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संगीता गुप्ता : शब्द और चित्र

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संगीता गुप्ता की कविताएँ                                       




1)
हरसिंगार इस उम्मीद में
रात भर झरता है कि
किसी सुबह जब तुम आओ तो
तुम्हारी राहें महकती रहें
बेमौसम भी बादल बरसते हैं कि
कभी तो तुम्हें भिगा सकें
सूरज उगता-डूबता है कि
आते-जाते तुम्हें देख लेगा
रात तुम्हारे साथ सोने को
बहुत तरसती है
चांद कब से लोरियो का खज़ाना
समेटे बैठा है कि
तुम आओ तो तुम्हें थपक दे
मेरे साथ पूरी कायनात को
तुम्हारा इंतजार रहता है.







2)
ज़मीन की तरह मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ
ख्वाहिश है
रोशनी की रफ्तार से चलूं
और वक्त थम जाये
ठहर जाए
जिस्म से परे
रूह निकल जाये
मुसलसल
जमीन की तरह
मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ. 





 3)

 कल उम्मीदें  बोईं  हैं
 गमलों में
 देखें कब
 खिलती  हैं. 





4)
 मत दो वैभव
 मत दो सफलता
 मत दो यश
 बस मेरे प्रभु
 रहने दो मेरे साथ
 मेरे प्रेम की
 सामर्थ





5)

तूफान अक्सर
बिन बताये ही आते हैं
उथल-पुथल मचा कर
लौट जाते हैं
ज़िंदगी ब-दस्तूर चलती है
फ़क़त आप-आप नहीं रहते
वक़्त बदला जाता है
कई दर्द कई जख़्म
साथ हो लेते हैं



6)

फिर सावन आया 
नीम, जामुन और नन्हे पौधे 
सब भीग रहे 
सावन सबके लिए आया 
मीठी फुहारें सबको महका रहीं 
तुम भी कहीं भीग रहे होगे 
कुछ सावन में 
कुछ यादों में 
कुछ मेरे करीब होने के एहसास में 
इन सब को भीगते देखना 
अच्छा-सा  लगता 
मैं भी अरसे बाद 
मुस्करा पड़ी हूं 
देखो न
फिर सावन आया . 
__________________________________

सांड की आँख : संदीप नाईक

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तुषार हीरानंदानी के निर्देशन में बनी फिल्म 'सांड की आँख'की इधर चर्चा है. इस फिल्म पर संदीप नाईक का यह आकलन आपके लिए.


सांड की आँख
उजली सुबह तेरे ख़ातिर आएगी                           
संदीप नाईक 





भारतीय फिल्म उद्योग में शायद ही किसी दौर में इतनी विलक्षण फिल्में बनी होंगी जो भीड़ में अपना ध्यान इसलिये खिंचती है कि उनका फोकस खेल और सिर्फ खेल है. विज्ञापनों की भीड़ में भी एक विज्ञापन एक ताकत देने वाले प्रोडक्ट का आता है जिसमे एक वृद्ध महिला अपनी पोती को खेल के मैदान में अभ्यास करवा रही है और कहती है- 

"तुम्हारी मां नहीं है तो क्या हुआ मैं तो हूं

साथ ही वह यह भी कहती है कि हमारे बचपन में इतनी प्रतियोगिता नहीं थी, परंतु आज जीवन के हर दिन प्रतियोगिता ही प्रतियोगिता है. लगभग डेढ़ मिनट के विज्ञापन में वह बुजुर्ग महिला उस छोटी बच्ची को समुद्र के तट से लेकर रस्सी कूदने तक के कई कठिन अभ्यास करवाती हैं और अंत में वह बच्ची  भी मेडल लेकर आती है- यह विज्ञापन सिर्फ हमें भावनात्मक रूप से नहीं जोड़ता बल्कि हमें यह भी दिखाता है कि कैसे एक महिला दूसरी महिला को याने आने वाली पीढ़ी को कठिन अभ्यास से इस मुश्किल दौर के लिए तैयार कर रही है, बहाना भले ही खेल का हो परंतु महिला महिला को जिस तरह से सशक्त कर रही है वह अनूठा है.


खेल को लेकर बनी फिल्म दंगल भी महिला और लड़कियों के पारंगत होने की कहानी है जिसमें बहुत साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से लड़कियां कुश्ती जैसा खेल खेलने आती हैं, किस तरह से समाज में अपमानित होती हैं और फिर बाद में जीत का जो सिलसिला चालू होता है वह उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल्स की दौड़ पर जाकर खत्म करता है.


खेल को लेकर एक और फिल्म बनी है जिसमें मिल्खा सिंह के जीवन वृत्त के बारे में बहुत विस्तार से कहानी बताई गई है कि कैसे एक किशोर जीवन को जीतने के लिए दौड़ना शुरू करता है और बाद में दुनिया के तमाम देशों को हराते हुए वह ना सिर्फ जीवन की दौड़ जीतता है- बल्कि देश का नाम भी वह अंतरराष्ट्रीय फलक पर ऊंचा करता है. 


लड़कियों को लेकर एक फिल्म शाहरुख खान ने बनाई थी चक दे इंडिया- जिसमें लड़कियां किस तरह से हॉकी जैसा खेल खेलती है और समाज उन्हें किस तरह से देखता है परंतु सारी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए लड़कियां सफ़ल ही नही होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मैदान पर जाकर अपने घर - परिवार और भावनात्मक चिंताओं को छोड़कर देश के लिए मेडल लेकर आती है. मेरीकॉम भी ऐसी ही एक उत्कृष्ट फ़िल्म थी.  


शायद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन फिल्मों की वजह से समाज में आज लड़कियों की स्थिति थोड़ी मजबूत हुई है , लड़कियां सुबह जो झुंड में हंसते हुए स्कूल जाते हुए दिखती है- इसी का परिणाम है और खेल के मैदानों में दौड़, खो-खो , बास्केटबॉल , वॉलीबॉल , कबड्डी, शतरंजफुटबॉल, कुश्ती, निशानेबाजी से लेकर हॉकी, क्रिकेट और रग्बी जैसे खेलों में भी महिलाएं अब मैदान में अपना हुनर दिखा रही हैं. इन फिल्मों ने निश्चित ही खेलों के प्रति भी एक माहौल बनाया है और महिलाओं की खेलों में भागीदारी क्या और कैसे हो इस बारे में भी एक खांका बनाया है - जिससे प्रभावित होकर ना मात्र बड़े शहरों की लड़कियां, बल्कि छोटे कस्बों और गांव की लड़कियां भी अब खेलों की ओर उन्मुख हुई हैं और यह एक बड़ी सकारात्मक बात है.


पिछले दशक की फिल्में निश्चित ही भारतीय फिल्म इतिहास की अनमोल धरोहर है और एक बहुत बड़े बदलाव की सूचक भी जिसका हमें स्वागत करना चाहिए और देखना चाहिए. इसी क्रम में तुषार हीरानंदानीके निर्देशन में आई फिल्म  "सांड  की आँख"एक बहुमुखी फिल्म है- जिसमें भूमिका पेडणेकर और तापसी पन्नू ने कमाल का अभिनय किया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में जिस तरह के गांव हैं, वहां की संस्कृति है और दमन के किस्से हैं- उस सबके बीच एक स्त्री की अपनी भूमिका है. यहाँ  स्त्रियां सिर्फ खेतों में काम करती है, घर में खाना बनाती हैं, बच्चे जनति हैं और घर और गांव की चौहद्दी में रहकर अपनी जिंदगी खपा देती हैं, परंतु प्रकाशवती और उसकी जेठानी इन सब दायरों को तोड़ कर के बाहर निकलना चाहती हैं. ये सिर्फ गांव की सीमाएं नहीं तोड़ती, बल्कि मर्यादा में रहकर यानी पुरुष प्रधान समाज की मर्यादा में रहकर अपने पतियों और जेठ को किस तरह से घुमाकर दुनिया घूम आती है- मालूम नहीं पड़ता. 


उनका संघर्ष सिर्फ अपने लिए नहीं, अपनी अस्मिता स्थापित करने के लिए नहीं बल्कि घर में जो बेटियां हैं उन्हें बड़ा करने उनके सामने नए प्रकार के कैरियर रखने और नौकरी के लिए जीत और प्रयास करने के भी हथकंडे हैं.  बिहार , उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में महिलाओं की स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में कितनी दुखद है- यह बताने की आवश्यकता नहीं है. जातिवाद , सामंतवाद और घर परिवार में परंपराओं के नाम पर किस तरह से महिलाओं को दबाया और सताया जाता है- यह समझने के लिए आप किसी भी समुदाय की महिला से बात कर लेसमझ ले तो आपको स्थिति स्पष्ट हो जाएगी.


उत्तर प्रदेश , हरियाणा और राजस्थान की सीमा से सटे गांवों में जाट, गुर्जर, बिश्नोईयों के बीच में जो ताऊ और ताई का कल्चर है- उसमें महिलाओं की दृष्टि, अक्ल और सामर्थ्य पर ना मात्र सवाल किए जाते हैं , बल्कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ मजदूर या जानवर के रूप में समझा जाता था.  फिल्म की शुरुआत आपातकाल के समय से होती है जो नसबंदी करने के लिए जाना  गया था-  किस तरह से गांव का एक लड़का डॉक्टरी पढ़ने दिल्ली जाता है, परंतु वह पढ़ाई पूरी ना करते हुए गांव मेंवापस लौट कर आता है और गांव के किशोरों और युवाओं के लिए शूटिंग अर्थात निशानेबाजी सीखाने का एक अड्डा बनाता है- जहां पर वह सीमित साधनों में इन किशोरों और युवाओं को शूटिंग करना सिखाएगा. यह संकल्प लेकर केंद्र शुरू करता है परंतु बच्चों की और युवाओं की रुचि नहीं होती. उन्हें लगता है कि यह गत्ते पर निशाने लगाना महाबोरिंग काम है और वे उसका मजाक उड़ाते हुए उस केंद्र से दूर चले जाते हैं. बागपत जैसे जिले के गांव में शूट की गई यह फ़िल्म उप्र राज्य की गरीबी और हालात का भी जिक्र करती है. 

प्रदीप डॉक्टर अपनी हिम्मत नहीं हारता, वह गांव में लगातार पैरवी करता रहता है कि यदि बच्चे शूटिंग सीख गए तो उन्हें स्पोर्ट्स कोटे से सरकारी नौकरी मिल जाएगी- परंतु कोई उसकी बात समझने को तैयार नहीं होता. गांव का सरपंच विशुद्ध जड़ बुद्धि का है और उसकी निगाह में स्त्रियों की औकात सिर्फ घर, खेत, पति को खुश करना और बच्चे जनने तक ही हैं. उसके अपने संयुक्त परिवार में ढेरों लड़कियां हैं परंतु वह लड़कियों को यह सब सीखने की इजाजत नहीं देता उसका स्पष्ट मानना है कि बाहर जाने से और नौकरी करने से समाज में परिवार की इज्जत खत्म हो जाती है. पुराने मूल्यों और परंपरा की दुहाई देते हुए फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जहां महिलाओं को उनकी बातचीत को, उनकी आवाज को, उनकी जायज मांगों को भी दबाया जाता है- परंतु अपने छोटे भाई की पत्नियां यह जोखिम उठाकर उस डॉक्टर के शूटिंग सिखाने वाले केंद्र पर जाती हैं और अपनी बच्चियों  को सीखने के लिए प्रेरित करती हैं परंतु बच्चियां सीखने से मना कर देती हैं.  वे बड़े भावुक होकर अपने बच्चों से कहती हैं कि तुमने मुझसे कपड़े धोना सीखा, खाना बनाना सीखा, बर्तन माँजना सीखा- सारे काम सीखे तो यदि हम यह सीखेंगे- तुम भी शूटिंग करना या निशानेबाजी लगाना सीख जाओगी, पहली ही बार में वह परफेक्ट निशान लगाती हैं जिसे देखकर डॉक्टर अचंभित हो जाता है और लड़कियों को भी प्रोत्साहन मिलता है.  ग्रामीण परिवेश में डॉक्टर लड़कियों को एक एक पका हुआ आम देता है जो उनका पुरस्कार है. धीरे धीरे किस तरह से दोनों महिलाएं अपने परिवार को अलग-अलग ट्रिक का इस्तेमाल करते हुए बेटियों के साथ देश के विभिन्न भागों में जाती हैं और पुरस्कार जीतकर लाती हैं- यह देखना रोचक और शैक्षिक है और ये पुरस्कार बहुत गुप्त रखे जाते हैं. बहुत पुरानी एक संदूक में मेडल इकट्ठे किए जाते हैं और धीरे-धीरे वह संदूक मेडल से भर जाता है. 


दोनों महिलाओं की दिनचर्या और वेशभूषा तो ठेठ ग्रामीण है परंतु उनकी सोच हजार वर्ष आगे की है जहां वे अपनी बेटियों के लिए अच्छा भविष्य बुनने की तैयारी करती हैं और इसके लिए खुद जोखिम उठाकर परिवार के पुरुषों को उल्लू बनाकर देशभर में घूमती हैं. धीरे-धीरे वे इतनी प्रसिद्ध हो जाती हैं कि निशानेबाजी और इन दोनों का नाम सम्पूरक जाता है. इसी बीच में अपनी लड़कियों को भी अलग-अलग प्रतियोगिताओं में ले जाती हैं और बच्चियां भी दोनों पुरस्कार जीतना शुरू करती हैं. 


तुषार ने एक ओर जहां ठेठ ग्रामीण परिवेश दिखाया है जिसमें खेती है, घर परिवार है, जानवर है, गांव हैं- वहीं दूसरी ओर बड़े शहरों के स्टेशन हैं, शूटिंग के बड़े हॉल हैं, उच्च समाज है, पढ़े-लिखे युवा हैं- जो ग्रामीणों का या ग्रामीण महिलाओं की वेशभूषा देखकर हंसी उड़ाते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं और उनकी योग्यता पर शक शुबहा करते हैं- बावजूद इस सबके दोनों वृद्ध महिलाएं पुरस्कारों की एक श्रृंखला जीतना शुरू करती हैं और धीरे-धीरे उन सभी स्थापित लोगों को पछाड़ती भी चलती हैं जो अभी तक इस प्रतियोगिता के शूरवीर माने जाते थे.  इसमें एक डीआईजी है, एक अलवर की महारानी है और बाकी भी कई कलाकार हैं. 


इस दौरान इन दोनों महिलाओं को बहुत सारे फर्क अपने जीवन और इन लोगों के जीवन के समझ में आते हैं, जेंडर की बहस के साथ तुषार एक परिप्रेक्ष्य भी देते है, वे उकसाते है कि क्या पति पत्नी के रिश्ते को पुनः परिभाषित नही किया जाना चाहिए. दोनो महिलाओं का यह विश्वास दृढ़ होते जाता है कि लड़कियों को पढ़ना आवश्यक है, हुनर सीखना आवश्यक है, खेलना आवश्यक है और पुरस्कार प्राप्त करना  आवश्यक है- ताकि वे अच्छी सरकारी नौकरी पा सकें. पूरी फिल्म सरकारी नौकरी के इर्द-गिर्द घूमकर सारा संघर्ष कहती है.  सरकारी नौकरी के साथ ही साथ खत्म होती है, वे कहती हैं कि हवाई जहाज, समुद्र, रेल और दुनिया यदि नहीं देखी तो जीवन में कुछ नहीं देखा और इसे देखने के लिए जरूरी है कि गांव की सीमा छोड़कर लड़कियां बाहर जाएं, नित नया सीखे और ढेर सारे इनाम जीते. 


अंत में थोड़ा सा फिल्मी ड्रामा है जब लड़कियों को 45 दिन के प्रशिक्षण कैंप के लिए दिल्ली से बुलावा आता है और ये महिलाएं एक तरह का कन्फेशन करते हुए अपने घर के पतियों और सरपंच के आगे घुटने टेक देती हैं और कह देती है कि यह सारे मेडल, इनाम उन्होंने जीते हैं और यह भी बताती हैं कि किस तरह से प्रवचन और मंदिर दर्शन के नाम पर वे घर से लगातार बाहर रही बरसो बरसो और अब बारी है- इन लड़कियों को प्रशिक्षण कैंप में भेजने की. घर के पुरुष तैयार नहीं होते तो गांव में एक पंचायत बुलाई जाती है जहां पर वे अपने वाक चातुर्य और रणनीति से लड़कियों को कैंप में भेजने के लिए सफल होती हैं. बाद में घटना क्रम में कई सारी चीजें होती है और उनमें से एक बेटी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिल्वर मेडल लेकर आती है. 

फिल्म में  मसाला के लिए आगजनी , गुस्सा, बदला आदि ऐसे नुस्खे भी हैं जो ग्रामीण परिवेश में बहुत सहेज तरीके से देखने को मिल सकते हैं - वह चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार या केरल. फिल्म बहुत ही उम्दा और जरूरी हस्तक्षेप है इस मायने में कि किस तरह से दो बुजुर्ग महिलाएं अपने परिवार की लड़कियों को आगे लाने के लिए कड़ा संघर्ष करती हैं और परंपरागत पुरुष प्रधान समाज में लड़ाई करके लड़कियों को ऊंचे मकाम हसिल करवाती हैं और खुद भी ऊँचे स्थान पर पहुंचती है. 


यह फिल्म अनिवार्य रूप से किशोर लड़कियों और युवा लड़कियों को दिखाई जानी चाहिए, साथ ही उन सभी पुरुषों को भी देखना चाहिए जो मर्द होने की ठसक में महिलाओं के अधिकार, उनके बोलने की शक्ति और उनकी ताकत में विश्वास में रखकर उन्हें महज जानवर समझ कर या बच्चे जनने की मशीन समझकर घर की चारदीवारी में बंद रखते हैं. यह एक बेहतरीन फिल्म है जो ऊपर वर्णित चार फिल्मों के आगे जाती हैं- सबसे अच्छी बात यह है कि इस पूरी फिल्म में शिक्षा का अर्थ व्यवहारिक जीवन और परिवेश से सीख कर आगे बढ़ने को लेकर दिया गया है, ना कि किताबों और परंपरागत पाठ्यक्रम में ठीक कर कुछ अधिकारी टाइप बनने की बात हो.  


जरूरी यह है कि ऐसी फिल्मों का प्रचार प्रसार ज्यादा होना चाहिए ताकि समाज में चेतना के स्तर पर बहुत ज्यादा काम हो और जो असली लड़कियां हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में दूर-दूर तक कष्टों के साथ अपनी जिंदगी बिता रही है, उन तक यह बात और यह फिल्म में पहुंचे- चाहे वह दंगल की बात हो मिल्खा सिंह की बात हो सांड की आंख की बात हो आने वाली या हॉकी खेलने वाली लड़कियों की बात हो चक दे इंडिया के बहाने. 

(तुषार हीरानंदानी )

फिल्म में दृश्यांकन, फोटोग्राफी और प्रकाश संयोजन बहुत ही अच्छा है, निर्देशन कसा हुआ है और फिल्म के गीत संगीत बरबस आपको ले जाते हैं एक वास्तविक लोक में, लोक भाषा में रचे लोकगीत बहुत ही मीठे हैं और बहुत खूबसूरती के साथ इन्हें फिल्माया गया है, राजशेखर ने जो गीत लिखें है वे अदभुत है और उनमें समय के साथ मिट्टी की भी सौंधी खुशबू है. राजशेखर पहले भी तनु वेड्स मनु के गीत लिखकर ख्याति पा चुके है. पूरी फिल्म कम बजट की जरूर है- परंतु लगता नहीं कि उस में कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई कमी है.  भूमिका और तापसी ने जो काम किया है वह उनकी अदाकारी का अप्रतिम उदाहरण है और उम्मीद की जाना चाहिए कि ये दोनों अभिनेत्रियां आने वाले समय में भारतीय फिल्म जगत की श्रेष्ठ अभिनेत्रियों के रूप में उभर कर सामने आएंगी.  

अनुराग कश्यप और निधि परमार के प्रोडक्शन में बनी यह फिल्म तुषार हीरानंदानी ने बहुत अच्छे से निर्देशित की है और यह भी दिखाता है कि तुषार को ग्रामीण क्षेत्र की, सामंतवाद की , ग्रामीण राजनीति की काफी अच्छी समझ है और वे खेलों के प्रशिक्षण से भी बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं. बहुत कसे हुए निर्देशन के साथ प्रकाश व्यवस्था और किरदारों के साथ वे हर जगह न्याय करते नजर आते हैं. 

यह फिल्म जरूर देखी हो जानी चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ फिल्म नहीं- यह एक इस समय का बड़ा दस्तावेज भी है जो आधी आबादी कोउसके संघर्ष को, उनकी चुनौतियों को दर्शा रहा है- बल्कि उन्हें नई राह दिखा कर प्रोत्साहित भी कर रहा है और इसी में से कुछ लड़कियां नहीं- बल्कि बहुत सारी लड़कियां निकलेंगी- जो भारत का नाम समूचे विश्व में ऊंचा करेंगी और स्त्री होने के मायने भी संसार को दिखाएंगी. 
_____________________

संदीप नाईक
देवासमप्र

naiksandi@gmail.com 

संगीता गुप्ता : शब्द और चित्र

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संगीता गुप्ता चित्रकार और कवयित्री हैं. उनके चित्रों की देश-विदेश में ३० एकल और २०० से अधिक सामूहिक प्रदर्शनियाँ आयोजित हुईं हैं. कई कविता संग्रह और हिंदी-अंग्रेजी में कुछ किताबें प्रकाशित हैं.

संगीता गुप्ता की इधर की कविताओं में प्रेम का रंग और चढ़ा है और वह चटख, धूसर, मटमैला, और फीके रंगों में तरह-तरह से सामने आता है. उनकी संवेदना कभी चित्र का रूप लेती है और कभी शब्दों में ढल जाती है. चित्रों के साथ शब्दों का प्रयोग करने वाली वे विरल चित्रकार हैं. कविता और पेंटिग का साहचर्य उनकी ‘मुसव्विर का ख्याल’ पुस्तक में बखूबी देखा जा सकता है.  

कुछ पेंटिग और कविताएँ आपके लिये.    




संगीता गुप्ता की कविताएँ                                       




1)
हरसिंगार इस उम्मीद में
रात भर झरता है कि
किसी सुबह जब तुम आओ तो
तुम्हारी राहें महकती रहें
बेमौसम भी बादल बरसते हैं कि
कभी तो तुम्हें भिगा सकें
सूरज उगता-डूबता है कि
आते-जाते तुम्हें देख लेगा
रात तुम्हारे साथ सोने को
बहुत तरसती है
चांद कब से लोरियो का खज़ाना
समेटे बैठा है कि
तुम आओ तो तुम्हें थपक दे
मेरे साथ पूरी कायनात को
तुम्हारा इंतजार रहता है.







2)
ज़मीन की तरह मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ
ख्वाहिश है
रोशनी की रफ्तार से चलूं
और वक्त थम जाये
ठहर जाए
जिस्म से परे
रूह निकल जाये
मुसलसल
जमीन की तरह
मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ. 






 3)

 कल उम्मीदें  बोईं  हैं
 गमलों में
 देखें कब
 खिलती  हैं. 





4)
 मत दो वैभव
 मत दो सफलता
 मत दो यश
 बस मेरे प्रभु
 रहने दो मेरे साथ
 मेरे प्रेम की
 सामर्थ. 





5)

तूफान अक्सर
बिन बताये ही आते हैं
उथल-पुथल मचा कर
लौट जाते हैं
ज़िंदगी ब-दस्तूर चलती है
फ़क़त आप-आप नहीं रहते
वक़्त बदला जाता है
कई दर्द कई जख़्म
साथ हो लेते हैं. 




6)

फिर सावन आया 
नीम, जामुन और नन्हे पौधे 
सब भीग रहे 
सावन सबके लिए आया 
मीठी फुहारें सबको महका रहीं 
तुम भी कहीं भीग रहे होगे 
कुछ सावन में 
कुछ यादों में 
कुछ मेरे करीब होने के एहसास में 
इन सब को भीगते देखना 
अच्छा-सा  लगता 
मैं भी अरसे बाद 
मुस्करा पड़ी हूं 
देखो न
फिर सावन आया . 
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संगीता गुप्ता
25 मई, 1958
कवयित्री, चित्रकार एवं फिल्म निर्माता.

प्रकाशित कृतियाँ : वीव्ज़ ऑफ टाइम (2013), विज़न एंड इल्यूमिनेशन (2009), लेखक का समय (2006), प्रतिनाद (2005), समुद्र से लौटती नदी (1999), इस पार उस पार (1996), नागफनी के जंगल (1991), अन्तस् से (1988). बेपरवाह रूह (2017), मुसव्विर का खयाल (2018 ) रोशनी का सफ़र (2019) आदि
30  एकल एवं 200 से अधिक सामूहिक चित्रकला प्रदर्शनियाँ आयोजित.
अनुवाद : 'इस पार उस पार’ बंगला में एवं 'प्रतिनाद’ अंग्रेजी, जर्मन और बंगला में अनूदित.  
  

मुख्य आयकर आयुक्त पद से सेवानिवृत्त 
sangeetaguptaart@gmail.com

विजयदेव नारायण साही का कवि : गोपेश्वर सिंह

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विजयदेव नारायण साही का कवि                   
गोपेश्वर सिंह 


विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) ने अपने समकालीनों की तुलना में कम कविताएँ लिखीं, लेकिन अपनी गुणवत्ता में वे इतनी अलग और मौलिक हैं कि उनके बिना उस दौर के काव्य-परिदृश्य को समझा नहीं जा सकता. वे कविताएँ बहुत पहले से लिख रहे थे. पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपकर पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकृष्ट करती थीं. लेकिन उनके पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति वे उदासीन रहे. पहली बार ‘तीसरा सप्तक’ (सं. अज्ञेय- 1959) में उनकी कुछ कविताएँ हिंदी समाज के सामने आयीं, जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया. उनके जीवनकाल में उनका एक ही काव्य संकलन ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हुआ. मरणोपरांत ‘साखी’ (1982) नामक संग्रह प्रकाशित हुआ. कवि रूप में साही की कृति का मूल आधार ये दोनों काव्य संग्रह हैं. हालांकि उनके निधन के बाद ‘तीसरा सप्तक’ और ‘साखी’ में न आ पायीं कुछ कविताओं को शामिल कर ‘संवाद तुमसे’ का प्रकाशन हुआ. उनके प्रारंभिक गीतों और गजलों का एक संकलन ‘आवाज हमारी जाएगी’ शीर्षक से प्रकाशित है.

‘आस्था’ को अपनी कविता का आधार माननेवाले साही ‘नयी कविता’ को नया अर्थ-विस्तार देनेवाले कवि हैं. बौद्धिक-उड़ान एवं कबीरी अंदाज के कारण अलग से पहचान लिए जाने वाले कवि के रूप में वे दिखाई पड़ते हैं. ‘मछलीघर’ पर विचार करते हुए कुंवर नारायण को मिल्टन के ग्रेंडस्टाइल की याद आती है और वे मानते हैं कि अंग्रेजी और उर्दू की क्लासिक परंपरा साही के सामने है. कुंवर जी ने लिखा है:

“उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है: ताकत- लगभग हिरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है- ‘एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह.’ उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं, तुरत खुश या नाखुश करने वाली कविताओं की चंचलता नहीं. साही की यह मुद्रा इधर लिखी गई उन तमाम कविताओं से बिलकुल अलग है जिनमें हम नाराजगी और उत्तेजना को लगभग एक रूढ़ि बन जाते देखते हैं. इस सन्दर्भ में मैं समझता हूँ साही लगभग क्लासिक अनुशासन में लिखी गई कविताओं के एकमात्र ऐसे उदहारण हैं जिसने एक ओर अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक अनुशासन की मर्यादा स्वीकार किया तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी के श्रेष्ठतम आदर्शों को नजर के सामने रखा.

हिंदी कविता पर उर्दू साहित्य का असर कोई नई बात नहीं है. तमाम उर्दू शब्द, उसकी साहित्यिक परंपरा, अमीर खुसरो से लेकर अब तक हिंदी में घुली-मिली रही. नज़ीर अकबराबादी, मीर, ग़ालिब, इक़बाल आदि की  देन ने सिर्फ उर्दू ही नहीं हिंदी को भी जो कुछ दिया, आज की हिंदी कविता में उसके श्रेष्ठ उदाहरणों में साही का नाम विशेष रूप से लिया जाना चाहिए...... उर्दू शैली साही की भाषा में व्याप्त थी. वह उनकी कविताओं के रचाव का एक ख़ास अंग है- ऊपर से चढ़ाया हुआ रंग नहीं, कविताओं के अन्दर से खिलता हुआ रंग है- इतना अलग कि उनकी कविता की एक भी पंखुरी से पहचाना जा सकता है.”

इस सन्दर्भ में ‘इस नगरी में रात हुई’ शीर्षक चतुष्पदी को याद किया जा सकता है-

मन में पैठा चोर अँधेरा तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फ़ैल गया, खामोशी है
आओ खुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई

यह अपने समय के यथार्थ को चित्रित करने का साही का अपना अंदाज है जो उर्दू परंपरा की याद समेटे हुए हैं. ‘विजयदेव नारायण साही’ नामक विनिबंध में इस चतुष्पदी पर टिप्पणी करते हुए लिखा गया है:

“अमीर खुसरो की तर्ज पर मात्र चार पंक्तियों में कविता समय से नाउम्मीदी का जो चित्र प्रस्तुत करती है, वह चतुष्पदी में नए ढंग का प्रयोग है जिसे बाद की नई पीढ़ी के कई कवियों ने अपनाया है. इस कविता में मुक्तिबोध की तरह साही अपने समय में पसरे अँधेरे और उससे उपजी अदृश्य खामोशी, हताशा, निराशा और घुटन को महसूस करते हैं.”

मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ के साथ नामवर सिंह साही की ‘अलविदा’ कविता को याद करते हैं. हालांकि सन्दर्भ यहाँ ‘नाटकीय एकालाप’ का है. फैंटेसी के सहारे प्रभावशाली पृष्ठभूमि तैयार की गई है. ‘अँधेरे में’ और ‘अलविदा’ कविता में जो ‘नाटकीयता का रहस्य’ है, उसकी चर्चा करते हुए वे कहते हैं:

“अलविदा में बुनी हुई काव्यानुभूति की तीव्रता इस बात में है कि यहाँ निर्णय लेने से ठीक पहले की मनःस्थिति के अनुभूतिगत चाँप को शब्दों में पूरी कलात्मकता के साथ रख दिया गया है. कविता की नैतिक शक्ति इस बात में है कि निर्णय के विषय में कोई अनिश्यात्मकता नहीं है. ‘नैतिक विजन’ की यह परिपक्वता ही ‘अलविदा’ को श्रेष्ठ कविताओं में स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है.”

साही की कविता में नाटकीय तत्त्व और भाषाई अलंकरण की उपस्थिति अलग से पाठक का ध्यान खींचती है. यह खूबी उन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य कवियों से अलग करती है. उनकी इस विशेषता पर टिप्पणी करते हुए कुंवर नारायण ने लिखा है:

“जिस तरह साही अपनी कविताओं में नाटकीय तत्त्वों और भाषाई अलंकरण को एक बहुत ही परिष्कृत रचनात्मकता का हिस्सा बनाते हैं वह हर एक के वश की बात नहीं है. नाटकीय तत्त्वों और शब्दालंकारों के उपादानात्मक प्रयोग में अगर जरा भी असावधानी हो तो वह कविता के नाजुक तंतुओं को बिलकुल सुन्न कर दे सकता है. साही की कविताओं में नाटकीयता और भाषाई अलंकरण की किलाबंदी नहीं है, कविताओं के पीछे उनकी हल्की छाप या अक्श का लहराता आभास भर रहता है जिसके ऊपर कविता लिखी हुई जान पड़ती है- जिसके नीचे दबी हुई नहीं- न जिसके बगल में ही लिखी हुई. साही की कविताओं में जो एक ख़ास तरह की दृढ़ता है उसका गारा भर क्लासिकल रहता है. लेकिन स्थापत्य साही का बिलकुल अपना और अपने समय की या जीवन की प्रमुख समस्याओं से रगड़ खाता हुआ.”

‘मछलीघर’ की भूमिका में साही ने अपनी कविताओं को ‘आतंरिक एकालाप’ कहा है. इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि साही की कविता में समाज निरपेक्ष होने का किसी तरह का प्रयत्न है. दरअसल साही की प्रगतिशीलता अलग तरह की है. वे कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के कायल नहीं हैं. उनकी प्रगतिशीलता भारतीयता के निषेध से नहीं बल्कि उसके सकारात्मक दाय से बनती है. कुंवर नारायण के शब्दों में:

“साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थों में उदारवादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रुढ़िवादी नहीं थी. साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन-पद्धति का निषेध नहीं है, नए और जरुरी को निष्पक्षता से जाँच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है.”

इसलिए उनका यह आतंरिक एकालाप सामाजिक जीवन की विसंगतियों से पैदा हुई हलचल है. इस अर्थ में साही सहज ही मुक्तिबोध से तुलनीय हैं जिनके यहाँ ‘अन्तः करण’ की बात हिंदी कविता में सबसे अधिक है. मुक्तिबोध का ‘अन्तः करण’ और साही का ‘आतंरिक एकालाप’ क्या एक ही नहीं है?

‘साखी’ की कविताएँ अपने अलग अंदाज के कारण हिंदी कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि-सी लगती हैं. यहाँ ‘आतंरिक एकालाप’ सामाजिक स्थितिओं से टकराकर एक नया रूप ग्रहण करता है. ‘साखी’ की कविताओं को अशोक वाजपेयी ने ‘ईमान की साखी’ कहा है. ऐसी ‘साखी’ जो अधिक भरोसे की है. इन कविताओं में नैतिकता और ईमानदारी की ऐसी आभा है जो अन्यत्र शायद ही हो! यहाँ एकालाप तो है लेकिन संवादधर्मी है. ‘साखी’ की कविताओं में जो संवादधर्मिता है वह साही की अपनी विशेषता है. कबीर की कविता, समाज को संबोधित करने का उनका तरीका, लौकिक से लेकर अलौकिक तक की उनकी चिंता आदि को जैसे साही ने ‘साखी’ में उपलब्ध किया है वैसी उपलब्धि उनके सिवा दूसरे के हिस्से शायद ही दर्ज हो! कबीर आधुनिक होकर साही के रूप में मानों हमें संबोधित कर रहे हों! ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ बहु चर्चित-बहु उद्धृत कविता है जो साही की पहचान बन गई है. लेकिन इस संग्रह की बहुतेरी कविताएँ ऐसी है जो कबीरी अंदाज में आधुनिक जमीन पर खड़ी है. ‘पराजय के बाद’ कविता को इस संदर्भ में देखना चाहिए-

योद्धाओं की विशाल सेना
जब पराजित होकर लौटी
तो आपस में एक दूसरे को
लूटती हुई लौटी.

कोई पश्चिम के रेगिस्तान में गया
कोई उत्तर की पहाड़ियों में
कोई पूरब के जंगलों में
कोई दक्खिन के पठारों में.

पराजित सेनाओं का यह लौटना आधुनिक मानव की नकली जीत का ऐसा उदहारण है जिसमें हम हार कर भी जीत के भ्रम में हैं और अपनी अगली पीढ़ी को नकली जीत का प्रतीक सौंप रहे हैं. कविता का अंत होता है-

इसी बीच आसेतु पृथ्वी पर
बर्बरों का राज्य हो गया
और वे अपने-अपने एकांत में
जीत और गद्दारी के
पुराण रचते रहे.

सुनो भाई साधो
सब जग अंधा हो गया है 
मैं किसको समझाऊं

‘साधो’ को संबोधित कविताएँ हों या अन्य कविताएँ सब जगह ‘मछलीघर’ का ‘आतंरिक एकालाप’ अधिक सफाई से संवादधर्मी हो गया है. अशोक वाजपेयी इसे ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का पुनराविष्कार’ कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं. कबीर को अपने समय में साधने का यह सबसे कलात्मक और बेलौस अंदाज है जो सिर्फ साही के पास है.

कवि कबीर की कविता के प्रति आलोचक साही बहुत साकारात्मक नहीं थे. उन्हें जायसी पसंद थे. लेकिन साही ने बुनकरों की लड़ाई लड़ी. घूम-घूमकर उनका संगठन बनाया. उनके बीच रहे. बुनकरों के संघर्ष में आकंठ धंसे हुए जुलाहा कबीर उनके भीतर उतरते रहे. इसलिए हमें ‘साखी’ में ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का जो हम पुनराविष्कार’ दिखाई देता है, वह अकारण नहीं है. ‘अस्पताल में’ शीर्षक कविता में अस्पताल के वातावरण का चित्रण है. बीमार, डॉक्टर, दवा आदि की चर्चा है. अलग-अलग बीमारियाँ हैं और सभी मरीजों की अलग-अलग समस्याएँ हैं. कविता का अंत होता है-

साधो भाई
इस अस्पताल में
सब सो रहे हैं
सहज समाधि की तरह
सब करह रहे हैं
अनाहत नाद की तरह.

‘साखी’ संग्रह की कविताएँ अशोक वाजपेयी के शब्दों में:

“...ऐसे आदमी को केंद्र में प्रतिष्ठित करती हैं जिसका खुला-सजग व्यक्तित्व है, जो अपने निर्णय में अकेला भले हो पर अपने समुदाय की नियति और इतिहास से आबद्ध है और जो बहस करने को हरदम तैयार है. व्यक्ति की गरिमा और सामाजिकता में कोई द्वैत नहीं है. अपने समय के प्रश्नों और चिंताओं पर कविता के बाहर नहीं, कविता के अन्दर बहस कर साही ने कविता को चिंतन और विचार की भी एक प्रमाणिक विधा के रूप में जैसे पुनर्जीवित किया है. आज के संवाद-विमुख परिवेश में यह प्रयत्न, उसकी एकांत साहसिकता और संकल्प-शक्ति एक नया और अद्वितीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं.”

साही के यहाँ इतिहासबोध बहुत ही गहरा है. उनकी कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ बार-बार देखी जाती है. उन स्मृतियों को रेखांकित करते हुए साही वर्तमान के सामने खड़ा कर देते हैं. वे इतिहास के सहारे समकालीन राजनीति और जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं. उनके लिए इतिहास सिर्फ सांस्कृतिक अर्थ नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अर्थ भी देता है. ‘साखी’ में उनकी एक कविता है- ‘सत की परीक्षा’, जिसमें हमारे सांकृतिक इतिहास की अनुगूँज है. वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि लंका विजय के बाद राम ने सीता की पवित्रता के सत्यापन के लिए अग्नि-परीक्षा ली थी. अग्नि-परीक्षा में खरी उतरने पर ही उन्होंने सीता को स्वीकार किया था. तब से स्त्री की अग्नि-परीक्षा होती रही है और आज भी हो रही है. हमारे समय की एक विवाहित स्त्री जिसके चरित्र पर लांछन है, अग्नि-परीक्षा के लिए लोगों के बीच बैठी है. रामायण कालीन सांस्कृतिक सन्दर्भ के साथ साही आज की स्त्री की अग्नि-परीक्षा को उठाते हैं और ऐसा नायाब अर्थ देते हैं जिसे सिर्फ कबीरी अर्थ कहा जा सकता है. ‘सत की परीक्षा’ की स्त्री कहती है-

साधो आज मेरे सत की परीक्षा है
आज मेरे सत की परीक्षा है.

बीच में आग जल रही है
उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है
कड़ाह में तेल उबल रहा है
उस तेल में मुझे सब के सामने
हाथ डालना है
साधो आज मेरे सत की परीक्षा है.

एक ओर मेरे ससुराल के लोग हैं.
बड़ी बड़ी पाग बाँधे
ऊँचे चबूतरे पर बैठे हैं
मूँछे तरेरे हुए
भँवे ताने हुए हैं
नाक ऊँची किए हुए हैं.

आगे वर्णन है, अग्नि के समक्ष बैठा हुआ ससुराल का ब्राह्मण आरोप लगा रहा है कि उसकी छाती पर जो जड़ाऊ हार है, वह उसके कलंकित चरित्र का प्रमाण है. दूसरी ओर बैठे स्त्री के मायके वालों ने कहा कि वह हार एवं उसकी ‘लहर लेती चमक’ उनके पुरखों की थाती है. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. दस-पाँच गाँव के लोग भी इकट्ठे थे, लेकिन सब चुप थे. ऐसे में स्त्री क्या करे! ससुराल वालों के रवैये को, उनके अधिकार को, परीक्षा के इस ढंग को चुनौती दी जा सकती है. लेकिन वह स्त्री चुनौती नहीं देती. उसे लगता है कि यह मायका, ससुराल और सारी विरादरी के पुरखों की लहर लेती रौशनी के सत की परीक्षा है. वह अपना जो निर्णय सुनाती है वह हिंदी कविता का साहीपन है-

सुनो भाई साधो सुनो
और कोई रास्ता नहीं है
मुझे अपने दोनों हाथ
इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं
यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता
आंदोलित प्रकाश
सचमुच मेरे ह्रदय का वासी हो
तो यह खौलता हुआ कड़ाह
हाथ डालने पर
गंगा जल की तरह ठंडा हो जाय.

ऐसे ही, साधो, ऐसे ही.

नई कविता के संदर्भ में प्रश्नाकुलता की बड़ी चर्चा होती है. प्रश्नाकुलता को आधुनिकता का आधार माना जाता है. साही के यहाँ अपने समकालीनों की तुलना में प्रश्नों की संख्या अधिक है. वे प्रश्नों पर भी प्रश्न उठाने वाले कवि के रूप में सामने आते हैं. उनका यह कवि रूप सबसे अलग है. ‘बहस के बाद’ उनकी एक दिलचस्प कविता है-

असली सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन होगा?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि जिले से इस बार कितने मंत्री होंगे?

इस तरह असली सवालों की लम्बी फेहरिस्त है. तय नहीं है कि असली सवाल क्या है. सब अपने-अपने सवालों को असली मान रहे हैं. ऐसे में सचमुच सवाल है कि असली सवाल क्या है. कविता का अंत करते हुए साही कहते हैं-

सुनो भाई साधो
असली सवाल है
कि असली सवाल क्या है?

‘जिंदगी के साथ गंभीर हिस्सेदारी’ से पैदा होने के कारण साही की कविताओं में यथार्थ की ऊपरी परत के रेखांकन से परहेज है. उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन उनकी कविताओं में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होता. ‘साँप काटे हुए भाई से’ उनकी एक बहुत ही अर्थपूर्ण कविता है. एक आदमी को जहरीले साँप ने काट लिया है. धीरे-धीरे वह चेतना खो रहा है. कविता की शुरुआत होती है-

मुझे दिख रहा है
दिमाग धीरे-धीरे पथराता जा रहा है
अब तो नसों की ऐंठन भी महसूस नहीं हो रही है
और तुम्हें सिर्फ एक ऐसी
मुलायम सहलाने वाली रागिनी चाहिए
जो तुम्हें इस भारीपन में आराम दे सके
और तुम्हें हल्की जहरीली नींद आ जाये

आगे साँप काटे हुए व्यक्ति को जगाए रखने की तरह-तरह की तरकीबे हैं. साँप का विष उतारने के लिए लोक जीवन में किए जाने वाले उपायों का जीवंत वर्णन है. लेकिन कवि को लगता है कि ये सारे उपाय साँप काटे भाई को बचा नहीं पाएँगे. वह उसे सोने देना नहीं चाहता. कवि को उसके जगे रहने पर और उसकी जागती हुई आँखों पर अटूट भरोसा है. उसे लगता है कि अगर ऐसा हुआ तो साँप काटे भाई की चेतना लौट आएगी-

अगर भरोसा है तो सिर्फ तुम्हारे
बहते हुए खून
और जागती हुई आँखों का भरोसा है-
इस खून को जारी रखने के लिए
सोना मत.
ओ मेरे भाई सोना मत.

हमारे समय के आदमी को जब असत्य के सर्प ने डंस लिया हो, उसकी चेतना मर रही हो तब उसे जिलाए रखने का यह आह्वान कितना विस्मयकारी है!

साही की कविता में निरंतर एक जिज्ञासा, एक खोज, एक यात्रा और संवाद दिखाई देता है. पुराने के त्याग का आग्रह है तो ‘निरुत्तर शांति’ से परहेज भी है. पुराना सब कुछ छोड़ने के पश्चात् कवि के भीतर ‘निरुत्तर शांति’ किरकिराती है. ‘मछलीघर’ की एक कविता है ‘तीर्थ तो है वही....’ जिसमें तट पर खड़े कवि को बेताब लहरों का उछलना अच्छा नहीं लगता. पुराने सारे वसन धारा में बह जाते हैं और एक नया मनुष्य जन्म लेता है-

वह जो कुछ हुआ,
अब तो सत्य चाहे मिले
ढालों पर विकंपित
घने वन की फुनगियों से झाँकता-सा
चोटियों के मौन में
कुंड में चुपचाप बहते हुए जल की आर्सी में
बादलों से भरे नभ को देखते खामोश पक्षी में
गुजरते हुए राही में
अकेले फूल में
पर ओ नदी! अब तुम नहीं हो तीर्थ
तीर्थ तो है बर्फ का उजला सरोवर वही
जिसको छोड़कर हम तुम
चले थे साथ.

जो जैसा दीखता है वह वैसा है नहीं. संसार के रिश्ते जैसे उलट-पलट गए हैं. कहा जाता है कुछ और निकलता है कुछ. यह विडंबना कवि को परेशान करती है. ‘साखी’ की एक कविता है ‘क्या करूँ’. संसार की इस विडंबना पर कवि के भीतर प्रश्न ही प्रश्न हैं-

या तो मेरी आँखों को कुछ हो गया है
या अब दूर पास के रिश्ते ही उलट गये हैं
जिसके पास जाता हूँ
पहुँचने पर छोटा दिखने लगता है
साधो भाई
अब मैं क्या करूँ?

वह जो दूर से
पृथ्वी की एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैला हुआ
हिमालय नाम का नगाधिराज दिखता था
पास पहुँचने पर
बजाज की दूकान का गज निकला

इधर के वर्षों में कबीर का इकहरा पाठ खूब हुआ है. उनके बहु आयामी कवि व्यक्तित्व से आँख मूंदकर उन्हें एक ही तरह का राजनीतिक अर्थ देने की कोशिशें खूब हुई हैं. कवि कबीर पर आलोचक के रूप में साही विचार करते तो कौन-सा अर्थ सामने होता कहना मुश्किल है. लेकिन ‘साखी’ की कविताओं के जरिए उन्होंने अपने समय में मानो कबीर को खोज लिया हो. संग्रह की अंतिम कविता ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ में जिस कबीर को वे हमारे सामने रखते हैं वह नया कबीर है. इधर के वर्षों में वंचित समाज के लिए सहानुभूति की जो बाढ़ है उसकी जगह साही अंतहीन सहानुभूति की वाणी विनम्रता पूर्वक बोलना चाहते हैं. वे ऐसे कलेजा की कामना करते हैं जो भूखों के पक्ष में खड़ा हो और निर्भय हो. इसके बाद कवि की गुरु कबीरदास से प्रार्थना है-

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ

कोई भी मानेगा कि हिंदी कविता में यह काव्य-स्वर बिलकुल निराला और अलग है. यह हिंदी कविता की उपलब्धि है जो साही के हाथों संपन्न होती है.

मात्र अपने दो संग्रहों- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ के जरिए साही हिंदी कविता का नया विन्यास रचते हैं. उनकी कविता का आतंरिक एकालाप समाज से भी संवाद है और अपने से भी. ‘साखी’ में समाज को जो संबोधन है वह अपने को भी है. इन कारणों से साही की कविता में एक ऐसी नैतिक आभा है जो कबीर सरीखे कवियों में बड़े पैमाने पर आचरण से पैदा हुई थी. आधुनिक हिंदी कविता की यह नैतिक आभा अपने विस्तार में कुछ छोटी होने पर भी आधुनिक हिंदी कविता की मूल्यवान धरोहर है.

प्रारंभ में साही गीत लिखा करते थे. जब वे बनारस में थे तो शंभुनाथ सिंह जैसे गीतकारों के संग-साथ का प्रभाव था कि वे भी गीत लिखते थे. छंद और पूरे विधान के साथ वे गीत-रचना में संलग्न थे. प्रेम के गीत, समाज को जगाने वाले गीत और प्रकृति परक गीतों की रचना उन्होंने नए अंदाज में की. नमूने के तौर पर उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं. ‘माघ: दस बजे दिन’ शीर्षक गीत में जाड़े की धूप को साही जिस निगाह से देखते हैं उससे उनकी गीत-प्रतिभा का पता चलता है-

यह धूप बहकी बहकी
कि शराब-आसमानी
ये हवाएँ सरसराती
कि अलस भरी जवानी
लो दस बजा सुबह का
झंकार एक आई-
गति का विलास लहरा
फिर धूप मुस्कुराई
इस ज्योति के पटल पर
खुलते हुए कमल-सी
उठती हुई जवानी
बल खाई जगमगाई!

साही गीत के साथ कभी-कभी ग़ज़ल भी लिखते थे. चूँकि वे उर्दू-फ़ारसी के जानकार थे, इसलिए उनकी ग़ज़ल में उर्दू की रवानगी और उसका अनुशासन दिखाई देता है. वे ‘नज़र’ उपनाम से ग़ज़ल लिखते थे. नमूने के तौर पर उनकी एक छोटी-सी ग़ज़ल देखी जा सकती है-

इक उरूजो-ज़वाल देखा है
हमने दुनिया का हाल देखा है

अब संभलता नहीं किसी के कहे
हमने दिल को संभाल देखा है

हम उसी को ‘नज़र’ समझते हैं
जिसने तेरा जमाल देखा है

‘सड़क साहित्य’ के नाम से भी मन की मौज में साही कविताएँ लिखा करते थे. सड़क पर पैदल चलते हुए दोस्तों से गपशप में ऐसी कविताएँ जन्म लेती थीं. यह एक प्रकार का सहयोगी काव्य लेखन था जिसमें एक पंक्ति किसी मित्र की होती थी तो दूसरी साही की. सर्वेश्वर तब इलाहाबाद में रहते थे. उनके साथ ‘सड़क साहित्य’ के नाम पर ऐसी बहुतेरी कविताओं की रचना हुई. सर्वेश्वर का घर गली में था जो अपेक्षाकृत अच्छी थी. साही का घर सड़क पर था. सड़क टूटी हुई थी. एक दिन उसी सड़क पर शाम के वक्त चलते हुए सर्वेश्वर का पैर गड्ढ़े में पड़ा. वे गिरते-गिरते बचे. उनके मुंह से एक काव्य पंक्ति फूटी- ‘गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़कें न’. थोड़ी ही देर बाद साही ने अगली पंक्ति जोड़ी- ‘अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न’. इस तरह दो पंक्ति की यह कविता बनी-

गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़के न,
अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न.

इस तरह की बहुतेरी कविताओं की रचना हुई जो अब तक संकलित न हो पाई हैं.लेकिन, जैसा कि कहा गया साही की कवि रूप में स्थायी कीर्ति का मूलाधार- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ नामक उनके दो काव्य-संग्रह ही हैं.   
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कुलदीप कुमार की कविताएं

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वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार (4 मार्च 1955, नगीना) अंग्रेजी अखबारों में इतिहास, साहित्य, शास्त्रीय संगीत और पेंटिंग पर भी नियमित रूप से लिखते हैं. उनके भीतर कवि भी है जिसे अब जाकर एक संग्रह प्राप्त हुआ है-बिन जिया जीवन’. इस संग्रह में कुलदीप कुमार के स्वप्न, उनकी स्मृतियाँ और यातनाएँ दर्ज़ हैं. पाँच दशकों से भारतीय समय को जीते हुए एक सचेत, प्रबुद्ध नागरिक की राजनीतिक सांस्कृतिक मन्तव्य को भी ये कविताएं सृजित करती हैं.

कवि इतिहास का अध्येता रहा है और एक इतिहासकार में अतीत को लेकर जिस तटस्थता की अनिवार्यता होनी चाहिए वहमहाभारत व्यथाके स्त्री पात्रों को लेकर लिखी कविताओं मे दिखती है, कई जगह तो निर्मम होने के जोखिम के साथ. यह एकस्त्री पाठभी है. इन कविताओं को पढ़ते हुए बरबस भीष्म की याद आती है शर की शय्या पर लेटे हुए. ये शर कवि के हैं और प्रश्नों की शक्ल में बेधक भी. 
दो लंबी कविताएं मत्स्यगंधा और द्रौपदी आपके लिए.


कुलदीप कुमार की कविताएं                               



(पेंटिग : राजा रवि वर्मा )



 मत्स्यगंधा  

हस्तिनापुर आज भी
मछली की तेज़ गंध में डूबा हुआ है

लोग कहते हैं कि चाँदनी रात हो या अंधेरी 
अक्सर मत्स्यगंधा की आत्मा यहाँ डोलती है
और पूरे नगर पर तीखी बास की एक मोटी चादर 
पड़ जाती है 

लोक में प्रचलित हुआ कि सत्यवती वन में 
अम्बिका और अम्बालिका के साथ 
मर गयी 
पर मैं जीवित रही 
क्योंकि मैं 
हस्तिनापुर की राजमाता 
हस्तिनापुर का ध्वंस देखने के लिए 
तड़प रही थी 

अब मेरी आत्मा तृप्त है 

कौन है इस ध्वंस का उत्तरदायी?
द्रौपदी की दुर्योधन पर फ़ब्ती
कौरव राजसभा में द्रौपदी का चीरहरण?
युधिष्ठिर की जुए की लत?
दुर्योधन की ईर्ष्या?
मर्यादा का क्षरण

नहीं

बहुत पहले ही 
मर्यादा टूट चुकी थी और 
सत्ता पर सवार हो चुके थे  
निरंकुश वासना, अतृप्त लालसा, निर्वसन लोभ 

ध्वंस के बीज तो तभी पड़ गए थे 
जब 
ऋषि पराशर ने मुझ नाव चलाने वाली पर 
नदी के बीचों-बीच 
बलात्कार किया था 
अनाघ्रात पुष्प थी मैं
नवागत यौवन के झूले में झूलती हुई 
इतनी भोली कि यह भी पता नहीं चला 
मेरी देह के साथ क्या घटित हो रहा है 
चीरहरण की सभी चर्चा करते हैं
मेरे कौमार्यहरण की कोई भी नहीं !

राजा शान्तनु की दुर्दमनीय कामेच्छा 
मेरे मल्लाह पिता का अपार लालच
भावी सम्राट का नाना बनकर 
ऐश्वर्य भोगने की उसकी निर्लज्ज लालसा  
देवव्रत का 
कभी विवाह न करने और सिंहासन को त्यागने की 
भीषण प्रतिज्ञा लेकर 
भीष्म के रूप में लोकोत्तर पुरुष बनना 
और फिर 
परिणाम की सोचे बिना 
उस पर हठपूर्वक जमे रहना 

लोक में 
बस इसी की चर्चा है 

क्या कभी किसी ने सोचा 
कि 
उस बूढ़े राजा से मेरे विवाह के लिए 
मेरी सहमति आवश्यक नहीं थी क्या?
किसी भी स्त्री की सहमति क्या 
कभी आवश्यक समझी गयी है?

देवव्रत ने विवाह न करने का हठ 
नहीं छोड़ा 
लेकिन बलपूर्वक अनेक विवाह कराए 
विचित्रवीर्य के लिए काशिनरेश की तीन कन्याओं का 
अपहरण किया 
अम्बा का जीवन नष्ट किया 
और अम्बिका और अम्बालिका को ज़बरदस्ती 
विचित्रवीर्य के साथ विवाह के बंधन में बांधा 

अगर यह न हुआ होता 
और अम्बा ने फिर से जन्म लेकर 
भीष्म और उसके कुल के नाश की प्रतिज्ञा न की होती 
तो क्या यह महायुद्ध होता?
और मैं?

क्या हर सास की तरह 
मैंने भी प्रतिहिंसा में 
अपनी बहुओं के साथ वही नहीं किया 
जो मेरे साथ हुआ था?

नियोग के बहाने अपने पहले पुत्र कृष्ण द्वैपायन से 
क्या मैंने अम्बिका और अम्बालिका पर 
बलात्कार नहीं करवाया?
इस अंधे, विवेकहीन और रुग्ण कृत्य के फलस्वरूप 
यदि 
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र और रोगी पाण्डु पैदा न होते 
तो और क्या पैदा होता?

अंधे धृतराष्ट्र के लिए भीष्म गांधारी और 
रोगी पाण्डु के लिए 
पृथा एवं माद्री लाए  

कैसा लगा होगा गांधारी को 
विचित्रवीर्य के अंधे पुत्र से सौ-सौ पुत्र पैदा करते हुए
क्या अपनी आँखों पर पट्टी 
उसने इसलिए नहीं बांधी थी 
ताकि वह पूरे संसार को दिखा सके 
वह अदृश्य पट्टी 
जो हम सबकी आँखों पर बंधी थी?

और;
क्या चार पुरूषों के साथ सहवास करके 
कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म देने वाली कुंती ने 
सास वाला बदला लेने के लिए ही 
द्रौपदी को 
पाँचों पांडवों की पत्नी नहीं बनाया?
क्या माद्री को उसने इसीलिए वह मंत्र नहीं दिया 
ताकि वही सती-सावित्री क्यों बनी रहे?

वरना नियोग के द्वारा तो 
केवल एक पुत्र की प्राप्ति ही अभीष्ट होती है  

न किसी ने मेरी सहमति ली थी,
न अम्बालिका और अम्बिका की 
न पृथा और माद्री की 
और न ही द्रौपदी की 

और यह स्वयंवर का ढकोसला!

स्वयंवर क्या वास्तव में स्वयंवर है?
क्या द्रौपदी ने कामना की थी कि वह 
उसी से विवाह करेगी 
जो घूमती हुई मछली की आँख 
बाण से बींधेगा?

नहीं 
यह शर्त उसके पिता ने निर्धारित की थी 
फिर स्वयंवर में 
द्रौपदी कास्वयंकहाँ था?

क्या महाभारत युद्ध के मूल में 
बलात्कार नहीं है
क्या देवव्रत ने अपनी प्रतिज्ञा की 
मूल भावना के साथ बलात्कार नहीं किया था?

तब तो मेरे पिता की ज़िद भी शेष नहीं रही थी 
अगर वह विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद विवाह कर लेता 
तो अनेक अन्य 
बलात्कार होने से बच जाते 
और तब संभवतः 
यह महाविनाश भी न होता 
और वह भी 
हस्तिनापुर के राज्य का एकमात्र 
वास्तविक उत्तराधिकारी होने के बावजूद 
दुर्योधन के सिंहासन का पाया बनने की 
ज़िल्लत ढोने से बच जाता 

मैं मत्स्यगंधा सत्यवती 
भुजा उठाकर कहती हूँ 
जहाँ जबरदस्ती की जाएगी 
जहाँ बलात्कार होगा 
उस राज्य का नाश अवश्यंभावी है





(पेंटिग Giampaolo Tomassetti)



द्रौपदी 

अंतिम यात्रा है 

हिमालय की पीठ पर चलते-चलते 
न जाने कितनी चोटियाँ नीचे रह गयीं 
चलना दुशवार हो गया है 
घिसटने के अलावा कोई 
चारा भी तो नहीं 
यूँ भी जीवन भर 
घिसटती ही तो रही हूँ 
यदि कभी चली भी हूँ तो 
दूसरों ही के पैरों पर 

सबसे आगे मेरा ज्येष्ठ पति 
सारी विपत्तियों की जड़ 
निर्लज्ज युधिष्ठिर 
चला जा रहा है 
अपने कुत्ते को साथ लिए 
बिना किसी की ओर देखे 
पहले ही कब इसने किसी और की चिंता की
जो अब करेगा?
कभी समझ नहीं पायी 
ऐसे आत्मकेंद्रित, निकम्मे और ढुलमुल स्वभाव के आदमी को 
लोग धर्मराज क्यों कहते हैं 
मैंने तो इसे कभी कोई धर्म का काम करते नहीं देखा 
हाँ, धर्म की जुमलेबाज़ी 
इससे चाहे जितनी करवा लो 

अगर जुआ खेलना 
और अपनी सारी सम्पत्ति, भाइयों और पत्नी को 
दाँव पर लगाकर हार जाना   
धर्म का काम है 
तब यह ज़रूर 
धर्मराज कहलाने का अधिकारी है

एक यही काम तो इसने अपने बलबूते पर किया 
वरना तो सारे काम भीम और अर्जुन के ही हिस्से में आते थे 
और यह बड़े भाई के अधिकार से 
उनका फल भोगता था 

मुझे भी तो सबसे पहले इसी ने भोगा 
मुझे स्वयंवर में जीतने वाले अर्जुन की बारी 
तो भीम के भी बाद आयी 

यह जीवन भर धर्म की व्याख्या करता रहा 
उस पर चला एक दिन भी नहीं 

और मैं?

पूरा जीवन मेरा 
अंगारों पर ही गुज़रा 

गुज़रता भी क्यों नहीं 
मेरा तो जन्म ही 
यज्ञकुंड की अग्नि के गर्भ से हुआ था
और तभी से मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गयी थी  

हर क्षण यही सोचती रही हूँ 
मैं पैदा ही क्यों हुई?
क्या सार रहा मेरे इस जीवन का
क्या मिला मुझे?

पाँच-पाँच पुरूषों की कामाग्नि का संताप, दुस्सह अपमान 
अर्जुन जैसे प्रेमी-पति की उपेक्षा

स्वयंवर में विजयी होने के बाद 
कैसी प्रेमसिक्त दृष्टि से देखा था 
अर्जुन ने मुझे 
वह सुदर्शन चेहरा मुझसे मिलने की आस में 
कैसा दिपदिपा रहा था 
उसकी आँखों में 
प्यार का महासागर था

और मेरी सास कुंती ने 
कितनी चालाक निष्ठुरता के साथ 
मुझे पाँचों भाइयों की सामूहिक पत्नी बना डाला
कुलवधू की ऐसी परिभाषा 
न कभी देखी गयी, न सुनी गयी  
उस क्षण से अर्जुन के चेहरे की कांति जो लुप्त हुई 
तो फिर कभी नहीं लौटी 
उसकी आँखें हमेशा शून्य में किसी को  
ढूँढती रहती थीं 
शायद घूमती हुई मछली की आँख को 
जिसके भेदन के बाद उसने 
मुझे
प्राप्त किया था 

बस वही तो एक क्षण था 
जब मैं 
उसकी थी— 
केवल उसकी 

टूटे हुए हृदय के साथ 
उसने सुभद्रा और उलूपी के साथ विवाह किया  
जो प्रेम उसे मुझसे नहीं मिला 
शायद उसी की तलाश में 
लेकिन यहाँ भी वह निराश ही हुआ 
उसके मुख पर कभी वह उल्लास और आनंद दिखा ही नहीं 
जो स्वयंवर के समय दिखा था 

महाभारत के युद्ध का 
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रेम में 
निराश 
विफल 
विकल 
जिसके हृदय में इतने बाण धँसे 
कि वह उसका तूणीर ही बन गया

अंतिम समय में 
लग रहा है 
जीवन कभी शुरू ही नहीं हुआ 
कभी साँस ली ही नहीं,
सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुभव ही नहीं किया 
चाँदनी की रहस्यमय शीतल हथेली ने  
मुझे कभी स्पर्श ही नहीं किया 

मुझे आज तक समझ में नहीं आया 
कि स्थिर स्वभाव वाली गरिमामयी कुंती 
ने मेरे साथ ऐसा हृदयहीन व्यवहार क्यों किया 
क्या वही मेरे जीवन के नरक से भी बदतर बनने की 
एकमात्र ज़िम्मेदार नहीं है?
न उसने मुझे पाँचों भाइयों के साथ बांधा होता 
और न यह क्लीव युधिष्ठिर मेरा सर्वसत्तावान 
पति बनकर 
मुझे जुए में दाँव पर लगा पाता 
और न कर्ण, दुर्योधन और दु:शासन की हिम्मत होती 
कि मुझे भरी राजसभा में निर्वसन करने की कोशिश कर सकें
जहाँ भीष्म और विदुर जैसे ढोंगी नीतिज्ञ बैठे थे 

केवल एक विकर्ण था 
जिसने मेरे पक्ष की बात की थी 
दुर्योधन का भाई, गांधारी का पुत्र 
विकर्ण 
उसने मनुष्यता में मेरे विश्वास को 
नष्ट होने से बचाया था 

कुंती कभी अच्छी सास तो बन ही नहीं सकी 
क्या वह अच्छी माँ बन पायी?

नहीं

कर्ण के साथ उसने हमेशा अन्याय किया 
वरना ऐसा उदार, ऐसा दानी, ऐसा वीर 
क्या कभी ऐसा दुष्टता का बर्ताव कर सकता था 
जैसा उसने मेरे साथ किया 
कुरुओं की राजसभा में 

कुंती ने उसे स्वीकार किया 
केवल अपने स्वार्थ के लिए 
ममता के कारण नहीं 
फिर भी उसने उस निष्ठुर माँ को 
पूरी तरह निराश नहीं किया 
और कहा कि वह केवल अर्जुन के साथ ही युद्ध करेगा 

उसने तो अर्जुन के साथ भी ऐसा अन्याय किया 
कि संभवत: कभी किसी माँ ने नहीं किया होगा 
स्वयंवर में मुझे प्राप्त किया अर्जुन ने 
और पाँचों भाइयों से बाँध दिया मुझे कुंती ने 
क्या उसे अर्जुन के मुख पर छायी वेदना नज़र नहीं आयी?

स्वयंवर में अर्जुन की जीत के बाद 
मुझे कभी उस पर प्यार नहीं आया 
हमेशा मन में तिक्तता 
ही बनी रही 

क्या वह कुंती से नहीं कह सकता था 
कि वह मुझे भिक्षा में नहीं 
स्वयंवर में जीत कर लाया है 
और मुझ पर केवल उसी का अधिकार है 
क्या वह मुझे इस भीषण अपमान और जीवन भर के दुःख से 
नहीं बचा सकता था?
क्या माँ की मतिहीन आज्ञा का पालन करना 
मेरे पूरे जीवन से अधिक महत्वपूर्ण था

किससे था मुझे सच्चा प्रेम?
और, किसे था मुझसे सच्चा प्रेम?  

शायद कृष्ण से 
शायद कृष्ण को 
सखा-सखी का 
शुद्ध वासनारहित प्रेम 

अधिकांश मनुष्य 
ऐसे प्रेम को असंभव समझते हैं 
मानते हैं कि 
स्त्री-पुरुष के बीच कामरहित प्रेम 
हो ही नहीं सकता 

लेकिन इससे बड़ा झूठ कोई नहीं है 

मेरा सखा कृष्ण 
जाने कैसे मेरी बात 
बिना कहे ही समझ जाता था 
घंटों-घंटों मुझसे बातें करता था 
दुनिया-जहान की बातें 
अपनी और राधा की बातें 
ब्रज की बातें 
रुक्मिणी और सत्यभामा के झगड़े 
सब मुझे ही तो बताकर जाता था 

कृष्णा का कृष्ण 
जिसने मेरी लज्जा को 
अपनी लज्जा समझा 

दुर्योधन को मैंने 
केवल उसी के तेज के सामने सहमते देखा 
कितनी कोशिश की उसे बंदी बनाने की 
लेकिन वह तो
कारागृह में जन्मा था 
उसे कौन बंदी बना सकता था!

आगे अब कोई राह नहीं है 
कभी थी भी नहीं 
जिसने चाहा उसी ने किसी भी राह पर धकेल दिया 

अब हिमालय मुझे अपनी गोद में ले ले 
तो मेरी यात्रा पूरी हो 

अग्निकुंड से 
हिमशिखर तक की 
अर्थहीन यात्रा…. 



kuldeep.kumar55@gmail.com
_______________________



बिन जिया जीवन 
कुलदीप कुमार 
अनामिका पब्लिशर्स 
2019 
मूल्य : 300 रुपये 

विजयदेव नारायण साही का कवि : गोपेश्वर सिंह

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विजयदेव नारायण साही का कवि                   
गोपेश्वर सिंह 


विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) ने अपने समकालीनों की तुलना में कम कविताएँ लिखीं, लेकिन अपनी गुणवत्ता में वे इतनी अलग और मौलिक हैं कि उनके बिना उस दौर के काव्य-परिदृश्य को समझा नहीं जा सकता. वे कविताएँ बहुत पहले से लिख रहे थे. पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपकर पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकृष्ट करती थीं. लेकिन उनके पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति वे उदासीन रहे. पहली बार ‘तीसरा सप्तक’ (सं. अज्ञेय- 1959) में उनकी कुछ कविताएँ हिंदी समाज के सामने आयीं, जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया. उनके जीवनकाल में उनका एक ही काव्य संकलन ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हुआ. मरणोपरांत ‘साखी’ (1982) नामक संग्रह प्रकाशित हुआ. कवि रूप में साही की कृति का मूल आधार ये दोनों काव्य संग्रह हैं. हालांकि उनके निधन के बाद ‘तीसरा सप्तक’ और ‘साखी’ में न आ पायीं कुछ कविताओं को शामिल कर ‘संवाद तुमसे’ का प्रकाशन हुआ. उनके प्रारंभिक गीतों और गजलों का एक संकलन ‘आवाज हमारी जाएगी’ शीर्षक से प्रकाशित है.

‘आस्था’ को अपनी कविता का आधार माननेवाले साही ‘नयी कविता’ को नया अर्थ-विस्तार देनेवाले कवि हैं. बौद्धिक-उड़ान एवं कबीरी अंदाज के कारण अलग से पहचान लिए जाने वाले कवि के रूप में वे दिखाई पड़ते हैं. ‘मछलीघर’ पर विचार करते हुए कुंवर नारायण को मिल्टन के ग्रेंडस्टाइल की याद आती है और वे मानते हैं कि अंग्रेजी और उर्दू की क्लासिक परंपरा साही के सामने है. कुंवर जी ने लिखा है:

“उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है: ताकत- लगभग हिरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है- ‘एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह.’ उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं, तुरत खुश या नाखुश करने वाली कविताओं की चंचलता नहीं. साही की यह मुद्रा इधर लिखी गई उन तमाम कविताओं से बिलकुल अलग है जिनमें हम नाराजगी और उत्तेजना को लगभग एक रूढ़ि बन जाते देखते हैं. इस सन्दर्भ में मैं समझता हूँ साही लगभग क्लासिक अनुशासन में लिखी गई कविताओं के एकमात्र ऐसे उदहारण हैं जिसने एक ओर अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक अनुशासन की मर्यादा स्वीकार किया तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी के श्रेष्ठतम आदर्शों को नजर के सामने रखा.

हिंदी कविता पर उर्दू साहित्य का असर कोई नई बात नहीं है. तमाम उर्दू शब्द, उसकी साहित्यिक परंपरा, अमीर खुसरो से लेकर अब तक हिंदी में घुली-मिली रही. नज़ीर अकबराबादी, मीर, ग़ालिब, इक़बाल आदि की  देन ने सिर्फ उर्दू ही नहीं हिंदी को भी जो कुछ दिया, आज की हिंदी कविता में उसके श्रेष्ठ उदाहरणों में साही का नाम विशेष रूप से लिया जाना चाहिए...... उर्दू शैली साही की भाषा में व्याप्त थी. वह उनकी कविताओं के रचाव का एक ख़ास अंग है- ऊपर से चढ़ाया हुआ रंग नहीं, कविताओं के अन्दर से खिलता हुआ रंग है- इतना अलग कि उनकी कविता की एक भी पंखुरी से पहचाना जा सकता है.”

इस सन्दर्भ में ‘इस नगरी में रात हुई’ शीर्षक चतुष्पदी को याद किया जा सकता है-

मन में पैठा चोर अँधेरा तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फ़ैल गया, खामोशी है
आओ खुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई

यह अपने समय के यथार्थ को चित्रित करने का साही का अपना अंदाज है जो उर्दू परंपरा की याद समेटे हुए हैं. ‘विजयदेव नारायण साही’ नामक विनिबंध में इस चतुष्पदी पर टिप्पणी करते हुए लिखा गया है:

“अमीर खुसरो की तर्ज पर मात्र चार पंक्तियों में कविता समय से नाउम्मीदी का जो चित्र प्रस्तुत करती है, वह चतुष्पदी में नए ढंग का प्रयोग है जिसे बाद की नई पीढ़ी के कई कवियों ने अपनाया है. इस कविता में मुक्तिबोध की तरह साही अपने समय में पसरे अँधेरे और उससे उपजी अदृश्य खामोशी, हताशा, निराशा और घुटन को महसूस करते हैं.”

मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ के साथ नामवर सिंह साही की ‘अलविदा’ कविता को याद करते हैं. हालांकि सन्दर्भ यहाँ ‘नाटकीय एकालाप’ का है. फैंटेसी के सहारे प्रभावशाली पृष्ठभूमि तैयार की गई है. ‘अँधेरे में’ और ‘अलविदा’ कविता में जो ‘नाटकीयता का रहस्य’ है, उसकी चर्चा करते हुए वे कहते हैं:

“अलविदा में बुनी हुई काव्यानुभूति की तीव्रता इस बात में है कि यहाँ निर्णय लेने से ठीक पहले की मनःस्थिति के अनुभूतिगत चाँप को शब्दों में पूरी कलात्मकता के साथ रख दिया गया है. कविता की नैतिक शक्ति इस बात में है कि निर्णय के विषय में कोई अनिश्यात्मकता नहीं है. ‘नैतिक विजन’ की यह परिपक्वता ही ‘अलविदा’ को श्रेष्ठ कविताओं में स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है.”

साही की कविता में नाटकीय तत्त्व और भाषाई अलंकरण की उपस्थिति अलग से पाठक का ध्यान खींचती है. यह खूबी उन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य कवियों से अलग करती है. उनकी इस विशेषता पर टिप्पणी करते हुए कुंवर नारायण ने लिखा है:

“जिस तरह साही अपनी कविताओं में नाटकीय तत्त्वों और भाषाई अलंकरण को एक बहुत ही परिष्कृत रचनात्मकता का हिस्सा बनाते हैं वह हर एक के वश की बात नहीं है. नाटकीय तत्त्वों और शब्दालंकारों के उपादानात्मक प्रयोग में अगर जरा भी असावधानी हो तो वह कविता के नाजुक तंतुओं को बिलकुल सुन्न कर दे सकता है. साही की कविताओं में नाटकीयता और भाषाई अलंकरण की किलाबंदी नहीं है, कविताओं के पीछे उनकी हल्की छाप या अक्श का लहराता आभास भर रहता है जिसके ऊपर कविता लिखी हुई जान पड़ती है- जिसके नीचे दबी हुई नहीं- न जिसके बगल में ही लिखी हुई. साही की कविताओं में जो एक ख़ास तरह की दृढ़ता है उसका गारा भर क्लासिकल रहता है. लेकिन स्थापत्य साही का बिलकुल अपना और अपने समय की या जीवन की प्रमुख समस्याओं से रगड़ खाता हुआ.”

‘मछलीघर’ की भूमिका में साही ने अपनी कविताओं को ‘आतंरिक एकालाप’ कहा है. इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि साही की कविता में समाज निरपेक्ष होने का किसी तरह का प्रयत्न है. दरअसल साही की प्रगतिशीलता अलग तरह की है. वे कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के कायल नहीं हैं. उनकी प्रगतिशीलता भारतीयता के निषेध से नहीं बल्कि उसके सकारात्मक दाय से बनती है. कुंवर नारायण के शब्दों में:

“साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थों में उदारवादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रुढ़िवादी नहीं थी. साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन-पद्धति का निषेध नहीं है, नए और जरुरी को निष्पक्षता से जाँच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है.”

इसलिए उनका यह आतंरिक एकालाप सामाजिक जीवन की विसंगतियों से पैदा हुई हलचल है. इस अर्थ में साही सहज ही मुक्तिबोध से तुलनीय हैं जिनके यहाँ ‘अन्तः करण’ की बात हिंदी कविता में सबसे अधिक है. मुक्तिबोध का ‘अन्तः करण’ और साही का ‘आतंरिक एकालाप’ क्या एक ही नहीं है?

‘साखी’ की कविताएँ अपने अलग अंदाज के कारण हिंदी कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि-सी लगती हैं. यहाँ ‘आतंरिक एकालाप’ सामाजिक स्थितिओं से टकराकर एक नया रूप ग्रहण करता है. ‘साखी’ की कविताओं को अशोक वाजपेयी ने ‘ईमान की साखी’ कहा है. ऐसी ‘साखी’ जो अधिक भरोसे की है. इन कविताओं में नैतिकता और ईमानदारी की ऐसी आभा है जो अन्यत्र शायद ही हो! यहाँ एकालाप तो है लेकिन संवादधर्मी है. ‘साखी’ की कविताओं में जो संवादधर्मिता है वह साही की अपनी विशेषता है. कबीर की कविता, समाज को संबोधित करने का उनका तरीका, लौकिक से लेकर अलौकिक तक की उनकी चिंता आदि को जैसे साही ने ‘साखी’ में उपलब्ध किया है वैसी उपलब्धि उनके सिवा दूसरे के हिस्से शायद ही दर्ज हो! कबीर आधुनिक होकर साही के रूप में मानों हमें संबोधित कर रहे हों! ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ बहु चर्चित-बहु उद्धृत कविता है जो साही की पहचान बन गई है. लेकिन इस संग्रह की बहुतेरी कविताएँ ऐसी है जो कबीरी अंदाज में आधुनिक जमीन पर खड़ी है. ‘पराजय के बाद’ कविता को इस संदर्भ में देखना चाहिए-

योद्धाओं की विशाल सेना
जब पराजित होकर लौटी
तो आपस में एक दूसरे को
लूटती हुई लौटी.

कोई पश्चिम के रेगिस्तान में गया
कोई उत्तर की पहाड़ियों में
कोई पूरब के जंगलों में
कोई दक्खिन के पठारों में.

पराजित सेनाओं का यह लौटना आधुनिक मानव की नकली जीत का ऐसा उदहारण है जिसमें हम हार कर भी जीत के भ्रम में हैं और अपनी अगली पीढ़ी को नकली जीत का प्रतीक सौंप रहे हैं. कविता का अंत होता है-

इसी बीच आसेतु पृथ्वी पर
बर्बरों का राज्य हो गया
और वे अपने-अपने एकांत में
जीत और गद्दारी के
पुराण रचते रहे.

सुनो भाई साधो
सब जग अंधा हो गया है 
मैं किसको समझाऊं

‘साधो’ को संबोधित कविताएँ हों या अन्य कविताएँ सब जगह ‘मछलीघर’ का ‘आतंरिक एकालाप’ अधिक सफाई से संवादधर्मी हो गया है. अशोक वाजपेयी इसे ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का पुनराविष्कार’ कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं. कबीर को अपने समय में साधने का यह सबसे कलात्मक और बेलौस अंदाज है जो सिर्फ साही के पास है.

कवि कबीर की कविता के प्रति आलोचक साही बहुत साकारात्मक नहीं थे. उन्हें जायसी पसंद थे. लेकिन साही ने बुनकरों की लड़ाई लड़ी. घूम-घूमकर उनका संगठन बनाया. उनके बीच रहे. बुनकरों के संघर्ष में आकंठ धंसे हुए जुलाहा कबीर उनके भीतर उतरते रहे. इसलिए हमें ‘साखी’ में ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का जो हम पुनराविष्कार’ दिखाई देता है, वह अकारण नहीं है. ‘अस्पताल में’ शीर्षक कविता में अस्पताल के वातावरण का चित्रण है. बीमार, डॉक्टर, दवा आदि की चर्चा है. अलग-अलग बीमारियाँ हैं और सभी मरीजों की अलग-अलग समस्याएँ हैं. कविता का अंत होता है-

साधो भाई
इस अस्पताल में
सब सो रहे हैं
सहज समाधि की तरह
सब करह रहे हैं
अनाहत नाद की तरह.

‘साखी’ संग्रह की कविताएँ अशोक वाजपेयी के शब्दों में:

“...ऐसे आदमी को केंद्र में प्रतिष्ठित करती हैं जिसका खुला-सजग व्यक्तित्व है, जो अपने निर्णय में अकेला भले हो पर अपने समुदाय की नियति और इतिहास से आबद्ध है और जो बहस करने को हरदम तैयार है. व्यक्ति की गरिमा और सामाजिकता में कोई द्वैत नहीं है. अपने समय के प्रश्नों और चिंताओं पर कविता के बाहर नहीं, कविता के अन्दर बहस कर साही ने कविता को चिंतन और विचार की भी एक प्रमाणिक विधा के रूप में जैसे पुनर्जीवित किया है. आज के संवाद-विमुख परिवेश में यह प्रयत्न, उसकी एकांत साहसिकता और संकल्प-शक्ति एक नया और अद्वितीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं.”

साही के यहाँ इतिहासबोध बहुत ही गहरा है. उनकी कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ बार-बार देखी जाती है. उन स्मृतियों को रेखांकित करते हुए साही वर्तमान के सामने खड़ा कर देते हैं. वे इतिहास के सहारे समकालीन राजनीति और जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं. उनके लिए इतिहास सिर्फ सांस्कृतिक अर्थ नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अर्थ भी देता है. ‘साखी’ में उनकी एक कविता है- ‘सत की परीक्षा’, जिसमें हमारे सांकृतिक इतिहास की अनुगूँज है. वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि लंका विजय के बाद राम ने सीता की पवित्रता के सत्यापन के लिए अग्नि-परीक्षा ली थी. अग्नि-परीक्षा में खरी उतरने पर ही उन्होंने सीता को स्वीकार किया था. तब से स्त्री की अग्नि-परीक्षा होती रही है और आज भी हो रही है. हमारे समय की एक विवाहित स्त्री जिसके चरित्र पर लांछन है, अग्नि-परीक्षा के लिए लोगों के बीच बैठी है. रामायण कालीन सांस्कृतिक सन्दर्भ के साथ साही आज की स्त्री की अग्नि-परीक्षा को उठाते हैं और ऐसा नायाब अर्थ देते हैं जिसे सिर्फ कबीरी अर्थ कहा जा सकता है. ‘सत की परीक्षा’ की स्त्री कहती है-

साधो आज मेरे सत की परीक्षा है
आज मेरे सत की परीक्षा है.

बीच में आग जल रही है
उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है
कड़ाह में तेल उबल रहा है
उस तेल में मुझे सब के सामने
हाथ डालना है
साधो आज मेरे सत की परीक्षा है.

एक ओर मेरे ससुराल के लोग हैं.
बड़ी बड़ी पाग बाँधे
ऊँचे चबूतरे पर बैठे हैं
मूँछे तरेरे हुए
भँवे ताने हुए हैं
नाक ऊँची किए हुए हैं.

आगे वर्णन है, अग्नि के समक्ष बैठा हुआ ससुराल का ब्राह्मण आरोप लगा रहा है कि उसकी छाती पर जो जड़ाऊ हार है, वह उसके कलंकित चरित्र का प्रमाण है. दूसरी ओर बैठे स्त्री के मायके वालों ने कहा कि वह हार एवं उसकी ‘लहर लेती चमक’ उनके पुरखों की थाती है. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. दस-पाँच गाँव के लोग भी इकट्ठे थे, लेकिन सब चुप थे. ऐसे में स्त्री क्या करे! ससुराल वालों के रवैये को, उनके अधिकार को, परीक्षा के इस ढंग को चुनौती दी जा सकती है. लेकिन वह स्त्री चुनौती नहीं देती. उसे लगता है कि यह मायका, ससुराल और सारी विरादरी के पुरखों की लहर लेती रौशनी के सत की परीक्षा है. वह अपना जो निर्णय सुनाती है वह हिंदी कविता का साहीपन है-

सुनो भाई साधो सुनो
और कोई रास्ता नहीं है
मुझे अपने दोनों हाथ
इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं
यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता
आंदोलित प्रकाश
सचमुच मेरे ह्रदय का वासी हो
तो यह खौलता हुआ कड़ाह
हाथ डालने पर
गंगा जल की तरह ठंडा हो जाय.

ऐसे ही, साधो, ऐसे ही.

नई कविता के संदर्भ में प्रश्नाकुलता की बड़ी चर्चा होती है. प्रश्नाकुलता को आधुनिकता का आधार माना जाता है. साही के यहाँ अपने समकालीनों की तुलना में प्रश्नों की संख्या अधिक है. वे प्रश्नों पर भी प्रश्न उठाने वाले कवि के रूप में सामने आते हैं. उनका यह कवि रूप सबसे अलग है. ‘बहस के बाद’ उनकी एक दिलचस्प कविता है-

असली सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन होगा?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि जिले से इस बार कितने मंत्री होंगे?

इस तरह असली सवालों की लम्बी फेहरिस्त है. तय नहीं है कि असली सवाल क्या है. सब अपने-अपने सवालों को असली मान रहे हैं. ऐसे में सचमुच सवाल है कि असली सवाल क्या है. कविता का अंत करते हुए साही कहते हैं-

सुनो भाई साधो
असली सवाल है
कि असली सवाल क्या है?

‘जिंदगी के साथ गंभीर हिस्सेदारी’ से पैदा होने के कारण साही की कविताओं में यथार्थ की ऊपरी परत के रेखांकन से परहेज है. उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन उनकी कविताओं में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होता. ‘साँप काटे हुए भाई से’ उनकी एक बहुत ही अर्थपूर्ण कविता है. एक आदमी को जहरीले साँप ने काट लिया है. धीरे-धीरे वह चेतना खो रहा है. कविता की शुरुआत होती है-

मुझे दिख रहा है
दिमाग धीरे-धीरे पथराता जा रहा है
अब तो नसों की ऐंठन भी महसूस नहीं हो रही है
और तुम्हें सिर्फ एक ऐसी
मुलायम सहलाने वाली रागिनी चाहिए
जो तुम्हें इस भारीपन में आराम दे सके
और तुम्हें हल्की जहरीली नींद आ जाये

आगे साँप काटे हुए व्यक्ति को जगाए रखने की तरह-तरह की तरकीबे हैं. साँप का विष उतारने के लिए लोक जीवन में किए जाने वाले उपायों का जीवंत वर्णन है. लेकिन कवि को लगता है कि ये सारे उपाय साँप काटे भाई को बचा नहीं पाएँगे. वह उसे सोने देना नहीं चाहता. कवि को उसके जगे रहने पर और उसकी जागती हुई आँखों पर अटूट भरोसा है. उसे लगता है कि अगर ऐसा हुआ तो साँप काटे भाई की चेतना लौट आएगी-

अगर भरोसा है तो सिर्फ तुम्हारे
बहते हुए खून
और जागती हुई आँखों का भरोसा है-
इस खून को जारी रखने के लिए
सोना मत.
ओ मेरे भाई सोना मत.

हमारे समय के आदमी को जब असत्य के सर्प ने डंस लिया हो, उसकी चेतना मर रही हो तब उसे जिलाए रखने का यह आह्वान कितना विस्मयकारी है!

साही की कविता में निरंतर एक जिज्ञासा, एक खोज, एक यात्रा और संवाद दिखाई देता है. पुराने के त्याग का आग्रह है तो ‘निरुत्तर शांति’ से परहेज भी है. पुराना सब कुछ छोड़ने के पश्चात् कवि के भीतर ‘निरुत्तर शांति’ किरकिराती है. ‘मछलीघर’ की एक कविता है ‘तीर्थ तो है वही....’ जिसमें तट पर खड़े कवि को बेताब लहरों का उछलना अच्छा नहीं लगता. पुराने सारे वसन धारा में बह जाते हैं और एक नया मनुष्य जन्म लेता है-

वह जो कुछ हुआ,
अब तो सत्य चाहे मिले
ढालों पर विकंपित
घने वन की फुनगियों से झाँकता-सा
चोटियों के मौन में
कुंड में चुपचाप बहते हुए जल की आर्सी में
बादलों से भरे नभ को देखते खामोश पक्षी में
गुजरते हुए राही में
अकेले फूल में
पर ओ नदी! अब तुम नहीं हो तीर्थ
तीर्थ तो है बर्फ का उजला सरोवर वही
जिसको छोड़कर हम तुम
चले थे साथ.

जो जैसा दीखता है वह वैसा है नहीं. संसार के रिश्ते जैसे उलट-पलट गए हैं. कहा जाता है कुछ और निकलता है कुछ. यह विडंबना कवि को परेशान करती है. ‘साखी’ की एक कविता है ‘क्या करूँ’. संसार की इस विडंबना पर कवि के भीतर प्रश्न ही प्रश्न हैं-

या तो मेरी आँखों को कुछ हो गया है
या अब दूर पास के रिश्ते ही उलट गये हैं
जिसके पास जाता हूँ
पहुँचने पर छोटा दिखने लगता है
साधो भाई
अब मैं क्या करूँ?

वह जो दूर से
पृथ्वी की एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैला हुआ
हिमालय नाम का नगाधिराज दिखता था
पास पहुँचने पर
बजाज की दूकान का गज निकला

इधर के वर्षों में कबीर का इकहरा पाठ खूब हुआ है. उनके बहु आयामी कवि व्यक्तित्व से आँख मूंदकर उन्हें एक ही तरह का राजनीतिक अर्थ देने की कोशिशें खूब हुई हैं. कवि कबीर पर आलोचक के रूप में साही विचार करते तो कौन-सा अर्थ सामने होता कहना मुश्किल है. लेकिन ‘साखी’ की कविताओं के जरिए उन्होंने अपने समय में मानो कबीर को खोज लिया हो. संग्रह की अंतिम कविता ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ में जिस कबीर को वे हमारे सामने रखते हैं वह नया कबीर है. इधर के वर्षों में वंचित समाज के लिए सहानुभूति की जो बाढ़ है उसकी जगह साही अंतहीन सहानुभूति की वाणी विनम्रता पूर्वक बोलना चाहते हैं. वे ऐसे कलेजा की कामना करते हैं जो भूखों के पक्ष में खड़ा हो और निर्भय हो. इसके बाद कवि की गुरु कबीरदास से प्रार्थना है-

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ

कोई भी मानेगा कि हिंदी कविता में यह काव्य-स्वर बिलकुल निराला और अलग है. यह हिंदी कविता की उपलब्धि है जो साही के हाथों संपन्न होती है.

मात्र अपने दो संग्रहों- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ के जरिए साही हिंदी कविता का नया विन्यास रचते हैं. उनकी कविता का आतंरिक एकालाप समाज से भी संवाद है और अपने से भी. ‘साखी’ में समाज को जो संबोधन है वह अपने को भी है. इन कारणों से साही की कविता में एक ऐसी नैतिक आभा है जो कबीर सरीखे कवियों में बड़े पैमाने पर आचरण से पैदा हुई थी. आधुनिक हिंदी कविता की यह नैतिक आभा अपने विस्तार में कुछ छोटी होने पर भी आधुनिक हिंदी कविता की मूल्यवान धरोहर है.

प्रारंभ में साही गीत लिखा करते थे. जब वे बनारस में थे तो शंभुनाथ सिंह जैसे गीतकारों के संग-साथ का प्रभाव था कि वे भी गीत लिखते थे. छंद और पूरे विधान के साथ वे गीत-रचना में संलग्न थे. प्रेम के गीत, समाज को जगाने वाले गीत और प्रकृति परक गीतों की रचना उन्होंने नए अंदाज में की. नमूने के तौर पर उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं. ‘माघ: दस बजे दिन’ शीर्षक गीत में जाड़े की धूप को साही जिस निगाह से देखते हैं उससे उनकी गीत-प्रतिभा का पता चलता है-

यह धूप बहकी बहकी
कि शराब-आसमानी
ये हवाएँ सरसराती
कि अलस भरी जवानी
लो दस बजा सुबह का
झंकार एक आई-
गति का विलास लहरा
फिर धूप मुस्कुराई
इस ज्योति के पटल पर
खुलते हुए कमल-सी
उठती हुई जवानी
बल खाई जगमगाई!

साही गीत के साथ कभी-कभी ग़ज़ल भी लिखते थे. चूँकि वे उर्दू-फ़ारसी के जानकार थे, इसलिए उनकी ग़ज़ल में उर्दू की रवानगी और उसका अनुशासन दिखाई देता है. वे ‘नज़र’ उपनाम से ग़ज़ल लिखते थे. नमूने के तौर पर उनकी एक छोटी-सी ग़ज़ल देखी जा सकती है-

इक उरूजो-ज़वाल देखा है
हमने दुनिया का हाल देखा है

अब संभलता नहीं किसी के कहे
हमने दिल को संभाल देखा है

हम उसी को ‘नज़र’ समझते हैं
जिसने तेरा जमाल देखा है

‘सड़क साहित्य’ के नाम से भी मन की मौज में साही कविताएँ लिखा करते थे. सड़क पर पैदल चलते हुए दोस्तों से गपशप में ऐसी कविताएँ जन्म लेती थीं. यह एक प्रकार का सहयोगी काव्य लेखन था जिसमें एक पंक्ति किसी मित्र की होती थी तो दूसरी साही की. सर्वेश्वर तब इलाहाबाद में रहते थे. उनके साथ ‘सड़क साहित्य’ के नाम पर ऐसी बहुतेरी कविताओं की रचना हुई. सर्वेश्वर का घर गली में था जो अपेक्षाकृत अच्छी थी. साही का घर सड़क पर था. सड़क टूटी हुई थी. एक दिन उसी सड़क पर शाम के वक्त चलते हुए सर्वेश्वर का पैर गड्ढ़े में पड़ा. वे गिरते-गिरते बचे. उनके मुंह से एक काव्य पंक्ति फूटी- ‘गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़कें न’. थोड़ी ही देर बाद साही ने अगली पंक्ति जोड़ी- ‘अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न’. इस तरह दो पंक्ति की यह कविता बनी-

गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़के न,
अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न.

इस तरह की बहुतेरी कविताओं की रचना हुई जो अब तक संकलित न हो पाई हैं.लेकिन, जैसा कि कहा गया साही की कवि रूप में स्थायी कीर्ति का मूलाधार- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ नामक उनके दो काव्य-संग्रह ही हैं.   
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रघुवीर सहाय : जीवन और कविता : विमल कुमार

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रघुवीर सहाय (9 दिसंबर,1929 -30 दिसंबर,1990) भारतीय लोकतंत्र की ख़ामियों, निर्बाध सत्ता की ताकत, और साधारण जन की यातना और विवशता के कवि हैं. उनकी कविताएँ निम्न मध्यवर्ग का अंतहीन शोक गीत हैं. वे भाषा को इस तरह बरतते हैं कि वह संवेदना की पर्त को छीलती चलती है.

आज रघुवीर सहाय का जन्म दिन है. इस अवसर पर रज़ा फाउंडेशन द्वारा विष्णु नागर द्वारा लिखी उनकी जीवनी ‘असहमति में उठा एक हाथ’ का लोकार्पण होना है जिसका प्रकाशन राजकमल ने किया है.

उनकी एक कविता ‘मेरा जीवन’ और कवि विमल कुमार की एक टिप्पणी आपके लिये.





मेरा जीवन
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मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं
उसमें कोई मेरा अनन्यतम भी है

पर मेरा एक और जीवन है
जिसमें मैं अकेला हूँ
जिस नगर के गलियारों, फुटपाथ, मैदानों में घूमा हूँ
हँसा खेला हूँ
उसके अनेक हैं नागर, सेठ, म्युनिस्पलम कमिश्नर, नेता
और सैलानी, शतरंजबाज और आवारे
पर मैं इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूँ

देह पर जो लता-सी लिपटी
आँखों में जिसने कामना से निहारा
दुख में जो साथ आए
अपने वक्त पर जिन्होंने पुकारा
जिनके विश्वास पर वचन दिए, पालन किया
जिनका अंतरंग हो कर उनके किसी भी क्षण में मैं जिया

वे सब सुहृद हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं
पर मैं अकेला हूँ

सारे संसार में फैल जाएगा एक दिन मेरा संसार
सभी मुझे करेंगे - दो चार को छोड़ - कभी न कभी प्यार
मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनाएँ
और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार
एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे - ये मेरे महत्व
डूब जाएगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में रंग में
मेरा यह ममत्व
जिससे मैं जीवित हूँ
मुझ परितप्त को तब आ कर वरेगी मृत्यु - मैं प्रतिकृत हूँ

पर मैं फिर भी जियुँगा
इसी नगरी में रहूँगा
रूखी रोटी खाउँगा और ठंड़ा पानी पियूँगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ.




मुक्तिबोध के बाद एक नया काव्य प्रतीक                      

विमल कुमार





क्या  रघुवीर सहाय  आजादी के बाद हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़े प्रतीक बन कर उभरे है?  मुक्तिबोध तार सप्तक  के कवि थे और घोषित रूप से मार्क्सवादी थे. तब नेमिचन्द्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल तथा गिरिजा कुमार भी मार्क्सवादी कवि थे लेकिन बाद में  सबके रास्ते अलग होते गए. रघुवीर सहाय दूसरे सप्तक के कवि थे और  बच्चन, रामकुमार वर्मा से प्रभावित थे तथा गिरिजा कुमार माथुर का भी उनपर असर रहा.

शुरू में वे  मार्क्सवादी थे  लेकिन उनका वामपंथियों से मोहभंग हुआ तो वे लोहिया के सम्पर्क में आकर समाजवादी हो गए और अंत तक समाजवादी रहे. हिंदी साहित्य में समाजवादी लेखकों राम बृक्ष बेनीपुरी, रेणु,विजय देव नारायण साही  को वामपंथी आलोचकों ने महत्व नही दिया .रघुवीर सहाय  के साथ भी शुरू में ऐसा ही हुआ पर बाद में उनके निधन के बाद उनके योगदान को वाम आलोचना ने रेखंकित करना शुरू किया और इसमे उनके वामपंथी शिष्यों का भी हाथ रहा. रघुवीर सहाय लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष कविता के नायक बनते गए जो अपने समय की सत्ता का क्रिटिक था. मुक्तिबोध नेहरू युग से मोह भंग और आत्मसंघर्ष के कवि थे तो रघुवीर सहाय उस दुविधा और अंधेरे से निकल चुके थे. लोहिया जी के प्रभाव के कारण उन्हें नेहरू युग और तत्कालीन सत्ता के चरित्र से बहुत शिकायतें थी और उसकी सीमा से वे वाकिफ भी  थे. शायद यह कारण रहा कि वह जे पी आंदोलन के समर्थक बने और इंदिरा गांधी के विरोधी थे. अगर हिंदी कविता के इतिहास को  देख जाए तो निराला, नागर्जुन, मुक्तिबोध सभी नेहरू के क्रिटिक थे.

रघुवीर सहाय को प्रतीक में अज्ञेय ने नौकरी दी और दिनमान में भी वह उनके सहयोगी बने पर अज्ञेय से भी उनकी असहमतियां रहीं जिनका प्रकटीकरण उन्होंने संकेतों में कई स्थानों पर  किया. अज्ञेय उनके लिए भाई जी नही थे जैसा विद्यानिवास मिश्र कहते थे. विद्यानिवास जी ने रघुवीर सहाय की ‘हमारी हिंदी कविता’ का मुखर विरोध किया था. विद्यानिवास मिश्र और अज्ञेय एक धरातल पर मिलते थे लेकिन सहाय जी उनके धरातल से अलग थे. प्रतीक में नौकरी देने के कारण अज्ञेय का एहसान उन पर जरूर था मगर उनका रास्ता अलग था यद्यपि दोनो जे पी के समर्थक थे. सहाय जी  अगर आज जीवित होते तो 9 दिसम्बर को 90 वर्ष के होते. लेकिन आज से तीस साल पहले ही उनका निधन हो गया था. एक लेखक के रूप में उनकी यह उम्र बहुत कम थी जबकि उनके कई समकालीन लेखक 90 वर्ष तक जीवित रहे.

रघुवीर सहाय ने अल्प आयु में ही दिनमान जैसी पत्रिका का सम्पादन कर एक आदर्श प्रस्तुत किया यद्यपि उसकी नींव अज्ञेय ने रखी थी पर हिंदी पत्रकारिता की दुनिया मे  दिनमान का स्मरण रघुवीर सहाय के कारण ही होता है. वह हिंदी की अंतिम वैचारिक पत्रिका थी जिसने अपने पाठकों को दृष्टिवान बनाया था. आज के नेता नीतीश और लालू भी कभी उसमें पाठक के रूप में पत्र लिखते थे. रेणु और निर्मल वर्मा तथा श्रीकांत वर्मा जैसे प्रखर लेखक तो जुड़े ही थे मनोहरश्याम जोशी जैसे अनेक लोग लिखने वालों में से थे. दिनमान ने एक युग को आवाज़ दी एक आंदोलन को भी स्वर दिया.

उनके निधन के 30 वर्ष बाद उनकी जीवनी विष्णु नागर ने लिखी है जो 1970 में रघुवीर से एक नए लेखक के रूप में जुड़े थे. गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद वह सम्भवत पहले ऐसे हिंदी संपादक हैं ज़िनकी जीवनी छप कर आई है. महावीरप्रसाद द्विवेदी,  बनारसी दास चतुर्वेदी,  शिवपूजन साहाय,   रामबृक्ष बेनीपुरी  जैसे अनेक सम्पादकों की कोई बाकायदा जीवनी अभी तक नही आई है. यह जीवनी ऐसे समय मे आई है जब हिंदी पत्रकारिता से विचारों की विदाई हो गई है. सम्पादक नाम की संस्था का अवमूल्यन हो चुका है और हिंदी पत्रकारिता बाजार के जाल में बुरी तरह फंस गई है. चैनल पत्रकारिता  ने पत्रकारिता का एजेंडा ही बदल दिया है. वैसे उस जमाने में प्रबंधन ने दिनमान को रविवार तथा इंडिया टुडे की तरहः बनाने पर दवाब डालना शुरू कर दिया था पर रघुवीर सहाय ने घुटने नही टेके. उन्होंने अपनी पत्रिका में अंग्रेजी के विज्ञापनों को भी छापने से मना कर दिया था. आज इन दशकों में आई पत्रकारों की पीढ़ी के लिए भले ही रघुवीर साहित्य एक रोल मॉडल न हो क्योंकि उनके लिए एंकर ही रोल मॉडल बन गए है. लेकिन इस से रघुवीर सहाय का महत्व कम नही हो जाता.

सच तो यह है कि रघुवीर सहाय जैसे पत्रकारों की अधिक जरूरत पड़ गयी है. उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना आवश्यक है क्योंकि पत्रकार को दृष्टि सम्पन्न होने जरूरी है. उसे भारतीय समाज की गहरी समझ हो. वह केवल सत्ता विमर्श को ही पत्रकारिता का ध्येय न बनाये. इसलिए उनकी जीवनी केवल नए पत्रकारों के लिए पथ प्रदर्शन का काम करेगी और आपातकाल में  पत्रकारिता की हालत से यह रूबरू भी कराएगी. यह सच है कि रघुवीर सहाय आपातकाल के खुल कर विरोध नहीं कर पाए थे लेकिन उनकी छवि एक कॉंग्रेस विरोधी पत्रकार की रही जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. जेपी ने 74 में उनकी नौकरी बचाई नहीं होती तो वे  सड़क पर आ जाते. उनके सहयोगी श्रीकांत वर्मा उन्हें दिनमान है हटवाने की फिराक में थे क्योंकि वह  आपातकाल में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बनने पर काफी ताकतवर हो गए थे.

सहाय जी  1951 में जब वह दिल्ली आए तो उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवर से आने के कारण उन्हें अपना परिवार भी पालना था. इसलिए उन्होंने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया लेकिन वे अपनी कविताओं में इसका विरोध करते रहे. उनकी कई कविताओं में आपातकाल की छवियाँ तो हैं ही उसके खतरे की घण्टी भी है. उनकी चर्चित कविता ‘रामदास’ आज के दौर की माब लिनचिंग की तस्वीर को  पहले ही दिखा देती है. वे भारतीय लोकतंत्र के क्रिटिक के रूप में नजर आते है. इस रूप में वे मुक्तिबोध के अगले चरण और उनका विस्तार है. मुक्तिबोध नेहरू युग के मोहभंग के कवि है तो रघुवीर सहाय भारतीय लोकतंत्र के सड़ने की भविष्यवाणी करने वाले कवि हैं. वे खतरों से हमें आगाह करने वाले कवि हैं.

पत्रकारिता में भी वे यही काम करते हैं और तब के युवा पत्रकारों से कई तरह के काम लेते है जिन पर आज कोई अखबार स्टोरी नहीं छापता. भारत भूषण अग्रवाल के निधन पर कवर स्टोरी दी जबकि आज भारत जी की जन्मशती पर दो पंक्ति खबर के रूप में भी नहीं छपती. यह सच है कि नई आर्थिक नीति के बाद से भारतीय पत्रकारिता बहुत बदल गयी है. खबरों की परिभाषा और प्रस्तुति एवम् उसका एजेंडा तक बदल गया है. ऐसे में यह जीवनी युवा पीढ़ी के पत्रकारों और लेखकों को कितना बदल पाएगी यह कहना मुश्किल है लेकिन उस दौर की पत्रकारिता की थोड़ी झांकी जरूर मिलेगी और थोड़ा इतिहास भी पता चल सकेगा.

रघुवीर सहाय का स्मरण उस इतिहास का स्मरण है जिसके आईने में हम देश के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकेंगे. रघुवीर सहाय की परंपरा कबीर, निराला, मुक्तिबोध की चली आ रही परम्परा की अगली कड़ी है हिन्दी साहित्य ने सत्ता के खिलाफ हमेशा एक  प्रतिरोध रचा है जिसको बचाये रखना बहुत जरूरी है. यह जीवनी भी वही सन्देश देती है. क्या हिंदी साहित्य में यह किताब कोई हस्तक्षेप कर पायेगी और कलम का सिपाही की तरह कोई उल्लेखनीय कृति बन पाएगी ? 
_________________
विमल कुमार  
सेक्टर 13 प्लाट 1016 वसुंधरा गाज़ियाबाद
मो.9968400416

तुम बाक़ी जानवरों के खिलौने क्यों नहीं बनाते : इवॉन्न वेरा : अनुवाद - नरेश गोस्वामी

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इवॉन्‍न वेरा (Yvonne Vera) अफ्रीका के कुछ महत्वपूर्ण कथाकारों मे से एक मानी जाती हैं.  उनका पहला संग्रह ‘Why Don't You Carve Other Animals’, 1992में प्रकाशित हुआ था.इस शीर्षक कहानी का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कर रहें हैं कथाकार नरेश गोस्वामी. कहानी आकार मे छोटी है और सांकेतिक भी.   





इवॉन्‍न वेरा के बारे में लिखते हुए जी कड़ा रखना पड़ता है. जिम्‍बॉब्‍वे में जन्‍मी इवॉन्‍न वेरा (1964-2005) को इस क़ायनात में कुल उनतालीस साल की जि़ंदगी मिली. 1992 में जब उनका पहला कहानी-संग्रहवाय डोंट यू कार्व अदर एनीमल्‍स आया तो वे टोरंटो से अपनी मास्‍टर डिग्री पूरी कर रही थीं. उनका पहला उपन्‍यास नीहांडा 1995 में छप कर आया. इसके बाद वह अपने वतन लौट आई. उन्‍होंने अपनी बाद की रचनाएंअंडर द टंग (1996), बटरफ़्लाइ बर्निंग (1998) तथा द स्‍टोन वर्जिंस  (2002) वहीं रहते हुए पूरी की. ईवॉन ने 2004 में फिर टोरंटो का रुख़ किया और 2005 में कहीं भी न लौटने के लिए चली गई.

मितकथन और संक्षिप्ति उनकी कहानियों का विशिष्‍ट गुण है. वह लिखती अभिधा में है, लेकिन पाठक को पता ही नहीं चलता कि सतह पर चलती कहानी कब विकल सांकेतिकता में दाखिल हो जाती है.
नरेश गोस्वामी 





इवॉन्‍न वेरा 
तुम बाक़ी जानवरों के खिलौने क्‍यों नहीं बनाते              
अनुवाद नरेश गोस्वामी  







ह अस्‍पताल के गेट के बाहर बैठा लकड़ी के खिलौने बनाता है. इस अस्‍पताल में केवल अफ़्रीकी लोग ही आते हैं.  तैयार हो चुके‍ खिलौने उसके आसपास ज़मीन पर बिछे पुराने अख़बारों पर रखे रहते हैं. उसकी दाईं तरफ़ एक पेंटर बैठा होता है. वह अपनी तैयार कलाकृतियों को अस्‍पताल की बाड़ से सटा कर रखता जाता है. ठसाठस शहर में कहीं कारों व आती-जाती भीड़ की ऊंची आवाज़ें उमड़ती रहती हैं तो कहीं सड़क पर चलते ट्रैफिक को चेतावनी देती नारंगी रोशनी वाली एम्‍बुलेंस इमरजेंसी युनिट की ओर दौड़ती रहती हैं.  

लकड़ी तराश कर खिलौने बनाने वाले यह शिल्‍पी जब हाथी और ज़रा सी टेढ़ी गर्दन वाले जिराफ़ की आकृति गढ़ता है तो जंगल को शहर में ले आता है.  उसके जानवर अख़बार के रंगीन पन्‍नों पर चलते हैं, लेकिन उसे इसका दुख है कि वे निर्जीव होते हैं.  कभी-कभी जब वह गुस्‍से में होता है तो अपने इन जानवरों को बड़ी बेदर्दी से गत्‍ते के बक्‍से में डाल देता है.  तब उसे अस्‍पताल के गेट से गुज़रते अस्‍त-व्‍यस्‍त ट्रैफिक के बरअक्‍स जानवरों की इन निर्जीव आकृतियों को देखना ज़रा भी नहीं सुहाता.  

बोलो, तुम्‍हें मगरमच्‍छ चाहिए?यह बहुत अच्‍छा मगरमच्‍छ है.  इसे लेना चाहते हो ?मां अपने बच्‍चे को चुमकारते हुए पूछ रही है.  वह बच्‍चे को अस्‍पताल दिखाने लाई होगी.  वह रो रहा है.  उसके दायें हाथ पर सफ़ेद पट्टी बंधी है.  बच्‍चे ने इस हाथ को दूसरे हाथ से पकड़ रखा है.  उसे एहसास है कि मां का ध्‍यान उसी पर लगा है.  वह अपनी इस अस्‍थायी विकृति पर और ज्‍़यादा ध्‍यान खींचना चाहता है.  मां नीचे झुक कर उसकी आंखों में जैसे याचना के साथ देखती है.  

उसे सुईं लगाई गयी थी.  तुम तो जानते ही हो कि बच्‍चों को सुईं से कितना डर लगता है
मां आदमी से कहती है.  उसने मगरमच्‍छ खरीद कर बच्‍चे के हाथ में दे दिया है.  आदमी अपने एक जानवर को बच्‍चे की नन्‍हीं उंगलियों के बीच जाते देखता है.  उसके जानवर निष्‍प्राण हैं, उसके मन में आता है कि वह उन्‍हें दुबारा बक्‍से में रख दे.  वह सोचता है क्‍या इस बंजर शहर में, जहां डामर की सड़कें ही नदियों की तरह बहती हैं, यह बच्‍चा कभी सचमुच के मगरमच्‍छ को चलते देख पाएगा.  


सफ़ेद कोट पहने एक आदमी हाथियों को देख रहा है.  वह लकड़ी से खिलौने बनाते हुए इस आदमी को भी देख रहा है.  वह एक लाल रंग के हाथी को उठाता है.  कलाकार ने हाथी के दांत उसके शरीर के साथ ही गढ़ दिए हैं.  इसलिए वह अपने दांत ऊपर नहीं उठा सकता. लाल हाथी ? अजनबी पशोपेश में पड़ गया है.  वह विस्मित है.  हालांकि यह हाथी सही ढंग से नहीं तराशा गया है, वह अपने दांत भी ऊपर नहीं उठा सकता, लेकिन अजनबी इसी हाथी को ख़रीदने का फ़ैसला करता है.  वह इस हाथी को अपने दफ़्तर की खिड़की के बाजू में रखेगा जहां से वह लाइन में खड़े मरीज़ों को देखता रहेगा.  हाथी के चेहरे पर आंख क्‍यों नहीं हैं ? शायद उसकी आंखें रोगन से ढक गयी हैं.  

खिलौने बनाने वाले के मुंह से अचानक अपशब्‍द निकला है.  
क्‍या दिक्‍क़त हुई?,पेंटर पूछता है.  
इस जिराफ़ की गर्दन तो देखो.  

पेंटर जिराफ़ पर नज़र डालता है.  दोनों दबे-दबे स्‍वर में हंसने लगते हैं.  अगर कोई मरीज़ के इतने नज़दीक बैठा हो तो हंसना आसान नहीं होता.  खिलौने बनाने वाले को ख़याल आता है कि कहीं वह अपने जानवरों में ख़ुद अपनी या उस मरीज़ की छवि तो नहीं उकेर देता जो ठिठक कर  उसके इन निर्जीव जानवरों को देखने लगता है.  वह अपने बाजू में रखे गत्‍ते के बक्‍से पर नज़र फेंकता है और उसे लोगों की आंखों से दूर छाया में रख देता है.  

तुम दूसरे जानवर... मतलब जैसे शेर या चिम्‍पैंजी क्‍यों नहीं बनाते ?’पेंटर पूछता है.  

तुम हमेशा जिराफ़ बनाते रहते हो... तुम्‍हारा इकलौता मगरमच्‍छ ख़रीद लिया गया है. शायद खिलौने बनाने वाला आदमी थोड़ा-बहुत पेंटर के असर में रहता है.  उसके जानवरों पर रंग लगाने का काम वही करता है.  लाल हाथी का विचार भी उसी का था.  

हाथी सदियों से जंगल का राजा रहा है, उसका वूजूद जंगल से भी पुराना है, लेकिन जिराफ़ अपनी गर्दन पेड़ों के ऊपर इस तरह उचका कर चलता है जैसे जंगल उसकी बपौती हो.  वह सबसे ऊंचाई वाली पत्तियां खाता है, जबकि हाथी पूरा दिन कीचड़ में लोट लगाता है.  क्‍या तुम्‍हें यह बात दिलचस्‍प नहीं लगती ? मतलब हाथी और जिराफ़ का यह द्वंद, उसका जंगल की सबसे ऊंचाई वाली पत्तियों को खाना ?’

केवल अफ़्रीकी लोगों के लिए आरक्षित अस्‍पताल की इमरजेंसी युनिट में एम्‍बुलेंस सर्राटे से दौड़ जाती हैं.  

विक्‍टोरिया फाल्‍स की तस्‍वीर पर आखि़री बार कूची चलाते हुए पेंटर एक क्षण के लिए सोचता है.  उसने यह तस्‍वीर अख़बारों और पत्रिकाओं से उठाई स्‍मृति के आधार पर बनाई है.  उसने विक्‍टोरिया फाल्‍स को अपनी आंखों से कभी नहीं देखा.  वह सोचता है कि तस्‍वीर में भाव पैदा करने के लिए पानी का रंग नीला होना चाहिए.  उसे बताया गया है कि जब नक़्शे पर पानी दिखाना हो तो उसका रंग नीला होना चाहिए और जब पानी की मात्रा बहुत ज्‍यादा हो- जैसा कि समुद्र में होता है तो पानी आसमान की तरह दिखने लगता है.  इसलिए नीले रंग का वह कुछ इस इफ़रात से इस्‍तेमाल कर रहा है कि चट्टान के नुकीले शीर्ष पर नीली लहरों का फैलाव अस्‍वाभाविक लगने लगा है.
                         

जिराफ़ शान और अकड़ के साथ इसलिए चलता है क्‍योंकि उसकी पीठ पर वह सुंदर झालर सी होती है.  सारे झगड़े की जड़ वही है वर्ना तो दोनों की हैसियत बराबर की है, हाथी भी अपने लंबे दांतों से पत्तियों तक पहुंच सकता है और जिराफ़ के पास तो ख़ैर लंबी गर्दन पहले से ही होती है.  

वह तस्‍वीर के कोने में एक प्रेमी-जोड़े को बैठा देता है.  नीले पानी में एक दूसरे के प्‍यार में डूबे इन प्रेमियों ने एक दूसरे को बाहों में भर रखा है.  वह चाहता है कि पानी इन प्रेमियों को कोई गीत सुनाए.  इसलिए वह तस्‍वीर के ऊपरी हिस्‍से में झरने के ऊपर मंडराती एक चिडि़या की तस्‍वीर भी बना देता है.  चूंकि चिडि़या गाना गा रही है, इसलिए उसकी चोंच खुली हुई है. उसे यकायक़ अफ़सोस होता है कि उसने कौवे की तरह दिखती इस काली चिडि़या की जगह फ़ाख्‍़ता क्‍यों नहीं बनाई!


खिलौने वाला थोड़ा रोगन उठाकर छोटी गर्दन वाले जिराफ़ की पीठ पर पीली और काली बिंदियां  बनाने लगा है.  वह यह बात बहुत पहले स्‍वीकार कर चुका है कि उससे जानवर ठीक तरह से नहीं बन पाते, लेकिन वह उन्‍हें फेंकेगा नहीं.  मुमकिन है कि अफ़्रीकी लोगों के लिए आरक्षित इस अस्‍पताल से बाहर आने वाले किसी आदमी को उसकी यह कला-कृति भा जाए. लेकिन जैसे ही वह पीले-काले चकत्‍ते लगाकर हटा है तो क्‍या देखता है कि उसका लगाया रंग जानवर के दोनों ओर फैल गया है और वह ज़ेबरा की तरह दिखने लगा है.
                      

तुम कभी कुत्‍ता या बिल्‍ली क्‍यों नहीं बनाते ?’मतलब एक ऐसी चीज़ जिससे शहर के लोग परिचित हों.  तुम अगर चूहा ही बना दो तो वह भी चलेगा क्‍योंकि शहर चूहों से भरा पड़ा है

वहां जैसे हंसी का फव्‍वारा फूट पड़ा है.  पेंटर को एहसास होता है कि झरने से छिटकती बूंदें प्रेमी-जोड़े पर पड़ रही होंगी.  इसलिए वह उनके सर पर एक लाल रंग की छतरी बिठा देता है. तभी उसे अचानक याद आता है कि तस्‍वीर में कोई चीज़ ग़ायब है.  और वह प्रेमी-जोड़े के खुले हाथों को थोड़ा और लंबा कर देता है और उनके हाथों में पीले रंग की आइसक्रीम रख देता है.  अब वह तस्‍वीर जीवंत हो उठी है.       

भला, कुत्‍ता बनाने के पीछे क्‍या तुक है तुम कुत्‍ते, बिल्लियों या चूहों की तस्‍वीरें क्‍यों नहीं बनाते ?' इस आदमी ने, जो इतनी तन्‍मयता से हाथी और जिराफ़ गढ़ता रहता है, आज तक न कभी हाथी देखा है, न ही कोई जिराफ़.  वह लकड़ी का एक बेड़ौल टुकड़ा उठाता है.  

यह जिराफ़ होगा या हाथी?’वह लकड़ी तराश रहा है और इसी तराश में उसका स्‍वप्‍न चल रहा है.   
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naresh.goswami@gmail.com 

रघुवीर सहाय : जीवन और कविता : विमल कुमार

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रघुवीर सहाय (9 दिसंबर,1929 -30 दिसंबर,1990) भारतीय लोकतंत्र की ख़ामियों, निर्बाध सत्ता की ताकत की छुपी हिंसा, और साधारण जन की यातना और विवशता के कवि हैं. उनकी कविताएँ निम्न मध्यवर्ग का अंतहीन शोक गीत हैं. वे भाषा को इस तरह बरतते हैं कि वह संवेदना की पर्त को छीलती चलती है.

आज रघुवीर सहाय का जन्म दिन है. इस अवसर पर रज़ा फाउंडेशन द्वारा विष्णु नागर द्वारा लिखी उनकी जीवनी ‘असहमति में उठा एक हाथ’ का लोकार्पण होना है जिसका प्रकाशन राजकमल ने किया है.

उनकी कविता ‘मेरा जीवन’ और कवि विमल कुमार की टिप्पणी आपके लिये.








मेरा जीवन
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मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं
उसमें कोई मेरा अनन्यतम भी है

पर मेरा एक और जीवन है
जिसमें मैं अकेला हूँ
जिस नगर के गलियारों, फुटपाथ, मैदानों में घूमा हूँ
(१९६०)
हँसा खेला हूँ
उसके अनेक हैं नागर, सेठ, म्युनिस्पलम कमिश्नर, नेता
और सैलानी, शतरंजबाज और आवारे
पर मैं इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूँ

देह पर जो लता-सी लिपटी
आँखों में जिसने कामना से निहारा
दुख में जो साथ आए
अपने वक्त पर जिन्होंने पुकारा
जिनके विश्वास पर वचन दिए, पालन किया
जिनका अंतरंग हो कर उनके किसी भी क्षण में मैं जिया

वे सब सुहृद हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं
पर मैं अकेला हूँ

सारे संसार में फैल जाएगा एक दिन मेरा संसार
सभी मुझे करेंगे - दो चार को छोड़ - कभी न कभी प्यार
(१९६७)
मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनाएँ
और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार
एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे - ये मेरे महत्व
डूब जाएगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में रंग में
मेरा यह ममत्व
जिससे मैं जीवित हूँ
मुझ परितप्त को तब आ कर वरेगी मृत्यु - मैं प्रतिकृत हूँ

पर मैं फिर भी जियुँगा
इसी नगरी में रहूँगा
रूखी रोटी खाउँगा और ठंड़ा पानी पियूँगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ.




मुक्तिबोध के बाद एक नया काव्य प्रतीक                      

विमल कुमार





क्या  रघुवीर सहाय  आजादी के बाद हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़े प्रतीक बन कर उभरे है?  मुक्तिबोध तार सप्तक  के कवि थे और घोषित रूप से मार्क्सवादी थे. तब नेमिचन्द्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल तथा गिरिजा कुमार भी मार्क्सवादी कवि थे लेकिन बाद में  सबके रास्ते अलग होते गए. रघुवीर सहाय दूसरे सप्तक के कवि थे और  बच्चन, रामकुमार वर्मा से प्रभावित थे तथा गिरिजा कुमार माथुर का भी उनपर असर रहा.

(१९७५)


शुरू में वे  मार्क्सवादी थे  लेकिन उनका वामपंथियों से मोहभंग हुआ तो वे लोहिया के सम्पर्क में आकर समाजवादी हो गए और अंत तक समाजवादी रहे. हिंदी साहित्य में समाजवादी लेखकों राम बृक्ष बेनीपुरी, रेणु,विजय देव नारायण साही  को वामपंथी आलोचकों ने महत्व नही दिया .रघुवीर सहाय  के साथ भी शुरू में ऐसा ही हुआ पर बाद में उनके निधन के बाद उनके योगदान को वाम आलोचना ने रेखंकित करना शुरू किया और इसमे उनके वामपंथी शिष्यों का भी हाथ रहा. रघुवीर सहाय लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष कविता के नायक बनते गए जो अपने समय की सत्ता का क्रिटिक था. मुक्तिबोध नेहरू युग से मोह भंग और आत्मसंघर्ष के कवि थे तो रघुवीर सहाय उस दुविधा और अंधेरे से निकल चुके थे. लोहिया जी के प्रभाव के कारण उन्हें नेहरू युग और तत्कालीन सत्ता के चरित्र से बहुत शिकायतें थी और उसकी सीमा से वे वाकिफ भी  थे. शायद यह कारण रहा कि वह जे पी आंदोलन के समर्थक बने और इंदिरा गांधी के विरोधी थे. अगर हिंदी कविता के इतिहास को  देख जाए तो निराला, नागर्जुन, मुक्तिबोध सभी नेहरू के क्रिटिक थे.

रघुवीर सहाय को प्रतीक में अज्ञेय ने नौकरी दी और दिनमान में भी वह उनके सहयोगी बने पर अज्ञेय से भी उनकी असहमतियां रहीं जिनका प्रकटीकरण उन्होंने संकेतों में कई स्थानों पर  किया. अज्ञेय उनके लिए भाई जी नही थे जैसा विद्यानिवास मिश्र कहते थे. विद्यानिवास जी ने रघुवीर सहाय की ‘हमारी हिंदी कविता’ का मुखर विरोध किया था. विद्यानिवास मिश्र और अज्ञेय एक धरातल पर मिलते थे लेकिन सहाय जी उनके धरातल से अलग थे. प्रतीक में नौकरी देने के कारण अज्ञेय का एहसान उन पर जरूर था मगर उनका रास्ता अलग था यद्यपि दोनो जे पी के समर्थक थे. सहाय जी  अगर आज जीवित होते तो 9 दिसम्बर को 90 वर्ष के होते. लेकिन आज से तीस साल पहले ही उनका निधन हो गया था. एक लेखक के रूप में उनकी यह उम्र बहुत कम थी जबकि उनके कई समकालीन लेखक 90 वर्ष तक जीवित रहे.

(१९८२)


रघुवीर सहाय ने अल्प आयु में ही दिनमान जैसी पत्रिका का सम्पादन कर एक आदर्श प्रस्तुत किया यद्यपि उसकी नींव अज्ञेय ने रखी थी पर हिंदी पत्रकारिता की दुनिया मे  दिनमान का स्मरण रघुवीर सहाय के कारण ही होता है. वह हिंदी की अंतिम वैचारिक पत्रिका थी जिसने अपने पाठकों को दृष्टिवान बनाया था. आज के नेता नीतीश और लालू भी कभी उसमें पाठक के रूप में पत्र लिखते थे. रेणु और निर्मल वर्मा तथा श्रीकांत वर्मा जैसे प्रखर लेखक तो जुड़े ही थे मनोहरश्याम जोशी जैसे अनेक लोग लिखने वालों में से थे. दिनमान ने एक युग को आवाज़ दी एक आंदोलन को भी स्वर दिया.

उनके निधन के 30 वर्ष बाद उनकी जीवनी विष्णु नागर ने लिखी है जो 1970 में रघुवीर से एक नए लेखक के रूप में जुड़े थे. गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद वह सम्भवत पहले ऐसे हिंदी संपादक हैं ज़िनकी जीवनी छप कर आई है. महावीरप्रसाद द्विवेदी,  बनारसी दास चतुर्वेदी,  शिवपूजन साहाय,   रामबृक्ष बेनीपुरी  जैसे अनेक सम्पादकों की कोई बाकायदा जीवनी अभी तक नही आई है. यह जीवनी ऐसे समय मे आई है जब हिंदी पत्रकारिता से विचारों की विदाई हो गई है. सम्पादक नाम की संस्था का अवमूल्यन हो चुका है और हिंदी पत्रकारिता बाजार के जाल में बुरी तरह फंस गई है. चैनल पत्रकारिता  ने पत्रकारिता का एजेंडा ही बदल दिया है. वैसे उस जमाने में प्रबंधन ने दिनमान को रविवार तथा इंडिया टुडे की तरहः बनाने पर दवाब डालना शुरू कर दिया था पर रघुवीर सहाय ने घुटने नही टेके. उन्होंने अपनी पत्रिका में अंग्रेजी के विज्ञापनों को भी छापने से मना कर दिया था. 
(१९८९)


आज इन दशकों में आई पत्रकारों की पीढ़ी के लिए भले ही रघुवीर साहित्य एक रोल मॉडल न हो क्योंकि उनके लिए एंकर ही रोल मॉडल बन गए है. लेकिन इस से रघुवीर सहाय का महत्व कम नही हो जाता.

सच तो यह है कि रघुवीर सहाय जैसे पत्रकारों की अधिक जरूरत पड़ गयी है. उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना आवश्यक है क्योंकि पत्रकार को दृष्टि सम्पन्न होने जरूरी है. उसे भारतीय समाज की गहरी समझ हो. वह केवल सत्ता विमर्श को ही पत्रकारिता का ध्येय न बनाये. इसलिए उनकी जीवनी केवल नए पत्रकारों के लिए पथ प्रदर्शन का काम करेगी और आपातकाल में  पत्रकारिता की हालत से यह रूबरू भी कराएगी. यह सच है कि रघुवीर सहाय आपातकाल के खुल कर विरोध नहीं कर पाए थे लेकिन उनकी छवि एक कॉंग्रेस विरोधी पत्रकार की रही जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. जेपी ने 74 में उनकी नौकरी बचाई नहीं होती तो वे  सड़क पर आ जाते. उनके सहयोगी श्रीकांत वर्मा उन्हें दिनमान है हटवाने की फिराक में थे क्योंकि वह  आपातकाल में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बनने पर काफी ताकतवर हो गए थे.



सहाय जी  1951 में जब वह दिल्ली आए तो उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवर से आने के कारण उन्हें अपना परिवार भी पालना था. इसलिए उन्होंने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया लेकिन वे अपनी कविताओं में इसका विरोध करते रहे. उनकी कई कविताओं में आपातकाल की छवियाँ तो हैं ही उसके खतरे की घण्टी भी है. उनकी चर्चित कविता ‘रामदास’ आज के दौर की माब लिनचिंग की तस्वीर को  पहले ही दिखा देती है. वे भारतीय लोकतंत्र के क्रिटिक के रूप में नजर आते है. इस रूप में वे मुक्तिबोध के अगले चरण और उनका विस्तार है. मुक्तिबोध नेहरू युग के मोहभंग के कवि है तो रघुवीर सहाय भारतीय लोकतंत्र के सड़ने की भविष्यवाणी करने वाले कवि हैं. वे खतरों से हमें आगाह करने वाले कवि हैं.


पत्रकारिता में भी वे यही काम करते हैं और तब के युवा पत्रकारों से कई तरह के काम लेते है जिन पर आज कोई अखबार स्टोरी नहीं छापता. भारत भूषण अग्रवाल के निधन पर कवर स्टोरी दी जबकि आज भारत जी की जन्मशती पर दो पंक्ति खबर के रूप में भी नहीं छपती. यह सच है कि नई आर्थिक नीति के बाद से भारतीय पत्रकारिता बहुत बदल गयी है. खबरों की परिभाषा और प्रस्तुति एवम् उसका एजेंडा तक बदल गया है. ऐसे में यह जीवनी युवा पीढ़ी के पत्रकारों और लेखकों को कितना बदल पाएगी यह कहना मुश्किल है लेकिन उस दौर की पत्रकारिता की थोड़ी झांकी जरूर मिलेगी और थोड़ा इतिहास भी पता चल सकेगा.

रघुवीर सहाय का स्मरण उस इतिहास का स्मरण है जिसके आईने में हम देश के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकेंगे. रघुवीर सहाय की परंपरा कबीर, निराला, मुक्तिबोध की चली आ रही परम्परा की अगली कड़ी है हिन्दी साहित्य ने सत्ता के खिलाफ हमेशा एक  प्रतिरोध रचा है जिसको बचाये रखना बहुत जरूरी है. यह जीवनी भी वही सन्देश देती है. क्या हिंदी साहित्य में यह किताब कोई हस्तक्षेप कर पायेगी और कलम का सिपाही की तरह कोई उल्लेखनीय कृति बन पाएगी ? 
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विमल कुमार  
सेक्टर 13 प्लाट 1016 वसुंधरा गाज़ियाबाद
मो.9968400416

त(लाश) : पीयूष दईया

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जो अ-रीति है, अ-पारम्परिक है, नवोन्मेष है वह रीति की आरोपित बाध्यता पर चोट है, इस आघात से बोध और सौन्दर्य के विस्तार का रास्ता निकलता है.

कवि-संपादक पीयूष दईयासाहित्य के साथ इतर कलाओं से भी सुमुख होते रहें हैं. उनका नया कविता संग्रह ‘त(लाश)’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है. उनकी कविताओं में भाषा की सर्जनात्मकता का अगला पड़ाव दीखता है. लगभग ८० वर्षों से हिंदी कविता का जो ढांचा तैयार हुआ है जो कमोबेश अभी भी वैसा ही है उसमें कुछ कतर-बयौंत की कोशिश की गयी है. कृष्ण बलदेव वैद के शब्दों में ‘संश्लिष्ट संवेदना’ और ‘संक्षिप्त संरचना’ का सुख है.

यह संग्रह जितना कवि पीयूष दईया का है उतना ही प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश का भी. आवरण तो उन्होंने तैयार किया ही है इसमें उनके रेखांकन भी शामिल हैं.


इस अंक में कविता के साथ कुछ रेखाकंन भी दिये जा रहें हैं. यह ख़ास अंक आपके लिये.  




प्रिय पीयूष,

यह तुम्हारी कविता-पुस्तक, ''त(लाश),''का आमुख है जो मैं तुम्हारे नाम एक पत्र के बहाने या भेस में तुम्हारे पाठकों को भेज रहा हूँ क्योंकि उनका अता-पता मुझे मालूम नहीं और वैसे भी मैंने हमेशा बतौर लेखक अपने या किसी और के 'प्रिय पाठक'या पाठक वर्ग को सीधे संबोधित करने की दीदा-दिलेरी या भूल अभी तक कम ही की है. इस आमुख में मैं तुम्हें संबोधित तो कर रहा हूँ लेकिन मेरी ख्वाहिश यही है कि मैं तुम्हें भी शीघ्र ही भूल जाऊं और ऐसे बोलने या लिखने लगूं जैसे कोई सयाना पागल एक-आलाप बोल या लिख रहा हो.

इस कविता पुस्तक की जान, हर उत्कृष्ट कविता-पुस्तक की तरह, इसकी भाषा और भाषा-संयोजन में है. यूं तो भाषा सारे साहित्य का एक ऐसा अंग होती है जिसकी कलात्मक शक्ति और विशिष्टता के बग़ैर वह साहित्य कहला ही नहीं सकता, लेकिन कविता उसकी सब विधाओं में से सब से अधिक भाषा और भाषा-संयोजन पर निर्धारित है. यह संकेत हमें इसके शीर्षक का श्लेष भी देता है और इसकी कविताओं का भाषा-खेल भी. इस पुस्तक की सारी कविताओं पर तलाश और लाश हावी हैं--जीव अजीव की तलाश में है, अजीव जीव की; और किसी-किसी कविता में इन दोनों का आपसी भेदभाव मिट जाता महसूस होता है.

यूं तो इस पुस्तक की सब कविताएँ पाठक से यह मांग करती हैं कि उन्हें आराम और ध्यान से कई बार पढ़ा जाए  तभी उनका पूरा आनंद लिया जा सकता है लेकिन कुछ कविताओं में क्योंकि तुम ने प्रयोग सब से अधिक किये हैं इसलिए इनका काठिन्य इनकी सादगी के बावजूद बढ़ गया है; और इनकी यह मांग भी अगर ज़यादा जिद्दी हो गयी हो तो मुझे हैरानी नहीं होगी. मैं ने संग्रह की कविताओं को खुद कई बार पढ़ा है और हर पढ़त में पिछली बार की पढ़त से अधिक आनंद आया है. इस पत्रामुख में यही कि तुम्हारी कविताएँ नवाचारी हैं, मौलिक और आला दर्जे की हैं, उनकी संश्लिष्ट संवेदना और संक्षिप्त संरचना मुझे बेहद पसन्द आयी हैं.

कृष्ण बलदेव वैद    


यामा और अन्य कविताएँ                                



1)

वह अपने को मेरे दिल में छोड़ देती है खोलने के लिए
दूसरी गाँठ से एक पाण्डुलिपि में जहाँ मैं खुलता हूँ

प्रवास में
गोया एक भूला शब्द

खिल आया हो ऐसे यामा में
जिसे वह उचारती है

अपने में तिरोहन के लिए


2)

अँधेरी आँख में वह रचती है मार्ग
अपना पहला अक्षर
---निःशब्द

भीतर है
यामा


3)

जिस एक शब्द में अपने को अक्षर ढाल नहीं सके वह उजागर है जहाँ से एक ही बार देखने के लिये ऐसे पूरा हो रहा है शरीर जैसे आवाज़ में अक़्स उतरना हो यामा का

अपने आप में लौट आती साँस के लिये जो औषधि है
वही एकमात्र रिक्त स्थल है निसर्ग में पहले से

जब आँखें पलट जाने में हों
एक शब्द में


4)

वह एक ईमानदार जवाब सुन सका, अपने समापन के समय जब असली नाम की भूमिका समाप्त हो चुकी है, सभी नक़ाबों के भीतर से

जैसे वह कोई ऐसा लिफ़ाफ़ा हो जिस में कभी इबारत का वास न रहा हो, जिसे किसी ग़ैबी ताक़त ने इसीलिए लिखने से रोक रखा हो ताकि ख़ाली रह सके, आज के अभी आने में जहाँ सारी ज़बानों में ख़ामोश

वह

शब्द पाने के लिए एक क्षण तक की पलकें खोलने में पता न चला सके कि जीवन में चीर कहाँ है क्योंकि होनी के वश में नाता ऐसा लिखा है जो केवल यामा का रचाया हो सकता है
आलाप के रेशों से,

नोंक यदि जानो
तो---


5)

आज कविताएँ संग्रह से अलग हो गयी हैं
जैसे अपना छत्ता छोड़ मधुमक्खियाँ उड़ गयी हों

वे कहाँ गयीं किसी को कुछ नहीं कहा

अब काव्य-पोथी ख़ाली है
अकेले खेलती

अपने नाम से


6)

छान मारा पर सुराग़ नहीं मिला
जिस आँख से देखा उसे फिर एक बार देख लेना चाहिए
जब तक सूझता नहीं तब तक बत्ती जलाये रखना चाहिए
या सब ऊपर छत तक धो डालना चाहिए
या सब सूँघते-साँघते टटोलता ही चलूँ

वहाँ जहाँ से
हर शै गोल है

जो बदल जाय एक ताले में जिस में चाबी घुमा
खोल दे कोई और देख-पा लूँ वही
जो कुछ न हो

मुझ में


7)

पाटी की खड़िया बन शून्य को लिखना है
अपना ही (अ)नाम
निर्बन्ध

कातते हुए अन्तिमाक्षर
तक

जब सारा पूर्वाश्रम गल-सा जाय

भाप समान
वर्णन
में

भासता
अलख आँक से

वही जो गेरुआ है डूबे सूरज का : बैरागी-सा

अपना
अपने से बाहर

लिखते हुए
अपनी पारी में

लिख गया जो पाटी पर अब पोंछा नहीं जा सकता


8)

लिखने में सारी स्याही मेरी कालिख में बदल गयी

ऐसे अछूत हो गया है
प(.)त्र यह

मुझ
से


9)

द्वार के पाखे पर झुका हुआ सरल सिर सलोना
लहलहाता जैसे पूरा खेत पक जाने पर हवा में

दीख जायेगा पाही से



10)

धान की हर पोर में बहता जा रहा पवन
पक्षी की काकलि है : प्रातः
                          में
विभोर

जहाँ यामा नहीं है


11)

यह आभास मिला : उस के लिए कोई तुरुप का पत्ता बना ही नहीं. वह मौनावती है, अगोचर
बनाती मुझे

स्फटिक के एक ही क्षण में
दीठ केवल

उड़ान में पीछे छोड़ देती
जहाँ उच्चारण नहीं है


12)

शरीर के मरुथल में प्यासा वह लटका है मकड़जाल-सा
अपने ही सचराचर में

निरुत्तर
यामा से : देखता
           यही अभी-प्रेत है

इहधाम की मिट्टी का


13)

पूरी हो जायेगी वह : बाहर चले आओ---
यहाँ यवनिका नहीं. अपने हाथों
बुझा दिया दीया है

इ ह धा म
की मिट्टी का


14)

जिस चलचित्र में कभी छलती नहीं
उस रूपकथा के अन्तिम परिच्छेद में
हँसती हुई वह

रोशनी का विलोम है

जिसे तज देना है
काकविष्ठा की तरह

अलम के लिए

(छायाकार : सत्यानन्द निरुपम)
_________________________ 

पीयूष दईया
जन्म : अगस्त १९७२, बीकानेर (राज.)


प्रकाशित-कृतियाँ :

दो कविता-संग्रह, एक काव्य-कथा
और अनुवाद की दो पुस्तकें.
चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद.
साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन.

सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की एक परियोजना 'रज़ा पुस्तक माला'से सम्बद्ध.
ई मेल : todaiya@gmail.com

परख : वह औरत नहीं महानद थी (कौशल किशोर) :रामकुमार कृषक

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कवि, संस्कृतिकर्मी कौशल किशोर का कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ का प्रकाशन ‘बोधि’ ने किया है. इसकी समीक्षा लिखी है रामकुमार कृषक ने. 







जीवन संगीत की काव्यात्मक लय                    
रामकुमार कृषक



प्रगतिशीलता समकालीन कविता का केंद्रीय जीवन मूल्य है. सामाजिकता उसकी परिधि, और संप्रेषण उसकी कलाधर्मिता का निकष. कविता के इस गुण-धर्म को युगीन जीवन-जटिलताओं के नाम पर अनदेखा नहीं किया जा सकता. परिवर्तन की आकांक्षा और रूढ़िभंजन उसका सहज स्वभाव है. इस बात को हम किसी भी समय-सजग कवि के रचनात्मक विस्तार में देख सकते हैं. ठहराव वहां नहीं हुआ करता. वह अपने भावबोध के साथ जो यात्रा करता है, वह सिर्फ उसी की नहीं हुआ करती, बल्कि एक व्यापक समाज उसके साथ चलता है.

इस संदर्भ में सुपरिचित कवि, संपादक और संस्कृतिकर्मी कौशल किशोर के नए संग्रह ‘वह औरत नहीं महानदी थी’ की कविताएं देखी जा सकती हैं. स्त्री और महानद, यहां दोनों पर्यायवाची हैं. दोनों के गुण-धर्म तक जाएं तो समानार्थी भी. संवेदनात्मक तरलता और गतिशीलता से आप्लावित. लेकिन सिर्फ यही नहीं. स्त्री-जीवन के अनेक रूप इन कविताओं में हैं. उदाहरण के लिए एक कविता ‘आग और अन्न’- जैसे कोई पेंटिंग या गतिमान कोई दृश्य, जिसमें मौजूद रंग-बिम्ब अपने भावक से बातें करते हों. चूल्हा है जलता हुआ और उसके पास बैठी हुई स्त्री. दोनों के इस रिश्ते को आज भी नकारा नहीं जा सकता. और फिर उन दोनों से आग और अन्न का संबंध! कितना प्रगाढ़, कितना सार्थक और कितना रागात्मक. कुछ पंक्तियां लें -

कितना अद्भुत है यह प्रेम
कि जैसे-जैसे बढ़ती है आँच
वैसे-वैसे फैलती है
पके हुए अन्न की खुशबू
महमह कर उठता है घर.’

चाहें तो हम यहां नागार्जुन को याद कर सकते हैं, लेकिन ‘अकाल और उसके बाद’ जैसी स्थिति यहां नहीं है. न वैसा दुख, न उल्लास. भूख दोनों कविताओं में है और उससे उबरने की उम्मीद भी. यह उम्मीद आग में भी है, और उस स्त्री में भी जो दोनों का उपयोग करना जानती है. कवि ने इसे कुछ और बड़ा कैनवस दिया है -

अन्न का आग से
जब होता है ऐसा मिलन
सृजित होता है
जीवन का अजेय संगीत
भूख जैसा हिंस्र पशु भी
इसमें हो जाता है
नख दंत विहीन.’

स्त्री, श्रमशील स्त्री कौशल किशोर की काव्य-चेतना का अनिवार्य हिस्सा है. घर-गृहस्थी में है, खेत खलिहान में है, और सड़क-फुटपाथ पर भी है. कहीं भी देखा जा सकता है उसे. अभावग्रस्त घर को, घर-भर को लेकर उसकी कशमकश अद्भुत है. साक्ष्य के लिए निम्नलिखित कविता पंक्तियां-

यह औरत घर के लिए जितना ज्यादा परेशान होती है\
उतना ज्यादा डूबती है नदी में
विचारों में घर का खूबसूरत नक्शा बनाती है
और यथार्थ में पीछे की दीवार ढह जाती है
सोफे का खोल बदलने की बात सोचती है
और बैठकखाने की ज्यादा फट जाती है
साहब दिखें जींस में स्मार्ट
कि बच्चे हो जाते हैं नंगे
या फट जाती है उसकी अपनी ही साड़ी.’

हिंदी कविता में नारी जीवन की अनेक छवियां मिलती है, जिनमें से निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’, नागार्जुन की ‘सिंदूर तिलकित भाल’, त्रिलोचन की ‘चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’, आलोक धन्वा की ‘ब्रूनो की बेटियां’ और कात्यायनी की ‘हाकी खेलती लड़कियां’ को याद किया जा सकता है. हालांकि कौशल किशोर पुस्तक मेले से गुजरते या घूमते हुए प्रेमचंद या शरतचंद्र में खो जाती पत्नी को ही नहीं देखते, बल्कि इस्मत चुगताई, मन्नू भंडारी और मैत्रेयी पुष्पा को भी देखते हैं. साथ ही दर्द बांटती उस तस्लीमा को भी जो पूरी ताकत से इस सत्य को कहती हैं कि ‘औरतों के लिए कोई देश नहीं होता’. अनुत्तरित सवाल यह है कि घर और देश-दुनिया के बीच बंटे स्त्री-जीवन के इस यथार्थ को कैसे समझा जाए? इस सवाल को सीमा आजाद जैसी जुझारू महिला और शिक्षा संस्कृति के लिए गोली खाने वाली मलाला जैसी लड़कियों के संकल्प संघर्ष से समझा जा सकता है. कवि जैसे स्वयं उनके साथ है -

वह जुलूस में चल रही थी पीछे पीछे
नारे जब हवा में गूंजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर ऊध्र्वाधर दिशा में तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर-लहरी
वह बखेर रही थी सौंदर्य
खुशबू ऐसी
जिसमें रोमांचित हो रहा था
उसका प्रतिरोध......’

स्पष्टतया यहां संग्रहित कविताओं का यह एक पक्ष है. कौशल किशोर लखनऊ में रहते है, बेशक किसी बाशिंदे की तरह नहीं, नागरिक की तरह. लखनऊ एक तहजीब है. एक इतिहास. एक जीवन-शैली. लिबास से लेकर बोली-बानी की मिठास तक. उसकी गलियों से गुजरते हुए कवि को गालिब याद आते हैं. मीर याद आते हैं. सरमायेदारी से पंजा लड़ाने वाले शायर मजाज याद आते हैं. और वह ‘रिफा-ए-आम क्लब’ जहां से मुंशी प्रेमचंद ने उस तरक्की पसंद तहरीक की शुरुआत की जिसे हम आज तारीख की तरह नहीं तवारीख की तरह याद करते हैं. आकस्मिक नहीं कि कवि भगवती बाबू की ‘चित्रलेखा’ और यशपाल के ‘विप्लव प्रेस’ को भी याद करता है क्योंकि लखनऊ उसके लिए एक
‘अकथ कथा है
जो शुरू होती है
पर खत्म नहीं होती.’

जाहिरा तौर पर,, खत्म न होने वाली इस कथा का भी अपना यथार्थ है. ऐसा यथार्थ जो कल्पना से ही नहीं हर तरह की नॉस्टैल्जिया से भी बड़ा है. कवि शैलेंद्र के शब्दों में कौशल किशोर ने जिसे ‘चकाचैंध का अंधेरा’ कहा है, जिसमें उन्हें दिखाई देती हैं -

तबाह होती बस्तियां
उजड़ते खेत
बजबजाते नाले नालियां
अस्त-व्यस्त शहर
भागते लोग
बेरोजगारों की भीड़
सफाई, पानी और बिजली के लिए हाहाकार
जिधर जाओ, उधर जाम/चारों तरफ जाम, जाम, जाम
सब जाम.....’

लेकिन क्या समकालीन कविता भी इस विकासजन्य जाम की शिकार है ? जनता के बीच होकर भी आखिर वह उसके साथ क्यों नहीं है ? कौशल किशोर की कविताओं को पढ़ते हुए यह प्रश्न मेरे मन में तब उठे, जब ‘पहल-115’ में कुछ विशिष्ट कवियों को पढ़ा. खासकर देवी प्रसाद मिश्र और प्रभात की कविताएं जिनके बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि बूझो तो जानें.

विडंबना यह है कि आज हम सब जिस कालखंड से गुजर रहे हैं, मनुष्य जैसे अपनी अपूर्णता में ही पूर्णता के अभिमान से भरा हुआ है. रिश्ते-नाते, परिवार और समाज उसके लिए जैसे कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि विकास की समूची अवधारणा पूंजी-केंद्रित है, जहां मानवीय और सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं रह गया है. मनुष्य का सारा श्रम, सारा सौंदर्य और कला साहित्य की सामाजिक भूमिका नगण्य या गैरजरूरी मान ली गई है. यही कारण है कि ‘कला-साहित्य-संस्कृति से जुड़े तमाम परंपरापुष्ट जीवन मूल्यों को आधुनिकता-विरोधी सिद्ध करने की कोशिशें हो रही है. इसी के चलते अबूझ बौद्धिकता और निरी गद्यात्मकता को कविता कहा जा रहा है, गोया हिंदी कविता स्थानीय होने से पहले अनिवार्यता ग्लोबल होनी चाहिए, जहां न किसी राग की जरूरत है, न अनुराग की. छंद तो खैर, उनके कहे आधुनिक भावबोध का वाहक हो ही नहीं सकता!’ (आलेख-कविता में बंटवारा)

कौशल किशोर की कविताएं भी गद्यात्मक हैं लेकिन अति बौद्धिकता की शिकार नहीं हैं. इसीलिए वहां संप्रेषणीयता का भी कोई संकट नहीं. असल में संप्रेषणीयता का गुण उन कविताओं में होता है, जो अपनी जनता की दुख-तकलीफों को समझती हैं, जिनका कोई अपना देश-काल और समाज होता है और जो उन ताकतों को पहचानती हैं जो श्रमशील जनता के लहू और पसीने की आस्वादक हैं.

किंतु सिर्फ यही नहीं. ऐसी ताकतों को पहचानना ही काफी नहीं है. उनका काव्यात्मक प्रतिरोध भी जरूरी है. ऐसी कविता आत्मग्रस्तता की नहीं, आत्मप्रक्षेपण की पक्षधर होंगी. उसे मानवीय संवेदन और जनवादी विचार दोनों चाहिए. कौशल किशोर की कविता काव्यकर्म के इसी दायित्व का निर्वाह करती हैं. उनकी एक कविता ‘भेड़िया निकल आया है मांद से’ उससे ही कुछ पंक्तियां -

वह आ सकता है
लोकतंत्र के रास्ते आ सकता है
स्मृतियों को रौंदता
संस्कृति का नया पाठ पढ़ाता/वह आ सकता है
जैसे आया है इस बार
ढोल, नगाड़ा, ताशा
एक ही ध्वनि-प्रतिध्वनि
अबकी बार.....
बस अपनी सरकार.....’

यह कविता उन तमाम देशों को आईना दिखाती है, जहां लोकतंत्र के नाम पर जनता को ठगा जा रहा है, जहां पुरोगामी ताकतें तेजी से उभर रही हैं और जहां ‘रंगमंच पर अब देश नहीं/दृश्य हैं/विडंबनाओं,विसंगतियों और भ्रमों से भरा परिदृश्य है.’ आकस्मिक नहीं कि यह कविता सर्वेश्वर की ‘भेड़िया’ कविता से प्रेरित है क्योंकि समय बदलता है,समय की विडंबनाएं नहीं. इसीलिए कौशल किशोर उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को ताजा करते हैं.

उठो, तुम मशाल जलाओ
भेड़िया निकल आया है माँद से
तुम मशाल को ऊँचा उठाओ
भेड़िए के करीब जाओ
करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक-एक झाड़ी की ओर बढ़ो
भेड़िया भागेगा.....’

कवि के इस आशावाद की उपेक्षा नहीं की जा सकती. इसके बावजूद वह उस भेड़िया-वृति को भी अनदेखा नहीं करता, जिससे तानाशाह पैदा होते हैं. इस संदर्भ में कौशल किशोर की ‘तानाशाह’ शीर्षक कविता श्रृंखला को देखा जा सकता है. ‘तानाशाह की विध्वंसक राजनीति के प्रभावों या विशेषताओं की पहचान कराते हुए वे कहते हैं-

वह हरे-भरे खेतों को देखता है
और खेत युद्ध के मैदान में बदल जाते हैं
वह दिन को देखता है
वहां अंधेरे का सैलाब फैल जाता है
वह शहर को देखता है
वहां कफ्र्यू का सन्नाटा
या मौत का नगर बस जाता है
वह जीवन को देखता है
और देखते-देखते लाशों का ढेर लग जाता है!’

ऐसी अनेक कविताएं हमें मध्यकालीन इतिहास अथवा मध्य एशियाई देशों तक ही नहीं ले जातीं, हमारे अपने वर्तमान को भी चिन्हित करती हैं. लेकिन इसी वर्तमान का एक पहलू और भी है और जो हमारी जनता की तमाछन्न धार्मिकता या उसके जड़ परंपरावाद को दिखाता है, और उस विडंबना को भी, जो किसी तानाशाह के उदय या निर्मिति का निमित्त बनती हैं. संदर्भतः ‘इंतजार’ कविता-श्रृंखला से यह कवितांश -

हमारा ही रंग उतर रहा है
और हम ही हैं
जो कर रहे हैं इंतजार
कि कोई तो आएगा उद्धारक
कोई तो करेगा शुरुआत
कोई तो इस धरती को
बनाएगा रजस्वला
किसी से तो होगा वह सब कुछ
जिसका हम कर रहे है
इंतजार.....’

इंतजार भुलावा तो है ही, छलावा भी है. हां, यदि उसके पीछे कोई तर्क हो, और उस तर्क का भी कोई जमीनी आधार तो बेशक हम इंतजार करें. कटे, बल्कि काट दिये पेड़ के भीतर जो ज्वलनशीलता होती है, उसे ‘धधकाने’ के लिए भी तो ‘आग’ चाहिए. कवि उसी आग की तलाश में है, उसी के इंतजार में. कहता भी है –
‘बीड़ी से
क्यों जलाते हो अपने सीने को
कितना इंधन भरा है इसमें
इसे धध़काने को माचिस के तीली
या थोड़ी-सी आग चाहिए
बस!’

कवि ने यहां आग की आकांक्षा में न सिगार का जिक्र किया है, न मशाल का. बीड़ी का जिक्र किया है और उसे जलाने के लिए माचिस की तीली का. इससे हम कवि की वर्ग चेतस भाषाई सजगता को समझ सकते हैं. आग से जुड़े यह दोनों ही माध्यम हमें उस मजदूर तक ले जाते हैं जो निरर्थक ही अपने सीने को बीड़ी से जला रहा है, जबकि उसे ‘जलाने’ का नहीं, ‘धधकाने’ का काम करना चाहिए. याद करें दुष्यंत का यह शेर -

तेरे सीने में नहीं तो, मेरे सीने में सही 
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.

या फिर इसी भावबोध की संगति करती हुई मेरी यह गीत पंक्तियाँ हैं -

आग बिन रोटी नहीं होगी 
अन्न के संग 
आग भी पैदा करें!’

कहने का आशय यही कि कविता की अंतर्वस्तु के साथ भाषाई प्रयोगों का भी बुनियादी महत्व है और कौशल किशोर की कविताएं इस महत्व का बखूबी निर्वाह करती हैं. उनके यहां पुराने बिंबों और प्रतीकों की उपस्थिति प्रायः नहीं है. वे एक नारे को भी किसी बिम्ब की जगह दृश्य में बदलना चाहते हैं, ताकि वह एक व्यापक संदेश या आवाहन की प्रतीति करा सके, और उस काव्यात्मक सौंदर्य की भी जो उसे रुचिकर बनाए. इसी के चलते ‘हमें बोनस दो’ जैसी कविता उनकी भाषायी संवेदना का स्पर्श पाकर सिर्फ नारा ही नहीं रह जाती. कहते हैं -

यह जीवन-संगीत की जानी-पहचानी तुक है
यह वीण के टूटे तारों को
जोड़ने की हमारी पुरजोर कोशिश है
यह एक उत्तेजना है
यह एक बिंदू पर पहुंचने की
संगठित ललकार है’
आकस्मिक नहीं कि कविताओं की शक्ल में कवि का यह रचनात्मक संघर्ष उसकी ‘भाषा की प्रौढ़ता का इम्तहान भी है’, और कुछेक सवालों का जवाब भी.
___________

रामकुमार कृषक
मो - 9868935366

परख : माटी पानी (सदानन्द शाही) : रोहिणी अग्रवाल

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सदानंद शाही कविताएँ भी लिखते  हैं. उनकी २०१३ से २०१७ के बीच की कविताओं का प्रकाशन लोकायत (वाराणसी) ने 'माटी पानी'शीर्षक से  किया है, इसमें हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी की भी कुछ कविताएँ  शामिल हैं.

रोहिणी अग्रवाल वैसे तो कथा-आलोचक हैं पर इस कविता संग्रह की उन्होंने समीक्षा लिखी है. डूब कर लिखी है. 








माटी पानी का काव्यत्व
प्रो. रोहिणी अग्रवाल





कोई इतनी भावप्रवण कवितायें भी लिख सकता है! न चमत्कृत करने की अतिरिक्त उछल-कूद, न ज्ञान बघारने की दीनता. बस, अपने अंतर में बहते दरिया में डुबकी लगाने की अधीरता. अलबत्ता डुबकी लगा लेने के बाद क्या सब कुछ वैसे का वैसा रह जाता है
न्ना! सब तो बदल जाता है.

पर्यवेक्षण का सूक्ष्म संसार संवेदना की विराटता से सनसना कर कितने कुछ अनकहे को कह जाता है- एक सम्मोहक मितभाषी संकोच के साथ. सत्ता का कुटिल चरित्र हो या प्रेम की अमाप गहराइयां, समय को बींधते सवाल हों या सपनों को जिलाये रखने का हठ- सब कुछ तो यहां मौजूद है, कवि के अंत:स्पर्शी व्यक्तित्व की बानगी बन कर.

देख रही हूं, कविता में संवेदना की चांदनी सुख बन कर झर-झर झर रही है, नदी की कलकल नाद पैदा कर रही है, और गहन चिंतन की उत्ताल लहरें बहुआयामी जीवन की बहुरंगी परतों के भीतर पैठ जाना चाहती हैं.

सोचती हूं, समय तो शक्तिशाली लहर है- वेग से उमड़ कर आती गतिशील ऊर्जा का स्रोत. अपने भीतर कितनी ही गहराइयों, चीत्कारों, पीड़ाओं के साथ कितने ही सपनों, आकांक्षाओं और टकराहटों को छुपाए हुए. लहरों की पीठ पर सवार समय का हर पल व्यक्ति की गत्यात्मकता को बस दो ही चीज़ों से तो परखता है - तुरत-फुरत निर्णय लेने की क्षमता और तमाम बीहड़ताओं के बीच भी धीर-गम्भीर भाव से अपना रास्ता तलाशने की कर्मशील दृढ़ता. लेकिन समय को सिंहासन बना कर ठोस-ठस्स तानाशाही में तब्दील करती वर्चस्ववादी ताक़तों का क्या किया जाए? क्या समय उनके हाथों पराजित हो गया है? या रुक कर उनकी सनक और बचकानेपन से खिलवाड़ करने की मासूम शैतानी में अपना मनोरंजन कर लेना चाहता है

भेड़ चाल चलना
सीटी बजते ही हुआं-हुआं करना
कोमल और सुंदर पर टूट पड़ना…” 

समय सत्यम शिवम सुंदरम का समन्वित रुप है. वह ऐसी नकारात्मकता को देर तक कैसे बर्दाश्त करेगा भला

कहते रहें सत्ता के शीर्ष से नारे उठाने वाले कि जीवन को जीवन की मुस्कान के साथ घोलकर जीना देशद्रोह है; एक ही थैली के चट्टे-बट्टों के साथ मिल बैठकर बदल दें भाषा का चरित्र कि

“असभ्य लोग भक्त कहलाने लगें
कुटिल खल कामी
भगवान क़रार दे दिए जाएँ
बुद्धि और विवेक को भेज दिया जाए
काले पानी
भाषा गाली में सिमट कर रह जाए”;

और विचार को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध कर टेढ़े रास्ते चलते हुए विश्वविद्यालयों के बुनियादी चरित्र पर काला रंग फेरने लगें, लेकिन ‘झूठ जी’ से ‘सच सच बोलने’ की गुहार का तीव्रतर होते चलना और अपनी ही बेखबरी में खोई रीढ़ पर टिकी अस्मिता का अपने सपनों को हासिल करने की लड़ाई का अनवरत जारी रखना दरअसल समय और ज़िंदगी की रवानगी में मनुष्य की लय को शामिल करना हैं.

चींटियां
प्रभुता पर लघुता की विजय का
आख्यान लिख गई
और वे ताकते रह गए.”

, यह दंभ भरा उद्घोष नहीं, अपने सपनीली रचनात्मक ताक़त का, अनुभवों की गझिन यात्रा का निचोड़ है जो उपलब्धि के नाम पर हाथ में कोई ठोस नायाब हीरा बेशक़ न रखे, मन के भीतर फैली दुनिया को कूप-तालाबों से निकाल सृष्टि तक ले आता है जहाँ भाव की कोई एक लहरी, सम्वेदना की झंकार, दृश्य के भीतर छिपी नाटकीयता, चित्र में उमड़ती गति या किताब के पन्नो में फ़रफ़राती ज़िंदगी चुपचाप बदल देती है आपके होने को. तब मायने नहीं रखता कि विज्ञापन और फ़रमान के बल पर सत्ता के चोटीधारी क्या-क्या कर करतब दिखाएंगे. कवि की संवेदना में विचार की संश्लिष्टता इस क़दर घुलमिल गई है कि अपार धीरज और पैना व्यंग्य, इत्मीनान और आक्रोश को एक साथ साध कर वे  मनुष्य और सपनों के बने रहने की बात करते हैं. 

कबूतर भी उनका, संदेश भी उनका, बांचेगे वही नचाएंगे वही”- कवि शुतुरमुर्गी दृष्टि का क़ायल नहीं कि जिजीविषा की ज़मीन और संघर्ष के खतरों को न पहचानें.  वे जानते हैं, चींटी सरीखी औसत आदमी की अदना औकात, लेकिन साथ ही इस सच को रेखांकित करना भी नहीं भूलते कि महादंभियों- योद्धाओं की तलवारबाज़ी के बीच चींटी की कतारें शक्कर के दाने ढो-ढो कर संकट के दिनों के लिए कितनी ही रसद जमा करती चलती हैं- अलक्षित भाव से, संगठनबद्ध होकर.

“ये आवारा फूल क्यों खिले हुए हैं
इन्हें हमने तो नहीं लगाया था
फिर भी
खिले हुए हैं” –

ज़िद नहीं, विश्वास- अपराजेय संघर्ष को सींचती ऊर्जा का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की खनक से गूंजता स्वर.

राष्ट्रवाद की उग्र हुंकारें देश और संस्कृति की गरिमा को जिस नृशंसता से नष्ट कर रही हैं, वह सदानंद शाही की संवेदना को झकझोरने के लिए पर्याप्त हैं. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इन दिनों दो नामों पर टिका जा रहा है- राम और गाय. कविताएँ पढ़ रही हूं और आँखों के सामने अनायास कल्पना-चित्र तैरने लगते हैं-  पॉलीथीन खा कर हांफती- तिल तिल मरती गाएं. मानो, गाय देश का रूपक बन गई हो और पॉलीथिन हो गया हो उग्र हिंदू राष्ट्रवाद.

देश निर्जीव भूखंड तो नहीं कि आप उसे जिस भी रंग में चाहें, रंग दें. वह जीती-धड़कती अस्मिताओं के सह-अस्तित्व  का आधार है, सिर्फ़ मनुष्य या प्राणियों की धड़कनों से गूंजता स्थल नहीं, वन-पादप और इतर जीवंत-थिर इयत्ताओं के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध का क्षेत्र. इसलिए शाही जी की चिंता में मनुष्यता की अस्मिता के संग-संग इको सिस्टम को बचाने की चिंता भी है- प्रकृति के साथ ठीक मानवीय स्पंदन और संबंध जोड़कर संवाद करने की आतुरता :

पेड़
पक्षियों के घोंसला घर हैं
बेसहारा आदमी के लिये पीठ टिकाने की जगह हैं
प्रेमियों का भरोसा हैं
बिरही जनों के लिए दिलासा हैं
ग़रीब गुरबा के लिए रोज़गार हैं पेड़

क्या आपने
कभी किसी पेड़ को बातें करते सुना है?
कभी फुरसत से उन्हें सुनिए
वे कुछ कहना चाहते हैं
आपके साथ रहना चाहते हैं”

लेकिन प्रकृति की कौन कहे, आज के उग्र हिंदू राष्ट्रवाद में तो मनुष्य की जान की गारंटी नहीं है. जान कीमती है गाय की, प्रतीकों की; और विचार को फूहड़ता में, फूहड़ता को गालियां में, और  गालियों का ट्रोल करने की कला में विघटित कर देने वाले नए ज़माने के
नये भक्तों-पुजारियों की. 

ईजाद कर ली गई हैं
गाय दूहने की अनेक विधियाँ 
इंजेक्शन तरह-तरह के
जिनको लगा देने से 
दूध के साथ 
अक्सर उतर आता है
गाय का खून भी
इंजेक्शन ऐसे भी हैं 
कि लगा दो
तो गाय दूध के बजाए
वोट देने लगती हैं.”

ऐसे में सच कहना यानी नोहा की तरह समूची सृष्टि को बचाने के लिए नाव लेकर निकल पड़ने का जोखिम! जोखिम में निडरता और दृढ़ता जितनी ही ज़रूरी है सपने देखने की मिठास- 

काश कि एक दिन
दुनिया भर टैंक 
सीमाओं से हटा दिए जाते 
पहुँचा दिए जाते संग्रहालयों में
जहाँ बच्चे देखते 
और देखकर चिहाते
कि लो यह भी कभी डरने-डराने की चीज़ था
----

सीमाओं पर होने लगती
फूलों की खेती
सुगंध फैलती 
इस पार भी 
उस पार भी
लड़कियाँ फूल चुनने आतीं
इधर से भी 
उधर से भी 
----
लोगों के आने और जाने से मिट जाते
टैंक के निशान.

सदानंद शाही प्रेम के कवि नहीं हैं, लेकिन प्रेम उनकी संवेदना को तरलता और वैचारिकता को सघनता देता है. प्रेम उन्हें ‘मैं’ के परे मनुष्य से जोड़ता है तो लैंगिक दुराग्रहों के पार जीवन से जूझती स्त्री की दृढ़ता और लोचशीलता में देखने की दृष्टि भी देता है. इसलिए वे ‘पत्नी होने की अनिवार्य शर्त’ कविता में आदर्श पति को आड़े हाथों ले पाये हैं :

वैसे तो उसने
और भी बहुत सारे काम अपने हाथ में ले रखे थे
जैसे बीवी का बैंक अकाउंट
पैसे का हिसाब-किताब
ख़रीद फ़रोख़्त 
और सबसे बढ़कर बीवी की निगरानी 
जिसे वह पूरी मुस्तैदी से करता था
वह कब किससे मिली 
मिली तो क्यों
जैसी पूछताछ के साथ
गाली-गलौज
मारपीट
सब शामिल हैं.

तो स्त्री की ओर से समूची पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देते हुए ऐलान कर सके हैं:
हम आसमानों को थाहने निकली हैं 

हमें हमारे पंख लौटा दो
अपना
सोने का पिंजरा अपने पास रखो.

शाही जी स्त्री-मन के कवि हैं, स्त्री के साथ सख्यभाव जोड़ने वाला मानवीय-स्पंदन –

“मुझे
एक समूचा जीवन यह जानने में लग गया
कि एक स्त्री को जानना
केवल उसके दुखों को जानना नहीं है

एक स्त्री को जानना
उसके सपनों को जानना है 
उसके उल्लास को
और आनंद को
जानना है.

स्त्री होना कमतर होना नहीं है, प्रकृति और संवेदना के साथ एकमेक हो जाने की कला है- भीतर-भीतर सिहरती-संवरती धड़कनों को सुनने-बतियाने की सरलता. स्त्री प्रेम की स्नेहिल पुकार है. शाही जी स्त्री के इस संवेदन में शरीक होने की नियामत रखते हैं. प्रेम की ओस में भीगे ‘कुछ लम्हे कुछ पल’ उनके यहाँ ताउम्र सुरक्षित रहते हैं, ज्यों किताब के पन्नों में दबा गुलाब का फूल. प्रिय की अधीर प्रतीक्षा पुरुष की आक्रामक पजेसिवनेस का विलोम है जिसे कवि ने आत्मसात कर लिया है, और ‘होप अगेन्स्ट द होप’ मंत्र से दीक्षित होकर प्रतीक्षा में प्रतीक्षा की कितनी ही ज़िंदगियां काट सकता है. प्रिय को पा लेने की कामार्त्त भूख जब प्रिय के साथ बने रहने के अशरीरी एहसास में रूपांतरित हो जाती है, तब ही प्रेम की भीतरी गलियों में ज़िंदगी की चहलक़दमी के बीच अवसाद और उल्लास के धूसर-चटकीले रंग तिरने लगते हैं. पूरी कविता उद्धृत करना चाहूंगी :

वैसे भी
उस से रोज़-रोज़ मिलना
कहाँ हो पाता है

फिर भी उसका शहर में होना
इत्मीनान की तरह है 
कि जब मन में
आएगा 
उठेंगे और मिल आएंगे 

नहीं भी मिले 
तो दिख ही जाएगी
आते-जाते
दुआ सलाम के साथ
एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट उठेगी 
उसके चेहरे पर
और वह
हवा में हाथ हिलाते हुए 
आगे बढ़ जाएगी 

इस तरह महीनों निकल जाएंगे 
बिना देखे
बिना मिले
और
बिना बात किए

उसके शहर में न होने से 
इत्मीनान थोड़ा दरक जाता है 
आसमान थोड़ा उदास हो जाता है
हवा में ऑक्सीजन कम हो जाती है 
धरती का नमक कम हो जाता है
पक्षियों का चहचहाना कम हो जाता है 

यह भी नहीं कि
रोज़मर्रा के काम बंद हो जाएं
या ठीक से नींद न आए
बस
मन के कोने में कहीं
एक चोर घड़ी
टिकटिकाने लगती है
उसके लौटने का इंतज़ार करती हुई सी. (उसके लौटने का इंतज़ार)

शाही जी की कविताओं का फलक जितना बड़ा है, उतना ही प्रखर है आशा का स्वर. दुनिया की स्वार्थपरता और संकीर्णता व्यक्ति रूप में उन्हें आहत अवश्य करती है, लेकिन अपनी कविताओं में वे ‘मैं’ को हावी होने नहीं देते. निजी राग-द्वेष, हर्ष-शोक को वे आम आदमी के सपने-संघर्ष के साथ जोड़ देते हैं. उनका व्यक्तित्व कामरेड का व्यक्तित्व है- मनुष्य के पक्ष में खड़े होकर लड़ने वाला हर योद्धा उनका अपना अक्स.

“वे हार भले जायें
पराजित नहीं होते.”

मोह को विश्वास में ढालने का मूलमंत्र उन्हें उनके इसी सरोकार ने दिया है.

“सब कुछ ख़त्म होने के बाद भी
सब कुछ बचा रह जाता है
सब कुछ के इंतज़ार में.”

अंत के पार सृजन की संभावनाओं से हरी है उनकी वैचारिक दुनिया; और हो भी क्यों न! बुद्ध का हमसफर होने का विश्वास (जब भी चलता हूँ /मेरे साथ साथ चलते हैं बुद्ध) उन्हें करुणा और प्रेम, अहिंसा और कल्याण के मार्ग से भटकने नहीं देता.

कथालोचक के लिए सरल नहीं होता कविता का आस्वाद करना. या शायद अच्छी कविता की पहली शर्त ही यही है कि वह भीतर की तरलता को गाढ़ा करते हुए संवेदना को गहन और वैचारिकता को प्रखर करे, लेकिन आस्वाद की प्रक्रिया तो गूंगे का गुड है न! कहते रहें आलोचक कि कविता के टूल्स के साथ कथालोचक कथा-कहानी की आलोचना में मशग़ूल रहते हैं. लेकिन इतना जानती हूँ कि शाही जी की कविताओं के प्रभाव को जब भीतर जज्ब करना संभव नहीं रहा और कूल-किनारे तोड़ वह अभिव्यक्ति के लिए मचल ही पड़ा, तब कथालोचन के अपने चिर परिचित टूल्स के साथ ही कविता से मुठभेड़ करने आ खड़ी हुई हूं.

न कविता की लय-ताल का ज्ञान, न काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का. महज़ एक पाठक के भावोच्छवासों का आरेखन! लेकिन आलोचना पाठकीय प्रतिक्रिया का सजग गम्भीर प्रयास के अतिरिक्त और है भी क्या? पाण्डित्य प्रदर्शन या जजमेंट देने की अहम्मन्यता तो कदापि नहीं. 

बस इतना भर कह सकती हूं कि कैनवस पर उकेरी कलाकृति को देखना ‘देखना‘ भर नहीं होता, उसमें निमग्न होकर उसके पार बसे ‘अपने‘ किसी लोक से गुफ्तगू करना भी होता है. सदानंद शाही की कविताएं अपनी जमीन की नमी और पुख्तगी को थहाने और बनाये रखने की लोचशील झंकार हैं.
__________________________________
प्रोफेसर एवं अध्यक्षहिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा
rohini1959@gamil.com

दक्षिणायन (प्रचण्ड प्रवीर) : वागीश शुक्ल

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खण्ड II
दक्षिणायन

लिफ़ाफ़े को ठेलता मज़मून                                       
वागीश शुक्ल   




दक्षिणायनकी पाँच कहानियों में प्रचण्ड प्रवीर द्वारा रशिचक्र की उन राशियों के अधीन कहानियाँ लिखी गयी हैं जिन पर उत्तरायणमें नहीं लिखा गया था. `उत्तरायणऔर `दक्षिणायनमें राशिचक्र का यह द्वि-भाजन सूर्य द्वारा राशिचक्र में किये गये परिभ्रमण के अनुसार होता है और इस प्रकार ये दो शीर्षकराशिचक्र में सूर्यपर नज़र रखते हैं जब कि कहानियों के शीर्षक अधिकतरराशिचक्र में चन्द्रपर. इसे यों समझना चाहिए कि अगर हम उदाहरण के लिए दक्षिणायनकी पहली कहानी कर्क लेते हैं तो उसके पात्र `पुष्यऔर `आश्लेषाउन नक्षत्रों के नाम हैं जिनमें चन्द्रमा की मौजूदगी के समय किसी का जन्म होने से भारतीय ज्योतिष के अनुसार उसकी राशि `कर्ककही जायेगी. चन्द्रमा पूरे राशिचक्र (के २७ नक्षत्रों) की यात्रा लगभग ३० दिनों में और सूर्य यही यात्रा एक वर्ष में पूरी करता है.

इस प्रकार भारतीय ज्योतिष के अनुसार एक तनाव इन दो खण्डों के शीर्षकों और कहानियों के शीर्षकों में है क्योंकि कहानियाँ राशियों के अनुसार हैं जो राशिचक्र के चान्द्र परिभ्रमण के अनुसार निर्धारित होती हैं जब कि खण्ड राशिचक्र के सौर परिभ्रमण के अनुसार विभाजित हैं. किन्तु यह तनाव केवल दो ग्रहों द्वारा राशिचक्र के अलग-अलग परिभ्रमण - समयों का नहीं है इसका एक आध्यात्मिक सन्दर्भ भी है जिसकी ओर इशारा करने वाला एक श्लोक (श्रीमद्भगवद्गीता,8- 25) दक्षिणायनके प्रारम्भ में उद्धृत किया गया है. इसका आशय यह है कि जिनकी मृत्यु दक्षिणायन के अन्तर्गत आने वाले छह महीनों में होती है वे अपने किये हुए पुण्यकर्मों के फल का भोग करने के बाद फिर पृथिवी पर वापस आते हैं अर्थात् उनकी मुक्ति नहीं होती और वे पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा नहीं पाते. यहआवृत्तिमार्गकहलाता है और इसे इसके पहले वाले श्लोक के साथ पढ़ना चाहिए जिसके अनुसार उत्तरायण के छह महीनों में मृत्यु प्राप्त करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता (और उसकी मुक्ति ब्रह्मा की मुक्ति के साथ होती है). इस तरफ़ ध्यान जाने से ये दोनों खण्ड जीव की पारलौकिक गतियों को समेटने का भी प्रयास करते लगते हैं.
 
संग्रह की कहानियों पर अलग-अलग बात करते हैं.



1.
पहली कहानी कर्क है और जैसा पहले ही मैं कह चुका हूँ इसके प्रमुख पात्र `पुष्यतथा `आश्लेषाउन नक्षत्रों के नाम हैं जो कर्क राशि के अन्तर्गत आती हैं. उनका प्रेम 21 जून को प्रारम्भ होता है जो सायन गणना के अनुसार सूर्य की कर्क संक्रान्ति का समय है. और कथा-नायक पुष्य को कैंसर है जो कि कर्क रशि का पाश्चात्य ज्योतिष में नाम है. इसका अर्थ `केंकड़ाहोता है और पाश्चात्य ज्योतिष में इससे जुड़ी एक पुरा-कथा है जिसके अनुसार केंकड़े ने हेराक्लिटस के दूसरे पराक्रम में बाधा पहुँचायी थी जिसके बाद हेराक्लिटस ने उसे कुचल कर मार डाला था. यह पराक्रम नौ सिरों वाली सर्पिणी का वध था. अन्ततः ये दोनों आकाश में प्रतिस्थापित कर दिये गये. इस नौ सिरों वाली सर्पिणी को कथा-नायिका आश्लेषा में आरोपण किया गया है-संयोग ही है कि भारतीय ज्योतिष में भी आश्लेषा नक्षत्र का देवता सर्प है.
 
ग्रीक पुरा-कथा को इस कहानी में उलट दिया गया है-इस कहानी में कथा-नायक कैंसर (= केंकड़ा) से भी हारता है और कथा-नायिका आश्लेषा (= नौ सिरों वाली नागिन) से भी. आश्लेषा प्रेम में धोखा देती है-पुष्य से विवाह कर के फिर पैसों के लिए एक धनी वर से विवाह कर लेती है और फिर अपनी वासना के पाश में पुष्य को फँसा कर उसे दूसरी पराजय से परास्त करना चाहती है. यह प्रयास सफल नहीं होता किन्तु इसे सर्पिणी का वध नहीं कह सकते क्योंकि पुष्य की पराजय पहले ही आश्लेषा की बेवफ़ाई के विष से हो चुकी है. हीरो के बर-अक़्स हारे को ला खड़ा करने वाला हमारा समय अपने को मिथक के सुहावनेपन में व्याप्त कर लेता है और घुटन के बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द करता हुआ हमें वर्तमान की कुरूप तंगियों में क़ैद रखता है.

2.

राशिचक्र के क्रमानुसार ही अगली कहानी सिंह शीर्षक के तहत है. यह सिंह `टूटे नख रद केसरीवाला सिंह है, नाना जी, जिनका बल जब उम्र के नाते थका नहीं था तब भी पराजय की एक लम्बी पटकथा का प्रतिनायक थासाइंस न पढ़ पाने के नाते आर्ट्स पढ़ने वाला, प्रेमिका के उच्चवर्गीय परिवार से होने के नाते मन मसोस लेने वाला, स्वतन्त्रता-सेनानी बनते-बनते रह जाने वाला, घूस न दे पाने के नाते बेटे को नौकरी न दिला पाने वाला, दहेज़ न दे पाने के नाते बेटी की शादी खोजते हुए अपमानित होने वाला. इस सिंह की गर्जना उसकी गुफा तक ही सीमित है और वह भी केवल इसलिए कि गुफावासी उसकी गर्जना पर तरस खाते हुए उसे चुप रहने के लिए नहीं कहते.

यों, मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाली मेघा नाम की सिंह राशि वाली वह वृद्धा कहानी से ग़ायब नहीं है जो नानी की जगह नहीं पा सकी थी किन्तु तीसरी पीढ़ी से एक समीकरण स्थापित करने में सफल हो सकी है और इस प्रकार परिवार से बेदख़ल होते हुए भी प्रेम में दाख़िल है. अपराजित प्रेम की यह न बिगाड़ी जा सकने वाली बनावट अपनी चाहत की अपूर्णता में प्रथम खण्ड की मीन कहानी की उस वृद्धा का स्मरण दिलाती है जो आज़ादी की तलाश में ठीक इसी तरह एक बँधे-गुंथे परिवार की तीसरी पीढ़ी से जुड़ती है. क्या पाया क्या खोया की ऐसी उधेड़बुन हमें मानवीय मन की उस वन्य जैविकी में झाँकने को विवश करती है जिसमें सम्पूर्ण जीव-संसार को सिर्फ़ भेड़िया और भेड़ में बाँटने वाले रचनाकर्म की पहुँच नहीं है.


3.

संग्रह में इसके बाद आने वाली कहानी भिन्न ऊपर से क्रम में लगते हुए भी वस्तुतः क्रम से बाहर है क्योंकि पूरी कहानी में जिस एक जगह `कन्या राशिका नाम आया है वहाँ वह सूर्य के कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र में प्रवेश करने से सम्बन्धित है. कन्या राशि के अन्तर्गत आने वाले नक्षत्रों की गणना उत्तराफाल्गुनी के दूसरे चरण से प्रारम्भ होती है और पूरा हस्त नक्षत्र पार करने के बाद चित्रा नक्षत्र के प्रथम दो चरणों तक जाती है. इस प्रकार सूर्य चित्रा में प्रवेश के पहले भी कन्या राशि में है और बाद में भी कन्या राशि में ही रहेगा अतः यह न तो सूर्य की संक्रान्ति है और न ही चन्द्रमा की राशि-चक्र में उपस्थिति जिससे अब तक इन दो संग्रहों की कहानियों का क्रम निर्धारित होता रहा.

इस क्रम वैभिन्न्य के अतिरिक्त भी यह कहानीभिन्नहै, न केवल इस संग्रह की अन्य कहानियों से अपितु हिन्दी में लिखी जा रही अन्य कहानियों से भी. इसने अपने शीर्षक पर निरन्तर श्लेष अलंकार की छाया बनाये रखी है एक तरफ़ तो अपने प्रत्येक खण्ड के प्रारम्भ में इसने जो हिन्दी कविताओ॑ से उद्धरण दिये हैं उनमें आया `भिन्नशब्द अँगरेज़ी के different के अर्थ में प्रयुक्त है दूसरी तरफ़ कहानी में जिस `भिन्नको केन्द्रीयता प्राप्त है वह अँगरेज़ी के fraction अर्थ में प्रयुक्त है. यह दूसरा अर्थ पहले अर्थ को पुष्ट करता है क्योंकि इसमें गणित की ऐसी तमाम अवधारणाओं का उल्लेख हुआ है जिनका परिचय केवल शास्त्रनिष्ठ गणितज्ञों को है, दूसरी ओर उन अवधारणाओं को मन्त्र-शास्त्र के भीतर समायोजित करते हुए `अंकमन्त्रका एक नया विचार प्रस्तुत किया गया है जो मन्त्र-शास्त्र की अब तक ज्ञात सीमाओं को भी विस्तार देता है.
इसे विस्तार कहें या छेड़छाड़, यह प्रवृत्ति इस कहानी में वर्तमान है और इसके कथाशिल्प का एक प्रमुख आकर्षण भी है. उदाहरण के लिए जिन छह योगिनियों का ज़िक्र इस कहानी में है वे वस्तुतः `योगिनियाँनहीं हैं, कुल-मत के अनुसार मच्छन्दनाथ के छह पुत्रों की पत्नियाँ हैं और इन्हें न केवल `योगिनीकहा गया है अपितु मच्छन्दनाथ = मत्स्येन्द्रनाथ को योगिनी-कौल का उपदेश करने वाली योगिनियों से भी इशारे-इशारे में जोड़ा गया है. इनके प्रस्तुतीकरण में दशमहाविद्याओं के अन्तर्गत आने वाली धूमावती देवी की भी छाया स्पष्ट देखी जा सकती है जो इनका विरूपण ही कहा जायेगा. जानकारों को पाशुपत-दर्शन के आचार्य लकुलेश्वर का ज़िक्र भी अवज्ञापूर्ण लग सकता है.
किन्तु यह समझने की बात है कि हमारी धर्मचेतना में धौल-धप्पा उस सरापा नाज़ का भी शेवा है और पेशदस्ती उभयपक्षीय है. वस्तुतः सभी पेगन धर्मचेतनाओं में देवों का परिवारीकरण स्वीकृत और वांछित है तथा मानवीय भावसंसार के सभी उद्यमों का वैध ईप्सिततम कर्म भी है.
इसी के साथ यह बात भी सच है कि यद्यपि किसी कहानी में तथ्यात्मक कसावट की मौजूदगी सर्वत्र अनिवार्य नहीं होती किन्तु जहाँ वह प्रमुख होती है, उसका सम्मान करना चाहिए और इस कहानी में ऐसी जगहों पर उसके प्रस्तुतीकरण में पूरी यथातथता बरती गयी है. 
उदाहरण के लिए ऐसी कोई छेड़छाड़ गणितीय तथ्यों से नहीं की गयी है और उनकी मौजूदगी कुछ उस तरह लायी गयी है जैसी अम्बर्तो ईको समेत पश्चिम के कई समर्थ लेखकों के उपन्यासों में दीखती है. लेकिन हिन्दी के औसत पाठक की दिलचस्पी और जानकारी दोनों के क्षेत्र से भारतीय धर्म-चेतना तथा पाश्चात्य विज्ञान, दोनों की दूरी और परायापन बराबर हैं अतः इस शिल्प को `फ़ैन्टैसीसे ले कर `हाररतक का कोई नाम दे कर छिटका देना ही उसके लिए आसान होगा.
ऐसे टरकाऊ नामकरण उस संस्कृति से उपजते हैं जिसमें मान्त्रिक और आनुष्ठानिक आयोजनों द्वारा दैवी शक्तियों का अनुकूलन घोषित धर्मनीति के विरुद्ध होता है. भारतीय संस्कृति में जप, पूजा और अनुष्ठान घोषित और स्वीकृत धर्माचरण के अंग हैं अतः यहाँ बहुत चाह कर भी साधनाओं में बीभत्स और भयानक का समावेश अधिक- से- अधिक एक व्यक्तिगत अस्त्रयुद्ध तक ले जा सकता है, सत् और असत् के बीच का चुनाव नहीं बन सकता. अतः जो योगिनियाँ भय और जुगुप्सा का स्रोत हैं, जिनका प्रपंच ही वह तिलिस्म है जिसमें प्रेतलोक बसा हुआ है और जिसको तोड़ कर उसमें प्रवेश करने के लिए अंकमन्त्रों और बीजमन्त्रों का इतना उद्यम है, उससे बाहर आना भी उन्हीं की कृपा से होता है.
कहानी को समाप्त करते हुए `भिन्न को दशमलव में बदलनेका उल्लेख ऐसे हुआ है जिसके नाते उसे आशा के संकेत के रूप में लिया जा सकता है. गणितीय जटिलता के सघनतर बीहड़ों में वर्तमान संख्याओं के उल्लेख के बाद परिमेयता के उपवन में यह वापसी सरलता का बलात् आह्वान लग सकती है अगर हम इस ओर ध्यान नहीं देते कि `भिन्नके रूप में लिखी जा सकने वाली संख्याएँ, जो `परिमेयकहलाती हैं सभी वास्तविक संख्याओं में `सघन (= dense)’ हो कर व्याप्त हैं.
जाने, और शायद कभी-कभार अनजाने लायी गयी इन जटिलताओं से नज़र हटा कर पढ़ने पर यह कहानी `आर्डर (order)’ और `केआस (chaos)’ की उस शाश्वत लड़ाई की प्रतिध्वनि का आलेखन है जो क्रमशःकामेडीऔर `ट्रैजिडीकी विभाजक संज्ञाओं के मूल में हैं. मोटे तौर पर प्रश्न यह है कि गणित जैसे किसी व्यवस्थित शास्त्र को एक शस्त्र मान कर जब हम सृष्टि के अबूझ रहस्य को भेदने का प्रयास करते हैं तो यह प्रयास कितना वैध है? क्या इस प्रयास में ही उसकी विफलता के उत्प्रेरक तत्त्व नहीं छिपे हैं? मेरी समझ में इस कहानी का झुकाव इस सवाल का जवाब `हाँमें देने की ओर है किन्तु अगर यह सिर्फ़ सवाल उठाने तक ठहरती तो भी यह मुकम्मल थी.


4. 

इस दूसरे खण्ड में वृश्चिक संक्रान्ति शीर्षक के अधीन लिखी गयी कहानी पूरी योजना में दो तरह से सुष्ठु-समंजन के अभाव को स्थापित करती है : पहले तो इस तरह से कि वह एक साथ `तुलाऔर `वृश्चिकइन दो राशियों का प्रतिनिधित्व करती है जिसके नाते संग्रह के इस खण्ड में छह की जगह पाँच ही कहानियों से काम चल गया है और दूसरे इस तरह से कि यह दरअसल `वृश्चिक संक्रान्तिके शीर्षक और रूपग्रहण के बारे में है जो सूर्य के परिभ्रमण से परिभाषित है जब कि सभी अन्य राशियों की तरह ही `वृश्चिक राशिचन्द्रमा के परिभ्रमण से परिभाषित होती है.
 
इस ऊपरी छेड़छाड़ को परे रखने के बाद कहानी बड़ी सफ़ाई के साथ एक छात्र-आन्दोलन की कथा कहती है जो इस अर्थ में असफल है कि वह प्रशासन से घोषित तौर पर अपनी माँगों को मनवा लेने में कामयाब नहीं हो पाता और इस अर्थ में सफल कि जिस अपशब्द के कान में पड़ जाने के नाते वार्डेन ने छात्र को थप्पड़ मार दिया था और इस प्रकार सारे घटनाक्रम की शुरुआत हो गयी थी वही अपशब्द कहानी की समाप्ति तक फिर वार्डेन के कानों की पहुँच के भीतर उच्चरित होता है और वह इसे अनसुना कर देता है. कुल मिला कर जिस समझौते के भरोसे दुनिया चल रही है-प्रशासन कुछ हुल्लड़ को अनदेखा करे और यह भरम बनाये रखे कि वह किसी भी मुद्दे पर झुका नहीं है-उसी पर कहानी का संघर्ष लौट कर स्थिर हो जाता है.
 
किन्तु कहानी का अन्त इस घटनाक्रम को एक व्यापक निदर्शनावली में पिरोने का प्रयास करता है जिसके लिए आवश्यक पुष्टि कहानी में नहीं है. जो उदाहरण दिये गये हैं वे विद्याकेन्द्रों के विनाश के कारणों में बाहरी आक्रमण या आन्तरिक भ्रष्टाचार गिनाते हैं. कहानी का घटनाक्रम एक एकतरफ़ा परिभाषित अनुशासन-नियमावली के सनकी अनुपालन हेतु आग्रह का है. यह एक अधिनायक-तन्त्र का स्वरूप है और भ्रष्टाचार का ठीक उलटा हैकुछ इस तरह कि फ़्रांसीसी क्रान्ति के अधिनायक रोब्सपीयर को `इन-करप्टिबुलकहा जाता है `करप्टनहीं. एक व्यापकतर प्रश्न उपस्थित हो सकता था वह यह कि संस्थाओं-जिनमें स्वयं समाज भी शामिल ही हैके विनाश के लिए घोषित शिष्टाचारों के अनुपालन का अतिरेकी आग्रह भी क्या उतना ही कारक नहीं है जितना उनका उल्लंघन? किन्तु ऐसी कोई भी ऊहा की जगह कहानी में सचेत रूप से नहीं है.
  

यों अगर कहानी की सामस्यिकी (= problematics) को केवलप्रशासन में उच्चस्तरीय भ्रष्टाचारतक सीमित कर दें तब भी कहानी अपने नैतिक निष्कर्ष में बहुत सपाट नहीं है. सभी संस्थानों की तरह विद्याकेन्द्र भी जब आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट किये जाते हैं तब सैन्य शक्ति के द्वारा ही. जब वे आन्तरिक भ्रष्टाचार के कारण भुरभुरा कर गिरते हैं तब उनकी प्रक्रिया और परिणाम भिन्न होते हैं. फिर भी यदि हम हठात् निष्प्राणीकरण और क्रमिक क्षय के बीच अन्तर न करें तो कारण को एक ही माना जा सकता है, और तब उसे `वृश्चिक संक्रान्तिजैसी किसी एक ही संज्ञा में समेटा भी जा सकता है.

इन तमाम अपर्याप्तताओं के होते हुए भी, हिन्दी के वर्तमान साहित्य में, जिसका सारा ज़ोर समस्या और समाधान पर है, इस कहानी में ट्रैजिडी की प्राचीन गन्ध ने इसे बचाये रखा है और एक घटना के बयान में वह शक्ति सुरक्षित रखी है जो मानवीय इतिहास के एक व्यापकतर परिप्रेक्ष्य में इसे प्रक्षिप्त कर सकी है.

5. 
संग्रह की अन्तिम कहानी धनु के खण्ड-विभाजन इस राशि के नक्षत्रों के आधार पर किये गये हैं और प्रत्येक खण्ड की शुरुआत में किसी फ़िल्मी गाने की एक पंक्ति है. यह शिल्प प्रचण्ड प्रवीर की कहानियों में अनेकत्र मिलता है और उनकी एक ख़सूसियत है. इनसे एक रूमान बनता है जो हमारे आज के रोज़मर्रा की हक़ीक़त है. प्रचण्ड प्रवीर की कहानियों में कस्बा जहाँ भी आता है उसकी एक ऐसी तस्वीर सामने आती है जिसको हमारा हिन्दी लेखन कुछ कमतर आँक कर उपेक्षित करता रहा है. सच यह है कि हमारे कहानीकार इस समय गाँव, कस्बा, पड़ोस, सब कुछ एक सिद्धान्त के अनुसार गढ़ते हैं जिसकी पुख़्तगी के बारे में उन्हें ख़ुद कोई भरोसा नहीं होता. परिणामतः वे एक `सेटका काम करते हैं जिसमें एक कास्ट्यूम ड्रामा खेला जाना है. प्रचण्ड प्रवीर का शिल्प एक मौजूद सेट में मौजूद कास्ट्यूम ड्रामे की पुनःप्रस्तुति का शिल्प है-जैसे एक लोकनाट्य दर्शकों के बीच की ख़ाली जगह को मंच बना लेता है और उनके भाषिक व्यवहार को संवादों में ढाल देता है.

कहानी के केन्द्र में एक प्रेमी-युगल है जो अभी कैशोर की दहलीज तक भी नहीं पहुँचा है. इन दोनों को ठीक-ठीक मालूम ही नहीं है कि वे प्रेम कर रहे हैं. इस अर्थ में यह सिंह कहानी का समय-मापनी पर पहले छोर तक अपकर्षण है. किन्तु इस युगल की आकांक्षाओं के स्फुटीकरण के क्षेत्र दूसरे हैं-कोई पोलिथीन से मक्खन तैयार करने वाला वैज्ञानिक बनना चाहता है तो कोई गायन में नाम कमाना चाहता है. माहौल ही यही है-कोई मेघदूतपढ़ रहा है और विज्ञ साहित्य-रसिक की तरह बता रहा है कि वह कितना सुन्दर काव्य है और फिर आगे अँगरेज़ी ग्रामर `पर काम करनेका इरादा रखता है, कोई संसार का सबसे सफल कामिक तैयार करना चाहता है. इस कस्बे में उन सबके नाम गूँज रहे हैं जिन्होंने कम उम्र में नाम कमा लिया और विश्वकल्याण में योगदान दिया.

यह कस्बा उस भारत की तस्वीर है जो प्रतिभा के बल पर विश्व में अग्रणी बनना चाहता है. कोई भी `यथार्थसे मुँह नहीं मोड़ रहा है, वैज्ञानिक को प्रोत्साहन न मिलने का कारण उसकी ग़रीबी है, गाना कितना भी अच्छा गाओ, पुरस्कार देशभक्ति वाले गीत को ही मिलेगा, पोर्ट्रेट बनाने में कुछ नया करना चाहते हो तो गाँधी और सुभाष की जगह राजेन्द्र प्रसाद का बना दो-और निश्चय ही इन सबके विश्वप्रसिद्ध न हो पाने के कारण उस कस्बे में ही निहित हैं. `विकसितदेशों से एकरस लोग इन सब पर हँस सकते हैं किन्तु इन सपनों की सचाई हमें तब पता लगती है जब हम देखते हैं कि हेलीकाप्टर बनाने की महत्त्वाकांक्षा पाले किसी युवा ने अपनी कार का बहिरंग हेलीकाप्टर जैसा कर लिया है और इनके भराव को उपेक्षित करने के पहले हमें उन तमाम चित्रकारों की तरफ़ नज़र डाल लेनी चाहिए जिन्होंने लेनिन का पोर्ट्रेट बना कर अपनी प्रगतिशीलता साबित की है. इस कहानी के विद्रूप को हमें उन तमाम कला-सिद्धान्तों की परख के लिए भी इस्तेमाल करना चाहिए जो यह समझाते हैं कि बादशाह की शान में लिखे गये क़सीदे से मज़दूर की शान में लिखा गया क़सीदा बिहतर हो जाता है.

6. 
प्रचण्ड प्रवीर की भाषा में स्थानीयता मेरी निजी रुचि के हिसाब से कुछ अधिक है किन्तु जिन्हें यह अतिरेक शैथिल्य नहीं लगता उन्हें भी यह स्वीकार करने में एतराज़ नहीं होना चाहिए कि ( सिंह कहानी में) `भानजीके लिए `भगिनीका प्रयोग ग़ैर-बिहारी हिन्दी-भाषी के लिए असुविधाजनक है. यद्यपि भाषा का कोई सार्वभौम व्यवहार नहीं होता फिर भी पायल पहनाने और बेड़ी डालने में फ़र्क़ करना ज़रूरी है.

किन्तु उनकी कहानियो॑ का क्षेत्र अपनी दृष्टि और सृष्टि में हिन्दी के समकालीन कथा-साहित्य के रचाव से कई अर्थों में भिन्न है. हिन्दी की समकालीन कथा-बल्कि समूची साहित्य-सर्जना-का स्वर बहुत ऊँचा है लेकिन कहने के लिए वाक्य बहुत कम हैं और उन वाक्यों में बताने के लिए और भी कम होता है. इसका कारण ईक्षण और अवेक्षण में आलस है जो शिक्षा और अभ्यास में भी उसी तरह झलकता है. प्रचण्ड प्रवीर ने अपने लेखन को लेख्य की तहदारी का सम्मान करने की हिम्मत से लैस रखने की कोशिश की है और दुनिया को तदबीर की दीवारों में महदूद रखने वाली गजनिमीलिका से बचे रहे हैं. इस कारण से वे मानवीय सत्ता के उन कारकों और बरतावों पर भी नज़र रख सके हैं जिनसे मुँह मोड़ने में ही समकालीनता ने अपनी तार्किक उपस्थिति मानी है. फलतः अतिमानवीयता से टकराने के विविध उपाय- तन्त्र, विज्ञान, परा-कोपर्निकीय ग्रह-विद्या-सभी उनके उपकरण- भाण्डार में जगह और इस्तेमाल के हक़दार हैं तथा अदब- मुलाहिज़े को भी उनके यहाँ वही तरज़ीह मिलती है जो हमक़दमी और हमकलामी को.
  
मुझे पूरा भरोसा है कि इन कहानियों की बन्दिश का नयापन हिन्दी की वर्तमान सर्जना पर एक बढ़त के रूप में देखा जायगा और इसे न केवल वह मक़ाम हासिल होगा जिसकी वह हक़दार है बल्कि इसकी रहरवी को वह मक़बूलियत भी मिलेगी जिससे हमारी क़िस्सागोई और भी सुर्ख़रू तथा हमाहंग हो सके.
__________________

फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)

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मराठी के समकालीन कवि फ़ेलिक्स डिसोज़ा के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उन्होंने कुछ नाटकों और नुक्कड़ नाटकों का भी निर्देशन किया है. उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. उनकी कुछ कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है.


ये कविताएँ वर्तमान संत्रास और असुरक्षा को न केवल अभिव्यक्त करतीं हैं बल्कि हस्तक्षेप भी करती हैं. ये एकदम आज की कविताएँ हैं. ये हमारी सामूहिक आवाज़ हैं.  




फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ                       
मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी




मुझे कहना है कुछ


1)

कोई खींचता आ रहा है लम्बी लकीर
जिसके आगे अनेक लकीरें होती जाती हैं छोटी, और छोटी
और कुछ तो हमेशा के लिए दिखाई देना बंद कर देती हैं

यह लम्बी, और लम्बी होती जाने वाली लकीर
हो सकती है एक मर्यादा
जिसकी वजह से पार नहीं की जा सकती कोई भी 
दहलीज
यह लकीर यानि हो सकती है एक
लक्ष्मण रेखा
सुरक्षित परतंत्रता लागू करने वाली.



2)

आप इस आज़ाद देश के नागरिक हैं
और आप के चेहरे का भोलापन
उन्हें चाहिए विज्ञापन के पहले पृष्ठ पर
जिसमें उनके लिए संभव है छुपाना
क्रूरता, हिंसा और पराजय

बहुत देर बाद
यानि जब आप सच-सच बोलना चाहते हैं
तब समझ में आने लगता है
भाषा में कोई अर्थ नहीं बचा आपकी दबी हुई आवाज़ के लिए
आपकी वेदना के उच्चारण में दिखलाए जाते हैं
देशद्रोही स्वर

 वैसे तो बारिश को बारिश कहने की परम्परा
उन्होंने रोक दी है
और आप बादलों  से भरे आसमान में
तारे देखने का नाटक हूबहू करने लगते हैं.


3) 

मांत्रिकों की ऐसी अनेक कहानियाँ
मशहूर हैं इस देश में
जिन्हें हम इतिहास के तौर पर सुनते आए हैं
बचपन से

जिनके महज मंत्रोच्चारण से भी
खतरनाक विपत्ति टल जाने की अनेक कहानियों से
हमें वाक़िफ़ करवाया गया होता है

हमें नहीं पता होता मंत्रोच्चारण का अर्थ
वह पता होता तो चूल्हे पर कंडे जलाते हुए
टाली जा सकती थी इस देश पर 
मांत्रिकों के रूप में आई यह विपत्ति

देश की यह घटना सुनाई जाएगी
जब किसी कहानी की तरह तब बताया जाएगा
कि कैसी दुर्गति पा गया था यह देश
और महज मंत्रोच्चारण से भी
कैसे बदल डाली एक मांत्रिक ने इस देश की नियति

तब आपके कानों में सुनाई पड़ने लगेंगे देशाभिमान 
के सुमधुर गीत मन्त्रों की तरह 
जब आप में नहीं बचेगी बिलकुल भी   
आपकी कोई भी आज़ादी.



4) 

आप अगर कलाकार हैं तो कह उठेंगे
यह वाक्य जो आपके लिए बेहद ज़रूरी है

मुझे कहना है कुछ… 

इस वाक्य के बाद आपको अचानक याद आएगा
उनके लिए कितना निरापद है आपका कहना
और आपकी समझ में आएगा
कि आप कैसे अब तक ज़िन्दा हैं
और अब तक कैसे बची है ज़िन्दा रहने की आज़ादी

आप कवि हैं
और आप कहने  लगते हैं 
भाषा से प्यार करना
आपका अधिकार है… 

आप अधिकार के बारे में बोलने लगते हैं

और निकाल लिए जाते हैं भाषा के कवच-कुण्डल
बतलाया जाता है
अब के बाद नहीं बना सकता कवि नई भाषा

आपके सामने अचानक रखा जाता है
नई-नवेली सुन्दर
भाषा का नया सौन्दर्य कोश
और बार-बार बतलाया जाता है

कविता लिखने की आज़ादी अब भी है बरकरार
आप लिख सकते हैं सुन्दर-सुन्दर कविताएँ.




लौटना

दूर जाने वाले किसी अपने से
हम पूछते हैं उसके लौटने का वक़्त
लौटना एक ऐसी संभावना है
जिससे जुड़ी है आशा और आनंद
जिसमें बाकी है प्रेम
और जिसमें अब भी यादें भर-भर आती हैं

कभी-कभी हम जाते हुए इतनी जल्दी में होते हैं
कि भूल जाते हैं कि किस विशिष्ट रास्ते से
लौटना है या भूल जाते हैं कि हमें लौटना है
अपने मूल स्थान पर अपनी जड़ें खोजते हुए

कुछ लोग तो सपनों का पीछा करते हुए थक जाते हैं
और जब लौटना यह एकमात्र विकल्प उनके सामने होता है
तब
खाली हाथ लौटते हुए बेहद शर्मिंदा होते हैं
उनकी गिनती हमेशा गुमशुदाओं में की जाती है

कुछ लोग तो वापसी के सफ़र में होते हैं
मगर पहुँच नहीं सकते राह देखने वाले की नज़र में
उन्हें बुलावा आया होता है
असमय रुका हुआ होता है उनका लौटना

कुछ के अनुसार
उनकी वापसी का सफ़र हो जाता है शुरू 
और जिस दिशा में वे निकल गए थे
उसकी विपरीत दिशा से
उन्हें बुलाने वाली आँसुओं की और हिचकियों की
आवाज़ आती रहती है
कुछ लोग तो लौटने को
एक पद्धति मानते हैं
तयशुदा होते हैं लौटने के नियम
अँधेरा होने  से पहले
या सुबह होने से पूर्व...

आजकल लौटना इस सम्भावना के इर्द-गिर्द जमने 
लगा है पल-पल बढ़ता जाने वाला डर
यहाँ तक कि राह देखने वालों के मन में
लौटने वाला सही-सलामत लौट आएगा इस ख़याल की बजाय
मन में आने लगते है कितने ही डरावने ख़याल
जिनकी संभावना अधिक है इन दिनों

लौटना यह इतना अनिश्चित है कि
कल सवा आठ बजे लौटा हुआ आज सवा आठ पर
ही लौटेगा ऐसा नहीं है और
समय पर लौटना कितना ज़रूरी है
राह देखने वालों के लिए और
राह देखना लौटने वालों के लिए

जब हम समय पर नहीं पहुँच पाते
तब लौटना हमें ख़ुशी नहीं दे पाता
जैसे
नींद से लड़ते हुए पिता की राह देखने वाली लड़की
राह देखते-देखते सो जाती है
तब कितना दयनीय होता है पिता का लौटना
जो राह देखते-देखते
थक कर सो चुकी लड़की की
नींद में लौट नहीं सकता.




आप, हम और हमारे गीत

अँधेरा होने को है
फिर भी आप इतने बेख़ौफ़
मानों वाक़िफ़ हैं आप 
इस फैलते अँधेरे के राज से

आप उजाले में खड़े होकर
अँधरे में काली पड़ती जाती 
आँखों में गिन रहे हैं
थरथराता डर

उजाले का आधार लेकर आप करते रहे
अपनी राक्षसी परछाइयों को और भी लम्बा

भगवान को प्रसन्न  करने हेतु आपने 
दी एक ज़िंदा आदमी की बलि
अपना माथा धोने के लिए आपने
निकाल लिए एक असहाय औरत के गीले वस्त्र
आग के हवाले कर दीं आपने छोटे बच्चों की कोमल चीखें
फिर भी आप बे-ख़ौफ़
और कहते हैं कहाँ है चीख
हिंसा कहाँ है
आप जिस हिंसा की बात करते हैं
वह हमारे गाँव में हैं नहीं
और अब ज़्यादा बोले तो... 
तो चुप बैठिए और देखिए
सुनाई पड़ती है या नहीं कोई चीख
इतनी चतुराई आप में कहाँ से आती है
कहाँ से आती है उन्माद फैलाने की यह जल्दी

आपके डरावने क़दमों  की आवाज़ से
विध्वंसक स्वप्न फड़फड़ा रहा है यहाँ के
भविष्य पर
इस बर्फ़ पर सफ़ेद कपड़े में सुलाए गए
ये बच्चे जो जीवित नहीं दिखाकर
आप कहते हैं चुप बैठिए
और कहते हैं कवि आप
अपने कोमल अंतःकरण से लिखें
राज्य के गौरव गीत
बदले में हम आपको देंगे भरपूर मानधन
और मुहैया करवाएंगे राजाश्रय

मगर आपके झूठेपन और प्रलोभन के
षडयंत्र में हमारे गीत धोखा नहीं करेंगे
समय की सदाएँ सुनने का यही तो वक़्त है
दरवाज़ा खोलने से पहले ही अंदर घुस आने वाले
डर से बिना डरे
कविता के दरवाज़े पूरी तरह खुले रखने होंगे
और कवियों के ह्रदय भी
इस फैलते जाते डर को लौटाने के लिए.



छह-सात बातें

1)
जो आपको और मुझे भी पता है
और हमें पता है
कितना ज़रूरी है उसे चीख-चीख कर बताना

फिर भी हम बता नहीं सकते किसी को

हम आपस में सरगोशियाँ करते हैं बस
कहते हैं
कि बेहद ख़राब है ज़माना
और उस से भी ख़राब है इन दिनों ज़िंदा रहना.


2)

इस बात के बारे में मैं आपको
कुछ भी नहीं बताऊँगा
क्योंकि गोपनीयता इस बात की असली ज़रूरत है
और फिर
आप अपने ख़ास हैं
इसलिए आपसे कहता हूँ

आप किसी से कहेंगे नहीं इस शर्त पर
इसी शर्त पर मुझे बतलाई गई है
यह बात.



3) 

यह असल में अफ़वाह है
और फैलते जाना
यही उसके अफ़वाह होने का
सुबूत है
और ज़्यादातर
जब फैलाई जाती है अफ़वाह
तब वह अफ़वाह की तरह नहीं फैलाई जाती
वह फैलाई जाती है किसी डर की तरह
जो कसमसा रहता है हमारे आगे-पीछे
और जब हम कर रहे होते हैं कोशिश
गर्दन सीधी रख कर चलने की
तब हमारे कंधे पर हाथ रखकर
दबाया करता है हमारे कंधे.


4) 

यह सबसे 
भयानक बात है
जो स्कूल की किताब में 
छपी है

जिसमें कितने ही सालों से हारता आया है एक
दुर्जन
जिसमें से सुनाई पड़ते हैं सज्जनों की
जीत के ढोल-नगाड़े 

दुर्जन-सज्जन का इतिहास
इन दिनों भी बताया जाता है
जहाँ दुर्जनों के घरों से सुनाई पड़ते हैं जीत के ढोल-नगाड़े
और सुई की नोंक से ऊँट गुज़र जाए इतना
कठिन हो गया है सज्जनों का जीतना.


5) 

काले पत्थर की रेखा जितने स्पष्ट
और रोज़ उगने वाले सूरज से
बतलाया जाता है जिसका रिश्ता
ऐसी बात जो छुपा कर रखी गई है
पुरातन ख़ज़ाने जैसी
जिसके बारे में मैं इतना ही बता सकता हूँ
वह इतनी मूल्यवान है
कि उस बात का कहना मात्र हो सकता है मृत्युदंड

या अभिननंदन होगा किसी राजा के प्रधान सेनापति
एकदम चुप बैठने के बदले में


6) 

पाँच-छह बातों में यह
आखिरी बात

जो आपको पता है
और
सभी को पता है
और
अहम बात यह कि इस बात का पता होना
बिलकुल ज़रूरी नहीं 




प्रश्न

बहुत लोगों से मैं पूछता आया हूँ प्रश्न
कुछ तो उलटे मुझसे ही प्रतिप्रश्न कर
मुझसे दूर चले गए

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि
सारे प्रश्नों के उत्तर होते ही हैं ऐसा नहीं

और हमारे मन में भी उठते हैं प्रश्न मगर
हमने कभी एक वाक्य भी प्रश्न की तरह नहीं कहा

कुछ लोग प्रश्न सुनकर इतना हँसे कि
हँसते-हँसते उनकी आँखों में
दुख के आँसुओं के पहाड़ खड़े हो गए
वे कहने लगे हँस-हँसकर पेट दुखने वाले इन दिनों में
बुझती जा रही है भूख प्रश्न मन में उठने की और पूछने की भी

कुछेक ने दरवाजे की झिरी से मेरी तरफ देखा
और बोले हमारी सारी ज़रूरतें हो गई हैं पूरी
इसलिए जी सकते हैं हम प्रश्नों के बिना
उनके लिए प्रश्न माने
स्वस्थ शरीर में अचानक घुसने वाली बीमारी है
और वह दिखाते रहते हैं बचने के लिए
लगवाए गए टीकों के निशान

उनमें से कुछ ने ऐसा भी कहा कि
सवाल सिर्फ उन्हीं के मन में उठते हैं
जो अब भी दो पत्थरों के बीच उम्मीद से आँखें लगाए हैं
कि अब उड़ेगी चिंगारी और
अब फैलेगा उजाला
ज़रा सी गर्माहट ओढ़ी जाएगी

इसी तरह बहुत से लोग मिलते हैं
जवाबों के बिना जीने वाले
प्रश्नों का ढूह दरकने लगता है मस्तिष्क में
मैं लिखने लगता हूँ कविता
जिसे सुनने पढ़ने की संभावना
डूब चली है.



उन्माद

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा
बार-बार दिखाई जा रही है प्रमुखता से
प्रमुखता से दिखाई जा रही है हिंसा
हिंसा के भयावह दृश्य से
डराया जा रहा है फिर-फिर
मानों दी जा रही है ताकीद
कुछ न कहने के बारे में

एक युवक कहता है
क्यों दिखाई जा रही है हिंसा
जो मुझे लगातार आकर्षित करती है
एक बूढ़ा कहता है
सभी की आँख में होता है मोतियाबिंद
मुझे भी अब साफ़ दिखाई नहीं दे रहा…

फ़िल्मी दृश्य की भाँति तयशुदा ढंग से
फ़िल्माए गए हैं दृश्य हिंसा के

नहीं दिखाया जाता है हिंसा का असली चेहरा.

दिखाए जाते हैं हिंसा के बाद के दृश्य जिसमें
इंसानों के ही आकार की छोटी-छोटी
गठरियाँ पीठ पर बाँधे जो राह मिल जाए उस पर
चल पड़े हैं लोग किसी दिशा में 
जिनकी हारी हुई आकृतियाँ पीछे से
दिखाई जाती हैं बार बार...

उनके चेहरे पर डाली गई
तेज़ रौशनी में ढँक जाती हैं
उनकी आँखों के
मृत्यु घाट तक पहुंचे हुए भयभीत स्वप्न

दिखाई जाती हैं भयभीत होकर भागते हुए
फूली हुई साँसें
क़दमों का भगोड़ापन
आतंकित छिपकर देखने वाली आँखें
बर्बाद हो चुके घर
थरथर काँपते हुए अपने में सिमटती लड़कियाँ
एकाकी हो चुके  अकबकाए बच्चे

सारा डर अचूक टाइमिंग के साथ
कैमरे में दर्ज हो गया है

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा दिखाई जाती है
डर की तरह
छिपा हुआ होता है हिंसा और उत्स्फूर्तता की चर्चा में
हिंसा के पीछे की करतूत
और किसी की जीत का भयावह उन्माद
थपेड़ा जाता है मिट्टी में
जिस पर फ़हराती रहती है 
लोगों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता.
_____________


भारतभूषण तिवारी
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com

अग्‍नि‍लीक : हृषीकेश सुलभ

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हृषीकेश सुलभ की आवाजाही रंगमंच और कथा-लेखन के बीच रही है. नाट्य लेखन के साथ उन्होंने कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नाट्य रूपांतरण भी रचा है. तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. दीर्घ लेखकीय तैयारी और अपने विस्तृत अनुभव के साथ वह अब अपने पहले उपन्यास ‘अग्‍नि‍लीक’ के साथ समक्ष हैं. यह उपन्यास राजकमल ने प्रकाशित किया है और अब पाठकों के लिए उपलब्ध होने जा रहा है. उम्मीद है इसे चाव से पढ़ा जाएगा.


इस उपन्यास का एक अंश आपके लिए.  



उपन्‍यास अंश
अग्‍नि‍लीक
हृषीकेश सुलभ 
     




     

गुल बानो पैर झटकते हुए तेज़-तेज़ चल रही थी. इस बार उसने रास्ता बदल दिया था. छोटी राह पकड़ी थी. देवली का किनारा छोड़ कर बीच गाँव को पार करती हुई रौज़ा के किनारे वाली राह. जैसे ही वह उस भूतहे पाकड़ के पेड़ के नीचे पहुँची एकबारगी उसकी रूह काँप उठी. उससे सीधे तो किसी ने कुछ नहीं कहा था, पर कनफुसियाँ छिपती हैं भला! देर-सबेर बातें पसर ही जाती हैं चारों ओर. लोग कहते हैं कि इसी पेड़ पर उसका आदमी भूत बन कर रहता है. गुल बानो ने अपने मन को थिर किया. एक गहरी साँस लेकर कलेजे की चाल को सम्भालने की कोशिश की और आँखें ऊपर उठा कर पाकड़ पेड़ की ओर देखा. सोचा, भूत ही सही, पर काश दिख जाता उसका मरद. दिख जाता तो पूछती उससे कि कौन कसूरे इस तरह उसे छोड़ गया?

पाकड़ के बूढ़े-सयाने पेड़ की गझिन डालों-टहनियों पर उसकी आँखें शमशेर साँई की आत्मा को टेर रही थीं. पाकड़ की डालें और टहनियाँ धुनकी की ताँत बनी हवा को धुन रही थीं. रूई की तरह हल्की होकर हवा ऊपर उठ रही थी. पाकड़ पेड़ के पात झूल रहे थे. गुल बानो ने गुहार लगाई – ‘’या अल्ला......!’’
     
गुल बानो आगे बढ़ी. कुछ कदम चलने के बाद पीछे मुड़ कर दुआ माँगती नज़रों से फिर देखा बूढ़े पाकड़ को. मन ही मन अरज किया कि अगर सचमुच भूत बन कर ही रह रहा हो मेरा आदमी, तो उस पर रहम करना.

कातिक के चन्द्रमा की उजास बरस रही थी. चमक रहे थे पाकड़ के हौले-हौले झूमते चिकने पात. गुल बानो ने रौज़ा के किनारे हाल में बनी चहारदिवारी वाली राह पकड़ ली. यह राह आगे जाकर दायीं ओर मुड़ती और टोटहा टोला होते हुए दुधही पोखर के भीट से गुज़रती. गुल बानो ने टोटहा टोला पार किया. दुधही पोखर आया. दुधही पोखर के भीट के उस पार था था मनरौली. गुल बानो लम्बे-लम्बे डेग भर रही थी. उसे घर पहुँचने की जल्दी थी. उसके साथ-साथ चन्द्रमा माथ ऊपर चल रहा था. जैसे ही वह दुधही पोखर के भीट पर चढ़ी, उसके माथ से उतर कर चन्द्रमा पोखर के जल में तैरने लगा. वह भीट पर चलती रही और चन्द्रमा तैरते हुए साथ चलता रहा. मनरौली आया. फिर अंसारियों का टोला बीता. आम और कटहल के पेड़ों की घनी क़तारें पीछे छूटीं. साँई टोला आया. बूढ़े साहेब साँई कथरी ओढ़े उसकी बाट जोहते हुए दुआर पर खड़े मिले. नौशेर भी जगा था. पलानी से उसके खाँसने की आवाज़ आ रही थी. हाथ में लालटेन लिए मुन्नी बी पक्के दीवारों वाली कोठरी के दरवाज़े पर खड़ी थी. 
     
गुल बानो सबसे पहले पलानी में घुसी. गायों और बछियों को चारा-पानी देने के बाद मुन्नी बी ने उन्हें पलानी के भीतर खूँटे से बाँध दिया था. गुल बानो के आने की आहट पाकर पहिलकी रँभाने लगी और नयकी ने गरदन में बँघी घंटिया बजा कर उसका स्वागत किया. दोनों बछियाँ औचक उठ कर उछल-कूद करने लगीं. लगा, खूँटे में बँधा पगहा तोड़ देंगी. गुल बानो उनके पास गई. उनका माथा, थूथना सहलाती रही. .......उसी पलानी में एक ओर खाट डाल कर नौशेर सोया था. पलानी में गाँजे की गंध भरी थी. बाहर निकल कर उसने मुन्नी बी से पूछा – 

"दोनों को रोटी.....?"
हूँ, .......खिला दिया था.‘’ मुन्नी बी बोली.
और तुम?’’‘‘
“तुम्हरे बिना कइसे खा लेती?’’ 

जवाब दे कर मुन्नी बी रोटी परोसने के उपक्रम में लगी.
रोटी खाते हुए मुन्नी बी ने कहा, ‘’तुम्हरा देवर तो बड़ा रसिया है.‘’
चौंक उठी गुल बानो. "का हुआ? ......कुछ कह रहा था का?’’
हूँ, .......रोटी लेकर गई तो हाथ पकड़ कर खाट पर बैठाना चाह रहा था. बोला, ......."अगर इस घर में रहना है तो निकाह कर लो हमसे."
      
"गँजहे हरामी को जवानी का जोम चढ़ा हुआ है. ......सूअर का पिल्ला. ......थरिया काहे नहीं पटक दिया लँगड़े के कपार पर? .......सारी गरमी झड़ जाती." 
गुल बानो आग उगल रही थी. उसकी रोटी का स्वाद बिगड़ गया था. मुन्नी बी सिर झुकाए, .....बिना कुछ बोले रोटी चबाने में लगी थी. 
     
सामने की पक्की कोठरी में साहेब साँई सोए थे. रोटी खाकर दोनों पीछे फूस की छाजन वाली कोठरी में सोने चली गईं. नौशेर को गालियाँ देती, .......बड़बड़ करती दिन भर की थकी-माँदी गुल बानो बिस्तर पर गिरी, तो गिरते ही नींद ने उसे दबोच लिया. ........पर मुन्नी बी की आँखों की नींद नौशेर ने उड़ा दी थी. वह करवटें बदल रही थी. .......कहँवा जाए? .......का करे? छोटी उम्र से ही उसकी यह देह उसके लिए विपत का पहाड़ बनी रही. अब जब उसकी यह ज़िन्दगी उसके किसी काम की न रही, तब भी यह देह मुसीबत बनी साथ लगी है. दस दिन होने को आए उसे अकरम अंसारी के घर से निकले हुए. इन दस दिनों में क्या अकरम को इस बारे में ख़बर न हुई होगी! दो-चार दिन आँतर देकर कोई न कोई उससे मिलने जेल जाता ही है. 

सारे जवार को ख़बर है कि नाज़ बेगम ने उसे घर से बेआबरू करके निकाल बाहर किया है और अकरम को यह बात पता नहीं! .......कैसे मान ले वह कि अकरम को कुछ नहीं मालूम! वह चाहता तो जेल से ही सारा कुछ पलक झपकते बदल देता. नाज़ बेगम को अपना ही थूका हुआ चाटना पड़ता. नाज़ बेगम की ऐसी औक़ात नहीं कि अकरम के हुकुम की अनदेखी कर सकें. अकरम अंसारी की चुप्पी में बहुत कुछ ऐसा शामिल था, जिसे पिछले कुछ दिनों से मुन्नी बी महसूस कर रही थी.

मुन्नी बी तड़प रही थी. जिसने उसका सब कुछ लूट लिया या जिस पर उसने अपना सब कुछ लुटा दिया, जब उसने ही आँखें फेर ली तो वह इस देह का क्या करे! .......अब इसे नौशेर साँई नोचे या कुकुर-सियार, मुन्नी बी को कोई फ़िकर नहीं. अगर वह लँगड़ू नौशेर साँई से निकाह कर इस घर में बैठ जाए तो कैसा लगेगा अकरम को? .......जिस शमशेर साँई की हत्या के चलते वह आज जेल में बन्द है, उसी शमशेर के छोटे भाई की ब्याहता बन इस घर में उसके बैठ जाने से सारे गाँव-जवार में अकरम की थू-थू हो जाएगी. .......मुन्नी बी की साँस उखड़ रही थी. हाँफ रही थी वह. मुन्नी बी उठी. सामने रखे काँसे के बड़े लोटे में पानी भरा था. उसने लोटा उठा कर मुँह से लगा लिया और गटगट करती हुई सारा पानी पी गई. पानी की एक पतली धार चू कर उसके गरदन से होती हुई उसकी छातियों के बीच से नीचे उतरी और उसे सिहरा गई. उसकी आँखों के सामने नाज़ बेगम की सूरत नाच रही थी. बुदबुदायी वह – 
"रख तू अपने ख़सम को अपने आँचर के खूँट में बाँध कर. पागल न बना दिया अकरमवा को तो असल की औलाद नहीं. किसी काम का न रह जाएगा वो. कचहरी में जाकर गवाही दूँगी कि तेरे मरद ने ही साँई का कतल किया."   

मुन्नी बी बाहर निकली. गुल बानो गहरी नींद में थी. आँगन में आकर आसमान की ओर देखा. चन्द्रमा जा चुका था और उसके उजियारे की चमक मिट चुकी थी. अँधियारा पसर चुका था. मुन्नी बी ने आँगन पार किया. पक्की कोठरी में घुसी. बूढ़े साहेब साँई की नाक बज रही थी. वे गहरी नींद में थे. वह कोठरी से बाहर निकली और एक झटके से सहन पार कर पलानी में घुस गई.

नौशेर साँई भी गहरी नींद में था. पशुओं में हल्की हरकत हुई, पर चारों अपने-अपने खूँटों में बँधी रहीं. मुन्नी बी हौले पाँव नौशेर साँई की खाट के पास पहुँची. पलानी में भी अँधियारा भरा था. नौशेर साँई का मुँह कथरी से ढँका हुआ था. मुन्नी बी ने उसके चेहरे से कथरी हटा दी. नौशेर साँई की आँख खुली. मारे डर के वह चीख़ने ही वाला था कि मुन्नी बी ने उसका मुँह बन्द कर दिया. पहले तो कुछ देर नौशेर की घिघ्घी बँधी रही. वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे! जब मुन्नी बी खाट की पाटी पर बैठ गई, तब उसकी उखड़ी हुई साँस थमी. टूटती हुई आवाज़ में नौशेर साँई बोला – ‘’मुन्नी बी.....’’   


“उठ कर बैठ और मेरी बात सुन"  मुन्नी बी की फुसफुसाहट भरी आवाज़ में घन की चोट जैसी धमक थी. "कल हमारे सामने अपनी भौजी से बोल कि तू निकाह करना चाहता है. हामी भर दूँगी. पर एक बात सोच ले कि अगर गुल बानो ने ना की तो भी तुझे निकाह के लिए राज़ी होना पड़ेगा. हमारे हामी भरने के बाद हर हाल में निकाह के लिए तैयार हो तबहीं आगे बढ़ियो."
     

नौशेर साँई को जवाब देने की मोहलत दिए बिना पलानी से बाहर निकल गई मुन्नी बी. वह भौंचक बैठा था. उसकी पतली, .......सूखी हुई छोटी वाली टाँग बिस्तर पर थी और दूसरी खाट से नीचे लटकी थी. खाट के सिरहाने वाले पावे से टिकी बैसाखी नीचे गिरी हुई थी. हथिया नक्षत्र की बारिश की तरह मुन्नी बी आँधी-पानी-बिजली सब एक साथ लिये आयी और नौशेर साँई को झकझोर कर चली गई. उसे काठ मार गया था. वह उलझा हुआ था कि यह सब सपना था या हक़ीक़त! मुन्नी बी उससे निकाह को राज़ी हो जाएगी, यह तो उसके लिए कभी न पूरा होने वाला सपना ही था, पर..... 
     
नौशेर साँई ने झुक कर टटोलते हुए अपनी बैसाखी उठा ली और खाट से नीचे उतरा. पलानी से बाहर निकल कर सहन में आया. आसमान की ओर मुँह उठा कर देखा. भोर का तारा शुकवा उग आया था. अब भोर होने ही वाली थी. पहली बार, ........हाँ पहली बार नौशेर साँई की ज़िन्दगी में भोर हो रही थी. पूरे ज़िला-जवार में जिसका रुतबा था, ऐसे आदमी का भाई होते हुए भी वह बाँड़े की तरह जी रहा था अब तक. भाई चला गया, पर उसके लिए कुछ न कर सका. बाप की कोई औक़ात ही नहीं कि वह कुछ कर सके. नौशेर ने दोनों हाथ ऊपर उठा कर अल्ला मियाँ का शुक्रिया अदा किया. अपनी ज़िन्दगी में पहली बार उसका अल्ला मियाँ से सम्वाद हुआ और इसके साक्षी बने आसमान के तारे.
     
दिन चढ़े तक सोने वाला नौशेर साँई पौ फटने से पहले सँपही किनारे पहुँचा. सँपही की ओर जाते हुए उसका जी कर रहा था अपनी बैसाखी फेंक कर नीचे तक दौड़ लगाए, पर यह बैसाखी तो मउअत के दिन ही छूटने वाली थी. मन मसोस कर रह गया वह. ......फिर उसका जी किया कि नाच-नाच कर कोई गीत गाए. नाच पाना तो मुश्किल था, पर गा तो सकता ही था वह. अभी भोर होने वाली थी. सारी धरती को अँजोर से भर देने वाले सूरज के उगने से पहले स्वागत में नौशेर साँई ने गाना शुरु किया "मिस कौल मारत बाड़ू किस देबू का हो....‘’ 
     
नौशेर साँई की उल्लसित भोंडी आवाज़ दसों दिशाओं की ओर प्रक्षेपास्त्रों की तरह छूट रही थी. सुबह से पहले की नीरवता को अपनी उत्फुल्लता से हिंड़ोर रहा था नौशेर साँई. उसकी आवाज़ जाकर टकराई साँई टोला के पेड़ों से और पेड़ों पर बैठे पंछी उड़े, .......जाकर छपाक-छपाक गिरती रही उसकी आवाज़ सँपही के पेट में और लहरें उठने लगीं. अद्भुत दृश्य था. .......बहुत दिनों से नौशेर मोबाइल ख़रीदना चाह रहा था, पर ख़रीद नहीं पा रहा था. सोचा उसने कि अब हर हाल में ख़रीद लेगा. देवली के फत्ते मियाँ की दुकान पर कई बार जाकर वह देख आया है. चायनीज मोबाइल. कम पैसे में बड़ा मोबाइल और आवाज़ भी टनटन. वह किश्तें जमा कर रहा है. बस निकाह हो जाए. बाक़ी पैसे मिला कर ले लेगा. फिर तो मुन्नी बी को पास बैठा कर उसे मोबाइल में फिलिम दिखाएगा.   
     
गुल बानो जागी. देखा, मुन्नी बी पहले से जागी हुई है. घुटनों में मुँह गोते बैठी है. पूछा – "बहुत सवेरे जाग गई? रात भर सोयी नहीं क्या?"
     
मुन्नी बी ने कोई जवाब नहीं दिया. रात भर की जागी अपनी थकी, कातर और लाल हुई आँखों से गुल बानो की ओर देखा. 
     
"नींद नहीं आती होगी तुमको. गुदड़ी-कथरी ओढ़-बिछा कर, .......फूस के घर में सोने की आदत नहीं होगी. पर का करोगी, सब नसीब का खेल है. अब तो. " गुल बानो ने समझाने की कोशिश की. 
     
मुन्नी बी मौन रही. बस निहारती रही गुल बानो को. गुल बानो ने उठते हुए कहा – ‘’चलो! .....निकलो जल्दी. मरदों की आवाजाही से पहले निबटना भी तो है.‘’‘‘
     
दोनों शौच के लिए साथ निकलीं. जबसे मुन्नी बी आयी है, दोनों साथ ही जातीं और साथ लौटतीं. गुल बानो अगर साथ न रहे तो टोला की औरतें अपनी बोली-ठोली से मुन्नी बी का कलेजा ही छेद दें. मुन्नी बी को सरपंच अकरम अंसारी के विशाल मकान की तीसरी मंज़िल पर बने गुस्लख़ाने की आदत थी, पर अब कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं था. बिना नाक-भौं सिकोड़े वह अपनी आदतें बदल रही थी. ज़िन्दगी के इस रंग से वह अपरिचित नहीं थी, पर फिर से इस रंग में अपने को रँगना आसान भी नहीं था.
     
गुल बानो और मुन्नी बी जैसे ही ढलान से नीचे उतरीं, ज़मीन पर बैठे नौशेर साँई की पीठ दिखी. दूरी थोड़ी कम हुई तो साफ़-साफ़ पता चला कि नौशेर बैठा है. बगल में बैसाखी पड़ी थी. गवनई के बाद अपने सपनों में विभोर बैठ कर आसमान निहारते नौशेर साँई की छटा से सँपही के तट का वातावरण कुछ बदला-बदला सा था. ......गुल बानो को अचम्भा हुआ. भोरे-भिनसारे नौशेर सँपही के किनारे! ऐसा आलसी कि इतनी सुबह जन्नत जाना हो, तो न उठे. इस समय तो वह खाट पर चित पड़े-पड़े अपनी नाक बजाया करता है. आज यह अनहोनी कैसे हो गई?
     
नौशेर साँई को आभास हुआ कि कोई उसकी ओर आ रहा है. उसे मालूम था कि यह औरतों के निकलने का समय है. उसने बैसाखी उठा कर टेक लगाई और उठ खड़ा हुआ. देखा, सामने से उसकी भौजाई और मुन्नी बी चली आ रही हैं. दोनों थोड़ी दूरी बनाती हुई ढलान से नीचे उतर कर आगे निकल गईं. अब उन दोनों की पीठ दिख रही थी. नौशेर साँई उनके ओझल होने तक मुन्नी बी की पीठ निहारता रहा. फिर वह पीछे मुड़ा. ढलान के ऊपर चढ़ने लगा. आज उसकी पतली-सूखी बेजान टाँग भी ज़मीन पर टिकना चाह रही थी. वह तेज़ -तेज़ चलना चाहता था. 
     
नौशेर साँई अपने घर की ओर बढ़ रहा था कि राह में साहेब साँई मिले. वह दोनों गायों और बछियों को नाँद पर बाँध कर, ........चारा-पानी देकर आ रहे थे. जब वह पलानी में घुसे तो नौशेर अपनी खाट पर नहीं था. उन्होंने सोचा, ठंड लग रही होगी, तो भीतर जाकर सो गया होगा. .......पर उसे आते हुए देख कर वह भी अचम्भित हुए, पर न कुछ कहा, न कुछ पूछा. आगे निकल गए साहेब साँई और नौशेर घर लौटा. गाँजा की पुड़िया निकाल कर रगड़ा. साफ़ी को पानी में भींगो कर गीला किया. कउड़ा की आग में रस्सी की गाँठ बना कर आग तैयार किया और बैठ गया दम मारने. चिलम की आग में लौ फूट पड़ी. इस लौ के प्रकाश में दिप-दिप दमक उठा नौशेर का चेहरा.
     
गुल बानो और मुन्नी बी घर लौटीं. सूरज चमक रहा था. कनक रंग के धूप के पाखी फुदक रहे थे. नौशेर साँई पलानी से अपनी खाट बाहर खींच लाया था और धूप में बिछा कर बैठा हुआ था. उसकी नज़रें मुन्नी बी का पीछा कर रही थीं और वह गुल बानो से नज़रें चुरा रहा था. मुन्नी बी आँगन में नाबदान के पास बरतन माँजने बैठी तो गुल बानो ने उसे रोक दिया. बोली – 
"देखो, तुम्हारी आदत नहीं है बरतन माँजने की, सो यह हमारे जिम्मे ही छोड़ दो. रोटी पका दिया करो. तुम्हारी पकायी रोटी के आगे अब मेरी पकायी रोटी बुढ़ऊ को अच्छी नहीं लगती. दाल-तरकारी का भी सुआद बदल गया है तुम्हारा हाथ लगने से. तुम खाना भले पका दिया करो, पर बरतन-बासन मेरे जिम्मे छोड़ दो."   

बोलती रही गुल बानो, पर मुन्नी बी ने बरतन माँजना नहीं छोड़ा. वह अपने को तैयार कर चुकी थी कि जब इसी घर में रहना है तो किस-किस काम से बचेगी वह! कुछ देर बिलम कर गुल बानो उसे एक टक निहारती रही और उसे वह सब करने दिया, जो वह कर रही थी. 
     
गायों के दूहे जाने का समय हो चुका था. गुल बानो ने नयकी गाय के पिछले पैरों में छान लगाया. पुरनकी को छान लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. पहले बछिया को खोल कर थन चूसने दिया. फिर बाल्टी लेकर दूहने चली. पुरनकी गाय पिछले हफ़्ते गरम हुई और फिर गाभिन हो गई थी. उसका दूध अब सूखने लगा था. दोनो बखत मिला कर घर के लोगों के खाने भर जितना. बाक़ी दूध जवान हो रही उसकी बछिया के लिए थन में ही छोड़ देती. ठीक जून पर रेशमा ने मदद की थी गाय भिजवा कर. कल रात रेशमा के घर जाते हुए दूध ले जाना बिसर गई थी गुल बानो. सोचा था, पर जाने के समय बात बिसर गई. नयकी के पास भरपूर दूध था. दोनो बखत का मिला कर चार या साढ़े चार सौ रूपए की पर्ची रोज़ मिल जाती थी. इनके दाना-पानी में खर्च करके जो भी बचता, गुल बानो उसे सहेजने लगी थी.     
  
घर का सारा काम-काज मुन्नी बी के भरोसे छोड़ कर गुल बानो दूध लेकर सेन्टर भागी. कल साँझ का दूध भी पड़ा था. देर होने पर साँझ का दूध फटने का डर बना रहता था. गर्मियों में तो रात भर दूध का टिकना मुश्किल था. साँझ होते दूध दूह कर सेन्टर भागना पड़ता था. सेन्टर पास ही था. टोटहा टोला के इसी किनारे पर. पहले जब केवल देवली बाज़ार पर सेन्टर था, वह दूध देने कभी नहीं जा सकी. हरिजन टोला होने के कारण सरकारी डेयरी वालों को टोटहा में नया सेन्टर खोलना पड़ा. यह सेन्टर खुलने के बाद टोटहा और मनरौली के लोगों को बहुत सुभीता हो गया था.      

गुल बानो के लौटने तक मुन्नी बी ने बरतन-बासन साफ करने और झाड़ू-बुहारन का काम निबटा लिया था. वह चूल्हे की आँच पर दाल चढ़ा कर रोटियों के लिए आटा गूँधने-माँड़ने में लगी हुई थी. उसका गोरा चेहरा लाल भभूका हो रहा था. आटा गूँधती हुई कभी वह चेहरे पर गिरती लटों को सम्भालती, तो कभी चूल्हे की आँच में लकड़ी डालती. सामने खड़ी गुल बानो उसे निहार रही थी, ........एकटक. उसके मन में आँधी चल रही थी. ......अकरम अंसारी के घर राज-पाट भोगने के बाद ऐसे दिन काटना आसान नहीं था. मनरौली की हों या देवली की या फिर किसी गाँव की, जिन-जिन औरतों की बदचलनी के क़िस्से मशहूर थे, वे सब की सब क़िस्मत की मारी और नरम दिल ही मिलीं गुल बानो को. .....और वे जो चौबीसों घन्टे अपने आदमी के नाम की तस्बीह लिये फिरती थीं और नाक पर मक्खी तक न बैठने देती थीं, कठकरेज मिलीं. रेशमा के बारे में क़िस्से ही क़िस्से थे. 

जितनी ज़ुबानें, उतने क़िस्से, पर रेशमा थी रेशम-सी मुलायम. ....और अब इसे देखे कोई कि कैसे बिना अपना सिर धुने, .......बिना किसी लाज या ठस्से के कैसे घुल-मिल कर जी रही है! किसी पौधे की लतर माफ़िक़ पसरती जा रही है समूचे घर-आँगन में. ......और नाज़ बेगम को देखो भला कि अपने ख़सम को क़ाबू में न रख सकी तब तो मुन्नी बी जा बैठी. हरजाई ने जवान औरत को घर से बाहर निकाल कर दर-ब-दर भटकने के लिए छोड़ दिया. घर निकाला करना ज़रूरी था क्या? पड़ी रहने देती किसी कोने में. दो रोटी और उतरन कपड़े ही फेंक देती. गुल बानो का जी भारी हो आया. छाती में कुछ बहुत ज़ोर से उमड़ा-घुमड़ा. जैसे हूल उठ रही हो वैसे कलेजे में कोई गोला तेज़ी से घिरनी की तरह नाचते हुए ऊपर उठा और सारी देह में पसर गया. उसकी आँखें नम हो आयीं.
     
चूल्हा आँगन में था. आँगन की नरम धूप हवा के हल्के झोंकों से खेल रही थी. आँगन में ही पक्की कोठरी की दीवार के सहारे पीठ टिकाए नौशेर साँई खाट पर बैठा था. उसकी ओर गुल बानो की पीठ थी और सामने था चकले पर रोटी बेलती.... तवे पर सेंक कर चूल्हे की धधकती आँच पर रोटी फुलाती मुन्नी बी का चेहरा. गुल बानो पीछे मुड़ी. उससे नज़रे मिलते ही नौशेर साँई झिझका. गुल बानो ने एक नज़र मुन्नी बी की तरफ़ देखा. वह उलझन में थी. उसने नौशेर से पूछा – 
"तुम हिंया बैठ कर का कर रहे हो? नादान समझ रहे हो का हमको? तुम्हारा सब खेल बूझ रहे हैं छोटके साँई. ......जब से आयी है तुम इसके पीछे लसलसाए फिर रहे हो. सम्हारो अपने को."
     
ब्याह कर आने के समय से ही गुल बानो अपने आदमी शमशेर को बड़के साँई और नौशेर को
छोटके साँई पुकारती आ रही थी. नौशेर साँई पहले तो सकपकाया, ......फिर ढीठ की तरह गुल बानो की आँखों में आँखें डाल कर देखते हुए बोला – 
"हम इससे निकाह करेंगे. ......किस बूते रहेगी ये इस घर में? कौन लगती है तेरी? .....बोल? बहिन है तेरी कि फूफी है तेरी? .....बता?’’     
’’जबरन निकाह करेगा काइतना रुतबा था तेरे भाई का जिला-जवार मेंजबर आदमी था, पर उसने कभियो किसी औरत के साथ जियादती नहीं की. जबह भले किया होगा लोगों को? पर कौनो औरत की कानी अँगुरी तक नहीं छुआ होगा उसने. और तू मुसीबत की मारी अपने घर आयी बेवा के साथ निकाह के लिए जबरदस्ती करेगा?"     
"पहले पूछ उससे. वह राजी है या नहीं?  राजी न हुई तो कसम से उसकी ओर देखेंगे भी नहीं हम. आँख में अकवन का दूध डाल कर आन्हर हो जाएँगे. अल्ला मियाँ ने लाँगड़ बनाया और तेरे चलते आन्हर हो जाएँगे. करती रहना मेरा गू-मूत."


नौशेर साँई हाँफ रहा था. उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी. उत्तेजना में एक हाथ से वह अपनी बेजान टाँग को थपथपा रहा था और दीवार से टिकी अपनी पीठ रगड़ रहा था.
     
गुल बानो कभी नौशेर साँई को देख रही थी, तो कभी मुन्नी बी को. इस पूरे मुआमले से निस्पृह मुन्नी बी सिर झुकाए रोटियाँ बेलने, सेंकने और उन्हें फुला कर रखते जाने में तन्मयता से लगी हुई थी. चार लोगों के लिए पच्चीस से ज़्यादा रोटियाँ बनती थीं. गुल बानो ने आवाज़ दी – "मुन्नी बी!"
     
मुन्नी बी ने आँखें उठा कर देखा. चूल्हे की आग की ताप से गोरा चेहरा लाल भभूका हो रहा था. आँखें लाल. आँखों की इस लाली में गुस्सा था या दुःख था, गुल बानो की समझ से परे था यह सब. हया तो नहीं ही थी.   

’’बोलो मुन्नी बी. इस हरामी को जवाब दो." गुल बानो की ललकारती हुई आवाज़ के जवाब में मुन्नी बी की धीमी, पर ठोस आवाज़ उभरी – 
‘’कवनो ठौर तो चाहिए. जिनगी काटने के लिए कोई घर तो चाहिए. कहिया तक तुम्हारे भरोसे चलेगी जिनगीनिकाह किया होता अकरम ने तो आज बेसहारा तो न होती!"
     
’’तो?’’‘गुल बानो की आवाज़ थरथरा रही थी.  
"राजी हैं हम.‘’ एक-एक शब्द तौल कर बोली मुन्नी बी.     
’’या अल्ला!....’’ थसकिया मार कर धम्म से आँगन में बैठ गई गुल बानो. उसे लगा, भूडोल आ गया.
     
गुल बानो का सिर चकरा रहा था. फिर उसका कलेजा हौलने लगा. धरती पर पसरी उसकी दोनों टाँगें थरथरा रही थीं. आँखें अर्द्ध उन्मीलित थीं. बीच आँगन में माटी के ढेले की तरह लगभग संज्ञाशून्य पड़ी थी गुल बानो. 
     
रोटियाँ सिंक चुकी थीं. दाल पक कर तैयार थी. कलछुल में ठोप भर तेल गर्म करके हरी मिर्च के साथ जब छौंक लगायी मुन्नी बी ने तो मिर्च की तेज़ गंध से गुल बानो चैतन्य हुई. स्टील की बड़ी-सी कटोरी में दाल, हरी मिर्च, प्याज और रोटियों की एक थाक परोस कर मुन्नी बी उठी और खाट पर बैठे नौशेर साँई को दे आयी. दूसरी थाली परोस कर एक लोटा पानी के साथ आँगन से बाहर निकली और धूप सेंकते साहेब साँई के सामने रख आयी. वह वापस आकर चूल्हे के पास चुपचाप बैठ गई. चूल्हे की आँच सिरा रही थी. वह सिराती आँच पर हाथ सेंकने लगी.
     
खाना खाकर थाली खाट पर रख कर नौशेर उठा. हाथ धोने के लिए बधना में पानी लिये मुन्नी बी आयी और उसका हाथ धुलवा कर वापस चूल्हे के पास बैठ गई. गुल बानो देखती रही. जाते हुए नौशेर ने गुल बानो से कहा – 
"अब तो तुमको भरोसा हो गया. देर मत करना. इसके पहले कि सारे गाँव-जवार में सौ तरह की बतकही हो, निकाह करवा दो. कौनो जवाबदारी तो है नहीं. अकरम से इसका निकाह तो हुआ नहीं था कि कोई पेंच फँसेगा."  

बैसाखी के सहारे टाँग घसीटते बाहर निकल गया था नौशेर साँई. मुन्नी बी मौन दर्शक की तरह सब देख-सुन रही थी. गुल बानो असहाय-सी नौशेर को बाहर जाते देखती रह गई थी. 
     
कुछ देर तक दोनों के बीच अबोला पसरा रहा. दोनों समझ नहीं पा रही थीं कि बात कहाँ से शुरु हो! बाहर निकल कर नौशेर ने साहेब साँई को सूचना दी कि वह मुन्नी बी से निकाह करने जा रहा है और इस निकाह के लिए मुन्नी बी ने राज़ी-ख़ुशी हामी भर दी है. .....कि गुल बानो को वे समझा-बुझा दें कि वह बीच में अड़ंगा न डाले और उसकी जिन्दगी बसने दे. साहेब साँई रोटी का टुकड़ा दाल में नरम करके चुभलाते हुए नौशेर की बात सुनते रहे. अपनी बात पूरी करके नौशेर जब आगे बढ़ा बुढ़ऊ चिल्लाए
‘’हरामखोर ! सूअर की औलाद साले, खिलाओगे कहँवा सेलाँगड़ साले, अपना जाँगर तो हिलता नहीं और निकाह के लिए लार टपक रहा है! अपना पेट तो भर नहीं सकते, जनाना किसके भरोसे रखोगे?’’   

बधना में पानी लिये मुन्नी बी आयी. गुल बानो के सामने बधना रख कर बोली – ‘’उठो! चलो, हाथ-मुँह धो लो. रोटी ठंडी हो रही है.‘’
     
’’तुम खा लो मुन्नी बी. हमारी भूख-पियास में आग लग गई.‘’
गुल बानो की असहाय आवाज़ डूब रही थी. उसने ब-मुश्किल अपनी देह को सहेजा. घुटनों पर हाथ रखती हुई उठी.
     
’’तुम्हारे खाए बिना हमारे पेट में रोटी उतरेगी? ......चलो, जितना जी करे उतना ही खा लो.‘’ 
     
’’तुम खा लो मुन्नी बी. ........या अल्ला क्या-क्या देखना बदा है नसीब में?’ कहती हुई गुल बानो चल दी. 
     
मुन्नी बी आँगन में खड़ी रही और गुल बानो भीतर जाकर बिछावन पर लेट गई. .....वह बहुत देर तक कभी इस करवट तो कभी उस करवट होती रही. वह सब कुछ सिलसिलेवार ढंग से सोचना चाह रही थी, पर उसका मन इतना अस्थिर.... डाँवाडोल था कि बातें गडमगड हो जा रही थीं. वह शमशेर के बारे में सोचती, तो बूढ़े साहेब साँई की बातें याद आतीं. दो साल पहले गुज़री अपनी बीमार सास को याद करती तो अपना हमल याद आ जाता. नौशेर के बारे में सोचती तो.......... वह कभी नानी के घर पहुँच जाती तो कभी उस बूढ़े पाकड़ पेड़ के नीचे जा खड़ी होती, जिस पर भूत बन कर शमशेर के होने की बातें लोग किया करते थे. कभी उसे अपने ऊँचे मकान की छत पर खड़ी नाज़ बेगम दिखती तो कभी बोलेरो पर सवार सरपंच अकरम अंसारी के साथ उसके बड़के साँई दिखते. गुल बानो के होंठ हिले – ‘’बड़के, ......बड़के साँई! ......कहँवा चले गए मेरे बड़के साँई?’’‘‘
     
मुन्नी बी उसके पास, .....उसके पायताने आकर बैठ गई थी. वह गुल बानो को एक टक देख रही थी. उसकी बुदबुदाहट सुन कर मुन्नी बी खिसक कर सिरहाने आयी. उसने गुल बानो के माथे पर अपनी हथेली रखी. गुल बानो का माथा तप रहा था. उसे तेज़ बुख़ार चढ़ आया था. मुन्नी बी भाग कर गई और पानी लेकर आयी. अपनी साड़ी के आँचल का छोर भींगो कर उसके माथे पर पट्टी देने लगी. थोड़ी देर में बुख़ार जब कुछ कम हुआ, वह बाहर निकली. उसकी नज़रें नौशेर साँई को ढूँढ़ रही थीं. नौशेर साँई का कहीं कोई अता-पता नहीं था. मुन्नी बी साहेब साँई के पास गई. वह चारा काट रहे थे. उन्हें गुल बानो को चढ़े बुख़ार के बारे में बताया और देवली बाज़ार जाकर दवा लाने को कहा. उनकी ज़ेब में पैसे थे नहीं. बुढ़ऊ जाने के लिए उठे ज़रूर, पर ठिठक कर चुप खड़े रहे. मुन्नी बी बिना बताए साहेब साँई की हिचकिचाहट समझ गई. वह भीतर गई. सौ रुपए का एक नोट लिये बाहर निकली और साहेब साँई को पकड़ा दिया. साहेब साँई से उसका यह पहला सम्वाद था.   

दोपहर ढल रही थी तब साहेब साँई देवली बाज़ार से बुख़ार की टिकिया लिये लौटे. मुन्नी बी बिना एक कौर अनाज मुँह में डाले गुल बानो की देख-रेख में जुटी हुई थी. उसके पास बैठी कभी उसका सिर सहलाती, तो कभी पाँव के तलुवों पर अपनी हथेलियाँ रगड़ती.

_________________


कथाकार-नाटककार- नाट्य समीक्षक हृषीकेश सुलभका जन्‍म 15फ़रवरी, 1955को बि‍हार के छपरा जनपद (अब सीवान जनपद) के लहेजी नामक गाँव में हुआ. आरम्‍भि‍क शि‍क्षा गाँव में हुई. आपकी कहानि‍याँ अग्रेज़ी सहि‍त वि‍भि‍न्‍न भारतीय भाषाओं में  अनूदि‍त-प्रकाशि‍त हो चुकी हैं.

रंगमंच से गहरे जुड़ाव के कारण कथा-लेखन के साथ-साथ आप नाट्य-लेखन की ओर उन्‍मुख हुए. आपने भि‍खारी ठाकुर की प्रसि‍द्ध नाट्यशैली बि‍देसि‍या की नाट्य-युक्‍ति‍यों का आधुनि‍क हि‍न्‍दी रंगमंच के लि‍ए पहली बार अपने नाटकों में सृजनात्‍मक प्रयोग कि‍या. वि‍गत कई वर्षों से आप कथादेश मासि‍क में रंगमंच पर नि‍यमि‍त लेखन कर रहे हैं.
आपकी प्रकाशि‍त कृति‍याँ हैं : कथा-संकलन तूती की आवाज़, जि‍समें तीन आरम्‍भि‍क कथा-संकलन पथरकट, वधस्‍थल से छलाँग औरबँधा है कालशामि‍ल हैं. इसके अलावा कथा-संकलन वसंत के हत्‍यारे, हलंतऔर प्रति‍नि‍धि‍ कहानि‍याँप्रकाशि‍त हैं. 
अमली, बटोहीऔर धरती आबातीन मौलि‍क नाटकों के साथ-साथ शूद्रक के वि‍श्‍वप्रसि‍द्ध संस्‍कृत नाटक मृच्‍छकटि‍कम्की पुनर्रचना माटीगाड़ी, फणीश्‍वरनाथ रेणु के उपन्‍यास मैला आँचलका नाट्यरूपान्‍तरण तथा रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की कहानी दालि‍यापर आधारि‍त नाटक प्रकाशि‍त हैं. रंगमंच का जनतंत्रऔर रंग अरंग शीर्षक से नाट्य-चि‍न्‍तन की दो पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हैं.

अग्‍नि‍लीकअपका पहला और अभी-अभी प्रकाशि‍त उपन्‍यास है. 
hrishikesh.sulabh@gmail.com    


फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)

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मराठी के समकालीन कवि फ़ेलिक्स डिसोज़ा के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उन्होंने कुछ नाटकों और नुक्कड़ नाटकों का भी निर्देशन किया है. उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. उनकी कुछ कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है.


ये कविताएँ वर्तमान संत्रास और असुरक्षा को न केवल अभिव्यक्त करतीं हैं बल्कि प्रतिपक्ष भी सृजित करती हैं. ये एकदम आज की कविताएँ हैं. 

इन कविताओं के साथ मराठी के ही कवि-आलोचक. चित्रकार गणेश विसपुते की यह टिप्पणी भी ख़ास तौर से आपके लिए.



"फ़ेलिक्स डिसोज़ा मुंबई के नजदीक वसई इलाके से आते हैं. उनके समूह की भाषा मराठी की एक लुप्त होती जा रही बोली है. जिसका नाम ‘सामवेदी’ बोली है. शायद इसलिए भी भाषा उनकी कविताओं में प्रमुख आस्था का विषय रही है. उनकी एक कविता में बूढ़ी दादी का जिक्र है, विस्मृति की वजह से दादी के साथ ही उनकी भाषा भी मर रही है. भाषा का रूपक फ़ेलिक्स समकालीन संदर्भ से भी खूब जोड़ते हैं, जहां सच कहने की परिभाषा ही बदली जा रही हो, या बचपन में  सुने हुए उस मांत्रिक के मंत्रोच्चारण को याद करते हुए वह कहते हैं कि उस मंत्रोच्चारण का अर्थ यदि पता होता, तो वे मंत्र पढ़कर अपने देश पर आई विपत्ति को टाल देते.
विज्ञापनों और स्पेक्टॅकल्स से सजी हुई उपभोक्तावादी दुनिया में यह जानते हुए भी कि सिर्फ देखना, चखना प्रमुख होकर रह गया है और कविता को सुनने और पढ़ने की संभावना बची नहीं है, वे बलपूर्वक कहते हैं कि
“आप अगर कलाकार हैं तो कह उठेंगे, यह वाक्य, जो आपके लिए बेहद ज़रूरी है- “मुझे कहना है कुछ”.
आज के दहशतज़दा माहौल में जहां डरा-डरा कर चुप रहने की ताकीद दी जा रही है, वहीं यह कवि बोलने की आवश्यक ज़रूरत पर अपना ध्यान खींचता है.  और सिर्फ बोलना ही नहीं, प्रश्न पूछते रहने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है.

फ़ेलिक्स डिसोज़ा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता लिखने वाले मराठी के युवा कवि है. उनकी कविताओं में अपनी बोली की परंपरा से प्राप्त जीवन्त रस है. सामवेदी बोली में स्त्रियां मरने वाले व्यक्ति के शोक में जो मर्सिए (वर्णुका) गाती थीं, उन शोक गीतों को, मिथकों को भी फ़ेलिक्स ने पुनर्जीवित किया है. यह एक तरह से भाषा के साथ-साथ मनुष्यता को बचाने का भी प्रयास है .

फ़ेलिक्स की कविताओं का स्वर मद्धिम है, तीव्र स्वर में यह कविता बोलती नहीं है. लेकिन जिस तीव्रता से वे समकालीन वर्तमान में साधारण आदमी की पीड़ा का बखान करते हैं, लगता हैं, यह कोई बहुत ही समझदार मगर हताश हुए संवेदनशील व्यक्ति का स्वगत हो. लुप्त हो रही लोकजीवन की शैली,बोलियाँ, लुप्त होती भाषाओं के दुख से, समकालीन आक्रामक विज्ञापनों से भरपूर दुनिया के आघातों से आहत संवेदनशील व्यक्ति का एकालाप.


एक भले और साधारण नागरिक के अच्छाई की लकीर की  तुलना में तानाशाहों की लम्बी होती जाती लकीर उसके स्वतंत्रता की संभावनाओं को नष्ट कर रही है. और वहीं यह कवि दृढता पूर्वक अच्छाई के पक्ष में बोलते रहने और सवाल पूछते रहने पर आग्रह कर रहा है, जो किसी भी सच्चे कवि का आवश्यक कर्म है."
गणेश विसपुते
  




फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ                       
मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी




मुझे कहना है कुछ


1)

कोई खींचता आ रहा है लम्बी लकीर
जिसके आगे अनेक लकीरें होती जाती हैं छोटी, और छोटी
और कुछ तो हमेशा के लिए दिखाई देना बंद कर देती हैं

यह लम्बी, और लम्बी होती जाने वाली लकीर
हो सकती है एक मर्यादा
जिसकी वजह से पार नहीं की जा सकती कोई भी 
दहलीज
यह लकीर यानि हो सकती है एक
लक्ष्मण रेखा
सुरक्षित परतंत्रता लागू करने वाली.



2)

आप इस आज़ाद देश के नागरिक हैं
और आप के चेहरे का भोलापन
उन्हें चाहिए विज्ञापन के पहले पृष्ठ पर
जिसमें उनके लिए संभव है छुपाना
क्रूरता, हिंसा और पराजय

बहुत देर बाद
यानि जब आप सच-सच बोलना चाहते हैं
तब समझ में आने लगता है
भाषा में कोई अर्थ नहीं बचा आपकी दबी हुई आवाज़ के लिए
आपकी वेदना के उच्चारण में दिखलाए जाते हैं
देशद्रोही स्वर

 वैसे तो बारिश को बारिश कहने की परम्परा
उन्होंने रोक दी है
और आप बादलों  से भरे आसमान में
तारे देखने का नाटक हूबहू करने लगते हैं.


3) 

मांत्रिकों की ऐसी अनेक कहानियाँ
मशहूर हैं इस देश में
जिन्हें हम इतिहास के तौर पर सुनते आए हैं
बचपन से

जिनके महज मंत्रोच्चारण से भी
खतरनाक विपत्ति टल जाने की अनेक कहानियों से
हमें वाक़िफ़ करवाया गया होता है

हमें नहीं पता होता मंत्रोच्चारण का अर्थ
वह पता होता तो चूल्हे पर कंडे जलाते हुए
टाली जा सकती थी इस देश पर 
मांत्रिकों के रूप में आई यह विपत्ति

देश की यह घटना सुनाई जाएगी
जब किसी कहानी की तरह तब बताया जाएगा
कि कैसी दुर्गति पा गया था यह देश
और महज मंत्रोच्चारण से भी
कैसे बदल डाली एक मांत्रिक ने इस देश की नियति

तब आपके कानों में सुनाई पड़ने लगेंगे देशाभिमान 
के सुमधुर गीत मन्त्रों की तरह 
जब आप में नहीं बचेगी बिलकुल भी   
आपकी कोई भी आज़ादी.



4) 

आप अगर कलाकार हैं तो कह उठेंगे
यह वाक्य जो आपके लिए बेहद ज़रूरी है

मुझे कहना है कुछ… 

इस वाक्य के बाद आपको अचानक याद आएगा
उनके लिए कितना निरापद है आपका कहना
और आपकी समझ में आएगा
कि आप कैसे अब तक ज़िन्दा हैं
और अब तक कैसे बची है ज़िन्दा रहने की आज़ादी

आप कवि हैं
और आप कहने  लगते हैं 
भाषा से प्यार करना
आपका अधिकार है… 

आप अधिकार के बारे में बोलने लगते हैं

और निकाल लिए जाते हैं भाषा के कवच-कुण्डल
बतलाया जाता है
अब के बाद नहीं बना सकता कवि नई भाषा

आपके सामने अचानक रखा जाता है
नई-नवेली सुन्दर
भाषा का नया सौन्दर्य कोश
और बार-बार बतलाया जाता है

कविता लिखने की आज़ादी अब भी है बरकरार
आप लिख सकते हैं सुन्दर-सुन्दर कविताएँ.




लौटना

दूर जाने वाले किसी अपने से
हम पूछते हैं उसके लौटने का वक़्त
लौटना एक ऐसी संभावना है
जिससे जुड़ी है आशा और आनंद
जिसमें बाकी है प्रेम
और जिसमें अब भी यादें भर-भर आती हैं

कभी-कभी हम जाते हुए इतनी जल्दी में होते हैं
कि भूल जाते हैं कि किस विशिष्ट रास्ते से
लौटना है या भूल जाते हैं कि हमें लौटना है
अपने मूल स्थान पर अपनी जड़ें खोजते हुए

कुछ लोग तो सपनों का पीछा करते हुए थक जाते हैं
और जब लौटना यह एकमात्र विकल्प उनके सामने होता है
तब
खाली हाथ लौटते हुए बेहद शर्मिंदा होते हैं
उनकी गिनती हमेशा गुमशुदाओं में की जाती है

कुछ लोग तो वापसी के सफ़र में होते हैं
मगर पहुँच नहीं सकते राह देखने वाले की नज़र में
उन्हें बुलावा आया होता है
असमय रुका हुआ होता है उनका लौटना

कुछ के अनुसार
उनकी वापसी का सफ़र हो जाता है शुरू 
और जिस दिशा में वे निकल गए थे
उसकी विपरीत दिशा से
उन्हें बुलाने वाली आँसुओं की और हिचकियों की
आवाज़ आती रहती है
कुछ लोग तो लौटने को
एक पद्धति मानते हैं
तयशुदा होते हैं लौटने के नियम
अँधेरा होने  से पहले
या सुबह होने से पूर्व...

आजकल लौटना इस सम्भावना के इर्द-गिर्द जमने 
लगा है पल-पल बढ़ता जाने वाला डर
यहाँ तक कि राह देखने वालों के मन में
लौटने वाला सही-सलामत लौट आएगा इस ख़याल की बजाय
मन में आने लगते है कितने ही डरावने ख़याल
जिनकी संभावना अधिक है इन दिनों

लौटना यह इतना अनिश्चित है कि
कल सवा आठ बजे लौटा हुआ आज सवा आठ पर
ही लौटेगा ऐसा नहीं है और
समय पर लौटना कितना ज़रूरी है
राह देखने वालों के लिए और
राह देखना लौटने वालों के लिए

जब हम समय पर नहीं पहुँच पाते
तब लौटना हमें ख़ुशी नहीं दे पाता
जैसे
नींद से लड़ते हुए पिता की राह देखने वाली लड़की
राह देखते-देखते सो जाती है
तब कितना दयनीय होता है पिता का लौटना
जो राह देखते-देखते
थक कर सो चुकी लड़की की
नींद में लौट नहीं सकता.





आप, हम और हमारे गीत

अँधेरा होने को है
फिर भी आप इतने बेख़ौफ़
मानों वाक़िफ़ हैं आप 
इस फैलते अँधेरे के राज से

आप उजाले में खड़े होकर
अँधरे में काली पड़ती जाती 
आँखों में गिन रहे हैं
थरथराता डर

उजाले का आधार लेकर आप करते रहे
अपनी राक्षसी परछाइयों को और भी लम्बा

भगवान को प्रसन्न  करने हेतु आपने 
दी एक ज़िंदा आदमी की बलि
अपना माथा धोने के लिए आपने
निकाल लिए एक असहाय औरत के गीले वस्त्र
आग के हवाले कर दीं आपने छोटे बच्चों की कोमल चीखें
फिर भी आप बे-ख़ौफ़
और कहते हैं कहाँ है चीख
हिंसा कहाँ है
आप जिस हिंसा की बात करते हैं
वह हमारे गाँव में हैं नहीं
और अब ज़्यादा बोले तो... 
तो चुप बैठिए और देखिए
सुनाई पड़ती है या नहीं कोई चीख
इतनी चतुराई आप में कहाँ से आती है
कहाँ से आती है उन्माद फैलाने की यह जल्दी

आपके डरावने क़दमों  की आवाज़ से
विध्वंसक स्वप्न फड़फड़ा रहा है यहाँ के
भविष्य पर
इस बर्फ़ पर सफ़ेद कपड़े में सुलाए गए
ये बच्चे जो जीवित नहीं दिखाकर
आप कहते हैं चुप बैठिए
और कहते हैं कवि आप
अपने कोमल अंतःकरण से लिखें
राज्य के गौरव गीत
बदले में हम आपको देंगे भरपूर मानधन
और मुहैया करवाएंगे राजाश्रय

मगर आपके झूठेपन और प्रलोभन के
षडयंत्र में हमारे गीत धोखा नहीं करेंगे
समय की सदाएँ सुनने का यही तो वक़्त है
दरवाज़ा खोलने से पहले ही अंदर घुस आने वाले
डर से बिना डरे
कविता के दरवाज़े पूरी तरह खुले रखने होंगे
और कवियों के ह्रदय भी
इस फैलते जाते डर को लौटाने के लिए.



छह-सात बातें

1)
जो आपको और मुझे भी पता है
और हमें पता है
कितना ज़रूरी है उसे चीख-चीख कर बताना

फिर भी हम बता नहीं सकते किसी को

हम आपस में सरगोशियाँ करते हैं बस
कहते हैं
कि बेहद ख़राब है ज़माना
और उस से भी ख़राब है इन दिनों ज़िंदा रहना.


2)

इस बात के बारे में मैं आपको
कुछ भी नहीं बताऊँगा
क्योंकि गोपनीयता इस बात की असली ज़रूरत है
और फिर
आप अपने ख़ास हैं
इसलिए आपसे कहता हूँ

आप किसी से कहेंगे नहीं इस शर्त पर
इसी शर्त पर मुझे बतलाई गई है
यह बात.



3) 

यह असल में अफ़वाह है
और फैलते जाना
यही उसके अफ़वाह होने का
सुबूत है
और ज़्यादातर
जब फैलाई जाती है अफ़वाह
तब वह अफ़वाह की तरह नहीं फैलाई जाती
वह फैलाई जाती है किसी डर की तरह
जो कसमसा रहता है हमारे आगे-पीछे
और जब हम कर रहे होते हैं कोशिश
गर्दन सीधी रख कर चलने की
तब हमारे कंधे पर हाथ रखकर
दबाया करता है हमारे कंधे.


4) 

यह सबसे 
भयानक बात है
जो स्कूल की किताब में 
छपी है

जिसमें कितने ही सालों से हारता आया है एक
दुर्जन
जिसमें से सुनाई पड़ते हैं सज्जनों की
जीत के ढोल-नगाड़े 

दुर्जन-सज्जन का इतिहास
इन दिनों भी बताया जाता है
जहाँ दुर्जनों के घरों से सुनाई पड़ते हैं जीत के ढोल-नगाड़े
और सुई की नोंक से ऊँट गुज़र जाए इतना
कठिन हो गया है सज्जनों का जीतना.


5) 

काले पत्थर की रेखा जितने स्पष्ट
और रोज़ उगने वाले सूरज से
बतलाया जाता है जिसका रिश्ता
ऐसी बात जो छुपा कर रखी गई है
पुरातन ख़ज़ाने जैसी
जिसके बारे में मैं इतना ही बता सकता हूँ
वह इतनी मूल्यवान है
कि उस बात का कहना मात्र हो सकता है मृत्युदंड

या अभिननंदन होगा किसी राजा के प्रधान सेनापति
एकदम चुप बैठने के बदले में


6) 

पाँच-छह बातों में यह
आखिरी बात

जो आपको पता है
और
सभी को पता है
और
अहम बात यह कि इस बात का पता होना
बिलकुल ज़रूरी नहीं 




प्रश्न

बहुत लोगों से मैं पूछता आया हूँ प्रश्न
कुछ तो उलटे मुझसे ही प्रतिप्रश्न कर
मुझसे दूर चले गए

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि
सारे प्रश्नों के उत्तर होते ही हैं ऐसा नहीं

और हमारे मन में भी उठते हैं प्रश्न मगर
हमने कभी एक वाक्य भी प्रश्न की तरह नहीं कहा

कुछ लोग प्रश्न सुनकर इतना हँसे कि
हँसते-हँसते उनकी आँखों में
दुख के आँसुओं के पहाड़ खड़े हो गए
वे कहने लगे हँस-हँसकर पेट दुखने वाले इन दिनों में
बुझती जा रही है भूख प्रश्न मन में उठने की और पूछने की भी

कुछेक ने दरवाजे की झिरी से मेरी तरफ देखा
और बोले हमारी सारी ज़रूरतें हो गई हैं पूरी
इसलिए जी सकते हैं हम प्रश्नों के बिना
उनके लिए प्रश्न माने
स्वस्थ शरीर में अचानक घुसने वाली बीमारी है
और वह दिखाते रहते हैं बचने के लिए
लगवाए गए टीकों के निशान

उनमें से कुछ ने ऐसा भी कहा कि
सवाल सिर्फ उन्हीं के मन में उठते हैं
जो अब भी दो पत्थरों के बीच उम्मीद से आँखें लगाए हैं
कि अब उड़ेगी चिंगारी और
अब फैलेगा उजाला
ज़रा सी गर्माहट ओढ़ी जाएगी

इसी तरह बहुत से लोग मिलते हैं
जवाबों के बिना जीने वाले
प्रश्नों का ढूह दरकने लगता है मस्तिष्क में
मैं लिखने लगता हूँ कविता
जिसे सुनने पढ़ने की संभावना
डूब चली है.



उन्माद

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा
बार-बार दिखाई जा रही है प्रमुखता से
प्रमुखता से दिखाई जा रही है हिंसा
हिंसा के भयावह दृश्य से
डराया जा रहा है फिर-फिर
मानों दी जा रही है ताकीद
कुछ न कहने के बारे में

एक युवक कहता है
क्यों दिखाई जा रही है हिंसा
जो मुझे लगातार आकर्षित करती है
एक बूढ़ा कहता है
सभी की आँख में होता है मोतियाबिंद
मुझे भी अब साफ़ दिखाई नहीं दे रहा…

फ़िल्मी दृश्य की भाँति तयशुदा ढंग से
फ़िल्माए गए हैं दृश्य हिंसा के

नहीं दिखाया जाता है हिंसा का असली चेहरा.

दिखाए जाते हैं हिंसा के बाद के दृश्य जिसमें
इंसानों के ही आकार की छोटी-छोटी
गठरियाँ पीठ पर बाँधे जो राह मिल जाए उस पर
चल पड़े हैं लोग किसी दिशा में 
जिनकी हारी हुई आकृतियाँ पीछे से
दिखाई जाती हैं बार बार...

उनके चेहरे पर डाली गई
तेज़ रौशनी में ढँक जाती हैं
उनकी आँखों के
मृत्यु घाट तक पहुंचे हुए भयभीत स्वप्न

दिखाई जाती हैं भयभीत होकर भागते हुए
फूली हुई साँसें
क़दमों का भगोड़ापन
आतंकित छिपकर देखने वाली आँखें
बर्बाद हो चुके घर
थरथर काँपते हुए अपने में सिमटती लड़कियाँ
एकाकी हो चुके  अकबकाए बच्चे

सारा डर अचूक टाइमिंग के साथ
कैमरे में दर्ज हो गया है

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा दिखाई जाती है
डर की तरह
छिपा हुआ होता है हिंसा और उत्स्फूर्तता की चर्चा में
हिंसा के पीछे की करतूत
और किसी की जीत का भयावह उन्माद
थपेड़ा जाता है मिट्टी में
जिस पर फ़हराती रहती है 
लोगों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता.
_____________


भारतभूषण तिवारी
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com

मंगलाचार : अर्चना लार्क की कविताएं

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अर्चना लार्क कविताएं लिख रहीं हैं, और बेहतर लिखेंगी यह इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है.    




अर्चना लार्क की कविताएँ                                          
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बेटी का कमरा
_____________

एक दिन नहीं बचता बेटियों का कमरा
बहू के कमरे में चक्कर लगातीं
सवालिया शिकन को नजरंदाज कर भरसक खिलखिलाती हैं

उनके कमरे उनके नहीं रह जाते
कमरे का कोना देख याद आता है
आँख मिचौनी का खेल
वहीं अलमारी में रखी वह तस्वीर जिससे माँ ने कभी डराया था
सहेली को लँगड़ी फंसा कर गिरा देने पर बड़ी देर तक घूरती रही थी वह तस्वीर

बाबा की परछाईं कोने में रह गई है

माँ के बगल में सोने की लड़ाई आज भी कमरे में खनकती है
माँ के पेट पर ममन्ना लिखना और पेट पर फूंक मारना
 
माँ ने मान ही लिया है
अब किसी कोने में हो जाएगा उसका गुजारा
तो बेटियों का क्या है ससुराल में
कि हो उनका कोई कमरा.




एक मिनट का खेल
___________________________
   
एक मिनट का मौन
जब भी कहा जाता है
हर कोई गिन रहा होता है समय

और फिर मौन बदल जाता है शोरगुल में

एक मिनट का मौन 
ग़ायब हो जाता है 
सिर्फ एक मिनट में

अपने शव के पास उमड़ी भीड़ को देख व्यक्ति और मर जाता है 
मृत्यु वाकई पहला और अंतिम सत्य है

और माफ़ करें मुझे मरने में ज़रा समय लग गया.



होना होगा
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आँसू को आग
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को 'मनुष्य'होना होगा

खारिज एक शब्द नहीं 'हथौड़ा'है

'मादा'की जगह लिखना होगा सृष्टि
मुहब्बत
मज़बूती
जीने की कला,
शीशे की नोक पर जिजीविषा.


मनुष्य 'लिखना'नहीं
मनुष्य 'होना'होगा.



भदेस प्रेम
_________________

नहीं चाहती मुझे प्रेम हो

हँस पड़ती थी
अपने ही बनाए चुटकुले पर
और लगातार हँसती जाती थी उन सहेलियों पर
जिन्होंने कर लिया था प्रेम

एक पान मुँह में चबाए
गिलौरी बगल में दबाए
होठों के कोरों से रिसते लार को बार बार समेटते
वे अपनी फूहड़ आवाज़ और अंदाज़ में
न जाने क्या समझाते रहते हैं
अपनी प्रेमिकाओं को
त्रिवेणी संगम के पास

प्रेमिकाएँ बनी-ठनी
आतुर निगाहों से
अपलक अनझिप
प्रेमी को निहारती रहती हैं

कोई कैसे पड़ सकता है प्रेम में


न लड़ाई न बहस
न अपेक्षा न उपेक्षा
देर तक होती थी इनके बीच घर गाँव की बातें
कितनी बार रोते देखा है इन प्रेमी जोड़ों को
हर जोड़े के यहाँ
मिट्ठू पनिहार और काकी मिल ही जाती थीं
संवाद के लिए

क्या मेरे लिए भी है कहीं मेरा प्रेम. 
________________________

अर्चना लार्क
(जन्म सुल्तानपुर)

कुछ कविताएँ प्रकाशित
फ़िलहाल दिल्ली में रहती हैं.
archana.tripathi27@gmail.com

नन्दकिशोर आचार्य की कविता का आकाश : ओम निश्चल

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‘न सही
तुम्हारे दृश्य में
मैं कहीं

अंधेरों में सही.’

इस वर्ष के हिंदी के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नन्दकिशोर आचार्य का कविता संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ सम्मानित हुआ है. चौथे सप्तक के कवि नन्दकिशोर आचार्य के बारह कविता संग्रह, आठ नाटक, सात आलोचना पुस्तकें, और बारह सामजिक दार्शनिक पुस्तकें प्रकाशित हैं. उनके कवि-कर्म और काव्य-गंतव्य पर चर्चा शुरू होनी चाहिए. यह अवसर भी है. 

आलोचक ओम निश्चल का यह आलेख इसी निमित्त प्रस्तुत है.   


अंकिता आनंद की कविताएँ

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‘निकले तख़्त की खातिर दर-ब-दर
सर झुका रहमत माँगने के इरादे से,
उतरे खुदाई का फर्क बताने पर,
खुदा बन गए, मुकरना ही था वादे से.’

अंकिता आनंद की कविताओं में रंगमंच की हरकत करती हुई जानदार भाषा है. आपने पहले भी उन्हें पढ़ा है.
कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.



अंकिता आनंद की कविताएँ              



नमक अदायगी
वर्दी की दलील ये कि उसकी ज्यादतियाँ ज़ाती नहीं
वो बस अपना काम कर रही है
पेट भरने का इंतज़ाम कर रही है
पर क्या हमेशा ही यही था उसका काम?
फिर कौन थे उसके गाँव में बो रहे थे धान,
जिनका खून खेत-गोदामों में सड़ गया,
मंडियों में कौड़ियों के भाव चढ़ गया?
कौन खाता गया थाली में छेद करते हुए,
शहरों में धकेला फेफड़ों में ज़हर भरते हुए
ज़मीन लील कर जिन्होंने खोली दे दी
गमछों के फंदे बने, बच्चों को वर्दी-गोली दे दी
आज उस वर्दी का फ़र्ज़ करते अदा
कहो किस नमक का कर्ज़ तुमने भरा?



इधर-उधर की बात
तालीम वो भी कि इम्तिहान पास कर कोई निकल जाए
सीखता वो भी है जो सवाल कर ताउम्र दे इम्तिहान
ताकत उसकी भी जो पीठों पर लाठियाँ तोड़े
और रोकती हुई उस एक उंगली में भी
मज़बूती 
कायदे उनके भी हैं जिनके पास ठहरी कुर्सियाँ
जो सड़कों पर लेटे हुए ज़िद है उनकी भी कोई
सब्र उनमें भी है जिनकी जमा एक-पर-एक मुफ़्त गोलियाँ
इंतज़ार उनका भी जो खोने की चीज़ें और डर हैं गँवा बैठे
दौलत उनकी भी जो कर रहे ईमान की ख़रीद 
पूँजी उनकी भी जो कमा ला रहे दुआ और ग़ैरत
खेल उनका भी है जो खेले हैं जीत की ख़ातिर
खिलाड़ी वो भी जिन्हें जीतना है जीने के लिए.



तरक्की
निकले तख़्त की खातिर दर-ब-दर
सर झुका रहमत माँगने के इरादे से,
उतरे खुदाई का फर्क बताने पर,
खुदा बन गए, मुकरना ही था वादे से.


 
निकास द्वार पीछे की ओर हैं
हम"बाहरवालों"को चेताते हैं
उन्हें अपने-अपने घर भगा दिया जाएगा,
भूल जाते हैं कि हम सब अपने घरों से भागे हुए हैं,
कोशिश तो की है कम-से-कम.
चाहे दीवार फाँद दूसरी तरफ पहुँचें हों,
या उसे खरोंचते हुए भीतर ही रह गए हों.
बहुत ज़रूरी है
एक-दूसरे में हमें घर मिल सके,
वरना दरवाज़े जो औरों का प्रवेश रोकेंगे,
एक दिन हमारा निकास भी.



खुदकुशी
जो रात-दिन रहता परेशान है,
सोचता रहता है कि वो कौन है,
जब मिलता नहीं उसे जवाब आसान,
पकड़ लेता है कोई भी अंजान गिरेबान,
और बेलगाम चीखता है, "क्या तू नहीं जानता मैं हूँ कौन?"
सामनेवाला नहीं जानता, नहीं जान सकता, रहता है मौन.
इस परिभाषा के अभाव में पूछनेवाले का बाँध टूट जाता है,
बेतहाशा अपने खाली हाथों को धर्म-जात की रस्सी थमा झूल जाता है.
न वो खुद को, न उसका कोई सगा ही उसे रोक लेता है,
राह में जो टकराए अंधाधुंध वो उसका गला घोंट देता है.
सोचता है वो कर रहा अपना रास्ता साफ़ है,
कि खुद की हिफ़ाज़त करते हुए सौ खून माफ़ है.
अपनी जूनूनी तबाही में कहाँ ही उसे ये ध्यान है,
कि जिसे ढूँढ़ रहा, जो नहीं रहा, उसके अंदर का इंसान है.



नज़राना
अपने हर हर्फ़ की कीमत चुकाऊँ है ये कहीं बेहतर,
न हो ऐसा मेरी ख़ामोशी किसी और को मँहगी पड़े.
आज ग़र दरख़्तों के सहारे सीधी है अपनी भी कमर
कल हम भी तो हों अपने जिगरों के वास्ते यूँ खड़े. 




पोस्ट-मार्टम
हम विचलित होते हैं
फैसला सुनकर:
"किसी इंसान ने
नहीं मारा
किसी इंसान को."
हमारी नाराज़गी है
उनके कहने से
"इंसान मरा है
भूख
खंजर
बमगोलों
चोट
लाठियों
जैसे सामान से,
तो कैसे सज़ा दें
इंसान को?”
पर सच है,
कैसे मार सकता है
इंसान इंसान को
(सिर्फ़ इसलिए
क्योंकि वो मार सकता है,)
और रह सकता है
फिर भी इंसान?
अतः
सिद्ध हुआ
इंसान कभी नहीं मारता
इंसान को,
इंसान मरता है
उस सब कुछ से
जो इंसान न हो.
____________________






अंकिता आनंद पत्रकारितालेखन व रंगकर्म के क्षेत्रों से जुड़ी हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखती हैं और दिल्ली में रहती हैं. 

anandankita2@gmail.com

रेत-समाधि (गीतांजलि श्री) : सरहद-गाथा और औरत-कथा : रवीन्द्र त्रिपाठी

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कविता में लिपटी सरहद-गाथा और औरत-कथा                
रवीन्द्र त्रिपाठी


स्पानी भाषा के आर्जेटिनियाई  कवि-कथाकार होर्हे लुइस बोर्खेस (बोर्हेस) ने ओसवाल्ड फेरारी को दिए गए एक साक्षात्कार में आर. एल. स्टीवेंशन के हवाले से  कहा है कि जिसे हम गद्य कहते हैं वो कविता का सबसे कठिन रूप है.दूसरे शब्दों में गद्य कविता का उच्चतम रूप है. बेशक बोर्खेस और स्टीवेंशन की इस स्थापना पर कई तरह की धारणाएं होंगी. पर इस बात से इनकार करना कठिन होगा कि गद्य में कविता की उपस्थिति हो सकती है या होती है. कई बार गद्य में कविता का सघन रूप दिखता है. हालांकि हर या हर किसी का गद्य काव्यात्मक नहीं होता. लेकिन हर अच्छा गद्य शायद काव्यात्मक होता है.

गीतांजलि श्री का उपन्यास `रेत-समाधिभी एक ही ऐसी रचना है. वैसे तो ये ठेठ उपन्यास है और इसमें एक मुख्य कथा है जिससे जुड़ी कई आनुषंगिक कथाएं भी हैं.  पर जिस तरह से ये कथाएं कही (या लिखी गई हैं) उसमें कथालोक के साथ विस्तीर्ण काव्यलोक भी है.  इसमें एक नायाब किस्म की किस्सागोई भी है. घुमावदार और कुछ जगहों पर आकस्मिकताओं को समेटे हुए.  इन किस्सों का भरपूर और सघन आस्वाद आप तभी ले पाएंगे जब इसे आहिस्ता आहिस्ता पढ़ें. हर लफ्ज और हर वाक्य पर ठहरें और उनका भरपूर रस ले. उपन्यास का एक उद्धरण लेकर कहें तो `हर कतरा हर तिनका हर रेशा पुर-एहसास है.काव्यात्मकता के अलावा भाषिक प्रयोग की अन्य छटाएं भी यहां हैं. 



(एक)
पर उपन्यास में निहित कविता के पहलू को विस्तार से रेखांकित किया जाए इसके पहले जरूरी है कि कथातत्व की बात कर ली जाए. आखिर यहां कविता तो कहानी के शरीर में विन्यस्त है और कहानी क्या है? या और जरा सटीक तरीके से पूछा जाए कि कहानी किन पात्रों और वाकयों के ढांचे पर खड़ी हैआइए. जरा इसे जानें.

एक औरत है. बूढ़ी. उसका जिक्र आने के काफी देर  बाद पता चलता है उसका पूरा नाम तो चंद्रप्रभा देवी है. वरना उपन्यास में ज्यादातर तो उसे अम्मा ही कहा गया है. तो होता ये है कि अम्मा ने अपने पति के निधन के बाद  बरसों से पलंग पकड़ रखा है. (अब चूंकि शहरों में मध्य वर्ग में खाट का इस्तेमाल नहीं होता इसलिए `खाट पकड़नेवाले मुहावरे का इस्तेमाल नहीं कर सकते न!) पूरा घर लगा रहता है कि अम्मा पलंग से उठे, थोड़ा घूमे फिरे. लेकिन अम्मा ने तो जैसे भीष्म-प्रतिज्ञा ले रखी है कि वो नहीं उठेगी.  (हालांकि `भीष्म प्रतिज्ञातो एक पुरुष ने ली थी. वो भी शादी को लेकर. इसलिए किसी औरत के बारे में ये कहना कि उसने भीष्म-प्रतिज्ञा ले रखी है, औचित्यपूर्ण होगा? खासकर नारीवादी तो ये आपत्ति उठाएंगी. लेकिन भाषा में तो पुरुषकेंद्रीयता भरी पड़ी हुई है इसलिए इस आपत्ति को थोड़ी देर के लिए परे रखकर आगे बढ़ जाना ही उचित होगा.)

हां, तो अम्मा ने लंबे वक्त से पलंग पकड़ रखा है और बेटा, बहू, बेटी, पोते- सब कहते रहते हैं कि अम्मा उठ. मगर ना जी ना.  वो नहीं उठती है. गठरी की तरह पड़ी रहती हैं. फिर अचानक एक दिन वो होता है जिसकी कल्पना घर के किसी सदस्य ने नहीं की थी. अम्मा उठती है और बिना किसी को बताए एक छड़ी के सहारे घर से बाहर निकल जाती है. पूरा परिवार सकते में. खोज खबर होती है. फिर अम्मा मिलती है एक थाने में. अम्मा घर लौटती है और उसके बाद बेटी के पास रहने चली जाती है. बेटी जो शादीशुदा नहीं है किंतु किसी के साथ सहजीवन बिताती है. उसके बाद तो अम्मा में कायाकल्प होने लगता है. और ये होता है रोज़ी नाम की उभयलिंगी यानी ट्रांसजेंडर, जिसे आम बोलचाल में हिजड़ा कहा जाता है, के कारण. रोज़ी कभी कभी वेश बदलकर रज़ा मास्टर हो जाती है. दो अदाओं में एक ही शख्स. (अर्थात तीसरे लिंग या थर्ड जेंडर की चर्चा है यहां.)  रोज़ी के सानिध्य में अम्मा अपने पहनावे ओढ़ावे से लेकर हर दैनिक दिनचर्या में बिल्कुल बदल जाती है. ऊर्जा से लबालब हो जाती है. उसमें नई हसरतें जागने लगती हैं. `कौऩ से बदन वाली रोज़ी के संग मां भी नई नवेली बदन हो गई.बेटी को भी समझ में ना आए कि ऐसा कैसे हो रहा है. वो थोड़ी घबराती भी है. लेकिन अम्मा तो आत्मविश्वास की जीवित मूर्ति बनती जाती है.    

और उसके बाद जो होता है वो तो  सबके लिए अकल्पनीय है. होता ये है कि ये अम्मा अपनी बेटी के साथ पाकिस्तान जाती है. बाजाप्ता पासपोर्ट वीसा के साथ. बेटे, बहू-पोतों की सहमति है लेकिन उनको मालूम नहीं कि अम्मा के मंसूबे क्या हैं.  पाकिस्तान जाने के बाद ये राज़ खुलता है अम्मा यानी चंद्रप्रभा देवी का अतीत तो ये रहा है कि वो कभी चंदा हुआ करती थी और अनवर नाम के एक मुस्लिम शख्स के साथ अविभाजित भारत में उसकी शादी हुई थी.  अम्मा यानी चंदा का जन्म पाकिस्तान में एक हिंदू परिवार में हुआ था लेकिन भारत-विभाजन के बाद मचे हफड़ धफड़ में कई अन्य हिंदू औरतों के साथ वो भी सरहद के इस पार चली आई. यानी हिंदुस्तान में. और हिंदुस्तान आकर यही चंदा चंद्रप्रभा देवी नाम से नई और दूसरी जिंदगी शुरू करती है.

पर क्यों गई थी अम्मा, ऊर्फ चंद्रप्रभा देवी उर्फ चंदा इस उम्र में पाकिस्तान? धीरे-धीरे ये रहस्य खुलता है कि वो अपने पहले पति की खोज में वहां गई थी. और वहीं मरने भी. और खास तरीके से मरने. पाकिस्तान जाकर और वहां सुरक्षाकर्मियों द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद वो अपनी बेटी और पुलिस वाले से कहती है कि उसे पीछे से दौड़ते हुए आएं और जोर से धक्का दें. क्यों? इसलिए कि वो धक्का खाकर  पीठ के बल गिरने का अभ्यास करना चाहती है. और आखिर में जब वो  गोली खाकर मरती है तो मुंह के बल नहीं बल्कि पीठ के बल ही गिरती है. 
  
कुछ जिज्ञासु ये पूछ सकते हैं कि चंदा-अनवर की शादी किस तरह की थी? क्या ये प्रेम विवाह था या अदालती. ऐसे जिज्ञासुओं को बता देना जरूरी होगा कि ये दोनों की परिवारों की सहमति से हुआ अरेंज्ड मैरिज था क्योंकि तब अविभाजित भारत में 1870 में बना एक कानून इसकी इजाजत देता था. इस कानून के तहत ऐसी शादी हो सकती थी बशर्ते परिवार रजामंद हों  

क्या `रेत समाधिएक प्रेम कथा है? क्या इसमें प्रेम का वो अक्स मौजूद है जिसे साहित्य के पाठकों ने गाब्रिएल  गार्सिया मार्केस के उपन्यास `लव इन टाइम ऑफ कॉलेरामें महसूस किया था और जिसमे फ्लोरेंतीनों अरिजा नाम का चरित्र फेरमीना दाजा नाम की अपनी प्रेमिका के लिए पचास साल तक इंतजार करता है, हालांकि इस बीच फरमीना  की शादी हो गई और फ्लोरेंतीनो के भी कई औरतें  से संबंध बने. ``रेत- समाधिका प्रेम कुछ कुछ वैसा है लेकिन पूरी तरह से नहीं. दोनों अलग तरह की रचनाएं हैं लेकिन उनमें  प्रेम की लौ लंबे समय तक जलते रहने का वृतांत है.

प्रश्नाकुलता को आगे बढ़ाए तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि क्या ये उपन्यास मनोवैज्ञानिक प्रक्रियायों  की एक ऐसी गाथा है जिसमें बीता समय मनुष्य के मन में बना रहता है; दबाए नहीं दबता;  और वो आगे चलकर अचानक उबलकर बाहर आता है तथा बहुत कुछ अस्तव्यस्त कर देता है. अम्मा के साथ तो यही होता है. भारत-विभाजन के बाद हिंदुस्तान आने पर उसकी फिर शादी हुई, बच्चे हुए और बेटे के भी बच्चे हो गए. वो जीवन के आखिरी चरण में है और अचानक ही जो बीता कल था, उसके भीतर जमा हुआ, बैठा हुआ, वो छलक कर बाहर आता है और परिवार के भीतर तूफान मचा देता है और दोनों देशों- भारत और पाकिस्तान- के राजनयिक संबंधों में  हलचल जैसा भी कुछ पैदा कर देता है. इस लिहाज से ये कह सकते हैं कि `रेत समाधिमनोविज्ञान के गह्वर में प्रवेश करने और कराने वाला उपन्यास भी है. मानव मन एक अजीब पहेली है और ये सुलझाए नहीं सुलझती. अम्मा के अजीबोगरीब कारनामे यही बताते हैं.

पर ये दोनों पहलू अपनी जगह हैं. लेकिन मुख्य बात तो शायद ये है कि ये उपन्यास सरहद की धारणा को बीच बहस में लाता है. आखिर क्यों बनती हैं सरहदें? और होती क्या हैं सरहदें? क्या दो देशों के बीच विभाजन रेखा खींचकर सरहदें बनाई जाती हैं जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच बनीं? या जैसे पुराने यूगोस्लाविया के हिंसक विघटन के बाद बाद कई नए देश  बन गए? या सरहद का मतलब कुछ और होता है? उपन्यास में एक जगह अम्मा कहती है- “सरहद?  जानते हो सरहद क्या होती है?  बॉर्डर? वजूद का घेरा होता है, किसी शख्सियत की टेक होता है. कितनी ही बड़ी, कितनी ही छोटी. रूमाल की किनारी, मेज़पोश का बॉर्डर, मेरी दोहर की समेटती कढ़ाई. आसमान की सरहद. इस बगिया की क्यारी. खेतों की मेड़. तस्वीर का फ्रेम. सरहद तो हर चीज की है.

अरे लेकिन सरहद निकालने के लिए नहीं होती. दोनों तरफ को और उजालने के लिए होती है.
तुमने मुझे निकाल दिया. मैं निकल जाऊं? नहीं




(दो)
सरहद क्षितिज. जहां दो लोग मिलते हैं, गलबहियां करते हैं’’

सरहद को लेकर ये प्रसंग लंबा है जहां अम्मा पाकिस्तानी  सुरक्षाकर्मियों से सरहद की अवधारणा को लेकर बातें करती हैं. यहां अम्मा सरहद की संकल्पना की व्याप्ति बताती है. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने सरहद का अर्थ-संकोच कर दिया और उसे एक देश से दो दुश्मनों में तबदील कर दिया.  `रेत-समाधिकी मूल प्रस्तावना यही त्रासदी है.  और 1947 में हुआ भारत का बंटवारा ही नहीं, दुनिया में जब और जहां भी किसी तरह का भौगोलिक बंटवारा होता है वह मानवीय सरोकारों से रहित होता है- ये उस उपन्यास की व्यंजना है.

भारत-पाक विभाजन के प्रसंग और त्रासदी को और अधिक रेखांकित  करने के  लिए गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास में इस विषय पर लिखनेवाले  लेखकों और उनकी रचनाओं और चरित्रों  पर आधारित एक फैंटेसीनुमा नाटकीय वृतांत भी रचा है जो दोनों देशों के  वाघा-अटारी बॉर्डर पर खेला जा रहा है और जिसमें  मंटो, भीष्म साहनी, इंतजार हुसैन, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, मंजूर एहतेशाम, राजिंदर सिंह बेदी, जोगिंदर पाल, बलवंत सिंह जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी के कई लेखक मौजूद हैं और अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं.  इस नाटकीय वृतांत में इन लेखकों द्वारा रचे गए चरित्र भी उपन्यास में हैं. जैसे मंटो के टोबा टेक सिंह का बिशन सिंह. वो अपनी  भूमिका निभाते हुए क्या करता है, ये देखिए-

“लेकिन टोबा टेक सिंह का सिंह तो मूड में है. लाल सलाम से गार्डों के दांव पेंच मुश्किल में डालने में लगा ही है, अब और खुराफाती हो रहा है. अब तक मामला फिर भी संभला रहा चूंकि राष्ट्रभक्ति ऐसी पुख्ता, मगर सिंह नए नए हथकंडे अपनाता है. गगन तक उठते राष्ट्रीयता के अंतर्नाद को  कहीं छिपे से पटखनी देने में तुला हुआ है. तो नारे हिल जाते हैं और सारी कड़क मुस्तैदी एक त्रस्त तन्नाई सुगबुगाहट भर रही है कि चौकन्ने रहो, पकड़ो, खेल ढेर न हो जाए. क्योंकि कभी भी परिंदे या जो भी फड़ फड़ करते हैं  और कभी भी लाल धारे  उड़ती हैं और कभी भी क्रिकेट मैच में उठती  बोलियों से ऊंची हिंदुस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान ज़िंदाबाद क़ायदेआजम ज़िंदाबाद भारतमाता जयजयकार को काटती आवाज़ गूंज जाती है......”
  
ये वाकया विभाजन के बाद भारत- पाकिस्तान  में उभरे उस नफरत के उस क्रूर रूप की ओर इशारा करता है जो अक्सर ही दोनों देशों में  हमें दिखता है. दंगों में भी और  क्रिकेट मैंचों में भी. हालांकि यहां ये प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि तीन भारतीय भाषाओं के कथाकारों के विभाजन संबंधी लेखन और चरित्रों की याद किस लिएऐसे में चेक उपन्यासकर मिलान कुंदेरा के उपन्यास `द बुक ऑफ लॉफ्टर एंड फोरगेटिंगके प्रमुख चरित्र मिरेक का एक कथन याद आता है- 
‘ताकत के खिलाफ मनुष्य का संघर्ष विस्मृति के खिलाफ स्मृति का संघर्ष है.’
साहित्य स्मृति का एक माध्यम भी है स्मृतियां हमारे लिए एक आईने का काम भी करती है. 

वैसे इस उपन्यास में सिर्फ अन्य लेखकों और कथाकारों की ही उपस्थिति नही है भूपेन खक्खर और जगदीश स्वामीनाथन जैसे कलाकार भी हैं. यानी साहित्यास्वाद भी और कलास्वाद भी.


(तीन)
यहां. ये निष्कर्ष निकाल लेना भी भूल होगी कि `रेत समाधिमें सिर्फ सरहद-विमर्श और विभाजन गाथा ही है. दरअसल ये उपन्यास में  कई स्थलों पर कौतुक–कथाएं (फेबल) भी हैं. उन कौतुक कथाओं की तरह जिसमें पशुपक्षी  भी किरदार होते रहे हैं. हालांकि इस उपन्यास में पशु तो नहीं है लेकिन पक्षी हैं. खासकर कौवे. और कौवियां भी. वैसे तो तीतर भी है लेकिन कौवे और कौवियों की उपस्थिति अधिक है. जब अम्मा कुछ दिनों के लिए जब अपनी बेटी के घर चली जाती है तो उसका पुत्र, जिसका पूरे उपन्यास में बड़े नाम से उल्लेख किया गया है, एक दिन देखने जाता है कि बहन के घर कि उसकी मां कैसी है. बहन ने ठीक से मां को रखा भी या नहीं-ये जांचने. बड़े के वहां पहुंचने के पहले ही वहां कौवों की सभा चल रही है और जिसमें मादा कौवे यानी कौवियां भी शामिल हैं.  बड़े इस बात से बेखबर कि वहां कौवों की सभा चला रही है. आखिर खबर कैसे हो, मनुष्य नाम का जो जीव है वो अन्य जीवों के प्रति अक्सर बेखबर ही रहता है जब तक कि ये दूसरे जीव उसके लिए किसी तरह के खतरा न हों. और कौवों से कैसा खतरा?

बहरहाल, जैसा कि फेबल स्टोरीज या कौतुक कथाओं में होता है वहां अभिधा भी महत्त्वपूर्ण है और व्यंजना भी. इस अपन्यास में भी यही होता है. इस काग-प्रसंग में हास्य भी हैं और विडंबना भी. विचार भी है विमर्श भी. जरा और खोलकर कहें तो नारीवादी विमर्श दमदार तरीके से उभरा है. इस तरह- 

“एक बुजुर्ग कौवी, जो अपने नाम को अपने कौवीहृदय से साकार कर रही थीं, वहां कौवानियत का पाठ याद दिलाने लगीं. वो अपने वक्त की दबंग फेमिनिस्ट मेंजिन्होंने ये हक अपनी बहनों को दिलाया कि हम मादाएं भी हर मीटिंग में आएंगी और पूरी बिरादरी के निर्णय में हमारी भी साझीदारी होगी. ये भी कि कोई अपना अंडा दूसरे को घोसले में कौवाकाहिली में नहीं छोड़ेंगा, और न सींक तिनका फेंकफांक कर घरौंदा बनेगा- हम भी करीने से रहेंगी और कौवा भी अंडे सेंएगा क्योंकि जो बच्चे होंगे वे उसके भी हैं. अभी भी वो मुंहफट थीं और सुंदरता से अपनी बात रखतीं. वो दस के ऊपर की हो चुकी थीं तो वृद्ध ही हो रही थीं. उनकी आंखें गाय माफ़िक शांत थीं और पंख बरगद की  जड़ों जैसी दानिशमंद. वो धीरे धीरे फुदकतीं और कम लोग जानते कि वो ऐसा धूप के दिनों में इसलिए भी कि किया करतीं थीं ताकि भरपूर विटामीन डी उनके जोड़ों को मिले और आदतन नतीजतन ये उनकी चाल-तर्ज़ बन गई. जहां बाकी  हड़बोंग मचाते कूदते उड़ने लगते, वहां ये गौरवमय क़दमों से बढ़तीं. किसी भागाभागी में नहीं, बम फटता है पहाड़ टूटता है ऐसा कोई संकटग्रस्त भाव उनके चेहरे पे नहीं, बल्कि इतमीनान से.‘’

कौवा-कौवी केंद्रित इस कौतुक कथा में साड़ी ज्ञान भी जुड़ जाता है. यानी कई तरह की साड़ियों का विवरण भी यहां है. इस साड़ी कथा बड़े की अपनी साड़ी-यादें  भी हैं. जैसे  कि  अपनी पत्नी के लिए कौन सी साड़ी कब लाई और अम्मा के लिए किस तरह की- ये सब भी यहां दर्ज है. फंतासी कथा की तरह कौवियां किसिम किसम की साडियों का अध्ययन करती हैं. और क्रम में बांधनी, जरदोशी, बंधेज, तन्चोई, इकत, अजरख़, जामदानी, चिकनकरी, चंदेरी, मधुबनी, महेश्वरी, मूगा, कोसा, बालूचरी, ढाकई, शांतिपूरी, पैदली, तनचोई, टंगाइल, गडवाल, बनारसी, कांथा, पोचमपल्ली, कांजीवरम और अन्य साड़ियों का एक ज्ञानकोश खुलता जाता है. 


(चार)
`रेत- समाधिमें एक वाक्य है- `बातों का सच ये है कि सारे पहलू एक संग नहीं खुलते. ये इस उपन्यास के बारे में भी सही है. इसमें जीवन और जगत के, राष्ट्रीयता और परिवार के, संस्कृति और  पंरपरा के,  भाषा और कलाओं के  कई पहलू हैं औऱ ये एक संग नहीं खुलते हैं. अलग अलग संदर्भों में खुलते हैं. विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न वैचारिक पक्ष सामने आते हैं.  जैसे रिवायत या परंपरा कैसे बनती है

परंपरा निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है इसमें सिर्फ सर्वस्वीकृति ही नहीं दमन भी शामिल है- इसे एक किस्से से समझाया गया है. किस्सा संक्षेप में इस प्रकार है-  एक गौरेया थी जो जग भर में निडर घूमती थी.  घरों में घरौंदा बनाती थी और कंधों पे और पैरों के पास रस्सी कूदती चली आती थी. सूरज उसपर फिदा था और उसके कारण वन गुलजार था. एक दिन एक घुड़सवार ने, जो शिकारी भी था, नाचते नाचते मस्ती में गौरेया पर गोली चलाई. इसके बाद तो गौरैया डर गई. इतनी डर गई की पक्षीप्रेमी सालिम अली से भी डरने लगी. 
  
स्पष्ट है कि ये एक रूपक-कथा है जिसका नारीवादी  अर्थ भी है और वे ये कि  पुरुषसत्ताक समाज ने औरतों को डराकर परंपरा बनाई है. एक मानीखेज वाक्य उपन्यास मे है- ‘मर्दानगी लगभग हर रिवायत की तह में छिपी है.’  और आगे चलकर दूसरा वाक्य आता है- ‘आदत ही रिवायत है. ये इस तरफ संकेत है कि हम अपनी आदत को परंपरा मान लेते हैं.


(पांच) 
अब जरा फिर  `रेत-समाधि  में निहित कविता की बात करें. इसमें कई  ऐसे स्थल हैं जहां आप पूरे उपन्यास को भूल कर उनपर पर रीझ जाएं. उसी तरह जिस प्रकार किसी विस्तृत वन प्रांतर को देखते समय किसी खास वृक्ष या पुष्प की खूबसूरती पर ही इस तरह मोहित हो जाएं उसे ही देखते रह जाएं. वैसे बड़े उपन्यास की एक पहचान ये भी है कि उसके कुछ खंड भी विशिष्ट तरह की संपूर्णता लिए होते है. ‘रेत-समाधिमें ये भाषा के स्तर पर लगातार होता है.  बेहतर होगा कि इसे एक उदाहरण से समझाया जाए. उपन्यास के आरंभिक हिस्से का एक अंश यहां पेश है-

“बेटी. बेटियां हवा से बनती हैं. निष्पंद पलों में वे दिखाई नहीं पड़तीं और बेहद बारीक़ एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं. पर थमा समां न हो और वे हिल रही हो.... हाय कैसे तो वे हिलती हैं.. तो आकाश नीचे को झुकने लगता है इतना कि हाथ उठा के छू लो. खखानी धरती फटती है और बुलबुले उठते हैं और फिल कलकलाते हुए झरने निकल आते हैं. पहाड़ियां  उझकती हैं. चारों ओर प्रकृति का अनोखा विस्तार खुलता है  और अचानक आप समझ लेते हैं कि  दूरी और गहराई, दोनों की आपकी समझ गड़बड़ा गई है.  जिसकी सांस बालों पर आ गिरी नर्म पंखुड़ी थी, समुंदर में दहाड़ती चट्टान सी मारती है. जिसे आप हिम पर्वत समझ रहे हैं वो तो एकदम पास उसकी उंगली है  जो नहीं पिघलेगी. आपकी अक्ल का चिराग गुल हो जाता है और अंधाकुप्प जो छाया है छाता ही रहता है. जैसे रात हो जाए तो रात ही चलती जाए. या दिन है तो दिन ही अविरत. और हवा चलती है जैसे रूह आह भरती, सारे में लहराती, करवट बदलती तो चुड़ैल हो जाती, इस पर, उस पर  टूटती गिरती.”

इस तरह की कविताएं उपन्यास मे विन्यस्त हैं. हालांकि ऐसी पंक्तियां सिर्फ कविता नहीं हैं और इनमें एक सामाजिक सार भी मौजूद है. यानी सिर्फ भाषा नहीं है बल्कि सामाजिक बनावट की व्याख्या भी है. वैसे अगर सिर्फ कविता की बात करें तो वो भी यहां कई अक्स में दिखती है. जैसे जापानी हाइकू की तरह कुछ वाक्य दृश्यात्मक-दार्शनिक अर्थ की प्रतीति भी कराते हैं. मिसाल के लिए- 
“सुबह सुबह जब मां बैल्कनी पर चाय पीती है काली चिड़िया लंबी सीटी मारती है. चढ़ती उतरती लय’’.


(छह) 
उपन्यास के साथ एक मान्यता जुड़ी हुई है कि ये समय बिताने के काम आता है क्योंकि मनोरंजक होता है. ये धारणा पूरी तरह गलत भी नहीं है. पर पूरी तरह सच भी नहीं है. उपन्यास जीवन दृष्टि भी देता है. हमारी समझ को और विस्तृत और व्यापक करता है. पर समझ क्या हैइसे भी समझने की आवश्यकता है.  `रेत-समाधिमे एक जगह कहा गया है-
“समझ बड़ा छिजाया हुआ, गाली खाया, शब्द बन गया है. कि उसके मायने हैं मतलब को स्थापित करना, जबकि मायने उसके हैं मतलब को विस्थापित करना. ऐसे हिलाना कि बिंजली कौंध उठे.‘’

क्या ये उपन्यास ऐसा करता हैक्या ये हमारी किसी पूर्व समझ या समझों को नए सिरे से ढालता-जांचता हैऐसा कहा जा सकता है. गीतांजलि श्री की ये रचना उपन्यास के बारे में, उसकी भाषा के बारे में, परिवार में औरतों की स्थिति के बारे में, परंपरा- निर्मिति की प्रक्रिया के बारे में, राष्ट्रवाद के बारे मेंवैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक-बौद्धिक पूर्वग्रहों को समझने में और उनके बारे में सही प्रश्न पूछने में हमारी मदद करता है. जैसे ये पंक्तियां पश्चिम बनाम पूर्व की बहस के बारे में एक वैचारिक  परिप्रेक्ष्य देती हैं-

“वे गोरे हैं. उनकी ले बैठो तो तो फिर वो ही वो, क्योंकि दुनिया उनकी हो चुकी है. उसे वे बना रहे हैं, बिगाड़ वे रहे हैं, और बनाने के पर्याय वे हैं, बिगाड़ने का बाकी, क्योंकि केंद्र वो हैं और केंद्र से मूल कथा तय होती है. बाकी बाकी हैं. पतंग,दशमलव, चाय, शून्य, टंकण, बारूद सब इधर से आये, पर जब `केंद्र’  में पहुंचे तभी से दुनिया में आए माने गए. सारे रंग बाकियों से आए-काले भूरे, पीले- मगर केंद्र का अ-रंग न-रंग असल रंग मान लिया गया. केंद्र और बाकी, वे यथार्थ, ये बेमजा. स्मृति वहीं से विस्मृति वहीं से. प्राचीन यूनान को जिन्होंने अपनी सोच का धरोहर मान रखा थ, वे भूल गए उसे, सदियों सदियों, और अरब थे जिन्होंने अपने खजाने में उसकी याद संजोयी, वर्ना कौन सा पुनर्जागरण पश्चिम में कहीं होतापर हुआ और वो केंद्र में था. पर हुआ और वो केंद्र में था इसलिए अरब भी बाकी हुए.”

और सौंदर्यबोध के  लेकर कुछ अप्रत्याशित नवीन स्थापनाएं भी यहां हैं. मरीचिका के  बारे में यही हमारी एक सामान्य समक्ष है कि वो रेगिस्तान में धोखे की तरह होती है.. पर उपन्यासकर उस समझ के आगे की बात करती हैं जब वे कहती हैं-  ``पूछ खुद से, मूरखमन, कि मरीचिका से ज्यादा चमक कहां और वो क्या झूठा, उसके नीचे पृथ्वी ठोस नही है क्या उसके ऊपर हवा नहीं गुंजान?और हम जब उसे देखे हैं, उम्मीद, लालसा और कविता हममें नहीं अंखुआए क्या?’
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रेत-समाधि
गीतांजलि श्री
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-2
मूल्य-299 रूपए

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