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मेघ-दूत : नजवान दरवीश की कविताएं (अनुवाद मंगलेश डबराल)

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फिलस्तीन के कवि नजवान दरवीश की कविताएं
अनुवाद: मंगलेश डबराल

आठ दिसम्बर को जन्मे नजवान दरवीश (8 दिसंबर १९७८) को फिलस्तीन के  कवियों की नयी पीढ़ी और समकालीन  अरबी शायरी में सशक्त आवज हैं. महमूद दरवेश के बाद  वे  शायरी में फिलस्तीन के दर्द और संघर्ष के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं. उनका  रचना संसार  बेवतनी का नक्शाहै. वह एक ऐसी जगह की तकलीफ से लबरेज़ है  जो धरती पर नहीं बनी है,सिर्फ अवाम के दिल और दिमाग में ही बसती है. नजवान की कविताओं का मिजाज़ और गठन महमूद दरवेश से काफी फर्क है और उनमें दरवेश के  रूमानी और कुछ हद तक क्लासिकी अंदाज़े-बया से हटकर यथार्थ को विडम्बना की नज़र से देखा गया है.  उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हैं: ‘खोने के लिए और कुछ नहीं’ और ‘गज़ा में सोते हुए’. ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने दो साल पहले उन्हें ‘चालीस वर्ष से कम उम्र का सबसे बड़ा अरबी शायरकहा था. नजवान  लन्दन से प्रकाशित प्रमुख अरबी अखबार ‘अल अरब अल जदीद’ के  सांस्कृतिक सम्पादक हैं और कुछ समय पहले  साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित ‘सबद’ अंतरराष्ट्रीय कविता महोत्सव और रजा फाउंडेशन के एशियाई कविता समारोह ‘वाक्’ में कवितायें पढ़ चुके हैं.


हम कभी रुकते नहीं

मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं
और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं:
एक पेड़ जिसकी जड़ें
बहता हुआ पानी हैं:
अगर वह रुक जाता है तो मर जाता है
और अगर नहीं रुकता
तो मर जाता है.

मैंने अपने सबसे अच्छे दिन बिताये हैं
मौत के गालों और बांहोंमें
और वह ज़मीन जो मैंने हर दिन खोयी है
हर दिन मुझे हासिल हुई फिर से
लोगों के पास थी एक अकेली जमीन
लेकिन मेरी हार मेरी ज़मीन को कई गुना बढाती गयी
हर नुक्सान के साथ नयी होती गयी
मेरी ही तरह उसकी जड़ें पानी की हैं:
अगर वह रुक गया तो सूख जाएगा
अगर वह रुक गया तो मर जाएगा
हम दोनों चल रहे हैं
धूप की शहतीरों की नदी के साथ-साथ
सोने की धूल की नदी के साथ-साथ 
जो प्राचीन ज़ख्मों से उगती है
और हम कभी रुकते नहीं
हम दौड़ते जाते हैं
कभी ठहरने के बारे में नहीं सोचते
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें आपस में

मेरा कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं,
और कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं:
रुकना 
मेरी मौत होगी.



भागो !

एक आवाज मुझे यह कहते हुए सुनाई देती है: भागो
और इस अंग्रेज़ी टापू को छोड़ कर चल दो
तुम यहाँ किसी के नहीं हो इस सजे-धजे रेडियो के सिवा
कॉफी के बर्तन के सिवा
रेशमी आसमान में कतार बांधे पेड़ों के घेरे के सिवा
मुझे आवाजें सुनाई देती हैं उन भाषाओं में जिन्हें मैं जानता हूँ
और उनमें जिन्हें मैं नहीं जानता  
भागो
और इन जर्जर लाल बसों को छोड़ कर चल दो
इन जंग-लगी रेल की पटरियों को
इस मुल्क को जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है 
इस कुनबे को जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाये रहता  है जैसे कि वह उसका अपना पुरखा हो
इस टापू से भाग चलो
तुम्हारे पीछे सिर्फ खिड़कियां हैं
खिडकियां दूर जहाँ तक तुम देख सकते हो
दिन के उजाले में खिड़कियाँ
रात में खिड़कियाँ
रोशन दर्द के धुंधले नज़ारे
धुंधले दर्द के रोशन नज़ारे
और तुम आवाजों को सुनते जाते हो: भागो
शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं अपने बचपन के सपनों से
बस्तियों के निशानों से जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही ज़र्द दस्तखत बन कर रह गयीं  
जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं कि किस चीज से भागे हैं, वे इस क़दर कायर हैं कि सड़क पार नहीं कर सकते
वे अपनी समूची कायरता बटोरते हैं और चीखते हैं:
भागो.


अगर तुम यह जान सको

मैं मौत से अपने दोस्तों को नहीं खरीद सकता
मौत खरीदती है
लेकिन बेचती नहीं है

ज़िंदगी ने कहा मुझसे:
मौत से कुछ मत खरीदो
मौत सिर्फ अपने को बेचती है
वे अब हमेशा के लिए तुम्हारे हैं, हमेशा के लिए
वे अब तुम्हारे साथ हैहमेशा के लिए
अगर तुम सिर्फ यह जान सको
कि खुद से ही 
ज़िन्दगी हैं तुम्हारे दोस्त.


मैं जो कल्पना नहीं कर सकता

ग्रहों के ढेर के बाद जब एक ब्लैक होल
धरती को निगल लेगा
और न इंसान बचेंगे और न परिंदे
और विदा हो चुके होंगे तमाम हिरन और पेड़ 
और तमाम मुल्क और उनके हमलावर भी...
जब सूरज कुछ नहीं
सिर्फ किसी ज़माने के शानदार शोले की राख होगा
और यहां तक कि इतिहास भी चुक जाएगा,
और कोई नहीं बचेगा किस्से का बयान करने के लिए
या इस ग्रह और हमारे जैसे लोगों के
खौफनाक खात्मे पर हैरान रहने के लिए 

मैं कल्पना कर सकता हूं उस अंत की
उसके आगे हार मान सकता हूँ
लेकिन मैं यह कल्पना नहीं कर सकता
कि तब यह होगा
कविता का भी अंत.


तुम जहां भी अपना हाथ रखो

किसी को भी प्रभु का क्रॉस नहीं मिला
जहां तक अवाम के क्रॉस की बात है
तुम्हें मिलेगा सिर्फ उसका एक टुकड़ा
तुम जहां भी अपना हाथ रखो 
(और उसे अपना वतनकह सको)

और मैं अपना क्रॉस बटोरता रहा हूँ
एक हाथ से
दूसरे हाथ तक
और एक अनंत से
दूसरे अनंत तक.


एक कविता समारोह में

हरेक कवि के सामने है उसके वतन का नाम
मेरे नाम के पीछे यरूशलम के अलावा कुछ नहीं है

कितना डरावना है तुम्हारा नाम, मेरे छोटे से वतन
नाम के अलावा तुम्हारा कुछ भी नहीं बचा मेरी खातिर

मैं उसी में सोता हूं उसी में जागता हूं
वह एक नाव का नाम है जिसके पंहुचने या लौटने की
कोई उम्मीद नहीं.
वह न पंहुचती है और न लौटती है
वह न पंहुचती है और न डूबती है.


आलिंगन

परेशान और तरबतर
मेरे हाथ पहाड़ों, घाटियों, मैदानों के आलिंगन की कोशिश में
घायल हुए 
और जिस समुद्र से मुझे प्यार था वह मुझे बार-बार डुबाता रहा
प्रेमी की यह देह एक लाश बन चुकी है
पानी पर उतराती हुई 

परेशान और तरबतर
मेरी लाश भी
अपनी बांहों को फैलाये हुए
मरी जा रही है उस समुद्र को गले लगाने के लिए
जिसने डुबाया है उसे.


बिलम्बित मान्यता

अक्सर मैं एक पत्थर था राजगीरों द्वारा ठुकराया हुआ  
लेकिन विनाश के बाद जब वे आये
थके-मांदे और पछताते हुए
और कहने लगे ‘तुम तो बुनियाद के पत्थर हो’
तब तामीर करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था

उनका ठुकराना कहीं अधिक सहने लायक था 
उनकी विलंबित मान्यता से


नरक में

1.
1930 के दशक में
नात्सियों को यह सूझा
कि पीड़ित लोगों को रखा जाए गैस चैंबरों के भीतर
आज के जल्लाद हैं कहीं अधिक पेशेवर:
उन्होंने गैस चैंबर रख दिए हैं
पीड़ितों के भीतर.

2.
जाओ नरक में... 2010

जालिमो, तुम नरक में जाओ, और तुम्हारी सभी संतानें भी
और पूरी मानव-जाति भी अगर वह तुम्हारे जैसी दिखती हो
नावें और जहाज़, बैंक और विज्ञापन सभी जाएँ नरक में
मैं चीखता हूँ, ‘जाओ नरक में...’
हालंकि मैं जानता हूँ अच्छी तरह
कि अकेला मैं ही हूँ
जो रहता है उधर.


3.
लिहाजा मुझे लेटने दो
और मेरा सर टिका दो नरक के तकियों पर.


‘सुरक्षित’

एक बार मैंने उम्मीद की एक खाली कुर्सी पर
बैठने की कोशिश की
लेकिन वहां पसरा हुआ था एक लकडबग्घे की मानिंद
‘आरक्षित’ नाम का शब्द
(मैं उस पर नहीं बैठा; कोई नहीं बैठ पाया)
उम्मीद की कुर्सियां हमेशा ही होती हैं आरक्षित.


जाल में

जाल में फंसा हुआ चूहा कहता है:
इतिहास मेरे पक्ष में नहीं है
तमाम सरीसृप आदमियों के एजेंट हैं
और समूची मानव जाति मेरे खिलाफ है
और हकीकत भी मेरे खिलाफ है

फिर भी इस सबके बावजूद मुझे यकीन है
मेरी संतानों की ही होगी जीत.


______________________________________ 






परख : पानी को सब याद था (अनामिका) : मीना बुद्धिराजा

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पानी को सब याद था : अनामिका
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशननई दिल्ली
प्रथम संस्करण- 2019
मूल्य- रू- 150











वरिष्ठ कवयित्री अनामिका का नया कविता संग्रह ‘पानी को सब याद था’ इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से छप कर आया है. अब तक उनके ‘ग़लत पते की चिट्ठी’, बीजाक्षर’, समय के शहर में’, अनुष्टुप’, कविता में औरत’, खुरदुरी हथेलियाँ’तथा ‘दूब-धान’ कविता संग्रह प्रकाशित हैं. रूसी, अंग्रेज़ी, स्पेनिश, जापानी, कोरियाई, बांग्ला, पंजाबी, मलयालम, असमिया, तेलुगु आदि भाषाओं में भी उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.

इस संग्रह को देख-परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा


       

पानी को सब याद था                 
मीना बुद्धिराजा






विता में स्त्री और स्त्री में कविता की बात अगर की जाए तो हिंदी कविता के समकालीन परिसर में स्त्रीवाद के वैचारिक और गंभीर अस्मिता विमर्श की दृष्टि से स्त्री के पक्ष में बोलने वाली कविता अपना विशेष महत्व रखती है. यह स्त्री-कविता स्त्री की पहचान के अनवरत संघर्ष में स्त्री मुक्ति की जिस उम्मीद को लेकर सजग-सचेत करती है उसका फलक बहुआयामी और लोकतांत्रिक है. इस समय की स्त्री कविता की मुक्ति का स्वर वृहद है जो मानव मुक्ति के विशाल स्वर में जाकर मिलता है.महज स्त्री पक्षधरता और आत्मसत्य की परिसीमा के बाहर अब स्त्री कविता का स्वरूप जनतांत्रिक है. वह देश, धर्म, वर्ग, वर्ण, जाति व समुदाय की सीमाओं को पार करके वैविध्यपूर्ण सामूहिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर बोलती है. इस कविता की खसियत है कि इसमें स्त्री-अनुभवों का व्यापक साझा संसार है जो स्वाभाविक और समय से आबद्ध है. यह कविता स्त्री के संदर्भ में सामाजिक विमर्श के समायोजन और सह-अस्तित्व के मुक्ति स्वप्न को नये रूप से बुनती है.
 
हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका जी का अपना विशेष प्रतिष्ठित मुकाम है जिसमें उन्होनें कविता को स्त्रीत्व के सभी आयामों निजी और सामाजिक यातनाओं से जोड़ते हुए अंतर्वस्तु, भाषा और शिल्प का नया धरातल निर्मित किया है. कविता के लिये अनेक प्रमुख पुरस्कारों से सम्मानित होने के साथ कथा साहित्य, आलोचना,संस्मरण,अनुवाद और एक स्त्री-चिंतक के रूप में पब्लिक इंटलेक्चुअल के रूप में नारीवादी विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय रहने और अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन से लेकर अनामिका जी का कार्य फलक बहुत व्यापक है ,परंतु सबसे पहले और सबसे बाद में वे एक कवि ही हैं. उनके कविता-संग्रह- गलत पते की चिठ्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में , अनुष्टुप, कविता में औरत ,खुरदरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगंत जैसी प्रमुख रचनाएँ कोमल संवेदनाओं के साथ विवेकशील दृष्टि के कलात्मक संयोजन के कारण हिंदी कविता में अलग से पहचानी जाती हैं. स्त्री विमर्श के समकालीन दौर के संघर्ष का चित्रण तो अलग-अलग रूप से आज कविता में हो ही रहा है लेकिन हिंसक और क्रूर यथार्थ में अनामिका जी की कविता समाज और सृष्टि में प्रेम और करूणा को बचाए रखने की अनवरत यात्रा है. इस प्रयास में वे भारतीय समाज में पुरुष सत्ता और वर्चस्ववादी, सामंती संरचना से जूझ रही असंख्य स्त्रियों के दुख और पीड़ा का सरलीकरण कभी नहीं करती जो उनकी कविता की पहचान है. प्रख्यात आलोचक डॉ मैंनेजर पांडेय के अनुसार- भारतीय समाज और जनजीवन में जो घटित हो रहा है और इस घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.इसी रचनात्मक पथ पर निरंतर उनकी सृजन यात्रा में अनामिका जी का नवीनतम कविता-संग्रह पानी को सब याद थाइसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो कर आना समकालीन कविता में और पाठकों के लिये एक नयी सार्थक उपलब्धि है.

अनामिका एक अस्तित्व के रूप में स्त्री होने को कभी नकाराती नहीं बल्कि गरिमा के साथ स्त्री होने को स्वीकारती हैं क्योंकि एक रचनाकार के रूप में स्त्री का व्यक्तित्व अपनी अस्मिता के होने को सभी भेद-प्रभेदों के बीच से निकलकर गुजरकर अपनी पहचान पाता है और फिर एक विशिष्ट मनोविज्ञान को रचता है   जिसे समग्रता से अनुभव किए बिना न तो कोई अहसास होता है न विचार, न कल्पना न अतंर्दृष्टि. इसलिए एक कविता में अनामिका जी ने कहा था-

लोग दूर जा रहे हैं
और बढ़ रहा है
मेरे आसपास का स्पेस!
इस स्पेस का अनुवाद
विस्तार नहीं अंतरिक्ष करूंगी मैं
क्योंकि इसमें मैंने उड़नतश्तरी छोड़ रखी है.
समय का धन्यवाद
कि इस समय मुझमें सब हैं
सबमें मैं हूँ थोडी -थोड़ी
दरअसल इस पूरे घर का
किसी दूसरी भाषा में
अनुवाद चाहती हूँ मैं
पर यह भाषा मुझे मिलेगी कहाँ.

अनामिका स्त्री के जीवन को, घर को नकारती नहीं हैं बल्कि अपनी भाषा से उसे नयी पहचान देना चाहती हैं.वर्चस्व की सामाजिक व्यवस्था से दबी मुक्त होने की सहज आकांक्षा के लिए इस अनुवाद की भाषा जब वे ईजाद कर लेती हैं तो उन्हें स्त्री की वास्तविक जमीन मिल जाती है जो उसकी अपनी हो सके. स्त्री अनुभवों की यातनाओं, दंश और संघर्ष को वे अपनी कविता में पूरी सच्चाई और तीव्रता के साथ व्यक्त करती हैं.

पानी को सब याद था संग्रह की कविताएँ स्त्री की साझी दुनिया की सगेपन की घनी बातचीत जैसी कविताएँ हैं जिनमे अद्भुत आत्मीयता और जीवंत संवाद है जो सीधे पाठकों तक संप्रेषित होता है. स्त्रियों का अपना समय इनमें मद्धम लेकिन स्थिर स्वर में अपने दु:ख-दर्द, कटु अनुभव और उम्मीदें बोलता है परंतु इनमें किसी भी तरह का काव्य चमत्कार पैदा करने का न कोई आग्रह है न इन कविताओं का उद्देश्य.अपने सहज संवेदनात्मक अभिप्राय में कवयित्री  की दृष्टि उन समवेत पीड़ाओं को संबोधित करती है जो स्त्री के साथ-साथ उपेक्षित, गुमनाम, वंचित हाशिये के लोगों की उन भीतरी-बाहरी यत्रंणाओं से भी गुजरती है जो उनके जीवन में इस पार से उस पार तक फैली हैं. यह एक स्त्री रचनाकार होकर समाज के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपने परिवेश को वास्तविकता में गढ़ने का संवेदनशील सार्थक प्रयास है.स्त्री को मात्र देह विमर्श तक सीमित न करके समाज में उसकी अस्मिता को पहचानने का बोध इन कविताओं की संवेदना को तरलता, सरोकारों को गहनता, सर्जना को उर्वरता और संघर्ष को स्वप्नों का सौंदर्य प्रदान करता है. यहाँ स्त्री क्षितिज का जो विस्तार है वह उनके  दायित्व और चिंताओं का व्यापक स्वरूप है औरवर्ण, जाति, धर्म, वर्ग से परे एक साझा अनुभव है, अटूट सम्बंध है जहाँ जीवन ठोस सच है और जीवन से स्पंदित है.

भारतीय स्त्रियों के जीवन संघर्ष, हास-परिहास और गीत-अनुष्ठान, रीति-रिवाज, सामूहिक क्रिया-कलापों के जरिये पीड़ा को सह पाने की उनकी परंपरागत युक्तिहीन युक्ति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर अनामिका की कविताओं के नये अर्थ खुलते हैं. जिन तक कविता को देखने-परखने के रूढ़ ढांचे को तोड़कर ही पहुँचा जा सकता है

काम के बोझ से कमर टूटी जिनकी
उनकी भी होती कमरधनियाँ
चाहे गिल्लट की होतीं, लेकिन होतीं
झनझन-झन बजतीं वे
मिल -जुलकर मूसल चलाते हुए!
दस रुनझुनें मिलकर
पूरी अंगनैया झनका देतीं
छत्तीस तोले कीथीं जिनकी
सत्तावन की जंग में
बेगमों की करधनियाँ भी
बेमोल ही बिक गईं !
अब करधनियाँ नहीं हैं
कमर अब कसी है इरादों से
और औरतों ने आवाज़ उठा ली है
दादियों की बात मानते हुए
कि ऐसा भी धीरे क्या बोलना
आप बोलें कमरधनी सुने!
बोलें, मुहँ खोलें जरा डटकर
इतनी बड़ी तो नहीं है न दुनिया की कोई भी जेल
कि आदमी की आबादी समा जाए
और जो समा भी गई तो
वहीं जेल के भीतर झन-झन-झन
बोलेंगी हथकड़ियाँ
ऐसे जैसे बोलती थीं कमरधनियाँ
मिल-जुलकर मूसल चलाते हुए.

परंपरा और संस्कृति में अंतर्निहित बड़ी-बजुर्ग स्त्रियों, दादियों-नानियों, मां की कथाओं और उनके मुहावरों-कहावतों में छिपे काल-सिद्ध सत्य का अन्वेषण अनामिका जी हमेशा अपने मौलिक तरीके और शैली में हमेशा करती आई हैं. ये कविताएँ भी लोक और जन-श्रुतियों की अनुभव संपन्न थाती में जीवन सत्य की और आत्म सत्य की अनेक धाराओं से अपने सरोकारों के मंतव्य को सींचती और पुष्ट करती चलती हैं. स्त्री क्योंकि अनामिका जी के लिए कोई जाति विशेष नही है, बल्कि एक केंद्रीय तत्व है जो प्राणि मात्र के अस्तित्व में मौजूद रहता है. वह मनुष्य के रूप में पुरुष में भी है, पेड़ में है, पानी में भी है जो सतत गतिशील है. यह स्त्री तत्व ही जीव को जन्म देता हैजीवन भीऔर उसे सार्थक करता है. इस संग्रह की अनूठी कविताएँ कवयित्री के लिए उसी तत्व को केंद्र में लाने का अप्रतिम दायित्व है तमाम चुनौतियों और प्रतिकूलताओं के बीच-

जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टाँकें हैं फूल सभी धरती पर.

इन कविताओं में स्त्री के विविधात्मक संसार को एक नये सिरे से गढ़्ने की उम्मीद है और इसके लिए अनामिका जी के पास एक संपन्न परतदार भाषा है जिसमें जातीय स्मृतियाँ हैं, जो निजी भी है सार्वभौम भी, उस भाषा में जीवन और समाज को देखने का एक बड़ा विज़न भी है. एक स्त्री रचनाकार के रूप में उनमें जो प्रेम और उम्मीद है उसे वे अपनी कविताओं में जीवनानुभवों में व्यक्त करती हैं क्योंकि उनके अनुसार अनुभव बांटने की चीज़ ही है. दुनिया में सब कुछ भी बांटने के लिये ही होताअ है अंदर बचा कर रखने के लिये नहीं. जो मानवीय अनुभव, सुख-दुख, तकलीफ, विडंबनाएँ हमने आत्मसात की वे साझा करने के लिए ही है. इसलिए उनकी कविता एक व्यैक्तिक रचना न होकर समूचे समाज की तरफ से एक सामूहिक प्रयास बन जाती है. अनामिका जी अपनी कविताओं में  उन तमाम भेद-भावों की संरचनाओं को तोड़्ती हैं जो वर्चस्व पूर्ण समाज में स्त्री के लिए निर्मित की गई हैं. सभ्यातगत इतिहास में वे स्त्री और पुरुष के आपसी विपर्यय पर अपना ध्यान रखती हैं और स्त्री-प्रश्नों को उठाने के लिए प्रदत्त और निर्धारित शब्द संरचना को बदलती हैं. उनकी अभिव्यक्ति में जीवन से जुड़े अनेक शब्द अपने नये संदर्भों के साथ आते हैं और प्रतीकात्मक बिंबों से सजी आत्मीय भाषा में व्यंजना के नये अर्थ प्रस्फुटित होतें हैं. उनकी संवेदना का फैलाव उन वंचित जनों तक भी है जिसमें एक स्त्री की करुणा सहज रूप से जुड़ जाती है इसलिये लोक-भाषा के शब्द सायास नहीं बल्कि उनके अनुभव का अनिवार्य हिस्सा बन कर आते हैं. क्षिति जलपावककविता में यह गहन संवेदना इसी तरह संप्रेषित होती है-

कहते हैं वैद्यराज
वैसे तो पाँच तत्वों की बनी है ये काया
लेकिन हर मन पर होती है अलग छाया
किसी एक महातत्व की.
ये ही होता है रिश्तों में भी
कुछ रिश्ते आकाश होते हैं
कुछ पानी
कहते हैं वैद्यराज-
मज़े-मज़े में होना आकाश
होना अगन-पवन-पानी
पर माटी में पैर गोड़ने हों तो
संभलना!
थोड़ा निहुर जाना
धानरोपनी में झुकी उस किसानिन की लय में
जिसे पीठ पर झेलनी है बहुत मार-
मौसम की हो या महँगाई की
हूक उठे, आँख में चुभे किरकिरी
फिर भी करनी है मेहनत लगातार.

साधारण जीवन की असाधारण जीवन स्थितियाँ, त्रासद विडंबनाएँ इन कविताओं में बिम्बों, चरित्रों, दृश्यों और संवादों का एक सजीव संसार उपस्थित कर देती हैं कि पाठक इन स्मृतियों को उसी अंतरंग मन:स्थिति के साथ ही संवेदना में दर्ज़ कर लेता है.शहर की मध्यवर्गीय स्त्री कीपीड़ा हो या गाँव-कस्बे की निर्धन स्त्री की अंतर्व्यथा, उसे सहज और आत्मीय रूप से उकेरने का कौशल अनामिका जी की काव्यात्मक विशिष्टता है. मानवीय संबधों में आते बदलाव और परिवेश की चुनौतियों से, परिवार और समाज की मर्यादाओंसे जूझती बेटी, बहन के रूप में स्त्री के अस्तित्व का संघर्ष अब ज्यादा जटिल और बहुआयामी है. परंपरा और आधुनिकता के इस विरोधाभास में अनामिका की कविताएँ मिथक और लोकश्रुतियों को भी नये सिरे से स्त्री पक्ष में पुनर्मूल्यांकित करती हैं जिनमें आज का यथार्थ शिद्दत से उभर कर आता है. ऑनर किलिंग और तथाकथित सम्मान के नाम पर उभरती जातीय खाप-संस्कृति की पर उनकी बारीक नज़र स्त्री -अस्मिता पर हुए शोषण के नये आघातों को देखती है जैसे –प्रेम के लिए फाँसीकविता में-
मीरा रानी , तुम तो फिर भी खुशकिस्मत थीं
खाप पंचायत के फैसले
तुम्हारे सगों ने तो नहीं किये.
राणाजी ने भेजा विष का प्याला-
कह पाना फिर भी आसान था
भैया ने भेजा’- ये कहते हुए जीभ कटती.
बचपन की स्मृतियाँ कशमकश मचातीं
और खड़े रहते ठगे हुए राह रोककर
हँसकर तुम यही सोचती-
भैया को इस बार मेरा ही
आखेट करने की सूझी!
वह सब संपदा: त्याग, धीरज, सहिष्णुता.
मेरे ही हिस्से कर दी
क्यों उसके नाम नहीं लिखी ?

अनामिका जी के लिए स्त्री-मुक्ति का विराट संदर्भ मूलत: समानता, आत्मसम्मान न्याय और मानवीय गरिमा के साथ अधिक सहज प्रेमपूर्ण संबंधों के लिए समाज में उसके स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना के लिये है. स्त्री मुक्ति के यथार्थ का यूटोपिया समूची मानवता के सभ्यातामूलक विकास के लिये वंचितों, शोषितों और पीडित जनों के व्यापक संघर्ष में हिस्सेदारी निभाने से ही संभव है. इसलिये उनकी कविता-भाषा बहुकेंद्रित और संवादधर्मी है और उसका आधार लोकतांत्रिक है. यह साझा स्त्री-विमर्श स्त्री को दैहिक-मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाओं से मुक्त करने का निरतंर प्रयास है जिसमें अन्याय और क्रूरता के समानानंतर करुणा और न्याय दृष्टि है. इस संग्रह की कविताओं में साधारण स्त्री- छवियों का विविध संसार है जो बहुरंगी- बहुआयामी है. साधारण जीवन की असाधारणता जिसमें ज़िंन्दगी तरह-तरह के प्रभावों, रंग-रूप, सुख-दुख, विडंबनाएँ और बाधाओं को झेलते हुए तिल-तिल काटी जाती है. 

इतिहास की नायिकाओं से महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, मीराबाई,घनानंद की सुजानसे बेगम अख्तर तक और गाँव-कस्बे, शहर से लेकर झुग्गी-झोपड़ियों,गली-मोहल्लों, फुटपाथों, अनाथालायों, शिविरों, विस्थापित बस्तियों तक से खेत-खलिहान ,मजदूरी,घरेलू और अन्य बेगार के कार्यों से जुड़ी श्रमिक सर्वसाधारण स्त्रियाँ,इन कविताओं में जीवंत हो उठती है. परम्परा से रूढ़ि को अलग करती हुई नयी दृष्टि से सचेतन स्त्रियां जिनके जीवन का संघर्ष अंतहीन है और मुक्ति का रास्ता इतना आसान नहीं. मेरे मुहल्ले की राबिया फकीर,स्त्री सुबोधिनी: उत्तर कथा, अमरफल,रूसी औरतें, निगमबोध पर मामी, टैगोर को मेरा प्रेमपत्र, कस्बे में शेक्सपियर शिक्षक, चैन की साँस, हनूज दिल्ली दूर अस्त, प्लेटफॉर्म पर ग्रामवधुएँ,विस्थापन बस्ती कीकुछ पुरमज़ाक पद्मिनी नायिकाएँ, गायत्रीकौल:खोली नम्बर 55, कबाड़िन: खोली नम्बर 261ब्यूटी कल्चर: खोली नंबर 65, राबिया अनवर : खोली नंबर 73,डॉली सर्राफ: खोली नंबर 88, पासवर्ड: निर्भया की अम्मा: खोली नंबर 105 , नसीहत जैसी सशक्त कविताएँ जिनमें जाति और मजहब से परे प्रत्येक स्त्री का दुख साझा है –


मेकअप में
उस्ताद है शाज़िया
ईश्वर की भूलें भी
मनोयोग से सुधार देती है
उसका नन्हा पार्लर है घरौंदा
पीट कर निकाल दी गई औरतों का
धो देती है उनके चेहरों से
सदियों की धूल
दुनिया के सारे आस्वादों की खातिर
जब फिर से तैयार हो जाते हैं रंध्रकूप-
फिर दोनों साथ-साथ बैठी हुईं
चाय नहीं पीतीं
पीतीं हैं घूँट -घूँट अमृत वो
उस मगन आपसदारी का
जिसको कि कहते हैं बहनापा !

स्त्रीवाद की कठोर ज़मीन पर खड़े होकर अनामिका जी आज के परिवेश में स्त्री के उत्पीड़न और स्त्री-समाज के त्रासद यथार्थ के प्रति भी पूरी तरह सजग और सचेत हैं. बाज़ारवादी सभ्यता व उपभोगवादी संस्कृति में स्त्री का संघर्ष अब अधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण हुआ है जिसमेंअत्याचार, यौन-हिंसा, अन्याय और शोषण के नये-नये तरीकों से टकराना भी नियति है.इन कविताओं  में समसामयिक परिवेश की तमाम अमानवीय और निर्मम विसंगतियों के प्रति चिंताएँ भी शामिल हैं. आधुनिक और विकसित कहे जाने वाले समाज में भी स्त्री के दुख,संत्रास और यातना की परतें पौरुषवादी व्यवस्था की मानसिकता में समाहित हैं. इस संग्रह की विशिष्ट लंबी कविता- एक ठो शहर था- और एक थी निर्भयाइस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध स्त्री के सशक्त और प्रखर प्रतिरोध को दर्ज़ करती है.कुछ साल पहले दिल्ली में दिसंबर की एक रात में घटित निर्भया के जघन्य कांड और यौन हिसां के अमानवीय बर्बर संदर्भों में स्त्री-अस्तित्व के अनेक पहलुओं को मार्मिकता से उभारती है. पांच अंकों में विभक्त यह कविता कई उप-खंडो में विभाजित यह कविता विस्थापन बस्तियों में रहने वाली कई स्त्रियों के जीवन और अंतर्मन से गुजरती हुई निर्भया तक पहुँचती है और अप्ने तरीके से अनेक सबंधों और संदर्भों के साथ इस घटना के निहितार्थों की व्याख्या करती है. दिल्ली जो कितनी बार बसी और कितनी बार उजड़ी मानों इसकी गवाह बन जाती है. निर्भया की माँकी उससे जुड़ी अनेक स्मृतियाँ, एक वर्ष के अंतराल में कई मौसमों से गुजरते हुएस्त्री होने की त्रासदी को अपनी बेटी में और निरंतर अपनी पीड़ा में झेलते हुए,न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में संकल्प के साथ इस लड़ाई को लड़ते हुए उम्मीद को वह स्थगित नहीं करती जो एक स्त्री के साथ मानवता का सामूहिक संघर्ष बन जाती है-

दुनिया के साझा अलाव में
चिंगारियों की बिसात ही भला क्या
आखिर तो जीवन है
एक मशाल यात्रा !
और कुछ नहीं छूटता
छूटती है बस ये गाथा
कि कोई किसलिए जिया
और मरा तो वह मरा कौन सी धुन में
कौन आग तापता हुआ
अपनी राह गया
कौन ढहा भी तो
अपनी मशाल
किसी और को थमाता हुआ
जैसे निर्भया ने थमाई
यह कहते हुए-
देह भी एक देश है जैसे
यह देश भी देह है.

इस कविता में अनामिका जी क्रमिक रूप से स्त्री के अंतर्संघर्ष को, आक्रोश को, पीड़ा को जैसे अपनी आत्मानुभूति के मुश्किल असहनीय सफर की तरह महसूस करती हैं. स्त्री का संत्रास बहुत संज़ीदगी से इस कविता में बयान होता है किसी जो समस्याओं को घटनाओं को देखने का उनका अपना संवेदनशील दृष्टिकोण है जिसमें अभी निष्पाप बचपन है और जो संवेदना का साझा धरातल है. यह हिंस्त्र और बर्बर समय के उनके प्रतिरोध का अपना तरीका और विशिष्ट शैली है जो भारतीय स्त्री मन की गहरी समझ से उत्पन्न हुई है. इस पूरी व्यवस्था, समाज और सभ्यता से उनकी यही मांग है कि स्त्रीत्व को वर्चस्व का जरिया न बनाया जाए, उसके अधिकारों, सम्मान और गरिमा को स्वतंत्र अस्तित्व को मानवीय परिसर में देखा जाए. यह जेंडर समानता आज के समय की अतिवादी प्रवृत्ति नहीं बल्कि बहुत सी ऐतिहासिक और परंपरागत भूलों को सुधारने का स्त्री की अस्मिता का आंदोलन है.

इस दृष्टि से पानी को सब याद थासंग्रह की नयी कविताओं में अनामिका जी की काव्य-संवेदना और स्त्री-आकाक्षाओं का विस्तार स्त्री-जीवन से जुड़े अनेक पक्षों तक जाता है. स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में ये कविताएँ बने-बनाए विमर्श के ढ़ांचे को तोड़ती है और स्त्रीवाद का नया पाठ तैयार करती हैं. उनके सरोकार संवेदनात्मक दिशा में अग्रसर होकर भी यथार्थ के प्रति सजग वैचारिक विवेक पर आधारित हैं. स्त्री के आत्मसम्मान का प्रश्न और उसकी स्वतंत्र वैचारिक जमीन की तलाश इस समय की कविता की केंद्रीय चिंता है जो सामाजिक व्यवस्था में अपनी पहचान और गरिमा के लिए संघर्षशील है. जहाँ स्त्री को अपने अधिकारों के लिए जागरूक होने के साथ परपंरागत यंत्रणाओं के दायरे से बाहर आने की बेचैनी और उसके लिए तय की गई त्रासदियों के विरोध में अनामिका जी का उभर कर आता है और सदियों से चले आ रहे सभी तरह के उत्पीड़न के खिलाफ उनका संज़ीदगी से प्रतिरोध भी व्यक्त होता है. स्त्री- अस्मिता के पक्ष में वस्तुत: यह स्वर पूरे समाज की सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध है जिसमें सबकी व्यापक भागीदारी होनी चाहिए.

अनामिका जी की कविता स्त्री-पक्ष में बोलने वाली कविता है जो आधी आबादी के बुनियादी अधिकारों और अस्तित्व का भी बड़ा प्रश्न है जिससे उनकी संवेदना और मानवीय चेतना कभी अछूती नहीं रह पाती. समय के निरंतर बदलाव की सामाजिक प्रक्रिया में स्त्री-यथार्थ की समसामयिक चुनौतियाँ-जटिलताएँ इन कविताओं के केंद्र मे हैं जो स्त्री की आत्मुनुभूति का भोगा हुआ यथार्थ है. ये कविताएँ स्त्री को सदैव समाज द्वारा परिधि पर रखने की परंपरागत सोच के प्रतिरोध में अनथकप्रयास हैं जिसके लिए एक नई स्त्री-भाषा का सार्थक जीवंत शिल्प भी इनकी विशिष्टता है. यह स्त्री के साझे स्वप्नों और आकांक्षाओं से और अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा होकर भी आधुनिक विमर्श है जो स्त्री की व्यैक्तिक मुक्ति को मानव-मुक्ति के विराट संदर्भों से जोड़ता है–

घर के पचास काम निबटाकर
मातृभाषा में अखबार बाँचती हैं जो-
उन मामियों, मौसियों, चाचियों और बुआओं की
राष्ट्रीय चेतना
गाँधी और टैगोर की
पालिता है
तंग दायरों में वह नहीं सोचती
और उड़ी जाती है
पंच प्राणों- सी
जात और मज़हब के
बाड़ों के पार !
________________________

मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय.
संपर्क-9873806557 

मेघ-दूत : नजवान दरवीश की कविताएं (अनुवाद मंगलेश डबराल)

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फिलिस्तीनी कवि नजवान दरवीश की कुछ कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कवि मंगलेश डबराल ने किया है.  



फिलस्तीन के कवि नजवान दरवीश की कविताएं          
अनुवाद: मंगलेश डबराल








आठ दिसम्बर को जन्मे नजवान दरवीश (8 दिसंबर १९७८) को फिलस्तीन के  कवियों की नयी पीढ़ी और समकालीन  अरबी शायरी में सशक्त आवज हैं. महमूद दरवेश के बाद  वे  शायरी में फिलस्तीन के दर्द और संघर्ष के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं. उनका  रचना संसार  बेवतनी का नक्शा है. वह एक ऐसी जगह की तकलीफ से लबरेज़ है जो धरती पर नहीं बनी है,सिर्फ अवाम के दिल और दिमाग में ही बसती है. 

नजवान की कविताओं का मिजाज़ और गठन महमूद दरवेश से काफी फर्क है और उनमें दरवेश के  रूमानी और कुछ हद तक क्लासिकी अंदाज़े-बया से हटकर यथार्थ को विडम्बना की नज़र से देखा गया है.  उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हैं: ‘खोने के लिए और कुछ नहीं’और ‘गज़ा में सोते हुए’. ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने दो साल पहले उन्हें ‘चालीस वर्ष से कम उम्र का सबसे बड़ा अरबी शायरकहा था. नजवान  लन्दन से प्रकाशित प्रमुख अरबी अखबार ‘अल अरब अल जदीद’के  सांस्कृतिक सम्पादक हैं और कुछ समय पहले  साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित ‘सबद’ अंतरराष्ट्रीय कविता महोत्सव और रजा फाउंडेशन के एशियाई कविता समारोह ‘वाक्’ में कवितायें पढ़ चुके हैं.

मंगलेश डबराल






हम कभी रुकते नहीं

मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं
और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं:
एक पेड़ जिसकी जड़ें
बहता हुआ पानी हैं:
अगर वह रुक जाता है तो मर जाता है
और अगर नहीं रुकता
तो मर जाता है.

मैंने अपने सबसे अच्छे दिन बिताये हैं
मौत के गालों और बांहों में
और वह ज़मीन जो मैंने हर दिन खोयी है
हर दिन मुझे हासिल हुई फिर से
लोगों के पास थी एक अकेली जमीन
लेकिन मेरी हार मेरी ज़मीन को कई गुना बढाती गयी
हर नुक्सान के साथ नयी होती गयी
मेरी ही तरह उसकी जड़ें पानी की हैं:
अगर वह रुक गया तो सूख जाएगा
अगर वह रुक गया तो मर जाएगा
हम दोनों चल रहे हैं
धूप की शहतीरों की नदी के साथ-साथ
सोने की धूल की नदी के साथ-साथ 
जो प्राचीन ज़ख्मों से उगती है
और हम कभी रुकते नहीं
हम दौड़ते जाते हैं
कभी ठहरने के बारे में नहीं सोचते
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें आपस में

मेरा कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं,
और कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं:
रुकना 
मेरी मौत होगी.





भागो !

एक आवाज मुझे यह कहते हुए सुनाई देती है: भागो
और इस अंग्रेज़ी टापू को छोड़ कर चल दो
तुम यहाँ किसी के नहीं हो इस सजे-धजे रेडियो के सिवा
कॉफी के बर्तन के सिवा
रेशमी आसमान में कतार बांधे पेड़ों के घेरे के सिवा
मुझे आवाजें सुनाई देती हैं उन भाषाओं में जिन्हें मैं जानता हूँ
और उनमें जिन्हें मैं नहीं जानता  
भागो
और इन जर्जर लाल बसों को छोड़ कर चल दो
इन जंग-लगी रेल की पटरियों को
इस मुल्क को जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है 
इस कुनबे को जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाये रहता  है जैसे कि वह उसका अपना पुरखा हो
इस टापू से भाग चलो
तुम्हारे पीछे सिर्फ खिड़कियां हैं
खिडकियां दूर जहाँ तक तुम देख सकते हो
दिन के उजाले में खिड़कियाँ
रात में खिड़कियाँ
रोशन दर्द के धुंधले नज़ारे
धुंधले दर्द के रोशन नज़ारे
और तुम आवाजों को सुनते जाते हो: भागो
शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं अपने बचपन के सपनों से
बस्तियों के निशानों से जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही ज़र्द दस्तखत बन कर रह गयीं  
जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं कि किस चीज से भागे हैं, वे इस क़दर कायर हैं कि सड़क पार नहीं कर सकते
वे अपनी समूची कायरता बटोरते हैं और चीखते हैं:
भागो.





अगर तुम यह जान सको

मैं मौत से अपने दोस्तों को नहीं खरीद सकता
मौत खरीदती है
लेकिन बेचती नहीं है

ज़िंदगी ने कहा मुझसे:
मौत से कुछ मत खरीदो
मौत सिर्फ अपने को बेचती है
वे अब हमेशा के लिए तुम्हारे हैं, हमेशा के लिए
वे अब तुम्हारे साथ हैहमेशा के लिए
अगर तुम सिर्फ यह जान सको
कि खुद से ही 
ज़िन्दगी हैं तुम्हारे दोस्त.





मैं जो कल्पना नहीं कर सकता

ग्रहों के ढेर के बाद जब एक ब्लैक होल
धरती को निगल लेगा
और न इंसान बचेंगे और न परिंदे
और विदा हो चुके होंगे तमाम हिरन और पेड़ 
और तमाम मुल्क और उनके हमलावर भी...
जब सूरज कुछ नहीं
सिर्फ किसी ज़माने के शानदार शोले की राख होगा
और यहां तक कि इतिहास भी चुक जाएगा,
और कोई नहीं बचेगा किस्से का बयान करने के लिए
या इस ग्रह और हमारे जैसे लोगों के
खौफनाक खात्मे पर हैरान रहने के लिए 

मैं कल्पना कर सकता हूं उस अंत की
उसके आगे हार मान सकता हूँ
लेकिन मैं यह कल्पना नहीं कर सकता
कि तब यह होगा
कविता का भी अंत.





तुम जहां भी अपना हाथ रखो

किसी को भी प्रभु का क्रॉस नहीं मिला
जहां तक अवाम के क्रॉस की बात है
तुम्हें मिलेगा सिर्फ उसका एक टुकड़ा
तुम जहां भी अपना हाथ रखो 
(और उसे अपना वतनकह सको)

और मैं अपना क्रॉस बटोरता रहा हूँ
एक हाथ से
दूसरे हाथ तक
और एक अनंत से
दूसरे अनंत तक.





एक कविता समारोह में

हरेक कवि के सामने है उसके वतन का नाम
मेरे नाम के पीछे यरूशलम के अलावा कुछ नहीं है

कितना डरावना है तुम्हारा नाम, मेरे छोटे से वतन
नाम के अलावा तुम्हारा कुछ भी नहीं बचा मेरी खातिर

मैं उसी में सोता हूं उसी में जागता हूं
वह एक नाव का नाम है जिसके पंहुचने या लौटने की
कोई उम्मीद नहीं.
वह न पंहुचती है और न लौटती है
वह न पंहुचती है और न डूबती है.





आलिंगन

परेशान और तरबतर
मेरे हाथ पहाड़ों, घाटियों, मैदानों के आलिंगन की कोशिश में
घायल हुए 
और जिस समुद्र से मुझे प्यार था वह मुझे बार-बार डुबाता रहा
प्रेमी की यह देह एक लाश बन चुकी है
पानी पर उतराती हुई 

परेशान और तरबतर
मेरी लाश भी
अपनी बांहों को फैलाये हुए
मरी जा रही है उस समुद्र को गले लगाने के लिए
जिसने डुबाया है उसे.





बिलम्बित मान्यता

अक्सर मैं एक पत्थर था राजगीरों द्वारा ठुकराया हुआ  
लेकिन विनाश के बाद जब वे आये
थके-मांदे और पछताते हुए
और कहने लगे ‘तुम तो बुनियाद के पत्थर हो’
तब तामीर करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था

उनका ठुकराना कहीं अधिक सहने लायक था 
उनकी विलंबित मान्यता से




नरक में

1.

1930 के दशक में
नात्सियों को यह सूझा
कि पीड़ित लोगों को रखा जाए गैस चैंबरों के भीतर
आज के जल्लाद हैं कहीं अधिक पेशेवर:
उन्होंने गैस चैंबर रख दिए हैं
पीड़ितों के भीतर.




2.
जाओ नरक में... 2010

जालिमो, तुम नरक में जाओ, और तुम्हारी सभी संतानें भी
और पूरी मानव-जाति भी अगर वह तुम्हारे जैसी दिखती हो
नावें और जहाज़, बैंक और विज्ञापन सभी जाएँ नरक में
मैं चीखता हूँ, ‘जाओ नरक में...’
हालंकि मैं जानता हूँ अच्छी तरह
कि अकेला मैं ही हूँ
जो रहता है उधर.



3.
लिहाजा मुझे लेटने दो
और मेरा सर टिका दो नरक के तकियों पर.





‘सुरक्षित’

एक बार मैंने उम्मीद की एक खाली कुर्सी पर
बैठने की कोशिश की
लेकिन वहां पसरा हुआ था एक लकडबग्घे की मानिंद
‘आरक्षित’ नाम का शब्द
(मैं उस पर नहीं बैठा; कोई नहीं बैठ पाया)
उम्मीद की कुर्सियां हमेशा ही होती हैं आरक्षित.





जाल में

जाल में फंसा हुआ चूहा कहता है:
इतिहास मेरे पक्ष में नहीं है
तमाम सरीसृप आदमियों के एजेंट हैं
और समूची मानव जाति मेरे खिलाफ है
और हकीकत भी मेरे खिलाफ है

फिर भी इस सबके बावजूद मुझे यकीन है
मेरी संतानों की ही होगी जीत.


______________________________________ 

(photo by Ambarsh Kumar)



हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है तथा बांग्ला कवि नबारुण भट्टाचार्य के संग्रह यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देशके सह-अनुवादक भी रहे हैं.

सम्पर्क
मंगलेश डबराल
ई 204, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9
वसुंधरा गाज़ियाबाद -201012
mangalesh.dabral@gmail.com

कुछ नहीं । सब कुछ : निधीश त्यागी

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किताबः कुछ नहीं । सब कुछ (कविताएं)
कवि और प्रकाशकः निधीश त्यागी
डिजाइनरः रूबी जागृत
मूल्यः 499/-







































वरिष्ठ पत्रकार और कवि निधीश त्यागी के पहलेकविता संग्रह ‘कुछ नहीं । सब कुछ’ का  विमोचन कल दिल्ली में है. समालोचन की तरफ से बधाई. इस संग्रह से कुछ कविताएँ आपके लिए.


व्यापक मानवीय संवेदना की ओर कविता खींचती है, रोजाना के कामकाजी गद्य में अगर आप डूबे हों तो और भी. निधीश त्यागी की इन कविताओं में शब्दों का ममत्व है.  


निधीश त्यागी की कविताएँ                                   


जैसे मौसम पहनता है

जैसे मौसम पहनता है पृथ्वी
उसकी प्रकृति को पहनना था उसे

देर रात वह अपनी साड़ी
उतार तह बनाती है
उसे छूती है सहलाती है
देर रात वह अपना श्रृंगार
उतारती है जो किया गया था
जा चुके पल और प्यार के लिए

देर रात वह आईने में
शक्ल देखती है
ख़ाली, थकी और अपरिचित
घुप होता चुप उसका
चेहरा टटोलता है
बीच में कई बार

देर रात वह उस लम्बे दिन
को फिर से पलटती है और
उसकी जघन्यता पर
चकित होती है

देर रात वह 
पलंग के किनारे बैठ कर
हथेलियों में चेहरा लिए
घुटनों पर कुहनियां टिका
बहुत देर बैठी रहती है

शरीर से ज्यादा आत्मा पर दर्ज
हुए उन हरे होते ज़ख़्मों पर
देर रात फाहा रखती है

देर रात वह सबको माफ़
करती है ईश्वर को भी

पलंग की बग़ल की मेज़ पर
पानी का गिलास रख
देर रात वह बत्ती बुझाती है

जघन्यताओं और पहचान के बाहर

बहुत देर रात तक अंधेरे अकेले
में बची हुई साँस लेती है





चिलमनों के उस तरफ

नाम पुकारता है
नई जगह से
हर बार
सुनाई पड़ता है
नई जगह पर

उठा डालता है आसमान
हरी कर देता है ज़मीन
परिँदो का झुंड
एक साथ उड़ान भरता है
हरी पत्ती वाली टहनी
हिलती है
एक नये सूर्य की तरफ़

स्मृति के मुहाने से
कल्पना के दहाने तक
नाम उसे बाँधता है
खोलता है
एक नई पहचान में
नई उजास छाया में

भाषा और अर्थों के आरपार
नाम एक मंत्र की तरह
सिद्ध होता जाता है
प्राण में प्रतिष्ठा में

बहुत सारी रंगीन मछलियाँ
एक साथ मुड़ती है
करवटें बदलती हुई
उन तिलिस्मी तालों को खोलती हुई
जिनके होने का पता ही नही था
तर्क और कारणों और दुनियादारियों को.

नाम मना करता है नाम लेने को
पर साँस है
अटकी हुई
अगली पुकार की टोह लेती
ज़िंदा हो उठने की

नाम है कि लेता है
नाम को
अकेले मे, चुप में, अपने घुप में
धमनियों से गुज़रते संगीत में
उसे पुकारता हुआ

जहां वह ग़ुमशुदा तो है
जहां वह लापता तो नहीं.




उस एक दिन

एक दिन
एक राग उसे छेड़ेगा
एक पत्ता उसे हिला देगा
एक कविता उसे लिखेगी
एक दीवार उससे बात करेगी
एक जुराब़ उसे ढूंढ निकालेगी
एक सपना उसे देखेगा
कई झरोखे झांकेंगे उसमें
एक दिन

एक दिन
एक किताब उसका अध्याय पढ़ेगी

बहुत दिनों तक
एक देहरी उसके साथ चलेगी
एक बेड़ी की तरह

उस एक दिन के लिए


अभी यहीं


अगर जीने का एक ही पल बचा हो बहुत सारे स्थगित और रिक्त और वीतराग समय में अगर एक ही खिड़की हो दीवार में रौशनी के आने और अपने हरे में झाँकने के लिए अगर एक ही पुकार हो और गूँजते रहने के लिए अगर एक ही ख़याल गा रहा हो आत्मा के आरपार अगर एक ही फफक एक ही आँसू एक ही उच्छवास एक ही मौक़ा एक ही चाँद एक ही जंगल एक ही मृदंग एक ही थाप एक ही नाच एक ही आलम्बन, एक बारिश एक शाम एक पार्किंग एक ही स्पंदन एक ही पहला और अंतिम अपने आपमें एक ही आसमान और सूरजमुखी, अगर एक ही जादू हो एक ही मनुष्यता एक ही ब्रह्मांड, अंतरिक्ष, खगोल सपनों और स्मृति को लाँघने की एक ही देहरी, अगर दिल पर रखने को एक ही हाथ हो, एक हू कम्पन, एक ही फुदक, ललक, सिसक, एक ही लहर, एक ही सीपी, एक ही अभी और यहाँ का आदि और अंत

एक नाम. एक हाँ

हर बार. अलग. पहली बार.

एक ही तुम.

एक साँस में तुम्हें लेता हुआ
___________________


निधीश त्यागी का जन्म 1969में जगदलपुर, बस्तर में हुआ और बचपन छत्तीसगढ़ के विभिन्न कस्बोंजगदलपुर, नारायणपुर, डौंडी अवारी, जशपुरनगर, गरियाबंद, नगरी सिहावा के सिविल लाइंस के खपरैल वाले सरकारी मकानों में बीता. मध्यप्रदेश के सैनिक स्कूल, रीवा के चंबल हाउस में कैशोर्य, जहां से फौज में चाहकर भी नहीं जा सके. बाद में राजधानी बनने से पहले वाले रायपुर के शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय में बीएससी करते हुए डेढ़ साल फेल (एक साल पूरा फेल, एक बार कंपार्टमेंटल). पास होने के इंतज़ार में देशबंधु अख़बार में नौकरी की और विवेकानंद आश्रम की आलीशान लाइब्रेरी की किताबों में मुंह छिपाया. बाद में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर करने की नाकाम कोशिश. दिल्ली में आईआईएमसी (भारतीय जनसंचार संस्थान) में दाख़िला मिला, वहां होस्टल नहीं मिला. बहुत बाद में लंदन की वेस्टमिन्स्टर यूनिवर्सिटी में बतौर ब्रिटिश स्कॉलर चीवनिंग फेलोशिप. वहां पहुंच कर लगा कि बहुत पहले आना चाहिए था किसी ऐसी जगह पर. डेबोनयेर हिंदी में नौकरी मिली, वह चालू ही नहीं हुई. इस बीच नवभारत नागपुर, राष्ट्रीय सहारा, ईस्ट वेस्ट टीवी, जैन टीवी, इंडिया टुडे, बिज़नेस इंडिया टीवी, देशबंधु भोपाल, दैनिक भास्कर चंडीगढ़ और भोपाल में काम किया. बीच में गुजराती सीख कर दिव्य भास्कर के अहमदाबाद और बड़ौदा संस्करणों की लॉन्च टीम में रहा. बेनेट कोलमेन एंड कंपनी लिमिटेड के अंग्रेज़ी टैबलॉयड पुणे मिरर के एडिटर. फिर चंडीगढ़ के अंग्रेज़ी द ट्रिब्यून में चीफ न्यूज़ एडिटर. आजकल बीबीसी हिंदी में संपादक."
तमन्ना तुम अब कहाँ होसे एक किताब पेंग्विन से प्रकाशित.

nidheeshtyagi@gmail.com








जोकर (कहानी) : विवेक मिश्र

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टॉड फिलिप्स के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘जोकर’ की चर्चा है और यह उम्मीद की जा रही है कि इसे इस वर्ष का ऑस्कर मिलेगा.

मुझे हिंदी के कथाकार विवेक मिश्र की एक कहानी की याद आई जिसका शीर्षक जोकर है. हालाँकि फिल्म में जोकर मनोरोगी है. कहानी में वह मनोरोगियों के बीच मारा जाता है.


                
जो क र                                    
विवेक मिश्र
 
 


फिर मेट्रो आई रुकी और चली गई.
 
समय से घर पहुँचने का एक मौका आया,रुका और आँखों के सामने से सरकता चला गया.
  
एक दिन, एक घंटा जल्दी जाने की मोहलत नहीं मिल सकती. नौकरी है या गुलामी. न जाने भाबू का बुखार उतरा होगा कि नहीं. कितनी बार कहा है जशोदा से, 'थोड़ा अपने आप भी निकला करो घर से, देख लो आस-पास की जगहें जिससे बखत-जरूरत जा सको बाहर.'पर हमेशा एक ही बात, 'बाहर जाते डर लगता है, शहर है या समन्दर. अकेले घर से निकलने की बात सोचते ही जी कच्चा होने लगता है और फिर इस शैतान भाबू के साथ, कभी नहीं.'आज भाबू के लिए ही बाहर निकलना है. डॉक्टर के पास जाना है पर नहीं निकल सकती. उसने कहा था जल्दी आऊँगा नहीं जा सकता. खाने-पीने वालों के लिए होगी मौज़-मस्ती की जगह,उसके लिए तो एक जेल है, ये रेस्टोरेन्ट.
 
जोकर के लिबास में सारे दिन का क़ैदी है. दुख न दिखे इसलिए रंगीन लैंस लगे हैं आखों में. उदासी छुपाने के लिए चेहरे पर लाल-पीले रंग से मुस्कान चिपका दी गई है. वह चाहे भी तो निजात नहीं पा सकता, इस मुस्कान से. तरह-तरह से मुस्कराना, हाथ मिलाना, लाल-पीले थैले में से निकालकर बच्चों को खिलौने बांटना, उनका हाथ पकड़कर चलना. उनके रोने पर रोना, हँसने पर हँसना. उनकी फर्माइश पर नाचना, एड़ी पर घूमकर चकरी, या फिर लट्टू बन जाना. रेस्टोरेन्ट में जोकर का होना बच्चों के लिए सबसे बड़ा कौतुक है. उनकी अपनी पसंद की आइसक्रीम या बर्गर से भी बड़ा. माँ-बाप ख़ुश रहें इसलिए बच्चों का ख़ुश रहना जरूरी है. माँ-बाप के हिसाब से वे मासूम हैं और उन्हें खाते-पीते हुए जोकर के करतब देखना पसंद है. जोकर की नज़र से सब बच्चे मासूम नहीं दिखते. उनमें से कुछ दुष्ट और सिरफिरे भी होते हैं. वे बिना वजह कपड़े खींचते हैं, धकियाते हैं पर जोकर को हर हाल में उनकी कारगुज़ारियों से डरना है, सहम जाना है. फिर भी न माने तो मुस्कराते हुए पलटी मारकर भाग जाना है. पर किसी भी हाल में उन्हें नाराज़ नहीं करना है.
 
अपनी ही मुस्कान इतनी असहय हो सकती है,यह उसने यहाँ, इस नौकरी में सुबह से लेकर देर रात तक मुस्कराते हुए ही जाना. शायद कभी इस मुखौटे को उतार कर अपनी असली शक्लोसूरत में यहाँ आए तो उसे भी अच्छा लगे. अगर ऐसा हुआ तो भाबू और जशोदा को साथ लाएगा. अपने हाथ से बर्गर सेंक कर खिलाएगा. नहीं, टेबल पर बैठ कर ऑर्डर करेगा. वह गर्म, ताज़ा, अपने पैसों से खरीदा हुआ बर्गर होगा. ठण्डा, बासी, बचा हुआ, खैरात में मिला नहीं. पर तब जोकर नहीं होगा. उसके करतब नहीं होगें. किसी को हँसाने के लिए किसी का जोकर बनना जरूरी है. यही नियम है. सोचा ‘मैं जोकर ही रहूंगा. भाबू और जशोदा टेबल पर बैठेंगें. भाबू भी बच्चा है,यहाँ आकर जरूर ख़ुश होगा. पर मुझे इस तरह जोकर बना देखे तो न जाने क्या सोचे?क्या सोचेगा?बाप हूँ उसका. ये काम है मेरा. पर जोकर किसी का कुछ नहीं होता. वह सिर्फ़ जोकर होता है. उससे कोई भी, किसी भी तरह पेश आ सकता है. भाबू और जशोदा भी.’

क्लाउन कम हियर.आवाज़ गूंजी.

पलटा तो सामने मैनेजर खड़ा था, ‘क्या प्रोबलेम है तुम्हारी? इतने सुस्त क्यों हो? ये रेस्टोरेन्ट के
बिज़ी ऑवर्स हैं. तुम्हें वहाँ गेट पे, बल्कि गेट से बाहर होना चाहिए. बाहर देखो कितने लोग वेटिंग में हैं. कितने बच्चे हैं, उनके साथ. तुम यहाँ खड़े खिड़की से बाहर ताक रहे हो.
सर आज जल्दी निकलना था.

मैंने तुम्हें कितनी बार बोला, वीकेन्ड पे जल्दी निकलने की बात मत करना. पिछले तीन दिन से बिज़नेस कितना कम था. चलो गेट पे पहुँचो, अभी बात करने का टाइम नहीं है और सुनो ऐसे मुँह मत लटकाए रहना.मैनेजर तेज़ी से किचिन की तरफ़ बढ़ गया. किचिन से मांस के भुनने की गंध आ रही थी.
 
तभी दो-तीन बच्चों ने आकर घेर लिया. वे कोने में लगे पंचिंग बैग के पास खींच के ले गए. बच्चे बैग को हिट करेंगे, बैग जोकर को लगेगा. जोकर गिर जाएगा. हर बार अलग अदा से. कभी सीधे, कभी उल्टे, कभी समरसॉल्ट करते हुए. परसों इसी खेल में घुटना स्टूल से लग गया था. अभी तक दुख रहा है. बचने के लिए खंबे पर बंधी लाल रस्सी खोली और कूदता हुआ बाहर चला गया. चारों ओर गुब्बारे हैं, घंटियाँ हैं, संगीत हैं, हर तरह का खाना-पीना है, कपड़े हैं, रंग हैं और शरीर हैं. और उन शरीरों को किसी चीज़ की कमी नहीं है. सब कुछ इतना है कि छलछ्ला के बाहर गिर रहा है, बह रहा है.

कूदते हुए उसका मुंह सूख रहा है. लगता है छाती में कुछ जम गया है. बीड़ी पीने की जबरदस्त तलब लगी है. तभी घुटनाचटकी आवाज़ के साथ चटका और ठीक हो गया. शरीर में दर्द की गुंजाइश नहीं है. हर दर्द कुछ देर रहकर ठीक हो जाता है. उसके लिए हर दर्द का जल्दी ठीक हो जाना जरूरी है. सब ख़ुश हैं. बगल की टेबल पर कोई चहक रहा है, ‘इट्स फ़न बीइंग हेयर एट वीकेन्ड’, दूसरी आवाज़ उसमें मिल गई है, ‘या, इट्स सो हेपनिंग.इतने तेज़ बजते संगीत के बीच भी ये आवाज़ें चुभ रही हैं.

तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा. इमरान इस समय किचिन से बाहर! ‘तेरी घरवाली का फोन है.दिल धक से रह गया. हाथ कांप गए फोन पकड़ते हुए. दूसरी तरफ़ से जशोदा लगभग चीखते हुए बोल रही थी, ‘डॉक्टर की दुकान पर हूँ. भाबू का बुखार बड़ गया था. नीचेवाली भाभी के साथ यहाँ ले आई. पैसे इन्से लेके पूरे पड़ गए. तुम चिन्ता नईं करना, भलीं. काट रई हूँ, ये डॉक्टर साब का फोन है.कुछ और पू्छता कि वहाँ से फोन कट गया. पर यहाँ वीकेन्ड काटे नहीं कट रहा था.
 
जाते-जाते भी बीसियों गुब्बारे फुलवा के रख लिए कल के लिए. फेंफड़े थक गए. साँस लेना भी मुश्किल हो गया. बाहर निकला तो हवा भी भारी लगने लगी. कौन जाने हवा में धुआँ ज्यादा था या फेफड़ों में ऊब और घुटन. यहाँ से निकल के घर की ओर बढ़ना रोशनी की चकाचौंध से भरे टापू से अंधेरे कुएं में उतरने जैसा था. दिल्ली और गज़ियाबाद के बोर्डर पर बसी खोड़ा कॉलोनी अंधेरे में डूबी धीरे-धीरे ऊँग रही थी. हाइवे से देखने पे लगता था किसी ने शहर भर का कबाड़ लाके यहीं उलट दिया है. गलियाँ भीतर जाके संकरी होकर आपस में उलझकर अंधेरे में बिला गई थीं. इन्ही गलियों में कहीं-कहीं खिड़कियों से झांकती हल्की सी रोशनी टिमटिमा रही थी.
 
उसके कमरे में घुसते ही जशोदा ने फुसफुसाकर बताया, ‘भाबू दवा खाके एकदम से सो गया, पीते ही नींद आ गई. अंग्रेजी दवा में नशा होता है क्या?’ फिर थोड़ा रुकके बोली, ‘तुम भी नशा किए हो क्या?’

उससे बोला नहीं गया. उसने अपना मुँह उसके पास ले जाकर फाड़ दिया और ज़ोर की साँस ली. जशोदा ने बक़ायदे मुँह सूंघा. बास नहीं आई. हाथ पकड़ के बैठ गई. फिर हाथ सूंघे. हाथों से चॉकलेट की खुशबू आ रही थी. बुदबुदाती हुई बोली, ‘भाबू को चॉकलेट बहुत पसंद है.

उसने थैले से एक डिब्बा निकालकर जशोदा के हाथ में दे दिया. डब्बे में एक बासी बर्गर था. कई बार रोटी का रोटी होना जरूरी नहीं होता. दोनो बीच में रखकर रोटी की तरह तोड़-तोड़ के खाने लगे.

सुबह भाबू उठा तो आँखे सूजी हुई लग रही थीं. माथा छूके देखा तो बुखार नहीं था. उसे देखके किलक उठा. कुछ देर तक गोद में लिए बैठा रहा. लगा आज न जाए काम पर. फिर पता नहीं किस ताक़त ने खींच के खड़ा कर दिया. तैयार होकर निकलने को हुआ कि भाबू धाड़े मार मार के रोने लगा. पैरों से लिपट गया. लाड़ किया. समझाया. नहीं माना. रोना और तेज़ हो गया. साथ चलूंगा की जिद पकड़ ली. समझाते-समझाते जशोदा रुंआसी हो गई. हार के बोली हम साथ चलते हैं. इसे लेकर बाहर बैठी रहूँगी, तुम अपना काम करते रहना. जवाब में झुंझला गया, ‘अरे ऐसे बाहर नहीं बैठने देंगे, बहुत सफ़ाई रहती है, वहाँ पर.

जशोदा जैसे छाती से आवाज़ जुड़ा के बोली, ‘तो हम सबका कुकुर हैं, सुअरी हैं, जो गंदा जाएंगे, नहा धोके चलेंगे.

अरे स्वीपर लोग के साफ़ करने के बाद, दबाई छिड़क के ज़मीन, टेबल, कुर्सी सब साफ़ होता है, वहाँ पर. दस्ताना पहिन के खाना बनाते हैं, बाबर्ची. हम लोग का ये कपड़ा बेसमेन्ट में उतरवा लिया जाता है. हम भी बर्दी के बिना नहीं जा सकते वहाँ, समझीं.

जशोदा का गुस्सा कुछ कम हुआ, ‘बाप रे! एक जोकर की हँसी-मसखरी की ऐसी कठिन नौकरी? ऐसे में कौन हँसे और कौन हँसाए? रहने दे भाबू, हम यहीं रहेंगे. जाने दे बाबा को.

रोओ मत चॉकलेट लाऊँगाकहते हुए भाबू को बिना देखे बाहर निकल गया. भाबू पीछे-पीछे चला आया. खीज उठा, ‘पकड़ो इसे, ऐसे गली में मत छोड़ा करो. आजकल नोएडा का बच्चे पकड़ने वाला गैंग घूमता है खोड़ा की गलियों में. ये कोठी वाले लोग गरीब लोग के बच्चों का कलेजा भून के खा जाता है.जशोदा ने उसे घूर के देखा और भाबू को गोद में उठा लिया. वह पाँव पटकता गली से बाहर निकल गया.
 
आज सुबह से काम में मन नहीं लग रहा है. हँसी-मसखरी हमेशा अच्छी नहीं लगती. इतवार की वजह से आज दिन में ही रात जैसी भीड़ है. रंग-बिरंगी गेंदें हवा में उछालकर नचा रहा है. दो हाथ में होती हैं तो दो हवा में. चाहे तो बिना एक भी गेंद गिराए घंटों नचा सकता है पर सुस्ताने के लिए जानके चूक जाता है. फिर भौंदू सी शकल बना कर होंठों में दबी लम्बी पीपड़ी बजा देता है. पर पलक झपकते ही बच्चे गेंदें उठाकर फिर ले आते हैं. बच्चे उसे घेरे खड़े हैं. वह जहाँ जाता है वे उसके पीछे आते हैं. वे ख़ुश हैं. उनके लिए कोई जगह वर्जित नहीं है. वे जिस चीज़ को देखते हैं उनकी हो जाती है. उन्हें किसी चीज के लिए धाड़े मार मारकर रोना नहीं पड़ता. सोचा, ‘इन्हें ज़ोर ज़ोर से रोता भाबू किसी और दुनिया का प्राणी लगेगा.यहाँ आकर कई बार उसे भी भाबू की रुलाई बहुत धीमी, नेपथ्य में चमक के बुझ जाने वाली किसी रोशनी की तरह लगती है. पर कभी-कभी आवाज़ें सीमाएं लांघकर कानों में घुसी आती हैं. वह उन्हें पीपड़ी की पुर्ररर-पुर्ररर में दबा देता है.

उसे नई धुन पर नाचना है. इसलिए हर दुख को झाड़पोंछकर कूड़ेदान में डाल दिया गया है. यहाँ किसी के रोने की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं है. नए रंग की फिरकिनियाँ और झंडियाँ आई हैं. फिरकिनियों को लेकर भागने से वे घूमती हैं, झंडियाँ लहराती हैं. वह पंखे के सामने खड़े होकर बच्चों को उन्हें घुमाना सिखा रहा है. पंखे कम हैं, फिरकिनियाँ ज्यादा, पर हर फिरकिनी को बच्चों के मन माफ़िक घूमना होगा. उसके लिए उसे फूंक मारनी होगी. बच्चों की फिरकिनियाँ हाथ में लेकर दौड़ना होगा. सोचा, ‘कल भाबू का बुखार उतर जाने पर उसे कंधे पर बिठाकर ऐसे ही दौड़ेगा. वह अपने लिए कभी नहीं दौड़ा. वह हमेशा दौड़ाया गया.

इमरान उसकी तरफ़ दौड़ा आ रहा है. सामने आते ही फोन देने से पहले ही फोन पर हुई बात बोल दी, ‘तेरा बेटा खो गया है.फोन से कई आवाज़ें आ रही हैं. वह उनमें से जशोदा की आवाज़ बिलगा रहा है. जशोदा की आवाज़ गले में फंसके भर्रा गई है, ‘दो मिनट के लिए नीचेवाली भाभी के पास बिठा के दवाई लेने गई थी. बस इतने में पता नहीं कहाँ चला गया. गली से लेके सड़क तक, नहर से लेके नाले तक. पार्क से लेके कूड़े के पहाड़ तक, सब जगह देख लिए, कहीं नहीं मिला.

खोड़ा की गलियाँ साँप के गुच्छों की तरह आपस में लिपट रही हैं. वे दो मुँही हो गई हैं. वे विष उगल रही हैं. भाबू उन ज़हरीले साँपों के बीच बिलख-बिलखके रो रहा है. आज अपने लिए दौड़ना है. वह आज अपने लिए दौड़ रहा है. वह जोकर के कपड़ों में ही पुल पर भाग रहा है. आने-जाने वाले इसे जोकर का करतब समझ रहे हैं. पुलिसवाला सीटी बजा रहा. लोग हँस रहे हैं. जोकर जान छोड़ के दौड़ रहा है. जोकर कहीं रुक नहीं रहा है. वह नदी-नाले लांघ रहा है. जोकर भीड़ में खो गया है.
 
भाबू दो गली पीछे एक दुकान पर बैठा, चॉकलेट खाता मिल गया है. इस बात को दो दिन हो गए हैं. जशोदा और भाबू रेस्टोरेन्ट में घुसने की कोशिश में हलकान हो रहे हैं. उन्हें भीतर नहीं जाने दिया जा रहा है. भीतर एक नया जोकर है जो बच्चों को नए करतब दिखा रहा है. बच्चे ख़ुश हैं. इमरान जशोदा को समझा रहा है. पर जशोदा यह मानने को तैयार नहीं है कि वह किसी गाड़ी से कुचल कर मर गया है. उसे किसी रेस्टोरेन्ट में नहीं बल्कि किसी सरकारी अस्पताल के शवगृह में ढूँढा जा सकता है. पर जशोदा को विश्वास है वह नहीं मर सकता.

जोकर नहीं मर सकता.

_________          
विवेक मिश्र
123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91
09810853128
vivek_space@yahoo.com   


गिरधर राठी : नाम नहीं (कविताएँ )

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गिरधर राठी साहित्य अकादेमी की त्रैमासिक पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के लम्बे समय तक संपादक रहें हैं. उनके चार कविता संग्रह, गद्य-पद्य की पन्द्रह कविताओं के अनुवाद, आलोचना आदि की कुछ पुस्तकें प्रकाशित हैं.  

रज़ा फ़ाउंडेशन और संभावना प्रकाशन ने एक साथ उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित की हैं. ‘नाम नहीं’ (सम्पूर्ण कविताएँ), ‘कविता का फ़िलहाल’, ‘कथा-संसार : कुछ झलकियाँ’, ‘सोच-विचार’, और ‘कल, आज और कल’. रज़ा के संपादकों ने सूझ-बूझ के साथ इन किताबों का चयन किया है और इन इन्हें संभावना प्रकाशन ने सुरुचि के साथ छापा भी है.   

यह गिरधर राठी का सम्पूर्ण नहीं  है पर फ़िलहाल इतना तो है ही कि उनके अवदान पर चर्चा शुरू की जा सके और उनका मूल्यांकन हो. अक्सर संपादकों के साथ यह दुर्घटना हो जाती है कि उनका अपना लेखक उपेक्षित रह जाता है.

उनकी कविताएँ, उनका काव्य-वक्तव्य और और अशोक वाजपेयी की टिप्पणी आपके लिए.


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"गिरधर राठी उन कवियों में से हैं जिन्होंने असाधारण रूप से इस निहायत ऊलजलूल मगर बेहद दिलकश दुनिया में अपनी व्यर्थता का थोड़ा-बहुत अर्थ अपनी कविता से ही पाने की कोशिश की है. उनकी कविता अगर एक ओर आत्मान्वेषण की है तो दूसरी ओर वह दुनिया की भयावहता और क्रूरता को दर्ज भी करती रही है. उसका अधिकांशतः शान्त स्वर उसकी अचूक नैतिक हिस्सेदारी के भाव के साथ हमारे बेहद बड़बोले समय में थोड़ा अलग रहा है. उन्होंने जितना दिखा है/समझना उतना हीपर इसरार किया है क्योंकि कई गहरे अर्थों में वे एक निराकांक्षी कवि हैं. रज़ा पुस्तक माला में उनकी सम्पूर्ण कविताओं को एकत्र प्रकाशित करने में हमें प्रसन्नता है."

अशोक वाजपयी 








गिरधर राठी

अपनी कविताओं के बारे में कुछ शब्द

ख़ुद अपनी कविता के बारे में कुछ कहना, कुछ बहुत अच्छा नहीं लगता. अब तक इस से बचता भी रहा हूँ. पर अब जब, अब तक प्रकाशित चारों संग्रह, एक साथ आ रहे हैं- ये सभी यों तो अनुपलब्ध ही थे- सबसे पहले तो यही संकोच है कि इतने सारे बरसों में फ़क़त ये चार संग्रह, सो भी बहुत मोटे नहीं...

अभ्यास हो जाने पर अधिकांश चीजें लिखना सहज-सरल हो जा सकता है. फिर भी, अगर आमादा न हों कि हर रोज़ या हफ़्तावार या हर माह लिखना ही है, और पसीने के भीतर से अन्तःप्रेरणा स्फुरित करने का संकल्प न हो, तो मेरे तईं ऐसा कभी-कभी ही होता है कि लिखे बिना नहीं रहा जाता. अकसर एक ही झटके में- अकसर छोटी, लेकिन कभी-कभी रामदास का शेष जीवनजैसी लम्बी कविता तक, लिख जाती है. कभी-कभी कई महीनों में, टुकड़ा-टुकड़ा काफ़ी अन्दरूनी तकलीफ़ से गुज़रते हुए कोई कविता बन पाती हैअसम पर जो कविता है- मीडिया कोलाज’- वह ऐसी ही एक है. कभी-कभी बरसों तक टीप की तरह कविता पड़ी रह जाती है; बरसों बाद लगता है कि अरे, यह कोई इतनी बुरी तो न थी कि इसे न छपवाते!

मुझे हज़ारों बार उस आदि कवि के बारे में सोच कर हैरत होती हैवाल्मीकि या कि न जाने कौन!- जिसने पहले-पहल कविता लिखी होगी. आग के या पहिये के या गुरुत्वाकर्षण के आविष्कार से भी शायद ज़्यादा रोमांच उसे- और उसके समकालीनों को महसूस हुआ होगा न! हम से पहले अब तक करोड़ों या शायद अरबों कवि हो चुके हैं- उनमें पचासों अपने-अपने ढंग से अद्वितीय और महान्! उस विराट नक्षत्रा-मण्डल में मैं शायद जुगनू तक नहीं.

लेकिन उन सब का प्रदाय ही हमें कविता कहने, सुनने, लिखने, पढ़ने का सम्बल देता है. याद नहीं पड़ता कि पहली कविता मैंने समस्यापूर्ति के लिए लिखी थी- विपिन जोशी, इटारसी की दी हुई पंक्ति: ‘‘पखेरू उड़ो तुम भले व्योम पर, धरा पर तुम्हें लौट आना पड़ेगा!’’- या आठवीं कक्षा में हस्तलिखित पत्रिका में उस कथित वैज्ञानिक पर, स्वतःस्फूर्त हो कर, जो किसी टानिकसे अमृत बनाने चला था...

बचपन में कोई बालक कोई विशेष रुझान क्यों दिखाता है? एक ही परिवार में, अलग-अलग बच्चे, भिन्न-भिन्न रुझान! मैं इस रास्ते आगे बढ़ा, तो शायद इसलिये भी कि औपचारिक खेलकूद (हाकी, फुटबाल वगै़रह) में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी, और कविता वगै़रह के लिए बुज़ुर्गों की थपथपी पीठ पर आसानी से मिल जाया करती थी. यशःकामना शायद आज भी शेष है, लेकिन क्रमशः हुआ यही कि जब तक भीतरसे अपरिहार्य न हो जाय, तब तक कविता नाम की चीज़ नहीं लिखी गयी. सन्नाटे या ऊसरपन के बरसों-लम्बे वक़्फे़ ही इतना कम लिखने के दोषी हैं!

बेशक, अभिव्यक्ति या आत्म-अभिव्यक्ति की अन्दरूनी छटपटाहट हममें से हरेक से कुछ न कुछ करा ले जाती हैलिखना, नाचना, शृंगार करना.... दूसरी तरफ़ ये भी सच है कि जीवन-जगत् को समझने के जो भी उपाय हैं, कविता भी उनमें से एक है. यों, ‘‘निज कबित्त केहि लाग न नीका. सरस होय अथवा अति फीका.’’ लेकिन अपने लिखे पर मोह तथा आसक्ति घटती-बढ़ती रहती है. और अन्ततः यही समझ में आता है कि इस निहायत ऊलजलूल मगर बेहद दिलकश दुनिया में अपनी व्यर्थता का थोड़ा-बहुत अर्थ मैंने कविता से ही पाया है. ‘‘स्वांतः सुखाय’’ का एक अर्थ शायद यह भी हो!

(ग्रेटर नोएडा
३ मई २0१९)






कविताएँ



स्मरण


उस मोड़ पर
जहाँ
कविता
छुड़ा लेती है हाथ

प्यार
याद भर रह जाता है
युद्ध हो जाता है समय

उसी मोड़ पर
जहाँ से मुड़नापीछे
असम्भव है

सिर झुकाये
चला जा रहा है समय
आकाश
ठठाकर हँसता है

वह अतीत जो सब का हुआ
यह वर्तमान जो कुछ का है
वह भविष्य जो बस अपना होगा
अतीत हो जाने तक                                 







                                                   अकेला और तिरस्कृत
                                                   मैं
                                                   आता हूँ तुम्हारी गोद में:
                                                   मिल जाती है पूरी एक दुनिया
                                                   भूली हुई.




डायरी

डायरी को कोई ग्लानि नहीं
वह जो थी काग़ज़ थी
उस में जो था उन का था
उस का कुछ नहीं था
उस से जो होगा उन को होगा
उसे कुछ नहीं होगा
वह होगी तो काग़ज़ होगी
ऊपर-नीचे कड़ा या चिकना या पतला गत्ता होगा
उस पर हुई तो आँखें होंगी, उन की
उसे कहीं नहीं जाना
आँखें ही जायेंगी आर-पार
शायद न ही जायें

स्याही       कभी न कभी
                       कभी न कभी
                       उड़ ही जायेगी

डायरी आत्मा नहीं न उस के आत्मा है
फड़फड़ाती रहेगी








भूल कर उतना सुख मिला
इतना और भूल गया होता तो
होता सुख केवल सुख.




एक ज़िन्दगी का ख़ाका



शुरुआत के लिए       एक थाली. एक लँगोट.
                                                   बल्कि सिर्फ़ लँगोट
                                                   या वह भी नहीं

शुरुआत के लिए केवल तुम      सदेह
देह प्यारी है जब तक है

आओ गायें
देह की गाथा
शुरुआत के लिए... भारहीन, मुक्त
आओ इसे बजायें
शुरुआत के लिए... बेंत से

लो, खोदो यह
पहाड़, वह घाटी
उठो, चलो, दौड़ो उठाओ यह पालकी

उठो और सुनो
बार बार उठो सुनो     सिर्फ़ सुनो
बोलो मत
दौड़ो
और गाओ भी


कितनी अधम योनियों के बाद
मिली है नर (या मादा) देह
धन्यवाद. जो भी ले काम
जब तक यह रहे...

दौड़ते-दौड़ते इसी तरह एक दिन
पहुँच जाओगे स्वर्ग ख़ाली थाली बजाते हुए

शुरुआत के लिए
काफ़ी है यही.







इतना-इतना जीवन

इतना-इतना जीवन...
बेमुरव्वत हाहाकार

गिरना चट्टान का
मगर आँसू नहीं
सपने
ख़ूँरेज़
गिरी हुई चट्टान को तोड़ते
सीने पर

इतना-इतना विरहा, कजली, फाग

इतना सब
जब
सामथ्र्य नहीं
करवट बदलने का

इतना उदास और अन्तहीन
                                   आकाऽश...






किसने कहा?

किसने कहा
मैं जानता नहीं’?
यह देखो, यह, हाथ
यहाँ जूझ रहा है.
हथेलियाँ
अपने ही स्वेद में.
अनगिन
कोशिकायें निर्जन.

किसने कहा
ये सब निष्प्राण हैं’?— (मेरी तरह!)

शब्द नहीं केवल
(गो अब शब्द भी नहीं)
बल्कि वह सब
जो दो दृष्टियों / होंठों / देहों से
एक होता है
फिर तैरता रहता है लगातार

वह सब
जो एक होकर बिखर जाता है: तरंगऽऽऽ
वह
जो दे-पाकर लुप्त हो जाता है

लौट-लौट आने तक...
किसने कहा
यह जीवन / वह नहीं रहा’?...
किसने... किसने...




बलात्कार

मुझे याद हैं उन सबके पते जो
मेरे यहाँ आये थे. पर उनमें से एक भी अपने पते पर
नहीं मिलेगा. वे सब बहुत अच्छे वकील हैं.
वे फिसलने और खिसकने में माहिर हैं.
वे छुपने-छुपाने में भी कुशल हैं.
वे अनेक गुणों से भरे-पूरे-लदे हैं.
केले या प्याज़ से बहुत मोटी है उनकी खाल.
खाल की परतें अनेक हैं. किसी मुक़द्दमे में वे
फँस नहीं सकते. (उन पर किसी जादू का भी
असर नहीं होता.)

वे इसी तरह फिर कभी आ जायेंगे
मेरे यहाँ. तब फिर मुझे
अस्त-व्यस्त कर देंगे और हो-हो करते चले जायेंगे.
मैं खुले आकाश के नीचे हूँ निरस्त्रा. वे मुझे
धमकाते भी हैं. मेरी चोटी है गोया उनके हाथ में
या फिर कुछ बहुत ही मर्मघाती. दूर से आती
उनकी पदचाप ही मुझे कँपा देती है.

आप जा सकते हैं. आप मेरी कोई मदद
नहीं कर सकते.
आप भी फँस सकते हैं. या आपसे मैं
किसी और बड़े जाल में

फँस सकता हूँ. वे मुझे निहत्था ही घेरेंगे और
मैं चीख़-चीख़कर, और बाद में
चुपचाप सिसकते हुए
और उसके बाद बेहोश उनसे यन्त्राणाएँ सीखूँगा.

आप विश्वास करें, मैं मरूँगा नहीं. फिर कल
मिलूँगा यहीं. इसी तरह
इसी खुले आकाश के नीचे, निरस्त्रा. शुक्रिया
आपकी हमदर्दी का, बहुत-बहुत
शुक्रिया!




दिल्ली १९८४

क्या तुम ने देखे धू-धू करते मकान?
हाँ मैं ने देखे.
और शहर पर मँडराता धुआँ?
हाँ.
क्या तुम ने सुना शोर?
हाँ मैं ने सुना.
भागते हुए हुजूम?
हाँ.
और वे जो भाग नहीं सके?

नहीं. कुछ दिनों बाद
देखे मैं ने ढेर राख के
जिन में शायद दबी थीं कुछ हड्डियाँ
कुछ नर कंकाल.
फिर कुछ आँकड़े देखे
कुछ ब्यौरे सुने
चश्मदीद.

उन दिनों मैं पिता की शरण में था
उस पिता की, जो सब का था
और उन की वसीयत में
खोज रहा था अपना हिस्सा.



ईश्वर के बचाव में

चाहे जो नाम धरो, कलियुग में
ईश्वर को बचाना असम्भव है.
तथ्य, आँकड़े, प्रमाण... सभी तो साक्षी हैं:
अगर आप अख़बार पढ़ते हों,
पढ़ा होगा...
एक नामछाती पर धरा है त्रिशूल
दूसरे नामगले पर है कटार
तीसरा छिपा-छिपा फिरता इधर-उधर
एके-४७ या सब-मशीनगन से!
इन तीन नामों के अलावा कुछ तीस-बीस
नामों पर निकले पड़े हुक्मनामे हैं.
और जो अनाम हो जा छिपा किताबों में
कब तक बचेगा बिना नाम के?

क्योंकि वह अब तक बचता चला आया है
सिर्फ़ इस बिना पर ये कहना कि ईश्वर
सर्वज्ञ है शक्तिशाली है...
थोड़ा अतिरंजित है.

बचा रहा, ठीक है, लेकिन हर बार
वार हुए उस पर बारी-बारी से:
दुश्मन अब
(यानी कि बहुविध बहुनाम-धाम भक्तगण)

चैकन्ना है
और है एकजुट:

अब जब चलेंगे त्रिशूल, तब
बाक़ी असलाह भी
घेरेंगे प्रभु को
चारों तरफ़...
बल्कि दसों दिशाओं से

इस तरह
जो घेरा जायेगा
कैसे वह बचेगा?




शमशेर से

शमशेर ने ठेले पहाड़
अपनी दो कुहनियों से.

रुको, ज़रा थमो ऐ शमशेर !
लहू से लुहान उन कुहनियों को
दो कुछ विराम.

देखो ये एक और जोड़ा कुहनियाँ
शायद तुम्हारी जैसी ही कमज़ोर
आज़मा रहीं अपना ज़ोर
शहज़ोर पर्वत पर !.



हाथों हाथ

टपक रहा हो लहू या इतर गमकता हो
चूम लो हाथ अगर आये हुक्मरान का हाथ.
अगरचे हाथ उठाये गये मेहर के लिए
क्या ग़ज़ब थामने उठ आये मेहरबान का हाथ.
न सही गर नज़र उठा न सको महफ़िल में
उठे नज़र तो न उठ जाय निगहबान का हाथ.
कुफ्ऱ-ओ-ईमान फ़र्ज़-ओ-वादाकशी
जो कहो सो ही सिखा दे ये क़द्रदान का हाथ.
अगरचे मौत रची है तमाम हाथों में
होगे मुम्ताज़ जो सर पे हो शहजहान का हाथ.
ब-हर्फ़-ए-ख़ुद रहे गवाह ख़ुदा
बेशक़ीमत है ये इन्आम-ओ-इक्राम का हाथ.
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girdharrathi@gmail.com

कथा- गाथा : वायु की सुई : अम्बर पाण्डेय

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अम्बर पाण्डेय की यह तीसरी कहानी है, इसका कथ्य और शिल्प दोनों पिछली कहानियों से अलग है. लम्बे और जटिल वाक्यों का प्रयोग किया गया है. अवास्तविक लगता घटनाक्रम आज के ‘उत्तर-सत्य’ के यथार्थ का ही एक आयाम है. अपराध-पाप, पिता-पुत्र आदि द्वैत में यह कहानी विचलित भी करती है. यह हिंदी कहानी का एक अलग बनता हुआ दीखता रूप है. ख़ास आपके लिए.




वायु की सुई                                                                      
अम्बर पाण्डेय



"The tortured person never ceases to be amazed that allthose things one may, according to inclination, call his soul, or his mind, or his consciousness, or his identity, are destroyed when there is that crackling in the shoulder joints."

Jean Améry







प इतने निर्बल हो चुके है कि अब आपके मरने की प्रार्थना करना व्यर्थ है और यह देखकर कि संसार की सभी वस्तुओं से आपकी पकड़ छूटती जा रही है आप पर अब क्रोध नहीं आता न आपको दया का पात्र बना हुआ देखकर मुझे कोई सुख मिलता है जबकि एक समय था जब मैं इतना क्रूर था कि मुझे लगता था आपको दया का पात्र बने हुए देखकर मुझे सन्तोष होगा परन्तु असमय बुढ़ापा आ जाने के कारण अचानक आपको यों निर्बल देखकर मैं खेद से भर जाता हूँ कि यदि मैं यही चाहता था तो कितना मूर्ख था क्योंकि जिसने आपको बहुत मारा-पीटा हो, आपको सम्पूर्णत: नष्ट करने का प्रयास किया हो उससे आप उसके निर्बल होने पर बदला नहीं ले सकते चाहे आपको कितने ही अवसर क्यों न मिल जाएं और यही एक पिता होने का लाभ है। क्या हिंसा रक्त के समान पिता से सन्तान में और फिर सन्तान से उसकी सन्तान और इस प्रकार अनन्तकाल तक यात्रा करती है? पिताजी आपका मुझपर बात बेबात हाथ उठाना घर में इतनी साधारण बात थी कि इतने दिनों बाद अब भी मुझे ठीक ठीक नहीं पता कि कौन सी बात आपको इतना क्रोध से भर देती थी और यदि अब भी आपको उतना ही क्रोध आता तो शायद मैं इसे आपका स्वभाव मानकर स्वयं को सांत्वना दे लेता किन्तु अब आप शान्त बैठे रहते है क्योंकि आप जानते है कि आपमें अब वह शारीरिक बल नहीं रहा और आप जानते है कि आपके मारने पर पलटकर आपको मारना तो अकारण ही होगा केवल आपका हाथ ही यदि पकड़ लूँ तो आपकी कलाई की हड्डी टूट सकती है; यही बात मुझे एक कील सी भीतर ही भीतर चुभती है कि उस समय भी आप अपने क्रोध पर नियंत्रण रख सकते थे और आपने नहीं रखा क्योंकि हम अपने जीवन के लिए आपपर निर्भर थे। बच्चों को पीटना उन दिनों आम बात थी ऐसा आप बाद के दिनों में अक्सर कहते रहे है जबकि मैं आज भी इसे लेकर इतनी ग्लानि से भरा हुआ हूँ कि मैंने कभी इस विषय पर आपसे या किसी और से बात ही नहीं की किन्तु जैसे किसी अत:प्रज्ञा के कारण आपने इसे जान लिया हो और सोचिए आपकी यह अत:प्रज्ञा आपकी उन दिनों की असंवेदनशीलता से कितनी विपरीत कितनी आकस्मिक है जो बीते हुए दिनों पर और अधिक गहरी और अधिक गाढ़ी छाया डाल देती है जैसे शव के ऊपर कम्बल जिसकी शव को अब कोई आवश्यकता नहीं है।


पशु और स्त्री अधिकारों पर उस समय शासन और हमारे न्यायालयों का इतना अधिक ध्यान था कि वर्षों से चली आ रही समाज की कार्यशैली ही ध्वस्त नहीं हो गई थी बल्कि हमारा जीवन भी दुसाध्य हो गया था किन्तु आपने कभी अपनी जीवनशैली बदलना स्वीकार नहीं किया और पशुवाहनोपयोग पर पाबन्दी लगानेवाले क़ानून के आने के बाद भी घोड़े पर हमारे कारख़ाने जाते रहे; आप जानते ही है इसके कितने दुष्परिणाम हुए फिर घोड़ों की ज़ीन, रक़ाब, लगाम और कजावे बनाने का हम लोगों का व्यापार तो नष्ट होना ही था क्योंकि घुड़दौड़ पर पाबन्दी हो चुकी थी, ताँगे चलाना और घुड़सवारी करना अपराध घोषित किया जा चुका था तथा घोड़ों को पालने पर चार से छह वर्षों के सश्रम कारावास का प्रावधान था किन्तु आपने अपने हठ में हानि सहकर भी कारख़ाना बंद न करने का निश्चय किया और मुझे और माँ को कहते रहे कि सजावटी वस्तुओं के रूप में कारख़ाने में बननेवाली वस्तुएँ और अधिक बिक रही है क्योंकि वे ग्राहकों को उस समय का स्मरण करवाती है जब पर्यावरण अच्छा था और मनुष्य प्रकृति के निकट था फिर जैसा कि अवश्यंभावी था आप एक दिन यातायात निरीक्षक द्वारा पकड़ लिए गए जब आप दधीचि (हमारे घोड़े का नाम) पर सवार लगभग चालीस मील प्रति घंटे की गति से कारख़ाने से लौट रहे थे। आपके घर दूरभाष करने पर कि हम खाने पर आपकी प्रतीक्षा न करे माँ ने मुझसे तुरन्त उसी स्थान पर चलने को कहा जहाँ आप यातायात निरीक्षक के साथ खड़े थे और दोनों बहनों को घर में ताले लगाकर माँ और मैं बाहर निकले चूँकि आप मोटरवाहन के धुएँ से घृणा करते थे हमारे पास साइकिल आप तक पहुँचने का सबसे तेज साधन था जिसे माँ को पीछे बैठाकर मैं अपनी पूरी शक्ति से खींच रहा था किन्तु हमें देखकर आप उस महिला यातायात निरीक्षक पर और अधिक झुँझलाने लगे, आपके अनुसार वह दधीचि को किसी भी स्थिति में ज़ब्त नहीं कर सकती थी क्योंकि नया क़ानून उसे एक क़ानूनी व्यक्ति की उपाधि देता था और उससे पूछना आवश्यक था कि वह कहाँ रहना चाहता है जबकि महिला यातायात निरीक्षक का यह मानना था कि घोड़े की इच्छा जानने का अधिकार केवल न्यायाधीश को है और वह घोड़े को अतिशीघ्र न्यायालय में प्रस्तुत करेगी जिसपर मुझे आपकी आपत्ति उचित ही लगी कि महिला यातायात निरीक्षक की बात यदि मान ली जाए तो घोड़े को निरपराध ही जेल जाना पड़ेगा क्योंकि शासन द्वारा प्रदत्त समस्त सुखसुविधाओं में भी वह अपने स्वामी के बिना व्यग्रता अनुभव करेगा इसपर महिला यातायात निरीक्षक आपपर बिगड़ पड़ी कि अब तक पशुओं को लेकर आप स्वामी और दास जैसे शब्दावली का उपयोग करते है जो कि बहुत गम्भीर अपराध है किन्तु उसने कहा कि वह उसे आपके विरुद्ध प्रकरण बनाने में दर्ज नहीं करेगी क्योंकि हो सकता है यह आपकी असंवेदनशीलता न होकर खीजकर कहे गए वाक्य हो।


एक नास्तिक अन्ततः अपने पिता में ईश्वर खोज लेता है और फिर जीवनभर उस ईश्वर के साथ रहने का प्रयास करता रहता है आप जानते है यह निरर्थक है और यह असफलता उसे शासकीय अफ़सरों में ईश्वर खोजने तक ले जाती है ऐसा दार्शनिक बहुत वर्षों से कहते रहे है और इसका साक्षी मैं उस दिन हमारे शहर की एक भीड़भरी सड़क पर बना जब मेरे लिए ईश्वर का स्थान उस अदृश्य न्यायाधीश ने ले लिया जो न केवल मेरे पिता के जीवन के विषय में निर्णय लेनेवाला था यहाँ तक कि हमारे घोड़े के बारे में भी निर्णय लेने का अधिकार उसे था और यह अधिकार जिस पुस्तक ने उसे दिया था उसे न मैंने पढ़ा था न मेरे मातापिता ने जबकि विगत कुछ दिनों से संविधान हमारे देश में इतना महत्त्वपूर्ण हो गया था कि उसे पढ़े बिना हम मेट्रिक तक नहीं कर सकते थे किन्तु हम संविधान का मोटा पोथा पढ़ने के बजाय डॉक्टर ह.ह. हेडगेवार की पतली कुंजियाँ पढ़कर पास हो गए थे और इसका दुष्परिणाम हमें उस दिन स्पष्टत: भुगतना पड़ता यदि पिताजी आपके मित्र बैरिस्टर नारायण आचार्य अपनी मोटरकार हमें वहाँ खड़ा देखकर न रोकते और काले कोट और श्वेत बुशर्ट में अपना मेदस्वी शरीर उठाए महिला यातायात निरीक्षक को अश्व अभिरक्षा दायित्व क़ानून से अवगत न कराते जिसे बताते हुए उनकी आवाज़ भारी हो गई थी और उसमें एक ऐसा कम्पन उत्पन्न हो गया जो केवल वकीलों की आवाज़ में सुदीर्घ वकालत के बाद उत्पन्न होता है, “मैं बैरिस्टर नारायण आचार्य आपको बताता हूँ कि”; ऐसा कहकर उन्होंने महिला निरीक्षक अधिकारी को अश्व अभिरक्षा दायित्व क़ानून सम्बंधी एक लम्बी, जटिल नियमावली सुनाई और हम दधीचि को लेकर घर आ गए, यहाँ तक कि उसकी ज़ीन, लगाम और रक़ाब तक महिला यातायात निरीक्षक ज़ब्त न कर सकी।


अन्ततः मुझे न्यायाधीश के दर्शन हुए जब वे एक साधारण सी लकड़ी की कुर्सी पर तकिया लगाकर बैठे हुए थे और उनके दायीं तरफ एक टेबुलफ़ेन चल रहा था जिसमें उनके काले लबादे का कॉलर उड़ उड़कर उनके गाल पर थप्पड़ सा मार रहा था जिसे वह मौन गरिमा से सह रहे थे जैसे अपने छोटेमोटे पापों के लिए वह स्वयं को दंड दे रहे हो और निरंतर अपना शुद्धिकरण कर रहे हो, उनकी बायीं ओर कनिष्ठ लिपिक बैठी हुई टाइपराइटर पर कुछ लिख रही थी और बीच बीच में वह मुँह उठाकर पिता पर एक दयादृष्टि डाल देती थी कि उन्हें एक भाषाविहीन जीव को अपना दास बनाकर रखने का पाप करने की क्या आवश्यकता थी किन्तु पिताजी न्यायालय में कनिष्ठ लिपिक की दृष्टि की उपेक्षा करते हुए यों खड़े थे जैसे उन्हें अपने पाप पर कोई पश्चात्ताप न हो और यदि अवसर मिले तो वे पुनः वही करेंगे जो उन्होंने अब तक किया था और यह भी कि संसद द्वारा प्रतिदिन बनाए जानेवाले अंतहीन, विचित्र और कठोर नियमों के प्रति उनके मन में इतना सा भी सम्मान नहीं है और पिताजी की इस भावना को न्यायाधीश भी जान चुके थे जो कि मैंने न्यायाधीश के पिता को देखने के ढंग से जाना था जो किसी वैज्ञानिक के अपने प्रयोग के असफल होने पर परखनली को हाथ के मोज़े पहनकर आँखों के ऊपर ले जाकर देखने के ढंग जैसा था।


कार्रवाई आरम्भ होने पर न्यायाधीश ने बताया कि कैसे राष्ट्र की महिमामयी संसद ने जनता के हित में अपराध की धारणा समाप्त कर दी है और अब कोई भी व्यक्ति अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता, इसपर मैंने उसी प्रकार की शान्ति का अनुभव किया जो मैं ईश्वर के साक्षात्कार के समय करता (अन्ततः न्यायाधीश ही हमारे ईश्वरविहीन संसार में ईश्वर थे) क्योंकि केवल ईश्वर ही मनुष्य को उसके अपराधों को परे रखकर देख सकता था और आजतक मेरी यह धारणा रही थी कि हमारा शासन, न्यायालय और संसद क्रूर है किन्तु उस दिन मैंने प्रथम बार ईश्वरीय करुणा का अनुभव किया था तब न्यायाधीश ने आगे कहा कि संसद के नए क़ानून के पश्चात् अब हमारी न्यायव्यवस्था में केवल पाप की धारणा शेष है और आज हम सब इस न्यायमंदिर में इसलिए इकट्ठा हुए है कि इस बात का निर्णय कर सके कि श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा ने घोड़े पर अपने स्वामित्व की स्थापना का पाप किया है कि नहीं और यदि किया है तो इसके प्रायश्चित्त के लिए हमारी न्यायस्मृति में क्या प्रावधान है केवल इतना कहकर वे उठ खड़े हुए और सभा विसर्जित हुई।


उसके बाद प्रति सप्ताह पिताजी के संग न्यायालय जाना मेरा कार्य हो गया और मैं अपने इस कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निभाने को लेकर इतना सतर्क हो गया कि न्यायालय की तारीख़वाले दिन मैं ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर लेता, इस्त्री की हुई श्वेत बुशर्ट और नीली पतलून पहनता तथा घण्टेभर तक अपने जूते चमकाता रहता इस आशा में कि न्यायाधीश निश्चय ही मेरे स्वच्छ, इस्त्री किए हुए कपड़े और चमकते हुए जूते देखकर पिताजी को दोषमुक्त कर देंगे किन्तु पिताजी मुझसे भी अधिक इस बात का ध्यान रखते कि न्यायाधीश में समक्ष उनका प्रभाव एक मध्यमवर्गीय सुशिक्षित व्यक्ति का पड़े इसलिए एक दिन पूर्व नाई की दुकान पर वे हजामत बनवाते और बाल कटवाते थे यहाँ तक कि देर तक हमारी साइकिल वह धोते रहते और उसपर मोम से बनी कोई विदेशी पॉलिश करते रहते किन्तु यह सब माँ को बिलकुल भी उचित नहीं लगता था माँ का मानना ठीक ही था कि प्रति सप्ताह इस प्रकरण के कारण दो दिन की हानि हो रही थी पहला दिन न्यायालय जाने की तैयारी में जाता था और दूसरा दिन न्यायालय में जिसके कारण मेरी पढ़ाई का भी बहुत हर्जा हो रहा था क्योंकि मैंने पिताजी के न्यायालय में आरम्भ हुए प्रकरण के तीन महीने बाद रसायन यांत्रिकी में प्रवेश लिया था और पिछले एक वर्ष से मैं न्यायालय के कारण प्रतिसप्ताह दो छुट्टियाँ ले रहा था किन्तु अब तक न्यायाधीश अनिर्णय की ही स्थिति में थे।


उस रविवार को हमें न्यायालय जाना था इसलिए पिताजी तैयार होकर दधीचि को न्यायालय ले जाने के लिए नहला रहे थे क्योंकि उस दिन न्यायालय में उसे हमारे साथ रहने या शासकीय अश्वशाला में रहने के सम्बन्ध में सहमति देनी थी जिसके कारण पिताजी कल रात से ही बहुत व्यग्र हो रहे थे क्योंकि किसी को यह पता नहीं था कि दधीचि अपनी सहमति कैसे प्रकट करेगा और उसे न्यायाधीश समझेंगे कैसे; पिताजी ने अपने बहुत से मित्रों को दूरभाष करके इस सम्बंध में जानकारी लेना चाही किन्तु किसी भी व्यक्ति को ऐसे किसी प्रकरण की जानकारी नहीं थी और तब भी इस विचित्र प्रकरण के विषय में समाचारपत्रों में उस रविवार के अंक में समाचार छापना आवश्यक नहीं समझा जो कि मेरे लिए पत्रकारों की क्रूरता का ही द्योतक था क्योंकि राष्ट्राध्यक्ष की प्रत्येक बात पर वे लोग लम्बे लेख प्रकाशित करते थे यहाँ तक कि राष्ट्राध्यक्ष को किसी अज्ञात फलियों से बना सूप बहुत प्रिय है इसकी विधि तक उन्होंने अपने समाचारपत्र में मुख्यता से प्रकाशित की थी यह बताते हुए कि इन अज्ञात फलियों का सूप किस प्रकार बुद्धि और स्मृति को वृद्ध नहीं होने देता बल्कि इससे मस्तिष्क की वय युवतर होती जाती है किन्तु आज न्यायालय में जो विचित्र स्थिति उत्पन्न होनेवाली थी और उससे एक पूरे परिवार और घोड़े का जीवन सदा के लिए प्रभावित हो जानेवाला था उसके बारे में उन्होंने एक शब्द तक लिखना उचित नहीं समझा था, यही बात जब मैंने पिताजी को कही तो वह मुझे समझाने लगे कि समाचारपत्रों ने यह समाचार प्रकाशित न करके उनपर उपकार ही किया है क्योंकि समाचार पढ़कर न्यायाधीश के प्रभावित होकर निर्णय करने की उन्हें आशंका थी और वे जानते है कि समाचारपत्र सदैव शासन के पक्ष में ही लिखना सही समझते है और समाचारपत्रों को भी मेरी भाँति शासन में ईश्वरीय तत्त्व के दर्शन होते है तो कुलमिलाकर उस दिन पिताजी मुझसे भी चिढ़े हुए थे जो मैं और माँ समझ गए थे कि आज वह किसी न किसी बात पर मुझपर हाथ उठाएँगे।


न्यायालय की उस दिन की कार्रवाई मेरी समझ के बिलकुल परे थी इसलिए कि दधीचि को न्यायालय में लाया गया किन्तु उससे न कुछ पूछा गया न उससे कुछ कहा गया बल्कि देर तक उसे न्यायालय में इस प्रकार खड़ा होना पड़ा जैसे पिताजी पापी न होकर दधीचि पापी हो हालाँकि घोड़े पूरा जीवन खड़े होकर बिताते हैं और भूमि पर गिरते वे केवल मरने के लिए है किन्तु आप जानते ही होंगे कि संसार में कहीं भी खड़े होने और न्यायालय में किसी भी रूप में खड़े होने में कितना अंतर है फिर दधीचि जैसा संवेदनशील घोड़ा तो तुरन्त समझ गया कि यहाँ उसका जीवन पूर्णरूपेण परिवर्तित हो सकता है इसलिए वह मुँह झुकाए खड़ा रहा और घास के लम्बे टुकड़े को चूइंगगम की भाँति चबाता रहा, उसकी आँखों में देर तक नहलाए और उसे तैयार करने के बाद भी पिताजी ने श्वेत, चिकटा पदार्थ और आँसू निकलते देखे जिसे न्यायाधीश ने भी देखा और फिर उन्होंने कहा कि घोड़े की श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा के साथ रहने की सहमति से उनका पाप कम नहीं हो जाता किन्तु उन्हें प्रसन्नता है कि घोड़े ने स्पष्टतया उनके साथ रहने की सहमति दी है और न्यायाधीश ने आगे कहा यह जानते हुए भी कि श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा ने उनके प्रति घोड़े के प्रेम का लाभ उठाते हुए न केवल स्वयं को उसका स्वामी घोषित किया जो कि घोड़े के साथ विश्वासघात है बल्कि महिला यातायात निरीक्षक के अनुसार उसकी सवारी भी की जो कि राष्ट्रीय दण्डसंहिता में पाप है और जिसे जानने के लिए न्यायालय को और भी समय चाहिए तब तक घोड़े की अभिरक्षा का भार श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा को दिया जाता है और उनसे आशा कि वह घोड़े के सभी अधिकारों की रक्षा करेंगे; इस सम्बंध में आदेश की प्रति विभिन्न पक्ष कनिष्ठ लिपिक से ले सकते है और अगली सुनवाई दिनांक १५ सितम्बर को प्रातः साढ़े छह बजे निर्धारित की जाती है।


पिताजी आदेश लेने के लिए कनिष्ठ लिपिक की मेज़ के सामने खड़े हो गए किन्तु मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया था कि न्यायाधीश ने दधीचि की इच्छा किस प्रकार समझी थी और आदेश दिया था  कि वह हमारे साथ ही रहेगा इसलिए मैं अपने आसपास ऐसे किसी व्यक्ति को ढूँढने लगा जो मुझे इस सम्बंध में जानकारी देता और तभी मुझे वरिष्ठ लिपिक दिखाई दी जो एक विशाल मेज़ पर फ़ाइलों से बनी दीवारों से घिरी ख़ाली बैठी हुई थी जहाँ से उनके किसी महँगे केशकर्तनालय में कटे हुए केश की कनपटी पर मुड़ती एक भूरी लट दिखाई दे रही थी जिसे देखकर मुझे आभास हुआ कि वह अवश्य ही कोई सुन्दर महिला है और मैं उनके सामने जाकर मौन खड़ा हो गया क्योंकि मेरा अनुमान था कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह न केवल व्यस्त होंगी बल्कि वय में भी अधिक होंगी किन्तु वह तो बीस बाईस वर्षीय सुन्दर लड़की थी जिसके गालों की त्वचा टमाटर की त्वचा की भाँति कोमल और पतली थी जो उनके गले तक जाते जाते और पतली और जहाँ से स्तन आकर लेना आरम्भ ही रहे थे वहाँ तो बिलकुल पारदर्शी हो गई थी, वह मुझे देखकर मुस्कुराई और उन्होंने कहा कि वह जानती है मैं उनके पास क्यों आया हूँ और मेरा यह भ्रम कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह सेवानिवृत्त होने को कोई बूढ़ी महिला होंगी तो आधारहीन निकला ही है साथ ही यह कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह बहुत व्यस्त होंगी वह भी नितान्त ग़लत है क्योंकि वरिष्ठ लिपिक का मूल कार्य कनिष्ठ लिपिकों के कामकाज का केवल निरीक्षण करना है इसलिए वह दिनभर ख़ाली रहती है इसपर मैंने तुरंत उनसे न्यायाधीश द्वारा घोड़े की इच्छा जानने की प्रक्रिया के विषय में पूछ लिया और उनकी मेज़ के सामने रखी कुर्सी पर बैठने जा ही रहा था कि पीछे से किसी ने मेरा कन्धा पकड़कर मुझे वहाँ से खींचना चाहा जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पिताजी थे जो काग़ज़ों का एक मोटा सा गठ्ठर उठाए हुए थे और मुझे खींचते हुए कह रहे थे कि चूँकि आदेश मिल चुका है अब हमें घर लौटना चाहिये और इससे पूर्व कि वरिष्ठ लिपिक मेरे प्रश्न का उत्तर देती साइकिल पर हम घर लौट आए हमारे आगे आगे दधीचि दौड़ता हुआ जा रहा था जैसे हमें रास्ता दिखा रहा हो और बीच बीच में वह हमें पीछे मुड़कर देख लेता था क्योंकि पिताजी को आदेश के उस मोटे से गठ्ठर के साथ बैठाकर साइकिल चलाना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था और मैं बहुत धीरे धीरे उस पहाड़ पर बनी सड़क पर साइकिल चढ़ा पा रहा था।


देर तक पिताजी सैकड़ों पृष्ठ लम्बा आदेश पढ़ते रहे और भोजन टालते रहे जबकि उन्हें पता था कि न्यायालय जाने के कारण मैं पूरे दिन से भूखा था और माँ भी उनके न्यायालय जानेवाले दिन भोजन नहीं करती थी साथ ही दोनों बहनें भी पढ़ते पढ़ते भूखी ही सो गई थी किंतु पिताजी आदेश यों पढ़ रहे थे जैसे कोई जासूसी उपन्यास हो और बार बार बुलाने पर ही भोजन की मेज पर नहीं आ रहे थे तब माँ उन्हें पुनः बुलाने के लिए उठी; मैं बहुत अधिक भूखा था और पिताजी के साथ रात का भोजन करना यह हमारे घर का नियम था इसलिए मैं भी माँ के पीछे पीछे पिताजी के कमरे में जा पहुँचा जहाँ वह आदेश की प्रति पढ़ रहे थे और उन्होंने माँ से कहा कि हम लोग खाना खा ले वे केवल दूध पिएँगे, हिप्पो हमारा ग्रेट डेन प्रजाति का कुत्ता उनके पैरों में बैठा हुआ था जो दूध शब्द सुनकर धीरे धीरे पूँछ हिलाने लगा और मुझे याद आया कि सम्भवतया न्यायाधीश ने दधीचि के पूँछ हिलाने से उसकी इच्छा के बारे में जाना हो फिर यह विचार मैंने तुरंत स्थगित कर दिया क्योंकि पिताजी दधीचि की पूँछ को लाल ऊन से बाँधकर ले गए थे इसपर मैंने पिताजी से पूछा कि क्या इस आदेश में न्यायाधीश के दधीचि की इच्छा जानने की प्रक्रिया के बारे में कुछ लिखा है क्योंकि वह अब तक मेरे लिए रहस्य बना हुआ है तब पिताजी अपने हाथ से आदेश के काग़ज़ों के गठ्ठर का एक हिस्सा फेंककर उछले, खड़े हुए और चिल्लाए, “साला, सुबह से बस यही पूछे जा रहा है, हराम के पिल्ले तू उस सीनियर क्लर्क के पास गया क्यों था पूछने कि जज ने दधीचि की इच्छा कैसे जानी जब हमारे ही पक्ष में फ़ैसला आया है तो तुझे किस बात की खुजली हैयों कहकर पहले उन्होंने मेरी दोनों आँखों के बीच एक घूँसा मारा और नाक से रक्त निकलते देखकर नाक पर घूँसे पर घूँसे मारने लगे किन्तु पाँचवें घूँसा पड़ते ही मैं भूमि पर लोटने गया और बचने के लिए उनकी पढ़ाई की मेज़ के नीचे घिसट घिसटकर जाने लगा अब पिताजी मुझे अपनी दायीं लात से मार रहे थे क्योंकि माँ ने उनका बायाँ पाँव पकड़ लिया था और पिताजी कह रहे थे, “सुबह से गधे की एक ही रट बस एक ही रट, हरामी कॉलेज जाने लगा पर है इतना गधा कि कोर्ट में भी सब से पूछता रहा कि कैसे जाना जज ने घोड़े का मनइतना कहते कहते वह हाँफने लगे और माँ मुझे दूसरे कमरे में ले गई और मेरी नाक अलग अलग जगह से दबाकर रुका हुआ रक्त निकालने लगी जिसके कारण मुझे अचानक नींद आ गई फिर मुझे पता था कि पिताजी कभी माँ को या मेरी बहनों को नहीं मारते थे जो मेरे लिए बहुत सन्तोषप्रद था।


रात डेढ़ या पौने दो बजे मेरी नींद अचानक से उठी तीखी शिरोपीड़ा के कारण खुल गई और अब मुझे लगता है कि सम्भवतया उसी रात से मुझे विक्षिप्त करने की सीमा तक होनेवाली शिरोपीड़ा आरम्भ हुई थी जो एक स्थान पर स्थिर रहने से और बढ़ती थी और मैं निरंतर एक कमरे से दूसरे में दौड़ लगाता रहता था क्योंकि ऐसा लगता था कि माथे पर काँक्रीट का एक बृहद टुकड़ा गिरनेवाला हो जिससे कारण मैं अपनी दोनों आँखें बंद कर लेता और फ़र्निचर से टकराता हुआ काँक्रीट के टुकड़े से बचने के लिए भागने लगता जैसे मैं उस रात्रि भी भाग रहा था जब माँ रोते रोते बहनों के साथ सो गई थी और पिता पढ़ते पढ़ते सो गए थे साथ में उनके पैर पर सोया हिप्पो मुझे देखकर जाग गया और मेरे पीछे पीछे वह भी घूमने लगा, हिप्पो बहुत कम भूँकता था; मुझे न्यायालय में ही शिरोपीड़ा के एक अर्धविक्षिप्त रोगी, जो न्यायालय में किसी वरिष्ठ अधिवक्ता का सहायक था, ने एक बार बताया था कि मुँह में तालु तक बर्फ़ भरकर सोने से तीव्र से तीव्र शिरोपीड़ा में भी नींद आ जाती है इसलिए मैं बर्फ़ लेने के लिए रसोई की ओर दौड़ा जहाँ श्वेत आलोक के एक वर्तुल के मध्य एक कृष्ण छाया डोल रही थी जो एक नारंगी धारियोंवाली बिल्ली की थी और वह फ्रिज खोलकर बर्तन से दूध पी रही थी; मुझे लगा कि वह मुझे देखकर भाग जाएगी किन्तु वह निर्लज्ज मुझे कोई रात्रिकालीन जीव समझकर उपेक्षित करके दूध पीती रही जब तक कि पास में पड़े माँ के चटनी पीसने के पत्थर से मैंने उसका सिर नहीं फोड़ दिया तब वह चीत्कार सी करती हुई उछली और उसके मस्तक से फूटता हुआ रक्त का सुंदर फ़व्वारा फ्रिज के श्वेत आलोक में गुलाबी या लगभग पारदर्शी हो गया जैसे अफ़ीम के फूलों से किसी ने चंद्रमा को अर्घ्य दिया हो किन्तु तब भी बिल्ली मरना तो दूर मूर्च्छित तक नहीं हुई जबकि उसका मुख और मस्तिष्क पूरी तरह कुचला जा चुका था और आँखें भी फूट चुकी थी और वह पलटी और पुनः दूध पीने लगी। वह बहुत भूखी थी इसलिए मैंने उसे दूध पीने दिया जिसमें उसका स्वयं का रक्त मिल चुका था।


हिप्पो ने दूध पीना छोड़ दिया और सोना भी और पिछले तीन दिनों में उसने मेरी एक बहन को और पिताजी को काट लिया और जब माँ उसे रोटी देने गई तो रोटी खाई नहीं बल्कि रोटी के ऊपर इतना रोया कि रोटी गीली और खारी हो गई, पता नहीं उसे क्या हो गया है कि उसकी शान्ति नष्ट हो गई यहाँ तक कि कल प्रातः पाँच बजे के आसपास उसने दधीचि का पिछला बायाँ पैर पकड़ लिया और पिताजी अपनी पूरी शक्ति लगाकर खींचने पर भी वह दधीचि का पैर हिप्पो के जबड़े से छुड़ा नहीं सके और जब हिप्पो ने उसे छोड़ा तो खुर को पिंडली से जोड़नेवाली मांसपेशी वह चबा चुका था और धीमे धीमे दधीचि के बहते हुए रक्त को चाट रहा था तब मुझे लगा दधीचि उसे दुलत्ती देगा और सम्भवतया मार डाले किन्तु दधीचि उनींदा सा खड़ा रहा बस अपना भार दूसरे पैरों पर स्थानांतरित करता रहा; उसके पश्चात से ही माँ ने यह रट लगा ली कि वायु की सुई लगाकर हिप्पो को पिताजी दयामृत्यु दे दें, आपको जानने की उत्सुकता होगी कि यह वायु की सुई है क्या तो यह मात्र रिक्त इंजेक्शन है जिसमें हवा होती है और जिसके लगाते ही हृदयगति रुक जाने के कारण जीव मर जाता है किन्तु पिताजी ने ऐसा करने से स्पष्टत: मना कर दिया और हिप्पो को लोहे की मोटी ज़ंजीर में बाँधकर वह इतनी लम्बी सैर को जाने लगे कि दोपहर से निकलते और लगभग रात्रि साढ़े बारह तक लौटते यहाँ तक कि उन्होंने कारखाना जाना भी छोड़ दिया और कारख़ाने की मशीनें बेच बेचकर हमारा घर चलने लगा जो कि बहुत अनिश्चय की स्थिति थी क्योंकि किसी भी दिन कारख़ाने की सारी मशीनें बिक जानेवाली थी और हमें खाने के लाले पड़नेवाले थे किन्तु माँ भी पिताजी को कुछ नहीं कहती थी और मेरे कहने का इसलिए प्रश्न नहीं उठता था कि मेरे कुछ भी कहने पर पिताजी मुझे मारने दौड़ते थे; यह सब देखते हुए माँ कद्दू, लौकी की लताएँ उगाती रहती और उनके फल ही नहीं पत्तों, फूलों की भी सब्ज़ी बनाती ऐसे मैंने जीवन में मितव्ययिता का महत्त्व समझा।


अपनी और अपनी बहन की पुरानी पुस्तकें मैंने बेचने का निश्चय कर लिया और जैनेंद्र नाम के मेरे यांत्रिकी महाविद्यालय के एक मित्र ने उन किताबों को ख़रीदने की इच्छा मुझसे जताई और मैंने उसे उसी संध्या घर आने का निमंत्रण दे डाला जबकि मैं जानता था कि उसे इन पुस्तकों की किंचित भी आवश्यकता नहीं है और वह केवल दयावश ऐसा कर रहा है तब भी सूर्यास्त होते कि उसके आने की प्रतीक्षा में मैं विकल होने लगा क्योंकि दया एक अस्थिर भावना है और कोई छोटी सी घटना जैसे आते समय किसी युवा वेश्या का दिख जाना या मलाई से भरी चाय का धुँधुआता कुल्हड़ मिलने से दया वाष्पीकृत हो सकती है तो जब तक वह आया नहीं तब तक मैं किवाड़ पर खड़ा उसकी बाट जोहता रहा, अस्ताचलगामी सूर्य के कारण अरुण होते आकाश में विलीन होते पथ पर मेरी ओर आता जैनेंद्र मुझे दिखाई दिया और जैसे ही वह दिखाई दिया मैं तुरंत अंदर गया और पुस्तकें ले आया, मैं उसे द्वार से ही विदा कर देना चाहता था क्योंकि अंदर आने पर मुझे उसे चाय पिलाना पड़ती जो अब हमारे घर पर केवल एक बार प्रातःकाल बनती थी किन्तु जैनेंद्र अपने संग दूध की चार थैलियाँ भी लाया था जिसे देखकर घर में सब आश्चर्य से भर गए और मैं लज्जा से कि क्या जैनेंद्र हमें इतना निर्धन समझता है कि वह अपने साथ स्वयं की चाय के लिए दूध भी लाया है और हम उतने निर्धन थे भी किन्तु निर्धन होने में और संसार को आपके निर्धन होने का पता होने में उतना ही अंतर है जितना निर्धन होने और धनी होने में।


जैनेंद्र ने दूध की थैली मुझे देते हुए कहा कि वह यह दूध उस नष्ट मुख और मस्तकवाली बिल्ली के लिए लाया है जिसकी मेरे द्वारा उसे सुनाई गई जिजीविषा की कथाएँ उसे सतत प्रेरणा देती है और माँ ने दूध की थैलियाँ जैनेंद्र के हाथों से जैसे झपट ली और अंदर चली गई जबकि उन्हें पता था कि उनका यह व्यवहार मुझे किंचित भी अच्छा नहीं लगा है तब तो और जब जैनेंद्र के लिए पानी लेने रसोई में जाने पर मैंने देखा कि कैसे वह दूध को जल्दी जल्दी गरम कर उससे शीघ्रातिशीघ्र मलाई निकाल लेना चाहती है और जब मैंने जैनेंद्र को पानी का गिलास दिया तब उसने उत्साहवश मुझसे कहा कि एक कटोरे में दूध भरकर मैं जल्दी ही यहाँ ले आऊँ ताकि बिल्ली दूध की सुगंध से मोहित होकर यहाँ आ जाए और वह उस अद्भुत बिल्ली को देख सके जिसे सुनकर माँ ने अंदर से चिल्लाकर कहा कि बिल्ली की अवस्था देखते हुए उन्होंने दूध उबाल दिया है और ठंडा होते ही वह उसे ले आएँगी तब जैनेंद्र ने कहा कि दूध अभी ले आए क्योंकि बिल्ली उबलता दूध पीने में प्रवीण होती है और माँ गरम पानी में दूध की कुछ बूँदें मिलाकर वहाँ एक कटोरे में रख गई और हम बिल्ली की प्रतीक्षा करने लगे तब भी रात के आठ बजने तक बिल्ली नहीं आई; इस बीच जैनेंद्र मुझे बताता रहा कि वह तेरापन्थी जैन समाज से है और अहिंसा का पालन वह किसी अतिवादी हिंसक व्यक्ति की तीव्रता से करता है और इसलिए उसे हिंसा की शिकार किन्तु अब तक जीवित इस बिल्ली से इतना आकर्षण हुआ और वह आचार्य तुलसी (१९१४-१९९६) एवं मुनिश्री नागराज की पुस्तकों के विषय में बताता रहा और यह भी कि कैसे प्लेग के चूहों को विष देने के पश्चात् महात्मा गांधी ने प्रायश्चित किया था क्योंकि प्लेग के चूहों की मृत्यु आवश्यक तो थी किन्तु अहिंसा के परम उद्देश्य का किसी भी प्रकार से वह अतिक्रमण नहीं कर सकती, आदर्श और उद्देश्य से मनुष्य च्युत हो सकता है किन्तु किसी भी अवस्था में वह उस च्युतावस्था को आदर्श नहीं बता सकता और मेरे यह कहने पर कि पशु और निचले दर्जे के जीवों में न स्मृति रहती है न मृत्युबोध इसलिए क्या उनपर की गई हिंसा स्मृति और मृत्युबोध से पीड़ित मनुष्य पर की गई हिंसा से अधिक निर्दोष नहीं है जैनेंद्र बहुत उत्तेजित हो गया और अचानक ही उसकी भौहों से पसीना टपकने लगा जो ऐसा लगता था जैसे आँसू गिरते हो और मैं भयभीत हो गया कि सम्भवतया मैंने उसे कुपित कर दिया है और वह पुस्तकें ख़रीदे बिना लौट जाए और दूध भी लौटाने को कहने लगे इसलिए मैंने बात तुरंत सम्भाली और उसे कहा कि उसका यह कहना कि जीवन जीने के लिए की गई आवश्यक हिंसा निश्चय ही पाप की श्रेणी में आती है यह पूर्णतः सत्य है क्योंकि जन्म लेना ही पाप है, जन्म लेकर जीवित रहना उस पाप को निरन्तर करते रहना है जिसे अंग्रेज़ी क़ानून में कंटिन्यूइंग ऑफ़ेंसया निरन्तर किया जानेवाला अपराध कहते है फिर मुझे याद आया कि अपराध की धारणा अब हमारे राष्ट्र से समाप्त हो गई है और न्यायाधीश महोदय के अनुसार हमारी राष्ट्रीय न्यायप्रणाली केवल पाप को मान्यता देती है मैं मौन हो गया, इतना सब कहने पर भी जैनेंद्र मौन रहा और मेरी रूलाई छूटने जैसी अवस्था हो गई तब मैंने उससे अंतिम बात कही कि केथोलिक धार्मिक मान्यता के अनुसार जन्म लेते ही मर जानेवाले शिशु अनन्तकाल तक अपने सम्बंध में लिए जानेवाले निर्णय की प्रतीक्षा करते है क्योंकि बपतिस्मा न होने के कारण वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते और पाप न करने के कारण नरक नहीं जा सकते इसपर जैनेंद्र ने मुझे विचित्र दृष्टि से देखा जैसे कह रहा हो कि यदि कोई है जो सबसे अधिक हिंसक है तो वह ईश्वर है फिर उसके ओंठ फड़कने लगे और आँखों की कोर पर एक बिन्दु प्रकट होने लगी तब मेरी छोटी बहन अपनी वनस्पतिशास्त्र की पुरानी पुस्तकें ले आई जिन्हें पढ़कर हमने सबसे पहले जाना था कि वृक्ष, छोटे छोटे पौधों यहाँ तक कि घास के तिनके में भी प्राण होते है।
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संजय कुंदन की कविताएं

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संजय कुंदन की कविताएं 

मॉब लिंचिंग के मृतक का बयान 
(मंगलेश डबराल से क्षमायाचना सहित) 

उस दिन जिसने मेरी कुंडी खटखटाई थी
वह मेरा पड़ोसी था जो मेरे लिए
हर समय थोड़ी सुरती बचाकर रखता था
और जिसने मां की गाली देते हुए मुझे बाहर घसीटा था
वह मेरे दोस्त का भतीजा था
जिसकी बहती नाक मेरी मां कई बार पोंछा करती थी
उसके छुटपन में

मुझे लगा सब मिलकर मजाक कर रहे हैं
पर मैंने जब बाहर और लोगों को खड़े देखा
तब मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ

उस शख्स के हाथ में सरिया था
जो कभी मुझे अपना दाहिना हाथ बताता था
जिसके कंधे पर लाठी थी
वह मेरे कंधे पर कई बार सिर रखकर रोया था

जो साइकिल की चेन लिए था
वह कई बार मुझे साइकिल पर बिठा
मेला घुमाने ले गया था
जिसके हाथ में चप्पल थी
वह आए दिन मेरी चप्पल मांगकर ले जाता था

वह भी खड़ा था    
जो कबूतरों को बिला नागा दाना-पानी दिया करता था
वह भी था
जो अकसर भिखारियों के लिए भंडारा करता था

जब मेरे ऊपर पहली लाठी पड़ी
तो मेरी आंखें अपने आप बंद हो गईं
आंख मुंदने से पहले मैंने उनकी आंखों में झांका था   
उन आंखों में उस दिन जो दिखा उसे बता सकना मुश्किल है
वे किसी आदमजात की नजरें नहीं हो सकती थीं

मैं चिल्लाकर भी क्या करता
अब तक हर मुश्किल में इन्हीं को आवाज दिया करता था
अब जबकि यही लोग मेरी जान लेने पर उतारू थे
मै किसको बुलाता
सो मैं आखिरी इबादत में लग गया

मुझे सड़क पर पड़ा छोड़
वे इस तरह लौटे 
जैसे उन्होंने मुझे अपने भूगोल और इतिहास
से बाहर फेंक दिया हो
मैं उनकी संस्कृति में एक गांठ की तरह था 
जिसे काटकर निकाल दिया गया
मैं अंतरिक्ष से टपका एक
खतरनाक उल्कापिंड था
जिसे चूर-चूर कर दिया गया 

इधर वे लौट रहे थे
उधर मैं मशहूर हो रहा था
कई अजनबी जुबानों पर मेरा नाम था
लोग वाट्सऐप पर मेरी हत्या का विडियो देख रहे थे
मेरी मौत एक तमाशा बन गई थी
एक हॉरर फिल्म की तरह उसे देखा जा रहा था




कुछ लोग मुग्ध थे हत्यारों के हुनर पर
कुछ ऐसे भी थे जिनका
गला रुंध गया था मुझे तड़पता देखकर
वे बेहद डर गए थे
उन्होंने बाहर खेल रहे अपने बच्चों को अंदर बुलाया
और जल्दी से दरवाजे और खिड़कियां बंद कर लीं
 कि कहीं मेरे जैसा कोई और
भीड़ से बचकर भागता हुआ
 पहुंच न जाए उनके पास
और हाथ जोड़कर कहे
मुझे छुपा लो अपने घर में.




कवि और कारिंदा

कवि ही कविता नहीं गढ़ता
कविता भी गढ़ती है कवि को 

कवि जब शब्दों को काट-छांट रहा होता है 
शब्द भी तराश रहे होते हैं उसकी आत्मा
हर कविता के बाद 
थोड़ा बदल जाता है कवि
   
वह दुनियादारी की एक सीढ़ी और
फिसल जाता है
बाजार से गुजरता हुआ
थोड़ा और कम खरीदार नजर आता है 

इतना मीठा बोलने लगता है 
कि पक्षी उसके कंधे पर चले आते हैं

इतना तीखा बोलने लगता है  
कि व्यवस्था के कान छिल जाते हैं 

जो गढ़े जाने से इनकार करता है 
वह कवि नहीं कारिंदा होता है.



मेरा शरीर

काश! इसे पटरी पर रख निकल लेता
या किसी बस की सीट पर छोड़ आता

मेरा शरीर मुझे डराने लगा है 
जब मैं किसी स्वप्न की सीढ़ियां 
चढ़ रहा होता 
मेरे कान में फुसफुसाता
मुझे अभी इसी वक्त 
थोड़ा लोहा चाहिए और चूना भी

कभी कहता
मेरा नमक कम हो रहा है 
मैं भहराकर गिर जाऊंगा

यकीन नहीं होता यह वही है
जिसे जूते की तरह पहन 
मैं भटकता रहा हूं 
पथरीली राहों पर

जिसने मेरे साथ खाक छानी 
वही अब मेरी सारी उड़ानें 
छीन लेना चाहता है.


  

सड़क 

एक बीमार या नजरबंद आदमी ही जानता है 
सड़क पर न निकल पाने का दर्द 

सड़कों से दूर रहना हवा, पानी, धूप 
और चिड़ियों से अलग 
रहना नहीं है,
यह मनुष्यता से भी कट जाना है

सड़कें कोलतार की चादरें नहीं हैं
वे सभ्यता का बायस्कोप भी हैं 

कोई इंसान आखिर एक मशीन से 
कब तक दिल बहलाए 
कब तक तस्वीरों में खुद को फंसाए

जिंदगी की हरकतें देखे बगैर 
हमारी रगों में लहू थकने लगता है
सूखने लगता है आंखों का पानी

मनुष्य को मनुष्य की तरह जीते 
देखने के लिए 
ललकता है मन 
इसलिए हम उतरते हैं सड़क पर
सिर्फ परिचितों के लिेए नहीं 
अपरिचितों के लिए भी 

अच्छा लगता है 
सड़क पर लोगों को देखना 
किसी को कहीं से आते हुए
किसी को दूर जाते हुए
कोई थका-हारा. 
कोई हरा-हरा
कोई प्रतीक्षा की आंच में पकता 
कोई किसी से मिल चहकता
 कोई खरीदारी करते हुए
कोई बाजार को चिढ़ाते हुए  

घर से सड़क और सड़क से घर आना 
पृथ्वी के घूर्णन की तरह 
हमारी गति है   



अल्पमत 

मैं अल्पमत में उसी दिन आ गया था
जिस दिन सुलग उठा था 
प्रेम की आंच में 

बहुमत को पसंद नहीं था 
कि मेरे हाथ डैनों की तरह लहराएं 
और मेरे होंठों से शब्द 
सीटियां बजाते हुए आएं 

मैंने उनके लिए भी सपने देखे 
जिन्होंने मेरे लिए फंदे बुने

जो मेरे देश निकाले पर था अड़ा हुआ
मैं उसके भी अधिकारों के पक्ष में खड़ा हुआ

मैं थोड़ा और ज्यादा अल्पमत में आ गया
जिस दिन कविता की पहली सीढ़ी चढ़ गया

जब मैंने सच-सच लिखा
तो झूठ के नशे में डूबे बहुमत ने कहा
कवियों को कुछ नहीं पता

मुझे षडयंत्रकारी, तरक्की के रास्ते का रोड़ा 
और व्यवस्था का फोड़ा बताया गया

बहुमत ने कहा
इस देश में रहना है 
तो हमारे नायक के गुण गाओ
तुम भी हमारे साथ आ जाओ 

पर मैंने सच का साथ नहीं छोड़ा 
जिन घरों से दुत्कारा गया
वहां भी मातमपुर्सी में जरूर गया

चुनाव नतीजों के बाद
मैं भारी अल्पमत में हूं 

मैं आज भी कविताएं लिखता हूं
मैं आज भी प्रेम करता हूं. 


शरणार्थी 

ऐसा नहीं कि
मेरे इलाके की जमीन बंजर हो गई
ऐसा भी नहीं कि
नदियां बंधक बना ली गईं
फिर भी मैं हो रहा विस्थापित

विस्थापन एक जगह से उजड़ना भर नहीं है
किसी के मन से निकाल दिया जाना भी है विस्थापन

जो कभी रोये मेरे कंधे पर सिर रख
जिनके कंधे पर मैं सिर रख रोया
वही मुझे फिर से पहचानने में लगे हैं 
मुझे दोबारा-तिबारा पहचाना जा रहा है 

कितना अजीब है 
जो मेरे रोयें की गंध भी पहचानते हैं 
वे बार-बार मेरा परिचय पूछ रहे हैं 

वे हमें रोज अपने मन से 
थोड़ा-थोड़ा बाहर कर रहे

धीरे-धीरे धकियाया जाता हुआ मैं गिर जाऊंगा
संबधों के सीमान के बाहर
तब यहां मेरा कोई परिचित नहीं रह जाएगा
सिवाय कुछ आवारा कुत्तों के

मैं भी खतरनाक माना जाऊंगा
जैसे खतरनाक माने जा रहे हैं
दुनिया भर के शरणार्थी 

ऐसे समय जब शरणार्थियों के लिए 
दुनिया भर में ऊंची की जा रही दीवारें 
मैं कहां लूंगा शरण  
मुझे कौन गाड़ने देगा तंबू 
अपनी आत्मा के प्रदेश में?

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निज घर : मेरे बडके बाबू – सबके पुजारी बाबा : सत्यदेव त्रिपाठी

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उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज को समझने के लिए राजनीतिक और सामजिक अध्ययन की कुछ कोशिशें हुईं हैं. साहित्य की आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण आदि विधाएं इस सन्दर्भ में उपयोगी हैं. रंग-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी  इधर गाँव पर केन्द्रित संस्मरणों की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं.

‘मेरे बडके बाबूसबके पुजारी बाबा’ ऐसा ही उद्यम है. गहनता और प्रमाणिकता से इसमें ग्राम्य समाज अंकित हुआ है.  



मेरे बडके बाबू – सबके पुजारी बाबा...      
अरे यायावर, आते हो बहुत याद...

सत्यदेव त्रिपाठी  



स्व. कुबेरनाथ त्रिपाठी थे तो मेरे बडके बाबू, पर चूँकि मेरे बाबूजी (पिता) चल बसे, जब मैं एक साल का ही था, तो दोनो बडी बहनों ने अपने बाबूजी के बडे भाई याने ‘बडके बाबू’ में से ‘बडके’ शब्द को निकाल के कब उन्हें सिर्फ़ ‘बाबू’ ही कहना शुरू कर दिया..., उन्हें भी नहीं मालूम. इस तरह मैंने उनको ही बाबू कहते हुए होश सँभाला...वो तो बहुत बाद में पता चला कि सचमुच में तो वो मेरे बडके बाबू हैं, जो सारी दुनिया में ‘पुजारी बाबा’ के नाम से जाने जाते.... और पूरे बचपन मैंने उन्हें बार-बार घर से जाते और काफी दोनों बाद आते देखा... इसीलिए आज भी यादों के दौरान जो उनकी छबि पहले उभरती है मन में, वह घुमंतू वेश की ही है... हाथ में सुता हुआ सुडौल सोंटा कॉफी के रंग का, जिसे अक्सर बीच से पकडकर झुलाते हुए चलते या फिर कभी-कभी ऊपरी सिरा पकडकर दो कदम आगे जमीन पर हल्का-सा टेके जैसा रखते और पिछला पैर झट से लम्बा डग भरते हुए आगे करते.... क़द उनका न लम्बा था, न नाटा. न दुबला, न मोटा. एकदम मध्यम मार्गी. सूती (कॉटन) साफे की पगडी बाँधते, जो कभी-कभी सिल्क की भी होती. कन्धे पर सादा-रंगीन गमछा, सफेद या हल्के सफेद (ऑफ व्हाइट) या हल्के पीले रंग के पूरी बाँह के कुर्त्ते पर घुटने से नीचे तक लटकती धोती तथा पैरों में किरमिच का बिना फीते वाला काला या भूरा (क्रीम) जूता.... सफर का गाढा व स्थायी साथी एक थोडे बडे आकार का झोला होता उनके पास, जिसमें चौपतकर रखे एक-दो कुर्त्ते व चुनियाई हुई लुडेरकर (गोलाई में लपेटकर) रखी एक-दो धोतियां होतीं.... झोला यूँ तो हाथ पीछे करके पीठ पर लटकाये हुए चलते, लेकिन कभी-कभी उसे सोंटे में लटका कर कंधे पर भी रख लेते. तब उनकी तेज चाल और तेज हो जाती - बल्कि तेज चलने के लिए ही ऐसा करते. झोले में पीतल की एक छोटी बाल्टी और डोरी होती, जो हर दो-तीन कोस पर कहीं कुएं पर रुककर मुँह-हाथ धोने और झोले में मौजूद गुड, गट्टा, बतासा, किसमिस में से कुछ खाके पानी पीने के काम आती.  

झोले के सामानों में बहुत ख़ास यह कि तरह-तरह की औषधियां – छोटी-छोटी गोलियां, भस्म-चूर्ण तथा आसव की शीशियां...आदि भरी होतीं. कुछ खरबिरैया चीजें (पत्ते-टहनियां-बीज-चिचुके फल... वगैरह) भी. वे हल्के-फुल्के वैद्य भी थे, लेकिन ‘नींम-हक़ीम ख़तरेजान’ बिल्कुल नहीं. उनकी बतायी-करायी कुछ दवाओं का सेवन मैं आज भी करता हूँ – बताता भी हूँ अपने लोगों को...और शफा सबको होता है.... इसी का विस्तार यह कि बीमारों की तीमारदारी व इलाज़ के प्रति पूर्ण समर्पित होते.... बुख़ार में प्यास बहुत लगती है और हर बीमार को पानी पिलाने के लिए उनके पास किसमिस जरूर होती. मैं बचपन में 8-9 साल का होने तक बहुत बीमार होता था, जिसे पण्डितजी कोई ग्रह-दशा बताते थे, लेकिन बाबूजी इतनी सँभाल करते थे कि उनके न रहने पर बीमार होता, तो ‘हम बाबू किहन जाब’ करके उनके लिए रोने लगता था - याने बचपने के बावजूद उनकी कमी खलती थी. माँ तो उनकी अनुज वधू थी. खाट के पास आके देख तक न सकते थे – छूके बुखार...आदि अन्दाज़ने का प्रश्न ही कहाँ था? लेकिन हर घण्टे चौखट पर आके किसी अनाम को पुकार-पुकार के पूछ्ते थे – “अरे अब कइसन तबियत हौ ‘सरोसती के माई’ (माँ के लिए उनका स्थाई सम्बोधन – बडी बहन सरस्वती के नाम पर) कै? बुखार कुछ उतरल...”? - याने पूरा व्योरा पूछते रहते...तरह-तरह की दवाएं तो सबके लिए लाते-देते. ठीक होने पर नीम की पत्ती डालके पानी गरम करते और मुझे पीढे पर बिठाकर अपने हाथ से नहलाते, बदन पोंछते...याने इंतहा थी बीमारों की देख-भाल, साज-सँभार की.... और खुद तो जाने क्या-क्या खाते - धोके, रात भर भिंगोके फिर सुबह उसे हाथ से गार के पीते रहते....

ख़ैर, उनके मूल भाव घुमक्कडी में मुझे उनके साथ चलने का अनुभव है. मारे लाड के वे कभी-कभी मुझे साथ ले जाते – प्राय: तब, जब 2-4 कोस जैसी कम दूरी पर आसपास के किसी यज्ञ-अनुष्ठान या शादी वगैरह में जाना होता. सो, होश सँभालने के बाद बचपन भर उनके साथ घूमने का ख़ूब मौका मिला, जो उनकी विरासत, तो क्या असर या निशानी के रूप में आज भी मुझमें मौजूद है - किसी भी वक़्त कहीं भी निकल लेने में और कहीं जाने की योजना बनाते रहने में.... सर्वाधिक याद है उनके ननिहाल याने अपने अजिअउरे (दादी के मायके) जाने की, जो हमारे घर से चार कोस पूरब है – भूपालपुर. बाबूजी वहाँ अक्सर जाते और दस-पन्द्रह दिन तो रहते ही – घर की तरह. उनका वहाँ मान-जान भी बहुत था और चुहल तो ऐसी होती कि वहाँ किसी बारात में बाबूजी के सर पर अँडसा के पत्ते सहित डण्ठल का मौर बाँधके दूल्हा बनाया गया था और असली शादी में शादी का स्वांग खेला गया था. ऐसे हँसी मज़ाक के लिए बाबू का प्रिय शब्द था – दिल्लगी. इसकी अद्भुत सन्धि भी मैंने उन्हीं के मुँह से सुनी थी – जहाँ तक दिल लगा रहे, वही दिल्लगी – याने मज़ाक की एक सीमा होनी चाहिए....

इस तरह जो याद आता है कि बडके बाबू महीने में औसतन 20 दिनों तो घर से बाहर रहते ही थे. थोडा बडे होने पर जाने के पहले बताते हुए सुनने लगा, पर आने का ठिकाना कभी रहता नहीं था.... सलूक उनके हथियानसीन अमीरों, बडे-बडे ज़मीन्दारों से थे...तो बडे-बडे विद्वान- पण्डितों से थे...फिर संतों-फ़कीरों-योगियों-जादूगरों से भी थे. साथ ही तमाम ऐसे गृहस्थों से भी, जो मुकदमा लडने जिले (आज़मगढ) आते-जाते अपने ‘पुजारी बाबा’ के घर रातों को ठहरते – पक्षी-प्रतिपक्षी के साथ कभी-कभी गवाहों को मिलाकर छह-छह, आठ-आठ लोग भी होते, क्योंकि उन्हें बस मिलती हमारे बाज़ार ठेकमा से ही, जो उनके घरों से 10-12 किमी है और तब पैदल के अलावा न साधन थे, न मार्ग. 8-9 में पढते हुए मुझे याद है - उनके अंग्रेजी में मिले अदालती काग़ज़ात को अटक-अटक कर पढने और भटक-भटक़र खींचते-तानते हुए उनके अर्थ –कभी अनर्थ भी- बताने की.... कभी कोई नागा बाबा लोग आते, तो तीन दिन मेरे यहाँ धूनी रमा लेते. ये इतने गन्दे होते कि उनके पास जाने में घिन आती, लेकिन बाबू को कुछ पडी न होती – नये गद्दे-चद्दर तक ले जाके बिछा देते, जो फिर फेंक या उन्हीं को दे दिये जाते. बडी खेती के अच्छी तरह होने के बावजूद पैसों की छूट न थी घर में. सो, ऐसी बर्बादियों पर कमाने व घर चलाने वाले जयनाथ काका आड में बहुत चिढते, पर बडे भाई के सामने कुछ कह न सकते थे – भाइयों को जूए में हार जाने वाले युधिष्ठिर की परम्परा जो थी...!!  एक जादूगर काका तो बार-बार आके हफ्तों रहते.... इन सबकी देख-भाल तो बाबूजी करते, पर सबके खाने-पीने, माँजने-धोने का इंतजाम माँ को करना ही था.... ये लोग तो बाबू के रहने पर ही रुकते, पर योगी-वृन्द आते फेरा लगाने, तो बाबू रहें, न रहें, दो महीने (वैशाख-ज्येष्ठ) मेरी ओसारी में ही अड्डा जमाते. लेकिन ये लोग सिर्फ़ रात को खाते और ख़ुद अपना बाहर ही बना लेते. सो, हमें उनकी कोई किट-किट न थी. दिन भर तो कई गाँवों मे घर-घर जाके गाते और जाते हुए कई-कई बोरे अनाज व कई बक्से भर के सामान ऊँटों या बैल-गाडियों में ले जाते, जो मेरी दालान व ओसारी में रोज़-रोज़ की आमद के रूप में जमा होते रहते थे.

देहात में आये किसी नये साधु महात्मा का पता लगे, तो वहाँ पहुँच जाते.... करीब रहकर उन्हें अन्दाज़ते भी. ऐसे दो पाखण्डियों के रहस्य सप्रमाण खोलने की भी मुझे सही याद है. एक ने अचानक आकर हमारे स्कूल-कॉलेज वाले गाँव बिजौली में बहुत बडा यज्ञ फान दिया– 17 दिन चला. पूरा देहात उमड भी पडा. ढेरों चढावा आया – नक़दी और उपहार-सामान...सब. खूब सफल रहा. बाबूजी एक दो दिनों के अन्दर ही पहुँच गये थे. महात्माजी लोगों का भविष्य भी बताते थे. ऐसे प्रमाण दे देते थे कि मजमा लग गया था. लौटने पर बाबूजी ने बताया कि वो सज़ायाफ्ता या भागा हुआ डाकू जैसा कोई बडा मुजरिम है. अपनी कलाइयों में पडे हथकडियों के निशानों को पूरे समय लिपटी मालाओं में छिपाये रहता था, जिसे वहाँ रहते हुए नहाने-धोने के समय खोजी नज़रों से बाबूजी ने देख लिया था. उन्होंने यह भी लक्ष्य किया कि एक दो दिनों पहले की घटनाओं को जानने की कोई विद्या उसने सीख ली थी, जिसके चलते लोग तुरत विश्वास में आ जाते थे. फिर सबको 20 दिनों से महीने बाद के परिणाम वाले उपाय बताता, क्योंकि तब वह मिलेगा नहीं– और किसी का होना-जाना कुछ है नहीं. यह सच भी निकला, पर पहले कहते, तो कोई विश्वास न करता.... 

इसी तरह हमारे घर से 6-7 किमी पश्चिम स्थित गाँव सोहौली की बडी कुटिया पर आके किसी संत-महात्मा ने अपने शौच न करने की घोषणा की. खूब मेला लगा. चर्चा सुन बाबूजी पहुँचे. दो रतजगे में पकडा गया. दो-ढाई बजे की निबिड रात को निकला और जहाँ आड दबाके बैठा कि बाबूजी ने टोका. पैरों पर गिर पडा. पेट की दुहाई दी. तीन दिन में सब समेट के भागने का वादा कराके लौट आये. हमारे पूछने पर निरी वैज्ञानिक बात कही– थाली भर खाते देखा, तो सोचा कि आख़िर इतना सब जायेगा कहाँ...? शौच तो करना ही पडेगा. फिर तो बस, देखना भर था कि कब और कहाँ...!!

एक तरफ यह सब था, दूसरी तरफ गाँव से उत्तर स्थित इरनी के बडे जमींदार किसुनदेव सिंह कभी पुरा काल में बाबूजी को कायम के लिए अपने साथ रखना चाहते थे. तो इधर मेरे देखे में हमारे गाँव से पश्चिम में स्थित लसडा के ठाकुर रामाश्रय सिंह और ठाकुर वासुदेव सिंह उन्हें लेने के लिए हाथी भेज देते .... उनके जलवे की बात कहूँ... वे दरवाजे के पश्चिम सोने-बैठने की बडी जगह में न सोके रातों को आदतन घर के सामने सोते, जो आम रास्ता था और इतना सँकरा कि खाट के बाद बैलगाडी या हाथी आये, तो निकल न सके.... लेकिन हाथी लेकर आने वाले सारे पिलवान (हाथी हाँकने वाले) अपने इस ‘पण्डितजी’ को सम्मान वश जगाते न थे. हाथी को आदेश देके उनके सहित खाट पश्चिम की ओर हटवा देते और चले जाते.... मैंने दस साल की उम्र के पहले ही उनके साथ दस-दस कोस की यात्रा हाथी पर की है, जो बडी उबाऊ-थकाऊ और त्रासद होती – ऊँट की यात्रा तो कमर ही तोड देती है.... 

पूरब तरफ बिजौली के जमींदार बाबू कोमल राय और संतन-संतोषी साहु (बनिया) घर तक आ जाते, क्योंकि हमारे गाँव की तरफ उनकी ही जमींदारी भी थी.... बडके बाबू के इस प्रताप का भी फायदा मुझे मिला, जब दर्ज़ा 7 से 12 तक मेरी फीस आधी माफ़ हो जाती, क्योंकि कोमल राय के बेटे बाबू राम सेवक राय ही मेरे बिजौली विद्यालय के प्रबन्धक थे और अपने पिता के समय अपने घर में पुजारी-बाबा की साख़ देख चुके थे. कुल मिलाकर बडके बाबू के ही शब्दों में ‘अपने तौहद (चहुँदिस 15-20 मील) में एक बेला भी रहूँ एक घर में, तो साल निकल जायेंगे...फिर दुहराने का मौका आ जायेगा’.... याने सालों-साल घर न आयें, तो भी जीवन चले.... लेकिन घर से भी लगाव उनका कम न था और ‘घर है, तो बाहर यह मान-जान है, वरना बेघर-बार को कोई न पूछे’, का पता भी था....     


ऐसे व्यक्ति को यायावर, घुमक्कड, फक्कड, साधु...आदि तो कहा जा सकता था, पर उन्हें गाँव ने ‘पुजारी बाबा’ क्यों कहा होगा, मुझे आज तक समझ में नहीं आया..., क्योंकि ज्यादा पूजा-पाठ करते तो मैंने उन्हें देखा नहीं– शायद मेरे होश सँभालने के पहले करते रहे हों.... हाँ, ऐसा एक वाक़या याद ज़रूर आता है कि जब ऐसी बारिश हुई कि हफ्ते भर तक थमी नहीं. जल-थल एक हो गया था और जीवन ऐसा अस्त-व्यस्त कि जीना दूभर.... संयोगवश बाबू उस वक्त घर ही थे. गाँव के लोगों -ख़ासकर बडके बाबू के हमउम्रों- ने ललकारा कि ‘क्या पुजारी बनते हो...बारिश तो रोक सकते नहीं’...!! ऐसे चुहल तब होते थे गाँवों में – बल्कि इन्हीं सबसे गुलजार रहते थे गाँव, जिनकी चर्चा यहाँ आगे भी आती रहेगी और जिनसे महरूम हो चुके आज के तथाकथित सुखी-समृद्ध व प्रगत कहे जाने वाले गाँवों के बीच बहुत तडपता है मन.... ख़ैर, तब बाबूजी ने अपने ठाकुरजी को मिट्टी की नयी हाँडी में डुबोकर रख दिया, जो टोटका या एक तरह का अनुष्ठान हुआ करता था- भगवान को पानी में डुबाकर बारिश के संकट का अहसास कराया जाता. यह भक्त की तरफ से भगवान को दी गयी भावात्मक यातना या ‘कै हमहीं कै तोहईं माधव...’ वाली चुनौती जैसा था. कहते हैं कि इससे बारिश रुक जाया करती थी....

लेकिन उस बार चार-छह दिनों रुकी नहीं...और बाबूजी में धीरज तो अमूमन था ही नहीं– यही हाल मेरे पूरे परिवार का है, जिसका ख़ामियाज़ा अपने पेशेवर से लेकर सामाजिक जीवन में भी मैंने ख़ुद बहुत भुगता है (काश, उदाहरण दे पाता), लेकिन ठाकुरजी के सामने जो भी थोडा-बहुत धीरज बाबूजी सँजो पाये, वह पाँच-छह दिनों में जवाब दे गया.... फिर तो क्या था...एक दिन दस-ग्यारह बजे के आसपास गोजी (लाठी) लेकर निकले दुआर पर और लगे फरी मारने याने गोजी फटकार कर उछलने-कूदने, पैंतरा लेकर आसमान की तरफ देख-देख गोजी चलाने, जो अंतत: ज़मीन पर ही गिरती.... यह तो सबके लिए हँसी और मनोरंजन का ही सबब था, पर वे सचमुच बहुत गुस्से में आ गये थे, अपने आप को भूल गये थे. जितना ही फरी मारते, उतना ही भगवान को भला-बुरा कहते-कहते दो-चार मिनट में अपनी पर उतर आये... 

‘दुष्ट-पाजी’ से ‘साले-हरामी’ तक होते हुए भदेस तक पहुँचना ही था. पूरा गाँव जुट गया– बच्चों-बूढों तक. बारिश में भींगने की परवाह किये बिना...जैसा कि किसी भी वाकये पर गाँवों में होता है. मेरा कयास है कि 6-7 मिनट तो चला होगा.... और खूब याद है कि न उनका शरीर वश में था, न ज़ुबान... गनगन काँपने लगा था पूरा बदन और फेंचकुर आने लगा था मुँह से.... आज समझ पाता हूँ कि मन से सच्चे पुजारी का भगवान को गालियां देना आसान न था – बहुत मानसिक दबाव (स्ट्रेस) व मन की गहरी पीडा में रहे होंगे !! पर गुस्सा ऐसा सर्वोपरि था कि सब कुछ भूल जाते– उस मिट्टी में जमे कंकर-ठीकरों वाली जमीन को भी, जिस पर हवाई उछल-कूद कर रहे थे और लहूलुहान हो चले तलवे-एडी-उंगलियों को भी. उस वक़्त उन्हें अपना होश न था. लोगबाग पहले चुहल समझ रहे थे, फिर मज़े लेने लगे थे... लेकिन मामला गम्भीर समझते-समझते कुछ कर पायें, कि तब तक बडके काका सर पे घास लिये आ पहुंचे. उन्हें देखकर सबको फटकारा- वे जान देने पर तुले हैं, तुम सब तमाशा देख रहे हो..!! और बडके बाबू की गोजी बचाके उन्हें पीछे से बाँहों में पकड ही तो लिया. तब तक दो-चार और लोगों ने भी थाम लिया.... बाबूजी का शरीर दस मिनट तक गनगनाता रहा, लोग उन्हें समझाते और काका उन पर बरसते रहे.... कई दिनों तक बहनें कडू तेल में चुराके हल्दी-प्याज बाँधती रहीं....

लेकिन गज़ब की बात यह कि बारिश उसी दिन बन्द हो गयी थी और गाँव के विश्वासु (क्या अन्ध?) मन ने इसे अपने ‘पुजारी बाबा का परताप’ व पुजारी बाबा को मिला ‘ठाकुरजी का परसाद’ समझा.... दोनो के गुणगान होते रहे कई दिनों तक...लेकिन मज़ा यह भी कि अब लगभग साठ सालों बाद गाँव में तब के बचे किसी को यह घटना याद नहीं!! क्या इसलिए भूल गये कि ऐसी घटनायें गाँवों में तब बहुत होती रहती थीं...या इसलिए कि अब ऐसा कुछ होता ही नहीं...या फिर इस कारण कि अपने रोज़ाना के कामों के साथ ‘गुर-चूँटा’ की तरह पिजे गँवईं लोगों की स्मृति इतनी स्थायी नहीं होती...!! लेकिन मुझे तो यह घटना कभी भूली ही नहीं... मौके-बेमौके बहुतों को सुनाता रहा हूँ..., पर यादों में भी उनकी गालियों से मन खट्टा हो जाता है.... लेकिन जब बतौर विद्यार्थी साहित्य से साबका पडा और जीवन को देखने की एक अलग नज़र मिली, ‘भाषाओं के वर्गोद्भूत (क्लास ओरिएण्टेड) होने की सचाई से पाला पडा, तो पाया कि गाँवों में बडे-बुज़ुर्ग लोग बात-बात में गाली बोलते- अपने घर की औरतों के सामने भी. अभी आज मेरे गाँव में शब्दश: अश्लील शब्द ‘चूतिया’ सयाने पुरुष-स्त्री अपनी सामान्य बातचीत में एक दूसरे के सामने बेधडक बोलते हैं. और उन्हें अश्लीलता का भान तक नहीं होता...याने गाँवों के समाज की भाषा ही यही रही है. धूमिल-काव्य में आये ढेरों शब्द इसी आधार पर पचाये-समझे गये. बाबूजी का मामला भी यही था फिर भी आज बाबूजी होते, तो मैं चाहता कि इतनी गन्दी गालियाँ बन्द करें. इससे बचकर भी तो लोक-समाज बन सकता है- बेहतर समाज.

सो, पुजारी बाबा के नाम से ख्यात बाबूजी कभी जटा-जूट बढाये दिखे नहीं...उस पीढी में सर के बाल सबके ही छोटे-छोटे रहते. मेरे गाँव में पुरुषों के लिए कंघी का रवाज ही हमारी पीढी में आके शुरू हुआ. पीला-लाल वेश कभी धारण किया नहीं. कभी लम्बी पूजा या बडा पाठ करते दिखे नहीं. पूजा के नाम पर मैंने बस, घर के ठाकुरजी को नहलाते और दोनो समय भोग लगाते देखा है. जब घर रहते, यह काम वही करते. वरना रुटीन-सा काम था, जो भी करता, होरसे पर चन्दन (की लकडी) घिसकर ठाकुरजी की मूर्त्तियों को अनामिका उँगली से गोल टीका लगाता और उच्छिष्ट-स्वरूप ख़ुद को भी. माँ-बहनें अपने गले पर लगातीं और हम लोग माथे पर....  बडके बाबू इस मायने में अलग थे कि अपने कलेजे और पेट के सन्धि-स्थल पर ठीक बीच में भी अर्ध चन्द्राकार चन्दन लगाते, जो उन्होंने अपने अयोध्या-निवासी पारिवारिक गुरु की वसीयत स्वरूप ग्रहीत कर लिया होगा. क्योंकि गुरु बाबा भी रोज़ लगाते. हाँ, अपने माथे पर बाबूजी चंदन का त्रिपुण्ड बनाते, जो उनका अपना था और वह उनकी पहचान भी था. यूँ हम वैष्णव लोग हैं, शायद इसीलिए वे त्रिपुण्ड के नीचे रोली (लाल) की छोटी-सी बिन्दी भी बनाते. पर थे शिवभक्त. ‘नम: शिवाय’ उनके जीवन का बीजमंत्र था. आज मैं बडा प्रमाण उसे कहूँगा कि जब भाँग खाके सोते थे, तो भीने-भीने नशे में उन्हें भोले बाबा ही दिखते थे और वे उसी सुरूर में उनसे चुहल करते थे– अरे भोलेनाथ, आना है, तो साफ-साफ सामने आइये...ये क्या कि चेहरा दिखा-दिखाके छुप-छुप जा रहे हो...आदि.

मुझे याद इसलिए है कि कई बार बहुत बचपन में ही मुझे भी भाँग पिला देते और मैं नशे में सो जाता उन्हीं के पास. तो रात में उनके संवाद सुनके डरने लगता.... भाँग का नशा वर्जित नहीं है– ब्राह्मणों के लिए भी. व्यवस्था की दाद देनी पडेगी कि नशे भी धवल-काले होते हैं. बाबू राजसी नशा बताते भाँग को. एक बार शाम को पिलाके लेके चल पडे भैंसकुर– 4-5 किमी. पर ही है. कोई बडी शादी थी, जिसमें वे आमंत्रित थे. मुझे अच्छे नाच का लालच दिया. रास्ते में मैं भाँग के प्रभाव में सोने लगा. मुँह धो-ओके, पानी पिला-विला के देख लिया. कुछ देर कोराँ भी उठाके चले. अंत में हारके एक पेड के नीचे गमछा बिछाके सुला दिया. 2-3 घण्टे बाद जागा, तो लेके गये. नाच शुरू हो गया था. मज़ा खूब आया. 4-5 में पढते हुए तक तो मुझे उनके भाँग पिलाने की याद है और छह में मैं ननिहाल पढने चला गया था. फिर उसके बाद छूट गया– शायद मैं भाग खडा हुआ. वे ख़ुद तो रोज़ पीते- यायावरी वृत्ति की पूरक है. भँगेडी तो वे पूरे थे. भांग के लिए उनका अलग सिल-लोढा बाहर ही होता था. अपने लिए तो प्राय: वे एक बार ही महीने भर के लिए पीस के गोलियां बनाके, सुखाके रख लेते थे. कहीं भी रहें, गुड के साथ खाके पानी गटक लेते थे – लोटा ऊपर करके गरदन पीछे लटका के बिना मुँह लगाये पानी पीने की उनकी सधी आदत थी. लेकिन जब कोई साथी-दोस्त होते थे, तो बाबूजी ताज़ा भाँग पीसते और बादाम वगैरह के साथ विधिवत.... यह उन्हें पसन्द था. ऊपर के कपडे निकाल देते और धोती खुँटिया के तल्लीनता से पीसने पिल पडते. देर तक पीसते – बार-बार लोढे से आगे-पीछे करके फेटियाते. कहते कि नशा भाँग में नहीं, उसकी पिसाई में है. और बचपन में मुझे बडा मजा आता, जब वे सिल पर से भाँग कटोरे में ले लेने के बाद सिल धोते थे. लोढे को सिल पर खडा रखके उस पर पानी गिराते हुए मंत्र की तरह दोहा बोलते- सस्वर और बुलन्द आवाज में, जिसे सुनने के लिए मैं देर तक वहाँ इर्द-गिर्द खेलता रहता और बोलते हुए सामने खडा हो जाता – ‘गंग-भंग दो बहिन हैं, रहें सदा सिव संग. मुर्दा तारन गंग हैं कि जिन्दा तारन भंग’..

जिस शाम मुझे पिलाते, सुबह माँ से उनकी कहा-सुनी भी खूब होती. पर बडा होने पर मैं जान पाया कि यह उनका प्यार था, जो अपना सर्वोत्तम वे अपने सबसे प्रिय (मुझ) को देते थे. फिर भी माँ तो उनसे अधिक ही सही थी– एक बच्चे के जीवन का सवाल था. खुद बडके बाबू भी अपनी इस आदत के लिए हमारी दयादी के अपने हरिहर काका को जिम्मेदार ठहराते, जो अच्छे विद्वान और सच्चे भंगड थे. उन्होंने अपने घर के पीछे के अहाते (बाउण्ड्री) में भाँग का एक पौधा भी लगा रखा था, जो हमारे बचपन तक था. जब कभी एकदम भाँग न होती, बाबू हमें भेजते– ‘चुपके से कहना संतिया (शांति) से’. ये शांति उस घर की हमारी बडकी काकी थीं– उसी हरिहर बाबा की बडी बहू. हम जाते, तो वे अहाते में जाके मिट्टी की एक बडी हौदी को थोडा-सा उठातीं और अन्दर से तोड के पत्ते में पुडिया बनाके दे देतीं. इस बाबा का बहुत बडा चेलाना था, जिसमें वे पूरे साल भ्रमण करते थे. और बडके बाबू अपनी किशोरावस्था में मज़े-मज़े में उनके साथ हो लेते.... इस तरह घुमक्कडी और भाँग की आदत धराने में उनका प्रमुख योगदान रहा.... बहुत बार जब पैसों की किल्लत होती, बाबूजी कोसते भी बाबा को – ऐसी आदत धरा के अपने तो ठाट से रहा और चला गया, मुझे मरने-तडपने के लिए छोड गया.... और ऐसे में अपशब्दों का प्रयोग तो उनकी आदत ही थी. लेकिन जब स्वस्थ मन से बात की रौ मे होते, तो मानते- ‘उन्होंने मेरे मुँह में ढरका (बैलो को पिलाने का साधन) तो दिया नहीं था – मेरी ही मति मारी गयी थी. अरे, बचवा ई भांग-सुर्ती न पीता-खाता, और इतने सब पैसे रखता, तो अठन्नी-चवन्नियों (जिसके जुगाड में वे हमेशा लगे रहते...) से अब तक पूरा घर भर गया होता’....

भाँग के साथ सुर्ती (सूखा) की भी बडी तगडी आदत थी उनकी. तब तो हमारी तरफ ‘पत्तहिया सुर्ती’ ही चलती - एक-डेढ फिट की डण्ठल में लगे मटमैले रंग के सूखे पत्ते वाली. उसका मिलना धीरे-धीरे बन्द हुआ और तब कच्ची के रूप में कटुइया सुर्ती का चलन चला.... महाराष्ट्र में शायद पहले से कटुइया ही चलती थी. अस्तु, अपने मुम्बई रहते हुए एक-दो किलो मैं हर दूसरे-तीसरे महीने भेज देता. इस तरह अठन्नी-चवन्नियों के जुगाड से बाबूजी मुक्त हो सके... और तब तक तो अठन्नी-चवन्नियां भी जाती रही थीं.... अपने सुर्ती खाने पर भी बाबूजी कभी कोफ्त करते – ‘बडी बुरी चीज़ है ससुरी... कितना भी बडा रईस हो, हाथ फैलाने से बच नहीं सकता...’. रवाज है कि सुर्ती बनाने वाला आसपास बैठे हर आदमी को पूछता है और खाने वाला लेने के लिए हाथ फैलाता ही है. बस, हमारे पडोसी बिसराम दादा अपवाद थे. उनसे पूछो, तो कहते अभी खाया है और माँगो, तो कहते– है ही नहीं. अपनी इस ‘ऊधौ का लेना, न माधव को देना’ की वृत्ति के लिए वे काफी कुख्यात भी थे. लेकिन सुर्ती के रसिया पूरे गाँव में तब बहुतेरे होते थे, जिनमें बाबू के ख़ास सुर्तिहा यार दो थे– अपने घर से पूर्वोत्तर दो-तीन घर दूर बासू दादा (मौर्य) और घर से सटे पश्चिम में बेचन बरई.

बासुदा सुर्ती खाने आते भी थे बाबू के पास और बाबू के पास न हो, तो ये उनके पास से मँगाते भी थे. दोनो हमउम्र थे, तो दोनो में खूब छनती.... खुर्पा-खाँची लेके घास के लिए निकलते बासू दादा, तो मेरे दरवाजे पर रुक जाते - जिन दिनों बाबू घर रहते. दिखाने के लिए तो मटर-अरहर दलने की मेरी टूट गयी चक्की के उपल्ले वाले पत्थर पर रगडकर अपना खुर्पा चोखारते (धार तेज करते), जिस पर ऐसा करने पूरा गाँव आता और झट से करके चला जाता, लेकिन बासू दादा आधे घण्टे तो रोज़ ही रुकते और इस दौरान दोनो में एक ही चुहल होती.... बतौर उदाहरण, देखते ही एक कहता– अरे खिलाओ सुर्ती, क्या लेके जाओगे अपने कफन के साथ...? तो दूसरा कहता – इस फेरे न रहना, तुम्हारी तेरहवीं की पूडी खाके ही जाऊँगा...और यही ‘सुर्ती से तेरहवीं की पूडी खाने-खिलाने की’ दिल्लगी तथा हाहा-हाहा रोज़ होती, जिससे वे दोनो तो नहीं ही ऊबते, हम सुनने वाले भी रोज़-रोज़ समान भाव से मज़े लेते– बल्कि जोहते कि कब यह चुहलबाजी शुरू हो...क्योंकि उनके तेवर, भाषा और लहज़े रोज़ बदलते रहते– इसे सबसे अधिक पुनर्पुर्नवा कर देती – उनकी दोस्ती की लताफत से लबरेज़ कहने-सुनाने के दोनो के उत्साह और उमंग.... लेकिन जब बासूदादा मरे और ख़बर पाकर बाबू कहीं से तेरहवीं में आ ही गये. तब तक मैं गाँव के आयोजनों में खाना बनवाने-खिलाने जितना बडा हो गया था. देखा था कि खाते हुए बाबू खाने से ज्यादा रोये जा रहे थे...और उनके भाव के अभाव को गिनाते हुए बिलख रहे थे. ऐसे निश्छल अपनापे और निस्वार्थ सम्बन्धों से अब रिक्त हो गये हैं गाँव....

भाँग तो बाबूजी मुझे स्वयं पिलाते, लेकिन धुर बचपन में सुर्ती के लिए एक बार मैंने ज़िद की थी. वे मुझे कोंरा में लिये नहाने-नहलाने पोखरे की तरफ जाते हुए सुर्ती मलते जा रहे थे. मैं छरिया गया- ‘तू खाल्या, त हमके काहें ना खिअवत्या? हमहूँ खाब’ (आप खाते हैं, तो मुझे क्यों नहीं खिलाते? मैं भी खाऊँगा). और उन्होंने ना-ना करते हुए भी मस्ती में हँसते हुए सरसो भर मुँह में डाल दिया...और मैं बेहोश..., क्योंकि कूचके घोंट गया. नहा रहे सारे लोग घिर आये. कोई मेरा सर-मुँह धोने लगा, कोई हाथ-पाँव.... बाद में सुन पडा कि बाबूजी पहले हिलाते-जगाते रहे, फिर दो-चार ही मिनटों बाद रोने लगे थे- ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर-करके.... यह रोना  पश्चात्त्ताप वश उनके अंतस् से था, पर वैसे उनकी आदत भी थी – बात-बात में रो देते थे....  

और उनकी एक बडी ख़ासियत थी कि रोना उन्हें नकली भी आता था. इसका वे बहुधा उपयोग लडकियों की शादियां ठीक कराने में करते थे, जो उनकी घुमक्कडी के गौण उत्पादन के रूप में सिद्ध होने वाला एक बडा प्रयोजन था.... कितनी शादियां करायी होंगी उन्होंने यूँ ही बात-बात में, जिसकी कोई गिनती नहीं.... मेरे ननिहाल के पडोसी डिप्टी नाना (हरबंस सिंह) की अत्यंत दुलारी पोती चम्पा का व्याह अपने गाँव के लडके राणाप्रताप से करा दिया. डिप्टी नाना पुराने रईस थे. कुछ दिया नहीं, जिसे लेकर देबिया बहिनी (प्रताप भइया की बडी बहन राजदेवी सिंह) ने दाना भुँजाते हुए भडभूजे की भरसाँय में मेरी माँ से खूब कहा-सुनी की थी. एक वाक्य मुझे अब भी याद है – ‘कंगन झुलावत चलि आयल हमार सोना एस भाई, उन्हन के ए ठे घडियो मवस्सर ना भइल...!! (मेरा सोने जैसा भाई हाथ में कंगन झुलाते चला आया, उन सबों को एक घडी देना भी मयस्सर नहीं हुआ...!!) वह ननिहाल की मेरी ‘बहन चम्पा’ यहाँ आकर ‘चम्पा भाभी’ हो गयीं. बहुत दिनों तक तो बडा घपला रहा, पर धीरे-धीरे अनकहे रूप से यहाँ भाभी वहाँ बहन पर समझौता हो गया. दोनो रूपों में हमारी बहुत अच्छी छनी और निभी. संयोग से चम्पा भाभी-बहिनी ने जब अंतिम साँस ली, सिर्फ़ मैं ही मौजूद था. तब मैं काशी विद्यापीठ में आ गया था और उनके बेटे सुनील ने अपनी मरणासन्न माँ को इलाज के लिए मेरे सुपुर्द कर दिया था.

शादी कराने में बाबूजी के लिए जाति-पाँति, छोटे-बडे का कोई भेद नहीं होता. किसी ठाकुर-ब्राह्मण के घर काम करने वाले मज़दूरों के लडके दिख जाते, और उस उम्र की किसी अन्य मज़दूर जाति की लडकी उनके ख्याल में रहती, तो झट बात चला देते और मिल-मिला के डॉट-डपट के करा देते. यही काम बडों में रोके कराते...गरीब सवर्ण की लडकी की शादी के लिए कोई अमीर बाप हीला-हवाली करता, अनुनय-विनय से न मानता, तो उसके दरवाज़े भूख-हडताल की धमकी दे डालते.... धर्म-भीरु हुआ, तो स्वर्ग-नरक का भय दिखाते और जहाँ देखते कि ऐसे किसी हथकण्डे से काम बनने वाला नहीं, तो आंख में आँसू भरकर अपनी मज़बूरी, लडकी के अभागी और लडकी के बाप के पूर्वजन्म के दुष्कर्म...आदि को लपेटकर रोने का ऐसा छछन्न (पाखण्ड) रचते कि विवश दयार्द्र होकर सामने वाला ‘हाँ’ कर ही देता.... और वे तुरत आँसू पोंछके हँसने-असीसने भी लगते. देखी-सुनी कुछ कुरूप या अनदेखी-अजानी लडकी के भी रूप-गुण की ऐसी अकुण्ठ तारीफ करते कि वह अनिन्द्य रूपसी व सर्वगुण सम्पन्न कन्या हो जाती. बाद में चाहे जितने झोंकारे सुनें.... बडे होने पर मैंने बार-बार इस काम के लिए टोका– क्या मिलता है झूठ बोलके...? उनका एक ही जवाब होता – ‘लडकी बेचारी सुठहरे पहुँच गयी न...और क्या चाहिए? पुण्य का काम है. इसमें झूठ-साँच कुछ नहीं होता.... अरे, कुछ दिन ‘नराज’ रहेंगे, फिर ठीक हो जायेंगे.... फिर जायेंगे कहाँ...उनकी भी तो बेटी है, झख मारके आयेंगे’...आदि-आदि. कई जगहों से जिन्दगी भर उलाहना सुनते रहे, पर उन पर असर नहीं.

वह जमाना ‘डोली आती है, अर्थी जाती है’ का था. मुहावरा आज भी है – ‘भयल बिआह मोर करबे का’, पर मर रहा है. लेकिन बाबूजी की उसी युग में निकल गयी. कुल मिलाकर सचमुच नाम-पुण्य ही मिला. इस पुण्य और अपने प्रिय ‘नम: शिवाय’ के प्रताप का वे एक परथोक (सप्रमाण उदाहरण) भी देते – किसी लडकी की शादी देखने जाते हुए नौका से नदी पार कर रहे थे...और तूफान आ गया. नौका भँवर की ओर बढने लगी. मृत्यु निश्चित मानकर भी ‘नम: शिवाय’ जपने लगे और भँवर के पास पहुँचने के ठीक पहले तूफान ने अपनी दिशा बदल दी... नौका किनारे की ओर लग गयी. ये उस जमाने के विश्वास थे– मूल्य भी कह लें. सूर-तुलसी...आदि भक्त कवियों में ऐसे अनेक प्रसंग सुलभ हैं.... शादी कराने वाले ऐसे लोग आज भी हैं. डिग्री कॉलेज की अध्यापकी छोडकर इसी समाज-कार्य में लग गये एक ठाकुर साहेब से मैं अभी दो महीने पहले ही मिला वाराणसी जिले में नियार के पास. इसमें कुछ लोग आज पेशेवर जैसे भी हो गये हैं, जिन्हें कुछ मामूली खर्च भी दे दिया जाये, तो ले लेते हैं...पर बाबू के उस युग में ऐसे कुछ का नाम तक न था, बल्कि यह सब हराम था....

ऐसे घुमंतू बाबूजी का घरेलू जीवन भी कम स्पृहणीय नहीं. यायावरी के लिए गृहस्थी न बसायी, पर घरेलू बने रहे.... मुझे सबसे अधिक याद आती हैं बडके बाबू की विदीर्ण कराहें और धारासार आँसू, जो उन दिनों हम सबके दिल दहला देते.... करुण क्रन्दन की सुमिरनी बना उनका विलाप आज भी यूँ आँखों के सामने है, गोया कल की ही बात हो - ‘मेरे जैसा अभागा कौन होगा कि इन हाथों से चार भाइयों की अर्थी उठायी और पिता-माता तथा तीन-तीन भाइयों को मुखाग्नि दी...लेकिन मुझे मौत नहीं आयी...’. जी हाँ, मेरे पिता आठ भाई थे, जिनमें सबसे बडे थे सुमेर, दूसरे नम्बर पर थे कुबेर – यही बडके बाबू, इस लेख के नायक. फिर यह तुक बदला, तो नाथ आया – तीसरे दूधनाथ, फिर विश्वनाथ-राजनाथ व पहले वाले सुमेर ...बचपन में ही काल-कवलित हुए, जिनकी अर्थी को कन्धा दिया बडके बाबू ने. बाद में अपने पिता (पण्डित रामदीन) व बडे पिता (पण्डित नारायण) एवं अपनी मां (कुलवंता देवी) के दाह-संस्कार किये. शेष बचे तीनो भाइयों में भरी जवानी में मरे मेरे पिता रामनाथ व उसके दस साल बाद सबसे छोटे शालिग्राम और उक्त क्रन्दन बडके काका जयनाथ को मुखाग्नि देने - दाह करने के बाद क्रिया-कर्म के दौरान के हैं. तब मैं दसवीं में था. इस आख़िरी भाई की मौत से बडके बाबू सचमुच बहुत टूट गये थे, बहुत अकेले हो गये थे...फिर भी उनके कलेजे की बलिहारी...!! 17 साल जीवित रहे.... मेरे नौकर होने का यत्किंचित् सुख उन्होंने ही देखा...

घर के पीछे का हिस्सा वैसा ही पक्का हो गया देखा, जैसा उन चारो भाइयों ने कच्चा बनवाते हुए कल्पित किया था. सिलाप (स्लैब) लगते हुए उन्हें ऊपर ले गया, तो जितनी हसरत से कहा था... ‘बचवा, ई त पूरा गँउयें लौकत हौ...!!’ उतना जुडा गया था हमारा भी जी....

चकबन्दी हुई. सारे खेत के बदले दो जगह नये खेत मिले.... अच्छा चक पाने के लिए खूब घूस चली - बडे जुगाड लगे...और हर तरह से हीन 11वीं में पढता मैं कुढ-कुढ कर रह गया..., पर कुछ संयोग ऐसा बना कि खेत अच्छे मिल गये.... चकबन्दी के बाद पहली ही फसल की सिंचाई हो रही थी कि बडके बाबू कहीं से घर आये और खेत में पहुँच गये.... चारो तरफ नज़रें घुमाके ध्यान से निहारने के बाद एक बरहे (सिचाई के लिए खेत के बीच-बीच में बनी नाली) में मुरकुइंया (घुटने मोडके पंजे-तलवों के बल) बैठ के अघाते स्वर में बोले थे – ‘एइसन खेत मिलल हौ बचवा कि घर भरि जाई मारे अनाज के’!! छोटी छोटी बातों पर किसान की ऐसी बडी-बडी खुशियां...आज इतना कुछ होने पर भी जाने कहाँ खो गयी हैं ...!!

दो-दो कुर्त्ते-धोती –अक्सर यजमानी से मिले हुए - से ज्यादा कभी देखा न था बाबू-काका के पास और न कभी महसूस होते दिखी उन्हें अधिक की ज़रूरत...किंतु चेतना कॉलेज, मुम्बई में पढाते हुए ‘फिनले’ मिल की बनी तरह-तरह की धोतियां और अद्धी, मलमल, सिल्क व ऊनी... आदि कुर्त्ते एक-एक करके लाता, तो बडे चाव से चौपत के अपने झोले में रख लेते -कभी ना नहीं कहा. क्या ‘जानत हौं चार फल चार ही चनक के’ वाले बाबा तुलसी के मौका मिलते ही विपुल किस्म के व्यंजनों के वर्णनों जैसा कुछ दबा-तुपा था उनके भी मन में...या मेरा मन रखने के लिए ना नहीं कहते...मैं कभी समझ न सका...पर मौके-मौके से पहन के चलने में कुछ अलग-अलग से लगते थे बडके बाबू.... ख़ैर, आयें अपनी बात पर...

इतनी विपत्ति झेलने वाले बडके बाबू को अपने जीतेजी बडके काका व मेरे पिता (सबसे छोटके काका भी तो पहलवानी व आवारगी में घर से दूर ही रहे) ने अपने इस बडे भाई याने मेरे बडके बाबू को कभी ‘तिरुन उसकाने’ (तृण तक छूने) नहीं दिया – बाबा तुलसी की कौशल्या की भाषा में – ‘दीप-बाति नहिं टारन कहेऊँ’.... इसका पता हमारी पूरी दुनिया को था और बडके बाबू को सबने इसी रूप में मान भी लिया था. और इसी से माँ को लगा होगा कि अब आख़िरी वक़्त में इनके कन्धे पर जूआ क्या रखा जाये...!! लिहाजा तभी से खेती व घर के सारे काम में मुझे लगाने लगी.... शव-दाह से लेकर सारे क्रिया-कर्म तो बडके बाबू के हाथों ही सम्पन्न होने थे, पर आयोजन-प्रबन्धन का काम माँ की देखरेख में मुझसे होता रहा.... फिर भी काम-क्रिया खत्म होते ही बुवाई के लिए पहली बार खेत में पानी चलाना हुआ और मज़दूर के आने में देरी होते देख बडके बाबू ने नाली सुधारने के लिए फावडा उठाना चाहा...जिसे उनके हाथ से छीन कर जब मैं मिट्टी हटाने लगा, तो ‘यह दिन भी देखना बदा था मुझे’... कहते हुए वे पछाड खाकर नाली में गिर पडे थे.... कारण यह कि मैं तो घर का एकमात्र बच्चा (बेटा) बडके काका के राज व माँ तथा दो बडी बहनों की छत्रछाया में इतना दुलरुवा कि फिर बाबा के शब्दों में कहूँ, तो ‘जिअनमूरि जिमि जोगवति’ का परमान था.... इसमें इन बडके बाबू की शह भी होती, जब वे घर रहते.... और ऐसा मैं...फावडा लेकर खेत में काम करूं...!! उनसे देखा न गया....

ग़रज़ ये कि हमारे बडके बाबू निजांगर या अकर्मण्य न थे, बल्कि सम्मानित दुलरुवे थे, जिसका उदात्तीकरण उनकी सधुक्कडी व पुजारीपने में हो गया था, जिसके बिस्मिल्ला का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं.... असल में चार बेटों के मरने से त्रस्त बडके बाबू के पिता अपने बचे हुए एक बच्चे (बडके बाबू) को कितनी छूटें व लाड देते होंगे, क्या बताने की चीज़ है!! फिर दादाजी अपनी गृहस्थी व यजमानी (जो तब बहुत बडी थी) में इतने व्यस्त भी रहते... उनके बडे भाई थे दोनो आँखों के ‘सूर’.... सो, इस सूरतेहाल में उन्मुक्त बडके बाबू का बचपना आवारग़ी में बीता – शब्दश: निरक्षर रह गये वे. मौके-मौके से ख़ुद पर ही कुढते– ‘पढने की बेला थी, तो स्कूल से भागके अठरहवा (अठारह छोटे बगीचों को मिलाकर एक बडा बागीचा) में साहु लोगों की गाडी पर भेली लादता था, आज भोग रहा हूँ...’. 

इसके बाद किशोरावस्था में अपने उक्त हरिहर काका एवं कुछ अन्य साधु-सवाधुओं का साथ...इधर घर के काम-काज का जिम्मा सँभाल लिया था मेरे पिता ने.... फलत: बडके बाबू को न खेती का काम आया, न यजमानी का. लेकिन अपने मन-माफिक करते वे दोनो.... यजमानी के लिए तो उनका वही ननिहाल काम आया, जहाँ वे बहुत जाते व रहते.... उनके बडे भाई (मामा के लडके) पण्डित राम बिलास तिवारी व्याकरण के ठीक-ठाक विद्वान भी थे और प्राइमरी विद्यालय के दबंग अध्यापक. उन्होंने इन दोनो गुणों के सहारे बाबू को सिखाया. उनकी बडी यजमानी थी, जिसमें मदद लेने का सदुद्देश्य भी था. लिहाज़ा डाँट-डाँट के और बोल-बोल के संकल्प, होम के मंत्र, सत्यनाराण व्रत-कथा की पूरी पोथी, अभिषेक एवं कुछ मशहूर मंगल श्लोक...आदि रटा दिये थे. और फिर तो अपने अति विश्वास के साथ बाबूजी अनपढ इलाकों (जो तब अधिकांश थे) में कोई भी किताब लिये धडल्ले से कथा बाँच आते थे. छोटे-मोटे होम-पाठ...आदि करा लेते थे. 

पैसे भी घर लाके काका को देते थे. एक बार जहाँ कथा बाँच रहे थे, वहाँ कोई पढा-लिखा लडका रिश्तेदारी में आया था, जिसने उस दिन इनके हाथ में पडी किताब पढ ली थी- गानों की थी. पूछ भी बैठा, लेकिन बाबू ने वो डाँट पिलायी कि सारे यजमान उसी को गलत मानकर वहाँ से हटा ले गये.... यह सारा वाक़या करुण व हास्य का ऐसा सम्मिलन है कि तब सहते बनता नहीं था, पर आज कहते जरूर बन गया.....

इसी तरह खेती के काम में अनाडी होने के बावजूद वे खडी फसल काटने के बेहद शौकीन थे.... जब घर होते, हँसिया लेकर पूरा सिवान घूम आते और जो खेत काटने लायक हो गया होता, उसे काट के गिरा देते. फिर घर आके कहते – ‘जैनाथ (बडे काका), चेता पर उत्तर वाले खेत का धान हो गया था. काट दिया है. जाके उठा लाना’. लेकिन काटने के जज़्बे में कभी कुछ कचखर फसल भी काट देते, जिसे लेकर जैनाथ काका को आड में भुसुराते व शिकायत करते हुए मैंने सुना था. इसलिए अपने समय में उनके आते ही मैं आगाह कर देता– ‘बाबू, अगर काटियेगा, तो लम्बी वाली चक के दक्खिनी तरफ वाला. बाकी सब अभी कच्चा है. या काटना हो, तो पन्द्रह दिनों बाद आइयेगा, अभी कुछ हुआ नहीं है’. वे मन में मसोसते, पर मान भी जाते.... खेती का एक और उपयोग भी वे करते, जो शायद न तब कोई पुरुष करता था, न आज करने की स्थिति रही. रबी (जौ-गेहूँ-मटर-चना) की फसल में खेतों से जाके बथुआ खोंट लाते, चने के पौधे से कोमल पत्तियां कुपुट लाते और घर के अन्दर जाके धोती के फाँड से किसी डलरी में गिराते हुए माँ से कहते – सरोसती के माई, इहे काटि के बनावा त आजु.... फिर जोडते – मक्के का आटा हो, तो लिट्टी (तवे के बाद सीधे आग पे सिंकी हुई मोटी रोटी) बना लो – मज़ा आ जाये जौन बा तौन से. यह ‘जौन बा तौन से’ उनका तक़िया कलाम था, जिसे ‘जो है, सो’ कह सकते हैं. खेतों से शाक लाने का यह काम वे रिश्तेदारियों–बहन की ससुराल जैसी नयी नताई- में भी करते और बाहर से चिल्लाके कहते – सरोसती (सरस्वती) बेटा, खेत से यही चना-बथुआ लाया हूँ, बनाओ तो आज झन्नाटेदार शाक.... मतलब यह कि वे व्यवहार में ढीठ (बोल्ड) और खाने के शौकीन थे – ‘ये बेबाक़ी नज़र की, ये मुहब्बत की ढिठाई है’.

लेकिन खाना बनाने के भी उस्ताद थे. हमारे यहाँ ब्राह्मणों को खाना बनाने अक्सर आता है. कहावत है कि अकबर के ‘पीर-बवर्ची-भिश्ती-खर’ माँगने पर वीरबल ने ब्राह्मण पेश कर दिया था. ये लोग अपनी रिश्तेदारियों के अलावा किसी अन्य (जाति) के घर खाते नहीं थे. इसलिए जहाँ भी जाते, अहरा फूंक दिया जाता– गोहरी (उपले) को गोल आकार में जोरिया (जोड) के बीच में आग रख दी जाती और उसी पे मिट्टी की हण्डियों (यही ‘हण्डी दाल’ वाली) में दाल-भात बनता. याने किसी के बर्तन में भी न खाते. भाजी की जगह आलू-बैगन आदि उसी आग में भूनकर चोखा (भुरता) बना लिया जाता और रोटी की स्थानापन्न होतीं भौरियां, जो बाटी के नाम से आज प्रचलन (फैशन) में हैं – ‘बाटी-चोखा’, ‘दाल-बाटी’ नाम से होटेल खुले हैं और बाटी-चोखा के भोज (पार्टियां) दिये जा रहे हैं. यह भी आज एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा है, लेकिन तब तो ‘अहरा लगाने’ या ‘अहरा दगाने’ की पूरी संस्कृति थी. बारातों में ‘कितने लोगों का सिद्धा (राशन) चाहिए’ या ‘कितने नौंहडिया (नव हण्डिया – नयी हण्डी वाले) हैं’, पूछने-देने का अनिवार्य चलन था. बारात में गये गाँव-देहात के ब्राह्मण तो सब नौहंण्डिया होते ही, कुछ और लोग भी व्रती-नेमी (व्रत-नियम वाले) होते.... कुछ शौकिया भी इस खाने में अपना नाम जुडवा लेते, क्योंकि अहरे का भोजन होता है बडा मीठा – मीठा याने स्वादिष्ट.

और बडके बाबू इसमे थे एकदम कुशल. पचासों का खाना झट-पट बना-बनवा लेते. सारे काम में मदद करने वाले नाई-कहाँर...आदि होते. ऐसे जिस आयोजन में बाबू होते, यह काम वही करे-करायेंगे, अलिखित रूप से तय होता और वे करते भी सहर्ष. ऐसे ही एक बार कहीं खीर बना रहे थे. मात्रा ज्यादा व बटुला बडा था. तब औज़ार ज्यादा होते न थे. हस्तचालित (मैनुअल) ही होते काम. सो, सिर्फ़ हाथ में कपडा लेकर गरदन से पकड-उठा के उतारते हुए बटुला हाथ से छूट गया और सारी खीर घुटने से गरदन तक उछलकर चिपक गयी. मुँह बच गया संयोग से और कमर-जाँघे खुँटियाई हुई धोती के कारण. लाल-लाल झलके ऐसे पडे कि देखे न जाते थे. बडी पीडा हुई, बहुत दुख सहे बाबूजी ने. तीन महीने इलाज हुआ. सबकी बीमारी में बाबूजी ने जान-परान दिये थे. अब तो हम खूब संज्ञान थे. मैंने और बहनों ने खूब सेवा की – बडे मन से. माँ छू नहीं सकती थी, पर हमें निर्देश देने के लिए सदा मौजूद रहती और जरा भी चूक होते देखकर जोर से डाँटती....  बहरहाल, बाबूजी की पाक-कला की बडी ख्याति थी. उक्त उल्लिखित जमींदार किसुनसेवक सिंह यदि बाबूजी को अपने यहाँ स्थायी रूप से रखना चाहते थे, तो उसके पीछे वक्त-बेवत इच्छा मुताबिक स्वादिष्ट भोजन का भी एक बडा उद्देश्य निहित था. लेकिन बाबूजी ऐसे मोह में फँसते नहीं थे कभी – साफ निकल जाते थे – घर से भी.... इसी क्रम में जिन दिनों माँ घर न होती और वे होते, तो खाना बनाने का जिम्मा अपने सर खुद ले लेते और रोज़ कुछ नया-नया, नये तरह का बनाते. और माँ कई-कई बार लम्बे समय के लिए नहीं होती थी, क्योंकि नानी ने अपनी सारी सम्पत्ति माँ के नाम कर दी थी, तो उसे नानी को सँभालने के लिए वहाँ रहना पडता था. उन दिनों बाबूजी प्राय: घर रहते और रात का खाना सूरज डूबते-डूबते बना लेते. फिर गरम-गरम खाने-खिलाने के चक्कर में शाम को ही खिला देते.... खाते हुए हम यही सोचते कि काश, बाबू ही रोज़ खाना बनाते..., पर माँ भी यहीं रहती...की कामना भी करने लगते, जो होना न था – ‘दोउ कि होंहिं इक संग भुवालू’ – माँ के रहते खाना बाबू बनायें!!

जिस बात से मैं अब तक बच रहा था, उससे अब और त्राण नहीं – बाबूजी के गुस्से और झगडे से.... संसारेतर (भगवान) से उनके गुस्से व झगडे की बानग़ी तो शुरुआत में ही आ गयी, फिर उसका संसारी रूप कैसा होगा...!! उसी दौर की घटना है. तब जनसंघ और कांग्रेस का मुक़ाबला रहता था. हमारी पट्टीदारी के एक भाई थे - रामाश्रय. थोडे नेता, थोडे चिल्बिल्ले.... उन्हीं के चलते हमारा खानदान कंग्रेसी था और ठकुरान जनसंघी. एक दिन जमुना काका (ठाकुर) सायकल लिये आ रहे थे और रामाश्रय भाई ने छेड दिया– कांग्रेस जीत रही है. छेड का जवाब जमुना काका ने भी दिया– जनसंघ जीत रही है. लेकिन उनकी आवाज बहुत-बहुत तेज थी. जब वे भर हाँक गोहरा कर याने पूरे गले से चिल्लाकर अपने मज़दूर को बुलाते - परदेसी होओओओओ ...., तो स्कूल जाते हुए हमें ढाई किलोमीटर दूर केदलीपुर तक सुनायी देता. उनकी इस प्रकृति पर ध्यान न देकर बाबू को लगा कि उनके पोते (रामाश्रय) को दबा रहे हैं जमुना काका. और वे यहाँ अपनी ओसारी से चिल्ला पडे– ‘अरे देख लूंगा तुम्हारी जनसंघ को...कैसे जीतेगी? मुझसे बात करो’. कम तो जमुना काका भी न थे- ठाकुर ही ठहरे. बात-बात की बतबढ होती रही और वे अपने घर पहुँचकर सबको बोले – ‘उठाओ सब जन लाठी, चलो- कुबेर पण्डित अपने खानदान को लेकर लाठी के बल कांग्रेस को जिताने आ रहे हैं’....

इधर रामाश्रय भाई तो दरवाज़ा बन्द करके घर में छिप गये. लेकिन पगडी बाँध के लाठी लेकर बाबू अकेले फरी मारने लगे – ‘देख लूंगा आज – हो जाये वारा-न्यारा...’. बता दूँ कि मेरे दोनो काका पहलवान थे – छोटे काका तो नामी पहलवान थे, जो मुम्बई तक जाते थे दंगल मारने. दोनो अच्छी लाठी भी चलाते थे, लेकिन संग-साथ के चलते किशोरावस्था में बाबू भी हल्के-फुल्के लठैत रहे थे. उन दिनों कुछ मामले आ जाते थे, तो दिन-समय तय करके दो समूहों में लाठी-युद्ध होता था. रुद्रजी की ‘बहती गंगा’ में इसके साक्ष्य मौजूद हैं. तो बाबू की वो वृत्ति ताव आने पर उछाल मारती थी. और डर नाम की चीज़ तो उनके अन्दर थी नहीं. बात-बात पे कहा करते - ‘कालहु डरहिं न रन रघुबंसी’. वो तो ठाकुरों के मुहल्ले के पल्टू भैया (तेली) और हरकेस काका...आदि ने उधर समझाया और इधर हमार टोले के रामजन भैया, नेउरा दाई...आदि ने बाबू को. दोनो तरफ यही कहा गया कि सामने वालों को आने तो दो– उनके दरवज्जे चढ के क्यों जाते हो...? और इस तरह ‘दो बाँके’ अपने-अपने मुहल्ले में गरज के रह गये, वरना ऐसा लगा था कि आज लाशें बिछ जायेंगी. ऐसा तो था बाबूजी का सुभाव और ऐसे थे तब के लोग, जिन जैसों के लिए राजपूतों के मिस श्यामनारायण पाण्डेय ने कहा है - ‘असि धार देखने को उँगली कट जाती थी तलवारों से’...!! लेकिन उस वक्त तो मेरी दोनो बहनें रोने लगी थीं - मैं डर के मारे काँपने लगा था.... सब शांत होने के बाद रामाश्रय भाई आये और  ‘बिला वजह....’ भर बोले कि तब तक इस घटना से ऊबी-झल्लाई मेरी बडी बहन ने उन्हें कस के डाँट पिला दी – ‘हे रामासरे भइया, तू त कुछ बोला जिन...झगडा लगाय के केवाडी में बन्द हो गइला है आ अब आके ‘बिला वजह..’ करत हउआ...आज अब्बै कतल हो जात, तब...??

ग़रज़ ये कि बाबूजी के रिश्ते ऐसे तो सभी से मुहब्बत और लडाई के दरमियां ही चलते थे, लेकिन माँ के साथ तो उनका अजीब ही मामला था, जिसकी तुलना मैं थियेटर में मंच-परे हँस-हँस कर गलबहियां करते और मंच-पर आते ही तलवार-कटार लेकर एक दूसरे की जान के प्यासे हो जाते नायक-खलनायक से करना चाहूँगा. आड में गाँव-गिराँव से लेकर नताई-हिताई तक माँ का ढेरों बखान करते बाबूजी – सरोसती के माई बडी गिहथिन (गृहस्थन), बडी लायक, बडी करतबी, बडी इंतजामी, सबका ख्याल रखने वाली, बडी गवैया...आदि-आदि. लेकिन सामने तो कोई हफ्ता न जाता, जब जमके झगडा न हो जाता हो. लोगों ने बताया था कि शुरू में तो बहुत दिनों माँ चुप सहती रही थी– नारी सुलभ लज्जा व अनुजवधू होने के सांस्कृतिक अनुशासन.... लेकिन बाबूजी की अति ने धीरे-धीरे मुँह खुलवा दिया और जो खुला तो फिर बेटी तो थी उसी नानी की, जिससे पाधुर होकर पनाह माँग गये थे उसके तीन-तीन पट्टीदार.... तो माँ में से निकली वो नानी धीरे-धीरे...फिर तो हमारे होश में दोनो के झगडे बराबरी पर ही छूटते – या तो माँ मारे गुस्से में किसी काम के लिए चली जाती या कोई स्त्री हटा ले जाती...या बाबूजी झोला उठाके कहीं चल देते.... और जब ऐसा न होता, तो बाबूजी अलग होने पर उतारू हो जाते.... अलग होने की बोलबाज़ी तो बहुत बार हुई, पर ऐसे तीन वाक़ये हुए (या मुझे तीन ही याद आ रहे हैं), जब सचमुच अलगौझे की रस्म भी पूरी हुई.

पहली बार तो तब हुआ, जब बडके काका जीवित थे. ऐसा तूफान बरपा किया था बडके बाबू ने कि काका ने मज़बूर होके सारा अनाज निकाला और तौल के तीन हिस्सा लगा दिया अलग-अलग. बडके बाबू बडे संतुष्ट दिख रहे थे तीन हिस्सा देखकर कि काका भी अलग हो रहे हैं. लेकिन जब सारा अनाज बँट गया, तो काका ने अपना वाला कूरा माँ वाले में मिला दिया. देखते ही बडके बाबू एकदम पस्त होके आग्नेय नेत्रों से काका की ओर देखते रहे और दो मिनट के बाद खडे हुए, अपना हिस्सा भी पैरों से उसी में थोडा-सा मिलाया और झोला-सोंटा उठाके कहीं चल दिये.... फिर कब आये, किसी को याद नहीं. कैसे पहले की ही तरह रहने लगे, उन्हें भी पता नहीं. यहाँ तो बमुश्क़िल एक घण्टे में इतना ही हुआ, पर बात कैसे बडी बहन की ससुराल पहुँच गयी – भगवान ही जाने.... उन दिनों अच्छे घरों में अलगा वग़ैरह होना बेइज्जती की बात थी और फोन..आदि तो थे नहीं. सो, दूसरे दिन बहन के छोटे ससुर बटुकनाथ शास्त्री पता करने आ गये पैदल ही– सायकल वे चलाते न थे और ऐसे में किसी को लाना मुनासिब न था. गाँव के बाहर ही किसी से पूछा– भइया, सा-साफ बता दो, यदि कुबेर पण्डित के घरे अलगा हो गया हो, तो मैं यहीं से लौट जाऊँ.... सामने वाला ठठा के हँसा और उन्हें लिये-दिये घर आया. इस प्रकार बाबूजीजी की गुस्सैल वृत्ति नताइयों तक पहुँची.....

बाकी दो बार के अलगाने में अलग दरवाज़ा खोलने की पहलें हुईं.... मेरे घर का मुख्य द्वार उत्तर है और तब पश्चिम तरफ ओसारा था, जिसके सामने काफी जगह खाली थी. तो ओसारे में वे अलग दुआरि फोडने चले. एक बार आधी दीवाल कुदाल से काट चुके थे और एक बार तो आर-पार भी हो गयी थी. फिर अचानक ही रुक जाते. चुपचाप हाथ-पैर धोके सो जाते. कितने भी गुस्से में रहें, बडी बहन के मनाने से मान ही जाते और वो सभी को मनाके खिला देने में उस्ताद थी. बाबूजी दोनो ही बार दूसरे दिन उठके काटी गयी मिट्टी को अपने हाथों ही भिंगाते-सानते और कटी दीवार पर छोपते, दुआरि मूँदते.... वैसे बचपन में मुझे मालूम पडा था कि जब घर बन रहा था, पोखरे से मिट्टी बनाके ढोके लाते तो सब लोग थे, पर पलरे की मिट्टी सबके सर से थाम-थाम के सारी दीवालों पर रद्दे रखे थे बाबूजी के हाथों ने ही. बहरहाल, दुआरें मूँदते वक्त पूरे गाँव के लोग आते-जाते रुकते, उन्हें चिढाते और इसमें वे भी समान भाव से लुत्फ़ उठाते.... लिखते हुए अब मज़े-मज़े में शाब्दिक साम्य भर के लिए दुष्यंत याद आते हैं – ‘वो तो दीवार गिराने के लिए आये थे, वो दीवार उठाने लगे, ये तो हद है’ - बाबूजी की कोई हद न थी. 

इस उठाने-गिराने के बीच ही साबुत रहा मेरे बडके बाबू का गुस्सैल व्यक्तित्त्व.... वे ‘क्षणे रुष्टा’ तो थे, पर ‘क्षणे तुष्टा’ नहीं. तुष्ट होने में 4-6 घण्टे या एकाध रात लग जाते थे. पर वे ‘अव्यवस्थित चित्त’ नहीं थे, इसीलिए ‘प्रसादोपि भयंकर:’ कभी न हुए. कंभी किसी सम्बन्ध का मूल नहीं बिगडा, कोई अनिष्ट नहीं हुआ. मर्यादाओं में क्षणिक स्खलन हुए, पर सीमायें नहीं टूटीं. इन सबको साकार करता हुआ एक ही वाक़या सुनाना चाहूँगा – हैं तो ढेरों.... माँ के साथ झगडों के बीच उनके जिस ब्रह्मास्त्र से माँ पराजित तो नहीं, पर निरस्त्र हो जाती थी, वह था  - ‘आधी जैजात (जायदाद) मेरी है, मैं किसी को लिख दूंगा – हाथ मलके रह जाओगी’. इसे बार-बार सुनकर उनके उसी गुस्से के जलजले में एकांत पाकर जिसने मनचाही कीमत पर खेत लिखाने की बात एक बार बाबू से कही और हामी भरवा ली – शायद दिन भी तय कर लिया, वे थे मेरी बगल वाले मेरे अधियरा के पट्टीदार जगदीश त्रिपाठी, जो पद में मेरे भइया व वय में मेरे पिता के हम उम्र-सहपाठी हुआ करते थे. बाबू का स्वभाव जानते तो थे, पर शायद लोभवश उस एक दिन भूल गये थे. इधर वही हुआ - रात भर में बाबूजी की क्रोधाग्नि शांत हो गयी और सुबह होते ही वे पूरे गाँव को सुनाते हुए लगे बम देने... “अरे ई देखो, जगदिसवा बेइमान का, चला है मेरी जैजात लिखाने, मेरे बेटे के साथ घात करने...अरे हरामी, गडही में मुँह धोके आओ, तो भी तुम्हारी गदोरी पर पेशाब तक न करूँ...ससुर के नाती चले हैं खेत लिखाने...”. और इसके साथ जो उनके (अप)शब्द-भाण्डार से विषबुझे तीर चले कि कई दिनों तक जगदीश भइया सचमुच किसी को मुँह दिखाने से बचते रहे.... तब मौका पाकर मैंने उनसे कहा था – ‘भइया, पहले से कागद-पत्तर तैयार रखिये. उस ज़ोर वाले गुस्से में जब बाबू आयें, तो गुस्सा उतरने के पहले ही अंगूठा लगवा लीजिए, तब तो आपकी मंशा पूरी हो जायेगी...लेकिन यदि तहसील पहुँचने के पहले ही गुस्सा उतर गया, तो गरदन मरोडवाने के लिए भी तैयार रहियेगा...’.

लेकिन जिस बाबूजी को मैने कभी कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ देखता-सुनता और यथासम्भव उनकी बात मानता रहा, एक बार अचानक ही उनके ब्रह्मास्त्र का तोड बन बैठा. तब तक चेतना कॉलेज में पढाने लगा था. छुट्टियों में घर आया था. झगडे में कुपित होकर ब्रह्मास्त्र छोड रहे थे बाबूजी...उसके सामने तो भीम को भी सर नवाना पडा था – माँ भी हमेशा की तरह वही कर रही थी...और मैं बीच में बोल पडा – “बाबूजी, आप अपना हिस्सा बेच दीजिए...चलिए, मैं गवाही करूँगा बैनामा पर, ताकि कभी दावा भी न कर सकूँ.... और तब भी हम यहीं साथ रहेंगे. क्योंकि हम साथ इसलिए नहीं हैं कि आपका आधा हिस्सा है, इसलिए हैं कि आप मेरे बाबूजी हैं, मैं भले बेटा आपके भाई का हूं, पर आप मुझे अपना बेटा कहते हैं, मानते हैं. खेत किसी और को लिख देंगे, तो क्या यह रिश्ता टूट जायेगा? नहीं न...? तो चलिये लिख दीजिए. यह झगडा तो खत्म हो...”. और भयहु-भसुर के सनातन झगडे में अपनी पहली दख़लन्दाज़ी के लिए मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि विफल ब्रह्मास्त्र होकर मणिविहीन अश्वत्थामा की तरह बाबूजी भी श्रीहीन हो गये...जैसे उनका सब कुछ लुट गया हो.... इसके बाद भी गुस्सा तो कभी करते, झगडे भी कुछ होते, पर तब से कभी अपनी जैजात का नाम नहीं लिया....

लेकिन तब से उनका बीमार होना कुछ बढ गया.... बार-बार खाट पकड लेते, पर कोई मर्ज़ न था. नीचे के सामने वाले सिर्फ़ दो दाँत गये थे. आँखों में चश्मा बहुत दिनों से आ गया था.  सफेद डाँडी वाला पसन्द किया था. पहनते कभी-कभी ही थे. बाद में मोतिया के ऑपरेशन हुए – दोनो बार मैं मौजूद था. तब फ्रेम बदामी हो गया. बाकी तो सर्वांग दुरुस्त थे. मुझे बार-बार लगता, जो शायद मेरा अपराध-बोध भी रहा हो कि झगडे की ख़ुराक़ कम हो जाने और ब्रह्मास्त्र के कुण्ठित होने की क्षतिपूर्त्ति नहीं हो पा रही है... मैं ग्लानि से भर-भर जाता.... पछताता कि वैसा क्यों कह दिया.... दोनो काका के प्राण छूटते हुए मैं उनकी पाटी पर मौजूद था. बडी इच्छा थी कि बडे बाबू का प्रयाण भी अपनी आँख के सामने हो. इसलिए कह रखा था कि लटपटायें तो तुरत ख़बर की जाये. दीवाली-गर्मी की छुट्टियों के अलावा भी एक साल में तीन बार तो तार (टेलीग्राम) गये. तुरत गाडी पकड लेता. लेकिन मेरे आते ही दो दिन में ठीक हो जाते. पंतजी की काव्य-पंक्ति सार्थक तो थी ही, उसके साकार होने का साक्षात अनुभव भी मिला – ‘रोग का है उपचार – प्यार’ (उच्छ्वास). क्योंकि दवा तो वही होती...मैं सिर्फ़ शामों को उनके पैर दबाता, जो उन्हें बहुत प्रिय था. यह मैं मुम्बई जाने के पहले भी अक्सर करता. दबाते हुए वे खूब बतियाते – ढेरों पुरानी घटनायें बताते..., जिसे सुनने-जानने का प्रलोभन भी कम न होता....      

इस तरह उनके अंतिम दिन उतने अच्छे न रहे, तो बहुत खराब भी न रहे.... निरोग शरीर में उनके मन ने एक ही किस्म के दो रोग पैदा कर लिये थे. एक यह कि उन्हें अपने चारो तरफ ढेर सारे कीटाणु उडते दिखते..., जिन्हें वे अँगोछे से हरदम उडाते रहते.... और अपने सर में उन्हें  ढेर सारी रूसी (डैंड्रफ) भरी दिखती, जिसे वे उँगलियां फिरा-फिरा के नाखूनों से खुजा-खुजा के निकालते रहते.... सर में पैठी और बाहर गिरी उन्हें ढेरों रूसी दिखती, पर किसी और को न एक कीटाणु दिखते, न कोई रूसी.... सबसे बडा बदलाव मैंने यह लक्ष्य किया कि झगडे के साथ उनकी दिल्लगियां और बच्चों के साथ चुहल बन्द हो गयी. वरना बच्चे किसी के भी हों – राह चलते से भी, वे बोलौनी कर-करके मज़े लेते.... क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बडी बहन अपने घर से नाराज़ होके बिना किसी सूचना के अचानक आ गयी थी. पूरा मुहल्ला सकते में आ गया – हाल जानने को बेताब हो गया और बाबूजी ने एक्का (ताँगा) रुकते ही आह्लाद से भरके ‘आजा आजा मेरी सुगनियां’ कहते हुए छोटी कुमुद को गोंद में लोका तथा बडे मुन्ना का हाथ पकड के ‘कूद जा बेटा’ कहके उतारा और एक तरफ ले जाके खेलने-खेलाने लगे....                

इन सारे लक्षणों से अन्दाज़ा तो लगता कि विदा-बेला आ रही है, लेकिन मेरे मन में एक अनुक्रम बन गया था कि पिता मरे थे सावन में, छोटे काका भादों में और बडे काका कुआर में तो अब बडके बाबू तो अवश्य कार्त्तिक में ही जायेंगे. इसलिए कार्त्तिक में सजग रहने के बाद निश्चिंत-सा हो जाता... लेकिन बडके बाबू ने क्रम तोडकर अंत में धोखा दे दिया – वह भी बिना चेतावनी के चटपट में.... गर्मी की छुट्टियों के बाद गया ही गया था कि ऐन आषाढ में तार आया – ‘बाबूजी एक्सपायर्ड, कम सून’. ‘धन देखै जात, त आधा लेय बाँटि’ के मुताबिक अंतिम साँस लेते न देख सका, पर मुखाग्नि तो दे सकूँ अपने हाथों, के निश्चय से जीवन में पहली बार हवाई-यात्रा की ठानी और प्रति तार भेज दिया – कमिंग इमीडिएटली. वेट, टिल आइ रीच. लेकिन मैंने हवाई यात्रा का उल्लेख नहीं किया और गाँव में किसी ने न इसकी कल्पना की, न रेल-गणना के अनुसार तीन दिनों का इंतजार किया. सीधी उडान तो अभी कुछ ही वर्ष पहले हुई है, तब तो बनारस के बदले दूनी दूरी पर स्थित गोरखपुर की जहाज मिली थी - वह भी दो-दो ठिकाने (इन्दौर-आगरा) से होकर. वहाँ से आरक्षित टैक्सी लेकर जब मैं दूसरे दिन 8 बजे रात को ठेकमा उतरा, तो बाज़ार से जाने वाले आख़िरी आदमी के रूप में राजमणि मिस्त्री सायकल पर सवार हो रहे थे. देखते ही रुआँसे होकर बताया कि शाम को ही दाह करके लोग घर पहुँचे हैं. क्या संयोग बना कि उसी भइया जगदीश ने मुखाग्नि दी, जो खेत लिखाने वाले थे.

नियमानुसार दाह के वक्त पहनी गयी कोरी धोती ओरी पर लटकायी गयी थी. उसे धोके पहनना था सारे विधान के दौरान. किसी ब्राह्मण-क्षत्रिय के मरने पर हम दोनो जातियों के छहो घरों के पुरुष-स्त्री रोज़ घाट नहाते हैं – पहले स्त्रियां नहाके आ जाती हैं, तब पुरुष जाते हैं. घर की औरत आगे-आगे जाती-आती है. माँ के बयान कढाके (गा-गाके) रोने में बाबूजी के गुस्से-झगडे तक के उल्लेख स्पृहणीय बनके आते..... इन विधानों और इनसे बने लोगों के मनों ने कैसे-कैसे संस्कार पनपाये थे, कैसी समरस संस्कृति बनायी थी कि हर रूप में स्वीकार्य हो गया था मनुष्य...!! नौ रोज़ घाट नहाने के बाद दसवें-ग्यारहवें-बारहवें की तो कोई चिंता न थी, लेकिन तेरहवीं पर चार-पाँच सौ लोगों का भोज होना था और गाढी बारिश का मौसम था. वही हुआ – खाना तो सब बन गया, पर थोडे लोग ही खा सके कि बारिश होने लगी. तब तो घर के सामने खुले में टाट बिछाके पंगत में खिलाने का चलन ही एकमात्र विकल्प था. खाने के लिए बचे हुए लोग पहुँच गये थे और बारिश से बचते हुए अगल-बगल के घरों में बैठे थे – सर्वाधिक लोग थे उसी जगदीश भैया की ओसारी में. 

अपने गाँव के तो अपने थे ही, बगल के गाँव मैनपुर के लोग अपने यजमान ही थे. तब आपसी अखलाख (अच्छे आचरण) बडे पक्के और गँवईं रिश्ते बडे गहरे हुआ करते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि भींगते हुए बाहर निकलकर मैंने गुहार लगायी थी - भाइयो, कोई बिना खाये जायेगा नहीं...मैं ओसारी में बिछाकर पचास-पचास लोगों को बारी-बारी खिलाऊंगा.... उधर से सामूहिक स्वर गूँजा – ‘आप चिंता मत कीजिए. अपने पुजारी बाबा की तेरहवीं की पंगत खाये बिना कोई जायेगा नहीं – चाहे भले भिनुसार हो जाये...’.

चालीस साल से ज्यादा हुए, पर कोई दिन शायद ही ऐसा जाता हो, जब वह यायावर किसी न किसी रूप में याद न आता हो....!!
___________________       

सम्पर्क – 
‘मातरम्’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, 
वाराणसी– 221004/ मोबा. 9422077006 

संजय कुंदन की कविताएं

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कविता कवि और उसके परिवेश के बीच आकार लेती है. समर्थ कविताएँ अपने समय से टकराती हैं, बहुस्तरीय, दृश्य-अदृश्य, और जटिल सत्ताओं को समझने का प्रयास करती हैं. सत्ता ही राजनीति है. सभी कविताएँ इस अर्थ में राजनितिक कविताएँ ही हैं. प्रेम कविताएँ भी. आज प्रेम से बड़ी राजनीति क्या है ? और मृत्यु अगर स्वाभाविक नहीं है तो वह भी किसी न किसी प्रकार की राजनीति की ही देन है.

संजय कुंदन हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविताएँ अलंकारविहीन गद्य में भाषा की सच्चाई के सहारे सर्वव्यापी सत्तामूलक समय को प्रत्यक्ष करती चलती हैं. उनकी कुछ नई कविताएँ आपके लिए.





संजय कुंदन की कविताएं               



मॉब लिंचिंग के मृतक का बयान 
(मंगलेश डबराल से क्षमायाचना सहित) 

उस दिन जिसने मेरी कुंडी खटखटाई थी
वह मेरा पड़ोसी था जो मेरे लिए
हर समय थोड़ी सुरती बचाकर रखता था
और जिसने मां की गाली देते हुए मुझे बाहर घसीटा था
वह मेरे दोस्त का भतीजा था
जिसकी बहती नाक मेरी मां कई बार पोंछा करती थी
उसके छुटपन में

मुझे लगा सब मिलकर मजाक कर रहे हैं
पर मैंने जब बाहर और लोगों को खड़े देखा
तब मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ

उस शख्स के हाथ में सरिया था
जो कभी मुझे अपना दाहिना हाथ बताता था
जिसके कंधे पर लाठी थी
वह मेरे कंधे पर कई बार सिर रखकर रोया था

जो साइकिल की चेन लिए था
वह कई बार मुझे साइकिल पर बिठा
मेला घुमाने ले गया था
जिसके हाथ में चप्पल थी
वह आए दिन मेरी चप्पल मांगकर ले जाता था

वह भी खड़ा था    
जो कबूतरों को बिला नागा दाना-पानी दिया करता था
वह भी था
जो अकसर भिखारियों के लिए भंडारा करता था

जब मेरे ऊपर पहली लाठी पड़ी
तो मेरी आंखें अपने आप बंद हो गईं
आंख मुंदने से पहले मैंने उनकी आंखों में झांका था   
उन आंखों में उस दिन जो दिखा उसे बता सकना मुश्किल है
वे किसी आदमजात की नजरें नहीं हो सकती थीं

मैं चिल्लाकर भी क्या करता
अब तक हर मुश्किल में इन्हीं को आवाज दिया करता था
अब जबकि यही लोग मेरी जान लेने पर उतारू थे
मै किसको बुलाता
सो मैं आखिरी इबादत में लग गया

मुझे सड़क पर पड़ा छोड़
वे इस तरह लौटे 
जैसे उन्होंने मुझे अपने भूगोल और इतिहास
से बाहर फेंक दिया हो
मैं उनकी संस्कृति में एक गांठ की तरह था 
जिसे काटकर निकाल दिया गया
मैं अंतरिक्ष से टपका एक
खतरनाक उल्कापिंड था
जिसे चूर-चूर कर दिया गया 

इधर वे लौट रहे थे
उधर मैं मशहूर हो रहा था
कई अजनबी जुबानों पर मेरा नाम था
लोग वाट्सऐप पर मेरी हत्या का विडियो देख रहे थे
मेरी मौत एक तमाशा बन गई थी
एक हॉरर फिल्म की तरह उसे देखा जा रहा था

कुछ लोग मुग्ध थे हत्यारों के हुनर पर
कुछ ऐसे भी थे जिनका
गला रुंध गया था मुझे तड़पता देखकर
वे बेहद डर गए थे
उन्होंने बाहर खेल रहे अपने बच्चों को अंदर बुलाया
और जल्दी से दरवाजे और खिड़कियां बंद कर लीं
 कि कहीं मेरे जैसा कोई और
भीड़ से बचकर भागता हुआ
 पहुंच न जाए उनके पास
और हाथ जोड़कर कहे
मुझे छुपा लो अपने घर में.




कवि और कारिंदा

कवि ही कविता नहीं गढ़ता
कविता भी गढ़ती है कवि को 

कवि जब शब्दों को काट-छांट रहा होता है 
शब्द भी तराश रहे होते हैं उसकी आत्मा
हर कविता के बाद 
थोड़ा बदल जाता है कवि
   
वह दुनियादारी की एक सीढ़ी और
फिसल जाता है
बाजार से गुजरता हुआ
थोड़ा और कम खरीदार नजर आता है 

इतना मीठा बोलने लगता है 
कि पक्षी उसके कंधे पर चले आते हैं

इतना तीखा बोलने लगता है  
कि व्यवस्था के कान छिल जाते हैं 

जो गढ़े जाने से इनकार करता है 
वह कवि नहीं कारिंदा होता है.



मेरा शरीर

काश! इसे पटरी पर रख निकल लेता
या किसी बस की सीट पर छोड़ आता

मेरा शरीर मुझे डराने लगा है 
जब मैं किसी स्वप्न की सीढ़ियां 
चढ़ रहा होता 
मेरे कान में फुसफुसाता
मुझे अभी इसी वक्त 
थोड़ा लोहा चाहिए और चूना भी

कभी कहता
मेरा नमक कम हो रहा है 
मैं भहराकर गिर जाऊंगा

यकीन नहीं होता यह वही है
जिसे जूते की तरह पहन 
मैं भटकता रहा हूं 
पथरीली राहों पर

जिसने मेरे साथ खाक छानी 
वही अब मेरी सारी उड़ानें 
छीन लेना चाहता है.



  

सड़क 

एक बीमार या नजरबंद आदमी ही जानता है 
सड़क पर न निकल पाने का दर्द 

सड़कों से दूर रहना हवा, पानी, धूप 
और चिड़ियों से अलग 
रहना नहीं है,
यह मनुष्यता से भी कट जाना है

सड़कें कोलतार की चादरें नहीं हैं
वे सभ्यता का बायस्कोप भी हैं 

कोई इंसान आखिर एक मशीन से 
कब तक दिल बहलाए 
कब तक तस्वीरों में खुद को फंसाए

जिंदगी की हरकतें देखे बगैर 
हमारी रगों में लहू थकने लगता है
सूखने लगता है आंखों का पानी

मनुष्य को मनुष्य की तरह जीते 
देखने के लिए 
ललकता है मन 
इसलिए हम उतरते हैं सड़क पर
सिर्फ परिचितों के लिेए नहीं 
अपरिचितों के लिए भी 

अच्छा लगता है 
सड़क पर लोगों को देखना 
किसी को कहीं से आते हुए
किसी को दूर जाते हुए
कोई थका-हारा. 
कोई हरा-हरा
कोई प्रतीक्षा की आंच में पकता 
कोई किसी से मिल चहकता
 कोई खरीदारी करते हुए
कोई बाजार को चिढ़ाते हुए  

घर से सड़क और सड़क से घर आना 
पृथ्वी के घूर्णन की तरह 
हमारी गति है   



अल्पमत 

मैं अल्पमत में उसी दिन आ गया था
जिस दिन सुलग उठा था 
प्रेम की आंच में 

बहुमत को पसंद नहीं था 
कि मेरे हाथ डैनों की तरह लहराएं 
और मेरे होंठों से शब्द 
सीटियां बजाते हुए आएं 

मैंने उनके लिए भी सपने देखे 
जिन्होंने मेरे लिए फंदे बुने

जो मेरे देश निकाले पर था अड़ा हुआ
मैं उसके भी अधिकारों के पक्ष में खड़ा हुआ

मैं थोड़ा और ज्यादा अल्पमत में आ गया
जिस दिन कविता की पहली सीढ़ी चढ़ गया

जब मैंने सच-सच लिखा
तो झूठ के नशे में डूबे बहुमत ने कहा
कवियों को कुछ नहीं पता

मुझे षडयंत्रकारी, तरक्की के रास्ते का रोड़ा 
और व्यवस्था का फोड़ा बताया गया

बहुमत ने कहा
इस देश में रहना है 
तो हमारे नायक के गुण गाओ
तुम भी हमारे साथ आ जाओ 

पर मैंने सच का साथ नहीं छोड़ा 
जिन घरों से दुत्कारा गया
वहां भी मातमपुर्सी में जरूर गया

चुनाव नतीजों के बाद
मैं भारी अल्पमत में हूं 

मैं आज भी कविताएं लिखता हूं
मैं आज भी प्रेम करता हूं. 




शरणार्थी 

ऐसा नहीं कि
मेरे इलाके की जमीन बंजर हो गई
ऐसा भी नहीं कि
नदियां बंधक बना ली गईं
फिर भी मैं हो रहा विस्थापित

विस्थापन एक जगह से उजड़ना भर नहीं है
किसी के मन से निकाल दिया जाना भी है विस्थापन

जो कभी रोये मेरे कंधे पर सिर रख
जिनके कंधे पर मैं सिर रख रोया
वही मुझे फिर से पहचानने में लगे हैं 
मुझे दोबारा-तिबारा पहचाना जा रहा है 

कितना अजीब है 
जो मेरे रोयें की गंध भी पहचानते हैं 
वे बार-बार मेरा परिचय पूछ रहे हैं 

वे हमें रोज अपने मन से 
थोड़ा-थोड़ा बाहर कर रहे

धीरे-धीरे धकियाया जाता हुआ मैं गिर जाऊंगा
संबधों के सीमान के बाहर
तब यहां मेरा कोई परिचित नहीं रह जाएगा
सिवाय कुछ आवारा कुत्तों के

मैं भी खतरनाक माना जाऊंगा
जैसे खतरनाक माने जा रहे हैं
दुनिया भर के शरणार्थी 

ऐसे समय जब शरणार्थियों के लिए 
दुनिया भर में ऊंची की जा रही दीवारें 
मैं कहां लूंगा शरण  
मुझे कौन गाड़ने देगा तंबू 
अपनी आत्मा के प्रदेश में?

________________________________________

संपर्कसी-301, जनसत्ता अपार्टमेंटसेक्टर-9, वसुंधरागाजियाबाद-201012(उप्र)
मोबाइल: 09910257915

ओल्गा टोकार्चूक (Olga Tokarczuk ) : साहित्य का नोबेल

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२०१९ के नोबेल के लिए जब ओल्गा टोकार्चूक (Olga Tokarczuk)की घोषणा हुई तो पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि अरे इन्हें तो २०१८ का बुकर पुरस्कार मिला था. जिस तरह से ‘सलमान रुश्दी’ से भारतीय परिचित हैं ओल्गा से नहीं. हिंदी में उनके अनुवाद भी न्यूनतम हुए हैं. वे पन्द्रहवीं लेखिका (स्त्री) हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है.

उनके व्यक्तित्व, कृतित्व, बुकर और नोबेल पुरस्कारों  पर  विस्तार से चर्चा कर रहीं हैं विजय शर्मा



ओल्गा टोकार्चूक (Olga Tokarczuk) : साहित्य का नोबेल      
विजय शर्मा



2018का बुकर जिसे मिला उसे इस साल (2019में) का नोबेल भी मिल गया इसे कहते हैं छप्पर फ़ाड़ कर मिलना. जी हाँ, मैं साहित्य के नोबेल पुरस्कार की 15वीं स्त्री विजेता और पोलिश की पाँचवीं नोबेल विजेता की बात कर रही हूँ. समय के साथ नोबेल समिति के दृष्टिकोण में बदलाव हुआ है अब उन्हें स्त्री रचनाकार भी नजर आने लगी हैं.

जब मैंने फ़्लाइट्सपर काम करना शुरु किया, मैं उपन्यास की एक नई शैली खोज रही थी.’’कहना है 2018की बुकर पुरस्कृत साहित्यकार का. वे अपने कार्य को खगोलीय रूपक देना पसंद करती हैं और इसकी व्याख्या करती हुई कहती हैं कि जैसे प्राचीन लोग आकाश में तारे देखते थे और उन्हें विभिन्न समूहों में बाँटते का तरीका खोजते थे, उन्हें जीवों या अंकों के आकार से संबंधित करते थे,उनका भिन्न-भिन्न अर्थ निकालते थे, उसी तरह वे अपने उपन्यासों को तारामंडल उपन्यासकहना पसंद करती हैं. इन तारामंडल उपन्यासोंमें वे कहानियों, लेखों और रेखाचित्रों को परिक्रमा कक्ष में डाल देती हैं, और पाठक को अपनी कल्पनानुसार उन्हें अर्थपूर्ण आकार में ढ़ालने के लिए छोड़ देती हैं. और इस तरह वे बहुत सारे भिन्न विचारों, कहानियों, स्वरों को परस्पर संबंध स्थापित करने के लिए पाठकों पर छोड़ देती हैं. उनके उपन्यास पढ़ने के लिए पाठक का संस्कारित होना आवश्यक है.



2018की बुकर व नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, ओल्गा टोकार्चूक और उनकी जिस किताब को बुकर पुरस्कार के लिए चुना गया, उसका नाम है, फ़्लाइट्स.मूल पोलिश भाषा में १००८ में प्रकाशित उपन्यास का नाम है, ‘बेगुनी’ (Bieguni) और जिसका अर्थ होता है, घुमक्कड़, बंजारा, यायावर, जिप्सी. मगर उसकी इंग्लिश अनुवादक ने इसे नाम दिया है, ‘फ़्लाइट्स. आइए पहले कुछ शब्द अनुवाद और बुकर पर भी हो जाएँ.

पहले बुकर पुरस्कार की शर्त थी कि यह इंग्लिश में मौलिक उपन्यास लेखन हो, साथ ही इंग्लैंड में प्रकाशित हो. जिसे यह पुरस्कार प्राप्त होता है,स्वत:उसकी प्रसिद्धि बढ़ जाती है.यहाँ तक कि जिनका नाम बुकर की लॉन्गलिस्ट-शॉर्टलिस्ट में आ जाता है, उनकी भी वाह-वाह हो जाती है. पहले बुकर समिति लॉन्गलिस्ट प्रकाशित नहीं करती थी, केवल शॉर्टलिस्ट ही प्रकाशित करती थी. समिति २००१ से अपने द्वारा चुने हुए लेखकों की लॉन्गलिस्ट भी प्रकाशित करने लगी है. स्थापना के दूसरे ही वर्ष १९७० में इसने एक स्त्री लेखक बरनाइस रुबेन्स को दि इलैक्टेड मेम्बरके लिए पुरस्कृत किया. प्रारंभ में पुरस्कार राशिमात्र २१,००० पाउंड थी जो आज बढ़ कर ५०,००० पाउंड हो गई है. राशि के हिसाब से आज यह एक काफ़ी समृद्ध पुरस्कार है.

अपनी अर्मधसदी मना रहे बुकर पुरस्कार में आज कई परिवर्तन हो चुके हैं. पहले बुकर केवल कॉमनबेल्थ के नागरिकों के लिए ही उपलब्ध था,परन्तु २०१३ में इसे सब देशों के लिए उपलब्ध करा दिया गया है. लेकिन प्रकाशन संबंधी अन्य शर्तें अभी भी लागू हैं. पुस्तक का प्रकाशन इंग्लैंड में होना आवश्यक है. २०१६ से पहले मैन बुकर प्राइज़ केवल इंग्लिश में लिखने वाले साहित्यकारों को मिला करता था. मगर इस वर्ष से इसमें एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया. अब यह किसी भी देश के, किसी भी भाषा के इंग्लिश में अनुवादित, इंग्लैंड में प्रकाशित काम पर दिया जाएगा. एक और महत्वपूर्ण बात इस नए पुरस्कार में यह जुड़ी है, पुरस्कार राशि ५०,००० पाउंड रचनाकार और अनुवादक में बराबर-बराबर बाँटी जाएगी. अनुवादकों के लिए यह एक गौरवपूर्ण बात है. साथ ही शॉर्टलिस्टेड लेखकों और उनके अनुवादकों को १००० डॉलर की राशि भी प्राप्त होगी.

आइए, थोड़ी-सी बात इस साल के पुरस्कार के अनुवाद पर कर लें. फ़िट्ज़कैराल्डो एडीशन्स द्वारा प्रकाशित ओल्गा टोकार्चूक के उपन्यास फ़्लाइट्सको जेनीफ़र क्रोफ़्ट ने इंग्लिश में अनुवाद किया है. वे पोलिश, स्पैनिश और उक्रेनियन भाषा से इंग्लिश में अनुवाद करती हैं. उनके अनुसार जब स्लाविक भाषा से इंग्लिश में अनुवाद किया जाता है तो व्याकरण की बनावट के कारण अनुवाद मूल भाषा से लंबा हो जाता है. लेकिन जब स्पैनिश भाषा से अनुवाद होता है तो यह मूल से छोटा होता है. पोलिश और अर्जेंटीना की साहित्यिक संस्कृति भी बहुत भिन्न है. अर्जेंटीना के लेखक बहुत स्वतंत्र होते हैं, जबकि पोलिश भाषा के लेखक कई सदियों की परम्परा से बँधे हुए, करीब-करीब दास जैसे हैं. ऐसा है क्योंकि उनके इतिहास भिन्न-भिन्न हैं. 


प्रथम विश्व युद्ध के बाद से पोलिश भाषा-साहित्य का मुख्य प्रोजेक्ट राष्ट्र का पुनर्निर्माण रहा है. सोवियत शासन के दौरान बहुत सारे उत्तम लेखकों ने देश बाहर रह कर लेखन किया. दोनों ही देश कैथोलिक देश हैं लेकिन दोनों की संस्कृति बहुत अलग-अलग है. लेकिन कुछ दिनों पूर्व यह विडम्बना है कि पोलैंड में पोलिश साहित्यिक लेखकों को प्रमोट करने का अनुदान का बजट काम कर दिया गया था इसीलिए ओल्गा की अनुवादक जेनीफ़र क्रोफ़्ट को अमेरिका पीईएन ने ओल्गा के द बूक्स ऑफ़ जेकबके लिए ट्रांसलेशन फ़ंड ग्रांट मुहैय्या कराया ताकि किताब इंग्लिश भाषी पाठकों के साम्क्ष आ सके. इंग्लिश पीईएन के रॉबर्ट शार्प का कहना है कि फ़्री स्पीच को बढ़ावा देना, किसी को स्वर देना दुनिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है. खासकार जब दुनिया में समझ और तदानुभूति की इतनी अधिक आवश्यकता है.

जेनीफ़र क्रोफ़्ट को ओल्गा टोकार्चूक के काम का अनुवाद करना बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि ओल्गा टोकार्चूक अपने चरित्रों से मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यवहार करती हैं, उनका काम बहुत सटीक और प्रभावकारी है. इसे अनुवादित करते हुए उन्होंने अपने कम्प्यूटर के सामने बैठ कर खूब यात्रा की तथा इससे उन्हें अपनी यात्रा के बारे में पुनर्विचार करने का अवसर भी मिला. हमारे यहाँ अनुवाद को महत्व नहीं दिया जाता है. पैसों की तो कुछ पूछिए ही मत, यहाँ तक कि बहुत सारे प्रकाशक अनुवादक का नाम भी प्रकाशित करना गँवारा नहीं करते हैं. काश हमारे यहाँ भी बुकर की भाँति अनुवाद के महत्व को समझा-स्वीकारा जाता. फ़्लाइट्सकी अनुवादक जेनीफ़र क्रोफ़्ट अमेरिका में जन्मी (१९८१), उनके अनुवाद न्यू यॉर्क टाइम्स, एलैक्ट्रिक लिटरेचर, द न्यू रिपब्लिक आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. वे द ब्यूनस एरिस रिव्यूपत्रिका की संस्थापक एडीटर हैं.

ओल्गा टोकार्चूक पोलैंड के सुलेशो नामक स्थान में २९ जनवरी, १९६२ को जन्मी. अब तक उनके दो कहानी संग्रह और आठ उपन्यास प्रकाशित हैं. उनके साहित्य का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. फ़्लाइट्सउन्होंने २००८ में लिखा था और उसके बाद उन्होंने तीन और उपन्यासों के अलावा काफ़ी और कुछ लिखा. उन्हें लगा कि इस उपन्यास का समय बीत चुका है क्योंकि आज किसी भी उपन्यास का जीवन मात्र कुछ महीने का होता है और फ़िर नई किताबें आ जाती हैं. अब तक यह उनके दिमाग से निकल चुका था मगर पुरस्कार की घोषणा से उन्हें इसकी फ़िर से याद दिला दी. उनका कहना है कि यह बहुत सटीक लिखा गया है. यदि उन्हें यह फ़िर से लिखना पड़े तो भी वे उसको तनिक भी नहीं बदलेंगी. उन्हें पोलैंड के सर्वोच्च सम्मान नाइके अवार्ड से दो बार (२००८ तथा २०१५ में) नवाजा जा चुका है. इसके साथ उन्हें बहुत सारे अन्य पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं. अब बुकर प्राप्त होने से पूरी दुनिया से उन्हें बधाइयाँ मिल रही हैं जाहिर-सी बात है, उनके पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफ़ा होगा.

पाँच निर्णायकों की समिति ने बुकर का फ़ैसला किया जिसमें हमारे एक लेखक हरि कुंज़रूभी शामिल थे. निर्णायकों के अनुसार, ‘फ़्लाइट्सलगातार चलती रहने वाली समकालीन जीवन शैली है जिसका सार है, निरंतर चलते रहना, यह कभी अपने शरीर के बाहर नहीं जाने के बारे में भी है शरीर जो स्वयं गतिशील है और अंतत: मरणशील है. यह किताब बंजारापन के बारे में है, यह पलायन के बारे में है, जगह-जगह लगातार यात्रा में होने के बारे में है और एयरपोर्ट्स पर जीने के बारे में है. इसके साथ ही हम एक शरीर में रहते हैं और शरीर का अंत मृत्यु में है, जिससे बच नहीं सकते हैं. साथ ही यह आश्चर्यजनक रूप से खिलंदड़ी है, विट तथा विडम्बना से परिपूर्ण.’ ओल्गा टोकार्चूक बुकर से नवाजी जाने वाली पहली पोलिश लेखक हैं.

टोकार्चूक विभिन्न अल्पसंख्यकों को स्वर देती हैं और खुद को सेंट्रल यूरोपियन लेखक मानती हैं जो पोलिश भाषा में लिखती है. इंग्लैंड और वेल्स में पोलिश दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है. अत: २०१७ के लंदन बुक फ़ेयर के बाजार का फ़ोकसपोलिश भाषा थी. पुस्तक मेले में पोलैंड के पाँच नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार मौजूद थे. छठवीं भी वहाँ थी हालाँकि उनका नोबेल तब गर्भ में था. उस मेले में उन्होंने जो बात कही उससे हलचल मच गई. ओल्गा टोकार्चूक ने कहा कि वे भाषा को एक उपकरण की भाँति व्यवहृत करती हैं, काँटा-छुरी की तरह जब आपको यथार्थ खाना हो. यूरोज़ीनमें उन्होंने पोलिश भाषा के इतिहास, व्याकरण और उसकी यात्रा पर विस्तार से लिखा है, जिसका इंग्लिश अनुवाद १६ जनवरी २०१४ को प्रकाशित है.

आजकल ओल्गा टोकार्चूकके उपन्यास द बुक्स ऑफ़ जैकबका अनुवाद कर रही जेनीफ़र क्रोफ़्ट १५ साल से ओल्गा के काम की अनुवादक होने के साथ-साथ उनकी मित्र भी हैं. उनके अनुसार इंग्लिश कार्य को अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्रकाशित कराना टेढ़ी खीर रहा है. प्रकाशक फ़्लाइट्सको प्रकाशित करने में हिचकिचा रहे थे. दस साल लग गए इसे इंग्लिश में आने में. अब चूँकि यह बुकर द्वारा पुरस्कृत हो चुका है इसकी पहुँच दुनिया भर के पाठकों तक आसानी से होगी. आशा है जल्द ही यह हिन्दी में भी उपलब्ध होगा. वैसे उनकी कहानियों का एक संग्रह हिन्दी में कमरे तथा अन्य कहानियाँनाम से प्रकाशित हो चुका है.

और 2019में ज्योंहि उन्हें 2018का नोबेल दिए जाने की घोषणा हुई व्रोकोला शहर के अधिकारियों ने घोषणा की, इस वीकेंड में जो भी ओल्गा की किताब ले कर चलेगा वह पब्लिक ट्रांसपोर्ट में मुफ़्त यात्रा कर सकेगा. कुछ दिन पूर्व इस शहर ने उन्हें ऑनरेरी नागरिक बनाया है. वे अपना समय इस शहर और क्रैजानाव में बिताती हैं.

नोबेल समिति ने उन्हें नोबेल दिए जाने की अनुशंसा में कहा,‘ 


ऐसी कथनात्मक कल्पनाओं के लिए जो विशाल भावातिरेक के साथ सीमाओं को लाँघते हुए जीवन की विधि को प्रस्तुत करता है.

फ़्लाइट्सइक्कीसवीं सदी में यात्रा का और मानव शरीर-रचना का उपन्यास है. शरीर के अंगों को सुरक्षित रखने के विज्ञान से संबंधित इस उपन्यास में अलग-अलग कहानियाँ हैं जो आपस में संबंधित भी हैं. ओल्गा कहती हैं कि हम अपने शरीर के विषय में कितना कम जानते हैं. एक कहानी सत्रहवीं सदी के वास्तविक डच शरीर-विच्छेदन वैज्ञानिक फ़िलिप वेर्हेयिन की है जो अपनी विच्छेदित टांग के चित्र बनाता है और इस प्रक्रिया में एचिलस टेन्डन को खोज निकालता है. अट्ठारहवीं सदी से एक कहानी है जिसमें उत्तरी अफ़्रीका में जन्में दास और ऑस्ट्रेलिया के कोर्ट में रहने वाले को मरने के बाद उसकी बेटी इस बात का जबरदस्त विरोध के बावजूद भूसा भर कर प्रदर्शन के लिए रख दिया गया है. यहाँ शॉपिन का दिल है जिसे उसकी बहन एक मर्तबान (जार) में कस कर बंद कर अपने स्कर्ट में छिपा कर पेरिस से वार्सा ले जा रही है ताकि उसे वहाँ, उसके प्रिय स्थान में दफ़नाया जा सके. 

आज के उथल-पुथल वाले समय में एक पत्नी अपने एक बहुत उम्र दराज प्रोफ़ेसर पति के साथ यात्रा कर रही है जो यूनानी टापुओं पर क्रूज शिप पर एक कोर्स पढ़ा रहा है.एक पोलिश स्त्री जो किशोरावस्था में न्यूज़ीलैंड प्रवास पर चली आई है, उसे पोलैंड लौटना है ताकि वह हाईस्कूल के अपने प्रेमी को जहर दे कर समाप्त कर सके क्योंकि वह अब लाइलाज बीमारी से ग्रसित है. एक युवा पति अपनी पत्नी और बच्चे के रहस्यमय ढ़ंग से गायब होने के कारण धीरे-धीरे पागलपन की ओर सरक रहा है और जिसकी पत्नी और बच्चा जैसे रहस्यमय तरीके से गयब हुए थे वैसे ही लौट आते हैं बिना कोई कारण बताए. उपन्यास आधुनिकता की सतह के पार जा कर मानव के स्वभाव की गहराइयों की सैर कराता है. हम धरती पर दूर-दूर तक घूम आते हैं यहाँ तक की चाँद पर भी चले जाते हैं मगर अपने ही जिगर के आकार को नहीं जानते हैं.

मोबी डिकको अपना पसंददीदा उपन्यास मानने वाली उपन्यासकार को इस बात से आश्चर्य होता है कि कैसे लोग शरीर से प्रारंभ कर शरीर विज्ञान तक पहुँचे. सत्रहवीं सदी में यह होलैंड में खूब विकसित हुआ. जब वे यह उपन्यास लिख रही थीं उन्हें कुछ समय होलैंड में गुजारने का अवसर मिला. इस समय का उपयोग उन्होंने वहाँ के अजायबघर और पुस्तकालयों में गुजार कर किया. वहाँ उन्होंने मानव टिश्यू के संरक्षण को देखा जिसे वे अमर्त्व की ललक का रूपक मानती हैं. 

फ़्लाइट्सछोटी-छोटी कहानियों का संग्रह है जो अंतर्गुंफ़ित हैं. द वर्ल्ड इन योर हैड’, ‘योर हैड इन द वर्ल्ड’, ‘कैबिनेट ऑफ़ क्यूरिओसिटीज’, ‘एवरीव्हेयर एंड नोव्हेयर’, ‘द साइकॉलॉजी ऑफ़ एन आइइलैंड’, ‘बेली डान्स’, ‘प्लेन ऑफ़ प्रोफ़्लीगेट्स’, ‘एयर सिकनेस बैग्स’, तथा एम्पीथियेटर इन स्लीपइसके विभिन्न भागों के उपशीर्षक हैं. उनकी रचनाओं में मिथकीय लहजा अनायास ही आ जाता है. ओल्गा के अनुसार हम एक ऐसी सनकी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ उपन्यास की पुनर्परिभाषा आवश्यक है, आज शुरु से आखीर तक एकरैखीय शैली में कहानी कहना असंभव है. उपन्यास ऐसा ही है जैसे हम टेलीविजन के चेनल्स बदलते रहते हैं. वे मानती हैं कि यह शैली कुछ पाठकों को चौंकाने वाली थी. 


ओल्गा के अनुसार मनुष्य यात्रा करते हैं बर्बर लोग नहीं, वे तो केवल जाते हैं और आक्रमण करते हैं.

नोवा रुडा के नजदीक एक छोटे से गाँव में रहने वाली ओल्गा टोकार्चूक के माता-पिता दोनों ही साहित्य के शिक्षक रहे हैं. उनके पिता पोलैंड के उस भाग से आए शरणार्थी थे जो आज युक्रेन का हिस्सा है. वे जिस टापू में रहते थे वहाँ वामपंथ के बौद्धिक रहते थे मगर वे लोग कम्युनिस्ट नहीं थे. ओल्गा साहित्य रचने के अलावा दूसरों के साथ मिल कर अपने घर के नजदीक साहित्यिक समारोह भी मनाती हैं, एक निजी प्रकाशन गृह रुटाचलाती हैं. वे द ग्रीनपोलिटिकल पार्टी की सदस्य हैं तथा वामपंथी विचारों का पोषण करती हैं. तारामंडल उपन्यास’ (कॉस्टेलेशन नॉवेल) का प्रारंभ उनके २००३ में लिखे उपन्यास हाउस ऑफ़ डे, हाउस ऑफ़ नाइटसे हुई जिसका इंग्लिश अनुवाद २००८ में आया. १९९६ में उनका उपन्यास प्राइमेवल एंड अदर टाइम्सप्रकाशित हुआ जिसका इंग्लिश अनुवाद २००९ में प्रकाशित हुआ. इंग्लिश में भले ही ओल्गा टोकार्चूक की ख्याति अब हो रही हो लेकिन अपने देश में एक्टिविस्ट ओल्गा बहुत पहले से सेलेब्रेटी और कॉन्ट्रोवर्सियल रही हैं. उनके मुँह से निकले शब्द अखबारों की हेडलाइन्स बनते हैं. घोषित नारीवादी एवं शाकाहारी ओल्गा स्वयं को वे देशभक्त मानती हैं, उनका कहना है कि आज समय आ गया है जब हमें यहूदियों का पोलैंड के साथ संबंध देखना है.


मनोविज्ञान को अपने लेखकीय कार्य की प्रेरणा मानने वाली ओल्गा ने लिखना प्रारंभ करने के पूर्व वार्सा यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में शिक्षा प्राप्त की. वे स्वयं को जुंग का शिष्य मानती हैं. शिक्षा के बाद उन्होंने एक संस्थान में युवाओं की व्यावहारिक समस्याओं के लिए थेरिपिस्ट का काम प्रारंभ किया लेकिन शीघ्र ही उन्होंने यह काम छोड़ दिया, उन्हें लगा कि वे खुद अपने मरीजों से अधिक न्यूरोटिक हैं. असल में वे अपने एक मरीज के साथ काम कर रही थीं और तब उन्हें लगा कि वे मरीज से ज्यादा परेशान हैं, और पाँच साल के बाद वे यह काम छोड़ कर लिखने की ओर मुड़ गई. उन्होंने अपने साथी मनोवैज्ञनिक से शादी की और उनका एक बेटा है.

इसके बाद वे पूरे समय भाषा को एक मिशन की तरह प्रयोग करने के लिए लिखने में जुट गईं. उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ और जल्द ही द जर्नी ऑफ़ द पीपुल ऑफ़ द बुकनाम से एक उपन्यास भी. यह उपन्यास १७ वीं सदी के फ़्रांस में स्थापित है और इसके लिए उन्हें डेब्यू बेस्ट लेखक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. अपनी उम्र के तीसरे दशक के मध्य में उन्हें लगा कि एक ब्रेक की जरूरत है, उन्हें घूमना चाहिए. कम्युनिस्ट शासन के दमन से छुटकारा पाने का यह एक अच्छा उपाय था. वे निकल पड़ीं. तायवान से ले कर न्यूज़ीलैंड तक की उन्होंने यात्राएँ कीं. इन्हीं यात्राओं का प्रतिफ़ल है फ़्लाइट्स. उनके लेखन पर कई अन्य लेखकों के अलावा मिलान कुंडेरा का प्रभाव माना जाता है.

बचपन में टेबल के नीचे छुप कर दूसरों की बात सुनने वाली ओल्गा टोकार्चूक को जब नोवा रुडा की सम्मानित नागरिकता प्रदान की गई तो नोवा रुडा पेट्रिओट्स एसोशिएशनने उन पर आक्रमण किया और चाहा कि उनसे यह सम्मान वापस ले लिया जाए. इन लोगों का मानना है कि ओल्गा ने पोलिश राष्ट्र का नाम कालंकित किया है. उन्हें देशद्रोही माना. ९०० पन्नों के उपन्यास द बुक्स ऑफ़ जेकबके बाद उन्हें मारने की धमकियाँ मिलने लगीं. स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उनके प्रकाशक को उनकी सुरक्षा के लिए बॉडीगार्ड रखने पड़े. इस काल के लिए उनका कहना है कि वे बहुत अनुभवहीन थीं और सोचती थीं कि अपने इतिहास के अंधकाल पर विचार-विमर्श कर सकती हैं. इस उपन्यास के बारे में उनका कहना है, उन्होंने इतिहास के उस अध्याय को खोला जो कई दृष्टियों से निषिद्ध था. जिसे कैथोलिक, यहूदियों तथा कम्युनिस्टों ने छिपा रखा था. इस उपन्यास को लिखने के लिए उन्होंने आठ लंबे साल शोध किया, विषय ही इतना नाजुक और विवादास्पद था. क्योंकि आज पोलिश अस्मिता, पोलिश पहचान मुख्य रूप से रोमन कैथोलिक है.

कुछ दिनों के बाद वे एक अन्य विवाद में फ़ँस गई. उनके २००९ के उपन्यास ड्राइव योर प्लॉ ओवर द बोन्स ऑफ़ द डेडपर पोकोट (इंग्लिश में स्पूर) नाम से एक फ़िल्म बनी. इसे बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखाया गया और इसे 'सिल्वर बेयर'सम्मान मिला. इसकी पटकथा स्वयं उन्होंने फ़िल्म निर्देशक एज्निस्ज़्का हॉलैंड के साथ मिल कर लिखी है. इस फ़िल्म को पोलिश न्यूज एजेंसी ने ईसाइयत के खिलाफ़ और पर्यावरण आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली कहा. ड्राइव योर प्लॉ ओवर द बोन्स ऑफ़ द डेडथ्रिलर इंग्लिश में शीघ्र पाठकों के हाथ में आने वाली है. इसमें सुदूर गाँव में रहने वाली एक सनकी वृद्धा की जिंदगी को उथल-पुथल होते दिखाया गया है. असल में जब यह स्त्री पहले एक पड़ौसी, फ़िर पुलिस चीफ़ और इसके बाद एक बड़े स्थानीय व्यक्ति को वह बुरी तरह चीथ कर मरा हुआ पाती है तो उसकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है.


लेखन को हथियार मानने वाली ओल्गा का पुरस्कृत उपन्यास फ़्लाइट्सबताता है, कैसे यायावरी और उसके विपरीत स्थिरता से संबंध बनाया जाता है. इसी को ले कर कहानियाँ रची गई हैं. रूसी अनुष्का समर्पित गृहिणी है, अपने बीमार बेटे की सेवा में लगी हुई, प्रेम विहीन दाम्पत्य में फ़ँसी हुई. वह एक अंधेरे-हताशा भरे सोवियत अपार्टमेंट में रहती है. सप्ताह में एक दिन उसकी सास बच्चे की देखभाल के लिए आती है तो वह घर के कई काम निपटाने शहर जाती है. एक बार वह अपनी अपंग जिंदगी से भाग निकलती है लेकिन उड़ान भरने के बाद उसे मालूम नहीं है कहाँ जाए. गृहविहीन वह कई दिन मेट्रो में चक्कर लगाती रहती है. उपन्यास ऐसी ही अलग-अलग तरह की यात्राओं से परिपूर्ण है. ऐसी ही एक पर्दानशीन स्त्री एकालाप करती रहती है. उसका स्वर बहुत शक्तिशाली है. शायद इसीलिए इस लेखिका को थिंकिंगउपन्यासकार की श्रेणी में रखा जाता है. 

उपन्यास में मेन्गेले जैसा डॉक्टर ब्लाऊ है जिसे शरीर के अंगों को काटना भाता है. अगर उसका बस चलता तो वह भिन्न दुनिया बनाता जहाँ आत्मा मर्त्य होती, क्या काम है आत्मा का? क्यों चाहिए होती है यह हमें? और शरीर अमर्त्य होता. लिखने के बिना मैं जिंदा नहीं रह सकती हूँ, क्योंकि और कुछ  नहीं कर सकती हूँ’, ‘लिखने के साथ जिम्मेदारी आती है. कभी-कभी जिसे वे अपनी पीठ पर अनुभव करती हैं.

कहना है ओल्गा का. जानकारों के अनुसार फ़्लाइट्सगहन है, और धीमी गति से पढ़ा जाने वाला उपन्यास है. ओल्गा टोकार्चूक हमारे संशयग्रस्त भविष्य में नजरे गड़ाए हुए हैं जहाँ हम तेजी से भाग रहे हैं. उनके अनुसार पोलिश सभ्यता में सदा से यहूदी विरोधी प्रच्छन्न स्वर रहा है. भयंकर दमन होता रहा है. इसीलिए वे यहूदियों के साथ पोलैंड के रिश्ते को नई रोशनी में देखना चाहती हैं. वे चाहती हैं, लोग स्वीकारें कि उनके भीतर यहूदी रक्त है, पोलिश संस्कृति मिश्रण है. इसी कारण से कुछ लोग उनसे बहुत ज्यादा क्रोधित हैं. उन्हें लगता है कि समाज दो भाग में विभक्त है, लोग जो पढ़ सकते हैं, लोग जो नहीं पढ़ सकते हैं. ये विचार हमारे अपने देश, हमारे समाज पर भी सटीक बैठते हैं. 


उनके अनुसार राष्ट्रवाद कहीं नहीं बढ़ रहा है, आज लोग यात्राएँ कर रहे हैं, विदेशों में बस रहे हैं. आर्थिक कारणों तथा इंटरनेट देश की सीमाओं को नहीं स्वीकारता है. हम घर बैठे ही विभिन्न नेटवर्क प्रोवाइडरों के बीच घूमते रहते हैं. 


उनके अनुसार आप फ़्लाइट्सको पुराने यूरोप के एक गीत की भाँति भी पढ़ सकते हैं. एक अनाम स्त्री के साथ बेचैनी के साथ दुनिया की यात्रा कर सकते हैं. स्त्री जिसकी निजी जिंदगी के बारे में वह खुद कुछ खास नहीं पाती है. उसका स्व तेज रफ़्तार में घुल गया है. यहाँ तक कि उसकी यात्रा का उद्देश्य भी पाठक को ज्ञात नहीं होता है. जिसे अपना भावनात्मक तथ्य बसों के हिलने-डुलने, हवाई जहाज की गड़गड़ाहट, ट्रेन और नाव के डोलने में मिलता है. उपन्यास में कुछ और अनसुलझी कहानियाँ हैं, कुछ काल्पनिक, कुछ ऐतिहासिक जिनका इस अनाम यात्री से कुछ लेना-देना नहीं है. उपन्यासकार ने मानव शरीर संरक्षण के बारे खूब ज्ञान इकट्ठा किया है. उनकी यह यात्री जिस स्थान पर जाती है वहाँ के म्युजियम में संरक्षित मानव शरीर, भ्रूण को देखना नहीं भूलती है. वे शरीर संरक्षण के बारे में भी काफ़ी कुछ बताती हैं. ओल्गा की किताबें मिश्रित संस्कृति, पोलैंड का सर्वोत्तम इश्तेहारहैं.

अब नोबेल की ख्याति विवादास्पद रचनाकारों को पुरस्कृत करने के लिए भी होने लगी है. 2019के लिए पीटर हैंडके को साहित्य का पुरस्कार दिया है, वे भी बहुत विवादित रहे हैं. उन्होंने पहले खुद भी नोबेल पुरस्कार की आलोचना करते हुए 2014में कहा था कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार बंद हो जाना चाहिए क्योंकि जिसको भी ये मिलता हैलगता है मानो, उसको संत की झूठी उपाधि मिल जाती है. और अब यह संत की झूठी उपाधि पा कर वे कैसा अनुभव कर रहे हैं जानना रोचक होगा. खैर, समालोचन के माध्यम से दोनों विजेताओं- ओल्गा टोकार्चूक तथा पीटर हैंडके को बधाई!
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डॉ. विजय शर्मा
326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको
जमशेदपुर–831009
Mo. 8789001919, 9430381718
Email :vijshain@gmail.com

एक दिन का समंदर : हरजीत : प्रेम साहिल

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‘जिस से होकर ज़माने गुज़रे हों
बंद ऐसी गली नहीं करते.’

शायर हरजीत सिंह की यादें अधूरे प्रेम की तरह टीसती रहती है. उनके असमय निधन ने हिंदी ग़ज़ल की दुनिया को वीरान कर दिया. तेजी ग्रोवर हरजीत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पुस्तक के प्रकाशन की योजना पर कार्य कर रहीं हैं. यह आलेख उन्हीं के सौजन्य से मिला है जिसे लिखा है प्रेम साहिल ने. 
आप समालोचन पर ही हरजीत की ग़ज़लें और ख़त भी पढ़ सकते हैं.


  
एक दिन का समंदर : हरजीत                             
प्रेम साहिल




रजीत ने ख़ुद को इतना फैला लिया था कि आज उसे लफ़्ज़ों में पकड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. ग़ज़ल कहने, रेखांकन, पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी करने, कोलाज बनाने, दोस्ती निभाने, घर चलाने, आंगनवाड़ियों के लिए खिलौने तैयार कराने, हैंडमेड काग़ज़ के प्रयोग से ग्रीटिंग कार्ड तथा फ़ैंसी डिबियां बनाने, उन पर फूल-पत्ती चिपकाने, फूल-पत्तियां जुटाने, तैयार वस्तुयों को खपाने, साहित्यिक व सांस्कृतिक समारोह कराने, बच्चों को चित्रांकन सिखाने के अतिरिक्त अभी और भी न जाने वो क्या-क्या करता. उसने तो अपनी सीमाएँ ही पोंछ डालनी थीं अगर मुशाइरों में जाना उसने लगभग बंद ना कर दिया होता. फिर भी साल में एकाध बार अंजनीसैंण या कोटद्वार के मुशाइरों में चला ही जाता था.

कारोबार के सिलसिले में चण्डीगढ़, दिल्ली, जयपुर तो क्या मुम्बई तक हो आता था. इतनी मशक्कत, भागदौड़ और वो भी दमे के मर्ज़ में मुब्तिला रहते हुए हरजीत के ही बूते की बात थी. कोई और होता तो कभी का बिस्तर पकड़ चुका होता. लेकिन हरजीत न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था कि दमे की खांसी को भी जब तक चाहता दबा लेता था. जबकि छाती उसकी बलगम से लबालब रहती थी. इसके बावजूद जो समेटने की बजाए वो ख़ुद को फैलाता ही चला गया उसकी भी ख़ास वजह थी :

ये सब कुछ यूं नहीं बेवजह फैलाया हुआ हमने
ये सब कुछ क्यूं भला करते अगर राहत नहीं मिलती

सर खुजाने की फ़ुर्सत भी न पा सकने वाला हरजीत दोस्तों के बुलाने पर उनके कार्यों को अंजाम देने की गरज़ से तो ऐसे चल देता था जैसे कि उसके पास करने के लिए अपना कोई काम नहीं था.

बढ़ रही ज़रूरतों की पूर्ति  के लिए नये-नये साधनों की तलाश में कभी सप्ताह तो कभी माह भर के लिए भी घर से बाहर रहने लगा था. कहां जाता था, क्या लाता था इसकी चर्चा किसी से कभी अंतरंगता की रौ में ही करता था. उसमें ना प्रतिभा की कमी थी न परिश्रम का अभाव था. लेकिन अर्थ की विषमता उसे लील रही थी. इस में दोष इतना उसका नहीं था जितना कि उस व्यवस्था का जिस में गधा-घोड़ा एक समान आंका जा रहा है.

आमदनी के साधनों की तलाश ने कभी उसे चैन से बैठने ही नहीं दिया. बैठा वो नज़र तो आता था मगर बैठ कहां पाता था. व्याकुल आदमी चैन से बैठ ही नहीं सकता. ऐसा जो संभव होता तो वो ये क्यों कहता :

मुझको इतना काम नहीं है
हां फिर भी आराम नहीं है

न वो ख़ुद आराम करता था न उसके जो कुछ लगते थे उसे कभी चैन से रहने देते थे. आराम न करने की हद तक काम करने वाले हरजीत का उक्त शे'र पढ़ने-सुनने वालों को हैरत में डाल देता है. लेकिन उसके ऐसा कहने का तात्पर्य ये भी हो सकता है कि उसके पास कोई नियमित या स्थाई रोज़गार नहीं था. बावजूद इसके वो जितना व जो भी करता था उसे गर्व एवं स्वाभिमान की निगाह से देखता था :

अपना ही कारोबार करते हैं
हम कोई नौकरी नहीं करते

हरजीत निठल्ला नहीं था. फिर भी तंगदस्त रहा. जबकि एकआध को छोड़ कर उसके दायरे के अधिकांश लोगों की आर्थिक दशा अच्छी-ख़ासी थी. क्या वे लोग हरजीत से ज़ियादा प्रतिभा सम्पन्न थे ? क्या वे उस से अधिक परिश्रमी थे ? दरअसल तर्ज़े-बयान की तरह हरजीत का तर्ज़े-हयात भी दूसरों से भिन्न था:

वो अपनी तर्ज़ का मैक़श,हम अपनी तर्ज़ के मैक़श
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती......

कारीगरी उसे विरासत में मिली थी. जहां उसे कारीगर के महत्व का ज्ञान था वहां उसकी विषमताओं से भी अनभिज्ञ नहीं था :

फ़नकारों का नाम है लेकिन
कारीगर का नाम नहीं है.....

उसने कारीगरी की बजाय फ़नकारी को अपनाया. उस में उस ने नाम भी कमाया लेकिन दाम के लिए उसे और भी पापड़ बेलने पड़े. पापड़ तो उसने नाम कमाने के लिए भी ज़रूर बेले होंगे मगर इस प्रयास का आभास कभी सरेआम नहीं होने दिया. पर कौन नहीं जानता कि इस अंधे युग में फ़न का लोहा मनवाने के लिए भी लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. दाम कमाने के लिए उसे कारीगरों की ख़ुशामद भी करनी पड़ती थी. स्वयं कारीगरों की पृष्ठभूमि से आए हरजीत के लिए कारीगरों के नखरे उठाना कोई हैरत की बात नहीं थी :

नक्शे नहीं बताते कैसे बने इमारत
होते हैं और ही कुछ कारीगरों के नक्शे

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है : "जो अभावों और संघर्षों में पले-बढ़े हैं उनका सब से बड़ा दुश्मन उनका सर होता है जो झुकना नहीं जानता और जो झुकता है वो सर भी तो उनका दुश्मन ही होता है."
उक्त कथन हरजीत और उसके जीवन पर भी कम सही नहीं बैठता.

एक शाइर के रूप में तो मैं हरजीत को उसकी ग़ज़लों के माध्यम से जानता था. कभी आमना-सामना नहीं हुआ था. इतना सुना था कि शाम के समय वो 'टिप-टॉप'में जाता है. मेरा चमोली (गढ़वाल) से देहरादून जाना साल में एक-दो बार ही हो पाता था. लेकिन जब से उसके अड्डे की भनक लगी थी मेरी इच्छा हो रही थी कि वो मुझे टिप-टॉप में मिल जाए तो सुबहानअल्लाह. ना भी मिले तो वहां से उसका सुराग तो मिल ही जाएगा. इस गरज़ से एक बार मैं चकरॉता रोड़ चला भी गया. लेकिन वहां टिपटॉप नाम का होटल मुझे नहीं मिला.. शाम का समय था. चालीस किलो मीटर दूर अपने ससुराल जाने की जल्दी में किसी से पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई. दूसरी बार गया तो ढूंढने के बावजूद वह होटल फिर कहीं नज़र नहीं आया. उस बार भी जल्दी में था. तीसरी बार एक दुकानदार से मैंने पूछ ही लिया. देखने के बाद मालूम हुआ कि उस होटल का साइन बोर्ड ही नदारद है. ख़ैर जब होटल मालिक से मैंने हरजीत के विषय में पूछा तो पता चला कि आजकल वो वहां दस बारह दिन में एक बार जा पाता है.

संयोग से जब मेरी पत्नी स्थानांत्रित होकर देहरादून में रहने लगी तब एक रोज़ किसी का स्कूटर मांग कर मैं हरजीत के घर चला गया. घर का पता उसकी पहली पुस्तक "ये हरे पेड़ हैं"जो कि बी मोहन नेगी की मार्फ़त मुझे बहुत पहले मिल चुकी थी में दर्ज था.

हरजीत के घर तशरीफ़ ले जाने का समय तो अब मुझे याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि बताने पर जब मैंने उसके कमरे में प्रवेश किया था, वो रज़ाई ओढ़ कर बिस्तर पर लेटा हुआ था, कुछ देर पहले ही गैरसैण से लौटा था. थकान मिटाने या सुस्ताने की गरज़ से ही वो बिस्तर अपनाता था ऐसी बात नहीं थी. उसका तो कार्यस्थल ही बिस्तर था. अपना नाम बता कर मैं उसके पास ही कुर्सी पर बैठ गया, थकान के बावजूद वो भी उठ कर बैठ गया. लेकिन आलस्य का कोई शेड न उसके चेहरे पर था न उसकी आवाज़ से महसूस हुआ. हम दोनो की बात होने लगी. जब मैंने उस से उसकी नयी पुस्तक 'एक पुल'मांगी तो उसने कहा कि बाइण्डर के यहां से लानी पड़ेगी, इस समय मेरे पास एक भी प्रति नहीं है. उस ने मुझ से दूसरे दिन आने का आग्रह किया और मुझ से मेरा फ़ोन नंबर भी ले लिया.

उसे पीने का शौक था ना कि लत. एक बार अपनी तो अनेक बार दोस्तों की जेब से मंगाने, कभी उनके तो कभी अपने घर में बैठ कर पीने-पिलाने और उठने से पहले "वन फ़ॉर द रोड़ "वाला जुमला दोहराने का भी शौक ही था, ना कि लत. लत से तो दासता की बू आती है जबकि हरजीत किसी का दास नहीं था. शौक़ीन था. शौक़ में गौरव की ख़ुश्बू है. इस लिए उसे हरजीत सिंह उर्फ़ शौक़ीन सिंह तो कहा जा सकता था, मगर हरजीत दास हरगिज़ नहीं.

शौक़ और लत में जो बुनियादी फ़र्क है उसे समझना इस लिए लाज़मी है कि ऐसा ना करने से हरजीत का आचरण बदगुमानी का शिकार हो सकता है. मैं स्वयं उसके शौक़ को लत समझने की भूल कर चुका हूं. मुझ से कभी पैसे मांग लेता तो मैं सोचता था कि उसे मांगने की लत है. लेकिन वो मांगता कहां था, वो तो निकालता था मानो उसकी अपनी जेब सामने वाले की पैंट या शर्ट पर लगी हो. लेन-देन के मामले में हरजीत लगभग फ़ेयर था. वो अगर किसी से पैसे लेता था तो बदले में सेवाएँ देता था. जहां सेवाएँ लेता था वहां पैसे ही देता था. जहां तक खाने पीने की बात है अकेले में तो खर्च कर लेता था लेकिन दोस्तों की सभा में खर्च करने की ज़हमत उठाने का अवसर उसे चाहने पर भी नहीं मिल पाता था. बावजूद इसके अपनी जेब ढीली करने का अवसर लेने में संकोच भी नहीं करता था. अपने को इस काबिल बनाने के लिए ही तो इतना हलकान हो रहा था. ये दीगर बात है कि उतनी सफलता नहीं मिल पा रही थी जितने कि वह हाथ-पांव मार रहा था.

मैंने सुना है कि एक्सीडेंट के बाद से वो बहुत संभल और सिमट गया था, लेकिन मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं है क्योंकि  हरजीत से मेरी मुलाकात ही एक्सीडेंट से बहुत बाद में हुई थी. उसके माज़ी की कंद्राओं में घुसपैठ का प्रयास भी मैंने नहीं किया. मैंने तो उसे महज़ वहां से उठाया जहां पर वो मुझे मिला था. इस लिए उसके सम्हलने और सिमटने की कहानी मेरे व्यक्तिगत अनुभव से बिलकुल भिन्न है. मैंने तो जब-जब देखा उसे पंख फ़ैलाए उड़ते हुए देखा. लहराते, गुनगुनाते और मुस्कुराते ही देखा.

दूसरों के काम आने के साथ-साथ दूसरों से काम लेने का भी उसे शऊर था. दो-एक मर्तबा मेरे काम से पेरे साथ वो जा चुका था. एक दिन शाम को अचानक मेरे घर आया, बैठा, खाया-पिया और अन्य बातें कर लेने के पश्चात उठ कर जाने से पहले कहने लगा, "कल सुबह तुम्हें मेरे साथ मसूरी जाना है. अब तक तू मुझे लेकर जाता रहा, कल को तू मेरे साथ जाएगा "और हँसने लगा.

मज़े की बात देखिए, काम से जाते समय भी वो लुत्फ़ लेना नहीं भूलता था. घर से बाहर शहर या शहर से बाहर कहीं भी जाता था तो शोल्डर-बैग या तो उसके कंधे पर लटका रहता था या स्कूटर के हैंडल पर. बैग में वो छोटी-बड़ी दो-तीन प्रकार की पानी की बोतलें, प्लास्टिक के दो-तीन गिलास, एक बलेडनुमा फोल्डिंग चाकू, सलाद का सामान, नमकीन की पुड़िया, एक फ़ाइल जिस में कभी कुछ फ़ोटो, कुछ नेगेटिव कुछ अन्य काग़ज़-पत्र आदि तो वो घर से ही लेकर चलता था. घर में उपलब्ध रहती तो एकाध पाव रम भी अलग से किसी बोतल में डाल कर बैग के किसी कोने में छुपा कर साथ ले लिया करता था. कोई दोस्त टकर जाता तो अतिरिक्त व्यवस्था बाज़ार से की जाती थी, कोई नहीं भी मिला तो अपना माल जय-गोपाल.

उस दिन जब उसके काम से हम मसूरी जा रहे थे तो रम का एक हाफ़ हमने देहरादून से ही रख लिया था. रास्ते में एक जगह स्कूटर रोक कर सड़क के किनारे एक पैराफिट पर बैठ गये थे. बैठते ही वो गुनगुनाने लगा और साथ ही जश्न का सामान भी सजाने बैठ गया था. मैंने कहा ना कि वो कारोबारी लम्हों को भी जशन के रंग में डुबो लेता था. दो-दो पेग मार लेने के उपरान्त पुन: जब खरामा खरामा मसूरी की ओर बढ़ने लगे तो मेरे पीछे बैठा हरजीत अचानक कहने लगा, "मैंने अभी चालीस साल और जीना है."उसकी बात सुन कर मुझे हैरत भी हुयी और डर भी लगा था. हैरत जीने की प्रबल इच्छा से छलक रहे उसके आत्मविश्वास पर और डर उसके मर्ज़ के कारण.

दबा कर रखने की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद मैंने उसके मर्ज़ को जितनी गम्भीरता से लिया था उतनी गम्भीरता से कहने का कभी साहस नहीं जुटा पाया. उसकी छाती में बलगम इतनी तीव्र गति से बन रहा था कि खारिज करते रहने और दबा लेते रहने के बावजूद उसकी रफ़तार कम नहीं हो रही थी.

हरजीत को आराम की सख़्त ज़रूरत थी. लेकिन आराम तो उसका नंबर एक दुश्मन ठहरा. आराम लेने की बजाए उसने "विरासत निनियानवें"की दौड़-धूप और धूल ली. जिस समय हरजीत "विरासत"का ताम-झाम समेट रहा था, उसके खो जाने की घड़ी कार्य में उसका हाथ बटा रही थी. कार्य निपटा कर हरजीत ने अपने धूल-भरे हाथ अभी झाड़े ही थे कि दुष्ट घड़ी ने लपक कर उसे अपने शिकंजे में ले लिया.

हरजीत मेरी उपलब्धि था. लेकिन मेरी उपलब्धि की विडम्बना देखिए :

कुछ दिन पहले मैंने उसको ढूढ़ लिया
आने वाले वक़्त में जिसको खोना था

मुझे इस बात का मलाल नहीं कि मैंने डूब रहे सूरज से हाथ मिलाया था, बल्कि तसल्ली इस बात की है कि हाथ सूरज से मिलाया था. उसके हाथ की गरमी आज भी मेरे हाथ में है.

ग़ज़ल उसकी तमाम संवेदनाओं का केंद्र होने की वजह से उसकी अभिलाशाओं का आधार थी. इसको लेकर उसकी आँखों में जुगनू  चमक रहे थे. रतजगे उन आँखों को न जाने कहां कहां लिए फिरते रहे :

रतजगा दिन भर मेरी आँखें लिए फिरता रहा
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे

रतजगों का ये सिलसिला लंबा खिंच सकता था अगर हरजीत अपनी आँखें नहीं मूंद लेता.

आओ हम उस लहर के सीने पर जाकर विश्राम करें
देखो तो उस लहर को वो इक लहर किनारों जैसी है

अल्पायु में ही आँखें मूंद लेने वाला हरजीत बेशक एक दिन का समंदर था, जिसकी लहरों पर हम विश्राम तो कर सकते हैं लेकिन उसे समेट कर सीलबंद करने का हुनर हम में से किसी के पास नहीं है. उसने कहा था:

एक दिन के लिए समंदर हूँ
कल मुझे बादलों में मिलना तुम

समंदर आज बादल बन चुका है. हरजीत के मित्र कवि अवधेश कुमार के सिवाए अन्य कोई तौफ़ीक वाला ही आज हरजीत से हाथ मिला सकता है.
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प्रेम साहिल
47- शालीन एनक्लेव
बदरीपुर रोड
जोगीवाला, देहरादून - 248005
मोबाइल - 9410313590

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हरजीत सिंह की ग़ज़लेंऔर ख़त यहाँ पढ़ें.

ओल्गा टोकार्चूक (Olga Tokarczuk) : साहित्य का नोबेल

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२०१९ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए जब ओल्गा टोकार्चूक (Olga Tokarczuk) के नाम की घोषणा हुई तो पहली प्रतिक्रिया यही थी कि अरे इन्हें तो २०१८ का बुकर (इंटरनेशनल) पुरस्कार मिला था. जिस तरह से ‘सलमान रुश्दी’ से भारतीय परिचित हैं ओल्गा से नहीं. रुश्दी भी इस सम्मान के लिए एक संभावित उम्मीदवार थे. वे पन्द्रहवीं लेखिका (स्त्री) हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है.
उनके व्यक्तित्व, कृतित्व, बुकर और नोबेल पुरस्कारों पर विस्तार से चर्चा कर रहीं हैं विजय शर्मा



फ़्लाइट्स : घुमक्कड़ी को नोबेल       

विजय शर्मा





2018 का मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार जिसे मिला उसे 2018 का नोबेल पुरस्कार (इस साल 2019 में) भी मिला. इसे कहते हैं छप्पर फ़ाड़ कर मिलना. जी हाँ, मैं साहित्य के नोबेल पुरस्कार की 15वीं स्त्री और पोलिश की पाँचवें नोबेल विजेता की बात कर रही हूँ. समय के साथ नोबेल समिति के दृष्टिकोण में बदलाव हुआ है अब उन्हें स्त्री रचनाकार भी नजर आने लगी हैं.


‘‘जब मैंने फ़्लाइट्सपर काम करना शुरु किया, मैं उपन्यास की एक नई शैली खोज रही थी.’’कहना है 2018 की मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कृत साहित्यकार का. वे अपने कार्य को खगोलीय रूपक देना पसंद करती हैं और इसकी व्याख्या करती हुई कहती हैं कि जैसे प्राचीन लोग आकाश में तारे देखते थे और उन्हें विभिन्न समूहों में बाँटते का तरीका खोजते थे, उन्हें जीवों या अंकों के आकार से संबंधित करते थे, उनका भिन्न-भिन्न अर्थ निकालते थे, उसी तरह वे अपने उपन्यासों को तारामंडल उपन्यासकहना पसंद करती हैं. उनके उपन्यास पढ़ने के लिए पाठक का संस्कारित होना आवश्यक है. 2018 की मैन बुकर इंटरनेशनल व नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, ओल्गा टोकार्चूक और उनकी जिस किताब को मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार के लिए चुना गया था, उसका नाम है, ‘फ़्लाइट्स. मूल पोलिश भाषा में 2008 में प्रकाशित उपन्यास का नाम है, ‘बेगुनी’ (Bieguni) जिसका अर्थ होता है, घुमक्कड़, बंजारा, यायावर, जिप्सी. इंग्लिश अनुवादक ने इसे नाम दिया, ‘फ़्लाइट्स.


मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज़ की शुरुआत 2005 में हुई. 2015 तक यह पुरस्कार द्विवर्षीय था और जीवित लेखक के कार्य को मिलता था (किसी एक किताब को अलग से नहीं), इंग्लिश में प्रकाशित या सामान्य तौर पर इंग्लिश अनुवाद में उपलब्ध कार्य को. निर्णायक स्वयं किताबें चुनते थे. 2016 से यह पुरस्कार वार्षिक हो गया है और लेखक की किसी एक पुस्तक को दिया जाने लगा है. इंग्लिश में अनुवाद होना, ब्रिटेन में प्रकाशन, शर्त अभी भी है. हाँ, अब 50,000 पाउंड की राशि लेखक और अनुवादक में बराबर बँट जाती है. अनुवादकों के लिए यह एक गौरवपूर्ण बात है. हाँ, शॉर्टलिस्टेड लेखक तथा अनुवादक को भी 1,000 पाउंड मिलता है. अर्थात पुरस्कार की कुल राशि अब 62,000 पाउंड है. निर्णायक मार्च महीने में 12-13 किताबें चुनते हैं और उसमें से 6 की शॉर्टलिस्ट एप्रिल में प्रकाशित होती है. जून 2019 से माइकेल मोरिट्ज़ के बी ई तथा उनकी पत्नी हेरिएट हेमैन का चैरिटेबल फ़ाउंडेशन क्रैंकस्टार्टद बुकर प्राइज़ तथा दि इंडरनेशनल बुकर प्राइज़ के नए सपोर्टर होंगे.


फ़िट्ज़कैराल्डो एडीशन्स द्वारा प्रकाशित ओल्गा टोकार्चूक के उपन्यास फ़्लाइट्सको जेनीफ़र क्रोफ़्ट ने इंग्लिश में अनुवादित किया है. वे पोलिश, स्पैनिश और उक्रेनियन भाषा से इंग्लिश में अनुवाद करती हैं. पोलिश और अर्जेंटीना की साहित्यिक संस्कृति बहुत भिन्न है. अर्जेंटीना के लेखक बहुत स्वतंत्र होते हैं, जबकि पोलिश भाषा के लेखक कई सदियों की परम्परा से बँधे हुए, करीब-करीब दास जैसे हैं. ऐसा है क्योंकि उनके इतिहास भिन्न-भिन्न हैं. प्रथम विश्व युद्ध के बाद से पोलिश भाषा-साहित्य का मुख्य प्रोजेक्ट राष्ट्र का पुनर्निर्माण रहा है. सोवियत शासन के दौरान बहुत सारे उत्तम लेखकों ने देश बाहर रह कर लेखन किया. दोनों ही देश कैथोलिक देश हैं लेकिन दोनों की संस्कृति बहुत अलग-अलग है. लेकिन कुछ दिनों पूर्व यह विडम्बना है कि पोलैंड में पोलिश साहित्यिक लेखकों को प्रमोट करने का अनुदान का बजट काम कर दिया गया था इसीलिए ओल्गा की अनुवादक जेनीफ़र क्रोफ़्ट को अमेरिका पीईएन ने ओल्गा के द बूक्स ऑफ़ जेकबके लिए ट्रांसलेशन फ़ंड ग्रांट मुहैय्या कराया ताकि किताब इंग्लिश भाषी पाठकों के समक्ष आ सके. जेनीफ़र क्रोफ़्ट को ओल्गा टोकार्चूक के काम का अनुवाद करना बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि ओल्गा टोकार्चूक अपने चरित्रों से मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यवहार करती हैं, उनका काम बहुत सटीक और प्रभावकारी है.


ओल्गा टोकार्चूक पोलैंड के सुलेशो नामक स्थान में 29 जनवरी, 1962 को जन्मी. उनके दो कहानी संग्रह और आठ उपन्यास प्रकाशित हैं. उनके साहित्य का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. उनका कहना है कि फ़्लाइट्सबहुत सटीक लिखा गया है. यदि उन्हें यह फ़िर से लिखना पड़े तो भी वे उसको तनिक भी नहीं बदलेंगी. उन्हें पोलैंड के सर्वोच्च सम्मा न नाइके अवार्ड से दो बार (2008 तथा 2015 में) नवाजा जा चुका है. इसके साथ उन्हें बहुत सारे अन्य पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं. अब मैन बुकर इंटरनेशनल तथा नोबेल प्राइज़ प्राप्त होने से पूरी दुनिया से उन्हें बधाइयाँ मिल रही हैं जाहिर-सी बात है, उनके पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफ़ा होगा.


निर्णायकों के अनुसार, ‘फ़्लाइट्सलगातार चलती रहने वाली समकालीन जीवन शैली है जिसका सार है, निरंतर चलते रहना, यह कभी अपने शरीर के बाहर नहीं जाने के बारे में भी है शरीर जो स्वयं गतिशील है और अंतत: मरणशील है. यह किताब बंजारापन के बारे में है, यह पलायन के बारे में है, जगह-जगह लगातार यात्रा में होने के बारे में है और एयरपोर्ट्स पर जीने के बारे में है. इसके साथ ही हम एक शरीर में रहते हैं और शरीर का अंत मृत्यु में है, जिससे बच नहीं सकते हैं. साथ ही यह आश्चर्यजनक रूप से खिलंदड़ी है, विट तथा विडम्बना से परिपूर्ण.ओल्गा टोकार्चूक बुकर से नवाजी जाने वाली पहली पोलिश लेखक हैं.


टोकार्चूक विभिन्न अल्पसंख्यकों को स्वर देती हैं और खुद को सेंट्रल यूरोपियन लेखक मानती हैं जो पोलिश भाषा में लिखती हैं . 2017 के लंदन बुक फ़ेयर के बाजार का फ़ोकसपोलिश भाषा थी. पुस्तक मेले में पोलैंड के पाँच पुरस्कृत साहित्यकार मौजूद थे. छठवीं भी वहाँ थी हालाँकि उनका पुरस्कार तब गर्भ में था. उस मेले में उन्होंने जो बात कही उससे हलचल मच गई. ओल्गा टोकार्चूक ने कहा कि वे भाषा को एक उपकरण की भाँति व्यवहृत करती हैं, काँटा-छुरी की तरह जब आपको यथार्थ खाना हो. यूरोज़ीनमें उन्होंने पोलिश भाषा के इतिहास, व्याकरण और उसकी यात्रा पर विस्तार से लिखा है.


अब ओल्गा टोकार्चूक के उपन्यास द बुक्स ऑफ़ जैकबका जेनीफ़र क्रोफ़्ट द्वारा किया अनुवाद आ चुका है. 15 साल से ओल्गा के काम की अनुवादक होने के साथ-साथ उनकी मित्र भी हैं. उनके अनुसार इंग्लिश कार्य को अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्रकाशित कराना टेढ़ी खीर रहा है. प्रकाशक फ़्लाइट्सको प्रकाशित करने में हिचकिचा रहे थे. हिन्दी में उनकी कहानियों का एक संग्रह कमरे तथा अन्य कहानियाँनाम से प्रकाशित है.


2019 में ज्योंहि उन्हें 2018 का नोबेल दिए जाने की घोषणा हुई व्रोकोला शहर के अधिकारियों ने घोषणा की, इस वीकेंड में जो भी ओल्गा की किताब ले कर चलेगा वह पब्लिक ट्रांसपोर्ट में मुफ़्त यात्रा कर सकेगा. कुछ दिन पूर्व इस शहर ने उन्हें ऑनरेरी नागरिक बनाया है. वे अपना समय इस शहर और क्रैजानाव में बिताती हैं. नोबेल समिति ने उन्हें नोबेल दिए जाने की अनुशंसा में कहा

ऐसी कथनात्मक कल्पनाओं के लिए जो विशाल भावातिरेक के साथ सीमाओं को लाँघते हुए जीवन की विधि को प्रस्तुत करता है.

फ़्लाइट्सइक्कीसवीं सदी में यात्रा का और मानव शरीर-रचना का उपन्यास है. शरीर के अंगों को सुरक्षित रखने के विज्ञान से संबंधित इस उपन्यास में अलग-अलग कहानियाँ हैं जो आपस में संबंधित भी हैं. ओल्गा कहती हैं कि हम अपने शरीर के विषय में कितना कम जानते हैं. एक कहानी सत्रहवीं सदी के वास्तविक डच शरीर-विच्छेदन वैज्ञानिक फ़िलिप वेर्हेयिन की है जो अपनी विच्छेदित टाँग के चित्र बनाता है और इस प्रक्रिया में एचिलस टेन्डन को खोज निकालता है. अट्ठारहवीं सदी से एक कहानी है जिसमें उत्तरी अफ़्रीका में जन्में दास और ऑस्ट्रेलिया के कोर्ट में रहने वाले को मरने के बाद उसकी बेटी इस बात का जबरदस्त विरोध के बावजूद भुस भर कर प्रदर्शन के लिए रख दिया गया है. यहाँ शॉपिन का दिल है जिसे उसकी बहन एक मर्तबान (जार) में कस कर बंद कर अपने स्कर्ट में छिपा कर पेरिस से वार्सा ले जा रही है ताकि उसे वहाँ, उसके प्रिय स्थान में दफ़नाया जा सके. आज के उथल-पुथल वाले समय में एक पत्नी अपने एक बहुत उम्र दराज प्रोफ़ेसर पति के साथ यात्रा कर रही है जो यूनानी टापुओं पर क्रूज शिप पर एक कोर्स पढ़ा रहा है. एक पोलिश स्त्री जो किशोरावस्था में न्यू ज़ीलैंड प्रवास पर चली आई है, उसे पोलैंड लौटना है ताकि वह हाईस्कूल के अपने प्रेमी को जहर दे कर समाप्त कर सके क्योंकि वह अब लाइलाज बीमारी से ग्रसित है. एक युवा पति अपनी पत्नी और बच्चे के रहस्यमय ढ़ंग से गायब होने के कारण धीरे-धीरे पागलपन की ओर सरक रहा है और जिसकी पत्नी और बच्चा जैसे रहस्यमय तरीके से गयब हुए थे वैसे ही लौट आते हैं बिना कोई कारण बताए. उपन्यास आधुनिकता की सतह के पार जा कर मानव के स्वभाव की गहराइयों की सैर कराता है. हम धरती पर दूर-दूर तक घूम आते हैं यहाँ तक की चाँद पर भी चले जाते हैं मगर अपने ही जिगर के आकार को नहीं जानते हैं.


मोबी डिकको अपना पसंददीदा उपन्यास मानने वाली उपन्यासकार को इस बात से आश्चर्य होता है कि कैसे लोग शरीर से प्रारंभ कर शरीर विज्ञान तक पहुँचे. फ़्लाइट्सछोटी-छोटी कहानियों का संग्रह है जो अंतर्गुंफ़ित हैं. द वर्ल्ड इन योर हैड’, ‘योर हैड इन द वर्ल्ड’, ‘कैबिनेट ऑफ़ क्यूरिओसिटीज’, ‘एवरीव्हेयर एंड नोव्हेयर’, ‘द साइकॉलॉजी ऑफ़ एन आइइलैंड’, ‘बेली डान्स’, ‘प्लेन ऑफ़ प्रोफ़्लीगेट्स’, ‘एयर सिकनेस बैग्स’, तथा एम्पीथियेटर इन स्लीपइसके विभिन्न भागों के उपशीर्षक हैं. उनकी रचनाओं में मिथकीय लहजा अनायास ही आ जाता है. ओल्गा के अनुसार हम एक ऐसी सनकी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ उपन्यास की पुनर्परिभाषा आवश्यक है, आज शुरु से आखीर तक एकरैखीय शैली में कहानी कहना असंभव है.


नोवा रुडा के नजदीक एक छोटे से गाँव में रहने वाली ओल्गा टोकार्चूक के माता-पिता दोनों ही साहित्य के शिक्षक रहे हैं. उनके पिता पोलैंड के उस भाग से आए शरणार्थी थे जो आज युक्रेन का हिस्सा है. ये जिस टापू में रहते थे वहाँ वामपंथ के बौद्धिक रहते थे मगर ये लोग कम्युनिस्ट नहीं थे. ओल्गा साहित्य रचने के अलावा दूसरों के साथ मिल कर अपने घर के नजदीक साहित्यिक समारोह भी मनाती हैं, एक निजी प्रकाशन गृह रुटाचलाती हैं. वे द ग्रीनपोलिटिकल पार्टी की सदस्य हैं तथा वामपंथी विचारों का पोषण करती हैं. तारामंडल उपन्यास’ (कॉस्टेलेशन नॉवेल) का प्रारंभ उनके 2003 में लिखे उपन्यास हाउस ऑफ़ डे, हाउस ऑफ़ नाइटसे हुई जिसका इंग्लिश अनुवाद 2008 में आया. 1996 में उनका उपन्यास प्राइमेवल एंड अदर टाइम्सप्रकाशित हुआ जिसका इंग्लिश अनुवाद 2009 में प्रकाशित हुआ. इंग्लिश में भले ही ओल्गा टोकार्चूक की ख्याति अब हो रही हो लेकिन अपने देश में एक्टिविस्ट ओल्गा बहुत पहले से सेलेब्रेटी और कॉन्ट्रोवर्सियल रही हैं. उनके मुँह से निकले शब्द अखबारों की हेडलाइन्स बनते हैं. घोषित नारीवादी एवं शाकाहारी ओल्गा स्वयं को वे देशभक्त मानती हैं, उनका कहना है कि आज समय आ गया है जब हमें यहूदियों का पोलैंड के साथ संबंध देखना है. मनोविज्ञान को अपने लेखकीय कार्य की प्रेरणा मानने वाली ओल्गा ने लिखना प्रारंभ करने के पूर्व वार्सा यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में शिक्षा प्राप्त की. वे स्वयं को काएल जुंग का शिष्य मानती हैं. शिक्षा के बाद उन्होंने एक संस्थान में युवाओं की व्यावहारिक समस्याओं के लिए थेरिपिस्ट का काम प्रारंभ किया लेकिन शीघ्र ही उन्होंने यह काम छोड़ दिया, उन्हें लगा कि वे खुद अपने मरीजों से अधिक न्यूरोटिक हैं. असल में वे अपने एक मरीज के साथ काम कर रही थीं और तब उन्हें लगा कि वे मरीज से ज्यादा परेशान हैं, और पाँच साल के बाद वे यह काम छोड़ कर लिखने की ओर मुड़ गई. उन्होंने अपने साथी मनोवैज्ञनिक से शादी की और उनका एक बेटा है.


इसके बाद वे पूरे समय भाषा को एक मिशन की तरह प्रयोग करने के लिए लिखने में जुट गईं. उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ और जल्द ही द जर्नी ऑफ़ द पीपुल ऑफ़ द बुकनाम से एक उपन्यास भी. यह उपन्यास 17वीं सदी के फ़्रांस में स्थापित है और इसके लिए उन्हें डेब्यू बेस्ट लेखक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. अपनी उम्र के तीसरे दशक के मध्य में उन्हें लगा कि एक ब्रेक की जरूरत है, उन्हें घूमना चाहिए. कम्युनिस्ट शासन के दमन से छुटकारा पाने का यह एक अच्छा उपाय था. वे निकल पड़ीं. तायवान से ले कर न्यू ज़ीलैंड तक की उन्होंने यात्राएँ कीं. इन्हीं यात्राओं का प्रतिफ़ल है फ़्लाइट्स. उनके लेखन पर कई अन्य लेखकों के अलावा मिलान कुंडेरा का प्रभाव माना जाता है.


बचपन में टेबल के नीचे छुप कर दूसरों की बात सुनने वाली ओल्गा टोकार्चूक को जब नोवा रुडा की सम्मानित नागरिकता प्रदान की गई तो नोवा रुडा पेट्रिओट्स एसोशिएशनने उन पर आक्रमण किया और चाहा कि उनसे यह सम्मान वापस ले लिया जाए. इन लोगों का मानना है कि ओल्गा ने पोलिश राष्ट्र का नाम कलंकित किया है. उन्हें देशद्रोही माना. 900 पन्नों के उपन्यास द बुक्स ऑफ़ जेकबके बाद उन्हें मारने की धमकियाँ मिलने लगीं. स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उनके प्रकाशक को उनकी सुरक्षा के लिए बॉडीगार्ड रखने पड़े. इस उपन्यास के बारे में उनका कहना है, उन्होंने इतिहास के उस अध्याय को खोला जो कई दृष्टियों से निषिद्ध था. जिसे कैथोलिक, यहूदियों तथा कम्युनिस्टों ने छिपा रखा था. इस उपन्यास को लिखने के लिए उन्होंने आठ लंबे साल शोध किया.


कुछ दिनों के बाद वे एक अन्य विवाद में फ़ँस गई. उनके 2009 के उपन्यास ड्राइव योर प्लॉ ओवर द बोन्स ऑफ़ द डेडपर पोकोट (इंग्लिश में स्पूर) नाम से एक फ़िल्म बनी. इसे बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखाया गया और इसे सिल्वर बेयर का सम्मान मिला. इसकी पटकथा स्वयं उन्होंने फ़िल्म निर्देशक एज्निस्ज़्का हॉलैंड के साथ मिल कर लिखी है. इस फ़िल्म को पोलिश न्यूज एजेंसी ने ईसाइयत के खिलाफ़ और पर्यावरण आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली कहा. इसमें सुदूर गाँव में रहने वाली एक सनकी वृद्धा की जिंदगी को उथल-पुथल होते दिखाया गया है. असल में जब यह स्त्री पहले एक पड़ौसी, फ़िर पुलिस चीफ़ और इसके बाद एक बड़े स्थानीय व्यक्ति को वह बुरी तरह चीथ कर मरा हुआ पाती है तो उसकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है.


लेखन को हथियार मानने वाली ओल्गा का पुरस्कृत उपन्यास फ़्लाइट्सबताता है, कैसे यायावरी और उसके विपरीत स्थिरता से संबंध बनाया जाता है. इसी को ले कर कहानियाँ रची गई हैं. रूसी अनुष्का समर्पित गृहिणी है, अपने बीमार बेटे की सेवा में लगी हुई, प्रेम विहीन दाम्पत्य में फ़ँसी हुई. वह एक अंधेरे-हताशा भरे सोवियत अपार्टमेंट में रहती है. सप्ताह में एक दिन उसकी सास बच्चे की देखभाल के लिए आती है तो वह घर के कई काम निपटाने शहर जाती है. एक बार वह अपनी अपंग जिंदगी से भाग निकलती है लेकिन उड़ान भरने के बाद उसे मालूम नहीं है कहाँ जाए. गृहविहीन वह कई दिन मेट्रो में चक्कर लगाती रहती है. उपन्यास ऐसी ही अलग-अलग तरह की यात्राओं से परिपूर्ण है. ऐसी ही एक पर्दानशीन स्त्री एकालाप करती रहती है. उसका स्वर बहुत शक्तिशाली है. शायद इसीलिए इस लेखिका को थिंकिंगउपन्यासकार की श्रेणी में रखा जाता है. उपन्यास में मेन्गेले जैसा डॉक्टर ब्लाऊ है जिसे शरीर के अंगों को काटना भाता है. अगर उसका बस चलता तो वह भिन्न दुनिया बनाता जहाँ आत्मा मर्त्य होती, क्या काम है आत्मा का? क्यों चाहिए होती है यह हमें? और शरीर अमर्त्य होता.


लिखने के बिना मैं जिंदा नहीं रह सकती हूँ, क्योंकि और कुछ  नहीं कर सकती हूँ’, ‘लिखने के साथ जिम्मेदारी आती है.कहना है ओल्गा का. ओल्गा टोकार्चूक हमारे संशयग्रस्त भविष्य में नजरे गड़ाये हुए हैं जहाँ हम तेजी से भाग रहे हैं. उनके अनुसार वे यहूदियों के साथ पोलैंड के रिश्ते को नई रोशनी में देखना चाहती हैं. चाहती हैं, लोग स्वीकारें कि उनके भीतर यहूदी रक्त है, पोलिश संस्कृति मिश्रण है. उन्हें लगता है कि समाज दो भाग में विभक्त है, लोग जो पढ़ सकते हैं, लोग जो नहीं पढ़ सकते हैं. उनके अनुसार आज लोग यात्राएँ कर रहे हैं, विदेशों में बस रहे हैं. आर्थिक कारणों तथा इंटरनेट देश की सीमाओं को नहीं स्वीकारता है. हम घर बैठे ही विभिन्न नेटवर्क प्रोवाइडरों के बीच घूमते रहते हैं. उनके अनुसार आप फ़्लाइट्सको पुराने यूरोप के एक  गीत की भाँति भी पढ़ सकते हैं. एक अनाम स्त्री के साथ बेचैनी के साथ दुनिया की यात्रा कर सकते हैं. उपन्यासकार ने मानव शरीर संरक्षण के बारे खूब ज्ञान इकट्ठा किया है. उनकी यह यात्री जिस स्थान पर जाती है वहाँ के म्युजियम में संरक्षित मानव शरीर, भ्रूण को देखना नहीं भूलती है. वे शरीर संरक्षण के बारे में भी काफ़ी कुछ बताती हैं. ओल्गा की किताबें मिश्रित संस्कृति, पोलैंड का सर्वोत्तम इश्तेहार हैं. अब उन्हें नोबेल मिला है तो उन पर नए सिरे से काम होगा.


अब नोबेल की ख्याति विवादास्पद रचनाकारों को पुरस्कृत करने के लिए भी होने लगी है. 2019 के लिए पीटर हैंडके को साहित्य का पुरस्क्राक दिया है, वे भी बहुत विवादित रहे हैं. उन्होंने पहले खुद भी नोबेल पुरस्कार की आलोचना करते हुए 2014 में कहा था कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार बंद हो जाना चाहिए क्योंकि जिसको भी ये मिलता है, लगता है मानो, उसको संत की झूठी उपाधि मिल जाती है. और अब यह संत की झूठी उपाधि पा कर वे कैसा अनुभव कार रहे हैं जानना रोचक होगा. खैर, समालोचन के माध्यम से दोनों विजेताओं ओल्गा टोकार्चूक तथा पीटर हैंडके को बधाई!
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डॉ. विजय शर्मा


326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर 831009
मोब.8789001919, 9430381718  Email : vijshain@gmail.com 


कथा-गाथा : पुनश्च : नरेश गोस्वामी

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नरेश गोस्‍वामी के कथाकार ने अपने लिए जो प्रक्षेत्र चुना है वह पढ़े लिखे आदर्शवादी युवाओं के मोहभंग और उनकी यातनाओं का है. यह ऐसा इलाका है जो वर्षों से लहूलुहान है और अभी भी वहां रक्तपात इसी तरह जारी है.

नरेश गोस्वामी की कहानियों में बौद्धिकता वैचारिक आधार प्रदान करती है वहीँ संक्षिप्तता उसे और कसती है. पठनीयता उनकी सबसे अच्छी विशेषता है.

उनकी नई कहानी पुनश्च: आपके लिए. 



पुनश्‍च:                                                                  
नरेश गोस्‍वामी  



ज सुबह जब उसने अपना सिस्‍टम ऑन किया तो यकायक ख़याल आया कि उसने बहुत दिनों से तुमुलजी से अपने बारे में कोई बात नहीं की है. उसे लगा कि वह अपने केस को लेकर वाक़ई गंभीर नहीं है. तभी अचानक नवनीत पांडे की चिल्‍लाती आवाज़ कानों में पड़ी  और बस एक पथराव सा शुरू हो गया: माधव चौधरी शब्‍दों को दांतो के नीचे पीसते हुए कह रहे थे:
‘दरअसल, आप जैसे लोग पिता के पैसों पर पलने वाली रूमानियत की त्रासदी होते हैं’;
आरती ने ग़ुस्‍से, शिकायत और उपहास से भभकती आवाज़ में पूछा:
‘तुम्‍हारा यह स्‍ट्रगल कभी ख़त्‍म भी होगा ?!
लगा जैसे कि अय्यर की घनी मूंछों से उलझ कर ‘रैबिड’ जैसा कोई शब्‍द गिरा है और अंशुल दुबे दोस्‍ताना निराशा में ही सही, उसे ‘एब्‍नॉर्मल’ बता रहा है. इनके पीछे हाल-फिलहाल की आवाज़ें भी थीं:
‘तुम अपना केस सही तरह पर्स्‍यू नहीं कर रहे हो’, ‘तुम्‍हारे चेहरे पर न दीनता दिखती है, न ज़रूरत... न लोगों के साथ उठते-बैठते हो... और तो और तुमुलजी के साथ भी नहीं दिखाई देते.... इस तरह तुम्‍हारे बारे में कौन सोचेगा..??.’.

तभी वह इस शोर को झटकते हुए उठ खड़ा हुआ. उसने प्रोजेक्‍ट रूम के अर्से से ख़राब पड़े रिवॉल्विंग डोर को धीरे से बंद किया. कॉरीडोर पार करते हुए ज़ीने तक पहुंचा, लेकिन फिर फुस्‍स! उसे लगा कि जैसे उसकी पिंडलियों में भूसा भर गया है. वह वापस मुड़ना चाहता था कि पथराव फिर शुरु हो गया. उसने ख़ुद को फिर संयत किया और ऊपर चढ़ने लगा. लेकिन, आखि़र की तीन पैडि़यां बची थी कि उसके पांव फिर रुक गए...


(एक)
जिंदगी के बीस साल उसके सामने समुद्र की तरह फैल थे. उसने रेखा के इस तरफ़ रहने का फ़ैसला बहुत पहले कर लिया था. बीस बरस पहले उच्‍च शिक्षा आयोग में तीन बार इंटरव्यू देने के बाद उसने तय कर लिया था कि वह कुछ भी कर लेगा, लेकिन जुगाड़बाज़ी का सहारा नहीं लेगा. तब बाक़ी लोगों को भी उसकी क्षमताओं में यक़ीन था. उसने शहर का स्‍थानीय अख़बार ज्‍वाइन कर लिया था. प्रशिक्षण की अवधि ख़त्‍म होने के बाद उसने चाहा था कि उसे फीचर वाला पेज दिया जाए. उसने स्‍थानीय संपादक नवनीत पांडे से कहा था:
सर, राजनीतिक ख़बरें तो सारी एक जैसी होती हैं. मेरा मन है कि फ़ीचर वाले पेज पर सिर्फ़ साहित्‍य और सिनेमा नहीं, कुछ अनूठा किया जाए... आम जनता— छोले-कुल्‍चे, फल बेचने और फेरी लगाने वाले मामूली लोगों के जीवन पर रिपोर्ताज जैसी चीज़ें और... और’ .

लेकिन, इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता पांडे ने उसे झिड़कते हुए कहा था:
ज्‍़यादा पढ़ाई-लिखाई करने वालों के साथ यही लफड़ा होता है... उन्‍हें न पत्रकारिता की समझ होती है, न साहित्‍य की... तुम जिस पेज की बात कर रहे हो, वह छुटे हुए कारतूसों का क्षेत्र होता है. तुम अच्छे से सोच लो कि तुम वाक़ई पत्रकारिता करना चाहते हो या...’ .

तब ज़ेहन में बार-बार यही कील सी गड़ती रही थी— वह क्‍यों नहीं, जो मैं करना चाहता हूं. मैं बड़ा नहीं बनना चाहता. अगर मैं शहर के पुलिस और प्रशा‍सनिक अधिकारियों से, ताकतवर लोगों से दोस्‍ती गांठना नहीं चाहता तो फिर मुझे वह क्‍यों नहीं करने दिया जाता जो मैं चाहता हूं? कितना मामूली था वह सब. लेकिन, हर समझदार और अनुभवी आदमी यही कहता था कि पहले पेज पर काम करना नसीब होता है वर्ना तो लोगों की पूरी जि़ंदगी प्रादेशिक डेस्‍क पर स्टिंगरों की अंट-शंट हिंदी सुधारते निकल जाती है. बस, यही उहापोह थी या लोगों के शब्‍दों में ख़ब्‍त कि कुछ ही दिनों बाद वह संपादक के सामने इस्‍तीफ़ा लेकर बैठा था.

नवनीत पांडे दोनों हाथों से माथा पकड़े दबी हुई आवाज़ में चीखे थे:
ऐसा ब्रेक मिलता है लोगों को ?इस अख़बार ने आज तक किसी ट्रेनी को इतना पैसा दिया ?लेकिन आप बड़ी चीज़ हैं साहब... आपको सब अपने अनुसार चाहिए... हम सिर्फ़ वैचारिक-बौद्धिक काम करेंगे...बाक़ी सब तो भड़भूजे हैं!
वह पत्‍थर की तरह बैठा रहा था. उसे अच्‍छी तरह याद है कि उस वक़्त उसका दिमाग़ एक निचाट पठार की तरह हो गया था. वह कुछ नहीं सोच पा रहा था. भीतर एक रेत बिखेरती जि़द अड़ी थी कि बस उसे यहां नहीं रहना है! आखिर में नवनीत पांडे ने अपने ग़ुस्‍से और हैरत पर क़ाबू पाते हुए कहा था:
मैं तुम में बहुत संभावनाएं देख रहा था... मेरी बात का बुरा मत मानना पर तुम्‍हारे साथ कोई प्रॉब्लम है... तुम जितनी जल्‍दी फ़ैसला ले बैठते हो उस तरह काम करना तो दूर... उस तरह तो जिंदगी भी नहीं जी पाओगे’. 

नवंबर की हल्‍की ठंड, धुंए और सामने सड़क पर गुज़रते ट्रैफि़क में उलझी उस शाम को नवनीत पांडे उसे बाहर तक छोड़ने आए थे. उन्‍होंने उसका हाथ हौले से दबाते हुए और उसी क्षण ऑफिस की तरफ़ रुख़ करते हुए कहा था: ‘कभी लौटना पड़े तो संकोच मत करना’.


(दो)
पांडे को अलविदा कहकर जब वह अगले दिन कैंपस पहुंचा तो वह और सोरित कैंटीन के पीछे घंटो बैठे रहे थे. कभी देर तक बात करते रहते. कभी दोनों अपनी चुप्पियों में खो जाते. सोरित को रिसर्च बकवास लगने लगी थी. वह कह रहा था:
‘हमने पूरी शिक्षा को फर्जी विमर्शो से भर दिया है. इस देश में हर साल डेढ़ लाख लोग एक्‍सीडेंट में, पचास हज़ार लोग सांप के काटने से, हज़ारों बाढ़ में और सैंकड़ों लोग पुल गिरने से मर जाते हैं. लेकिन, हम रिसर्च ऐसे टॉपिक्‍स पर करते हैं जिनका आम जनता की ख़ुशहाली से कोई वास्‍ता नहीं होता... हम जो भी कर रहे हैं उसका कोई मतलब नहीं है... इससे बेहतर है कि मैं अपने मन का काम करूं’.

उन दिनों सोरित एक सीरियल में असिस्‍ट कर रहा था. लेकिन, उसके पापा को यह सब पंसद नहीं था. शाम चार बजे जब दोनों अपनी चुप्पियों और बियाबान से बाहर लौटे तो सोरित ने कहा था: चलो, यार आज घर चलते हैं. मुझसे यह दबाव अब झेला नहीं जाता’.



साल में एक बार अरविंदो आश्रम, सोरित को दूर शांति निकेतन में पढ़ने के लिए भेजने वाले और राज्‍य में पांच बार सर्वाधिक मतों से जीतने वाले विधायक माधव चौधरी ने खाने के बाद दोनों को अपने पास बैठा लिया था. माधव चौधरी कुपित थे:

‘मैं जिस पार्टी से जीतता आ रहा हूं वह एक जाति की पार्टी है. उसमें वही सब गड़बडि़यां हैं जिन्‍हें आप जानते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं मंत्री नहीं बनना चाहता था. सत्‍ता के साथ होता तो शायद बन जाता. लेकिन, वैसा नहीं हो सकता था. यह कोई आदर्श-वादर्श नहीं था. यह एक ठोस सच्‍चाई थी कि अगर मैं लालच में एक बार अपना इलाक़ा छोड़ कर सत्‍तारूढ़ पार्टी को पकड़ लेता तो मेरी राजनीति हमेशा के लिए ख़त्‍म हो जाती... मेरे कहने का कुल मतलब यह है कि हमें जो भी चुनना होता है मौजूद विकल्‍पों को देखकर चुनना पड़ता है. आप कोई अलग रिअलिटी क्रिएट नहीं कर सकते... सोरित अब रिसर्च छोड़ कर फि़ल्‍म-मेकिंग में जाना चाहता है और आप एक अच्‍छी भली नौकरी को सिर्फ़ इसलिए छोड़ आए हैं कि आपका वहां मन नहीं लगता या आपको वहां काम करने वाले लोग फ्रॉड लगते हैं’.

माधव चौधरी बहुत नीचे सुर में बात कर रहे थे, लेकिन इससे उनकी नाराज़गी छिप नहीं पा रही थी.

‘आप इसे अपने क्रांतिकारी शब्‍दों में यथास्थिति से असहमति या असंतोष जैसा कुछ भी कहें, लेकिन मुझे यह केवल सुसाइडल इंस्टिक्‍ट लग रही है’.
माधव चौधरी उस शाम आखि़री फ़ैसला सुना सोफ़े से उठकर चले गए थे.

वह शिष्‍टाचार के नाते माधव चौधरी के सामने चुप रहा था, लेकिन वापस लौटते हुए उसे उनकी शिष्‍टता चालाकी से ज्‍़यादा कुछ नहीं लगी थी. माधव चौधरी में उसे एक ऐसा आदमी नज़र आया था जिसके पास अपने हर निर्णय को सही साबित करने का तर्क मौजूद रहता है. और वह तर्क हमेशा अपने हित को बचाए रखने में धंसा होता है.  


(तीन)
अभी कुछ दिन पहले इंस्‍टीट्यूट आते हुए सड़क पर अचानक कहीं से कॉर्क की एक हरी गेंद आकर गिरी. उसने टप्‍पा खाया, फिर उछली, फिर टप्‍पा खाया. धीरे धीरे उसके टप्‍पों की ताक़त कम होती गयी और वह फुदकते फुदकते दूर तक चली गयी. घर के अंदर खेल रहे बच्‍चे बाहर निकल आए थे. उन्‍होंने उससे गेंद के बारे में पूछा. उसने उस तरफ़ इशारा किया जिस तरफ़ उसने गेंद को आखि़री बार जाते देखा था. बच्‍चे उधर दौड़ गए. वह मन ही मन मुस्‍कुराया था. वह बचपन से देखता आया था कि खोई हुई गेंद अक्‍सर दूसरों को मिला करती है. बच्‍चे उसके आसपास ढूंढते रहते हैं और वह किसी पत्‍ते या झाड़ी की ओट में छिपी रहती है.

गेंद का यह दृश्‍य उसके मन में देर तक अटका रहा. क्‍या बीस साल पहले वह भी घर के बरामदे में टप्‍पा खाकर इसी तरह बाहर नहीं फिंक आया था? उसने उम्‍मीद की थी कि एकांत साधना में लगे उसके पिता उसे ढूंढने आएंगे. तब तक गेंद सीढि़यों से बस नीचे उतरी थी!  लेकिन वे नहीं आए.... पंद्रह बरस बाद उसने आरती से भी कहा था: मैं भागते-भागते थक गया हूं. ग्‍यारह साल का था जब पिता के पास पढ़ने गया. पूरा बचपन हवाओं से खड़खड़ाते दरवाज़ों, और सन्‍नाटे में बीत गया... फिर बारह साल हॉस्‍टल में. इतना अकेलापन तो सेल्‍युलर जेल में भी नहीं होता होगा!’. वह रोने लगा था. एक हथेली से आंसू पौंछते हुए बोले जा रहा था: मैं कंप्रोमाइज नहीं करुंगा फिर भी अपने दम पर वह सब हासिल करके दिखा दूंगा... लेकिन मुझे पहले घर चाहिए...मैं बीस सालों से प्रेत की तरह भटक रहा हूं’.

और अचानक उसका ध्‍यान गया था कि आरती का चेहरा एक सपाट मैदान की तरह दिख रहा है. उस पर न विह्वलता थी, न दया, न प्‍यार, न उम्‍मीद.

‘तुम्‍हारी जिंदगी तो यूं ही स्‍ट्रगल में गुजर जाएगी’. आरती ने टका सा जवाब दिया था. बहुत देर तक उसे कुछ समझ ही नहीं आया. वह देर तक वहीं खड़ा रह गया था. आरती कमरे से जा चुकी थी. उसे लगा था कि जैसे धीरे-धीरे उसके पैरों की जान निकलती जा रही है. वह अलमारी का सहारा लेते हुए इस तरह धप्‍प से नीचे बैठ गया जैसे किसी ने उसके सिर पर भारी पत्‍थर दे मारा है.

एक बैग में कुछ कपड़े और लैपटॉप उठाकर वह उसी शाम चला आया था. धूल, शोर और आंसुओं से लड़ते-झगड़ते उस रात घर का सपना तो ख़त्‍म हो गया था. पर अपने पीछे वह भुरभुरा अवसाद छोड़ गया था जो बरसों बाद तक हलकी सी दलक लगते ही फूट पड़ता था.


(चार)
अख़बार की नौकरी छोड़ने के बाद वह दिल्‍ली चला आया था. बरसों फ्रीलांसिंग और अनुवाद करता रहा. बरस दर बरस चेहरे का नमक सूखता रहा. आंखों के खुले तट बीहड़ में बदलते गए. इन बरसों में उसे कई बार महसूस हुआ था कि अगर उसकी कमर के नीचे पूंछ होती तो वह बंदरों के साथ रहना ज्‍़यादा पसंद करता. उसे याद है कि उसने वापस लौटने की आखि़री कोशिश दस साल पहले की थी. बंगलौर में पर्यावरण पर एक इंटरनेशनल कॉन्‍फ्रेंस हो रही थी. उसे अंग्रेजी के लेखों का सार-संक्षेप करके हिंदी में एक किताब संपादित करने का काम मिला था. वह जानता था कि कॉन्‍फ्रेंस के आयोजकों के लिए यह महज़ एक रस्‍म थी. किसी भी काम को भारतीय भाषाओं में लाने का वही सरकारी कर्मकांड! लेकिन उसने यह काम पूरी तन्‍मयता और पेशेवर ईमानदारी से किया.

कॉन्‍फ्रेंस के बाद निमंत्रित रिर्पोटरों को ग्‍यारह दिनों के फील्‍ड–टूर पर ले जाने का भी कार्यक्रम था. उन ग्‍यारह दिनों में कर्णाटक, आंध्रा और उड़ीसा के बंजर और सूखे इलाकों में घूमते हुए उसे लगा था कि जिंदगी की धुरी पर लौटने का उसके पास यही आखि़री मौक़ा है. तेलंगाना के पठारी क्षेत्र में एक शाम केएसवाई के सिंचाई कार्यों का मुआयना करने के बाद जब वह एक टीले पर बैठा पैंट और जूतों पर चिपटे छोटे-छोटे कांटे हटा रहा था तो उसे अपने भीतर एक विकल तड़प महसूस हुई थी. उसे लगा था अगर केएसवाई उसे यहीं काम दे दे तो जीवन की छुटी हुई डोर उसके हाथों में फिर आ सकती है. और उसी रात डिनर के दौरान उसने कॉन्‍फ्रेंस की मीडिया मैनेजर सिंथिया बागची से बिना सकुचाए कहा था कि वह केएसवाई के साथ जुड़ कर काम करना चाहता है. सिंथिया उसके काम से बहुत प्रभावित थी. उसने न केवल सारा काम तयशुदा समय पर कर दिखाया था, बल्कि पाठ-सामग्री और तस्‍वीरों की फोरमैटिंग इतने सलीक़े से की थी कि वह किताब कॉन्‍फ्रेंस के उद्घाटन के दिन तक प्रकाशित होकर आ गयी थी. सिंथिया ने बहुत उत्‍साह से कहा था:
‘ऑफ़कोर्स, मैं ईडी से बात करूंगी... आय एम रिअली हैप्‍पी कि आप मेनस्‍ट्रीम से बाहर आकर काम करना चाहते हो’.


(पांच)
और वह दो महीने के भीतर केएसवाई के हैड ऑफि़स में अपनी उम्‍मीद से ज्‍़यादा बड़े पद पर काम कर रहा था. बड़ौदा की भीड और शोर से बीस किलोमीटर दूर जंगल के ऐन बीच बने ऑफिस में पहला कदम रखते ही वह अपूर्व खुशी से भर गया था. उसे लगा था कि अपने जीवन में वह जिस अनाम चीज़ के लिए भटकता रहा है, वह उसके एकदम सामने है. लंबे- हरे पेड़ों और लताओं के झुरमुट, चिडि़यों की टीवीटीवी और अदृश्‍य झींगुरों की चिर्र-चिर्र के बीच काम करने की कल्‍पना से उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी थी.

ईडी शिवराम अय्यर ने उसका बहुत गर्मजोशी से स्‍वागत किया था.
‘ऑल यू हैव टू डू इज़ क्रिएट अ बज़ इन दी मीडिया...आपकी टास्‍क ये है कि ऑर्गनाइजेशन के काम को किस तरह विजि़बल बनाया जाए... इन बीस सालों में इतना काम हुआ है, वह सब बाहर आना चाहिए’.
अय्यर ने घनी मूंछों के बीच फूटती मुस्‍कुराहट के साथ उसकी तरफ़ कॉफ़ी का मग खिसकाते हुए कहा था. बाक़ी का माहौल अंशुल दुबे ने आंख मारते हुए समझा दिया था:
‘यहां सिर्फ़ काग़जी काम होता है. धूल-धक्‍कड़ और पसीने का काम फ़ील्‍ड वाले लोग करते हैं. हम यहां बैठकर ऐश करते हैं. इसके बाद जो समय बच जाता है उसमें रिपोर्ट्स पर चिडि़या बैठाते हैं और वाक्‍यों को दुरस्‍त करते हैं’.

उसके ज़ेहन में यह बात आज भी कई बार कौंधती है. बुरुंदी में गांव की शामलात ज़मीनों पर ग्रामीणों के अधिकार को लेकर एक सम्‍मेलन का आयोजन किया जा रहा था. सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए ग्राम पंचायतों को चिट्ठी भेजी जानी थी. अय्यर ने उसे अपने ऑफिस में बुलाया था. और सामने बैठते ही बोलना शुरू कर दिया था: हीयर इज़ द मोस्‍ट ऑपरच्‍यून मोमेंट टू शोकेस योर लिंग्विस्टिक ऑव्‍रा... पंचायत हैड्स के नाम एक लेटर तैयार करो... कीप इट टू दि बेसिक्‍स... शामलात लैंड्स को यूज करने में आने वाली प्रॉब्लम्‍स पर फ़ोकस रखो’.

उसने हिंदी में आधे पेज की एक चिट्ठी तैयार की थी जिसमें शामलात ज़मीनों की बृहत्‍तर उपयोगिता, उस पर दबंगों के कब्‍ज़े और सीमांत किसानों की समस्‍याओं का जिक्र किया गया था. उसने को‍शिश की थी कि चिट्ठी की भाषा को आम आदमी की बोली के नजदीक रखा जाए. इन चिट्ठियों के लिए लिफाफे भी तैयार किए गए. उन पर नाम और पता भी लिखा गया. और वह रात को बड़ौदा से बुरुंदी के लिए रवाना भी हो गया.

लेकिन अगले दिन ग्‍यारह बजे जब वह क्षेत्रीय ऑफिस पहुंचा तो लोगबाग तनाव में बैठे थे. स्‍मृति नाम की लड़की ने जाते ही बताया: सर, आपके लिए ईडी साहब का फ़ोन आया था. कह रहे थे कि अभी पंचायत वाली चिट्ठी प्रिंटिंग के लिए नहीं जाएगी’.

उसने बैठते ही कॉलबैक किया. शिवराम अय्यर ग़ुस्‍से में लगभग चीख रहे थे: हाउ कम, यू डिंट शेयर द फ़्लायर विद मी’. एक सेकेंड के लिए उसका दिमाग़ चकरा गया. उसने तो बुरुंदी के लिए निकलने से पहले उन्‍हें बाक़ायदा चिट्ठी की पीडीएफ़ मेल की थी. फिर यह सब क्‍या है! दिमाग़ ठिकाने पर आया तो उसने विनम्रता से कहा: लेकिन, सर मैंने तो आपको वह चिट्ठी कल ही मेल कर दी थी’. अय्यर क्षण भर के लिए चुप हुआ. उसे लगा कि शायद अय्यर को अपनी ग़लती का एहसास हो गया है. लेकिन अगले ही क्षण अय्यर पहले से ज्‍़यादा कर्कश स्‍वर में बोल रहा था:

हेल विद यू ऐंड योर चिट्टी... डोंट यू नो दैट आय कैंट रीड हिंदी...वेयर इज़ द इंग्लिश वर्शन, मैन ?’.

वह आज भी सोचता है कि क्‍या वह सिर्फ़ सहकर्मियों के सामने बेइज़्ज़त होन का दंश था या उसकी प्रतिक्रिया में कुछ और भी शामिल था?क्षेत्रीय ऑफिस में बैठे लोग अजीब तनाव में थे. तभी उसके भीतर वह हौल उठा: सर, आप जानते हैं...मीटिंग में सब कुछ आपके सामने ही तय हुआ था... ऐंड यू वर ओके विद दी आइडिया ऑफ़ डूइंग द होल थिंग इन हिंदी... मैंने सोचा कि जब आपसे बात हो ही चुकी है तो इसे आसान भाषा में क्‍यों न लिखा जाए...जिसे लोग समझ सकें...’. लेकिन शिवराम अय्यर कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे: आपको सोचने के लिए किसने कहा था...
जस्‍ट डू वॉट आय एम टेलिंग यू... आय वांट दिस ब्‍लडी चिट्टी इन इंग्लिश ऐंड यू हैव थर्टी मिनट्स टू गो’.

उसने चिट्ठी का अंग्रेजी में अनुवाद कर तो दिया लेकिन उसका मन जैसे चिथ गया. उसे यह पूरी क़वायद बेहूदा लगी थी. वह ज्‍़यादा खिन्‍न तब हुआ जब अय्यर का मैसेज आया. उसने चिट्ठी में तीन पैरे और जोड़ दिए थे. अय्यर चाहता था कि अब इस चिट्ठी का हिंदी में अनुवाद किया जाए. दिमाग़ पर पत्‍थर रखकर उसने वह सब कर दिया. लेकिन यह देख कर देर कुढ़ता रहा कि चिट्ठी में कई लंबे-लंबे टेक्‍नीकल शब्‍द आ गए हैं जो अनुवाद के कारण लगभग अबूझ हो गए हैं. क्षेत्रीय ऑफिस के लोगों ने डरते-डरते कहा था कि पहले वाली चिट्ठी इससे बेहतर थी. वह उखड़ गया था. वर्कशॉप ख़त्‍म होने के बाद वह वापस बड़ौदा लौट गया लेकिन दो दिन तक ऑफिस नहीं गया. किसी का फोन भी नहीं आया.

तीसरे दिन वह इतनी जल्‍दी ऑफिस पहुंचा कि साफ़-सफाई वाले लोग उसे देख कर चौंक गए. उसने फटाफट अपना सिस्‍टम ऑन किया और शिवराम अय्यर को मेल लिखने लगा. जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यूं था:

आदरणीय अय्यर जी,

मेरा पहला डर यही है कि आप इसे कहीं हिंदी की राजनीति न समझ लें. मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि इसका हिंदी की राजनीति से कोई संबंध नहीं है. मेरा कहना केवल इतना है कि संस्‍था का काम इतना केंद्रीकृत क्‍यों होना चाहिए ?अगर हमें हिंदी के इलाक़ों के लिए कोई सामग्री तैयार करनी है तो उसे मूलत: हिंदी में ही क्‍यों नहीं लिखा जाना चाहिए?आंध्रा के लिए यही भाषा तेलुगु होनी चाहिए. आपने बुरुंदी कार्यक्रम के लिए जिस चिट्ठी का पहले हिंदी से अंग्रेजी में और फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कराया उसके कारण वह पूरी चिट्ठी अबूझ हो गयी. उसे देहात का आम आदमी क़तई नहीं समझ सकता.
ख़ैर, यह संस्‍था आपकी है और मैं यहां नया आदमी हूं. मुझे लगता है कि हमारे बीच में कुछ ऐसा अप्रिय घट चुका है कि मुझे अब यहां से चले जाना चाहिए.

मेल पढ़ने के बाद शिवराम अय्यर ने पहले सीनियर लोगों से बैठक की थी. और वह अपने केबिन में बैठा हुआ केवल इस बात की रिहर्सल कर रहा था कि जब अय्यर से सामना होगा तो उसे ठीक-ठीक क्‍या कहना चाहिए. मीटिंग ख़त्‍म होने के बाद पूरे फ़्लोर की हवा जैसे अचानक थम गयी थी.

अंशुल ने उसे एक कोने में ले जाकर कहा था:
‘आपका रवैया एकदम ग़लत है महाराज!यह महज़ एक रूटीन किस्‍म का काम होता है और आप इसे सिद्धांत बना कर देख रहे हैं. पंचायत के प्रधानों को ऐसी चिट्ठियां हर साल भेजी जाती हैं. उनका यही प्रारूप रहता है. आपसे जब चिट्ठी का मैटर तय करने के लिए कहा गया था तो इसका मतलब यही था कि आप पिछली चिट्ठी का मैटर देख कर साल और तारीख बदल देंगे.. बस्‍स’.

उसकी आंखों में देर तक कोई हरकत न देखने के बाद अंशुल ने फिर कहा था: अय्यर बहुत नाइस बंदा है... अभी नए हो इसलिए समझ नहीं पाए. वह इसी तरह बोलता है, लेकिन मन में कुछ नहीं रखता. तुम ये छोड़ने वोड़़ने की बात भूल जाओ... चलो, तुम्‍हें मैं लेकर चलता हूं...’.
‘नहीं अंशुल भाई.... आप मेरे भले की कह रहे हैं, लेकिन अब चीज़ें सामान्‍य नहीं रह पाएंगी’. उसने थैंक्‍स बोलने के बजाय अंशुल की हथेली अपने हाथों में दबा ली थी. अंशुल ने गहरी खीझ में कहा था: ‘ये मैडनेस है...और कुछ नहीं’.  


(छह)
बड़ौदा से दिल्‍ली गिरने के बाद वह तुमुल पवार के एक मीडिया प्रोजेक्‍ट से जुड़ा हुआ है. चार साल इसी में हो गए हैं. लेकिन तीन महीने पहले प्रोजेक्‍ट की फंडिंग ख़त्‍म हो गयी है. तुमुलजी इन बरसों में उसके काम से ख़ुश रहे हैं. एक साल पहले उन्होंने अलग से बुलाकर कहा था: मैं कोशिश कर रहा हूं कि आपके लिए यहां कोई स्‍थायी व्‍यवस्‍था हो जाए’.

आज सुबह जब वह प्रोजेक्‍ट रूम से निकल कर सीढि़यां चढ़ रहा था तो उसने तय कर लिया था कि आज तुमुल पवार से फिर पूछेगा कि उसका मामला कहां तक पहुंचा. उसने चलने से पहले योजना भी बना ली थी कि पहले वह उनकी नयी किताब की चर्चा करेगा और फिर सही मौक़ा मिलते ही पूछ लेगा: सर, मेरे मामले में क्‍या चल रहा है.

तुमुलजी का कमरा सामने था. बीच में बस एक छोटी सी गैलरी भर थी. लेकिन पता नहीं यकायक क्‍या हुआ कि उससे आगे नहीं बढ़ा गया. आखि़री तीन पैडि़यों तक आते-आते वह झल्‍ला गया. कोई कसैलापन था, जो एक क्षण में उसके वजूद पर तारी हो गया. उसे लगा कि इस तरह तो वह खण्‍ड-खण्‍ड हो जाएगा. उसके पांव वहीं जाम हो गए. भीतर अलग-अलग आवाज़ों का एक हुजूम इकट्ठा होने लगा... आज तक भी तो जैसे-तैसे चल ही रहा है... तुम ही तो कहते रहे हो कि सबसे अहम चीज़ आदमी की गरिमा और समानता पर अड़े रहना है... कि कोई भी ताक़त हो उसके सामने अपनी समानता का समर्पण नहीं करना है... कि दीनता दिखाना अपनी आदमियत को खो देना होता है... कि...कि अगर तुम लाइन के आखि़री आदमी के साथ खड़े हो तो कभी विफल नहीं हो सकते....

बस तभी उसे महसूस हुआ था कि उसके कानों में आरोपों की फेहरिस्‍त लेकर चिल्‍लाने वाली आवाज़ें अचानक वापस लौट गयी हैं. अभी कुछ देर पहले इस घुमावदार ज़ीने पर चढ़ते हुए उसे लग रहा था कि उसके आसपास हवा ग़ायब हो गयी है. कुछ था जो बार-बार पैरों और माथे से टकरा जाता था. लेकिन, लौटते हुए वह एकदम भारहीन हो गया. वह प्रोजेक्‍ट रूम में लगभग दौड़ते हुए पहुंचा. उसे लग रहा था कि जैसे उसने ख़ुद को एक आसन्‍न भू-स्‍खलन से बचा लिया है.



(सात)
पुनश्‍च: परिस्थितिगत साक्ष्‍यों तथा अन्‍य तथ्‍यों की रोशनी में इस कहानी का आखिरी भाग बाद में झूठ पाया गया. दरअसल, कहानी में यह प्रसंग इसलिए जोड़ा गया था क्‍योंकि संपादक कहानी के नायक को पराजित होते नहीं देखना चाहता था. उसने मेल में लिखा था: नायक को पराजित दिखाना एक उत्‍तर-आधुनिक फ़ैशन है... नायक को ऐसा होना चाहिए कि पाठक उससे संघर्ष की प्रेरणा ले सके. चूंकि लेखक को कहानी छपवानी थी इसलिए उसे आखि़री पैरा बदलना पड़ा.  

सच्‍चाई यह है कि उसके पैसे तेज़ी से ख़त्‍म होते जा रहे थे और उस दिन वह सीढि़यों से वापस लौटने के बजाय तुमुलजी के कमरे तक पहुंचा था. उसने दरवाज़े पर बहुत शिष्‍टता से ‘नॉक’ किया था. डर और सम्‍मान के मिश्रित भाव के साथ झुकने व खड़े होने की असंभव भंगिमा में उसने तुमुलजी को नमस्‍ते की थी. तुमुलजी कम्‍प्‍यूटर पर काम कर रहे थे. वे ‘बैठिये’ कहना भूल गए थे. इसलिए वह खड़ा रहा. उसने लटपटाते हुए तुमुलजी की नयी किताब की चर्चा शुरू की. तुमुलजी ने कोई ख़ास रूचि नहीं दिखाई. उसने इस स्थिति की कल्‍पना नहीं की थी. उसे लगा कि वह नौकरी की बात सीधे नहीं छेड़ सकता. लेकिन फिर महसूस हुआ कि अगर वह इसी तरह खड़ा रहा तो उसकी टांगें जवाब दे जाएंगी. उसने बमुश्किल कहा: ठीक है सर... मैं चलता हूं. तुमुलजी ने हां-हूं कुछ नहीं कहा. उसके आने, खड़े रहने और जाने का उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. कमरे से बाहर आते ही उसने इस तरह गहरी सांस ली कि जैसे वह किसी बहुत छोटे से छेद से जान बचाकर बाहर आया था.

उसने यह बात प्रोजेक्‍ट की जूनियर रिसर्चर गरिमा यादव के साथ शेयर की थी. और गरिमा से मुझे यह शायद एक साल बाद पता चला था कि एक दिन वह तुमुलजी के कमरे में बैठा लगभग रिरिया रहा था... सर, मेरे पास केवल दो महीने के पैसे रह गए हैं... ऐसे कब तक चल पाएगा?       कमरे में थोड़ी देर चुप्‍पी रही. फिर तुमुलजी की झल्‍लाहट भरी आवाज़ आई:

‘यार, तुमने तो मेरी ले ली है... तुमसे मैंने स्‍थायी होने की बात क्‍या कह दी... पैसे नहीं हैं...पैसे नहीं हैं...अरे नहीं हैं तो कहीं और काम ढूंढ लो’.

गरिमा बता रही थी कि उस दिन वह एक बिल पर साइन कराने के लिए तुमुल पवार के कमरे की तरफ़ जा रही थी. तुमुल को ऊची आवाज़ में बोलते सुन वह दरवाज़े के बाहर ठिठक गयी और फिर वापस लौट आई. गरिमा कह रही थी कि इस घटना के बाद वह कभी इंस्‍टीट्यूट नहीं आया. उसे किसी ने कहीं देखा भी नहीं. और तो और जब जब उसे फ़ोन किया तो यही सुनने को मिला: आपके द्वारा डायल किया गया नंबर मौजूद नहीं है.        
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मेघ-दूत : मार्केस : मैं सिर्फ़ एक फ़ोन करने आई थी (अनुवाद-विजय शर्मा)

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मार्केस की कहानियों का जादुई यथार्थ यथार्थ को उसकी सम्पूर्ण निर्ममता और विडम्बना के साथ प्रस्तुत करता है. चीजें जिस तरह से जटिल और क्रूर होती गयी हैं उन्हें व्यक्त करने का यह एक साहित्यिक तरीका था जिसे मार्केस ने तलाश किया था जो बाद में सभी भाषाओँ में लोकप्रिय हुआ. कभी अस्तित्ववादी लेखकों ने इसी तरह के प्रयोग किये थे.

एक स्त्री अपने पति को सिर्फ एक फोन करने के लिए घर से बाहर निकलती है और फिर जो उसके साथ होता है उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.

IOnly Came To Use The Phone’ मार्केस की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसका अनुवाद विजया शर्मा ने अंग्रेजी से हिंदी में किया है. विजय शर्मा का अनुवाद के क्षेत्र में बड़ा कार्य है. ‘अपनी धरती अपना आकाश : नोबेल के मंच से, ‘वॉल्ट डिज्नी: ऐनीमेशन का बादशाह’, ‘अफ़्रो-अमेरिकन स्त्री साहित्य’, ‘स्त्री, साहित्य और नोबेल पुरस्कार’, ‘क्षितिज के उस पार से’, ‘सात समुंदर पार से (प्रवासी साहित्य विश्लेषण), ‘देवदार के तुंग शिखर से’, ‘हिंसा, तमस एवं अन्य साहित्यिक आलेखआदि उनकी कृतियाँ हैं.


मैं सिर्फ़ एक फ़ोन करने आई थी
Gabriel García Márquez

विजय शर्मा





संत की एक दोपहर खूब वर्षा हो रही थी जब मारिया डि ला लुज़ सर्वान्टेस अकेली बार्सीलोना लौट रही थी. उसकी किराए की कार मोनेग्रोस के रेगिस्तान में खराब हो गई. वह सत्ताइस साल की समझदार, सुंदर मैक्सिकन थी. जिसने कुछ साल पहले तक गायिका के रूप में खूब नाम कमाया था. उसका विवाह कैबरे जादूगर से हुआ था. अपने कुछ रिश्तेदारों से जरागोजा में मिलने के बाद शाम को वह अपने पति से मिलने वाली थी. तूफ़ान में एक घंटे तक उस रास्ते से तेजी से गुजरने वाली कार और ट्रक को रोकने के लिए उसने  इशारा किया और अंत में एक जर्जर बस ड्राइवर को उस पर दया आई. उसने पहले ही बता दिया कि वह बहुत दूर नहीं जा रहा था.
“कोई बात नहीं,” मारिया ने कहा, “मुझे केवल एक फ़ोन करना है.”

यह सत्य था, उसे केवल अपने पति को फ़ोन करके यह बताना था कि वह सात बजे से पहले घर नहीं पहुँच पाएगी. एप्रिल में छात्रों वाला कोट और तटीय जूते पहने वह एक भीगी हुई छोटी चिड़िया-सी लग रही थी. वह इतनी परेशान हो गई थी कि कार की चाभियाँ लेना भूल गई. सैनिक ढ़ंग से ड्राइवर की बगल सीट पर बैठी औरत ने मारिया को तौलिया और कंबल दिया. उसने सरक कर मारिया को बैठने के लिए जगह भी दी. मारिया ने तौलिए से स्वयं को पोंछा और कम्बल लपेट कर बैठ गई. उसने सिगरेट जलाने की कोशिश की पर उसकी माचिस भींग गई थी. जिस स्त्री ने उसे सीट दी थी, उसी ने उसे लाइट दी और अभी भी सूखी बची सिगरेटों में से एक माँगी. जब वे सिगरेट पी रही थीं मारिया को अपनी मुसीबत किसी से साझा करने की इच्छा हुई. वर्षा तथा बस की खड़खड़ाहट के कारण उसने ऊँचे स्वर में बोलने की कोशिश की. उस औरत ने अपने होंठों पर अँगुली रख कर उसे बरज दिया.

“वे सो रही हैं,” वह फ़ुसफ़ुसाई.
मारिया ने उसके कंधे के ऊपर से देखा. बस अलग-अलग उम्र की औरतों से भरी पड़ी थी और वे अलग-अलग मुद्राओं में उसी की तरह कंबल में लिपटी सो रही थीं. उनकी हवा उसे भी लग गई और वह भी गुड़ी-मुड़ी हो वर्षा के शोर में डूब गई. जब वह जगी, अंधेरा हो चुका था और तूफ़ान बर्फ़ीली रिमझिम में बदल गया था. उसे कुछ पता न चला कि वह कितनी देर सोई और दुनिया के किस छोर पर वे पहुँच गए थे. उसकी पड़ौसन सतर्क थी.

“हम कहाँ हैं?” मारिया ने पूछा.
“हम पहुँच गए हैं”, औरत ने उत्तर दिया.
बस कोबल स्टोन वाले आहाते में घुस रही थी, पेड़ों के जंगल से घिरी एक विशाल, धुँधली पुरानी इमारत जो देखने में पुराना कॉन्वेंट लग रही थी. आहाते की लैम्प की रोशनी में बस में निश्चल बैठे यात्री नाममात्र को दीख रहे थे, जब तक कि उस औरत ने उन्हें मिलिट्री ढ़ंग से बाहर निकलने का आदेश नहीं दिया. एक आदिम आदेश जैसा कि एलीमेंट्री स्कूल में दिया जाता है. वे सब उम्रदराज औरतें थीं. उनकी चाल इतनी धीमी थी कि आँगन के नीम अंधेरे में वे स्वप्न की परछाइयों की मानिन्द लग रही थीं. अंत में उतरने वाली मारिया ने सोचा कि वे सब धार्मिक बहनें (नन) थीं. वह पक्के तौर पर कुछ समझ न पाई जब उसने देखा कि उन औरतों को यूनीफ़ॉर्म पहनी बहुत सारी औरतों ने बस के दरवाजे से उतारा, उनको सूखा रखने के लिए उनके सिर पर कंबल खींच कर उढ़ा दिया और उन्हें एक लाइन से खड़ा कर दिया. यह सब कुछ बिना बोले बल्कि निश्चित, दबंग तालियों के इशारे पर किया गया. मारिया ने गुडबॉय कहा और जिस औरत की सीट उसने साझा की थी उसे कंबल लौटाना चाहा. लेकिन उस औरत ने उसे कहा कि जब तक वह आँगन पार करे कंबल से अपना सिर ढ़के रखे और बताया कि इसे पोर्टर ऑफ़िस में लौटा दे.

“क्या यहाँ टेलीफ़ोन है?” मारिया ने पूछा.
“है न,” उस औरत ने कहा. “वे तुम्हें दिखा देंगे.” उसने एक और सिगरेट माँगी, मारिया ने उसे पूरा भींगा पैकेट दे दिया. “ये रास्ते में सूख जाएँगी,” वह बोली. चलती गाड़ी में चढ़ते हुए उस औरत ने गुडबॉय लहराया और तकरीबन चिल्लाते हुए ‘गुड लक’ कहा. मारिया को बिना कुछ बोलने का मौका दिए बस रवाना हो गई.

मारिया बिल्डिंग के गेट की ओर दौड़ने लगी. एक मेट्रन ने जोर से ताली बजा कर उसे रोकना चाहा पर उसे दबंग आवाज में चिल्लाना पड़ा: ‘स्टॉप, आई सेड!” मारिया ने कंबल के नीचे से झाँका. उसे एक जोड़ी ठंडी आँखें और वर्जना करती एक तर्जनी, अपनी ओर लाइन में लगने को दिखाती नजर आई. उसने आज्ञा का पालन किया. एक बार बरामदे में पहुँचते ही वह झुंड से अलग हो गई. उसने पोर्टर से पूछा कि फ़ोन कहाँ है. एक मेट्रन ने व्यंग्यात्मक लहजे में “इस ओर, सुंदरी, टेलीफ़ोन इस ओर है” कहते हुए उसे कंधे पर थपका कर लाइन में वापस खड़ा कर दिया.

मारिया दूसरी औरतों के साथ एक धुँधले गलियारे में चलती हुई एक डॉरमेट्री में पहुँची जहाँ मेट्रन ने कंबल ले लिए और उन्हें उनके बिस्तर देने शुरु किए. मारिया को वह जरा दयालु और बड़े ओहदे वाली लगी, वह एक सूचि में लिखे नामों का मिलान नई आने वालियों के कपड़े पर सिले टैग से कर रही थी, जब वह मारिया के पास पहुँची उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वह अपनी पहचान पहने हुए नहीं है.

“मैं केवल फ़ोन करने आई हूँ,” मारिया ने उसे बताया.
उसने बड़ी बेताबी से बताया कि हाईवे पर उसकी कार खराब हो गई थी. उसका पति जो पार्टियों में जादू दिखाता है, बार्सीलोना में उसका इंतजार कर रहा है. आधी रात से पहले उसके तीन कार्यक्रम हैं. वह अपने पति को बताना चाहती है कि वह समय पर उसके पास नहीं पहुँच सकेगी. तकरीबन सात बज रहे थे. वह दस मिनट में घर छोड़ेगा और उसे डर है कि यदि वह समय से न पहुँची तो वह सारे कार्यक्रम रद्द कर देगा. लगा मेट्रन उसकी बातें ध्यान से सुन रही है.

“तुम्हारा नाम क्या है?” उसने पूछा.
मारिया ने चैन की साँस लेते हुए अपना नाम बताया. लेकिन कई बार लिस्ट देखने पर भी उसे वह न मिला. खतरा सूँघते हुए उसने दूसरी मेट्रन से पूछा, जिसके पास बताने को कुछ न था. उसने कंधे उचका दिए.

“लेकिन मैं सिर्फ़ फ़ोन करने आई हूँ,” मारिया ने कहा.
“श्योर, हनी,” सुपरवाइजर ने उससे कहा. वह उसे बहुत मिठास (जो सच्ची कदापि नहीं थी) के साथ उसके बिस्तर की ओर ले चली. “अगर तुम अच्छी तरह रहोगी तो तुम जिसे चाहो उसे बुला सकोगी. लेकिन अभी नहीं, कल.”

तब मारिया के दिमाग में कुछ खटका हुआ. वह समझ गई कि बस में स्त्रियाँ ऐसे क्यों थीं, मानो वे एक्वेरियम के तल में हों. असल में उन्हें शामक दे कर नीम बेहोश किया गया था. और मोटी पत्थरों की दीवालों तथा ठंडी सीढ़ियों वाला यह अंधेरा महल असल में मानसिक रोगी स्त्रियों का अस्पताल था. वह भयभीत हो डॉरमेट्री से बाहर भागी, पर इसके पहले कि वह गेट तक पहुँचती मेकेनिक के कपड़े पहने एक विशालकाय मेट्रन ने अपने हाथ के भयंकर छपाटे से उसे रोक दिया और अपनी बाजुओं में जकड़ कर फ़र्श पर निश्चल कर दिया. उसके नीचे दबी हुई अवश मारिया ने अपनी बगल में देखा.

“भगवान के लिए, मैं अपनी मरी हुई माँ की सौगंध खा कर कहती हूँ, मैं केवल एक फ़ोन करने आई थी.” उसने कहा.
उसके चेहरे पर एक नजर डालते ही मारिया को पता चल गया कि पूरी तरह से इस पागल, उन्मादी सनकी– जिसका नाम अपने असामान्य बल के कारण हरकुलीना था–– से कोई भी विनती व्यर्थ है. वह कठिन मामलों की इनचार्ज थी, उसकी विशालकाय ध्रुवीय भालू जैसी बाँहें –जो मारने की कला में निपुण थी– से दो रोगियों की मौत हो चुकी थी. यह माना जा चुका था कि पहला केस दुर्घटना था. दूसरा स्पष्ट नहीं था. और हरकुलीना को चेतावनी दे कर सावधान कर दिया गया था कि अगली बार पूरी तौर पर जाँच होगी. यह एक जानी-मानी बात थी कि एक पुराने कुलीन परिवार की इस ब्लैक शीप का इतिहास पूरे स्पेन के विभिन्न मेंटल अस्पतालों में संदिग्ध दुर्घटनाओं से भरा हुआ था.

पहली रात उन्हें मारिया को नशे का इंजक्शन दे कर सुलाना पड़ा. जब सिगरेट पीने की तलब से वह सूर्योदय के पूर्व जागी उसकी कलाइयाँ और टखने बिस्तर पर छड़ों से बँधे हुए थे. वह चीखी पर कोई आया नहीं. सुबह जब उसका पति बार्सीलोना में उसका कोई सुराग न पा सका, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा क्योंकि उन लोगों ने उसे अपनी ही दुर्दशा में अचेत पड़ा पाया.

जब उसे होश आया, उसे नहीं मालूम था कि कितना समय बीत चुका था. पर अब दुनिया उसे प्रेम का सागर लग रही थी. उसके बिस्तर के बगल में एक प्रभावशाली वृद्ध नंगे पैर चल रहा था और उसके दो मजबूत हाथों तथा प्यारी-सी मुस्कान ने मारिया को जीवित रहने की खुशी दी. वह सैनीटोरियम का डॉयरेक्टर था.

बिना उससे कुछ कहे, बिना उसका अभिवादन किए हुए मारिया ने एक सिगरेट माँगी. उसने एक जला कर करीब पूरे भरे पैकेट के साथ उसे दे दी. मारिया अपने आँसू न रोक सकी.
“रो कर अपना हृदय हल्का कर लो,” डॉक्टर ने सहलाती आवाज में कहा. “आँसू सर्वोत्तम दवा हैं.”

मारिया ने बिना किसी शर्म के अपना पूरा हृदय उड़ेल दिया क्योंकि वह अपने प्रेमियों के साथ प्रेम के बाद बचे समय में यह कभी न कर पाई थी. सुनने के बीच डॉक्टर अपनी अँगुलियों से उसके बाल सहलाता रहा. उसकी सांस संतुलित रखने के लिए उसका तकिया ठीक करता रहा, उसे उसकी द्विविधा की भूलभुल्लैया से ऐसी मिठास और होशियारी से निकालता रहा जिसकी उसने कभी कल्पना न की थी. यह जादू उसके जीवन में पहली बार हो रहा था जब कोई पुरुष उसकी सारी बातें इतने मन से सुन रहा था, और बदले में उसके साथ हमबिस्तर होने की उम्मीद नहीं कर रहा था. एक लंबे समय के बाद जब वह अपना हृदय उड़ेल चुकी तब उसने अपने पति से फ़ोन पर बात करने की आज्ञा माँगी.

डॉक्टर अपने पेशे की पूर्ण गरिमा के साथ उठ खड़ा हुआ. “अभी नहीं प्रिंसेस,” उसने पहले से भी ज्यादा मुलामियत से उसके गाल थपथपाते हुए कहा. “सब काम समय पर होंगे.” दरवाजे से उसने उसे बिशप का आशीर्वाद दिया, उस पर विश्वास रखने के लिए कहा और सदैव के लिए गायब हो गया.
उसी दोपहर मारिया को एक क्रमांक और वह कहाँ से आई है, उसकी पहचान के रहस्य आदि के बारे में कुछ ऊपरी तथ्यों के साथ पागलखाने में भर्ती कर दिया गया. हाशिए पर डॉक्टर ने अपने हाथ से एक मूल्यांकन लिखा: विक्षुब्ध.
जैसा कि मारिया ने सोचा था, उसके पति ने तीनों कार्यक्रमों के लिए उनका होर्टा जिले के घर अपने समय से आधा घंटा देर से छोड़ा. उनके दो वर्ष के मुक्त और बेहद संतुलित संग रहने के दौरान यह पहला अवसर था जब वह लेट थी. और उसने अनुमान लगाया कि यह पूरे क्षेत्र में होने वाली मूसलाधार बारिश के कारण हुआ होगा. बाहर जाने से पहले उसने दरवाजे पर रात भर की अपनी योजना का एक नोट लगा दिया.
पहली पार्टी में जहाँ सारे बच्चे कंगारू की पोशाक पहने हुए थे उसने अपना सर्वोत्तम जादू अदृश्य मछली वाला कार्यक्रम छोड़ दिया. क्योंकि यह वह बिना मारिया के नहीं कर सकता था. उसका दूसरा कार्यक्रम व्हीलचेयर में बैठी तिरावने वर्ष की एक बुढ़िया के घर में था. जिसे गर्व था कि वह अपने पिछले तीस बर्थडे, हर बार एक अलग जादूगर के साथ मनाती है. वह मारिया की गैरहाजरी से इतना परेशान था कि सामान्य ट्रिक्स पर भी अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था. अपना तीसरा प्रोग्राम फ़्रेंच पर्यटकों के एक ग्रुप को उसने कैफ़े रैमब्लास, जहाँ वह हर रात जाता था, में बड़े बेमन से दिया. पर्यटकों ने जो देखा उन्हें विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उन लोगों ने जादू को नकारा हुआ था. हर शो के बाद उसने अपने घर टेलीफ़ोन किया और हताशा में मारिया के उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा. अंतिम बार फ़ोन करने के बाद वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सका, उसे अवश्य कुछ हो गया है.

पब्लिक परफ़ॉमेंस के लिए मिली हुई वैन से घर लौटते हुए उसने पैसिओ द ग्रसिया के किनारे लगे हुए वसंत में खूबसूरत पॉम वृक्षों को देखा और इस अशुभ सोच से काँप गया कि मारिया के बिना शहर कैसा लगेगा. उसकी अंतिम आशा पर पानी फ़िर गया जब उसने दरवाजे पर लगे अपने नोट को ज्यों-का-त्यों देखा. वह इतना बेहाल हो गया कि बिल्ली को खाना देना भी भूल गया.

जब मैं यह लिख रहा हूँ मुझे भान हुआ कि उसका असली नाम कभी नहीं जाना, क्योंकि बार्सीलोना में हम उसे उसके पेशे के नाम: ‘सेटर्नो द मेजीशियन’ से ही जानते थे. वह एक अजीब किस्म का आदमी था और उसका सामाजिक अनाड़ीपन सुधार के बाहर था. परंतु उसकी कमी की भरपाई मारिया कुछ ज्यादा ही कर पाती थी. यह वही थी जिसने उसका हाथ पकड़ कर समुदाय के भयंकर रहस्यों में साथ दिया, जहाँ कोई आदमी आधी रात के बाद अपनी पत्नी को बुलाने की कल्पना नहीं कर सकता है. पहुँचने के बाद पहले सेटर्नो ने इस घटना को भूल जाना चाहा. अत: आराम से उस रात जारागोजा फ़ोन किया जहाँ बूढ़ी सोती हुई दादी ने उसे बिना किसी खतरे के बताया कि मारिया लंच के बाद विदा हो गई है. वह सूर्योदय के समय केवल एक घंटे सोया. उसने एक भ्रामक स्वप्न देखा जिसमें उसने मारिया को खून के छींटे वाले शादी के जोड़े में देखा, वह भयभीत करने वाले विश्वास के साथ जागा कि इस बड़ी दुनिया में बिना उसके ही झेलने के लिए वह उसे सदा के लिए छोड़ गई है.

पिछले पाँच सालों में उसके सहित वह तीन भिन्न लोगों को छोड़ चुकी थी. मिलने के छ: महीनों के भीतर ही जब वे एंजोरस जिले में नौकरानी के कमरे में प्यार करने के पागलपन के सुख से ऊब गए थे, उसने उसे भी मैक्सिको शहर में छोड़ दिया था. एक रात अकथनीय कामुकता के बाद सुबह मारिया जा चुकी थी. वह अपने पीछे सब कुछ छोड़ गई थी यहाँ तक कि अपनी शादी की अँगूठी भी, उस पत्र के साथ जिसमें उसने बताया था कि वह प्यार के वहशीपन की यंत्रणा सहने में असमर्थ है.सेटर्नो ने सोचा कि वह अपने पहले पति के पास लौट गई है. हाईस्कूल के साथी जिसने उससे छिपा कर शादी की थी, जब वह नाबालिग थी. और जिसने उसने दो साल के प्रेमविहीन जीवन के बाद एक दूसरे आदमी के लिए छोड़ दिया था. लेकिन वह अपने माता-पिता के घर गई थी. और सेटर्नो उसे किसी भी कीमत पर वापस लाने उसके पीछे-पीछे गया.उसकी याचना बेशर्त थी. उसने इतने वायदे किए जो उसके बस में न थे. मगर मारिया का अजेय निश्चय आड़े आ गया. “प्यार थोड़े समय के लिए होता है और प्यार लंबे समय के लिए होता है.” वह बोली. और उसने निर्दयता से अपनी बात समाप्त की, “यह एक अल्पकालीन प्यार था.” उसकी कठोरता के सामने वह हार गया. ऑल सेंट्स डे की भोर में जब वह जानबूझ कर एक साल से छोड़े अपने अनाथ कमरे में लौटा तो बैठक में सोफ़े पर उसने मारिया को क्वाँरी वधु द्वारा पहने जाने वाले नारंगी के फ़ूलों वाले मुकुट और लंबी पोशाक में सोए हुए पाया.

मारिया ने उसे सच्चाई बताई. जमी-जमाई जिंदगी वाला नि:संतान विधुर उसका नया मंगेतर कैथोलिक धर्म के अनुसार सदा के लिए विवाह का मन बनाए तैयार उसे विवाह की बेदी पर इंतजार करता छोड़ गया. उसके माता-पिता ने इसके बावजूद रिसेप्शन देने का निश्चय किया. वह उनके संग नाटक करती रही. उसने नृत्य किया, संगीतकारों के संग गाना गाया, खूब छक कर पीया और बाद में उदास हो उसी स्थिति में आधी रात को सेटर्नो को खोजने निकल पड़ी.
वह घर पर नहीं था पर जहाँ वे छिपते थे वहाँ हॉल के गमले में उसे चाभी मिल गई. इस बार उसका समर्पण बिना शर्त था. ‘‘इस बार कितने दिन?” उसने पूछा था. वह विनिशियस ड मोरियस की पंक्ति में बोली: “जब तक चले तब तक, शाश्वत है प्रेम.” दो साल के बाद भी वह शाश्वत था.

लगता है मारिया में प्रौढ़ता आ गई थी. उसने अभिनेत्री बनने के अपने ख्वाब को तिलांजलि दे दी थी. पति के लिए काम और बिस्तर में पूर्णत: समर्पित हो गई थी. पिछले वर्ष के अंत में उन्होंने पेरपीग्नान में जादूगरों के एक समागम में भाग लिया और घर लौटते हुए पहली बार बार्सीलोना देखने गए. वह उन्हें इतना अच्छा लगा कि लगा कि आठ महीनों से वे वहीं रह रहे थे. उन्हें वह इतना जँच गया कि होर्टा की बगल में काटालोनियन में उन्होंने एक घर खरीद लिया. यह बहुत कोलाहलपूर्ण था. उनके पास दरबान-नौकर भी नहीं था. पर वहाँ पाँच बच्चों के लिए काफ़ी स्थान था. कोई जितनी खुशी की आशा कर सकता है, उनकी खुशी आशातीत थी. तब तक जब तक कि उसने सप्ताह अंत में किराए की एक कार ली. और अपने रिश्तेदारों से मिलने ज़ारागोजा गई. सोमवार रात सात बजे तक वापस लौटने की बात कह कर. गुरुवार की सुबह तक उसकी कोई खबर न थी.

अगले सोमवार को किराए की कार के बीमा वालों का फ़ोन आया और उन्होंने मारिया के विषय में पूछा. “मुझे कुछ नहीं मालूम,” सैटर्नो ने कहा. “उसे ज़ारागोजा में खोजो.” उसने फ़ोन रख दिया. एक सप्ताह बाद एक पुलिस ऑफ़ीसर ने घर पर सूचना दी कि मारिया ने जहाँ कार छोड़ी थी वहाँ से नौ सौ किलोमीटर दूर कैंडिज़ में पूरी तरह उजाड़ अवस्था में कार मिल गई है. ऑफ़ीसर जानना चाहता था क्या उसे चोरी के बारे में कोई और जानकारी है. उस समय सेटर्नो अपनी बिल्ली को खाना खिला रहा था. वह ऊपर नहीं देख रहा था जब उसने पुलिस वाले को साफ़-साफ़ कहा कि वे अपना समय बेकार न गँवाएँ. उसकी पत्नी उसे छोड़ गई है और उसे नहीं मालूम कि वह कहाँ है और किसके साथ है. उसका विश्वास इतना पक्का था कि ऑफ़ीसर को असुविधा अनुभव हुई. उसने अपने प्रश्न के लिए माफ़ी माँगी. उन्होंने केस बंद करने की घोषणा कर दी.

कैडैक्यूज में पिछले ईस्टर के अवसर पर सेटर्नो के मन में यह शंका फ़िर हुई कि मारिया उसे छोड़ जाएगी, जहाँ रोजा रेगास ने उन्हें नौका विहार के लिए आमंत्रित किया था. उस दिन का सिगरेट का दूसरा पैकेट पीने के बाद उसकी माचिस समाप्त हो गई. भीड़ भरे शोरगुल वाले टेबल के बीच से एक पतला बालों भरा हाथ जिसमें रोमन काँसे का ब्रेसलेट था आगे बढ़ा और उसने आग दी. वह जिस व्यक्ति को धन्यवाद दे रही थी, उसकी ओर बिना देखे ही उसने धन्यवाद कहा, परंतु जादूगर सेटर्नो ने उसे देखा– कमर तक झूलती एक काली चोटी वाला हड़ियल, सफ़ाचट किशोर, इतना पीला मानो मृत्यु हो. बार की खिड़कियों के पल्ले किसी तरह वसंत की उत्तरी हवा को सह सके, लेकिन वह मात्र एक सूती पाजामा और किसानों वाली चप्पलें पहने हुए था.

उन्होंने उसे ला बार्सीलोना बार में उन्हीं सूती कपड़ों और पोनीटेल की जगह लंबी दाढ़ी में पतझड़ के अंत तक दोबारा नहीं देखा. उसने दोनों का अभिवादन किया मानो पुराने मित्र हों. और जैसे उसने मारिया का चुम्बन लिया और जैसे मारिया ने उसे चूमा, सेटर्नो को शक हुआ कि वे चुपचाप बराबर मिलते रहे हैं. कुछ दिनों के बाद उसने देखा कि उनके घर की टेलीफ़ोन बुक में मारिया ने एक नया नाम और फ़ोन नंबर लिख रखा है और बेदर्द जलन. ईर्ष्या ने स्पष्ट कर दिया कि वे किससे हैं. घुसपैठिए की पृष्ठभूमि इसका पक्का सबूत था: वह एक अमीर परिवार का बाइस साल का इकलौता वारिस था. नेबल दुकानों की खिड़कियों की सजावट का काम करता था. उसकी ख्याति कभी-कदा बाईसैक्सुअल के रूप में थी, जो शादीशुदा औरतों को पैसों के एवज में सुख पहुँचाने के लिए बदनाम था. जिस दिन गई रात तक मारिया घर नहीं लौटी सेटर्नो स्वयं को जब्त किए रहा. इसके बाद वह रोज फ़ोन करने लगा, सुबह छ: से अगली भोर तक. शुरु में हर दो-तीन घंटों पर, बाद में जब भी वह फ़ोन के करीब होता. इस वास्तविकता में कि कोई उत्तर नहीं देता सेटर्नोका शहीदीपन सघन होता गया. चौथे दिन वहाँ झाड़ू लगाने वाली एक एंडालुसीयन औरत ने फ़ोन उठाया. “वह चला गया है,” वह बोली, उसे पागल करने वाली अनिश्चितता के साथ. सेटर्नो यह पूछने से खुद को नहीं रोक पाया कि क्या वहाँ मारिया है?

“मारिया नाम का कोई नहीं रहता,” औरत ने उसे बताया. “वह क्वाँरा है.”
“मुझे मालूम है,” उसने कहा. “वह वहाँ नहीं रहती है लेकिन कभी-कभी आती है, ठीक?”
औरत चिढ़ गई.
“कौन है वह आखीर?”

सेटर्नो ने फ़ोन रख दिया. उस औरत के इंकार ने उसके शक को पक्का कर दिया. वह अपना संतुलन खो बैठा. आने वाले दिनों में बार्सीलोना में वह जिसको भी जानता था सबको उसने वर्णानुक्रम में फ़ोन किए. कोई उसे कुछ न बता सका. लेकिन हर काल ने उसकी बेचैनी और गहरी कर दी, क्योंकि उसकी ईर्ष्या ने उसे हँसी का पात्र बना दिया था. लोग उसे भड़काने के लिए कुछ-न-कुछ कह देते और वह सुलग उठता. और तब उसे पता चला कि स खूबसूरत, पागल शहर में वह कितना अकेला और बेचारा है. यहाँ वह कभी भी खुश नहीं रह पाएगा. भोर में उसने बिल्ली को खाना दिया और अपने हृदय को मजबूत किया और मारिया को भूल जाने की सोची.

दूसरी ओर उधर दो महीनों के बाद भी मारिया सैनीटोरियम की रुटीन से तालमेल नहीं बिठा पाई थी – उसकी दृष्टि सदैव भुतहे डाइनिंग रूम पर शासन कर रहे जनरल फ़्रैंसिस्को फ़्रैंको के लिथोग्राफ़ पर टिकी रहती. अनगढ़ लंबी टेबल से जंजीर में बँधी थाली में परोसे सुबह-शाम का बेस्वाद खाना खा जैसे-तैसे वह जिंदा थी. प्रारंभ में चर्च के रिवाज के अनुसार दिन भर चलने वाले कर्मकांडों – प्रशस्ति, प्रार्थना, शाम की उपासना – का उसने जम कर विरोध किया. मनोरंजन कक्ष में बॉल खेलना, वर्कशॉप में बैठ कर नकली फ़ूल बनाना भी उसे अच्छा न लगता. हालाँकि उसी की तरह आई दूसरी औरतें यह सब पूरे उत्साह से करतीं और वर्कशॉप जाने को लालायित रहतीं. लेकिन तीसरा सप्ताह बीतते-न-बीतते मारिया भी अन्य लोगों के साथ तालमेल बिठाने लगी. डॉक्टरों के अनुसार वहाँ भर्ती प्रत्येक औरत प्रारंभ में ऐसा प्रतिरोध करती ही है और जैसे-जैसे समय व्यतीत होता है, समूह में घुलने-मिलने लगती है.

कुछ ही दिनों में सिगरेट की कमी को वहाँ की एक मेट्रन ने सुलझा दिया. वह उन्हें कीमत वसूल कर सिगरेट मुहैया कराती. मारिया के साथ भी प्रारंभ में उसका व्यवहार ठीक था लेकिन ज्यों पैसे खतम हुए वह उसे सताने लगी. बाद में वह भी दूसरी औरतों की भाँति कचड़े से सिगरेट के टुकड़ों से तम्बाखू निकाल कर कागज में लपेट कर सिगरेट बना कर अपनी तलब पूरी करने लगी. सिगरेट की उसकी तलब टेलीफ़ोन के पास जाने जैसी ही उत्कट थी. कुछ समय बाद बेमन से वह नकली फ़ूल बनाने लगी और उससे प्राप्त पैसों से उसकी समस्या कुछ हल हुई.

सर्वाधिक कठिन था रात का अकेलापन. धुँधली रोशनी में उसकी तरह कई अन्य औरतें जागती रहतीं. वे कुछ नहीं करतीं क्योंकि जंजीर से जकड़े और भारी ताले से बंद दरवाजे पर बैठी मेट्रन भी जागती रहती. एक रात यंत्रणा से बेचैन मारिया ने बगल के बिस्तर तक जाती जोरदार आवाज में पूछा:
“हम कहाँ हैं?”
कब्र में उसके बगल वाले बिस्तर से स्पष्ट आवाज आई:
“नरक के गढ़े में.”
“लोग कहते हैं कि यह अश्वेतों का देश है,” एक अन्य ने कहा, और यह सत्य है तभी तो गर्मियों में चाँद देख कर समुद्र की ओर मुँह करके कुत्ते भौंकते हैं.” एक अन्य ने यह बात इतने जोर से कही कि बात पूरे हॉल में गूँज गई. तालों के संग घिसटने वाली जंजीर की आवाज गैली जहाज जैसी थी. और दरवाजा खुला. पहरे पर तैनात एकमात्र सजीव उनकी निर्दयी अभिभाविका एक छोर से दूसरे छोर तक चहलकदमी करने लगी. मारिया भय से जकड़ गई जिसका कारण सिर्फ़ वही जानती थी.

सैनीटोरियम में दाखिल होने के पहले सप्ताह से ही रात्रि मेट्रन उसे गार्डरूम में अपने साथ सोने का प्रस्ताव दे रही थी. उसने स्पष्ट रूप से बिजनेस जैसी बात कही, सिगरेट, चॉकलेट या जो भी वह चाहे बदले में उसे मिलेगा. “तुम्हें सब कुछ मिलेगा,” मेट्रन ने काँपती हुई आवाज में कहा, “तुम रानी होओगी.” जब मारिया ने इंकार किया, उसने चाल बदली और वह छोटे-छोटे प्रेमपत्र उसके तकिए के नीचे, उसकी जेब और अप्रत्याशित स्थानों पर रखने लगी. उनमें लिखा पत्थर को पिघलाने वाला होता. मारिया को अपनी पराजय स्वीकार किए हुए डोरमेट्री की घटना के बाद एक महीने से ऊपर हो चुका है. जब उसे लगा कि बाकी मरीज सो चुकी हैं तो मेट्रन मारिया के बिस्तर के करीब आई और उसके कान में गंदी-अश्लील बातें फ़ुसफ़ुसाने लगी. साथ ही वह मारिया का चेहरा, भय से अकड़ी हुई गर्दन, कसी हुई बाँहें तथा बेजान टाँगे चूमने लगी. मेट्रन इतने आवेश में थी कि उसे मारिया की लकवाग्रस्त हालत भय का परिणाम नहीं वरन उसकी रजामंदी लगी और वह आगे बढ़ती गई. उसे तब पता चला जब मारिया ने उसे उल्टे हाथ का झन्नाटेदार झापड़ रसीद किया और मेट्रन बगल वाले बिस्तर पर जा गिरी.शोरगुल करती अन्य स्त्रियों के बीच से गुस्से से भरी मेट्रन उठ खड़ी हुई.

“कुतिया! जब तक तुझे अपने पीछे न घुमाया, हम यहीं सड़ेंगी.”
जून के पहले रविवार को बिना सूचना के गर्मियाँ आ पहुँचीं. आपातकाल की खबर हुई जब चर्च में प्रार्थना के दौरान पसीने से नहाई मरीज अपने बेडोल गाउन उतारने लगीं. थोड़े मजे के साथ मारिया देखने लगी, मेट्रन नंगी औरतों को अंधे चूजों की तरह ऊपर-नीचे दौड़ाती. इस हंगामें मे मारिया खुद को भयंकर चोटों से बचाती. उसने खुद को ऑफ़िस में अकेला पाया जहाँ मासूम टेलीफ़ोन की घंटी उसे पुकार रही थी. मारिया ने झटपट बिना कुछ सोचे-समझे रिसीवर उठा लिया, दूसरी ओर से मुस्कुराती हुई टेलीफ़ोन कंपनी की समय सेवा की आवाज आई:
“समय हुआ है पैंतालिस घंटे, बानवे मिनट और एक सौ सात सैकेंड.”

“धत्त,” मारिया ने कहा.
मजा लेते हुए उसने रिसीवर टाँग दिया. वह बाहर निकलने ही वाली थी कि उसे ज्ञान हुआ मानो उसके हाथ से एक अनोखा अवसर निकला जा रहा है. उसने बिना किसी तनाव के  छ: अंक डायल किए, हालाँकि हड़बड़ी के कारण उसे विश्वास न था कि उसे अपने नए घर का नंबर याद है. धड़कते दिल से वह इंतजार करने लगी. उसने अपने फ़ोन की चिर-परिचित उदास आवाज सुनी, एक, दो, तीन बार और अंत में बिना उसके वाले घर में उस आदमी की आवाज सुनी जिसे वह प्यार करती थी.
“हेलो?”
उसे आँसूओं से भरे अपने गले की अवरुद्धता के कारण थोड़ा रुकना पड़ा.
“बेबी, स्वीटहार्ट,” उसांस भर कर उसने कहा.

उसके आँसू उस पर हावी हो गए. लाइन के दूसरी ओर संक्षिप्त लेकिन डरावना सन्नाटा था और ईर्ष्या से भरी आवाज पीक की तरह बाहर निकली:
“रंडी!”
और उसने रिसीवर जोर से पटक दिया.
उस रात मारिया गुस्से की झोंक में आ गई और उसने खाने के कमरे में लगे हुए जनरल के फ़ोटो को खींच उतारा और गार्डेन की ओर खुलने वाली स्टेनग्लास की खिड़की पर दे मारा, खुद लहुलुआन फ़र्श पर गिर पड़ी. उसमें इतना क्रोध भरा हुआ था कि उसे काबू में करने आई मेट्रनकी कोशिशें बेकार हो गईं.अंतत: उसने देखा कि हरकूलीना हाथ बाँधे दरवाजे पर खड़ी उसे घूर रही थी. मारिया ने खुद को उनके हवाले कर दिया. शक नहीं कि वे उसे हिंसक मरीजों वाले वार्ड में घसीट ले गईं. उस पर पानी की मोटी बौछार डाल कर शांत किया, और टर्पेंटाइन की सूई उसके पैरों में घुसेड़ दी.टर्पेंटाइन से हुई सूजन ने उसे चलने-फ़िरने से लाचार कर दिया. मारिया को विश्वास हो गया कि वह चाहे कुछ भी कर ले इस नरक से छुटकारा नहीं पा सकती है. अगले सप्ताह जब वह डोरमेट्री में वापस आई, रात को वह चुपके से मेट्रन के कमरे में गई और दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खुलते ही उसने मेट्रन से उसके साथ सोने की अग्रिम कीमत माँगी, मेट्रन उसके पति को संदेश भेजे. मेट्रन राजी हो गई, लेकिन इस शर्त पर की यह सारा कुछ बिल्कुल गुप्त रहना चाहिए. उसने अपनी तर्जनी दिखाते हुए कहा.
“अगर उन्हें पता चला तो तुम मरोगी.”

अगले रविवार सेटर्नो जादूगर अपनी सर्कस वैन लिए हुए मारिया को वापस ले जाने स्त्रियों के मानसिक अस्पताल पहुँचा. उसने मारिया की वापसी के लिए अपनी वैन खूब सजाई हुई थी. डॉयरेक्टर ने खुद उसकाअपने ऑफ़िस में स्वागत किया, ऑफ़िस जो खूब साफ़-सुथरा और ऐसे करीने से सजा हुआ था मानो युद्धपोत हो. उसने बड़े प्रेम से उसकी पत्नी के बारे में रिपोर्ट पेश की. मालूम नहीं वह यहाँ कैसे और कहाँ से आई. उसने उससे बात करके दाखिले का फ़ॉर्म भरवाया. उसके दाखिले के दिन जो जाँच शुरु हुई वह अब भी जारी है. जो बात डॉयरेक्टर को हलकान कर रही थी वह थी कि सैटर्नो को उसकी पत्नी का पता कैसे मिला. सैटर्नो ने मेट्रन को बचाया.

“इंस्योरेंस कंपनी ने मुझे बताया,” उसने कहा.

डॉयरेक्टर ने संतोष से गर्दन हिलाई. “पता नहीं इंस्योरेंस कंपनी को कहाँ से सब कुछ पता चल जाता है,” उसने कहा. उसने अपने सामने पड़ी मारिया की फ़ाइल पर नजर गड़ाते हुए निष्कर्ष दिया:
“उसकी दशा बहुत गंभीर है.”

वह सैटर्नो जादूगर को उसकी पत्नी से मिलने की आज्ञा देने को राजी था बशर्ते वह पत्नी की दशा को देखते हुए नियमों का बिना कोई प्रश्न पूछे पालन करे. उसने मारिया के बर्ताव के बारे में बताया, सावधानी बरतनी होगी ताकि उसका गुस्सा फ़िर से न भड़क जाए, उसकी दशा दिन-पर-दिन खराब होती जा रही है.

“कितना आश्चर्य है,” सैटर्नो ने कहा. “वह सदा से तुनक मिजाज थी, लेकिन उसे खुद पर नियंत्रण था.”

डॉक्टर ने अनुभव का संकेत दिया. “व्यवहार बरसों-बरस सुप्त रहते हैं और एक दिन फ़ूट पड़ते हैं.” उसने कहा. उसकी किस्मत अच्छी थी कि वह यहाँ आ गई. हमें ऐसे मरीजों के साथ सख्ती के साथ इलाज की विशिष्टा हासिल है.” फ़िर उसने मारिया के टेलीफ़ोन के प्रति अतिरिक्त लगाव के बारे में बताया.
“उसे हँसाओ,” उसने कहा.
“चिंता मत करो डॉक्टर,” सैटर्नो खुश होते हुए कहा. “यह तो मेरी खासियत है.”

मुलाकातियों का कमरा जेल कोठरी और कन्फ़ेशन सेल का मिला-जुला रूप था, यह पहले कॉन्वेंत में बाहरी लोगों से मिलने-जुलने का स्थान था. जैसा कि दोनों इंतजार कर रहे थे सैटर्नो का प्रवेश खुशियों का उन्माद ले कर नहीं आया. मारिया कमरे के बीच में खड़ी थी, उसकी बगल में दो कुर्सियाँ और एक टेबल तथा एक बिना गुलदस्ते के गुलदान रखा था. यह स्पष्ट था कि वह वहाँ से जाने के लिए तैयार हो कर आई थी. उसने स्ट्राबेरी रंग का कोट और किसी के दयापूर्वक दिए हुए बेरंग जूते पहने हुए थे. हरकूलीना नजरों से ओझल कोने में हाथ बाँधे खड़ी थी.जब अपने पति को भीतर आते देखा तब भी मारिया हिली नहीं. उसके किरचों से घायल चेहरे पर कोई भाव नहीं था. उन्होंने औपचारिक ढ़ंग से एक-दूसरे को चूमा.

“कैसा लग रहा है?” उसने पूछा.
“बेबी, खुश हूँ कि आखीर में तुम यहाँ हो,” वह बोली. “यह तो मौत थी.”

उनके पास बैठने का समय न था. आँसुओं में डूबते हुए मारिया ने अपनी भयंकर अवस्था बताई, मेट्रन की क्रूरता-पशुता, खाना कुत्तों के भी लायक नहीं है, अंतहीन रातें जब दहशत से उसकी पलकें भी नहीं झपकती हैं.

“मुझे पता नहीं मैं कितने दिनों, महीनों या सालों से यहाँ हूँ, सिर्फ़ इतना मालूम है कि हर अगला दिन पिछले दिन से अधिक डरावना होता है.” उसने अपनी पूरी आत्मा से उसांस भरी. “मैं नहीं सोचती कि अब कभी पहले जैसी हो पाऊँगी.”
“अब वह सब खतम हो गया है,” उसके चेहरे के ताजा घाव को अपनी अँगुलियों की पोरों से सहलाते हुए उसने कहा. “मैं हर शनिवार को आऊँगा. अगार डॉयरेक्टर ने इजाजत दी तो उससे भी ज्यादा बार. तुम देखना, सब कुछ ठीक हो जाएगा.”

उसने अपनी दहशत भरी आँखें सैटर्नो पर जमा दीं. सैटर्नो अपनी लुभाने वाली हरकतें करता रहा. उसने चासनी में डुबो कर झूठे किस्से बना कर डॉयेक्टर की बात बताई. “इसका मतलब है,” उसने निष्कर्ष दिया, “कि तुम्हें अभी स्वस्थ होने के लिए यहाँ कुछ और दिन रहना होगा.” मारिया वास्तविकता समझ गई.
“भगवान के लिए, बेबी,” स्तंभित उसने कहा, “तुम तो मत कहो कि मैं पागल हूँ!”
क्या तुमको ऐसा लगता है!” बात को हँसी में उड़ाते हुए उसने कहा. “लेकिन यह सब के लिए अच्छा होगा अगर तुम कुछ और समय यहीं रहो, अच्छी स्थिति में.”
“मगर मैं तुम्हें बता चुकी हूँ कि मैं यहाँ केवल फ़ोन करने आई थी!” मारिया ने कहा.

उसे नहीं मालूम था कि उसके डरावने आवेश के साथ कैसा व्यवहार करे. उसने हरकूलीना की ओर देखा. उसने संकेत को ग्रहण करते हुए अपनी कलाई घड़ी की ओर इशारा करते हुए बता दिया कि मुलाकात का समय समाप्त हो रहा है.मारिया ने इशारा समझा, उसने पीछे देखा, हरकूलीना झपट्टा मारने को तैयार थी. तब वह अपने पति की गर्दन सेचिपक गई और सच की पागल औरत की तरह बुक्का फ़ाड़ कर रोने लगी.जितने प्यार से संभव था वह उसे खुद से दूर करने लगा, उसने उसे हरकूलीना की दया पर छोड़ दिया जो पीछे से कूद पड़ी. मारिया को कोई मौका दिए बिना हरकूलीना ने अपने बाँए हाथ से उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया तथा अपने लौह दाँए हाथ से उसने उसकी गर्दन जकड़ ली और सैटर्नो से चिल्ला कर कहा:
“जाओ!”
भयभीत हो कर सेटर्नो भागा.

लेकिन अगले शनिवार जब वह कुछ संभल गया तो वह बिल्ली के साथ सैनीटोरियम लौटा. बिल्ली जिसे उसने अपने जैसे कपड़े पहना रखे थे: लाल-पीला लियोटार्डो का चुस्त कपड़ा, हैट और उड़ने के लिए बना लबादा. वह अपनी सर्कस वैन भीतर तक ले आया, और वहाँ उसने करीब तीन घंटे तक मजेदार करतब किए. जिसे वहाँ के लोगों ने बालकनी से देखा और चिल्ला-चिल्ला कर तथा अश्लील बातें कह कर उसे खूब बढ़ावा दिया. मारिया के अलावा सब वहाँ जमा थे वो न केवल उससे मिलने नहीं आई वरन उसने बालकनी से उसे देखा भी नहीं. सैटर्नो बहुत आहत हुआ.
“यह एक सामान्य व्यवहार है,” डॉरेक्टर ने उसे सान्त्वना दी. “यह ठीक हो जाएगा.”
लेकिन यह कभी ठीक नहीं हुआ.
मारिया को देखने सैटर्नो कई बार आया लेकिन वह उससे नहीं मिली और न ही उसने उसका पत्र स्वीकार किया. उसने चार बार पत्र बिना खोले, बिना किसी टिप्पणी के वापस कर दिया.सैटर्नो हार गया लेकिन उसने पोर्टर के ऑफ़िस में सिगरेट देना जारी रखा बिना यह जाने कि वे मारिया तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं. अंत में उसने वास्तविकता के सामने हार मान ली.

उसके बारे में किसी ने और कुछ नहीं सुना सिवाय इसके कि उसने दोबारा शादी कर ली और अपने देश लौट गया. बार्सीलोना छोड़ने से पहले उसने भूख से अधमरी बिल्ली को अपनी एक सामान्य गर्लफ़्रैंड को दे दिया, जिसने मारिया को सिगरेट देते रहने का वायदा किया था. लेकिन वह भी गायब हो गई. करीब बारह साल पहले रोसा रेगास ने उसे कोर्टे इंग्लिस डिपार्टमेंटल स्टोर में देखा था, सिर मुड़ा हुआ, किसी पूर्वी संप्रदाय का गेरुआ चोंगा पहने और गर्भवती थी वह.उसने रोसा को बताया कि जितनी बार संभव हुआ वह मारिया के लिए सिगरेट ले जाती रही तब तक जब तक कि एक दिन उसने वहाँ केवल अस्पताल का खंडहर पाया, जिसे बुरी स्मृति के दिनों की तरह ढ़हाया जा चुका था. आखिरी मुलाकात के समय मारिया ठीक लग रही थी, थोड़ी मोटी और वहाँ रहते हुए शांत और संतुष्ट. उस दिन उसने बिल्ली भी मारिया को दे दी क्योंकि सैटर्नो ने उसके खाने के लिए जो रकम दी थी वह खर्च हो चुकी थी.

(अप्रिल 1978)
____________________


डॉ. विजय शर्मा
326, न्यू सीतारामडेरा, एग्रिको, जमशेदपुर 831009
8789001919, 9430381718
vijshain@yahoo.com

कथा-गाथा : पुनश्च : नरेश गोस्वामी

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नरेश गोस्‍वामी के कथाकार ने अपने लिए जो प्रक्षेत्र चुना है वह पढ़े लिखे आदर्शवादी युवाओं के मोहभंग और उनकी यातनाओं का है. यह ऐसा इलाका है जो वर्षों से लहूलुहान है और अभी भी वहां रक्तपात इसी तरह जारी है.

नरेश गोस्वामी की कहानियों में बौद्धिकता वैचारिक आधार प्रदान करती है वहीँ संक्षिप्तता उसे और कसती है. पठनीयता उनकी सबसे अच्छी विशेषता है.

उनकी नई कहानी 'पुनश्च:'आपके लिए. 



पुनश्‍च:                                                                  
नरेश गोस्‍वामी  



ज सुबह जब उसने अपना सिस्‍टम ऑन किया तो यकायक ख़याल आया कि उसने बहुत दिनों से तुमुलजी से अपने बारे में कोई बात नहीं की है. उसे लगा कि वह अपने केस को लेकर वाक़ई गंभीर नहीं है. तभी अचानक नवनीत पांडे की चिल्‍लाती आवाज़ कानों में पड़ी  और बस एक पथराव सा शुरू हो गया: माधव चौधरी शब्‍दों को दांतो के नीचे पीसते हुए कह रहे थे:
‘दरअसल, आप जैसे लोग पिता के पैसों पर पलने वाली रूमानियत की त्रासदी होते हैं’;
आरती ने ग़ुस्‍से, शिकायत और उपहास से भभकती आवाज़ में पूछा:
‘तुम्‍हारा यह स्‍ट्रगल कभी ख़त्‍म भी होगा ?!
लगा जैसे कि अय्यर की घनी मूंछों से उलझ कर ‘रैबिड’ जैसा कोई शब्‍द गिरा है और अंशुल दुबे दोस्‍ताना निराशा में ही सही, उसे ‘एब्‍नॉर्मल’ बता रहा है. इनके पीछे हाल-फिलहाल की आवाज़ें भी थीं:
‘तुम अपना केस सही तरह पर्स्‍यू नहीं कर रहे हो’, ‘तुम्‍हारे चेहरे पर न दीनता दिखती है, न ज़रूरत... न लोगों के साथ उठते-बैठते हो... और तो और तुमुलजी के साथ भी नहीं दिखाई देते.... इस तरह तुम्‍हारे बारे में कौन सोचेगा..??.’.

तभी वह इस शोर को झटकते हुए उठ खड़ा हुआ. उसने प्रोजेक्‍ट रूम के अर्से से ख़राब पड़े रिवॉल्विंग डोर को धीरे से बंद किया. कॉरीडोर पार करते हुए ज़ीने तक पहुंचा, लेकिन फिर फुस्‍स! उसे लगा कि जैसे उसकी पिंडलियों में भूसा भर गया है. वह वापस मुड़ना चाहता था कि पथराव फिर शुरु हो गया. उसने ख़ुद को फिर संयत किया और ऊपर चढ़ने लगा. लेकिन, आखि़र की तीन पैडि़यां बची थी कि उसके पांव फिर रुक गए...


(एक)
जिंदगी के बीस साल उसके सामने समुद्र की तरह फैल थे. उसने रेखा के इस तरफ़ रहने का फ़ैसला बहुत पहले कर लिया था. बीस बरस पहले उच्‍च शिक्षा आयोग में तीन बार इंटरव्यू देने के बाद उसने तय कर लिया था कि वह कुछ भी कर लेगा, लेकिन जुगाड़बाज़ी का सहारा नहीं लेगा. तब बाक़ी लोगों को भी उसकी क्षमताओं में यक़ीन था. उसने शहर का स्‍थानीय अख़बार ज्‍वाइन कर लिया था. प्रशिक्षण की अवधि ख़त्‍म होने के बाद उसने चाहा था कि उसे फीचर वाला पेज दिया जाए. उसने स्‍थानीय संपादक नवनीत पांडे से कहा था:
सर, राजनीतिक ख़बरें तो सारी एक जैसी होती हैं. मेरा मन है कि फ़ीचर वाले पेज पर सिर्फ़ साहित्‍य और सिनेमा नहीं, कुछ अनूठा किया जाए... आम जनता— छोले-कुल्‍चे, फल बेचने और फेरी लगाने वाले मामूली लोगों के जीवन पर रिपोर्ताज जैसी चीज़ें और... और’ .

लेकिन, इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता पांडे ने उसे झिड़कते हुए कहा था:
ज्‍़यादा पढ़ाई-लिखाई करने वालों के साथ यही लफड़ा होता है... उन्‍हें न पत्रकारिता की समझ होती है, न साहित्‍य की... तुम जिस पेज की बात कर रहे हो, वह छुटे हुए कारतूसों का क्षेत्र होता है. तुम अच्छे से सोच लो कि तुम वाक़ई पत्रकारिता करना चाहते हो या...’ .

तब ज़ेहन में बार-बार यही कील सी गड़ती रही थी— वह क्‍यों नहीं, जो मैं करना चाहता हूं. मैं बड़ा नहीं बनना चाहता. अगर मैं शहर के पुलिस और प्रशा‍सनिक अधिकारियों से, ताकतवर लोगों से दोस्‍ती गांठना नहीं चाहता तो फिर मुझे वह क्‍यों नहीं करने दिया जाता जो मैं चाहता हूं? कितना मामूली था वह सब. लेकिन, हर समझदार और अनुभवी आदमी यही कहता था कि पहले पेज पर काम करना नसीब होता है वर्ना तो लोगों की पूरी जि़ंदगी प्रादेशिक डेस्‍क पर स्टिंगरों की अंट-शंट हिंदी सुधारते निकल जाती है. बस, यही उहापोह थी या लोगों के शब्‍दों में ख़ब्‍त कि कुछ ही दिनों बाद वह संपादक के सामने इस्‍तीफ़ा लेकर बैठा था.

नवनीत पांडे दोनों हाथों से माथा पकड़े दबी हुई आवाज़ में चीखे थे:
ऐसा ब्रेक मिलता है लोगों को ?इस अख़बार ने आज तक किसी ट्रेनी को इतना पैसा दिया ?लेकिन आप बड़ी चीज़ हैं साहब... आपको सब अपने अनुसार चाहिए... हम सिर्फ़ वैचारिक-बौद्धिक काम करेंगे...बाक़ी सब तो भड़भूजे हैं!
वह पत्‍थर की तरह बैठा रहा था. उसे अच्‍छी तरह याद है कि उस वक़्त उसका दिमाग़ एक निचाट पठार की तरह हो गया था. वह कुछ नहीं सोच पा रहा था. भीतर एक रेत बिखेरती जि़द अड़ी थी कि बस उसे यहां नहीं रहना है! आखिर में नवनीत पांडे ने अपने ग़ुस्‍से और हैरत पर क़ाबू पाते हुए कहा था:
मैं तुम में बहुत संभावनाएं देख रहा था... मेरी बात का बुरा मत मानना पर तुम्‍हारे साथ कोई प्रॉब्लम है... तुम जितनी जल्‍दी फ़ैसला ले बैठते हो उस तरह काम करना तो दूर... उस तरह तो जिंदगी भी नहीं जी पाओगे’. 

नवंबर की हल्‍की ठंड, धुंए और सामने सड़क पर गुज़रते ट्रैफि़क में उलझी उस शाम को नवनीत पांडे उसे बाहर तक छोड़ने आए थे. उन्‍होंने उसका हाथ हौले से दबाते हुए और उसी क्षण ऑफिस की तरफ़ रुख़ करते हुए कहा था: ‘कभी लौटना पड़े तो संकोच मत करना’.


(दो)
पांडे को अलविदा कहकर जब वह अगले दिन कैंपस पहुंचा तो वह और सोरित कैंटीन के पीछे घंटो बैठे रहे थे. कभी देर तक बात करते रहते. कभी दोनों अपनी चुप्पियों में खो जाते. सोरित को रिसर्च बकवास लगने लगी थी. वह कह रहा था:
‘हमने पूरी शिक्षा को फर्जी विमर्शो से भर दिया है. इस देश में हर साल डेढ़ लाख लोग एक्‍सीडेंट में, पचास हज़ार लोग सांप के काटने से, हज़ारों बाढ़ में और सैंकड़ों लोग पुल गिरने से मर जाते हैं. लेकिन, हम रिसर्च ऐसे टॉपिक्‍स पर करते हैं जिनका आम जनता की ख़ुशहाली से कोई वास्‍ता नहीं होता... हम जो भी कर रहे हैं उसका कोई मतलब नहीं है... इससे बेहतर है कि मैं अपने मन का काम करूं’.

उन दिनों सोरित एक सीरियल में असिस्‍ट कर रहा था. लेकिन, उसके पापा को यह सब पंसद नहीं था. शाम चार बजे जब दोनों अपनी चुप्पियों और बियाबान से बाहर लौटे तो सोरित ने कहा था: चलो, यार आज घर चलते हैं. मुझसे यह दबाव अब झेला नहीं जाता’.



साल में एक बार अरविंदो आश्रम, सोरित को दूर शांति निकेतन में पढ़ने के लिए भेजने वाले और राज्‍य में पांच बार सर्वाधिक मतों से जीतने वाले विधायक माधव चौधरी ने खाने के बाद दोनों को अपने पास बैठा लिया था. माधव चौधरी कुपित थे:

‘मैं जिस पार्टी से जीतता आ रहा हूं वह एक जाति की पार्टी है. उसमें वही सब गड़बडि़यां हैं जिन्‍हें आप जानते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं मंत्री नहीं बनना चाहता था. सत्‍ता के साथ होता तो शायद बन जाता. लेकिन, वैसा नहीं हो सकता था. यह कोई आदर्श-वादर्श नहीं था. यह एक ठोस सच्‍चाई थी कि अगर मैं लालच में एक बार अपना इलाक़ा छोड़ कर सत्‍तारूढ़ पार्टी को पकड़ लेता तो मेरी राजनीति हमेशा के लिए ख़त्‍म हो जाती... मेरे कहने का कुल मतलब यह है कि हमें जो भी चुनना होता है मौजूद विकल्‍पों को देखकर चुनना पड़ता है. आप कोई अलग रिअलिटी क्रिएट नहीं कर सकते... सोरित अब रिसर्च छोड़ कर फि़ल्‍म-मेकिंग में जाना चाहता है और आप एक अच्‍छी भली नौकरी को सिर्फ़ इसलिए छोड़ आए हैं कि आपका वहां मन नहीं लगता या आपको वहां काम करने वाले लोग फ्रॉड लगते हैं’.

माधव चौधरी बहुत नीचे सुर में बात कर रहे थे, लेकिन इससे उनकी नाराज़गी छिप नहीं पा रही थी.

‘आप इसे अपने क्रांतिकारी शब्‍दों में यथास्थिति से असहमति या असंतोष जैसा कुछ भी कहें, लेकिन मुझे यह केवल सुसाइडल इंस्टिक्‍ट लग रही है’.
माधव चौधरी उस शाम आखि़री फ़ैसला सुना सोफ़े से उठकर चले गए थे.

वह शिष्‍टाचार के नाते माधव चौधरी के सामने चुप रहा था, लेकिन वापस लौटते हुए उसे उनकी शिष्‍टता चालाकी से ज्‍़यादा कुछ नहीं लगी थी. माधव चौधरी में उसे एक ऐसा आदमी नज़र आया था जिसके पास अपने हर निर्णय को सही साबित करने का तर्क मौजूद रहता है. और वह तर्क हमेशा अपने हित को बचाए रखने में धंसा होता है.  


(तीन)
अभी कुछ दिन पहले इंस्‍टीट्यूट आते हुए सड़क पर अचानक कहीं से कॉर्क की एक हरी गेंद आकर गिरी. उसने टप्‍पा खाया, फिर उछली, फिर टप्‍पा खाया. धीरे धीरे उसके टप्‍पों की ताक़त कम होती गयी और वह फुदकते फुदकते दूर तक चली गयी. घर के अंदर खेल रहे बच्‍चे बाहर निकल आए थे. उन्‍होंने उससे गेंद के बारे में पूछा. उसने उस तरफ़ इशारा किया जिस तरफ़ उसने गेंद को आखि़री बार जाते देखा था. बच्‍चे उधर दौड़ गए. वह मन ही मन मुस्‍कुराया था. वह बचपन से देखता आया था कि खोई हुई गेंद अक्‍सर दूसरों को मिला करती है. बच्‍चे उसके आसपास ढूंढते रहते हैं और वह किसी पत्‍ते या झाड़ी की ओट में छिपी रहती है.

गेंद का यह दृश्‍य उसके मन में देर तक अटका रहा. क्‍या बीस साल पहले वह भी घर के बरामदे में टप्‍पा खाकर इसी तरह बाहर नहीं फिंक आया था? उसने उम्‍मीद की थी कि एकांत साधना में लगे उसके पिता उसे ढूंढने आएंगे. तब तक गेंद सीढि़यों से बस नीचे उतरी थी!  लेकिन वे नहीं आए.... पंद्रह बरस बाद उसने आरती से भी कहा था: मैं भागते-भागते थक गया हूं. ग्‍यारह साल का था जब पिता के पास पढ़ने गया. पूरा बचपन हवाओं से खड़खड़ाते दरवाज़ों, और सन्‍नाटे में बीत गया... फिर बारह साल हॉस्‍टल में. इतना अकेलापन तो सेल्‍युलर जेल में भी नहीं होता होगा!’. वह रोने लगा था. एक हथेली से आंसू पौंछते हुए बोले जा रहा था: मैं कंप्रोमाइज नहीं करुंगा फिर भी अपने दम पर वह सब हासिल करके दिखा दूंगा... लेकिन मुझे पहले घर चाहिए...मैं बीस सालों से प्रेत की तरह भटक रहा हूं’.

और अचानक उसका ध्‍यान गया था कि आरती का चेहरा एक सपाट मैदान की तरह दिख रहा है. उस पर न विह्वलता थी, न दया, न प्‍यार, न उम्‍मीद.

‘तुम्‍हारी जिंदगी तो यूं ही स्‍ट्रगल में गुजर जाएगी’. आरती ने टका सा जवाब दिया था. बहुत देर तक उसे कुछ समझ ही नहीं आया. वह देर तक वहीं खड़ा रह गया था. आरती कमरे से जा चुकी थी. उसे लगा था कि जैसे धीरे-धीरे उसके पैरों की जान निकलती जा रही है. वह अलमारी का सहारा लेते हुए इस तरह धप्‍प से नीचे बैठ गया जैसे किसी ने उसके सिर पर भारी पत्‍थर दे मारा है.

एक बैग में कुछ कपड़े और लैपटॉप उठाकर वह उसी शाम चला आया था. धूल, शोर और आंसुओं से लड़ते-झगड़ते उस रात घर का सपना तो ख़त्‍म हो गया था. पर अपने पीछे वह भुरभुरा अवसाद छोड़ गया था जो बरसों बाद तक हलकी सी दलक लगते ही फूट पड़ता था.


(चार)
अख़बार की नौकरी छोड़ने के बाद वह दिल्‍ली चला आया था. बरसों फ्रीलांसिंग और अनुवाद करता रहा. बरस दर बरस चेहरे का नमक सूखता रहा. आंखों के खुले तट बीहड़ में बदलते गए. इन बरसों में उसे कई बार महसूस हुआ था कि अगर उसकी कमर के नीचे पूंछ होती तो वह बंदरों के साथ रहना ज्‍़यादा पसंद करता. उसे याद है कि उसने वापस लौटने की आखि़री कोशिश दस साल पहले की थी. बंगलौर में पर्यावरण पर एक इंटरनेशनल कॉन्‍फ्रेंस हो रही थी. उसे अंग्रेजी के लेखों का सार-संक्षेप करके हिंदी में एक किताब संपादित करने का काम मिला था. वह जानता था कि कॉन्‍फ्रेंस के आयोजकों के लिए यह महज़ एक रस्‍म थी. किसी भी काम को भारतीय भाषाओं में लाने का वही सरकारी कर्मकांड! लेकिन उसने यह काम पूरी तन्‍मयता और पेशेवर ईमानदारी से किया.

कॉन्‍फ्रेंस के बाद निमंत्रित रिर्पोटरों को ग्‍यारह दिनों के फील्‍ड–टूर पर ले जाने का भी कार्यक्रम था. उन ग्‍यारह दिनों में कर्णाटक, आंध्रा और उड़ीसा के बंजर और सूखे इलाकों में घूमते हुए उसे लगा था कि जिंदगी की धुरी पर लौटने का उसके पास यही आखि़री मौक़ा है. तेलंगाना के पठारी क्षेत्र में एक शाम केएसवाई के सिंचाई कार्यों का मुआयना करने के बाद जब वह एक टीले पर बैठा पैंट और जूतों पर चिपटे छोटे-छोटे कांटे हटा रहा था तो उसे अपने भीतर एक विकल तड़प महसूस हुई थी. उसे लगा था अगर केएसवाई उसे यहीं काम दे दे तो जीवन की छुटी हुई डोर उसके हाथों में फिर आ सकती है. और उसी रात डिनर के दौरान उसने कॉन्‍फ्रेंस की मीडिया मैनेजर सिंथिया बागची से बिना सकुचाए कहा था कि वह केएसवाई के साथ जुड़ कर काम करना चाहता है. सिंथिया उसके काम से बहुत प्रभावित थी. उसने न केवल सारा काम तयशुदा समय पर कर दिखाया था, बल्कि पाठ-सामग्री और तस्‍वीरों की फोरमैटिंग इतने सलीक़े से की थी कि वह किताब कॉन्‍फ्रेंस के उद्घाटन के दिन तक प्रकाशित होकर आ गयी थी. सिंथिया ने बहुत उत्‍साह से कहा था:
‘ऑफ़कोर्स, मैं ईडी से बात करूंगी... आय एम रिअली हैप्‍पी कि आप मेनस्‍ट्रीम से बाहर आकर काम करना चाहते हो’.


(पांच)
और वह दो महीने के भीतर केएसवाई के हैड ऑफि़स में अपनी उम्‍मीद से ज्‍़यादा बड़े पद पर काम कर रहा था. बड़ौदा की भीड और शोर से बीस किलोमीटर दूर जंगल के ऐन बीच बने ऑफिस में पहला कदम रखते ही वह अपूर्व खुशी से भर गया था. उसे लगा था कि अपने जीवन में वह जिस अनाम चीज़ के लिए भटकता रहा है, वह उसके एकदम सामने है. लंबे- हरे पेड़ों और लताओं के झुरमुट, चिडि़यों की टीवीटीवी और अदृश्‍य झींगुरों की चिर्र-चिर्र के बीच काम करने की कल्‍पना से उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी थी.

ईडी शिवराम अय्यर ने उसका बहुत गर्मजोशी से स्‍वागत किया था.
‘ऑल यू हैव टू डू इज़ क्रिएट अ बज़ इन दी मीडिया...आपकी टास्‍क ये है कि ऑर्गनाइजेशन के काम को किस तरह विजि़बल बनाया जाए... इन बीस सालों में इतना काम हुआ है, वह सब बाहर आना चाहिए’.
अय्यर ने घनी मूंछों के बीच फूटती मुस्‍कुराहट के साथ उसकी तरफ़ कॉफ़ी का मग खिसकाते हुए कहा था. बाक़ी का माहौल अंशुल दुबे ने आंख मारते हुए समझा दिया था:
‘यहां सिर्फ़ काग़जी काम होता है. धूल-धक्‍कड़ और पसीने का काम फ़ील्‍ड वाले लोग करते हैं. हम यहां बैठकर ऐश करते हैं. इसके बाद जो समय बच जाता है उसमें रिपोर्ट्स पर चिडि़या बैठाते हैं और वाक्‍यों को दुरस्‍त करते हैं’.

उसके ज़ेहन में यह बात आज भी कई बार कौंधती है. बुरुंदी में गांव की शामलात ज़मीनों पर ग्रामीणों के अधिकार को लेकर एक सम्‍मेलन का आयोजन किया जा रहा था. सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए ग्राम पंचायतों को चिट्ठी भेजी जानी थी. अय्यर ने उसे अपने ऑफिस में बुलाया था. और सामने बैठते ही बोलना शुरू कर दिया था: हीयर इज़ द मोस्‍ट ऑपरच्‍यून मोमेंट टू शोकेस योर लिंग्विस्टिक ऑव्‍रा... पंचायत हैड्स के नाम एक लेटर तैयार करो... कीप इट टू दि बेसिक्‍स... शामलात लैंड्स को यूज करने में आने वाली प्रॉब्लम्‍स पर फ़ोकस रखो’.

उसने हिंदी में आधे पेज की एक चिट्ठी तैयार की थी जिसमें शामलात ज़मीनों की बृहत्‍तर उपयोगिता, उस पर दबंगों के कब्‍ज़े और सीमांत किसानों की समस्‍याओं का जिक्र किया गया था. उसने को‍शिश की थी कि चिट्ठी की भाषा को आम आदमी की बोली के नजदीक रखा जाए. इन चिट्ठियों के लिए लिफाफे भी तैयार किए गए. उन पर नाम और पता भी लिखा गया. और वह रात को बड़ौदा से बुरुंदी के लिए रवाना भी हो गया.

लेकिन अगले दिन ग्‍यारह बजे जब वह क्षेत्रीय ऑफिस पहुंचा तो लोगबाग तनाव में बैठे थे. स्‍मृति नाम की लड़की ने जाते ही बताया: सर, आपके लिए ईडी साहब का फ़ोन आया था. कह रहे थे कि अभी पंचायत वाली चिट्ठी प्रिंटिंग के लिए नहीं जाएगी’.

उसने बैठते ही कॉलबैक किया. शिवराम अय्यर ग़ुस्‍से में लगभग चीख रहे थे: हाउ कम, यू डिंट शेयर द फ़्लायर विद मी’. एक सेकेंड के लिए उसका दिमाग़ चकरा गया. उसने तो बुरुंदी के लिए निकलने से पहले उन्‍हें बाक़ायदा चिट्ठी की पीडीएफ़ मेल की थी. फिर यह सब क्‍या है! दिमाग़ ठिकाने पर आया तो उसने विनम्रता से कहा: लेकिन, सर मैंने तो आपको वह चिट्ठी कल ही मेल कर दी थी’. अय्यर क्षण भर के लिए चुप हुआ. उसे लगा कि शायद अय्यर को अपनी ग़लती का एहसास हो गया है. लेकिन अगले ही क्षण अय्यर पहले से ज्‍़यादा कर्कश स्‍वर में बोल रहा था:

हेल विद यू ऐंड योर चिट्टी... डोंट यू नो दैट आय कैंट रीड हिंदी...वेयर इज़ द इंग्लिश वर्शन, मैन ?’.

वह आज भी सोचता है कि क्‍या वह सिर्फ़ सहकर्मियों के सामने बेइज़्ज़त होन का दंश था या उसकी प्रतिक्रिया में कुछ और भी शामिल था?क्षेत्रीय ऑफिस में बैठे लोग अजीब तनाव में थे. तभी उसके भीतर वह हौल उठा: सर, आप जानते हैं...मीटिंग में सब कुछ आपके सामने ही तय हुआ था... ऐंड यू वर ओके विद दी आइडिया ऑफ़ डूइंग द होल थिंग इन हिंदी... मैंने सोचा कि जब आपसे बात हो ही चुकी है तो इसे आसान भाषा में क्‍यों न लिखा जाए...जिसे लोग समझ सकें...’. लेकिन शिवराम अय्यर कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे: आपको सोचने के लिए किसने कहा था...
जस्‍ट डू वॉट आय एम टेलिंग यू... आय वांट दिस ब्‍लडी चिट्टी इन इंग्लिश ऐंड यू हैव थर्टी मिनट्स टू गो’.

उसने चिट्ठी का अंग्रेजी में अनुवाद कर तो दिया लेकिन उसका मन जैसे चिथ गया. उसे यह पूरी क़वायद बेहूदा लगी थी. वह ज्‍़यादा खिन्‍न तब हुआ जब अय्यर का मैसेज आया. उसने चिट्ठी में तीन पैरे और जोड़ दिए थे. अय्यर चाहता था कि अब इस चिट्ठी का हिंदी में अनुवाद किया जाए. दिमाग़ पर पत्‍थर रखकर उसने वह सब कर दिया. लेकिन यह देख कर देर कुढ़ता रहा कि चिट्ठी में कई लंबे-लंबे टेक्‍नीकल शब्‍द आ गए हैं जो अनुवाद के कारण लगभग अबूझ हो गए हैं. क्षेत्रीय ऑफिस के लोगों ने डरते-डरते कहा था कि पहले वाली चिट्ठी इससे बेहतर थी. वह उखड़ गया था. वर्कशॉप ख़त्‍म होने के बाद वह वापस बड़ौदा लौट गया लेकिन दो दिन तक ऑफिस नहीं गया. किसी का फोन भी नहीं आया.

तीसरे दिन वह इतनी जल्‍दी ऑफिस पहुंचा कि साफ़-सफाई वाले लोग उसे देख कर चौंक गए. उसने फटाफट अपना सिस्‍टम ऑन किया और शिवराम अय्यर को मेल लिखने लगा. जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यूं था:

आदरणीय अय्यर जी,

मेरा पहला डर यही है कि आप इसे कहीं हिंदी की राजनीति न समझ लें. मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि इसका हिंदी की राजनीति से कोई संबंध नहीं है. मेरा कहना केवल इतना है कि संस्‍था का काम इतना केंद्रीकृत क्‍यों होना चाहिए ?अगर हमें हिंदी के इलाक़ों के लिए कोई सामग्री तैयार करनी है तो उसे मूलत: हिंदी में ही क्‍यों नहीं लिखा जाना चाहिए?आंध्रा के लिए यही भाषा तेलुगु होनी चाहिए. आपने बुरुंदी कार्यक्रम के लिए जिस चिट्ठी का पहले हिंदी से अंग्रेजी में और फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कराया उसके कारण वह पूरी चिट्ठी अबूझ हो गयी. उसे देहात का आम आदमी क़तई नहीं समझ सकता.
ख़ैर, यह संस्‍था आपकी है और मैं यहां नया आदमी हूं. मुझे लगता है कि हमारे बीच में कुछ ऐसा अप्रिय घट चुका है कि मुझे अब यहां से चले जाना चाहिए.

मेल पढ़ने के बाद शिवराम अय्यर ने पहले सीनियर लोगों से बैठक की थी. और वह अपने केबिन में बैठा हुआ केवल इस बात की रिहर्सल कर रहा था कि जब अय्यर से सामना होगा तो उसे ठीक-ठीक क्‍या कहना चाहिए. मीटिंग ख़त्‍म होने के बाद पूरे फ़्लोर की हवा जैसे अचानक थम गयी थी.

अंशुल ने उसे एक कोने में ले जाकर कहा था:
‘आपका रवैया एकदम ग़लत है महाराज!यह महज़ एक रूटीन किस्‍म का काम होता है और आप इसे सिद्धांत बना कर देख रहे हैं. पंचायत के प्रधानों को ऐसी चिट्ठियां हर साल भेजी जाती हैं. उनका यही प्रारूप रहता है. आपसे जब चिट्ठी का मैटर तय करने के लिए कहा गया था तो इसका मतलब यही था कि आप पिछली चिट्ठी का मैटर देख कर साल और तारीख बदल देंगे.. बस्‍स’.

उसकी आंखों में देर तक कोई हरकत न देखने के बाद अंशुल ने फिर कहा था: अय्यर बहुत नाइस बंदा है... अभी नए हो इसलिए समझ नहीं पाए. वह इसी तरह बोलता है, लेकिन मन में कुछ नहीं रखता. तुम ये छोड़ने वोड़़ने की बात भूल जाओ... चलो, तुम्‍हें मैं लेकर चलता हूं...’.
‘नहीं अंशुल भाई.... आप मेरे भले की कह रहे हैं, लेकिन अब चीज़ें सामान्‍य नहीं रह पाएंगी’. उसने थैंक्‍स बोलने के बजाय अंशुल की हथेली अपने हाथों में दबा ली थी. अंशुल ने गहरी खीझ में कहा था: ‘ये मैडनेस है...और कुछ नहीं’.  


(छह)
बड़ौदा से दिल्‍ली गिरने के बाद वह तुमुल पवार के एक मीडिया प्रोजेक्‍ट से जुड़ा हुआ है. चार साल इसी में हो गए हैं. लेकिन तीन महीने पहले प्रोजेक्‍ट की फंडिंग ख़त्‍म हो गयी है. तुमुलजी इन बरसों में उसके काम से ख़ुश रहे हैं. एक साल पहले उन्होंने अलग से बुलाकर कहा था: मैं कोशिश कर रहा हूं कि आपके लिए यहां कोई स्‍थायी व्‍यवस्‍था हो जाए’.

आज सुबह जब वह प्रोजेक्‍ट रूम से निकल कर सीढि़यां चढ़ रहा था तो उसने तय कर लिया था कि आज तुमुल पवार से फिर पूछेगा कि उसका मामला कहां तक पहुंचा. उसने चलने से पहले योजना भी बना ली थी कि पहले वह उनकी नयी किताब की चर्चा करेगा और फिर सही मौक़ा मिलते ही पूछ लेगा: सर, मेरे मामले में क्‍या चल रहा है.

तुमुलजी का कमरा सामने था. बीच में बस एक छोटी सी गैलरी भर थी. लेकिन पता नहीं यकायक क्‍या हुआ कि उससे आगे नहीं बढ़ा गया. आखि़री तीन पैडि़यों तक आते-आते वह झल्‍ला गया. कोई कसैलापन था, जो एक क्षण में उसके वजूद पर तारी हो गया. उसे लगा कि इस तरह तो वह खण्‍ड-खण्‍ड हो जाएगा. उसके पांव वहीं जाम हो गए. भीतर अलग-अलग आवाज़ों का एक हुजूम इकट्ठा होने लगा... आज तक भी तो जैसे-तैसे चल ही रहा है... तुम ही तो कहते रहे हो कि सबसे अहम चीज़ आदमी की गरिमा और समानता पर अड़े रहना है... कि कोई भी ताक़त हो उसके सामने अपनी समानता का समर्पण नहीं करना है... कि दीनता दिखाना अपनी आदमियत को खो देना होता है... कि...कि अगर तुम लाइन के आखि़री आदमी के साथ खड़े हो तो कभी विफल नहीं हो सकते....

बस तभी उसे महसूस हुआ था कि उसके कानों में आरोपों की फेहरिस्‍त लेकर चिल्‍लाने वाली आवाज़ें अचानक वापस लौट गयी हैं. अभी कुछ देर पहले इस घुमावदार ज़ीने पर चढ़ते हुए उसे लग रहा था कि उसके आसपास हवा ग़ायब हो गयी है. कुछ था जो बार-बार पैरों और माथे से टकरा जाता था. लेकिन, लौटते हुए वह एकदम भारहीन हो गया. वह प्रोजेक्‍ट रूम में लगभग दौड़ते हुए पहुंचा. उसे लग रहा था कि जैसे उसने ख़ुद को एक आसन्‍न भू-स्‍खलन से बचा लिया है.



(सात)
पुनश्‍च: परिस्थितिगत साक्ष्‍यों तथा अन्‍य तथ्‍यों की रोशनी में इस कहानी का आखिरी भाग बाद में झूठ पाया गया. दरअसल, कहानी में यह प्रसंग इसलिए जोड़ा गया था क्‍योंकि संपादक कहानी के नायक को पराजित होते नहीं देखना चाहता था. उसने मेल में लिखा था: नायक को पराजित दिखाना एक उत्‍तर-आधुनिक फ़ैशन है... नायक को ऐसा होना चाहिए कि पाठक उससे संघर्ष की प्रेरणा ले सके. चूंकि लेखक को कहानी छपवानी थी इसलिए उसे आखि़री पैरा बदलना पड़ा.  

सच्‍चाई यह है कि उसके पैसे तेज़ी से ख़त्‍म होते जा रहे थे और उस दिन वह सीढि़यों से वापस लौटने के बजाय तुमुलजी के कमरे तक पहुंचा था. उसने दरवाज़े पर बहुत शिष्‍टता से ‘नॉक’ किया था. डर और सम्‍मान के मिश्रित भाव के साथ झुकने व खड़े होने की असंभव भंगिमा में उसने तुमुलजी को नमस्‍ते की थी. तुमुलजी कम्‍प्‍यूटर पर काम कर रहे थे. वे ‘बैठिये’ कहना भूल गए थे. इसलिए वह खड़ा रहा. उसने लटपटाते हुए तुमुलजी की नयी किताब की चर्चा शुरू की. तुमुलजी ने कोई ख़ास रूचि नहीं दिखाई. उसने इस स्थिति की कल्‍पना नहीं की थी. उसे लगा कि वह नौकरी की बात सीधे नहीं छेड़ सकता. लेकिन फिर महसूस हुआ कि अगर वह इसी तरह खड़ा रहा तो उसकी टांगें जवाब दे जाएंगी. उसने बमुश्किल कहा: ठीक है सर... मैं चलता हूं. तुमुलजी ने हां-हूं कुछ नहीं कहा. उसके आने, खड़े रहने और जाने का उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. कमरे से बाहर आते ही उसने इस तरह गहरी सांस ली कि जैसे वह किसी बहुत छोटे से छेद से जान बचाकर बाहर आया था.

उसने यह बात प्रोजेक्‍ट की जूनियर रिसर्चर गरिमा यादव के साथ शेयर की थी. और गरिमा से मुझे यह शायद एक साल बाद पता चला था कि एक दिन वह तुमुलजी के कमरे में बैठा लगभग रिरिया रहा था... सर, मेरे पास केवल दो महीने के पैसे रह गए हैं... ऐसे कब तक चल पाएगा?       कमरे में थोड़ी देर चुप्‍पी रही. फिर तुमुलजी की झल्‍लाहट भरी आवाज़ आई:

‘यार, तुमने तो मेरी ले ली है... तुमसे मैंने स्‍थायी होने की बात क्‍या कह दी... पैसे नहीं हैं...पैसे नहीं हैं...अरे नहीं हैं तो कहीं और काम ढूंढ लो’.

गरिमा बता रही थी कि उस दिन वह एक बिल पर साइन कराने के लिए तुमुल पवार के कमरे की तरफ़ जा रही थी. तुमुल को ऊची आवाज़ में बोलते सुन वह दरवाज़े के बाहर ठिठक गयी और फिर वापस लौट आई. गरिमा कह रही थी कि इस घटना के बाद वह कभी इंस्‍टीट्यूट नहीं आया. उसे किसी ने कहीं देखा भी नहीं. और तो और जब जब उसे फ़ोन किया तो यही सुनने को मिला: आपके द्वारा डायल किया गया नंबर मौजूद नहीं है.        
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सम्प्रति: सीएसडीएसनयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पत्रिका प्रतिमान  में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com 

जोकर (Joker) : सत्यदेव त्रिपाठी

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‘जोकर’ : शोषण एवं उससे विद्रोह की प्रक्रिया का रूपक
सत्यदेव त्रिपाठी


फिल्म में आर्थर फ्लेक नामक जोकरके रूप में नायक बने जौक़िन फोयनिक्स का अद्भुत अभिनय देखकर मैं 15-20 मिनटों में ही उसका दीवाना हो बैठा. और सर्वाधिक दीवानगी का सबब बना उसका हँसना, जो उसकी कला व फिल्म दोनो का सर्वोत्कृष्ट कौशल (मास्टर स्ट्रोक) सिद्ध हुआ है. या ख़ुदा, इतने-इतने तरह से कोई हँस भी सकता है...!! वह हँसी रोमांचक है. सम्मोहक है. आसुरी है. भयावह है. पागलपन है.... हँसी की क्रिया के लिए जितने शब्द हैं, ज़ौकिन की हँसी के सामने चुक जाते हैं. तर्ज़ तो अट्टहास, ठठाना, ठहाका, हाहाहा...की ही है, पर यही सब करते हुए वह इससे परे चला जाता है. सुबकता नहीं- आँसू नहीं हैं उसकी हँसी में. आँसू सूख गये हैंका मुहावरा व रुदन कभी-कभी हँसी का बाना धरके आता हैजैसे सूत्र उसकी हँसी में साकार हो गये हैं. शुरू में तो विरल, अनोखी लगती है, पर अंतिम रूप में धीरे-धीरे अफाट विस्मय व अकूत भय ही मिलता है. यूँ मन का ऐसा कोई भाव नहीं, जो उसकी हँसी में प्रकट न होता होखुशी के सिवा. स्मित व मुस्कान भी है, पर व्यंग्य व रहस्य बन कर ही आती है. सारी हँसी में खुशी का एक भी मिनट न होना जोकर के जीवन का ही प्रतिमान है. उसके जीवन में वास्तविक खुशी का एक पल नहीं, तो खुशी दे कहाँ से... हम ग़मज़दा हैं, लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत; देंगे वही, जो पायेंगे इस जिन्दगी से हम’!! उसकी जिन्दगी के लिए दुखशब्द बहुत बौना है. उपेक्षाभी छोटा पड जाता है. हिकारत-जिल्लत-उत्पीडन-यंत्रणा...कुछ सही बैठते हैं, जिनका रूपक बनकर प्रयुक्त हुई है हँसी, जिसका सर्वाधिक स्पष्ट रूप होठों के दोनो कोनों को उँगलियों से दायें-बायें खींचकर दाँत चियारने के विद्रूप-कौशल में उभरता है. 

लेकिन हँसी के बाद फोयनिक्स का चलना-दौडना...उसके अभिनय का दूसरा जबर्दस्त आयाम है. यदि हँसी उसके मुखडे व आवाज का कमाल है, तो भागना व चलना उसके पैरों की फितरत. चलना भी उसका बोलता हचेहर से ही नहीं, सर से पाँव तक. आगे ही नहीं, पीछे पीठ व पैरों की कदमी तथा लडखडाहट भी बोलती है. और दौडना तो माशा अल्लाह...उफ्फ...!! कुछ कमाल  फोटोग्रैफी का भी होगा, लेकिन इतने बडे कदम और इतनी फुर्ती से बढाना विश्वसनीयता की हद पार करके भी अविश्वसनीय नहीं लगता. वह फलांगते हुए दौडता है या दौडने की तेजी से फलाँगता है...! कोई पुलिस-जासूस-बदमाश उसे पकड नहीं पाता और ऐसा करते हुए उसे चाहे जिधर से देख लीजिए, चारो ओर से कमनीय लगता है. हँसी यदि उसके जीवन की त्रासदी से उपजी उसका त्राण है, तो दौड़ना-भागना उसके बचने का रक्षा-कवच, उसके होने का हथियार, दोनो ही जोकरकी सिने-कला के हरावल दस्ते. लेकिन पैरों से ही बनता उसके अभिनय का तीसरा आयाम हैनृत्य...बल्कि नाचना कहें. जो देशी-विदेशी, लोक-शास्त्र...आदि किसी पद्धति पर आधारित नहीं है. किसी मंच व शो पर भी नहीं, सडक पर, एकाधिक बार- टुकड़े-टुकड़े में ही, पर जीवन का सब कुछ घटित हो चुकने व दर्शक के जान जाने याने जोकर के पूरी तरह उघड (एक्सपोज़ हो) जाने के बाद फिल्म के उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) वाले सोपान के ठीक पहले जब वह अपने एक मंच-संवाद के आमंत्रण पर जाने के लिए सारे दुखों-आक्रोशों-कुठाओं-अपराधों के बावजूद बालों को हरे रंग से रँगकर, पूरे चेहरे पर सफेदी पोतकर तथा होठों पर लाल र्ंग लगाकर...अपने लिए सर्वाधिक सुशोभित परिधान में खूब सजकर-बजकर बडी अदा से प्रकट होता है, तो चीसें (सीत्कारें) निकल जाती हैं. पूरा हाल तालियों से गूँज उठता है. उसके पाँव गोया स्वत: थिरक उठते हैं और उस नयनाभिराम दृश्य पर जो चिहा न उठे, सिहा न जाये, वह रसिक तो क्या, उसके सामान्य आदमी होने में भी शक़ बना रहेगा...!!

ऐसे में फिल्म देख चुके लोग चाहे जो कहें, मैं अपनी इस दीवनगी को नेमत मानूँगा.... जौक़िन की हर अदा व संवाद पर लिखने के लिए मन में वाक्य के वाक्य बनते रहे और मैं मसोसता रहा कि लिखूँगा कैसे...? इधर दशक भर से अंग्रेजी फिल्में कभी-कभार शौकिया और प्राय: किसी प्रिय के साथ के कारण ही देखता हूँ. इस बार तो इस सदी के पहले दशक की अपनी मुँहबोली बच्ची, कभी एक नाटक में हम सह-कलाकार रहे और बाद में प्रतिज्ञाधारावाहिक से मशहूर हुई...अस्मिता आ पहुँची - 5-6 सालों बाद...साथ में फिल्मकार व सिने-शिक्षक उसके पति प्रतीक .... दोनो मेरे घर के पास पीवीआर, जुहू में आने के लिए भी तैयार...तो फिर पहुँच ही गये .... लेकिन न देखने जितनी कम देखने के कारण इनकी कुण्डली (ट्रैक) नहीं, तो लिखना हो कैसे, के आलोडन-विलोडन में थियेटर से बाहर आते ही मोबाइल खोला, तो अरुणजी देव का सन्देश चमका ‘फिल्म पर लेख का इंतज़ार है’.... असल में यह सुबह के मेरे मेसेज का जवाब था, जिसमें समालोचनमें छपी कहानी जोकरपढने के साथ फिल्म देखने जाने का मैंने जिक्र कर दिया था.... फिर तो लिखने के लिए जोकरकी कुण्डली तलाशने व फिल्म दुबारा देखने में (बुरा हो अचानक के भीषण कमर-दर्द का) चार-पाँच दिन लग गये.... बहरहाल,
ग्रह-दशा, शुभ-अशुभ का सन्धान हुआ, कुण्डली तो क्या इष्टकाल (पैदा होने का संक्षिप्त ब्योरा) भर से काम चल गया.... पता लगा कि जोकर बिल्कुल काल्पनिक चरित्र है और फिल्म की कहानी 1980 के समय में चलती है.

1988 की चित्ररेखी कथा बैटमैन : द किलिंग जोक्सके साथ ढेरों विनोदी चित्र कथाओं, हिट सीरियल व फिल्मों...आदि में चित्रित-बिखरे भिन्न नाम-रूपी जोकर की अपार लोकप्रियता एक नव पुराण (नये लीजेण्ड) सी बन गयी है. इन्हीं छबियों के आधार पर स्वयं निर्देशक टोड्ड फिलिप्स ने स्कॉट सिलवर के साथ मिलकर लिखी यह फिल्म-कथा, जिसमें इस बार एक पूरा जीवन मिला जोकरको.... लेकिन इससे जरूरी एक बात यह कि इस पुराण के उच्छिष्ट को हमारे वे नौनिहाल भी जानते हैं, जो अपनी संस्कृति के सरनाम राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न की माँओं के नाम तक नहीं जानते...!! और लोकप्रियता के साथ धन्य है इस जोकरकी टीम का प्रचार-तंत्र, जो हमारे नौनिहालों तक पहुँच गया. वे जोकरके इंतज़ार में थे. सिर्फ मैं ही अजान था. लेकिन समीक्षा की जानिब से सहूलियत कर दी है टोड्ड फिलिप्स के मँजे हुए निर्देशन ने कि फिल्म अपने में इतनी पूर्ण व आत्मनिर्भर बन पडी है कि इसे किसी पूर्वापर की वैसी दरकार नहीं. ऐसी अपेक्षा न थी किसी को, लेकिन पिछले 31 अगस्त को वेनिस के 76वें अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में शुभारम्भ होने के साथ ही फिल्म को भले न सही, जौक़िन फोयनिक्स को तो जरूरी रूप से ऑस्करमिलने की भविषयवाणियां भी धडल्ले से होने लगी हैं, जो फिल्म की गुणवत्ता का प्रमाण है, लेकिन कथा के प्रमुख सूत्रों और जोकर के चरित्र की व्यंजनाओं को लेकर कुछ आलोचनाएं भी हो रहीं.

फिल्म देखने के बाद से ही उसका एक संवाद मन में गूँज रहा है, दिमांग पे तारी है – ‘होप, माइ डेथ मेक्स मोर सेंट्स दैन माइ लाइफ’ (उम्मीद है, मेरी जिन्दगी के मुकाबले मौत ज्यादा प्रतिशत पायेगी) याने मौत के बाद ज्यादा लोग समझ पायेंगे उसे. और इसी के समानांतर खलबली मचाये है चचा ग़ालिब की पंक्ति
 ‘मुनहसर मरने पे है उम्मीद जिसकी, नाउम्मीदी उसकी देखा चाहिए....
गाढे दर्शन से लबरेज़ गालिब का शेर कठिन है. पता नहीं इसकी मशहूरियत के इलाकों तक इसका दर्शन पहुँचता है या उम्मीद-नाउम्मीदी व मरने-मुनहसर...आदि से बने अन्दाज़े बयां पे फ़िदा हैं लोग.... लेकिन जोकरका कथन बहुत सीधा और बेधक है. यह ग़ालिब के माफ़िक आशा-निराशा में उपराम नहीं पाता, बल्कि जीवन में किये जा रहे अपने कारनामों (कई सारे क़त्ल) का अनिवार्य परिणाम मौत ही होगा; इसका व्यावहारिक स्तर पर विश्वास है पूरी दुनिया को, उसी विश्वास के बल पर फिल्मकार टोड्डी फिलिप्स उस दुनिया पर व्यंग्य करता है बल्कि तेज फ़ब्ती कसता है, जो मरने पर ही ऐसे जोकरों का दुख शायद समझ पाये - जीतेजी तो समझती नहीं!! लेकिन फिल्म में जोकर मरता नहीं..., क्योंकि उसे इस दुनिया को अपने दुखों का पुरज़ोर अहसास कराना है, इसे बदलने का कारण बनना है....

फिल्म की कथा दो स्तरों पर चलती है. दृश्य रूप में जोकर की जीवन-कथा, लेकिन बडी कला से उसमें गुँथी है अपने देश-काल और प्राय: हर देश-काल- के समाज की कथा, जिसमें अमीर व ग़रीब के दो वर्ग बहुत साफ हैं. जोकर का चरित्र गरीब वर्ग का प्रतिनिधि है. रोजी-रोटी के लिए वह एक निजी कम्पनी में ठीके पर जोकर (क्लाउन) की नौकरी करता है. अपनी माँ पेनी के साथ रहता है, जो मानसिक रूप से कमज़ोर है. ऑर्थर भी स्नायु-तंत्र सम्बन्धी (न्यूरोलॉजिकल) असंतुलन का शिकार है. फिल्म में थॉमस वेन का चरित्र अमीर वर्ग का प्रतिनिधित्त्व करता है. नगरसेवक पद के प्रत्याशी थॉमस की मान्यता है, जिसे वह सरे आम प्रचारित भी करता है कि उसे नगरसेवक बना दिया जाये, तो वह शहर की सारी समस्यायें हल कर देगा याने वह गरीबों को देश-निकाला ही दे देगा...ऐसा क्रूर-वाचाल शोषक !! फिल्म में इन दोनो कथाओं को गूँथना यूँ हुआ है कि ऑर्थर की माँ तीस साल पहले थॉमस वेन के यहाँ नौकरी करती थी और आज भी उससे पैसे की उम्मीद में पत्र लिखती रहती है, जिसका कभी कोई जवाब नहीं आता. एक दिन कोई पत्र ऑर्थर पढ लेता है और यह जानकर उसे भयंकर हैरत होती है कि वह थॉमस का बेटा है. पूछने पर माँ बताती है कि नौकरी के दिनों दोनो में प्रेम था और उसी दौरान ऑर्थर पैदा हुआ. लेकिन अपने ऊँचे तबके (स्टेटस) के कारण उसने माँ-बेटे को यहाँ गोथम शहर की गन्दी और अपराध के लिए कुख्यात जगह पर छुड़वा दिया तथा पेनी को बरगला या धमका कर कुछ काग़ज़ात पर उससे दस्तख़त भी करा लिये. इस प्रकार उच्चवर्गीय मानसिकता से उपजा वर्ग-भेद का मुद्दा ही इस कथा का बीज सिद्ध होता है.

इसी तरह इसमें निहित है वर्ग-संघर्ष. उत्तेजित ऑर्थर इतनी बडी बात को छिपाने और अमीर बाप के होते हुए इतनी गरीबी में जीने के लिए माँ को फटकारता है और सीधे अपने बाप थॉमस के घर जाता है. वहाँ उसका ख़ानसामा अल्फ्रेड उसकी माँ को पागल और अमीरों से पैसे ऐंठने वाली बताते हुए ज़लील करता है और थॉमस से उसकी माँ के किसी भी ऐसे सम्बन्ध से साफ इनकार करता है. आहत-कुण्ठित ऑर्थर लौट आता है, लेकिन उसकी आग शांत नहीं होती. आगे किसी आयोजन में वह थॉमस का पीछा करता है और मौका मिलते ही बाथरूम में सामने से रोककर उसे अपना परिचय देता है शायद उम्मीद थी प्यार के दो बोल की, लेकिन फिर उसे तीसरी हक़ीकत सुनने को मिलती है कि वह पेनी का बेटा है ही नहीं. पेनी ने तो उसे गोद लिया है, जिसके काग़ज़ात राज्य सरकारी अस्पताल में मौजूद हैं. ऑर्थर अस्पताल जाता है और काग़जात की गोपनीयता जान लेने के बाद धोखे से छीनकर ले भागता है. उसमें थॉमस की बात सच मिलती है. साथ में यह भी दर्ज़ मिलता है कि वहाँ से निकाले जाने के बाद भी माँ का कोई प्रेमी था, जो बालक ऑर्थर को बहुत मारता था. उसी में कहीं सर पे लगी गहरी चोट से उसे स्नायु तंत्र वाली समस्या हुई है, जिसके चलते ही वह बेमौके हँसता रहता है. यहाँ कहना होगा कि घाव से भी स्नायु-पीडित होने के बदले यह मानसिक असंतुलन सिर्फ़ समाज व व्यवस्था के दबाव के कारण ही होता, तो उसकी मनोवैज्ञानिकी (साइकी) ज्यादा मारक होती. और इसके परिणाम स्वरूप समाज की क्रूरता के समक्ष बढता असंतुलन जिस तरह अतिरेकी होता गया है तथा प्रतिपक्ष की कारगुज़ारियों के समानांतर बढता उसका विरोध जिस तरह उग्र से उग्रतर होता गया है, वह सामाजिकता की जानिब से ज्यादा संगत व कारगर होता...!!

जोकर का बेमौके हँसना ही पूरी फिल्म की सदाबहार कुंजी (मास्टर की) है, जिससे फिल्म के सारे ताले बन्द भी होते हैं, खुलते भी हैं. शुरू में ही बस में जाते हुए उसके बेतरह हँसने को एक छोटा बच्चा गौर से देखता है, तो अपनी तरफ घूरती उसकी माँ को ऑर्थर अपने रोगी होने का आरोग्य-पत्रक (मेडिकल कार्ड) दिखा देता है. यह नि:शुल्क आरोग्य-सेवा भी फिल्म में आगे चलकर बन्द कर दी जाती है, जो अमीरों द्वारा संचालित व्यवस्था में गरीब वर्ग की वंचना और विकृति का सुबूत बनता है. अचानक हँसने से उसे सबलोग बेतरह चिढाते व उसका मज़ाक बनाते हैं. एक दिन तो कुछ बच्चे उसे बहुत मारते हैं और उसका जोकर वाला नामपट्ट (साइन बोर्ड) तोड देते हैं, जिसके कारण कम्पनी मालिक उसे बहुत खरी-खोटी सुनाता है और तभी उसके बचाव के लिए उसका मित्र रैण्डल उसे एक पिस्टल दे देता है. हँसी के साथ यह पिस्टल भी उसके जीवन के बडे हादसों और फिर दुर्दशाओं का कारण बनती है. पहले तो बच्चों के बीच एक शो के दौरान जेब से गिर जाती है और तहलका मच जाता है. जाँच के मौके पर रैण्डल मुकर जाता है - उस पिस्टल को ऑर्थर की पिस्टल बताता है. यह दोगलापन फिल्म में बच्चों द्वारा पिटाई के बाद ऑर्थर के मन पर गहरे आघात का सबब बनता है.
फिर इसी पिस्टल से ऑर्थर द्वारा हुए तीन क़त्ल फिल्म की रीढ बनते हैं. चलती गाडी में तीन अमीर किसी लडकी से बदसलूकी करते होते हैं, जिस पर ऑर्थर ठठाकर हँसने लगता है. वे तीनो इसे बुरी तरह पीटने लगते हैं.... इतने में लडकी तो भाग जाती है, लेकिन आत्मरक्षा में मजबूरन उसे उन तीनो को मारना पडता है. देर रात का समय गाडी में और कोई होता नहीं, जिससे ऑर्थर पकडा नहीं जाता, पर भागते हुए स्टेशन से बाहर देखे जाने से ख़बर बनती है कि किसी जोकर ने तीन अमीरों को मार डाला. इस पर थॉमस वेन का बयान आता है कि यह नाकारे गरीबों द्वारा मेहनत की कमाई से अमीर बने शरीफ लोगों को मांरने-लूटने की बदमली है. इस तरह यह घटना एक तरफ अमीरों के खिलाफ कार्रवाई के रूप में शोहरत पाती है और दंगे भडक उठते हैं, जिसमें वर्ग-संघर्ष से होते विद्रोह के संकेत देखे जा सकते हैं. और दूसरी तरफ ऑर्थर के जीवन का निर्णायक मोड साबित होती है गोया इन क़त्लों ने उसे अपने जीवन की हर साँसत से निजात की राह बता दी हो. जिस तरह गिरीश कार्नाड के नाटक तुग़लकका मुहम्मद (तुग़लक) अपने परम मित्र की अपने खिलाफ़ घात को सुनने के बाद उसे रँगे हाथों पकड कर भरे दरबार में उसकी निर्मम हत्या करता है और फिर दुश्मनों-देश-द्रोहियों की हत्या ही उसका जुनून बन जाता है, वही हाल उन तीनो हत्याओं के बाद ऑर्थर का होता है. 
तीनो हत्याओं में शक़ की सुई ऑर्थर की तरफ है ही, वह पुलिस की ख़ुफिया निग़रानी में है.... एक दिन दो जासूस पुलिस वाले उसके घर आ जाते हैं. ऑर्थर घर पे होता नहीं और बेटे पर यह ख़तरनाक मामला सुनकर मां को दिल का दौरा पड जाता है. उसके अस्पताल में होने के दौरान ही सरकारी फाइल में वह अपनी माँ के झूठ के सुबूत पाता है और क्रोधांध होकर अस्पताल जाता है माँ को मार डालता है. घर आकर अपने को फ्रिज में बन्द कर लेता है. फ्रिज का यह छोटा-सा दृश्य ढेरों संकेतों का ख़ज़ाना है. पिस्टल देकर मुकर जाने वाला उसका दोस्त रैण्डल और एक दूसरा नाटा दोस्त ग्रे उसके घर आते हैं - माँ की ख़बर पाकर संवेदना व्यक्त करने, तभी वह रैण्डल को अचानक बेरहमी से मार डालता है, लेकिन ग्रे को शराफत से जाने देता है. यह इस बात का प्रमाण है कि जुनून की उस ख़ब्ती हालत में भी उसका दिमाग सधी सोच की एक सही रेखा पर चल रहा है ग्रे ने कोई बुरा बर्ताव न करके हमेशा साथ दिया है.    

अब आइये ऑर्थर के जीवन का एक और अध्याय खोलें, जो उसके जीवन व फिल्म का पुन: एक बहुत महत्त्वपूर्ण व निर्णायक पक्ष है. शहर के सरताज विदूषक मुरे फ्रैंकलिन से प्रेरित होकर ही ऑर्थर विदूषकत्त्व (जोकरी) की कला में आया है. वही ऑर्थर का आदर्श है. मैरिस की यह कला उसकी माँ की भी पसन्द थी. दोनो अक्सर उनकी प्रस्तुतियों (शोज़) के दृश्याभिलेख (वीडियो रेकॉर्ड) देखा करते थे. ऑर्थर तो आईने के सामने खडे होकर वैसा करने के अभ्यास भी करता.... कुल मिलाकर इस असह्य संसार में यही उसके लिए एकमात्र खुशी का आधार था हारिल की लकडी. असली पिता से वंचित ऑर्थर अपने कला-जीवन में मुरे को पिता-समान (फादर फीगर) मानता था. लेकिन ऑर्थर एक दिन देखता है कि मानसिक असंतुलन के चलते अपने जिस एक प्रदर्शन में वह अटक-अटक के चुप हो गया था, लतीफे (जोक्स) बोल ही न पाया था और शो बुरी तरह असफल हो गया था...उसी को बार-बार दिखा कर श्रीमान  मुरे  उसका मजाक उडा रहे हैं कैसे-कैसे पागल लोग कहाँ-कहाँ से चले आते हैं और मेरे जैसा बनना चाहते हैं...आदि सब बक रहे हैं...!! अब तो ऑर्थर आसमान से गिरा अतल खाईं में. उसके लिए दुनिया में कुछ बचा ही नहीं सिर्फ बेइज्जती, उपहास के सिवा. वह अपने को पस्त, लुटा-पिटा पाता है.
और एक दिन मुरे महोदय के संवाद-कार्यक्रम (स्टेज टॉक शो) के लिए ऑर्थर को फोन आता है. पता लगता है कि उसका वही पूर्णत: असफल प्रदर्शन दर्शकों में बेहद लोकप्रिय हो चुका है. इसलिए मुरे स्वयं उससे बात करने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. रैण्डल को मारने के बाद ही वह शो के लिए तैयार होता है वही आलीशान तैयारी, जिसका चित्रण यहाँ शुरू में अभिनय-कला वाले प्रसंग में हो चुका है. रास्ते में वही दोनो जासूस पीछा करने लगते हैं. वह अपने भागने की कला से रेलगाडी में चढ जाता है. फिल्मकार टोड्ड फिलिप्स उस डिब्बे में सारे के सारे मुखौटे वालों को ही मौजूद दिखाते हुए अपनी सरोकारी चेतना का फतांसी (फैण्टेसिकल) वाला दृश्य सिरजते हैं गोया जोकर ऑर्थर एकोSहम् बहुस्यामहो जाता है. उतने मुखौटों के बीच (फिल्म कहानीमें सफेद-लाल सारी वाले दुर्गापूजा के दृश्य में मिसेज वांक्ची की तरह) गुम हो जाता है. पर यहाँ एकरूपता एक ख़तरा है’ (यूनिफॉर्मिटी इज़ अ डेंजर) को सार्थक करते हुए दोनो जासूसों से एक हत्या का हादसा हो जाता है और व्यवस्था के खिलाफ एक बार फिर सामूहिक विद्रोह भड़क उठता है, जो फिल्म का मूल मक़सद है. यह सिद्ध होता है कि शोषित जनता में आन्दोलन का पलीता भरा हुआ है, उसे एक चिनगारी भर चाहिए, जो निर्देशक लगा दे रहा है जोकरके माध्यम से, जिसकी गुहार हमारे यहाँ दुष्यंत कुमार ने उसी 1980 के दशक के आसपास की थी – ‘एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो,
               इस दिये में तेल से भींगी हुई बाती तो है...
और अनजाने में ही अपना काम करके जोकर निकल लेता है शो पर....
      
यह शो ही फिल्म का चरमोत्कर्ष है. ऑर्थर अपने को जोकर कहकर ही प्रस्तुत करने का आग्रह करता है मि. मुरे से...याने जोकर हूँ, पर जोकर कहलाऊँ भी – ‘साक़ी शराब दे दे, कह दे शराब है’, का जुनून सवार हो गया है. निर्देशक को भी जो कराना है जोकर से जोकर के रूप में कराना है अतिथि व कलाकार आदि उदात्त (ग्लोरिफाइड) रूप में नहीं. यहाँ आकर जोकर का व्यंग्य ही व्यंजना (सजेस्टिविटी) बन जाता है. वह मंच पर आकर धीरे-धीरे अपना दुख भी खोलने लगता है और अपने कारनामे भी, जो कानूनन अपराध हैं. क़ुबूल करता है कि वे तीनो हत्याएं उसी ने की हैं. मुरेजी फिर उसे लांच्छित करते हैं कि सज़ा से बचने के लिए बीमारी (साइकी) का बहाना कर रहा है...लेकिन अब वह सारी मनोवैज्ञानिकी से मुक्त हो चुका है. सो, हत्याओं के दंश और पापबोध (गिल्ट) से मुक्त हो गया है माँ तक की हत्या का पश्चात्ताप नहीं रह गया है. उसकी जिन्दगी को बेइज्जत-बर्बाद करने वाला हर शख़्स उसकी नज़र में एक कतार में खडा है और सबके लिए उसके पास एक ही जवाब है उसका खात्मा. और इसीलिए जीवंत (लाइव) शो में श्रीमान मुरे पर गोली दाग देने में उसे कोई ग़ुरेज़ नहीं. लेकिन इसके पहले अपना मजाक उड़ाने वाला पूरा मामला बता देता है और उसे दुनिया का सबसे नीच आदमी करार देता है. कार्यक्रम जीवंत (लाइव) है, जिससे यह सबकुछ पूरा शहर देख रहा है और पूरा शोषित समाज अमीरों के खिलाफ खडा हो जाता है. लोग अमीरों को खोज-खोज कर मारने लगते हैं. जगह-जगह उन पर बम फूटने लगते हैं, तोड-फोड होने लगती है. फिल्म का चिर खलनायक थॉमस वेन परिवार के साथ बच निकलने की कोशिश कर रहा होता है कि तब तक एक विद्रोही द्वारा थॉमस और उसकी पत्नी मार्था मारे जाते हैं, जिसे देखकर उनके बेटे ब्रूसो के दिमाग  पर गहरा असर पडता है, जिससे बैडमैन के पैदा होने का संकेत बनता है ....
फिल्म में तीसरी बार हो रहा यह विद्रोह इस बार एकजुट होकर सचमुच ही सामूहिक क्रांति का रूप ले लेता है, जिसमें जोकर गिरफ्तार होता है, पर जिस गाडी (वैन) में ले जाया जाता है, उसे विद्रोही लोग कुचल देते हैं, लेकिन जोकर बच जाता है. पूरी भीड उसके सामने सज़्दे में झुक जाती है, तालियाँ बजाने लगती है और ऑर्थर अपना वही चिरपरिचित नृत्य करता है. याने गरीबों का अनाम मसीहा बन जाता है. फिर उसे इलाज के लिए मानसिक अस्पताल में रखा जाता है, किंतु तब तक उसका अंतस्-बाह्य सब टूट चुका होता है. वह पूरी तरह हैवानियत में बदल चुका होता है.... सो, अपनी डॉक्टर को मार डालता है और उसी अस्पताल में इधर-उधर भागते हुए ऑर्थर के साथ फिल्म पूरी होती है....     
              
अब दो खुलासे करने का मुक़ाम आ गया है.... ये खुलासे फिल्म भी अंत में ही करती है. तो यहा भी राज़ बना रहे और फिल्म के अदेखे पाठकों के लिए राज़-फाश (सस्पेंस खुलने) का लुत्फ़ उसी तरह आये, जैसा दर्शक को पहली बार फिल्म देखते हुए आता है. सो, अब तक हमने फिल्म के साक्ष्य पर यही दिखाया है कि जोकर ऑर्थर अपनी माँ पेनी का गोद लिया हुआ बेटा है. लेकिन उक्त चरम सोपान वाले इक़बालिया बयान के पहले कभी कुछ कागज़-पत्तर पलटते हुए ऑर्थर को माँ की एक तस्वीर मिलती है, जिसके पीछे लिखा रहता है – ‘आई लव द वे यू स्माइल’ – मुझे मुहब्बत है तुम्हारी मुस्कान की अदा से... और नीचे लिखा है – ‘टी.वीयाने थॉमस वेन. इस तरह फिल्म में ऑर्थर की पहचान (आइडेण्टिटी) कोई भ्रमित तथ्य नहीं है, जैसा कि सभी विवेचक कह रहे हैं, बल्कि तय है कि वह थॉमस व पेनी की औरस संतान नहीं, लेकिन प्रेम-पुत्र है. इस रूप में आज तो नाजायज़ भी नहीं तब भले रहा हो कानूनन. लेकिन यह राज़ और अपने साथ आजीवन हुए धोखों-कुत्साओं को जान जाने के बाद ही वह सारे पापबोधों से मुक्त हो जाता है और हर-इक बेज़ा-तक़ल्लुफ से बग़ावत का इरादाकर बैठता है. यही वह मुकाम है, जहाँ पहुँचकर जोकर के शब्दों में ही उसके लिए अपना जीवन एक भयंकर त्रासदी नहीं, बल्कि एक बेहूदा मज़ाक बनकर रह गया है.
और दूसरे खुलासे का तो यहाँ जिक्र ही अब होने जा रहा. फिल्म में अपने असफल शो के दिन वह अपनी पडोसन सोफी, जो अनव्याही माँ है, को ले गया रहता है और जबर्दस्त असफल शो के बावजूद उसकी शाम बडी रंगीन बीतती है सोफी के साथ. उस दिन के बाद उनका घूमना-फिरना, चुम्बन-आलिंगन करते हुए गाढा प्रेम चल पडता है. लेकिन वस्तुत: ऐसा कुछ है नहीं. सिर्फ़ वह प्राय: सोफी का उसकी ऑफिस तक पीछा भर करता है, जिसके चलते उसका मनोरोगी दिमांग ये सारे खेल गढ लेता है, अपने ख़्वाबों को हक़ीकत में रच लेता है. इसका नाटकीय खुलासा अंत में होता है. यह उसके मानसिक असंतुलन का बेजोड प्रसंग है, जो मनोवैज्ञानिकी का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनो दृष्टियों से परिणाम भी है और प्रमाण भी.  

इस तरह दहाई की संख्या के लगभग ख़ून करने वाला यह जोकर कानून की दृष्टि से बडा मुजरिम है, आरोग्य विज्ञान के अनुसार मानसिक रोगी है, सामाज के लिहाज से कलंकित है - समाज-बहिष्कार के लायक है, मातृहंता के रूप में घोर पापी व्यक्ति है. इन सब कुछ को फिल्म ने खुल्लमखुल्ला कहा-दिखाया है. याने बाहर-बाहर पूरी चोट की है, लेकिन बिना किसी अपनी ग़लती के उसके साथ जो कुछ हुआ है, इस व्यवस्था ने उसे जो दिया है, जो बनाया है, उस समूची पृष्ठ्भूमि को भी फिल्म ने बेहद सलीके से उजागर कर दिया है याने भीतरी पक्ष को भी सामने रख दिया है. और कोई भी अध्ययन-आकलन या निर्णय सापेक्षिक होता है समानांतर. इसी लिहाज से जोकरको मुजरिम जानते हुए भी जन-मानस इसे सज़ा नहीं देना चाहेगा. मुझे याद आती है अभी कुछ ही पहले आयी फिल्म रुस्तम’, जिसमें रुस्तम ने मख़ीजा का खून किया है, लेकिन मख़ीजा की सारी कारगुजारियों के आलोक में ज्यूरी उसे 8-1 के बहुमत से निर्दोष होने का फैसला देती है और बाहर खडा हजारों का मजमा तालियों से उस फैसले का इस्तक़बाल करता है. कानून व व्यवस्था के बिना अफाट जनमानस जोकरके साथ भी यही सलूक करता है, जो इस फिल्म की, निर्देशक व लेखक की सबसे बडी ख़ूबी है. यही कला का दायित्त्व है कलाकर्म है. कबीर ने इस रचना-प्रक्रिया को कुम्हार के बर्तन बनाने के उदाहरण से बख़ूबी समझाया है - भीतर हाथ सहारि दै, बाहर-बाहर चोट. फिल्म-समीक्षा की लोकप्रिय (चलताऊ कैसे कहूँ?) शब्दावली इसे ब्लैक कॉमेडीकहती है फिल्म दीवारको हिन्दी सिनेमा में इसका मानक माना जाता है. जोकरके लिए ऐसा ही एक और शब्द भी प्रयुक्त होगा – ‘मनोवैज्ञानिक सनसनी’ (साइकॉलोजिकल थ्रिलर) और इसमें उघडे हैं काले कारनामे’ (ब्लैक सेक्रेट्स).     
जोकरफिल्म जोकर की है. उसके सिवा किसी को कुछ ख़ास करना ही नहीं है. जैसे उसकी माँ तो फिल्म में बीमार व निष्क्रिय है. अतीत का उसका किया संवादों व काग़ज़ों में आता है, तो इस भूमिका में फ्रैंसिस कोनरॉय को कुछ करना ही नहीं है. दो प्रमुख सहायक चरित्र हैं थॉमस वेन और मुंरे फ्रैंकलिन, जिनके लिए ब्रेट कुलेन व डीनिरो जैसे बडे नाम हैं, जिन्होंने अपेक्षाकृत कम कामों को भी बेहतर अंजाम दिया है. और मुख्य भूमिका में जौकिन फोयनिक्स से ही लेख की शुरुआत हुई थी, उन्हीं से समापन करते हुए फिर कहना चाहूँगा कि अपने देखे अभिनय-संसार में मुझे इस वक़्त (चाहे भले चकाचौंध हो जाने के कारण ही हो) ऐसी क्षमता (कैलेबर) का न अभिनय याद आ रहा, न ऐसा कर सकने वाला कोई अभिनेता. अभिनय के लिए नटसम्राटके नाना पाटेकर को याद करूँगा, पर वे बहा ले जाते हैं, लेकिन जौक़िन फोयनिक्स हमें झटके दे-देकर निरंतर धारा में डुबाता-उतराता रहता है और देखने व देखते रहने पर मज़बूर करता हैदेखकर सहने की चुनौती देता है. नटसम्राट का दुख भी तो अपनी दो संतानों का दिया हुआ है. अंत में बिछुडने के अलावा सहभोक्ता पत्नी हैं, समझने-बाँटने वाला लँगोटिया यार है, लेकिन जोकर तो नितांत अकेला है और माँ के साथ पितृत्त्व के सवाल से लेकर पूरे गोथम शहर याने सारे ज़माने का दिया हुआ दुख है....
इस विशाल फलक और अनुपमेय अभिनय को सलाम...!!
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सम्पर्क
सत्यदेव त्रिपाठी 
मातरम्’, 26 गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू
वाराणसी 221004

पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ : अनुवाद मंगलेश डबराल

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दुनिया में जिन कवियों को विश्व-कवि और महाकवि का दर्ज़ा मिला है, उनकी अग्रणी पंक्ति में पाब्लो नेरूदा शुमार किए जाते हैं. उनका जन्म (वास्तविक नाम: रिकार्दो एलिसेर नेफ्ताली रेयेस नासोआल्तो) 12 जुलाई 1904 को लातिन अमेरिका के दक्षिणी छोर के देश चीले में हुआ. तेरह वर्ष की उम्र से कविता की शुरुआत करने वाले नेरूदा को आरंभिक शोहरत बीस प्रेम कवितायें और निराशा का एक गीतसे मिली जिसे लातिन अमेरिका के ज्यादातर स्पानीभाषी देशों में अब भी पढ़ा और याद किया जाता है. शुरुआत में उनकी कविता अति-यथार्थवाद से प्रभावित रही, जो बाद में साधारण जन और उनके इतिहास और संघर्ष से गहरे जुड़ी. नेरूदा को बीसवीं सदी में प्रेम और जनसंघर्ष का सबसे प्रमुख कवि माना जाता है.

नेरूदा के नाम कई रिकॉर्ड दर्ज हैं: 1. वे दुनिया के पहले कवि हैं जिन्होंने पेरू में माच्चू पिच्चू के प्राचीन खंडहरों की लम्बी और कठिन यात्रा की. इस यात्रा पर उनकी लम्बी कविता माच्चू पिच्चू के शिखरपूरी लातिन अमेरिकी सभ्यता और गरिमा का दस्तावेज़ मानी जाती है. 2. वे जीवन भर चीले की कम्युनिस्ट पार्टी के सदय रहे. 3. उन्होंने अपने मित्र और समाजवादी नेता साल्वादोर आयेंदे के समर्थन में लिए चीले के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ना छोड़ा. 4. वे पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने 70 हज़ार श्रोताओं के सामने कविता पाठ किया. 5. नेरूदा की कविता दस हज़ार पृष्ठों में फैली हुई है.

धरती पर घरनेरूदा का पहला परिपक्व संग्रह है. उसके बाद उनके पचासों संग्रह आए और 23 सितंबर, 1973 में उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी बहुत सी कविताएं मिलीं. 1971 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ. चीले में जब तानाशाह पिनोचेत की सरकार आई तो नेरूदा को अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया जहां उनकी मृत्यु हुई. लेकिन इस बात के ठोस संकेत हैं कि फ़ौजी हुकूमत ने उनकी हत्या की थी.
मंगलेश डबराल





अनुवाद
पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ                    
मंगलेश डबराल


एक बच्चे की ओर से अपने पैर के लिए  

बच्चे का पैर नहीं जानता कि वह अभी एक पैर है
वह एक तितली या एक सेब बनना चाहता है
लेकिन फिर चट्टानें, और कांच के टुकड़े,
सड़कें, सीढियां 
और इस धरती के ऊबड़-खाबड़ रास्ते 
पैर को सिखाते चलते हैं कि वह उड़ नहीं सकता,
और न डाल पर लगा हुआ गोल फल बन सकता है.
तब बच्चे का पैर
हार गयायुद्ध में 
गिर पड़ा
क़ैद हो गया 
जूते में जीने के लिए अभिशप्त.

धीरे-धीरे रोशनी के बगैर 
एक ख़ास ढंग से वह दुनिया से परिचित हुआ
क़ैद में पड़े दूसरे पैर को जाने बगैर 
एक अंधे आदमी की तरह जीवन को खोजता हुआ.
अंगूठे के वे नाखून,
एक जगह इकट्ठा बिल्लौर 
सख्त हो गए, बदल गये  
एक अपारदर्शी पदार्थ में, एक  सख्त सींग में
और बच्चे की वे नन्ही पंखुड़ियाँ 
कुचल गयीं, अपना संतुलन खो बैठीं,
बिना आँखों वाले सरीसृप की शक्ल में ढल गयीं,
एक कीड़े जैसे तिकोने सिर के साथ.
और उनमें घट्टे पड़ गए,
वे ढँक गए
मौत के लावे के छोटे-छोटे चकत्तों से,
एक अनचाही हुई कठोरता से.
लेकिन वह अंधी चीज चलती ही रही
बिना झुके हुए, बिना रुके हुए,
घंटे दर घंटे. 
एक के बाद एक पैर,
अभी एक आदमी के रूप में,
अभी एक औरत के रूप में,
ऊपर,
नीचे,
खेतों, खदानों,
दूकानों, सरकारी दफ्तरों से होता हुआ,
पीछे की तरफ,
बाहर, अंदर,
आगे की तरफ,
यह पैर अपने जूते के साथ काम करता रहा,
उसके पास समय ही नहीं था
कि प्यार करते या सोते समय निर्वस्त्र हो सके.
एक पैर चलादो पैर चले,
जब तक समूचा आदमी ही रुक नहीं गया.

और फिर वह अंदर चला गया
पृथ्वी के भीतर, और उसे कुछ पता नहीं चला  
क्योंकि वहां पूरी तरह अंधेरा था,
उसे पता नहीं चला कि अब वह पैर नहीं है 
या अगर वे उसे दफनायेंगे तो वह उड़ सकेगा 
या एक सेब 
बन सकेगा.



चाँद का बेटा 

यहाँ हर चीज़ जीवित है 
कुछ न कुछ करती हुई 
अपने को परिपूर्ण बनाती हुई 
मेरा कोई भी ख़याल किये बगैर.
लेकिन सौ बरस पहले जब पटरियां बिछाई गयीं
मैंने सर्दी के मारे कभी अपने दांत नहीं किटकिटाये 
कॉतिन* के आसमान के नीचे 
बारिश में भीगते मेरे ह्रदय ने ज़रा भी साहस नहीं किया 
जो कुछ भी अपने को अस्तित्व में लाने के लिए 
जोर लगा रहा था 
उसकी राह खोलने में मदद करने का.
मैंने एक उंगली भी नहीं हिलायी 
ब्रह्माण्ड तक फैले हुए जन-जीवन के विस्तार में 
जिसे मेरे दोस्त खींच कर ले गए थे 
शानदार अलदबरान** की ओर.

स्वार्थी जीवधारियों के बीच 
जो सिर्फ लालच से देखते और छिप कर सुनते 
और फालतू घूमते हैं 
मैं इतनी तरह के अपमान सहता रहा जिनकी 
गिनती करना कठिन है 
सिर्फ इसलिए कि मेरी कविता सस्ती होकर 
एक रिरियाहट बनने से बची रहे.

अब मैं सीख गया हूँ दुःख को ऊर्जा में बदलना 
अपनी शक्ति को खर्च करना कागज़ पर 
धूल पर, सड़क के पत्थर पर.
इतने समय तक
किसी चट्टान को तोड़े या किसी तख्ते को चीरे बगैर 
मैंने निभा लिया,
और अब लगता है यह दुनिया बिलकुल भी मेरी नहीं थी: 
यह संगतराशों और बढइयों की है 
जिन्होंने छतों की शहतीरें उठाईं: और अगर वह गारा 
जिसने ढांचों को उठाया और टिकाये रखा 
मेरी बजाय किन्हीं और हाथों ने डाला था 
तो मुझे इसका अधिकार नहीं 
कि अपने अस्तित्व की घोषणा करूँ:मैं चाँद का बेटा था!
---------
•   कॉतिन: नेरूदा के वतन चीले के दक्षिणी भाग का एक अंचल.
**अलदबरान: लाल रंग का एक तारा, जो वृषभ की आँख बनाता है.
  

28325674549

एक हाथ ने एक संख्या बनायी,
एक छोटे पत्थर को जोड़ा 
दूसरे से, बिजली की एक कड़क को 
दूसरी से
एक गिरी हुई चील को दूसरी चील से,
तीर की एक नोक को 
दूसरी नोक से,
आर फिर ग्रेनाइट सरीखे धैर्य के साथ  
एक हाथ ने दो चीरे लगाए
दो घाव और दो खांचे: एक संख्या ने जन्म लिया. 

फिर आयी संख्या दो 
और फिर चार
एक हाथ 
उन सबको बनाता गया--
पांच, छह, सात,
आठ, नौ, लगातार,
पक्षी के अण्डों जैसे शून्य.
पत्थर की तरह 
अटूट, ठोस
हाथ संख्याएं दर्ज करता रहा
अनथक, और एक संख्या के भीतर 
दूसरी संख्या
दूसरी के भीतर तीसरी,
भरपूर, विद्वेषपूर्ण,
उर्वर, कडवी
द्विगुणित होती, उठती 
पहाड़ों में, आँतों में,
बागीचों में, तहखानों में
किताबों से गिरती हुईं 
कंसास, मोरेलिया* पर उड़तीं 
हमें अंधा बनाती मारती हुईं सब कुछ ढांपती हुईं 
थैलों से, मेजों से गिरती हुईं 
संख्याएं, संख्याएं,
संख्याएं.

-----
*कंसास और मोरेलिया:  क्रमशः अमेरिकी शहर और मेक्सिको का एक पुराना शहर, यूनेस्को धरोहर है. 


सीधी सी बात

शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं सबसे ऊंचा हूँ!'

जड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ!'

और रोटी कभी नहीं बोली:
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'



टूटी हुई यह घंटी

टूटी हुई यह घंटी 
गाना चाहती है निर्बाध:
इसकी धातु अब हरी हो चली: 
इसका रंग जंगल का 
जंगल के पोखरों के पानी का 
पत्तों पर गिरते दिन का

पीतल के हरे रंग का एक खंडहर 
घंटी लुढ़कती हुई
और सोयी हुई 
लता-गुल्मों के जाल में 
पीतल का पक्का सुनहरा रंग 
मेढक के रंग में बदलता हुआ 
पानी और तट की नमी के हाथ
बनाते हैं पीतल को हरा 
और घंटी को मुलायम

टूटी हुई यह घंटी 
उजाड़ हो चुके बागीचे में 
घने झाड-झंकाड के बीच फेंकी हुई.
हरी घंटी, घायल 
अपने निशान घास को सौंपती है
किसी को बुलाती नहीं,कोई नहीं आता 
उसके हरे प्याले के आसपास,
सिर्फ एक तितली 
ढहे हुए पीतल पर बैठी हुई
उडती है, फडफडाती है 
अपने पीले पंख.


ज़रा रुको

दूसरे दिन जो अभी आये नहीं हैं 
रोटियों की तरह बन रहे हैं 
या प्रतीक्षा करती कुर्सियों 
या औषधियों या विक्रय -वस्तुओं की तरह:
निर्माणाधीन दिनों का एक कारखाना:
आत्मा के कारीगर 
उठा रहे हैं और तौल रहे हैं और बना रहे हैं 
कडवे या कीमती दिनों को 
जो समय पर तुम्हारे दरवाज़े पर आयेंगे 
तुम्हें भेंट में एक नारगी देने 
या बेरहमी से तुम्हें तत्काल मार देने के लिए.


भौतिकी

प्रेम वनस्पति-रस की तरह 
हमारे रक्त के पेड़ को सराबोर कर देता है 
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से 
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
हमारे भीतर चला आता है पूरा समुद्र 
और भूख से व्याकुल रात 
आत्मा अपनी लीक से बाहर जाती हुई, और 
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हुईं 
तुम्हारी देह का भार, रिक्त होता हुआ दूसरा समय.
___________________
  

  

न तो मैं कुछ कह रहा था : रुस्तम सिंह की कविताएँ.

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आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यइतर जीवन आते रहे हैं, पूरी कविता के रूप में भी. रुस्तम सिंह के के यहाँ ये संग्रह की शक्ल में आयें हैं. लगभग सभी कविताएँ अपने केंद्र में प्रकृति को धारण करती हैं. मनुष्यों द्वारा प्रकृति के विरूपण की दारुण कथा, जिसका कोई अंत नहीं है.

व्यवस्था से नाराज़ व्यक्ति की शक्ल हिंदी कविता में अक्सर हम देखते हैं  पर सम्पूर्ण मनुज संस्कृति का प्रतिपक्ष कैसा होता है इसे देखना हो तो रुस्तम की कविताएँ देखनी चाहिए. मनुष्यों ने कितना नाश किया है और किस तरह वे इसे और तेजी से करते जा रहें हैं, वे अब इस धरती के लिए किसी आपदा से कम नहीं. एक बेलाग,खरा व्यक्ति अपने ही लोगों द्वारा धरती को नष्ट करते हुए विवश देख रहा है वह नाराज़ है,वह गुस्से में है वह यह चाहता है कि यह धरती जल्दी ही मनुष्यों की अति और उनके अतिवाद से मुक्त हो.

जिस तरह से प्रकृति कुछ भी अतिरिक्त स्वीकार नहीं करती उसी तरह से ये कविताएँ भी शब्दों के न्यूनतम से अपना कार्य कर लेती हैं, मौन को और गहरा कर अर्थ तक पहुंच जाती हैं. ये देखती हुई कविताएँ हैं, देखने में से दृश्य बनाती हुई. अपनी ध्वनियों और आवृत्ति से अर्थ सृजित करती हुई. एक कविता ‘फँस गया मैं/जीवन के चक्कर में’ का बार-बार मुखरित होना किसी चक्करदार सीढ़ी की तरह है जहाँ त्रासद अँधेरा आपको विकल कर देता है. यह रुस्तम की शक्ति और हिंदी कविता की उड़ान है.

ये कविताएँ राजनीतिक उस अर्थ में नहीं है जिस अर्थ में हम अब तक कविताओं को पढ़ते रहें हैं. ये पृथ्वी को बचाने की वैश्विक रणनीति का हिस्सा हैं जो सार्वदेशिक है. यह संग्रह पृथ्वी के पक्ष में खड़े कवि की पुकार है, जो कई जगह चीख में बदल गयी है.

रुस्तम का नया कविता संग्रह ‘न तो मैं कुछ कह रहा था’ जल्दी ही सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से प्रकाशित होने वाला है. इस पांडुलिपि को पढ़ते हुए मुझे इन कविताओं नें विचलित किया.



न तो मैं कुछ कह रहा था : रुस्तम की कविताएँ






उनके पाँवों के नीचे
उनके पाँवों के नीचे
तुम कभी भी दब जाती हो.

नन्ही चींटियो,
तुम्हारी पीड़ा की किसे परवाह है?




आज फिर उठना है
आज फिर उठना है.
आज फिर हगना है.
आज फिर नहाना है.
आज फिर काम पर जाना है.
आज फिर किसी से मिलना है, किसी से बोलना है, किसी को सुनना है.
आज फिर किसी को देखना है, किसी द्वारा देखा जाना है.
किसी को गाली देना है, किसी से गाली खाना है.
आज फिर कई बार पानी पीना है, कई बार मूतना है,
कुछ खरीदना है, कुछ बेचना है.
आज फिर पीटना है, पिट कर आना है.
आज फिर लौटना है.
शायद दुबारा हगना है.
आज फिर सोना है. सोने से पहले फिर मूतना है.



फँस गया मैं
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.

फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.

फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.

फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.

फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर में.




लोग
1.

बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत से लोग हैं. बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग. ऊपर, नीचे, अन्दर, बाहर. बहुत से लोग हैं. लोग बोलते हैं, बतियाते हैं. उनके मुँह रुक नहीं पाते हैं. बहुत से लोग हैं और बहुत से फोन हैं. इन फोनों से लोग आपस में जुड़े हुए हैं और बतियाते जाते हैं. कितनी सयानी-सयानी बातें उनके मुँहों में से निकलती हैं! कितनी बातें और कितने मुँह हैं मेरे चहुँ ओर! बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग.



2.
लोग ही लोग हैं. पर फिर भी कम हैं. पृथ्वी पर कुछ और जगह अभी बची हुई है! कुछ और लोग बन जायें, आपस में सट जायें, तो प्रेम पैदा होगा! मीठी-मीठी बातें होंगी! संवाद होगा! संवाद की कितनी कमी है! संवाद होगा तो सब ठीक हो जायेगा! सब जम जायेगा! कुछ और लोग बन जायें! आपस में सट जायें!



3.
मैं जिधर भी जाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. जिस ओर भी कदम बढ़ाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. वाह! मैं कितना खुश हूँ! कितना अच्छा जीवन ईश्वर ने मुझे दिया है कि हर जगह लोग उपस्थित हैं और वे कितने अच्छे हैं! मैं अच्छेपन से घिरा हुआ हूँ! दुकान में अच्छापन! सड़क पर अच्छापन! गली में अच्छापन! चौक पर अच्छापन! हर दफ़्तर में सब अच्छा ही अच्छा है, क्योंकि वहाँ लोग हैं, और वे सब मुझे प्रेम करते हैं! सब मुझसे सटे हुए हैं!




सब चाहते थे
सब चाहते थे
कि मैं अपना मुँह नहीं खोलूँ.

सब चाहते थे
कि वे ख़ुद तो बोलें
पर मैं नहीं बोलूँ.

उस वाचाल ज़माने में वे सब मुझे सिर्फ़ अपनी बात बताना चाहते थे.

तुमने उसे पैगम्बर कहा और उसे एक काली कोठड़ी में डाल दिया.

तुमने उसे
एक अन्धे कुएँ में धकेल दिया
क्योंकि उसका स्वर
कर्कश था
और वह
केवल सच बोलता था.

धीरे-धीरे उन्होंने
मेरे होंठ सिल दिए.






पूरा विश्व जल रहा है
पूरा विश्व जल रहा है.
जल रहा है मेरा हिया.

भीतर, बाहर
आग ही आग है
और धुआँ.

वो जो आग में से निकला था
वह जल रहा है.
वो जो बर्फ़ जैसा ठण्डा था
वह जल रहा है.

आग सुलग रही है.
आग भभक रही है.

उठ रहा है धुआँ.
जुट रहा है धुआँ.

नदियाँ.
जंगल.

समुद्र.
पर्वत.

हर चीज़ में से
आग निकल रही है.

जल रही है हवा.
पानी जल रहा है.

बुझ रहा है दिया.

यह तुमने क्या किया?
यह तुमने क्या किया?






अन्तिम मनुष्य
तुम अकेले ही मरोगे.

तुम्हारे चहुँ ओर मरु होगा.

सूर्य बरसेगा.
तुम मरीचिकाएँ देखोगे,
उनके पीछे दौड़ोगे,
भटकोगे.

पानी की एक बूँद के लिए भी तरसोगे.

ओह वह भयावह होगा!
एक मामूली जीव की तरह
मृत्यु से पहले
असहाय तुम तड़पोगे.

इतिहास में
सारे मनुष्यों के
सभी-सभी
कुकृत्यों का
जुर्माना भरोगे.

तुम अकेले ही मरोगे.





कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में बहता हुआ ख़ून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की शुरुआत होती है
और समाप्ति भी उसी क्षण.
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.




जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए घृणित है,
वही तुम्हें प्रिय है ---

दुःख क्यों है?
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.

मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.

सिर्फ़ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और ---
उफ़नता लावा.

मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ़ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.

फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
आसमान भी न रहे.





न जल जल था
न जल जल था, न हवा हवा थी, न नदियाँ नदियाँ थीं, न झीलें झीलें थीं, न समुद्र समुद्र था, न बादल बादल थे, न बारिश बारिश थी, न अन्न अन्न था, न फल फल थे, न प्रेम प्रेम था, न मनुष्य मनुष्य था, न मन्दिर मन्दिर थे, न ईश्वर ईश्वर था.

ऐसी दुनिया में मैं पैदा हुआ, रहा और फिर चला गया.




मैं पेड़ों का शुक्रगुज़ार हूँ
मैं पेड़ों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पौधों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं फूलों का शुक्रगुज़ार हूँ.

मैं पशुओं का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पक्षियों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं कीड़ों और मकौडों का
शुक्रगुज़ार हूँ.

मैं नदियों, झीलों,
समुद्र और तालाबों का
शुक्रगुज़ार हूँ.

मैं पर्वतों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं चट्टानों का शुक्रगुज़ार हूँ.

तथा हवा और मिट्टी का भी.

इन सबका अहसान है मुझ पर.

मैं कुछ इन्सानों का भी शुक्रगुज़ार हूँ.




भेड़िया भी मेरा नाम है
भेड़िया भी मेरा नाम है,
मात्र रुस्तम नहीं,
और शेर, घोड़ा, हाथी.
इसी तरह के और भी कई नाम मैंने रखे हुए हैं.
मैं रातों को दहाड़ता हूँ, गुर्राता हूँ, हऊँ-हऊँ करता हूँ,
दिन में भी.
मेरे तीखे दाँत और नाखून हैं.
गहन अन्धेरे में
चमकती हैं मेरी आँखें,
किसी टॉर्च की तरह जलती हैं.
अब तुम ---
क्या करोगे?
मुझसे डरोगे?
मुझसे दूर भागोगे?
मुझे मारने दौड़ोगे?
मुझे गुलाम बनाओगे?
मुझ पर
सवारी करोगे?

मेरा सींग काटोगे?
मेरी चमड़ी उधेड़ोगे?
मेरा घर उजाड़ोगे?

अब तुम
क्या करोगे?
क्योंकि भेड़िया भी मेरा नाम है,
और शेर, घोड़ा, हाथी.

_____________________________


कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : ३०  अक्तूबर 1955) "रुस्तम"नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह "मेरी आत्मा काँपती है"सूर्य प्रकाशन मन्दिरबीकानेरसे २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह "रुस्तम की कविताएँ"वाणी प्रकाशननयी दिल्ली,से २००३ में छपा था. "तेजी और रुस्तम की कविताएँ"नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ीतेलुगुमराठीमलयालीस्वीडी,नॉर्वीजीएस्टोनि तथा फ्रांसीसी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. किशोरों के लिए ‘पेड़ नीला था और अन्य कविताएँ'  एकलव्य प्रकाशन से २०१६ में प्रकाशित हुई हैं.
उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगे तथा लार्श आमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें "सात हवाएँ" तथा "शब्द के पीछे छाया है" शीर्षकों से वाणी प्रकाशन,दिल्लीसे प्रकाशित हुईं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थानशिमलातथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्रदिल्लीमें फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली", मुंबईके सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धाकी अंग्रेजी पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेजडिस्कोर्स,राइटिंग" के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयनयी दिल्लीमें विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com  

पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ : अनुवाद मंगलेश डबराल

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दुनिया में जिन कवियों को विश्व-कवि और महाकवि का दर्ज़ा मिला है, उनकी अग्रणी पंक्ति में पाब्लो नेरूदा शुमार किए जाते हैं. उनका जन्म (वास्तविक नाम: रिकार्दो एलिसेर नेफ्ताली रेयेस नासोआल्तो) 12 जुलाई 1904 को लातिन अमेरिका के दक्षिणी छोर के देश चीले में हुआ. तेरह वर्ष की उम्र से कविता की शुरुआत करने वाले नेरूदा को आरंभिक शोहरत बीस प्रेम कवितायें और निराशा का एक गीतसे मिली जिसे लातिन अमेरिका के ज्यादातर स्पानीभाषी देशों में अब भी पढ़ा और याद किया जाता है. शुरुआत में उनकी कविता अति-यथार्थवाद से प्रभावित रही, जो बाद में साधारण जन और उनके इतिहास और संघर्ष से गहरे जुड़ी. नेरूदा को बीसवीं सदी में प्रेम और जनसंघर्ष का सबसे प्रमुख कवि माना जाता है.

नेरूदा के नाम कई रिकॉर्ड दर्ज हैं: 
1. वे दुनिया के पहले कवि हैं जिन्होंने पेरू में माच्चू पिच्चू के प्राचीन खंडहरों की लम्बी और कठिन यात्रा की. इस यात्रा पर उनकी लम्बी कविता माच्चू पिच्चू के शिखरपूरी लातिन अमेरिकी सभ्यता और गरिमा का दस्तावेज़ मानी जाती है. 
2. वे जीवन भर चीले की कम्युनिस्ट पार्टी के सदय रहे. 
3. उन्होंने अपने मित्र और समाजवादी नेता साल्वादोर आयेंदे के समर्थन में लिए चीले के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ना छोड़ा. 
4. वे पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने 70 हज़ार श्रोताओं के सामने कविता पाठ किया. 
5. नेरूदा की कविता दस हज़ार पृष्ठों में फैली हुई है.

धरती पर घरनेरूदा का पहला परिपक्व संग्रह है. उसके बाद उनके पचासों संग्रह आए और 23 सितंबर, 1973 में उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी बहुत सी कविताएं मिलीं. 1971 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ. चीले में जब तानाशाह पिनोचेत की सरकार आई तो नेरूदा को अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया जहां उनकी मृत्यु हुई. लेकिन इस बात के ठोस संकेत हैं कि फ़ौजी हुकूमत ने उनकी हत्या की थी.
मंगलेश डबराल





अनुवाद
पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ                    
मंगलेश डबराल



एक बच्चे की ओर से अपने पैर के लिए  

बच्चे का पैर नहीं जानता कि वह अभी एक पैर है
वह एक तितली या एक सेब बनना चाहता है
लेकिन फिर चट्टानें, और कांच के टुकड़े,
सड़कें, सीढियां 
और इस धरती के ऊबड़-खाबड़ रास्ते 
पैर को सिखाते चलते हैं कि वह उड़ नहीं सकता,
और न डाल पर लगा हुआ गोल फल बन सकता है.
तब बच्चे का पैर
हार गयायुद्ध में 
गिर पड़ा
क़ैद हो गया 
जूते में जीने के लिए अभिशप्त.

धीरे-धीरे रोशनी के बगैर 
एक ख़ास ढंग से वह दुनिया से परिचित हुआ
क़ैद में पड़े दूसरे पैर को जाने बगैर 
एक अंधे आदमी की तरह जीवन को खोजता हुआ.
अंगूठे के वे नाखून,
एक जगह इकट्ठा बिल्लौर 
सख्त हो गए, बदल गये  
एक अपारदर्शी पदार्थ में, एक  सख्त सींग में
और बच्चे की वे नन्ही पंखुड़ियाँ 
कुचल गयीं, अपना संतुलन खो बैठीं,
बिना आँखों वाले सरीसृप की शक्ल में ढल गयीं,
एक कीड़े जैसे तिकोने सिर के साथ.
और उनमें घट्टे पड़ गए,
वे ढँक गए
मौत के लावे के छोटे-छोटे चकत्तों से,
एक अनचाही हुई कठोरता से.
लेकिन वह अंधी चीज चलती ही रही
बिना झुके हुए, बिना रुके हुए,
घंटे दर घंटे. 
एक के बाद एक पैर,
अभी एक आदमी के रूप में,
अभी एक औरत के रूप में,
ऊपर,
नीचे,
खेतों, खदानों,
दूकानों, सरकारी दफ्तरों से होता हुआ,
पीछे की तरफ,
बाहर, अंदर,
आगे की तरफ,
यह पैर अपने जूते के साथ काम करता रहा,
उसके पास समय ही नहीं था
कि प्यार करते या सोते समय निर्वस्त्र हो सके.
एक पैर चलादो पैर चले,
जब तक समूचा आदमी ही रुक नहीं गया.

और फिर वह अंदर चला गया
पृथ्वी के भीतर, और उसे कुछ पता नहीं चला  
क्योंकि वहां पूरी तरह अंधेरा था,
उसे पता नहीं चला कि अब वह पैर नहीं है 
या अगर वे उसे दफनायेंगे तो वह उड़ सकेगा 
या एक सेब 
बन सकेगा.



चाँद का बेटा 

यहाँ हर चीज़ जीवित है 
कुछ न कुछ करती हुई 
अपने को परिपूर्ण बनाती हुई 
मेरा कोई भी ख़याल किये बगैर.
लेकिन सौ बरस पहले जब पटरियां बिछाई गयीं
मैंने सर्दी के मारे कभी अपने दांत नहीं किटकिटाये 
कॉतिन* के आसमान के नीचे 
बारिश में भीगते मेरे ह्रदय ने ज़रा भी साहस नहीं किया 
जो कुछ भी अपने को अस्तित्व में लाने के लिए 
जोर लगा रहा था 
उसकी राह खोलने में मदद करने का.
मैंने एक उंगली भी नहीं हिलायी 
ब्रह्माण्ड तक फैले हुए जन-जीवन के विस्तार में 
जिसे मेरे दोस्त खींच कर ले गए थे 
शानदार अलदबरान** की ओर.

स्वार्थी जीवधारियों के बीच 
जो सिर्फ लालच से देखते और छिप कर सुनते 
और फालतू घूमते हैं 
मैं इतनी तरह के अपमान सहता रहा जिनकी 
गिनती करना कठिन है 
सिर्फ इसलिए कि मेरी कविता सस्ती होकर 
एक रिरियाहट बनने से बची रहे.

अब मैं सीख गया हूँ दुःख को ऊर्जा में बदलना 
अपनी शक्ति को खर्च करना कागज़ पर 
धूल पर, सड़क के पत्थर पर.
इतने समय तक
किसी चट्टान को तोड़े या किसी तख्ते को चीरे बगैर 
मैंने निभा लिया,
और अब लगता है यह दुनिया बिलकुल भी मेरी नहीं थी: 
यह संगतराशों और बढइयों की है 
जिन्होंने छतों की शहतीरें उठाईं: और अगर वह गारा 
जिसने ढांचों को उठाया और टिकाये रखा 
मेरी बजाय किन्हीं और हाथों ने डाला था 
तो मुझे इसका अधिकार नहीं 
कि अपने अस्तित्व की घोषणा करूँ:मैं चाँद का बेटा था!
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•   कॉतिन: नेरूदा के वतन चीले के दक्षिणी भाग का एक अंचल.
**अलदबरान: लाल रंग का एक तारा, जो वृषभ की आँख बनाता है.




  

28325674549

एक हाथ ने एक संख्या बनायी,
एक छोटे पत्थर को जोड़ा 
दूसरे से, बिजली की एक कड़क को 
दूसरी से
एक गिरी हुई चील को दूसरी चील से,
तीर की एक नोक को 
दूसरी नोक से,
आर फिर ग्रेनाइट सरीखे धैर्य के साथ  
एक हाथ ने दो चीरे लगाए
दो घाव और दो खांचे: एक संख्या ने जन्म लिया. 

फिर आयी संख्या दो 
और फिर चार
एक हाथ 
उन सबको बनाता गया--
पांच, छह, सात,
आठ, नौ, लगातार,
पक्षी के अण्डों जैसे शून्य.
पत्थर की तरह 
अटूट, ठोस
हाथ संख्याएं दर्ज करता रहा
अनथक, और एक संख्या के भीतर 
दूसरी संख्या
दूसरी के भीतर तीसरी,
भरपूर, विद्वेषपूर्ण,
उर्वर, कडवी
द्विगुणित होती, उठती 
पहाड़ों में, आँतों में,
बागीचों में, तहखानों में
किताबों से गिरती हुईं 
कंसास, मोरेलिया* पर उड़तीं 
हमें अंधा बनाती मारती हुईं सब कुछ ढांपती हुईं 
थैलों से, मेजों से गिरती हुईं 
संख्याएं, संख्याएं,
संख्याएं.

-----
*कंसास और मोरेलिया:  क्रमशः अमेरिकी शहर और मेक्सिको का एक पुराना शहर, यूनेस्को धरोहर है. 


सीधी सी बात

शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं सबसे ऊंचा हूँ!'

जड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ!'

और रोटी कभी नहीं बोली:
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'



टूटी हुई यह घंटी

टूटी हुई यह घंटी 
गाना चाहती है निर्बाध:
इसकी धातु अब हरी हो चली: 
इसका रंग जंगल का 
जंगल के पोखरों के पानी का 
पत्तों पर गिरते दिन का

पीतल के हरे रंग का एक खंडहर 
घंटी लुढ़कती हुई
और सोयी हुई 
लता-गुल्मों के जाल में 
पीतल का पक्का सुनहरा रंग 
मेढक के रंग में बदलता हुआ 
पानी और तट की नमी के हाथ
बनाते हैं पीतल को हरा 
और घंटी को मुलायम

टूटी हुई यह घंटी 
उजाड़ हो चुके बागीचे में 
घने झाड-झंकाड के बीच फेंकी हुई.
हरी घंटी, घायल 
अपने निशान घास को सौंपती है
किसी को बुलाती नहीं,कोई नहीं आता 
उसके हरे प्याले के आसपास,
सिर्फ एक तितली 
ढहे हुए पीतल पर बैठी हुई
उडती है, फडफडाती है 
अपने पीले पंख.




ज़रा रुको

दूसरे दिन जो अभी आये नहीं हैं 
रोटियों की तरह बन रहे हैं 
या प्रतीक्षा करती कुर्सियों 
या औषधियों या विक्रय -वस्तुओं की तरह:
निर्माणाधीन दिनों का एक कारखाना:
आत्मा के कारीगर 
उठा रहे हैं और तौल रहे हैं और बना रहे हैं 
कडवे या कीमती दिनों को 
जो समय पर तुम्हारे दरवाज़े पर आयेंगे 
तुम्हें भेंट में एक नारगी देने 
या बेरहमी से तुम्हें तत्काल मार देने के लिए.


भौतिकी

प्रेम वनस्पति-रस की तरह 
हमारे रक्त के पेड़ को सराबोर कर देता है 
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से 
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
हमारे भीतर चला आता है पूरा समुद्र 
और भूख से व्याकुल रात 
आत्मा अपनी लीक से बाहर जाती हुई, और 
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हुईं 
तुम्हारी देह का भार, रिक्त होता हुआ दूसरा समय.
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मंगलेश डबराल
16 मई, 1948. काफलपानी (टिहरी, उत्तराखंड)

पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रुआदि संग्रह प्रकाशित.

भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद, मरिओला ओफ्रे़दी द्वारा उनके कविता-संग्रह आवाज़ भी एक जगह हैका इतालवी अनुवाद अंके ला वोचे ऐ उन लुओगोनाम से तथा अंग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट प्रकाशित.

मंगलेश डबराल द्वारा बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद भी प्रकाशित.

ई 204 जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9
वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद-201012
ई-मेल: mangalesh.dabral@gmail.com
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