे जा सकते हैं. भूमंडलोत्तर कहानियों में बहुधा संवेदना के मुक़ाबले शोध को तबज्जो देने के कई उदाहरण मौजूद हैं. आयुवृद्धि के संदर्भ में हुये आधुनिक शोध के कई सूत्रों को राघव रमण के दैनंदिन व्यवहार में भी देखा जा सकता है लेकिन यह सुखद है कि ये शोध कहानी में शोध की तरह नहीं आए हैं. अपनी उम्र को लेकर राघव रमण के भीतर पल रहे नानाविध भयों और उनके परिणामस्वरूप उसकी प्रतिक्रियाओं और आचार-व्यवहारों की अंतर्ध्वनियों में इन सिद्धान्तों की अनुगूंजें आसानी से सुनी जा सकती हैं.     
प्रेम की उत्कट लालसा,आखिरी बूंद तक जीवन-रस में पगे रहने की प्यास और जीवन के अठहत्तरवें वर्ष में भी युवा और चुस्त दिखने का शौक राघव रमण के जीवन-स्वप्न का अभिन्न हिस्सा है. लेकिन उम्र एक ऐसी सच्चाई है जो उसके भीतर तरह-तरह की चिंताओं-आशंकाओं के बीज रोपती चलती है. अपनी अवस्थाजनित हकीकतों के कारण किसी के आगे दयनीय नहीं दिखने की वह हरसंभव कोशिश करता है  लेकिन इस उपक्रम में उसकी दयनीयता लगातार प्रकट होती चलती है. अनिकेत के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर एक अतिरिक्त सजगता हो या फिर परिमिता और अनिकेत के बीच के सहज सामीप्य को देख अनिकेत के प्रति अपमान और ईर्ष्या से भरा व्यवहार,उसी दयनीयता के प्रकट होने के संकेत हैं. इन सब के मूल में राघव रमण का अकेलापन और असुरक्षाबोध ही है. अनिकेत कुलकर्णी में दोस्त और सेवक सोमेश के परिवार में उसके परिवार के विकल्प की तलाश के बहाने यह कहानी जीवन में मित्र और परिवार की जरूरतों को ही रेखांकित करती है जिसका संकुचन भूमंडलोत्तर समय का एक बड़ा सच है. आज के समय में मजबूती से फैल रहा यह अकेलापन उस अकेलेपन से सर्वथा भिन्न है जिसका महिमामंडन साहित्य में  निजता की रक्षा और आध्यात्मिक अन्वेषण के नाम पर गाहेबगाहे होता रहा है. यह वह अकेलापन है जो समाज और सम्बन्धों की आत्मीय परिधि से विलग होकर विकसित हो रहे नवउदारवादी आर्थिक माहौल का उपोत्पाद है जिससे बचने का एक और अकेला उपाय लगातार क्षीण हो रहे सम्बन्धों की ऊष्मा का संरक्षण है. सोमेश के बच्चे के प्रति राघव रमण के मन में उमड़ा वात्सल्य हो या कि मैराथन दौड़ पूरा करते अनिकेत कुलकर्णी में उसका खुद को देखना,समबन्धों की ऊष्मा के संरक्षण का ही उपक्रम है.
इस टिप्पणी के आरंभ में मैंने `ख्यालनामा`पढ़ते हुये `कोसी का घटवार`के याद आने की बात कही थी. कथानायक के अकेले होने के बावजूद सम्बन्धों की सांद्र सघनता और पात्रों की परस्पर आत्मीयता के कारण जहां कोसी का घटवारप्रेम की कहानी है वहीं सहज सम्बन्धों के चयनित अभाव के कारण `ख्यालनामा`अकेलेपन की त्रासदी की. उल्लेखनीय है कि दोनों कहानियों के लिखे जाने के बीच लगभग पचास वर्षों का फासला है. इस दौरान भारतीय समाज में रिश्तों की बुनावट को लेकर तीन सौ साथ डिग्री का सांघातिक बदलाव आया है,जिसकी रफ्तार पिछले कुछ वर्षों में लगातार तेज हुई है. यही कारण है कि कुछ हद तक एक जैसे पात्रों की कहानी होने के बावजूद`ख्यालनामा`अपने युगीन अर्थ-संकेतों के साथ  `कोसी का घटवार`का विलोम है. काश यह कहानी उसका पूरक या विस्तार हो पाती! यह मांग इस कहानी से ज्यादा अपने समय से है.
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सहजि सहजि गुन रमैं : संदीप नाईक

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प्रेम में अबोला रहना भी एक रस है

कविताओं को जहाँ अन्य कलाओं ने प्यार किया, अपनाया और सहेज कर रखा, वहीँ कविताओं ने भी उन्हें अपने अंदर रचा. कलाओं के घर में सब एक साथ रहते हैं.

संदीप नाईक की प्रस्तुत कविताओं में एक कविता शास्त्रीय गायिका ‘शोभा गुर्टू’ के लिए और एक ओडिसी नृत्यकार ‘केलुचरण महापात्रा’ के लिए है.

शोभा गुर्टू की आवाज़ का जादू अविस्मरणीय है.संदीप नाईक की इन सुगठित कविताओं को पढ़ते हुए गुर्टू का  प्रसिद्ध दादरा ‘सैंयाँ रूठ गये’ और ठुमरी ‘हमरी अटरियाँ पर आजा रे सवरियां’ की याद आये और आप उन्हें सुनने बैठ जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं.


प्रस्तुत हैं कविताएँ.

  
  


संदीप  नाईक  की  कविताएँ                   






।। प्रीतम घर नही आये ।।
[ स्व.शोभा गुर्टू को याद करते हुए ]



1)
बेलगाम वह जगह है जहां भानुमति जन्मी थी
उन्नीस सौं पच्चीस में
बड़ी होती गई तो माँ मेनकाबाई शिरोडकर ने कहा कि
जब मैं नाचती हूं तो सुनो
तुम्हारे कान में सुनाई देगी है धरती के घूमने की आवाज़
मंच को अपने पांव से नाप दो
संसार को वह दो जो कोई नहीं दे सका
कभी अल्लादिया खान साहब की शिष्या रही मेनकाबाई अतरौली घराने की गायिका थी
जो बाद में घुंघरू बांध मंच पर समा गई



2)
भानुमति ने जब मां को घुंघरू से थिरकते देखा
अचरज में थी और देखती रही देर तक औचक सी
उस्ताद भुर्जी खान ने उसकी आंखों में नृत्य नही
संगीत का विशाल समंदर देखा
उसे लपक कर खींचा और सितार, पेटी,
तबले के सुरों में गूंथ दिया
यहाँ से उसकी ठुमरी, दादरा और
कजरी की शुरुआत हुई जो होरी पर जाकर खत्म हुई



3)
बड़े गुलाम अली खां और बेगम अख्तर को
सुनकर भानुमति बड़ी हुई
बेलगाम से मुम्बई का सफर भी रोचक रहा
जब गाने लगी तो ऐसा गाया कि
कमाल अमरोही भी चकित थे
पाक़ीज़ा में गाया
बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ मोरे सैयां
पाकीज़ा और फागुन से शुरू हुए सफर में
कर्नाटक की लड़की मुम्बई में फिल्म फेयर ले बैठी



4)
मैं तुलसी तेरे आंगन की में वह सैयां रूठ गए गाती रही
खूब गाया - खूब गाया दादरा, खूब गाई ठुमरी
मराठी में भी सामना और लाल माटी में गाती रही
बिरजू महाराज की संगत में गाया
मेहंदी हसन साहब की संगत में ग़ज़ल भी
संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार पाया
विश्वनाथ गुर्टू के घर आई तो भानुमति
शोभा बन गई उनके घर की - शोभा गुर्टू



5)
एक दिन मेरे शहर के पुराने हॉल में
जब वह बहुत देर तक अपनी बंदिश सुना रही थी
एक खूबसूरत मिट्ठू रंग के हरी साड़ी पहने
जिस पर सफेद फुलकियाँ लगी थी
तीन संगत कलाकारों के साथ दादरा गा रही थी
पर जनता थोड़ी देर सुनती रही
यह वही शहर था जिसने कलाकारों को
सर पर चढ़ाया था - नजरों से गिराया था
बाशिंदे संगीत के मुरीद थे और गुलाम भी
जो संगीत समारोह सुनकर गर्दन हिलाते हुए
अहम और दर्द को घर छोड़ कर चले आते थे
उस दिन शोभा गुर्टू के दादरा में
किसी को रस नहीं आ रहा था
बाद में शोभा गुर्टू ने देखा कि
लोग उठकर जा रहे हैं तो वह गाने लगी
सावन की ऋतु आई रे सजनिया
खनकदार आवाज़ में कजरी सुनकर
बाहर खड़े लोग भी हॉल में आ गए
देर तक सुनते रहें जब तक नही गाई शोभा गुर्टू ने भैरवी
हिला नही जगह से कोई अपने
शोभा गुर्टू ने तीन घँटे सतत गाकर थकने की दुहाई दी
मंच से विदा लेते समय उनकी आंखों में अश्रु थे



6)
अफसोस है कि मैं उसके बाद कभी
शोभा गुर्टू को आमने-सामने बैठकर नहीं सुन पाया
मुस्कुराता चेहरा और विरल दृष्टि के सघन अश्रु आज
मुझे याद आते है आज
जनता रूठ कर जाती है मंच को अपमानित कर
किसी भी गायक के दादरा, ठुमरी या कजरी गाने पर भी कोई लौटता नहीं हॉल में
भीड़ गायब है गायक जिंदा है
बाज़ार ने सुरों का धंधा ऐसा बुना है जो
सुर, साधना और तपस्या सब के ऊपर है
आज की गायिका जुगाड़ की पारंगत कलाकार,
सफल उद्यमी है जो सब बेच सकती है
ठुमरी, कजरा, दादरा, होरी या कबीर
आप क्या लेंगे श्रीमान


( युवा कवि डॉ देवेश पथ सारिया के लिए )







मिथ्या


नींद में याद आता है कि
खटका दबाना भूल गया
कमरे की बत्ती जल रही होगी
मोटर चल रही होगी बहुत तेज़
पानी टँकी से बहकर सड़क पर
आया होगा भीगता सा

टीवी चालू रह जाता है
गैस खुला रह जाता है
लेपटॉप खुला छोड़कर निकल जाता हूँ
दरवाजों पर लटका रहता है ताला
चाभी निकालना रह जाता है स्थगित
यह बढ़ गया है इधर कुछ दिनों में

जगहें भटकाव में ला देती है
रास्ते, पगडंडियाँ, झील, नदियाँ
समुंदर और जंगल शेष है दिलों दिमाग़ में
पूछता हूँ हर कही पगलाया सा
और रोज के अर्थहीन काम भूलता हूँ

पौधों को पानी नही दिया हफ्तों से
सफाई की नही कमरे की
अपनी किताबों की धूल नही झाड़ी
कपड़े पड़े है अवांगर्द से
पैदल नही चला बरसों से

घूमकर गया नही कभी अपने ही पीछे
अतीत के कोनों में बुझाई नही चिंगारी
दोस्तों से मिला नही खुले दिल से
कितना चूक रहा हूँ आहिस्ते आहिस्ते

अपने में जिंदा है कौन
यह बूझ पाना क्या मुश्किल है इतना
ये स्मृतियों के विलोप का समय है
कविता लिखकर याद रखना चाहता हूँ







केलुचरण महापात्रा की मूर्तियां


रास्ता तो हमने बनाया था
यक्षिणी वही थी एकांत में
बाट जोहती, कामातुर खड़ी थी
अजंता, कोणार्क या खजुराहो में

प्रेम में पड़कर ओरछा से लेकर
नदियों के तट तक और समंदर
कुओं से नालों , बावड़ियों नहरों में
हर जगह खड़ी ही मिली मुझे

दुख की आँख में सुनहले
स्वप्न लिए, हर बार पत्थर हो गई
लज्जा भूली और औचक ही रह गई
हर जगह मानो, प्रेम में सन्निपात हुआ हो
लकवा मार गया हो अंगों पर

बोल सकती तो कहती कली, केलि,
कमलिनी, ओडिसी नृत्य करते हुए
कुछ ना कहती तो निहारती रहती
प्रेम में अबोला रहना भी एक रस है




अदर्ज


बाकी था नही कहने को
सुनने में सब ढह गया
विस्मृत होता तो कही दर्ज होता
छूटना तो तय ही था फिर भी

चलने में याद भी नही रहता
हड़बड़ी में स्वाभाविक है होना
गलियों के बीच जगह नही शेष
सड़कें दुहराव से भरी है

अतल पानी और आसमान
धरती के अनंतिम छोर
अपने ही बाये बाजू में बसे
दिल के बीच दूरी ना थी

दूर कही एक पगडंडी है
मेड़ के किनारे - किनारे
वहां कभी बहा होगा पानी
गीली यादें तस्दीक करती है

उस पेड़ से जंगल के खत्म होने तक
पसरा था तो प्रेम, जो दिखता नही था


अगढ़


दुख के इतने प्रकार थे
इतने आकार और पैमाने
कि प्रेम की हर फ्रेम में फिट थे

आहत और बेचारगी में प्रेम
अवसाद, तमस, सन्ताप में प्रेम
इतना कि एक दिन प्रेम भी ढल गया
एकाकार होकर विक्षप्त सा

साम्राज्य और विस्तृत हुआ
हर जगह अब प्रेम था, दुख नही
शाश्वत, बिलखता, दास्तान सुनाता
प्रेम को जानना आसान था
बजाय व्यक्त करने या स्वीकारने के

यह बात अभी कोहरे में
प्रेम में पगी बून्द ने कही

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संदीप नाईक
जन्म 5 अप्रेल 1967 महू मप्र

शिक्षा: एम ए, एम फिल (अंग्रेज़ी साहित्य एवं ग्रामीण विकास) टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से विशेष पाठ्यक्रम

32 वर्षों तक विभिन्न शासकीय/ अशासकीय पदों पर काम करने के बाद 2014 से  स्वतंत्र लेखन, कंसल्टेंसी का कार्य आदि

कविताएँ, कहनियाँ, आलेख प्रकाशित
नर्मदा किनारे से बेचैनी कथाएं-कहानी संकलन को 2015 का प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान

सी - 55, कालानी बाग़,
देवास, मप्र, 455001

9425919221मोबाईल naiksandi@gmail.com

कथा-गाथा : पिरामिड के नीचे : नरेश गोस्वामी

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(by Ben Dhaliwal)












अकादमिक दुनिया को आधार बनाकर हिंदी में कम ही कहानियाँ लिखी गयीं हैं उनमें से कथाकार देवेन्द्र की कहानी ‘नालंदा पर गिद्ध’अविस्मरणीय है.

ज्ञान के कथित पीठ महीन कूटनीति के भी पीठ हैं. सत्ता-संरक्षण, थोथे वैचारिक प्रदर्शन, अकादमिक जार्गन, विचारों और अवधारणाओं की चोरी, अनुकूल पर अक्षम की नियुक्ति, जातिवाद, भाई-भतीजावाद. प्रतिभाशाली, साहसी,  स्वाभिमानी की उपेक्षा, अवहेलना और अहित ये सब ऐसे छल हैं जिन्होंने उच्च शिक्षण संस्थाओं को नष्ट ही कर दिया है.

नरेश गोस्वामी समाज-विज्ञान की पत्रिका ‘प्रतिमान’ के सहायक संपादक हैं, समालोचन पर आप उनकी कहानियाँ पढ़ते आ रहें हैं. यह कहानी  महानगर के एलीट कहे जाने वाले एक उच्च शिक्षा संस्थान की यही विडम्बनात्मक कथा कहती है.

  
  
पिरामिड के नीचे                              
नरेश गोस्वामी






सिर का यह दर्द उसी क्षण शुरु हुआ था जब एक साल पहले सुनील की किताब— सुभानपुर: एक कस्‍बे की डायरीपढ़ने के बाद रुबीना अपनी कुर्सी में बैठी देर तक खिड़की के बाहर देखती रही थी. सुनील की यह किताब मरणोपरांत छपी थी और उन दिनों जबर्दस्‍त चर्चा में थी. कस्‍बे के समाज, राजनीति और अर्थतंत्र  पर वैश्‍वीकरण के पच्‍चीस वर्षों के प्रभावों का आकलन करती इस किताब को कई समीक्षक पॉपुलर समाजशास्‍त्र का नया मानकघोषित कर चुके थे. किताब की लो‍कप्रियता के पीछे शायद इस तथ्‍य की भमिका भी थी कि दिवंगत सुनील देश के एक प्रतिष्ठित विश्‍वविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद अपनी ग्रामीण दुनिया में लौट गया था और सामाजिक कार्य करते हुए वहीं रहकर लिखने पढ़ने का काम कर रहा था. इसमें अतिरिक्‍त सहानुभूति की बात यह थी कि डेढ़ साल पहले उसकी हार्ट अटैक से अचानक मौत हो गयी थी. तब वह केवल बावन साल का था. चूंकि किताब उसकी मौत के बाद छपी थी, इसलिए प्रकाशन-जगत, विद्वान और समीक्षक इसमें सुनील के जीवन की त्रासदी, वंचनाओं और उसके साथ हुए अन्‍याय पर भी चर्चा कर रहे थे.  


‘यार, इस आदमी के पास वाक़ई एक अलग तरह की नज़र है. साहित्‍य, एथनॉग्रैफी, सोसियोलॉजी... सब कुछ एक साथ और कहीं कोई अटकाव, बौद्धिकता का कोई प्रदर्शन नहीं... कस्‍बे की राजनीति का ग्रिड किस तरह खोला है इस बंदे ने. जहां लोगों को ज़र्रा दिखाई नहीं देता, वह पूरी दुनिया देख लेता है. छोटे-छोटे ब्‍योरे, जिन्‍हें लोग बड़ी अदा के साथ माइक्रो डीटेल्‍स कहते हैं, उसके यहां भरे पड़े हैं... सिद्धेश्‍वर खन्‍ना ने मार्जिन्‍स के अपने रिव्‍यू में लिखा है कि सुनील अंग्रेजी में भी लिख सकता था लेकिन उसने यह प्रलोभन छोड़ते हुए अपनी भाषा चुनी’.

रुबीना अभिभूत थी. यहां तक कि अपने खर्च पर दिल्‍ली जाने की योजना बनाने लगी थी. वह सुनील के बारे में सब कुछ जानना चाहती थी:
‘इतने शानदार अकैडमिक रिकॉर्ड के बावजूद उसे नौकरी क्‍यों नहीं मिली?
 ‘क्‍या उसे उसका एक्टिविज्‍म खा गया?क्‍या लोग उसके टेलेंट से डरते थे?

‘क्‍या दिल्‍ली की पूरी अकादमिक जमात में एक भी आदमी ऐसा नहीं था जो उसके लिए कुछ कर पाता?’ ‘तुम्‍हारे साथ का सबसे ब्रिलियंट आदमी गुमनामी में खो गया और किसी को कोई अफ़सोस नहीं हुआ?’ ‘तुम्‍हारा तो दोस्‍त था, तुम भी कुछ नहीं कर पाए?

आखिर में जब दोनों अपने अपने सिरे समेट रहे थे तो रुबीना ने वह बात भी कह डाली जो अब तक उसके ज़हन में अटकी थी: विम, तुम मानो या न मानो, लेकिन सुनील के साथ न्‍याय नहीं हुआ... वह जिस मुकाम का हक़दार था, उसे वहां तक पहुंचने नहीं दिया गया’. इतना कहकर रुबीना चुप हो गयी लेकिन ऐसा लगा कि उसकी चुप्‍पी में अभी कुछ बाक़ी रह गया था. बहुत देर तक जब कोई जवाब नहीं आया तो रुबीना ने कनखियों से देखा कि बेंत की कुर्सी में अधलेटा विमल कुछ न कह पाने की बेचैनी से जूझ रहा है.

‘हा रूबी, तुम ठीक कह रही हो... वह अंग्रेजी में लिख सकता था. लेकिन बहुत टेढ़ा आदमी था..ऑलमोस्‍ट सिनिकल. मैंने उससे कई बार कहा कि अंग्रेजी में क्‍यों नहीं लिखते... कि अंग्रेजी का बाज़ार और दायरा बड़ा है, लेकिन उसने कभी नहीं सुनी. बड़े रौब सा कहा करता था कि अंग्रेजी वालों को ज़रूरत होगी तो अनुवाद करा लेंगे..’. अंतत: विमल ने ख़ुद को अपनी उस विकल चुप्‍पी से बाहर खींचते हुए कहा था.
शाम की विदा होती रोशनी में रुबीना ने भौंहे सिकोड़ कर फिर एक बार विमल की ओर देखा.

रुबीना !हिंदुस्‍तानी पिता और अमेरिकी मां की पहली संतान. तीन साल की उम्र से मां की तलाकशुदा जिंदगी के अकेलेपन और संकटों में तपी, सत्रह साल की उम्र में छुट-पुट नौकरी शुरु करके पच्‍चीस तक देह की ज़रूरत और साहचर्य के अंतर को जज्‍ब कर चुकी थी. अका‍दमिक दुनिया में आने का फैसला उसने स्‍कूली पढ़ाई के बारह साल लिया था. पहले विवाह के बाद औपचारिक संबंधों को हमेशा के लिए अ‍लविदा कह देने वाली और किसी भी राष्‍ट्रीयता से घनघोर परहेज करने वाली रुबीना चुप्पियों के बीच फुसफुसाती चालबाजियों से बखूबी वाकिफ़ थी. उसे विमल से ऐसे टरकाऊ जवाब की उम्‍मीद नहीं थी जिसमें न कोई सरोकार दिखाई दे रहा था, न संजीदगी.  



(दो)
विमल का डर यही था कि आखिर में यह सवाल उस तक भी पहुंचेगा. रुबीना ने आखि़री सवाल से पहले जो कुछ भी कहा था, वह अनाम लोगों को संबोधित था: एक ऐसी भर्त्‍सना जिसमें किसी का नाम नहीं लिया गया था. लेकिन आखि़री सवाल तो ख़ालिस उसी से वास्‍ता रखता था. हां, विमल के पास सवाल को टालने, उसे किसी ओर दिशा में घुमा देने या फिर सिरे से रफा-दफा करने का लंबा अनुभव था. लेकिन यह सेमिनार नहीं, घर का एकांत था और सवाल वह स्‍त्री पूछ रही थी जो पिछले पांच बरसों से उसके साथ रह रही थी और अकादमिक दुनिया में उसके बराबर हैसियत रखती थी— दक्षिण एशियाई भाषा और साहित्‍य की मर्मज्ञ. हिंदी, उर्दू और फ़ारसी की विद्वान और विमल की शोध-परियोजना की सह-निदेशक. उसके सामने वह झूठ नहीं बोल सकता था.

उस रात सोने से पहले मेल चैक करने के लिए जब विमल ने लैपटॉप ऑन किया तो उसे सिर में अचानक एक सरसराहट सी महसूस हुई. ठीक वैसी जैसे शरीर के किसी हिस्‍से पर चींटी चढ़ने पर महसूस होती है. उसने एक बार सिर झटका, चश्‍मा उतार कर दुबारा नाक पर रखा. लेकिन नहीं, चीटियों की रफ़्तार बढ़ रही थी. अचानक सिर के भीतर एक कटार सी धंसी और कानों के पास निर्वात सा फैल गया. एकबारगी लगा कि वह कुर्सी से लुढ़क जाएगा.



(तीन)  
विमल! इंडियन इंटैलिजेंशिया का ग्‍लोबल स्‍टार. आइवी लीग की एक युनिवर्सिटी में सोशल सिस्‍टम्‍स का प्रोफ़ेसर. अकादमिक और पॉपुलर दोनों दुनिया का सम्‍मानित नाम. चार बेस्‍ट सेलर किताबों का लेखक. शोध के बीसियों अंतर्राष्‍ट्रीय जर्नलों के सलाहकार मंडल में शामिल. हिंदी वाले इसलिए गदगद कि साल भर में एकाध लेख हिंदी में भी लिख देता है. भारत आता है तो आइआइसी और हैबिटेट सेंटर में व्‍याख्‍यान. विश्‍वविद्यालयों में अपने यहां बुलाने की होड़ लग जाती है. दिल्‍ली हो या हैदराबाद, जहां जाए वहीं इंतज़ार करते लोगों की भीड़. उसके एक एक शब्‍द को दिमाग में उतार लेने को आतुर लोग. धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे सदाबहार सपनों से लेकर कटिंग-एज थियरीज का उस्‍ताद. और वह भी केवल बावन साल की उम्र में.

लेकिन एक साल पहले शुरू हुआ यह दिमाग़ी दर्द अब बाहर की रौनक पर भारी पड़ने लगा है. इस साल उसे चार जगह व्‍याख्‍यान देने थे, लेकिन कहीं नहीं जा पाया. उसे लगता है कि यह सिर्फ़ सिरदर्द नहीं बल्कि कोई और चीज़ है जो एक बार शुरु होता है तो उसे कई दिनों के लिए निचोड़ कर रख देता है. उसकी शक्ति, काम करने की इच्‍छा और ध्‍यान- सब सोख लेता है. और भयावह बेचैनी के इन क्षणों में वह जैसे अपने भीतर उलटा चलने लगता है : क्‍या यह उसके व्‍यक्तित्‍व— जिंदगी के हर मसले, हर रिश्‍ते, हरेक भावना को अपने करियर के मुताबिक तय करने की अनिवार्य परिणति नहीं है?कि वह-जो किसी रौ में नहीं बहा;  जिसने हर अवसर को कैश किया. हर मौक़े पर वह किया जो उसके प्रोफाइल को आगे बढ़ाए. कई स्त्रियों से प्रेम किया. तरह-तरह के लोगों से मित्रता की. पिछला संबंध ख़त्‍म करने, नया रिश्‍ता बनाने के लिए कितनी बार और कैसे-कैसे तर्क विकसित किए!  

इस बीच विमल ने कई बार चाहा कि रुबीना को साफ़ साफ़ बता दे कि सिरदर्द की यह नयी बीमारी उसी दिन शुरु हुई थी जिस दिन सुनील और उसकी किताब का पहली बार जि़क्र हुआ था. कई दफ़ा जब उसने कहना चाहा, बात होटों तक भी आई लेकिन तभी एक पथरीला डर मन में आ बैठा. अपने अतीत की बहुत सी चीज़ों की तरह उसने रुबीना को अभी तक सुनील के बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया था. ख़ुद रुबीना ने भी कभी उसके अतीत में कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखाई. लेकिन अब जब रुबीना सुनील की किताब का ख़ुद ही अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहती है और दो महीने बाद भारत जाने का कार्यक्रम बना चुकी है तो देर-सबेर उसे सब पता चल जाएगा.


(चार)
जैसे-जैसे रुबीना के भारत जाने का समय निकट आता जा रहा है, विमल का डर और बेचैनी बढ़ने लगी है. दिमाग़ में हर वक़्त जैसे कहीं दूर बजते घंटे का कंपन गूंजता रहता है. अब ये सवाल कल्‍पना से निकल कर गिलगिले भय में बदल गए हैं: क्‍या सब कुछ एक साथ बता दूं?रुबीना की क्‍या प्रतिक्रिया होगी?क्‍या होगा जब रुबीना के सामने उसकी छवि ध्‍वस्‍त होगी?कैसा लगेगा लोगों को यह जानकर कि भारतीय बौद्धिकता के इस ग्‍लोबल सितारे की पहली किताब का मूल विचार ही नहीं, कई अध्‍यायों की योजना ही सुनील की अधूरी थीसिस से उड़ाई गयी थी. एक बात हो तो वह झटके से कह भी दे. यह तो पूरा एक पिरामिड है. एक के ऊपर दूसरा तल!  

वह क्‍या-क्‍या बताए कि एम.ए. फ़र्स्‍ट इयर में जब एक बार प्रोफ़ेसर सुकांत चौधरीकी क्‍लास में सामाजिक न्‍याय पर चर्चा चल रही थी तो सुनील ने उनसे बहुत लंबी बहस की थी और सारे छात्रों के आकर्षण का केंद्र बन गया था. चौधरी लोकतंत्र की दूसरी लहर पर टिप्‍पणी करते हुए कह रहे थे कि सत्‍ता में दलितों और पिछड़ों की बढ़ती भागीदारी लोकतंत्र की संस्‍था को दूरगामी ढंग से मज़बूत करेगी.. लोकतंत्र की एक बड़ी अंतनिर्हित संभावना यह होती है कि उसमें अंतत: सबको मौक़ा मिलता है. वह अपने आप में एक संतुलनकारी शक्ति है’.

इस पर सुनील ने हाथ उठाते हुए कहा था: सर, मुझे लगता है कि आपकी बात एकतरफ़ा हो गयी है’.

प्रोफ़ेसर चौधरी ने अपनी बात ख़त्‍म करने के बाद बड़े उत्‍साह से कहा था: ठीक है. अब इसके बाद पूरा समय तुम्‍हारा है. अपनी बात और तर्क पूरे व्‍यवस्थित ढ़ंग से रखो’.

सुनील कह रहा था कि उसके कस्‍बे में पिछले सत्‍तर सालों से नगर पालिका है. इन वर्षों में सिंह, गुप्‍ता, अग्रवाल, शर्मा और वर्मा सब चेयरमैन हुए हैं, लेकिन एक भी कुम्‍हार, लुहार या मुसलमान चेयरमैन नहीं बन सका है. मुसलमानों के नाम पर सिंहों, गुप्‍ताओं, शर्माओं और वर्माओं के साथ हो जाने वाले प्रजापति और लुहार अपने आप में ज्‍यादा से ज्‍यादा वार्ड मेंबर बन पाते हैं. कभी-कभी उन्‍हीं में से किसी को डिप्‍टी चेयरमैन बना दिया जाता है जिसका कोई ख़ास मतलब नहीं होता. उसने इस तरह की अन्‍य छोटी-छोटी जातियों- जोगी,श्‍यामी, बैरागी आदि का हवाला देते हुए कहा था कि सिर्फ़ चुनावी भागीदारी सामाजिक न्‍याय की गारंटी नहीं हो सकती. वह इस बात पर लगातार ज़ोर दे रहा था कि इन छोटी-छोटी और कहीं भी चुनाव को प्रभावित न कर सकने वाली जातियों को लोकतंत्र की कथित दूसरी लहर का कोई प्रत्‍यक्ष लाभ नहीं मिला है. पहले वे जजमानी व्‍यवस्‍था का अंग थी, अब बाज़ार का हिस्‍सा बन गयी हैं. मतलब उन्‍हें जो मिला है, उसका लोकतंत्र से ज्‍यादा आर्थिक बदलाव से संबंध है. 

सुनील कहता जा रहा था और विमल मंत्रविद्ध सुनते जा रहा था कि सामाजिक न्‍याय की राजनीति का उसका सबसे ज्‍यादा फायदा दबंग जातियों को मिला है, भले ही सवैंधानिक भाषा में उसे पिछड़ी या निम्‍न जाति क्‍यों न कहा जाता हो. उस दिन अपने लगभग आधे घंटे के हस्‍तक्षेप को समेटते हुए उसने अंत में कहा था:  मैं लोकतंत्र या चुनावों के महत्त्व से इनकार नहीं कर रहा, केवल इतना कह रहा हूं कि जब तक सामाजिक व्‍यवस्‍था में अंतर्निहित ग़ैर-बराबरी का केंद्र ध्‍वस्‍त नहीं किया जाएगा तब तक हमारे जैसे देश में लोकतंत्र सबल या बड़ी संख्‍या वाली जातियों और उनमें भी केवल इलीट लोगों का हित साधता रहेगा’.

विमल को याद है कि उस दिन सुनील का हस्‍तक्षेप प्रोफेसर चौधरी के लेक्‍चर पर भारी पड़ा था.


(पांच)
विमल का डर यही था कि अगर उसने यह सब बता दिया तो फिर यह सच भी खुल जाएगा कि उस‍ दिन एम.ए. की क्‍लास के बाद वह सुनील को कैंटीन में सिर्फ़ चाय पिलाने नहीं ले गया था. सुनील को क्‍लास में बोलते देखकर उसके भीतर एक अनजान सा डर उग आया था. एक तरह से विमल ने उसे अपना प्रतिद्वंदी मान लिया था. और यह सोचने में मशगूल हो गया था कि भविष्‍य में सुनील की तरफ़ से आने वाली चुनौतियों का वह किस तरह मुकाबला करेगा. उसे याद है कि उसके दिमाग़ में सामाजिक न्‍याय की अवधारणा की ख़ामियों पर शोध करने का विचार सुनील की उसी बहस के बाद आया था.

फिर वही दूर बजते घंटे की घन्‍न घन्‍न.. उसे यह भी बताना होगा कि वह अपने पापा से भारत के आधुनिक इतिहास के तमाम विमर्शों के साथ यह निर्देश सुनते हुए भी बड़ा हुआ था कि अपने प्रतिद्वंदी के गुणों और उसकी ताक़त पर हमेशा नज़र रखो ताकि अगर भविष्‍य में उसकी तरफ़ से कोई चुनौती पैदा हो तो उससे समय रहते निपटा जा सके. जनांदोलनों और सामाजिक न्‍याय के पक्ष में हमेशा सक्रिय रहने वाले उसके पापा इस मामले में बहुत चौकन्‍ने थे. उन्‍हें इस बात का सहज ज्ञान था कि व्‍यक्ति की सामाजिक सक्रियता का दायरा कब और किस बिंदू पर ख़त्‍म हो जाना चाहिए तथा कहां और कब उसे अपने निजी हितों के लिए चौकस हो जाना चाहिए.

चूंकि उसे यह ज्ञान विरासत में मिला था. इसलिए वह लगभग हर आंदोलन के कार्यकताओं को जानता था, सबके साथ दुआ-सलाम का रिश्‍ता रखता था, जब ज़रूरी लगता था तो जंतर-मंतर भी हो आता था, लेकिन यह सब करते हुए वह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट था कि उसे किसी आंदोलन का होलटाइमर नहीं बनना है. उसका लक्ष्‍य जल्‍दी से जल्‍दी लेक्‍चरर बनना था और उसकी हर तैयारी इसी उद्देश्‍य से तय होती थी. वह किसी सेमिनार के प्रश्‍नोत्‍तर सत्र में वहीं तक सवाल पूछता था जहां तक परिचित विद्वान उसे मुस्‍कुराते हुए उत्‍तर दे सके !

विमल की गर्दन में फिर एक झुरझुरी सी दौड़ गयी है कि इसके बाद उसे यह भी बताना पड़ेगा कि सुनील से उसे दूसरी बार तब डर लगा था जब एम.ए. के बाद पूरे दो साल जनांदोलनों की राजनीति में झोंकने के बाद वह एक शाम विमल के कमरे में आया था. उस दिन सुनील बहुत उदास और थका हुआ लग रहा था. बातों का सिलसिला शुरु हुआ तो आधी रात तक खिंच गया. रात के एक बजे तक विमल के सामने कई तथ्‍य स्‍पष्‍ट हो चुके थे.

मसलन, सुनील जिस संगठन- ‘नयी मुहिम’ का पिछले दो साल से सारा कामकाज-  पोस्‍टर, गोष्‍ठी, पैम्‍फलेट से लेकर आयोजन तक की जि़म्‍मेदारी संभाले हुआ था, उसमें दो-फाड़ हो गयी थी  और सुनील को संगठन से निष्‍कासित कर दिया गया था. प्रोफ़ेसर चौधरीने सुनील से साफ़ कहा था कि ‘इन गदहों के चक्‍कर में फंसे रहने से बेहतर है, पहले ख़ुद को एस्‍टैब्लिश करो वर्ना मारे जाओगो. हम जिस तरह की दुनिया बनाना चाहते हैं, वह एक विचार है और यह विचार कब धरातल पर उतरेगा, इसे सिर्फ़ हम तय नहीं कर सकते. लेकिन फिलहाल यह बात तय की जा सकती है कि तुम जिंदा रहने का तरीका सीखो. इसलिए पहले एम.फिल. में एडमिशन लो, फौरन नेट करो और नौकरी का जुगाड़ देखो’.

उसी रात उसने सुनील को प्रोफेसर चौधरी के हवाला से यह कहते भी सुना था: ‘याद रखना कि इस देश में मिडिल क्‍लास का एक हिस्‍सा ऐसा भी है जो संघर्ष, प्रतिरोध या समानता जैसे शब्‍दों का अपनी स्थिति और ज़रूरतों के अनुसार इस्‍तेमाल करता है. मेरे और तुम जैसे लोग इस क्‍लास के लिए कई बार चारा बन जाते हैं. मैं सिर्फ़ इसलिए बच गया कि वह कोई और दौर था. तब नौकरियों का ऐसा संकट नहीं था. और बाबा लोग हम जैसों पर कृपा कर जाते थे... लेकिन अब चीज़ें बदल चुकी हैं’.

(by Andrea Mongia )


(छह)
रुबीना क्‍या कहेगी जब उसे पता चलेगा कि उसका सलैक्‍शन होने के तीन साल बाद डिपार्टमेंट में फिर जगह निकली थी और कई बरसों से जहां तहां इंटरव्यू देते देते आत्‍मविश्‍वास गंवा चुके सुनील ने उससे लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा था: विमल, यार कुछ कर... जीवन में सब कुछ उल्‍टा पुल्‍टा होता जा रहा है. तू अपने पापा से कहके देख, सब कुछ उनके हाथ में है... तू कोशिश करेगा तो..’. उस दिन एक बार के लिए विमल पसीज गया था और उसने सुनील के ढीले कंधों को दायें हाथ से कसते हुए ईमानदारी के साथ कहा था: ‘यार, तू बेफि़क्र रह. इस बार सलैक्‍शन कमेटी में सब लोग अपने हैं. मैं पापा से सिर्फ़ बात नहीं करुंगा, अबकी बार ये काम होकर रहेगा’. विमल को याद है कि उसकी बात सुनकर सुनील की आंखों में एक पनीली परछाईं उतर आई थी.

अब वह कैसे कहे कि उसी दिन अपने पापा और सलैक्‍शन कमेटी के हैड त्रिलोकी नाथ से बात की थी. और पापा ने उसे विकट उपहास से देखते हुए कहा था: ‘क्‍या चुगद आदमी हो तुम ! तुम्‍हें कुछ पता भी है कि सुनील को डिपार्टमेंट में लाकर तुम जीवन भर के लिए अपना प्रतिद्वंदी पैदा कर लोगे’. पापा ने सारी बात एक झटके में वहीं ख़त्‍म कर दी थी. सुनील की धुंधुवाती आंखें कई बरसों तक उसका पीछा करती रहीं. लेकिन करियर की उड़ान, सेमिनार, रिसर्च पेपर, किताबों, यात्राओं और मीटिंग्‍स की व्‍यस्‍तताओं में सब चीज़ें विस्‍मृत होती गईं. कभी-कभी ख़याल आता कि अगर उस दिन वह पापा का सामना कर जाता, उनसे मुकाबला कर जाता तो शायद... पर धीरे-धीरे सब कुछ धुंधला पड़ता गया.

क्‍या वह रुबीना से यह बात छिपा सकेगा कि अल्‍पसंख्‍यक, जहां तहां छितरी हुई और भूमिहीन जातियों पर छपी उसकी पहली किताब असल में सुनील का सिनॉप्सिस था जिसे उसने दोस्‍ती के नाम पर मांग लिया था. हां, उसने चोरी नहीं की थी. पर वह जानता है कि सुनील ने शायद सलैक्‍शन  के बदले ख़ुद ही चुपचाप एक सौदा कर लिया था. और कुछ समय बाद विमल ने सुनील की थीसिस के अध्‍यायों, संरचना और तर्कों को छांट-तराश कर अपनी किताब में रख लिया था और किताब की भूमिका या आभार में कहीं सुनील का जिक्र तक नहीं किया था.

विमल ने बाद में सुना कि सुनील ने अकादमिक दुनिया से हर संबंध तोड़ लिया था. कई बरसों तक उसकी कोई खोज-ख़बर नहीं रही. वह किसी सेमिनार, गोष्‍ठी, या किसी भी प्रदर्शन में नहीं देखा गया. उसके बारे में जो भी सुनने को मिलता टुकड़ों में मिलता. एक बार भारत की आज़ादी के साठ वर्ष पूरे होने पर दिल्‍ली में कई दिनों की कांफ्रेंस का आयोजन किया गया. न्‍युयॉर्क जाने के बाद वह कई साल बाद दिल्‍ली लौटा था. वहीं एक शाम पुराने दोस्‍तों की पार्टी में किसी ने बताया था कि दो-तीन साल किसी एनजीओ में काम करने के बाद सुनील दिल्‍ली से सटी उत्‍तर प्रदेश की एक बस्‍ती में रह रही अपनी बड़ी बहन के पास चला गया था. पार्टी में आए एक नौजवान ने इस बारे में कई और बारीक जानकारियां दी थीं. वह बता रहा था: ‘उन्‍हें देख कर यक़ीन नहीं होता... उन्‍हें जब अपने जीजा की मौत के बारे में पता चला तो बहन के बच्‍चों की देखभाल के लिए दिल्‍ली छोड़कर सीधे उसके पास चले गए. और उसकी दूध के डेयरी में काम करने लगे... मुझे तो पहली बार देखकर विश्‍वास नहीं हुआ कि हम जिस आदमी के लेख पढ़ कर वाह-वाह करते फिरते हैं वह इतना ज़मीनी ओर देसी टाइप भी हो सकता है’.

विमल को साफ़ याद है कि उस दिन युनिवर्सिटी के इंटरनेशनल गेस्‍ट हाऊस में आयोजित उस पार्टी में कुछ ज्‍यादा पी लेने के बावजूद उसे रात के तीन बजे तक नींद नहीं आई थी. नशे और थकान के बीच पिछले बीस साल उसकी आंखों के सामने उल्‍का-पिंडों की तरह जलते-बुझते रहे.


(सात)
लकड़ी के गले हुए छज्‍जे में धच से पैर फंसने के बाद जब विमल अचानक नींद से बाहर आया तो देर तक अपनी सांस के शोर में घिरा रहा. रात भर सपनों में आती जा‍ती अनाम भीड़ से उलझते भागते वह अपने फैसले पर पहुंच चुका था. उस वक़्त वह एक दूसरे पर गिरते मकानों की उस गली में रुबीना को ढूंढ़ रहा था. अपनी जान बचाने के लिए बेतहाशा दौड़ते हुए जब वह मुहाने पर पहुंचा तो दंग रह गया. सामने एक खुली और चौड़ी गली दिखाई दे रही थी!विमल को याद आया कि जब वह एक गली के मोड़ पर ठिठक गया था तो एक आदमी उसके पीछे से दौड़ते हुए कह कर गया था: तुम्‍हें अभी फ़ैसला करना होगा... या तो रुबीना को ढूंढ़ते रहो या पहले अपनी जान बचा लो’. विमल को यह भी याद आया कि सपने की उस कुहरीली रौशनी में वह उस चौड़ी गली से दौड़ता हुआ बाहर निकल गया था. 

सपने के आतंक से सांस सामान्‍य हुई तो उसने कंबल की सलवटों की ओट से देखा कि रुबीना खिड़की के पास आराम कुर्सी में पसरी है. स्‍टूल पर रखे कॉफी के मग से भाप की नन्‍हें-नन्‍हें फाहे उड़ रहे हैं. रुबीना कहीं खोई हुई थी. एकबारगी उसे खटका सा हुआ कि इस वक़्त वह कहीं उसके बारे में तो नहीं सोच रही है ! लेकिन अगले ही पल उसने इस ख़याल को झटक दिया. उसे एक बार फिर सपने में दौड़ते उस अनजान आदमी की आवाज़ सुनाई दी: ‘तुम्‍हारे पास यह आखि़री मौक़ा है... या तो इस गली से निकल कर भाग जाओ वर्ना...’.
कंबल में निश्चेष्ट पड़े विमल से सपने का वह बेचेहरा सूत्रधार फिर बात करने लगा है: रुबीना के सामने सब कुछ स्‍वीकार कर लोगे तो बर्बाद हो जाओगे...  जीवन भर इस नरक को भुगतोगे... ये प्रतिष्‍ठा, यश सब धूल में मिल जाएंगे... चारों ओर थू-थू होगी..
‘हां, हां, मैं हार नहीं मानूंगा... चीज़ों को इस तरह हाथ से नहीं जाने दूंगा... चाहे कुछ भी हो जाए’. विमल अपने भीतर हिम्‍मत के बिखरे हुए रेशे बटोरने लगा है.

वह तकिये और कंबल की तहों के बीच बने रंध्र से बाहर देख रहा है. कमरे के फर्श से छत तक जाती कोने की उस ऊंची खिड़की से गिर रही सुबह की धूप में रुबीना किसी प्रस्‍तर-शिल्‍प की तरह लग रही है. उसने आसपास देखा कि रुबीना ने पैकिंग का काम पहले ही निपटा लिया है. उसका ट्रेवल-किट कबर्ड के नीचे रखा है. रुबीना इसी तरह काम करती है. कभी कोई हड़बड़ी नहीं. कुछ भी आखिरी वक़्त के लिए नहीं छोड़ती. विमल को लगा कि पिछले पांच सालों वह उसके जीवन में भी इसी तरह रही है. अपने काम में खोई हुई और निर्द्वंद. 

विमल जान बूझकर दो तीन बार खांसा. खांसी की आवाज़ सुनकर रुबीना जहां थी वहां से लौट आई.
‘आर यू ओके’ ?रुबीना ने ‘ओके’ को खींच कर शायद बहुत लंबा कर दिया है. उसकी आवाज़ और निगाह में अजीब सी बेचैनी है.
विमल उसके सवाल से फिर असहज हो गया है.
‘मेरा ख़याल है कि अब तुम्‍हें किसी साइकियाट्रिस्‍ट से मिल लेना चाहिए’. रुबीना की भौंहे सिकुड़ आईं हैं.   
‘मतलब?’... विमल तय नहीं कर पाया कि उसकी प्रतिक्रिया में घबराहट ज्‍यादा है या ख़ुद को सामान्‍य दिखाने की कशमकश !
‘पिछले कई महीनों से तुम नींद में बड़बड़ाते रहते हो. कल रात भी तुम कई बार रुक-रुक कर चिल्‍लाते रहे कि मैं जिम्‍मेदार नहीं हूं... मैं अकेला जिम्‍मेदार नहीं हूं’.
विमल ने अपने माथे को छू कर देखा. उफ़्फ़, इतनी ठण्‍ड में भी माथा गीला हो गया है.

विमल ने अपनी आंखें फिर बंद कर ली हैं. सपने का सूत्रधार कान में फिर फुसफुसा रहा है: ‘अब गली से निकलने की कोशिश मत करना... कोई कह रहा है कि नुक्‍कड़ पर एक तेंदुआ घात लगाए बैठा है’.
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naresh.goswami@gmail.com 

शिवपूजन सहाय : परम्परा और प्रगतिशीलता : विमल कुमार

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यह वर्ष राहुल सांकृत्यायन के साथ-साथ शिवपूजन सहाय की भी १२५ वीं जयंती का साल है, दोनों एक ही वर्ष में पैदा हुए और दोनों का निधन वर्ष भी एक ही है.

आज शिवपूजन सहाय (९ अगस्त, १८९३ : २१ जनवरी, १९६३) की ५६ वीं पुण्यतिथि  है. हिन्दी नवजागरण के इस अग्रदूत को याद करते हुए वरिष्ठ कवि विमल कुमार ने परम्परा और प्रगतिशीलता के द्वंद्व में उनके साथ राहुल जी को भी रखकर देखा है.



स्मरण

शिवपूजन सहाय
परम्परा से प्रगतिशीलता के साहित्यकार                       


विमल कुमार






रामविलास शर्मा की एक किताब है परम्परा का मूल्यांकन’, जिसमें उन्होंने आचार्य शिवपूजन सहाय पर एक सुन्दर संस्मरण लिखा है और उन्हें पुरानी पीढ़ी का साहित्यकार कहा है. यह भी लिखा है कि उनका रंग-ढंग समझना आसान नही था. लेकिन जब साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशीलता की आंधी बही तो हम अपनी परम्परा के प्रति उदासीन हो गए और हमने  परम्परा का अर्थ रूढ़ियों से जोड़ दिया या परम्परा को दो वर्गों में विभक्त कर दिया या फिर साहित्यकारों के रंग-ढंग को समझना ही बंद कर दिया ?

क्या परम्पराअब एक प्रतिगामी शब्द है ? क्या परम्परा के नाम पर आज जिस तरह की राजनीतिक  फूहड़ता  दिखाई दे रही  है उस से परम्परा  शब्द का  अवमूल्यन हुआ  है? मैं  परम्परा पर विचार करते हुए अपने अग्रज मित्र पुरुषोत्तम अग्रवालकी इस बात का ज़िक्र जरुर करता हूँ कि  बिना परम्परा को जाने प्रगतिशील नहीं हुआ जा सकता है’. दरअसल आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच एक अन्तः सूत्र है पर हम इस अन्तः सूत्र को भूल गए है या फिर हमने कभी इस तरह विचार ही नहीं किया है  बल्कि  हिन्दी  में परम्परा और प्रगतिशीलता को एक दूसरे  के विरुद्ध खड़ा किया गया  है. 

हिन्दी में आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच भी द्वन्द्वात्मक रिश्ता रहा है. क्या यह अतिवादी दृष्टि अपनाने से हुआ है? हमने साहित्य में एक लेखक को दूसरे लेखक के विलोम  में खड़ा कर दिया है और साहित्य की बहसों को भारतेंदुबनाम सितारे हिन्द’.  ‘शुक्लजी बनाम द्विवेदीजी या निरालाबनाम पंतया अज्ञेय’  बनाम मुक्तिबोधके रूप में  पेश किया है और इसमें एक पक्ष को पूरी तरह ख़ारिज करने की कोशिश की है.

जिनकी जड़ें परम्परा में गहरी हैं, उन्हें प्रगतिशील नहीं माना जाता. आम तौर जो लोग मुक्तिबोधको अपना नायक मानते हैं आज वे द्विवेदीजी में कम दिलचस्पी लेते हैं और जो लोग अज्ञेयया निर्मल वर्मामें अधिक दिलचस्पी लेते हैं वे नागार्जुनया त्रिलोचनमें कम रूचि लेते हैं, इसके कुछ अपवाद भी हैं. मैंने यहाँ ऊपर जो उदहारण दिए हैं उस से मुझे लगता है कि राहुल जी और शिवपूजन जी पर विचार करते  हुए हमें इन प्रश्नों पर विचार करने में सहूलियत होगी. दोनों पर एक साथ विचार करने से हम हिन्दी साहित्य का एक व्यापक स्वरुप बनायेंगे क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं.

अब तक हम  प्रेमचंदया प्रसादको अलग-अलग श्रेणियों में ही समझते रहे हैं. दरअसल हमने हिन्दी साहित्य में व्यक्ति केन्द्रित आलोचना और विमर्श अधिक किया  है. प्रेमचंदपर बात चली तो प्रसादको छोड़ दिया. निरालापर बात हुई तो महादेवीको छोड़ दिया. शुक्लजी की बात चली तो द्विवेदीजी को छोड़ दिया. भारतेंदुकी चर्चा हुई तो  सितारे हिन्दको छोड़  दिया गया. यही हाल भारतीय राजनीति  में भी हुआ. गाँधी, आम्बेडकरलोहिया, जे. पी. सब एक दूसरे के  विरुद्ध पेश किये गए और अब कोई पटेल को अपना नायक बनाकर अपने लिए स्पेस  तैयार कर रहा  है.लेकिन मेरा मानना है कि जब  आज़ादी की लड़ाई में  सब एक साथ थे तो साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के संघर्ष में वे एक दूसरे के विरुद्ध क्यों कर होंगे ?

इस वर्ष राहुल जी के साथ-साथ शिवपूजन सहाय की भी १२५ वीं जयंती मनाई जा रही है. परम्परा और प्रगतिशीलता के रिश्ते को समझने के लिए  दोनों लेखकों के व्यक्तित्व को भी थोड़ा समझना होगा. आम तौर पर हम रचना से लेखक के व्यक्तित्व के भीतर पहुँचते हैं लेकिन मैं इन दोनों के व्यक्तित्व के जरिये उनकी रचनाओं में प्रवेश करना पसंद  करूँगा, क्योंकि इन दोनों लेखकों का व्यक्तित्व बहुत विराट  था. मेरा मानना है कि शिवपूजन सहाय का व्यक्तित्व ही उनके कृतित्व को खा गया. राहुल जी के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल जी का नाम सुनते ही लोग कहते हैं अरे वे तो महापंडित थे, ३२ भाषाएँ जानते थे, तिब्बत श्रीलंका गए. इतनी यात्राएँ की.

शिवजी की चर्चा होने पर लोग कहते हैं- अरे वो तो संत थे, हजारीप्रसाद के शब्दों में अजात शत्रु’  थे तो राजेंद्र बाबू के शब्दों में तपस्वी’, तो निराला के शब्दों में हिन्दी भूषण’. कोई उन्हें  नींवकी  ईंट’  कहता है तो कोई दधिची.  लेकिन वे उनकी रचनाओं में देहाती दुनियाऔर कहानी का प्लाटएवं मुंडमालछोड कर अधिक नहीं गिना पाते. इसी तरह राहुल जी की भागो नहीं दुनियाको बदलो या वोल्गा से गंगा तक. हिन्दी में आम तौर पर उन्हीं लेखकों की चर्चा हुई जिन्होंने कहानी, कविता या आलोचना, उपन्यास लिखे लेकिन जिन लोगों ने हिन्दी की जीवन भर सेवा की, ज्ञान के भण्डार को समृद्ध किया वह मुख्यधारा से बाहर रहे. तब क्या इन दोनों का बस इतना ही साहित्यिक अवदान था ?

दोनों प्रेमचंद, प्रसाद या निराला की तरह केवल निजी लेखन नहीं करते रहे, दोनों का जीवन केवल कहानी, उपन्यास तक सीमित नहीं था. शुक्ल जी ने भी अपने इतिहास में इनके योगदान को रेखांकित नहीं किया है.

राहुल जी सन्यासी से लेकर कांग्रेसी और फिर वामपंथी रहे. वामपंथी होने के कारण वाम लेखकों में राहुल जी को लेकर दिलचस्पी  रहती है लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भाषाऔर इस्लामके सवाल पर राहुल जी पार्टी लाइन की तरह नहीं सोचते थे शायद इसी वज़ह से वे कम्युनिस्ट पार्टी  से निकाले भी गए.

शिवपूजन जी किसी वाम दल में नहीं थे और न ही वे कांग्रेस के सदस्य  थेवैसे  राहुल जी ने १९४४ में एक पत्र में सोवियत मैत्री संघके सम्मेलन के लिए शिवपूजन जी से संदेश मांगते हुए लिखा है कि आपका सोवियत प्रेम प्रगट है. अब  क्या यह माना जाये कि वे साम्यवादी व्यस्था के समर्थक थे लेकिन मैं उन्हें प्रचलित  अर्थों में  वामपंथी नहीं मानता, उन्हें अधिक से अधिक गांधीवादी कहा जा सकता  है क्योंकि राष्ट्रीय  आन्दोलन के  अधिकतर बड़े लेखक गांधीवाद   से प्रभावित थे यहाँ तक कि प्रेमचंद  भी, लेकिन ये सभी लेखक कांग्रेस की नीतियों के कटु आलोचक भी थे. भाषा के सवाल पर राहुल जी, शिवपूजन सहाय और निराला के मत एक थे, हिन्दी-हिन्दुस्तानी के विवाद में उनमें मतैक्य था.

शिवपूजन जी और राहुल जी दोनों  का अपनी परम्परा से  गहरा  जुड़ाव था लेकिन वे परम्परावादी भी  नहीं थे. आज भले ही दक्षिणपंथी ताकतें परम्परा को हड़पने की कोशिश कर रहीं  हैं. इसका एक कारण यह भी है कि आज रामविलास शर्मा जैसे लेखक कम हैं  जो  परम्परा को ठीक से समझते हों. उन्होंने  परम्परा में प्रगतिशील तत्वों की खोज की. 

रामविलास जी १९२८ से शिवपूजन जी से पत्राचार करते रहे और एक पत्र में उन्होंने शिवपूजन जी को गुरु तुल्य   भी माना  है. उस संस्मरण में  उन्होंने लिखा है शिवपूजन जी पुरानी पीढी के साहित्यकार थे, उनका रंग ढंग  समझना   आसान   नहीं था. आख़िर  रामविलास जी का तात्पर्य पुरानी पीढ़ी से क्या थाऔर उन्होंने  रंग-ढंग समझने की  बात क्यों कही

रामविलास जी निराला की साहित्य साधनापुस्तक लिखने के क्रम में शिवपूजन जी से आज़ादी से पहले से  ही  संपर्क  में थे. निराला की साहित्य साधनाका प्रथम खंड उन्होंने शिवपूजन जी को ही समर्पित किया था और वह भी निराला के अनुरोध पर. आखिर निराला क्यों चाहते थे कि शिवपूजन जी को यह किताब समर्पित की जाये ? क्या वह शिवपूजन जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहते थे? क्या इसलिए कि जब निराला की जूही की कली’  ‘महावीरप्रसाद द्विवेदीने लौटा दी सरस्वतीसे तो शिवपूजन जी ने ही उसे आदर्शमें छापा था.सरस्वतीसे लौटी एक और कविता को माधुरीमें छपने के लिए भेजा. निराला ने पन्त और पल्लवनामक अपने प्रसिद्ध लेख में आदरपूर्वक इसका ज़िक्र किया है.

निराला ने अपने अंतिम  साक्षात्कार में जिन पांच व्यक्तियों  को अपना आजीवन शुभ चिन्तक  माना है उनमे एक  शिवपूजन जी थे. शिवपूजन सहाय तो विद्रोही नहीं थे निराला की तरह, फिर भी निराला शिवपूजन जी का इतना आदर   सम्मान क्यों  करते थे? निराला और शिवपूजन के आत्मीय रिश्ते को रामविलास  जी जानते थे. एक विडियो इंटरव्यू  में      रामविलास जी  शिवपूजन सहाय  और राधामोहन गोकुल जी से निराला के  रिश्ते को बताते हुए रुवांसे हो गए थे. निराला शिव जी को अग्रज मानते थे. जब हिन्दी की दुनिया में उनपर हमले हो रहे थे तो शिवजी उन्हें देवात्माबताकर हिन्दी का गौरव भी बढ़ा रहे थे.

राहुल जैसे व्यक्ति ने शिवपूजन जी पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ निकलने की योजना  बनाई  थी लेकिन उनकी बीमारी के कारण  वह ग्रन्थ योजना लटक गयी उसमे वासुदेव शरण अग्रवालजैसे इतिहासकार और आचार्य विनय मोहन शर्माने भी लेख लिखे थे, राहुल जी की तीन किताबें शिवजी ने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्से प्रकाशित की और उनमे से एक पर राहुल जी को  साहित्य अकेडमीपुरस्कार मिला. 

शिवपूजन जी का व्यक्तिव राहुल जी  की तरह बहुत बड़ा है लेकिन वह गोपन अधिक है, संकोची और विनम्र भी. राहुल जी दूर से ही हिमालय  की तरह दीखते हैं. शिवजी का व्यक्तित्व समुद्र की तरह गहरा पर नदी की तरह शांत है. आप जितने उसके भीतर जायेंगे  आपको उनका व्यक्तित्व दिखाई देगा.  

कामिलबुल्के ने लिखा है कि मैं स्वर्ग में जिस व्यक्ति से मिलना चाहूँगा वह शिवपूजन जी ही होंगे. जब राहुल जी एक बार उनसे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्में मिले तो उन्होंने लिखा कि ऐसा सहज, सरल और आत्मीय लेखक  हिन्दी में दूसरा  है ही नहीं. 

शिवजी अपने सभी समकालीनों की प्रतिभा को निःस्वार्थ भाव से रेखांकित करते थे और स्वीकारते थे क्योंकि उनका सपना हिन्दी के  ज्ञान भंडार को समृद्ध करना था यही मकसद राहुल जी का भी था. दोनों की मैत्री का मूल आधार यही था. वह अपनी प्राचीन परम्परा  के प्रगतिशील तत्वों को आत्मसात कर प्रगतिशीलता को स्वीकार्य  करते थे हालाँकि निराला और शिवपूजन जी प्रगतिशील लेखक संघ  के कभी  सदस्य नहीं थे. राहुल जी सदस्य थे.

अगर शिवजी  विचारों से प्रगतिशील  नहीं होते तो कहानी के प्लाट’  में एक स्त्री की शादी अपने बूढ़े पति के निधन के बाद सौतेले पुत्र से नहीं  करवा देते. तब वह  कितना क्रांतिकारी कदम रहा होगा उस जमाने में. भारतीय समाज आज भी ऐसे रिश्तों को स्वीकारता नहीं लेकिन शिव जी के भीतर छिपे लेखक को यह  गवारा नहीं था कि एक स्त्री भरी जवानी में विधवा हो जाये और उसका पूरा जीवन  बर्बाद हो जाये. कफ़न की तरह भी यह अपने समय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करनेवाली कहानी थी. शिवजी अगर प्रगतिशील न होते तो उग्र का साथ वह नहीं देते चाकलेटपर उठे विवाद पर जिसे बनारसी दास चतुर्वेदीने खड़ा किया था.

शिवपूजन सहाय की दस खंडों में प्रकाशित रचनावली में हिन्दी साहित्य का एक इतिहास छिपा है. उस रचनावली को जरुर पढ़ें. शिव जी अगर प्रगतिशील  न होते तो गांधी जी कि हत्या के बाद हिन्दू महासभा के एक निमंत्रण को ठुकरा न देते. शिवजी अगर प्रगतिशील  न होते तो प्रेमचंद निराला जैसे लेखकों की सोहबत  में न होते और उनका सम्मान न करते और उनके महत्त्व को रेखांकित न करते. प्रेमचंद के निधन पर प्रसाद जी के नाम उनका पत्र पढ़ लीजिये लेकिन वे प्रसाद के महत्त्व को भी जानते थे और  पर शिवजी की प्रगातिशीलता  उथली नहीं थी. उसमें प्रदर्शन नहीं था. वे तो आत्मगोपन के लिए ख्यात रहे. उनकी प्रगतिशीलता  अंतर्विरोधों से भरी नहीं थी, वह नारों में नहीं कार्यों में यकीन रखते  थी और आत्मप्रदर्शन आत्मप्रचार से दूर थी.

अज्ञेय ने भी एक पत्र में उनकी विनम्रता का जिक्र किया है. उसी रचनावली में बनारसी दास का एक पत्र शिवजी के नाम छापा है जिसमे चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि साहित्य में  आपका  योगदान बड़ा  है मुझसे लेकिन आपको उतना प्रचार और यश नहीं मिला जिसके आप हक़दार   थे. १९२८ में ही शिव जी ने उग्र को लिखे एक पत्र में कहा कि वह कोई हिन्दी सेवी नहीं हैं और यश कामना  के लिए काम नही  करते हैं वह तो सिर्फ जीविकोपार्जन के लिए यह सब करते हैं. बनारसी दास उन्हें हिन्दी का दूसरा बड़ा हिन्दी सेवी मानते थे.

बाद में बनारसी दास राज्यसभा के सदस्य बने, शिवजी को भी राज्यसभा में भेजने की बात चली थी लेकिन उनकी डायरी से पता चलता है किवे इस तरह के झंझट और पचड़े में  पड़ना ही नहीं चाहते थे. उन्होंने अपनी अनिच्छा जाहिर कर दी बिहार के कांग्रेसी नेताओं के सामने. यह उनका संत स्वाभाव था. भारतीय परम्परा  को  इस सच्चे  संत भाव में समझा जा सकता है जिसमें सत्ता के प्रति कोई मोह नहीं था लेकिन आज दुर्भाग्यवश संत टाइप लोगों को राजनीतिक  संरक्षण प्राप्त हैं. इन्ही तत्वों ने परम्परा को बदनाम किया.

परम्परा  के नाम पर पोंगापंथी और अवैज्ञानिक चेतना को  बढ़ावा दिया गया  और दक्षिणपंथी राजनीति ने उसे प्रश्रय दिया. इस से परम्परा शब्द ही रूढ़  और संकीर्ण हो गया. लेकिन शिवजी और राहुल जी ने हिन्दी की चेतना को प्रगतिशीलता, श्रेष्ठता, ज्ञान-भण्डार-वांग्मय से जोड़ा. राहुल जी ने खुद १४० किताबें लिख कर यह काम किया तो  शिवजी ने ज्ञान विज्ञान की  कई कालजयी ग्रंथों को छापकर यह काम किया.

आज़ाद भारत में किसी एक संस्था ने  एक व्यक्ति के निःस्वार्थ प्रयासों से उतना कार्य नहीं किया जितना बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्ने. शिवजी ने उस ज़माने में स्त्रियों और आदिवासियों और लोक  की चिंता की जब उनदिनों इस तरह का  कोई विमर्श नहीं शुरू हुआ था. बिहार की महिलायें इसका एक प्रमाण है. इतिहास,धर्म, कला, संस्कृत से लेकर रबर और पेट्रोलियम  में भी उनकी दिलचस्पी रही. साथ ही लोक कला. लोक भाषा एवं अंचल की  की; तभी तो देहाती दुनिया जैसा नॉवेल लिखा जिस पर आंचलिक लेखन की बुनियाद  मज़बूत हुई  और एक ऐसा गद्य दिया जिसे विद्यानिवास जी ने सलोना गद्य कहा है.

निराला तो उन्हें हिन्दी का श्रेष्ठ गद्यकार मानते थे. शिवजी के गद्य में अलंकारिक रूप के साथ साथ ठेठ हिन्दी का ठाठ और व्यंग्य की मारक शैली भी है. वह सहज, सरल और ठोस भी है. उसमे एक कसाव है. एक विनम्रता और सज्जनता  भी.

विद्यानिवास  जी ने यह भी  लिखा है कि शिवजी प्रेमचंद, प्रसाद और निराला के बीच एक कड़ी थे और उनमे कलकतिया, बनारसी और लखनवी तीनो  रंग भी थे. कोलकाता में मतवाला मंडल में निराला के साथ, प्रेमचंद के साथ लखनऊ में और फिर बनारस में प्रसाद का निकट संग, वैसे यहाँ तब प्रेमचंद भी थे. शिवजी ने इन तीनों लेखकों के सानिद्ध्य में अपनी वैचारिकता का निर्माण किया. शायद इसलिए उन्हें न तो प्रेमचंद की दृष्टि से, न केवल निराला और न प्रसाद की दृष्टि से देखा जा सकता हैं. शिवजी  में एक उदात्त भाव, एक उदारताएक संतुलन और न्यायप्रियता शुरू से अंत तक विद्यमान  है. जिसका जितना योगदान है उसे उन्होंने  रेखांकित किया  है.

आम तौर पर हिन्दी साहित्य की छवि रामचंद्र शुक्ल के इतिहास से लोगों में बनी है लेकिन अब शिवजी के दस खण्डों में प्रकाशित समग्र को देखा जाये तो हिन्दी साहित्य का एक अन्य स्वरुप दिखाई देता है जो शुक्ल जी के इतिहास में  नहीं है. वह हिन्दी साहित्य का एक पूरक  इतिहास है. उस समग्र के लोकार्पण पर  नामवर जी ने स्वीकार  किया था कि हिन्दी साहित्य के पचास वर्ष शिवजी द्वारा निर्मित हैं.


अगर हमने अपनी  परम्परा के प्रगतिशील प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते रहे तो दक्षिणपंथियों और हिंदुत्ववादियों के लिए खुला मैदान छोड़ देंगे. जरुरत है कि परम्परा प्रगतिशीलता और आधुनिकता के रिश्ते को समझा जाये. हिन्दी नवजागरण और राष्ट्रवाद के संघर्ष में यह बहस हिन्दी समाज और हिन्दी पट्टी में छिड़े तो शायद उन कारणों का पता  चले कि हम आज इतने अँधेरे में क्यों है.

मुक्तिबोध की यह  लम्बी कविता आज इतनी प्रासंगिक क्यों  हो गयी है जिसका अनुमान मुक्तिबोध को भी  नहीं रहा होगा. आज़ादी के बाद जिस तरह की प्रगतिशीलता समाज में  आयी उसकी  भाव भूमि तैयार करने में प्रेमचंद, निराला के साथ साथ  राहुल जी शिवपूजन जी   का भी योगदान है. अगर इन दोनों लेखकों  की १२५ वीं जयन्ती में हिन्दी पट्टी में हिन्दी  के विश्वविद्यालय और अकेडमिक जगत में  यह बहस हो  तो वाम प्रगतिशील तत्वों को भी आत्मवलोकन करने का अवसर मिलेगा कि आखिर उनसे कहाँ  चूक हुई  कि  मुक्तिबोध  के समय का  अँधेरा आज बढ़ता ही  जा रहा है.

जैसे गांधी जी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश  है. शिवजी का व्यक्तित्व ही उनका चिंतन  और  साहित्य  है. शायद  रामविलास जी ने उन्हें ठीक से पहचान लिया था तब ही उन्होंने लिखा वे पुरानी पीढी के साहित्यकार थे उनका रंग-ढंग समझना आसन नहीं था लेकिन हमने न तो ठीक से अपनी परम्परा  को जानान प्रगतिशीलता को और न ही आधुनिकता को. उनका कुपाठ  या अतिरिक्त पाठ ही  किया. यह हिन्दी में वाम आलोचना की त्रासदी  है. उसने एक ऐसी संकीर्णता और असहिष्णुता भी पैदा की जिसने अपनी परम्परा को ख़ारिज कर दिया.

शिव जी का जब निधन हुआ तो करीब तीन सौ लेखकों ने लेख लिखकर उनको स्मरण किया था. दस से अधिक पत्रिकाओं ने स्मृति अंक निकाले, आज हिन्दी समाज मे हम अपने बड़े लेखकों को इस तरह याद नही करते और न उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं. इसी बात में परम्परा और प्रगतिशीलता तथा हिन्दी प्रेम का प्रश्न छिपा हुआ है कि आखीर ५५ सालों में देश मे किस तरह का बदलाव हो गया है.
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vimalchorpuran@gmail.com 

कथा-गाथा : क्षमा करो हे वत्स ! : देवेंद्र

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क्षमा करो हे वत्स ! 
                    

देवेंद्र 




''र सुंदरलाल अस्पताल के कैंसर वार्ड में दर्द से तड़पती छटपटाती आपकी आखिरी उम्मीद मुझसे कभी पूरी न हो सकेगी. माँ, मेरे सारे अपराधों को क्षमा कर दो. मैं खुद को आपकी इच्छाओं, भावनाओं और संवेदनाओं के अनुरूप नहीं ढाल सका. अगर यह अपराध है तो मुझे अपराध की काली सँकरी और अंतहीन गुफा में दूर तक अकेले जाने की अनुमति दीजिए. क्यों अब भी आपकी थकी आँखों का अँधेरा मेरा पीछा कर रहा है. अपने आभालोक में खींच लाने के लिए. अब मुझे डर लगने लगा है. रिश्तों की समूची अंतरंग और आत्मीय दुनिया से. मैं अपने समूचे अतीत और तमाम सामाजिक संबंधों को प्रणाम करता हूँ. जो मेरी संवेदनाओं से परे हो चुके अब उनमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. कहाँ रह गया है संबंध वाचक संज्ञाओं का निहितार्थ. पिछले कई सालों से मैंने सिर्फ गीता को ही पढ़ा और जिया है. एक निर्मम सत्य - ''मा फलेषु कदाचन.''कब्रगाह की ओर खुलने वाली संबंधों की सारी खिड़कियों में मेरे लिए इशारा और आश्वासन देती हुई रोशनी का कोई टुकड़ा नहीं रह गया है. ईश्वर और उसके नियमों में मेरी कोई आस्था नहीं रह गई है. दीवाली और होली-रोशनी और रंगों में सराबोर शहर मेरे भीतर अपना सारा अँधेरा और रंगहीनी उड़ेल देता. बचपन से ही ये त्यौहार मुझे उदास कर जाते. असंग जीवन की निर्मम तटस्थता मेरे प्राण-प्राण में समा गई है. सामाजिक संबंधों की कोई चाह नहीं. स्मृतियों और सपनों के असंख्य दंश से क्षत-विक्षत कैसा होता जा रहा है मेरा जीवन. जैसा सोचा था वैसा जी नहीं पाया और जो जी रहा हूँ उसका कोई मुकम्मल तर्क नहीं.''


23अप्रैल 1995. लखीमपुर खीरी का वाई.डी. कालेज. मैं शाम को परीक्षा कक्ष में बैठा हुआ था. करीब साढ़े पाँच बजे मेरे लिए बनारस से टेलीफोन पर सूचना आई कि ''21तारीख को रात आठ बजे अंशुल का अपहरण कर लिया गया है.''

अंशुल मेरा इकलौता बेटा. माँ के साथ गाँव पर रहता है. 16मई को वह ग्यारह वर्ष का हो जाएगा. सूचना पाकर मेरा समूचा शरीर काँपने लगा. यह सोचकर कि गाँव पर कोई भयंकर अनहोनी हुई है. अंशुल अपहरण की यह गलत सूचना शायद मुझे मात्र घर पर बुलाने के लिए दी गई है. अंशुल का अपहरण कोई क्यों करेगा?

फिरौती के लिए अपहरण की घटनाएँ इटावा, मैनपुरी और भिंड के आसपास घटती रहती हैं. बिहार में भी इस तरह की घटनाएँ हो रही हैं. लेकिन गाजीपुर, बलिया, बनारस में फिरौती के लिए अपहरण की कोई घटना कभी नहीं सुनी गई. आठ साल हो गए डिग्री कालेज की इस नौकरी को. वेतन और व्यय का समानुपात यही रहा कि कभी एक महीने की पूरी तनख्वाह जोड़ नहीं सका. यह बात यहाँ लखीमपुर में सब जानते हैं और गाँव में भी सबको पता है. अभी-अभी पंचायती चुनाव संपन्न हुए हैं. समूचा प्रदेश अपने सीमित मताधिकार के जरिए जनतंत्र का स्वप्न देखकर खून में सराबोर हो चुका है. सरकार ने थानों को सख्त हिदायत दे रखी है कि चुनावी झगड़ों को कतई दर्ज न किया जाए. अगर किसी झगड़े का दर्ज होना बेहद जरूरी ही हो जाए तो उसका स्वरूप बदल दिया जाए. 'प्रापर्टी विवाद'अथवा 'प्रेम-प्रसंग'. कोई भी नाम दिया जा सकता है.

अभी पिछले महीने होली की छुट्टियों में गाँव गया था. अंशुल के लिए कुछ कपड़े यहीं से खरीदे थे. पत्नी ने कहा कि ''वैसे भी इसके पास कपड़े अब ज्यादा हो गए हैं.''

''ठीक है. बर्थ डे पर सिलवा दीजिएगा'' - मैंने कहा. मेरे पहुँचने की सूचना पाकर वह दौड़ा हुआ आता और सबसे पहले अटैची खोलकर अपना सामान देखता. ''पापा, आप कितने दिनों से मेरे लिए कैरमबोर्ड खरीद रहे हैं?''उसने पूछा. मैंने कहा - ''चलिए कल मऊ से खरीद लाएँगे.''

पत्नी ने कहा कि ''इम्तहान करीब है. इनको दिन भर घूमने और टी.वी. देखने से फुर्सत नहीं. 'कैरमबोर्ड'आ गया तो ये पास हो चुके.''

मैंने मऊ जाकर 'कैरमबोर्ड'खरीदा और इस हिदायत के साथ कि जब मैं 'बर्थ डे'पर आऊँगा तो पहली बार आप मेरे साथ खेलिएगा. इम्तहान होने तक मम्मी की बात माननी पड़ेगी.

''अच्छा चलिए थोड़ा आपके साथ खेल लेते हैं.''उसके कहने पर मैंने थोड़ी देर 'कैरमबोर्ड'खेला. दो दिन बाद जब मैं लखीमपुर के लिए चला तो मुझे छोड़ने वह सायकिल पर मरदह तक मेरे साथ आया था. रास्ते में मैंने कहा - ''इस बार जब आप पाँच पास कर लीजिए तो आपका नया नाम 'उपमन्यु'लिखवा दूँगा. मम्मी से बता दीजिएगा कि स्कूल से 'सर्टीफिकेट'लेते समय नाम बदल कर 'उपमन्यु'लिखा दें.''

उसके पूछने पर मैंने रास्ते भर उपमन्यु की पौराणिक कथा सुनाई. मरदह आकर मैंने उसकी सायकिल ठीक कराई. कुछ फल वगैरह खरीद कर देने के बाद घर जाने के लिए कह दिया. उसने कहा - ''पापा, आप मुझे कभी लखीमपुर नहीं ले चलेंगे क्या?''

- ''वहाँ आप किसके साथ रहेंगे. मैं तो दिन भर घूमता रहता हूँ. और फिर यहाँ मम्मी किसके साथ रहेंगी.'' - मैंने बहाना बनाया. जिंदगी को लेकर एक टीस दूर तक गड़ती चली गई. - ''पापा, आपकी बस आ जाए तब मैं जाऊँगा.'' - उसने कहा. साँझ हो रही थी. ''अकेले आपको डर नहीं लगेगा?'' - मेरे पूछने पर वह हँसा - ''दिन भर तो मरदह आता-जाता हूँ. इसमें डरने की क्या बात है?''

दुकान पर मैं चाय पी रहा था. मैंने दस का एक नोट थमाकर उससे कहा - ''दुकान से एक पैकेट सिगरेट और माचिस लेते आइए.''

- ''आप सिगरेट बहुत पीते हैं.''डिब्बी थमाते हुए उसने कहा. मैंने कहा ''अब तो आप पिता की तरह बात करने लगे हैं.''

- ''अच्छा बेटा एक बात बताइए. आप किसके पास सोते हैं?''

- ''मम्मी के पास.'' - उसने मेरी ओर हँसते हुए देखा.

- ''नहीं आप यह बताइए कि आप किसकी पत्नी के पास सोते हैं?''

मैंने विनोदमयी संवाद क्रीड़ा शुरू कर दी है. उसकी आँखों में सतर्कता चमकी और वह मुस्कराने लगा - ''आपकी पत्नी के पास सोता हूँ.''

- ''ठीक! तब मैं भी आपकी पत्नी के पास सोऊँगा. कोई आपत्ति?''

दुकान पर बैठे लोग हँसने लगे. वह शरमा गया - ''मैं शादी ही नहीं करूँगा.''

- ''पापा! अगले महीने में इम्तहान है. मेरे लिए बारह रंगों वाली पेन्सिल खरीद दीजिए'' - उसने फरमाइश की.

''सारा पैसा आपकी मम्मी ने ले लिया है. बस किराए के पैसे बचे हैं. आपकी सायकिल में पच्चीस रुपए लग गए. आपने मिठाई भी खाई. फल भी खरीदा. अब मम्मी से पैसा माँग कर कल खरीद लीजिएगा.'' - वह चुप हो गया. मैंने पूछा - ''कितने की मिलती है?''

- ''दस-बारह रुपए में मिल जाएगी.'' - उसने अन्यमनस्क होकर कहा. मैंने बीस का एक नोट उसे दे दिया.

पेन्सिल खरीद कर लौटते समय उसके साथ एक लड़का था. - ''पापा! मैं राजू के साथ घर चला जाऊँ.''

- ''हाँ चले जाइए.''

थोड़ी देर चुप खड़ा रहने के बाद बोला - ''पापा! राजू को भी मिठाई खिला दीजिए.''

मैंने कहा - ''राजू बेटे, तुम्हें जो मिठाइयाँ खानी है, दुकान से ले लो.''

राजू शरमा रहा था. अंशुल ने दुबारा वे मिठाइयाँ दुकानदार से माँगी जिन्हें पहले खुद खा चुका था. राजू हमारे पड़ोस का अंशुल का हमउम्र और एकमात्र घनिष्ठ दोस्त था. अक्सर राजू अंशुल के साथ या तो मेरे घर होता या अंशुल राजू के घर. जब राजू मिठाई खा रहा था तो अंशुल ने मुझसे धीरे से कहा - ''यह बताइए कि मेरी पत्नी क्या आपकी माँ लगेगी?''

सुनकर मुझे हँसी आ गई.

साँझ ढलने लगी थी. अंशुल और राजू एक ही सायकिल पर काँपते हैंडिल को सँभालते हुए तेजी से गाँव की ओर चले गए. पत्नी ने कहा था - ''इन्हें समझा दीजिए, बहुत तेज सायकिल चलाते हैं. किसी दिन कुछ हो जाएगा.''पश्चिमी छोर पर डूबते सूरज की उदास आभा गाँव से आखिरी विदाई ले रही थी. मैं लखीमपुर चला आया.

9अप्रैल को अंशुल का एक पत्र आया. लिखा था - ''पापा, अबकी 'बर्डे'पर जरूर आइएगा. कुछ सामान नहीं लाना है आपको. (यह बात उसने मेरे द्वारा दी गई सूचना कि, मार्च में मिलने वाला वेतन पूरी तरह 'इनकम टैक्स'में चला गया है, के आधार पर लिखी थी) मैंने मम्मी के साथ मऊ जाकर कपड़े सिलने के लिए दे दिए हैं. दो सौ रुपए सिलाई लगेगी. बस उतना ही पैसा भेज दीजिएगा.''पत्र में कुछ और भी बातें थीं. मैंने चिट्ठी कई बार पढ़ी और अपराधबोध में डूबा देर तक अंशुल के बारे में ही सोचता रहा. अब वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा है.


मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि कथाकार काशीनाथ सिंह का प्रिय शिष्य होने का अवसर मुझे मिला है. इन दिनों वे मुझसे कुछ-कुछ विरक्त और नाराज रहने लगे थे. कारण कि मेरा नियमित रूप से कुछ पढ़ना या लिखना करीब-करीब स्थगित हो गया था. दशहरे की छुट्टियों में बनारस गया था.काशीनाथजी की प्रतिनिधि कहानियों का संग्रह 'किताब-घर'से छपकर आया तो उसकी एक प्रति मुझे देते हुए उन्होंने लिखा -

''पहली प्रति
घोर गैर जिम्मेदार और नाकारा इनसान
कथाकार देवेंदर के लिए
अनिच्छा से.''

यह घोर गैर जिम्मेदार और नाकारा इनसान जिसका कुछ भी निश्चित नहीं. शाम को अस्सी पर मिलने के लिए कहता और वहाँ जाने पर पता चलता कि गोदौलिया पर घूम रहे हैं. अटैची सियाराम के यहाँ पड़ी है और ठहरे हैं बिरला हॉस्टल में. सुबह घर पर आने के लिए कहता और दस बजे तक इंतजार करने के बाद पता चलता कि लखीमपुर जा चुके हैं. भीतर से माँ जी निकलतीं - ''एकदम खब्तुल हवास हैं. हाय, नीना की सायकिल लेकर गए थे.''दो दिन बाद कोई लड़का बिरला हॉस्टल से सायकिल लाकर लौटा जाता. डॉक्टर साहब गोदौलिया जा रहे हैं मेरे साथ. सोफे की कुर्सियों का कवर खरीदना है. माँ जी कहतीं - ''जैसा गुरू वैसा चेला. आपको और कोई नहीं मिला साथ जाने के लिए.''मैं पैसा शर्ट की जेब में रखता. वे कहतीं - निश्चित ही पैसा कहीं गिर जाएगा. डॉ. साहब से जुड़े लोगों में वे मेरे ऊपर सबसे ज्यादा विश्वास और सबसे कम भरोसा करतीं. दिनेश कुशवाह ने काशीनाथ सिंह जी को सूचना दी कि देवेंद्र जी बीस तारीख को आने वाले हैं. वे कहते - ''आप अभी तक देवेंद्र जी की बातों और वादों पर भरोसा करते हैं.''

इस नाकारा इनसान को इस बात का रंचमात्र आभास नहीं कि इसका बेटा बड़ा हो रहा है. और यह अब तक उसकी पढ़ाई लिखाई की कोई व्यवस्था नहीं कर सका. पत्नी गाँव में पड़ी हैं और खुद कभी लखीमपुर, कभी बनारस, कभी दिल्ली, ग्वालियर या भोपाल. कहीं किसी लिखने पढ़ने वाले से कोई सरोकार नहीं. ले-देकर एक महेश कटारे और एक हरि भटनागर. न कोई चिट्ठी न कोई पत्री. ये दोनों भी एक साल से नाराज चल रहे हैं. साहित्यकारों की गोष्ठियों से लौटने के बाद मैं अपने को कुंठित महसूस करने लगता. अजीबोगरीब सा कुरुचिपूर्ण माहौल.

गर्मियों की छुट्टियों में ही मेरा कुछ समय बेटे के साथ बीतता था. मैं उसे लेकर बनारस चला आता. दस-पंद्रह दिन तक साथ रहता. मैं अस्सी पर बैठा हूँ. लइया और चने के साथ साहित्य की चर्चा और लोगों के निंदा प्रकरण में शरीक. एक दुकान से दूसरी दुकान और फिर तीसरी दुकान पर. अंशुल बेंच पर बैठे-बैठे ऊबने लगता - ''पापा, आप चलिए न.''

- ''अभी रुकिए भाई. यही तो मेरी नौकरी है'' - मैं कहता. घर जाकर उसने अपनी मम्मी से कहा - ''जानती हैं पापा की नौकरी क्या है. इस दुकान से उस दुकान पर बैठकर उसकी चाय पीना.''यही उसकी खुशियों के दिन होते. चाकलेट, टॉफी, मिठाई, फल, खिलौने, कपड़े. गाँव की सीमित दुनिया में उसकी छोटी-छोटी मामूली इच्छाएँ होती थीं. उसके मुताबिक बहुत पैसा खर्च हो गया पापा का. दुकान पर बैठे हुए वह ललचायी नजरों से 'थम्स-अप'की बोतल को देख रहा था - ''यही एक ऐसी चीज है कि जिंदगी में कभी नहीं पिया हूँ.''उस समय वह मात्र आठ साल का था. वहाँ बैठे सारे लोग हँस पड़े. दिनेश कुशवाह ने कहा - ''वाह देवेंद्र जी, आपका लड़का तो आपसे भी आगे है.''तब किसे पता था कि इसकी जिंदगी में आठ साल बहुत ज्यादा हैं. मैंने कहा - ''अभी पी लीजिए.''

बहुत कोशिश के बाद भी वह 'थम्स-अप'पी नहीं सका. ''पापा, आप पी डालिए.'' -उसने कहा.

गाँव जाकर उसने राजू को बताया - ''जानते हैं. बोतल में जो वह काला सा होता है. उससे गला जलता है.''

अस्सी से देर रात हॉस्टल की ओर लौटते हुए मैंने कहा - ''आपके लिए दूध ले लूँ.''

मैंने दो पैकेट दूध खरीदा. वह अचरज से पॉलिथिन में पैक द्रव दूध को देखता रहा. जब मैंने खरीद लिया तो बोला - ''दीजिए जरा छूकर देखूँ तो. यह कैसा दूध है.''वह शहरी जीवन की छोटी-छोटी चीजों को कुतूहल और जिज्ञासा से देखा करता.

सुबह-सुबह डॉक्टर साहब के घर जाते हुए मैंने पूछा - ''हम कहाँ जा रहे हैं.''उसने कहा - ''अपने गुरूजी के यहाँ.''

वह डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी के पैर छूता. नीना या इति किसी के पास बेझिझक बैठ जाता. इति कहती - ''भैया, आपका बेटा कितना सुंदर है. इसे गाँव में क्यों रखे हैं. बड़ा होकर ऐसे ही रह जाएगा.''

मैं कहता - ''गाँव में दूध-दही है. इसकी माँ हैं. फिर ग्रामीण संस्कार भी जरूरी हैं.''मैं अपने तर्कों की तह समझता हूँ और अपराध बोध से बचने के लिए अंशुल से जुड़े सवालों को टाल जाता. तब तक वह मुन्ना और मंटू से अंत्याक्षरी खेलता. पचासों कविताएँ याद कर रखीं थीं. जब मैं घर आता तो कहता - ''पापा, ऐसी कविता लिख दीजिए कि ''पर गिरे. 'त्र'और 'क्ष'पर गिरे. वह अंत्याक्षरी में हमउम्रों को टिकने न देता.

मैंने मंगल सिंह से पूछा - ''अपना बेटा सभी को अच्छा लगता है. पता नहीं इस वजह से या क्या है. अंशुल मुझे कुछ विलक्षण लगता है.''

उन्होंने कहा - ''इसमें कुछ ऐसी चीज जरूर है जो इसे सामान्य से भिन्न बनाए रखती है.''

हिंदी विभाग की ओर जाते हुए मधुवन के पास वह आश्चर्य से चीख पड़ा - ''पापा! पापा!! वो देखिए, औरत स्कूटर चला रही है.''एक लड़की मोपेड से जा रही थी. मैं हँसने लगा तो वह शरमा गया.

दस-पंद्रह दिन बीत गए थे. धीरेंद्र के साथ वह गाँव जाने वाला था. जून का महीना. चिलचिलाती हुई तेज धूप के बीच लू के बवंडर. दोपहर के दो बज रहे थे. कोलतार की सड़कें पिघलकर चट्ट-चट्ट करते हुए पैरों से चिपक जातीं. मैं लंका तक उसके साथ आया. एक दुकान पर मौसम्मी का जूस पिलाने के बाद रास्ते के लिए आधा किलो अंगूर खरीद कर दिया और कहा - ''अब आप भैया के साथ घर चले जाइए.''

उसने कहा - ''जरा पानी चला दीजिए.''मैंने सोचा शायद इसे प्यास लगी है. नल पर उसने अपना छोटा सा तौलिया भिगो कर निचोड़ा. मैंने पूछा - ''यह आप क्या कर रहे हैं?''

- ''बहुत घाम (धूप) है.''उसने तौलिया सिर पर डाल ली. फिर वह धीरेंद्र के साथ पैदल ही टेंपो तक जाता रहा. सूरज अपने प्रचंड आवेश के साथ आग बरसा रहा था. नन्हें पैरों के छोटे-छोटे डग भरता अंशुल चला जा रहा था. धूप से जलकर उसके गाल एकदम लाल पड़ गए थे. मैं खड़ा एकटक उसे देखता रहा. आँखें डबडबा गईं. दिल में घबराहट सी होने लगी. अपराध-बोध और पश्चाताप से बेचैन होता हुआ - 'धन्ये मैं पिता निरर्थक था.'

यह कोई अकेला तो है नहीं. संसार में ढेर सारे लड़के इसी धूप में चले जा रहे हैं. बेटे के प्रति यह अतिरिक्त मोह है. मैंने सिर को झटका दिया. कल मुझे दूसरे शहर के लिए जाना था. कुछ गैर-जरूरी लोगों के लिए / वक्त बर्बाद कर लेने के बाद / हम तरसते रह जाते हैं वक्त के बहुत मामूली हिस्से के लिए / तब कुछ भी नहीं रह जाता है हमारे पास / न दूसरों के लिए / न अपने लिए.

16मई 1984. गोरखपुर में ''सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा''विषय पर तीन दिन का सेमिनार आयोजित किया गया था. सुबह के आठ बज रहे थे. मैंने देवव्रत सेन से कहा -''कहीं आज ही मेरी पत्नी को बच्चा न हो जाए.''

देवव्रत ने कहा - ''तुम तो 24तारीख बता रहे थे.''

- ''मैं कोई डॉक्टर तो हूँ नहीं - मैंने कहा - अगर बेटी हुई तो उसका नाम -''दिशा''रखूँगा. मुझे बेटी की ही इच्छा थी. मैं सिर्फ एक संतान चाहता था. वह भी बेटी. बेकारी के मुश्किलों से भरे दिन थे. - 'मयूर तख्त'का उत्तराधिकारी हो ही ऐसी चाहत नहीं थी. वैसे भी यह बेटा 'एबार्शन'की दहलीज से बचकर लौटा था. एक अनिच्छित गर्भ. डॉक्टरनी को तो पहले यकीन ही नहीं हुआ कि मैं और मेरी पत्नी किसी जायज संबंध की बिना पर स्थिर गर्भ को नष्ट करने आए हैं. और जब उसे यकीन दिलाया गया तो बिगड़ पड़ी ''पहला गर्भ गिरा देने से बच्चे की संभावना हमेशा के लिए नष्ट हो जाती है.''

पत्नी ने 'एबार्शन'को इनकार कर दिया. घर पर उन्होंने स्वेच्छा से यह प्रस्ताव रखा था. बेकारी के दिन थे. भरपेट भोजन के अलावा जीवन की मामूली इच्छाएँ पूरी होते ही कई महीने तक चलने वाले कर्ज में बदल जाती थीं. खरीदी हुई दवाएँ, सिरिंज, बनारस से घर तक जाने-आने का खर्च. कुल दो सौ रुपए का चपेट था. लंका की सड़क पर मैं चुपचाप चला जा रहा था. पत्नी ने भीतर के तनाव को भाँप लिया. उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की. शायद यही कि चलिए दूसरी जगह करा लेते हैं लेकिन मैं जोर से चीख पड़ा. वहीं सारी दवाएँ सड़क पर फेंक दी. पहली और अंतिम बार पत्नी के सामने चीखा था.

गोरखपुर से लौटते हुए जब घर गया तो मरदह ही पुत्र-जन्म की सूचना मिल चुकी थी. सौर-कक्ष में दीवारों तक से तेल और अजवाइन की कच्ची गंध आ रही थी. रात का समय था. दीपक की मद्धिम लौ में मैंने पत्नी के चेहरे पर अपूर्व चमक देखी. उन्होंने मुझे बच्चे को दिखाया. पता नहीं वह जग रहा था या सोया था. मुझे कोई रुचि न हुई. बनारस पहुँचने पर मैंने बच्चे का नामकरण किया - कोलंबस.

कोलंबस - घर परिवार से सालों दूर. अपनी महत्वाकांक्षा में पगलाया. समुद्री तूफानों में घिरा एक-एक साँस के लिए तरसता. जब साथ के नाविक उसकी सनक से आजिज आकर उसे मार ही डालना चाहते थे कि तभी विश्व मानचित्र पर एक नए द्वीप ने जन्म लिया. सिकंदर से लेकर नेपोलियन और गांधी या बुद्ध दुनिया के किसी व्यक्ति की बनिस्बत कोलंबस का व्यक्तित्व मुझे ज्यादा आकर्षित करता. वह भारत की खोज में निकला था. एक तरह से उसे अपने लक्ष्य में सफलता नहीं मिली. दुनिया में सबसे ज्यादा भटकने वाला और असफल व्यक्ति कोलंबस है. उसकी भटकन उसकी असफलता ने जो कुछ दिया वह तब तक की पूरी दुनिया की अर्जित उपलब्धि से ज्यादा है. सोचिए, करोड़ों वर्ष से एक द्वीप, एक सभ्यता और संस्कृति हमारे पहलू में गुमनाम पड़ी रही. सफल लोगों के शब्दकोष में एक आवारे घुमक्कड़ ने उसे खोज निकाला. उन दिनों हम अपनी असफलता और अपने भटकावों को लेकर कोलंबस के बारे में सोचते और आश्वस्त होते. नामवर सिंह पर केंद्रित 'पूर्वग्रह'के एक अंक में उनकी एक कविता छपी थी -

''क्षमा करो हे वत्स आ गया युग ही ऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा.''

बेटा गाँव पर आँखें खोल रहा था और बनारस की सड़कों पर टहलता हुआ मैं जब भी उसके बारे में सोचता उस समय अपने आप कंठ से ये पंक्तियाँ फूट पड़तीं.

घर गए छह महीने बीत गए थे. एक दिन रात के अँधेरे में मरदह बस अड्डे से उतर कर मैं घर गया. दालान में सबसे पहले माँ मिलीं. मेरे प्रणाम के जवाब में उन्होंने पूछा - ''कहीं नौकरी का कुछ हुआ?''

यह सवाल छह महीने पहले भी उन्होंने पूछा था. मैंने कहा - ''नहीं.''

- ''खूब घूम लो बेटा. तुमसे भले तो मुख्तार और शेष ही निकले.'' - कहते हुए माँ ऊपर छत पर चली गईं. मुख्तार और शेषनाथ हमारे गाँव के निठल्ले लड़के माने जाते थे.

उस रात मैं पत्नी के पास सोया रहा. निस्पृह, निर्वीर्य और ठंडा. बेटा मेरी बगल में था. पत्नी ने कहा - ''इसके दाँत निकल रहे हैं. अब यह पापा! पापा! बोलने लगा है. मैंने उधर नहीं देखा. कमरे में अँधेरा था. मुझे नींद नहीं आई. पत्नी सो चुकी थीं. शब्दों के खूबसूरत आवरणों को नष्ट-भ्रष्ट करते हुए अर्थ अपनी समूची कुरूपताओं के साथ बाहर निकल रहे थे. माँ-बेटा! भाई-बहन! ममता, वात्सल्य, स्नेह, सौहार्द, रिश्ते-नाते, घर-परिवार! लैट्रिप-गू! पूरी रात भयावह घिन्न के माहौल में भयभीत और जगा हुआ मैं सुबह सबके जगने से पहले बनारस चला गया. अपनी आवारा और अराजक दुनिया में सुकून मिलता था. वहाँ मैं था और ओम प्रकाश द्विवेदी. द्विवेदी जी ने पूछा - ''कोलंबस कैसा है?''

मैंने कहा - ''वह मुझे खोज रहा है और मैं नौकरी. पत्नी ने बताया कि वह हँसता बहुत सुंदर से है, लेकिन मैंने उसकी हँसी नहीं देखी.''फिर हम दोनों लोग हँस पड़े. उनके हीटर पर दाल पकने के करीब थी. मैं रोटियाँ सेंकने चला गया.

बाद के दिनों में एक निश्चित आय की व्यवस्था होते ही बीच के कुछ समय पत्नी और बेटे के साथ मैं बनारस रहा. शायद अलग-अलग संस्कारों की ही बात थी. हर दिन हम लोगों के बीच तनाव बढ़ता गया. स्त्री और पुरुष के बीच आकर्षण और फिर प्रेम एक स्वाभाविक गुण है. शारीरिक संबंधों का उच्चतम रूप प्राप्त करने के बाद यह प्रेम समाजोन्मुख होने लगता है. हमारी विवाह संस्थाओं में इस स्वाभाविक प्रक्रिया का ही विरोध है. वहाँ शारीरिक संबंध पहली रात बन जाते हैं. बाद के दिनों में तरह-तरह के समझौते करते हुए हम प्रेम पैदा करने की कोशिश करते हैं. वे सुखी और सफल लोग हैं. जो प्रेम पैदा कर लेते हैं. हम लोग ऐसा नहीं कर सके. पत्नी गाँव चली गईं और 10मार्च 87को लखीमपुर में मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली.

पति-पत्नी तनाव का सबसे ज्यादा शिकार बच्चा होता है. पत्नी से हमारे रिश्ते हर स्तर पर ठंडे हो चुके थे. हम जितने भी क्षण साथ रहते एक दूसरे की जरूरतें हर संभव पूरी करते. सामाजिक और कानूनी मानदंडों से यह तय कर पाना एकदम असंभव है कि पत्नी और मेरे बीच कभी कोई तनाव रहा. विशेषकर तब से जब हम लोग अलग-अलग रहने लगे.

गाँव में लोग पत्नियों को बैल की तरह पीटते हैं और रात के अँधेरे में चुपके से दस मिनट के लिए उनके पास जाते हैं और कुत्ते की तरह संभोग करके फिर दरवाजे की अपनी चारपायी पर आकर सो जाते. वहाँ बूढ़ी औरतें अपने चरित्र का बखान करते हुए गर्व से कहा करती हैं - ''सात सात बच्चे हो गए और मेरे आदमी ने मुँह नहीं देखा.''

घूस, भ्रष्टाचार, मक्कारी, दूसरे की जमीन हड़प कर जाना आदि आदि हमारे समाज का स्वीकृत यथार्थ है. ये सब हमारे चरित्र को प्रभावित नहीं करते. सिर्फ कमर के नीचे का गोपनीय हिस्सा अस्पृश्य रहकर हमारे चरित्र को तेजस्वी बनाता है. एक माँस पिंड निर्धारित करता है हमारे चरित्र को. उस मानसिक संरचना का कोई महत्व नहीं जिसके जरिए हम समाज के ढेर सारे लोगों से जुड़ते हैं. और जिसके अभाव में योनिशुचिता या पत्नी के प्रति एकनिष्ठता के सारे तर्क ''असक्कम परम साधूनाम्, कुरूपम् पतिव्रता''से पैदा होते हैं. नैतिकता के इन भारतीय और अमानवीय मानदंडों पर मैंने समूचे बलगम को खखार कर थूक दिया. गाँव वालों की नजर में हम संदेहास्पद थे. अफवाहों और आशंकाओं के लिए तथ्य और तर्क जरूरी नहीं.

और यहाँ. कस्बों में डिग्री कॉलेज के प्रवक्ता को 'प्रोफेसर'कहा जाता है. मैंने इसका अर्थ लगाया ''प्रो. फेस''. जो सामने वाले का चेहरा देखकर बातें करे. यहाँ पारिवारिक दायित्व का अर्थ है - कापियाँ जाँचने के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस के क्लर्कों के सामने रिरियाना, नंबर बढ़ाना, पीठ पीछे निंदा, चाय दूसरे से पीना, कोर्स से ज्यादा एल.आई.सी. पॉलिसी और शेयर बाजार की जानकारी, नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें और विक्षिप्तता की हद तक 'सेक्सुअली फ्रस्टेट'. लेकिन दुनिया के किसी भी विषय पर चालीस मिनट का लच्छेदार भाषण. पारिवारिक दायित्वों और सामाजिक सरोकार की बड़ी-बड़ी बातें घर की दहलीज पर पहुँचते ही एक अँधेरी सुरंग से छिपकली की तरह चिपक जातीं. इनके पारिवारिक दायित्वों में माँ-बाप की रंचमात्र उपस्थिति पति-पत्नी के बीच कलह पूर्ण सन्नाटा खड़ा कर देती. बौद्धिक क्रीतदासों की जबान पर वे शब्द कभी नहीं आते. जो उनके हृदय के भावों को बता सकें. बिना मेरी समूची पृष्ठभूमि जाने ये जब भी मेरे यहाँ आते पत्नी और बच्चे को लेकर लंबा प्रवचन सुना डालते. और पारिवारिक दायित्व के नाम पर इनके भीतर का डरा हुआ अथवा शातिर इनसान मुझे बहुत दयनीय लगता. सरल को जटिल और जटिल को सरल समझने वाली इस जमात में मैं रहस्यपूर्ण होता गया. लोग तरह-तरह से अनुमान लगाते.

अंशुल धीरे-धीरे बड़ा होने लगा था. मेरा वात्सल्य संवाद क्रीड़ाओं से अभिव्यक्त होता. सन 76में इंटरमीडिएट करने के बाद मैंने गाँव छोड़ दिया. बीच के 18-19वर्षों में दो तीन महीने बाद कभी-कभार गाँव जाता. कभी किसी से कोई रंजिश नहीं रही. इस बीच पैदा हुए लड़के जवान हो गए. ज्यादातर को मैं पहचानता तक नहीं. नई पीढ़ी और नवेली बहुएँ मुझे अंशुल के पिता के ही रूप में जानती सुनती हैं. आखिर अंशुल अपहरण की यह झूठी खबर किस खबर के एवज में मुझे बुलाने के लिए मेरे पास भेजी गई है. दिमाग में तरह तरह की आशंकाएँ उभर रही थीं, लेकिन मन के किसी एकांत कोने में भी मैं यह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि वाकई अंशुल का अपहरण हो सकता है.

खबर मिलने के बाद मैं सबसे पहले बनारस गया. वहाँ पता चला कि अंशुल की माँ ने मऊ से बनारस फोन किया था और बनारस से फोन द्वारा यह सूचना लखीमपुर भेजी गई थी. अंशुल ही अपनी माँ का एकमात्र सहारा है? क्या यह संभव है कि उसके अपहरण के बाद वे मऊ जाकर फोन करने की स्थिति में रहें. और ऐसी भयानक स्थिति में वे मऊ तक गईं कैसे? अगर घर का कोई पुरुष सदस्य उनके साथ था तो उसने क्यों नहीं फोन किया? इसका साफ मतलब है कि अंशुल और उसकी माँ सुरक्षित हैं. बुलाने का कारण दूसरा है. एक बार मेरे मन में आया कि वापस लखीमपुर लौट जाऊँ लेकिन लोगों ने कहा कि यहाँ तक आए हो तो घर जाकर पता कर लेना ठीक है. 25तारीख को मैं इत्मीनान से घर के लिए चला. बस से मरदह उतरने के बाद मैंने देखा कि वहाँ गाँव के काफी लोग इकट्ठे हैं. सूचना सही है. किसी ज्योतिषी के यहाँ से लौटते हुए भाभी ने मऊ से बनारस फोन किया था. पत्नी की स्थिति बहुत खराब है. अपहरण का कारण कुछ किसी की समझ में नहीं आ रहा है. 19अप्रैल को पंचायती चुनावों का परिणाम घोषित हुआ था. भैया बी.डी.सी. का चुनाव जीत गए थे. इसके अलावा किसी रंजिश का कोई चिह्न नहीं. और यह रंजिश भी इस स्तर पर नहीं थी कि किसी की हत्या की जा सके. फिर अंशुल का अपहरण किस उद्देश्य से? मैं हतबुद्धि था. मेरी घबराहट बढ़ रही थी.

मैंने मऊ जाकर तत्काल यह सूचना 'राष्ट्रीय सहारा'और 'आज'दैनिक के कार्यालय को भेज दी. घर लौटने पर रात हो चुकी थी. जिंदगी में इतनी समस्याएँ झेली थीं लेकिन यह तो विपत्ति थी. दरवाजे पर औरतों की भीड़ लगी थी. पत्नी विक्षिप्त सी हो गई थीं. एक एक क्षण बाद मूर्च्छा आ जाती. दौरे पड़ रहे थे. एक औरत ने उन्हें बताया - ''अंशुल के पापा आए हैं.''

''वे तो लखीमपुर हैं.'' - पत्नी ने कहा और मुझे पहचानने की कोशिश करने लगीं. पहचान न सकीं. फिर मूर्च्छा. मैं आकर उनके पास बैठ गया.

मेरे और पत्नी के जो संबंध रहे हैं उसमें मेरी मृत्यु उनके लिए सह्य थी. लेकिन अंशुल तो उनका प्राणाधार था. मेडिकली आगे किसी बच्चे की संभावना हमेशा के लिए नष्ट हो चुकी थी. मेरी बुद्धि मेरा विवेक हतप्रभ हो गया था. अभी तक अंशुल की कोई खबर न थी. लोग थाने से लेकर ज्योतिषियों और सक्रिय, निष्क्रिय डकैतों से संपर्क साध रहे थे.

मैं सोच रहा था कि पता नहीं कैसे होगा? अपहर्ता उसके साथ कैसा व्यवहार कर रहे होंगे? खाने को कुछ दे भी रहे होंगे या नहीं? आदि आदि. जब जब पत्नी की मूर्च्छा टूटती वे अंशुल! अंशुल करके चीख उठतीं. फिर दूसरे ही क्षण मूर्च्छा. वेदना की प्राणहंता समुद्री भँवरों के बीच ऊभ-चूभ होती चेतना में घायल वात्सल्य छिन्न-भिन्न होकर तड़फड़ा रहा था. उनके रोम-रोम से अँधेरे में डूबती असहाय ममता हिचकियाँ ले रही थी. विलीन हो चुकी चेतना के चिह्न सिर्फ अस्फुट शब्दों में अंशुल! अंशुल करके बुदबुदा रहे थे. किसी स्त्री का इतना पवित्रतम, करुण और इतना असहाय रूप मैंने नहीं देखा था. ''अपराधियों के इस गाँव में / कौन था सरगना? व्यर्थ हो चुके इस प्रश्न से दूर / चलकर कौन नहीं शामिल था इस हत्या में.''मैं विचलित होने लगा.

मुझसे बातें करते हुए वह तर्क का सहारा लेता और अपनी माँ से जिद का. जब वह जिद करता तो कोई बात नहीं सुनता. सिर्फ रोता और दूसरे के दोष गिनाने लगता था. मैं उसे डाँटता नहीं, सिर्फ समझाता था. वैसे भी हम लोग पूरे साल में ब-मुश्किल बीस-पच्चीस दिन साथ रह पाते थे. मेरे घर जाने पर जब, पत्नी कोई शिकायत करतीं तो वह थोड़ी देर तक उनके चेहरे की ओर देखता और फिर रोना शुरू करता. हिचकियों के बीच उसके शब्द फूट पड़ते - ''मैं भी सब बात कहूँगा.''

- ''बस यही इनकी आदत है'' - पत्नी कहतीं - ''हर बात पर रोने लगते हैं.''

- ''जब मैंने उस दिन कहा था कि लैंप जला दीजिए तो ट्यूबवेल पर बाबा का खाना लेकर चली गई थीं.''

वह एक पर एक दूसरी शिकायतें करता - ''उस दिन मैं पढ़ रहा था तो लैंप ले जाकर दरवाजे पर रख आईं.''

''कब?'' - पत्नी पूछतीं.

- ''जिस दिन सब लोग बैठे थे आप नहीं उठा ले गई थीं लैंप?''

- ''एक दिन से इनकी पढ़ाई रुक गई'' - पत्नी कहतीं - ''बस यही इनकी आदत है. हर बात पर रोते और जिद करते हैं. गाँव में कहीं वीडियो चल रहा हो पहुँच जाएँगे.''-मैं कुछ नहीं बोलूँगी.

मैं माँ और बेटे के मध्य बीच बचाव करता - ''देखिए अंशुल आप रोइए मत वीडियो देखने जाइए लेकिन इनसे पूछ कर.''और आप - मैं पत्नी से कहता - ''रोज शाम को लैंप जला दिया कीजिए.''

''और मेरी सायकिल की सीट कितने दिन से टूटी पड़ी है. मैंने पैसा माँगा तो इन्होंने नहीं दिया.''अंशुल की दूसरी शिकायत.

- ''चलिए मैं सायकिल बनवा दूँगा.'' - मैं समझाता.

सिर्फ एक बार. गाँव के प्राइमरी स्कूल में उसने पढ़ने जाना शुरू किया था. तभी की बात है. दशहरे की छुट्टियों में मैं गाँव गया था. उसका स्कूल खुला था लेकिन वह पढ़ने नहीं गया. मैंने पत्नी से पूछा - ''अंशुल स्कूल नहीं जाता है क्या?''

''महीने भर बीमार था. तभी से नहीं जाता है.''पत्नी ने बताया.

वह ट्यूबवेल की तरफ जा रहा था. मैंने पूछा - ''क्यों अंशुल आप स्कूल नहीं जाते हैं क्या?''

''बीमार हूँ.'' - उसने बताया और ट्यूबवेल की ओर चला गया. मैं गाँव में घूमकर थोड़ी देर बाद लौटा तो वह खेल रहा था. - ''तुम पढ़ने क्यों नहीं जाते हो?''मेरे भीतर का पिता पहली बार जागृत हुआ.

''मैं बता रहा हूँ कि बीमार हूँ तो इन्हें पढ़ने की पड़ी है.'' - मेरी बात पर कोई ध्यान दिए बगैर वह खेलता रहा.

पिताजी कहा करते थे कि लड़कों को तमाचे से सिर पर कभी नहीं मारना चाहिए. पैरों पर सिटकुन की मार सही रहती है. मैंने हाथ में एक सिटकुन ली. थोड़ी देर तक तो जिद से भरा वह जमीन पर लोटता रहा और चीखता रहा. लेकिन जब रोकने आने वालों को मैंने डाँट कर भगा दिया तो भयभीत, काँपता रोता हुआ वह सीधे घर के भीतर गया. अपना बैग उठाया और स्कूल की तरफ भागा. जिस शारीरिक बनावट और लाड़ प्यार के आधार पर बच्चे सुकुमार माने जाते हैं उसमें वह सब कुछ प्रचुर था. घर और स्कूल के बीच दुकान तक मेरी सिटकुन उसके पैरों पर बरसती रही.

''जब तक तू रोना बंद नहीं करेगा तब तक मार पड़ेगी.'' - मैंने चेतावनी दी. रुलाई रोकने की कोशिश में उसका कंठ करुण हिचकियों से भर गया. मैं जब तक गाँव रहा उसने मुझसे बात नहीं की. वह मुझसे डरता रहा. पत्नी ने बताया कि उसके पैरों पर सिटकुन के काले-नीले निशान उभर आए हैं. जब वह नल पर नहा रहा था तो मुझे वे निशान दिखाई दिए. मैंने उसे बुलाया - ''बेटे इधर आइए.''

वह आया तो मैंने पूछा - ''बेटे मैंने ज्यादा मार दिया था न. देखिए अभी तक निशान हैं.''वह फफक-फफक कर रोने लगा.

अपहर्ताओं के चंगुल में मेरा मन उसके कंठ की उन्हीं करुण हिचकियों की आशंका में विचलित हो जाता.

घर पर सब लोग सो गए थे. मुझे नींद नहीं आई. बाहर दरवाजे पर कुर्सी डालकर बैठा रहा. सुबह के तीन बजे दवा से थोड़ी नींद ले लेने के बाद पत्नी जगीं और उठकर बाहर जाने लगीं. उनके पैर लड़खड़ा रहे थे. मैंने उन्हें पास जाकर पकड़ लिया - ''कहाँ जा रही हैं आप?''मैंने पूछा.

- ''पेशाब लगी है.''

मैं उन्हें पकड़े हुए साथ-साथ गया. लौटकर वे मेरी कुर्सी के पास पड़ी चारपायी पर बैठ गईं.

- ''आप सोए नहीं थे क्या?''उन्होंने पूछा.

- ''नहीं नींद नहीं आ रही है.'' - मैं दूसरी ओर देखता रहा.

- ''हम लोगों ने किसका क्या बिगाड़ा था?'' - पत्नी ने कहा और उनकी आँखें डबडबा गईं. मैं उनके पैरों की उँगलियाँ चिटकाने लगा और कहा - ''अभी रात है सो जाइए.''उन्होंने एक लंबी साँस ली और कुछ सोचने लगीं.

दूसरे दिन 26अप्रैल को अंशुल अपहरण की खबर मोटी हेडिंग्स के साथ 'आज'दैनिक अखबार में छपी. मैंने सोचा कि शायद पुलिस इस मामले को गंभीरता से ले और तत्परता बरते. क्योंकि अब तक तो तफ्तीश के नाम पर एक दिन एक कांस्टेबुल गाँव में आया था. अंशुल को 21तारीख की रात गाँव के ही दो हमउम्र लड़के घर से बुलाकर ले गए थे. सामान्य दिनचर्या में आठ बजे रात को दो लड़कों का घर पर आना कोई ऐसी बात न थी कि कोई ध्यान दे. इससे बहुत देर रात तक अंशुल स्वतः गाँव के दूसरे घरों में आता-जाता था. कांस्टेबुल ने जब दस-पंद्रह लड़कों को बुलाकर इस बाबत पूछा तो उन घरों के लोग हमारे घर से दुश्मनी मान बैठे थे. उन लोगों ने थाने पर जाकर यह बयान दे दिया कि घर वालों ने खुद ही लड़के को छिपाया है और इस तरह पंचायती चुनाव की रंजिश का बदला ले रहे हैं. बाद में यही लोग दलील देते थे कि चुनावी रंजिश इस स्तर पर नहीं थी कि अंशुल का अपहरण या हत्या की जा सके. लेकिन तब क्या इस स्तर पर थी कि अंशुल को माध्यम बनाकर गाँव वालों को झूठे मुकदमें में फँसाया जाए? उसके बाद से मरदह थाना भाँग और धतूरे के बीच खर्राटे लेता रहा. 26तारीख को मैंने थाने पर जाकर अपहरण की घटना दर्ज करानी चाही तो थानेदार ने कहा कि ''आपको मुकदमा दर्ज कराना जरूरी है कि बच्चे को पाना. मैं अपने ढंग से काम करूँगा.''मैंने कहा - ''आप मात्र मेरे अप्लीकेशन को रिसीव कर लें.''लेकिन दीवान ने अप्लीकेशन नहीं ली. लापता अंशुल को छः दिन बीत रहे थे.

देर रात लौटने के बाद सुबह हल्की सी नींद लगी थी. पत्नी तख्त पर मेरे पास आकर बैठी तो नींद खुल गई. उन्होंने कहा - ''आप सोए हैं. ये देख लीजिए'' (उनके हाथ में सुल्तानपुर के किसी ज्योतिषी का पता लिखा कागज था) बोली ''चले जाइए. ये बहुत सही सही बताते हैं.''समूचा गाँव ही षड्यंत्रकारियों के गिरोह में तब्दील हो चुका था. रोज नई-नई अफवाहें थाने को मुहैया कराई जा रही थीं. मैंने पत्नी से कहा - ''आज शाम को चला जाऊँगा.''मेरे आने से उन्हें भरोसा था.

27अप्रैल को मैंने बनारस जाकर मित्रों को सारी बातें बताईं. 28अप्रैल को साहित्यकारों, पत्रकारों का एक प्रतिनिधिमंडल काशीनाथ जी के साथ डी.आई.जी. चमन लाल से मिला. उन्होंने ध्यानपूर्वक सारी बातें सुनी. मेरे सामने ही गाजीपुर एस.पी. को सख्त हिदायत दी. स्पेशल टीम गठित करने के लिए कहा और कुछ व्यक्तियों के नाम पते बताकर कहा कि इनसे पूछताछ करो. उन्होंने यह भी कहा कि मरदह का थानेदार और हेड मुहर्रिर संदेह के घेरे में हैं. एस.पी. को इतनी बातें बता लेने के बाद चमन लाल जी ने हमसे कहा कि ''आमतौर पर गुमशुदगी की कोई रपट दो दिन बाद अपहरण में तब्दील कर दी जानी चाहिए. दरोगा ने ऐसा किया नहीं. इससे साफ जाहिर है कि वह जान बूझ कर मामले को दबा रहा है. चमन लाल जी ने एस.पी. से यह कहते हुए कि मरदह थानेदार को इस मामले से अलग रखा जाए, अंतिम चेतावनी दी - ''यह टेस्ट केस है. बच्चा किसी भी तरह मिलना चाहिए.''

शाम को पुलिस की तीन गाड़ियाँ आईं. एडीशनल एस.पी., देवेंद्र चौधरी के नेतृत्व में स्पेशल टीम गठित कर दी गई थी लेकिन एस.पी. ने मरदह के थानेदार को, जो स्पष्टतः अधिकारियों और अपराधियों के बीच, बिचौलिए की भूमिका निभा रहा था, मामले से पृथक नहीं किया.

दो तीन दिनों तक चलने वाली पूछताछ में पुलिस तत्परतापूर्वक अपराधियों से निर्देश लेती रही. डी.आई.जी. के सख्त निर्देश पर भी उसे कुछ करते रहना जरूरी था, सो चौधरी ने पुलिस की टीम लखीमपुर भी भेजी. पुलिस वाले यहाँ आकर सबसे मिले. पुलिस के लिए प्रेम और विरोध एक आपराधिक वृत्ति है इसलिए उन्होंने शहर में मेरा प्रेम तलाश किया. मेरे विरोधी खोजे. एस.पी. गाजीपुर इस बात से बेहद रंज थे कि जिले में उन जैसा जिम्मेवार अफसर होते हुए भी मैं किस गरज से डी.आई.जी. से मिला. अपराधियों द्वारा वे आश्वस्त थे कि लखीमपुर का मेरा मकान घर में तब्दील हो चुका है. वहाँ एक औरत हमारे गाँव के राजेंद्र सिंह की रिश्तेदार है. उसकी एक छह साल की लड़की भी है. उसी लड़की के हित में राजेंद्र सिंह ने यह घटना की है.

लखीमपुर आकर पुलिस वालों ने एक खूब ऊँचे बाँस पर हंडिया चढ़ाई और नीचे भीगे कोयले को रखकर उसे पुआल की आँच से सुलगाते रहे. नाक से पानी बहने लगा. आँखें लाल हो गईं. खिचड़ी नहीं पकी. उन्होंने लौटकर गाजीपुर एस.पी. को सूचना दी कि हुजूरे आला! हमने वहाँ सबसे भेंट की. कोऑपरेटिव बैंक के मैनेजर से मिले. कालेज के अध्यापकों से मिले. वहाँ पढ़ने आने वाले लड़कों से मिले. चाय के दुकानदार और कूड़ा-करकट रद्दी बीनने-बेचने वाले सबसे मिले. हमें शहर में कोई छह साल की लड़की नहीं मिली. सभी कहते हैं कि फक्कड़ आदमी हैं. किसी से कुछ लेना-देना नहीं. कहानियाँ किस्से लिखते हैं. लिखते कम घूमते और बतियाते ज्यादा हैं. देर रात तक घूमने की आदत है.

जबकि पुलिस वालों को मिल सकता था. उन्हें प्रेम भी मिल जाता और विरोध भी. निर्विवाद और निष्पक्ष होना मेरी नजर में अपराधों का मूक हिस्सेदार होना है. पुलिस वाले सिर्फ इतना करते कि किसी रिक्शे-ठेले वाले को पकड़ते. उसमें नीचे के रास्ते पेट्रोल डालते. यह कतई जरूरी नहीं कि उस आदमी ने मेरी शक्ल देखी ही हो. पेट्रोल जब जाँघिये के नीचे जाता है तो सब कुछ मालूम हो जाता है. - ''इंग्लैण्ड की महारानी का खरगोश पास के घने जंगल में कहीं भाग गया था'' - लखीमपुर बार एसोसियेशन के सचिव शशांक यादव एक किस्सा सुनाया करते हैं - ''उसे ढूँढ़ने के लिए यू.पी. पुलिस की एक टीम बुलाई गई. पुलिस वाले खरगोश को खोजते हुए तीन दिन से लापता हो गए थे. बाद में महारानी अपने अंगरक्षकों समेत पुलिसदल को खोजती जंगल में गईं. उन्होंने देखा कि एक पेड़ से बंधा लंगूर लहू-लुहान पड़ा है. उसकी नाक और आँखों से खून रिस रहा है. पीछे एक खूँटा ठोंक दिया गया है. पुलिस के तीन जवान उसे बुरी तरह पीट रहे हैं. लंगूर कुछ बोलना चाहता है लेकिन आखिरी साँस के साथ उसके गले से सिर्फ गुर्र-गुर्र की आवाज भर आ रही है. वह हाथ जोड़कर अपने प्राणों की भीख माँग रहा है.

महारानी ने देखा कि वहाँ चारों तरफ देसी शराब की दुर्गंध फैल रही है. पास में ही कुछ आदिवासी लड़कियाँ अपने खून सने कपड़ों के साथ अधनंगी मरी पड़ी हैं और कुछ कराह रही हैं. उनके गुप्तांग जख्मी हैं और शक्ल भारतमाता की शक्ल से काफी कुछ मिलती-जुलती है. महारानी भय से काँपने लगीं. उन्होंने पूछा तो पुलिस के एक जवान ने माथे का पसीना पोंछकर बीड़ी सुलगाई और बोला - ''ये लोग इसे लिए जा रही थीं. आप बस थोड़ी देर और ठहरें अब यह साला कबूलने ही वाला है कि मैं ही महारानी का खरगोश हूँ. फिर हम जल्दी-जल्दी मामले को निबटा देंगे. आप बस इतना ध्यान रखें कि कोई फोटोग्राफर, कोई प्रेस वाला इधर न आने पाए.''

समय बीतता जा रहा था. मेरे लिए सर्वाधिक आश्चर्यजनक यह रहा कि डी.आई.जी. के स्पष्ट और सख्त निर्देश के बावजूद नीचे के अधिकारियों ने उन नामों को छुआ तक नहीं जिन्हें चमन लाल ने बताया था. मरदह थानाध्यक्ष की भूमिका भी यथावत बनी रही.

पुलिस विभाग का उड़नदस्ता जो 28अप्रैल को गाँव में अपनी ताम-झाम और आबा-काबा के साथ आया था वह फिर कभी नहीं आया. रोज दिन में मरदह थाने का कोई एक सिपाही आता और गाँव से किसी एक आदमी को बुलाकर थाने तक ले जाता. थोड़ी देर बाद वह आदमी लौट आता. सब कुछ एक प्रहसन की तरह चल रहा था. ठंडा और निर्जीव.

सन 95की रिकार्ड गर्मी. सुबह से देर रात तक पूरे पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर 18-20घंटे स्कूटर चलाते हुए किसी ढाबे पर सूखी रोटी, आध घंटे की मटमैली नींद के सिवा कुछ भी मयस्सर न था. कभी कभी मैं सोचता कि संकट के दिनों में काम के लिए शरीर कहाँ बचाए रखता है अतिरिक्त ऊर्जा. धूल सने बाल, आँखों में कीचड़, बेतरतीब दाढ़ी, तीन दिन से ब्रश नहीं किया, दौड़ते चले जा रहे हैं बदहवास. बगल से कोई टैक्सी, कोई जीप गुजरती तो लगता सिर निकाल कर अंशुल चीख पड़ेगा - पापा! बेवजह उस जीप का पीछा करते स्कूटर की गति बढ़ जाती. पीछे बैठा हुआ आदमी कहता धीरे चलाइए. किसी कस्बे या शहर की सड़क पर खड़े हैं. आँखें गलियों की ओर लगी रहतीं -शायद कहीं से भागता दौड़ता मिल जाए.

आज, दैनिक जागरण, सहारा, पूर्वांचल संदेश जैसे छोटे-बड़े सारे अखबार रोज-ब-रोज गाजीपुर पुलिस प्रशासन की तफ्तीश ले रहे थे. ऐसी घटनाएँ तो रोज घट रही हैं, लेकिन अखबार वाले विभाग की ऐसी छीछालेदर नहीं करते. एस.पी. गाजीपुर ने मेरे से संबंधित एक बेहूदा मौखिक बयान जारी किया. किसी विशेष अखबार ने उसकी नोटिस नहीं ली तो वे और भन्नाए. एक पत्रकार से उन्होंने शिकायत की - ''आपको मेरा पक्ष भी तो छापना चाहिए.''

पत्रकार ने सवाल किया - ''सारे अधिकार और सारी शक्ति आपके पास तो है. क्या लड़के को बरामद करने के अलावा भी आपका कोई पक्ष है.''

वह हें हें करता रहा - ''नहीं, आप लोग सारा दोष पुलिस को दे रहे हैं.''

गाँव वालों की स्थिति यह थी कि जब भी कोई आदमी दो घंटे मेरे साथ कहीं जाता वह इतना जरूर समझाने की कोशिश करता कि अमुक व्यक्ति इसमें जरूर है. सब अपने-अपने पुराने हिसाब इस घटना में चुकता कर लेना चाहते थे. खबर मिलने के साथ ही लखीमपुर से वर्मा जी आ गए थे और मंगल सिंह भी. इनके अलावा स्वतंत्र होकर मैं कहीं न तो बैठ पाता था न बातें कर पाता. एक दिन मैं और मंगल सिंह सुबह-सुबह मरदह की ओर जा रहे थे. हमारे ही गाँव के एक आदमी ने बगल वाले गाँव के आदमी से कुछ कर्ज ले रखे थे. हमारे ठीक आगे चल रहे उस आदमी को रोक कर दूसरे आदमी ने अपना कर्ज माँगा तो वह बोल पड़ा - ''भैया, इस समय विपत्ति पड़ी है. बारह दिन हो गए घर में खाना नहीं बना. औरतों की हालत देखी नही जाती है. कुछ समझ में नहीं आता. लड़के का बाप पंजाब की सीमा पर है, अभी तक आया नहीं.''मैं मात्र उससे बीस फीट पीछे था. वह मुझे पहचानता नहीं था. लखीमपुर को वह कहीं पंजाब के ही इर्द-गिर्द मान बैठा था. अपने कर्ज की वसूली से बचने के लिए उसने ऐसा बहाना बनाया. दूसरे आदमी को पैसा माँगने का बेहद अफसोस हुआ. सांत्वना के स्वर में उसने पूछा - ''अभी तक लड़के की खबर नहीं लगी. फिर उसने उसे कुछ ज्योतिषियों के नाम गिनाए. हम अपनी हँसी रोक न सके. हर स्तर पर लोग इस घटना को भुना रहे थे. गाँवों के सामाजिक ढाँचे के भीतर निरंकुशता और स्वार्थपरता रोम-रोम में रची बसी होती है. हमारी भागदौड़ से बेखबर दुनिया अपनी गति से चली आ रही थी.

तीन मई की रात करीब साढ़े दस बजे मैं और मंगल सिंह मऊ से लौटे. उस दिन बाजार में एक खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ था. एक लड़का हमें देखकर दौड़ता हुआ आया और बोला - ''जल्दी घर जाइए. दीवाल पर कोई कागज चिपका हुआ है.''हमारी धड़कनें बढ़ गईं. मैंने सोचा शायद फिरौती की रकम माँगी गई हो. हम बहुत तेज स्कूटर चलाते हुए घर गए. पत्नी फटी आँखों से सब कुछ देख रही थीं. औरतों की भीड़ लगी थी. लड़कों में सिर्फ शैलेंद्र दरवाजे पर था. उसने पर्चे का मजमून बताया जिसमें प्रेम भैया को संबोधित करते हुए लिखा था कि ''तुम्हारे अंशुल को सूर्यमुखी के खेत में मारकर फेंक दिया गया है.''

पुलिस की गाड़ी से तेज रोशनी खेत के ऊपर फेंकी जा रही थी. गाँव के बहुत सारे लोग टार्च लेकर खेत में चारों ओर खोज रहे थे. एक जगह ताजी खोपड़ी, जबड़े के दाँत और कुछ हड्डियाँ मिलीं. खोपड़ी में माँस का नामोनिशान तक नहीं था. उससे हल्की गंध आ रही थी. यह एक बच्चे की ही खोपड़ी है. मैंने खोपड़ी हाथ में उठाई. सुनहले बालों और बेहद खूबसूरत चेहरे वाला अंशुल ऐसा हो गया. वाचाल आँखों के पास विकृत गड्ढा भर था - ''पापा, चलिए अब आपसे अंत्याक्षरी खेलेंगे.'' - दो साल पहले उसने कहा था.

''चलिए आप शुरू करिए'' - मैंने कहा. हम लोग पैदल मरदह की ओर जा रहे थे.

उसने शुरू किया - अंतिम अक्षर ''पर गिरा कर.

मैंने कविता पढ़ी -

''मंगल है भगवान की कृपा रहे सर्वत्र,
इस अंत्याक्षरी में मुझको मिले विजय का पत्र.''

नास्तिक बाप ने बेटे के खिलाफ भगवान से विजय की कामना की.

अंशुल हँसा -

''त्रास हरो भगवान भक्त का हे स्वामी सर्वज्ञ,
तुम्हें सिराहूँ किस तरह बुद्धिहीन अल्पज्ञ.''

शब्दों का उच्चारण वह सही नहीं कर पा रहा था. लेकिन बाप और बेटे ने एक ही पाठशाला में साथ-साथ पढ़ाई की थी. कविताओं के अंत कभी 'त्र'पर होते, 'ज्ञ'पर होते या 'क्ष'पर. उसने ''पर गिराया. कुछ देर तक सोचने के बाद मैंने कविता पढ़ी -

''ण अक्षर जब पणिनि को भाया नहीं,
शब्द उन्होंने कोई बनाया नहीं.''

- ''पापा, जरा इस कविता को लिखा दीजिएगा.''उसके पास ''पर कोई कविता न थी.

मेरी आँखें डबडबा गईं. मैंने खोपड़ी हाथ में ली और सोचा एक बार चूम लूँ. लेकिन लोगों ने रोक लिया. मैं चुपचाप खेत के बाहर चला आया.

मैंने दरोगा से थका हारा प्रश्न किया - ''आपने अपने ही डी.आई.जी. के बताए नामों को एक बार भी पकड़ा क्यों नहीं?''

''मुझे उनके बारे में कोई सूचना नहीं है.''उसने सफाई दी.

- ''लेकिन डी.आई.जी. ने मेरे सामने एस.पी. गाजीपुर को वे नाम फोन पर बताए थे.''

- ''एस.पी. साहब का अपना इंटरेस्ट होगा.'' - दरोगा ने अनभिज्ञता जाहिर की.

- ''अच्छा आपने दीवाल पर चिपके कागज का फिंगर-प्रिंट लिया? गाँव के ही किसी आदमी ने चिपकाया होगा?''मैंने पूछा.

- ''अब इससे क्या होगा डॉक्टर साहब?''दरोगा मुझे समझा रहा था.

कागज एक लड़की के बताने पर सबसे पहले पत्नी ने पढ़ा था. उस मानसिक स्थिति में भी उन्होंने कागज को छुआ नहीं था. लेकिन मरदह के थानाध्यक्ष ने उसे नोचकर फिंगर-प्रिंट की सारी संभावना नष्ट कर दी थी.

चार मई को दिन के समय जब खेत के भीतर जाकर लोगों ने खोजा तो उसके पैंट, चड्डी, बनियान, फटा शर्ट और कीचड़ लगा चप्पल तथा कुछ और हड्डियाँ, सिर के बाल आदि अलग-अलग जगहों से मिले. फंदे में बनी एक रस्सी भी थी. शेष बहुत सारी हड्डियाँ नहीं मिलीं. हत्या किसी घर में की गई थी. उसे सिर्फ सूरजमुखी के खेत में फेंका गया था. क्योंकि गाँव और सड़क से एकदम सटे उस खेत में किसी ने दुर्गंध तक नहीं महसूस की थी. अंशुल को बहुत दूर पैदल ले भी नहीं जाया गया होगा, क्योंकि उसका अपहरण रात के आठ बजे किया गया था. गर्मियों और शादी-बारात के इस मौसम में इस वक्त तक सारा गाँव चहलकदमी करता रहता है. निश्चित ही एकदम पड़ोस का कोई घर इस्तेमाल किया गया. और ऐसा घर जहाँ सदस्य कम हों और पड़ोसियों का आना जाना न हो. रवींद्र सिंह का घर इसके लिए उपयुक्त न हो सकता था. लेकिन गाजीपुर एस.पी. ने जो टीम बनाई थी उस टीम ने एक भी घर की तलाशी नहीं ली. पैसा खाने और खरचने के अलावा उस टीम के वरिष्ठ सदस्यों ने कुछ भी नहीं किया. अपराधियों ने सब कुछ निश्चिंतता पूर्वक किया और अपनी सुविधानुसार लाश भी अपराधियों ने ही बरामद कराई.

उसी दिन पुलिस ने गाँव के कुछ लोगों को गिरफ्तार किया. वे गिरफ्तारियाँ कितनी सही हैं कितनी गलत? मेरे लिए यह बता पाना कतई नामुमकिन है. अंशुल की इस हत्या से प्रत्यक्षतः किसी को कुछ हासिल न होगा. फिर भी अंशुल की हत्या हुई है. गाँव के ही किसी आदमी ने की है यह भी तय है. निकटतम पड़ोसियों की भूमिका असंदिग्ध है. बिना किसी विशेष दुश्मनी के भी पड़ोसी के बैलों को जहर खिला देना, खेत में आग लगा देना, किसी लड़की की तय शादी को, अपना पैसा खर्च करके जाना और चुपके से बिगाड़कर चले आना जैसी आदि-आदि घटनाओं से प्रत्यक्षतः किसी को कोई लाभ नहीं होता. ठहरी हुई जिंदगी की जो क्रूर मानसिकता गाँवों में होती है, उसी के परिणाम स्वरूप ये घटनाएँ गाँवों की आम प्रवृत्ति हैं. इसीलिए यह कहना कि किसी को क्या लाभ मिलेगा पर्याप्त नहीं है. दो व्यक्तियों के झगड़े का लाभ उठाकर तीसरा व्यक्ति भी ऐसा काम गाँवों में खूब करता रहता है जिससे दोनों पक्ष मरें, कटें. और कुछ ठलुवों के खाने-पीने की व्यवस्था बनी रहे. बच्चों की जघन्यतम हत्याएँ करने वाले अमूमन कम उम्र के अपराधी होते हैं.

दुख अपने गहनतम रूप में पहुँचकर आत्मा पर पत्थर की तरह जम जाता है. विरेचन के लिए आँसुओं की भूमिका समाप्त हो जाती है. लंबी-लंबी साँसें खींचती लगभग दौड़ती गिरती सी पत्नी मेरे साथ खेत तक गईं. उन्होंने पैंट, चप्पल, बनियान फटी चड्डी और खून तथा मिट्टी में सने शर्ट देखे. उन्होंने हड्डियाँ भी देखीं. उस दिन वे रोईं नहीं. गाँव वालों की भीड़ लगी थी. पत्नी ने चीखकर चूड़ियाँ निकालीं और सबके ऊपर फेंक दीं. उन्होंने मरदह के दरोगा को पूछा, जिसने अपहरण की सूचना दर्ज नहीं की थी. दरोगा वहीं था, मैंने कहा - ''उसे गिरफ्तार कर लिया गया है.''वे बैठ गईं.

उन्होंने मुझे कसकर पकड़ा और पूछा - ''आप बदला लेंगे न?''

मैंने कहा - ''नहीं.''


दिन के बारह बज रहे थे. जल रहे सूरज की छाया में अंशुल के क्लास के छोटे-छोटे लड़के इम्तहान देकर लौट रहे थे. एक लड़का खड़ा होकर वहीं हड्डियाँ देखने लगा. उसके हाथ में कलम और पटरी थी. वह स्कूल ड्रेस पहने था. पत्नी उसे देखती रहीं और अचानक उठकर उसकी ओर दौड़ीं. वह लड़का डरकर बहुत तेज भागा. पी.ए.सी. बुला ली गई थी. गाँव का समूचा माहौल अजीबोगरीब ढंग से खूँखार और भयावना हो गया था. हर सामने वाला आदमी संदेहास्पद लगता. एक दिन एक चार साल का बच्चा गली की ओर जा रहा था तो उससे चार साल बड़ी उसकी बहन घर में से दौड़ती हुई निकली और उसे भीतर पकड़ ले गई - ''कहाँ जा रहे हो?'' - वह चीख रही थी - ''गाँव वाले लड़के मारकर खा रहे हैं.''दिन में भी कोई लड़का घर के बाहर नहीं निकलता. पढ़ने जाने वाले लड़कों के साथ कोई न कोई बड़ा आदमी जरूर होता था.

23अप्रैल से लगातार रात दिन की भागदौड़. शरीर का हर हिस्सा दर्द से ऐंठ रहा था. पान, तलब, बीड़ी, सिगरेट के मारे अपने ही मुँह से घिनौनी बदबू आ रही थी. ब्रश, स्नान, दाढ़ी, बाल, दो हफ्ते हो गए आईना नहीं देखा था. गाजीपुर, मऊ, बनारस का लगातार चक्कर. घर वालों की दशा इससे भी बहुत बदतर थी. प्रचंड गर्मी, धरती आवाँ की तरह जल रही थी. कोलतार की सड़कों से पसीना रिस रहा था. बनारस पहुँचा. प्यास लगी थी. सियाराम जी अपने स्वभाव के विपरीत बेहद गुस्से में थे. उन्होंने बताया - ''हद है नीचता की. कल आपके मित्रगण अस्सी पर विगत रात आप द्वारा रचाई गई शादी पर प्रवचन झाड़ रहे थे.''

 नपुंसक चरित्र हत्याओं का समूह अपनी प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न भूमिका में सक्रिय और तत्पर था. मित्र बन कर ही किसी ने अंशुल की हत्या की थी. ये लोग भी मेरे मित्र थे. इस समय ये मेरे सामने छिन्न-भिन्न पड़ी बेटे की अस्थियाँ थीं और माथे पर लाश हो चुकी पत्नी को बचाने की जिम्मेवारी. लेकिन मेरे मित्रगण हत्या, प्रेम-प्रसंग, बलात्कार आदि की सनसनीखेज तस्वीरें बनाने में मशगूल थे. ये लोग वर्षों मेरे साथ रहे हैं. मेरे बारे में उनकी सोच यही थी. कहाँ-कहाँ सफाई दूँ? किस-किस से झगड़ा करूँ? प्रसादजी का एक प्रिय शब्द है - 'अकिंचन.'असहायता और अपमान के बोझ से तिल-तिल टूटता बिखरता मैं माथा पकड़ कर लंका की सड़क पर बैठ गया. बाद में पता चला कि अस्सी वाली घटना का संबंध हिंदी विभाग में होने वाली नियुक्तियों से था. मित्रों. लिए रहिए हिंदी विभाग में अपना वर्चस्व. हमारे पास तो जो है वही टूट-टूट कर बिखर रहा है. सियाराम जी खामोश थे. उन्होंने कहा - ''हद दर्जे की असंवेदनशीलता है.''मेरे मन ने कहा - ''विपत्तियाँ मार नहीं डालेंगी हमें / मुट्ठी भर की दुनिया में / हम फिर मिलेंगे आप से / फिलहाल तो - ''रहिमन चुप है बैठिए देखि दिनन को फेर''मुकदमे के सिलसिले में मुझे तुरंत घर लौटना था.

थाने की बाउंड्री में एक तरफ उपेक्षित सी जगह थी. सूखी हड्डियों में तब्दील हो चुका अंशुल एक सफेद कपड़े में सील करके वहीं रख दिया गया था. मटमैले कागज के चिर-परिचित हर्फों में ठंडे और बेजान हो चुके कुछ शब्द उसकी बिना पर न्याय माँगने गाजीपुर कचहरी में भेज दिए गए. सी.ओ. त्रिपाठी जी पुलिस महकमे में एकमात्र आदमी थे. बाँदा के पास कर्वी के रहने वाले. घरेलू माहौल साहित्यिक रहा है. आफिस में मैं उनके सामने बैठा था. उन्होंने बताया - ''मेरी एक टीम लखीमपुर गई थी. आपको सब लोग एक साहित्यकार के रूप में जानते हैं. यहाँ शहर में भी बहुत से लोग आपको नाम से जानते हैं.''

- ''कैसा साहित्यकार! कुल दो-तीन कहानियाँ लिखी हैं'' - मैंने अरुचि से कहा. फिर देर तक वे समाज के बारे में, पुलिस विभाग के बारे में, और अपने बारे में बातें करते रहे. मुझे लगा कि नीचे के मातहतों और ऊपर के अधिकारियों के बीच त्रिपाठी जी मुझसे ज्यादा लाचार हैं. ''एक कांस्टेबुल तक किसी मंत्री का खूँटा पकड़ कर बैठा है.'' - उन्होंने बताया.

इस देश की न्यायपालिका प्लेटो के 'आदर्श-राज्य'का व्यावहारिक यथार्थ है, जहाँ नैतिकता का निरंकुश सम्राट तलवार के बल पर कवियों को लगातार बहिष्कृत और अपमानित करता रहता है. समय ने नैतिकता का कोट काला कर दिया है. और जज साहबान! आप मुझसे बार-बार अपराधी की सच्ची शिनाख्त माँगते हैं. हम कहाँ से वे गवाह लाएँगे जिन्होंने हत्या करते देखा हो. अगर यही होता तो हत्या क्यों हो पाती? उसकी खोपड़ी पर माँस तक नहीं है, लेकिन आप कहते हैं कि एकदम सच्ची पहचान होनी चाहिए. अंशुल की हत्या हुई है.

हत्या किसने की है? यह रहस्य आप नहीं खोल पाते जबकि सुरक्षा और न्याय देने का ठेका आपने ले रखा है. बहुत सीधा-सा तर्क है जिस काम के लिए हम सौंपे गए हैं अगर उसे नहीं कर पाते तो उससे अलग हट जाना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते तो निठल्ले और बेईमान बनने से बच नहीं सकेंगे. क्या आपको मालूम है कि मैं असली अपराधी आपको मानता हूँ. विक्षिप्तता की स्थिति में भी क्यों पत्नी ने पूछा था कि - ''मरदह का दरोगा कहाँ है?''नैतिकता के आपके 'आदर्श राज्य'से बहिष्कृत होने के बावजूद अपना क्षत-विक्षत लहू-लुहान चेहरा लिए हम बार-बार लौट कर आएँगे आप सबको तहस-नहस करने. सत्ता और शक्ति के ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए आपके भी हाथ में कलम है और मेरे भी पास कलम है. आप मरे हुए शब्दों के गुलाम रखवाले हैं. अपराधियों द्वारा बनाए कानून के व्याख्याता भी नहीं हैं आप. आप शब्दों के मामूली क्लर्क हैं. मेरे पास कवि की कल्पना है और लुहार की भट्ठी. शब्दों का साथी मैं उन्हें मन मुताबिक जब, जहाँ जैसे चाहूँगा ढाल लूँगा. मेरी पत्नी ने नहीं, एक घायल माँ ने मुझसे पूछा था - ''आप बदला लेंगे न''. खैर... इस समय अपनी भयानक मानसिक उथल-पुथल के बीच मैं चुप था.

मेरे वकील ने मुझसे कहा कि ''स्टांप पेपर पर एक हलफनामा लिख दीजिए कि मेरा अपनी पत्नी से मधुर और निष्ठापूर्ण संबंध था और हम लोगों के बीच कभी कोई विवाद नहीं रहा.''भारतीय दांपत्य जीवन में इससे बड़ा झूठ मिलना मुश्किल है. मैंने कहा कि - ''सिर्फ इतना लिखिए कि मेरा पत्नी से सामान्य संबंध था.''

- ''यह साहित्य नहीं है भाईजान!'' - वकील ने कहा. तब मैंने स्टांप पेपर पर लिखे झूठ पर हस्ताक्षर कर दिए. इस प्रांगण में ऐसा असंख्य बार करना पड़ेगा. मैंने घृणा से थूक दिया. और जाकर सामने पेड़ के नीचे की जमीन पर लेट गया. थकान बहुत ज्यादा थी. मैंने आँखें बंद कर लीं. अंशुल की हड्डियाँ मेरे सामने रह-रह कर काँप जातीं -

कुत्तों और बिल्लियों को भी
कब मारा गया था इस तरह इस गाँव में
हाथों में दूध के गिलास लेकर
किसे खोज रही हो माँ
सूरजमुखी के फूलों में
फेंक दिया गया हूँ मारकर.

मृतात्माओं के इस प्रांगण में
क्या खोज रहे हैं आप सब
राख और हवा हो चुका हूँ पापा!
भयावह अट्टहासों और अनंतकाल तक चलने वाली
झूठ की इस अंत्याक्षरी में
हारना ही है आपकी नियति.

रेत के इस बवंडर में
चक्कर खाते हुए, कुछ भी नहीं आएगा आपके हिस्से
आपकी थकान रह जाएगी
मरीचिका की इस यात्रा में
हम अब कभी और कहीं नहीं मिलेंगे पापा!!

लखीमपुर जाने वाली एक बस की सीट पर मैंने अपने शरीर को रख दिया था. मेरे पास मित्रों का एक जमघट था लेकिन चंद ही काम आए. एक क्षत-विक्षत घर से निकल कर मैं पुनः अपने एकांत और निरापद मकान पर लौट आया इस प्रार्थना के साथ कि - ''हे भगवान! मुफ्त के उपदेशकों से बचा सको तो जरूर बचाए रखना.''
______________________
pipnar@gmail.com

क्षमा करो हे वत्स ! : जीवन राग और अनबीते व्यतीत की मृत्युकथा : अल्पना सिंह

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कथाकार देवेन्द्र की कहानी नालंदा पर गिद्धका ज़िक्र कुछ दिन पहले समालोचन पर नरेश गोस्वामी की कहानी पिरामिड के नीचेके सन्दर्भ में हुआ था. 

देवेन्द्र की एक और चर्चित कहानी है ‘क्षमा करो हे वत्स’, यह अपने दस वर्षीय पुत्र के अपहरण और हत्या पर एक पिता का दारुण आख्यान है, कहते हैं कथाकार को इसे लिखने के बाद दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई थी. इस कहानी और इस तरह के प्रसंगों की चर्चा अल्पना सिंह अपने इस आलेख में कर रहीं हैं.



क्षमा करो हे वत्स !
जीवन राग और अनबीते व्यतीत की मृत्युकथा              
अल्पना सिंह











था जीवन की मार्मिक आलोचना है. वस्तुतः कथाकार तर्कशीलता की संभावनाओं और विचारों का एक सम्पुट लेकर एक नई कथायोजना को जन्म देता है. ये सत्य कथाएँ वह अपने जीवन और आसपास के वातावरण से ग्रहण करता है. ऐसे ही कथाकार हैं देवेन्द्र. इनकी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स’को पढ़कर निर्मल वर्मा के दो कथा-वृतांत याद आते हैं. ‘कव्वे और काला पानी’कहानी और ‘अंतिम अरण्य’नामक अपने उपन्यास में वे अस्थि विसर्जन के दो दृश्य हैं :
     
-‘लग रहा था, जैसे चालीस साल पुराना शरीर जो मैं अपने साथ लाया था, अब किसी दूसरे देह में स्वप्न की तरह चल रहा था, जिसका साहिब जी से उतना ही सम्बन्ध था जितना मेरा उन अस्थियों से, जिनकी पोटली मेरे साथ चल रही थी, और हम तीनों के भीतर एक ही आकांक्षा सुलग रही थी, अपने को जल प्रवाह में डुबोने की, जहाँ हम एक दूसरे से अंतिम रूप से मुक्त हो सकें.’
                                                         ---‘अंतिम अरण्य’
      -“मैंने उनकी नंगी देह को देखा, एक-एक हड्डी सर्दी की सफेद धूप में चमक रही थी, ठिठुरती कृषकाय देह नहीं, बल्कि ऐसा पिंजर जो देह को अपनी ठठरी-गठरी में गरमाये रखता है....नहीं, नहीं उन्हें मैंने पहले नहीं देखा था, लेकिन उन्हें देखते हुए मुझे अचानक अपने पिता की अस्थियाँ याद हो आयीं, जिन्हें गठरी में बांधकर मैं कनखल ले गया था..’’
                                                      ---‘कव्वे और कालापानी’


मृत्यु के क्षण तक कौन होगा जो जीवन की अभिव्यक्ति न चाहता हो. रचनाकार जीवन के झीने परदे से मृत्यु की यही सलवटें देखता रहता है. अकेलापन और आत्मनिर्वासन की प्रक्रिया से गुजरकर वह जीवन के सच और झूठ को मिलाता है. ‘शाश्वत वर्तमान’ का यही ‘गुप्त कोड’ उसे मुक्ति नहीं दे पाता. इवान इलिचकी भीतर भी वही चाह,मृत्यु के समय जन्मती है. संदर्भ कथाकार देवेन्द्रकी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स!’का है. यह कहानी एक आत्मकथ्य है जो एक पिता नें अपने दस वर्षीय पुत्र के अपहरण और निर्मम ह्त्या पर लिखी है. इस कहानी को पढ़ते हुए प्रथमदृष्टया ही अनेक प्रश्न सामने आ खड़े होते हैं. यह कहानी सबसे बड़ा प्रश्न हमारे समाज और उसकी न्याय व्यवस्था पर उठाती है.

देवेन्द्र के पुत्र अंशुल (जिसका नाम वह भविष्य में ‘उपमन्यु’ या ‘कोलंबस’ रखना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसका अवसर ही नहीं मिलता है.) का अपहरण हो जाता है. अपहरण के ग्यारह दिन बाद उसका शव, शव भी नहीं, शरीर के क्षत-विक्षत अंग ‘ताजी खोपड़ी, जबड़े के दाँत और कुछ हड्डियाँ.. खोपड़ी में माँस का नामोनिशान तक नहीं था’ मिलते हैं. और इन ग्यारह-बारह दिनों में पुलिस, कोतवाली, दरोगा, एस. पी. सब तमाशबीन की भूमिका में रहे और बराबर सत्य पर पर्दा डालते रहे. वह भी तब जबकि सबूत और साक्ष्य भी समानांतर उपस्थित रहे. उसके बाद गाँव वालों को अंशुल के ‘पैंट, चड्डी, बनियान, फटा शर्ट और कीचड़ लगा चप्पल तथा कुछ और हड्डियाँ, सिर के बाल आदि अलग-अलग जगहों से मिले.फंदे में बनी एक रस्सी भी थी. शेष बहुत सारी हड्डियाँ नहीं मिलीं. हत्या किसी घर में की गई थी. उसे सिर्फ सूरजमुखी के खेत में फेंका गया था.’ एक छोटे से गाँव में इतनी निर्मम हत्या हो जाए और हत्यारे खुले आम घूमते रहें, यह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी विडम्बना है.इसमृत्यु के बाद से ही देवेन्द्र का अपने देश की न्याय व्यवस्था से मोह भंग हो जाता है, जो उनकी अन्य कहानियों में भी यथा स्थान भी दिखाई देता है.

अज्ञेय ने लिखा है कि ‘आसन्न मृत्यु की एक गंध होती है...यह गंध इतनी स्पष्ट होती है कि मनुष्य उसे पहचान सकता है.’योको को सेल्मा का कमरा उस विशेष मृत्युगंध से भरा हुआ लगता है और उसे उबकाई आ जाती है. वह भी तब जबकि सेल्मा अभी जीवित है.... विलियम वर्ड्सवर्थ की एक कविता है‘लूसी ग्रे’. यह एक छोटी लड़की की मृत्यु पर पर लिखी गयी कविता है. इस कविता के कथानक की पृष्ठभूमि में वह वास्तविक घटना है जो उनकी बहन डोरोथी नें वर्ड्सवर्थ को सुनाई थी. यह घटना यॉर्कशायर में हैलिफ़ैक्स शहर में घटी थी. बच्ची के माता-पिता बदहवास उसकी खोज में भटकते रहे थे लेकिन वह नहीं मिली और उसका शव एक नहर में पड़ा पाया गया था. सत्य घटना को वर्ड्सवर्थ ने अपनी कल्पना के आधार पर इस अमर कृति की रचना की. कविता में एक पंक्ति है कि उन घाटियों से गुजरते समय एक फैन या खरगोश देखने का अवसर प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन आप लुसी ग्रे के निर्दोष और मासूम चेहरे को अब कभी नहीं देख पाएंगे.’माता- पिता को बच्ची के अवशेष के रूप में बर्फ पर बने बच्ची के पैरों के छोटे-छोटे निशान भर दिखते हैं और वह रो कर कह उठते हैं- ‘In heaven we all shall meet.कविता की पंक्तियाँ विचलित करती हैं. शायद इसी कारण मैथ्यू अर्नोल्ड नें इसे "एक खूबसूरत सफलता"माना है.

पॉल डी मैन नें भले ही लुसी ग्रे कविता को अपने संदर्भों में परिभाषित करते हुएमाना कि मृत्यु उसे एक गुमनाम इकाई में बना देती है", किन्तु यह बात लूसी और अंशुल दोनों के लिए गलत है. इस कविता नें लूसी को और इस कहानी नें अंशुल को इतिहास में दर्ज कर अमर कर दिया है.यह कविता सत्यांश होकर भी कवि की कल्पना है, यह स्वानुभूत नहीं है. मृत्यु को काल्पनिक आधार पर व्याख्यायित करना रोमांचकारी होता है क्योंकि इस व्याख्या में स्वानुभूति कम होती है इसलिए लेखक के लिए वर्णन करना सरल और सहज रहता है. रचने में कठिन और भयावह तब होता है जब उसका सम्बन्ध स्वयं से हो.

मृत्यु पर बात करते हुए हुए अलबर्ट कामू का उपन्यास The Stranger (अजनबी) अनायास याद आ जाता है. इस उपन्यास का प्रारम्भ भी एक मृत्य से हुआ है. यह मृत्यु कथानायक की माँ से सम्बंधित है. हालाँकि माँ की मृत्यु और उसके अंतिम संस्कार तक का वर्णन पाठक में अजीब बेचैनी पैदा करते हुए भी एक ऊब से भर देता है. प्रारम्भ से अंत तक पूरे उपन्यास में माँ की मृत्यु किसी प्रेत की तरह छायी रहती है. इस मृत्यु-वर्णन से पाठकों में संवेदना उत्पन्न नहीं होती बल्कि क्षोभ सा होता है. ऐसी ही मृत्यु नासिरा शर्मा नें ‘पारिजात’ में रच डाली है. ‘पारिजात’ में कदम-कदम पर मृत्यु हो रही है, किन्तु वहाँ मृत्यु सूचनात्मक अधिक है. शाश्वत होने पर भी मृत्यु का अपना अलग एक वितान है, किन्तु पारिजात में यह वर्णात्मक है इसलिए पाठक इन ब्योरों से भी ऊब जाता है. कहना यह है कि मृत्यु को रचना सहज नहीं होता.

‘क्षमा करो हे वत्स !’कहानी से गुजरते हुए बरबस निराला और उनकी कविता ‘सरोज स्मृति’याद आती है. यद्यपि दोनों के सन्दर्भों में पर्याप्त भिन्नता है फिर भी कुछ साम्य भी है. ‘क्षमा करो हे वत्स’ आत्मकथ्य है, ‘सरोज स्मृति’ भी आत्मकथ्य है. दोनों रचनाओं में विधाओं की भिन्नता है. ‘सरोज स्मृति’ कविता है और ‘क्षमा करो हे वत्स!’ एक कहानी है. दोनों का सृजनकर्ता एक पिता है. एक पुत्री का पिता है, एक पुत्र का पिता. दोनों के अपने जीवन-संघर्ष हैं, जो आंतरिक स्तर पर तो भीषण हैं ही साथ ही साथ पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी चिंतित करने वाले हैं. कविता के पिता नें अपनी पुत्री को खोया है पर कहानी के पिता नें एक पुत्र को खोया है.

जिन अभावों में सरोज का पालन पोषण हुआ, पिता उससे संतुष्ट नहीं है, वह अपनी ‘शुचिते’को  ‘चीनांशुक’न पहना पाने और उसे ‘दधिमुख’न रख पाने के दुःख से व्यथित हैं. इस कारण पुत्री को उसके ननिहाल भेज देते हैं. सम्भव हैं वहाँ उसकी उचित देख-भाल हो सके. देवेन्द्र के भीतर भी पुत्र को साथ न रख पाने अपराधबोध है. 'गाँव में दूध-दही है. इसकी माँ हैं. फिर ग्रामीण संस्कार भी जरूरी हैं'जैसे तर्क द्वारा वह स्वयं को बचाते हैं और पुत्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर यायावरी के साथ अपने दिन काटते हैं. किसी भी पिता के मन में अपनी सन्तान के विवाह को लेकर कुछ अलग ही उमंग होती है. निराला प्रसन्न है, पुत्री के विवाह के लिए योग्य वर की तलाश पूरी होती है और उन्हें अपनी पुत्री की ‘पुष्प-सेज स्वयं रचने’का सौभाग्य मिलता है.देवेन्द्र इस सुख की कल्पना के अंतिम छोर पर हैं, जहाँ यह परिहास का विषय ही बना हुआ है. उनका वात्सल्य संवाद क्रीड़ाओं से अभिव्यक्त होता है. पिता पुत्र के मध्य हुए संवाद को देवेन्द्र नें इस तरह लिखा है-


''अच्छा बेटा एक बात बताइए. आप किसके पास सोते हैं?''
-''मम्मी के पास.'' - उसने मेरी ओर हँसते हुए देखा.
''नहीं आप यह बताइए कि आप किसकी पत्नी के पास सोते हैं?''

मैंने विनोदमयी संवाद क्रीड़ा शुरू कर दी है. उसकी आँखों में सतर्कता चमकी और वह मुस्कराने लगा - ''आपकी पत्नी के पास सोता हूँ.''

''ठीक! तब मैं भी आपकी पत्नी के पास सोऊँगा. कोई आपत्ति?''
दुकान पर बैठे लोग हँसने लगे. वह शरमा गया - ''मैं शादी ही नहीं करूँगा.''



बात यहीं समाप्त नहीं होती है, बल्कि समयांतर से अंशुल प्रतिप्रश्न करता है- 'यह बताइए कि मेरी पत्नी क्या आपकी माँ लगेगी?'पुत्र के इस शातिर प्रश्न, जोकि एक तरह से उत्तर है, पर पिता को हसीं आ जाती है.

निराला को अपनी पुत्री स्वर्ण स्वरुप लगती है, उसे ननिहाल से अपने घर लाते हुए वह अपने दारिद्र्य पर सकुचा उठते हैं, और कहते हैं- ‘ले चला साथ मैं तुझे कनक/ ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण-झनक’.देवेन्द्र को भी अंशुल असाधारण सा लगता है, इसलिए वह कहते हैं- 'अपना बेटा सभी को अच्छा लगता है. पता नहीं इस वजह से या क्या है. अंशुल मुझे कुछ विलक्षण लगता है.'अंतिम निष्कर्ष के रूप में निराला सरोज के पालन-पोषण के लेकर स्वयं को निरर्थक पिता मानकर कहते हैं- ‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ कुछ भी तेरे हित न कर सका!’इसका कारण यह है कि वे ‘उपार्जन को अक्षम’ हैं और इसी लिए पुत्री का उत्तम पोषण नहीं कर सके. देवेन्द्र अंशुल को लेकर अपराध-बोध से ग्रस्त हैं इसलिए अपने ‘अपराध बोध से बचने के लिए अंशुल से जुड़े सवालों को टाल जाते’हैं. वह खड़े एकटक देखते हैं नन्हें पैरों के छोटे-छोटे डग भरता अंशुल चला जा रहा था. धूप से जलकर उसके गाल एकदम लाल पड़ गए थे. आँखें डबडबा गईं. दिल में घबराहट सी होने लगी.'फिर से वह अपराध-बोध और पश्चाताप से बेचैन हो जाते हैं.

निरालाकी पुत्री नें उन्नीसवें वर्ष में प्रवेश किया है. अपनी संतान को युवा होते देखने की चाह किस पिता में नहीं होती ? इस मामले में निराला देवेन्द्र से कुछ अधिक समृद्ध कहे जा सकते हैं कि उन्होंने ‘बाल्य की केलियों का प्रांगण’ पार करती ‘कुंज-तारुण्य सुघर’होती और ‘लावण्य-भार’से ‘थर-थर काँपते कोमलता पर सस्वर’द्वारा दिनों दिन बढ़ती अपनी पुत्री को निहारने का सुख प्राप्त किया था. सन्तति की बाल-क्रीडाओं से कवि का उर प्रफुल्लित होता है. छोटी सी बालिका यौवन के द्वार पर दस्तक दे रही है. पिता इस बसंत का मुक्तकंठ से स्वागत करता है. देवेन्द्र इस सम्पूर्ण सुख से वंचित पिता हैं. पुत्र की बाल क्रीड़ाओ को देखने का अवसर उनकी बेरोजगारी लील गयी, जो कुछ बचा वह समय के हाथों स्वाहा होता गया.

सरोज की मृत्यु का कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं था, लेकिन बहुत से कारण उसके हत्यारे हो सकते हैं. हत्यारे को लेकर सरोज की मृत्यु कोई बहुत बड़ा प्रश्न अनुत्तरित छोड़ कर नहीं गयी थी (यह बात अलग है कि निराला नें अन्य के साथ ही दुलारे लाल भार्गव को भी इस मृत्यु का कम जिम्मेदार नहीं माना). लेकिन अंशुल की मृत्यु के प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं. अंशुल (कोलंबस, उपमन्यु) को किसने मारा ? हत्यारा कोई तो है, पड़ोस में है, समाज में है, हम में और आप में हैं, लेकिन कौन है ? सभी हत्यारे हैं लेकिन कोई भी हत्यारा नहीं है. तब फिर इस मृत्यु का जिम्मेदार कौन है ? हम, आप, पड़ोस, समाज, राज्य, क़ानून या हमारी न्याय व्यवस्था ? ऐसी अनगिनत घटनाओं से दिन पर दिन जर्जर होता जा रहा एक ऐसा देश जिसकी, न्यायपालिका से सामान्य जन का विश्वास उठ चुका है, उससे देवेन्द्रप्रश्न करते हैं-

‘जज साहबान! आप मुझसे बार-बार अपराधी की सच्ची शिनाख्त माँगते हैं. हम कहाँ से वे गवाह लाएँगे जिन्होंने हत्या करते देखा हो. अगर यही होता तो हत्या क्यों हो पाती? उसकी खोपड़ी पर माँस तक नहीं है, लेकिन आप कहते हैं कि एकदम सच्ची पहचान होनी चाहिए. अंशुल की हत्या हुई है. हत्या किसने की है? यह रहस्य आप नहीं खोल पाते जबकि सुरक्षा और न्याय देने का ठेका आपने ले रखा है. बहुत सीधा-सा तर्क है जिस काम के लिए हम सौंपे गए हैं अगर उसे नहीं कर पाते तो उससे अलग हट जाना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते तो निठल्ले और बेईमान बनने से बच नहीं सकेंगे.’

किन्तु यह अरण्य रोदन कहाँ किसी के कानों तक पहुंचा. अपने एकलौते पुत्र को खो कर एक पिता न्यायमूर्ति से यह कहने के लिए बाध्य है कि- ‘मैं असली अपराधी आपको मानता हूँ.’ इसे झुठलाया नहीं जा सकता.

भारतीय चुनावों का अपना रक्त रंजित इतिहास रहा है. चुनाव की आड़ में कितनी पुरानी रंजिशों का निपटारा हो जाता है, इस बात के आंकड़े काल्पनिक ही रहेंगे, क्योंकि इनका कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता है. पंचायती चुनावों की स्थिति पर देवेन्द्र लिखते है- ‘समूचा प्रदेश अपने सीमित मताधिकार के जरिए जनतंत्र का स्वप्न देखकर खून में सराबोर हो चुका है. सरकार ने थानों को सख्त हिदायत दे रखी है कि चुनावी झगड़ों को कतई दर्ज न किया जाए. अगर किसी झगड़े का दर्ज होना बेहद जरूरी ही हो जाए तो उसका स्वरूप बदल दिया जाए. 'प्रापर्टी विवाद'अथवा 'प्रेम-प्रसंग'. कोई भी नाम दिया जा सकता है.’ऐसी भयावह स्थिति में बड़े से बड़ा अपराध भी कितनी निश्चिंतता से किया जा सकता है इसका ज्वलंत प्रमाण अंशुल की ह्त्या है.

भारतीय सामाजिक संरचना कुछ निश्चित सावयवो पर आधारित है जिनमें व्यक्ति, परिवार, उनकी अन्तःक्रियाएं, उनके मध्य होने वाले मानवीय क्रियाकलाप जैसे उनके आचरण, सामाजिक सुरक्षा और परस्पर स्नेह व सहयोग भाव आवश्यक हैं. यद्यपि समाज को व्यक्ति के सन्दर्भ में एक आवश्यक इकाई माना जाता है लेकिन दुर्खीम ने सामाजिक संरचना में व्यक्ति को गौड़ माना है, फिर भी उनके आपसी सहयोग के सम्बन्ध को नकारना मुश्किल है. कहना यह है कि समाज व्यक्तियों के समूह और कुछ नैतिक सम्बन्धों से बनता है लेकिन अगर इस कहानी के सन्दर्भ में समाज की परिभाषा की जाए तो कोई निष्कर्ष निकालने में समाजशास्त्रियो को भी दोबारा सोचना होगा. देवेन्द्र की कहानियों में समाज अपनी संरचना में पूरी तरह से असफल रहा है. वह कौन सा समाज है जिसमें देवेन्द्र रहते हैं ?


बनारस से लेकर मरदह (गाँव) और लखीमपुर से लेकर पिपनार (गाँव) तक फैला  समाज और उसके ‘नपुंसक चरित्र हत्याओं का समूह अपनी प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न भूमिका में सक्रिय और तत्पर था. मित्र बन कर ही किसी ने अंशुल की हत्या की थी. ये लोग भी मेरे मित्र थे. इस समय ये मेरे सामने छिन्न-भिन्न पड़ी बेटे की अस्थियाँ थीं और माथे पर लाश हो चुकी पत्नी को बचाने की जिम्मेवारी. लेकिन मेरे मित्रगण हत्या, प्रेम-प्रसंग, बलात्कार आदि की सनसनीखेज तस्वीरें बनाने में मशगूल थे. ये लोग वर्षों मेरे साथ रहे हैं. मेरे बारे में उनकी सोच यही थी... असहायता और अपमान के बोझ से तिल-तिल टूटता बिखरता मैं माथा पकड़ कर लंका की सड़क पर बैठ गया.’ व्यक्ति जो मित्र है और जिससे समाज का निर्माण हुआ है, उसकी नैतिकता और मूल्य यहाँ पतन के चरम पर हैं.

व्यक्ति समाज का प्रमुख अंग है. उसकी सोच के निर्धारण में सामाजिक घटनाओं की मुख्य भूमिका रहती है. समाज से ही व्यक्ति में सामुदायिकता की भावना का विकास होता है. व्यक्ति के भीतर आस्था और विश्वास जन्म लेते हैं, परस्पर सौहार्द्य पनपता है. पुत्र की ह्त्या के साथ ही देवेन्द्र के भीतर से इन सब कोमलतम भावों की भी ह्त्या हो जाती है. इस हत्यारे समय में, जबकि प्रतिदिन हमारे मूल्यों, मान्यताओं और संवेदनाओं की निर्मम ह्त्या की जा रही तब कोई भी व्यक्ति खुद की आस्था को कैसे बचा सकता है ? देवेन्द्र भी इसका अपवाद नहीं बनते है, और लिखते हैं- ‘ईश्वर और उसके नियमों में मेरी कोई आस्था नहीं रह गई है...असंग जीवन की निर्मम तटस्थता मेरे प्राण-प्राण में समा गई है. सामाजिक संबंधों की कोई चाह नहीं. स्मृतियों और सपनों के असंख्य दंश से क्षत-विक्षत कैसा होता जा रहा है मेरा जीवन.’

पुत्र की मृत्यु ही वह कारण है जिसनें देवेन्द्र को मृत्यु से इतना निर्विकार कर दिया कि वह उनकी कथाओं का अनिवार्य हिस्सा बन गयी. ‘एक खाली दिन’ में पति की मृत्यु पर पूरी तरह उदासीन पत्नी है. जो पति के शव को श्मशान में रख कर रेस्टोरेंट में में भरपेट खाना खाती है, और वेटर को विशेष रूप से फ्रिज़ में रखा ठंडा आम लाने के लिए कहती है. ‘स्वान्तः सुखाय’ कहानी का पुत्र है, जो पिता की मृत्यु की सूचना मिलने पर सोचता है कि घर जाने से पहले अपनी गर्लफ्रेंड के साथ सिनेमा ही देख लेने में क्या बुराई है. संभव है कि पुत्र की ह्त्या नें ही देवेन्द्र को ह्त्या की मनोवृत्तियों पर सोचने पर विवश कर दिया हो और तब से वह निरंतर हत्याओं पर विभिन्न द्रष्टिकोण से सोचने पर बाध्य हुए हों. इसी भीषण अनुभव से गुजर कर ही वह ह्त्या को लेकर एक नया दर्शन गढ़ देते हैं. उनकी ‘समय-बेसमय’ और ‘रंगमंच पर थोड़ा रूक कर’ दोनों ही कहानियों में ह्त्या होती है, दोनों में हत्यारे का चरित्र भिन्न है. जैसे— इस हत्यारे समय में रहते हुए अगर आप हत्या करना नहीं जानते तो तय मानिए दूसरे लोग आपकी हत्या कर डालेंगे .’ ‘मरना सचमुच कितना भयानक होता है, हत्यारों को अवश्य ही यह जानना चाहिए.’ (रंगमंच पर थोड़ा रुककर ) ‘क्या इतना दहशत भरा होता है आदमी का मरना.’ ‘मृत्यु से हजार गुना भयावह होता है मृत्यु का खौफ.

वहाँ सिर्फ आदमी नहीं मरता है. आदर्श, विचार, आस्थाएँ तिल-तिल कर धीरे धीरे सबकी मृत्यु होती जाती है. मनुष्यता मरती है इस तरह.(रंगमंच पर थोड़ा रुककर) ‘हत्या करने वाले एकदम दूसरे ढंग के आदमी होते होंगे. वह किसी हत्यारे को बहुत करीब से देखना, जानना और समझना चाहता था. वह उसके सपनों के बारे में जानना चाहता था.... हत्यारे के लिए पुलिस, कानून और जेल इन सबसे ज्यादा खतरनाक उसके अपने सपने होते होंगे. चालाक से चालाक आदमी अपने को जेल, कानून और पुलिस से भले ही बचा ले, लेकिन नींद और सपनों को लेकर वह क्या करेगा?’ और यह भी कि ’कोई किसी की हत्या कैसे कर सकता है! उसे विश्वास करने में मुश्किल हो रहा था कि आराम से बस में सफर करने वाला आदमी हत्यारा हो सकता है - एकदम आम लोगों के बीच आम आदमियों की ही तरह. उसके लेखे हत्यारे रात के अँधेरे में दबे पाँव निकलने वाले कुछ-कुछ विचित्र और भयावने होते होंगे. उनकी आँखें लाल होती होंगी. भेड़िये की तरह चालाक और चौकन्ने वे लोग कभी हँसते नहीं होंगे. न उनकी स्मृतियाँ होती होंगी, न सपने. यह कैसा, जो आराम से बस में सफर कर रहा है. पान खा रहा है, और ऊँची-ऊँची आवाज में बात कर रहा है. (समय बे-समय) ऐसा चिंतन उनकी कहानियों में बिखरा पड़ा है.

जीवन में आये इस भीषण झंझावात से निकल कर और एक दुःस्वप्न को साथ ले कर देवेन्द्र ‘लखीमपुर जाने वाली एक बस में अपने शरीर को रख देते हैं.’ उनके कान में अंशुल के शब्द कविता के रूप में गूंजते हैं- ‘हम अब कभी और कहीं नहीं मिलेंगे पापा!!’ मानो वर्ड्सवर्थ ने सूचना दी हो- But the sweet face of Lucy Gray/ Will never more be seen’. कहानी की अंतिम पंक्ति है-‘एक क्षत-विक्षत घर से निकल कर मैं पुनः अपने एकांत और निरापद मकान पर लौट आया इस प्रार्थना के साथ कि- 'हे भगवान! मुफ्त के उपदेशकों से बचा सको तो जरूर बचाए रखना.'रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘चित्त जेथा भयशून्य’ का एक पद है- जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि/ विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-/ पौरूषेरे करनी शतधा नित्य जेथा तुमि/ सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता’ (जहाँ विचारों की सरिता/ तुच्छ आचारों की मरू भूमि न खोती हो/ जहाँ पर सभी कर्म, भावनाएँ, आनंदानुभुतियाँ/ तुम्हारे अनुगत हों...’)(अनुवाद शिवमंगल सिंह ‘सुमन’) और उस स्थान पर पहुँचाने की प्रार्थना जहाँ चित्त भयशून्य हो जाए. सम्भवतः देवेन्द्र के लिए ऐसा कोई स्थान सृष्टि पर नहीं रहा होगा. लखीमपुर तो कर्मक्षेत्र था, वहाँ तो उन्हें पहुंचना ही था, पर जानने वाले जानते हैं कि देवेन्द्र नें लखीमपुर में क्या खोया और क्या पाया है.


कौन विश्वास करेगा कि इस कहानी को लिखने के बाद कथाकार नें स्वयं इस कहानी को दोबारा कभी नहीं पढ़ा, याकि कहा जा सकता है कि वह इसे गढ़ने के बाद फिर पढ़ ही न सके. कारण, इस कहानी को लिखने में उन्हें जिस भीषण मानसिक यंत्रणा और पीड़ा से गुजरना पड़ा होगा, उससे दोबारा गुजरने में स्वयं को अक्षम पाते होंगे. उनके भीतर तो इस कहानी के सृजन के साथ ही कलमतोड़ देने का एक प्रण था जो समय के साथ टूट गया (जो भला ही रहा). उनके भीतर लगातार इस बात का संघर्ष चलता रहा कि हत्यारे ने अंशुल की हत्या करके अधिक से अधिक क्या किया ? उसकी सत्तर या अस्सी वर्ष की उम्र खत्म कर दी. यह तो आने वाला वक्त ही निर्धारित करेगा कि कोलंबस कितनी शताब्दियों तक इतिहास में कितने प्रसंगों में, कितनी बार याद किया जाता रहेगाऔर चूँकि जैसा कि देवेन्द्र नें कहानी में लिखा है कि- 

मेरे पास कवि की कल्पना है और लुहार की भट्ठी. शब्दों का साथी मैं उन्हें मन मुताबिक जब, जहाँ जैसे चाहूँगा ढाल लूँगा.’ और उन्होंने ढाल भी दिया.
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उपन्यास के भारत की स्त्री (दो) : आशुतोष भारद्वाज

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उपन्यासों के उदय को राष्ट्र-राज्यों की निर्मिति से जोड़ कर देखा जाता है. ‘वंदे मातरम्’ उपन्यास की ही देन है. आशुतोष भारद्वाज भारत के प्रारम्भिक उपन्यासों में स्त्री और राष्ट्रवाद के सम्बन्धों को देख-परख रहें हैं. इस ‘पौरुषेय’ राष्ट्र-राज्य में ‘स्त्रियाँ’ कहाँ थीं ? इस अध्ययन में मुख्य रूप से झूठा सच, आनंदमठ,घरेबैयरे और गोरा को केंद्र में रखा गया है.

मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस शोष आलेख का हिंदी में अनुवाद खुद लेखक ने किया है.पहला हिस्सा आपने पढ़ लिया है– ‘आरंभिका : हसरतें और हिचकियाँ’ यहाँ दूसरा अध्याय प्रस्तुत है.





(दो)
उपन्यास के भारत की स्त्री
स्त्री और  राष्ट्रवाद: एक वेध्य आलिंगन                    
आशुतोष भारद्वाज

कृष्णा सोबती : मृत्युलोक के नश्वर

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कृष्णा सोबती : मृत्युलोक के नश्वर

कृष्णा सोबती ने मुक्तिबोध के लिए इस शीर्षक के नीचे लिखा है – “मुक्तिबोध के लेखकीय अस्तित्व में ब्रह्माण्ड के विशाल, विराट विस्तार का भौगोलिक अहसास और उससे उभरती, उफनती, रचनात्मक कल्पनाएँ अन्तरिक्ष, पृथ्वी और घनी आबादियों के शोरगुल-कोलाहल के अलावा उनके ध्वनि- संसार में से उठ खड़े होते हैं – कुटुंब, कबीले, व्यक्ति, नागरिक, जातीयता, सामाजिक समूह और राजनीतिक दलों के अखाड़े.”

यह खुद कृष्णा सोबती के लिए भी सटीक बैठता है.

बीसवीं सदी के विश्व के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक कृष्णा सोबती आज नहीं हैं पर उनके  सकर्मक जीवन की स्मृतियाँ और उनका विस्तृत लेखन रहेगा, वे इस  मृत्युलोक की नश्वर हैं.

ज़िंदगीनामा के बहाने कवयित्री अनुराधा सिंह उन्हें याद कर रहीं हैं. 





‘ज़िंदगीनामा’के बहाने याद कृष्णा सोबती      
(पंजाब के सूफी व लोक संगीत का वैभव)

अनुराधा सिंह





जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
फिर भी फ़ानी दुनिया में जावेदाँ तो मैं भी हूँ जावेदाँ तो तुम भी हो.
बक़ा बलूच



कृष्णा सोबती चली गयीं लेकिन कुछ यूँ गयीं जैसे पूरी की पूरी यहीं हों, हमारे बीच. वे सचमुच इस फ़ानी दुनिया का एक जावेदाँ (अमिट) नाम हैं. पिछले साल उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर ज़्यादा उल्लास इस बात का हुआ था कि सम्मान एक ऐसी महिला को मिला जिसने अपने लेखन की ज़मीन पर किसी दूसरे आसमां की सरमायेदारी कभी नहीं चाही, वे लेखक के तौर पर एक बसे हुए नगर की तरह, जंगल की तरह, जीवन की तरह विस्तृत और मौलिक थीं. उनकी हर रचना एक मुकम्मल दुनिया है. जिंदा धड़कती हुई दुनिया. जिंदा चरित्र, जिंदा पृष्ठभूमि. उन्हीं की सामर्थ्य थी कि अपनी हर कृति में वे एक समूचे गांव को एक साथ समेट लेती थीं. एक भी पात्र धुंधला या फोकस के बाहर नहीं होता, सब मंच पर सामने खड़े होकर अपनी भूमिका निबाहते थे, फिर भी कहीं दुहराव या बिखराव नहीं. उनकी कहानियों में उनके भाषाई प्रयोग, विशेष तौर पर पद्य का समावेश उन्हें बहुत सजीव बना देता था.


ज़िंदगीनामा ऐसी कालजयी कृति है जिसके कथानक के बिरवे के लिए पंजाब के गाँवों की आंचलिकता से छलकते सूफी और लोक गीत उपजाऊ ज़मीन का काम करते हैं. इन गीतों में पंजाब के साहित्य और संस्कृति की सौंधी खुशबू ही नहीं जट्ट बाँकुरा इतिहास और रूमान भी है. इन्हीं गीतों के जरिये कृष्णा सोबती अपनी पंजाबियत के सूफी वैभव से हिंदी साहित्य को समृद्ध बना गयीं हैं. उपन्यास में शामिल देशज गीत और कवित्त पंजाब के मतवाले  इश्किया और बलिष्ठ पौरुष से भरपूर तेवर रचने में महती भूमिका निबाहते दीखते हैं. उपन्यास के पूर्वार्ध में ही जहाँ शाह शाहनी के घर पर त्रिंजन (तीज) मनाई जा रही है गाँव की लड़कियाँ चरखा कातने आती हैं और वारिसशाह की हीर ‘उठाकर’ हवेली गुँजा डालती हैं.

‘डोली चढ़दया मारियाँ हीर चीकाँ
मैनू लै चल बाबला लै चलो वे’

और चाची महरी कहती है, रब्ब रखवाला न हो आशिकों का तो मुहब्बतें तोड़ नहीं चढ़तीं. चनाब पार करने वाले घड़े ही गल जाते हैं.”गाने में पारंगत गाँव की बेटियाँ बाबो और फातमा सुहाग और भाई के ब्याह की रसूलवाली घोड़ी भी उसी दैदीप्य से गाती है कि दसों दिशाएं गूँज उठें.पंजाब की धरती के सब मिथक रस्मो रिवाज़ जाग उठते हैं इन सुरीले बोलों में -

‘मेरे वीर का सहरा आया
कोई माली गूंथ ले आया
उत्ते छत्र नबी का सोहवे
सालयात या अली .”

गाँव के अलिये की बेटी फ़तेह, रावी पार के धाड़ीवालियों के शेर अली के इश्क में गोते खा बैठी, मौके पर शेरा ने ‘हीर’ उठाई-

“चढ़िये डोली प्रेम की दिल धड़के मेरा
हाजी मक्के हज्ज करन मैं मुख देखूं तेरा .”

और तमाम इंतजाम सरंजाम के बाद जब फ़तेह की बारात आयी तो सखियों ने ठेठ हिन्दुस्तानी रिवाज़ के तहत सिठनी (गालियाँ) उठाईं-

“चाचा न पढ़या तेरा दादा न पढ़या
पुत्तर हराम का मसीती न चढ़ाया
यह बात बनती नहीं!

शादी ब्याह में वर पक्ष को सुना कर गालियाँ गाने का चलन बुंदेलखंड से पूर्वांचल तक प्रचलित है. जब यह समूची भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग ठहरा तो पंजाब ही क्यों पीछे रहे.

पंजाब में उत्तर भारत के टेसू झेंझी जैसा एक चलन है. तीज पर जिन घरों में शादी ब्याह हुआ हो, नई नवेली आई हों, संतानें पैदा हुई हों बच्चे उनके दर पर जाकर धेला, पैसा, दमड़ी माँगते हुए गाते हैं :

“भरी मिले भई भरी मिले
लाड़लों की भरी मिले.”

रंग तो कितने हैं कृष्णा सोबती की भाषा के इन्द्रधनुष में और इन गीतों कवित्तों ने तो कदम कदम पर उन्हें इतना चटख कर दिया है की पाठक के आनंद कोष में समा ही न सकें. अनगिनत हीरें, कवित्त, गीत, बोलियाँ, घोड़ियाँ और सिठनियाँ फैली हैं पूरे उपन्यास में. अर्थ ठीक ठीक पूरा समझ में न आते हुए भी भावार्थ हो जाता है. और बात सीधे कलेजे में लगती है. ये कवित्त देखने में छोटे होते हुए भी गंभीर घाव करते हैं.खेतों में नहाती ठिठोली करती युवतियों को देख गबरू जट्ट सिकंदर ने ऊँची आवाज़ में ‘हीर’ के सुर उठा लिए:

‘तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनया
अज हार श्रृंगार सब भाँवदा री
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.”

इन चार पंक्तियों में छेड़छाड़, मनुहार, प्रणय निवेदन सब कुछ है. इन्हें सुनकर हँसती-हँसाती एक दूसरे पर छींटे मारती लडकियाँ पोखर से भाग खड़ी हुईं.

बरसों बाद शाहनी की ऊसर कोख हरी हुई है, पीर फकीरों से माथा टेक कर, दरिया में स्नान कर लौटती है तो अकस्मात बुल्लेशाह का बारहमासा गा उठती है –

“फागुन फूले खेत ज्यों बन तन फूल श्रृंगार
होर डाली फुल पत्तियाँ गल फुल्लां के हार
मैं सुन-सुन झुर-झुर मर रही
कब आवे घर यार.”

इन कवित्तों में भारतीय जीवन दर्शन भी है, साखियाँ भी,जीवन के शाश्वत नियम भी -

“गए वक़्त ते उम्र फिर नहीं मुड़दे
गए करम ते भाग न आँवदेने
गई लहर समुद्रों तीर छुटा
गए मौज मज़े न आँवदेने
गई गल ज़बान थी नहीं मुड़दी
गए रूह कलबूत न आँवदेने” 

( ..........न वक्त वापस लौटता है न उम्र, न कर्म, न भाग्य, न बढ़ी हुई लहर, न धनुष से छूटा हुआ तीर, न जा चुके मौज मजे, न जुबां से निकली बात, न देह से निकली आत्मा.)

मौलवी भी बच्चों को कवित्त में ही पाठ पढ़ाते हैं –
“पक्षियों में सैयद: कबूतर
पेड़ों में सरदार:सीरस
पहला हल जोतना: न सोमवार न शनिवार
गाय भैंस बेचनी: न शनीचर न इतवार
दूध की पहली पांच धारें: धरती को
नूरपुर शहान का मेला: बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को”

तो बच्चे भी तुकबंदी में ही शरारतें करते हैं:
“लायक से बढ़िया फ़ायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज्ज़न
मूत्र से बड़ा हग्गन”

सार यह है कि कृष्णा सोबती की इस अमर कृति में गुंथे हुए ये सूफी और लोक गीत उसका दुर्बल पक्ष भी हैं और सबल भी. सबल इसलिए क्योंकि इनका प्रयोग न केवल उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर खड़ा करता है, बल्कि पाठक को पात्रों की भावनाओं और पंजाब की मस्तमौला संस्कृति से भी परिचित करवाता है. दुर्बल पक्ष यह कि ये इतनी क्लिष्ट, ठेठ पंजाबी और डोगरी भाषा में कहे गए हैं कि गैर-पंजाबी पाठक के लिए इनका अर्थ समझना दुष्कर है. लेखक और प्रकाशक ने कहीं भी इन दुरूह कवित्तों और बोलियों का अर्थ या सन्दर्भ सूत्र देने की आवश्यकता नहीं समझी है. इस तरह पाठक को उसके अनुमान और विवेक के भरोसे छोड़ दिया गया है.

स्त्री लेखन को यदि विमर्श की चौहद्दी में बाँधने का आग्रह न किया जाये तो आज स्त्री लेखन के एक युग का अंत हुआ है. वे स्त्री थीं तो सृजन उनके शब्द-शब्द में खिलता-फूटता, सरसब्ज़ होता था. भाषा को समय के गर्भ से नयी देह में जन्म लेने के लिए बार-बार कृष्णा सोबती जैसे सृजनहार की दरकार रहेगी.
_____________ 
अनुराधा सिंह
मुंबई

मंगलाचार : अखिलेश प्रताप सिंह

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(Waygoing Photo by Nikos Prionas)




कविताओं का पहला प्रकाशन ख़ुशी, उम्मीद और ज़िम्मेदारी एक साथ है. अखिलेश प्रताप सिंह की इन कविताओं में नवोन्मेष है पर इसे शिल्प में रचने के लिए मिहनत की अभी दरकार है. बहरहाल कविताएँ कुलमिलाकर आश्वस्त करती हैं. कवि को बधाई.



  
अखिलेश प्रताप सिंह की कविताएँ                     







पेड़ों की मौत 

मैंने मर जाते हुए देखा है 
बहुत से पेड़ों को 
वे चीखते हुए गिर पड़ते थे 
और धूल का गुबार उठता था 
एक सूनापन हमेशा के लिए थिर जाता था 

कई बार उन्हें बहुत देर तक मारा गया 
उनसे झरता रहा था बुरादा, पानी, गदु 
कई बार वे वृद्ध होकर, गिरकर खुद ही मर गये 
और कई बार किसी ऊँचे ढूहे पर वे खड़े खड़े ही मर गये 
उनका शरीर पूरा काला पड़ गया था
उस समय वे अपने अकेलेपन से चीखा करते थे, रोज ब रोज 
उनकी देह को भीतर ही भीतर मकरोरे खा चुके थे 

कुछ पेड़ , गिरे और टिके रहे, देते रहे फल, आश्रय और मनोविनोद 
लेकिन, फिर उनको भी मारा गया 

पेड़ मर रहे थे चिड़ियाँ चिंचिया रही थीं 
अंडे फूट रहे थे, संसार उजड़ रहा था 
संसार उजड़ गया, पेड़ मर गये

पेड़ मर रहे थे, मैं छटपटा रहा था 
लेकिन यह छटपटाहट उतनी नहीं थी कि वे देख सकें 
उतना आवेग नहीं था कि उनकी हत्या रुके 

मैं भी गवाह बना बड़ी बड़ी कायाओं के सामूहिक हत्याकांड का 
वे पेड़ मेरी स्मृतियों में हैं 
उनके भूतो को दबा दिया गया है और वहाँ मनुष्य की सफलता के झंडे फहरा रहे हैं 

पेडों के विलाप में, अपने वंश के नाश की चिंता थी
मनुष्यों के आत्मघात पर क्षोभ था
खीझ थी वृक्ष-प्रेम के विज्ञापनों पर 
जोकि किसी मृत पेड़ की देह से बने कागज पर छपा था 

बचपन से लेकर जवान होने तक की मेरी समूची कहानी में
बहुत से पेड़ों की निर्मम मौतों की कहानी भी है.


 ओ अरावली की नातिनें !

आमेर के सूरज पोल से कुमारी सखियाँ उतर रही हैं 
अरावली की नातिनें 
ये चली हैं जल महल की ओर 
किसी सारस जोड़े को ढूँढने 
ऊँटों ने इन्हें राह में मुँह बिराया 
जोगी-बाना में घूम रहे एक आदमी ने इन्हें ठगना चाहा 
सारंगी इनकी सहचरी थी 
उसने सच सच कह दिया 
ओ कुमारियों ! 
लौट जाओ महल और अरावली की साँस में बज रहे 
उन आदिम किस्सों को सुनो 
जिनमें कठपुतलियों के दुगमुग सिरों को काट दिया गया है 
हर शै को खिलौनों की ही तरह खेलकर तोड़ दिया गया है 
पीछे उड़ाई है धूल आगे की ओर चलती बारातों ने 
सुस्ता रहे, उस बूढ़े अरावली से पूछो 
कि उसकी देह के रोमों से पसीने क्यों नहीं आते ?
वह क्यों सो गया है 
किसी गादर बैल की तरह.
दिल्ली के हुक्मरां अब उसकी पेशी नहीं करते 
नहीं लेते उससे बेगार कोई 
फिर, किस गहरी तीर का मारा हुआ, वह धाराशायी सा पड़ा है.



कहाँ होती है कविता 

ग़ुलाब अड़हुल के
खिले मिलते हैं सुबह सुबह
सुबह सुबह मिलती है झरी हुई ओस 
रात भर ओस झरती है,खिलते हैं पुष्प रात भर 
किसी अर्ध रात्रि को माघ की 
साफ ठंडी रौशन फ़िजा में 
मैंने ओस के मोती फले हुए पाये 
कभी-कभार तीसरे प्रहर तक फूलों को खिले हुए पाया 
श्रृंगाल चीखते हैं रात भर, मैं घूमता हूँ रात भर 

एक ही समय
एक ही अंतरिक्ष
एक ही हवा
धरती का तल भी एक ही तो
फिर भी मैं कभी न देख पाया खिलते हुए फूलों को 
न देख पाया 
अवश्या को मोती सा फलते हुए 
मैं बहुत बार फूलों को खिलते हुए पकड़ लेना चाहता हूँ 
बहुत बार अवश्या को उंगलियों पर फलित होते देखना चाहता हूँ 
मैं देखना चाहता हूँ कविताओं के रूपाकार को घटित होते 
और उन्हें शब्दों में थिरकते हुए भी
कविताओं के साफ़ साफ़ प्रत्यय कहाँ रहते हैं
वृक्ष के विकास में है फूलना 
धरती के मधुर ताप में है अवश्या का घटित होना 
कविताओं का होना कहाँ है ?
कहीं वहीं तो नहीं !
जहाँ से फूल का खिलना और अवश्या का श्वेत-मुक्ता होना नहीं दिखता ?




आषाढ़ 

बहुत दिन नहीं बीता पिछले आषाढ़ को
और आषाढ़ फिर से आ गया

जैसे फूलों को गये बहुत दिन नहीं होते हैं 
और वे  मुँह काढ़े फिर आ जाते हैं 
कई बार बिरवे गायब होते हैं 
और फूल आकर लौट जाते हैं 

वह तालाब जहाँ छप-छैया मारते थे बाल-गोपाल
उसकी सँकरी गली में लटके बेला-फूल 
अबकी नहीं आये होंगे 
वे उदास फूल मेरे सपने में आये किंतु
मैं चित्रकार न हुआ 
उन्होंने भी मुझे बरज दिया कि,
कोई स्केच उदासी का मैं कभी न खींचू

क्योंकि यह आषाढ़ है 

किसान
प्रेमी
लताएँ,
सब संभावना से हैं 
मुझे आश्चर्य हुआ कि
उनकी परिभाषा का आषाढ़
फिर तो आया ही नहीं !
महीने आ जाते हैं , मौसम नहीं आता.

 
गोदना

गोदना गोदाये हैं अम्मा
धूमिल सा
बिल्कुल उनके दिट्ठि जैसा
पढ़ी लिखी नही हैं अम्मा
एक भी किताब
करिया अच्छर भँइस बराबर
देखती हैं
हाथ फेरती हैं
लेकिन बिगड़ जाती हैँ
कि वे नहीं पढ़ेंगीं गोदना
उसमें लिखा है बाबू का नाम
स्मृतियों की दुनिया में खो जाती हैँ
बरबस ही निहारते हुए गोदना
कि घंटो खून बहा था
और वे बिलखी थीं
कई-कई पाँत आँसू

बाबू का गुस्साया चेहरा
कि ठीक से गोड़ भी न मीज पाईं थीं
कई दिनों तक.



धनतेरस, अम्मा और सिल्वर

और एक नया बरतन आयेगा
अम्मा जिसे सिल्वर कहतीं हैं 
और मैं अलमुनियम 
मेरे लिए सिल्वर चांदी है 
अम्मा के लिए चांदी ही चांदी है
उनके लिए हर सुखद चीज चांदी है
उनकी कहावतों में चांदी है
उनके सोने की नथ का तरल्ला भी चांदी है.
उनकी साँसे चाँदी हैं
उनके साबूत दांत चांदी हैं
चांदी हैं उनके धूप में नहीं पके,सुफ़ेद बाल
वे कहती हैं कि बछिया के माथे पर चांदी है
मोर की चुर्की में भी चांदी है
चांदी का एक पनडब्बा भी था उनका
जिसे तुड़वाकर बड़की पतोहू की करधन बनी
तो

एक नया बरतन आयेगा
अम्मा उसे टुनकारेंगी
उसके मुंह में हाथ डालकर नचायेंगी
फिर कहेंगी कि
सिल्वर हल्का होता है
हाथ टूट जाता था पीतल के बड़के भदीले
हुमासकर इधर से उधर करने में
पका भात उतारने में
उनका ये कहना उनके बातों से ज्यादा उनकी आँखों में है
वे फिर कहेंगी

सिल्वर छूटता है, बिमारी का घर है
मुला, पीतल खरीदना अब किसके बस का है
वे रंगोलिया से कहेंगी
ले आ एक चुटकी चीनी और
पहिलो-पहिल इसमें डाल दे
आज बरस बरस का दिन है
भात चढ़ा दे.
 
_____________________________

अखिलेश प्रताप सिंह
१५ नवम्बर १९९०
पड़री, फैजाबाद, उ.प्र.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक.
छात्र आंदोलनों से जुड़ाव.
कुछ आलेख कुछ अनुवाद प्रकाशित
 

8860516166

महात्मा गांधी का राष्ट्र : मोहसिन ख़ान

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राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपने स्वतंत्र राष्ट्र में छह महीने भी जीवित नहीं रह सके, उनकी हत्या अंध राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक उन्माद ने कर दी. भारत इस अपराध-बोध से कभी भी उबर नहीं सकता. यह इतिहास की भयंकरतम क्रूरताओं में से एक है.

पूरा जर्मनी हिटलर के मानव-अपराधों से आज भी शर्मिंदा है, वहां नई पीढ़ी को उस नरसंहार की त्रासद स्मृतियाँ दिखाई जाती हैं कि फिर कोई हिटलर न पैदा हो.

आज महात्मा को याद करते हुए आइए इस कुकृत्य पर हम शर्मिंदा हों.




महात्मा गांधी का राष्ट्र                 
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मोहसिन ख़ान






हात्मा गांधी अर्थात मोहनदास करमचंद गांधी जब जीवित थे,तब भी विरोधी,हिंसक,अप्रगतिशील रूढ़िवादी नकारात्मक विचारधारा के लोगों के कारण विवादों के घेरे में घेर दिये गए और अब उनके चले जाने के पश्चात वह और भी विवादित बना दिए गए हैं. गैरज़रूरी विवादों से उनके चरित्र को कुछ नकारात्मक विचारों के असृजनशील लोगों द्वारा धक्का पहुंचाया गया,परंतु अब तक तो वह अपने नापाक मंसूबे में नाकामयाब ही रहे हैं. जितना अधिक गांधी के चरित्र,स्वभाव,कर्म,प्रकृति और सिद्धांतों को उन्होंने गांधी-बदनामी के लिए उछाला;गांधी की चमक उतनी ही बढ़ती चली गई. ऐसे लोग न केवल नकारात्मक रूप से गांधी को भी ग्रहण करते रहे,बल्कि दोषारोपण करते हुए गांधी को उन स्थितियों के प्रति जिम्मेदार ठहराने का भी प्रयास किया गया जिनके लिए वह सतत संघर्ष करते रहे. दूसरी तरफ ऐसे कई सकारात्मक सृजनशील रचनाकार हैं,जिन्होंने गांधी के व्यक्तित्व को पहचाना उनके कर्म सिद्धांत को एक महत्वपूर्ण अस्त्र के रूप में स्वीकार किया तथा गांधी के मार्ग को और विस्तृत करते हुए राजमार्ग बनाने का प्रयास किया है. गांधी को विवादों के में घेरने से उन लोगों की मंशा का पता चलता है जो एक खास किस्म की चालाकी,संगठन,रूढ़िवादी,मनुवादी और सनातनी व्यवस्था के समर्थक हैं और इसी के माध्यम से राष्ट्रनिर्माण की बातें कर रहे हैं. गांधी के भीतर जितनी विराटता,जीवटता है उतनी ही सूक्ष्मता,दृढ़ता भी है. वह किसी भी मामले में निर्णय लेने से पहले उसके समस्त पहलुओं को छूते हैं और उनसे सकारात्मक भाव ग्रहण करते हुए वह क्रिया-प्रतिक्रिया देते हुए निर्णय करते हैं. इसी कारणआज भी गांधी के कई तर्क अकाट्य ही हैं,जिन्हें काटने का व्यर्थ प्रयत्न गांधी विचारधारा के विरोधी करते रहे हैं.
(Nehru Announces Gandhi’s Death, Birla House, Delhi, 1948.)


जिनके स्वयं में अपने नकारात्मक चरित्र रहे हों,वह आज राष्ट्र निर्माण की बात कर रहे हैं. राष्ट्र निर्माण के विषय में हो हल्ला करते हुए प्रचार-प्रसार,विज्ञापन कर रहे हैं. ऐसे में गांधीजी का राष्ट्र निर्माण और चारित्र्य उद्धार एक शांतिपूर्ण व्यवस्था लेकर सामने आता है जिसमें किसी भी प्रकार की विज्ञापनवादी भावना न होकर केवल आत्म-साधना पर बल दिया गया है. गांधी के चरित्र का एक महत्वपूर्ण और प्रथम पहलू सत्य है और सत्य को ही अपने चरित्र की शक्ति मानते हैं,इसलिए वे न केवल उपदेश देते हैं,बल्कि प्रथमत: वही चरित्र को अपने भीतर ठीक से खंगाल कर देखते हैं कि क्या वे सत्य के मार्ग पर खड़े हैं.तब वे पाते हैं कि सत्य की शक्ति जब तक भीतर नहीं होगी व्यक्ति दृढ़ता से खड़ा नहीं हो पाएगा. इसलिए उन्होंने उपदेश देने से पहले स्वयं को सत्य के तराजू में तोला और फिर बाद में सभी को इस सत्य को ग्रहण करने की व्यापक शिक्षा देते हैं वह कहते हैं-

"सत्य ही परमेश्वर है.(मंगल प्रभात,पृ.7)
इस सत्य की भक्ति के खातिर ही हमारी हस्ती हो. सत्य के बगैर किसी भी नियम का शुद्ध पालन नामुमकिन है."(मंगल प्रभात,पृ. 8)

"विचारों में बोलने में और बर्ताव में सच्चाई ही सत्य है."(मंगल प्रभात,पृ. 8)
"फिर भी हम देखते रहेंगे कि जो एक आदमी के लिए सत्य है,वह दूसरे के लिए असत्य है. इससे घबराने का कोई कारण नहीं है......क्योंकि सत्य की खोज के पीछे तपस्या होने से खुद को दुख सहना होता है. उसके पीछे मर मिटना होता है."(मंगल प्रभात,पृ. 9)

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि गांधी जी का सत्य केवल व्यक्तिगत सत्य भी हो सकता है और सामाजिक सत्य भी हो सकता है. एक व्यक्ति का सत्य दूसरे व्यक्ति का सत्य तब तक नहीं हो सकता जब तक वह उस तत्व का अनुसंधान न कर ले जिस सत्य को पहले व्यक्ति ने अपने आत्मा में स्वीकार किया है.सत्य के लिए मर-मिटना और दुख सहना यह उनके जीवन का अनुभव है और इन अनुभवों को ही वे अपने विचारों में अभिव्यक्ति देते हैं. यह बात सच है कि सत्य तब तक नहीं पाया जा सकता है जब तक उसके पीछे हम मर मिटन जाएँ. सत्य को सुरक्षित रखने के लिए और सत्य मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को कठिन से कठिन राहों का सफर तय करना होता है और अपने काँधों पर दुख का भारी बोझा उठाकर चलना होता है.

राष्ट्रनिर्माण और चारित्र्यनिर्माण के पीछे सत्य के साथ-साथ अहिंसा को अपने जीवन में बहुत महत्व देते हैं. उनका संकल्प ही अहिंसावादी था और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही हुए सत्य को प्राप्त करते हैं. राष्ट्रीय आंदोलन का समय हो या पश्चात का समय हो उन्होंने सदैव सत्य के साथ-साथ अहिंसा पर बल दिया है और इसी कारण वह सुदृढ़ता से राष्ट्र निर्माण के मार्ग पर आगे बढ़े हैं. जिनके लिए अहिंसा का मार्ग सरल नहीं;वह हिंसा का समर्थन करते हुए नजर आते हैं,लेकिन गांधी प्रश्न करते हैं कि हिंसा से लाभ क्या होगा?अगर हिंसा से लाभ होता तो आज विश्व में हिंसा का ही राज होता,इसलिए वह अहिंसा का समर्थन करते हुए स्वयं को दुख देने की बात करते हैं. लेकिन वर्तमान में लोग स्वयं को दुख से दूर रखने का भरसक प्रयास करते हैं और सुविधाभोगी बनकर समस्त लाभ ग्रहण करना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में वह अहिंसा का समर्थन कैसे कर सकते हैं?अहिंसा के संदर्भ में गांधी जी ने उल्लेख किया है कि बिना सत्य के अहिंसा नहीं प्राप्त की जा सकती है और बिना अहिंसा के सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इंका वास्तविक,व्यावहारिक साहचर्य जबतक न होगाताबतक व्यक्ति और राष्ट्र को का उत्थान संभव ही नहीं. उनके शब्दों में-

"सत्य है. वही है. वही एक परमेश्वर है. उसका साक्षात्कार-दीदार करने का एक ही मार्ग,एक ही साधन अहिंसा है. बगैर अहिंसा के सत्य की खोज नामुमकिन है. सत्य का अहिंसा का रास्ता जितना सीधा है उतना ही संकरा-तंग;है तलवार की धार पर चलने जैसा है......जरा सी गफलत हुई के नीचे गिरे ही समझो. पल-पल की साधना में ही उसके दर्शन हो सकते हैं."(मंगल प्रभात,पृ.9)

अहिंसा और अन्याय के विषय में गांधी एकदम स्पष्ट हैं कि अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं कि कोई प्रेम द्वारा असत्य का पाठ पढ़ाये या कि हिंसा की ओर प्रवृत्त करे. ऐसे में गांधी ऐसी अवस्था का विरोध करते हैं.  वे कहते हैं- "इस व्रत के पालन के लिए इतना ही काफी नहीं है कि प्राणियों की हत्या न की जाए. इस व्रत का पालने वाला घोर अन्यायी पर भी क्रोध न करे,लेकिन उस पर प्रेम रखे,उसका भला चाहे और भला करे. लेकिन प्रेम करते हुए भी अन्याय के अन्याय से दबे नहीं,बल्कि उसका सामना करे,और ऐसा करने में वह जो भी तकलीफेंदे,उन्हें धीरज के साथ और अन्यायी से द्वेष किए बिना सहन करे."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.74)

गांधी बाहरी अहिंसा और आंतरिक अहिंसा दोनों को ग्रहण करके चलते हैं. केवल स्थूल रूप से किसी को शारीरिक चोट पहुंचाना ही हिंसा नहीं है,बल्कि हिंसा भीतरसे भी होती है और ऐसा भी उतनी ही खतरनाक है जितनी बाहरी रूप में अभिव्यक्त हिंसा. वह कहते हैं-

"यह अहिंसा आज हम जिसे मोटे तौर पर समझते हैं सिर्फ वही नहीं है. किसी को कभी नहीं मारना,यह तो अहिंसा है ही. तमाम खराब विचार हिंसा है. जल्दबाजी हिंसा है. झूठ बोलना हिंसा है. द्वेष,बैर-डाह हिंसा है. किसी का बुरा चाहना हिंसा है. जिस चीज की जगत को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है."(मंगल प्रभात,पृ.13)
"अहिंसा को हम साधन यानी जरिया मानें और सत्य को साध्य यानी मकसद. साधन हमारे बस की बात है,इसलिए अहिंसा परम धर्म हुई और सत्य परमेश्वर हुआ. साधन की फिक्र अगर हम करते रहेंगे तो साध्य के दर्शन हम किसी न किसी दिन जरूर कर लेंगे."(मंगल प्रभात,पृ. 14-15)

स्पष्ट है कि गांधीजी सत्य और अहिंसा को एक सिक्के के दो पहलू मान कर चलते हैं. यदि अहिंसा को हमने भीतर से निकाल दिया तो सत्य कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है. यह दो ऐसे प्रमुख तत्व हैं,जिसे ग्रहण करके ही व्यक्ति राष्ट्र निर्माण की कल्पना कर सकता है और चारित्रिक उत्थान कर सकता है. गांधीजी बराबर सत्य और अहिंसा पर बल देते हुए आगे बढ़ते हैं यह उनके मात्र प्राथमिक सिद्धांत ही नहीं,बल्कि प्राथमिक सिद्धांतों का लेखा-जोखा करने बैठेंगे तो बहुत अधिक कई स्तरों पर और भी अधिक प्राथमिक सिद्धांत उनके जीवन में हमें नजर आएंगे.

एक और उनका सिद्धांत है- अस्वाद का सिद्धांत. वह भोजन को केवल भोग के रूप में,शरीर की वृद्धि और संचालन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इसलिए वह अस्वाद के पक्ष में हैं. ऐसा नहीं कि गांधी स्वाद और सौंदर्य को नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं,परंतु उनके विचार में भारत की जनता जितनी अधिक दुखी,भूखी और नंगी है उसको देखते हुए वह भोजन का स्वाद लेना अपने जीवन में एक हिंसा और अनुचित कर्म मानते हैं. इसलिए अस्वाद पर वह बल देते हैं. वह कहते हैं कि व्रत व्यक्ति को अधिक शुद्ध बनाता है व्रत से व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर नहीं होता है,बल्कि वह आत्मिक रूप से और अधिक सबल होकर इंद्रिय-संयम को साध लेता है इसलिए वह कहते हैं-

"मेरा अनुभव है कि अगर मनुष्य इस व्रत में पार उतर सके,तो ब्रह्मचर्य यानी इंद्रियों का संयम बिल्कुल सरल हो जाए."(मंगल प्रभात,पृ. 20)
"भोजन सिर्फ शरीर को जिंदा रखने के लिए और सेवा के लिए तैयार रखने के लिए करना चाहिए. भोग विलास के लिए नहीं. इसका मतलब यह है कि उसे दवाई समझकर,संयम के साथ खाना चाहिए. इस व्रत के पालनेवालों को विकार पैदा करने वाले मसाले वगैरा पदार्थों का त्याग करना चाहिए. मांस,तंबाखू,शराब,भांग इत्यादि चीजों के उपयोग की आश्रम में मनाही है. इस व्रत में स्वाद के लिए दावत करने या भोजन का आग्रह करने की मनाही है."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.75)

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि महात्मा गांधी संयम को बहुत अधिक महत्व देते हैं और इंद्रियों को वश में रखने की शिक्षा देते हैं. इसी संबंध में संयम को अपने जीवन में महत्व देते हैं. इसका कारण साफ यह है कि अस्वाद से ही मन की दृढ़ता और एकाग्रता आ सकेगी. यदि व्यक्ति स्वयं को साध लेगा तो समाज और राष्ट्र अपने आप सध जाएगा. उनकी यह धारणा भारतीय संस्कृति की मूल्यवादी धारणा पर आधारित ही है.

अस्तेय के विषय में गांधी जी बहुत चौंकन्ने नजर आते हैं. वह बिना इजाजत के किसी की चीज को लेना पसंद नहीं करते और यही उपदेश भी देते हैं. वह अपने जीवन के अनुभव से यह बात लेकर सामने आते हैं और कहते हैं कि- चोरी करना गुनाह है. यदि व्यक्ति चोरी करता है तो वह सबसे पहले गलत मार्ग पर कदम रखता है साथ ही साथ वह सामने वाले व्यक्ति का बहुत अधिक नुकसान कर देता है. इस सब के पीछे लालच नाम की प्रवृत्ति भीतर कार्य करती है और इस लालच को मारने के लिए अस्तेय को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं वे कहते हैं-

"बगैर इजाजत किसी का कुछ लेना यह तो चोरी ही है. लेकिन जिसे अपना माना है उसकी भी चोरी इंसान करता है. जैसे कोई बाप अपने बच्चों के न जानते हुए,उनको न जताने के इरादे से चोरी चुपके कोई चीज खा लेता है."(मंगल प्रभात,पृ. 26)
"अस्तेय का व्रत पालनेवाला एक के बाद एक अपनी हाजतें कम करता जाएगा. इस जगत में बहुत सी कंगाली अस्तेय के भंग से पैदा हुई है."(मंगल प्रभात,पृ. 27)
"अपना कम से कम ज़रूरत से अधिक मनुष्य जो कुछ भी लेता है वह चोरी का ही लेता है."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण,पृ.11)


गांधीजी इस समाज को अधिक रूप से उपयोगी,सार्थक,सुचारु तथा समन्वयी बनाने के लिए अपरिग्रह जैसे सिद्धांत पर भी बल देते हैं. जिस तरह से अस्तेय का पालन किया जाए उसी प्रकार से अपरिग्रह का भी पालन व्यक्ति को सदैव करना चाहिए. अनावश्यक रूप से चीजों को एकत्रित करना दूसरों को चीजों के लिए परेशान करना,अनुपलब्धता को बढ़ाना या जाने-अनजाने उन्हें उस चीज का लाभ प्राप्त न करने देना भी एक प्रकार की मानवीय संकट की स्थिति है. अपरिग्रह के सिद्धांत से वह जीवन में सादगी,सीधापन और सहजता लाने का प्रयास करते हैं. जितना अधिक अपरिग्रह होगा उतना ही जीवन सरल सहज और सीधी राह पर चलने वाला होगा. अपरिग्रह का संबंध व जीवन में संतोष की भावना से लेते हैं. जो व्यक्ति जितना अधिक अपरिग्रह करेगा इतना जीवन को संतोष में होकर जी पाएगा वे कहते हैं-

जैसे अनावश्यक चीज ली नहीं जा सकती,वैसे उसका संग्रह भी नहीं किया जा सकता. इसका मतलब यह है कि जिस अन्न या साज-सामान की जरूरत न हो,उस का संग्रह करना इस व्रत का भंग करना है. कुर्सी के बिना जिसका काम चल सकता है उसे कुर्सी रखनी ही नहीं चाहिए. अपरिग्रही को अपना जीवन हमेशा सादा बनाते रहना चाहिए."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.75-76)

"सही सुधार,सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है,बल्कि सोच-समझकर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है.ज्यों-ज्यों हम परिग्रह घटाते जाते हैं,त्यों-त्यों सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता जाता है,सेवा की शक्ति बढ़ती जाती है."(मंगल प्रभात,पृ. 31)

गांधी जी अभय को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते हैं. अभय से मतलब वे बुरे कर्मों को करते हुए निडर रहने से कदापि नहीं लेते हैं. वह कहते हैं सत्य की राह पर चलते हुए अहिंसा का पालन करते हुए,हमें उन बुरी प्रवृत्तियों,अत्याचार,अन्याय और हिंसा के खिलाफ खड़ा होना है जो जीवन को समाप्त कर रही हैं और मानव का नाश कर रहे हैं. जो मूल्यों के लिए खतरा बना हुआ है,उन मूल्यों को सुरक्षित करने के लिए अभय हमें जीवन में उतारना चाहिए. सत्य का पालन करते हुए अभय को सदैव धारण करना होगा तब व्यक्ति किसी भी बुरी प्रवृत्ति को परास्त कर सकता है या उसके सामने संघर्ष कर सकता है वह कहते हैं-

"जो सत्य परायण रहना चाहते हैं,वे न जात-पाँत से डरें,न सरकारों से डरें,ना चोर से डरें,न गरीबी से डरें,और न मौत से डरें."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.77)
"सत्य की खोज करनेवाले को इन सब भयों को छोड़े सिवा चारा नहीं. हरिश्चंद्र की तरह बर्बाद होने की उसकी तैयारी होना चाहिए."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण,पृ.12)
"हमें बाहरी भयों से मुक्ति पानी है. अंदर जो दुश्मन हैं उनसे तो डर कर ही चलना है. काम,क्रोध,बैराग का भय सच्चा भय है. उन्हें जीत लें तो बाहरी भयों की परेशानी अपने आप मिट जाएगी."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण,पृ.12)

राष्ट्र निर्माण और चरित्र्य उद्धार में महत्वपूर्ण एक और तत्व महात्मा गांधी का अस्पृश्यता का निवारण है. इस अस्पृश्यता -निवारण के कारण ही महात्मा गांधी को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. वे उन लोगों से सदैव संघर्ष करते रहे जिन लोगों ने जाति-पाँति,अमीर-गरीब की भावना को प्रबलता दी. जिस तरह से भारत में रूढ़ि, अंधपरंपरा और दलित अवस्थाएं समाज में पनप कर वटवृक्ष बन चुकी थी. उनको काटने काटने का काम महात्मा गांधी करते हैं और इसका खामियाजा भी वे अपने जीवन में उठाते हैं,लेकिन वह किसी भी विरोध से डरते नहीं हैं. इस अस्पृश्यता को उन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए बड़ी बाधा माना है. इसलिए वह मनुष्य को मनुष्य मानकर चलने वाले व्यक्ति हैं. जाति-पाँतिका भेदभाव मिटाकर ही राष्ट्र का निर्माण हो सकता है और व्यक्ति का चरित्र ऊंचा उठ सकता है,इसलिए जाति-पाँति,अस्पृश्यताको वह समाज का कोढ़ मानते हैं और इस को मिटाने का संकल्प अपने जीवन में लेते हैं.अस्पृश्यता को वह अधर्म का नाम देते हैं मनुष्य केवल मनुष्य है और उसे मनुष्य बने रहने का ही अधिकार है.जाति-पाँति,ऊंच-नीच से कभी भी मनुष्य का भला नहीं हो सकता है,इसलिए वह डटकर खड़े हुए नजर आते हैं और अस्पृश्यता के निवारण के लिए वह अछूतों का उद्धार करते हैं-

"अछूतेपन को निवारणा जो सच्चे रूप में चाहता है वह आदमी सिर्फ अछूतों को अपनाकर संतोष नहीं मानेगा;जब तक वह तमाम जीवों को अपने में नहीं देखता और अपने को तमाम जीवों पर निछावर नहीं कर देगा,तब तक वह शांत होगा ही नहीं. अछूतेपनकी नाबूदी करना यानी तमाम जगत के साथ दोस्ती रखना उसका सेवक बनना."(मंगल प्रभात,पृ. 39)
"ऐसा कौन है जो आज इस बात से इनकार करेगा कि हमारे हरिजन भाई-बहनों को बाकी के हिंदू अपने से दूर रखते हैं,और इसकी वजह से हरिजनों को जिस भयावनी व राक्षसी अलहदगी का सामना करना पड़ता है,उसकी मिसाल तो दुनिया में कहीं ढूंढे भी नहीं मिलेगी?"(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान,पृ.16)
"वर्ण व्यवस्था सिर्फ धंधे के संबंध में है. इसलिए जो वर्ण-नीति को पालता है,उसे अपने माता-पिता के धंधे से रोजी पैदा करके बाकी का समय ज्ञान प्राप्त करने और उसे बढ़ाने में खर्च करना चाहिए."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.77)


भारत बहुभाषी और धर्म बहुलता का देश है कई प्रमुख धर्मों के साथ कई छोटे-मोटे संप्रदाय यहां वर्षों से स्थापित हैं. धर्म और संप्रदाय जब एक-दूसरे के विपरीत खड़े हो जाएं तो टकराहट वाली स्थितियां पैदा होती हैं,जिससे राष्ट्र का नुकसान होता है और चरित्रों में विकार उत्पन्न होता है. यह चरित्र व्यक्ति के निजी चरित्र ही नहीं,बल्कि समाज के चरित्र को और भी धुंधला तथा हिंसक बना देते हैं. इसलिए महात्मा गांधी ने कभी भी एक धर्म संप्रदाय का पक्ष नहीं लिया. वह जितना आदर अपने धर्म का करते हैं उससे कहीं आदर दूसरे धर्मों का भी करते हैं. उनके लिए सब धर्म एक समान हैं और एक ही ईश्वर तक पहुंचने वाले विभिन्न मार्ग हैं. इसलिए सर्वधर्म समभाव के प्रति वह बल देते हैं और सर्वधर्म समभाव से ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण हो कर समाज और राष्ट्र के चरित्र का निर्माण हो सकता है. वे अपने जीवन में सर्वधर्म सभा को आयोजित करते हैं और सदैव उसी का पालन करते हैं इस संबंध में वह कहते हैं-

"संसार में जितने भी प्रचलित प्रख्यात धर्म हैं,वह सब सत्य को प्रगट करते हैं. लेकिन वह सब अपूर्ण मनुष्य द्वारा व्यक्त हुए हैं. इसलिए उन सब में असत्य का भी मिश्रण हो गया है. इसका मतलब यह नहीं कि हममें जितना अपने धर्म के लिए मान हो,उतना ही मान दूसरों के धर्म के लिए भी होना चाहिए. जहां ऐसी सहिष्णुता हो वहां न तो एक-दूसरे के धर्म का विरोध पैदा होता है,न दूसरे धर्मवाले को अपने धर्म में लाने की कोशिश की जाती है. परंतु सब धर्मों के दोष दूर हों ऐसी प्रार्थना करना तथा ऐसी भावना का पोषण करना उचित माना जाता है."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास,पृ.77)
"यहां धर्म-अधर्म का भेद नहीं मिटता. यहां तो जिन धर्मों पर मुहर लगी हुई हम जानते हैं उनकी बात है. इन सब धर्मों के मूल सिद्धांत बुनियादी उसूल तो एक ही है."(मंगल प्रभात,पृ. 46)

इसके अतिरिक्त महात्मा गांधी व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के चरित्र के निर्माण के लिए नम्रता,व्रत की जरूरत दोनों को भी बहुत महत्वपूर्ण मानते रहे हैं. नम्रता से उनका आशय बिल्कुल मिट जाना नहीं है या अहिंसा को सहते जाना नहीं है,बल्कि नम्रता से आशय सत्य बात पर अटल रहते हुए उसे नम्रता के साथ रखनी चाहिए. इसके साथ-साथ में व्रत (संकल्प) को भी बहुत महत्व देते हैं. यह व्रत केवल भोज्य पदार्थों का सेवन न करने का व्रत नहीं,बल्कि संकल्पों ही व्रत है. व्यक्ति को संकल्प मन में धारण करना चाहिए,जिससे उसके चरित्र में उज्ज्वलता का प्रमाण अधिक रूप से उपस्थित हो सके. इसलिए वह संकल्पों को व्रत नाम देते हैं. यह संकल्प ही व्यक्ति को चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण में प्रमुख घटक के रूप से सहायता प्रदान करते हैं. यदि व्यक्ति संकल्प रहित होगा तो वह अपने उद्देश्य को कभी तय नहीं कर पाएगा. उसके उद्देश्य को साधने करने के लिए संकल्प की राह जरूरी है. महात्मा गांधी जहां देश निर्माण की बात कर रहे हैं वहां कौमी एकता की भी वे बात करते हैं. वह कौमी एकता पर लगातार बल देते हैं और सभी धर्मों को मानने वाले अनुयायियों को आव्हान करते हैं कि सभी धर्म एक हैं और इन धर्मों का पालन करते हुए हमें दूसरों के धर्मों को बहुत अधिक महत्व देना चाहिए यदि देश में कौमी एकता होगी तो ही राष्ट्र का निर्माण हो पाएगा वरना राष्ट्र छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाएगा. कौमी एकता जहां व्यक्ति को आत्मीयता सिखाती हैं वही समाज के साथ-साथ राष्ट्र की सबलता को भी और अधिक सबल कर जाते हैं. विभिन्न धर्म और संप्रदाय को मानने वाले जब आदर पूर्वक एक साथ आएंगे तो असहिष्णुता मिट जाएगी और जब असहिष्णुता मिट जाएगी तो चारों तरफ शांति,अहिंसा और सत्य का बोलबाला होगा.

"कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं. लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है. राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है. मगर एकता या इत्तेफाक के सच्चे मानी तो हैं वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े ना टूटे. इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन फिर वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों,अपने को हिंदू,मुसलमान,ईसाई,पारसी,यहूदी वगैरह सभी कोमों के नुमाइंदे समझें."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान,पृ.11-12)

व्यक्ति चरित्र के निर्माण के साथ-साथ वे राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण को देखते हैं और यह दोनों बातें अलग अलग नहीं हैं,बल्कि व्यक्तिगत चरित्र ही राष्ट्र का चरित्र होता है. इसलिए वह शराबबंदी के साथ साथ नशे के विरोध में खड़े हुए दिखाई देते हैं. नशा किसी भी हाल में व्यक्ति का भी उद्धार नहीं कर सकता ना समाज,न राष्ट्र का. इसलिए वे शराबबंदी पर बहुत अधिक प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं. उन्हीं के संकल्पों के कारण आज गुजरात राज्य में शराब के उत्पादन तथा बिक्री पर कानून बना हुआ है और किसी भी प्रकार से शराब बनाने का काम गुजरात राज्य में आज भी नहीं होता है.

"अगर हमें अपना देश अहिंसक पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त करना है,तो अफीम,शराब वगैरह चीजों के व्यसन में फंसे हुए अपने करोड़ों भाई-बहनों के भाग्य को हम भविष्य की सरकार की मेहरबानी या मर्जी पर झूलता नहीं छोड़ सकते."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान,पृ.16-17)

व्यक्ति के चरित्र के साथ वह राष्ट्र के चरित्र को बराबर जोड़कर देखते हैं,इसलिए उन्होंने स्वच्छता के कार्यक्रम भी अपने जीवनकाल में बहुत चलाए. गांव की सफाई से लेकर व्यक्तिगत सफाई के समस्त ठिकानों को वह साफ-सुथरा रखने की बात करते हैं. छोटे-छोटे गांव में जाकर वह सफाई करते हैं न केवल उपदेश देते हैं वह स्वयं व्यावहारिक स्तर पर गांव की सफाई करते हैं. जहां बहुत अधिक मात्रा में गंदगी फैली हुई है वहाँ महात्मा गांधी ने कई कार्यक्रम भारतभर में चलाए और जनता ने उनका सहयोग भी किया. धार्मिक परंपरा के कारण उत्पन्न गंदगी और गांवों की गंदगी के संबंध में गांधी जी लिखते हैं-

"हमने राष्ट्रीय सामाजिक सफाई को ना तो जरूरी गुण माना,और न उसका विकास ही किया.योंरिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं,परंतु जिस नदी,तालाब या कुएं के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचारों से हम नहाते हैं,उनके पानी को बिगाड़ने या गंदा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती."(ग्राम स्वराज्य,पृ.179)

गांधी जी चारित्र्यनिर्माण और राष्ट्र निर्माण न केवल पुरुषवादी समाज को वर्चस्व देते हैं,बल्कि पुरुषवादी समाज में स्त्रियों के बराबर हिस्सेदारी की वह निरंतर बात करते हैं. उन्होंने जिस प्रकार से अछूत उद्धार किया,अस्पृश्यता का निवारण किया उसी प्रकार से स्त्रियों को भी समाज की जकड़बंदियों से मुक्त करने के लिए आह्वान किया और स्त्रियों को हुए समाज में घर से बाहर लेकर आए उनकी भूमिका को महत्वपूर्ण माना है वह स्त्रियों के संबंध में कहते हैं-

"सेवा के धर्म कार्यों में स्त्री ही पुरुष की सच्ची सहायक और साथिन है......जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है......स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है. इसलिए कांग्रेसवालों का यह फर्ज है कि वे हिंदुस्तान की स्त्रियों को उनकी इस गिरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उठावें......स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें जिससे वे जीवन में पुरुष के साथ बराबरी के दर्जे से हाथ बांटने लायक बनें."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान,पृ.32-33)


इस तरह गांधी का संकल्प स्त्रियों को दासता की मुक्ति दिलाना है और उन्हें चहारदीवारी के भीतर से समाज में लाकर एक कर्मशील समाज का निर्माण करते हुए उनके चरित्र को ऊपर उठाना तथा राष्ट्रनिर्माण को नया बल प्रदान करना है. स्त्रियों की भूमिका को लेकर महात्मा गांधी अपने जीवन में बहुत गंभीर थे और स्त्रियों के प्रति वे समान ही बर्ताव करते हैं. जिस तरह से समान अधिकार पुरुष को मिले हुए हैं उसी तरह से स्त्रियों के समान अधिकार की चर्चा वह अपने जीवन काल में करते हैं. न केवल जीवन काल में करते हैं,बल्कि वह अपने जीवन में स्त्रियों को राष्ट्र की सेवा के लिए बहुत अधिक आगे लाते हैं.

राष्ट्र उत्थान और राष्ट्रनिर्माण के लिए महात्मा गांधी प्रांतीय भाषाओं को भी प्राथमिकता देते हैं. लेकिन उनके लिए किसी एक भाषा को प्राथमिकता देना इसलिए जरूरी हो जाता है कि भाषाओं से ही व्यक्ति विचार-विमर्श करता है और संवाद स्थापित कर पाता है. वे भाषाओं के प्रति संकोची नहीं हैं,लेकिन उनका मानना है कि यदि राष्ट्र का उत्थान करना है तो हमें एक भाषा का प्रयोग करना होगा. भारत बहुभाषी प्रदेश है और अलग-अलग प्रांतों की अलग-अलग भाषाएं हैं और उन भाषाओं में उनकी संस्कृति रची-बसी है,लेकिन प्रांतीय भाषाओं को भी वह महत्व देते हुए एक भाषा के सूत्र को सामने लाते हैं. वे अपने जीवन काल में राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भी गंभीरता से चिंता करते हैं और राष्ट्रभाषा हिंदी की जगह हिंदुस्तानी स्वीकार करते हैं. हिंदुस्तानी को स्वीकार करने के पीछे उनके कई तर्क और कारण रहे हैं,क्योंकि हिंदुस्तानी भाषा में जितना खुलापन है वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी में नहीं,इसलिए हिंदी के संबंध में वह हिंदुस्तानी को अधिक बल देते हैं. हिंदुस्तानी उनके लिए एक समन्वय की भाषा है जिसमें राष्ट्र के सभी लोग अपने आचार-विचार,संवाद स्थापित कर सकते हैं .इसलिए इस संबंध में वह कहते हैं-

"समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हम को भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है,जिसे आज ज्यादा से ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हों और बाकी के लोग जिसे झट से सीख सकें. इस में शक नहीं कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है. उत्तर के हिन्दू और मुसलमान दोनों इस भाषा को बोलते और समझते हैं. यही भाषा जब उर्दू लिपि में लिखी जाती है तो उर्दू कहलाती है. राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन 1925 में अपने कानपुर अधिवेशन में जो मशहूर प्रस्ताव पास किया था,उसमें सारे हिंदुस्तान की इसी भाषा को हिंदुस्तानी कहा है. और तबसे सिद्धान्त में ही क्यों न हो,हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा मानी गयी है......इस राष्ट्रभाषा को हमें इस तरह सीखना चाहिए,जिससे हम सब इसकी दोनों शैलियों को समझ और बोल सकें और इन दोनों लिपियों में लिख सकें.......जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बर्बाद करते हैं उतने ही महीने भी अगर हम हिंदुस्तानी सीखने को तकलीफ नउठाएं,तो सचमुच कहना होगा कि जनसाधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगें हम हाँका करते हैं वह निरीडींगें ही हैं."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान,पृ.38-39)

यद्यपि गांधी जी की अधिकांश शिक्षा अँग्रेजी माध्यम से हुई थी,परंतु भाषा की पक्षधरता के मामले में वे अपने देश की भाषा का ही समर्थन करते हैं. उसने प्रश्न पूछने पर वे अँग्रेजी के संबंध में ये उत्तर देते हैं-

"करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियादी डाली,वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी. उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी,ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता. लेकिन उसके काम का नतीजा यह निकला है. यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बाट भी पराई भाषा में करते हैं."(हिन्द स्वराज पृ. 72)   

आज वर्तमान संदर्भों में भी देखा जाए तो जो कई समस्याएं जो गांधी जी के काल में मौजूद थीं,आज भी यह समस्याएं भारत के संदर्भ में यथावत मौजूद हैं. इसमें प्रमुख रूप से जाति की समस्या और अस्पृश्यता की समस्या को प्रमुखता के साथ देखा जा सकता है. साथ ही साथ स्त्रियों की मुक्ति के बारे में भी यह एक समस्या गंभीर रूप में सामने आती है. जिस तरह के प्रयास गांधी जी ने अपने समय में किए थे आज उन प्रयासों को फिर से दोहराने की जरूरत है. न केवल दोहराने की जरूरत है,बल्कि नए संकल्पों के साथ गांधी की मूल्यवादी दृष्टि को अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण मूल्य मानकर स्थाई रूप से अपनाने की गुरेज है. हमारा राष्ट्र नशे की समस्या से जूझ रहा है,गंदगी की समस्या से जूझ रहा है,सत्य और अहिंसा की विकराल समस्या भी हमारे सामने मौजूद है. ऐसे में गांधी जी के मूल्यों और उनके द्वारा दिए गए आदर्शों को अपनाकर इस संसार को शांति और अहिंसा की राह पर लाया जा सकता है,परंतु अफसोस यही है कि बढ़ते हुए असते स्वाद और परिग्रह की समस्याओं ने हमें अभी जकड़ रखा है. हम बहुत अर्थों में धर्म और भाषा भेद भी लेकर चलते हैं,जिससे राष्ट्र का निर्माण असंभव हो जाता है. इसलिए गांधी जी द्वारा दिए गए मूल्यों को अपनी भूमि में पुनः रोपना होगा ताकि इस समस्या का समाधान करते हुए व्यक्ति चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण दोनों में अपार सहयोग प्राप्त हो सके,इसलिए गांधी जी के मूल्य आज भी हमें प्रासंगिक ही नजर आते हैं और कारगर सिद्ध होते हैं.

डॉ. मोहसिन ख़ान
                        स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग़-जिला-रायगढ़
(महाराष्ट्र) ४०२  २०१
 मोबाइल-०९८६०६५७९७० / ०९४०५२९३७८३
मेल : Khanhind01@gmail.com  
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मैं और मेरी कविताएँ (२) : अनिरुद्ध उमट

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Let our scars fall in love.”
Galway Kinnell


  

‘मैं और मेरी कविताएँ’ स्तम्भ के अंतर्गत समकालीन महत्वपूर्ण कवियों की कविताएँ और वे ‘कविता क्यों लिखते हैं’ विषयक उनका वक्तव्य आप पढ़ेंगे. आशुतोष दुबे को आपने पढ़ा, इस श्रृंखला में आज अनिरुद्ध उमट प्रस्तुत हैं.

अनिरुद्ध उमट (28 अगस्त 1964 को बीकानेर) के दो कविता-संग्रह 'कह गया जो आता हूँ अभी',  'तस्वीरों से जा चुके चेहरे'प्रकाशित हैं. इसके साथ ही उपन्यास, कहानी, निबन्ध और अनुवाद के क्षेत्र में भी उनका कार्य है, उन्हें 'रांगेय राघव स्मृति सम्मान'तथा 'कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप'आदि प्राप्त हैं.




मैं और मेरी कविताएँ (२) : अनिरुद्ध उमट             
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एक अनिश्चित प्रत्युत्तर






शायद इसीलिए लिखता हूँ (लिख पाता हूँ) क्योंकि मुझे नहीं पता कि मैं क्यों कविता लिखता हूँ. नहीं पता इसीलिए लिख भी पाता हूँ. पता होने पर पता नहीं क्या पता पड़ता मगर यह तय है फिर कविता वहाँ नहीं रहती. जीवन का समस्त व्यापार हर पल, हर रूप में बेहद रहस्यमयी व अप्रत्याशित है. इसीलिए शायद समस्त जगत के क्रिया-कलाप चलते हैं. 

मैं क्यों लिखता हूँ इस पर एक तरफ यह मेरे जैसा अनिश्चित प्रत्युत्तर होगा वहीं दूसरी ओर ऐसा भी बहुतायत से सुनने-पढ़ने-देखने में लगभग निरन्तर ही आता रहता है जहाँ लेखक बाकायदा ठोस लहजे में, स्पष्टतः सव्याख्या प्रकट करता है कि कितने-कितने कारण व प्रयोजन हैं जिनसे नियंत्रित हो या जिन्हें नियंत्रित कर वह लिखता है. उसके जेहन में सब कुछ स्पष्ट  होता है, कोई संशय नहीं, कुछ भी गोपन नहीं. बल्कि कविता को क्या कहना है या कविता से क्या हासिल कर लाना है यह उसे अपने मिशन में स्पष्ट होता है, वहाँ कविता उसके लिए अपने ध्येय की पूर्ती का एक माध्यम मात्र होती है.

हम सिर्फ उस गोपन, रहस्यमयी पल में स्वयं को समर्पित हुआ पाते हैं जहाँ कविता (या कहें कोई भी कला रूप) अपने स्वर में कुछ कहती है, दिखाती है. एक कलाकार होने के नाते मेरी दृष्टि में मेरा यह समर्पण ही मेरा सुख है क्योंकि इसमें रचनात्मक पल को स्वयं के स्वर में बोलने का स्पेस मिलता है क्योंकि यहाँ मेरा होना उसके होने में बाधा नहीं है. कविता यदि किसी पल मेरी प्रतीक्षा के आँगन में खुद को सहज पाते कुछ शब्दों की अनसुनी ध्वनियां-दृष्य अपनी नैसर्गिकता में प्रकट कर पाती है, और मैं अपने 'कहने'के आग्रह से खुद को मुक्त रख सकूं, एक रचनाकार के नाते यही मेरे लिए सबसे प्रिय है.







अनिरुद्ध उमट की कविताएँ             




(एक)
निरीह के घुटने तोड़ते 
वे किस के हाथ

गर्दन पर छुरी की छाया गिराते
सिहरती कमर को सहलाते
नाक में नकेल 
जीभ पर अंगार
किसके हाथों 

मरुस्थल की तपती दोपहर में 
सांय-सांय भटकती लाय में
रूदन 

भाषा असमर्थ आसमान धज्जी धज्जी
करुणा धज्जी
वेदना धज्जी

सिर्फ उसे मरना है जिसे जीना 
सिर्फ वह जी रहा
अन्य को जो जीने न दे

ऊंट धरती पर प्यास का रूपक 
सलांख उतारी दहकती
कण्ठ में 
मनुज ने

ईश्वर नहीं आता नहीं आता ईश्वर
निरीह की प्रस्तर आँख
अनझिप.









(दो)
महावर की तरह
पैरों में

अंजन सा आँखों में

बालों में तारों-सा
हथेलियों पर चाँद-सा

पगथली पर मेहदी-सा

मन मे खुलते पत्र की इबारत-सा
जिसे तुम
पढ़ोगी
जिसे लगा तुम पढ़ नहीं पाई.







(तीन)
पलकों को पता हो कोई इंतजार में है तो वे झपकती नही
यह सुन सीढियाँ उतरता सन्नाटा
रहने देता 
देता रहने


भीगे कागज भीगे वस्त्रों से.









(चार)
ज्वर ग्रस्त देह की तपती कालीन के नीचे
छिपा 
बटुआ
कंघा
अंजन
गुल्लक

सपना टूटे कांच-सा

बगल के घर में खिड़की से झांकता वृद्ध
पीछे हमेशा भरी रहने वाली
चारपाई खाली 
कुछ नमक चमकता
दूध फटता
हींग दौड़ जाती

सब एक दूजे से बरसों कहते
सुनते जीवन बिताते
हाथ पकड़े रहना
खंखारते रहना.








(पांच)
खिड़की से अपलक झाँकता वह
अपलक खिड़की में झाँक रहा 

आकाश 
किसी छत पर अभी
काँसे की थाली

अपलक खिड़की में झाँक रहा
खिड़की से अपलक झाँकता वह

हामी भरी तारों ने
तारों ने हामी भरी

सड़क पर चलती परछाई ने देखा सिर्फ
देखा सिर्फ सड़क पर चलती परछाई ने.







(छह
झुक जाता है

फिर तुम्हे लिए
उड़ जाता है

मन

उड़ जाता है फिर
लिए मुझे

जाने कौन.







(सात)
हटड़ी में सब था हर घर में
नमक
मिर्च
हल्दी
धनिया

लकड़ी के दरवाजे खुलने की तरह उसका दरवाजा था

रसोई जो बहुत बड़ी थी
जिसमे बर्तन और सामान बहुत कम
तेल की तिलोड़ी
घी की घिलोड़ी (अगर हुआ तो)
चूल्हा
तवा चिमटा
चकला बेलन
कठौती

जाने के दिन चुप गाँव में
नानी बनाती थी
उधार लाए चावल नमकीन

रास्ते भर से घर पहुंचने के कई दिनों तक के लिए
बाजरी-रोटी गुड़ के दो लड्डू

सड़क किनारे हम माँ बेटा खड़े है सूने में
लोहे के सन्दूक के साथ

बस के इन्तजार में
बस आएगी
पता नहीं कहाँ से बस आएगी कहाँ को जाएगी.








(आठ)
सारे रास्ते रात में एक हो जाते

काजल घुल जाता
चूल्हे का धुंआ 
बाँसुरी के छिद्र
प्रभु के पाट 

बाहर रह जाता आगन्तुक
बाहर रह रहा
जन्मों से आगन्तुक

एक नदी वेणी सी
एक वेणी नदी सी 
होना चाहती

सारी रात सारे रास्तों के अवगुंठन में समा एकल हो जाती

देखा क्या?

न दिखे तो तो खुद को काजल होने देना
अनकहे में 
एक फाहा रखना 
इत्ररहित.







(नौ)

यक़ीनन अभी रात गहरा रही
रँग शाला के द्वार पर भी ताला

सिर्फ सीढ़ियों पर
सुबह बेआवाज़
बरसी फुहारों की
नमी है

जब यवनिका पतन हो चुका
रोशनी
ध्वनि
पोशाकें 
कुछ भी नहीं

आलेख किसी कोने में

फिर पार्श्व में ये कैसा
ये कुछ
ये क्या

अभिनय से परे रह गया जो
अभिनय में गहरे उतर गया जो.







(दस)
उसने कहा
मैं भूल जाऊँ तो याद दिला देना

मैंने कहा
मूमल

पेड़ पर बंधी
मन्नत की डोर
तने से कुछ और कस गई

कांचली की
गाँठ कुछ

जिस धोरे पर वह खड़ी थी
पसरने लगा वह

उस पर वह
छितराई सी पसर गई.






(ग्यारह) 
तुम्हारे लिए महावर
तुम्हारे लिए मेहदी
तुम्हारे लिए चाँदनी

तुम्हारे लिए 
चुप सा कुछ
साँवला

अभी पगथली पर
रख गया 

रात सिहर गई.







(बारह)
भीगे आसमान में दीप है

दीप में 
बाती नही
जलती

जल जल हो रहा

सपन
सपन
हो पाए.







(तेरह)
अनुवादक मूल का अनुवाद करता ईश्वर हो जाता
ईश्वर अपने अनुवाद की कल्पना भी नहीं कर पाता

दोनों
के 
बीच
पाठक
इस संयोगको देख
कृतज्ञ
किताब सूँघता जीवन जी लेता

उसकी बगल में दो कंचे मिलते हैं गहरे सपने की नदी में
सात समन्दरों में
उन कंचों की टन्न लहराती 

अनुवाद में रहना प्रेम में रहना है
कहा था किसी ने

जिसने कहा वह
ईश्वर

था.




(चौदह)
घोड़े की आंखों पर चमड़े की पट्टीयां
पैरों में लोहा ठुका
नाक में नकेल

ऊंट 
गधे
भेड़
बकरी
सूअर
मुर्गी
कुत्ता
तोता
हाथी

सब का मन कहीं न कहीं से दग्ध 

ईश्वर के चाक से भाग खड़ा हुआ रूप
मनुष्य
मनुष्य
मनुष्य
मनुष्य

जितनी बार यह शब्द उच्चरित होगा
पृथ्वी का गला कुछ और दबाया जा रहा होगा

अभी चाबुक घोड़े की पीठ पर
अभी घोड़े पर सवार
कोई हुँकार

अब और कविता नहीं बता सकती
हत्यारा कौन
आततायी कौन

यह उसका काम भी नहीं
जिस तरह शेष जीवों का भी नहीं.

______________


अनिरुद्ध उमट
 

28
अगस्त 1964 को बीकानेर (राजस्थान) में जन्मे अनिरुद्ध उमट के अब तक दो उपन्यास 'अँधेरी खिड़कियाँ', 'पीठ पीछे का आँगन'दो कविता-संग्रह 'कह गया जो आता हूँ अभी',  'तस्वीरों से जा चुके चेहरे',  कहानी संग्रह 'आहटों के सपने', एवं निबन्ध-संग्रह 'अन्य का अभिज्ञान'प्रकाशित. राजस्थानी कवि वासु आचार्य के साहित्य अकादमी से सम्मानित कविता संग्रह 'सीर रो घर'का हिंदी में अनुवाद. 'अँधेरी खिड़कियाँ'पर राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का 'रांगेय राघव स्मृति सम्मान'. संस्कृति विभाग (भारत सरकार) की 'जूनियर फेलोशिप', तथा 'कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप'प्रदत्त.

अनिरुद्ध उमट
माजीसा की बाड़ी,
राजकीय मुद्रणालय के समीप,
बीकानेर – 334001
मोबाइल 9251413060

परख : इसी से बचा जीवन (राकेशरेणु) : मीना बुद्धिराजा

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इसी से बचा जीवन
राकेशरेणु
प्रथम संस्करण-  2019
प्रकाशक- लोकमित्र प्रकाशनदिल्ली- 110032
आवरण चित्र- अनुप्रिया
मूल्य- रू- 250
































‘इसी से बचा जीवन’
जीवन वैभव की कविताएँ                               
मीना बुद्धिराजा


उपन्यास के भारत की स्त्री (तीन) : आशुतोष भारद्वाज

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(by DianeFeissel voilee)









मुहम्मद हादी रुसवा ने ‘उमराव जान अदा’ उपन्यास में तवायफ उमराव की कथा कह दी, कम लोग जानते हैं रुसवा के दूसरे उपन्यास ‘जुनून--इंतजार’ (१८९९)में इसी उमराव ने उपन्यासकार रुसवा के नाकाम इश्क के फ़साने पेश कर दिए थे.


भारतीय उपन्यासों में स्त्री किरदारों पर अपने दिलचस्प शोध आधारित इस आलेख में आलोचक आशुतोष भारद्वाज स्त्री की अनुपस्थिति के वृतांत की कथा तलाशते हैं. ‘उपन्यास के भारत की स्त्री’ के दो हिस्से आप पढ़ चुके हैं- तीसरा हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है.






तीन
उपन्यास के भारत की स्त्री

अनुपस्थिति की कथा                  
आशुतोष भारद्वाज








किसी कलाकृति में गूँजती अनुपस्थिति अक्सर उपस्थिति से अधिक मारक होती है. जिन चीजों को कोई उपन्यासकार अपने पाठ में जगह नहीं देता वे अक्सर उस कथा के गर्भ में चल रही हलचलों को उजागर कर देती हैं. मुहम्मद हादी रुसवाका उपन्यास जुनून--इंतजार (१८९९), जो उनके उसी साल प्रकाशित उपन्यास उमरावजानअदाकी कथा को आगे बढ़ाता है, अनुपस्थिति के साहित्य का एक विलक्षण उदाहरण है. उमराव जो पिछले उपन्यास के केंद्र में थीं इस कथा में उपन्यासकार के प्रति एक तीखी शिकायत लिए लौटती हैं कि रुसवा ने उनकी जीवनीउनकी अनुमति के बगैर छपवा कर उनकी प्रतिष्ठा” “नष्टकर दी है, लेकिन इसके बावजूद वह सोचता हैकि उसने उन परएहसान किया है. अगर यह वाकई अहसान है, तो मुझे बहुत ढंग से मालूम है कि इसे कैसे चुकाया जाए...मुझे नहीं मालूम अगर मेरी जुबान खुल गयी तो तुम क्या करोगे,” उमराव जूनून--इंतज़ारमें कहती हैं.

उमराव रुसवा के बारे में गुप्त जानकारियां इकठ्ठा करती हैंरुसवा का पर्दानशीं इश्क जिसमें उनकी महबूबा उन्हें ठुकरा देती है. उमरावजानअदाउमराव की नाकाम मोहब्बतों के फ़साने सुनाता है जिन्हें उमराव ने रुसवा पर भरोसा कर उन्हें बतलाये थे लेकिन रुसवा ने उस पर एक उपन्यास लिख डाला था[1], जूनून--इंतज़ाररुसवा की नाकाम मोहब्बत को बतलाता है जिसके किस्से उमराव ने चुपके से हासिल किये थे. इश्क़ का बदला इश्क़. उपन्यासकार और उसकी किरदार के दर्द भर अफसाने तराजू के दो पलड़ों पर बराबर हो जाते हैं.

रुसवा और उमराव के फ़साने की परछाईं इस अध्याय पर मंडराती है जो तीन उपन्यासों के नायकों के जीवन में स्त्री किरदार की अनुपस्थिति के स्वरुप को परखना चाहता है. इन तीनों के गद्य और गल्प की एकदम अलग बनावट और बुनावट है, ये भिन्न काल और अवकाश में घटित होते हैं, लेकिन इन तीनों की एक साझा धुरी है: इनके पुरुष किरदारों के लिए स्त्री अपने से इतर एक अस्तित्वगत सत्ता है, ‘अदरहै, अन्य है. विलोम नहीं, अन्य है.



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साठ के दशक में दो बड़े भारतीय रचनाकारों का पहला उपन्यास प्रकाशित होता है. वेदिन (१९६४) एक भारतीय विद्यार्थी और उससे दसेक साल बड़ी एक विवाहित ऑस्ट्रियन स्त्री रायना के बीच एक पारभासी रोमांस की कथा है जो द्वितीय विश्व युद्ध की छाया में प्राग में दर्ज होती है. संस्कार (1965) एक वेद-शिरोमणि आचार्य के एक अछूत स्त्री चंद्री के साथ हुए आकस्मिक दैहिक सम्बंध के बाद उपजे आध्यात्मिक संकट को परखता हैतीन दिन में सिमटी एक बोहेमियन छुअन, और एक सहसा उमड़ा स्पर्श जो वैदिक धर्म को चुनौती देता ब्रह्मचारी प्राणेशाचार्य की चेतना को झकझोर देता है. 

सतह पर देखें तो अपनी प्रकृति और आख्यान में ये दोनों उपन्यास शायद विपरीत ध्रुव पर खड़े नज़र आएँगे. लेकिन ये दोनों एक विशिष्ट संवेदना साझा करते हैं. यह अनुभव स्त्री किरदार के जीवन पर खरोंच तक छोड़ता नहीं दिखाई देता, लेकिन पुरुष किरदारों को अवसाद में डुबो देता हैआचार्यतो खुद को आत्मालाप की आंच में भस्म होता पाते हैं.

पाठक को नहीं मालूम पड़ता कि स्त्री को इस अनुभव ने किस तरह छुआ क्योंकि दोनों उपन्यास पुरुष के स्वर में अभिव्यक्त होते हैं, जो एक दूसरी साझा संवेदना को इंगित करता है. रायना और चंद्री ने एक सक्रिय यौन जीवन जिया है, उन्हें अनेक पुरुषों का अनुभव है और दोनों पुरुष किरदार इसे जानते भी हैं. दोनों उपन्यासों के अंत में नायक स्त्रीकोस्मरणकररहेहैं जिसकी छुअन अभी भी उन पर मँडरा रही है. यह सम्भव था कि दोनों यह मान लेते कि वे तो अकेले में सुलग रहे हैं (हालाँकि दोनों नायकों के अकेलेपन में गहरा फ़र्क़ है, लेकिन वह यहाँ प्रस्तावित तर्क को प्रभावित नहीं करता), लेकिन स्त्रियाँ अनछुई, अप्रभावित लौट गयीं हैं, और यह विचार इस तरह के हालात में पुरुष के भीतर ईर्ष्या पैदा कर सकता है, एक क्रूर मर्दानी ईर्ष्या जो उन्हें इन स्त्रियों का जीवन नकार देने को प्रेरित कर सकती है. लेकिन स्त्री के जीवन पर एकतरफ़ा निर्णय सुना देने की मर्दानी प्रवृत्ति इन उपन्यासों की चेतना को रत्ती भर नहीं रंगती.

इस निर्णय की अनुपस्थिति उस चेतना की वजह से नहीं आती जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच के सांस्कृतिक और लैंगिक भेद मिट जाते हैं. दोनों ही नायक रायना और चंद्री के स्त्रीत्व में डूबे हैं, उसे अनुभूत और स्मरण कर रहे हैं. इन उपन्यासों की स्त्रियाँ पुरुष के लिए एक अनिवार्य अन्य हैं, सार्त्र के हेल इज़ अदके अर्थ में नहीं, बल्कि एक ऐसी सत्ता जो किसी को सम्पूर्ण बनाती है या बनाने का धोखादेय भरोसा दिलाती है लेकिन उसे कहीं अधिक प्रश्नों से भर देती है, पहले से अधिक ख़ाली कर जाती है. सार्त्र के लिए दूसरे का अस्तित्व आपके विकल्प और स्वतंत्रता को बाधित करता है, निर्मल और अनंतमूर्ति के उपन्यास में दूसरा आपको स्वतंत्रता के मायने पुनर्परिभाषित करने को प्रेरित और बाध्य करता है.

इस साझा धुरी के बावजूद ये दोनों उपन्यास एक प्रमुख स्वर पर आ विपरीत दिशाओं में मुड़ जाते हैं, स्वर जो इनके आधुनिकता के साथ संवाद के स्वभाव का सूचक है.


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रायना और विद्यार्थी का तीसरा दिन आख़िरी लम्हों में पहुँच रहा है. विद्यार्थी दुखी है, लेकिन रायना सहज है. वह उसे छोड़ने रेल स्टेशन जाना चाहता है, लेकिन वह मना कर देती है क्योंकि इसकाकोई फ़ायदा नहीं है.

उपन्यास के अंत में विद्यार्थी पिछले तीन दिन याद कर रहा है. वह जानता है कि रायना के लिए उसकी संवेदना शायद एकतरफ़ा हो क्योंकि जब रायना की रेल प्राग से छूटेगी वह उसकी स्मृति के केन्द्र में नहीं होगा. थोड़ी देर पहले रायना ने उसे बताया है कि अजनबियों के साथ उसके संबंध दूसरे शहरोंमें अक्सर बनते रहे हैं क्योंकिवह ज़्यादा दिन अकेले नहीं रह सकती[2]

पिछले तीन दिन दोनों के भीतर एकदम अलग तरह दर्ज हुए हैं. विद्यार्थी के भीतर रायना के लिए प्रेम उमड़ रहा है, जबकि रायना भले ही उसके साथ बिताए क्षण को सहेजती है, लेकिन युद्ध के अनुभव और पति से अलगाव ने उसकी संवेदना को एक निस्संगता भी दे दी है. वह ऐसी अनुभूतियों की क्षणिकता स्वीकार कर चुकी है जिसे विद्यार्थी अभी नहीं समझ पाता. यह स्थिति विद्यार्थी के भीतर छले जाने की भावना को जन्म दे सकती है, एक बारीक चोट जो उसके हृदय नहीं तो ज़ुबान को कड़वा कर सकती है. लेकिन रायना की विदाई के वक़्त यह भाव विद्यार्थी को क़तई नहीं छूता, वह रायना की माया में पूरी तरह खो चुका है.

उसकी हँसी में कोई अंतर नहीं आया था. उसमें वही लापरवाही का भाव भरा था, जिसके सहारे हम देर तक सतह पर रह सकते हैं. उससे मिलने से पहले मैं गर्व से सोचा करता था कि जो मेरे भीतर है, वही बाहर है. किंतु इन दिनों मुझे अपना यह गर्व बचकाना सा लगा था. वह उन बहुत कम लोगों में से थी जो अपने भीतर से अलग होकर सतह पर रह सकते हैंबर्फ़ की पतली परत परबिना यह ख़याल किए कि वह कभी भी टूट सकती है.[3]

इससे पिछले दिन यानि दूसरी रात रायना नायक के होस्टल आ जाती है. बाहर दिसम्बर की बर्फ़ है. वे फ़ायरप्लेस सुलगा लेते हैं.

वह खिड़की के सामने खड़ी थी. चिमनी के भीतर धुएँ और हवा की एक अजीब फूत्कारती-सी सरसराहट कमरे की नीरवता तोड़ जाती थी. मैं उसके पीछे चला आयाअपने हाथ उसके कंधे पर रख दिए. वह हल्के-से चौंक गयी.क्या सोच रही हो?”
कुछ नहीं…” उसने कहा.
वियना के बारे में?
वह चुपचाप बाहर देखती रही.
रायना…”
उसकी आँखें मुझ पर टिक आयीं.
मैंने सोचा था हम कुछ दिनों के लिए साथ रह सकेंगे.मैंने कहा.
इट वुडण्ट हैल्प,” उसके खिड़की पर आँखें मोड़ लीं.
वह कुछ देर खिड़की के बाहर देखती रहीफिर एक छोटी सी झुरझरी उसकी देह में दौड़ गयी.नोइट वुडण्ट हैल्प,” उसने धीरे से कहा.[4]


अगले दिन वे दोनों होटल के कमरे में हैं, वह सामान बाँध रही है. उसे अफ़सोस है कि कितना कुछ था जो वह कर सकता था और इस तरह रायना को जाने से रोक सकता था”, लेकिन रायना का जवाब वही है ---- “इट वुडण्ट हैल्प.”

निर्मल के गल्प संसार में यह एक दुर्लभ लम्हा था जब किसी किरदार ने अपनी चाहना को, दूसरे पर अपने हिचक भरे अधिकार को अभिव्यक्त किया था (निर्मल के किरदार कम ही अपना अधिकार जताते हैं), और जवाब आया था: “इट वुडण्ट हैल्प.” यह शब्द किसी के भीतर कड़वाहट, क्षोभ और तिरस्कृत होने का भाव जगा सकते हैं, लेकिन निर्मल की सृष्टि में वे दोनोंकमरे के धुँधलके में बाहर बारिश की नीरव टपाटप सुनते रहे.

क्या यह आत्म-बोध का क्षण था कि असम्भव आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से घिरा मानव प्रेम अतृप्त रहे आने को अभिशप्त है? “प्रेम अंतिम इलूज़न है,” ---अरसे बाद निर्मल की डायरी में यह दर्ज होना था. क्या रायना इस आत्म-बोध की प्रेरणा थी? उपन्यास के अंत में नायक के भीतर उसके शब्द गूँजते हैं:  

सुनोतुम विश्वास करते हो?”
वह जो नहीं है…”
जो है लेकिन हमारे लिए नहीं है?”[5]

भारतीय रचनात्मक चेतना में स्त्री अमूमन सतत प्रेम और कामना की छवि है. वेदिनसे पहले शायद ही किसी उपन्यास की स्त्री किरदार पुरुष से कहती होगी कि हमारा जीवन पूरा हो गया, कुछ दिन और साथ बिताने से कुछ हासिल नहीं होगा (इट वुडण्ट हैल्प), एक स्त्री जो विदाई के क्षण पूछती है: “जो हमें मिला है वह काफ़ी नहीं है?”




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इसके बरक्स भारतीय रचनात्मक कल्पना में चंद्री सरीखी अनेक स्त्रियाँ हैं, उनमें से मत्स्यगंधी, उर्वशी, शकुंतलाइत्यादि का उल्लेख संस्कारमें हुआ भी है. चंद्री की तुलना शारदा देवी से बेहतर की जा सकती है जो शंकराचार्य से कामशास्त्र के बारे में प्रश्न पूछती है. चंद्री और शारदा सम्मोहिनी अप्सराएँ नहीं हैं. उन्हें घबराए हुए देवताओं ने किसी ऋषि की साधना भंग करने के लिए नहीं भेजा है. दोनों स्त्रियाँ भिन्न काल-अवकाश में जन्म लेती हैं. एक ब्राह्मण विदुषी है दूसरी अछूत वैश्या, लेकिन दोनों ही पुरुष को अपनी मान्यता का पुनर्मूल्यांकन करने को प्रेरित करती हैं, उनसे पूछती हैंक्या एक पुरुष का जीवन, भले वह ब्रह्मचारी साधक क्यों न हो, काम के बग़ैर पूर्ण माना जा सकता है

चूँकि अब कथा आठवीं से बीसवीं सदी में आ गयी है, कथा में दो बड़े परिवर्तन होते हैं. बीसवीं सदी का नायक शंकराचार्य की तरह अपनी देह छोड़ कर किसी मृत राजा के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए उसे अपनी पूर्ति इसी देह के साथ करनी है. दूसरे, शंकराचार्य शारदा द्वारा दी गयी चुनौती बग़ैर किसी झिझक या अफ़सोस के स्वीकार कर सकते थे, प्राणेशाचार्य  को गहन पश्चाताप से गुज़रना होगा. अपराध-बोध से ग्रस्त आचार्य गाँव छोड़ देते हैं लेकिन इस संसर्ग का चंद्री पर कोई प्रभाव नहीं पढ़ता क्योंकिभोग-विलास में स्वभावतः लिप्त चंद्री आत्म-भर्त्सना की आदी नहीं थी.[6]
आचार्य का अपराध-बोध उस ऐंद्रिक सुख का जुड़वाँ है जो उन्हें हाल ही हासिल हुआ है, सुख जिसके बारे में आचार्य ने उन संस्कृत ग्रंथों में पढ़ा था जिन्हें वह ब्राह्मणों को पढ़कर सुनाते आए थे. 

आचार्य की कल्पना उनके मन में उन सब छोटी जाति की लड़कियों को खींच लायी जिनके बारे में उन्होंने पहले कभी सोचा भी नहीं था, कल्पना में ही आचार्यजी उन्हें निरावरण किया, और उनके अंग-प्रत्यंग को देखकर पहचानने की कोशिश की. कौन थी वह? कौन हो सकती है वह? अरे हाँ, बेल्ली, वही बेल्ली! मिट्टी के रंग की उसकी छातियों को याद करके, जैसे कि सोच-विचार तक में पहले कभी नहीं हुआ था, उनका शरीर उत्तेजित हो उठा. उन्हें अपनी इस कल्पना पर शर्म आयीएक नए अनुभव के लिए, बेल्ली के स्तनों से खेलने के लिए उनके हाथ खुजलाने लगेअनुभव का अर्थ होता है ख़तरा मोल लेना, हमला करनाअनुभवकाअर्थहैकिसीअदृश्यमें, अकथ्यस्थितिमें, जीवनमेंकिन्हींउरोजोंकाअचानकसंस्पर्शहोजाना.[7] 
                                                            

अगर इस अनुभव ने आचार्य की जड़ें हिला दी हैं, तो चंद्री ने समूचे ब्राह्मण समुदाय को विचलित कर दिया है. ब्राह्मण उसकी कल्पना कर लार टपकाते हैं, उसकी तुलना अपनी लालची घरेलू और रसहीन पत्नियों से करते हैं. वे चंद्री की उन गुणों के लिए तारीफ़ करते हैं जिन्हें अपने जीवन अपनाने का साहस उनके पास नहीं है. चंद्री उनकी अनिवार्यअन्य है, एक प्रेत जिससे वे अपने सपनों में भी मुक्त नहीं हो पाते. शराब के नशे में श्रीपति कहते हैं:

कोई कुछ भी कहे, ब्राह्मण कुछ भी भौंकेक्या कहते हो? शपथ लेकर मैं कहता हूँचंद्री की तरह सुंदर, समझदार और अच्छी औरत सौ मील के घेरे में भी तो कोई दिखा दे. मुझसे कोई शर्त लगा ले. यदि मिल जाए तो मैं अपनी जाति छोड़ दूँगा. वैश्या होने से भी क्या हुआ? बतलाओ तो, नारणप्पा के साथ किसी पत्नी से भी अच्छा व्यवहार उसने नहीं किया? यदि वह कभी ज़्यादा पीकर उल्टी कर देता था तो वह तुरंत सफ़ाई कर एंटी थी. उसने हमारी उल्टियाँ भी साफ़ करने में कभी हिचकिचाहट नहीं कीकौन ब्राह्मण-स्त्री इतना करती है? सब बेकार, सर-मुंडी, थू!”[8] 

आचार्य धर्म और ग्रंथों को प्रश्न करते हैं. अगर आधुनिकता प्रश्नाकुलता सिखाती है तो वे आधुनिक होने की राह पर भी हैं. लेकिन जिस तरह उपन्यास उनके भीतर आए परिवर्तन का और ब्राह्मण स्त्रियों के बरक्स चंद्री का चित्रण करता है वह उपन्यास को पथरीली राह पर ढकेल देता है. इस उपन्यास के अंतर्विरोधों को परखने से पहले उन प्रवृतियों को लक्ष्य किया जाए जो आचार्य और गोरा साझा करते हैं. दोनों नायक अपनी मान्यताओं के सुरक्षित दायरे में जीते आए हैं, देवी माँ के अलावा स्त्री को किसी और स्वरूप में नहीं  देखा है. दोनों ने एक आदर्श ब्राह्मण की छवि गढ़ रखी है, उसी जीवन को जीना चाहते हैं. गोरा के लिए आदर्श ब्राह्मण वह है जोज्ञान के शिखर पर बैठकर इस भक्ति के रस को सर्वसाधारण के उपयोग के लिए, शुद्ध रखने के लिए तपस्या करता है[9] 

गोरा आचार्य से कहीं अधिक वाचाल और आक्रामक है लेकिन उनसे बीसेक बरस उम्र में कम भी है, राष्ट्रीय आंदोलन के बीच में खड़ा है. दोनों उपन्यास की स्त्री किरदार पुरुष के लिए अन्य हैं, उनकी मान्यताओं को चुनौती दे उनके आदर्श और विचार की वेध्यता का बीज उनके भीतर रोप देती हैं, पुरुष के जीवन को बदल देती हैं. लेकिन पुरुष स्त्री को किस तरह स्पर्श करते हैं?चंद्री एकदम अप्रभावित रही आती है, सुचरिता गोरा से संवाद करभारत वर्षके आध्यात्मिक सत्य को तो समझने लगती है, लेकिन कोई बड़ा परिवर्तन उसके भीतर दर्ज नहीं होता. संस्कारकिस ऊँचाई पर जाकर फूटता अगर चंद्री बीच कथा में गायब नहीं हुई होती,झंझावात दोनों ओर घटित हुआ होता? चंद्री की अनुपस्थिति संस्कारको किस तरह समस्याग्रस्त बनाती है? इस प्रश्न से पहले आख़िरी उपन्यास पर आते हैं.



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कृष्ण बलदेव वैद के गल्प में, खासकर दूसराकोई(1978)[10]मेंहमएक ऐसी स्त्री को पाते हैं जो भारतीय उपन्यास में अमूमन दिखाई नहीं देती. दूसराकोईस्त्री को नायक की चेतना में बिठा देता है जो उसके इर्द-गिर्द एक हमज़ाद, उसके हमसाये की तरह मंडराती है. एक बूढ़ा लेखक एक ढहते हुए मकान में अकेला मर रहा है, एक महान कृति रच देने की ख्वाहिश लिए. एकएकाकीकर्मजोवैद की प्रिय कहानियोंमडोनाऑफ़फ्यूचर (हेनरीजेम्स) औरअननोनमास्टरपीस (बाल्ज़ाक) कीयाददिलाताहै. वह एक सच्चे शब्द की तलाश में है, एक ऐसा शब्द जो उसके सत्य को संपूर्णता में अभिव्यक्त कर सके. वह लेखक रूपक और अनुप्रास का शैदाई है, उसकी छटपटाती कल्पना अक्सर बगल के मकान में रहती एक बूढ़ी औरत पर आकर ठहर जाती है जो उसके मानस की ही उपज लगती है.


पसरे हुये पिशाच सा यह मकान. इसमें मेरा अकेला मर रहा होना यहाँ के दस्तूर के हिसाब से कोई अजीब बात नहीं. यहाँ इस उम्र के सभी लोग अकेले ही मरते हैं. मिसाल के तौर पर साथ वाले मकान वाली बुढ़िया. बढ़िया बुढ़िया. मुझसे उम्र में बड़ी है और कद में छोटी...मैं जब कुछ और नहीं कर पा रहा होता तो उन तीन खिडकियों में से बुढ़िया की रोज की जिंदगी या मौत में झाँक रहा होता हूँ...हमने कभी एक दूसरे को ताकते झांकते पकड़ा नहीं..वह उम्र में मुझे बहुत बड़ी नजर आती है. शायद दुगनी या तिगनी. या कम-अज़-कम इतनी बड़ी कि यकीनन मेरी मन हो सके और शायद मेरी नानी या दादी. यह बात दूसरी है कि देखने में शायद मैं अगर उसका बाप नहीं तो कम-अज़-कम बड़ा भाई या बूढ़ा पति या प्रेमी ही नजर आता हूँ...पूछना चाहिये बुढ़िया का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है. पूछ रहा हॅूं. जवाब मिलता है कि ज़रूरी कुछ भी नहीं. मुझे मालूम था यही जवाब मिलेगा. मुझे अब अपने किसी सवाल या जवाब पर कोई हैरानी नहीं होती. इस उम्र में हैरानियों की हवस हरामियों को ही होती है. बस अब यहीं रुक जाना चाहिये. हर जुमले की जान निकाल लेने की पुरानी लत में अब कोई लुत्फ नहीं रहा. वह कभी भी नहीं था.[11]

यह उपन्यास संशय और प्रश्नाकुलता का उत्कर्ष है, जो आधुनिकता के बुनियादी मूल्य माने जाते हैं. वैद प्रश्न को उस जगह ले जाते हैं जहाँ खुद प्रश्न प्रश्नांकित हो जाता है, कागज पर उतरते ही शब्द संशय के घेरे में आ जाता है. बूढ़ी औरत लेखक-आख्यायक की चेतना पर काबिज एक प्रेत है जिससे वह मुक्त नहीं हो पा रहा. वह अपने अंतिम क्षण में एकदम अकेला हो जाना चाहता हैदूसरा न कोई, वह लगातार जपता है.  

स्त्री वैद के गल्प संसार की एक प्रमुख थीम है. पुरुष किरदार अक्सर इन अनाम और चेहराविहीन स्त्रियों को डीकोड करते नजर आते हैं. आत्म-कथात्मक प्रतीत होती वैद की किताब उसकेबयान(1974)[12]का एक अध्यायउसकी औरतेंवह आइना है जिससे हम इस रचनाकार की स्त्री को देख सकते हैं.

कुछऔरतोंकोमुझसेइतनातेजप्यारऔरमेरेकामसेइतनीतुन्दअदावतरहीहैकिहैरानहोताहॅूकिउनकेसाथमैंकैसेइतनी-इतनीदेरकेलियेनिभालेगया.यहबातनहींकिकिसीताजातन्दरुस्तलड़कीकोदेखउसेअपनीऔरतमेंबदलदेनेकीकभी-कभीकामसेउकताजानेपरअपनेतमामबुतोंकीबाजीकिसीबेनजीरऔरतकेलियेलगादेनेकीललकअबबिल्कुलउठतीहोयायहपश्चातापहोताहोकिअगरमैंनेअपनीतमामऔरतोंकोकिसीकिसीतरीकेसेअपनेकाममेंइस्तेमालकरउनसेकिसीकिसीहदतकनिजातहासिलकरलीहोतीतोइसवक्तऐसीतन्हाईऔरतुर्शीहोती.

कईबारकिसीएकहीऔरतमेंदुनियाभरकीऔरतोंकोऔरदुनियाभरकीऔरतोंमेंएकहीऔरतकोपालेनेकीकोशिशमेंकट-फटचुकाहूँऔरइसनतीजेपरपहुंचाहूँकियेदोनोकोशिशेंभीदूसरीबेशुमारकोशिशोंकीमानिन्दबेकारहैं.[13]





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उपरोक्त तीनों उपन्यासों की एक साझा धुरी है--- स्त्री पुरुष के समक्ष एक रहस्यमयी आभा में रोशन होती है, वे उसे अपना अन्य मानते हैं, लेकिन स्त्री के भीतर पुरुष के प्रति रहस्य या अन्य का भाव नहीं है. स्त्री-पुरुष के बीच यह लगभग एकतरफा कारोबार आख्यान को विकट संकट में डाल देता है.  

आचार्य आत्मचिंतन करते हैं, लेकिन उनका मोनोलॉग पूरी तरह आत्म-केन्द्रित है. उनके भीतर इस घटना पर चंद्री के दृष्टिकोण को जानने की कोई इच्छा नहीं है. वे धर्म और नैतिकता पर प्रश्न करते हैं, लेकिन उनकी सुई ऐन्द्रिक अनुभव पर ही आ अटकती है, और वे मानते हैं कि उनके संकट का समाधान एक बार फिर से चंद्री के साथ सम्बंध बनाने  में है. उपन्यास का आरंभ नारणप्पा के अंतिम संस्कार से उपजे संकट से होता है, लेकिन जल्द ही स्त्री की छवि आचार्य पर हावी हो जाती है, उपन्यास को एक सरल-सा फ्रायडियन समाधान मिल जाता है.

चंद्री आचार्य के लिए एक विराट दैहिक अनुभव है जो उनकीपाशविक वासनाको बाहर ले आती है. अगर चंद्री आचार्य की अन्य है, तो उसका अस्तित्व सिर्फ देह तक ही सीमित है. आचार्य को नहीं सूझता कि वह इससे कहीं अधिक भी हो सकती है, उनके जीवन को कई आयाम दे सकती है.

इस प्रक्रिया में उपन्यास एक औचित्यहीन और आपत्तिजनक सरलीकरण करता है. उपन्यास की सभी ब्राह्मण स्त्रियाँदुर्गन्धभरी, उबाऊ, अपाहिजहैं, जबकि छोटी जाति की स्त्रियाँ सम्मोहिनी नायिकाएँ हैं जिनकी तुलना मेनका इत्यादि से होती है. उपन्यास के ब्राह्मण चंद्री की कल्पना कर लार टपकाते हैं, अपनी लालची और रसहीन पत्नियों को कोसते हैं. किरदारों का ऐसा ध्रुवीकरण कर उपन्यास क्या प्रस्तावित करना चाहता है? क्या स्त्री की मादकता इतने निश्चित तौर पर जातिगत होती है या विभिन्न जातियों के स्वभाव कहीं अनिश्चित और जटिल हैं? इसके अंग्रेज़ी अनुवादक ए के रामानुजन उपन्यास पर लिखते वक्त में किरदारों केबेहिसाब ध्रुवीकरण” को तो स्वीकारते हैं लेकिन इससे उपजे कथा पर मँडराते संकट को नहीं देख पाते.

एक अछूत सम्मोहिनी स्त्री और लार टपकाते ब्राह्मणों को विपरीत धुरियों पर रख यह उपन्यास भले ही कर्मकांडों को चुनौती देता दिखाई देता हो, विरोधी युग्मों के प्रयोग से आख्यान में भले थोड़ी नाटकीयता आ जाए, लेकिन कथा समस्याग्रस्त हो जाती है.

चंद्री निश्चय ही किसी संवेदनात्मक या बौद्धिक हिंसा की शिकार नहीं हैं. उन्हें बड़ी संवेदनशीलता से बरता गया है. उन्हें अपनी जीवन शैली के लिए कभी दोषी नहीं ठहराया जाता, उल्टे स्वतंत्र जीवन जीने के लिए ब्राह्मणों की सराहना ही मिलती है. लेकिन इसके बावजूद चंद्री ही नहीं किसी ब्राह्मण स्त्री के पास भी अपना कोई स्वर नहीं है, स्त्रियाँ पुरुष द्वारा ही परिभाषित होती है, स्त्री के लिए सदियों से सींचे जाते रहे पुरुष के आईने से ही दिखाई देती हैं.

रूढ़ियों की भरमार और एक लिबिडिनल लम्हे को आख्यान की धुरी बना देने से उपन्यास ठीक उन जगहों पर चपटा हो जाता है जो इसके सबसे संभावनाशील क्षण हो सकते थे.  

आलोचकों ने आचार्य को एक आधुनिक नायक माना है. धर्म पर प्रश्न आधुनिकता में उनके प्रवेश का क्षण है, लेकिन आधुनिक चेतना की परख उस अवकाश से भी हो सकती है जो यह अपने अन्य को देती है. चंद्री का प्रवेश नायक के अन्यबतौर होता है लेकिन जैसे ही उसका एकमात्र कार्य यानि आचार्य के साथ संसर्ग पूरा हो जाता है, वह कथा से ग़ायब हो जाती है, एक उत्प्रेरक बन कर रह जाती है जिसका शायद एकमात्र उद्देश्य आचार्य को आत्मचिंतन की ओर धकेलना था. क्या आचार्य और उनके रचयिता उपन्यासकार को बोध था कि वे चंद्री के साथ संवाद सिर्फ़ अपनी कल्पना में ही कर सकते थे, चंद्री की अनुपस्थिति में जहाँ वे उसे मनचाही छवि दे सकते थे, जो चंद्री की अन्य सभी सम्भावनाओं को नकार देती थी? क्या उन्हें बोध था कि अगर चंद्री को उपन्यास के पन्नों में पर्याप्त स्थान मिला तो वह जाति और कामेच्छा के मध्य इस प्रस्तावित खाई पर प्रश्न उठाएगी, इसलिए चंद्री आचार्य के लिए सिर्फ़ अनुपस्थिति में ही स्त्री हो सकती थी

शुरुआत में हमने अनुपस्थिति के साहित्य का ज़िक्र किया था, वे किरदार जो किसी आगामी किताब में इस आरोप के साथ लौटते हैं कि रचनाकार ने पिछली मर्तबा उनके साथ न्याय नहीं किया. अगर चंद्री अपनी पूर्वज उमराव जान की तरह अपना दस्तावेज़ लिखती तो आचार्य और उपन्यासकार को किस तरह चित्रित करती?[14]

स्त्री किरदार का किसी परवर्ती किताब में लौटने का एक हालिया उदाहरण मार्ग्रेट ऐटवुडका द पेनेलोपियड(२००५)[15]है

वे बारह सहायिकाएँ जिनकी हत्या यूलिसीज़ के आदेश पर टेलेमचस ने होमर के महाकाव्य द ऑडिसीमें यह आरोप लगा कर दी थी कि उन्होंने उन युवकों से सम्बंध बनाए थे जो पेनेलोप को हासिल करना चाहते थे, वे ऐटवुड के उपन्यास में अपनी कथा सुनाने आती हैं और यूलिसीज़ परऑनर किलिंगका आरोप लगाती हैं. जब यूलिसीज़ पर मुक़दमा चलता है तो उसका वक़ील यह तो स्वीकारता है कि उन युवकों ने इन सहायिकाओं का दरअसल बलात्कार किया था, लेकिन तर्क देता है किउनका बलात्कार बग़ैर अनुमति के हुआ था.जब मुस्कुराता हुआ न्यायाधीश पूछता है कि लेकिन यही तो बलात्कार है न, बग़ैर अनुमति के?”,तब वक़ील जवाब देता है कि उनका बलात्कारअपने स्वामी (यूलिसीज़) की अनुमति के बग़ैर हुआ था.[16]
पश्चिम के एक महान ग्रंथ का नायक बीस बरस देश में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद अपनी अनुपस्थिति में भी वह अपनी पत्नी की सहायिकाओं पर सम्पूर्ण स्वामित्व चाहता था.




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अब हम उस प्रश्न पर लौट सकते हैं जो पिछले अध्याय में पूछा था: किरदारों को किसी राजनैतिक विचार के रूपक की तरह चित्रित करने से आख्यान पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या संस्कार एकराजनैतिकवक्तव्यबननाचाहताहै, एक आकांक्षा जो इसे किरदारों को बतौर रूपक बरतने को प्रेरित देती है? स्त्री का मसला घरेबाइरेके लिए महत्वपूर्ण था, संस्कारके लिए भी है. जैसे ही उपन्यास किसी दायित्व के तहत स्त्री को बरतता है, उपन्यास की चेतना में स्त्री एक किरदार नहीं बल्कि एक मुद्दा,मसला बन कर उभरती है. रचनाकार की चेतना पर क़ाबिज़ होता कोई मुद्दा कई बार रचना में एक ऐसी व्याकुलता पिरो देता है जो आख्यान की सतह पर एक दुखता हुआ छाला छोड़ जाती है. 

शायद यही व्याकुल चेतना थी जिसने संस्कारके लेखक को लिंग और जाति के ध्रुव रचने को प्रेरित किया,जिसकी वजह से स्त्री का एकायामी चित्रण संभव हुआ था.  किरदारों के अंतर को व्यक्त करने के लिए ध्रुवीकरण राजनेता के लिए उपयोगी तकनीक हो सकती है लेकिन किसी साहित्यिक कृति के लिए नहीं क्योंकि यह किरदारों के जीवन को सींचती हुई उन विडंबनाओं और व्यसनों को अनदेखा कर देती है जिनसे कोई किरदार बड़े फलक पर पहुँचता है, और इस तरह यह तकनीक आख्यान में वे विषाणु पिछले दरवाज़े से चुपचाप धकेल देती है जिन्हें शायद रचनाकार ख़ुद ही हटाना चाह रहा था. एक कृति अपने रचनाकार के साथ अनोखे खेल खेलती है, अद्भुत द्वंद्व रचती है. उपन्यासकार रूढ़ियों का प्रतिकार करना चाहता था लेकिन उपन्यास के भीतर चल रही लीला ने रचनाकार को मात दे दी. 



(*)
इसके बरक्स वैद और निर्मल के गल्प में स्त्री कोई ऐसी सामाजिक प्राणी नहीं है जिसे मुक्त कराना है या सशक्त करना है. इसका यह अर्थ नहीं कि उनके स्त्री किरदार की आवाज़ दबी हुई है, बल्कि उनके गल्प की चेतना स्त्री को स्वर देने की राजनैतिक आकांक्षा से मुक्त है. अगर यह उस राह का सूचक है जो भारतीय उपन्यास ने तय की है, तो यह ख़ुद भारत पर भी एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है. दोनों कथाकारों का जन्म स्वतंत्रता से दो दशक पहले हुआ, आज़ादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने लिखना शुरू किया, एक ऐसा काल जब स्त्री का मसला राजनैतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में प्रमुख जगह लिए था, जो उपन्यासकार को भी प्रेरित करता था. जिन स्त्री किरदारों को वैद और वर्मा लिखने वाले थे उन्हें अपने समकालीन ही नहीं अपने पूर्वजों की रचना में भी खोज पाना मुश्किल रहा होगा. इन दोनों के जन्म के दौरान स्त्री लेखन ने भारत में आकार लेना शुरू कर दिया था, गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में स्त्री की प्रमुख भूमिका थी. जिस भाषा में ये दोनों लिख रहे थे उसके तत्कालीन कई प्रमुख रचनाकारों के उपन्यासों में स्त्री एक प्रमुख सामाजिक मुद्दा बनी हुई थी. इस परिदृश्य में वे उन चंद लेखकों में थे जिनके स्त्री किरदार, और पुरुष किरदार भी, किसी सामाजिक या पारिवारिक मसले से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि आंतरिक संघर्ष को दर्ज कर रहे थे. उनके उपन्यास की स्त्री जिस प्रश्न को पुरुष किरदार के समक्ष खड़ा करती थी वह अन्य लेखकों की रचनाओं से बुनियादी तौर पर भिन्न था. उनके प्रश्न राजनैतिक नहीं, वे मूलभूत प्रश्न हैं जिन्हें एक पुरुष स्त्री से, स्त्री पुरुष से मानव सम्बन्धों के सबसे नाज़ुक और अंतरंग क्षण में पूछती है, प्रश्न जो तात्कालिकता से परे निकल जाते हैं. रायना का प्रश्नक्या तुम उस पर विश्वास करते हो, वह जो है लेकिन हमारे लिए नहीं हैन जाने कितने संस्कृतियों में अपनी गूँज सुन सकता है. दूसराकोईके बूढ़े का स्त्री के प्रति जुनून शताब्दियों को पार कर जाता है.

संस्कारके आचार्य के भीतर स्त्री के प्रति अन्य का भाव उसकी अंतर्निहित ऐंद्रिकता में केंद्रित है, जिससे वह अचम्भित और चमत्कृत है. दूसराकोईके बूढ़े के उन्माद की क्या वजह है? अगर बूढ़ी स्त्री उसका अन्य है तो इसका स्वरूप क्या है? उपन्यास स्पष्ट करता चलता है कि स्त्री बूढ़े लेखक ही विस्तार है, और नायक उससे अनभिज्ञ नहीं है. वह उसे तब तक ही अन्य मानता है जब तक वह अपने स्व का अतिक्रमण कर उसे अपने में समाहित नहीं कर लेता. पूरे उपन्यास के दौरान उसका एकमात्र लक्ष्य है एक ऐसी अवस्था में पहुँचना जहाँ दूसरा न कोईहो, जहाँ अन्य का एहसास उसकी और उसके रचना कर्म की चेतना में मिट जाता हो. उसके लिए अन्यनर्कनहीं है (हेल इज अदर).

वैद के उपन्यासों की आलोचना करते हुए जयदेव मानते हैं कि वैदभारतीय संस्कृतिके प्रति बैर भावरखते हैं, उनका गल्पभारत की प्रत्येक सामाजिक रीति पर तीखा प्रहार है.[17]जयदेव वैद और निर्मल दोनों की तीखी आलोचना यह कह करते हैं कि उनका रचना कर्म अनेक पश्चिमी लेखकों की नकल है. वैद का कर्मपेस्टीच हासिल करने के फेर में हुआ कलात्मक ऊर्जा के ज़बरदस्त अपव्यय का उदाहरण है.[18]जयदेव की प्रस्तावनाओं का विस्तार से आगे परीक्षण करेंगे, इस वक़्त दूसराकोई  कीभारतीयताको परखते हैं.

क्याबूढ़ेलेखककीस्व-केंद्रितक्रियायेंअस्तित्व की आप्तकामअवस्था कीतलाशकासंकेतकरती हैं? ऐसीअवस्थाजहाँबाह्यआंतरिकमेंसमाहितहोजाताहै? वहस्त्रीकोतमामरंगोंमेंलिखताज़रूरहै, लेकिनवहसंसर्गकीनिस्सारतासेअपरिचितनहींहै, उसकीचेतनाएकअद्वैतअनुभव(दूसराकोई) कीतलाशमेंहै, जहाँसभीअन्यमिटजातेहैं.आख़िरीअध्याय में जब आख्यायक-नायक दुनिया छोड़ रहा है और उसके पास सिवाय अपने कुछ प्रिय शब्दों के कुछ भी नहीं है, क्या उस क्षण उसकी समूची तलाश एक साधक-लेखक की आध्यात्मिक साधना का रूप नहीं ले लेती?

भर्तृहरि ने वाक्यपदीयमें शब्दब्रह्म प्रस्तावित किया था. उनसे पहले याज्ञवल्क्य बृहदारण्यकउपनिषदमें कह चुके थे कि अक्षर, जिसका क्षय न हो, ही अंतिम सत्ता है. भले ही भारत का कोई एक प्रतिनिधि दर्शन और विचार नहीं है,भारतीय दर्शन विविध दार्शनिक पद्धतियों से निर्मित होती है,लेकिन अद्वैत सिद्धान्त इस दर्शन का एक प्रमुख स्तम्भ निसंदेह है. चूंकि दूसराकोईअद्वैत सत्ता को शब्द के ज़रिए उपलब्ध करना चाहता है, क्या यह एक प्रतिनिधि भारतीय उपन्यास कहा जा सकता है?




(*)
एक बार फिर उस प्रश्न पर लौटते हैं जो हमने शुरू में पूछा था. अनुपस्थिति स्त्री. इन तीनों में से कोई भी उपन्यास स्त्री का तिरस्कार करना नहीं चाहता, गद्य उन्हें बड़ी नज़ाकत से थामता है, लेकिन इसके बावजूद तीनों उपन्यास पुरुष किरदार पर समाप्त होते हैं. किसी उपन्यास की राजनैतिक आकांक्षाएँ हैं, कोई आध्यात्मिक तलाश द्वारा संचालित होता है, कोई काल की सीमाओं से दूर चले जाना चाहता है, लेकिन इन तीनों में ही पुरुष का स्वर ही प्रधान रहता है. एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता हैपरिंदे मरने के लिए आख़िर किस जगह जाती हैं? एक दूसरा प्रश्न हो सकता हैसाहित्य की अनुपस्थित स्त्रियाँ कौन सा ठौर खोजती हैं?

एक उत्तर हो सकता है कि वे अपने एकांत में सिमट जाती हैं,उन्हें पुरुष से किसी सहारे की आकांक्षा नहीं, उम्मीद भी नहीं. अगर उन स्त्रियों की संवेदात्मक और मनोवैज्ञानिक स्थिति की कल्पना की जाए जिन्हें उनके आख्यायकों ने अधूरा और अलिखित छोड़ दिया, जिनकी कथा अविकसित-अबोली रही आयी, जिनके प्रश्न अनकहे, इसलिए अनुत्तरित रहे आए, एक प्रमुख छवि एकांत की उमड़ेगी. 

जिस स्त्री ने उपन्यास पढ़ने के लिए एकांत को चुन कर उन्नीसवीं सदी के अंत में भारतीय समाज को विचलित कर दिया था, उसे यह भाव जीवन में अन्यत्र भी चुनना ही था. उपन्यास में एकांत शायद स्त्री का अगला पड़ाव होना ही था.  
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पहला हिस्सा : आरंभिका : हसरतें और हिचकियाँ

दूसरा हिस्सा: स्त्री  और  राष्ट्रवादएक  वेध्य  आलिंगन



[1]वैसे रुसवा ने वही किया था जो उपन्यासकार करते आए हैं --- हरेक शै में कथा खोज लेना. साठ बरस बाद बर्गमेन की थ्रू द ग्लास डार्कलीका उपन्यासकार नायक अपनी बेटी की बीमारी की खुफिया ख़्वाहिश करता है कि शायद इस पीड़ा में उसकी कथा को कुछ सूत्र मिल जाएँ.
[2]वेदिन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ १६१।
[3]वही, पृष्ठ १७५-७६.
[4]वही, पृष्ठ १५८-५९.
[5]वही, पृष्ठ १८१-८२.
[6]यू आर अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्णप्रकाशन, अनुवादचंद्रकांतकुसनूर, १९९७, नईदिल्ली, पृष्ठ८२.
[7]वही, पृष्ठ ९९-१००.
[8]वही, पृष्ठ ८७.
[9]गोरा, पृष्ठ ३८४-८५.
[10]कृष्ण बलदेव वैद, दूसरा न कोई, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, १९९६.
[11]वही, पृष्ठ १०-११.
[12]कृष्ण बलदेव वैद, उसकेबयान, राजपाल एंड संस, नयी दिल्ली, २००२.
[13]वही, पृष्ठ ५७.
[14]जुनून--इंतज़ारके अलावा किसी किरदार द्वारा आगामी उपन्यास में हिसाब बराबर करने का एक बेहतरीन उदाहरण अल्जेरीयन-अरब लेखक कमेल दाऊद का उपन्यास मरसाऊइन्वेस्टिगेशन(२०१३) है. अल्बेयर काम्यू के स्ट्रेंजर(१९४२) को औपन्यासिक जवाब देती इस रचना में पिछले उपन्यास में मारे गए अरब युवक का भाई हत्या के बाद परिवार पर आए दुःख की कथा सुनाता है, जिस पर फ़्रेंच उपन्यास के तमाम आलोचकों और प्रशंसकों का ध्यान ही नहीं गया था। तमाम संस्कृतियों में अनेक कथाएँ पिछली कथा को जवाब देते हुए विकसित हुई हैं।      
[15]मार्ग्रेट ऐटवुड, पेनेलोपियड, पेंग्विन, २००५.
[16]वही, पृष्ठ.१४६.
[17]जयदेव, द कल्चर अव पेस्टीच, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, १९९३, पृष्ठ १३२.
[18]वही, पृष्ठ १२९

मैं और मेरी कविताएँ (३) : रुस्तम

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What is that you express in your eyes? It seems to me more than all the print I have read in my life.”

Walt Whitman



समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने ‘आशुतोष दुबे’ और ‘अनिरुद्ध उमट’ की कविताएँ और वे कविता क्यों लिखते हैं पढ़ा. आज रुस्तम सिंह की कविताएँ और वक्तव्य प्रस्तुत है.

सच्चा-खरा कवि किस तरह से अपने आप से पूछता है और तलाशता है कि आख़िर वह कविता क्यों लिखता है, वह इस उत्तर में आपको दिखेगा. कविता की तरफ जाने का यह भी एक रास्ता है.

कवि और दार्शनिक, रुस्तम (30 अक्तूबर 1955) के पाँच कविता संग्रह और अंग्रेज़ी में उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में भी अनूदित हुई हैं.  उन्होंने नार्वे के कवियों उलाव हाउगे व लार्श अमुन्द वोगे की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद हिन्दी में भी किया है.  





मैं और मेरी कविताएँ(३) : रुस्तम                  
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बस लिखना चाहता हूँ.










स प्रश्न में कम से कम दो धारणाएँ अंतर्निहित हैं. पहली यह कि हर कवि को पता होता है कि वह कविता क्यों लिखता है या लिखती है. और दूसरी यह कि हर कवि का कविता लिखने के पीछे कोई उद्देश्य होता है. यह दूसरी धारणा बहुत स्पष्ट रूप में इस प्रश्न में नज़र नहीं आती, पर ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि वह वहाँ है. परन्तु ज़रूरी नहीं कि हर कवि को पता हो कि वह कविता क्यों लिखता है.

चौदह वर्ष की उम्र में जब मैंने अपनी पहली ऐसी दो कविताएँ लिखीं जिन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहा जा सकता था, तो मैं न तो यह जानता था कि मैं कविताएँ क्यों लिख रहा था और न ही यह कि उन्हें लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था. मैं बस कविताएँ लिखना चाहता था. उसी तरह जैसे उन दिनों और उससे पहले भी मैं अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ना चाहता था. हालाँकि मेरे पढ़ने के लिए कविताएँ आसानी से उपलब्ध थीं, ऐसा बिल्कुल नहीं था.

जब मैं नौ बरस का हुआ तब तक हम गाँव में रहते थे. और हम पढ़ने के लिए एक दूसरे, बड़े गाँव के सरकारी प्राइमरी स्कूल में जाते थे जहाँ चार-पाँच गाँवों से बच्चे आते थे. यह गाँव पंजाब में था. मेरी माँ अनपढ़ थीं और मेरे पिता पाकिस्तान की सरहद पर तैनात थे. इन्हीं दिनों मेरे पिता ने नौकरी छोड़ दी और हम हरियाणा के एक कस्बे या छोटे शहर में आ बसे. हमारे घर में एक भी साहित्यक किताब नहीं थी और मेरे पिता उर्दू का अखबार पढ़ते थे. उस कस्बे में कोई भी सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था. हमारे सरकारी स्कूल में लाइब्रेरी के नाम पर पुस्तकों की एक अलमारी थी जिस पर हर वक्त ताला लगा रहता था. हमारे हिन्दी के अध्यापक के हाथ में कभी-कभी धर्मयुगया साप्ताहिक हिन्दुस्तानपत्रिकाएँ नज़र आती थीं. मुझे याद है जब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था तो एक बार जब अध्यापक धर्मयुगको मेज़ पर छोड़कर बाहर गये, तो मैंने उसे उठाकर जल्दी से उसमें छपी एक कविता पढ़ी जो मुझे बहुत अच्छी लगी.

उन दिनों कविताएँ पढ़ने के दो ही स्रोत मेरे पास थे. एक तो हिन्दी तथा पंजाबी की हमारी पाठ्यपुस्तकें (आठवीं कक्षा तक मैंने पंजाबी भी पढ़ी) जिनमें कविताओं के अलावा कहानियाँ, संस्मरण व यात्रा-वृतान्त होते थे. दूसरा, बच्चों के लिए चंपक”, “परागनंदन”  इत्यादि पत्रिकाएँ जो हमारे अखबारवाले के पास होती थीं. मैंने निराला, महादेवी वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र तथा दिनकर इत्यादि की कविताएँ पहली बार स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में ही पढ़ीं. दूसरी तरफ, “चंपक”, “पराग”, “नंदनइत्यादि पत्रिकाओं में बच्चों के लिए लिखी गयी बहुत साधारण किस्म की कविताएँ होती थीं.

यह सब बताने के पीछे मेरा उद्देश्य यह था कि बचपन में जब भी और जैसी भी कविताएँ पढ़ने का अवसर मुझे मिलता था, उन्हें पढ़ने के बाद मैं ख़ुद कविताएँ लिखना चाहता था और उन्हें लिखने की कोशिश करता रहता था. पर उस उम्र में भी मैं देख पाता था कि मेरी लिखी कविताएँ लगभग वैसी ही होती थीं जैसी कविताएँ मुझे पढ़ने को मिलती थीं और उन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहना कठिन था.

पर यहाँ लगभग वैसा ही प्रश्न उठता है जैसा मुझे पूछा गया है : बचपन से ही मैं कविताएँ क्यों लिखना चाहता था? और इससे जुड़ा हुआ इससे भी अधिक मूल प्रश्न : मुझे पढ़ना-लिखना विरासत में नहीं मिला था, तब भी मैं बचपन में ही, और किसी भी चीज़ से ज़्यादा, कविताएँ ही क्यों पढना चाहता था?

मेरा ख़याल है कि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता. यह इच्छा क्यों मुझमें थी, वह कहाँ से आयी, इस पर विचार करना फ़िज़ूल है. और जैसे कि मैं पहले भी इशारा कर चुका हूँ, हमारे परिवार, और गाँवों में रहने वाली हमारी बिरादरी में भी, साहित्य पढ़ने की कोई प्रथा नहीं थी. और अखबार भी केवल मेरे पिता ही पढ़ते थे, वो भी कस्बे में आ जाने के बाद. वे दसवीं तक पढ़े हुए थे.

चौदह से अठारह की उम्र के दौरान मैं कविता नहीं लिख पाया. परन्तु अठारह की उम्र में मैंने फिर से लिखना शुरू किया. उन दिनों मैं प्रसिद्ध अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैनको बहुत पढ़ रहा था और उनकी कविताओं का प्रभाव मेरी कविताओं पर साफ़ नज़र आता था. धीरे-धीरे मैं इस प्रभाव से निकल गया, परन्तु मुझे पता था कि मैं ज़्यादा अच्छी कविताएँ नहीं लिख पा रहा था.

ये वे दिन थे जब मैं एक वर्कशॉप में मेकैनिक, वेल्डर तथा खराद चलाने का काम कर रहा था, क्योंकि मैंने दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था. दो साल तक यह काम करने के बाद मैंने फिर से पढना शुरू किया. तब तक एक सरकारी कॉलेज हमारे कस्बे में खुल गया था. जो वर्ष मैंने कॉलेज में बिताये उस दौरान मैंने कॉलेज की लाइब्रेरी से ख़ूब पुस्तकें पढ़ीं, जिनमें कविता की पुस्तकों के अलावा उपन्यास, कहानियाँ, लेख तथा दर्शन की पुस्तकें शामिल थीं. इन सालों में अंग्रेज़ी से येट्स व इलियट तथा हिन्दी से निराला, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन व त्रिलोचनमेरे पसन्दीदा कवियों के तौर पर उभरे. बाद के सालों में कुछ और कवि भी इस सूची में जुड़े जिनमें सेज़ार वय्याखो, बोर्ग्हेसतथा कुछ हद तक पाब्लो नेरुदाप्रमुख हैं.

इसके बाद मैं सेना में अफसर बनकर चला गया तथा छह साल जो मैंने वहाँ बिताये उस दौरान भी मैं कविताएँ लिखता रहा. लेकिन मुझे तब भी स्पष्ट नहीं था कि मैं कविताएँ क्यों लिखता था या क्यों लिखना चाहता था. मैं अभी सेना में ही था जब मैंने अपना पहला कविता संग्रह स्व-प्रकाशित किया. उसका शीर्षक था अज्ञानता से अज्ञानता तक”.उस वक्त मैं 26वर्ष का था. 27-28की उम्र में, जब मैं कैप्टेन था, मैंने सेना से त्यागपत्र दे दिया और एक बार फिर से पढाई शुरू की. मैं ऍमफिल व पीएचडी करने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, आ गया और अगले पाँच वर्ष वहीं हॉस्टल में रहा.

यहाँ मैं कैंपस की राजनैतिक व बुद्धिजीवी-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ गया तथा कुछ और कवियों के साथ मिलकर कुछ साहित्यक गतिविधियाँ भी करने लगा. इस तरह एक तरफ जहाँ मैं एस.एफ.आई.और सी.पी.आई. (एम) का सदस्य बना (कुछ वर्ष बाद मैंने यह सदस्यता छोड़ दी), वहीं दूसरी तरफ लाल्टू, सत्यपाल सहगलतथा मैंने मिलकर हमकलमनाम की एक साइक्लोस्टाइल कविता-पत्रिका निकालनी शुरू की. यही वे दिन थे जब मैं भी उस तरह की कविताएँ लिखने लगा जिन्हें जनवादी-प्रगतिशीलकविताएँ कहते हैं. और इस तरह शायद पहली बार मेरी कविताओं के लिखे जाने के पीछे कोई उद्देश्य था. और शायद इसी कारण हिमाचल के जनवादी तथा प्रगतिशील संघों ने मुझे भी कविता पाठ के लिए बुलाया. मुझे याद है कि मैं इसी सिलसिले में मंडी में था जब वहाँ त्रिलोचन जी से मेरी पहली मुलाक़ात हुई. वे भी उस कविता पाठ में आमन्त्रित थे.

इसके बाद मेरी कविता में फिर एक मोड़ आया और जो दौर तब शुरू हुआ वह काफी लम्बे समय तक चला. इस दौर में जो कविताएँ लिखी गयीं वे मेरी भावनाओं व उन पर मेरे मनन का नतीजा थीं. अब सोचने पर मैं कह सकता हूँ कि मैं ये कविताएँ क्यों लिख रहा था : उन दिनों मेरी भावनाएँ इतनी कष्टपूर्ण थीं और उन पर होने वाला मेरा मनन इतना गहरा था कि मैं उन भावनाओं व उन पर होने वाले अपने मनन को प्रकट करना चाहता था, उन्हें कहना चाहता था, आवाज़ देना चाहता था. और मेरे लिए ऐसा करने का सब से आसान तरीका कविता लिखना था --- साहित्य की यह एक ऐसी विधा थी जिसे रूप देना मैं काफी हद तक सीख चुका था. जब इस दौर की शुरुआत हुई तब मैं 34-35वर्ष का था.

मेरा ख़याल है कि मेरी सबसे इंटेंस कविताएँ इसी दौर में लिखी गयीं. लगभग 15वर्ष बरकरार रहने के बाद यह इंटेंसिटी चली गयी, और मैंने देखा कि धीरे-धीरे मेरी कविताओं के सरोकार, एक बार फिर, मुझसे बाहर की, शुरू में मेरे आसपास की लेकिन फिर उससे परे की भी दुनिया से जुड़ने लगे. मुझे लगता है कि मैं अब भी इसी दौर में हूँ, लेकिन आजकल फिर मुझे यह पता नहीं है कि मैं कविताएँ क्यों लिख रहा हूँ या क्यों लिखना चाहता हूँ. अभी भी बस लिखना चाहता हूँ.
(02—2—2019)
        





रुस्तम की बारह कविताएँ


मन मर चुका है
मन मर चुका है.
पर देह अब भी ज़िंदा है.
मैं मृत्यु को पुकारता हूँ.
वह जवाब नहीं देती.
ईश्वर की मानिन्द
वह भी बहरी है.
या फिर
वह एक क्रूर तानाशाह है
जो अपनी इच्छा से उतरती है.
और मैं रोज़ उठता हूँ
तथा
जीवन और मृत्यु को ---
दोनों को कोसता हूँ,
गाली देता हूँ.
एक अन्धी दीवार पर
पत्थर मारता हूँ.



लावा उबल रहा है
लावा उबल रहा है,
उफ़न रहा है,
बढ़ रहा है मेरी ओर.
समुद्र हाँफ रहा है,
गरज रहा है,
खाँस रहा है,
चढ़ रहा है,
गोल-गोल घूम रहा है,
झूम रहा है इधर-
उधर.
नदियाँ, झीलें उतर गयी हैं
या बिफ़र गयी हैं.
पशु प्यासे हैं या डूब रहे हैं.
पक्षी गिर रहे हैं पेड़ों से.
पेड़ मर रहे हैं.
कितना अजब दृश्य है !
जीवन सिमट रहा है अन्तत: !  


 कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में बहता हुआ खून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की शुरुआत होती है
और समाप्ति भी उसी क्षण.
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.



यह वक्त नहीं जो चलता था
यह वक्त नहीं जो चलता था.
ये हम थे जो चलते थे, जो बूढ़े हो जाते थे, फिर मर जाते थे;
ये चीज़ें थीं जो चलती थीं, जो घिस-पिट जाती थीं, फिर ख़त्म हो जाती थीं.
वक्त नहीं, हम गुज़र जाते थे.
वक्त को किसने देखा था ?
क्या पता वह था भी कि नहीं.


 तुम देखना चाहते हो
तुम देखना चाहते हो
वास्तव में कुछ सुन्दर?
तो चट्टान को देखो.
भूचाल आते हैं.
पानी बरसता है उसके ऊपर.
सूर्य पड़ता है.
वह तिड़क जाती है,
ज़रा सरक जाती है,
या खड़ी रहती है माथा तानकर.
उसके सहस्र रंग
चमकते हैं
आसमान में.





जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए घृणित है,
वही तुम्हें प्रिय है-
दुःख क्यों है ?
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.
मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.
सिर्फ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और--
उफनता लावा.
मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.
फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
आसमान भी न रहे.



जीवन, जीवन
जीवन, जीवन,
यह तुमने ही किया है.
लहू का यह प्याला
जो उम्र भर मैंने पिया है.
क्षत-विक्षत
यह जो मेरा हिया है.
यह किसने मुझे दिया है ?
किसने ?
ओ शैतान !
तुम्हीं तो रहते हो
मेरे भीतर !
मेरी धमनियों में तुम्हीं बहते हो.
और मैं
निर्बल यह जीव
नाचता हूँ
तुम्हारे ही
इशारों पर.
लो मैं फेंकता हूँ तुम्हें
उसी अन्धकार में
जहाँ से आये थे तुम
मुझे बनाने !
जाओ !
और फिर लौटकर नहीं आओ !



शहर के जानवर
1.
सड़क पर बैठी हैं गायें
सहज आकार में,
इक-दूजे को छुए हुए.
जुगाली कर रही हैं
और कितनी शान्त हैं !
दोनों ओर
गुज़र रही हैं गाड़ियाँ.
2.
गर्मी के दिनों में
सबसे ज़्यादा मरती हैं
गली की गायें.
कचरा खा-खा कर
कैसे ऊबड़-खाबड़
हो गये हैं उनके पेट.
3.
खाना माँगते हैं
मार्किट के कुत्ते.
मैं फेंकता हूँ बिस्किट,
वे होड़ते हैं आपस में.
फिर आपस में ही
खेलने लगते हैं.
4.
बिल्लियाँ ढूंढती हैं
बच्चे जनने के स्थान.
कभी-कभी
मैं भगा देता हूँ उन्हें.
वे शिकायत भरी आँखों से
देखती हैं
मेरी आँखों में.
5.
बिल्ली
बैठी होती है
छत की मुँडेर पर.
वहाँ तक पहुँचता है
आम का पेड़.
अक्सर वहाँ
पड़े मिलते हैं
किसी पक्षी के पंख.



छूती नहीं मुझे कोई हवा
छूती नहीं
मुझे कोई हवा.
मुझे देखते ही
पानी
खौलने लगता है.
मुझमें से फूटती हैं
असंख्य
चिंगारियाँ.
एक आग है मेरे भीतर,
मेरे भीतर.
ओह मैं जल रहा हूँ,
मैं जल रहा हूँ !
ओह मैं जल रहा हूँ !



स्पेन के एक गाँव में
दो बूढ़े होते लोग
घर के छोटे-से लॉन में
कुर्सियों पर बैठे थे.
मुझे नहीं लगा कि वे आपस में कोई बातचीत कर रहे थे,
न ही वे कुछ पढ़ रहे थे.
वे बस
पश्चिम में
सूरज की ओर
मुँह किये बैठे थे,
धूप सेंक रहे थे,
गर्मियों की शाम की हल्की गर्म, मीठी, दुर्लभ धूप.
उन्हें देखकर बस इतना समझ आता था
कि वे लम्बे समय से आपस में परिचित थे.
वहाँ बैठे हुए वे असहज नहीं लग रहे थे, बल्कि यूँ कि जैसे वाकिफ़ थे उस जगह के कोनों-खूंजों से; एक-दूसरे की अच्छी-बुरी आदतें भी ख़ूब जानते थे और उन्हें सहते थे.
फिर भी वे मुझे दो क्षण-भंगुर मूर्तियों-से लगे
जो कभी भी ढह सकती थीं.
कभी भी गिर सकता था उनका करीने से सहेजा हुआ घर.
उनकी दुनिया
किसी भी क्षण
ग़ायब हो सकती थी.



घर वैसे ही खड़ा है
घर वैसे ही खड़ा है जैसे कि वह कई साल पहले भी यहीं खड़ा होगा.
खिड़कियाँ खुली हुई हैं. धूप अन्दर आ रही है.
चीज़ें
अपनी-अपनी जगह पर उसी तरह से पड़ी हैं
जैसे कई साल पहले भी वे पड़ी होंगी.
अलमारियाँ, पुस्तकें, शेल्फ.और भी बहुत कुछ.
बैठक के एक कोने में दो कुर्सियाँ हैं.उनमें से एक पर एक बूढ़ा व्यक्ति बैठा है.दूसरी ख़ाली है.
लगता नहीं कोई आयेगा.



कुछ ही समय पहले


कुछ ही समय पहले दो लोग यहाँ रहते थे.
मैंने सुना है कि वे अजनबी थे इस संसार में.
"
उन्होंने कुछ नहीं सीखा. कुछ भी नहीं कमाया.
जैसे आये थे, वैसे ही चले गये.
इसीलिए यह घर इतना ख़ाली है.
उनका चिन्ह, कोई संकेत इसमें नहीं.
न ही उनका साया."
______________


मेघ-दूत : चु चछिंग - पिताजी की पार्श्व-छवि : पंकज मोहन

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पिता-पुत्र के रिश्तों पर, उनके बीच के प्रेम और अहम् पर हर भाषा में लिखा गया है. पिता, पुत्र में अपना बेहतर होता हुआ देखना चाहता है, वह अपने पीछे एक बेहतर पिता छोड़ जाना चाहता है. पुत्र जब पिता बन जाता है तब वह अपने पिता को समझ पाता है.

पिता-पुत्र की इसी आत्मीयता पर चीनी भाषा में ‘चु चछिंग’ का एक संस्मरण (निबन्ध) है, ‘पिताजी की पार्श्व-छवि’ जिसका अनुवाद हिंदी में पंकज मोहन ने किया है. इसे पढ़ते हुए अगर आपको अपने पिता की बरबस याद आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.







चु चछिंग

पिताजी की पार्श्व-छवि                        

अनुवाद : पंकज मोहन





आधुनिक चीन के महान कवि  और ललित निबंध लेखक  चु चछिंग (1898-1948)  ने १९२० में  पेकिंग (बीजिंग) विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और तदुपरांत उन्होंने  शांघाई, हांगचौ, निंगबो आदि शहरों में स्कूल शिक्षक का जीवन बिताया. १९२५ में उन्होंने बीजिंग-स्थित छिंगह्वा विश्वविद्यालय के चीनी साहित्य विभाग के प्राध्यापक का पदभार ग्रहण किया. १९३१-३२ में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य और भाषा विज्ञान का अध्ययन किया. जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने चीन  के प्रगतिकामी बौद्धिक समाज के मेरुदंड की भूमिका निभायी. "पिताजी की पार्श्व-छवि"नामक लेख १९२८ में प्रकाशित चु चछिंग के निबंध संग्रह में संकलित है.





पिताजी से मिले दो साल हो गए. मेरे मन में उनकी जो छवि अभी भी तरोताजा है, वह है दूर सड़क पर धीरे-धीरे धुंधली और फिर आँखों से ओझल होती हुयी उनकी पार्श्व छवि.


जाड़े का दिन था. मैं उस समय बीजिंग में था, और पिताजी चीन के शुचौ शहर में थे. मुझे समाचार मिला की दादाजी गुजर गए. और करीब उसी वक्त पिताजी भी अपनी एक अस्थायी सरकारी नौकरी से हाथ धो बैठे. सच ही कहा गया है 'संघचारिणो अनर्था:', अर्थात विपत्ति कभी अकेली नहीं आती, आपदा, विपदा, त्रासदा आदि सखी-सहेलियों को भी साथ ले आती है.दादाजी की मृत्यु और पिताजी की नौकरी छूटने के समाचार को सुनते ही मैं शुचौ के लिए रवाना हुआ. वहां से पिताजी को साथ लेकर गाँव जाने की योजना थी. गाँव में हमलोगों को दादाजी का श्राद्ध जो करना था.


शुचौ पहुँचने पर पिताजी के सरकारी फ्लैट में गया. पिताजी के फ्लैट के अहाते में पहले रंग-रंगीले फूल और हरी सब्जियां मुस्कराती थीं, अब वहां घास-मोथे और बियावान के सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था. पिताजी को देखते ही मुझे दादाजी की याद आ गयी, और मेरी आँखों से आंसू की बूँदें टप-टप ढुलकने लगीं. पिताजी ने कहा, "मन छोटा मत करो. तकलीफ का वक्त है, गम की अंधेरी रात हैं. लेकिन रात ही तो है. सबेरा तो होगा ही.”


घर पंहुंचते ही पिताजी ने घर के कीमती सामानों को संदूक से निकालना शुरू किया-- कुछ सामानों को बेच दिया और कुछ को गिरवी पर रख दिया. परिवार का कर्ज तो इस तरह चुक गया, लेकिन दादाजी के श्राध-संस्कार के लिए उन्हें पैसे उधार लेने पड़े. उस समय पिताजी की बेकारी और श्राद्ध के खर्च के कारण हमारे परिवार की स्थिति सचमुच दयनीय थी. श्राद्ध समाप्त होने पर पिताजी काम खोजने नानजिंग शहर के लिए प्रस्थान हुए, और चूकि मैं भी उस समय पेकिंग यूनिवर्सिटी का छात्र था, बीजिंग की गाड़ी पकड़ने के लिए नानजिंग तक जाना था. मैं भी साथ हो लिया.


नानजिंग के एक संबंधी ने आग्रह किया कि मैं उनके घर एक दिन रूककर वहां के दर्शनीय स्थानों को देखूं और आगे बढूँ. दूसरे दिन दोपहर के समय हमलोग नाव से यांग-च नदी पार कर फुकौ शहर पंहुचे. बीजिंग जाने वाली गाड़ी फुकौ स्टेशन से खुलती थी. पिताजी काम के बोझ से दबे हुए थे और स्टेशन जाकर मुझे छोड़ने और गाड़ी में बैठाने के लिए उनके पास समय नहीं था. स्थानीय होटल का एक कर्मचारी उनके जान-पहचान का आदमी था. उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह मुझे स्टेशन तक पंहुचा दे. उन्होंने उस कर्मचारी को बार-बार हिदायत दी कि वह मुझे बहुत सावधानी से ट्रेन में बैठा दे. फिर भी उनकी चिंता दूर नहीं हुई, और मन के किसी कोने में यह शंका बनी रही कि उस कर्मचारी का भरोसा नहीं, वह उतनी मुस्तैदी से उनके आदेश का पालन नहीं कर पायेगा. कुछ समय तक तो वे दुबिधा में रहे , क्या करें क्या न करें, और अंत में उन्होंने मेरे साथ चलकर खुद मुझे स्टेशन तक छोड़ने का निर्णय लिया. मैं उनसे दो-तीन बार कहा कि उनके पास बहुत-सारे काम हैं, स्टेशन तक आकर सी-ऑफ करने की जरूरत नहीं है. लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने कहा, तुम्हे उस आदमी के हाथ सौंपकर मैं चला जाउंगा, तो मन में चिंता बनी रहेगी.
(Father and Son by Xie Dongming )


नदी को पारकर हम हम स्टेशन पंहुंचे. मैंने टिकट खरीदा और पिताजी सफ़र में सामान की हिफाजत के बारे में सोचने लगे. उन्होंने एक कुली को बुलाया और उससे मोल-मोल्हाई करने लगे. उस समय मैं सोचता था कि पिताजी की देहाती बोली को सुनकर कुली उन्हें ठग लेगा.. मैं शहर में रह चुका हूँ और मुझसे ज्यादा तेज-तर्रार आदमी कौन है? मुझे खीज हुई कि वे क्यों बीच में पड़ते हैं? खैर, बहुत हील-हुज्जत के बाद कुली का भाड़ा तय हुआ, गाड़ी प्लेटफोर्म पर खड़ी थी. वे मेरे साथ गाड़ी तक आये, और आते ही उन्होंने मेरे लिए एक जगह ढूंढ ली. मैंने उस सीट पर अपना कोट डालकर उसे अपने लिए "आरक्षित"कर लिया. उस कोट को पिताजी ने मेरे लिए बनवाया था.


पिताजी ने मुझे हिदायत दी, सफ़र में हमेशा सावधान रहना चाहिए, खासकर रात में और भी सतर्क रहने की जरूरत है. उन्होंने यहाँ तक कि मेरे कम्पार्टमेंट के Attendant से भी आग्रह किया कि सफ़र में वह मेरा ख्याल रखे. मै मन ही मन सोच रहा था कि पिताजी क्या बकवास कर रहें है. Attendant को तो सिर्फ पैसे बनाने से मतलब है, और वे उससे जाकर मेरा ख्याल रखने का अनुरोध कर रहे हैं. और मैं बच्चा थोड़े ही हूँ.. मेरी उम्र बीस साल की हो गयी,क्या मैं अपना देख-भाल खुद नहीं कर सकता हूँ? लेकिन आज जब उन दिनों की याद आती है तो सोचता हूँ कि उन दिनों मैं अपने आप को कुछ ज्यादा हे चतुर समझता था.


मैंने कहा, बाबूजी, अब आप जाइये. उनकी दृष्टि दूसरे प्लेटफोर्म पर गयी जहां सुन्दर, स्वादिष्ट संतरे बिक रहे थे. उस प्लेटफोर्म पर जाने के लिए हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर बीच में बिछी रेलवे की पटरियों को पार करना होता था. और फिर उस प्लेटफोर्म पर चढ़ने के लिए नीचे खड़े होकर प्लेटफोर्म को दोनों हाथों से पकड़ना होता था, और उसके बाद शरीर को ऊपर सरकाना होता था. पिताजी का शरीर भरी-भरकम था, इसलिए उस प्लेटफोर्म पर चढ़ना उनके लिए आसान नहीं था. मैं खुद जाना चाहता था, लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं मानी. मैं गाड़ी की खिड़की से उन्हें देखता रहा. वे काली मिरजई पहने थे, और उनके सर पर भी काली टोपी थी. 


वे किसी तरह हमारी गाड़ीवाले प्लेटफोर्म से उतरकर पटरी को हौले हौले पार कर आगे बढ़ गए, लेकिन दूसरा प्लेटफोर्म थोड़ा ऊंचा था, और उसपर चढ़ना उनके लिए भारी पड़ रहा था. उन्होंने दोनों हाथों को प्लेटफोर्म के किनारे को मजबूती से पकड़ा, और फिर उन्होंने अपना पैर ऊपर उठाया, और अपने मोटे देह को प्लेटफोर्म के ऊपर सरकाने लगे. बहुत श्रम-साध्य काम था. उनकी इस पार्श्व छवि को देखकर मैं अपने आंसू को थाम न पाया. लेकिन इस डर से कि दूसरे यात्री मेरी नम आँखों को देख न लें, मैंने आंसू पोंछ लिए. मैंने फिर दूसरे प्लेटफोर्म पर नजर दौड़ाई. पिताजी हाथ में संतरों से भरी झोली को हाथ में लटकाए मेरी गाड़ी की और लौट रहे थे. उन्होंने झोली को पहले प्लेटफोर्म के नीचे गिरा दिया, फिर एक हाथ को प्लेटफोर्म पर रखा, और अपने शरीर को थोरा तिरछा करते हुए प्लेटफोर्म से लटकते हुए नीचे सरकना शुरू किये. जब वे संतरे देने मेरे प्लेटफोर्म पर वापस आये और ऊपर चढ़ने लगे, मैंने उनका हाथ थाम लिया, और ऊपर उठा लिया.


उन्होंने संतरे की झोली को मेरे सीट पर पड़े कोट के ऊपर रख दिया. उसके बाद अपने कपड़ो॑ के धूल झाड़ने लग गए. अब वे थोड़ा निश्चिन्त-से लग रहे थे. उसके बाद उन्होंने कहा, 'अब मैं जा रहा हूँ, बीजिंग पहुँचते ही चिठ्ठी लिखना',और वे आगे बढ़ गए, और मैं उन्हें देखता रहा. दो-चार कदम ही आगे गए होंगे कि उन्होंने मुझे मुड़कर देखा, और कहा, अब अपनी सीट पर आराम से बैठ जाओ. आज गाड़ी में भीड़ नहीं है. मैं उन्हें तब तक देखता रहा जबतक आने जाने वाले लोंगों की भीड़ में घुल-मिलकर उनकी आकृति अदृश्य नहीं हो गयी, मैं गाड़ी में जाकर अपनी जगह पर बैठ गया, और मेरी ऑंखें फिर डबडबा गयीं.

पिछले दो वर्षों में पिताजी से मिलने का अवसर नहीं मिला, और इस बीच परिवार संकट भी दिनोदिन गहरा ही होता गया. 

अपने जवानी के दिनों से ही पिताजी ने अपने जीवन का मार्ग स्वयं प्रशस्त किया, और अपने कन्धों पर पूरे परिवार का भार उठाया. यौवन में अच्छी-खासी नौकरी भी की.लेकिन 'सब दिन जात न एक समाना'. उन्होंने कल्पना भी न की होगी कि बुढापे में उन्हें इन विपदाओं का सामना करना होगा. आजकल छोटी-छोटी बातों पर भी वे खीज उठते हैं. और मेरे प्रति उनके व्यवहार में भी कुछ फर्क आ गया है. लेकिन वे दो वर्षों से मुझसे नही मिले हैं, 'अवगुण चित्त न धरौं'वाली बात है. मेरा गुण-दोष नहीं देखते-परखते, सिर्फ मुझे और अपने पोते को आँख भर के देखने के लिए लालायित रहते हैं.



मेरे बीजिंग पहुंचने के कुछ दिन बाद ही, उनकी एक चिठ्ठी मिली जिसमे उन्होंने लिखा था "अपनी सेहत के बारे में क्या लिखूं.  तबीयत ठीक-ठाक ही है, लेकिन इन दिनों बांहों में काफी दर्द रहता है, कलम की तो बात मत पूछो, chopstick उठाने में भी तकलीफ होती है, जिन्दगी के खटाड़े को किसी तरह खींच रहा हूँ-- अपने जीवन की अंतिम साँसे ही गिन रहा हूँ." 



मैं इतना ही पढ़ पाया कि आँखों छलछला उठीं, और अश्रु-विगलित आँखों में कौंध गयी और झलकने लगी मेरे पिता की पार्श्व छवि --काली मिर्जई में लैस, सर पर काली टोपी पहने मुझे सी-ऑफ कर वापस कर लौटते हुए पिताजी. न जाने हम दोनो फिर कब मिलेंगे ....

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पंकज मोहन
प्रोफेसर और डीनइतिहास  संकाय
नालंदा विश्वविद्यालयराजगीर
pankaj@nalandauniv.edu.in 

मैं कहता आँखिन देखी : उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत

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उदय प्रकाश साहित्य में अब एक वैश्विक उपस्थिति हैं. उनके कथा-संसार का विश्व की अनेक प्रमुख भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है, कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मान उन्हें मिले हैं, सत्ता के प्रतिपक्ष के एक जन-प्रतिनिधि के तौर पर अब वे जाने जाते हैं.

उदय प्रकाश से संतोष अर्श की इस महत्वपूर्ण बातचीत में उनके जीवन और साहित्य के प्रसंगों अलावा भारतीय समाज की जटिल बनावट की एक गहरी समझ भी हमें देखने को मिलती है, वे तमाम बंधी अवधारणाओं पर सवाल उठाते हैं.

उनके उपन्यासों की ही तरह रोचक और बौद्धिकता से भरपूर यह उत्तेजक बातचीत ख़ास आपके लिए.





गेंदे के एक फूल में कितने फूल होते हैं पापा !               
उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत



(यह दिल्ली की प्रदूषित और तीखी ठंड वाली 10, जनवरी,2018की शाम है जब संतोष अर्श और पूर्णिमा कुमार उदय प्रकाश के आस्ताने पर पहुँचते हैं. लेखक की पत्नी कुमकुम जी हमें दरवाज़े पर लेने आती हैं. सर्दी अजीब सी है,जलवायु परिवर्तन से आक्रांत सर्दी. ठंड कुछ ज़्यादा ही ठंडी और चुभन भरी है. संतोष अर्श जिस लेखक से मिलने पहुँचे हैं उसने कुछ ही दिन पहले लेखकों की हो रही हत्याओं के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया है और मौज़ूदा सत्ता की हिटलरी मूँछ से एक बाल उखाड़ने की हिमाकत की है. घर में समृद्ध जीवन-शैली की चमक और धमक है. संतोष अर्श हिंदी-लेखक का ऐसा रहन-सहन देख कर थोड़ा ठिठकते हैं. लेकिन कुछ देर बाद उदय प्रकाश भीतर से आ कर क़रीने से सजे हुए दीवानख़ाने में बैठते हैं. संतोष अर्श संयत हो जाते हैं. लेखक की मौज़ूदगी आगंतुकों को सहज अनुभव कराती है. सामने कुमकुम जी भी जलपान रख कर बैठ जाती हैं.     
    
वह साठ के ऊपर का लेखक है और हँसता है बच्चों की तरह. उसका स्मित जादुई यथार्थवाद है और उसके हाव-भाव में उसके लेखन जैसी त्वरा है. भौंहें रुपहली हो चुकी हैं और माथे की शिकन बढ़ने-घटने के साथ चाँदी सी चमकती हैं. लेखक वार्तालाप के बीच में अंग्रेज़ी बोलने का आदी है. वैश्विक साहित्यिक-राजनीतिक संदर्भों को वह अपनी बातों में विश्वकोशीय लहजे में इस्तेमाल करता है. उसमें साहित्य पर बात करने की अद्भुत ऊर्जा है. वह अपनी उम्र से आधे से भी कम उम्र के युवा से बात कर रहा है. उसकी आँखों की चमक में कहीं करुणा है तो कहीं जलते-बुझते चिरागों की रौशनी. लेखक के स्वर में साहित्यिक साहस है,ओज है,जो हेमिंग्वे की बात स्मरण दिलाता है कि,एक कायर आदमी कभी अच्छा लेखक नहीं बन सकता. 
    
हम दो-तीन घण्टे लगातार बातचीत करते रहे. लेखक मेरे असाक्षात्कारीय प्रश्नों के उत्तर भी देता रहा और कहता रहा कि इंटरव्यू फिर कभी ले लेना. उस लंबी और यादगार गुफ़्तगू में से कुछ बातें चुनकर कर यहाँ अवाम के बीच रख रहा हूँ. इन बातों में उदय प्रकाश के निजी जीवन के दुर्लभ क़िस्सों के साथ-साथ मौज़ूदा समाज,भाषा-साहित्य और राजनीति के रंग-ढंग भी पेश हुए हैं. यह पूरी बातचीत नहीं है,एक क़िस्त है. : संतोष अर्श ) 




संतोष अर्श: आपको अनूपपुर (मध्य प्रदेश) से दिल्ली क्यों आना पड़ा ?ऐसी क्या ज़रूरत थी,जो दिल्ली खींच लाई ?





उदय प्रकाश:मेरी माँ जो थीं न ! उनकी मृत्यु हो गयी थी,जब मैं ग्यारह साल का था. कैंसर से. और कैंसर से मेरा भी साथ देखिए कि अभी-अभी कैंसर हॉस्पिटल से ही लौटकर आ रहा हूँ. तो उस समय बहुत छोटा था. मेरा पिता जी फ़्यूडल वर्ग से थे. फ़्यूडल क्लास में बुराइयाँ बहुत होती हैं,किन्तु कुछ अच्छाइयाँ भी होती हैं. मार्क्स ने भी यह बात लिखी है. अच्छाई यह कि उसमें भावुकता बहुत होती है. इसमें जो रिलेशन होते हैं वे स्टेटिक होते हैं. और उसको एनालाइज़ भी किया गया है,कि जो भूमि-संबंध होते हैं वही उत्पादन के साधन बनते हैं. मोड ऑफ प्रोडक्शन इज़ लैंड. तो ज़मीन जो है वो चलती नहीं है. स्टेटिक रहती है. इससे जो रिश्ते बनते हैं,स्थिर होते हैं. और इसीलिए जितने भी मॉडल हैं आपके पास रिलेशंस के,आज भी,वो सब फ्यूडलिस्ट हैं. चाहे वो किसी का भी लें. शीरी-फ़रहाद,लैला-मजनूँ. सब में पायेंगे आप. तो ऐसा है. मेरे पिता बहुत भावुक थे. एंड ही वाज़ रियली टू अटैच्ड विथ माय मदर. तो मेरी माँ की जब मृत्यु हुई तब वो सैंतीस साल की थीं. थर्टीसेवन. और माँ की मृत्यु के बाद....

हमारे यहाँ क्या होता है कि दशगात्र वगैरह होता ही है. तेरहवीं भी होती है. फिर बीसर होता है बीसवें दिन. अब तो लोग ये सब नहीं मानते हैं,लेकिन उन दिनों होता था. तो बीसर के दिन से पीना-वीना,नॉन वेजेटेरियन,बिरादरी सब शुरू हो जाता है. तो बस उसी दिन से जब उन्होंने पीना शुरू कर किया...! अलमोस्ट ही स्टार्टेड सुसाइडल ड्रिंक एण्ड ही बिकेम एल्कोहलिक. और मैं जैसे ग्यारह साल का भी नहीं हूँ. और जो बहन थी छोटी वाली वो बहुत ही छोटी थी. पाँच साल की थी. और मेरे जो बड़े भाई थे उनकी शादी हो चुकी थी. एक बहन और थी वो शादी हो के जा चुकी थी. तो हम दो ही बचे थे. मैं और छोटी बहन. और पढ़ने का बहुत मन था. मैं शुरू से ही थोड़ा सा अलग था. कैमरा एक से उधार लिया था. चित्र भी बनाता था. पेंटिंग से ही शुरुआत हुई थी. कविताएँ लिखता था. माँ जो थीं,वो भी !! गाती भी थीं. भोजपुरी की थीं वही बोलती थीं. तो वही गीत गाती थीं,जैसा गाना अभी आपने सुनाया,वैसे ही. (संतोष अर्श ने उन्हें अपने फ़ोन में संग्रहीत अवधी के कुछ निर्गुण सुनाये थे,ननकी यादव के स्वर में)

पहले बहुत कम उम्र में शादी हो जाती थी. बारह-तेरह साल की उम्र में. तो वहाँ से जब आईं थीं तो एक सहेली भी आ गई थी उनके साथ. एक नोटबुक भी उनके साथ थी. जिसमें गीत लिखे हुए थे. चैती वगैरह और जो होते थे सभी. तो वो गातीं थीं तो गाँव की औरतें भी आ जातीं और वे भी साथ-साथ गातीं थीं. तो ये लगभग चलता ही रहता था. लेकिन उनकी हैंडराइटिंग बहुत अच्छी थी. और हर हर गाने के शुरू में वो कॉपी में एक चित्र बनाती थीं. चिड़िया या फूल-वूल कुछ भी. तो...(हँसते हुए) वो मुझे बहुत...! बहुत ज़्यादा फैसिनेट करता था. मैंने उसी की कॉपी करनी शुरू की. मैंने कोशिश की,कि मैं उनके जैसा चित्र बनाऊँ और उनके जैसी हैंड राइटिंग में लिखूँ. तो ये शुरुआत थी. कविताएँ लिखनी शुरू कीं. चित्र बनाने शुरू किए. एंड आई वाज़ आल्सो टू अटैच्ड विथ माय मदर. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद ये हुआ कि पिता बहुत ज़्यादा पीने लगे,तो लोगों को लगा कि इनको इस स्कूल से निकाल दिया जाय. तो मैं वहाँ से शहडोल आ गया. आठवीं पास करके,नवीं से. उसी उम्र में.

ग्यारह साल की उम्र में. माँ की मृत्यु हुई है 1964 में. दिसंबर में. और मैं 1965 में,वही जो एडमिशन का समय होता है,शहडोल आ गया. शहडोल डिस्ट्रिक्ट टाउन है और शहर है. तो वहाँ कुछ समय के बाद मिल गए मुझे एक टीचर. इनका नाम है मोहन श्रीवास्तव. वे हायर सेकेन्डरी में पढ़ाते थे. और देखते थे कि ये लड़का चित्र बनाता है और कविताएँ लिखता है. तो उन्होंने जब देखा तो अच्छी-ख़ासी,ठीक-ठाक कविताएँ थीं. (हँसते हुए) और चित्र भी ठीक थे,ज़रा मॉडर्न पेंटिंग थी. तो उनको लगा थोड़ा सा अलग है ये. तो उन्होंने परिवार के बारे में जाना. देन ही इज़ एक्चुअली आई कन्सीडर माय सेकेंड फादर.

और मेरे पिता कैंसर से ख़त्म हो गए. ही डाइड इन कैंसर !! बल्कि वो जो दरियाई घोड़ाकहानी है पिता की मृत्यु पर ही आधारित है. उसमें भी कैंसर है. ....और  फिर उसके बाद मैं कम्युनिस्ट पार्टी में आ गया. सोलह साल की उम्र में.



संतोष अर्श : यानी कम्युनिस्ट पार्टी में आप मध्य प्रदेश से ही आ गए थे ?

उदय प्रकाश:शहडोल...शहडोल..बल्कि वहाँ के एआईएसएफ़ का संस्थापक हूँ मैं. और काफ़ी काम किया. उसमें क्या है,कि देखिए,आज तो बहुत आसान है... उस समय चाइना वार के बाद,62 के बाद 64-65 में कम्युनिस्ट होना आज का माओवादी होना था. कभी भी एनकाउंटर हो सकता था. कभी भी आप अरेस्ट हो सकते थे. कुछ भी हो सकता था. उस समय आसान नहीं था. लेकिन हिम्मत भी थी और थोड़ा सा... (हँसते हुए) दिमाग़ में बैठ गया था,कि नहीं...समाज को बदलना है. बहुत ईमानदारी से काम करते थे. तो काम किया... और फिर सागर आ गया और सागर इसलिए आया क्योंकि वहाँ से रिस्टिकेट हो गया. शहडोल की यूनिवर्सिटी से मैं पहला था,जिसे रिस्टिकेट किया गया था. केसेज़ बहुत हो गए थे ऊपर. क्योंकि इनके लोग इंप्लीकेट कर देते हैं. इलेक्शन हो रहा था कॉलेज में,मैं खड़ा था प्रेज़ीडेंट के लिए. और होता है कि मारपीट होती है. मारपीट हुई तो हम लोग भी थोड़े से ज्यादा मिलिटेंट थे,हम लोगों ने भी मारा. इस पर इतनी उन्होंने दफ़ाएँ लगा दीं जितनी डाकू मलखान सिंह के ऊपर थीं. (कुमकुम जी इस बात पर खिलखिला पड़ीं)एक साल वो बर्बाद हुआ. फिर सागर आ गया.

सागर में भी ख़ूब काम किया. जबकि सागर में...!! यह जो पीली छतरी वाली लड़की हैवह पूरा सागर विश्वविद्यालय का ही वृत्तांत है. वही एज़ थी अट्ठारह-उन्नीस साल की. तो लव-अफ़ेयर वगैरह उसमें होता ही है. प्रेम और रिवॉल्यूशन सब साथ-साथ चलता है. फिर वहाँ रहा. उसी दौर में  इमरजेंसी लग गई. इमरजेंसी को ऊपर से सीपीआई की लीडरशिप सपोर्ट कर रही थी. कम्युनिस्ट पार्टी के लोग उसे सपोर्ट कर रहे थे,लेकिन ग्रासरूट पर हम पकड़े जा रहे थे और आरएसएस वाले ही पकड़वा रहे थे. ...और सब उन्हीं के हाथ में है...आज भी सबकुछ...(हँस पड़े) हर जगह है... आप जानते ही हैं.



संतोष अर्श : इमरजेंसी को तो आरएसएस ने कैश किया बहुत क़ायदे से ?!!

उदय प्रकाश:बहुत-बहुत...!! फिर वहाँ से भागना पड़ा. क्योंकि वारंट हो गया. बल्कि बड़ी इंटरेस्टिंग कहानी है. एक कॉमरेड जगदीश पाण्डेय थे. वे लड़के ही थे और उनकी शादी हो रही थी. तो हम लोग वहाँ उनके गाँव में गए हुए थे. वहाँ पर खाना-पीना हुआ जैसा कि होता है कॉमरेड्स में. रात में लौट कर आए टैगोर हॉस्टल में कमरा नंबर दस था. मैं और जगदीश तिवारी दोनों रूममेट्स थे. दोनों लोग नशे में धुत्त थे. तो... लौट कर आए तो देखा वहाँ पर एक बड़ा सा ताला लगा हुआ है. हमने सोचा यह क्या हो गया ?फिर लगा शायद कुछ रह गया होगा मेस-वेस का (बाक़ी,उधार) इसलिए वार्डन ने ताला लगा दिया है. वार्डन थे एक राय. उनको जाकर रात में हल्ला मचा कर जगाने लगे. वो उठे तो काँप रहे थे. बोले,“कहाँ आए हो तुम लोग ?”…भागो...!! बोले,पुलिस ने शायद रेड किया है हॉस्टल में और तुम लोगों के रूम से कट्टे बरामद हुए हैं. और तमाम किताबें भी बरामद हुई हैं. हमारे कमरे से जो देसी कट्टे होते हैं... बरामद हुए थे. तो हो गया फिर. भागे वहाँ से. एक पुरुषोत्तम सेन थे ! हमारे कॉमरेड परसू. अब तो कम है,लेकिन उस समय छूरेबाजों की ज़रूरत होती थी,कि थोड़ा सा अपने डिफेंस में रहे कोई.

परसू मशहूर छूरेबाज़ थे. पुरुषोत्तम सेन परसूमशहूर लड़ाके थे. सागर में दो गुट हुआ करते थे. एक ओर कांग्रेस और आरएसएस को मिलाकर उत्तम खटिक थे. वे भी बड़े छूरेबाज़ थे. दूसरी ओर हमारी यानी लेफ्ट की तरफ से परसू थे. वे भी बड़े एक्सपर्ट थे. अगर किसी को मारना है तो धाराओं में बात करते थे. पूछते थे कि 327 कराना है,कि 302 कराना है,या 307 कराना है....तो उनके यहाँ रात में छुपे रहे और जब कुछ अप्रोच किया गया तो शिव कुमार मिश्र लेफ़्ट के बहुत ऑनेस्ट व्यक्ति थे,जो आपके गुजरात के आनंद में भी रहे. वे बहुत सहानुभूति रखते थे और जिनको अभी मिला है... साहित्य अकादमी !! रमेश कुंतल मेघ... उनके भाई हैं. रमेश कुंतल मेघ से मैं जेएनयू में मिला हूँ,…एक बार. जब भाग कर आया था शहडोल से सागर और शिव कुमार मिश्र से मिला था तो उन्होंने दूसरे-तीसरे दिन ही वह फाइल दे दी थी जो रमेश कुंतल मेघ उनके घर पर छोड़ गए थे. उसमें चे ग्वेरा से जुड़ी जितनी न्यूज़ थीं,वह कटिंग काट-काट कर उन्होंने चिपका रखी थी. और तब तक मैंने चे ग्वेरा की जो वेंसेरेमॉसहै उसका अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ डाला था. तो शिवकुमार मिश्र ने वो फ़ाइल दी और कहा कि उदय तुम जेएनयू चले जाओ. “वहाँ नामवर आया है,नामवर आया है.”... (देर तक हँसते हुए) उन्होंने एक चिट्ठी भी लिखी. परसाई जी ने भी चिट्ठी लिखी. फिर वो लेकर...!! हम चार-पाँच लोग जेएनयू आए थे....पता नहीं आप उनको जानते भी होंगे कि नहीं...!! सुधीर मिश्रा भी...! जो फिल्म मेकर हैं...!! 



संतोष अर्श : हाँ...हाँ... जानता हूँ !! ये साली ज़िंदगीजिन्होंने बनाई थी.... 

उदय प्रकाश:वह सोशलिस्ट थे. एसयूसीआई में थे. मैं,सुधीर मिश्रा,विभूति दत्त झा,परशुराम हरनेपाल,हम चार-पाँच लोग आए थे. तो हुआ क्या...?सिर्फ़ मेरा एडमिशन हुआ. और एडमिशन बिना नामवर जी की सिफ़ारिश के हो गया. अब तक मैं न उनसे मिला था और न ही उनको शिव कुमार मिश्र की चिट्ठी दी थी. क्योंकि मैं पढ़ने-लिखने में ठीक था. अगली बार सुधीर मिश्रा का भी हो गया,सुधांशु का भी हुआ था जो उनके छोटे भाई थे. वह भी बहुत टैलेंटेड थे और विभूति दत्त झा का भी हो गया. लेकिन एक साल के बाद हुआ. लेफ़्ट में जितने भी टैलेंटेड पढ़ने-लिखने वाले लोग थे सागर में...तो इस तरह जेएनयू आ गए.

हम लोग विरोध करते थे इमरजेंसी का... और जो यह टेपचूकहानी है,वह यहीं लिखी गई. इमरजेंसी के दौरान इसको पढ़ते थे. रात में मानसरोवर जाते थे,दिल्ली विश्वविद्यालय भी जाते थे. उस समय एक आरएफ़एसआई (RFSI)बन गई थी. रिवॉल्यूशनरी एसएफआई. इसी की तर्ज़ पर हमने एक आरएआईएसएफ (RAISF) बना लिया था रिवोल्यूशनरी एआईएसएफ़ (ठहाका लगाते हुए) तो टेपचूउसी समय लिखी गई थी और बहुत पॉपुलर हुई. 



संतोष अर्श:  दिल्ली में आपने बहुत संघर्ष किया है. किया जा चुका जो संघर्ष होता है,वह उन लोगों को बहुत ऊर्जा देता है,जो संघर्ष कर रहे होते हैं. तो दिल्ली के अपने संघर्ष को उदय प्रकाश कैसे बयान करेंगे ?

उदय प्रकाश:संघर्ष...(देर तक सोचते हुए) क्या कहेंगे उसको !! क्या होता है न..,आपको टारगेट कर लिया जाता है. यू आर मार्क्ड !! और उसका रिजल्ट होता है आपका स्ट्रगल. आपके पास सब कुछ है ! आपके पास प्रतिभा है,आपके पास योग्यता है,क्षमता है ! हर कोई जानता है कि ही कैन बिकम ए वेरी गुड टीचर ! अ गुड ऑफिसर,व्हाटएवर !! बट यू आर टैलेंटेड एंड दे डोंट ट्रस्ट यू. तो यह होता है. तो ये जो नतीजा निकलता है,इसको आप संघर्ष भी कहिए,ये डिफ़रेन्स है. एक तरह का विंडक्टिवनेस भी कहिए. यानी आप संघर्ष भी कर रहे होते हैं और एक तरफ से आपको सजाएँ भी मिलती चलती हैं. मेरी बात समझिए. यानी आप हैं किसी और डिसिप्लिन के... मान लीजिए आपने बॉटनी में एक्स्पर्टाइज़ किया और अब आपको पूरे बॉटनी के क्षेत्र में कहीं नहीं घुसने दिया जा रहा है. तब पता लगा आप फिल्म बना रहे हैं या और कुछ कर रहे हैं.

तो स्ट्रगल ये देता है... कि बहुत सारे काम आपको अपनी आजीविका के लिए ऐसे करने पड़ते हैं जिन्हें आपने सोचा नहीं हैं. लेकिन बाद में आप ये रियलाइज़ करते हैं कि उन सबने आप में कंट्रीब्यूट किया. आप हर जगह से सीखते गए. और आप के अनुभव का दायरा बढ़ता गया. ये होता है. आर्थिक कठिनाइयाँ आती हैं. लेकिन कभी-कभी बहुत अधिक हो जाता है....  जैसे हमारी शादी हो गई थी (कुमकुम जी को ओर इशारा करते हुए). बहुत पहले हो गई थी. मेरे ख़याल से उन्नीस साल की ये थीं और पच्चीस साल का मैं था. शादी जेएनयू में हुई थी. इन्होंने फ्रेंच और स्पेनिश में पोस्ट ग्रेजुएशन किया हुआ है...पुर्तगीज़ में भी. तो ये सोच लिया था कि शादी करनी है. और मैं सच कहता हूँ कि मैंने कभी कास्ट सिस्टम में बिलीव नहीं किया. मैं विरोधी रहा हूँ...!! सिंस वेरी बिगिनिंग. हमारी इंटरकास्ट मैरिज थी. बल्कि हम लोगों को बहुत सारे कॉम्प्लीमेंट आए... (मुस्करा कर) सारिका से लेकर अन्य हिंदी-अंग्रेज़ी के पत्र-पत्रिकाओं,अख़बारों में. और आप सोचिए,उस समय !! यह 1976-77 का समय था. हम लोगों  ने (कुमकुम जी की ओर स्नेह से देखते हुए) साथ काम किया और काफ़ी मेहनत की. इन्होंने भी...दोनों ने की. लेकिन यह हुआ कि एक समय पैसे नहीं थे. बच्चे भी हो गए थे. तो बहुत सी जगहों पर रहे. जैसे कि टाइप वन में रहे ! जहाँ पर सफ़ाई कर्मचारी रहते हैं. और एक कमरा होता था,जिसमें हमने एक फोल्डिंग बिछा लिया और एक उठा कर दीवार से लगा दिया और वहीं कोने में खाना बना लिया. उसी में कुछ कर लिया.

उसी में बाबा नागार्जुन भी आते थे. त्रिलोचन जी भी आते थे. केदार जी भी आते थे...कभी-कभी. मैरिड मेंस हॉस्टल में चले गए. वहाँ भी एक कमरा था. (कुछ क्षण मौन रह कर) ...तो यह ज़रूर है  कि जब आप पढ़ते-लिखते हैं,थोड़ा सोचते हैं,तब आर्थिक कठिनाइयाँ होती हैं,लेकिन वह इतना कष्ट नहीं देती. आपका लक्ष्य कुछ और रहता है. और अगर नौकरी ही पाना जीवन का लक्ष्य बना लें तो फिर हताशा ज़्यादा होती है. ...ये भरोसा भी रहता था कि कुछ ना कुछ कर लेंगे. ...और बहुत काम किये. इंटरप्रिटर (दुभाषिए) के काम किए. ट्रांसलेशन तो भरपूर किये. एक समय होता था कि लगातार ट्रांसलेशन. तो यह सब हुआ. मेरा यह मानना है कि रहा जा सकता है,एज़ अ एक्सक्लूसिव रैडिकल फ्रीलांसर...!! वन कैन रिअली सरवाइव व्हाइल लर्न एंड ग्रो. बस यह है कि उसमें लगन चाहिए. अनुशासन चाहिए. जितना किसी नौकरी में होता है उससे ज़्यादा डिसिप्लीन आपकी फ्रीलांसिंग में होनी चाहिए. डेडलाइंस आप को मीट करनी होती हैं. बहुत सारा प्रेशर रहता है. तो वह भी है.

फिर नौकरी भी की मैंने बीच-बीच में. जेएनयू में ही मेरा अपॉइंटमेंट हो गया. और अपॉइंटमेंट भी इन लोगों के ना चाहने पर हुआ क्योंकि नारायणन बन गए थे वाइस चांसलर. के. आर. नारायणन. जो बाद में राष्ट्रपति बने. वह हमारे वी.सी. थे. और इंटरव्यू हो रहा था नामवर जी नहीं चाहते थे...! इंटरव्यू में नारायणन जी को लगा कि नहीं,दिस ब्वाय इज़ ब्रिलिएंट...और उन्होंने वहीं कह दिया. तो नौकरी मिल गई. असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हो गए जेएनयू में ...!! जल्दी ही हो गए. उससे भी बड़ी मुसीबतें पैदा हुईं. लोगों को लगा कि आया और उसको नौकरी मिल गई. तो यह बताने लायक नहीं है. वहीं के हिंदी विभाग के लोगों ने मेरे खिलाफ़ प्रोपेगेंडा करना शुरू कर दिया... कि ये जो उदय प्रकाश है बिहार की पत्रिकाओं में सेक्स पर आर्टिकल लिखता है. यह झूठ था... बिल्कुल झूठ था लेकिन कहीं से लिखकर,उसे मेरे नाम से छपवा कर लेकर चले भी आए और डिस्ट्रीब्यूट भी कर दिया. मैं भी बहुत यंग था. मैंने उनको कहा कि क्यों झूठ बोलते हो ?पीटा भी उनको !! मारपीट भी की. स्टूडेंट वर्सेज़ टीचर का मामला बना.

चूँकि मैं स्टूडेंट भी रह चुका था. और सब जानते भी थे... तो यह सारा प्रोपेगेंडा फ्लॉप कर गया. उससे कुछ हुआ नहीं,लेकिन इस तरह की कठिनाइयाँ आईं. तो ये जो कांसपिरेसीज़ हैं,बहुत होती हैं. इसीलिए मैं कहता हूँ कि पीली छतरी वाली लड़कीजरूर पढ़ा जाना चाहिए...कि लैंग्वेज़... भाषा जो है न...!! वह जितना कंज़रवेटिज़्म है,जितना रिट्रोग्रेशन है,जितनी संकीर्णताएँ हैं;उन सब का एक तरह से न्यूक्लियर सेंटर होता है. किसी भी भाषा में आप जाइए. उर्दू में जाइए,अंग्रेज़ी में जाइए,हिंदी में जाइए...तो ये भाषा इंस्टीट्यूटलाइज़ है. इसीलिए पीली छतरी वाली लड़कीमें मैंने हिंदी विभाग ही चुना. और मैं वास्तव में हिंदी के लिए आया नहीं था. मैं साइंस का स्टूडेंट था. मेरी रुचि थी एंथ्रोपोलॉजी. एंथ्रोपोलॉजी के लिए आया था और एडमिशन भी मिल गया था एंथ्रोपोलॉजी के डिपार्टमेन्ट में. और मेरे एक कज़िन थे,जो एंथ्रोपोलॉजी के बहुत प्रसिद्ध विद्वान थे...



संतोष अर्श: (बीच में ही बोलते हुए) हाँ...हाँ...हाँ...पीली छतरी वाली लड़की में एंथ्रोपॉलाजिकल ब्यौरे मिलते हैं.

उदय प्रकाश:अब भी...! एंथ्रोपोलॉजी के बारे में अब भी बहुत जानता हूँ. पीली छतरी वाली लड़कीमें देखिए...!! और वह पूरा जेनेटिक बेसिस है. यह कोई हिंदी वाला नहीं है कि इधर-उधर से उठा कर,ला कर लिख दूँ,कि मनुस्मृति में यह लिखा है,वेदों में वो लिखा है,और पुराणों में ये लिखा है,यह सब बहस नहीं करना चाहता हूँ !! क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है. अच्छा है कि आप उसको जेनेटिक बेसिस पर चैलेंज करिए. कास्ट सिस्टम है नहीं. इसकी कोई रिअलिटी नहीं है. ये ऊपर से बनाया गया है. और ये...ये सिर्फ एक फ़ेकार्ड है. इसे ख़त्म हो जाना चाहिए. और ये नहीं होने दिया जाएगा. अंबेडकर नहीं कर पाए,बुद्ध नहीं कर पाए तो हम लोग क्या हैं ?अपनी तरफ़ से कितना कर पाएंगे ?तो सर देखिए...!! स्ट्रगल को केवल इकोनॉमिक स्ट्रगल मत मानिए. मेरा यही कहना है.  



संतोष अर्श : भीतर का संघर्ष और बाहर का संघर्ष ! बाह्य और अभ्यंतर का संघर्ष. बाहर से कई गुना ज़्यादा भीतर... जो मुक्तिबोध के यहाँ मिलता है ?  

उदय प्रकाश:संघर्ष सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं होता है. मुक्तिबोध को क्यों मिला ?क्योंकि वे बहुत ऑनेस्ट मार्क्सिस्ट थे. अगर वह ना होते उस तरह से,तो उनको क्या स्ट्रगल था?कहीं भी नौकरी ना छोड़नी पड़ती उनको. आकाशवाणी में थे,वहीं रह जाते. अध्यापक थे,अध्यापन कर लेते. संघर्ष आपको शांत नहीं रहने देता. कहीं-न-कहीं वह आपको परेशान करता है...और आपको लगता है कि यह ठीक नहीं है. एंड दैट ब्रिंग्स यू इन अ एरिया व्हेयर यू हैव स्ट्रगल्ड मोर !! तो संघर्ष बढ़ता जाता है. इस उम्र में हर कोई चाहता है कि वह आराम से रहे. मुझको क्या पड़ी थी अवॉर्ड लौटाने की ?आप खुद सोचिए कि जब एक-एक करके लोग मारे जा रहे हैं और उसी तरह के लोग मारे जा रहे हैं,जिस तरह के आप हैं. और जो संस्था अवॉर्ड दे रही है,वह इस पर चुप्पी साधे है,तो क्या करेंगे आप ?तब ऐसा लगता है,कि कोई मतलब नहीं है ऐसे पुरस्कारों का,और उसको लौटा देना चाहिए. तो लौटा दिया !! तो वह एक मूवमेंट बन गया. पूरा-का-पूरा एक आंदोलन खड़ा हो गया.



संतोष अर्श : उदय जी साहित्य अकादमी अवॉर्ड आपने पहली बार लौटाया. हिंदी सुजन-समाज में यह अभूतपूर्व घटना है. जब आप ने पुरस्कार लौटाया तो सत्ता से टक्कर भी ली. सत्ता भी कोई ऐसी-वैसी सत्ता नहीं है,एक ताक़तवर फ़ासिस्ट सत्ता है,जिसे आप चैलेंज कर रहे हैं.यह करते हुए आपको डर नहीं लगा ?

उदय प्रकाश :क्यों नहीं डर लगा !! काफ़ी डर था. और हम लोग तो मार्क्ड हैं. चिह्नित हैं. (कुमकुम जी ने बीच में एंटर करते हुए कहा : धमकियाँ भी दी गईं दो-तीन बार)

संतोष अर्श : मैंने एक वीडियो देखा था यूट्यूब पर,उसमें भी आपको धमकाया जा रहा था...!

उदय प्रकाश:  हाँ मैं शिकागो से लौटा था और उस प्रोग्राम में गया था. वहाँ से लौट रहा था. मेरा फोन चार्ज नहीं था. और ये (कुमकुम जी) फोन कर रही थीं. यह घबरा गईं. क्योंकि माहौल ऐसा था कि कहीं कुछ हो न गया हो. जब बरखा दत्त ने मेरा इंटरव्यू लिया था एनडीटीवी पर,उसमें भी मैंने कहा था... और खुलकर कहा था कि ख़तरा बहुत है. और अभी भी बहुत खतरे हैं. एक नहीं है. यह मत सोचिए,कि अब नहीं है. क्या समस्या थी गौरी लंकेश के साथ ?अख़बार निकालती थीं ! किसी को उससे क्या दिक्कत थी ?लेकिन नहीं बर्दाश्त कर पाए. कलबुर्गी को क्यों मारा गया ?कलबुर्गी तो अच्छे-खासे स्कॉलर थे. वाइस चांसलर रह चुके थे. वचना-साहित्य पर काम था. वचना कन्नड़ भाषा का दलित-लेखन है,आदि-दलित लेखन. उसी की परंपरा के लेखक थे. आज से पहले भी लोग रहते थे. अचानक इस समय क्या हुआ कि आप उसको भी नहीं बर्दाश्त कर पा रहे हैं ?एक बूढ़े आदमी को ?तो ऐसा एक फैनाटिसिज़्म पैदा हुआ है. जो एलिमिनेट करना चाहता है. जो नहीं चाहता है कि लोग बचें.

ऐसा पहले कभी नहीं था. मैं जब आपके अहमदाबाद में था,वहाँ बोल रहा था तब भी कहा था कि,कम्युनल राइट्स पहले भी होते थे,कास्ट कॉनफ्लिक्ट भी होते थे;लेकिन मार्क्ड अससिनेशन नहीं होते थे. ...कि,किसी को चिह्नित कर लें और जा कर उसका मर्डर कर दें. अब ऐसा होने लगा है और पूरी लाइन लगी हुई है. और लेखकों पर तो... मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कभी हुआ है,इस तरह का हमला. और पूरे साउथ एशिया में यह हो रहा है,पाकिस्तान में हो रहा है,बांग्लादेश में हो रहा है. आप अच्छे ब्लॉगर हैं,रैशनल बातें कर रहे हैं,तो पता चलेगा कि कुछ भी हो सकता है. इस समय ऐसा है. और हिंदी की समस्या तो बहुत अलग है क्योंकि अगर आप यहाँ हैं,तो अकेले हैं और हर जगह आपको अकेले स्ट्रगल करना पड़ेगा. यदि आप ईमानदार हैं,समाज के प्रति जागरुक हैं,तो आपको संघर्ष करना-ही-करना पड़ेगा. हिंदी पत्रकारिता को आप देखिए ! कौन बचा है ?जिसका हम नाम ले सकते हैं?रवीश चल रहे हैं... शायद इसलिए भी कि,ही बिलोंग्स टु अपरकास्ट !! आप कल्पना कीजिए कि अगर वह दलित होते या और कुछ होते,तो क्या नहीं किया जाता ?तो यह सचाई है. 



संतोष अर्श: हिंदी की जहाँ तक बात है,पिछले दिनों जो लेखक मारे गए हैं वे गैर-हिंदी क्षेत्र,दक्षिणी-पश्चिमी भाषाओं के थे. इस सत्य के वज़न पर मेरा प्रश्न यह है कि हिंदी का लेखक क्यों नहीं मारा जाता है ?क्या हिंदी-लेखन फ़ासिस्टों के लिए निरापद है ?या जो लेखन हो रहा है हिंदी में,वह फ़ासिस्टों के लिए मुफ़ीद है ?

उदय प्रकाश : (हँसते हुए) हा...हा...!! हिंदी में जो लिखा जाता है उसकी कितनी रीच कितनी है?जो एंटी कम्युनल राइटिंग है,जो धर्मनिरपेक्ष लेखन है,वह किस भाषा में लिखा जा रहा है,उसकी पहुँच कितनी है ?सवाल सबसे पहले भाषा पर होता है. हम बलराज साहनी का उदाहरण ले सकते हैं. वे जालंधर में पैदा हुए. पंजाबी के थे. अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर बने. शांतिनिकेतन में पढ़ाते थे. शांतिनिकेतन के कैंपस की जो भाषा थी,वह हिंदी थी. वहाँ पूरे भारत के राज्यों के स्टूडेंट होते थे और कैंपस के भीतर हिंदी ही कम्युनिकेटिंग लैंग्वेज़ थी. लेकिन उसका कहना था,“कि मैं जब हिंदी विभाग में जाता था,तो वहाँ के लोग कौन सी भाषा बोलते थे,यह मैं समझ नहीं पाता था.” हिंदी विभाग की भाषा निश्चित ही कैंपस की हिंदी भाषा से बिलकुल अलग थी. ...और यही मैं कहना चाहता हूँ,जो बलराज साहनी कहते थे.

...कि हिंदी तो बाद में उसको शांतिनिकेतन के कैंपस में विमल रॉय ने सिखाई और विमल रॉय बंगाल से थे. बंगाली हिंदी सिखा रहा है,पंजाब से आए हुए एक्टर को,जो इंग्लिश का प्रोफ़ेसर है....तो हिंदी वो है. एक तो हिंदी को बनाया गया कॉलोनियल टाइम में. हिंदी खड़ी बोली कोलकाता में बनी. और बनी तो यह मार्केट के लिए बनी. और एक अच्छी कम्युनिकेटिव लैंग्वेज़ के रूप में डेवलप होना चाहिए था इसको. किसी भी जगह के व्यापारी आएँ और ख़रीदार आएँ तो आपस में संवाद कर सकें. ...फिर कैसे इसको प्यूरिफाई किया गया. कैसे उसमें समेशन शुरू हुए. उन शब्दों को निकालो,इन शब्दों को भीतर लाओ का समीकरण किया गया. एक तत्सम शब्दों का,संस्कृत के शब्दों का फ्लाईओवर बनाया गया. अरबी,पर्सियन सबको बाहर किया गया है.

पालि,प्राकृत,अपभ्रंश के शब्दों को बाहर किया गया है. आपने पालि को बाहर किया,प्राकृत को बाहर किया,तो बुद्ध को बाहर कर दिया. यानी आप की जो पूरी लिबरल लीगेसी थी,उसको आपने बाहर का रास्ता दिखा दिया. ... तो फिर बचा क्या हिंदी में ?बचा है वही,जो तुर्की में बचा है !! जैसे नाज़िम हिकमत तो यही कहता था,“कि मैं तुर्की में लिखता हूँ इंकलाब और मतलब निकलता है जेहाद.” (हँसते हुए) तो हिंदी में आप कहाँ क्या लिखेंगे ?क्योंकि इतने लोडेड होते हैं शब्द,शब्दों के पीछे जो अर्थ का इतना लोड होता है,पहले से ही उनके भीतर एक उद्भार होता है,वे वही अर्थ वहन करते हैं,जो वह करते हैं आए हैं. इसीलिए हिंदी का असर नहीं पड़ता है. इंपैक्ट नहीं है,सोशल इंपैक्ट नहीं है. और यह बहुत बड़ा फैक्टर है... कारण है. जो आपको रिवॉल्यूशनरी सॉन्ग्स भी मिलेंगे,जो पॉपुलर सॉन्ग्स मिलेंगे,उर्दू में मिलेंगे. जिसे आप उर्दू कहते हैं,दरअसल वही हिंदी है. आप चाहे फ़ैज़ को लीजिए,साहिर को लीजिए,किसी को भी ले लीजिए...तो उसका इंपैक्ट है. आप नारे भी लगाते हैं,तो इंकलाब जिंदाबाद कहते हैं...तो लगता है कि कुछ है. 




संतोष अर्श: यानी हमारे पास अभी जो हिंदी है,वह फ़ासीवाद के लिए पूरी तरह से निरापद है. ऐसा कह सकते हैं ?

उदय प्रकाश:हाँ बिल्कुल कह सकते हैं !! निरापद है. संस्कृत निरापद है. इसे नियो-संस्क्रेट कह सकते हैं. और इसका परपज़ वह नहीं है. बेसिकली इट इज़ फॉर एंटरटेनमेंट एंड आलसो टु कैरी सम रिलीज़ियस.. सेमी रिलीज़ियस लीगेसी. तो अब जैसे कोई मार्क्सवादी भी होगा हिंदी में तो वह तुलसीदास को बहुत प्रोग्रेसिव,डेमोक्रेटिक सिद्ध कर देगा. असंभव है,लेकिन वह कर देगा. अब आप अरगुमेंट्स देते रहिए कोई असर नहीं पड़ेगा. अब जैसे मान लीजिए कबीर का ही है. अब कबीर के बारे में ऐसी बहुत ही धारणाएँ बनाई गईं. निष्कर्ष क्या निकलता है ? ..कि वो रामानंद के शिष्य थे. चेलों की परंपरा में आ गए थे. वैष्णव परंपरा में आ गए थे.



संतोष अर्श : हा..हा..हा...!! विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे !!
उदय प्रकाश:(ठहाका)... तो यह जो कन्वर्टिंग है,कनवर्ज़न है,इसमें बुद्ध तक को नहीं छोड़ा उन्होंने. तो कबीर को कहाँ छोड़ेंगे ?तो यह समस्या है हिंदी के साथ. को-ऑपरेटिव नहीं है,क्योंकि मैंने देखा है,हिंदी विभागों में जो विद्वान होते हैं,उनका एकेडमिक कंट्रीब्यूशन कुछ नहीं होता है. पता लगा कोई है,जो बहुत अच्छा उपन्यास लिखने लगा,कोई कुछ और लिख रहा है या और करने लग गया है,उनकी क्या कोई अकादमिक कंट्रीब्यूशन है ?कोई अच्छा शोध है ?नहीं मिलेगा !! जो अच्छे रिसर्च हैं,वह भी गिनती के हैं,दो-चार. वह बहुत कम लोगों के पास हैं. जैसे नामवर जी का अच्छा है. नामवर जी का क्यों ?क्योंकि उन्होंने मेहनत की है,अपभ्रंश में गए वो. हजारी प्रसाद द्विवेदी का बहुत अच्छा है. सिद्ध-नाथ परंपरा रही हो या कुछ और रहा हो. या कबीर पर रहा हो. कबीर भी उनको उनको बंगाल से मिले. कहा जाता है ना;कि क्षितिजमोहन सेन को ना पढ़ा होता उन्होंने तो कबीर पर उस दृष्टि से नहीं देख सकते थे. नवजागरण तो हुआ नहीं हिंदी में. नवजागरण कहीं से खोज लाये हैं रामविलास जी. कहीं कमेंट किया था नामवर जी ने कि,पूरे यूरोप में एक बार या दो बार नवजागरण हुआ है,लेकिन यहाँ हिंदी में कई बार,दर्जनों बार नवजागरण हुआ है. (ठहाका लगाते हुए) तो वो आए उन्होंने एक नवजागरण पैदा कर दिया.

भारतेंदु आए तो उन्होंने एक बार नवजागरण पैदा कर दिया. महावीर प्रसाद द्विवेदी आए तो उन्होंने एक बार नवजागरण पैदा कर दिया. हर बार तो नवजागरण हुआ है. लेकिन नवजागरण हुआ कहाँ है ?नवजागरण हुआ होता तो आज यह हालत होती ?कि खाप पंचायतें लगतीं और लड़कियों को गर्भ में मारा जाता ?इतना सारा कुछ,जो हम सारी जनता में देखते हैं. तो कहीं कोई नवजागरण नहीं हुआ. और देखिए मेरा यह मानना है,आधुनिकता बहुत बड़ी चुनौती है हिंदी के लिए. हिंदी-समाज के लिए. इसका मॉर्डनाइज़ेशन नहीं हुआ. सबसे पहले तो इसको आधुनिक होना है.



संतोष अर्श: उदय जी पिछली शताब्दी में साहित्य और राजनीति के जो संबंध हुआ करते थे,साहित्यकार और राजनेता के जो संबंध हुआ करते थे. क्या वो अब नहीं रहे ?याद आता है कि अदम गोंडवी की मरणासन्न अवस्था में उन्हें पीजीआई में भर्ती नहीं किया जा रहा था,तो मुलायम सिंह यादव ने सुबह-सुबह लखनऊ पीजीआई जा कर अदम गोंडवी को वहाँ भर्ती कराया था. यानी साहित्य और राजनीति के अच्छे संबंध हुआ करते थे. आपको क्या लगता है,कि पिछली शताब्दी में ही वे संबंध ख़त्म हो गए ?

उदय प्रकाश :आपका कहना बिल्कुल सही है. ये था. पहले राजनीति का इतना विसंस्कृतीकरण नहीं हुआ था. डीकल्चरलाइज़ेशन नहीं हुआ था. जैसे आप नेहरू को ही देखिए सारे बड़े लेखकों के साथ चाहे वो जोश मलिहाबाद रहे हों,फ़िराक़ साहब रहे हों,निराला या नागार्जुन रहे हों...कोई ऐसा नहीं था...सबसे उनके संबंध रहते थे. दिनकर की किताब की तो उन्होंने भूमिका ही लिखी थी. फिर बाहर से आने वाले जो लेखक थे लेखक थे बर्नार्ड शा...पाब्लो नेरुदा सबसे ! तो एक रिस्पेक्ट था. और नेहरू पढ़ने वाले थे. गाँधी क्या कम-पढ़े लिखे थे ?तल्सताय को पढ़ना और उस समय की फिलासफ़ी के पूरे डिबेट को समझना. बल्कि जो एस. गोपाल ने कहा कि गाँधी अधिक वेस्टर्नाइज़्ड थे. गाँधी ने पश्चिम को ज़्यादा समझा था...बहुत पढ़ा था. और उसे रिजेक्ट भी किया था.

नेहरू थोड़े से कमज़ोर थे. नेहरू ने सरेंडर कर दिया था. ये एस. गोपाल का कहना था. उस समय पढ़े-लिखे लोग थे. और अभी आपने समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव का जो ज़िक्र किया,तो समाजवाद की बुनियाद रखने में लोहिया का बड़ा योगदान है. फिर खुद समाजवादी पार्टी में आप देखिये ! आचार्य नरेंद्र देव कम पढ़े-लिखे थे ?मानवेंद्र प्रताप राय,जय प्रकाश नारायण सब पढ़ने-लिखने वाले नेता थे.

अब कौन है बताइये आप ?किससे उम्मीद करेंगे कि वो साहित्यकारों को समझेगा. ये लोग तो मंच के कवियों के लायक भी नहीं हैं. इनकी कोई इंटलेक्चुअल जड़ें ही नहीं हैं. तो कैसे आप उम्मीद करेंगे ?और धीरे-धीरे जो एसर्सन हुआ...एक लुंपेनाइज़ेशन समाज का,तो पहले जो नेताओं के आस-पास वोट बटोरने,बूथ लूटने वाले जैसे लोग होते थे,अब वो खुद नेता बन कर आ गए हैं. वो पुराना वाला नेता तो चला गया बैकग्राउंड में...और वही सत्ता में है. 

तो जो लंपटता सत्ता में आई,उसका साहित्यकारों से क्या लेना-देना ?या लेखकों से क्या लेना-देना ?वो तो किसी क्रिकेटर या बॉलीवुड स्टार को साथ लेकर ज़्यादा ख़ुश होगा. तो ये पॉपुलिज़्म आया और इसका बहुत प्रभाव पड़ा है साहित्य के उत्सवों पर. बल्कि अभी किसी ने कहा भी था कि जो लिट्रेचर फेस्टिवल हो रहे हैं,उसमें लिट्रेचर है कहाँ ?
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संतोष अर्श
poetarshbbk@gmail.com  
क्रमश: ...... 
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