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सुषमा नैथानी की कविताएँ

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सुषमा नैथानी की कविताएँ            
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सत्यातीत समय में

पोस्ट ट्रुथ
वैश्वीकरण की नाव पर चढ़कर आया है.
दीवार खड़ी करने का हठ हो या ब्रेक्जिट
सब ग्लोबल गाँव में छीना-झपटी के नये पैंतरे हैं.
पिछले पच्चीस की खुली अर्थ-व्यवस्था पर पलटवार है.
नफ़रत इतिहास में दफ़्न नहीं हुई थी
उस पर शर्म का बस झींना पर्दा था
अब इतना हुआ कि जो दबा-ढंका था
वह बेनकाब हुआ.

भासी-आभासी और यथार्थ में लिसरती दुनिया में
अजनबीयत के अटूट सिलसिले हैं.
घुमावदार गालियाँ के ठीक ऊपर रोशनी के जगमगाते टॉवर्स
और नीचे जमीन पर हर ओर बज़बज़ाती नस्लीयहिंसा है.
इस और उस को सबक सिखाने हेतु वैश्विक उद्घघोष हैं.
पैने नाख़ून और दांत लिए यत्र-तत्र-सर्वत्र झुंड के झुंड हैं.
एक पूरा बियाबान पसर रहा है!
एक-एक कर ढहती जा रही हैं संरचनायें,
पाताल में गिरते रहे हैं इलेक्ट्रॉन्स,
नियंडरथल गुफा की भीत पर
डोलती हैं आड़ी-तिरछी छायायें,
और हवा में टकी है चीख़
इसके इतर बाकी सब
हू... लू... लू...
हवा हवा सब...

धमकियों, संशय, अलगाव के बीच
अवांगर्द सकपकाए सन्न खड़े
और रिएक्शनरी मार्च पर हैं.
पूँजी के जरख़रीद
अश्लीलसेलेब्रिटीज़, धर्मगुरु, नेता-अध्येता
बात-बात पर तालियाँ
सीटियाँ और तालियाँ
मज़मा लगा है.
विद्रुपयह समय हमारे हिस्से आया है...

इसी दुनिया में
चित्त होना बारम्बार,
दुःख में रेत-रेत दरकना
और फिर खड़े होते रहना है.
मेरे इस होने मेंतुम्हारा होना
बहुत-बहुत शामिल है.
उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारे होने में
जरा सी मैं भी शामिल रहूँ...
***


अन्वेक्षण

लालसाकेगर्भसे
पहले-पहलजन्मलेगाविषही,
अमृतघटकापताकहींनहीं.
हलाहलसबकेभाग!
बाहरनिकलनेसेपहले
और थककर ढेर हो जाने केबाद
फिरदौड़तेरहनाभीतर-भीतर.
भटकनकेलिएजरूरीहैभूगोल,
लेकिन पर्याप्तनहीं.

प्रेममेंहोगी आकुलाहट,
सदाशयता,औरविदामेंहिलताहाथभी.
अनहोनियोंकेजंगलमें
वटवृक्षकीकतर-ब्यौंतहोतीनहीं.
प्रेममेंहोनाआत्महंताहोनाहै!

जीवनमेंउलटहैपाठ्यक्रम,
अंतकेमुहानेबैठाआरम्भ.
धूसरस्मृतिऔरउबड़खाबड़जीवनकेबीच
हरेकीइच्छासेतरहैआत्माकाकैनवस.
कलनयादिनहोगा!
किकालकीगतिरूकतीनहीं!
कथाकहवैयाकीगुननेकीसीमाहै
यूँ कहानीकहींख़त्महोतीनहीं!
***

मेहदी हसन

कहना उसे
अब नहीं हैं
काले तवे,
पुराना ग्रामोफोन
या कठिन दिनों का
ओटोरिवर्स पॉकेट प्लयेर.
फिर भी
ओस की बूँद के
सलोनेपन
में लिपटी
वह
आवाज़
गूँजती
रहती है
मेरे
आसपास...
***
छुट्टी के दो दिन

आज फिर धूल फांकी,
फालतू चीज़ों से घर से खाली किया,
इस्तरी की, कपड़े-लत्ते तहाये,
मन अटका रहा,
दिन निकल गया.

कुछ देर घाम में बैठी,
कुछ देर घूमते-घूमते हिसर टूंगे,
रस्ते पर एक सांप दिखा,
दो खरहे, एक कनगोजर
दिन निकल गया.

***

नैनीताल

हे अयारपाटा के बाँझ-बुरांस
देर रात गए
जब सीटी बजाती, सरसराती, हवा चले
तो मुझे याद करना.
कितने तो रतजगों का हमारा साथ रहा.
अप्रैल-मई की गुनगुनी धूप,
जुलाई-अगस्त के कोहरे,
नवम्बर की उदासी,
तुम्हें याद रखूँगी मैं.
पहाड़ तुम दरकना नहीं,
जब तक तुम हो मेरा घर रहेगा.
जिनकी नराई घेरती है वक़्त-बेवक्त
अबवेबहुत से लोग नहीं रहे.
हरे-सब्ज़ रंग की झील तू बने रहना.
मेरे बच्चों और फिर उनके के बच्चों के लिए भी.
किसी दिन तुम्हारे भीतर झाँक कर
वो मेरा अख्स देखेंगे...
***
ताजमहल

लालबलुआ-पत्थरोंकेबीचएकफूलखिलाहै
ताजमहल!
मुगलियासपनोंमेंतीनसदीतकडोलतेरहेहोंगे
मिश्रकेपिरामिड,उलूगबेगकेमदरसे,
समरकंद-हिरात-काबुलकेहुज़रें.
उत्तर सेदक्खिनतकफैलेकिलों, मकबरों, महलोंपर
फैलीहुईहैइनसपनोंकीछाया.

बीसियोंसालपत्थरोंसेपटारहाहोगाआगरा,
हज़ारों-हज़ारपीठ-हाथहोगएहोंगेपत्थर.
नक्कासों, गुम्बजकारों, शिल्पीयोंकेजहनमें
क़तरा-क़तराउभरीहोंगीयहमहराबेंमीनारें.
चित्रकारों, संगतराशों, पच्चीकारोंकीउँगलियोंकेपोरपर
खिले होंगेट्यूलिप्स, सूरजमुखी, गुलबहार, चम्पा, चमेली.
झिर्रियोंसेछलनी-छलनीहुएहोंगेमन
और आंसुओंकेतालाबमेंमुस्कराएहोंगेकमल!
तसल्लीबख्शकिसीआख़िरीक्षणमें
किसी लिपिकारकेहोठोंपरउभरीआहहै
ताजमहल!

अर्जुमन्दबानोबेगमउर्फमुमताजमहल
कायनातकीअजीमसौगातोंकेबीच
कितनेप्यारसेरखेहुएहैंतुम्हारेअवशेष.
दक्खिनीदरवाजेकेजरासाइधर
सहेलीबुर्जएकमेंदफ़नहैंबेग़मअकबराबादी^
सहेलीबुर्जदोमेंफतेहपुरीबेगम^
क्यामालूमकहाँमरीखपीहरमकीहूरें,
औरदर्ज़नोंकुंवारीशहजादियाँ*.
सिर्फएकशहंशाहकाहीविलापहै
ताजमहल!
______________
^शाहजहांकीदोबेग़मेंजोताजमहलपरिसरमेंहीदफ़नहैं.
*अकबरनेमुग़लशहजादियोंकेविवाहपररोकलगादीथी, जोमुमताजकीबेटियोंकेलिएभीरही.

(21 दिसम्बर, 2013)
***

छिन्नमस्ता!
तिरुपतिसे
लौटीऔरतेंदेखीं
शोकतजआयीं
केशतजआयीं.
देखीं
हिन्दूविधवा
शिन्तोविधवा
नन,सन्यासिन
ऑर्थोडॉक्सयहूदीसधवा
केशतजआयीं
कामनातजआयीं.

अनचाहेखिले
बैगैरतकामनाफूल
येकेशकिसकीकामनाहैं?
किसकीमुक्ति?
क्यानहीं रीझती
विरहरागनहींसुनतीमुंडिता?
पूरब-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण
तिल-तिलतिरोहित
होती
लालसाकी
कामनाकी
नदीमें
छिन्नमस्ता!

***

संगत

घनाबरगदकाजंगलहुई
आसानरहापहुंचना
मुश्किलनिकलना.
नमीहुई, हवाहई,
रातकेसिरहाने
बहतेझरनेकीकलकलहुई.
भूमिगतनदीकीहिलोरहुई,
नाक की नोक में टिकी सर्द टीस
और आग का ख़्वाब हुई
कवितायें.
धीमाज़हरहुई.
सरपरचढ़ाउनकासरूर
धीमें-धीमेंउतरा.
पढ़ते हुए तुम याद आये.
***

जीवन
मैं आधी उम्र इस नपीतुली रहस्यहीन, रसहीन दुनिया से बाहर
कहीं से कहीं निकल जाना चाहती रही.
और फिर शेष जीवन वापसी का रास्ता ढूँढती रही...

चौतरफालामबंदहैजोसाजसामानइसकेबीचनहींरहती,
इसदिनकेभीतरजोचौबीसदाँतोंसेसोखताहैमेरीचेतना.
खुशी, ज़िद्द,औरदुस्साहसकेबीचघिरी,शैने: शैने:मेरीआत्माहोतीहै हरी...

दुनियाकीलपस्यामेरेहिस्सेबहुतआईनहीं,
फिरभीकिसी-किसीदिनलगताहै इस दिनकेभीतरकुछऔरदिनहोते.
औरकभीऐसी बेकली रहती हैकियेदिनगुज़रेतोकोईबातबने...

अक्सर जीवन अल्बेयर कामू के 'अजनबी'का प्लाट हो जाता है,
कोई वाज़िब बहाना भी नहीं होता, कहने को कोई बात नहीं बचती.
सिवा इसके कि 'बहुत गरमी थी, झुंझलाहट या थकान थी', कुछ का कुछ हो गया...

किसी बहाने अचानक वह बात खुलती है, जिसका वहम भी जहन में नहीं रहता.
याद रखने और भूल जाने से अलग भी मन में बेखबरी की जगह होती है बहुत बड़ी.
उस छुपी जगह के बाशिंदों पर कोई क्लेम नहीं, बस ज़रा सा उन्हें जान लेने की ख़्वाहिश है...

फ़ैसलेसिर्फइसलिएकठिननहींहोतेकि उनकेसाथदुःखऔरमुसीबतेंआतीहैं.
दुःखऔरमुसीबतअपनीजगहकमऔरज्यादाहोसकतेहैं,
लेकिनउनकेसाथख़ालिसअकेलापनआताहै...

दिल दुखा,चोटसही, लेकिन दिलदारी भी हिस्से में आयी.
दोस्ती के फूल खिले, अजनबी सोहबत में दिल कई बार हरा हुआ.
घिरती साँझ में जुगनू जो जादू कर गुज़रते हैं, उसके सरूर में बनी रहती हूँ...

अबलालकुछकमसुर्ख़,पीलाकुछज़र्द,नीलालगभगस्याहदिखताहै,
सलेटीमेंकुछउजासहैभरी,औरहरेमेंथोड़ीसीख़ुशी.
करनेकोढेरसारेकाम औरबिसूरतेरहनेकोदुनियाबाक़ीहै...
***
रामगढ़

बारहा
देवदार के
टुक्खु से
उड़ी चली
आती है.
छज़्ज़े पर,
खिड़की से
पहलू में
अबाबील.
ऐसे ठहर गयी
यहाँ
जैसे
बस
यहीं
हो
घर...
***

संचय

आगेबढ़नेकेपहले
बसजरादोकदमपीछे
अपनेभीतरउतरतीहूँ
टटोलती वह
जो बचा रह जाता है
नष्ट होने के बाद भी...
***
विदा

अचानक यूँ ही खड़े-खड़े गिर जाता है
विशालकाय चिनार का पेड़
छूट जाता है संग-साथ
बीत जाती है उम्र
ख़त्म हो जाता है प्रेम.
एक-एककरनिकलजातेहैंलोग
एक दिनदरकजातींहैंदीवारें
ढहजातीहैछत.
छूटगये घर
टूट गए प्रेम,
कट गये पेड़ों
विलुप्त हो चुके पक्षियों
मैं ठहर कर
साफ़ मन और स्नेह में भीगी
कहना चाहती हूँ एक बार
विदा!
***
तस्वीर
बीस साल की लड़की
तस्वीर में फूल सी खिली है
कितनी उम्मीद भरी
यूँ कुछ वर्ष बाद
जिस घर ब्याह कर पहुंची
कुचल दी गयी.
शिक्षा, नौकरी, मेहनत, संवेदना
किसी से उसका भला न हुआ...
***
माँ

तुम एकपूरीउम्र
नट की कुशलता से
महीन सूत पर चलती रही,
और साध लिया संतुलन.
उग आए तुम्हारे पंख,
उड़ आईं तुम ओर-छोर,
जुटा लिया हँसी ठट्ठा
और अपनेइर्द-गिर्द
खड़ाकरकिया
एक बेहतर संसार.
मेरीपलकों पर बैठीहै
ढेर सारी नींद,
गहरा अवसाद,
औरदुश्चिंता.
माँ तुने बहुत दिया
मुझे धीरज.
थोड़ी सी
हँसी भीदे दे!
***
घर

एक नदी बहती है
वर्षों से हमारे बीच
इसी में तर हुये
डूबे-उतरे
फिर-फिर हुये हरे
कलपते रहे जिसके लिए
यहीं वो घर बना.

***

बेघर

जब नहीं होती बात
हवा नहीं बहती
चिड़िया नहीं गाती
झर जाते हैं एक-एक कर सारे फूल
सूख जाती है नदी.
धूसर, उजाड़  पगडंडी के ऊपर
गोल-गोल चक्कर काटती
फड़फड़ाती है एक चील
पतझर के मौसम में
मैं ढूंढ़ती हूँ
घर का पता...

***


मृत्यु

जीवनतोपंखुड़ी-पंखुड़ीटूटतारहा,
अभी-अभीवहआख़िरीज़र्दपत्ताबेआवाज़गिरा,
एककांपतीलौबुझगई,
वहतोबहुतपहलेजाचुकाथा.
***

जरूरीहै

किबनीरहेमेरीभीकुछअकेलेपनकीआदत

***

परुली की बेटी

तुमरामकली, श्यामकली,
परुलीकीबेटी
तेरहयाचौदहकी
असम, झारखंड
याउत्तराखंडसे
किसी एजेंसीकेमार्फ़त
बाकायदाकरारनामा
पहुँचीहो
गुड़गाँव, दिल्ली,
मुम्बई, कलकत्ता,
चेन्नईऔरबंगलूर के
घरोंकेभीतर.
दोसदीपुरानादक्षिणअफ्रीका
हैती, गयाना, मारिशस
फिजी, सिन्तिरामयहीं है अब.

बहुमंजिलाफ्लेटकेभीतर
कबउठतीहो, कबसोती
क्याखाती, कहाँसोती
कहाँकपडेपसारतीहो?
कितनेओवरसियरघरभर
कभीआतीहैनींदसीनींद
सचमुचकभीनींदआती है?

दिखतेहोंगे
हमउम्रबच्चेलिएसितार-गिटार
कम्पूटर, आइपेडटिपियाते,
जूठीप्लेटमेंछूटाबर्गर-पित्ज़ा,
महँगे कॉस्मेटिक,
विक्टोरियासीक्रेटकेअंगवस्त्र.
किटपिटचलतीअजानीज़बानकेबीच
कहाँ  होतीहोबेटी
किसीमंगलगृहपर,
या पिछली सदी के
मलावी, त्रिनिदाद, गयानामें
तुमकिसी  रामकली, श्यामकली, परुलीकीबेटी
किसजहाज़परसवार हो
इससदीकीजहाजीबेटी*
_______
*जहाजीभाईयोंकीनक़लपर
***



प्रेमी

मेरेपासथोड़ीसीहँसी
ढेरसानमकहै
औरदेनेकेलिएखूबसारादुःख
ऑब्सेसिवकम्पल्सिवडिसऑर्डरहूँ
कुछलम्पट, कुछकायर, कुछनार्सिस्ट
पुरानेग्रामोफोनकीअटकी  सुईहूँ
वहांघर्र-घरर -घररकेकुछनहींबजता
सहेजलेनेकोअवसादकाकुँआहै
जहाँसेबारबारलौटतीहै
मेरीहीप्रतिध्वनि.
***








मेमौग्राम
(स्व. आर. अनुराधा के लिए)
टालतीरही
जबतकटालसकी
बेसलाइनमेमौग्राम.
इसआश्वस्तिकीटेकपरकि
नानी-दादी, फूफी-मौसी
अस्सी-नब्बेतकसबसलामतरहीं.
लेकिनफिरडरनेकोआंकड़ेहैही
वर्षकीशुरुआतमेंडॉक्टरनेअल्टीमेटमदियाथा
हिम्मतजुटातेअबदिसंबरहोगया
कईदिनघर-दफ्तरमेंखटतीरही
अनमनीरही,
रह-रहपेटमेंउठतीमरोड़,
औरजीभपरजाताकसैलास्वाद.
ऐसेडरनहींथा, फ़कतझुंझलाहटथी.
मेरीबारीआईतोगनीमतरहीकिटैक्नीशियनउम्रदराज़औरतथी
बाक़ीमशीनथी, खड़ी-पड़ी
आड़ी / तिरछी
औरउसकाआघातथा, ठंडापनथा.
मेरेपासब्रुफ़ेनथी,
औरझोलेमेंपड़ीएककिताबथी
जिसे  खोलसकनेकी
दिन भर गुंजाइशबनी
यूंफ़जीहतकासिलसिलाशुरूहुआ..
(12 दिसम्बर, 2015)
***

कमल जोशी के लिए

याद आता है वो सड़क के किनारे का ख़ूबसूरत, घनेरी छांव वाला पेड़
जिसके नीचे तुम बैठे रहे बहुत देर
और उस रस्ते में खायी हुई ताज़ा हरी ककड़ी.

देखने को अब बची हैं तस्वीरें और याद है तुम्हारा कहना
मैं कभी दूसरा शॉट नहीं लेता, जो पकड़ना है एक में ही पकड़ लेता हूँ.”
हमारी पकड़ में यूँ तुम्हारा नाख़ून भी नहीं आया.

लड़नाभीएकचुनावहुआऔरमुँहफेरलेनाभी.
हम तुम्हें सिर्फ़ पहली ही बात के लिए जानते थे,
और कितना कम जानते थे कि दूसरी का गुमान न था.

कमल जोशी दोस्त याद करेंगे अब तुम्हें पहाड़ चढ़ कर,
ठंडी हवा और पानी के बीच, अकेलेपन में.
याद करेंगे तुम्हारी उस उन्मुक्त हँसी, बुलंद आवाज़ और लापरवाही को.
***

सूर्यग्रहण

आज चाँद की सोलह कलाएँ
सूरज ने चोरी की.
पेड़-पत्तों ने गवाही दी
उकेरी उसकी अनगिनत छवियाँ.
मैंने याद किया पिछलीसदीमेंकभी
उस चाँद को जो
बाख़ली के आँगन में
रखीकाँसे की थाली में
उतर आया था
मेरे ही लिए.
याद किया तारे गिनते बूढ़े दादा को,
फूले सर वाली ताई औरदादीको,
और अखरोट के पेड़ को.
नीम की पत्तियों को याद किया.
उस आम के पेड़ को याद किया
जिससे गिरकर टूट गयी थी
मेरी दाहिनी हँसुली.

(21 अगस्त 2017 को कोरवालिस में पूर्णसूर्यग्रहण  देखतेहुए.)
***

बापूकाचरखा

बापू इक्क्सवीं सदी के दुसरे दशक में
दुनिया की 100 सबसे अधिक लोकप्रिय फोटो में
शामिल हो गया अब तुम्हारा चरखा.
वो दिख जाता है दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी के साथ
जो बैठा है आणविक हथियारों के जख़ीरे पर
और मक्खी की तरह मसल सकता है बड़ी आबादी.
वो जो स्वनाम जड़ित सूट पहनता है
या वह भी जो बुलेट ट्रेन बेच सकता है
या खदानों का कच्चा माल बेचता-ख़रीदता है
और गिरमिट का इंतज़ाम कर सकता है
कात रहा है सूत...
***

चोपता से सप्रेम

असली वैभव वृक्षों का नसीब है!

***



अफ़सोस!

मैं
एक उम्र बेवजह उलझी रही,
और शेषशोक में डूबी रही.
विध्वंश की पूरी एक रेल चलती रही.

***

आयोवा की याद

सर्दी से मुठभेड़ के पहले ही दिन
चुक गया भोटिया ऊन का मोटा खुरदरा स्वेटर
और लखनवी नफ़ासत का गरम कोट.
एन्टार्टिका की सर्द रेत सरीखी
चाँदनी में चमकती
अंधड़ से उड़ती
ख़ंजर से चुभती
बर्फ़!
रात के दूसरे पहर
सुनसान रस्ते
कमर-कमर तक धंसती
पैदल-पैदल पहुँची थी घर.
जूते के भीतर शायद
जमे हुए पैर
नीले से बैंगनी होते
लगभग जलते रहे.
ठंड पर शर्म भारी रही
और जैसे-तैसे कट गए सात दिन.
फिर गुडविल स्टोर से ख़रीदे हुए
सेकेंड हैंड जैकेट, दस्ताने, जूते.
बने मेरा जिरहबख़्तर.
जिनके बूते फ़तह की
वह मौसम की पहली जंग
अब बीस वर्ष बाद ट्रोफ़ी से टंगे हैं खूँटी पर.

_____________
डा. सुषमा नैथानी ऑरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी, कोरवालिस, अमेरिका में वनस्पति विज्ञान की रिसर्च असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. वह साहित्य, संगीत और घुम्मक्कड़ी में गहरी रुचि रखती हैं, और हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. 2011 में हिंदी में काव्य संकलन उड़ते हैं अबाबील(2011) और धूप में ही मिलेगी छाँह कहीं (2019) प्रकाशित. कुछ कविताएँ व लेख पब्लिक एजेंडा, कादम्बिनी, पहाड़, हंस, आउट्लुक, आदि हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित.


‘तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.’ आशुतोष भारद्वाज

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(Artwork of Johnson Tsang)


संपादक प्रथम पाठक है, कई बार रचनाएँ उसे उसी तरह सुख देती हैं तब वह आनायास ही किसी पाठक की तरह चाहता है कि जो आनंद उसे मिला है उसे वह साझा करे.

आशुतोष भारद्वाज इसी तरह का वैभव प्रदान करते हैं. आलेख हो संवाद हो या संस्मरण आशुतोष प्रशांत, गहरी बौद्धिक जिज्ञासा और शाब्दिक सौन्दर्य के साथ सामने आते हैं.

उपन्यास के भारत की स्त्री’विषय पर लिखे उनके लेख जो समालोचन पर क्रम से प्रकाशित हुये थे, जल्दी ही ‘राजकमल प्रकाशन’ से पुस्तकाकार प्रकाशित हो रहें हैं. उन्हें इसके लिए अग्रिम बधाई.

प्रस्तुत गद्य-खंड डायरी नुमा हैं और इनमें किताबें, किरदार और खुद कलमकार असरदार ढंग से अपने को प्रत्यक्ष कर रहें हैं. गद्य का भी अपना काव्यत्व होता है जो यहाँ है.  



‘तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.’
आशुतोष भारद्वाज





एक)
कोई लेखक अपनी प्रेरणा लगभग असंभव सी दिखती चीजों से हासिल कर लेता है. बेनेडिक्ट एंडरसन अपनी क्लासिक किताब इमेजिंड कम्युनिटीज पर जिन चिंतकों का प्रभाव बताते हैं उनमें से किसी ने भी राष्ट्र और राष्ट्रीयता पर कुछ खास नहीं लिखा था. कार्ल मार्क्स, तीन फ्रेंच इतिहासकार, एक अंग्रेज नृतत्वशास्त्री, अमरीकी उपन्यासकार एच बी स्टोव. लेकिन इन सभी में एंडरसन को अपने जटिल काम की चाभी मिल गयी.

अमरीका के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढ़ा कर रिटायर होने के बाद एंडरसन उपन्यास और सिनेमा में अपना घर तलाशने लगे, खासतौर से अपीचातपोंग वीरासेथाकुल की फ़िल्में और एका कुर्निवान के उपन्यास. मैन टाइगर की उन्होंने भूमिका भी लिखी. अपनी आत्मकथा अ लाइफ विदआउट बाउंड्रीज में वे लिखते हैं:

तब मुझे लगा कि शोध सामग्री को लिखने का सबसे अच्छा तरीका है कि उन्नीसवीं सदी के उपन्यासकारों की अगर योग्यता नहीं तो तकनीक को इस्तेमाल किया जाये: जल्दी से बदलते दृश्य, षड्यंत्र, संयोग, चिट्ठियां और भाषा का विविध स्वरुप में प्रयोग.

वे यह भी लिखते हैं कि अकादमिक संस्थान विद्यार्थी और युवा अध्येता की रचनात्मकता और गद्य को नष्ट कर देते हैं क्योंकि जिस

भाषा शैली को उन्हें प्रयोग करने के लिए कहा जाता है वह अक्सर उस भाषा से कहीं कमतर होती है जिसे वे हाई स्कूल और अंडरग्रेजुएट स्तर पर प्रयोग करते आए थे.”

(बेनेडिक्ट एंडरसन)
अध्येताओं के ज़ेहन में भर दिया जाता है कि उन्हें एक बहुत ही सीमित क्लब के लिए लिखना है, जिसके सदस्य उनके अध्यापक, यूनिवर्सिटी की पत्रिकाओं के संपादक और अंततः खुद उनके विद्यार्थी होते हैं. पिछले शोध-कर्मों के बेहिसाब और बेमतलब उद्धरणों से भरीं उनकी किताबें इसी क्लब द्वारा रिव्यू होतीं हैं, छपती जाती हैं. उनका लेखन कहीं वृहद् बुद्धिजीवी और पाठक समाज द्वारा कभी नहीं परखा जाता. एकदूसरे के लिए लिखते चलते यह अध्यापक आखिर में रिटायर हो जाते हैं. 

इस अध्याय के अंत में अपने एक मित्र को उद्धृत करते हुए एंडरसन लिखते हैं कि उपन्यासकार पर विचार और भाषा की मौलिकता का दवाब बना रहता है, स्कॉलर अक्सर अपनी तकनीकी शब्दावली के कैदी हो जाते हैं.

यानि समस्या सिर्फ भारतीय विश्वविद्यालयों में ही नहीं है.

जिन दो युवा कलाकारों को वे पसंद करते हैं, उनका काम यानि कुर्निवानका गल्प और वीरासेथाकुलका सिनेमा आख्यान के लगभग विपरीत ध्रुव पर ठहरे हैं. कुर्निवान की भागती दौड़ती कथाएँ मार्केज़ सरीखी, वीरासेथाकुल की बेइंतहा उनीदीं भटकन. मसलन सिनड्रोम्स एंड अ सेंचुरी. इसके चमकीले फ़्रेम, प्रांजल किरदार, उजली रोशनी में धुली हुई चीज़ें दृश्य को सपने जैसी तरलता देती हैं. इस फ़िल्म में कथा और घटनाओं को खोजना, उन्हें किसी सूत्र में बाँधने में कोशिश करना एकदम ग़ैर-ज़रूरी है. यह आलाप में आहिस्ते से थिरकती है, चलती जाती है. किरदारों से दूरी पर ठहरा निस्संग कैमरा उन फ़िल्मों से कहीं अधिक आकांक्षा जगाता है जो क्लोज़ अप को ही एकमात्र ज़रिया मानती है संवेदना उकेरने का. बारीक, लेकिन उँगलियों पर उतरती आकांक्षा.

एक नृतत्वशास्त्री इतनी विविध अनुभूतियों से अपने शोध की प्रेरणा हासिल कर लेता है, लेकिन उसके काम में इनके चिन्ह किस तरह दर्ज हुए होंगे? क्या एंडरसन के लिखे को कोई छूकर कह सकता है- यह रही कुर्निवान की उन्मादी हंसी, यह वाल्टर बेंजामिन के शब्दों की चमक, यह वीरासेथाकुल का संकोच.




दो)

हेमिंग्वे ने आग्नेस वू कुरोव्स्कीके साथ अपने प्रेम की कथा कहता उपन्यास फ़ेयरवेल टू आर्म्ज़ अपनी पत्नी पाओलीन के घर में लिखा था जब वे उनकी संतान को जन्म देने वाली थीं. उपन्यास की नायिका कैथरीन बार्कले का किरदार आग्नेस पर आधारित था.  आग्नेस इटली के एक अस्पताल में नर्स हुआ करतीं थीं जब हेमिंग्वे पहले विश्व युद्ध के दौरान वहाँ भर्ती थे.
(हेमिंग्वे)

उपन्यास में बार्कले की संतान का जन्म पाओलीन के सिजेरियन ऑपरेशन के साथ घटित हो रहा था. क्या मनोस्थिति रही होगी हेमिंग्वे की जब वे दो माँ बनने वाली स्त्रियों के संग एक साथ जी रहे थे—- दोनों स्त्रियाँ उनकी अपनी थीं. एक उनके सामने बिस्तर पर लेटी हुई थी, दूसरी पन्नों पर उतर रही थी. दोनों को नहीं मालूम था हेमिंग्वे उनके साथ संवाद कर रहे थे, उपन्यासकार के भीतर दोनों एक दूसरे को रोशन कर रहीं थीं. एक का अक्स दूसरी में समा रहा था.

हेमिंग्वे की स्मृति में लेकिन एक तीसरी स्त्री भी थी- आग्नेस, जो जा चुकी थी लेकिन बाकी दोनों की कथा को रच रही थी. 




तीन)
गाँधी ने अपने जीवन की दो सबसे बड़ी मृत्यु से साक्षात अंग्रेज हिरासत में किया था. गाँधी, उनके शिष्य महादेव देसाईऔर अनेक कांग्रेसी नेता पुणे के आगा खां पैलेसमें भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बंद थे. आन्दोलन की शुरुआत के ठीक एक हफ्ते बाद पंद्रह अगस्त १९४२ को देसाई की मृत्यु हो गयी, स्वतंत्रता मिलने से ठीक पांच साल पहले. महादेव का अंतिम संस्कार महल के अन्दर ही हुआ. गाँधी रोज सुबह उस स्थल पर जाते, उस राख को संबोधित कर गीता का पाठ करते. एक तिहत्तर साल का इन्सान राख के ढेर को गीता पढ़ कर सुनाता है, चुटकी भर ले अपने माथे से लगाता है, एक ऐसे समय जब वह जेल में है. यह उस वृद्ध के बारे में क्या बतलाता है?

(महात्मा गांधी)
भारतीय सभ्यता में किसी अभिवावक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी संवेदना छुपा कर रखेगा. महादेव की मृत्यु के डेढ़ साल के भीतर कस्तूरबा भी उसी जेल में चली गयीं. बहुत कम समय में गांधी ने उन दो इंसानों को खो दिया था जिन्होंने उन्हें दशकों से संभाले-साधे रखा था, पोषित किया किया. एक बुजुर्ग जो अभी भी जेल में है इस अघात पर क्या प्रतिक्रिया देगा?

वह जीवन में आये इस त्रासद अभाव का शोक मनाते हैं, क्योंकि वह आज जो भी हैं इसमें उनकी (कस्तूरबा) बहुत बड़ी भूमिका रही है. लेकिन वह एक दार्शनिक संयम ओढ़े रहते हैं...जब मैं और मेरे भाई शुक्रवार को उनसे विदा ले रहे थे तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.

यह देवदास गाँधी ने लिखा था जब वे अपनी माँ की अस्थियों के साथ पिता से विदा ले रहे थे.



चार)

दो हजार ग्यारह

दिल्लीबीस फ़रवरी.

‘जीवन की एक विकट त्रासदी जब हम अपने जीवन को कला के आइने से देखने लगते हैं, जीवन को किसी उपन्यास सा बना लेना चाहते हैं, उस उपन्यास के किरदार बन जाना चाहते हैं. मुझे एक कहानी उन लोगों पर लिखनी चाहिए जो ख़ुद को किसी प्रिय उपन्यास के किरदार में ढालना चाहते हैं, इस प्रक्रिया में अपने से दूर होते जाते हैं.

चेखव को रूस का मोस्ट इलूसिव लिटरेरी बेचलरकहा जाता था, उन्होंने शादी मृत्यु के तीन बरस पहले की. मैं तीन शर्तों पर शादी करूँगा —-

वह मास्को में रहे, जबकि मैं गाँव में रहूँ, और मैं उससे मिलने जाता रहूँ. मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो चंद्रमा की तरह मेरे आकाश में रोज़ न दिखलाई दे.




तेईस जुलाई.

कितने विपन्न होते हैं वे शहर जिनके पास एक यात्री को देने के लिए कुछ नहीं बचता, जो ख़ाली हो चुके होते हैं. नहींकितना विपन्न होता है वह यात्री जो शहर से कुछ भी हासिल कर पाने में ख़ुद को नाकाबिल पता है.  मुझे शहर और यात्री के सम्बंध को किसी कहानी में तलाशना चाहिए. एक यात्री जिसका शहर खो गया है, वह अपना शहर खोज रहा है. उसके पास चाभी तो है शहर की, लेकिन ताला गुम गया है. लोग अक्सर ताली रख कर भूल जाते हैं या गुमा देते हैं —- लेकिन अगर चाभी हमारे पास रही आए, ताला ही खो जाये तो.

ग्यारह अगस्त. यह शहर छोड़ने में सिर्फ़ तीन दिन बचे हैं. बौखलाया-बौराया सा दिन भर औंधा पड़ा रहता हूँ. किसी क़ब्र का पत्थर बीच से फट कर खुल जाए- मुर्दा अचकचा कर चेहरा बाहर निकाल कर देखने लगे. मेरी रूह के ऊपर ठहरा देह का कवच किसी ने भेद दिया है, कातर मेरी रूह इस संसार में ख़ुद को कुम्हलाते हुए देख रही है.

शायद हरेक मनुष्य एक क़ब्र होता है. उसकी देह रूह के मुर्दे को सम्भाले रहती है.

जन्म लेने के बाद माँ के गर्भ की कोई स्मृति शेष नहीं रहती. उसी तरह मैं इस शहर से मुक्ति चाहता हूँ कि अगर वापस लौटूँ भी तो बजाय कसक के महज़ कौतूहल हो —- ये सड़कें थीं जिन पर मैं कभी चला करता था. इन हवाओं ने कभी थाम रखा था कभी.




रायपुर.
उन्नीस अगस्त.

यहाँ धूप सख़्त लेकिन बरसात बहुत मस्त. कल मुझे लगा कि मेरी अब तक की कहानियाँ उन अवैध सम्बन्ध या अनचाही संतानों की तरह हैं जिन्हें हम एक उम्र के बाद ख़ारिज कर देते हैं, जिन्हें अपना कहने में एक गुनाहग्रस्त ग्लानि महसूस करते हैं, जिनसे गुज़र चीरता हुआ अफ़सोस होता है कि आख़िर क्यों लिखा उन्हें.

दो रात पहले बालाघाट में किसी नदी में आकाश का विलक्षण प्रतिबिम्ब. समझ नहीं आता था नदी में आकाश की तस्वीर खिंच आयी है या आकाश नदी का चित्र थामे सोया है. 

छब्बीस अगस्त. परसों भीषण नक्सल हमले की रिपोर्टिंग के बाद बीजापुर से लौटते में कार में द मैज़िक फ्लूट देखी. मंच पर करीब दस मिनट तक मोज़ार्ट का ओपेरा चल रहा है, स्क्रीन पर सिर्फ श्रोताओं के चेहरे और उनके बदलते भाव. असाध्य वीणा याद आई --- सब एक साथ डूबे, अलग अलग पार हुए.

इस राज्य में पहला हफ्ता. पहली जंगल यात्रा और ताजे लहू का साक्षात्कार.




पाँच)
(बोर्हेस)

बोर्हेस अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि हरेक देश अपनी एक प्रिय किताब चुनता है, उसे अपना प्रतिनिधि बनाता है जबकि वह किताब उस देश के स्वभाव के अक्सर विपरीत होती है. मसलन शेक्सपियर को एक निपट अंग्रेजी लेखक माना जाता है, लेकिन अंग्रेजों का कोई भी गुण शेक्सपियर में नहीं दिखता. अंग्रेज कम बोलने वाले, रिजर्व्ड लोग हैं जबकि शेक्सपियर एक उफनती नदी की तरह बहते हैं, उनके यहाँ रूपक और अतिशयोक्तियाँ भरी पड़ी हैं- वह अंग्रेजियत का धुर विलोम हैं. गेटे के साथ भी यही है. जर्मन बड़ी आसानी से उन्मादे हो जाते हैं, लेकिन गेटे और उनका लेखन एकदम विपरीत हैं. गेटे बहुत सहिष्णु हैं जो जर्मनी पर हमला करते नेपोलियन का स्वागत करते हैं.


यह प्रवृत्ति क्लासिक कृतियों और उनके लेखकों में अक्सर दिखती है. सर्वान्तिस का स्पेन धर्मान्धता का स्पेन है, लेकिन उनका लेखन ज़िंदादिली और मस्ती का रूपक है.

शायद हरेक देश अपने प्रिय लेखक में उस औषधि को खोजता है जो उसके समाज का जहर उतारती है.
इन मानदंडों पर भारत की प्रिय किताब कौन सी होगी? और लेखक?

भारत की कोई एक किताब या लेखक नहीं है. अनेक भाषाओं के लेखकों ने इस सभ्यता को सींचा है. लेकिन फिर भी कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनों में अद्वैत का बड़ा ऊंचा स्थान है. यह विचार कि तात्कालिक स्तर पर दिखाई देती भिन्नताएँ अनंत के साक्षात्कार के बाद मिट जाती हैं अनेक ग्रन्थों और विचार पद्धतियों में बसा हुआ है. तमाम वर्णों, जातियों, श्रेणियों, भाषाओं में बंटा हुआ राष्ट्र अद्वैत यानि तत् त्वम असिको महत्व देता है. अगर बोर्हेस की प्रस्तावना को मानें तो यह कहना सही होगा कि अंतर्विरोधों और मतभेदों के बीच का तनाव शायद अद्वैत के महासागर में ही घुल सकता था.



छह)
फरवरी नौ,
दो हजार सोलह. सुबह पौने छह.

मैं न लिख पाने के भय में डूबा रहना चाहता हूँ. घनघोर विफलता का भय. नहीं चाहता कि कोई भी ताकत मुझे मेरे इस खौफ से जुदा करे. मैं पूरे संसार को छोड़ सिर्फ इस डर को जीना चाहता हूँ.



सात)
गेटे कहते थे कि फ्रेंच कवियों की बहुत तारीफ नहीं करनी चाहिए क्योंकि भाषा उनके लिए कविता लिखती है. फ़्रेंच भाषा में कुछ ऐसा नैसर्गिक है कि कविता ख़ुद ही हो जाती है.

गेटे जो खुद महाकवि कहलाते थे एक और दिलचस्प बात कहते थे: गद्य लिखते वक्त आपके पास कहने के लिए कुछ होना चाहिए; लेकिन जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है वह भी कविता और तुकबन्दियाँ लिख सकता है जहाँ एक शब्द दूसरे का संकेत देता है, और कुछ न कुछ आखिर में निकल ही आता है जो दरअसल है तो कुछ भी नहीं लेकिन लगता है कि बहुत कुछ है.

मुक्तिबोध की भी पंक्तियाँ हैं ---

समझ में न आ सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो.



आठ)

बीस अक्तूबर दो हजार चौदह.
भोपाल.

कल शाम रमेशचन्द्र शाह साहब के घर गया था. उन्होंने दरवाजा खोला, बड़े कमजोर, वृद्ध लगे. उनकी आवाज में लड़खड़ाहट और छाले साफ दिखते थे. जबसे मेरी पत्नी गयी है मेरी स्मृति मुझे अक्सर छोड़ जाती है,” यह शुरूआती वाक्य था जो उन्होने मुझे घर के अन्दर बुलाते हुए कहा.
ज्योत्सना जी का निधन मई में हुआ था.

(रमेश चंद्र शाह)
उन्होंने बैंगनी कुरतापजामा पहना हुआ था. हाल में रखी टीवी कैबिनेट पर सेंटीमीटर जितनी धूल की परत बिछी थी. उन्होंने जिन का गिलास बना लिया. कुछ देर बाद रमेश दवे आये, शाह साहब उन्हें मुझसे मिलवाते वक्त मेरा नाम भूल गए. यह वही है जो मैं थोड़ी देर पहले कह रहा था,” वे बोले.

जब वे बोलते थे तो उनका बांया कन्धा एक तरफ झुक जाता था, उनकी देह पृथ्वी के साथ करीब पैंसठ डिग्री का कोण बना लेती थी. वे कभी बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी थे. एक बार मेजर ध्यानचंद रानीखेत खेलने आये थे, वह उनका मैच देखने गए थे. पन्द्रह-सोलह की उम्र में उनके टखने में फ्रैक्चर हो गया, उसके बाद हॉकी छूट गयी.

फिर वे बोले कि १९६०-६१ में गुंडप्पा विश्वनाथ ने कानपुर में गजब का टेस्ट शतक लगाया था. मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि १९६१ में विश्वनाथ टेस्ट क्रिकेट खेल ही नहीं सकते थे, वे अभी उससे कई साल दूर थे. लेकिन वे नहीं माने, जोर देते रहे कि अभी शतक लगाया था.

मुझे द बुक ऑफ़ लाफ्टर एंड फॉरगेटिंग की माँ याद आई जो अपनी स्कूल की प्रार्थना का वर्ष भूल जाती है. एक वृद्ध स्त्री के बिखरते जाते काल बोध का विलक्षण चित्र.

लौट कर मैंने पुराने पन्ने पलटेविश्वनाथ ने अपना पहला मैच कानपुर में खेला था, शतक लगाया था. लेकिन वह १९६९ का साल था.
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abharwdaj@gmail

कथा-गाथा : दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी :अम्बर पाण्डेय

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दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी                      

अम्बर पाण्डेय

(To destroy a man is difficult, almost as difficult as to create one.)


खंडवा से बम्बई आते हुए मेरे नाना त्र्यम्बक दिगम्बर काणे की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई. मृत्यु रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में किसी अंग्रेज़ बुढ़िया की गोद में हुई. गर्भ का आठवाँ महीना था और प्रसव रेलगाड़ी में ही हो गया. अपनी पत्नी के गर्भ के आठवें महीने में मेरे नाना को बम्बई जाने की क्या पड़ी? वह ब्रितानी सरकार के आबकारी विभाग में बड़े अफ़सर थे और बम्बई में तैनात थे. बरसात में अपने मातापिता से मिलने महू आए थे जहाँ उनके पिता ब्रितानी सेना में अफ़सर थे. इस तरह मैं इज़ायश हिलेल (IZAJASZA HILLEL) हिंदुस्तान के चंद ख़ानदानी अफ़सरों के परिवार से हूँ. उस समय अनाज, शक्कर, सिनेमा, सिगरेट-शराब और जनता के मतलब की लगभग सभी चीज़ों पर आबकारी विभाग टैक्स वसूलता था. इस तरह मेरे नाना ने बहुत माल बनाया. विशुद्ध कोंकणी पंडितों के परिवार में जन्मे मेरे नाना का बचपन मितव्ययिता में बीता था और उन्हें रुपया खर्चने का कोई अभ्यास न था इसलिए उनके पास बहुत रुपया इकट्ठा हो गया.

उन्होंने अपनी माँ के लिए हीरे के बुंदे मद्रास से मँगवाए और उनकी बीवी इसपर भड़क गई. सोलह साल की कन्या जिसे अरबी के पत्ते और दो रोटी के अलावा गोवा में खाने को कुछ नहीं मिलता था वह उनकी माँ के लिए ख़रीदे हीरों पर आपत्ति करे यह नाना को बर्दाश्त न था. उन्होंने तुरंत अपनी पत्नी को उसकी विधवा माँ के पास कोंकण भेजने का निर्णय कर लिया और इसलिए आठ मास की गर्भवती को अपने मातापिता के विरोध के बावजूद वह महू से लेकर बम्बई की ओर निकले. गर्भवती भाग्यवान थी इसलिए रास्ते में ही मर गई और नाना का पहला बच्चा तो और भी अधिक भाग्यवान था कि उसका जन्म ही मृतक के रूप में हुआ. नाना की अपनी पहली पत्नी के प्रति घृणा का इस बात से पता चलता है कि उन्होंने अपनी यात्रा बीच में रोकी तक नहीं और अपनी पत्नी का मृत शरीर लेकर बम्बई आए और यहाँ उसका अंतिम संस्कार किया.

बच्चे का अलबत्ता उन्होंने अंतिम संस्कार किसी स्टेशन पर ही उसे गाड़कर कर दिया था. उस बच्चे पर उन्होंने अंग्रेज़ी में रास्ते में एक शोकगीत भी लिखा जिसका अनुवाद यहाँ लिखा जाना ज़रूरी नहीं है. अपने मातापिता को उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे की मृत्यु का टेलीग्राम तक नहीं किया कि वह दस दिन का सूतक मना सके. बाद के दिनों में अक्सर उन्हें काला अंग्रेज़हो जाने का ताना दिया जाता था. मेरे नाना काले अंग्रेज़ नहीं थे और अद्वैत दर्शन का उन्हें बहुत ज्ञान था. वर्षों बाद सन १९६६ के आसपास खेतवाड़ी के महात्मा स्वामी निसर्गदत्त महाराज के यहाँ उनका उठना बैठना था हालाँकि पूछने पर उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि स्वामी निसर्गदत्त महाराज उनके गुरु है.


फ़िलहाल बात सन १९४१ की है जब बम्बई के शिवाजी पार्क में मेरे नाना का निवासस्थान था. यदि उनके मातापिता को नाना की पत्नी की मृत्यु का समाचार मिलता तो वह दूसरे विवाह की व्यवस्था करते मगर उन्हें समाचार केवल मृत बालक के जन्म (मात्र एक दिन का सूतक) का ही मिला इसलिए वह निश्चिन्त रहे कि दूसरी सन्तान शीघ्र होगी और उनका बेटा कुशल है. इधर नाना मात्र तीस वर्ष की वय में एकाकी जीवन व्यतीत करने लगे. उनकी पहली पत्नी जो उनसे चौदह वर्ष छोटी थी और मर चुकी थी उसके चित्र उन्होंने जला दिए थे और उसके समान को अपने चौकीदार और मालियों को बाँट दिया था. उसके गहने गला दिए और ठोस सोने का बताशा सा बनवा लिया था.

विनायक दामोदर सावरकर उसी वर्ष रत्नागिरि से बम्बई आए थे और मेरे नाना के पड़ौस ही में उनका भी निवासस्थान था. मेरे नाना सावरकर के यहाँ अक्सर ही उठनेबैठने लगे. नाना की तरह ही सावरकर के अंदर भी जगत को लेकर हताशावाद और कटुता थी. सावरकर को अंदर ही अंदर लगता था कि सरकार सर्वसत्तावादी (totalitarian) है और यहाँ किसी व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित नहीं. वह नास्तिक है और अध्यात्म उन्हें शान्ति दे ऐसी भी कोई सम्भावना नहीं”, गणेश गोडसे ने एक बार नाना से कहा था. सावरकर काला पानी के कारावास के प्रसंग ही अधिकतर सुनाते कि कैसे हिंदू राजनीतिक बंदियों के ऊपर बलूच अपराधियों को गार्ड बनाकर रखा जाता. कैसे वह हिंदू पुरुषों का बलात्कार करते क्योंकि औरतें वहाँ थी ही नहीं, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ देतें और कलमा पढ़ाकर प्रतिमाह दोतीन हिंदुओं को मुसलमान बनाते. मेरे नाना सावरकर से लगभग तीस वर्ष छोटे थे मगर सावरकर उन्हें अपना मित्र मानते और प्रति रविवार उन्हें पूरणपोली खाने ज़रूर बुलाते. सावरकर उनके विवाह को लेकर भी चिंतित रहते थे और हमेशा कोई न कोई सुयोग्य चितपावन कन्या के प्रस्ताव नाना के लिए बताते रहते.

नाना किसी लड़की को पसंद न करते. सब में कोई न कोई खोट निकाल देते और इससे यमुना वहिनी (सावरकर की पत्नी) को बहुत ठेस पहुँचती. बात यह थी कि पचीस वर्षीय नाना नौ-दस वर्ष की एक लड़की के प्रेम में पड़ चुके थे. बार बार मिलों की जाँच के बहाने भायखळा जाते और माहगन दविड कनिसेट (सिनेगॉग) के बाहर बैठे रहते. वह लड़की वही कहीं रखती थी. कई बार उन्हें वह लड़की दिख जाती, सिनेगॉग से आते जाते तब वह पूरा दिन बेचैन रहते. वह चाहते थे कि वह लड़की उन्हें कभी न दिखे, वह लड़की रेलगाड़ी के नीचे आकर मर जाए या उसे टीबी हो जाए. किसी भी प्रकार से वह अपने प्रेम से मुक्ति चाहते थे. वह इक्साइज़ विभाग में बड़े अफसर थे और उन्हें यों प्रेम में पड़ना शोभा न देता था. वह लड़की बम्बई की उमस में भी एक काला ओवरकोट पहने आती जाती. वह बहुत दुबली थी, उसकी तोतापरी नाक लम्बी और चक्कू की तरह तीखी और आँखें धँसी हुई थी. रंग अजीब था, ऐसा रंग हिंदुओं में नहीं मिलता. वह चाफे की फूल के अंदरूनी भाग की तरह एकदम पीला था. लड़की के बाल बेकार थे. रूखे-सूखे इतने कि नाना को लगता ख़ूब सारा खोपरे का तेल लगाकर उसके बालों को शिकाकाई अरीठे से धोए.

एक बार अपने क्लर्क से छुपकर वह माहगन दविद कनिसेट पहुँचे तब लड़की से बात करने का अवसर उन्हें मिल ही गया. उस दिन क्रीम लगाकर उन्होंने बाल पीछे चिपका बनाए हुए थे. वह सफ़ेद बुशर्ट, नई कलफ़ दी कॉलर, काली पतलून, काले जूते और काले इतालवी कपड़े का कोट पहने हुए थे. उनकी सुबह ही छिली दाढ़ी से इतालवी आफ़्टरशेव की सुगंध उठ रही थी. उस दिन उनमें बहुत आत्मविश्वास था. उन्होंने सिगरेट बुझाई और लड़की से बात करने की ठान ली. लड़की काले ओवरकोट में पसीना पसीना अपना बस्ता ढोती स्कूल से लौटकर माहगन दविद कनिसेट के पीछे बने अपने घर को जाती थी. तुम्हें गरमी नहीं लगती?” नाना से उससे पूछा.

लड़की ने मुँह बिचकाकर नाना को देखा फिर उनके कपड़े देखकर भाँप गई कि कोई अफ़सर या सेठ है. लड़की ने ग़लत मराठी में जवाब दिया, “आप कौन हुए?” यहूदियों में कुटैव होता है कि प्रश्न के उत्तर में प्रश्न करते है. नाना चिढ़ें. जवाब देने के बजाय उलटे सवाल. फिर देखा लड़की के चौड़े, सुन्दर माथे पर पसीने की बूँदें झलमला रही थी. उन्हें अपने पिता की बात याद आई कि चौड़े माथे की लड़कियाँ जल्दी ही विधवा हो जाती है. नाना पलटें और लौट आए. ताँगा तैयार था. क्लर्क उनका इंतज़ार ही कर रहा था.

मन को जैसे तैसे सम्भाला और यहूदियों के बारे में पढ़ते वाचनालय में बैठे रहते. प्रेम ऐसा तीव्र था कि दफ़्तर के कामकाज में हो रही हानि की भी उन्हें चिन्ता न थी. तमाम अंग्रेज़ी और जर्मन किताबें पढ़कर वह इस नतीजे पर पहुँचे कि यहूदियों और ब्राह्मणों में बहुत सी समानताएँ है. ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में दोनों की ही धारणाएँ समान है. बलि देने की लम्बी, ब्यौरेवार रीतियाँ दोनों में है. धर्मशास्त्र और नियम की लम्बी लम्बी टीकाएँ पंडित भी करते है और तालमूद में बेबीलोन व येरूशलम के रैबाई भी. सबसे बड़ी बात कि यहूदी और ब्राह्मणों में किसी भी शास्त्र या शब्द के असंख्य अर्थ हो सकते है, मनुष्य के बस में केवल टीकाएँ करना ही है. साहित्यनिर्माण केवल ईश्वर के वश की बात है जिसका दर्शन हिंदुओं में ऋषि और यहूदियों में पैग़म्बर करते है. दोनों ही धर्मों में त्रिकाल संध्या का विधान भी समान है. यह सब जान लेने के बाद भी एक यहूदन से लग्न करना क्या उचित होता? वह तो गोमांसभक्षण भी करती होगी. मूर्तिपूजा से उसे घृणा होगी. भाषा भी समान नहीं. यह सब सोच सोचकर नाना का महीने भर में ही वज़न एक चौथाई घट गया. सावरकर के यहाँ आनाजाना भी बंद था. वह बुलाते तो भी कोई बहाना बनाकर न जाते. किताबें पढ़पढ़कर आँखें पीली पड़ गई और युवावस्था में ही कनपटी के बाल पक गए. प्रेम के इतने शारीरिक दुष्प्रभाव हो सकते है इसकी नाना ने कभी कल्पना भी न की थी. बैठे बैठे जो कुर्सी से उठकर खड़े होते तो चक्कर आते और आँखों के आगे अंधेरी छा जाती. गाल धँस गए थे और आँखों में दो विचित्र से अंगारे चमकते जो अक्सर बहुत बीमार, मरणशैया पर पड़े युवाओं और कट्टर धार्मिक लोगों की ही आँखों में दिखते है.

सावरकर उस दिन नाना पर बहुत अधिक कुपित थे, “उस कन्या का गला दबाने की तुम्हें क्यों सूझी?” सफ़ेद धोती और सफ़ेद बुशर्ट पहने वह लोहे के पलंग पर लेटे हुए थे. दो दिनों से सावरकर ने हजामत नहीं बनाई थी जो कि नाना के लिए एक अद्भुत घटना थी. तुम जानते हो तुम्हारी नौकरी जा सकती है. शासन यदि इस विषय के बीच पड़ता है तो इसका परिणाम क्या होगा तुम अच्छे से जानते हो.” “मेरी पत्नी नहीं है. मेरी कोई संतान नहीं है. क्यों न मैं त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ूँ!नाना पर उन दिनों साहित्य से अधिक अख़बारों का प्रभाव था. अपने लम्बे हाथ उछाल उछालकर वह ऐसे उल्लास से बात कर रहे थे कि सावरकर का हृदय पसीज गया हालाँकि वह जानते थे कि नाना को सरकारी अफ़सरी में ही रहना चाहिए. उस दिन मेरा शरीर और मन मेरे वश में नहीं था. पिछले तीन चार महीनों से मेरा अधिकांश समय यहूदियों के धर्मशास्त्र और रीतिरिवाजों के बारे में पढ़ने में जाता था.

स्वामी दयानंद के अनुसार तो ब्राह्मण और यहूदी एक ही वंशानुक्रम की दो धाराएँ है. मैं किसी भी तरह स्वयं को आश्वस्त कर लेना चाहता था कि यहूदियों और ब्राह्मणों में स्थान को छोड़ कोई भेद नहीं है. बहुत सीमा तक उपलब्ध साहित्य ने मुझे आश्वस्त कर भी दिया मगर गोमांसभक्षण करनेवाली स्त्री लाकर उससे अपने कुलदेवत श्री व्याडेश्वर का नेवैद्य बनवाऊँ इतना आधुनिक नहीं हो सकता है आपका यह त्र्यम्बक दिगम्बर काणे. दफ़्तर की एक बैठक निपटाकर रिक्शा ले मैं उस दिन अचानक भायखळा चल पड़ा. वर्षा हो रही थी इसीलिए सिनेगॉग के अंदर ही एक बेंच पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा. बहुत देर बाद वह अन्दर के कमरे से निकलकर पीछे गली की ओर जाने लगी. मैंने पॉकिट से उसे देने के लिए मावा केक निकाला. हाथ आगे बढ़ाकर उसे दिया तो वह बोली, “कोशर है?” मैंने उसका गला पकड़ लिया और दबाने लगा, “गोमांस का सेवन करनेवाली तू मोशेची कुत्री, गाय के शुद्ध दुग्ध और देसी घी से बने केक के लिए पूछती है- कोशर तो है?”

वह अचानक भूमि पर गिर पड़ी. मुझे लगा मर गई इसलिए वहाँ से भाग आया. फिर कन्याहंता होकर जीने से अच्छा है आत्महंता होना इसलिए फाँसी लगाने का बीते कुछ दिनों से सोच ही रहा था कि मन किया पहले आपसे मिल लूँ.” “शाओना हिलेल जीवित है.सावरकर कहकर मुस्कुराये. अच्छा तो उस गोमांसभक्षिणी का नाम शाओना हिलेल है, नाना ने मन में सबसे पहले यही विचार आया. हाथ की कॉपी सावरकर ने एक तरफ़ रखी और क़लम बुशर्ट में खोंसते हुए बात आगे बढ़ाई, “गाय घास भी खाती रहती है और मलत्याग भी करती रहती है. थकने पर अपने ही मूत्र और मल में पसरकर न केवल बैठ जाती है बल्कि पूँछ मारमारकर वह मलमूत्र से अपना पूरा शरीर गंदा कर लेती है. यह कैसा दिव्यजीव है जिसे स्वच्छता तक का ज्ञान नहीं और इस गौमाता का मूत्र और मल पवित्र करनेवाला और बाबासाहेब आम्बेडकर की छाया तक अशुद्ध करनेवाली है. ऐसा माननेवाले मनुष्यों की बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो चुकी है, इसका अनुमान तुम स्वयं ही लगा सकते हो, त्र्यम्बक. घर जाकर विश्राम करो और विचार करो. यदि उसी लड़की से विवाह करना है तो निर्णय करके मुझे बताओ. मैं सब व्यवस्था कर दूँगा.” “उससे विवाह करने के अलावा जीवित रहने के लिए मेरे पास कोई और चारा नहीं, भाऊनाना के मुँह से अनायास यह शब्द निकले और वह मुँह झुकाए ही बैठे रहे. संकोच के कारण वह घर जाने के लिए उठने का भी साहस नहीं पा रहे थे.

यमुना वहिनी थालीपीठ और ठेंचा ले आई, “कोई बिस्तर झाड़ने और अलमारी में कपड़े अबेरनेवाली तो आएगी अब. धर्म जाति कोई हो”, उन्होंने चौके से सब बात सुन ली थी. थालीपीठ देखते ही सावरकर और नाना संसार को भूल उसपर टूट पड़े. दोनों इतनी जल्दी खा रहे थे कि यमुना वहिनी को एक थालीपीठ के दो भाग करके दोनों को देना पड़ रहा था, “तुम्हारी यहूदन यह सब न बना सकेगी. प्रातः-सन्ध्या अंडे उबालकर देगीयमुना वहिनी ने ताना कसा. सावरकर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, “उसके हाथ का गोमांस छोड़ सब खा लेगा त्र्यम्बक, कालकूट भी पी लेगा उसके हाथ का दिया.खा-पीकर नाना लौट आए क्योंकि हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं और नेताओं की भीड़ इकट्ठा होना आरम्भ हो चुका था.

मुस्लिम लीग के साथ मिलकर हिंदू महासभा बंगाल आदि राज्यों में सरकार बनाई थी. नाना के लिए सावरकर का यह निर्णय बहुत विचित्र था. एक ओर वह भारत की पुण्यभू को हिंदुओं की धरती बताते थे तो दूसरी ओर मुस्लिम लीग के साथ मिलकर राज्यसरकारें बनाते. प्रेम में कोई विचार बहुत देर तक टिकता नहीं. नाना सोचने लगे कि उस यहूदी लड़की के साथ जीवन कैसा होगा और सबसे बढ़कर चितपावनसमाज इस लग्न को अपनी जाति से खोई कन्या का अपनी जाति में पुनर्प्रवेश मानेगा या नाना को जातिच्युत होना पड़ेगा.

कुछ दिनों बाद एक रविवार सावरकर को दोपहर कुछ ख़ाली समय मिला. अन्य दिनों के अपेक्षा घर में भीड़ न थी. उन्होंने नाना को बुलाया. क्यों रे, त्र्यम्बक्या आजकल तुझे अपने भाऊ से मिलने का मन नहीं करता?” वह बाहर पोर्च में भूमि पर अख़बार फैलाये उसपर झुके बैठे थे. नाना वहीं भूमि पर बैठने लगे तो सावरकर ने रोका और अंदर जाने का संकेत किया. पीछे पीछे ख़ुद भी आए. सामने के आदमक़द दर्पण जो यमुना वहिनी ने रखा था उस में नाना के प्रतिबिम्ब को देखकर सावरकर ने कहा, “हजामत बनाकर नहीं आया. जा, हजामत बनाकर और कोट पहनकर आ. मोरिस फ्रईडमन से मिलने चलना है.” “वह कौन है?” नाना ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पूछा. पोलंड का प्राण बचाकर आया यहूदी है और अब महर्षि रमण से प्रभावित होकर हिंदू हो गया है. नया नाम रखा है  स्वामी भारतानन्द. तेरे प्रिय गांधी का भी अनुयायी है. शाओना हिलेल के सम्बंध में उसी से बात करना होगी.

नाना ने उस दिन साबुन का उपयोग न कर जैतून का बहुत सारा तेल गालों पर लगाकर हजामत बनाई. थोड़ा सा इतालवी आफ़्टरशेव लगाया और अपना सबसे अच्छी काट का कोट और महँगे जूते पहनकर मोरिस फ्रईडमन से मिलने निकल पड़े. वे लोग नेपियन सी रोड स्थित औंध राजघराने के बंगले पर पहुँचे जहाँ मोरिस फ्रईडमन उर्फ़ स्वामी भारतानंद ठहरे हुए थे. बाहर बग़ीचे में ढेरों प्रकार के गुलाब ही गुलाब खिले हुए थे और एक बलिष्ठ बूढ़ा लंगोट कसे कोई अतिजटिल योगासन लगा रहा था. वह रहेनाना ने सावरकर से कहा. अरे वह तो औंधनरेश भवनराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि है. उनका सूर्यनमस्कार नामक योगविधि के अविष्कार का दावा है. नमस्कार, हिज़ हायनेस, कृपया इस युवक को सूर्यनमस्कार सिखाने का कष्ट करें. इसकी बुद्धि प्रेम नामक रोग ने नष्ट कर दी हैसावरकर ने हाथ ऊँचे करके औंध नरेश को नमस्कार किया.

यू, यंगमैन, कम हियरऔंध नरेश का कहा नाना टाल न सके और नाना को योगासन सीखने जाना ही पड़ा. सावरकर अंदर ही पौन घण्टा तक बात करते रहे. जब सावरकर बाहर आए तो नाना को देखकर गगनभेदी अट्टहास करने लगे. नाना लाल लंगोट में गरुड़ासन में खड़े पसीना पसीना हो रहे थे. इतालवी आफ़्टरशेव की जगह पसीने ने ले ली और कोट, जूते पता नहीं कहाँ थे. सावरकर ने संकेत ने नाना को बुलाया. सावरकर के साथ अड़तीस-चालीस वर्षीय एक दुबलापतला सुदर्शन पुरुष खड़ा था. उसने गांधी की तरह गोल फ़्रेम का चश्मा लगाया था और वह सफ़ेद पूरी बाँहों की क़मीज़ पहने था जिसकी बाँहें अंग्रेज़ी फ़िल्मों के नायकों की तरह ऊपर चढ़ी हुई थी. नाना को बहुत संकोच हुआ. वह पसीना पसीना लाल लंगोट कसे वहाँ आए. उन्हें लगा इस अवस्था में प्रथम भेंट ने उनके विवाहप्रस्ताव स्वीकृत होने की सम्भावना शून्यप्रायः कर दी थी. जब नाना ने हाथ जोड़कर मोरिस फ़्रईडमन को नमस्कार किया तो देखा सावरकर नाना को मुग्ध देखे जा रहे थे, “अरे त्र्यम्बक तेरा शरीर तो बहुत सुगठित है. यह स्वामी भारतानंद जी है इनके चरणस्पर्श करो.लाल लंगोट कसे कोई युवा पुरुष मोरिस फ़्रईडमन के चरण स्पर्श करे यह उन्हें सह्य न था, उन्होंने दूर से ही आशीर्वाद दिया. नाना दौड़कर कपड़े पहनने चले गए.

कोट, जूते और केश कंघी करके जब लौटे तो सावरकर ज़ोर ज़ोर से मोरिस फ़्रईडमन को कुछ कह रहे थे, “यहूदियों की अपने देश की संस्कृति में घुलमिल न जाना ही उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता रही है. हमारे देश में मुसलमानों की भी यही स्थिति है. उनका व्यापार, सम्बन्धी, समाज सब यहीं है मगर पुण्यभू उनकी दूर अरब में है. भारतभू को उन्होंने अपनी पितृभू-पुण्यभू कभी माना ही नहीं. क्या अकारण है कि आपलोगों को पूर्वी यूरोप में इतना अपमान सहना पड़ रहा है.नाना ने बात बदलना चाही, “भाऊ, अंदर राजासाहेब चाय के लिए बुला रहे है. आप सामुदायिक हत्या को अपमान कह रहे है! पहले वहाँ भीड़ एक या दो यहूदियों को घेरकर मारती रही थी मगर अब वहाँ का शासन इसे बड़े पैमाने पर कर रहा है. वह हज़ारों की संख्या में यहूदियों को मार रहे हैमोरिस फ़्रईडमन की आवाज़ सूखी हुई थी, जैसे बहुत दूर से आती हो या उन्होंने बहुत देर से पानी न पिया हो. नाना को समझ नहीं आया कि सावरकर यह प्रसंग क्यों ले बैठे. त्र्यम्बक, मोरिससाहेब का कहना है कि हम यहूदी बाल्यावस्था में अपनी लड़कियों का लग्न नहीं करते इसलिए मैं इन्हें समझा रहा था कि भारतवर्ष में यहूदियों को यहाँ के बहुसंख्यक समाज की रीतिनीति अपनाकर उन जैसा बनने में संकोच नहीं करना चाहिए. पूर्वी यूरोप की संस्कृति को आत्मसात न करने के कारण ही वहाँ इनपर इतने अत्याचार हो रहे है.नाना को भी युवती होने पर लड़की के विवाह करने की बात कुछ समझ नहीं आई. उनकी बुद्धि सचमुच प्रेम में नष्ट हो चुकी थी. आबकारी विभाग में त्र्यम्बक दिगम्बर काणे बहुत बड़ा अफ़सर है. पहली पत्नी के स्वर्गवासिनी हुए कुछ ही समय बीता है और कोई संतान भी नहीं. मेरा विश्वास है त्र्यम्बक दिगम्बर काणे को यहूदी धर्म के विषय में इतना ज्ञान है जितना हिन्दू समाज में रहते हुए भी शाओना हिलेल को न होगा.सावरकर की यह बात नाना को बहुत रुची.

उन्हें अचानक अनुभव हुआ कि उनका प्रेम कितना एकांगी है. शाओना को तो उनके अस्तित्व का भी ज्ञान न होगा. फिर उन्हें सावरकर पर क्रोध भी आया. नाना के यहूदी धर्म के विषय में अध्ययन करने की बात बताकर जैसे सावरकर ने उनकी कोई बहुत आंतरिक बात मोरिस फ़्रईडमन को कह दी थी. नाना को सबके सामने वेध्य और निर्बल कर दिया था. मैंने लड़की के विषय में सबकुछ आपको बता दिया है. आप काणे जी को भी सब ब्यौरे बता दे और तब तक मैं लड़की के बड़े भाई से इसकी चर्चा करके आपको बतलाता हूँमोरिस फ़्रईडमन ने कहा और हाथ जोड़ लिए. मोरिस फ़्रईडमन गांधी के लिए नवीनतम तकनीक पर चरखे बनाया करते थे.

महर्षि रमण से वेदान्तचर्चा करते थे. उनकी चर्या सहज थी. आज सावरकर से बात करके उन्होंने भारतीय चिन्तन का एक दूसरा रूप देखा था और वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि यह भारतीय चिन्तन ही है या यूरोपीय शिक्षा के कारण सावरकर के विचारों में एक प्रकार की सैन्य कठोरता आ गई है. वह सावरकर और नाना को देर तक जाते देखते रहे. दोनों ही बहुत आकर्षक पुरुष थे. ऐसा पौरुष भारत में उन्होंने अब तक देखा न था. हिंदुओं को वह यहूदियों के निकट पाते थे. वह स्वयं यहूदी थे और जानते थे कि यहूदियों की तरह ही हिन्दू शरीर को बहुत महत्त्व नहीं देते. हिन्दू उन्होंने अक्सर अतिधार्मिक हसीदी यहूदियों की तरह दुबलेपतले और शरीर से बेपरवाह देखे थे. उन्हें लगता हिन्दूचिन्तन यहूदीधर्म का विकसित रूप है. सावरकर ने निश्चित ही उनके कुछ भ्रम आज तोड़ दिए थे.

औंधनरेश ने अपनी मोटरकार नाना और सावरकर को घर जाने के लिए दे दीं. संग एक मराठा चालक भी आया. उसके सम्मुख नाना को मराठी में बात करने में संकोच है यह भाँपकर सावरकर ने अंग्रेज़ी में बताया, “सुन त्र्यम्बक्या. जी भाऊनाना की सभी इन्द्रियाँ कान हो गई थी क्योंकि उन्हें पता था कि सावरकर अब शाओना हिलेल के बारे में मोरिस फ़्रईडमन की कही बात बताएँगे. शाओना हिलेल पोल है. वह बग़दादी यहूदन नहीं है और मराठी या अंग्रेज़ी बहुत कम जानती है. उसके माँबाप पूर्वी पोलंड पर सोवियत हमले के समय पोल सेना से सम्बन्धों के कारण गुलाग भेज दिए गए थे. बहादुर फ़ौजी अफ़सर वादीशॉ आंदर्स की मदद से कुछ पोल और यहूदियों को यह मोरिस फ़्रईडमन हिंदुस्तान, ईरान और फ़िलिस्तीन ले आया. शाओना पहले बांद्रे में एक पोल अभिनेत्री के यहाँ रखी गई मगर उसके हसीदी भाई की आपत्ति के कारण अब उसे सिनेगॉग के रैबाई के यहाँ रखा गया है. माँबाप की कोई ख़बर नहीं. शायद उनकी मृत्यु हो चुकी है.

मेरी नानी शाओना हिलेल की पोलंड से भारत तक की इस यन्त्रणादायक यात्रा के बारे में सुनकर नाना विवाह शीघ्रातिशीघ्र करने को उत्सुक हो गए. ईश्वर ने शाओना की प्राणरक्षा संभवतः मेरी धर्मपत्नी बनने के लिए ही की और उसे हिंदुस्तान में ला पटकानाना ने उल्लास से कहा फिर उनका स्वर अचानक मंद पड़ गया, “फिर भी उसका गोमांसभक्षण करना मेरे लिए उससे लग्न करने न करने का निर्णय न कर पाने का बहुत बड़ा कारण है. आख़िर हिंदू है कौन? जो गाय को अपनी माता मानता होनाना ने कहा और मोटरकार से बाहर देखने लगे. समुद्र उन्हें दिव्य भी लगता था और भयंकर भी. गाय को माता बस साँड, बैल और बछड़े मानते है. तुम अब चुप भी करोसावरकर ने कहा. नाना चुप रहे. मोटरकार समुद्र किनारे चलती रही.

इस विवाह के लिए मेरी बहन और मैं बहुत दबाव में तैयार हुए है. सब इसे हमारा भविष्य उज्जवल करने का मार्ग बता रहे है. मैं हसीदी* यहूदी हूँ. मेरे लिए अपनी बहन का विवाह गोयम* से करना कल्पना से परे था मगर अब हमारी स्थिति इतनी गई गुज़री है कि इसके लिए हमें तैयार होना पड़ाब्रूनो हिलेल ने कहा. वह शाओना हिलेल का बड़ा भाई था और पुणे के सिनेगॉग में यहूदी रीति से पशुबलि देना सीख रहा था. इसमें उसके शिक्षक आज के प्रसिद्ध भारतीय-इसराएली कलाकार अनीश कपूर के नाना थे. विवाह वैदिक रीति से दादर के श्रीगणेशमंदिर में होना निश्चित हुआ हैयमुना वहिनी ने कहा. वह सोने के कंगनों के लिए शाओना की कलाइयों का नाप लेने आई थी. जब तक विवाह नहीं होता मैं यहूदी ही रहूँगी और मेरा विवाह सिनेगॉग में ही होगा अन्यथा मैं और मेरे भाई के पास समुद्र में कूदकर जान देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचेगा. मेरे मातापिता का इतना मान तो आपको रखना ही होगाशाओना ने चिड़चिड़े स्वर में कहा. वह मराठी इतनी ग़लत बोलती थी कि किसी को कुछ समझ नहीं आया. उसके भाई ने उसकी बात तीन-चार बार प्रयास करके नाना और सावरकर को समझाई.

कोई बात नहीं. पहले हम एक विवाह सिनेगॉग में भी कर सकते हैइससे पहले कि सावरकर कुछ कहते यमुना वहिनी ने शाओना के प्रस्ताव पर हामी भर दी. नाना बस शाओना को देखते रहे. वह बहुत दुबली थी और चिड़चिड़ी भी जैसे भूखा व्यक्ति हो जाता है. उसे देखकर लगता था वह किसी भी प्रकार जहाँ वह है वहाँ से भाग जाना चाहती है. नरक इतना सुसंस्कृत और शान्त हो सकता है शाओना ने इसकी कल्पना भी न की थी. उसका भाई शान्त बैठा रहा. जिस धर्म की रक्षा उसने पोलंड में इतने शत्रुतापूर्ण वातावरण में की थी जहाँ यहूदी को मार देना मक्खी मारने जितना सरल था, उसी धर्म की रक्षा वह भारत जैसे देश में नहीं कर सका था. उसे अपने मातापिता याद आने लगे. उसने यिद्दिश भाषा में शाओना को एक बात कही, “शाओना, जब ईश्वर किसी का मन दुखाना चाहता है उसे बहुत सारा ज्ञान दे देता है. घर लौटते हुए सावरकर बहुत प्रसन्न थे, “विचारों पर अडिग रहने का जो साहस त्र्यम्बक की होनेवाली पत्नी में यदि वह भारतीय स्त्रियों और पुरुषों में होता तो यह राष्ट्र आज न जाने कहाँ होता. नाना ने कोई उत्तर नहीं दिया. वह शाओना हिलेल को नौ हाथ की नीली पैठणी साड़ी में देखने की कल्पना करते रहे.

प्रथम रात्रि बीत जाने पर शाओना ने नाना से पूछा, “आपने उस दिन मेरा गला घोंटने का प्रयास क्यों किया था?” “क्योंकि मेरा प्रेम किसी कीट की भाँति मेरे मस्तक को खाए जा रहा थानाना ने उत्तर दिया और पलंग से कूदकर खड़े हो गए उन्हें अपने मातापिता को अपने विवाह का समाचार देते हुए पत्र लिखना था. सावरकर ने उन्हें विवाह के बाद अपने मातापिता को विवाह का  समाचार देने के लिए कहा था. नौकरानी ने आकर शाओना का शृंगार कर दिया, उसे नौ हाथ की पैठणी बाँधना सिखा दी, बाल गूँथ दिए और नाना ने गहने दे दिए. यमुना वहिनी ने विवाह से दो दिन पहले ले जाकर शाओना की नाक छिदवा दी थी क्योंकि सधवा का त्योहारों पर नथ पहनना आवश्यक था. नथ पहनना शाओना के लिए किसी शारीरिक दण्ड के कम न था.

शृंगार हो गया तो चले यमुना वहिनी पूरणपोली और अनारसे लिए हमारा रास्ता देख रही होंगीनाना के कहा और हाथ बढ़ाया. नानी को नौकरानी के सामने पति का हाथ पकड़ने में संकोच हुआ जिसे नाना हिन्दूस्त्री जैसी लज्जा समझकर अत्यन्त प्रसन्न होने लगे. सावरकर ने अपनी व्यस्त दिनचर्या में त्र्यम्बक की नई बहू के संग भोजन करने का समय निकाला है, यह जानकर नाना बहुत हर्षित हो गए. सावरकर ने यमुना वहिनी से कहा, “सबका भोजन यहीं टेबुल पर लगाओ. स्त्रियाँ भी संग यहीं खाएँगी.” “पूरणपोली ठण्डी अच्छी न लगेगीयमुना वहिनी अपनी पाककला को लेकर विशेष सजग रहती थी और ठण्डी पूरणपोली खाकर शाओना यह समझे कि पूरणपोली स्वादिष्ट नहीं होती या यमुना ताई को खाना बनाना नहीं आता यह दोनों स्थिति ही उन्हें बर्दाश्त न थी. ठण्डी भी रहे तो दोष नहीं. त्र्यम्बक की बहू का सबसे आंतरिक परिचय हो इस भोज का यही उद्देश्य है न कि गर्मागर्म पूरणपोली भकोसनासावरकर ने कहा और अधीर होकर ख़ुद ही बर्तन रसोई से उठा उठाकर टेबुल पर जमाने लगे. तुम्हारे मातापिता देशभक्त क्रांतिकारी थे यह जानकर मैं इतना प्रसन्न हूँ कि बताने में मेरी भाषा कम पड़ती है. जिस पोलंड में पोलों के खिलाफ होकर पोलंड के यहूदी सोवियत रूस का साथ दे रहे थे वहीं तुम्हारे मातापिता ने पोल सेना के लिए जासूसी की. अवश्य ही निकट भविष्य में यदि समय मिला तो मैं इसपर कादम्बरी लिखूँगासावरकर ने अत्यन्त उत्साह से शाओना की थाली में पूरणपोली और नींबू का अचार परोसते हुए कहा इतने में बर्तन यमुना वहिनी ने सावरकर के हाथ से ले लिया. नाना समझ गए कि यमुना वहिनी को भय था कि सावरकर को घर का इस तरह काम करते देख शाओना बहू उनके देवर त्र्यम्बक से भी ऐसे ही काम करवाएगी. मेरे मातापिता ने ग़लत किया. उन्हें सोवियत संघ का स्वागत करना चाहिए था. एक तरफ़ नाज़ी थे और दूसरी तरफ़ सोवियत संघ तो सोवियत संघ का ही पक्ष लेना था. जीवित तो रहते. वैसे भी पोलों ने हमपर कम अत्याचार नहीं किए थे. सड़क पर पोलों का किसी भी यहूदी आदमी या औरत पर काल्पनिक आरोप लगाकर हत्या करना आम बात थी.

इस बीच माँसाहारी पोल अचानक पशुअधिकारों के प्रति सचेत हुए और सिनेगॉग में होनेवाली पशुबलि को आसुरी बताने लगे. इसके लिए वह अख़बारों में लम्बे लम्बे लेख लिखने लगे. हमारे धर्म का कोई पक्ष उन्हें स्वीकार न था. उनका साथ देना मेरे पिता की मूर्खता ही थी. जीवन है तो धर्म, राष्ट्र सब हैशाओना ने पूरणपोली तोड़ते हुए कहा. सभी को उसकी मराठी समझने में मुश्किल होती थी और कोई एकदम से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाता था. पूरणपोली मीठी होने पर उसने नाक सिकोड़ी. उसने कल्पना नहीं की थी कि पूरणपोली मीठी होगी और मुख्यभोजन में परोसी जाएगी. हो सकता है वे जीवित हो और याद रखो राष्ट्र के लिए प्राण देनेवालों की कीर्ति अमर होती हैसावरकर बहुत धीरे खा रहे थे. उनका सारा ध्यान शाओना की ओर था. मरने के बाद बस शव शेष रहता है, मिस्टर सावरकरशाओना ने कहा. मिस्टर सावरकर सम्बोधन सुनकर नाना और यमुना वहिनी चौंकें मगर सावरकर प्रमुदित ही हुए, उन्हें इंग्लंड में बिताए अपने युवादिनों का स्मरण हो आया. भाऊ या दादा कहो. यहाँ मिस्टर-मिसेज़ कहने का रिवाज नहीं हैनाना ने टोका.

वह मुझे कुछ भी कहकर पुकारे मैं बहू को शेवंती कहकर ही पुकारूँगा. पंडित दीनानाथ मंगेशकर की पत्नी का यही नाम है. बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाती है वेसावरकर ने नींबू का अचार चाटते हुए कहा. श्रावणी बहुत सुंदर नाम है. शेवंती तो पुरातनपन्थी लगता हैयमुना वहिनी बोलीं. मैंने सुशीला सोचा थानाना ने कहा मगर यह सब बातें शाओना को ठीक से समझ नहीं आई. इतनी जल्दी जल्दी बोली गई मराठी वह समझ नहीं पाती थी.

नाना ने पहले मराठी में फिर अंग्रेज़ी में समझाया, “शेवंती, श्रावणी या सुशीला कौन सा नाम तुम्हें अच्छा लग रहा है? बताओ उसी नाम से तुम्हें पुकारेंगे. थाली आगे सरकाई और शाओना चीख़ी, “उनकी बेटी इतनी पसंद थी कि मजबूर करके शादी की मगर उनका दिया नाम स्वीकार नहींवाक्य पूरा भी न हुआ था कि उठकर भाग गई. पानी तक नहीं पिया. यमुना वहिनी पानी का गिलास लेकर उसके पीछे दौड़ी. नाना ने लज्जा से मुँह झुका लिया. क्या यह वही स्त्री है जो रातभर उनसे लिपटकर सोई थी, जिसने रातभर प्रेम से भरे वचन कहे थे और आज इसने भाऊ का अपमान किया और भरी थाली बढ़ाकर भाग गई.

क्या इस लड़की से लग्न रचाकर उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है! सावरकर चुपचाप खाते रहे. शाओना रोते हुए सड़क फलाँघकर अपना घर ढूँढने लगी. उसे यहाँ आए मात्र एक रात बीती थी और उसका न केवल नाम बदल गया था बल्कि वह अपना घर भी ढूँढ नहीं पा रही थी. नाना ने अपनी पत्नी का सुशीला नाम बताकर अपने मातापिता को पत्र भेज दिया था. पत्र में स्पष्ट लिखा था कि उनकी बहू यहूदी और अनाथ थी मगर उसके कुलगोत्र का समुचित ज्ञान उसे और उसके भाई को है. उसका भाई यहूदियों के प्रार्थनाघर में यज्ञविधि (यह झूठ था. शाओना का भाई पशुबलि का यहूदी विधान सीख रहा था) सीख रहा है. यह भी झूठ लिखा था कि शाओना ने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है और उसका नया नाम सुशीला है.

बहुत समय बीतने पर नाना को अपने पिता का पत्रोत्तर मिला था. वह बार बार इसे कोट की जेब से निकालकर पढ़ते और फिर तह करके जेब में रख लेते. दफ़्तर में दिनभर उन्होंने यही किया, वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पत्र सुशीला (पूर्वनाम शाओना) को पढ़कर सुनाए या नहीं. घर पहुँचे तब चाय उबलने की गन्ध घरभर में भरी थी. शाओना हरी चाय बिना दूध और शक्कर के पीती थी. नाना को अंग्रेज़ अफ़सरों की तरह दूध और शक्कर के साथ चाय पसंद थी मगर उसदिन उन्होंने भी हरी चाय पीने की इच्छा जताई. शाओना दो कप चाय बनाकर ले आई. वसन्त के दिन थे. दूर बच्चों के खेलने का शोर कानों तक आ रहा था. मोटरकार और बसों के हॉर्न बीच बीच में बजते थे. अंततः नाना ने शाओना को पत्र पढ़कर सुनाया-

श्रीगणेशप्रसन्न:
प्रिय त्र्यम्बक,
तुम्हारे यहूदी स्त्री को पत्नी बनाने का समाचार प्राप्त हुआ. तुमने यह विवाह करके हमारा शुद्ध वेदपाठी चितपावनकुल नष्ट कर दिया. हम जीवन की इस अवस्था में यहूदी बहू स्वीकारकर अपने धर्म विनष्ट नहीं कर सकते. तुमने युवावस्था की वासनाओं के  वश में आकर यह विवाह किया होगा किन्तु हम ऐसी कौन सी तीव्र भावना से विवश होकर किसी म्लेच्छ को गले लगाएंगे, यह तुम पत्र लिखने से पूर्व ही जानते होगे. न बहू को देखने की हमारी कोई इच्छा है न तुम्हारे होनेवाली संतानों की. सम्भवतया तुम्हारी माँ कभी तुम्हारा मुख देखना चाहे.

तुम्हारे यहूदी स्त्री से विवाह पर मातापिता होने के नाते हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग रहेगा. फूलो-फलों.

तुम्हारा पिता दिगम्बर आह्लाद काणे
वसन्तपंचमी

मैं समझती हूँ उन्होंने ऐसा क्यों कहा और मेरे लिए आपके पिता हमेशा उतने ही आदरणीय रहेंगे जितने मेरे लिए मेरे पिता थेशाओना ने लंदन से आए सफ़ेद कप से चाय पीते हुए कहा. पिछले एक महीने में ही उसने घर संभाल लिया था. नए कप-बशियाँ, चादरें-गिलाफ, परदे, फ़र्नीचर सब कुछ सादा मगर क़ीमती था. इतने थोड़े पैसों में वह यह सब कैसे जुटा सकी नाना के लिए यह बहुत बड़ी पहेली थी. इतनी सुरुचि, सफ़ाई और सुघड़ता यदि नाना की माँ देख पाती तो कितना प्रसन्न होती जैसे सावरकर प्रसन्न होते है, “उन्हें इतना आदर दे सकती हो तो भाऊ से क्यों खिंची खिंची रहती होनाना ने अवसर पाकर सावरकर की बात छेड़ दी. उस दिन भोजन से शाओना का यों उठकर चला आना वह भूले नहीं थे जबकि सावरकर राजनीति में व्यस्त हो गए थे और यमुना वहिनी घर के कामों में व्यस्त होकर वह घटना भूल चुकी थी.

क्या किसी से विपरीत विचार रखना अनादर का सूचक हैशाओना ने यह बात एक जटिल, किताबी मराठी में कही. बहुत देर तक नाना बात ही समझने की चेष्टा करते रहे और उत्तर न दे पाए जिसे शाओना ने उनकी असहमति माना, “तुम्हारे मातापिता जो कर रहे है वह उनके कुल की पीढ़ियों से चली आ रही रीति यों तुम्हारे तोड़ देने पर क्रोध है मगर तुम्हारे सावरकर भाऊ से मैं सहमत नहीं हो सकती. उस दिन जब वे हमारी शादी की बात करने आए थे तब उन्होंने कहा कि वे नास्तिक है और अब मेरा धर्मपरिवर्तन करवाना चाहते है. मेरे लिए उन्होंने सेवंती नाम तक सोच लियाशाओना भावातिरेक संभाल नहीं पाती थी. उसकी कनपटियों की नसें भूल जाती, वह हाथपैर फेंकफेंककर बातें करने लगती और ऐसा लगता वह क्रोध और यातना के बीच फँस गई है और निकल नहीं पा रही.

एक नास्तिक आदमी किसी पराई औरत के धर्म को लेकर इतना सोचता ही क्यों है!शाओना ने कहा और कप ज़ोर से टेबुल पर रखा फिर जल्दी से ख़ुद ही उठाकर देखने लगी कि कहीं फूट तो नहीं गया. मैं तो पराया नहीं. यदि मैं तुम्हें सुशीला नाम से पुकारना चाहूँ तो?” नाना ने एक ही घूँट में वह कड़वा पेय पीकर कप धीरे से रख दिया. और अगर मैं तुम्हें श्लोमुच नाम से पुकारूँ तो?” शाओना ने उत्तर देने में एक क्षण की देर न की. हमारे बच्चे हिन्दू धर्म का ही पालन करेंगे. यदि यह भी तुम नहीं मानती तो अपने भाई के घर पूना तुम्हें कल छोड़ आऊँगानाना कहते हुए उठ खड़े हुए. शाओना वहीं बैठी रही. नाना देर तक नहाते रहे. नौकरानी ने ही उन्हें इस्त्री किया हुआ पजामा और बनियान दी. उनका खाना टेबुल पर लगाया और उसके ऊपर लगी बत्ती जलाई. मेरी नानी कहती थी उसी रात उनके पेट में बड़े मामा आए होंगे इसलिए बड़े मामा बचपन से ही आपराधिक प्रवृत्ति के रहे. उन्हें देखते ही नानी ने जान लिया था कि यह बच्चा हिन्दू होगा. मेरे बड़े मामा जर्मनों की तरह सुन्दर और लम्बे है.

५ फ़रवरी १९४८ की रात आठ बजे मसीना अस्पताल मटर्निटी वार्ड, प्राइवेट रूम नम्बर २४ में नानी अपनी तीसरी संतान को जन्म के छह घंटे बाद जब दूध पिला रही थी अचानक नाना धड़धड़ाते कमरे में घुसे. समुद्री हवाएँ फ़रवरी में हल्की हो जाती है, रातें ठंडी मगर नाना के बाल पसीने से भीगे थे. वह छरहरे थे और इतने अच्छे कपड़े पहनते थे कि देखते ही लोग ख़ासकर औरतें अपनी जगह अचानक ठिठककर खड़ी हो जाती थी. नर्स भी जो इंजेक्शन ठीक कर रही थी ठिठक नाना को देखती रही. नानी नाना को देखते ही भाँप गई कोई परेशानी की घड़ी है. छह साल संग रहकर वह नाना की नस नस जानने लगी थी. सिस्टर प्लीज़ दो मिनटनानी ने सिस्टर से कहा. सिस्टर बाहर चली गई मगर पलट पलटकर उस भद्र और व्यग्र पुरुष को देखती जा रही थी.

भाऊ को पुलिस ले गई. गांधी की हत्या का आरोप लगाकरनाना ने कहा और नानी से लिपट लिपटकर रोने लगे. बीच में दूध पीता बच्चा कुनमुनाया. दूर हटो, दूध पी रहा है. हमारी तीसरी संतान बेटा हुई हैनानी ने कहा और अपनी दूसरी संतान (मेरी बड़ी मौसी) यशोधरा को भी बिस्तर पर बैठा लिया. अपने पिता को रोते देख नानी के दोनों बड़े बच्चे चार साल के बड़े मामा तात्या त्र्यम्बक काणे और दो साल की बड़ी मौसी यशोधरा डर गए थे. दोनों माँ को घेरकर खड़े थे. नाना को अपनी सद्यजात सन्तान के विषय में कोई रुचि न थी. वह बस भाऊ के लिए चिंतित थे. यमुना वहिनी भी अपने किसी सम्बन्धी के घर गई है. भीड़ ने भाऊ के घर पत्थर फेंक फेंककर खिड़की दरवाज़े तोड़ दिए और आगज़नी की भी कोशिश कीनाना ने अपना मुँह नानी के कन्धे से उठाकर कहा. देखो, कितना कमज़ोर है. तुमसे डर गया और अब दूध नहीं पी रहानानी ने बच्चे का मुँह अपने स्तन में देते हुए कहा. तुम कितनी कृतघ्न हो, सुशीला. जिस आदमी ने हमारी शादी करवाई वह आज अकारण जेल में है और तुम्हें अपने इस दस घंटे पहले हुए बच्चे की पड़ी हैनाना खड़े हो गए.

नानी चिल्लाई, “सिस्टर सिस्टर, सुई लगा दो. १९५७ को नानी ने अपनी सातवी और अंतिम संतान मेरी माँ को जन्म दिया. सबसे छोटी होने के कारण मेरी माँ नानी के साथ सिनेगॉग जाती. नानी उन्हें यहूदी प्रार्थनाएँ याद करवाती, हिब्रू सिखाने के लिए सिनेगॉग से मास्टर आता और दोनों शबात मनाती थी. बाक़ी सभी बच्चे हिन्दू थे. अब तक सावरकर के यहाँ आना जाना बहुत कम हो गया था. सावरकर कभी कभी घर आते तो नानी उनके लिए बॉम्बे डक मछली बनाती और बेगल. नाना शाकाहारी थे यमुना वहिनी घर से उनके लिए पूरणपोली लाती.

नानी के भाई ब्रूनो मामा शंघाई के सिनेगॉग में काम करने लगे थे मगर छुट्टियों में नानी से मिलने ज़रूर आते थे. उस साल भी वह आए हुए थे. मेरी माँ ढाई साल की थी और नाना ने दादरपारसी कॉलोनी में एक दोमंज़िला मकान ख़रीदा था. सात बच्चों को लेकर उस किराए के मकान में रहना सम्भव नहीं हो पा रहा था. त्र्यम्बक्या, गणेशस्थापना तक यही रहो पीछे दादर जाना. मैं कितने दिन और हूँसावरकर ने कहा. यमुना वहिनी बहुत कमज़ोर हो गई थी. सावरकर सदन लोगों का आना जाना तो बढ़ गया था और सावरकर सबसे मिलते भी थे मगर कोई अब उनके हृदय को नहीं छू पाता था. नाना उन्हें आज़ादी के पहले के बम्बई की याद दिलाते थे. नानी उन्हें अब भी पसंद नहीं करती थी नास्तिक होकर भी मिस्टर सावरकर का धर्म में इतना हस्तक्षेप मुझे कभी स्वीकार नहीं हो सकतावह कहती थी. फिर गणेश स्थापना से कुछ दिन पहले नाना के दफ़्तर से एक नौकर ने आकर ख़बर की कि नानी सभी बच्चों को लेकर तुरंत दादरपारसी कॉलोनी के मकान पहुँचे और बीच में दो दफ़ा रिक्शा बदले. ब्रूनो मामा शाम की प्रार्थना कर रहे थे. तात्या ने तो कभी घर पर रहना सीखा ही नहीं. अब इसके पिताजी मेरा माथा खाएँगे कि उसे साथ क्यों नहीं लाईनानी ने कहा और कपड़े बदल लिए. ब्रूनो मामा की प्रार्थना ख़त्म होते ही माँ और उनके पाँचों भाई बहन तीन रिक्शों में सवार होकर नानी और ब्रूनो मामा के साथ निकल पड़ें. नानी पैसा बहुत बचाती थी और दो बार तीन तीन रिक्शें बदलना बहुत महँगा पड़ता इसलिए वह सीधे ही दादरपारसी कॉलोनी पहुँची. दरवाज़े पर ताला लगा था और चाबी नाना अपने पास रखते थे. सब बच्चे वही बग़ीचे में बैठ गए और क़ुल्फ़ी क़ुल्फ़ी की रट लगाने लगे. ब्रूनो मामा झट क़ुल्फ़ी और मूँगफलियाँ ले आए. फिर अँधेरा गाढ़ा होने पर नाना ने अंदर से खिड़की की साँकल बजाई. माँ ने पलटकर देखा तो नाना हाथ में मोमबत्ती लिए सबको पीछे के दरवाज़े से अंदर आने का संकेत कर रहे थे. बच्चें चिल्लाकर पीछे की ओर दौड़े तो नानी ने टोका. वह और ब्रूनो मामा समझ गए थे कि कोई गम्भीर घटना घटी है जो यों चोरीछिपे बुलाया और दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर नाना अंदर बैठे है. अंदर एक मोमबत्ती जल रही थी और फ़र्श पर आलथीपालथी मारकर मेरे बड़े मामा बैठे हुए थे.

तात्या, क्या किया इस बार?” नानी ने पूछा. बड़े मामा प्रतिदिन किसी से झगड़ा करते थे या कभी शराब तो कभी सिगरेट पीते पकड़े जाते. बच्चें सब शान्त होकर बड़े मामा को घेरकर बैठ गए. बड़े मामा थोड़ी देर मुँह झुकाकर चुपचाप बैठे रहे फिर जोर ज़ोर से देर तक  चिल्लाने से फटी हुई आवाज़ में कहा, “मैंने नहीं किया. मैंने नहीं मारा. नाना की आँखों से आँसू बह रहे थे फिर भी साफ़ आवाज़ में उन्होंने कहा, “अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर इसने किसी दुकानदार की हत्या कर दी. नानी देर तक बड़े मामा को देखती रही, “ब्रूनो भाई इसे हत्या कैसे मान सकते है! यह तो दुर्घटना हुई.” “डंडे और बूटों से पीटकर मार डाला इसनेनाना ने और स्पष्ट करके बताया जो वह दूसरे बच्चों के सामने बताना नहीं चाहते थे. नहीं. युवा बच्चों में मारकूट होती रहती है. यह दुर्घटना है केवल, ऐन ऐक्सिडेंटनानी ने पास पड़ी दूसरी मोमबत्ती जलाते हुए कहा. आई, वह दुकानदार बुड्ढा, साला सनकी थाबड़े मामा खड़े हो गए. पोलंड में तो कितने ही यहूदियों को लड़के ऐसे मार देते थे सड़क-चौराहों पर. कुछ नहीं होगा. पुलिस दुर्घटना लिखेगी केस ख़त्मनानी ने कहा और कुछ और मोमबत्तियाँ ढूँढने लगी. उस मकान में अब तक बिजली नहीं लगी थी.

शाओना, ये पोलंड नहीं है. भारत एक लोकतंत्र बन चुका है. यहाँ सबके जीवन का मूल्य बराबर हैब्रूनो मामा ने नानी को समझाने का प्रयत्न किया मगर नानी अड़ी रही. सात दिन वहाँ पर छुपे रहने के बाद गजानन विष्णु दामले की सलाह पर बड़े मामा ने आत्मसमर्पण कर दिया. बड़े मामा को चौदह साल की जेल हो गई. नानी ने कभी नहीं माना कि वह हत्या थी. भीड़ के पीटने से अगर कोई मर जाता है तो वह दुर्घटना तो है. वह व्यक्ति ह्रदयाघात के कारण मरा था. मेरे तात्या के संग भारत सरकार ने अन्याय किया है. अंग्रेज़ों में क़ानून की समझ थी. ग़ुलामी से नष्टबुद्धि ये हिंदुस्तानी क्या राज करेंगेनानी अंत तक यही कहती रही, “बर्बर जाति है यह. सरकारी दफ़्तर और अदालत खोल लेने से कोई जज नहीं बन जाता. इसके लिए तोराह की बारिकियों का बरसों अध्ययन करना पड़ता है.इस घटना के बाद अति व्यग्रता से नानी ग्रस्त हो गई. कोर्ट केस के समय केवल यही सोचने से कि बड़े मामा को सज़ा होगी या नहीं उन्हें व्यग्र रहने का विकार ही हो गया. वह बस पकड़कर रोज़ सिनेगॉग और बड़े मामा से मिलने जेल जाने लगी. दिनभर हिब्रू में धार्मिक किताबें पढ़ती. अपने छह बच्चों पर ध्यान देना उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया था.

फिर बहुत सालों बाद १९६९ में एक दिन मोरिस फ़्रईडमन नानी से मिलने आ पहुँचे. वह उतने बूढ़े थे नहीं जितने बूढ़े लगते थे बस बहुत कमज़ोर हो गए थे. नाना ने उन्हें घर पर ही कुछ दिनों के लिए रोक लिया. मेरी माँ बताती है कि मोरिस अंकल बहुत मज़ेदार थे. मोरिस अंकल कैसे लाल लंगोट पहने हुए नाना से औंध नरेश के बंगले में मिले थे वह अभिनय करके बताते और सब बच्चें लोटपोट हो जाते. इतने दिन बाद घर में कोई हँसा था. मोरिस अंकल कभी चार्ली चैप्लिन बनते तो कभी बस्टर कीटन. एक दिन खाने की मेज़ पर जब नाना बच्चों को मराठी में अपने पिता का कोई स्मरण सुना रहे थे तब मोरिस फ़्रईडमन ने नानी से यिद्दिश में कहा, “मराठी लोग का यह बहुत बड़ा कुटैव है कि अगर एक भी समझनेवाला मिल जाए तो वे मराठी में बोलने लग जाते है भले दूसरा उसका एक शब्द तक न समझे.

शाओना, आज से हम भी यिद्दिश में बात करेंगे. नानी को ठसका लगा और वह खाँसने लगी. तीस वर्षों से उन्होंने यिद्दिश में बात नहीं की थी. अंतिम बार उन्होंने यिद्दिश में ब्रूनो से बात की थी जब वह शादी नहीं करना चाहती थी और ब्रूनो ने यिद्दिश में कहा था कि शादी न करने पर शायद ब्रितानी सरकार उन्हें वापस पोलंड भेज दें. अपनी मामी* और अपने पापा से वह यिद्दिश में बात करती थी और ब्रूनो ब्रूदर* से. मोरिस फ़्रईडमन से तो शायद वह यिद्दिश में एक वाक्य तक सही न कह सकती मगर अचानक यिद्दिश में उनके मुँह से निकला, “गेरेख़्ट, हर मोरिस फ़्रईडमन.उसके बाद अचानक नानी बहुत ज़्यादा बोलने लगी.

वह रातदिन यिद्दिश में बड़बड़ाती रहती जबकि यिद्दिश केवल मोरिस फ़्रईडमन को आती थी और वह दिनभर स्वामी निसर्गदत्त महाराज के पास रहते. एक रात जब मोरिस फ़्रईडमन स्वामी निसर्गदत्त महाराज के मिलकर लौटे तब नानी ने उनका खाना लगाते हुए उनसे यिद्दिश में पूछा, “यह स्वामी आपको सिखाता क्या है?” “मराठी मध्ये बोला. मला समजेलनाना भी कभी कभी मोरिस फ़्रईडमन के साथ स्वामी निसर्गदत्त से मिलने जाते थे. बड़े मामा के जेल जाने के बाद और सावरकर के मरणोपरांत नाना अधिकांश समय चुपचाप रहने लगे और दर्शन की किताबें पढ़ते रहते थे. निसर्गदत्त महाराज उनके अन्धकार में पड़ रही एक क्षीण ज्योति थी. “Causality is in the mind only; memory gives the illusion of continuity and repetitiveness creates the idea of causality. When things repeatedly happen together we tend to see a casual link between them. It creates a mental habit, but habit is not necessary. When you see the world you see the God. There is no seeing God, apart from the world. Beyond the world to see God is to be God” मोरिस फ़्रईडमन ने अबके अंग्रेज़ी में कहा.
नानी को अंग्रेज़ी समझने में देर लगती थी मगर नाना सुनकर अपनी कुर्सी के कूद पड़े, “हाँ, हाँ आज यही तो कहा था.

नानी थोड़ी देर बाद बोली, “ये संसार ईश्वर ने नहीं बनाया है. इसे शैतान ने रचा है. शैतान ईश्वर को जड़ पदार्थ में बन्द करना चाहता था और ऐसे शैतान ने यह संसार बनाया. यही कारण है कि यहाँ इतनी यातनाएँ, इतनी अतार्किकता और अंत में रक्तपात है. यही कारण है कि हमें यहाँ पर जीवन या संसार में घटनेवाली किसी भी घटना का कारण नहीं पता, जो दण्ड हम भुगत रहे है उसके अपराधों के बारे में हम कुछ नहीं जानते. सोचो क्या ईश्वर इतना ठण्डा, इतना असंगत हो सकता है! यहाँ पर जिसे ईश्वर के होने का पता लग जाता है किसी किताब में पढ़कर या कहीं सुनकर नहीं बल्कि अपने अंतरतम में जिसे ईश्वर का अनुभव हो जाता है उसे शैतान बहुत दुःख देता है क्योंकि ईश्वर को जानना शैतान के बनाए संसार में शैतान को चुनौती देना है. मृत्यु ही उसे इस अतार्किक, असंगत यन्त्रणा से मुक्ति दे सकती है.

मेरे मातापिता को ईश्वर का पता था; तो क्या हुआ? वह गुलाग की बर्फ़ में ज़िंदा जम गए. कोई क़द्दिश पढ़नेवाला भी नहीं था. ईश्वर को तो हमारे अस्तित्व का पता तक नहीं और न वह कभी जान पाएगा. हम उसके बिना पैदा हुए है और उसके बिना मर जाएँगे. मोरिस, हम ईश्वर के लिए है ही नहीं. वी डोंट इग्ज़िस्ट फ़ॉर गॉड.


किसी ने कुछ नहीं कहा. खाना ख़त्म किया और सब सोने चले गए.

पिछले साल ४ दिसम्बर २०१८ की दोपहर नानी का देहान्त हो गया. उनके बच्चों ने उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से किया हालाँकि मैंने उनके लिए क़द्दिश पढ़ी क्योंकि १९९८ में जब मेरी उम्र चौदह साल थी, बम्बई के ब्रीचकैंडी अस्पताल में उन्होंने मेरा यहूदी रीति से ख़तना* करवा दिया था और मेरा नाम रखा-इज़ायश* हिलेल (IZAJASZA HILLEL) . मगर मेरा नाम तो अम्बर पांडेय हैमैंने कहा. नानी ने जवाब दिया, “हमारे धर्म में यहूदी माँ होने पर ही बच्चे यहूदी होते है. मेरे कारण तुम्हारी मम्मी यहूदन और उसके करण तुम. लोकल अनेस्थिसिया का इंजेक्शन लगने के कारण सुन्न हुए लिंग को लेकर मैं अधिक चिंतित था मगर नानी सर्जरी के बाद टैक्सी में मुझसे कुछ न कुछ कहे ही जा रही थी. आख़िरकार मैंने जवाब दिया, “हिंदुओं में तो बाप का धर्म और जाति चलती है न. नानी हँसी और अंग्रेज़ी में बोली, “डोंट यू फ़र्गेट इज़ायश, वी ऑर चूजन पीपल.

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*हसीदी- यहूदियों का एक अत्यंत रूढ़िवादी समुदाय.
*गोयम- जो यहूदी न हो.
*मामी- माँ (यिद्दिश).
*ब्रूदर- भाई (यिद्दिश).
*क़द्दिश- मृत्यु और अन्य कुछ अवसरों पर पढ़ी जानेवाली यहूदी प्रार्थना.
*यहूदी रीति का ख़तना- यहूदियों का ख़तना मुसलमानों में होनेवाले ख़तने से अलग होता है.
*इज़ायश- हिब्रू बाइबल का एकमात्र शाकाहारी पैग़म्बर. पोलिश नाम. लेखक के शाकाहारी होने के कारण उसे इज़ायश नाम दिया जाता है.

कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत

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हिंदी कथा संसार में एक बहुमूल्य त्रिगुट है- निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद. ये तीनों हस्तियाँ आपस में मित्र भी रहीं हैं.

कृष्ण बलदेव वैद का लेखन विस्तृत है. उनके पास अनुभव और अध्यवसाय की एक बड़ी उम्र है. उनके लेखन, और विश्व साहित्य पर यह संवाद आशुतोष भारद्वाज ने पूरा किया है. इस संवाद को आरम्भ, मध्य, अनवरत और अनंत चार हिस्सों में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है. लेखन की आंतरिक प्रक्रियाओं पर भी गहन चर्चा की गयी है. 

एक बड़े लेखक से बातचीत के लिए बड़ी तैयारी चाहिए. और फिर दीर्घ संवाद को मुद्रित करना भी एक श्रमसाध्य कार्य है.

इसे आप पढिये, कई बार में पढिये. यह आपको समृद्ध करेगा. समालोचन के लिए भी यह इंटरव्यू किसी थाती से कम नहीं है. 

गुज़रे २७ जुलाई को वैद साहब का जन्म दिन था. 

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कृष्ण बलदेव वैद 
(२७ जुलाई,१९२७,पंजाब, पीएच डी- हार्वर्ड विश्वविद्यालय)

उपन्यास

उसका बचपनबिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँनसरीनदूसरा न कोईदर्द ला दवा, गुज़रा हुआ ज़मानाकाला कोलाजनर-नारीमायालोकएक नौकरानी की डायरी

कहानी संग्रह

बीच का दरवाज़ामेरा दुश्मनदूसरे किनारे सेलापताआलापलीलावह और मैं, उसके बयानचर्चित कहानियाँपिता की परछाइयाँबदचलन बीवियों का द्वीपखाली किताब का जादूरात की सैर (दो खण्डों में)बोधित्सव की बीवीखामोशीप्रतिनिधि कहानियांमेरी प्रिय कहानियां. दस प्रतिनिधि कहानियांशाम हर रंग मेंप्रवास-गंगाअंत का उजालासम्पूर्ण कहानियां  

नाटक

भूख आग हैहमारी बुढ़ियासवाल और स्वप्नपरिवार-अखाड़ाकहते हैं जिसको प्यारमोनालिज़ा की मुस्कानअंत का उजाला 

निबंध
शिकस्त की आवाज़संचयन, संशय के साए

अनुवाद
हिन्दी में

गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट)आखिरी खेल (बेकिट), फ़ेड्रा (रासीन)एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल)


अंग्रेज़ी में
टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्सस्टैप्स इन डार्कनेस (उसका बचपन)विमल इन बाग़(बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ)डाइंग एलोन (दूसरा न कोई)दी ब्रोकन मिरर (गुज़रा हुआ ज़माना)साइलेंस इन दी डार्कद स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल
द डायरी ऑफ़ अ मेडसर्वेंट (एक नौकरानी की डायरी)
डेज़ ऑफ़ लोंगिंग (निर्मल वर्मा - वे दिन), बिटर स्विट डिज़ायर (श्रीकांत वर्मा -दूसरी बार), इन द डार्क (मुक्तिबोध - अँधेरे में)


डायरी
ख्याब है दीवाने काजब आँख खुल गयीडुबाया मुझ को होने ने, अब्र क्या चीज़ है ? हवा क्या है. आदि 


भारतीय और विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित.



'इल्हाम    के   लिये   इबादत   जरूरी   है.    रियाज़    जरूरी     है'


कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत    

     


II आरम्भ II
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हार्वर्ड में लिखी आपकी आलोचना किताब टैक्नीक इन द टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. शीर्षक में भी अनुप्रास. यह अनायास नहीं होगा. 
ह शीर्षक शुरु में तो नहीं था लेकिन बाद में आ गया. अनुप्रास का यह आग्रह मेरे भीतर है. अंग्रेजी में भी जो मैंने अनुवाद किये हैं या थोड़ा बहुत लिखा है, उसमें भी अनुप्रास, एसोनैंस, एलीटरेशन मेरे स्टाइल में अनायास ही आ जाता है. गद्य में मुझे लय देखने की लत है. जेम्स का गद्य, वहां एक लय है. आप उसे ऊँचा पढ़ें. जॉयस के गद्य में तो संगीत है. जॉयस तो गाता है. फिनिगंस वेकभले न समझ आये आपको, अभी भी नहीं समझ आता मुझे. कई कीज़ के साथ भी पढ़ा है, कई चीजें छूट जाती हैं. उसे ऊँचा पढ़िये. अगर मैं आयरिश होता(तो शायद).... आयरिश उसे पढ़ें तो उसका संगीत सुनाई देगा भले समझ न आये. मेरी समझ में गद्य में भी लय हो सकती है बगैर उसे क्षुद्र अर्थों में काव्यात्मक या पर्पल प्रोज बनाये. रूखे गद्य में भी. मसलन निर्मल के मुकाबले मेरा गद्य रूखा है, जानबूझकर है. मैं उस तरह का सौंदर्य अपने गद्य में नहीं लाना चाहता लेकिन लय तो बनी रहती है. शब्दों की आपसी रगड़ से संगीत पैदा होता है, वह निर्मलीय हो सकता है, वैदीय भी. 
लिखते में ही मैं सुनता रहता हॅूं इसकी आवाज क्या होगी. बोलकर तो नहीं लिखता लेकिन जब भी पाठ का कहीं मौका मिला है पढ़ने में बड़ा मजा आया है. 
अनुप्रास मेरे गद्य के संगीत का एक स्रोत है, और भी होंगे.


टैक्नीकइनटेल्स. तकनीक आपका बुनियादी सराकोर तभी से रहा है. दूसरे, स्टोरी नहीं टेल्स, कहानी नहीं कथा. 
ससे भी पहले से. हेनरी जेम्स अपने छोटे आकार के गल्प को टेल्स कहते हैं. मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी चुनिंदा रचनाओं को संकलित किया था- द न्यूयॉर्क एडिशन. उसका शीर्षक ही था द नोवेल्स एंड टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. छोटी कहानियों का उनका प्रत्यय टेल का था, फ्रैंच में जिसे Conte कहते हैं. 

हिंदी मेंलंबी’ कहानियां अमूमन दस-बारह हजार शब्दों से अधिक नहीं होतीं. जेम्स की सबसे छोटी कहानी द रियल थिंग  सात-आठ हजार शब्द. अपनी बहुत सी कहानियों को वे नॉवलेट भी कह सकते थे मसलन टर्न ऑफ़ द स्क्रू, द बीस्ट इन द जगंल. एक तो इस वजह से वेशार्ट स्टोरीनहीं इस्तेमाल करना चाहते थे. कहानी की परिभाषा जो एडगर एलन पो ने दी, कहानी वो जो एक बैठक में खत्म हो सके, तो जेम्स जानबूझकर पो की प्रतिक्रिया में, जो उन दिनों चलन भी था पत्रिका में आदर्श कहानी पांच-छः हजार शब्दों की मानी जाती थी जैसा हमारे यहाँ अभी भी है, उसे तोड़ रहे थे. शब्दों के लिहाज़ से. 

दूसरा, उनकी स्टाइल इतनी डिमांडिंग है कि आप एक बैठक में उनकी कोई कहानी नहीं खत्म कर सकते. 

टेल्सको चुनने में मेरा कोई इनोवेशन नहीं था. उन्होंने ख़ुद ही इसे परिभाषित करते लंबे निबंध लिखे थे. पहली बार अंग्रेजी में किसी बड़े लेखक ने कहानी और उपन्यास पर आलोचना लिखी, सिद्ध किया लघु गल्प या टेल में भी किसी उपन्यास जैसी संश्लिष्टता पैदा की ला सकती है. कहानी के लिये उनका प्रत्यय हमारे गल्प के नजदीक ठहरता है. 

यह दस्तूर कि कहानी एक ही फर्राटे में लिख दी या पढ़ ली जाये, ऐसी कहानियों को वे ऐनकडोट कहते थे. मैंने अपनी किताब में भी पैराबेल्स और ऐनकडोट्स का ज़िक्र किया है जो आकार में छोटी और संश्लिष्ट भी नहीं हैं, एकरेखीय कहानियाँ ओ हेनरी, पो सरीखी कहानियाँ. जेम्स ने ऐनकडोटिक कहानियाँ भी लिखीं लेकिन उनकी महानतम कहानियों फिगर इन द कारपेट, द बीस्ट इन द जंगल, द जॉली कार्नर-  में उपन्यास सरीखी संश्लिष्टता है. कई चीजों को उन्होंने कहानी से शुरु किया, उपन्यास पर खत्म किया. 



आप उस किताब में लिखते हैं कि जेम्स का गल्प कहानी की संकीर्ण विधानावली का अतिक्रमण कर जाता है. आपकी खुद की कहानियों में फेबल सरीखा तत्व वहीं से उभरा
हानी में मैंने थोड़ी देर से प्रयोग किये लेकिन उपन्यास में शुरु से ही सचेत था. उसका बचपनके दो ड्राफ्ट लिखे, पहला निरा यथार्थवादी जिसमें परिप्रेक्ष्य का बड़ा चित्रण था, उस कस्बे, वर्ग का. फिर लगा मैं तो वही लिख रहा हॅूं जो नहीं लिखना चाहता था, मैं जेम्स की तरह भी नहीं लिखना चाहता था. जेम्स से मैंने ग्रहण किया कि उपन्यास भी कला है. उसमें कुछ भी भूसे की तरह नहीं डाला जा सकता, हांलांकि उस तरह भी महान उपन्यास लिखे गये हैं. मैंने उनसे स्टाइल, संश्लिष्टता, भाषा, रूपक, मैटाफर्स और फैबूलेशन की गुंजाइश तो सीखी लेकिन उन जैसा फैलाव मेरे लेखक के स्वभाव के अनुकूल नहीं था. 

मैंने नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश की. ढांचे को ले सचेत तो हूँ लेकिन निरा नियंत्रित ढांचा नहीं देना चाहता. संगीत की लय और चित्रकला के विन्यास पर मेरा आग्रह निरंतर रहा. काला कोलाज मसलन. 

मेरी कहानियों में फेबुलिस्टक या पैराबेल सरीखे तत्व तो हैं. मेरा दुश्मनऔर उसी थीम पर तीन कहानियां मैंने लिखीं. डॉपलगैंगर या आल्टर इगो जिसे मनोहर श्याम जोशी ने हमजाद कहा है कई स्थलों पर आता है- मेरा कोई दूसरा घूम रहा है. लेकिन मेरी टेल्स जेम्स सी नहीं. 

शुरुआत में तो मैंने ऐनकडोट मसलन उड़ान, बीच का दरवाजालिखीं. बाद की कहानियाँ लीला, प्रवास गंगाजिनमें दस्तूरनुमा ढांचा नहीं हैं, इनके किरदार भी खंडित हैं, नैरेटिव भी. पाठक खुद ही पढ़ लीलाको बाँधेगा कहाँ से खत्म करे कहाँ शुरु. नर नारीमें भी नैरेटिव की निरंतरता को तोड़ा है. बिमल में फिर भी एक खास किस्म का आख्यान है जो उसके दिन के साथ चलता है- समाधि, स्थिति. काला कोलाज, माया लोक, नर नारीमें खंडित है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवामें लंबा मोनोलॉग है. 

मेरी कहानियाँ एकदम संयमित होती है, निर्मम इकॉनमी. ऐसा नहीं कि थोड़ा डायलाग भी हो, माहौल हो, चुस्की चाय की भी चलें. उसमें सांकेतिकता होती है. मेटाफोरिकल ढांचा.  



फॉर्म के साथ प्रयोग शायद आपके बोध में आये परिवर्तन को भीलक्षित करते हैं. उसकाबचपनके बहते हुए नैरेटिव के बाद जब आप काला कोलाज में ढांचे को तोड़ते हैं तो सृष्टि के प्रति आपकी दृष्टि बदल चुकी होती है.
वेस्टेज तो अभी भी मेरे काम में बहुत कम है. रैटॉरिक तो है लेकिन उसका खास मकसद है. कोई वाक्य कहना, उसका क्षिद्रान्वेषण करना, उसे कई तरह से कहना, उसका ही खंडन करना. कई चीजें जो उस वाक्य में नहीं आ सकतीं, वे और उनका उलट भी आ जाये. 

लेकिन ऐसा नहीं कि प्रत्यय पहले बन गया हो, लिखते-सोचते ही फॉर्म बनती है. ऐसा नहीं मैं स्पांटेनिटी का ख्याल नहीं करता, लेकिन फिर जो मन में आये जरूरी नहीं उसका कोई स्वरूप भी बने... रूप लिखने की प्रक्रिया में ही अर्जित होता है. ऐसा नहीं कि ये ख्याल करूँ कोई बड़ा तीर मारना है फॉर्म में लेकिन पचास साल से ज्यादा हुआ काम करते और कोशिश यही रहती है अपने को दोहराऊँ नहीं. ये कोशिश दोहरावों को रोकती है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं कर पाती. आखिर लिख तो मैं ही रहा हॅूं. उसका बचपनके कई तत्व मसलन बीरू, कुछ लोगों का कहना है बीरू ही बिमल है, वही मेरादुश्मनका नैरेटर है. या सिमिलीज और मैटाफर. हैमिंग्वे के काम में उपमायें होती ही नहीं. न कोई विशेषण न उपमायें. मेरे यहाँ विशेषण भी हैं, रूपक भी, तुलनायें भी. जिन्हें आप होमॅरिक या एपिक सिमिलीज भी कह सकते हैं. इकॉनमी के साथ यह भी है. 

रूपक महज लेखन के दौरान नहीं हैं, किसी की शक्ल मसलन देखूं तो तुलना करता रहता हूँ इसकी नाक इस तरह की है. कोई दृश्य मुझे किसी और दृश्य की याद दिलाता है. मैं दृश्य को अनुभूत करता ही सिमिलीज और मैटाफर्स में हॅूं. 

निरंतरता तो है. स्टायलिस्टिक और थीमेटिक निरंतरता तो है. भूख, गरीबी, भौतिक अभाव बार बार आते हैं. काला कोलाजमें ऐसे कई दृश्य हैं जिन्हें बहुत कम लोग देख-बर्दाश्त कर पाते हैं. इनका चित्रण यथार्थवादी तरीके से नहीं होता लेकिन इनका यथार्थ मारक है क्योंकि प्रगतिवादी तो सैंसर कर देते हैं, पांयचे पकड़ चलते हैं. दूसरे, बीरू की तड़प और तलाश कई रूप लेती है. कॉमिक और ट्रैजिकॉमिक रूप भी. समाधि लगाने की कोशिश भी करता है लेकिन लगती नहीं. या ऐसे सवाल कि हम कहाँ से आये, कहाँ जा रहे हैं. 

मैं आपके सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा कि पहले फॉर्म बदलती है या दृष्टि. 
मेरे लिये फॉर्म अपने विषय को तलाशने-तराशने का साधन है. 

फॉर्म के जरिये ही मैं अपने विषय तक पहुँचता हॅूं. कच्चा विषय तो बतौर अनुभव या किसी और रूप में मेरे अंदर होगा ही लेकिन जब तक फॉर्म न मिले तो कुछ नहीं. मसलन नर नारीजिसका एक तत्व स्त्रीवाद है कि मैं स्त्रीवादी चेतना को विकसित करने का प्रयास कर रहा हॅूं. एक सचेत और असचेत नायिका है. लेकिन मैं यह उस तरह नहीं लिख सकता जिस तरह हिंदी में नब्बे फीसद उपन्यास लिखे जाते हैं, एक फार्म जो अब घिस चुकी है. जब तक मुझे नहीं सूझता अपने किरदार के भीतर कैसे जाऊँ कुछ नहीं होने पाता. मसलन स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस बार बार इस्तेमाल करता हॅूं. अगर मुझे ऐसी फ्रैगमैंटिड फार्म न मिलती तो उस तरह का उपन्यास इतना अच्छा न लिख पाता. 




फॉर्मअगर जरिया है भी तो कोई प्रस्थान बिंदु तो होगा ही जहाँ से शुरु करते हैं आप? 
मोनोलॉग शायद जरिया है एक. उसका बचपनमें भी कई ऐसे बिंदु हैं जहाँ  बीरू अकेला है, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस नहीं वहाँ लेकिन बीरू अपने ख्यालों में है. गुजरा हुआ जमानामें भी लंबा ड्रीम सीक्वेंस है, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस का तत्व है. प्रथम पुरुष नैरेटिव या एक खास प्वांइट ऑफ़  व्यू से देखने की मैंने कोशिश की है. प्वांइट ऑफ़ व्यू पर जेम्स ने बहुत अधिक बल दिया है वे प्रथम पुरुष नैरेटिव के खिलाफ थे. जबकि मुझे लगता है प्रथम पुरुष नैरेशन में भी वही संयम हासिल किया जा सकता है जो जेम्स चाहते थे. गुजरा हुआ जमानामें वैसा संयम है भी. 

तो दो तीन युक्तियाँ हैं जो मैं बार बार इस्तेमाल करता हूँ  भले ही उपर से लगे एकदम नया प्रयोग हो रहा है. मोनोलॉग, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव. आख्यान खंडित करने का प्रयास. नर नारी, मायालोक औरकाला कोलाज. एक नौकरानी की डायरीमें फिर से वापस गया हॅूं, डायरी कई लोगों ने लिखीं हैं. लेकिन मैंने डायलॉग से परहेज किया. प्रयास यह रहा है कि चेतना का जन्म हो, नायिका डायरी लिखती है और उसे रस आने लगता है. वह डायरी में अपने को पाना चाह रही है. यह भी था कि शायद मैं एक सरल सा उपन्यास लिखना चाहता था. अंत का उजालाऔर इस डायरी को लिखने में अजीब सी आसानी रही. 




प्रथम पुरुष नैरेटिव आपको अपने किरदारों से कहीं गहरे जोड़ देता है शायद. एक आत्मीयता. 
प्रथम पुरुष नैरेटिव की सीमायें भी हैं. उसमें टॉलस्टाय जैसा विस्तार, कैनवास नहीं आ सकता. लेकिन यूलिसिस प्रथम पुरुष नैरेटर का ही रूप है. उसमें तीन नैरेटर है और प्रमुख स्टीफन डैडलस ही है. आत्मीयता तो रहती है लेकिन इंटैंसिटी भी आती है. उसमें बिखराव की गुंजाइश कम है. जेम्स हांलांकि इसके विपरीत थे, कहते थे फर्स्ट पर्सन इज कंडैम्ड टू द फ्लूयिडिटी ऑफ़ सैल्फ रैविलेशन. 

उनकी मान्यता को मैंने हार्वर्ड में चुनौती दी. द अंबैसेडर्सके एक सफे का विश्लेषण कर बताया कि अगर जेम्स उसे प्रथम पुरुष में लिखते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता.वह’ के बजायमैं’ कर दो. काम्यू का आउटसाइडर भी प्रथम पुरुष में है और बड़ा ही सघन है. जेम्स ने पहले ही समूची वेस्टेज हटा दी है. प्वांइट ऑफ़  व्यू और उसकी पकड़ इतनी जबरदस्त हो कि आप एक ही नायक की आँख से सब कुछ घटित होता देख रहे हैं तो फिर प्रथम पुरुष में क्यों नहीं.

मैंने प्रथम पुरुष क्यों चुना? उसका बचपन में प्रथम पुरुष नहीं लेकिन आँख  वही है. प्रथम पुरुष सघनता के अलावा मैंने इसलिये भी चुना कि उसमें एक सैल्फ-कांशस नायक या प्रतिनायक जो आत्मसजग है, अपनी हर हरकत देख-परख रहा है, हर वाक्य छान रहा है. दूसरा, यथार्थवादी रूढ़ियों के प्रति मेरा विद्रोह ---- कि थोड़ा माहौल हो ही. उसका संकेत करना काफी है. मसलन एक नौकरानी की डायरी. उसमें उसके जीवन का संकेत पूरा मिलता है. 


उसका बचपनके बाद लम्बे अरसे तक कथा लगभग न्यून रही आती है आपके यहाँ. न्यून गल्प दो तीन दशकों तक चलता है फिर सहसा गल्प का विस्फोट.बदचलन बीवियों का द्वीप. 
था तो रही लेकिन घटना पर आधारित नहीं. मायालोक में कई कहानियां  हैं.काला कोलाज में दृश्य. बिमल में भी कहानी है. कहानी को तोड़ने की कोशिश है, खंडित करने की. दूसरे, बदचलनबीवियोंकादीपकथासरित्सागरकी कहानियों पर प्रयोग ही था, कथा के रस को हासिल करने के लिये. तथाकथित पोस्टमॉडर्न  तत्व भी लाये. वो विस्फोट तो संयोग से ही हो गया. मन में था शायद अर्से से. लेकिन आप इन्हें मूल से तुलना करें ये एकदम नयी कहानियां  हैं. मैंने कथासरित्सागरसे खेला भर है. 

ये खेल का तत्व मेरी फॉर्म  में है. स्टाइल में, शिल्प में भी. खिलवाड़ नहीं, जो हल्का शब्द है. खेल. लीला. शाब्दिक व शैल्पिक लीला. 



खेल के साथ शरारत भी शायद. फॉर्म  ही नहीं मिजाज में भी. दो किरदारों वाले नाटक अंत का उजाला का पाठ मसलन. आप उसे पढ़ रहे थे और शुरु में ही कह गये थे, शायद किसी शरारत के ही तहत, बजाय किरदारों का नाम लेने के पहले पात्र पर दांये हाथ की तर्जनी उपर उठायेंगे, दूसरे पर बांये की. मैं दर्शकों के बीच था, पूरा समय मेरा यही ध्यान रहा कौन सी उंगली अब उठी है, कौन सी उठने जा रही है. तुर्रा यह बीच-बीच में गलत उंगली भी उठ जाया करती थी. शायद शरारत ही. (वैद ने इस नाटक का पाठ दिल्ली में किया था. यहाँ उसी पाठ का उल्लेख है.
हाँ.शरारत. हमारे यहाँ  बहुत है. कृष्ण की लीला. माखन चोर. चीर हरण. 
नैरेटिव की जड़ता कि कोई आरंभ, मध्य, अंत हो, इसे तो तोड़ना चाहिये. ये आशंका कि खेल से उसकी गंभीरता खत्म हो जाती है गलत है. भूख के साथ खेलना मसलन, भूखकुमारी का दर्द उस कहानी में उतना ही शायद उससे कहीं अधिक सशक्त है. उसे एक स्वप्न में पिरो दिया गया है. 
काला कोलाजमें दोहरी माई का किरदार. जिन उपन्यासों में भूख ठस तरीके से चित्रित की जाती है मैं तो जरा भी प्रभावित नहीं होता. इतना शोषण होता दीखता है जनवादी लेखन में लेकिन कोई असर नहीं होता उसका. वो जड़ फार्म है, इतना फूहड़ तरीका है. 


भूखकुमारीकेसाथएकशाम. यह एक रोमानी सी कहानी नहीं है? मध्यमवर्गीय नायक अपने अपराध बोध को छुपाने के लिये एक काल्पनिक किरदार गढ़ देता है, एक फितूर.
समें फंतासी है, रोमानियत नहीं. मैंने उस लड़की को रोमान्टिसाइज नहीं किया है, उसे एक ऐसी चेतना जरूर दी है जो आम लेखकों की दृष्टि में अयथार्थवादी होगी. मेरा यह मानना है कि बच्चे किसी भी वर्ग के हों, बड़े ही संवेदनशील हो सकते हैं. बीरू, एक नौकरानी की डायरी की नायिका, भूख कुमारी. इनमें यह क्षमता है कि वह किसी चीज को समझें और उस पर संवेदनशील प्रतिक्रिया करें. संवेदनशील होना और अतिभावुक होना दो अलग चीजें हैं. अगर मैं उसे अधिक सैंटीमैंटल बनाता या उसकी झौंपड़ी या उसके कचरा बीनने को खूबसूरत तौर पर पेश करता तो वह रोमानी लगती. नायक-लेखक और लड़की का रिश्ता सांकेतिक ही रहा आता है. वह रोज सैर को जाता है लेकिन एक खास जगह से लौट आता है. उस जगह से आगे जाने का मतलब किसी दूसरे प्रदेश में प्रवेश है. आज उसने हिम्मत की है और वह वहाँ  चला गया है. इसमें फंतासी का तत्व तो है लेकिन यह एक अच्छी बात ही कही जायेगी, अगर सिद्ध हो जाये तो, कि नायक और लड़की के संवाद को एक दूसरे स्तर पर ले जाना जो स्वप्नलोक भी हो सकता है. मसलन एलिस इन वंडरलैंडकी फंतासी जो यथार्थ से उलट नहीं, यथार्थ तक पहुँचने का ही एक तरीका है. 




वहपहुँचतातोहैयथार्थतकलेकिनयहबोधबनारहताहैकिवहलड़कीउसकाहीख्यालहै, उसकाहीअपराधबोधहैजिससेमुक्तिकेलियेउसनेउसेगढ़दियाहै. 
गर इस तरीके से पढ़ें कहानी को तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो भी वह फंतासी रहेगी. अपराध बोध कि वह भूख के अनुभव से दूर हो गया है, या भूख के यथार्थ का सामना नहीं कर रहा, यह पाठ भी उस कहानी में निहित है, तो भी उस नायक की रूमानियत नहीं झलकती, अपने अपराध बोध से साक्षात्कार का एक नया तरीका झलकता है कि उसने इस लड़की को रच दिया है, खुद को चेतावनी-चुनौती देने के लिये इस लड़की को ईजाद कर लिया है. यह कहानी पूरी तरह तो यह इजाजत नहीं देती कि आप इसे सिर्फ एक फंतासी के तौर पर पढ़ें कि वो लड़की है ही नहीं, उसके दिमाग का ही प्रोजैक्शन है. नहीं. उस लड़की में ऐसी खूबियां हैं, ऐसे फीचर्स हैं जो उसे एक ठोस लड़की भी बनाते हैं और एक प्रतीक भी. उसके अपराध बोध का एक प्रतीक.



जब आप इसे लिख रहे थे तो आपके ज़ेहन में यह दोनों संभावित व्याख्या थीं?
लिखते वक्त तो बहुत कुछ नहीं भी होगा, बहुत कुछ और भी होगा. लेकिन लिख चुकने के बाद जो उसमें आ सका है, आ चुका है, उसकी मल्टीप्लिसिटी इसलिये ही कायम रहती है क्योंकि वह यथार्थवादी रूढ़ियों से हटती है. इसी वजह से उसमें यह संश्लिष्टता या संभावना आती है कि आप उसे एक से अधिक तरीके से पढ़ सकें. 



आप यथार्थवादी फॉर्म  का विरोध करते हैं कि यह ठस, घिस चुकी है. आप भी तो लेकिन वही गिनती के तकनीकी औजार प्रयोग कर रहे हैं-- मोनोलॉग, स्ट्रीम ऑफ़  कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव. 
थार्थवादी रूढ़ियां जिन बातों पर जोर देती हैं कि संदर्भ विस्तृत हो, किरदार का पूरा नक्शा विस्तार किया जाये. मुझे लगता है कि इन रूढ़ियों की अब जरूरत नहीं, इनकी अनुपस्थिति कोई दोष नहीं उपन्यास में. इनके माध्यम से जो चीजें स्थापित-प्रस्तावित की जाती थीं वो किसी और तरीके से भी हो सकती हैं. ये बंधन अगर टूट जायें तो आप ऐसी कोशिश नहीं करेंगे. टॉलस्टाय, प्रेमचंद या बाल्जाक सरीखे महान उपन्यासकार--- हांलांकि प्रेमचंद उनके पाये के नहीं हैं, गाल्सवर्दी तक ही पहुँचते हैं, दरअसल यथार्थवाद की महान परंपरा उन्नीसवीं के अंत तक घिस चुकी थी. उसमें कोई संभावना नहीं बची थी. सोवियत के जमाने में लिखे गये उपन्यास उस पाये के नहीं थे. शालाखोव का क्वाइट फ्लोज़ द डॉन, हाउ द स्टील वाज टैंपर्ड-- सोवियत सोशलिस्ट रियलिज्म के उपन्यास जिन्हें स्टालिन पीस प्राइज, लेनिन पीस प्राइज मिलते थे उस पाये के नहीं थे. जिस परंपरा की बात जॉर्ज लूकाच ने की है स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज्म वो परंपरा अब घिस चुकी हैं. वे बैस्ट सैलर टाइप के लोग ही लिख रहे हैं. 

कई लोग अभी भी यथार्थ को चित्रित कर रहे हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने और युक्तियां प्रयुक्त की हैं, कुछ उन्होंने सिनेमा से लिया है, कुछ खंडित नैरेटिव, कुछ उत्तरआधुनिक डिवाइस भी ली हैं.

मुझे कोई रुचि नहीं कि मैं अपने किरदार को बाल्जाक या टॉलस्टाय की तरह चित्रित करूँ.

जो आपका सवाल कि मैं बार बार वही करता हॅूं, तो उसमें अदल-बदल होती रहती है. खंडित नैरेटिव में कई गुंजाइश हैं, सिनेमा के मोंताज में भी, मोंताज हांलांकि बहुत पुरानी चीज हो चुकी है. संगीत से तुलना करें तो उससे फॉर्म  में लय आ जाती है. सही है, अगर ये चीजें भी सौ-दो सौ साल तक चलती रहीं तो कुछ और ढूंढ़ना पड़ेगा. लेकिन इन चीजों के बदलने से आपकी शैली एकदम बदल जाती है.

निर्मल या वात्सयायनजी का जिक्र करें तो उनके उपन्यासों में कुछ और चीजें आयीं हैं, भाषा और शैली के स्तर. लेकिन संरचना के स्तर वे रोमांटिक रियलिज्म तक ही पहुँचते हैं. उससे आगे नहीं बढ़ते. मसलन सूखाऔर कव्वे और काला पानी. निर्मल की गति इसलिये ही मंथर होती है कि उन्हें हर चीज जरूरी दिखती है- मौसम, चढ़ाई चढ़ता नायकक्योंकि वे जाने अनजाने वही विधियां इस्तेमाल कर रहे हैं.

ये दावा नहीं है कि जो यथार्थवाद को नकार रहा है वह पूरी तरह से नकारता है. नाम देने पड़ते हैं, हांलांकि मेरे किरदारों के कई बार नाम नहीं होते. न ही ये दावा है कि जो दूसरा रास्ता अख्तियार किया मैंने वह हमेशा तरोताजा ही रहेगा. दरअसल अभी तक हम जॉयस से आगे नहीं बढ़ सके. वे एक ऐसे चरम बिंदु तक ले गये गद्य और ढांचे को खासतौर पर फिनिगंस वेकमें कि उससे आगे अंग्रेजी का कोई उपन्यासकार नहीं जा पाया है. 

ये भी मानना पड़ेगा कि अगर आप जॉयस के बाद के महान उपन्यास गिनें तो वे लोग उन्नीसवीं सदी के महान यथार्थवादी उपन्यासों से भिन्न हैं. रश्दी को लें, भले ही महान न सही वे उल्लेखनीय तो हैं, एलियास कनेटी एकदम अलग हैं. फॉकनर ने स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस का अपने तरीके से इस्तेमाल किया.



यानि आप मान रहे हैं कि रियलिज्म में भी संभावनायें हो सकती हैं.
हाँ, लेकिन वे संभावनायें कमजोर ही होंगी जब तक आप उनमें कुछ नया नहीं तलाशेंगे. मसलन वर्जीनिया वुल्फ अपने पितामह गाल्स्वर्दी इत्यादि को नकारती हैं, अपनी राह बनाती हैं. उन्होंने कहा ऑन ऑर अबाउट डिसेंबर1910 ह्यूमन कैरेक्टर चेंज्ड और द एक्सैन्ट फाल्स हियर एंड नॉट देयर. 

एक ओर तो निर्मल वुल्फ का बारबार गुणगान करते हैं, लेकिन उनके और वुल्फ के उपन्यासों में फर्क यह है कि यथार्थवादी ढांचे को उन्होंने तोड़ा-- मिसेज डैलोवे में भी, टू द लाइटहाउस में भी. उनके शुरुआती उपन्यास भले ही यथार्थवादी थे लेकिन वे उस ढांचे को छोड़ती गयीं. स्वप्न का ढांचा ले सकते हैं. मैंनेमायालोकमें प्रयास किया कि स्वप्न सरीखा ढांचा बुन दूँ. मैं ये नहीं कह रहा कि कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिये लेकिन हमारे संदर्भ में देखें तो बहुत कुछ भिन्न किया मैंने. 

यथार्थवादी तरीके से भी उत्कृष्ट काम किया जा सकता है लेकिन मैं उस उत्कृष्ट को कोष्ठक/इनवर्टड कोमा में रखूँगा क्योंकि वहाँ  वही बैस्टसैलर सरीखा काम हो रहा है जो कहानी, प्लाट की रट लगाते हैं. इसके साथ अतिभावुक, रुलाने वाला आर्द्र भी काम हो रहा है भीगा भीगा है समां वाला. 

इस बहस को कितना ही खींच लें लेकिन जिन लोगों के मन में यह बस जाता है कि जो यथार्थवाद का विरोध कर रहा है वह यथार्थ का भी विरोध करता है कि यथार्थ को पकड़ने कि लिये यथार्थवाद बहुत जरूरी है. मैं समझता हूँ  कि यथार्थ की कोई भी परिभाषा हो, बाहरी या आंतरिक, उसे पकड़ने के लिये भी फिलहाल तो यह जरूरी है ही कि उसे पकड़ने के लिये हम यथार्थवादी रूढ़ियों से दूर जायें. फिर परखिये पचास सौ साल बाद. 

साहित्य और कला में प्रगति नाम की कोई चीज नहीं होती. आप पिछले को नहीं नकारते. कोई बेवकूफ ही माइकिल एंजेलो को नकार सकता है, भले ही पिकासो माइकिल एंजेलो जैसा नहीं रचेंगे, उनसे जो लेना है ले लेंगे. 



कहानी तो माना कि आप अपने लिये ही लिख रहे हैं, पाठक ध्येय या उद्देश्य नहीं. लेकिन नाटक तो अनिवार्यतः दर्शक और मंचन के लिये है. आपने नाटक भी लिखे हैं. इन दोनों की रचना में कोई फर्क कहीं
नाटक को भी उसी तरह लिख सकते हैं आप लिखते समय अपने को न डरायें कि यह मंचित हो पायेगा या नहीं, दर्शक इसे समझेगा या नहीं. कई महान नाटक भले शेक्सपियर के हों, चेखव या बैकेट के, उनमें कोई बंदिश नहीं. क्या शेक्सपियर अपने ऑडियंस को ध्यान में रखता था, रखता होगा लेकिन महानतम रचनात्मक लम्हों में वह उन्हें भूल जाता था. यह नहीं सोचता था वो उसके साथ उड़ेंगे या नहीं, लेकिन वो उड़े. अपना महानतम काव्य वह हैमलेट, किंग लियरमें नहीं लिख पाता अगर वह सोचता यह एलिजाबेथियन ऑडियंस को समझ आयेगा या नहीं. उसने अपने आपको पंगु नहीं बनाया होगा तभी वह इतना उॅंचा उड़ सका, टैंपेस्ट जैसा नाटक लिख सका, भाषा को मुक्त कर सका. सही है वह एक उत्कृष्ट अभिनेता भी था और यह समझ थी कि उसे दर्शकों को भी खुश करना है लेकिन अपने महानतम लम्हों में उसने उन्हें खुश नहीं किया. टू बी ऑर नॉट टू बीलिखते समय वह भूल गया कोई इसे समझेगा या नहीं. 

फिल्म लें. फिल्म से ज्यादा ऐसी कोई कला नहीं जो दूसरों पर निर्भर होती है. लेकिन जिन लोगों ने महान फिल्म बनायी है, तारकोवस्की ने नहीं सोचा होगा स्टॉकरकोई देखेगा या नहीं. नाटक को कला के प्रतिमानों पर लेना है तो उसे इन्हीं शर्तों पर उतरना होगा. बैकेट ने नहीं सोचा होगा उसके नाटक सफल होंगे, दर्शक को समझ आयेंगे या नहीं. नाटक के लिये भी अनकंप्रोमाइजिंग दृष्टिकोण बहुत जरूरी है. उसके लिये जोखिम उठाना ही चाहिये. हमारी बुढ़िया, जिसका मंचन नहीं हुआ अभी, भूख आग हैसे ज्यादा मुश्किल और जोरदार है. 

पाठक का हौआ, पाठक को हौए के तौर पर इस्तेमाल नहीं करना चाहिये. इस हौए को प्रगतिवादी लेखकों ने बनाया है, इससे साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचा. भाषा ऐसी सबकी समझ आये- ये गलत है. यह व्यवसायिक और नीरस लेखन को जन्म देता है. वे सोचते हैं समाज का उत्थान कर रहे हैं. वही पुराने शोषण के दृश्य, जिनमें न कोई कंपकंपी होती है न अनुभव की शिद्दत न ही सौंदर्य. अखबारी सी सूचनानुमा बात होती है.



आप लिखते वक्त कहीं अटके हों, किसी फिल्म को देखते या किताब पढ़ते या किसी दृश्य से गुजरते आपको कुछ कौंध जाये और आपका अटका उपन्यास फिर चल पड़े भले ही उस किताब या दृश्य का आपके अधूरे उपन्यास से कोई संबंध न हो. ऐसा होता है आपके साथ?

ह तो क्रिएटिव प्रोसेस ही है. आप कई चीजों से उकसाये जाते हैं. अक्सर होता है मेरे साथ कुछ ऐसा जिसका कोई ताल्लुक नहीं है जो आपके मन में चल रहा है उससे. यह किसी याद से भी हो सकता है, दृश्य से भी. सड़क पर चलते हुये, कार चलाते हुये, किसी से बात करते हुये. कई ख्याल अकेले में ही आते हैं एकाग्रता बांधने से. कई तरीकों से दस्तक देती है प्रेरणा.

जो चीज उपर से असंबद्ध लगती है किन्हीं अन्य स्तरों पर उसका संबंध होगा. प्रूस्त का उपन्यास शुरु होता है नायक मैडलीन बिस्कुट चाय में डुबोता है तो उसे कई चीजें कौंध जाती हैं जिसका उस डुबोने से कोई संबंध नहीं है. जो चीज ट्रिगर  करती है उसका कोई संबंध परोक्ष सही जरूर होगा. अवचतेन स्तर पर हो. फ्रायड ने कह तो दिया अवचेतन कार्यरत रहता है. ऐसे स्वप्न आते हैं जिनकी आपने कभी कल्पना ही नहीं की होगी. दिमाग बड़ा ही जटिल सयंत्र है, चेतना का ताल्लुक बताते हैं दिमाग से है. 




कुछ ऐसे बिंदु होंगे जहाँ  आपका उपन्यास अक्सर अटकता होगा. 
ब लिखना शुरु किया था मुझे प्लाट  कभी पसंद नहीं आया. फिर मैंने प्लाट  छोड़ ही दिया. प्लाट  की जगह शुरु में किरदारों ने ली, फिर एंबियेंस ने. एंबियेंस जो परिवेश से भी सूक्ष्म है. अगर मैं प्लाट  में फंसू तो भटक जाउॅगा. अंत कभी मुझे तंग नहीं करता. जरूरी नहीं मैं कोशिश करूँ  अंत में सब कुछ समेट लिया जाये. अगर रचना अनफिनिश्ड लगती है तो भी ठीक, उसकी भी अपनी एक फॉर्म  होती है. काला कोलाजको कह सकते हैं--- मैंने यूँही खत्म कर दिया, छोड़ दिया. अगर नहीं रास्ता मिल रहा तो छोड़ दिया आगे कोई और चीज आ जायेगी जैसे नर नारीआ गया. उस तरह के अंत का सुगठित आदर्श जो हेनरी जेम्सियन आदर्श था मैंने छोड़ा. फार्म को ले सजग रहो लेकिन जरूरी नहीं हर फार्म बिल्कुल फिनिश्ड नजर आये. ओपन एंडेड उपन्यास भी हो सकता है उसे क्यों समेटा जाये. 

कविता में भी कुछ लोगों की आदत होती है कविता की आखिरी पंक्ति उसमें सब कुछ आ जाये लेकिन आप क्यों खामख्वाह उसकी संभावनाओं को सीमित कर रहे हैं. उसे खुला ही रहने दीजिये. कुछ चित्र, स्वामी के कई चित्र मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं, रामकुमार के नहीं. अनफिनिश्ड चित्रों में वैसी ही कभी कभी उससे ज्यादा शक्ति नजर आती है. बी राजन. बड़े भारी मिल्टन स्कॉलर. फॉर्म  ऑफ़  द अनफिनिश्डलिखी. बहुत प्यारी किताब. उन्होंने अंग्रेजी से उदाहरण लिये. मैंने उनसे कहा था काफ्का के भी उपन्यास लिये जायें वे भी अनफिनिश्ड हैं. और वे महान हैं. कुछ चीजें खत्म होने से ही इंकार कर देती हैं. हमें इसे स्वीकारना चाहिये.



आप किसी दृश्य से गुजरते, उद्वेलित होते हैं, क्या यह भी तय करते हैं कहीं प्रयोग करेंगे इसका और घर आ उसे डायरी में दर्ज कर लेते हैं
लग है मेरा तरीका. अगर दर्ज भी होता है तो मन में ही. कई बड़े अच्छे लेखक तो जैसे ही कोई ख्याल आता है कागज पर भी नहीं अपनी कमीज के कफ पर ही लिख लेते हैं. नोट्स लेकिन कई किताबों, कहानियों के लिये हैं. बिमल को लिखते हुये कई दफा नोट्स बनाये थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ फौरन फैसला कर लिया हो इसे इस्तेमाल करना है. कई बार शुरु करने से पहले डूडलिंग सी, अनकंट्रॉल्ड आउटपोर सा भी होता रहा है.

कभी ये भी हुआ है मसलन काला कोलाज जिसमें निरंतरता नहीं है, जैसे कोई चित्रकार- कभी यहाँ  ब्रश कभी वहाँ. खंडों में ही लिखा, बाद में फैसला किया किसे कहाँ  रखना है. मैं समझता हूँ  इन दोनों उपन्यासों- माया लोक, काला कोलाज-- को कहीं से भी पढ़ा जा सकता है. जरूरी नहीं आप आदि से शुरु करें और अंत पर खत्म करें.
यह तत्व बाद की कई रचनाओं में है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवा.



अपने पुराने किरदारों को ले नॉस्टैल्जिक होते हैं? बीरू या रानीखेत की वो दोपहर जब आपने उसे लिखा था. 
हाँ. गया भी हूँ वहां. कुछ ही साल पहले मेरी नातिन आयी थी अमरीका से, उसे ले गया था रानीखेत. लेकिन सबसे पुरानी यादें सबसे ज्यादा तीव्र होती हैं. कई लेखकों, मेरे जैसे लेखक के लिये, बचपन के साल ही बीज-वर्ष हैं. अक्सर सोचता हूँ जो कुछ घटना था घट गया उसी को खंगाल रहा हूँ. सबसे रोशन यादें, सबसे ज्यादा नॉस्टैल्जिक यादें उस कस्बे की हैं--- डिंगा. उसके बाद का मसलन दिल्ली काफी धुंधला पड़ जाता है. किरदार तो याद आते हैं लेकिन कभी-कभी अपने लेखन को पढ़- जैसे अभी हाल ही मैंने प्रयोग किया अपनी पिछली किताबों को कहीं से भी पढ़ना शुरु कर दिया. बड़ी सुखद सी हैरानी होती है ये मैंने लिखा था. गद्य लेखक को तो वैसे भी वाक्य याद कैसे रहेंगे. कवि को कवितायें, शायर को तो सारा दीवान याद होता है. अपने को पढ़कर हैरान होना अच्छा लगता है. अपने से लिहाज भी होता है, ईगो भी संतुष्ट होता है शायद. और ये मैंने हाल ही में शुरु किया. मैं भूलता जा रहा हॅूं.
फर्ज करो मैं लीलापढूं तो कुछ याद नहीं आता कब किस हालत में क्या गुल खिलाये हैं मैंने. 
याद से मुझे याद आया, पता नहीं मेरे साथ ही है या सबके साथ, सुबह का लिखा शाम को पूरी तरह याद नहीं रहता. 



इससे ईगो संतुष्ट होता है
क खुशी कि बी योर ओन रीडर. पहले हिचक भी होती है अपने को क्यों पढॅूं, अपने को पढ़ने का, अपनी तस्वीर देखने का क्या मतलब हुआ. लेकिन तस्वीर का उदाहरण गलत है. लिखा हुआ भूल जाते हैं खासतौर पर जब किसी लेखक की तथाकथित ताकत भाषा में हो और वह भाषा के तथाकथित चमत्कार भूल जाये. तो मैंने सोचा इसे करके देखूं. गुजरा हुआ जमानामैंने सिरहाने रख ली, उसकी वजह भी थी आनी मांतो उसका फ्रैंच में अनुवाद कर रही हैं, तो मुझे लगा यह तो काफी सुखद है, एक तो काफी समय हुआ उसे लिखे. ईगो इस अर्थ में कि पढ़कर सुखद हैरानी हो जो मैंने लिखा था वो बुरा नहीं है.


खुफिया खुशी.
हाँ. खुफिया खुशी.





 II मध्य II
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भारतीय लेखक जब यूरोप जाता है कहानी, कविता और नहीं तो दो-चार संस्मरण ही लिख लाता है. भरमार है यूरोप-केंद्रित लेखन की, उस महाद्वीप से हमारे बौद्धिक संवाद की. निर्मल का भारत और यूरोपः प्रतिश्रुति के क्षेत्रों में मसलन. इसके बरअक्स अमरीका हमारे सरोकारों से एकदम गायब है. कोई दंभ है यहाँ ? आपके लेखन से भी अमरीका गायब है.
मुझे संस्मरण लिखने की ललक नहीं रही. डायरी जो मैं लिखता रहा उसमें भी जो कुछ पढ़ा उसके बारे में लेकिन वो भी विस्तार से नहीं. मसलन रमेशचंद्र शाह लिखते हैं तो पूरा निबंध लिख देते हैं. सही है मैंने अमरीका पर ज्यादा नहीं लिखा, एक कहानी है बस, क्यों नहीं लिखा मालूम नहीं. आपका जो सवाल है वो मुझ पर तो लागू नहीं होता. मेरे न लिखने का कारण मेरा टैंपरामेंट है. कभी कभी ही मैं जहाँ  भी जाता हूँ  वहाँ  के बारे में लिखता हूँ. मसलन वेनिस न गया होता तो वेनिसमेंवैराग्यन लिखता. लेकिन मैं अपने अतीत को ही खोदता हूँ.

आपके प्रश्न को मैं इसी वक़्त ही सोच रहा हॅूं. एक तो स्नॉबरी का तत्व है. यूरोप में मसलन निर्मल, अशोक वाजपेयी की तो दिलचस्पी है लेकिन वे अमरीका को समझते हैं घटिया मुल्क है. है नहीं जबकि. साहित्य को ही लें. जिस तरह के उपन्यास उन्होंने पैदा किये- हेनरी जेम्स, मैलविल, फॉल्कनर, हैमिंग्वे. बौद्धिक स्तर पर उन्होंने कोई कम काम नहीं किया. शरण दी अनेक महान लोगों को. उनकी उपलब्धियां कम नहीं हैं लेकिन एक पूर्वाग्रह जो उनके खिलाफ है कि निपट भौतिकवाद का, डॉलर नियंत्रित देश है. कोई इतिहास नहीं है. हेनरी जेम्स ने ही पूरी सूची बना दी थी कोई कैसे अमरीका में उपन्यास लिख सकता है कि मैं इंग्लैंड में क्यों रहना चाहता हॅूं. अमरीका में ऑक्सफ़ोर्ड नहीं है, कैंम्ब्रिज नहीं है, कथीड्रल नहीं है, इतिहास नहीं है. कोई कैसे बिना इन चीजों के महान उपन्यास लिख सकता है. 

नहीं है यह सब. महान उपन्यास फिर भी लिखे गये. मोबी डिकमहान कृति है. हाथ्रोन का द हाउस ऑफ़  सेवन गेबल्स भी महान है. कई चीजों के बगैर भी महान उपन्यास लिखे जा सकते हैं. लेकिन हम यूरोप से ज्यादा अपने को जोड़ कर देखते हैं. 



दूसराकोईअमरीका के परिवेश को छूता था. कोई अबैंडैंड/उजाड़ कस्बा. 
हाँ. लेकिन दूसरा न कोईका कस्बा अमरीका के उन उजाड़ कस्बों में से नहीं था जिन्हें लोग किसी महामारी या संसाधन खत्म हो जाने की वजह से छोड़ कहीं और बस जाते हैं. वह यूनिवर्सिटी टाउन था. बर्फ बहुत पड़ती थी. उजाड़ इसलिये जब लड़के लड़कियां छुट्टियों में चले जाते थे उजाड़ नजर आता था. निर्मल, रामकुमार वहाँ  रहे थे हमारे साथ. एक दरिया भी था वहाँ. बड़ा सुंदर कस्बा था.



उपन्यास का, गल्प का कोई भारतीय स्वरूप हो भी सकता है? इसके जरिये हम गल्प को फिर से किसी तय ढांचे में नहीं बंद कर रहे?
हाँ. बिल्कुल. सजातीय फॉर्म  का सवाल और खुद सजातीय फॉर्म  ही अब नहीं रही. उठा था ये सवाल पहले भी. उसमें तो मैंने एक ही बात कही है कि नॉवेल या तो किसी ख्याल के प्रति ऑब्सेशन से निकला या आउटरेज से. इसकी कमी है हमारे यहाँ. 

हॉलैंड में आठ-नौ साल पहले एक सेमिनार हुआ था. इंडियननैस ऑफ़  इंडियन लिटरेचर. मैंने वहाँ  पेपर पढ़ा था कि इस पर जोर नहीं होना चाहिये इसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बू आती है और फिर यह रास्ता सीधा फासिज्म की ओर जाता है. ठीक है कुछ बातें संस्कृति की खुद ही आ जाती हैं लेकिन सायास अगर कोशिश करेंगे कि दृष्टिकोण, विषय शुद्ध देशी हो तो नहीं होने पाता. हम कई जगहों से चीजें ग्रहण करते हैं जिसमें भारतीयता अभारतीयता का भेद समझ नहीं आता. मेरी कहानी बुढ़िया की गठरीइसी संदर्भ में है, पढ़नी चाहिये. नाटक हमारी बुढ़ियाउसी का एक रूप है. यह कि यह हमारी भारतीयता, थाती है गलत है. निर्मल उसका शिकार हुये. उदयन इसके शिकार होते जा रहे हैं. हमारे यहाँ  
सब कुछ था, शिक्षा पद्धति बहुत अच्छी थी. होगा सब कुछ, सब जगह था. बहुत सी सभ्यताओं का अतीत स्वर्णिम था.



लेकिन कोई तो ऐसा तत्व होगा. यह भारतीय लेखक, यह अमरीकी और यह तुर्क. 
कुछ चीजें होंगी, होती होंगी ऐसी. लेकिन वे भी पूरी तरह इतनी शुद्ध नहीं होंगी कि कहीं और न मिलें. आखिर यह सवाल किसे नहीं तंग करतेः विज्ञान, धर्म, कला हर कोई ये प्रश्न उठाता है. दर्द ला दवा में हस्ती और नेस्ती का सवाल है. होने का सवाल अस्तित्ववाद ने उठाया, हमारे यहाँ  भी उठता रहा है. दानाई की चीज तो यही. 

हक्सले ने एक एंथोलोजी बनाई थी, पेरिनियलफ़िलॉसफ़ी. जिसमें उसने बहुत जगहों से हिंदोस्तान, मिडिल ईस्ट वगैरा से उदाहरण ले यह साबित करने की कोशिश की कुछ मूलभूत प्रश्न-सरोकार आबोहवा, संस्कृति के भेद के बावजूद सारी दुनिया में समान हैं. बुद्ध, जीसस, महावीर, मोहम्मद ने भी यही सवाल उठाये.

भारतीयता पर इतना जोर नहीं देना चाहिये कि आप यह कहने लगें हमसा कोई नहीं. कहीं कुछ पहले आया, कहीं कुछ बाद में. हम अपने पतन की बात नहीं करते, उसे दूसरों के मत्थे डाल देते हैं. भारतीयता की बात करते वक्त हम हिंदू की ही बात करते हैं. मुसलमानों को लिये बगैर काम नहीं चलेगा. क्या पांच हजार साल पहले जाना ही भारतीयता है? कितना भी हिंदू की परिभाषा खुली कर दें, काम नहीं बनेगा. 



जो रचनाकार एक विस्तृत प्लाट  रचता है उसके लिये उस प्लाट  को पूर्णता तलक पहुँचाना ही अंत है. लेकिन आपके यहाँ  तो प्लाट गायब होता गया है फिर आप कहाँ  अंत करते हैं
मैंने पहले भी कहा था कि काला कोलाजऔर माया लोकके अंत बड़े आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. यह सवाल उठाया जाये कि अंत यहाँ  क्यों हुआ, इससे दस मील बाद या पहले क्यों नहीं हुआ तो वह जायज सवाल होगा. इसलिये मैं इन्हें ओपन-एंडेड उपन्यास कहॅूगा. लेकिन मैंने इन्हें क्यों छोड़ दिया, मजाक में कहूँ  तो इसलिये कि मैं तंग आ गया उससे. खासतौर पर काला कोलाजसे. 

लेकिन नहीं. मैंने उसमें कुछ अंत करने की कोशिश की तो है. लेकिन फिर यह भी कहा जा सकता है कि मैंने उसे यूँही छोड़ दिया.

कुछ उपन्यासकार अंत करने के लिये बहुत सी मौत दिखा देते हैं. कट्टर यथार्थवादी तो बीमारी का भी हाल बतायेंगे. ई एम फोस्टर मसलन. वे अपने किरदार मार देते हैं या शादी कर देते हैं.

मेरे इन उपन्यासों को आप अनफिनिश्ड भी कह सकते हैं. आर्बिट्रैरी भी. लेखक को यह अधिकार हो सकता है कि अगर वह समझता है कि उसने इस उपन्यास की संभावनाओं को खत्म कर दिया है, इसमें और कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें नायक तो नहीं है महज एक चेतना है, उस चेतना की कोई और परत अगर वह नहीं खोल पा रहा तो वह वहाँ उसका अंत कर दे. 

आलोचक कह सकता है कि इसमें त्रुटि रह गयी है, इसका अंत अपरिहार्य नहीं है. लेकिन मैं बतौर लेखक तो यही कहूँगा कि मैं तो किसी भी अंत को इनएविटेबिल नहीं मानता. सभी अंत आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. आप ऐसी फॉर्म  में काम कर रहे हैं कि उसके कई अंत हो सकते हैं. जिन्हें हम इनएविटेबिल अंत कहते हैं वे भी नहीं होते. एक क्षण को लग सकते हैं महज. लेकिन इतना ही काफी है. कुछ लोगों को लगते हैं तो भी ठीक है. अगर मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं तो वह भी मुझे संतुष्ट करता है. मैंने एक निबंध लिखा था-- तथ्य, कथ्य, शिल्प. कहानीनुमा निबंध लिखने की कोशिश थी वह और जब मैंने वहाँ  देखा कि मैं एक अंधी गली में पड़ गया हॅू तो मैंने अंत कर दिया, कोष्ठक में लिखा असमाप्य, भविष्य में समाप्य. 

इसे मैं दोष नहीं मानता. इस फॉर्म  में यह गुंजाइश है कि आप अंत को ओपन-एंडैड रखें. 



लेकिन आपकी वो रचनायें जहाँ प्लाट है, घटनायें हैं? गुजराहुआजमानामसलन. उनका अंत?
वेकम ही हैं. कहानियां  तो शुरु की ही होंगी, बीच का दरवाजामेरी पहली कहानी. गुजरा हुआ जमानामें तो एपीसोड्स ही हैं. वहाँ प्लाट नहीं है. कॉज इफैक्ट नहीं है कि पिस्तौल रखी है तो उसका इस्तेमाल होना ही चाहिये. तमसमें प्लाट है कि सूअर को मारा गया फिर सब कुछ हुआ. यहाँ  कई कारण हैं, कई तत्व हैं. प्लाटनुमा अंत नहीं है. दंगों की पराकाष्ठा दिखा दी गयी है. मेमने की आवाज आती है, एक प्रतीकित चीख. क्राई ऑफ़  फ्यूटिलिटी. बस खत्म.


क्या यह तय था आपके जे़हन में कि यहीं अंत करना है?
हाँ. यहाँ  तो मुझे लिखते लिखते दिशा दिखाई दी कि मैं मरते हुये बच्चे की आवाज चुनूँ. यह मेरे दिमाग में था कि इसे क्लाइमेक्स बनाऊँ लेकिन यह प्लाट की तरह का क्लाइमेक्स नहीं है. 



कागज पर उतरते शब्द के साथ आपका क्या संबंध है? सुबह के बैठे जब आप दोपहर को उठते हैं तो सफेद कागज पर उतर आयी इबारत को देख, कि जो आपने चाहा एकदम वही शब्द मिल गया, कैसा महसूस करते हैं
स प्रक्रिया को शब्द देना आसान नहीं है क्योंकि यह एक ही प्रकार की नहीं होती. किसी भी लेखक की रचना प्रक्रिया हमेशा किन्हीं परिधियों में तो घूमती है लेकिन हरेक रचना के दौरान वही अमल नहीं होता जो कि पहले हो चुका है. परिवर्तन अपने आप होते रहते हैं.

दूसरे, शब्द के उतरने की प्रक्रिया भी अलग है. कई बार शब्द ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं होती. कई बार कांट-छांट बहुत होती है. आप शब्द से संतुष्ट नहीं होते लेकिन उसे छोड़ देते हैं, बाद में कुछ और सूझ जाता है. मैं उन लेखकों में से हॅूं जो एक ही ड्राफ्ट में सब कुछ नहीं लिख पाते. जिस ड्राफ्ट में रवानी भी होती है उससे भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाता. बहुत से लोग, मसलन अशोक वाजपेयीकवितायें भी एक ड्राफ्ट में लिखते हैं. जैनेंद्रबोल कर लिखवा देते थे. मैं ऐसे लेखकों की सराहना तो कर सकता हूँ लेकिन जब उन्हें गौर से पढ़ता हॅूं तो लगता है कहीं कुछ अधूरा रह गया है. 

जब कागज पर कोई शब्द उतरता है और जो मुझे ठीक भी लगता है तब भी जरूरी नहीं कि दस दिन बाद जब उसे देखूं तो उसे बदलने की कोशिश न करूँ. कभी कभी बदलने में बिगड़ भी जाता है, लेकिन यह गलती तो आप कर सकते हैं कि किसी लिखे को संवारने की कोशिश में उसे बिगाड़ दें. लेकिन हाँ, अंतिम वाक्य या अंतिम शब्द जैसा कुछ नहीं होता. दूसरे या तीसरे ड्राफ्ट में कई बदलाव लाता हूँ. मैंने कोशिश की है कि दुबारा न लिखूं, लेकिन अक्सर कहानियां  पूरी फिर से लिखता हॅूं. लिखते समय मुझे लगता है कि वो नर्वस इंटैंसिटी आती है तो उससे भी आलोक फूटता है, उससे भी कोई शब्द झर जाता है क्योंकि एकाग्रता बहुत जरूरी होती है और अगर आप बिल्कुल उसमें डूबे हुये हों तो इल्हाम की गुंजाइश ज्यादा रहती है. ऐसा कोई शब्द या दिशा मिले, कोई किरदार फूट पड़े या रोशनी मिले.

फिर भी हो सकता है मैंने इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया हो. टका सा जवाब नहीं दे सकता मैं. हैरानी, खुशी होती है, झुंझलाहट भी होती है कभी कि पकड़ नहीं पा रहा हॅूं सही शब्द. कभी सस्पैंड कर देते हैं उस शब्द को कि प्रश्नचिन्ह लगा छोड़ दिया. 

शब्द हमेशा ही अकेला नहीं आता, कई अन्य शब्दों के साथ भी आ सकता है, पूरा पैराग्राफ भी कभी. 

मदाम बोवारी लिखते वक्त फ्लाबेयर को कभी कभी महज एक शब्द को ढूँढने में कई दिन लग जाते थे. यह एक सत्य का मुबालगा भी हो सकता है लेकिन इसमें सत्य जरूर है. कुछ लोग सही शब्द की तलाश में घंटों या दिनों तक तिलमिला सकते थे, फ्लाबेयर उन लोगों में थे. उस सीमा तक बहुत कम लेखक जाते हैं खासतौर पर गद्य लेखक. कवि तो कभी कभी एक शब्द के लिये बहुत छटपटाते हैं लेकिन गद्य तो लोग समझते हैं कि जो लिख दो ठीक है, महज जानकारी देनी है आपको. 




II अ न व र त II
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इल्हाम कब, कहाँ  होता है आपको
ल्हाम के संदर्भ में बार बार डायरी में ज़िक्र किया है. दो शब्दों का ज़िक्र करता हूँ  जब लिखने का संकट सामने आता है कि इसमें आमद है या आवुर्द. आमद ज्यादा है या आवुर्द. आवुर्द जो चीज लायी गयी हो, आमद जो खुद आ जाये. आमदन. आवुर्दन. जिन्हें फारसी में मसधर कहते हैं.

फारसी का सौंदर्य शास्त्र जो मैंने पढ़ा किसी जमाने में वह यही था कि आमद पर जोर होना चाहिये. आमद में इल्हाम की गुंजाइश है. आमद यानी जो उतर रहा है. शास्त्रीय संगीत में भी आमद का जिक्र है, खासतौर पर कत्थक में क्योंकि उस पर मुसलमानों का असर था. फारसी का असर था. दरबारी विधा थी वह. 

आवुर्दन यानी जो कोशिश करके सायास लिखा जाये, आमुर्दन जो अनायास हो जाये. संपूर्ण आमद कभी-कभी ही उतरने पाता है किसी कृति में. मेरे भीतर बार-बार यह सवाल उठता रहता है कि किसी रचना में आमद है या आवुर्द. नर नारी लिखते समय मुझे हमेशा लगा कि इसमें आवुर्द पर ज्यादा जोर है. बिमल में आमद ज्यादा थी, उसके कुछ हिस्सों में आमद ही आमद है, आवुर्द की बहुत कम गुंजाइश है. 

उसका बचपनके पहले ड्राफ्ट में आवुर्द ज्यादा थी इसलिये मुझे बहुत पसंद नहीं आया था. और यहाँ मैं फुटनोट बतौर कह दूँ कि यथार्थवादी उपन्यासों में, बड़े से बड़े उपन्यासों में आवुर्द भी रहेगी काफी. वॉर एंड पीस के कई खंडों को हम उलट जाते हैं क्योंकि उनमें आवुर्द भरी हुई है. उन्हें नहीं पढ़ा जा सकता. बेकार की डिटेल्स, इतिहास की भरमार जिसे टॉलस्टाय जिला नहीं पाते. 

इल्हाम तक पहुँचने के लिये आमद का इंतजार जरूरी है. 

कुछ लोग कहते हैं कि किसी ने उनसे लिखवा दिया. आपको पता चल जाता है कि यह चीज लिखते समय मैं आमद के हवाले था. मुझे कोशिश ज्यादा नहीं करनी पड़ी. जरूरी नहीं कि वह चीज ज्यादा उत्कृष्ट हो ही.एक नौकरानी की डायरी. भले ही वह एक जगह तक ही पहुँचती है उससे आगे नहीं जाती, लेकिन उसमें ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ी. उसमें भाव तो है, सरलता भी है और आमद भी. उसमें घटनाओं, किरदार के चुनाव इत्यादि में मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.
आमद की भी कई किस्में हो सकती हैं.

इल्हाम वहीं होगा जब आप किसी ऐसी मनोस्थिति में हों कि आपको, जो आप लिख या सोच रहे हैं, उसमें ज्यादा मीनमेख न निकालने पड़े. उस स्थिति तक पहुँचने के लिये समाधि जरूरी है. इसलिये बिमल में मैंने मॉक सी समाधि, समाधि की पैरोडी का जिक्र किया है. वह कोशिश करता है कि आज समाधि लगाउॅंगा, कहीं नहीं जाउॅंगा लेकिन फिर भी उस मॉक समाधि में वह व्यंग्य तक तो पहुँच   जाता है--- हिंदी साहित्य की विषय सूची सी. एक खास किस्म की एकाग्रता उसमें आ जाती है.

इल्हाम का इंतजार घातक भी हो सकता है कि आप सारी उम्र इंतजार ही करते रहें. हेनरी जेम्स की जबरदस्त कहानी है, एक बाल्जाक की है. जेम्स बाल्जाक को बहुत महान मानते थे, उन्होंने बुढ़ापे में एक महान लैक्चर भी दिया था द लैसन ऑफ़  बाल्जाक. 

जेम्स की मैडोना ऑफ़  द फ्यूचर. इसमें इटली में रहता एक अमेरिकन कलाकार है. वह एक मास्टरपीस बना रहा है --- मैडोना. बूढ़ा हो जाता है. किसी ने उसको देखा नहीं है लेकिन ये लेजेंड मशहूर है कि वह कुछ रच रहा है. एक युवा कलाकार उसके पीछे पड़ जाता है कि मैं तो देखूंगा ही. फिर वह उसे अपने स्टूडियो में ले जाता है लेकिन वहाँ  कुछ नहीं है कैनवास पर. फिर वह बूढ़ा कलाकार उससे कहता है कि मैं सारी उम्र इल्हाम का इंतजार करता रहा मैडोना ऑफ़  द फ्यूचर बना सकूँ. अब तुम मुझसे सबक सीखो कि मैडोना बनाने के लिये काम करना बहुत जरूरी है. काम करते में ही मास्टरपीस की रचना संभव हो सकेगी. 

इसी तरह बाल्जाक की एक कहानी है द अननोन मास्टरपीस. उसमें भी एक कलाकार है. बाल्जाक जेम्स से एक कदम और आगे चले जाते हैं. वहाँ  भी यही दृश्य है. कलाकार पागल सा हो गया है. खुदकुशी कर लेता है. मरने के बाद उसके स्टूडियो से एक तस्वीर निकलती है--- आड़ी तिरछी लकीरें, कुछ समझ नहीं आता क्या है यह. उस कहानी में यह भी गुंजायश है कि शायद यह मास्टरपीस ही है शायद इसलिये ही किसी की समझ नहीं आ रही है. 

तो सार यह कि बैठना बहुत जरूरी है. आप चलते फिरते कहें कि इल्हाम आपको पकड़ लेगा तो नहीं, इल्हाम के लिये इबादत जरूरी है. रियाज़ जरूरी है. आमद के लिये आवुर्द जरूरी है.



किसी रचना में आमद की पहचान के क्या सूत्र हो सकते हैं
लेखक के लिये तो ज्यादा आसान है. उसे खुद ही पता चल जाता है कि ये आमद है या आवुर्द. आवुर्द में जिस किस्म का प्रयास करना पड़ता है, जिस किस्म की सायासता लानी पड़ती है वह सुखद नहीं होती. आप कन्ट्राइव कर रहे हैं, जोर दे रहे हैं, बाहरी चीजें भी आ जाती हैं, पाठक भी उसमें आ जायेगा कि उसे अच्छा लगेगा या नहीं. बेवजह जोर आजमायश होती है. बौद्धिक स्तर पर आप कुछ रौब खांटने की कोशिश कर सकते हैं. आप कृत्रिम हो जाते हैं और आपको पता भी चल जाता है कि आप कृत्रिम हैं. 

पाठक और आलोचक, अगर उत्कृष्ट हैं तो, वे भी कभी कभी जान जायेंगे. रचना में तरलता के स्तर को पहचान जायेगें कि ये शब्द सायास नहीं आये अपने आप उतरे या बरसे हैं. कभी कभी उनका ये अंदाजा गलत भी हो सकता है क्योंकि आर्ट लाइज इन कंसीलिंग द आर्ट ऑल्सो. कलाकार कितनी मेहनत करता है, उसे छुपा भी ले जाता है. 



क्या आप खुद अपनी कला, अपने आवुर्द लम्हे छुपाने का प्रयास करते हैं?
छुपाने का तो नहीं बल्कि उसे बाहर लाने का ही प्रयास होता है. उसे किसी खास तरीके से दिखाने का भी प्रयास नहीं होता. यह धारणा जो कुछ लोगों के मन में है कि जो भी कला या कलात्मकता पर ज्यादा जोर देता है वह चौंकाने की कोशिश भी करता है. चौंकाने या चमत्कार पैदा करने की कोशिश घटिया लेखक भी कर सकते हैं. कोशिश तो यही होती है कि रचना सहज दिखे. लेकिन सरलता या सहजता के भी कई पैमाने हो सकते हैं. हैंमिग्वे मसलन. उनकी महान रचनाओं में बड़े ऊँचे दर्जे की सादगी है. वह अनुपस्थिति की नहीं उपस्थिति की सादगी है. कई चीजों को बड़ी मेहनत से नकारने के बाद एक खास किस्म की उपस्थिति पैदा की उन्होंने अपने साहित्य में. उपमायें, विशेषण, रूपक जैसे तत्व जिनके बगैर मेरे जैसे लेखक नहीं चल पाते, वह चीजें उन्होंने हटायीं. 

एक सादगी विपन्नता की होती है कि कुछ है ही नहीं आपके पास. यह इकहरी सादगी है आप घटिया तरीके से सादा बनते हैं. 

सूत्र किसी भी चीज का ढूंढ़ना मुश्किल है.



आप उपन्यास, कहानियों का दूसरा-तीसरा ड्राफ्ट भी लिखते हैं. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि आपको पहला ड्राफ्ट कहीं बेहतर लगा हो. 
हाँ. कभी कभी. कुछ कहानियों के बारे में. उपन्यास के बारे में तो ऐसा कभी नहीं हुआ. मेरा तरीका ही ऐसा है कि कांट-छांट बड़ी जरूरी है. दूसरी बार भी ऐसी ही शिद्दत होती है. पहले से तो दूसरा लेखन बेहतर ही होता है. एक नौकरानी की डायरीमें भी ऐसा हुआ. 



एक बार में एक ही कृति पर काम करते हैं या एकाधिक चीजें चलती रहती हैं
शुरु शुरु में तो होता था कि एक चीज को खत्म करने के बाद ही दूसरी शुरु करता था. कम से कम पहला ड्राफ्ट खत्म किया, फिर उसे वक्त दिया ताकि दुबारा जब देखें कुछ समय बाद तो ताजा नजरों से देखें. यह चीज अब भी है. यह नहीं कि आज रात खत्म किया तो दूसरी रात फिर बैठ गये. उसके दौरान कोई और चीज शुरु कर लेते हैं जब आप तैयारी कर रहे होते हैं--- मानसिक या खुफिया तैयारी. लेकिन इधर यह भी हुआ है कि दो तीन चीजें साथ शुरु कर दीं. थोड़ा समय यह लिखी फिर वह. मायालोक जब लिख रहा था तब नर नारीभी शुरु कर दिया था. शुरु में ऐसा कम होता था अब अधिक होने लगा है. 



आपके जेहन में दोनों कृतियों के तार एक साथ घुमड़ते रहते हैं?
ह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों में से कोई तो बहुत गहरे, अचेतन, में घूम रही हो और चेतन में कोई दूसरी हो. लेकिन बिल्कुल शायद न मिटती हों क्योंकि अगर आप दो चीजों पर काम कर रहे हैं तो दोनों ही किसी न किसी रूप में चेतना के किसी स्तर, कोने में जरूर कुलबुलाती रहती हैं.



जीवन जीते वक्त क्या चीजों, घटनाओं में अपने लेखन के कुछ इंप्रैशंस, सूत्र टटोलते चलते हैं

सायास तो नहीं होता. मैं उन लोगों में से नहीं हॅूं कि मुझे फौरन ही पता चल जाये इसका इस्तेमाल कैसे होगा, वैसे बहुत से लोग, हेनरी जेम्स खुद एक मिसाल हैं, उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रक्रिया, अपने संदर्भों का विस्तृत जिक्र किया कि कौन सा उपन्यास उन्हें कहाँ सूझा. बहुत सी नोटबुक्स तो वे नष्ट कर गये थे लेकिन कुछ बच गयीं थीं. वे इन्हें भी नष्ट करना चाहते थे लेकिन बच गयीं थीं उनके कागजात में निकलीं थीं. वे फिर बाद में हार्वर्ड के प्रोफेसर मैट्यसन ने प्रकाशित करवायीं. उन्होंने हेनरी जेम्स पर बहुत बढ़िया किताब लिखी थी --- हेनरी जेम्सः द मेजर फेज़. उन्होंने उन डायरियों को संपादित किया. उन नोटबुक्स में कई रचनाओं के अलावाद अंबैसैडर्सका भी जिक्र था. उन्हें बहुत से आइडिया अपनी सामाजिक जिंदगी से सूझते थे. 

वे बार जाने के शौकीन थे. अपने जीवनकाल में ही वेमास्टरबन चुके थे. कई युवा लेखक उन्हें मास्टर बुलाते थे. वे हर किस्म की सोसायटी में, सिर्फ साहित्यिक समाज ही नहीं, जाते थे. क्लब में भी. वहाँ  कई बेवकूफ लोग भी होते थे जो उन्हें अपने बारे में कुछ न कुछ सुनाते रहते थे. उन चीजों का बीज उनके दिमाग में कभी-कभी पड़ जाता था. उसके लिये उन्होंने फ्रैंच लफ्ज donne (उपहार) इस्तेमाल किया. यह उपहार उनको मिलते थे सामाजिक जीवन से. घर आकर कभी कभी वे नोटबुक्स में उनको दर्ज कर लेते थे. बहुत सी कहानियां उन्होंने इस तरीके से भी लीं और उनमें जान डाल दी. 

मुझे ऐसा सौभाग्य नहीं हुआ. एक तो शायद मेरा सामाजिक जीवन इतनी ज्यादा विस्तृत नहीं रहा या स्वभाव से मैं कान खुले नहीं रखता. कुछ लोग करते हैं लेकिन मैं नहीं कर पाता. 




फिर आपको आइडिया कैसे आते हैं?
वेआते रहते हैं. कभी पढ़ते हुये, अपने में डुबकी लगाते हुये. किसी ने कहा हो कुछ उसके चेहरे से भी आते हैं. कभी कभी स्वप्न से भी आते हैं. भले ही हूबहू न सही. 



आपके यहाँ  एक बूढ़ा लेखक, अपने में डूबा, समाधि में बैठा, अपने को कौंचता-नौंचता, बार बार आता है. यह नायक खुद आपकी कितनी प्रतिछवि है? आपसे कितना अधिक जुड़ता है?
(हॅंसते हैं) जुड़ती तो है, काफी जुड़ती है. मैं योग वगैरा तो नहीं करता. प्रार्थना भी नहीं. नास्तिक हॅूं. लेकिन यह सवाल उठते रहते हैं. दरवाजा बंद कर लिखता हॅूं. मैं शोर में नहीं लिख सकता. कैफे में बैठ कर नहीं लिख सकता जैसे सार्त्र ने कई किताबें लिखीं. कोशिश तो होती है डूबने की, ऐसी कैफ़ियत हो जिसमें डूबने का मन हो. 



मैं आपसे एकदम परिचित नहीं हूँ, लेकिन आपके लिखे को पढ़ते वक्त मेरा मानने को मन होता है, शायद मैं गलत हो सकता हूँ, बिमल, दूसरा न कोई, दर्द ला दवाका नायक--- इन सभी में आपका अंश बहुत अधिक है. 
होगा. बोर्हेस की एक पैराबल है जिसमें वे कहते हैं कि जो भी उन्होंने लिखा है कविताओं में, गल्प में, वहाँ  जो चेहरा है उन्हीं का है. चेहरे का लफ्ज प्रयोग किया है उन्होंने. जब पाठक या आलोचक इसे फूहड़ ढंग से लेते हैं तो उसमें लेखक के जीवन के तथ्य ढॅूंढ़ने लगते हैं. तथ्य के स्तर पर नहीं लेकिन आत्मा के स्तर पर कुछ कलाकार अपने ही माध्यम से दूसरों तक पहुँचते हैं, दूसरों के माध्यम से अपने तक नहीं. 



मेरा भी यही कहना था. बतौर लेखक नहीं, बतौर इंसान आपके रूहानी सरोकार आपकी कृतियों में दिखते हैं . 
बेशक दिख सकते हैं. उस तरह के रूहानियत सरोकार भले न हो जैसे लोग मजारों या मंदिरों में जाते हैं. मैं तो नहीं जाता, नास्तिक हॅूं. लेकिन आध्यात्मिक शब्द से कोई परहेज नहीं मुझे. नास्तिक भी आध्यात्मिक हो सकता है. डायरियों में यह जिक्र बार-बार आता है कि एक ऐसा नास्तिक जिसकी ईश्वर से मुक्ति न हो पाये. वह इसी उलझन में रहे कि ईश्वर है या नहीं और अगर है तो यह क्यों नहीं कर सकता. शुरु शुरु में तो यही होता था कि या तो विज्ञान को मानो या ईश्वर. लेकिन अब विज्ञान को मानते हुये भी ईश्वर को मान सकते हो. और ईश्वर को मानते हुये विज्ञान को भी.

लेकिन मैं उस स्थिति में नहीं पहुंचा हॅूं. रूहानियत का यह रहस्य मुझे अचंभित करता रहता है कि न था मैं तो खुदा था मैं ना होता तो खुदा होता. डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता. 



II अनंत II
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क्या ऐसे अंतराल भी आते हैं जब आप लिख पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं.
हाँ, क्यों नहीं आते. आजकल आया हुआ है. 


लिख नहीं पा रहे?
लिख नहीं पा रहे या लिख नहीं रहे या सोच रहे हैं लिखा जाये या नहीं, जिसे अंग्रेजी मेंफैलो पीरियडकहते हैं. वे भी जरूरी हैं, काम करने के लिये काम न करना भी जरूरी है. जैसे जमीन को ख़ाली छोड़ा जाये तो उसकी उर्वरकता बढ़ती है. लेकिन इसमें खतरा यह भी हो सकता है कि आप कोई बहाना ढूंढ लें, उबर ही न पायें. ब्लॉक्स तो आते हैं, राइटर्स ब्लॉक. उसके कारण भी होते हैं जो अक्सर समझ नहीं आते. कई लोग तो, खासतौर पर बाहर के लेखक विश्लेषकों के पास चले जाते हैं ब्लॉक हटाने के लिये. बैकेट अपने आपको एनालायज ही कराते रहे.
ब्लॉक आते हैं, चले भी जाते हैं. 


इनके आने की तरह जाना भी अनायास होता है या सायास?
सायास तो नहीं. कभी कभी तो अगर अवधि ज्यादा लंबी हो जाये तो कष्ट तो होता है. इसलिये कुछ लोग कहते हैं अगर एक दिन भी नागा हो जाये और मैं भी मानता हॅूं कि एक नागा अपने साथ कई नागे लेकर आता है. कोशिश यही होनी चाहिये कि आप रोज बैठें. काम न हो तो भी. आप ऐसी कोई जगह बनायें जहाँ  काम की गुंजाइश बन सके. जगह भौतिक ही नहीं, मानसिक भी. इतनी एहतियात तो रखनी चाहिये. लेकिन एहतियात के बावजूद ब्लॉक भी आते हैं. 

लेकिन जिन लोगों ने बहुत अधिक और बहुत अच्छा लिखा है, बाल्जाक इसके सबसे महान उदाहरण हैं. उनकी मृत्यु उन्चास की उम्र में हो गयी थी. उन्होंने इतना उत्कृष्ट लिखा. जिस तरह वे लिखते रहे, जुआ खेलते रहे. उनके कई और शोशे थे, उलझनें थी. उन्हें कई और ऐब थे, व्यसन थे. दोस्तोयवस्की की तरह वे भी जुआ खेलते थे. 

टॉलस्टॉय भी इसकी बड़ी मिसाल हैं. वॉर एंडपीसउन्होंने सात साल में लिखा. कई ड्राफ्ट तैयार किये. 

कलाकारों में मार्शल दूशां. महान काम किया उन्होंने. दिशा बदल दी. लेकिन बरसों तक वे शतरंज खेलते रहे, लिखा कुछ नहीं. आर्ट डीलिंग करते रहे. पेंटिग्स की खरीद-फरोख्त में मिलने वाला कमीशन उनकी आजीविका का साधन था. 
उसके बरअक्स पिकासो हैं जो आखिर तक काम करते रहे. 
कोई एक पैमाना नहीं है किसी चीज का. 


आपकी भाषा में अजीब सी छटपटाहट, तड़प बसी रहती है. शब्द पृष्ठ को फाड़ बाहर आ जाना चाहते हैं. ये कितना आपके मिजाज का सूचक है?
मिजाज का तो पता नहीं कितना है, लेकिन.......... छटपटाहट है...... लेकिन....... दूसरा न कोईऔर दर्द ला दवा, इन दोनों मोनोलॉग में भी छटपटाहट के बावजूद उन चहेते संशयग्रस्त शब्दों के बावजूद जिनकी सूची दूसराकोईके अंत में दी गयी है…..इनके बावजूद कुछ और भी है. 
छटपटाहट का एक स्रोत तो नेति नेति की दृष्टि है. हर चीज पर संशय. प्रश्न. यह दृष्टि लेखन में प्रकट होती है कि आप दोटूक स्थापना नहीं कर पा रहे. जो स्थापना एक वाक्य में करते हैं उसे दूसरे वाक्य में मिटा देते हैं. ये भी नहीं, ये भी नहीं. हर चीज को शक की निगाह से देखना. चेतना अपने आप पर संदेह करती है. ऐसे लेखन का स्टाइल छटपटाता हुआ तो होगा ही. लेकिन आपकी मिसाल कि शब्द कागज को फाड़ बाहर आना चाहते हैं वह जरूरी नहीं है. छटपटाहट के बावजूद भी कहीं न कहीं एक लय आ जाती है. भले ही वह प्रलाप की लय हो या आलाप की या प्रार्थना की. छटपटाहट का दूसरा रुख एक अंतर्निहित लय भी है. दोनों चीजें एकदूसरे को शक्ति भी देती हैं और नियंत्रित भी करती हैं. एक चीज को पकड़ लेना गलत है.
आप दुबारा पढ़ें तो आपको लगेगा कि यह शैली छटपटाती हुई तो है, डिस्टर्ब भी करती है लेकिन कभी-कभी कहीं-कहीं यह एक स्थिरता भी हासिल कर लेती है. थोड़ी देर के लिये ही सही. बेशक वहाँ  जाकर बैठ नहीं जाती, हमेशा को नहीं रहती क्योंकि फिर से संदेह की प्रक्रिया शुरु हो जाती है. लेकिन इस तरह यह दो प्रक्रिया हैं. अगर दूसरी प्रक्रिया को नजरअंदाज करेंगे तो सिर्फ हिंसा ही नजर आयेगी उसे नियंत्रित करने वाली चीजें, आवाजें, या सही कहूँ तो खामोशियां सुनाई नहीं देगीं. इस शैली में खामोशी बहुत हैं, बेशक वो चैन की खामोशी न हो, चीखती हुई खामोशी हो. लेकिन खामोशी मेरी स्टाइल का एक तत्व है.

अमरीकी आलोचक इहाब हसन ने बड़ी अच्छी किताब लिखी है द लिट्रेचर ऑफ़  साइलेंस.आधी किताब हेनरी मिलर पर है, आधी सैमुअल बैकेट पर. वे यह स्थापित करते हैं कि ये दोनों लेखक खामोशी तक पहुँचने का प्रयास करते हैं. मिलर चिल्लाते हुये शब्दों से. 

मैं यह नहीं कर रहा कि मैं हेनरी मिलर के रास्ते पर चल रहा हूँ, नहीं मैं उस पर नहीं चल सकता. मिलर की सी वाक् शक्ति मुझमें नहीं है. 

काला कोलाज में भी कई खंड हैं. शुरु के ही हैं शायद. लाल तमन्नाशायद. मेरे दार्शनिक मित्र दयाकृष्ण लाठ ने दर्द ला दवा पर एक सेमिनार किया था जयपुर विश्वविद्यालय में. उनका मानना था कि यह एक महान दार्शनिक उपन्यास है. उन्होंनेकाला कोलाज पढ़कर भी कहा कि इसके लाल तमन्नाअंश में मैंने यह कल्पना करने की कोशिश की है कि सृष्टि कैसे उपजी, जबकि मेरे जेहन में यह नहीं था. 

उसमें छटपटाहट नहीं है, जबकि होनी चाहिये थी आखिर लाल लहू का रंग है. उसमें कोशिश यह थी कि आँख  खुलती है तो आँख  के सामने क्या दिखाई देता है. बिल्कुल अलग बैठी कोई चेतना धरती को देख रही है इसलिये शायद दया को लगा कि कोई तटस्थ चेतना यहाँ रची जा रही है. तो कई ऐसी चीजें हैं जो डिस्टर्ब करती हुई भी शांत रस में डूबने की कोशिश करती हैं. 

भारतीय दर्शन के प्रमुख विषयों से वाकिफ तो हॅूं—- अद्वैत, सगुण, निर्गुण. कर्म सिद्धांत 
मुझे प्रभावित करता है लेकिन झुंझलाहट भी उठती है. मार्क्स से भी प्रभावित रहा हॅूं. दयाकृष्ण से कई बार बात होती थी कि कर्म को अगर मान लिया जाये, और कर्म को मानने के कई कारण हो सकते हैं, तो altruism की कोई गुंजाइश नहीं रहती. क्योंकि विशुद्ध altruism किसी अन्य को ही केंद्रित होता है खुद अपने को नहीं. जबकि आपके प्रत्येक कर्म का फल खुद आपको ही भोगना पड़ता है. ऐसे में किसी चीज की कोई गुंजाइश नहीं रहती. अतीत पहले से ही तय है.

कर्म सिद्धांत आकर्षित इसलिये करता है कि जिन्होंने इसे गढ़ा, उन्होंने इसे समझने की कोशिश की होगी कि यह विविधता क्यों है, दुख, सुख इत्यादि में फर्क क्यों है.



क्या आप अपने लेखन के जरिये किसी बड़े सत्य को पाना चाहते हैं? किन्हीं बड़े मूल्यों की तलाश आपको लेखन की ओर ले जाती है?
मेरे जैसे संशयग्रस्त लेखन के जरिये उसे खोजा-खोदा तो जा सकता है, पाया नहीं जा सकता. तहकीद-तलाश की जा सकती है. पाने के लिये आस्था जरूरी है. लीप ऑफ़  फेथ. पाने के लिये अपने संशय को स्थगित करना जरूरी है. मैं संशय के माध्यम से सवाल उठा पाता हॅूं, हासिल नहीं कर पाता. पाने के लिये किसी न किसी अवस्था पर यह कहना पड़ता है कि कुछ चीजें जानी नहीं जा सकतीं.


संशय से शुरु कर आप संशय तक ही पहुँच पाते हैं या बीच में कहीं कुछ हासिल होता भी महसूस होता है?
संशय खुद ही एक उपलब्धि है. यह कुछ बड़े ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है भले ही उनके उत्तर नहीं दे पाता. सवाल सही होने चाहिये जवाब मिले न मिले. कलाकार, खासकर आधुनिक कलाकार के लिये यही काफी है कि वह लगातार सवाल उठाता है. गलत जवाब या ऐसे जवाब जिनमें गलती की संभावना रहती है स्वीकार कर लेने से कृत्रिम सी शांति मिलती है उससे बचना बहुत जरूरी है. 


कौन सी चीजें रचनाकार के लिये एकदम घातक होती हैं, जिनसे उसे बचना चाहिये
किसी सच्चे रचनाकार के लिये कोई भी चीज घातक नहीं होती क्योंकि वह भी उसके अनुभव का ही हिस्सा होती है. वह उनका भी इस्तेमाल कर सकता है, उनसे भी कुछ निकाल सकता है. बड़ा रचनाकार तो वही है जिसके लिये कोई भी चीज, अनुभव अप्रासंगिक न हो. सभी कुछ उसके काम आ सके. लेकिन फिर यहाँ  अनिर्लिप्तता भी चाहिये, क्योंकि अगर वह सिर्फ भोक्ता बन कर रह गया तो जो निस्संगता चाहिये उस भोग को रचनात्मक रूप देने के लिये वह फिर संभव नहीं हो पायेगा. निस्संगता के क्षण तो उसे चाहिये ही क्योंकि यही उसकी बुनियाद है. 


क्या आपने ऐसा महसूस किया है कि आप महज भोक्ता बनकर रह गये हों, निस्संगता बोध खत्म होता जा रहा हो? आप किसी दूसरी दिशा में खिंचे चले जा रहे हों, फिर आप सभी चीजों को पीछे छोड़ सहमे से वापस लौटे हों.
ई बार होता है ऐसा. कई बार आप छूट भी देते हैं अपने को. छूट कई बार जायज भी है नहीं तो आप संसार छोड़ ही देंगे. बड़े से बड़े संत, महात्मा भी हर वक्त निस्संग नहीं रहते थे, महात्मा गांधी भी नहीं. अनासक्ति आदर्श तो होती है लेकिन व्यवहार में पूरी तरह कहाँ आ पाती है. अगर आप गृहस्थ हैं तो आसक्ति से बच नहीं सकते. 

इसलिये ऐसा भी कहते हैं कि रचना के लम्हों में ही आप पूरी तरह अनासक्त हो पाते हैं. इसलिये कृति कृतिकार से बड़ी होती है. रचे जाने के लम्हों में कृतिकार को उठा लेती है. कृतिकार में कई खामियां हो सकती हैं--- जीने का, परिवार का मोह. कलाकार का द्वंद्व. 



यह द्वंद्व आपको कितना विचलित-विघटित करता है? वे कौन सी चीजें हैं जो आपको खींचती हैं?
ई चीजें हैं. सबसे पहले तो ईगो ही खींचता है, जो जिंदा रहने के लिये जरूरी भी है. बच्चों का मोह, सैक्स का मोह. यादों का, कीर्ति का मोह. इन पर कितना ही संशय कर लो लेकिन यह खींचते हैं. इनसे फिर दूर जाने के लिये कड़ा नियंत्रण करना पड़ता है. कुर्बानी देनी पड़ती है. दीदा दानिस्ता कोई ऐसी बेईमानी न की जाये. आप रोज अपने से प्रश्न करते हैं कोई समझौता तो नहीं कर रहे, और उन्हें रोकने के लिये क्या प्रयत्न कर रहे हैं. झूठ बोल रहे हैं तो क्यों बोल रहे हैं. इस प्रक्रिया में आप कई बार असामाजिक भी हो जाते हैं, हर किसी से बात भी नहीं करते. 

यह भी कोशिश रहती है कि आप सैल्फ राइचस न हो जायें. आपको यह गुमान न हो जाये कि आप सब दोषों से रहित हैं. गलती सबसे होती है और झूठ भी सबके भीतर है. 
सैल्फ-राइचस हो जाना, यह गुमान कि वह सर्वगुण संपन्न है रचनाकार के लिये बहुत बड़ा खतरा है. 


क्या यह खतरा आपके सामने आ खड़ा हुआ है कि आप इस गुमान में जीने लगे हों आप किसी शिखर हैं, बाकी लोग बहुत पीछे छूट गये
सा तो नहीं हुआ कभी. मुझे सबसे ज्यादा संशय तो खुद अपने पर ही होता है. बल्कि अपने कुछ दोस्तों, खासतौर पर निर्मल से, मुझे यह शिकायत होने लगी थी कि वे सैल्फ-राइचस होते जा रहे थे. निर्मल में शायद यह प्रवृत्ति शुरु में भी होगी लेकिन बाद में यह प्रबल होती गयी थी. उनके आखिरी दिनों में दो चीजों ने उन्हें बहुत गिराया, अपने पद से और मेरी नजर से, कि उनके जो दोष दूसरों को साफ दिखाई देते थे उनसे वे बेखबर रहने लगे थे. दूसरों की दृष्टि और विचारों में दोष निकालते हुये वे ऐसे इंसान की मुद्रा बना लेते थे जिसे यह शक जरा भी न हो कि उसमें भी ये दोष हो सकते हैं. जब वे दूसरों को ईमानदारी का उपदेश देने लगते थे तो अपनी बेईमानी को भूल जाते थे.  


लेखक मित्रों का संबंध. वे शुरु में तो अपनी रचनायें एकदूसरे को दिखाते हैं बाद में लेकिन कतराने लगते हैं. यह इसलिये भी कि आपने निर्मल और अपनी मित्रता के संदर्भ में इस खिंचाव कहीं जिक्र किया है.
शुरु-शुरु में जाहिर है आप गोष्ठियों में जाते हैं. एक फोरम होती थी करोल बाग में हम अपनी रचनायें पढ़ते थे-- मैं, निर्मल, भीष्म, देवेंद्र इस्सर, महेंद्र भल्ला, लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि हर रचना एकदूसरे को सुनाते थे. लेखकों की मित्रता में बीतते वक्त के साथ विकार आने लगते हैं. भारत में ही नहीं बाहर भी. काम्यू सार्त्र का झगड़ा तो मशहूर है. वैचारिक मतभेद, पर्सनल बातें भी आ जाती हैं. शुरुआत की सी घनिष्ठता आखिर के दिनों में नहीं रहती. जैनेंद्र और अज्ञेय में नहीं थी. उसका कुछ न कुछ अवशेष लेकिन आखिर तक भी रहता है जैसा निर्मल और मेरे साथ रहा. एक खास किस्म की निकटता थी जो किसी और के साथ उसकी भी शायद न थी, मेरी भी नहीं. लेकिन दूरियां भी थीं. बीच में कुछ बातें आने लगती हैं. ईगो कह लीजिये. अपना काम भी एकदूसरे को नहीं दिखाते.
कुछ लोग थोड़े गोपनीय भी होते हैं. मैं नहीं दिखाता हूँ  जब तक फिनिश्ड न हो. 


राय लेते हैं अपनी रचनाओं पर
हीं. मैं अपना कड़ा आलोचक हूँ. नहीं दिखाता किसी को. निर्मल ने भी राय ली हो तो मुझसे नहीं किसी और से ली हो राय. लिखने या छपने के बाद हाँ  पढ़ते थे एक दूसरे को लेकिन फिर वो भी कम होता गया. 


आपने एकदूसरे को पढ़ना ही बंद कर दिया?
हीं, मैं तो पढ़ता रहा लेकिन मेरा ख्याल है निर्मल ने बंद कर दिया.


हो सकता है वे भी आपको पढ़ते रहे हों लेकिन बताया नहीं हो आपको.
हाँ, हो सकता है यह भी. 
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(कृष्ण बलदेव वैद से यह संवाद उनके वसंत कुञ्ज के घर २०१० की जनवरी में हुआ था.)

abharwdaj@gmail

कथा-गाथा : दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी :अम्बर पाण्डेय

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अम्बर पाण्डेय की कहानी ‘४७१४ नहीं बल्कि ४७११’ एक माह पूर्व समालोचन पर प्रकाशित हुई थी, अब उनकी दूसरी कहानी ‘दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी’ प्रस्तुत है. कभी उदय प्रकाश के विषय में नामवर सिंह ने कहा था कि कवि अच्छे कथाकार होते हैं. क्या यही बात अम्बर पाण्डेय के विषय में कही जा सकती है ?
  
‘दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी’ स्वाधीनता पूर्व भारत की यहूदी स्त्री और कोंकणी पंडित पुरुष के सम्पर्क की कथा तो है ही यह राष्ट्र, अस्मिता और हिंसा जैसे प्रश्नों से भी उलझती कथा है. इसमें एक पात्र के रूप में सावरकर भी उपस्थित हैं.

इतिहास, वर्तमान और कल्पना का पठनीय वृत्तांत.





दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी                      

अम्बर पाण्डेय



(To destroy a man is difficult, almost as difficult as to create one.)


खंडवा से बम्बई आते हुए मेरे नाना त्र्यम्बक दिगम्बर काणे की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई. मृत्यु रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में किसी अंग्रेज़ बुढ़िया की गोद में हुई. गर्भ का आठवाँ महीना था और प्रसव रेलगाड़ी में ही हो गया. अपनी पत्नी के गर्भ के आठवें महीने में मेरे नाना को बम्बई जाने की क्या पड़ी? वह ब्रितानी सरकार के आबकारी विभाग में बड़े अफ़सर थे और बम्बई में तैनात थे. बरसात में अपने मातापिता से मिलने महू आए थे जहाँ उनके पिता ब्रितानी सेना में अफ़सर थे. इस तरह मैं इज़ायश हिलेल (IZAJASZA HILLEL) हिंदुस्तान के चंद ख़ानदानी अफ़सरों के परिवार से हूँ. उस समय अनाज, शक्कर, सिनेमा, सिगरेट-शराब और जनता के मतलब की लगभग सभी चीज़ों पर आबकारी विभाग टैक्स वसूलता था. इस तरह मेरे नाना ने बहुत माल बनाया. विशुद्ध कोंकणी पंडितों के परिवार में जन्मे मेरे नाना का बचपन मितव्ययिता में बीता था और उन्हें रुपया खर्चने का कोई अभ्यास न था इसलिए उनके पास बहुत रुपया इकट्ठा हो गया.

उन्होंने अपनी माँ के लिए हीरे के बुंदे मद्रास से मँगवाए और उनकी बीवी इसपर भड़क गई. सोलह साल की कन्या जिसे अरबी के पत्ते और दो रोटी के अलावा गोवा में खाने को कुछ नहीं मिलता था वह उनकी माँ के लिए ख़रीदे हीरों पर आपत्ति करे यह नाना को बर्दाश्त न था. उन्होंने तुरंत अपनी पत्नी को उसकी विधवा माँ के पास कोंकण भेजने का निर्णय कर लिया और इसलिए आठ मास की गर्भवती को अपने मातापिता के विरोध के बावजूद वह महू से लेकर बम्बई की ओर निकले. गर्भवती भाग्यवान थी इसलिए रास्ते में ही मर गई और नाना का पहला बच्चा तो और भी अधिक भाग्यवान था कि उसका जन्म ही मृतक के रूप में हुआ. नाना की अपनी पहली पत्नी के प्रति घृणा का इस बात से पता चलता है कि उन्होंने अपनी यात्रा बीच में रोकी तक नहीं और अपनी पत्नी का मृत शरीर लेकर बम्बई आए और यहाँ उसका अंतिम संस्कार किया.

बच्चे का अलबत्ता उन्होंने अंतिम संस्कार किसी स्टेशन पर ही उसे गाड़कर कर दिया था. उस बच्चे पर उन्होंने अंग्रेज़ी में रास्ते में एक शोकगीत भी लिखा जिसका अनुवाद यहाँ लिखा जाना ज़रूरी नहीं है. अपने मातापिता को उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे की मृत्यु का टेलीग्राम तक नहीं किया कि वह दस दिन का सूतक मना सके. बाद के दिनों में अक्सर उन्हें काला अंग्रेज़हो जाने का ताना दिया जाता था. मेरे नाना काले अंग्रेज़ नहीं थे और अद्वैत दर्शन का उन्हें बहुत ज्ञान था. वर्षों बाद सन १९६६ के आसपास खेतवाड़ी के महात्मा स्वामी निसर्गदत्त महाराज के यहाँ उनका उठना बैठना था हालाँकि पूछने पर उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि स्वामी निसर्गदत्त महाराज उनके गुरु है.

फ़िलहाल बात सन १९४१ की है जब बम्बई के शिवाजी पार्क में मेरे नाना का निवासस्थान था. यदि उनके मातापिता को नाना की पत्नी की मृत्यु का समाचार मिलता तो वह दूसरे विवाह की व्यवस्था करते मगर उन्हें समाचार केवल मृत बालक के जन्म (मात्र एक दिन का सूतक) का ही मिला इसलिए वह निश्चिन्त रहे कि दूसरी सन्तान शीघ्र होगी और उनका बेटा कुशल है. इधर नाना मात्र तीस वर्ष की वय में एकाकी जीवन व्यतीत करने लगे. उनकी पहली पत्नी जो उनसे चौदह वर्ष छोटी थी और मर चुकी थी उसके चित्र उन्होंने जला दिए थे और उसके समान को अपने चौकीदार और मालियों को बाँट दिया था. उसके गहने गला दिए और ठोस सोने का बताशा सा बनवा लिया था.

विनायक दामोदर सावरकर उसी वर्ष रत्नागिरि से बम्बई आए थे और मेरे नाना के पड़ौस ही में उनका भी निवासस्थान था. मेरे नाना सावरकर के यहाँ अक्सर ही उठनेबैठने लगे. नाना की तरह ही सावरकर के अंदर भी जगत को लेकर हताशावाद और कटुता थी. सावरकर को अंदर ही अंदर लगता था कि सरकार सर्वसत्तावादी (totalitarian) है और यहाँ किसी व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित नहीं. वह नास्तिक है और अध्यात्म उन्हें शान्ति दे ऐसी भी कोई सम्भावना नहीं”, गणेश गोडसे ने एक बार नाना से कहा था. सावरकर काला पानी के कारावास के प्रसंग ही अधिकतर सुनाते कि कैसे हिंदू राजनीतिक बंदियों के ऊपर बलूच अपराधियों को गार्ड बनाकर रखा जाता. कैसे वह हिंदू पुरुषों का बलात्कार करते क्योंकि औरतें वहाँ थी ही नहीं, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ देतें और कलमा पढ़ाकर प्रतिमाह दोतीन हिंदुओं को मुसलमान बनाते. मेरे नाना सावरकर से लगभग तीस वर्ष छोटे थे मगर सावरकर उन्हें अपना मित्र मानते और प्रति रविवार उन्हें पूरणपोली खाने ज़रूर बुलाते. सावरकर उनके विवाह को लेकर भी चिंतित रहते थे और हमेशा कोई न कोई सुयोग्य चितपावन कन्या के प्रस्ताव नाना के लिए बताते रहते.

नाना किसी लड़की को पसंद न करते. सब में कोई न कोई खोट निकाल देते और इससे यमुना वहिनी (सावरकर की पत्नी) को बहुत ठेस पहुँचती. बात यह थी कि पचीस वर्षीय नाना नौ-दस वर्ष की एक लड़की के प्रेम में पड़ चुके थे. बार बार मिलों की जाँच के बहाने भायखळा जाते और माहगन दविड कनिसेट (सिनेगॉग) के बाहर बैठे रहते. वह लड़की वही कहीं रखती थी. कई बार उन्हें वह लड़की दिख जाती, सिनेगॉग से आते जाते तब वह पूरा दिन बेचैन रहते. वह चाहते थे कि वह लड़की उन्हें कभी न दिखे, वह लड़की रेलगाड़ी के नीचे आकर मर जाए या उसे टीबी हो जाए. किसी भी प्रकार से वह अपने प्रेम से मुक्ति चाहते थे. वह इक्साइज़ विभाग में बड़े अफसर थे और उन्हें यों प्रेम में पड़ना शोभा न देता था. वह लड़की बम्बई की उमस में भी एक काला ओवरकोट पहने आती जाती. वह बहुत दुबली थी, उसकी तोतापरी नाक लम्बी और चक्कू की तरह तीखी और आँखें धँसी हुई थी. रंग अजीब था, ऐसा रंग हिंदुओं में नहीं मिलता. वह चाफे की फूल के अंदरूनी भाग की तरह एकदम पीला था. लड़की के बाल बेकार थे. रूखे-सूखे इतने कि नाना को लगता ख़ूब सारा खोपरे का तेल लगाकर उसके बालों को शिकाकाई अरीठे से धोए.

एक बार अपने क्लर्क से छुपकर वह माहगन दविद कनिसेट पहुँचे तब लड़की से बात करने का अवसर उन्हें मिल ही गया. उस दिन क्रीम लगाकर उन्होंने बाल पीछे चिपका बनाए हुए थे. वह सफ़ेद बुशर्ट, नई कलफ़ दी कॉलर, काली पतलून, काले जूते और काले इतालवी कपड़े का कोट पहने हुए थे. उनकी सुबह ही छिली दाढ़ी से इतालवी आफ़्टरशेव की सुगंध उठ रही थी. उस दिन उनमें बहुत आत्मविश्वास था. उन्होंने सिगरेट बुझाई और लड़की से बात करने की ठान ली. लड़की काले ओवरकोट में पसीना पसीना अपना बस्ता ढोती स्कूल से लौटकर माहगन दविद कनिसेट के पीछे बने अपने घर को जाती थी. तुम्हें गरमी नहीं लगती?” नाना से उससे पूछा.

लड़की ने मुँह बिचकाकर नाना को देखा फिर उनके कपड़े देखकर भाँप गई कि कोई अफ़सर या सेठ है. लड़की ने ग़लत मराठी में जवाब दिया, “आप कौन हुए?” यहूदियों में कुटैव होता है कि प्रश्न के उत्तर में प्रश्न करते है. नाना चिढ़ें. जवाब देने के बजाय उलटे सवाल. फिर देखा लड़की के चौड़े, सुन्दर माथे पर पसीने की बूँदें झलमला रही थी. उन्हें अपने पिता की बात याद आई कि चौड़े माथे की लड़कियाँ जल्दी ही विधवा हो जाती है. नाना पलटें और लौट आए. ताँगा तैयार था. क्लर्क उनका इंतज़ार ही कर रहा था.

मन को जैसे तैसे सम्भाला और यहूदियों के बारे में पढ़ते वाचनालय में बैठे रहते. प्रेम ऐसा तीव्र था कि दफ़्तर के कामकाज में हो रही हानि की भी उन्हें चिन्ता न थी. तमाम अंग्रेज़ी और जर्मन किताबें पढ़कर वह इस नतीजे पर पहुँचे कि यहूदियों और ब्राह्मणों में बहुत सी समानताएँ है. ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में दोनों की ही धारणाएँ समान है. बलि देने की लम्बी, ब्यौरेवार रीतियाँ दोनों में है. धर्मशास्त्र और नियम की लम्बी लम्बी टीकाएँ पंडित भी करते है और तालमूद में बेबीलोन व येरूशलम के रैबाई भी. सबसे बड़ी बात कि यहूदी और ब्राह्मणों में किसी भी शास्त्र या शब्द के असंख्य अर्थ हो सकते है, मनुष्य के बस में केवल टीकाएँ करना ही है. साहित्यनिर्माण केवल ईश्वर के वश की बात है जिसका दर्शन हिंदुओं में ऋषि और यहूदियों में पैग़म्बर करते है. दोनों ही धर्मों में त्रिकाल संध्या का विधान भी समान है. यह सब जान लेने के बाद भी एक यहूदन से लग्न करना क्या उचित होता? वह तो गोमांसभक्षण भी करती होगी. मूर्तिपूजा से उसे घृणा होगी. भाषा भी समान नहीं. यह सब सोच सोचकर नाना का महीने भर में ही वज़न एक चौथाई घट गया. सावरकर के यहाँ आनाजाना भी बंद था. वह बुलाते तो भी कोई बहाना बनाकर न जाते. किताबें पढ़पढ़कर आँखें पीली पड़ गई और युवावस्था में ही कनपटी के बाल पक गए. प्रेम के इतने शारीरिक दुष्प्रभाव हो सकते है इसकी नाना ने कभी कल्पना भी न की थी. बैठे बैठे जो कुर्सी से उठकर खड़े होते तो चक्कर आते और आँखों के आगे अंधेरी छा जाती. गाल धँस गए थे और आँखों में दो विचित्र से अंगारे चमकते जो अक्सर बहुत बीमार, मरणशैया पर पड़े युवाओं और कट्टर धार्मिक लोगों की ही आँखों में दिखते है.

सावरकर उस दिन नाना पर बहुत अधिक कुपित थे, “उस कन्या का गला दबाने की तुम्हें क्यों सूझी?” सफ़ेद धोती और सफ़ेद बुशर्ट पहने वह लोहे के पलंग पर लेटे हुए थे. दो दिनों से सावरकर ने हजामत नहीं बनाई थी जो कि नाना के लिए एक अद्भुत घटना थी. तुम जानते हो तुम्हारी नौकरी जा सकती है. शासन यदि इस विषय के बीच पड़ता है तो इसका परिणाम क्या होगा तुम अच्छे से जानते हो.” “मेरी पत्नी नहीं है. मेरी कोई संतान नहीं है. क्यों न मैं त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ूँ!नाना पर उन दिनों साहित्य से अधिक अख़बारों का प्रभाव था. अपने लम्बे हाथ उछाल उछालकर वह ऐसे उल्लास से बात कर रहे थे कि सावरकर का हृदय पसीज गया हालाँकि वह जानते थे कि नाना को सरकारी अफ़सरी में ही रहना चाहिए. उस दिन मेरा शरीर और मन मेरे वश में नहीं था. पिछले तीन चार महीनों से मेरा अधिकांश समय यहूदियों के धर्मशास्त्र और रीतिरिवाजों के बारे में पढ़ने में जाता था.

स्वामी दयानंद के अनुसार तो ब्राह्मण और यहूदी एक ही वंशानुक्रम की दो धाराएँ है. मैं किसी भी तरह स्वयं को आश्वस्त कर लेना चाहता था कि यहूदियों और ब्राह्मणों में स्थान को छोड़ कोई भेद नहीं है. बहुत सीमा तक उपलब्ध साहित्य ने मुझे आश्वस्त कर भी दिया मगर गोमांसभक्षण करनेवाली स्त्री लाकर उससे अपने कुलदेवत श्री व्याडेश्वर का नेवैद्य बनवाऊँ इतना आधुनिक नहीं हो सकता है आपका यह त्र्यम्बक दिगम्बर काणे. दफ़्तर की एक बैठक निपटाकर रिक्शा ले मैं उस दिन अचानक भायखळा चल पड़ा. वर्षा हो रही थी इसीलिए सिनेगॉग के अंदर ही एक बेंच पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा. बहुत देर बाद वह अन्दर के कमरे से निकलकर पीछे गली की ओर जाने लगी. मैंने पॉकिट से उसे देने के लिए मावा केक निकाला. हाथ आगे बढ़ाकर उसे दिया तो वह बोली, “कोशर है?” मैंने उसका गला पकड़ लिया और दबाने लगा, “गोमांस का सेवन करनेवाली तू मोशेची कुत्री, गाय के शुद्ध दुग्ध और देसी घी से बने केक के लिए पूछती है- कोशर तो है?”

वह अचानक भूमि पर गिर पड़ी. मुझे लगा मर गई इसलिए वहाँ से भाग आया. फिर कन्याहंता होकर जीने से अच्छा है आत्महंता होना इसलिए फाँसी लगाने का बीते कुछ दिनों से सोच ही रहा था कि मन किया पहले आपसे मिल लूँ.” “शाओना हिलेल जीवित है.सावरकर कहकर मुस्कुराये. अच्छा तो उस गोमांसभक्षिणी का नाम शाओना हिलेल है, नाना ने मन में सबसे पहले यही विचार आया. हाथ की कॉपी सावरकर ने एक तरफ़ रखी और क़लम बुशर्ट में खोंसते हुए बात आगे बढ़ाई, “गाय घास भी खाती रहती है और मलत्याग भी करती रहती है. थकने पर अपने ही मूत्र और मल में पसरकर न केवल बैठ जाती है बल्कि पूँछ मारमारकर वह मलमूत्र से अपना पूरा शरीर गंदा कर लेती है. यह कैसा दिव्यजीव है जिसे स्वच्छता तक का ज्ञान नहीं और इस गौमाता का मूत्र और मल पवित्र करनेवाला और बाबासाहेब आम्बेडकर की छाया तक अशुद्ध करनेवाली है. ऐसा माननेवाले मनुष्यों की बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो चुकी है, इसका अनुमान तुम स्वयं ही लगा सकते हो, त्र्यम्बक. घर जाकर विश्राम करो और विचार करो. यदि उसी लड़की से विवाह करना है तो निर्णय करके मुझे बताओ. मैं सब व्यवस्था कर दूँगा.” “उससे विवाह करने के अलावा जीवित रहने के लिए मेरे पास कोई और चारा नहीं, भाऊनाना के मुँह से अनायास यह शब्द निकले और वह मुँह झुकाए ही बैठे रहे. संकोच के कारण वह घर जाने के लिए उठने का भी साहस नहीं पा रहे थे.

यमुना वहिनी थालीपीठ और ठेंचा ले आई, “कोई बिस्तर झाड़ने और अलमारी में कपड़े अबेरनेवाली तो आएगी अब. धर्म जाति कोई हो”, उन्होंने चौके से सब बात सुन ली थी. थालीपीठ देखते ही सावरकर और नाना संसार को भूल उसपर टूट पड़े. दोनों इतनी जल्दी खा रहे थे कि यमुना वहिनी को एक थालीपीठ के दो भाग करके दोनों को देना पड़ रहा था, “तुम्हारी यहूदन यह सब न बना सकेगी. प्रातः-सन्ध्या अंडे उबालकर देगीयमुना वहिनी ने ताना कसा. सावरकर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, “उसके हाथ का गोमांस छोड़ सब खा लेगा त्र्यम्बक, कालकूट भी पी लेगा उसके हाथ का दिया.खा-पीकर नाना लौट आए क्योंकि हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं और नेताओं की भीड़ इकट्ठा होना आरम्भ हो चुका था.

मुस्लिम लीग के साथ मिलकर हिंदू महासभा बंगाल आदि राज्यों में सरकार बनाई थी. नाना के लिए सावरकर का यह निर्णय बहुत विचित्र था. एक ओर वह भारत की पुण्यभू को हिंदुओं की धरती बताते थे तो दूसरी ओर मुस्लिम लीग के साथ मिलकर राज्यसरकारें बनाते. प्रेम में कोई विचार बहुत देर तक टिकता नहीं. नाना सोचने लगे कि उस यहूदी लड़की के साथ जीवन कैसा होगा और सबसे बढ़कर चितपावनसमाज इस लग्न को अपनी जाति से खोई कन्या का अपनी जाति में पुनर्प्रवेश मानेगा या नाना को जातिच्युत होना पड़ेगा.

कुछ दिनों बाद एक रविवार सावरकर को दोपहर कुछ ख़ाली समय मिला. अन्य दिनों के अपेक्षा घर में भीड़ न थी. उन्होंने नाना को बुलाया. क्यों रे, त्र्यम्बक्या आजकल तुझे अपने भाऊ से मिलने का मन नहीं करता?” वह बाहर पोर्च में भूमि पर अख़बार फैलाये उसपर झुके बैठे थे. नाना वहीं भूमि पर बैठने लगे तो सावरकर ने रोका और अंदर जाने का संकेत किया. पीछे पीछे ख़ुद भी आए. सामने के आदमक़द दर्पण जो यमुना वहिनी ने रखा था उस में नाना के प्रतिबिम्ब को देखकर सावरकर ने कहा, “हजामत बनाकर नहीं आया. जा, हजामत बनाकर और कोट पहनकर आ. मोरिस फ्रईडमन से मिलने चलना है.” “वह कौन है?” नाना ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पूछा. पोलंड का प्राण बचाकर आया यहूदी है और अब महर्षि रमण से प्रभावित होकर हिंदू हो गया है. नया नाम रखा है  स्वामी भारतानन्द. तेरे प्रिय गांधी का भी अनुयायी है. शाओना हिलेल के सम्बंध में उसी से बात करना होगी.

नाना ने उस दिन साबुन का उपयोग न कर जैतून का बहुत सारा तेल गालों पर लगाकर हजामत बनाई. थोड़ा सा इतालवी आफ़्टरशेव लगाया और अपना सबसे अच्छी काट का कोट और महँगे जूते पहनकर मोरिस फ्रईडमन से मिलने निकल पड़े. वे लोग नेपियन सी रोड स्थित औंध राजघराने के बंगले पर पहुँचे जहाँ मोरिस फ्रईडमन उर्फ़ स्वामी भारतानंद ठहरे हुए थे. बाहर बग़ीचे में ढेरों प्रकार के गुलाब ही गुलाब खिले हुए थे और एक बलिष्ठ बूढ़ा लंगोट कसे कोई अतिजटिल योगासन लगा रहा था. वह रहेनाना ने सावरकर से कहा. अरे वह तो औंधनरेश भवनराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि है. उनका सूर्यनमस्कार नामक योगविधि के अविष्कार का दावा है. नमस्कार, हिज़ हायनेस, कृपया इस युवक को सूर्यनमस्कार सिखाने का कष्ट करें. इसकी बुद्धि प्रेम नामक रोग ने नष्ट कर दी हैसावरकर ने हाथ ऊँचे करके औंध नरेश को नमस्कार किया.

यू, यंगमैन, कम हियरऔंध नरेश का कहा नाना टाल न सके और नाना को योगासन सीखने जाना ही पड़ा. सावरकर अंदर ही पौन घण्टा तक बात करते रहे. जब सावरकर बाहर आए तो नाना को देखकर गगनभेदी अट्टहास करने लगे. नाना लाल लंगोट में गरुड़ासन में खड़े पसीना पसीना हो रहे थे. इतालवी आफ़्टरशेव की जगह पसीने ने ले ली और कोट, जूते पता नहीं कहाँ थे. सावरकर ने संकेत ने नाना को बुलाया. सावरकर के साथ अड़तीस-चालीस वर्षीय एक दुबलापतला सुदर्शन पुरुष खड़ा था. उसने गांधी की तरह गोल फ़्रेम का चश्मा लगाया था और वह सफ़ेद पूरी बाँहों की क़मीज़ पहने था जिसकी बाँहें अंग्रेज़ी फ़िल्मों के नायकों की तरह ऊपर चढ़ी हुई थी. नाना को बहुत संकोच हुआ. वह पसीना पसीना लाल लंगोट कसे वहाँ आए. उन्हें लगा इस अवस्था में प्रथम भेंट ने उनके विवाहप्रस्ताव स्वीकृत होने की सम्भावना शून्यप्रायः कर दी थी. जब नाना ने हाथ जोड़कर मोरिस फ़्रईडमन को नमस्कार किया तो देखा सावरकर नाना को मुग्ध देखे जा रहे थे, “अरे त्र्यम्बक तेरा शरीर तो बहुत सुगठित है. यह स्वामी भारतानंद जी है इनके चरणस्पर्श करो.लाल लंगोट कसे कोई युवा पुरुष मोरिस फ़्रईडमन के चरण स्पर्श करे यह उन्हें सह्य न था, उन्होंने दूर से ही आशीर्वाद दिया. नाना दौड़कर कपड़े पहनने चले गए.

कोट, जूते और केश कंघी करके जब लौटे तो सावरकर ज़ोर ज़ोर से मोरिस फ़्रईडमन को कुछ कह रहे थे, “यहूदियों की अपने देश की संस्कृति में घुलमिल न जाना ही उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता रही है. हमारे देश में मुसलमानों की भी यही स्थिति है. उनका व्यापार, सम्बन्धी, समाज सब यहीं है मगर पुण्यभू उनकी दूर अरब में है. भारतभू को उन्होंने अपनी पितृभू-पुण्यभू कभी माना ही नहीं. क्या अकारण है कि आपलोगों को पूर्वी यूरोप में इतना अपमान सहना पड़ रहा है.नाना ने बात बदलना चाही, “भाऊ, अंदर राजासाहेब चाय के लिए बुला रहे है. आप सामुदायिक हत्या को अपमान कह रहे है! पहले वहाँ भीड़ एक या दो यहूदियों को घेरकर मारती रही थी मगर अब वहाँ का शासन इसे बड़े पैमाने पर कर रहा है. वह हज़ारों की संख्या में यहूदियों को मार रहे हैमोरिस फ़्रईडमन की आवाज़ सूखी हुई थी, जैसे बहुत दूर से आती हो या उन्होंने बहुत देर से पानी न पिया हो. नाना को समझ नहीं आया कि सावरकर यह प्रसंग क्यों ले बैठे. त्र्यम्बक, मोरिससाहेब का कहना है कि हम यहूदी बाल्यावस्था में अपनी लड़कियों का लग्न नहीं करते इसलिए मैं इन्हें समझा रहा था कि भारतवर्ष में यहूदियों को यहाँ के बहुसंख्यक समाज की रीतिनीति अपनाकर उन जैसा बनने में संकोच नहीं करना चाहिए. पूर्वी यूरोप की संस्कृति को आत्मसात न करने के कारण ही वहाँ इनपर इतने अत्याचार हो रहे है.नाना को भी युवती होने पर लड़की के विवाह करने की बात कुछ समझ नहीं आई. उनकी बुद्धि सचमुच प्रेम में नष्ट हो चुकी थी. आबकारी विभाग में त्र्यम्बक दिगम्बर काणे बहुत बड़ा अफ़सर है. पहली पत्नी के स्वर्गवासिनी हुए कुछ ही समय बीता है और कोई संतान भी नहीं. मेरा विश्वास है त्र्यम्बक दिगम्बर काणे को यहूदी धर्म के विषय में इतना ज्ञान है जितना हिन्दू समाज में रहते हुए भी शाओना हिलेल को न होगा.सावरकर की यह बात नाना को बहुत रुची.

उन्हें अचानक अनुभव हुआ कि उनका प्रेम कितना एकांगी है. शाओना को तो उनके अस्तित्व का भी ज्ञान न होगा. फिर उन्हें सावरकर पर क्रोध भी आया. नाना के यहूदी धर्म के विषय में अध्ययन करने की बात बताकर जैसे सावरकर ने उनकी कोई बहुत आंतरिक बात मोरिस फ़्रईडमन को कह दी थी. नाना को सबके सामने वेध्य और निर्बल कर दिया था. मैंने लड़की के विषय में सबकुछ आपको बता दिया है. आप काणे जी को भी सब ब्यौरे बता दे और तब तक मैं लड़की के बड़े भाई से इसकी चर्चा करके आपको बतलाता हूँमोरिस फ़्रईडमन ने कहा और हाथ जोड़ लिए. मोरिस फ़्रईडमन गांधी के लिए नवीनतम तकनीक पर चरखे बनाया करते थे.

महर्षि रमण से वेदान्तचर्चा करते थे. उनकी चर्या सहज थी. आज सावरकर से बात करके उन्होंने भारतीय चिन्तन का एक दूसरा रूप देखा था और वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि यह भारतीय चिन्तन ही है या यूरोपीय शिक्षा के कारण सावरकर के विचारों में एक प्रकार की सैन्य कठोरता आ गई है. वह सावरकर और नाना को देर तक जाते देखते रहे. दोनों ही बहुत आकर्षक पुरुष थे. ऐसा पौरुष भारत में उन्होंने अब तक देखा न था. हिंदुओं को वह यहूदियों के निकट पाते थे. वह स्वयं यहूदी थे और जानते थे कि यहूदियों की तरह ही हिन्दू शरीर को बहुत महत्त्व नहीं देते. हिन्दू उन्होंने अक्सर अतिधार्मिक हसीदी यहूदियों की तरह दुबलेपतले और शरीर से बेपरवाह देखे थे. उन्हें लगता हिन्दूचिन्तन यहूदीधर्म का विकसित रूप है. सावरकर ने निश्चित ही उनके कुछ भ्रम आज तोड़ दिए थे.

औंधनरेश ने अपनी मोटरकार नाना और सावरकर को घर जाने के लिए दे दीं. संग एक मराठा चालक भी आया. उसके सम्मुख नाना को मराठी में बात करने में संकोच है यह भाँपकर सावरकर ने अंग्रेज़ी में बताया, “सुन त्र्यम्बक्या. जी भाऊनाना की सभी इन्द्रियाँ कान हो गई थी क्योंकि उन्हें पता था कि सावरकर अब शाओना हिलेल के बारे में मोरिस फ़्रईडमन की कही बात बताएँगे. शाओना हिलेल पोल है. वह बग़दादी यहूदन नहीं है और मराठी या अंग्रेज़ी बहुत कम जानती है. उसके माँबाप पूर्वी पोलंड पर सोवियत हमले के समय पोल सेना से सम्बन्धों के कारण गुलाग भेज दिए गए थे. बहादुर फ़ौजी अफ़सर वादीशॉ आंदर्स की मदद से कुछ पोल और यहूदियों को यह मोरिस फ़्रईडमन हिंदुस्तान, ईरान और फ़िलिस्तीन ले आया. शाओना पहले बांद्रे में एक पोल अभिनेत्री के यहाँ रखी गई मगर उसके हसीदी भाई की आपत्ति के कारण अब उसे सिनेगॉग के रैबाई के यहाँ रखा गया है. माँबाप की कोई ख़बर नहीं. शायद उनकी मृत्यु हो चुकी है.

मेरी नानी शाओना हिलेल की पोलंड से भारत तक की इस यन्त्रणादायक यात्रा के बारे में सुनकर नाना विवाह शीघ्रातिशीघ्र करने को उत्सुक हो गए. ईश्वर ने शाओना की प्राणरक्षा संभवतः मेरी धर्मपत्नी बनने के लिए ही की और उसे हिंदुस्तान में ला पटकानाना ने उल्लास से कहा फिर उनका स्वर अचानक मंद पड़ गया, “फिर भी उसका गोमांसभक्षण करना मेरे लिए उससे लग्न करने न करने का निर्णय न कर पाने का बहुत बड़ा कारण है. आख़िर हिंदू है कौन? जो गाय को अपनी माता मानता होनाना ने कहा और मोटरकार से बाहर देखने लगे. समुद्र उन्हें दिव्य भी लगता था और भयंकर भी. गाय को माता बस साँड, बैल और बछड़े मानते है. तुम अब चुप भी करोसावरकर ने कहा. नाना चुप रहे. मोटरकार समुद्र किनारे चलती रही.

इस विवाह के लिए मेरी बहन और मैं बहुत दबाव में तैयार हुए है. सब इसे हमारा भविष्य उज्जवल करने का मार्ग बता रहे है. मैं हसीदी* यहूदी हूँ. मेरे लिए अपनी बहन का विवाह गोयम* से करना कल्पना से परे था मगर अब हमारी स्थिति इतनी गई गुज़री है कि इसके लिए हमें तैयार होना पड़ाब्रूनो हिलेल ने कहा. वह शाओना हिलेल का बड़ा भाई था और पुणे के सिनेगॉग में यहूदी रीति से पशुबलि देना सीख रहा था. इसमें उसके शिक्षक आज के प्रसिद्ध भारतीय-इसराएली कलाकार अनीश कपूर के नाना थे. विवाह वैदिक रीति से दादर के श्रीगणेशमंदिर में होना निश्चित हुआ हैयमुना वहिनी ने कहा. वह सोने के कंगनों के लिए शाओना की कलाइयों का नाप लेने आई थी. जब तक विवाह नहीं होता मैं यहूदी ही रहूँगी और मेरा विवाह सिनेगॉग में ही होगा अन्यथा मैं और मेरे भाई के पास समुद्र में कूदकर जान देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचेगा. मेरे मातापिता का इतना मान तो आपको रखना ही होगाशाओना ने चिड़चिड़े स्वर में कहा. वह मराठी इतनी ग़लत बोलती थी कि किसी को कुछ समझ नहीं आया. उसके भाई ने उसकी बात तीन-चार बार प्रयास करके नाना और सावरकर को समझाई.

कोई बात नहीं. पहले हम एक विवाह सिनेगॉग में भी कर सकते हैइससे पहले कि सावरकर कुछ कहते यमुना वहिनी ने शाओना के प्रस्ताव पर हामी भर दी. नाना बस शाओना को देखते रहे. वह बहुत दुबली थी और चिड़चिड़ी भी जैसे भूखा व्यक्ति हो जाता है. उसे देखकर लगता था वह किसी भी प्रकार जहाँ वह है वहाँ से भाग जाना चाहती है. नरक इतना सुसंस्कृत और शान्त हो सकता है शाओना ने इसकी कल्पना भी न की थी. उसका भाई शान्त बैठा रहा. जिस धर्म की रक्षा उसने पोलंड में इतने शत्रुतापूर्ण वातावरण में की थी जहाँ यहूदी को मार देना मक्खी मारने जितना सरल था, उसी धर्म की रक्षा वह भारत जैसे देश में नहीं कर सका था. उसे अपने मातापिता याद आने लगे. उसने यिद्दिश भाषा में शाओना को एक बात कही, “शाओना, जब ईश्वर किसी का मन दुखाना चाहता है उसे बहुत सारा ज्ञान दे देता है. घर लौटते हुए सावरकर बहुत प्रसन्न थे, “विचारों पर अडिग रहने का जो साहस त्र्यम्बक की होनेवाली पत्नी में यदि वह भारतीय स्त्रियों और पुरुषों में होता तो यह राष्ट्र आज न जाने कहाँ होता. नाना ने कोई उत्तर नहीं दिया. वह शाओना हिलेल को नौ हाथ की नीली पैठणी साड़ी में देखने की कल्पना करते रहे.

प्रथम रात्रि बीत जाने पर शाओना ने नाना से पूछा, “आपने उस दिन मेरा गला घोंटने का प्रयास क्यों किया था?” “क्योंकि मेरा प्रेम किसी कीट की भाँति मेरे मस्तक को खाए जा रहा थानाना ने उत्तर दिया और पलंग से कूदकर खड़े हो गए उन्हें अपने मातापिता को अपने विवाह का समाचार देते हुए पत्र लिखना था. सावरकर ने उन्हें विवाह के बाद अपने मातापिता को विवाह का  समाचार देने के लिए कहा था. नौकरानी ने आकर शाओना का शृंगार कर दिया, उसे नौ हाथ की पैठणी बाँधना सिखा दी, बाल गूँथ दिए और नाना ने गहने दे दिए. यमुना वहिनी ने विवाह से दो दिन पहले ले जाकर शाओना की नाक छिदवा दी थी क्योंकि सधवा का त्योहारों पर नथ पहनना आवश्यक था. नथ पहनना शाओना के लिए किसी शारीरिक दण्ड के कम न था.

शृंगार हो गया तो चले यमुना वहिनी पूरणपोली और अनारसे लिए हमारा रास्ता देख रही होंगीनाना के कहा और हाथ बढ़ाया. नानी को नौकरानी के सामने पति का हाथ पकड़ने में संकोच हुआ जिसे नाना हिन्दूस्त्री जैसी लज्जा समझकर अत्यन्त प्रसन्न होने लगे. सावरकर ने अपनी व्यस्त दिनचर्या में त्र्यम्बक की नई बहू के संग भोजन करने का समय निकाला है, यह जानकर नाना बहुत हर्षित हो गए. सावरकर ने यमुना वहिनी से कहा, “सबका भोजन यहीं टेबुल पर लगाओ. स्त्रियाँ भी संग यहीं खाएँगी.” “पूरणपोली ठण्डी अच्छी न लगेगीयमुना वहिनी अपनी पाककला को लेकर विशेष सजग रहती थी और ठण्डी पूरणपोली खाकर शाओना यह समझे कि पूरणपोली स्वादिष्ट नहीं होती या यमुना ताई को खाना बनाना नहीं आता यह दोनों स्थिति ही उन्हें बर्दाश्त न थी. ठण्डी भी रहे तो दोष नहीं. त्र्यम्बक की बहू का सबसे आंतरिक परिचय हो इस भोज का यही उद्देश्य है न कि गर्मागर्म पूरणपोली भकोसनासावरकर ने कहा और अधीर होकर ख़ुद ही बर्तन रसोई से उठा उठाकर टेबुल पर जमाने लगे. तुम्हारे मातापिता देशभक्त क्रांतिकारी थे यह जानकर मैं इतना प्रसन्न हूँ कि बताने में मेरी भाषा कम पड़ती है. 


जिस पोलंड में पोलों के खिलाफ होकर पोलंड के यहूदी सोवियत रूस का साथ दे रहे थे वहीं तुम्हारे मातापिता ने पोल सेना के लिए जासूसी की. अवश्य ही निकट भविष्य में यदि समय मिला तो मैं इसपर कादम्बरी लिखूँगासावरकर ने अत्यन्त उत्साह से शाओना की थाली में पूरणपोली और नींबू का अचार परोसते हुए कहा इतने में बर्तन यमुना वहिनी ने सावरकर के हाथ से ले लिया. नाना समझ गए कि यमुना वहिनी को भय था कि सावरकर को घर का इस तरह काम करते देख शाओना बहू उनके देवर त्र्यम्बक से भी ऐसे ही काम करवाएगी. मेरे मातापिता ने ग़लत किया. उन्हें सोवियत संघ का स्वागत करना चाहिए था. एक तरफ़ नाज़ी थे और दूसरी तरफ़ सोवियत संघ तो सोवियत संघ का ही पक्ष लेना था. जीवित तो रहते. वैसे भी पोलों ने हमपर कम अत्याचार नहीं किए थे. सड़क पर पोलों का किसी भी यहूदी आदमी या औरत पर काल्पनिक आरोप लगाकर हत्या करना आम बात थी.

इस बीच माँसाहारी पोल अचानक पशुअधिकारों के प्रति सचेत हुए और सिनेगॉग में होनेवाली पशुबलि को आसुरी बताने लगे. इसके लिए वह अख़बारों में लम्बे लम्बे लेख लिखने लगे. हमारे धर्म का कोई पक्ष उन्हें स्वीकार न था. उनका साथ देना मेरे पिता की मूर्खता ही थी. जीवन है तो धर्म, राष्ट्र सब हैशाओना ने पूरणपोली तोड़ते हुए कहा. सभी को उसकी मराठी समझने में मुश्किल होती थी और कोई एकदम से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाता था. पूरणपोली मीठी होने पर उसने नाक सिकोड़ी. उसने कल्पना नहीं की थी कि पूरणपोली मीठी होगी और मुख्यभोजन में परोसी जाएगी. हो सकता है वे जीवित हो और याद रखो राष्ट्र के लिए प्राण देनेवालों की कीर्ति अमर होती हैसावरकर बहुत धीरे खा रहे थे. उनका सारा ध्यान शाओना की ओर था. मरने के बाद बस शव शेष रहता है, मिस्टर सावरकरशाओना ने कहा. मिस्टर सावरकर सम्बोधन सुनकर नाना और यमुना वहिनी चौंकें मगर सावरकर प्रमुदित ही हुए, उन्हें इंग्लंड में बिताए अपने युवादिनों का स्मरण हो आया. भाऊ या दादा कहो. यहाँ मिस्टर-मिसेज़ कहने का रिवाज नहीं हैनाना ने टोका.

वह मुझे कुछ भी कहकर पुकारे मैं बहू को शेवंती कहकर ही पुकारूँगा. पंडित दीनानाथ मंगेशकर की पत्नी का यही नाम है. बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाती है वेसावरकर ने नींबू का अचार चाटते हुए कहा. श्रावणी बहुत सुंदर नाम है. शेवंती तो पुरातनपन्थी लगता हैयमुना वहिनी बोलीं. मैंने सुशीला सोचा थानाना ने कहा मगर यह सब बातें शाओना को ठीक से समझ नहीं आई. इतनी जल्दी जल्दी बोली गई मराठी वह समझ नहीं पाती थी.

नाना ने पहले मराठी में फिर अंग्रेज़ी में समझाया, “शेवंती, श्रावणी या सुशीला कौन सा नाम तुम्हें अच्छा लग रहा है? बताओ उसी नाम से तुम्हें पुकारेंगे. थाली आगे सरकाई और शाओना चीख़ी, “उनकी बेटी इतनी पसंद थी कि मजबूर करके शादी की मगर उनका दिया नाम स्वीकार नहींवाक्य पूरा भी न हुआ था कि उठकर भाग गई. पानी तक नहीं पिया. यमुना वहिनी पानी का गिलास लेकर उसके पीछे दौड़ी. नाना ने लज्जा से मुँह झुका लिया. क्या यह वही स्त्री है जो रातभर उनसे लिपटकर सोई थी, जिसने रातभर प्रेम से भरे वचन कहे थे और आज इसने भाऊ का अपमान किया और भरी थाली बढ़ाकर भाग गई.

क्या इस लड़की से लग्न रचाकर उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है! सावरकर चुपचाप खाते रहे. शाओना रोते हुए सड़क फलाँघकर अपना घर ढूँढने लगी. उसे यहाँ आए मात्र एक रात बीती थी और उसका न केवल नाम बदल गया था बल्कि वह अपना घर भी ढूँढ नहीं पा रही थी. नाना ने अपनी पत्नी का सुशीला नाम बताकर अपने मातापिता को पत्र भेज दिया था. पत्र में स्पष्ट लिखा था कि उनकी बहू यहूदी और अनाथ थी मगर उसके कुलगोत्र का समुचित ज्ञान उसे और उसके भाई को है. उसका भाई यहूदियों के प्रार्थनाघर में यज्ञविधि (यह झूठ था. शाओना का भाई पशुबलि का यहूदी विधान सीख रहा था) सीख रहा है. यह भी झूठ लिखा था कि शाओना ने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है और उसका नया नाम सुशीला है.

बहुत समय बीतने पर नाना को अपने पिता का पत्रोत्तर मिला था. वह बार बार इसे कोट की जेब से निकालकर पढ़ते और फिर तह करके जेब में रख लेते. दफ़्तर में दिनभर उन्होंने यही किया, वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पत्र सुशीला (पूर्वनाम शाओना) को पढ़कर सुनाए या नहीं. घर पहुँचे तब चाय उबलने की गन्ध घरभर में भरी थी. शाओना हरी चाय बिना दूध और शक्कर के पीती थी. नाना को अंग्रेज़ अफ़सरों की तरह दूध और शक्कर के साथ चाय पसंद थी मगर उसदिन उन्होंने भी हरी चाय पीने की इच्छा जताई. शाओना दो कप चाय बनाकर ले आई. वसन्त के दिन थे. दूर बच्चों के खेलने का शोर कानों तक आ रहा था. मोटरकार और बसों के हॉर्न बीच बीच में बजते थे. अंततः नाना ने शाओना को पत्र पढ़कर सुनाया-

श्रीगणेशप्रसन्न:
प्रिय त्र्यम्बक,

तुम्हारे यहूदी स्त्री को पत्नी बनाने का समाचार प्राप्त हुआ. तुमने यह विवाह करके हमारा शुद्ध वेदपाठी चितपावनकुल नष्ट कर दिया. हम जीवन की इस अवस्था में यहूदी बहू स्वीकारकर अपने धर्म विनष्ट नहीं कर सकते. तुमने युवावस्था की वासनाओं के  वश में आकर यह विवाह किया होगा किन्तु हम ऐसी कौन सी तीव्र भावना से विवश होकर किसी म्लेच्छ को गले लगाएंगे, यह तुम पत्र लिखने से पूर्व ही जानते होगे. न बहू को देखने की हमारी कोई इच्छा है न तुम्हारे होनेवाली संतानों की. सम्भवतया तुम्हारी माँ कभी तुम्हारा मुख देखना चाहे.

तुम्हारे यहूदी स्त्री से विवाह पर मातापिता होने के नाते हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग रहेगा. फूलो-फलों.

तुम्हारा पिता दिगम्बर आह्लाद काणे
वसन्तपंचमी

मैं समझती हूँ उन्होंने ऐसा क्यों कहा और मेरे लिए आपके पिता हमेशा उतने ही आदरणीय रहेंगे जितने मेरे लिए मेरे पिता थेशाओना ने लंदन से आए सफ़ेद कप से चाय पीते हुए कहा. पिछले एक महीने में ही उसने घर संभाल लिया था. नए कप-बशियाँ, चादरें-गिलाफ, परदे, फ़र्नीचर सब कुछ सादा मगर क़ीमती था. इतने थोड़े पैसों में वह यह सब कैसे जुटा सकी नाना के लिए यह बहुत बड़ी पहेली थी. इतनी सुरुचि, सफ़ाई और सुघड़ता यदि नाना की माँ देख पाती तो कितना प्रसन्न होती जैसे सावरकर प्रसन्न होते है, “उन्हें इतना आदर दे सकती हो तो भाऊ से क्यों खिंची खिंची रहती होनाना ने अवसर पाकर सावरकर की बात छेड़ दी. उस दिन भोजन से शाओना का यों उठकर चला आना वह भूले नहीं थे जबकि सावरकर राजनीति में व्यस्त हो गए थे और यमुना वहिनी घर के कामों में व्यस्त होकर वह घटना भूल चुकी थी.

क्या किसी से विपरीत विचार रखना अनादर का सूचक हैशाओना ने यह बात एक जटिल, किताबी मराठी में कही. बहुत देर तक नाना बात ही समझने की चेष्टा करते रहे और उत्तर न दे पाए जिसे शाओना ने उनकी असहमति माना, “तुम्हारे मातापिता जो कर रहे है वह उनके कुल की पीढ़ियों से चली आ रही रीति यों तुम्हारे तोड़ देने पर क्रोध है मगर तुम्हारे सावरकर भाऊ से मैं सहमत नहीं हो सकती. उस दिन जब वे हमारी शादी की बात करने आए थे तब उन्होंने कहा कि वे नास्तिक है और अब मेरा धर्मपरिवर्तन करवाना चाहते है. मेरे लिए उन्होंने सेवंती नाम तक सोच लियाशाओना भावातिरेक संभाल नहीं पाती थी. उसकी कनपटियों की नसें भूल जाती, वह हाथपैर फेंकफेंककर बातें करने लगती और ऐसा लगता वह क्रोध और यातना के बीच फँस गई है और निकल नहीं पा रही.

एक नास्तिक आदमी किसी पराई औरत के धर्म को लेकर इतना सोचता ही क्यों है!शाओना ने कहा और कप ज़ोर से टेबुल पर रखा फिर जल्दी से ख़ुद ही उठाकर देखने लगी कि कहीं फूट तो नहीं गया. मैं तो पराया नहीं. यदि मैं तुम्हें सुशीला नाम से पुकारना चाहूँ तो?” नाना ने एक ही घूँट में वह कड़वा पेय पीकर कप धीरे से रख दिया. और अगर मैं तुम्हें श्लोमुच नाम से पुकारूँ तो?” शाओना ने उत्तर देने में एक क्षण की देर न की. हमारे बच्चे हिन्दू धर्म का ही पालन करेंगे. यदि यह भी तुम नहीं मानती तो अपने भाई के घर पूना तुम्हें कल छोड़ आऊँगानाना कहते हुए उठ खड़े हुए. शाओना वहीं बैठी रही. नाना देर तक नहाते रहे. नौकरानी ने ही उन्हें इस्त्री किया हुआ पजामा और बनियान दी. उनका खाना टेबुल पर लगाया और उसके ऊपर लगी बत्ती जलाई. मेरी नानी कहती थी उसी रात उनके पेट में बड़े मामा आए होंगे इसलिए बड़े मामा बचपन से ही आपराधिक प्रवृत्ति के रहे. उन्हें देखते ही नानी ने जान लिया था कि यह बच्चा हिन्दू होगा. मेरे बड़े मामा जर्मनों की तरह सुन्दर और लम्बे है.

५ फ़रवरी १९४८ की रात आठ बजे मसीना अस्पताल मटर्निटी वार्ड, प्राइवेट रूम नम्बर २४ में नानी अपनी तीसरी संतान को जन्म के छह घंटे बाद जब दूध पिला रही थी अचानक नाना धड़धड़ाते कमरे में घुसे. समुद्री हवाएँ फ़रवरी में हल्की हो जाती है, रातें ठंडी मगर नाना के बाल पसीने से भीगे थे. वह छरहरे थे और इतने अच्छे कपड़े पहनते थे कि देखते ही लोग ख़ासकर औरतें अपनी जगह अचानक ठिठककर खड़ी हो जाती थी. नर्स भी जो इंजेक्शन ठीक कर रही थी ठिठक नाना को देखती रही. नानी नाना को देखते ही भाँप गई कोई परेशानी की घड़ी है. छह साल संग रहकर वह नाना की नस नस जानने लगी थी. सिस्टर प्लीज़ दो मिनटनानी ने सिस्टर से कहा. सिस्टर बाहर चली गई मगर पलट पलटकर उस भद्र और व्यग्र पुरुष को देखती जा रही थी.

भाऊ को पुलिस ले गई. गांधी की हत्या का आरोप लगाकरनाना ने कहा और नानी से लिपट लिपटकर रोने लगे. बीच में दूध पीता बच्चा कुनमुनाया. दूर हटो, दूध पी रहा है. हमारी तीसरी संतान बेटा हुई हैनानी ने कहा और अपनी दूसरी संतान (मेरी बड़ी मौसी) यशोधरा को भी बिस्तर पर बैठा लिया. अपने पिता को रोते देख नानी के दोनों बड़े बच्चे चार साल के बड़े मामा तात्या त्र्यम्बक काणे और दो साल की बड़ी मौसी यशोधरा डर गए थे. दोनों माँ को घेरकर खड़े थे. नाना को अपनी सद्यजात सन्तान के विषय में कोई रुचि न थी. वह बस भाऊ के लिए चिंतित थे. यमुना वहिनी भी अपने किसी सम्बन्धी के घर गई है. भीड़ ने भाऊ के घर पत्थर फेंक फेंककर खिड़की दरवाज़े तोड़ दिए और आगज़नी की भी कोशिश कीनाना ने अपना मुँह नानी के कन्धे से उठाकर कहा. देखो, कितना कमज़ोर है. तुमसे डर गया और अब दूध नहीं पी रहानानी ने बच्चे का मुँह अपने स्तन में देते हुए कहा. तुम कितनी कृतघ्न हो, सुशीला. जिस आदमी ने हमारी शादी करवाई वह आज अकारण जेल में है और तुम्हें अपने इस दस घंटे पहले हुए बच्चे की पड़ी हैनाना खड़े हो गए.

नानी चिल्लाई, “सिस्टर सिस्टर, सुई लगा दो. १९५७ को नानी ने अपनी सातवी और अंतिम संतान मेरी माँ को जन्म दिया. सबसे छोटी होने के कारण मेरी माँ नानी के साथ सिनेगॉग जाती. नानी उन्हें यहूदी प्रार्थनाएँ याद करवाती, हिब्रू सिखाने के लिए सिनेगॉग से मास्टर आता और दोनों शबात मनाती थी. बाक़ी सभी बच्चे हिन्दू थे. अब तक सावरकर के यहाँ आना जाना बहुत कम हो गया था. सावरकर कभी कभी घर आते तो नानी उनके लिए बॉम्बे डक मछली बनाती और बेगल. नाना शाकाहारी थे यमुना वहिनी घर से उनके लिए पूरणपोली लाती.

नानी के भाई ब्रूनो मामा शंघाई के सिनेगॉग में काम करने लगे थे मगर छुट्टियों में नानी से मिलने ज़रूर आते थे. उस साल भी वह आए हुए थे. मेरी माँ ढाई साल की थी और नाना ने दादरपारसी कॉलोनी में एक दोमंज़िला मकान ख़रीदा था. सात बच्चों को लेकर उस किराए के मकान में रहना सम्भव नहीं हो पा रहा था. त्र्यम्बक्या, गणेशस्थापना तक यही रहो पीछे दादर जाना. मैं कितने दिन और हूँसावरकर ने कहा. यमुना वहिनी बहुत कमज़ोर हो गई थी. सावरकर सदन लोगों का आना जाना तो बढ़ गया था और सावरकर सबसे मिलते भी थे मगर कोई अब उनके हृदय को नहीं छू पाता था. नाना उन्हें आज़ादी के पहले के बम्बई की याद दिलाते थे. नानी उन्हें अब भी पसंद नहीं करती थी नास्तिक होकर भी मिस्टर सावरकर का धर्म में इतना हस्तक्षेप मुझे कभी स्वीकार नहीं हो सकतावह कहती थी. फिर गणेश स्थापना से कुछ दिन पहले नाना के दफ़्तर से एक नौकर ने आकर ख़बर की कि नानी सभी बच्चों को लेकर तुरंत दादरपारसी कॉलोनी के मकान पहुँचे और बीच में दो दफ़ा रिक्शा बदले. ब्रूनो मामा शाम की प्रार्थना कर रहे थे. 

तात्या ने तो कभी घर पर रहना सीखा ही नहीं. अब इसके पिताजी मेरा माथा खाएँगे कि उसे साथ क्यों नहीं लाईनानी ने कहा और कपड़े बदल लिए. ब्रूनो मामा की प्रार्थना ख़त्म होते ही माँ और उनके पाँचों भाई बहन तीन रिक्शों में सवार होकर नानी और ब्रूनो मामा के साथ निकल पड़ें. नानी पैसा बहुत बचाती थी और दो बार तीन तीन रिक्शें बदलना बहुत महँगा पड़ता इसलिए वह सीधे ही दादरपारसी कॉलोनी पहुँची. दरवाज़े पर ताला लगा था और चाबी नाना अपने पास रखते थे. सब बच्चे वही बग़ीचे में बैठ गए और क़ुल्फ़ी क़ुल्फ़ी की रट लगाने लगे. ब्रूनो मामा झट क़ुल्फ़ी और मूँगफलियाँ ले आए. फिर अँधेरा गाढ़ा होने पर नाना ने अंदर से खिड़की की साँकल बजाई. माँ ने पलटकर देखा तो नाना हाथ में मोमबत्ती लिए सबको पीछे के दरवाज़े से अंदर आने का संकेत कर रहे थे. बच्चें चिल्लाकर पीछे की ओर दौड़े तो नानी ने टोका. वह और ब्रूनो मामा समझ गए थे कि कोई गम्भीर घटना घटी है जो यों चोरीछिपे बुलाया और दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर नाना अंदर बैठे है. अंदर एक मोमबत्ती जल रही थी और फ़र्श पर आलथीपालथी मारकर मेरे बड़े मामा बैठे हुए थे.

तात्या, क्या किया इस बार?” नानी ने पूछा. बड़े मामा प्रतिदिन किसी से झगड़ा करते थे या कभी शराब तो कभी सिगरेट पीते पकड़े जाते. बच्चें सब शान्त होकर बड़े मामा को घेरकर बैठ गए. बड़े मामा थोड़ी देर मुँह झुकाकर चुपचाप बैठे रहे फिर जोर ज़ोर से देर तक  चिल्लाने से फटी हुई आवाज़ में कहा, “मैंने नहीं किया. मैंने नहीं मारा. नाना की आँखों से आँसू बह रहे थे फिर भी साफ़ आवाज़ में उन्होंने कहा, “अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर इसने किसी दुकानदार की हत्या कर दी. नानी देर तक बड़े मामा को देखती रही, “ब्रूनो भाई इसे हत्या कैसे मान सकते है! यह तो दुर्घटना हुई.” “डंडे और बूटों से पीटकर मार डाला इसनेनाना ने और स्पष्ट करके बताया जो वह दूसरे बच्चों के सामने बताना नहीं चाहते थे. नहीं. युवा बच्चों में मारकूट होती रहती है. यह दुर्घटना है केवल, ऐन ऐक्सिडेंटनानी ने पास पड़ी दूसरी मोमबत्ती जलाते हुए कहा. आई, वह दुकानदार बुड्ढा, साला सनकी थाबड़े मामा खड़े हो गए. पोलंड में तो कितने ही यहूदियों को लड़के ऐसे मार देते थे सड़क-चौराहों पर. कुछ नहीं होगा. पुलिस दुर्घटना लिखेगी केस ख़त्मनानी ने कहा और कुछ और मोमबत्तियाँ ढूँढने लगी. उस मकान में अब तक बिजली नहीं लगी थी.

शाओना, ये पोलंड नहीं है. भारत एक लोकतंत्र बन चुका है. यहाँ सबके जीवन का मूल्य बराबर हैब्रूनो मामा ने नानी को समझाने का प्रयत्न किया मगर नानी अड़ी रही. सात दिन वहाँ पर छुपे रहने के बाद गजानन विष्णु दामले की सलाह पर बड़े मामा ने आत्मसमर्पण कर दिया. बड़े मामा को चौदह साल की जेल हो गई. नानी ने कभी नहीं माना कि वह हत्या थी. भीड़ के पीटने से अगर कोई मर जाता है तो वह दुर्घटना तो है. वह व्यक्ति ह्रदयाघात के कारण मरा था. मेरे तात्या के संग भारत सरकार ने अन्याय किया है. अंग्रेज़ों में क़ानून की समझ थी. ग़ुलामी से नष्टबुद्धि ये हिंदुस्तानी क्या राज करेंगेनानी अंत तक यही कहती रही, “बर्बर जाति है यह. सरकारी दफ़्तर और अदालत खोल लेने से कोई जज नहीं बन जाता. इसके लिए तोराह की बारिकियों का बरसों अध्ययन करना पड़ता है.इस घटना के बाद अति व्यग्रता से नानी ग्रस्त हो गई. कोर्ट केस के समय केवल यही सोचने से कि बड़े मामा को सज़ा होगी या नहीं उन्हें व्यग्र रहने का विकार ही हो गया. वह बस पकड़कर रोज़ सिनेगॉग और बड़े मामा से मिलने जेल जाने लगी. दिनभर हिब्रू में धार्मिक किताबें पढ़ती. अपने छह बच्चों पर ध्यान देना उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया था.

फिर बहुत सालों बाद १९६९ में एक दिन मोरिस फ़्रईडमन नानी से मिलने आ पहुँचे. वह उतने बूढ़े थे नहीं जितने बूढ़े लगते थे बस बहुत कमज़ोर हो गए थे. नाना ने उन्हें घर पर ही कुछ दिनों के लिए रोक लिया. मेरी माँ बताती है कि मोरिस अंकल बहुत मज़ेदार थे. मोरिस अंकल कैसे लाल लंगोट पहने हुए नाना से औंध नरेश के बंगले में मिले थे वह अभिनय करके बताते और सब बच्चें लोटपोट हो जाते. इतने दिन बाद घर में कोई हँसा था. मोरिस अंकल कभी चार्ली चैप्लिन बनते तो कभी बस्टर कीटन. एक दिन खाने की मेज़ पर जब नाना बच्चों को मराठी में अपने पिता का कोई स्मरण सुना रहे थे तब मोरिस फ़्रईडमन ने नानी से यिद्दिश में कहा, “मराठी लोग का यह बहुत बड़ा कुटैव है कि अगर एक भी समझनेवाला मिल जाए तो वे मराठी में बोलने लग जाते है भले दूसरा उसका एक शब्द तक न समझे.

शाओना, आज से हम भी यिद्दिश में बात करेंगे. नानी को ठसका लगा और वह खाँसने लगी. तीस वर्षों से उन्होंने यिद्दिश में बात नहीं की थी. अंतिम बार उन्होंने यिद्दिश में ब्रूनो से बात की थी जब वह शादी नहीं करना चाहती थी और ब्रूनो ने यिद्दिश में कहा था कि शादी न करने पर शायद ब्रितानी सरकार उन्हें वापस पोलंड भेज दें. अपनी मामी* और अपने पापा से वह यिद्दिश में बात करती थी और ब्रूनो ब्रूदर* से. मोरिस फ़्रईडमन से तो शायद वह यिद्दिश में एक वाक्य तक सही न कह सकती मगर अचानक यिद्दिश में उनके मुँह से निकला, “गेरेख़्ट, हर मोरिस फ़्रईडमन.उसके बाद अचानक नानी बहुत ज़्यादा बोलने लगी.

वह रातदिन यिद्दिश में बड़बड़ाती रहती जबकि यिद्दिश केवल मोरिस फ़्रईडमन को आती थी और वह दिनभर स्वामी निसर्गदत्त महाराज के पास रहते. एक रात जब मोरिस फ़्रईडमन स्वामी निसर्गदत्त महाराज के मिलकर लौटे तब नानी ने उनका खाना लगाते हुए उनसे यिद्दिश में पूछा, “यह स्वामी आपको सिखाता क्या है?” “मराठी मध्ये बोला. मला समजेलनाना भी कभी कभी मोरिस फ़्रईडमन के साथ स्वामी निसर्गदत्त से मिलने जाते थे. बड़े मामा के जेल जाने के बाद और सावरकर के मरणोपरांत नाना अधिकांश समय चुपचाप रहने लगे और दर्शन की किताबें पढ़ते रहते थे. निसर्गदत्त महाराज उनके अन्धकार में पड़ रही एक क्षीण ज्योति थी. “Causality is in the mind only; memory gives the illusion of continuity and repetitiveness creates the idea of causality. When things repeatedly happen together we tend to see a casual link between them. It creates a mental habit, but habit is not necessary. When you see the world you see the God. There is no seeing God, apart from the world. Beyond the world to see God is to be God” मोरिस फ़्रईडमन ने अबके अंग्रेज़ी में कहा.
नानी को अंग्रेज़ी समझने में देर लगती थी
मगर नाना सुनकर अपनी कुर्सी के कूद पड़े, “हाँ, हाँ आज यही तो कहा था.

नानी थोड़ी देर बाद बोली, “ये संसार ईश्वर ने नहीं बनाया है. इसे शैतान ने रचा है. शैतान ईश्वर को जड़ पदार्थ में बन्द करना चाहता था और ऐसे शैतान ने यह संसार बनाया. यही कारण है कि यहाँ इतनी यातनाएँ, इतनी अतार्किकता और अंत में रक्तपात है. यही कारण है कि हमें यहाँ पर जीवन या संसार में घटनेवाली किसी भी घटना का कारण नहीं पता, जो दण्ड हम भुगत रहे है उसके अपराधों के बारे में हम कुछ नहीं जानते. सोचो क्या ईश्वर इतना ठण्डा, इतना असंगत हो सकता है! यहाँ पर जिसे ईश्वर के होने का पता लग जाता है किसी किताब में पढ़कर या कहीं सुनकर नहीं बल्कि अपने अंतरतम में जिसे ईश्वर का अनुभव हो जाता है उसे शैतान बहुत दुःख देता है क्योंकि ईश्वर को जानना शैतान के बनाए संसार में शैतान को चुनौती देना है. मृत्यु ही उसे इस अतार्किक, असंगत यन्त्रणा से मुक्ति दे सकती है.

मेरे मातापिता को ईश्वर का पता था; तो क्या हुआ? वह गुलाग की बर्फ़ में ज़िंदा जम गए. कोई क़द्दिश पढ़नेवाला भी नहीं था. ईश्वर को तो हमारे अस्तित्व का पता तक नहीं और न वह कभी जान पाएगा. हम उसके बिना पैदा हुए है और उसके बिना मर जाएँगे. मोरिस, हम ईश्वर के लिए है ही नहीं. वी डोंट इग्ज़िस्ट फ़ॉर गॉड.


किसी ने कुछ नहीं कहा. खाना ख़त्म किया और सब सोने चले गए.

पिछले साल ४ दिसम्बर २०१८ की दोपहर नानी का देहान्त हो गया. उनके बच्चों ने उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से किया हालाँकि मैंने उनके लिए क़द्दिश पढ़ी क्योंकि १९९८ में जब मेरी उम्र चौदह साल थी, बम्बई के ब्रीचकैंडी अस्पताल में उन्होंने मेरा यहूदी रीति से ख़तना* करवा दिया था और मेरा नाम रखा-इज़ायश* हिलेल (IZAJASZA HILLEL) . मगर मेरा नाम तो अम्बर पांडेय हैमैंने कहा. नानी ने जवाब दिया, “हमारे धर्म में यहूदी माँ होने पर ही बच्चे यहूदी होते है. मेरे कारण तुम्हारी मम्मी यहूदन और उसके करण तुम. लोकल अनेस्थिसिया का इंजेक्शन लगने के कारण सुन्न हुए लिंग को लेकर मैं अधिक चिंतित था मगर नानी सर्जरी के बाद टैक्सी में मुझसे कुछ न कुछ कहे ही जा रही थी. आख़िरकार मैंने जवाब दिया, “हिंदुओं में तो बाप का धर्म और जाति चलती है न. नानी हँसी और अंग्रेज़ी में बोली, “डोंट यू फ़र्गेट इज़ायश, वी ऑर चूजन पीपल.

ammberpandey@gmail.com 


______________________________________
*हसीदी- यहूदियों का एक अत्यंत रूढ़िवादी समुदाय.
*गोयम- जो यहूदी न हो.
*मामी- माँ (यिद्दिश).
*ब्रूदर- भाई (यिद्दिश).
*क़द्दिश- मृत्यु और अन्य कुछ अवसरों पर पढ़ी जानेवाली यहूदी प्रार्थना.
*यहूदी रीति का ख़तना- यहूदियों का ख़तना मुसलमानों में होनेवाले ख़तने से अलग होता है.
*इज़ायश- हिब्रू बाइबल का एकमात्र शाकाहारी पैग़म्बर. पोलिश नाम. लेखक के शाकाहारी होने के कारण उसे इज़ायश नाम दिया जाता है.

राजभाषा : अंतर्विरोध और बुनियादी सरोकार : मोहसिन ख़ान

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भाषा त्वचा की तरह होती है. क्या कभी त्वचा भी बदली जा सकती है. इस देश की विडम्बनाओं का कोई अंत नहीं. शायद अकेला देश है जो भाषा दिवस मनाता है.

संकट जन भाषा हिन्दुस्तानी को लेकर नहीं है विश्व में बड़ी तीन भाषाओं में वह है  और वैश्विक स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में उभर रही है.

भारत एक राष्ट्र बने और उसकी एक राष्ट्रभाषा हो इसी इच्छा के कारण अधिकतर क्षेत्रों में बोली और समझी जाने वाली ‘हिंदी’ को राष्ट्र भाषा के लिए उपयुक्त समझा गया. उसे भारत में सम्पर्क और सरकारी कामकाज की भाषा बनना था.

हिंदी की एक और विडम्बना उसकी सांस्कृतिक चेतना से सम्बन्धित है. हिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषाओं और उनके साहित्य से लगाव नहीं है. मध्यवर्गीय घरों में सब कुछ मिल जाएगा पर हिंदी में लिखी साहित्य की पुस्तकें नहीं मिलेंगी.

परायेपन और हीनता से ग्रस्त हिंदी समाज को हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में मिल भी जाये तो उससे क्या होगा ?

सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और विवेकशील होकर ही हम किसी भाषा को बचा सकते हैं.

मोहसिन ख़ानका एक आलेख राजभाषा के अंतरविरोधो पर आज समालोचन पर.  

  


राजभाषा : अंतर्विरोध और बुनियादी सरोकार
मोहसिन ख़ान
 

भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रश्न सदैव अधर में ही लटका रहेगा. सरकार कोई भी आए, किसी भी दल की सरकार बने, कोई कभी यह नहीं चाहेगा कि भाषा के मुद्दे के आधार पर प्रांतों की भाषाई भावनाएं तनाव का सबब बने और भाषाई संबंधी प्रांतीय आंदोलन उभरकर सामने आए. कोई भी सरकार राष्ट्रभाषा के मुद्दे से सदा बचती, कतराती रही है. महात्मा गांधी ऐसे अवसर पर उचित विकल्प लेकर सामने आए थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी को राजभाषा बनाने पर बल दिया अथवा उसे राजभाषा का सम्मान देने का प्रयत्न किया. किंतु सभा में अधिक मत हिंदी के पक्ष में पड़े और हिंदुस्तानी भाषा को राजभाषा अथवा राष्ट्रभाषा बनाने का मुद्दा हमेशा के लिये समाप्त हो गया.

हिंदी की राजभाषा स्थिति सुदृढ़ तो हो चुकी है, लेकिन उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलने में अभी बहुत समय लगेगा. इसका मुख्य कारण यह है कि हम अपने ही देश में राज भाषा को राष्ट्रभाषा न बनने देने के आंतरिक विरोध में संलग्न दिखाई देते हैं. यह आंतरिक समस्या और विरोध क्या है? इस पर गहराई से विचार करना आवश्यक है. राष्ट्रभाषा के मुद्दे को चाहे जितना उछालो, लेकिन धरातल स्तर पर जब तक हम राजभाषा को स्कूल शिक्षा की माध्यम भाषा नहीं बना देंगे तब तक यह स्थिति और भी दुर्गति की ओर बढ़ती चली जाएगी. बुनियादी धरातल पर हम यह प्रयत्न करें कि हमारी स्कूल शिक्षा का माध्यम केवल राजभाषा हो तभी जाकर यह मुद्दा स्वत: सुलझ सकेगा. हमने अपने समय में अंग्रेजी शिक्षा को बल दिया, सरकारों ने मान्यताएं दीं और प्रत्येक परिवार का प्रत्येक बालक जो मध्यमवर्गीय, उच्च मध्यमवर्गीय परिवार से संबंधित है, वह अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहा है. जब तक शिक्षा का माध्यम हिंदी नहीं होगा तब तक यह आशा करना व्यर्थ है कि भारत की राजभाषा राष्ट्रभाषा बन पाएगी. सरकारों को और परिवारों को, समाज को इस बात के लिए संकल्पबद्ध होना होगा कि हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा देनी होगी अथवा हिंदी में ही शिक्षा देनी होगी  केवल हिंदी में शिक्षा देने की बात से केवल भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी का संकल्प पूरा नहीं हो जाएगा. या यूं कहें कि हम माध्यमों को बदलने की बात कहकर राष्ट्रभाषा के प्रश्न को हल नहीं कर लेंगे. माध्यमों की स्थिति बदलने के लिए हमें उसके लिए कई स्तरों पर, कई श्रेणियों में एक साथ परिश्रम करना होगा और उन पुस्तकों का निर्माण करना होगा जिनकी भाषा अंग्रेजी की जगह हिन्दी हो. केवल पुस्तकों की नहीं बल्कि संबंधित सहायक सामग्री शब्दकोश आदि को भी हमें प्रारंभ से जांचकर देखना होगा कि किस हद तक इस हिंदी माध्यम की भाषा के सहायक सिद्ध हो रहे हैं. इतना ही नहीं हमें अनुवाद के क्षेत्र में बहुत बड़ा और व्यापक स्तर पर कार्य करना होगा, क्योंकि अनुवाद की पुस्तकें जिस स्तर पर शैक्षिक सामग्री के दायरे में लानी है उनकी कमी हमारे सामने बहुत अधिक रूप में मौजूद है. जब तक अनुवाद का व्यापक सूक्ष्म और उपयोगी रूप सामने नहीं आएगा तब तक स्कूली शिक्षा की और उच्च शिक्षा की पुस्तकों का माध्यम बदल नहीं पाएगा.

अनुवाद के क्षेत्र में हमें न केवल पुस्तकों का अनुवाद करना होगा, बल्कि संबंधित सूचना प्रौद्योगिकी, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, खगोल, भूगोल आदि की संपूर्ण शब्दावली, शब्दकोश, तकनीकी, कानूनी शब्दों, व्यापार-वाणिज्य की शब्दावली इत्यादि सभी का सफलता के साथ अनुवाद करना होगा. यदि राष्ट्रभाषा के प्रश्नों को सुलझाना है तो इन दो बुनियादी सरोकारों पर हमें खरा उतरना होगा. यदि हम इन बुनियादी सरोकारों से दूर हटकर केवल हिंदी को नारे से जोड़कर या केवल हिंदी को हम आयोजन से जोड़कर देखते रहेंगे तो हिंदी का भला किसी दशा में कभी भी नहीं हो पाएगा. मूल रूप से हमें इन दो क्षेत्रों पर गहराई से ध्यान देना होगा तभी जाकर हम राजभाषा और राष्ट्रभाषा के मुद्दे को सुलझा पाएंगे वरना हम यूं ही 14 सितंबर को जश्न मनाते रहेंगे और 15 सितंबर को फिर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की स्कूली शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजते रहेंगे. यह बात न तो हमारी भाषा की नाक की है, नहीं किसी मान-अपमान की है, बल्कि यह बात विश्व की एक अच्छी और बड़ी भाषा को स्कूल शिक्षा की भाषा बनाने के साथ अनुवाद के माध्यम से इस भाषा को समृद्ध करने की है साथ ही उसके प्रति न्याय की बात है. जब हम यह न्यायिकता प्राप्त कर लेंगे तब ही जाकर हम अपनी हिंदी भाषा में हर क्षेत्र में सही रूप से विकास कर सकेंगे.
मुझे एक और बात खिन्नता के साथ हास्यास्पद भी लगती है कि संस्थाएं, व्यक्ति और अन्य क्षेत्रों से उठने वाली आवाज़ें यह दावा करती हैं कि हम अपनी भाषा को विश्व की भाषा बनाएंगे. या यूएनओ की भाषा आधिकारिक रूप में बनाएंगे. मुझे इस तरह की ढोंग वाली बातें भीतर से खिन्न जाती हैं. भारत में भाषाओं को लेकर इतनी विविधता है कि हम अपने ही देश में हिंदी राजभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा न दिला सके और अंतर्विरोधों के चलते हम यूएनओ की आधिकारिक भाषा बनाने का दावा प्रस्तुत करते हैं. जबकि सबसे पहले यह जरूरी है कि हम अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाएं फिर जाकर कहीं आर्थिक और तकनीकी प्रयत्नों के माध्यम से यूएनओ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास करें. लेकिन हम गर्वोक्ति में अनाप-शनाप कुछ भी बोलते चले जाते हैं, उसके पीछे छिपे हुए तथ्यों को ठीक ढंग से समझने का प्रयास नहीं करते हैं. यही कारण है कि आज राजभाषा अंतर्विरोधों से भी ग्रसित नजर आती है और वह राष्ट्रभाषा के दृढ़ संकल्प में कहीं कमजोर सी इच्छा शक्ति की भाजन बन चुकी है.
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डॉ. मोहसिन ख़ान
हिंदी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक
जे एस एम महाविद्यालय, अलीबाग
(महाराष्ट्र) 402201
9860657970

भाष्य : नंद बाबू की एक कविता : सदाशिव श्रोत्रिय

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जैसे कोई कोई ही कवि होता है उसी तरह से कुछ ही सहृदय होते हैं जहाँ कविताएँ खुलती हैं. सुरुचि, समझ और धैर्य ये भावक की ज़िम्मेदारियाँ हैं.

सदाशिव श्रोत्रिय कवि हैं और कविता के व्याख्याकार भी. नंद चतुर्वेदी की इस कविता की बहुत आत्मीय व्याख्या उन्होंने की है.  




नंद बाबू की एक कविता                         
सदाशिव श्रोत्रिय





राष्ट्र-भक्ति की कविता

उसने एक कविता लिखी
राष्ट्र-भक्ति की
जब वह पढ़ी गयी -
तब वे सब लोग खड़े हो गये
काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़
उम्मीद के खिलाफ़
वे खड़े हो गये

तब अफ़सर ने कवि के कान में
कहा
इसे न सुनाएं
यह कोई कविता नहीं है

कवि डर कर बैठ गया
या यह अफ़सर का आतंक था
लेकिन कभी-कभी इस तरह भी होता है
कविता का अंत. 

                                 
 (नंद चतुर्वेदी, वे सोये तो नहीं होंगे, पृष्ठ 94)



क्सर अधिकांश पाठक किसी कविता को शायद पर्याप्त धैर्य से एवं पर्याप्त समय लगा कर नहीं पढ़ते. पाठकीय सहानुभूति के अभाव में वह  कविता इसीलिए उनके सामने पूरी तरह खुल नहीं पाती. उदाहरण के लिए यदि हम इसी कविता को लें तो हम पाएंगे कि ध्यान से पढ़ने पर यह हमें एक रोचक कविता का आनन्द देने में पूरी तरह समर्थ है.

जो लोग नंद बाबू की कविता से परिचित हैं वे इस बात को बड़ी आसानी से पकड़ सकते हैं कि यह कविता अपनी प्रकृति में एक ठेठ नंद बाबू शैली की  कविता है. इसमें वे सभी गुण मौजूद हैं जो  उनकी कविता के विशिष्ट गुण कहे जा सकते हैं.

नंद बाबू कवि कर्म को काफ़ी गम्भीरता से लेते थे. अपने कवि होने को वे किसी तमगे की तरह इस्तेमाल नहीं करते थे बल्कि कविता और साहित्य में अपनी पैठ के कारण ही वे अपने आपको विशिष्ट मानते थे. इस बात को  खुले रूप में न कहते हुए भी उनका यह विश्वास था कि जो सचमुच कवि है वह किसी अन्य महत्वपूर्ण कहे जाने वाले व्यक्ति से किसी भी रूप में कम महत्वपूर्ण नहीं है. यदि कोई समाज अपने कवियों-लेखकों-विचारकों को पर्याप्त सम्मान नहीं देता तो इसे वे  उस समाज का दुर्भाग्य ही मानते थे. जैसे हर संगीतकार उस्ताद अलाउद्दीन खां या हर क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर नहीं हो सकता उसी तरह हर लिखने वाला भी कोई महत्वपूर्ण कवि नहीं हो सकता. वे मेरे सामने कई बार कवि के रूप में तुलसीदास की अनूठी  काव्य- प्रतिभा पर आश्चर्य व्यक्त किया करते थे.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अपनी कविता के सस्वर पाठ या उसके विशिष्ट डिक्शन से श्रोताओं को मोह सकने की कला में भी वे काफ़ी पारंगत थे किंतु एक आधुनिक और समकालीन  कवि के रूप में अपने विकास के बाद उन्हें वह सब बचकाना लगने लगा था. इसीलिए जो लोग उनकी कविता के भावों की तह तक पहुंचने में असमर्थ रहते हैं उन्हें पहले हमारे समय की कविता की अपनी समझ को टटोलने की कोशिश करनी चाहिए.

जैसा सब जानते हैं, राजनीतिक विचारधारा की दृष्टि से नंद बाबू लोहियावादी थे. ग़रीबों और वंचितों के प्रति उनके मन में गहरी करुणा और सहानुभूति थी और अतीत के अपने निजी अनुभवों के बूते पर वे उनकी स्थितियों  को कई बार अपने आप को उनकी जगह रख कर देखने में समर्थ थे. इसके साथ ही उनके मन में ग़रीबों की उन्नति के नाम पर सरकारी स्तर पर किए जाने वाले कर्म-कांडीय प्रयत्नों के प्रति एक गहरा अनास्था- भाव भी था. वे जानते थे कि प्रशासकीय स्तर पर समारोहों के नाम पर ग्रामीण ग़रीबों की जो भीड़ जुटाई जाती है उनसे अधिक लाभान्वित ये ग़रीब लोग  न होकर  इन समारोहों के आयोजक और प्रदर्शनकर्ता ही होते हैं.
(by Édouard Manet)

यह कविता ऐसे ही एक सरकारी आयोजन का चित्र अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है जिसमें नंद बाबू जैसा कोई गम्भीर आशावादी कवि अपनी कविता पढ़ने के लिए खड़ा हुआ है. यह कवि वह मंच का कवि नहीं है जो अपनी गायन कला या फूहड़ हास्य से कम पढ़े-लिखे लोगों का मनोरंजन करता है. वह एक विचारशील कवि है और  अपनी कविता के माध्यम से अपने श्रोताओं को आज के यथार्थ से परिचित करवाने की  चाह रखता  है ताकि वे उसे  जान कर अपने आप को एक  लम्बी लड़ाई के लिए तैयार कर सकें जो उनके हालात को सचमुच बदल सके.

उसकी प्रसिद्धि के कारण इस कवि को भी एक सार्वजनिक सरकारी  कार्यक्रम में कविता-पाठ के लिए बुलाया गया है जहां आसपास के गांवों के “काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़” लोग भी किसी न किसी तरकीब से लाए गए हैं. कवि को अपनी कविता की सचाई में पूरा यकीन है पर वह शायद इस तथ्य से भी नावाकिफ़ नहीं है कि इस प्रकार के आयोजनों  में जो कवि वाहवाही लूटते हैं वे उसके जैसे बुद्धिजीवी कवि  नहीं होते. इसीलिए उसकी कविता सुन कर इन श्रोताओं का एकाएक उठ खड़ा होना उसे किंचित अप्रत्याशित (“उम्मीद के खिलाफ़”) लगता है :

जब वह पढ़ी गयी-
तब वे सब लोग खड़े हो गये
काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़
उम्मीद के खिलाफ़
वे खड़े हो गये

वस्तुत: इस स्थिति की नाटकीयता इस कविता को एक रोचक कविता बनाती है. सम्भव है गांव के ये लोग इतनी देर कविताएं सुनते हुए उकता गए हों और इसीलिए अचानक उठ खड़े हुए हों. पर इस कवि को अपनी आशावादिता में उनका यह उठ खड़ा होना उसकी कविता के असर से  विद्रोह में उठ खड़े होने जैसा लगता है.

अब होता यह है कि जो सरकारी अफ़सर इस आयोजन में ड्यूटी पर तैनात है उसे लगता है कि यह बुद्धिजीवी कवि इन श्रोताओं का अपेक्षित मनोरंजन न कर इस कार्यक्रम का मज़ा बिगाड़ रहा है. सम्भव है इस अफ़सर की अनुशंसा पर ही इस प्रसिद्ध और चर्चित बुद्धिजीवी कवि को बुलाया गया हो और सम्भव है इस अफ़सर को बाद में इस बात के लिए किन्हीं नेताजी की डांट खानी पड़े कि वह ऐसे  कवियों को कैसे बुला लेता है जिन्हें कायदे की कविता लिखना भी नहीं आता. जो भीड़ बहुत मुश्किलों से जुटाई गई है उसका इस तरह बिखरने लगना हर अफ़सर के लिए मुसीबत पैदा कर सकता है. इसीलिए यह अफ़सर दो टूक शब्दों में इस वरिष्ठ और बहुचर्चित् कवि को  निस्संकोच कह देता है कि

इसे  न  सुनाएं
यह  कोई  कविता  नहीं  है

पर इस कविता का जो सबसे करुण और मार्मिक भाग  है वह यह है कि

कवि डर कर बैठ गया

हमें यह न भूलना चाहिए कि कवि भी अंतत: एक सामाजिक प्राणी है. सम्भव है कल उसे अपने या अपने किसी रिश्तेदार के तबादले के लिए इसी अफ़सर के पास या इसी नेता की शरण में जाना पड़े जिसके लिए यह आयोजन किया जा रहा है. हमारे समय की विवशताओं और इसकी विडम्बनाओं को नंद बाबू जिस कुशलता से और जितने कम शब्दों में इस कविता माध्यम से व्यक्त करते हैं वह किसी भी समकालीन कवि के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है.

कवि का इस तरह डर कर बैठ जाना उसके लिए भी किसी ट्रेजडी से कम नहीं है क्योंकि यदि वह एक संवेदनशील कवि है तो उसकी आत्मा उसे सदैव इस बात के लिए कचोटती रहेगी कि जिस समय उसे अपनी ज़बान खोलनी चाहिए थी उस समय वह अफ़सर के आतंक से या अपने स्वार्थ के कारण  चुप रहा.  केवल कविता में सरकारी नीतियों के उसके विरोध करने का क्या अर्थ है यदि मौका पड़ने पर वह एक एक्टिविस्ट की भूमिका निबाहने में चूक जाए ? नंद बाबू के बिन्दु नामक पत्रिका निकालने, या किसी आम चुनाव के समय समाजवादी उम्मीदवारों के लिए भाषण देने को तैयार रहने को भी हमें इस कविता को पूरी तरह समझने के लिए याद रखना होगा.
   
                                                 
____________

सदाशिव श्रोत्रिय
5/126, गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी, सेक्टर 14,
उदयपुर -313001  (राजस्थान)
मोबाइल -8290479063 

मंगलाचार : अनामिका अनु की कविताएँ

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अनामिका अनु पेशे से वैज्ञानिक हैं, त्रिवेन्द्रम में रहती हैं और कविताएँ लिखती हैं. कविता को मनुष्यता की पुकार कहा गया है, जिस चोट को आप गद्य में नहीं अभिव्यक्त कर सकते उसे कविता न केवल मुखर करती है, उसे वह किसी कलाकृति में बदलने की क्षमता भी रखती है जिससे कि उसे व्यापकता मिले. दुःख सबका दुःख बन सके.

उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.








अनामिका अनु की कविताएँ
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जश्न ए दोस्ती की कविताएँ

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‘फ़रियाद की कोई लय नहीं है
नाला पाबंद-ए-नय नहीं है.’ (ग़ालिब)

साहित्य कला है, वह आवाज़, पुकार और मशाल है. वह दोस्ती है और दोस्ती का जश्न भी. कुछ स्त्रियाँ मिलती हैं और इस एहसास को कि तमाम अंतर के बाद हैं तो वे एक जैसी ही. और यहाँ उनकी मदद कविता करती है जैसा कि वह करती ही है. अपने को और दूसरों को देखने का सिलसिला शुरू होता है.

ज़ाहिर है ये सिद्धहस्त कवि की कविताएँ नहीं हैं पर जो सच्चाई है वह अंतर्मन को छूती है और यहीं ये कविता हैं.     





अनगढ़ अभिव्यक्ति

कमोबेश हम सबने अपने घरों में देखा होगा कि घर की कोई महिला, रात में सबके सो जाने के बाद या दिन में सबके ऑफ़िस-स्कूल चले जाने बाद, अपनी डायरी में चुपके चुपके कुछ लिखती है और डायरी बंद कर देती है. उनकी डायरी में दफ़न अभिव्यक्ति अक्सर उनके मरने के बाद लोगों के हाथ लगती हैं. कुछ लोगों के लिए वे हास्यास्पद होती हैं, कुछ के लिए शर्मिंदगी का कारण. अगर जीते जी किसी ने कभी लिखते हुए पकड़ लिया तो चिढ़ाना और ताना-तिश्ना भी संभव है. हम इस तरह उन लिखने वालियों में एक ख़ास तरह की झेंप तो भरते ही हैं, उनका हौसला भी पस्त कर देते हैं और उनकी अभिव्यक्ति कभी दुनिया के सामने नहीं आ पाती. उनकी डायरी में दर्ज कविताएँ सिर्फ़ उनके घरेलू जीवन और उनके सपनों का प्रतिबिम्ब ही नहीं होती है बल्कि उनमें मौजूदा हालात पर उनकी सियासी टिप्पणी भी होती है. जबकि लोग इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं घरेलू औरतें और विशेषकर मुस्लिम औरतें अपना कोई सियासी नज़रिया नहीं रखतीं. उनका साहित्यिक आंकलन तो बहुत बाद की बात है, पहले उनका पढ़ा जाना ज़रूरी है.

मुम्बई की एक ग़ैर-सरकारी-संस्था परचममहिलाओं के बीच विशेषकर मुस्लिम महिलाओं के  बीच काम करती है. बहुत सी सामाजिक गतिविधियों में शामिल रहते हुए इस संस्था ने पिछले  दिनों एक कविता कार्यशालाआयोजित करके समुदाय की लड़कियों को अभिव्यक्ति के लिए  प्रेरित किया और एक डायरी भी निकाली जिसमें उनकी चुनिंदा कविताएँ भी हैं. डायरी को उन्होंने जश्न-ए-दोस्तीका नाम दिया है जो सीधी चुनौती है देश की एकता और विविधता को नष्ट करने वाले तत्वों को. उन चंद लड़कियों की चंद कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत है. 
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फरीद खां



जश्न ए दोस्ती की कविताएँ


नेहा अंसारी

मैं नेहा अंसारी, नेचुरोपैथ और एक्यूपंक्चरिस्ट हूँ. 2010से मैंने पढ़ाई के साथ साथ लिखना शुरु किया था जो अब तक जारी है. मेरी कविता में आस पास पास की झलक नज़र आती है और मैं अपनी जिंदगी के तजुरबों के बारे में लिखना ज़्यादा पसंद करती हूँ.


लड़की

रास्ते पे चलती वह लड़की
चुपचाप हर नज़र को सहती
सर झुकाए, चुनर संभाले
ख़ुद अपने आप में सिमटती 
डरी डरी वह मासूम
फिर भी लोगों को खटकती

ज़िंदगी उसकी करके तंग
छीन के उसकी हर उमंग
चलते हो तुम तान के सीना
भँवर में उसका फंसा सफ़ीना 

घर में उसको रोका जाए
रास्ते में भी टोका जाए
कभी वह रोती, कभी वो लड़ती
खुद को संभाले हिम्मत करती
छुड़ा के अपना आँचल सब से
राह पे अपनी आगे बढ़ती

चेहरे पर थे खौफ़ के साए
फिर भी आँखों में सपने सजाए
चलती रही वह कदम जमाए
राह पे अपनी फूल सजाए

मंजिल है करीब उसके
रास्ते हैं चट्टानों से
जितना चाहो तुम कोशिश कर लो
नहीं डरेगी वह तूफ़ानों से
अब तुम ख़ुद ही डर जाओगे
उसके पुख़ता इरादों से.


उमंगें

क्या करना है जी कर मुझे यह जानती हूँ मैं
अपने दिल के सारे फैसले मानती हूँ मैं

हैं दिल में उमंगें चाँद तारों को छू लूं
इस ज़मीन से फ़लक तक जाना चाहती हूँ मैं

कभी चाहूं मैं फूलों के संग हंसना खेलना
गर हो काँटों की राहें, गुज़रना जानती हूँ मैं

क्यों चलूँ मैं हमेशा दुनिया के बताए रास्तों पर
अपनी राहों से अपनी मंज़िल बनाना चाहती हूँ मैं

हो बात मेरे मुस्तकबिल या हमसफ़र की
अपनी मरज़ी से हर चीज़ पाना चाहती हूँ मैं.



राबिया सिद्दीकी

मेरा जन्म इलाहाबाद के एक गाँव में हुआ. 12वीं तक की पढ़ाई किया है. अभी मुंबई में हूँ. मशहूर कवियों की रचनाएँ पढ़ने के साथ साथ ख़ुद भी कविताएं लिखने का शौक लगातार जारी है. 2010में शादी के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखी. यह सफ़र आसान न था लेकिन हौसले मज़बूत थे.


अंतर्यामी

हे अंतर्यामी
कब मैंने यह सृष्टि मांगी
दिया जो भी उपहार स्वरूप
स्वीकार किया पतझड़ और फूल
न चाह किया उपवन की
कनक भेंट न माँगी 
एक जोत सत्य की जले सदा
बस यह वरदान दो साची
इस छल नगरी से दूर कहीं 
एक सत्य नगर बनवा दो प्रभु
जहाँ झूठ की तपती धूप से
बचा रहे इंसाफ़ प्रभु.

मत भटकना...
मत भटकना भटकाने से
मत अटकना अटकाने से
धरती अपनी एक
इरादे अपने नेक
मजहब  अपना भाईचारा
मिल कर रहे हैं और रहेंगे
ज़ोर ज़ोर से लगा दो नारा
साज़िश की कैची
इसकी तो ऐसी की तैसी
बन जाएँगे ढाल हम
जल के उठेंगे मशाल हम
कटने न देंगे एकता के तार हम
दौड़ाओ अपनी अक्ल के घोड़े
मत बनो किसी के हाथों मोहरे
तथ्य तलाशो
सत्य पहचानो
कही सुनी पर कभी ना जाओ .
सोच समझ कर कदम उठाओ.


सुनीता बागल

मैं सुनीता, समाज परिवर्तन के लिए कार्य करना पसंद करती हूँ.


जाति के इस पार, धर्म के उस पार
जाति के इस पार, धर्म के उस पार
कभी झांकने ही नहीं दिया
जाति धर्म का घोल पिलाकर ही बड़ा किया
जाति के स्कूल में, जाति के ही कॉलेज में, जाति की ही शिक्षा
उस पार की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
संस्कृति, प्रतिष्ठा, घरानेशाही, इज़्ज़त-आबरू
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के खेल में
खेलकर बनाया परफेक्ट प्रोडक्ट
उस पार की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
विविधता, धर्मनिरेक्षता, समानता
इन शब्दों को रख दिया किताबों में
पड़ोस की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
कड़ी सुरक्षा के बीच किलों में कई हुए जौहर 
इतिहास को कभी दिखे ही नहीं
इतिहास के झगड़ों में कभी सुलह होने ही नहीं दिया
फिर भी कोशिशें चलती रही इन सभी जंजालों को पार करने की
क्षितिज  तक देखने की ........

कुछ साल पहले

कुछ साल पहले तो
घर में नियाज़ आती थी.
सेहरी के लिए हम सब मिलके
फ़िल्मी गाने गाते थे.
हम गणपति के सामने कितना नाचते थे.

उरुस में कव्वाली सुनने के लिए
कितना झूठ बोलते थे घर पे.
मेहराज के ढलता सूरज धीरे धीरेपर
कितने फ़िदा होते थे.
थक गए अजमेर शरीफ़ और पुष्कर जाते जाते.
कितने छोटे छोटे ताज सजाए
हमने शोकेस में.

क्या हुआ यार बाबरी के बाद,
इतनी सिलवटें क्यों आईं रिश्ते में ?
कब मैं मुसलमान बना और तू हिन्दू ?
मैं पाकिस्तानी और तू हिन्दुस्तानी,
मैं देशद्रोही और तू देशभक्त ?

फंस गए यार किसी के खेल में.
चल मिटाते हैं फटने के पहले
डांस करते हैं ढलता सूरज पर.



श्रद्धा रघुनाथ माटल

मेरा नाम श्रद्धा रघुनाथ माटल है. में रामनारायण रुईया ऑटोनोमस कॉलेज में फ़र्स्ट ईयर बी ए में पढ़ रही हूँ.

इंसान है हम..

मिट्टी से उभरकर आए हैं हम
मिटटी में ही मिलना है
इंसान का जनम मिला है
इंसान होके ही मरना है
नादान बनके तूने अपने घर के
दो हिस्से बना दिये
चल अभी ये दीवार गिरा दे
जिसने अपने ही मार दिये
दिल में जगी दुश्मनी से
दूर हो गई इंसानियत है
चलो फिर एक साथ हम
मानवता की शपथ खाते है
लौट आये प्यार दिलों में
नफ़रत हम छोड़े देते है
यह पैग़ाम आया है
इंसान अब इंसान हो चला है.



सुवर्णा

मै सुवर्णा, मुझे लगता है समाज में हर इंसान को ख़ुशी ख़ुशी जीने का अधिकार है. इसे पाने के लिए समाज में निरोगी वातावरण, एक दूसरे के प्रति आदर होना जरूरी है. साथ ही हर मन में खिलाडू वृत्ति होने से अपने आसपास  मानवता को  खत्म करने वाली कोशिशों को और "तोड़ो और राज करो”, की बढ़ती मानसिकता को हम नाकामयाब कर सकते है.


दोस्ती चाँद और आसमान की

गुज़रती उस ट्रेन से मैं.
नब्ज़ तेज़ होती.
सुकून होता बिछड़े प्रेमी के मिलने का.
याद आते वो रिश्ते.
ईद का चाँद ढूँढने की दौड़.
तो कभी बिजली जाने पर शोर.
पानी को लेकर झगड़े.
किसी के बीमार होने पर
प्यार से आगे बढ़ते हाथ.
नहीं था वह ख़ून का रिश्ता.
फिर भी धड़कते थे दिल.
माहौल कभी भी ठीक न था बाहर.
लेकिन डर नहीं था इस रिश्ते में.
दोस्ती थी चाँद और आसमान की सी.
रिश्ता था यह नाजायज़.
सीमाओं पर होती रजनीति.
ये तो बस्ती थी. 
दिलों की हस्ती थी.
मकसद रहा इन्हें तोड़ना.
ज़माने से बसाते रहे डर.
बंट गईं बस्तियाँ, शहर.
फिर भी .........
हम चाँद और आसमान इकठ्ठा देखते रहे.



अकीला ख़ान

मेरा नाम अकीला ख़ान है और मैं नारीवादी संघटन से जुडी हूँ. मुझे नज़्म लिखने और फ़िल्म बनाने में दिलचस्पी है और अपने नज़रिये को लफ़्ज़ों और विडियो की सूरत में सब के सामने रखना चाहती हूँ.

भीड़

ज़ुल्म, तशद्दुद, गुंडागर्दी तुम करो.
इलज़ाम राम के नाम  पर धर दो.

भड़काओ भीड़, करो आगज़नी, जान लो मज़लूम की.
करतूत ये नफ़रत भरी, देश भक्ति पर धर दो.

इस्तेसाल, खूनखराबा, नाइंसाफी करो.
फिर मज़हब की चादर से ढँक दो.

हैवान शर्मिंदा है, ऐवान पर हम शर्मिंदा
नाफ़िज़ जंगल का, कानून है समझ लो.

पूछना सवाल करना हुआ अज़ाब.
आधार से भी ना मिला आधार.

इंसाफ़ की अब उम्मीद करना भी पाप है.
अगर शिकायत करो तो, पड़ोसी मुल्क का हाथ है.
संसद में कमाल है, विपक्षी दल बेहाल है.
बोलती कलम को जेल या गोलियों से वार है.

सच का गला दबाती, हर भीड़ है
चीख़ जो निकले वह, घुसपैठ है.

अब विकास के इंतज़ार में देश बेहाल है
हॉस्पिटल में बस ऑक्सीजन की ना है.

राम का नाम सत्य था, सत्य है, सत्य रहेगा
बस जय जयकार की क्यूं गुहार है.

चलो अपने मन को टटोले हम.
कुछ तुम सुन लो, सब कुछ कह दे हम.

रोज बरोज के संघर्ष हमारे एक से हैं.
फिर तीसरा क्यूँ डर की राजनीति खेले

चल मिलकर थोड़ा अपने सवाल उठाएँ 
नफ़रत का चश्मा उतारकर एक साथ आएँ 

फिर देखना किस के पसीने छूटते है
फिर किसे सुरक्षा के नाम पर लूटते है

आज़ादी ए हिन्द

आज़ादी ए हिन्द की कहानी तो याद होगी.
लड़े जो वह बाग़ी उनकी कहानी तो याद होगी.

1857से शुरू हूआ था अंग्रेजो का ज़वाल.
याद होगा मंगल पण्डे और शाह ज़फर का जलाल.

लड़े जो आज़ादी ए वतन के लिए, उनकी फ़ेहरिस्त तवील है.
तारीख़ के पन्नों में उनकी पुख्ता दलील है.

कैसे नाम लिख दूँ, किसी एक फ़र्द का.
जज़्बा था वो अव्वाम, बग़ावत और इतेहाद का

देखा जो भाईचारा, तो चली चाल मक्कारी की
नाम मज़हब का ले कर, लोगों में फूट डाली थी

ले कर मज़हबी पहचान हर शख्स़, रस्ते पर निकल पड़ा
हर घर कब्रस्तान और आँगन शमशान सा जल गया

इंसानियत बेगुनाहों की लाशों, में दब गई थी.
एक वतन की पहचान दो नक्शों में बट गई थी.

दानिशमंदी और तर्क की बुनियाद पर फिर अहद हमने लिया.
हिन्द का आईनखुद को लाज़िम उसूल की शक्ल में दिया.

देश भक्ति का नकाब ओढ़े, वो दुश्मन फिर आ गया है.
मज़हबी ख़ानों में फिर से, लोगों को बाँट रहा है.

वक़्त आ गया है फिर वही, इंकलाब का परचम लहराना होगा
अपने दस्तूर की हिफ़ाज़त के लिए, हमें साथ आना होगा.
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parchamcollective@gmail.com

कृष्णा सोबती : लेखन और नारीवाद : रेखा सेठी

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कृष्णा सोबती की स्त्रियाँ दबंग हैं और अपनी यौनिकता को लेकर मुखर भी. पर क्या वे ‘स्त्रीवादी’ भी हैं? कृष्णा सोबती खुद को स्त्रीवादी लेखिका के रूप में नहीं देखती थीं. क्या यह सामर्थ्य खुद उसी परम्परा में  नहीं है जिसमें पराधीनता की भी एक लम्बी श्रृंखला है.

रेखा सेठी का यह आलेख इसी द्वंद्व से उलझता है.  



किसी के अधीन न होना भी ताकत है, सामर्थ्य है.
रेखा सेठी








कृष्णा सोबती के रचनाशील व्यक्तित्व में अवज्ञा का स्वर प्रमुख है. ज़िंदगी में गहरे पैठ, समाज की परंपरागत जकड़बंदियों को अस्वीकार करते हुए, जीवन के भिन्न पक्ष से साक्षात्कार करने की बेचैनी, उनकी कृतियों का केंद्र है. ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो दानिशआदि सभी रचनाओं में कुछ यादगार स्त्री छवियाँ उभरती हैं जिनमें परंपरागत मान्यताओं के प्रति अस्वीकार का बोध सामाजिक संरचनाओं के निषेध मात्र की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि सामाजिक स्थितियों को पलटकर देखने और उनके भीतर के सत्य को उद्घाटित करने की कोशिश है. यह स्त्री आकांक्षा का वह सच है जो संस्कृति और नैतिकता के ढोंग में सदा अदृश्य रखा गया. कृष्णा जी का लेखकीय स्वभाव उन्हें साहित्यकारों की उस अलग पंक्ति में स्थापित करता है जिन्होंने जीवन में आसान समझौतों की राह कभी नहीं अपनाई.

इस पूरी स्थिति में विलक्षण यह है कि अपनी दबंग रचनाकार की छवि के बावजूद कृष्णा जी ने अपने लेखन को कभी स्त्रीवादी मुहावरे से जोड़कर देखा जाना स्वीकार नहीं किया. रचनाकार का यह आग्रह अपनी जगह बिल्कुल सही है कि भारतीय समाज की लाख बंदिशों के बावजूद खुदमुख्तार स्त्रियाँ हमेशा रही हैं और उनका होना ही जीवंत-धड़कते समाज के होने का सबूत है. ‘ऐ लड़कीकी अम्मू चाहें अपनी बेटी के भावी अकेलेपन की कितनी ही चिंता करें लेकिन माँ और बेटी खूब जानती हैं कि संग-संग जीने में, रहने में कुछ रह जाता है.’ इसीलिए माँ जब बेटी से पूछती है कि अकेले रहते हुए ज़रूरत पड़ने पर वह किसे आवाज़ देगी तो बेटी निशंक भाव से कह पाती है – “मैं किसी को नहीं. जो मुझे आवाज़ देगा, मैं उसे जवाब दूँगी.” साहित्य में स्त्री-मुक्ति के प्रत्यक्ष मुहावरे से बहुत पहले कृष्णा सोबती की स्त्री किरदार अपने होने में पूरी तरह आश्वस्त हैं.

स्त्री रचनाशीलता ने स्त्री की सामाजिक स्थिति
, उसकी भौतिक उपस्थिति तथा अपने समय को परिभाषित करने की उसकी कोशिश को अनेक स्तरों पर अभिव्यक्त किया. नई कहानी के दौर में अधिकांश कथा साहित्य स्त्री-अस्मिता के निजी सवालों और परिवार में उसके अस्तित्व व नैतिकता को लेकर बन रही अंतर्विरोधपूर्ण स्थितियों का लेखा-जोखा है. मनःस्थिति व परिस्थिति के द्वंद्व से उपजी जीवन स्थितियों के बीच स्त्री जीवन की विवशता को बखूबी पढ़ा जा सकता है, जिससे यह उजागर हो जाता है कि परिवार के ढाँचे के भीतर ही दमन के कितने रूप हो सकते हैं. कृष्णा सोबती का कथा साहित्य परिवार और पितृसत्ता से एक भिन्न स्तर पर संवाद स्थापित करता है.

कृष्णा सोबती के स्त्री पात्र अपने में एक पहेली हैं
. उनके यहाँ स्त्री के हर रूप की झलक है- समर्पिता, आज्ञाकारी, गर्वीली, प्रेम-निमग्न, गृहस्थी में खटती लेकिन संतुष्ट स्त्रियाँ, स्वामिनी-सेविका-रखैल आदि. कृष्णा जी की सिरजी पात्रों की ख़ासियत यह है कि वे सब अपनी ज़िंदगी, अपनी शर्तों पर जीती हैं. मनुष्यता के स्तर पर वे महान भले ही न हों लेकिन तंगदिल भी नहीं हैं. वे दुनिया के उस खेल को समझती हैं जहाँ एक बार का थिरका पाँव ज़िंदगानी धूल में मिला देगा’ (डार से बिछुड़ी); जहाँ स्त्री जीवन की सार्थकता अपने स्वामी को खुश रखने में है या फिर उपजाऊ धरती हो जाने में. यह सब पितृसत्तात्मक समाज की पारिवारिक व्यवस्था के असुविधाजनक सवाल हैं जिन्हें कृष्णा सोबती ने समय से बहुत पहले बेपर्द किया लेकिन बतौर लेखिका स्त्री-लेखनकी सीमा में अपनी पहचान बनाना भी उन्हें मंज़ूर नहीं. केवल अस्वीकार ही काफी नहीं उन्हें इस तरह के वर्गीकरण पर खासा एतराज़ रहा.

अपने सर्जक के समान उनकी कथा-कहानियों के पात्र भी अदम्य जिजीविषा व साहस के बल पर साधारण-सी दिखने वाली जीवन स्थितियों में अपनी सच्ची-खरी उपस्थिति से एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर देते हैं. ‘मित्रो मरजानीको पढ़ते हुए आप कृष्णा सोबती को एक क्षण के लिए भी भूल नहीं सकते. अपने ख़ास तेवर में साठ के दशक में स्त्री अस्मिता और नैतिकता के स्थायी द्वंद्व के बीच वे मित्रो की सजीव उपस्थिति से मानो यह दर्ज करना चाहती हों कि स्त्री का एक रूप यह भी है जो समाज की सभी रूढ़ मान्यताओं के बीच अधिक सच्चा व मानवीय है. अपने होने और जीने का अर्थ तलाशती मित्रो जिन आकांक्षाओं का आग्रह करती है उससे समाज की स्थिर परंपराओं, मर्यादाओं एवं नैतिकताओं में विस्फोट अवश्य पैदा होता है. यह परंपरागत मान्यताओं का निषेधात्मक विरोध उतना नहीं है जितना कि स्थिति को पलटकर देखने की कोशिश जिसमें एक नए जीवन सत्य का अहसास होता है जो स्त्री के मातृत्व व देवत्व से गढ़ी महिमामंडित छवियों के विरोध में उसकी नसों में बहती कामनाओं व इच्छाओं का पता देती हैस्त्री की यह छवि अधिक वास्तविक व यथार्थ है.

मित्रो की देह की आदिम अगन किसी भी अपराध बोध से परे है. वह सिर्फ परिवार की बहू, बेटी, भावज और सरदारी की पत्नी ही नहीं ..... वह कुछ और है.......कुछ और भी. वह अपनी संज्ञा में ढूँढती है अपनी अस्मिता को. यह मैं हूँ.......मै हूँ न, मैं भी. परिवार के बीचोंबीच उसकी छटपटाहट एक शोर पैदा करती
है. एक देह भाषा गढ़ती है.” (कृष्णा सोबती)

मित्रो अपने शारीरिक सौंदर्य पर स्वयं तो रीझती ही है और साथ ही यह भी चाहती है कि और लोग भी उसके इस भाव को स्वीकारें. वह गृहस्थी को लच्छमन की लीक नहीं मानती; परिवार के अनुबंधों को स्वीकार नहीं करती; उसके तन ऐसी हौंस व्यापती है जो पारिवारिक मर्यादाओं के विपरीत पड़ती है. उसका पति सरदारी उसकी यह प्यास नहीं समझता इसलिए मित्रो अपने जेठ बनवारी से ही यह अपेक्षा करने लगती है,
 “अनोखी रीत इस देह-तन की. बूँद पड़े तो थोड़ी, न पड़े तो थोड़ी  आज भडवा बनवारी ही जो बनाव-सिंगार देखता.”
एक भारतीय परिवार की बहू का अपने जेठ के प्रति ऐसा भाव उसके चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए काफी है. इसलिए वह उस संयुक्त परिवार में मिसफिटहो जाती है. इस दृष्टि से डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का मत महत्त्वपूर्ण है,
मित्रो इस कहानी में संयुक्त परिवार की भीरु आत्मतुष्ट दुनिया के सर पर पड़ने वाली डंडे की चोट है.”
यह स्थिति उस भारतीय परंपरा से मोहभंग की स्थिति है जहाँ विवाह दो शरीरों का संयोग नहीं दो आत्माओं का पवित्र बंधन माना जाता है. मित्रो के इस पूरे आचरण में कहीं भी पाप-बोध या कुंठा का भाव नहीं है क्योंकि उसके लिए उसकी देह उसकी पहचान भी है, अभिव्यक्ति भी. समस्त पारिवारिक मर्यादाओं को परे रख उसमें अपनी बात खुलकर कहने की शक्ति भी है.

परिवार, वह संस्था है जो स्त्री के स्त्रीकरण के लिए उत्तरदायी है. वह स्त्री से त्याग की अपेक्षा करते उसे लगातार उसके अधिकारों से वंचित किए रहती है. मित्रो की दैहिक चेतना इन परंपराओं और नैतिकताओं के आवरण को चीरती हुई ऐसे प्रश्न उपस्थित कर देती है जो महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अनुत्तरित हैं---जिन्द जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म.” मित्रो इन प्रश्नों से हज़ारों आदर्शों और मर्यादाओं की ओट में छिपे हमारे सामाजिक अंतर्विरोध उधेड़कर हमारे सामने रख देती हैं. पितृसत्ता, स्त्री देह पर नियंत्रण से ही टिकी हुई है और इसे सुरक्षित रखने के लिए पुरुष युद्ध व हिंसा की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. देह-विदेह के दार्शनिक आख्यानों से स्वयं को गौरवान्वित करने वाली संस्कृति में देह की अभिव्यक्ति लगभग निषिद्ध है. मित्रो इस विचार के लिए चुनौती है. मित्रो के चरित्र में उभरता द्वंद्व स्त्री रचनाशीलता व स्त्री चिंतन का ऐतिहासिक द्वंद्व है. स्त्री अस्मिता और स्त्री यौनिकता के प्रश्न आज भी पूरे विमर्श के केंद्र में हैं. स्त्री के लिए विशेष रूप से निश्चित की गई यौन शुचिता भारतीय पारिवारिकता का मूल आधार है.

ऐ लड़कीमें अम्मू का कथन- देह तो एक वसन है, पहना तो इस ओर चले आए, उतार दिया तो परलोक.....कबीर की उसी दार्शनिक उदात्तता को प्रतिध्वनित करता है जहाँ फूटा कुंभ, जल-जल ही सामना......यही सार तत्व है. इस सबके बीच उद्दाम इच्छा और वासना से लक-दक मित्रो की दैहिकता परिवार और समाज के लिए बहुत बड़ी पहेली है. पूरे उपन्यास में यह प्रश्न बार-बार आता है कि मित्रो की आकांक्षाओं के अधूरेपन के लिए उसका पति कितना उत्तरदायी है. उसकी सास धनवंती अपने पुत्र की संग-सेहत को लेकर चिंतित है. वह बड़े बेटे और बहू से अलग-अलग टोह लेना चाहती है कि मित्रो के आरोप कहीं सच्चे तो नहीं. पूरे उपन्यास में कोई भी आधिकारिक तौर पर नहीं कह पाता कि सरदारी लाल में कोई कमी है. बस यही कि मित्रो जैसी स्त्री उसके बस से बाहर है. मित्रो की इच्छा-कामना को निभा पाना साधारण मर्द के लिए संभव नहीं. सरदारी लाल का अपनी पत्नी से हर रोज़ का धौल-धप्पा उसकी अपनी सीमाओं के साथ-साथ मित्रो को लेकर चलने वाले अपवादों से भी जुड़ा है. मित्रो अपने जिस रूप को अपनी ताकत मानती है और हर क्षण यह तौलती रहती है कि कौन मर्द जना होगा जो इस पर न रीझ जाए, वही सरदारी लाल के दिल में काँटे-सा चुभता है. उसकी परेशानी इस बात से बढ़ती है कि मित्रो अपने देह पर अपने पति के एक छत्र अधिकार को ख़ारिज कर रही है.

असल में, मित्रो के पास चीज़ों को तौलने-परखने की अपनी दृष्टि है. वह ज़िंदगी को सही और ग़लत के खानों में बाँटकर नहीं देखती बल्कि उसे वह जीवन की समग्रता में देखती है. इसलिए जब सरदारी के आरोप लगाने पर मित्रो से पूछा जाता है कि वह सच है या झूठ, तब उसका उत्तर स्पष्ट है---सज्जनों. यह सच भी है और झूठ भी.” जीवन की सबसे बड़ी विडंबना ही यह है कि झूठ और सच के बीच की विभाजक रेखा अत्यंत क्षीण है. संदर्भों के बदलते ही झूठ और सच की अवधारणा भी बदलने लगती है. मानवीय अनुभव का हल्का-सा संस्पर्श भी हमारी पूरी मूल्यगत चेतना को हिलाकर रख देता है. मित्रो ने जीवन का यही अर्थ समझा है---सोने-सी अपनी देह झुर-झुरकर जला लूँ या गुलजारी देवर की घरवाली की न्याई सुईं-सिलाई के पीछे जान खपा लूँ ? सच तो यूँ जेठ जी, कि दीन-दुनिया बिसरा मैं मनुक्ख की जात से हँस-बोल लेती हूँ. झूठ यूँ कि खसम का दिया राज-पाट छोड़े मैं कोठे पर तो नहीं जा बैठी ?” मित्रो का यह जीवन-बोध परिवार की अवधारणाके लिए बहुत बड़ी चुनौती है.

पितृसत्तात्मक समाज में यद्यपि स्त्री-देह की आकांक्षा सबसे प्रबल है फिर भी स्त्री के लिए वह वर्जित ही है. साठ के दशक में मित्रो की यह ठसक लगभग अप्रत्याशित है जिसने रचना और आलोचना को समान रूप से अचंभित किया. अपने सौंदर्य पर रीझने वाली औरतें साहित्य में अत्यंत दुर्लभ हैं. विश्वनाथ त्रिपाठी ने मित्रो की इस वृत्ति को आदिम कुंठाहीनतातो स्वीकार किया लेकिन उपन्यास की व्याख्या देह के संस्कार तथा परिवार के संस्कारकी टकराहट के रूप में की. निर्मला जैन ने भी इसी विचार पर मुहर लगाते हुए लिखा – “’मित्रो मरजानीमें भले ही सबसे तीखी आवाज़ इस आदिम कुंठाहीनता की हो पर अपनी परिणति में यह संयत-संतुलित सामाजिकता की तरफ वापसी की कहानी है.”

कहानी में जितनी लक-दक दैहिक आकांक्षा है, उतनी ही लक-दक पारिवारिकता भी है. हँसता-बोलता गुरुदास-धनवंती का परिवार जिसकी रौनक भी बोली-ठोली मारने वाली मँझली बहू सुमित्रावंती (मित्रो) ही है. उपन्यास का आरंभ घर की जिस पहचान से होता है वह कृति के अंत तक बनी रहती है. उपन्यास की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है--- मटमैले आकाश का एक छोटा-सा टुकड़ा रौशनदान से उतर चौकोर शीशों पर आ झुका तो नींद में बेखबर सोए गुरदास सहसा अचकचाकर उठ बैठे. बाँह बढ़ा खिड़की से चश्मा उठा आँखों पर रखा और चौकन्ने हो कमरे की पहचान करने लगे. यह रहा कोने में रखा अपना छाता, खूँटी पर लटका लंबा कोट, अपना ही घर है.” कमरे में रखा सामान केवल वस्तु भर नहीं है, गुरुदास की पहचान उन सबसे जुड़ी है. ‘अपना ही घर हैका अहसास उन्हें सुरक्षा और आत्म-विश्वास से भर देता है. ‘घरजो बना है रिश्तों और संबंधों से. गुरुदास के जीवन का अर्जित सत्य है---घर-गृहस्थी के जंजाल में भी मनुक्ख घाटे में नहीं रहता.”

मित्रो के जीवन का अर्जित सत्य क्या है? गुरुदास-धनवंती के परिवार का प्रतिपक्ष है मित्रो का मायका जहाँ उसकी कारोबारनमाँ के रीतते जीवन का बियाबान है. पारिवारिकता की उष्मा और उसके विरोध में उभरता बालो के जीवन का सूनापन, मित्रो का संबंध इन दोनों से है. वह जीवन के इन दोनों रूपों के अंतर्विरोध को जीकर पारिवारिकता के सत्य को पहचानती है. उपन्यास के अंत में सरदारी के पास लौटने के निर्णय से मित्रो की प्राथमिकता देह की अपेक्षा संबंधों की गहराई की बन जाती है. जिसे विश्वनाथ त्रिपाठी आदिमता से मानवीयतातक की यात्रा कहते हैं. भावना से संवलित होने पर ही काम परिष्कृत होता है. क्या मित्रो कृति के अंत में इसी सत्य तक पहुँचती है, यह कठिन सवाल है.

अपनी माँ के घर जाती मित्रो के मन में एक अलग ही उमंग थी. मायके की गली-बाज़ार से गुज़रते हुए पुराने यारों की फब्तियाँ उसके होंठो पर मुस्कान बन खेलती हैं. रूप यौवन के गर्व में मदांध मित्रो माँ के पुराने यार (खरीदार) से मिलने चली तो दोनों स्त्रियों के जीवन में क्लाइमेक्स का क्षण एक साथ घटित होता है. मित्रो जब छज्जेवाली पौडियाँ चढ़ी तो बालो के कलेजे में हूँक उठी---जो डिप्टी सौ-सौ चाव कर तेरी शरणी आता था, वही आज इस लौंडिया से रंगरलियाँ मनाएगा. थू री बालो तेरी ज़िंदगी पर.” उधर, मित्रो के लिए भी यह निर्णय का क्षण है. अपने सुच्चे-सच्चे मर्द को नशे में बेसुध कर जो मित्रो आगे बढ़ी वह अपनी कामना को नियंत्रित कर फिर उसी की बगल में आ लेटी. क्या यह पारिवारिक संस्कार की विजय है? क्या यह कृष्णा सोबती की पक्षधरता का प्रतीक है जहाँ वह स्त्री के स्वतंत्र-स्वच्छंद जीवन को पारिवारिक आग्रह की ओर मोड़ देना चाहती हैं. यह जीवन की उद्दामता को उच्छृंखलता का पर्याय मानकर नियंत्रित-संस्कारित जीवन शैली की वरीयता की पहचान है. इन सवालों के सीधे जवाब नहीं हैं.

कहानियों और उपन्यासों का सांकेतिक अंत होता है जीवन का नहीं. मित्रो की कहानी का अंत हो सकता है, मित्रो का नहीं. सरदारीलाल के साथ मित्रो जब ससुराल लौट जाएगी तो क्या वह बदली हुई स्त्री होगी, कहना कठिन है. इस उपन्यास तथा कृष्णा सोबती के लेखन की सार्थकता इसी में है कि हम जान पाए कि मित्रो जैसी स्त्रियाँ भी हैं जो स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति की रूढ़ होती परिभाषाओं को चुनौती देती हैं. वे जान पाती हैं कि अपनी मन मर्जीं से जीना, ‘किसी के अधीन न होना भी ताकत है, सामर्थ्य है.’
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डॉ. रेखा सेठीदिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्राध्यापक होने के साथ-साथ एक सक्रिय लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक भी हैं. पिछले कुछ समय से वे स्त्री रचनाकारों की कविताओं के अध्ययन के माध्यम से साहित्य एवं जेंडर के अंतस्संबंधों को समझने की कोशिश कर रही हैं।उनका आग्रह स्त्री-कविता को स्त्री-पक्ष और उसके पार देखने का है.इस विषय से संबंधित उनकी दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं---स्त्री-कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य तथा स्त्री-कविता: पहचान और द्वंद्व 

उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं--‘विज्ञापन: भाषा और संरचना’, विज्ञापन डॉट कॉम’, ‘व्यक्ति और व्यवस्थाः स्वांतत्रयोत्तर हिन्दी कहानी का संदर्भ, ‘मैं कहीं और भी होता हूँ: कुँवर नारायण की कविताएँ’ (सं), निबन्धों की दुनिया: प्रेमचंद’ (सं), ‘निबन्धों की दुनिया: हरिशंकर परसाई’(सं) तथा ‘निबन्धों की दुनिया: बालमुकुन्द गुप्त’(सं), ‘हवा की मोहताज क्यूँ रहूँ’ (इंदु जैन की कविताएँ - सं)आदि.

हाल ही में उनके द्वारा अनूदित सुकृता पॉल कुमार की अंग्रेज़ी कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘समय की कसकशीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है.
फ़ोन: 9810985759                                                                                                                 

राकेश मिश्र की कविताएँ

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राकेश मिश्र के तीन कविता संग्रह इसी वर्ष प्रकाशित हुए हैं. उनकी कवितायेँ सहज, सरल, सुबोध हैं. वे जीवन से कुछ पल और प्रसंग उठाते हैं और उन्हें  शब्दों से रंग देते हैं, उनकी अपनी ही आभा दिखने लगती है. आकार में छोटी पर मंतव्य में गहरी उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.





राकेश मिश्र की कविताएँ                                 



अभी

अभी
छलका है
मुस्कान का सुगन्धित कटोरा
उसके चेहरे से
अभी समय है
हवा के शुष्क होने में.

अभी
देखी है
दर्द की एक बसावट
उसके चेहरे पर

अभी
कुछ दिनों तक
और नहीं पढ़ना

अभी
रोया है
फूट-फूटकर
वह आदमी

अभी
समय है
दुनिया को सभ्य होने में.






मेरी धरती

मेरी
धरती
मोरपंख जैसी
मेरे
सपने
हिरन जैसे.

मेरे दोस्त
जैसे रंगीन कंचे
पारदर्शी 



जीवन

जो
मेरे अन्दर था
वही
मेरे बाहर था
लड़ता रहा मैं
जो
नहीं था
कहीं भी
मेरी कल्पनाओं में
मुखरित होता रहा
जन्म जन्मान्तर
मैने जिया
जिसे
वह जीवन
बंटा हुआ था.





बातें

बातें
अपना पता जानती हैं
चौराहे पहचानती हैं
बातें
यदि नजरबंद हों
तो भी
इतिहास बदलना जानती हैं.




आँसू

मन
हमेशा भर लेता है
कटोरा
आंसुओं से
आँखें
तो केवल
अतिरिक्त ही बहाती हैं.





मरा हुआ आदमी

अभी
कितना जियोगे !

पूछता है
हर जीवित आदमी से
मरा हुआ आदमी.


  


अलार्म घड़ियाँ

हर सुबह
भाडे पर हत्‍या करती हैं
अलार्म घडियॉं
सपनों की.




पहला तिनका

अभी
चिडिया ने चुना है
पहला तिनका
घोसले के लिए

यह समय नहीं है
निराश होने का.




यादों का घर

बहुत
मुश्किल है
ढहाना
यादों का घर

फिर यादों के
खण्‍डहर
नया घर
बनाने नहीं देते.




प्‍यार में

मुझे प्‍यार था
उससे
उसके पैरों को देखा
धूल से नहाये 
सांवले पैरों पर 
हवाई चप्‍पलों की सफेद धारी थी,
पावों में काला धागा बंधा था

यह सच है
प्‍यार में पहली नजर
पावों को ही लगती है.
_______________________________________


राकेश मिश्र
538क/ 90विष्‍णु लोक कालोनी
मौसम बाग, त्रिवेणी नगर 2 
सीतापुर रोड, लखनऊ, 0प्र0- 226020
9205559229

परख : योगफल (अरुण कमल) : मीना बुद्धिराजा

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योगफल
अरुण कमल
वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रथम संस्करण -2019
मूल्य- रू. 295

















प्रसिद्ध हिंदी कवि अरुण कमल की २०११ से २०१८ के बीच लिखी गयी कविताओं का संग्रह ‘योगफल’ इस वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. मीना बुद्धिराजा इस संग्रह के बहाने अरुण कमल के कविता-यात्रा को देख-परख रहीं हैं.
       



अरुण कमल : योगफल
सृष्टि को बचाने का स्वप्न                    
मीना बुद्धिराजा






श्रेष्ठ कविता इतिहास और समय की तमाम संकीर्णताओं का अतिक्रमण करती है. आधुनिक हिंदी कविता के सुपरिचित प्रतिष्ठित कवि अरुण कमलके पहले कविता संग्रह की आखिरी कविता ‘अपनी केवल धार’ आधुनिक हिंदी कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय और अनिवार्य कविता के रूप में दर्ज़ की जाती है. यह समकालीन हिंदी कविता की उस कथ्य, वस्तु, संवेदना और शिल्पगत संरचना का ठोस उदाहरण है जिसमें हमारे समय की अटूट सच्चाई और ज्वलंत यथार्थ ही नहीं बल्कि उसके पीछे मानवीय शोषण के प्रतिरोध और संघर्ष की, जन-सरोकारों की जो ताकत है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

वंचित, उपेक्षित और शोषित मनुष्य के लिए दायित्व और अंतिम प्रतिबद्धता उनकी कविता की अनिवार्य शर्त है. इस जनतांत्रिक स्वर के साथ हिंदी कविता के परिदृश्य में अस्सी-नब्बे के दशक से अपनी कविता-यात्रा आरंभ करने वाले गंभीर पहचान के साथ अरुण कमल समकालीन हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं और हमारे समय के जरूरी और सार्थक कविरचनाकार के रूप में शीर्षस्थ पंक्ति में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है. उनकी कविताएँ समकालीनता के मूल्यांकन का एक संवेदनशील निकष लंबे अरसे से बनी रहीं हैं और नि:संदेह यह धार अब भी उनकी कविताओं में ईमानदारी, व्यापक जनपक्षधरता और लोकतांत्रिक संवेदना के साथ मौजूद है जो आज भी उनकी काव्यात्मक भूमि का उर्वर प्रदेश है.

अरुण कमल के प्रकाशित कविता संग्रहों में अपनी केवल धार, सबूत, नये इलाके में, पुतली में संसार, मैं वो शंख महाशंखजैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ, आलोचना-विमर्श केंद्रित पुस्तकें- ‘कविता और समय, गोलमेज और कथोपकथन-(साक्षात्कार) और वायसेज़ जैसी समकालीन भारतीय कविता की वियतनामी कवि ‘तो हू’की कविताओं के अनुवाद की पुस्तक के साथ ही अनेक कवियों-विचारकों के हिंदी अनुवाद और हिंदी के प्रमुख कवियों के उनके अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हैं.

अरुण कमल की प्रमुख रचनाओं और कविताओं का अनेक देशी-विदेशी भाषाओं मे अनुवाद एक बड़े कवि के रूप में उनकी रचना-दृष्टि और संवेदना का विस्तार और प्रभाव है. आलोचनापत्रिका का संपादन नामवर सिंह जी के साथ दो दशकों तक उन्होनें किया. कविता के लिए अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों के साथ सम्मानित अरुण कमल को नये इलाके मेंपुस्तक कविता- संग्रह के लिए उन्हें 1998का हिंदी का सर्वोच्च साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और उनकी सृजनात्मक यात्रा अनवरत जारी है.
  
इसी कविता यात्रा में अरुण कमल जी का नवीनतम कविता-संग्रह योगफलइसी वर्ष वाणी प्रकाशनदिल्ली से प्रकाशित होकर आना हिंदी कविता के उन गंभीर पाठकों के लिए बड़ी उपलब्धि है जो कविता को जीवन जीने की तरह अनिवार्य मानते हैं. यह पुस्तक उनकी कविताओं का नया संग्रह है जिसमें 2011से 2018के दौरान लिखी गईं. एक वरिष्ठ और मूल्यवान कवि के रूप में यह विशिष्ट पड़ाव हिंदीं की समकालीन कविता में भी आलोचना की नई संभावनाओं को प्रशस्त करता है.

पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर शीर्षक योगफल के साथ इन कविताओं का केंद्रीय भाव- नीचे धाह उपर शीत’- के उपशीर्षक के साथ प्रतीकात्मक संकेत देता है जिसमें सृष्टि और समाज में मानवीय जीवन के सुख-दुख से आप्लावित तप्त-शीतल व्यापक विराट अनुभव हैं

जैसे ही कौर उठाता हूँ
कोई आवाज़ देता है.
   
योगफलकविता संग्रह के रूप में कवि के जीवन के विविध अनुभवों, प्रसंगो और चरित्रों का अद्भुत योगफल है. इस पुस्तक की मूल स्थापना यही है कि प्रत्येक जीवन न केवल मनुष्य जीव-जगत का बल्कि इस भुवन के प्रत्येक तृण- गुल्म, प्राणि का समाहार है इसलिए कोई भी पहचान या अस्मिता शेष सबको अपने में जोड़कर ही पूर्णता प्राप्त करती है. यहाँ अतिरंजना का जोखिम उठाकर भी नि:संदेह कहा जा सकता है की एक श्रेष्ठ प्रतिबद्ध कवि संपूर्ण मनुष्यता का योगफल और समावेश है. यहाँ उनकी कविता के प्राय: सभी पूर्वपरिचित अवयव और स्वर उपस्थित हैं लेकिन इनमे जो भिन्न, नवीन और मौलिक चीज़ है वह है कविता का बहुमुखी होना. कविता एक साथ कई दिशाओं में खुलती है जैसे सूर्य की एक ही रश्मि अनेक रंगों और लहर अनेक कटावों से आती- जाती है. पहली कविता- योगफल- से लेकर आंतिम कविता प्रलय तक इसे देखा जा सकता है जहाँ दोनो तरह के खदान हैं-धरती के उपर खुले में तथा भीतर गहरे पृथ्वी की नाभि तक. हर अनुभव को उसके उदगम से लेकर फुनगियों तक गहराई से देखने का उद्यम अप्रतिम है. इसलिए इन कविताओं में कुछ भी त्याज्य अपथ्य नहीं है- इसमें सभी शामिल हैं रोज-ब- रोज के राजनीतिक प्रकरण जो कई बार जीने और मरने की वज़ह तय करते हैं तो रात के तीसरे पहर का स्वायत्त एकांत भी. द्वंद्वों और विरुद्धों का सांमजस्य करती ये अनूठी कविताएँ हैं जिसमें नीचे धाह उपर शीत है. पहली कविता योगफल ही अपनी अन्विति में सम्पूर्ण जीवन की कविता है जो अनेक स्तरों पर घटित होती हुई एक साथ साधारण पाठक से लेकर चिरंतन पर्श्नों पर विचार करते हुए कवि की सूक्ष्म दृष्टि, प्रश्नाकुल और गंभीर आत्मिक रूझानों की और संकेत करती है-

कभी कभी मैं उस वज्र की तरह लगना चाहता हूँ
जानना चाहता हूँ क्या कुछ चल रहा है उस मयूर
उस कुक्कुट की देह में इस ब्रह्म मुहूर्त में-
कभी कभी मैं ताड़ का वो पेड़ होना चाहता हूँ
कभी कभी यह भी इच्छा होती है कि
सारे पशु पक्षियों वनस्पति में भटकता फिरुँ
वन वन जल थल नभ
चौरासी लाख योनियों में
लेकिन इस सब के लिए कितना बदलना पड़ेगा मुझे
कितना अपनापा कितना दुलार इन क्षुद्र्तम जीवों
इस  सृष्टि संपूर्ण ब्रह्मांड से
और तब कितना होगा मेरा कुल योग बाबा गोरखनाथ
जब अन्न को भी लगेगी भूख पानी को प्यास
तब मेरा योगफल कितना होगा बाबा गोरखनाथ ?
भिक्षा दो माँ ! भिक्षा !
 
ऐसी भाव-अनुभुति-चिंतन की संश्लिष्टता, मार्मिकता और भाषा की अनेकानेक छवियों की लयात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है. अरुण कमल जी की प्रत्येक कविता जीवन का नया अविष्कार एवं भाषा का नया परिष्कार है. ऐसा गहन इंन्द्रिय बोध और बौद्धिक सौष्ठव कविता मे दुर्लभ है. इन कविताओं की एक और विशेषता अनेक अंत:ध्वनियों की उपस्थिति है अनेक पूर्व स्मृतियों की अनुगूंजे हैं जहाँ कभी उनका वास था जो पाठक की संवेदना को आत्मीयता से झकझोरती हैं-

वो घर ढह गया
अब कोई जानता भी नहीं उसका नाम
फिर क्यों बेचैन हो तुम वहाँ जाने को?
जो उठ रहा है नया नगर वहाँ
वहाँ पहचानेगा कौन तुम्हें?
वे स्मृतियाँ
वे सब जिनका वास है तुम्हारी देह में
तभी तक हैं जब तक यह कच्ची देह है तुम्हारी
घुल जायेगी अगली बरसात में-
हर घर के नीचे कितने ही घरों की मिट्टियाँ हैं.

प्रसिद्ध-कवि आलोचक अशोक वाजपेयीका कहना है-

“कविता जीवन का, उसकी विडंबनाओं और अंतर्विरोधों का, संशयों का, उसमें गुंथे अच्छे बुरे अनुभवों का का समावेश है. दरअसल यह जटिल ज़िंदगी ही  सारी कविता का उर्वर प्रदेश है और इसी से उर्जस्वित स्पंदित है. कविता जीवन और अनुभवों का, भाषा और भावों का उत्सव होती है लेकिन वह उन सब पर प्रश्नचिन्ह भी लगाती रहती है. उसकी मध्यभूमि स्वीकार और अस्वीकर के बीच कहीं होती है और उसकी अदम्य मानवीयता इसी मध्यभूमि से उपजती है. हमारे समय में कविता हमारे मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन है और इससे अधिक वह क्या कर सकती है.”

अरुण कमल की कविता में यह सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन और आत्मीयता अपने उत्कृष्ट रूप में मिलती है.

इन कविताओं में सिर्फ शब्द संचय नहीं, एक कवि के वैचारिक सांस्कृतिक अवबोध की सूचनाएँ भी हैं जिनसे पाठक गुजरते हुए अपने होने का अनुभव कर सकता है.  ये कविताएँ चेतना को छूती हैं और कहीं तल में जाकर एक उलझन पैदा करती हैं, सोचने के लिए विवश करतीं. ये असमाप्त रह्कर भी पाठक को उसके अंतिम अर्थ तक पहुंचने के लिए जागृत करती हैं जिसमें कोई बाहरी दबाव नहीं, आंतरिक सहजीवन का उत्कट आग्रह है-

मेरा शहर मेरा इंतजार कर रहा है
खुल रहा है हर दरवाजा किसी को पुकारता
हर दरवाजा एक इंतजार-
नदी भरी हो या सूखी जानती है मैं आउँगा
उसके पास हर शाम थक-हार
मेरा शहर.

सत्ता और व्यव्स्था में जंमीदारों के गठजोड़ के शोषण-उत्पीड़न के चरम पर कवि की आवाज़ ही विकल्प के रूप में विपक्ष और अंतिम मोर्चे की भूमिका निभाती है. अरुण कमल भारतीय समाज के अभावग्रस्त क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के साथ जिन राजनितिक आर्थिक जटिलताओं और प्राकृतिक आपदाओं और दैन्य से जूझते गाँवों और किसान के खेतों- खलिहानों को अपनी कविता में जीवंत करते हैं वह वर्चस्व के विरोध में प्रतिरोध का सशक्त स्वर है जो इस मेहनतकश वर्ग की विडंबनाओं और दुश्चिंताओं को पहचानकर पीड़ितों का पक्ष लेती है यही अरुण कमल की कविता की वास्तविक जमीन है जिसमें एक शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना उनकी काव्य चेतना में अंकुर की तरह विद्यमान है-

अभी ठीक से खेत कोड़ा भी नहीं
अभी ठीक से मिट्टी बराबर भी नहीं की
अभी ठीक से रोपनी भी नहीं हुई
अभी ठीक से पौधा उठा भी नहीं
अभी ठीक से बालियाँ भी नहीं फ़ूटी
अभी ठीक से दाने पके भी नहीं
अभी थीक से कटनी भी नहीं हुई
अभी ठीक से औसाई भी नहीं
अभी तो दाने बटोरे भी नहीं कि
द्वार पर आकर खड़े हैं
वसूली वाले
नहीं महाराज नहीं अभी तैयार नहीं.
  
अरुण कमल की कविता का मूल स्वर एकाकी नहीं बल्कि वह सबकी ओर से बोलती है जिनके बिना हिंदी कविता की बात हमेशा अधूरी है. उनकी कविता साधारण जीवन के त्रासद यथार्थ को जिस ईमानदार संवेदना और तरल करुणा के साथ प्रस्तुत करती आई है वह दुर्लभ है. शोषित, पीड़ित, असहाय , निर्बल, उपेक्षित मानवता के उत्पीड़न को जितने मार्मिक किंतु जीवंत रूप से अनुभव के शिल्प में वे अभिव्यक्त करते हैं वह पाठक के अंतस को हमेशा स्पर्श करता है. इन कविताओं में मानव जीवन के सबसे भास्वर क्षण और स्मृतियाँ कौंधती हैं. उनकी कविताएँ लोकतंत्र के विकास और गणना से छूटे गरीब, बाहर कर दिये गए हाशिए के निर्बल, अंतिम गिनती के किन्तु स्वाभिमानी, संघर्षशील मनुष्यों की करुण कथाएँ हैं– ‘यह दुनिया माँ का गर्भ नहीं, जो एक बार घर से निकला, उसका फिर कोई घर नहीं’.उनकी कविता में एक परिपक्व दार्शनिकता और  जीवन के मूलभूत प्रश्नों के आलोक में जो अव्यक्त रहस्य रह रह कर चमकता है वह एक गंभीर रचनाकार के अस्तित्व का भी दृष्टि बोध है जो उन्हें अधिक दायित्व संपन्न और मानवता के पक्षधर जीवन से संबद्ध और सार्थक कवि का वह स्वरूप देता है जो अपनी साधारणता में भी असाधारण है . ये कविताएँ मानवीय अंत:करण का परिष्कार करते हुए बेहद पारदर्शी कविताएं हैं-

जब कभी देश के बारे में सोचता हूँ
अपने घर के बारे में सोचने लगता हूँ
जैसे मेरा घर है तो यहाँ जो भी है सबको
एक सा भोजन चाहिए और पानी और बिस्तर
चूहे को भी जो भीतर बिल में है कुछ चाहिए
बिल्ली का भी हक बनता है रसोई में
और कोऔं को भी हाथ की रोटी का आसरा है
गोरैयों को भी खुद्दी दाना
ऐन खाते वक्त कुत्ता आ जाता है
जिनको बेदखल करते करते थक गया हूँ
कोई भी जीवन अकेला इकहरा एकरंगा नहीं होता
एक पेड़ भी महानगर है
अगर सूर्य का मंडल है ब्रह्मांड में
तो मेरा भी छोटा बहुत छोटा
इसी तरह देश है एक घर
बहुत से आँगनों का एक घर, कुटुम्ब, एक लोक
किसने किया बाहर ? कहाँ मेरा भाई महाराज संतोषी ?
कहाँ अग्निशेखर?
किसने मारा मेरे लाल जुनैद को ?
आज इस घर में चूल्हा नहीं जुड़ेगा !
 
धर्म, जाति और भाषा के नाम पर बँटे लोगों राजनीतिक-सामाजिक कुटिलताओं के सत्तातंत्र में फंसे आम आदमी के जीवन को खुली आँखों से देखने और मनुष्यता के हक में नैतिक कार्यवाही करने की आकांक्षा और प्रतिरोध की ईमानदार उपस्थिति है. अरुण कमल अपनी कविता में प्रत्येक शोषण, अन्याय, असमानता. विवशता, असहाय, उपेक्षित स्वरों और क्रूर-हिंसक नैतिक पतन के दौर में बारीक से बारीक मानवीय चीख को भी तमाम विकास की चकाचौंध और निरर्थक शोर में सुनने वाले कवि हैं और उस सामूहिक आवाज़ का, संघर्ष का हिस्सा भी बनते हैं. दलित-उत्पीड़ित अस्मिताओं के लिए मुक्ति के स्वप्न की मूल्यवत्ता को उनकी कविता बखूबी समझती है- मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न.
 
योगफल कविता संग्रह में कवि की यह दुनिया और बहुआयामी और परिपक्व रूप लेकर कविताओं में ढ‌ली है. क्योंकि अरुण कमल सिर्फ शब्दों से नहीं -रक्त संबंध की तरह जीवन के एक एक कतरा अनुभव को महसूस करते हुए जनसाधारण और के दुखों, अभावों, निराशाओं , पीड़ा को जीते हैं वह उनके साथ पाठक के सहज जीवनानुभवों को परिष्कृत करते हुए जिस तरह संवेदना का अभिन्न अंग़ बन जाते हैं, वही उनकी कविता की वह उदात्त-उन्नत भावभूमि है जो उन्हें वैश्विक चेतना से जोड़ती है. कविता में यह यथार्थ सतह पर नहीं बल्कि जिन अनुभवों की अंतर्ध्वनियों और स्मृतियों में गहरे रूप से समाया होता है वह उनकी वस्तु-भाषागत विशिष्टता है

सबसे जरुरी सवाल यही है मेरे लिए कि
क्या हमारे बच्चों को भरपेट दूध मिल रहा है
क्या हर बीमार को वही इलाज जो देश के प्रधान को
बसे जरूरी सवाल यही है मेरे लिए कि इतने लोग
भादो की रात में क्यों भीग रहे हैं
कहाँ गये वे लोग इन बस्तियों को छोड़कर
जिस देश में भूखे हों बच्चे, माँएं और गौवें
उस देश को धरती पर रहने का हक नहीं.
  
प्राय: छोटी कविताएँ लिखने वाले कवि का एक नया आयाम भी इस पुस्तक में देखा जा सकता है. इस कविता संग्रह में अरुण कमल जी की अब तक की सबसे लम्बी दो कविताओं के साथ-साथ कुछ कविता शृंखलाएं भी हैं जो इस पुस्तक की नवीनता है. शोकगीत, कविता-2013, प्रगतिशील लेखक संघ के ऐलबम से, किस वतन के लोग ऐसी ही गंहन सामयिक कविताएँ हैं जिनमें अपने समय के ज्वलंत प्रश्न और गतिशील वृतांत भी हैं तो यह भी लगता है कि कवि के लिए अनुभव या भाव पहले से अधिक परतदार और संश्लिष्ट हुआ है और जो उनके लिए कभी भी एक निर्मिति में पूर्ण नहीं होता

वे मारे गये
कहीं कोई खून नहीं
वे मारे गये
कहीं कोई चिन्ह नहीं
वे मारे गये पर कोई हत्यारा नहीं
कौन कहता है गुलामी खत्म हो गयी
कौन कहता है यहाँ जनतंत्र है
नगर नगर महानगर
हर बार इस सभ्यता को चाहिये नये खून की खुराक
खाली हो रहे हैं जंगल जंगल
हर शहर हर बस्ती के पास एक शरणार्थी शिविर
इस गरीब के पक्ष में बोल कर तो देखो
हम हारने से नहीं डरते
डरते हैं चुप बैठने से
वे जो मारे गये तुम्हें पुकार रहे हैं
जो जीवित हैं वे वंशज हैं मृतकों के.
 
यहाँ उनकी कविता अधिक स्याह, उदास और अंतर्मुखी हुई है , ज्यादा वैचारिक लेकिन जिसमे जीवन की अनेक नयी लयों का, प्रसंगों का समावेश हुआ है. इस मामले में अरुण कमल जी मानते हैं की कविता कभी अनुकूल समय का इंतज़ार नहीं करती सबसे विरोधी समय में ही हस्तक्षेप करती है. मनुष्य जीवन के सभी सुख-दुख और त्रासदियों को दर्ज़ करने का काम कविता नहीं करेगी तो मानवता का दस्तावेज़ कौन तैयार करेगा इसलिये यह कार्यभार भी कवि का है. इसलिए प्रतिरोध का स्वर इन कविताओं में भी उतना ही तीव्र और संश्लिष्ट है. इसलिए कविता उनके जीवन के रेशे-रेशे में है और यह जितनी बाहर दुनिया में है उससे कहीं ज्यादा उनके भीतर प्रतिबद्ध है. अन्तिम लंबी कविता – ‘प्रलयइसी निराशामय यथार्थ के समय में जटिल हिंसक व्यवस्था से संघर्ष करते हुए अपना मानवीय पक्ष चुनने की अभिव्यक्ति है जिसमें सभी रास्ते बंद होने पर भी अपनी ताकत को पहचानकर उसे अपनी और अपने लोगों की लड़ाई लड़नी है. यह संघर्ष स्वंय के साथ-साथ पूरी सृष्टि के प्रति अनुराग से, उसकी जरूरतों से भी जुड़ा है इसलिए कविता भी सबके बारे में सबके लिये होती है, यही उसकी पहचान है-

यह तुम क्या कर रही हो
मैं अभी से चावल दाल जमा कर रही हूँ
थोड़ा नमक
लगता है घनघोर बारिश होगी
लगता है लड़ाई होगी
उस रात लगातार चमकती रहीं बिजलियाँ
इतने सुखाड़ इतने रौद्र घाम के बाद
लगातार गिरता रहा पानी
पूरा देश वधस्थल की ओर जा रहा है
कहाँ जा रही है यह भीड़
किसके घर बधावा किसके दर मातम
कितनी लाशें आयीं शहर में इस बार
युद्ध सिर्फ वही मोर्चे पर नहीं होता
युद्ध लगातार चल रहा है हर घर हर जीवन में
जब पवित्रता के लिए स्थान न बचे
जब कठिन हो जाये ईमान से जीना
तब मुझे बचाना गंगा मेरी माँ
मैं बार-बार आउँगा धधकती चिता से उठकर
ऐसा अनिश्चय ऐसी बेचैनी
सब चले जा रहे एक एक कर
इस शहर को छोड़्कर
जिसे जहाँ ठौर मिला
जिसे जहाँ कौर मिला
पर जायेंगे कहाँ वे वृक्ष इतने नीड़ लिए
कुत्ते भी इन्हीं घरों पर देह मोड़ सोयेंगे
नीचे धाह उपर शीत
अभी तो कार्य नीति यही है
कि गणना ऐसी बिठानी है
कि किसमें किसको जोड़ दें
कि योगफल  हर बार सत्ता हो.
इतनी रात ऐसा सन्नाटा दूर कहीं अजीब हूल चीत्कार
पक्षी पेड़ों से सटे
एक झड़्ता पत्ता भी भारी हवा को
एक अजीब भयानक सपना था वो
रात का या दिन का याद नहीं या कोई स्मृति
नीचे पानी केवल पानी पानी पानी
कहीं नहीं धरती न रेत न हिमालय
प्रलय प्रलय प्रलय.

समकालीन जनतंत्र में साधारण मनुष्य की अथाह त्रासदी और व्यवस्थागत विसंगतियों, द्वंद्वों और विरुद्धों का समावेश करती यह अनूठी कविता जो स्वचालित सी गतिमान होते हुए बिना किसी कथानक के भी रोज के दैनंदिन प्रसगों, घटनाओं से आकार ग्रहण करती हुई अनियोजित सी रहते भी जिस बसावट की ओर जाना चाहती है वहाँ भी चारों ओर खाली जगहें रह जाती हैं, और हर योगफल जीवन की तरह कविता में भी अपूर्ण है.

कवि की रचना प्रक्रिया में भी ये तमाम संकट आते हैं जहाँ वह कोई स्पष्ट निर्णय सुनाते हुए नहीं चल सकता लेकिन इन सबके बीच इन सबसे जूझते हुए बनता आगे बढता और यही जमीन की कविता है. एक मनुष्य की तरह उसमें आत्मसंशय, जिज्ञासा, विनम्रता और सीमाओं का स्वीकार है लेकिन कमजोर, असहाय, बेसहारा और पीड़ित के जीवन को बार बार देखने का प्रयास है. कविता-संग्रह के आंरभ में दी गई तुलसीदास की ये पंक्तियाँ गौर करने योग्य हैं-

विनय पत्रिका दीन की बापु आप ही बांचो
हिय हेरी तुलसी लिखी सो सुभाय सही करि
बहुरि पूँछिये पाँचों.

अपनी कविता को वे दीन की विनयपत्रिकाकहते हैं तो यह उनकी असाधारण विनम्रता के साथ कविता के लिये पाडित्य के ज्ञान से अधिक संवेदना और सह्र्दयता की जरुरत का संकेत है. इसलिये शिल्प के चमत्कार के लिये कोई सजगता यहाँ नहीं है पर सतह की सरलता में ही संवेदनात्मक संष्लिष्टता है और तल में भावों में अथाह गहराई. विषय और काव्य दृष्टि के साथ उनकी भाषा भी बहुस्वन और गहन हुई है और उसमें देशज शब्दों का माधुर्य उनकी भाषा को अद्भुत लोकबद्धता प्रदान करता है. उनकी कविता समसामयिक सामाजिक- राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व से आहत साधारण वर्ग का पक्ष लेती है इसलिये वे वैचारिक होने के लिए अनुभवों को गढ‌ते नहीं बल्कि उनके जीवन में तन्मयता से दायित्वबोध को, उनकी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व कविता दर्ज़ करती है जो बहुत नि:स्वार्थ और ईमानदार दृष्टि है. भूमंडलीकरण और पूंजीवादी मुक्त बाजार की व्यवस्था के भयावह दौर में जो साधारण लोग मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर किये जा रहे हैं, उनकी मूलभूत जरुरतें और अस्मिता और अधिकारों के साथ जंगल, पहाड़, नदियाँ भी उनसे छीने जा रहे हैं, जीवन के बाहर धकेले जाने के लिए जो विवश हैं, यह कविता उनके पक्ष में हमेशा अविचल उपस्थित है. इसलिये समकालीन कविता की पीढ़ी में वे सबसे अलग पहचाने जाते हैं और जरूरी हस्तक्षेप हैं, मानव-विरोधी प्रत्येक व्यवथा के प्रतिरोध में सबसे सशक्त स्वर हैं. पुस्तक में हिंदी कविता के कुछ गंभीर  कवियों जैसे दूधनाथ सिंह, चंद्र्कांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी को याद करते हुए बहुत आत्मीय कविताएँ भी संकलित हैं. आवरण पृष्ठ के फ्लैप पर जो वक्तव्य है वह इन कविताओं पर जरुरी टिप्पणी है- ‘’ इन कविताओं की एक और विशेषता अनेक अंत:ध्वनियों की उपस्थिति है। अनेक पूर्व स्मृतियाँ और अनुगूँजें हैं. अरुण कमल की कविताएँ अपनी गज्झिन बुनावट, प्रत्येक शब्द की अपरिहार्यता और शिल्प-प्रयोगों के लिए जानी जाती है. गहन ऐंद्रिकता, अनुभव-विस्तार और अविचल प्रतिरोधी स्वर के लिए ख्यात अरुण कमल का यह संग्रह हमारे समय के सभी बेघरों, अनाथों और सताये हुए लोगों का आवास है- एक मार्फत पता.‘’
 
अरुण कमल जी की कविता में साधारण मनुष्य के लिये जो अथाह प्रेम और करुणा है उससे मैं स्वयं बहुत प्रभावित हूँ. अप्रतिम गाम्भीर्य के साथ जीवन को देखने की गूढ दृष्टि और एक विनम्र औदात्य उनके सहज उदार व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है जो सबको प्रभावित करता है. सच कहने का साहस और जीवन से प्रेम उनकी रचनात्मकता का केंद्रीय भाव है. पथरीली,सूखी, जलहीन और अभावग्रस्त मानवता की जमीन पर खड़ी रहकर भी उनकी कविता सबसे उर्वर है, हरी है, और उसकी जड़े सबसे गहरी हैं सबके लिये प्रेम से परिपूर्ण, आगामी पीढ़ी के लिए पथ प्रदर्शक यह योगफलसमकालीन हिंदी कविता की विलक्षण उपलब्धि है

जब तुम हार जाओ
जब वापिस लौटो
वापिस उन्हीं जर्जर पोथियों पत्रों के पास
सुसुम धूप में फिर से ढूंढो वही शब्द लुप्त
फिर से अपना ही वध करो
फिर से मस्तक को धड़ पर धरो
होने दो नष्ट यह बीज

फूटने दो नये दलपत्र.
___________________

मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग्
अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय.

9873806557  


चर्यापद : शिरीष कुमार मौर्य

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चर्यापद

“गौतम बुद्ध के मित्र व शिष्य भद्रक किंवा भदिया द्वारा इक्कीसवीं सदी में विरचित ये नवीन चर्यापद इस विधा के प्रथम व मूल प्रस्तोता शबरपा और उनके गुरु सरहपा को सादर समर्पित हैं.”

शिरीष कुमार मौर्य



चर्यापद भूमिका
*
(धम्मनिट्ठ वग्गो का यह पृष्ठ भद्रक को महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध की शय्या के पैताने मिला, यह पिटक में सम्मिलित नहीं है. भद्रक अपने चर्यापदों के संग्रह में भूमिका के रूप में इसे प्रस्तुत कर रहा है.)


भिक्षु !
हिरण्यवती के प्रवाह को देखो
वर्षा में
वह संसार के प्रपंचों की भाँति
वेगवान है

मुझे इस काल
विगत
कई वर्षों से
यशोधरा के अश्रुओं का
स्मरण
हो आता है
जिनके विषय में कभी कभी
बताती रहीं मौसी
महागौतमी

तब मैं कहता हूँ
धर्म वह नाव नहीं है जिस पर चढ़
तुम प्रवाह को पार करते हो
प्रवाह में उतर कर
तैरना धर्म है

दो वर्ष* हुए
इसी धर्ममार्ग पर हूँ भिक्षु
सभी को
इस पर बुलाता हूँ

माथे पर अदृश्य सजा हुआ
मुकुट नहीं है धर्म

बहुत ढूँढ़ोगे
तो वह प्रविविक्ति में नहीं
ग्रामों-नगरों के
कोलाहल में
भटकते
किसी पथभ्रष्ट स्थविर के
तलुवों में मिलेगा
गड़ा हुआ
*
* महापरिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व  
   यशोधरा की मृत्यु हो गई थी.

-----------



चर्यापद  1

अन्न माँगो उस घर से
जो विपन्न हो

उजड़ा हो दुर्भिक्ष में उस गाँव जाओ

उस व्यक्ति से मिलो
जिससे मिलना सबसे सरल हो
और जिसकी तरह जीना
सबसे कठिन

भिक्षु
अभी तो दीक्षा का आरम्भ है
करुणा पर चर्चा
फिर कभी
***


चर्यापद  2

जल नहीं था
किसी भी ऋतु में
गए बरस

नदियों के तल छिछले से
छूँछे होते गए

नागफनी के सिवा
किसी और
वनस्पति के तने पर विश्वास
नहीं कर पा रही थी
दुःख की चिरैया

भरी दुपहरी
माथे से
बहती स्वेद बूँदों पर
बार बार
बैठ रही थी
छोटी सफेद तितली

भन्ते!
मेरी देह का नमक चाट रही
वह तुम्हारी
जगप्रसिद्ध करुणा तो
नहीं थी?
***


चर्यापद  3

मैं अब भी उतना ही अबोध हूँ
मैं अब भी उतना ही भ्रमित हूँ

मुझे पथ नहीं मिलता था
और
मुझे पथ नहीं मिला है अब तक

हालाँकि
आप वही नहीं रह गए
भन्ते
लेकिन मैं वही भद्रक हूँ

मुझे ध्यान से देखिए
प्रतिदिन
एक नई क्रूरता से जूझता हुआ
इस संसार में
अब
मैं अमर हो गया हूँ.
***


चर्यापद  4

लुहार के घर से माँगा भोजन
खाने के बाद
बुद्ध शय्या से न उठ सके

महानिर्वाण से पहले रोया
लुहार
स्वयं को धिक्कारता

यह एक कथा है
इसमें कुंडा नामक उस व्यक्ति के
लुहार होने का
विशेष उल्लेख है

स्पष्ट है
कि कुंडा का पेशा भर बताना यहाँ
अभीष्ट नहीं था

भन्ते!
वह आज भी अभीष्ट नहीं है

चतुर शिष्यों ने
आपके जाने की कथा चलाते हुए
विवरण बढ़ाते हुए
इसमें लुहार रहने दिया

इस परम्परा में
व्याकुल भटकता है भद्रक
और पाता है
कि आपके सिवा कोई और
कभी
अपना दीप आप बन नहीं पाया

धम्म के शिखर सदा
मौन ही रहे
देह में कुलबुलाते रहे
अधर्म के चूहे

करुणा
उनके भी साथ रही?
***


चर्यापद  5

मृत्यु की
देह के नष्ट हो जाने की
घटना
निर्वाण कह देने से
गरिमापूर्ण
नहीं हो जाती

भन्ते!
निर्बलों की हत्या ही हुई है सदा
क्या उन्हें
निर्वाण प्राप्त हुआ?

अपने दुःख में लिथड़े
वे जीवित रहना चाहते थे
लड़ना चाहते थे
संसार के संघर्षों के बीच
अपने जैसे अनगिन जनों के साथ
वे संधान करना चाहते थे
उस तथ्य का
जिसे करुणा कहा गया

निर्वाण
मृत्युपूर्व भी सम्भव है
इसी समझ
और इसी हठ में
आपके निर्वाण पर
मैं बिलख उठा था

मैं आज भी बिलख ही रहा हूँ
भन्ते
***
चर्यापद  6

सम्राटों और राजकुँवरों
सम्राज्ञियों
और राजकुँवारियों ने
धम्म की ध्वजा उठायी
हिमालय
और
समुद्र पार गए

मैं प्रश्नाकुल ही रहा आया
शताब्दियों तक
आज भी बौखलाया सा घूमता हूँ

आनन्द या रानी खेमा नहीं हूँ
वे मृत्यु को प्राप्त हुए
या निर्वाण को
कह नहीं सकता

अपनी कथा क्या कहूँ
अमरत्व
निर्वाण की सबसे बड़ी
बाधा है

कितनी बार बताऊँ
किस किसको बताऊँ
कि मैं अमर हुआ जाता हूँ
भन्ते
मेरे माथे पर गाड़
फहरायी गई धर्मध्वजाओं के
विरुद्ध
मेरी अमरता
अब एक बड़ी चुनौती है

और
मेरे इस दुःख पर
शताब्दियों पहले
कहीं
किसी वार्ता में बैठे हुए
आप मुस्कुराए हैं

भन्ते !
शिष्यों ने प्रचार किया
करुणा का
व्यंग्य को समझना
और कहना तो छूट ही गया
महिमामयी
इस परम्परा में!
***
चर्यापद  7

गंगा में
कछुओं की डुबकियाँ
किसी तरह का
निर्वाण नहीं हैं

एक संसार से दूसरे संसार में
आते जाते रहते हैं वे
कुतर लेते हैं
अधजले शवों का माँस

घाट पर भद्रक का हृदय
करुणा से नहीं
जुगुप्सा से भर जाता है

वह
रात्रि शयन के लिए काशी में नहीं टिकता
सारनाथ चला आता है

और
निर्वाण तो सारनाथ
चले आना भी नहीं है

सुबह भिक्षाटन के लिए
फिर काशी ही जाना है

गंगा में डुबकी लगाते कछुए
भिक्षा को
कभी मना नहीं करते
***
चर्यापद  8

मुण्डित स्त्रियों के स्वप्न
किसको आ सकते हैं
भन्ते?

किंतु
थेरी शुभा ने समाज में
पाप की उन जड़ों को भी देखा था
जो घुस आयी थीं
भिक्षुणीसंघ के
निरापद विहारों तक

निर्वाण से ठीक पूर्व
आयीं थी मौसी महागौतमी
आपके पास
कुछ कह नहीं पायीं
आप जैसे पुत्र के लिए
अपनी बहन को सराह
वापस चली गईं

मुझे कह लेने दें
कि मुण्डित हो जाने से
समाज के भीतर
स्त्रियों के प्रति उपस्थित प्रेम तो कुछ नष्ट हुआ
किंतु पाप थोड़ा भी नहीं मरा

मैं भद्रक
निर्लज्ज हो कहूँ
तो मेरे भीतर भी
कुछ पाप बचा रहा
पर बचा रहा
प्रेम भी

भन्ते !
मुझे बताइए
कि क्यों मेरी मनुष्यता
इसके लिए
मुझे धिक्कारती नहीं
ढाढ़स ही बँधाती है
***
चर्यापद  9

मुझे आज
हत्यारों की रसोई का अन्न मिला
भन्ते!

अनुभव किया
कि शरीर में जीवन कितना और
किस तरह निवास करता है
पता नहीं
पर मृत्यु निवास करती है
हर तरह
हर जगह

मैं बँधा हूँ बँधे वधिक भी है
लेकिन
भद्रक के अनुभव में
वधिकों के नाम नहीं हैं

भन्ते !
अवश्य ही वे आपके अनुभव में हैं

थेरगाथा में वधितों के
जो नाम हैं
चकित है यह भद्रक
कि थेरीगाथा में ठीक वही नाम
वधिकों के भी हो सकते हैं

पता नहीं
यह दुःख का विषय है
या करुणा का
कि सदा कुछ उदान ही रहे
हमारे साथ

निदान
कोई भी नहीं.
***
चर्यापद   10

शारिपुत्र थे धर्मसेनापति
नालन्दा में

मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर था

मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर हूँ

कभी
शारिपुत्र नाम नहीं उचारा मैंने
सारिपुत्त कहने से ही
उस धम्म का पता चलता था
जो राजाओं से नहीं
प्रजा से
सम्बोधित था

स्वप्न में भी
किसी को दुःख पहुँचाने की बात
मन में नहीं लाते थे
शारिपुत्र
वे संतुष्ट, वीतरागी, जितेंद्रिय
स्थविर थे

पापनिंदक, असंतुष्ट, प्रविविक्त
और उद्योगी था
सारिपुत्त

भन्ते!
शारिपुत्र ने धर्म की महिमा बचाई

आत्मा बचाई सारिपुत्त ने
***
चर्यापद  11

आज
रंग एकादशी है
भन्ते
होरी का चीर बाँधा है
मैंने

भद्रक
इसी चीर के साथ
भिक्षाटन को
जाएगा
भिक्षा लेगा तो अबीर का
टीका लगाएगा
दाता को

अवश्य सुननी चाहिए
पर संघ सुनना पसन्द नहीं करेगा
जो होरियाँ
भद्रक अब होरी तक
काशी के मुहल्लों में
गाएगा

लो
वह धर्म की शरण में आता है
वह संघ की शरण में आता है

फागुन में उसे सम्भालो
भन्ते!
वह आपकी शरण में आता है
***
चर्यापद  12

हम
क्यों स्थविर कहलाए गए
भन्ते ?
जबकि
हमारे हृदय भी काँपते हैं
उस वृक्ष के
सूखते पत्तों की तरह
जो कथानक में
बोधि है
प्रकृति में पीपल

कथानक में
कल्पना बहुत होती है
भद्रक!
प्रकृति में यथार्थ

तो क्या काशी कथानक है भन्ते
और सारनाथ प्रकृति?

नहीं
काशी पीपल है भद्रक
और सारनाथ बोधि

मैं वही कह रहा हूँ
जो तुम कह रहे हो
भद्रक!
पर ठीक वही नहीं कह रहा हूँ

फिर ऐसे में
धर्म क्या है भन्ते हमारा?

कल्पना और यथार्थ
कथानक और प्रकृति
बोधि और पीपल
के बीच
जो संसार है अछोर
अपार

भद्रक !
वही धम्म है हमारा
***
चर्यापद  13

मैंने
प्रथम उपदेश सुना है
भन्ते!

महाकश्यप नहीं हूँ
कि कुछ जानूँ
कुछ न जानूँ
जानने के बाद जानूँ
कि जानने से पूर्व कुछ भी नहीं जानता था

मेरी जिज्ञासाएँ
अपूर्ण ज्ञान से नहीं
सम्पूर्ण अज्ञान से जन्मी हैं

महाकश्यप
आप तक पहुँचने से पूर्व भी
बड़े ज्ञानी
प्रकाण्ड पण्डित थे
भन्ते
आपसे मिल कर जाना
कि कुछ भी नहीं जानते थे

मैं भद्रक
कुछ भी न जानता था

मैं भद्रक
अब भी कुछ नहीं जानता हूँ

यह मेरा
नहीं जानना ही है
भन्ते
कि अतीत
प्रत्युत्पन्न
और
अनागत
सभी कालों में व्याप्त है
मेरा अस्तित्व

मैत्रैय बुद्ध होंगे
तो मैत्रैय भद्रक न होगा
क्या?
***
चर्यापद  14

आपके भी
वंश का नाम लिया गया
भन्ते
आपको क्षत्रियकुल गौरव
कहा गया

आप भी
गोत्र से पहचाने गए
शाक्यमुनि
कोई दूसरे नहीं थे भन्ते

राजकुल
बहुविधि साथ और पास
बना रहा

आपकी शिक्षा अनुसार
एक मैं भद्रक ही
भूला आपका राजकुल जाति गोत्र  गौरव

हुआ सहजिया
चौदस सौ वर्ष पहले
निर्वाण तो नहीं मिला
पर मिली
उससे भी शानदार
एक व्याकुलता
आपकी ही देन वह
मेरा धम्म है

भन्ते
उसी का प्रचार करता हूँ मैं
इन दिनों
***
चर्यापद  15

मुझ में ही महायान के बीज थे
भन्ते
मेरे थेर होने में हरसम्भव कमी
रह गयी थी

मैं अकेला होने से डरता था
भीतर के प्रकाश भर से
मेरा काम नहीं चलता था

आपसे अधिक कोई नहीं जानता
कि मुझ जैसों की
परस्परता भी धम्म ही थी

आपके अनुयायी बने
राजकुलीन स्थविरों को मालूम ही न हो शायद
कि प्रजा के  घरों में
दीवट पर धरे
अनगिनत दीप धुआँ हो चुके
भन्ते
      पिछले सैकड़ों वर्षों में
      परस्पर प्रकाश के लिए
      ***
चर्यापद  16

मैं हमेशा से हताश नहीं था
भन्ते

मुझ में से आशा गई
पर जीवन बना रहा

मैं महीनों
बस्ती के सबसे वंचित व्यक्ति के द्वारे खड़ा रहा
भिक्षा के लिए

इतने महीने
मैंने क्या खाया
मत पूछिए

भन्ते
मैं उस द्वार से रिक्त-पात्र भले
लौटा हूँ
रिक्त-हृदय
रिक्त-मन
नहीं लौटा

मैंने
हताशा में जिस नदी का
जल पिया
उसी का क्षीण प्रवाह
मेरी धमनियों में है

यह भी
बहुत बाद में जाना
कि उसी नदी को
आपने
करुणा कहा है.
***
चर्यापद  17

उरुवेला
अब भी वहीं है
आपको
स्मरण होगा

कौण्डना स्मृति में है भन्ते?
असाजी ?
वापा?
महामना?
और मैं?

मैं तो निर्वाण समय भी
उपस्थित था
इसी कारण
कुछ अधिक बच गया हूँ

जो स्वयं न बचे
जिनकी कीर्ति बची बहुत सारी
वे शिष्य
सम्राट क्षत्रिय, ब्राह्मण, श्रेष्ठि ही
क्यों हैं
वे तपस्सू और काल्लिक
क्यों नहीं हैं भन्ते

मैं स्वयं ब्राह्मण
उन दोनों के वर्ण का नाम भी लूँ
तो जिह्वा कट जाए मेरी
चलूँ सदा धम्म की ही राह

और अगर
धम्म की राह चलूँ
तो फिर
उस राह का क्या करूँ
जिस पर
अब आपके कुलीन शिष्यों की
कीर्ति की
राख भर बची है ?
***



कथा-गाथा : साठ साल बाद बैल की वापसी : बटरोही

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साहित्य और सत्य के बीच कल्पना है, साहित्य को सार्वभौम बनाती हुई. कल्पना से यथार्थ और यथार्थ से जादुई होती कथा की दुनिया जटिल समय को अंकित करती चल रही है. कथा में वर्तमान, इतिहास, पौराणिक-जातीय आख्यान, सबाल्टर्न, नृ विज्ञान, आदि अब सब घुल मिल रहें हैं. 

राजनीतिक कथा की संरचना जटिल होती है, इसे कोई कथा-अनुभवी और अध्येता ही बुन सकता है. हिंदी के वरिष्ठ कथाकार बटरोही की इधर की कहानियों में यह प्रवत्ति रेखांकित की जा सकती है. उनकी नयी कहानी ‘साठ साल बाद बैल की वापसी’ इसी तरह की कथा कहती है.

आपके लिए ख़ास तौर पर यह कहानी.    




23 मई 2019
साठ साल बाद बैल की वापसी             
बटरोही




“बिस्मिल्ला ही गलत हो गई...”
वह अजीब-सा, गड्ड-मड्ड और लम्बा सपना था जिसका मैं ठीक से वर्णन नहीं सकता, मगर इतना अच्छी तरह याद है कि जिस वक़्त मेरी नींद खुली थी, मेरे मुँह से यही शब्द निकले थे.
वृहस्पतिवार, 23 मई, 2019 की सुबह साढ़े पांच बजे अपने बेडरूम में सोये हुए मेरे मुँह से गुस्से में, झटके के साथ यह वाक्य निकला था. मैं पसीने-पसीने था और समझ नहीं पा रहा था कि यह मुझे अचानक क्या हुआ? यह शब्द तो मैं कभी इस्तेमाल ही नहीं करता.
पत्नी मुझे झकझोर रही थीं, “कोई सपना देखा?”
मैं सपने को याद करने की कोशिश करने लगा, मगर सपने का इस वाक्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठा सका.
“सुबह उठकर कभी भगवान का नाम तो लेते नहीं, आज ये मुसलमानों की जैसी पूजा क्या करने लग गए?”
हल्का-हल्का याद आया, दिन की शुरुआत या अभिवादन में मैं ऐसे शब्द कभी नहीं बोलता: न ‘ऐ मौला’ कहता, न ‘हे राम’!
अलबत्ता, कल रात सोने से पहले मैंने आने वाले दिन के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए आज को पूरी शिद्दत से याद किया. ऐसा भी नहीं था कि मुझे उस वक़्त भारतीय राजनीति के ‘मोदी-2’ का पूर्वाभास हो चुका था. राजनीतिक मामलों में मैं घोर अनाड़ी रहा हूँ, अमूमन मेरी राजनीतिक भविष्यवाणियाँ गलत साबित होती हैं. बावजूद इसके, मेरे लिए यह जबरदस्त पहेली थी कि मेरा वह सपना क्या था, जिसका उपसंहार ‘बिस्मिल्लाह’ के रूप में हुआ था.
मैं सपना याद करने लगा.

सपने में मैं गुमदेश के अपने पैतृक गाँव में था, जिसे करीब साठ साल पहले मैं छोड़ चुका था. जाहिर है, इस बीच गाँव का भूगोल भी पूरी तरह बदल गया रहा होगा, जिसकी भौतिक उपस्थिति की मेरे पास कोई स्मृति नहीं थी. दस-बारह साल की उम्र में उस गाँव को छोड़ चुका था, इसलिए आज के अपने गाँव के बारे में कयास भी नहीं लगा सकता था!... जरूर आज भी वह सुन्दर होगा, आकर्षक, हरा-भरा, रहस्यमय बनैली वनस्पतियों, पहाड़ों, नदियों, जल-स्रोतों और पत्थर-छाई छतों वाले मकानों वाला वैसा ही स्वप्निल पहाड़ी गाँव!... मगर कयास तो एक स्थिर आयाम है, उसे सच तो नहीं कहा जा सकता.  

जब हम छोटे थे, हमारे घर की खिडकियों से सुदूर हिमालय की अर्ध-चंद्राकार पर्वत-श्रृंखलाएं और उनके बीच बसा हुआ पहाड़ों की कुलदेवी नंदा का भरा-पूरा परिवार हमारी सुरक्षा के लिए हमेशा मुस्तैद रहता था... हजारों वर्षों से यह परिवार हम पहाड़-वासियों की उपस्थिति का साक्षी था... घूंघट में बैठी नंदा (‘नंदा घुंटी’, 6309 मी.), माँ नंदा के पति महाकाल शिव के बाएं हाथ में विराजमान ‘त्रिशूल’ (7045 मी.), नंदा देवी के पांच चूल्हे (‘पंचाचूली’ 6334 मी.), देवी नंदा का बिछौना (‘नंदाखाट’ 6611 मी.), माँ नंदा (7817 मी.), पूर्वी नंदा (7434 मी.), देवी नंदा का दुर्ग (‘नंदा कोट’, (6861 मी.) और नंदा देवी का खजाना (‘नंदा भनार’, 7000 मी.). यह हमारी सांस्कृतिक संपत्ति थी, जो मेरे मन से कभी अलग नहीं हुई.

गुमदेश का पुराना गाँव ‘बिशुंग’ उत्तराखंड की प्राचीन राजधानी चम्पावत और नंदादेवी शिखर के ठीक मध्य में घने जंगलों के बीच की घाटी में बसा हुआ सुन्दर इलाका था, जिसके बारे में हमारे इलाके के प्रसिद्ध इतिहासकार पंडित बद्री दत्त पांडेने अपनी किताब ‘कुमाऊँ का इतिहास’में लिखा है:

“देश (मैदान) से दो क्षत्रिय वीर काली कुमाऊँ में आए. राजा उस समय कुटौलगढ़ के किले में थे. उनकी रानी गर्भवती थी. बच्चा अवधि से ज्यादा पेट में रह गया. रानी कष्ट पाने लगी. राजा ने पंडितों से पूछा, तो उन्होंने मौजा भेटा के सांप का दोष बताया, जो एक विशाल शिला के नीचे था. पंडितों ने कहा, जब वह सांप मारा जाएगा, तब राजा के संतान पैदा होगी.
“राजा ने राजसभा में कहा कि ऐसा वीर कौन है जो उस सांप को मार राजा का काम सिद्ध करे? यह बात देश से आये दो क्षत्रिय भाइयों ने सुनी. उन्होंने कहा, यदि वे इस काम को करेंगे, तो क्या पुरस्कार मिलेगा? राजा ने कहा कि सांप को मारने पर राज्य का पद मिलेगा. तब बड़े भाई ने गदा मारकर शिला तोड़ डाली. किस्सा ही है, ‘शिला फोड़कर फर्त्याल नाम पाया’. छोटे भाई ने कटार से सांप मारा, इसलिए ‘मारा-मारा’ कहने के कारण ‘मारा’ या ‘महरा’ नाम पाया.”

संभव है, इसे आप मिथक-कथा समझकर कपोल-कल्पना समझें, मगर पूर्व-भारतीय क्रिकेट कप्तान, मानद लेफ्टिनेंट-कर्नल महेंद्र सिंह धौनी को तो काल्पनिक पात्र नहीं मानेंगे; न उनके द्वारा मैच खेलते हुए पहने गए ‘बलिदान’ ग्लब्ज को, जो पिछले दिनों सियासी हलकों में खासे चर्चित हुए. धौनी के पुरखे इसी बिशुंग के मूल निवासी थे, जिनके बारे में हमारे समकालीन इतिहासकार डॉ. राम सिंहने अपनी चर्चित पुस्तक ‘राग-भाग : काली-कुमाऊँ’में लिखा है:

“धौनी लोगों की एक ‘भाग’ (आत्म-स्वीकृति) के अनुसार ये लोग सबसे पहले कहीं बाहर से आकर आज के पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर के ‘धौन’ नामक गाँव में बसे. उनके पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुण्ड उड़ रहा था, बड़े भाई ने राजा से कहा, यह मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ और उसने कहा, यह कैसे हो सकता है? बड़े भाई ने एक ‘मौन’ के पैर में धागा बांध दिया. सायंकाल वह ‘मौन’ उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने के कारण धौनी और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहे जाने लगे.
“धौनी लोगों की एक पुरखिन ‘भागा धौन्यानी’ के नाम से कुमाऊँ की लोकगाथाओं में खूब चर्चित रही है. उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से सम्बंधित गाथाओं को धान इत्यादि फसलों की गुड़ाई के समय ‘गुडोळ’ गीत में किसानों को उत्साहित करने के लिए गाया जाता है. धौन के वर्तमान बस-अड्डे के पास चार-पांच कुंतल भारी ग्रेनाईट की एक चपटी और आयताकार शिला पत्थरों के एक चबूतरे पर स्थापित है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिसकर उनकी धार तेज किया करती हैं. इसे ‘भागा धौन्यानी को उध्युनो’ (भागा धौन्यानी की दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को, जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा-मात्र  था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेटकर घास काटने जाया करती थी.”


(एक)
23 मई की सुबह के सपने में मैं अपने पैतृक गाँव में था और पिछली पूरी रात वहाँ अपने पूर्वजों से भैंट करता रहा. वहाँ अलग-अलग कटे हुए बिम्बों की तरह देश भर में चुनावी यात्रा कर रहे तमाम राजनेताओं के साथ मैं गंभीर विमर्श करता रहा. उनमें यूपी के योगी उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट थे, केदारनाथ के शिखर पर तपस्या में लीन वाराणसी के गंगा भक्त सांसद नमो मोदी थे, अमेठी के कुमार राहुल थे, बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा थे, कोलकाता की ममता दीदी थीं, मध्य प्रदेश की चुलबुली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर थीं... और भी अनेक-अनेक लोग थे, जिनके बारे में हम सब जानते हैं. सभी लोग राजनीति के धुरंधर थे, भारतीय संसद का हिस्सा बनने के लिए चुनाव लड़ रहे थे. और अपनी-अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे. इसीलिए तो वातानुकूलित कमरों में रहने वाले हमारे भाग्य-विधाता उस दिन मई के महीने की लू झेल रहे थे. 

मेरे सपने में दिखाई देने वाले तमाम बिम्बों के बीच एक निराला बिम्ब और था, मेरे बचपन के प्यारे दोस्त ‘मोहनिया बहौड़िये’ का. बता दूँ, ‘बहौड़िया’ हमारे इलाके में किशोर उम्र के नर-बछड़े को कहते हैं, जिसे अभी बैल नहीं बनाया गया है, हालाँकि उसके जीवन में यह मौका कभी भी आ सकता है. इसलिए बधियाकरण की अपनी नियति से बेखबर बहौड़िया इस उम्र में ज्यादा ही चंचल और मस्त हो जाता है. मेरी और मोहनियां बहौड़िये की दोस्ती इन्हीं दिनों की है.

सपनों के पीछे कोई तर्क तो होते नहीं. सपने में मैंने जो घटना देखी, वह 6 अप्रैल, 1980 की थी, जो संयोग से वही तारीख थी जिस दिन भारतीय राजनीति में बीजेपी नामक एक ऐतिहासिक राजनीतिक पार्टी की स्थापना हुई थी और जिसे भविष्य की भारतीय राजनीति में बड़ा परिवर्तन लाना था. उन्हीं दिनों इसी राजनीतिक दल के एक भक्त ने संसार के प्रख्यात भविष्य-वक्ता नास्त्रदामस का उद्धरण सार्वजनिक किया था कि संसार के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित एक देश के पश्चिमी अंचल में एक अपराजेय प्रतिभा का जन्म होगा, जो एकाएक दुनिया के रंगमंच में इस तरह छा जाएगा कि लोग सारे पुराने समीकरण भूल जायेंगे... मेरी कहानी का सम्बन्ध उस महान प्रतिभा के साथ नहीं, अपने दोस्त मोहनिया बहौड़िया के साथ है जिसने इसी दिन अपने जीवन का नया अवतार ग्रहण किया. कहानी का सम्बन्ध किसी राजनीतिक दल के साथ भी नहीं है; हो भी नहीं सकता क्योंकि राजनीति की मुझे जरा भी समझ नहीं है... मेरी भविष्यवाणियाँ हमेशा फ्लॉप होती हैं.

हाँ, यह तारीख मेरे मोहनिया बहौड़िये के लिए सबसे खास थी, क्योंकि इसी दिन मेरी और उसकी दोस्ती पक्की हुई थी और उस दिन मैं और वह दोनों मिलकर खूब रोये थे. कुछ ऐसा हुआ कि मैं और मोहनिया उसके बाद जब भी मिले, रोते हुए ही मिले. यहाँ तक कि 23 मई की रात को भी, जब वह मेरे बचपन के गाँव बिशुंग में मुझसे दुबारा मिला, उसी तरह दहाड़ मार-मार कर रो रहा था. मैं भी रो रहा था, मगर मेरा रुदन अलग तरह का था, और उसका अलग. मैं समझ रहा था कि उसकी रुलाई एक बैल की आवाज़ होगी क्योंकि तब वह बहौड़िया तो रहा नहीं, पक्का बैल बन चुका होगा. मैं उस आवाज़ को सुनकर हैरान रह गया क्योंकि वह बहौड़िये की ही आवाज़ थी. उसकी अस्पष्ट आवाज के शब्द मैं नहीं पकड़ पा रहा था, ठीक उसी तरह जैसे 23 मई, 2019 की सुबह साढ़े पांच बजे मैं अपनी ही आवाज ‘बिस्मिल्ला...’ को नहीं सुन पा रहा था... उसी वक़्त मेरा  सपना टूट गया था, मैं पूरी रात देखे गए घटनाक्रम को सिरे से भूल गया था. सुबह अपनी चारपाई पर सोये हुए ही मैंने रात भर देखे गए सिलसिले को आपस में जोड़ने की कोशिश की... कुछ घटनाएँ टुकड़ों में याद भी आती रहीं, मगर सिलसिला कभी जुड़ नहीं पाया.



(दो)
जिस साल भारत में नए दल का जन्म हुआ, उसी साल हिंदी के दो प्रकांड विद्वान-प्राध्यापक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्रोफ़ेसर नामवर सिंह और उज्जैन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर राममूर्ति त्रिपाठी कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग का रीडर चुनने के लिए नैनीताल पधारे थे. दोनों ही जगह लिए गए निर्णय विवादास्पद बने. चयन समिति ने मुझे चुन तो लिया, हालाँकि मामला लम्बे समय तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विचाराधीन रहा.

मेरी हालत उस दिन मोहनिया बहौड़िये की थी. उस दिन मैं न बछड़ा (प्रवक्ता) था और न बैल (प्रोफ़ेसर)! भारत भर के हिंदी प्राध्यापक मुझ पर व्यंग्य कर रहे थे, ‘तुम्हारा तो इस पद पर चयन होना ही है बन्धु, क्योंकि एक ठाकुर चयन समिति का अध्यक्ष बनकर आया है.’

एक बुद्धिजीवी होने के नाते मैं अपने समीकरण तय कर सकता था, मगर बेचारा मोहनिया बहौड़िया! उसे क्या मालूम था कि बधियाकरण के नाम पर उसकी चंचलता तो छीन ली जाएगी, मगर गौ-वंश संरक्षण की आकर्षक छाया के बावजूद उसे एक दिन दर-दर बेसहारा भटकने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.



(तीन)
मोहनिया के साथ मेरी दोस्ती की शुरुआत का सिलसिला भी कम दहशत भरा नहीं था. मैं उस दिन अपने गाँव तो नहीं जा पाया था, मगर रिश्ते के मेरे एक चाचा ने मुझे मोहनिया के बहौड़िया से बैल बनने के उपलक्ष्य में होने वाले आयोजन का न्योता भेजा था. उन्होंने लिखा कि गाँव के पढ़े-लिखे लोगों में अकेले तुम ही तो हो, इसलिए यह काम निभा जाना. मोहनिया के लिए तुम्हारा आशीर्वाद उसे ताकत देगा और वह भविष्य में पक्के पुट्ठों वाला स्वामिभक्त बैल बन सकेगा. हमेशा की तरह इस बार भी मैं गाँव नहीं जा पाया, अलबत्ता चाचा ने मुझे उस आयोजन का आँखों देखा हाल विस्तार से भेज दिया था.

यह आयोजन एक बालक के नामकरण संस्कार से कम आकर्षक नहीं था. गांव के ही शिल्पकार परिवार के एक अधेड़ दलित लछिया को संस्कार का आयोजन करना था. उसे इसका पुश्तैनी अनुभव था, इसलिए सारी व्यवस्था उसी के निर्देशन पर चल रही थी. सारी सामग्री गाँव की एक चाची ने अपने पत्थर-बिछे आँगन में ओखल के पास सजाकर रख दी थी जिसके बाद वह अन्दर के कमरे में कैद हो गयी थी. इस कर्मकांड को देखना औरतों-बच्चों के लिए मना था, इसलिए सभी बिना बताये घटना-स्थल से दूर चले गए थे अलबत्ता कुछ शरारती बच्चे दरवाजों के छेद से सारे घटनाक्रम को आँखों में कैद करने के लिए बेहद उतावले दिखाई दे रहे थे.

अधेड़ लछिया ने सारी सामग्री पर अपनी अनुभवी आँखें डालीं और सारी चीजें तरतीबवार मौजूद पाकर संतोष की साँस ली. चाची को भी वर्षों का अनुभव था, इसलिए कोई कमी होना संभव ही नहीं था.

सबसे पहले लछिया ने मोहनिया के माथे पर तिलक लगाया, जिसे वह अपनी भाषा में ‘पिठ्याँ’ कहता था. फिर अपनी देहाती भाषा में ही मंत्र पढ़ते हुए पहले मोहनिया के माथे पर फूल छिडके और उसके बाद पूरे शरीर में ताज़ा पानी और अक्षत. मोहनिया के शरीर में जबरदस्त सिहरन हुई हालाँकि इस बारे में किसी ने नहीं सोचा कि यह सिहरन रोमांच की थी, भय की या आनंद की.

ओखल के पास मोहनिया के लिए पूरी, हलवा, बड़े और दूसरे पकवान सजाकर रखे गए थे, जो उसे इस कर्मकांड से पहले खिलाए जाने थे. गाँव के चार ताकतवर पुरुष मोहनिया को घेरे हुए खड़े थे और पूरी मुस्तैदी के साथ पुरोहित दलित लछिया के निर्देशों का इंतजार कर रहे थे.
कर्मकांड का जरूरी हिस्सा अभी बाकी था.

लगभग उसी तरह, जिस तरह संस्कार के वक़्त पुरोहित वैदिक मंत्रोच्चार के साथ जातक की समृद्धि और मंगल की कामना करता है, लछिया ने वैदिक पुरोहितों की अपेक्षा कहीं अधिक भाव-प्रवणता के साथ अपनी भाषा में मोहनिया के भविष्य की मंगल कामना के गीत गाये. उन गीतों के आशय को कमरे के अन्दर कैद चाचियाँ खूब समझती थीं, मोहनिया भी समझता था; मगर जानवर की भाषा तो आदमी नहीं समझ सकता है न! मोहनिया उस सारे आयोजन को अपनी फटी आँखों से निहार रहा था.

अब बारी थी मुख्य कार्यक्रम की. यह सारा उपक्रम बहुत तेजी से, बिजली की गति से होना था, इसलिए लछिया समेत सारे पुरुष एकदम तन कर खड़े हो गए. लछिया ने आँखों-ही-आँखों में इशारा किया तो चारों पुरुषों ने मोहनिया की एक-एक टांग पकड़कर उन्हें एक मोटी रस्सी से बांध दिया. इसके तत्काल बाद लछिया ने बगल में रक्खे सिलबट्टे की तरह के समतल पत्थर को मोहनिया के लेटे हुए अंडकोशों के नीचे रक्खा और उसी तेजी के साथ अपनी मजबूत कलाईयों से भारी गोल पत्थर से अनेक बार अंडकोशों पर प्रहार किया; इस तरह कि मानो वह सिल पर बिछी हुई अदरक कूट रहा हो.

इसके साथ ही मोहनिया की विशाल गर्जना, उसकी चीख चारों दिशाओं में फ़ैल गयी थी; मानो पृथ्वी ठहर गयी थी और चारों ओर सिर्फ और सिर्फ मोहनिया की करुण चीत्कार जीवित थी. सब कुछ सूर्य के ब्लैक होल में डूब गया था. चारों ओर शून्य छा गया था.

यह सब मोहनिया और उसके मालिक-परिवार के कल्याण के लिए हो रहा था, मगर मैं तो चाचा के द्वारा भेजे गए उस विवरण को पढ़ ही नहीं पा रहा था. मोहनिया की सारी पीड़ा मेरी बन गई थी, और यही वह क्षण था जब मेरी चेतना मोहनिया की सबसे अन्तरंग दोस्त बन गई थी.


(चार)
सपने के बिम्ब धीरे-धीरे मेरी चेतना में स्पष्ट हो रहे थे. इसी के साथ ही सारे चेहरे भी गड्ड-मड्ड होते हुए एक-दूसरे में प्रत्यावर्तित होते चले जाते थे. मैं उन्हें पहचानने और परिभाषित करने की कोशिश कर रहा था, मगर ज्यों ही वे पकड़ में आते, उसी क्षण मुझ पर अवसाद का जबरदस्त दौरा पड़ता और मैं सब कुछ भूल बैठता था. चारों ओर का शोर कभी शब्दहीन शून्य बन जाता था जो दूसरे ही पल भाषाविहीन शब्द की शक्ल ले लेता. शब्द को पकड़ने की कोशिश करता तो भाषा गायब हो जाती थी. भाषा के पीछे भागता तो शब्दों की बहुमंजिली इमारतें रास्ता रोककर खड़ी हो जाती थीं. मैं खुद का परिचय ही भूल बैठा था.

तेईस मई, 2019 को मैं दिन भर टीवी से चिपका रहकर नए भारत के प्रारूप की एक-एक डिटेल को मन पर बसा लेना चाहता था, मगर यह शायद नियति को मंजूर नहीं था. सपने के हैंग-ओवर से कुछ हद तक निबटा ही था कि साढ़े छह बजे एक दोस्त ने फोन पर याद दिलाया कि मुझे दिल्ली से आ रहे चार दोस्तों के साथ अपने भौतिक विज्ञानी गुरू स्वर्गीय डॉ. देवीदत्त पन्त की जन्म शतवार्षिकी के सिलसिले में उनके गाँव बेरीनाग जाना है. भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण के शिष्य पन्त जी का मेरी जिंदगी में अविस्मरणीय  योगदान रहा है, मेरे लिए मना कर पाना संभव नहीं था, इसलिए एक घंटे के भीतर ही मैं ढाई सौ किलोमीटर की उस पहाड़ी यात्रा के लिए चल पड़ा था. चुनाव परिणाम जानने की जिज्ञासा अलबत्ता पहले की तरह मन में थी, मगर तभी ख्याल आया कि मोबाइल-फोन के जरिए पल-पल की जानकारी तो मिलती ही रहती है. शुरुआती एक घंटे के रुझानों से कौतूहल भी लगभग धूमिल पड़ता चला गया, इसी अनुपात में रात का सपना भी चेतना से हटता चला गया. मैंने भी यथास्थिति के साथ समझौता करने में अपनी भलाई समझी. जब सारा संसार उस चुनाव परिणाम से फूल कर कुप्पा हुआ जा रहा हो, मेरी अकेली असहमति से क्या फर्क पड़ना था.
हालाँकि फर्क पड़ा, और जल्दी ही पड़ा.

नैनीताल से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर सोमेश्वर के पास पहुंचे ही थे, सूचना मिली, उत्तराखंड की पाँचों सीटें बीजेपी ने जीत ली हैं और जिस सांसद-प्रत्याशी को मैंने वोट दिया था, वो चुनाव हार गए हैं. समूचा भारतीय मीडिया एक स्वर में सत्ताधारी दल का पक्षधर बन गया था. बाईस और तेईस मई की अर्धरात्रि में पूरे देश ने गुपचुप तरीके से मानो एक नया संकल्प ले लिया था. असहमति और विवाद की कोई संभावना कहीं नहीं बची थी. पूरे देश का सोच एक सपाट सीधी रेखा में बुना जा चुका था. ऐसा लगा, राजनीति एक बना-बनाया वैज्ञानिक फार्मूला है, जिसका कोई दूसरा वैकल्पिक उत्तर नहीं होता. सचमुच यह भारत का नया प्रस्थान था, जिसमें एक देश, एक राष्ट्र और एक-सी सोच में ढले सब लोग सिर्फ अपने राष्ट्र के लिए काम करेंगे. संविधान की धारा 370 ख़त्म होगी, भारत अपने धुर अतीत की तरह आदर्श सपनों का मखमली राष्ट्र होगा.

गड़बड़ तब हुई जब तीसरे दिन हमने तय किया कि पुरखों के इलाके गुमदेश के अपने गाँव बिशुंग का दर्शन करते चलें. साठ साल से गाँव को देखा नहीं था, बुढ़ापे में नौस्तेल्जिया ऊँची उछाल मारता ही है, लगा, ज्ञान की ज्योति प्रदान करने वाले पुरखे प्रोफ़ेसर पंत की स्मृति के साथ ही अपने वास्तविक पुरखों की धरती की मिट्टी का स्पर्श भी कर आएँ. बिशुंग के पास से गुजरते हुए धौनी-मौनी भाइयों के किस्से और महेंद्र सिंह धौनी के ‘बलिदान-ग्लब्स’ पर चली चर्चा याद आ गयी. गाँव के पास पहुँचते ही बाकी तो कुछ नहीं मिला, अलबत्ता बगल के ही एक उजाड़ गाँव में मेरी मुलाकात थके-मांदे बदहवास मोहनिया बहौड़िया से हो गयी.

मैं चौंका! मोहनिया को तो मेरे गाँव का दलित लछिया बैल बना चुका था, मेरे चारों भाई-चाचा इस बात के गवाह थे. मेरी चाची ने उसके बधियाकरण से जुड़ा सारा सामान सिलसिलेवार सजाकर लछिया को अपने हाथों से दिया था. औरतों-बच्चों का इस दृश्य को देखना मना है, इसलिए वे सभी अन्दर के कमरे में कैद हो गए थे. उनके छिपते ही लछिया ने मोहनिया के अंडकोष को सिलबट्टे पर उसी तरह से कूटा था, जैसे ओखल पर औरतें अनाज कूटती हैं...

पहाड़ी औरतों को जिसने ओखल कूटते देखा है, जानता है कि कितनी आत्मीय लय और गति के साथ वो ओखल पर चोट करती हैं. आमने-सामने खड़ी दो औरतें मानो शास्त्रीय संगीत की किसी प्रतिस्पर्धा में हिस्सा ले रही हों!  

इसके बाद इस बात की गुंजाइश भला कहाँ बचती है कि मोहनिया बहौड़िया बना रहे. ये तो शिलंग की भागा धौन्यान का जैसा अविश्वसनीय किस्सा हो गया. क्या आज के ज़माने में भी धौनी-मौनी भाइयों के जैसे किस्से संभव हैं? मन हुआ कि रमण महर्षि के शिष्य प्रोफ़ेसर पंत जी से पूछूं कि क्या आज भी इस तरह के अजूबे संभव हैं? मगर हम दो दिन पहले ही तो उनका जन्म शताब्दी वर्ष मनाकर लौटे हैं. अब कहाँ खोजें उन्हें!

मेरी आँखों के आगे अजीब नजारा था. गुमदेश के सारे बैल गहरी करुणा भरी दहाड़ के साथ चारों दिशाओं में दौड़ रहे थे. वर्षों से बहौड़ियों का संस्कार नहीं हुआ था, इसलिए कोई बहौड़िया बैल नहीं बन पाया था. अब वे न बहौड़िए थे, न सांड और न बैल. वे पूरी तरह अनुपयोगी हो चुके थे. उनको खिलाने के लिए कहीं चारा नहीं बचा था, और वे सारे इलाके के खेतों में आवारा पशुओं की तरह फसलें नष्ट कर रहे थे. वहां अब सिर्फ बहौड़िए नहीं थे, उनकी बूढ़ी माएँ गौ-माता, नील गाएं, लाल-गुलाबी चेहरों वाले बन्दर, सभी एक-दूसरे की परवाह किये बिना भटक रहे थे.

गौ-वंश के संरक्षण के लिए नई संसद विधेयक पारित करने जा रही थी जिसमें उन्हें खुला छोड़ने पर सख्त दंड का प्रावधान करने का प्रस्ताव था. गायों-बैलों और बहौड़ियों के द्वारा किये गए उत्पात की सजा जब आदमियों को मिलने लगी तो लोग अपने पुश्तैनी घर वीरान छोड़कर मैदानों की ओर भाग रहे थे. गौवंश को आतंकवादी तो घोषित नहीं किया जा सकता था; धारा 370 को हटा भी दें, सवाल तो तब भी बना रहेगा कि कौन यहाँ का मूल निवासी है और कौन प्रवासी? कौन लौटेगा और कौन दण्डित होगा?...      

जीन और डीएनए के क्रम को क्या कोई अपने हिसाब से संयोजित कर सकता है? बहौड़ियों को बैल बनाने के लिए दलित लछिया के कर्मकांड के सिवा और कोई रास्ता नहीं है? बन भी गए बैल, तो वे कहाँ रहेंगे, क्या खायेंगे? बहौड़ियों की नई नस्ल का क्या होगा?...

इस जिज्ञासा के बारे में सोचते हुए मुझे एकदम साफ याद आ गया कि हाँ, मैंने सपना देखने के दौरान ही गुस्से में बिस्मिल्ला कहा था.


मुझे यह भी याद आ गया कि सुबह उठकर मैं कभी किसी देवता का नाम नहीं लेता, न ‘मेरे मौला’ कहता, न ‘हे राम’. मैंने सोचा था, ‘श्री गणेश’ कहने में तो जुबान लपटती है, ‘बिस्मिल्लाह’ कहना उसकी अपेक्षा आसान तो है ही.
________________________________

बटरोही
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव

पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित
हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' प्रकाशित

अब तक चार कहानी संग्रहपांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें प्रकाशित.

पता 
बटरोही, माउंट रोज, अपर माल, तल्लीताल, नैनीताल – 263002 (उत्तराखंड)
मोबाइल : 9412084322 मेल batrohi@gmail.com 

चर्यापद : शिरीष कुमार मौर्य

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किसी विषय को केंद्र में रखकर कविताओं की श्रृंखला तैयार करने की प्रवृत्ति हिंदी में है, नदी, पहाड़, प्रेम और प्रकृति पर केन्द्रित कविता- संग्रह इधर प्रकाशित हुए हैं.

कवि-आलोचक शिरीष कुमार मौर्य ने आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बौद्ध मत के अनुयायी सिद्धों द्वारा आचरण को केंद्र में रखकर अपभ्रंश में लिखे चर्यापद को अपनी कविताओं का केंद्र बनाया है.

ज़ाहिर है ये कविताओं समकालीन आचरण को प्रश्नबद्ध करती हैं और अपने शिल्प में एक अनूठे अनुभव और नैतिकता का सृजन करती हैं.

ये सत्रह ख़ास कविताएँ समालोचन के लिए  




चर्यापद

“गौतम बुद्ध के मित्र व शिष्य भद्रक किंवा भदिया द्वारा इक्कीसवीं सदी में विरचित ये नवीन चर्यापद इस विधा के प्रथम व मूल प्रस्तोता शबरपा और उनके गुरु सरहपा को सादर समर्पित हैं.”

शिरीष कुमार मौर्य




चर्यापद भूमिका
*
(धम्मनिट्ठ वग्गो का यह पृष्ठ भद्रक को महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध की शय्या के पैताने मिला, यह पिटक में सम्मिलित नहीं है. भद्रक अपने चर्यापदों के संग्रह में भूमिका के रूप में इसे प्रस्तुत कर रहा है.)


भिक्षु !
हिरण्यवती के प्रवाह को देखो
वर्षा में
वह संसार के प्रपंचों की भाँति
वेगवान है

मुझे इस काल
विगत
कई वर्षों से
यशोधरा के अश्रुओं का
स्मरण
हो आता है
जिनके विषय में कभी कभी
बताती रहीं मौसी
महागौतमी

तब मैं कहता हूँ
धर्म वह नाव नहीं है जिस पर चढ़
तुम प्रवाह को पार करते हो
प्रवाह में उतर कर
तैरना धर्म है

दो वर्ष* हुए
इसी धर्ममार्ग पर हूँ भिक्षु
सभी को
इस पर बुलाता हूँ

माथे पर अदृश्य सजा हुआ
मुकुट नहीं है धर्म

बहुत ढूँढ़ोगे
तो वह प्रविविक्ति में नहीं
ग्रामों-नगरों के
कोलाहल में
भटकते
किसी पथभ्रष्ट स्थविर के
तलुवों में मिलेगा
गड़ा हुआ
*
* महापरिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व  
   यशोधरा की मृत्यु हो गई थी.


_____________________________






चर्यापद  1

अन्न माँगो उस घर से
जो विपन्न हो

उजड़ा हो दुर्भिक्ष में उस गाँव जाओ

उस व्यक्ति से मिलो
जिससे मिलना सबसे सरल हो
और जिसकी तरह जीना
सबसे कठिन

भिक्षु
अभी तो दीक्षा का आरम्भ है
करुणा पर चर्चा
फिर कभी





चर्यापद  2

जल नहीं था
किसी भी ऋतु में
गए बरस

नदियों के तल छिछले से
छूँछे होते गए

नागफनी के सिवा
किसी और
वनस्पति के तने पर विश्वास
नहीं कर पा रही थी
दुःख की चिरैया

भरी दुपहरी
माथे से
बहती स्वेद बूँदों पर
बार बार
बैठ रही थी
छोटी सफेद तितली

भन्ते!
मेरी देह का नमक चाट रही
वह तुम्हारी
जगप्रसिद्ध करुणा तो
नहीं थी?






चर्यापद  3

मैं अब भी उतना ही अबोध हूँ
मैं अब भी उतना ही भ्रमित हूँ

मुझे पथ नहीं मिलता था
और
मुझे पथ नहीं मिला है अब तक

हालाँकि
आप वही नहीं रह गए
भन्ते
लेकिन मैं वही भद्रक हूँ

मुझे ध्यान से देखिए
प्रतिदिन
एक नई क्रूरता से जूझता हुआ
इस संसार में
अब
मैं अमर हो गया हूँ.






चर्यापद  4

लुहार के घर से माँगा भोजन
खाने के बाद
बुद्ध शय्या से न उठ सके

महानिर्वाण से पहले रोया
लुहार
स्वयं को धिक्कारता

यह एक कथा है
इसमें कुंडा नामक उस व्यक्ति के
लुहार होने का
विशेष उल्लेख है

स्पष्ट है
कि कुंडा का पेशा भर बताना यहाँ
अभीष्ट नहीं था

भन्ते!
वह आज भी अभीष्ट नहीं है

चतुर शिष्यों ने
आपके जाने की कथा चलाते हुए
विवरण बढ़ाते हुए
इसमें लुहार रहने दिया

इस परम्परा में
व्याकुल भटकता है भद्रक
और पाता है
कि आपके सिवा कोई और
कभी
अपना दीप आप बन नहीं पाया

धम्म के शिखर सदा
मौन ही रहे
देह में कुलबुलाते रहे
अधर्म के चूहे

करुणा
उनके भी साथ रही?





चर्यापद  5

मृत्यु की
देह के नष्ट हो जाने की
घटना
निर्वाण कह देने से
गरिमापूर्ण
नहीं हो जाती

भन्ते!
निर्बलों की हत्या ही हुई है सदा
क्या उन्हें
निर्वाण प्राप्त हुआ?

अपने दुःख में लिथड़े
वे जीवित रहना चाहते थे
लड़ना चाहते थे
संसार के संघर्षों के बीच
अपने जैसे अनगिन जनों के साथ
वे संधान करना चाहते थे
उस तथ्य का
जिसे करुणा कहा गया

निर्वाण
मृत्युपूर्व भी सम्भव है
इसी समझ
और इसी हठ में
आपके निर्वाण पर
मैं बिलख उठा था

मैं आज भी बिलख ही रहा हूँ
भन्ते





चर्यापद  6

सम्राटों और राजकुँवरों
सम्राज्ञियों
और राजकुँवारियों ने
धम्म की ध्वजा उठायी
हिमालय
और
समुद्र पार गए

मैं प्रश्नाकुल ही रहा आया
शताब्दियों तक
आज भी बौखलाया सा घूमता हूँ

आनन्द या रानी खेमा नहीं हूँ
वे मृत्यु को प्राप्त हुए
या निर्वाण को
कह नहीं सकता

अपनी कथा क्या कहूँ
अमरत्व
निर्वाण की सबसे बड़ी
बाधा है

कितनी बार बताऊँ
किस किसको बताऊँ
कि मैं अमर हुआ जाता हूँ
भन्ते
मेरे माथे पर गाड़
फहरायी गई धर्मध्वजाओं के
विरुद्ध
मेरी अमरता
अब एक बड़ी चुनौती है

और
मेरे इस दुःख पर
शताब्दियों पहले
कहीं
किसी वार्ता में बैठे हुए
आप मुस्कुराए हैं

भन्ते !
शिष्यों ने प्रचार किया
करुणा का
व्यंग्य को समझना
और कहना तो छूट ही गया
महिमामयी
इस परम्परा में!





चर्यापद  7
गंगा में
कछुओं की डुबकियाँ
किसी तरह का
निर्वाण नहीं हैं

एक संसार से दूसरे संसार में
आते जाते रहते हैं वे
कुतर लेते हैं
अधजले शवों का माँस

घाट पर भद्रक का हृदय
करुणा से नहीं
जुगुप्सा से भर जाता है

वह
रात्रि शयन के लिए काशी में नहीं टिकता
सारनाथ चला आता है

और
निर्वाण तो सारनाथ
चले आना भी नहीं है

सुबह भिक्षाटन के लिए
फिर काशी ही जाना है

गंगा में डुबकी लगाते कछुए
भिक्षा को
कभी मना नहीं करते





चर्यापद  8
मुण्डित स्त्रियों के स्वप्न
किसको आ सकते हैं
भन्ते?

किंतु
थेरी शुभा ने समाज में
पाप की उन जड़ों को भी देखा था
जो घुस आयी थीं
भिक्षुणीसंघ के
निरापद विहारों तक

निर्वाण से ठीक पूर्व
आयीं थी मौसी महागौतमी
आपके पास
कुछ कह नहीं पायीं
आप जैसे पुत्र के लिए
अपनी बहन को सराह
वापस चली गईं

मुझे कह लेने दें
कि मुण्डित हो जाने से
समाज के भीतर
स्त्रियों के प्रति उपस्थित प्रेम तो कुछ नष्ट हुआ
किंतु पाप थोड़ा भी नहीं मरा

मैं भद्रक
निर्लज्ज हो कहूँ
तो मेरे भीतर भी
कुछ पाप बचा रहा
पर बचा रहा
प्रेम भी

भन्ते !
मुझे बताइए
कि क्यों मेरी मनुष्यता
इसके लिए
मुझे धिक्कारती नहीं
ढाढ़स ही बँधाती है





चर्यापद  9

मुझे आज
हत्यारों की रसोई का अन्न मिला
भन्ते!

अनुभव किया
कि शरीर में जीवन कितना और
किस तरह निवास करता है
पता नहीं
पर मृत्यु निवास करती है
हर तरह
हर जगह

मैं बँधा हूँ बँधे वधिक भी है
लेकिन
भद्रक के अनुभव में
वधिकों के नाम नहीं हैं

भन्ते !
अवश्य ही वे आपके अनुभव में हैं

थेरगाथा में वधितों के
जो नाम हैं
चकित है यह भद्रक
कि थेरीगाथा में ठीक वही नाम
वधिकों के भी हो सकते हैं

पता नहीं
यह दुःख का विषय है
या करुणा का
कि सदा कुछ उदान ही रहे
हमारे साथ

निदान
कोई भी नहीं.






चर्यापद   10

शारिपुत्र थे धर्मसेनापति
नालन्दा में

मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर था

मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर हूँ

कभी
शारिपुत्र नाम नहीं उचारा मैंने
सारिपुत्त कहने से ही
उस धम्म का पता चलता था
जो राजाओं से नहीं
प्रजा से
सम्बोधित था

स्वप्न में भी
किसी को दुःख पहुँचाने की बात
मन में नहीं लाते थे
शारिपुत्र
वे संतुष्ट, वीतरागी, जितेंद्रिय
स्थविर थे

पापनिंदक, असंतुष्ट, प्रविविक्त
और उद्योगी था
सारिपुत्त

भन्ते!
शारिपुत्र ने धर्म की महिमा बचाई

आत्मा बचाई सारिपुत्त ने





चर्यापद  11
आज
रंग एकादशी है
भन्ते
होरी का चीर बाँधा है
मैंने

भद्रक
इसी चीर के साथ
भिक्षाटन को
जाएगा
भिक्षा लेगा तो अबीर का
टीका लगाएगा
दाता को

अवश्य सुननी चाहिए
पर संघ सुनना पसन्द नहीं करेगा
जो होरियाँ
भद्रक अब होरी तक
काशी के मुहल्लों में
गाएगा

लो
वह धर्म की शरण में आता है
वह संघ की शरण में आता है

फागुन में उसे सम्भालो
भन्ते!
वह आपकी शरण में आता है





चर्यापद  12

हम
क्यों स्थविर कहलाए गए
भन्ते ?
जबकि
हमारे हृदय भी काँपते हैं
उस वृक्ष के
सूखते पत्तों की तरह
जो कथानक में
बोधि है
प्रकृति में पीपल

कथानक में
कल्पना बहुत होती है
भद्रक!
प्रकृति में यथार्थ

तो क्या काशी कथानक है भन्ते
और सारनाथ प्रकृति?

नहीं
काशी पीपल है भद्रक
और सारनाथ बोधि

मैं वही कह रहा हूँ
जो तुम कह रहे हो
भद्रक!
पर ठीक वही नहीं कह रहा हूँ

फिर ऐसे में
धर्म क्या है भन्ते हमारा?

कल्पना और यथार्थ
कथानक और प्रकृति
बोधि और पीपल
के बीच
जो संसार है अछोर
अपार

भद्रक !
वही धम्म है हमारा





चर्यापद  13
मैंने
प्रथम उपदेश सुना है
भन्ते!

महाकश्यप नहीं हूँ
कि कुछ जानूँ
कुछ न जानूँ
जानने के बाद जानूँ
कि जानने से पूर्व कुछ भी नहीं जानता था

मेरी जिज्ञासाएँ
अपूर्ण ज्ञान से नहीं
सम्पूर्ण अज्ञान से जन्मी हैं

महाकश्यप
आप तक पहुँचने से पूर्व भी
बड़े ज्ञानी
प्रकाण्ड पण्डित थे
भन्ते
आपसे मिल कर जाना
कि कुछ भी नहीं जानते थे

मैं भद्रक
कुछ भी न जानता था

मैं भद्रक
अब भी कुछ नहीं जानता हूँ

यह मेरा
नहीं जानना ही है
भन्ते
कि अतीत
प्रत्युत्पन्न
और
अनागत
सभी कालों में व्याप्त है
मेरा अस्तित्व

मैत्रैय बुद्ध होंगे
तो मैत्रैय भद्रक न होगा
क्या?




चर्यापद  14

आपके भी
वंश का नाम लिया गया
भन्ते
आपको क्षत्रियकुल गौरव
कहा गया

आप भी
गोत्र से पहचाने गए
शाक्यमुनि
कोई दूसरे नहीं थे भन्ते

राजकुल
बहुविधि साथ और पास
बना रहा

आपकी शिक्षा अनुसार
एक मैं भद्रक ही
भूला आपका राजकुल जाति गोत्र  गौरव

हुआ सहजिया
चौदस सौ वर्ष पहले
निर्वाण तो नहीं मिला
पर मिली
उससे भी शानदार
एक व्याकुलता
आपकी ही देन वह
मेरा धम्म है

भन्ते
उसी का प्रचार करता हूँ मैं
इन दिनों




चर्यापद  15

मुझ में ही महायान के बीज थे
भन्ते
मेरे थेर होने में हरसम्भव कमी
रह गयी थी

मैं अकेला होने से डरता था
भीतर के प्रकाश भर से
मेरा काम नहीं चलता था

आपसे अधिक कोई नहीं जानता
कि मुझ जैसों की
परस्परता भी धम्म ही थी

आपके अनुयायी बने
राजकुलीन स्थविरों को मालूम ही न हो शायद
कि प्रजा के  घरों में
दीवट पर धरे
अनगिनत दीप धुआँ हो चुके
भन्ते
      पिछले सैकड़ों वर्षों में
      परस्पर प्रकाश के लिए
      


चर्यापद  16

मैं हमेशा से हताश नहीं था
भन्ते

मुझ में से आशा गई
पर जीवन बना रहा

मैं महीनों
बस्ती के सबसे वंचित व्यक्ति के द्वारे खड़ा रहा
भिक्षा के लिए

इतने महीने
मैंने क्या खाया
मत पूछिए

भन्ते
मैं उस द्वार से रिक्त-पात्र भले
लौटा हूँ
रिक्त-हृदय
रिक्त-मन
नहीं लौटा

मैंने
हताशा में जिस नदी का
जल पिया
उसी का क्षीण प्रवाह
मेरी धमनियों में है

यह भी
बहुत बाद में जाना
कि उसी नदी को
आपने
करुणा कहा है.





चर्यापद  17

उरुवेला
अब भी वहीं है
आपको
स्मरण होगा

कौण्डना स्मृति में है भन्ते?
असाजी ?
वापा?
महामना?
और मैं?

मैं तो निर्वाण समय भी
उपस्थित था
इसी कारण
कुछ अधिक बच गया हूँ

जो स्वयं न बचे
जिनकी कीर्ति बची बहुत सारी
वे शिष्य
सम्राट क्षत्रिय, ब्राह्मण, श्रेष्ठि ही
क्यों हैं
वे तपस्सू और काल्लिक
क्यों नहीं हैं भन्ते

मैं स्वयं ब्राह्मण
उन दोनों के वर्ण का नाम भी लूँ
तो जिह्वा कट जाए मेरी
चलूँ सदा धम्म की ही राह

और अगर
धम्म की राह चलूँ
तो फिर
उस राह का क्या करूँ
जिस पर
अब आपके कुलीन शिष्यों की
कीर्ति की
राख भर बची है ?
_________________________________




विष्णु खरे : विवरण में संसार : सविता सिंह

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विष्णु खरे : विवरण में संसार                          
सविता सिंह






किसी कवि को कैसे याद करना चाहिए कि वह ठीक-ठीक याद किया जाए और समझा जाए, वह भी यदि वह विष्णु खरे जैसा कवि हो जिसकी कविताओं के बनने की एक विशिष्ट पद्धति है. किसी कवि को कैसे याद करें कि वह मायूस न हो बल्कि हैरत से देखे कि किसी अन्य ने उसके रहस्य को कैसे जान लिया. ऊपर के रूखे आवरण के बावजूद किसी ने कैसे भीतर के जल के तापमान को महसूस कर लिया. विष्णु खरे ने कविता के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा, ख़ासकर फिल्मों पर उनका लेखन अनूठा है. अनुवादों की लम्बी-फेहरिस्त है, देश-विदेश के कवियों को उन्होंने इन्हीं के जरिये और भी पढ़ा और जज़्ब किया. मेरे लिए भी उनका यूँ अचानक ही उठकर चले जाना, दुःखदायी है. मेरी कविताओं पर उनकी खरी टिप्पणियाँ अक्सर उनमें सुधार ही लाती थीं. आख़िरी दिनों में मेरी कविताओं के संचयन की वे भूमिका लिख रहे थे. सोचती हूँ एक पूरा संसार ही उन्होंने लिखा होता. अक्सर वे ऐसा ही करते थे.


(एक)
उनकी कविताओं में भी यह दुखी-सुखी संसार, जिसमें हम जी रहे हैं और जिसके बरक्स वे एक और संसार बनाना चाहते थे, विवरणों के ज़रिये ही परिभाषित होता था. रोमांटिक कवियों से अलग, कविता में कल्पना का सहारा वे कम लेते थे. जो है उसे ही सही-सही डिस्क्राईब कर, उसके छोटे से छोटे ब्योरे को भाषा में लाकर एक प्रति संसार गढ़ते थे. इस तरह एक आख्यान तैयार होता था जिसमें यह संसार अपने रहस्यों में भी उजागर हो जाता था. यह सभी कुछ कविता में एक ऐसा आस्वाद पैदा करता था जिससे सत्य के दर्शन होने की अनुभूति होती थी. इनके यहाँ कविता में विवरणों से पैदा की जाने वाली काव्य चेतना अपने सौंदर्यबोध में वाकई अद्वितीय है.

ऐसा कहा जा सकता है कि अपनी कविताओं में जिस संसार की जो तस्वीर वे पेश करते हैं वे उसे पाते भी हैं, उसकी क्षणिक स्थिरता में ही सही, या फिर अपने विवरणों में तथ्यों के संयोजन से वे उसे मूर्त कर देते हैं. एक कमरा तब मुकम्मल दिखता है जब यह दिखे कि टेबल कहाँ रखी है और मेज़ कहाँ और दीवार पर लगी तस्वीरें क्या असर पैदा करती हैं इस कमरे के यूँ होने में, क्या कवि अपनी तरफ़ से उसमें एक आईना भी जोड़ देता है ताकि वह एक प्रतिसंसार-सा भी दिखे?

विष्णु खरे क्या अपनी कविताओं में जितना हैं उससे अधिक अर्थ पैदा करते हैं या फिर उसे तलाशते भर हैं या कोई दूसरी ज्ञानात्मक क्रीड़ा चलती रहती है इस कवि की अपनी एक विशिष्ट लीला की तरह, इन्हें पढ़ते हुए लगातार सोचना पड़ता है.

यह कवि अपने विवरणों से ही अपनी राजनीति भी करता है. कहना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है कि नरोदा पाटिया की त्रासदी कवि की कविता से अपने विवरणों में पूरी होती है या कविता को पूरा करती है-- असर लेकिन तीक्ष्ण ही होता है और आप एक दर्द के दरिया में सचमुच उतरे हुए खुद को पाते हैं.इनकी कविताओं में विवरण दरअसल सिर्फ़ यथार्थ के एक चित्र को खींचने के लिए नहीं होते बल्कि उन्हें अर्थपूर्ण बनाने के लिए, बहुत बारीकी से यथार्थ का अवलोकन कर, उस पर आधारित होकर.

विष्णु जी की कविताओं की शैली उनके विवरण करने की कला और क्षमता की वज़ह से सामान्य चीज़ों को सामान्य बनाती-सी भले दिखे, लेकिन यह सामान्यीकरण जब गहरे अर्थों में हमारे यथार्थ को पकड़ लेता है तो हमें अन्दाजा होता है कि जो कुछ चल रहा है, इस सलीके से किये जा रहे तथ्य संयोजन में वह विशेष है, विलक्षण प्रयास है. यहाँ बिम्ब नहीं हैं, विवरण हैं, जिनसे जाना जा सकता है टेम्पो में अपनी गृहस्थी लेकर घर बदलते हुए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार को उसकी वर्गीय सच्चाई में, एक आदमी अपने दाँत खोदने वाली सींक को नाक की तरफ़ ले जाता हुआ बता देता है अपनी मानसिक और सामाजिक स्थिति को.

लालटेन जलाना क्या है ? एक प्रक्रिया या ग्रामीण या फिर कस्बाई जीवन का वह यथार्थ जहाँ से विष्णु खरे जैसा कवि अपनी संपूर्ण सोचने की पद्धति के साथ निकलता है, सकारात्मक अर्थ में एक अनुभववादी (इंपिरिसिस्ट) कवि, जो कविता में शोध करता है. इस संसार को उसके अंदरूनी अर्थ को समझने के लिए उनकी कविता दोस्तमें एक विवरण आता है जिसमें एक युवक को एक सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करने की नसीहत दी जाती है. नसीहत दिये जाने के विवरणों के ज़रिये अपनी कविता को विष्णु खरे उसके राजनैतिक आशयों में पूरा करते हैं. वर्ग घृणा को बेवाक ढंग से सामने लाते हुए यहाँ वर्ग का कोई बड़ा आख्यान नहीं प्रस्तुत किया गया है--बस यथार्थ के डिटेल्स हैं, सूगा (suara) की पेंटिंग की तरह बनाया गया है. प्यांटिलिज्म (Pointalism) यानी, महीन बिन्दुओं से यथार्थ का चित्र तैयार किया गया है.

‘‘एक नौजवान पुलिस सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करो
लेकिन दो-तीन बरस बाद तुम अचानक पहचानोगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगाकर बंद कर दी गई है
और लोग साइकिलों पर से उतरकर जल्दी-जल्दी जा रहे हैं
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास ही की दूकान से बैंच उठवाकर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रखकर
तुम कहोगे कि उसकी हैल्थ शानदार हो गई है
जबकि ऊपर उठ आए गालों के ऊपर स्याह हलके़ गढ़े पड़ गये हैं
और पेट और पुट्ठों के अप्रत्याशित उभारों पर कसी हुई पोशाक में
वह यत्नपूर्वक साँस ले रहा है
उसकी बग़लें
कलफ़ और पसीने से चिपचिपा रही हैं
और माचिस की सींक से दाँत कुरेदते हुए वह
उसे बार-बार नाक की तरफ ले जा रहा है. सियासत
और बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा, अब तुम बढ़ लो, ये मादरचोद आ रहे हैं.


सचमुच कहाँ से चलती, बनती हुई कविता कहाँ आकर ठहरती है, साँस लेती यहाँ ! बड़े सैद्धांतिक वैचारिक खाकाओं को बिना सामने लाए, एक बड़ा वर्गीय यथार्थ दिख ही जाता है इस कविता में. हमारे समाज की राजनैतिक आर्थिक विदू्रपताएँ यूँ गालियों में संप्रेषित हो जाती है.उनकी बहुचर्चित और विवरणों के शोधबोध से पगी पद्धति की सचमुच बेजोड़ कविता है लालटेन जलाना’. यह यहाँ शायद कहा जा सकता है कि एक बड़ी कविता अपने विवरणों में ऐसे हो सकती है जैसे यह संसार.

लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है. जितना उसे समझ लिया गया है... यह ज़रूर है कि जब दिया-बत्ती की बेला आए
तो यह न मालूम हो कि लालटेन पीपे या शीशी में तेल नहीं है
और शाम को साढ़े छह बजे निकलना पड़े मिट्टी के तेल के लिए...
आख़िर कोई लालटेन अच्छी तरह क्यों जलाई जाए...

लेकिन लालटेन जलाने का लुत्फ़ मुख्यतः तेल से है
और शायद उससे से ज्यादा
उम्दा साफ़ किए गए काँच की है
भलाई इसी में है कि बत्ती से बेवज़ह छेड़छाड़ न की जाए
लेकिन अगर उस पर ज़्यादा ग़ुल जमा हो ही गया हो
तो उसे उँगलियों से नोचना बेवकूफ़ी होती है
क्योंकि उसके बाद जब उसे बाला जाएगा
तो चारों तरफ़ से पुच्छल तारों जैसी दुमदार रोशनी निकलेगी
और काँच बच भी गया तो काला तो हो ही जाएगा
कैंची से काटने में भी रेशे निकल आते हैं
या टेढ़ी-मेढ़ी कटती है
उसे ब्लेड जैसी चीज़ से काटा जाना चाहिए वह भी एहतियात से
लेकिन यह तभी मुमकिन है जबकि वह काफ़ी लंबी हो
ऐन मौके़ पर यह पता लगना कि बत्ती छोटी है
लालटेन की कुप्पी को मिट्टी के तेल से बिला वजह
लबालब भरने पर मजबूर करता है
और तब भी वह साढ़े नौ बजे तक दम तोड़ देती है ....
लेकिन जो काम सबसे ज्यादा सलीके़ मेहनत और निगाह की मांग करता है
वह है शीशे को साफ़ करना.....’’

कविता में इस तरह रौशनी पैदा होती है जिस तरह यह अपनी बारीक बनावट में खुद को बरतती हो क्योंकि शीशे को साफ़ करने में यह ध्यान रखना पड़ता है कि

कब्जे से निकालते वक्त
उसे गलत तरफ़ से तिरछा न कर दिया जाए कि वह टूट जाए
फिर यह कि शीशा सिर्फ़ बढ़िया राख से ही चमक सकता है
यानी या तो अच्छी जलाऊ लकड़ी की राख हो
या फिर सख़्त कंडे की

बिना यह सब कुछ जाने और एहतियात बरते बग़ैर, यह रौशनी बच नहीं सकती कविता में या कि कायनात में.




(दो)
विष्णु जी की एक और कविता है जिसे मैं एक बेहद महत्वपूर्ण रचना मानती हूँ और जिसके ज़रिये वे हमें अमानवीयता की तस्वीर दिखाते हैं जो इन्हीं ब्योरों के कारगर संयोजन और विस्तार की मदद से संभव हुई है. एक साथ यह कविता आपको हतप्रभ और चमत्कृत दोनों करती है, वह भी आपके बहुत करीब पहुंच कर जब आप यथार्थ को अभी दूर से ही देख रहे होते हैं. सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथाकविता में वे इस पूरी प्रथा की अमानवीयता को यथार्थपूर्ण ढंग से परिभाषा की गिरफ्त में ले लाते हैं,

‘‘इस पूरे मुहावरे पर ही ग़ौर करें
जो ध्यान दें, है, सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा
अब यदि हम ज़ोर सिर पर देते हैं
तो ध्वनि यह निकलती प्रतीत होती है
कि यदि मैला सिर के बजाय कंधों, पीठ या कमर पर ढोया जाएगा
तो प्रथा अमानवीय नहीं रहेगी.’’

बात जो बनती हुई दिख रही है वह यह कि क्यों कोई किसी और का मैला ढोये, लेकिन शायद इतने से बात नहीं बन पा रही. कवि इसलिए इस मैले को ढोये जाने की प्रक्रिया, उसकी सम्पूर्ण प्रविधि में जाता है, जो आपको भीतर तक, समझा दे कि आख़िर किस तरह हमने अपनी मनुष्यता खोई है. वे कहते हैं, ‘

मुहावरे को सिर पर नहीं दिमाग़ में रखे हुए
यदि हम बल मैला ढोने पर देते हैं
तो कुछ यूं लगेगा कि इसे ढोना भले ही अमानवीय हो.’’

अमानवीय होने की परिभाषा को पूरा करने के लिए कवि उसकी डिटेलिंग के ज़रिये उसे प्रस्तुत करता है. मैं सोचती हूँ कि कविता ज्ञान के किस आयाम को खुद में समोये है यहाँ, किस अर्थशास्त्रीय रचनात्मक मीमांसा की भारी-भरकम पद्धतियों का भार-वहन करती है यह कविता--

‘‘बहरहाल इस भाववाचक संज्ञा के आते ही
प्रश्न यह खड़ा हो जाता है कि क्या
सिर पर मैला ढोने को प्रथा कह सकते हैं
क्योंकि ज्ञानमंडल बृहत हिंदीकोश देखें
तो इस तत्सम शब्द के दो तत्सम पर्याय
रीति या परिपाटी दिये हुए हैं
जबकि कुछ संदिग्ध गुणवत्तावाला नालंदा शब्दकोश
इसे रिवाज़ या प्रणाली बताता है.’’...

परन्तु उसकी असल अमानवीयता तो यहाँ है--

‘‘कि तुम जब बैठे ही हो
अचानक कभी घुस आता था कोई थूथन नहीं
बल्कि चूड़ियों वाला कोई साँवला-सा हाथ
टीन की चौड़ी-गहरी तलवार जैसा एक खिंचौना लिए हुए
फिर जैसे तैसे उछलकर भागने से पहले आती थी
स्त्री हँसी की आवाज़ जो कहती थी
और पानी डाल दो बब्बू
और उसके बाद राख की मांग की जाती थी
जिसे राखड़ कहा जाता था राख कहना अशुभ होता
जो ज़रूरी थी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को
कुछ वहनीय बनाने के लिए
यानी पहले टोकरे में बिछाई जाती थी वह
जिसके ऊपर तक भर जाने के बाद
उसे ढका जाता था फिर राख की मोटी परत से ही
यह तथ्य अल्पज्ञात ही है कि अनेक पिछवाड़ों का मैला
कितनी जल्दी तरल हो जाता है
और राख ज़रा-सी कम हो तो टोकरे की किमचियों से टपकने लगता है.’’


यह किमचियों से टपकता मल मैला ढोने वाली स्त्री के चेहरे, बाल, पीठ, छाती से होता हुआ उसे सम्पूर्ण रूप से अमानुषिक या मनुष्य से कमतर कोई और जीव बना देता है. दिल और मिजाज़ को बिगाड़ देने वाली ऐसी कोई और कविता नहीं पढ़ी. परन्तु इसमें क्या कोई शक़ है कि यह कविता अपने विवरण में ही सत्य के इस रूप का भी बखान बन सकी है.

ब्यौरों और विवरणों से खड़े किये गए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार के सत्य को आप विष्णु खरे की कविता जो टेम्पो में घर बदलते हैंमें देख सकते हैं. हैरत में पड़ सकते हैं कविता क्या कुछ कर सकती है ऐसे पद्धतिपगे प्रयत्न से. जो परिभाषा हम गढ़ पाने में ज्यादातर अक्षम होते हैं, वह यहाँ अपनी स्पष्टता में एक दृश्याचित्रा की तरह प्रस्तुत है--

निम्न मध्यवर्गीय मनुष्य के घरेलू जीवन की पहचान कराते इस कविता के सामान, उनके रंग-रूप, उनकी अनिवार्यता और उसमें संचित-सुरक्षित उनकी वर्गीय असुरक्षाएं--सब-कुछ जाहिर है एक टेम्पो में अपनी गृहस्थी लादे चला जा रहा है एक परिवार अपना घर बदलता हुआ,

‘‘पुराने सोफ़े एक डबल बैड सेकेंड हैंड
एकाध निवाड़ का फोल्डिंग पलंग कीलें निकली हुई कुर्सियाँ
फटी बदरंग दरियाँ फीके पर्दे घिसे पाँवपोश
ज़र्द पड़ चुका दस बरस पहले क़िस्तों पर लिया गया फ्रि़ज
वैसा ही ब्लैक एंड वाइट टी.वी. उसका जंग लगा अधटूटा एंटेना
मटमैला गैस सिलिंडर चूल्हा जिससे कंपनी का नाम मिट चुका है
उखड़े हुए सनमाइका वाली डाइनिंग टेबिल हिलती हुई तीन कुर्सियों समेत
एक दांचेदार गोदरेज की अल्मारी जो असल में गोदरेज की नहीं
शीशे में फफूँद-पड़ी डगमग करती एक ड्रेसिंग टेबिल न घूमने वाला टेबिल फ़ैन
बर्तन भाँडे खूँटियाँ पाटे मोगरियाँ झाड़ुएँ सिल-बट्टा
टूटे हुए पल्लुओं वाला एक कूलर एक लैब्रेटा जो अब स्टार्ट तक नहीं होता
चटके किनारों वाले कुछ गमले जिनमें मनीप्लांट सहित अन्य आधे मुरझाए पौधे
प्लास्टिक की बाल्टियाँ मग्घे हर तरह की शीशियाँ डब्बे-डब्बी
वैलकम वाली फ्रेम जड़ीं गृह कलाकृतियाँ दीवार के उड़ते हुए विकासमान हंस
कैलेंडर पिछली दीवाली के लक्ष्मी-गणेश कुछ अक्षरों कम वाली नेम प्लेट
फीके खिलौने प्लास्टिक की साइकिल एक कैसेटवाला मोनो टू-इन-वन देसी
बच्चों की पुरानी किताबें खुले बंडलों में इस साल की उनके स्कूलों के बैगों में
टीन की चादरों के संदूक मिलिटरी कैंटीन से लिए गए जानपहचानी सूटकेस
अब नारियल की रस्सी से बँधे हुए और भी बहुत कुछ
जिसका महत्त्व सिर्फ़ घर की औरत जानती है.’’

यह सारा सामान और साथ में पति, पत्नी, किशोर वय में प्रवेश कर गयी बेटी और छोटे दो और बेटे-बेटियाँ--सब इसी टेम्पो से घर बदलते हुए सवार हैं. यह एक पूरा संसार है जो सत्य की छाया नहीं, बल्कि उसका असली रूप है! देखने में कितना छोटा दिखता है टेम्पो, जैसे यह कविता, लेकिन एक विस्तृत सत्य इसमें समा ही गया है—

‘‘देखने में कितना छोटा दिखता टेम्पो
लेकिन पाँच प्राणियों की गिरस्ती ख़ुद उनके समेत
कितने करीने से आ जाती है उसमें और फिर भी
पीछे घर के एकाध बुजुर्ग और टेम्पोवाले के
दो-तीन मज़दूरों के बैठने की जगह निकल आती है.’’

यथार्थ की ऐसी सधी हुई तस्वीर में यह जोड़ना भी कवि नहीं भूलता कि इस हचकती-चलती जादुई गाड़ी में उसका चालक और क्लीनर चोली के पीछे क्या हैगाना भी गाने लगते हैं, ‘‘सिर नीचा किए किशोरी बरजने लगी छोटों को कि साथ न गाएँ, ताल न दें’’, ‘‘गिरस्तिन देखती है पति को / जो अतिरिक्त ग़ौर से देख रहा है ट्रैफ़िक को’’. वह अभी झंझटों में नहीं पड़ना चाहता लेकिन माँ-बेटी समझ रही है इस गाने को गाये जाने की फूहड़ मंशा और उससे उपजता भय का हमलावर रूप और असर.

‘‘बेचारा गिरस्तपीछे वाली जाली से देख लेता है
हिलती हुई अपनी पूरी गिरस्ती को
उसे डर है तो यही कि सिलिंडर पर थाप देते छोकरे सिगरेट न पीने लगें
फ्रिज की गैस लीक न हो जाए
गोदरेज पर नयी खरोंच या दाँचा न पड़े
ड्रेसिंग टेबिल का शीशा न चटके कोई टी.वी. की गठरी पर न बैठ जाए
सभी कुछ सही-सलामत पहुँच जाए दो कमरों के अपरिचित घर में.’’

गिरस्त के सामान के अतिरिक्त डिटेलिंग कर कवि ने इस परिवार में सामानोंके विस्तृत मनोवैज्ञानिक अर्थां का भी उद्घाटन किया है--आख़िर क्या ज़्यादा असुरक्षित करता है इस वर्ग के मनुष्य को--सामान या सामान की तरह हो चले परिवार के सदस्य; किशोर होती बेटी जो अपने हमलावरों से रू-ब-रू है, सबकुछ समझती, बरजती मगर आँखें नहीं दिखाती. यह अलमारी पर नया दाँच नहीं पड़ने की चिंता कैसी चिंता है? दाँच बेटी के बदन पर भी पड़ रही है चोली के पीछे क्या हैगाने की अश्लीलता से भयभीत वह चुप है, और अपने संकेतों में लगातार टेंस बनाता हुआ सत्य भी यहाँ है. क्या कुछ और आ घटे, सामान का एक घर से दूसरे घर तक पहुँचने में यह सारा शहर ही न कहीं भूकंप में तहस-नहस हो जाए. या टेंपो ही न उलट जाए.

यहाँ दूसरी तरफ की हिंसाएँ न मुखर हो जाएँ जिस कारण संतुलित-सा यह दृश्य अपनी सत्यता में असंतुलित न हो जाए. सारा खेल बदल सकता है, यदि कोई ऐसी दुर्घटना हो जाए. इस समझदार गिरस्त को रिस्क लेने के लिए मजबूर न होना पड़े. हालाँकि परिणाम का तो पता है
ही--उसकी हार.


(तीन)
यथार्थ में व्याप्त मनोवैज्ञानिक परत को विष्णु जी की कविताएँ लगातार खोलने का भी प्रयास करती रहती हैं. उन्हें लगता है किसी कवि को सत्य के इस डार्क (अंधेरा) परिधान से उसे बाहर लाना ही चाहिए. इस मायने में उसका यह विशेषाधिकार है क्योंकि उसका यह व्यवसाय है कि वह सत्य को जाने, उसके सारे छद्म रूपों को उजागर करे. समाज में फैली विकृतियों के बने रहने के कारणों को उजागर करे. स्त्री-पुरुष के बीच जो संबन्ध हैं, इस मायने में, उनपर वे अपने ध्यान को केन्द्रित करते हैं. सत्य के छद्म रूप को, झूठ को, कागज़ के कवर की तरह चीर देते हैं. वे पाते हैं स्त्री-पुरुष आपस में प्रेम नहीं करते, महज सहूलियत की वज़ह से ही साथ रहते हैं. 


स्त्रियाँ तो फिर भी स्त्रियों को जानती हैं, इसलिए सहानुभूतिपरक ढंग से एक दूसरे से प्रेम करती हैं, मगर पुरुष तो सदा शंकाओं, आशंकाओं और भय से ग्रस्त रहते हैं स्त्रियों को लेकर. उन्हें डर बना रहता है कहीं उनके सर्वश्रेष्ठ होने का हवामहलध्वस्त न हो जाए. अतः स्त्रियों को दबाकर रखते हैं--नियंत्राण का जाल मैटेरियल और आडियोलोजिकल दोनों ही तरह से जबर्दस्त ढंग से बुना गया है यहाँ. इसे हम पितृसत्ता की संरचना का भी नाम दे सकते हैं. विष्णु खरे इसके अंधेरे पक्ष को प्रकाश से भर देते हैं. पत्नियों की निजता को पति कैसे नष्ट करते हैं इसका एक सत्यपरक खुलासा है यहाँ और एक विश्लेषण भी किया गया है कि कैसे वे पत्नियों के एकांत को नष्ट करके ही चैन लेते हैं. साथ ही इस बात का भी आत्मस्वीकार है कि पुरुष स्वतंत्रा जीवन जीने वाली स्त्री से दरअसल रश्क़ करते हैं और बदनाम भी. यह एक प्रवीण पैंतरा है पितृसत्ता का जिसकी शिकार स्वतंत्रा और अस्वतंत्रा सारी स्त्रियाँ होती हैं. हमारी पत्नियाँकविता में आरम्भ से ही प्रस्तावना की तरह अपनी मनोवैज्ञानिक मंशा को स्पष्ट करते हुए विष्णु खरे लिखते हैं--

‘‘औरतों पर मर्दों के ज़ुल्म के बारे में बहुत-कुछ कहा गया है
पत्नियों पर पतियों की क्रूरताओं को भी
सामान्यजन तथा विशेषज्ञों ने
विभिन्न कोणों से देखा है
वे सचाइयाँ अपनी जगह होंगी
लेकिन यहाँ कुछ और ही संकेत अभीष्ट हैं.’’

पुरुष अपनी पत्नियों के बारे में लगातार सोचते रहते हैं कि उनके पहले कोई और तो नहीं था उनके जीवन में--उन्हें सुरक्षित बने रहने के लिए यह जानना ज़रूरी लगता है. यह भारतीय पितृसत्ता की सड़ांध है जो उनके भीतर उनके पुरुषवाद को परिभाषित कर उन्हें मर्द बनाती है.

‘‘एक ही शंका हम अपने अंदेशे को छेड़छाड़ में छिपाते हुए
लगभग आजीवन उनकी बनिस्बत अपने से करते हैं
कि हमसे पहले कोई और तो नहीं था
अपनी पत्नियों से हम अपेक्षा नहीं करते
कि उन्हें याद आए अपने अतीत की
पत्नियों और उनकी सहेलियों का कैशोर्य
हमें सिर्फ़ उनकी कुछ संभावित स्त्रियोचित अंदरूनी बातें जानने’’

में ही दिलचस्पी होती. उनके सच को जानकर ही चैन मिल सकता. क्योंकि तभी सज़ा तय की जा सकती है. पत्नियों का अपराध ही उनका विवाह से पहले का अपेक्षाकृत स्वतंत्रा जिया गया जीवन होता है. और जब वे उनकी गिरफ़्त में आ गयी हैं पत्नियों के रूप में, उन्हें उनकी स्वतंत्राता की चाहत से भय लगता है--उनका कुछ भी अपना नहीं होना चाहिए इस कारण वे पूर्णतया पराधीन हों तभी शांति कायम हो सकती है. वे लिखते हैं,

‘‘जब हमारी पत्नियाँ लौटने लगती हैं
अपने पुराने दिनों में तो हम घबरा जाते हैं
उनकी स्मृतियों को काटने की कोशिश करते हैं
हम अपने अतीत से
हम नहीं चाहते कि हमारी पत्नियों को याद आएँ
उनके पिता की जय-पराजय उनकी माँ का दमकता या कुम्हलाता हुआ चेहरा
उनके खिलंदड़े या गुमसुम भाई-बहन
उनका पुराना घर स्कूल-कालेज रास्ते और पिकनिकें
और जो सौंदर्य और कुरूपताएँ उन्होंने जाने
क्योंकि उनके पास इतनी सारी स्मृतियों का होना
हमें एक लाचार डर से भर देता है.’’

पितृसत्ता के भीतर बैठा स्त्रियों की निजता के प्रति ऐसा भय ही पुरुषों को गढ़ता है, न कि उनकी किन्हीं अन्य अर्थां में श्रेष्ठता और यह भय कितना भयानक रूप ग्रहण करता है इसका विवरण भी वे इस कविता में प्रस्तुत हैं.

‘‘हमारी पत्नियाँ हमारी अनुपस्थिति में क्या करती हैं
यह जानने से हम इसलिए नहीं कतराते
कि वह हमारे लिए शर्मनाक होगा
बल्कि इसलिए कि वह जान लेने के बाद हम जान जाएँगे
कि हमारे और अपनों के लिए ही सब-कुछ करने की प्रक्रिया में
वे ख़ुदमुख़्तार शख़्सियत होने लगती हैं
और यह ख़याल ही हमें असुविधा में डाल देता है.’’


स्त्रियों की ख़ुदमुख़्तारी का भय पुरुषवाद की जटिल आक्रमक भयाकुलता की जड़ में है. यह एक (पुरुष) कवि ही बता सकता है क्योंकि वह सत्य को पकड़ने की सूक्ष्म तरकीबों से वाक़िफ है. वह सत्य का टेक्नीसियन है, उसका सक्षम इंजीनियर-अभियंता. कवि वह इसलिए है कि वह इसे कह देता है, जो कविता की भी शर्त है--सत्य वचन ही बोल रे तोहे पिया मिलेंगे’. तभी कविता भी मिलेगी, कविता की आध्यात्मिकता ही कुछ ऐसी है. जब कवि अपने भय के एकांत में दाखिल होता है, जब वह पत्नियों के एकान्त को नष्ट करने की प्रविधि और चिंता में शामिल होता हैतमाम शंकाओं की एक कुशल मनोवैज्ञानिक की तरह पड़ताल करता है, उन्हें हर कोण से देखाता है दिखता है ताकि अंत में जब वह पत्नियों के एकांत को वेधे तब किसी को उनके लिये असहानुभूति न पैदा हो. स्त्रियों ने अपनी आंतरिक दुनिया को बचाकर रखने का अपराध जो किया है. भारतीय स्त्रीवादी विमर्श को तो पितृसत्ता की आतंरिक क्रूरताओं का स्वरूप समझ में आ ही जाता है यहाँ. विष्णु जी लिखते हैं,

‘‘सबसे भयावह तो है पत्नियों का
कभी-कभी अकेले अपने आप से बात करना
और उसके बीच एकाध बार हलके से हँसना-
उनका अचानक चुप हो जाना और घर के एक कोने में बैठकर
अकेले धूप या बारिश या न कुछ और देखना भी
हमें व्यग्र करता है-

याद होगा कितनी ही बार हमें उनसे अधिक लाड़ करने का नाटक
उनके ऐसे निजीपन को नष्ट करने के लिए भी करना पड़ा है.’’

यह कवि एक विलक्षण इनसाईडर है जो सत्य को छिपाता नहीं बल्कि अपने अपराध को अपनी निरीहता में डुबोकर कुछ ऐसे पेश करता है कि वह औचित्यपूर्ण लगे. मगर स्त्री तो गयी अपने आप से. लगातार वह पुरुष दृष्टि में एक वस्तु, एक आवजेक्ट बनी रहती है. जो स्त्री के दिल में है उसे पुरुष अपने निगाह में लाना चाहता है. उसका गेज एक ऐसा फंदा रचता है जो स्त्री के गले में नहीं पड़ता बल्कि उसकी आत्मा को अपनी गिरफ़्त में लेता है. जीवंत और पत्नियों को नियंत्रित करने के लिए क्या-क्या नहीं करता है पुरुष पति. कितनी पेचीदी है यह पूरी प्रक्रिया जब एक मनुष्य दूसरे को नष्ट कर उसे अपने अधीन करता है. उनकी महत्वाकांक्षाओं को कड़वे पेय की तरह गटक जाता है, उनकी व्यष्टि को समाप्त कर देता है. इस संसार में वह प्रेतों की तरह जीने को विवश हो जाती है, उसे अपनी छाया भी साथ रखने की गुंजाइश नहीं है. कौन बच सकेगा जब किसी को टेलीस्कोपिक ढंग से वाचकिया जा रहा हो. और फिर अपनी पत्नियों को इसके बदले पुरुष सुरक्षा देने का प्रस्ताव रखते हैं ताकि वे, यानी पत्नियाँ, अपनी आत्मिक प्रफुल्लता और विकास का सौदा आसानी से कर लें. उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझने की असहनीय पीड़ा न झेलनी पड़े पति को. पुरुष कितना नियंत्राणकारी है, यह कविता हमारी आँखें खोल कर दिखा देती है--

‘‘अपने हर किये पर उनकी राय सिर्फ़ इसलिए जानना चाहते हैं
कि वे उसकी ताईद करें या कम से कम अपनी राय न दे सकें
हमें एक साँसत भरी राहत मिलती है
उन्हें अत्यधिक सफल और महत्वाकांक्षी देखकर भी
ज़्यादतियों के अनूठे नुस्ख़े आज़माते हैं हम अपनी पत्नियों पर..... ताकि वे उस तरह संपूर्ण एवं जटिल न बन सकें
कि हर बार उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझना पड़े.’’


(चार)
विष्णु खरे इस मायने में एक विशेष कवि हैं क्योंकि वे सत्य के कथाकार भी हैं, वह भी एक वैज्ञानिक कथाकार जो अपने शोध में किसी भी तथ्य को छोड़ना नहीं चाहता. बहुत हद तक इसलिए भारतीय पितृसत्ता की एक तस्वीर यहां पूरी होती है. यह बात अपने आप में अंतर्विरोधी लग सकती है यदि मैं विष्णु खरे को सत्य का कथाकार कवि कहूँ क्योंकि आख्यानों की दरकार उन्हें जो पड़ी वह शायद इसी लिए कि इसका उन्हें पता लग गया था कि एक प्रविधि के ज़रिये कविता कथा के रूप में प्राप्त हो सकती है. शायद सत्य की इन शर्तों से उनका साबका व्यक्तिगत ढंग से पड़ा हो. जीवन भर इसलिए भी वे कटुता के अपने इस भार को स्वभाव की ही तरह ढोते रहे. लेकिन हमें तो इस कारण अपने अनेक रूपों में सत्य, कम से कम एक रूप में, हासिल हुआ ही. 


इसे वे अपनी एक कविता प्रतिसंसारमें बखूबी पेश करते हैं. यह एक ठेठ प्रोज कविताहै जिसे पढ़ने और आस्वाद लेने के लिए भीतरी कनवर्जन या रूपांतरण की ज़रूरत पड़ती है. प्रोज कविता पढ़ना आसान नहीं, लिखना तो दुरूह है ही. एक ठंडी गहरी नदी की तरह होती है ऐसी कविता जो बाहर से शीतल मगर भीतर से गरम होती है. इसमें गिरे बिना कोई कैसे जान सकता है कि इसके भीतर अनंत लहरें और मछलियाँ हैं. एक कवि जब अपने विवरणों और आख्यानों के माध्यम से एक प्रतिसंसार गढ़ता है या रचता है तो वह दरअसल एक पूरा संसार ही गढ़ रहा होता है, ‘प्रतिआहिस्ता से खिसक कर कहीं और चली जाती है, शायद नदी में जहाँ लहरें उसे लील लेती हैं.

प्रतिसंसारएक महत्त्वपूर्ण कविता है जिसे उनकी कविता लाइब्रेरी में तब्दीलियाँकविता से जोड़कर पढ़ने पर और भी बौद्धिक आस्वाद उत्पन्न होता है. प्रतिसंसार के पूरे टेक्स्ट में कहीं भी पूर्ण विराम नहीं है, मतलब कि यह यानी संसार का बनाया जाना, गढ़ा जाना एक मुसलसल चलनेवाली प्रक्रिया है. यह संसार रोज़ ही बन रहा है, और उसे विष्णु खरे जैसा कवि भी बना रहा है अपने संशयों, कविताओं, कथाओं और निपट कटुताओं से.

जिस काम पर वह जा रहा था उसे करने की इच्छा नहीं थी
फिर भी फु़र्ती से वह अपना दुपहिया चला रहा था.’’ ( कविता मंजर’)

यह रास्ता, प्रतिसंसार बनाने का

‘‘अपेक्षाकृत वीरान है
सिर्फ एक विराट आकाश ऊपर फैला हुआ है
उसे सीधे ब्रह्माण्ड से जोड़ता हुआ
इस तरह के अकेलेपन से हौल पैदा होता है
और अकारण अकारथता.’’


इस अकारण मात्रा बावजूद कवि प्रतिसंसार रचने का कठिन उपक्रम करना चाहता है. यह संसार जो सतत रचे जाने की प्रक्रिया में तो है ही मगर यह कविता अपने आप में एक और पहल है. यह तो इसी बात से ज़ाहिर है कि बिना पूर्ण विरामों वाली यह कविता अपने वाक्य विन्यास में ही इस नये संसार की संरचना का संकेत देती है. लेकिन यह कितनी सार्थक है, कितना नये अर्थ लिए हुए है, यह विश्लेषण का विषय है यहाँ. प्रतिसंसार रचने की लालसा कविता का अपना भी चरम लक्ष्य हो सकता है और इस कठिन कार्य के अकारथ हो जाने की संभावना भी भयभीत कर सकती है कवि को जब वह यथार्थ से उसके प्रतिकी तरफ अग्रसर होता है.

एक ऐसे व्यक्ति के पराक्रम का आख्यान है प्रतिसंसार कविता जो लगभग ख़ब्त की हद तक पढ़ने लायक सामग्रियों की फोटो कॉपीकरवाता रहता है जिससे धीरे-धीरे एक प्रति लाइब्रेरी उसके कमरे में बन जाती है. असली लाइब्रेरी और इस फोटो कॉपी की गई प्रतियों से बनी लाइब्रेरी में फ़र्क़ इतना है कि यहाँ पर प्रति सामग्री किस तरह, किन सिलसिलों में रखी गयी. उसका नया संयोजन कैसा है. कविता में कम से कम. यह दुनिया कम संयत, लगभग उबड़-खाबड़ है परंतु इसी संसार में वह युवक आश्वस्त है--‘‘वह बहुत पढ़ता और जो उसे अच्छा या आगे कभी फुर्सत से पढ़ने लायक लगता वह उसकी फ़ोटोकॉपी कर लेता इस तरह अनेक पत्रिकाओं किताबों और अख़बारों से बहुत सारी छायाप्रतियाँ उसके पास हो गईं जीवन का शायद ही कोई विषय हो जिसपर किसी सामग्री को उसने एकाध बार इस तरह इकट्ठा न किया हो अक्सर उसे ऐसी चीजें़ चूँकि पुस्तकालयों में मिलती थीं जहाँ प्रतिलिपियाँ पा लेने की सुविधा रहती है इसलिए वह उनकी मशीनों को चलाने वालों के संपर्क में आया जिनमें से कुछ सादर उसके हितैषी बने और कुछ ने उसे उनका काम बढ़ाने वाला एक सनकी समझा जबकि वह उनसे न तो कोई विशेष मेहरबानी चाहता था और न उनसे कोई फ़ायदा उठाता था और नक़ल करवाए गए हर काग़ज की क़ीमत जो अब तक हज़ारों रुपयों तक पहुँच गई होगी ईमानदारी से चुकाता था बल्कि कभी-कभी वापस की रेज़गारी छोड़ भी देता था.....’’

यह युवक अपनी एक दूसरी दुनिया बना रहा था और इसमें वह कोई ख़लल नहीं चाहता था. जितना बेपेचदगी से यह काम होता चला जाय उसके लिए वही बेहतर था. 

‘‘जो कर्मचारी उसके प्रति कृपालु थे वे उसके इतने ख़र्च पर कभी-कभी एक फ़िक्रमंद अचंभा प्रकट करते उसे साब या सर कहकर पूछते कि आख़िर वह क्यों और कब पढ़ता है.’’

अब कोई ऐसे व्यक्ति से यह औसत और साधारण प्रश्न या जिज्ञासा करे तो वह क्या उत्तर देगा. बल्कि उसकी फ़िक्र तो यह थी कि यदि वह लाईब्रेरी एक-आध दिन नहीं जाता तो इस निर्माण प्रक्रिया में कठिनाइयाँ पैदा हो जाती,

‘‘
उसने पाया कि यदि वह नियमित रूप से वहाँ नहीं जाता है तो उनकी संख्या दिल दहलाने और मायूस करने की हद तक बढ़ जाती है इसलिए वह यह करता है कि जब मशीन पर कोई नहीं रहता तो वह उसके पास अपने अपेक्षित पृष्ठों पर पर्चियाँ लगाकर छोड़ देता और बार-बार जाकर यह निगरानी या सवाल न करता कि वे पन्ने हो गए या नहीं यदि वह कोई किताब होती जिसका उजरा  मुमकिन होता तो वह बाज़ार के फ़ोटोकॉपी वालों के पास जाता’’ 

इस तरह यह प्रतिसंसार बिल्कुल कार्बन कापी न होकर तमाम नई मुश्किलों को खुद में शामिल किये हुए कुछ आड़े-तिरछे भी बना रहा था उसे. खराब कागज़ और फीके या आड़े-तिरछे अक्स वाली नकल भी स्वीकार करनी पड़ती और इस तरह उसके घर की टेबिलों कुर्सियों रैकों शैल्फ़ों अतिरिक्त पलंगों मुड्ढों यहाँ तक कि बिस्तरों पर और फर्श के कोनों में भी कई साईज़ों और उम्र व रोशनी और धूल के मुताबिक कई रंगों की प्रतिलिपियाँ हो गई हैं जिनमें से कुछ के हाशियों पर उसने कुछ ऐसा लिखा भी था जो अब ख़ुद उसे पहेली लगता है. 

‘‘यह दुनिया कोई ठोस दुनिया न होकर कई तरह की दुनियाआं की आवृतियों एवं अनुकृतियों का म्यूजियम नुमा लाइब्रेरी है जिससे नई दुनियाएँ बन सकती हैं. वह इसका ऐसा निर्माता है जो अपनी ही लिखी टिप्पणियों के लिये अजनबी हो गया है. वह किसी भी अर्थ में इसका पितृसत्तात्मक नियंता नहीं, न ही उसका मालिक. निश्चित तौर पर प्रतिसंसार पूंजीवादी नहीं, न ही पितृसत्तात्मक. अलवत्ता वह जब भी इन्हें करीने से जमाने की सोचता है तो अक्सर उसकी आँखें इस या उस फोटोकॉपी पर रुक जाती है और वह सोचते हुए किसी ख़ाली जगह पर बैठ जाता है कि उसे पहले ही पढ़ लेना चाहिए था या इसका उसने अब तक कोई इस्तेमाल क्यों नहीं किया इस तरह वह उठाता देखता रखता जाता है और इन प्रतिलिपियों से एक विचित्रा विविध प्रकीर्णिका बनती रहती है एक अनपढ़े अनकिए का पुस्तकालय तैयार होता जाता है कितने लोग कितने विचार कितना सृजन एक समांतर संक्षिप्तीकृत संचयित प्रतिसंसार उसके यहां बढ़ता रहता है फिर भी ख़त्म नहीं होता वह जिसकी प्रतिलिपियाँ उसे अब भी चाहिए और वह लगातार लाता रहता है लगातार नए अक्स ताजा अनुकृतियाँ...’’

अब जब कवि ने यह समझ ही लिया है कि जो नया रचा जाएगा वह न पुराने की तरह होगा, न बस एक तरह का. पूंजीवाद के बदले समाजवाद ही होगा इसकी आशंका कम ही है क्योंकि जहाँ अभी तक जो कुछ संग्रह किया गया है उसमें कितनी ही दूसरी संरचनाओं की गुंजाईश बन गयी है. यह विविध संसार, बनता हुआ प्रति संसार, एक बड़ी चुनौती है ज्ञान पद्धतियों के लिए और राष्ट्र राज्यों की केंद्रीभूत सत्ताओं के लिए भी. यह एक कवि का संसार है, खुद से खुद को निसृःत करता हुआ और विसर्जित करता हुआ भी.

आख़िर लाइब्रेरी में तब्दीलियाँकविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कैसे एक संसार विस्थापित होता है और उसका प्रतिबेआवाज़ वहाँ उपस्थित हो जाता है. पुरानी दुनिया के निरर्थक होने को अपने विवरणों में इस कविता में खरे ने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है जैसे विस्थापितों को अपनी कविता में जगह दे रहे हों. यह काम एक कवि वास्तुकार ही कर सकता है. अपनी करुणा के छत तले उन्हें पनाह दे सकता है, नये कमरे बना सकता है, नये कोने गढ़ सकता है. उनके लिए वे तमाम बेरोज़गार युवक, निरर्थक जीवन जीते बूढ़े और वेश्याएँ जो यहाँ इस पुरानी लाइब्रेरी में पलभर राहत पाती थीं अपने ग्राहकों को खोजती हुई--सब नयी कम्यूटर टेक्नालॉजी के आगमन की शिकार हो जाते हैं. विज्ञान द्वारा सृजित यह विवेकशील (रैशनल) संसार, ज्ञान का अब कोई बीहड़ किला नहीं, यह एक उत्तर आधुनिक स्पेस है जिसमें यह इमारत ज्ञान से नहीं, उसकी प्रवीणता और ऐफिशिऐंसी (कौशल) से चलती है. 

यहाँ बरबस अम्बर्टो एको के द नेम ऑफ द रोज़की याद आती है जिसमें लाइब्रेरी एक लाईव्रींथ है, ज्ञान की घुमावदार चक्करदार संरचना जिसमें मध्ययुगीन यूरोप अपने को बदल रहा था और इस नये ज्ञान को रहस्यमय ढंग से छुपा भी रहा था. नये ज्ञान के लोलुप मनुष्य कीड़े मकोड़ों की तरह ज़हर से भिगाये गये ग्रंथों को पढ़ते ही मर जाते थे क्योंकि उनकी अंगुलियों से जहर उनकी जीभ तक पहुँच जाता था. इस कथा में प्रेम विवेक के षड्यंत्रों का आख़िरकार खुलासा कर देता है. लाईब्रेरी ज्ञान का संग्राहलय न होकर, शक्ति का केंद्र है जो वैसे हर बदलाव को जो नया और परिवर्तनकारी है उसे अवैज्ञानिक साबित करने के लिए बाध्य है. सत्ता में परिवर्तन ही नये ज्ञान को स्थापित और आद्रित करता है. मनुष्य यहाँ कुछ नहीं, उनकी मृत्यु इस सत्ता की अपेक्षित खुराक भर ही है. लाइब्रेरी में तब्दीली सत्ता में हो रही तब्दीली का द्योतक है यहाँ. इस अर्थ में यह एक जायज़ जिज्ञासा है कि लाइव्रींथ का हश्र आख़िर होता क्या है. यहाँ इस कविता में भी विष्णु खरे दिखाते हैं कि पुराना लाईव्रींथ अब बिला गया, वहाँ पर किताबों की सूची लकड़ी के ब्यूरो और कैबिनेटों में नहीं, बल्कि कम्प्यूटर के मगज़ में दर्ज़ कर दिये गये हैं. यथार्थ एक कम्प्यूटर है, एक सतह, एक स्क्रीन और उसके भीतर ज्ञान के बीहड़ को छिपा दिया गया है या फिर वह समा गया है. नया संसार इस अर्थ प्रति संसार न होकर उसका ट्रेसमात्रा है, एक धब्बा, बस दाग़ भर बचा हुआ है पहला यथार्थ. उस ठोस दुनिया के लोग, उसकी शक्ति संरचना, सब बिला ही जाएँगे या फिर नयी विविधता में शामिल हो दूसरे ढंग से ज्यादा शक्तिशाली हो अदृश्य हो जाएँगे. विष्णु खरे लिखते हैं,

‘‘पहले भी यहाँ परिवर्तन हुए हैं
यानी शैल्फ़ और रैक किसी और तरतीब में लगा दिए जाते थे
किताबों को विषयवार इकट्ठा इधर-से-उधर हटा दिया जाता था
इशू और डिपॉज़िट काउंटरों की दिशाएँ बदल दी जाती थीं
और कुछ दिनों के बाद अचानक ऐसा फ़र्क़ अच्छा लगता था
लेकिन इस बार की पुनर्व्यवस्था के परिणाम कुछ अलग ही हैं
किशारों और नौजवानों की एक पूरी भीड़ होती थी यहाँ ....

वे अधेड़ और बूढ़े अब यहाँ नहीं दिखते
जो अतिरिक्त यूरोपीय अदब-क़ायदे से महिला सहायकों से
पुराने टाइम और लाइफ़ के बारे में दर्याफ़्त करते थे
और तसल्ली न पाने के बावजूद मुस्कराकर
किसी पिछली टेबिल पर बैठे धीरे-धीरे निद्रालु हो जाते थे’’

अब यहाँ

‘‘तीस बरस पुराने सूट और टाइयाँ पहने
या मैले कमीज़-पैंट कुर्ते पजामे में
या अपने आप से बातें करते हुए हँसने वाले लोग
अब यहाँ नहीं आते जो फ़ोटोकॉपी करने वाले से रेट पूछते थे
और फिर दिन-भर अपनी लाइनदार पुरानी कॉपियों में
लिंकन या एमर्सन की जीवनियों से नोट्स लेते रहते थे’’

बल्कि अब तो
पसीने उम्मीद और नीम घबराहट से गँधाती
वह अधसनकी वाजिब वेश्या भी अब नहीं आती
जो न्यूयॉर्कर या नैशनल जॉग्राफ़िक लिए हुए
किशोरों या वयस्कों की दिलचस्पी के इंतज़ार में घंटों बैठती थी
लगभग हर रोज असफल
कभी-कभी एअर कंडिशनिंग के सुख में सो जाती हुई.’’

क्योंकि अब

‘‘पुरानी कार्ड-व्यवस्था हटा दी गई है
उसकी जगह अब कंप्यूटर और सीडी रोम आ गए हैं
अब जब भी जाओ बैठने की जगह मिल जाती है.’’

और इन विस्थापित लोगों के बदले जो आते हैं वे ज्यादा से ज्यादा

‘‘कुछ जानकारियाँ चाहते हैं और हद से हद जेरोक्स कापियाँ
वे जानना चाहते हैं कि क्या सारा मैटेरियल
ई-मेल या इंटरनेट पर अवेलिबल नहीं.’’

अब वह साँवली वेश्या जो कहीं फ़ायदेमंद दिन गुज़ारना चाहती, ‘‘दस से छः तक खुली होने के बावजूद इस लाइब्रेरी में नहीं घुसती.’’ वह शहर और केंद्रीय भारतीय नाट्यशाला या उपग्रह निदेशालय के बीच घूमती है. इन विस्थापितों की चिंता कवि को, प्रबंधन को नहीं जो संतुष्ट है लाइब्रेरी के इस रूपांतरण से. इस व्यवस्था में

कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलना चाहिए
 ...व्यवस्था अधिक खुली और सुचारू हुई है
संकल्प हो तो कारगर पुनर्संयोजन में दिक़्क़त नहीं आती
जगह उतनी ही लेकिन ज़्यादा कुशीदा है चीज़ें करीने से हैं
आवाजाही जितनी कम होगी कार्यकुशलता और गुणवत्ता उतनी ही बढ़ेगी
आवाज़ें सिर्फ़ टेलीफ़ोनों महिला सहायकों कंप्यूटर की सीटियों माइक्रोफ़िल्म मशीन की हैं
(छत पर लगे हुए सुरक्षा कैमरे न दिखाई पड़ते न सुनाई देते).’’

इस नये बदले यानी बदलते (लाईब्रेरी) संसार में मनुष्यता की पुरानी परिभाषा कारगर नहीं, न ही उसका दर्शन. सर्वेलेन्स आधारित नया संसार है अब जहाँ ज्ञान आत्मा को तृप्त या उन्नत बनाने के लिए नहीं, अपितु राज्य एवं पूंजी की उन्नति को संयोजित एवं सृजित करने के लिए ही उपजाया जाएगा. यह तस्वीर किसी दुःस्वप्न की लगती है जिसे विष्णु खरे कविता की विवरणात्मक पद्धति के कारण दिखाना संभव कर पाये हैं. इसकी भी फोटोकॉपी हो सकती है, या फिर एक प्रतिसंसार जो फोटोकापी की फोटोकापी हो सकती है--दुःस्वप्न की तस्वीर, यानी एक नयी तस्वीर. इनकी लाईब्रेरी वाली कविता का नायक, या प्रोटोगोनिस्ट एक ख़ब्ती (ऑबसेस्ड) इंसान है जो टेक्नालॉजी का सहारा लेकर एक नहीं, कई प्रतिसंसारों की रचना की तैयारी करता है. उसका अपना वजूद ज़ाहिराना तौर पर केंद्रीय नहीं, वह अपनी ही टिप्पणियों को, जो फोटो कॉपी किये गये कागज़ों के हाशिये पर लिखे गये, उनका अर्थ नहीं जान पा रहा है. कैसे जान पाए, जब वह कोई एक अर्थ पैदा ही नहीं करना चाहता. उसकी रुचि एक अर्थवाले वाक्यों में है भी नहीं. अनेक अर्थों वाले संसार में एकल अर्थ वाले संसार की शक्ति संरचना और उसकी मारक एकनिष्ठता का अंदाजा उसे है जो उसकी समझ में मनुष्यों और प्रकृति के उत्पीड़न का नैतिक आधार बनता है. विष्णु खरे जैसे कवि ही अपनी ऐसी कविता से उत्तर-आधुनिक जगत के दुःस्वप्न का आख्यान लाईब्रेरी के मेटाफर के ज़रिये तैयार कर सकते थे. अपनी कविता के विवरणात्मक पद्धति से उन्होंने सत्य के कई भेद खोल दिये जिससे स्त्री उत्पीड़न से लेकर संसार का दुःस्वप्नों के मरू में भटकने का आख्यान भी है. वही बता सकते थे कि कैसे सत्य की तरह दिखता झूठ इस संसार में राज्य करता है. अपनी कविता हर शहर में एक बदनाम औरत होती हैमें विष्णु खरे पितृसत्ता का एक दूसरा ऐसा ही भेद खोलते हैं जिसके लिए उन्हें प्रशंसा मिलनी चाहिए.


(पांच)
हिन्दी के प्रेम कवियोंके ठीक उलट वे सत्योद्घाटन करते हैं कि पुरुष स्त्रियों से प्रेम नहीं करते, बल्कि ईर्ष्या करते हैं लेकिन वह प्रेम की तरह दिखता है. पुरुष प्रेम की कविताओं के झूठों को वह कचरे की तरह जल से छानकर बाहर रख देते हैं. अपनी पत्नियों वाली कविता में वह बता ही चुके हैं कैसे पुरुष स्त्रियों के एकांत को नष्ट करने का षड्यंत्रा रचते हैं और अपने भय से संचालित और प्रेरित हो वे स्त्री की मनुष्यता को बर्बाद करते हैं. लेकिन यह तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में होगा ही--यही तो उसका तर्क है, ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती हैमें वे इसकी प्रक्रिया में जाते हैं. एक स्वतंत्रा-सी दिखती, रहती स्त्री जो सुन्दर भी हो, उसके इर्द-गिर्द एक कथा गढ़ी जाती है जो सिर्फ इसकी इस अवस्था को नकारने के लिए होती है--उसकी स्वतंत्राता या स्वायत्तता को स्पृहा से देखते हुए, अपने तंत्रा में उसे एक सीता जैसी स्त्री न होने के कारण उसे संदिग्ध बनाने की. कवि यहाँ ईमानदारी से बताता है कि आख़िर यहबदनाम औरतका कंस्ट्रक्शन होता कैसे है. यह बताते हुए यह जिज्ञासा हो सकती है--क्या वे एक ऐसी स्त्री या फिर इस जैसी स्त्रियों की वास्तविकता का ब्योरा दे रहे हैं या फिर अपने प्रतिसंसार में उनके लिए जगह बना रहे हैं? याकि वे इस बात से ही संतुष्ट हैं कि उन्होंने सत्य पहचानने की प्रविधि समझ ली है और दूसरों को भी इसे आजमाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. सत्य को समझने और कहने का संतोष इतना व्यापक और गहरा क्यों है? या फिर वह कोई मामूली काम करना चाह रहे हैं जो स्त्रीवादी चिंतकों ने अपने लिए बड़ा काम माना है--यह परिभाषित करना कि स्त्री क्या है, कौन है, उसको पितृसत्ता ने कितना बदरूप बनाया है. इस कविता में विष्णु खरे ने इतना तो कर ही दिया है कि मनुष्य की परिभाषा पुनः की जानी चाहिए जो अब कोई करना नहीं चाहता. उन्होंने दिखाया है कि स्त्री मनुष्य है और उसकी भी एक गरिमा होती है जिससे पुरुष डरता है. इस सत्य का अभिज्ञान स्त्री पर पुरुष के नियंत्राण को समाप्त कर सकता है और वह अपने ही अंतर्विरोध में फँसा नीचतम कार्य भी करता है--उसे बदनाम करता है. हर स्वतंत्रा स्त्री विश्रंखल ही होगी ऐसा मानना सहूलियत पैदा करता है. वह पूर्ण मनुष्य नहीं हो सकती, वह अपनी मनुष्यता में हर समय संदिग्ध ही रहेगी. पुरुष की इस मान्यता के पीछे के मनोविज्ञान को खूब समझती है विष्णु खरे की यह कविता. एक बदनाम स्त्री कौन है, और क्यों ऐसी है, विष्णु खरे कहते हैं,

‘‘कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में
वह कुँआरी ही रही आई है
या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था
और उसके कथित पति ने उसे
या उसने उसको कब क्यों और कहाँ छोड़ा
और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही
वह सही-सही उसका कौन है
यदि उसको संतान हुई तो उन्हें लेकर भी
स्थिति अनिश्चित बनी रहती है
हर शहर में एक बदनाम औरत होती है
अक्सर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है
उसका अपना निवास या फ़्लैट-जैसा कुछ रहता है
वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है...
बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है
या थी लेकिन अब भी कम वांछनीय नहीं है.’’

ऐसी औरत तो न पति पर न पिता पर न ही अपने बच्चों पर आश्रित होती है. वह अपने आप में ही एक मनुष्य होती है. अपने विवरण में शत-प्रतिशत एकुरेट होते हुए, विष्णु खरे अवश्य कहते हैं,

जबकि सच तो यह है
कि जो वह वाक़ई होती है उसके लिए सुंदर या ख़ूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं
आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या
सैक्सी वॉलप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण
उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं.... उसे देखकर एक साथ सम्मोहन और आतंक पैदा होते हैं.’’

अब ऐसी स्त्री का पितृसत्ता क्या करे, वह तो अपने इस होने में ही एक चुनौती है. इसे फिर से मनमुताबिक तो गढ़ना ही पड़ेगा--जो स्त्री हर सांचे से बाहर है, उसे पुनः परिभाषित करना ही होगा. इस स्त्री के यूँ होने से ही पितृसत्ता तो चूलें हिलने लगती हैं. कवि इसलिए बताता है आख़िर उसे कैसे गिराया जाता है; उसे कैसे मारा जाता है, कैसे कथाएँ, किवदंतियाँ गढ़ी जाती हैं, कैसे अपने तेज में वह सहनीय बनाई जाती है--कैसे उसको एक प्रेत, एक छाया में तब्दील किया जाता हैवह मनुष्य है इस तथ्य को मिटाया जाता है,

वह एक ऐसा वृतांत ऐसी किंवदंति होती है
जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संवर्द्धित करता चलता है
सब अधिकाधिक रूप से जानते हैं कि वह किस-किस से लगी थी
या किस किस को उसने फाँसा था
सबको पता रहता है कि इन दिनों कौन लोग उसे चला रहे हैं
कि देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं
उन उनकी उतरन जीवंत और और जूठन है वह.

शायद इस वज़ह से ही वह सबकी रुचि का विषय होती है. इस समाज की विकृति यूँ ऐसे कंस्ट्रक्शन से सामने आती है. झूठ से पैदा हुई ख़ला को भरने के लिए उसका ऐसा होना भी ज़रूरी है शायद,
‘‘यह निष्कर्ष अपरिहार्य है कि उसका वजूद और मौजूदगी किसी अजीब ख़ला को भरने लिए दुर्निवार है
जो औरतें बदनाम नहीं हैं उनका आकर्षण दुःस्वप्न और उनके उन मर्दों के सपनों का विकार है वह बदनाम औरत
जो अपनी पत्नियों को अपने साथ सोई देखकर उन्हें कोसते हैं और अपने को कोसते हैं
सोचते हैं यहाँ कभी वह औरत क्यों नहीं सो सकती थी.’’

ऐसी औरतें किसी की नहीं होतीं इसलिए उनके बारे में सोचने, बातें करने, उनकी कामना करने, फिर उन्हें घटिया बनाने का सामाजिक व्यापार चलता ही रहता है. ज़ाहिर है ऐसी औरतें समाज में बहुत ऊपर नहीं जा पातीं. इस बदनाम औरत की सत्यता को समझने का एक शोधात्मक रवैया अपनाता है कवि यहाँ जो उसे भीतर से द्रवित कर देता है. वह जानता है कि यह औरत कौन है--जबकि दूसरे जो इसे प्रेम करते हैं या नफ़रत, नहीं जानते. इस बदनाम की गयी औरत पर कोई वस्तुनिष्ठ शोध नहीं हुआ लेकिन यह कविता वहाँ तक जाती है जहाँ तक कविता ही जा सकती है--

अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा
कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुँच पातीं
निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी
न इन्हें ज्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा
वे मँझोले ड्राइंग रूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही
पहुँच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में
जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़मीन और मुहज्जब होती हैं

ऐसी किसी औरत से कभी किसी ने अंतरंग साक्षात्कार नहीं लिए हैं
न उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है
और स्वयं अपने बारे में उसने अब तक कुछ कहा नहीं है
उसे हँसते तो अक्सर सुना गया है
लेकिन रोते हुए कभी देखा नहीं गया.’’

कवि इस बदनाम स्त्री के भीतर के रुदन को सुन रहा है और इसी कारण उसे दूसरी बातों का भी पता चलता है--नये सत्य भी वह हासिल करता है. वह जान रहा है कि यह स्त्री भीतर से इस बदनामी से शक्तिहीन नहीं बनती बल्कि वह अपनी शक्ति को और ठीक से पहचानने लगती है. जितना उसका चेहरा बिगाड़ने की कोशिश की जाती है उतना ही उसका आत्म अध्वस्त रहता है.

यह तो हो नहीं सकता कि उस बदनाम औरत को
धीरे-धीरे अपनी शक्तियों का पता न चलता हो
और इसका कि लोग उससे कितने नफ़रत करते हैं
लेकिन कितनी शिद्दत से वे वह सब चाहते हैं
जो वह कथित रूप से कुछ ही को देती आई है
बदनाम औरत जानती होगी कि वह जहाँ जाती है
अपने आस-पास को अस्थायी ही सही लेकिन कितना बदल देती है.

अपनी कविता में विष्णु खरे शोध आगे बढ़ाते हैं और अब यह जानना चाहते हैं कि मर्द तो स्त्री का जो कुछ भी करते हैं, उसे जिस तरह खंडित करते हैं, परन्तु इस स्त्री का इसकी हमजात स्त्रियाँ क्या करती हैं. किस हद तक वे इस पितृसत्ता को पुरुषों के साथ मिलकर पुनःसृजित करती है. क्या स्त्रीवादी चिंतकों द्वारा किया गया अनुसंधान सही है कि ढेर सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता को को-प्रोड्यूसकरती है, या करने के लिए बाध्य होती हैं. वे मर्दों की गोद में बैठती-खेलती हैं, उन्हें दिल से लगाती हैं, उनके लिए बच्चे पैदा करती हैं, पालती हैं उन्हें पुंसक बनाए रखती हैंउनके साथ सबकुछ करती हैं जैसे वे चाहते हैं. एक छोटे-से विश्लेषण के बाद कवि अपने तथ्य पेश करता है,

जो औरतें बदनाम नहीं हैं
उनका अपनी इस बदनाम हमज़ात के बारे में क्या सोच है
इसका मर्दों को शायद ही कभी सही पता चले
क्योंकि औरतें मर्दों से अक्सर वही कहती हैं
जिसे वे आश्वस्त सुनना चाहते हैं
लेकिन ऐसा लगता है कि औरतें कभी किसी औरत से
उतनी नफ़रत नहीं करतीं जितनी मर्दों से कर सकती हैं
और बेशक़ उतनी नफ़रत तो वे वैसी बदनाम औरत से भी कर नहीं सकतीं
जितनी मर्द उससे या सामान्यतः औरतों से कर पाते हैं.

कविता अपने अनुसंधानपरक शोध में सफल होती है. उसने तमाम झूठ और षड्यंत्रा के कचरों के बीच से सत्य का रत्न खोज लिया है--स्त्रियाँ स्त्रियों से तो सहानुभूति रखती हैं परन्तु मर्द और औरत एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हैं इस व्यवस्था में. स्त्री अपने प्रेम को अपनी आत्मा की तहों में सुरक्षित रखती है और उस समय का इंतज़ार करती है जब उसे पुरुष नियंत्रित करने की दुष्चेष्टा से परे न हो जाएँगे और मनुष्य को मनुष्य समझने को बाध्य होंगे चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. वे एक दूसरे का उपयोग नहीं अपितु एक दूसरे से प्रेम करेंगे. एक दूसरे की आँखों में झाँकेंगे आत्मा तक पहुँचने के लिए. यथार्थ की ऐसी गहरी समझ तथ्यों के विश्लेषण से होती हुई, मनुष्यता के प्रति सहानुभूति तक पहुँचती है. विष्णु जी की कविताओं में प्रति संसार रचने का दुःस्साहस तभी तर्कसंगत भी जान पड़ता है स्त्रियाँ इस प्रतिसंसार में खुद में खुद हो सकेंगी. और लाईब्रेरी का मेटाफर ज्ञान में आने वाले बदलाव और दुबारा उसके शक्ति केंद्र रूप में स्थापित होने का भय और संशय दोनों ही विष्णु खरे को बेहाल किये हुए हैं. वैज्ञानिक सा दिखता कवि आख़िर अपने विवरणों के संसार में थोड़ा निरीह भी दिखने लगता है. सत्य आखिर किसी का नहीं.

अंत में उनके इग्ज़ामकविता के ज़रिये उनके और उनकी कविता की पद्धति जो आपस में एक होते रहते हैं, यही कह सकती हूँ कि उन्होंने प्रश्न पत्रा के पाँच उत्तरों को लिखते हुए यह समझ लिया था कि धीरे-धीरे जैसे-जैसे विधाधीर एक से पाँचवें प्रश्न तक पहुँचता है दिये जा रहे उत्तर कमज़ोर होते जाते हैं. सत्य बहुत बड़ा है, उसकी ढेरों लीलाएँ और छवियाँ हैं लेकिन जिसने मनुष्य की मनुष्यता को समझने का कार्य भार संभाला हो, वह अंत तक तो सत्य में ही लिथड़ा रहेगा और सत्य ही बोलेगा. यह एक मार्मिक कविता है—

‘‘उत्तर पुस्तिका जब भर चुकी होती है
और तुम सप्लीमेंट्री में
बचे हुए सवाल का जवाब लिख रहे होते हो
तब जाकर तुम्हें अपनी लिखावट ही नहीं
अपना जवाब और उसे देने का तरीक़ा भी
कुछ कम संकोचजनक लगने लगते हैं
और तुम आख़िरकार स्वीकारते हो उस वक़्त
कि मेन कॉपी के भरे हुए सोलह पन्नों में
कितना कुछ अगर पूरा ग़लत नहीं तो थोड़ा ग़ैरज़रूरी तो है ही.’’


(छह)
विष्णु खरे जिस तरह अपने विवरणों में इस संसार को पाते हैं उतना ही इसे रचते भी हैं. एक दुनिया जो अपूर्ण थी कई बार कविता में पूरी होती है, जब वह अपने कई-कई संसार होने की संभावना से सिक्त हो जाती है. विवरण से कविता और संसार दोनों होते हैं, बनते हैं और बिगड़ते हैं. यह तो नश्वर विष्णु खरे ही कह सकते थे

‘‘घड़ी देखते हो अंतिम कुछ मिनट बचे हैं
जबकि आख़िरी सवाल का जवाब ही अभी पूरा नहीं हुआ है
जिसे जल्दी ख़त्म करो
तो पिछलों को रिवाइज़ करने का कुछ वक्त मिल जाएगा.’’

यही वक्त उनको नहीं मिला. अपनी पकी उम्र में भी असमय ही गये विष्णु जी लेकिन प्रतिसंसार की एक फोटो कॉपी पीछे छोड़ गये हैं. इसके सहारे कविता की नई लाईब्रेरी बनाई जा सकेगी जिसमें करोड़ों पांडुलिपियाँ सुरक्षित होंगी जैसे मनुष्य और उसकी मनुष्यता की असंख्य आकृतियाँ या अनकृतियाँ. यहाँ अंबर्टो एको एवं मीशेल फूको सरीखे बैठकर दोबारा सोच सकते हैं, या फिर रिवाईज़ कर सकते हैं फूकोज़ पेण्डुलमतथा आर्कियोलोजी ऑफ नालेजको. आर्डर ऑफ थींग्सपर नये ढंग से सोच सकते हैं. और वे हत्यारे प्रीस्ट पकड़े जा सकेंगे जिन्होंने ज्ञान की नयी मीमांसा वाली पुस्तिकाओं के पन्नों को ज़हर में डुबो दिया था जिससे कितने ही जिज्ञासु प्रशिक्षु मौत के आगोश में चले गये जो उन्हें पढ़ना चाहते थे, खुद को और संसार को बदलने के लिए जो उद्धृत थे. सभ्यता की लाईब्रेरी को इस बार इस तरह से बदलने की कोशिश की जाएगी कि उससे सिर्फ़ कम्प्यूटर की आवाज़ें नहीं हों. थोड़ी चहल-पहल होगी, वाद-विवाद होने की आवाज़ें होंगी तथा यहाँ कोई तानाशाह लाइब्रेरियन आकर लोगों को चुप नहीं कराएगा. विष्णु खरे की कविता पत्नियाँया फिर बदनाम औरतेंमें नयी पंक्तियाँ जोड़ी जाएँगी जिससे सत्य अपने विवरणों में और दीप्त हो उठेगा. ऐसी दुनिया में पितृसत्ता की संप्रभुता फिर किस काम की रह जाएगी! इसे तो जाना ही है, यह जाएगी ही.
विष्णु खरे की ये कविताएँ अपने अकारथ हो जाने के संशयों के बावजूद पुराने संसार को निरस्त करती हुई उस पर नये की छाया गिराती हैं. यह आश्वस्ति भर नहीं, आस्वाद के नये इलाकों में प्रवेश करने जैसा है जहाँ नये मकान बनते दिखते हों.

विष्णु खरे हमारे दौर के सबसे ज्यादा मेहनतकश कवियों में से हैं. वे अपनी कविताओं पर जितनी मेहनत करते हैं और महीनों-महीनों तथा कभी-कभी तो सालों तक जिस तरह उन्हें सेतेरहते हैं....और फिर अचानक उन्हें पूरी शक्ति के साथ फूटने देते हैं, उसकी मिसाल आसानी से नहीं मिल सकती. मेरा ख्याल है, इस संबंध में मुक्तिबोध ही एक कवि हैं जिनसे उनकी तुलना हो सकती है. गुंग महलऔर चौथे भाई के बारे मेंजैसी उनकी कविताएँ तो कई-कई सालों की लगातार प्रतीक्षा के बाद लिखी गईं. हालाँकि उनके भीतर अवचेतन में ये लगातार सक्रिय रहीं और अपने बाहर आने का रास्ता तलाशतीं रहीं.
(प्रकाश मनु, एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे, पुस्तक से)
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वाम बनाम दक्षिण की साहित्य परम्परा : विमल कुमार

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हिंदी साहित्यकारों और सेवियों को राजनीतिक आधार पर बांट कर क्या हम समग्र साहित्य को क्षति पहुंचा रहें हैं ?
स्वतंत्रता दिवस पर वरिष्ठ कवि पत्रकार विमल कुमार की यह टिप्पणी



राष्ट्रवादी लेखन और वाम बनाम दक्षिण 
विमल कुमार





राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान  हिन्दी साहित्य की दुनिया में तीन तरह के लेखक हुए. पहली श्रेणी में वे लेखक  हुए जिन्होने खुद सृजनात्मक साहित्य लिखकर अपनी रचनाओं में    स्वतंत्रता  के व्यापक अर्थों की मीमांसा की और मनुष्य की मुक्ति तथा सभ्यता विमर्श भी खडा किया. इनमे प्रेमचन्दजयशंकर प्रसादनिराला, महादेवी  वर्मा और हजारीप्रसाद दिवेदी जैसे लेखक हुए. इन सबका लेखकीय व्यक्तित्व अलग तो है ही. भाषा और शिल्प भी अलग है तथा वैचारिक भाव भूमि एवं  रचनात्मक मनोदशा भी अलग फिर भी ये सब एक बड़े मानवीय मूल्यों के साथ एक दूसरे के के अभिन्न अंग भी हैं.

दूसरी श्रेणी के वे लेखक हुए जिन्होंने साहित्य सृजन तो किया ही, राजनीतिक सामाजिक आंदोलनों में खुल कर भाग लिया और आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा  लिया और वे जेल भी गये. इनमे माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी,राहुल सांकृत्यायन,बालकृष्ण शर्मा नवीन”,रामबृक्ष बेनीपुरी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी लेखक लेखिकाएं शामिल हैं जो जेल गयीं.

तीसरे वे लेखक थे जो न तो जेल गये न ही उन्होंने प्रेमचंद, प्रसादनिराला की तरह कोई बहुत बड़ी कृति लिखी लेकिन हिन्दी भाषासाहित्य  एवं समाज  के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी और कई  महती  संस्थाओं को खड़ा किया, नई पीढी का निर्माण किया तथा साहित्य  के वांग्मय को समृद्ध  किया. इनमे महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुन्दर दास, रायकृष्ण दास,रामचन्द्र वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, भगवतशरण उपाध्याय, बनारसीदास चतुर्वेदी,शिवपूजन सहाय, किशोरीदास वाजपेयी, जैसे अनेक लोग थे.

पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा साहित्य जगत और अकेडमिक जगत में अधिक हुई. एक श्रेणी उन लेखकों की है जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य का निर्माण किया और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी  जिनमे मैथिलीशरण गुप्तरामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल दिवेदी   जैसे लेखक भी थे. हिन्दी शिक्षा जगत एवं साहित्य जगत में पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा अधिक हुई. उन पर शोध कार्य हुए,उनपर किताबें अधिक लिखी गईं उन पर अधिक  सेमीनार गोष्ठियां हुई,वे पाठ्यक्रमों में अधिक  रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि नई पीढी उन्हें जानती रही. उनको उसने अपना पथ प्रदर्शक बनाया लेकिन. दूसरी श्रेणी के लेखकों का समुचित  मूल्यांकन नही हुआ. उनके अवदान की चर्चा कम हुई वे पाठ्यक्रमों में कम शामिल किये गये.

तीसरी श्रेणी के लेखकों को तो और भी कम तवज्जोह दी गयी,उनमे से कई का तो अभी मूल्यांकन ही नही हुआ. उनमे से कुछ की छवि दक्षिणपंथी बनाई गयी और उन्हें हिंदुत्व का पैरोकार भी बना दिया गया.


जिस तरह रामविलास शर्मा ने १९४१ में ही प्रेमचंद पर किताब लिखी और निराला की साहित्य साधना लिखी या अमृत राय ने कलम का सिपाही जैसी जीवनी प्रेमचन्द की लिखी वैसी कोई किताब दूसरी श्रेणी के लेखकों पर आज तक नही लिखी गयी जिससे बाद की पीढी को उनके बारे में सही जानकारी नही मिली और वास्तविक योगदान का पता नही रहा. जो माखनलाल  चतुर्वेदी आजादी की लड़ाई में बारह बार जेल गये, जिनके घर पर ६३ बार पुलिस की तलाशी हुई,जिनके गाँव महात्मा  गाँधी गये यह देखने के लिए कि आखिर किस तरह की मिट्टी ने माखनलाल जी को पैदा किया जो हिन्दी के श्रेष्ठ वक्ताओं में से एक माने गये. उन  पर आज तक एक अच्छी जीवनी नही,यहाँ तक की विद्यर्थी जी की कोई अच्छी जीवनी नही है.



जिस बेनीपुरी ने जयप्रकाश, मार्क्स और रोजा ल्क्जमवर्ग की जीवनी लिखी उनकी भी आज तक जीवनी नही. अगर उनकी रचनावली न छपी होती तो उनके विशाल योगदान के बारे में लोगों को नही पता चलता. रामविलास शर्मा ने उसे पढने के बाद लिखा कि हिन्दी पट्टी  में जिन तीन लेखकों ने युवकों में क्रांतिकारी चेतना फैलाई उनमे विद्यार्थी जी और माखनलाल जी के बाद बेनीपुरी ही थे. लेकिन शिवदान सिंह चौहान से लेकर चन्द्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र नामवर सिंह तक किसी वामपंथी आलोचकों ने दूसरी श्रेणी के लेखकों के योगदान पर कलम नही चलाई. उनका मूल्यांकन नहीं किया.

राहुल जी की चर्चा भी उनकी जन्मशती के बाद शुरू हुई. वे इस से पहले एक यायावर और यात्रा संस्मरणकार के रूप में ही जाने जाते रहे. लेकिन उनका जितना विशद योगदान है उसे देखते हुए उन पर अभी अधिक शोध कार्यों की जरुरत है. 

सुभद्रा कुमारी चौहान को अब तक “झांसी  की रानीकविता के लिए ही जाना जाता रहा लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में लिखा इसकी चर्चा कम हुई तथा एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनकी भूमिका की चर्चा भी बहुत कम हुई. अब जाकर रूपा गुप्ता ने सुभद्रा जी की रचनाओं के खंड निकाले तो उनकी तरफ ध्यान गया पर लेकिन एक अच्छी जीवनी या मूल्यांकन परक किताब आज तक सुभद्रा जी पर नही है. 

उनकी पुत्री एवं अमृत राय की लेखिका पत्नी सुधा चौहान ने एक विनिबंध उन पर  जरुर लिखा  और  साहित्य अकेडमी ने उसे प्रकाशित किया अन्यथा उनका पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी  बाकी है. उनका जीवन कम रोमांचकारी और संघर्ष पूर्ण नही. निराला के संघर्ष की बहुत चर्चा हुई लेकिन सुभद्रा जी ने अपना लेखन भी जारी रखा, जेल की यात्रायें की और परिवार भी संभाला. यह कम बड़ी बात नही लेकिन हिन्दी समाज ने उनकी चर्चा कम हुई.


तीसरी श्रेणी के लेखकों की तो एक तरह से उपेक्षा हुई या उनके कार्यों पर कम ध्यान गया. उन पर  कम ही सेमिनार गोष्ठियां हुईं और पाठ्यक्रमों में कम स्थान दिया गया. उनपर किताबें बहुत कम निकली. आलम यह है कि अगर भारत यायावर नही होते तो महावीरप्रसाद दिवेदी की रचनावली नही निकलती जबकि उनसे पहले रामकुमार भ्रमर तक की रचनावलियां निकाल गईं. उनकी १५० वीं जयन्ती चुपचाप निकल गयी पर हिन्दी समाज सोया रहा. जिस दिवेदी जी ने हिन्दी को खड़ा किया बीस साल तक दौलत पुर में रहते हुए ‘सरस्वती’ निकाली उसका हाल यह है. तब दौलत पुर में बिजली, टेलीफोन की सुविधा नही थी लेकिन दिवेदी जी  हिन्दी की सेवा के लिए रेलवे की सरकारी  नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादक बने थे.

मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, पन्त, निराला, प्रसाद को प्रकाशित कर उन्हें स्थापित किया. उनकी भी आज तक जीवनी नही और न कोई अच्छी मूल्यांकन परक किताब. रज़ा फाउंडेशन को पहले उनकी जीवनी निकालनी चाहिए थी उस जीवनी से पाठक साहित्य के इतिहास से परिचित होते. कमोबेश यही हाल शिवपूजन सहाय का रहा. जिस शिवपूजन बाबू ने अनेक लोगों  पर अभिनंदन ग्रन्थ निकाले. अनेक लेखकों की कृतियों का सम्पादन किया, उनके  संचयन निकाले उस शिवपूजन  बाबू पर अब जाकर  साहित्य अकेडमी ने  संचयन निकाला जबकि राहुल जी पर एक संचयन तक नही निकला जबकि उनके दो शिष्य नागार्जुन और विद्यानिवास मिश्र पर संचयन बहुत पहले निकल चुके थे. हिन्दी में उन पर एक मोनोग्राफ तक नही है,   फिल्म की बात तो  छोड ही दीजिये, जबकि साहित्य अकेडमी ने धर्मवीर भारती पर फिल्म बनाई. नामवर सिंह और केदार जी ने अपने शिष्य से एन.सी.आर.टी. से  अपने ऊपर फिल्म तक बनवाये लेकिन राहुल जी पर नही बनवाया.

किशोरीदास वाजपेयी को स्वाभीमानी होने का खामियाजा अपने जीवन काल में  ही नही बाद में भी भुगतना पडा. हिन्दी भाषा में शब्दानुशासन जैसी किताब लिखने वाले इस अक्खड़  लेखक   पर एक डाक टिकट तक नही निकल पाया जबकि अटल विहारी वाजपेयी तक ने इसकी मांग की. हमारे लेखक संगठनों ने भी इन लेखकों की याद में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं किये. प्रगतिशील लेखक संघ ने राहुल जी की १२५ वीं जयंती मनाई लेकिन शिवपूजन सहाय की नही. वाम लेखक संगठनों के लिए ये हिन्दी सेवी अछूत लेखक हो गये. उनकी नज़र में राष्ट्रवादी लेखक हिंदुत्ववादी हैं. यहाँ तक कि प्रसाद भी दक्षिण पंथ के खाते में चले गये, उनके लिए बस प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध ही प्रतीक पुरुष हैं. इसलिए वे भीष्म साहनी का उनकी जन्म शती के तीन साल बाद भी जन्मशती मनाएंगे  पर  अमृत लाल नगर का नही. उनके लिए यशपाल पूजनीय हैं लेकिन भगवती चरण वर्मा  और इला चन्द्र जोशी  अछूत लेखक हैं.

इस तरह वाम आलोचकों और संगठनों ने जनवाद के नाम पर  साहित्य की संकीर्ण परिभाषा बनायी, रचना का सरलीकरण किया. उसने कुजात लेखक बनाये और हमारी विशाल प्रगतिशील परम्परा को छोटा बनाया. आज इस परम्परा को मजबूत बनाने की जरुरत है लेकिन इस  संकीर्ण नजरिये  के कारण हिंदुत्ववादियों ने हमारे लेखकों को भी अपनी और खींच कर अपना प्रतीक पुरुष बनाया. हाल ही में संघ से जुड़े लेखकों पत्रकारों ने शिवपूजन सहाय की पुस्तकों का लोकार्पण आयोजित करवाया जबकि वाम संगठन जन्म शती वर्ष में भी एक आयोजन नही कर सके.

दिनकर,मैथिलीशरण गुप्त  को भी इन दक्षिणपंथियों ने अपना प्रतीक बनाया जबकि वाम प्रगतिशील आलोचना इन पर संदेह  करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ वर्ष  पूर्व विज्ञान भवन मे दिनकर पर एक कार्यक्रम को संबोधित किया और मन  की बात में प्रेमचन्द का जिक्र किया. इस तरह  वे प्रेमचन्द को भी अपने पाले में खींचने  में लगे हैं. इससे सतर्क रहने की जरुरत है. लेकिन यह तब ही होगा जब हम अपनी प्रगतिशील परम्परा को समझें उसकी लोकतान्त्रिक व्याख्या करें और सरलीकरण न करें.


आज मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त जैसे अनेक लेखको को गैर वामपंथी मानकर वामपंथी संगठनों ने उन्हें आलोचना से दूर ठेल दिया है, आखिर उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से कंधा से कंधा मिलाकर लड़ा था तो क्या उनके भीतर गांधी के मूल्य और आदर्श नही थे और अगर थे तो वे किस तरह जनतंत्र विरोधी या प्रगतिशीलता के विरोधी हो गए. ये लेखक जेल गये, वहाँ उन्होंने साहित्यिक कृतियों की रचनाएं की,हिंदी की सेवा कर राष्ट्र की सेवा की.
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vimalchorpuran@gmail.com 

विष्णु खरे : विवरण में संसार : सविता सिंह

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विष्णु खरे : विवरण में संसार                          
सविता सिंह






किसी कवि को कैसे याद करना चाहिए कि वह ठीक-ठीक याद किया जाए और समझा जाए, वह भी यदि वह विष्णु खरे जैसा कवि हो जिसकी कविताओं के बनने की एक विशिष्ट पद्धति है. किसी कवि को कैसे याद करें कि वह मायूस न हो बल्कि हैरत से देखे कि किसी अन्य ने उसके रहस्य को कैसे जान लिया. ऊपर के रूखे आवरण के बावजूद किसी ने कैसे भीतर के जल के तापमान को महसूस कर लिया. विष्णु खरे ने कविता के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा, ख़ासकर फिल्मों पर उनका लेखन अनूठा है. अनुवादों की लम्बी-फेहरिस्त है, देश-विदेश के कवियों को उन्होंने इन्हीं के जरिये और भी पढ़ा और जज़्ब किया. मेरे लिए भी उनका यूँ अचानक ही उठकर चले जाना, दुःखदायी है. मेरी कविताओं पर उनकी खरी टिप्पणियाँ अक्सर उनमें सुधार ही लाती थीं. आख़िरी दिनों में मेरी कविताओं के संचयन की वे भूमिका लिख रहे थे. सोचती हूँ एक पूरा संसार ही उन्होंने लिखा होता. अक्सर वे ऐसा ही करते थे.

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(एक)
उनकी कविताओं में भी यह दुखी-सुखी संसार, जिसमें हम जी रहे हैं और जिसके बरक्स वे एक और संसार बनाना चाहते थे, विवरणों के ज़रिये ही परिभाषित होता था. रोमांटिक कवियों से अलग, कविता में कल्पना का सहारा वे कम लेते थे. जो है उसे ही सही-सही डिस्क्राईब कर, उसके छोटे से छोटे ब्योरे को भाषा में लाकर एक प्रति संसार गढ़ते थे. इस तरह एक आख्यान तैयार होता था जिसमें यह संसार अपने रहस्यों में भी उजागर हो जाता था. यह सभी कुछ कविता में एक ऐसा आस्वाद पैदा करता था जिससे सत्य के दर्शन होने की अनुभूति होती थी. इनके यहाँ कविता में विवरणों से पैदा की जाने वाली काव्य चेतना अपने सौंदर्यबोध में वाकई अद्वितीय है.

ऐसा कहा जा सकता है कि अपनी कविताओं में जिस संसार की जो तस्वीर वे पेश करते हैं वे उसे पाते भी हैं, उसकी क्षणिक स्थिरता में ही सही, या फिर अपने विवरणों में तथ्यों के संयोजन से वे उसे मूर्त कर देते हैं. एक कमरा तब मुकम्मल दिखता है जब यह दिखे कि टेबल कहाँ रखी है और मेज़ कहाँ और दीवार पर लगी तस्वीरें क्या असर पैदा करती हैं इस कमरे के यूँ होने में, क्या कवि अपनी तरफ़ से उसमें एक आईना भी जोड़ देता है ताकि वह एक प्रतिसंसार-सा भी दिखे?

विष्णु खरे क्या अपनी कविताओं में जितना हैं उससे अधिक अर्थ पैदा करते हैं या फिर उसे तलाशते भर हैं या कोई दूसरी ज्ञानात्मक क्रीड़ा चलती रहती है इस कवि की अपनी एक विशिष्ट लीला की तरह, इन्हें पढ़ते हुए लगातार सोचना पड़ता है.

यह कवि अपने विवरणों से ही अपनी राजनीति भी करता है. कहना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है कि नरोदा पाटिया की त्रासदी कवि की कविता से अपने विवरणों में पूरी होती है या कविता को पूरा करती है-- असर लेकिन तीक्ष्ण ही होता है और आप एक दर्द के दरिया में सचमुच उतरे हुए खुद को पाते हैं.इनकी कविताओं में विवरण दरअसल सिर्फ़ यथार्थ के एक चित्र को खींचने के लिए नहीं होते बल्कि उन्हें अर्थपूर्ण बनाने के लिए, बहुत बारीकी से यथार्थ का अवलोकन कर, उस पर आधारित होकर.

विष्णु जी की कविताओं की शैली उनके विवरण करने की कला और क्षमता की वज़ह से सामान्य चीज़ों को सामान्य बनाती-सी भले दिखे, लेकिन यह सामान्यीकरण जब गहरे अर्थों में हमारे यथार्थ को पकड़ लेता है तो हमें अन्दाजा होता है कि जो कुछ चल रहा है, इस सलीके से किये जा रहे तथ्य संयोजन में वह विशेष है, विलक्षण प्रयास है. यहाँ बिम्ब नहीं हैं, विवरण हैं, जिनसे जाना जा सकता है टेम्पो में अपनी गृहस्थी लेकर घर बदलते हुए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार को उसकी वर्गीय सच्चाई में, एक आदमी अपने दाँत खोदने वाली सींक को नाक की तरफ़ ले जाता हुआ बता देता है अपनी मानसिक और सामाजिक स्थिति को.

लालटेन जलाना क्या है ? एक प्रक्रिया या ग्रामीण या फिर कस्बाई जीवन का वह यथार्थ जहाँ से विष्णु खरे जैसा कवि अपनी संपूर्ण सोचने की पद्धति के साथ निकलता है, सकारात्मक अर्थ में एक अनुभववादी (इंपिरिसिस्ट) कवि, जो कविता में शोध करता है. इस संसार को उसके अंदरूनी अर्थ को समझने के लिए उनकी कविता दोस्तमें एक विवरण आता है जिसमें एक युवक को एक सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करने की नसीहत दी जाती है. नसीहत दिये जाने के विवरणों के ज़रिये अपनी कविता को विष्णु खरे उसके राजनैतिक आशयों में पूरा करते हैं. वर्ग घृणा को बेवाक ढंग से सामने लाते हुए यहाँ वर्ग का कोई बड़ा आख्यान नहीं प्रस्तुत किया गया है--बस यथार्थ के डिटेल्स हैं, सूगा (suara) की पेंटिंग की तरह बनाया गया है. प्यांटिलिज्म (Pointalism) यानी, महीन बिन्दुओं से यथार्थ का चित्र तैयार किया गया है.

‘‘एक नौजवान पुलिस सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करो
लेकिन दो-तीन बरस बाद तुम अचानक पहचानोगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगाकर बंद कर दी गई है
और लोग साइकिलों पर से उतरकर जल्दी-जल्दी जा रहे हैं
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास ही की दूकान से बैंच उठवाकर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रखकर
तुम कहोगे कि उसकी हैल्थ शानदार हो गई है
जबकि ऊपर उठ आए गालों के ऊपर स्याह हलके़ गढ़े पड़ गये हैं
और पेट और पुट्ठों के अप्रत्याशित उभारों पर कसी हुई पोशाक में
वह यत्नपूर्वक साँस ले रहा है
उसकी बग़लें
कलफ़ और पसीने से चिपचिपा रही हैं
और माचिस की सींक से दाँत कुरेदते हुए वह
उसे बार-बार नाक की तरफ ले जा रहा है. सियासत
और बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा, अब तुम बढ़ लो, ये मादरचोद आ रहे हैं.


सचमुच कहाँ से चलती, बनती हुई कविता कहाँ आकर ठहरती है, साँस लेती यहाँ ! बड़े सैद्धांतिक वैचारिक खाकाओं को बिना सामने लाए, एक बड़ा वर्गीय यथार्थ दिख ही जाता है इस कविता में. हमारे समाज की राजनैतिक आर्थिक विदू्रपताएँ यूँ गालियों में संप्रेषित हो जाती है.उनकी बहुचर्चित और विवरणों के शोधबोध से पगी पद्धति की सचमुच बेजोड़ कविता है लालटेन जलाना’. यह यहाँ शायद कहा जा सकता है कि एक बड़ी कविता अपने विवरणों में ऐसे हो सकती है जैसे यह संसार.

लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है
जितना उसे समझ लिया गया है ..

यह ज़रूर है कि जब दिया-बत्ती की बेला आए
तो यह न मालूम हो कि लालटेन पीपे या शीशी में तेल नहीं है
और शाम को साढ़े छह बजे निकलना पड़े मिट्टी के तेल के लिए ..

आख़िर कोई लालटेन अच्छी तरह क्यों जलाई जाए...

लेकिन लालटेन जलाने का लुत्फ़ मुख्यतः तेल से है
और शायद उससे से ज्यादा
उम्दा साफ़ किए गए काँच की है
भलाई इसी में है कि बत्ती से बेवज़ह छेड़छाड़ न की जाए
लेकिन अगर उस पर ज़्यादा ग़ुल जमा हो ही गया हो
तो उसे उँगलियों से नोचना बेवकूफ़ी होती है
क्योंकि उसके बाद जब उसे बाला जाएगा
तो चारों तरफ़ से पुच्छल तारों जैसी दुमदार रोशनी निकलेगी
और काँच बच भी गया तो काला तो हो ही जाएगा
कैंची से काटने में भी रेशे निकल आते हैं
या टेढ़ी-मेढ़ी कटती है
उसे ब्लेड जैसी चीज़ से काटा जाना चाहिए वह भी एहतियात से
लेकिन यह तभी मुमकिन है जबकि वह काफ़ी लंबी हो
ऐन मौके पर यह पता लगना कि बत्ती छोटी है
लालटेन की कुप्पी को मिट्टी के तेल से बिला वजह
लबालब भरने पर मजबूर करता है
और तब भी वह साढ़े नौ बजे तक दम तोड़ देती है ....

लेकिन जो काम सबसे ज्यादा सलीके मेहनत और निगाह की मांग करता है
वह है शीशे को साफ़ करना.....’’

कविता में इस तरह रौशनी पैदा होती है जिस तरह यह अपनी बारीक बनावट में खुद को बरतती हो क्योंकि शीशे को साफ़ करने में यह ध्यान रखना पड़ता है कि

“कि कब्जे से निकालते वक्त
उसे गलत तरफ़ से तिरछा न कर दिया जाए कि वह टूट जाए
फिर यह कि शीशा सिर्फ़ बढ़िया राख से ही चमक सकता है
यानी या तो अच्छी जलाऊ लकड़ी की राख हो
या फिर सख़्त कंडे की

बिना यह सब कुछ जाने और एहतियात बरते बग़ैर, यह रौशनी बच नहीं सकती कविता में या कि कायनात में.






(दो)
विष्णु जी की एक और कविता है जिसे मैं एक बेहद महत्वपूर्ण रचना मानती हूँ और जिसके ज़रिये वे हमें अमानवीयता की तस्वीर दिखाते हैं जो इन्हीं ब्योरों के कारगर संयोजन और विस्तार की मदद से संभव हुई है. एक साथ यह कविता आपको हतप्रभ और चमत्कृत दोनों करती है, वह भी आपके बहुत करीब पहुंच कर जब आप यथार्थ को अभी दूर से ही देख रहे होते हैं. सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथाकविता में वे इस पूरी प्रथा की अमानवीयता को यथार्थपूर्ण ढंग से परिभाषा की गिरफ्त में ले लाते हैं,

‘‘इस पूरे मुहावरे पर ही ग़ौर करें
जो ध्यान दें, है
सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा

अब यदि हम ज़ोर सिर पर देते हैं
तो ध्वनि यह निकलती प्रतीत होती है
कि यदि मैला सिर के बजाय कंधों, पीठ या कमर पर ढोया जाएगा
तो प्रथा अमानवीय नहीं रहेगी.’’

बात जो बनती हुई दिख रही है वह यह कि क्यों कोई किसी और का मैला ढोये, लेकिन शायद इतने से बात नहीं बन पा रही. कवि इसलिए इस मैले को ढोये जाने की प्रक्रिया, उसकी सम्पूर्ण प्रविधि में जाता है, जो आपको भीतर तक, समझा दे कि आख़िर किस तरह हमने अपनी मनुष्यता खोई है. वे कहते हैं, ‘

मुहावरे को सिर पर नहीं दिमाग़ में रखे हुए
यदि हम बल मैला ढोने पर देते हैं
तो कुछ यूं लगेगा कि इसे ढोना भले ही अमानवीय हो.’’

अमानवीय होने की परिभाषा को पूरा करने के लिए कवि उसकी डिटेलिंग के ज़रिये उसे प्रस्तुत करता है. मैं सोचती हूँ कि कविता ज्ञान के किस आयाम को खुद में समोये है यहाँ, किस अर्थशास्त्रीय रचनात्मक मीमांसा की भारी-भरकम पद्धतियों का भार-वहन करती है यह कविता--

‘‘बहरहाल इस भाववाचक संज्ञा के आते ही
प्रश्न यह खड़ा हो जाता है कि क्या
सिर पर मैला ढोने को प्रथा कह सकते हैं
क्योंकि ज्ञानमंडल बृहत हिंदीकोश देखें
तो इस तत्सम शब्द के दो तत्सम पर्याय
रीति या परिपाटी दिये हुए हैं
जबकि कुछ संदिग्ध गुणवत्तावाला नालंदा शब्दकोश
इसे रिवाज या प्रणाली बताता है.’’...

परन्तु उसकी असल अमानवीयता तो यहाँ है--

‘‘कि तुम जब बैठे ही हो
अचानक कभी घुस आता था कोई थूथन नहीं
बल्कि चूड़ियों वाला कोई साँवला-सा हाथ
टीन की चौड़ी-गहरी तलवार जैसा एक खिंचौना लिए हुए
फिर जैसे तैसे उछलकर भागने से पहले आती थी
स्त्री हँसी की आवाज़ जो कहती थी
और पानी डाल दो बब्बू
और उसके बाद राख की मांग की जाती थी
जिसे राखड़ कहा जाता था राख कहना अशुभ होता
जो ज़रूरी थी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को
कुछ वहनीय बनाने के लिए
यानी पहले टोकरे में बिछाई जाती थी वह
जिसके ऊपर तक भर जाने के बाद
उसे ढका जाता था फिर राख की मोटी परत से ही
यह तथ्य अल्पज्ञात ही है कि अनेक पिछवाड़ों का मैला
कितनी जल्दी तरल हो जाता है
और राख ज़रा-सी कम हो तो टोकरे की किमचियों से टपकने लगता है.’’


यह किमचियों से टपकता मल मैला ढोने वाली स्त्री के चेहरे, बाल, पीठ, छाती से होता हुआ उसे सम्पूर्ण रूप से अमानुषिक या मनुष्य से कमतर कोई और जीव बना देता है. दिल और मिजाज़ को बिगाड़ देने वाली ऐसी कोई और कविता नहीं पढ़ी. परन्तु इसमें क्या कोई शक़ है कि यह कविता अपने विवरण में ही सत्य के इस रूप का भी बखान बन सकी है.

ब्यौरों और विवरणों से खड़े किये गए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार के सत्य को आप विष्णु खरे की कविता जो टेम्पो में घर बदलते हैंमें देख सकते हैं. हैरत में पड़ सकते हैं कविता क्या कुछ कर सकती है ऐसे पद्धतिपगे प्रयत्न से. जो परिभाषा हम गढ़ पाने में ज्यादातर अक्षम होते हैं, वह यहाँ अपनी स्पष्टता में एक दृश्याचित्रा की तरह प्रस्तुत है-- निम्न मध्यवर्गीय मनुष्य के घरेलू जीवन की पहचान कराते इस कविता के सामान, उनके रंग-रूप, उनकी अनिवार्यता और उसमें संचित-सुरक्षित उनकी वर्गीय असुरक्षाएं--सब-कुछ जाहिर है एक टेम्पो में अपनी गृहस्थी लादे चला जा रहा है एक परिवार अपना घर बदलता हुआ,

‘‘पुराने सोफ़े एक डबल बैड सेकेंड हैंड
एकाध निबाड़ का फोल्डिंग पलंग कीलें निकली हुई कुर्सियाँ
फटी बदरंग दरियाँ फीके पर्दे घिसे पाँवपोश
ज़र्द पड़ चुका दस बरस पहले क़िस्तों पर लिया गया फ्रि़ज
वैसा ही ब्लैक एंड वाइट टी.वी. उसका जंग लगा अधटूटा एंटेना
मटमैला गैस सिलिंडर चूल्हा जिससे कंपनी का नाम मिट चुका है
उखड़े हुए सनमाइकावाली डाइनिंग टेबिल हिलती हुई तीन कुर्सियों समेत
एक दांचेदार गोदरेज की अल्मारी जो असल में गोदरेज की नहीं
शीशे में फफूँद-पड़ी डगमग करती एक ड्रेसिंग टेबिल न घूमने वाला टेबिल फ़ैन

बर्तन भाँडे खूँटियाँ पाटे मोगरियाँ झाड़ुएँ सिल-बट्टा
टूटे हुए पल्लुओं वाला एक कूलर एक लैब्रेटा जो अब स्टार्ट तक नहीं होता
चटके किनारों वाले कुछ गमले जिनमें मनीप्लांट सहित अन्य आधे मुरझाए पौधे

प्लास्टिक की बाल्टियाँ मग्घे हर तरह की शीशियाँ डब्बे-डब्बी
वैलकम वाली फ्रेम जड़ीं गृह कलाकृतियाँ दीवार के उड़ते हुए विकासमान हंस

कैलेंडर पिछली दीवाली के लक्ष्मी-गणेश कुछ अक्षरों कम वाली नेम प्लेट
फीके खिलौने प्लास्टिक की साइकिल एक कैसेटवाला मोनो टू-इन-वन देसी

बच्चों की पुरानी किताबें खुले बंडलों में इस साल की उनके स्कूलों के बैगों में
टीन की चादरों के संदूक मिलिटरी कैंटीन से लिए गए जानपहचानी सूटकेस
अब नारियल की रस्सी से बँधे हुए और भी बहुत कुछ
जिसका महत्त्व सिर्फ़ घर की औरत जानती है.’’

यह सारा सामान और साथ में पति, पत्नी, किशोर वय में प्रवेश कर गयी बेटी और छोटे दो और बेटे-बेटियाँ--सब इसी टेम्पो से घर बदलते हुए सवार हैं. यह एक पूरा संसार है जो सत्य की छाया नहीं, बल्कि उसका असली रूप है! देखने में कितना छोटा दिखता है टेम्पो, जैसे यह कविता, लेकिन एक विस्तृत सत्य इसमें समा ही गया है—

‘‘देखने में कितना छोटा दिखता टेम्पो
लेकिन पाँच प्राणियों की गिरस्ती ख़ुद उनके समेत
कितने करीने से आ जाती है उसमें और फिर भी
पीछे घर के एकाध बुजुर्ग और टेम्पोवाले के
दो-तीन मज़दूरों के बैठने की जगह निकल आती है.’’

यथार्थ की ऐसी सधी हुई तस्वीर में यह जोड़ना भी कवि नहीं भूलता कि इस हचकती-चलती जादुई गाड़ी में उसका चालक और क्लीनर चोली के पीछे क्या हैगाना भी गाने लगते हैं

सिर नीचा किए किशोरी बरजने लगी छोटों को 
कि साथ न गाएँ, ताल न दें
गिरस्तिन देखती है पति को
जो अतिरिक्त ग़ौर से देख रहा है ट्रैफ़िक को

वह अभी झंझटों में नहीं पड़ना चाहता लेकिन माँ-बेटी समझ रही है इस गाने को गाये जाने की फूहड़ मंशा और उससे उपजता भय का हमलावर रूप और असर.

‘‘बेचारा गिरस्त’ पीछे वाली जाली से देख लेता है
हिलती हुई अपनी पूरी गिरस्ती को
उसे डर है तो यही कि सिलिंडर पर थाप देते छोकरे सिगरेट न पीने लगें
फ्रिज की गैस लीक न हो जाए
गोदरेज पर नयी खरोंच या ढांचा न पड़े
ड्रेसिंग टेबिल का शीशा न चटके कोई टी.वी. की गठरी पर न बैठ जाए
सभी कुछ सही-सलामत पहुँच जाए दो कमरों के अपरिचित घर में.’’

गिरस्त के सामान के अतिरिक्त डिटेलिंग कर कवि ने इस परिवार में सामानोंके विस्तृत मनोवैज्ञानिक अर्थां का भी उद्घाटन किया है--आख़िर क्या ज़्यादा असुरक्षित करता है इस वर्ग के मनुष्य को--सामान या सामान की तरह हो चले परिवार के सदस्य; किशोर होती बेटी जो अपने हमलावरों से रू-ब-रू है, सबकुछ समझती, बरजती मगर आँखें नहीं दिखाती. यह अलमारी पर नया दाँच नहीं पड़ने की चिंता कैसी चिंता है? दाँच बेटी के बदन पर भी पड़ रही है चोली के पीछे क्या हैगाने की अश्लीलता से भयभीत वह चुप है, और अपने संकेतों में लगातार टेंस बनाता हुआ सत्य भी यहाँ है. क्या कुछ और आ घटे, सामान का एक घर से दूसरे घर तक पहुँचने में यह सारा शहर ही न कहीं भूकंप में तहस-नहस हो जाए. या टेंपो ही न उलट जाए.

यहाँ दूसरी तरफ की हिंसाएँ न मुखर हो जाएँ जिस कारण संतुलित-सा यह दृश्य अपनी सत्यता में असंतुलित न हो जाए. सारा खेल बदल सकता है, यदि कोई ऐसी दुर्घटना हो जाए. इस समझदार गिरस्त को रिस्क लेने के लिए मजबूर न होना पड़े. हालाँकि परिणाम का तो पता है
ही--उसकी हार.



(तीन)
यथार्थ में व्याप्त मनोवैज्ञानिक परत को विष्णु जी की कविताएँ लगातार खोलने का भी प्रयास करती रहती हैं. उन्हें लगता है किसी कवि को सत्य के इस डार्क (अंधेरा) परिधान से उसे बाहर लाना ही चाहिए. इस मायने में उसका यह विशेषाधिकार है क्योंकि उसका यह व्यवसाय है कि वह सत्य को जाने, उसके सारे छद्म रूपों को उजागर करे. समाज में फैली विकृतियों के बने रहने के कारणों को उजागर करे. स्त्री-पुरुष के बीच जो संबन्ध हैं, इस मायने में, उनपर वे अपने ध्यान को केन्द्रित करते हैं. सत्य के छद्म रूप को, झूठ को, कागज़ के कवर की तरह चीर देते हैं. वे पाते हैं स्त्री-पुरुष आपस में प्रेम नहीं करते, महज सहूलियत की वज़ह से ही साथ रहते हैं. 


स्त्रियाँ तो फिर भी स्त्रियों को जानती हैं, इसलिए सहानुभूतिपरक ढंग से एक दूसरे से प्रेम करती हैं, मगर पुरुष तो सदा शंकाओं, आशंकाओं और भय से ग्रस्त रहते हैं स्त्रियों को लेकर. उन्हें डर बना रहता है कहीं उनके सर्वश्रेष्ठ होने का हवामहलध्वस्त न हो जाए. अतः स्त्रियों को दबाकर रखते हैं--नियंत्राण का जाल मैटेरियल और आडियोलोजिकल दोनों ही तरह से जबर्दस्त ढंग से बुना गया है यहाँ. इसे हम पितृसत्ता की संरचना का भी नाम दे सकते हैं. विष्णु खरे इसके अंधेरे पक्ष को प्रकाश से भर देते हैं. पत्नियों की निजता को पति कैसे नष्ट करते हैं इसका एक सत्यपरक खुलासा है यहाँ और एक विश्लेषण भी किया गया है कि कैसे वे पत्नियों के एकांत को नष्ट करके ही चैन लेते हैं. साथ ही इस बात का भी आत्मस्वीकार है कि पुरुष स्वतंत्रा जीवन जीने वाली स्त्री से दरअसल रश्क़ करते हैं और बदनाम भी. यह एक प्रवीण पैंतरा है पितृसत्ता का जिसकी शिकार स्वतंत्रा और अस्वतंत्रा सारी स्त्रियाँ होती हैं. हमारी पत्नियाँकविता में आरम्भ से ही प्रस्तावना की तरह अपनी मनोवैज्ञानिक मंशा को स्पष्ट करते हुए विष्णु खरे लिखते हैं--

‘‘औरतों पर मर्दों के ज़ुल्म के बारे में बहुत-कुछ कहा गया है
पत्नियों पर पतियों की क्रूरताओं को भी
सामान्यजन तथा विशेषज्ञों ने
विभिन्न कोणों से देखा है
वे सचाइयाँ अपनी जगह होंगी
लेकिन यहाँ कुछ और ही संकेत अभीष्ट हैं.’’

पुरुष अपनी पत्नियों के बारे में लगातार सोचते रहते हैं कि उनके पहले कोई और तो नहीं था उनके जीवन में--उन्हें सुरक्षित बने रहने के लिए यह जानना ज़रूरी लगता है. यह भारतीय पितृसत्ता की सड़ांध है जो उनके भीतर उनके पुरुषवाद को परिभाषित कर उन्हें मर्द बनाती है.

‘‘एक ही शंका हम अपने अंदेशे को छेड़छाड़ में छिपाते हुए
लगभग आजीवन उनकी बनिस्बत अपने से करते हैं
कि हमसे पहले कोई और तो नहीं था

अपनी पत्नियों से हम अपेक्षा नहीं करते
कि उन्हें याद आए अपने अतीत की
पत्नियों और उनकी सहेलियों का कैशोर्य

हमें सिर्फ़ उनकी कुछ संभावित स्त्रियोचित अंदरूनी बातें जानने में ही दिलचस्पी होती. उनके सच को जानकर ही चैन मिल सकता. क्योंकि तभी सज़ा तय की जा सकती है. पत्नियों का अपराध ही उनका विवाह से पहले का अपेक्षाकृत स्वतंत्रा जिया गया जीवन होता है. और जब वे उनकी गिरफ़्त में आ गयी हैं पत्नियों के रूप में, उन्हें उनकी स्वतंत्राता की चाहत से भय लगता है--उनका कुछ भी अपना नहीं होना चाहिए इस कारण वे पूर्णतया पराधीन हों तभी शांति कायम हो सकती है. वे लिखते हैं,

‘‘जब हमारी पत्नियाँ लौटने लगती हैं
अपने पुराने दिनों में तो हम घबरा जाते हैं
उनकी स्मृतियों को काटने की कोशिश करते हैं
हम अपने अतीत से ..

हम नहीं चाहते कि हमारी पत्नियों को याद आएँ
उनके पिता की जय-पराजय उनकी माँ का दमकता या कुम्हलाता हुआ चेहरा
उनके खिलंदड़े या गुमसुम भाई-बहन
उनका पुराना घर स्कूल-कालेज रास्ते और पिकनिकें
और जो सौंदर्य और कुरूपताएँ उन्होंने जाने
क्योंकि उनके पास इतनी सारी स्मृतियों का होना
हमें एक लाचार डर से भर देता है.’’

पितृसत्ता के भीतर बैठा स्त्रियों की निजता के प्रति ऐसा भय ही पुरुषों को गढ़ता है, न कि उनकी किन्हीं अन्य अर्थां में श्रेष्ठता और यह भय कितना भयानक रूप ग्रहण करता है इसका विवरण भी वे इस कविता में प्रस्तुत हैं.

‘‘हमारी पत्नियाँ हमारी अनुपस्थिति में क्या करती हैं
यह जानने से हम इसलिए नहीं कतराते
कि वह हमारे लिए शर्मनाक होगा
बल्कि इसलिए कि वह जान लेने के बाद हम जान जाएँगे
कि हमारे और अपनों के लिए ही सब-कुछ करने की प्रक्रिया में
वे ख़ुदमुख़्तार शख़्सियत होने लगती हैं
और यह ख़याल ही हमें असुविधा में डाल देता है.’’


स्त्रियों की ख़ुदमुख़्तारी का भय पुरुषवाद की जटिल आक्रमक भयाकुलता की जड़ में है. यह एक (पुरुष) कवि ही बता सकता है क्योंकि वह सत्य को पकड़ने की सूक्ष्म तरकीबों से वाक़िफ है. वह सत्य का टेक्नीसियन है, उसका सक्षम इंजीनियर-अभियंता. कवि वह इसलिए है कि वह इसे कह देता है, जो कविता की भी शर्त है--सत्य वचन ही बोल रे तोहे पिया मिलेंगे’. तभी कविता भी मिलेगी, कविता की आध्यात्मिकता ही कुछ ऐसी है. जब कवि अपने भय के एकांत में दाखिल होता है, जब वह पत्नियों के एकान्त को नष्ट करने की प्रविधि और चिंता में शामिल होता हैतमाम शंकाओं की एक कुशल मनोवैज्ञानिक की तरह पड़ताल करता है, उन्हें हर कोण से देखाता है दिखता है ताकि अंत में जब वह पत्नियों के एकांत को वेधे तब किसी को उनके लिये असहानुभूति न पैदा हो. स्त्रियों ने अपनी आंतरिक दुनिया को बचाकर रखने का अपराध जो किया है. भारतीय स्त्रीवादी विमर्श को तो पितृसत्ता की आतंरिक क्रूरताओं का स्वरूप समझ में आ ही जाता है यहाँ. विष्णु जी लिखते हैं,

‘‘सबसे भयावह तो है पत्नियों का
कभी-कभी अकेले अपने आप से बात करना
और उसके बीच एकाध बार हलके से हँसना-
उनका अचानक चुप हो जाना और घर के एक कोने में बैठकर
अकेले धूप या बारिश या न कुछ और देखना भी
हमें व्यग्र करता है-
याद होगा कितनी ही बार हमें उनसे अधिक लाड़ करने का नाटक
उनके ऐसे निजीपन को नष्ट करने के लिए भी करना पड़ा है.’’

यह कवि एक विलक्षण इनसाईडर है जो सत्य को छिपाता नहीं बल्कि अपने अपराध को अपनी निरीहता में डुबोकर कुछ ऐसे पेश करता है कि वह औचित्यपूर्ण लगे. मगर स्त्री तो गयी अपने आप से. लगातार वह पुरुष दृष्टि में एक वस्तु, एक आवजेक्ट बनी रहती है. जो स्त्री के दिल में है उसे पुरुष अपने निगाह में लाना चाहता है. उसका गेज एक ऐसा फंदा रचता है जो स्त्री के गले में नहीं पड़ता बल्कि उसकी आत्मा को अपनी गिरफ़्त में लेता है. जीवंत और पत्नियों को नियंत्रित करने के लिए क्या-क्या नहीं करता है पुरुष पति. कितनी पेचीदी है यह पूरी प्रक्रिया जब एक मनुष्य दूसरे को नष्ट कर उसे अपने अधीन करता है. उनकी महत्वाकांक्षाओं को कड़वे पेय की तरह गटक जाता है, उनकी व्यष्टि को समाप्त कर देता है. इस संसार में वह प्रेतों की तरह जीने को विवश हो जाती है, उसे अपनी छाया भी साथ रखने की गुंजाइश नहीं है. कौन बच सकेगा जब किसी को टेलीस्कोपिक ढंग से वाचकिया जा रहा हो. और फिर अपनी पत्नियों को इसके बदले पुरुष सुरक्षा देने का प्रस्ताव रखते हैं ताकि वे, यानी पत्नियाँ, अपनी आत्मिक प्रफुल्लता और विकास का सौदा आसानी से कर लें. उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझने की असहनीय पीड़ा न झेलनी पड़े पति को. पुरुष कितना नियंत्राणकारी है, यह कविता हमारी आँखें खोल कर दिखा देती है--

‘‘अपने हर किये पर उनकी राय सिर्फ़ इसलिए जानना चाहते हैं
कि वे उसकी ताईद करें या कम से कम अपनी राय न दे सकें
हमें एक साँसत भरी राहत मिलती है
उन्हें अत्यधिक सफल और महत्वाकांक्षी देखकर भी
ज़्यादतियों के अनूठे नुस्ख़े आज़माते हैं हम अपनी पत्नियों पर..... 

ताकि वे उस तरह संपूर्ण एवं जटिल न बन सकें
कि हर बार उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझना पड़े.’’



(चार)
विष्णु खरे इस मायने में एक विशेष कवि हैं क्योंकि वे सत्य के कथाकार भी हैं, वह भी एक वैज्ञानिक कथाकार जो अपने शोध में किसी भी तथ्य को छोड़ना नहीं चाहता. बहुत हद तक इसलिए भारतीय पितृसत्ता की एक तस्वीर यहां पूरी होती है. यह बात अपने आप में अंतर्विरोधी लग सकती है यदि मैं विष्णु खरे को सत्य का कथाकार कवि कहूँ क्योंकि आख्यानों की दरकार उन्हें जो पड़ी वह शायद इसी लिए कि इसका उन्हें पता लग गया था कि एक प्रविधि के ज़रिये कविता कथा के रूप में प्राप्त हो सकती है. शायद सत्य की इन शर्तों से उनका साबका व्यक्तिगत ढंग से पड़ा हो. जीवन भर इसलिए भी वे कटुता के अपने इस भार को स्वभाव की ही तरह ढोते रहे. लेकिन हमें तो इस कारण अपने अनेक रूपों में सत्य, कम से कम एक रूप में, हासिल हुआ ही. 


इसे वे अपनी एक कविता प्रतिसंसारमें बखूबी पेश करते हैं. यह एक ठेठ प्रोज कविताहै जिसे पढ़ने और आस्वाद लेने के लिए भीतरी कनवर्जन या रूपांतरण की ज़रूरत पड़ती है. प्रोज कविता पढ़ना आसान नहीं, लिखना तो दुरूह है ही. एक ठंडी गहरी नदी की तरह होती है ऐसी कविता जो बाहर से शीतल मगर भीतर से गरम होती है. इसमें गिरे बिना कोई कैसे जान सकता है कि इसके भीतर अनंत लहरें और मछलियाँ हैं. एक कवि जब अपने विवरणों और आख्यानों के माध्यम से एक प्रतिसंसार गढ़ता है या रचता है तो वह दरअसल एक पूरा संसार ही गढ़ रहा होता है, ‘प्रतिआहिस्ता से खिसक कर कहीं और चली जाती है, शायद नदी में जहाँ लहरें उसे लील लेती हैं.

प्रतिसंसारएक महत्त्वपूर्ण कविता है जिसे उनकी कविता लाइब्रेरी में तब्दीलियाँ’ कविता से जोड़कर पढ़ने पर और भी बौद्धिक आस्वाद उत्पन्न होता है. प्रतिसंसार के पूरे टेक्स्ट में कहीं भी पूर्ण विराम नहीं है, मतलब कि यह यानी संसार का बनाया जाना, गढ़ा जाना एक मुसलसल चलनेवाली प्रक्रिया है. यह संसार रोज़ ही बन रहा है, और उसे विष्णु खरे जैसा कवि भी बना रहा है अपने संशयों, कविताओं, कथाओं और निपट कटुताओं से.

जिस काम पर वह जा रहा था उसे करने की इच्छा नहीं थी
फिर भी फु़र्ती से वह अपना दुपहिया चला रहा था.’’ ( कविता मंजर’)

यह रास्ता, प्रतिसंसार बनाने का

‘‘अपेक्षाकृत वीरान है
सिर्फ एक विराट आकाश ऊपर फैला हुआ है
उसे सीधे ब्रह्माण्ड से जोड़ता हुआ
इस तरह के अकेलेपन से हौल पैदा होता है
और अकारण अकारथता.’’


इस अकारण मात्रा बावजूद कवि प्रतिसंसार रचने का कठिन उपक्रम करना चाहता है. यह संसार जो सतत रचे जाने की प्रक्रिया में तो है ही मगर यह कविता अपने आप में एक और पहल है. यह तो इसी बात से ज़ाहिर है कि बिना पूर्ण विरामों वाली यह कविता अपने वाक्य विन्यास में ही इस नये संसार की संरचना का संकेत देती है. लेकिन यह कितनी सार्थक है, कितना नये अर्थ लिए हुए है, यह विश्लेषण का विषय है यहाँ. प्रतिसंसार रचने की लालसा कविता का अपना भी चरम लक्ष्य हो सकता है और इस कठिन कार्य के अकारथ हो जाने की संभावना भी भयभीत कर सकती है कवि को जब वह यथार्थ से उसके प्रतिकी तरफ अग्रसर होता है.

एक ऐसे व्यक्ति के पराक्रम का आख्यान है प्रतिसंसार कविता जो लगभग ख़ब्त की हद तक पढ़ने लायक सामग्रियों की फोटो कॉपीकरवाता रहता है जिससे धीरे-धीरे एक प्रति लाइब्रेरी उसके कमरे में बन जाती है. असली लाइब्रेरी और इस फोटो कॉपी की गई प्रतियों से बनी लाइब्रेरी में फ़र्क़ इतना है कि यहाँ पर प्रति सामग्री किस तरह, किन सिलसिलों में रखी गयी. उसका नया संयोजन कैसा है. कविता में कम से कम. यह दुनिया कम संयत, लगभग उबड़-खाबड़ है परंतु इसी संसार में वह युवक आश्वस्त है--


"वह बहुत पढ़ता और जो उसे अच्छा या आगे कभी फुर्सत से पढ़ने लायक लगता वह उसकी फ़ोटोकॉपी कर लेता इस तरह अनेक पत्रिकाओं किताबों और अख़बारों से बहुत सारी छायाप्रतियाँ उसके पास हो गईं जीवन का शायद ही कोई विषय हो जिसपर किसी सामग्री को उसने एकाध बार इस तरह इकट्ठा न किया हो अक्सर उसे ऐसी चीजें़ चूँकि पुस्तकालयों में मिलती थीं जहाँ प्रतिलिपियाँ पा लेने की सुविधा रहती है इसलिए वह उनकी मशीनों को चलाने वालों के संपर्क में आया जिनमें से कुछ सादर उसके हितैषी बने और कुछ ने उसे उनका काम बढ़ाने वाला एक सनकी समझा जबकि वह उनसे न तो कोई विशेष मेहरबानी चाहता था और न उनसे कोई फ़ायदा उठाता था और नक़ल करवाए गए हर काग़ज की क़ीमत जो अब तक हज़ारों रुपयों तक पहुँच गई होगी ईमानदारी से चुकाता था बल्कि कभी-कभी वापस की रेज़गारी छोड़ भी देता था.....’’

यह युवक अपनी एक दूसरी दुनिया बना रहा था और इसमें वह कोई ख़लल नहीं चाहता था. जितना बेपेचदगी से यह काम होता चला जाय उसके लिए वही बेहतर था. 


‘‘जो कर्मचारी उसके प्रति कृपालु थे वे उसके इतने ख़र्च पर कभी-कभी एक फ़िक्रमंद अचंभा प्रकट करते उसे साब या सर कहकर पूछते कि आख़िर वह क्यों और कब पढ़ता है.’’


अब कोई ऐसे व्यक्ति से यह औसत और साधारण प्रश्न या जिज्ञासा करे तो वह क्या उत्तर देगा. बल्कि उसकी फ़िक्र तो यह थी कि यदि वह लाईब्रेरी एक-आध दिन नहीं जाता तो इस निर्माण प्रक्रिया में कठिनाइयाँ पैदा हो जाती,
‘‘उसने पाया कि यदि वह नियमित रूप से वहाँ नहीं जाता है तो उनकी संख्या दिल दहलाने और मायूस करने की हद तक बढ़ जाती है इसलिए वह यह करता है कि जब मशीन पर कोई नहीं रहता तो वह उसके पास अपने अपेक्षित पृष्ठों पर पर्चियाँ लगाकर छोड़ देता और बार-बार जाकर यह निगरानी या सवाल न करता कि वे पन्ने हो गए या नहीं यदि वह कोई किताब होती जिसका उजरा  मुमकिन होता तो वह बाज़ार के फ़ोटोकॉपी वालों के पास जाता’’ 


इस तरह यह प्रतिसंसार बिल्कुल कार्बन कापी न होकर तमाम नई मुश्किलों को खुद में शामिल किये हुए कुछ आड़े-तिरछे भी बना रहा था उसे. खराब कागज़ और फीके या आड़े-तिरछे अक्स वाली नकल भी स्वीकार करनी पड़ती और इस तरह उसके घर की टेबिलों कुर्सियों रैकों शैल्फ़ों अतिरिक्त पलंगों मुड्ढों यहाँ तक कि बिस्तरों पर और फर्श के कोनों में भी कई साईज़ों और उम्र व रोशनी और धूल के मुताबिक कई रंगों की प्रतिलिपियाँ हो गई हैं जिनमें से कुछ के हाशियों पर उसने कुछ ऐसा लिखा भी था जो अब ख़ुद उसे पहेली लगता है. 


‘‘यह दुनिया कोई ठोस दुनिया न होकर कई तरह की दुनियाआं की आवृतियों एवं अनुकृतियों का म्यूजियम नुमा लाइब्रेरी है जिससे नई दुनियाएँ बन सकती हैं. वह इसका ऐसा निर्माता है जो अपनी ही लिखी टिप्पणियों के लिये अजनबी हो गया है. वह किसी भी अर्थ में इसका पितृसत्तात्मक नियंता नहीं, न ही उसका मालिक. निश्चित तौर पर प्रतिसंसार पूंजीवादी नहीं, न ही पितृसत्तात्मक. अलवत्ता वह जब भी इन्हें करीने से जमाने की सोचता है तो अक्सर उसकी आँखें इस या उस फोटोकॉपी पर रुक जाती है और वह सोचते हुए किसी ख़ाली जगह पर बैठ जाता है कि उसे पहले ही पढ़ लेना चाहिए था या इसका उसने अब तक कोई इस्तेमाल क्यों नहीं किया इस तरह वह उठाता देखता रखता जाता है और इन प्रतिलिपियों से एक विचित्रा विविध प्रकीर्णिका बनती रहती है एक अनपढ़े अनकिए का पुस्तकालय तैयार होता जाता है कितने लोग कितने विचार कितना सृजन एक समांतर संक्षिप्तीकृत संचयित प्रतिसंसार उसके यहां बढ़ता रहता है फिर भी ख़त्म नहीं होता वह जिसकी प्रतिलिपियाँ उसे अब भी चाहिए और वह लगातार लाता रहता है लगातार नए अक्स ताजा अनुकृतियाँ...’’

अब जब कवि ने यह समझ ही लिया है कि जो नया रचा जाएगा वह न पुराने की तरह होगा, न बस एक तरह का. पूंजीवाद के बदले समाजवाद ही होगा इसकी आशंका कम ही है क्योंकि जहाँ अभी तक जो कुछ संग्रह किया गया है उसमें कितनी ही दूसरी संरचनाओं की गुंजाईश बन गयी है. यह विविध संसार, बनता हुआ प्रति संसार, एक बड़ी चुनौती है ज्ञान पद्धतियों के लिए और राष्ट्र राज्यों की केंद्रीभूत सत्ताओं के लिए भी. यह एक कवि का संसार है, खुद से खुद को निसृःत करता हुआ और विसर्जित करता हुआ भी.

आख़िर लाइब्रेरी में तब्दीलियाँकविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कैसे एक संसार विस्थापित होता है और उसका प्रतिबेआवाज़ वहाँ उपस्थित हो जाता है. पुरानी दुनिया के निरर्थक होने को अपने विवरणों में इस कविता में खरे ने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है जैसे विस्थापितों को अपनी कविता में जगह दे रहे हों. यह काम एक कवि वास्तुकार ही कर सकता है. अपनी करुणा के छत तले उन्हें पनाह दे सकता है, नये कमरे बना सकता है, नये कोने गढ़ सकता है. उनके लिए वे तमाम बेरोज़गार युवक, निरर्थक जीवन जीते बूढ़े और वेश्याएँ जो यहाँ इस पुरानी लाइब्रेरी में पलभर राहत पाती थीं अपने ग्राहकों को खोजती हुई--सब नयी कम्यूटर टेक्नालॉजी के आगमन की शिकार हो जाते हैं. विज्ञान द्वारा सृजित यह विवेकशील (रैशनल) संसार, ज्ञान का अब कोई बीहड़ किला नहीं, यह एक उत्तर आधुनिक स्पेस है जिसमें यह इमारत ज्ञान से नहीं, उसकी प्रवीणता और ऐफिशिऐंसी (कौशल) से चलती है. 

यहाँ बरबस अम्बर्टो एको के द नेम ऑफ द रोज़की याद आती है जिसमें लाइब्रेरी एक लाईव्रींथ है, ज्ञान की घुमावदार चक्करदार संरचना जिसमें मध्ययुगीन यूरोप अपने को बदल रहा था और इस नये ज्ञान को रहस्यमय ढंग से छुपा भी रहा था. नये ज्ञान के लोलुप मनुष्य कीड़े मकोड़ों की तरह ज़हर से भिगाये गये ग्रंथों को पढ़ते ही मर जाते थे क्योंकि उनकी अंगुलियों से जहर उनकी जीभ तक पहुँच जाता था. इस कथा में प्रेम विवेक के षड्यंत्रों का आख़िरकार खुलासा कर देता है. लाईब्रेरी ज्ञान का संग्राहलय न होकर, शक्ति का केंद्र है जो वैसे हर बदलाव को जो नया और परिवर्तनकारी है उसे अवैज्ञानिक साबित करने के लिए बाध्य है. सत्ता में परिवर्तन ही नये ज्ञान को स्थापित और आद्रित करता है. मनुष्य यहाँ कुछ नहीं, उनकी मृत्यु इस सत्ता की अपेक्षित खुराक भर ही है. लाइब्रेरी में तब्दीली सत्ता में हो रही तब्दीली का द्योतक है यहाँ. इस अर्थ में यह एक जायज़ जिज्ञासा है कि लाइव्रींथ का हश्र आख़िर होता क्या है. यहाँ इस कविता में भी विष्णु खरे दिखाते हैं कि पुराना लाईव्रींथ अब बिला गया, वहाँ पर किताबों की सूची लकड़ी के ब्यूरो और कैबिनेटों में नहीं, बल्कि कम्प्यूटर के मगज़ में दर्ज़ कर दिये गये हैं. यथार्थ एक कम्प्यूटर है, एक सतह, एक स्क्रीन और उसके भीतर ज्ञान के बीहड़ को छिपा दिया गया है या फिर वह समा गया है. नया संसार इस अर्थ प्रति संसार न होकर उसका ट्रेसमात्रा है, एक धब्बा, बस दाग़ भर बचा हुआ है पहला यथार्थ. उस ठोस दुनिया के लोग, उसकी शक्ति संरचना, सब बिला ही जाएँगे या फिर नयी विविधता में शामिल हो दूसरे ढंग से ज्यादा शक्तिशाली हो अदृश्य हो जाएँगे. विष्णु खरे लिखते हैं,

‘‘पहले भी यहाँ परिवर्तन हुए हैं
यानी शैल्फ़ और रैक किसी और तरतीब में लगा दिए जाते थे
किताबों को विषयवार इकट्ठा इधर-से-उधर हटा दिया जाता था
इशू और डिपॉज़िट काउंटरों की दिशाएँ बदल दी जाती थीं
और कुछ दिनों के बाद अचानक ऐसा फ़र्क़ अच्छा लगता था
लेकिन इस बार की पुनर्व्यवस्था के परिणाम कुछ अलग ही हैं
किशारों और नौजवानों की एक पूरी भीड़ होती थी यहाँ ....

वे अधेड़ और बूढ़े अब यहाँ नहीं दिखते
जो अतिरिक्त यूरोपीय अदब-क़ायदे से महिला सहायकों से
पुराने टाइम और लाइफ़ के बारे में दर्याफ़्त करते थे
और तसल्ली न पाने के बावजूद मुस्कराकर
किसी पिछली टेबिल पर बैठे धीरे-धीरे निद्रालु हो जाते थे’’

अब यहाँ

‘‘तीस बरस पुराने सूट और टाइयाँ पहने
या मैले कमीज़-पैंट कुर्ते पजामे में
या अपने आप से बातें करते हुए हँसने वाले लोग
अब यहाँ नहीं आते जो फ़ोटोकॉपी करने वाले से रेट पूछते थे
और फिर दिन-भर अपनी लाइनदार पुरानी कॉपियों में
लिंकन या एमर्सन की जीवनियों से नोट्स लेते रहते थे’’

बल्कि अब तो
पसीने उम्मीद और नीम घबराहट से गँधाती
वह अधसनकी वाजिब वेश्या भी अब नहीं आती
जो न्यूयॉर्कर या नैशनल जॉग्राफ़िक लिए हुए
किशोरों या वयस्कों की दिलचस्पी के इंतज़ार में घंटों बैठती थी
लगभग हर रोज असफल
कभी-कभी एअर कंडिशनिंग के सुख में सो जाती हुई.’’

क्योंकि अब

‘‘पुरानी कार्ड-व्यवस्था हटा दी गई है
उसकी जगह अब कंप्यूटर और सीडी रोम आ गए हैं
अब जब भी जाओ बैठने की जगह मिल जाती है.’’

और इन विस्थापित लोगों के बदले जो आते हैं वे ज्यादा से ज्यादा

‘‘कुछ जानकारियाँ चाहते हैं और हद से हद जेरोक्स कापियाँ
वे जानना चाहते हैं कि क्या सारा मैटेरियल
ई-मेल या इंटरनेट पर अवेलिबल नहीं.’’

अब वह साँवली वेश्या जो कहीं फ़ायदेमंद दिन गुज़ारना चाहती, ‘‘दस से छः तक खुली होने के बावजूद इस लाइब्रेरी में नहीं घुसती.’’ वह शहर और केंद्रीय भारतीय नाट्यशाला या उपग्रह निदेशालय के बीच घूमती है. इन विस्थापितों की चिंता कवि को, प्रबंधन को नहीं जो संतुष्ट है लाइब्रेरी के इस रूपांतरण से. इस व्यवस्था में

कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलना चाहिए
 ...व्यवस्था अधिक खुली और सुचारू हुई है
संकल्प हो तो कारगर पुनर्संयोजन में दिक़्क़त नहीं आती
जगह उतनी ही लेकिन ज़्यादा कुशीदा है चीज़ें करीने से हैं
आवाजाही जितनी कम होगी कार्यकुशलता और गुणवत्ता उतनी ही बढ़ेगी
आवाज़ें सिर्फ़ टेलीफ़ोनों महिला सहायकों कंप्यूटर की सीटियों माइक्रोफ़िल्म मशीन की हैं
(छत पर लगे हुए सुरक्षा कैमरे न दिखाई पड़ते न सुनाई देते).’’

इस नये बदले यानी बदलते (लाईब्रेरी) संसार में मनुष्यता की पुरानी परिभाषा कारगर नहीं, न ही उसका दर्शन. सर्वेलेन्स आधारित नया संसार है अब जहाँ ज्ञान आत्मा को तृप्त या उन्नत बनाने के लिए नहीं, अपितु राज्य एवं पूंजी की उन्नति को संयोजित एवं सृजित करने के लिए ही उपजाया जाएगा. यह तस्वीर किसी दुःस्वप्न की लगती है जिसे विष्णु खरे कविता की विवरणात्मक पद्धति के कारण दिखाना संभव कर पाये हैं. इसकी भी फोटोकॉपी हो सकती है, या फिर एक प्रतिसंसार जो फोटोकापी की फोटोकापी हो सकती है--दुःस्वप्न की तस्वीर, यानी एक नयी तस्वीर. 


इनकी लाईब्रेरी वाली कविता का नायक, या प्रोटोगोनिस्ट एक ख़ब्ती (ऑबसेस्ड) इंसान है जो टेक्नालॉजी का सहारा लेकर एक नहीं, कई प्रतिसंसारों की रचना की तैयारी करता है. उसका अपना वजूद ज़ाहिराना तौर पर केंद्रीय नहीं, वह अपनी ही टिप्पणियों को, जो फोटो कॉपी किये गये कागज़ों के हाशिये पर लिखे गये, उनका अर्थ नहीं जान पा रहा है. कैसे जान पाए, जब वह कोई एक अर्थ पैदा ही नहीं करना चाहता. उसकी रुचि एक अर्थवाले वाक्यों में है भी नहीं. अनेक अर्थों वाले संसार में एकल अर्थ वाले संसार की शक्ति संरचना और उसकी मारक एकनिष्ठता का अंदाजा उसे है जो उसकी समझ में मनुष्यों और प्रकृति के उत्पीड़न का नैतिक आधार बनता है. 


विष्णु खरे जैसे कवि ही अपनी ऐसी कविता से उत्तर-आधुनिक जगत के दुःस्वप्न का आख्यान लाईब्रेरी के मेटाफर के ज़रिये तैयार कर सकते थे. अपनी कविता के विवरणात्मक पद्धति से उन्होंने सत्य के कई भेद खोल दिये जिससे स्त्री उत्पीड़न से लेकर संसार का दुःस्वप्नों के मरू में भटकने का आख्यान भी है. वही बता सकते थे कि कैसे सत्य की तरह दिखता झूठ इस संसार में राज्य करता है. अपनी कविता हर शहर में एक बदनाम औरत होती हैमें विष्णु खरे पितृसत्ता का एक दूसरा ऐसा ही भेद खोलते हैं जिसके लिए उन्हें प्रशंसा मिलनी चाहिए.



(पांच)
हिन्दी के प्रेम कवियोंके ठीक उलट वे सत्योद्घाटन करते हैं कि पुरुष स्त्रियों से प्रेम नहीं करते, बल्कि ईर्ष्या करते हैं लेकिन वह प्रेम की तरह दिखता है. पुरुष प्रेम की कविताओं के झूठों को वह कचरे की तरह जल से छानकर बाहर रख देते हैं. अपनी पत्नियों वाली कविता में वह बता ही चुके हैं कैसे पुरुष स्त्रियों के एकांत को नष्ट करने का षड्यंत्रा रचते हैं और अपने भय से संचालित और प्रेरित हो वे स्त्री की मनुष्यता को बर्बाद करते हैं. लेकिन यह तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में होगा ही--यही तो उसका तर्क है, ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती हैमें वे इसकी प्रक्रिया में जाते हैं. एक स्वतंत्रा-सी दिखती, रहती स्त्री जो सुन्दर भी हो, उसके इर्द-गिर्द एक कथा गढ़ी जाती है जो सिर्फ इसकी इस अवस्था को नकारने के लिए होती है--उसकी स्वतंत्राता या स्वायत्तता को स्पृहा से देखते हुए, अपने तंत्रा में उसे एक सीता जैसी स्त्री न होने के कारण उसे संदिग्ध बनाने की. 


कवि यहाँ ईमानदारी से बताता है कि आख़िर यह बदनाम औरतका कंस्ट्रक्शन होता कैसे है. यह बताते हुए यह जिज्ञासा हो सकती है--क्या वे एक ऐसी स्त्री या फिर इस जैसी स्त्रियों की वास्तविकता का ब्योरा दे रहे हैं या फिर अपने प्रतिसंसार में उनके लिए जगह बना रहे हैं? याकि वे इस बात से ही संतुष्ट हैं कि उन्होंने सत्य पहचानने की प्रविधि समझ ली है और दूसरों को भी इसे आजमाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. सत्य को समझने और कहने का संतोष इतना व्यापक और गहरा क्यों है? या फिर वह कोई मामूली काम करना चाह रहे हैं जो स्त्रीवादी चिंतकों ने अपने लिए बड़ा काम माना है--यह परिभाषित करना कि स्त्री क्या है, कौन है, उसको पितृसत्ता ने कितना बदरूप बनाया है. इस कविता में विष्णु खरे ने इतना तो कर ही दिया है कि मनुष्य की परिभाषा पुनः की जानी चाहिए जो अब कोई करना नहीं चाहता. 


उन्होंने दिखाया है कि स्त्री मनुष्य है और उसकी भी एक गरिमा होती है जिससे पुरुष डरता है. इस सत्य का अभिज्ञान स्त्री पर पुरुष के नियंत्राण को समाप्त कर सकता है और वह अपने ही अंतर्विरोध में फँसा नीचतम कार्य भी करता है--उसे बदनाम करता है. हर स्वतंत्रा स्त्री विश्रंखल ही होगी ऐसा मानना सहूलियत पैदा करता है. वह पूर्ण मनुष्य नहीं हो सकती, वह अपनी मनुष्यता में हर समय संदिग्ध ही रहेगी. पुरुष की इस मान्यता के पीछे के मनोविज्ञान को खूब समझती है विष्णु खरे की यह कविता. एक बदनाम स्त्री कौन है, और क्यों ऐसी है, विष्णु खरे कहते हैं,

‘‘कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में
वह कुँआरी ही रही आई है
या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था
और उसके कथित पति ने उसे
या उसने उसको कब क्यों और कहाँ छोड़ा
और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही
वह सही-सही उसका कौन है
यदि उसको संतान हुई तो उन्हें लेकर भी
स्थिति अनिश्चित बनी रहती है

हर शहर में एक बदनाम औरत होती है

अक्सर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है
उसका अपना निवास या फ़्लैट-जैसा कुछ रहता है
वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है...

बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है
या थी लेकिन अब भी कम वांछनीय नहीं है.’’

ऐसी औरत तो न पति पर न पिता पर न ही अपने बच्चों पर आश्रित होती है. वह अपने आप में ही एक मनुष्य होती है. अपने विवरण में शत-प्रतिशत एकुरेट होते हुए, विष्णु खरे अवश्य कहते हैं,

जबकि सच तो यह है
कि जो वह वाक़ई होती है उसके लिए 
सुंदर या ख़ूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं
आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या
सैक्सी वॉलप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण
उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं.... 

उसे देखकर एक साथ सम्मोहन और आतंक पैदा होते हैं.’’

अब ऐसी स्त्री का पितृसत्ता क्या करे, वह तो अपने इस होने में ही एक चुनौती है. इसे फिर से मनमुताबिक तो गढ़ना ही पड़ेगा--जो स्त्री हर सांचे से बाहर है, उसे पुनः परिभाषित करना ही होगा. इस स्त्री के यूँ होने से ही पितृसत्ता तो चूलें हिलने लगती हैं. कवि इसलिए बताता है आख़िर उसे कैसे गिराया जाता है; उसे कैसे मारा जाता है, कैसे कथाएँ, किवदंतियाँ गढ़ी जाती हैं, कैसे अपने तेज में वह सहनीय बनाई जाती है--कैसे उसको एक प्रेत, एक छाया में तब्दील किया जाता हैवह मनुष्य है इस तथ्य को मिटाया जाता है,

वह एक ऐसा वृतांत ऐसी किंवदंति होती है
जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संवर्द्धित करता चलता है
सब अधिकाधिक रूप से जानते हैं कि वह किस-किस से लगी थी
या किस किस को उसने फाँसा था
सबको पता रहता है कि इन दिनों कौन लोग उसे चला रहे हैं ..

कि देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं
उन उनकी उतरन और जूठन है वह.

शायद इस वज़ह से ही वह सबकी रुचि का विषय होती है. इस समाज की विकृति यूँ ऐसे कंस्ट्रक्शन से सामने आती है. झूठ से पैदा हुई ख़ला को भरने के लिए उसका ऐसा होना भी ज़रूरी है शायद,



‘‘यह निष्कर्ष अपरिहार्य है कि उसका वजूद और मौजूदगी 
किसी अजीब ख़ला को भरने लिए दुर्निवार है
जो औरतें बदनाम नहीं हैं उनका आकर्षण दुःस्वप्न 
और उनके उन मर्दों के सपनों का विकार है वह बदनाम औरत
जो अपनी पत्नियों को अपने साथ सोई देखकर 
उन्हें कोसते हैं और अपने को कोसते हैं
सोचते हैं यहाँ कभी वह औरत क्यों नहीं सो सकती थी.’’

ऐसी औरतें किसी की नहीं होतीं इसलिए उनके बारे में सोचने, बातें करने, उनकी कामना करने, फिर उन्हें घटिया बनाने का सामाजिक व्यापार चलता ही रहता है. ज़ाहिर है ऐसी औरतें समाज में बहुत ऊपर नहीं जा पातीं. इस बदनाम औरत की सत्यता को समझने का एक शोधात्मक रवैया अपनाता है कवि यहाँ जो उसे भीतर से द्रवित कर देता है. वह जानता है कि यह औरत कौन है--जबकि दूसरे जो इसे प्रेम करते हैं या नफ़रत, नहीं जानते. इस बदनाम की गयी औरत पर कोई वस्तुनिष्ठ शोध नहीं हुआ लेकिन यह कविता वहाँ तक जाती है जहाँ तक कविता ही जा सकती है--

अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा
कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुँच पातीं
निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी
न इन्हें ज्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा
वे मँझोले ड्राइंग रूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही
पहुँच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में
जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़मीन और मुहज्जब होती हैं

ऐसी किसी औरत से कभी किसी ने अंतरंग साक्षात्कार नहीं लिए हैं
न उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है
और स्वयं अपने बारे में उसने अब तक कुछ कहा नहीं है
उसे हँसते तो अक्सर सुना गया है
लेकिन रोते हुए कभी देखा नहीं गया.’’

कवि इस बदनाम स्त्री के भीतर के रुदन को सुन रहा है और इसी कारण उसे दूसरी बातों का भी पता चलता है--नये सत्य भी वह हासिल करता है. वह जान रहा है कि यह स्त्री भीतर से इस बदनामी से शक्तिहीन नहीं बनती बल्कि वह अपनी शक्ति को और ठीक से पहचानने लगती है. जितना उसका चेहरा बिगाड़ने की कोशिश की जाती है उतना ही उसका आत्म अध्वस्त रहता है.

यह तो हो नहीं सकता कि उस बदनाम औरत को
धीरे-धीरे अपनी शक्तियों का पता न चलता हो
और इसका कि लोग उससे कितने नफ़रत करते हैं
लेकिन कितनी शिद्दत से वे वह सब चाहते हैं
जो वह कथित रूप से कुछ ही को देती आई है
बदनाम औरत जानती होगी कि वह जहाँ जाती है
अपने आस-पास को अस्थायी ही सही लेकिन कितना बदल देती है.

अपनी कविता में विष्णु खरे शोध आगे बढ़ाते हैं और अब यह जानना चाहते हैं कि मर्द तो स्त्री का जो कुछ भी करते हैं, उसे जिस तरह खंडित करते हैं, परन्तु इस स्त्री का इसकी हमजात स्त्रियाँ क्या करती हैं. किस हद तक वे इस पितृसत्ता को पुरुषों के साथ मिलकर पुनःसृजित करती है. क्या स्त्रीवादी चिंतकों द्वारा किया गया अनुसंधान सही है कि ढेर सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता को को-प्रोड्यूसकरती है, या करने के लिए बाध्य होती हैं. वे मर्दों की गोद में बैठती-खेलती हैं, उन्हें दिल से लगाती हैं, उनके लिए बच्चे पैदा करती हैं, पालती हैं उन्हें पुंसक बनाए रखती हैंउनके साथ सबकुछ करती हैं जैसे वे चाहते हैं. एक छोटे-से विश्लेषण के बाद कवि अपने तथ्य पेश करता है,

जो औरतें बदनाम नहीं हैं
उनका अपनी इस बदनाम हमजात के बारे में क्या सोच है
इसका मर्दों को शायद ही कभी सही पता चले
क्योंकि औरतें मर्दों से अक्सर वही कहती हैं
जिसे वे आश्वस्त सुनना चाहते हैं
लेकिन ऐसा लगता है कि औरतें कभी किसी औरत से
उतनी नफ़रत नहीं करतीं जितनी मर्दों से कर सकती हैं
और बेशक़ उतनी नफ़रत तो वे वैसी बदनाम औरत से भी कर नहीं सकतीं
जितनी मर्द उससे या सामान्यतः औरतों से कर पाते हैं.

कविता अपने अनुसंधानपरक शोध में सफल होती है. उसने तमाम झूठ और षड्यंत्रा के कचरों के बीच से सत्य का रत्न खोज लिया है--स्त्रियाँ स्त्रियों से तो सहानुभूति रखती हैं परन्तु मर्द और औरत एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हैं इस व्यवस्था में. स्त्री अपने प्रेम को अपनी आत्मा की तहों में सुरक्षित रखती है और उस समय का इंतज़ार करती है जब उसे पुरुष नियंत्रित करने की दुष्चेष्टा से परे न हो जाएँगे और मनुष्य को मनुष्य समझने को बाध्य होंगे चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. वे एक दूसरे का उपयोग नहीं अपितु एक दूसरे से प्रेम करेंगे. एक दूसरे की आँखों में झाँकेंगे आत्मा तक पहुँचने के लिए. यथार्थ की ऐसी गहरी समझ तथ्यों के विश्लेषण से होती हुई, मनुष्यता के प्रति सहानुभूति तक पहुँचती है. विष्णु जी की कविताओं में प्रति संसार रचने का दुःस्साहस तभी तर्कसंगत भी जान पड़ता है स्त्रियाँ इस प्रतिसंसार में खुद में खुद हो सकेंगी. और लाईब्रेरी का मेटाफर ज्ञान में आने वाले बदलाव और दुबारा उसके शक्ति केंद्र रूप में स्थापित होने का भय और संशय दोनों ही विष्णु खरे को बेहाल किये हुए हैं. वैज्ञानिक सा दिखता कवि आख़िर अपने विवरणों के संसार में थोड़ा निरीह भी दिखने लगता है. सत्य आखिर किसी का नहीं.

अंत में उनके इग्ज़ामकविता के ज़रिये उनके और उनकी कविता की पद्धति जो आपस में एक होते रहते हैं, यही कह सकती हूँ कि उन्होंने प्रश्न पत्रा के पाँच उत्तरों को लिखते हुए यह समझ लिया था कि धीरे-धीरे जैसे-जैसे विधाधीर एक से पाँचवें प्रश्न तक पहुँचता है दिये जा रहे उत्तर कमज़ोर होते जाते हैं. सत्य बहुत बड़ा है, उसकी ढेरों लीलाएँ और छवियाँ हैं लेकिन जिसने मनुष्य की मनुष्यता को समझने का कार्य भार संभाला हो, वह अंत तक तो सत्य में ही लिथड़ा रहेगा और सत्य ही बोलेगा. यह एक मार्मिक कविता है—

‘‘उत्तर पुस्तिका जब भर चुकी होती है
और तुम सप्लीमेंट्री में
बचे हुए सवाल का जवाब लिख रहे होते हो
तब जाकर तुम्हें अपनी लिखावट ही नहीं
अपना जवाब और उसे देने का तरीक़ा भी
कुछ कम संकोचजनक लगने लगते हैं
और तुम आख़िरकार स्वीकारते हो उस वक़्त
कि मेन कॉपी के भरे हुए सोलह पन्नों में
कितना कुछ अगर पूरा ग़लत नहीं तो थोड़ा ग़ैरज़रूरी तो है ही.’’



(छह)
विष्णु खरे जिस तरह अपने विवरणों में इस संसार को पाते हैं उतना ही इसे रचते भी हैं. एक दुनिया जो अपूर्ण थी कई बार कविता में पूरी होती है, जब वह अपने कई-कई संसार होने की संभावना से सिक्त हो जाती है. विवरण से कविता और संसार दोनों होते हैं, बनते हैं और बिगड़ते हैं. यह तो नश्वर विष्णु खरे ही कह सकते थे

‘‘घड़ी देखते हो अंतिम कुछ मिनट बचे हैं
जबकि आख़िरी सवाल का जवाब ही अभी पूरा नहीं हुआ है
जिसे जल्दी ख़त्म करो
तो पिछलों को रिवाइज़ करने का कुछ वक्त मिल जाएगा.’’

यही वक्त उनको नहीं मिला. अपनी पकी उम्र में भी असमय ही गये विष्णु जी लेकिन प्रतिसंसार की एक फोटो कॉपी पीछे छोड़ गये हैं. इसके सहारे कविता की नई लाईब्रेरी बनाई जा सकेगी जिसमें करोड़ों पांडुलिपियाँ सुरक्षित होंगी जैसे मनुष्य और उसकी मनुष्यता की असंख्य आकृतियाँ या अनकृतियाँ. यहाँ अंबर्टो एको एवं मीशेल फूको सरीखे बैठकर दोबारा सोच सकते हैं, या फिर रिवाईज़ कर सकते हैं फूकोज़ पेण्डुलमतथा आर्कियोलोजी ऑफ नालेजको. आर्डर ऑफ थींग्सपर नये ढंग से सोच सकते हैं. और वे हत्यारे प्रीस्ट पकड़े जा सकेंगे जिन्होंने ज्ञान की नयी मीमांसा वाली पुस्तिकाओं के पन्नों को ज़हर में डुबो दिया था जिससे कितने ही जिज्ञासु प्रशिक्षु मौत के आगोश में चले गये जो उन्हें पढ़ना चाहते थे, खुद को और संसार को बदलने के लिए जो उद्धृत थे. सभ्यता की लाईब्रेरी को इस बार इस तरह से बदलने की कोशिश की जाएगी कि उससे सिर्फ़ कम्प्यूटर की आवाज़ें नहीं हों. थोड़ी चहल-पहल होगी, वाद-विवाद होने की आवाज़ें होंगी तथा यहाँ कोई तानाशाह लाइब्रेरियन आकर लोगों को चुप नहीं कराएगा. विष्णु खरे की कविता पत्नियाँया फिर बदनाम औरतेंमें नयी पंक्तियाँ जोड़ी जाएँगी जिससे सत्य अपने विवरणों में और दीप्त हो उठेगा. ऐसी दुनिया में पितृसत्ता की संप्रभुता फिर किस काम की रह जाएगी! इसे तो जाना ही है, यह जाएगी ही.

विष्णु खरे की ये कविताएँ अपने अकारथ हो जाने के संशयों के बावजूद पुराने संसार को निरस्त करती हुई उस पर नये की छाया गिराती हैं. यह आश्वस्ति भर नहीं, आस्वाद के नये इलाकों में प्रवेश करने जैसा है जहाँ नये मकान बनते दिखते हों.

विष्णु खरे हमारे दौर के सबसे ज्यादा मेहनतकश कवियों में से हैं. वे अपनी कविताओं पर जितनी मेहनत करते हैं और महीनों-महीनों तथा कभी-कभी तो सालों तक जिस तरह उन्हें सेतेरहते हैं....और फिर अचानक उन्हें पूरी शक्ति के साथ फूटने देते हैं, उसकी मिसाल आसानी से नहीं मिल सकती. मेरा ख्याल है, इस संबंध में मुक्तिबोध ही एक कवि हैं जिनसे उनकी तुलना हो सकती है. गुंग महलऔर चौथे भाई के बारे मेंजैसी उनकी कविताएँ तो कई-कई सालों की लगातार प्रतीक्षा के बाद लिखी गईं. हालाँकि उनके भीतर अवचेतन में ये लगातार सक्रिय रहीं और अपने बाहर आने का रास्ता तलाशतीं रहीं.
(प्रकाश मनु, एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे, पुस्तक से)
उद्भावना के विष्णु खरे अंक में भी प्रकाशित

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सविता सिंह स्त्रीवादी विचारक और हिंदी की समकालीन महत्कवपूर्वण कवयित्री हैं.

savita.singh6@gmail.com 

मुक्तिबोध की कहानियाँ : सूरज पालीवाल

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रायपुर में पिछले दस वर्षो से अनवरत मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानके अंतर्गत इस वर्ष ११ सितम्बर को व्याख्याता थे वरिष्ठ आलोचक सूरज पालीवाल, और विषय था– ‘दीमक के व्यापारियों के विरुद्ध प्रति-संसार रचती मुक्तिबोध की कहानियाँ’. 
  


मुक्तिबोध की कहानियों पर सूरज पालीवाल के इस विचारोत्तेजक व्याख्यान को यहाँ अविकल प्रस्तुत किया जा रहा है.  




दीमक के व्यापारियों के विरुद्ध प्रति-संसार रचती मुक्तिबोध की कहानियाँ
सूरज पालीवाल

मंगलाचार : शालिनी मोहन की कविताएँ

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सादगी   

सादगी को 
जब छुओगे तुम
तुम्हारे हाथ आएँगे ढ़ेर सारे रंग
सब अलग-अलग

टेढ़ी-मेढ़ी, टूटी-फूटी रेखाएँ
उभर करस्पष्ट दिखने लगेंगी

किसी एक दिन
जब तुम्हारा दिमाग़ बिल्कुल ऊब चुका होगा
सोचने, पहचानने और समझने की अधिकता से
सादगी, तुम्हारे पीछे खड़ी होगी
नंगे पैर.




तुम जरूर रोना   


जब पहाड़ जैसा दुख 
कलेजे पर आ बैठता है
अंधकार धूप सोख-सोख
दुख को हरा रखता है

पहाड़ जैसे दुख को कलेजे पर उठाये
तुम रोना, जरूर रोना
वैसे ही रोना 
जिस तरह भी तुम चाहो, तुम्हें अच्छा लगे
छाती पीट-पीट, दहाड़-दहाड़ 
सबके सामने, अकेले में छुप-छुप
हाथ-पैर पटक-पटक, देह को छोड़
तुम रोना, जरुर रोना

दुख को व्यक्त करने की 
उतनी ही आजादी है
जितनी की खुशी को
इसलिए अपने कठोर दुख, असह्य पीड़ा को
एक छोर से दूसरी छोर तक नाप
तुम रोना, संतुष्टि भर रोना
और जब रोते-रोते तुम्हारी आँखें सूनी हो जाये
सारे खारे पानी को
उलीचना अपने कलेजे पर 
कि गीला रह सके कलेजा
और दुख बना रहे हरा
तुम रोना, जरूर रोना

किसी भी दिन जब टाँगना 
अपना कलेजा खूँटी पर
अपनी सूनी आँखों से
कहना सावन भादो को
कि जब आये 
दे जाये तुम्हारी आँखों में
एक बूँद पानी
तुम रोना, जरूर रोना




 
सड़कें

सड़कें कितनी लावारिस होती हैं
बिल्कुल आवारा सी दिखती हैं

बिछी रहती हैं, पसरी रहती हैं, चलती रहती हैं
कभी सीधी, कभी टेढ़ी-मेढ़ी तो कभी टूटी-फूटी
कहीं जाकर घूम जाती हैं, कहीं-कहीं पर 
जाकर तो बिल्कुल ख़त्म हो जाती हैं
चौराहे पर आपस में मिल जाती हैं सड़कें


कौन होता है इन सड़कों का
कोई भी तो नहीं होता है 
कोई होता है क्या
रोज़ाना कुचली जाती हैं पैरों और गाड़ियों से 
देखती हैं कितने जुलूस, भीड़, आतंक
सहती हैं खून-खराबा और कर्फ्यू
खाँसती हैं धुएँ में और खाँसते-खाँसते 
सड़कें बूढी हो जाती हैं, तपती हैं तेज़ धूप में
बारिश कर देती है पूरी तरह तरबतर
ठिठुरती हैं ठंड में और गुम हो जाती हैं कोहरे में


सुबह से शाम, शाम से रात और फिर रात से सुबह
सड़कें होती हैं, अकेली, चुपचाप, ख़ामोश
सच तो यह है कि
यही सड़कें कितने ही बेघर लोगों का घर बन जाती हैं
सड़कें कभी सुस्ताती नहीं
भीड़ में और भीड़ के बाद भी रहती हैं ये सड़कें.





               
आलाप 

छोड़ देती हूँ अपने शब्दों को
रुप-प्रतिरूप से परे
बहुत ऊँघने के लिए
काग़ज़ के कोर पर, ऊँघते रहें
परागकण के इर्द-गिर्द घूमना
शब्दों को अच्छा लगने लगा है


धरती देती है स्वतंत्रता हरी घास को कि
वह अपनी नमी और भी गीली कर ले
ओस को निचोड़, चटक कर ले
अपने रंग को और भी गाढ़ा, इतना गाढ़ा कि
मिट्टी की गंध में उसकी ख़ुशबू श्रेष्ठ हो


पक्षी का विचरण तय करे आकाश की सीमा
लौट आये पक्षी क्षितिज के पास से
अपनी चोंच में धर एक टूकड़ा बादल
जिसमें इन्द्रधनुष के केवल छह रंग हों


नदी बहे अपने गीले किनारे छोड़
अपने आख़िरी सफ़र में तोड़ दे बाध्यता
सागर में विलीन होने को
कोयल की मीठी बोली में पके नीम के कड़वे फल
युद्ध में हारकर लौटें घोड़ों के पदचाप 
संधि कर लें भूमि की सतही ध्वनि से


किसी भी साम्राज्य का पूर्ण हस्ताक्षर 
जब हस्तान्तरित हो पत्थर की देह पर
शंख की ध्वनि का हस्तक्षेप
फिसल जाये पत्थर की काया से


एक कवि जब आत्महत्या करे किसी ऊँची पहाड़ी से
उसकी पीठ पर हो सिर्फ़ हरी घास का लेप.




मौन   

मौन 
सघन वन में
अनाम वनस्पति होता है

शब्द
न ओस बनते हैं
न फूल.

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