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गंगा प्रसाद विमल : देसज सहजता के प्रतीक पुरुष : प्रमोद कुमार तिवारी

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कवि, कथाकार, आलोचक, शिक्षक गंगा प्रसाद विमल (जन्म :1939 उत्तरकाशी) की श्री लंका में सड़क दुर्घटना में पुत्री कनुप्रिया, नाती श्रेयस और वाहन चालक के साथ मृत्यु ने हिंदी जगत को विचलित कर दिया है. वह जब भी मिलते थे अकुंठ भाव से मिलते थे, चाहे कोई हो. कोई दम्भ कोई भार नहीं. उनकी स्मृति को नमन करते हुए प्रमोद कुमार तिवारी का यह आलेख प्रस्तुत है.



गंगा प्रसाद विमल
देसज सहजता के प्रतीक पुरुष                   

प्रमोद कुमार तिवारी 


यह बात तब की है जब कवि केदारनाथ सिंह मूलचंद अस्‍पताल में भर्ती थे. दिल्‍ली की भागदौड़ और कठिनाइयों को झेलते हुए उनके एक सखा रोज शाम को नियमपूर्वक आते थे और बाहर के कमरे में चुपचाप बैठते थे. अगर केदारनाथ सिंह बेहतर स्थिति में होते तो वे मिलते अन्‍यथा दरवाजे के शीशे से निहार कुछ घंटे बाद चुपचाप वापस लौट जाते. संबंधियों के यह कहने पर कि हम उनको बता देते हैं वे जोर देकर मना करते कि नहीं, बन्‍धु को आराम करने दीजिए. मैंने उन्‍हें दूर से देख लिया, कल फिर आऊंगा. ये गंगा प्रसाद विमल थे. अपने विमलनाम को सार्थकता प्रदान करते हुए.

गंगा प्रसाद विमल को लोग अनेक रूपों में जानते हैं. अकहानी आंदोलनके प्रणेता. मशहूर कथाकार, कवि, उपन्यासकार, अनुवादक, निबंधकार, नाटककार, प्रशासक, केंद्रीय हिन्‍दी निदेशालय के निदेशक, जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के अध्‍यक्ष आदि आदि पर इन सब से बढ़कर जो चीज उन्‍हें खास बनाती थी वह थी उनकी सहजता. याद आता है कि जेएनयू में जब पहली बार उनसे मुलाकात हुई तो उन्‍होंने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, मैंने बहुत ही संकोच से हाथ मिलाया. इसके पहले सिर्फ एक मुलाकात हुई थी वे एक कवि सम्‍मेलन का संचालन कर रहे थे और मैंने बहुत ही कमजोर सी कविता पढ़ी थी. पर उन्‍होंने तभी से मेरे लिए कवि संबोधन निश्चित कर दिया. बाद में जब वे सह-शोध निर्देशक बने तो बड़े ही दुलार से एक दो टिप्‍पणी ऐसी की जो आज तक प्रकाश दिखाती है.

अजातशत्रु गंगा प्रसाद विमल वर्षों पहले उत्‍तरकाशी का अपना पुश्‍तैनी गांव छोड़ कर दिल्‍ली वासी हो चुके थे परंतु उनके कालका जी के फ्लैट में उनके गांव से मुलाकात हो जाती थी. जो लोग भी उनके घर गए होंगे वे बताएंगे कि मैदानी क्षेत्र में पहुंच कर प्रदूषित होने से पहले वाली गंगोत्री और उत्‍तरकाशी वाली स्‍वच्‍छ विमल गंगा उनके मन मिजाज में वास करती थी. वे केवल गांव के न थे परंतु गांव को जीते थे. गांव से बिछड़ने के दर्द को उन्‍होंने कई कविताओं में व्‍यक्‍त किया है. एक कविता तो गांव पर ही है जिसमें वे अंतत: जब गांव को ढूंढते हुए गांव पहुंचते हैं तो वहां भी गांव नहीं मिलता है-

मैं जी भर कर चूमना चाहता हूँ
आभार में
अपने उस गाँव को
वह पहले तो मेरे साथ ही आया था
शहर में
झटक कर, मुझे अकेला कर कहाँ चला गया वह
स्मृति की खोह में

गंगा प्रसाद विमल के पूरे व्‍यक्तित्‍व में ठेठ पहाड़ की सरलता और खास तरह की सादगी हर कोई महसूस कर लेता था. इसका पता जेएनयू, साहित्‍य अकादेमी आदि के कार्यक्रमों के दौरान भी देखने को मिलता था. ऐसे औसत छात्र जिन्‍हें सामान्‍य विद्वान भी मुंह नहीं लगाते थे, वे गंगा प्रसाद विमल का भरपूर सम्‍मान पाते थे. विमल जी का बड़ापन इस बात में निहित था कि उनसे मिलकर ढेर सारे छोटे लोग बड़े बन जाते थे. उनका बंधुका चिरपरिचित संबोधन, सबके लिए गर्मजोशी से बढ़े उनके हाथ और मोहक मुस्‍कान उनकी साधारणता को असाधारण बना देती थी.

गंगा प्रसाद विमल की विशेषता यह थी कि केवल पहाड़ को नहीं पूरी धरती को वे उसकी सांद्रता में महसूस करते थे. वे स्‍थानीयता और वैश्विकता की बाइनरी को नकारते हुए इनकी सीमाओं को परस्‍पर घंघोल देते थे. वे प्रकृतिप्रेमी थे जो सीमाओं को नहीं जानती, इसीलिए वे किसी पहाड़, किसी देश को नहीं धरती को संबोधित करते हैं:  

कुछ भी लिखूंगा
बनेगी
तुम्हारी स्तुति
ओ प्यारी धरती.
पहाड़ ही नहीं जन्मे तुमने
न घाटियां
क्षितिज तक पहुंचने वाली
फैलाव में
रचा है तुमने आश्चर्य
आश्चर्य की इस खेती में
उगते हैं
निरंतर नए अचरज
मैं नहीं
अंतरिक्ष भी आवाक है
देखकर तुम्हारा तिलिस्म.

गंगा प्रसाद विमल का पूरा व्‍यक्तित्‍व एक खास तरह की सादगी से भरा हुआ था, पहली बार मिलने पर उनमें कोई विशिष्‍टता नजर नहीं आती थी. सबसे बड़ी बात यह थी कि उनकी रचनाएं भी इसी नामालूमपन से ओत-प्रोत होती थीं. बड़ी से बड़ी बात वे बिना चौंकाए, बिना झटका दिए कह जाते थे. विमल सर की रचनात्‍मकता इस बात की गवाह है कि चीते की तरह नहीं घास की तरह भी आक्रामक हुआ जा सकता है. उदाहरण के लिए उनकी कविता शक्तिदेखें:
शक्ति
जन्मी है शक्ति
गरीब की उपजाऊ धरती से
बेबसी में ही बढ़ी है
हमारी महान
सामर्थ्य

दो मुझे
दो शक्ति
जिसे हृदय ने रोपा है
जिसे रोप कर काटा है आदमी ने
और मापा है
फांसी के फंदों से. 

बड़ी ही सादगी के साथ मुस्‍कुराते हुए वे बडी से बड़ी बात कह जाते थे. जब उनको किसी बात का विरोध भी करना होता तो इस अदा से करते कि अपनी बात भी कह जाते और सामनेवाले के अहं को चोट भी नहीं पहुंचती. एक सहज, सरल बाल हृदय व्यक्ति थे. बच्चों से उन्हें बहुत प्रेम था. बौद्धिकता से भरी बोझिल बातों की बजाय घर-परिवार और बच्‍चों की चर्चा करते, कार पार्किंग में कविता या गीत सुनाने को कहते और कुरेदने पर ही बौद्धिक बातें उठाते. पर व्‍याख्‍यान के समय उन्‍हें कभी अगंभीर होते नहीं देखा. मध्‍यकाल की उनके पास गहरी दृष्टि थी. कबीर आदि पर उन्होंने न सिर्फ काम किया था, बल्कि हर तरह की परिस्थिति‍ में भक्‍त कवियों का आनंदित रहने वाला स्वभाव अपने भीतर समाहित कर लिया था. शायद यही कारण रहा हो कि कभी भी उन्‍हें चिंतित नहीं देखा. अक्‍सर लोग छोटी मोटी समस्‍याओं की मजबूरी गिनाते दिख जाते हैं. पिछली मुलाकात में जब किसी बात को मुझे दोहराना पड़ा तो उन्‍होंने अपने बुढ़ापे का मजा लेते हुए और उसके फायदे गिनाते हुए कहा कि ‘’कान से थोड़ा ऊंचा सुनने लगा हूं, इसलिए अब सुनता कम,सुनाता अधिक हूं, इसका एक फायदा यह है कि कोई बुराई भी करेगा तो सुनायी नहीं देगा... और उसके बाद वही निश्‍छल हंसी....’’
      
भाषा को उन्होंने जतन से साधा था, नये नये शब्‍द बना देते थे. मेरे शोध कार्य के एक अध्‍याय को देखने के दौरान ऐसे ही दो तीन शब्‍द उन्‍होंने लिख दिए और फिर अपनी चिरपरिचित सरलता के साथ कहा,  ‘’मेरी आदत खराब है, अपने ढंग से शब्‍द बना लेता हूं, शब्‍दकोश की दृष्टि से जो आपको अनुचित लगे उसे हटा दीजिएगा.‘’  

वे अकहानी के प्रमुख सिद्धांतकार थे. आजादी के बाद कहानी को बड़े संदर्भ से जोड़ने और एक वैश्विक परिप्रेक्ष्‍य देने की बात रखते हुए कहते हैं कि “काल की भौगोलिक यात्राएं खत्‍म होकर अब स्‍पेस के उस अभूगोलसे जुड़ गई हैं जहां अनुभव भी संज्ञातीतहै. अत: भारतीयता का आग्रह केवल प्रतिगामी शक्तियों की स्‍थापनाकांक्षाओं का ही आग्रह है.”   

गंगा प्रसाद विमल अथक रचनाकार थे. उनके सात कविता संग्रह, ग्यारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.जिनमें प्रमुख हैं बोधि-वृक्ष, नो सूनर, इतना कुछ, सन्नाटे से मुठभेड़, मैं वहाँ हूँ, अलिखित-अदिखत, कुछ तो है (कविता संग्रह)कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, इधर-उधर, बाहर न भीतर, खोई हुई थाती (कहानी संग्रह); अपने से अलग, कहीं कुछ और, मरीचिका, मृगांतक (उपन्यास); आज नहीं कल (नाटक); प्रेमचंद, समकालीन कहानी का रचना विधान, आधुनिकता:साहित्य का संदर्भ (आलोचना). इसके अतिरिक्‍त गजानन माधव मुक्तिबोध का रचना संसार, अज्ञेय का रचना संसार, लावा (अंग्रेजी) आदि पुस्‍तकों का उन्‍होंने संपादन भी किया. गंगा प्रसाद विमल हर समय व्‍यस्‍त रहनेवाले व्‍यक्ति थे, उनके पास अनेक योजनाएं हुआ करती थीं.

उनके व्‍यक्तित्‍व के अनेक पक्ष हैं यहां उनके साक्षात्‍कार के छोटा सा अंश प्रस्‍तुत कर रहा हूं. एक साक्षात्‍कार के दौरान जब अर्गला के संपादक अनिल कविन्‍द्र ने उनसे पूछा कि वे कौन सी रचनाएं होंगी जिन्हें मुश्किल समय में आप सुरक्षित रखना चाहेंगे? तो गंगा प्रसाद विमल का जवाब अनूठा था, जो भावी पीढ़ी में उनके अखंड विश्‍वास का द्योतक भी है. उन्‍होंने कहा,

“मैं उस कवि को बचाऊँगा जिसके वाक् जो हैं, वो बीजों की तरह हैं. वो वाक् बीज बचा लूँगा, बाद में खेतों में डालूँगा और अपने आप वो कविताएँ बन जाएँगी. वाक् बीज पैदा करने वाला कवि जो है. ऐसा नहीं कि वो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व पैदा हुआ होगा. हो सकता है कि अद्यतन जो नया कवि है, वो पैदा हुआ हो. पर इसे मैं इस रूप में रखना चाहूँगा.”

इस संदर्भ में उन्होंने बड़े कवियों से ज्‍यादा अपरिचित कवियों पर दृष्टि डालते हुए बड़ी बात कही कि
“अच्छे कवि. वो तो बच जाएँगे. उन्हें मैं दोहराता रहूँगा, इसलिए वो बच जाएँगे. लेकिन कुछ ऐसी चीजें, कुछ ऐसे कवि, जिन्हें बार-बार आप पढ़ना चाहेंगे. वो पैदा होते रहते हैं. जैसे मैं सोचता हूँ कि कालिदास स्मृति में होंगे. कबीर स्मृति में होंगे. ग़ालिब काफी लोगों की स्मृति में होंगे. लेकिन जो बच जाए वहाँ से, बचाना चाहिए. और मुझे ये लगता है कि जो नए लोग काम कर रहे हैं, वो बचाकर रखना बेहद ज़रूरी होगा. क्योंकि वो नए बीज हैं, उनसे नई चीजें आगे पनपेंगी. इसलिए इसमें यही कहूँगा कि जो अच्छी चीजें होंगी, स्मृति में बची रहेंगी. और जो न बच पाएँगी, न रह पाएगी स्मृति में, उन काग़ज़ों को ले जाने में मैं गुरेज न करूँगा. और उसमें नए कवियों को ले जाऊँगा.‘’

कबीर और कालिदास को छोड़कर नये कवियों के संग्रह को ले जाने की बात करने वाले विद्वान कम होते हैं. अक्‍सर देखा गया है कि वरिष्‍ठ विद्वानों को युवा पीढ़ी से शिकायतें अधिक होती हैं, असंतोष अधिक होता है. इस मामले में गंगा प्रसाद विमल अनूठे थे. उनकी विशिष्‍टता का प्रमाण इस प्रश्‍न से मिलता है कि जब यह पूछा गया कि ‘’आपकी वह कौन सी स्व-रचित कृति है, जिसे आप बेहद पसंद करते हैं और क्यों?

तो गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि ‘’इसका उत्तर कठिन है. क्योंकि मुझे बाकी लोगों की बहुत सी चीजें पसंद हैं, अपनी एक भी पसंद नहीं है.‘’

80 की उम्र में वे युवापन से लबालब भरे हुए थे. युवा दल को संबोधित यह कविता इसी बात का प्रमाण है:
युवा दल
नहीं हूँ अब तुम्हारा सदस्य
पर तुम तो रहते हो
निश्चित ही मुझमें.
जैसे गेहूँ निबद्ध है रोटी में
जैसे सूर्योदय
दिन में घुला-मिला है
तुम हो मुझमें
एक पवित्र मेखला की तरह
हर ईमानदार दुनिया खोलने के लिए.

ऐसी ही उनकी एक कविता है रूपांतरजो अपनी सादगी के कारण मुझे बहुत पसंद है. सच और झूठ के रिश्‍ते को इतने सरल ढंग से भी बयां किया जा सकता है, इस कविता को पढ़ने के बाद जाना. कोई चाहे तो इस कविता में मृत्‍युबोध को भी महसूस कर सकता है-
रूपांतर
इतिहास
गाथाएं
झूठ हैं सब
सच है एक पेड़
जब तक वह फल देता है तब तक
सच है
जब यह दे नहीं सकता
न पत्ते
न छाया
तब खाल सिकुडने लगती है उसकी
और फिर एक दिन खत्म हो जाता है वह
इतिहास बन जाता है
और गाथा

और सच से झूठ में
बदल जाता है
चुपचाप.
____________________________________________

प्रमोद कुमार तिवारी
गुजरात केंद्रीय विश्‍वविद्यालय
9868097199






रोशनी का सफ़र (संगीता गुप्ता) : ज्योतिष जोशी

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प्रेम और प्रतीक्षा का विन्यास                                   
ज्योतिष जोशी

संगीता गुप्ता जितनी संवेदनशील कवयित्री हैं, उतनी ही भाव प्रवण चित्रकार भी. उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं  जिनमें-

मुसव्विर का ख्याल,
बेपरवाह रूह,
एकम,
स्पर्श के गुलमोहर,
वीव्ज ऑफ टाइम,
प्रतिनाद,
समुद्र से लौटती नदी,
इस पार उस पार,
नागफनी के जंगल और
अंतस से आदि शामिल हैं. लगभग 35एकल प्रदर्शनियाँ उनके नाम  हैं तो 200से अधिक समूह प्रदर्शनियों में भी वे भागीदारी कर चुकी हैं. संगीता सात वृत्त चित्रों का निर्देशन कर चुकी हैं और उनकी कई कृतियों के अनुवाद विदेशी भाषाओं में  हो चुके हैं.

कला और कविता को एक साथ जीते और साधते हुए संगीता ने जहां कविता में प्रेम प्रतीक्षा, मौन और पल-पल स्पंदित होते हृदय की ध्वनियों को शब्द दिए हैं, वहीं अपने अमूर्त चित्रों में वे एकांत, निविड़ता और जीवन के अछोर विस्तार के सूनेपन को आंका है. कविता में वे जिस भाव को व्यक्त करती हैं, कला में उन्हीं भावों को अमूर्तन में आंकती हैं. इस तरह उनकी कला और कविता में यथार्थ को अतिक्रमित करने वाली अनुभूति का संप्रेषण होता है जिसका संबंध मनुष्य के अंतर से है, उसके भाव जगत से है. जिस तरह उनके अमूर्तन अंतर्जगत के राग-विराग के नर्तन और उसके धीमे संगीत को रंगों में उठाते हैं, उसी तरह उनकी कविताएं जीवन के अनन्य पलों में पल रही प्रतीक्षा और प्रेम में पसीज रहे क्षणों को शब्द देती हैं. उनकी दोनों ही विधाओं में अंतर का संगीत बजता है. रंग और  शब्द अन्तर ध्वनियों को पकड़ पाने का माध्यम हैं और उनके स्पंदन को एक भाव देने का समर्पित प्रयत्न, जिसमें संगीता बहुत प्रभावित करती है.

'रोशनी का सफर'उनका नवीनतम काव्य संकलन है. इसमें उनकी कला और कविता का सुंदर संयोजन है. छोटी-छोटी कविताओं के साथ उनके चित्र जहां कविता की अंतरंगता को दर्शाते हैं, वहीं समभाव में घटित दोनों  माध्यम व्यक्ति के मनोभाव में तरंगायित संवेदनों  को स्वर देते हैं. इस संग्रह में इकसठ कविताएं हैं जिन्हें वे नज़्म नाम से ही संबोधित करती हैं और  इतनी ही चित्रकृतियाँ भी. यह कविताएं उनके जीवन के  सर्वथा कठिन समय में रची गई हैं जिनके बारे में  वे लिखती हैं –

'परिवार से घिरे रहकर भी एक अजीब वीरानी का एहसास,उदास और दहशतज़दा मैं खुद को समेटने में जुटती हूं. बस घर और अस्पताल के बीच कभी-कभी स्टूडियो में रंगों को धीरे से छू भर लिया है. यह 61सीढ़ियों का सफर है. आपसे साझा कर रही हूं इकसठ चित्र, जो इस दौर में मेरा हौसला -अफजाई करते रहे हैं. साथ हैं इकसठ नज़्में, जो कागज के सीने पर उकेरे थे.'

यह कलाकार और कवयित्री का आत्म कथ्य है जिससे पता चलता है कि बीमार हालत में अस्पताल में पड़ी रह कर घर की स्मृति, वीरानी जगह में अभिशप्त रहने का दंश, जीवन के  थम जाने का अज्ञात भय और सब कुछ के सियाह  हो जाने की तकलीफ- इन नज़्मों और चित्रों का विषय हैं. पर  रचना का सच यही है कि वह एक विशेष क्षण की अभिव्यक्ति होने के बावजूद जीवन के उस सातत्य को, उसके अंतर्भाव और उस मानस को आकार देती है जो  सर्जक की चेतना में हमेशा उपस्थित रहते हैं. इस तरह रचना एक क्षण, एक घटना या एक समय में रची जाकर उसके समग्र विस्तार को पकड़ती है. इस मायने में संगीता की यह कविताएं समूचे जीवन बोध के उजास में खिल उठी हैं जिसमें आगत-अनागत के बीच फंसे व्यक्ति की प्रतीक्षा और जीवन- राग,  दोनों की  वत्सलता हृदय को छू लेती है.

'निभा सका न जो कांटों से
हक नहीं गुलाब पर' 
कहने वाली संगीता लिखती हैं -

'जमीन की तरह मैं भी रोशनी के सफर पर हूं ख्वाहिश है
रोशनी की रफ्तार से चलूं
और वक्त थम जाए जिस्म से परे
रूह निकल जाए मुसलसल
जमीन की तरह
मैं भी
रोशनी के सफर पर हूं .'

रोशनी के इस सफर में संगीता के हौसले बुलंद हैं , जिंदगी की तकलीफों और अपने जद्दोजहद को जानने के बावजूद उनके हौसले में कमी नहीं आई है-

'पिंजरा छोड़कर उड़ने वालों का ठिकाना कोई नहीं
उनका मसीहा
सिर्फ आसमान होता है
आसमान तक पहुंचने का
हौसला हो और
रास्ते के जद्दोजहद से
बेखौफ हो तो उड़ना
एक दिन वक्त और आसमान
दोनों तुम्हारे होंगे.'

पर इस सफर का मूल स्वर प्रेम है जिसका भाव है प्रतीक्षा. अपने मूल स्वर में संगीता गहरे उतरती हैं और अपने अनन्य अनुरक्ति में दूर तक बहा ले जाती हैं-

'एक पल दे दो
अपना मुझे
जो मेरी जिंदगी से लंबा हो '

या –

'बेखुदी में बारहा जिस्म की हदों को छोड़
रूह तेरी रूह से मिल आती है
कई दफा रूह तेरी
मेरे साथ चली आती है
तुझे इल्म नहीं शायद
तू मुझसे जुदा नहीं तेरी रूह मुझमें बसती है. '

संगीता का प्रेम आत्मिक प्रेम है जो देह को विलग करता है और आत्म से आत्म को जोड़ता है. इसमें इच्छाएं बेचैन नहीं करतीं, वह फूलों की तरह गमकती हैं और प्रतीक्षा-  ऐसा भाव जिसमें बार बार जीते रहने की पुकार है.  इसमें प्रिय के आने भर का संदेश उसे मायने दे देता है -

'तुम्हारा आना
एक सदी के
इंतिजार को
मायने दे गया.'

ऐसा नहीं कि यहां तड़प नहीं है, मनुहार  नहीं, या एक  गहरी उदासी नहीं है, पर प्रिय की बेरुखी को भी जी लेने और उसे अपने में समो लेने की रागमयता के कारण वेदना कवयित्री के अनन्य भाव को नहीं तोड़ पाती. प्रेम की यही वत्सलता संग्रह को रोशन करती है जिसके सफर में कवयित्री को कभी तन्हाई का एहसास भी नहीं होता. इसी उम्मीद को यह नज़्म पुख्ता आधार देती है-

'तेरा ख्याल आता है नज़्म आती है
तू साथ साथ चलता है फ़क़त तेरा जिस्म
तेरा है
रूह तो  सिर्फ मेरी है.'

छोटे-छोटे वाक्यों में

गहरे जीवन  मर्म से भरी कविताएं प्रेम के सत्व और उसकी अनुभूति को जिस तरलता से व्यक्त करती हैं उससे उसकी मार्मिकता बढ़ जाती है.

इन कविताओं के साथ-साथ दिए गए अमूर्त चित्रों में भी यही लाघव है. चित्र फलक पर मटमैले और धूसर रंगों में उभरे धब्बों, नामालूम से बने वृत्त,  आकाश को भेदते और भरते हुए अनेकानेक  रूपों में रंगों के नर्तन समूह अमूर्तन को एक विन्यास देते हैं और उसे एक अंतर लय में ढालते हैं. मन के भाव संचरण, उदासी, प्रतीक्षा और प्रेम की पीर के उच्छवास गहरे होकर मन पर उतरते हैं. वीरान सी स्थितियों के भीतर एक उम्मीद कहीं-कहीं रंगों के पैबस्तों में झांकती सी प्रतीत होती है . लगता है जैसे हमारे अंतर के सूने प्रदेश में अचानक कोई आभा सी उठ आई हो. संगीता के संयोजन में आंतरिक चैतन्य है जिसे कभी मॉन्द्रिया ने जीवन कहा था. यह अमूर्तन का प्राणतत्व है जो कलाकार के भीतर के रहस्य को  भावक के चित्त से जा मिलाता है.

कह सकते हैं कि 'रोशनी का सफर'संगीता गुप्ता की कविताओं में व्यक्त प्रेमपरकता  और उसकी स्निग्ध प्रतीक्षा उनके अमूर्त चित्रों में भी उसी लय और सघनता के साथ उपस्थित हैं और एक तरह से वे एक दूसरे को थामते भी हैं. शब्द और रंग की लयकारी में भाव जगत का यह प्राकट्य निश्चय ही हमें भाव - समृद्ध करता है. 'रोशनी का सफर'  कविता और कला के समन्वय से एक पठनीय और संग्रहणी कृति बन पाई है, इसमें संदेह नहीं है.
___________________
रोशनी का सफ़र
(संगीता गुप्ता की कविताएं और चित्र)
प्रकाशक - पृथ्वी फाइन आर्ट एंड कल्चरल सेंटर,
124, हंस भवन, 1, बहादुर शाह जफर मार्ग, नई दिल्ली- 110002
मूल्य-1000 ₹

मलय की कविताएँ

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क्या यह    
आग पीकर    
जीने का    
जलता हुआ    
समय है?

मुक्तिबोध के मित्र रहे नब्बे वर्षीय मलय (जन्म: 19 नवम्बर, 1929,जबलपुर) इस समय हिंदी के सबसे सीनियर रचनारत कवि हैं.

‘हथेलियों का समुद्र', 'फैलती दरार में', 'शामिल होता हूँ', 'अँधेरे दिन का सूर्य', 'निर्मुक्त अधूरा आख्यान', 'लिखने का नक्षत्र', 'काल घूरता है'आदि उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त एक कहानी-संग्रह 'खेत'तथा आलोचना-पुस्तक 'सदी का व्यंग्य'भी प्रकाशित है. उन्हें भावानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार, भवभूति अलंकरण, चंद्रावती शुक्ल पुरस्कार, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.

मलय की ये नई कविताएँ हैं समालोचन पर. आज़ादी से पहले पैदा हुई पीढ़ी आज हमारे समय को किस तरह से देख और रच रही है. यह देखना अर्थगर्भित तो है ही विचलित करने वाला अनुभव भी है.




मलय की कविताएँ                   





टेढ़े चाँद की नोकें

विषमता की बर्बरता    
इतनी विकराल है   
देह के समुद्र में    
कष्ट के टेढ़े चाँद की नोकें              
              चुभती हैं   
हड्डियों में कीलों-सी गड़ती हैं    
साँसों की लहरें    
थरथराती रहती हैं

  
इच्छाएँ, फिर भी    
विवेक की ऊँचाई से   
गिरते प्रपात-सी गिरतीं-तेजस्वित   
एक होकर    
तूफानी लहरों पर सवार होतीं    
हार नहीं मानतीं       

तहस-नहस होता पर   
बचता हूँ टूटने से-   
डूबने से खुद में ही   
लथर-पथर होकर    
बेधड़क रहता हूँ   
कष्ट के टेढ़े चाँद की   
चुभती चतुराई भरीं   
घेरकर छातीं विपत्तियाँ   
कुछ नहीं-कर पातीं    
थरथराहट    
थमे न भले ही   
थाह पाता चलता हूँ   
देह के समुद्र में!





एक बार 

दृष्टि की टहनियों में   
उगते लहरते    
नए-नए पत्तों सा     
बदलता रहता हूँ   
समय    
हवाओं की तरह    
बहता है   
सक्रियता    
रात और दिन की   
दूरी में भी    
दरकी नहीं कभी   
आज तक       

अब एक-बार   
हज़ार बार   
मौत के सिर पर   
कील ठोकने की   
हुज्जत में लगा हुआ    
अपनी हाय-हाय से दूर   
एकदम सतर्क हूँ   
पता नहीं कितना?




शरीर  

स्वयं को काटती हुई    
उम्र    
आगे बढ़ती    
रहती है   
केवल शरीर है   
बदलाव में    
समाहित होता हुआ    
अपनी कर्मशीलता के   
स्वयं रोपता चलता है   
दिमाग के दमकते    
प्रकाश में   
किसी की कुछ नहीं सुनता   
अंदर से घबड़ाकर    
बड़बड़ाती विकलता को            
         चित्त करता हुआ   
लुभावनी मणियों के     
चमकते चमत्कार से   
मुग्ध नहीं होता,  
उन्हें    
अपने रास्ते से    
दरकिनार करता है   
खुद ही उपजाई    
किरण का    
केवल अकाट्य सबूत    
गति की पुकार    
होकर चलता है

उम्र के साथ    
उससे भी बड़ा    
बढ़ा होता है   
अपनी सीमाओं को   
समझने वाला शरीर!   
 



गहरे ताप में  

याद के बढ़ते    
गहराते ताप में   
ढलकर    
मिट जाने के सिवाय    
हीरा हो जाता हूँ

  
तुम्हारी    
दमक को समेटकर    
किरणीला    
कौंधों से लबालब    
भरा हुआ

  
क्या यह    
आग पीकर    
जीने का    
जलता हुआ    
समय है?   

_________________________
मलय
8839684891

जंगल में फिर आग लगी है : विमल कुमार

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वरिष्ठ कवि विमल कुमार का नया संग्रह 'जंगल में फिर आग लगी है'उद्भावना से प्रकाशित हुआ है. जिसकी भूमिका कुमार अम्बुज ने लिखी है. यह भूमिका और कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.



उत्‍तराधिकार में प्राप्‍त प्रतिपक्ष की बैंच पर कवि                   
कुमार अम्‍बुज


प्रस्‍तुत समाज के दिक्-काल पर सतत निगाह रखनेवाले सुपरिचित कवि विमल कुमार का यह समूचा कविता संग्रह अपने आप में एक लंबी कविता है. खासतौर पर फासीवाद के खिलाफ यह कवि का एक्टिविज्म है. आततायी साम्राज्‍य के खिलाफ यह संग्रह एक जनहित याचिका भी है.

प्रसंगवश बर्तोल्‍त ब्रेष्‍ट की एक कविता याद आती है, जिसका आशय है कि जर्मनी में तानाशाही के चलते आपत्तिजनक किताबों को जलाने की मुहिम चलाई गई, उसका प्रभारी एक कवि को बनाया गया. उस कवि ने कुछ दिनों बाद देखा कि जलायी जानेवाली किताबों की सूची में उसकी अपनी कोई किताब नहीं है. तो वह बेचैन हो गया और शर्मिंदा कि उसने क्‍या ऐसी कोई किताब लिखी ही नहीं, जिसे तानाशाही में जलाने का फैसला लिया जा सके, क्‍या उसकी सारी किताबें तानाशाही को स्‍वीकार्य और सुरक्षित लग रही हैं. कह सकते हैं कि विमल कुमार का यह ऐसा कविता संग्रह है जो किसी भी आततायी शासन में जलाए जाने की सूची में निश्चित ही शामिल रहेगा. कहना यह है कि इस बात से इन कविताओं की हिम्‍मत, ताकत, प्रासंगिकता और हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन ऐसी कविताएँ लिखना केवल साहस का काम नहीं है, यह संवेदनशीलता, वैचारिक सामर्थ्‍य और नागरिक बोध की अविभाज्‍य संधि से ही मुमकिन हो सकता है. अकेला साहस किसी काम का नहीं यदि वह विवेक और पक्षधरता से प्रसूत नहीं है.

यह संग्रह अल्‍पकालिक स्‍मृति (शॉर्ट टर्म मैमोरी) के विरुद्ध एक स्‍मरण पत्र है. कि आप एक राजनेता द्वारा दो बरस या तीन दिन पहले के वायदे को या चार घंटे पहले बोले गए झूठ को भूल न जाएँ. याद रखें. अन्‍यथा यह विस्‍मृति समूचे देश और समाज के लिए खतरे की घंटी है. ऐसे खतरे की घंटी, जिसे रघुवीर सहाय, आपातकाल के ठीक पहले कहते हैं:

''खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी
और बादशाह उसे बजाएगा- रमेश.''

विमल कुमार हमारे इस वक्‍त में इन पंक्तियों को इतना घटित होते देख रहे हैं कि सीधे बादशाह को आगाह करते हैं-

''वह अपनी मेज पर रखी घंटी को
बार-बार न बजाये इस तरह
कि लोग फौरन दौड़ पड़ें उसे सुनकर
मानो खतरे की कोई घंटी बज गयी है.''

अपने समय की घटनाओं, नृशंसताओं और कपट को ये कविताएँ ईसीजी की तरह रेखाचित्रित करती हैं. जाहिर है कि यह ग्रैफिक एकरैखिक नहीं है, यही इसकी जीवंतता और सार्थकता है. अब शासक के मुँह पर कोई मुखौटा भी नहीं है. केवल मोटी परतोंवाला झूठ का मेकअप है. विमल कुमार इस संग्रह के जरिए उस मेकअप की, अभिधात्‍मक काव्‍य शल्यक्रिया द्वारा एक-एक परत उतारते हैं और इसकी  विडंबनाओं के समक्ष पाठक को विचारोत्‍तेजना के लिए छोड़ देते हैं: ''तुम गाँधी के साथ नहीं हो, भगतसिंह के साथ नहीं हो, तुम दरअसल गाय के साथ हो.'',''हत्‍यारा करता है हत्‍या की निंदा.'',''गवाही देने के मौके पर मौन था, अपने समय का सबसे अधिक बातूनी बादशाह.'',''शेर अगर तुम्‍हें अपनी बाहों में ले, फिर चूमने लगे तो यह मत समझ लेना, कि वह तुम्‍हारा प्रेमी बन गया है'',''गाँधी जी के रास्‍ते पर चलते हुए, गोडसे की मूर्तियाँ लगवा रहा हूँ.'', या ''वे हैं तो मुमकिन है''और ''आप न्‍यू इंडिया में हैं''जैसी कविताएँ इस शल्‍य चिकित्‍सा का सीधा प्रसारण हैं.

एक अन्‍य अर्थ में ये कविताएँ किसी खतरनाक जगहों पर लगे, आम जनता के लिए सूचना-पट्टों पर लिखी चेतावनियाँ भी हैं. सीधी, बेधक और साफ. ये अपने समाज और देश के प्रति लगाव और चिंता रखती हैं इसलिए नागरिक की चुप्‍पी के संकट को भी रेखांकित करती है और उसकी सकर्मक भूमिका की आशा करती हैं. कवि अपने दायित्‍व के प्रति सजग है और कविता की नली को सही दिशा में रखता है, जैसे किसी अचूक निशाने के लिए तत्‍पर है. इसलिए वह गधे की आत्‍मकथाओं को 'एक गधे की उत्‍तर कथाओं'में विन्‍यस्‍त कर पाता है.'गिरता हुआ आदमी','कहाँ से लाते हो तुम यह समन्‍दर','प्रधानमंत्री की खामोशी','यह आदमी हिटलर नहीं है'
'शेर के साथ नाश्‍ते पर','सम्राट से कह दो','मुमकिन है','सोने की मरी हुई चिडि़याआदि कई कविताएँ इसी निशानदेही का साक्ष्‍य बनती हैं. 'मेरे बारे में जो कहा गया'कविता अपने समय के फ्रेम में कसकर खुद को इस तरह देखने का तरीका है कि नात्‍सीवाद का चालाक चरित्र कुछ अधिक स्‍पष्‍ट हो जाता है.

एक बौद्धिक, दुखी और आहत कवि मन की ये कविताएँ अपने भीतर गहरी असहमति और नाराजी की कविताएँ भी हैं. इस नाराजी और प्रतिवाद को लगभग प्रत्‍येक कविता से गुजरते हुए अनुभव किया जा सकता है. इस मायने में यह एक अनूठा संग्रह है जिसमें सारी कविताओं का डीएनए एक ही है और वे यहाँ समवेत स्‍वर में पुकार लगाने के लिए एकत्र हो गईं हैं. यह प्रतिरोध और बेहतरी की आकांक्षा जैसे इसकी केंद्रीयता है. इसके लिए वे अभिधा का ही नहीं, बीच-बीच में व्‍यंजना और फैन्‍टेसी के उन क्षेत्रों में भी जाती हैं, जिन्‍हें विमल कुमार ने पहले संग्रह 'सपने में एक औरत से बातचीत'से ही, अपनी पहचान के रूप में आरक्षित कर लिए थे.

'मुझे बोलने दो कि मेरे सीने में धुआँ भर गया है','थैले में जो टिफिन लेकर चला था दफ्तर, उसे खोला तो उसमें पत्‍थर ही पत्‍थर थे','आया था अपने शहर में रहने पर इन दिनों एक चिडि़याघर में रहने लगा हूँ','आसमान पर हैं आप, नदी में आपकी परछाईं है','इस देश में अब जो कुछ हो रहा है, प्रधानमंत्री को बदनाम करने के लिए ही हो रहा है',जैसी काव्‍यपंक्तियाँ इसे याद दिलाती हैं. 'यह चाँद मुझे दे दो'कविता अपने अधिकांश में इसे चरितार्थ करती है.

बल्कि यहाँ इसमें कुछ जोड़ते हुए उन्‍होंने कई कविताओं में उलटबाँसियों को भी साधा है. 'गाँधी के रास्‍ते पर'चलनेवाली कविता को इस संदर्भ में एक प्रति‍निधि कविता के रूप में देखा जाएगा. व्‍यंग्‍य हमेशा ही करुणा से अर्थवान होता है, ये कविताएँ इसकी पुष्टि करती हैं. 'बहुमत'के नाम पर कोई भी सरकार मनमाना रवैया अख्तियार नहीं कर सकती. विमल इसे एक सजग, जवाबदार ना‍गरिक के मंच से देखते हैं. कटघरे में रखकर सवाल करते हैं और बहुमत के गुमान को ध्‍वस्‍त कर देते हैं. इस क्रम में 'आग और जनादेश'कविता एक तार्किक और कलात्‍मक परिणति है. इस तरह की कविताओं से विमल कुमार के सरोकार और समझ एकदम स्‍पष्‍ट है. और इसके मूल में लोकतंत्र, न्याय, समानता और संवैधानिक अधिकारों की फिक्र है.

अभिधा की कविता सबसे ताकतवर भी हो सकती है. विमल कुमार भाषा की इस शक्ति का, अपनी कविता में पिछले कई वर्षों से अभ्‍यास करते नजर आए हैं. पत्रकार और कवि के रूप में उनकी अर्जित निरीक्षण क्षमता ने उन्‍हें एक पृथक तेजस्विता प्रदान कर दी है. इन सबका उत्‍कर्ष यहाँ, इस संग्रह की कविताओं में लक्ष्‍य किया जा सकता है. वे उसी स्‍थायी और उत्‍तराधिकार में प्राप्‍त प्रतिपक्ष की बैंच पर बैठे मिलते हैं जो कवियों की थाती है.
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विमल कुमार की कविताएँ




मेरे बारे में जो कहा गया

जब मैंने कहा आजकल बहुत बेरोजगारी है
मेरे बारे में कहा गया
एक चुनी हुई सरकार को मैं अस्थिर करने में लगा हूँ


जब मैंने कहा
आजकल बड़ी तादाद में किसान आत्म हत्याएं कर रहे हैं
मेरे बारे में कहा गया
मैं इस देश में चारों तरफ अशांति फैला रहा हूँ

जब मैंने कहा
मन्दिर मस्जिद का झगडा ठीक नही
मेरे बारे में कहा गया
मैं इस महान लोकतंत्र की परंपरा को कमजोर कर रहा हूँ

जब मैंने कहा
इस देश मे गरीब बच्चों में बहुत कुपोषण है
उन्होंने कहा
मैं एक गौरवशाली राष्ट्र को दुनिया में बदनाम कर रहा हूँ.

जब मैंने कहा
स्त्रियों के साथ आजकल बहुत दुष्कर्म बढ़ता जा रहा है
उन्होंने कहा
मैं सीता और पार्वती का अपमान कर रहा हूँ.



अपनी भाषा में

यह सच है
अपनी भाषा में लड़ते-लड़ते
मैं लहू लुहान हो गया हूँ
लेकिन अपनी भाषा को छोड़कर कहाँ जाऊं
अपनी बीमार और बूढी मां को तुम छोड़कर
जा सकोगे तो जाओ
मैं अपनी भाषा को छोड़कर नहीं जाऊंगा
अपनी मां को छोड़कर क्या कोई जाता है इस तरह
कि मैं अपनी भाषा को छोड़कर चला जाऊं

जिस भाषा में जन्म लिया है मैंने
उसमें अब कातिल बहुत आ गये है
जिस भाषा में बोलना चलना सीखा
उस में भेडियें भी बहुत आ गये हैं
जिस भाषा में रोया और गाया बहुत
उस भाषा में अब बहुत त्रिशूल आ गये हैं
लेकिन अपनी भाषा को छोड़ कर कहाँ जाऊँ
अपना रास्ता बदल कर कहाँ जाऊं


भाषा मेरे लिए कोई चादर नहीं
जिसे छोड़कर कोई फट ओढ़ लूँ
भाषा मेरे लिए कोई दुकान नहीं है
कि किसी और जगह से अभिव्यक्ति खरीद लूँ


मेरी भाषा मेरे लिए एक घर है
मैं अपने घर को छोड़कर जाऊं तो कहाँ जाऊं
अपनी ही भाषा में जीता आया हूँ अब तक
अब अपनी ही भाषा में मरूँगा


इतना तो तय है कि कोई मुझे रोक नहीं सकता अपनी भाषा में
सच कहने से बिलकुल नहीं डरूंगा.



बदलते हुए देश में

बार बार समय ने मुझे बताया है 
वह अब बदल रहा है
बार बार समय से मैंने पूछा है
आखिर तुम क्यों बदल रहे हो ?

बार बार उसने कहा
बदलना उसकी नियति है
बार बार उसको मैंने कहा
इतनी जल्दी मैं नहीं बदल सकता
पहले मुझे यह देखने दो
आखिर तुम किसके लिए बदल रहे हो ?

मुझे भी मालूम है
मैं समय के विरुद्ध बहुत चल नहीं सकता
बहुत अधिक बदल नहीं सकता
लेकिन एक दिन यह समय कहीं मुझे बदल न दे
इसलिए थोड़ा सशंकित मैं भी हूँ
थोडा सा भयभीत मैं भी हूँ
अब समय भी मुझसे नहीं मिलता है
एक अजीब रिश्ता बन गया दिखता है
मेरे और समय के बीच


कोई एक पुल था कभी
वह अब टूट गया है
समय से बाहर निकलने की कोशिश में छटपटा रहा हूँ
जाले जितने लगे हैं चेहरे पर सबको हटा रहा हूँ.




अविश्वास प्रस्ताव

अब लाना ही पड़ेगा
मुझे
एक दिन
अपने खिलाफ
एक अविश्वास प्रस्ताव
हंगामे और शोर शराबे के बीच
उसे पेश करना ही होगा
सबके सामने

एक असंतोष उठ रहा था मेरे भीतर
कुछ सवाल कुलबुला रहे थे
न जाने कब से
प्रतीक्षा में रहा इतने दिन
कि मेरे सवालों के जवाब खुद से मिल जाये

आखिर कैसा टूटा मेरा भरोसा खुद पर से
क्या नहीं कर पाया
जो मुझे जीवन में करना था
नहीं बोल पाया
जो मुझे बोलना था
नहीं लिख पाया
जो मुझे लिखना चाहिए था

टूटना ही था मुझे खुद पर से भरोसा
लेकिन जो हुआ
उसके लिए
क्या मैं खुद जिम्मेदार था
क्या मैं अपने समय और इतिहास से बाहर था
क्या इस अविश्वास प्रस्ताव पर


सभी कोणों से होगी चर्चा मेरे खिलाफ
या मैं एक कठघरे में खड़ाकर दिया जाऊंगा
क्या इस बात का कोई जिक्र नहीं होगा
कि मेरे इरादे तो ठीक थे
नीयत में नहीं थी कोई खोट
तभी तो ले आया मैं खुद ही
एक अविश्वास प्रस्ताव अपने खिलाफ


जब संसद में बीस दिन से
नहीं पेश हो पा रहा
एक विश्वास प्रस्ताव.

  

गिरता हुआ आदमी

यह आदमी अभी और गिरेगा
नीचे झाँक कर देखना कुएं में
अभी गिरी है इसकी भाषा
वेशभूषा तो कब की गिर चुकी थी
पर अब इसका अभिनय भी गिरने लगा है
गिरी है अभी इसकी गरिमा.

गिरा है इसका आचरण
आत्मा तो कब की गिर चुकी है
अब वह हिंसक होगा
भेड़िये की तरह गुर्राता हुआ
वह करेगा तुम पर हमला
नोच लेगा तुम्हारी बोटी बोटी.
यह आदमी अभी और गिरेगा


फिर बेशर्मी से कहेगा
देखो कितना ऊपर उठ गया हूँ
तुम्हारी सेवा में
देखते जाओ
कि किस तरह एक आदमी गिरने लगता है
जब उसे खून का स्वाद लग जाता है.

तुम भी क्या रखोगे याद इतिहास में
कि तुमने कभी देखा था
अपने समय में
एक आदमी को इस तरह तेजी से नीचे गिरते हुए.
________

विमल कुमार
जन्म : 9-12-1960

सपने में एक औरत से बातचीत, यह मुखौटा किसका है, आयरा क्या तुम रौशनी बनकर आओगी, पानी  का दुखड़ा, आधी रात  का जश्न (कविता संग्रह)  आदि

सेक्टर 13 प्लाट -1016 वसुंधरा

गाजियाबाद,उत्तरप्रदेश पिन 201012

मंगलाचार : मंजुला बिष्ट की कविताएँ

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मंजुला बिष्ट उदयपुर (राजस्थान) में रहती हैं, उनकी कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हो रहीं हैं. उनके पास पहाड़ की स्मृतियाँ हैं और समय के प्रश्न. उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.
  


मंजुला बिष्ट की कविताएँ                        
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स्त्री की व्यक्तिगत भाषा


स्त्री ने जब अपनी भाषा चुनी
तब कुछ आपत्तियां दर्ज़ हुई...

पहली आपत्ति दहलीज़ को थी
अब उसे एक नियत समय के बाद भी जागना था.

दूसरी आपत्ति मुख्य-द्वार को थी
उसे अब गाहे-बगाहे खटकाये जाने पर लोकलाज का भय था.

तीसरी पुरज़ोर आपत्ति माँ हव्वा को थी
अब उसकी नज़रें पहले सी स्वस्थ न रहीं थीं.

चौथी आपत्ति आस-पड़ोस को थी
वे अपनी बेटियों के पर निकलने के अंदेशे से शर्मिंदा थे.

पाँचवीं आपत्ति उन कविताओं को थी
जिनके भीतर स्त्री 
मात्र मांसल-वस्तु बनाकर धर दी गयी थी.

स्वयं भाषावली भी उधेड़बुन में थी ;
कि कहीं इतिहासकार उसे स्त्री को बरगलाने का दोषी न ठहरा दें....

तब से गली-मुहल्ला,आँगन व पंचायतों के निजी एकांत
अनवरत विरोध में है कि
स्त्री को अथाह प्रेम व चल-अचल सम्पति दे देनी थी
लेकिन उसकी व्यक्तिगत-भाषा नही ....!!





 मनचाहा इतिहास 

हर शहर में 
कुछ जगह जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था.

वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख 
जिन्हें काटते हुए अंगुलियों में खरोंच कुछ कम होती!

वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना 
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती!

वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान 
किसी आततायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नहीं
मात्र उसका अपना खोया 'पता'होता .

वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से
जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नहीं बताता कि;

उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं.

लेकिन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना 
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है.

शहर की कुछ वैसी ही जगह
अभी तक 'वर्तमान'ही घोषित हैं
मगर कब तक......!!




भोथरा-सुख

क्यों नहीं भोथरे हो जाते हैं
ये हथियार,बारूद व तीखें खंजर
जैसे हो गई है भोथरी
धूलभरे भकार में पड़ी हुई 
मेरी आमा की पसन्दीदा हँसिया!

पूछने पर मुस्काती आमा ने बताया था
कि अब कोई चेली-ब्वारी जंगल नहीं जाती 
एलपीजी घर-घर जो पहुंच गई है.

क्या अभी तक हम नहीं पहुंचा सकें हैं
रसद व सभी जरूरी चीजें
जो एक आदमी के जिंदा बने रहने को नितांत ज़रूरी हैं
जो ये हथियार अपने पैनेपन के लिए
बस्तियों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं.

क्यों नहीं 
कोई आमा के पास बैठकर
अपने हथियार चलाने के कौशल को
भूलकर सुस्ताता है कुछ देर
और समझ लेता है 
एक हँसिया के भोथरे हो जाने के पीछे का निस्सीम-सुख

क्या हथियार थामे हाथ नहीं जानते हैं सच
कि हत्थे पर से नहीं मिटती है रक्तबीज-छाप
हथियारे की!

हथियारों से टपकती नफ़रतें
चूस लेती हैं सारा रक्त
राष्ट्र की रक्तवाहिनियों से;
हथियार अगर सन्तुष्ट होकर लुढ़क भी जाएं
एक खाये-अघाये जोंक की मानिंद
तो रक्तवाहिनियों में निर्वात भर जाता है

येन-केन प्रकारेण
अपने हथियारों के बाजार बढ़ाते देशों के लिए
आख़िर यह समझना इतना कठिन क्यों है कि
दुनिया के सारे हथियारों की अंतिम जगह
मेरी आमा का धूलभरा भकार है.



प्रेम के वंशज

अब तलक
प्रेम को तमाम प्रेमिल कविताओं ने नहीं
बल्कि प्रेम को उस एक कविता ने बचाया है
जो या तो कभी लिखी ही न जा सकी;
और यदि कभी लिख भी दी गयी हो
तो उसमें परिपूर्णता महसूस न हो सकी.

प्रेम में गुनगुनाये हुए बेसुरे गीतों को सहेजा है
बालियों के उन झुंडों ने
जिनमें कुछेक दाने हरे ही रह गये थे ;
और वे मौसम के पारायण पर
आगामी फसल की आद्रता सिद्ध हुए थे.

सृष्टि में हर पल उमगते प्रेम को 
सबसे अधिक उम्मीद से 
उन मधुमक्खियों ने देखा है;
जिन्होंने छत्तों से मधु के रीतने के बाद भी
फूलों को चूमना नहीं छोड़ा है.

प्रेम की मौन अभिव्यक्ति 
उन पिताओं के हिस्से में सबसे अधिक है
जिन्होंने गाहे-बगाहे व तीज-त्योहारों पर 
अपने चोर-पॉकेट की पूँजी
सबसे पहले सन्तति व पत्नी पर ख़र्च की
अंत में स्वयं पर (अगर सम्भव हुआ तो).

प्रेम के पूर्ण-योग्य वंशज वे सभी प्राण-शक्तियाँ हैं
जिन्होंने जब अपनी जगह छोड़ी थी..हमेशा के लिए!!
तब वहाँ के आभामंडल में इतना वैराग्य भरा था
कि किसी अन्य को 
उस जगह पर बगैर झाड़ू बुहारकर बैठने में
रत्ती भर भी हिचक नहीं हुई थी.




नाक़ाबिल प्रेमी

मौजूदा दौर में
जब सुबह घर से निकले लोगों का
शाम को सकुशल लौट आना
सर्वाधिक संदिग्ध होता जा रहा है!

प्रेम ही है 
जो हर सदी के यथार्थ को संत्रास बनने से रोक सकता है!

और
हमारे दौर का सबसे शर्मनाक पहलू यह भी है कि
हम इस अर्थ में पूर्ण-शिक्षित तो हो चुके हैं कि
जंगल में सर्वाधिक क़ाबिल ही जिंदा बचा रहेगा..

लेक़िन फ़िर भी 
हम अब तक 
प्रेम में इतने नाक़ाबिल क्यों साबित होते जा रहें हैं!
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bistmanjula123@gmail.com

मैं और मेरी कविताएँ (७) : तेजी ग्रोवर

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कविता क्योंउर्फ़और है भी क्या करने को?”

मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है.
-- मार्ग्रीत ड्यूरास



एक)
कभी लगता है इस प्रश्न पर अलग से विचार किया ही नहीं जा सकता कि कविता क्यों लिखता है कोई कवि. कवि अपनी कविता के भीतर ही इस प्रश्न को समाहित किये होता है, और इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर उसके पास कभी नहीं होता. होता तो शायद उसे लिखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. फिर भी यह ऐसा प्रश्न है जो उसके सनाभि और सहोदर कवि भी उससे कभी-कभी पूछ सकते है, पूछ लेते हैं. और वह इसके बारे में सोचते-सोचते अपने रास्ते से भटक कर या तो कहीं और ही जा निकलता है, या फिर पुन: अपनी कविता के भीतर ख़ुद को पाता है; इस प्रश्न से मुक्त होकर वहीँ पहुँच जाता है जहाँ उसे या उसके कवि को सबसे अच्छा लगता है. (उसे ख़ुद को कहीं और अच्छा लग सकता है, उसके कवि को कहीं और. वह जिद्दोजेहद करता है कि वे जगहें या वे एहसासात कभी एक हो जाएँ, लेकन वे हो नहीं पाते हैं. इसलिए वह अच्छा लगने के समय भी एक चीथड़े की तरह ही तेज़ हवा में थपेड़े खाता-फिरता है.) चैन उसके हिस्से में बदा ही नहीं है. लेकिन कविता क्यों जैसे प्रश्न से अधिकांश बार उसे लगने लगता है उसकी अपनी कविता में कोई कमी होगी, जिसकी वजह से यह सवाल अलग से उससे पूछ लिया जाता है, या फिर उसकी कविता के पाठक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसकी कविता ऐसे प्रश्नों के शमन या उनके पाठ में नितान्त घुलनशील होने का साक्ष्य प्रस्तुत कर रही है. क्या वाक़ई किसी को किसी कवि विशेष के बार में ऐसी उत्सुकता होती होगी कि बचपन में ऐसी कौन-सी असाधारण घटनाएँ और परिस्थितियां रही होंगी जिन्होंने उसे कविता लिखने की ओर मोड़ दिया होगा? ज़रूर होती होंगी, और किसी कवि को अन्य कवियों को लेकर तो और भी शिद्दत से होती होंगी. किसी कवि के लिए भी कविता-कर्म उतना ही रहस्यमय है, जितना किसी और के लिए. और वह जिन कवियों से बेपनाह प्रेम करता है, उन्हें भी वह मुँह बाये, आँखें फाड़े ऐसे देखता है जैसे वे कोई अजूबा हों, ठीक वैसे ही जैसे वह खुद उनके लिए होता है जो उसकी कविता से प्रेम करते हैं. 
भले ही हर कवि की परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, उसे एक भीतरी अन्याय का आभास किसी वक़्त पर आकर इस कदर सालने लगता है कि दुनिया और उसके बीच एक फांक पैदा हो जाती है. कभी-कभी यह फांक इतने नाटकीय ढंग से कवि के देहात्म पर तारी होती है कि उन क्षणों की शिनाख्त वह कई वर्ष के बाद भी कर सकता है, भले ही उस क्षण को वह उसी वक़्त न पहचान पाए. 
ऐसे कुछ क्षणों की एक मिसाल ज़रूर पेश की जा सकती है. मसलन, उस लड़की के बारे में सोचिए जो हाथ में एक सूखी रोटी लिए छत पर खड़ी है, उसे मालूम है इसी एक रोटी को देर तक चबाते रहकर उसे अपना पेट भरना है. वह कोईमामूलीलड़की नहीं है. उसे अच्छे से समझा दिया गया है कि उसे एक कवि का जीवन जीना है, उसके पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं है. जिसने उसे यह समझाया है वह खुद भी एक लेखक है, लेकिन लड़की को अभी यह पता नहीं है कि उसके अब्बू लेखक़ हैं और जो अपने लिखे एक-एक शब्द को लकड़ी की एक पेटी में दफ़ना दिया करते हैं... लड़की का एक कमरे का घर किताबों से भरा पड़ा है, एक फ़ोन भी है, कई रिसाले और अख़बार आते हैं, और उत्कृष्ट संगीत की कमी भी इस घर में कतई नहीं है. अभाव है तो सिर्फ पैसे का और स्पेस का. वह हर शाम स्कूल से लौटकर लाल फ़र्श वाले कमरे को चाक से चार हिस्सों में बांटती है. एक हिस्से में अपना नाम लिखती है, और उसी में बैठी रहती है. इस एक चौथाई घर में हर रोज़ अपनी स्टडी को नए सिरे से बनाती इस लड़की का परिवार उसके जन्म से पहले दो बार शरणार्थी हो चुका है... पहले बर्मा और फिर पाकिस्तान ! पुरखों की शानो-शौक़त के किस्से रोज़ घर में सुनने को मिलते हैं. उसे किताबों और संगीत से भरे हुए घर में मुफ़लिसी महसूस नहीं होती, लेकिन एक दिन कौवा जब हाथ से रोटी छीनकर ले जाता है तो माँ उसकी पिटाई कर देती है. किसने कहा था छत पर खड़ी होकर रोटी खाने को? फिर एक और दिन घर में खाने को कुछ भी नहीं है. माँ की तबियत ठीक नहीं है, न वह अब्बू की सेवा कर पा रही है न सिलाई का काम. उसी दिन भूख से बिलबिलाती अपनी नन्ही कवि को अब्बू एलियट की Wasteland पढ़कर सुनाते हैं.“Come under the shadow of this red rock/I will show you fear in a handful of dust.” भाई को नहीं सिर्फ उसी को. 
अभी वह खुद को लेकर अब्बू के स्वप्न को ठीक से समझ भी नहीं पाई है कि एक दिन अब्बू उसके सामने दम तोड़ देते हैं. उस समय जब वह घर में बिलकुल अकेली है. बहुत ऊंची आवाज़ में उसे आवाज़ लगाने के एकदम बाद. जो अन्तिम शब्द उनके मुँह से चीख की शक्ल में निकला वह थाकविताजो उस लड़की के घर का नाम है, अब्बू का दिया हुआ. स्कूल में लड़की का नाम कोई और था. फिर अब्बू के जाने के कुछ दिन के बाद लड़की उस लकड़ी की पेटी को खोलकर बैठ गयी है जिसमे अब्बू का लेखन दफ़न है. उस पेटी के भीतर बहुत सी पांडुलिपियाँ है. लेकिन उन सबको दीमक पढ़ चुकी है. और किसी के पढने को कुछ बच ही नहीं पाया है. उर्दू में अब्बू की मोतियों जैसे लिखाई में लिखा एक उपन्यास है, जिसका सिर्फ़ नाम बचा है: रूसा. बाक़ी ऐसा एक भी जुमला नहीं जिसे दीमक ने अन्त तक पूरा रहने दिया हो. अब उसे ताउम्र उन जुमलों का क़यास लगाते रहना है जिन्हें सिर्फ़ दीमक ने पढ़ा है. उसे बस यही करना है, यही करते रहना है, और कुछ नहीं. उसे इस बात का पूरा इल्म अभी से है: कि यह महज़ एक कहानी है जिसे पेटी के सामने बैठकर गढ़ लिया है. उसे एहसास है कि इसकी जगह कोई और कहानी भी गढ़ी जा सकती है. इस पेटी के सामने बैठी-बैठी वह भाषा से ख़ूब खेलती है. ज़ार-ज़ार रो भी रही है, लेकिन उसे मालूम है वह कविता से कभी नहीं खेल सकती. 


दो) 
कविता क्यों जैसे प्रश्न से उसे उस कवि की स्मृति हो आती है जो गायक भी है, लेकिन रोज़मर्रा की बातचीत में हकलाकर बात करता है. जब वह गाने लगता है तो वह क्यों हकलाकर नहीं गाता? क्या कोई उससे पूछ सकता है कि जब वह गाता है, उसकी हकलाहट कहाँ चली जाती है? क्या कवि की हस्ती ही संदिग्ध होती है, कोई वायावी इकाई जिसे किसी भी क्षण प्रश्नांकित किया जा सकता है? क्या उसका भाषा के साथ हकलाहट का सम्बन्ध है? क्या हर कवि को ऐसा नहीं लगता कि कविता लिखने का रियाज़ नहीं किया जा सकता? क्या कविता लिखने से पहले उसके पास ऐसा कुछ नहीं है, भाषा तक नहीं, जो एक कविता में रूपान्तरित हो पायेगा? क्या हर कविता में उसे नए सिरे से हकलाते हुए गायन तक पहुंचना होता है? आख़िर वह क्या चीज़ है जो भाषा से ठगे हुए मनुष्य को, भाषा से सम्मोहित एक जीव के समूचे अस्तित्व को निष्कवच कर उसे कविता के प्रान्त में स्थित कर देता है? उसे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं आता, या वह देना नहीं चाहता, या वह जवाब में इतना सच बोलने की कोशिश करने लगता है कि आप उसका विश्वास ही नहीं कर पाते. 
जो उसे मुँह ज़बानी याद हैं, ऐसे कुछ सच हैं: 


§मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है. 
                  -- मार्ग्रीत ड्यूरास

§ और है भी क्या करने को? (?)
§यूँ भी जो आप लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं पायेगा. फिर आप वही क्यों न लिखें जो आपको ख़ुद भी शायद ही समझ में आता हो
                         -- गुन्नार ब्यर्लिंग
§कहते हैं कि ग़ालिबका है अंदाज़-ए-बयाँ और

§तुमको भी चाहूँ तो छूकर तरंग
पकड़ रखूँ संग
 कितने दिन कहाँ-कहाँ रख लूँगा रंग
      अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता.
                              -- त्रिलोचन

§मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं 
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ. 
                         -- शमशेर

§प्रेम कविताओं के शिल्प अपराध सब मुआफ़ हैं
मुआफ़ हैं शमशेर
मुआफ़ हैं मुआफ़ हैं 
मरीना स्वेतायेवा.  
             -- तेजी ग्रोवर

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हरिवंशराय बच्चन : कवि नयनों का पानी : पंकज चतुर्वेदी

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हरिवंशराय बच्चन की कविता के प्रशंसकों में अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय जैसे कवि शामिल हैं वहीँ प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का मानना था कि 'बच्चन की कविता में जितनी हाला है, उतनी सामान्य जीवन में हो, तो मनुष्य डूब ही जाय !'
नवम्बर बच्चन जी के जन्म दिन का महीना है. उन्हें याद करते हुए उनके पांच गीत और उनकी कविताओं पर कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी की यह सारगर्भित टिप्पणी आपके लिये. 






स्मरण
हरिवंशराय बच्चन 
(२७ नवम्बर १९०७ १८ जनवरी २००३)


दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं--
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे--
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?--
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !



बीते दिन कब आनेवाले !

मेरी वाणी का मधुमय स्वर
विश्व सुनेगा कान लगाकर,
दूर गए पर मेरे उर की धड़कन को सुन पानेवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !

विश्व करेगा मेरा आदर,
हाथ बढ़ाकर, शीश नवाकर,
पर न खुलेंगे नेत्र प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !

मुझमें है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को अब दुलरानेवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !




क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था ?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?

'यह अधिकार कहाँ से लाया !'
और न कुछ मैं कहने पाया--
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था !
क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?

वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में--
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था !
क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?




साथी, सो न, कर कुछ बात !

बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल तो जल-स्नात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !

बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !

पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर अज्ञात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !




तू क्यों बैठ गया है पथ पर

ध्येय न हो, पर है मग आगे,
बस धरता चल तू पग आगे,
बैठ न चलनेवालों के दल में तू आज तमाशा बनकर !
तू क्यों बैठ गया है पथ पर ?

मानव का इतिहास रहेगा
कहीं, पुकार-पुकार कहेगा
निश्चय था गिरकर मर जाएगा चलता किन्तु रहा जीवन भर !
तू क्यों बैठ गया है पथ पर ?

जीवित भी तू आज मरा-सा
पर मेरी तो यह अभिलाषा
चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर !
तू क्यों बैठ गया है पथ पर ?





(हरिवंश राय बच्चन के पाँच गीत : चयन पंकज चतुर्वेदी)



हरिवंशराय बच्चन 
कवि नयनों का पानी              


पंकज चतुर्वेदी






छायावाद के समानान्तर और ठीक बाद के दौर में हरिवंशराय बच्चन की कविता को जो लोकप्रियता हासिल हुई, वह अप्रतिम थी. ख़ास तौर पर'मधुशाला', 'मधुबाला', 'मधुकलश'और 'निशा-निमन्त्रण'सरीखी उनकी श्रेष्ठतम कृतियाँ उस ज़माने की युवा पीढ़ी ने अपने सीने से लगा रखी थीं. कवि-सम्मेलनों के वह सबसे उज्ज्वल सितारे थे और लोगों के दिलों पर उनकी कविता का नशा छाया हुआ था. मगर इस अभूतपूर्व शोहरत की वजह क्या थी ? दरअसल 'मधुशाला' में जो 'हाला' है, वह प्रेम और उससे लगे-लिपटे सौन्दर्य, मादकता, बेचैनी और पीड़ा की संश्लिष्ट प्रतीक है. एक ओर कवि कहता है : 'मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला',तो दूसरी तरफ़ यह भी : 'पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला.' 

जिस सभ्यता में प्रेम को एक गुनाह और उससे वाबस्ता आँसू को इंसान की दुर्बलता समझा जाता हो, बच्चन ने इन दोनों को ही केन्द्र में प्रतिष्ठित किया और वह भी लोगों की अपनी बोली में, सहज, बेलौस, गहन और मर्मस्पर्शी अंदाज़ में. जहाँ निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति का अवकाश संकुचित हो और प्यार का अकाल पड़ा हो, ऐसी सच्ची और साहसिक संवेदनशीलता को तो पुरस्कृत होना ही था. लाज़िम है कि समाज ने अपनी पीड़ा का अक्स उनकी कविता में देखा और उससे बेहतर इंसान होने की संवेदना, सौन्दर्य-बोध और आत्मबल अर्जित किया.

अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय जैसे बड़े कवियों ने आधुनिक हिन्दी कविता की परम्परा में बच्चन के क्रांतिकारी और मूल्यवान् अवदान की काफ़ी सराहना की है. शमशेर ने लिखा है कि जब उन्होंने पहली बार इलाहाबाद में कवि के मुँह से 'मधुशाला'का पाठ सुना, तो उन्हें महसूस हुआ कि यह कोई नयी और सशक्त रचना है और भाषा पर इतना संपूर्ण अधिकार कि मधुशाला का तुक बराबर दोहराये जाने पर भी लम्बी कविता की ताज़गी और प्रभाव में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता. गोया यह एक निबन्ध था एक विषय पर :

"गुम्फित, सुस्पष्ट, ज़ोरदार और युगीन." उनके मुताबिक़बच्चन  समूची आत्मवत्ता से प्रेम की महिमा का इसरार ही नहीं, हिन्दी के संकीर्ण, साम्प्रदायिक वातावरण का प्रतिकार भी कर रहे थे : "(वह) अपनी कविता में उच्च घोष से बार-बार बता भी रहे हैं कि यह वातावरण किसी भी जाति के सांस्कृतिक इतिहास में कैसी हीन-संकुचित मनःस्थिति का द्योतक होता है !" 

ग़ौरतलब है कि 'मधुशाला' का सन्दर्भ व्यापक एवं बहुअर्थगामी है और वह लोकतन्त्र के बुनियादी सिद्धांतों, स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व की आधारशिला पर रची गयी, आधुनिक भारत के निर्माण का स्वप्न सँजोती और हमें सौंपती हुई कविता है. इसलिए'मधुशाला'गंगा-जमुनी संस्कृति का रूपक बन जाती है :"बैर बढ़ाते मस्जिद-मन्दिर, मेल कराती मधुशाला" और जाति-पाँति से मुक्त समाज का भी :  

"सभी जाति के लोग यहाँ पर, साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है, काम अकेली मधुशाला."

बच्चन  का यह बयान दिलचस्प है कि


"मेरी कविता छायावाद के क़िले पर मधुशाला के आँगन से फेंका गया गोला थी."

इसका आशय अज्ञेय  के अभिमत से साफ़ होता है कि

'उनकी रचनाओं ने छायावादी कविता के संस्कारों से लैस पाठक के इस झूठे विश्वास को समूल नष्ट कर दिया कि कविता की भाषा बोलचाल से भिन्न होनी ही चाहिए. वह कोई मामूली क्रान्ति नहीं थी.'

इसी मानी में रघुवीर सहाय कहते हैं कि छठे दशक से आज तक कविता जिस बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही है, उसके प्रवर्तक बच्चन हैं. हालाँकि वह आगाह करते हैं कि आज कविता चाहे जितनी सहज, सामाजिक और श्रेष्ठ लिखी जाए, लोकप्रिय वह नहीं होगी, जब तक कि बच्चन की रचनाओं की मानिंद उसमें "अपने पुरखों से मिली भाषा, छंद और ध्वनि व्याप्त न हो." इस सबके बावजूद डॉ. नामवर सिंह  का वक्तव्य है :


'बच्चन की कविता में जितनी हाला है, उतनी सामान्य जीवन में हो, तो मनुष्य डूब ही जाय!'

यह नामुमकिन है कि उन जैसा ज़हीन आलोचक इस कविता की शक्ति से अनजान रहा हो, मगर जब मक़सद अवमूल्यन और उपहास हो, तो सीमा की अतिरंजना ज़रूरी हो जाती है. यह नज़ीर है कि आलोचना हमेशा कविता के सौन्दर्य को उजागर नहीं करती, कई बार उस पर आवरण भी डाल देती है. इससे नुक़सान पाठकों का ही नहीं होता, कवियों का भी होता है, जो बच्चन से कुछ सीख सकते थे.

बच्चन   की कविता में जो प्रभूत प्रेम, पारदर्शिता, तरलता, रवानी और कशिश है ; वह सीधे उनके व्यक्तित्व से आती थी. मार्मिकता का स्रोत जीवन था, जिसके अभ्युदय के समय  उन्हें अपार दुख सहना पड़ा. अपनी पहली पत्नी श्यामा   के आकस्मिक देहांत से विचलित होकर उन्होंने 'निशा-निमंत्रण' की रचना की, जो  बक़ौल शमशेर, "इस मस्त नृत्य करते शिव की उमा थी...आत्मा से अर्द्धांगिनी."  कहते हैं, उस आघात  के चलते वह एक साल तक आँसुओं में डूबे रहे. इतनी करुणा बहुत गहन और उत्कट प्रेम से ही निःसृत हो सकती थी, जिसके स्वप्न का शीराज़ा उनकी आँखों के सामने बिखरा पड़ा था. एक झंझावात उनके मन को मथ रहा था. उन्होंने दुनिया से पूछा :

"गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे ? तुम तूफ़ान समझ पाओगे ?"  

ऐसी मर्मान्तक वेदना की बदौलत बच्चन, शमशेर  के शब्दों में,"दुखी दिलों के साथी"  बने. मगर उनका दुख प्रतिगामी क़िस्म का नहीं है, बल्कि वह 'नीड़ के नव  निर्माण' के लिए हमारी चेतना में  अनूठी अंतर्दृष्टि और ऊर्जा का संचार करता है. सबब यह कि बच्चन  का हृदय जितना कोमल था, संकल्प उतना ही अदम्य. मिसाल हैं ये पंक्तियाँ :

"जीवित भी तू आज मरा-सा
पर मेरी तो यह अभिलाषा
चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर! तू क्यों बैठ गया है पथ पर?"

प्रेम के आत्यन्तिक इसरार का मतलब यह नहीं किबच्चन  ने अपने वक़्त के अँधेरे की शिनाख़्त नहीं की. कविता अगर संजीदा है, तो विशिष्ट  सन्दर्भ को अतिक्रमित करते हुए एक ज़्यादा बड़े कैनवस पर अपने अर्थ का विस्तार  करती है. अँधेरे समय में लोगों के बीच का फ़र्क़ मिट जाता है, उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं की अभिव्यक्ति का अवसर कम-से-कम रह जाता है और इच्छा भी ; क्योंकि अँधेरा सब कुछ के वजूद पर घिर आता है. ऐसे दौर में नायक या कहें कि प्रतिनायक वही होता है, जो अपने अंधकार में औरों से बढ़कर हो. 

बच्चन  का एक गीत यों तो निजी अवसाद की पृष्ठभूमि में रचा गया है, पर विस्मयजनक ढंग से इस राजनीतिक यथार्थ की प्रभावशाली व्यंजना में सक्षम है :



"मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है. अंधकार बढ़ता जाता है!"

उनकी कविता के अंतस्तल में यह गंभीर जीवन-दर्शन सक्रिय है कि सुख-दुख, जय-पराजय, शिशिर-वसन्त और जन्म-मृत्यु आदि का चक्र सृष्टि में निरन्तर गतिमान है और हमें प्रकृति के इस नियम--ऋत या सत्य को स्वीकार करते हुए अप्रतिहत भाव से  आगे बढ़ना होगा. अचरज नहीं कि 'निशा-निमन्त्रण पढ़ते हुए शमशेर  की ये  महान पंक्तियाँ ज़ेहन में गूँजती रहती हैं :

"जो नियम है
सो नियम है."
बच्चन  मनुष्य-जीवन और प्रकृति के क्रिया-व्यापारों में सादृश्य देखते हैं और दोनों के सौन्दर्य का संश्लिष्ट चित्रण भी करते हैं. उनकी कविता में प्रकृति की उदार सुषमा, गहनता, औदात्य, आक्रोश और सजलता का समावेश है....और कवि क्या है ? वह हर हाल में इंसान का साथी है, उसकी आँख का आँसू:
"चढ़ जाए मंदिर-प्रतिमा पर,
या दे मस्जिद की गागर भर,
या धोये वह रक्त सना है जिससे जग का आहत प्राणी ? साथी, कवि नयनों का पानी." 

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पंकज चतुर्वेदी
pankajgauri2013@gmail.com

मैं और मेरी कविताएँ (७) : तेजी ग्रोवर

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कविता क्योंउर्फ़और है भी क्या करने को?”

मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है.
-- मार्ग्रीत ड्यूरास

एक)
कभी लगता है इस प्रश्न पर अलग से विचार किया ही नहीं जा सकता कि कविता क्यों लिखता है कोई कवि. कवि अपनी कविता के भीतर ही इस प्रश्न को समाहित किये होता है, और इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर उसके पास कभी नहीं होता. होता तो शायद उसे लिखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. फिर भी यह ऐसा प्रश्न है जो उसके सनाभि और सहोदर कवि भी उससे कभी-कभी पूछ सकते है, पूछ लेते हैं. और वह इसके बारे में सोचते-सोचते अपने रास्ते से भटक कर या तो कहीं और ही जा निकलता है, या फिर पुन: अपनी कविता के भीतर ख़ुद को पाता है; इस प्रश्न से मुक्त होकर वहीँ पहुँच जाता है जहाँ उसे या उसके कवि को सबसे अच्छा लगता है. (उसे ख़ुद को कहीं और अच्छा लग सकता है, उसके कवि को कहीं और. वह जिद्दोजेहद करता है कि वे जगहें या वे एहसासात कभी एक हो जाएँ, लेकन वे हो नहीं पाते हैं. इसलिए वह अच्छा लगने के समय भी एक चीथड़े की तरह ही तेज़ हवा में थपेड़े खाता-फिरता है.) चैन उसके हिस्से में बदा ही नहीं है. 
लेकिन कविता क्यों जैसे प्रश्न से अधिकांश बार उसे लगने लगता है उसकी अपनी कविता में कोई कमी होगी, जिसकी वजह से यह सवाल अलग से उससे पूछ लिया जाता है, या फिर उसकी कविता के पाठक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसकी कविता ऐसे प्रश्नों के शमन या उनके पाठ में नितान्त घुलनशील होने का साक्ष्य प्रस्तुत कर रही है. क्या वाक़ई किसी को किसी कवि विशेष के बार में ऐसी उत्सुकता होती होगी कि बचपन में ऐसी कौन-सी असाधारण घटनाएँ और परिस्थितियां रही होंगी जिन्होंने उसे कविता लिखने की ओर मोड़ दिया होगा? ज़रूर होती होंगी, और किसी कवि को अन्य कवियों को लेकर तो और भी शिद्दत से होती होंगी. किसी कवि के लिए भी कविता-कर्म उतना ही रहस्यमय है, जितना किसी और के लिए. और वह जिन कवियों से बेपनाह प्रेम करता है, उन्हें भी वह मुँह बाये, आँखें फाड़े ऐसे देखता है जैसे वे कोई अजूबा हों, ठीक वैसे ही जैसे वह खुद उनके लिए होता है जो उसकी कविता से प्रेम करते हैं. 
भले ही हर कवि की परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, उसे एक भीतरी अन्याय का आभास किसी वक़्त पर आकर इस कदर सालने लगता है कि दुनिया और उसके बीच एक फांक पैदा हो जाती है. कभी-कभी यह फांक इतने नाटकीय ढंग से कवि के देहात्म पर तारी होती है कि उन क्षणों की शिनाख्त वह कई वर्ष के बाद भी कर सकता है, भले ही उस क्षण को वह उसी वक़्त न पहचान पाए. 
ऐसे कुछ क्षणों की एक मिसाल ज़रूर पेश की जा सकती है. मसलन, उस लड़की के बारे में सोचिए जो हाथ में एक सूखी रोटी लिए छत पर खड़ी है, उसे मालूम है इसी एक रोटी को देर तक चबाते रहकर उसे अपना पेट भरना है. वह कोईमामूलीलड़की नहीं है. उसे अच्छे से समझा दिया गया है कि उसे एक कवि का जीवन जीना है, उसके पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं है. जिसने उसे यह समझाया है वह खुद भी एक लेखक है, लेकिन लड़की को अभी यह पता नहीं है कि उसके अब्बू लेखक़ हैं और जो अपने लिखे एक-एक शब्द को लकड़ी की एक पेटी में दफ़ना दिया करते हैं... लड़की का एक कमरे का घर किताबों से भरा पड़ा है, एक फ़ोन भी है, कई रिसाले और अख़बार आते हैं, और उत्कृष्ट संगीत की कमी भी इस घर में कतई नहीं है. अभाव है तो सिर्फ पैसे का और स्पेस का. वह हर शाम स्कूल से लौटकर लाल फ़र्श वाले कमरे को चाक से चार हिस्सों में बांटती है. एक हिस्से में अपना नाम लिखती है, और उसी में बैठी रहती है. इस एक चौथाई घर में हर रोज़ अपनी स्टडी को नए सिरे से बनाती इस लड़की का परिवार उसके जन्म से पहले दो बार शरणार्थी हो चुका है... पहले बर्मा और फिर पाकिस्तान ! पुरखों की शानो-शौक़त के किस्से रोज़ घर में सुनने को मिलते हैं. उसे किताबों और संगीत से भरे हुए घर में मुफ़लिसी महसूस नहीं होती, लेकिन एक दिन कौवा जब हाथ से रोटी छीनकर ले जाता है तो माँ उसकी पिटाई कर देती है. किसने कहा था छत पर खड़ी होकर रोटी खाने को? फिर एक और दिन घर में खाने को कुछ भी नहीं है. माँ की तबियत ठीक नहीं है, न वह अब्बू की सेवा कर पा रही है न सिलाई का काम. उसी दिन भूख से बिलबिलाती अपनी नन्ही कवि को अब्बू एलियट की Wasteland पढ़कर सुनाते हैं.“Come under the shadow of this red rock/I will show you fear in a handful of dust.” भाई को नहीं सिर्फ उसी को. 
अभी वह खुद को लेकर अब्बू के स्वप्न को ठीक से समझ भी नहीं पाई है कि एक दिन अब्बू उसके सामने दम तोड़ देते हैं. उस समय जब वह घर में बिलकुल अकेली है. बहुत ऊंची आवाज़ में उसे आवाज़ लगाने के एकदम बाद. जो अन्तिम शब्द उनके मुँह से चीख की शक्ल में निकला वह थाकविताजो उस लड़की के घर का नाम है, अब्बू का दिया हुआ. स्कूल में लड़की का नाम कोई और था. फिर अब्बू के जाने के कुछ दिन के बाद लड़की उस लकड़ी की पेटी को खोलकर बैठ गयी है जिसमे अब्बू का लेखन दफ़न है. उस पेटी के भीतर बहुत सी पांडुलिपियाँ है. लेकिन उन सबको दीमक पढ़ चुकी है. और किसी के पढने को कुछ बच ही नहीं पाया है. उर्दू में अब्बू की मोतियों जैसे लिखाई में लिखा एक उपन्यास है, जिसका सिर्फ़ नाम बचा है: रूसा. बाक़ी ऐसा एक भी जुमला नहीं जिसे दीमक ने अन्त तक पूरा रहने दिया हो. अब उसे ताउम्र उन जुमलों का क़यास लगाते रहना है जिन्हें सिर्फ़ दीमक ने पढ़ा है. उसे बस यही करना है, यही करते रहना है, और कुछ नहीं. उसे इस बात का पूरा इल्म अभी से है: कि यह महज़ एक कहानी है जिसे पेटी के सामने बैठकर गढ़ लिया है. उसे एहसास है कि इसकी जगह कोई और कहानी भी गढ़ी जा सकती है. इस पेटी के सामने बैठी-बैठी वह भाषा से ख़ूब खेलती है. ज़ार-ज़ार रो भी रही है, लेकिन उसे मालूम है वह कविता से कभी नहीं खेल सकती. 


दो) 
कविता क्यों जैसे प्रश्न से उसे उस कवि की स्मृति हो आती है जो गायक भी है, लेकिन रोज़मर्रा की बातचीत में हकलाकर बात करता है. जब वह गाने लगता है तो वह क्यों हकलाकर नहीं गाता? क्या कोई उससे पूछ सकता है कि जब वह गाता है, उसकी हकलाहट कहाँ चली जाती है? क्या कवि की हस्ती ही संदिग्ध होती है, कोई वायावी इकाई जिसे किसी भी क्षण प्रश्नांकित किया जा सकता है? क्या उसका भाषा के साथ हकलाहट का सम्बन्ध है? क्या हर कवि को ऐसा नहीं लगता कि कविता लिखने का रियाज़ नहीं किया जा सकता? क्या कविता लिखने से पहले उसके पास ऐसा कुछ नहीं है, भाषा तक नहीं, जो एक कविता में रूपान्तरित हो पायेगा? क्या हर कविता में उसे नए सिरे से हकलाते हुए गायन तक पहुंचना होता है? आख़िर वह क्या चीज़ है जो भाषा से ठगे हुए मनुष्य को, भाषा से सम्मोहित एक जीव के समूचे अस्तित्व को निष्कवच कर उसे कविता के प्रान्त में स्थित कर देता है? उसे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं आता, या वह देना नहीं चाहता, या वह जवाब में इतना सच बोलने की कोशिश करने लगता है कि आप उसका विश्वास ही नहीं कर पाते. 

जो उसे मुँह ज़बानी याद हैं, ऐसे कुछ सच हैं: 


 § मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है. 
                  -- मार्ग्रीत ड्यूरास

§  और है भी क्या करने को? (?)
§ यूँ भी जो आप लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं पायेगा. फिर आप वही क्यों न लिखें जो आपको ख़ुद भी शायद ही समझ में आता हो
                         -- गुन्नार ब्यर्लिंग
§ कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
§  

§ तुमको भी चाहूँ तो छूकर तरंग
पकड़ रखूँ संग
 कितने दिन कहाँ-कहाँ रख लूँगा रंग
      अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता.
                              -- त्रिलोचन

§ मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं 
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ. 
                         -- शमशेर

§ प्रेम कविताओं के शिल्प अपराध सब मुआफ़ हैं
मुआफ़ हैं शमशेर
मुआफ़ हैं मुआफ़ हैं 
मरीना स्वेतायेवा.  
             -- तेजी ग्रोवर



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तेजी ग्रोवर की कविताएँ
(तिब्बती मरण-ग्रन्थ “बार्डो थोडोल” से प्रेरित काव्य श्रंखला)



बहुत साल पहले जब मैं अंग्रेजी कवि टेड ह्यूज़ की कविता पर शोध कर रही थी तो मैंने उनकी एक इंटरव्यू में पढ़ा कि उनकी कविता का बीज तिब्बती बौध मरण-ग्रन्थ बार्डो थोडोल(BARDO THODOL)में स्थित है. अंग्रेजी में W. Y. EVANS-WENTZ द्वारा इस ग्रन्थ का संपादन और संकलन लामा काज़ी दावा-साम्दुप के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित है और अंग्रेजी में इसका शीर्षक है THE TIBETAN BOOK OF THE DEAD. 

टेड ह्यूज़ की कविता के बीज की खोज में मैंने इस ग्रन्थ का अध्ययन शुरू किया तो बहुत साल मैं टेड ह्यूज़ की कविता की ओर लौट ही न पाई. मुझे इस ग्रन्थ ने एक ऐसे धरातल पर ला खड़ा किया कि जीते-जी मरणोपरांत (मानवीय) चेतना के स्वरूप में मेरी रुचि बहुत वर्ष तक बनी रही. आज के सन्दर्भ में इस ग्रन्थ के पुन: अध्ययन का प्रयोजन यह था कि इस बार ऐसे सभी ग्रंथों की मनुष्य-केंद्रीयता से रूबरू हो सकूँ. मरणोपरांत चेतना जब देवों, असुरों, प्रेतों, पशुओं तथा नारकीय लोकों से उपजी विचित्र दृश्य-श्रव्य अनुभूतिओं से गुज़रती है तो उसके पास यह विकल्प रहता है कि वह पुन: इन लोकों में जन्म न लेने से ख़ुद को बचा सकती है. 

कोई लामा या आत्मज अपने पूरे आध्यात्मिक सरोकार से मृतक को पूरे उनचास दिन तक प्रेमपूर्वक सद्बुद्धि देता रहता है कि वह इन लोकों में जन्म लेने से कैसे बच सकता है. जैसे कि कार्ल युंग इस ग्रन्थ के बारे में लिखते हुए कहा है कि यह ग्रन्थ मृतक की चेतना को इस परम सत्य से रूबरू भी करवाता है कि ये सभी लोक चेतना की अपनी ही प्रतिच्छाया हैं, और कुछ भी नहीं, और कि वह इस सब से उबर सकता है.

इस ग्रन्थ में किसी भी कवि की कविता के बीज हो सकते हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ स्वयं ही आला दर्जे के कविता है. लेकिन शून्य की ओर निर्देशित चेतना तब भी मनुष्य-केन्द्रित ही है, और अपने जीवन के इस मुकाम पर मेरी चेतना मनुष्य-केन्द्रीयता से नजात पाने की लगभग नाकाम कोशिश कर रही है. 

जिस किताब को आधार बना ये कविताएँ लिखी गयी है, उसकी प्रामाणिकता पर बहुत जायज़ सवाल उठ चुके हैं, लेकिन मेरी रुचि उस वाद-विवाद में नहीं है, इसलिए इन कविताओं को पाठक चाहें तो स्वतंत्र रूप से पढ़ सकते हैं. इस ग्रन्थ को मैं एक विशुद्ध साहित्यिक कृति के तरह ही बरत रही हूँ.


तुमने कहा ऐसे जाना चाहिए हमें

1.
तुमने कहा ऐसे जाना चाहिए हमें
इस सुनील और श्वेत अग्नि में
जो टहल आयी है कहीं से हमारे पास
(इस जगह ---
जहाँ से हम जाने की कोशिश में हैं)
मैंने कहा, इस घड़ी हृदय का थककर सो जाना
क्या निरा मख़मल का क्षण नहीं है यह
और बीच-बीच में, देखो,
अचानक
एक पशु-नीली धारी
जो श्वेत में छिपकर छू रही है हमें
(क्या तुम्हें भी दिखती है
या सिर्फ़ मेरा ही स्वप्न है यह)
तुमने कहा जो भी है
या
सिर्फ़ दिखता है हमें
बस इसे मान लेना होता है ---
प्रश्नों का शमन-स्थल है यह
फिर
हैं हम पीठ के बल पड़े हुए
माचिस की तीलियों से सर जोड़े हुए ज़मीन पर
आसमान को आंकते हुए



2.
फिर तुम देखते हो या (कि) मैं
कितना सुन्दर है जला हुआ पाँव
पीली मुंडेर
और दो-दो इंच पर गिरने से बचने का एक लघु-चित्र
और हम में से किसी एक का कोई वस्त्र मंडराता है
फिर अग्नि का पूरा स्थल ही स्पर्श में बदल गया है
जिसे हम कभी दिशाएँ कहते थे
वे राख के निस्संग सौन्दर्य में सतह से उठ रही हैं.


3.
किसी एक के हाथ उठते हैं वस्त्र की दिशा में
जो अभी तक मंडराता है तीसरे दिन में
और देखो ---
वहाँ उधर
जल जहाँ उड़ गया है मेघाकाश से
और उफ़ुक की रेख
हड्डी-सी साफ़ निकल आयी है
क्या जाना नहीं चाहिए हमें
उस जलपाखी के श्वेत मुंह-बायों के पास
जिन्हें वह रंग-बिरंगा कुछ अपथ्य खिला रहा है


4.
मोह के पाश में राख होती हुईं माचिस की तीलियाँ ---
आह सौन्दर्य !
दक्षिण के द्वार से आता हुआ भस्मारती का यह कलश !
और पता नहीं चलता किसके आदेश पर
तितली कोई महाकाल के नाद में रंग अर्पण करती है
शहद में डूबकर मक्षिकाएँ
हमारे साथ होने का अ-शरीर गढ़ती हैं.




5.
हमारे पीछे-पीछे चली आ रही एक मनुष्य बच्ची पूछती है ---
मेरा लंगड़ा घोड़ा तालाब में खड़ा है
क्या मैं उसका मांस खा सकती हूँ ?
तुम हो या (कि मैं)
उसकी ओर मुड़ता है एक स्वर ---
ये जली हुई तीलियों का देश है
यहाँ किसी पेड़ के वार्षिक वलय
तुम्हारी कलाओं में होम हुए हैं


6.
आह,मैं नहीं जानता था ---
(काएदो हमसे कहता है) ---
ड्रोट्निंग-गाटा की उस प्राचीन दूकान में
एक किताब में सोया हुआ यह वाक्य
ताउम्र प्रतीक्षा कर रहा था हमारी ---
Man is God’s Eye in this world ---

तुम या फिर मैं
(क्या हो सकता है हम अब भी साथ-साथ हों)
इस मन्त्रोचार से ऊबकर कहीं और निकल आये हैं


7.
नहीं मालूम रुदन के ये स्वर किसके लिए हैं
रिक्ति के इस स्थल पर
क्यों जुटते हैं प्रणय में बिंधे हुए तांबे के पशु
दिख क्यों रहे हैं बार-बार
जो आहत हैं ---
और पीछे-पीछे आते हैं
प्रश्न पूछने
प्रेम और प्यास के भेस में
आखिर क्यों
इस क़दर घनघोर हँसी गूँज-गूँज जाती है
जहाँ हंसों के तैरने का जल है
वह जो कभी “मैं” के भेस में देहात्म से रक्त-पान करता था
कभी “तुम” के भेस में
क्या अब भी आखेट करने आता है
साँस से छूट गए प्रान्त में


8.
मैं भी ---
तुम्हारा आत्मज ---
तुम्हें रूबरू करता हूँ

लो,
तुम्हे दायीं करवट करता हूँ
लेटे हुए बाघ की मुद्रा में
धमनियों में अभी तक बजते हुए रक्त को उँगलियों से दबाता हुआ
निद्रा की अविद्या से बारम्बार खींच लाता हूँ तुम्हें ---

लो,
अब आँख के बिना भी देख सकते हो इसे --–
पृथ्वी के पानी में धंसने के लक्षण प्रकट हो चुके हैं


9.
मैं सुनती हूँ अभी-अभी तुम्हारे तपते हुए कानों से ---
एक स्वच्छ रोशनी सर उठाये मुख पर छा रही है ---
मैं देखती हूँ उस ओर
श्वास को किसी लोरी की लय में लिये
वह सुई की नोंक सा रेशम के धागे पर
चला रही है प्राण को
आह
अब हवा में मेरी अनार की चाय का स्वाद है
और वह साफ़-शफ्फाफ़ लौ
हमारी किताबों की कगार पर झूमती हुई
किसी श्वेत मयूर के तरह टुकुर-टुकुर टोहती हुई हमें
जिस्म की हरारत से बुझ जाती है मेरी आँख में
मैं खुद को पूछते हुए सुनती हूँ ---
क्या मुझे ठीक से सच बोलना
या फिर ठीक से झूठ बोलना
कभी नहीं आया था


10.
पानी में
उतर आता है
पानी का चाँद
वस्त्र घुटने तक खींच कोई करता है पार
छिन्न होता है
वह जो सत्य है
बन-बन आता है पानी में
कई-कई बार
मनन करो अक्स की देह पर
मनन करो


11.
तुम्हें अभी तक दीख पड़ता है –
पूजा के स्थल पर
साँप की मुंडी में
खोंस दिए हैं नेवले के बाल
खून रिसता है आँख में
कोरे मखमल से पोंछ दी गयी है
तुम्हारी चट्टाई की नीचे की जगह

तुम सुन सकते हो भाईयों का रुदन
बच्चों का रुंधा हुआ मन
वे नहीं सुन सकते तुम्हारे बिलख रही आँख को


12.
वह बिंधा हुआ जीव
तुम्हें दिखता है
इस प्रान्त में भी ---
भाईयों का रुदन चुभता है वक्ष में ---
साँप की आँख से रिसता हुआ खून
और घड़ी की सुई !


13.
सफ़ेद
दन्तुर
मादा
यह हाथी
और यह शिशु उसका
सूंढ़ से उसके मुंह में सूंघता हुआ
लुटे हुए शहद के सामने
वैगल नृत्य में रमी हुईं
ये अनगिनत मक्षिकाएँ
और यहाँ ---
इस जगह ---
जुगनुओं से लबालब भरा हुआ
काँच का यह सुनील कलश
इस ज़ार-ज़ार से मौन में ठेलता हुआ
और कौन है मुझे
अब आगे के प्रान्त में


14.
जहाँ अभी-अभी
एक हाथ छूट गया मेरे हाथ से ---
श्वेत एक लौ की छाया डोलती है
पीपल की छाल से स्पर्श को पुनः बुनती हुई उँगलियाँ
उनचास दिन
उनचास रात
कुकुरमुत्ते का ज़हर
या फिर सूअर के मांस का
यह क्या तुम्हारी आवाज़ है
सफ़ेद दन्तुर हाथी से कहती हुई ---
यह आदमी एक किताब लिख रहा है ---
दया करो
दया करो


15.
और यहाँ
इस प्रान्त में
माँ है
(एक आततायी पुत्र की माँ)
वह हाथी-दांत के बने दन्तुर हाथियों के मस्तक से
अभी तक रिसता हुआ खून पोंछती बैठी है
एक ही दांत से तराशे हुए
उनचास
झूमते हुए हाथी
यहाँ इस बिंदु
और
लोमोमी पहाड़ी के बीच


16.
इस जगह
जहाँ टिक नहीं पाए हमारे पाँव
कोई अचरज नहीं
कोई अचरज नहीं कि शोक में डूबे हुए हाथी रोते और सूंघते हैं
कि वे बुलाते हैं तुम्हें अपने मद्धिम नीले आलोक में ---
आह, दुःख, हाथी-दांत का बना हुआ अपार दुःख
और हाथी-दांत के बने हुए सफ़ेद दन्तुर हाथी
जिनके लहू में डूबकर तुम्हें कहीं और जाना है
नील से बचते हुए
श्वेत की शरण में
और उसके भी पार
जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ़ रूप का अन्त ही अन्त बिछा हुआ है
आकार का शमन


17.
यह भी क्या सुन रहे हैं अब इस प्रान्त में ---
सहृदय ही
विलुप्त हुए हैं
पूरे जीव-जगत में ---
उन्हीं का प्रस्थान ग्रन्थ है यह ---
अक्षर-अक्षर मोतियों के प्रपात सा
पहाड़ी से उठता हुआ
वही है यह ---
रोशनी और अँधेरे के उफ़ुक पर
मधु-मक्ष्काओं का मिटता हुआ नृत्य
वही ठीक वही ---
सुनील एक कलश में
लबालब भरे हुए जुगनुओं का
दिशाभ्रम


18.
एक बार फिर मित्र दिखते हैं
जो कभी हँसते हुए
हर रविवार के दिन क्षमा करते थे हमें
काली स्याही से पुते हुए पितरों के नाम
पीछे-पीछे आते हैं
बर्फ़ में उकेरे हुए माओं के अश्रु
किन्हीं आँखों में
कुछ भी क्षम्य नहीं है इस प्रान्त में
न अब कह सकते हो यह ऐसा और वह वैसा है  
मित्र भी लाचार हैं
पिता ने
अपनी मृत्यु को भी
मेरे खाते में मोतियों सा उतार दिया है
कैसे मना करूँ

  
19.
एक गुफा में
यहीं-कहीं
(भीषण छिपता हुआ)  
कुण्डली-मार मित्र का प्रहार है
शत्रु का प्रहार ---
सरेआम खुले में मासूम-सा
मधुमालती की झीनी-सी ओट में
गांजे की चिल्लम फूँकता
एक टांग पर घात लगाये खड़ा है कल शाम से
फुंफकारते हुए कुकुरमुत्तों और सर्पों को देखते-भालते
बीत गए उनचास दिन
सीख नहीं पाये मित्र को
तोड़ दिया है उसे भी दुःख ने
और माधुर्य बह चला है हृदय के छिद्र से   
मनन करो मित्र के शब्द पर
मनन करो ---
अस्थि-कलश ---
तुम मनन करो
कैसा, ओह कैसा तो प्रहार था वह  


20.
आह, मैं तुम्हारा आत्मज,
एक बार फिर तुम्हें रूबरू करता हूँ
अब लक्ष्य करो हृदय में वातास क़ा सप्तपर्णी झोंका !
वह सब जो किसी ग्रन्थ से सोख लिया था प्राण ने 
मिट रहा है अरण्य की गन्ध से
अब विलुप्त हो चुके जीव
तैरते हुए लौट आयेंगे यहाँ तारों के प्रदेश से
अग्नि के दो दायरे विपरीत दिशाओं में घूमने लगें जब
ओ, भले जीव, विश्वास करना यह रम्य वन एक असुर-लोक है
रति-कर्म को घूरती हुई तुम्हारी आँखें
देह से भर देंगी तुम्हारे छूटे हुए प्राण को
बन्द करना है तुम्हे यहाँ खुलते हुए गर्भ के द्वार को
अपने इष्ट-देव या फिर मेरा ही, स्मरण करते हुए


21.
हे भले और भोले जीव,
पूरे उनचास दिन की रूबरू रस्मों के बाद
अधीर
अशरीर
तुम सहज ही अरण्य-वासी असुरों में जन्मना चाहते हो?
तुम उस अग्नि से अभी तक उबर नहीं पाए
जिसने किसी देव के आदेश पर भस्म कर दिया था 
निमिष-भर में सकल वनवासी समाज को
असुरों ही में एक खुरदुरे गर्भ वाली
किसी कुलीन के पाश में तुम्हारी माँ है
पुआल के बिछौने पर
आनन्द-कणों को तुम्हारे ही रूप-रंग में ढालती हुई
और, लो देख लो,
कैसे एक तीली का सिर टूट गिरा है ख़ला में !
________________________________________________




तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक. आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्लीद्वारा प्रकाशित हैं. इसके अलावा स्वीडी भाषा में2019 में उनकी कविताओं का संचयन।
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड,  औरवरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैनकी अध्यक्षता. जयपुर लिटरेचरफेस्टिवल में वाणी फाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान (२०१९), स्वीडी शाही दम्पति द्वारा दी गयीKnight की उपाधि, रॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.
बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.
2016-17 के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France,में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
womenfordignity@gmail.com

विजयदेव नारायण साही : एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक : गोपेश्वर सिंह

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साही : एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक                
गोपेश्वर सिंह


विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) जितने महत्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्वपूर्ण आलोचक भी. अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई. आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की. जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की. उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी.

साही ने जितना हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाया. वे बहु भाषाविद् थे. अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था. अंग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलने वाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं. यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है. लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है. जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवन काल में प्रकाशित न हो सकी. निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983), ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983), ‘छठवाँ दशक’ (1987), ‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा ‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं. लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है.

साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे. वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे. लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे. उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी.  वे प्रगतिशीलों की तरह ‘साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य’ की बात करने के कायल नहीं थे. उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया. मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे. साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है. साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे.

सत्य प्रकाश मिश्र ने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है. राममनोहर लोहिया ने गाँधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गाँधीवादी और कुजात गाँधीवादी. लोहिया के अनुसार कुजात गाँधीवादी वे लोग थे जो गाँधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे. साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे. नरेन्द्र देव मार्क्सवादी थे. लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था. उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं. साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठत करने का संघर्ष किया था. जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है.

साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’ साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है. वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे. वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है. दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है. वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है. वे इस दायित्व के भीतर परिवर्तन की माँग करते हैं. अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ में वे कहते हैं:

“......साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करें. क्योंकि यह जो संगुफन की चिंता घेरती है तो जस-का-तस बने रहना देना चाहिए यह प्रतीति जागती है.” 

इसका सीधा अर्थ है कि साहित्य और साहित्यकार के दायित्व में परिवर्तन निहित है. वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है. वे कहते हैं: 

“......समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरुरत है.” 

इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं. इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं.

साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं. वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी.

साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है. मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं. इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’ को देखा जा सकता है. वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है. पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया. लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है. उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है. वे कहते हैं:

“.....शुद्ध वैज्ञानिक मानवीय दर्शन अपने तार्किक सामंजस्य के कारण वर्गहीन समाज का ही दर्शन होगा. अतएव एक वर्ग के द्वारा दूसरे के शोषण और समाज में चलने वाले द्वंद्व का सामंजस्य कोई भी तार्किक सिद्धांत या सांस्कृतिक मूल्य नहीं कर सकते. वर्ग-समाज वर्ग-मूल्यों को ही जन्म देगा. और चूँकि वर्ग-मूल्य समस्त समाज को निर्द्वंद्व आत्मसात नहीं कर सकते, अतएव अपने अंतिम रूप में वे कभी भी तार्किक या बुद्धिवादी नहीं हो सकते. इस द्वंद्व को न्यायपूर्ण सिद्ध करने या इससे पलायन करने, दोनों ही के लिए बुद्धि विरोधी प्रवृतियों का सहारा लेना पड़ेगा. इससे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों धर्म को समाज से समूल नष्ट नहीं कर सकता, यद्यपि वह उसे चुनौती दे सकता और कमजोर कर सकता है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों पूँजीवाद के दार्शनिक बुद्धि का सहारा लेकर चलते हुए भी अंत में अनिवार्यतः रहस्यवादी और ईश्वरवादी या धर्मवादी हो जाते हैं.”

पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते. वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनितिक तानाशाही का भी. उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं. साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: 

“मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है. जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद कर के समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं. मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है. वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है. यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं. सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है. अपने मत पर जोर देने के लिए वे इटली के समाजवादी नेता इग्नेजियो सिलोन के कथन को याद करते हैं: “सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं. लोकतांत्रिक समाजवाद इस ऐतिहासिक अनुभव को भुलाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना नहीं कर सकता.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं. उनका मानना है कि मार्क्स और एंगल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं. लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारण के विरुद्ध है. साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया. साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं. मार्क्सवादी समीक्षा संबंधी अपनी समझ को स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: 

“मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्ग हित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार कर के नए आनंद की सृष्टि करता है. यह विशेषाधिकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है.” 

इसके आगे साही बताते हैं कि साहित्य को ‘युग-युग व्यापी शक्ति’ प्राप्त है. मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति की आलोचना करते हुए साही लिखते हैं: 

“.....यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करें, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाए, मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है. यह घटना बाद में घटी है.” कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं. एक उद्धरण इस तरह है: “मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है. पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है..... कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले! अपने बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में उन्होंने छायावाद-युग को ‘सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दी और गाँधी को ‘हिंदुस्तान की जिन्दागी की लय की अभिव्यक्ति’ माना. वे मानते थे कि ‘हिंदी के छायावदी काव्य में सत्याग्रह युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा’ लगभग मौजूद है. साही ने इस तरह छायावाद की जो व्याख्या की वह बहुतेरी अन्य व्याख्याओं से सर्वथा भिन्न है. साही लिखते हैं: 

“जिस तरह छायावादी युग की चरम आस्था यह है कि अंतर्जगत का सत्य और बहिर्जगत का सत्य एक ही है और दोनों में कभी भी व्यवधान नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह उसकी मान्यता की दूसरी आधारशीला यह है कि नैतिक विजन और कल्पनाशील विजन दोनों वस्तुतः एक हैं और इन दोनों में कभी भी दरार नहीं पड़ सकती. इस प्रकार महत्त की महत्ता में एक अभूतपूर्व सहज आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्रीय संघर्ष के स्तर पर नैतिक और कल्पनाजन्य महत्ताएँ राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्ताएँ में घुलमिलकर एकाकार हो जाती है. छायावाद की हर रचना एक ही साथ नैतिक भी है, कल्पनात्मक भी है और राजनैतिक भी है. इससे काव्य में अर्थ और लय की गूँज -अनुगूँज की संभावना बहुत बढ़ जाती है. उदाहरण के लिए प्रसाद का ‘बीती विभावरी जाग री’ या निराला का ‘राम की शक्तिपूजा’ या पंत का ‘धूम धुआँ रे काजर कारे’ या महादेवी का ‘जाग तुझको दूर जाना’...... एक साथ ही नैतिक, कल्पनात्मक और राजनैतिक स्तरों पर झंकृत होता है.”

छायावाद का इस व्यापक आधार पर मूल्यांकन करते हुए साही ने उसमें ‘दार्शनिक मुद्रा, विराट नाटकीयता और नैतिक तथा कल्पनात्मक स्वप्न लोकों का विशिष्ट अनुपात में सम्मिश्रण’ देखते हुए उसकी आलोचना भी की. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस सबके बावजूद छायावाद महामानव की कविता है. सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता नयी कविता है. साही मानते हैं कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है. वे यह भी मानते हैं कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है.’ साही का यह ‘सहज मनुष्य’ ही उनका लघु मानव है जो नयी कविता के केंद्र में है.

इस लघु को अपने समय की कविता में और स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है: “छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्त्व’ का है.” इसके आगे साही कहते हैं कि नयी कविता के कवि छायावाद के दार्शनिक पथ और बच्चन आदि के भावनात्मक मार्ग से होकर निकले हैं. उनकी समस्या सिर्फ दार्शनिक नहीं, मूलतः अनुभूति की है. अज्ञेय इसे सूत्रबद्ध कर के पुरानी परंपरा से जोड़ते हैं. ‘प्रसाद’ को छायावाद के केंद्र में रखते हुए साही नयी कविता के केंद्र में अज्ञेय को रखते हैं और लिखते हैं: “अज्ञेय का महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने ‘समरसता का दर्शन’ के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ का प्रश्न पूछ कर एक बार फिर दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली, विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को एक नए ‘योग’ से बाँधा. इसीलिए, अज्ञेय हिंदी काव्य की धारा को मोड़ते हुए-से प्रतीत होते हैं.”

साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है. यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है. इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं. कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी. कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है.

जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी. साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना. वे लिखते हैं: 

“सबसे पहले जिस बात को अच्छी तरह मन में बैठना जरुरी है, वह यह है कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत् वरिष्ठ कवि हैं. कबीरदास श्रेष्ठ हैं: लेकिन विधिवत् कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है. मूलतः वे संत हैं. कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था.”

जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं. साही ने लिखा है : 

“जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का, गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का जिक्र ‘पद्मावत’ में जायसी ने आरंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है.” 

यह ध्यान देने की बात है कि मध्यकाल के प्रायः सभी कवियों का जोर कवि कहलाने की जगह भक्त कहलाने पर है. जायसी ही हैं जिन्हें अपनी कविता पर गर्व है. साही ने ‘पद्मावत’ से इस आशय के कई काव्यांश उद्धृत किए हैं. एक दोहे को यहाँ देखा जा सकता है, जिसमें अपने कवि होने पर जायसी गर्व करते हुए दिखाई पड़ते हैं-

मुहमद कबि जो प्रेम का ना तन रकत न माँसु.
जेइं मुँह देखा तेइं हँसा सुना तो आए आँसु..

हिंदी के इस पहले विधिवत् और आत्म-सजग कवि को किसी मतवाद के तहत देखे जाने का साही खंडन करते हैं और उसे मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने का आग्रह करते हैं. साही ने अनेक तरह से जायसी के सूफी होने का खंडन किया है और उनमें ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण को रेखांकित किया है. साही ने लिखा है: 

“जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.” 

जायसी को साही जब ‘कुजात सूफी’ कहते हैं तो इसका आशय यह है कि जो किसी मतवाद के आग्रह से बंधा हुआ नहीं है.

साही ने जायसी को सूफी माने जाने की हिंदी आलोचना में फैली धारणा का खंडन बहिर्साक्ष्य के आधार पर तो किया ही है, अन्तः साक्ष्य के आधार पर भी किया है. इससे भी किसी मतवाद में जायसी के बंधे होने की धारणा का खंडन होता है. साही ने लिखा है: 

“पद्मावत में कुछ स्थलों पर जायसी ने अपनी कविता की प्रकृति, या अपने अनुसार कविता-मात्र की प्रकृति का भी संकेत दिया है. वह दोहा, जिसमें जायसी ने कहा है कि लोगों को उनकी कविता सुनकर आंसू आए, पहले उद्धृत किया जा चुका है. इसका सीधा आशय यह है कि कविता की प्रकृति जायसी के लिए भावना के सम्प्रेषण की है. इसी तरह अन्यत्र उन्होंने कहा है कि कवि रस का भरपूर कटोरा है. कविता के अभिप्रेत प्रभाव की उपमा उन्होंने कमल की सुगंध से दी है जिसे दूर-दूर से भँवरे आकर प्राप्त करते हैं. ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पद्मावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं.”

जायसी को खासकर उनके ‘पद्मावत’ को सूफी मतवाद के भीतर देखने-दिखाने की जो परंपरा रही है, उसका खंडन करने के साथ साही ‘पद्मावत’ में उस ‘विषाद दृष्टि’ (ट्रैजिक विजन) को रेखांकित करते हैं जो उसकी रचना के केंद्र में है. साही मानते हैं कि जायसी के समय में कई तरह के मतवाद थे. उन पर इनका कुछ असर हो सकता है. लेकिन जायसी की चिंतनशीलता में अनुभूति का आत्मसात होना ही उसकी विशिष्टता है. साही के शब्दों में: 

“अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.”

साही मानते हैं कि हिंदी आलोचना में जोर ‘पद्मावती’ पर है, जबकि जोर ‘पद्मावत’ पर होना चाहिए. ‘पद्मावत’ पर जोर का ही नतीजा है कि जायसी साही को ‘20वीं शताब्दी का कवि’ लगते हैं. साही ने लिखा है: 

“जायसी ने लिखा चाहे मध्यकाल में हो, लेकिन वस्तुतः वे 20वीं शताब्दी के कवि हैं. जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें उठाकर तुलसीदास की बगल में खड़ा कर दिया.” 

20वीं शताब्दी का कवि होने का अर्थ यह है कि जायसी की ‘समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’. इसी कारण जायसी के भीतर ‘वह गहरा विवेक’ है ‘जो मनुष्य की आखिरी पीड़ा’ को जानता है और ‘मानुष प्रेम के बैकुंठी’ हो जाने की अनुभूति जगाता है. साही के शब्दों में इसीलिए जायसी न समाज सुधारक हैं और न दार्शनिक और न किसी मतवाद के प्रचारक. वे शुद्ध कवि हैं, प्रेम के कवि, ऐसा प्रेम जो संसार को नए रूप में परिभाषित करता है.

‘छठवाँ दशक’ आलोचक साही के बहसधर्मी रूप का उदाहरण है तो ‘जायसी’ उनकी रचनात्मक आलोचना का पूर्ण विकास. वे आरंभ से ही किसी वैचारिक या दार्शनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का साहित्य रचना में विरोध करते रहे और अपने आलोचना-कर्म को भी उससे मुक्त रखा. इसका श्रेष्ठ उदाहरण उनकी आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ है.

(शीघ्र प्रकाश्य ‘विजयदेवनारायण साही: रचना-संचयन’ की भूमिका से)
                                              
गोपेश्वर सिंह
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
 

स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ : रेखा सेठी

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जिसे हम स्त्री-लेखन कहते हैं उसमें अस्मिता और चेतना के साथ-साथ अनुभव का प्रामाणिक संसार और भाषा की नई उड़ान भी है. स्त्री लेखन पर रेखा सेठी  पिछले कई वर्षों से शोध और संकलन का कार्य कर रहीं हैं. प्रस्तावित पुस्तक त्रयी (स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य,स्त्री कविता: पहचान और द्वंद्व तथा स्त्री कविता: संचयन) के दो खंड अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से छप कर आयें हैं.  लेखिका ने इन्हें अपनी माँ और बेटी को समर्पित किया है.

इसका एक अंश आपके लिए.
  


स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ             
रेखा सेठी   





स्त्री-अध्ययन की दिशा में एक नया मोड़ 1989 में के.डब्ल्यू. क्रेनशॉ द्वारा प्रस्तावित थियोरी ऑफ़ इंटरसेक्शनेलिटीके साथ आता है जिसकी चर्चा हिंदी में कम हुई है. इस सैद्धांतिकी की विशेषता यह है कि इसमें इस बात पर बल दिया गया कि किसी भी सामाजिक अध्ययन में लिंग या जेंडर को असमानता के एकमात्र आधार के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता. व्यक्ति की सामाजिक स्थिति (Social Position) व भौतिक उपस्थिति (Location) जहाँ से वह संसार को संबोधित कर रहा है, उसके प्रति होने वाले भेदभाव को समझने में मदद करते हैं.

हमारी सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं में अनेक प्रकार की हिंसा अंतर्निहित है. नस्ल, जाति, वर्ग की विभाजक रेखाएँ एक ही समय में एक-दूसरे पर से गुज़रती हैं. ये सभी अंतर्धाराएँ हिंसा और दमन के नए भाष्य रचती हैं, इनकी पहचान लिंगाधारित विषमताओं को समझने का सही परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है क्योंकि समाज की सभी स्त्रियाँ सम-वर्ग नहीं हैं. जाति या वर्ग के आधार पर वे भी दूसरे वर्ग व जाति की महिला के साथ वैसा ही असमान व्यवहार करती हैं जैसा पुरुष उन जातियों और वर्गों के साथ करता रहा है. स्वयं पुरुष की स्थिति भी ऐसी ही है. शोषित वर्ग में अवस्थित होने से दमन की पीड़ा झेलता पुरुष अपने वर्ग की स्त्री को वंचित रखने की प्रक्रिया में उसी प्रकार शामिल हो जाता है जैसे अन्य वर्गों के पुरुष. सामाजिक संरचनाएँ सत्ता और वर्चस्व के आधार पर स्त्री-स्त्री, स्त्री-पुरुष के बीच अनेक प्रकार के पदानुक्रम स्थापित करती रहती हैं. स्त्री-रचनाशीलता की सार्थकता, इन संरचनाओं में अंतर्निहित हर प्रकार के शोषण को रेखांकित कर उसके विरुद्ध लोकमत का निर्माण करने में है.

हिंदी की स्त्री-कविता अपने स्तर पर इन सभी प्रश्नों को संबोधित करती रही है. स्त्री-संघर्ष का इतिहास लंबा सफ़र तय कर चुका है. अपने होने और जताने को लेकर स्त्री-अस्मिता के उभार से जन्मे इस संघर्ष का विकास अनेक दिशाओं में हुआ. राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व में भागीदारी से लेकर आर्थिक संसाधनों में बराबर अधिकार की माँग कमोबेश रूप से विश्व के सभी हिस्सों से उठी. स्त्रीवाद की विभिन्न धाराएँ इन्हीं माँगों में से बला-बल के आधार पर एक-दूसरे से पृथक होती हैं. उदार स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, मार्क्सवादी स्त्रीवाद आदि सभी धाराओं में स्त्री-मुक्ति के किसी एक पक्ष को केंद्र में रखकर लैंगिक असमानताओं से मुक्ति का आह्वाहन किया गया. ये सभी प्रयत्न इस मुक्ति अभियान के सार्थक पड़ाव हैं लेकिन इनके अपने-अपने पक्ष इतने हावी हैं कि उनमें पूरा परिप्रेक्ष्य नहीं उभर पाता. अस्मितामूलक संघर्ष केवल एक सीमा तक ही परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं. इसलिए एक ऐसा स्त्रीवाद आवश्यक है जिसका बल तमाम सामजिक असमानताओं को सन्दर्भ बनाता हो. स्त्री-साहित्य ने यह काम बखूबी किया है लेकिन संभवतः हमारी आलोचना के पास स्त्री-रचनाशीलता की परख के लिए सही मानक उपलब्ध नहीं हैं.

इंटरसेक्शनैलिटी की थ्योरी के बीज ब्लैक फेमिनिज्म में हैं. 1851 सोजर्नर ट्रुथ के प्रसिद्ध भाषण ‘Ain’t I a woman- क्या मैं स्त्री नहीं हूँ?’ जिसमें उन्होंने यह सवाल उठाया था कि क्या ब्लैक महिला, महिला नहीं है और क्या महिला आंदोलन का सरोकार उनके जीवन से जुड़ा नहीं है? क्या उनकी माँगें महिला अधिकारों में कोई जगह नहीं रखतीं? जो सवाल सोजर्नर ट्रुथ ने उठाए उससे यह सिद्ध हुआ कि स्त्रीवाद का संबंध स्त्रियों के लिंग से अधिक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ था. क्रेनशॉ के लिए महत्वपूर्ण था यह बताना कि कैसे ब्लैक महिलाओं के प्रति हिंसा की घटनाएँ अधिक होती थीं क्योंकि उनका संबंध उनके लिंग की अपेक्षा उनके वर्ग व नस्ल से अधिक था. उनके लिए समाज प्रदत्त निश्चित भूमिकाओं को निभाना अनिवार्य था. भारत में भी जाति और वर्ग के आधार पर ऐसा भेदभाव व्यापक रूप से मौजूद है. जो स्त्रियाँ लिंग, जाति, वर्ग इन सभी आधारों पर दोहरा-तिहरा अभिशाप झेलते हुए, समाज की हाशियाकृत-बहिष्कृत स्थिति में है, उनकी स्थिति के विश्लेषण और मुक्ति के रास्ते ढूँढने में इंटरसेक्शनैलिटी का सिद्धांत कारगर हो सकता है.

कैथी डेविस का मानना है कि इंटरसेक्शनैलिटी की सीमाएँ निश्चित नहीं है और दृष्टि का यह खुलापन ही इसकी गंभीरता का प्रमाण है. सामाजिक न्याय की सभी स्थितियों में इस सिद्धांत की साहित्यिक एवं समाजशास्त्रीय भूमिका विमर्श में बहुत कुछ जोड़ सकती है. इंटरसेक्शनैलिटी की दृष्टि से साहित्यिक कृतियों को पढ़ने से उनके भीतर छिपी अनेक व्यंजनाएँ व उनके अंत: पाठ उजागर हो सकते हैं. स्त्री भाषा वैज्ञानिकों ने साहित्यिक रचना के पाठ की प्रविधि में इस बात पर बहुत बल दिया कि किसी भी रचना का अर्थ, साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सभी स्तरों पर गतिशील रहता है. जूडिथ बटलर तथा जूलिया क्रिस्टेवा ने भाषा के डिकोडीकरण के माध्यम से इन्हीं छिपे हुए अर्थो को अनावृत करने की बात कही है. आलोचना की दुनिया में जूडिथ बटलर तथा जूलिया क्रिस्टेवा की विश्लेषण पद्धतियों का खासा प्रभाव पूरी दुनिया में रहा क्योंकि इसने साहित्यिक कृति को उसके सीमित दायरे से निकाल कर पाठ की सामाजिक सांस्कृतिक महत्ता को प्रतिष्ठित किया.

भारत जैसे बहुलतावादी देश में लिंग, जाति, वर्ग के अनेक समीकरण सामाजिक संरचना का जटिल जाल बुन देते हैं जिसमें स्त्रियों की स्थिति को भी उनकी भिन्न अस्मिताओं के समंजन में ही पहचाना जा सकता है. विशेष रूप से दलित एवं आदिवासी स्त्री रचनाकारों की कविता उनके लैंगिक दमन के साथ-साथ उनके वर्गगत शोषण को भी अभिव्यक्त करती है. उनका स्त्रीवाद विषम सामाजिक व्यवस्था का प्रतिकार है. इंटरसेक्शनैलिटी हमें वह परिप्रेक्ष्य देती है जिसमें हम इन रचनाकारों की कविता में असमानता की पीड़ा के पाठ को समझकर सामाजिक तनावों को सुलझाने की कोशिश करें. हमारे समाज में दलित व आदिवासी जन समाज की स्थिति उन लोगों से बेहतर नहीं हैं जिन्हें अपनी त्वचा के रंग के कारण सामाजिक सहभागिता से बहिष्कृत किया गया. इंटरसेक्शनैलिटी ने इन पुरानी समस्याओं के समाधान की दृष्टि से वैचारिक विमर्श के आधार को विस्तृत किया है. यह वंचित जन समाज के सशक्तीकरण  की प्रस्तावना भी है क्योंकि इसकी स्थापना यह भी है कि लेखन संघर्ष का ही एक रूप है.

स्त्री रचनाशीलता में स्त्री अनुभव, स्त्री स्वर, स्त्री दृष्टि की अपनी महत्ता है लेकिन असली चुनौती इस बहुलतावादी समाज की अंतवर्ती जटिलताओं की पहचान करने की है. ‘जो हैउससे अधिक महत्त्वपूर्ण है उन सामजिक प्रक्रियाओं को अनावृत करना जो उस समाज के ऐसा होने के लिए उत्तरदायी हैं. पितृसत्ता और उसका विरोध जितना बड़ा सत्य है उतना ही बड़ा सत्य समाज का वह ढाँचा है जो पितृसत्ता या मातृसत्ता जैसे वर्चस्वमूलक साँचे गढ़ता है. स्त्री साहित्य के छोटे-छोटे विवरणों में सामाजिक असमानताओं का परस्पर गुँथा हुआ वह रूप दिखाई देता है जिसमें स्थितियों और व्यक्तियों का ऐसा अनुकूलन है कि सामाजिक अंतर्विरोध सहज व सामान्य दिखने लगते हैं. स्त्री-साहित्य इन आत्मगत ब्यौरों के तहत उन अंतर्विरोधों को उजागर करता है. यह एक बदला हुआ दृष्टिबोध है.

विकसनशील समाज के लिए गतिशील समता का बोध आवश्यक है. समता की कोई भी अवधारणा स्थिर व स्थाई नहीं हो सकती. सामजिक, आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी आदि अनेक कारणों से सामाजिक संरचनाएँ लगातार गतिशील परिवर्तनों की साक्षी रहती हैं. स्त्री-पुरुष की जीवन-स्थितियाँ भी इन परिवर्तनों के साथ चक्राकार-सी घूमती और बदलती रहती हैं. स्त्री-साहित्य, लगातार इन बदलती हुई परिस्थितियों व उनकी टकराहट में रूप धरती मनःस्थितियों के द्वंद्व को प्रस्तुत करता रहा है. इस अर्थ में उसे एक सामाजिक पाठ के रूप में पढ़ा जा सकता है. बदलती सदियों में स्त्रियों ने अपने मन की परतों में बहुत गहरे दबी सचाइयों को कहना सीखा है, जिनके विषय में सोचने पर भी पहरा था. इसलिए सामाजिक समता के सवालों और लैंगिक दृष्टि से उसके परिवर्तनशील समीकरणों को स्त्री साहित्य में रेखांकित कर पाना इस साहित्य को पढ़ने की पहली माँग है.

स्त्री साहित्य, साहित्यिक रचना व आलोचना में एक प्रकार का दखल है जिसने स्थापित मानकों को पलटकर ऐसा हस्तक्षेप करने की कोशिश की है जिनसे उन स्थापनाओं की वास्तविकता उजागर हुई, साथ ही स्त्री के लिए यह उसके सामर्थ्य की अभिव्यक्ति तथा अपने खोए स्वत्व को पाने का प्रयत्न है. यह अकारण नहीं है कि आज सभी भाषाओं में रचने वाली स्त्रियों की संख्या पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. उसका महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि वह स्त्री की निजी दुनिया का साक्षात्कार भर नहीं है बल्कि विश्व के विस्तृत सामाजिक-राजनीतिक लैंडस्केप पर लिंगाधारित असमानताओं के स्याह-सफ़ेद को देखने-परखने-समझने की सामाजिक अंतःप्रक्रिया है. स्त्री-रचनाशीलता की असली पहचान साहित्यिक पाठ की तहों में गहरे बसी उन आंतरिक सच्चाईयों से बनती है जिनका सामना हर स्त्री अपने जीवन में बार-बार करती है लेकिन जिसे तार-तार उधेड़ने का दायित्व स्त्री रचनाकारों ने उठाया. सामाजिक वर्ग-विभेद पर होने वाली असमानताओं को समझ पाना आसान नहीं है. अनेक व्यवस्थाओं द्वारा उन स्थितियों का ऐसा अनुकूलन किया जाता है कि जाने-अनजाने वह स्थितियाँ सामान्य लगने लगती हैं और उनके पार देखने का साहस, दुस्साहस बन जाता है

स्त्री व स्त्रीत्व की अनेक छवियाँ इसी अनुकूलन का परिणाम हैं. जाति व वर्गगत असमानता भी इसी प्रक्रिया में रची जाती है. साहित्यिक रचनाओं के सामाजिक पाठ ऐसी अर्थ-व्यंजनाओं को केंद्र में लाने का उपक्रम हैं. साहित्य की सार्थकता सामाजिक अनुकूलन करने वाली द्वंद्वात्मक संरचनाओं को चुनौती देने की क्षमता पर आधारित है. स्त्री-साहित्य इसी अर्थ में विलक्षण है कि वह सामाजिक विषमता के द्वैत को लिंगाधारित विषमता का अतिरिक्त आयाम देता है और लिंगाधारित असमानता को इकहरे प्रस्तुत न करके अन्य सामाजिक विषमताओं के परिप्रेक्ष्य में उसकी जटिलताओं को सामने लाता है.

स्त्री-साहित्य का मुखर स्वर दुविधा, असमंजस और वैषम्य से बुना जाकर विरोध के साहस और मुक्ति की आकांक्षा का प्रतिस्थापक बनता है. स्त्री की साहित्यिक संरचना का यह ग्राफ कमोबेश रूप में थेरीगाथाओं के समय से आज तक साहित्यिक अंतर्धारा में समाहित है जिसे बदलते समय के साथ और शिद्दत से महसूस किया जा रहा है. भारतीय साहित्य में भले ही आलोचनात्मक प्रतिमान के रूप में उसकी स्थापना बहुत बाद में हुई किंतु लिंगाधारित असमानता और विषमता का अहसास स्त्री-रचनाशीलता के साथ प्रारंभ से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे पश्चिम से आई सैद्धांतिकी के रूप में आँकना सर्वथा उचित नहीं होगा. यह सही है कि भारतीय दृष्टि में अध्ययन का सन्दर्भ व्यक्ति-अस्मिता की अपेक्षा सामूहिक सामाजिक उपस्थिति है जिससे स्त्री का अस्तित्व उसकी पारिवारिक भूमिकाओं में परिभाषित होता रहा. वहाँ परिवार और पारिवारिक संबंध, चिंतन तथा विमर्श का सन्दर्भ बिंदु बनते हैं

स्त्री की पारिवारिक-सामाजिक स्थिति उसकी निजता पर से गुजरने वाली अंतर्वेधी (Inter sectional) रेखा है. निजता एवं सामाजिक-पारिवारिक अवस्थिति की द्वंद्वात्मक टकराहट स्त्री-लेखन में आदिकाल से सुनी जा सकती है. परिवार-पितृसत्ता दमन के एजेंट भी हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा के मानक भी. इसी से स्त्री-लेखन का स्वर द्वंद्व और असमंजस भरा है. पारिवारिक हिंसा, दमन की पीड़ा और उससे निष्पन्न अंतर्विरोधों को स्त्री-रचनाकारों की कृतियों में सुना जा सकता है. बलाघात का अंतर अवश्य है, कहीं अश्रुपूर्ण वेदना से भरा मुलायम स्वर है तो कहीं आक्रोश-भरी उग्रता, लेकिन दोनों ही स्थितियों में असमानता को लक्षित करना कठिन नहीं है

सैद्धांतिकी का व्यवस्थित ढाँचा भले ही बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में सामने आया लेकिन उसकी पृष्ठभूमि चिरकाल से स्त्री-साहित्य का मेरुदंड रही है. इसलिए साहित्यिक आलोचना की परंपरा में उसे अनुपस्थित रखना आलोचना की सीमा हो सकती है, रचना की नहीं.
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डॉ. रेखा सेठीदिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ-साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं. 
ई-मेलः reksethi@gmail.com

विजयदेव नारायण साही : एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक : गोपेश्वर सिंह

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जायसी के विशुद्ध कवि की पहचान और यह कहना कि अगर वे सूफी हैं भी तो कुजात सूफी हैं और हिंदी कविता में लघु मानव की अवधारणा, इसके लिए विजयदेव नारायण साही हिंदी के अकादमिक जगत में चर्चित और विवादास्पद तो रहे पर उन्हें एक पूर्णकालिक आलोचक के रूप में नहीं देखा गया, हलांकि उनकी मेधा और अवदान से किसी को इंकार भी नहीं रहा.

इधर फिर उनकी चर्चा शुरू हुई है. रज़ा फाउंडेशन के प्रोत्साहन से आलोचक गोपेश्वर सिंह के संपादन में उनका रचना-संचयन प्रकाशित हो रहा है और ३ जनवरी (२०१९) को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशन सेंटर में ‘साही की साखी’ शीर्षक से उनपर एकाग्र आयोजन भी हो रहा है.

कवि साही पर आपने आलोचक गोपेश्वर सिंह को समालोचन पर पढ़ा है अब आलोचक साही पर यह आलेख आपके लिए प्रस्तुत है.






साही : एक कुजात मार्क्सवादी आलोचक                
गोपेश्वर सिंह




विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) जितने महत्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्वपूर्ण आलोचक भी. अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई. आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की. जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की. उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी.

साही ने जितना हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाया. वे बहु भाषाविद् थे. अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था. अंग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलने वाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं. यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है. लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है. जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवन काल में प्रकाशित न हो सकी. निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983), 
‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983), 
‘छठवाँ दशक’ (1987), 
‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा 
‘वर्धमान और पतनशील’ (1991)  नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं. लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है.

साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे. वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे. लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे. उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी.  वे प्रगतिशीलों की तरह ‘साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य’की बात करने के कायल नहीं थे. उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया. मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे. साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है. साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे.

सत्य प्रकाश मिश्रने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’कहा है. राममनोहर लोहियाने गाँधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गाँधीवादी औरकुजात गाँधीवादी.लोहिया के अनुसार कुजात गाँधीवादी वे लोग थे जो गाँधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे. साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे. नरेन्द्र देव मार्क्सवादी थे. लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था. उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं. साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठत करने का संघर्ष किया था. जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है.

साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है. वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे. वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है. दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है. वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है. वे इस दायित्व के भीतर परिवर्तन की माँग करते हैं. अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ में वे कहते हैं:

“......साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करें. क्योंकि यह जो संगुफन की चिंता घेरती है तो जस-का-तस बने रहना देना चाहिए यह प्रतीति जागती है.” 

इसका सीधा अर्थ है कि साहित्य और साहित्यकार के दायित्व में परिवर्तन निहित है. वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है. वे कहते हैं: 


“......समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरुरत है.” 


इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं. इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं.

साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं. वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी.

साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है. मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं. इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’को देखा जा सकता है. वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है. पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया. लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है. उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है. वे कहते हैं:

“.....शुद्ध वैज्ञानिक मानवीय दर्शन अपने तार्किक सामंजस्य के कारण वर्गहीन समाज का ही दर्शन होगा. अतएव एक वर्ग के द्वारा दूसरे के शोषण और समाज में चलने वाले द्वंद्व का सामंजस्य कोई भी तार्किक सिद्धांत या सांस्कृतिक मूल्य नहीं कर सकते. वर्ग-समाज वर्ग-मूल्यों को ही जन्म देगा. और चूँकि वर्ग-मूल्य समस्त समाज को निर्द्वंद्व आत्मसात नहीं कर सकते, अतएव अपने अंतिम रूप में वे कभी भी तार्किक या बुद्धिवादी नहीं हो सकते. इस द्वंद्व को न्यायपूर्ण सिद्ध करने या इससे पलायन करने, दोनों ही के लिए बुद्धि विरोधी प्रवृतियों का सहारा लेना पड़ेगा. इससे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों धर्म को समाज से समूल नष्ट नहीं कर सकता, यद्यपि वह उसे चुनौती दे सकता और कमजोर कर सकता है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों पूँजीवाद के दार्शनिक बुद्धि का सहारा लेकर चलते हुए भी अंत में अनिवार्यतः रहस्यवादी और ईश्वरवादी या धर्मवादी हो जाते हैं.”

पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते. वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनितिक तानाशाही का भी. उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं. साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: 


“मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है. जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद कर के समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं. मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है. वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है. यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं. सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है. अपने मत पर जोर देने के लिए वे इटली के समाजवादी नेता इग्नेजियो सिलोन के कथन को याद करते हैं: “सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं. लोकतांत्रिक समाजवाद इस ऐतिहासिक अनुभव को भुलाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना नहीं कर सकता.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं. उनका मानना है कि मार्क्स और एंगल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं. लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारण के विरुद्ध है. साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया. साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं. मार्क्सवादी समीक्षा संबंधी अपनी समझ को स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं: 


“मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्ग हित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार कर के नए आनंद की सृष्टि करता है. यह विशेषाधिकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है.” 

इसके आगे साही बताते हैं कि साहित्य को ‘युग-युग व्यापी शक्ति’ प्राप्त है. मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति की आलोचना करते हुए साही लिखते हैं: 


“.....यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करें, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाए, मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है. यह घटना बाद में घटी है.”

कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं. एक उद्धरण इस तरह है:

“मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है. पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है..... कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है.”

साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले! अपने बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’में उन्होंने छायावाद-युग को ‘सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दी और गाँधी को ‘हिंदुस्तान की जिन्दागी की लय की अभिव्यक्ति’ माना. वे मानते थे कि ‘हिंदी के छायावदी काव्य में सत्याग्रह युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा’ लगभग मौजूद है. साही ने इस तरह छायावाद की जो व्याख्या की वह बहुतेरी अन्य व्याख्याओं से सर्वथा भिन्न है. साही लिखते हैं: 


“जिस तरह छायावादी युग की चरम आस्था यह है कि अंतर्जगत का सत्य और बहिर्जगत का सत्य एक ही है और दोनों में कभी भी व्यवधान नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह उसकी मान्यता की दूसरी आधारशीला यह है कि नैतिक विजन और कल्पनाशील विजन दोनों वस्तुतः एक हैं और इन दोनों में कभी भी दरार नहीं पड़ सकती. इस प्रकार महत्त की महत्ता में एक अभूतपूर्व सहज आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्रीय संघर्ष के स्तर पर नैतिक और कल्पनाजन्य महत्ताएँ राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्ताएँ में घुलमिलकर एकाकार हो जाती है. छायावाद की हर रचना एक ही साथ नैतिक भी है, कल्पनात्मक भी है और राजनैतिक भी है. इससे काव्य में अर्थ और लय की गूँज -अनुगूँज की संभावना बहुत बढ़ जाती है. उदाहरण के लिए प्रसाद का ‘बीती विभावरी जाग री’ या निराला का ‘राम की शक्तिपूजा’ या पंत का ‘धूम धुआँ रे काजर कारे’ या महादेवी का ‘जाग तुझको दूर जाना’...... एक साथ ही नैतिक, कल्पनात्मक और राजनैतिक स्तरों पर झंकृत होता है.”

छायावाद का इस व्यापक आधार पर मूल्यांकन करते हुए साही ने उसमें ‘दार्शनिक मुद्रा, विराट नाटकीयता और नैतिक तथा कल्पनात्मक स्वप्न लोकों का विशिष्ट अनुपात में सम्मिश्रण’ देखते हुए उसकी आलोचना भी की. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस सबके बावजूद छायावाद महामानव की कविता है. सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता नयी कविता है. साही मानते हैं कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है. वे यह भी मानते हैं कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है.’ साही का यह ‘सहज मनुष्य’ ही उनका लघु मानव है जो नयी कविता के केंद्र में है.

इस लघु को अपने समय की कविता में और स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है: 


“छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्त्व’ का है.” 

इसके आगे साही कहते हैं कि नयी कविता के कवि छायावाद के दार्शनिक पथ और बच्चन आदि के भावनात्मक मार्ग से होकर निकले हैं. उनकी समस्या सिर्फ दार्शनिक नहीं, मूलतः अनुभूति की है. अज्ञेय इसे सूत्रबद्ध कर के पुरानी परंपरा से जोड़ते हैं. ‘प्रसाद’ को छायावाद के केंद्र में रखते हुए साही नयी कविता के केंद्र में अज्ञेय को रखते हैं और लिखते हैं: 


“अज्ञेय का महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने ‘समरसता का दर्शन’ के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ का प्रश्न पूछ कर एक बार फिर दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली, विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को एक नए ‘योग’ से बाँधा. इसीलिए, अज्ञेय हिंदी काव्य की धारा को मोड़ते हुए-से प्रतीत होते हैं.”

साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है. यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है. इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं. कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी. कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है.

जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी. साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना. वे लिखते हैं: 


“सबसे पहले जिस बात को अच्छी तरह मन में बैठना जरुरी है, वह यह है कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत् वरिष्ठ कवि हैं. कबीरदास श्रेष्ठ हैं: लेकिन विधिवत् कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है. मूलतः वे संत हैं. कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था.”

जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं. साही ने लिखा है : 


“जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का, गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का जिक्र ‘पद्मावत’ में जायसी ने आरंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है.” 

यह ध्यान देने की बात है कि मध्यकाल के प्रायः सभी कवियों का जोर कवि कहलाने की जगह भक्त कहलाने पर है. जायसी ही हैं जिन्हें अपनी कविता पर गर्व है. साही ने ‘पद्मावत’ से इस आशय के कई काव्यांश उद्धृत किए हैं. एक दोहे को यहाँ देखा जा सकता है, जिसमें अपने कवि होने पर जायसी गर्व करते हुए दिखाई पड़ते हैं-

मुहमद कबि जो प्रेम का ना तन रकत न माँसु.
जेइं मुँह देखा तेइं हँसा सुना तो आए आँसु..

हिंदी के इस पहले विधिवत् और आत्म-सजग कवि को किसी मतवाद के तहत देखे जाने का साही खंडन करते हैं और उसे मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने का आग्रह करते हैं. साही ने अनेक तरह से जायसी के सूफी होने का खंडन किया है और उनमें ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण को रेखांकित किया है. साही ने लिखा है: 


“जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.” 

जायसी को साही जब ‘कुजात सूफी’ कहते हैं तो इसका आशय यह है कि जो किसी मतवाद के आग्रह से बंधा हुआ नहीं है.

साही ने जायसी को सूफी माने जाने की हिंदी आलोचना में फैली धारणा का खंडन बहिर्साक्ष्य के आधार पर तो किया ही है, अन्तः साक्ष्य के आधार पर भी किया है. इससे भी किसी मतवाद में जायसी के बंधे होने की धारणा का खंडन होता है. साही ने लिखा है: 


“पद्मावत में कुछ स्थलों पर जायसी ने अपनी कविता की प्रकृति, या अपने अनुसार कविता-मात्र की प्रकृति का भी संकेत दिया है. वह दोहा, जिसमें जायसी ने कहा है कि लोगों को उनकी कविता सुनकर आंसू आए, पहले उद्धृत किया जा चुका है. इसका सीधा आशय यह है कि कविता की प्रकृति जायसी के लिए भावना के सम्प्रेषण की है. इसी तरह अन्यत्र उन्होंने कहा है कि कवि रस का भरपूर कटोरा है. कविता के अभिप्रेत प्रभाव की उपमा उन्होंने कमल की सुगंध से दी है जिसे दूर-दूर से भँवरे आकर प्राप्त करते हैं. ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पद्मावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं.”

जायसी को खासकर उनके ‘पद्मावत’ को सूफी मतवाद के भीतर देखने-दिखाने की जो परंपरा रही है, उसका खंडन करने के साथ साही ‘पद्मावत’ में उस ‘विषाद दृष्टि’ (ट्रैजिक विजन) को रेखांकित करते हैं जो उसकी रचना के केंद्र में है. साही मानते हैं कि जायसी के समय में कई तरह के मतवाद थे. उन पर इनका कुछ असर हो सकता है. लेकिन जायसी की चिंतनशीलता में अनुभूति का आत्मसात होना ही उसकी विशिष्टता है. साही के शब्दों में: 


“अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.”

साही मानते हैं कि हिंदी आलोचना में जोर ‘पद्मावती’ पर है, जबकि जोर ‘पद्मावत’ पर होना चाहिए. ‘पद्मावत’ पर जोर का ही नतीजा है कि जायसी साही को ‘20वीं शताब्दी का कवि’ लगते हैं. साही ने लिखा है: 


“जायसी ने लिखा चाहे मध्यकाल में हो, लेकिन वस्तुतः वे 20वीं शताब्दी के कवि हैं. जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें उठाकर तुलसीदास की बगल में खड़ा कर दिया.” 

20वीं शताब्दी का कवि होने का अर्थ यह है कि जायसी की ‘समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’. इसी कारण जायसी के भीतर ‘वह गहरा विवेक’ है ‘जो मनुष्य की आखिरी पीड़ा’ को जानता है और ‘मानुष प्रेम के बैकुंठी’ हो जाने की अनुभूति जगाता है. साही के शब्दों में इसीलिए जायसी न समाज सुधारक हैं और न दार्शनिक और न किसी मतवाद के प्रचारक. वे शुद्ध कवि हैं, प्रेम के कवि, ऐसा प्रेम जो संसार को नए रूप में परिभाषित करता है.

‘छठवाँ दशक’ आलोचक साही के बहसधर्मी रूप का उदाहरण है तो ‘जायसी’ उनकी रचनात्मक आलोचना का पूर्ण विकास. वे आरंभ से ही किसी वैचारिक या दार्शनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का साहित्य रचना में विरोध करते रहे और अपने आलोचना-कर्म को भी उससे मुक्त रखा. इसका श्रेष्ठ उदाहरण उनकी आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ है.
(शीघ्र प्रकाश्य ‘विजयदेवनारायण साही: रचना-संचयन’ की भूमिका से)
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गोपेश्वर सिंह
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007

मारीना त्स्वेतायेवा : युग और जीवन : प्रतिभा कटियार

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ख्वाब में मुलाकात                                          
प्रतिभा कटियार

हते हैं सबसे मुश्किल होता है उन चीजों के बारे में लिखा जाना, जिन्हें हम प्यार करते हैं. मैंने इस मुश्किल को शिद्दत से महसूस किया मारीना पर काम करने के दौरान. जैसे मैं खुद मारीना ही हो जाती थी और बूंद-बूंद उसे जीने लगती थी. कलम खामोश और विचारों का सैलाब. मारीना की जिंदगी का एक-एक पन्ना सामने खुलता बंद होता रहता, कभी रोयें खड़े होते आँखें ख़ुशी से खिल जातीं, कभी नम भी हो जातीं.

पिता ईवान की विशाल लाइब्रेरी में अपना बचपन खंगालती,  अपनी मां के अनुशासन में अपना होना तलाशती. ढेर सारे प्रेम से भरी मारीना ढेर सारे प्रेम की चाहना करने वाली और बूँद भर प्रेम को तरसती मारीना. जिंदगी से भरपूर वो स्त्री जिंदगी भर संघर्ष करती रहती.

चौदह वर्ष की उम्र में मारीना की डायरी के कुछ हिस्से पढ़े थे. तबसे मरीना बहुत करीब आ गई थी. अपने प्रिय लेखकों को पढ़ते हुए कई बार हम उनसे गहरे संवाद में उतर जाते हैं. उनसे अपनी नाइत्तफाकी दर्ज करते हैं, झगड़ा करते हैं, प्यार भी करते हैं, कई बार उनका हाथ पकड़कर सैकड़ों बरसों का फासला पार कर आज के समय में बुला लाते हैं. लेकिन सच कहूं...मारीना इस मामले में भी काफी मजबूत निकली. वो ही मुझे मेरा हाथ पकड़कर अपने समय में, अपने काल में ले जाती रही है.

वो चमकती हुई चांदनी रात थी. हमें साथ चलते-चलते काफी देर हो चुकी थी. सच कहूं तो मेरे पांव दुखने लगे थे लेकिन मारीना तो जैसे थक ही नहीं रही थी. मैं बार-बार उसके पैरों को देखती. सधे हुए पांव. जमीन पर मजबूती से पड़ते हुए. मैंने उसका कंधा छुआ. उसने बिना मुड़े, बिना देखे धीरे से कहा, थोड़ी दूर और चलते हैं फिर बैठेंगे. मैं उसके पीछे चलती रही. कुछ दूरी पर दो पत्थर थे एक पर मारीना ने आसन जमाया दूसरे पर मैंने. ओह...बैठना कितना सुखद था. मैंने मन में सोचा, वो मुस्कुराई, 'थक गई हो?'उसने पूछा। मैं चुप रही। बिना थके, आराम का सुख कहां. शायद उसने ऐसा कहा. मेरे मन में जाने कितने सवाल आते, लेकिन मैं मारीना की खामोशी को भंग नहीं करना चाहती थी. इसलिए अक्सर चुप रहती. उस वक्त मेरा शिद्दत से यह पूछने का जी चाहा तो तुमने क्यों असमय ही जीवन के सफर से विराम लिया? लेकिन चुप रही.

उसने अपनी घुटनों तक फैली स्कर्ट को समेटते हुए कहा, 'कुछ पूछना है? '
मैं चुप.
'बोलो..मैं तुमसे बात करने ही तो आई हूं.'मारीना ने कहा.
'नहीं, मैं पूछकर जानना नहीं चाहती कुछ भी, पूछकर जानना सुनना होता है. मैं छूकर जानना चाहती हूं सब कुछ. महसूस करना चाहती हूं. जो पूछकर या पढ़कर जानना होता तो लाइब्रेरियों की खाक छानती आधी रात को इस पहाड़ी पर तुम्हारे साथ यूँ बैठी न होती.'मैंने अपनेपन की तुनकमिजाजी दिखाते हुए कहा.
वो हंसी. 'तुम पागल हो एकदम.'
'हां हूं तो.'
फिर हम दोनों हंस पड़ीं. इस तरह शुरू हुआ मारीना से मेरी बतकही का सिलसिला. सवा सौ साल के अंतर की देास्ती. महकती...चहकती...खिलखिलाती...
यही बतकही अब एक किताब है.- प्रतिभा कटियार
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मैं रूसी कवि नहीं, मैं तो कवि हूँ- मारीना
फरवरी से अक्टूबर 1925

आह...उस रोज कैसी तूफानी बर्फीली हवाएं चल रही थीं. वो 1 फरवरी 1925 का दिन था. तय तारीख से ठीक 15 दिन पहले मारीना ने पुत्र को जन्म दिया. बच्चे का जन्म काफी मुश्किल हालात में हुआ. प्रसव के बाद मारीना का स्वास्थ्य ज्यादा ही बिगड़ गया, डाक्टरों ने उसे काफी मुश्किल से बचाया. पुत्र की भी सांस नहीं चल रही थी. डाक्टरों की काफी कोशिशों के बाद माँ और पुत्र का स्वास्थ्य सामान्य हुआ.


एक तरफ मारीना पुत्र के जन्म से खूब उल्लासित थी लेकिन दूसरी तरफ जीवन में एक बार फिर घिर आये उलझाव उसे खूब परेशान कर रहे थे. कवितायेँ फिर उससे दूर होने लगी थीं. मारीना का आधा वक़्त बच्चे की देखभाल में जाता और आधा घर के कामकाज में. वह सुख और उदासी के बीच उलझ चुकी थी. अगर उसने घर और बच्चे की चिंताओं और जिम्मेदारी को जीवन की व्यावहारिकता समझकर अपना लिया होता तो संभवतः कुछ आसानी हो जाती. लेकिन कविताओं से दूरी, रचनात्मक प्रक्रिया से दूरी मारीना को झुंझलाहट से भर रही थी. जीवन की व्याहारिकता को लेकर उसकी कम समझ ने हालात को और जटिल बना दिया था.

बच्चे को उसका पूरा समय चाहिए ही था. बच्चा उसके अस्तित्व का केंद्र बन गया था. मारीना ने सारा संचित प्रेम अपने बच्चे में समर्पित कर दिया था. वह संचित प्रेम जिसे न तो उसका पति और न ही उसके प्रेमी ही समझ सके. मारीना ने अन्ना तेस्कोवा को बच्चे के जन्म की सूचना सबसे पहले दी थी. उसने उसे खत में बच्चे के जन्म और उसके बाद घिर आई कठिनाईयों के बारे में लिखा-

‘किसी नौकरानी को ढूंढना असम्भव है. पहले तो कोई उपलब्ध ही नहीं है और जो हैं वो भी काफी पैसे मांगती हैं. जिसे वहन कर पाना हमारे लिए संभव नहीं है. सेर्गेई (पति)की परीक्षाएं सर पर हैं. वह सारा दिन लाइब्रेरी में रहता है. पूरा घर नन्ही आल्या (बेटी) के ऊपर निर्भर हो गया है. मेरा स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा है. मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ लेकिन सामान्य तौर पर तुलना कर रही हूँ. यह समय भी बीत जाएगा, ऐसा मानती हूँ.’
उसके बाद उसने लिखा- 

‘मुझे एक विनम्र निवेदन करना था, क्या कोई है जो मुझे एक पोशाक दे सकता है? पूरी सर्दियों में मैंने केवल एक ही ऊनी कपड़ा पहना है जो कि अब कई जगह से फटने लगा है. मुझे अच्छे कपड़े की जरूरत नहीं है. मैं कहीं आती-जाती ही नहीं इसलिए घर में पहनने को कुछ एकदम साधारण सा भी चलेगा. क्योंकि नया खरीदना या सिलवाना मेरे लिए संभव नहीं है. कल दाई के तीन बार आने के 100 क्रेन (फ्रेंच करेंसी) खर्च हो गये. अगले दस दिन को कामवाली के लिए 120-150 क्रेन चाहिए. बच्चों की जमापूंजी है 100 क्रेन. और फिर दवाइयों और अस्पताल के लिए पैसों की जरूरत होती है. ऐसे में अपने लिए कपड़े के बारे में सोचना असम्भव है लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए साफ़ रहना चाहती हूँ इसलिए एक जोड़ी कपड़ा अगर मिल सकता तो मदद हो जाती.’

मारीना शिद्दत से अपने बच्चे को बोरी के नाम से पुकारना चाहती थी. ऐसा वह बोरिस पास्तेर्नाक के सम्मान में करना चाहती थी. उसने पति से कई घंटों इसके लिए खुशामद की लेकिन वह नहीं माना और बच्चे का नाम जेर्जेई पड़ा. जिसे मारीना ने मानते हुए ओल्गा को लिखा

लिहाजा बच्चा जेर्जेई है न कि बोरिस. बोरिस अब भी मुझमें बचा हुआ है. उसी तरह जैसे मेरे सपने और मेरा जूनून. बोरिस मेरा हक है. क्या यह पागलपन है? मैं बोरिस पास्तेर्नाक को जीना चाहती थी. बोरिस का और मेरा साथ न होना एक त्रासदी है. प्रेम से जीवन को न बना पाना भी कम दर्दनाक नहीं. मैं बोरिस के साथ जी नहीं पायी लेकिन मैं उससे एक बच्चा चाहती थी ताकि उस बच्चे में हमारा प्यार बचा रहे.’

बोरिस मारीना की दुनिया में रोशन व्यक्तिव की तरह था. उस दुनिया के सपने उसकी कविता’ माय बो टू रशियन आई’ में दिखते हैं जिसमें मारीना ने बोरिस के समय के बारे में लिखा था. वह ‘आफ्टर रशिया’ के अध्याय में खत्म होता है.
मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए
जिसे थामकर मैं दूसरी दुनिया को जी सकूँ
ओह...विडम्बना...
मेरे तो दोनों हाथ खाली ही नहीं...

जून 1925 को फादर सेर्गेई ने विज्नोरी में जेर्जेई (जिसे कुछ उच्चारण में गेर्गेई और कुछ में ग्योर्गी भी पुकारा गया) का बैपटिज्म किया. उसके बाद उस बच्चे का घर में पुकारने का नाम मूर पड़ा.

मूर के जन्म के बाद मारीना के लिए टहलना भी मुमकिन नहीं बचा था. टहलना जिसे वह बहुत पसंद करती थी. विज्नोरी गाँव की गन्दी सड़कों पर बच्चागाड़ी को चलाने में बहुत दिक्कत आती थी. जब गर्मी होने लगी तब मारीना घंटों उस गर्म घर में रहती. वो घर जो लगभग कूड़े के ढेर के बीच था. जब मूर गाडी में रहता तब मारीना लिखने का प्रयास करती. ‘द पाइड पीपर’ गीतकाव्य...जो व्यंग्यात्मक शैली में था का अधिकतर भाग मारीना ने उसी दौरान बच्चे को गाड़ी में सुलाकर लिखा. इस काम के बारे में कहा जाता है कि वह उसके द्वारा किये गये बेहतरीन कार्यों में से एक था.

‘द पाइड पीपर’ जल्द ही टुकड़ों में ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में प्रकाशित होने लगी जिसमें उस अख़बार में पूरे साल के लिए लेखन सामग्री होने की व्यवस्था हो गयी.

इस व्यंग्यात्मक गीतकाव्य का विचार 1923 के पतझड़ के दिनों में मारीना को सबसे पहले आया था जब वह मोराव्सका में रहती थी. मारीना के लिए वह छोटा सा शहर एक आदर्श के रूप में रहा. इसमें कविता में जानी-मानी उस किवदन्ती पर दोबारा से काम किया गया था जिसमें शहर के उन समृद्ध लोगों से प्रतिशोध लिया जाता है जिन्होंने उनके साथ बुरा बर्ताव किया था.

1925 के ईस्टर पर सेर्गेई ने नाटक को बेहद सफलता के साथ किया. जिसको स्टूडेंट्स थियेटर प्राग में प्रस्तुत किया गया था. इस अवसर पर मारीना अपने बच्चे को जन्म देने के बाद पहली बार प्राग गयी थी.

इस बीच उनके जीवन में एक और समस्या आ गयी. सेर्गेई की छात्रवृत्ति जारी नहीं रह पाई. इसके साथ ही उसका पुराना मर्ज (क्षय रोग) भी फिर से उभरने लगा जिसके चलते उसको रूसी संस्था जेमगोर द्वारा चलाये जा रहे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. मारीना के इस समय में लिखे गए पत्रों से यह साफ हो गया था कि वह यह सब बहुत ज्यादा सोचने लगी थी कि कैसे वह अपने परिवार के हालात को बेहतर रख पाए. अक्सर पेरिस चले जाने का जिक्र होता रहा. चेकोस्लोवाकिया में मारीना भयंकर गरीबी से जूझ रही थी. हालाँकि उस दौरान पेरिस में ज्यादातर शरणार्थियों के सामने जिन्दगी मुसीबतों का पहाड़ ही बनी हुई थी.

गर्मियों में मारीना को पता चला कि रूस के बड़े कवि वालेरी ब्रयूसोव की मास्को में मौत हो गयी है. उस वक़्त वह ‘द पाइड पीपर’ पर काम कर रही थी. उसका काम खुद-ब-खुद बीच में ही रुक गया. उसने ब्रयूसोव से सम्बन्धित संस्मरण को दोबारा लिखना शुरू किया. एक गहरे विचारशील लेखक का चित्रण उसके छोटे से रेखांकन में उभरकर आया था.

ब्रयूसोव पर आलेख ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ में कम्युनिस्ट विरोधी कई खुले अंश थे. लेखक ने अपनी राजनैतिक धारणा को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की. उसका काम अभी तक सोवियत रूस में प्रकाशित होने के लिए पड़ा था. उसने जो भी लिखा उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह कूटनीतिक नहीं था. संभवतः यही वजह थी कि गोर्की ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ से हैरत में पड़ गये. 20 दिसम्बर 1925 को खोदेस्विच को लिखे गए पत्र में गोर्की के पास इस आलेख के लिए सकारात्मक कहने के लिए कुछ भी नहीं था. चूंकि सोवियत रूस में गोर्की के शब्दों में इतना वजन था कि मारीना को एक नया और शक्तिशाली विरोधी गोर्की के रूप में मिल गया.

मामला यहीं खत्म नहीं हुआ, मारीना के खुलेपन और अव्यवहारिक तौर पर गुस्सा करने के लक्षणों ने कई प्रवासियों को उसके विरोध में लाकर खड़ा कर दिया. थोड़े दिन के बाद उसके चेकोस्लोवाकिया जाने के बाद 5 अक्टूबर 1925 में पेरिस के अख़बार ‘द रेनेसां’ में पत्रकार एन. ए. त्स्युरिकोव का एक लेख सामने आया. अधिकृत एमिग्री बिजनेस ने सेर्गेई के समाचार पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ में सोवियत को लेकर टिप्पणी कर कड़ा विरोध किया जिसके जवाब में मारीना ने ‘द रेनेसां’ में खुला पत्र लिखा.

निश्चित रूप से प्रवासियों ने उसे नहीं सराहा. वह पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ के द्वारा भेजे गए सवालों के जवाब में था. प्रवासी लेखकों के प्रश्न ‘तुम सोवियत रूस के बारे में क्या सोचते हो और वहां लौटने की क्या संभावना है’ के उत्तर में वह कहती है-

किसी की मातृभूमि किसी प्रांत के आपातकाल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उसकी यादें ही उसकी अचल सम्पत्ति होती हैं. जिसने रूस की कल्पना अपने को बाहर रखकर की है वही वहां रहने से डरेगा या रूस को भूलेगा. जो रूस को अपने भीतर रखता है वह जीवन भर रूस को जियेगा. गीतकार, महाकाव्य लिखने वाले कवि, कथाकार जो अपनी कला की प्रवृत्ति से दूरदर्शी होते हैं वे सम्पूर्ण रूस को बेहतर तरह से देख सकते हैं. तब, जब संदेह की आग में वर्तमान जल रहा हो. इसके अलावा एक लेखक के लिए किसी ऐसी जगह पर रहना बेहतर है जहाँ वह कम से कम लिखने से न रोका जाए. ‘लेकिन वह रूस में जरूर लिखेंगे!’ हाँ, सेंसरशिप की काट-छांट हो. जहाँ साहित्यिक आक्षेप हों और जहाँ तथाकथित सोवियत लेखकों की शूरता पर केवल आश्चर्यचकित ही हुआ जाता हो, वह किसी जेल के रास्ते पर पड़े हुए पत्थरों के बीच उगने वाली घास की तरह लिखते हैं न कि सबके लिए. मैं रूस वापस जाऊंगी लेकिन किसी बीते हुए कल के निशान की तरह नहीं.’

ये शब्द उन सबके लिए थे जो बिना किसी शर्त के रूस लौटना चाहते थे. ये उसके पति के लिए भी थे. जो कुछ मारीना ने राष्ट्रीयता के लिए कहा था वह प्रवासी लोगों की राय से मेल नहीं खाता था. मारीना रूसी लेखक होना चाहती थी. दो साल के बाद उसने रिल्के को जर्मन में लिखे पत्र में कहा-
'कविता लिखना अपनी अंदर की भाषा को बाहर की भाषा में अनुवादित करने जैसा है. चाहे वह फ्रेंच हो, जर्मन या रूसी. कोई भी भाषा किसी की मातृभाषा नहीं हो सकती. उसको लिखने का मतलब उसका स्वर बदल देना. इसलिए मुझे समझ नहीं आता कि क्यों लोग किसी को फ्रेंच कवि या रूसी कवि कहते हैं. मैं रूसी कवि नहीं हूँ, मैं तो कवि हूँ. मैं हैरान हो जाती हूँ जब लोग मुझे वैसा समझते हैं और मेरे साथ वैसा बर्ताव करते हैं. मेरे हिसाब से कोई कवि होता है न कि फ्रेंच या रूसी कवि...’
( इसी पुस्तक से)
__________

मंगलाचार: प्रीति चौधरी की कविताएँ

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कविताएँ अपनी जमीन से अंकुरित हों तो उनमें जीवन रहता है, अपने परिवेश से जुड़ कर उनमें स्थानीयता का यथार्थ-बोध, भाषा-बोली भी आ जाती है.

प्रीति चौधरी की कविताओं में स्त्री का दुःख ग्लोबल होने से पहले लोकल है. वह स्थानीय है, उनमें एक सच्चाई है और वैश्विक से भी वे इसीलिये जुड़ जाती हैं.

उनकी कुछ कविताएँ आपके लिये.   




प्रीति चौधरी की कविताएँ       







(एक)

मां सिसक रही थी   
अपनी दिवगंत मां को उलाहना देती
ऐसा दब्बू बनाया तुम्हारी नानी ने मुझे कि
पूरी ज़िंदगी ससुर भसुर के सामने नहीं खुली ज़ुबान

माँ को मलाल है
समय रहते कुछ बातों का जवाब न दे पाने का
आख़िर क्या बोलना चाहती थीं माँ
किसे क्या बताना था
ज़रा कुरेदने पर खुली बात
मां आहत थीं अपने पिता के अपमान से
पचास साल बाद उस अपमान को याद कर रोती
माँ बोली
चचिया ससुर ने कहा था उनके पिता को
मऊग
पचास साल पहले बोला शब्द
अब भी बेधता है भीतर तक

मऊग ....?”
मैं पूछती हूँ मऊग मतलब
हमारे  बाबू जी
पत्नी की इज्जत करते
संग खिलाते
गाँव में नाच नौटंकी भजन कीर्तन
सबमें साथ बैठाते
यही बात
यही उत्साह
यही छूट
यही खुशी
नहीं थी बर्दास्त चचिया ससुर को

जो औरत की इच्छा को दे मान
भरोसा दे बिठाये बराबरी में वो मऊग
एक सांस  में इतना सबकुछ बोलने के बाद
मां पूछती हैं भोजपुरी में

अब बुझाईल मऊग मने का
मऊग मने .....
तोहरा भाषा में फेमिनिस्ट !






(दो)

सीआरपीएफ के जवान की नयी नवेली पत्नी
गाँव की शारदा सिन्हा थी
गाती तो पूरा गांव हो जाता नमक की डलिया
पटना से बैदा बोला द नजरा गइनीं गुइंया …………

कढ़ाते ही राग उसके खिल जातीं बहूयें
ननदें कभी चुहल तो कभी भरतीं ईर्य्या से
सासो के समूह को गुदगुदा देती गुजरते यौवन की यादें

बक्सर वाली के आते ही
गांव के कई देवर हुए भर्ती फौज में
कुछ ननदें भी कर आयीं नर्सिंग की ट्रेनिंग
गांव की शारदा सिंन्हा के अच्छे आंगछ की चर्चा थी पुरजोर

छत्तीसगढ़ में  तैनात पति के लिए
बक्सर वाली अक्सर बदल देती गीतों  के बोल
ले ले अईहहो पिया सेनुरा बंगाल से की बजाय
गाती ले ले अईहहो पिया सेनुरा छत्तीसगढ़ से
हंसी की फुहार से भींगती सीआरपीएफ़ वाले की दुलहिन
साथ में भींगता पूरा गांव.





(तीन)

बक्सर वाली बेहोश है
सुबह से पति का मोबाइल नहीं उठा
पूरी घंटी जाती है अनसुनी
पिछली  ही रात पूछे जाने पर हाल
सुना डाला था उसने सीआरपीएफ वाले को
बलम बिन सेजिया ना  सोभे राजा
बलम बिन... उधर से देता रहा कोई थपकी देर  तक
करता रहा घर जल्दी आने का वादा
गिनाता रहा ढेर सारे बाकी काम
कराना था फ़र्श पक्का इसबार
बदलवाना था चश्मा बाबू जी का

अधूरे कामों की फेहरिस्त  लिए
सीआरपीएफ कैंप में
जब जवानों का फोन नहीं उठता तो
नहीं जलता चूल्हा कई घरों में
मच जाता है कोहराम
बह जाता है गांव का नमक
रूक जाती हैं धड़कने
जुड़ जाते हैं हाथ प्रार्थना में
नहीं होना चाहता कोई शहीद का पिता

सीआरपीएफ़ कैंप पर होता है हमला छत्तीसगढ़ में
और खून से भर जाती है मेरे गांव की नदी
परखच्चे उड़ जाते हैं खेल खलिहानों के
सीआरपीएफ़ कैंप पर होता है हमला छत्तीसगढ़ में
और कई शारदा  सिन्हाएँ गूंगी हो जाती है हमेशा के लिए



(चार)

वैसे तो दुनिया कभी भी
नहीं रही अच्छी कवियों के लिए
नहीं माना जाता उन्हें काम का आदमी 
इस स्थापित सी हो चुकी मान्यता के बीच
कोई कवि सचमुच किसी के काम आ जाय
तो बढ़ जाती है कविता की उम्र

अब आज ही की बात करें तो
यह महीने का बीसवा दिन था साथ ही
टर्म पेपर जमा करने की आखिरी तारीख भी
और वो छात्र खड़ा था सिर झुकाये बिना टर्म पेपर के
समय पर काम करना नहीं आता
क्या इरादा है फेल होने का
पटना के हो जो फँसे थे बाढ़ में

नहीं गोंडा का हूँ
नीचे पिता जी लगे रहे चारपाई से
ऊपर बारिश चली लंबी
मवेशियों को देखना पड़ा मुझे
तो देखो मवेशियों को ही
अब करने क्या आये हो
इतना सुनते ही
लड़का इस कदर हुआ रूंआसा कि
सवाल करने वाले को होने लगी शर्मिंदगीं

बात संभालने के लिए पूछा
अच्छा तो तुम बस्ती के हो
बस्ती में जानते हो दीक्षापार गांव

लड़का थोड़ा चौंका फिर सहज हो बताया
जी उसी के पास का हूं
अच्छा  सुनो ! जो तुम हो दीक्षापार के पास के तो
तुमने देखी होगी साईकिल चलाती ग्यारहवीं में पढ़ती लड़की

वहां रहता है एक कवि
जो अंतरिक्ष में मशरूम उगा दूज के चांद से काटता है
लड़के ने ऐसी बातें शायद सुनी थीं पहली बार
वो ख़ुश था कि इन बातों का भले कोई सिर पैर न हो
उसे मतलब वतलब ना समझ आये पर इतना जरूर था
उसके शहर के एक कवि ने उसे बचा लिया था फेल होने से

लड़के ने सोचा
उसके शहर में कवियों की संख्या थोड़ी और होनी चाहिेए.
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preetychoudhari2009@gmail.com

मारीना त्स्वेतायेवा : युग और जीवन : प्रतिभा कटियार

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ख्वाब में मुलाकात                                          
प्रतिभा कटियार

हते हैं सबसे मुश्किल होता है उन चीजों के बारे में लिखा जाना, जिन्हें हम प्यार करते हैं. मैंने इस मुश्किल को शिद्दत से महसूस किया मारीना पर काम करने के दौरान. जैसे मैं खुद मारीना ही हो जाती थी और बूंद-बूंद उसे जीने लगती थी. कलम खामोश और विचारों का सैलाब. मारीना की जिंदगी का एक-एक पन्ना सामने खुलता बंद होता रहता, कभी रोयें खड़े होते आँखें ख़ुशी से खिल जातीं, कभी नम भी हो जातीं.

पिता ईवान की विशाल लाइब्रेरी में अपना बचपन खंगालती,  अपनी मां के अनुशासन में अपना होना तलाशती. ढेर सारे प्रेम से भरी मारीना ढेर सारे प्रेम की चाहना करने वाली और बूँद भर प्रेम को तरसती मारीना. जिंदगी से भरपूर वो स्त्री जिंदगी भर संघर्ष करती रहती.

चौदह वर्ष की उम्र में मारीना की डायरी के कुछ हिस्से पढ़े थे. तबसे मरीना बहुत करीब आ गई थी. अपने प्रिय लेखकों को पढ़ते हुए कई बार हम उनसे गहरे संवाद में उतर जाते हैं. उनसे अपनी नाइत्तफाकी दर्ज करते हैं, झगड़ा करते हैं, प्यार भी करते हैं, कई बार उनका हाथ पकड़कर सैकड़ों बरसों का फासला पार कर आज के समय में बुला लाते हैं. लेकिन सच कहूं...मारीना इस मामले में भी काफी मजबूत निकली. वो ही मुझे मेरा हाथ पकड़कर अपने समय में, अपने काल में ले जाती रही है.

वो चमकती हुई चांदनी रात थी. हमें साथ चलते-चलते काफी देर हो चुकी थी. सच कहूं तो मेरे पांव दुखने लगे थे लेकिन मारीना तो जैसे थक ही नहीं रही थी. मैं बार-बार उसके पैरों को देखती. सधे हुए पांव. जमीन पर मजबूती से पड़ते हुए. मैंने उसका कंधा छुआ. उसने बिना मुड़े, बिना देखे धीरे से कहा, थोड़ी दूर और चलते हैं फिर बैठेंगे. मैं उसके पीछे चलती रही. कुछ दूरी पर दो पत्थर थे एक पर मारीना ने आसन जमाया दूसरे पर मैंने. ओह...बैठना कितना सुखद था. मैंने मन में सोचा, वो मुस्कुराई, 'थक गई हो?'उसने पूछा। मैं चुप रही। बिना थके, आराम का सुख कहां. शायद उसने ऐसा कहा. मेरे मन में जाने कितने सवाल आते, लेकिन मैं मारीना की खामोशी को भंग नहीं करना चाहती थी. इसलिए अक्सर चुप रहती. उस वक्त मेरा शिद्दत से यह पूछने का जी चाहा तो तुमने क्यों असमय ही जीवन के सफर से विराम लिया? लेकिन चुप रही.

उसने अपनी घुटनों तक फैली स्कर्ट को समेटते हुए कहा, 'कुछ पूछना है? '
मैं चुप.
'बोलो..मैं तुमसे बात करने ही तो आई हूं.'मारीना ने कहा.
'नहीं, मैं पूछकर जानना नहीं चाहती कुछ भी, पूछकर जानना सुनना होता है. मैं छूकर जानना चाहती हूं सब कुछ. महसूस करना चाहती हूं. जो पूछकर या पढ़कर जानना होता तो लाइब्रेरियों की खाक छानती आधी रात को इस पहाड़ी पर तुम्हारे साथ यूँ बैठी न होती.'मैंने अपनेपन की तुनकमिजाजी दिखाते हुए कहा.
वो हंसी. 'तुम पागल हो एकदम.'
'हां हूं तो.'
फिर हम दोनों हंस पड़ीं. इस तरह शुरू हुआ मारीना से मेरी बतकही का सिलसिला. सवा सौ साल के अंतर की देास्ती. महकती...चहकती...खिलखिलाती...
यही बतकही अब एक किताब है.- प्रतिभा कटियार
___________

मैं रूसी कवि नहीं, मैं तो कवि हूँ- मारीना
फरवरी से अक्टूबर 1925

आह...उस रोज कैसी तूफानी बर्फीली हवाएं चल रही थीं. वो 1 फरवरी 1925 का दिन था. तय तारीख से ठीक 15 दिन पहले मारीना ने पुत्र को जन्म दिया. बच्चे का जन्म काफी मुश्किल हालात में हुआ. प्रसव के बाद मारीना का स्वास्थ्य ज्यादा ही बिगड़ गया, डाक्टरों ने उसे काफी मुश्किल से बचाया. पुत्र की भी सांस नहीं चल रही थी. डाक्टरों की काफी कोशिशों के बाद माँ और पुत्र का स्वास्थ्य सामान्य हुआ.


एक तरफ मारीना पुत्र के जन्म से खूब उल्लासित थी लेकिन दूसरी तरफ जीवन में एक बार फिर घिर आये उलझाव उसे खूब परेशान कर रहे थे. कवितायेँ फिर उससे दूर होने लगी थीं. मारीना का आधा वक़्त बच्चे की देखभाल में जाता और आधा घर के कामकाज में. वह सुख और उदासी के बीच उलझ चुकी थी. अगर उसने घर और बच्चे की चिंताओं और जिम्मेदारी को जीवन की व्यावहारिकता समझकर अपना लिया होता तो संभवतः कुछ आसानी हो जाती. लेकिन कविताओं से दूरी, रचनात्मक प्रक्रिया से दूरी मारीना को झुंझलाहट से भर रही थी. जीवन की व्याहारिकता को लेकर उसकी कम समझ ने हालात को और जटिल बना दिया था.

बच्चे को उसका पूरा समय चाहिए ही था. बच्चा उसके अस्तित्व का केंद्र बन गया था. मारीना ने सारा संचित प्रेम अपने बच्चे में समर्पित कर दिया था. वह संचित प्रेम जिसे न तो उसका पति और न ही उसके प्रेमी ही समझ सके. मारीना ने अन्ना तेस्कोवा को बच्चे के जन्म की सूचना सबसे पहले दी थी. उसने उसे खत में बच्चे के जन्म और उसके बाद घिर आई कठिनाईयों के बारे में लिखा-


‘किसी नौकरानी को ढूंढना असम्भव है. पहले तो कोई उपलब्ध ही नहीं है और जो हैं वो भी काफी पैसे मांगती हैं. जिसे वहन कर पाना हमारे लिए संभव नहीं है. सेर्गेई (पति)की परीक्षाएं सर पर हैं. वह सारा दिन लाइब्रेरी में रहता है. पूरा घर नन्ही आल्या (बेटी) के ऊपर निर्भर हो गया है. मेरा स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा है. मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ लेकिन सामान्य तौर पर तुलना कर रही हूँ. यह समय भी बीत जाएगा, ऐसा मानती हूँ.’
उसके बाद उसने लिखा- 


‘मुझे एक विनम्र निवेदन करना था, क्या कोई है जो मुझे एक पोशाक दे सकता है? पूरी सर्दियों में मैंने केवल एक ही ऊनी कपड़ा पहना है जो कि अब कई जगह से फटने लगा है. मुझे अच्छे कपड़े की जरूरत नहीं है. मैं कहीं आती-जाती ही नहीं इसलिए घर में पहनने को कुछ एकदम साधारण सा भी चलेगा. क्योंकि नया खरीदना या सिलवाना मेरे लिए संभव नहीं है. कल दाई के तीन बार आने के 100 क्रेन (फ्रेंच करेंसी) खर्च हो गये. अगले दस दिन को कामवाली के लिए 120-150 क्रेन चाहिए. बच्चों की जमापूंजी है 100 क्रेन. और फिर दवाइयों और अस्पताल के लिए पैसों की जरूरत होती है. ऐसे में अपने लिए कपड़े के बारे में सोचना असम्भव है लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए साफ़ रहना चाहती हूँ इसलिए एक जोड़ी कपड़ा अगर मिल सकता तो मदद हो जाती.’

मारीना शिद्दत से अपने बच्चे को बोरी के नाम से पुकारना चाहती थी. ऐसा वह बोरिस पास्तेर्नाक के सम्मान में करना चाहती थी. उसने पति से कई घंटों इसके लिए खुशामद की लेकिन वह नहीं माना और बच्चे का नाम जेर्जेई पड़ा. जिसे मारीना ने मानते हुए ओल्गा को लिखा


लिहाजा बच्चा जेर्जेई है न कि बोरिस. बोरिस अब भी मुझमें बचा हुआ है. उसी तरह जैसे मेरे सपने और मेरा जूनून. बोरिस मेरा हक है. क्या यह पागलपन है? मैं बोरिस पास्तेर्नाक को जीना चाहती थी. बोरिस का और मेरा साथ न होना एक त्रासदी है. प्रेम से जीवन को न बना पाना भी कम दर्दनाक नहीं. मैं बोरिस के साथ जी नहीं पायी लेकिन मैं उससे एक बच्चा चाहती थी ताकि उस बच्चे में हमारा प्यार बचा रहे.’

बोरिस मारीना की दुनिया में रोशन व्यक्तिव की तरह था. उस दुनिया के सपने उसकी कविता’ माय बो टू रशियन आई’ में दिखते हैं जिसमें मारीना ने बोरिस के समय के बारे में लिखा था. वह ‘आफ्टर रशिया’ के अध्याय में खत्म होता है.
मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए
जिसे थामकर मैं दूसरी दुनिया को जी सकूँ
ओह...विडम्बना...
मेरे तो दोनों हाथ खाली ही नहीं...

जून 1925 को फादर सेर्गेई ने विज्नोरी में जेर्जेई (जिसे कुछ उच्चारण में गेर्गेई और कुछ में ग्योर्गी भी पुकारा गया) का बैपटिज्म किया. उसके बाद उस बच्चे का घर में पुकारने का नाम मूर पड़ा.

मूर के जन्म के बाद मारीना के लिए टहलना भी मुमकिन नहीं बचा था. टहलना जिसे वह बहुत पसंद करती थी. विज्नोरी गाँव की गन्दी सड़कों पर बच्चागाड़ी को चलाने में बहुत दिक्कत आती थी. जब गर्मी होने लगी तब मारीना घंटों उस गर्म घर में रहती. वो घर जो लगभग कूड़े के ढेर के बीच था. जब मूर गाडी में रहता तब मारीना लिखने का प्रयास करती. ‘द पाइड पीपर’ गीतकाव्य...जो व्यंग्यात्मक शैली में था का अधिकतर भाग मारीना ने उसी दौरान बच्चे को गाड़ी में सुलाकर लिखा. इस काम के बारे में कहा जाता है कि वह उसके द्वारा किये गये बेहतरीन कार्यों में से एक था.

‘द पाइड पीपर’ जल्द ही टुकड़ों में ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में प्रकाशित होने लगी जिसमें उस अख़बार में पूरे साल के लिए लेखन सामग्री होने की व्यवस्था हो गयी.

इस व्यंग्यात्मक गीतकाव्य का विचार 1923 के पतझड़ के दिनों में मारीना को सबसे पहले आया था जब वह मोराव्सका में रहती थी. मारीना के लिए वह छोटा सा शहर एक आदर्श के रूप में रहा. इसमें कविता में जानी-मानी उस किवदन्ती पर दोबारा से काम किया गया था जिसमें शहर के उन समृद्ध लोगों से प्रतिशोध लिया जाता है जिन्होंने उनके साथ बुरा बर्ताव किया था.

1925 के ईस्टर पर सेर्गेई ने नाटक को बेहद सफलता के साथ किया. जिसको स्टूडेंट्स थियेटर प्राग में प्रस्तुत किया गया था. इस अवसर पर मारीना अपने बच्चे को जन्म देने के बाद पहली बार प्राग गयी थी.

इस बीच उनके जीवन में एक और समस्या आ गयी. सेर्गेई की छात्रवृत्ति जारी नहीं रह पाई. इसके साथ ही उसका पुराना मर्ज (क्षय रोग) भी फिर से उभरने लगा जिसके चलते उसको रूसी संस्था जेमगोर द्वारा चलाये जा रहे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. मारीना के इस समय में लिखे गए पत्रों से यह साफ हो गया था कि वह यह सब बहुत ज्यादा सोचने लगी थी कि कैसे वह अपने परिवार के हालात को बेहतर रख पाए. अक्सर पेरिस चले जाने का जिक्र होता रहा. चेकोस्लोवाकिया में मारीना भयंकर गरीबी से जूझ रही थी. हालाँकि उस दौरान पेरिस में ज्यादातर शरणार्थियों के सामने जिन्दगी मुसीबतों का पहाड़ ही बनी हुई थी.

गर्मियों में मारीना को पता चला कि रूस के बड़े कवि वालेरी ब्रयूसोव की मास्को में मौत हो गयी है. उस वक़्त वह ‘द पाइड पीपर’ पर काम कर रही थी. उसका काम खुद-ब-खुद बीच में ही रुक गया. उसने ब्रयूसोव से सम्बन्धित संस्मरण को दोबारा लिखना शुरू किया. एक गहरे विचारशील लेखक का चित्रण उसके छोटे से रेखांकन में उभरकर आया था.

ब्रयूसोव पर आलेख ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ में कम्युनिस्ट विरोधी कई खुले अंश थे. लेखक ने अपनी राजनैतिक धारणा को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की. उसका काम अभी तक सोवियत रूस में प्रकाशित होने के लिए पड़ा था. उसने जो भी लिखा उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह कूटनीतिक नहीं था. संभवतः यही वजह थी कि गोर्की ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ से हैरत में पड़ गये. 20 दिसम्बर 1925 को खोदेस्विच को लिखे गए पत्र में गोर्की के पास इस आलेख के लिए सकारात्मक कहने के लिए कुछ भी नहीं था. चूंकि सोवियत रूस में गोर्की के शब्दों में इतना वजन था कि मारीना को एक नया और शक्तिशाली विरोधी गोर्की के रूप में मिल गया.

मामला यहीं खत्म नहीं हुआ, मारीना के खुलेपन और अव्यवहारिक तौर पर गुस्सा करने के लक्षणों ने कई प्रवासियों को उसके विरोध में लाकर खड़ा कर दिया. थोड़े दिन के बाद उसके चेकोस्लोवाकिया जाने के बाद 5 अक्टूबर 1925 में पेरिस के अख़बार ‘द रेनेसां’ में पत्रकार एन. ए. त्स्युरिकोव का एक लेख सामने आया. अधिकृत एमिग्री बिजनेस ने सेर्गेई के समाचार पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ में सोवियत को लेकर टिप्पणी कर कड़ा विरोध किया जिसके जवाब में मारीना ने ‘द रेनेसां’ में खुला पत्र लिखा.

निश्चित रूप से प्रवासियों ने उसे नहीं सराहा. वह पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ के द्वारा भेजे गए सवालों के जवाब में था. प्रवासी लेखकों के प्रश्न ‘तुम सोवियत रूस के बारे में क्या सोचते हो और वहां लौटने की क्या संभावना है’ के उत्तर में वह कहती है-

किसी की मातृभूमि किसी प्रांत के आपातकाल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उसकी यादें ही उसकी अचल सम्पत्ति होती हैं. जिसने रूस की कल्पना अपने को बाहर रखकर की है वही वहां रहने से डरेगा या रूस को भूलेगा. जो रूस को अपने भीतर रखता है वह जीवन भर रूस को जियेगा. गीतकार, महाकाव्य लिखने वाले कवि, कथाकार जो अपनी कला की प्रवृत्ति से दूरदर्शी होते हैं वे सम्पूर्ण रूस को बेहतर तरह से देख सकते हैं. तब, जब संदेह की आग में वर्तमान जल रहा हो. इसके अलावा एक लेखक के लिए किसी ऐसी जगह पर रहना बेहतर है जहाँ वह कम से कम लिखने से न रोका जाए. ‘लेकिन वह रूस में जरूर लिखेंगे!’ हाँ, सेंसरशिप की काट-छांट हो. जहाँ साहित्यिक आक्षेप हों और जहाँ तथाकथित सोवियत लेखकों की शूरता पर केवल आश्चर्यचकित ही हुआ जाता हो, वह किसी जेल के रास्ते पर पड़े हुए पत्थरों के बीच उगने वाली घास की तरह लिखते हैं न कि सबके लिए. मैं रूस वापस जाऊंगी लेकिन किसी बीते हुए कल के निशान की तरह नहीं.’

ये शब्द उन सबके लिए थे जो बिना किसी शर्त के रूस लौटना चाहते थे. ये उसके पति के लिए भी थे. जो कुछ मारीना ने राष्ट्रीयता के लिए कहा था वह प्रवासी लोगों की राय से मेल नहीं खाता था. मारीना रूसी लेखक होना चाहती थी. दो साल के बाद उसने रिल्के को जर्मन में लिखे पत्र में कहा-
'कविता लिखना अपनी अंदर की भाषा को बाहर की भाषा में अनुवादित करने जैसा है. चाहे वह फ्रेंच हो, जर्मन या रूसी. कोई भी भाषा किसी की मातृभाषा नहीं हो सकती. उसको लिखने का मतलब उसका स्वर बदल देना. इसलिए मुझे समझ नहीं आता कि क्यों लोग किसी को फ्रेंच कवि या रूसी कवि कहते हैं. मैं रूसी कवि नहीं हूँ, मैं तो कवि हूँ. मैं हैरान हो जाती हूँ जब लोग मुझे वैसा समझते हैं और मेरे साथ वैसा बर्ताव करते हैं. मेरे हिसाब से कोई कवि होता है न कि फ्रेंच या रूसी कवि...’
( इसी पुस्तक से)
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kpratibha.katiyar@gmail.com 

कथा-गाथा : जर्मन परफ्यूम : पल्लवी

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पल्लवी ने जर्मन भाषा और साहित्य में शोध कार्य किया है. यह कहानी भी जर्मनी के एक शहर की पृष्ठभूमि में घटित होती है. आकार में छोटी है और असर करती है.  


जर्मन परफ्यूम
पल्लवी


अंग्रेजी भाषा की क्रिया "to heal " (टू हील) की उत्पत्ति जर्मेनिक (Germanic) है. जर्मन भाषा की क्रिया "heilen" (हायलन) में ही "heal"शब्द का श्रोत है, जिसका अर्थ होता है "स्वस्थ होना, ठीक होना, पूरा होना अथवा पूर्ण बनना“। क्रिया "heilen" (हायलन) में अगर प्रत्यय "en"को हटा दिया जाए तो विशेषण "heil" (हायल) बनता है, जिसका अर्थ होता है "पवित्र". इस शब्द के मायने कई विषयों में देखे जा सकते हैं; चिकित्सा विज्ञान और  मनोविज्ञान से लेकर धर्म शास्त्र और दर्शनशास्त्र तक. खैर वो रिसर्च का विषय होगा, जिसे शोधकर्ताओं पर छोड़ा जा सकता है. आम जीवन में आम जन को किन वजहों से घाव लगते हैं और वो किस प्रक्रिया के तहत "heilen"करते हैं, वो आम जीवन के प्रसंगों में ही ढूंढा जा सकता है. अमूमन लोग मानसिक और शारीरिक तौर पर घाव होने, चोट लगने अथवा आहत होने की बात करते हैं. अब ऐसी चोट का या घाव का इलाज करना और दिलो दिमाग को फिर से इंसानी, मानवीय और "heil"अथवा पवित्र करना हम सब की जिम्मेदारी है.   

"अगर बड़े फोड़े पितृसत्ता को जड़ से उखाड़ना हो तो शरीर, मानस-पटल और समाज को टीस मारते "लिंगवाद" (सेक्सिस्म) और "misogyny" (मिसोजनी) जैसे उसके भाइयों के ऊपर नमक-बुकनी तो छीड़कना ही होगा ना! " - 

ऐसा कहना है बिहारी मूल की जर्मनवासी वसंतसेना का. अपनी कम पढ़ी लिखी माँ और संस्कृत साहित्य की घोर व्यसक और शूद्रक के "मृच्छकटिकम्"की उपासक कामिनी देवी द्वारा दिया उसका यह नाम देश विदेश में वसंतसेना को भारतीयता का प्रमाण और सम्मान दिलाता है. चार सालों से जर्मनी के डुस्सलडोर्फ़ में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर रही वसंतसेना को आजकल कामिनी देवी ने थोड़ा परेशान कर रखा है.

"अब तो शादी कर ले.", "हमने तुम्हे किसी बात के लिए कभी रोका, अब हमारी भी एक बात मान ले" - कामिनी देवी की इमोशनल ब्लैकमेलिंग में एक सामान्य भारतीय माँ का डर छुपा है कि जीवन की नदी में कहीं मेरी बेटी अकेली ना रह जाए. आबिदा परवीन की फैन माँ, "वो हमसफ़र था मगर उससे हमनवाई ना थी"सुन सुन कर कामिनी से बहु, पत्नी, भौजी, माँ और वेर्जिनिया वूल्फ की मिसेज डालोवे तक का रास्ता तय कर चुकी है. वसंतसेना को फिर से यही रास्ता क्यूँ तय करना था, ये उसकी समझ से बाहर था. पितृसत्ता के तिलिस्म के रेशे रेशे से वाकिफ वसंसेना को एलफ्रीडे येलेनिक की “डी लीबहबेरिन्न” (वीमेन एज लवर्स) की ब्रिगिटे थोड़े ना बनना था. पर उसे क्या बनना था, उसकी भी कोई सही रूप रेखा उसके दिमाग में नहीं थी. लेकिन कामिनी देवी की बात मानने में भी कोई बुराई नहीं थी, क्यूंकि उम्र के साथ आई चेहरे पर की लकीरें अगर तजुर्बा बयां ना करे तो वो झुर्रियां सी नज़र आती है. कुछ ऐसा ही सोचकर वसंतसेना माँ द्वारा किसी ऑनलाइन मेट्रीमोनियल पर ‘शोर्टलिस्टेड’ किसी ‘सूटेबल लड़के’ से मिलने के लिए ख़ुशी ख़ुशी राज़ी हो जाती है.

डुस्सलडोर्फ़ से कोलोन शहर तक के आधे घंटे के सफ़र में वसंतसेना ने खुद को कई बार रीजनल ट्रेन की पारदर्शी कांच में निहारा. कोलोन के खूबसूरत ग्लोकनगासे स्ट्रीट की कॉफ़ी शॉप पर मिलना तय हुआ था. जर्मनी की मशहूर परफ्यूम “4711 Eau De Cologne” के इतिहास की भीनी भीनी खुशबू में लिपटा ग्लोकनगासे वसंतसेना और राहुल की बातों का गवाह बनने जा रहा था. एस्प्रेसो का पहला सिप लेते हुए वसंतसेना बातों का सिलसिला शुरू तो करती है लेकिन बात-चीत का शौक़ीन राहुल बातों को लपक लपक कर उनकी पतंग बनाने लगता है: 

“बड़ा यूनिक नाम है आपका. वैसे आप अपने जॉब के बारे में बताइए.” वसंतसेना को लगा कि वो नाम का मतलब या मायने पूछेगा और वो बड़े गर्व और गंभीरता से अपनी माँ द्वारा इस नाम को अतीत और वर्तमान के संदर्भ में डीकांस्त्रक्ट करेगी. लेकिन राहुल ठहरा राहुल, उसे अपने सामने बैठी इस लड़की में इतना आत्मविश्वास देखकर ही इस लड़की के अभारतीय होने के लक्षण समझ में आने लगे थे. बांकी कसर लड़की के कपड़ों और मेकअप ने पूरी कर दी थी. मन ही मन उसने सोचा: “चलो कोई नहीं, बेचारी को शादी के बाद अकल आ जाएगी.”

भारतीय मर्द” (भारत के उत्तर पूर्वोत्तर राज्यों के ज्यादातर पुरुषों को छोड़कर) के सारे गुण कॉफ़ी टेबल पर मख्खों की तरह भिनभिनाने लगे. अचानक कॉफ़ी टेबल पर भिनभिनाने मख्खों को देखकर वसंतसेना को अब कोफ़्त होने लगी. तभी एक मख्खा राहुल की जिह्वा पर सवार हो गया और बातों का सिलसिला जारी रखते हुए बोल पड़ा: “मैंने देखा है यहाँ अपनी ऑफिस की लड़कियों को. पुरुषों के मुकाबले कम योग्यता वाली इन लड़कियों की मैं मदद करता रहता हूँ ”. 

दूसरा मख्खा कहाँ पीछे रहने वाला था, सो स्ट्रीट पर जाती लड़कियों के एक झुण्ड को देखते हुए वो भी भिनभिना उठा: “ये जर्मन लड़कियां बड़ी तेज़ और चालू होती हैं. एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा.....हुउह ये भी कोई बात हुई. मुझे तो बिलकुल पसंद नहीं ये सब.” वसंतसेना को चोट सी लगने लगी थी कि तीसरे मख्खे ने पहले दो मख्खों द्वारा दिए घाव पर बैठते हुए तीर ही चला दिया: “वैसे, तुम्हे कैसा पार्टनर चाहिए? मुझे अच्छा लगेगा, अगर हम तुम जॉइंट अकाउंट खोल लें.” – कहकर राहुल ने जाहिर कर दिया कि वो उसे पसंद है.

इन मख्खों से आहत, चोटिल, घावित वसंतसेना का मन और शरीर दोनों “heal”, “heilen” और “heil” होने के लिए तड़प उठा. अगर उसने अभी के अभी इसके विरुद्ध में कोई कार्यवाही नहीं की तो घाव और भी गहरा और बदबूदार हो सकता है, आघात में बदल सकता है और क्या पता इससे कैंसर हो जाए और वसंतसेना जिन्दा मर जाए. ये सोच सोचकर वो डर जाती है और मन ही मन काली, दुर्गा, गहिली माई और जीण माता की कसम के साथ साथ इसी राइनलैंड, जहाँ कोलोन है, की हिल्डेगार्ड वोन बिंगन की कसम खाते हुए तीनो मख्खों को कोफ़ी की कप की मुंडेर से अँधेरे कॉफ़ी के कुएं में धकेल देती है. जब मख्खे और भिनभिनाते हैं तो कप के ऊपर विक्टोरियन डिजाईन का टी कोस्टर रख देती है, जिसके ऊपर जर्मन भाषा में बड़े अक्षरों में लिखा होता है “Willkommen” (विल्कोमन) और छोटे अक्षरों में “Abschied” (अब्शीड). “Willkommen” का मतलब “स्वागत” और “Abschied” का मतलब “विदा” होता है.

जर्मनी के विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार जोहान् वोल्फ़गांग वोन ग्योटअ की एक कविता का शीर्षक भी यही है “Willkommen und Abschied” (स्वागत और विदा) और कविता यही कहना चाहती है कि स्वागत के साथ विदाई की तैयारी शुरू हो जाती है, लेकिन इन दोनों के बीच के पल में जो प्रेम मिला वो अद्वितीय है. वसंतसेना ख्यालों से बाहर आती है और “कितने गलत समय पर ये कविता उसके दिमाग में आई” सोचकर उठकर खडी हो जाती है. पहले मख्खे से प्यार से कहती है: “कम योग्यता वाली लड़कियों को जब तक समान काम के लिए बराबरी की तनख्वाह ना मिल जाए, तब तक क्या तुम उनके खर्च में उनका हाथ बंटा सकते हो ? वैसे इस काम की शुरुवात हमारी कॉफ़ी के पैसे देकर कर सकते हो.” सुनकर मरते हुए मख्खे के अंदर का मर्द खुश हो जाता है, उसे मजलूम लड़की की मदद करने का मौका जो मिलता है और वो भी दो कॉफ़ी के दाम के बदले.

दूसरे मख्खे की नफरत के आगे वसंतसेना लगभग घुटने टेकते हुए अदब से कहती है: 


“हम zero-tolerance में विश्वास करने वाली लड़कियों को अपने बॉयफ्रेंडस यूँ ही छोटी छोटी बातों पर नहीं छोड़ना चाहिए. हमें उन्हें कुछ सिखाना चाहिए, क्यूंकि बदलाव तो हमें ही चाहिए ना. पर क्या करूँ वक़्त जाया करने का दिल नहीं करता कभी कभी मेरा, सो उनका जीवन अगर कॉफ़ी में डूबे इन मख्खों जैसा हो या उन भिनभिनाते मख्खों जैसा- क्या फर्क पड़ता है.” 

अब राहुल डर जाता है. वसंतसेना का घाव, चोट सब उछल कर पारी बदल लेते हैं और राहुल के अंदर के लिंगवाद और मीसोजनी पर बैठ जाते हैं.

तीसरा मख्खा अब तक जान छुड़ाकर बाहर निकल चूका था. ग्लोकनगासे पर “Eau De Cologne” का इतिहास बताते हुए तीनों एक परफ्यूम की दूकान पहुँचते हैं. 275यूरो वाले महंगे परफ्यूम को उठाते हुए वसंतसेना पूछती है: “आपके साथ जॉइंट अकाउंट बनाने से पहले क्या एक परफ्यूम खरीद लूँ? अपनी आज़ादी की सुगंध को एक यादगार निशानी के तौर पर ? डरे हुए राहुल का खोया हुआ मर्दानी आत्मविश्वास वापस आ जाता है और काउंटर पर जाकर जिद करता है कि पैसे तो वही देगा. आज़ादी की कीमत वही चुकाएगा.

खैर उसके बाद दोनों विदा लेते है. राहुल अंदर से थोडा विचलित है, पर उसे समझ में नहीं आ रहा कि क्यूँ विचलित है. ट्राम में बैठी खूबसूरत, तहजीबों अदब वाली, मधुरभाषी वसंतसेना को वो धीरे धीरे आँखों से ओझल होते देखता है. अपने मोबाइल में गड़ी उसकी आँखें राहुल को बेहद खुबसूरत लगती है. ठीक इसी पल वसंतसेना उसे एक मेसेज टाइप कर रही होती है: “इतना वक़्त देने के लिए धन्यवाद. वक़्त बहुत कीमती होता है.” इतना लिखकर वो उसका नंबर ब्लॉक कर देती है. स्टेशन पर खड़े राहुल को समझ में नहीं आता कि उसका मेसेज उनडिलीवर क्यूँ बता रहा. जिसमे उसने लिखा था: “आशा है आपको आज़ादी वाली परफ्यूम पसंद आएगी”.

अब तक पूरी तरह “heal” कर चुकी वसंतसेना पोस्ट ऑफिस जाकर मेरे यानी कामिनी देवी के पते पर परफ्यूम की वही बोतल पोस्ट कर देती है. कुछ दिनों बाद मुझे वह परफ्यूम मिलती है, साथ ही एक पर्ची पर एक फ़िल्मी डायलॉग लिखा है: “इस छोटी परफ्यूम की बोतल की कीमत तुम क्या जानो कामिनी”.

मेरी तो समझ में नहीं आई इस लड़की की बात. आपकी समझ में आई हो तो बताना.
और वो जर्मन परफ्यूम है बहुत शानदार, बोतल की तली में मरे परे तीन मख्खे उसकी सुगंध को दिन दुनी रात चौगुनी फैला रहे हैं. 
और हाँ, इस पूरे वर्णन में उस लड़के का नाम बदल कर राहुल कर दिया गया है. हम नहीं चाहते हैं कि इस तरह कि गढ़नियों से किसी राहुल को चोट लगे.
  
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007manjari@gmail.com

परख : तुमड़ी के शब्द (बद्री नारायण) : सदाशिव श्रोत्रिय

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राजकमल से प्रकाशित बद्री नारायण के नवीनतम कविता संग्रह 'तुमड़ी के शब्द'की समीक्षा सदाशिव श्रोत्रिय कर रहें हैं. 




                              

बद्री नारायण
तुमड़ी के शब्दों  का अंतर्लोक                 
सदाशिव श्रोत्रिय


विता का अस्तित्व ही अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मानव जीवन के समस्त अनुभवों को तर्कसंगत के दायरे  में नहीं लाया जा सकता. जो भौतिक, ठोस और मूर्त है केवल वही जीवन की वास्तविकता नहीं है. बद्री नारायण के नव प्रकाशित काव्य-संग्रह तुमड़ी के शब्द (राजकमल पेपरबैक्स, 2019) को पढ़ते समय हमें लगता है कि एक संवेदनशील कवि इस तथ्य को न केवल अनुभव करने बल्कि उसे अपने काव्य में व्यक्त करने की भी क्षमता रखता है. कामना-पूर्ति  की असम्भाव्यता और मानव जीवन की नश्वरता का दार्शनिक–आध्यात्मिक स्वर इस संग्रह की पहली कविता सिर्फ़ चार दिन” (पृष्ठ 9)  में ही हमें सुनाई दे जाता है :

पहले दिन इच्छा जगी 
दूसरे दिन आस 
तीसरे दिन जग गई मुझमें पाने की चाह 
चौथे दिन, हां चौथे दिन जब मैंने पाने के लिए हाथ बढ़ाया 
सेमल का फूल उपह गया बीच आकाश 
जीवन कितना छोटा है मेरी हिरण
                                                     
इस कविता मेंहिरणका प्रयोग हमें तुरंत कबीर के उन पदों की याद दिला देता है जिन्हें कुमार गन्धर्व ने अपना स्वर देकर हमारी सांस्कृतिक विरासत का स्थाई भाग बना दिया है. कबीर इस कवि की कल्पना में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हैं इस बात का एहसास हमें इस संग्रह कीभदोही बस स्टैंड पर” (पृष्ठ 10) जैसी कविता पढ़ते हुए तुरंत हो जाता है :

बांधे मुरैठा 
सर में पंख खोंसे 
खूंट में सुर्ती बांधे 
..............
कबीर खड़े थे भदोही बस स्टैंड पर 
बस के इंतज़ार में  ! 
यहां तो हद-बेहद दोनों चला गया 
अब यहां रह कर क्या होगा 

चलो और कहीं चलें .

पर शीघ्र ही इस कविता के कबीर को यह अहसास हो जाता है कि आज वे जहां जाएंगे वहीं उस स्थान को अपने लिए अनुपयुक्त पाएंगे :

चला जाऊंगा गाज़ियाबाद 
वहीं लगाऊंगा अपना ठौर 

पर गाज़ियाबाद में भी 
जहां जाऊंगा बुनने-कातने 
वह जगह – वह करघा भी 
कोई न कोई खरीद रहा होगा,
कोई न कोई बेच रहा होगा 

खंजड़ी की आवाज़ को मन में सुमिरते 
सोचा कबीर ने 
कोई बात नहीं 
.........

सूरत चला जाऊंगा 
यह सोचते कबीर यह भूल गए थे कि 
सहमत के अनहद नाद के बावजूद 
वहां पिजाए जा रहे थे कई खंजर 
उनके इंतज़ार में 

इस संग्रह की कविताबेगमपुरा एक्सप्रेस” (पृष्ठ 45) जो पहले  आलोचना में प्रकाशित हुई थी, आज के नितांत भौतिकता की ओर बढ़ते संसार में उस बेफिक्री और फक्कड़पन–जनित आनंद की ओर हमारा ध्यान खींचती है  जिसे केवल प्रेम काढाई आखरजानने वाले घाना,पीपा और सेना नाई जैसे संतों द्वारा ही हासिल किया जा सकता है :

कहते हैं कि पैसे से मिल जाता है सब कुछ 
पर लोग हाथ में ले खड़े हैं पैसे, रुपये व एटीम कार्ड 
टिकट बाबू फिर भी उन्हें टिकट नहीं देता 

क़त्ली,ख़ूनी,बलात्कारी ,
बेईमान, चालू, फ़ॉड, लम्पट,
हिंसक,झूठे,बवाली,
सुल्तान,साहेब, मालिक 
इन सबको नहीं मिलेगा टिकट 
दम्भी कवि, सत्ता के बौद्धिक 
सब खड़े रह जाएंगे और नहीं मिलेगी 
उन्हें इस ट्रेन की टिकट 
................
लहरों से होकर आए तारों को 
कोमल मन सुकुमारों को 
सराय के मालिकों को तो नहीं 
पर सराय में रुकने वालों को 
मिल जाएगी टिकट 


जो हमारे आसपास घटित हो रहा है उसे महसूस तो हर व्यक्ति करता है पर उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना एक संवेदनशील कवि के लिए ही सम्भव होता है. इस तरह किसी कवि का प्रमुख काम उसके समय के यथार्थ को मुखरित करना होता है. कवि की इस भूमिका का निर्वाह बद्री नारायण अपनी इस नई कविता पुस्तक में  बखूबी करते हैं .  हम(पृष्ठ 105) में वे कहते हैं:

कुछ हमें सताते हैं ,
कुछ को हम सताते हैं 
एक दूसरे को सताते हुए 
हम इस सभ्यता को आगे बढ़ाते हैं  
...............
कुछ का हम तेल चुआते हैं 
कुछ हमारा तेल चुआते हैं 
कुछ हमें दुखाते हैं 
कुछ को हम दुखाते हैं 
एक-दूसरे  से ऐसे ही जुड़कर हम 
एक राष्ट्र बनाते हैं 
.............

अनेकताओं के कत्ल पर 
एकतायहां लेती है आकार 
खंड –खंड को मार-मार 
अखंडता’ आती है 
हुजूर ! माई-बाप, सरकार 
क्या कहूं, क्या न कहूं 
ऐसे जनतंत्र की जम्हाई से 
आती है फासीवाद की बास   
                     

हमारे समय के जिस एक महत्वपूर्ण विषय को कवि इस संग्रह में एकाधिक बार उठाता है वह हमारे देशज विचारों की निरंतर मृत्यु का है  .लगाओ गुहार”( पृष्ठ 41) में वह कहता है :

तीसरी दुनिया में अभी भी चल रहा है 
विचार का एक दुर्धर्ष संग्राम 
और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि 
देशज विचार लगभग हारने के क़रीब हैं 

........थोड़े क्षण के लिए दिल्ली और केपटाउन की माया से मुक्त होओ 
बचाओ अपने को क्रिओल में बदलने से 
लगाओ गुहार 
कि बच सके देशज विचार 
और कहीं नहीं तो 
गिरि-पर्वत , जंगल-झाड़ में ही 
उनके भी पक्ष में चलाओ 
एक हस्ताक्षर अभियान 

अपनी  इस बात को कवि  इसी संग्रह की एक अन्य कविताविचार मृत्यु”( पृष्ठ 39) में अधिक स्पष्ट रूप से कह पाता है :

नये नये गेजेट्स 
मोटोरोला ,...नोकिया 
यूनिनॉर,.......
एयरटेल 
ये मात्र मशीनें नहीं हैं 
विचार हैं 
........
विचारों के प्रवाह के मार्ग हैं
उनमें स्वप्न देखता है 
सिलिकॉन वैली
दिल्ली की आंखों से 

मोदी आएं या केजरीवाल 
आंखें तो वही रहेंगी 
और वही रहेंगी पुतलियां 
निक्सन रहें , क्लिंटन 
या ओबामा 
स्वप्न भी वही रहेंगे 
मड़ियाहूं को तो जीत लिया 
चिली,मकाऊ और 
नदियावां पर भी राज करना है 

गांव सिर्फ़ गांव नहीं थे 
विचार थे 

धीरे-धीरे मर रहे हैं गांवों के विचार 
यह हम समझ नहीं पा रहे हैं 
पर स्वर्ग में गांधी जी 
और जंगीगंज में रात में रोते हुए सियार 
इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं 

हमारे समय में  लोगों के जीवन  की  कई अन्य विशेषताओं की ओर भी यह कवि हमारा ध्यान खींचता है. उदाहरण के लिए हम  “सपने सरकारी” (पृष्ठ 101) को देखें :

मेरे पास
क्या नहीं है  ? 
हाथी है ,घोड़ा है ,
हीरा और मोती है 
नग और नगीना है 
बांकी हिरनिया है 
प्रधानी, प्रमुखी, चेयरमैनी है 

फिर क्यों हर क्षण मेरे मन में आता रहता है 
भिक्षावृत्ति का भाव 

मैं मांगता ही रहता हूं 
कभी इससे 
कभी उससे 
जैसे रस्सी में ऐंठन होती है 
वैसे ही मेरी नसों में 
क्यों भरा रहता है जी हजूरी का भाव 
........
मेरे मन का रंग खाकी है 
और सपनों का रंग सरकारी 

इसी तरहरानी तेरा नौकर” (पृष्ठ 34) में वह जहां एक ओर आरक्षण नीति से प्रभावित उच्चवर्गीय लोगों  की प्रतिक्रिया के बारे में प्रश्न करता है वहीं वह उससे लाभान्वित लोगों का अंतिम लक्ष्य उस उच्चवर्ग का ही एक हिस्सा हो जाने के बारे में भी  काव्यात्मक टिप्पणी करता है :

रानी तेरा नौकर 
जो तुम्हारा चप्पल चमकाता था 
तेरे घोड़ों की करता था मालिश 
आज सूटेड-बूटेड 
तेरे राजभवन में किताब पढ़ रहा है .
तुझे खुशी हुई कि दुख  !
तुझे हैरानी हुई कि परेशानी  
....................
तुझे ...जानकर आश्चर्य होगा रानी 
कि तुझसे आज़ादी के इतने सालों बाद भी 
............
वह तुम्हारी जीवनी पढ़ रहा है 
........
और मुग्ध हो किलक-किलक 
अपने बच्चों को भी सुना रहा है 
तुम आज भी उसमें कितनी जीवंत हो रानी  ! 


अपने मूल स्थानों से निरंतर उखड़ते जाते लोगों के सन्दर्भ में भी इस कवि के मन में कई तरह के विचार आते हैं जिन्हें हम इस संग्रह की अंतिम कवितापहचान” (पृष्ठ 111) में भली भांति देख पाते हैं 

अजब कन्फ्यूजन है इस समय में 
सब अपनी –अपनी पहचान से त्रस्त हैं 
किसी के लिए पहचान शक्ति है 
किसी के लिए सज़ा 
..........
कोई असली खांटी मूल निवासी 
होने का दम भरता है 
पर सच तो यह है लोगों  
जो अपने को जहां का समझता है 
सच मानो वह वहां का नहीं है 

इस कविता  में बद्री नारायण लौकिक  का वर्णन करते हुए अपनी कुशल सहजता से एक दार्शनिक आयाम भी जोड़ देते हैं :

...यह दुनिया कंजूस मालकिन की 
सराय है 
जहां पर हर क्षण सबको अपना बिस्तरबन्द 
पैक रखना है 
कब  हो जाए जाने का आदेश 
कोई ठीक नहीं . 

बुरूंस के फूल (पृष्ठ 27)  उस विशिष्ट प्रकार की प्रेम कविता है  जिसमें प्रेमिका की अनुपलब्धि को ही प्रेमी अपनी उपलब्धि के रूप देखता है . इसे एक तरह से  ग़ालिब केये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होतावाले प्रेम-भाव का  विस्तार कहा जा सकता है :

आकाश में उड़ता एक लाल पतंग मुझे समझाता है 
कृष्ण भी तो राधा से कितना दूर रहे थे 
कि मालूशाही भी कितना तड़पा था 
राजुला के लिए 
..........
कि नेहरू को भी लेडी माउंटबेटन कहां मिली
 ........
कि बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन जिस
भीलनी औरत के प्यार में थे पागल 
वह भीलनी उन्हें मिलकर भी कहां मिल पाई 
कि मिलने की सम्भावना का बिल्कुल न होना 
कि मिलते मिलते न मिल पाना 
कि न मिल पाने के लिए छूट जाना 
कि मिल मिल कर छूट जाना 
यह सब तो है पार्ट ऑफ लाइफ 
समझा रहा है मुझे 
आकाश में उड़ता पतंग  .

न केवल इस संग्रह की कवितास्थायी भाव”( पृष्ठ 73) में बल्किमेरे पास कुछ नहीं था”( पृष्ठ 78) औरकोई नहीं है”( पृष्ठ 97) जैसी कुछ अन्य कविताओं में भी बद्री नारायण अकेलेपन को हमारे समय के स्थायी भाव के रूप में देखते हैं :

उड़ते पीले पतिंगे को ड्यूटी पर जाना है  
गौरेया के लिए एक ज़रूरी मीटिंग पहले से तय है 
तितली का किसी के संग डेट है 
.........
किसी के पास भी वक्त नहीं है कि 
उस पत्ते से पूछ सके कि 
.........
क्या दुख है तुम्हें 
बगल में डाल के पत्ते अपने-अपने 
परिवार में मशगूल हैं 
यह कैसी दुनिया 
तू बना रहा है हे खुदा 
जिसमें इस पत्ते से 
इसका दुख पूछने वाला कोई नहीं है .

जिसे सिर्फ तर्कसंगत से व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी को अभिव्यक्त करने की कोशिश लोक-कथाएं और मिथक करते हैं . हमारे आज के भौतिक,वैज्ञानिक और तर्कसंगत तथ्यों का मिथकीय और लोक-कथात्मक के साथ फ़्यूज़न बद्रीनारायण जैसे आधुनिक  कवि की संवेदना की अपेक्षा रखता है . उनके इस गुण को हम उनकी कुरता और लड़की” (पृष्ठ 54) जैसी कविताओं में देखते हैं जहां वे कविता के इन परम्परिक औजारों से मानवीय प्रेम के एक गहरे स्तर का अन्वेषण करने में सफल होते हैं   :

एक कुरता था
एक लड़की 
........
जब भी वह उसे 
मेरे देह पर देखती 
मुग्ध हो जाती 

धीरे-धीरे वह कुरता पुराना 
होता गया 
........
धीरे-धीरे वह लड़की 
उस कुरते से उदासीन होती गई ,
............
मैं उस कुरते को ले कोरी के पास गया 
कोरी ! कोरी ! इस कुरते के धागों को फिर से नया कर दो 
उसने कहा, यह मेरे बस में नहीं 

फिर रंगरेज के पास गया 
रंगरेज  ! रंगरेज  ! इस कुरते को फिर से रंग दे 
उसने कहा,यह मेरे बस में नहीं,
उसी वक्त करवा चौथ के लिए आकाश 
पर आए चांद ने कहा,
यह काम न दुनिया कर सकती है , न देवता 
उसे नया सिर्फ़ वह लड़की कर सकती है ,
जो इस पर पहली बार 
मुग्ध हुई थी. 

बेकसूर के साथ अन्याय और ज़्यादतियों से जो करुणा-भाव उत्पन्न होता है वह किसी संवेदनशील कवि के लिए नया नहीं है. वस्तुत: वही भाव उसे अतीत के कवियों से जोड़ता भी है. इसी तरह किसी के प्रति तीव्र प्रेम से उत्पन्न पूर्वजन्म के बन्धन का भाव भी साहित्य में बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाता है. इस संग्रह की कविताओंमेरा कोई एक पता नहीं है” (पृष्ठ 18) औरपिछले जन्म की याद” (पृष्ठ 21) को समझने के लिए हमें कविता की इन परम्परिक विशेषताओं की ओर ध्यान देना होगा .

हमारे समय के तेज़ी से पनपते भोगवाद, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद  को बद्री नारायण  स्पष्टत: मृत्यु से जुड़ा देखते हैं :

आनंद, वैभव, खुशियों की तलाश में 
मॉल, हाइवे,फ्लाइओवर से गुज़रते 
तुम पहुंच  रहे हो 
एक महाबाज़ार में 
उसी बाज़ार के बिल्कुल बग़ल से 
खुलता है मृत्यु लोक का एक महाद्वार 
.........

ज़िन्दगी की हंसी खिलखिलाहटों के बीच 
यह दुनिया है एक महाश्मशान 
हीरे में भी पत्थर होता है तुम क्यों नहीं समझते 
............

तुम चाहते हो इस जीवन के हर आनन्द को भोग लेना 
परंतु तुम यह क्यों नहीं समझते 
कि चार्वाक दिल्ली में महाभोग के बाद भी कितना दुखी है 
और शाहदरा की किसी गली में बैठा फूट-फूट रो रहा है 


बेगमपुरा एक्सप्रेसकी तरह ही इस कविता में भी वे इस भौतिकता से जुड़ी मृत्यु और दरिद्रता क विकल्प कबीर जैसे संतों की वाणी में देखते हैं:

...तुम फिर से उस हंसा को 
क्यों नहीं करते याद 
जो हरे गाछ से उड़ान भरने को 
न जाने कब से खड़ा है 
तैयार !

भौतिक इच्छाओं, इन्द्रियभोगों और सत्ता-कामना के पीछे अन्धाधुंध भागते और उन्हीं की अग्नि में जल मरते आज के औसत इंसान का वर्णन हम इस संग्रह की कविताएक पन्डुक की रिपोर्टिंग(पृष्ठ  24) में भी पाते हैं :

मेरे साथ आई महरि चिड़िया
आज भी रहती है 
यहीं कहीं साउथ दिल्ली में 
रोज आधी रात के बाद 
मैं जली !  मैं जली !!
चीखती हुई .
 

मेरी मान्यता है कविता का आकाश जहां केवल मूर्त और भौतिक से भरता जा रहा हो वहां तुमड़ी के शब्द  जैसे काव्य-संग्रह का प्रकाशन हिन्दी के पाठकों को पुन: कविता के उस समृद्ध  अनुभव-संसार की सैर करवाने में सफल होगा जिससे उनका सम्पर्क छूटता जा रहा है.
___________
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 ,गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी , सेक्टर 14,
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परख : वैधानिक गल्‍प (चन्दन पाण्डेय) : श्रीकान्‍त दुबे

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धधकते वर्तमान का आईना है उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’
श्रीकान्‍त दुबे



चंदन पांडेय के नवलिखित और पहले ही उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’ का वाचक नैतिक पशोपेश की अवस्‍था में एक जगह सोचता है कि, ‘‘उन सिपाहियों के सामने मेरुदंड निकालकर मेरा रख देना मनुष्‍यता में गिना जाएगा या नहीं?’’ इस वाक्‍य में ‘उन सिपाहियों’ की जगह ‘तंत्र’ अथवा ‘व्‍यवस्‍था’ शब्‍द रख दिया जाय, तो जिस पशोपेश को दर्शाने वाला वाक्‍य मिलेगा, वह एक वाक्‍य ही इस उपन्‍यास का निचोड़ और हासिल है.

यह उपन्‍यास, कठिन समय में रचनात्‍मक प्रतिबद्धता का स्‍वरूप कैसा हो, के प्रश्‍न का उत्‍तर अप्रतिम तरीके से देता है. यह कहना कहीं से भी हड़बड़ी नहीं होगी कि कुल 141 पृष्‍ठों के इस उपन्‍यास के साथ चंदन के लेखक ने जो ऊंचाई हासिल की है, वह न सिर्फ हिंदी बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों के लिए मिसाल सरीखी है, और यह बात मैं पूरी जिम्‍मेदारी के साथ कह रहा हूँ. यूँ तो ‘वैधानिक गल्‍प’ से पहले की चंदन की रचनाओं, जो कहानियां रहीं हैं, में वर्णित तत्‍काल की राजनीति के बारे में भी उनकी अचूक समझ की झलक मिलती रही है, लेकिन किसी समय की ‘राजनीति’ को ही रचना की थीम बना लेने का जोखिम उन्‍होंने पहली बात उठाया है और क्‍या खूब निभाया है.


जबकि हमारे वर्तमान में दुनिया की दस फीसद से अधिक की आबादी द्वारा बोली जाने वाली हिंदी भाषा के ज्‍यादातर लेखक/बुद्धिजीवी समय के विरुद्ध लड़ाई में या तो खुद को अप्रासंगिक पा रहे हैं या फिर विद्रूपों के समक्ष घुटने टेकते नज़र आ रहे हैं, चंदन ने ऐसे ही एक लेखक अर्जुन को अपने उपन्‍यास का वाचक चुना है. उपन्‍यास की कथा जिस बिंदु से उठती है, स्‍पष्‍ट है कि वह समय हमारे आज के जैसा ही कोई विक्षुब्‍ध समय है, लेखक अर्जुन जिससे सामंजस्‍य बिठाते हुए अपने ‘कंफर्ट जोन’ में जी रहा है. ऐसे में (कु)तंत्र की मार उसके अपने ही अतीत के किसी बेहद करीबी शख्‍स अनसूया पर पड़ती है जिसका पति रफीक लापता हो गया है. ऐसे में अनसूया के पास मदद के लिए दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अर्जुन का ही विकल्‍प शेष है. लेखक अर्जुन नहीं, व्‍यक्ति अर्जुन. अपने जीवन के अनसूया वाले अध्‍याय के चलते अपने पारिवारिक जीवन के प्रभावित होने की आशंका, और फिर अनसूया तक पहुंचने और उसके बाद हालात को ठीक करने की कोशिशों के क्रम में पेश आने वाली दुश्‍वारियों की सोच वह उसकी पुकार को टाल जाना चाहता है. लेकिन तभी लेखक अर्जुन की पत्‍नी अर्चना खुद आगे आकर अगली ही उड़ान से अनसूया के पास पहुंचने के बंदोबस्‍त करती है तथा अनसूया के लापता पति को तलाशने के लिए अपने तईं हर संभव कोशिश अलग से करती है.


लेखक अर्जुन द्वारा मामले को टाल जाना जहां हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग के दोहरे चरित्र को दिखाता है, वहीं अर्चना का मामले में आगे आना अपने आसपास से लेकर दूर-दराज तक घटित हो रहे ‘ग़लत’ के प्रति आम जन-मानस की जागरूकता का परिचय देता है और यह दोनों ही हमारे समय का यथार्थ हैं.


कथा के साथ साथ नायक के आगे बढ़ने के क्रम में लगातार उस प्रक्रिया की पोलपट्टी खुलती जाती है, जिसके तहत तंत्र अपनी सुविधानुसार सत्‍य (Convenient Truth) को न सिर्फ तैयार करवाता है, बल्कि हर संभव माध्‍यम से उसका प्रचार-प्रसार कर अपने पक्ष में एक भीड़ भी तैयार कर लेता है. यह सब कुछ चंदन ने जिस भौगोलिक परिवेश में संभव किया है, वह  सुविधासंपन्‍न महानगरीय जीवन से बहुत दूर का एक कस्‍बा है, लेकिन तंत्र के प्रपंच का विस्‍तार वहां तक भी उसी रूप में दिखाई देता है. पेशेवर नैतिकता, जिसका स्‍तर हमारे आज के संचार माध्‍यमों के मामले में पहाड़ों में रात के तापमान की तरह गिरता जा रहा है, के पतन की पराकाष्‍ठा के रूप में एक स्‍थानीय पत्रकार सामने आता है, जो प्रचलित धारणा के आधार पर अनसूया के मुस्लिम पति और उसी के कॉलेज की एक हिंदू छात्रा के लापता होने को एक साथ जोड़कर इसे ‘लव ज़ेहाद’ की आशंका नहीं, मुकम्‍मल खबर छाप देता है. और जैसा कि ऐसे मामलों में आजकल हो रहा है, उसके पास इस बात का कोई आधार नहीं होता है. फिर क्‍या, समूचा पुलिस तंत्र इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने तथा ‘लव ज़ेहाद’ साबित करने के लिए सबूत की Manufacturing में लग जाता है और सफल भी होता है.

कहना न होगा कि कथा के समानांतर यहां तक पहुंचते हुए देश में बीते चंद वर्षों में हुई अनेक घटनाएं याद आती रहती हैं और उनके पीछे का सच कैसा रहा होगा तथा किस तरह से तंत्र ने उसे छुपाने या फिर निगल जाने के हर संभव जतन किए होंगे, के भेद खुलते जाते हैं. वे घटनाएं, मसलन,जेएनयू के छात्र नज़ीब का गायब हो जाना, तथा देशव्‍यापी मांग और आंदोलनों के बावजूद उसका पता न चल पाना. विभिन्‍न छात्र आंदोलनों से जुड़े विडियो फुटेज़ को संपादित कर उन्‍हें बहुसंख्‍यक तबके में उन्‍माद भड़काने लायक बना प्रसारित करना तथा बाद में उस विडियो के गलत साबित होने की बात सामने आने पर व्‍यवस्‍था द्वारा पूरी ताकत लगा इस उद्घाटन को ही ग़लत साबित करना, फिर अचानक ही चुप हो जाना तथा समय समय पर सुविधानुसार उस झूठ को सत्‍य के रूप में उद्धृत कर अपने राजनैतिक हित साधना.


यहां, यानी सत्‍य, तक पहुंच जाने के बाद, जबकि लेखक अर्जुन को राहत की सांस लेनी थी, वह अपने सामने और अधिक अंधेरा पाता है. मानो वह झूठ के ऐसे ब्‍लैक होल के पास खड़ा हो, जिसके सामने आने वाले हरेक सच को वह अपने भीतर खींचकर गायब कर देगा और सत्‍य के रूप में देखने को केवल वह झूठा चेहरा ही शेष रहेगा. क्‍या हमारे वर्तमान का य‍थार्थ यही नहीं है?

उपन्‍यास लिखना कोई दो-चार रोज का काम नहीं होता है और यह प्राय: महीनों से लेकर वर्षों की तैयारी की मांग करता है. तिस पर भी यदि लेखक का नाम चंदन पांडेय हो, तो उनकी धैर्यपूर्ण तैयारी में लगने वाले समय की गणना और मुश्किल हो जाती है (उनकी लिखी कहानियों के बीच के समय के अंतराल तथा उनकी भाषा से लेकर शिल्‍प तक में बरते गए धैर्य के मद्देनजर). लेकिन कई बार रचना का विषय इतना सघन होता है कि उसके प्रभाव में लेखक चंद महीनों में ही कई दसक का जीवन जी लेता है (पेरू के उपन्‍यासकार मारियो बार्गास य्योसा की कथेतर पुस्‍तक ‘युवा उपन्‍यासकार के नाम पत्र’ इस बात को अनेक उदाहरणों से समझाती है). ऐसे में चंदन के उपन्‍यास में ठीक वैसी ही घटनाओं की बहुलता चौंकाती है जो उपन्‍यास के छपकर पाठक के हाथ में आने के दिन और समय पर आस-पास में घटित हो रही है. यह न सिर्फ उपन्‍यासकार को एक चेतस प्रेक्षक बल्कि ऐसे लेखक के रूप में भी स्‍थापित करता है जो अपने दायित्‍व के प्रति जितना ईमानदार है उतना ही चौकन्‍ना भी है. अपने वर्तमान के व्‍यवस्‍था‍जनित खतरों का उद्घाटन चंदन ने जिस सटीकता और तीक्ष्‍णता के साथ किया है, उसे ध्‍यान में रखते हुए पुस्‍तक के विमोचन के समय ‘आने वाले समय’ के संदर्भ में एक प्रश्‍न का चंदन द्वारा दिया गया उत्‍तर डराने वाला होता है, जब वह कहते हैं कि आने वाले समय में यह खतरे और बढ़ेंगे.

उपन्‍यास इतना सशक्‍त है कि यदि सीमित शब्‍दों में उस पर बात करनी हो, तो वह समूची शब्‍द सीमा उसके कथ्‍य के बारे में जरूरी बातें करने में ही चुक जाएगी, जैसा इस मामले में मेरे साथ भी हो रहा है, जबकि उपन्‍यास की भाषा और शिल्‍प जैसे पहलुओं की बात भी कथ्‍य के जैसी ही चुस्‍त और अभिनव है.

इस बाबत आश्‍वस्‍त होते हुए कि बिना किसी पूर्वाग्रह के उपन्‍यास को पढ़ने के बाद ज्‍यादातर सुधी पाठकों की राय भी ऐसी ही होगी, मैं यह कहना चाहूंगा कि ‘वैधानिक गल्‍प’ न सिर्फ पाठकों के बेशुमार प्‍यार का हक़दार है बल्कि हर प्रबुद्ध व्‍यक्ति द्वारा इसे अपने समय के जलते यथार्थ के आईने के रूप में लेते हुए इसके प्रसार (प्रचार नहीं) के यत्‍न करने चाहिए. लेखक के कहे हुए के अनुसार ‘वैधानिक गल्‍प’, जो कि हर मायने में एक राजनैतिक उपन्‍यास है, उनके एक उपन्‍यास-त्रयी का पहला भाग है तथा उसका दूसरा भाग भी लगभग तैयार है. ‘वैधानिक गल्‍प’ के पढ़े जाने के बाद उपन्‍यासकार चंदन को लेकर जो उम्‍मीदें बढ़ी हैं, उनके लिहाज़ से यह आश्‍वस्तिकारक है.  
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shrikant.gkp@gmail.com

विश्व हिंदी दिवस : राहुल राजेश

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सन दो हजार उन्नीस में हिंदी और आगे                                
राहुल राजेश




क विभागीय प्रशिक्षण के सिलसिले में बहुत दिनों बाद इस बार चेन्नई आया तो कुछ सुखद अनुभव हुये. इस बार प्रशिक्षण संस्थान के प्रायः सभी संकाय सदस्य अपने सत्रों के दौरान हिंदी और अंग्रेजी में बोल रहे थे. इससे भी सुंदर बात यह थी कि वे प्रायः अपने अंग्रेजी वाक्यों में हिंदी के एक-दो शब्द भी इस्तेमाल करते जा रहे थे! और ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर एक खुशी भी झलक रही थी, एक खुलापन भी झलक रहा था और एक व्यक्त-अव्यक्त गर्व भी!

वे अपने व्याख्यान के दौरान अपने अंग्रेजी वाक्यों में बीच-बीच में 'लेकिन', 'तो', 'और', 'फिर से', 'इसलिए', 'इसके लिए', 'हमको मालूम है', 'ऐसा होता है', 'ठीक है'जैसे हिंदी शब्दों का इस्तेमाल ठीक वैसे ही कर रहे थे जैसे हिंदी वाले प्रायः 'बट', 'देन', 'सो', 'ऐंड', 'यू नो', ‘दिस हैप्पेन्स'आदि अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल हिंदी बोलते समय करते हैं! और ऐसा करते हुए थोड़ा गर्व भी महसूस करते हैं! यदि तमिलनाडु जैसे राज्य में हिंदी के प्रति पुराने रुख में यह बेहद मामूली बदलाव भी देखने को मिल रहा है और लोग यह बदलाव स्वयं ला रहे हैं और ऐसा करते हुए बिल्कुल सहज हैं तो यह बहुत खुशी की बात है.

इसमें कोई संदेह नहीं कि ये संकाय सदस्य अपनी नौकरी के सिलसिले में तमिलनाडु के बाहर भी कुछ वर्ष रह लेने के कारण भी टूटी-फूटी हिंदी तो सीख ही चुके होंगे. लेकिन वापस अपने राज्य में लौट कर भी हिंदी के न्यूनतम इस्तेमाल से भी न हिचकना हिंदी के प्रति उनके सहज हो जाने का सुखद प्रमाण तो है ही!


'नो हिंदी से यस हिंदी'

कक्षाओं के बाद देर शाम को संस्थान से बाहर पैदल निकला तो सोचा, बाहर भी कुछ जायजा लूँ! इसलिए एक ऑटो वाले से पूछा- यहाँ एजी ऑफिस से ब्लू लाइन मेट्रो एयरपोर्ट तक जाएगी? ऑटो वाले ने सहजता से कहा- हाँ, जाएगा न! मुझे तसल्ली हुई कि ऑटो वाले ने 'नो हिंदी'नहीं बोला! इतना तो है कि हिंदी में भी बात करने वाले बड़े व्यवसायियों को छोड़ दें तो जहाँ सीधे-सीधे ग्राहकी और कारोबारी लाभ जुड़े हुए हैं, कम से कम वहाँ अब स्थानीय बाशिंदे भी 'नो हिंदी'बोलकर अपना नुकसान नहीं करना चाहते. फिर भी जहाँ आमदनी का जरिया थोड़ा भी निश्चित है, वहाँ लोग, खासकर थोड़े निचले तबके के लोग अब भी 'नो हिंदी'बोलने में नहीं हिचकते! जैसे हमारे हॉस्टल के वार्ड बॉय ने 'नो हिंदी'कहते हुए ही मेरा स्वागत किया! मुझे लगता है, यहाँ जो तबका हिंदी के राजनीतिक विरोध के झांसे में आसानी से आ जाता है, वही तबका हिंदी सीखने से वंचित रह जाता है!

हाँ, केंद्रीय सरकार के कार्यालयों, बैंकों, कंपनियों आदि के नामपट्ट यहाँ तीनों भाषाओं में यानी तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में लिखे गए हैं, यह भी संतोष की बात है वरना यहाँ भी हिंदी-विरोध का असर दिख ही सकता था! बेंगलुरु मेट्रो के साइनबोर्डों के मामले में पिछले साल ही ऐसा हुआ था. वापसी में चैन्नै के कामराज हवाई अड्डे पर भी सुखद अनुभव हुआ. चेक-इन काउंटर पर मैंने हिंदी में बात की तो एयरलाइन कर्मी ने भी सहजता से शानदार हिंदी में बात की! मुझे यह देखकर अच्छा लगा और मैंने उसे अपनी खुशी भी जाहिर की तो उसे भी अच्छा लगा! नियमत: सभी निर्देश तो तीनों भा‌षाओं में लिखे ही थे लेकिन कुछेक उद्घोषणाएँ हिंदी में भी हो रही थीं तो और खुशी हुई! हो सकता है, यह सब पहले से ही हो रहे हों पर मैंने पहले ध्यान न दिया हो. पर ये अनुभव सुखद लगे.

वर्ष 2019 हिंदी के मामले भी कई मायनों में अहम रहा. और इस बर्ष दक्षिण भारत से भी एक अच्छी खबर आई! वैसे तो दक्षिण में तमिलनाडु ही एक ऐसा राज्य है जहाँ अक्सर हिंदी प्रतिकूल कारणों से ही सुर्खियों में रहती हैं!और 2019 में भी हिंदी ने खूब सुर्खियाँ बटोरीं!



हिंदी से नफरत बनाम हिंदी से प्यार

हिंदी दिवस के अवसर पर 14 सितंबर 2019 को माननीय केंद्रीय गृहमंत्री श्री अमित शाह ने जब कहा कि हिंदी पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरो सकती है तो सबसे पहले बदस्तूर तमिलनाडु से ही विरोध का पहला स्वर फूटा कि हम पर हिंदी थोपी जा रही है! फिर तो कई दिनों तक पूरे देश में हिंदी पर राजनीति होती रही! रजनीकांत से लेकर कमल हासन तक बयान देते रहे और हिंदी सुर्खियाँ बटोरती रही! स्टालिन की अगुवाई वाले डीएमके ने हिंदी के खिलाफ 20 सितंबर को विरोध-मार्च निकालने का एलान किया लेकिन जन समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण इस विरोध-प्रदर्शन को रद्द करना पड़ा! यह बात अंततः हिंदी के हक में ही गई!

दरअसल,तमिलनाडु में भी हिंदी को लेकर दो धड़े हैं. डीएमके हिंदी के विरोध में है तो एआईडीएमके हिंदी के पक्ष में! इसने तो डीएमके पर यह कहते हुए तंज कसा कि विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान जब हिंदी के प्रयोग से परहेज नहीं किया तो अब क्यों? तमिलनाडु में त्रिभाषा नीति (तमिल,अंग्रेजी और हिंदी) लागू करने की वकालत करते हुए एआईडीएमके के एक विधायक आर. टी. रामाचंद्रन ने इसी 24 जुलाई को यहाँ तक कहा कि जब मेरी बेटी प्राइवेट स्कूल में हिंदी पढ़ रही है तो राज्य के सरकारी स्कूलों के बच्चों को हिंदी से वंचित रखना उनके प्रति अन्याय होगा! और सिर्फ वोट बैंक के लिए हिंदी पर राजनीति करना राज्य की अधिसंख्य आबादी के साथ छल करना होगा!

अभी पिछले 03 अक्तूबर को मदुरई में मीनाक्षी मंदिर के निकट एक रेस्तरां का नाम हिंदी में प्रमुखता से प्रदर्शित करने पर उसके मालिक को रामनाथपुरम के एक वकील द्वारा बुरी तरह धमकाए जाने का वीडियो खूब वायरल हुआ. लेकिन अधिसंख्य लोगों ने इस कृत्य की भर्त्सना ही की.



तमिलनाडु में बढ़ती हिंदी

अभी 07 दिसंबर को तमिलनाडु सरकार को हिंदी को वरीयता और अधिक महत्व देने का  आरोप झेलते हुए इंटरनैशनल तमिल रिसर्च सेंटर, चेन्नै से एक वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल हिंदी को हटाना पड़ा और उसकी जगह फिर से तमिल को रखना पड़ा. लेकिन वहाँ के संस्कृति मंत्री के. पंडियाराजन ने साफ-साफ कह दिया कि उन्होंने वैकल्पिक हिंदी की जगह तमिल को फिर से सिर्फ इसलिए रख दिया ताकि डीएमके इसे बेवजह राजनीतिक मुद्दा न बना पाए! तो स्पष्ट है, तमिलनाडु सरकार में भी हिंदी को लेकर अब सकारात्मक सोच निर्मित हो रही है.

दरअसल, हिंदी वहाँ बस राजनीतिक मुद्दा भर ही है. सामाजिक मुद्दा कतई नहीं. इसलिए तो इन तमाम राजनीतिक विरोधों के बावजूद, तमिलनाडु में हिंदी के प्रति रुझान तेजी से बढ़ा है, जिसका संकेत मैंने ऊपर ही किया है.

08 जून को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक, तमिलनाडु में पिछले एक दशक में स्वैच्छिक रूप से हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों की संख्या में सतत वृद्धि हुई है. और इसमें 1918 में स्थापित दक्षिण हिंदी प्रचारिणी सभा और सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूलों की तेजी से बढ़ती संख्या अहम भूमिका निभा रही है. रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों की संख्या 2009-10 में दो लाख थी, जो 2018 में लगातार बढ़ते हुए पौने छह लाख तक पहुँच गई है! यह इस बात की भी तथ्यात्मक पुष्टि करता है कि राजनीति भले हिंदी से नफरत करती रहे, लेकिन लोग हिंदी को प्यार करते हैं! दक्षिण से हिंदी के बारे में इससे अच्छी खबर और क्या हो सकती है!



अमेरिका में भी बढ़ी हिंदी

यहाँ यह दुहराना सुखद है कि हिंदी सिर्फ दक्षिण में ही नहीं, पूरे भारत में बढ़ रही है और अमेरिका तक में इसने बढ़त बना ली है! 2011 की जनगणना में उभरे आंकड़ों के अनुसार, 2001 से 2011 के बीच हिंदी बोलने वाली आबादी,कुल आबादी के 41 प्रतिशत से बढ़कर, 44 प्रतिशत हो गई है.

लेकिन इससे भी अच्छी खबर यह आई कि अमेरिका में भी हिंदी बोलने वालों की तादाद में अच्छी खासी वृद्धि हुई है! और यह संख्या नौ लाख तक पहुँच गई है. इस तरह अमेरिका में हिंदी ने इस तादाद के साथ सर्वाधिक लोकप्रिय देसी (भारतीय) भाषा का दर्जा हासिल कर लिया है. सन 2010 से इस संख्या में लगभग 2.65 लाख (43.5 प्रतिशत) की वृद्धि हुई है. हिंदी के बाद वहाँ गुजराती और तमिल क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं.



यूएनओ में भी बढ़ा हिंदी का इस्तेमाल

साल की शुरुआत में ही संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) से एक अच्छी खबर आई. यूएनओ ने 10 जनवरी, 2019 को यानी विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर अपने यूएन न्यूज की हिंदी वेबसाइट आरंभ की. इसके साथ ही,यूएन रेडियो से यूएन न्यूज ऑडियो बुलेटिन भी हिंदी में फिलहाल साप्ताहिक आधार पर जारी किए जा रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि जुलाई, 2018 में ही यूएनओ ने ट्विटर,इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपनी सोशल मीडिया सामग्रियों का हिंदी संस्करण लांच कर दिया था. यह भी अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर हिंदी की एक बड़ी उपलब्धि ही है. इससे यूएनओ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने की राह भी आसान होगी. वैसे अब संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी हिंदी के पक्ष में सदस्य-देशों की संख्या बढ़ी है.

ज्ञात हो कि राज्य सभा में पूछे गए एक प्रश्न के लिखित उत्तर में भारत सरकार ने 25 जुलाई, 2019 को सदन को सूचित किया था कि यूएनओ में हिंदी को एक आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने और हिंदी का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार बढ़ाने की दिशा में किए जा रहे अपने प्रयासों को तेज करते हुए,भारत सरकार ने मार्च, 2018 में यूएन सचिवालय के साथ फिलहाल दो वर्षों की आरंभिक अवधि के लिए एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं. इस समझौते के अनुसार,विश्व भर के हिंदीभाषी श्रोताओं के लिए यूएन द्वारा सृजित हिंदी सामग्री की मात्रा और बारंबारता बढ़ाई जाएगी. इस समझौते के सुखद नतीजे आने शुरू हो गए हैं.



सिविल सेवा परीक्षा में भी बढ़ा हिंदी का जलवा

देश के संघ लोक सेवा आयोग की ओर से जारी एक ताजे आंकड़े के मुताबिक,सन 2019 में सिविल सेवा परीक्षा में सफल हुए 812 परीक्षार्थियों में से 485 परीक्षार्थियों ने हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से सफलता हासिल की है. यह कुल सफल परीक्षार्थियों का लगभग 60 प्रतिशत है. और इससे भी सुखद बात यह है कि पिछले 30 सालों में पहली बार 50 प्रतिशत से अधिक सफल परीक्षार्थी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं से हैं!

इससे साफ जाहिर है कि देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित मानी जाने वाली इस परीक्षा में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं की शानदार वापसी हुई है! साथ ही,हिंदी को बतौर एक वैकल्पिक विषय के साथ परीक्षा उत्तीर्ण करने का रुझान भी बढ़ा है.


गूगल की भी हिंदी से बढ़ीं उम्मीदें

इस वर्ष हिंदी के बारे में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र से भी एक अच्छी खबर आई. गूगल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘गूगल असिस्टेंटमें वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी के बाद हिंदी ही सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बनकर उभरी है! इस बात से उत्साहित होकर गूगल कंपनी अपने इस एप को सभी एंड्रॉयड उपकरणों में सीधे हिंदी में भी उपलब्ध कराने जा रही है. यह भी तो हिंदी का विस्तार ही हुआ न!

कुल मिलाकर, 2019 में हिंदी सिर्फ राजनीतिक विवादों के कारण ही नहीं बल्कि अपनी बढ़ती स्वीकार्यता और बढ़ती पहुँच के कारण भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रही. ये सुर्खियाँ हमें फिर आश्वस्त करती हैं कि सन 2020 भी हिंदी के लिए इनसे भी अच्छी खबरें लेकर आएगा!
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राहुल राजेश,
जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगांव (पूर्व), मुंबई- 400063.
मो. 9429608159.                                                        

केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य : बजरंग बिहारी तिवारी

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केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य                                
बजरंग बिहारी तिवारी     



केरल की समाज व्यवस्था कई मामलों में शेष भारत से भिन्न रही है. यहाँ की जाति प्रथा अपनी जड़ता, क्रूरता और विचित्रता के लिए जानी जाती थी. यह व्यवस्था पिछड़ों और दलितों के प्रति घोर असंवेदनशील थी. इसकी विचित्रता असमीपता, अदृश्यता और अस्पृश्यता में व्यक्त होती थी. स्पर्श से छूत लगती ही थी, यहाँ देखने भर से छूत लग जाती थी. दो भिन्न जातियों के लोग कितनी दूरी बनाकर रहेंगे, यह तय था. यह दूरी क़दमों से नापी जाती थी. जाति पिरामिड में कंगूरे पर बैठे ब्राह्मण से ईषव को छत्तीस कदम की दूरी बनाकर रखना पड़ता था जबकि एक पुलय को ईषव जाति के व्यक्ति से अड़तालीस कदम की दूरी बनाए रखनी पड़ती थी. ईषव अति पिछड़ी जाति थी तथा पुलय दलित जाति. दो दलित जातियों के मध्य छुआछूत का प्रावधान था तो दो ब्राह्मण जातियाँ भी दूरी बनाकर रहती थीं. यह पूरी तरह कठोर जाति मर्यादाओं में बंधा हुआ समाज था.
    
केरल की उत्पत्ति को लेकर कई मिथक प्राप्त होते हैं. ये मिथक मौखिक और लिखित दोनों रूपों में मिलते हैं. यह तय करना मुश्किल है कि उत्पत्ति संबंधी ये मिथक लिखित रूप में पहले आए या प्रचलित लोक विश्वासों को लिखित रूप दे दिया गया. केरल का प्राचीन इतिहास बताने वाले जो ग्रंथ हमें प्राप्त होते हैं उनके लेखकों के नाम अज्ञात हैं. इन ग्रंथों का रचनाकाल भी ठीक-ठीक नहीं पता. ऐसे ग्रंथों में मुख्य हैं ‘केरल माहात्म्यम्’ और ‘केरलोल्पति’. ‘केरल माहात्म्यम्’ सौ शीर्षकों और 2217द्विपदियों में रचित ग्रंथ है. यह गर्ग ऋषि और युधिष्ठिर के मध्य संवाद के रूप में रचित उपपुराण है. ‘केरलोल्पति’ को इस ग्रंथ से प्रभावित माना जाता है. ‘केरलोल्पति’ मलयालम में रची गद्यकृति है. इन दोनों ही ग्रंथों में केरल निर्माण का श्रेय परशुराम को दिया गया है. परशुराम ने अपने मन की शांति के लिए विष्णु की सलाह पर यहाँ ठिकाना बनाया था और समुद्र से यह भूमि मांग ली थी. उन्होंने यहाँ की भूमि ब्राह्मणों को दे दी और उनकी सेवा के लिए नायर, ईषव व अन्य जातियों को लाकर बसाया. ब्राह्मण सर्वोच्चता को प्रतिपादित करने वाली तीसरी किताब है ‘शांकरस्मृति’. सरल संस्कृत में लिखी इस कृति को धर्मशास्त्र (भार्गव स्मृति) का संक्षिप्त रूप माना जाता है. इसके रचनाकार का नाम भी अज्ञात है यद्यपि इसे अद्वैत दर्शन के संस्थापक शंकराचार्य रचित होने का दावा किया गया है. ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने की चिंता इस कृति के मूल में है. अन्य विश्वासों और लोक मान्यताओं के साथ परशुराम मिथ का उपयोग करके आधुनिक काल में डॉ. के. एन. एषुताचन ने ‘केरलोदय’ (1977) नामक महाकाव्य लिखा. पांच मंजरियों, 21सर्गों और 2500पद्यों में पूर्ण इस महाकाव्य में केरल की उत्पत्ति से लेकर बीसवीं शताब्दी के मध्य तक का ‘इतिहास’ वर्णित है. इसकी प्रथम मंजरी में केरल के अस्तित्व में आने की कथा है. इसमें चित्रित है कि परशुराम ने अहिच्छत्र से लाकर ब्राह्मणों को यहाँ बसाया था. केरल को ‘ईश्वर का अपना देश’ कहे जाने का आधार यह परशुराम मिथ ही है.
    
एक अन्य महत्त्वपूर्ण मिथ वररुचि से जुड़ा है. महान वैयाकरण वररुचि राजा भोज के सभापंडित थे. केरल में उनसे जुड़ी कथा ‘परयि पेट्ट पंतिरुकुलम’ नामक लोकोक्ति में सुरक्षित है. कथा के कई रूप हैं. कथासार संक्षेप में यह है कि प्रतिद्वंद्वी सभासदों के षड्यंत्र का शिकार होकर वररुचि को राजसभा छोड़कर यात्रा पर निकलना पड़ा. एक पेड़ के नीचे लेटे वररुचि को आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि उस गाँव के परय परिवार में जो लड़की पैदा हुई है वही उनकी पत्नी बनेगी. इससे डरकर वररुचि ने राजा को विश्वास में लेकर नवजात बालिका को मरवा देना चाहा. राजा से यह पाप न हुआ. उसने बीच का रास्ता निकालकर काठ के एक पटरे पर उस बालिका को रखकर नदी में प्रवाहित करवा दिया. बालिका के माथे पर चिराग था. समयांतराल में यह घटना सबको विस्मृत हो गई. किसी दूसरी यात्रा में वररुचि को एक ब्राह्मण परिवार में विलक्षण बुद्धि वाली एक विवाह योग्य कन्या मिली. उसकी कुशाग्रता से प्रभावित वररुचि ने उसके माता पिता से अनुमति लेकर उससे विवाह कर लिया. कुछ समय बाद पत्नी के माथे पर दाग देखकर वररुचि को सब याद आ गया. अपने को जाति बाहर समझकर उन्होंने तीर्थयात्रा आरंभ की. पत्नी पंचमी भी साथ ही रही. इस अनवरत यात्रा के दौरान पंचमी को एक-एक कर बारह संतानें हुईं. अंतिम संतान को छोड़कर शेष सभी संतानों को वररुचि जन्मस्थान पर ही छोड़ते गए. उन्हें अलग-अलग जातियों के परिवारों ने अपनाया. इनमें अग्निहोत्री (नम्बूदिरी ब्राह्मण) से लेकर नायर, लुहार, धोबी, शिल्पी, पुलय, परय आदि सब थे. अंतिम संतान मुखहीन थी जिसे वररुचि ने एक पहाड़ी पर मंदिर में रखा. बड़े होने पर 11भाई-बहनों (दस भाई और एक बहन) ने आपस में संपर्क किया. बड़े भाई अग्निहोत्री ने माता-पिता के देहावसान के बाद सारे संस्कार किए. यथावसर सब भाई-बहन इकट्ठे होते और सामूहिक आयोजन करते रहे. यह परंपरा आज भी किसी न किसी रूप में कायम है. पलक्काड जिले के विभिन्न भागों में बसे वररुचि-पंचमी के वंशज आज भी उस साझेपन को बनाए हुए हैं.
    
केरल में बौद्ध और जैनधर्म भी फले-फूले. संगम साहित्य से इसकी सूचना मिलती है. प्रारंभ में यह प्रांत तमिल इलाके में ही माना जाता था लेकिन चेर राजवंश के शासनकाल में इसकी अलग पहचान स्थापित हो गई. एकीकरण से पहले यह राज्य त्रावणकोर, कोचीन और मलबार तीन प्रांतों में विभक्त था. कालांतर में यहाँ ईसाई और मुसलमान आए. प्रारंभ में आए ईसाइयों को सीरियन कहा गया. अरब से आने वाले व्यापारी इस्लाम के अनुयायी हुआ करते थे. ज़मोरिन राजाओं ने उन्हें प्रश्रय दिया और उन्हें अपने राज्य में बसाया. मछुवारों को प्रोत्साहित भी किया गया कि वे इस्लाम अपनाएं. अर्नाकुलम के पास यहूदियों की सघन बस्ती रही. इतने धर्मों के अनुयायियों के होने के बावजूद केरल साम्प्रदायिक तनाव और धर्माधारित दंगों से बचा रहा. वररुचि के वंशजों में एक परिवार इस्लाम का अनुयायी हुआ. शेष कुनबों के साथ उनका रिश्ता तब भी बना रहा. यह ध्यातव्य है कि किसी भी पुराने धर्म ईसाई, इस्लाम या यहूदी ने केरल की जाति व्यवस्था में हस्तक्षेप की कोशिश नहीं की. दलित जातियों के प्रति सीरियन ईसाइयों का रवैया मोटे तौर पर वही रहा जो उच्च जातियों का होता है. यह व्यवस्था आधुनिक काल में आकर ही प्रश्नांकित होती है. 1840-50के मध्य यूरोप से आने वाली ईसाई मिशनरियां पहली बार केरल की समाज व्यवस्था में निर्णायक दखल देती हैं.
    
दास प्रथा केरल की पुरानी जाति व्यवस्था का अंग थी. पुलय और परय जैसी दलित जातियाँ दास थीं जिनका व्यापार होता था. इस प्रथा की सूचना केरलोत्पत्ति की गाथा बखानने वाले संस्कृत और मलयालम ग्रंथों से नहीं मिलती. ईसाई धर्मप्रचारकों को सबसे पहले यह प्रथा अखरी. उन्होंने दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाने की मुहिम शुरू की. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इस व्यवस्था में कोई दखल नहीं देना चाहते थे. वे इस बात को लेकर शंकित थे कि दास प्रथा का अंत करवा देने से कंपनी के हितों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. स्थानीय प्रभावशाली जातियाँ उनसे नाराज हो जाएंगी. उनका व्यापार और प्रशासन दुष्प्रभावित होगा. त्रावणकोर और कोचीन के शासक भी दास प्रथा के अंत को लेकर उदासीन थे. मलबार पर मद्रास प्रेसीडेंसी का सीधा शासन था. मलबार में दास प्रथा पर पहले रोक लगी. त्रावणकोर और कोचीन ने इसका अनुकरण किया. 1850से 1860के बीच समूचे केरल में दासप्रथा पर प्रतिबंध लग गया. प्रतिबंध के बावजूद दासों की खरीद-बिक्री होती रही. जनवरी 1862में इंडियन पीनल कोड (आइ.पी.सी.) लागू हुआ. दास प्रथा पर प्रतिबंध आइ.पी.सी. के अंतर्गत आ गया. आपराधिक कृत्य हो जाने के बाद ही दासप्रथा का उन्मूलन संभव हुआ.
    
धर्मांतरण के कार्य में यों तो कई मिशनरी संगठन लगे हुए थे लेकिन इनमें प्रमुख संगठन दो थे- लंदन मिशनरी सोसाइटी (एल.एम.एस.) और चर्च मिशनरी सोसाइटी (सी.एम,एस.). इन दोनों में आपस में भले ही मतभेद रहे हों, दासप्रथा के अंत के मुद्दे पर ये सोसायटियां मिलकर काम कर रही थीं. निश्चित ही इन धर्म प्रचारकों के मन में दासों की स्थिति को लेकर करुणा का भाव रहा होगा. वे इंसानियत के नाते इन दासों को मुक्त कराना चाह रहे होंगे. लेकिन, सच का एक पहलू यह भी है कि गुलामी से छुटकारे के बाद दास जातियाँ बड़ी तेजी से धर्मांतरित हो रही थीं. धर्मांतरण उनके लिए एक अवसर बनकर आया था. जितनी तेजी से दास मुक्त होंगे उतनी गति से यीशु के अनुयायियों की संख्या बढ़ेगी, यह हिसाब भी मिशनरियों के सामने रहा होगा. आरंभिक उदासीनता के बाद कंपनी/ब्रिटिश शासन भी दासप्रथा उन्मूलन में दिलचस्पी लेने लगा था. एक-एक कर तीनों राज्य दासों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने लगे थे. नव धर्मांतरित ईसाई पुराने अभिजन ईसाइयों से संख्या बल में आगे हो गए. इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और चर्च प्रतिष्ठान से उन्नति के अवसर पाने की संभावनाएं भी प्रबल होती गईं.
    
बढ़े आत्मविश्वास की पहली उल्लेखनीय अभिव्यक्ति चानार विद्रोह में दिखाई पड़ी. त्रावणकोर के दक्षिण इलाके में रहने वाली चानार जाति तब अछूत जाति थी. इस जाति के अधिसंख्य लोगों ने धर्मांतरण कर लिया था. तमिलनाडु में इस जाति को नाडार कहते थे. एक जातिवादी समाज पदानुक्रम बनाए रखने के लिए कई तरह के उपक्रम करता है. निचली जातियों पर भांति-भांति की बंदिशें थोपता है. पोशाक को लेकर जो अलिखित क़ानून कायम था उसके अनुसार चानार स्त्रियाँ कमर से ऊपर वस्त्र नहीं पहन सकती थीं. मतलब यह कि उन्हें अपने वक्ष ढंकने की मनाही थी. जिन दिनों (1810-1819) कर्नल मुनरो त्रावणकोर के रेजिडेंट थे उन्होंने आदेश जारी करके ईसाई चानार स्त्रियों को वक्ष ढंकने की अनुमति दे दी थी. उनके हटते ही स्थिति पूर्ववत हो गई थी. मगर, अब अछूतों की मनःस्थिति बदल चुकी थी. धर्मांतरित चानार समुदाय ने नई राजाज्ञा को मानने से इनकार कर दिया. इन्हें सबक सिखाने के लिए चानार बस्तियों पर हमले किए गए. स्त्रियों के कपड़े फाड़ डाले गए. उन पर भरपूर हिंसा की गई. प्रतिहिंसा का दौर चलना ही था. इस दंगे की चपेट में कई जिले आ गए. त्रावणकोर के चानारों ने तमिलनाडु में रहने वाली अपनी बिरादरी नाडारों से सहयोग माँगा. स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही थी. आखिरकार, राजा मार्तण्ड वर्मा को नया प्रोक्लेमेशन जारी करके चानारों की मांग पूरी करनी पड़ी. ‘चानार विद्रोह (1859)’ की सफलता ने अछूतों की जैसी हौसला आफ़जाई की उसके बाद सामाजिक आंदोलनों का सिलसिला चल निकला.
    
परिवर्तित हो रही सामाजिक चेतना का एक प्रमाण मिला ‘मलयाली सभा’ से. यह सभा नायरों द्वारा नायर हितों के लिए स्थापित की गई थी. इसने ब्राह्मण वर्चस्व को हटाने में रुचि ली. 1884में स्थापित इस सभा के उद्देश्य थे पश्चिमी शिक्षा का प्रसार, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन और विवाह-व्यवस्था में सुधार. सभा ने ‘मलयाली’ नामक एक समाचार पत्र का प्रकाशन भी शुरू किया और स्कूल खोले. सभा की एक व्यापारिक कंपनी भी थी. सभा के अखबार में ब्राह्मण सत्ता के विरुद्ध लेख छपते थे. इससे सरकार नाराज़ हो गई. सभा की गतिविधियाँ चलती रहीं. सरकार को अपनी मांगों से परिचित कराने के लिए सभा ने एक मेमोरियल तैयार किया. इसे ‘मलयाली मेमोरियल’ कहा गया. मेमोरियल का स्वरूप ऐसा रखा गया कि वह सिर्फ़ नायरों की चिंता करने वाला मेमोरियल न लगे. इस मेमोरियल में मांग की गई कि प्रशासन में सभी नेटिव लोगों की नियुक्तियाँ हों, जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए, त्रावणकोर के मूल निवासी कौन हैं –इसे परिभाषित किया जाए और राज्य को विदेशी ब्राह्मणों के आधिपत्य से मुक्त किया जाए. इस मेमोरियल पर दस हज़ार लोगों ने दस्तखत किए. दस्तखत करने वालों में ईषव, सीरियन, नव धर्मांतरित (दलित) ईसाई और कुछ नम्बूदिरी ब्राह्मण भी थे. सरकार ने इस मेमोरियल पर पहले तो चुप्पी बनाए रखी. फिर, सरकारी पक्ष को सही बताते हुए कहा गया कि नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई दोष नहीं है. इधर उक्त मेमोरियल के जवाब में गैर मलयाली ब्राह्मणों द्वारा तैयार मेमोरियल सरकार को सौंपा गया. इसमें कहा गया कि नियुक्ति का आधार ‘मेरिट’ हो न कि जन्मस्थान.
    
ईषवों की तरफ से डॉ. पी. पाल्पू ने एक मेमोरियल तैयार किया. इसे ‘ईषव मेमोरियल’ कहा जाता है. इस मेमोरियल पर तेरह हज़ार से अधिक ईषवों ने हस्ताक्षर किए. मेमोरियल में कहा गया कि ईषव बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं मिलता. योग्य होने के बावजूद वे सरकारी नौकरी में नहीं लिए जाते. इस पर त्रावणकोर के दीवान का जवाब था कि जातिगत अंतर हिन्दू समाज की विशेषता है और सरकार सामाजिक प्रथाओं में कोई उलटफेर करके सामंजस्य को बिगाड़ना नहीं चाहती. ईषवों ने त्रावणकोर सरकार को यह ‘पेटिशन’ (जिसे मेमोरियल कहा गया) सितंबर 1896को सौंपा था. सरकार के रवैये से ईषवों को निराशा हुई. फिर उन्होंने अपने दम पर अपनी स्थिति में सुधार का बीड़ा उठाया. शिकागो धर्म-संसद से लौटे विवेकानंद से डॉ. पाल्पू ने मुलाक़ात की थी. उस मुलाक़ात में विवेकानंद ने डॉ. पाल्पू को अपना संगठन बनाने की सलाह दी थी और कहा था कि संगठन का मुखिया किसी संन्यासी को ही बनाया जाना ठीक होगा. इस सलाह के मद्देनजर डॉ. पाल्पू ने श्रीनारायण गुरु को संगठन का मुखिया बनाने का निश्चय किया. मार्च 1903में ‘श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम्’ (एस.एन.डी.पी. योगम्) लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकृत कराई गई. इसके अध्यक्ष श्रीनारायण गुरु, उपाध्यक्ष डॉ. पाल्पू और सचिव (महाकवि) कुमारन आशान बनाए गए. स्कूलों और प्रशिक्षण विद्यालयों के निर्माण, उद्योगों के प्रोत्साहन और व्यापार में हिस्सेदारी का दीर्घकालीन सघन अभियान चलाकर एस.एन.डी.पी. योगम् ने न केवल ईषवों के जीवन बल्कि पूरे मलयाली समाज में गहरा असर पैदा किया. योगम् ने जितने भी मंदिर बनवाए उन सबमें अवर्ण (मुख्यतः ईषव) पुजारी ही रखे गए. ‘मनुष्य मात्र के लिए एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ यह योगम् के मुखिया का नारा था. अब सरकार को सरकारी स्कूल ईषवों के लिए खोलने पड़े. कुमारन आशन को त्रावणकोर की पॉपुलर असेम्बली का सदस्य मनोनीत किया गया. यहाँ उन्होंने अछूत बच्चों की शिक्षा और रोजगार के मुद्दे प्रमुखता से उठाए.
    
योगम् ने जो रास्ता दिखाया उस पर परवर्ती परिवर्तनाकांक्षी समुदाय और जननायक चले. अय्यनकाली ऐसे ही जननायक थे. पुलय समाज ईषवों व अन्य जाति समुदायों से बहुत पीछे था. इस समुदाय को नेतृत्व मिला अय्यनकाली से. अय्यनकाली (1863-1941) का जन्म तिरुअनंतपुरम के पास एक गाँव वेंगनूर में हुआ था. उनके परिवार के पास पाँच एकड़ जमीन थी जो उन्हें भूस्वामी से सेवा के बदले में मिली थी. इस आर्थिक आधार ने परिवार का मनोबल मजबूत किया था. आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े अय्यनकाली आत्मसम्मान से आपूरित थे. उन्होंने सवर्णों की हिंसा का मुकाबला करने के लिए अपने समुदाय के युवकों की एक टीम बनायी थी. यह टीम ‘अय्यनकाली पद’ (सेना) कही जाती थी. इस सेना को प्रशिक्षित करने के लिए अय्यनकाली ने मार्शल आर्ट के जानकारों की व्यवस्था की थी. उस समय दलितों को सार्वजनिक रास्तों पर चलने की मनाही थी. बैलगाड़ी पर बैठना तो उनके लिए अकल्पनीय था. इस प्रतिबंध को तोड़ने के लिए अय्यनकाली ने एक बैलगाड़ी खरीदी और सवर्णों की हिंसा का डटकर मुकाबला करते हुए अपनी टीम के साथ वर्जित मार्गों पर शान से चले. चालियर गली में जब नायरों ने उन पर हमला किया तो उन्हें मुँहतोड़ जवाब मिला. पूरे इलाके में यह दंगा फैल गया. इसे ‘चालियर दंगे’ के नाम से जाना जाता है. इसी तरह दलितों के बाज़ार में प्रवेश पर चली आ रही रोक को उन्होंने चुनौती दी थी. सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को प्रवेश न मिलता देख अय्यनकाली ने स्वयं स्कूल खोलने का निर्णय किया. यह स्कूल बनकर तैयार हुआ तो सवर्णों ने उसमें आग लगा दी. अय्यनकाली ने पुनः उसी जगह पर स्कूल का छप्पर रखवा दिया. बच्चों को पढ़ाने के लिए एक दलित अध्यापक की व्यवस्था कर दी. अय्यनकाली को स्कूल जाने का मौका नहीं मिला था. यह बात वे जानते थे कि शिक्षा ही दलितों की मुक्ति का द्वार खोल सकती है. उन्होंने अपने समर्थकों के साथ 1907में ‘साधुजन परिपालन संघम्’ की स्थापना की. संघम् ने दलितों की लड़ाई लड़ने का काम किया. स्कूलों में दलित बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए संघम् ने भरपूर प्रयास किया. इस प्रयास का परिणाम सकारात्मक रहा. 1910में सरकारी आदेश जारी हुआ और सरकारी विद्यालयों के दरवाजे सभी अस्पृश्यों के लिए खुल गए. इस क़ानून को अमली जामा पहनाने के लिए अय्यनकाली खुद एक दलित बच्ची पंचमी को लेकर स्कूल गए. उनकी इस साहसिक पहल के विरोध में स्कूल की इमारत को आग लगा दी गई. इसका प्रतिकार दंगे के रूप में सामने आया. पूरे क्षेत्र में दंगा फैल गया. जानमाल का पर्याप्त नुकसान हुआ. किसी तरह काम न बनता देख अय्यनकाली ने हड़ताल करने का निर्णय लिया. लगभग साल भर (जून 1913से मई 1914) चली इस हड़ताल में दलित कृषि मजदूरों ने भूस्वामियों के खेतों में काम नहीं किया. अपनी हैसियत का ज्ञान होते ही भूस्वामी समझौते पर उतरे. समझौते ने सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों का प्रवेश कराया और कृषि मजदूरों की मजदूरी भी बढ़ाई. दलितों की संगठित शक्ति का अहसास होने के बाद सरकार ने ‘पॉपुलर असेंबली’ (श्रीमूलम् प्रजा सभा) में पी.के. गोविन्द पिल्लै को दलितों का प्रतिनिधि मनोनीत किया. गोविन्द पिल्लै के प्रस्ताव पर 1912में अय्यनकाली को मनोनीत किया गया. दो दशकों तक अय्यनकाली असेंबली में दलित समुदाय की आवाज़ उठाते रहे. दलितों को आसानी से न्याय मुहैया कराने के लिए उन्होंने साधुजन परिपालन संघम् के तत्वावधान में ‘कम्युनिटी कोर्ट’ की स्थापना की. सरकारी अदालतों में न दलित जा सकते थे और न अपने विरुद्ध चल रही कार्यवाइयों को जान सकते थे. कम्युनिटी कोर्ट हो जाने से उनके झगड़े यही निपटाए जाने लगे. जीवन के उत्तरार्ध में अय्यनकाली को अपने समुदाय के नए नेता केशवन शास्त्री से समझौता करना पड़ा. साधुजन परिपालन संघम् ठहर-सा गया और खामोश अय्यनकाली पुलय महासभा के महासचिव बनकर रह गए.
    
पुलय महासभा’ के साथ जाति संगठनों के निर्माण का सिलसिला तेज हो गया. कोचीन में कृष्णति आशान ने 1913में ‘ऑल कोचीन पुलय महासभा’ का गठन किया और पुलयों की स्थिति सुधारने का यत्न किया. अपेक्षित सफलता न मिलती देख वे निराश हो गए और धर्म परित्याग का निर्णय लेकर प्रोटेस्टेंट धर्ममत में चले गए. अय्यनकाली के एक सहयोगी पम्पाडि जॉन जोसेफ ने 1921में ‘त्रावणकोर चेरमार महाजन सभा’ स्थापित की. पुलय ही मलबार में चेरमार कहे जाते हैं. साधुजन से महाजन होने का आधार यह आविष्कृत ‘तथ्य’ था कि चेरमार प्राचीन चेर राजवंश के उत्तराधिकारी हैं. यही राज्य के शासक लोग हैं. ईसाई चेरमार समुदाय के लिए जॉन जोसेफ ने ‘चेरमार क्रिश्चियन सभा’ (1923) बनाई. अय्यनकाली की सिफारिश पर उन्हें पॉपुलर असेम्बली का सदस्य मनोनीत किया गया. मछुआरों में वाला जाति के पं. के. पी. करुप्पन ने ‘वाला समुदाय परिष्करणम् सभा’ (1910) बनाई. श्रीनारायण गुरु के मुस्लिम मित्र मौलवी वक्कम अब्दुल कादर ने अपने समाज में सुधार की चेष्टा की. इस दिशा में कई संगठन काम कर रहे थे. मुसलमानों में एका लाने के मकसद से ‘मुस्लिम एक्य संघम्’ बना. इस संगठन ने अपनी पहली बैठक (1923) में मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों की निंदा की. इससे परंपरावादी लोग भड़क उठे और संघम् को धर्म विरोधी घोषित कर दिया. नायरों में समाज सुधार के लिए 1915में ‘नायर सर्विस सोसाइटी’ (एन.एस.एस.) का गठन हुआ. ब्राह्मणों ने अपने समाज में बदलाव लाने के लिए 1910-11में ‘योगक्षेम महासभा’ का निर्माण किया. इसमें नई पीढ़ी के युवकों का ही बाहुल्य था. सभा के उद्देश्य थे अंगरेजी शिक्षा का प्रसार, अनुज नम्बूदिरियों का विवाह, पर्दा प्रथा का अंत, स्त्री शिक्षा का प्रसार आदि.
    
पुलयों से हीनतर स्थिति में परय थे. परयों में जिस व्यक्ति ने नेतृत्व संभाला वह पोयिकयिल योहन्नान थे. इन्हें अप्पचन और श्रीकुमार गुरुदेवन भी कहा जाता है. इनके संगठन का नाम था ‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ (पी.आर.डी.एस.). इस सभा ने बाइबिल को दलितों के लिए अपर्याप्त बताते हुए कहा कि चर्च परय ईसाइयों के साथ भेदभाव करता है. जंगलों में गुप्त सभाएं करके योहन्नान अपने अनुयायियों को सजग करते रहे और यह भाव भरते रहे कि दलित के त्राणदाता पोयिकयिल अर्थात् वे स्वयं ही हैं जो भगवान के अवतार हैं. अपनी ओजस्वी वाणी और मोहक शैली के कारण योहन्नान शीघ्र ही अति लोकप्रिय हो गए. चर्च प्रतिष्ठान उनसे खौफ खाता रहा. योहन्नान ने गीत लिखे और इतिहास की व्याख्या की. उन्होंने दलितों के इतिहास को अभिशप्त इतिहास कहा. उनके संगठन का स्वरूप आध्यात्मिक-धार्मिक रहा. वे दो बार श्रीमूलम प्रजासभा के लिए नामित किए गए. असेंबली में उन्होंने सभी दलित जातियों के मुद्दे उठाए. दलितों को जमीन, नौकरियों में आरक्षण, काश्तकारों को आसान शर्तों पर ऋण और स्कूलों में दलित बच्चों को दोपहर का भोजन उनके द्वारा उठाए मुद्दों में प्रमुख थे. प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा ने अंगरेजी माध्यम के स्कूल खोले और बोर्डिंग की सुविधा दी. सभा की औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित हुईं और बस्तियां बसाई गईं. इन बस्तियों में सभी दलित जातियों के लोग रहते थे.
    
आध्यात्मिक और जाति संगठनों द्वारा समाज सुधार का प्रयास केरल रेनेसां के नाम से जाना जाता है. रेनेसां की उपलब्धियां ऐतिहासिक रहीं. समाज में आमूल परिवर्तन आए. केरल अब रेनेसां से आगे बढ़कर रेवोलुशन के लिए तैयार हो रहा था. संसार में घट रही गतिविधियाँ उसे भी प्रभावित कर रहीं थीं. रूस की क्रांति की चर्चा यहाँ पहुँच रही थी और सोवियत संघ को प्रबुद्धों का समर्थन मिल रहा था. लोकप्रिय ‘मितवादी’ पत्रिका ने दिसंबर 1917में संपादकीय लिखकर रूसी क्रांति का समर्थन किया और जनता के शासन की हिमायत करते हुए मलयाली समाज की रूसी समाज से समानता दिखाई. मलयाली समाज में हो रहे परिवर्तनों को क्रांति की तरफ मोड़ने का काम इस दौर के प्रबुद्धों ने किया. अनुर्वर होती जा रही आंदोलन की इस जमीन पर कम्युनिस्टों ने मोर्चा संभाला. जाति आधारित संघर्ष को धार देते हुए उन्होंने वर्ग संघर्ष का नया आयाम जोड़ा. अंगरेज सरकार इस विचारधारा से भयभीत थी इसलिए उसे गैरकानूनी घोषित कर रखा था. ऐसी स्थिति में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होकर काम कर रहे थे. उन्होंने साक्षरता पर विशेष ध्यान दिया. किसानों और मजदूरों के लिए रात्रिकालीन पाठशालाएं चलाईं. वाचनालय स्थापित किए और अनपढ़ जनता को अखबार और किताबें पढ़-पढ़कर सुनाने का काम किया. जनता से जुड़कर उन्होंने बहुत-कुछ सीखा साथ ही जनता का विश्वास भी अर्जित किया. 1937में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की चार सदस्यीय ‘सीक्रेट कमेटी’ कालिकट में बनी. पार्टी की स्थापना दिसंबर 1939में हुई. 26जनवरी 1940को इसे सार्वजनिक किया गया. लेकिन, यह अभी तक प्रतिबंधित राजनीतिक पार्टी ही थी. प्रतिबंध जुलाई 1942में हटाया गया.
    
जाति व धर्म आधारित संगठनों से अलग हटकर केरल में नए तरह के संगठन बने. ये किसान संघ, मजदूर संघ, महिला संघ, बाल संघ आदि के रूप में थे. कृषि मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों और प्लान्टेशन मजदूरों की चेतना में बदलाव के साथ हड़तालों का दौर भी आरंभ हुआ. मालिकों को मजदूरी बढ़ानी पड़ी. काम के घंटे तय करने पड़े. अवकाश का दिन मंजूर करना पड़ा. जो दलित, गरीब और पिछड़े अपने-अपने जाति संगठनों में थे वे यहाँ आकर एक हुए और अपनी वर्गीय एकता को समझ सके. कम्युनिस्ट पार्टी को पुलयों की पार्टी कहा जाने लगा. एकीकृत केरल में पहला चुनाव 1957में हुआ. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी को बहुमत मिला. कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी. सरकार ने सबसे पहले पुलिस-प्रशासन, शिक्षा और भूमि सुधार की दिशा में काम किया. वर्चस्ववादी तबका इससे भयभीत हो गया. जो कल तक दुश्मन थे वे कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल करने के लिए एक हो गए. ‘विमोचन समरम्’ आरंभ हुआ. 28महीनों में कम्युनिस्ट सरकार अपदस्थ कर दी गई. एक अंतराल के बाद जब उनकी सत्ता में वापसी हुई तो उन्होंने भूमि सुधार का काम आगे बढ़ाया. पट्टेदारों को जमीन पर मालिकाना हक मिला. दलित परिवारों को पहली बार जमीन आवंटित हुई. जाति संरचना दरकती हुई धराशायी होने लगी.
    
वैसे तो पुरोगामी (प्रगतिवादी) लेखकों ने जाति के सवाल पर रचनात्मक और वैचारिक साहित्य लिखा था लेकिन उनमें अनुभव की प्रामाणिकता और अभिव्यक्ति की दाहकता नहीं थी. यह विशेषता सिर्फ़ दलित लेखन में आ सकती थी. दलित जीवन सबसे पहले और सबसे अधिक कविताओं में व्यक्त हुआ. कहीं मार्क्स से जुड़कर और कहीं स्वतंत्र रूप से उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष का स्वर दलित कविता में व्यक्त हुआ. दलित कवियों की चेतना को आंबेडकरवाद की ओर जाना ही था. आंबेडकरवादी चेतना ने मलयालम साहित्य में युगांतर उपस्थित किया. कविता के साथ-साथ गद्य विधाओं में रचनाएं होने लगीं. कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिली. वैचारिक और आलोचनात्मक गद्य भी खूब लिखा जाने लगा. हाँ, आत्मकथा, नाटक और कुछ अन्य विधाओं में अभी उल्लेखनीय लेखन आना शेष है. दलित स्त्री रचनाकारों की आमद और उनकी सर्जनात्मक-चिन्तनात्मक सक्रियता उत्साहवर्धक व आश्वस्तिकारक है.
     
सामाजिक प्रगति में इतनी शानदार उपलब्धियों की पीठिका पर आसीन केरल एक बार फिर चुनौतियों के सम्मुख है. जिस अतार्किकता, धर्मवाद और जातिवाद को परास्त कर इस समाज ने आदर्श रचा था वह अब संकटापन्न है. जीवन के बुनियादी सवालों को लेकर चलने वाले सामाजिक आंदोलन बहुत पहले स्थगित-से हो गए थे. ऐसे आंदोलनों को चलाने के लिए ख्यात कम्युनिस्टों की टीम बिखर गई लगती है

अस्मितावादी संगठन मजबूत अवश्य हुए हैं लेकिन वे दूरंदेशी सरोकारों से रहित बहुत सीमित उद्देश्यों से परिचालित हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है. जमीन के कारोबार में लैंड माफिया का प्रवेश 1990के बाद हो गया था. ये भूमाफिया उत्तरोत्तर शक्तिशाली होते गए हैं. भूमि सुधार का काम जहाँ अटक गया था वहाँ से आगे नहीं बढ़ा है. प्लान्टेशन की व बेकार पड़ी जमीन को अधिग्रहीत कर भूमिहीनों में बांटे जाने की प्रक्रिया कभी शुरू ही नहीं हुई. यह राज्य अभी सर्वाधिक बेरोजगारी का शिकार है. परिवारों के टूटने की गति तेज हुई है. बुजुर्ग उपेक्षित और स्त्रियाँ हिंसाग्रस्त हैं. ईसाई और इस्लामी कट्टरता को मात देता हिंदुत्व लगातार बढ़त बनाए हुए है. संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के कमजोर पड़ने, लोक कल्याणकारी राज्य के क्षीण होने का खामियाजा सबसे ज्यादा दलित-वंचित तबकों को भुगतना पड़ेगा/पड़ रहा है. यह समाज की प्रगति अथवा भलाई चाहने वालों के एक होने, मतभेदों को पीछे रख संगठित होने का समय है.  
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हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति (अभय कुमार दुबे) : नरेश गोस्वामी

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हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति
प्रदत्‍त विमर्श से सवाल पूछने का साहस                          
नरेश गोस्वामी


अभय कुमार दुबे की यह किताब एक ऐसे वक़्त में आई है जब भारत की बाहरी और भीतरी पहचान के परिचित चिह्न हर दिन अपना अर्थ खोते जा रहे हैं. मसलन, आज स्‍वाधीनता-संघर्ष की प्रक्रिया में अर्जित समता, सहअस्तित्‍व, सहिष्‍णुता और बंधुत्‍व जैसे मूल्‍य हांफते नज़र आते हैं. राजनीति समाज के बृहत्‍तर कल्‍याण के आदर्श से स्‍खलित होकर चुनाव का पूर्व-प्रबंधित गणनशास्‍त्र बन चुकी है, और धर्म को राजनीति से दूर रखने का संकल्‍प असंदिग्‍ध रूप से भुलाया जा चुका है. सामाजिक न्‍याय का उदात्‍त आदर्श संबंधित राजनीतिज्ञों के भ्रष्‍ट आचरण, लूट-खसोट, संपत्ति-अर्जन, परिवार और कुनबापरस्‍ती के कारण धूल-धूसरित हो चुका है. अर्थव्‍यवस्‍था के सूचकांक औंधे पड़े हैं. मीडिया पुराने कंकालों पर रंग-रोगन करके उनसे इतिहास और समाज की व्‍याख्‍या करवा रहा है. जो गर्हित, अशुभ और त्‍याज्‍य था, वह राजनीति और समाज का नीति-निर्देशक बन बैठा है. हालत यह हो गयी है कि राजनीतिज्ञों और अपराधियों की भाषा में अंतर करना मुश्किल होता जा रहा है. लोकतंत्र बहुसंख्‍यकवाद का पर्याय बन गया है और सत्‍ता की नृशंस कारगुज़ारियों का न्‍यूनतम प्रतिरोध भी राष्‍ट्रद्रोह कहलाने लगा है.
ज़ाहिर है कि ऐसे असामान्‍य वक़्त और माहौल में लिखी गयी किताब पुरानी आश्‍वस्तियों और निष्‍कर्षों का भाष्‍य नहीं हो सकती. इसलिए, अभय कुमार दुबे की यह किताब बहुत से लोगों को प्रछन्‍न प्रतिक्रियावाद या पराजय से उपजी आत्‍म-भर्त्‍सना भी लग सकती है.  
यह किताब भारत की राजनीति में पिछले दो दशकों के दौरान हुए अंत:स्‍फोट को हिंदुत्‍व बनाम सेकुलर-वामपंथी-उदारतावादी जैसे दो प्रतिस्‍पर्धी विमर्शों के ज़रिये समझने का प्रयत्‍न करती है. लेखक ने सेकुलर, वामपंथी और उदारतावादी शक्तियों के विमर्श को मध्‍यमार्गी विमर्श कहकर संबोधित किया है. किताब का बुनियादी तर्क साफ़ और ऊंचे स्‍वर में कहता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श से निकली राजनीति लोकतंत्र में बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों को पढ़ने और उसका प्रतिरोध करने में नाकाम रही है. ज़ाहिर है कि यह अपने आप में कोई विलक्षण सूत्रीकरण नहीं है. दरअसल, किताब की विलक्षणता इस विफलता के कारणों की पड़ताल में लगे बौद्धिक श्रम— तथ्‍यान्‍वेषण, तर्क-योजना, समाज-वैज्ञानिक लेखन के सघन और आवश्‍यक ब्‍योरों, उद्धरणों के व्‍यापक उपयोग तथा आम सहमति के तहत वर्जित मान लिए गए परिप्रेक्ष्‍यों के पुनरीक्षण में निहित है.
लेखक का विश्‍लेषण बताता है कि संघ परिवार की वैचारिक प्रयोगशाला में हिंदू-एकता की व्‍यूह-रचना 1974 में तैयार हो चुकी थी. तीन दशक तक यह व्‍यूह-रचना व्‍यावहारिक राजनीति में अपना मुक़ाम ढूंढती रही. राज्‍यों के अलावा वह एकाधिक बार केंद्रीय सत्‍ता तक पहुंची, फिर उससे बाहर भी हुई लेकिन 2004 वह इस स्थिति में आ चुकी थी कि चुनाव में स्‍पष्‍ट पराजय के बावजूद उसे कांग्रेस से ज्‍़यादा हिंदू वोट मिले. कांग्रेस के दस वर्षीय शासन के दौरान संघ परिवार के कामकाज का अबाध गति से विस्‍तार होता रहा. केंद्र और कई राज्‍यों में ग़ैर-भाजपाई सरकारें बनीं लेकिन राजनीतिक विमर्श लगातार बहुसंख्‍यकवादी होता चला गया. लेखक का स्‍पष्‍ट कहना है कि ग़ैर-भाजपा दलों की राजनीति और उसके सहायक-समर्थक बुद्धिजीवियों का विमर्शी हस्‍तक्षेप इस बहुसंख्‍यकवाद का मुक़ाबला करने में विफल रहा.
इस तरह यह किताब संघ-भाजपा विरोधी विमर्श की प्रस्‍थापनागत सीमाओं और उसकी व्‍यावहारिक कमियों व विफलताओं का विश्‍लेषण करती है. लेखक अपने उद्यम को इस विमर्श की आंतरिक आलोचना के रूप में देखता है. लेकिन, ग़ौर से देखें तो लेखक ने एक तरह से इस मध्‍यमार्गी प्रतिरोधी विमर्श का तख्‍़ता पलट दिया है.
लेखक का तर्क है कि बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श के ऊपर ज्ञान की एक ख़ास राजनीति हावी रही है, और इस राजनीति की सीमा केवल इस बात में निहित नहीं है कि वह संघ परिवार की हिंदुत्‍ववादी परियोजना के बदलते पते और विन्‍यास को समझने में अक्षम रही है, बल्कि उसका ज्‍़यादा संगीन दोष यह है कि उसने अपने ही उस हिस्‍से को मौन कर दिया है जो हिंदुत्‍व की प्रचलित समझ से हट कर कुछ अलग कहना चाहता है. इस प्रकार, हिंदुत्‍व की बहुसंख्‍यकवाद विरोधी राजनीति के मध्‍यमार्गी विमर्श को लेखक ने दो हिस्‍सों में विभाजित किया है. उसके अनुसार इसमें एक ही हिस्‍सा मुखर है, जबकि दूसरे हिस्‍से को राजनीतिक सहीपन (पॉलिटिकल करेक्‍टनेस) के दबाव में उपेक्षित कर दिया गया है. मुखर हिस्‍से के साथ दिक़्क़त ये है कि वह ‘अत्‍यधिक विचारधारात्‍मक होने के नाते तक़रीबन एक आस्‍था का रूप ले चुका है’, और मौन हिस्‍से का संकट यह है कि ‘समाज, संस्‍कृति और राजनीति की ज़मीन के कहीं अधिक निकट’ तथा ‘अधिक शोधपरक और तर्कसंगत समाज-वैज्ञानिकता से संपन्‍न’ होने के बावजूद उसे ताक पर रख दिया है.
राजनीतिक सहीपन से यहां लेखक का मंतव्‍य उस वर्चस्‍वी आग्रह से है जो अपने ‘अनुकूल न बैठने वाली या उसके लिए थोड़ी भी दिक़्क़ततलब प्रत्‍येक वैचारिक संरचना को अपनी तार्किकता, सुसंगति और तथ्‍यात्‍मकता के बावजूद या तो ख़ारिज’ कर देता है ‘या अगर ख़ारिज करना मुश्किल हो तो उसे एक चालाक ख़ामोशी के तहत पृष्‍ठभूमि में’ धकेल देता है.
लेखक की दलील है कि ज्ञान की राजनीति का यह मध्‍यमार्गी विमर्श छह प्रकार की विसंगतियों से ग्रस्‍त रहा है. एक तरह से कहा जाए तो यह पूरी किताब इस विमर्श में चिह्नित की गयी इन विसंगतियों की चतुर्दिक् विवेचना ही है. इसलिए किताब के बाक़ी पहलुओं पर बात करने से पहले इन विसंगतियों का जायज़ा लेना ज़रूरी होगा. लेखक के अनुसार मध्‍यमार्गी बहुसंख्‍यकवादी विमर्श की संरचना मुख्‍यत: छह ‘आस्‍थाओं’ पर टिकी है:  
एक, भारत में हिंदू बहुसंख्‍यक हैं लेकिन यह एक जनसंख्‍यामूलक तथ्‍य भर है; भारतीय सभ्‍यता एक सामासिक सभ्‍यता है जिसे पूरी तरह हिंदू सभ्‍यता कहना ग़लत होगा;हिंदू भिन्‍न-भिन्‍न अस्मिताओं से मिल कर बने हैं, और उनके बीच इतने अंतर्विरोध एवं विरोधाभास मौजूद हैं कि उनमें किसी समरूप चेतना की निशानदेही नहीं की जा सकती. इस आस्‍था के संबंध में लेखक का तर्क यह है कि सेकुलर और उदारतावादी नज़रिये से किए गए अनुसंधानों से भी यह बात पुष्‍ट होती है कि समय की दीर्घावधि में हिंदुओं की विविध अस्मिताओं के बीच एकरूपता का प्रसार हुआ है, लेकिन बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श ऐसे अनुसंधानों पर अघोषित मौन आरोपित कर देता है.
दो, भारतीय समाज बहुत से छोटे-बड़े समुदायों का समुच्‍चय है जिसे किसी भी तरह की समरूप और एकाश्‍म संरचना में नहीं ढाला जा सकता; भारत का यही बहुलतावाद हिंदुत्‍ववादी एकता में बाधा बनता रहा है, और उसकी यह भूमिका आगे भी जारी रहेगी. लेखक इस आस्‍था का प्रत्‍याख्‍यान करते हुए कहता है कि हिंदू या मुसलमानों की विशाल राजनीतिक एकताओं की संभावना का यह नकार बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों पर पर्दा डालने का काम करता है क्‍योंकि इससे बहुलतावाद के राजनीतिक और सामाजिक पहलू गड्डमड्ड हो जाते हैं. इसके चलते बहुसंख्‍यकवाद के आलोचक यह देखना भूल जाते हैं कि  सामाजिक बहुलतावाद को उसकी जगह जस का तस छोड़ कर उस पर राजनीतिक एकरूपता बख़ूबी क़ायम की जा सकती है.
तीन, भारतीय सेकुलरवाद की पहली जि़म्‍मेदारी अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकारों और दूसरा दायित्‍व यहां के बहुलतावाद की रक्षा करना है. लेखक इस आस्‍था का खण्‍डन करते हुए यह तजवीज़ करता है कि यह स्‍वीकार करते ही हमारा सेकुलरवाद अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकारों और बहुलतावाद का पर्याय बन जाता है, और इसका परिणाम यह होता है कि बहुसंख्‍यकवाद के आलोचक अल्‍पसंख्‍यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदायों की विकृतियों पर सवाल करना छोड़ देते हैं. इस प्रवृत्ति का फ़ायदा हिंदुत्‍ववादी राजनीति को मिलता है. लेखक के अनुसार यह आस्‍था इसलिए भी अनिष्‍टकारी हो जाती है क्‍योंकि वह संविधान में उल्लिखित सर्वधर्मसमभाव को भारतीय सेकुलरवाद की अंतिम परिभाषा मान बैठती है, जबकि उसका अभिप्रेत यह है कि राज्‍य धर्म की बहुलताओं से फ़ासला बनाकर रखे. लेकिन धीरे-धीरे हुआ यह कि भारतीय सेकुलरवाद बहुलताओं का पर्याय बनता गया है. लेखक की दलील है कि सेकलुरवाद का यह अर्थ-संकुचन मुसलमान, सिख और ईसाई जैसे समुदायों को लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की एकाश्‍म इकाइयों में बदलकर पूरे लोकतंत्र को ही ‘समुदायों के लोकतंत्र’ में तब्‍दील कर देता है. अंतत: इस सोच की व्‍यावहारिक निष्‍पत्ति ‘सेकुलरवाद और साम्‍प्रदायिकता की समुदायगत परिभाषा’ में निकलती है, और यहीं से वह भ्रामक नज़रिया प्रबल होने लगता है जिसके तहत कुछ समुदायों को सेकुलरवाद का और कुछ को साम्‍प्रदायिकता का वाहक घोषित कर दिया जाता है.
मसलन, पिछले तीन दशकों में जिन द्विज समुदायों ने भाजपा को वोट दिया है उन्‍हें साम्‍प्रदायिकता का वाहक, जबकि पिछड़े और दलित समुदायों को सेकुलरवाद का पैरोकार मान लिया गया है. लेखक का कहना है कि यह एक विकट घालमेल है क्‍योंकि बहुलतावाद समुदायों और सांस्‍कृतिक विविधताओं की ओर इंगित करता है, जबकि एक सिद्धांत के रूप में सेकुलरवाद राज्‍य की समुदायों और धर्मों के प्रति तटस्‍थता की बात करता है. इस घालमेल के कारण एक ओर तो मध्‍यमार्गी विमर्श धर्म के मामले में राज्‍य की दृढ़ तटस्‍थता की हिमायत नहीं कर पाता और दूसरे, उसे हिंदुत्‍ववादियों की तरफ़ से अल्‍पसंख्‍यकों के तुष्‍टीकरण का आरोप झेलना पड़ता है.
चार, मध्‍यमार्गी विमर्श इस धारणा का शिकार हो गया है कि पारंपरिक रूप से उपेक्षित, वंचित, शोषित और दमित जातियां ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक क्रांतिकारी संघर्ष में जुटी हैं. इस धारणा के तहत हिंदू और द्विज होने को एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया है. इसका असर यहां तक जाता है कि ‘जैसे शूद्र (पिछड़ी) जातियां चातुर्वर्ण्‍य का हिस्‍सा न होकर तीन सर्वण जातियों के मुका़बले अवर्ण समाज का अंग हों’. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कथित तौर पर सन्‍नद्ध इन जातियों का विमर्श कुछ ऐसा दावा करना चाहता है कि कमज़ोर जातियां (विशेषकर पूर्व-अछूत अनुसूचित जातियां) हिंदू पहचान से बाहर जाने को बैठी हैं. इस धारणा के पैरोकारों को लगता है कि इससे निकलने वाली राजनीति हिंदुत्‍व के प्रभाव और उसकी रणनीति को बेअसर करने की क्षमता रखती है. लेखक के अनुसार ‘दुष्‍ट ब्राह्मणवाद’ का यह विचार हिंदुत्‍व के आलोचकों के बीच इतना प्रभावशाली है कि वे इस धारणा को हिंदू समुदाय की विभिन्‍न जातियों के बीच बन सकने वाली राजनीतिक एकता पर ही विचार करने की ज़हमत ही नहीं उठाना चाहते, जबकि इसके उलट वे हिंदू बहुसंख्‍यकवाद के खि़लाफ़ वंचित, कमज़ोर जातियों तथा अल्‍पसंख्‍यकों की एक विशाल बहुजन एकता की कल्‍पना कर डालते हैं.
इस‍ सिलसिले में पांचवी धारणा भारतीय उदारतावाद से वास्‍ता रखती है. इस उदारतावाद के सिद्धांतकार यह मान कर चलते हैं कि भारत में लोकतंत्र का एक ऐसा संवैधानिक चुनावी तंत्र विकसित हो चुका है जिसमें किसी भी दल को राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा में बने रहने के लिए अपना अतिवाद छोड़ना पड़ता है. इस संबंध में बहुधा विभिन्‍न कम्‍युनिस्‍ट दलों और बहुजन समाज पार्टी का उदाहरण दिया जाता है. इसलिए उदारतावाद के सिद्धांतकारों को लगता है कि अंतत: हिंदू राष्‍ट्रवाद की उग्रता भी इसी तरह ख़त्‍म हो जाएगी. लेकिन, लेखक का तर्क है कि इस धारणा और भारतीय बहुलतावाद का योगफल भारत में दिनोंदिन मज़बूत होते जाते बहुसंख्‍यकवाद को परास्‍त नहीं कर सकता. उसका कहना है कि पिछले पैंतीस सालों से केवल संघ परिवार ही नहीं, बल्कि लगभग सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी तरह से बहुसंख्‍यकवादी राजनीति कर रहे हैं, और हमारा चुनावी लोकतंत्र इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का कोई तरीक़ा विकसित नहीं कर पाया है. इस धारणा का एक बेहद नकारात्‍मक प्रभाव यह हुआ है कि बहुसंख्‍यकवाद के अधिकांश आलोचक भाजपा की चुनावी हार के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं. उन्‍हें यह तक ध्‍यान नहीं रहता कि हिंदुत्‍ववादी विकृतियां ग़ैर-भाजपाई सरकारों के शासन में बदस्‍तूर फलती-फूलती रहती हैं.
मध्‍यमार्गी विमर्श की छठी भ्रांत धारणा के रूप में  लेखक ने वामपंथी, सेकुलर तथा उदारतावादी बौद्धिकता के उन्‍नासिक रवैये को चिह्न्ति किया है. लेखक के अनुसार यह रवैया हिंदुत्‍ववादियों—ख़ास तौर पर संघ परिवार की बौद्धिकता को हीन और विचार करने लायक़ ही नहीं मानता. उसे धर्म से प्रभावित कोई भी राजनीतिक-सामाजिक कार्रवाई या उद्यम अकल्‍पनीय और अवांछनीय लगता है. वह नये समाज की रचना को मूलत: ग़ैर-धार्मिक— प्रगतिशील, आधुनिक, उदारतावादी, सेकुलर और समतामूलक परिप्रेक्ष्‍य में ही कल्पित करता है. लेखक के अनुसार ‘यह मान्‍यता इतनी प्रभावशाली है कि इसके तहत ऐसी कोई भी बौद्धिकता भारतीय समाज के लिए बेकार मान ली गयी है जो किसी धर्म के मूल्‍यों के प्रभुत्‍व में उदारता, सेकुलरवाद और समता के विचार का उपकरण के तौर पर इस्‍तेमाल करती हो’.
इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श के मुखर पक्ष ने कभी हिंदू एकता के संघ-पूर्व विमर्श— दयानंद और विवेकानंद आदि के चिंतन से उद्भूत सामाजिक-वैचारिक सूत्रों पर ध्‍यान नहीं दिया. वह यह नहीं देख सका कि ये चिंतक धर्म और उसके सामाजिक ढांचे को अक्षुण्‍ण रखते हुए सामाजिक व्‍यवस्‍था और उसकी संस्‍थाओं में संशोधन की ज़मीन तैयार कर रहे थे. इस धारणा के अंतर्सूत्रों की एक दूसरी और ज्‍़यादा सामयिक समस्‍या की ओर इशारा करते हुए लेखक बिजली की कौंध सरीखी दलील पेश करता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर सिद्धातकारों का संघ परिवार की राजनीति का विश्‍लेषण सातवें दशक से आगे नहीं देख पाता. लेखक ने बेधक ढंग से कहा है कि इन सिद्धांतकारों को हिंदुत्‍व के उन सामाजिक-राजनीतिक सूत्रीकरणों की कोई ख़ास ख़बर नहीं है जो उसने सातवें दशक के बाद तैयार किए हैं.
(2)
जैसा कि हमने शुरू में इंगित किया था, ले‍खक का मानना है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के इस आधिकारिक संस्‍करण ने अपने समांतर चलने वाले एक ज्‍़यादा ज़मीनी और यथार्थ-सजग हिस्‍से को हमेशा चर्चा से बाहर रखा है, जबकि हिंदू बहुसंख्‍यकवाद के उभार के संदर्भ में यह हिस्‍सा समाज और राजनीति के नये विन्‍यास की ओर इशारा करता है. लेकिन इस संबंध में यह सूत्र ओझल नहीं होना चाहिए कि मध्‍यमार्गी विमर्श का यह मौन पक्ष उसके मुखर पक्ष का विलोम नहीं है. यह पक्ष भारतीय राजनीति, समाज, संस्‍कृति और इतिहास की ज्‍वलंत बहसों को अलग नज़रिये से देखता रहा है.
मसलन, यह नज़रिया बताता है कि जिस मनुवादी व्‍यवस्‍था को मध्‍यमार्गी विमर्श हिंदुत्‍व की केंद्रीय परियोजना मानता है, उसे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने 1974 में यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ‘जन्‍मत: वर्ण-व्‍यवस्‍था अथवा जाति-व्‍यवस्‍था का भाव समाप्‍त हो गया, ढांचा रह गया... अत: सभी को मिल कर सोचना चाहिए कि जिसका समाप्‍त होना उचित है, जो स्‍वयं ही समाप्‍त हो रहा है, वह ठीक ढंग से कैसे समाप्‍त हो’. इससे यह भी पता चलता है कि संघ हिंदू समाज में बिना कोई रैडिकल बदलाव किए व्‍यापक एकता की सफल योजनाएं बनाता रहा है. इससे स्‍पष्‍ट होता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श का मुखर पक्ष हिंदू धर्म के उन्‍नीसवीं सदी के उत्‍तरार्ध में उभरते ग्रहणशील, समावेशी और सहिष्‍णु पाठ के साथ न केवल रचनात्‍मक संवाद करने से बचता रहा, बल्कि उसने इसे एक प्राच्‍यवादी निर्मिति घोषित करके ब्राह्मणवाद की लांछित श्रेणी में डाल दिया. इसका परिणाम यह हुआ वह केवल हिंदू राष्‍ट्रवादियों के इस्‍तेमाल की चीज़ बन कर रह गया.  
दूसरे, वह उन अलक्षित रह जाने वाली प्रक्रियाओं और घटना-क्रमों की ओर इंगित करता है जिनके चलते यह हिंदू पहचान उत्‍तरोत्‍तर मजबूत होती गई है. इस संबंध में औपनिवेशिक जनगणना, प्रतिनिधित्‍वमूलक राजनीति तथा आज़ादी के बाद संस्‍थापित किए गए क़ानूनों का उल्‍लेख किया जा सकता है. क्रमश: बात करें तो औपनिवेशिक सत्‍ता द्वारा जनगणना के निर्णय ने हिंदू समुदाय के ढीले-ढाले आत्‍म-बोध को समरूपीकरण की दिशा में प्रवृत्‍त कर दिया. चूंकि औपनिवेशिक शासन प्राच्‍यवाद द्वारा थमाए गए निष्‍कर्षों की रोशनी में काम कर रहा था. इसलिए वह जनगणना के आंकड़ों को हिंदू धर्म की चातुर्वण्‍य-व्‍यवस्‍था में फि़ट करना चाहता था. जनगणना अधिकारियों को इस मिशन में लंबे समय तक सफलता नहीं मिली क्‍योंकि ज्‍़यादातार लोगों को अपने वर्ण के बारे में स्‍पष्‍ट जानकारी ही नहीं थी. लेकिन, एक बार जब यह तय हो गया कि जातियों और समुदायों को एक निश्चित पदानुक्रम में रखा जाएगा तो लोगों में सामाजिक हैसियत का सवाल महत्‍वपूर्ण हो गया. यादव और कुर्मी जैसी किसान जातियां क्षत्रिय वर्ण की दावेदारी करने लगीं. आगे चलकर जब औपनिवेशिक सत्‍ता ने प्रतिनिधित्‍व के सिद्धांत के अंतर्गत भारत के लोगों को सरकार के ढांचे में शामिल करने का निर्णय लिया तो उसने हिंदू समुदाय को प्रकारांतर से यह भी जतला दिया कि उसकी राजनीति मुसलमानों की राजनीति से केवल अलग ही नहीं, बल्कि उनकी प्रातिनिधिक राजनीति के साथ उसका छत्‍तीस का संबंध है.   हिंदू समुदाय के समरूपीकरण की प्रक्रिया में यह एक अहम मुक़ाम था.
समरूपीकरण में बहुसंख्‍यकवाद का अंदेशा अंतर्निहित होता है. यहां इस तथ्‍य का उल्‍लेख ज़रूरी है कि हिंदू बहुमत के आग्रह को मज़बूत करने में उत्‍तर-औपनिवेशिक क़ानूनों की स्‍पष्‍ट भूमिका रही है. यानी दूसरे शब्‍दों में कहें तो बहुंख्‍यकवाद का नाभिक तैयार करने में हमारे उदारतावादी लोकतंत्र का भी अदृश्‍य हाथ रहा है. लेखक समाजशास्‍त्री दीपांकर गुप्‍ता के हवाले से बताते हैं कि हिंदू ‘बहुमत’ आज़ादी के बाद बने क़ानूनों की देन है. इनके पहले विवाह, उत्‍तराधिकार और अभिभावकत्‍व के नियमों में एकरूपता नहीं थी. अगर एक स्‍थान और समुदाय में उत्‍तराधिकार के नियम मिताक्षरा प्रणाली के तहत आते थे तो दूसरे स्‍थान और समुदाय में दायभाग के नियम चलते थे. लेकिन नये क़ानूनों ने विभिन्‍न रीति-नीतियों पर पाटा फेरकर उन्‍हें एकरूप बना दिया.
इस क्रम में लेखक ने रत्‍ना कपूर के विश्‍लेषण को उद्धृत करते हुए दिखाया है उच्‍च न्‍यायालयों सहित सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी हिंदू धर्म को एक समरूप और शास्‍त्रोक्‍त संहिता के तौर पर परिभाषित करता रहा है. अयोध्‍या विवाद तक आते-आते तो यह प्रक्रिया इतनी सहज मान ली गयी थी कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अपने एक फ़ैसले में ‘हिंदुत्‍व‘ और ‘हिंदू धर्म’ को एक दूसरे का समानार्थी ही ठहरा दिया. ग़ौरतलब है कि अयोध्‍या मामले में न्‍यायालय ने हिंदुत्‍ववादी पक्ष का यह तर्क स्‍वीकार कर लिया था कि हिंदुओं की धार्मिक स्‍वतंत्रता सिर्फ़ उपासना की व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें किसी स्‍थान पर सामूहिक रूप से पूजा करने का अधिकार भी शामिल है. आज जब हम इन घटनाओं पर पलट कर देखते हैं तो हैरानी होती है कि यह सब खुले तौर पर हो रहा था, लेकिन मध्‍यमार्गी विमर्श का मुखर हिस्‍सा इस प्रवृत्ति से वाकिफ़ होने के बावजूद उसे न अपनी प्रतिरोधी दलीलों में शामिल कर पाया, और न ही उसका प्रतिवाद करने की नीति बना पाया.
मध्‍यमार्गी विमर्श का मौन पक्ष यह खुलासा करता है कि रजनी कोठारी जैसे विद्वानों ने हिंदू बहुसंख्‍यकवाद की आहट आज से तीन दशक पहले ही सुन ली थी. 1985 में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्‍होंने यह बात साफ़ तौर पर दर्ज की थी कि हमारी राजनीति एक चुनावी खेल में अवमूल्यित कर दी गयी है और इस प्रवृत्ति ने लोकतंत्र को साम्‍प्रदायिक बहुसंख्‍यकवाद में बदल दिया है. इस लेख में उन्‍होंने उन विकृतियों— राज्‍य और नागरिक समाज के बीच मौजूद मध्‍यवर्ती व राजकीय संस्‍थाओं की अनदेखी करके सीधे जनता से अपील करने, सर्वोच्‍च नेता पर ज़ोर देने, राजनीतिक प्रक्रियाओं और संहिताओं के बजाय चुनावी विजय को सर्वोपरि समझने तथा राजनीतिक दलों को व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव का साधन न मानकर सत्‍ता तक पहुंचने का औज़ार मान लेने की मा‍नसिकता का विस्‍तृत विश्‍लेषण किया था. कोठारी ने यह भी कहा था कि चुनावों को संख्‍या के खेल में अपघटित करने के परिणाम फ़ौरन प्रकट नहीं हुए क्‍योंकि उन्‍हें जाति और क्षेत्र के मुहावरे में पेश किया जाता रहा. सूत्र रूप में कहा जाए तो कोठारी इस नतीजे तक पहुंच गए थे कि चुनाव आधारित राजनीति में बहुसंख्‍यकवाद एक एक दुर्दम परिघटना बन चुकी है जिस पर न भारतीय समाज की बहुलताओं का वश चलता है, न लोकतंत्र का. ग़ौरतलब है कि यह वह दौर था जब कांग्रेस अपनी सत्‍ता के शीर्ष पर थी. उसे अभूतपूर्व बहुमत मिला था. लेकिन इसी समय हिंदूवादी संगठन भी अपनी सुप्‍तावस्‍था से बाहर आ रहे थे.
लेकिन यह विचित्र है कि नवें दशक में जब पिछड़ी और दलित जातियों ने पहली बार स्‍वतंत्र रूप सत्‍ता की दावेदारी की तो कोठारी ने इस राजनीतिक गोलबंदी को भारतीय लोकतंत्र की सकारात्‍मक ऊर्जा के रूप में चिह्नित किया. यह एक ऐसा विमर्श था जो द्विज जातियों को साम्‍प्रदायिक और कमज़ोर जातियों को धर्मनिरपेक्षता का वाहक घोषित कर रहा था. लेखक के अनुसार मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर हिस्‍से की बुनियादी ख़ामी यह थी कि उसने बिना जांच-पड़ताल किए ही यह मान लिया कि दलित-पिछड़ी जातियों का गठजोड़ हिंदू बहुसंख्‍यकता के आग्रहों को स्‍वयं ही परास्‍त कर देगा, जबकि आज यह बात पूरी तरह साफ़ हो चुकी है कि दलित और पिछड़ी जातियों की यह गोलबंदी पूरे दलित या पिछड़े समुदायों की गोलबंदी न होकर दलितों और पिछड़ों के सबसे प्रभावीशाली जाति-समूहों की गोलबंदी थी. जब ये जाति-समूह सत्‍तारूढ़ हुए तो उन्‍होंने संख्‍यात्‍मक तथा आर्थिक-सामाजिक स्थिति के हिसाब से कमतर माने जानेवाले अन्‍य जाति-समूहों को हाशिये पर ठेल दिया.
वंचित समुदायों के दूरगामी सशक्‍तीकरण और उनकी मुक्ति की संभावनाओं से लैस सामाजिक न्‍याय जैसी अवधारणा का जैसा अवमूल्‍यन इस राजनीतिक नेतृत्‍व ने गठजोड़ के तौर पर या स्‍वतंत्र रूप से किया है, वह पिछले तीन दशकों की राजनीति का बेहद स्‍याह पक्ष है. इस नेतृत्‍व से उम्‍मीद की जाती थी कि वह ‘राजनीति की नयी भाषा’ गढ़ेगा और ‘नयी संस्‍थागत राजनीति की गुंजाइश’ खोलेगा, लेकिन अपने भ्रष्‍टाचार और सिद्धांतहीनता के कारण सामाजिक न्‍याय की पूरी राजनीति दो हिस्‍सों में बंट कर रह गयी, जिनमें एक ताक़तवर हिस्‍सा मुसलमान वोटरों को साथ लेकर सेकुलर राजनीति का स्‍वांग करता रहा, जबकि दूसरा हिस्‍सा राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व और आर्थिक अवसरों, दोनों से वंचित रह गया. ज़ाहिर है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर हिस्‍से पर यह आरोप ग़लत नहीं है कि उसने इस विपर्यय पर उसी समय उंगली नहीं रखी.
इस प्रसंग में यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि सामाजिक न्‍याय की राजनीति का द्विभाजन जाति के स्‍तर पर भी जारी रहा. सामाजिक न्‍याय का दलित घटक अपने इस सिद्धांत को इच्‍छा की तरह देखता रहा कि पिछड़े वर्गों को भी उसकी मुहिम में शामिल हो जाना चाहिए, जबकि सच्‍चाई यह है कि पिछड़े समुदायों की ताक़तवर जातियों को दलित राजनीति से जुड़ने में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी.    
विमर्श का मौन पक्ष इस तथ्‍य पर ज़ोर देता है कि जिस तरह मुखर पक्ष ने दलितों और पिछड़े वर्गों के अंदरूनी विभाजनों को देखने से इंकार किया, उसी तरह मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त ऊंच-नीच का भी यथातथ्‍य विश्‍लेषण नहीं किया. वह मुस्लिम समाज की निचली जातियों के राजनीतिक सशक्‍तीकरण की मुहिम— पसमांदा आंदोलन की दूर-दूर से तारीफ़ करता रहा लेकिन उसने कभी इस आंदोलन के ज़रिये मुस्लिम समाज की ज़मीनी आलोचना विकसित करने की कोशिश नहीं की.
मौन विमर्श का विश्‍लेषण करते हुए लेखक ने भारतीय राजनीति की एक अत्‍यंत  विवादास्‍पद अवधारणा— सेकुलरवाद के व्‍यावहारिक फलितार्थों की शिनाख्‍़त की है. इस संबंध में उन्‍होंने हमारे समय के दो प्रखर राजनीतिक विचारकों— धीरूभाई शेठ और राजीव भार्गव के हालिया कृतित्‍व को उद्धृत किया है.
उल्‍लेखनीय है कि धीरूभाई शेठ कभी भी मध्‍यमार्गी विमर्श के औपचारिक पैरोकार नहीं रहे हैं. भारतीय राजनीति में बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों, अल्‍पसंख्‍यक समुदायों के अधिकारों, लोकतंत्र में समुदायगत पहचान तथा व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के टकराव तथा सेकुलरवाद और बहुलतावाद के घालमेल को वे अलग नज़रिये से देखते रहे हैं.
हिंदुत्‍ववादी राजनीति की उग्रता और उसकी बढ़ती स्‍वीकार्यता को धीरूभाई सेकुलर विमर्श की संकीर्णता का परिणाम मानते हैं. उनके मुताबिक़ पिछले तीन दशकों के दौरान सेकुलर विमर्श एक चुनावी गतिविधि बन कर रह गया. उसने हिंदुत्‍व के विरोध और अल्‍पसंख्‍यकों के समर्थन में जो भी व्‍यहू-रचना तैयार की, वह प्रति-साम्‍प्रदायिक पदावली में सिमट कर रह गयी. यह प्रति-विमर्श भाजपा को जब तब चुनावों में तो हराता रहा पर वह उस राष्‍ट्रीय-सेकुलर स्‍पेस में वापसी नहीं कर पाया जहां हिंदू राष्‍ट्रवाद से लोहा लेने की संभावना मौजूद थी. धीरूभाई इस प्रति-विमर्श की कमज़ोरी की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि अगर उसने भाजपा के छद्म-सेकुलरवाद के आरोप का सामने आकर मुक़ाबला किया होता और उसे अपने कथित सच्‍चे सेकुलरवाद की दावेदारी साबित करने की चुनौती दी होती तो ‘सेकुलर’ दल सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद के सेकुलर और राष्‍ट्र-विरोधी चरित्र की बात जनता तक ले जाने में सफल हो सकते थे.
इस प्रसंग में धीरूभाई पहचान की राजनीति को भी प्रश्‍नांकित करते हैं. उनका मानना है कि पहचान की राजनीति करते हुए हमने हिंदू, मुसलमान, सिक्‍ख और ईसाई को अपनी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की इकाई बना दिया है. उनके अनुसार यह एक ऐसी व्‍यवस्‍था बन गयी है जिसमें नागरिक होने के बजाय किसी धार्मिक समुदाय का सदस्‍य होने को ज्‍़यादा महत्व दिया जाता है. इस प्रक्रिया के तहत राजनीति ने नागरिकों से उनका चेहरा छीनकर उनकी जगह समुदायों और समूहों को प्रतिष्ठित कर दिया है.
धीरूभाई यह भी मानते हैं कि राज्‍य की नीति के तौर पर नेहरू का सेकुलरवाद लोगों के लिए एक अपरिचित विचार था. चूंकि वह लोगों के ‘अंतर-सामुदायिक सहजीवन के वास्‍तविक अनुभवों’ पर आधारित नहीं था, इसलिए इस सेकुलरवाद को बहुलतावाद के मुहावरे में ढालने की कोशिश की गयी. उनका कहना है कि सेकुलरवाद और बहुलतावाद का यह अपमिश्रण अंतत: प्रतिस्‍पर्धी साम्‍प्रदायिकता की ज़मीन तैयार करता है क्‍योंकि समूहों की प्रतिस्‍पर्धी राजनीति उन्‍हें सेकुलरवाद के साथ एक घातक भिडंत में झोंक देती है.
भारतीय सेकुलरवाद की संरचना, उसके अंतर्निहित उद्देश्‍य तथा उसके क्रियात्‍मक रूप पर राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव का चिंतन पिष्‍टपेषित फारमूलों से हमेशा अलग रहा है. उदारतावादी शिविर के अन्‍य चिंतकों की तरह नवें दशक के दौरान राजीव भार्गव भी यही मानते थे कि अंतत: संविधान का बहुलतावादी और समावेशी स्‍वरूप हिंदुत्‍ववादी शक्तियों की उग्रता और उसके अतिवाद को नियंत्रित कर लेगा. लेकिन, अपने हालिया लेखन में उन्‍होंने भारतीय सेकुलरवाद के सत्‍य और उसकी प्र‍तीति का बेजोड़ विश्‍लेषण किया है. राजीव का कहना है कि   ‘हम लोगों ने अपने सेकुलरवाद को धर्म-विरोधी के रूप में प्रस्‍तुत करके समुदायवादी और सम्‍प्रदायवादी के बीच का फ़र्क़ ख़त्‍म कर दिया तथा हर समुदायवादी को भी तत्‍त्‍व को भी साम्‍प्रदायिक ख़ाने में डाल दिया है. लेकिन ऐसा बहुसंख्‍यकों के साथ ही हुआ. दूसरी ओर, अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की साम्‍प्रदायिक गतिविधि को हमने समुदायवादी ही माना... हम सेकुलरवाद के इस पहलू को तक़रीबन भूल ही गए कि यह एक धर्म के भीतर एक समूह द्वारा दूसरे समूह के शोषण या दमन का निषेध करता है’.  
(3)
कहना न होगा कि यह किताब सेकुलर, वामपंथी, उदारतावादी और बहुजनवादी तमात खित्‍तों के विमर्शकारों और समर्थकों को नाराज़ कर सकती है. पाठक को मध्‍यमार्गीय विमर्श का यह विवेचन एक सीमा के बाद आंतरिक आलोचना के बजाय कुछ-कुछ भर्त्‍सना जैसा भी लग सकता है. इसका एहसास लिए लेखक को भी है कि ‘चूंकि इस प्रक्रिया में स्‍वाभाविक तौर पर संघ-विरोधी विमर्श की स्‍थापित संरचनाओं की बुनियादी ख़ामियां उभर कर आएंगी, इसलिए ज्ञान की विवादात्‍मक राजनीति के तहत मुझ पर हिंदुत्‍ववादी परियोजना के एक नये प्रच्‍छन्‍न समर्थक होने का आरोप लगाया जा सकता है’.  
अपने-अपने वैचारिक शिविरों के पहचान-पत्र लेकर चलने वाले लोगों को लेखक का तार्किक परिप्रेक्ष्‍य बहुत निष्‍ठुर और आक्रामक लग सकता है. यह बेचैनी तब और तेज़तर हो जाती है जब लेखक मध्‍यमार्गी विमर्श के दशकों से प्रचलित-परिचित शीराज़े को अपने तर्कों और तथ्‍यों छिन्‍न-भिन्‍न कर डालता है. यह किताब भारतीय इतिहास, संस्‍कृति, समाज और राजनीति से बावस्‍ता उन धारणाओं और परिप्रेक्ष्‍यों को अस्थिर कर देती है जिन्‍हें हम स्‍कूली पाठ्यक्रम से लेकर उच्‍च शिक्षा तक पढ़ते-समझते-गुनते और साझा करते रहे हैं.
ऐसे में, यह कहना बहुत ग़लत नहीं होगा कि इस किताब को पढ़ने के लिए ख़ास तरह का बौद्धिक धैर्य चाहिए. यह धैर्य पाठक से मांग करता है कि वह अपने सक्रिय जीवन में सायास-अनायास अर्जित की गयी अवधारणाओं, मान्‍यताओं, वैचारिक पदों और श्रेणियों पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार रहे. इस मानसिक तैयारी में यह सजगता भी शामिल है कि अंतत: कोई भी विमर्श अपने समय के समग्र यथार्थ का पर्याय न होकर उसका संकेतक मात्र होता है. चूंकि यथार्थ के नियामक तत्‍व हमेशा परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए हमें विमर्श की प्रासंगिकता और उसके औचित्‍य की समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए.
लेकिन, मौजूदा विमर्शों की लगभग विस्मित कर देने वाली नक़्शा-नवीसी और द्वितीयक स्रोतों के कुशल उपयोग के बावजूद इस किताब में हिंदुत्‍व के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की अनदेखी एक बहसतलब मुद्दा है.  
बहरहाल, आखि़र में, चंद सतरें इस किताब की बनावट के बारे में. यह किताब विवादात्‍मक शैली में लिखा गया एक लंबा निबंध है. इस तरह, यह किताब की उस पारंपरिक सरंचना से एक अलग नवाचार है जिसमें पाठ्य-वस्‍तु अध्‍यायों में विन्‍यस्‍त रहती है, लिहाज़ा पाठक के पास यह निर्णय करने की गुंजाइश रहती है कि वह जहां-तहां नज़र डालते हुए किस अध्‍याय पर फ़ोकस करे. लेकिन, यह निबंध पाठक से आद्योपांत पढ़े जाने की उम्‍मीद करता है क्‍योंकि यहां विषय के अन्‍यान्‍य सूत्र इतने अंतर्ग्रथित हैं कि उन्‍हें समग्रता में पढ़े बग़ैर इस निबंध के उद्देश्‍य तक नहीं पहुंचा जा सकता.  
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