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तुलसी राम : मुर्दहिया अमर है : मोनिका कुमार

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मुर्दहिया और मणिकर्णिकाके लेखक, प्रसिद्ध बौद्ध–विचारक और अंतर-राष्ट्रीय सम्बन्धों के विशेषज्ञ तुलसीराम की आज पुण्यतिथि है. आज ही के दिन लम्बी बीमारी से लड़ते हुए २०१५ में वे हमसे विदा हो गए थे. अपने दोनों आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ उन्होंने अपनी बीमारी से जूझते हुए लिखीं थीं.

कवयित्री मोनिका कुमार ने उनके जीवनोप्न्यास मुर्दहिया को केंद्र में रखते हुए उनके अवदान को अचूक और मार्मिक ढंग रेखांकित किया है.      




मुर्दहिया अमर है                           
मोनिका कुमार




‘मुर्दहिया’ पढ़ते हुए लगता है जब जीवन इतना अधिक हो तो उस पर जीवनी, उपन्यास या जीवनोप्न्यास लिखने के लिए जीवन से इतर कुछ और लेकर नहीं आना चाहिये बल्कि जीवन और जीवनी से बीच साहित्य लेखन के सभी आग्रहों को हटा देना चाहिए और जीवनी या जीवनोप्न्यास को होने देना चाहिये.ऐसे विकट और विराट जीवन को अभिव्यक्ति के लिए ऐसी भाषा चाहिए, जो अभी बस अभी जीवन से निकली हो. जिस अभिव्यक्ति में बस जीवन मुखर हो; भाषा, तकनीक और युक्तियाँ जीवन के काम आने के लिए नेपथ्य में प्रतीक्षा करती हुई व्याकुल खड़ी हों.

मुर्दहिया से भाग कर तुलसी राम विद्वान बने, विचारक बने, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर रशियन एंड सेंट्रल एशियन स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर हुए, विभिन्न देशों जैसे अंगोला, अमेरिका, ईरान, और रशिया पर साधिकार किताबें लिखीं . लेकिन ‘मुर्दहिया’ सबसे बाद में लिखी. ‘मुर्दहिया’ उनकी सोची हुई योजना नहीं थी. वे एक्सीडेंटल राईटर बने. बावजूद इसके विष्णु खरे ने तुलसी राम की मृत्यु पर चार साल पहले (2015 में) अपने लेख ‘जीवनी अमर, अमर जीवनी’ में लिखा:

कॉ.तुलसीराम ने और कुछ न किया होता, सिर्फ़ ‘मुर्दहिया’ ही लिखी होती, तो वह उन्हें भूमंडलीय स्तर पर अजर-अमर बनाने के लिए पर्याप्त थी.
किताब की भूमिका में तुलसी राम आज़मगढ़ की मुर्दहिया को निकालने का श्रेय ‘तद्भव’ संपादक अखिलेश को देते हैं. उसी लेख में विष्णु खरे ने यह भी लिखा कि
“मुर्दहिया’ की पहली क़िस्त पढ़कर यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा लिखा भी जा सकता है.

औपनिवेशिक साहित्यिक विरासत से ख़ुद को आज़ाद करनेके लिये लैटिन अमेरिका के लेखकों ने अपने ‘बूम’ के दिनों में जादुई यथार्थ की शैली विकसित की; जो मिथक, स्वप्न, फैंटेसी  से मिश्रित उनके इतिहास और संस्कृति के यथार्थ को बेहतर परिपेक्ष्य में अभिव्यक्त करती थी. लेकिन तुलसी राम ने जैसे ‘मुर्दहिया’ लिखी, तो ऐसे लगता है कि धरमपुर के जीवन का यथार्थ जादुई यथार्थ की तकनीक में भी नहीं समा सकता, क्योंकि मुर्दहिया के जीवन में सुपरनैचुरल नैचुरल में इस तरह अनुस्यूत है कि इसे दो शब्दों में नहीं कहा जा सकता. ‘मुर्दहिया’ जीवनी और उपन्यास की प्रतिष्ठित शैलियों को लांघ कर लिखी हुई किताब है. मुर्दहिया को केवल एक साफ़ नज़र चाहिए; जो मुर्दहिया के गिद्धों, सियारों, भूतों, सूअरों, कुत्तों, चमरिया माई, डीह बाबा,और धरमपुर की चमरौटी और बभनौटी के पात्रों को उनकी वास्तविकता के आलोक में समझ सके. एक दृष्टि जो गिद्धों को प्रतीकात्मकता में नहीं, बल्कि मुर्दहिया के इकोसिस्टम में एक ज़रूरी सदस्य की तरह और मुर्दहिया के जीवन संघर्ष में मनुष्यों और दूसरे जानवरों के प्रतिद्वंदी की तरह देख सके.


“जिस समय कोई चमार पुरुष मरे हुए जानवर का चमड़ानिकालना शुरू करता, अचानक सैंकड़ों की संख्या में गिद्ध मंडराने लगते तथा दर्जनों कुत्ते आकर भौंकने लगते थे. कुछ सियार भी चक्कर मारते, किन्तु कुत्तों और महिलायों की उपस्थिति को देखते हुए वे पास नहीं आ पाते. मरे पशु के मांस के बंदरबांट में महिलायों के साथ कुत्तों की उग्र होड़ मच जाती थी”

‘मुर्दहिया’ की भूमिका में तुलसी राम लिखते हैं:

“...मरे हुए पशुओं के मांसपिंड पर जूझते सैंकड़ों गिद्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे.

इस किताब में ‘मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन’ पर पूरा अध्याय समर्पित है.

“मुर्दहिया पर मुर्दा मांस खाने के बाद सैंकड़ों गिद्ध उस पशु कंकाल से थोड़ी दूर हटकर अपनी टेढ़ी घेंटी लिये घंटों तक मौनव्रती के रूप में किसी तपस्वी की तरह बैठे रहते थे. घंटों तक शांत बैठे ये गिद्ध ऐसा लगता था कि मानो वे मुर्दहिया के भूतों को शोकांजलि देने के लिए विपस्सना कर रहे हों.

मुर्दहिया के भूतों के बारे में भी तुलसी राम ने इसी विलक्ष्ण अंदाज़ से लिखा है. यह उपन्यास भूतों द्वारा गाँव वालों की हत्या, साही का भूत बन जाना, सूअरों की बलि देना, बरसात में पानी में तैरते चूहों (जिन्हें दलित बच्चे पकड़कर घर ले जाते हैं, ताकि खाद्यान्न का टोटा होने पर उन्हें सुखा-पका कर खाया जा सके ) आदि दृश्यों से भरा पड़ा है.लेकिन मुर्दहिया में कहीं भी कलात्मक अन्थ्रोपोमोर्फिज़म का प्रयोग नहीं है. मुर्दहिया में प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधों में  हिंसा और सहजीवन दोनों के उद्धरण मिलते हैं, लेकिन मुर्दहिया का जीवन फिर भी अति सक्रिय जीवन है. तुलसी राम ने ‘मुर्दहिया’ को मुर्दहिया के अपने जीवनानुभव के पचास साठ साल बाद लिखा; जब वे मार्क्स, अंबेडकर और बुद्ध के दर्शन में प्रबुद्ध हो चुके थे. निश्चित ही इस किताब में उनके मुर्दहियोत्तर जीवन में संचित ज्ञान का गहरा प्रभाव है, लेकिन ‘मुर्दहिया’ केवल लेखक की संपन्न पश्च-दृष्टि का प्रतिफलन नहीं है. तुलसी राम जब अपने बचपन का उल्लेख करते हैं;तो अपने भूत-पूजक होने, चमरिया माई को ‘धार पुजौरा चढ़ाने’ की बात भी उसी तन्मयता से बताते हैं जिस लगन से वे बौद्ध और समाजवाद के दर्शन की बातें करते हैं.

‘मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी’ ‘मुर्दहिया’ का पहला वाक्य है. तुलसी राम मूर्खता या मुर्दहिया में दलित बस्ती के लोगों के सर्वथा अशिक्षित होने का महिमामंडन नहीं करते.लेकिन वे ख़ुद पर हँसने और आत्म दया के भाव से अलग आश्चर्यचकित और द्रवित कर देने वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुर्दहिया के सामूहिक और अपने निजी जीवन की व्याख्या करते हैं. तुलसी राम बताते हैं कि चेचक से पीड़ित हो जाने के कारण मात्र तीन वर्ष की उम्र में ही उनका प्रवेश मुर्दहिया के ‘अशुभ’ व्यक्तियों की श्रेणी में हो गया था. जिस में उनके साथ गाँव का निरवंशी ब्राह्मण जंगू पाण्डेय और एक निस्संतान विधवा औरत थी, इन लोगों के आम के पेड़ को छू भर देने से लोगों को लगता था कि इस पर बौर नहीं आएँगे.

हवा को गाँठ लगा देने वाली बौद्धिक उठान की बातें साहित्य में मिल जाती हैं, लेकिन मैनें कभी किसी को चेचक के दागों से भरे हुए अपने ही चेहरे की ऐसी व्याख्या करते हुए नहीं देखा :

“चेचक का प्रकोप हटते ही मेरी पूरी देह पर गहरे गहरे दाग पड़ गए. विशेष रूप से मेरा चेहरा इन दागों का भंडारण क्षेत्र बन गया. गाँव में लोहार अनाज से मिट्टी या कंकड़ निकालने के लिए लोहे की पतली चद्दर काटकर उसे बड़ी चलनी का रूप देते थे और उसकी पेंदी में सैंकड़ों छेद कर देते थे, जिसे ‘आखा’ कहते थे. आखा की पेंदी का बाहरी हिस्सा छेनी के छेद से खुरदरा हो जाता था. मेरा चेहरा इसी आखा के बाहरी हिस्से जैसा हो गया था.

उपेक्षा, वंचना और अकेलेपन के बेहद दर्दनाक क्षणों की व्याख्या तुलसी राम इसी सहजता से करते हैं. उन्होंने बौद्ध दर्शन को आत्मसात करके अपने गुज़रे हुए जीवन को मुड़ कर देखा और उसे सिर्फ़ याद नहीं किया,बल्कि उसे सुलझाया भी. पढ़ते-लिखते तो बहुत लोग हैं, लेकिन पढ़ना लिखना जीवन सुलझाने के काम आ जाए-यह दुर्लभ होता है. अकाल की विभीषिका में जब पानी का  स्रोत कहीं नहीं था और और तुलसी राम को किसी अन्य गाँव में पांचवीं की परीक्षा देने गये, तो किसी ने उनके दलित होने के कारण उन्हें पोखरे में नहाने नहीं दिया. तुलसी राम ने लिखा है कि दो दशक बाद जब महाकवि शूद्रक का सदाबहार नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के आठवें अंक को पढ़ा, तो मेरी दुर्भावना हमेशा के लिए मिट गयी. शकार को बौद्ध भिक्षु का कुत्तों और सियारों के लिए खुदवाए तालाब में अपना चीवर धो लेना भी मंज़ूर नहीं था. इसलिए वह बार बार भिक्षु को अपमानित करता है. तुलसी राम लिखते हैं कि ज़ाहिर है प्राचीनकाल में वैदिक हिंसावादियों के चलाए बौद्धविरोधी अभियान के दौर में लिखे गए इस नाटक में जाति व्यवस्था विरोधी बौद्धों को अपशकुन समझा जाता था.

“ बबुरा धनहुवां के पोखर पर पहुँचने से पहले जो कुछ मेरे साथ हुआ उसमें रामचरण भैय्या मेरे आधुनिक शकार थे.‘मृच्छकटिकम’ के बौद्ध भिक्षु के बारे में जानता होता तो शायद उतनी पीड़ा की अनुभूति नहीं होती...इस घटना ने उस पुरानी पीड़ा से मुझे मुक्त कर दिया और मुझे लगने लगा कि वैसी दुर्घटनाएं बदले की भावना से नहीं, बल्कि वैचारिक चेतना से ही रोकी जा सकती हैं”.


तुलसी राम जब मुड़ कर मुर्दहिया को देखते हैं, तो मुर्दहिया के जीवन को व्यापक संदर्भों में स्थापित करते हैं.

“मेरे जैसे तमाम दलित छात्र वही महुवे का ‘लाटा’ तथा ‘चोटे में सने सूखे सत्तू’ की गठरी लिए चल पड़े. हैडमास्टर साहब के आदेश से हम लाईन बनाकर सैनिकों की तरह परेड करते हुए सात मील का रास्ता तय करके इम्तिहान स्थल पर पहुंचे थे. हमारा यह अभियान माओत्से तुंग के उस ऐतिहासिक ‘लांग मार्च’ से कम नहीं था, क्योंकि उसमें तो वही ‘लाटा सत्तू’ वाले ही लोग शामिल थे.”

ज्ञान और संवेदना के इस स्वरुप से जाति व्यवस्था से ग्रस्त भारतीय समाज की हीलिंग होनी चाहिये थी, लेकिन आज़ादी के बाद भारतीय समाज में दलित आन्दोलन अपनी निर्णायक लगने वाली शुरुआत के बावजूद खंडित होता गया और अंततः वोट की राजनीति का ईंधन बन गया. तुलसी राम निरंतर अपने भाषणों और लेखों में इस विघटन की आलोचना करते रहे और दलित विमर्श को दिशा देने की कोशिश करते रहे. तुलसी राम की मृत्यु पर दिलीप मंडलने बीबीसी के लिए लिखे लेख में तुलसी राम को ‘भारत का ग्राम्शी’ कहा है.

"ग्राम्शी जिस तरह इटली के वंचितों की बात करते हुए सदर्न क्वेश्चनमें वर्गीय प्रश्नों से परे जाते है, उसी तरह प्रोफ़ेसर तुलसीराम के वंचितों की परिभाषा में ग़रीब भी हैं और दलित-बहुजन भी...वे अपने भाषणों में और लेखन के जरिए बताते हैं कि बहुजन समाज भी ब्राह्णवादी मिथकों की चपेट में है और यह उनके विकास में अड़चन है.

धरमपुर के कनवा को केवल चिट्ठी पढ़ने योग्य बनाने के लिए स्कूल भेजा गया, लेकिन शिक्षा के मिले हुए इस मद्धम से मौके को उस बालक ने अथक संघर्ष करके स्वर्णिम अवसर में बदल लिया. मुर्दहिया के माहौल के योगदान की प्रशंसा नहीं की जा सकती (क्योंकि मुर्दहिया अपनी मूल बसावट में ही दलितों की उपेक्षा करता हुआ उन्हें दक्षिण दिशा में धकेल देता था,क्योंकि ब्राह्मणों की मान्यता के अनुसार सारी प्राकृतिक आपदाएँ दक्षिण दिशा से आती हुई मानी जाती थीं ) लेकिन तुलसी राम को सलाम किया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने शिक्षा के मिले छोटे से अवसर को बहुत गंभीरता से ग्रहण करते हुए सजग होकर उसे मुकाम तक पहुँचाया. हिंदी के अप्रितम गद्यकार अनिल यादव ने भी तुलसी राम के  देह्नात पर बीबीसी के लिए लेख में लिखा :

“उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था.अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था.”

पिछले बीस पच्चीस बरसों में वैश्वीकरण के प्रभाव से भारतीय समाज की संरचना में इतने परिवर्तन आए हैं कि पचास वर्ष पुराना भारतीय जीवन प्राचीन काल का लगने लगा है. ‘मुर्दहिया’ में लेखक की भरुक्की में अपने बेशकीमती सैंतीस ‘बिस्तौरिया’ संभालती और सींग में नमक और हींग सहेजने वाली दादी, बंकिया डोम, पग्गल बाबा, हिंगुआरा और तुलसी राम से अंग्रेज़ी का एक वाक्य ‘वल्चरज़ आर सिटिंग ऑन पीपल ट्री’ सीख कर अचंभित और रोमांचक हो जाने वाली नटिनी जैसे पात्र बेहद रोचक होते हुए भी अविश्वसनीय लगते हैं, क्योंकि समकालीन संस्कृति में आधार कार्ड से व्यक्त होती हुई अस्मिता असंदिग्ध है. इसके अलावा हमारा विलक्षण सामर्थ्य और सनक अनुपयोगी है. ‘मुर्दहिया’ का वितान एक उत्कृष्ट फिल्म के वितान की तरह है जिस में अगर चरित्र स्क्रीन से एक बार गुज़र भी जाए तो वह स्मृति में ठहर जाता है.

‘मुर्दहिया’ में मुर्दहिया गिद्धों, सियारों, भूतों और मनुष्यों की बहुद्देशीय कर्मस्थली तो रहती है, लेकिन धीरे धीरे मुर्दहिया दर्शन पीठ बन जाती है. जीवन की विषमता को सम कर देने वाली भूमि. ‘मुर्दहिया’ की यात्रा थका देने वाली और प्रेरित करने वाली यात्रा है, इसे पढ़ते हुए पंजाबी कवि हरभजन सिंह की कविता ‘हे महान ज़िंदगी! नमस्कार नमस्कार’ की याद आती है. जीवन के असंभव, सुन्दर, असुंदर स्वरुप को देखकर अंततः रुदन में केवल जीवन का गुणगान किया जा सकता है. मुर्दहिया का बेहंगम संसार विचलित कर देने वाला संसार है, लेकिन फिर भी मुर्दहिया का जीवन प्रामाणिक जीवन है. इस में दुःख और वंचना बहुत है, लेकिन यह कृत्रिम हरगिज़ नहीं. तुलसी राम कहते हैं कि ‘मुर्दहिया’ लिखने तक मुर्दहिया भी वही नहीं रही, उजड़ गई है; लेकिन इस किताब की वजह से मुर्दहिया अमर है. यह विशुद्ध भारतीय जगह है, हमारे कलुषित यथार्थ का स्मरण कराती हुई हार्टलैंड है मुर्दहिया. तुलसी राम ख़ुद भी मुर्दहिया से एक बार जो बिछड़े तो फिर नहीं लौटे लेकिन वे लिखते हैं :

“मुर्दहिया न जाने कितने वर्षों से अनगिनत लोगों के दुःख-दर्द को जलाकर राख करती आ रही थी. और न जाने कितने लोगों के दुःख को अपनी धरती  में दफना लिया था. और आगे भी इन दुखों को जलाती-दफनाती रहेगी. उस दिन मुझे भी बड़ी गहराई से अनुभूति हुई थी कि मेरे अन्दर भी एक मुर्दहिया जन्म ले चुकी थी, जिसमें भविष्य के न जाने कितने ही दुःख-दर्द जलने और दफ़न होने वाले थे. जब मैं पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हाई स्कूल पास करने के बाद पढ़ाई छूट जाने के कारण घर से 1964में भागा, तो उसी मुर्दहिया से होकर अंतिम बार गुज़रा था, वैसे तो मैं अकेला ही था किन्तु हकीकत तो यही थी कि चल पड़ी थी मेरे साथ मुर्दहिया भी. 

जब मुझे मालूम हुआ कि दुनिया में दुःख है, दुःख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूँढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुज़रे होंगे.”
_______________________

मोनिका कुमार
9417532822/turtle.walks@gmail.com

मैं और मेरी कविताएँ (४) : कृष्ण कल्पित

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“Poetry is a political act because it involves telling the truth.”
June Jordan




समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ मैं और मेरी कविताएँके अंतर्गत आपने आशुतोष दुबे, अनिरुद्ध उमटऔर ‘रुस्तम’ को पढ़ा. इस क्रम में अब कृष्ण कल्पित प्रस्तुत हैं.

देवी प्रसाद मिश्र के शब्दों में- “दुस्साहस, असहमति,आवेश,अन्वेषण, पुकार, आह, ताकत विरोध, शिल्प वैविध्य, नैतिक जासूसी और बाज़दफा पोलिटकली इनकरेक्ट- इस सबने मिलकर कल्पित को हमारे समय का सबसे विकट काव्य व्यक्तित्व बना दिया है. उन जैसा कोई नहीं.”


आइये जानते हैं कि कृष्ण कल्पित कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कुछ कविताएँ भी पढ़ते हैं.

कृष्ण कल्पित का पहला कविता संग्रह 'बढई का बेटा'१९९०में प्रकाशित हुआ था. ३० बरस के लम्बे अन्तराल के बाद उनका दूसरा संग्रह 'राख उड़ने वाली दिशा में'प्रकाशित होने वाला है. इस बीच 'कोई अछूता सबद', 'एक शराबी की सूक्तियाँ', 'बाग़-ए-बेदिल'और 'कविता-रहस्य'नाम से उनकी किताबें प्रकाशित हुईं हैं और और चर्चित रहीं हैं. 




मैं और मेरी कविताएँ (४) : कृष्ण कल्पित                        




बंदूकों में डर लिखते हैं अर्थात मैं कविता क्यों लिखता हूँ
कृष्ण कल्पित


लेखकजी तुम क्या लिखते हो
हम मिट्टी के घर लिखते हैं

धरती पर बादल लिखते हैं
बादल में पानी लिखते हैं
मीरा के इकतारे पर हम
कबिरा की बानी लिखते हैं

सिंहासन की दीवारों पर
हम बाग़ी अक्षर लिखते हैं

काग़ज़ के सादे लिबास पर
स्याही की बूँदों का उत्सव
ठहर गया लोहू में जैसे
कोई खारा-खारा अनुभव

फूलों पर ख़ुशबू के लेखे
बंदूकों में डर लिखते हैं !


यह 1980में 'धर्मयुग'में प्रकाशित मेरा एक गीत है जिसे इसी सवाल के जवाब में लिखा गया था कि मैं कविता क्यों लिखता हूँ ? इस गीत को लिखे कोई 40वर्ष होने को आये जिसे एक 23वर्ष के युवा कवि ने लिखा था. इस गीतात्मक या लिरिकल उत्तर के 40बरस बाद मुझे फिर पूछा जा रहा है कि मैं कविता क्यों लिखता हूँ ?

इतने बरसों बाद यह कह सकता हूँ कि अब कविता लिखना मुश्किल होता जा रहा है. जिस तरह पिछले 30बरसों में, ख़ासतौर पर 1990के आर्थिक उदारवाद के बाद यह दुनिया जिस तरह से अमानवीय, जटिल और हिंसक होती गयी है उसका सामना हमारे समय की कविता नहीं कर पा रही है. कितने दिनों हमने पाब्लो नेरुदा के मासूम प्रेम और बर्तोल्त ब्रेख़्त के प्रतिरोध से काम चलाया लेकिन 'इस चाकू समय'में नेरुदा और ब्रेख़्त की कविताएं भी अपर्याप्त जान पड़ती हैं. हिंसा, शोषण, अन्याय और अत्याचार के इतने नये और चमकीले संस्करण बाज़ार में आ गये हैं कि मुक्तिबोध का डोमाजी उस्ताद अब किसी क़स्बे का साधारण गुंडा नज़र आता है.

आचार्य वामन 'काव्यलंकारसूत्रवृत्ति:'में कहते हैं कि कविता से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- एक तो भावक या पाठक के लिये आनन्द की सृष्टि और कवि के लिये सदा सर्वदा रहने वाली कीर्ति. लेकिन कालांतर में कविता के ये प्रयोजन भी निरन्तर धूमिल होते गये हैं. अब न कविता आनन्द की सृष्टि करती हैं और पिछली शताब्दी में कवियों की कीर्ति भी नष्ट होती गयी है.

मुझे लगता है कि आज की कविता हमारे इस निर्मम समय को व्यक्त करने में निरंतर असमर्थ होती जा रही है. दुनिया जिस तरह से बदली है उस तरह कविता नहीं बदली. एक कारण यह भी हो सकता है कि यह समय शब्दों के दुरुपयोग का समय है. इस दुरुपयोग ने शब्दों के अर्थ को नष्ट कर दिया है. हम शब्दों से, शोर से, छवियों से और निरर्थक आवाज़ों से घिरे हुये हैं. जब हम शब्दों के स्वाभाविक अर्थों से दूर होते जायेंगे उतना ही हम कविता से भी दूर होते जायेंगे.


न स शब्दो न तद वाच्यं न स न्यायो न सा कला
जायते यन्न काव्यांगमहो भारो महान कवे : !

आचार्य भामह कहते हैं कि ऐसा कोई शब्द, वाच्य, न्याय तथा ऐसी कोई कला नहीं जो काव्य का अंग न बनती हो इसीलिये कवि का दायित्व महान है. लेकिन यह कहने में क्या गुरेज़ कि हमारे समय के कवि इस महान दायित्व को वहन करने में असमर्थ नज़र आते हैं.

कब तक हम कालिदास के सौंदर्य, ग़ालिब की दार्शनिकता, मीर की निस्सारता, कबीर की क्रांतिकारिता, मीरा के प्रेम, निराला के फक्कड़पन से काम चलायें ? पेले और माराडोना हमारे प्रेरणास्रोत हो सकते हैं, उनके किये हुये गोल हमें आज भी आनन्दित करते हैं लेकिन उनकी स्मृति भर से आज जो मैदान में फुटबॉल का मैच खेला जा रहा है उसे जीता नहीं जा सकता! इसके लिए हमें आज का पेले और माराडोना चाहिए.

कविता दुनिया की प्राचीनतम कला है. लेकिन भारतीय मनीषा कविता को कला नहीं, विद्या मानती है. इस अंतर को हमें समझना होगा. कविता की यात्रा मनुष्यता की यात्रा के समानांतर चली आ रही है और इतनी लंबी यात्रा में दुनिया भर के कवियों ने कविता से प्रेम, प्रतिरोध, राजनीति, आध्यात्म, दार्शनिकता आदि इतने सारे काम लिये हैं कि वह एक अजायबघर में बदल गयी है. कविता का वास करुणा में होता है, हमारे समय के कवि लगता है कविता की इस मूल प्रतिज्ञा को भूल गये.

वाल्मीकि भी यही कहते हैं और प्रथम विश्व-युद्ध के प्रख्यात कवि विल्फ्रेड ओवेन भी यही कहते हैं - My subject is war and the pity of war. The poetry is in the pity. (मेरा विषय युद्ध और युद्ध की करुणा है. कविता का वास करुणा में है.)

सचेत रूप से कविता लिखते हुये मुझे 40बरस हो गये. समकालीन हिंदी कविता से मेरा पुराना देश निकाला है. फिर भी मैं ज़िद पर अड़ा हुआ हूँ और कविता लिखता रहता हूँ. कविता में तोड़ फोड़ करता रहता हूँ. 1990में मेरा कविता संग्रह 'बढई का बेटा'प्रकाशित हुआ था और अब आशा करता हूँ कि 30बरस बाद 'राख उड़ने वाली दिशा में'शीर्षक से बड़ा कविता-संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हो. इस बीच 'कोई अछूता सबद', 'एक शराबी की सूक्तियाँ', 'बाग़-ए-बेदिल'और 'कविता-रहस्य'नाम से जो किताबें प्रकाशित हुई उनमें कविताएं होने के बाद भी कविता-संग्रह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्हें किताबों की तरह लिखा गया.
                       
कविता के बिना मैं अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता. मुझे अभी भी कविता, जीवन, मनुष्यता और इस दुनिया से किस बात की आशा है, पता नहीं.

जिस विद्या को अपना जीवन अर्पित किया अब उसे छोड़कर किस दरवाज़े जाऊं ? अब यहीं जीना है और यहीं मरना. यह जानते हुये कि कविता सच्चाई का श्रृंगार करती है, उस पर मुलम्मा चढ़ाती है, उसे विकृत करती है - मुझे लगता है कि जितना भी बचा सकती है, सत्य को कविता ही बचा सकती है.

अंत में 'बढई का बेटा'कविता-संग्रह की एक कविता 'सम्पादक को पत्र'की शरुआती पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ :

बेकार गई मेरी कला
उसका नहीं बना आईना
वह दूसरों के काम नहीं आ सकी !








कृष्ण कल्पित की कविताएँ



पत्थर के लैम्पपोस्ट

)
मैंने  एक स्त्री को प्यार किया और भूल गया
मैं उस पत्थर को भूल गया जिससे मुझे ठोकर लगी थी
और वह कौन सा रेलवे-स्टेशन था
जिसकी एक सूनी बैंच पर बैठकर मैं रोया था

मैंने अपमान को याद रखा और अन्याय को भूल गया
अंत में मुहब्बत भुला दी जाती है
और नफ़रत याद रहती है
जलना भूल जाते हैं पर अग्नि याद रहती है

मुझे भुला देना
किसी भुला दिये गये प्यार की तरह
और याद रखना एक खोये हुये सिक्के की तरह
या एक गुम चोट की तरह

दुनिया में प्यार के जितने भी स्मारक हैं वे पत्थर के हैं !


)
वह पत्थर का लैम्पपोस्ट आज भी खड़ा है
क़स्बे की निगरानी करता हुआ

उसकी लालटेन कभी की बुझ गई है
अब उसमें एक चिड़िया का घौंसला है

गुप्त रोगों के शर्तिया इलाज़ के पोस्टर
उसके बदन से लिपटे हुये हैं

लालटेन के चारों और बना हुआ लोहे का फूल
थोड़ा दाहिनी तरफ़ झुक गया है

पुराने बस-स्टैंड के पास ठेलों, खोमचों और ख़ास क़स्बाई शोर से घिरा हुआ यह पत्थर का लैम्पपोस्ट नहीं होता तो मैं कैसे पहचान पाता कि यह वही क़स्बा है और वही पुराना बस-स्टैंड जहाँ से चालीस बरस पहले मैं चला गया था एक जर्जर बस में बैठकर किसी अज्ञात शहर की ओर

कोई अपनी प्रेमिका से क्या लिपटता होगा
जैसे कभी मैं लिपटता था इस पत्थर के लैम्पपोस्ट से
इस पत्थर के पेड़ को हमने अपने आँसुओं से सींचा था

जिसके नीचे खड़ा होकर अभी मैं मीर को याद कर रहा हूँ :
'नहीं रहता चिराग़ ऐसी पवन में'!



मेट्रो की एक याद

एस्कॉर्ट मुजेसर जाने वाली मेट्रो में
वह मेरे साथ मण्डी-हॉउस से चढ़ा था

वह एक युवा मज़दूर
नीली घिसी हुई जीन्स पर धारीदार कमीज़ पहने
और पुरानी चाल के काले घिसे हुये जूते

वह दरवाज़े के पास ऐसे उकडू बैठ गया
जैसे किसी पीपल के गट्टे पर

जब जनपथ गुज़रने पर
मेरी उस पर अचानक नज़र पड़ी तो देखा
वह अपने कचकड़े के बॉलपेन से
कागज़ के एक छोटे दस्ते पर कुछ लिख रहा था

मैं खड़ा हुआ चोर नज़रों से उसको देख रहा था
उसने 1500लिखा और उसमें से 750घटाया 
और उसके बाद 335लिखकर उसके आगे एक गोल-सा निशान बनाया जैसे यह कोई विवादास्पद रक़म हो

वह एक पढ़ा-लिखा मज़दूर था
और घोर-आश्चर्य की बात कि उसके पास
कोई मोबाइल फ़ोन नज़र नहीं आता था

हो सकता है कि वह उसके उस काले थैले में हो
जिससे वह उतना ही बेख़बर था
जितना सचेत मैं अपने पर्स को लेकर था

वह मेरी तरह कोई कथित कवि नहीं था
वह जो लिख रहा था शायद ज़िन्दगी का हिसाब था

वह निराश था लेकिन हताश नहीं

मैं जब खान-मार्केट पर उतरा
वह किसी दार्शनिक की तरह कुछ सोच रहा था
उसे शायद आगे जाना था !




कल की बात

अभी कल की बात है
मैं धारीदार नीला जाँघिया पहने
उघाड़े बदन घूमता था

अभी कल की बात है
मैं सकीना मौसी के आले से
अठन्नी चुराकर बाज़ार की तरफ़ भागा था

अभी कल की बात है
मुख्यद्वार पर खड़े चाट वाले से छिपने के लिये
मैं दीवार फांदकर स्कूल में घुसता था

अभी कल की बात है
जब दो चुटिया वाली लड़की के लिये
मैं कृष्ण की तरह बांसुरी बजाता था

अभी कल की बात है
मेरी जेबों में भरे रहते थे
सूखे हुये मीठे बेर

अभी कल की बात है
जब दो चिकने पत्थरों को रगड़कर
मैं सुलगाता था सिगरेट

अभी कल की बात है
जब बिना टिकट रेल में चढ़कर
ज़ंजीर खींचकर जंगल में गुम हो जाता था

अरथी पर सजाकर कहाँ ले जा रहे हो मुझे
अभी तो मैं पैदा हुआ था
अभी कल की बात है !




पथ पर न्याय

हत्यारा अकेला होता है
अधिक होते ही हत्यारा कोई नहीं होता

तीन या चार
पांच या सात मिलकर किसी अकेले को कभी भी कहीं भी मार सकते हैं और मारने के बाद आप भारत माता की जय या गौ-हत्या बंद हो के नारे भी लगा सकते हैं

इसी पद्धति पर चलती हैं पदातिक-टोलियां पदाति-जत्थे हिंदी-पट्टी के मैदानों पर गश्त करते हुये अलवर से आरा और मुज़्ज़फ़रपुर से मुज़फ़्फ़रनगर तक किसी को मारते हुये किसी को जलाते हुये किसी को नँगा करके घुमाते हुये

कहीं धर्म की हानि तो नहीं हो रही
कहीं विरोध की आवाज़ बची तो नहीं रह गयी
कहीं किसी की भावनाएं भड़की तो नहीं

पदातिक-टोलियां पथ पर करती हैं न्याय
बेहिचक बेख़ौफ़ अब न्याय के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं न्याय आपके दरवाज़े तक आयेगा

अदालतें कब तक रोक सकती हैं होते हुये न्याय को न्याय का नहीं होना ही अन्याय है

न्यायालयों के पास न्याय के अलावा अभी अन्य ज़रूरी और महत्वपूर्ण मसले हैं और अदालतें अपने ही बोझ से दबी हुईं हैं लेकिन न्याय किसी न्यायालय किसी सरकार की प्रतीक्षा नहीं करता वह कभी भी कहीं भी प्रकट हो सकता है

न्याय रुकता नहीं है होकर रहता है
न्याय होकर रहेगा न्याय किसी का विशेषाधिकार नहीं है न्याय कोई भी कर सकता है कोई भी प्राप्त कर सकता है इसके लिये ख़ुद माननीय न्यायमूर्ति होने की कोई ज़रूरत नहीं

न्यायाधीश कोई भी हो सकता है
वह कोई सड़क का गुंडा भी हो सकता है !




मनुष्यता का गोलंबर

स्त्रियो मुझे जूठा करो. बच्चो मुझ पर कंकर फेंको. कुलीनो मुझे बदनाम करो. दुश्मनो मुझ पर कीचड़ उछालो. दोस्तो मुझे अपवित्र करो. कवियो मुझे भूल जाओ.

पवित्रता एक मिथक है. आकाश में उड़ता हुआ कोई गरुड़. एक काल्पनिक पक्षी. पवित्र किताबों ने दुनिया में सर्वाधिक रक्त बहाया है. मैं मनुष्य के दुखों की एक अपवित्र किताब लिखना चाहता हूँ.

मेरी मिट्टी मत बुहारो.
उड़ने दो राख.
मुझे अपवित्र रहने दो.

मनुष्यता के गोलम्बर पर महापुरुषों की आदमक़द मूर्तियां कबूतरों की बीटों से लदी हुई हैं !




दुर्लभ ख्याति

यही इच्छा है कि मुझे कोई नहीं पहचाने
कोई मुझे मेरे नाम से न पुकारे
देखा हुआ लगता है लेकिन कौन है पता नहीं
आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं
यही सुनने को मिले हर शहर हर देश में

गुमनामी का वरदान ही देना, प्रभु !
और ख्याति दो तो ऐसी कि जब मैं बताऊँ अपना नाम
तो जवाब मिले- झूठ बोलते हो
तुम वह हो नहीं सकते !



दो)

सामने ख़ामोश रहूँ
जब बोलूँ अनुपस्थिति में बोलूँ
जीते-जी क्या बोलना
मरने के बाद बोलूँ

कवि अगर हूँ तो अपने न रहने के बाद कवि रहूँ और दूसरे जन्म में अपनी कविताएँ पढूँ

किसी अनजान पाठक की तरह !





सौंदर्य-दर्पण


सुंदर जे हैं आपहि सुंदर
उनको कहाँ सिंगार
(सन्त कवि सुन्दरदास)

     

सुंदर, थानें भूल्यां कीकर पार पड़ै हो
जिण कर ज़ुलफ़ सँवारी थारी उण कर पेच पड़ै हो
(सुंदर, तुम्हें कौन भूल सकता है ? जिन हाथों से तुम्हारी ज़ुल्फ़ें सँवारी थीं- वे हाथ अब कांप रहे हैं!)
(राजस्थानी कवि नारायण सिंह भाटी)



१)
सौंदर्य अधिकतर ओझल रहता है

अलस भोर का भारहीन-सौंदर्य
ठहरी हुई कोई ओस की बूंद

झिलमिलाता है कभी दोपहर में
कभी शाम के झुट-पुटे में
या रात्रि की नीरव-शांति में

सौंदर्य हर-घड़ी रहता है उपस्थित
अपनी अनुपस्थिति में !


२)
छलछलाता हुआ
और छलकता हुआ सौंदर्य कभी देखा है तुमने

अभी कुछ बरस पहले तक दिखाईं पड़ती थीं भारतीय रास्तों पर अपने ही जल में भीगती जाती हुईं जल-कलश उठाये पनिहारिनें

चमकता हुआ नहीं
छलकता हुआ सौंदर्य सर्वश्रेष्ठ होता है !


३)
लेकिन अब सौंदर्य एक सफल और भारी-भरकम उद्योग था जिसका हज़ारों करोड़ का टर्नओवर था बहुत से मारवाड़ी सौंदर्य-प्रसाधन बेच कर रातों-रात मालामाल हो गये थे जिनकी जीवन-कथा अथवा सफलता का रहस्य खोलने वाली किताब इन दिनों गीता से भी अधिक लोकप्रिय थी

जब भीतर की दीप्ति नदारद हो जाती है और अन्तर्मन का दीपक बुझने लगता है तब रँगाई, पुताई और लेपन की कांक्षा मनुष्य को बाहर से चमकीला पर अंदर से स्याह, सन्देहास्पद, असुंदर और खोखला बनाती जाती है

सौंदर्य अब एक व्यापार था !


४)
कितनी सुंदर थी वह जर्जर नाव
जो गंगा-तट पर कीच में धंसी हुई थी
अभी भी लहरों के आलिंगन की आकांक्षा से भरपूर

जिसका गला हुआ गीला काठ
कितना कोमल हो गया था !


५)
सुंदरता तारा नहीं
जिसको तोड़ा जाय
सुंदर को सुंदर कहे
वो सुंदर हो जाय !


६)
इस दुनिया को काले-बदसूरत लोगों ने नहीं
गोरे-लालचियों ने बदसूरत बनाया है !


७)
सौंदर्य बनाया नहीं जा सकता
उसे केवल बचाया जा सकता है !


८)
कुरूपता पहचानी जाती रहे
इसके लिये ज़रूरी है
सौंदर्य बचा रहे !


९)
दुःख जब सहने लायक हो जाता है
तो वह सुंदर हो जाता है !


१०)
अमीर या ग़रीब
मशहूर या गुमनाम कुछ भी रखना

देस में रखना परदेस में रखना
लेकिन अपने अमान में रखना  अपनी देख-रेख में रखना अपनी नज़र में रखना

११)
सुंदर स्त्रियों की प्रतीक्षा थी
लेकिन मृत्यु उनसे भी अधिक सुंदर थी अधिक हसीन और अधिक जानलेवा

मुझे उसी हसीन मौत का इन्तिज़ार है !




एकहिंदीकवि कीप्रार्थना
(नज़्र-ए- आलोकधन्वा पटना)

अगले जनम में अंगिका का कवि बनूँ

अपभ्रंश में लिखूँ
पालि या प्राकृत या डिंगल में

संस्कृत जैसी कूट भाषा तो इन दिनों
दुनिया की सारी सुरक्षा एजेंसियों की मातृभाषा है

उर्दू अब एक उखड़े हुये तंबू का नाम है

जिसे कोई नहीं समझता
मैं उस भाषा में कविता लिखना चाहता हूँ

राजस्थानी ने तो मुझे
बचपन से ही देशनिकाला दे दिया था

अगर मेरे पुण्य पर्याप्त हों
और दुबारा कवि बनाना हो तो हे ईश्वर
मुझे भोजपुरी का कवि मोती बीए बनाना !





__________

कृष्ण कल्पित
३०-१०-१९५७, फतेहपुर (राजस्‍थान)

एक पेड़ की कहानी : ऋत्विक घटक के जीवन पर वृत्तचित्र का निर्माण
सरकारी सेवा से अवकाश के बाद स्वतंत्र लेखन
__
K - 701, महिमा पैनोरमा,
जगतपुरा,
जयपुर 302027/ M 728907295 

नामवर के होने ने होने के बीच

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भारतीय भाषाओँ में हिंदी आलोचना प्रभावशाली और विद्वतापूर्ण नामवर सिंह की वजह से है. आलोचना को अपने समय के साहित्य-सिद्धांत, विचारधारा और अद्यतन सामजिक  विमर्श से जोड़कर उन्होंने उसे विस्मयकारी ढंग से लोकप्रिय बना दिया था. अध्यवसाय, स्पष्टता और सौष्ठव के कारण ही साहित्य के मंचों पर एक आलोचक वर्षों-बरस चाव और उत्तेजना के साथ सुना जाता रहा.

साहित्य को बाज़ारवाद और दक्षिणपंथी सोच से बचाने और उसे प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर प्रखरता देने के क्रम में वे कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहे. ‘आलोचना’ पत्रिका ने इस तरह के विमर्श को जगह दी वहीं उनके हिंदी विभाग (जेएनयू) ने विवेकवान शिक्षक समाज को दिए. साहित्य की कई पीढ़ियों को उन्होंने सहेजा और संवारा. एक तरह से यह नामवर-समय है.

आज जब वे नहीं हैं उनकी कृतियाँ यह काम करती रहेंगी. उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनकी परम्परा का विकास हो, आलोचना और जीवंत हो, अपनी सामजिक जिमीदारियों से कभी विमुख न हो तथा एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में वह विश्व में उल्लेखनीय बने.

   


ना म व र के होने ने होने के बीच               

रितुरैण : नामवर, केदार, दूधनाथ : शिरीष कुमार मौर्य

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कवि–आलोचक  शिरीष कुमार मौर्य इधर बहुत दिनों से दृश्य से अनुपस्थित थे. जैसा समय है उसमें कई बार यही विकल्प बचता है. नामवर सिंह के महाप्रस्थान ने उन्हें विचलित किया है. अपने तीन प्रिय लेखकों पर उन्होंने यह स्मृति-रितुरैण भेजा है. 








रितुरैण नामवर 

ऋतु वसन्त कुछ सिसकी 
फाल्गुन की संधि पर

काम पर जाते हुए अचानक भय से
ठिठ‍का मैं
नैनीताल से पहले का बूढ़ा पहाड़
कुछ धसका
हवा में उड़ता हुआ सा गिरा एक बहुत बड़ा पत्थर
कुछ पल के लिए 
राह को रुकना पड़ा

मोबाइल पर संदेश की आवाज़ भी
यों सुनाई दी
बहुत पुराना बांज का पेड़ उखड़ा हो जैसे गांव में

चला गया वर्षों से बस्ती में रुका हुआ हरकारा
पिछले कई दिनों से
आंख में अटका हुआ आसूं
ढुलक गया भाषा के
रह-रहकर
रूखते कपोलों पर

उम्र पूरी कर
अभिमान के साथ गया है कोई
अकस्मात आघात नहीं
होने को अत्यन्त प्राकृत
यह क्षय है

पर
हिन्दी में कोई बड़ा न रहा
अब
समकालीनता बस
कुछ
छुटभैयों का
अभयारण्य है
(2019)
*** 









रितुरैण केदार 

जाता वसंत
केदार को ले गया
और मैं हठी
लौटा तक नहीं
शोक की ख़ातिर भी

जैसे समुद्र में डाल्फिन का खिलंदड़ापन
बेहद गंभीर और जानलेवा
ऐेसे रहा हिंदी का एक कवि
कविता में

वह इंग्लिश चैनल का नमक लाया
गंगा के पानी तक

सहज
सुन्दर
सौम्य
पर विकट बलियाटिक भी

कुछ मनुष्यवत पाप सहेजे
पछतावे का कोई काँपता-सा आँसू टिका हो जैसे
भाषा के कपोलों पर

कपाल पर ज्यों पसीने की बूँद थरथरायी हो
सूखने से पहले

लेकिन समाज यह हमारा
न तो उस पछतावे को पहचानता है
जो वैष्णव आत्माओं की
सदियों पुरानी परम्परा की आँखों में
सदा ही बहता आया है

न उस पसीने को
जो इस वसुंधरा पर बेहद साधारण जनों के
होने की महक है

कोई कोई कवि महान हो जाता है
जिसे हृदय में छुपाए
उस शिशुवत मनुष्यता का तो
उल्लेख ही
अब व्यर्थ है

केदार के चले जाने का अर्थ खोजते
समकालीन अपराधियो !
अगर है
तो केदार के बच जाने का
इस खंख समय में
कुछ अर्थ है. 
(2018)
***








रितुरैण दूधनाथ

बहुत बूढ़े गरुड़ भी
डाल पर बैठे हुए नहीं मरते
वे भरते हैं
एक आख़िरी उड़ान
तेजस्वी और शानदार

ऑंखों  से लगभग ओझल
बहुत ऊपर
वे मँडराते हैं
हम ही
उन्हें देख नहीं पाते हैं 
उनके डैनों की परछाई तक
धरती पर
दिखाई नहीं देती

उनकी स्मृति भी उतनी ही ताक़तवर
एक गरुड़ होती है

और सुबहों से अलग
उसी स्मृति के मज़बूत पंजों में दबी हुई
अचानक
एक सुबह होती है
जीवन में

हम देखते हैं
कठिन ऋतुओं का परिन्दा उड़ चुका
कोहरे को चीरती उसकी उड़ान
पूरब से पश्चिम की ओर
धुएँ की लकीर की तरह दिखती है

जो
सूर्य का साथ करने को उड़ा है
उसके
झुलसे हुए डैनों की
थोड़ी सी हवा
धरती पर बच गई है

शिशिर के अंत पर
उसने वसंत का नहीं ग्रीष्म का वरण किया है 
और जो फँसा है शोकगीत
मेरे कंठ में
घुटा घुटा सा
वह विशाल किंतु बूढ़े डैनों वाली
इसी रितु की रु्वेण* हैं 
(2018)
***
*रूदन


_______





शिरीष कुमार मौर्य
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल
(उत्तराखंड) 244 715 

अर्चना वर्मा की स्मृति और उनकी कविताएँ : कर्ण सिंह चौहान

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लेखिका अर्चना वर्मा लम्बे अरसे तक हिंदी की दो महत्वपूर्ण पत्रिकाओं– ‘हंस’ और ‘कथादेश’ से जुड़ी रहीं, न जाने कितने नवोदित लेखकों को उन्होंने पहचाना, सवारा और उन्हें ससम्मान प्रकाशित किया.

वह एक कवयित्री भी थीं. दुर्भाग्य से आग की चपेट में आने के बाद उनकी कुछ इसी विषय पर लिखी कविताएँ हंस में प्रकाशित हुईं थीं. आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने अर्चना वर्मा को स्मरण करते हुए उन कविताओं  को भी याद किया है. यह समीक्षा पर एक उधेड़बुन भी है.

अर्चना वर्मा की स्मृति को नमन करते हुए यह आलेख आपके लिए.




स्मृति 

अर्चना वर्मा को जिन लोगों ने नजदीक से देखा और जाना है वे जानते हैं कि उनमें अपने कार्य के प्रति अद्भुत निष्ठा रही- चाहे यह विश्वविद्यालय में अध्यापन हो, ‘हंसमें संपादन-सहयोगी का कार्य या कथादेशका काम. हालाँकि वे किसी विचार से बँधी नहीं थीं लेकिन अपने मानवीय विवेक से जिस चीज को एक बार सही मान लिया तो उसमें फिर संशोधन या समझौता संभव नहीं. हंसका कार्यभार सँभालने के बाद कैसे उन्होंने पत्रिका के संपादक और सर्वेसर्वा राजेंद्र यादव के लेख को अस्वीकृत किया, यह इसी का एक उदाहरण था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, किसी भी प्रकार के दमन और शोषण के विरुद्ध उनकी ऊँची आवाज ने उन्हें हमारे समय की तमाम अस्मिताओं के पक्ष में खड़ा कर दिया. बाद के दिनों में सामाजिक माध्यमों पर प्रभुत्व जमाए वर्तमान सत्ता-विरोधी स्वरों की एकछत्रता के बावजूद उन्होंने अपनी अंतिम पोस्टों में उसका समर्थन करने का साहस दिखाया और उसके लिए तमाम लोगों से संवाद ही नहीं विवाद में भी बिना उत्तेजना के तर्कों का इस्तेमाल किया. लेकिन इसे एक जनतांत्रिक असहमति का अधिकार ही कहा जाना चाहिए क्योंकि काफी तीखे मतभेदों के बावजूद उन्होंने किसी के प्रति व्यक्तिगत शत्रुता का भाव नहीं दिखाया.





अर्चना वर्मा की दुर्घटना कविताएं                     
शरीर, अनुभव, विचार के सीमांत

कर्ण सिंह चौहान



(कविता के इर्द-गिर्द तमाम सवाल उठाती यह समीक्षानुमा टिप्पणी अर्चना वर्मा द्वारा आग की चपेट में आने की दुर्घटना के बाद लिखी और हंस में प्रकाशित कविताओं को पढ़कर लिखी गई थी. कुछ लोगों को व्यक्तिगत रूप में दी भी गई थी. हालांकि यह कविताओं की समीक्षा कम और समीक्षा के परिप्रेक्ष्य के बारे में अधिक है, फिर भी उनकी कविताएँ इसे लिखने का कारणभूत रहीं तो अवश्य कोई बात रही होगी. मेरा अर्चना जी से व्यक्तिगत परिचय नहीं रहा, जो था वह पहले मित्र लेखक कृष्ण गोपाल वर्मा की पत्नी, वि.वि. में जुझारू प्राध्यापिका, एक लेखिका, संपादक के रूप में ही था. लेकिन हिंदी में आलोचना और समीक्षा के नाम पर अधिकांश में जो तमाशा चलता है, उसे देखते हुए इसे छपवाने के प्रति लेखक बहुत उत्साहित नहीं रहा. अर्चना जी इसके बारे में जानती थीं. कल उनका यों अचानक चले जाना बहुत ही दुखद था. इसे उनकी स्मृति-स्वरूप ही माना जाना चाहिए.) 


जिसे हम समीक्षा के रूप में जानते हैं और मानते हैं, वह आह-वाह से आगे एक गहन सांस्कृतिक दायित्व है. हिंदी में समीक्षा के नाम पर अक्सर जो होता है उसे समीक्षा का दर्ज़ा देना अर्थ को अनर्थ की हद तक खींचना होगा.

समीक्षा करने वाले और उसे पढ़ने वाले समीक्षा-पद्धति में रुचिशील होते हैं. इससे करने वाले को और पूरी जानकारी ले पढ़ने या न पढ़ने वाले को काफी सुभीता हो जाता है. दिमाग पर बहुत बोझ नहीं डालना पड़ता, बस उतना भर जितना पाँचवी क्लास में रिक्त स्थान पूर्ति के सवालों में पड़ता है. पद्धति मर्क्सवादी है, जनवादी है, संरचनावादी है, विखंडनावादी है या क्या-क्या और वादी है, इससे सब तय हो जाता है. यह अहोरूपम अहोध्वनिवालों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का संसार है. यहाँ यह लेखक किसी भी एक पद्धति को आदर्श मानकर चलने के लिए तैयार नहीं है, न पद्धतियों के जाल को. जब जहाँ जिसने जितनी सहायता की, उतनी सहायता ली गई. इस रूप में देखें तो उसके लिए तमाम सिद्धांत और पद्धतियाँ उपयोगी हैं और दूसरी तरह से कहें तो बेमतलब.

समीक्षा न तो लेखक को सुखी-दुखी करने के लिए होती है, न पाठकों के बीच किसी तरह के सकारात्मक-नकारात्मक विज्ञापन का जरिया. वह रचना की तरह अपने आप में होती है. हिंदी में उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली समीक्षाएं हैं. समीक्षा से पहले क्या तैयारी करनी होती है, यह यहां है. प्रचलित रवायतों से एक तरह का विच्छेद है इसलिए आम रिवाजों में रचे-पचे लोगों को कष्ट भी हो सकता है, नाराजगी भी.

अपनी भाषा में राजनेताओं या धर्मोपदेशकों की तरह साहित्य में भी लोकप्रियता का रोग कुछ ज्यादा ही है, इसलिए वर्तमान हालात में साहित्येतर दबावों को छोड़ कुछ कहना अजीब लग सकता है. प्रस्तुत लेखक राजनेताओं की तरह कोई वोट बैंक की राजनीति नहीं करता कि उसे जनमत जुटाने की चिंता सताए.

शुरू में ही यह कह देना जरूरी है कि यह जो लिखा जा रहा है वह किसी कविता की व्याख्या-विश्लेषण का प्रयास नहीं है, न ली गई कविताएं किसी गुणवत्ता के आधार पर चुनी गई हैं. उनका किसी भी तरह के साहित्यिक संवाद या विवाद से बाहर होना ही इस चुनाव के मूल में रहा. ये समीक्षा के एक अभ्यास का अवयव हैं.

वैसे अक्सर यह मानकर चला जाता है कि किसी भी रचना (अब जो भी अर्थ इसका होता हो) की सार्थकता और महत्व इस बात से प्रमाणित और प्रतिपादित होता है कि उसकी व्याख्या-विश्लेषण के कितने प्रयास किए गए हैं. लेकिन लगता है इस व्याख्या-विश्लेषण का रचना के आंतरिक से उतना संबंध नहीं होता जितना रचनेतर से होता है. मसलन यह किसी रचना के लिखने वाले को कुछ महत्व, यश, सम्मान वगैरह दिलाने में शायद मददगार हो सकता हो. और जब रचनाकार औरों से इसकी अपेक्षा करते हैं तो यह माना जा सकता है कि वे रचना से अधिक रचनेतर को रचना के लिए और अपने लिए महत्व देते हैं.

अन्यथा तो किसी भी तरह के व्याख्या-विश्लेषण को या उसकी ज़रूरत को रचना और रचनाकार की अवमानना ही माना जाना चाहिए. अगर कोई रचना अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती और रास्ता नहीं बना सकती तो कोई बैसाखी उसे इस काबिल नहीं बना सकती.
इसीलिए मैंने कहा कि यह कोई कविता या उसे रचने वाले की व्याख्या-विश्लेषण की हिमाकत नहीं है.

असल में घटनाएं एक माध्यम का काम करती हैं जिनसे हम कुछ बातों पर बात करने का आधार पा जाते हैं. यानी कि उसके संग-साथ या आसपास से उठी बातों को खुले मन से अन्य से शेयर कर सकते हैं. शेयर करना संभव नहीं हो तो एकालाप ही कर सकें. इन कविताओं पर लिखते समय बस यही है और कुछ नहीं.

आगे बढ़ने से पहले यह और कहना है कि हिंदी में खुले संवाद का चलन कम है. या तो पुराने कुछ विश्वास-अंधविश्वास हैं या उनकी जगह पनपे नए विश्वास-अंधविश्वास हैं. और विश्वासी-अंधविश्वासी की आस्था व्यक्ति को संवादी नहीं, असहिष्णु, हिंसक या हत्यारा बना सकती है. उनमें अधिकांश बातों को मानकर चला जाता है जैसे वे कोई आत्यंतिक सत्य हों जिनपर कोई बहस नहीं हो सकती. कहीं से कोई दस वाक्य उठाकर पढ़ना शुरू कीजिए तो लगेगा कि उसमें दस ऐसे अंधविश्वास हैं जिन्हें लिखने वाला ऐसे सार्वभौम सत्य मानकर चल रहा है जिनपर अब किसी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं है. यह हो सकता है (सकता क्या, है भी) कि वे बहुसंख्य द्वारा मान्य अकाट्य सत्य बन गए हों. अगर ऐसा है तो हर नया लिखा हुआ मात्र पिष्टपेषण है जिसे फिर से लिखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

इसलिए पाठकों से क्षमा याचना सहित यहां किसी भी ऐसे मान्य सत्य या विश्वास या मूल्य या आस्था वगैरह को मानकर नहीं चला गया है. और भले ही कुतूहल लगे लेकिन छोटी से छोटी बात को भी खोलना जरूरी लगा तो खोला गया है.

और जिस तरह इन्हें लिखने वाला किसी भी पूर्व निर्धारित मान्यता, विश्वास, आस्था, मूल्य वगैरह को मानने के लिए बाध्य नहीं है उसी तरह वह कहना चाहता है कि यहां कही बातों को स्वीकार कराना, मनवाना इसका उद्देश्य नहीं है. कोई चाहे तो इन्हें अपनी आस्थाओं पर कुठाराघात मानकर बिना तर्क के सिरे से अस्वीकार कर सकता है. ये बातें किसी तरह के प्रमाण पर भी टिकाई नहीं गई हैं जो उन्हें टेक या ठोस आधार दे सकें, गिरने से बचा सकें. मतलब परंपरा का उल्लेख, किसी ज्ञान-विज्ञान की स्थापनाओं का बल या किन्हीं महानुभावों के उद्धरण वगैरह. इसलिए वे या तो अपने बल पर खड़ी होंगी या गिर पड़ेंगी. कई बार लग सकता है कि इसमें कुछ मान्यताओं के बरक्स कुछ अन्य को रखा गया है. दरअसल वे कुछ सवाल ही हैं कोई अंतिम सत्य नहीं.

अर्चना वर्मा की ये कविताएं कुछ समय पहले `हंस'में छपी थीं और जलने की एक दुर्घटना पर आधारित   हैं.

किसके साथ हुई यह दुर्घटना !
क्योंकि ये हिंदी में लिखी गईं एक हिंदी की लेखिका की हैं और हिंदी का लेखन संसार एक बहुत सीमित सी परिधि में होने के कारण सबका जाना हुआ है, इसलिए कोई भी कह देगा कि यह दुर्घटना लेखिका के अपने साथ घटित हुई है.

लेकिन मान लो आम पाठक हिंदी के लेखक संसार के ब्यौरों से परिचित न हो या ये कविताएं अन्य किसी भाषा में अनुवाद होकर वहां पढ़ी जाएं तो उसका वह माना हुआ संदर्भ बेमतलब हो जाएगा. फिर भी, कविता या कोई भी रचना सशक्त होने के लिए अनुभव की प्रामाणिकता पर जोर देने के कारण यह बिना संदर्भ के भी माना ही जा सकता है कि यह प्रामाणिकता व्यक्तिगत होने से आती है.

इधर नारीवादी और दलित विमर्श में इसे और अधिक रेखांकित किया गया है. इससे लिखे हुए की शक्ति कितनी बढ़ती होगी यह तो बहसतलब है लेकिन लेखन की स्वतंत्रता की सीमाएं जरूर तय हो जाती हैं.

तो हम यह मान लें कि यह दुर्घटना लेखिका के साथ ही घटी है. लेखिका यानी अर्चना वर्मा नामधारी. इसमें फिर एक मान्यता है जिसको परखने की जरूरत है. नाम के साथ ही उसका एक बना-बनाया स्वरूप है, छवि है, संदर्भ-अनुसंग हैं, इतिहास-भूगोल है, उसकी मान्यताएं, विचार सब हैं. उस नाम के साथ अपने-पराए के संबंध हैं. यानी कि यह नाम मात्र कोई यूं ही मान या टाल देने वाली चीज नहीं है, उसने सब कुछ को अपने घेरे में ले लिया है. उस नाम के साथ जो भी कुछ होगा उसपर प्रतिक्रिया उससे जुड़े इस संपूर्ण संसार से होगी.


हालांकि हम सब इस बात को जानते हैं कि यह नाम शरीर के लिए वैसे ही एक 'कोड'है जैसे भाषा के शब्द वस्तुओं के 'कोड'होते हैं. उस 'कोड'को वे ही लोग समझ सकते हैं जो उसी भाषा में व्यवहार करते हैं अन्यथा उन कोडों का किसी अन्य के लिए कोई अर्थ नहीं है. शरीर को यह कोड पैदा होने के बाद ही दे दिया जाता है और बार-बार के दुहराव से वह शरीर इसे अपनी पहचान मान लेता है, शायद जन्म के बाद चेतना आने के समय से. यह कोड समाज में व्यवहार करने के लिए होता है. अपने आप में शरीर के समस्त क्रिया-व्यापार में इसका कोई अर्थ नहीं है. यह स्मृति या विचार द्वारा आरोपित एक व्यवस्था है जिसका उपयोग समाज और संस्कॄति करती है. गहरी निद्रा में या किसी अन्य कारण से स्मृति या विचार के बंद होने पर मालूम होगा कि इस शरीर को अपनी किसी परिचिति के बारे में नहीं मालुम.

कोई भी कहेगा कि यहां एक बेमतलब की चीज को इतना तूल देकर बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है. बतंगड़ बनाना शायद जरूरी न होता अगर हम लगातार चीजों के प्रति सजगता बरतते होते. लेकिन हमने क्योंकि सब कुछ को अंधविश्वास में बदलकर सब पर जबरदस्ती लाद दिया है इसलिए उसे अंधविश्वास से मुक्त करने के लिए बतंगड़ बनाना होता है.

तो तय करना होगा कि यह दुर्घटना किसके साथ घटी है ! विशेष नामधारी व्यक्ति के साथ या अनाम इस शरीर के साथ. और क्योंकि कविताएं इस बुनियादी बात पर ही टिकी हैं इसलिए इस पर कहे बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है. क्योंकि दोनों न तो एक हैं, न दोनों के अर्थ एक हैं, न उनके प्रभाव एक हैं. एक हद तक कहें कि दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं.

इस विरोध को थोड़ा स्पष्ट करने की जरूरत है. जब हम यह मान लेते हैं कि यह घटना अर्चना वर्मा नाम की एक हिंदी लेखिका के साथ घटी है जिसे हिंदी के लेखकों और पाठकों का एक हिस्सा जानता है और फिर कविताओं पर कुछ कह दूसरों को भी जना सकता है. यानी लोग उनकी जिंदगी के, पेशे के, व्यक्तिगत संबंधों के, साहित्यिक संसर्गों के, मान्यताओं-मूल्यों-विचारों के, उनके लेखन के, गुट के कितने ही अनगिनत संदर्भों को जानेंगे. जाने या अनजाने.

यह नाम दरअसल इन अनगिनत चीजों का एक कोडीकृत रूप बन चुका है. इसलिए इन कविताओं के मूल में रही घटना या दुर्घटना को सीधे देखना संभव हो ही नहीं सकता. दृष्टि इन अनगिनत पर्दों से छनती हुई वहां तक पहुंचेगी, अगर पहुंचेगी तो. अक्सर तो इसी में उलझकर रह जायगी. और हम सब घटना-दुर्घटना पर नहीं इन सब इतर चीजों पर बात कर रहे होंगे, इनके संदर्भ में बात कर रहे होंगे.

मसलन जिन्होंने उन्हें इस घटना से पहले देखा है वे उनके पहले के सौंदर्य के संदर्भ में इसे देखेंगे. नारीवाद के कायल इसे नारी के साथ चली आती दुखांत नियति के रूप में परिभाषित करना चाहेंगे. दृष्टिकोण ग्लोबल हुआ तो ऐसी घटनाओं को एक पिछड़े देश में मानव जीवन की असुरक्षा के रूप में कहेंगे. फिर कुछ अनेक रूपों में उनके अपने होंगे और कुछ पराये होंगे जो उसी अनुपात में संवेदना से देखेंगे.

यह तो बस यूं ही कहा, यह दिखाने के लिए कि इस नाम के कोड से जितने अनंत अर्थ जुड़ गए हैं, इसपर चर्चा के भी उतने ही अनंत तरीके होंगे. इतना सब होते हुए भी मजे की बात यह है कि हम निर्द्वंन्द्व इन चीजों को मानकर चलते हैं कि यही तो तरीका है.

इस नामधारी कोड में यह बात एकदम भुला दी जाती है कि यह घटना-दुर्घटना मूलत: और अंतत: जिसके साथ घटी है वह यह जीवित शरीर है. शरीर न किसी नाम को जानता है, न नाम के साथ जुड़े अनुसंगों से ही उसका कोई वास्ता है. उसे तो अपने लिंग का भी बोध नहीं   है. वह एक ऐसी अद्भुत, जीवंत, सतत क्रियाशील मशीन है जिसकी अंतर्निहित बुद्धिमत्ता का कोई जवाब नहीं. वह जीवंत क्रियाशीलता के बीच दो ही चीजों को जानता है -- आत्मरक्षा और पुनरुत्पादन.

लेखिका ने जिस 'निशाना'कविता से इस कविता-क्रम की शुरूआत की है वह देह की दृष्टि से ही है जिसे लेखिका "मैं"और "मेरी"से एकाकार देखती है. यह पूरी कविता देह की ओर से ही कही गई है और इसीलिए इसमें उन मूलभूत भौतिक तत्वों के क्रम में शरीर की संरचना में इन तत्वों की संघटना, शरीर के अंदर और बाहर उनके अस्तित्व, उनकी समरसता और विरसता को दिखाया है. यह प्रकृति है और इसके बीच चलता जीवन-व्यापार है. इसी में निर्माण और विनाश है. यह एक ऐसा बयान है जो व्यक्तिवाचक संज्ञा के बावजूद एक निस्संग और निधड़क बयान है. इसमें देह की ओर से कहा गया है :

'शरीरविज्ञान का बड़ा जानकार होना जरूरी नहीं
यह जानने के लिए कि देह एक समुद्र है,
छियासठ प्रतिशत पानी और उसमें फासफोरस...'

और क्योंकि वह देह की ओर से बात कर रही है इसलिए कहते हुए उसे यह लगता है कि शायद इसे कह पाना और समझा पाना मुश्किल होगा. हम इस रूप में कहने और समझने के आदी नहीं हैं :
'मैं जानती हूं प्रिय पाठक कि
गोलमोल और अबूझ है
किसी कदर मेरी बात'

लेकिन जैसे लेखिका आगे बढ़ती है वह संवाद के प्रचलित और मान्य संप्रेषण में अपनी बात ढालने लगती है और इसे देह के जीवन की हकीकत से हटा अपनी "मैं"की परिधि में ले आती   है. बाकी कविताएं इस परिचित मुहावरे में हैं. उसके बारे में क्या कहना.

सवाल यह भी है कि लेखिका इस भयंकर दुर्घटना से गुज़रकर भी उसे हूबहू क्यों नहीं कह पा रही है ! यानी उस कहे से पाठक को उस भीषण विभीषिका का आभास क्यों नहीं हो पा रहा है! जो कहा जा रहा है स्वयं लेखिका को भी यह क्यों लग रहा है कि वह स्पष्ट नहीं गोलमोल है, सहज संप्रेष्य नहीं अबूझ है! उसमें इस कोण से, उस कोण से, पश्चात से, सबक से, इसकी नजर से, उसकी नजर से, अपनी नजर से जो कहा गया है सो कहा गया है. लेकिन सीधे उस घटना से उन क्षणों का साक्षात्कार बहुत मामूली है.

क्या इसे लेखिका की अक्षमता माना जाय कि वह स्वयं इस अनुभव से गुज़रने के बाद भी उसे इस रूप में नहीं रख पा रही है कि दूसरे उस आग की भीषणता को कुछ हद तक महसूस कर सकें !

यह बात नहीं है. कोई समर्थ से समर्थ रचनाकार भी इस तरह की आपबीती पर लिखता तो ऐसा ही होता. होता क्यों, हम जानते हैं ऐसा ही होता है. बड़ी से बड़ी दुर्घटना में बचे मनुष्य को जब हम कैमरों के सामने बात करता पाते हैं तो कोई कुछ भी उस वास्तविकता के आसपास तक का आभास नहीं करा पाता. जीवन भर समाज के दमन और उपेक्षा को झेलता एक दलित जब अपनी आपबीती का बयान करता है तो लगता है कि वह उसे ठीक से पकड़ ही नहीं पा रहा. यही अपमान झेलती किसी नारी के अनुभव के बयानों के बारे में भी सच है. इसके कुछेक जो अपवाद दिखाई पड़ते हैं वे इन अनुभवों के गहरे या उथले होने के कारण नहीं, भाव और भाषा संप्रेषण में महारत के कारण ऐसा कर पाते हैं. वे निज अनुभव की जगह यदि परानुभव पर भी लिखेंगे तो वैसा प्रभाव पैदा करने में कामयाब हो सकते हैं.

इसीलिए घटना और अनुभव के अंतर्संबंधों का सवाल उठाना चाहिए. घटना में शरीर का संघर्ष है, शुद्ध सुरक्षा का संघर्ष. उस समय वहां कोई नहीं होता - न बुद्धि, न तर्क, न सोच, न विवेक. शरीर होता है और उसमें ही अंतर्निहित सुरक्षा के फौरी बचाव होते हैं.

"दुर्घटना का सबक"कविता में वह आने वाली सलाहों पर जो कह रही है उससे साफ है कि वह इससे परिचित है कि उस समय कुछ काम नहीं आने वाला. शरीर अपनी ही आंतरिक ऊर्जा और सुरक्षा कवच से लड़ता है अकेला और जब उसके ये उपकरण काम नहीं आते तो वह नष्ट हो जाता है. पहले से सुझाई या सोची कोई तरतीब वहां नहीं हो सकती, किसी तर्क, युक्ति को काम में लाने का वक्त वहां नहीं होता. क्योंकि दुर्घटनाएं शरीर को अपने में समो लेती हैं जैसे दो हिंस्र पशु प्राण छोड़ गुंथे होते हैं एक दूसरे को समाप्त कर देने के लिए. या तो यह शरीर दुर्घटना को परास्त कर देगा या स्वयं परास्त होकर समाप्त हो जायगा. हां दूसरे कोई हों तो शायद वे अन्य उपकरणों का प्रयोग करने की स्थिति में हों. हालांकि उनके लिए ऐसा करने के लिए पूरे परिदृश्य से निस्संगता जरूरी होगी, जो संभव नहीं.

और उस बीच कोई अनुभव जैसी चीज भी नहीं हो सकती. दुर्घटना तो अचानक बिजली के कड़कने की तरह गिरती है तेज अंधा कर देने वाली चौंध के साथ. उसका वार खाली जा सकता है या शिकार को लील चुका होता है. सब कुछ जब समाप्त हो चुका होता है तब जाकर सुनाई पड़ती है कड़कड़ाहट की ध्वनि जिससे हम कांप जाते हैं. दरअसल यह कड़कड़ाहट तो खाली है, सब कुछ तो उससे कितनी देर पहले ही घट चुका है.

ठीक यही रिश्ता दुर्घटना और अनुभव के बीच है. अनुभव या अन्य जो भी प्रक्रियाएं हैं वे घटना के साथ होना असंभव हैं. वे दुर्घटना होने के बाद होती हैं. बुद्धि या विचार स्मृति से घटना को "कंस्ट्रक्ट "करते हैं. वे घटना में नहीं होते. और जो वहां होता है -- शरीर-- उसे जीवन चलाने का अपना काम करते रहना है. उसके पास अनुभव या विचार की ऐय्याशी का वक्त नहीं होता, न इससे उसका कोई वास्ता है. वह अनुभव जैसी किसी चीज को न तो जानता है, न उसके लिए बना है.

घटना में अनुपस्थित के इस "कंस्ट्रक्शन"को हम "साक्षात अनुभव"'समझते हैं. यह कंस्ट्रक्शन अनुभव नहीं है, बुद्धि या विचार द्वारा स्मृति के आधार पर रचा गया एक अनुभवाभास है. यह कंस्ट्रक्शन केवल उस एक घटना के आधार पर नहीं, मानव इतिहास में घटी ऐसी अनंत घटनाओं के हमारे ज्ञान से बहुत सारी चीजें लेकर बनाया गया है. क्योंकि स्मृति कोई जीवित चीज नहीं हो सकती, बीती हुई चीज है, मृत है. यह घटना भी होने के बाद मर चुकी है और उसी तरह एक और सार्वजनिक स्मृति बन गई है जैसी पहले से वहां अनंत हैं.

मृत चीज से एक जीवंत अनुभव की सृष्टि कर पाना कैसे संभव है ! इस रूप में कोई भी अनुभव जीवंत नहीं हो सकता. वह अधिक से अधिक उसकी पैरोडी हो सकता है या आभास. क्योंकि अंतत: उसे कंस्ट्रक्ट करना होता है. अब यह कंस्ट्रक्शन आपके अपने साथ घटी घटना का हो या अन्य किसी के साथ घटी घटना का, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता. इसलिए यह कहा जा सकता है कि हर अनुभव स्मृति, बुद्धि, विचार, परंपरा, संस्कार वगैरह से कंस्ट्रक्ट किया गया होता है. क्योंकि जो शरीर या उसकी इंद्रियां घटना के बीच होते हैं उनका कंस्ट्रक्शन करने वाले अवयवों से बहुत सीधा संबंध नहीं होता.

मैं जानता हूं कि अनुभव के बारे में इस तरह की बात कहना खतरे से खाली नहीं है. क्योंकि साहित्य और कलाओं का पूरा तंत्र ही अनुभव के आधार पर खड़ा है. सच्चे अनुभव, जीवंत अनुभव, उत्कट अनुभव, प्रामाणिक अनुभव और न जाने और भी कैसे कैसे अनुभव. इसलिए कोई यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि रचना और कला का पूरा प्रासाद जिस अनुभव पर खड़ा होता है, वह अनुभव न तो मौलिक हो सकता है, न जीवंत, न प्रामाणिक. वह घटनाओं की जीवंतता के बाद यहां-वहां पड़े खंडहरों के कंकड़-पत्थर को जोड़ कर कृत्रिम रूप से खड़ी गई एक तरतीब है.

और क्योंकि कोई भी अनुभव वास्तव नहीं उसका आभास है इसीलिए मनुष्य जाति लाखों बरस से बार-बार उन अनुभवों को दुहराकर भी फिर दुहराती जाती है, क्योंकि अंदर से यह आभास है कि कोई भी अनुभव वास्तव को "री-कंस्ट्रक्ट"नहीं कर सकता. अगर कोई अनुभव वास्तव को एक बार प्रामाणिक रूप में कह देता तो वहीं उस अनुभव का अंत हो जाता. उसके बाद उस वास्तव का कोई अनुभव हो ही नहीं सकता था. क्योंकि एक बार उस अनुभव को लिखा जाकर फिर उसे लिखना संभव नहीं होता. अनुभवों का होना और होते रहना, उनपर आधारित एक रचना का लिखना और अनंत लिखे जाना इसका स्वयं प्रमाण हैं कि वास्तविक अनुभव नहीं हुआ या हो नहीं सकता. घटना के बीच होने वाला और अनुभव को बनाने वाला दो भिन्न अवयव हैं और दोनों के बीच कोई सार्थक संवाद संभव नहीं है.

और एक तरह से यह अच्छा ही है क्योंकि इससे साहित्य और कलाओं का कारोबार सतत चलता रह सकता है. इस कारोबार से किसी को क्या ऐतराज हो सकता है. बस यही कि इसे ठीक से समझ लें और इसको लेकर बहुत आंय-बांय-सांय न करें.

खतरनाक बिंदुओं को छूने का यह सिलसिला जब शुरू हो ही गया है तो इससे जुड़ी कुछ और चीजों को भी देख लिया जाय. मसलन कोई भी निश्चित तौर पर यह कैसे कह सकता है कि घटना के होने और उसके बीच अपनी इंद्रियों और निजी बुद्धिमत्ता के साथ उपस्थित हमारे शरीर के होने तथा अनुभव के होने में यह फासला क्यों है ! क्या यह समस्त प्रकृति या प्राणिजगत का नियम है !

नहीं, न तो यह प्रकृति का नियम है, न प्राणिजगत का नियम है. अधिकांश अन्य प्राणियों मंह जीवन, घटना, अनुभव सब कुछ एक ही क्रिया के अंदर हैं. मनुष्य क्योंकि चेतन और विचारवान प्राणी बन गया है इसलिए उसमें ये सब द्विधाविभक्त हैं. वह न तो इस प्रकृति का हिस्सा रह गया है, न प्राणि और वनस्पति जगत का. वह इनसे अलग है, कटा हुआ है. इसीलिए वह समस्त प्रकृति को, प्राणि और वनस्पति जगत को केवल अपने लिए मानता है. वे न तो उसके समान हैं, न उसकी उपयोगिता के अलावा उनकी कोई उपयोगिता है.

प्रकृति का, प्रणिजगत का, वनस्पतियों का जो अंधाधुंध विनाश हुआ है वह इसी का परिणाम है. अंतत: यह स्वयं अपने और सृष्टि के विनाश की राह है जिसे तमाम सदिच्छाओं के रोकना संभव नहीं रह गया है.

इसीलिए मनुष्य वास्तविक अनुभव की क्षमता खो बैठा है और अनुभव के नाम पर जो होता है वह मृत स्मृति से कंस्ट्रक्ट चीज है.
लेखिका ने बताया कि इस घटना में यह जीवन किसी तरह बच गया

"मर गयी होती तो
जीवन से बची होती "

यह बहुत संवेदनशील विषय है और लेखिका की समझ का भरोसा ही हमें नॄशंसता के आरोप से बचा सकता है. इस दुर्घटना में क्या मर जाता और क्या बच गया !

आम तौर पर सभी धर्मों, आध्यात्मिक चिंतन और जन-विश्वास में यही माना जाता है कि जो मरता है वह शरीर है और जो अमर है वह आत्मा है. यानी कि जब यह शरीर आत्मा के निवास के लायक नहीं रहता तो वह दूसरा शरीर धारण कर लेती है. आस्तिक चिंतन की ही यह खूबी नहीं है नास्तिक चिंतन भी इससे अलग नहीं है. यानी कि जब यह शरीर समाप्त हो जायगा तब भी मैं, मेरा नाम, मेरा काम, मेरा चिंतन, मेरे विचार, मेरा परिवार बचेगा और चलेगा. शरीर नहीं रहेगा तो भी रचना और रचनाकार रहेगा. यह घुमा-फिराकर आत्म की अमरता का ही राग या तरतीब है. सबमें शरीर एक दोयम दर्जे का माध्यम भर है.

इससे बड़ा दोगलापन और भ्रांति कोई नहीं हो सकती. अगर यह सच होता तो मरना हंसी खेल होता और वरेण्य. लेकिन बड़े से बड़े महात्मा को भी इस काया के मोह से ही चिपके देखा है. जब यह शरीर मिटता है तो जिन्हें आत्मा की पहचान के रूप में देखा जा सकता है , वे सब मिट जाते हैं. यह स्मृति, यह भावबोध और विचारबोध, यह गति, सब कुछ का अंत हो जाता  है. जो बचता है वह मौलिकता से शून्य हो गए लोगों की जुगाली या प्रेरणा या और आलतू-फालतू के लिए बचता है.

और मजेदार बात यही है कि हममें जो हमेशा जीवन की जीवंतता है, वह शरीर की ही है. मन, बुद्धि, विचार, चिंतन के जिस संपूर्ण तंत्र की मानव चेतना ने ईजाद की है वह सब इस शरीर के गुणधर्म नहीं हैं. वे ऐसे पैरासाइट हैं जो इस शरीर की प्राकृतिक ऊर्जा को बेकार के कामों में नष्ट करते हैं. उससे शरीर को थकान होती है जिसे मिटाने के लिए रात की विश्रांति में यह शरीर सबको सुलाकर क्षतिपूर्ति करता है.

शरीर गहरी से गहरी निद्रा में भी निरंतर अपना काम करता रहता है जैसे सूर्य करता है और संपूर्ण प्रकृति करती है. वह एक क्षण के लिए भी विश्राम ले ले तो सब खत्म हो जाय. दिल की एक धड़कन रुक जाय, कोई ग्लैंड अपना काम बंद कर दे तो क्या हो. इसलिए जिसे हम थकान कहते हैं वह शरीर के कर्म के कारण नहीं है. यह मन, बुद्धि, विचार नाम के उन पैरासाइटों का पर्याय है जिनके बंद हो जाने से थकान अपने आप ही समाप्त हो जाती है. मद्यपान या अन्य नशीले पदार्थों का सेवन इन्हीं पैरासाइटों से छुटकारा पाने के लिए होता है. हालांकि अधिकांश में अनजाने ही.

इसलिए यह शरीर और उसका जीवन प्रकृति की सतत क्रियाशीलता और परिक्रमा से जुड़ा होने के कारण उसी का हिस्सा है. उसके अपने काम हैं और अपनी बुद्धिमत्ता है जिसका प्रयोग वह किसी भी संकट में करता है. न बच पाने की स्थिति में नष्ट हो जाता है.

और शरीर ही एकमात्र है जो अमर है. मैं जानता हूं कि यह कहने से मौत से जूझकर निकल आए को या उसके परिजनों को कष्ट ही होगा, लेकिन ऐसा ही है. शरीर क्योंकि एक ऊर्जा है जो प्रकृति के तत्वों के संघटन से पैदा हुई है. शरीर के नष्ट होने पर यह ऊर्जा अपने मूल तत्वों में जा मिलती है, ऊर्जा को किसी नए रूप में प्रकट करने के लिए.

सृष्टि में ऊर्जा का यह संतुलन नहीं बिगड़ सकता. उसे न तो एक अंश आप घटा सकते हैं, न बढ़ा सकते हैं. इस रूप में शरीर ही एकमात्र है जो अमर है. उसके अलावा वह सब कुछ नष्ट होता है जिसे हम "मैं"के रूप में, मेरे भाव, मेरे विचार, मेरा मन वगैरह के रूप में जानते और प्रचारित-प्रसारित करते हैं. वे रहते भी हैं तो एक मृत स्मृति के रूप में या अजीवित लोगों के उद्धरणों-उद्देश्यों के रूप में.

कविता के बड़े हिस्सों में लेखिका इसके प्रति उतनी सावधान नहीं दिखती और इस बचने को अपनी शरीरेतर चीजों की निरंतरता के रूप में देखने लगती है.

अंत में आती है घटना, घटना के कंस्ट्रक्टिड अनुभव के विचार से नियंत्रित होने की बात. इन कविताओं में यह साफ दिखाई पड़ने लगता है कि घटना के बारे में यह जो कंस्ट्रक्टिड अनुभव है, वह मात्र अनुभव के स्वरुप में ही संतुष्ट नहीं रहता, बल्कि विचार का वाहक बन जाता है. यानी कि लेखिका की सब कुछ के बारे में मान्यताएं या विचार इस अनुभव का इस्तेमाल करने लगते हैं."बाहर"और "बच निकलने के बाद"में यह खूब मुखर हैं. अब हम उस नियंता को देखते हैं जो अनेक नामरूपों में इस सबका सृजन कर रहा था और अंतत: अपने लिए सबका इस्तेमाल ही उसका मकसद है.

विचार के रहते हुए किसी अनुभव की कल्पना नहीं की जा सकती. जिसे हम अनुभव समझते हैं असल में वह विचार द्वारा चुना गया, कंस्ट्रक्ट किया गया जाल है जिसे वह अनुभव की ओट में फैला रहा है. वह कुछ खास चीजों को देखने देता है, खास तरह से देखने देता है, खास तरह से उसको कहलवाता है. यानी कुल मिलाकर विचार अपनी सिद्धि के लिए यह जाल बिछाता है और बहुविध स्तरों और प्रक्रियाओं का भ्रम खड़ा करता है. यदि आप प्रगतिशील सोच के हैं तो वह आपके अनुभवों को प्रगतिशील जमीन दे देगा. यदि आप व्यक्ति की निजता के हिमायती हैं तो आपके अनुभवों को नितांत निजी रूप दे देगा. इस तरह अनुभव की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, केवल उसका आभास होता है. ये अनुभव नहीं, विचार का ही एक छद्म रूप हैं.

और क्योंकि विचार न तो कोई जीवित चीज हैं, न निजी, न मौलिक इसलिए उनसे पैदा होने वाली चीज भी जीवित कैसे हो सकती है. ये विचार वहां बाहर सदियों से चली आ रही विचार परंपरा से पैदा एक सार्वजनिक संपत्ति की तरह से हैं जिसमें से अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुरूप हम अपने अंदर "डाउनलोड"कर लेते हैं.

एक मार्क्सवादी अपनी तरह के विचारों को डाउनलोड कर अपने को भर लेगा, एक पूंजीवादी अपनी तरह के विचारों से अपने को भर लेगा और भी कोई वादी अपने वाद के विचारों से अपने को भर लेगा. वे "डाउनलोडिड"हैं, इसलिए जाहिर है कि उनमें कोई मौलिकता नहीं हो सकती. वे केवल जगह घेरते हैं और मौलिकता के लिए गुंजाइश को कम करते हैं. दिक्कत यह है कि हम इन्हें मौलिक मानने की गलतफहमी पाले होते हैं.

अभी कुछ दिन पहले अपने एक वयोवृद्ध साहित्यिक दिग्गज से उनकी लिखी किताबों पर उनके कापीराइट पर ऐसे ही चर्चा हो गई. मैंने कहा कि कापीराइट तो आपकी अपनी मौलिक चीज पर ही हो सकता है.
'उस किताब में आपका मौलिक क्या है !'

पहले तो वो ऐसा बेहूदा सवाल सुन आवेश में आ गए. फिर संभल कर बोले कि 'विचार मेरे हैं.'

'कौन से विचार !'
'मार्क्सवादी विचार.'

'मार्क्सवादी विचार आपके कैसे हो गए. वे तो मार्क्स के हैं. मार्क्स भी अपने विचारों का श्रेय नहीं लेते क्योंकि वे अपने से पहले के सबसे लेकर रिकंस्ट्रक्ट कर रहे हैं.'

अंत तक आते-आते नौबत यहां तक आ गई कि किसी भी मौलिक से मौलिक रचना में लिखने वाले का एक प्रतिशत भी कुछ अपना हो तो बहुत बड़ी बात होगी. भाषा में भी आपका क्या है! वह तो हजारों साल के क्रम में विकसित हुई है. हो सकता है आपने उसमें एकाध नया शब्द कहीं से उठाकर चला दिया हो. इसलिए यह मौलिकता किसकी ! अब यह रायल्टी इतिहास में किसको कितनी देते फिरोगे !

यानी कि चीजें इस हद तक अंधविश्वास में बदल चुकी हैं कि उनपर हरेक पर सवाल उठाने की जरूरत है. और क्योंकि हम जानते हैं कि उनके पीछे कोई ठीक ठिकाने का आधार नहीं है इसलिए सवालों के उठते ही हमें अपना अस्तित्व खतरे में नजर आने लगता है और हम विचारवान नागरिक के सब मुखौटे उतार अपनी प्रतिक्रियाओं में हिंस्र हो उठते हैं.

तो सवाल था अनुभव और विचार का. एक जमाने में सब लोग मुक्तिबोध की मौलिकता से प्रभावित थे. आज भी हैं. उन्होंने अनुभव और ज्ञान के संबंध को स्पष्ट करते हुए दो पारिभाषिक शब्द दिए -- "ज्ञानात्मक संवेदन"और "संवेदनात्मक ज्ञान". यानी कि ज्ञान भी संवेदना या अनुभव की प्रेरणा हो सकता है और संवेदना या अनुभव भी ज्ञान का आधार बन सकते हैं. इससे पहले माओ जे दोंग मार्क्सवाद के इस सिद्वांत को सहज बना कर कह चुके थे.

हमने समझा कि यह मुक्तिबोध की मौलिक देन है. लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि यह न केवल एक मतिभ्रम था बल्कि शब्दों का खिलवाड़ भी. एक ही चीज को दो भिन्न प्रक्रियाओं के रूप में दर्शाया गया था. स्वयं मुक्तिबोध का काव्य इस चीज का गवाह है कि वहां अनुभव के नाम पर जो कुछ है वह मस्तिष्क के अंदर ही घटित हुआ है और वास्तविक जगत में नहीं, विचार जगत में ही घटित हुआ है. हमें वह पसंद है क्योंकि स्वयं हम उसके अलावा कुछ हैं ही नहीं.

इसलिए लगता है कि कोई भी संवेदना और अनुभव ज्ञान या विचार से ही निकलते हैं और उसी में समाप्त हो जाते हैं. यानी यह पूरी प्रक्रिया स्मृति और विचार के इस अमूर्त, वायवी, कृत्रिम और सीमित दायरे में ही चलती रहती है जबकि लगता यह है कि वह वास्तविक जीवन, यथार्थ, संवेदना, अनुभव, ज्ञान, चिंतन आदि न जाने कितने स्तरों पर गतिशील है. ध्यान से देखने पर ही पता चलता है कि यह सब विचार के द्वारा रचाया मायाजाल है.

विचार सार्वजनिक स्मृति का हिस्सा होने के अलावा कुछ नहीं हैं. वह वहां बाहर अनंत में मौजूद हैं, जो चाहें, जितना चाहें डाउनलोड कर लीजिए और कुछ फेरबदल कर मौलिक बना चला लीजिए. स्मृति मृत चीज है, जीवित नहीं. उसे जिलाना शवसाधना जैसी चीज है. उस पर आधारित ज्ञान या विचार मौलिक या जीवित नहीं हो सकते इसलिए उससे निर्मित चीज भी मौलिक कैसे हो सकती है. इस रूप में जो घटित हुआ वह तो हो गया, अब यह जो है वह उसके रीकंस्ट्रक्शन की कोशिश है.

इन कुछेक बातों की चर्चा के बाद अब चाहें तो लिखी कविताओं के बारे में बात की जा सकती है.

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कर्ण सिंह चौहान
स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि.बल्गारिया और हांगुक वि.वि.सिओलदक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.

लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मानसाहित्य के बुनियादी सरोकारप्रगतिवादी आंदोलन का इतिहासएक समीक्षक की डायरीयूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा)अमेरिका के आर पार (यात्रा)हिमालय नहीं है वितोशा (कविता)यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकेंपाब्लो नेरुदालू शुनकोरियाई कविता-संग्रहआदि प्रमुख  हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में  लेख प्रकाशित हुए.

karansinghchauhan01@gmail.com

जीवनानंद दास : अनुवाद का अपराध : शिव किशोर तिवारी

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'सभी कवि नहीं होते कोई-कोई ही कवि होता है’ऐसा मानने वाले जीवनानंद दास (१७ फरवरी, १८९९-२२ अक्टूबर,१९५४) साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत (१९५५) पहले बांग्ला कवि हैं. ‘जीवनानंद दास : श्रेष्ठ कविताएँ’नाम से उनकी चयनित कविताओं का  बांग्ला से हिंदी में अनुवाद स्वर्गीय समीर वरण नंदी ने किया है. नंदी लिखते हैं- “बंगाल के आंचलिक सौन्दर्य से प्रस्फुटित होने वाली कविताओं का अनुवाद सहज कार्य नहीं रहा. यह मेरे लिए पुनर्रचना का सम्पूर्ण संघर्ष था.”

उनकी कविताओं के अनुवाद अभी भी प्रकाशित हो रहें हैं. उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘फिर आऊँगा लौटकर’ (संग्रह : रूपसी बांग्ला) का अनुवाद समीर वरण नंदी (१९९७) ने भी किया है और अभी इसी कविता का अनुवाद मिता दास(२०१९) ने भी.

अनुवाद का कार्य कुछ अत्यंत मुश्किल कार्यों में से एक है. इसके लिए दोनों भाषाओँ का सम्पूर्ण ज्ञान तो जरूरी होता ही है अगर कविता का अनुवाद है तो उसकी लय भी सुरक्षित रहे यह और एक अपेक्षा रहती है.

कई भाषाओँ के मर्मज्ञ, अनुवादक और विवेचक शिव किशोर तिवारी ने जब मूल से इन कविताओं को मिलाकर देखा तब उन्हें तमाम ख़ामियां नज़र आईं.


  
अनुवाद का अपराध                
शिव किशोर तिवारी




जीवनानंद-जैसे युगप्रवर्तक कवि का अनुवाद करना एक प्रकार की श्रद्धांजलि है. अनवधानता, गैरजिम्मेदारी और अगम्भीर ढंग से किया च्युतिपन्न अनुवाद अपराध है. यह अपराध हिन्दी अनुवादों में इतना अधिक हुआ है कि मैं कह सकता हूँ कि उत्पल बैनर्जी को छोड़कर (जिनका एक ही अनुवाद मेरी नज़र में आया है) प्राय: सभी अनुवादक अपराधी हैं. जीवनानंद से हिंदी पाठक का परिचय उनकी मृत्यु के साठ साल बाद भी नहीं हो पाया है. इस तथ्य को दरशाने के लिए एक ही कविता के दो अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ. दोनों अनुवादक स्थापित हैं और बांग्ला कविता के विश्वसनीय भाषान्तरकार माने जाते हैं.

जीवनानंद की मूल कविता देवनागरी में उच्चारण की वर्तनी में दे रहा हूँ ताकि पाठक दो- तीन बार पढ़कर उसके संगीत का आस्वाद प्राप्त कर सकें —

“आबार आशिबो फिरे धानशिड़िर तीरे – एइ बाङ्लाय
हयतो मानुष नय – हयतो बा शोङ्खचील शालिकेर बेशे;
हयतो भोरेर काक ह’ये एइ कार्तिकेर न’बान्नेर देशे
कूयाशार बूके भेशे एकदिन आशिबो ए काँठालछायाय;
हयतो बा हाँश ह’बो –किशोरीर- घुङुर रहिबे लाल पाय,
शारा दिन केटे जाबे कोलोमीर गन्धे भ’रा ज’ले भेशे भेशे;
आबार आशिबो आमि बांग्लार नदी माठ खेत भालोबेशे
जलाङ्गीर ढेउये भेजा बाङ्लार ए शबुज करून डाङाय;

हयतो देखिबे चेये सुदर्शन उड़ितेछे शोन्धार बाताशे;
हयतो शुनिबे एक लोक्खीपेंचा डाकितेछे शिमूलेर डाले;
हयतो खोइयेर धान छड़ाइतेछे शिशु एक उठानेर घाशे;
रूपोशार घोला ज’ले हय तो किशोर एक छेंड़ा शादा पाले
डिङा बाय – राङा मेघ शाँतराये अन्धोकारे आशितेछे नीड़े
देखिबे धब’ल ब’क : आमारेई पाबे तुमि ईहादेर भीड़े —
(जहां ’ का चिह्न है वहां दबाव देकर पढ़ें, जैसे धब’ल को धबS ल)


शिल्प

आप देख सकते हैं कि यह एक पेट्रार्कीय सॉनेट है. आठ और छ: पंक्तियों के दो भाग हैं. अंत की कपलेट में तुक है, शेष कविता में ए बी बी ए का तुकबन्ध है. जीवनानंद ने सॉनेट के फॉर्म को चुना क्योंकि यह एक प्रकार की प्रेम कविता है– अपनी जन्मभूमि के प्रति उत्कट आकर्षण का इजहार.
आदर्श अनुवाद वह होता जिसमें सॉनेट का फॉर्म कायम रहता. प्राय: यह काम दुष्कर होता है. फिर भी मूल के प्रवाह और लय को सुरक्षित रखने का प्रयास दिखना चाहिए.

मैंनेसुकुमार राय की इस बाल कविता का अनुवाद छंद छोड़कर किया पर लय बनाये रखी –

‘की मुश्किल !
शोब लिखेछे एइ केताबे दुनियार श’ब खबोर जतो
शोरकारी श’ब अफिशखानार कोन् शाह’बेर क’दोर क’तो.
केमन क’रे चाट्नी बानाय केमन क’रे पोलाव् कोरे
ह’रेक रकम मुष्टिजोगेर बिधान् लिखछे फलाव् कोरे.
शाबान कालि दाँतेर माजोन ब’नाबार शब कायदा केता
पूजा पार्बन तिथिर हिशाब श्राद्धबिधि लिखछे हेथा.
शोब लिखेछे, केबोल देखे पाच्छिनेको लेखा कोथाय—
पाग्ला शाँड़े कोरले ताड़ा केमन क’रे ठेकाय तारे’.

मेरा अनुवाद
समस्या
सब लिक्खा है इस पोथी में
दुनिया में जितनी खबरें हैं
सरकारी दफ्तरखानों में किस साहब का
कितना पावर, सब लिक्खा है.

कैसे बनते पुलाव-चटनी,
खाना-पीना, जादू- टोना
साबुन-स्याही अंजन-मंजन
सब लिक्खा है पढ़े औ करे.
पूजापाठ महूरत-साइत
श्राद्ध विधि और अंतर मंतर
सब लिक्खा है.

खोज रहा हूं नहीं मिल रहा
कैसे रोकें कैसे पकड़ें,
अगर किसी दिन
पगला सांड़ तुड़ा दौड़ाये.


नन्दी-कृत अनुवाद

जीवनानन्द की उद्धृत कविता का यह अनुवाद समीर वरण नन्दी ने किया था. वे जीवनानंद के जाने-माने अनुवादक थे. जहां तक याद है साहित्य अकादमी ने उनके द्वारा अनूदित जीवनानंद की कविताओं को प्रकाशित किया था.



समीर वरण का अनुवाद

फिर आऊँगा मैं धान सीढ़ी के तट पर लौटकर – इसी बंगाल में
हो सकता है मनुष्य बनकर नहीं– संभव है शंखचील या मैना के वेश में आऊँ
हो सकता है भोर का कौवा बनकर ऐसे ही कार्तिक के नवान्न के देश में
कुहासे के सीने पर तैरकर एक दिन आऊँ– इस कटहल की छाँव में,
हो सकता है बत्तख बनूँ– किशोरी की – घुँघरू होंगे लाल पाँव में
पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में तैरते-तैरते
फिर आऊँगा मैं बंगाल क नदी खेत मैदान को प्यार करने
उठती लहर के जल से रसीले बंगाल के हरे करुणा-सिक्त कगार पर

हो सकता है गिद्ध उड़ते दिखें संध्या की हवा में
हो सकता है एक लक्ष्मी उल्लू पुकारे सेमल की डाल पर,
हो सकता है धान के खील बिखेरता कोई एक शिशु दिखाई दे आँगन की घास पर,
रुपहले गँदले जल में हो सकता है एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये,
या मेड़ पार चाँदी-से मेघ में सफेद बगुले उड़ते दिखाई दें –
चुपचाप अंधकार में, पाओगे मुझे उन्हीं में कहीं न कहीं तुम.
(कविता कोश से साभार)



अनुवाद-पद्धति

नंदी की अनुवाद-शैली सीधे मक्षिकास्थाने मक्षिका वाली है. कविता का अनुवाद उन्होंने १४  पंक्तियों में किया है पर उन्हें इस बात का इल्म शायद नहीं है कि फॉर्म सॉनेट का है. पंक्तियाँ ऊबड़-खाबड़ हैं. मूल के ध्वनि- सौंदर्य को शामिल करने का हलका प्रयास भी नहीं है. आश्चर्य है कि शाब्दिक अनुवाद का मार्ग अपना करके भी अनुवादक ने तमाम ग़लतियाँ की हैं. देखिये :

1.    धान सीढ़ी– नदी का नाम धानसिड़ी है. उसका अनुवाद करने की आवश्यकता ?
2.    धान के खील बिखेरता– मूल में ‘खीलों का धान बिखेरता’ है. तात्पर्य यह है कि बच्चा खीलों को हाथ में ले धान के बीजों की बुआई का खेल खेल रहा है.
3.    रुपहले गंदले जल में– यह भूल पढ़ने वाले को भी असमंजस में डाल दे. रूपसा नदी का नाम है, रुपहला का पर्याय नहीं है.“रूपसा के गंदले जल में” होना चाहिए.
4.    उठती लहर के जल से रसीले – मूल में है “जलांगी नदी के जल से भीगा”.
5.    गिद्ध उड़ते दिखें– मूल में सुदर्शन (एक तरह का बाज) है.
6.    चांदी-से मेघ में– मूल में ‘राङा मेघ’ है याने लाल मेघ.
7.    चुपचाप अंधकार में– मूल में शाँतराये है जिसका अर्थ है ‘तैरकर’ न कि चुपचाप.


हिंदी के मुहावरे का लेखक ने एकदम ख्याल नहीं रखा. देखें:

1.    पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में – कलमी ( करमी साग जो पोखरों के पानी में होता है) की गंध जल में बसी है, पानी गंधैला नहीं है.
2.    एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये– मुहावरा नाव खेना है और यही मूल में लिखा है. नाव तैराना बच्चों का खेल है. कविता में उसका कोई इंगित नहीं है.

और भी बहुत सी गलतियाँ हैं– शब्दार्थ की भी और हिंदी के मुहावरे की भी. अर्थात् यह अनुवाद बच्चों को पढ़ाने लायक भी नहीं है, जीवनानंद की कविता का भाव वहन करना तो दूर की बात.


मिता दास का अनुवाद     

आऊँगा फिर लौट के धान सीढ़ी के तट पे– इसी बंगाल में
या तो मैं मनुष्य या शंख चील या मैना के वेश में;
या तो भोर का काग बनकर आऊँगा एक दिन कटहल की छाँव में;
या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूंघर बन रहूंगा लाल पैरों में
सारा दिन कट जायेगा कलमी की सुगंध भरे जल में तैरते हुए
मैं लौट आऊँगा फिर बांग्ला की मिट्टी नदी मैदान खेत के मोह में
जलांगी नदी की लहरों से भीगे बांग्ला और हरे-भरे करुण कगार में;

दिखेगी जब शाम के आकाश में सुंदर उड़ान लिए हवा;
सुनाई देगा तब एक लक्ष्मी का उल्लू बोल रहा है सेमल की डाल में;
शायद धान की लाई उड़ा रहा एक शिशु आँगन के घास में;
रुपसा के गंदे जल में हो सकता है
एक किशोर फटे सफेद पाल की डोंगी बहाता तो
...लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अँधेरे में ही लौटता हो नीड़ में
देखोगे जब एक धवल बगुले को; पाओगे तुम मुझे उन्हीं की भीड़ में....
(पहल, जन 2019)

आकलन

मिता दास ( पहल के अनुसार मीता दास) को सॉनेट वाली बात सूझी भी नहीं. उन्होंने सात-सात पंक्तियों के दो भागों में कविता को बाँट दिया है. जैसा यह विभाजन मनमाना है वैसे ही अनुवाद भी. 14 पंक्तियों में ग्यारह शब्दार्थ की दृष्टि से ही गलत हैं. बाकी कुछ तलाशना समय की बरबादी होगी. बानगी देखें :

1.    दूसरी पंक्ति में “हयतो मानुष नय” (शायद आदमी नहीं) आता है. मिता जी ने उसे दरकिनार कर दिया.
2.    मूल की तीसरी और चौथी पंक्तियों में “एइ कार्तिकेर नबान्नेर देशे” ( कार्तकीय नवान्न के देश में) और “ कूयाशार बूके भेशे” (कुहासे के वक्ष पर तैरकर) ये दो वाक्यांश आते हैं जिनका अनुवाद नहीं हुआ है.
3.    “या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूंघर बन रहूंगा लाल पैरों में” पूरी तरह से और शर्मनाक रूप से गलत है. नंदी का अनुवाद सही है.
4.    “दिखेगी जब शाम के आकाश में सुंदर उड़ान लिए हवा” – यह भी गलत है नंदी ने कम से कम गिद्ध का उड़ना दिखाया. ये आदरणीया तो पक्षी को खा ही गईं और हवा को बहाने लगीं. सुदर्शन यहां पक्षी है मिता जी, ‘सुंदर’ नहीं.
5.    लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अँधेरे में ही लौटता हो नीड़ में – मेघ नीड़ में नहीं लौटता, बगुले लौटते हैं.

इस अनुवाद की और चर्चा निरर्थक है. यह अनुवाद कवि का अपमान है. पहल के ज्ञान जी का यश भी इस तरह का कूड़ा छापने से घटेगा.
__________________________
शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom

परिदृश्य : जबलपुर का नाट्योत्सव : सत्यदेव त्रिपाठी

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साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में बहुत से प्रतिबद्ध लोग और समूह वर्षो से सतत क्रियाशील हैं. जोड़, जुगत और जुगाड़ से ‘येन केन प्रकारेण’ सबकुछ हासिल कर लेने की होड़ से दूर सच्चे कार्यकर्ता की तरह अपने समय को संवार रहें हैं उससे संवाद भी कर रहें हैं. 
जबलपुर का ‘विवेचना रंगमण्डल’ ऐसा ही समूह है. इसी फरवरी माह में वहाँ ‘रंग परसाई - 26’ का आयोजन हुआ. प्रसिद्ध रंग-समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी भी वहाँ उपस्थित थे. आइये जानते हैं वहां क्या क्या हुआ.


‘विवेचना’ का नाट्योत्सव – ‘रंग परसाई – 26’                          
सत्यदेव त्रिपाठी








बलपुर का ‘विवेचना रंगमण्डल’ पिछले 25 सालों से अरुण पाण्डेय के नेतृत्त्व में बिना किसी ख़ास सरकारी सहायता के लगातार अच्छे नाट्योत्सव करते आ रहा है. अपने समय में रंगमण्डल से जुडे रहे शीर्ष रचनाकार हरिशंकर परसाई के नाम से चलते उत्सव में पिछले दस सालों से प्रति वर्ष दिया जाने वाला ‘रंग परसाई सम्मान’ इस बार प्रतिबद्ध रंगकर्मी श्री कन्हैया कैथवासको मुख्य अतिथि श्री आलोक चटर्जी एवं श्री सत्यदेव त्रिपाठी के हाथों दिया गया.


दो से छह फरवरी के दौरान शहर के ‘तरंग प्रेक्षागृह’ में ‘रंग परसाई - 26’ के आयोजन में विषय व प्रस्तुति के वैविध्य से भरपूर पाँच नाटक मंचित हुए और इस तुला पर सर्वाधिक ख़रा उतरा ‘साइक्लोरामा’रंगसमूह का ‘नेटुआ’,जो पूर्वी उत्तरप्रदेश व बिहार के लुप्त हो गये लोकनाट्य-रूप ‘लौण्डानाच” तथा उन नर्तकों के जीवन को लेकर रतन वर्मा की इसी नाम से 1991 में लिखी तीन पन्नों की कहानी से अब उपन्यास बन गये ‘नेटुआ’ पर आधारित है. चूंकि नेटुआ-जीवन का केन्द्रीय तत्त्व ही है नाच-गान, सो मंच के एक किनारे वादक मण्डली और पृष्ठ भाग में घर, नाच-स्थल व बैठक...आदि के सांकेतिक वितान के बाद मंच का बडा भाग खाली है नेटुआ-नाच के लिए.... और

‘नाच करम बा, नाच धरम बा
नाच ही जीवन, नाच मरन बा
नचते ही छूटे रामा देह से परनवाँ...’

को सार्थक करते हैं सुधांशु फिरदौस के लिखे व महेन्दर मिसिर एवं परम्परा से लिये आधे दर्जन व्यंजक गीत, जिनके गायन में सचिन व अमरजीत की भूमिका भी नाटक की निधि बनी है. आज लुप्त हो गयी इस कला को नये युग के नये अन्दाज़ में पुन: जीवित करने का मौजूँ विचार नाटक का प्रमुख सरोकार है. इस लोक कला के मरने के कारणों का निदर्शन ही नाटक है, जिसमें ज़मीन्दारों के आश्रय में जीने की उनकी विवशता तथा अस्मत लुटने व गाँव से बेदख़ल तक हो जाने का इतिहास भी उजागर होता है. समलिंगी यौन-शोषण जैसे कई संवेदनशील व जटिल दृश्यों को जिस तरह के विविध रंग-संकेतों एवं मुखर प्रतीकों से साधा गया है, वह गहन मंचकला व प्रखर सरोकारों से संवलित है. 


विभिन्न गतियों व मंच-सामग्री से बनते रूपकों में छोटे-छोटे नाट्य आयामों को जिस करीने से पिरोया गया है, उनमें निहित सूझों को बूझने की चुनौती देता है नाटक. फिर उन्हें बूझ जाने की नाट्योपमता ही प्रस्तुति का शृंगार तथा दर्शकता का आगार बनती है. सभी कलाकारों के मँजे अभिनय के बीच निर्देशक-परिकल्पक व मुख्य भूमिका में नेटुआ बने दिलीप गुप्ता की जितनी तारीफ की जाये, कम है. कुल मिलाकर यह  नाट्य-कर्म बार-बार देखने का आमंत्रण देता है और हर बार पुनर्नवा होने का आश्वासन भी....  


इस खाँटी नाट्यमय अन्दाज़ के बाद व्यवस्था के सरोकारों को व्यंग्य-विद्रूप में पेश करता है - मुकेश नेमा लिखित व रसिका अगाशे निर्देशित नाटक ‘आइस-पाइस’. इसमें चूहों की मनुष्यता के माध्यम से आज के मनुष्य की अमानुषिक वृत्ति पर नाटकीय कटाक्ष किया गया है. वेश से चूहे बने सभी कलाकार अपने अच्छे अभिनय के दौरान भूल जाते हैं कि वे चूहे हैं, लेकिन दर्शक ने तब तक मान लिया होता है कि वे चूहे ही हैं, फिर भी नाटक की नाटकीयता के चलते सब कुछ के नाटक होने का अहसास एक मिनट के लिए भी तिरोहित नहीं हो पाता!!

इन सरोकारजन्य नाटकों से अलग मनुष्य की प्रवृत्तियों पर आधारित दो नाटक खेले गये.  पहला है कंजूसी की प्रवृत्ति पर मोलियर का बहुप्रसिद्ध ‘द माइज़र’, जिसे बंसी कौल के ‘रंग विदूषक’ समूह के लिए कन्हैया कैथवास ने ‘अपना रख, पराया चख़’ नाम से विदूषक शैली में मसखरेपन (क्लाउन) के माध्यम से पेश किया. जिस बात को लोकोक्ति महज चार शब्दों ‘मरि जैहौं, भजैहौं नाहीं’ (मर जायेंगे, खर्चेंगे नहीं) में कह के निकल जाती है, उसी को गज़ब के खिलन्दडेपन के साथ कहता हुआ डेढ घण्टे का यह रंगारंग प्रयोग नाटक के ‘खेल’ रूप को सच ही सार्थक कर देता है. जो मानते हैं कि हर खेल (नाटक) का मक़सद होता है, वे भी इसे देखकर यूँ मात जायेंगे कि मान लेंगे – खेल ही नाटक का मक़सद होता है. पूरा अभिनय अपने लगातार चलते मसखरेपन में जीवन जैसा बिल्कुल नहीं है, पर जिस तरह ध्यान में क़तई आता नहीं, उसी तरह हर क्षण व हर कदम पर मौजूद निर्देशन की मजबूत पकड भी दिखती बिल्कुल नहीं - असंल्क्ष्यक्रम (पंच के दौरान क्रमश: एक-एक कागज़ में होते छिद्र) हो जाती है.

दूसरा नाटक प्रेम की सनातन वृत्ति पर है – कनुप्रिया. जी हाँ, भारतीजी की आधुनिक क्लासिक बन गयी वही कृति, जो बार-बार कई-कई रूपों में मंचित हो चुकी है, पर ललित कला व कविता में रचे-बसे अपेक्षाकृत युवा निर्देशक सौरभ अनंत ने ‘विहान’ के लिए इसे यूँ साधा है – गोया मालकंस पर वीणा. अधखुले-अधढँके वाले कला-मानक के साथ शालीनता से धारण किये हुए श्वेत परिधान में पाँच नर्तकियां देहयष्टि की अङडाई लेती लास्यमयी भंगिमाओं में थिरकती-विलसती और बहुरूपी लोच-लचक, गति-थिराव में मोहकता के विधान बनाती ऐसे वितान रचती हैं कि 80 मिनटों तक दर्शक ‘पलकिन्हहूँ परिहरिय निमेषे’ (बिन पलक झपकाये) रह जाते हैं. 

इस चाक्षुषता की मानो अनुहारि बनती हुई ‘कनुप्रिया’ की भावाकुल काव्य-पंक्तियां तदनुकूल आरोह-अवरोह, राग-लय में ऐसा निनाद सिरजती रहीं कि जिसे अनकने में दर्शक कान पारे ही रह जाता है.... इनके साथ की समक्षता-विमुखता में मौन रचते एकमात्र नर्तक के हाव-भाव, लुका-छिपी, गति-ठहराव...आदि क्रिया-कलाप प्रस्तुति में बहुत कुछ जोडते व एकरसता को तोडते हुए प्रदर्शन की समृद्धि बनते रहे.


‘आउस-पाउस’ में चूहे, ‘अपना रख, पराया चख’, में क्लाउन व ‘कनुप्रिया’ में धवल वेश के चलते रूप की समानता तो है ही, तीनो में सभी पात्रों की संवाद अदायगी व गति-अंदाज़ भी एक जैसे हैं. इस तरह नाट्य के तीनो आयामों – दिखने-बोलने-करने - में ख़ासी एकरूपता है, जो कलाकारों के अभिनय में सहज ही उतर आयी है, पर शुक्र है कि तीनो ही टेनीसन के ‘य़ूनिफॉर्मिटी इज़ अ डेंजर’ से बिल्कुल मुक्त व अपनी-अपनी तरह से आह्लादकारी हैं, लेकिन इसीलिए अभिनय का वैविध्य एक हद तक क्षतिग्रस्त हुए बिना नहीं रहता एवं हर कलाकार ‘को बड-छोट कहत अपराधू’ सिद्ध होता है. और फिर नयनाभिराम ’कनुप्रिया’ व आँखों के गुले-गुलज़ार ‘अपना रख, पराया चख’ को देखकर घर गये दर्शक सोचें कि देखने के दौरान मिले आह्लाद-हहास के बाद हाथ क्या लगा?

शायद उनमें कुछ हाथ लग भी जाये, पर स्वयं आयोजक ‘विवेचना रंग मण्डल’के नाटक ‘मोको कहाँ ढूँढे बन्दे’ तो शायद ‘ढूँढते रह जाओगे’ही सिद्ध हो. कबीर के जीवन पर आधे दर्जन से अधिक नाटक हिन्दी में ही प्रकाशित हैं, जिनमें दो तो काफी मक़बूल भी हैं. फिर भी रमेश खत्री इतना कमज़ोर व गलबल तथ्य वाला आलेख कैसे तैयार कर सकते हैं? लेकिन इससे बडा सवाल यह कि अरुण पाण्डेयजैसा ज़हीन व मँजा हुआ निर्देशक उसे उठाता ही कैसे है – और बिना माँजे-सँवारे. इसका अरुणजी के पास कोई जवाब नहीं – सिवाय अपने किसी मानिन्द की आज्ञा जैसे निपट भोंदे उल्लेख के, जो उनके प्रस्तुति-कौशल में भी उतरा है. 


सिर्फ़ दीन-हीनों की सेवा-रक्षा के एकसूत्री धागे से जोडे-गँठियाये पूरे आलेख में कबीर के जीवन सभी महत्त्वपूर्ण आयाम नदारद रह जाते हैं – उनका जुझारूपन, संघर्ष की अगुआई, भिन्न मतावलम्बियों व सत्तासीनों से टकराहट व इनसे बनते संवादों के कौशल, भक्ति व काव्यत्त्व...आदि बहुर-बहुत कुछ. इस तरह  कबीर व नाट्य विधा की न्यूनतम माँगें भी इसमें पूरी नहीं होतीं. लेकिन बिल्कुल नये बच्चों के दल को लेकर अरुणजी ने बहुत मेहनत की है और बिल्कुल कच्चे बच्चे एक हद तक पक्के काम को अंजाम दे पाये हैं. 

मूलत: दक्षिण भारतीय एस. श्रीधर के अपने पहले नाटक में मुख्य भूमिका का निर्वाह इसका प्रमाण है. सुयोग पाठक के निर्देशन में बैठी संगीत मण्डली का काम अच्छा ज़रूर है, पर उसमें विविधता कम, एकरसता ज्यादा है. अमीर खुशरो के ‘छाप-तिलक...’ वाले के समावेश का बेतुकापन व कमाली के नाम पर विश्रुत‘सइंया निकसि गये..’के साथ उसके नाम तक का उल्लेख न होने के तुक-तार कैसे समझे जायें...!! और कितना गिनायें...ऐसा बहुत कुछ हैं...!!


उत्सव के दूसरे-तीसरे-चौथे दिनों 11 से 2 बजे के दौरान क्रमश: ‘कस्बाई रंगकर्म’, ‘रंगमंच और मीडिया’ तथा ‘अनुदान और रंगमंच’ विषयों पर सुपरिचित रंग समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी की अध्यक्षता में परिचर्चा के आयोजन हुए, जिसमें हनुमंत किशोर, विनय अम्बर, दिनेश चौधरी, रमाकांत शर्मा ‘उद्भ्रांत’, नवीन चौबे, सीताराम सोनी, विवेक पाण्डेय, पूजा केवट...आदि शहर के कई प्रबुद्धजनों व रंगकर्मियों ने शिरकत की. इसकी उपयोगिता को देखते हुए अगले साल से परिचर्चा को और बडे स्तर पर आयोजित करने का निशचय हुआ.

इन सभी उपक्रमों से शहर में विकसित होता सांस्कृतिक माहौल प्रत्यक्ष होता रहा, जिसकी अगली पंक्ति में संस्कृति-कर्मियों व शहर के सम्भ्रांत नागरिकों के अलावा सरकारी महकमों के उच्च अधिकारी भी शामिल दिखे, जो रंगकर्म की सार्थकता के सुबूत हैं.
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सम्पर्क – 
मातरम्, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, 
वाराणसी-221004./मोबा.- 9422077006   

उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत : दूसरी क़िस्त

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किसी भी लेखक की कृतियों में उसके तलघर में जमा तमाम जरूरी कबाड़ की बड़ी भूमिका होती है, जिसे वह जीवन भर यहाँ-वहाँ  से एकत्र करता रहता है. उससे संवाद दरअसल उसके तलघर की यात्रा है.

उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत की यह दूसरी क़िस्त है. इस बातचीत में साहित्य से राजनीति के सम्बन्ध, दिल्ली और पिछले कई दशकों में बदली हुई दिल्ली, इको-क्रिटिसिज़्म आदि पर दिलचस्प, तीक्ष्ण और बौद्धिक संवाद आप पढ़ेंगे. सच में यूँ ही कोई उदय प्रकाश नहीं हो जाता.

इस सघन संवाद में संतोष अर्श ने उदय प्रकाश के तलघर की यात्रा की है. 



खिड़की भीतर से बाहर देखने के लिए नहीं होती                 
(उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत: दूसरी क़िस्त)





(वारेन हेस्टिंग्ज़ का साँड़में उदय प्रकाश लिखते हैं, ‘आख़िर कल्पना की भी तो सीमा होती है. और कल्पना के पंख हमेशा काल की कैंची कुतरती है.लेखक इन पंखों की क़तरन संभाल-सहेज कर रखता है. रचनाकार चाहता कि जब लोग उसे सुनने को तैयार हों और वह काल की कैंची से कुतरे गए पंख पेश करे, तो लोग सुनते हुए उन कतरनों को छू कर देखें. सुने और महसूस किए गए की सांद्रता को अपने अंतर के गहरे विवर में उतर कर मिश्रित करें. वह चाहता है कि लोग उसे सुनें,उसे समझने की पर्याप्त,अपर्याप्त कोशिशें करें.
   
उदय प्रकाश से बात करते हुए उनकी बेचैनी और तनाव को भी महसूस किया जा सकता है. लेखक अपनी अनुभूतियों को मरने नहीं देना चाहता है. लेखक का सबसे बड़ा डर यही है. मृत्यु से भी बड़ा डर. उसने पूछा भी था कि डर का रंग कैसा होता है ?
   
बनिस्बत कवि, मुझे उदय प्रकाश का कथाकार अधिक प्रिय रहा है. उनकी कहानियाँ बौद्धिकता और कला का संतुलित मिश्रण हैं. शिल्प के वरक़ में आख्यान लिपटा है और संवेदना के फूल बौद्धिक ज्ञान की लता पर खिले हुए हैं. ऐसा फ़िक्शन,जो अपने समय को रचना के पैनेपन से प्रस्तुत भी करता है और दर्ज़ भी.   
   

पिछली क़िस्त पर अच्छी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ आई थीं. बल्कि,किसी ने कहा कि, ‘यह एक ईमानदार आदमी से दूसरे ईमानदार आदमी का वार्तालाप है.उस पाठकीय स्नेह से उपजे साहस से बता दूँ कि यह स्वाभाविक बातचीत है. उसी तरह जैसे रोशनी सीधी लकीरों में चलती है या बीज का काँच तोड़ कर निकला अँखुआ रोशनी की तरफ़ बढ़ता है. यह हमारे समय के उत्तर-सत्यवाद से आक्रांत नहीं है. इसीलिए संवाद की इन सतरों में आपको लेखक की बोली हुई भाषा मिलेगी जिसे अदबी रंग-रोग़न की ज़रूरत ही नहीं,बस थोड़ा सा अनगढ़ सलीक़ा है;जैसे जल्दी से आँगन लीप दिया गया हो या बारिश से पहले मिट्टी की कच्ची दीवार पर गीली मिट्टी भूसा मिलाकर पोत दी गई हो.      
   
ज्ञानात्मक संवेदन से पूरित-सिंचित बातचीत की यह दूसरी क़िस्त प्रस्तुत है. पिछली बातचीत को बहुत सराहा गया,पसंद किया गया. उसके लिए प्रेम प्रेषित है. अभी सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है.- संतोष अर्श)           


संतोष अर्श : उदय जी क्या आप के राजनेताओं से कभी संबंध रहे ?मेरा आशय वामेतर नेताओं से है. क्या उनमें उठना-बैठना रहा ?


उदय प्रकाश :मैंने तो बताया ही है आपको कि मैं तो लेफ़्ट से था. और काफ़ी समय तक था. अब जैसे लेफ़्ट में... और पूरे लेफ़्ट में शायद अभी भी पढ़ने-लिखने वाले लोग बहुत हैं. बुद्धदेब भट्टाचार्यही काफ़ी अच्छे और पढ़े-लिखे थे... कवि-लेखक भी थे. बंगाल में तो सारी परंपरा ही रही है. ई.एम.एस. नंबूदरीपाद...! अरुंधति रॉयकी जब पहली किताब आई थी तो पहली जो क्रिटिकल समीक्षा थी, वो ई. एम. एस. नंबूदरीपाद ने लिखी थी. और भी थे. सब पढ़ने-लिखने वाले लोग थे. पी. सी. जोशी थे. उन्होंने तो एक पूरा-का-पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया. इप्टा,पीडबल्यूएसब पी.सी. जोशी के समय का है. बल्कि, कलाकारों को,लेखकों को इकट्ठा करना और जोड़ना,ये मानना कि ये समाज के क़ीमती हिस्से हैं, तो ये लेफ़्ट की ही देन थी. 



और अपोज़ीशन भी इतना बुरा नहीं था. अगर उस समय का आप देखें... उस समय की बहसें देखें... उनकी गुणवत्ता देखें. जैसे तिब्बत पर ही जो बहस हो रही थी उसको आप सुन जाइए पूरा. तो लगता है कि हाँ,ये एक स्तर था. कंसर्न सिर्फ़ यह नहीं थी कि वह चीन के कब्ज़े में चला जाएगा,या उसने इतने सिर काट लिए,इतना गोला दाग़ दिया,ये बहस नहीं थी. पूरी बहस थी कि क्या कोई बफ़र स्टेट या कोई बफ़र नेशन बनाया जा सकता है ?तो तिब्बत को वेटिकन की तरह रखना या वैसा रखना कि वो राइट-लेफ्ट-सोशलिस्ट-कैपिटलिस्ट के बीच का एक नो वार ज़ोन हो...है न. और उस तरह की डिबेट चलती थी पार्लियामेंट में. अब कहाँ है उस तरह की बहस ?बहस ही नहीं है. तो मुझे लगता है हिंदी के साथ जो सबसे बड़ी समस्या रही वो ये कि हिंदी ने अपनी... क्या कहेंगे उसको?  

संतोष अर्श:  राजनीति से भी कट गई हिंदी ?

उदय प्रकाश :राजनीति से जुड़ी भी तो उस तरह नहीं जुड़ी,जैसे जुड़ना चाहिए. और अगर राजनीति को समझती की राजनीति क्या है...

संतोष अर्श: (बीच में ही बोलते हुए) ...कुछ लोग जुड़े रहे हैं. (उदय जी हामी भर रहे हैं,हूँ...हूँ...) जैसे कि हम देखते हैं कि केदारनाथ सिंह सैफई महोत्सव का उद्घाटन करने गए थे. कुछ लोग जुड़े रहे हैं. इसी तरह से... अब बिल्कुल... पूरी तरह से यह जुड़ाव ख़त्म हो गया है ? 

उदय प्रकाश:केदारनाथ सिंह तो पुरानी पीढ़ी के थे. नए में कहाँ हैं... इस तरह से ? लेकिन हैं...संबंध हैं अभी. मैं ख़ुद राजनीति के बारे में बात कर रहा हूँ. क्या यह राजनीति संबंध रखने लायक है ? तो क्वेश्चन तो यहाँ उठा रहा है. देखिए... अब फूकोयामा की किताब है...पोस्ट ह्यूमन फ़्यूचर.बड़ी चर्चित किताब है. तो उसमें उसने इसी को केंद्र में रखा कि पॉलिटिक्स है क्या?तो कहाँ से आई ?जैसे मान लीजिए कि डेमोक्रेसी कहाँ से आई ?तो हर कोई जानता है कि यह फ्रेंच रिवॉल्यूशन से आई. ...सत्रह सौ नवासी... वहाँ से पैदा हुई. तो तीन स्लोगन लेकर आई. लिबर्टी...इक्वेलिटी और फ्रेटरनिटी.स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व. ये डेमोक्रेसी... लोकतंत्र की बुनियाद है. यहीं से राजनीति बनी. तो राजनीति का आना ही लोकतंत्र की पहली शर्त है.  पॉलिटिक्स का रहना. और पॉलिटिक्स को उसने (फुकोयामा ने) कहा कि जैसे हवाईजहाज है तो उसमें जो पायलट है,वो पॉलिटिक्स है. वो ले जा रहा है...समाज है...तो पायलट ले जा रहा है हवाईजहाज को. समाज पीछे बैठा हुआ है एज़ ए पैसेंजर. है न.... तो इतिहास बन रहा है कि ये समाजवाद है,ये पूँजीवाद है...ये ये है... ये ये है.... तो पायलट तो पॉलिटिक्स है. अब पॉलिटिक्स की जगह या पायलट की जगह कौन बैठा है ?तो हुआ क्या कि...वो राजनीति रही नहीं. राजनीति डेमोक्रेसी थी...डेमो यानी जनता... लोक...लोकतंत्र. तो वो थी पॉलिटिक्स.

अब क्या है कि उसकी जगह पर प्लूटोक्रेसी आई. यानी जिसके पास पैसा है...धन है, वही राजनीति करेगा. और अब जो है,ये है क्लेप्टोक्रेसी. कि माफ़िया भी है.. और लूट भी है... ये पूरा नेक्सस है. तो अब तो राजनीति है ही नहीं ! जिसको आप राजनीति समझने का भ्रम कर रहे हैं,दे आर द क्लेप्टोक्रेट्स. वहाँ टेक्नोलॉजी है और ग्लोबल कैपिटल, कॉरपोरेट कैपिटल है. और राजनीति जो है,वो हो गई है उनकी सेवा करने वाली. तो राजनीति नहीं रही. अब ऐसे में आप साहित्यकार से कहें कि वो समाज का साथ न दे करके,जिसको हम सिविल सोसायटी कहते हैं... ग्राम्शी का डिवाइडेशन है न ?पॉलिटिकल सिस्टम और सिविल सिस्टम. तो लेखक को सिविल सिस्टम में रहना चाहिए या पॉलीटिकल सिस्टम में ? अब ये बहुत बड़ा सवाल है ! लेफ़्ट भी है तो... लेफ़्ट कभी ना भूलिए... वह भी एक सिस्टम था. पॉलिटिक्स में था. वेस्ट बंगाल में लेफ़्ट का रोल अच्छा नहीं रहा. नहीं तो न जाते वहाँ से. या पूरे ईस्टर्न यूरोप में और यूएसएसआर में अगर वही सोशलिज़्म रहा होता जो लेनिन का सपना था तो वहाँ से सत्तर सालों में विदा ना हो गए होते. तो होता क्या है,जब आप स्टेट सिस्टम में बदल जाते हैं तो जनता फिर सब्जेक्ट हो जाती है,मतलब प्रजा हो जाती है. तो बड़ा मुश्किल हो जाता है उस रूप में जनता का प्रतिनिधित्व कर पाना. इसलिए लेनिन ने भी अपने अंतिम समय में कहा था कि कम्युनिस्ट पार्टी शुड रीमेन एज़ अ वाचडॉग ऑफ सोसाइटी.

हमको पहरेदार की तरह रहना चाहिए. ...है ना. और गाँधी ने भी कहा कांग्रेस को भंग करो,इसको एक आंदोलन की तरह रहना चाहिए. तो जिन-जिन लोगों ने (हँसी फूटी) बनाया उनकी मान्यता थी कि हमको... राज्य नहीं बनाना है....स्टेट नहीं बनाना है. हमको जनता की तरफ़ से रहना है. एक आंदोलन की तरह या पहरेदार की तरह. ऐसा नहीं हुआ. अब क्या हुआ जो लेफ़्ट भी है...पॉलिटिकली आप सोच रहे हैं कि मुलायम सिंह आ गए तो बहुत सारे लेखक भी आ गए,लेकिन मुलायम सिंह मुख्यमंत्री भी थे... और राज्य भी था उनका. तो वे जब हो गए तो काफ़ी लेखक उनके संपर्क में आए, उनके पास काफ़ी पावर्स आए. और वो मामूली लेखक नहीं रह गए. उनका स्ट्रगल ख़त्म हो गया. और उन्होंने ख़ूब रेवड़ियाँ बाँटीं. यहीं पर जहाँ हम लोग हैं,तमाम ज़मीनें एलॉट की गईं...सब कुछ हुआ. तो उनकी भी गुड-लिस्ट, बैड लिस्ट-बनती है. और यही लेफ़्ट के साथ हुआ. उन्होंने भी काफ़ी बेनिफिट्स दिए अपने लेखकों को. तो यही मेरा कहना है अर्श,कि जो लेखक है,उसकी प्रतिबद्धता किसके साथ हो ?

मतलब... जनता के साथ हो या राजनीति के साथ हो ?और जो राजनीति दावा करे कि नहीं हम जनता की तरफ़ से हैं,तो मैंने बताया न कि राजनीति भी बदली हुई है और राजनीति की पुनर्व्याख्या भी. क्योंकि 1989 के बाद,नब्बे के बाद दुनिया बदली है और पूँजी की भूमिका बदली है. आप देखिए कि पूरी पॉलिटिक्स बदली है.  अब कोई भी सोशलिज़्म उस तरह का नहीं है,जैसा नब्बे के पहले होता था. अब जर्मनी में भी कोई ईस्ट जर्मनी,वेस्ट जर्मनी नहीं है,केवल जर्मनी है. और ये होता जा रहा है. अभी एक जगह मैं था, जर्मनी में ही. तो जो सड़क के किनारे चित्र बनाते रहते हैं, तो वो बना रहा था... पोट्रेट... मैंने कहा कि, ‘मेरा पोट्रेट बनाओ,कितना लोगे ?’उसने कहा, ‘फोर्टी यूरो.उसने कहा कि, ‘अगर मैं पेंसिल से बनाऊँगा तो ट्वेंटीफ़ाइव लूँगा.मैंने कहा कि, ‘तब भी बहुत महँगा है.फिर उससे बात होने लगी. मैंने उससे पूछा कि, ‘आप कहाँ से हैं ?’वह कज़ाकिस्तान से आया हुआ था. रूस से...पुराने रूस से ! तो फिर मुझसे उसने पूछा तो मैं बोला इंडिया से हूँ ! तो उसने कहा,योगा,योगा. फिर वो बताने लगा मैं भी योगा करता हूँ. फिर उसने कहा,मेरे पेट पर घूँसा मारो ! तो मैंने कहा नहीं... नहीं...!! फिर उसने अपने पेट को खोल दिया,तो मैंने दो-तीन घूँसे मारे,तो उसने कहा कुछ नहीं हुआ !! दिस इज़ योगा !! (ज़ोर से हँसते हुए...कुमकुम जी भी हँस रही हैं)   तो मैंने पूछा उससे,कि तुम क्या हो ?यू आर रस्सियन... तो वह बोलता है (उदय उसकी दबी हुई आवाज़ का अभिनय करते हुए बोलते हैं) “आई वाज़ नेवर अ कम्युनिस्ट...आई एम नॉट अ राइटिस्ट.. मैं तो बस चित्र बनाता हूँ !!”

तो एक ऐसी पूरी जनता पैदा हो गई, जिसने राजनीति से...जिसका लेना-देना पूरी तरह ख़त्म हो गया. और उसकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग हो गई. रोल ऑफ़ पॉलिटिक्स विच ही वन टाइम यूज़ टु हैव...वो ख़त्म हो गया. आज आप देखिए क्या राजनीति है ? ईवीएम कोई राजनीति करना है ? (हँसते हुए) मोदी जी कोई राजनीति कर रहे हैं ?ये जो गाय से लेकर जो तमाम सब हो रहा है,ये कोई राजनीति है क्या ? पॉलिटिक्स है नहीं !! और अगर आप इकोनॉमी के रोल को देखें,तो ये पूरी स्टडीज़ हैं... आप स्टिग्लिट्ज़ (जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़,अमेरिकी अर्थशास्त्री) से शुरू कीजिए,और अपने अर्थशास्त्रियों तक,अमर्त्य सेन तक आइए. तो मध्यवर्ग कहाँ है बताइए आप ?

मैं तो बार-बार कहता हूँ ! कि जो मिडिल क्लास है,ग्लोबली ! वो गायब हुआ है. जिसको मिडिल-क्लास कहते हैं, वो न्यू रिच क्लास है. वो बेनिफ़िशियरी है. वो टिकल डाउन थिअरी में जो ऊपर से टपक रहा है,तो उसको पाने के लिए वो है. वह मध्यवर्ग जो एक अवांगार्द था, समाज का अगुआ था, जहाँ से लेखक-चिंतक-विचारक,राजनीतिक,नेता ये सब पैदा हुआ करते थे,वो मध्यवर्ग है कहाँ ? तो मध्यवर्ग का विलोप हुआ. जैसे कहा जाता है न... नई इकोनॉमी ने वाइप आउट किया इंट्लेक्चुअल्स को !! देयर आर नो इंटेलेक्चुअल्स. या तो आप मान लीजिए कि न्यूज़ चैनल के एंकर्स ही इंटेलेक्चुअल हैं...या सैम पित्रोदा (ठहाका लगाकर) इंटेलेक्चुअल हैं. या सुहेल सेठ हैं, जो आ करके बोलते हैं टीवी में वो इंटेलेक्चुअल हैं.

इंटेलेक्चुअल की धारणा ही बदल गई. और वो... ग्राम्शी जिसे ऑर्गेनिक इंटलेक्चुअल कहता था,वह कहाँ है बताइए आप ?नहीं हैं वो...और अगर कहीं हैं,तो मैं यह कह रहा हूँ कि कहीं खाट पर पड़े हुए होंगे. और कोई उनको पूछ नहीं रहा होगा. उनके घर के लोग ही नहीं पूछ रहे होंगे. मतलब उनकी कोई स्थिति नहीं बची समाज में. तो यही बहुत बड़ा बदलाव हुआ है. और ऐसे में राइटर अगर मान लीजिए चूज़ कर ले,कि उसको पॉलिटिक्स में जाना है. मैं ही आज मान लीजिए,चूज़ कर लूँ. मेरे बहुत सारे दोस्त हैं, बीजेपी में है...कांग्रेस में हैं....! तो मैं कहीं भी पहुँच जाऊँ. अच्छा हो जाऊँ. फिर पैसे-वैसे भी काफ़ी मिलने लगेंगे. और कहीं भी, वर्धा से लेकर आपके जेएनयू...डीयू तक... जैसे आप रिसर्च स्कॉलर बन जाइए, प्रोफ़ेसर बन जाइए, वाइस चांसलर बन जाइए.

तो सब शुरू हो जाएगा. तो... यू हैव टु चूज़. दिस इज़ योर डिसीज़न. लेकिन मुझे लगता है कि शायद ऐसा नहीं करना चाहिए. क्योंकि जब आपने एक लंबा समय स्ट्रगल में गुज़ारा... तो कहा जाता है न... आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे. तो फिर होता क्या है कि... अब आप जान लीजिएगा,अगर आप परस्यु करते रहेंगे अपने आपको,ऑनेस्टली, तो उसके रिज़ल्ट्स मिलते हैं बाद में. और किसी भी हिंदी वाले उसमें आप देखिए... मेरा नाम कहीं नहीं आएगा,सूचियों में. ...है न ...?कहानी में भी आप देखिए... आपके पास दूसरे हैं,प्रेमचंद की परंपरा वाले... मैं तो नहीं हूँ ?


संतोष अर्श:  हाँ बहुत सारे अफ़सर हैं. सेल टैक्स ऑफ़िसर,आईपीएस...!! 

उदय प्रकाश : (हँसते हुए) कविता में भी आप नहीं पाएंगे,लेकिन है क्या ?सच्चाई ये है कि जितनी बड़ी रीडरशिप मेरी है, जिसको कहते हैं यूटिग्रल रीडरशिप...ये हिंदी में तो है ही,और अन्य भारतीय भाषाओं में भी है और प्रमुख विदेशी भाषाओं में भी है. मेरी आप पाठकों की संख्या देखिए... है... काफ़ी है... बहुत ज़्यादा है. और कोई फ़र्ज़ी समीक्षा नहीं है. जैसे मैंने आपसे भी कभी नहीं कहा होगा कि आप मोहन दासपर लिखिए !! लिखा तो, आपने अपनी इच्छा से लिखा होगा. और मैं एलेक्ज़ांद्रा से परिचित भी नहीं था,जिसने उसको....मोहन दासको रेज़िस्टेंस लिट्रेचर के रूप में प्रस्तुत किया. तो लोग स्वेच्छा से लिख रहे हैं. अच्छा,अनुवादक भी जितने हैं,यक़ीन मानिए,कि मैं उनको नहीं जानता था. और वे अनुवादक भी उसी तरह के हैं. मतलब कोई ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट है,कोई... किसी को रचना ही पसंद आ गई. तो ये एक तरह का बहुत... मतलब वालंटियरली काम किया गया है. ...तो ये है.

संतोष अर्श:  आपका जन्म 1952 में हुआ. आपने पिछली आधी सदी देखी है. बहुत सी सोशियो-इकोनॉमिक कंडीशंस चेंज़ हुईं. ऐसा आपने क्या देखा ?

उदय प्रकाश :नहीं आप इसको स्पष्ट करें !!

संतोष अर्श: पिछली सदी में ऐसा क्या था, जो नई सदी में नहीं आया ? उसी सदी में रह गया ?

उदय प्रकाश :मैं आपसे बताना तो यही चाहता हूँ !! जैसे 1990 क्या है ?उन्नीस सौ नवासी-नब्बे. तो एटीनाइन-नाइंटी ये बड़ा... विभाजक काल है. एक रेखा है,समझ लीजिए आप. और मैं तो इसको सिविलाइज़ेशन चेंज़ कहता हूँ. सभ्यतामूलक परिवर्तन है. क्योंकि जैसे इंडस्ट्रियलाइज़ेशन था, वह एक सभ्यतामूलक परिवर्तन था,जिसने एक पूरे सामंती समाज को पूरी तरह से बदल दिया. और बहुत किताबें हैं इस पर. जैसे...जो कैश नेक्सस का आना है,बैंकिंग का आना है, नेविगेशन का आना है, स्टॉक मार्केट का आना ये सब हुआ सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में. यूरोप में इंडस्ट्रियलाइज़ेशन के समय. फिर बाज़ार का बनना. नाइंटी में जो परिवर्तन हुए...ये जो नई टेक्नोलॉजी आई... जिसको हम थर्ड टेक्नोलॉजिकल रिवॉल्यूशन कहते हैं. तीसरी प्राविधिक क्रांति !! ये बहुत बड़ी थी. ये जो कारख़ानों वाली थी,उद्योगों वाली थी,बड़े उद्योगों वाली क्रांति,उसमें बहुत सारे मज़दूर होते थे. और जिसको देखकर कहा जाता था कि, ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’...दुनिया बदल देंगे. तो इतनी बड़ी संख्या में काम करने वाले,उनका यूनाइट होना,इस कैपिटल में,इस टेक्नोलॉजी में,नब्बे के बाद वो पूरा बदल गया. अब आपके पास जो टेक्नोलॉजी है,उसमें ऑर्गेनाइज़्ड वर्किंग सेक्टर की ज़रूरत ही नहीं है. तब उसने वर्ग-संरचना बदल दी समाज की. और जितना जो पहले श्रमिक वर्ग था,उससे ज़्यादा सेवा प्रदान करने वाला,या सर्विस क्लास जिसे कहते हैं, वो आ गया. उसकी संख्या बहुत ज़्यादा हो गई.  फिर जिसको हम मिडिल क्लास कहते हैं,मिडिल क्लास ने आउटनंबर कर लिया. उसकी संख्या बहुत अधिक हो गई.

और अब जैसे मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया में था... दिनमान में था. हमारे कंपोज़ीटर्स होते थे, बयालीस से लेकर सौ तक... वह कम्पोज़िंग करते रहते थे. और फिर वो मैटर आता था और फिर हम लोग उस पर करेक्शन्स लगाते थे,फिर वो जाता था. अब पता लगा वो सब बदला और एक आदमी बैठ कर वो सब कंपोज़ करने लगा. फिर डिज़ाइनिंग शुरू हो गई. सब कुछ बदल गया,इसने बहुत बड़ा परिवर्तन किया. और इससे बहुत सारे वैल्यूज़ जो उस समय के समाज से जुड़े हुए थे, वो सब बदले और बहुत तेज़ी से बदले. और जो... जिनको समाज ने एक तरह से सुधार दिया था,जिन बीमारियों को.... वो फिर उभर कर सामने आ गईं.  तो कहते हैं न कि ग्लोबलाइज़ेशन में सपना तो देखा गया था कि एक ऐसा कल्चर...एक ऐसी दुनिया बनेगी,एक ऐसी संस्कृति बनेगी,जिसमें सब कोई लगभग शेयर करेंगे और एक आसान सा अनुमान लगाया गया कि सब लोग एक जैसे ब्रांड इस्तेमाल करेंगे,एक जैसा सब कुछ करेंगे कोल्ड ड्रिंक पिएंगे,एक जैसा बर्गर खाएंगे,एक जैसा खाना खाएंगे,यह होगा वह होगा,एक ग्लोबल विलेज बनेगा. यानी बहुत सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी.
                                                                  
हुआ उल्टा ! जितने माइक्रो कॉनफ़्लिक्ट्स, जो थे, वो सब उभरकर सामने आए. जिनको हम कहें कि जो सूक्ष्म अस्मिताएँ थीं, उनका बहुत बड़ा उभार हुआ. यानी जातियाँ,उपजातियाँ,सांप्रदायिकता,क्षेत्रीयता,भाषा इतने कॉनफ़्लिक्ट्स उस समय नहीं थे. कहीं-ना-कहीं डिज़ाल्व होते जा रहे थे. बड़ा अच्छा नारा लगता था कि... यूनिटी इन डाइवर्सिटी...!! विविधता में एकता. या टैगोर की पंक्तियाँ सुनिए आप ! वी आर द लार्ज़ ओशन ऑफ़ ह्यूमैनिटी. हम महामानव के महासमुद्र हैं. ...इस तरह का. तो वह जो एक धारणा बन रही थी,जो क़ायदे से इंडस्ट्रियलाइज़ेशन के बाद कॉलोनियल शासन था भारत में,उसने ये संभावना पैदा की थी,कि रहे आओ सब एक जगह. एक जगह रेवेन्यू आए,एक जगह सब कुछ आए और एक जगह सब कुछ हो. और यह सब टूटने लगा. और आज तो देखिए हम फ्रग्मेंटेशन के स्टेज़ पर हैं. और इसने एक नहीं किया. इसने फ़ूड डाइवर्सिटी ज़रूर एक कर दी है. आप हर जगह पिज़्ज़ा खा सकते हैं. और हर जगह दोसा खा सकते हैं. यानी ये सब फास्ट फूड में आ गए. जैसे हम लोग नहीं जानते थे कि पिज़्ज़ा क्या होता है ?अब गली... सड़क के किनारे पिज़्ज़ा बनता है,हर जगह. तो ये सब तो हुआ,लेकिन फिर गाय के नाम पर हत्या भी होनी शुरू हो गई. इतनी मैसिव किलिंग लड़कियों की,वो इसके पहले कभी नहीं थी.

इतना डिस्क्रिमिनेशन नहीं था. अब मुझे नहीं लगता कि कभी दलितों के विरुद्ध इतनी ज़्यादा घृणा पैदा की गई हो,रही हो. इतना ज्यादा नहीं था. तो ये सब हुआ. ये चीज़ें हैं और मूल्यों में परिवर्तन ज़बरदस्त हुआ है. और जिसको हम कहते हैं न,कि जो उत्तर-आधुनिकता है उसके केंद्र में आनंद हैप्लेज़र. तो आनंद की ओर,प्लेज़र की ओर समाज का,सभ्यता का जाना शुरू हुआ. तो बहुत सारे वैल्यूज़ जो आपके अंदर ऑनेस्टी पैदा करते थे,संयम पैदा करते थे, बहुत से मूल्य उससे जुड़े हुए थे. जो आपको रोकते थे,प्रतिबंधित करते थे. भोगवादी होने से,एडोनिस्ट (Hedonist) होने से. वो सब टूटे,बल्कि, पीली छतरी वाली लड़कीमें इस पर अच्छा ख़ासा विचार है,कि इतना मत खाओ,इतना मत यह करो. ये पूरी की पूरी एक्युमुलेशन की प्रवृत्ति पैदा हुई,कि सब इकट्ठा करो,जितना खा सकते हो खाओ,कोई बंधन नहीं है,जितना भोगना है भोगो. तो यह जो है, आया.

विज्ञापन देखिए बदल गए. फिल्में बदल गईं. और आपका सब कुछ बदल गया. तो बदलाव ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ऊपरी है,बदलाव हर स्तर पर है. कहीं अच्छा है,कहीं बहुत अच्छा है और कहीं बहुत ख़राब भी है. जैसे जेंडर बायसेस जो थे,पहले कम थे,बड़ा कठिन था स्त्री का पहले रह पाना. अब दोनों चीजें हैं. उस पर हमले भी ज़्यादा हैं लेकिन उसकी स्वतंत्रता की जो लड़ाई है वह भी पहले से अधिक है. तो दोनों बातें हैं.  और मुझे लगता है कि अच्छा ही है क्योंकि आज ही बैठे हैं आप,आज ही रैली हुई है जिग्नेश मेवानी की,और बहुत बड़ी रैली हुई है. अब उस तरह से नहीं चल पाएगा बहुत दिनों तक. तो एसर्सन है. और हम लोग तो यही सपना ही देखते हैं,जो हम सोचते हैं,उसी ओर. हम लोग ये नहीं देखते कि कितनी आपने बुलेट ट्रेन दौड़ा दीं,और कितना...कैसी रोड अखिलेश जी ने बनवा दी या मोदी जी ने बनवा दी,या शीला दीक्षित ने दिल्ली में क्या-क्या कर दिया. इससे क्या होता है ?इससे बहुत कम परिवर्तन वास्तव में होते हैं. तो इसी रूप में है.  

संतोष अर्श : दिल्ली के न थे कूचे,औराक़े-मुसव्विर थे’,उदय प्रकाश को दिल्ली में कैसी तस्वीरें नज़र आईं ? 

उदय प्रकाश:मेरे ख़याल से दिल्ली पर मैंने काफ़ी लिखा है. दिल्ली की दीवारभी है, पॉल गोमरा का स्कूटरभी अगर देखें तो दिल्ली में ही है. तिरिछभी अगर आप देखें तो दिल्ली ही है. तो दिल्ली कई रूपों में है. हर लेखक अपने शहर का लेखक होता है. बल्कि आपने साहित्य ही पूछा है तो एक प्रकाशक हैं,अकाशिक पब्लिशर्स. न्यूयॉर्क के. बड़े लोकप्रिय हैं वो. तो वो नॉइर सीरीज़ निकालते हैं. डेल्ही नॉइर (Delhi Noir), वाशिंगटन नॉइर, आदि. शहरों के नाम से ही,और उसमें उस शहर के जो लेखक होते हैं, तो उसी शहर के लेखक उसमें अपनी कहानियाँ लिखते हैं. उन कहानियों का एक संग्रह है,जैसे वाशिंगटन पर है,वाशिंगटन वाले लिखेंगे,कोलकाता पर है,तो कोलकाता के लेखक लिखेंगे. अपने-अपने शहर को देखने का नज़रिया... और अलग-अलग नज़रिया होता है. जैसे डेल्ही नॉइर में यही है, ‘दिल्ली की दीवार’,लेकिन डेल्ही नॉइर में जो हिर्श सॉनीहै उसकी भी कहानी है, गौतम अंडर ट्री. उमैर अहमदकी कहानी है. उसकी बिल्कुल अलग कहानी है.
                                                                  
उसमें अंग्रेज़ी के लोग हैं,हिंदी में शायद मैं अकेला हूँ. तो सबकी दृष्टि इसी दिल्ली के बारे में बिल्कुल भिन्न-भिन्न है. अब आप उनको देखिए, जो उर्दू में हैं,मतलब दिल्ली जितनी ग़ालिब में है और आज मेरी दिल्ली देखें, या मंटो की दिल्ली देखें,तो... अंतर आता है और बहुत अंतर आता है. ख़ैर इसमें समय भी है. निर्मल जी ने ही लिखा है,कहानियाँ हैं उनकी. पार्टीशन से जो लोग आए यहाँ शरणार्थी हो कर उनकी देखी हुई दिल्ली बिल्कुल दूसरी है. मतलब यह है कि दिल्ली एक नहीं है. और यह माना जाता है,कि यह जो सत्रह बार उजड़ी है, उजड़ी नहीं है, सत्रह बार रही है यहाँ. और कुछ न कुछ बचा रह गया है. जैसे वो विलियम डार्लिंग्पल वाली है, ‘सिटी ऑफ जिन्स’,तो वो कहता है न कि आप जहाँ भी जाएँगे आपको मिल जाएगा पुराना. और आप चाँदनी चौक की तरफ जाएंगी तो एक दूसरी दिल्ली है. उधर महरौली की तरफ़ जाएँगे तो बिल्कुल दूसरी दिल्ली है. फिर लोदी स्टेट की तरफ़ जाएँगे (हँसते हुए) तो एक और दिल्ली है.

दिल्ली गाँव भी है. मुझे लगता है कि किसी महानगर के बारे मेंऔर जो महानगर...है न...एक करोड़ चालीस लाख...उसके बारे में एक कोई दृष्टि बना पाना...ये पढ़ने-वढ़ने के लिए तो ठीक है लेकिन वास्तव में आप कहें एक लेखक की तरह कि आप क्या कहेंगे,तो बड़ा मुश्किल होगा. जैसे यही अरुंधति रॉय वाला उपन्यास है मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेसतो भी दिल्ली यही है. तो वह भी एक दृष्टि है. ...और ख़ुशवंत सिंह की भी दिल्ली है. उनकी बिल्कुल एक अलग दृष्टि है.

संतोष अर्श : अरविंद अदिगा की भी दिल्ली है !!

उदय प्रकाश :हाँ उनकी भी दिल्ली है. तो वही मैं कह रहा हूँ कि बड़ा मुश्किल है ये.

संतोष अर्श : एक्चुअली मुझे लगा था कि आप उस पर भी बोलेंगे....इकॉनोमिक ट्रांस्फ़ार्मेशन ऑफ डेल्ही ! दिल्ली की दीवार में इतना रुपया कहाँ से आया ?

उदय प्रकाश:नहीं देखिये आप उसमें...अगर आप वास्तव में सचमुच जानना चाहते हैं...! तो आप देखिये कि ये लिखी कब गई. तो लिखी गई थी ये...लगभग तेरह-चौदह साल हो गए. आप याद कीजिए...और ज़्यादा हो गए. कभी भी ब्लैक मनी पर,काले धन की चर्चा कहीं नहीं थी. न अन्ना साब हज़ारे थे,न अरविंद केजरीवाल. कोई नहीं था. ब्लैक मनी का कोई नामलेवा ही नहीं था. और मैंने पढ़ी किताब प्रोफ़ेसर अरुण कुमार की. और वो नब्बे में आई थी किताब. ब्लैक मनी इन इंडिया. तो बहुत अच्छी किताब थी. और उन्होंने बताया था उसमें कि फोर्टी फ़ाइव पर्सेंट... जो सर्कुलेटिंग करेंसी है,उसमें फोर्टी फ़ाइव पर्सेंट ब्लैक मनी है. काला धन है. यानी कि जो सौ रुपए आप देते हैं,उसमें से पैंतालीस तो आप पहले से ही घटा दीजिए. उसकी फंक्शन वैल्यू पचपन रुपए है. तो घटना ये थी. तो अब अगर अब आप देखेंगे तो सेवेंटी टु पर्सेंट...यानी आप सौ रुपए लेकर जाते हैं और उसकी वैल्यू बीस-पचीस रुपए से ज़्यादा नहीं है. उसी समय एक घोटाला हुआ था...उसमें एक मिश्रमंत्री थे. ख़ैर उस पर बात नहीं करना चाहता. आप सोच सकते हैं. और मेरी अपनी ज़िंदगी उस समय बदहाली और अभाव में कट रही थी... आप हिंदी की कहानियाँ पढ़िए,आपको यह कहीं नहीं मिलेगा. क्योंकि रिअल लाइफ़ से जो इंटरैक्शन्स हैं,वो तो रहे नहीं.... ख़त्म हो गए. मैं दिल्ली की दीवारनहीं लिख पाता अगर मैं बदहाली में,बेरोज़गारी में नहीं रहा होता.

 ...तो कई बार आपके जीवन के जो अभाव होते हैं यही आपको ले जाते हैं ज़िंदगी की ओर. व्हेन यू कम क्लोज़ टु द रिअलिटी.... और वह (दिल्ली की दीवार) ब्लैक मनी पर पहली कहानी है. और हिंदी के साथ समस्या यह है कि लोग ढूँढने लगते हैं कि यह किस पर लिखी गई है ?तो उसमे उन्होंने खोज निकाला कि अरे ! यह तो फलाँ पुलिस अफ़सर पर लिखी गई है. फलाँ लेखक के ऊपर लिखी गई है. तो आप कल्पना कर सकते हैं कि मेरे साथ क्या गुज़री होगी ?तो जब दस-ग्यारह साल बाद उस मिश्रमंत्री को सज़ा हुई,तब मैंने कहा कि अब आप देखो... कि जस्टिस क्या है ?तो होता क्या है कि अगर आप सचमुच अपने समय की जो बड़ी घटनाएँ हैं,उन पर आपकी निगाह अगर है,और वे आपको उद्वेलित कर रही हैं,तो आप कुछ ऐसा कर जाते हैं. वरना आप नहीं कर सकते. तो इसलिए वह कहानी ब्लैक मनी और उससे उत्पन्न होने वाली मानवीय त्रासदी...आज अगर आप देखिये कि इतना अमीर बनने लगा रामनिवास (कहानी का पात्र) तो उसका हुआ क्या ?तो ये जो न्यू इकोनॉमी है वो जिस चीज़ को प्रमोट करती है वो है चांस....(मोबाइल की रिंग बजी)...एक सेकेंड...

(बीच में ही किसी का कॉल आ गया है. उदय प्रकाश उससे बात करते हुए बता रहे हैं कि संतोष अर्श आए हुए हैं,उनसे बातचीत हो रही है. लेखक के मुख पर आत्मीयता,स्नेह और प्रसन्नता की खिली हुई चमक है. लेखक के फोन पर बात करने के दौरान संतोष अर्श उस पर अपने फ़ोटोग्राफी के हुनर आज़मा रहे हैं. और यह लेखक की जो सौम्य मुस्कान वाली फ़ोटो आपने इस बातचीत के साथ देखी है,उसी समय ली गई थी. फोन काटने के बाद लेखक ने बताया कि कॉमरेड विजेंद्र सोनी की कॉल आई थी. वही विजेंद्र सोनी जो मोहन दासके कॉमरेड हर्षवर्धन सोनी हैं)

संतोष अर्श : रिलीव होना है तो हो लीजिए. काफ़ी देर से बोल रहे हैं आप.
उदय प्रकाश : मेरा ये कहना है संतोष,जैसे अभी भी... अभी मैं प्रॉपर मूड में नहीं हूँ.

संतोष अर्श : मेरे पास ज़्यादा सवाल नहीं हैं,बस आप की कहानियों पर थोड़ी बात करना चाहता हूँ. वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़’…. औपनिवेशिक इतिहासबोध की उत्कृष्ट रचना है. यह कहानी हिंदी की लगती ही नहीं. आपने कैसे लिखी ?
उदय प्रकाश : मैं बहुत पढ़ाकू हूँ,ये आप जान लीजिए.

संतोष अर्श : क्या पोस्ट-कोलोनियल डिस्कोर्स का प्रभाव पड़ा है आप पर ?

उदय प्रकाश : हाँ पड़ा तो है ही. अच्छा मैं एक मिनट में थोड़ा पानी पी कर और अपनी खैनी रगड़ कर आता हूँ. (खैनी वाली बात सुन कर हम सब हँस पड़ते हैं.)
(उदय प्रकाश रिफ्रेश हो कर लौट आए हैं. हम सब फिर बैठ गए हैं)

कुमकुम जी: ये कैसी ठंड है ?मार काँपे जा रहे हैं हम लोग !!
उदय प्रकाश : आठ डिग्री है और प्लस में है. ठंड नहीं है ये...कुछ क्लाइमेट एब्नॉरमिलिटी है. ये वो प्राकृतिक ठंड नहीं है. बर्फ़ गिरती है. यक़ीन मानिए,हम सब खेलते हैं बर्फ़ में और ठंड नहीं लगती. और यहाँ बिना बर्फ़ गिरे...इसका कारण वही है. पूरा पर्यावरण का विनाश हुआ है.

संतोष अर्श : अकादमिक रूप से मैं पर्यावरण और साहित्य के अंतर्संबंधों का अध्येता हूँ !      
उदय प्रकाश : अरे वाह यह बहुत अच्छा है. मेरा बेटा जर्मनी में पर्यावरण वैज्ञानिक ही है. बल्कि आपके बहुत काम का है. यूरोप के सबसे बड़े एनवायरमेंटल इंस्टीट्यूट एको-इंस्टीट्यूटसे उसने पढ़ाई की है. सीनियर साइंटिस्ट है वो. उसको अच्छा एरिया मिला हुआ है. काँगो,घाना,नाइज़ीरिया,थाईलैंड वगैरह.

संतोष अर्श : मेरा काम इको-क्रिटिसिज़्म पर बेस्ड है ! इधर इस बहाने से काफ़ी वर्ल्ड लिट्रेचर से सामना हुआ. शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ की ग्रीन स्टडी (हरित अध्ययन) पढ़ी. यहाँ हिंदी में तो वेदों-पुराणों,रामचरितमानस में ही पर्यावरण ढूँढने का चलन है. कोई वैज्ञानिक थियरी डेवलप नहीं हो पा रही. अमिताव घोष के द हंगरी टाइडऔर अरविंद अदिगा के द व्हाइट टाइगरपर कुछ काम हुआ है इस तरह का,वह नज़र से गुज़रा था.  

उदय प्रकाश : यानी लिट्रेरी है आप का ?

संतोष अर्श: जी हाँ !! आप भी कभी-कभी पर्यावरणीय मुद्दों पर लिखते रहते हैं.

उदय प्रकाश : हाँ,बस ऐसे ही.लेकिन थोड़ा सा वैज्ञानिक नज़रिया है मेरा. एक बार बर्लिन में एक प्रोग्राम हुआ था. अरबनाइज़ेशन इन इंडिया. भारत का शहरीकरण. उसमें टाउन प्लानिंग और सारा रोड कन्ट्रक्शन,यही सब था. तो उसमें सुधीर कक्कड़ को बुलाया था और (हँसते हुए) मुझे भी बुलाया था. तो मुझको वही व्यू देना था जो आप कह रहे हैं. मैं क्या सोचता हूँ...एक लेखक के नाते ?तो इनका क्या है कि जब आप टाउन प्लानिंग करते हैं तो पब्लिक स्पेस और प्राइवेट स्पेस...बेसिक डिवीज़न ये होता है. प्राइवेट स्पेस मतलब घर वगैरह. और पब्लिक स्पेस मतलब पार्क वगैरह. तो प्राइवेट स्पेस जब किसी यूरोप के शहर में आप बनाते हैं,तो वो दूसरे रूप में बनता है. यहाँ प्राइवेट स्पेस और पब्लिक स्पेस में कैसे फ़र्क़ करेंगे ?यहाँ पार्कों में कौन लोग रहते हैं ?तो जाके आप देखिये,उसमें या तो घरों से निकाले गए बूढ़े रहते हैं,या फिर संघी शाखा-वाखा लगाते हैं. या फिर स्मैकिए रहते हैं. इसमें उस तरह के लोग नहीं रहते हैं जो हेल्थ के लिए और दूसरे कारणों से आते हैं,लोगों के क़रीब आने के लिए या जॉगिंग के लिए. ये रहते हैं,लेकिन थोड़ी देर रहते हैं. और आप देखते हैं जहाँ ज़्यादा विज़िलेन्स नहीं है वह अड्डा बन जाता है,दूसरी तरह के लोगों का...दिल्ली की दीवार में भी आप देखेंगे. तो सड़क को आप क्या कहेंगे ?पब्लिक स्पेस या प्राइवेट स्पेस ?यहाँ पैदल चलने वालों के लिए कोई जगह नहीं है. पूरी प्लानिंग ही दूसरी तरह की है. बल्कि मैंने उनको उदाहरण दिया था...और आप से भी कहता हूँ कि उसे ज़रूर पढ़िएगा...मेरा बड़ा प्रिय लेखक है और बहुत अच्छा लेखक है... मिलोराद पाविच... मैं वर्षों से कहता आ रहा हूँ.

उसकी सुप्रसिद्ध रचना है, लैंडस्केप पेंटेड विथ टी! अद्भुत है मतलब. उसमें नायक एक आर्किटेक्ट है, स्थापत्यकार,शिल्पी. जिसका नाम है, अतानास स्विलार, जिसको लंबे समय बाद एक टाउन प्लानिंग का प्रोजेक्ट मिलता है. तो उस टाउन प्लानिंग में एक नदी को लगभग ख़त्म हो जाना है. तो वो कहता है कि नहीं, सभ्यताओं का जो इतिहास है वो नदियों के पीछे है. तो नदी ज़्यादा मूल्यवान है बज़ाय इमारतों के. तो पूरे प्लान को रिजेक्ट कर देता है. और उसको फिर लोग पागल कहने लगते हैं. वो उसका नायक है. तो उसमें बहुत सी अच्छी उक्तियाँ हैं. 



जैसे वो कहता ही कि घर में स्पेस होना चाहिए. जैसे हमारे यहाँ पहले आँगन होता था. वो कहता है कि घर में ख़ाली जगह उसी तरह की है जैसे ब्रेड में साल्ट होता है. कहता है,जैसे भाषा में साइलेंस होता है...चुप्पी...ख़ामोशी... तो कहता है,इस तरह स्थापत्य में स्पेस जो है साइलेंस का और साल्ट का रहना चाहिए,तब ही आप कोई घर बनाएँ. फिर कहता है कि खिड़की भीतर से बाहर देखने के लिए नहीं होती है,खिड़की बाहर की चीज़ें भीतर आने के लिए होती है. तो उसका पूरा सोचना बहुत मज़ेदार है.
क्रमश: ...   
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उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत की पहली क़िस्त यहाँ पढ़ें.

परख : चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान (अविनाश मिश्र) : प्रभात कुमार

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अविनाश मिश्र का  दूसरा कविता संग्रह 'चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान'इसी वर्ष वसंत में राजकमल प्रकाशन से खूब सज धज के साथ प्रकाशित हुआ है. प्रभात कुमार इसे देख-परख रहें हैं.







चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमान
रति का नया पाठ
प्रभात कुमार





शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार-सी गिरी है अभी
            

चौंसठ सूत्र, सोलह अभिमानहिंदी के विशिष्ट युवा हस्ताक्षर अविनाश मिश्र का दूसरा काव्य-संग्रह है. जैसा कि कवि ने स्वयं स्वीकार किया है, ‘यह संग्रह कामसूत्र से प्रेरित है. इसमे शामिल कविताओं को पढ़कर लगता है कि यह कई मायनों में हिंदी कविता की एक नई जमीन तैयार कर रहा है.

इस संग्रह की कविताओं की विषय-वस्तु को स्पष्ट करने के लिए इसी में शामिल एक कविता की दो पंक्तियाँ देखिए-

बहुत रूप हैं तुम्हारे
रंग सिर्फ मेरा"

इस  संग्रह की कविताओं के कई-कई रूप हैं, पर रंग है सिर्फ एक-  रति. संग्रह के मुखपृष्ठ पर कामसूत्रसे प्रेरितलिखकर सम्भवतः इसी बात की ओर इशारा किया है कवि ने,अर्थ यह है कि  कवि ने इस संग्रह की कविताओं की विषय-वस्तु में विविधता नहीं रखी है, उसको व्यापक नहीं बनाया है, उसे मानव-जीवन के एक विशेष आयाम तक ही सीमित रखा है.किन्तु, ऐसा करने के कारण कवि को एक बहुत बड़ा फायदा यह हुआ कि वह निश्चिन्त व एकाग्र होकर इस एक विषय- रति के विभिन्न रूप, रंग, आभा, छवि, यति, गति, लय, छंद की गहराईओं में उतर कर इनकी बारीकियों को शब्दों में  अत्यंत काव्यात्मक ढंग से उकेर सका है.

इस संग्रह की कविताओं में व्यापकता की बजाय गहराई को वरीयता देकर इसे ही साधने की कोशिश की गई है.  आलिंगन’, ‘चुम्बन’, ‘नखक्षत’ , ‘दंतक्षत’, ‘संवेशन’, आदि कविताओं के जरिये रति के ही विभिन्न आयामों की अतल गहराइयों में उतरता दिखता है कवि.

आज हिंदी कविता में ऐसा कम ही दिखता है. अमूमन कविता-संग्रहों में विषय-वस्तु में विवधता तो बहुत होती है पर गहराई कम... विजयदेव नारायण साही ने अपनी एक कविता में इसी प्रवृति को प्रतीकात्मक एवं शिकायत भरे शब्दों में कुछ यूं रेखांकित किया है-

इस बस्ती में अब कोई गोताघोर नहीं रहा
हम सब समतल पगडंडियों के मुसाफ़िर हैं

लेकिन, अविनाश मिश्र का यह संग्रह इस बात का गवाह है कि समतल पगडंडियों के मुसाफिरों की भीड़ में आज भी कुछ गोताखोर मौजूद हैं.

अशोक वाजपेयी ने अपने वक्तव्य में कहा है कि साहित्य का देवता ब्योरों में बसता है. और, आद्यंत एक ही विषय-वस्तु होने के कारण कवि काफी तसल्ली से रति के ब्योरों को अत्यंत काव्यात्मक ढंग से उकेर सका है. एक उदाहरण देखें-

खुद को तुम्हें देकर
तुम्हें बड़ा और गहरा किया मैंने

मैं भरता हूँ तुम्हारी नाभि में जल
भरती नहीं मेरी प्यास

तुम्हारा अभाव नष्ट हुआ
मेरा स्वभाव.                  
(‘तनुता’)


मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूँ
तुममें
कि मेरा कोई रूप न हक
मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूं
और तुम्हें पूरा ढंक लूँ            
(‘इत्र’)


तुमने इस क़दर सताया मुझे
कि लगा तुम भी सता सकती हो

एक सतायी गई स्त्री भी सता सकती है
यह तुम बता सकती है                 
(‘उन्माद’)


यद्यपि इस संग्रह की कविताएं काम सूत्र से प्रेरित हैं, किंतु रतिकर्म एवं स्त्री के प्रति एक नई संवेदनात्मक दृष्टि से युक्त भी है अतः  ये कविताएँ पुनरुक्ति नहीं हैं बल्कि पुराण हैं, जो पुराने को नया करती हैं. कुछ उदाहरण देखें-

अनैतिकताएँ
कुछ भी पहन लें
वासनाएं ही जगाती हैं :
प्रेम
प्रगतिशीलता
स्त्रीविमर्श     

औऱ,

एकल रहना है स्त्रीवाद
मुझे चंद चाहिएकहना है स्त्रीविरोधी
कौमार्य की चाह में न बहना है प्रगतिशीलता    

इस संदर्भ में सवर्णाशीर्षक से लिखी गयी कविता तो एकदम ही नई भावबोध पर आधारित स्तब्ध कर देने वाली कविता है. इस संग्रह की स्त्री-विषयक दृष्टि पर अलग से विस्तारपूर्वक बात होनी चाहिए.

इस संग्रह में कई कविताएँ ऐसी भी हैं जो उपदेशात्मक मुद्रा में हमें सीख देता है कि स्त्री के विभिन अंगों के प्रति किस प्रकार बरताव करना चाहिए. योनिरेखाकविता को देखें-

समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है
समय पर पहुंचना अनुशासन
समय के पश्चात पहुंचना अहंकार

स्त्री-अंगों की विशिष्ट प्रकृति को उजागर करने की यह तकनीक एक अभिनव प्रयोग है हिंदी कविता में.




रूपाकार

इस संग्रह की शिल्पविधि के संदर्भ में  सबसे स्पष्ट बात यह है कि इसमें शामिल सभी कविताएँ  रूपाकार में छोटी हैं. सवाल है कि ऐसा क्योंकर है? क्या इसलिए कि आधार ग्रन्थ स्वयं ही सूत्र पद्धति में लिखा गया है? या इसलिए कि कवि के चेतन-अवचेतन में यह समझ है कि आज के युग में विज्ञान और प्रौद्योगिकियों में परिवर्तन की गति अति तीव्र होने के कारण जीवन में, मूल्यों में और भावनाओं को महसूसने के तरीकों में भी काफी तेजी से बदलाव हो रहे हैं. 

आधुनिक समय में भावनाएं अधिक transient और ephemeral हैं….और इसलिए इनको पकड़ने के लिए छोटी कविताओं का रूपाकार ज्यादा उपयुक्त है या फिर, कवि के अवचेतन में यह बात थी कहीं न कहीं कि आज एक तो हिंदी साहित्यिक जगत पाठकों की संख्या के न्यूनीकरण से जूझ रहा है और, दूसरा यह कि सोशल मीडिया के कारण पाठकों के पढ़ने के तरीकों में कई बदलाव आये हैं, जिनमे एक है - limiting the grasping concentration to a very short span of timeऐसे में, लंबी कविताओं की प्रासंगिकता स्वतः कम होती जा रही है क्योंकि लंबी कविताएँ पाठक से जिस sustained धैर्य, एकाग्रता और involvement की मांग करती हैं वो आज हिंदी जगत के पाठकों में कम होती जा रही है ऐसे में हिंदी कविता को लोकप्रिय बनाने और इसके पाठक-जगत का विस्तार करने में लघु-कविताएँ महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं.

मेरी समझ में छोटी कविताएँ होने का एक और कारण हो सकता है, इस संग्रह की विषय-वस्तु सीमित है और चूंकि काम की भावना में तीव्रता बहुत होती है, बेधकता बहुत होती है पर बहुत लंबी समयावधि तक वह sustain नहीं की जा सकती है. और,  दूसरे यह कि रतिकर्म दरअसल monolithic नहीं होता है...यह भावनाओं की एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें प्रत्येक भाव बड़ी तीव्रता और आवेग के साथ उत्पन्न होता है और एक विशिष्ट act के जरिये एक विशिष्ट आनन्द  प्रदान कर तिरोहित होता है एवम अगली भावना और act की उत्पत्ति हेतु जमीन तैयार करता है.

स्त्री के विभिन्न आभूषणों की बात करें तो रतिकर्म के दौरान विभिन्न आभूषणों की एक विशेष भूमिका होती है पुरुष के भीतर कामावेग उतपन्न करने,  उसे आगे बढ़ाने में और सुख देने में. लेकिन रतिकर्म में आभूषणों की ये भूमिकाएं भी दिक्-काल का अत्यंत लघु आयाम ही घेरती हैं. इसिलए इस संग्रह की कविताएं भी इसी पद्धति का अनुसरण करता है...इसमें शामिल हर कविता रतिकर्म की एक विशिष्ट भावना और उससे प्रेरित एक्ट और तज्जनित आनंद की कविता है. इसलिए रूपाकार में लघु हैं. अर्थात, कविता के लक्षित विषय ने अपना रूपाकार अपनी वास्तविक प्रकृति के अनुसार स्वयम ही निर्मित किया,और कवि ने इसमें कोई व्यवधान या हस्तक्षेप नही किया है.

यदि ऐसा है तो यह कहा जा सकता है कि कवि के रचना-कर्म की प्रकृति Democratic है.जिसमें कवि बस अपनी ही नहीं कहता-सुनता और अपनी ही नहीं चलाता है बल्कि कविता को कहने-सुनने और कविता को उसी के नैसर्गिक तरीके से रूपाकार इख़्तियार करने की पूरी छूट देता है.

कवि ने इस संग्रह की भूमिका में और अपने वक्तव्य में  यह कहा कि उसने कविता लिखीनहीं है, बल्कि कविता  स्वयं हुईहै, वह कविता तक नहीं पहुंच, बल्कि कविता स्वयं उस तक पहुंची है इसलिए कविताओं ने जो रूपाकार ग्रहण करना चाहा वही ग्रहण किया इसलिए कविताओं का रूपाकार छोटा है.

इस बात से कई तरह के सवाल उठ खड़े होते हैं.

एक  तो यह कि,  क्या कविताएँ दो तरह की होती हैं- एक वह जो स्वयं बनती हैं और दूसरी वह जो बनाई जाती हैं ?

दूसरा यह कि, कविता को होनेदेना क्या रचना प्रक्रिया के प्रति कवि के democratic होने का इशारा है?  मतलब, कविता दिक और काल  में जितनी जगह घेरना चाहती है उसे उतनी ही जगह लेने देना और अपनी तरफ से उसपर किसी तरह की बाध्यता या मांग नही थोपन....क्या द्रष्टा होना इसी को कहते हैं ?
क्या अज्ञेय के शब्दों में यही है आँचल पसार कर लेना ?

क्या रचना प्रक्रिया में कवि  मात्र द्रष्टा होता है, मात्र साक्षी भाव से उपस्थित रहता है,  और, इस प्रकार कविता को विशुद्धतम रूप में प्राप्त करता है ?तो क्या कविता अर्जित (earned) नहीं है, प्रदत्त (given) है?यदि ऐसा है, तो क्या यह रचना प्रक्रिया के प्रति एक रहस्यमयतापूर्ण दृष्टिकोण नहीं है? क्या यह  रचना-पक्रिया के वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ समझ की राह में बाधा नहीं है?

मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य को  इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना होगा.



भाषिक शिल्प

इस संग्रह की सबसे जरूरी बात मुझे कविताओं के भाषिक शिल्प के बारे में कहनी हैं. ये सारी कविताएँ रतिकर्म के अंतरंग क्षणों और भाव-भंगिमाओं की कविताएं है. और, आज पोर्नोग्राफी ने इस विषय को इतना नग्न और अश्लील बना दिया है कि इनपर बात करते हुए और खासकर कविता लिखते हुए नग्नता और अश्लीलता का खतरा निरन्तर मंडराता रहता है लेकिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि इस संग्रह की कविताएं इस खतरे  से बिल्कुल ही बच निकलती हैं और इसके लिए कवि साहित्य के जिस भाषिक उपकरण का उपयोग करता है, वह है- व्यंजना और ध्वन्यात्मक अर्थ (suggestive meaning).

इस संग्रह की कविताएं भाषा की व्यंजनात्मक शक्ति और suggestive meanings का अद्भुत, श्लाघनीय और इष्टतम दोहन करती हैं, और ऐसा करने में कविताओं के शीर्षकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.  अर्थात, कवि ऐसा इसलिए कर सका क्योंकि उसने हर कविता के शीर्षक को एकदम अभिधात्मक रखा है.. पूर्णरूपेण अभिधात्मक शीर्षक के कारण कविता का संदर्भ/प्रसंग पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है और फिर कवि को यह अवकाश मिला कि वह कविता में व्यंजनात्मकता और suggestive meanings की गहराइयों में गोता लगाए.

प्रत्येक कविता का शीर्षक सुस्पष्ट एवम अभिधात्मक अर्थ की वह धुरी है जिसपर कवि व्यंजनात्मकता और suggestive meanings का अद्भुत संसार रचता है. और, इसी धुरी के कारण काव्य-भाषा के व्यंजनात्मक और suggestive होने के बावजूद इसकी सम्प्रेषणीयता और ग्राहकता में कोई व्यवधान उतपन्न नही होता है इस प्रकार, यह कविता में एक नए भाषिक शिल्प की खोज है. उदाहरण के लिए योनिरेखाकविता को देखें-

समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है
समय पर पहुंचना अनुशासन
समय के पश्चात पहुंचना अहंकार

यदि तीन पंक्तियों की इस अत्यंत व्यंजनात्मक कविता से शीर्षक को हटा दिया जाए तो कविता को समझना अत्यंत मुश्किल है.

सम्पूर्ण मानव-जीवन और रतिकर्म भी द्वंद्वात्मक है. इसलिए इनकी सच्चाइयों को पकड़ने वाली रचना में भी द्वंद्वात्मकता मिलेगी. इस संग्रह में हर कविता के भाषिक-शिल्प की प्रकृति द्वंद्वात्मक है. शीर्षक अभिधात्मक है और कविता  व्यंजनात्मक. इस प्रकार, अभिधा और व्यंजना के द्वंद्व से इस संग्रह की कविताओं का भाषिक-शिल्प निर्मित हुआ है.

चौंसठ सूत्रकी कविताएं अपनी भाव-भंगिमा, रूप-विधान और भाषिक शिल्प के जरिये कई नई बहसों को जन्म देती हैं.उम्मीद है हिन्दी साहित्य जगत में इन बहसों की शुरुआत जल्द ही होगी.
___________
प्रभात कुमार
अनुवादक
लोक सभा, संसद भवन
Mobile : 8527346671

बेगम अख़्तर : शान्ती हीरानन्द से यतीन्द्र मिश्र का संवाद

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अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी (१९१४- १९७४) की ज़िन्दगी और गायकी पर आधारित यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ इसी साल वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. आलेख, संस्मरण, संवाद, टिप्पणियाँ और मोहक साज-सज्जा से युक्त यह किताब बेगम पर एक मुकम्मल पाठ है, बेगम और ग़ज़ल में रूचि रखने वालों के लिए तो जरूरी पुस्तक.

बेगम अख़्तर की प्रमुख शिष्या और प्रसिद्ध ठुमरी और ग़ज़ल गायिका शान्ती हीरानन्द बेगम के अंदाज़ में ही गाती हैं और उनकी रवायत को ज़िन्दा रखे हुईं हैं. बेगम पर उनकी एक किताब भी है- ‘बेगम अख़्तर : द स्टोरी ऑफ़ माई अम्मी.


बेगम अख़्तर की शख्सियत और गायकी पर शान्ती हीरानन्द से हिंदी के कवि और कला अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने यह बातचीत की है.


उनके दामन पर गुरुर के छींटे कभी नहीं पड़े....’                             
शान्ती हीरानन्द से यतीन्द्र मिश्र  का संवाद





यतीन्द्र मिश्र : आपने बेगम साहिबा पर क़िताब लिखी है- बेगम अख़्तर : द स्टोरी ऑफ़ माई अम्मी!जिनसे लगभग दो दशकों तक आपने सीखा भी है. क्या आपको ऐसा लगता है कि बेगम अख़्तर ने बहुत सारी बातें आपसे छिपायी भी होंगी, जिनका ज़िक्र किताब में नहीं है. या इस तरह कह सकते हैं कि आपने जानकर भी उन प्रसंगों को दुनिया के सामने लाना ज़रूरी नहीं समझा?


शान्ती हीरानन्द
हाँ, बिल्कुल. मेरे लिए वही सच था, जो उन्होंने बताया. अब वो छिपाना चाहती थीं, तो किसी वजह से कोई बात ज़रूर रही होगी. जो वो बताना चाहती थीं, उन्होंने वह सब मुझे बताया और अपनी ज़िन्दगी के बारे में भी खुलकर बातें साझा की हैं.

जो उन्होंने मुझे नहीं बताया है, कमोबेश यह हुआ है कि फिर मुझे थोड़ा बहुत, बाद में भी कुछ पता लगा, जो उनकी ज़िन्दगी और संगीत के लिए बड़े ज़रूरी अर्थ नहीं रखता. इसलिए मैंने बहुत सारी कहानियों और सुनी-सुनायी बातों में दिलचस्पी ही नहीं ली है. जब बेगम साहिबा ख़ुद ही सामने मौजूद थीं, तो जितना उन्होंने मुझे अपनी खुशी से बता दिया है, उतना ही मैं उनके बारे में जानने का हक़ रखती हूँ.

यतीन्द्र मिश्र : एक सुन्दर प्रसंग आपने अपनी क़िताब में यह छेड़ा है कि इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब को संगीत से बहुत प्रेम नहीं था. वे जब कोर्ट चले जाते थे, तभी बाजा वगैरह निकलता था और संगीत का रियाज़ शुरु होता था.

शान्ती हीरानन्द
जी हाँ! जब अब्बासी साहब कचेहरी चले जाते थे, तब हमारा बाजा निकलता था. मगर एक बात यह भी है कि अम्मी (बेगम अख़्तर) हम लोगों को बाजा नहीं बजाने देती थीं. रियाज़ के समय बाजा वे खुद पकड़ती थीं और तानपूरा, मैं लेकर बैठती थी. कभी-कभी तो चार-चार घण्टे रियाज़ होता था और जब उनका मन नहीं होता था, तो कहती थीं बिट्टन (शान्ती हीरानन्द को बेगम अख़्तर प्यार से यही नाम लेकर बुलाती थीं) आज जी नहीं है. आज रियाज़ न करो. कुछ खाओ-पियो.

आपने जो यह पूछा है कि अब्बासी साहब को संगीत पसन्द नहीं था, तो ऐसा नहीं है. वे संगीत को पसन्द करते थे, मगर पुराने किस्म के आदमी थे. बैरिस्टर थे, तो चाहते थे कि उनकी लखनऊ में इज्ज़त बनी रहे. उन्होंने अम्मी से वादा भी लिया था कि लखनऊ में कभी नहीं गायेंगी, सिवाय रेडियो के. सिर्फ़ एक दफ़ा, जब चीन से लड़ाई हुई थी तब उन्होंने एक फोरम के लिए गाया था. मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि उस आयोजन में सिर्फ़ महिलाएँ थीं और लखनऊ का एक भी आदमी उसके अन्दर शामिल नहीं था. सिर्फ़ साजिन्दे ही मर्द थे. एक ग़ज़ल मुझे आज भी याद है-वतन पर जीना, वतन पर मर जाना. शादी के बाद उन्होंने लखनऊ में कभी नहीं गाया है, जहाँ तक मुझे मालूम है. इसके अलावा कहीं गाया हो, तो मुझे इल्म नहीं है.


यतीन्द्र मिश्र : आप जब सीखती थीं, तो रियाज़ का क्या पैटर्न था? कितने घण्टे सिखाती थीं वे? हर दिन की तालीम कैसी होती थी?


शान्ती हीरानन्द
शुरु-शुरु में तो बस यही होता था कि वे कभी भी कहीं बैठकर बाजा निकालती थीं और मुझसे सरगम कहलवाती थीं- सा रे गा मा पा धा नी सा. वे पूरब की थीं और पटियाले का अन्दाज़ था उनका, जो उनके सिखाने में मेरी कला में उतरा हुआ है. बेगम साहिबा फ़ैज़ाबाद से थीं, तो फ़ैज़ाबाद का रंग भी उनमें मौजूद था. एक तरफ पंजाब अंग के खटके-मुरकियों से समृद्ध थीं, तो दूसरी ओर ठेठ देसी ढंग से ठुमरी गाती थीं, जिनमें कभी-कभी बनारस के लोक-गीतों की शैली का प्रभाव भी दिखता है. उर्दू में पारंगत थीं, तो वह अदब भी गायिकी में झलकता था. मुझे लगता है कि अम्मी ने पंजाब और अवध की गायिकी के साथ-साथ पूरबपन भी खुद की तालीम में उतारा हुआ था. इन सब चीज़ों का प्रभाव उनकी शिष्याओं में आया है.

उन्होंने मेरी तालीम राग तिलंग से शुरु की थी. थोड़ा सा तिलंग सिखाया और उसके साथ गुनकली का ख्याल शुरु किया. उनका यही तरीका था. सब चीज़ इकट्ठा शुरु कर देती थीं. जब उनका जी लगता था, तो शाम के तीन-चार बजे तक गवाती रहती थीं. और नहीं, तो कहती थीं- बिट्टन! आज नहीं, कल आना.उस समय बिल्कुल भी रियाज़ नहीं होता था. हालाँकि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि संगीत क्या होता है? गाने-बजाने का खास काम किस तरह करते हैं. मैं बिल्कुल कोरी थी, जिसकी तालीम में अम्मी ने प्यार से रंग भरा है. उनकी सोहबत में रहते हुए और उनकी खिदमत करते-करते न जाने क्या कुछ सीख गयी मैं. इसी के साथ मैंने देश भर में न जाने कितनी यात्राएँ उनके साथ की हैं. उनका फरमान आता था कि बिट्टन कल फलाँ शहर जाना है और मैं घर से सामान लेकर उनके साथ हो लेती थी.



यतीन्द्र मिश्र : आपने गुनकली की बात कही है, उसका रियाज़ किस तरह होता था?


शान्ती हीरानन्द
सबसे पहले राग तिलंग की ठुमरी न जा बलम परदेसमैंने उनसे सीखा. वे तिलंग के पलटे और गुनकली का ख्याल आनन्द आज भयोमुझे सिखा रही थीं. वो सिखाती थीं और बहुत छूट भी देती थीं कि जो जी में आए वैसे गाओ. कैसे भी गाओ, चाहे मेरे (बेगम अख़्तर) पीछे-पीछे गाओ.

मेरी समझ में कुछ नहीं आता था, कहाँ जाऊँ, कैसे करूँ? लगता था, हर तरफ से दरवाजे बन्द हैं. ऐसा लगता था कि उनसे मिलने से पहले क्यों नहीं यह सब सीखा मैंने. क्योंकि मैंने सीखा नहीं था इतना, तो इन्हीं के साथ गा-गा कर मुझे अब पता चल पाया है कि दरअसल वो क्या गाती थीं? ....और हमने उनसे तालीम में क्या सुन्दर चीजें़ सीख ली हैं. उनके जाने के बाद मैंने यह सोचना शुरु किया कि आवाज़ तो है आपके पास, मगर उसे सुन्दर और वजनदार कैसे बनाते हैं. मुझे याद आता है कि अम्मी अगर किसी राग को ध्यान में रखकर एक सोच पर कोई चीज़ ख़त्म करती थीं, तो दूसरे ही पल उसी से नयी चीज़ भी शुरु कर देती थीं. उनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वो जिस राग में चाहती थीं, ठुमरी बना लेती थीं. अगर उन्होंने कौशिक ध्वनि में चाहा, तो उसमें बना ली. अगर हेमन्त उन्हें भा गया, तो हेमन्त में ठुमरी गा लेती थीं. मुझे तो यहाँ तक याद है कि वे इस तरह भी गाती थीं कि अगर एक ठुमरी उन्हें पसन्द आ गयी, मसलन उसके बोल भा गये, तो वही ठुमरी वो खमाज में, भैरवी में, कल्याण में, पीलू में और न जाने किन रागों में गाने लगती थीं. उनका मिजाज ही ऐसा था. एक चीज़ जो बेगम अख़्तर को पसन्द आयी, तो दुनिया भर के रागों और तालों में उस बन्दिश को गाने-बजाने का सिलसिला फिर शुरु हो जाता था.


यतीन्द्र मिश्र : ठुमरी और ख्याल के अलावा उन्होंने और क्या सिखाया?


शान्ती हीरानन्द
मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि अम्मी ने हम लोगों को ख्याल और ठुमरी के अलावा ज़्यादा चीज़ें क्यों नहीं सिखाईं. जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने कजरी बहुत ज़्यादा सिखायी है और कुछ ठुमरी व दादरे. ग़ज़ल वे ज़रूर बहुत मन से सिखाती थीं, जिसकी हम लोगों को भी लत लगी हुई थी कि अम्मी के पीछे बैठकर गाना है, तो ठीक से सीख लें और अपनी आवाज़ दुरुस्त कर लें. उन्होंने चैती, बारामासा, ब्याह के गीत, सेहरा और मुबारकबादी नहीं सिखायी. जब भी मैं कुछ कहती थी, तो हमेशा ठुमरी या कजरी सिखाने पर आ जाती थीं. होरी भी जो मैंने उनसे सीखी है, वह ठुमरी के चलन में है.



यतीन्द्र मिश्र : आपने उनके साथ ढेरों यात्राओं का ज़िक्र किया है. उनके साथ कौन-कौन से शहरों की यादें आपकी स्मृति में आज भी सुरक्षित हैं?

शान्ती हीरानन्द
कितने किस्से आपको सुनाऊँ? (हँसते हुए) यह तो यादों का पिटारा है, जितना खोलते जायेंगे, खुलता जायेगा. उनके साथ मैं इतनी जगहें गयी हूँ कि आज ठीक से याद करने पर मुझे याद भी न आयेगा. फिर भी जिन शहरों की स्मृतियाँ बची हुई हैं उनमें- अमृतसर, जालन्धर, श्रीनगर, जम्मू, बॉम्बे, कलकत्ता, पटना अच्छी तरह याद हैं. मध्य प्रदेश में इन्दौर, भोपाल से लेकर वे मुझे कर्नाटक के धारवाड़ और हुगली तक ले गयी थीं. उस ज़माने में हर दिन एक रेडियो स्टेशन खुल रहे थे और हर जगह से ही उनका बुलावा आता था प्रोग्राम करने के लिए. मैं उनके साथ हर जगह गयी हूँ. वे ऐसी शानदार महिला थीं कि अगर आप संगीत, तालीम और मंच या रेडियो पर न भी हों, तो भी उनके सम्मोहन से बच पाना मुश्किल होता था. वे जहाँ कहती थीं, वैसे ही मैं चली जाती थी. मेरी मजाल नहीं थी कि मैं एक शब्द कह जाऊँ. जो अम्मी ने कहा, वो मैंने किया. जहाँ वे ले गयीं, भले ही वह बहुत छोटा शहर क्यों न हो, तीरथ मानकर उनके साथ पीछे-पीछे चली गयी.


यतीन्द्र मिश्र : बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद थीं, जिन्होंने बाक़ायदा गण्डा बाँधकर सिखाना शुरु किया.

शान्ती हीरानन्द
जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने मेरा गण्डा बाँधा सन् 1957 या 58 में. एक बार मुम्बई की एक मशहूर गाने वाली बाई नीलमबाई आईं और उन्होंने अम्मी से कहा कि- तुम बिना गण्डा बँधवाए सिखा रही हो.तब अम्मी को लगा होगा कि गण्डा बाँधते हैं. मेरा गण्डा बँधा, जिसे उनके तबलिए मुन्ने ख़ाँ साहब ने बाँधा. मुझे गुड़ और चना खिलाया गया और मुझसे यह कहा गया कि आज से तुम बेगम अख़्तर की शिष्या हो. आज मैं इन सब बातों का मतलब समझ पाती हूँ और मन गर्व से भर उठता है कि वाकई मैं कितनी खुशनसीब थी कि बेगम अख़्तर साहिबा की शिष्या होने का मुकाम हासिल हुआ. मैं उनकी शागिर्द हुई, यह गायिका होने से बड़ी बात लगती है, आज भी मुझे.



यतीन्द्र मिश्र : जहाँ तक मेरी जानकारी है, आपके साथ अंजलि बैनर्जी का भी गण्डा बन्धन हुआ था?

शान्ती हीरानन्द
बिल्कुल सही फरमा रहे हैं. मेरे साथ अंजलि ही नहीं, बल्कि दीप्ति का भी गण्डा बन्धन हुआ था.  अंजलि बहुत अच्छा गाती थीं पर न जाने क्यों उसने बहुत पहले गाना छोड़ दिया. अम्मी जब उसको गवाती थीं, तो मुझे जलन होती थीं कि हाय कितना अच्छा गा रही है. (हँसती हैं) बाद में मैं ख़ुद रियाज़ करती थी, तो वो सब धीरे-धीरे मेरी आवाज़ से भी निकलने लगा, अम्मी जैसा चाहती थीं. बाद में जाकर मुझे यह इल्म हुआ कि अम्मी बहुत जतन करती थीं कि मैं कुछ बेहतर गा सकूँ.



यतीन्द्र मिश्र : आप कितने सालों तक उनकी शिष्या रहीं? मतलब मैं यह जानना चाहता हूँ कि उनके साथ कितने वर्ष आपने बिताए हैं?

शान्ती हीरानन्द
लगभग बाईस बरस. 1952 से लेकर सन् 1974 तक. 1962 में मेरी शादी हुई थी. फिर भी मैं लगातार अम्मी के सम्पर्क में थीं और लखनऊ आना-जाना, उनसे मिलना और सीखना होता रहता था.


यतीन्द्र मिश्र : जिगर मुरादाबादी से उनकी दोस्ती के बारे में कोई ऐसी कहानी या आपके सामने का कोई संस्मरण हो, जो आप यहाँ बताना चाहें?

शान्ती हीरानन्द
जिगर मुरादाबादी की वो बहुत शौकीन थीं. जिगर उनको बहुत अच्छे लगते थे और उनकी शायरी भी बेगम साहिबा को कमाल की ख़ूबसूरत लगती थी. वे उनको लेकर थोड़े रुमान में भी चली जाती थीं. उन्होंने तो कभी कुछ नहीं बताया, पर ऐसा मैंने सुना है कि एक बार जिगर साहब कहीं मुशायरा पढ़ रहे थे और वहाँ बेगम अख़्तर भी पहुँच गयीं. उन्होंने सन्देशा भिजवाया कि जिगर साहब हम आपसे मिलना चाहते हैं. इस पर जिगर साहब ने यह लिखकर पर्ची लौटाई कि ज़रूर मिलिए, मगर आप अगर मेरी सूरत देखेंगी, तो शायद मिलने से ही मना कर देगीं.इस बात का बेगम साहिबा ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर उन्होंने जिगर से दोस्ताना-नाता जोड़ लिया. वे जब कभी भी लखनऊ आते, तो बेगम साहिबा से मिलने जाते और उनकी बेगम भी साथ में होतीं.

एक बार का वाकया है कि जिगर साहब ने एक ग़ज़ल लिखी, जिसके बोल हैं-

किसका ख्याल कौन सी मंजिल नज़र में है
सदियाँ गुज़र गयीं कि ज़माना सफ़र में है
इक रोशनी सी आज हर इक दस्त-ओ-दर में है
क्या मेरे साथ खुद मेरी मंज़िल सफ़र में है.’ 

उन्होंने बेगम साहब से इसे गाने की गुज़ारिश की. बाद में अम्मी ने जिस बेहतरी से राग दरबारी में बाँधकर इसको गाया कि जिगर साहब भी इसे सुनकर उनकी ग़ज़ल गायिकी पर अपना दिल हार बैठे. अम्मी ने ही उनकी ग़ज़ल की बड़ी नायाब धुन बाँधी थी और गाया था-

कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन.

और खाली जिगर साहब ही नहीं, दरअसल अम्मी की कमजोरी बेहतरीन शायरी थी. हर वो शायर, जो कुछ शानदार अपने शेर से कह देता था, उन्हें पसन्द आ जाता था. वे नये से नये शायरों के कलाम को तवज्जो देती थीं और पढ़कर मुस्कुराती थीं. उनका शमीम जयपुरी साहब से भी बहुत सुन्दर रिश्ता था और वे लखनऊ के उनके घर में अकसर आते थे. इसी तरह उनकी कैफ़ी साहब से बहुत बैठती थी. दोनों ही एक-दूसरे का बेहद सम्मान करते थे. कैफ़ी साहब इनका काम पसन्द करते थे और अम्मी तो उनकी ग़ज़लों पर पूरी तरह फिदा थीं. उन्होंने कैफ़ी साहब को बहुत गाया है. एक ग़ज़ल तो ग़ज़ब की बन पड़ी है-इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े.



यतीन्द्र मिश्र : मदन मोहन और बेगम अख़्तर का दोस्ताना कला की दुनिया में कुछ मशहूर दोस्तियों की तरह रहा है. एक-दूसरे के हुनर के प्रति सम्मान और अपनेपन के भाव से भरा हुआ. आप इस रिश्ते को किस तरह देखती हैं? आपका कोई व्यक्तिगत अनुभव, जो मदन मोहन और बेगम अख़्तर प्रसंग को समझने के लिए नयी रोशनी देता हो?

शान्ती हीरानन्द
मदन मोहन का उनसे बहुत दोस्ताना था. वो पहले लखनऊ रेडियो में थे, तो अम्मी के यहाँ आते-जाते थे. दोनों का एक-दूसरे के प्रति बहुत प्यार था. एक बात जो मुझे बेहद पसन्द है, वो ये कि मदन मोहन साहब अम्मी की बड़ी इज्ज़त करते थे. कभी-कभी ऐसा होता था कि लखनऊ फ़ोन आता था कि अख़्तर मैं आ रहा हूँ दिल्ली से’, तो कहती थीं कि मैं भी आ जाती हूँ. इस तरह होटल के कमरे में जहाँ वे ठहरते थे, गाने-बजाने की महफ़िल सजती थी. मैं, अम्मी और मदन मोहन साहब अकसर ही मिलते थे. मेरा काम बस इतना था कि मैं खाने का बन्दोबस्त करूँ, मदन मोहन के लिए बीयर लेकर आऊँ. उनकी बीयर और अम्मी की सिगरेट चलती रहती थी और संगीत पर बहुत सुन्दर बातें वे दोनों करते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि जब वे मस्त होकर अम्मी को कोई धुन सुनाते थे, तो वे अकसर थोड़े लाड़ और नाराजगी से कहती थीं- मदन तुमने मेरी बहुत सी ग़ज़लें चोरी करके अपनी फ़िल्मों में डाल दी हैं.इस तरह दोनों एक-दूसरे से बतियाते थे. इस शिकवा-शिकायत में मैंने सिर्फ़ प्रेम ही देखा है. मुझे वो दिन भी याद है कि जब अम्मी का इन्तकाल हुआ, तो वे उनकी क़ब्र पे जाकर जिस तरह फूटकर रोए थे, उससे मेरा दिल दहल गया था.

मदन मोहन सीधे सहज आदमी थे और अम्मी की कलाकारी के कायल. ठीक इसी तरह अम्मी भी उनके काम से इश्क़ करती थीं. मेरे देखे मदन मोहन और बेगम अख़्तर की दोस्ती जैसा रिश्ता कम ही मिलता है. ऐसे रिश्ते को पालने के लिए भीतर से एक कलाकार मन चाहिए और दूसरे के लिए इज्ज़त और ईमानदारी. दोनों में ये ख़ूब थी, तो दोनों में पटती भी थी.

हालाँकि मदन मोहन के अलावा मैंने अम्मी की इज्ज़त करते हुए लता मंगेशकर और नरगिस को भी देखा है. नरगिस जी तो उन्हें खाला ही कहती थीं और बहुत तमीज़ से पेश आती थीं. चूँकि अम्मी ने जद्दनबाई के पीछे बैठकर भी गाया है, इसलिए वे उन्हें बहुत ज़्यादा इज्ज़त देती थीं.


यतीन्द्र मिश्र : कोई ऐसा संस्मरण आपको याद है, जब मदन मोहन जी ने कोई फ़िल्म की धुन बनायी हो आप लोगों के सामने?


शान्ती हीरानन्द
इतना तो याद नहीं है. मगर अम्मी को भाई-भाईफ़िल्म का लता जी का गाया हुआ गीत कदर जाने न मोरा बालम बेदर्दीऔर उसकी धुन बेहद पसन्द थी. जब भी मदन मोहन से मिलती थीं, तो इस गीत की चर्चा ज़रूर छिड़ती थी और अकसर वे इसरार करके मदन मोहन से उनकी आवाज़ में ये गीत सुनती थीं.



यतीन्द्र मिश्र : शकील बदायूँनी की मशहूर ग़ज़ल के बनने का वह कौन सा किस्सा है, जिसके लिए कहा जाता है कि उसे उन्होंने अपने सफर के दौरान ही चन्द मिनटों में बना दिया था?


शान्ती हीरानन्द
शकील बदायूँनी साहब एक बाक़माल शायर के रूप में विख्यात हो गये थे. हालाँकि उस समय तक फ़िल्मों के लिए उन्होंने लिखना शुरु नहीं किया था. उनकी शायरी बहुत अच्छी थी और उस ज़माने में सुनी-पढ़ी जाती थी. मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बम्बई से हम दोनों ही लखनऊ लौट रहे थे. जब ट्रेन आगे बढ़ने लगी, तो शकील साहब आए और उन्होंने अम्मी से खिड़की से ही हाल-चाल लिया और अपनी ग़ज़ल को उन्हें पकड़ा दिया. अम्मी ने यह ग़ज़ल मुझे सम्हाल कर रखने के लिए दे दी. सुबह जब भोपाल स्टेशन आया और गाड़ी रुकी, तो अम्मी की नींद खुली और उन्होंने चाय मँगवायी. चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि बिट्टन वो ग़ज़ल, जो शकील ने मुझे दी थी, निकालो.मेरे ग़ज़ल देने पर उन्होंने एक बार उसे पढ़ा और अपना बाजा निकलवाया और थोड़ी ही देर में उसकी धुन बनायी-ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया.



यतीन्द्र मिश्र : अपने गुरु को लेकर उनके आदर का कौन सा ऐसा वाकया है, जिसे याद करके आपको तसल्ली होती है और जिसे आप यहाँ बताना पसन्द करेंगी?

शान्ती हीरानन्द
कितनी बातें बताऊँ आपको. अब मेरी उम्र हो चली है और ऐसे समय में आप ये सब पूछने आए हैं, जब यादें बहुत धुँधली सी पड़ गयी हैं. मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं जो भी हूँ, वो सब बेगम अख़्तर के कारण है. उन्हीं के साथ रही, उन्हीं की तरह पहना-ओढ़ा और उन्हीं की तबीयत से गाया-बजाया. 

मेरे पति डा. जगन्नाथ चावला से शादी से पहले मैंने सिर्फ़ यही इतना भर पूछा था कि आप मुझसे मेरी अम्मी को तो नहीं छुड़ा देंगे, क्योंकि मैं उनके बग़ैर जी नहीं सकती और गाए बग़ैर रह नहीं सकती.वे खुशी-खुशी मान गये थे, तभी मैंने शादी की और वाकई डाक्टर साहब ने अपना वचन जीवन-भर निभाया. एक बात जो मुझे याद आती है और अपने बचपने पर हँसी आती है, वह यह कि अम्मी ने एक बार पूछा कि क्या मैं मांसाहारी हूँ?’ और मेरे मना करने पर उन्होंने मेरे मुँह में जबरन चिकन का एक टुकड़ा डाल दिया. आप विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन खाते वक़्त उसे मैंने अम्मी के प्रसाद के रूप में लिया और बिना किसी तर्क-वितर्क के उनके साथ मांसाहारी हो गयी. जिस दिन अम्मी इस दुनिया से गयीं, उस दिन से लेकर आज तक फिर मैंने कभी मांस या अण्डे का एक टुकड़ा भी अपने मुँह में नहीं डाला.

यही दीवानगी है अपने गुरु की जो शायद आपको बचकानी लगे, मगर मैंने पूरे समर्पण के साथ हर वो चीज़ स्वीकारी, जो मेरे गुरु की मंशा थी.



यतीन्द्र मिश्र : यह जो आपका संस्मरण है, वह गुरु-शिष्य परम्परा के रिश्ते की बड़ी ख़ूबसूरत नुमाइन्दगी करता है. यह बचकाना नहीं है, बल्कि बहुत कुछ सीख देने वाला भी है. इसी लिहाज़ से मैं उनके मुहर्रम के प्रसंगों को भी जानना चाहता हूँ कि कैसे उनकी हिन्दू शिष्याओं ने मुहर्रम के सोज़ को बाँटने में अपने उस्ताद की मदद की है?

शान्ती हीरानन्द
मुहर्रम तो बेगम अख़्तर के यहाँ पूरे एहतराम के साथ मनाया जाता था. वे मुहर्रम को लेकर बहुत संजीदा थीं. ज़री जब सजाई जाती थी, तो बस एक आदमी को ही इजाज़त थी, जो उनके लिए काम करता था. उसका नाम श्याम सुन्दर था और वो बिजली का काम करता था. उसे ही ज़री सजाने का काम दिया जाता था. चाँदी के सामान निकलते थे, सभी को साफ करके ज़री सजती थी. मुहर्रम की सातवीं तारीख से उनके यहाँ खाना बनना शुरु होता था. नानवाई आते थे, जो नान और गोश्त वगैरह बनाते थे. ज़र्दा, मीठा चावल, गोश्त पुलाव और दाल-रोटी बनती थी. आप जानकर अचरज करेंगे कि ऐसी भीड़ जमा होती थी कि क्या कहने! सारा खाना ग़रीबों को बाँट दिया जाता था. सातवीं, आठवीं, नौवीं और दसवीं तारीख़ उनके लिए बड़े महत्त्व की थी. दसवीं तारीख़ को सुबह के समय उठकर जब ताजिया जाता था, तो मर्सिया पढ़कर रो-रोकर उसे विदा करती थीं. मर्सिया की शुरुआती लाईनें मुझे आज भी याद हैं, वे गाती थीं-सफ़र है कर्बला से अब हुसैन का....

मैं यह भी कहना चाहूँगी कि अम्मी ने कभी भी फ़र्क नहीं किया हिन्दू-मुसलमान में. हम सब उनकी शिष्याएँ या उनकी ज़री सजाने वाला श्याम सुन्दर सभी से उन्होंने प्यार किया. अपना धर्म निभाते हुए भी हमें यह एहसास नहीं होने दिया कि हम उनके मजहब से नहीं आते. इसी तरह ईद में जिस तरह का प्यार लुटाना उन्होंने किया, वो आज दुर्लभ है. घर भर के गरारे-शरारे सिलने वाले दर्जियों से मेरे लिए भी पोशाक बनवाना, उन्होंने बहुत शौक से किया था. जितनी साड़ियाँ वे खरीदती थीं, वह खानदान के लोगों, दोस्तों और हम लोगों में बँट जाती थीं. मुझे कहती थीं कि बिट्टन तुम्हें जो साड़ी पसन्द हो, ले लो. ईद पर ईदी देना, सिवईंया घर भिजवाना और बहुत प्यार देना अम्मी की आदत में शुमार था. हमारे लिए दीवाली की तरह ही ईद होती थी, जिसका साल भर इन्तज़ार रहता था.



यतीन्द्र मिश्र : खाली समय में जब बेगम अख़्तर का गाने का मन नहीं होता था, तब क्या करती थीं?
शान्ती हीरानन्द
देखिए, उस समय तो सिर्फ़ चाय पीती थीं और घर के कामों में हाथ बँटाती थीं. (हँसते हुए) अम्मी की एक ख़ास आदत थी कि जल्दी ही वे जिस काम में पड़ी हों, उससे ऊब जाती थीं. अब जैसे जब खाली बैठी कुछ सोच रही हों, तो हम लोगों को दुलाई वगैरह सिलने को कहती थीं. मुझसे कहतीं कि- लाओ बेटा मैं तुम्हे सिखाती हूँ कि दुलाई में गोटा कैसे लगाया जाता है.फिर कहतीं कि दुलाई को खूशबूदार किस तरह करते हैं.बड़े मँहगे इत्रों को दुलाई में लगाते हुए उसे किस तरह गमकाते हैं, इसे करने में उन्हें मज़ा आता था. हालाँकि थोड़ी देर के लिए ही घर का काम किया, तो फिर उससे ऊब जाती थीं.
कई दफ़ा सोती थीं, तो देर तक सोती रहती थीं और फिर उठकर अचानक चाय की प्याली माँगने के साथ हम लोगों से गाना गवाती थीं. जिस दिन उनको कुछ पकाने का शौक लगे, तो फिर अल्लाह ही मालिक है, क्योंकि अम्मी इतने मन से समय लगाकर देर तक खाना बनाती थीं कि हम सब को पता होता था कि खाना तो अब शाम को ही मिलेगा. उनको यह धुन थी कि जब वे खाना बनाएँ, तो चूल्हा भी नया और बर्तन भी नया हो. इस तरह इंतजाम करने में ही दिन गुज़र जाता था.



यतीन्द्र मिश्र : यह तो कुछ दिलचस्प संस्मरण हैं, जो आप सुना रही हैं?

शान्ती हीरानन्द
मुझे लगता है कि उनकी दो तरह की शख़्सियतें थीं. एक ही समय में दो किरदारों में रहना. एक तो वे आज़ाद रहना चाहती थीं, तो दूसरी तरफ घर में एक शरीफ बीवी की तरह रहना पसन्द करती थीं. घर में हैं, तो कुछ खाना पका रही हैं, बच्चों को देख रही हैं, अपने नवासों की खिदमत में लगी हुई हैं. ....और अगर बाहर निकलीं, तो बिल्कुल आज़ाद ख्याल सिगरेट पीने वाली बेगम अख़्तर, जिन्हें फिर गाने-बजाने की महफिलें रास आती थीं. अकसर कहती थीं कि चलो थियेटर में फ़िल्म देख आएँ.जब घर से दिल घबड़ाए, तो होटल या दूसरे शहर जा पहुँचती थीं और मुझे भी साथ ले लेती थीं. दूसरे शहर पहुँचते ही उन्हें घर की तलब लगती थी और मुझसे कहें- बिट्टन चलो तबीयत घबरा रही है, घर चलें.इस पर मैं हैरान होकर कहती थी, ‘अम्मी अभी तो आए हैं, एक दो दिन रह लीजिए, तब चलते हैं.इस पर कहें, ‘नहीं चलो मेरा जी घबरा रहा है. घर चलते हैं.उनको इण्डियन एयर लाईन्स वाले भी इतना मानते थे कि जब भी उन्होंने तुरन्त जल्दबाजी में टिकट बुक करना चाहा, तो एयर लाईन्स के ऑफिसर तुरन्त उनके लिए कहीं न कहीं से टिकट का इन्तज़ाम कर देते थे.

वो मुझसे कहती थीं, बाहर जाऊँ, आज़ाद रहूँ, कुछ लोगों से मिलूँ, जो जी चाहे वो करूँ, मगर वहाँ जाकर मेरी तबीयत घबराती है और मुझे घर याद आता है. मैं आपको बताती हूँ, जो मुझे आज लगता है कि उनको कहीं चैन नहीं मिलता था.


यतीन्द्र मिश्र : उनके व्यक्तित्व को आपने बहुत सुन्दर ढंग से याद किया है. कोई ऐसी बात जो उनके शौक और पसन्द-नापसन्दगी को उजागर करती हो?

शान्ती हीरानन्द
उनको जहाँ तक मैं जानती हूँ, उनको सौगातें बाँटने का बहुत शौक था. जहाँ भी जाती थीं, बहुत सारी चीज़ें लाती थीं, सबके लिए. उनको ख़ूबसूरती पसन्द थी. जो चीज़ सुन्दर है, फिर वो उन्हें चाहिए होता था. एक दिलचस्प किस्सा है कि जब अफगानिस्तान गयीं, तो वहाँ से ढेर सारा झाड़ू लेकर आ गयीं. मैंने कहा- अम्मी इस झाड़ू का क्या करेंगे’? इस पर बोलीं- अरे! बहुत ख़ूबसूरत है, देखो तो सही कितना अच्छा है.मुझे वहाँ शर्म आ रही थी कि अम्मी झाडू़ लिए हुए हैं और वे मुझसे कहती जातीं- तुम क्यों शर्मा रही हो? झाड़ू ही तो है.’ ....और सबको बिटिया कहकर एक झाड़ू देने लगीं. इस तरह उन्होंने पूरे मोहल्ले में अफगानिस्तान से लायी हुई झाड़ू बाँटी. और इस पर मजा यह कि बड़ी प्रसन्न होकर बाँट रही थीं, जैसे कितनी नायाब चीज़ लेकर आ गयी हों. उन्हें झाड़ू पसन्द आ गयी और ख़ूबसूरत लगी, तो फिर सबको वो सुन्दर लगेगी, ऐसी उनकी सोच थी.



यतीन्द्र मिश्र : रेकॉर्डिंग के समय रेडियो स्टेशन या दूरदर्शन जाते हुए कभी उन्होंने कोई अतिरिक्त तैयारी या शृंगार वगैरह करती थीं?

शान्ती हीरानन्द
बड़ी सादा इंसान थीं. यह ज़रूर था कि उनको कपड़ों का बड़ा शौक था और घर में आलमारियाँ भरी हुई थीं. जब मैं उनको टोकती कि आप ये सब क्यों नहीं पहनतीं, तो कहती थीं बहुत पहना है बिट्टन, अब मन नहीं होता. मैंने हमेशा उनको सूती साड़ियों में ही देखा, कभी-कभी सिल्क की साड़ी भी पहन लेती थीं. कहीं प्रोग्राम है, रेकॉर्डिंग है, तो अकसर सो रही हैं. जब गाड़ी आकर खड़ी हुई उन्हें लेने, तो सोकर उठीं. एक प्याली चाय पी, साड़ी बदली, बाल बाँधे और चल दीं. कभी-कभी जरा सी लिपस्टिक भी लगाती थीं. इससे ज़्यादा कुछ नहीं. मुझे लगता है कि जब वे जवान रही होंगी, तब उन्हें सजने-सँवरने का बहुत शौक़ रहा होगा. उनकी आलमारियों में डिब्बों और बक्सों में गहने भरे रहते थे. एक बक्से को मैंने इतनी अँगूठियों से भरा देखा, तो कहा अम्मी इनमें से कुछ पहन लिया कीजिए.इस पर उन्होंने बोला अरे बिटिया! देख लो, जो तुम्हें पसन्द आए ले लो.मगर मैंने कभी उनका एक जेवर भी नहीं लिया, क्योंकि मेरी मंशा ये नहीं रहती थी. मैं तो बस चाहती थीं कि अम्मी खूब सजे-सँवरे और खुश रहें. और वे थीं कि बहुत सादे ढंग से तैयार होकर कहीं भी चली जाती थीं. मेरे वास्ते जब कुछ लाती थीं, तो मैं इसरार करते हुए कहती थीं अम्मी पहले आप ये पहन लें, तब मैं पहन लूँगी.मेरी मंशा यह रहती थी कि उनके पहन लेने से साड़ियों में उनकी ही अजब सी खुशबू आ जाती थी, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी. इसी तरह से मैंने हमेशा उनके तन से उतरे हुए कपड़े पहनने का सुख भोगा. वो माँ ही थीं, जिनके इर्द-गिर्द मेरा सारा जीवन बीतता था.



यतीन्द्र मिश्र : क्या कभी बेगम अख़्तर साहिबा ने आपको अपना कोई वाद्य, जेवर या संगीत से जुड़ी कोई निशानी दी है?

शान्ती हीरानन्द
उन्होंने मेरी शादी में अपने दो कंगन दिए थे और मुझे पहना दिए. उसे मैंने बड़े जतन से अपने पास रखा और उनके प्रसाद की तरह पहनती रही. जब मेरी बहू आयी, तो उसे मैंने वही कंगन सबसे पहले दिया और कहा कि ये बेगम अख़्तर साहिबा का आशीर्वाद है. इसे पहनना और सम्भाल कर रखना. इसे किसी को न देना क्यांकि यह मेरी गुरु का ऐसा प्रसाद है, जो हमारे पास ही रहना चाहिए. बाक़ी कपड़ों, जरी की साड़ियों और तमाम दूसरी सौगातें तो उन्होंने बहुत दी हैं, जिन्हें मैंने उतने ही आदर से अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा.



यतीन्द्र मिश्र : बेगम अख़्तर साहिबा की ऐसी कौन सी ख़ास बात है, जो आपको सर्वाधिक अपील करती है?

शान्ती हीरानन्द
कलाकारों की इज्ज़त करना. उस्तादों के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल देना और उनको बड़े मान-सम्मान के साथ बुलाकर इज्ज़त देना. कभी किसी कलाकार के लिए कुछ भी अप्रिय या कड़वा नहीं कहना. बहुत शरीफ थीं. वज़नदार महिला, जिनके लिए सच्चा कलाकार होना ही सबसे बड़ी बात थी. एक बार मैं और वे पूना गये और वहाँ एक साधारण सा मराठी गायक लावणी गा रहा था. वह कोई प्रचलित कलाकार या बहुत पहुँचा हुआ कलावन्त नहीं था. एक अति साधारण आदमी, जो लावणी सुना रहा है. मैंने देखा कि जब लावणी ख़त्म हुई, तो वे एकाएक खड़ी हो गयीं और उसके पैर छूने लगीं. वो घबड़ा गया और कहने लगा- बेगम साहिबा आप यह क्या कर रही हैं?’ इस पर बहुत विनम्रता से बोलीं- अरे तुम्हारी जुबान में जो सरस्वती हैं, उनको प्रणाम कर रही हूँ.इस तरह की शख़्सियत थीं बेगम अख़्तर.

वे जब भी किसी कलाकार से मिलती थीं, तो खातिर तो जो करती थीं, वो था ही. अगर वे उन लोगों के घर गयीं या वे ख़ुद अम्मी के घर आए, तो उन्हें बिना नज़राना दिए बगै़र वापस नहीं जाने देती थीं. मुझे याद है कि उन्होंने इस तरह उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब, उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब और उस्ताद अहमद जान थिरकवा को नज़राने पेश किए थे. मुझसे कहती थीं कि इन गुणीजनों के पास कला है और उसकी कद्र करना हर एक इंसान का फर्ज़ है.

मुझे एक चीज़ उनमें बहुत भाती है कि उनके अन्दर की बनावट कुछ उस तरह की थी, जिसमें गुरुर नहीं था. उनके दामन पर गुरुर के झींटे कभी नहीं पड़े. हमेशा कहती थीं- बेटा यह कभी मत सोचना कि तुम बहुत अच्छा गाती हो. जिस दिन मन में यह आ जायेगा, उस दिन गाना-बजाना चला जायेगा.जिस ज़माने में तवायफों को इज्ज़त की निगाह से नहीं देखा जाता था, उस दौर में बेगम अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज्ज़त दिलवायी. ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया. उनके गाने के बाद से ग़ज़ल के लिए कभी किसी ने कोई छोटी बात नहीं कही. यह बेगम अख़्तर की सफलता थी.

मैंने उनकी जवानी का वो दौर भी देखा है, जब वे दिल्ली के लाल किले में एक परफार्मेंस के लिए गयीं, तो वहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू उनको देखकर आदर में खड़े हो गए और उनका अभिवादन किया. वहाँ उन्होंने बहादुर शाह जफ़र की ग़ज़लें गायी थीं. यह सन् 1960-62 का समय होगा. आप देखिए, कितनी बड़ी बात है कि प्रधानमंत्री ने उनका खड़े होकर एहतराम किया. बेगम अख़्तर के लिए और किसी भी कलाकार के लिए यह बहुत बड़ी बात है.

यतीन्द्र मिश्र : ऐसी कौन सी बात है, जो आप अपने गुरु से पूछ नहीं पाईं या माँग नहीं सकीं? जिसका मलाल आज भी आपको होता है?

शान्ती हीरानन्द
कोई मलाल नहीं है. अम्मी एक बार जब मुम्बई में अरविन्द पारिख भाई के यहाँ गयीं और रहीं, तो उनसे उन्होंने कहा, जिसे अरविन्द भाई ने मुझे बाद में बताया. उन्होंने उनसे कहा- मेरी बेटी शान्ती हीरानन्द ने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा.यह सुनकर मेरी आँखें भीग गयीं और मुझे बड़ी राहत हुई कि मेरी उस्तानी मेरे बारे में ऐसा सोचती थीं. मुझे शण्टो, शण्टोला, बिट्टन कहती थीं और बड़े प्यार से उन्होंने मुझे सँवारा. एक बार उन्होंने एक बड़े उस्ताद का सम्मान करते हुए मुझे नसीहत दी थी, जो आज भी मुझे सीख जैसी लगती है. उन्होंने कहा था- जिसका रुतबा जैसा है, उसके साथ वैसा ही निभाना चाहिए.यकीन मानिए, मैंने इसी पर चलने का उम्र भर काम किया है. अहमदाबाद के अपने अन्तिम कंसर्ट में उन्होंने आखिर में सोवत निन्दिया जगाए हो रामाचैती गायी थी. उसके बाद उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बन्द हो गयी. यह चैती मुझे आज भी बहुत विचलित करती है. मुझे लगता है कि अम्मी हमें छोड़कर क्यों चली गयीं. अच्छा ही हुआ कि उन्होंने मुझे चैती सिखाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, नहीं तो मेरा तो न जाने कितना करम हो जाता.
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परख : साहस और डर के बीच : मीना बुद्धिराजा

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डायरी में अगर सच्चाई है तो उसका साहित्य से इतर भी महत्व है. एक तरह से अपने समय को देखती परखती एक अंतर्यात्रा.नरेंद्र मोहन की डायरी को परख रहीं मीना बुद्धिराजा.








साहस और डर के बीच
समय और समाज की अंतर्यात्रा      

मीना बुद्धिराजा





ज के साहित्यिक परिदृश्य को अगर कथेतर गद्य का समय कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि इस दौर में पारंपरिक कथ्य की विधायें पूरी तरह बदल रही हैं,  टूट रही हैं और एक-दूसरे मे समाहित भी हो रही हैं. यथार्थ आज बहुत जटिल, अप्रत्याशित है और उसका गहरा दबाव है. साथ ही दूसरे तकनीकी माध्यमों की बहुतायत ने भी इस  विधागत बदलाव को संभव किया है. आज बहुत से गद्य लेखक नये प्रयोगों के लिये भी तैयार हुए है और अपनी रचनाओं में इसे अपना भी रहे हैं जो पाठकों में भी लोकप्रिय है. यह कहना बहुत कठिन है कि अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम किस विधा में मिलेगा. रचनाकार की अपनी रुचि,अनुभूति और विषय की व्यापकता-गहराई के अनुसार भी लेखक किसी विधा को चुनता है और यह भी कह सकते हैं कि विषयवस्तु अपनी विधा स्वंय चुनती है. अलग-अलग समय पर यात्रा,  आत्मकथा,संस्मरण और डायरी जैसी नयी गद्य-विधाएं भी विशिष्ट संदर्भों में रचना-प्रक्रिया का समर्थ व उत्कृष्ट माध्यम बन सकती हैं. यह किसी भी लेखक के लिएसर्वोत्तम विकल्प और कलाकृति की स्वायत्तता है.

लेखक अपनी कला की आज़ादी खुद रचता है और उसे सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा जीवन से मिलनी चाहिए और वही उसका आधार और जड़ें होनी चाहिये. इससे बाहर कितनी भी चमक-दमक हो वह विषय-वस्तु के निर्वाह में बईमानी की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती. जीवन के यथार्थ की तरफ रचनाकार को हमेशा मुड़ना पड़ता है. इस प्रक्रिया मेंउसे सामाजिक-सांस्कृतिक अभिरुचि के उत्स को पकड़कर समकालीन विराट विमर्शों की निर्मिति तक पहुंच अपने निज़ी अनुभवों से उसे अधिक प्रासंगिक और प्रामाणिक बनाना होता है. वर्तमान हिंदी गद्य के परिदृश्य में अपनी सतत रचनात्मक यात्रा में कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में विख्यात डॉ नरेन्द्र मोहन एक ऐसे ही विशिष्ट और सशक्त हस्ताक्षर हैं जिन्होने प्रत्येक विधा में नए प्रयोग करते हुए नए विमर्शों तथा सृजन-चिंतन के नवीन आधारों की खोज की है. अपने  प्रमुख कविता संग्रहों जैसे- इस हादसे में, एक अग्निकांड जगहें बदलता,शर्मिला इरोम तथा अन्य कविताएँ रंग दे शब्दमें वे नए अंदाज़ मे कविता की परिकल्पना करते हैं. प्रसिद्ध नाटकों- कहे कबीर सुनो भाई साधो,  सींगधारी, नो मैंस लैंड, मि. जिन्ना, मंच अंधेरे मेंहर बार नयी वस्तु और दृष्टि की तलाश करते हैं. साथ ही नयी रंगत में ढली उनकी रचनाएँ साये से अलग-(डायरी) फ्रेम से बाहर आती तस्वीरें (संस्मरण) मंटो ज़िंदा है (जीवनी) कम्बख्त निंदर’(  आत्मकथा 2013) और क्या हाल सुनावाँ( आत्मकथा 2015) ने इन सभी विधाओं को बिल्कुल नए मायने दिए हैं. उनके नाटक, जीवनी और कविताएं विभिन्न भारतीय भाषाओं और अंगेजीं में भी अनूदित हो चुकी हैं. वे कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित साहित्यकार हैं. विचार कविता और लम्बी कविता पर गहन विमर्श के साथ ही अपने समय के सरोकारों पर चिंतन करते हुए बहसतलब मुद्दों को  गद्य में प्रस्तुत करना उनकी संपूर्ण रचनात्मकता का केंद्र बिंदु है.

इसी अनवरत सृजनात्मक यात्रा में नरेन्द्र मोहन की नवीनतम डायरी’- ‘साहस और डर के बीचशीर्षक पुस्तक के रूप में अभी हाल में ही प्रतिष्ठित संभावना प्रकाशनहापुड़से प्रकाशित हुई है. यह हमारे समय-समाज का एक बेचैनी भरा और जरूरी दस्तावेज़ है और इस मायने में यह पाठकों के लिए समकालीन वैचारिक मुद्दों और सरोकारों को नज़दीक से जानने के लिए अनिवार्य पुस्तक है. यह डायरी लेखन के रूप में लेखक के आत्मसंघर्ष का एक सुदीर्घ महावृतांत है जिसे उन्होने पूरी ईमानदारी और संयम से रचा है. इस महत्वपूर्ण पुस्तक में 2010 से 2017 तक के लेखक के अनुभव क्षणों की अभिव्यक्ति का कोलाज़ है. सच की राह पर बिना डरे कला-संरचनाओं, साहित्य, समाज और राजनीति के बीहड़ में प्रवेश करती घटनाओं और तथ्यों के साक्ष्य के साथ समाज और राज्य पर एक साफ, निष्कपट- निडर आवाज़ की प्रस्तुति के रूप में यह एक अनूठी और प्रामाणिक पुस्तक है. यह डायरी आज के इस उथल-पुथल भरे समय में सभी दबावों,अंतर्बाह्य तक़लीफों की कठिन प्रक्रिया से होते हुए मानो रचनाकार के भाव-जगत से पाठकों का अंतरंग साक्षात्कार कराती है.

पुस्तक के अलग- अलग अध्यायों  में विभाजित शीर्षक  समय और वर्ष के क्रमानुसार लेखक के रचनात्मक कर्म, साहित्य,सिनेमा, रंगमंच, कविता , कला, संस्कृति और राजनीति के सभी माध्यमों की हलचल, सामयिक गतिविधियाँ, सभा-संगोष्ठियाँ यहाँ दर्ज़ हुई हैं जिनके साथ ही एक रचनाकार के रूप में लेखक की सृजन से जुड़ी वैचारिक-भावनात्मक बेचैनियाँज्ञान और संवेदना के स्तर पर उनके अनुभव और साहित्यिक मित्रों से की गई बातें, चर्चाएँ और स्मृतियाँ डायरी को मौलिक और रोचक भी बना देते हैं. यहाँ काल के अंतरालों में सूत्र की तरह बंधे आत्म-कथन,  संवाद और आत्म-स्वीकृतियों के दायरे इतने व्यापक और समसामयिक हैं कि पाठक भी आश्चर्यजनक तरीके से उनसे आत्मीय संबंध जोड़ लेता है.

यह पुस्तक डायरी के बहाने हमारे समकालीन समय के सरोकारों को वृहद और आंतरिक रूप से जानने की कोशिश है. एक रचनाकार के जीवन के आत्मसंघर्ष और बहुआयामी दृष्टि का जहाँ तक प्रश्न है वह इस डायरी का अनिवार्य हिस्सा है जिसका आधार है- सृजन का नेपथ्य और रचना प्रक्रिया का विमर्श. इसे वृहत मानवीय प्रश्नों से जोड़ते हुए  जिस संशय, संदेह, बेचैनी और तनाव से उनका बार- बार सामना होता है उसमें कहीं भी कोई विभाजक रेखा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में नहीं दिखाई देती जो इस डायरी की विशेष उपलब्धि है.

पुस्तक में विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत जिनमें सात वर्षों के कालखंड की गतिविधियों का लेखा-जोखा ही नहीं है.  वह लेखक की संवेदना और वैचारिकता के यथार्थ में स्पंदित होकर पाठकों की चेतना का हिस्सा भी बन जाता है. प्रतीकात्मक अर्थों में ये सभी भाग अपने साथ विस्मृति के विरुद्ध स्मृतियों का हाथ थामकर इतिहास से वर्तमान में आवाजाही करते रहते हैं और अंदर से बाहर जुड़ने की यह प्रक्रिया निरतंर चलती रहती है. लेखक को बार- बार अपूर्णता की तरफ लौटना पड़ता है टुकड़ों- टुकड़ों में जीवन की समग्रता को समझने के लिए.

मेरे घर अंधकार जड़ा ताला, फ्रेम से बाहर जाती ध्वनियाँज़िंदगी और नाटक के बीच, किरदार निभाते हुए, आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं अगर..., साहस और डर के बीचबात करनी हमें मुश्किल.., खुद को खाली होते देखना, हरदम तलाश हमें नए आसमाँ की है,बेचैन रूह का तनहाँ सफर, कोहराम: भीतरी-बाहरी, जितना बचा है मेरा होना, एक सी बेचैनियाँ यहाँ भी वहाँ भी, कल और आज…, कभी खुद पे कभी हालात पे...कितने ही गहन अर्थ संकेतों से जुड़े इन अध्यायों में बहुत से समकालीन प्रश्नों और सुलगती खामोशी- सन्नाटे के पीछे भौतिक और मानसिक संघर्षों के अनेक स्तर हैं. इनमें उनके जीवन के अनेक रोमांचित कर देने वाले अनुभव, रचनात्मक स्वतंत्रता और आत्म सम्मान के लिए आखिरी हद तक दृढ़ता तथा चुनौतियों से अविराम मुठभेड़ की भी ईमानदार अभिव्यक्ति है. लेखक के विचारों,भावों और आकाक्षांओं के सूत्रों व उतार- चढ़ाव के बीच अभिव्यक्ति का जोखिम और रचनात्मक विवेक के अनेक प्रसंग बहुत जीवंत बनकर पाठकों के रूबरू आते हैं. यहाँ रचनाकार का विविध और बहुस्तरीय संवेदना जगत है जिसमें से उभरता हुआ उनका अपना एक वजूद उपस्थित होता है.
 
इस बहुमूल्य डायरी में अनेक भावुक स्मृतियाँ भी हैं और हताशा तथा विचलित करने वाले यथार्थ के बावज़ूद सही और सच को लिखने की प्रतिबद्धता भी जो स्पष्टरूप से सामने आती है. सन 47 के विभाजन का दर्दलाहौर से जुड़ी यादें और इस दर्द के दंश के बीच मंटोका होना और भी मानीखेज़ है. विश्व-सिनेमा पर सार्थक चर्चा से लेकर भारतीय रंगमंच की गहरी पकड़,नासिरा शर्मा, इरोम शर्मिला से होते हुए तेलगु कवयित्री वोल्गा की कविता में स्त्री-विमर्श और अस्तित्व के संघर्ष, अस्मिता थियेटर और चित्रकला से लेकर नृत्य- नाटक की गंभीर प्रस्तुतियों, दलित और आदिवासी साहित्य तथा समकालीन युवा-पीढ़ी की कविता, साहित्य के नये प्रयोगों पर सार्थक संवाद-विमर्श सभी विषय अंतर्वस्तु के रूप में सजीव होकर पाठकों तक आते हैं. पंजाब,जम्मू-कश्मीर,दिल्ली, मुम्बई की साहित्यिक यात्राएँ-चर्चाएंरवींद्र कालिया,सुमन राजे,सुनीता जैन, विष्णु प्रभाकर, अमृता प्रीतम, महीप सिहं, रोहित वेमुलाको याद करते हुए तथा अग्निशेख्रर की कविताएं,गोविंद निहलानी, सईद मिर्ज़ा से  कश्मीर में सिनेमाके वर्तमान स्वरूपपर चर्चा,समकालीन रचनाकारों-मित्रों पर भी बेबाक बातचीत इस डायरी को विशिष्ट बनाते है. लेखक द्वारा अपने प्रिय मित्र हिंदी और डोगरी के प्रसिद्ध लेखक-फिल्मकार वेद राही को समर्पित यह पुस्तक सभी कला-माध्यमों की गहरी परखकरती है.

अपनी रचना-प्रक्रिया और मानसिकता के विषय में नरेन्द्र मोहन जी का मानना है कि सृजन में उनका अपना स्वतंत्र स्वर, अपना मुहावरा और नज़रिया बहुत महत्व रखता है. जीवन में आत्मस्वीकृतियों और आत्मालोचन करते हुए सीमित पूर्वाग्रहों और भय-आशंकाओं को नकारते,प्रतिकूल समय और परिस्थितियों को, साहित्यिक शत्रुता, इर्ष्या-प्रतिशोध को भी उन्होनें सहा है. इसमें उनका और निंदंर (आत्म) का भीषण द्वंद्व भी बड़ा दिलचस्प है. अपना होते हुए भी दूसरावह बीच-बीच में मुँह उठाए चला आता है- कई स्वरों-सरोकारों से भरपूर यह द्वंद्व ही डायरी का केंद्रीय मेटॉफर है! साहित्यिक सत्ता- संस्थानोंगुटबाजियों, दलबंदियों और गिरोहों के प्रति उन्हे हमेशा विरक्ति रही लेकिन साहित्यिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी किसी विचारधारा से बंध कर नहीं बल्कि जनप्रतिबद्धता, सच की निर्भीक अभिव्यक्ति से रही. सभी अवरोधों और मुश्किलों से जूझते हुए उन्होनें अपनी दृष्टि को एक नई धार दी है. इस जीवन दर्शन की बानगी पुस्तक के इस उल्लेखनीय अंश में देखी जा सकती है-

"लाहौर की नदी रावी को अपने भीतर महसूस करता रहा हूँ मगर यह क्या उस नदी को सूखते हुए देखता हूँ निचाट सूनेपन में अपने भीतर....

 दिल्ली में रहना कोई दिल्लगी नहीं है यारों. आखिर देश की राजधानी है .. रही होगी कभी यह रेशमी नगरी, आज इसकी आन, बान और शान के क्या कहने ! बड़ी बड़ी संगोष्ठियाँ और लोकार्पण यहां होते रहते हैं.किताबों की सबसे बड़ी मंडी. जलते-जलते प्रशंसा करते, हँसते-हँसते छुरा घोंपते हुए लेखकों की यहाँ हज़ारों किस्में हैं और चुप्पी की साज़िश के कहने ही क्या ! उन अदाकारों की बात ही न उठाइए जो इस कला से काटते हैं कि खून का एक कतरा न गिरे और आप लुढ़कते नज़र आएं.

उँचाइयाँ नापी हैं कई बार. झटके से नीचे गिरा हूँ कई बार्. उड़ती-उड़ती पतंग को जैसे कोई खींच ले जाए या काट दे. मैं भी नई से नई पतंग को उड़ाने से बाज़ कहाँ आया हूँ ?

इस दौर में कौन बचेगा ? आसमान को भेदती चीख के साथ गिरेगा-नो मैंस लैंड पर मंटो की तरह या शर्मिला इरोम और विनायक सेन की तरह जेल में झेलेगा यातनाएँ."
  
इस पुस्तक की सृजनात्मक बेचैनी लेखक के लिए एक तरह की सुलगती खामोशी की तरह है  जिसमें खुद से कई सवाल हैं और जो किन्हीं खास क्षणों में सिर चढ़कर बोलती है. जैसे एक पीड़ा, एक पैशन, एक थ्रिल-रोमांच, तलाश जिसे आप रोक नहीं पाते, जिसके बिना न जी पाते हैं न मर पाते हैं. यह डायरी के रूप में एक अंदरूनी स्पेस है - एक भटकाव जहाँ आप एक साथ जीते-मरते हैं. एक सपने को बचाए रखने की कोशिश जो यहाँ सभी कलाओं में साँझी है. साहित्य की किसी भी विधा में लिखते हुए वे इस सपने का, स्पंदन का और अभिव्यक्ति की छटपटाहट का सामना करते हैं. ऐसे कितने ही वाक्य और प्रसंग इस डायरी में बिखरे पड़े हैं जिनमें एक रचनाकार सृजन के एकांत और अपने भीतरी संघर्ष को पाठकों के सामने उजागर कर रहा है. कितनी वेदनाओं, अनुभवों और यात्राओं से गुजरना और उन्हें दर्ज़ करना पड़ता है तब जाकर एक साहित्यिक कृति का जन्म होता है. स्मृतियों के कई बिम्बटिप्पणियाँजीवन के बीहड़ रास्तों की तकलीफें और कभी-कभी इंसान के तौर पर अपने आस-पास को समझने की दृष्टि भी इस डायरी को प्रभावशाली रूप देती है. सशक्त,उत्कृष्ट गद्य-शैली और जीवंत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति इस डायरी को पाठकों के लिए नायाब बनाती है.

आवरण पृष्ठ कलात्मक और प्रतीकार्थ में जीवन और मृत्यु के बीच के संघर्ष में उस आलोक की स्थापना है जो अंधेरों के बावज़ूद क्षितिज़ पर उदित होता है. उपर से सरल दिखते हुए भी इस डायरी के प्रत्येक पल में अतीत और वर्तमान के विस्तार की गहन सघन अंतर्यात्रा है जिसमें गतिशीलता है,प्रवाह है, दृश्य और कलात्मक ध्वनियां हैं,रोचक घटनाओं का कोलाज़ है. एक जरूरी पुस्तक के रूप में समकालीन गद्य में इसके महत्व को तय करती इसी डायरी में मौज़ूद ब्राज़ीली कवयित्री मार्था मेदेरस की संवेदनशील कविता (you start Dying slowly )के माध्यम से भी इसे समझा जा सकता है-

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
करते नहीं कोई यात्रा
पढ़ते नहीं कोई किताब
सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ
करते नहीं किसी की तारीफ
अगर आप नहीं करते हो पीछा किसी स्वप्न का
अगर आप नहीं देते हो इज़ाज़त खुद को
तब आप धीरे धीरे मरने लगते हैं !


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मैं और मेरी कविताएँ (५) : अम्बर पाण्डेय

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Poetry is everywhere; it just needs editing.

 James Tate



समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ मैं और मेरी कविताएँके अंतर्गत आशुतोष दुबे’, ‘अनिरुद्ध उमट, रुस्तमऔर कृष्ण कल्पित को आपने पढ़ लिया है.

आज समकालीन युवा कवियों में चर्चित, प्रशंसित और निंदित अम्बर पाण्डेय को पढ़ते हैं कि आख़िर वे कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कुछ नई कविताएँ भी. अम्बर विलक्षण तो हैं हीं औघड़ भी हैं.

दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं. इस वर्ष रज़ा फाउंडेशन द्वारा वाणी प्रकाशन से अम्बर का पहला कविता संग्रह ‘कोलाहल की कविताएँ’ प्रकाशित हुईं हैं.





मैं और मेरी कविताएँ (५) : अम्बर पाण्डेय                  








मैं कविताएँ क्यों लिखता हूँ
अम्बर पाण्डेय



मेरी कविताएँ फंतासियाँ हैं. जो भी संसार में मैं पा नहीं सका मेरी कविताएँ उनकी सृष्टि करने का प्रयास है. किसी महान आदर्श से संचालित न होकर मेरा काव्यसंसार रत्न, रेशम, मोरपंख, मसाले, ऊद-चन्दन से लदा एक जहाज है जो अतृप्ति के समुद्र पर यात्रा करता है. मेरे लिए सौंदर्य की सृष्टि ही जीवन और जगत में जो भी पाप उसका प्रतिकार है. इसे कोई अधीर पलायन कह सकता है किन्तु पुण्यश्लोक को खोजना प्रतिरोध के असंख्य प्रकारों में से एक ही तो है.

कविता विषय कषाय मन में ही हो सकती है. दूसरी और मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वेदान्ताध्ययन, पूजापाठ, मंत्रों, निध्यासन और स्वयं को भाँति भाँति की यातनाएँ (sort of penances) देकर नष्ट करने के प्रयास  में व्यतीत किया है.

छोटी वय में ही विभिन्न संघर्षों में डाल संसार ने मुझे जैसे बहिष्कृत कर दिया था किंतु जीवन के प्रति संसार के प्रति गाढ़ आसक्ति का बीज मैं अपने साथ ले आया.
उसी बीज से मैंने कविता में उस संसार उस जीवन की प्रतिकृति गढ़ ली- एक प्रकार का प्रतिसंसार. मेरा संसार काल्पनिक है. कुछ लोग, हिंदी भाषा के ही बहुत लोग; उसकी यह कहकर भर्त्सना भी करते है. (आपको तो ज्ञात है ही.)

यह संसार उसकी कल्पना है जो संसार में रहना चाहता था किंतु इस संसार ने ही उसे निष्कासित कर दिया- a type of unrequited love for the normal life which i couldn't  afford.

आश्चर्य नहीं कि मेरी कविताएँ और गद्य का बहुत सारा भाग अतीत में विचरण करता है क्योंकि मेरे लिए वर्तमान में कविता सम्भव ही नहीं.  सूज़न हाउ ने हेनरी जेम्स के विषय में कहीं लिखा है,

“But Henry James is - profoundly so (comforting). Because he is tender. The tenderness is there in the structure of the sentence. He knows the way the poor and the dead are forgotten by the living, and he cannot allow that to happen. So he keeps on writing for them, for the dead, as if they were children to be sheltered and loved, never abandoned.”  

मेरी कविताएँ भी मृतकों के लिए ही है. पढ़ते भले उसे जीवित हो मगर वह सम्बोधित उन्हें ही है जो लौटकर नहीं आ सकते, जो भुला दिए गए है. इस संवाद को सम्भव करने के लिए समकालीन भाषा मेरे बहुत काम की नहीं थी, मुझे उसे बहुत तोड़ना पड़ा. समकालीन भाषा की स्मृति बहुत कमज़ोर थी और स्वर्गीयों का स्मरण करने के लिए, उनसे संवाद के लिए स्मृति बहुत बलवान होनी चाहिए. मैं सिनेमा का विद्यार्थी रहा हूँ. पढ़ाई के बाद मैंने देखा कि सिनेमा बनाना बहुत महँगा काम है और जो बातें मुझे सिनेमा के माध्यम से कहना है उसके लिए मुझे बहुत पैसे की ज़रूरत होगी. तब मैंने लिखना शुरू किया.  मैं बहुत देर से लेखक बना और विस्मृति के विरुद्ध जो भाषा मुझे चाहिए थी, वह भाषा मैंने साहित्य से अर्जित नहीं की बल्कि सिनेमा से की. यही कारण है कि विस्मृति के अंधे कुँए में मैं निर्भय भ्रमण करता हूँ.

भाषा और बोलियों के प्रति मेरे मन में लगभग ऐंद्रिक कामना है, मैं बहुत सी भाषाएँ, बोलियाँ, creole और लिपियाँ सीखता रहता हूँ, सीखना चाहता हूँ. क्लासिकल भाषा, स्थानीय बोलियाँ या राजभाषाओं में फ़र्क़ है, मेरे लिए कविता उस फ़र्क़ के अतिक्रमण का भी साधन रही है. देवताओं का creole में अचानक बोल पड़ना, subaltern का देवभाषा में संवाद करना या केवल भाषा का उपयोग करना भर मेरे लिए कविता है. मध्यकालीन केथोलिक दार्शनिकों की तरह मैं भाषा को ईश्वरप्रदत्त भेंट भी मानता हूँ और आधुनिकों की तरह सुदूर इतिहास से अब तक मनुष्यों द्वारा गढ़ा-उजाड़ा जाता अभिव्यक्ति का साधन, यह दोनों जिस गंगासागर में मिलते है वहीं कविता है.

प्राचीन वैयाकरणों ने शब्दब्रह्म के विवर्त को संसार माना, मेरे निकट कविता आधी शब्दब्रह्म में और आधी विवर्त में है. फिर मोन्तें भी लिखने को बहुत (या केवल) गम्भीरता लेने पर चेताता है,

“'Our life consists partly in madness, partly in wisdom,'” he wrote. 'Whoever writes about it merely respectfully and by rule leaves more than half of it behind.' Michel de Montaigne.

जो रचा गया है वह टेक्स्ट तो केवल दीये की तरह है- सोने का हो, मिट्टी का, नया हो या अनेक वर्षों के उपयोग के कारण एकदम काला पड़ गया हो, क्या अंतर पड़ता है क्योंकि जब वह जलाया जाता है तब दृष्टि की ज्योति के अनुरूप ही उससे सब अपना अपना आलोक ग्रहण करते है.
















वसन्त की रातें

दर्शन पढ़ने से अच्छा है कि दर्शन हो तुम्हारे; वसन्त
की इन ऊष्ण होती रातों को. मन में लिए लिए सृष्टि
भटकना ही तुषारपात है. कवि वह कितना अकेला
है, जिसका मन कविता
हो गया है और विषय भी

भीतर है. बाहर न ब्रह्म न बन्धु कोई. तुम्हें देखकर
प्रथम बार मैंने जाना फाल्गुन पंचांग का अंतिम
महीना नहीं, सच में आता है.
दुनिया ढोते मन का भार
उतरा. पत्र पुरातन झड़ गए. कोंपलों से भर
गए पोर पोर. एक से दो हुए. ख़ुद को बाँटकर दो में,
फिर फिर एक होना ही वसन्त है, शहद का छत्ता
है; हाथ तक आता और है
भ्रमरों की भरमार आँखों के
आसपास. डंक मारेंगे यह, इसकी सम्भावना भी.






आसापुरा के आगे खेत और वन दोनों है


धूप बेर के झाड़ों के नीचे सोने के
रंग की नहीं हुई है अभी तक. बेर-बरन
छाँह छाँह बीच सो रही. तिथि से तो नींबू
को पक जाना था अब तक. पर्व से धूप को
नींबू के छिलके की तरह भरना था गन्ध
और स्वाद से. दूर से देखने पर नदी

दर्पण सी चमकती है मगर निकट से नदी
शीतल और शान्त बह रही है. सोने के
गहनों सी सूखी डालें झुकी जल पर, गन्ध
से भरी है हवा; तराशे स्फटिक के बरन-
वाली. धूप सी खालवाले मृग धूप को
खाल समझ ओढ़े हैं. चिड़ी कुतरती नींबू.





इच्छुक

इच्छा का विभुवन औंधा है .
भोगायतन दीवट की भाँति
जर्जर होता गया पर ज्योत 
इच्छा की जगमग रहती है.

दीवट घोड़े की लीद छबा.
दीपक भी है टूटाफूटा,
कज्जल से कालू. बाती ली 
माढ़ फटी कछनी के सूतों
से फिर भी उजियाला जगमग,
जागरित, जी जोड़नेवाला

ही होता है. इच्छा के इस
संदीप का उजेला है यह
जगत. बुढ़ाती देह कामना
वैसी ही है ताजा-तरुणी

आखेट की फिराक में तरुण-
ताजा की. अन्धेर भले हो


बाहर, भीतर दीवट जर्जर.
उज्जवल है तब भी कामना
का कोना.







हाँ, मेरा-उसका लफड़ा था

गंध जापानी चेरी के फूलों जैसी आती है उसकी पीठ की
त्वचा से. कारोबार है बहुराष्ट्रीय इस समय
के. दूर निशिनोमरो वन से बनकर आई है उसके
तरल साबुन की शीशी.
व्यायामशाला में बना हुआ

मेरा शरीर वह अपनी खिड़की से देखती रहती है
क्या अवसन रहने का प्रण लिया है अवसान
तक तुमने?” कवि को प्रेम
करते उसका विनोद हो गया इतना भाषिक. टीशर्ट
उतारकर गेंद बना मैं उसकी खिड़की में फेंक

देता हूँ. गंध उस टीशर्ट में जापानी चेरी की नहीं, गन्ध
है पसीने की और छेद जिन्हें उसने उँगली डाल
जानबूझकर बड़ा कर दिया था. हृदय नहीं त्वचा है
शरीर का सबसे बड़ा अंग और इसी के कारण
सम्भव है प्रेम. तलवों की मृदुल और कसी हुई त्वचा
से स्तनों की त्वचा कितनी भिन्न और तुम्हारी कॉलर

की हड्डियों पर चढ़ी त्वचा कैसे मुड़ती है कंधों में खोती
हुई जैसे अनारफल का छिलका रंग बदलता
जाता है जो हाथों में लेकर उसे घुमाओ तब. सबसे है
कोमल त्रिवली, तुम्हारे कामुक होने का पता मुझे
यही देती है ज्यों लता पर बंधूक खिल जाता है. त्वचा में

तीर के धँसने या चाक़ू घोंपने के अनेक चित्र है
दुनिया के अजायबघरों में मगर अब तक किसी ने
देर तक हृदय स्थान की इसी त्वचा को चूसने के
बाद पड़े धब्बे का चित्र न बनाया, क्या बेधना ही सबसे
सुन्दर जैसे उन्हें बस भीतर तक धँसनेवाला
प्रेम ही श्रेय है जैसे कि स्त्री
और पुरुष के मध्य केवल कामुकता अनैतिक है.





मुक्तिबोध के पीछे सीबीआई

तुम तो बड़े कवि थे मैं हूँ छोटा आदमी
किन्तु हम दोनों डरते रहे देखकर पुलिस.
कविता, दस इंच बाय सात इंच की किताब
में जो लिखी थी हमने अँधेरे के विरोध
में, देखो, वही अँधेरे की बेलें बनकर
फैल गई भीतर. भागते है देख वर्दी.

डिटर्जेंट, मार्क्स, सच से भी हम वर्दी
धो नहीं पाए है. पहना है जो आदमी
इसे, जो इसे देता है- सुथरा है. बनकर
घूम रहा शाह, वज़ीर, मुंसिफ, अफसर, पुलिस
हमलोग चूहे बन गए है अपने विरोध
से खुद ही डरे हुए. क्या कर लेगी किताब!





रोज़ा लक्सम्बुर्ग का शव


“Freiheit ist immer die Freiheit des Andersdenkenden"
(Rosa Luxumburg born: 05/03/1871 Death: 15/01/1919)


भौंहों के बीचोंबीच बंदूक़ की गोली से हुए छिद्र से पानी 
टपकता है कवियों के लिए सबसे सुन्दर दृश्य.

फिर कोई विदेशी इतना विदेशी नहीं होता कि उसके
विचार से प्रेम न किया जा सके. चार मास पुराने
शव की नदी से होती वह भव्य लड़ाइयाँ इतिहास के
विषय और कविता की निराशा ही नहीं है. (पंक्तियाँ
यहाँ की कवि से खो गई है,
यों कवि ने बताया.) मछलियों
ने प्रेम किया चार मास रोज़ा लक्सम्बुर्ग के शव से
नदी में. उस शव को एक दिन अचानक मनुष्य आए
निकाल ले गए. स्वतंत्र चेता मनुष्य का माँस छह
हाथ के गड्डे में ठूँसकर क्या मिलेगा, मछलियाँ सोचती
रही. विचित्र है मनुष्यों की रीतियाँ. अपने सबसे
प्रिय मनुष्यों को बक्सों में क्यों रखते है या किताबों में दोनों
को जबकि नष्ट किया जा सकता है. रोज़ा लक्सम्बुर्ग
को खा अपना भाग बनाया जा सकता था. शून्य से भी कम
तापमान में दिनों तक रोज़ा लक्सम्बुर्ग नदी में खो

चुकी कितनी सुन्दर देती थी दिखाई. राइफ़ल की नली
माथे पर मारने पर विचार नष्ट नहीं होता है.
आँखों के बीच गोली चला भी विचार नष्ट नहीं कर सके
होंगे वह. शव को नदी में ज़ोर से फेंक देने पर
भी विचार बचा रह गया मगर याद रखो विचार है
सबसे कोमल संसार में, प्यार में पड़ी धोबन की
हथेलियों से भी कोमल है.



(२०१९ को रोज़ा लक्सम्बुर्ग की मृत्यु को सौ वर्ष पूरे हो गए.)




  पीछा करना

बीतने दो कुछ वर्ष फिर उसके पीछे पीछे भटकने
की बात याद कर तुम लजाओगे या हँसोगे खूब.
कैसे उसके पीछे मुड़ने पर सिनेमा के अभिनेताओं
की तरह तुम जूते के फ़ीते बाँधने लगते.
पीछे 
सौंदर्य के नष्ट हो जाने में कितना सौंदर्य है यह तुम
मन ही मन जानते हो पर किसी से कहोगे नहीं.

तल्ला कई बार बदला है; उन्हीं जूतों में चल सको पर
फ़ीते धागा धागा हो गए.
धूप में तेज चलना अब
सम्भव नहीं. पीछे पलट वह देखे अचानक फ़्लमिंगो
की तरह तो तुम मुड़
नहीं पाते उतनी जल्दी न
नाटक कर पाते हो उसे न देखने का. पुतलियाँ फँस
रह जाती है सुन्दरता पर, डुलती नहीं,
अकड़ूँ
हो गई है. सौन्दर्य उसका
वैसा ही रहा जैसे कवियों के
मन में चन्द्र की उपमा
रह गई, अब भी नवीन,

अब भी कौंधनेवाली मन में. अंधा करनेवाली उसकी
सुन्दरता, आँखें चौंधिया जाती और कुछ दिखाई न
देता. फ़्लमिंगो जैसे कभी भी उसका पीछे देखने लगना
वैसा का वैसा रहा और नहीं बदली चौराहों पर
बने फ़व्वारों का गंदा पानी पीने की उसकी आदत, वैसी
ही रही प्यास, वैसी ही है ओक से पानी पीने की रीति.

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ammberpandey@gmail.com

कथा-गाथा : क़ातिल की बीबी : तरुण भटनागर

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गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’ (कहानी संग्रह), लौटती नहीं जो हंसी (उपन्यास) आदि के लेखक तरुण भटनागर आदिवासी पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियों के लिए जाने जाते हैं. उन्हें ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, शैलेश मटियानी आदि कथा पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. तरुण भटनागर प्रशासनिक सेवा में हैं.

अपनी इस नई कहानी ‘क़ातिल की बीबी’ में उन्होंने पृष्ठभूमि बदली है. किसी भी कस्बे की तंगगली में यह कथानक घट सकता है.
 


क़ातिल की बीबी                     
तरुण भटनागर



औरत अकेली थी. उसके आदमी का कत्ल हुए चंद रोज गुजरे थे.
       
वह कत्ल न था. वह हादसा था. पर अगर कोई हलाक हो जाये, मर जाये तो लोग ऐसे वाकये को हादसा कहने से कतराते हैं. इस तरह वह वाकया कत्ल कहलाया और वह कातिल.
          
हुआ यूँ था कि पिछले दो-एक बरसों से ज़रीना के आदमी की उसके पडोस से नहीं बन रही थी. संकरी गली में दो दरवाजे खुलते थे, एक ज़रीना का घर और दूसरा पडोसी याने राधा का. ज़रीना के आदमी के पास एक मोटरसाईकिल थी. संकरी गली में वह अपने घर के सामने मोटरसाइकिल खडा करता था. कोई और जगह न थी. घर की देहरी थोडी ऊँची थी. उससे नीचे तक तीन स्टैप वाली सीढी थी. सीढी ठीक दरवाजे के सामने थी. इसलिए मोटरसाइकिल या तो सीढी से आगे रखी जा सकती थी या पीछे. आगे रखने पर उसके आगे का पहिया पडोसी के दरवाजे के सामने आ जाता था. पीछे रखने पर पीछे का पहिया गली के बीच आ जाता था. उसका घर दो गलियों के जोड पर था. इसलिए मोटरसाइकिल को सीढियों से पीछे रखने पर उसका पीछे का पहिया जोड पर जुडने वाली दूसरी गली के बीच तक आ जाता था. यह गली बेहद संकरी थी. इतनी तंगहाल कि जब गली से साइकिल गुजरती तो साइकिल और गली के दोनों तरफ की दीवारों के बीच बस इंच भर की जगह रह जाती. गली से गुजरकर आती साइकिल को देख कोई शख़्स दूर ही खडा रहता ताकि साइकिल गुजर जाये और उसके बाद वह गुजरे. गली इतनी तंगहाल थी कि एक साइकिल और एक शख्स दोनों अगल-बगल से नहीं गुजर सकते थे.
           
ज़रीना और पडोसी याने राधा के घर के दरवाजे लगे-लगे थे. दोनों में गजब का घरोबा था. औरतें हों तो घरोबा हो ही जाता है, फिर क्या तो तंगहाल गली और क्या तो तंगदिल मिजाज़. ज़रीना के घर में दरवाजे से सटा एक कमरा था. कमरे में दो बिस्तर थे, एक के ऊपर एक, जैसे रेल्वे के डिब्बों में बर्थ होती हैं, एक के ऊपर एक ठीक वैसे ही. संकरे कमरे में नीचे वाला बिस्तर दरवाजे के बीच तक आता था. बिस्तर और दीवार के बीच की जगह इतनी कम थी कि बमुश्किल एक शख़्स इससे गुजरता संडास और चैके तक जा सकता था. घर के सामने की गली बाजू वाली गली से थोडी चैडी थी. इतनी चैडी कि साइकिल के बाद भी एक शख़्स के गुजरने लायक जगह बची रहती. गली के ऊपर गली के आकार में पसरा संकरा आसमान था, इतना तंगहाल आसमान कि उसमें बमुश्किल आधे से पौन घण्टे तक सूरज चमकने को आ पाता था. घर के सामने वाली तीन सीढियों के नीचे से पतली सी मोरी थी जिससे गली का निकास होता था.
            
ज़रीना के आदमी की पगार बढ गई थी. पिछले चार सालों से वह पैसे जमा करता रहा था. कुछ पैसे हो गये तो उसने साइकिल की जगह मोटरसाइकिल लेने की सोची. पर तब ख़याल न आया कि उसे रखेंगे कहाँ. मोटरसाइकिल एक ख़्वाब थी. ज़रीना का बेटा आफताब मोटरसाइकिल की बात पर खिल उठता. ज़रीना के गले से लग जाता. मोटरसाइकिल....मोटरसाइकिल चिल्लाता गली में दौडता. ज़रीना का आदमी मोटरसाईकिल के लिए पैसों का हिसाब लगाता. उसे पैसों का हिसाब लगाता देख ज़रीना आफताब को अपने दामन में समेट लेती. पैसों का हिसाब लगाते अपने आदमी को देख वह मुस्कुराती. ज़रीना का आदमी रात-रात भर करवटें बदलता. उसकी नींद नदारत थी. उसे तय करना था कि मोटरसाइकिल कौन से रंग की खरीदी जाये. इस तरह उसे नींद न आती थी. सारी रात बीतती जाती. ऊपर के बिस्तर पर सोते, करवट बदलते आदमी की आवाज़ से ज़रीना भी सो न पाती. वह उठ जाती. अपने आदमी के सिर पर अपना हाथ फेरती. वह उसे चूमता. इस तरह यह ख़याल न आया कि जब मोटरसाइकिल आयेगी तो उसे कहाँ टिकायेंगे.
          
ज़रीना के आदमी को लगता कि पडोसी याने राधा का आदमी उसकी मोटरसाईकिल से रश्क खाता है इसलिए उसे उसके घर के सामने से हटाने की बात कहता रहता है. दोनों का पडोस बाईस साल पुराना है. इतना घरोबा रहा है कि बेहद संकरी गली की जहालत भरी तंगहाली में भी जरा सी कोई कमी न लगती थी. प्यार हो तो हर जगह किसी खुले नख़लिस्तान सी हो जाती है और फिर रेत के दरिया में शीशे सी चमकने लगती है. दोनों घरों की औरतों याने राधा और ज़रीना ने आपस की इस मोहब्बत को और परवान चढाया था. पर अब, इधर कुछ दिनों से एक अजीब सी ख़ामोशी, एक नश्तर सा अबोलापन, एक बेदिल सा रंज, एक अजनबी सी तन्हाई....पैर पसारने लगी है. 
           
इतना बैर रखना ठीक है क्या - कभी ज़रीना अपने आदमी को कहती. कुछ बातों की वजहें समझ नहीं आतीं. वैसी ही यह बात भी थी. राधा के आदमी ने एक बार भी ज़रीना के आदमी की नई मोटरसाइकिल की ओर देखा तक नहीं था. देखना तो दूर उसकी फितरत से लगता मानो उसे पता ही न हो कि ज़रीना के आदमी ने नई मोटरसाइकिल खरीदी है. सारा मोहल्ला जानता है. फिर जो पडोस है, बरसों का आबाद और चहेता पडोस उसे भला कुछ भी पता न हो. ऐसा कैसे हो सकता है ? आखिर क्या बात है ? पहले तो लगा कि सिर्फ बेरुखी है, पर फिर उसमें से एक किस्म के रंज की बू भी आई. एक किस्म की बेदिली की धमक. कोई शिकवा शिकायत हो तो उसे जाहिर भी तो किया जा सकता है - ज़रीना अपने आदमी को कहती. इधर राधा का आदमी जो चाहता था वह मुनासिब न था. तंगहाल गली में मोटरसाईकिल को रखने कोई जगह न थी. ज़रीना का आदमी मोटरसाईकिल टिकाये भी तो कहाँ? एक दिन फ़साद इतना बढा कि पडोसी याने राधा के आदमी ने कह दिया कि वह ज़रीना के आदमी की मोटरसाईकिल गिरा देगा. उसे चकनाचूर कर देगा. उस दिन ज़रीना और उसका आदमी घबरा गये थे. राधा के आदमी का चेहरा लाल-पीला हो रहा था. राधा ने उसे घर के भीतर खींचा था. फिर उसे पीने को पानी दिया था. उसकी पीठ पर हाथ रखा था.
             
राधा अपने आदमी के गुस्से की ठीक-ठीक वजह जानती है. पर कहे भी तो किसे? आदमी के गुस्से की वजह कहने का शऊर भी कहाँ है ? आदमी के गुस्से की वजह का बख़ान करना बडी बेअदबी है. एक निहायत ही कमज़र्फ़ किस्म की हरकत. अब तो उसने अपने आदमी से पूछना भी छोड दिया है - कहाँ गये थे, कोई काम मिला क्या .....वह अब यह भी नहीं कहती कि देखना एक दिन सब ठीक हो जायेगा. कोई कब तक कहे कि देखना एक दिन सब ठीक हो जायेगा. राधा ने कई-कई दिनों तक कहा, पर जब पूरे दो साल बीत गये तो उसने भी कहना छोड दिया. उम्मीद का दामन बेहद फिसलन भरा है, उसे थामना एक किस्म की दगाबाजी करना है खुद से भी और वक्त से भी. उसने कई-कई बार कहा - सब ठीक हो जायेगा, देखना एक दिन..... एक दिन यह कहते हुए उसकी आँखें भीग आई थीं - सब ठीक हो जायेगा, देखना एक दिन....एक दिन तुम्हें काम मिल जायेगा....फिर उसने चुन्नी से अपनी नाक पोंछी और आदमी के लिए रोटी लाने को उठी तो आदमी ने उसे अपने पास खींच लिया, फिर उसकी गोद में अपना सर रख दिया मानो राधा उसकी औरत न हो उसकी माँ हो और फिर सुबक-सुबक कर रो दिया, राधा चुपचाप उसके सर पर अपना हाथ फेरती रही, आदमी का सुबकना उसे भीतर तक काट रहा था, पर वह एकदम खामोश बनी रही, किसी बुत की तरह और उसका सिर सहलाती रही....
             
उस रात ज़रीना के आदमी ने मोटरसाईकिल सीढियों के दूसरी तरफ खडी की थी. मोटरसाईकिल का पीछे का पहिया मोड वाली संकरी गली के बीच तक आ गया था. उसे एक बारगी यह भी ख़याल आया था कि सीढियों को तोड डाले. घर की देहरी इतनी ऊँची थी कि घर में घुसने के लिए वहाँ कुछ न कुछ रखना पडता. सीढी को तोडने से मोरी भी टूटती थी और इससे घर में संडास का गंदा पानी भर सकता था. संडास के गंदे पानी से घर को बचाने के लालच में वह सीढी को तोडना नहीं चाहता था. फिर उसका अंदाज़ था कि सीढी टूट जाने पर भी मोटरसाइकिल के आगे के पहिये का करीब आधा हिस्सा राधा के घर के सामने आ ही जायेगा. उसने पल भर को इधर-उधर नज़र घुमाई. हर तरफ तंगी, संकरापन, हर इंच पर एकदम कम से कमतर जगह..... ऐसा नहीं है कि उसने जगह की तलाश नहीं की. पर दूर-दूर तक कोई जगह न थी. लोग कहते कि आबादी बढ गई है सो जगह कम पडती है. दो गली छोडकर रहने वाला एक बुजुर्ग कहता कि आबादी तो उतनी ही है बस ज़मीन कम हो गई है, घरों में भी और दिलों में भी. पता नहीं क्या है कि जगह नहीं है?
                
उस रात ज़रीना का आदमी रात भर बिस्तर पर कसमसाता रहा. गली से रात बेरात जब कोई गुजरता तो जोर-जोर से चिल्लाता - अबे किसकी मोटरसाईकिल है ये, इसे हटाओ.....कोई साईकिल वाला जोर-जोर से घण्टी बजाता, कोई साइकिल सवार मोटरसाइकिल के पास अपनी साईकिल टिका मोटरसाईकिल वाले को लानत सलामत सुनाता..... ज़रीना के आदमी को रात को पंद्रह-बीस बार उठना पडा. पूरी रात जागते-जागते ही गुजरी. अगली रात भी इसी तरह गुजरी. पूरे दिन की मेहनत भरी थकान के बाद भी वह जागता रहता. कभी झपकी लग जाती तो ज़रीना उसे उठाने के लिए झकझोरती. एक बार देर रात उसने नींद के लालच में मोटरसाईकिल फिर से सीढियों के आगे याने पडोस याने राधा के घर के दरवाजे के सामने खडी कर दी. पता नहीं क्या था कि राधा का आदमी जगा हुआ था. इतनी रात को भी जगा हुआ था. ज़रीना के आदमी को पता न था कि पडोसी रात-रात भर जागता रहता था. उसकी नींद बेचैनियों के कब्रिस्तान में दफन हो चुकी थी. पडोसी के कान उसके दरवाजे के सामने की सीढियों पर होते. उस रात भी मोटरसाईकिल के स्टैण्ड की आवाज उसे सुनाई दे गई थी. पल भर बाद हल्ले-गुल्ले से ज़रीना के आदमी की नींद खुल गई. राधा के आदमी की तेज-तेज चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी. उसकी गालियाँ संकरी गली में गूँज रही थी. उसके बजबजाते लफ्जों से देर रात का आसमान कंपकंपा रहा था. बीच-बीच में राधा की आवाज़ भी आती थी. लगता था जैसे वह अपने आदमी को समझा रही हो. पर उस पर मानो रंज और बदले की भावना काबिज़ थी. वह आपे से बाहर हुआ जा रहा था. ज़रीना के आदमी ने घर का दरवाज़ा खोला, डगमगाता सा मोटरसाईकिल पर बैठा, मोटरसाईकिल स्टार्ट की और फुर्र हो गया. पडोसी की गालियाँ और ज़रीना की डबडबाई खौफज़दा आँखों ने पल भर को उसका पीछा किया. फिर मोटरसाइकिल के पीछे की लाल लाईट अंधेरे में गुम हो गई. वह उस रात घर न आया. वह अगली रात भी न आया. रात भर बिस्तर पर पडी ज़रीना करवटें बदलती. उसने घर का दरवाजा भीतर से बंद कर रखा था. दरवाज़ा बंद हो तो सुकून रहता है. उसका दिल डूबने लगता. उसे तरह-तरह के ख़याल आते.
                 
सामने की गली क्या इनके बाप की है? हर किसी का हक उसके घर के दरवाजे़ तक होता है . उसके बाहर नहीं.
              
तीसरे दिन घर लौटे ज़रीना के आदमी ने खाना खाते हुए कहा. उसने पी रखी थी. वह कम ही पीता था. पर आज टुन्न होकर आया था. वह जोर-जोर से कह रहा था - हरामी अपने को समझता क्या है. गली क्या इसके बाप की है.ज़रीना उसे चुप होने को कहती पर वह कहता जाता. गालियाँ बकता. दुश्नाम लफ्ज़ों की झडी लगा दी थी उसने. पडोसी याने राधा का आदमी बिस्तर पर कसमसा रहा था. राधा उसका हाथ पकडे उसे शांत रहने को कह रही थी. जब वह उठने को हुआ तो उसने अपने आदमी के पैर भी पकडे कि वह लेटा रहे चुपचाप. पर उसने राधा को झटक दिया और घर का दरवाज़ा खोल बाहर आ गया. ज़रीना का आदमी तीन रातों से सोया न था. पर उसे पता न था कि राधा का आदमी तो पिछले दो सालों से नहीं सो पाया था. उसके ऊपर हजारों का कर्ज आन पडा था. उसकी देहाडी जाती रही थी. कभी घर में एक वक्त के खाने के पैसे भी न होते. अक्सर उसका मन उचाट हो जाता, दिल डूबने लगता और मन एकदम से खाली हो जाता....जैसे कोई एकदम से पानी भरा बर्तन लुढका दे उसका सारा पानी बितर जाये ठीक वैसा ही खाली. उसकी औरत याने राधा उसे अपनी बाहों में भर लेती. उसे लगता उसे ठीक लगेगा पर उसकी बाहों में उसका मन और...और खाली होता जाता.....वह अपनी औरत को झटक कर खडा हो जाता. घर का दरवाजा खोलता. दरवाजे के सामने मोटरसाईकिल का पहिया टिका होता. वह मोटरसाईकिल पर थूकता, उसे अपनी लात मारता - हटा इसे नही ंतो इसे गिरा दूँगा, चकनाचूर कर दूँगा - वह चीखता सा गुर्राता. उसकी औरत उसकी बाहें पकडने की बेजान कोशिश करती - सुनो तुम अंदर आओ, रहने दो.....जाने दो - वह औरत को धक्का देता, देहरी के भीतर घुटनों पर बैठी राधा उसका चीखना, गुर्राना सुनती, तंगहाल गली बजबजाती गालियों से भर जाती, वह चीखता, धमकाता और बुरे-बुरे लफ्जों में ज़रीना के आदमी को ललकारता..... राधा डरती. वह प्रार्थना की कोई इबारत बुदबदाती. वह जानती थी कि उसका आदमी कितने ख़ौफनाक गुस्से में है. वह उस गुस्से की माकूल वजह जानती थी. उसकी घबराई आँखें फैल जातीं.  वह अपने आदमी को घर के भीतर खींचने की बेजान कोशिश करती.
        
इस तरह अक्सर झगडा होता. सारी दुनिया खुद में मगन होती और राधा का आदमी और ज़रीना का आदमी झगडते. कुछ तमाशबीन जमा हो जाते. पर झगडा ज्यादा बढ न पाता था. झगडे में ज़रीना का आदमी कमज़ोर पडता था. वह कभी अपनी मोटरसाईकिल को आगे पीछे करता, तो कभी अपने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लेता. अपने घबराये अब्बू को आफ़ताब फ़टी-फ़टी आँखों से देखता. ज़रीना आफ़ताब को सुलाने की बेजान सी कोशिश करती. गली में राधा के आदमी की चीख और गालियाँ गूँजती. गली के खिडकी दरवाजे बंद रहते. गली का सन्नाटा वैसा ही बना रहता. कभी ख़ौफ के कारण आफ़ताब की उंगलियाँ काँपती तो कभी वह ज़रीना के दामन में छिप जाता. रात बहुत मनहूस लगती. वह बहुत धीरे-धीरे गुजरती.
     
पर आज?
     
आज ज़रीना के आदमी ने पूरी बेशरमी और इत्मिनान से पडोसी के दरवाजे के सामने मोटरसाईकिल टिकाई थी और पिछले पूरे एक साल की भडास उसकी ज़बान से दहाडती हुई निकल रही थी- .....गली तेरे बाप की है बे..... ज़रीना ने उसका हाथ थाम रखा था. आफ़ताब की आँखों में ख़ौफ के आँसू थे.
      
तभी पडोसी का दरवाज़ा खुला. उसकी लात से मोटरसाईकिल गिरने की आवाज़ आई. अपने आदमी को रोकती हुई राधा का कातर स्वर सुनाई दिया. इधर ज़रीना ने भी अपने आदमी को पकड रखा था. पर वह उससे खुद को छुडाकर बाहर निकल आया. उसकी शर्ट का एक बटन टूटकर ज़रीना के हाथ में रह गया - तेरे बाप की है क्या बे. अपने आदमी का हाथ पकडे राधा की कातर चीख़ सुनाई देती थी - छोडो,छोडो....जाने दो न...जाने दो...ए जाने दो न.... पर वह उसे दीवार पर धक्का मार बाहर आ गया था. राधा के आदमी और ज़रीना के आदमी के भिडने की आवाज़ आती रही थी, मोटरसाइकिल से टकराने की, दीवार पर रगड खाने की, ज़मीन पर गिरने की, गालियों, गुर्राहटों और चीखों की आवाज़ जिसमें राधा की कातर चीख़ भी शुमार थी - अरे कोई रोको...कोई बचा लो, रोको...रोको इनको - आफ़ताब के चिल्ला-चिल्ला के रोने की आवाज़ के साथ- साथ. राधा के आदमी के हाथ में एक लोहे का सरिया था जो उसने ज़मीन पर पडे ज़रीना के आदमी के पेट के आर-पार कर दिया था. फिर उसे जोर की लात मारी और गंदी-गंदी गालियाँ देता भाग खडा हुआ. डर के मारे राधा ने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया.
      
शराब के नशे में धुत ज़रीना के आदमी को पहले तो कुछ समझ न आया. पर जब तक समझ आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी. पेट में धंसे ख़ून से सने लोहे के सरिये को हाथ से पकडे वह चीख़ता रहा. उसका ख़ून सारी गली में बिखरा था. ख़ून की एक मोटी धार बहकर गंदे पानी के मोरी में गिर रही थी. उसका सिर थामे ज़रीना जोर-जोर से चीख रही थी. गली के बीच खडा आफ़ताब दहाडें मार-मार कर रो रहा था. रात के दो बजे थे. चित्कार और रोना पीटना सुनकर एक घर की खिडकी खुली थी.पल भर को और फिर बंद हो गई थी. एक घर के दरवाजे की संद से छिपकर झाँकता एक आदमी यह नज़ारा देख रहा था, चुपचाप. एक घर के अंधेरे में बैठे दो शख़्स चुपचाप रोने, बिलखने और चिल्लाने की आवाजें सुन रहे थे. एक खिडकी थोडा देर से खुली थी. उससे झाँकते शख़्स ने स्ट्रीट लाईट के नीचे खून से लथपथ आदमी और उसकी बिलखती औरत और बच्चे को पल भर को देखा था. फिर दूसरे ही पल उसने हल्की सी अंगडाई ली और धीरे से खिडकी को बंद कर दिया.
          
राधा का आदमी भाग गया था. वह फिर न लौटा.
          
राधा ने घर का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया था. अच्छे से बंद कर लिया था. वह सारी रात दरवाजे से सटी खडी रही. वह कई दिनों तक घर से बाहर न निकली.
           
राधा को रात बे रात ज़रीना के रोने की आवाज़ें सुनाई देतीं. कभी लगता मानो ज़रीना और आफताब दोनों रो रहे हैं. दोनों के घरों के बीच बस एक दीवार थी. दोनों के घर इतने करीब थे कि राधा को कभी यह भी लगता मानो आफताब ज़रीना की छाती से लगा रो रहा है या उसने रोते-रोते आफताब को बस अभी अपनी छाती से लगा लिया है. कभी देर रात ज़रीना के सुबकने की आवाजें सुनाई देतीं. कभी अजीब सी ख़ामोशी की आवाजे़ं आतीं. कोई तन्हाई रात भर शोर करती. कभी सुबुकने, आँख-नाक पोंछने, मुँह दबाकर सिसकने, चुपके-चुपके रोने की आवाज़ें इस तरह आतीं मानो आवाजे़ं न हों कोई ख़ौफनाक सी चुप्पी हो. राधा रात-रात भर दीवार को भेदकर ज़रीना के कमरे से आती इन आवाज़ों को सुनती. दोनों घरों के बीच एक ईंट वाली एक कमज़ोर कच्ची दीवार थी जिसके आर-पार आवाज़ें आती-जाती रहती थीं. कभी दोनों घरों में ऐसी मोहब्बतें थीं कि दीवार के पार भी वे बातें कर लिया करते थे. दीवार के एक तरफ से राधा कहती और दूसरी तरफ से ज़रीना. लगता था वह दीवार बेमानी थी. उस दीवार के आर-पार इस तरह से बातचीतें हो जाती थीं कि लगता था मानो दो घर एक जान हों.
           
राधा, ज़रीना से कहना चाहती थी कि तुम यकीन करो मैंने अपने आदमी को रोका था - वह कहना चाहती थी कि तुम यकीन करो एक दिन जब वह गाली दे रहा था मैंने अपने आदमी के मुँह पर अपनी हथेली रख दी थी. मेरी ताकत उससे ज्यादा होती तो वे हथेलियाँ उसी तरह से उसके मुँह को कसे रखतीं और गालियाँ उसके मुँह से बाहर न निकल पातीं. तुम यकीन करो. पर चाहने से क्या होता है? राधा के आदमी ने ज़रीना के आदमी का कत्ल किया था. इस तरह वह ज़रीना के दर्द में शामिल न हो सकती थी.
          
तंगहाल गली में बंद राधा के घर के दरवाज़े पर लोगों की भौंहें तन जाती थीं. दो रोज पहले पुलिस का एक आदमी आया था. उसने बडे वहशियाने तरीके से उसके दरवाज़े पर दस्तक दी थी. राधा ने दरवाज़ा न खोला था. हादसे की रात को जो लोग घरों में दुबके थे, वे सब लोग बाहर आ गये थे. उनमें से एक पुलिसवाले के साथ राधा को गाली देता हुआ उसके दरवाज़े को पीट रहा था - क़ातिल की बीबी. दरवाज़ा खोल. दरवाज़ा खोल.गली के उस आदमी ने जिसने कत्ल का सारा नज़ारा देखने के बाद उस रात जम्हाई लेते हुए खिडकी बंद कर ली थी, उसी ने राधा के घर के दरवाजे पर चिल्लाते हुए एक पत्थर फेंका था. दरवाजे़ के भडभडाने, कुण्डी के बेतहाशा टिनटिनाने और भडाम-धडाम की आवाज़ से राधा का कलेजा काँप उठा. ख़ौफ से उसकी आँखें भर आईं थीं.
         
वह देर रात थी. जोर का पानी गिर रहा था. राधा चुपचाप लेटी थी. पानी का शोर था. नींद गायब थी. तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई थी. उसी शख़्स को जिसने हादसे वाले दिन पल भर को खिडकी खोलकर बंद कर ली थी, उसे भी वह दस्तक सुनाई दे गई थी. बारिष के शोर के बाद भी उसे राधा के घर के दरवाजे पर हुई वह दस्तक सुनाई दे गई थी. राधा को इस पल का इंतज़ार था. उसका आदमी लौट आया था. उसने दरवाजा खोला और सामने खडे अपने आदमी से चिपक गई. खिडकी वाला आदमी रात के तीन बजे भी यह सब देख रहा था. राधा पल भर को अपने आदमी को पहचान न पाई थी. बिखरे बाल, धंसी आँखें, बढे नाख़ून, गले तक दाढी, पसीने की गंदी बू और चेहरे से लेकर घुटनों तक सारे शरीर को ढंका गीला कंबल. आदमी भूखा था. राधा ने चुपचाप उसके लिए खाना बनाया था. खाना बनाते समय उसकी आँखों में आँसू थे. अपने आँसू पोंछ, गर्दन घुमाकर, खाना बनाते-बनाते उसने अपने आदमी को देखा था. फिर मुस्कुराई थी. आदमी के चेहरे पर कोई भाव न था. वह काठ की तरह से चुपचाप बैठा था. जाने क्या तो उसके जेहन में चल रहा था. बाहर रह-रह कर बिजली कौंधती थी. गली में गिरते पानी के परनालांे का शोर बढ गया था.
          
खिडकी वाले शख़्स ने पुलिस को इत्तिला दे दी थी. पुलिस सुबह होने से पहले ही आ गई थी. राधा के आदमी को जब वह उठा ले गई तब वह राधा की बाहों में था. रात को राधा के जिस्म से चिपके राधा के आदमी को पल भर को लगा था मानो कहीं कुछ भी न हुआ हो और अब सबकुछ ठीक हो गया हो. राधा अपने आदमी के पीछे-पीछे पुलिस की गाडी तक गई थी, मशीन की तरह से चलती, एकदम काठ. एकदम बुत. फटी-फटी आँखों के साथ. अपलक. बहुत से घरों की खिडकियाँ खुली थीं. हर कोई इस नज़ारे को देख रहा था. अपने आदमी के हाथ में हथकडी देख राधा के भीतर एक भूचाल सा आ गया था. वह पुलिसवाले के पैरों पर गिर गई थी. जैसे कोई हरा भरा दरख़्त गिरता है, ठीक वैसे ही. रोती-बिलखती. पर जैसे कहीं कोई न था. पुलिस उसके आदमी को ले जा रही थी. वह पुलिस के पीछे-पीेछे चलती रही थी. तमाम गलियों के पार सडक पर पुलिस की गाडी खडी थी. वह फटी-फटी सी आँखों में आँसू भरे पुलिस की गाडी को जाते हुए, दूर रोड पर मुडकर रात के अंधेरे में खोता हुआ देखती रही थी.
       
ज़रीना ने भी चुपचाप दरवाजे की संद से यह नज़ारा देखा था. फिर वह बिस्तर पर आफ़ताब के पास सरक आई थी.
        
उस दिन के बाद से राधा ने अपने घर का दरवाज़ा बंद न किया था. उसके घर का दरवाज़ा अपने वक्त पर खुलता. दरवाज़ा अपने वक्त पर बंद होता.
         
ज़रीना के आदमी के कत्ल को आठ माह गुजर चुके थे. उसने मोटरसाइकिल बेच दी थी. आफ़ताब आखरी बार मोटरसाईकिल पर बैठने की ज़िद पकडे था. ज़रीना ने उसे मोटरसाईकिल पर बिठा दिया था. उसके मुस्कुराते चेहरे को देखकर वह भी मुस्कुरा उठी थी. आज से तीन साल पहले की बात होती तो राधा भी उन दोनों के पास आ खडी होती. आफ़ताब को गोदी में उठाकर चूम लेती. ज़रीना के कंधे पर अपना हाथ रख देती. पर जैसे सबकुछ एकदम से नेस्तनाबूत हो गया था. वह ज़रीना के आदमी के कातिल की बीवी थी. वह आफ़ताब के अब्बू के कातिल की बीवी थी. वह छिपकर उन दोनों को देखती रही थी.
         
उस रात ज़रीना के कमरे तक दीवार को पार करती राधा के सुबुकने की आवाज़ आती रही थी. राधा मजबूत दिल की औरत थी. ज़रीना को पता था. वह कभी भी हिम्मत न हारती. हमेशा हँसती मुस्कुराती. वह बहुत बातूनी थी. तरह-तरह की बातों का खजाना उसके पास था. सारे मुहल्ले में उसके चहकने की आवाज़ें आती रहती थीं. पर उस रात उसके कमरे से आती तन्हाईयों की आवाज़ों में एक अजीब सी ख़ामोशी सुनाई देती थी. जो बहुत बोलता रहा है, हँसता चहकता रहा है उसके कमरे से आती मनहूस सी चुप्पी की सदा न जाने कैसी तो ख़ौफनाक लगती है.
         
उस रात बहुत सी बातें उस एक ईंट वाली उस कच्ची दीवार के आर-पार दोनों के कमरों से गुजरती रहीं. तमाम पुरानी बातें. मुहब्बतों के तमाम किस्से. राधा के कोई औलाद न थी. जब आफ़ताब हुआ तो राधा ने ही उसे सबसे पहले अपनी गोद में लिया था. उन दिनों जब आफ़ताब बहुत छोटा था, तब दोनों का सारा-सारा दिन आफ़ताब के साथ गुजर जाता. करने को कुछ ख़ास न था और इस तरह करने को बहुत से काम थे. चैके से उठती कोई जतनभरी गंध थी, तो बिस्तर पर लेटकर सुनी जाती कोई गप्प. कोई चुहलभरी ठिठोली थी, तो कोई पूरे मोहल्ले को गुँजाता बहुत मासूम सा ठहाका. वक्त ऐसे गुजर जाता मानो अभी तो दिन निकला हो.....पर इससे क्या होता है? यादें कोई ऐसा मरहम तो नहीं हैं न जो मौत का घाव भर दें. उनको याद कर तकलीफ होती है.
        
एक दिन बाजार में दोनों टकरा गईं. पता नहीं क्या था कि आफ़ताब को देखकर राधा मुस्कुरा दी. आफ़ताब ज़रीना के दामन से चिपक गया. ज़रीना ने पल भर को राधा को देखा और आफताब का हाथ पकड वहाँ से जाने लगी. जाने से पहले पल भर को दोनों की नज़रें मिलीं थीं - एक के आदमी का कत्ल हुआ था और दूसरे के आदमी को सारी जिंदगी के लिए कैद - शीशे में चेहरा देखो तो मानो दोनों के चेहरे एक से हों.
      
पर फिर भी जो था वह कुछ इस तरह था कि जाने के लिए मुडते हुए, आफताब का हाथ पकडते-पकडते ज़रीना ने उससे कहा था - अब हमारा साथ नामुमकिन है.
                    
हमारा लंबा साथ रहा है.
        
एक झिझक के साथ राधा के लफ्ज ज़रीना पर लपके थे.
                    
मैंने कहा न उस बारे में अब कोई बात नहीं.
        
राधा ने उसके सामने अपनी हथेली खोल दी थी. राधा की हथेली में कट का, घाव का एक गहरा निशान था. उसकी छोटी उंगली का एक पोरवा गायब था. ज़रीना ने पल भर को राधा की हथेली के ज़ख़्म के लंबे गहरे निशान और कटी उंगली वाली उसकी हथेली को देखा. चार साल पुराना कोई दिन होता तो वह उसकी हथेली अपने हाथों में थाम लेती. पर अब भी जैसे कुछ है जो ख़त्म नहीं होना चाहता. सब कुछ मिट भी कहाँ पाता है. ग़र घरोबा रहा हो, मोहब्बत रही हो और धडकने को आतुर कोई बेज़ार सा मन हो तो - अरे क्या हुआ ? - उसने हठात पूछा.
                      
हादसे वाली उस रात मैंने वह सरिया पकड लिया था. मुझे पता था कि मेरा आदमी बहुत गुस्से में है. वह बुरी तरह से मेरे हाथ से सरिया को छुडा रहा था. मैं सरिया को अपनी मुठ्ठी में पकडे थी. उसके सिर पर ख़ून सवार था....फिर उसने झटके से वह सरिया मेरी मुठ्ठी से खींच लिया....मैं गिर पडी थी.
        
कहते हुए राधा ने मुस्कुराने की बेजान सी कोशिश की. ज़रीना को अपनी मुठ्ठी में भिंची अपने आदमी की शर्ट का अहसास हो आया. गंदी गालियों और बजबजाते लफ्जों के साथ उसकी मुठ्ठी में उसके आदमी की शर्ट के टूटे बटन का अहसास जज़्ब हो गया. उसने झिझकते हुए राधा की हथेली पर अपनी उंगलियाँ रख दीं. उसकी कटी उंगली पर अपनी उंगली रखते उसके होंठ काँप उठे मानो अभी-अभी राधा ने चीख़ते गुर्राते गालियाँ बकते अपने आदमी के मुँह पर रख दी हो अपनी हथेली, जैसे गालियाँ देते घर से बाहर निकलते आदमी को अब भी भीतर खींचती हो ज़रीना की कमजोर बाँहें.....
                     
बात मोटरसाईकिल की नहीं थी. जिन गलियों में जगह ही न हो वहाँ जगह का क्या झगडा ज़रीना.....
         
अबकी बार उसने ज़रीना की डबडबा आई आँखों में झाँक कर कहा. उसका दिल किया कि वह यह भी कह दे कि उसका आदमी ऐसा बुरा न था. आदमी की दिहाडी अगर चली जाये. अपनी औरत को अगर वह दो जून की रोटी भी न खिला पाये तो वह ऐसा हो ही जाता है. उसने अपने आदमी को खूब प्यार किया था. पर जो गरीबी होती है वह भी भला कभी प्यार से धुल-पुंछ पाई है. पर वह यह न कह सकी. उसने इस बात को किसी और तरह से कहा - गरीब ही गरीब का कातिल हो जाता है....है न.ज़रीना ने अपनी आँखें पोंछी और उसकी बात पर हाँ में सिर हिलाया.
           
वे अक्सर टकरा जातीं. दिन बीत रहे थे. अब दोनों की बातें हो जाती थीं. घर के बाहर बाजार में वे एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेतीं. राधा आफ़ताब के सिर पर हाथ फेरती. आफ़ताब उसे देख मुस्कुराता.
           
एक दिन राधा ने ज़रीना को कहा था - सारी दुनिया तो बेगानी ठहरी. ज़रीना को उसके आदमी के कत्ल के वक्त अपने-अपने घरों की खिडकियाँ बंद करते लोग दीख गये. उसे पल भर को वह नज़ारा दीख गया. इत्मिनान से खिडकी बंद कर घर के भीतर सो जाने वाला वह शख़्स भी उसे पल भर को दीखा.
                   
हम फिर से उन पुराने दिनों की शुरुआत कर सकते हैं.
                   
नहीं यह अब मुमकिन नहीं.
                   
 ‘ क्यों ?’
             
ज़रीना को पल भर को वह शख़्स दीखा जिसने उस दिन गुर्राते हुए गालियाँ देते हुए राधा के घर के दरवाजे पर पत्थर फेंका था. नफरत से भरे चेहरे पर रंज और गुस्से की कैसी-कैसी ख़ौफनाक लकीरें लिये वह चीखता था - कातिल की बीवी. वह कहना चाहती थी कि वे दोनों एक बेहद खतरनाक दुनिया में रहती हैं. पर उसने इस बात को किसी और तरह से कहा - लोग क्या कहेंगे ? क्या कहेंगे राधा ?
                 
क्या कहेंगे ?’
                
 ‘ यही कि मैं अपने आदमी के कातिल की बीवी की दोस्त हँू.
                  
हम कुछ ऐसा करेंगे कि दुनिया को पता न चल पाये.
             
ज़रीना मुस्कुरा दी थी. उसे पता था कि राधा अगर कह रही है तो जरुर कुछ न कुछ वह कर जायेगी.
              
राधा के घर से चूना, रेत और ईंट के टुकडे निकलते रहे. उनका एक ढेर उसके घर के सामने जमा हो गया. गली के लोगों को पता चला कि राधा के घर में मरम्मत का कोई काम चल रहा है. उस दीवार में, उसी एक ईंट वाली कच्ची दीवार में जो उन दोनों के कमरों के बीच थी, उसी दीवार में एक दरवाजा बनता रहा, उसी दीवार में जिसके आर-पार दोनों औरतों की ख़ामोशी और रोना सुनाई देता था. दोनों इस संकरे दरवाजे़ से एक दूसरे के कमरे में आ जाया करती थीं. एक रात राधा ने ज़रीना के कंधे पर अपना सिर रखकर कहा था - कभी तुझसे लिपटकर रोने का मन करता है - ज़रीना ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया था.
          
गली के लोगों को कभी पता नहीं चला कि ज़रीना अपने आदमी के क़ातिल की बीबी से रोज ही मिल लेती थी.
______________   


तरुण भटनागर

tarun_bhatnagar2006@hotmail.com

          

सबद भेद : दस्तंबू : सच्चिदानंद सिंह

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रखियो 'ग़ालिब'मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़ l
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है ll


महाकवि ग़ालिब का ‘दस्तंबू’ जिसे १८५७ के महाविद्रोह की डायरी कहा जाता है, अदब के लिहाज़ से मानीखेज़ तो है ही ढहते हुए पतनशील सामंती सल्तनत और हिंदुस्तान में स्थापित होते हुए औपनिवेशिक शासन के दोराहे पर खड़े एक सचेत लेखक और बुद्धिजीवी की कशमकश का आईना भी है. जिसे हम भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम कहते हैं वह इस महाकवि के लिए बलवा भर था.

क्या उर्दू क्या हिंदी ? चाहे ग़ालिब हों या भारतेंदु.  इन भाषाओँ के प्रतिनिधि बुद्धिजीवी और लेखक कमोबेश औपनिवेशिक शासन के समर्थक थे और उसकी न्याय व्यवस्था के प्रशसंक भी.


सच्चिदानंद सिंह का यह आलेख दस्तंबू को केंद्र में रखते हुए ग़ालिब की इसी कशमकश को सामने रखता है. 


दस्तंबू                            
सच्चिदानंद सिंह






मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ बहादुर ग़ालिब ने 11 मई 1857 से 31 जुलाई 1858 तक दिल्ली शहर के हालात और उस दौरान अपनी ज़िंदगी का एक ‘तथाकथित’ दैनिक वर्णन अगस्त 1858 में फ़ारसी नस्र (गद्य) में लिखा;खालिस फ़ारसी जिसमें अरबी का एक भी लफ्ज़ नहीं है. यह रचना उसी वर्ष दिसम्बर तक ‘दस्तंबू’ के नाम से प्रकाशित हुई. दस्तंबू फ़ारसी शब्द है. अर्थ है फूलों का गुलदस्ता.स्त्रीलिंग है, और लड़कियों के नाम के लिए भी प्रयुक्त होता रहा है. 

1857 के उन लहू-लुहान दिनों की कहानी के लिए यह नाम बहुत उपयुक्त नहीं लगता. फूलों का गुलदस्ता कुछ ऐसी खुशनुमा चीज है जिसे सदियों से सजावट या उपहार के काम लाया जा रहा है. नाम बताता है कि ग़ालिब ने इसे एक गुलदस्ते की तरह,किसी को उपहार स्वरुप देने के उद्देश्य से लिखा था. किताब की पहली छपाई की पाँच सौ प्रतियाँ निकलीं थीं, सात सजिल्द, खास आराइश (सजावट) के साथ. इन सात में एक इंग्लैंड गयी, एक गवर्नर जेनरल के पास कलकत्ते, और पाँच दिल्ली के दूसरे आला हाकिमों के पास.

ग़ालिब ने मलिका-ए-मुअज़्ज़मा इंग्लिस्तान (रानी विक्टोरिया) को देने के लिए एक गुलदस्ता रचा था. 

दस्तंबू की कहानी की शुरुआत ग़ालिब ने 11 मई 1857 से की है जिस दिन बंगाल रेजिमेंट (3 लाइट कैवेलरी, 11 इन्फेंट्री और 20 इन्फेंट्री) के सैनिक मेरठ में अपने कुछ यूरोपियन अफसरों को मार कर दिल्ली पहुँच गए थे. मेरठ से वे इतवार, 9 मई की शाम को चले थे और करीब 75 किलोमीटर चलकर 11 मई की सुबह, मुँह अंधेरे दिल्ली शहर के दरवाजों के सामने खड़े हो गए. उनके निकलने के एक दिन पहले, 8 मई की सुबह मेरठ में 3 बंगाल कैवेलरी के पिच्यासी सैनिकों ने नए एनफील्ड राइफल के गोलियों को दाँत से काट कर खोलने से इंकार कर दिया था. 9 मई की सुबह उनका कोर्ट मार्शल हुआ,उन्हें बेडियाँ पहना कर उनका परेड करा कर,उन्हें लंबी कारा का दंड सुनाया गया. इसी शाम बंगाल रेजिमेंट के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया.  इसके पहले बरहामपुर,बैरकपुर और अम्बाला में बंगाल रेजिमेंट के सैनिक विद्रोह कर चुके थे. पर मेरठ में अंग्रेजों को किसी विद्रोह की आशंका नहीं थी क्योंकि वहाँ भारी तादाद में यूरोपीय सैनिक मौजूद थे – गोरे सैनिकों का अनुपात जितना मेरठ में था उतना हिन्दुस्तान की किसी छावनी में नहीं. जो हो,इतवार 9 मई की शाम विद्रोही सैनिक मेरठ से चले और मंगलवार 11 मई 1857 की सुबह दिल्ली पंहुच गए. इसी मंगलवार से दस्तंबू की शुरुआत है.

दस्तंबू का पहला ज़िक्र हमें 17 अगस्त 1858 के दिन ग़ालिब के अपने अज़ीज़ शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ़्ता को लिखे खत में मिलता है:


“अब एक अम्र सुनो – मैंने आगाज़े याज़दहुम (ग्यारहवीं) मई सन 1857 ई.से सी व एकुम (इकत्तीस) जुलाई सन 1858 ई. तक रूदादे शहर (शहर का वर्णन) और अपनी सरगुज़िश्त (जीवनी) याने पन्द्रह महीने का हाल नस्र (गद्य) में लिखा है और इल्तेज़ाम ऐसा किया है कि दसातीर[1]की इबारत यानी फ़ारसी क़दीम लिखी जाए और कोई लफ्ज़ अरबी न आये. … हाँ अशखास के नाम (लोगों के नाम) नहीं बदले जाते. वो अरबी,अंग्रेजी,हिंदी जो हैं लिख दिए हैं.” तफ़्ता आगरा और अलीगढ में रहता था. ग़ालिब ने दस्तंबू को आगरे से छपवाने का निश्चय किया था क्योंकि “दिल्ली के छापेखाने का कापीनिगार खुशनवीस (सुलेखक) नहीं था”.

जब किताब तैयार होने को आयी तो ग़ालिब ने अपने मित्र और शागिर्द चौधरी अब्दुल गफ़ूर ‘सुरूरको लिखा,
“11 मई 1857 ई. को यहाँ फ़साद शुरू हुआ. मैंने उसी दिन घर का दरवाजा बन्द और आना-जाना मौक़ूफ़ (स्थगित) कर दिया. बेशग़ल ज़िंदगी बसर नहीं होती. अपनी सरगुज़स्त (संस्मरण) लिखनी शुरू कर दी. जो सुना गया वो भी ज़मीमे सरगुज़स्त (संस्मरण के कोड-पत्र) करता गया.” 

वे ग़ालिब की कड़की के दिन थे. ग़ालिब को मई 1857 से ‘पिन्सननहीं मिल रहा था. 1858 आते आते उन्हें पुराने कपड़े बेचने पड़ रहे थे. जुलाई 1858 में उन्होंने तफ़्ता को लिखा है,

“कई दिन हुए जो मैंने एक विलायती चोगा और एक शाली रूमाल ढाई गाजा दलाल को दिया था … वो उस वक्त रुपया लेकर आया था.”[2]

ये बात उनके दोस्त जानते थे और अगस्त में किताब छपवाने की सुन मित्रों ने अचरज किया होगा. ग़ालिब ने एक ऐसे ही एक मित्र को लिखा है,



“मियाँ,क्या बातें करते हो?मैं किताबें कहाँ से छपवाता! रोटी खाने को नहीं,शराब पीने को नहीं,जाड़े आते हैं,लिहाफ़-तोशक की फ़िक्र है;किताबें क्या छपवाऊंगा?मुंशी उम्मीद सिंह इंदौर वाले दिल्ली आये थे. साबिक ए मारिफ़त (पूर्व परिचय) मुझसे न था. एक दोस्त उनको मेरे घर ले आया. उन्होंने वो नुस्खा देखा. छपवाने का कस्द किया. आगरे में मेरा शागिर्दे रशीद (सुशिष्य) मुंशी हरगोपाल तफ़्ता था.  उसने इस एहतमाम को अपने जिम्मे लिया. मसविदा भेजा गया. आठ आने फी जिल्द क़ीमत ठहरी. पचास जिल्दें मुंशी उम्मीद सिंह ने लीं. पचीस रूपये छापेखाने में बतरीके हुंडवी भिजवा दिए. साहबे मतवाने (प्रयत्नों के साथ) बशुमूले (प्रसन्नता पूर्वक) सई ए मुंशी हरगोपाल तफ़्ता ने छापना शुरू किया. आगरे के हुक्काम को दिखाया. इजाज़त चाही. हुक्काम ने बकमाले खुशी इजाज़त दी. पान सौ जिल्द छापी जाती है. उस पचास जिल्द में शायद पचीस जिल्द मुंशी उम्मीद सिंह मुझको देंगे. मैं अज़ीज़ों को बाँट दूँगा. परसों खत तफ़्ता का आया था. वो लिखते हैं कि एक फरमा छापना बाकी रहा है. यक़ीन है के इसी अक्टूबर में क़िस्सा तमाम हो जाए.”[3]

दस्तंबू बस उम्मीद सिंह के चलते छप पायी. मसविदा पढ़ कर उम्मीद सिंह ने पचास प्रतियां खरीदने के वचन दिए और उनके मूल्य पचीस रुपये छपने के पहले ही दे दिए. इन्ही पचीस रुपयों की पेशगी से दस्तंबू की छपाई शुरू हुई. उम्मीद सिंह आगरा जाने वाले थे. ग़ालिब ने उनके मार्फ़त तफ़्ता को दुबारा लिखा,

“तुमको यह मालूम रहे के रायसाहब मुकर्रम व मुअज्ज़म राय उम्मीद सिंह बहादुर ये रुक्का तुमको भेजेंगे. तुम इस रुक्के को देखते ही उनके पास हाज़िर होना और जबतक वहाँ रहें तबतक हाज़िर हुआ करना और दस्तंबू के बाब में जो उनका हुक्म हो बजा लाना. उनको पढ़ा भी देना और फी जिल्द का हिसाब भी समझा देना. पचास जिल्द की कीमत इनायत करेंगे,ले लेना. जब किताब छप चुके,दस जिल्दें राय साहब के पास इंदौर भेज देना और चालीस बमुजिब उनके हुक्म के मेरे पास इरसाल करना,और वो जो मैंने पाँच जिल्द की आराइश (सजावट) के बाब तुमको लिखा है,उसका हाल मुझको जरूर लिखना.”[4]

दस्तंबू में 11 मई 1857 से 31 जुलाई तक की कहानी है. इसमें बादशाह की दिल्ली से रवानगी का ज़िक्र नहीं मिलता. इसकी वजह ग़ालिब ने बतायी है,
“मुंशी उम्मीद सिंह इंदौर जाने वाले थे. अगर खत्म कर मसविदा उनके सामने आगरे न भेज देता तो फिर छपवाता कौन?

दस्तंबू की शुरुआत, जैसी परम्परा है,परमेश्वर के स्मरण से होती है. ग़ालिब ब्रह्माण्ड की विविधता और ग्रह-नक्षत्रों की चर्चा करते हुए ईरान पर हुए अरब आक्रमण पर आते हैं. इस आक्रमण के समय कहा जाता है शनि और मंगल कर्क राशि में थे. वही स्थिति, ग़ालिब ने कहा,आज है –
“वही उत्पात,क्रूरता,नरसंहार और वही अधोगति. किंतु ईरान पर एक दूसरे देश ने आक्रमण किया था. हिंदुस्तान में फ़ौज ने अपने सरदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. ईरान के आक्रमण के पीछे धर्म था. अज्ञानी ईरानियों ने अपना ज्ञान और अपनी बुद्धि खो कर अपने देश को बियाबान कर डाला था. इस्लाम के ईश्वरी प्रभाव से बियाबान में फूल खिले और अग्निपूजक भी एकेश्वरवाद के दामन में आये. लेकिन खूंखार जानवरों के दाम (जाल) में फंसने के लिए हिन्दुस्तानियों ने न्यायप्रिय शासकों के दामन को छोड़ दिया. सच्चाई यह है, कि अंग्रेजों को छोड़ किसी से न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती”[5].
साथ ही,ग़ालिब ने अपनी स्थिति भी स्पष्ट की है,
“मैंने इनका नमक खाया है,और मेरे बचपन से इन विश्व विजेताओं ने अपने दस्तरख्वानसे मुझे खाना खिलाया है.”[6]
यह अनुच्छेद दस्तंबू की मूलगत विचारधारा को स्पष्ट करने के लिए यथेष्ट हैं.

अंग्रजों को न्याय की प्रतिमूर्ति और अपने को उनका पुराना साथी बता देने के बाद ग़ालिब ने मुग़ल दरबार के साथ अपने संबंध की चर्चा की है. दस्तंबू के अनुसार सात या आठ वर्ष पहले बादशाह ने उन्हें तिमूरी खानदान का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया था,फिर ज़ौक की मृत्यु पर बादशाह की शायरी के इस्लाह का काम भी उनके जिम्मे आ पड़ा. इनके सिलसिले में वे हफ्ते में दो दिन किला जाते थे, यदि बादशाह कभी चाहते तो वह उनके साथ कुछ समय बिताते, यदि नहीं तो दीवाने खास में कुछ घड़ी उनका इंतज़ार कर ग़ालिब अपने घर वापस आ जाते थे.

शायद कभी ऐसी बात रही हो, पर 1856 आते आते तो ग़ालिब बादशाह के बहुत प्रिय होगये थे और उन्हें दोनों शाम किले जाने के हुक्म मिले थे. एक पत्र में वे लिखते हैं,
“बीस-बाईस दिन से हुज़ूरवाला (बादशाह) रोज़ दरबार करते हैं. आठ-नौ बजे जाता हूँ,बारह बजे आता हूँ. या रोटी खाने में ज़ुह्र (दोपहर की नमाज़) की अज़ाँ होती है या हाथ धोने में. सब मुलाज़मीन का हाल यही है. और कोई रोटी खाकर जाता होगा. मुझसे बाद खाना खाने के चला नहीं जाता. ये तो जो कुछ था सो था. परसों से अज़्र राहे इनायत हुक़्म दिया है कि शाम को रेत में लबे दरिया (नदी, यमुना, के किनारे) पतंगबाज़ी होती है, तू भी सलीमगढ़ पर आया कर. खुलासा ये कि सुबह को जाता हूँ,दोपहर को आता हूँ. खाना खा कर पाँच घड़ी दम लेकर जाता हूँ, चिराग़ जले आता हूँ. भाई तुम्हारे सर की क़सम …”[7]

1856 के पहले भी ग़ालिब प्रायः बादशाह के साथ हो रहते थे. 1851 में लिखा है,
“भाई साहब को बंदगी पहुंचे. इनदिनों में हुज़ूरवाला ख़्वाजा साहब की दरगाह गए थे और अहक़रुल इबाद (तुच्छ सेवक) भी साथ गया था.”[8]

दिल्ली में विद्रोह की शुरुआत बताते हुए ग़ालिब लिखते हैं,

ग्यारह मई के दिन मेरठ से वे नमकहराम सिपाही दिल्ली आये. शहर के पहरेदार भी शायद उनसे मिले हुए थे. शहर में नमक (अंग्रेजों) के प्रति वफादार लोग भी थे पर वे अलग अलग गलियों में थे और लड़ पाने में सर्वथा अक्षम. “मैं भी उन्ही लोगों में था,अपने घर में बंद,बस बाहर का हो हल्ला सुनता था – सैनिकों की आवाजें,घोड़ों के दौड़ने की आवाजें और बाहर देखने पर मिटटी को खून से सनी पाता था. … हाय,वे विद्वान अंग्रेज – विद्वता और न्याय के मूर्तरूप,उनकी तन्वंगी,चंद्रमुखी औरतें, हाय हाय गुलाब और लाला (ट्यूलिप) के समान उनके निर्दोष बच्चे – सभी मौत के उस भंवर में फँस गए और खून के उस समुद्र में डूब गए. … हिन्दुस्तान की दुर्दशा पर कोई हृदय जो पाषाण का नहीं हो,द्रवित हो जाएगा,कोई आँख जो निर्जीव नहीं हो,बहने लगेगी.”[9]

पूरी किताब इसी रंग में लिखी गयी है.

यह ध्यातव्य है कि ग़दर के दिनों में ग़ालिब अपने घर में बंद नहीं रहते थे, जैसा उन्होंने लिखा था. मुंशी जीवन लाल का रोज़नामचा ग़ालिब की इस बात को नकारता है. जीवन लाल विद्रोह के पहले बादशाह और अंग्रेजी हुकूमत के बीच एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ था. उसके ऊपर अंग्रेजों की तरफ से बादशाह के परिजनों को मिलती पेंशनों की देख रेख का जिम्मा भी था और उसे किले आने जाने की पूरी छूट मिली हुई थी. विद्रोह के दौरान दिल्ली में रहते हुए वह अंग्रेजों के लिए मुखबिरी कर रहा था और विद्रोह के बाद मुंशी जीवन लाल ‘ग़दर का दलालनाम से जाना गया. अपने रोज़नामचे में 13 जुलाई 1857 के दिन, जिस दिन आगरा के अंग्रेजों के हाथ से निकल जाने की खबर दिल्ली आयी थी,जीवन लाल ने लिखा है,
“मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) और मुकर्रम अली ने बादशाह की (आगरे पर) फतह का जश्न मनाते कसीदे पढ़े थे”[10]
दस्तंबू के अपने अंग्रेजी अनुवाद के परिचय में ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी ने लिखा है कि 11 अगस्त 1857 के दिन भी ग़ालिब ने बादशाह की खिदमत में एक क़सीदा पढ़ा था और उस दिन ज़फ़र ने उन्हें एक खिलत दी थी[11]. इसका सन्दर्भ जीवन लाल के रोज़नामचे में नहीं मिलता. 11 अगस्त के दिन बागियों ने ज़फ़र के सबसे प्रमुख सलाहकार हकीम अहसनुल्लाह खाँ का घर लूट कर जला दिया था और इसकी कम उम्मीद है कि ज़फ़र को उसदिन कसीदे सुन पाने की फुर्सत या इच्छा रही हो. 

दस्तंबू में दूर दराज के शहरों की भी चर्चा है– बरेली के पथभ्रष्ट सरदार ने बादशाह को सोने के कितने मुहर भेजे,रामपुर के नवाब ने क्या किया,लखनऊ में क्या हुआ – आदि आदि. अपने घर में बंद ग़ालिब ने यह सब कैसे जान लिया इसकी कोई चर्चा नहीं है. ग़ालिब ने इसे अपनी डायरी बतायी है,गोया वे रोज इसे लिखते रहे थे. इसे पढ़ने पर वैसा कुछ नहीं लगता. यदि हर रोज वे कुछ लिखते भी रहे होंगे तो भी अगस्त 1858 के बाद उन्होंने अवश्य इसकी पूरी समीक्षा कर परखा होगा – यह गोरे साहबों को कितना प्रिय लगेगा और उसके बाद ही इसके प्रकाशन की वे सोच पाये होंगे.

दिल्ली की मार-काट के बाद ग़ालिब ने रिज (दिल्ली के पश्चिम स्थित अरावली श्रृंखला का पहाड़ी हिस्सा) पर अंग्रेज बैटरी (तोपों की लाइन) का वर्णन करते हुए लिखा है,न्यायमूर्तियों ने रिज को शान्ति के एक द्वीप में बदल दिया था. कई रोज़ की भारी गोला-बारी के बाद 14 सितम्बर के दिन अंग्रेज कश्मीरी दरवाजे से दिल्ली के अंदर आ पाए थे. दिल्ली के गली कूचे में हुई घमासान लड़ाई के बाद शहर से लोगों के पलायन की चर्चा भी है. लेकिन ग़ालिब लिखते हैं,
“मेरे हृदय में कोई भय नहीं था,न मेरी टांगें डर से काँप रहीं थीं. मैंने खुद से कहा था,मैं कोई मुजरिम तो नहीं जिसे कोई सजा मिलनी चाहिए और अंग्रेज निर्दोष को नहीं मारते. दिल्ली मेरे लिए बुरी जगह नहीं थी और मैंने तय किया कि मुझे भागने की नहीं सोचनी चाहिए. अब मैं अपने घर के एक कोने में अकेला बैठा हूँ,साथी के नाम बस यह कलम है मेरे साथ. मेरी आँखों से आँसू निकलते हैं हैं मेरे कलम से दुःख भरे शब्द.”[12]

ग़ालिब ने दस्तंबू में अपने विक्षिप्त भाई की मृत्यु का भी वर्णन किया है. 1857 में ग़ालिब ने उसे साठ वर्ष का बताया है– निश्चित ही उन्होंने हिजरी वर्ष गिने होंगे जैसा उर्दू या फारसी लेखन में रिवाज था. तीस वर्ष (हिजरी) की उम्र में उनका भाई मिर्ज़ा युसूफ अली विक्षिप्त हो गया था.
“पिछले तीस वर्षों से वह शांतिपूर्वक मेरे घर से दो हजार डेग पर अपने घर में रह रहा है. उसकी पत्नी,बेटियाँ और उनके बच्चे,अपनी दाइयों के साथ दिल्ली से निकल चुके हैं, घर के विक्षिप्त मालिक को एक (वृद्ध) दरबान और (वृद्धा) दासी के भरोसे छोड़ कर. अगर मुझमें जादुई ताकत रहती,तो भी मैं इस हालात में उन तीनो को अपने घर नहीं ला सकता, और यह गम मेरे दिल को साल रहा है.”[13]

अंग्रेजों के शहर में प्रवेश करने के कुछ दिनों बाद कुछ सैनिक ग़ालिब के भाई के घर में लूट पाट करने घुसे थे. ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी का दस्तंबू का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस तरह पढता है: 


“बुधवार,इकत्तीस सितम्बर, फतह के सतरह दिनों बाद …”[14]  मगर सितम्बर में इकत्तीस दिन नहीं होते. तीस सितम्बर 1857 एक बुधवार था,इससे यही लगता है,ग़ालिब ने इसी तिथि को लिखना चाहा होगा. लेकिन उस दिन तक दिल्ली की फतह को सतरह दिन पूरे नहीं हुए थे. दिल्ली पर अंग्रेज ब्रिगेडियर जेनेरल निकलसन का कब्जा 21 सितम्बर के दिन हो पाया था, वैसे 14 सितम्बर को आक्रामक दिल्ली में घुस चुके थे और 14 से 21 सितम्बर तक दिल्ली की गलियों में घमासान युद्ध होता रहा था. यदि 14 सितम्बर से दिन गिनें तो 30 सितम्बर सत्रहवाँ दिन बनता है और एक मामूली सुधार के बाद ग़ालिब की बात मानने लायक दिखती है.  बुधवार 30 सितम्बर के दिन ग़ालिब को मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर में सैनिकों द्वारा लूट-पाट करने की खबर मिली. लेकिन यह भी कि उनका भाई और उसके दोनों वृद्ध अनुचर सुरक्षित थे. 
        
आगे ग़ालिब ने लिखा है,
“सोमवार, 19 अक्टूबर को दैनिन्दिनी से हटा देना चाहिए. … सुबह सुबह अभागे दरबान ने मेरे भाई को (इस दुनिया से) मुक्त करती उसकी मृत्यु की खबर दी. उसने कहा कि (मिर्ज़ा यूसुफ़ को) पाँच दिनों से तेज बुखार था और आधी रात के करीब वह चल बसा.”[15]और वहीँ मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत पर मोइनुद्दीन खां ने लिखा है,“मिर्ज़ा असदुल्लाह खां का भाई,मिर्ज़ा यूसुफ़ खां,जो लंबे अरसे से विक्षिप्त रहा था,गोलियों की आवाज सुन कर, यह देखने कि क्या हो रहा है,बाहर गली में निकला और मारा गया”[16].

मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत अंग्रेज (या शायद सिक्ख या गुरखा) सैनिकों की गोलियों से हुई होगी. ग़ालिब को यह सच्चाई लिखने में संकोच हो रहा होगा क्योंकि पूरा गुलदस्ता बन रहा था मलिका को देने के लिए और वे कैसे कह सकते थे कि मलिका के फौजियों ने उनके निरपराध भाई को गोलियों से उड़ा दिया.लिहाजन अपने भाई की मौत पर उन्होंने एक कहानी गढ़ दी! 

जब दस्तंबू छपने छपने को हो रही थी तो ग़ालिब ने एक क़सीदा लिखा,साठ शेर थे और उस क़सीदे को उन्होंने अंग्रेज साहबों को दी जाने वाली किताबों के ऊपर लगाने का विचार किया, जिससे “किताब को क़सीदे से इज़्ज़त और क़सीदे को किताब के सबब से शोहरत हासिल हो जाएगी”[17].  क़सीदे का शीर्षक था,“तहनियते फ़तहे हिंद और अमलदारी-ए शाही”, यानी हिंद पर विजय और शाही राज स्थापित होने पर अभिनन्दन. ग़ालिब की यह भी हिदायत थी कि क़सीदे के “पहले सफे पर,जिस तरह किताब का नाम छापते हैं, इस तरह ये भी छापा जाए के “क़सीदा दर मदहे मलिकाए इंग्लिस्तान ख़ल्दुल्लाह मुल्क हा”. (इंग्लिस्तान की मलिका की प्रशंसा में,ईश्वर उनके देश को सकुशल रखे.)

इन सब बातों से प्रतीत होता है कि ग़ालिब ने दस्तंबू लिखने की अपनी सुरक्षा के लिए सोची थी. उन दिनों मुसलमानों को दिल्ली में रहने की अनुमति नहीं थी. ग़ालिब गिने चुने संभ्रांत मुसलमानों में थे जो उन उथल-पुथल के दिनों में भी दिल्ली में रह गए. वे जानते थे कि बादशाह के साथ उनके नज़दीकी संबंध छुपे नहीं रह सकते. ग़दर के दिनों में वे किले जाते रहते थे और एक अवसर पर उन्होंने ज़फ़र के सम्मान में एक ‘सिक्का[18]भी लिखा था. फ़ारूकी के अनुसार जीवन लाल के रोज़नामचे में ग़ालिब के इस सिक्के की चर्चा है, पर मेटकाफ के अनुवाद में उसका उल्लेख नहीं है[19]:

बर ज़र-ए आफताब ओ  नुकरा-ए माह
सिक्का ज़द दर जहाँ बहादुर शाह
सूर्य के सोने और चंद्र की चांदी पर
बहादुर शाह ने अपने सिक्के छापे 

ग़ालिब डरे हुए थे. कभी उनके खिलाफ कोई बात उठ सकती थी. वे बादशाह के साथ यानी अंग्रेजों की नज़र में बागियों, के साथ रहे थे. एक बार रामपुर के नवाब को उन्होंने लिखा था,“ख़ुदा का शुक्र ये कि बावजूदे ताल्लुक़े क़िला किसी तरह के जुर्म का बनिस्बत मेरे एहतमाल भी नहीं”[20]. पर डर तो उन्हें रहता ही होगा,यदि किसी तरह फिर बात खुली तो नतीजा कुछ भी हो सकता था. शान्ति स्थापित हो जाने के इतने दिनों बाद सजाए मौत तो नहीं ही होती किंतु दिल्ली से निकाला जा सकता था, क़ैद हो सकती थी. उन्हें इस की भी चिंता रही होगी कि उनका 750 रूपये सालाना ‘पिंसनजो अंग्रेज सरकार से मिलती थी वह अब मिलेगी या नहीं. उनकी पेंशन मई 1857 यानी ग़दर की शुरुआत से बंद थी. अधिकतर लोग दस्तंबू को पेंशन पुनर्जीवित करने के लिए ग़ालिब के एक प्रयास के रूप में देखते हैं.

शहर में अंग्रेजों के प्रवेश के साथ वृहत स्तर पर दंगे हुए थे. ब्रिटिश सैनिकों ने घरों में घुस कर और छतों पर चढ़ कर सोये हुओं को भी मारना शुरू कर दिया था[21]. उन्हें सड़क पर दिखते हर वयस्क पुरुष को गोली से उड़ा देने के आदेश मिले थे. गुरखे और युरोपियन सैनिक भी लूट में संलग्न थे[22]. शहर के अशराफ मुसलमनों ने भागने में भलाई देखी थी. क्या उनके साथ अन्याय हुआ था?ग़ालिब उन्हें निर्दोष देखते हैं,जैसे अपने को भी. दस्तंबू के अनुसार ग़ालिब और उनके समाज के संभ्रांत मुसलमान व्यग्रतापूर्वक अंग्रेजों के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे,जिससे शहर में फिर शान्ति स्थापित हो सके. यह सच है कि ज़फ़रके वास्तविक बादशाह बन पाने की संभावना से यानी कंपनी सरकार के गिरने की संभावना से वे बहुत खुश थे. बागियों की लड़ाई के लिए संभ्रांत वर्ग ने गाहे-बगाहे काफी धन भी दिए थे. पर यह भी सच है कि संभ्रांत मुसलमानों ने यूरोपियन बच्चों और महिलाओं की हत्या  में भाग नहीं लिया था. जहाँ तक हो सका था वे उन्हें अपने घरों के तहखानों में शरण दे रहे थे. यूरोपियन बच्चों और महिलाओं को विद्रोही सैनिकों ने और समाज के निचले वर्ग ने मारा था और जब अंग्रेज सेना घुसी तो यही वर्ग आक्रामकों को संभ्रांतों के छुपने की जगह बताने लग गया था.

दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद मुसलमानों को शहर के अंदर रहने की मनाही हो गयी थी. उनकी संपत्ति जब्त कर ली गयी थी. कुछ दिनों तक उन्हें सड़क पर निकल सकने के लिए एक ‘टिकटभी लेना पड़ता था[23]. ग़ालिब ने एक पत्र में लिखा है, अपने नौकर कल्याण के अस्वस्थ होने के चलते वे अपनी चिट्ठी डाकखाने नहीं भिजवा पाए क्योंकि उनके मुसलमान नौकर सड़क पर नहीं निकल सकते थे[24]. शहर की हवेलियों के तोड़े जाने की खबर गर्म थी. ग़ालिब ने लिखा है,चौक में बेगम के बाग़ में दरवाज़े के सामने, हौज़ के पास,जो कुँआ था उसमे संगो खिश्त (पत्थर और ईंट) डालकर बंद कर दिया गया. बल्लीमारों के दरवाज़े के पास दुकाने ढाह कर रास्ता चौड़ा कर लिया गया.”[25]दिल्ली में रहते किसी मुसलमान की मनःस्थिति शोचनीय रही होगी.

दस्तंबू से ग़ालिब कितने लाभान्वित हुए होंगे यह कह पाना मुश्किल है. 24 फरवरी को दिल्ली के कमिश्नर सांडर्स से ग़ालिब को बुलावा आया. अगले दिन मुलाक़ात हुई. सांडर्स को पंजाब बोर्ड के प्रमुख मैकलिओड की चिट्ठी आई थी. ग़ालिब का हाल पूछा था.
“तुम ख़िलत क्यों मांगते हो?हक़ीक़त कही गयी. … फिर पूछा गया,तुमने किताब कैसी लिखी है?उसकी हक़ीक़त बयान की. कहा– एक मैकलिओड साहब ने मांगी है,और एक हमको दो. मैंने अर्ज़ किया,कल हाज़िर करुंगा. … 28 फरवरी को गया. … मैंने कहा,किताबें हाज़िर हैं. कहा मुंशी जीवनलाल को दे आओ.”[26]

जीवनलाल को शायद किताब इसी लिए दिलवाई गयी होगी कि वह इसके वाक़यात को जाँच-परख ले. इसमें कोई शक नहीं कि सांडर्स को और सभी हाकिमों को दस्तंबू में लिखी बात और ग़दर के दिनों, या उसके पहले के, ग़ालिब और किले के ताल्लुक़ात की असलियत का पता था. फिर भी हम देखेंगे कि एक साल बाद ग़ालिब की पेंशन मंजूर हो गयी और उसके तीन साल बाद दरबार में उनकी उपस्थिति और ख़िलत की स्वीकृति भी मिल गयी. 
 
मिर्ज़ा यूसुफ़ की मौत और किले के साथ अपने संबंध को छोड़ दस्तंबू में कोई बात नहीं है जो पूरे तौर पर गलत हो. पर तथ्य ध्यानपूर्वक बीनकर रखे गए हैं,चयन एकतरफा है; और अभिव्यक्ति स्तुति सदृश. यह इतिहासकार का ब्योरा नहीं है,यह किसी संवेदनशील शायर के हृदय से भी नहीं निकला है. यह एक भयभीत किंतु चौकस,अग्रसोची इंसान द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया गया अभिलेख है.
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सच्चिदानंद सिंह
जन्म: १९५२, ग्राम- तेलाड़ी, ज़िला- पलामू, झारखंड

स्कूली शिक्षा: नेतरहाट विद्यालय, झारखंड
उच्च शिक्षा: सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली
ग़ालिब साहित्य में गहन रुचि के साथ बैंकर व मर्चेंट बैंकर रहा. वर्तमान में कृषिकर्म-रत.
दो वर्षों से कहानियाँ लिख रहा हूँ. जनवरी 2018 में पहले कथा संग्रह "ब्रह्मभोज"का प्रकाशन. (प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली)

बी-604, एसबेल, लोखंडवाला टाउनशिप,
कांदिवली पूर्वमुम्बई 400 001



[1]फ़ारसी का एक शब्दकोश
[2]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम जुलाई 1858 में लिखे एक पत्र से
[3]पूर्वोक्त; मेहदी हुसैन मजरूह के नाम अक्टूबर 1858 में लिखे एक पत्र से.
[4]पूर्वोक्त;मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम 28 अगस्त 1858 को लिखे पत्र से.
[5]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, 1971, पृष्ठ 28
[6]पूर्वोक्त, पृष्ठ 30
[7]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), इलाहाबाद (1963); 9 दिसंबर 1856 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम  
[8]पूर्वोक्त;2 मार्च 1851 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम लिखे पत्र से
[9]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, (1971); पृष्ठ 32
[10]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही,वेस्टमिंस्टर, (1898); पृष्ठ 150  
[11]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, (1971); पृष्ठ 11
[12]पूर्वोक्त, पृष्ठ 41
[13]पूर्वोक्त, पृष्ठ 46
[14]पूर्वोक्त, पृष्ठ 49
[15]पूर्वोक्त, पृष्ठ 53
[16]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही,वेस्टमिंस्टर, (1898); पृष्ठ 72. मेटकाफ़ ने इसमें जीवन लाल का रोज़नामचा और मोइनुद्दीन की रपट के अनुवाद प्रकाशित किये हैं. मोईनुद्दीन पहाड़गंज का थानेदार था और रोजनामचा लिखता था मगर रपट उसने कई वर्षों बाद लिखी.  
[17]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), इलाहाबाद (1963); 22 सितंबर 1858 को मुंशी नबी बख्श हक़ीर के नाम
[18]खास मौकों पर रईस अपने बादशाह को खास सिक्के छपवा कर देते थे. शायर ऐसे सिक्कों पर लिखे जाने वाले मजमून देते थे. 
[19]ख्वाजा अहमद फ़ारुक़ी (अनुवादक), दस्तंबू,मुंबई, (1971), पृष्ठ 11
[20]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959): 7 नवंबर 1858 को रामपुर नरेश नवाब यूसुफ़ अली खाँ के नाम
[21]ज़हीर देहलवी, दास्तान-ए ग़दर, राना सफ़वी का अनुवाद,नई दिल्ली,(2017) पृष्ठ 128   
[22]चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ़, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी इन देलही,वेस्टमिंस्टर, (1898), पृष्ठ 71
[23]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 5 दिसंबर 1857 को मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम
[24]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 5 मार्च 1858 को मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम
[25]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); 22 दिसंबर 1858 को मीर मेहदी हुसैन ‘मजरूह’ के नाम
[26]श्रीराम शर्म्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1959); मार्च 1859 (तारीख नामालूम) में मीर मेहदी हुसैन ‘मजरूह’ के नाम
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परख : स्त्री शतक (पवन करण: साधना अग्रवाल

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स्त्री शतक
पवन करण
भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नयी दिल्ली—110003
मूल्य—370
संस्करण— 2018











स्त्रियों की महागाथा                     
साधना अग्रवाल








नारी पर अधिकार स्थापित करना ही पुरुष के पौरुष की कसौटी रहा  है. वह उसके रूपसौंदर्य की प्रशंसा ही नहीं करता बल्कि उसे पाने के लिए किसी भी हद तक जाने की कोशिश करता है. दरअसल स्त्री उसके लिए सिर्फ भोग्या है. वह उसके एक-एक अंग को भोगना चाहता है. मर्यादा और नैतिकता की तमाम सीमाओं को लांघते अपनी मर्दानगी को दिखाने की जिद में वह स्त्री को केवल अपनी सम्पत्ति समझता है. स्त्री उसके लिए बस एक साधन है और कुछ नहीं. सैद्धान्तिक रूप से उसे देवी का दर्जा जरुर दिया गया है लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं. जबकि स्त्री खुद को केवल मनुष्य समझने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ती रही है. स्त्री का शोषण आज से नहीं अपितु सृष्टि के आरंभ से होता रहा है, युग कोई भी रहा हो. युगों के हिसाब से केवल स्त्री पात्र बदल गए लेकिन उनकी नियति नहीं. उस पर तो धर्म, संस्कृति, संस्कार, नैतिकता के नाम पर अनेक नियम और बंधन लाद दिये गए हैं. पुरुष सत्ता की थोथी मर्यादा के बीच स्त्री असंख्य अदृश्य बेड़ियों और जंजीरों में जकड़ी हुई है. स्त्री का जीवन हमेशा से ही संघर्षों की गाथा रहा है. उसका न तो अपनी देह पर कोई अधिकार है और न मन पर. इसीलिए तो आज की स्त्री अपनी अस्मिता की पहचान के लिए पितृसत्ता के विरोध उठ खड़ी हुई है.
  
(पवन करण)
               
हिंदी के प्रतिष्ठित कवि पवन करणका नया काव्य संग्रह'स्त्रीशतक'अभी आया है जिसमें उन्होंने बहुत मेहनत और शोध करके हमारे धर्मग्रंथों, पुराणों और इतिहास से शोषित, पीड़ित, दुखी, अपमानित 100विभिन्न स्त्री पात्रों के जरिए उनकी दारुण कथा को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है. जिसे सुनकर आप न केवल शर्मसार होते हैं बल्कि ग्लानि भी अनुभव करने लगते हैं. पवन करण पुरुषों के झूठे अहम् और दंभ को चकनाचूर कर उनकी असलियत को भी सामने रखते हैं. इसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि वह ऐसे अनचीन्हें स्त्री पात्रों से हमारा परिचय कराते हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं.
                     
यद्यपि भारतीय संस्कृति, पुराणों और मिथकों को आधार बनाकर संस्कृत साहित्य में विशाल मात्रा में साहित्य रचा गया है लेकिन वह एकांगी इस अर्थ में दिखाई देता है क्योंकि वह पुरुष समाज के वर्चस्व और उसकी ताकत का परिचय ही देता है. यद्यपि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता लेख लिखकर इस ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया था जिसका परिणाम था मैथिलीशरण गुप्त का साकेत. उसके बाद रामधारी सिंह दिनकर ने भी इस ओर कदम बढ़ाया था. लेकिन इस संग्रह में हमारी पूर्वज स्त्रियों की व्यथा-कथा ही नहीं है बल्कि मुक्ति की आकांक्षा भी है. उनके प्रश्न हमें विचलित ही नहीं करते बल्कि बेचैन भी करते हैं. लगता है पवन करण ने सैंकड़ों पन्ने पलटकर इतिहास की भीतरी तह तक जाकर एक से बढ़कर एक स्त्री पात्रोंकी वेदना को स्वर दिया है. हो सकता है भविष्य में जिसकी भरपाई कवि को करनी पड़े, जिसके लिए उसको अपनी कमर कसनी होगी लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि जो सवाल उनके भीतर नासूर की तरह दुख रहे थे मानो उस पर संवेदना का मरहम लगा दिया हो.
            
पवन करण ने तमाम देवताओं, ऋषियों, मुनियों, राजाओं, साधु-संतों, को अपराधी बनाकर जनता के समक्ष खड़ा कर दिया है. इसका एक धवल पक्ष यह भी है कि इसमें साधारण से साधारण स्त्री भी अपनी बात कहने में कोई संकोच करती नहीं दिखती और देवताओं तक को कठघरे में खड़ा करने से नहीं घबराती. ये कविताएं हमें निरुत्तर कर देती हैं. हमारे सामने सती, सावित्री, सीता आदि के उदाहरण तो दिए जाते हैं लेकिन उनकी वेदनाओं को कभी सामने नहीं लाया जाता. 
          
पवन करण ने इस संग्रह की प्रत्येक कविता के फुटनोट में संबंधित स्त्री पात्र का संक्षिप्त परिचय भी दिया है जिससे उसे जानने-समझने में पाठक को आसानी होती है. इस संग्रह की पहली ही कविता है 'तारा'. तारा यूं तो बृहस्पति की पत्नी थी लेकिन चंद्र उसे अपने साथ भगा ले गया था जिसके परिणामस्वरूप बुध का जन्म हुआ. इस कविता में कवि ने तारा की व्यथा को आज के पुरुष की ग्लानि से जोड़कर प्रस्तुत किया है. दूसरी कविता है—'सवर्णा'जो सूर्य विवस्वान की पत्नी रेणु की दासी थी. सवर्णा रेणु के रुठ कर चले जाने पर वह विवस्वान के साथ पत्नी की तरह रहने लगी थी. लेकिन रेणु उसे उलाहना देती हुई कहती है-
तुम्हें क्या लगता था सवर्णा
कि तुम सूरज का मुंह मोड़ दोगी
रानी और दासी के बीच का अंतर भेद दोगी ?
     
जयन्ति कविता में कवि देवताओं की असलियत बताने में कोताही नहीं बरतता और कहता है-देवताओं को स्त्रियां तब तक ही प्रिय हैं
जब तक वे उनकी अनुगता हैं, कामिनी हैं
पैर दबातीं लक्ष्मी सी आज्ञाकारिणी
और ऋषितपस्या भंग करती मेनकाएं हैं.

दरअसल जयन्ति इन्द्र की पुत्री थी जिसे उसने बलि से धरती हथियाने के लिए शुक्र को सौंप दिया था.
           
कीर्तिमालिनी कविता में व्याकुल करने वाला प्रश्न है जिसका जबाव शायद ही किसी के पास हो
माया रचता कोई देव ही क्यों न हो
कामभोग के लिए किसी की
भार्या मांगने का
अधिकार नहीं किसी को.

इसी कविता में कीर्तिमालिनी देवी उमा से सवाल करती हैं कि
उमा अब आप ही मुझे बतायें
परीक्षा लेने के लिये देव
स्त्रीदेह ही क्यों चुनते हैं
यह तो सरासर देहलोलुपता है
जिसमें उनका साथ देने
आप भी चली आती हैं

कवि उमा पर दोषारोपण करता यही नहीं रुकता बल्कि एक औरत होने के नाते उन पर गंभीर आरोप भी लगाता है

ये आपने क्या किया गौरी
आपने तो करोड़ों स्त्रियों के मन में
कुंठा घोलकर रख दी
आश्चर्य कि शंभु के सामने शक्तिहीना होकर रह गई शक्ति
गौरवर्ण प्राप्त करने को उद्यत
आपने एक बार भी
उन स्त्रियों के बारे में नहीं सोचा
जिनकी त्वचा का रंग
काले सर्प सा डसता रहा है उन्हें.

इस कविता में स्त्री की वेदना, दुख, पीड़ा, संत्रास,अपमान,उपेक्षा,ग्लानि, हताशा ही सामने नहीं आती बल्कि उसका मन चीत्कार कर उठता है जब उसे अहसास होता है कि इसके लिए पुरुष ही नहीं स्त्री भी किसी हद तक उतनी ही दोषी है.
            
वैसे तो संदेह या शक करना किसी के लिए भी सही नहीं है क्योंकि यह माना जाता है कि शक का कोई इलाज नहीं लेकिन एक स्त्री के लिए शक करना वर्जित है

स्त्री के लिए संदेह वर्जित है
फिर चाहे वह जगदंबा ही क्यों न हो
मन ही मन विजया बुदबुदाती
पुरुष चाहे देव हो या गण  
स्त्री को अपना सिर झुकाकर
मान लेना चाहिए उसका कहा.
         
साधारण पाठक कृष्ण की एक पत्नी रुकमणि के बारे में जानता है और राधा को उनकी प्रेमिका के रूप में लेकिन पवन करण ने कृष्ण की आठ पत्नियों से हमारा परिचय कराया है- जाम्बवती,सत्यभामा, मित्रवृंदा, सत्या,लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी.
          
इस संग्रह में अर्जुन की बालविधवा पत्नी उलूपी का दुख-दर्द है तो सवाल करती घटोत्कच की पत्नी मोर्वी है. विदुर की मां इन्दु की पीड़ा है, पृथ्वी का दोहन करने वाले राजा पृथु की पत्नी अर्ची है जो दबे स्वर से सती होने से मना करना चाहती है लेकिन साहस नहीं जुटा पाती. पिप्पलादी की मां तथा दधीचि की पत्नी सुवर्चा को दिक्कत इस बात से है कि उसके पति ने बिना उससे पूछे अपनी हड्डियां दान में क्यों दी ? क्या केवल पति का ही अपनी पत्नी पर अधिकार होता है पत्नी का पति पर कोई अधिकार नहीं. वह कहती है-

फिर तुमने मेरी सहमति लिए बिना
अपना देह-आधार
कैसे दे दिया किसी को
तुम्हारी आज्ञा के बिना क्या मैं
कभी किसी को स्वयं का
कुछ सौंप सकती थी.

पुरुरवा की प्रेमिका उर्वशी है जो पुरुष मानसिकता को सामने रखती है

ज्ञानी और गुणीजन हमसे
प्रेम नहीं हमारा भोग करते हैं
वे हमारी सहवास क्रियता को
नहीं समझते आपकी तरह प्रेम.

हिरण्यकश्यप की पत्नी क्याधू एक स्त्री की नियति को उजागर करती कहती है-

एक स्त्री के लिए स्त्री होना
हर काल में होता है कठिन
उसके लेखे में तो हमेशा कुर्री पक्षी की भांति
रुदन करना ही होता है बदा.
                           
कल्पाषपाद की भार्या मदयन्ती ऋषि-मुनियों से सवाल करती है कि क्या वे स्त्रियों को भोगने के लिए ही तो राजाओं को शाप नहीं दिया करते थे या फिर पुत्र की चाहत में राजा अपनी पत्नी को गर्भवती होने के लिए ऋषियों के पास भेजा करते थे. मदयन्ती पूछती है-

मुझे छूने से पहले मेरी बात का
जवाब दो मुनि प्रवर
क्या आप हमारे पतियों को
उनके और उनके राज्य पर
अपना ज्ञान और श्रेष्ठता
कायम करने के लिए शाप देते हो
राजपाट के साथसाथ
भोगने के लिए हमें भी
अपने कमंडल में भरे घूमते हो
तरहतरह के शाप
वन में मेरे पति को रतिदोष का
शाप देने को तत्पर
कामक्रीड़ारत मुनि ही था एक
ये कैसी साधना है तुम्हारी
इन्द्रियां ही नहीं सधती.  
                           
शर्याति की पुत्री सुकन्या भी ऋषि-मुनियों के शाप देने पर ही सवाल खड़ा नही करती बल्कि उनकी काम-लोलुपता पर उंगलि उठाती है. वह एक पिता की बेबसी का वर्णन करती कहती है-

पिता को जो सूझा वो किया उन्होंने
मगर मुझे पाकर च्यवन ने
छोड़कर अपनी तपस्या
मेरे लिए खुद को किया युवा.

वहीं पवन करण राजा दशरथ की आंख में उंगुलि डालकर दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने बेटे और बेटी में भेदभाव ही नहीं किया बल्कि अपनी बेटी को एक ऋषि को सौंप दिया बिना उसकी इच्छा जाने कि वह क्या चाहती है-

जब दशरथ उसे ऋष्यश्रृंग को
सौंप रहे थे तब क्या उसने
तुमसे कहा कि मैं किसी ऋषि से नहीं राम भैया जैसे किसी
राजकुमार से ब्याह करना चाहती हूं.  
                 
पवन करण की ये कविताएं निश्चित ही आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होंगी क्योंकि इसका फलक इतना व्यापक है कि हम सोच भी नहीं पाते, याद करने की कोशिश भी करते हैं तो बामुश्किल हमें 10-12चरित्र ही याद आते हैं. यही कारण है कि ये कविताएं कोई मामूली कविताएं न होकर स्त्रियों की महागाथा के रूप में हमारे सामने आती हैं. हालांकि भारतीय समाज जैसा आज है, वैसा सदियों से रहा था, यह कहने में अब कोई संकोच नहीं. मेरा मानना है कि ये कविताएं पढ़कर हम अपने भीतर उस विद्रोह की आंच को महसूस कर सकते हैं, यही इसकी ताकत है और सफलता भी.
 _______________

संपर्क
साधना अग्रवाल
B- 2 / T
दिल्ली पुलिस अपार्टमेंट्स
मयूर विहार फेज—1
दिल्ली—110091
मो0 9891349058
Email- agrawalsadhna2000@gmail.com  


उपन्यास के भारत की स्त्री (चार) : आशुतोष भारद्वाज

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आशुतोष भारद्वाज

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स्त्री का एकांत: अपूर्णता का विधान*
आशुतोष भारद्वाज



पिछली सदी की शुरुआत में एक उपन्यासकार ने एक ऐसी लड़की के बारे में लिखा था जो ग्यारह की उम्र में ही  “अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़-पढ़ कर ख़राब कर चुकी थी.[1]सात दशक बाद एक दूसरे उपन्यासकार ने इसी उम्र की लड़की काया को अपना किरदार बनाया जो उपन्यास तो नहीं पढ़ती थी, लेकिन अगर अनुपमा ने उपन्यास पाठ का एकाकी कर्म चुन अपनी सृष्टि को रचा था, काया ने एकांत को अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग बनाया. अनुपमा ने मान लिया था कि उपन्यास पढ़ उसने मानव प्रेम, आकांक्षा और सौंदर्य के बारे में सब कुछ जान लिया है, काया मानना चाहती है कि बगैर किसी सहारे के वह सम्पूर्ण हो सकती है.

लाल टीन की छत (१९७४) की काया अपनी बीमार गर्भवती माँ और छोटे भाई के साथ शिमले के पहाड़ पर रहती है. पिता अक्सर दौरे पर रहते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि माँ के पेट में किसका बच्चा है, माँ के बारे दबी-छुपी चीज़ें उड़ती रहती हैं. काया पूरा दिन चीड़ और खुबानी के पेड़ों के बीच घूमती है, किसी अज्ञात अतीत के प्रेत उसके ऊपर मँडराते हैं, वह रेल की सीटी सुनती है जो कालका जाती है जिसके परे मिथकीय मैदान शुरू होते हैं. पहाड़ की परछाईयाँ उसके भीतर इतनी विविध अनुभूतियों को जन्म देती हैं जिन्हें वह समझ तक नहीं पाती, किसी से कहने की बात तो दूर. यह भारतीय साहित्य का एक विरला क्षण है जब हम किसी बच्ची की खनकती ख़ामोशियों को सुनते हैं. उसके अंतर्लाप, निरी साधारण चीज़ों पर कौतूहल और भय में सना उसका अचंभा.


*
एकांत व्यक्तिवाद या अकेलापन नहीं है, निर्वासन या निष्कासन तो क़तई नहीं. यह अस्तित्व की एक सघन और निविड़ अवस्था है जहाँ मनुष्य किसी आंतरिक तलाश, अन्वेषण या साधना के लिए स्वेच्छा से एकांत चुनता है- तलाश और साधना का यह भाव एकांत को ऐसी अन्य स्थितियों से अलग ले जाता है जहाँ मनुष्य अकेला या तन्हा दिखाई देता है. यह कोई शास्वत अवस्था भी नहीं है, इसके अनेक रंग हैं- एक संत का एकांत, कलाकार या खिलाड़ी का एकांत.
पिछली सदियों में एकांत समाज से सम्पर्क काट लेने के बाद हासिल किया जाता था, साधक वन में चले जाते थे. तकनीक की नींव पर टिका आधुनिक समाज इस तरह के अवकाश आसानी से नहीं देता. अपने स्व का एक बड़ा भाग अपने भीतर सहेज, वह भाग जो किसी अन्य को दिया नहीं जाता, एकांत के आधुनिक गीतकार ने दूसरों की उपस्थिति में भी अपने साथ रहना सम्भव किया है. ज़ाहिर है यहभीड़ में अकेलावाली एक अन्य आधुनिक स्थिति से एकदम अलग है.

यह कोई स्थाई भाव भी नहीं है जिसे जीवन के प्रत्येक पहर में हासिल किया जा सके. स्वेच्छा से एकांत चुनता इंसान अक्सर इसके धोखादेय तीखे किनारों पर फिसल जाता है. कई बार असहनीय अकेलेपन के क्षण भी आते हैंभीषण अवसाद, क्रूर विचलन और कभी तो मनुष्य अचानक से ढह भी जाता है. 

एकाकी मनुष्य किसी साथी के लिए तड़पाती चाह में नहीं रहेगा, अकेलेपन को लेकर शिकायत या शोक नहीं करेगा, लेकिन वह अपने स्व के साथ एक सतत् द्वंद्व में ज़रूर रह सकता है, बदलते भावों को साधने का संघर्ष करते हुए. यह संघर्ष मानवीय जिजीविषा का एक सम्मोहक अध्ययन है.

मीरा या अक्का महादेवी जैसे गिने-चुने उदाहरणों के सिवाय एकांत पर मानव इतिहास में अमूमन पुरुष का ही विशेषाधिकार रहा है जो अक्सर स्त्री की क़ीमत पर ही हासिल हुआ है. बुद्ध ने आंतरिक साधना के लिए एकांत चुना था, यशोधरा बाध्य थीं उस अनुपस्थिति को स्वीकार करने के लिए जो पुरुष के निर्णयस्वरूप उन पर आ ठहरी थी. घर के भीतर रहती अकेली स्त्री पुरुष द्वारा छोड़ दिये गए पारिवारिक दायित्व निभाती थी.

आधुनिक जीवन ने शायद पहली बार स्त्री को वह जगह दी जहाँ वह अपने एकांत, अपने कमरे को चुन सकती थी. लेकिन यह कमरा आसानी से उपलब्ध नहीं था, घर और उपन्यास में भी नहीं. इस विधा के जन्म से ही यूरोप के उपन्यास किसी आंतरिक या बाह्य यात्रा में निकले पुरुष को रॉबिंसन क्रूसोऔर डॉन कीहोतेजैसे नायकों में चित्रित करते रहे हैं, एक लंबी परंपरा जो जल्दी ही नोट्स फ्रम द अंडरग्राउंडतक पहुँच जाती है. लेकिन एकाकी स्त्रियाँ बहुत देर से और बहुत कम आती हैं. मदाम बोवारीऔर अन्ना करेनिनाएकाकी नहीं अपने अकेलेपन से जूझती स्त्रियाँ थीं जो अपने उपन्यासों की तमाम कलात्मक शक्ति के बावजूद आखिर में प्रेम ही खोज रहीं थीं, इसके अलावा उनकी आकांक्षा और कहीं नहीं पहुँचती थी. प्रेम निश्चय ही एक बड़ी साधना है, अपनी पूर्णता के लिए एकांत मांगती है(रोलां बार्थ ने अ लवर्स डिस्कोर्समें कहा भी है: प्रेम का संवाद सघन एकांत में घटित होता है.), लेकिन यह प्रत्यय स्त्री के संदर्भ में इतना लहूलुहान हो चुका है कि सतर्कता स्वाभाविक है.

जैसा कि केलसे मैकिनीदर्ज करती हैं:

पुरस्कृत और सिंहासन पर बिठाई गयीं स्त्री-केन्द्रित किताबें उन स्त्रियों के बारे में थीं जैसा मैं होना नहीं चाहती थी. जेन आयर रोचेस्टरके प्यार में अंधी थी, जैसा प्राइड एंड प्रेजुडिसकी बेनेट बहनें हैं. द स्कारलेट लेटरकी हेस्टर प्रायिन अत्यधिक मातृत्व में डूबी है, और कोई भी अन्ना करेनिना की तरह बड़ा नहीं होना चाहता. ये स्त्रियाँ शादी करना और बच्चे पैदा करना चाहती थीं. वे तीन सौ पन्नों में एक ऐसे आदमी के लिये रिरियाती थीं जो उनके साथ रहना नहीं चाहता. ऐसा लगता था वे अपनी ही कथा में सहनायिका होना चाहती थीं...इन स्त्री किरदारों की कथा असफल प्रेम की कथा थी, एकांत में स्व की तलाश की कोई कथा न थी... साहित्य की लड़कियां खुद को हासिल करने के लिए लंबी यात्राओं पर नहीं निकलतीं, वे पुरुष को पाने के लिए यात्रा करती हैं...मॉडर्न लाइब्रेरीद्वारा संकलित किए गए (दुनिया के) 100 महानतम उपन्यासों में सिर्फ नौ में ही स्त्री प्रमुख किरदार है, और इसमें से सिर्फ एक किताब- मुरियल स्पार्ककी द प्राइम ऑफ मिस जियां ब्रोदी - में ही स्त्री पति को पाने या बच्चे पालने के अलावा कोई और आकांक्षा रखती है. इस तरह महानतम उपन्यासों में  से सिर्फ एक प्रतिशत उन स्त्रियों के बारे में है जो प्यार करने के अलावा भी कुछ करती हैं.[2]

भारतीय उपन्यास के केंद्र में आरंभ से ही स्त्रियाँ रहीं हैं, काफी स्वतंत्र भी हैं, लेकिन एकांत शायद ही उनके अस्तित्व की जरूरत रही है.उमराव जानएक अपवाद हैं जो वेश्यालय के जीवन और कई प्रेम सम्बन्धों के बावजूद अपने अस्तित्व का बड़ा भाग अनछुआ रखे रहती हैं. उनका एकांत भले ही विविध रंगों में उद्घाटित नहीं होता, लेकिन उनके भीतर एकाकी नायिका के चिन्ह दिखते हैं. स्त्री किरदार विद्रोही और निर्भीक होते गए, लेकिन उनका विद्रोह अक्सर यौन मसलों पर ही एकाग्र रहा. स्त्री के लिए प्रेम और यौनिक स्वतन्त्रता का निश्चित ही महत्व है, स्त्री के द्वारा उपन्यास में हासिल की जाने वाली यह पहली आज़ादी रही है लेकिन तुलना करें उन तमाम पुरुष किरदारों से जिनकी तड़प उन्हें स्त्री-प्रेम के अलावा भी कई दिशाओं में ले जाती थी. दिलचस्प है कि यह प्रवृत्ति सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्री उपन्यासकार के लेखन में भी दिखती है.

शेखर: एक जीवनीऔर मित्रो मरजानीअपने शीर्ष किरदारों के विद्रोह की वजह से जाने जाते हैं. शेखर प्रेम में है लेकिन उसकी तलाश उसे कई राहों पर ले जाती है, वह एक बैचेन लेकिन बौद्धिक पीढ़ी का प्रतिनिधि है (शेखर के किरदार की अंतर्निहित समस्याओं को इस लेखक ने अन्यत्र रेखांकित किया है), जबकि रचे जाने के पचास साल बाद भी मित्रो अमूमनअपनी यौनिकता की स्वच्छंद अभिव्यक्तिके लिए याद की जाती है. कमला दास की आत्मकथा माई स्टोरीका एक ऐसी स्त्री की कहानी बतौर जिक्र होता है जो अपनी सेक्सुएलटी के अनेक आयाम खोज और हासिल कर रही है.

क्या इसकी वजह यह है कि उपन्यास के पन्नों और शायद उसके बाहर भी स्त्री के लिए पहली स्वतन्त्रता उसकी देह ही होनी थी, एक ऐसी स्वतन्त्रता जो अनेक लेखकों के अनुसार आज भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं हो पायी है? या किसी एकाकी स्त्री को किसी विराट यात्रा पर जाते देखना रचनाकार को अभी भी असहज बना देता है? चूंकि यात्रा, भले वह आंतरिक हो या बाह्य, उल्लंघन की संभावना बनाती है, यात्री को समाज और परिवार के प्रभाव या चंगुल से दूर ले जाती है, क्या ऐसी यात्रा का स्पेस उपन्यास की स्त्री के पास आज भी सीमित है?


इस दृष्टि सेलाल टीन की छतएक विरला उपन्यास है. एक बारह साल की लड़की शायद पहली बार किसी उपन्यास में एकांत को चुनती और निभाती है. 

शाम के सन्नाटे में जब वह हिलते दरवाज़ों की खटखटाहट सुनती, तो अचानक यह भ्रम होता कि वह मकान बिल्कुल ख़ाली है, उजाड़ और ख़ालीशहर के और मकानों की तरह, जिनके मालिक सर्दियों में बाहर चले जाते थे. उसे भयानक-सा ख़याल आता कि अगर वह रात-भर अपने घर के सामने अंधेरे में खड़ी रहे, तो भी किसी को उसका अभाव नहीं अखरेगा. वह मकान उसके प्रति इतना ही उदासीन रहेगा, जितना चारों तरफ़ खड़े पहाड़, जो सब-कुछ देखते हैं, लेकिन अपनी जगह से एक इंच भी डाँवाडोल नहीं होते. उन दिनों काया ने पहली बार अपने अकेलेपन को देखा थासाफ़-साफ़ अंधेरे में.

उसे डर नहीं लगा था. सिर्फ़ एक अजीब-सा कौतूहल था, जैसे अकेलापन कोई बीमारी है, जो भीतर पनपती है, और बाहर से जिसे कोई देख नहीं सकता- न छोटे, न माँ, न मिस जोसुआ- और उसे लगता जैसे माँ बड़ी हो रही हैं, वैसे वह भी, हालाँकि माँ को सब देख सकते थे, उसे कोई नहीं.[3] 

काया को माँ के दुलार या किसी भावात्मक सहारे की चाह नहीं, पहाड़ पर अकेले पड़ जाने पर कोई शिकायत नहीं. वह एकांत की रंगतों को पूरी तरह समझ नहीं पाती, लेकिन उसने इसे संपूर्णता में स्वीकार कर लिया है, इससे बचकर नहीं भागती. वह सिर्फ़ अचम्भित है कि सृष्टि उससे इस कदर बेखबर है कि उसके गुम हो जाने का साक्षी कोई न होगा. उपरोक्त दृश्य के थोड़ी देर बाद वह माँ के पास जाती है और माँ उसे देख चौंक जाती है. माँ उसकी ओर देखती रहीं, यह उनकी लड़की है, एक क्षण के लिए विश्वास न हो सकाजैसे वह कोई बाहर की लड़की है, इस घर में शरणार्थी की तरह रहती हैऔर वह उसकी कोई मदद नहीं कर सकतीं.
कुछ लोग हमेशा मदद के परे होते हैंकाया शायद ऐसी ही थी.

एक माँ अपनी बारह साल की बेटी में एक अजनबी को देखती है, किसी मदद से परे. यह लड़की किस राह पर चल रही है? एक और वाक्या जब काया के पिता उसे हॉस्टल भेजने के बारे में बतलाते हैं, और फिर हिचकते हुए कहते हैं कि उसके चाचा का घर हॉस्टल के नज़दीक हैतुम कभी भी उनके घर जा सकती हो”. इस पर काया की प्रतिक्रिया देखिए— 

क्या इसलिए उन्होंने मुझे बुलाया था, तसल्ली के दो टुकड़े मेरे आगे फैंके थे और मैं उन्हें उठा लूँगी? मैं समझ गयी. मैं चुप बैठी रही. कहीं भी जा सकती थी. उनके घर, अपने घर˙˙˙मुझे कोई जल्दी नहीं थी, कोई डर नहीं था, कोई उम्मीद नहीं थी˙˙˙उस साल की सर्दियों में मैंने ये तीनों चीज़ें खो दी थीं, और यह बात मैं उनसे कहना चाहती थी.[4] 

एक लड़की डर, उम्मीद और किसी तसल्ली के बग़ैर एकांत को अदम्य निष्ठा से जी रही है. निर्मल के एकाकी किरदारों को समझने के लिए निष्ठा महत्वपूर्ण कुंजी है. निर्मल के किरदार एकांत को जतन और गरिमा से ओढ़ते हैं. उनकी कथाओं में टेबिल लैम्प, नोटबुक और रेकॉर्ड प्लेयर सरीखी निर्जीव वस्तुएँ भी एकाकी दिखाई देती हैं. अवसाद का बादल उन पर उतर आता है, वे अपने भीतर स्पंदित होती अनुपस्थिति को सुनते हैं, लेकिन उनकी वाणी तीखी नहीं होती. चूंकि वे इस अवस्था को अक्सर थाम नहीं पाते, यह उन्हें और उनके परिवेश को एक रहस्य भरी आभा में पिरो देता है. 


*
मानो काया का जीवन शिमला के पहाड़ पर पूरा नहीं होता, वह और उसका छोटा भाई कुछ साल बाद एक चिथड़ा सुखकी बिट्टी और मुन्नू में तब्दील हो जाते हैं. तेरह के आसपास काया अपना घर छोड़ हॉस्टल चली जाती है, बिट्टी करीब बीस की उम्र में इलाहाबाद का घर छोड़ देती है, लेकिन क्या घर छोड़ देने से तलाश मिट जाती है?

बिट्टी की आँखें ख़ाली हवा पर ठिठक गयीं, फिर बहुत हल्के स्वर में बोली, “हिंदुस्तान में कोई कुछ नहीं छोड़ता; मैंने कुछ नहीं छोड़ा˙˙˙पहले मैं बाबू के घर में रहती थी, अब यहाँ बरसाती मेंमैंने जब इलाहाबाद छोड़ा था तो सोचा था कि अब मैं छोटी-छोटी चीज़ों के घेरे से बाहर आ जाऊँगी˙˙˙वह धीरे से हंस पड़ी, “अब मैं बड़ी चीज़ों के बीच में हूँ˙˙˙लेकिन मैं उतनी ही छोटी हूँ, जितनी पहले˙˙˙मेरे भीतर कुछ नहीं बदला है!”[5]
[…]

कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफ़ी सम्पूर्ण दिखाई देते हैंउन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं होती. किंतु बिट्टी में कोई ऐसा मुकम्मलपन नहीं दिखाई देता थावह जैसे कहीं बीच रास्ते मेंठिठकी-सीदिखाई देती थी, जबकि दूसरे लोग आगे बढ़ गए हों.[6]  
    
              
बिट्टी को लगता था थिएटर उसे पूर्ण कर सकेगा, लेकिन दिल्ली आ वह ख़ुद को कहीं अधूरा पाती है. इसी अधूरेपन को इरा भी जीती है. लेकिन इन दोनों किरदारों के भीतर एक गुण और भी है जो इस अध्याय के लिए महत्वपूर्ण है. इरा और बिट्टी प्रेम में हैं, लेकिन इस अनुभव ने उनके एकांत की आकांक्षा को कम नहीं किया हैं. बिट्टी और डैरी नियमित मिलते हैं लेकिन बिट्टी ने उस स्पेस को बचाए रखा है जहाँ डैरी की जगह नहीं है. प्रेम के क्षणों में भी बिट्टी को अपने भीतर के अलंघ्य कोटर-किनारों को सहेजने का बोध बना रहता है. इस उपन्यास में एकांत की तड़प और ख़ुद को पा लेने की आकांक्षा स्त्री में पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक है. जिस आकांक्षा की जगह उपन्यास की पिछली पीढ़ी की स्त्री के पास लगभग नहीं थी वह निर्मल के किरदारों में पूर्ण होती है. जयदेव ने निर्मल की कथाओं को विदेशी कहा है लेकिन अगर आत्म-बोध भारतीय संस्कृति के बुनियादी मूल्यों में है, क्या इरा और बिट्टी तमाम जोखिम उठा कर उस दिशा में चलती नहीं दिखाई देतीं?



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निर्मल के गल्प संसार की स्त्री को अरुंधती रॉयके द गॉड अव स्मॉल थिंग्सकी अम्मू के बरक्स देख सकते हैं.[7]केरल में रहती एक तलाक़शुदा सिरियन ईसाई माँ जो एक अछूत के साथ सम्बंध बनाती है.

जब कभी अम्मू रेडियो पर अपने पसंदीदा गाने सुनती थी, उसके भीतर कुछ फिसलने लगता था. एक तरल दर्द उसकी त्वचा पर बह आता,और वह किसी जादूगरनी की तरह इस दुनिया से बाहर निकल किसी बेहतर और सुखी जगह चली जाती. ऐसे दिनों में उसके भीतर एक छटपटाहट,एक बनैलापन समा जाता,मानो उसने मातृत्व और तलाक की नैतिकता को कुछ समय के लिए परे कर दिया हो...वह बालों में गजरा लगाती,उसकी आँखों में जादुई रहस्य चमकने लगते.  वह किसी से बात नहीं करती, अपने रेडियो के साथ नदी किनारे घंटों बैठी रहती. वह सिगरेट पीती और आधी रात को नदी में तैरती...जिन दिनों रेडियो अम्मू के गाने बजाता था हर कोई उसे देख सशंकित हो जाता. उन्हें मालूम चल जाता था कि वह दो दुनिया के बीच ठहरे छायालोक में जी रही है, उनके अधिकार क्षेत्र से परे. कि जिस औरत को वे पहले ही तिरस्कृत कर चुके हैं,उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था, और इसलिए वह घातक हो सकती थी.[8]

अम्मू अपने एकांत में जीती नज़र आती है, लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? उसके जीवन को दो सम्भावनाओं के ज़रिए देख सकते है. अम्मू ने अपने तलाक़ को स्वीकार कर लिया है लेकिन वह कहीं और भाग जाना चाहती है. अम्मूकाअपनेपरिवारऔरसामाजिकनियमोंकेख़िलाफ़विद्रोहउपन्यासकीबुनियादहै.लेकिनसतहकोथोड़ाखुरचिये, उसकाविद्रोहअपनेभाईचाकोऔरउसकीविदेशसेलौटीपत्नीमार्ग्रेटकोचम्माकेबीचसहसाउमड़ेप्रेमकेख़िलाफ़नज़रआताहै.उपन्यास का अंत इस भाव पर होता है जो अम्मू के भीतर वेलुथा के साथ पहली बार संबंध बनाने के बाद उमड़ता हैहाँ, मार्ग्रेट, अम्मू ने ख़ुद से कहाहम भी ऐसा करते हैं!

उपन्यास का यह अंत अम्मूकेविद्रोहकोसमझनेकीकुंजीहै.अंतरंगता के इस दुर्लभ क्षण जो अम्मू को न मालूम कितने सालों बाद हासिल हुआ है उसे अपने भाई की पत्नी एक ईर्ष्यालु विजयके साथ क्यों याद आ रही है? क्या अम्मू का विद्रोह ईर्ष्या से जन्मा है? क्या यह वाक़ईप्रेम के नियमतोड़ने की आकांक्षा थी ---नियम जो तय करते थे किसे प्रेम किया जाएगा, कितना और किस तरह से” ---जिसका यह उपन्यास बार-बार दावा करता है? या अम्मू का विद्रोह अपने भाई और उसकी पत्नी के ख़िलाफ़ था? अपने बच्चों की उपेक्षा देखती एक माँ घर में आयी दूसरी स्त्री और उसकी बच्ची पर उड़ेले जा रहे प्यार से झुलस जाती है. किसी कीड़े की तरह उसे कुरेदता यह घाव एक अछूत से सम्बंध बनाने के निर्णय में तब्दील होता है. एक पुरुष जो उसके पड़ोस में अरसे से रहता आया था लेकिन जिसके साथ उसका कभी कोई संवाद नहीं था. उन दोनों के बीच कोई जुड़ाव या लगाव नहीं था जिसका अवसर आने पर विस्फोट हुआ हो. क्या यहाँप्रेम के नियमनहीं थे जिन्हें चुनौती देनी थी, बल्कि सिर्फ़ प्रेम का आघात था जिसका बदला एक ऐसी स्त्री लेना चाह रही थी जिसे पहले ही तिरस्कृत किया जा चुका था,उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था,और इसलिए वह घातक हो सकती थी”?

क्या अम्मू का विद्रोह निहायत ही रूढ़िगत कर्म है जहाँ एक घायल स्त्री आवेश में आ सामाजिक पायदान में अपने से कहीं निचले  पुरुष के साथ संबंध बनाती है?

क्या उपन्यास अम्मू को इसके अलावा कोई और विकल्प देता है? क्या ऐसा भी विद्रोह हो सकता था जो इस हिंसक और तात्कालिक चोट से कम अम्मू की सघन आकांक्षा से अधिक संचालित होता था? वह बेचैन है, लेकिन आंतरिक साधना या तलाश उसका लक्ष्य नहीं है. क्या अम्मू का किरदार उस निरीहता को चिन्हित करने में मदद कर सकता है जो एकांत से उपजी प्रतीत तो होती है, लेकिन उसका स्रोत शायद कहीं और भी है?

लेकिन इस उपन्यास को दूसरी तरह से भी पढ़ा जा सकता है. अगर अम्मू के विद्रोह के बीज ईर्ष्या में हैं तो उसका वेलुथा के साथ संबंध प्रश्नांकित हो जाता है. वेलुथा अम्मू के लिए महज़ एक औज़ार बन जाता है जिसके ज़रिए वह अपनी बग़ावत  को अंजाम देती है. उपन्यास दोनों के सम्बंध को इतनी नज़ाकत और ख़ूबसूरती के साथ चित्रित करता है कि यह एक ईर्ष्यालु स्त्री की सम्भावना से आसानी से मेल नहीं खाता. भले ही अम्मू का विद्रोह परिवार और समाज,और शायद उसके भूतपूर्व पति के भी ख़िलाफ़ था लेकिन यह सार्वजनिक कर्म नहीं था, सार्वजनिक करने की आकांक्षा लिए नहीं था. यह एक अत्यंत निजी कर्म था, जो उसके द्वारा निर्मित स्पेस में घटित हुआ था, और इसने उसे सम्पूर्ण किया था. इस पर ईर्ष्या की बूँदें भले गिरी हों, लेकिन इसने अम्मू को ऐसे सुख में डुबो दिया था जो उसने शायद कभी अनुभूत न किया था. शायद यही उसकी तलाश थी—- बेलौस सुकून के कुछ लम्हे जहाँ वह ख़ुद को मुक्त आकाश में पाती थी, अपने खोए स्व को हासिल करती थी.

इसे थोड़ा और जटिल बनाते हैं, दूसरी सम्भावना को एक चिथड़ा सुखके बरक्स रखते हैं. इरा का प्रेम भी कथित सामाजिक नियमों के विरुद्ध है. वह अपनी आकांक्षा की असंभाव्यता से वाक़िफ़ है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आंतरिक है. अम्मू मार्ग्रेट कोचम्मा को सामने पा ईर्ष्या से सुलग जाती है, इरा नित्ती भाई की पत्नी को देख घनघोर ग्लानि से भर उठती है, पीछे हट जाना चाहती है. क्या इन दोनों उपन्यासों की स्त्रियों का प्रेम के आघात के प्रति दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर भिन्न है? अम्मू का विद्रोहमातृत्व और तलाक़ की नैतिकताके खिलाफ है. उपन्यास मानता है कि प्रेम-नियमों को तोड़े बग़ैर अम्मू अपने जीवन में सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर सकती.

इरा और बिट्टी भी प्रेम के नियमों को तोड़ती हैं, लेकिन वे अपने निर्णयों की कड़ी आलोचक हैं, उन्हें निरंतर परखती हैं.वे कोई कमतर विद्रोही नहीं हैं, वे परिवार को बहुत कम उम्र में छोड़ अपने सपनों की तलाश में निकल पड़ी हैं. लेकिन उनके कर्म का मानदंड सामाजिक नियम नहीं, उनका अपना स्व है जो सही और ग़लत का भेद करता है. वे ख़ुद को कटघरे में खड़ा करती हैं, अपने ख़िलाफ़ सबूत पेश करती हैं, गवाह भी बनती हैं, और ख़ुद पर बिना हिचक फ़ैसला सुनाती हैं.

दोनों उपन्यासों में पुरुष की मृत्यु हो जाती है. नित्ती भाई आत्महत्या कर लेते हैं, वेलुथा की मौत पुलिस टॉर्चर से होती है. दोनों उपन्यास इस मृत्यु और स्त्री की भूमिका को कैसे देखते हैं? भिन्न परिस्थितियों में हुई दोनों मृत्यु एक साझा धुरी पर टिकी हैंयह मृत्यु प्रेम की वजह से, “प्रेम के नियमोंके उल्लंघन की वजह से हुई है. अरुंधती के  उपन्यास में मृत्यु की वजह सामाजिक-राजनैतिक अन्याय है, जो यह निसंदेह है. निर्मल के उपन्यास में यह मनुष्य के चुनावों का अनिवार्य परिणाम है. पाठक को शुरू में ही आभास हो जाता है कि इरा और नित्ती भाई की राह मृत्यु-आकांक्षा में डूबी हुई है, उसे यहीं ख़त्म होना था. यह उपन्यास समाज को ज़िम्मेदार नहीं ठहराता, हालाँकि सामाजिक नियमों को दोषी ठहराते बिंदु कथा में आराम से पिरोए जा सकते थे, लेकिन निर्मल अपने किरदारों के लिए कोई रहम, सहानुभूति नहीं चाहते.चूंकि इरा प्रेम के नियमों का उल्लंघन कर रही है इसलिए अपने प्रेमी की मृत्यु की ज़िम्मेदारी भी उसकी ही होगी. एक अच्छा उपन्यासकार अपनी सहानुभूति को बराबर-बराबर मात्रा में सब पात्रों को देता है, एक महान उपन्यासकार अपनी सहानुभूति के विरुद्ध संघर्ष करता है,” निर्मल ने अन्यत्र कहीं लिखा है.

आधुनिक जीवन में स्वतंत्रता का अर्थ है अनेक उपलब्ध विकल्पों में किसी एक को चुन लेने का अधिकार. अम्मूअपनेनिर्णयलेनेमेंकितनीस्वतंत्रहै?

यहाँ स्त्री द्वारा किए गए भिन्न क़िस्म के चुनावों के बीच कोई श्रेणी पैदा करने का उद्देश्य नहीं, बल्कि आख्यान की अनेक संभावनाओं को परखने का प्रयास है.



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इस लेख में जिन उपन्यासों का ज़िक्र हो पाया है वे ज़ाहिर है समूचे भारतीय उपन्यास और उसकी स्त्री का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते. अम्मू और चंद्री के अलावा भी इरा जैसे अनेक स्त्री किरदार हैं जिनके पास कहीं अधिक विकल्प हैं. लेकिन इसके बावजूद यह कहने में कोई समस्या नहीं कि क़रीब सवा सौ वर्षों के दौरान अनेक भाषाओं में लिखे गए जिन उपन्यासों को यह लेख केंद्र में रखता है वे निसंदेह भारत के प्रतिनिधि उपन्यास कहे जा सकते हैं. कई और प्रतिनिधि स्त्री किरदार भी होंगी, लेकिन विष वृक्षकी कुंद से लेकर इंदुलेखा, सुचरिता, तारा, मित्रो, चंद्री और अम्मू इतिहास और साहित्य के एक ऐसे लम्बे धागे में पिरोयी हुई हैं जहाँ उनकी संगति में तमाम और स्त्रियाँ भी हैं. उपन्यास में, उसके बाहर भी.

इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपन्यास ने स्त्री को यह सहूलियत तो बहुत जल्द दे दी थी जहाँ वह अपने एकांत में इस विधा से संवाद कर सकती थी, लेकिन ऐसा एकांत जहाँ वह ख़ुद को बग़ैर किसी सहारे के तलाश सकती अभी भी हासिल नहीं हुआ है.

एक सच्चाई और भी है. अपूर्णता का विधान. अपने अस्तित्व की तलाश में निकली एकाकी स्त्री मानव इतिहास और साहित्य में चूँकि हाल ही आयी है, तमाम रचनाकार इसके सामने असहज महसूस करते हैं. बड़ी स्त्री रचनाकार भी जो स्त्री मसले पर अपने सशक्त वक्तव्यों के लिए जानी जाती हैं, उनकी स्त्री किरदार के पास भी सीमित विकल्प हैं. पीछे मुड़ कर देखने पर कोई इन किरदारों को अनेक संभावनाएँ दे सकता है, वे सभी राह उकेर सकता है जिनमें से वे सबसे समृद्ध को चुन सकती थीं, लेकिन अतीत को मनचाहे रंग देने से भले ही उनका जीवन कहीं अधिक परिपूर्ण और संतृप्त लगने लगे, उनकी इतिहास और उपन्यास में स्थिति के प्रति शायद यह न्याय नहीं होगा. उन्हें ऐसा ही जीवन जीना था जो भविष्य को अधूरा नज़र आता. उनका सौंदर्यशास्त्र अभाव का सरोवर है, भाषा हिचकियों का रेखाचित्र, साधना अपूर्णता का प्रतिबिम्ब.

उपन्यास की स्त्री अपूर्णताकाविधानहैलेकिनइसअपूर्णतामेंभीवहकहींमुकम्मलहै.

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तीसरा हिस्सा : अनुपस्थिति की कथा

abharwdaj@gmail


Amrita Shergil : Self-portrait



* इस अध्याय के शीर्षक के लिए लेखक बालचंद्र राजन की किताब फ़ॉर्मअवअन्फ़िनिश्ड: इंग्लिशपोएटिक्सफ़्रमस्पेन्सरटूपाउंड  का आभारी  है. 
[1]शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, सम्पूर्ण कहानियाँ: खंड एक, जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली,1998, पृष्ठ- 96.  
[3]लाल टीन की छत, पृष्ठ५२-५३.
[4]वही, पृष्ठ१८७.
[5]वही, पृष्ठ९३.
[6]एकचिथड़ासुख, पृष्ठ२८.
[7]अरुंधती रॉय, द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स, इंडियाइंक, नई दिल्ली, १९९७.
[8]वही, पृष्ठ ४४



उपन्यास के भारत की स्त्री (दो) : आशुतोष भारद्वाज

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(by AnnemZaidi)











उपन्यासों के उदय को राष्ट्र-राज्यों की निर्मिति से जोड़ कर देखा जाता है. ‘वंदे मातरम्’ उपन्यास की ही देन है. आशुतोष भारद्वाज भारत के प्रारम्भिक उपन्यासों में स्त्री और राष्ट्रवाद के सम्बन्धों को देख-परख रहें हैं. इस ‘पौरुषेय’ राष्ट्र-राज्य में ‘स्त्रियाँ’ कहाँ थीं ? इस अध्ययन में मुख्य रूप से झूठा सच, आनंदमठ,घरे बाइरे और गोरा को केंद्र में रखा गया है.

मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस शोध आलेख का हिंदी में अनुवाद खुद लेखक ने किया है. पहला हिस्सा आपने पढ़ लिया है– ‘आरंभिका : हसरतें और हिचकियाँ’ अब इसकी दूसरी कड़ी यहाँ प्रस्तुत है. 



(दो)
उपन्यास के भारत की स्त्री
स्त्री और  राष्ट्रवाद: एक वेध्य आलिंगन                    
आशुतोष भारद्वाज





झूठा सच (१९५८) के पहले खंड के अंत में हिंदू स्त्रियाँ एक सरकारी क़ाफ़िले में भारत में प्रवेश करती हैं. भारत ने हाल ही अपनी नियति से साक्षात्कार किया है. इन स्त्रियों को उनकी मातृभूमि में जिसका नाम अब पाकिस्तान हो गया है मुस्लिम युवकों ने बेतहाशा लूटा है. इन हिंदू स्त्रियों ने रास्ते में तमाम मुस्लिम स्त्रियों को हिंदू युवकों द्वारा लूटे जाते भी देखा है. अमृतसर पहुँचने पर उनके साथ चल रही भारतीय अधिकारी गहरी साँस ले कहती है:

लो बहनो, पहुँच गए... उतरो! तुम्हारा वतन तो छूटा पर अपने देश में, अपने लोगों में पहुँच गयीं.

अधिकारी के शब्द शरणार्थी स्त्रियों को रत्ती भर सांत्वना नहीं देते. नायिका तारा वहीं खड़ी रहती है: वतन और देश! वतन! देश! तारा के मस्तिष्क में गूंज रहा था.

एक अजनबी आकाश उसके ऊपर मँडरा रहा है, नीचे धरती की गंध एकदम बेगानी है.


राष्ट्रवाद का जो स्वप्न भारतीय उपन्यास ने बंदे मातरम के रूप में आठ दशक पहले आनंदमठ (१८८२) में रचा था, जिस स्वप्न ने राष्ट्रभक्तों की अनेक पीढ़ियों को संचालित किया था, वह यशपाल के पन्नों में स्वाहा हो गया है. आनंदमठ की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता काग़ज़ पर मुक्त हो चुकी है, देश को हासिल किया जा चुका है लेकिन राष्ट्र खो गया है.  इस विभीषिका में स्त्री भी खो चुकी है जिसे उस अमूर्त माँ भारती का दैहिक रूप होना था.


स्वप्न की तरह राष्ट्र का बिखरना भी स्त्री के ज़रिए अभिव्यक्त होता है. शरणार्थियों की गाड़ी में ठूँसी हुई एक टूटी हुई स्त्री जो पूछ रही है क्या राष्ट्रवाद का प्रत्यय, जैसा अनेक भारतीय राष्ट्रवादी इसे समझते थे, अति-पौरुषेय, स्त्री-विरोधी है? एक ऐसा आदर्श जिसे स्त्री को कुचल कर ही हासिल किया जा सकता है?


बँटवारे के दौरान हुई हिंसा के लिए साम्प्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. झूठा सच की स्त्रियाँ पूछना चाहती हैं: क्या इस पाश्विक हिंसा के लिए राष्ट्रवाद ज़िम्मेदार है? आख़िर जिन्होंने हमें जानवर की तरह बरता, वे बड़े गर्व से ख़ुद को राष्ट्रवादीकहा करते थे?


*
राष्ट्रीयता के निर्माण में उपन्यास के योगदान का एक गज़ब उदाहरण यह है कि भारत का राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान उपन्यासकारों ने ही रचा है. मातृभूमि को देवी तुल्य वाल्मीकि रामायण और अथर्ववेद सरीखे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है, लेकिन इसकी बतौर एक राष्ट्रवादी आदर्श स्थापना बंदे मातरम के रूप में उन्नीसवीं सदी के एक उपन्यास में हुई. अगर उपन्यास ने राष्ट्र के एक स्वरूप को प्रस्तावित किया तो उसे खुद ही प्रश्नांकित भी किया, उसका विकल्प भी दिया. तत्कालीन उपन्यास स्त्री किरदार को इस आदर्श को अपनाने के लिए आह्वान करते थे, तो यही उपन्यास इस आदर्श को चुनौती भी दे रहे थे. इनकी नायिकाएँ पुरुष का प्रतिकार करती थीं, इन दोनों प्रत्ययों को संशय-समस्याग्रस्त बना, इन्हें कहीं अधिक समरूप और सहिष्णु बनाने के लिए जोर देती थीं. हालाँकि इन स्वतंत्र दिखते स्त्री किरदारों का उपन्यास में चित्रण समस्याहीन नहीं था, बड़ी जटिलताएँ लिए था. लेकिन इस पर थोड़ी देर में आएंगे.


जैसा पहले कहा स्त्री भारतीय रचनात्मक कल्पना की एक स्थायी निवासिनी रही है, लेकिन उपन्यास एक नयी स्त्री को जन्म दे रहा था.


जिस भारतीय लेखक के लिए मिथक और फंतासी न सिर्फ़ साहित्य की विशिष्ट विधायें थीं जिनका अपना अर्थ व यथार्थ था, बल्कि वे विधाएँ सत्य को परखने और हासिल करने का ज्ञानमीमांसीय उपकरण भी थीं, उपन्यास के उद्भव के बाद उस लेखक ने सहसा ख़ुद को यथार्थवाद के एक ऐसे स्वरूप को अपनाते पाया जिसका उससे शायद पहले कभी वास्ता ना पड़ा था. यथार्थवादी आख्यान भारतीय रचना परंपरा में चली आ रही विधाओं, शैलियों और कथाओं का लगभग विलोम बन उभर रहा था. भारतीय उपन्यासकार सिर्फ एक विधा नहीं बल्कि एक जीवन-दर्शन से संवाद कर रहा था, एक ऐसा संवाद जो तमाम समस्याओं में लिपटा हुआ था. उपन्यास एक ऐसा भूगोल रच रहा था जिसके पन्नों में यथार्थवाद के रचनात्मक आग्रह तले, यथार्थवाद जो साहित्य की एक विधा थी और एक विशिष्ट दर्शन भी, एक ऐसी स्त्री का जन्म हुआ जो उपन्यासकार को असहज और आख्यान को संशयग्रस्त करती थी.


राष्ट्रवादीसाहित्य के बड़े ऊँचे शिखर पर बैठा हुआ आनंदमठ  उन आरम्भिक उपन्यासों में है जहाँ स्त्री को केंद्र में रख मिथक और यथार्थ, अमूर्त और स्थूल के बीच यह असहज और हिचकिचाता संवाद दर्ज हुआ है. कोई इसे विडम्बना मान सकता है या रचना प्रक्रिया की सहज माया पर अचम्भित हो सकता है कि जो उपन्यास बंदे मातरम जैसा लोमहर्षक मंत्र देता है, बेड़ियों में बंधी भारत माता को मुक्त कराने का आह्वान देता है, उस उपन्यास में एक भी स्त्री किरदार नहीं है जिसे सामाजिक बंधनों से मुक्त कराने की ज़रूरत हो. इस उपन्यास में कल्याणी और शांति सरीखी एकाध स्त्रियाँ हैं, लेकिन वे लगभग महत्वहीन हैं. आख्यान से उन्हें निकाल दें तो इसके प्रस्तावित आदर्श पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.


(अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बनाया गया
भारतमाता का चित्र
)

इस उपन्यास में स्त्री की अनुपस्थिति की क्या वजह है? एक ऐसी स्त्री जिसे माँ भारती की मूर्ति के समक्ष रखा जा सके, जैसा अन्य उपन्यासों मसलन घरे बाइरे (१९१६) में दिखाई देता है जिसमें एक स्त्री से आह्वान किया जाता है कि वह घर से बाहर निकल राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई करे. आनंदमठ के सन्यासियों की सेना में सिर्फ़ पुरुष हैं. शांति अपने पति सन्यासी जीवनानंद के साथ रहना चाहती है लेकिन उपन्यासकार शांति को सिर्फ़ एक ही विकल्प दे पाता है पुरुष के भेष में चोरी-छुपे सन्यासी सेना में भर्ती हो जाओ. यह विशुद्ध पुरुष आख्यान है जिसमें स्त्री एक अमूर्त आदर्श, एक अनुपस्थिति बतौर ही जगह पा सकती है.


एक साहित्यिक कृति जितना अपने कहे द्वारा ख़ुद को व्यक्त करती है, उतना ही अपने भीतर समायी अनुपस्थिति से भी. क्या बंकिम जो कहना नहीं चाह रहे थे वह उनके रचनाकार का अतिक्रमण कर गया और उनके पाठ में उतर आया? क्या भारत माता का आदर्श जो स्त्री पर असम्भव अपेक्षाएँ लाद देता था इस क़दर अमूर्त था कि इसकी वेदी पर किसी स्त्री को बिठाना सम्भव न था? क्या इस तरह का राष्ट्रवाद और इस तरह की स्त्री सिर्फ़ अमूर्तन में ही सम्भव थी?


चूंकि कोई स्त्री किरदार ऐसे सवाल उठा सकती थी जो उपन्यास के आदर्श को खंडित कर सकते थे, इसलिए शायद  उपन्यासकार के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह किसी स्त्री से अपने पन्नों में संवाद कर पाता. क्या यह एक पुरुष उपन्यासकार द्वारा अपनायी गयी युक्ति थी जिसके ज़रिए उसकी कथा में हस्तक्षेप करती एक बाह्यउर्फ़ दूसरीसत्ता को अपने आख्यान से बाहर रखा जा सकता था?

क्या बंकिम इस अनुपस्थिति से अनजान रहे होंगे?

(बंकिम )


तीन दशक बाद एक रचनाकार बंकिम को औपन्यासिक जवाब देता है जब उसकी स्त्री किरदार माँ भारती के आदर्श को ठुकरा देती है. लेकिन घरे बाइरे राष्ट्रवाद को बिमला के ज़रिए संशयग्रस्त ज़रूर करता है, इस प्रक्रिया में यह उपन्यास खुद ही उलझ जाता है.



बिमला को सम्मोहित करता संदीप उसका स्वदेशी आंदोलन से परिचय कराता है, उसमें भारत माता को देखता है, उसे क्वीन बीउर्फ़ रानी मधुमक्खी कहता है. अब तक घरेलू जीवन जीती आयी बिमला मानने लगती है: मैं अब राजा के घर की औरत न रही थी, बंगाल की स्त्री की एकमात्र प्रतिनिधि थी. और वह (संदीप) बंगाल का पथ-प्रदर्शक था.


पूरे उपन्यास में अपने पति निखिल और संदीप के बीच डोलती रहने के बाद बिमला को रबिन्द्रनाथ टैगोर अंत में वापस घर तो ले आते हैं लेकिन आख्यान की गाँठें सुलझने के बजाय अधिक जटिल हो जाती हैं.


क्या उसकी वापसी अंतिम और निरापद है? क्या यह वाक़ई उग्र राष्ट्रवाद पर वैचारिक विजय का प्रतीक है जिसका प्रवक्ता संदीप है? शायद नहीं. बिमला की वापसी दो दरवाज़ों से होती है स्वदेशी आंदोलन और संदीप. लेकिन उपन्यासकार टैगोर के स्वदेशी आंदोलन पर दृष्टिकोण को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बिमला का इस आंदोलन की राजनीति से मोहभंग होना ही था, युवा क्रांतिकारियों के प्रति उसका आकर्षण अस्थायी ही रहना था. अगर बिमला आंदोलन में बनी रहती या इसकी एक प्रमुख नेता बन जाती तो यह उपन्यास राष्ट्रवादी राजनीति की इस क़दर आलोचना शायद नहीं कर पाता. क्या उपन्यासकार ने बिमला को घर से बाहर अपने अस्तित्व को राजनीति के भँवर में तलाशने के लिए नहीं बल्कि इस राजनीति को कहीं अधिक शक्ति से ठुकरा देने के लिए भेजा था?

बिमला की दूसरी वापसी प्रेम के द्वार से दर्ज होती है जब उसे बोध होता है कि संदीप प्रेमी नहीं, फ़रेबी और फन्देबाज़ है. चूँकि टैगोर संदीप को किसी बेहतर रोशनी में चित्रित कर ही नहीं सकते थे, क्या यह वापसी भी पूर्वनिर्धारित थी?



ऐसे आख्यान की कल्पना कीजिए जिसमें संदीप अवगुणों का भंडार नहीं है और इसलिए भले ही बिमला स्वदेशी राजनीति से विमुख हो जाती है, वह संदीप की प्रेमिका या घनघोर प्रशंसक बनी रहती है. ऐसा आख्यान असंभाव्य नहीं, और यह उपन्यास के लिए अनेक रास्ते भी खोल सकता है.



लेकिन टैगोर के लिए संदीप को प्रेम और स्वदेशी आंदोलन दोनों ही मोर्चों पर लुढ़कते हुए दिखाना शायद ज़रूरी था क्योंकि तभी वे उपन्यास में उस राजनीति का प्रतिकार कर पाते जिसके विरोध में वे अपने व्यक्तिगत जीवन में पहले ही एक ठोस  वैचारिक मत ले चुके थे. स्वदेशी आंदोलन में संदीप जैसे किरदार भी रहे होंगे, लेकिन इसका संचालन अनेक श्रेष्ठ नेता भी कर रहे थे जो इस राजनैतिक विचार को कहीं अधिक निष्ठा से धारण करते थे. संदीप और निखिल के बीच के फ़र्क़ को गहरा करने के लिए टैगोर एक दुर्बल और दाग़दार इंसान को स्वदेशी आंदोलन का प्रतिनिधि बना देते हैं. क्या यह उपन्यासकार की एक गहन रचनात्मक भूल थी जिसकी वजह यह थी कि टैगोर दो विकल्पों के मध्य फ़ंसी बिमला को चुनाव करने में सहूलियत देना चाहते थे? उपन्यासकार अपने राजनैतिक विचार के लिए स्वतंत्र है लेकिन एक उपन्यास अपने रचयिता का प्रवक्ता नहीं होता, और अगर यह होने की आकांक्षा रखता है जैसा घरे बाइरे में है तो मानव जीवन की बारीकियाँ और विडम्बनायें जो कथा को समृद्ध बनाती हैं पिछले दरवाज़े से बाहर हकाल दी जाती हैं.


इस तरह से बिमला की वापसी अंतिम प्रतीत नहीं होती, उसके दरवाज़े बाह्य दुनिया के लिए हमेशा को बंद नहीं हुए हैं. उसने राजनीति को चख लिया है, संदीप के साथ एक वर्जितसम्बंध में भी रह आयी है. इन अनुभवों ने उसके लिए एक नयी सृष्टि का द्वार खोल दिया है. संदीप का अस्वीकार उसके जीवन में एक अस्थायी चरण भी हो सकता है, इसलिए  सम्भव है कि अगर उसकी कथा का विस्तार हो तो वह ख़ुद को फिर से प्रयोग करती पाएगी.


लेकिन एक कहीं बड़ा प्रश्न उपन्यास के सामने खड़ा है: उग्र राष्ट्रवाद को एक स्त्री किरदार के ज़रिए ठुकराना चाहते टैगोर बिमला को उपन्यास में कितनी स्वतंत्रता और कौन से विकल्प दे पाते हैं? पूरे उपन्यास के दौरान टैगोर बिमला को एक  स्वतंत्र और आधुनिक स्त्री बतौर चित्रित करते हैं. वह स्वेच्छा से अपने घर की सीमाएँ लांघती है, फिर ख़ुद ही वापसी का क्षण चुनती है. लेकिन जैसा ऊपर कहा उसका निर्णय उसकी स्वतंत्र इच्छा से कम रचनाकार के हस्तक्षेप द्वारा अधिक निर्धारित होता दिखाई देता है.


आधुनिकता कोई जड़ या एकायामी विचार नहीं है, भक्त-भाव से पालन किया जाने वाला आदर्श भी नहीं. आधुनिकता के साथ अपने संवाद के दौरान अनेक समाजों ने अपने रास्ते और समाधान चुने हैं, लेकिन इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि प्रश्नाकुलता और तर्कबुद्धि आधुनिकता की मूल अपेक्षाएँ हैं. हालाँकि यह भी है कि एक ईमानदार प्रश्नाकुलता सबसे पहले प्रश्न को ही प्रश्नांकित करेगी, प्रश्नकर्ता को कटघरे में खड़ा करेगी. इस मसले पर आगे चर्चा होगी. 


अगर आधुनिक जीवन कठिन विकल्पों के बीच फँसे इंसान से प्रश्नाकुल चुनाव की अपेक्षा रखता है, तो बिमला को दिए गए विकल्प बड़े सरल हैं, संदीप और निखिल काले और सफ़ेद के सपाट युग्म हैं. अगर इन दोनों के मध्य चुनाव कि योग्यता पैमाना है तो उसकी आधुनिकता अधूरी और अप्रामाणिक रही आती है.


लेकिन इस विषय पर बिमला की आलोचना नहीं हो सकती, क्योंकि आधुनिकता कोई पवित्र आदर्श नहीं है. एक उपन्यास इस आदर्श की भक्ति के लिए बाध्य नहीं है. उपन्यास का जन्म भले ही आधुनिक जीवन की कोख से हुआ हो लेकिन इसने यूरोप, जिसे इसकी मातृभूमि माना जाता है, से बहुत दूर जाकर अपने अनेक घर बनाए हैं, अनेक आधुनिकताएँ, उत्तर-आधुनिकताएं और पूर्व-आधुनिकताएं रची हैं. बिमला के लिए प्रश्न उसकी आधुनिकता के स्वरूप का उतना नहीं है बल्कि यह कि किस भूमि पर वह अपने जीवन का चुनाव करती है, और इसका उपन्यास द्वारा प्रस्तावित राजनैतिक वक्तव्य पर क्या प्रभाव पड़ता है. क्या यह कह सकते हैं कि अगर बिमला का चुनाव प्रामाणिक नहीं है, तो उसका माँ भारती के राजनैतिक आदर्श का अस्वीकार वेध्य बना रहेगा, और जिस राष्ट्रवाद का प्रतिकार उपन्यास बिमला के ज़रिए करना चाह रहा है उसमें वांछित धार नहीं आ पाएगी?

उपन्यास ऐसे अनेक प्रश्नों को जन्म देता है.


संदीप और निखिल के इतने एकतरफा चित्रण की वजह क्या यह है कि वे राजनैतिक विचारधारा के वाहक हैं? अगर किरदार राजनैतिक विचारधारा के रूपक बनते प्रतीत होते हैं तो आख्यान पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या किसी राजनैतिक विचार को खंडित कर एक दूसरे विचार को प्रस्तावित करना चाहता उपन्यास किरदारों के विकल्प सीमित कर देने की सम्भावना साथ लिए चलता हैटैगोर उपन्यास के ज़रिए आधुनिकता को परखना और पुनर्परिभाषित करना चाहते थे. लेकिन अगर उपन्यास अपनी राजनीति पहले ही निर्धारित कर लेगा, अपनी कथा की कुंडली पहले ही तय कर देगा, अपने किरदारों को वह स्पेस कैसे दे पाएगा जहाँ वे किसी विषय पर एक निर्भीक और स्वतंत्र हस्तक्षेप कर सकते हैं? क्या इसलिए टैगोर ही नहीं अनेक बड़े उपन्यासकारों का साहित्य की इस आधुनिक विधा और इसके ज़रिए आधुनिकता के साथ संवाद अक्सर संशय और समस्याग्रस्त दिखाई देता है?


एक राजनैतिक उपन्यास बड़ी नुकीली धार पर चलता है. इसके लिए क्रूर आत्मचिंतन अनिवार्य है कि वह एक कलाकृति बनी रहे, किसी राजनैतिक पैम्फ़्लेट में तब्दील न हो जाए. राजनैतिक वक्तव्य अक्सर एकरंगी और इकहरा हो जाता है जिसकी संगति उपन्यास के बहुस्वरीय स्वरूप के साथ नहीं होती. राजनीति की उपन्यास पर विजय का एक हालिया उदाहरण अरुंधती रायका द मिनिस्ट्री अव अट्मोस्ट हैप्पीनेसहै. एक सच्चे राजनैतिक कार्यकर्ता की तरह उपन्यासकार अरुंधती एकदम सपाट, संशयहीन नैतिक उपदेश देने में यक़ीन रखती हैं. इस उपन्यास में किसी बारीक या जटिल विश्लेषण की कोई जगह नहीं, देश की समूची राजनीति को घनघोर घृणा से बरता गया है. एक तोतला-कवि प्रधान मंत्री”, एक ख़रगोश प्रधान मंत्री”, “गुजरात का लल्ला”, एक मिस्टर अग्रवाल जो कभी राजस्व विभागमें थे, बाद में एक मुटल्ले गांधीवादीके प्रधान सिपहसालारबन गए. यह विशेषण  (भारतीय पाठक को इन्हें एक ख़ास चेहरा देने के लिए कोई संकेत नहीं चाहिए) बग़ैर किसी संदर्भ के भर दिए प्रतीत होते हैं, किसी रचनात्मक घर्षण की उपज नहीं लगते. राजनैतिक सामग्री ठूँस देने की उत्कंठा इतनी अधिक है कि जुलाई २०१६ की ऊना मॉब लिंचिंगभी उपन्यास में जगह पा जाती है (यह घटना एकदम आख़िरी मिनट पर जोड़ी गयी होगी क्योंकि उपन्यास २०१७ के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुआ था, प्रेस में छपने बहुत पहले ही चला गया होगा), और आख़िरी पन्नों में अचानक दंडकारण्य की एक महिला माओवादी प्रकट हो जाती है. मसलन पूरे देश के मानवाधिकार हनन का मानचित्र पूरा करे बग़ैर उपन्यास को तसल्ली नहीं मिलेगी.



क्या कोई राजनैतिक उपन्यास अनिवार्यतः लुढ़क जाता है? एकदम नहीं. झूठा सच, द अनबियरेबिल लायटनेस अव बीइंग, द बुक अव लाफ़्टर एंड फ़र्गेटिंग इत्यादि उपन्यास कोरे समाजशास्त्रीय पाठ में निगमित नहीं होते. वे अपने राजनैतिक परिवेश से परे निकल जाना चाहते हैं, निकल भी जाते हैं.


लेकिन उससे पहले प्रश्नाकुलता का ईमानदारी से पालन करते हुए प्रश्न को ही प्रश्न किया जाए: क्या किसी उपन्यास के किरदार अपने रचयिता की विचारधारा से पूरी तरह स्वतंत्र हो सकते हैं? एक महान उपन्यासकार अपने उपन्यास को अपनी मान्यताओं का घोषणापत्र न बनाने के लिए, किरदारों पर अपनी छाया न्यून कर देने के लिए एक गहन आंतरिक संघर्ष से गुज़रता है, लेकिन क्या कोई कृति कभी उन अंतर्दृष्टियों, घनघोर वैयक्तिक अंतर्दृष्टियों और विचारों से मुक्त हो सकती है जो सिर्फ़ वह रचनाकार ही उसे दे सकता है, कोई अन्य नहीं?


वापस टैगोर और उनके एक अन्य राजनैतिक उपन्यास पर लौटते हैं जो घरे बाइरे की तरह राष्ट्रवाद का प्रतिकार स्त्री के ज़रिए करना चाहता है.



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आनंदमठ और घरे बाइरे के मध्य स्थित है गोरा (१९०५), राष्ट्रवाद और आधुनिकता पर ब्रह्म समाज और हिंदू पुनरुत्थानवादियों के बीच चल रहे विमर्श की कथा. ऊपरी तौर यह भले ही नायक-प्रधान उपन्यास है लेकिन इस विमर्श की सबसे सशक्त और समर्थ आलोचना तीन स्त्रियों के ज़रिए होती है सुचरिता, ललिता और आनंदमयी. पहली दो ब्रह्म समाज परिवार में हैं, आनंदमयी हिंदू गृहणी हैं, लेकिन तीनों ही अपने सम्प्रदाय की संकीर्णता से परे निकलती हैं, गोरा और विनय को परिवर्तन के लिए प्रेरित करती हैं. दो उदाहरण लें.


ललिता से विवाह करने के लिए विनय ब्रह्म समाज में दीक्षा लेने को तैयार हो जाता है लेकिन ललिता इसका विरोध करती है:

ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का जो भी धर्म-विश्वास या समाज हो उसे बिलकुल छोड़कर ही मनुष्यों का परस्पर योग हो सकेगा. ऐसा हो तो हिंदू और ख्रिस्तान में दोस्ती हो नहीं सकती. तब तो बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करके एक-एक सम्प्रदाय को एक-एक बाड़े में बंद कर देना ही उचित है.” 1

ललिता विनय से कहती है:

आप अपने को छोटा करके और हेठे करके मुझे ग्रहण करने आएँगे, यह अपमान मैं नहीं सह सकूँगी. आप जहाँ हैं, वहीं अविचलित रहें; यही मैं चाहती हूँ.”2


गोरा के भीतर हुआ परिवर्तन अधिक उल्लेखनीय है. कट्टर हिंदू गोरा जाति व्यवस्था का समर्थक है, मानता है कि राष्ट्र का भविष्य हिंदू के पुनरुत्थान में ही निहित है. उसके भीतर बसी आदर्श हिंदू स्त्री की छवि राष्ट्रीयता पर उसके विचार का ही विस्तार है. विनय और गोरा के बीच एक संवाद इस छवि को स्पष्ट करता है.


देखो गोरामुझे लगता है हमारे स्वदेश प्रेम में एक बहुत बड़ा अधूरापन है. हम लोग भारतवर्ष को आधा ही करके देखते हैंहम भारतवर्ष को केवल पुरुषों का देश मानकर देखते हैं, स्त्रियों को बिलकुल देखते ही नहीं.

गोरा


तो तुम शायद अंग्रेज़ों की तरह घर में और बाहर, जल-थल और आकाश में, आहार-विहार और कर्म में, सब जगह स्त्रियों को देखना चाहते हो? उसका नतीजा यही होगा कि पुरुषों से स्त्रियों को अधिक माना होगाउससे भी देखने में सामंजस्य नहीं रहेगा.


गोरा— 


मैंने जब अपनी माँ को देखा है, माँ को जाना है, तब अपने देश की सभी स्त्रियों को उसी एक रूप में देख और जान लिया है.” 3 


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समाज की स्वाभाविक अवस्था में स्त्री रात की तरह ओझल ही रहती है उसका सारा काज गूढ़ और निभृत हैजहाँ समाज की व्यवस्था स्वाभाविक नहीं है, वहाँ रात को ज़बरदस्ती दिन बनाया जाता हैउसका नतीजा क्या होता है. यही कि रात का जो स्वाभाविक अलक्षित काम है, वह नष्ट हो जाता हैनारी अव्यक्त है; इस अव्यक्त शक्ति को अगर केवल व्यक्त करने की चेष्टा की जाएगी तो समाज का सारा मूल-धन ख़र्च करके उसे तेज़ी से दिवालियापन की ओर ले जाना ही होगा.” 4

(रवीन्द्रनाथ टैगोर)


पितृसत्ता का इस क़दर पक्षधर गोरा सुचरिता के सम्पर्क में आकर अपने विचार की कमज़ोरी और जड़ता पहचानने लगता है. जिस पुरुष ने घर की दीवार से परे कभी स्त्री की भूमिका को नहीं लक्ष्य किया था, वह सुचरिता के ज़रिए सत्य की प्राप्ति करता है”. जिसने आजीवन ब्रह्मचारी रह राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित करने का प्रण लिया था वह सुचरिता से विवाह करने का निश्चय करता है.


सुचरिता के रूप में भारत की नारी-प्रकृति ही उसके सामने प्रकट हो रही थीउसे जान पड़ने लगा, इस लक्ष्मी की ओर हमने तक ही नहीं, इससे बड़ी हमारी दुर्गति और क्या हो सकती है! अपने ही विचारों पर गोरा स्वयं ही चकित हो गया. जब तक भारतवर्ष की नारी उसकी अनुभव गोचर नहीं हुई थी, तब तक उसकी भारतवर्ष की उपलब्धि कितनी अधूरी थी, यह वह इससे पहले नहीं जानता था. गोरा के लिए नारी जब तक अत्यंत छायामय थी, तब तक देश के सम्बंध में उसका कर्तव्य-बोध कितना अधूरा था! गोरा क्षण-भर में ही समझ गया कि नारी को हम जितना ही दूर करके, जितना ही क्षुद्र बनाकर रखते हैं, उतना ही हमारा पौरुष भी जर्जर होता जाता है.5


महत्वपूर्ण यह है कि गोरा के भीतर यह परिवर्तन स्त्री की किसी कथित संवेदनात्मक अपील की वजह से घटित नहीं होता. सुचरिता और आनंदमयी गोरा को तर्क और बुद्धि से परिवर्तित करती हैं. वे भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच की नक़ली फाँक को बख़ूबी पहचानती हैं, एक फाँक जो स्त्री के प्रति भेदभाव करने में मदद करती है. उन्नीसवीं सदी के अंत में, वह काल जिसमें उपन्यास घटित होता है, राष्ट्रीय आंदोलन ने भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच एक गहरी लकीर खींच दी थी. भौतिक यानी बाह्य संसार पुरुष के लिए आरक्षित हो गया था, आध्यात्मिक जगत (घर) स्त्री को सौंप दिया गया था. उच्च और मध्यवर्गीय स्त्रियाँ अगर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करती थीं तो उनके व्यवहार के दायरे और नियम तय कर दिए जाते थे.6


यह विभाजन इस दोषयुक्त अवधारणा से निकलता है कि पुरुष तार्किकता के झंडाबरदार हैं, स्त्री को संवेदना और आवेग से फुसलाया जा सकता है. गोरा इस द्वैध को उलट कर रख देता है. (हालाँकि यह सर्वथा ग़लत अवधारणा इस सरल तथ्य से ध्वस्त की जा सकती है कि हिंसक और दंगालु भीड़ के लगभग सभी नेता और भागीदार पुरुष होते हैं जो खोज-खोज कर निरीह और निर्दोष इंसानों को मारते हैं.). गोरा आवेगों से संचालित होता दिखाई देता है जबकि सुचरिता और आनंदमयी तर्कनिष्ठ नज़र आती हैं, ब्रह्म समाज और हिंदू परिवारों के अंतर्विरोधों को रेखांकित करती हैं. यह उपन्यास अतिपौरुषेय राष्ट्रीयता का शायद सबसे ज़बरदस्त प्रतिकार है जो राष्ट्रीय आंदोलन के आरम्भिक दशकों में उपज रही थी, भारतीय चेतना को एक नया आयाम दे रही थी. ग़ौरतलब है कि टैगोर उग्र राष्ट्रवाद का प्रतीक पुरुष को बनाते हैं, उसके प्रतिकार के लिए स्त्री को चुनते हैं जो भारतीयता का कहीं संश्लिष्ट और समन्वयकारी स्वरूप प्रस्तावित करती है.


लेकिन इसके बावजूद टैगोर कहीं चूक जाते हैं. सुचरिता का चित्रण समस्यामुक्त नहीं है. सुचरिता के भीतर तो गोरा की वजह से कोई खास परिवर्तन नहीं आता, लेकिन जैसे ही गोरा सुचरिता की वजह से अपना रास्ता बदलता है वह आख्यान में नायक के हृदय परिवर्तन का महज एक माध्यम बनती प्रतीत होती है. दोनों के बीच का संवाद और कारोबार लगभग एकतरफ़ा सा प्रतीत होता है.


अगर किसी उपन्यास की प्रमुख किरदार नायक की यात्रा को सुगम और सरल बनाने का एक साधन बनती प्रतीत होती है तो इसका उस कथा पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस प्रश्न की पड़ताल से पहले इन तीनों उपन्यासों के भीतर से उठती और इनकी कथा को बाधित करती हिचकियों को परखते हैं. आनंदमठ  स्त्री को जगह देने में नाकाम है, घरे बाइरे जगह तो देता है लेकिन जिन विकल्पों को यह बिमला के समक्ष रखता है वे बड़े ही सीमित हैं, सुचरिता के पास स्वतंत्र चुनाव करने के लिए काफ़ी स्पेस है लेकिन उसकी स्वतंत्रता नायक गोरा को चुनाव करने में मदद करने के लिए प्रयुक्त होती दिखाई देती है.


आख्यान के इन अंतर्विरोधों का उपन्यास द्वारा सम्बोधित राष्ट्रवाद पर क्या असर पड़ता है? तीनों उपन्यास राष्ट्रवाद का एक ख़ास मॉडल प्रस्तावित करते हैं, लेकिन इन तीनों में यह ख़ुद ही संशयग्रस्त हो जाता है. यह अकारण नहीं है. चूँकि शब्द एक स्वायत्त सत्ता है, इसलिए यह सम्भव है कि किसी विषय पर एक वक्तव्य बन जाने की आकांक्षा रखती कोई कृति अपने रचयिता की अनदेखी कर किसी दूसरी दिशा में चली जाए. यह भी कहा जा सकता है कि अगर किरदारों को किसी राजनैतिक विचार का रूपक बनाया जाता है या वे उपन्यासकार की विचारधारा के प्रवक्ता बनते हैं, तब वे जटिलताएँ जो आख्यान को समृद्ध बनाती हैं एक सरल और वेध्य समाधान की तरफ़ पहुँचती दिखाई देती हैं, और जिस ज़मीन पर ये किरदार अपने विकल्पों का चुनाव करते हैं वह आंतरिक तनाव की वजह से ढह जाती है.


दूसरा प्रश्न आधुनिकता का है. जब सुचरिता गोरा के परिवर्तन का माध्यम बनती नज़र आती है, क्या सुचरिता की आधुनिकता, जैसा बिमला के साथ किन्हीं दूसरी परिस्थितियों में घटित हुआ था, उस दीवार से आ टकराती है जिसे उपन्यास अनदेखा करता है या उससे जूझने में असमर्थ है?


गोरा आधुनिक चेतना को अपनी रूह की भट्टी में गढ़ देना चाहता है, एक ऐसी आधुनिकता जो भारतीय उपन्यास और भारत के अनुकूल हो प्रस्तावित करना चाहता है. क्या गोरा की आधुनिकता एक ऐसी जगह पहुँचती है जो स्त्री को स्वतंत्र चुनाव की, पुरुष के समक्ष अस्तित्वगत प्रश्न खड़े करने की जगह तो देती है, उसे अपने आदर्श पुनर्परिभाषित करने को बाध्य भी करती है, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वह पुरुष के जीवन में महज़ एक लाइटहाउस, एक प्रेरणा बन जाने की सम्भावना से भी बंधी नज़र आती है? वह एक ऐसा किरदार बनती जाती है जिसकी सार्थकता नायक के हृदय परिवर्तन में निहित है.


पुरुष की प्रेरणा आख़िर इसी विशेषण में सिमटने से ही तो शायद स्त्री बचना चाहती है. वह नहीं भूली है कि पिछली सदी की स्त्रियों को पुरुष की प्रेरणा होने की सांत्वना देकर उनके विकल्प सीमित कर दिए जाते थे.

गोरा अपवाद नहीं है. अनेक बड़े उपन्यास स्त्री को इसी आइने से देखते हैं. यह प्रवृत्ति उपन्यास द्वारा प्रस्तावित आधुनिकता को संकटग्रस्त करती है, स्त्री की स्वतंत्रता को बाधित कर उसे अनुपस्थिति के दायरे में बांधता चलती है.  
____________________
सन्दर्भ :
1रविंद्रनाथ टैगोर, गोरा, अनुवाद अज्ञेय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, २०१५, पृष्ठ ३१४।
2वही, पृष्ठ ३१५.
3वही, पृष्ठ ९३-९४.
4वही, पृष्ठ ९४-९५.
5वही, पृष्ठ २८२-८३.
6देखें पार्था चटर्जी, द नैशनलिस्ट रेज़लूशन अव द विमनस क्वेश्चन.                
(पहला भाग यहाँ पढ़ें)

उपन्यास के भारत की स्त्री (चार) : आशुतोष भारद्वाज

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(Amrita Shergil : Self-portrait)



‘उपन्यास के भारत की स्त्री’के अंतर्गत अब प्रस्तुत है समापन क़िस्त ‘स्त्री का एकांत: अपूर्णता का विधान’. इससे पहले आपने पढ़ा है -

(एक) ‘आरंभिका : हसरतें और हिचकियाँ’,
(दो)  ‘स्त्री और राष्ट्रवाद : एक वेध्य आलिंगन’
(तीन) ‘अनुपस्थिति की कथा’ 

आलोचक आशुतोष भारद्वाज ने इस श्रृंखला में भारतीय उपन्यासों के स्त्री किरदारों की गतिशीलता, उनकी अस्मिता और राष्ट्र में उनकी अपनी जगह आदि की गहराई से पड़ताल की है, उनके अध्ययन और अंतर्दृष्टि ने इस आलोचकीय उपक्रम को दिलचस्प और बौद्धिक रूप से उत्तेजक बना दिया है.

यह एक महत्वपूर्ण आलोचकीय प्रबंध है, अब आप इसके सभी हिस्से यहाँ पढ़ सकते हैं. 





चार
उपन्यास के भारत की स्त्री
स्त्री का एकांत: अपूर्णता का विधान                
आशुतोष भारद्वाज




पिछली सदी की शुरुआत में एक उपन्यासकार ने एक ऐसी लड़की के बारे में लिखा था जो ग्यारह की उम्र में ही  “अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़-पढ़ कर ख़राब कर चुकी थी.[1]सात दशक बाद एक दूसरे उपन्यासकार ने इसी उम्र की लड़की काया को अपना किरदार बनाया जो उपन्यास तो नहीं पढ़ती थी, लेकिन अगर अनुपमा ने उपन्यास पाठ का एकाकी कर्म चुन अपनी सृष्टि को रचा था, काया ने एकांत को अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग बनाया. अनुपमा ने मान लिया था कि उपन्यास पढ़ उसने मानव प्रेम, आकांक्षा और सौंदर्य के बारे में सब कुछ जान लिया है, काया मानना चाहती है कि बगैर किसी सहारे के वह सम्पूर्ण हो सकती है.



लाल टीन की छत (१९७४) की काया अपनी बीमार गर्भवती माँ और छोटे भाई के साथ शिमले के पहाड़ पर रहती है. पिता अक्सर दौरे पर रहते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि माँ के पेट में किसका बच्चा है, माँ के बारे दबी-छुपी चीज़ें उड़ती रहती हैं. काया पूरा दिन चीड़ और खुबानी के पेड़ों के बीच घूमती है, किसी अज्ञात अतीत के प्रेत उसके ऊपर मँडराते हैं, वह रेल की सीटी सुनती है जो कालका जाती है जिसके परे मिथकीय मैदान शुरू होते हैं. पहाड़ की परछाईयाँ उसके भीतर इतनी विविध अनुभूतियों को जन्म देती हैं जिन्हें वह समझ तक नहीं पाती, किसी से कहने की बात तो दूर. यह भारतीय साहित्य का एक विरला क्षण है जब हम किसी बच्ची की खनकती ख़ामोशियों को सुनते हैं. उसके अंतर्लाप, निरी साधारण चीज़ों पर कौतूहल और भय में सना उसका अचंभा.


*
एकांत व्यक्तिवाद या अकेलापन नहीं है, निर्वासन या निष्कासन तो क़तई नहीं. यह अस्तित्व की एक सघन और निविड़ अवस्था है जहाँ मनुष्य किसी आंतरिक तलाश, अन्वेषण या साधना के लिए स्वेच्छा से एकांत चुनता है- तलाश और साधना का यह भाव एकांत को ऐसी अन्य स्थितियों से अलग ले जाता है जहाँ मनुष्य अकेला या तन्हा दिखाई देता है. यह कोई शास्वत अवस्था भी नहीं है, इसके अनेक रंग हैं- एक संत का एकांत, कलाकार या खिलाड़ी का एकांत.

पिछली सदियों में एकांत समाज से सम्पर्क काट लेने के बाद हासिल किया जाता था, साधक वन में चले जाते थे. तकनीक की नींव पर टिका आधुनिक समाज इस तरह के अवकाश आसानी से नहीं देता. अपने स्व का एक बड़ा भाग अपने भीतर सहेज, वह भाग जो किसी अन्य को दिया नहीं जाता, एकांत के आधुनिक गीतकार ने दूसरों की उपस्थिति में भी अपने साथ रहना सम्भव किया है. ज़ाहिर है यहभीड़ में अकेलावाली एक अन्य आधुनिक स्थिति से एकदम अलग है.

यह कोई स्थाई भाव भी नहीं है जिसे जीवन के प्रत्येक पहर में हासिल किया जा सके. स्वेच्छा से एकांत चुनता इंसान अक्सर इसके धोखादेय तीखे किनारों पर फिसल जाता है. कई बार असहनीय अकेलेपन के क्षण भी आते हैंभीषण अवसाद, क्रूर विचलन और कभी तो मनुष्य अचानक से ढह भी जाता है. 

एकाकी मनुष्य किसी साथी के लिए तड़पाती चाह में नहीं रहेगा, अकेलेपन को लेकर शिकायत या शोक नहीं करेगा, लेकिन वह अपने स्व के साथ एक सतत् द्वंद्व में ज़रूर रह सकता है, बदलते भावों को साधने का संघर्ष करते हुए. यह संघर्ष मानवीय जिजीविषा का एक सम्मोहक अध्ययन है.

मीरा या अक्का महादेवी जैसे गिने-चुने उदाहरणों के सिवाय एकांत पर मानव इतिहास में अमूमन पुरुष का ही विशेषाधिकार रहा है जो अक्सर स्त्री की क़ीमत पर ही हासिल हुआ है. बुद्ध ने आंतरिक साधना के लिए एकांत चुना था, यशोधरा बाध्य थीं उस अनुपस्थिति को स्वीकार करने के लिए जो पुरुष के निर्णयस्वरूप उन पर आ ठहरी थी. घर के भीतर रहती अकेली स्त्री पुरुष द्वारा छोड़ दिये गए पारिवारिक दायित्व निभाती थी.

आधुनिक जीवन ने शायद पहली बार स्त्री को वह जगह दी जहाँ वह अपने एकांत, अपने कमरे को चुन सकती थी. लेकिन यह कमरा आसानी से उपलब्ध नहीं था, घर और उपन्यास में भी नहीं. इस विधा के जन्म से ही यूरोप के उपन्यास किसी आंतरिक या बाह्य यात्रा में निकले पुरुष को रॉबिंसन क्रूसोऔर डॉन कीहोतेजैसे नायकों में चित्रित करते रहे हैं, एक लंबी परंपरा जो जल्दी ही नोट्स फ्रम द अंडरग्राउंडतक पहुँच जाती है. लेकिन एकाकी स्त्रियाँ बहुत देर से और बहुत कम आती हैं. मदाम बोवारीऔर अन्ना करेनिनाएकाकी नहीं अपने अकेलेपन से जूझती स्त्रियाँ थीं जो अपने उपन्यासों की तमाम कलात्मक शक्ति के बावजूद आखिर में प्रेम ही खोज रहीं थीं, इसके अलावा उनकी आकांक्षा और कहीं नहीं पहुँचती थी. प्रेम निश्चय ही एक बड़ी साधना है, अपनी पूर्णता के लिए एकांत मांगती है(रोलां बार्थ ने अ लवर्स डिस्कोर्समें कहा भी है: प्रेम का संवाद सघन एकांत में घटित होता है.), लेकिन यह प्रत्यय स्त्री के संदर्भ में इतना लहूलुहान हो चुका है कि सतर्कता स्वाभाविक है.

जैसा कि केलसे मैकिनीदर्ज करती हैं:

पुरस्कृत और सिंहासन पर बिठाई गयीं स्त्री-केन्द्रित किताबें उन स्त्रियों के बारे में थीं जैसा मैं होना नहीं चाहती थी. जेन आयर रोचेस्टरके प्यार में अंधी थी, जैसा प्राइड एंड प्रेजुडिसकी बेनेट बहनें हैं. द स्कारलेट लेटरकी हेस्टर प्रायिन अत्यधिक मातृत्व में डूबी है, और कोई भी अन्ना करेनिना की तरह बड़ा नहीं होना चाहता. ये स्त्रियाँ शादी करना और बच्चे पैदा करना चाहती थीं. वे तीन सौ पन्नों में एक ऐसे आदमी के लिये रिरियाती थीं जो उनके साथ रहना नहीं चाहता. ऐसा लगता था वे अपनी ही कथा में सहनायिका होना चाहती थीं...इन स्त्री किरदारों की कथा असफल प्रेम की कथा थी, एकांत में स्व की तलाश की कोई कथा न थी... साहित्य की लड़कियां खुद को हासिल करने के लिए लंबी यात्राओं पर नहीं निकलतीं, वे पुरुष को पाने के लिए यात्रा करती हैं...मॉडर्न लाइब्रेरीद्वारा संकलित किए गए (दुनिया के) 100 महानतम उपन्यासों में सिर्फ नौ में ही स्त्री प्रमुख किरदार है, और इसमें से सिर्फ एक किताब- मुरियल स्पार्ककी द प्राइम ऑफ मिस जियां ब्रोदी - में ही स्त्री पति को पाने या बच्चे पालने के अलावा कोई और आकांक्षा रखती है. इस तरह महानतम उपन्यासों में  से सिर्फ एक प्रतिशत उन स्त्रियों के बारे में है जो प्यार करने के अलावा भी कुछ करती हैं.[2]




भारतीय उपन्यास के केंद्र में आरंभ से ही स्त्रियाँ रहीं हैं, काफी स्वतंत्र भी हैं, लेकिन एकांत शायद ही उनके अस्तित्व की जरूरत रही है.उमराव जानएक अपवाद हैं जो वेश्यालय के जीवन और कई प्रेम सम्बन्धों के बावजूद अपने अस्तित्व का बड़ा भाग अनछुआ रखे रहती हैं. उनका एकांत भले ही विविध रंगों में उद्घाटित नहीं होता, लेकिन उनके भीतर एकाकी नायिका के चिन्ह दिखते हैं. स्त्री किरदार विद्रोही और निर्भीक होते गए, लेकिन उनका विद्रोह अक्सर यौन मसलों पर ही एकाग्र रहा. स्त्री के लिए प्रेम और यौनिक स्वतन्त्रता का निश्चित ही महत्व है, स्त्री के द्वारा उपन्यास में हासिल की जाने वाली यह पहली आज़ादी रही है लेकिन तुलना करें उन तमाम पुरुष किरदारों से जिनकी तड़प उन्हें स्त्री-प्रेम के अलावा भी कई दिशाओं में ले जाती थी. दिलचस्प है कि यह प्रवृत्ति सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्री उपन्यासकार के लेखन में भी दिखती है.

शेखर: एक जीवनीऔर मित्रो मरजानीअपने शीर्ष किरदारों के विद्रोह की वजह से जाने जाते हैं. शेखर प्रेम में है लेकिन उसकी तलाश उसे कई राहों पर ले जाती है, वह एक बैचेन लेकिन बौद्धिक पीढ़ी का प्रतिनिधि है (शेखर के किरदार की अंतर्निहित समस्याओं को इस लेखक ने अन्यत्र रेखांकित किया है), जबकि रचे जाने के पचास साल बाद भी मित्रो अमूमनअपनी यौनिकता की स्वच्छंद अभिव्यक्तिके लिए याद की जाती है. कमला दास की आत्मकथा माई स्टोरीका एक ऐसी स्त्री की कहानी बतौर जिक्र होता है जो अपनी सेक्सुएलटी के अनेक आयाम खोज और हासिल कर रही है.

क्या इसकी वजह यह है कि उपन्यास के पन्नों और शायद उसके बाहर भी स्त्री के लिए पहली स्वतन्त्रता उसकी देह ही होनी थी, एक ऐसी स्वतन्त्रता जो अनेक लेखकों के अनुसार आज भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं हो पायी है? या किसी एकाकी स्त्री को किसी विराट यात्रा पर जाते देखना रचनाकार को अभी भी असहज बना देता है? चूंकि यात्रा, भले वह आंतरिक हो या बाह्य, उल्लंघन की संभावना बनाती है, यात्री को समाज और परिवार के प्रभाव या चंगुल से दूर ले जाती है, क्या ऐसी यात्रा का स्पेस उपन्यास की स्त्री के पास आज भी सीमित है?


इस दृष्टि सेलाल टीन की छतएक विरला उपन्यास है. एक बारह साल की लड़की शायद पहली बार किसी उपन्यास में एकांत को चुनती और निभाती है. 

शाम के सन्नाटे में जब वह हिलते दरवाज़ों की खटखटाहट सुनती, तो अचानक यह भ्रम होता कि वह मकान बिल्कुल ख़ाली है, उजाड़ और ख़ालीशहर के और मकानों की तरह, जिनके मालिक सर्दियों में बाहर चले जाते थे. उसे भयानक-सा ख़याल आता कि अगर वह रात-भर अपने घर के सामने अंधेरे में खड़ी रहे, तो भी किसी को उसका अभाव नहीं अखरेगा. वह मकान उसके प्रति इतना ही उदासीन रहेगा, जितना चारों तरफ़ खड़े पहाड़, जो सब-कुछ देखते हैं, लेकिन अपनी जगह से एक इंच भी डाँवाडोल नहीं होते. उन दिनों काया ने पहली बार अपने अकेलेपन को देखा थासाफ़-साफ़ अंधेरे में.

उसे डर नहीं लगा था. सिर्फ़ एक अजीब-सा कौतूहल था, जैसे अकेलापन कोई बीमारी है, जो भीतर पनपती है, और बाहर से जिसे कोई देख नहीं सकता- न छोटे, न माँ, न मिस जोसुआ- और उसे लगता जैसे माँ बड़ी हो रही हैं, वैसे वह भी, हालाँकि माँ को सब देख सकते थे, उसे कोई नहीं.[3] 

काया को माँ के दुलार या किसी भावात्मक सहारे की चाह नहीं, पहाड़ पर अकेले पड़ जाने पर कोई शिकायत नहीं. वह एकांत की रंगतों को पूरी तरह समझ नहीं पाती, लेकिन उसने इसे संपूर्णता में स्वीकार कर लिया है, इससे बचकर नहीं भागती. वह सिर्फ़ अचम्भित है कि सृष्टि उससे इस कदर बेखबर है कि उसके गुम हो जाने का साक्षी कोई न होगा. उपरोक्त दृश्य के थोड़ी देर बाद वह माँ के पास जाती है और माँ उसे देख चौंक जाती है. माँ उसकी ओर देखती रहीं, यह उनकी लड़की है, एक क्षण के लिए विश्वास न हो सकाजैसे वह कोई बाहर की लड़की है, इस घर में शरणार्थी की तरह रहती हैऔर वह उसकी कोई मदद नहीं कर सकतीं.
कुछ लोग हमेशा मदद के परे होते हैंकाया शायद ऐसी ही थी.

एक माँ अपनी बारह साल की बेटी में एक अजनबी को देखती है, किसी मदद से परे. यह लड़की किस राह पर चल रही है? एक और वाक्या जब काया के पिता उसे हॉस्टल भेजने के बारे में बतलाते हैं, और फिर हिचकते हुए कहते हैं कि उसके चाचा का घर हॉस्टल के नज़दीक हैतुम कभी भी उनके घर जा सकती हो”. इस पर काया की प्रतिक्रिया देखिए— 

क्या इसलिए उन्होंने मुझे बुलाया था, तसल्ली के दो टुकड़े मेरे आगे फैंके थे और मैं उन्हें उठा लूँगी? मैं समझ गयी. मैं चुप बैठी रही. कहीं भी जा सकती थी. उनके घर, अपने घर˙˙˙मुझे कोई जल्दी नहीं थी, कोई डर नहीं था, कोई उम्मीद नहीं थी˙˙˙उस साल की सर्दियों में मैंने ये तीनों चीज़ें खो दी थीं, और यह बात मैं उनसे कहना चाहती थी.[4] 

एक लड़की डर, उम्मीद और किसी तसल्ली के बग़ैर एकांत को अदम्य निष्ठा से जी रही है. निर्मल के एकाकी किरदारों को समझने के लिए निष्ठा महत्वपूर्ण कुंजी है. निर्मल के किरदार एकांत को जतन और गरिमा से ओढ़ते हैं. उनकी कथाओं में टेबिल लैम्प, नोटबुक और रेकॉर्ड प्लेयर सरीखी निर्जीव वस्तुएँ भी एकाकी दिखाई देती हैं. अवसाद का बादल उन पर उतर आता है, वे अपने भीतर स्पंदित होती अनुपस्थिति को सुनते हैं, लेकिन उनकी वाणी तीखी नहीं होती. चूंकि वे इस अवस्था को अक्सर थाम नहीं पाते, यह उन्हें और उनके परिवेश को एक रहस्य भरी आभा में पिरो देता है. 


*
मानो काया का जीवन शिमला के पहाड़ पर पूरा नहीं होता, वह और उसका छोटा भाई कुछ साल बाद एक चिथड़ा सुखकी बिट्टी और मुन्नू में तब्दील हो जाते हैं. तेरह के आसपास काया अपना घर छोड़ हॉस्टल चली जाती है, बिट्टी करीब बीस की उम्र में इलाहाबाद का घर छोड़ देती है, लेकिन क्या घर छोड़ देने से तलाश मिट जाती है?

बिट्टी की आँखें ख़ाली हवा पर ठिठक गयीं, फिर बहुत हल्के स्वर में बोली, “हिंदुस्तान में कोई कुछ नहीं छोड़ता; मैंने कुछ नहीं छोड़ा˙˙˙पहले मैं बाबू के घर में रहती थी, अब यहाँ बरसाती मेंमैंने जब इलाहाबाद छोड़ा था तो सोचा था कि अब मैं छोटी-छोटी चीज़ों के घेरे से बाहर आ जाऊँगी˙˙˙वह धीरे से हंस पड़ी, “अब मैं बड़ी चीज़ों के बीच में हूँ˙˙˙लेकिन मैं उतनी ही छोटी हूँ, जितनी पहले˙˙˙मेरे भीतर कुछ नहीं बदला है!”[5]
[…]

कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफ़ी सम्पूर्ण दिखाई देते हैंउन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं होती. किंतु बिट्टी में कोई ऐसा मुकम्मलपन नहीं दिखाई देता थावह जैसे कहीं बीच रास्ते मेंठिठकी-सीदिखाई देती थी, जबकि दूसरे लोग आगे बढ़ गए हों.[6]  
    
              
बिट्टी को लगता था थिएटर उसे पूर्ण कर सकेगा, लेकिन दिल्ली आ वह ख़ुद को कहीं अधूरा पाती है. इसी अधूरेपन को इरा भी जीती है. लेकिन इन दोनों किरदारों के भीतर एक गुण और भी है जो इस अध्याय के लिए महत्वपूर्ण है. इरा और बिट्टी प्रेम में हैं, लेकिन इस अनुभव ने उनके एकांत की आकांक्षा को कम नहीं किया हैं. बिट्टी और डैरी नियमित मिलते हैं लेकिन बिट्टी ने उस स्पेस को बचाए रखा है जहाँ डैरी की जगह नहीं है. प्रेम के क्षणों में भी बिट्टी को अपने भीतर के अलंघ्य कोटर-किनारों को सहेजने का बोध बना रहता है. इस उपन्यास में एकांत की तड़प और ख़ुद को पा लेने की आकांक्षा स्त्री में पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक है. जिस आकांक्षा की जगह उपन्यास की पिछली पीढ़ी की स्त्री के पास लगभग नहीं थी वह निर्मल के किरदारों में पूर्ण होती है. जयदेव ने निर्मल की कथाओं को विदेशी कहा है लेकिन अगर आत्म-बोध भारतीय संस्कृति के बुनियादी मूल्यों में है, क्या इरा और बिट्टी तमाम जोखिम उठा कर उस दिशा में चलती नहीं दिखाई देतीं?



*
निर्मल के गल्प संसार की स्त्री को अरुंधती रॉयके द गॉड अव स्मॉल थिंग्सकी अम्मू के बरक्स देख सकते हैं.[7]केरल में रहती एक तलाक़शुदा सिरियन ईसाई माँ जो एक अछूत के साथ सम्बंध बनाती है.

जब कभी अम्मू रेडियो पर अपने पसंदीदा गाने सुनती थी, उसके भीतर कुछ फिसलने लगता था. एक तरल दर्द उसकी त्वचा पर बह आता,और वह किसी जादूगरनी की तरह इस दुनिया से बाहर निकल किसी बेहतर और सुखी जगह चली जाती. ऐसे दिनों में उसके भीतर एक छटपटाहट,एक बनैलापन समा जाता,मानो उसने मातृत्व और तलाक की नैतिकता को कुछ समय के लिए परे कर दिया हो...वह बालों में गजरा लगाती,उसकी आँखों में जादुई रहस्य चमकने लगते.  वह किसी से बात नहीं करती, अपने रेडियो के साथ नदी किनारे घंटों बैठी रहती. वह सिगरेट पीती और आधी रात को नदी में तैरती...जिन दिनों रेडियो अम्मू के गाने बजाता था हर कोई उसे देख सशंकित हो जाता. उन्हें मालूम चल जाता था कि वह दो दुनिया के बीच ठहरे छायालोक में जी रही है, उनके अधिकार क्षेत्र से परे. कि जिस औरत को वे पहले ही तिरस्कृत कर चुके हैं,उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था, और इसलिए वह घातक हो सकती थी.[8]

अम्मू अपने एकांत में जीती नज़र आती है, लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? उसके जीवन को दो सम्भावनाओं के ज़रिए देख सकते है. अम्मू ने अपने तलाक़ को स्वीकार कर लिया है लेकिन वह कहीं और भाग जाना चाहती है. अम्मूकाअपनेपरिवारऔरसामाजिकनियमोंकेख़िलाफ़विद्रोहउपन्यासकीबुनियादहै.लेकिनसतहकोथोड़ाखुरचिये, उसकाविद्रोहअपनेभाईचाकोऔरउसकीविदेशसेलौटीपत्नीमार्ग्रेटकोचम्माकेबीचसहसाउमड़ेप्रेमकेख़िलाफ़नज़रआताहै.उपन्यास का अंत इस भाव पर होता है जो अम्मू के भीतर वेलुथा के साथ पहली बार संबंध बनाने के बाद उमड़ता हैहाँ, मार्ग्रेट, अम्मू ने ख़ुद से कहाहम भी ऐसा करते हैं!

उपन्यास का यह अंत अम्मूकेविद्रोहकोसमझनेकीकुंजीहै.अंतरंगता के इस दुर्लभ क्षण जो अम्मू को न मालूम कितने सालों बाद हासिल हुआ है उसे अपने भाई की पत्नी एक ईर्ष्यालु विजयके साथ क्यों याद आ रही है? क्या अम्मू का विद्रोह ईर्ष्या से जन्मा है? क्या यह वाक़ईप्रेम के नियमतोड़ने की आकांक्षा थी ---नियम जो तय करते थे किसे प्रेम किया जाएगा, कितना और किस तरह से” ---जिसका यह उपन्यास बार-बार दावा करता है? या अम्मू का विद्रोह अपने भाई और उसकी पत्नी के ख़िलाफ़ था? अपने बच्चों की उपेक्षा देखती एक माँ घर में आयी दूसरी स्त्री और उसकी बच्ची पर उड़ेले जा रहे प्यार से झुलस जाती है. किसी कीड़े की तरह उसे कुरेदता यह घाव एक अछूत से सम्बंध बनाने के निर्णय में तब्दील होता है. एक पुरुष जो उसके पड़ोस में अरसे से रहता आया था लेकिन जिसके साथ उसका कभी कोई संवाद नहीं था. उन दोनों के बीच कोई जुड़ाव या लगाव नहीं था जिसका अवसर आने पर विस्फोट हुआ हो. क्या यहाँप्रेम के नियमनहीं थे जिन्हें चुनौती देनी थी, बल्कि सिर्फ़ प्रेम का आघात था जिसका बदला एक ऐसी स्त्री लेना चाह रही थी जिसे पहले ही तिरस्कृत किया जा चुका था,उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था,और इसलिए वह घातक हो सकती थी”?

क्या अम्मू का विद्रोह निहायत ही रूढ़िगत कर्म है जहाँ एक घायल स्त्री आवेश में आ सामाजिक पायदान में अपने से कहीं निचले  पुरुष के साथ संबंध बनाती है?

क्या उपन्यास अम्मू को इसके अलावा कोई और विकल्प देता है? क्या ऐसा भी विद्रोह हो सकता था जो इस हिंसक और तात्कालिक चोट से कम अम्मू की सघन आकांक्षा से अधिक संचालित होता था? वह बेचैन है, लेकिन आंतरिक साधना या तलाश उसका लक्ष्य नहीं है. क्या अम्मू का किरदार उस निरीहता को चिन्हित करने में मदद कर सकता है जो एकांत से उपजी प्रतीत तो होती है, लेकिन उसका स्रोत शायद कहीं और भी है?

लेकिन इस उपन्यास को दूसरी तरह से भी पढ़ा जा सकता है. अगर अम्मू के विद्रोह के बीज ईर्ष्या में हैं तो उसका वेलुथा के साथ संबंध प्रश्नांकित हो जाता है. वेलुथा अम्मू के लिए महज़ एक औज़ार बन जाता है जिसके ज़रिए वह अपनी बग़ावत  को अंजाम देती है. उपन्यास दोनों के सम्बंध को इतनी नज़ाकत और ख़ूबसूरती के साथ चित्रित करता है कि यह एक ईर्ष्यालु स्त्री की सम्भावना से आसानी से मेल नहीं खाता. भले ही अम्मू का विद्रोह परिवार और समाज,और शायद उसके भूतपूर्व पति के भी ख़िलाफ़ था लेकिन यह सार्वजनिक कर्म नहीं था, सार्वजनिक करने की आकांक्षा लिए नहीं था. यह एक अत्यंत निजी कर्म था, जो उसके द्वारा निर्मित स्पेस में घटित हुआ था, और इसने उसे सम्पूर्ण किया था. इस पर ईर्ष्या की बूँदें भले गिरी हों, लेकिन इसने अम्मू को ऐसे सुख में डुबो दिया था जो उसने शायद कभी अनुभूत न किया था. शायद यही उसकी तलाश थी—- बेलौस सुकून के कुछ लम्हे जहाँ वह ख़ुद को मुक्त आकाश में पाती थी, अपने खोए स्व को हासिल करती थी.

इसे थोड़ा और जटिल बनाते हैं, दूसरी सम्भावना को एक चिथड़ा सुखके बरक्स रखते हैं. इरा का प्रेम भी कथित सामाजिक नियमों के विरुद्ध है. वह अपनी आकांक्षा की असंभाव्यता से वाक़िफ़ है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आंतरिक है. अम्मू मार्ग्रेट कोचम्मा को सामने पा ईर्ष्या से सुलग जाती है, इरा नित्ती भाई की पत्नी को देख घनघोर ग्लानि से भर उठती है, पीछे हट जाना चाहती है. क्या इन दोनों उपन्यासों की स्त्रियों का प्रेम के आघात के प्रति दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर भिन्न है? अम्मू का विद्रोहमातृत्व और तलाक़ की नैतिकताके खिलाफ है. उपन्यास मानता है कि प्रेम-नियमों को तोड़े बग़ैर अम्मू अपने जीवन में सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर सकती.

इरा और बिट्टी भी प्रेम के नियमों को तोड़ती हैं, लेकिन वे अपने निर्णयों की कड़ी आलोचक हैं, उन्हें निरंतर परखती हैं.वे कोई कमतर विद्रोही नहीं हैं, वे परिवार को बहुत कम उम्र में छोड़ अपने सपनों की तलाश में निकल पड़ी हैं. लेकिन उनके कर्म का मानदंड सामाजिक नियम नहीं, उनका अपना स्व है जो सही और ग़लत का भेद करता है. वे ख़ुद को कटघरे में खड़ा करती हैं, अपने ख़िलाफ़ सबूत पेश करती हैं, गवाह भी बनती हैं, और ख़ुद पर बिना हिचक फ़ैसला सुनाती हैं.

दोनों उपन्यासों में पुरुष की मृत्यु हो जाती है. नित्ती भाई आत्महत्या कर लेते हैं, वेलुथा की मौत पुलिस टॉर्चर से होती है. दोनों उपन्यास इस मृत्यु और स्त्री की भूमिका को कैसे देखते हैं? भिन्न परिस्थितियों में हुई दोनों मृत्यु एक साझा धुरी पर टिकी हैंयह मृत्यु प्रेम की वजह से, “प्रेम के नियमोंके उल्लंघन की वजह से हुई है. अरुंधती के  उपन्यास में मृत्यु की वजह सामाजिक-राजनैतिक अन्याय है, जो यह निसंदेह है. निर्मल के उपन्यास में यह मनुष्य के चुनावों का अनिवार्य परिणाम है. पाठक को शुरू में ही आभास हो जाता है कि इरा और नित्ती भाई की राह मृत्यु-आकांक्षा में डूबी हुई है, उसे यहीं ख़त्म होना था. यह उपन्यास समाज को ज़िम्मेदार नहीं ठहराता, हालाँकि सामाजिक नियमों को दोषी ठहराते बिंदु कथा में आराम से पिरोए जा सकते थे, लेकिन निर्मल अपने किरदारों के लिए कोई रहम, सहानुभूति नहीं चाहते.चूंकि इरा प्रेम के नियमों का उल्लंघन कर रही है इसलिए अपने प्रेमी की मृत्यु की ज़िम्मेदारी भी उसकी ही होगी. एक अच्छा उपन्यासकार अपनी सहानुभूति को बराबर-बराबर मात्रा में सब पात्रों को देता है, एक महान उपन्यासकार अपनी सहानुभूति के विरुद्ध संघर्ष करता है,” निर्मल ने अन्यत्र कहीं लिखा है.

आधुनिक जीवन में स्वतंत्रता का अर्थ है अनेक उपलब्ध विकल्पों में किसी एक को चुन लेने का अधिकार. अम्मूअपनेनिर्णयलेनेमेंकितनीस्वतंत्रहै?

यहाँ स्त्री द्वारा किए गए भिन्न क़िस्म के चुनावों के बीच कोई श्रेणी पैदा करने का उद्देश्य नहीं, बल्कि आख्यान की अनेक संभावनाओं को परखने का प्रयास है.



*
इस लेख में जिन उपन्यासों का ज़िक्र हो पाया है वे ज़ाहिर है समूचे भारतीय उपन्यास और उसकी स्त्री का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते. अम्मू और चंद्री के अलावा भी इरा जैसे अनेक स्त्री किरदार हैं जिनके पास कहीं अधिक विकल्प हैं. लेकिन इसके बावजूद यह कहने में कोई समस्या नहीं कि क़रीब सवा सौ वर्षों के दौरान अनेक भाषाओं में लिखे गए जिन उपन्यासों को यह लेख केंद्र में रखता है वे निसंदेह भारत के प्रतिनिधि उपन्यास कहे जा सकते हैं. कई और प्रतिनिधि स्त्री किरदार भी होंगी, लेकिन विष वृक्षकी कुंद से लेकर इंदुलेखा, सुचरिता, तारा, मित्रो, चंद्री और अम्मू इतिहास और साहित्य के एक ऐसे लम्बे धागे में पिरोयी हुई हैं जहाँ उनकी संगति में तमाम और स्त्रियाँ भी हैं. उपन्यास में, उसके बाहर भी.

इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपन्यास ने स्त्री को यह सहूलियत तो बहुत जल्द दे दी थी जहाँ वह अपने एकांत में इस विधा से संवाद कर सकती थी, लेकिन ऐसा एकांत जहाँ वह ख़ुद को बग़ैर किसी सहारे के तलाश सकती अभी भी हासिल नहीं हुआ है.

एक सच्चाई और भी है. अपूर्णता का विधान. अपने अस्तित्व की तलाश में निकली एकाकी स्त्री मानव इतिहास और साहित्य में चूँकि हाल ही आयी है, तमाम रचनाकार इसके सामने असहज महसूस करते हैं. बड़ी स्त्री रचनाकार भी जो स्त्री मसले पर अपने सशक्त वक्तव्यों के लिए जानी जाती हैं, उनकी स्त्री किरदार के पास भी सीमित विकल्प हैं. पीछे मुड़ कर देखने पर कोई इन किरदारों को अनेक संभावनाएँ दे सकता है, वे सभी राह उकेर सकता है जिनमें से वे सबसे समृद्ध को चुन सकती थीं, लेकिन अतीत को मनचाहे रंग देने से भले ही उनका जीवन कहीं अधिक परिपूर्ण और संतृप्त लगने लगे, उनकी इतिहास और उपन्यास में स्थिति के प्रति शायद यह न्याय नहीं होगा. उन्हें ऐसा ही जीवन जीना था जो भविष्य को अधूरा नज़र आता. उनका सौंदर्यशास्त्र अभाव का सरोवर है, भाषा हिचकियों का रेखाचित्र, साधना अपूर्णता का प्रतिबिम्ब.

उपन्यास की स्त्री अपूर्णताकाविधानहैलेकिनइसअपूर्णतामेंभीवहकहींमुकम्मलहै.
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abharwdaj@gmail



* इस अध्याय के शीर्षक के लिए लेखक बालचंद्र राजन की किताब फ़ॉर्मअवअन्फ़िनिश्ड: इंग्लिशपोएटिक्सफ़्रमस्पेन्सरटूपाउंड  का आभारी  है. 
[1]शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, सम्पूर्ण कहानियाँ: खंड एक, जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली,1998, पृष्ठ- 96.  
[3]लाल टीन की छत, पृष्ठ५२-५३.
[4]वही, पृष्ठ१८७.
[5]वही, पृष्ठ९३.
[6]एकचिथड़ासुख, पृष्ठ२८.
[7]अरुंधती रॉय, द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स, इंडियाइंक, नई दिल्ली, १९९७.
[8]वही, पृष्ठ ४४

परख : पोस्ट बॉक्स नं- 203 – नाला सोपारा ( चित्रा मुद्गल ): सत्यदेव त्रिपाठी

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‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ को वर्ष २०१८ के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. चित्रा मुद्गल ने मुंबई के उपनगर नाला सोपारा के एक किन्नर (जिन्हें अब एलजीबीटी समुदाय- lesbian, gay, bisexual, and transgender कहा जाता है) के संघर्ष और विडम्बना को इस उपन्यास में चित्रित किया है. पूरा उपन्यास पत्र शैली में है.

वरिष्ठ लेखक सत्यदेव त्रिपाठी इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं.




कल्पित किन्नर जीवन की भावाकुल त्रासदी                                        
 सत्यदेव त्रिपाठी





पने लेखन-काल से चर्चित हो चुके और अब 2018के लिए साहित्य अकादमीसम्मान से नवाजे गये उपन्यास नाला सोपारामें गज़ब की पठनीयता है- ख़ूबी विरल विषय की और सलीके के रचना-विधान की...!! किन्नर-जीवन पर केन्द्रित होने में विरलता स्वयं सिद्ध है. विधान है पत्र-शैली का, जिसमें घर से बहिष्कृत किन्नर-संतान बिन्नी उर्फ़ विनोद (फिर बिमली) स्वयं अपनी माँ वन्दना को पत्र लिखता है. इससे भोगे-जीये जीवन की निजता के साथ दुनिया के सबसे क़रीबी व संवेदन-सिक्त रिश्ते में मजबूरन छोडने-छूटने की पीडा का दंश भी मिल जाता है. इसे साकार करने के लिए पत्र-शैली अचूक व एकमात्र माध्यम भी बनती है. माँ-बेटे (ख़ासकर बेटे) की एक दूसरे के बारे में जानने की दुर्दमनीय आकांक्षा का फलीभूत हो पाना सम्भव ही हो पाता है डाक-तार विभाग के तकनीकी विधान के ज़रिये, जो उपन्यास के मूल शीर्षक नाला सोपाराका अग्रिम पूरक बना है- पोस्ट बॉक्स नम्बर 203’. वरना माँ तो नेटविहीन पुरानी पीढी वाली है और नेट-निपुण विनोद साधनहीन है. दोनो समर्थ होते, तो शायद जीवन में ऐसा मंजर आता ही नहीं,  इस सिलसिले के साथ पात्रानुसार कथा की संगति भी सिद्ध है. अस्तु, पता-विहीनता के लिए ख़ास तौर पर बना पोस्टबॉक्स नम्बर का यह प्रावधान परिवार व दुनिया से बचकर माँ-बेटे का संवाद कराता है. और भर उपन्यास यही हैयही उपन्यास है, जिसमें इस द्विपक्षीय आसक्ति से ऐसा भावाकुल परिपाक रच उठा है कि पाठकीयता इसमें सराबोर हुए बिना रह नहीं पातीगोकि सोच उसे रहा किनारे बैठपर रोके भी रहती है....

पत्र सिर्फ़ बेटे बिन्नी के हैं. उन्हीं में माँ के पत्रों के हवाले हैं. काश,  माँ के भी पत्र होते, तो इक तरफे पत्र-विधान से बनती एकरसता टूटती और भाषा-भाव के वैविध्य भी बनते. पत्राचार के मानक विधान बख़ूबी निभाये जाते हैं, तारीख़, समय के साथ गुजराती-परिवार के सम्बोधन पगे लागूँ बा...दीकरी, मोठा भाई...आदि भी. लेकिन नवें अध्याय से जब घटनायें फैल जाती हैं, बहुत-बहुत कुछ जल्दी-जल्दी घटित होने लगता है, जिससे पेचीदगियां बढती जाती हैं, तो पत्र का माध्यम लचर पडने लगता है और कहीं-कहीं तो घटनाओं-बातों की रौ में पत्राचारिता विस्मृत हो जाती है- वर्णन-कथन पत्रातीत होकर कथामय हो जाते है, जो उपन्यास की मूल प्रकृति है. लेकिन फिर सोते-सोते जाग उठने की तरह अचानक माँ के सम्बोधन व संवाद की लय आ जाती है- याने सजगता कम नहीं है, पर मूल की सहजता भी कोई चीज़ है...!!  

ध्यातव्य है कि कृति का विषय किन्नर-जीवन जरूर है, पर इसका केन्द्रीय कथ्य इस जीवन का वह पक्ष है, जिसमें नर-मादा के अलावा हुए अपने समलिंगी बच्चे को किन्नर-जमात के लोग घर से जबर्दस्ती उठा ले जाते हैं. इसी से आकुल-व्याकुल त्रास उपजा है माँ-बेटे में, जो इस कृति का कारक बना है. और कहना होगा कि कथा के उरोज-स्तर पर जब किसी नेता द्वारा वोट हथियाने के लिए किन्नर-सभा होती है और पढे-लिखे होने के कारण विनोद को मुख्य वक्ता की हैसियत से बोलने का मौका मिलता है, तो इस दंश को भावना-प्रसूत तर्क के आधार देकर वह बख़ूबी स्थापित ही नहीं करता, वरन पूरे किन्नर समाज में बहुत गहरे जाकर डूब चुकी इस भावना को जगा देता है. पूरे समाज की यह मानवीय पीडा आँसुओं-सिसकियों से होते हुए क्रन्दनों तक पहुँचती है और अंतस् में पैठ चुके इस मूल दंश का हाहाकार गूँज उठता है.... इतना भी काफी था इस वेदनाभरे कथ्य को व्यक्त करने के लिए, पर उपक्रमोपसंहार: (उठायी गयी समस्या को सम्भावित हल तक ले जाने) की प्राचीन पद्धति को सार्थक करते हुए लेखिका इसे और आगे ले जाती है. 


विनोद के पत्रों से संवेदनसिक्त होते-होते रक्तचाप व हृदय रोग से ग्रस्त माँ वन्दना शाह मरने के पहले पति की सहमति के साथ एक वसीयत लिखती हैं, जिसमें तीनो बेटों को पूरी सम्पत्ति में बराबर का हक़दार बनाती है. दूसरे बेटे विनोद को किन्नर होने के कारण लोकापवाद के डर से जबरन उसकी जमात को सौंपने तथा दुर्घटना में उसकी मृत्यु की झूठी घोषणा कर देने जैसे अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा माँगती हैं. इसे वे टाइम्स ऑफ़ इण्डियामें सूचनार्थ छपाती हैं, ताकि पढकर विनोद आये और वसीयत के मुताबिक दोनो भाइयों के साथ मुखाग्नि दे. उसके आने तक अपने शव को सुरक्षित रखा जाये.... कहना होगा कि एक दिन बहिष्कृत करने में मजबूरन ही सही, सहयोगी बनने वाली माँ में भी यह बदलाव विनोद के पत्रों को पढने से ही आया है. तो क्या सांकेतिक रूप से यही असर लेखिका अपने पाठकों से भी नहीं चाहती...बल्कि यह भी कि ऐसे बहिष्कार के खात्मे हों...

इस तरह विनोद के भाषण से लेकर इस अंत तक कृति का कारण अपने कार्य में परिणत होता है. बिना लाग-लपेट के भावात्मक स्तर पर मानवीय दृष्टि की प्रतिष्ठा होती है. लेखिका की तरफ से विनोद ने मंच से कहा है-  ‘जिनके नवजात शिशुओं को ढूँढ-ढाँढ कर नाचने-गाने-असीसने पहुँचते हैं आप, उन्हीं के घर दूसरे दिन पहुँचकर देखिये, घर का दरवाज़ा आपके मुँह पर भेड दिया जायेगा.... इस अवमानना को झेलने से इनकार कीजिए. कुली बनिये, ईंट-गारा ढोइये...पायेंगे मेहनत के कौर की तृप्ति. और फिर आप्त वाक्य - मैं ससम्मान आप सबकी घर वापसी चाहता हूँ(पृष्ठ-186-87).

दूसरे दिन प्रेस सभा में लोगों के सवालों में लिंग-आधारित वर्गीकरण में किन्नर के स्थान के प्रश्न पर साफ-साफ कहा गया है-जहाँ अनुसूचित जनजाति व विकलांग को रखती है सरकार. ये लिंग दोषी नहीं, पर घोर वंचित वर्ग के लोग हैं. लेकिन लिंगदोषी हम स्त्री या पुरुष नहीं हैं, तो क्या मनुष्य नहीं. पेशाब भी करते हैं, पाख़ाने भी जाते हैं. हाँ उन सबकी तरह वीर्य नहीं उगल सकते, मैथुन नहीं कर सकते, तो क्या मनुष्य नहीं हैं? किन्नर बिरादरी का संघर्ष उन्हें मनुष्य माने जाने का संघर्ष है(पृष्ठ-195).

किन्नर-जीवन को लेकर ये ही विचार व निदान देना इस कृति में चित्राजी का मक़सद रहा.... नाला सोपाराके अनुसार समाज का नग्न सत्य यह है कि किन्नर-प्राणी का घर-परिवार के साथ रहना घोषित रूप से समाज में लांछन व बेइज्जती का सबब है. विनोद के बडे भाई के माध्यम से उपन्यास में यह धारणा भी खुली है कि किन्नर-संतान के घर-परिवार में रहने से भावी संतानें भी ऐसी ही होंगी- लेकिन यह उनके अलगाने की योजना का बहाना भी है, जिसमें पारिवारिक पेचीदगियों के कई रूप खुलते हैं. फिर भी ये धारणायें हैं तो सही, जो नितांत अवैज्ञानिक होते हुए भी जनमानस में इतने गहरे पैठी हैं कि ऐसी संतान को बहिष्कृत ही नहीं किया जाता, किसी भी प्रकार के लस्तगे से दूर रखा व रहा जाता है. इनके कहीं होने की ख़बर तक रखना भी ग़वारा नहीं. इन सबको  मन से, जीवन से निकाल देना भी इस रचना की सोद्देश्यता है. और मनुष्य-समाज के इस भाग को सामाजिक स्वीकृति मिले, जो चिरकाल में स्पृहणीय है.... 

किंतु उपन्यास पढकर ख्याल आया कि न किसी किन्नर संतान के घर रहने का हमें पता है, न किसी किन्नर संतान को किन्नरों द्वारा घर से इस तरह ले जाने का. कभी ऐसी ख़बर तक पढने की याद नहीं आती.... अपनी बेख़्याली पर अफ़सोस भी हुआ कि मुम्बई की लोकल गाडियों में प्राय: रोज़ ही इस प्रजाति से पाला पडते हुए भी कभी यह दिमांग में क्यों नहीं आया कि ये आते कहाँ से हैं.... अब पता लगाया, तो शहरों में एक परिवार में किन्नर संतान के रहने का कथित पता चला, लेकिन प्रमाणित नहीं हुआ. नपुंसक संतानों के पते तथा उनके बहुविध सलूक तो उजागर हैं और वाङमय में नियोगादि के कारण रूप में विश्रुत भी. ऐसे में नालासोपाराकी इस स्थापना और किन्नर-जीवन को लेकर थोडा अध्ययन-अन्वेषण शुरू किया, तो थियेटर के अपने एक बच्चे (यशवीर) के जरिये उस नेहा किन्नर से बात हो गयी, जो मुरैना (म.प्र.) से चुनाव लड चुकी है और कुछ सौ वोटों से रह गयी जीतने से. उसने बताया कि पिछले 15सालों से घर जाकर ऐसे बच्चों को लाना बिल्कुल बन्द हो गया है. वे आम जीवन में खुद को तिरस्कृत होते पाकर खोजते हुए हमारी जमात में स्वयं आते हैं. 

इस तरह तीन साल पहले लिखा गया यह उपन्यास 15साल से पहले के यथार्थ पर आधारित है. चित्राजी उन्हें अपनी मर्ज़ी से अपन लिंग-निर्धारण व चयन का अधिकार देने की बात भी उठाती हैं. इस सन्दर्भ में मेरे एसएनडीटी विवि के समाज विज्ञान में किन्नर जीवन पर एम.फिल करने के बाद पीएच.डी. कर रही छात्रा (श्रुति नायर) ने बताया कि स्त्री-पुरुष की तरह विधानत: उनके लिए किन्नर लिंग’ (ट्रांस-जेंडर) तय हो चुका है. काफी समय से इसी लिंग-पहचान से उनके आधार कार्ड व पान कार्ड...आदि जारी हो चुके हैं. हालांकि किन्नर व नपुंसक में बेसिक फर्क़ है, फिर भी संस्कृत और तमाम भाषाओं में नपुंसक लिंग भी कुछ संकेत अवश्य कर सकता है, फिर भी यहाँ इस व्यवस्था व कृति के विचारों के बीच शास्त्रार्थ की सम्भावना बनती है.

इस तरह किन्नर-जीवन के सच और उपन्यास में कुछ दूरियां व अलगाव हैं. उपन्यास में एक सर्जक की कल्पना से सृजित गहन भावात्मक द्वन्द्व व गहरे मानवीय दंश हैं, जो साहित्य की अक्षय निधियां हैं. किंतु किन्नर जीवन का ज्वलंत सच एक दस्तावेज़ है, जिसके बरक्स उद्भावनाओं की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम हो जाती हैं. इसी क्रम में तथ्य की एक बात और...उपन्यास की जानिब से और उपन्यास से सवाल भी करती हुई ...कि विनोद अपने बडे भाई के बच्चे के नूनू को देखकर उसके लिंगत्त्व की पुष्टि करने की बात पत्र में माँ को लिखता है, तो इसी तरह विनोद को मीजते-खूनते माँ कैसे नहीं जान पायी थीं...? फिर उसे रखने-छोडने का कोई रास्ता क्यों नहीं खोजा परिवार ने...? इतना अनिश्चय क्यों रहा कि आकस्मिक घटना की तरह उसे उठाकर ले गये किन्नर...? और इसके बाद यदि दुनिया के सामने हादसे में मौत की कहानी गढी जा सकती है, तो उसे रखकर भी कोई कहानी गढी जा सकती थी कहानी गढने की कला में आज भी उर्वरता कम नहीं हुई है...!! 


 (चित्रा मुद्गल)


इन जाहिरा द्वन्द्वों के अलावा भी किन्नर-जीवन पर लिखी और सरनाम हुई इस रचना में संबद्ध जीवन के प्रामाणिक व्योरे बहुत कम आये हैं प्राय: ना के बराबर. मुझे कहने की आज्ञा मिले कि यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसान जीवन का महाकाव्य रचने वाले प्रेमचन्द में किसानी की या किसान-कर्म के साधनों-औज़ारों-तरीकों...याने किसानी संस्कृति की बात उस तरह नहीं आतीं..., क्योंकि प्रेमचन्द किसान थे नहीं, तो ओडचा-दोन-ढेकुल-पुरवट, परिहत-हरिस-फार-दाबी-नाधा-पैना, दबेहरा-नौहरा-खुटहरा, हेंगा-बरही-अवाय-सेव-हराई-पहिया...जैसे हजारों कुछ से उनका वास्ता न था.

यह सब बाद में चलकर मैला आंचलअलग-अलग वैतरणी’...आदि में आया.... वैसे ही यहाँ चित्राजी का मामला है. इनसे भी किन्नरों से वैसा वास्ता नहीं है. तभी यहाँ किन्नरों में एक सरदार के होने और बेहद दबंग व भ्रष्ट होने की चर्चा मुखर है, लेकिन सच में तो वहाँ गुरु होते हैं, जो बहुत मानिन्द और सच्चरित्र होते हैं. उन्हीं से सबकुछ संचालित होता है...उनके अपने इलाके निश्चित होते हैं. उसके बाहर जाने वाले को जुर्माना देना होता है. गुरुओं के मरने के बाद 40दिनों का अनुष्ठान सभी शिष्य करते हैं. उस दौरान कमरे में अकेले दिया जलाके बैठते हैं...आदि आदि. बच्चे के जन्म, शादी व किसी त्योहार के अलावा किसी से कुछ माँगने का नियम नहीं उनमें. अपनी कला से अवश्य छूट है पैसा कमाने की...आदि-आदि ऐसा बहुत सब है.          

विवेच्य कृति के किन्नर चाहे जितने सच और कल्पना के बीच झूल रहे हों, पर अब आइये इनकी गाथा लेके हम चलें राजनीति की दलदल में, जो अपने खाँटी रूप- याने उसी के उसी स्वार्थी व कुत्सित रूप- में सामने खडी है. आज किन्नर लोग राजनीति में आयें हैं, पर यहाँ राजनीति लेकर आयी है किन्नरों को अपने मतलब के लिए याने उनकी सामुदायिक ताकत के अपने पक्ष में दोहन के लिए. न जाने किस दैवी-दानवी प्रेरणा से लेखिका ने यह मोड दिया, पर जिस तरह विधायकजी विनोद को आगे बढाते हैं, लगता है कि यह भी गोरखपुर व मुरैना की तरह चुनाव लडेगा. लेकिन वह उनके दिये मंच पर अपनी बात कह आता है, जिसकी चर्चा आलेख के पहले पडाव पर हुई. तब लगा कि विनोद के साथ-साथ लेखिका भी राजनीति के मंच का इस्तेमाल करते हुए अपने मूल कथ्य को जगमगाते हुए पेश कर रही है और वह होता भी है. लेकिन वही मंच उसके मंतव्य का हंता भी बन जाता है और किन्नरों को अपने घर वापस लाने की जो भावुक मंशा पूरी हो रही थी, वह होते-होते रह जाती है.... जिस दिन के अख़बार में माँ की घोषणा छपती है, उसी दिन यह ख़बर भी कि खाडी में एक किन्नर की बेशिनाख़्त लाश मिली है. यह हत्या किसने करायी है, को लेकर उपन्यास कुछ कहता नहीं, जो लेखिका का बेवजह मूक पलायन है. लेकिन बार-बार बिलवारकर पढने से दो संकेत मिले, जो शायद लाये नहीं गये हैं, आ गये हैं. एक तो मंच पर जाने के ठीक पहले नेताजी के निजी सचिव तिवारीजी विनोद को फोन पर आगाह करते हैं-

राजनीति में कुछ सुनिश्चित नहीं होता- चालें ही अगली चालों की भूमिका बनती हैं’ (पृष्ठ-158). और दूसरा कथन भी तिवारीजी का ही है, जब मुद्दा खडा करने की राजनीतिक फितरत से आगे जाकर विनोद मुद्दे को हल करने के सीधे उपाय बना-बताकर मंच से उतर चुका है और प्रेस के साथ बातचीत होनी बाकी है – ‘कुछ मिल सकता है तुम्हारी बिरादरी को, तो सरकार से ही-  हमारी सरकार से. और ये घर-वापसी के दिमांगी फितूर से क्या मतलब है तुम्हारा? एक गुमशुदा की तलाश तक तो कानून-व्यवस्था कर नहीं पाती- मिल पाती है पटरी पर पडी उसकी लावारिस लाश. उसे भी लावारिस मुर्दे की तरह फूँक-फाँक फेंक देती है पुलिस’ (पृष्ठ-190). और यही हुआ विनोद के साथ, क्योंकि प्रेस से बातचीत में भी उसने वही किया- किन्नरों को भीड व मुद्दा बनाकर रखने के बदले सचमुच ही उनके निस्तार का काम.... और फिर हो गया उसी का काम तमाम.....

राजनीति के पुराने, पर आजकल नये तरह से (मातृ’, ‘मॉमआदि फिल्मों में) उभरे काम को भी लेखिका ने जोड दिया है- उसी विधायक के भतीजे व साथियों द्वारा मज़े-मज़े में किन्नर पूनम जोशी के साथ कुत्सित बलात्कार कराके. बेटे के जन्मदिन पर नाचने के लिए बुलायी गयी पूनम जान छिडकती है परिणीता प्रिया की तरह विनोद पर. उसकी नाच की अदाकारी से जोश में आये और शराब के नशे में उन्मत्त मनबढू युवादल शो के बाद उसके कपडे बदलने की कोठरी में घुसकर उसका जननांग देखने के कुतूहल, फिर उस नन्हें से छिद्र को बडा करने की फौरी रौ में उसे तहस-नहस कर डालते हैं. इस चित्रण में लेखिका के भाषा-विधान का जल्वा देखने ही लायक है-  वैसे भावुकतापूर्ण विषय के अनुसार भाषा तो सर्वत्र लाजवाब है- बोल्ड भी और शालीन भी- बजुज एक दो नेके प्रयोग एवं उडघादुरागृहीजैसे शब्दों के. ख़ैर, पूरा वाक़या जानकर विधायकजी तिवारी के जरिए बच्चों को कहीं भगा-छिपा कर ख़ुद भी जाके फॉर्म हाउस पे बैठ जाते हैं और पुलिस को ख़बर न करके पूनम को अस्पताल भेज देते हैं.

उधर प्रेस की बातचीत से लौटे विनोद को भी तिवारीजी उसी गाडी से अस्पताल भेज देते हैं, जहाँ नीमबेहोशी में भी पूनम ख़बर देती है विनोद को उसकी माँ की गम्भीर बीमारी व उसके बुलावे की.... आनन-फानन में विमान से जाने का इंतजाम होता है और ऑपरेशन के ठीक पहले विनोद को लेटे ही लेटे विदा करती हुई पूनम उसके कान में कहना नहीं भूलती – ‘सुनो, पहली वाली के पास मत चले जाना. उसे तो कोई भी मिल जायेगा. मुझे तुम्हारे अलावा कौन मिलेगा. यह पहली वाली है विनोद की सहपाठिनी ज्योत्स्ना, जिसका राग अंतर्धारा की तरह विनोद के मन से माँ के पत्रों में पूरे उपन्यास बजता रहता है- कोमल गान्धार बनकर. यह सब बताने वाला अंतिम पत्र विनोद बडे हौंस से अपने साथ लेके जा रहा था माँ को रू-ब-रू सुनाने, पर उपन्यास तो पोस्टबॉक्स नम्बर वाला है. सुनाता कैसे काश, लाश की जेब में पडे पत्र का उल्लेख हो जाता उपसंहार की खबर में...!! 
इस तरह पूरा किन्नर समुदाय पडा रह जाता है वहीं का वहीं, वैसे का वैसा- दलित-स्त्री मुद्दों की तरह ऐसे-ऐसे ढेरों विमर्शों की खान और खाद बनकर...जुगाली बनकर...धन्धा बनकर और इन सबकुछ के लिए दुधारू गाय बनकर...कठपुतली बनकर....   
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सम्पर्क :
मातरम्, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर
डीएलडब्ल्यू, वाराणसी -221004
मो.9422077006 / 0542300233   

कथा- गाथा : निष्कासन : नरेश गोस्वामी

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(पेंटिग : SALMAN TOOR )



एक सच्ची कहानी किस तरह एक राजनीतिक मंतव्य भी है इसे इस कहानी को पढ़ते हुए आप महसूस कर सकते हैं. नरेश गोस्वामी डॉक्टर की सलाह पर सुबह की सैर के लिए पार्क जाना शुरू करते हैं और तनाव पैदा करने वाले किसी भी मुठभेड़ से बचने की कोशिश करते हैं. पर यहाँ तो मनुष्यता पर ही संकट है. जान है तो जहान है. पर जब जहान ही नहीं रहे तो ?

नरेश किसी समाज वैज्ञानिक की तरह डिटेल्स लेते हैं और उस ‘विवशता’ को जिसे आज का सोचने समझने वाला वर्ग झेलता है बड़ी कुशलता से व्यक्त करते हैं.


  

निष्‍कासन 
नरेश गोस्‍वामी




भी साल भर पहली बात है जब नब्‍बे एकड़ में फैले इस मिलेनियम पार्क को देखकर मैं ठगा सा रह गया था. चौड़े खुले रास्‍तों के दोनों तरफ़ छायादार पेड़ों की कतारें, खुली जगहों में रंगबिरंगे फूलों की क्‍यारियां. मजनू के पेड़ से लटकती लाल गुलाबी मंजरियां, अमलतास पर लटकी पीली फलियों के गुच्‍छों, चंपा के मंझौले पेड़ों के छोटे-छोटे मुकुट जैसे फूलों;नीम, पीपल, बरगद तथा सेमल के घने पत्‍तों में कूकती कोयल, फूलचुही से लेकर मैना, बुलबुल, गौरेया, तोतों, पेड़ से ज़मीन पर सरपट उतरती और घास के बीच भागती दौड़ती गिलहरियों को देखकर और कभी अनजाने पक्षियों की पी-पी-पी कहीं टी-टी-टी की आवाज़ सुनकर मैं अपूर्व ख़ुशी से भर गया था. उस दिन पार्क में घूमते हुए कितने ही भूले हुए गीत होटों पर आते रहे थे. मैं हर पल, हर आवाज़, हर हरकत, यहां तक कि हवा की हल्‍की सी जुम्बिश को अपने अंदर समोता जा रहा था. लौटते हुए मैं देर तक अफ़सोस करता रहा कि इतने सुंदर संसार से अब तक क्‍यों कटा रहा था.

दरअसल, उस दिन इस पार्क को मैं एक ऐसे आदमी की निगाह से देख रहा था जो आसन्‍न मृत्‍यु से बच गया था. चार दिन पहले जब ऑफि़स में कुर्सी से उठा तो एक पल के लिए अजीब सी बेचैनी महसूस हुई. और वहीं बेहोश हो गया. खैरियत ये रही कि सीनियर एडिटर चित्रा पद्नाभम वहीं सामने खड़ी बात कर रही थी, उसने मुझे डगमगाते देख लिया था और इससे पहले कि मेरा सिर मेज के कोने से टकराता, उसने मुझे संभाल लिया. दूसरी खैरियत ये रही कि डॉक्‍टर के यहां होश आने पर बताया गया कि यह हार्ट अटैक नहीं था. अगले दिन शाम को जब दुबारा डॉक्‍टर के पास गया तो शुरुआती औपचारिकता के बाद वह तुरंत मुद्दे पर आ गया था: मुझे यक़ीन नहीं हो रहा कि कोई आदमी अपने प्रति इतना लापरवाह हो सकता है. आपका बीपी जिस स्‍टेज पर पहुंच चुका है उसमें आदमी की किडनी फेल हो सकती है, कभी भी लकवा पड़ सकता है. आप पढ़े लिखे आदमी हैं, पत्रकार हैं, दुनिया की ख़बर रखते हैं लेकिन यह नहीं जानना चाहते कि अपने शरीर में क्‍या चल रहा है... हद है यार.. आजकल तो लोगबाग हर छह महीने बाद पूरी बॉडी का चैकअप करा लेते हैं और एक आप हैं ...’.

मैं जब उठने को था तो डॉक्‍टरने मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था: देखिये समाज और राजनीति अपनी तरह से चलती रहेगी. लेकिन अब अपने लिए टाइम निकालिए. मॉर्निंग वॉक कल से ही शुरु कर दीजिए और जब भी किसी बात पर मन में गुस्‍सा या तनाव पैदा हो तो उसे एकदम झटक दीजिये’.पार्क में आने का सिलसिला इसी के बाद शुरु हुआ था.

पार्क में लैंडस्‍केपिंग करके बनाए गए चार लंबे-चौड़े टीलों पर बांस, चंपा और मौलश्री के झुरमुटों और खुले स्‍पेस का स्‍थापत्‍य लोगों को सहज ही अपनी ओर खींच लेता था. चूंकि जगह बहुत खुली थी इसलिए कहीं लोग वर्जिश करते रहते थे तो कहीं बातूनों का मजमा लगा रहता था. बहुत से लोग अपनी दरी या योगा मैट लाते थे. अपने थैले को पेड़ की किसी डाल से लटका देते और पार्क के दो-तीन चक्‍कर लगाने के बाद अपनी दरी या मैट लेकर किसी टीले पर पसर जाते.

कुछ समय बाद कुत्‍तों के ठौर-ठिकानों का भी पता चला. उनके डेरे हर कोने में थे. किसी टीन-टप्‍पर के नीचे, सूखी और काट कर एक तरफ़ रखी गयी लकडि़यों के ढूहों में नियमित अंतराल पर नये पिल्‍ले जन्‍म लेते रहते थे. चूंकि मुख्‍य ट्रैक पर हर समय लोग चलते या जॉगिंग करते रहते थे इसलिए कुत्‍ते यहां बहुत कम दिखाई देते थे. यह स्थिति तभी बदलती थी जब उनकी आपस में ठन जाती थी. सड़क की तुलना में उनके लिए यह एक निरापद संसार था. इलाकों को लेकर अगर कभी उनकी लड़ाई होती भी थी तो प्रतिद्वंदी किसी दूसरे कोने में ठौर ढूंढ लेता था.


 (दो) 
लेकिन गर्मियां शुरु हुईं तो पार्क में कुछ अलग तरह के लोग आने लगे. इनमें एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की थी जो यहां शायद केवल सुबह की ठंड़ी हवा खाने के लिए आते थे. उन्‍हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि उनकी सैर या सेहत में कोई दिलचस्‍पी हो सकती थी. उनमें शायद कई लोग सीधे बिस्‍तर से उठकर इधर निकल आते थे. ऐसे कई लोगों को मैंने पार्क में चलते पानी के पाइप से मुंह धोते देखा था. वे यहां उन्‍हीं कपड़ों में आ जाते थे जिन्‍हें रात को पहन कर सोते थे. मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि किसी भी सुबह ऐसे लोगों की संख्‍या सौ से ज्‍यादा नहीं रही होगी. और इतने बड़े पार्क में यह संख्‍या नगण्‍य थी. लेकिन वे अपने कपड़ों और हाव-भाव से पकड़ में आ जाते थे. कई बार उनके जूतों के फीते खुले रहते थे, चेहरे पर रात की उबासी जमी रहती थी, टीशर्ट या शर्ट कहीं से उधड़ी होती थी और बाल उलझे रहते थे. उनमें कुछ ठीक-ठाक होकर भी आते थे, लेकिन कुल मिलाकर साफ़ कपड़ों के बावजूद उनकी हैसियत छिप नहीं पाती थी. लिहाज़ा नाइकी, रीबॉक या एडीडास के जॉगर्स और ट्रैक सूट पहन कर आने वालों के लिए इन अजीबोगरीब लोगों की मौजूदगी चिंता की बात बनने लगी. एक दिन जब संपन्‍न बुजुर्गों के एक परिचित समूह के पास से गुजर रहा था तो मैंने उन्‍हें कहते सुना कि पार्क का माहौल बिगड़ने लगा है.

पार्क का माहौल बिगड़ने की बात संदीप गोयल ने भी कही थी. संदीप को मैं पहले से जानता था. हमारी सोसायटी में उसकी किराने की दुकान थी. दुकान तो मैं कह रहा हूं वर्ना नाम तो ‘भावना जनरल स्‍टोर’ था. मैं उसका नियमित ग्राहक था. इसलिए एक दिन जब वह अचानक पार्क में टकराया तो उसने चहकते हुए कहा था कि ‘अरे भाईसाहब, मैं तो जानता ही नहीं था कि आप भी यहां आते हैं’. वह सामने से आ रहा था लेकिन यह कहकर उल्‍टा मेरे साथ हो लिया. उसने बताया कि ‘शुगर का लेवल बढ़ गया है और डॉक्‍टर ने साफ़ कह दिया है कि अगर अब सावधानी नहीं बरती तो मामला बिगड़ जाएगा’. उस दिन के बाद तो जैसे वह मेरा इंतज़ार ही करने लगा. मैं पार्क के मेन गेट पर पहुंचता ही था कि वह कहीं से प्रकट होकर ऐन सामने आजाता था.

उस मुलाक़ात के चंद दिनों बाद जब एक सुबह मैं पार्क में दाखि़ल हुआ तो मेरा इंतज़ार करते संदीप ने हमसे कुछ दूरी पर जाते पांच-छह लोगों के एक समूह की ओर बड़ी व्‍यग्रता से इशारा किया: ‘मुल्‍लों का यह नया गैंग है...ये लोग मैंने यहां पहले कभी नहीं देखे’. मैंने उसकी बात पर कोई ध्‍यान नहीं दिया तो कुछ देर के लिए वह चुप हो गया. लेकिन थोड़ी दूर चलते ही वह फिर उसी टेक पर लौट आया:
‘आप मानो चाहे न मानो, यह जगह अच्छी जेंट्री के लिए नहीं रह गयी है्... यहां मुल्‍ले-मवालियों की भीड़ लगी रहती है... अच्‍छे लोग तो यहां आते ही नहीं भाई साहब... जानकीपुरम का पार्क देखो, मजाल है कोई ऐरा-गैरा पहुंच जाएं वहां’.   
उस दिन पहला चक्‍कर काटते हुए संदीप मुझे इलाके के स्‍थानीय भूगोल और समाज के बारे में बताता रहा: ‘पार्क का सारा कबाड़ा पड़ोस की मुस्लिम बस्‍ती दरियापुर के कारण हुआ है. आप तो जानते ही हैं, एक घर में बीस-बीस आदमी. बस्‍स सुबह निकल लिए और पहुंच गए पार्क में. यहां आकर या तो किसी झाड़ी के नीचे नींद निकालते हैं या आशिकी करते हैं’. संदीप जब मुझे यह बता रहा था तो संयोग से हम उसी समय एक बुजुर्ग मुसलमान दंपति के बराबर से गुजर रहे थे. उसी दिन मैंने कई बुर्कानशीन औरतों को घास पर नंगे पैर टहलते देखा था. मैंने जब संदीप को कहा कि हुजूर, इनमें कौन आशिकी करने के लिए आया है तो वह जैसे चोरी करते हुए पकड़ा गया था.
एक दिन ऐसे ही पार्क की बदहाली पर बात करते हुए उसने फिर किस्‍सा शुरु कर दिया था: भाईसाहब, बात सिर्फ मुसलमानों की नहीं है... वो पिछली तरफ़ की बस्‍ती पहलाद गढ़ी देखिये. कैसे-कैसे लोग रहते हैं वहां. ज्‍यादातर नीचे तबके के लोग हैं, आवारा और क्रिमनल माइंड... ऐसे ही लोगों के कारण इस पार्क की दुर्गति हो रखी है...’.  संदीप ने थूकते हुए कहा था.
मैं भरसक कोशिश कर रहा था कि उसके साथ किसी तरह की बहस में न उलझूं. फिर लगा कि अगर आज उसका विरोध नहीं किया तो वह मुझे अपना आदमी मानकर हर दिन यूं ही हलकान करता रहेगा.
‘आप भी ग़जब आदमी हैं संदीप बाबू, कल आपको मुसलमानों के आने से दिक्‍़क़त थी, आज अपने हिंदू भाईयों से परेशानी होनी लगी है... आपके हिसाब से पार्क में किन लोगों को आना चाहिए ?' 

सवाल सुनकर संदीप एक बार सकपका सा गया. लेकिन वह इतनी जल्‍दी हार नहीं मानना चाहता था: नहीं, नहीं, मैं हिंदू-मुस्लिम की बात नहीं कर रहा हूं... सवाल ये है कि इस देश में हर चीज़ फ्री क्‍यों होनी चाहिए ?  मैं तो कहता हूं कि पार्क में आने का टिकट बीस रूपये कर दो और फिर देखो...’.
‘नहीं, बीस ही क्‍यों, पांच सौ रूपये का क्‍यों नहीं करवा देते ?बस फिर आप जैसे बीस-तीस लोग ही घूमेंगे यहां..’. मैंने जहर बुझी आवाज़ में उसे जवाब तो दे दिया लेकिन तभी डॉक्‍टर की हिदायत याद हो आई कि मुझे किसी भी तरह की खीझ, गुस्‍से या तनाव से बचकर रहना चाहिए.

इस भिडंत के बाद संदीप हफ़्तों दिखाई नहीं दिया. मुझे लगा कि चलो, झंझट कटा. एक बेहूदा आदमी अपनी बकर-बकर से मन ख़राब कर देता था. मैं फिर गिलहरियों की किट-किट, घने पेड़ों के बीच से उतरती धूप, घास पर जमी ओस से छिटकती किरणों, ऐन सामने से उड़ कर गयी बगुलों की कतार जैसे दृष्‍यों में मगन रहने लगा. इस दौरान मेरा कभी इस ओर ध्‍यान ही नहीं गया कि पार्क में किन लोगों को घुसपैठिया माना जाता है और किन्‍हें उसमें सैर करने का जायज़ हक़ है. लेकिन मेरी यह ख़ुशी ज्‍़यादा दिन नहीं चल पाई. 


(तीन)
हालांकि पार्क की हवा भी वही थी, पेड़, फूल, चिडियां, गिलहरियां और कुत्‍ते भी वहीं थे और उन सबके साथ मैं भी मगन था, लेकिन माहौल बिगड़ने की बात सुनकर मैं कुछ उखड़ सा गया था. इसलिए एक दिन पार्क जाने के बजाय मैंने आसपास के इलाक़े को नापने का कार्यक्रम तय किया. उस दिन मैं पार्क के आजू-बाजू टहलता रहा, कई नुक्‍कड़ों पर चाय पीने के बहाने लोगों से बतियाता रहा.
उसी दिन पार्क के ऐन सामने वाली पॉश कॉलोनी पटेल नगर को ग़ौर से देखा जिसके विशालकाय घरों में दो-दो तीन-तीन लंबी कारें खड़ी रहती थीं और दूसरी तरफ़ दरियापुर जैसी एक अनियमित या अस्‍त-व्‍यस्‍त बस्‍ती थी जो किसी जमाने में मुकम्‍मल गांव रही होगी, लेकिन इस दौरान न गांव रह गयी थी, न शहर बन पार्इ थी. कुल मिलाकर वह एक घिच-पिच सी चीज़ हो गयी थी जिसमें आस-पास के गोदामों में माल उतार कर आए ट्रक खड़े रहते थे. और ट्रकों के आसपास बीड़ी फूंकते या खैनी चबाते उनके ड्राईवर. वहां कूड़े के सूखे ढेरों से धूल उड़ती रहती थी. लोहे-लंग्‍गड़ के घूरों के बीच पड़़ी खाने की चीज़ों को लेकर गायों और कुत्‍तों की लड़ाई चलती रहती थी. हर नुक्‍कड़ पर पान के खोखे थे या चाय की दुकान जहां किसी भी समय ओमलेट खाया जा सकता था. यहां रहने वाले ज्‍यादातर लोग पड़ोस में स्थित ट्रांसपोर्ट नगर में काम करते थे. चौबीस घंटों में कुल मिलाकर केवल दस घंटे बिजली आती थी और उसका कोई निश्चित समय नहीं था.

पार्क में सुबह आकर कुल्‍ला-दातुन करने वाले या रात की बची नींद को किसी झाड़ी की ओट या पेड़ की छांव तले दुबारा पूरी करने की कोशिश करने वाले लोग दरियापुर ओर प्रहलाद गढ़ी जैसी इन बस्तियों से ही आते थे.  

सच ये है कि अगर उस दिन मैंने पहले उन रईस बुजुर्गों और बाद में संदीप गोयल से माहौल बिगड़ने की बात न सुनी होती तो मेरा ध्‍यान बाक़ी कई चीज़ों पर भी नहीं जाता. मसलन, स्‍टेच्‍यूके आसपास के बड़े से पक्‍के प्‍लेटफॉर्म पर लगभग दस-पंद्रह लोग एक साथ वर्जिश करते थे. इनमें ज्‍यादातर अधेड़ और हाल-फि़लहाल रिटायर हुए लोग थे. इससे पहले मैंने उनके बारे में कुछ जानना नहीं चाहा था. लेकिन अब मैं उन पर ध्‍यान देने लगा था. इस समूह के ज्‍यादातर लोग लंबी कारों या एसयूवी आदि से आते थे. उनके पास योगा की ब्रांडेड मैट हुआ करती थी. अक्‍सर वर्जिश के बीच में वे समवेत स्‍वर में दो बार हर-हर महादेव के गगनभेदी नारे भी लगाते थे. एक बार पास से गुजरते हुए मैंने उन्‍ही में किसी को कहते सुना था कि हर-हर महादेव कहने से फेफ़ड़ों को ज्‍यादा ऑक्‍सीजन मिलती है. 


पहले मुझे लगता था कि ये सारे लोग बिजनेसमैन होंगे. लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि समूह में कोई ठेकेदार है, कोई भूतपूर्व जज या आईपीएस अधिकारी, कोई शहर का मशहूर डॉक्‍टर तो कोई हाईकोट में वकील है. धीरे-धीरे मैं उनके बोलने के लहजे से यह भी जान गया था कि वे किसी एक जाति के लोग नहीं थे. उनमें कई लोग उन दबंग जातियों के भी थे जिन्‍हें व्‍यवसायी और पंडज्‍जीनुमा लोग अभी तक अशिष्‍ट और गंवार मानते आए थे. इन लोगों में ग़जब की समझदारी और परिपक्‍वता थी. वर्जिश के दौरान कई बार वे एक दूसरी की जातियों का नाम लेकर ऐसा हास-परिहास कर जाते थे कि अगर यही बातें किन्‍हीं और लोगों ने अपने गुली-मुहल्‍लों में की होती तो शर्तिया ख़ून-ख़राबा हो जाता. लेकिन वे सब सुलझे और पहुंचे हुए लोग थे. बाद में पता चला कि पार्क की मेंटीनेंस कमेटी इन्‍हीं लोगों के हाथों में है.

यह भी इसी का नतीजा था कि अब मैं चीज़ों का ज्‍़यादा ग़ौर से देखने लगा था. मसलन, टीले की ढलान के बाद जो खुली जगह थी उसमें कुछ कस्‍बाई किस्‍म की औरतों का मजमा रहता था. चालीस से पचास साल की उम्र वाली ये औरतें उन महिलाओं से एकदम अलग थीं जो अच्छे स्‍नीकर और कसे हुए ट्रैकसूट पहन कर जॉगिंग करती थीं. इन औरतों को मैंने कभी सैर के मूड से घूमते नहीं देखा. वे एक झुण्‍ड के रूप में बैठी रहती थीं और ज़ोर-ज़ोर से बात करती थीं. वे मुंहफट थी और बेलाग भी.मैंने उन्‍हें कई बार योगासन की मुद्रा में बैठे तो ज़रूर देखा था, पर तब भी वे आपस में चुहल करती रहती थीं. कई बार वे गुप्‍त रोगों के बारे में हंसते हुए बात करती मिलती थीं. उनके लिए जैसे कुछ भी निजी या वर्जित नहीं था. कई बार अपनी बहुओं की शाहखर्ची, देर तक सोने और उनकी बेशर्मी पर बात करती थीं. उनमें कई औरतें पुरुषों के इरादों को दूर से भांप लेती थीं. मसलन, एक दिन आपस में बात करते हुए वे कह रही थी: देख लिए भाण ( बहन) यू मफलर वाला यादमी (आदमी) म्‍हारे निंघ्‍घै ही चक्‍कर काटता रहवैगा’.उनकी बात सुनकर मैंने भी उस मफलर वाले आदमी को पहचान लिया था. वह लगभग पचास बरस का आदमी रहा होगा. एक ही रंग का कुर्ता-पाजामा पहने वह आदमी मुझे हर चक्‍कर पर उन्‍हीं औरतों की तरफ़ जाता दिखाई दिया था. और एक दिन इसी आदमी को मैंने कहते सुना था: माल तो उनमें कई चटक हैं पर भाई कोई हाथ ना धरण देत्‍ती’.उस समय वह कुछ लोगों के साथ टीले पर खड़ा हुआ बात कर रहा था. वे सारे ही-ही खी-खी के बीच कोई अश्‍लील बात करते हुए हंस रहे थे. मैंने बाद में पता किया था कि टीले पर बैठकर अक्‍सर लखबीर सिंह लक्‍खा के फिल्‍मी भजन सुनने वाले इस समूह के ज्‍़यादातर लोग ट्रांसपोर्ट का व्‍यवसाय करते थे.   

मेरा यह देखना भी इसी के बाद शुरु हुआ था कि पार्क के हर टीले पर अलग-अलग चलने वाली गतिविधियों के अलावा कुछ चीज़ें लगभग एक जैसी थीं. हर टीले पर एक दो आदमी अपने थैलों में कुत्‍तों के लिए रोटी लेकर आते थे. उनमें कोई एक जगह रुककर बोलता: भूरे. और देखते देखते भूरे रंग के कुत्‍ते के साथ छोटे बड़े अन्‍य कई कुत्‍तों का दल यहां वहां से दौड़कर उस आदमी के पास पहुंच जाता. ऐसे ही दूसरे किसी टीले पर किसी काले को पुकारा जाता और वहां काला कुत्‍ता अपने झुंड के साथ नमूदार हो जाता. इन कुत्‍तों में कोई मोती होता था, कोई जैकी और कोई कबरा. कुत्‍तों के लिए रोटी लेकर आने वाले ये लोग भी रीबॉक-ट्रैकसूट वाले समुदाय से अलग थे. उनमें कोई कमीज-पायजामे में होता था. कोई पैरों में रबड़ की चप्‍पलें पहने होता था तो कोई चमड़े की जूतियां. उनके शरीर की बनावट और हाव-भाव को देखकर कहीं से नहीं लगता था कि वे अपना मोटापा घटाने आए हैं. वे या तो कोई पुण्‍य कमाने आते थे या खुली जगह में सांस लेने.


(चार)
एक महीना बीता होगा कि संदीप एक दिन फिर पार्क में दिखाई दिया. देखते ही वह मेरी ओर लपका. उसे देखकर मैंने अपना चेहरा और भी पथरीला बना लिया, फिर भी वह मेरे साथ चिपक लिया और महीने भर का हाल बताता रहा. उसने बताया कि इस दौरान पत्‍नी पंद्रह दिन हॉस्‍पीटल में भर्ती रही. मैं शिष्‍टाचारवश उसकी पत्‍नी के बारे में कुछ पूछने वाला ही था कि उसने झट से मुद्दा बदल दिया. उसका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि जैसे वह कोई गोपनीय बात बताना चाहता है:
‘देखा, भाई साहब, एक तीर से दो निशाने लग गए... कमेटी ने वो स्‍ट्रोक मारा कि मुल्‍ले और ठलुए दोनों एक साथ ग़ायब... अब देखना, किसी भी टीले पर ये फ्री फंड वाले नहीं मिलेंगे. मेंटीनेंस कमेटी ने एक प्रपोजल तैयार किया है जिसमें पहले टीले पर बच्‍चों के खेलने के लिए किड्स जोन बनाया जाएगा, दूसरे पर कोई ग्रुप योगा और लाफ्टर थैरेपी की क्‍लास शुरु करने वाला है. तीसरे पर एक आयुर्वेदिक फ़र्म जूस और अपने अन्‍य प्रोडक्‍ट्स के स्‍टॉल लगाएगी और चौथे टीले के लिए पार्क के बाहर फल बेचने वालों से बात की चल रही है कि अगर वे तैयार हो जाएं तो उनके लिए वहीं टीले पर ठीहे का प्रबंध कर दिया जाएगा. कमेटी ने एक कंपनी से स्‍टील की सुंदर ठेलियां सप्‍लाई करने की बात भी की है. भाई साहब अगर पीडीए ने प्रपोजल मान लिया तो इस पार्क का कायापलट हो जाएगा’.
संदीप अपनी बात ख़त्‍म करते करते जैसे पार्क के नये रंग-रूप की कल्‍पना में डूब गया था. कुछ देर बाद जब वह अपने कल्‍पना-लोक से बाहर आया तो शायद उसने देखा कि मेरा चेहरा वितृष्‍णा से खिंच गया है. हम दोनों अपनी अपनी चुप्‍पी में चलते रहे. मुझे अचानक याद आया कि अपनी दुकान पर वह ग्राहक को सामान हुए कैसे लगातार पूछता रहता है: ‘और क्‍या लोगे भाई साहब’. यह भी याद आया कि जब कोई उससे कहता है कि आप हर सामान एमआरपी पर क्‍यों बेचते हो तो वह कैसे झल्‍लाने लगता है. मुझे लगा कि इस थुलथुल आदमी के मुंह पर मुझे बम की तरह फट जाना चाहिए. मेरे भीतर एक सरसराहट सी होने लगी थी. मैं इस अनुभूति से बहुत लंबे समय से वाकिफ़ हूं. छब्‍बीस साल पहले जब मैक्रो-इकॉनोमिक्‍स की क्‍लास में प्रोफ़ेसर धीरेंद्र कपूर नयी आर्थिक नीति की चर्चा करते हुए निजीकरण के फायदे गिनवा रहे थे और बार-बार इस तर्क पर ज़ोर दे रहे थे कि सरकार को बाज़ार की चालक शक्तियों में दखल न देकर सिर्फ़ गवर्नेंस पर केंद्रित होना चाहिए तो तब भी मेरे अंदर ऐसी ही सरसराहट हुई थी. मैंने अपनी सीट से खड़े होकर उनसे सधे हुए स्‍वर में पूछा था: आप वर्ल्‍ड बैंक के एजेंट हैं या अर्थशास्‍त्र के व्‍याख्‍याता ?
 इतना कहना था कि पूरी क्‍लास में सन्‍नाटा छा गया. प्रोफ़ेसर साहब को मेरी धृष्‍टता समझने में थोड़ी देर लगी, लेकिन जब समझ आई तो वे अपने गले की अधिकतम क्षमता से दहाड़े थे- गेट आउट. और अगले दिन मुझे युनिवर्सिटी से निष्‍कासित कर दिया गया था. इन तमाम बरसों में मैंने जब भी अपने भीतर बम की यह सरसराहट महसूस की, हमेशा कुछ न कुछ अप्रिय हुआ. कभी बने-बनाए संबंध खो दिए, कभी अपनी संभावनाएं चौपट कर लीं. नहीं.. नहीं, मुझे अब इससे बचना है. मुझे किसी भी तरह की खीझ, गुस्‍से और तनाव से बचना है.
उस दिन के बाद मैंने पार्क जाने का समय बदल दिया ताकि संदीप से टकराने की संभावना ही ख़त्‍म हो जाए. अब मुझे उसकी शक़्ल देखे लगभग चार महीने हो चुके हैं. मैंने उसके स्‍टोर से सामान खरीदना भी बंद कर दिया है.      
   

(छह)
लेकिन संदीप की बात सच निकली. धीरे-धीरे चारों टीलों पर काम शुरु हो गया है. किड्स जोन में बच्‍चों के लिए एक नावनुमा झूला, ऊंचा कूदने के लिए एक रिंग और ड्रैगन के मुंह वाला एक छोटा सा रोलर कोस्‍टर लग चुका है. उस इलाक़े को एक लाल चौड़े रिबन जैसी एक पट्टी से घेर कर बाहर एक टिकट खिड़की बना दी गयी है. चूंकि इन सारी चीज़ों को चलाने के लिए बिजली की ज़रूरत पड़ती है इसलिए वहीं पास में एक बड़ा सा जेनरेटर भी रखवा दिया गया है. 

दूसरे टीले पर योगा और लाफ़्टर थैरेपी की क्‍लास शुरु हो गयी हैं. इन कार्यक्रमों के संयोजक बहुत शक्तिशाली साउंड सिस्‍टम इस्‍तेमाल करते हैं. प्राणायम सिखाते समय गुरुजी जब सांस अंदर खींचते हैं तो उसकी आवाज़ दूर तक सुनाई देती है. इसी तरह लोग जब अचानक ठहाका लगाते हैं तो पूरा पार्क गूंजने लगता है और आसपास के पेड़ों पर बैठे पक्षी इस औचक आवाज़ के हमले से डर कर अचानक उड़ जाते हैं.

अभी आयुर्वेदिक जूस और उत्‍पाद बेचने वाली कंपनी ने अपना काम शुरु नहीं किया है, लेकिन टीले का एक बड़ा हिस्‍सा उसके लिए आरक्षित कर दिया गया है. भूरे, काले और कबरे जैसे कुत्‍तों और उनके लिए हर सुबह रोटियां लाने वाले लोगों ने अभी टीला पूरी तरह नहीं छोड़ा है. लेकिन लाल रिबन का घेरा वहां भी पहुंच गया है, इसलिए लोग अब उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं.

पिछले दिनों सुना कि पार्क के बाहर फलों की ठेली लगाने वाले लोगों ने अंदर आने से मना कर दिया है. उनका कहना है कि सर्दियों में तो पार्क में फिर भी पूरे दिन लोग रहते हैं लेकिन गर्मियों में सुबह-शाम के चार पांच घंटों के लिए कोई दो हज़ार रूपये महीना क्‍यों देगा. वैसे पिछले दिनों पार्किंग वाला बता रहा था कि अगर फल वालों ने कमेटी की बात नहीं मानी तो उन्‍हें पार्क के सामने से भगा दिया जाएगा.

इस तरह, चौथा टीला अभी बचा हुआ है. उस पर लोग अभी भी घूमते, लेटे या बैठे दिखाई दे जाते हैं.

लेकिन इस दौरान जॉगिंग ट्रैक पर भीड़ बढ़ने लगी है. पहले लोगबाग जॉगिंग करते हुए आगे पीछे कहीं भी हाथ घुमा देते थे, अब डरने लगे हैं कि हाथ किसी से टकरा न जाए. भूरे, काले, कबरे और उनके भाई-बंधु अब टीलों के बजाए सड़कों पर ज्‍यादा मिलते हैं. उन्‍हें रोटी खिलाने वाले जब इधर आते हैं तो कई बार रास्‍ता जैसे बंद सा हो जाता है. तब लोगों को दाएं बाएं से बचकर निकलना पड़ता है. दरियापुर के वे लोग जो आंखों की बची हुई नींद किसी पेड़ या झाड़ी के नीचे निकाल लिया करते थे, अब ट्रैक पर कुछ ढूंढ़ते से फिरते हैं.

पहले पार्क में घूमते हुए कई जगहें ऐसी आती थीं जहां ज़मीन पर पत्‍ता गिरने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे जाती थी. अब हर समय एक रेला साथ चलता है. सच कहूं, मेरा इस पार्क से अब मन उखड़ चुका है. आखि़र ऐसा घूमना भी क्‍या घूमना कि आपके आगे पीछे लगातार भीड़ सी चलती रहे! कमेटी के लोगों को देखते ही मेरे मन में गालियों का शोर उठने लगता है. कई बार वही पुरानी सरसराहट महसूस करता हूं, लेकिन तभी मुझे डॉक्‍टर की हिदायत याद आने लगती है कि मुझे इस खीझ, गुस्‍से और तनाव को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है.

मैं जानता हूं कि किसी दिन चौथे टीले पर भी काम शुरु हो जाएगा और मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. इसलिए मैंने बहुत सारे सवालों पर सोचना ही छोड़ दिया है. सुबह जब पार्क में आता हूं और छोटे-छोटे बच्‍चे–बच्चियों को कबाड़ बीनते देखता हूं तो द्रवित नहीं होता. मैं एक बार उनकी ओर देखता हूं और उस दृष्‍य को तुरंत झटक देता हूं.
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