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सृजन संभव नहीं ‘इन हाथों के बिना’ : रोहिणी अग्रवाल

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रोहिणी अग्रवाल वरिष्ठ कथा-आलोचक हैं, इधर कविताओं पर भी लिख रहीं हैं. कुछ दिन पूर्व समालोचन पर ही आपने सदानन्द शाही की कविताओं पर उनका आलेख पढ़ा था.  

प्रस्तुत आलेख कवि नरेंद्र पुण्डरीक पर है. नरेंद्र पुण्डरीक के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हैं- ‘नगें पाँव का रास्ता’ (१९९२), सातों आकाशों की लाडली’ (२०००), इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया’ (२०१४) ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ (२०१४) तथा ‘इन हाथों के बिना’ (२०१९).




सृजन संभव नहीं ‘इन हाथों के बिना'           
रोहिणी अग्रवाल









क्सर माना जाता है कविता भावोच्छ्वास है, स्मृतियों का पुन:स्फुरण; कि नॉस्टेल्जिया, कल्पना और तरल संवेदना कविता की चमकीली त्वचा को बुनने वाले अनिवार्य घटक हैंकि मनोवेगों के घनीभूत दबाव का नैसर्गिक उद्गार है कविता. लेकिन क्या इतनी भर है कविता? विचार से छूंछी? विजन और मिशन से नितांत अपरिचित, सैलाब की तरह उमड़ कर बह जाने वाली? न्ना!! कविता के अछोर क्षितिज को दोनों बाँहों से थामता है महीन बुनाई की तरह भीतरी तहों में बुना गया विचार! इतना सूक्ष्म और इतना अपारदर्शी कि अपनी बुनियादी ठोस पहचान खो वह संवेदना की मिट्टी में नमी सा घुल जाता है और हृदयस्पर्शी अनुगूंजें पैदा कर हर रसिक पाठक के संवेदनात्मक बोध के अनुरूप कितने-कितने व्यंजनात्मक स्वरूप ग्रहण करता चलता है.

नरेंद्र पुण्डरीक का कविता संग्रह ‘इन हाथों के बिना’ पढ़ रही हूँ और सोच रही हूँ कि कविता में चुपचाप दबे पाँव कहानी घुस आए और दोनों तेल पानी की तरह अलग-अलग फैलकर तकरार करने की बजाए सगी सहेलियों सी गलबहियां डाल इठलाने लगें, तो?

सवाल पेचीदा है. इसलिए कि कोई एक सुनिश्चित जवाब मेरे पास नहीं. कहानी की उंगली थाम कुछ कविताएँ झूमती हुई आती हैं और अपनी लय में बाँध मुझ मंत्र मुग्धा को लिए जाने कहाँ-कहाँ उड़ी चली चलती हैं.  मैं चकित भाव से अपने को उड़ते-तिरते भी देखती हूँ, और तितली की तरह वहीं बैठ हर पंखुड़ी का पराग-कण चूसते हुए भी देखती हूँ. न, आलोचक की भूमिका में उतर बिलकुल नहीं कहूंगी कि विषयवार पाँच खंडों में बंटी ये कविताएँ कवि की संवेदना के विस्तृत फ़लक, सरोकारों के अनंत क्षितिज और चिंता के विविध आयामों की साक्षी हैं.

कविता के क्राफ़्ट से पूरी तरह अनजान मैं बेसुध चमत्कृत पाठक बस यही जानती हूँ कि कविता के भीतर कुछ भाव-तरंगें होती हैं जो पाठक की संवेदनात्मक चेतना से टकराकर प्रभाव तरंगों में तब्दील हो जाती हैं. मैं इन प्रभाव तरंगों पर सवार हूं और संग्रह के पहले खंड ‘जहाँ जली थी माँ की फूल जैसी देह’ को पांचों इन्द्रियों समेत जी रही हूँ. देखती हूँ, कवि की माँ को हल्के से परे ठेल मेरी अपनी माँ कविता के भीतर धीरे-धीरे उतरने लगी है-  अपनी उन्हीं शाश्वत चिंताओं और केयर के साथ कि स्वयं टूटते-छीजते हुए भी


“अंत अंत तक बची रहती है माँ में
बेटे को थामने की ताकत.”

संतान के लिए माँ अक्षय रक्षा कवच है, जन्म के साथ अनायास भाव से मिला. लेकिन अनायास मिला हर वरदान चूंकि अपनी क़ीमत का इश्तिहार साथ लेकर नहीं आता, इसलिए माँ के चले जाने के बाद निष्कवच होने की प्रतीति अमूमन हर इंसान के भीतर गहराती असुरक्षा बोध को नॉस्टेल्जिया में तब्दील कर देती है; और अपनी नालायकी से उपजे अपराध बोध को अश्रु विगलित श्रद्धांजलि में. कविता-कहानी में दिवंगत माँ-पिता का स्मरण और उस स्मरण में अपने आँसू /उद्गार मिलाकर पाठक का तादात्मीकरण दरअसल कहीं उन सच्चाइयों के संत्रास से स्वयं को मुक्त करने की सामूहिक कोशिश हैं कि

माँ के ज़ेवर इस तरह बिना बाँटे बंट गए
अब रह गई है माँ जो बाँटे नहीं बंटती है
छुटही गाय सी कहीं नहीं अंटती है.”

या कि

बार-बार हमें कंधे बदलते देख
हमारे कंधों से उतर गई माँ
और माँ के कंधों से उतरते ही
उतर गए हमारे कंधे.”

माँ को याद करना दरअसल अपने भीतर बचे संवेदनात्मक अवशेषों की आंच को कुरेदकर जिलाए रखना भी है क्योंकि माँ नि:स्वार्थ ममत्व, समर्पण, परवाह और धैर्य का पर्याय हैं- ऐसी नियामतें जो प्राणी को सही मायनों में ‘मनुष्य’ बनाती हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि कवि की तरह हर संवेदनशील प्राणी को माँ के जाने पर लगे

“बोली चली गयी
शब्द चले गये
आंगन में आने वाली चिड़ियाँ चली गई
उड़ गये पाहुन को बुलाने वाले कौवे.”

या शायद सच यह हैं कि माँ जाने के बाद भी अपने बच्चों के भीतर धड़कती ज़िंदगी से जाती नहीं. गड़ी रहती है वहीं नाभि-नाल संबंधों को पृथ्वी का एक मात्र सत्य बनाती. इसीलिए तो काल का ग्रास बन कर भी वह ज़िंदा रहती है स्मृतियों में, स्वप्न में, साँस में, धड़कन में, व्यक्त-अव्यक्त हर अभिव्यक्ति में-      

“माँ की राख चौथे दिन भी गरम थी
दूध की तरह है
जिसे
महसूस कर रही थी हमारी उंगलियाँ.”

उफ़! न चाहते हुए भी मैं नॉस्टेल्जिया में बह गई हूँ. लेकिन विचार तत्व नॉस्टेल्जिया को किनारे की रेत पर सिर पटककर मर मिटने वाली लहर का रुख नहीं लेने देता; उसे आत्मविश्लेषण का कारगर सोपान बनाता है ताकि अपने समय को गढ़ सके इंसान. ज़ाहिर है इसलिए कवि भी अज्ञेय की तरह दुख की सत्ता को स्वीकार करते हैं जो सबको मांजता है और एकान्त में संवाद कर भीतर की ग्रंथियों और समय-व्यवस्था का निर्माण करने वाले पूर्वाग्रहों को प्रश्नांकित करना सिखाता है. इस पूरी प्रक्रिया में वर्ग, जाति, धर्म, लिंग के नाम पर विषमतामूलक एवं विभाजनपरक सिद्धांतों-शास्त्रों का निर्माण करने वाली वर्चस्ववादी ताकतों पर तो चोट है ही, हिन्दू के उग्र हिंदुत्व, राष्ट्र की उग्र राष्ट्रवाद में परिणत होते चले जाने की क्रमिक पतन-यात्रा का रेखांकन भी है.

उनके बड़े होने की जो परिभाषा
हमें बताई गई
वह हमारे गले से कभी
नीचे नहीं उतरी
लेकिन हमें बिना किसी सीढ़ी के
आदमी होने के नीचे
और नीचे उतारा जाता रहा
और वे चढ़ते रहे
बिना किसी सीढ़ी के ऊपर और ऊपर.”
  
नरेंद्र पुंडरीक की कविताओं में दर्द आक्रोश का रूप लेता है और आक्रोश ठंडे तटस्थ चिंतन का जो व्यवस्था से पहले व्यक्ति के भीतर पलती घृणा, बर्बरता, उन्माद को निशाने पर लेता है, वरना कौन नहीं जानता कि अपनी-अपनी निजी विशिष्टताओं के बावजूद भारत के बहुलतावादी चरित्र में सहअस्तित्व और सहकारिता भाव भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाता आया है. धर्म और जाति की संकीर्ण राजनीतिक करने वाले चूंकि संख्या बल को ही हर सफलता और  शीर्ष स्थिति का पैमाना मानते हैं, इसलिए कवि का नॉस्टैल्जिक होकर उन ‘अच्छे दिनों’ को याद करना बेहद स्वाभाविक लगता है जब

हिन्दू इतना हिन्दू नहीं बना था
न मुसलमान इतना मुसलमान बना था
धर्म की हालत तो यह थी कि
उसे अपने को चिन्हित करने के लिए
कहीं अनुकृति ही नहीं मिल रही थी.”

नरेन्द्र पुंडरीक की कविताएँ उस सहृदय पाठक को संबोधित हैं जो ‘अपना सब कुछ देकर जीवन के लिए प्रेम ख़रीदता है’. लेकिन वे पाते हैं कि प्रेम तो हमारे दैनंदिन जीवन, व्यवहार और संबंध सब जगह से ग़ायब है. दाम्पत्य प्रेम के नाम पर औसत  भारतीय अपने परिवार-समाज में जो देखता-पाता है, वह संबंध पर टिकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अनुशासन है जहाँ स्त्री पत्नी/ अनुकर्ता /अनुगूँज बंद कर पति की परिधि के चारों ओर घूमती है, और अपने ही दर्प में इठलाता पुरुष, कवि होने के बावजूद, पत्नी के मानवीय वजूद पर ध्यान नहीं दे पाता. स्त्री की संपूर्ण शख़्सियत का पुरुष की ज़रूरतों को पूरा करने वाले माध्यम के रूप में तब्दील किया जाना प्रेम ही नहीं मनुष्यता के क्षरण का बिंदु भी है. कवि में आत्म साक्षात्कार और आत्म प्रतारणा का भाव इतना अधिक है कि वह स्वीकार करता है

मैं अक्सर कविताएँ लिखता हूँ
मेरी कल्पना में दूर दूर तक
नहीं होती मेरी पत्नी
मेरी पत्नी मेरा
न बदलता हुआ यथार्थ है
मेरी चेतना का भोथरापन है
जो रात दिन रहती है
मेरे आस पास छाया की तरह
लेकिन वह छाया ही रहती है
जीवन नहीं बन पाती मेरा.”


लेकिन कन्फेशन तो ईमानदार, उदार और महान होने की ओढ़ी हुई भंगिमाएं ही होती हैं न! या कह लें, एक रुदाली जिसका समय पर होना ‘जश्न’ में चार चाँद लगा देता है. अन्यथा क्या वजह है कि स्त्री और माँ, प्रेम और समर्पण जैसी नियामतों की दुर्दशा पर आँसू बहाने वाला संवेदनशील समाज व्यवहार में विचार, संवेदना और आचरण को केंद्र में नहीं ला पाता?

लाल रंग से अच्छे ख़ां की फटती थी’ और ‘दुख से कम से कम इतना तो चाहूंगा कि- ये दो खंड विघटनशील समय की शिनाख्त करते हुए धर्म और राजनीति के अमानवीय होते जाने के बाद जिन दो घटकों की ओर संकेत करते हैं, वे हैं- उपभोक्तावाद का प्रसार और पर्यावरण असंतुलन. दरअसल ये चारों ताकतें मिलकर औसत मनुष्य की ज़िंदगी को न केवल कठिन किये जा रही हैं, बल्कि उसके बोध में ही स्वार्थ को रोप कर उसे अन्य मनुष्यों से ही काट भी रही है. इसलिए कवि की यह चिंता वाजिब लगती है कि

हमने कभी धरती के लिए
प्रार्थना नहीं की कि
धरती बनी रहे हरी भरी
न प्रार्थना की कि
नदियों में बना रहे जल
पक्षियों के लिए भी हमने
प्रार्थना नहीं की कि
वे बने रहें हमेशा धरती में
गुंजाते रहें अपनी बोली बानी का संगीत
 …….   
अपने सपनों की ही चिंता करते हुए
हमने शब्दों में विश्वास के बने रहने की
चिंता नहीं की कि
उन में भी वह बना रहे
ताकि आवाज़ लगाने पर
वे आ खड़े हों.”

या कि

अब अच्छा होने के नहीं
अच्छा दिखने के दाम हैं
सो अब हर कहीं
आत्मा की घिसाई ख़त्म हो रही है.”

या

आदमी की कभी कितनी वक़त थी
आज आदमी से ज़्यादा चीज़ों की वक़त है
चीज़ें चौबीस घंटे बिकती हैं
आदमी बिना दिहाड़ी के घर वापस लौट आता है.”

कविताओं की दुनिया से उबर कर जब प्रकृतिस्थ होती हूँ तो सोचती हूँ आख़िर इन कविताओं में ऐसा क्या है जो इन पर बात की जाए? कविता का मितभाषी होकर भी एहसास के ज़रिये संप्रेष्य अर्थ पाठक के मन में रोप देना जितना अनिवार्य है, उतनी ही ज़रूरी है वाग्विदग्धता. शब्द नहीं, झंकार; सिर्फ़ गति नहीं, लय और ताल भी. इस संग्रह में कविता अपनी पूरी फ़ार्म में , या उत्कर्ष रूप में नहीं आ पाई है, लेकिन कवि की नागरिक चेतना और अपने समय को बचाने की चिंता ज़रूर इन कविताओं को ऊँचाई देती है. समय को रचने के लिए तमाम दमन-मर्दन के बीच बचे रहने का विश्वास और रक्तबीज की मानिन्द अपने को बार-बार नवा करने का संकल्प ही इस संग्रह है की विशेषता है:

मैं दूब की जड़ की तरह
इन्तज़ार करूँगा धरती की कोख में
आषाढ़ के बादल का.
मैं आने वाली संतति के लिए छोड़ जाऊँगा
अपने पैरों से निर्मित पगडंडियां
जो अँधेरी रातों में चमकेंगी
उनके पैरों के आगे.”
_________________________________

प्रोफेसर एवं अध्यक्षहिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा
rohini1959@gamil.com

अंचित की प्रेम कविताएँ

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जिसे आज हम प्रेम दिवस कहते हैं, कभी वह वसंतोत्सव/मदनोत्सव के रूप में इस देश में मनाया जाता था. स्त्री-पुरुष का प्रेम दो अलग वृत्तों का मिलाकर उस उभयनिष्ठ जगह का निर्माण करना है जहाँ दोनों रहते हैं, जिसमें परिवार, समाज, संस्कृति, धर्म, देश जब घुल-मिल जाते हैं. इसकी अपनी गतिकी है, महीन कीमियागिरी है. इसका समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र भी होगा. कुल मिलाकर अहमद फ़राज़ के शब्दों में कहें तो-

‘हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम
कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी’


अंचित बहुत अच्छे कवि और प्यारे इंसान हैं. इस अवसर पर उनकी कुछ प्रेम कविताएँ आप पढ़ें. देखें पूरी एक दुनिया है यहाँ. तमाम पेचो- ख़म हैं.  



टेरेसा सिन्हा के लिए कुछ कविताएँ               

अंचित 




नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत

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उन्होंने जो कविताएँ सुनायीं उन्हें सुनकर सोमदत्त को तो चक्कर आ गया        
(नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत)


संतोष अर्श : उनसे (विनोद कुमार शुक्ल से) मिलने मैं रायपुर गया था. उन दिनों उनके घर में सीमेंट-मौरंग के मसाले की गंध थी. हम धूल भरे पुराने सोफ़े पर बैठे थे. सहज व्यक्तित्व हैं. मध्यवर्गीय प्रदर्शन-व्यवस्था-प्रियता से दूर. बनियान में ही मेरे साथ फ़ोटो खिंचवा ली थी. आप कुछ कहिए न उनके बारे में !!    

नरेश सक्सेना : जब वो बीस-इक्कीस साल के ही थे और तब भी मैंने उनका कमरा वैसा ही देखा था. आज भी वह ऐसा ही है. मैंने उनके कमरे के कुछ शॉट्स लिये हैं. उनके कमरे में (विनोद जी के) जो मच्छरदानी लगी हुई है, उसको आप देखें (हँसी) कि प्रॉपर चार डंडों की बनी हुई मच्छरदानी नहीं है. एक सिरा कहीं किसी कील में बंधा हुआ है, एक कहीं और लगा हुआ है. व्यवस्था अभी भी नहीं है. घर को गौर से देखें तो कहीं-कहीं प्लास्टर लगा हुआ मिल जाएगा, उस पर सफ़ेदी-पुताई नहीं हुई है. वो ऐसे ही हैं. बहुत व्यवस्था-प्रिय तो नहीं हैं. कुछ चीज़ें लेकिन आश्चर्यजनक रूप से विनोद जी के यहाँ हैं. और वो ये कि लेखन में और कविता में ये अराजकता बहुत कम है. शिल्प का जैसा सुंदर, संतुलित प्रयोग... और बहुत प्रॉपर्ली स्ट्रक्चर्ड पोयम्स उनके यहाँ हैं. वैसा आपको दूसरों के यहाँ मिलना मुश्किल है. वो बात बड़े अभ्यास के बाद आती है. आपने ध्यान दिया होगा वो जो कविता है-
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था, व्यक्ति को मैं नहीं जानता था, हताशा को जानता था, इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया.
यानी जो बात है जानने के बारे में कि, किसी को क्या जानना. व्यक्ति को नहीं जानता था, हताशा को जानता था !! अरे वाह !... इसलिए मैं उसके पास गया, तो बात पूरी हो गयी ना ? कविता की देखिए पहली शर्त है- सूक्ष्मता. सूक्ष्म नहीं है तो फिर उपन्यास हो सकता है, कथा हो सकती है, रिपोर्ट हो सकती है, कुछ भी हो सकता है. कविता नहीं होगी. कविता तो सूक्ष्म ही होगी. दो लाइन में काम करेगी. जो काम एक शेर करता है. गद्य में वो दो लाइनें काम करेंगी तो वो कविता है. अब उसके बाद वो कविता कितनी सुंदर है, उसकी पक्षधरता क्या है, सम्वेदना तक पहुँचती है कि नहीं, संवेदित करती है कि नहीं, यह देखा जाएगा. सौन्दर्य के स्तर पर ही वो रह जाती है, तो हो सकता है कि आपको कई तरह से सुंदर-मनोरंजक लगे, लेकिन आपके दिल को हिलाने वाली नहीं है तो कविता की यात्रा फिर अधूरी रह गयी जानिए. तो विनोद जी उसके बाद क्या करते हैं ? इसी कविता में आप देखें-
मैंने हाथ बढ़ायामेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ, मुझे वह नहीं जानता था, मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था, हम दोनों साथ चले, हम दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे, साथ चलने को जानते थे.
ये जो नहीं जानता था, जानता था, नहीं जानता था, जानता था, ये क्या हो रहा है ? ये तो लिरिक की क्वालिटी है. ये जो गुण है, ये गीत का गुण है और वो गीत लिखते नहीं, लय और छंद हो तो हो, नहीं तो वो उसकी चिंता करते नहीं. निरे गद्य में लिखने वाला आदमी... सारी कविताएँ ऐसी ही मिलेंगी, लेकिन ये जो प्रॉपर्ली स्ट्रक्चर्ड पोयम्स हैं, संरचना जिसको हम कहते हैं, और हमारे आलोचक जिस पद का बहुत इस्तेमाल करते हैं. (हँसी) वे बताते नहीं हैं कि, किस कविता में कहाँ संरचना है ? संरचना नहीं बताते हैं, संरचनावाद तो बताते हैं. वो जो भी वहाँ से, पश्चिम से आया है न ? संरचनावाद पर कुछ कह देंगे, लेकिन अब तो वो... ख़ैर ये जो बात है उनके (वि.कु.शु.) अंदर ग़ज़ब...! ग़ज़ब का काम करते हैं वो. लापरवाह जो हैं, वो इसीलिए हैं कि वो अपनी कविता में, अपनी रचना- प्रक्रिया में बहुत ही व्यवस्थित हैं. ये व्यवस्था हर जगह नहीं दिखती, लेकिन कहीं-कहीं है तो वो तो हर कवि के साथ है, कि उसकी जो बहुत अच्छी कविताएँ हैं, वो थोड़ी-सी ही मिलती हैं. ज्यादा नहीं मिलती हैं. और ये उनकी बहुत...मैं समझता हूँ कि ये कविता जो है इस पर मैंने एक टिप्पणी लिखी जो बच्चों की पत्रिका चकमकमें छपी. उसके सम्पादक के कहने पर ही मैंने लिखी थी. कि विनोद जी पर लिखिए किसी कविता पर, तो मैंने कहा इस पर लिखता हूँ मैं.

वोचकमकसे निकलकर आज आठवें दर्ज़े के केरल के कोर्स  में चली गयी. केरल में पढ़ाई जाती है और इसके साथ-साथ मेरी जो टिप्पणी है, वो भी पढ़ाई जाती है. उन्होंने कहा कि इसकी व्याख्या भी मिल गयी. और मेरी कविता भी उसमें थी.चकमकमें ही. उनको लगा कि इसमें तो ऐसी कविताएँ ही आती हैं. तो मेरी एक कविता है इस बारिश में.
जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन, उसी के पास अब मेरी बारिश भी चली गयी.
वो कविता भी वहीं केरल में आठवें दर्ज़े के कोर्स में लगी है. तो जब विनोद जी ने मुझसे कहा कि इस कविता पर आपकी ये टिप्पणी...? तो मैंने कहा कि वो तो पढ़ाई जा रही है, वहाँ केरल में. तो मैंने कहा ये देखिए कि कैसा काव्यात्मक संयोग है. हम दोनों कोर्स में लगाये गये हैं तो साथ-साथ. एक कविता आपकी है और एक कविता मेरी है

संतोष अर्श : उनकी भी एक बारिश को लेकर बहुत अच्छी कविता है, ‘अबकी साल बारिश नहीं हुई.
नरेश सक्सेना: वो तो कमाल करते हैं. वो तो कहते हैं कि इस साल भी इस मैदान में कोई पहाड़ नहीं...जैसे क्या. 
संतोष अर्श : ...यासूखी हुई नदी के नीचे सूखी हुई नदी की परतें हैं...
नरेश सक्सेना : कितना बढ़िया...! बहुत कमाल की पंक्तियाँ लिखते हैं. 

संतोष अर्श : आपकी शुरुआत कहाँ सेहुई ? कविता की तरफ़ रुझान कैसे हुआ ?
नरेश सक्सेना : देखिये मैं लखनऊ का रहने वाला तो बाद में हुआ न !

संतोष अर्श : किस सन् में आये आप ?
नरेश सक्सेना : मैं 1964 में आ गया था. दिसम्बर में. और पास कर लिया था इन्जीनियरिंग में...मैंने इन्जीनियरिंग वहाँ से की और ग्वालियर में मेरा अप्वाइंटमेंट हो गया था. 

संतोष अर्श : तो फिर इन्जीनियरिंग आपने कहाँ से पढ़ी
नरेश सक्सेना: जबलपुर से पढ़ी. जबलपुर इन्जीनियरिंग कॉलेज से मैंने किया और फिर मेरा अप्वाइंटमेंट वहाँ इरिगेशन डिपार्टमेंट में हो गया. ग्वालियर में. भिण्ड में मेरा ट्रांसफर कर दिया गया. वो इलाक़ा मेरा जाना-पहचाना है. लेकिन वहाँ शुरुआत जो थी, जूनियर इन्जीनियर बना के करते थे. और पब्लिक सर्विस कमीशन के इन्टरव्यू के बाद असिस्टेंट इन्जीनियर बनाते थे. उत्तर-प्रदेश में इतनी भारी उस समय माँग थी, इन्जीनियर्स की, कि यहाँ सीधा असिस्टेंट इन्जीनियर ही बनाते थे. मार्क्स लिस्ट देखते थे और सेलेक्ट कर लेते थे. तो हमारे साथी जो यहाँ आ गये थे उन्होंने कहा यार तुम वहाँ कहाँ जूनियर इन्जीनियर बन गये हो ? तुम यहाँ आ जाओ असिस्टेंट इन्जीनियर बन जाओगे. तो हम वहाँ से बिना कोई रेजिग्नेशन दिये हुए चले आये यहाँ. एक छोटी-सी अटैची और बिस्तर लेके. और यहाँ पी.डब्ल्यू.डी., इरिगेशन, जल निगम और पब्लिक इन्जीनियरिंग तीनों जगह अप्वाइंटमेंट हो गया. तो हमने देखा कि सबसे शान्त डिपार्टमेंट जो है, वो जल निगम है. हमारे पिता इरिगेशन डिपार्टमेंट में थे तो हम जानते थे. थोड़ा-बहुत आभास था. तो हमने कहा वहाँ पे हाय-हत्या बहुत होती है. नहर में पानी नहीं चला है. नहर साफ़ नहीं है. पानी काट लिया है. बाक़ी और तमाम सारे ताम-झाम होते थे. तो मुझे लगा ये कि वाटर सप्लाई और ओवर हेड टैंक बनाना होता है. हमने बहुत सीमित पढ़ाई की थी. हम दो सवाल तैयार करते थे. क्योंकि चालीस प्रतिशत लाना ज़रूरी होता था. हर पेपर में. तो बीस-बीस नम्बर के दो सवाल तैयार करते थे. उसमें हमने स्ट्रक्चर इन्जीनियरिंग में ओवर हेड टैंक का डिज़ाइन ही कर लिया था. तो हमने कहा ओवर हेड टैंक इन्जीनियरिंग में डिज़ाइन आता है और प्रेशर का प्रोफ़ाइल बनाना आता है, तो ये डिपार्टमेंट हमको ठीक रहेगा.

बाक़ी जगह पता नहीं क्या काम करना पड़े ? कर पायें कि ना कर पायें ? तो हमने जल निगम ज्वाइन कर लिया यहाँ. अब शुरुआत की जो बात पूछ रहे हैं, ग्वालियर में मैं था. मैं ग्वालियर का हूँ और भिण्ड-मुरैना इलाक़े में रहा बहुत बचपन में. वो चम्बल नदी का इलाक़ा है. चम्बल है और उसकी सहायक नदियाँ. क्योंकि मेरे पिता सिंचाई विभाग में ही थे. तो वहीं बन्धों पे, नहरों पर, नदियों पर भी उनकी पोस्टिंग रहती थी. बचपन में वही देखा करता था. जंगलों में भी रहा मैं. यानी दस वर्ष की उम्र तक स्कूल जाना नहीं हुआ. वो पगारा डाक बंगला सिंचाई विभाग का था. यानी मुरैना से सत्रह मील, लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर जौरा और जौरा से भी दस किलोमीटर दूर पगारा. वहीं पहाड़ी पर एक डाक बंगला था, नीचे नदी बहती थी. आसन नदी. वर्षों रहा वहाँ मैं. क़रीब डेढ़-सौ डाकुओं की बंदूकों का आत्मसमर्पण जयप्रकाश नारायण ने वहीं पर कराया था. उसी डाक बंगले में. 

संतोष अर्श : किस सन् की बात है ?
नरेश सक्सेना : ये बात होगी मेरे ख़याल से...(सोंचते हुए) जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन तो सन् 1970 के आस-पास हुआ. उससे पहले की बात है ये. यानी वो जो बड़े डकैत थे न...! डाकू मानसिंहऔर लाखन सिंहऔर सारे... बीहड़ के डेढ़ सौ डकैतों का आत्मसमर्पण हुआ था. क्योंकि डाकुओं ने कहा हम वहीं करेंगे और पुलिस नहीं होनी चाहिए. तो वहाँ मैं रहा. वहाँ आस-पास कई-कई किलोमीटर तक कोई घर ही नहीं था. कोई बस्ती ही नहीं थी. मेरे साथ कोई बच्चा नहीं खेलने वाला. उस सुनसान में मैं रहता था. स्कूल जाने का कोई सवाल ही नहीं. पिता जी थोड़ा-बहुत मुझे गणित और अंग्रेज़ी पढ़ाते थे. हिंदी मैं खुद पढ़ लेता था. पढ़ने को कुछ मिलता नहीं था तो हालत ये थी कि क़िताबें कहीं मिल जायें तो मैं चुरा लाता था. हमारी बहन जो थीं…बड़ी बहन. उन्होंने उन दिनों विशारद साहित्य-रत्न भी पढ़ी. जो लड़कियाँ रेगुलर स्कूल नहीं जा पाती थीं वो विशारद साहित्य-रत्न कर लेती थीं. उनकी विशारद की तमाम क़िताबें जो थीं वो मैं चुरा लाया और स्कूल गये बिना मुझे जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर जैसे अनेक कवियों की कविताएँ याद हो गयीं. बार-बार पढ़ता था. मज़ा भी आता था. फिर मेरी भर्ती जब मुरैना वापिस लौटे हम लोग, तो सीधे पाँचवें दर्ज़े में हुई. हेडमास्टर ने पूछा कितने साल के हैं ये ? तो उन्होंने कहा दस बरस के ! तो बोले इनको पाँचवें में होना चाहिए. तो उन्होंने मुझसे साधारण-सा कुछ टेस्ट लिया वो सब मैंने पास कर लिया तो तुरंत उन्होंने भर्ती कर लिया मुझे. और ग्वालियर शहर जो है…मैं आठवें दर्ज़े तक तो मुरैना में ही रहा. उसके बाद मुरैना में कुछ दिन... और भिण्ड...था, उस इलाक़े में रहा. उसके बाद मैं नाइंथ क्लास में ग्वालियर आया. अब ग्वालियर जो है, वह गीतकारों का शहर है. हिंदी के जो पुराने बड़े मशहूर जैसे वीरेन्द्र मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज. मतलब उस समय ये पूरे भारत के कवि सम्मेलनों में छाये हुए लोग हैं. 

संतोष अर्श : उर्दू के शायर भी अच्छे थे. 
नरेश सक्सेना: उर्दू के भी थे. 
संतोष अर्श : एक कोई ग्वालियरी थे सफ़ा या जफ़ा करके. 
नरेश सक्सेना : दोनों थे, दोनों थे. 
संतोष अर्श : सफ़ा या जफ़ा  में से किसी का एक शेर है-
इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात” 
(इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात, नरेश जी संतोष अर्श के साथ दोहराते हैं)  
इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात,
सोया हूँ सारा दिन कभी जागा हूँ सारी रात.

नरेश सक्सेना: अरे वाह... सोया हूँ सारा दिन कभी जागा हूँ सारी रात. देखिए इतनी सरल कहन जो है ये वहाँ हमेशा से थी और निदा फ़ाज़ली वहीं के हैं. 

संतोष अर्श : हाँ-हाँ  निदा फ़ाज़ली ने ही किसी का संस्मरण लिखा है. उसी में ये शेर पढ़ा था. तब से याद रह गया.  
नरेश सक्सेना: निदा जो थे...मुझे लगता है सबा और सफ़ा नाम से तो उनके भाई लोग ही थे. हाँ... एक उनके बड़े भाई थे. उनके पिता खुद शायर थे. तो निदा को कोई पूछता ही नहीं था. उनका जो शेर है न- 
घास पर खेलता है एक बच्चा माँ पास बैठी मुस्कराती है 
मैं हैरत में हूँ सारी दुनिया किसलिए काबा और सोमनाथ जाती है.
ये शेर उन्होंने तभी लिख लिया था, ग्वालियर में. अब जो बात आप कह रहे हैं...देखिये मुकुट बिहारी सरोज- 
मरहम से क्या होगा ये फोड़ा नासूरी है
अब तो इसकी चीर-फाड़ मज़बूरी है 
तुम कहते हो हिंसा होगी, लेकिन बहुत ज़रूरी है.” 

संतोष अर्श : क्या बात है !!
नरेश सक्सेना: मरहम से क्या होगा, ये फोड़ा नासूरी है... 
इसमें रोने-धोने की क्या बात है
अरे हार-जीत तो दुनिया भर के साथ है 
और छुई-मुई के पातों पर भी पतझड़ का आघात है...

संतोष अर्श : वाह !
नरेश सक्सेना : इसमें रोने-धोने की क्या बात है. 

संतोष अर्श : क्या बात है !! 
नरेश सक्सेना: अब ये मुकुट बिहारी सरोज हैं और हम सब लोग जो हैं...निदा फ़ाज़ली भी हमारे घर के पड़ोस में तो ही रहते थे. रोज शाम को हम लोग क़िताबों की दुकान पर मिलते थे. तो निदा, मैं और एक ओमप्रकाश थे, गीत लिखते थे. बाद में उनका नामनवगीतमें शामिल हुआ. मेरा भी शामिल था. (हँसी फूट पड़ी) हालांकि मैं नवगीत का था नहीं. ग्वालियर का था इसलिए गीत का प्रभाव मेरे ऊपर बहुत बड़ा था. और वहाँ पर तो ख़ैर और लोग भी थे. बाद में तो वहाँ साहनी भी आये और विनोद कुमार शुक्ल भी कुछ समय के लिए आये. क़िताबों की दुकान पर हम सब लोग जुटते थे. और वो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट साहित्य की दुकान थी. हाँ तो वो बैकग्राउण्ड भी वैसा था. वो ज़माना एक बहुत... ये समझिए छह पैसे की चाय, पंडित चाय वाले बना के देते थे. उधारी चलती थी. (तजुर्बेदारी से भरी हँसी झरने की तरह फूटी) बहुत दिनों बाद दो आने की चाय हुई. दो आने में तो पाव भर दूध मिलता था, चाय की क्या बात है. 

संतोष अर्श:  तो शुरुआती कविताई वहीं से है ?
नरेश सक्सेना :  तो शुरुआत में मैंने...कवि-सम्मेलन बहुत होते थे, मैं सुनता था. 

संतोष अर्श : आप मंचों पे भी जाते रहे हैं ?

नरेश सक्सेना: मंचों पे तो कभी नहीं गया. कोई गीत पढ़ने मैं कभी नहीं गया. और मुझे बुलाया भी नहीं जाता था. मैं तो ख़ैर छोटा ही था. मैं हाईस्कूल में आया था वहाँ और इंटरमीडिएट मैंने...थोड़े दिन के लिए बनारस चला गया था. सन् 1955 में फिर लौट के आ गया. ग्वालियर से इंटरमीडिएट किया साइंस में मैंने. तो मुझे लगा यार ये क्या बात है मंच पर पढ़ते हैं और वाह-वाह, वाह-वाह होती है ? तो...चार मुक्तक मैंने देखे छपे हुए ज्ञानोदय में. बहुत छोटे-छोटे और बहुत सुंदर छपे हुए थे. एक पेड़ का रेखाचित्र बना था. नीचे लिखा था रमा सिंह. तो उस पेज को मैंने देखा लाइब्रेरी में जाकर के. ग्वालियर में. हम सेण्ट्रल लाइब्रेरी थी... तो वहाँ जाते थे तो मैंने देखा कि इतना सरल- 

एक पल में उठ रहीं लहरें कई
एक पल में दिख रहीं खण्डित हुई,
एक ऐसी भी लहर इनमें ऐसी उठी,
रेत पर तस्वीर बनकर रह गयी.

मैंने कहा, ऐसी लाइनें तो हम भी लिख सकते हैं. (देर तक मासूम हँसी बहती रही) और इतनी सरल लाइनें हैं और ज्ञानोदय के पृष्ठ पर छपी हुई हैं. इतना सुंदर रेखाचित्र और नीचे लिखा है रमा सिंह. यहाँ मेरा नाम लिखा होता, तो कैसा सुंदर होता. और शाम को मैं आया और मैंने पाँच-छह दिन में तमाम सारे मुक्तक लिख डाले. ग्यारह मुक्तक मैंने ज्ञानोदय को भेज दिये ये लिखकर के, कि इसमें से कोई भी चार आप चुन सकते हैं. और चुन लिये उन्होंने. (हँसी) तो ख़ैर मेरी पहली रचना के तौर पर...तो वो ज्ञानोदय में एक-एक पेज पर एक-एक मुक्तक मेरा छपा है 1958 में. हाँ...और 1957 में वो भेजे गये थे जगदीश सम्पादक थे. बाद में शरद देवड़ा आये तो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि आपके मुक्तक हैं, थोड़ा समय लगेगा. ख़ैर वो छपे. लेकिन जबलपुर में पहुँचते ही तो कायापलट हो गया. वहाँ हरिशंकर परसाई के सम्पर्क में आये. हरिशंकर परसाई के यहाँ मुक्तिबोध का आना होता था. उनके सम्पर्क में आये. डॉ. नामवर सिंह का आना होता था. 

हरिशंकर परसाई ने ही पूछा, कि विनोद से मुलाकात हुई ? मैंने कहा, नहीं तो उन्होंने कहा अरे वो राजनांदगाँव से है और यहाँ एग्रीकल्चर साइंस में पढ़ रहा है. तो कभी मिलना उससे. फिर यही बात उन्होंने विनोद जी से भी कह दी कि, भाई नरेश से मुलाकात हुई? तो उन्होंने कहा नहीं, तो कभी मिल लेना. तो वो काहे को मिलते ? तो ख़ैर वहाँ एक सोमदत्त भी थे. तो मैंने और सोमदत्त ने तय किया कि यार चल के मिलना चाहिए. एग्रीकल्चर कॉलेज गये तो मुलाकात हुई विनोद जी से तो वही हालत थी उनकी. और वो चूँकि मुक्तिबोध के जैसे...मैं गीतकारों के सम्पर्क से आया था और जो पूरी क्लासिकल परंपरा थी सुमित्रानन्दन पन्त और जयशंकर प्रसाद... उन सब को उनकी सबकी कविताएँ याद थीं. मुझे आज भी याद हैं. तो उनको मुक्तिबोध की कविताएँ...सबसे पहली बार उनका सम्पर्क मुक्तिबोध से ही हुआ था कवि के रूप में. विनोद जी का.तो उनकी कविताएँ अजीब बीहड़ थीं. उनसे जब हमने कहा कि विनोद जी कुछ कविताएँ सुनाइए. तो उन्होंने जो कविताएँ सुनायीं, उनको सुनकर सोमदत्त को तो चक्कर आ गया. 
क्रमश: ...

मनोज मल्हार की कविताएँ

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मनोज मल्हार की कविताएँ                                

    

(एक)
इतिहासकार का जादू [1]


इतिहासकार शुरू करता है.

भारी-भरकम लयबद्ध आवाज की निरंतरता
सर्वप्रथम मंचीय प्रकाश को गायब कर देती है
धीरे-धीरे इंसानी शक्ल, कद काठी नहीं रहने देती.
अनैतिहासिक अन्धकार के जाल को भेदते हुए
हमें ऐसे प्रकाश व्यवस्था में ले जाती हैं
जहां गुजरे ज़माने के सिक्के हैं
माटी के नीचे दबे पाषाण. गुफा चित्र.
वनैले अँधेरे में पेड़ की टहनी से चिपका है मानव
अस्तित्व की लड़ाई प्रतिदिन लड़ता.
भवन, भवन के कंगूरे और स्थापत्य हैं.
ताम्रपत्रीय अवशेष, स्तम्भ, स्नानागार और भित्तिचित्र.
अद्भुत भवन और पूजा स्थल.
पुराणों के पृष्ठों पर अंकित कथाओं के विश्लेषण का युद्ध है.
एक–एक खुदे अक्षर और चिन्ह की व्याख्या की लड़ाई.

शब्दों से चित्र बनने की प्रक्रिया में
हम देखते जाते हैं विशालकाय मैदान में खड़ी सेनाएं.
राजाज्ञाएं. युद्ध.

धीरे-धीरे मन स्वीकारता है –
सत्य एक बहुआयामी और पेचीदा चीज है,
निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दबाजी ना करो.
हर निष्कर्ष और नियमन को साक्ष्य चाहिए
हर विश्लेषण को तर्क चाहिए.
यहाँ तक कि हर भगवान् को हमारी मान्यता चाहिए.

जब हम कहते हैं राजा
तो साथ में है उसका प्रतिलोम प्रजा.
एक है आज्ञा देने वाला तो
बहुत हैं आज्ञा मानने वाले.

जब–जब राजाज्ञा न मानने वाले
एकजुट होते हैं ...तब
इतिहास की एकरसता टूटती है
तब नये अध्याय जुड़ते हैं
तब नई तस्वीरें शब्दों को मजबूती देती हैं


                    
(दो)  
पटरियां, तार और खम्भे की जुगलबंदी

वह कुछ अनूठा ही है.

इंसानी बस्तियों से दूर
बहुत बड़े आसमान के नीचे
ऊंची रेखाओं पर दो पटरियां सामानांतर
सदैव रोड़ों से ढंके, बंधनों से बंधे.
नसीब कुछ इस तरह
की अगर कभी मिले, या कोशिश भी की
विद्रूप हो उठती है वो स्थली
तीव्र गति से पलटने उलटने की अनियंत्रित, अपरिचित
अनियोजित खरोंचों से बिंध जाती हुई..

पटरियों के पास घास होते है छोटे-लम्बे 
कोमल और कठोर का अजीब मिलन.
पटरियां नहीं खिसकना चाहती जरा भी.
वे घासों के यार होते है.

सृष्टि के अजब नियमों की तरह 
चार पांच तार अपनी दूरी बनाये रखते हुए
पटरियों के ऊपर होते हैं.
इनके बीच अजब सा रिश्ता है
दोनों धूप में सूखते है,
सर्दी में फैलते है
बारिश में भीगते हैं.
उनका मौन ब्रह्मांडीय है.
न शब्द, न स्वर,
एक सर्वथा अपरिभाषित मौन
जैसे झुर्रियों से भरे दो चेहरे
रोज डूबते सूरज को देखते हुए
निःशब्द बातें करते हों

एक ही तरफ देखने पर
खम्भों की पंक्ति
अनुशासित सैनिक की कतार लगती है
बहुत दूर पत्तों पेड़ों के आवरण में
प्रवेश कर जाती हुई.

तीसरा भी है–
पटरियों और तार को मिलाता
आध्यात्मिक विश्वास वाला खम्भा.
इसकी जड़ें पटरियों के बेहद करीब होती हैं
और शीर्ष तार के वजन को संभालता.
एक तरफ से देखकर कह सकते हैं–
यह तार और पटरियों को मिला रहा है
तो दूसरी ओर से देखकर-
ये पटरियों और तार को मिलने नहीं दे रहा.
अजब स्थिति है बेचारे की.
ये उसका अपना चयन नहीं है.
अस्तित्व पाने के बाद उसने खुद को इसी रूप में पाया है ...

मेरी यह छोटी सी कामना है..
अपनी दूरियों, नजदीकियों और स्थितियों के साथ
इस विराट आसमान के नीचे
पटरियों, तार और खम्भे की जुगलबंदी कायम रहे
घास उगते रहें कठोरता की जमीन पर भी
धूप बारिश हवा इन्हें जीवन देती रहे.
              
  

                   

(तीन)
वाइड एंगल में एक छात्रा

कुछ पीलेपन की शिकार दूब
धूप मरियल बीमार आलसी- सी
ठहरी हुई दिशाएँ आकाश पूरा परिवेश
दूर सामने बहुत दूर नज़र आते पत्तों के झुण्ड भी खामोश
खामोश है पक्षीगन ...

इस स्वप्निल से वाइड एंगल में
ठीक बीचोबीच बैठी हुई
दोनों हथेलियों पर किताब थामे
चेहरे नीचे को 45 डिग्री के कोण पर ...
उसके दोनों तरफ समानुपात में
दूब का विस्तार लिए मैदान.

एक फ्रेम में बंद ये चीजें
चित्रकला की पूर्णता सी..
ज्यों विलगा दिया गया हो
समुद्री सतह से स्वर्णकलश
या फिर चाँद का एक टुकड़ा
बिखर गया हो कहीं और...

खुले आकाश तले
दुनियावी भीड़भाड़ से दूर
छपे हुए अक्षरों में उलझी वो
शायद इतिहास की जंगों को जान रही होगी
या फिर राजनीतिक कार्य प्रणाली को
या फिर संभव है
आजकल की कोई रोडसाइड की
बेस्टसेलर के दावों से युक्त
किताब पढ़ रही हो..
पर उसका इस तरह का एकांत
किताबों में डूबे रहना
कई तरह के  रहस्य उत्पन्न करता हुआ
क्यों वह भीड़ से अलग है
उसने दोस्त क्यों नहीं बनाए
या फिर सर्दी की मरियल सी धूप में
वहीं क्यों बैठी है वो?
रहस्य कई सारे.
पर सबसे खूबसूरत कि
डूब कर शब्दों की दुनिया में गोते लगा रही वो
सार्वजानिक रूप से.. छुपकर नहीं.

                  


(चार)
‘अपराध और दंड’[2]पढ़ने के बाद

गेहूं के भूसे की मरी रंगत में लिपटा
धब्बेदार, धूसर शहर.

दिनों की घटनाएं
एकदम खिसकती चट्टान सी
गिरती हैं..अचानक
शहरी हो हल्ले में
गर्मी के दिनों के
तीव्र, आवेशी दृश्य की तरह 
कंपकपाती है
अशांति की आशंका,
बीमार गंधाते समाज को
दूध पिलाता समाज....

धूल की कीचड़दार पर्तों में लिपटे
बड़े रोड़े गड्ढे गहरे.
हवा का जोरदार झोंका –
और धुल से ढँक जाती है दिशाएँ

राह में देने फैलाये ज़र्द गेरुआ ट्रक.
बड़े खतरनाक ढंग से मुडती हैं टायरें
वीभत्स ढंग से टकराती हैं
पिलाई रोशनी की आड़ी तिरछी रेखाएं
छायाएं नाच उठती हैं
पास कहीं कर्कश संगीत गूंजता है
पेड़ की डालों से कौवों का झुण्ड उड़ा जाता
कांव – कांव की रौरव फैलाता.
फिर जान पर बन आयी है.

पानी का कैन लादे
रस्कोलनिकोव[3]
असहाय नज़रों से घूर रहा है

वह घूर रहा है
और उसके सामने है रंगीनियों की चकाचौंध.
नियोनी रश्मियों के पुंज!
बहुत बड़े साइनबोर्ड में
उन्मुक्त हँसी बिखेरती तारिकाएँ...

वह घूर रहा है
क्रूरता के मासूम से दिखते चेहरों को
जो रात के अँधेरे में दानव अवतार लेते हैं
और मंदिरों –मस्जिदों में
ताले लटक जाते हैं...
असहाय नज़रों से घूर रहा , वह
शर्तिया अपराध करेगा .
फिर दूनिया[4]के कदमों को चूम, कहेगा –
“मैं तुम्हारे नहीं, समस्त पीड़ित मानवता के
क़दमों चूम रहा हूँ”
तंग गलियों में वो फक्कड़
ठोकरें खायेगा,
भूख से अकड़ी अंतड़ियाँ लिये
माँ के दुखों को याद कर
वह फिर वार करेगा...
खौफनाक अपराध !

पत्थर, चाकू, लाठी
सामूहिक दहन की सामग्रियों से
सज्जित नैतिकताएं,
तमाम धर्मशास्त्रों की आयतें
खतरनाक अपराधी बतायेंगी...
धीरे धीरे
धुंधली पड़ती जाएँगी
श्रेष्ठ मानवीय भावनाएं.
आप दार्शनिक होते होते
एकदम से चिल्ला उठेंगे –
‘हाँ हाँ! अपराधी है वह !
खून किया है उसने!’

मगर रस्कोलनिकोव को नहीं रोक पाएंगे.
माथे पर शिकन , आँखों में जलन लिये
विश्थापित , दर- बदर
इनके भीतर जी उठेगा रस्कोलनिकोव
पवित्र और ‘वांटेड’ अपराधी
दोस्तोयेव्स्की. 


                            


                       
(पांच)
जब मैं चाँद के साथ होता हूँ

मैं जब चाँद के साथ होता हूँ
और कुछ भी नही होता मेरे साथ.

सिर्फ अँधेरा होता है
बलवती उन्मत्त वेगवान होती
चांदनी के रंग में विलीन हो जाती हुई.
आसपास नन्हें पंछियों की उड़ाने
मस्ती का माहौल बनाती हैं..
उनके आकार बार बार
चाँद के आर पार.

जब चाँद
काली घटाओं से कुछ वक़्त निकाल
मुझे सराबोर करता है
एक विस्मृत सी दुनिया
किस्से किताबों में सीमित दुनिया
नमूदार होने लगती है..

जब मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
अपनी सारी झिझक छोड़ चांदनी
अद्भुत स्निग्ध पीलेपन से नहला देती है...
सरसों के झूमते फूलों के अनंत विस्तार का पीलापन
जिसमें ताम्बे का खनक पीलापन मिल गया हो..
अद्भुत रहस्यमय आकाशीय पीलापन....

तस्वीरों से उतरकर
स्त्रियों की एक टोली
पीली गगरी लिए चलायमान सी होती है.
खिले हुए रंग बिरंगे फूलों का पूरा एक बाग गुजर जाता है
ठीक मेरी आँखों के आगे से..
हवायें डालियों को हिला हिला जाती हैं.
झूमते हुए पत्तों पर चांदनी
लहरों सी मचल जाती है..
नन्ही पंछियों की उड़ान में नर्तन.
और अब, कान्हा की बांसुरी की लहरें
फिजाओं में बिखरने लगी हैं.
शायद राधिका करीब है कहीं.
रहस्य सी, उन्माद-सी , जादू सी.

जब मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
ग़ालिब चांदनी से नहायी डगर पर झूम रहे होते हैं
रवीन्द्र संगीत का ताल सध रहा होता है, और
मीरा घुँघरूओं को छनछना रही होती है...

 
जब मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
और कुछ भी नहीं होता वहाँ.
सिर्फ मैं, चांदनी, पत्तों से भरी डालें
पक्षियों के कलरव.
निरंतर निहारा करते करते
मुझमें समा जाती है चांदनी.
मैं चाँद हो जाता हूँ
और मुझसे बूँद बूँद बरसने लगती है चांदनी




[1]प्रो. इरफ़ान एस. हबीब को सुनने के बाद की शाब्दिक प्रतिक्रिया..
[2] फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की का उपन्यास
[3] उपन्यास का केन्द्रीय पात्र
[4]वेश्यावृति करने को मजबूर रस्कोलनिकोव की बहन 

पंकज बिष्ट की कहानियाँ : राकेश बिहारी

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महत्वपूर्ण कथाकार और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट (जन्म : २० फरवरी, १९४६) का आज ७५ वां जन्म दिन है. पांच दशकों की उनकी रचनात्मक और वैचारिक यात्रा के विविध आयाम हैं- कहानियाँ, उपन्यास, आलेख,संपादन, अनुवाद, बाल-साहित्य आदि. इस अवसर पर पंकज बिष्ट पर केन्द्रित ‘बया’ पत्रिका के विशेष अंक का लोकार्पण भी होगा.

उनके कथा-साहित्य पर आलोचक राकेश बिहारी का यह आलेख प्रस्तुत है.      



उपभोक्तावाद के शुरुआती पदचापों की पहचान                 
(संदर्भ: पंकज बिष्ट की कहानियाँ)
राकेश बिहारी


किताब की यात्रा : रमाशंकर सिंह

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किताब पहले भी लिखी जाती थी पर प्रिंटिग प्रेस से निकलकर किताब किताबें हुईं, बहुत दिनों तक उन्हें पवित्र और प्रामाणिक माना जाता रहा. नगर में पुस्तकों का आलय होना नगर के लिए बड़ी बात थी. घर में किताबें हों तो घर का संस्कार बनता था. ज्ञान की लोकतांत्रिकता और उपलब्धता का पर्याय हैं पुस्तकें. लाखों लोगों की जिंदगी किताबों ने हमेशा हमेशा के लिए बदल दी है. अभी भी सबसे कमजोर का अंतिम बल पुस्तकें हैं. जहाँ पुस्तकों ने सभ्यता को बदला वहीं अब पुस्तकें भी बदल  रहीं हैं. कागज़ पर छपा होना ही अब किताब होना नहीं है. वे अब स्क्रीन पर भी उभरती हैं. वाचिक से लिखित फिर उनका यह डिजिटल रूप. चीजें इसी तरह आगे बढ़ती रहती हैं.

रमाशंकर सिंह समाज विज्ञानी हैं. फेसबुक पर चले अपनी पसंद की किताबों के बहाने उन्होंने किताबों की यात्रा पर यह दिलचस्प आलेख लिखा है,उनकी नज़र भारतीय समाज पर पड़े इसके प्रभावों पर भी है.



किताब की यात्रा                         

रमाशंकर सिंह




र्ष 2019 में फेसबुक पर एक चुनौती चली : सात दिन तक लगातार अपनी पसंद की सात किताबें साझा करने के लिए और किसी अगले व्यक्ति को नामित करने के लिए कि वह भी सात किताबें फेसबुक पर साझा करे. तो ऐसा करते हुए मेरे एक किशोर दोस्त ने मुझे चुनौती दी कि क्या तुम सौ दिन तक लगातार अपनी मनपसंद किताबों को फेसबुक पर साझा कर सकते हो? यह मुश्किल घड़ी थी. मुझे बचपन के वे अनाम पोस्टकार्ड और धुँधले परचे याद आ गए जो किसी को भी सड़क पर, स्कूल जाते समय या अपने झोले में कहीं से मिल जाते थे और उन पर लिखा रहता था कि ऐसे हजार या पाँच सौ परचे या पोस्टकार्ड छपाकर आप भी बाँटिये नहीं तो अनिष्ट होगा, आपकी मृत्यु भी हो सकती है और आश्चर्य की बात तो यह थी कि कुछ लोग इस भयोत्पादक खेल में शामिल भी हो जाते थे. अनिष्ट, अमंगल और मृत्यु उन्हें यह खेल खेलने के लिए बाध्य करती थी. किताब के साथ ऐसा नहीं है. 

वह अपनी मूलचेतना में मंगलकारी है. उसकी उपस्थिति ही संकट, भय और मृत्यु के समय सांत्वना है. तो एक ऐसे समय में जब हम कुछ चुने हुए और कुछ थोप दिए गये संकटों से ग्रस्त हैं तो कोई किताब इनसे बच निकलने के लिए एक जुगत बन जाती है. फेसबुक पर शायद इसलिए लोगों के एक बड़े समूह ने इसे हाथों-हाथ लिया. हो सकता है कि मैं इस आकलन में पूरी तरह से गलत होऊँ. इसका एक दूसरा कारण मुझे लगता है कि किताब मनुष्य को आत्मिक विस्तार देती है इसलिए उसे पढ़ते हुए वह थोड़ा आश्वस्त होता है. कभी-कभी किताब खुद को पहचानने का जरिया बन जाती है. दुनिया के कई धर्मों में उसके आधारभूत सिद्धांत इल्हामी किताबों से निकले बताए जाते हैं, और सारे पैगम्बर संकटों के समय किताब की ओर देखते पाए गए हैं. मैं यहाँ धर्मों की अंदरूनी बनावट और उसमें किसी इल्हामी किताब की भूमिका पर तो कुछ नहीं कह रहा हूँ लेकिन इतना तो कहना ही चाहूँगा कि संस्कृतियों के आरम्भिक विकास बिंदु को शुरू करने में किताब एक भूमिका अदा करती हैं. संशय से उजाले की ओर, बीहड़ से किसी रास्ते की ओर किताब ले जा सकती है. किताब नितांत व्यक्तिगत दायरे से निकलकर कब सभ्यतागत दायरे में पहुँच जाती है, धर्मों का इतिहास तो यही बताता है. रामायण और महाभारत पढ़ते समय मानवजीवन के जो संकट आ खड़े होते हैं, उन्हें हल करने की चातुरी तो मनुष्य के हाथ में है लेकिन उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले कौन जाएगा? पहला उत्तर तो यही है कि मनुष्य के संतों से उबरने की जुगत मनुष्य के पास है, इसलिए वही ले जाएगा लेकिन मनुष्य तो मर जाता है, इसलिए यह भूमिका किताब ले लेती है.

किताबों की दुनिया 
तो मैंने उस दोस्त की चुनौती स्वीकार कर ली. मेरे सामने ढेर सारी किताबें आकर खड़ी हो गईं: चुराई हुई, गुमशुदा, मुफलिसी में खरीदी गयीं, उपहार में मिलीं, लाइब्रेरियों की गुमनाम शेल्फों में रखी किताबें और न जाने कहाँ-कहाँ की. सभी किताबें किसी न किसी मनुष्य ने सिरजी थीं और उनमें से अधिकांश मर चुके थे- लेखक और जिल्दसाज़ दोनों. मुझे लगा कि इन सब किताबों के लेखकों और जिल्दसाजों ने मुझे घेर लिया हो. बचपन के एक खेल में सब बच्चे आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़कर गोल घेरे में खड़े हो जाते थे और जो बच्चा बीच में खड़ा होता था, उसे इस घेरे को तोड़कर भागना होता था. ऐसे में गोल घेरे के बीच में खड़ा बच्चा सबसे कमजोर जगह खोजता था जहाँ वह धक्का देकर भाग सके. किताबों के साथ ऐसा नहीं हो पाता. एक बार आप उनके गोल घेरे के अंदर गए तो निकलना मुश्किल हो जाता है. जहाँ पर आप खड़े हैं, वहीं पर वे आपको रचने लगती हैं. यह तो एक पाठक की गति हुई, लेखक तो किताब लिखते समय क्या से क्या हुए हैं, यह तो कोई लेखक ही बता सकता है.

भय, संत्रास और आनंद की न जाने कितनी लंबी आग की नदी उन्होंने पार की होगी. जिल्दसाज गुमनाम मर गए. किताबों के इतिहास में जिल्दसाजों का कोई जिक्र नहीं मिलता है. मैं भी इस निबन्ध में उनका जिक्र नहीं कर पाऊँगा. मैं सैकड़ों लेखकों और कवियों का नाम एक साँस में गिना सकता हूँ लेकिन किसी जिल्दसाज का नाम नहीं याद है? क्या आप अपने शहर के किसी जिल्दसाज का नाम जानते हैं?

तो अपने सीमित ज्ञान के साथ मैंने उसकी चुनौती स्वीकार तो कर ली लेकिन मुझे ऐसा लगा कि अपने पसंद की किसी भी किताब की बात करना खतरे से खाली बात नहीं है. यह तो अपने बारे में सच-सच बता देना है. सब आपको जान जायेंगे, सब आपको पकड़ लेंगे. मैंने फिर अपने-आप और दोस्तों से झूठ बोल दिया और उन्हें कुछ उन किताबों के बारे में उन्हें भनक नहीं लगने दी जिन्हें मैं पसंद करता हूँ. अपने पसंद की किताब बताना जैसे अपने-आपको सबके सामने प्रस्तुत कर देना है. इसके बाद आप वध्य हैं. 

अगले 100 दिन मेरे लिए अनिश्चय, भय से भरे हुए, प्रेम की सुगंध लिए तो कभी-कभी मृत्यु के दरवाजे पर खड़े हुए से लगे. इस व्यक्तिगत विवरण में, मैं एक बात बताना भूल ही जा रहा था कि यह सभी किताबें राजनीतिक थीं. ऐसी कोई किताब नहीं बनी जिसके मुखपृष्ठ पर कोई राजनीतिक बात न कही गई हो, अगर मुखपृष्ठ पर नहीं तो किताब के बीच में कहीं चुपके से कोई राजनीतिक बात अवश्य कही गई थी. यह एक जद्दोजहद भी थी कि किसी खास किताब को पढ़ें या उससे पिंड छुड़ाकर भाग लें. कभी-कभी हम किन्हीं किताबों से डरकर, घबराकर भाग खड़े होते हैं क्योंकि हमारे अंदर उतना वैचारिक ताप नहीं होता है जितना वह किताब हमसे माँगती है. हम कुछ किताबों का ताप सह नहीं पाते हैं. बहुत ही शाइस्तगी और शातिराना चुप्पी से अकादमिक और व्यक्तिगत बातचीत में कुछ किताबें चर्चा से बाहर कर दी जाती हैं. फिर कोई समय आता है वे किताबें बाहर आ जाती हैं. लोग उनकी बात करने लगते हैं. मनुष्य पुनर्जीवित तो नहीं हो पाता, किताबें उसे पुनर्जीवित कर देती हैं. इस प्रकार किताब एक देह धारण करती है जैसे कोई विद्वान या साधु-संन्यासी की देह होती है. यह देह ही किसी दार्शनिक, लेखक या राजनेता के विचार को लिए-लिए डोलती रहती है. देह नष्ट होती है, किताब नहीं. उसका पुनर्मुद्रण उसे एक नयी काया देता है. मनुष्य को काया के पुनर्नवीनीकरण की सुविधा उपलब्ध नहीं है, इसलिए वह किताब में आकर अपने-आपको पुनर्नवीनीकृत करता रहता है. भक्त संत मनुष्य की देह को माटी का चोला कहते हैं, इसी प्रकार किताब मनुष्य का कागजी चोला है.

किताब का परस 
किताब जिंदगी बदल सकती है : व्यक्ति और समुदाय दोनों की. यह आप मोहनदास करमचंद गाँधी, भगत सिंह, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर से लेकर सफदर हाशमी के जीवन का अध्ययन कीजिए. यह सभी लोग सच्चे, संवेदनशील और निडर थे. किसी न किसी किताब ने उनके जीवन को विस्तृत किया. वर्षों पहले मैंने एक पतली सी किताब पढ़ी थी जिसकी लेखिका का नाम किताब पर नहीं छपा था. किताब का नाम सीमंतनी उपदेश था. इस जैसी न जाने कितनी किताबें हैं जिनके लेखकों-लेखिकाओं का अता-पता नहीं, लेकिन इन लोगों का जीवन किताब के परस से बदल गया था. किताब उनके लिए पारस पत्थर थी. वैसे हर कमजोर, महिला, दलित और बहिष्कृत व्यक्ति या समुदाय के जीवन में किताब पारस पत्थर की भूमिका निभाती है.

अभी हमने अंबेडकर की बात की, उन्होंने जो संघर्ष किया वह उन्हीं लोगों के लिए था जो किताब से दूर थे. जिन्हें किताब से संरचनात्मक रूप से किताब से दूर कर दिया गया था, अंबेडकर का संघर्ष उन्हीं के लिए था. मुझे मेरे दोस्त डाक्टर अजय कुमार ने एक बात बताई थी कि जब 1980 के दशक में उनके मजदूर पिता उन्हें उन्नाव जिले के एक गाँव में स्थित प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाने ले गए तो अध्यापक ने कहा कि तुम शूद्र हो, तुम्हारे पिता के पिता, और उनके भी पिता आ जाएँ तो भी पढ़ नहीं पाएंगे. खैर अजय का वहाँ प्रवेश हुआ और आज अजय के पास भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली बड़ी से बड़ी डिग्रियां हैं और वे राष्ट्रपति निवास, शिमला में स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो रह चुके हैं. अजय खूब किताबें खरीदते हैं और पढ़ते हैं. अब उनकी पहुँच में किताबें हैं. दलित आत्मकथाएँ पढ़ते हुए ऐसी कितनी कथाएँ याद आती हैं जो अपमान और क्षोभ से निकली हैं. इस देश में लाखों-लाख लोग अपमान और अवमानना की आग की नदी तैरकर पार करते हैं तब जाकर उन्हें किसी किताब का परस हासिल होता है.

किताब का यह परस हमारे आसपास की दुनिया को सुंदर और समान बनाने की कोशिश करता है लेकिन जाति, धन, पद-प्रभाव में विभाजित समाज इसमें रोड़े अटकाता है. थोड़े देर के लिए आँखें बंद कीजिए, अपने आसपास के उन हाथों को याद करने की कोशिश कीजिए जिन्होंने जीवन में किसी किताब को नहीं छुआ. क्या उनका जीवन इतना हेय था कि वे किसी किताब को छू न सकें? मैं हमेशा उस दुनिया की कल्पना करता हूँ जिसमें कोई ऐसा इंसान न हो जिसने किताब को न छुआ हो, केवल उनको छोड़कर जो स्कूल नहीं जाना चाहते या कोई किताब वास्तव में नहीं पढ़ना चाहते हैं. दुनिया को सुंदर बनाने के हजार तरीके हैं. किताब भी दुनिया को सुंदर बनाने का एक तरीका है.

किताब प्रेम का पौधा है 
खैर, थोड़ा रुकिये. मैं यहीं साफ कर दूँ कि किताब से ही मानवीय दुनिया सुंदर नहीं हो जाती है, उसके लिए मनुष्य-भाव जरूरी है. भक्तिकाल के कवि इसके उदाहरण हैं जिन्होंने किताब के आगे मनुष्य और उसके सच को प्राथमिकता दी. किताब सोने में सुगंध पैदा कर सकती है लेकिन जरूरी शर्त यह है कि सोना उपलब्ध तो हो. मनुष्य पहले मनुष्य तो हो. अन्यथा बहुत पढ़े-लिखे लोग हीनतर अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं. फिर भी, बहुत सारे लोगों की तरह मेरा भी किताबों पर भरोसा कायम है. किताब मनुष्य के लिए एक खिड़की है जिसके द्वारा वह अपने से बाहर की दुनिया में झाँकता है. वह अपने जैसे दूसरे मनुष्यों को समझने का प्रयास करता है. उन्हें जानता है और प्यार करने लगता है. आचार्यों ने ऐसे थोड़े कह दिया है कि परिचय से प्रेम उपजता है. किताब अपरिचय को तोड़ती है. चिकित्सक अतुल गावंडे ने अपनी किताबबीइंग मॉर्टलमें ध्यान दिलाया है कि हम कई चीजों से कतराकर निकल जाना चाहते हैं. हम तब तक टाल देना चाहते हैं जब तक चीजें बिलकुल हमारे सामने आकर खड़ी न जाएँ. मसलन, बीमारियों का, वृद्धावस्था का और मृत्यु का सवाल. बीमारी से तो नहीं लेकिन वृद्धावस्था और मृत्यु से टकराने में किताब मदद करती है. पश्चिमी देशों में चिकित्सकीय मानव विज्ञान (मेडिकल एन्थ्रोपोलॉजी) ज्ञान की प्रमुख शाखा है. असाध्य एवं गंभीर रोगों से लड़ने के लिए किताबें पढ़ने की सलाह चिकित्सक देते रहते हैं. भारत में सबके पास कैंसर जैसे रोगों से लड़ने की वित्तीय क्षमता नहीं है इसलिए वे दवा-दारू जुटाने की लड़ाई में ही मर खप जाते हैं लेकिन जिनके पास चार पैसा है उनके सामने कैंसर से आगे सोचने की बात आती है. ऐसे में जीवन में विश्वास जगाने वाली किताबें मौत के आगोश में जा रहे व्यक्ति की मदद करती हैं. 

भारत में भी किसी किताब की दुकान पर, विशेषकर अंग्रेजी किताबों की दुकान पर चले जाइए तो कैंसर जैसे रोगों से लड़ने वालेसर्वाइवर्सकी किताबें दिख जाएँगी. यह किताबें शायद पाठक की आर्थिक हैसियत की ओर इशारा भी करती हैं. एक तरफ कैंसर के इलाज के अभाव में दम तोड़ता भारत है तो दूसरी तरफ वह भारत भी है जो इस रोग से कुछ दिन तक लड़ सकता है– अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार. जो दवाओं का दाम झेल ले जाते हैं लेकिन अकेलापन और अपने अंदर मृत्यु की उपस्थिति को नहीं झेल पाते हैं, किताब उनकी मित्र बन जाती है. वे किताब खरीदकर पढ़ सकते हैं, खुद किताब लिख सकते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैंने कानपुर में किताबों की एक दुकान पर लिसा रे की किताबक्लोज टू बोनउलट–पलटकर देखी, छुआ. लिसा रे को कैंसर से जूझने के लिए क्या करना पड़ा, वे इसके साथ कैसे रहीं– यह सब उन्होंने बताया है, अपनी जिंदगी के खूबसूरत पलों, अभिनय की यात्रा को उन्होंने इस किताब में खोलकर रख दिया है. इस किताब को उलटते-पलटते हुए मुझे खयाल आया कि एक सामान्य पुस्तक प्रेमी और किसी प्रकार के कैंसर से पीड़ित व्यक्ति इसे अलग-अलग ढंग से पढ़ेगा और उसकीइयत्ताइस किताब से उसे जोड़ देगी. मुझे अपने एक दोस्त का चेहरा याद आता है जिसे कैंसर हो गया था, अब वह कैंसर पर विजय प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है, अर्थशास्त्र का प्रोफेसर है और अपनी पीएचडी को किताब के रूप में लाना चाह रहा है.

व्यक्तियों की अंदरूनी दुनिया से ज्यादा किताबें उनकी बाहरी दुनिया का आईना हैं. वे सभ्यताओं की मापक हैं. हर सभ्यता अपने महान होने का जब गुमान पालती है तो बहुत सारी भौतिक चीजों को गिनाने के साथ वह अपनी किताबों को भी ऊँचे पायदान पर रखती है. ग्रीस, बेबिलोनिया, मेसोपोटामिया, ईरान, भारत और चीन जबअपनी बातबताने लगते हैं तो वे किताबों की बात करते हैं. चीन के बारे में जोसेफ नीधम और भारत के बारे में जवाहरलाल नेहरू की किताबें पढ़िए तो वे ऐसी दर्जनों किताबों के बारे में बताते हैं जिन पर चीन और भारत को गर्व है. यह दोनों विद्वान किताब लिखने वालों, बनाने वालों और पुस्तकालयों के बारे में भी बताते हैं.

किताबें क्यों पढ़नी चाहिए ? इस सवाल का कोई सीधा जवाब भला कैसे दिया जाय. बीसवीं शताब्दी में कई बड़े युद्ध लड़े गए और उनके बीच किताबें लिखी गयीं, पढ़ी गयीं.  इतिहासकार मार्क ब्लाख ने युद्ध की खाई में रहते हुए किताब लिखी थी. उन्हें खाई से बाहर ले जाकर एक दिन गोली मार दी गई. उनकी किताबहिस्टोरियंस क्राफ्टएक बच्चे के सवाल से शुरू होती है : पापा सच-सच बतलाना इतिहास का क्या उपयोग है? पूरी किताब जैसे उस बच्चे के सवाल का जवाब है. यही सवाल अगर कोई बच्चा थोड़ा सा घुमाकर आपसे पूछ ले कि किताब का क्या उपयोग है? तो पसीने छूट जाएंगे. किताब हमारे जीवन में क्या करती है? किताबों में लिखा साहित्य हमारे जीवन में क्या भूमिका अदा करता है? इन सवालों का जवाब बड़ा मुश्किल है और तुरंत दिया भी नहीं जा सकता है.

एक बार मैं सीएसडीएस के अभय दुबे से मिलने उनके दफ्तर गया था. वे कुछ लिख रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि आप लिखते क्यों हैं? उन्होंने कहा : लिखा हुआ ही बचेगा. जब कोई मर जाता है तो कुछ समय बाद लोग उसका चेहरा भूल जाते हैं, केवल उसकी कुछ धुँधली भंगिमाएं याद रहती हैं. हमारे बहुत ही आसपास के लोग भी अपने कामों में मशरूफ हो जाते हैं. मैंने इधर हाल ही में ऐनी फ्रैंक कीएक युवा लड़की की डायरीफिर से पढ़ी. यह मौत के मुँह में जा रही एक किशोरी के रोजमर्रा के स्वप्नों, दिक्कतों, प्रेम और जीवन में विश्वास की डायरी है. आप देखिए कि द्वितीय विश्वयुद्ध का समय है, यूरोप के नगरों पर चारों तरफ से बम गिर रहे हैं और वह किशोरी कहीं किसी पुस्तकालय से एक किताब लेकर आई  है. वह उसे पढ़ रही है और उस पर टिप्पणी भी लिख रही है. उसे मानवीय जीवन पर अगाध आस्था है. इस इस युद्धक और अनिश्चित वातावरण में ऐसा क्या है जो उसे किताब पढ़ने की प्रेरणा दे रहा है? इसका उत्तर खोजते समय मुझे वागीश शुक्ल का निबंध संग्रहशहंशाह के कपड़े कहाँ हैं? याद आता है. इसमें एक जगह वे कहते हैं कि साहित्य मृत्यु का सामना करने की विधि है. ऐनी फ्रैंक को क्या पता है कि उसका अंत निकट है, तब भी उसे जीवन में विश्वास को नहीं खोना है. यहाँ मैं यह बिलकुल नहीं कहूँगा कि ऐनी को किताब से जीवन की उर्जा मिलती है. उसे किताब वह उर्जा बनाये रखने में मदद देती है. किताब उस उसमें विश्वास की नदी को सूखने नहीं देती. किताबें जियावनहारा होती हैं.

क्या सभी किताबें जियावनहारा होती हैं? नहीं. किताबें भेदभाव पैदा करती हैं. आप यदि धर्मसूत्रों को पढ़ें, स्मृतियों को पढ़ें तो वहाँ बहुत सी अच्छी बातों के साथ हिंसा, भेदभाव और बहिष्करण के आधार को पुख्ता करने वाली चीजें भी मिलेंगी. डॉक्टर अंबेडकर ने ऐसे ही 1927 में मनुस्मृति दहन नहीं किया था. उन्होंने उन सभी आधारों का दहन किया था जिनसे मानव जीवन कमतर होता है. आप किसी प्रतिष्ठित संस्कृत प्रकाशन से प्रकाशित या ऑक्सफोर्ड क्लासिक सीरीज में प्रकाशित पैट्रिक ऑलिवेल द्वारा संपादित धर्म सूत्र पढ़िए, स्मृतियाँ पढ़िए. फिर संविधान सभा की बहसों को पढ़िए, संविधान सभा की बहसो में भी कई सदस्य धर्म सूत्र और स्मृतियों को उद्धृत कर रहे थे और वे उस दुनिया को आज के समय में ले आना चाहते थे. इसी संविधान सभा में और भी लोग थे जिन्हें इस दुनिया से ऐतराज था क्योंकि यह दुनिया भेदभाव पर टिकी थी. और अंत में, एक आम सहमति से एक समानता पूर्ण दुनिया, एक बेहतर समाज बनाने का निर्णय भारत की संविधान सभा में पास हुआ. 

मैं आप से गुजारिश करूँगा कि इन किताबों को उपर्युक्त क्रम में पढ़िए और उसके बाद भारत के संविधान को पढ़िए. एक पूरी की पूरी सभ्यता की विभिन्न परतों का चित्र आपकी आँखों के सामने घूम जाएगा. आपको पता चलेगा कि भारत एक किताब से निकलकर दूसरी किताब तक कैसे पहुँचा है. वह किस प्रकार मानवीय और समावेशी होना चाहता है. 
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रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से डीफिल की उपाधि (2017) प्राप्त रमाशंकर सिंह का कुछ काम सीएसडीएस के जर्नल प्रतिमान में प्रकाशित हुआ है जो भारत की राजनीति और लोकतंत्र में गुंजाइश तलाश रहे घुमंतू समुदायोंनदियों एवं वनों पर निर्भर निषादों और बंसोड़ों के जीवन एवं संस्कृति के विविध पक्षों की पड़ताल करता है. उन्होंने आलोचना, वागर्थ और नया पथ के लिए लेख लिखे हैं. उन्होंने ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ के उत्तर प्रदेश की भाषाएँ  खंड के लिए लेखन, अनुवाद और संपादन का काम किया है. उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए बद्री नारायण की किताब ‘फ्रैक्चर्ड टेल्स: इनविज़िबल्स’ इन इंडियन डेमोक्रेसी’ का अनुवाद ‘खंडित आख्यान : भारतीय जनतंत्र में अदृश्य लोग’ और ‘निशिकांत कोलगे’ की किताब ‘गाँधी अगेंस्ट कास्ट’ का अनुवाद ‘जाति के विरुद्ध गाँधी का संघर्ष’ के नाम से किया है.
ram81au@gmail.com

कहानी : भेड़िये : भुवनेश्वर

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भेड़िये                                 
भुवनेश्वर




‘भेड़िया क्या है’,- खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ.’ मैंने उसका विश्वास कर लिया. खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि ७० के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था. उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पाँ होता था. उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी. उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान.

जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था. तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है. खारू ने मुझसे यह कहानी कही उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ - इसका एक-एक लफ्ज.

‘मैं किसी चीज से नहीं डरता, हाँ, सिवा भेड़िये के मैं किस चीज से नहीं डरता.’ खारू ने कहा. एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं. भेड़ियों का झुंड - २००- ३०० जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका - उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता. लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है. यह झूठ है. भेड़िया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है. तुम कहते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं. तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का- बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दिखाता. एक मर्तबा, सिर्फ एक मर्तबा- गेंद-सा कूदकर उसकी जाँघ में गहरा जख्म कर देता है- बस. फिर पीछे, बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहाँ पहुँच जाता है. जहाँ वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ा है. या, उचककर एक क्षण मैं अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है- और वहीं चिपक जाता है. भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है. वह थकना तो जानता ही नहीं. अच्छे पछैयाँ बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोड़ों से तेज ले जाते हैं : और जब उन्हें भेड़िया की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं. लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता...

‘सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था. अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पड़े थे. हमारा गड्डा काफी भरा था. मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नटनियाँ - १५-१५ साल की. हम लोग उन्हें पछाँह लिये जा रहे थे.’

‘किसलिए?’ - मैंने पूछा
‘तुम्हारा क्या खयाल है, मुजरा करने? अरे बेचने के लिए. और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियाँ छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं. यह लड़कियाँ होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं. हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों-से तेज भागनेवाले बैल.

हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे. वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी. बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने घूमकर कहा - `खारे, भेड़िये हैं?’

मैंने तेजी से कहा - ’क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?’

बूढ़े ने सर हिलाकर कहा - ’नहीं, भेड़िये जरूर हैं. खैर, वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है.’ बूढ़े ने कहा - ’और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा. बंदूक भर लो!’

मैंने कमानों की तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था.

‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले.’ मेरे बाप ने कहा.

‘बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो पुरानी ही वाली है.’

तब बूढ़े ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं - ’तू यह है, तू वह है.’

मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी.

मेरे बाप ने भी सब टटोला - ’तू झूठ बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!’ पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी. मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुँचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुँचकर...’ और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे. मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खँडहरों में भी आँधी गुजरने से आती है -

ह्वा आ आ आ आ आ आ आ आ!

‘हवा,’ मैंने सहम के कहा. ‘भेड़िये!’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया. पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी. उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे. दूर मैं एक छाटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था. उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो. और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था. बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएँ, मारो. एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा.’ और तब उन तीन लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आँसू) बहाना शुरू किया. ‘चुप रहो.’ मैंने उनसे कहा, ‘तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला.’

भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक सँभालकर बैठा. मैंने कमान सँभाली - मैं अँधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप - वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था. कोई 400 गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया. धाँय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई; और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह. बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुँह का फेन उड़कर हमारे मुँहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रँभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकलें करती हैं. पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे. गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे. मेरे बाप ने मेरे कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी. धाँय-धाँय ! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है.) मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10 मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था.

‘ले बंदूक ले!’ उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूँगा.’’

उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था. दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे.

मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक. खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी. बादीं अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक. मैंने दस और गिराए - धाँय-धाँय-धाँय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे.

मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए.’

बूढ़ा हँसा - ’वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते. पर मैं मरते-मरते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है.’

मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हँसोड़ हो गया था.

हाँ, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे. उन्हें कुछ खाने को मिल गया था. ‘सप-सप-चट’ बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया. वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे. मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो.’

‘एकबारगी ठोकर खाकर गड्डा चरकराकर चला. पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए.

बड़े मियाँ ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो.’

‘क्या?’ मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएँगे?’

उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो.’ मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया. हा! ग्वालियर की नटनिया, उसे दाँत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टाँगें पकड़ लीं. पर इससे भी क्या फायदा था. एकदम वह नजर से ओझल हो गयी. जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो. गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आए.

‘दूसरी फेंको’, बड़े मियाँ ने कहा. पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो.’

मैंने एक बैल खोल दिया. वह पीठ पर पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया.

मेरे बाप की आँखों में आँसू भर आए. ‘बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...,’ वह बुदबुदा रहा था.

‘हम बच तो गए’, मैंने कहा. पर तभी, ह्वा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था. ‘आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया.

पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे और हमारे बैल मरके गिरना ही चाहते थे. ‘दूसरी लड़की भी फेंको!’ मेरे बाप ने चीखकर कहा.

इन दोनों में बादीं भारी थी और कुछ सोचकर काँपते हाथों वह अपनी चाँदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी.

इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!’ पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था. मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही. गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा. पर पाँच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए. बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें, भीख माँग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...

मैंने बादीं की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ. मैंने कहा, ‘तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूँ?’ उसने चाँदी की नथ उतारकर मुझे दे दी और बाँहों से आँखें बन्द किए कूद पड़ी. गड्डा बिलकुल हवा-सा उड़ने लगा. वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था.

पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुँचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे. मैं बंदूक के कुन्दे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे.

मेरे बाप के मुँह से पसीना टपकने लगा - ’लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें.’

मैंने कहा, ‘यह मौत के मुँह में जाना है. हम लोग दोनों मारे जाएँगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए.’

‘तुम ठीक कहते हो.’ उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूँ. मेरी जिन्‍दगी खत्म हो गई. मैं कूद पड़ूँगा.’

मैंने कहा, ‘हिरास मत होना. मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा.’

‘तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये. उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छूरियाँ ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया.

‘रुको,’ उसने कहा - ’मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना.’

उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा. मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया.

खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा, जोर से हँसा और फिर खखारकर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया.

‘मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ भेड़िये और मारे.’ खारू ने फिर हँसकर कहा. पर उसके साथ ही उसकी आँखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया.
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(हंस : अप्रैल, १९३८)

भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ : शिवकिशोर तिवारी

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भुवनेश्वर का जन्म शाहजहाँपुर में हुआ था, उनके व्यक्तित्व की ही तरह उनका जन्म-मृत्यु वर्ष भी विवादग्रस्त है. जन्म के लिए १९१०, १९१२ तथा १९१४ तथा मृत्यु के लिए १९५७ के पक्ष में प्रमाण पेश किये गयें हैं. प्रमाणिक रूप से कुछ कहना मुश्किल है अभी भी. बनारस में उनका शव लावारिश मिला था जिसे किसी भिखारी का शव समझकर गंगा में प्रवाहित कर दिया गया.

हिंदी साहित्य भुवनेश्वर को एकांकीकार के रूप में जानता है. भुवनेश्वर के १५ एकांकी, ८ कहानियाँ, अंग्रेजी और हिंदी में कुछ कवितायेँ और छिटपुट लेख आदि मिलते हैं. उनकी अंग्रेजी कविताओं का हिंदी रूपांतरण रमेश बक्षी और शमशेर बहादुर सिंह ने किया है जो भुवनेश्वर प्रसाद शोध संस्थान शाहजहाँपुर से प्रकाशित उनके समग्र में संकलित हैं.

कथाकार प्रेमचंद भुवनेश्वर के प्रशंसक थे और हंस में भुवनेश्वर को प्रकाशित करते रहते थे. उनकी अधिकतर एकांकी और कहानियाँ हंस में ही प्रकाशित हुईं थीं. प्रेमचंद भुवेनश्वर के एकांकी संग्रह ‘कारवां’ को ‘हिंदी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक मानते थे’. अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में उन्होंने जैनेंद्र के साथ भुवनेश्वर का नाम लेते हुए कहा था कि ‘जैनेंद्र में दुरुहता और भुवनेश्वर में कटुता कम हो तो इनका भविष्य उज्ज्वल है.’

निराला से उनका विवाद चला, जिसका बुरा प्रभाव उनकी रचनाओं के प्रकाशन पर पड़ा. वे अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे. बोहेमियन ढंग का उनका जीवन, जीवन का असंगत-दर्शन और हिंदी साहित्य की अपनी राजनीति के वे अंतत: क्रूर शिकार हो गए.

अंग्रेजी के ‘Absurd’ के लिए हिंदी में ‘असंगत’ शब्द का प्रयोग होता है. विश्वयुद्धों की निराशा, हताशा के बाद पश्चिम में अस्तित्ववादी दर्शन (Existentialism) कलाओं में लोकप्रिय हुआ और बड़ी संख्या में अब्सर्ड नाटक लिखे गए जिनमें  Samuel Beckett का ‘Waiting for Godot’ केन्द्रीय स्थान रखता है.

भुवनेश्वर की एंकाकी कला अब्सर्ड नाटक के नजदीक है. सवाल यह है कि जो प्रवृत्ति यूरोप में पांचवे- छठे दशक में लोकप्रिय हुई वह तीसरे दशक में भुवनेश्वर में कहाँ से अंकुरित हो गयी? क्या इसके लिए उनका जीवन ज़िम्मेदार है. खैर.

भुवनेश्वर की प्रसिद्ध कहानी ‘भेड़िये’ हंस में अप्रैल १९३८ में प्रकाशित हुई थी. इस कहानी पर तब से लेकर आजतक विचार विमर्श चलता रहता है. इसे पहली आधुनिक हिंदी कहानी भी कहा गया.

साहित्य के गहरे और सतर्क अध्येता-आलोचक शिवकिशोर तिवारी ने इस महत्वपूर्ण कहानी का परीक्षण किया है. इसके स्रोतों तक उनका पहुंचना न केवल मौलिक है बल्कि पहली बार हो रहा है. यह आलेख ऐतिहासिक महत्व का है और अब बिना इसके साहित्य में  भुवनेश्वर की कहानी भेड़िये की चर्चा पूरी नहीं हो सकेगी.

यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है. कहानी भी दी जा रही है. जिन्होंने कहानी न पढ़ी हो कृपया पहले कहानी पढ़ लें फिर आलेख पढ़ें. 


भुवनेश्वर की कहानी 'भेड़िये'                                  
शिवकिशोर तिवारी 



भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ बिना अपवाद सभी द्वारा पसंद की जाती है. कसे हुए कथानक, कुशल शिल्प, बाप-बेटे के सशक्त चरित्रों और उच्च कोटि के भयानक रस के परिपाक के कारण अपने ढंग की यह पहली हिन्दी कहानी थी. 1938 में इसे सम्भवत:एक बहुत अच्छी रची हॉरर कहानी के रूप में समझा गया. पाठक को केवल यह बात नज़रअंदाज़ करनी थी  कि ग्वालियर राज से ‘पछाँह’ के बीच दो-दो सौ भेड़ियों के झुंड नहीं होते होंगे, ज़्यादा से ज़्यादा 8-10 के होंगे, न जाड़ों में ये भेड़िये इतने भूखे होंगे कि बैलगाड़ियों पर हमला कर दें.

भारत के संदर्भ में कथानक कुछ नक़ली और अविश्वसनीय है. परंतु भारत में भेड़ियों और मानवों के संघर्ष का इतिहास रहा है. कहते हैं भेड़ियों द्वारा मानव बच्चे उठाने तथा लोगों पर आक्रमण करने के फलस्वरूप कोई एक लाख भेड़िये उन्नीसवीं सदी में मारे गये थे. अत: इस कथानक को स्वीकार करने के लिए बहुत ज़्यादा ‘विलिंग सस्पेंशन ऑफ़ डिस्बिलीफ़’ दरकार नहीं है.

पिछले तीसेक वर्षों में इस कहानी की पुनर्व्याख्या हुई है. अब इसे युगांतरकारी कहानी का दर्जा हासिल है.

कथानक के सम्भावित स्रोत
लम्बी बर्फ़बारी के मौसम में भूखे भेड़ियों के बड़े झुंडों द्वारा मानवों पर हमले की कहानियाँ लगभग सारी रूस से आती हैं. आश्चर्य की बात है कि ख़ुद रूस में ये कहानियाँ बहुत प्रचलित नहीं रहीं. अधिकतर कहानियाँ किसी प्रवासी रूसी के द्वारा अन्य देशों में सुनाई गईं.  एक ऐसी कहानी उद्धृत कर रहा हूँ, जिसके 1880 में प्रचलित होने का प्रमाण है पर उससे बहुत पुरानी हो सकती है. वक्ता रूसी है और कथा यह है –

“रूस के एक गाँव में एक शादी थी. वह हम मेनोनाइट लोगों का गाँव नहीं था; हमारे पड़ोस का कोई जर्मनों का गाँव रहा हो शायद. शादी में सबने छककर पी. शादी के बाद बारात स्लेजों में बैठकर वापस हुई. अगले गाँव तक जाना था. इस गाँववालों ने मना किया क्योंकि इलाक़े में भेड़ियों का उत्पात था. जाड़े का मौसम था, भूखे भेड़िये बड़ी संख्या में मौजूद थे, इसलिए गाँव छोड़ना ठीक नहीं था. पर वे न माने. मेरे ख़्याल से सात स्लेजें थीं. वर-वधू एक स्लेज में बैठे जिसमें तीन घोड़े जुते थे. दो चालक थे. यह स्लेज आगे-आगे चली. अन्य स्लेजों में दो-दो घोड़े जुते थे. इनमें सवारों की संख्या क्षमता से अधिक थी.

थोड़ी देर चलने के बाद, जब वे दोनों गाँवों के लगभग बीचोबीच थे तब, भेड़िये सहसा प्रकट हुए. चारों तरफ बर्फ भेड़ियों से स्याह हो गई. लोगों ने घोड़े भगाये– जहाँ तक साज़ और जोत की औक़ात थी. सबसे पीछे वाली स्लेज उलट गई. भेड़िये सवारों और घोड़ों को खा गये. एक के बाद एक हर स्लेज का यही हाल हुआ. हर बार भेड़िये थोड़ी देर को थम जाते, लेकिन जल्दी ही अगली स्लेज तक पहुँच आते. फिर आदमियों और घोड़ों की चीख़ें. यही क्रम चलता रहा. अंत में दूल्हा-दुल्हन की स्लेज बच रही.

एक चालक ने पीछे की ओर देखा; दूसरे ने पूछा, “कितने हैं?”
“काफी सारे हैं – हमारे लिए बहुत हैं, कोई चालीस-पचास.”
दुल्हन ने मुड़कर पीछे देखा. तभी चालकों ने उसके पाँव पकड़कर उसे बाहर फेंक दिया. दूल्हा उसे बचाने को लपका तो चालकों ने उसे भी बाहर धकिया दिया. भेड़ियों ने उन्हें अपना ग्रास बनाया.
अब गाँव की रोशनियाँ दिखने लगी थीं. वे घोड़ों को शक्ति-भर भगाते हुए किसी तरह बच गये.
लेकिन यह बचना किसी काम का न हुआ. उस दिन के बाद न उनकी रिहाइश का ठिकाना रहा, न कोई उन्हें कोई अपने पास बैठने देता. इस गाँव से उस गाँव घूमते. कोई उन्हें काम न देता. दादी कहती थी, पता नहीं उन दोनों का क्या हुआ.”
(Russian Wolves in Folktales and Literature of the Plains –Paul Schach, Great Plains Quarterly, spring,1983)

अमरिकी उपन्यासकार विला कैदरके उपन्यास ‘माइ ऐंटोनिया’(1914) में कमोबेश यही कहानी एक रूसी पात्र के मुँह से कहलाई गई है. यहाँ घटना की पृष्ठभूमि यूक्रेन (तब रूस का हिस्सा) है . इस कथा के अंत में नायक जेम्स का यह कथन आता है :  “रात को सोने के वक़्त अकसर मुझे यह ख़्याल आता था कि मैं तीन-घोड़े-जुती एक स्लेज में बैठा हूँ, किसी ऐसे इलाक़े में तेज़ रफ़्तार से जाता हुआ, जो कभी नब्रैस्का की तरह लगता कभी वर्जीनिया की तरह.“ (बुक 1, अध्याय 8)

भुवनेश्वर की तरह जेम्स भी कथा का स्थानीय परिवेश कल्पित करता है. नब्रैका की तरुविहीन प्रेयरी, वर्जीनिया का बर्फ़ीले तूफ़ानों का क्षेत्र यूक्रेन के निर्जन, बर्फ़ से ढके परिवेश के तुल्य नहीं हैं पर जेम्स की निजी अभिज्ञता में उसका सबसे समीपी हैं. वैसे ही ग्वालियर राज और पछाँहके बीच का निर्जन और रेगिस्तानी इलाक़ा भुवनेश्वर को रूसी बर्फ़ीले, निर्जन क्षेत्रों के सबसे क़रीब लगा होगा.

इसी तरह की कथा रॉबर्ट ब्राउनिंगकी कविता ‘इवान इवानोविच’(1878) का विषय है. कथानक यह है:  रूस के किसी गाँव में इवान इवानोविच नाम का एक बढ़ई रहता है. एक दिन तड़के इवान अपने काम में व्यस्त होता है, कि एक स्लेज उसके सामने आकर रुकती है. स्लेज का घोड़ा पूरी तरह बेदम होकर ज़मीन पर गिर पड़ता है. स्लेज के अंदर दिमित्री की बीवी है जो प्राय:मरणासन्न है. गाँव के कुछ और लोग भी आ जाते हैं. महिला को बाहर निकालकर उसे होश में लाकर प्रकृतिस्थ करते हैं. लोग जानना चाहते हैं कि दिमित्री और दम्पत्ति के तीन बच्चे कहाँ रह गए. महिला बताती है कि पूरा परिवार एक महीना पहले एक अन्य दूरस्थ गाँव में काम की तलाश में गया था. काम ख़त्म हो जाने के बाद जिस दिन वापस लौटना था उसी दिन उस गाँव में आग लग गई. आग बुझाने में गाँव वालों की मदद करने के दिमित्री रुक गया और स्त्री-बच्चों को वापस भेज दिया. रास्ते में भेड़ियों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया. स्त्री बयान करती है कि किस तरह उसने अपने तीन बच्चों को बचाने की हरचंद कोशिश की पर न बचा सकी. लेकिन उपस्थित लोगों को अंदाज़ा हो जाता है कि उसने अपनी जान बचाने के लिए बच्चों को एक-एक करके भेड़ियों के हवाले कर दिया होगा. इवान स्त्री को अपनी कुल्हाड़ी से मार डालता है क्योंकि उसे “ईश्वर का आदेश” मिलता है. गाँव का ज़मींदार इवान पर मुक़दमा चलाने की बात करता है पर पादरी उसे माफ़ कर देता है.
इस कविता में भेड़ियों के स्लेज की ओर आने का चित्रण अत्यंत रोमांचक है. देखिये-
‘Was that – wind?
Anyhow, Droug starts, stops, back go his ears, he snuffs,      
Snorts, - never such a snort! Then plunges, knows the soughs
Only the wind: yet, no – our breath goes up too straight!
Still the low sound – less low, loud, louder, at any rate
There is no mistaking more! Shall Iean out–look– hear
Whatever it be? pad, pad! At last I turn – “ ...
(कैसी आवाज़ है– हवा की?
जो हो, घोड़ा चौंका, एक क्षण को रुका, उसके कान पीछे की ओर मुड़ गये,
उसने हवा को सूँघा, नथुने फड़फड़ाये, नथुनों की ऐसी तेज़ फड़फड़ाहट जैसी पहले न सुनी थी - और तेज़ी से भागने लगा, उसे पता था हवाओं के बारे में. केवल हवा  :  लेकिन हमारे नथुनों की भाप तो एकदम सीधी जा रही है !
अब भी आ रही है आवाज़ – हलकी, कम हलकी, तेज़, और तेज़,
कि अब शक की गुंजाइश नहीं. बाहर सिर निकालकर देखूँ ?सुनूँ
जो भी हो पीछे – पंजों की धप धप आवाज़, आख़िर मैं मुड़ी”--)

भुवनेश्वर की कहानी में दिन का समय है; लेकिन भेड़ियों के आने का वर्णन मिलता-जुलता है- ‘...और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे. मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खंडहरों में से आँधी गुजरने से आती है– हवा आ आ आ आ आ आ आ आ !

‘हवा’ मैंने सहमकर कहा. ‘भेड़िये’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया. पर उन्हें मार की ज़रूरत नहीं थी. उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे. दूर मैं एक छोटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था. उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो. और दूर उस धब्बे को काले बादल की तरह आते मैं देख रहा था’.

(इन वाक्यों में दो असामान्य प्रयोग हैं - ‘मेरे बाप ने नफ़रत से कहा’ और ‘चपटे रेगिस्तानी बंजर में’. सामान्यत: हम कहेंगे, ‘मेरे बाप ने हिकारत से कहा’ और ‘सपाट, बंजर रेगिस्तान में’. लगता है जैसे भुवनेश्वर मन-ही-मन अंग्रेज़ी मुहावरों ‘said with disdain/disdainfully’ और  ‘flat desert waste’का अनुवाद कर  रहे हैं. ये मुहावरे ऊपर के स्रोतों में नहीं हैं. तो क्या कोई और स्रोत भी है ? या  कुछ अन्य लेखकों की तरह अंग्रेज़ी में सोचने और हिंदी में लिखने की आदत का नतीजा है ?कहना मुश्किल है.)

यद्यपि पूरे विश्वास से कहना कठिन है, फिर भी लगता है कि कहानी की केन्द्रीय कल्पना भुवनेश्वर को ब्राउनिंग और/या विला कैदर से मिली होगी.

युगांतर की कहानी ?
भेड़िये मई 1991 में पुन: ‘हंस’ में छपी. इस अवसर पर शुकदेव सिंह ने इसे ‘नई कहानी की पहली कृति’ बताया. नामवर सिंह यही दर्जा निर्मल वर्मा की लम्बी कहानी ‘परिंदे’ (1956) को दे चुके थे. कहते हैं शुकदेव सिंह ने नामवर जी को ‘भेड़िये’ के कथ्य पर अपना दृष्टिकोण समझाया और बुज़ुर्गवार समझे भी. शुकदेव सिंह की टिप्पणी और उससे उपजी बहस के बारे में मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं है. इसलिए मैं केवल कृति को दृष्टि में रखकर निम्नलिखित तीन मानकों के आधार पर इस प्रश्न पर विचार करूँगा कि कहाँ तक ‘भेड़िये’ को हिन्दी कहानी में नई प्रवृत्तियों का वाहक मान सकते हैं –

1.   मानवीय दशा का चित्रण
2.   कथ्य से सम्बन्धित प्रयोग
3.   शिल्प से सम्बन्धित प्रयोग

मानवीय दशाअंग्रेज़ी के ‘ह्यूमन कंडिशन’ का कामचलाऊ अनुवाद है. अंग्रेज़ी में भी यह अभिव्यक्ति कामचलाऊ ही लगती है. जन्म, मरण, प्रेम, घृणा, सार्थकता, निरर्थकता, आस्था, अनास्था, आदर्श, नैतिकता आदि हज़ारों चीज़ों को एक शब्द ‘कंडिशन’ कैसे व्यंजित कर सकता है ? परंतु यहाँ हमारा सरोकार इस बहुआयामी अभिव्यक्ति के उस तत्त्व से है जो साहित्य में नवीनता की सूचना देता है. विचारकर देखें तो मोटे तौर पर इस तत्त्व को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं –

‘नये आभ्यंतर और बाह्य संघर्ष जो पूर्ववर्ती साहित्य में मुखर न हो सके’. इस दृष्टि से हिन्दी कथाकार के लिए अंत:संघर्ष का समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद आया. विश्वयुद्ध की विभीषिका ने विश्व में सभी पर असर डाला, फिर भारत तो उसमें सीधे साझेदार था. युद्ध भारतीयों ने भी दूर देशों में लड़ा और कुछ लड़ाइयाँ भारत की ज़मीन पर हुईं. आर्थिक रूप से विश्वयुद्ध ने इस देश को पूरी तरह खोखला कर दिया. युद्ध के अप्रत्यक्ष प्रभाव के रूप में 1942-43 के बंगाल के अकाल में 30 लाख लोगों की मृत्यु हुई. स्वतंत्रता के बाद व्यापक हिंसा, फिर आशा-उत्साह का काल जो जल्दी ही निराशा, मोहभंग और असंतोष की आँधी में उड़ गया – यह और ऐसी अनेक घटनायें नई कहानी की पूर्वपीठिका निर्मित करती हैं. इसलिए नई कहानी को 1950 से 1960 तक के कालखंड में रखा जाता है. मानवीय दशा के अंकन की दृष्टि से अमरकांत की ‘डिप्टी कलक्टरी’ (1956?) नई कहानी की श्रेष्ठ प्रतिनिधि है. इस कहानी में आज़ादी के बाद के माहौल में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के अपने वर्ग के ऊपर उठने की महत्त्वाकांक्षा का चित्रण हुआ है. विश्वास है कि ऐसा होना संभव है क्योंकि पहले बेईमानी होती थी, अब नहीं होगी – “अरे अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिये ...”. अलबत्ता मानसिकता अब भी औपनिवेशिक काल की ही है और डिप्टी कलक्टरी राजयोग के बराबर है. प्रतियोगिता में बैठने वाला लड़का अपनी मेहनत पर भरोसा करता है पर माँ- बाप देवी-देवताओं की शरण गहते हैं– विशेषत: पिता, जो इसके पहले इतने धर्मपरायण नहीं थे. अंत में लड़का सफल तो होता है पर सोलहवें स्थान पर आता है जबकि रिक्तियाँ दस हैं. क्षीण आशा है कि कुछ सफल प्रतियोगी कलक्टरी की परीक्षा में सफल होने के कारण डिप्टी कलक्टरी ज्वाइन नहीं करेंगे और एकाध मेडिकल में फ़ेल हो जायेंगे. कथांत निर्णायक की जगह प्रतीक्षित रह जाता है. स्वतंत्रता के बाद के एक बड़े वर्ग की यह अपरिणत कथा मानवीय दशा की सशक्त अभिव्यक्ति है.

‘भेड़िये’ 1938 में प्रकाशित हुई, नई कहानी आंदोलन जिसे कहा जाता है उसके काल से बारह साल पूर्व. परंतु 1930-38 के कालखंड में भी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुईं – साइमन कमीशन, सूबों में चुनाव जिसमें कांग्रेस की भारी जीत, नमक सत्याग्रह, 1935 का ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध, आजाद और भगत सिंह की शहादत आदि. भारतीयों के लिए यह राष्ट्रीय चेतना का काल था. परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था. मुष्टिमेय अंग्रेज़ी जानने वाला वर्ग यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आये आधुनिकतावादी साहित्य से परिचित था और भारत में तुलनीय स्थितियों का आविष्कार कर रहा था. भुवनेश्वर स्वयं इसी जमात में थे.

अब प्रश्न यह है कि ‘भेड़िये’ में भुवनेश्वर किस समकालीन घटना का संकेत दे रहे हैं या किन नये बाह्य या आंतरिक संघर्षों की सूचना दे रहे हैं. कथानक जैसा है उसमें समकालीन जीवन का संधान करने के लिए कहानी को रूपक की तरह पढ़ना पड़ेगा. तो खारू, भेड़िये, नटनियाँ, बंदूक आदि सब प्रतीक हैं?किनके? मुझे तो नहीं सूझ रहा.

एक और तरीक़ा हो सकता है – मानवीय दशा परिवर्तनशील न होकर सनातन हो – प्रेम-द्वेष, समाज-व्यक्ति, अमीरी-ग़रीबी, युद्ध-शांति आदि, परंतु द्वंद्व या संघर्ष का निराकरण  नया हो. उस समय इस निराकरण के दो सिद्धांत भारत में लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे – गांधीवाद और समाजवाद. तो क्या यह कहानी गांधीवादी या समाजवादी रूपक है? या कोई और रूपक है जो मनोविज्ञान या विकासवाद जैसे किसी नवीन शास्त्र के आलोक में सनातन द्वंद्वों को देखता है?

मुझे दो प्रमुख चरित्रों में कोई ख़ास परिवर्तन या विकास नहीं दिखता. बाप-बेटे कठोर, हिंसा को सहज भाव से स्वीकार करने वाले, अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर लड़कियाँ ख़रीदने-बेचने का धंधा अपनाने वाले, संघर्ष और मृत्यु को जीवन का सहज अंग मानकर स्वीकारने वाले, ‘मर्द’–टाइप चरित्र हैं जो पढ़े-लिखे वाचक/ लेखक को अजीब तरीक़े से आकर्षित करते हैं. लेखक का कमाल है कि वही अजीब आकर्षण पाठक भी अनुभव करता है. परंतु चरित्र बहुत कम विकसित होते हैं. कहानी में तीन क्षण आते हैं जब चरित्रों का आचरण अलग लग सकता है. एक, जब खारू दूसरी लड़की को फेकने के बजाय बैल को खोल देता है– परंतु यह व्यावहारिक निर्णय है. खारू का तर्क है कि दो लड़कियों को फेक दिया तो व्यवसाय का क्या होगा. दो, जब खारू को उस लड़की को फेकना है जो उसे अच्छी लगने लगी है. खारू उसे ढकेलना नहीं चाहता है, इसलिए कहता है, मैं फेकूँ या ख़ुद कूद जायेगी. लड़की कूद जाती है. खारू की कमजोरी से बाप-बेटे का कठोर निर्णय नहीं बदलता. तीन, जब बूढ़ा कूद जाता है. यह भी व्यावहारिक निर्णय है. दो में से एक को जाना है तो वही जाये जिसने ज़िन्दगी जी ली है. दोनों में कोई भावुक नहीं होता. बूढ़े के पास नये जूते हैं. वह उतारकर छोड़ जाता है इस निर्देश के साथ कि मरे आदमी का जूता नहीं पहनना चाहिए इसलिए बेटा उन्हें बेच ले. जीवन को जैसे-आता-है-वैसे स्वीकारने का मनोविज्ञान केवल मुख्य चरित्रों तक सीमित नहीं है. लड़कियाँ भी अपनी नियति को कमोबेश स्वीकार कर लेती हैं. केवल एक लड़की भय से जड़ दिखाई गई है. बाक़ी दोनों में अपरिहार्य का साहसिक स्वीकार दिखाई पड़ता है. खारू के अंदर सारे घटना-चक्र के बाद भी कोई अपराधी-भाव नहीं है. यह भी कम विस्मयजनक नहीं है.

इसलिए मुझे कहीं पढ़ी यह बात समझ में नहीं आती कि ‘भेड़िये’ इफ़्तिख़ार के खारू बनने की कहानी है. खारू का नाम कभी इफ़्तिख़ार या ऐसा कुछ रहा होगा यह कथावाचक का अनुमान है और एक कैजुअल टिप्पणी है. कहानी के अंदर वह सदा खारू है या बाप के पुकारने में ‘खारे’. भेड़ियों की कहानी में वह जैसा होता है वैसा ही वह वाचक को कहानी सुनाते समय है – जवान की जगह बूढ़ा, थोड़ा और कठोर, पर मूलत: वही व्यक्ति.



एक और व्याख्या पढ़ी है. खारू व्यक्तिवादी है . अपने अस्तित्व को बचाये रखना उसका एकमात्र लक्ष्य है. कहानी के घटनाक्रम के बाद वह व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित करना सीख जाता है. इसका प्रमाण अंतिम पंक्तियों में है. खारू जब बाद में साठ भेड़ियों को मारता है तब वह व्यक्ति न होकर समूह की इच्छा का प्रतिनिधि बन जाता है.

कहानी में स्पष्ट लिखा है कि खारू अपने पिता से वादा करता है, “जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा”. बाद में उसने भेड़िये मारे तो व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना से. इसमें ‘सामूहिक इच्छा’ कहाँ से आ गई?

किसी भी तरह इस कहानी की कोई प्रतीकात्मक व्याख्या सम्भव नहीं. एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जो इस हॉरर कथा के रूपक होने का संकेत दे. न घटनाओं और चरित्रों में ऐसा कोई इंगित है.


कथ्य से संबंधित प्रयोग
कहानी में कथानक यथार्थ होने की उम्मीद की जाती रही है. परंतु बहुत से लेखकों ने घटना-रहित, बिना कथानक की या अयथार्थ कथानक वाली कहानियाँ लगभग 1910 से आरंभ करके अब तक विश्व भर में लिखी हैं. स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनेस से लेकर मैजिक रियलिज़्म तक यथार्थवादी कथानक पुरानी चाल की चीज़ समझा जाता रहा. हिंदी में कृष्ण बलदेव वैद और निर्मल वर्मा ने इस तरह के प्रयोग किये हैं. इस प्रकार की पहली हिंदी कहानी सम्भवत: अज्ञेय की ‘गैंग्रीन’ (अन्य नाम ‘रोज़’) होगी जो 1934 में प्रकाशित हुई थी.

कथ्य की ऐसी कोई नवीनता ‘भेड़िये’ में नहीं है. उसमें पारम्परिक कहानी की तरह चरित्र और घटनायें हैं और स्वप्न, आभ्यंतर आत्मालप, फ़ैंटेसी आदि का सहारा बिलकुल नहीं लिया गया है. इस तरह के फ़ैशनेबुल और अर्जित आधुनिकतावाद को यदि एकमात्र मानक स्वीकार भी करें तो हिंदी की पहली नई कहानी ‘गैंग्रीन’ होनी चाहिये.


शिल्प से सम्बंधित प्रयोग
भेड़िये शिल्प की दृष्टि से विशिष्ट है. मितकथन के ऐसे अन्य उदाहरण विरल हैं. खारू पहली लड़की को फेकता है. दो पंक्तियों में उसके भयानक अंत का यह बयान देखें : ‘एकदम से वह नजर से ओझल हो गई. जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो’. लगभग सभी प्रसंगों को इसी मितव्ययी दक्षता से बयान किया गया है.

भाषा और मुहावरों की प्रामाणिकता कथा की विश्वसनीयता बढ़ाती है– आईन (शायद ब्रिटिश भारत), पनेठी (छोटी लाठी), गड्डा, गड्डा अफसर था (सबसे अच्छी बैलगाड़ी थी), गिरस्ती (प्रतिदिन उपयोग होने वाली चीज़ें), जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकल करती हैं (संभवत: बंजारों की कोई रस्म या खेल), इत्यादि.

परंतु अंत के वाक्यों में मितवाचन अस्वाभाविक हो जाता है. बाप के भेड़ियों द्वारा खा लिए जाने का प्रभावोत्पादक वर्णन समाप्त करने के बाद कथाकार खारू के बच निकलने की कहानी को केवल एक वाक्य में ख़तम कर देता है, “मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया”. इतनी हड़बड़ी वाला अंत निराश करता है.


अंतिम पंक्तियों में खारू अगले साल भर में साठ भेड़ियों को मारने का दावा करता है (उसने बाप से वादा किया था कि एक-एक भेड़िये को काट डालेगा). एक साल में साठ भेड़ियों को रेगिस्तान में ढूँढ़कर मारने का दावा शेखी बघारने जैसा लगता है, जो खारू के चरित्र से मेल नहीं खाता, न कहानी की विश्वसनीयता में कुछ जोड़ता है. आख़िरी वाक्य – ‘और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया’ – शेष कहानी की तुलना में नाटकीय है और लेखक की मितवाचक शैली को पटरी से उतारता है. इस वाक्य से लेखक का क्या उद्देश्य सिद्ध होता है यह पता नहीं चलता.

शिल्प की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद यह देखना है कि इसमें युगप्रवर्तक नवीनता क्या है. कहानी पारम्परिक ढंग से लीनियर रूप से चलती है. पिछले युग की एक और प्रथा लेखक काम में लाता है. कहानी लेखक/वाचक को कोई और (खारू) सुनाता है और लेखक उसे केवल पाठक के लिए दुहराता है. इस तरह श्रेष्ठ शिल्प के बावजूद यह कहानी शिल्प के क्षेत्र में कोई नवीन प्रयोग नहीं करती.

निष्कर्ष

1.‘भेड़िये’ बहुत अच्छी हॉरर कथा है. पर इससे अधिक कुछ नहीं है.
2.कहानी संभवत: पूरी तरह मौलिक नहीं है. प्रबल सम्भावना है कि इसका केन्द्रीय तत्त्व अन्य स्रोतों से उधार लिया गया है.
3.किसी भी दृष्टि से यह हिन्दी की पहली नई कहानी नहीं कही जा सकती.
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भाषा का काव्यात्मक यातना-गृह : स्लावोय ज़िज़ेक (अनुवाद : आदित्य)

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दंगे और हिंसा भाषा के दुरुपयोग की ओर भी इशारा करते हैं और यह कि साहित्य ने अपना काम ठीक से नहीं किया है, वह आवश्यक विवेक और संवेदनशीलता पैदा करने में अक्षम रहा है. कई बार तो उसने अपने लोकप्रिय चलन में इसे प्रश्रय दिया है और उकसाया भी है. आज किसी भी ‘कवि-सम्मेलन/ मुशायरे’ में आपको उसका दक्षिणपंथी स्वरूप देखने को मिल जायेगा. बड़ी सहजता से ‘वीर रस’ के कवि उन्माद पैदा कर देते हैं और ‘हास्य रस’ के कवि सहिष्णुता के निर्मित किसी भी प्रतीक पर थूक सकते हैं.

७० वर्षीय दार्शनिक, सांस्कृतिक-आलोचक, सामाजिक विश्लेषक और स्लोवेनिया के जुब्ल्याना यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर स्लावोय ज़िज़ेक के  आलेख ‘The Poetic Torture-House of Language : The Poetic Torture-House of Language’ का हिंदी में आदित्य ने अनुवाद किया है.

यह आलेख आज हमारे लिए बहुत ही अर्थगर्भित है. 


स्लावोय ज़िज़ेक
भाषा का काव्यात्मक यातना-गृह                         
कैसे कविता सांस्कृतिक शुद्धतावाद से सम्बंधित है

अनुवाद : आदित्य





प्लेटो की ख्याति उनके इस वक्तव्य से अक्सर प्रभावित होती है— उन्होंने कहा था कि सभी कवियों को उठाकर शहर से बाहर फेंक देना चाहिए— हलांकि यह सुझाव काफी समझदारी भरा सुझाव है, पोस्ट-युगोस्लाव अनुभव के प्रकाश में, जहाँ पर सांस्कृतिक शुद्धतावाद की भूमि कवियों के दिखाए भयानक सपनों से तैयार होती है. यह सच है स्लोबोदन मिलोसेविच ने राष्ट्रवादी जूनून को ‘मैनिपुलेट’ किया– लेकिन ये कवि ही थे जिन्होंने उसे मैनिपुलेशन की सामग्री उपलब्ध कराई. वे– बुद्धिमान कवि, न कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञ इन सबके के स्रोत थे– अस्सी और नब्बे के संवेदनशील दशकों में, वे न सिर्फ़ सर्बिया में बल्कि पूर्वी युगोस्लाव गणतंत्रों में भी उग्र राष्ट्रवाद की बीज बोने लगे थे. उत्तर युगोस्लाविया में इंडस्ट्रियल मिलिटरी-काम्प्लेक्स की बजाए पोएटिक मिलिटरी-काम्प्लेक्स था, जिसके सूत्रधार रादोवान कराजिच और रातको मल्दिच युगल थे. कराजिच न सिर्फ एक क्रूर राजनीतिज्ञ था बल्कि एक कवि भी था. उसकी कविता को हम हास्यास्पद कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते— बल्कि हमें उसकी कविता को करीब से पढ़ना होगा क्योंकि ये कविताएँ यह समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि सांस्कृतिक शुद्धिकरण का काम कैसे होता है.

नैतिक वर्जनाओं का अति-अहंकारी निषेध ‘उत्तर-आधुनिक’ राष्ट्रवाद का विशेष लक्षण है. यहाँ, हमें इस क्लीषे से, जिसके अनुसार जुनूनी सांस्कृतिक पहचान वैश्विक धर्मनिरपेक्ष समाज की भ्रामक असुरक्षाओं के विरूद्ध मूल्यों और आस्थाओं का एक दृढ़ समुच्चय पुनर्स्थापित करता है, से निकलना होगा: बल्कि राष्ट्रवादी "कट्टरवाद"एक ऐसे रहस्य संचालक के रूप में काम करता है, जो हमसे बमुश्किल ही छुपा है.आज के राष्ट्रवाद के इस विकृत छद्म मुक्ति-प्रभाव को पूरी तरह जाने बिना, कि कैसे यह अश्लीलता पूर्ण रियायती अति-अहंकार समाज के प्रतीकात्मक कानून की स्पष्ट बनावट के लिए पूरक की तरह काम करता है, और हम ख़ुद की इसकी वास्तविक गतिशीलता पकड़ पाने में विफल होने के लिए निंदा करते हैं.

फेनोमेनोलोजी ऑफ़ स्पिरिट में हीगल ख़ामोश, गतिशील आत्मा की बनावट के बारे में बात करते हैं: विचारधारात्मक निर्देशांकों में परिवर्तन की भूमिगत प्रक्रिया, अधिकतर लोगों के लिए अदृश्य होती है, जिसका एक दिन अचानक से विस्फोट होता है और सभी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं. सत्तर और अस्सी के दशक में पूर्वी-युगोस्लाविया में यही हो रहा था, फ़िर अस्सी के दशक के आख़िर में जब विस्फोट हुआ तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी, तब तक पुराना विचारधारात्मक मतैक्य पूरी तरह से सड़ चुका था और भरभरा कर गिर गया. सत्तर और अस्सी के दशक का युगोस्लाविया कार्टून के उस मुहावरी बिल्ली की तरह था, जो गड्ढ़े की कगार पर लगातार चलता रहता है— लेकिन वो तभी गिरता है जब वह नीचे देखता है और इस बात का एहसास करता है कि उसके पैरों के नीचे कोई ठोस ज़मीन नहीं है. मिलोसेविच पहला इंसान था जिसने हमें उस गड्ढ़े में झाँकने के लिए मजबूर किया.

कराजिच और उसके साथियों को बुरे कवियों के रूप में ख़ारिज करना तो बहुत आसान है: दूसरे पूर्वी-युगोस्लाव (ख़ुद सर्बिया में भी) राष्ट्रों में ऐसे कवि भी थे, जिन्हें महान और आथेंटिक लेखक का दर्ज़ा मिला था और वे पूरी तरह से राष्ट्रवादी साहित्य रचने के प्रोज़ेक्ट को समर्पित थे. और ऑस्ट्रियन पीटर हन्द्के के बारे में क्या कहा जाए जो समकालीन यूरोपियन साहित्य के क्लासिक हैं, और जो डंके की चोट पर स्लोबोदन मिलोसेविच के अंतिम संस्कार में शामिल हुए? लगभग एक शताब्दी पूर्व, जर्मनी में नात्सियों के उदय पर, कार्ल क्रॉस ने कहा था कि जर्मनी जो Dichter und Denker (कवि और विचारकों) की ज़मीन थी अब Richter und Henker (न्यायाधीशों और ज़ल्लादों) की ज़मीन बन गयी है—शायद इस तरह के परिवर्तन से हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए. और इस भ्रम से बचने के लिए कि पोएटिक-मिलिटरी कॉम्प्लेक्स बाल्कन राष्ट्रों की विशेषता है, हमें कम से कम हसन नगिज़ी का नाम जरूर लेना चाहिए, जो कि रवांडा का कराजिच था, उसने अपनी पत्रिका कंगूरा में एंटी-तुत्सी वैमनस्य प्रचारित किया और उनके नरसंहार की मांग की.

लेकिन क्या कविता और हिंसा के बीच का यह संबंध आकस्मिक है? भाषा और हिंसा में क्या सम्बन्ध है? अपनी किताब ‘क्रिटीक ऑफ़ वायलेंस’ में वाल्टर बेंजामिन ने यह सवाल उठाया है: “क्या किसी संघर्ष का अहिंसात्मक समाधान सम्भव है?”उन्होंने इस सवाल का उत्तर देते हुए बताया है कि इस तरह का अहिंसात्मक समाधान ‘दो लोगों के निजी संबंधों में’ संभव है, जहाँ शिष्टाचार, सहानुभूति और विश्वास का सम्बन्ध हो: “मनुष्यों में आपसी सहमति का एक ऐसा दायरा भी है जो इस हद तक अहिंसात्मक है जहाँ हिंसा बिल्कुल भी नहीं पहुँच सकती: जो ‘भाषा’ की समझ के यथोचित दायरे” में आता है. यह थीसिस मुख्यधारा की परंपरा से संबंधित है जिसमें भाषा का प्रचलित विचार और प्रतीकात्मक क्रम शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और मध्यस्थता का है, जो तत्कालिक और अपरिपक्व टकराव जैसे हिंसक माध्यम के विपरीत है.भाषा में, एक-दूसरे पर प्रत्यक्ष हिंसा की बजाए, हमें बहस करना होता है, शब्दों का आदान-प्रदान होता है- यह ऐसा विनिमय है, जब यह आक्रामक मुद्रा में होने पर भी दूसरे पक्ष को न्यूनतम स्वीकृति तो देता ही है.

क्या होगा, यदि मनुष्य हिंसा की क्षमता के मामले में पशुओं से भी आगे निकल जाए ठीक इसी वजह से कि उसके पास भाषा हैं? बोर्डीओ से लेकर हाईडगर तक दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों ने भाषा के कई हिंसात्मक पहलुओं का विषयवार चिन्तन किया है.हालाँकि, हाईडगर के साहित्य में भाषा का एक हिंसात्मक पहलू अनुपस्थित है, जिसपर ज़ाक लकां ने अपने प्रतीकात्मक क्रम के सिद्धांत को केन्द्रित किया है.अपने साहित्य में, लकां (Lacan), हाईडगर के भाषा के मोटिफ का जगह-जगह dasein (being/मनुष्य) के घर के रूप में इस्तेमाल करते हैं: भाषा मनुष्य का आविष्कार और यंत्र नहीं है, बल्कि मनुष्य भाषा में "निवास"करता है: "मनोविश्लेषण विषय द्वारा धारण भाषा विज्ञान होना चाहिए।"लकां का ‘पैरानोइक’ ट्विस्ट, पेंच का अतिरिक्त फ्रायडियन घुमाव, उनके इस घर के एक यातना-गृह के चरित्र-चित्रण से निकल कर आता है: "फ्रायडियन दृष्टिकोण से भाषा द्वारा अपहृत और प्रताड़ित विषयवस्तु है."

१९७६ से १९८३ तक अर्जेंटीना में सैन्य तानाशाही ने एक विचित्र व्याकरण तैयार किया, सक्रिय क्रियाओं का अक्रिय क्रियाओं के रूप में एक नया उपयोग: जब हजारों की तादाद में वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी गायब हो गए और फिर वे कभी नहीं दिखे, सेना ने उन्हें प्रताड़ित किया और उनकी हत्या की, उनके बारे में कोई भी जानकारी होने से इनकार किया, उन्हें "गुमशुदा"करार दिया गया, यहाँ पर क्रिया का उपयोग उस सरल अर्थ में नहीं किया गया था कि वे गायब हो गए हैं, बल्कि एक सक्रिय सकर्मक अर्थ में: वे "गायब हो गए" (सैन्य गुप्त सेवाओं द्वारा)। स्तालिनवादी शासन में, एक ऐसे ही क्रिया का इस्तेमाल किया गया ''पद त्याग'': जब कोई उच्च नोमेनक्लातुरा सदस्य अपने पद को छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा करता था, लोग कहते थे उसने पद त्याग कर दिया (स्वास्थ्य कारणों से, एक नियम के रूप में) पद छोड़ दिया, और हर कोई जानता था कि वास्तव में यह हुआ था कि वह नोमनक्लातुरा के भीतर विभिन्न समूहों के आपसी संघर्ष में हार गया, लोगों ने कहा कि उसने "पद त्याग"किया. फिर से वही समस्या, एक घटना जिसकी जिम्मेदारी उससे प्रभावित व्यक्ति पर ही डाल दिया गयी (पद त्याग करना, गुम हो जाना) था, उसे पुनः परिभाषित करते हुए एक गैर-पारदर्शी एजेंट की हरकतों का परिणाम माना गया (गुप्त पुलिस ने उसे गायब कर दिया, नोमनक्लातुरा में बहुमत ने उसे हरा दिया).और क्या हमें लकां की उस थीसिस को वैसे ही नहीं पढ़नी चाहिए जिसमें वे कहते हैं कि इंसान बोलता नहीं है बल्कि उससे बुलवाया जाता है? मुद्दा यह नहीं है कि इसके बारे में "बात हुई,"अन्य मनुष्य का भाषा विषय, जबकि यह, जब (ऐसा प्रतीत होता है) कि कोई बोल रहा है, तो यह "बोलना,"वैसा ही है जैसे दुर्भाग्यपूर्ण कम्युनिस्ट कार्यवाहक ‘पद त्याग’ करता है.यह होमोलोगी भाषा की स्थिति की ओर इंगित करती है, एक ‘बिग अदर’ की ओर, जो विषय का यातना-गृह है.

हम आमतौर पर एक विषय के भाषा को, उसकी सभी विसंगतियों के साथ, उसकी/उसके भीतर की उथल-पुथल, अस्पष्ट भावनाओं आदि की अभिव्यक्ति के रूप में लेते हैं. यह कला के एक साहित्य कर्म पर भी लागू होता है: मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन का उद्देश्य आंतरिक मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल का खुलासा करना है जो कलाकृति के कोडेड अभिव्यक्तियों में पाए जाते हैं. इस क्लासिक विचार में कुछ तो कमी है : भाषा न केवल दर्दनाक मानसिक जीवन को पंजीकृत या व्यक्त करता है; भाषा में प्रवेश अपने आप में एक दर्दनाक तथ्य है.इसका मतलब यह है कि हमें भाषा के पीड़ादाई प्रभाव को उस सूची में जगह देनी चाहिए जिनसे भाषा खुद लड़ने की कोशिश करता है.मानसिक उथल-पुथल और भाषा में इसकी अभिव्यक्ति के बीच का संबंध इस प्रकार भी होना चाहिए: भाषा केवल मानसिक अशांति को व्यक्त नहीं करता है; एक निश्चित महत्वपूर्ण बिंदु पर, मानसिक अशांति "भाषा के यातना-गृह"में रहने की आघातपूर्ण प्रतिक्रिया है.

ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि सच बोलने के लिए, विषय के सक्रिय हस्तक्षेप को निलंबित करके सिर्फ भाषा में अभिव्यक्त होना पर्याप्त नहीं है - जैसा कि एल्फ्रीड येलीनेक ने इसे असाधारण स्पष्टता के साथ कहा है: "सत्य के लिए भाषा को यातना दी जानी चाहिए।"इसे खुद के खिलाफ काम करने के लिए तोड़ना-मरोड़ना, इसका अप्राकृतिकिकरण करना, इसे विस्तारित करना, संघनित करना और काटना-जोड़ना चाहिए.एक ‘बिग अदर’ के रूप में भाषा ज्ञान का एजेंट नहीं है जिसके लय को हम ख़ुद निर्धारित करें, बल्कि क्रूर उदासीनता और मूर्खता की जगह है.किसी भाषा को प्रताड़ित करने का सबसे प्राथमिक स्वरूप कविता है
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मैं और मेरी कविताएँ (८) : लवली गोस्वामी

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Poetry heals the wounds inflicted by reason.
Novalis

कवि सदियों से प्रेम और न्याय की कविताएँ लिखते आ रहें हैं,दुःख, दर्द, पीड़ा गाते आ रहें हैं. सभ्यताएं उन्हें सुनती हैं,संस्कृतियाँ उनसे खुद को बुनती हैं. क्या उनका कुछ असर होता है, हुआ है?

आदमी का आततायी कब बाहर आ जाता है पता नहीं चलता,अँधेरा होते ही सबसे पहले वे ही घिर आते हैं उनपर जो कमजोर, अकेले और निहत्थे हैं. रक्तपात से भरी है हर जगह. ऐसे में क्या कविता और कैसा साहित्य कई बार सवाल उठता है मन में ? व्यर्थता बोध और अकर्मण्यता की जैसे कोई जगह हो आज लिखना-पढ़ना.

क्या रक्त को हम रक्त से धो सकते हैं ? खून पानी से धुलेगा, आँखों के टपकते जल से. वहाँ प्रेम का फूल खिलना चाहिए.

और साहित्य यही करता है. कविताएँ यही करती हैं. अंतत: वह मनुष्यता में विश्वास रखती हैं. लवली गोस्वामी की कविताएँ यही विश्वास दिलाती हैं. और इस जरूरत को रेखांकित करती हैं कि जिन हाथों में पत्थर है काश उनमें कविता का कोई लकीर होती. 





मैं कविता क्यों लिखती हूँ              
लवली गोस्वामी




मैंक्यों लिखती हूँ? यह कहना मुश्किल है. सीधा जवाब है कि क्योंकि मुझे लिखने की इच्छा होती है. लेकिन यह बस अभी-अभी की बात है, जब मैं दो किताबें लिख चुकी हूँ. इससे पहले की बात सोचती हूँ तो याद आता है कि मैंने कब लिखना शुरू किया. मुझे पांच वर्ष की उम्र में वाक्य बनाना सिखा दिया गया था. जब मेरे मन में जिज्ञासा आती मैं पूछने के लिए बड़ों के पास जाती थी, अक्सर जो जवाब मिलते उनपर विश्वास करना कठिन होता था. मैं पूछती "मैं कौन हूँ"जवाब मिलता तुम लड़की हो, हमारी बेटी हो. मुझे समझ नहीं आता इसे कितना सही मानूं. मैं लड़की हूँ यह तो इस संसार में आकर तय हुआ. किसी की रिश्तेदार या संतान हूँ यह इस देह में आकर. यह मेरी देह है, यह मेरी नाक है, मेरी आँख है, यह सब मेरे शरीर के अंग हैं, इनसे परे “कुछ” मेरी आत्मा है मेरा मन है. लेकिन मैं कौन हूँ. मैं अपने सवाल, मुझे मिले जवाब, उनपर मेरी कुढ़न. यह सब कॉपी में लिखती थी. मैं पांच वर्ष की उम्र से अपनी असंतुष्टि अपनी जिज्ञासा लिखती आ रही हूँ. कभी-कभी मुझे लगता है अगर मुझे यह असंतुष्टि लिखने से रोक दिया जाए तो न जाने मैं क्या लिखूंगी. लेकिन यह तो तय है मैं कुछ न कुछ लिखूंगी ही क्योंकि यह “लिखना” अब यह आदत और प्रेम दोनों बन चुका है.

भारतीय दर्शन का वह उदाहरण याद कीजिये जिसमे रथ का उदाहरण देते हुए दार्शनिक इस प्रसिद्द प्रश्न का उत्तर देता है कि वह कौन है. रथ का पहिया रथ नहीं है, रथ की ध्वजा रथ नहीं है उसका धुरी रथ नहीं है, उसका कोई हिस्सा अकेले रख दिया जाए तो वह रथ नहीं है. फिर रथ क्या है? रथ भी मेरी तरह एक प्रश्न है. जो कुछ मैं लिखती हूँ इसी प्रश्न का उत्तर है कि मैं कौन हूँ. और मन में मैं वही पांच साल की बच्ची हूँ जिसे अब तक कोई उत्तर संतुष्ट नहीं कर सका है. मैं सिर्फ इस बात का जवाब पाने के लिए पढ़ती रही.मैं खुद से इस सवाल के हर पहलू को जांच सकूं, मैं इसलिए भी  लिखती हूँ. मैं एक पुत्री, एक बहन, एक पत्नी एक मित्र, एक माँ  या कुछ और भी हो सकती हूँ लेकिन वह सिर्फ मेरा एक हिस्सा है. पूर्ण रूप से मेरी अंतिम साँस के पहले नहीं जाना जा सकेगा कि मैं कौन हूँ. मैं उस अंतिम सांस के इंतजार में लिखती हूँ.

मुझे बोलना पसंद नहीं है. लेकिन मुझे संवाद पसंद है. खुद से और अपने जैसे बहुत से लोगों से इस सवाल का जवाब जान और सुन सकूं मैं इसलिए लिखती हूँ.  यह संवाद अन्य कला के ज़रिये भी संभव था लेकिन मेरा पारिवारिक माहौल इस तरह का नहीं था कि मुझे अन्य कलाओं के अभ्यास के लिए छूट दी जाती. पढना और लिखना ऐसी बातें थी जिसे रोज़ के काम के बीच एक बच्चा छिपा कर आसानी से कर सकता था. इसलिए मैंने साहित्य को चुना. अगर मुझे आज़ादी मिलती तो मैं नृत्य करती, फिल्मे बनाती, संगीत या चित्र रचती और इन सब में मैं उसी एक सवाल का जवाब खोजती कि मैं कौन हूँ. यह नहीं हो सका इसका मुझे अफ़सोस है भी और नहीं भी. मुझे लगता है अफ़सोस और निराशा जीवन के अभिन्न हिस्से हैं और वे भी हमारा जीवन उतने ही प्यार से बनाते हैं जितना की ख़ुशी और प्राप्तियां, मैं इस बात को समझने के लिए भी लिखती हूँ.

मेरा लिखना उसी एक सवाल से शुरू हुआ था जो आरम्भ में मैंने यहाँ लिखा, लेकिन अब इसमें कई बातें जुड़ गई है. अब मेरा दायरा, मेरी सोच के विषय बढे हैं और इसके साथ मेरे सवाल भी बढे हैं. उन सवालों के जवाब भी बढे हैं, और उनको हर कोण से व्याख्यायित करते विषय भी बढे हैं. मैं इन सब की जांच करने के लिए भी लिखती हूँ.

मुझे लिखने से ख़ुशी मिलती है मैं इसलिए लिखती हूँ. मुझे लगता है मैं जिन कष्टों से गुजरी उन्हें बाँट कर मेरा दुःख कम होगा, मैं इस स्वार्थ के कारण भी लिखती हूँ. जिन्होंने मुझे प्रेम किया उनके साथ मिले ख़ुशी के क्षण अमर (मेरा अंधविश्वास है कि लिखे हुए शब्द कभी मिटते नहीं हैं) हो जाएँ इस इच्छा में मैं इस ऋण से मुक्त होने के लिए भी लिखती हूँ. जिसने अपमान झेला, दुःख सहे उस मनुष्य को यह बताने के लिए लिखती हूँ कि तुम अकेले नहीं हो, मैंने भी अपमान और दुःख झेले हैं, आओ हम साथ मिलकर उनसे मुक्त हो जाएँ, यह सन्देश देने के लिए लिखती हूँ. मैंने जो महसूस किया वह बताने के लिए लिखती हूँ, जो न महसूस कर सकी उसकी पड़ताल करने को लिखती हूँ. बस इतनी ही बातों के लिए लिखती हूँ.




लवली गोस्वामी की कविताएँ                 


दूरफल 
बकरियाँ, ऊंट जितनी लम्बी होती
तब बेरी की झाड़ी भी खजूर के पेड़ भी जितनी ऊँची होती  

भक्षक की क्षुधा को मात देने के लिए
उसके कद से बड़ा होना पड़ता है

सबसे अधिक
स्त्रियाँ ही जानती है ये बात.

जिंदा रहना जीव का सबसे बड़ा धर्म है
भले ही बढ़ते रहने के एवज में वह
छाया देने का वरदान खो दे

और सबकी पहुँच से दूर हो जाएं
उसके फल. 




तुमसे पहले
अतियों से मेरे प्रेम के बीच
हमेशा तुम खड़े होते हो दीवार बनकर

मैं इतनी थकी हूँ कि तुम्हे देखकर
तुमसे पीठ टिका कर सो जाती हूँ.

प्रेम करना तो एक बात है लेकिन
कभी - कभी मुझे महसूस होता है
तुमसे मिलने से पहले मैं थी ही नहीं.





बेरोजगार ईश्वर
कविऔर ईश्वर में नित होड़ चलती है. ईश्वर नए दुःख बुनता है. कवि उस दुःख कोउसके बराबर सुन्दरता गढ़ कर जीत लेता है. ईश्वर मुस्कुराता है और फिर नयादुःख गढ़ देता है.


 
दुःख के बिना कवि और ईश्वर दोनों बेरोजगार हो जायेंगे.




उत्तराधिकार 
अपने तमाम बच्चों को लेकर 
एक दिन ईश्वर यात्रा पर निकला. 

उसकी लापरवाही से 
एक बच्चा स्टेशन पर छूट गया
वह छूट गया बच्चा कवि था.

बहुत दिन बीते इस बात को 
ईश्वर को ज़रा भी भान नहीं 
कि कविता में न्याय करना  
अनुवांशिकता की ढिठाई है.




जिजीविषा 
तमाम जुगनू
एक ठंढे सूरज की चिंगारियाँ हैं 
जिसे हथौड़ा मारकर तोडता जा रहा है कोई
रात दर रात.

एक रात वे अपना बिखरा हुआ समुदाय एकत्र करेंगे 
रौशनी जोड़कर सूरज जितना बड़ा मधुकोष बनायेंगे,
तब तक कोई कुछ भी कर ले
वे बुझेंगे नहीं.




सटीकता
गंध कभी धोखा नहीं देती
वे ठीक उसी चीज की याद दिलातीं हैं
जिससे वे उठ रहे होतीं हैं.

कुछ लोग भाषा से
दुःख पहुँचाने के मामले में
गंध जैसे ही सटीक होते हैं.




नहीं
चोंच काटकर बो देने से चहचहाहट के खेत नहीं उगते
जुगनुओं को निचोड़ने से रौशनी नहीं टपकती
ओस ओढ़कर चट्टानें कोमल नहीं होती
उदास गीत पानी में डूबते हुए बुलबुले नहीं बनाते
कविता में पंक्तियाँ चीटियों की कतार नहीं होती
इच्छा और दुःख में गहरा संबंध है लेकिन
अनिच्छा और सुख भी कोई सहोदर नहीं होते
काग़ज़ों पर अगर नहीं लिखे जाएँ सुन्दर शब्द
तो वे अजीर्ण और कुपोषण से मर जाते हैं.





मृत्यु से पहले
एक कथा में मैं ऐसा किरदार हूँगी
जिसे बाल सँवारने से नफ़रत है
तुम अपनी उँगलियों के पोर पर
केशतैल की कटोरियाँ उगाना.

कड़ी धूप में चप्पल के नीचे रहने वाले
विनम्र अँधेरे की तरह
हरी पत्ती के नीचे
मासूम नींद सो रही तितली की तरह
हम कुछ वक्त छाया और सुख में रहेंगे.

आज के बाद पूरी ज़िन्दगी
हम एक गीत गुनगुनायेंगे
जिससे सब जान जाएं
यह रहस्य :
कगार पर खड़े वृक्ष हैं हम
सांझ की बेला हमारी छायाएं आगे बढेंगी  
एक दूसरे से लिपट जायेंगी

राहत की एक साँस बनकर आएगी मृत्यु
जो कुछ हमने भोगा
हमें एक दूसरे से हमेशा के लिए जोड़ देगा.





जड़ों के बारे में 
जड़ें ही जिंदा नहीं रखती पेड़ को
पेड़ भी जड़ों को जीवन देते हैं

बाज़ दफ़ा कट जाने के बाद शाखाएँ
नई जड़ें ऊगा कर खुद को बचा लेती हैं

बाज़ दफ़ा तना खोकर जड़ें पाताल के
अधेरों में लुप्त हो जाती हैं.
 
जड़ें हमेशा
रौशनी के विपरीत जाती हैं.

जड़ों से जुड़े रहने की वफ़ादारी
हमेशा बड़ा नहीं बनाती  

बड़ी होती है मूल से कट कर
नई मिट्टी में पनप जाने की जिद.

मैं चाहती हूँ कहावत में
एक बार यह भी कहा जाए
कि जड़ों को
अपने पेड़ नहीं भूलने चाहिए.

शाखाओं को आना चाहिए
नया पेड़ हो जाने का हुनर.




कठबीज
कसैले- खट्टे आमले का *कठबीज है दिल
मरूं तो **गाड़ना नहीं, जला देना मुझे
कसैले फलों का पेड़ किसी के काम का नहीं होता.

फीका न रह जाए इसलिए मन को
अधिक ही पका दिया मैंने

देर तक पकी चाय कि तरह
तेज़ और कड़वे हो गये मन के बोल

किसी को परोसने से पहले
इसकी थोड़ी मात्रा में
बहुत सारा पानी मिलाती हूँ 

त्वचा छोड़ कर मेरी पलकें अक्सर
सूदूर ब्रह्माण्ड में तैरती हैं, बिना पतवार

जितनी देर प्रेमी एक दूसरे को अपलक देखते हैं 
मैं उनकी पलकें ओढ़कर सोती हूँ

देर तक देखती रही मैं अपनी हथेलियाँ
हाथों कि रेखाएं
झुर्रियां बनकर माथे पर ऊग आयीं

हीरा बनीं दिल में गहरे दबी आंसू की एक बूँद
उसी के बराबर का कोई दूसरा हीरा
तराश सकेगा उसे   

जीवन के सागर में दुःख के सब भारी पत्थर डूबे
कविता की पंक्तियाँ लिखी थी जिनपर 
तैरे केवल वे ही दुःख  

उनपर पैर रखकर ही पार किया मैंने अथाह जल
कविता सेतु है मेरा
मेरे ईश्वर का नाम शब्द है.
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*“लवली” (Phyllanthus distichus Muell.-Arg ) संस्कृत साहित्य में एक लतानुमा पौधा है, जिसका ज़िक्र कविअक्सर करते हैं. इस कविता का शीर्षक मेरे स्वयं के नाम-रूप एक लता के बीज का द्योतक है. इसके फल खट्टे – कसैले आंवले जैसे होते हैं, जिसमे औषधीय गुण होते हैं. यहाँ यह लिखना भी समीचीन है कि “कठकरेजा” मेरी मातृभाषा “खोरठा” का शब्द है जिससे मैंने शीर्षक का शब्द “कठबीज” बनाया है. कठकरेजा का अर्थ होता है ऐसा मनुष्य जिसका ह्रदय कठोर हो. इस आँवले का बीज भी काष्ठीय होता है. 

** मैं योगिओं के नाथ संप्रदाय से हूँ. नाथ सम्प्रदाय में शव को समाधि दी जाती है, अन्य हिन्दू जातिओं की तरह जलाया नहीं जाता. लेकिन मैं चाहती हूँ मेरे शव को जला दिया जाए. मैं अग्नि के ताप के प्रति अधिक आकर्षित हूँ बनिस्पत पृथ्वी के अँधेरे के. मानती हूँ देह के साथ जीवन खत्म हो जाता है, इसलिए देह को भी खत्म हो जाना चाहिए. यह बस इच्छा है, कोई सम्प्रदाय या मत इससे आहत महसूस न करें. मैं सभी के मृत्यु उपरांत कर्मकांड का सम्मान करती हूँ. 
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लवली गोस्वामी
एक कविता संग्रह 'उदासी मेरी मातृभाषा है' तथा मिथकों पर एक पुस्तक 'प्राचीन भारत में मातृसत्ता एवं यौनिकता'प्रकाशित. कुछ कविताओं के अनुवाद अंग्रेजी और नेपाली पत्रिकाओं में भी प्रकाशित.
l.k.goswami@gmail.com

कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व : सुकृता पॉल कुमार

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सुकृता पॉल कुमार भारतीय अंग्रेजी लेखकों में प्रमुखता से रेखांकित की जाती हैं. ड्रीम कैचर, विदाउट मार्जिन्स, फोल्ड्स ऑफ़ साइलेंस, नैरेटिंग पार्टीशन, दि न्यू स्टोरी, मैनइस्मत, हर लाइफ, हर टाइम्स आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं. 

कृष्णा सोबती के साथ उनका लम्बा आत्मीय संग साथ रहा है. इस महत्वपूर्ण आलेख में सुकृता ने कृष्णा जी के व्यापक लेखकीय व्यक्तित्व को केंद्र में रखा है और उसे समझा है. 

अंग्रेजी से इसका हिंदी अनुवाद लेखिका रेखा सेठी द्वारा किया गया है. 


कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व : सुकृता पॉल कुमार      
अंग्रेजी से अनुवाद: रेखा सेठी


पिछले तीन सालों में कृष्णा सोबती से मेरी बातचीत पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गई थी. हमारे बीच काफी गहन-गंभीर चर्चाएँ होतीं. समय की इस अवधि में, अपने स्वास्थ्य के चलते वे बार-बार अस्पताल जाती-आती रहतीं. उनके भीतर यह बेचैनी बढ़ने लगी कि समय बीत रहा है और अपने जीवन व लेखन को लेकर अभी बहुत कुछ समेटना-संभालना बाकी है. असंख्य स्मृतियों में बसे जीवन-अनुभवों को कागज़ पर उतारना है. अपनी बीमारी को लेकर कुछ भी साझा करना उन्हें पसंद नहीं था. इस विषय में बात करने से वे सदा झिझकती थीं और उनकी साथी केयरटेकर विमलेश ही मना मना कर उनकी दैहिक सुविधाओं का खयाल करती लेकिन मन से वे अत्यंत सजग थीं. अपने विचारों को साझा करने की ज़रूरत पहले की अपेक्षा अधिक महसूस होने लगी थी. अपने समय और समाज पर प्रतिक्रिया करने तथा अतीत के अपने अनुभवों को लेकर वे अब अधिक मुखर होने लगीं. बीतते समय तथा बढ़ती आयु के एहसास से संभवत उन्होंने अपने भीतर और भी शक्ति अर्जित कर ली थीं जिससे यादों के गलियारों में झांककर वे राजनीतिक परिवेश और उसके सामाजिक प्रभाव के प्रति सजग हो सकें.

घटना-प्रसंग सुनाने का कृष्ण जी का अपना खास अंदाज़ था. सुनते हुए कभी नहीं लगा कि वह सत्तर साल या उससे भी पुरानी बात बता रहीं हैं, क्योंकि सुनाने की प्रक्रिया में वे उस पल को ऐसे जीती थीं जैसे वह अभी घट रहा हो. उनकी आँखों की चमक और गालों पर खिलने वाली दबी-सी हँसी मानो कहती हो कि कहानी में कोई ट्विस्ट है और फिर वह किस्सा आगे बढ़ता, जिसमें किसी ऐसी शैतानी का स्वीकार होता जो अब तक उनकी यादों की परतों में छिपा रहा. ऐसा ही एक किस्सा 1943 में उनकी घुड़सवारी को लेकर है. अट्ठारह वर्ष की आयु में, बिना अपनी माँ को बताए, उन्होंने घोड़ेवाले नवाब बाबू को मना लिया और ‘यंग लेडी’ की तरह घोड़े पर सवार हो गईं. उनकी आँखों में हँसी की लहर दौड़ जाती...जब वे बतातीं कि कैसे ताल पर घोड़ी को पानी पीते देख वह घोड़ा मचल गया और वे  गिर पड़ीं जिससे उनकी टखने की हड्डी टूट गई. बहुत बाद तक भी यह बात उन्होंने अपनी माँ को नहीं बताई.

 
ऐसी गज़ब की कहानीकार और क़िस्सागो कृष्णा जी की यही खासियत थी कि वे अपनी स्मृति की परतों में इतना कुछ संभाले रहीं और उसका उपयोग जब-तब अपने रचनात्मक साहित्य में करती रहीं. रात-दर-रात, अँधेरे में वे कई घंटे अकेले अपने साथ बितातीं और उन सभी कहानियों को आकार देतीं जिन्हें वे लिखना चाहती थीं. उनकी बातों से पता चलता कि उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य तथा विश्व साहित्य के लगभग सभी क्लासिक्स पढ़ रखे थे. समसामयिक हिंदी लेखकों तथा उनकी रचनाओं की भी पूरी जानकारी उन्हें रहती थी. उन्होंने बताया कि अपने जीवन में जो पहली किताब उन्होंने पढ़ी, वह नेपोलियन बोनापार्ट की पत्नी पर थी और उसके बाद नेपोलियन के संस्मरण पढ़े. ना जाने किस कारण से, लेकिन उन्होंने माना कि युद्ध आधारित उपन्यासों को वे बड़े शौक से पढ़ती थीं. शायद, विश्व में युद्ध की संरचना जिस तरह की दुरभिसंधियों या षड्यंत्रों से होती है वह उन्हें आकृष्ट करता. बहुत बार वे जेम्स बाल्डविन के उपन्यास ‘अनदर कंट्री’ का उल्लेख बड़ी गर्मजोशी से करतीं और उसकी अनुशंसा आधुनिक क्लासिक के रूप में करतीं.


अन्य रचनाकारों के लेखन पर उनकी टिप्पणियाँ बहुत रोचक होतीं. एक बार जब नामवर सिंह ने स्वदेश दीपक के उपन्यास ‘मैंने माँडू नहीं देखा’ पर उन्हें टिप्पणी करने को कहा, तो वे बोलीं ‘यह एक बीमार व्यक्ति की सबसे स्वस्थ किताब है.’  मेरा सौभाग्य है कि कृष्णा जी से अनौपचारिक बातों में, मुझे समय के उस दौर पर चर्चा करने का सुअवसर हुआ जब आधुनिक हिंदी साहित्य अपने पूर्ण उत्कर्ष पर था. वे बहुत विस्तार से साहित्य के दिग्गजों से अपने पारस्परिक संबंधों के विषय में बतातीं, जैसा कि कोई कहानीकार ही कर सकता है. उस समय वे सब स्वातंत्र्योत्तर संवेदनशीलता के साथ जिस तरह कथा साहित्य की रचना कर रहे थे उसमें पूरा एक इतिहास रचा जा रहा था. हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ अपनी उसमें अपनी जगह बना रहीं थीं. कृष्णा जी के किस्से सुनाते हुए मेरी आँखों के सामने अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, भीष्म साहनी, कमलेश्वर और उस समय के सभी बड़े लेखकों की तस्वीर सजीव हो जाती, जिनसे उनके लेखन को समझने की अंतर्दृष्टि मिलती. इन्हीं में से कुछ हिस्से ‘हम हशमत’ के रेखाचित्रों में दर्ज हैं.

अपने समकालीनों पर लिखते हुए कृष्णा सोबती ने ‘हम हशमत’ में एक अलग स्वर और शैली अपनाई. ‘हम हशमत’ के रेखाचित्र लेखक की सजगता व सूक्ष्म दृष्टि के साक्षी हैं जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा परिवेश को पहचानती हैं. अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बात करते हुए, साहित्यिक महफिलों व बैठकों के अपने अनुभवों को याद करते हुए, इस रचना में उन्होंने एक भिन्न स्वर तथा भिन्न लेखन शैली को अपनाया. उन्होंने इस श्रृंखला को पुरुष स्वर में लिखने का निर्णय लिया. इसे उन्होंने एक रचनात्मक युक्ति की तरह ग्रहण किया, जिससे वह अपने लेखन को लैंगिक प्रभाव एवं झुकाव से मुक्त रख सकें. जैसे ही वे हशमत की भूमिका ग्रहण करतीं उनका व्यक्तित्व ही बदल जाता और वे बिल्कुल अलग शैली में लिखने लगती. यह बताना भी उपयुक्त होगा कि कृष्णा जी अक्सर वर्जीनिया वुल्फ द्वारा निर्दिष्ट, ‘लेखक के लिए उभयलिंगी होने की अनिवार्यता’, पर बात किया करती थीं. बतौर लेखक उनकी इच्छा कभी नहीं रही कि उनको मात्र स्त्री रचनाकार के रूप में पढ़ा जाए.

‘हम हशमत’ श्रृंखला के ही अंतर्गत पिछले कुछ सालों में कृष्णा जी ने कपिला वात्स्यायन पर रेखाचित्र लिखने की गहरी इच्छा जताई. मैं इस बात की साक्षी हूँ कि कैसे अपनी समकालीन, कपिला जी के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के प्रति वे स्वयं आकर्षित महसूस करती थीं. ‘हम हशमत’ का चौथा भाग उनकी मृत्यु से एक महीना पहले ही प्रकाशित हुआ किंतु तब भी वे कपिला जी पर नहीं लिख पाईं. उनके विषय में पूरा शोध न कर पाने की पीड़ा उन्हें सालती रही.

दो साल से कुछ कम अरसा हुआ होगा जब मैं कपिला वात्स्यायन को कृष्णा सोबती के मयूर विहार वाले फ्लैट पर लेकर गई. जिस असाधारण शक्ति/ अंतर्दृष्टि से दोनों अपने समय को लेकर सोच रहीं थीं और जिस गर्मजोशी से उनके बीच संवाद हुआ उसकी असाधारणता ने मुझे बेहद प्रभावित किया. दोनों जब वर्तमान के विषय में बात कर रहीं थीं तो उसमें अतीत की समृद्ध अंतर्धारा शामिल थी लेकिन कहीं भी अतीत में डूबे होने का भाव नहीं था और ना ही भविष्य की स्वप्न जीविता! वे उत्साहपूर्वक समय और स्थान के वर्तमान से जुड़ी होना चाहती थीं. करीब एकघंटे की यह आत्मीय बातचीत भी कृष्णा जी द्वारा कपिला वात्सायन पर रेखाचित्र लिख पाने के लिए काफी नहीं थी. मैं उनके लिए ज्योति सब्बरवाल की किताब 'कपिला वात्स्यायन: ए कॉग्निटिव बायोग्राफी'लेकर आई. उन्होंने पूरी किताब को एक नज़र देखा किंतु फिर भी कपिला जी पर लिखने के लिए लेखक के रूप में वह जो ढूँढ रहीं थीं वह उन्हें नहीं मिला और जीवन के अंतिम समय तक वे कपिला वात्सायन पर नहीं लिख सकी. निश्चय ही इसका संबंध लेखक की उस रचनात्मक आकांक्षा से हैं जिसके दबाव से लेखक किसी पात्र अथवा जीवन-स्थिति पर लिखने को विवश होता है. फिर चाहे वह लेखन पूरे उपन्यास का हो, या रेखाचित्रों की किताब का एक हिस्सा ही क्यों ना हो.

लिखने की बेचैनी के बावजूद कृष्णा सोबती ऐसी लेखक नहीं थीं जो किसी उपन्यास या कहानी को लिखते ही उसके प्रकाशन के लिए अधीर होने लगें. प्रस्तुति के लिए तैयार होने के लिए, ईंटों की ही तरह शब्दों का भी भट्टी में रहना आवश्यक है. जैसा वे मुझे बताती थीं कि हर उपन्यास को प्रकाशन के लिए भेजने से पहले वे उसके कम से कम तीन ड्राफ्ट बनातीं. अक्सर दूसरे ड्राफ्ट में आमूल परिवर्तन हो जाता और वह कुछ और ही बनने लगता लेकिन तीसरे ड्राफ्ट में फिर पहला रूप लौट आता. जो भी हो पांडुलिपि के प्रति लेखकीय संतुष्टि की दृष्टि से उनके लिए इस प्रक्रिया से गुज़रना आवश्यक था, प्रकाशन की जल्दी उन्होंने कभी नहीं की.


उनके पहले उपन्यास ‘चन्ना’ के लिए ऐसा संभव नहीं हो पाया. विडंबना यह रही कि वही उनका अंतिम प्रकाशित उपन्यास भी बना. जनवरी 2019 में, उनके जीवन के बिल्कुल अंतिम दिनों में, जब वे अस्पताल में थीं यह उपन्यास प्रकाशित हुआ. इसका लेखन छह दशक पहले हुआ था लेकिन जब उन्हें पता चला कि संपादक में उपन्यास की भाषा में यहाँ- वहाँ फेरबदल कर दिया है तो उन्होंने प्रकाशक से सभी प्रतियाँ खरीद कर उन्हें जला दिया और मूल पांडुलिपि को कई दशकों तक ट्रंक में बंद कर दिया. उसके बाद उन्होंने कई कृतियाँ  लिखीं जो बीते वर्षों में प्रकाशित भी होती रहीं लेकिन ‘चन्ना’ का पुन: प्रकाशन संभव नहीं हुआ. वे हमेशा चाहती थीं कि नए सिरे से सुधारकर वे ‘चन्ना’ को किसी नए प्रकाशक को देंगी. नहीं चाहती थी कि वह उसी रूप में प्रकाशित हो जाए. एक परफेक्शनिस्ट के रूप में अपने ही लेखन की वे सबसे धैर्यवान पाठक तथा संपादक थीं. पिछले वर्ष जब वे अस्पताल में थीं तब उन्हें मनाना पड़ा कि वह उस कृति को ट्रंक से निकालें. इससे पहले कोई भी यह हिम्मत नहीं कर सकता था कि उनके लेखकीय निर्णय को किसी भी प्रकार चुनौती दे सके, यहाँ तक कि स्वयं उनका निजी व्यक्तित्व उनके लेखकीय व्यक्तित्व में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था. ‘चन्ना’ के मुखपृष्ठ को देखकर की गई उनकी टिप्पणी को याद करना प्रासंगिक होगा जब उन्होंने कहा था कि 'उपन्यास के कवर पर अमृता शेरगिल की पेंटिंग, जिल्द के भीतर के उपन्यास से अधिक खूबसूरत लग रही है.'मेरे ख्याल से इस टिप्पणी में हल्की-सी नाखुशी भी छिपी हुई थी क्योंकि वे प्रकाशन से पूर्व उपन्यास को उस तरह नहीं सुधार पाई थीं जैसा वे चाहती थीं. अंत में उन्हें हथियार डाल देने पड़े... यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किस्सा मैंने उपन्यास पर किसी प्रकार का निर्णय देने के लिए नहीं बताया बल्कि पांडुलिपि के प्रति एक परफेक्क्शनिस्ट लेखक की प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए बताया है. इस समय तक वे काफी कमज़ोर हो चुकी थीं और उस स्थिति में उपन्यास का संशोधन एक बड़ा काम था तो अपने मूल स्वभाव के विरुद्ध जाकर भी इस पुस्तक के प्रकाशन के व्यावहारिक निर्णय को उन्हें स्वीकार करना पड़ा.

अपने जीवन में जिस स्वाधीनता की आकांक्षा कृष्णा जी ने की वही उनके पात्रों में भी प्रतिबिंबित होती है. उनके उपन्यासों के जीवंत पात्र यह अपेक्षा करते हैं कि उनके स्वत्व की गरिमा बनी रहे वैसे ही जैसा वह अपने जीवन में चाहती थीं. चाहे वह ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो हो या ‘दिलो दानिश’ की महक और कुटुंब या फिर ‘ए लड़की’ की माँ और बेटी तथा ऐसी ही अन्य अनेक पात्र, सब अपनी एक स्वतंत्र पहचान हासिल करती हैं. इनमें से हर एक, अपनी इच्छा-आकांक्षा को महत्व देते हुए अपना जीवन स्वयं गढ़ रही है. यहाँ तक कि ‘ए लड़की’ उपन्यास में पूरी कथा माँ और बेटी के बीच संवाद के रूप में घटित होती है लेकिन दोनों का अपना-अपना निजी स्वर है. जहाँ तक लेखिका के अपने स्वर की बात आती है तो जैसा वे अक्सर कहा करती थीं कि लिखने के लिए उन्हें लगातार अपने भीतर की आवाज़ को ध्यान से सुनना पड़ता है, जिसे वे अक्सर पूरी स्पष्टता के साथ रात के अँधेरे में ही सुन पाती हैं. वे सारा दिन सोती थीं जिससे कि रात को पूरी तरह जाग सकें और अपने अंतर की आवाज़ को बारीकी से पकड़ सकें. कृष्णा सोबती अपनी रातें अपने पढ़ने की मेज़ पर ही गुज़ारती थीं जो उनके लिए किसी धर्म-स्थल की दहलीज़ से कम न थी.

कृष्णा जी का कहना था कि 'किसी सौभाग्यशाली क्षण में सृजनात्मकता लेखक के अंतरतम पर दस्तक देती है... एक लेखक की अंतर्दृष्टि इस संसार के अनंत में मानवीय अस्तित्व की अमरता ढूँढती है.'कृष्णा सोबती की आवाज़ अनुभव के किसी गहरे कुएँ से आती हुई सुनाई देती. वे ऐसी शब्दकार थीं जो शब्दों को इतनी कुशलता से बुनती कि उपन्यास और कहानी में उभरता सच, जीवन के यथार्थ से अधिक सत्य जान पड़ता. भाषिक मुहावरे के साथ-साथ, शब्दों की ध्वनि पर भी वे इतना विचार करतीं कि उनके सभी उपन्यास अपने आप में पूरी सृष्टि के समान लगते हैं.

‘ज़िन्दगीनामा’ उनकी महान कलाकृति है जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. एक महाख्यानात्मक गाथा के रूप में यह उपन्यास पूरे युग की कथा कहता है जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप में पनपने वाली सामासिक संस्कृति को अपने उत्कर्ष पर देखा जा सकता है. इस उपन्यास की चर्चा के साथ ही मन में उर्दू लेखिका कुर्तुलएन हैदर का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आग का दरिया’ भी याद आता है. इन दोनों उपन्यासों में देश विभाजन की विभीषिका ने इन रचनाकारों के भीतर यह तीव्र इच्छा जगाई कि वे इस मिट्टी पर पनपने वाली साझी सांस्कृतिक विरासत की विशेष तस्वीर प्रस्तुत करें. ‘ज़िन्दगीनामा’ उस विस्तृत सामाजिक-सांस्कृतिक कैनवास को प्रस्तुत करता है जिसमें न केवल साझे मिथक-कथाएँ, उत्सव और विश्वास आदि हैं बल्कि गुजरात अथवा पंजाब की ग्रामीण पृष्पठभूमि में रहने वाले स्त्री-पुरुष तथा समुदायों के छोटे-मोटे झगड़े और विभिन्न वर्गों के आपसी संघर्ष भी मौजूद हैं. इसमें कोई एक नायक खलनायक नहीं हैं बल्कि एक बड़ी संख्या में वहाँ रहने वाले लोगों की झलक इसमें दिखती है.  कुर्तुलएन हैदर का उपन्यास समय के लंबे अंतराल पर फैला हुआ है वहीं कृष्णा सोबती एक समृद्ध भौगोलिक क्षेत्र के सांस्कृतिक मानचित्र को बड़ी बारीकी तथा विस्तार के साथ उकेरती हैं. दोनों ही उपन्यासों में भाषा और शैली की दृष्टि से विभाजन के बाद,  भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को आख्यान में बदलने के लिए विलक्षण रचनात्मक प्रतिभा तथा उर्जा सक्रिय रहती है. दोनों लेखिकाओं ने जिन सच्चाइयों का उद्घाटन किया उससे उनकी दृष्टि के विस्तार का पता चलता हैं जो ऐसे समय में भी सामुदायिक सद्भाव को जीवन का निर्धारक मानती है. सारा बल लोगों के बीच भिन्नताओं के प्रति समुचित आदर तथा सहानुभूति पूर्ण साझेदारी पर है. बहुलतावादी संस्कृति में भिन्नेनताओं का सम्मान करने से ही समरसता संभव हो सकती है, यही इस कृति का महत्वपूर्ण संदेश है, जिसे अत्यंत संवेदनशीलता के साथ जीवन अनुभवों में चलने वाले सांस्कृतिक संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है.

बहुत से लेखकों के लिए विभाजन की पीड़ा को अभिव्यक्त करना कठिन रहा. कृष्णा जी उस तकलीफ के साथ अंत तक जीती रहीं लेकिन यह ज़रूर है कि समय के अलग-अलग पड़ाव पर उन्होंने विभाजन के संदर्भ को कई स्तरों पर संबोधित किया. विभाजन के अपने अनुभव को उन्होंने आत्मकथात्मक आख्यान के रूप में लखनऊ से निकलने वाली ‘तद्भव’ पत्रिका में तीनहिस्सों में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ के रूप में प्रकाशित किया और फिर उसी का विस्तृत रूप 2017 में प्रकाशित हुआ. उनकी निजता पर इतिहास के घावों का प्रभाव, धीरे-धीरे इस कृति में अभिव्यक्ति पाता है. इसकी मुख्य पात्र वे स्वयं है, एक रिफ्यूजी जो बॉर्डर के इस पार उस घर की तलाश में हैं जो घर उसने सीमा के उस पार खो दिया है. "हम तेज़ चाकुओं की तरह है... हम स्वयं हथियार बन गए हैं."दंगों में हुई हिंसा में सब कुछ खोकर, बच गए विस्थापितों में जो बचा रहा, वह आग की तरह था जो कभी बदला लेने के लिए जलती थी, तो कभी नई ज़िन्दगी को रोशन करने के लिए. वह आग कहीं भीतर बसी हुई थी, धड़कते असहाय आक्रोश के साथ. कृष्णा सोबती का लेखन मानवता की ओर लौटने की इच्छा जगाता है. भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ हो या कमलेश्वर का  ‘कितने पाकिस्तान’ या फिर विभाजन पर आधारित अन्य अनेक कृतियाँ, सबमें एक अनिवार्य मानवतावादी दृष्टिकोण है, जिसकी नैतिकता का आयाम अप्रत्यक्ष एवं अति-सूक्ष्म है. कभी-कभी तो 1947 के दौरान हुई अकारण हिंसा की भयावहता का वर्णन दोनों वर्गों के पुरुषों द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध प्रतिकार की भावना जगाता है. सआदत हसन मंटो जैसे लेखक विभाजन के तुरंत बाद उस पर लिख रहे थे जबकि कृष्णा जी ने अन्य बहुत से लेखकों की तरह बहुत बाद में विभाजन पर लिखा. संभवत लेखन के दौरान कल्पना के स्तर पर उस त्रासदी को पुन: झेलने से बचने के लिए उन्होंने ऐसा किया.

फरवरी 2018 में मुझसे बात करते हुए कृष्णा जी ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही,
"दूरी से अलग तरह की पहचान बनती है. जब आप लिख रहे होते हैं तो आपको एक उचित दूरी निभानी होती है जबकि जिसे आप दिखा रहे हैं उससे आपका गहरा आत्मीय संबंध भी होता है. दूरी होती है, पर बहुत नपी तुली. यदि आप बहुत नज़दीक आ जाएँ तो उस प्रक्रिया की ‘अन्यता’ ही भूल जाएगी और आत्मीयता तथा तटस्थता की बाइनरी बिखर जाएगी. यह अन्यता लेखक की नहीं है लेकिन लेखक को उसे सुलझाना पड़ता है."
उन्होंने समझाया कि लेखक को एक साथ भीतरी और बाहरी भूमिका निभानी पड़ती है, बाहर से साक्षी होते हुए और भीतर से भागीदारी करते हुए. लेखक के लिए यह विचित्र दशा है जिसमें उसे धार पर चलना पड़ता है. पहले से भी मन में जो चित्र हैं, रचना की क्षण में वह भी एक नया रूप धारण कर लेता है . यह क्षण बहुत नाटकीय ढंग से नहीं आता. लेखक को उस क्षण की पहचान होनी चाहिए जिससे वह उसे पकड़ पाए अन्यथा वह यूँ ही व्यर्थ हो जाएगा. उनका कहना था कि "रचना के उस क्षण में आप काफी उद्वेलित हो सकते हैं और लेखक को उस उद्वेलन को संभालना आना चाहिए नहीं तो वह बुरी तरह असफल हो सकता है, ऐसे ही क्षण में कविता आती है."और इसी बात से मुझे याद आती हैं वह पंक्तियाँ जो उन्होंने मुझे सुनाईं, जिसे उन्होंने शिमला के स्कूल में पढ़ते हुए लिखा था, "मैं मुस्कुराती सी सुबह, डरती हुई सी शाम हूँ : मैं मिलने वालों का युगों तक रहने वाला वो नाम हूँ"इन पंक्तियों पर उन्हें रजत पदक मिला था!

स्वाधीनता से पहले गर्मियों में अंग्रेजों की राजधानी शिमला चली जाती और कृष्णा जी का परिवार भी. वहाँ बिताए बचपन के दिनों के बारे में जब कभी कृष्णा जी बात करतीं  उनका ध्यान बादलों, पहाड़ों और खुले नीले आसमानों में बसी सपनों की दुनिया में डूब जाता. शिमला की सफेद बर्फ़ में जिस तरह लोग मस्ती से नाचते या स्केटिंग का आनंद उठाते थे, उन दृश्यों का वर्णन करते हुए उनकी आँखें चमकने लगतीं. वे रुककर साफ नीले आसमान के बारे में सोचतीं तो अतीत की यादों से उनकी भवें कुछ तिरछी होने लगतीं  और तब अचानक उन्हें याद आता कि कैसे उन्होंने चालीस के दशक में  हिंदी को राजभाषा बनाए जाने को लेकर लोअर बाज़ार में एक लंबा जुलूस देखा था. वे साथ ही जोड़ देतीं, कि अपर मॉल में भी विद्रोह हो रहा था. उन दिनों अंग्रेज़ सरकार का युद्ध सम्बन्धी प्रोपोगेंडा अपने पूरे ज़ोर पर था और उन्हीं दिनों इस तरह के विद्रोह की घटनाएँ भी घटती रहती थीं. जब कभी उनका परिवार शिमला जाता वे ‘गुलशन लॉज’ में ही रहते थे. "हा हा तुम्हें पता है", यह कहकर वे एक दबी-सी हँसी हँस देतीं, "1925 में जब मैं इस दुनिया में आई, तभी यह रेल कार शिमला लाई गई"... मैंने चुपचाप सोचा कि ये सारी बातें अपने आप में कुछ विशिष्ट ही थीं और इनमें सबसे विशिष्ट तो कृष्णा जी ही हैं!

लद्दाख पर कृष्णा जी की पुस्तक, 'बुद्ध का कमंडल: लद्दाख'हिमालय के प्रति उनके गहरे अनुराग का साक्षी है. लेखक ने तस्वीरों और वर्णन के माध्यम से उन रंग-बिरंगी पहाड़ियों की धड़कन को साकार किया है. हिमालय के प्रति उनके प्रेम का पता उनके लेखन तथा जीवन-व्यवहार दोनों से चलता है. वे बिना थके, पहाड़ों पर चढ़ने के अपने किस्से सुनाया करती थीं,  हिमालय की तरफ के और उत्तरांचल के भी, मुक्तेश्वर के आसपास. कृष्णा जी को जीवन में जो भी अच्छा लगता उसके साथ वे अनुभव की साझेदारी करना चाहती थीं.प्राकृतिक सौंदर्य को भी वे इसी भाव से ग्रहण करतीं. वे बेधड़क होकर अपनी यात्राओं के प्लान बनातीं, अपने मन की दुनिया में और सचमुच की दुनिया में भी!

सत्तरकी उम्र में कृष्णा जी ने डोगरी के लेखक शिवनाथ जी से विवाह किया. कृष्णा जी और मैं एक शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इस अवसर को साझा करते हुए गपशप कर रहे थे. उनकी बातों से साफ़ था कि कृष्णा जी के मन में शिवनाथ जी के प्रति विशेष सम्मान और आदर का भाव था और हैरानी यह कि दोनों का जन्मदिन एक ही दिन और एक ही वर्ष का था यानी 18 फरवरी 1925. दोनों ने तय किया कि साथ-साथ रहते हुए उम्र के आगामी पड़ाव पार करेंगे और फिर, व्यवहारिक बाध्यताओं के कारण उन्होंने अपने संबंध पर विवाह की मुहर लगाना उचित समझा. अपने रिश्ते के बारे में सोचते हुए कृष्णा जी इस भाव-बोध और मनस्थिति पर सोचने को विवश महसूस करने लगीं और उसी प्रक्रिया में उनके उपन्यास ‘समय सरगम’ की रचना हुई. यह पुस्तक वृद्ध होने के अनुभव को जिस मनीषा व परिपक्वता से तलाशती है, उससे पन्नों के बीच एक प्रशांत-निर्मल सा अनुभव पसर जाता है. वसुधा डालमिया ने इसका अनुवाद करते हुए अंग्रेज़ी में शीर्षक दिया, ‘द म्यूजिक ऑफ सॉलिट्यूड’ यह वास्तव में एकांत या तन्हाइयों के साथ आ जाने की कहानी है जिसमें अपने समय के साथ भी अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की गई है. जैसे वे सच में एक दूसरे से पूछ रहे हों कि क्या यूँ ही एक दूसरे के साथ समय गुज़ार देना चाहते हैं लेकिन तभी यह नज़रिया छूटने लगता है और वे स्वयं को जीवन और मृत्यु संबंधी अस्तित्व के मूल प्रश्नों के रूबरू पाते हैं. एक दूसरे से अलग होते हुए भी वह आत्ममंथन की इस यात्रा पर साथ-साथ निकले हैं. दो एकांत सामंजस्य की सरगम रचते हुए, एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद साथ हो लेते हैं.


कृष्णा जी जिस तरह के असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं उनके जीवन की कहानी को किसी एक लेख में नहीं समेटा जा सकता यद्यपि वह हमेशा देने और बाँटने में विश्वास रखतीं थीं लेकिन बहुत कुछ था जो उनके भीतर सिमट जाता था. उनकी दृष्टि और उनकी यादों का यह खज़ाना गहरे आत्ममंथन के बाद उनके लेखन में अलग-अलग समय पर अभिव्यक्ति पाता रहा. अंत के दिनों में वे बार-बार यही कहती, "यार, समय काफी नहीं है"और वे चली गईं...पूरी तरह जीवंत और देने की इच्छा लिए.... विशद दृष्टि एवं जीवन से भी बड़े व्यक्तित्व वालों का साथ देह के लिए निभाना कब संभव है...
  

नामवर सिंह : हिन्दी के हित का अभिमान :पंकज चतुर्वेदी

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नामवर सिंह
हिन्दी के हित का अभिमान

पंकज चतुर्वेदी 






1992 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. का विद्यार्थी था और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली में हिंदी से एम.ए. करने के लिए प्रवेश-परीक्षा मैंने उत्तीर्ण कर ली थी. यह समाचार जब समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्ष डॉ. आभा अवस्थीसे साझा किया, उन्होंने बेसाख़्ता ख़ुश होकर कहा : 'नामवर सिंह के पास जा रहे हो !'तब मुझे लगा कि जे. एन. यू. में हिंदी का मतलब नामवर सिंहहैं और यह बात अकादमिक दुनिया में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी हल्क़े के बाहर भी मशहूर है. मगर जब मैं वहाँ पहुँचा, तो यह जानना तकलीफ़देह था कि वह सेवानिवृत्त हो चुके थे. एक दिन किसी कार्यक्रम में आये, तो हम लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि कम और अनौपचारिक ही सही, पर हमें पढ़ाने का अनुग्रह करें ! वह तैयार नहीं हुए. विदा के बाद कैसी वापसी ? हमने कहा कि यह हमारा बड़ा नुक़सान है. बोले : "न इसमें आपका कोई दोष है, न मेरा." सचाई का सहज स्वीकार, जिसमें एक निर्वेद की अनुगूँज थी और चेहरे पर शान्त मुसकराहट. निराला के शब्द याद आते थे :

"जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ,  हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला."

अगरचे यह अन्त नहीं, एक नये जीवन का आरम्भ था. आगामी सत्ताईस वर्षों में डॉ. नामवर सिंहने अनगिनत लेखों, व्याख्यानों, साक्षात्कारों एवं संवादों से साबित किया कि उन्होंने लोक-शिक्षक के रूप में अपनी नयी भूमिका का वरण किया और समूची दुनिया को ही अपना विश्वविद्यालय बना लिया था. गोया ग़ालिब के सपनों के क़रीब 'बे-दर-ओ-दीवार सा'एक विश्वविद्यालय !वह 'सामान्य सहृदय पाठक'या 'भावक' से बहुत लगाव रखते थे, जिससे संवाद की कामना वक्ता के तौर पर उन्हें देश के कोने-कोने में ले गयी. एक जगह वह अंग्रेज़ी साहित्य में जॉनसनसे लेकर वर्जीनिया वुल्फ़तक 'कॉमन रीडर'की अहमियत पर इसरार की परम्परा रेखांकित करते हैं. 'कॉमन रीडर'साहित्य के सच्चे आस्वादक हैं और ऐसा अदृश्य और व्यापक संस्थान, जिसके वृत्त में जाकर ही साहित्य-कर्म की वृहत्तर सार्थकता है. अन्यथा बस शोध-अध्येता, 'क्लोज़ रीडर'और 'स्कॉलर क्रिटिक'रह जायेंगे या उनसे भी बढ़कर 'लेमन स्क्वीज़र'.

सामान्य पाठक को ही फ़्रांस में आदर्श पाठक कहा गया, जो कवियों-लेखकों को जाँचने के मानक थे. संस्कृत परम्परा में इसके लिए मान्य शब्द हैं--सहृदय / भावक / रसिक / रसज्ञ / विदग्ध. यही विदग्धता नामवर जीमें है. उनकी छवि एक सीधे-सादे प्रबंधनीय इंसान की नहीं, बल्कि राजनीतिक पक्षधरता के प्रति सचेत रणनीतिकार आलोचक की रही. उनके पास एक पैनी निगाह है, जिसके परिपार्श्व में है मर्म को पहचान सकने वाला हृदय. करुणा और आत्माभिमान, कोमलता और दृढ़ता की विशेषताओं के संश्लेषण से उनका व्यक्तित्व निर्मित था ; इसीलिए उसमें एक आकर्षक धार थी. विदग्धता को परिभाषित करते हुए अन्य बातों के अलावा मानो यही आत्म-छवि उनके ज़ेहन में है : "

विदग्ध का गुण विरलों में पाया जाता है. सरलता और बाँकपन का साथ. वक्रता के साथ वंचकता आ जाती है और सरलता के साथ आदमी बैल हो जाता है. दोनों के मेल से विदग्ध बनता है."

इस संदर्भ में नामवर जीकहते हैं कि पाश्चात्य शास्त्र में शरीर और मन के द्वैध की परम्परा रही है, जबकि भारतीय परम्परा में समग्रता पर बल है. इसलिए वहाँ कवि और आलोचक एक-दूसरे से भिन्न, जबकि संस्कृत में कवि और सहृदय एक ही तत्त्व के अभिन्न अंग माने गये हैं. 'काव्य-मीमांसा'में राजशेखरइस प्रतिभा के दो भेद बताते हैं: कारयित्री, यानी सर्जनात्मक एवं भावयित्री, यानी अनुभूत्यात्मक या अनुभूतिपरक. एक पारस है, जिसे छूने से सोना पैदा होता है और दूसरा कसौटी, जो उस सोने की परख करता है. 'ये परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं एवं इसी पूरकता में इनकी परिभाषा निहित है.'कवि में कारयित्री और भावक में भावयित्री प्रतिभा की प्रधानता होती है. जैसे कि 'तंत्र'में प्रधानता के आधार पर स्त्री एवं पुरुष तत्त्व होते हैं और अर्धनारीश्वर की भी परिकल्पना है ; वैसे ही कवि और सहृदय / भावक / रसिक / रसज्ञ / विदग्ध, सभी एक ही तत्त्व के दो रूप माने गये हैं.

सहृदय कौन है ? अभिनवगुप्तके हवाले से नामवर जीबताते हैं : 'काव्य के अनुशीलन के अभ्यास से विशद हुए जिसके मनोमुकुर में वर्णनीय से तन्मय होने की योग्यता होती है ; वह अपने हृदय से संवाद, यानी वर्णनीय वस्तु से एकीकरण को प्राप्त होनेवाला सहृदय होता है.'काव्य पढ़ते समय मन का दर्पण विशद, यानी विमल हो, राजस-तामस विकारों से मुक्त, जिसमें 'त्रिगुण का संतुलन' हो. साथ ही, दर्पण टूटा हुआ नहीं, अखंड हो. रचना के सतत अनुशीलन से आईना साफ़ हो, तभी उसमें उसका सही और गहरा अक्स उभर सकता है और वह नतीजतन आलोचना को रचनात्मक बनायेगा ही. ऐसे में राजशेखर की 'काव्य-मीमांसा'का यह कथन क्या नामवर सिंहसरीखी प्रतिभा की ओर संकेत नहीं करता : 

"कोई तो वाणी की रचना करने में निपुण है और कोई उसके सुनने में ही प्रवीण है. तुम्हारी दोनों प्रकार की बुद्धि आश्चर्यजनक है."

डॉ. नामवर सिंहको एज़रा पाउंडका यह बयान प्रिय था कि "कविता को गद्य की ही तरह सुलिखित होना चाहिए." इसमें सुलिखित होने के लिए कविता के बरअक्स गद्य की सराहना का भाव ग़ौरतलब है. जो लोग इस तरह की बातें करते हैं, जैसी कि त्रिलोचन से कहते रहे होंगे : "गद्य-वद्य कुछ लिखा करो, कविता में क्या है",उन्हें कौन समझाये कि गद्य का भी एक शिल्प होता है. किसी भी लेख या निबन्ध की अपनी सौन्दर्यात्मक संरचना तो होती ही है, उसका प्रत्येक वाक्य अपने लिए स्वतन्त्र शिल्प की माँग करता है, जिसे मनोजगत् में हासिल किये बग़ैर लिखा जा नहीं सकता. इसलिए अच्छा गद्य लिख पाना सबके वश की बात नहीं.

कविता की ही मानिंद गद्य भी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भाषा का यादृच्छिक इस्तेमाल नहीं, बल्कि ख़ून की रौशनाई में लिखे हुए शब्द हैं. नामवर जीकी आलोचना सबसे पहले इसलिए आकृष्ट करती है कि उसमें विचार की गरिमा और संवेदना की सजलता के साथ वह धीरज है, जिसकी बदौलत उसका प्रत्येक शब्द और विन्यास सुचिंतित है. प्रखर और पारदर्शी. उसके पीछे जिये गये जीवन का बल है. वह यांत्रिक नहीं, 'जैविक'गद्य है. रघुवीर सहायकी इन कविता-पंक्तियों की याद दिलाता हुआ :

"सुंदर सुगठित गद्य, सहृदय के हाथों लिखा
पढ़ते-पढ़ते चित्त, यात्राएँ करने लगा."

नामवर जीके आलोचनात्मक गद्य में जो सुथरापन, रवानी और कशिश है ; वह गंभीर और धैर्यपूर्ण साधना की फलश्रुति है. लेखन को जीवन के क़रीब ले जाने के लिए ओढ़े हुए 'क्राफ़्ट'या नक़्क़ाशी से दूर ले जाना पड़ता है, जैसा कि एल्मर लेनर्डने कहा है : "अगर वह मुझे 'लेखन'की तरह लगता है, मैं उसे दोबारा लिखता हूँ." सिर्फ़ 'लिखने'की बात की जाये, तो उन्होंने अपने सुदीर्घ आलोचनात्मक सफ़र के मद्देनज़र ज़्यादा नहीं लिखा है. सबब यह कि चीज़ों को जानने, सोचने-समझने और महसूस करने पर इसरार ज़्यादा रहा ; उसके बनिस्बत लिखने पर कम. एक व्याख्यान में वह कहते हैं कि 'लिखो, पानी पर नहीं, पत्थर पर लकीर की तरह.'अचरज नहीं कि आलोचना के पुरातत्त्वविदों की बोझिल शैली और 'पत्रकारिता की भाषा',दोनों में ही लिखे जाने पर वह असहमति और अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं. उनका गद्य पढ़कर यह नहीं लगेगा कि इसे जल्दबाज़ी में, एकाएक या यों ही लिखा गया है ; उलटे यह मालूम होगा कि इन शब्दों का मूल्य चुकाया गया है :

"....संघर्ष के बिना जब दो वक़्त की रोटी भी मयस्सर नहीं होती, तो कविता के मूल्य क्या मिलेंगे ? मूल्यों को इसीलिए 'कमाया हुआ सत्य'कहा जाता है कि हर एक को मूल्यों के लिए ख़ुद क़ीमत चुकानी पड़ती है." 

ज़ाहिर है कि साहित्य-रचना के क्षेत्र में 'समय-पालन'का अपना ख़ास अंदाज़ होता है और उस तरह नहीं, जैसे कि हृदयहीन राजनीतिक या कारोबारी उसे अमल में लाते हैं. बक़ौल रघुवीर सहाय :

"काम जो हम चाहते हैं करें पर स्थगित करते रहते हैं
बर्बर लोगों की तरह कर नहीं डालते."

मैंने पहली बार विधिवत् डॉ. नामवर सिंहका वक्तव्य 1994 में दिल्ली में श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार समारोहमें सुना, जब यह सम्मान कवि वीरेन डंगवालको दिया गया था. इस आयोजन के आरम्भिक वक्ताओं में शामिल एक कवि-आलोचक ने किसी विषय पर अपने आलेख का पाठ किया, जो सुविचारित तो था, मगर उसका पुरस्कृत कवि की रचनाशीलता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न था और शायद उसमें यह भी कहा गया था कि साहित्य हमेशा विपक्ष में रहता है. नामवर जीआये, तो संसद भवन की ओर इशारा करते हुए बोले कि

'साहित्य को विपक्ष में बताना उसका कोई बहुत सम्मान नहीं है, क्योंकि आज विपक्ष में तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी है, बल्कि वही प्रमुख विपक्ष है! इसके बजाए मौजूदा व्यवस्था में साहित्य दरअसल हाशिए पर है.'

निर्दोष और ख़ूबसूरत दिखनेवाले किसी तर्क या स्थापना की बुनियादी विसंगति नामवर जीसे छिप नहीं सकती थी और उसे उजागर कर वह उसके बरअक्स सही या बेहतर मंतव्य को प्रस्तावित कर देते थे. लोकतांत्रिक विमर्श की अधिकतम सार्थकता के लिए उसकी इसी संस्कृति में उनका यक़ीन था.

एक बार 'जैनेन्द्र के स्त्री-पात्रों की स्वाधीनता'विषय पर किसी समालोचक को वक्तव्य देना था और वह 'मुक्ति'पर विचार व्यक्त करते रहे. नामवर जीने कहा कि स्वाधीनता और मुक्ति में बहुत फ़र्क़ है. मुक्ति वाह्य बंधनों से होती है, जबकि स्वाधीन आत्मा के स्तर पर ही हुआ जा सकता है. इस दृष्टि से जैनेन्द्रकी स्त्रियाँ स्वाधीन हैं, भले वे मुक्त न हों. नामवर जीकिसी भी विचारक के केन्द्रीय तर्क से मुख़ातब होते थे और अक्सर व्यक्ति के बजाए प्रवृत्ति पर चोट करते थे. विचारों के क्षेत्र में प्रतिपक्षी के कमज़ोर मोर्चे पर वार करना या उस पर निजी क़िस्म का हमला करना रण-कौशल नहीं ; कमज़ोरी और अवसरवाद है. इसका मतलब है कि आप अपने आक्रमण के नैतिक औचित्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. आलोचना का अंतिम मक़सद किसी का उपहास करना नहीं, बल्कि एक नैतिक औदात्य के साथ अपनी बात कहना है. इस अर्थ में रचना ही संवेदना पर आश्रित नहीं है ; आलोचना भी संवेदना से शून्य होगी, तो रचनात्मक नहीं हो सकती. 'कहना न होगा'में एक जगह नामवर सिंहकहते हैं:

'विचार का जवाब है उससे श्रेष्ठ विचार.'


दूसरे, उपर्युक्त कार्यक्रम में उन्होंने कहा : "बोलने को तो किसी भी विषय पर बोला जा सकता है, मगर आज के समारोह के दूल्हा हैं वीरेन डंगवाल."इस तरह वह एहसास करा देते थे कि सुंदरता औचित्य का ही दूसरा नाम है और अपने समय से न्याय किये बग़ैर, यानी प्रासंगिकता के अभाव में अनिवार्यता का दावा बेमानी है. इसलिए अनावश्यक विस्तार में न जाकर वह किसी कवि के रचनात्मक अवदान के केन्द्रीय सत्य या नाभिक को अनावृत करते हुए उसका सारभूत सौन्दर्य बयान करते थे.

उन्होंने वीरेन डंगवालकी कविता की प्रमुख तौर पर तीन विशेषताओं को मुख़्तलिफ़ कविताओं की नज़ीर देकर उजागर किया.

एक, उनकी कविता पदार्थमयता की कविता है.
दो,उन्होंने मिथकों पर भी लिखा है और ऐसे कवि हिंदी में विरले ही हैं.
तीसरे, पूर्वज कवियों के रचनात्मक अवदान से आत्मीयता, उसके प्रति कृतज्ञ होने और उसके दाय को अपनी सृजनात्मकता से विकसित करने की तमीज़ कोई वीरेन डंगवालसे सीखे !

यों कविता को लेकर नामवर जीका मूल्य-बोध और सौन्दर्य-चेतना सामने आती है. कविता वस्तु-संसार से अंतरंग होती है और उसकी अभिव्यक्ति के ज़रिए ज़िंदगी से हमारी संसक्ति को हर बार नये ढंग से प्रकाशित और प्रगाढ़ करती है. मिथकों के पुनःपाठ के नतीजे में हमारी सांस्कृतिक विरासत की अभिनव मानवीय सार्थकता की खोज उसका एक ज़रूरी कार्यभार है. अंततः सर्जनात्मक परम्परा की अन्तर्ध्वनियाँ उसके महत्त्व एवं आकर्षण को और बढ़ा देती हैं, क्योंकि इससे वह अपने समय के अभिज्ञान के साथ-साथ इतिहास की शक्ति से भी संवलित होती है. यहाँ वस्तुनिष्ठता के अलावा कविता की जिन दो विशेषताओं का ज़िक्र है, उन पर अक्सर कलावादी ख़ेमा इसरार करता है, गोया वे अभिजन समाज का ही विशेषाधिकार हों और अपनी 'समुन्नत'बौद्धिकता और साधनों से वही उनके सूक्ष्म और विशिष्ट इज़हार में सक्षम हो. लेकिन मुक्तिकामी रचनाधर्मिता के सन्दर्भ में नामवर सिंहके द्वारा कविता की इन विशेषताओं का आग्रह सहसा मुक्तिबोधके काव्यांश की याद दिला देता है :

"हम हैं समाज की तलछट
केवल इसीलिए
हमको सर्वोज्ज्वल परम्परा चाहिए."

'दूसरी परम्परा की खोज'की भूमिका में नामवर सिंहने वाल्टर बेन्यामिनकी हसरत को रश्क के साथ याद किया है: 'मेरा वश चलता, तो एक किताब उद्धरणों की ही लिखता.'स्वयं नामवर जीकी आलोचना का एक बड़ा भाग उद्धरण घेरते हैं. 'कविता के नये प्रतिमान'के पहले ही निबन्ध 'कविता क्या है?'को ध्यान से पढ़ें, तो ग्यारह पृष्ठों के इस लेख में उनके अपने मंतव्य प्रमुख रूप से  महज़ तीन हैं :

1—“क्या स्वरूप-वर्णन के बिना मूल्य-निर्णय की कोई सार्थकता रह जाती है ? वर्णन के बिना निर्णय या तो इलहाम है या फिर कोरा फ़तवा.”,
2—“महाभारत के बाद अर्जुन का गांडीव जिस तरह दस्युओं के सम्मुख व्यर्थ हो गया था, उसी प्रकार नयी कविता के समक्ष पुरानी अनुभूतियों से निर्मित सहृदयता की विफलता निश्चित है.”और
3—“.....नयी कविता छायावाद के समान ही ‘अनुभूति’ पर बल देते हुए भी भावों की शाश्वतता के प्रति उतनी आश्वस्त नहीं है. इसलिए नये कवि अनुभूति से अधिक अनुभूतियों के परिवर्तित संदर्भ पर विशेष बल देते हैं. स्पष्टतः उनका बल रागात्मकता से अधिक रागात्मक सम्बन्धों पर है......नये कवि की समस्या इस रूप को ही भाव में रूपांतरित करने की है, प्राप्त भाव को रूप देने की नहीं.”

इस आधार पर कोई पूछ सकता है कि आलोचक इस प्रस्तुति में कहाँ और कितना है ? उद्धरण जहाँ उद्धरणों के लिए आते हैं, बोझ बन जाते हैं ; मगर जब वे किसी अभिप्राय की खोज और स्थापना के प्रयोजन से प्रकट होते हैं, तो उनमें नदी का-सा नैसर्गिक प्रवाह होता है. सबब यह कि वे लेखक की विचारशील अंतरात्मा से छनकर व्यक्त होते हैं. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीका एक कथन यहाँ प्रासंगिक है :

"पंडिताई भी एक बोझ है--जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेज़ी से डुबाती है. जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है."

नामवर जीप्रायः टकसाली वाक्य बोलते थे. इसके पीछे उनका बेहद अनुशासित दिमाग़ सक्रिय था. इसीलिए उनके तमाम व्याख्यानों को हूबहू लिखा और निबन्धों के मानिंद छापा जा सका. त्रिलोचनके शब्दों में कहें, तो "भाषाओं के अगम समुद्रों के अवगाहन"के अनन्तर ही ऐसे मक़ाम पर पहुँचा जा सकता है. नामवर जीके एक सूत्र में इस कामयाबी का रहस्य मिलता है कि

'आलोचक को ख़ूब पढ़ना चाहिए, जितना मुमकिन हो उतना, मगर इसलिए नहीं कि उसे आलोचना लिखनी है.

इस्तेमाल के मक़सद से नहीं, बल्कि प्यार के कारण पढ़ना चाहिए. इससे बड़ी बात क्या कही जा सकती है ? दूसरे शब्दों में यही कहा गया है कि साध्य के लिए साधन की पवित्रता और परमार्थ के लिए निःस्वार्थ यात्रा दरकार है.

जिसे हम प्रगति समझते हैं, वह परम्परा के सही और सम्यक् अभिज्ञान के बिना संभव नहीं की जा सकती. नामवर सिंहकहते थे कि परम्परा और रूढ़ि में फ़र्क़ है. मनुष्यता की जय-यात्रा के लिए नुक़सानदेह और बाधक होने के कारण रूढ़ि त्याज्य होती है, जबकि परम्परा श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर निरन्तर एक प्रस्थान है. इस मानी में प्रत्येक परिवर्तन पर परम्परा का ऋण रहता है. जो लोग नव्यता या मौलिकता को अतीत से सर्वथा विच्छिन्न कोई अनोखी शै मानते हैं, हजारीप्रसाद द्विवेदीने उनके लिए ही कहा होगा कि 'महाअज्ञानी ही महामौलिक हो सकता है.'

नयी उद्भावनाओं के लिए भी ज्ञान-क्षेत्र का प्रसार अनिवार्य है. ऐसा नहीं होता, तो बक़ौल कवि विनोद कुमार शुक्ल,मुक्तिबोधउनसे यह नहीं कहते कि 'पढ़ना, लिखने की ख़ुराक है.'नये की नींव में अक्सर पुराने का बीज पड़ा रहता है, मगर बदले हुए समय-संदर्भ की प्रेरणा से घटित रूपांतरण के चलते हम उसकी मौजूदगी को पहचान नहीं पाते. नामवर सिंहने अपनी आलोचना में प्रायः उत्तरपक्ष का जो सौन्दर्य सृजित किया है, उससे पूर्वपक्ष की सार्थकता नये ढंग से आलोकित होती है. मसलन उनकी यही बढ़त :

"जयशंकर प्रसाद ने एक जगह कहा है कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है. क्या यौवन चले जाने पर समझदारी आ जाती है ?"

रचनात्मक और बौद्धिक विरासत के विकास के ऐसे असंख्य उदाहरण उनके यहाँ बिखरे पड़े हैं, जो साबित करते हैं कि परम्परा से प्रश्न पूछना उस पर मुहर लगाने से बेहतर है. शायद 'दूसरी परम्परा की खोज'का रास्ता इसी प्रश्नाकुलता और बहसधर्मिता से जनमा हो ! आकस्मिक नहीं कि यशस्वी कवि शमशेर बहादुर सिंहसे जब पूछा गया कि नामवर सिंहके 'कविता के नये प्रतिमानों' के बारे में उनके विचार क्या हैं, तो उन्होंने 'नामवर' शीर्षक अपने विस्तृत निबन्ध में लिखा कि किसी नये मार्क्सवादी आलोचक से मुक्तिबोधने जो-जो अपेक्षाएँ की हैं, नामवर जीने उन पर बहुत संजीदगी से चिंतन किया है. नतीजतन वह एक गूढ़ संकेत करते हैं, जिसके आशय को समझ पाना मुश्किल नहीं :

"कोई अजब नहीं, जो मैं वही बातें दुहराने लगूँ, जो मुक्तिबोध बहुत युक्तियुक्त ढंग से कह गये हैं और जिन्हें डॉ. नामवर सिंह ने अनेक स्थलों पर अपना आधार बनाया है." 

इस तरह नामवर जीके महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक उद्यम के स्वभाव के मद्देनज़र सुधीर कक्कड़के उपन्यास 'कामयोगी' में वात्स्यायन का कथन याद आता है :

"उद्धरणों के माध्यम से हम अपने पूर्वजों से वैसे ही जुड़ते हैं, जैसे प्रति माह प्रथमा को उनके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानों के माध्यम से हम केवल वही सोच सकते हैं, जो पहले सोचा जा चुका है. अगर तुम्हें कभी यह लगने लगे कि तुम्हारे पास कोई नया विचार है, तो याद रखना कि तुम केवल इसके स्रोत को भूल गये हो !"

उद्धरण देना लेखक की ग़ैर-मौलिकता का नहीं, बल्कि एक दृश्य में मौजूद अन्यान्य बौद्धिक एवं संवेदनात्मक अभिव्यक्तियों का सम्मान और उनसे आत्मीय संवाद कर सकने की उसकी विशेषता का सबूत है. यह अपने समय के समूचे वैचारिक पर्यावरण के प्रति सजग संवेदनशीलता या कहें कि मस्तिष्क और हृदय की विशालता के बग़ैर संभव नहीं. जब आत्मीयता नहीं होगी, तो किसी की याद क्यों आयेगी और उससे बहस करने की ज़रूरत भी क्यों महसूस होगी ? इस तरह देखें, तो प्यार और विचार में अन्योन्याश्रित रिश्ता है, जो नामवर सिंहकी आलोचना की आंतरिक आभा बन जाता है और उसके कैनवस का विस्तार करता है. वह कहते थे कि बड़ी रचना सिर्फ़ श्रेष्ठ विचारों पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उनसे आगे बढ़कर एक पूरे वातावरण का निर्माण करती है ; जिसमें हम इतिहास के किसी दौर की समग्र सचाई से रूबरू होते हैं और उसके जीवित परिवेश में साँस ले सकते हैं. रचना के इसी वैशिष्ट्य को आत्मसात् करने की बदौलत नामवर जीकी आलोचना किसी एकपक्षी सिद्धान्तकार की विवेचना के बजाए एक काल-खंड के अहम विचारकों के दरमियान 'वाद-विवाद-संवाद'के दिलचस्प और जीवंत थिएटर में बदल जाती है ; जहाँ आलोचक का अपनी ओर से दिया गया कोई स्वतन्त्र फ़ैसला या अलहदा वक्तव्य नहीं, बल्कि विभिन्न विचारों का 'जक्स्टापोज़ीशन',यानी समक्षीकरण या मुक़ाबला ख़ुद कहने लगता है कि सही और श्रेष्ठ विचार क्या है. सच पूछिये, तो उपलब्ध दृश्य के महत्त्वपूर्ण आयामों की समृद्धि के बरअक्स वरेण्य का इंगित ही नामवर जीकी आलोचना की उपलब्धि है और अवदान भी. उसकी सार्थकता यही है और सौन्दर्य भी.

आलोचना को भी रचना की ही तरह दिलचस्प, संवेदनशील, अंतर्दृष्टि-सम्पन्न, सुंदर और मूल्यवान् होना चाहिए, यह विवेक हमें नामवर सिंहने दिया. इसी समझ की बदौलत वह कई बार अपनी आलोचना को अपने समय की रचना से अधिक प्रासंगिक, सार्थक और स्पृहणीय बना सके. वह हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ताओं में अग्रगण्य थे, इसलिए कि उन्हें सुनना विचारोत्तेजक ही नहीं, सौंदर्यात्मक अनुभव भी होता था. प्रमुख तौर पर जिन तीन विशेषताओं के संश्लेषण से उनके जैसा व्यक्तित्व निर्मित हुआ था, वे हैं--व्यापक अध्यवसाय, विलक्षण स्मृति और वाग्विदग्धता.

नामवर जीअपने समय के आलोचकों में इस मानी में भी विशिष्ट थे कि कवियों और कथाकारों का वह सम्मान करते थे, उन्हें उच्च-भ्रू बुद्धिजीवी की अहंकारी निगाह से नहीं, संघर्षशील जनसाधारण की आत्मीय और मर्मज्ञ नज़र से देखते थे. शायद उनका सबसे बड़ा अवदान यह है कि उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रतिभा के संस्पर्श से आलोचना सरीखी गहन ज्ञान की विधा का लोकतंत्रीकरण किया और उसे हिंदी साहित्य के दायरे से आगे बढ़कर समाज विज्ञान के अनुशासनों, दूसरी भारतीय भाषाओं की साहित्यिक दुनियाओं और आम सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों के बीच विचार-विमर्श के लिए ज़रूरी और लोकप्रिय बनाया. व्यापकतर समाज में हमें यह गर्व सहज ही हासिल रहा कि हम उस हिंदी से आते हैं, जिसके पास नामवर सिंहसरीखा ज़हीन आलोचक है. उन्होंने एक सामान्य ग्रामीण निम्नमध्यवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकलकर, अपने अनथक संघर्ष के सहारे यह शीर्षस्थानीयता अर्जित की थी. इसलिए शाद अज़ीमाबादीका यह शे'र उन्हें प्रिय था, जो प्रकारांतर से नयी पीढ़ी को अनूठे आत्मविश्वास से अनुप्राणित करता है :

"ये बज़्म-ए-मै है, याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी 
जो बढ़कर ख़ुद उठा ले हाथ में, मीना उसी का है."

कई वर्ष पहले राष्ट्रीय पुस्तक मेले का उद्घाटन करने नामवर जीकानपुर आये थे. तब रेलवे स्टेशन पर उनकी अगवानी करने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी. मैं कुछ दोस्तों के साथ उनका स्वागत करने पहुँचा. जैसे ही सुबह-सुबह वह श्रमशक्ति एक्सप्रेस से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे, हमने फूलमालाएँ पहनाकर उनका अभिनन्दन किया.

स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा. बीती रात कानपुर में किसी कवि-सम्मेलन में आये हुए एक जाने-माने, लहीम-शहीम हास्य-कवि नामवर जीको देखते ही, उनके समक्ष ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गये और दोनों हाथ जोड़कर बोले : "नामवर जी, मैं हिंदी का एक छोटा-सा कवि......"ऐसा उनका सम्मान था ! मैं ग़ौर से देख रहा था. नामवर जीने उनकी अभ्यर्थना के जवाब में एक शब्द नहीं कहा, सिर्फ़ हँसते हुए आगे बढ़ गये. हिंदी के दूसरे बड़े पूर्ववर्ती आलोचकों की तरह यह संस्कार हमें उनसे ही मिला है कि जो योग्य नहीं है ; उसकी सराहना करना, आलोचना का अपने धर्म से अपसरण है. ग़ौरतलब है ‘कविता के नये प्रतिमान’की भूमिका में उनका यह कथन :

“मूल्यवान् है एक भी ऐसे आलोचक का होना, जो किसी भी चीज़ को तब तक ‘अच्छा’ न कहे, जब तक उस निर्णय के लिए वह अपना सब-कुछ दाँव पर लगाने को तैयार न हो.”

बाद में अख़बार में कार्यरत एक स्थानीय कवि अथवा गीतकार का उनसे परिचय कराते हुए मैंने कहा : "ये अमुक अख़बार में पत्रकार और कवि हैं."उन्होंने नामवर जीको नमस्कार करते और कुछ शरमाते हुए तुरंत प्रतिक्रिया दी : "नहीं, नहीं, मैं कवि नहीं हूँ." यह उनके आलोचक का औदात्य था कि कवि-सम्मेलन जैसी प्रायः विकृत और निरर्थक हो चुकी संस्थाओं या गतिविधियों के स्तर पर सक्रिय और कविता के नाम पर विपुल धन और यश कमा रहे लोगों को भी उनके सामने जाकर आत्महीनता का एहसास होता था और वे अपने को कवि मानने में संकोच करते थे.

दोपहर के भोजन के बाद, जबकि कार्यक्रम, यानी नामवर जीका उद्घाटन व्याख्यान शुरू होने में कुछ समय था, मैंने उनसे निवेदन किया कि 'अब आप अपने कमरे में आराम कर लीजिए'और उनकी सेवा के लिए नियुक्त एक परिचारक से उन्हें परिचित कराते हुए कहा : 'इस बीच ये यहाँ रहेंगे और आपकी आवश्यकताओं का ध्यान रखेंगे.कई बार किसी एक शब्द के इस्तेमाल से ही उसे बरत रहे व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का पता चल जाता है. नामवर जीबोले कि उन्हें किसी ख़िदमतगार की ज़रूरत नहीं है और इस काम के लिए नियुक्त उस नवयुवक से उन्होंने जो वाक्य कहा, वह अपनी मार्मिकता की बदौलत मेरी चेतना में अमिट हो गया है :
"तुम कहाँ मेरे लिए तपस्या करोगे !"


नामवर सिंहको मैंने कभी आक्रामक, असंयत या उत्तेजित शैली में भाषण करते नहीं देखा-सुना. निरी उत्तेजना के साथ बोलनेवाला अच्छा वक्ता नहीं हो सकता. वह भाषा को बरतते हुए लगातार हिंसा करता है और यह शैली किसी ख़ालीपन को छिपाने की कोशिश है या कहें कि आत्महीनता का सबूत. इसके विपरीत नामवर जीबहुत आत्मविश्वास, दृढ़ता एवं शान्ति के साथ, संजीदा और शालीन, मगर दो-टूक लहजे में अपनी बात कहते थे. निरालाके शब्दों का सहारा लेकर कहें, तो उनके वक्तव्यों में एक ऐसे व्यक्तित्व के ज्ञान की गरिमा झलकती थी, जो 'समधीत शास्त्र-काव्यालोचन'और 'अपने प्रकाश में निःसंशय'था, निर्भीक, दृष्टि-सम्पन्न, तेजस्वी, विनोदप्रिय और संवेदना-सजल था. धमकी-भरे, आक्रांता अंदाज़ में जो लोग बोलते हैं, उनके शब्द बाद में कानों में बजते रहते हैं, मगर हृदय पर वे कोई मार्मिक प्रभाव नहीं छोड़ पाते, जिसके आलोक-वृत्त में काफ़ी समय तक रहा जा सके.

नामवर जीएक ही 'पिच' (स्वरमान) पर बोलते थे ; मगर शब्दों के अभिप्राय, मर्म और व्यंजना के मुताबिक़ उच्चारण का बलाघात बदल देते थे. उनको सुनने का सुख इस एहसास में निहित था कि कहनेवाले को ठीक-ठीक मालूम है कि वह क्या कह रहा है और उसे भाषा के अन्तःसलिल संगीत की समझ है. वह जानते थे कि इंसान की ज़िंदगी में शब्दों की भूमिका कितनी गहन और दूरगामी है. एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि 'कविता सिर्फ़ दिलोदिमाग़ पर नहीं, बल्कि समूचे संवेदन-तंत्र पर, इन्द्रियों पर, त्वचा पर, चमड़ी पर असर करती है.'यहाँ त्वचा और चमड़ी, दोनों शब्दों का इस्तेमाल आशय के दोहराव नहीं, बल्कि संपूर्णता के लिए है और यह बात वही जान सकता है, जो एक कवि हो. भले ही वह कवि के रूप में मौन हो गये थे, किन्तु अभिव्यक्ति के एक दूसरे मोर्चे पर अपनी उस कलात्मक क्षमता को चरितार्थ करते रहे.

दरअसल नामवर सिंहआलोचना के ज़रिए वही काम करते थे, जो कविता के माध्यम से कवि करता है ; जैसा कि एक कवि की बाबत रघुवीर सहायने लिखा है :

"(उनकी) वस्तु-योजना अद्भुत धीरज और साहस के साथ, जो कि अपनी अनुभूति को सम्प्रेषित हो जाने तक बचाये रखने के लिए कवि को चाहिए, एक शान्त शक्ति वाली भाषा तैयार करती है. यह उपलब्धि आधुनिक कविता के प्रयत्न को संपूर्ण बनाती है......"

इस पर एक अहम और दिलचस्प अध्ययन हो सकता है कि नामवर जीका आलोचनात्मक गद्य किस हद तक कविता की प्रविधि का इस्तेमाल करता है और उसकी कितनी विशेषता उसमें समाहित है. अर्थ की सान्द्रता, मर्मस्पर्शिता, व्यंग्यात्मकता, कलात्मक अभिव्यक्ति की संरचना और भाषिक सौष्ठव सरीखे गुण उनके गद्य में सहज ही लक्ष्य किये जा सकते हैं. उन्होंने लिखा कम, मगर जो लिखा, उसके प्रभाव का दायरा व्यापक है ; ठीक इसी तरह आकार में छोटी होने के बावजूद कविता की व्यंजना बड़ी होती है. सवाल है कि उनकी आलोचना में कविता की सिफ़त का उत्स क्या है ?

सबको मालूम है कि नामवर सिंहअपने साहित्यिक सफ़र की शुरूआत में कविताएँ भी लिखते थे. बक़ौल शमशेर, उन कविताओं का 'पर्सनल टच' उन्हें खींचता था, उनमें-से "थोड़ी-सी कविताएँ विशुद्ध इमेजिस्ट कविताएँ"लगती थीं और "सफल इमेजिस्ट कविताएँ."लेकिन वृहत्तर धरातल पर ज़िम्मेदारियों की पुकार ने उनके कवि और आलोचक के बीच कशमकश पैदा की, जिसके नतीजे में आलोचक विजयी हुआ : "धीरे-धीरे क्या, जल्द ही नामवर के युवा कवि को उसके वयस्कतर होते मार्क्सिस्ट आलोचक ने दबा दिया. निश्चय ही व्यक्तिगत भावनाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण थीं व्यापक सांस्कृतिक समस्याएँ."एक घिसी-पिटी, संभवतः 'आउटडेटेड'मान्यता है कि असफल कवि सफल आलोचक होता है ; मगर नामवर सिंहआलोचक के रूप में इसलिए सफल हुए कि उन्होंने अपने कवि को बिसराया नहीं, भरसक उसे अपनी आलोचना में जीवित और सक्रिय बनाये रखा.

'छायावाद'(1954) और 'कविता के नये प्रतिमान' (1968) के रूप में नामवर सिंहने दो बार कविता के एक पूरे दौर का विश्लेषण और मूल्यांकन प्रस्तुत किया. बीते छह-सात दशकों में कविता एवं विभिन्न कवियों पर स्वतन्त्र निबन्ध और किताबें लिखी गयी हैं और उनमें-से कई उत्कृष्ट भी हैं ; मगर एक समग्र कालखंड की काव्यात्मक विशेषताओं और उपलब्धियों की पारदर्शी मीमांसा करनेवाला काम किसी और ने कहाँ किया है ? शमशेरउन्हें 'सैयद'कहा करते थे. उनके ही शब्दों में, "अकबर इलाहाबादी का वो शे'र है न—

'हमारी बातें ही बातें हैं--सैयद काम करता था
न भूलो फ़र्क़ जो है, कहनेवाले करनेवाले में.'
मुझे ये (नामवर) सदा बड़े कर्मठ और व्यवस्थाप्रिय लगा किये हैं."

यह सही है कि कम-से-कम कविता की लिखित आलोचना के सन्दर्भ में नामवर सिंहकी सक्रियता कविता के नये प्रतिमानोंसे आगे बढ़कर रघुवीर सहायऔर धूमिल की कविता पर आकर ठहर गयी और उसके पार नहीं जा सकी. बाद में उनका बेशतर वक़्त हिंदी की अकादमिक और साहित्यिक दुनिया, प्रकाशन-तन्त्र और पुरस्कार-तन्त्र में उनके बहुआयामी उचित-अनुचित सत्तात्मक दख़ल में ज़ाया होता रहा और उससे बहुतेरे प्रबुद्ध, सच्चे एवं संवेदनशील लोग--जिन्हें उनसे और भी बड़ी उम्मीदें थीं--स्वभावतः क्षुब्ध एवं हताश होते रहे और एक क़िस्म की प्रगल्भ सामाजिकता से सुख अर्जित कर रहे उत्तर-नामवरतक उनकी कातर पुकारें बेशक पहुँचती रहीं, मगर आख़िरकार अनसुनी रह गयीं. लेकिन इससे उन्होंने जो अहम काम किये थे, अनकिये नहीं हो गये. उनकी अहमियत अक्षुण्ण है और इतनी तो है ही कि शमशेरके इन शब्दों से उसका स्तवन किया जा सकता है :

“फिर एक ही जन्म में और क्या-क्या
चाहिए !"

शायद हिंदी आलोचना में अपने नायकत्व की यथास्थिति और अपने से की जाती अपेक्षाओं के दबाव से नामवर जीको कभी-कभी असुविधा होती थी. वह दूसरों से हमेशा कुछ जानने, सीख सकने और बहस करने लायक़ आलोचना-कर्म की उम्मीद करते थे. आख़िर अपनी आलोचना को वह 'सहयोगी प्रयास'का ही अंग मानते थे, जिसमें हर एक का अपना संघर्ष और आत्मसंघर्ष भी शामिल है. 'क्रिया केवलम् उत्तरम्'उनका आदर्श वाक्य था. इसलिए उनका महिमामंडन और निर्विकल्पता स्वयं हिंदी आलोचना की विडम्बना की ओर एक इशारा है.

बेर्टोल्ट ब्रेष्टके नाटक 'गैलीलियो'के एक दृश्यमें आंद्रिया अपने गुरु गैलीलियो से कहता है, ''अभागा है वह देश, जिसमें कोई नायक नहीं है."इसके जवाब में गैलीलियो का कथन नामवर जीको कहीं ज़्यादा मानीख़ेज़ लगता था, ''उससे अभागा देश वह है, जो नायक का इंतिज़ार करता है."

हिंदी संसार में नामवर सिंहसे असहमतियाँ बहुत-सी हैं, पर उनमें-से दो का ज़िक्र शायद यहाँ मुनासिब हो. एक तो सामाजिक न्याय को लेकर उनके भीतर जो हिचक या असमंजस था, उसके चलते 'मंडल आयोग' की सिफ़ारिशों के लागू होने के एकाधिक वर्षों बाद दिल्ली में एक संगोष्ठी में उन्होंने कहा था : "आरक्षण सामाजिक क्षेत्र में तो निर्विवाद नहीं ही है, साहित्य की दुनिया में सर्वथा अस्वीकार्य है. यहाँ सम्मान उसी को मिलेगा, जिसके पास वाणी का वैभव होगा--वह ब्राह्मण हो या अब्राह्मण." 

संभवतः डॉ. रामविलास शर्मा सरीखे मार्क्सवादियों के इस मंतव्य से वह सहमत थे कि आरक्षण का आधार जातिगत नहीं, आर्थिक होना चाहिए. लेकिन डॉ. शर्माने जो बात कही, उस पर प्रगति-विरोधी समझे जाने और अलोकप्रिय होने के ख़तरे के बावजूद वह क़ायम रहे; जबकि नामवर जी'अवसर'के अनुकूल अपना 'स्टैंडबदलते रहे.

दूसरा मसला कुछ अलहदा होने के बावजूद इससे जुड़ जाता है. सोवियत संघ के विघटन के बाद के वर्षों के आयोजनों में--ख़ासकर सन् 2002 के आसपास, जब नामवर जीकी  75वीं वर्षगाँठ विचार-गोष्ठियों के रूप में पूरे हिंदी जगत् में प्रभाष जोशीकी पहल पर मनायी जा रही थी--उन्होंने एकाधिक बार कहा कि "वर्ग मार्क्स का अंधविंदु  था."इस सिलसिले में पटना में हुए आयोजन में स्वयं नामवर जीने अपने वक्तव्य के बाद इच्छा ज़ाहिर की : 'मैं चाहता हूँ कि मुझसे पहला सवाल ('समकालीन जनमत'के प्रधान संपादक) रामजी राय पूछें, क्योंकि उठान अच्छी हो, तो अंत अच्छा होता है.

लिहाज़ा उन्होंने प्रश्न किया : 'इन दिनों आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि वर्ग मार्क्स का अंधविन्दु था ?'नामवर जीने जवाब दिया : 'आजकल जो यह बात कही जा रही है कि मार्क्स के वर्ग की कोटि में स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े या निम्न / सबआल्टर्न तबक़ों को समाहित नहीं किया जा सकता, वह सही है और मैं तो अंधविन्दु होने का मुद्दा अपनी किताब  'वाद-विवाद-संवाद'के समय से ही उठाता आ रहा हूँ. जो आपत्ति लोग अब कर रहे हैं कि मार्क्सवाद के अंतर्गत इन समुदायों की उपेक्षा या अनदेखी हुई है, वह आशंका मुझे पहले से थी.

सवाल है कि अगर ऐसा था, तो पिछड़े और वंचित तबक़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था किये जाने पर उनके एतराज़ का औचित्य क्या था ?

सामाजिक न्याय के प्रयोगों और  साम्यवाद की अवधारणा  से विचलित मनःस्थिति को दर्शाते ऐसे कई  विचित्रअन्तर्विरोधग्रस्त और निर्मम बयान समय-समय पर  उन्होंने दिये कि तअज्जुब होता था कि क्या 'उत्तर-नामवर' को 'पूर्व-नामवर' की याद नहीं आती ?  

उस नामवरकी, जिसने 'कविता के नये प्रतिमानों' के केन्द्र में मुक्तिबोधको स्थापित किया, लम्बे समय तक कलावादी शिविर के बरअक्स प्रगतिवादी एवं जनवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए आलोचनात्मक संघर्ष का नेतृत्व किया और 'दूसरी परम्परा की खोज'की थी ? क्या उन्होंने 'वाद-विवाद-संवाद' में एक आलोचक की स्थापना पर किया गया अपना ही यह व्यंग्य बिसरा दिया था और बाद के वर्षों में उसे वैध और स्वीकार्य बताने लगे थे :

"बड़े आलोचकों में कौन है, जिसका कोई 'अंधविंदु'न हो ! क्या वह  'अंधविंदु'ही उसकी 'अंतर्दृष्टि'का कारण नहीं ? पाल डि मान ने इसी को लेकर एक लम्बा-चौड़ा सिद्धान्त रच दिया है. प्रज्ञाचक्षु आलोचक सुख की नींद सो सकते हैं !" 

कैसी विडम्बना है कि 'साधनावस्था' के नामवरजितने अविचलित और प्रखर थे, 'सिद्धावस्था' के उतने ही डाँवाडोल और परश्रीकातर ! सुख, सुरक्षा और सत्ता की तृष्णा सत्य से कितना दूर ले जाती है ! प्रसंगवश, मुक्तिबोध की कविता के ये शब्द  'उत्तर-नामवर' को  समर्पित करने की इच्छा होती है :

"महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता !
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्त्व !!"


बहरहाल. नामवर सिंहऊँचे उठे और शब्द के सच्चे और पूर्णतम अर्थ में 'नामवरबन सके, क्योंकि उन्हें अपनी परम्परा की महनीयता का हमेशा एहसास रहा और हिंदी आलोचना के अग्रज आचार्यों के नक़्शेक़दम पर उन्होंने अपने व्यक्तित्व, प्रतिभा और अवदान को ढालने का अथक अध्यवसाय किया. विद्वत्ता, सहजता और धारा के विरुद्ध अपनी बात कह सकने के साहस ने मिलकर उन्हें गढ़ा था.इसीलिए लोगों के जितने अज़ीज़ वह थे, उतने ही विवादास्पद. अचरज नहीं कि कबीर की यह साखी उनकी ज़बान पर रहती थी :

"चढ़िए हाथी ज्ञान का, सहज दुलीचा डार.
श्वान रूप संसार है, भूँकन दे झखमार.." 

आलोचना के प्रतिमान कितने समुज्ज्वल और उदात्त रहने चाहिए, इसका अंदाज़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक विद्वत्सभा में वर्षों पहले दिये गये उनके बयान से लगाया जा सकता है : "हिंदी में आचार्य दो ही हुए हैं : रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी. बाद के लोगों को आप और चाहे जो कह लें, पर वे आचार्य नहीं हैं." चाहे इस पुनरुक्ति को दोष ही माना जाए, मगर मैं नामवर सिंहको जब भी स्मरण करता हूँ,  उनके प्रिय निराला  के ये शब्द बेसाख़्ता याद हो आते हैं :

"तुमने जो दिया दान, दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है--
यह सच है!"
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रेणु जन्म शती वर्ष : हिंदी का हिरामन : विमल कुमार

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फणीश्वरनाथ रेणु (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल १९७७) का यह जन्म शती वर्ष है, 4 मार्च से उनसे सम्बंधित आयोजन देश भर में प्रारम्भ होंगे.

रेणु का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है, व्यक्तिगत स्तर पर वे आकर्षक और साहसी व्यक्तित्व के मालिक थे, उदार और बेफ़िक्र.

जहाँ रेणु की ख्याति उनके कालजयी उपन्यास ‘मैला आँचल’से है, वहीं उनकी कहानी पर आधारित ‘तीसरी कसम’हिंदी की कुछ बेहतरीन फिल्मों में शामिल है. ‘मैला आँचल’ के साथ-साथ वे ‘परती परिकथा’, ‘जुलूस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कितने चौराहे’ और ‘पलटू बाबू रोड’के भी उपन्यासकार हैं. कहानी-संग्रह  ‘एक आदिम रात्रि की महक’, ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘अच्छे आदमी’के साथ ‘ऋणजल-धनजल’, ‘श्रुत अश्रुत’ ‘पूर्वे’, ‘आत्म परिचय’, ‘वनतुलसी की गंध’, ‘समय की शिला पर’ शीर्षक से उनके संस्मरण संकलित और प्रकाशित हैं. इसके साथ ही  ‘नेपाली क्रांतिकथा’शीर्षक से उनका रिपोर्ताज भी है. साहित्य के लिए उन्हें पद्मश्रीसे सम्मानित किया जा चुका है.

इस अवसर पर समालोचन फणीश्वरनाथ रेणु पर कवि विमल कुमारका एक आलेख प्रकाशित कर रहा है तथा इसके साथ ही रेणु द्वारा तैयार ‘मैला आँचल’ का विज्ञापन भी दिया जा रहा है जो ‘प्रकाशन समाचार’ में जनवरी १९५७ में प्रकाशित हुआ था, साथ में धान रोपते हुए उनका यह चित्र भी जिसमें उनके साथ बाबा नागर्जुन हैं.




मैला आँचल का विज्ञापन                      









"‘मैला आँचल’ ? वही उपन्यास जिसमे हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है ? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिन्हों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है ? मद्य-निषेध के दिनों में जिसमे ताड़ी और महुए के रस की इतनी प्रशस्ति गाई गई है कि लेखक जैसे नशे का ही प्रचारक हो. सरकार ऐसी पुस्तकों को प्रचारित ही कैसे होने देती है जी !

वही ‘मैला आँचल’ न जिसमे लेखक ने न जाने लोक गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर जहाँ-तहाँ चस्पा कर दिए हैं ? क्यों जी, इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा?

‘मैला आँचल’ ! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का सहस कर बैठे ! उछालइये साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना ही डुग्गी पीटने का है !

तुमने तो पढ़ा है न ‘मैला आँचल’ ? कहानी बताओगे ? कह सकते हो उसके हीरो का नाम ? कोई घटना-सूत्र ? नहीं न ! कहता ही था. न कहानी है, न कोई चरित्र ही पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर ‘इंकिलास ज़िंदाबाग’ जरूर किया गया है. ‘पार्टी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्क’ और ‘जकसैन’ – भोंडे शब्द भरकर हिंदी को भ्रष्ट करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है.

मुझे तो लगता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में या यूँ कहूँ कि हिंदी-साहित्यिकों की आँखों में, ऐसी धुल-झोंकाई इससे पहले कभी नहीं हुई. ‘मैला आँचल’, ‘मैला आँचल’ सुनते-सुनते कान पाक गए. धूल-भरा मैला-सा आँचल ! लेखक ने इस धूल की बात तो स्वयं भूमिका में कबूल कर ली है एक तरह से !! फिर भी …

अरे, हमने तो यहाँ तक सुना है, ‘मैला आँचल’ नकल है किसी बंगला पुस्तक की और बंगला पुस्तक के मूल लेखक जाने किस लाज से कह रहे हैं, ‘नहीं ‘मैला आँचल’ अद्वितीय मौलिक कृति है.’ एक दूसरे समीक्षक ने यह भी कह दिया, जाने कैसे, कि यदि कोई कृतियाँ एक ही पृष्ठभूमि पर लिखी गयी विभिन्न हो सकती है तो ये है !

पत्थर पड़े हैं उन कुन्द जेहन आलोचकों के और तारीफ़ के पुल बंधने वालों के जो इसे ग्रेट नावल कह रहे हैं. ग्रेट नावल की तो एक ही परख हमे मालूम है, उसका अनुवाद कर देखिये ! कीजिये तो ‘मैला आँचल’ का अनुवाद अंग्रेजी में, फिर देखिये उसका थोथापन !

अरे भाई, उस मूरख, गंवार लेखक ने न केवल समीक्षाकों को ही भरमाया है, पाठकों पर भी लद बैठा है. देखते-देखते, सुनते हैं, समूचा एडिशन ही बिक गया – न्यूज़प्रिंट के सस्ता कागज़ पर छपा. एक कॉपी भी नहीं मिलती कई महीनों से ! "

(‘प्रकाशन समाचार’ जनवरी 1957 में प्रकाशित यह विज्ञापन स्वयं फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने तैयार किया था)


हिंदी का हिरामन                           
विमल कुमार   








सके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे. उसे स्कूल में परीक्षा में पूछा गया कि तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो तो उसने लिखा- मैं बड़ा होकर  सिमराहा का स्टेशन मास्टर बनना चाहता हूँ लेकिन वह बड़ा होकर वकील डॉक्टर या स्टेशन मास्टर नहीं बना बल्कि वह शब्द शिल्पी बन गया. आज़ादी की लड़ाई में  जेल में  टैगोर, प्रेमचंद और अज्ञेय  की किताबों ने उसके भीतर इस तरह की रचनात्मक ऊर्जा भरी,प्रतिसंसार रचा कि उन किताबों ने उसे  हिंदी का अंतरराष्ट्रीय स्तर का अमर कथाकार बना दिया.

4 मार्च को 1921 में बिहार के पूर्णिया के औराही हिंगना के शिलानाथ मंडल का पुत्र  गांव में   "फुलेसर"के नाम से जाना जाता था जो दादी के प्यार के नाम से "रेनुवा"हो गया. वह बाद में  हिंदी का अमर शब्द शिल्पी फणीश्वर नाथ "रेणु"बन गया. अपने दो भाइयों की मृत्यु के  साक्षी फुलेश्वर ने कभी नही सोचा होगा कि एक दिन उसकी रचनाओं के देश विदेश में अनुवाद होंगे उन पर फ़िल्म बनेगी, नाटक होंगे और वह प्रेमचंद के बाद दूसरा लोकप्रिय कथाकार बन जायेगा.

वह आज़ादी,लोकतंत्र प्रेम और सौंदर्य तथा न्याय का एक बड़ा प्रतीक बन जायेगा. उसकी रूमानियत, उसका यथार्थबोध,उसकी संवेदना, उसकी भाषा और उसका शिल्प पाठकों पर  इतना  असर डालेंगे कि एक आम आदमी से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती और निर्मल वर्मा जैसे शिल्पकार  भी उसके मुरीद बन जाएंगे. उसकी जन्मशती मनाने के लिए अभी से ही  देश भर के लेखकों में उत्साह दीख रहा है. गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशान्त राष्ट्रीय स्तर पर रेणु जन्म शती समरोह समिति गठित कर रहे हैं.

4 मार्च को रेणु के गांव में हिंदी के लेखक रेणु के पात्रों के साथ संवाद करेंगे. रेणु रचनावली के सम्पादक एवम् रेणु साहित्य के अध्येता भारत यायावर 4 मार्च को  उन पर एक किताब भी प्रकाशित कर रहें हैं.

देश की राजधानी में पटना आकाशवाणी में रेणुजी के सहयोगी लोग उनपर संस्मरण सुनाकर उन्हें याद करेंगे. लेकिन दिलचस्प बात यह  कि यह पहला अवसर होगा जब किसी लेखक के पात्रों से लेखक गण उनके गांव में संवाद करेंगे. इस से पता चलता है कि रेणुजी को लोग कितना प्यार करते है. कुछ साल पूर्व कादम्बिनी पत्रिका में एक परिचर्चा में अधिकतर लेखकों ने प्रेमचंद के बाद दूसरा महत्वपूर्ण लेखक रेणु जी को ही माना था.                     

दरअसल रेणु के भीतर की चिंगारी ने उन्हें विद्रोही बना दिया था, वह क्रांतिदूत था. यही कारण कि बचपन में ही वानर सेना में शामिल होकर स्कूल में ही क्रांतिकारी भूमिका में आ गया और बड़ा होकर वह शख्स आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ा.1936 में प्रेमचंद के निधन के बाद उस शख्स  ने  उनपर एक कविता लिखी और वह उसके लिए पुरस्कृत भी  हुआ. इस तरह वह शख्स कविता से कहानी, रिपोर्ताज़ और उपन्यास लेखन में आया लेकिन मरने से पहले इमरजेंसी पर अपनी अंतिम कविता लिखी जो इस बात का प्रतीक है कि अस्पताल के बिस्तर पर कराहते हुए भी वह आपातकाल का विरोध करते हुए आज़ादी के लिए लड़ रहा था.

जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि वह जमानत लेकर बाहर आ जाये पर उस शख्स में इतना स्वाभिमान था और उसके ऐसे आदर्श थे कि वह अपने मूल्यों से समझौता नहीं कर सकता था. उसने जे पी की इस सलाह को नहीं माना  और जेल से  बाहर नहीं आया. जब वह बीमार पड़ा तो जे पी ने फिर उस शख्स से अनुरोध किया कि वह अपना इलाज जसलोक अस्पताल में करा लें लेकिन उसने साथी मरीजों को छोड़कर जाना पसंद नहीं किया. आज रेणु की तरह कितने लेखक होंगे जो इतना बड़ा त्याग करना जानते हों. उस शख्स ने  पद्म श्री ही नहीं बल्कि तीन सौ रुपये की पेंशन भी ठुकरा दी. लेकिन उसी रेणु का आज़ादी के बाद की सरकार से मोहभंग हो गया था. निराला का भी नेहरू युग से मोहभंग हो गया था. मुक्तिबोध को भी मोहभंग हुआ था.  

74 तक आते आते यह मोहभंग इतना गहरा हो गया कि उन्हें दिनमान में  लिखना पड़ा-                         
"मैंने आज़ादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी. अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता हूँ कि यह कब खत्म हो. अपने सपनों को साकार करने के लिए जन संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ."

ये पंक्तियां 23 अप्रैल 1974 को रेणु जी ने ‘दिनमान’ में लिखी थी जो अपने समय की अंतिम वैचारिक पत्रिका थी. जिन लोगों ने उस जमाने मे दिनमान के अंक देखे होंगे रेणु जी के रिपोर्ताज़ उन्हें आज भी याद होंगे. रेणु की यह पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थीं क्योंकि  आज के हालात बदले नहीं हैं बल्कि और बदतर ही हुए हैं और बदलाव का सपना देखने वाला हर नागरिक आज रेणु की तरह ही सोचता है. वह खिन्न और उद्विग्न है. रेणु ने तब के भारत की हालत से खिन्न होकर ये पंक्तियां लिखी थी जहां अन्याय और भ्रष्टाचार चरम पर था लेकिन 45 साल बाद स्थितियाँ जस की तस हैं  बल्कि अन्याय और दमन बढ़ा है,तथा  भ्रष्टाचार भी संस्थागत हुआ है. सांप्रदायिकता की आग और फासीवादी प्रवृ तियों की चपेट में पूरा मुल्क आ गया है. आज़ादी की लड़ाई में भाग लेनेवालों की पीढी अब लगभग खत्म हो गई है जिसने  रेणु की  तरह ब्रिटिश शासन का अत्याचार देखा था और वे उस अत्याचार के भुक्तभोगी थे. रेणु ने तब भ्रष्टाचार और तानाशाही को खत्म करने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ 74 के आंदोलन में भाग लिया था. आज  उस  आंदोलन में भाग लेने वाले लोग  सत्ता में हैं.

केंद्र में भी और बिहार में भी. रेणु आज जीवित होते तो उनका भी जे पी की तरह मोहभंग हो गया होता लेकिन वे  फिर अन्याय दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ते और लिखते.  दरअसल उनका सम्पूर्ण जीवन और लेखन अन्याय असमानता, गैर बराबरी अत्याचार और तानाशाही के विरोध में है और लोकतंत्र तथा आज़ादी के पक्ष में खड़ा  है. यही कारण है कि उन्होंने  बचपन में ही आज़ादी की लड़ाई में स्कूल में  बागी भूमिका निभाई, 42 के आंदोलन में भाग लिया, जेल गए और आज़ादी के बाद 50 में नेपाल की सशत्र क्रांति में भाग लिया.

भूमिगत रेडियो शुरू करने के अलावा उन्होंने बंदूकेंभी चलाईं. बाद में किसानों की लड़ाई लड़ते हुए वे  जेल गए और अंत में आपातकाल के विरोध में गिरफ्तार हुए. इस तरह देखा जाए तो रेणु का व्यक्तित्व गणेश शंकर विद्यार्थीमाखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, राहुल सांकृत्यायन और रामबृक्ष बेनीपुरी की परंपरा से मेल खाता है  जो  स्वतंत्रता के लिए जेल जाता है. उनका कृतित्व  प्रेमचंद की परंपरा की अगली कड़ी है जिसमे हिंदुस्तान का गांव तो है ही लेकिन उसका एक लोकमानस भी है. लोक का सौंदर्य भी है. उसकी चेतना भी. उसका राग विराग भी. इस अर्थ में वह प्रेमचंद की परंपरा में रहते हुए उनसे थोड़े भिन्न है. वह शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी की परंपरा के अधिक  निकट हैं शिवपूजन बाबू की 1926 में प्रकाशित उपन्यास  "देहाती दुनिया"की आंचलिकता को रेणु ने एक नया रूप दिया तो बेनीपुरी की "माटी की मूरतें"की तरह अपने पात्र गढ़े.

1954 में  प्रकाशित "मैला आँचल"ने उन्हें बाद में  आपार ख्याति दिलाई जबकि वह उसे छपवाने के लिए पहले पटना के प्रकाशकों के चक्कर लगाते रहे और जब किसी ने नही छापा तो उन्हें अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर खुद छापना पड़ा. नलिन विलोचन शर्मा की उस उपन्यास पर टॉक ने रेणु को लाइमलाइट में ला दिया. उस उपन्यास  को गोदान के बाद हिंदी का सर्वश्रेष्ठ  उपन्यास माना गया.   
  
रेणु जी का यह उपन्यास  एक साल तक गोदाम में  पड़ा रहा लेकिन नलिन जी की समीक्षा ने इसकी संजीवनी का काम किया और बाद में राजकमल प्रकाशन ने उसे दोबारा छापा. इस उपन्यास के प्रकाशन  पर बैंड बाजे के साथ  पटना साइंस कॉलेज से रेलवे स्टेशन तक एक जुलूस निकाला  गया जिसमे रेणु जी को हाथी पर बिठाया गया था, यह हिंदी साहित्य  की अभूतपूर्व घटना है. बाद में यह सौभाग्य किसी लेखक  को प्राप्त नही  हुआ.

तब सोशल मीडिया नहीं था. न टेलीविजन. फेस्टिवल और बेस्ट सेलर की भी  परंपरा नही थी. "गोदान""रागदरबारी"और "गुनाहों के देवता” की तरह यह किताब भी बेस्ट सेलर बनी. इस पुस्तक के अंग्रेजी,  रूसी, जापानी भाषा में अनुवाद हुए. आखिर मैला आँचल की क्या कथा थी जो पाठकों को पसंद आई. क्या वह सिर्फ आंचलिक कथा थी ? दरअसल  रेणु ने आज़ादी की जो लड़ाई लड़ी थी जो सपने देखे थे वे उन्हें बाद में टूटते नजर आए थे. गांधी जी के भी सपने टूटे थे.

शैलेन्द्र ने भी 1948 में ही ऐसी कविताएँ लिखी जिनमें आज़ादी को व्यर्थ  पाया. जयप्रकाश नारायण भी भूदान से होते हुए 74 के आंदोलन तक इसी आज़ादी को पाने के लिए तयारी करते रहे. रेणु भी 42 की क्रांति में जे पी के ही अनुयायी थे और 74 के आंदोलन में उनके साथ हो लिए. रेणु जी ने एक बार विधनसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और हार  गए. उनके समाजवादी  गुरु बेनीपुरी जी भी एक बार चुनाव हार गए थे. रेणु जी को सत्ता का आकर्षण होता तो किसी राजनीतिक दल से टिकट लेने का प्रयास करते या विधान पार्षद बनने का जुगाड़ करते जैसा बिहार में अनेक समाजवादियों ने किया. 

हिंदी में नागर्जुन के विद्रोही और क्रांतिकारी छवि की चर्चा हुई है लेकिन रेणु को मृदुल स्वभाव का लेखक माना गया. निर्मल वर्मा ने उन्हें संत स्वभाव का लेखक माना है. रेणु ऊपर से भले ही संत थे भीतर से विद्रोही भी थे लेकिन वे कुछ कहते नहीं थे. उनमें एक गज़ब किस्म की ईमानदारी थे और एक ऐसी संवेदनशीलता जो आज खोजने पर कम मिलती है. वे अपने जीवन मे भी तीसरी कसम के हीरामन ही नहीं बल्कि  मृदंगिया और सिरचन भी थे जो उनकी कहानियों के यादगार पात्र हैं. रेणु प्रेम  और सौंदर्य के भी उपासक हैं. उनकी कहानियों में निश्छल प्रेम समर्पण और गहरा लगाव तथा ईमानदारी सब जगह व्याप्त है. रेणु की प्रासंगिकता बस इतनी भर नही है. वह कोई पेशेवर पत्रकार नही थे लेकिन उनके रिपोर्ताज़ उनके भीतर छिपे एक पत्रकार की भी शिनाख्त करते हैं.

उन्होंने हिंदी  में रिपोर्ताज़ विधा कोजन्म दिया. 1944 में विश्वमित्र में उनका पहला रिपोर्ताज़ छापा था जिसे उस अखबार के सम्पादक ने लेख समझकर छापा था. रेणु के रिपोर्ताज़ इतने लोकप्रिय हुए की अज्ञेय और रघुवीर सहाय ने दिनमान में रेणु की रिपोर्ट को छाप था. वे सृजनात्मक किस्म के रिपोर्ट थे इसलिए रिपोर्ताज़ नाम से लोकप्रिय हुए और एक नई विधा बनी. इसमें भी किसान, गरीबों का दर्द तथा बाढ़ की विभीषिका का दर्द छिपा था. कोसी नदी उनके लेखन के केंद्र में रही. परती परिकथा के बारे में एक रेडियो टॉक में उन्होंने कोशी नदी से अपने रिश्तों का जिक्र किया है. इस तरह रेणु का सम्पूर्ण जीवन और लेखन मनुष्यता संवेदनशीलता और प्रेम को बचाने के साथ हर नागरिक को अन्याय के खिलाफ खड़ा होने का एक सन्देश देता है जिसकी आज बेहद जरूरत है.

रेणु की जन्मशती के मौके पर हिंदी के इस हिरामन को याद करना हमारा  पुनीत कर्तव्य  है. यह हिरामन आज भी गांधीवादी, कलावादी, समाजवादी, जनवादी ताकतों के बीच लोकप्रिय है. वह हीरामन कहता है- सजन रे झूठ मत बोलो खुद के पास जाना है, इस तरह फुलेसर  उर्फ रेनुवां  जीवन भर अपनी रचना में सत्य के लिए लड़ता है. 

हिंदी के प्रसिद्ध कवि भगवत रावत "सुनो हिरामन"नाम से एक लंबी कविता लिखते हैं. किसी लेखक के पात्र पर हिंदी में यह पहली कविता है. इससे पता चलता है कि रेणुजी के पात्रों ने भी लेखकों को इतना प्रभावित किया था कि उनपर कविताएँ लिखी गईं.
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विमल कुमार 
मोब.9968400416.                               

स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

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कुछ कवि कविता में रहते-रहते खुद कविता की तरह लगने लगते हैं जैसे निराला, शमशेर, जैसे मुक्तिबोध जैसे आलोकधन्वा.
स्वप्निल श्रीवास्तव को मैं जब देखता हूँ. वे मुझे उन्हीं की किसी कविता की कोई पंक्ति लगते हैं. निस्पृह, कुछ धूसर उदास. अब इसी तस्वीर में उनके पीछे बुद्ध का महापरिनिर्वाण है और खुद उनके चेहरे पर बुद्ध. यह वह जगह जहाँ की मिट्टी से मैं ख़ुद बना हूँ.

आइये उनकी कुछ नई कविताएँ पढ़ें.     




स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ                        



विनम्रता

प्रभु जी, इस विनम्रता का क्या करूं
इस बर्बर संसार में इसका कोई मूल्य नहीं
उलटे ही जी का जंजाल बना हुई हैं
मैं जिस सभा में जाता हूं
इसे उतार कर रखना पड़ता है
लोग कहते हैं कि तुम कुछ बनना
चाहते हो तो इस विनम्रता से पिंड छुडा लो
थोड़ा घाघ बन जाओ

मैं मनुष्य होना चाहता हूं
और वे मुझे मनुष्यहीन बनाना चाहते हैं
इस आदमखोर समय में लोग एक दूसरे को
भक्ष रहे हैं
क्या हम किसी जंगल में आ गये हैं ?




झूठा आदमी

झूठा आदमी इतने यकीन के साथ झूठ बोलता है
कि हम उसे सच समझने की गलती करने
लग जाते हैं
वह हमारी बुद्धि हर लेता है
और हमें अपने अनुकूल बना लेता है

झूठा आदमी एक जादूगर की तरह
चमत्कार दिखाता है
हम कागज के शेर को असली शेर
समझने लगते हैं

फर्जी होते हैं उसकी खुशहाली के आंकड़े
लेकिन उसके बोलने के अंदाज से फरेब में
आ जाते हैं

झूठा आदमी झूठ का बना हुआ
एक मुजस्समा  है और वह आग से
दूर रहता है

अगर उसके लिये आग बनने की कोशिश
करे तो वह बेनकाब हो सकता है

आग कहीं और नहीं राख के भीतर है
बस हवाओं को थोड़ी तकलीफ उठानी
पड़ेगी.




खरीदारी

सुई की भी खरीदारी करनी होती थी
तो वह मेरे साथ बाजार जाती थी
क्योंकि मैं उसका धागा था
मेरे बिना उसका काम नहीं चलता था

मैंने उसे कपास के खेत दिखाये
और कहा कि वे फूल हैं जो कभी नहीं
मुरझाते
उसने कपास की बत्ती बना कर जिंदगी के
अंधेरे कोनों को रोशन किया
लेकिन उसकी रोशनी में मेरे चेहरे की जगह
किसी दूसरे की सूरत थी

मुझसे ज्यादा कपास के फूलों को
तकलीफ हुई
उसने उन्हें मेरे बटन होल से निकाल कर
किसी गैर के बटन होल में सजा दिये
वहां वे मेरे विरूद्ध खिलखिला रहे थे.




गदह-राग

गधों को आप लाख शास्त्रीय संगीत सुनायें
उन्हें गदह राग ही पसंद आता है
वे इस मामले में बजिद्द हैं

वे एक दूसरे को देख कर खुशी में
रेकते हैं
उत्साह में अपनी दुलत्ती झाड़ते हैं

वे अपने मनोभाव को छिपाते नही हैं
आत्मीयता के साथ प्रकट करते हैं

उनकी देहगाथा सार्वजनिक होती है
जिन्हें देख कर हम प्राय: उन्हें
जलील करते रहते हैं

मनुष्य एक छिपा हुआ पशु है
वह ऐसा नहीं है, जैसा वह दिखाई
देता है
कभी कभी उसका काईयापन बुरी से बुरी
आदतों को मात कर देता है

गधों को आप काहिल और मूर्ख
कह कर मजाक उड़ा सकते हैं
उसे अपमानित करने के लिये कोई
मुहावरा गढ़ सकते है
लेकिन आप ठीक से सोचे तो पायेंगे
कि आदमी गधों से बड़ा गधा है
वह बुद्धिमान होने का ढोंग करता
रहता है

गधे न हो हमारे मैले–कुचैले कपड़े
घाट तक न पहुंच पायें
वे हमारे कपड़े नहीं हमारा अज्ञान भी
धोते हैं

इसलिये गधों के बारे में अपनी परम्परागत
सोच बदले और उसे नयी नजर से देखने की
कोशिश करें.



रहनुमा

वे हमारे लिये भूख का इलाज नहीं
मजहबी किताबें लेकर आये थे
और कहा था कि मजहब और खुदा
तुम्हारे सारे दुख दूर कर देंगे

धीरे – धीरे टिड्डी दल की तरह
हमारे इलाके में फैल गये
उन्होंने हमारे खेत नहीं हमारे
दिमाग को ढँक लिया था

हम अनाज बोने की तरकीब भूल कर
खेत में मजहब उगाने लगे

यह समझ हमें बहुत दिनों बाद
आयी कि जिन लोगों ने हमे लूटा था
वे हमारे ही रहनुमा थे.




अंगरक्षक

अंगरक्षक निरापद नहीं रह गये हैं
वे उन्हीं को मारते है जिनके हिफाजत
के लिये उन्होंने हलफ उठाई है
वे दुश्मनों के हाथ बिक जाते हैं
उनके लिये मुखबिरी करते हैं

किस पर यकीन किया जाय, सारे मंजर
शको - शुबहों से भरे हुये हैं

अंगरक्षक बहुत दिनों तक महफूज
नहीं रहते – उन्हें भी गोली का निशाना
बना दिया जाता है
उनकी लाश गटर में तैरती हुई
पायी जाती है

इतिहास पर बहुत से खून के धब्बे हैं
इनकी शिनाख्त कौन करेगा
तारीखसाज संदेह से परे नहीं है
उनके कलम में निजाम के दौलत खाने की
स्याही भरी हुई है



पत्थर की इमारत

इस खूबसूरत मकान में समृद्धि की तमाम
चींजें थी
पोर्टिको में चमचमाती हुई गाड़ी
ड्राइंगरूम में कीमती फर्नीचर और मौसम को
नियंत्रित करनेवाले आधुनिक उपकरण थे

हमारी अगवानी में पगड़ी बांधे
ताबेदार थे
कुछ स्त्रियां थी जो शाम होते अपने
जलवे बिखेरने को बेताब थी
लेकिन मकान के शेल्फ में कोई किताब
नहीं थी
मकान में परिंदों के लिये नही
छोड़ी गयी थी कोई जगह

कहीं से नहीं दिखाई देता था आसमान
कि रात होते सितारों से खेली जा सके
आंखमिचौनी

यहां मेरे पसंद की कोई चीज मौजूद
नहीं थी

मैंने अपने आप से चुपके से कहा कि
अब मुझे इस पत्थर की इमारत से
विदा हो जाना चाहिये.



साथी

किसी ने बुरे वक्त में मेरा साथ दिया हो
यह बात मुझे याद नहीं है
लेकिन दुख ने मेरा हमेशा साथ
दिया है

हां कभी कभी उससे कहता था कि
वह रस – परिवर्तन के लिये कभी
सुखी लोगो का घर गुलजार कर
दिया करे – क्योंकि वे अपने सुख से
तबाह हो चुके हैं

वह कहता कि तुम्हारे सिवा मुझे
कोई पसंद नहीं करता
वे मेरी परछाई से दूर रहना
चाहते हैं
मुझे देखते ही बंद कर लेते हैं
अपना अपना दरवाजा
अब मैं तुमको छोड़ कर
कहां जाऊंगा

इतना तो कोई अपने सुख पर
भरोसा नही करता – जितना मै अपने
दुख पर करता हूं.
_________________

स्वप्निल श्रीवास्तव
510 - अवधपुरी कालोनी - अमानीगंज
फैज़ाबाद - 224001
मोबाइल फोन - 09415332326

मैत्री : तेजी ग्रोवर


बाहर कुछ जल रहा है : लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ : अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

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हंगरी के लेखक लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ (Laszlo Krasznahorkai, जन्म : १९५४) के छह उपन्यास प्रकाशित हैं और उन्हें इनके लिए कई राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं जिसमें ‘ManInternational Booker Prize’ भी शामिल है. इस कहानी (Something Is Burning Outside) का हंगेरियन से अंग्रेजी अनुवाद Ottilie Mulzet’ ने किया है जिससे यह  हिंदी अनुवाद संभव हुआ है.  

इसका हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.


बाहर कुछ जल रहा है                                            
लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय





ज्वालामुखी के गह्वर में स्थित संत ऐन्ना झील एक मृत झील है. यह झील 950मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और लगभग हैरान कर देने वाली गोलाई में मौजूद है. यह झील बरसात के पानी से भरी हुई है. इसमें जीवित रहने वाली एकमात्र मछली ‘कैटफ़िशप्रजाति की है. जब भालू देवदार के जंगल में से चहलक़दमी करते हुए यहाँ पानी पीने के लिए आते हैं तो वे इंसान के यहाँ आने वाले रास्ते से अलग दूसरे ही रास्ते चुनते हैं. दूसरी ओर एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ कम ही लोग जाते हैं. यह एक धँसने वाला, सपाट, दलदली इलाक़ा है. आज लकड़ी के तख़्तों से बना एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता इस दलदली इलाक़े के बीच में से होकर गुज़रता है. इस झील का नाम काईदार झील है. जहाँ तक पानी की बात है, अफ़वाह यह है कि यहाँ का पानी बेहद ठंड में भी नहीं जमता है. बीच में यह पानी हमेशा गरम रहता है. यह झील लगभग हज़ार सालों से मृत है और यही हाल इस झील के पानी का है. अधिकतर यहाँ एक गहरा सन्नाटा ज़मीन की छाती पर बोझ बनकर मँडराता रहता है.


आयोजकों में से एक ने पहले दिन आने वाले अतिथियों को जगह दिखाते हुए कहा कि यह चिंतन-मनन और घूमने-फिरने के लिए आदर्श स्थान है. इस बात को सबने याद रखा. उनका शिविर सबसे ऊँचे पहाड़ के पास ही था जिसके शिखर का नाम ‘हज़ार मीटर की चोटीथा. इसलिए चोटी के नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक दोनों दिशाओं में लोगों का आना-जाना लगा रहा. हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं था कि नीचे शिविर में उसी समय ज़बरदस्त गतिविधियाँ नहीं हो रही थीं. हमेशा की तरह समय बीतता जा रहा था. इस जगह की कल्पना करके सोचे गए रचनात्मक विचार और भी ज़बरदस्त तरीक़े से आकार और अंतिम रूप ले रहे थे. तब तक सभी अतिथि अपनी-अपनी नियत जगहों पर स्थापित हो चुके थे. ज़रूरत की कुछ चीज़ें उन्होंने अपने हाथों से लगा ली थीं. अधिकांश ने मुख्य भवन के निजी कक्ष को प्राप्त कर लिया था. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने काफ़ी समय से इस्तेमाल में न आई झोंपड़ियों में रहना स्वीकार किया था. आगंतुकों में से तीन लोग ऐसे थे जिन्होंने शिविर के केन्द्र-बिंदु वाले भवन की बहुत बड़ी अटारी पर क़ब्ज़ा कर लिया.


यहाँ भी तीनों ने अपने लिए अलग-अलग जगहें निर्धारित कर लीं. यह चीज़ सभी को बेहद ज़रूरी लग रही थी. वे काम करते हुए भी अपनी निजता में अकेले रहना चाहते थे. सभी को शांति चाहिए थी. वे उत्तेजना और अशांति से दूर रहना चाहते थे. इस तरह वे सभी अपने-अपने काम में जुट गए और इसी तरह काम करने में दिन बीतने लगे. ख़ाली समय में बाहर चहलक़दमी की जाती, झील में सुखद डुबकी लगाई जाती और शाम के समय शिविर के किनारे आग जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठकर गाने गाए जाते. साथ ही घर की बनी फलोंवाली ब्रांडी पीने का लुत्फ़ उठाया जाता.

इस वृत्तान्त का अनुमान लगाना भ्रामक था. जो तथ्य धीरे-धीरे किंतु वास्तविक रूप से उभर कर सामने आए, उनसे तो यही लगा. काम के पहले दिन सबसे तीक्ष्ण दृष्टि वालों का भी यही विचार था. लेकिन तीसरा दिन होते-होते इस बात पर आम राय बन गई. उन बारह लोगों में से एक बाक़ी सबसे अलग था. उसका वहाँ आना भी बेहद रहस्यमय था. कम-से-कम उसका वहाँ आना बाक़ियों से तो बिल्कुल अलग था. वह वहाँ रेलगाड़ी और फिर बस से नहीं आया था. यह चाहे कितना भी अकल्पनीय लग रहा था, अपने आने के दिन शायद शाम छह या साढ़े छह बजे वह शिविर का मुख्य द्वार खोल कर सीधा अंदर आ गया था. उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह वहाँ पैदल चलकर ही पहुँचा हो. दूसरों को देखकर उसने केवल रूखाई से अपना सिर हिला दिया था. जब आयोजकों ने विनम्रतापूर्वक और सम्मान से उसका नाम पूछा, और फिर वे उससे यह पूछने लगे कि वह यहाँ तक कैसे पहुँचा था, तो उसने उत्तर दिया कि कोई उसे कार से सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था. लेकिन उस प्रगाढ़ ख़ामोशी में किसी ने भी वहाँ किसी कार की आवाज़ नहीं सुनी थी जो उसे ‘सड़क के एक मोड़ तक’ छोड़ जाती. 


यह पूरा विचार ही अविश्वसनीय लग रहा था कि कोई उसे पूरे रास्ते नहीं बल्कि केवल सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था. इसलिए, किसी को भी उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था. या यदि और सटीक ढंग  से कहें तो किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि उसके शब्दों की व्याख्या कैसे की जाए. अत: उसके आने के पहले दिन एकमात्र सम्भव और विवेकपूर्ण वैकल्पिक राय यही लग रही थी कि वह पूरा रास्ता पैदल चलकर आया था. हालाँकि यह राय भी अपने-आप में असंगत लग रही थी. क्या उसने बुख़ारेस्त से अपनी यात्रा इसी प्रकार शुरू की होगी और यहाँ के लिए ऐसे ही निकल पड़ा होगा ? और क्या बिना किसी रेलगाड़ी या बस पर चढ़े वह केवल पैदल चलता हुआ यहाँ तक पहुँच गया था ? फिर तो कौन जानता है , वह कितने हफ़्तों तक पैदल चला होगा.


क्या संत ऐन्ना झील तक की लम्बी यात्रा इसी प्रकार समाप्त करके वह एक शाम छह या साढ़े छह बजे शिविर का मुख्य द्वार खोलकर सीधा वहाँ पहुँच गया था ? जब उससे यह प्रश्न किया गया कि क्या आयोजन-समिति श्री इयोन ग्रिगोरेस्क्यू को सम्मानित कर रही थी, तो उसने उत्तर में केवल रुखाई से अपना सिर हिला दिया.


यदि उसके वृत्तांत की विश्वसनीयता का अनुमान उसके जूतों की हालत से लगाया जाता तो फिर किसी के मन में कोई संदेह नहीं रह जाता. शायद शुरू में वे जूते भूरे रंग के थे. वे गर्मियों में पहने जाने वाले नक़ली चमड़े के हल्के जूते थे. जूतों की अंगूठे वाली जगह पर सजावट की गई थी , लेकिन अब वह सजावट उखड़ कर एक ओर लटकी हुई थी. दोनों जूतों के तल्ले आधे उखड़े हुए थे. जूतों की एड़ियाँ पूरी तरह घिस चुकी थीं और दाएँ अंगूठे के पास एक जूते के चमड़े में छेद हो गया था जिसके कारण भीतर पहनी हुई जुराब वहाँ से नज़र आ रही थी. लेकिन यह केवल उसके जूतों की ही बात नहीं थी. अंत तक इस सब को एक रहस्य बने रहना था. कुछ भी हो , उसके कपड़े दूसरों द्वारा पहने गए पश्चिमी परिधानों से अलग दिखाई दे रहे थे. 


ऐसा लगता था जैसे वह 1980के दशक के दुर्दांत तानाशाह के युग से, उस समय की दुर्दशा के काल से सीधे वर्तमान युग में आ पहुँचा कोई पात्र हो. उसकी अज्ञात रंग की चौड़ी पतलून फ़लालेन जैसे किसी मोटे कपड़े से बनी हुई प्रतीत हो रही थी. वह पतलून उसके टखनों पर स्पष्टता से फड़फड़ा रही थी. किंतु उसने जो कार्डिगन पहन रखा था, वह देखने में और ज़्यादा कष्टकर लग रहा था. वह दलदली-हरे रंग का बेहद ढीला , निराश कर देने वाला कार्डिगन था. उसने उसे चौकोर खाने वाली क़मीज़ के ऊपर पहन रखा था और इस मौसम की गर्मी के बावजूद उसकी क़मीज़ के ठोड़ी तक के सभी ऊपरी बटन बंद थे.


वह किसी जल-पक्षी की तरह पतला-दुबला था और उसके कंधे झुके हुए थे. उसके डरावने, मरियल चेहरे पर दो गहरी भूरी जलती हुई आँखें मौजूद थीं. वे वाक़ई जलती हुई आँखें थीं — किसी अंदरूनी आग से जलती हुई आँखें नहीं, बल्कि केवल प्रतिबिम्बित करती हुईं, जैसे वे दो स्थिर आईने हों जो यह बता रहे हों कि बाहर कुछ जल रहा है.


तीसरा दिन होते-होते वे सभी समझ गए थे कि यह शिविर उसके लिए शिविर नहीं था. यहाँ होने वाला काम उसके लिए काम नहीं था. यह ग्रीष्म ऋतु उसके लिए ग्रीष्म ऋतु नहीं थी. तैरना या अन्य कोई आरामदायक छुट्टी मनाने का उपक्रम, जो आम तौर पर ऐसे सामूहिक आयोजनों का हिस्सा होता है, उसके लिए नहीं था. उसने आयोजकों से अपने लिए एक जोड़ी जूतों की माँग की और वे उसे मिल गए. (उन्होंने उसे वे जूते दे दिए जो बाहर अहाते में एक कील से लटके हुए थे.) वह उन जूतों को पूरा दिन पहनकर शिविर के इलाक़े के भीतर ही ऊपर-नीचे टहलता रहता. वह न तो पहाड़ी पर चढ़ता-उतरता, न ही झील के किनारे टहलने के लिए जाता. वह दलदली झील पर बने तख़्तों के मार्ग पर भी कभी नहीं चलता. वह अपना अधिकांश समय भीतर ही बिताता. कभी-कभी वह इधर-उधर चलता हुआ पाया जाता. ज़्यादातर वह यह देखता रहता कि कौन क्या कर रहा है. वह मुख्य भवन के सभी कमरों के सामने से गुजरता. 


वह अपने चेहरे पर अति व्यस्त भाव लिए चित्रकारों, छाप या मुहर लगाने वालों तथा मूर्तिकारों के पीछे खड़े हो कर यह देखता रहता कि हर काम में प्रतिदिन कितनी प्रगति हो रही है. वह अटारी पर चढ़ जाता तथा छप्पर और लकड़ी की झोंपड़ी में घुस जाता, लेकिन उसने कभी किसी से कोई बात नहीं की. पूछने पर भी उसने शब्दों में कभी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया, गोया वह गूँगा-बहरा हो या वह किसी की कही कोई बात नहीं समझ पा रहा हो. उसका व्यवहार शब्दहीन था. जैसे वह उदासीन, जड़ या मूढ़ हो या कोई भूत-प्रेत हो. और तब बाक़ी के सभी ग्यारह लोग सतर्क होकर उसे देखने लगे, जैसे ग्रिगोरेस्क्यू उन्हें देखता था. वे सभी एक नतीजे पर पहुँचे और उन्होंने उस शाम जलती हुई आग के इर्द-गिर्द इस विषय पर चर्चा की. (ग्रिगोरेस्क्यू वहाँ अन्य साथियों के साथ कभी नहीं देखा गया क्योंकि वह हर शाम जल्दी सोने चला जाता था.) अन्य सभी लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि उसका यहाँ आगमन आश्चर्यजनक था , उसके जूते अजीब थे और उसका कार्डिगन, उसका भीतर धँसा चेहरा, उसका दुबलापन, उसकी आँखें— ये सभी चीज़ेँ विचित्र थीं. लेकिन उन्होंने पाया कि उसकी एक चीज़ सबसे विशिष्ट थी, जिसका उन्होंने अभी तक संज्ञान भी नहीं लिया था. वह चीज़ वाक़ई आश्चर्यजनक थी. दरअसल यहाँ मौजूद यह प्रख्यात सर्जनात्मक आकृति, जो सदा सक्रिय रहती थी, पूरी तरह से कार्यहीन और ख़ाली थी जबकि बाक़ी सभी लोग काम-काज में व्यस्त थे.


वह ख़ाली था. यानी कुछ भी नहीं कर रहा था. यह बात समझ में आने पर वे सब हैरान रह गए. लेकिन वे ज़्यादा हैरान इस बात पर हुए कि उन्होंने शिविर के शुरुआती दिनों में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था. यदि गिना जाए तो आज आठवाँ दिन चल रहा था. आगंतुकों में से कुछ तो अपनी कला को अंतिम रूप दे रहे थे, किंतु उस अजनबी के कुछ न करने के इस अजीब तथ्य की ओर उन सब ने अब जाकर ध्यान दिया था.

वह वास्तव में कर क्या रहा था ?
कुछ नहीं. कुछ भी नहीं.

उस समय के बाद से वे सभी अनजाने में ही उस पर निगाह रखने लगे. एक बार दसवें दिन उन्होंने पाया कि पौ फटने के बाद से सुबह के पूरे समय काफ़ी अरसे तक ग्रिगोरेस्क्यू कहीं दिखाई नहीं दिया, हालाँकि वह बहुत जल्दी उठ जाता था. अधिकांश लोग तब सोते रहते थे. उस समय किसी ने भी उसे कहीं जाते हुए नहीं देखा. वह झोंपड़ी के पास नहीं था, छप्पर के निकट नहीं था, न भीतर था, न बाहर था. दरअसल इस बीच वह किसी को भी दिखाई नहीं दिया था , गोया वह कुछ समय के लिए ग़ायब हो गया हो.


बारहवें दिन के अंत में कुछ लोगों ने उत्सुकता से भर कर अगली सुबह तड़के उठने का फ़ैसला किया ताकि वे इस मामले की जाँच कर सकें. हंगरी के एक चित्रकार ने सब को सुबह जल्दी उठाने की ज़िम्मेदारी सँभाल ली.


अभी भी अँधेरा ही था जब वे सब अगली सुबह सो कर उठे और उन्होंने पाया कि ग्रिगोरेस्क्यू अपने कमरे से नदारद था. वे सब मुख्य द्वार की ओर पहुँचे, वापस लौटे, और झोंपड़ी तथा छप्पर तक गए किंतु कहीं भी उसका नामो-निशान नहीं था. भौंचक्के होकर उन्होंने एक-दूसरे को देखा. झील की ओर से हल्की हवा बह रही थी, पौ फटने लगी थी और धीरे-धीरे सुबह के उजाले में उन्हें एक-दूसरे की आकृतियाँ दिखाई देने लगी थीं. चारों ओर घना सन्नाटा था.


और तब उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी. जहाँ वे खड़े थे, वहाँ से वह आवाज़ बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी. वह दूर कहीं से आ रही थी. शायद शिविर के अंतिम छोर से. या ठीक से कहें तो उस अदृश्य सीमा-रेखा के दूसरी ओर से, जहाँ दो बहिगृह मौजूद थे. वे शिविर की सीमा-रेखा पर स्थित थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उस बिंदु के बाद से भू-भाग किसी खुले आँगन जैसा नहीं दिखता था. अभी प्रकृति ने उस मैदान पर वापस क़ब्ज़ा नहीं किया था, किंतु किसी ने उस भू-भाग में कोई रुचि नहीं दिखाई थी. असल में वह एक असभ्य, डरावनी जगह थी जहाँ कोई इंसान नहीं आता-जाता था. शिविर के मालिकों ने भी उस भू-भाग पर इतना ही दावा किया था कि वे वहाँ फ़्रिज और रसोई से निकलने वाला कूड़ा-कचरा फेंक दिया करते थे. इसलिए समय के अंतराल के साथ उस पूरे इलाक़े में अभेद्य, हठी, आदमकद झाड़-झंखाड़ उग आए थे. ये बेकार की कँटीली, मोटी, प्रतिकूल वनस्पतियाँ अविनाशी लगती थीं.


उस पार कहीं से, उस झाड़-झंखाड़ में से उन्होंने वह आवाज़ सुनी जो छन कर उनकी ओर आ रही थी.


वे सब हिचक कर ज़्यादा देर तक रुके नहीं रहे बल्कि एक-दूसरे की ओर देख कर वे आगे किए जाने वाले काम में जुट गए. चुपचाप सिर हिला कर वे उस झाड़-झंखाड़ में घुस गए. वे सब उस आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ रहे थे.


वे उस झाड़-झंखाड़ में काफ़ी अंदर तक चले गए थे और अब शिविर की इमारतों से दूर आ गए थे. तब जाकर वे उस आवाज़ के क़रीब पहुँच पाए और यह पता लगा पाए कि शायद वहाँ कोई खुदाई कर रहा था.


वे और आगे बढ़े. अब किसी उपकरण के ज़मीन की मिट्टी से टकराने की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. किसी गड्ढे में से मिट्टी निकाले जाने, और उस मिट्टी के लम्बी घास पर गिर कर फैलने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी.


उन्हें दाईं ओर मुड़कर दस-पंद्रह कदम आगे चलना पड़ा. किंतु वे वहाँ इतनी जल्दी पहुँच गए कि वे सब ढलान से नीचे लगभग गिरने ही वाले थे. उन्होंने देखा कि वे एक विशाल और गहरे गड्ढे के किनारे खड़े थे. वह गड्ढा तीन मीटर चौड़ा और पाँच मीटर लम्बा था. उस गड्ढे के तल पर उन्हें ग्रिगोरेस्क्यू खुदाई करता हुआ नज़र आया. वह गड्ढा इतना गहरा था कि उसका सिर बड़ी मुश्किल से नज़र आ रहा था. अपने काम में व्यस्त होने की वजह से उसने उन सब के आने की आवाज़ नहीं सुनी थी. वे सब उस गहरे गड्ढे के किनारे खड़े होकर वहाँ से नीचे के दृश्य को देखते रहे.


वहाँ नीचे, उस गहरे गड्ढे के बीच में उन्हें मिट्टी से बनाया गया लगभग सजीव लगने वाला एक घोड़ा दिखाई दिया. उस घोड़े का सिर एक ओर ऊँचा उठा हुआ था. उसके दाँत दिख रहे थे और उसके मुँह से झाग निकल रहा था. वह घोड़ा जैसे किसी भयावह शक्ति से डरकर सरपट दौड़ रहा था, जैसे वह कहीं भाग रहा हो. वे सब इस दृश्य को देखने में इतने मग्न हो गए कि उन्होंने इस बात की ओर बहुत बाद में ध्यान दिया कि ग्रिगोरेस्क्यू ने एक बहुत बड़े इलाक़े से झाड़-झंखाड़ काट दिए थे और वहाँ यह गहरा गड्ढा खोद दिया था. गड्ढे के बीच में मौजूद उस मुँह से झाग निकालते, सरपट दौड़ते घोड़े के आस-पास से उसने सारी मिट्टी हटा दी थी. ऐसा लग रहा था जैसे ग्रिगोरेस्क्यू ने उस घोड़े को धरती के गर्भ से खोद निकाला था, उसे मुक्त कर दिया था जिसके कारण वह आदमक़द घोड़ा सबको दिखाई देने लगा था. ऐसा लग रहा था जैसे वह घोड़ा ज़मीन के नीचे मौजूद किसी भयानक चीज़ से डर कर भाग रहा हो. भौंचक्के हो कर वे सब ग्रिगोरेस्क्यू को देखते रहे जो उनकी मौजूदगी से पूरी तरह अनभिज्ञ अपने काम में व्यस्त था.


वह पिछले दस दिनों से यहाँ खुदाई कर रहा है— उस गहरे गड्ढे के बग़ल में खड़े हो कर उन्होंने अपने मन में सोचा. यानी वह पौ फटने के समय से लेकर पूरी सुबह तक इन सारे दिनों में यहाँ खुदाई करता रहा है.


किसी के पैरों के नीचे से मिट्टी फिसल कर नीचे गिरी और तब ग्रिगोरेस्क्यू ने ऊपर देखा. पल भर के लिए वह रुका. फिर उसने अपना सिर झुकाया और वह दोबारा अपने काम में व्यस्त हो गया. सभी कलाकार खुद को असुविधाजनक स्थिति में महसूस करने लगे. उन्हें लगा कि किसी-न-किसी को कुछ कहना चाहिए.

वाह, यह शानदार है," फ़्रांसीसी चित्रकार इयोन ने धीमे स्वर में कहा.


ग्रिगोरेस्क्यू ने दोबारा अपना काम करना बंद किया और वह नीचे लटकी हुई एक सीढ़ी पर चढ़ कर उस गड्ढे में से बाहर निकल आया. उसने अपनी कुदाल में लगी मिट्टी को ज़मीन पर पटक कर झाड़ा और एक रुमाल से अपने माथे का पसीना पोंछा. फिर वह उन सब लोगों की ओर आया और उसने अपनी बाँहों की धीमी, चौड़ी क्रिया के साथ उस पूरे भू-दृश्य की ओर इशारा किया.

इस जैसे यहाँ अब भी बहुत-से मौजूद हैं”, उसने धीमी आवाज में कहा.
फिर उसने अपनी कुदाल उठाई और सीढ़ियों के सहारे वह वापस उस गहरे गड्ढे में उतर गया, जहाँ उसने दोबारा खुदाई आरम्भ कर दी.


शेष सभी कलाकार गड्ढे के बग़ल में ऊपर खड़े हो कर अपने सिर हिलाते रहे. फिर वे सभी चुपचाप शिविर के मुख्य भवन की ओर लौट गए.


अब केवल विदाई शेष रह गई थी. निदेशकों ने एक बड़े भोज का आयोजन किया, और फिर अंतिम शाम भी आ गई. अगली सुबह शिविर के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया गया. एक बस का प्रबंध किया गया था और कार से बुख़ारेस्ट या हंगरी से आए हुए कुछ लोग भी शिविर से विदा हो गए.

ग्रिगोरेस्क्यू ने वे जूते वापस प्रबंधकों को लौटा दिए. उसने दोबारा अपना घिसा हुआ फटा जूता पहन लिया और उसने अपना कुछ समय प्रबंधकों के साथ बिताया. फिर शिविर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव के पास सड़क के मोड़ पर, उसने अचानक चालक को बस रोकने के लिए कहा. उसने जो कहा उसका आशय कुछ-कुछ यह था कि यहाँ से आगे उसका अकेले जाना ही बेहतर होगा. लेकिन दरअसल उसने क्या कहा था, यह किसी को समझ में नहीं आया क्योंकि उसने यह बेहद धीमी आवाज़ में कहा था.

फिर मोड़ मुड़ कर बस आँखों से ओझल हो गई. तब ग्रिगोरेस्क्यू सड़क पार करने के लिए मुड़ा और नीचे उतर रहे सर्पीले रास्ते पर वह अचानक ग़ायब हो गया. अब वहाँ केवल वह भू-भाग मौजूद था जहाँ पहाड़ों की ख़ामोश व्यवस्था थी. उस विशाल भू-भाग में ज़मीन नीचे गिरे हुए मृत पत्तों से ढँकी हुई थी. भू-भाग का वह असीम विस्तार भेस बदलने वाला, छिपाने वाला और सब कुछ गुप्त रखने वाला लग रहा था, जैसे जल रही ज़मीन के नीचे मौजूद हर चीज़ को वह ढँक दे रहा हो.

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कवि, कथाकार, अनुवादक सुशांत सुप्रिय  के अनुवादों के कई संग्रह प्रकाशित हैं.
मोब. 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

मैत्री : तेजी ग्रोवर

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“बहुत सारी कविता सदियों से जगहों के बारे में होती आयी है. पर ऐसी भी कविताएँ हुई हैं जो जगह बनाती है: अपनी जगह रचती है. वह जगह कहीं और नहीं होती न ही जानी-पहचानी जगहों से मिलती-जुलती है. वह सिर्फ़ कविता में होती है. तेजी ग्रोवर के इस नये कविता-संग्रह की कविताएँ मिलकर ऐसी ही जगह गढ़ती हैं. उनकी चित्रमयता, अंतर्ध्वनियां और अनुगूँजें इधर-उधर की होते हुए भी उस जगह का सत्यापन हैं जो कविता से रची गयी है. “दुख”, “अनगढ़ मृत्यु”, “सियाह पत्थर पर शब्द”, “कठपुतली की आँख”, “क्षिप्रा की सतह पर काई”, “हरा झोंका”, “श्वेताम्बरी”, “लौकी-हरा गिरगिट”, “शब्दों की आँच”, “एक बच्चे का सा उठ जाता मन”, “देहरियों पर नाचती हुई ओस की रोशनी”, “सूर्य की जगह कोयले”, “सितारों के बीच अवकाश” आदि मिलकर और अलग-अलग भी उस जगह को रोशन करते हैं जो कविता ही बना सकती है.

इन कविताओं में परिष्कार और परिपक्वता है. भाषा निरलंकार है, चित्रमय लेकिन दिगम्बर. उसमें संयम भी है और अधिक न कहने का संकोच भी. यह ऐसी कविता है जो संगीत की तरह मद्धिम लय में अपना लोक गढ़ती है और आपको धीरे-धीरे घेरती है पर ऐसे कि आप आक्रान्त न हों. वह भी बचे और आप भी बचें. उसकी मैत्री यही है कि वह मुक्त करती है क्योंकि वह मुक्त है. उसकी हिचकिचाती सी विवक्षा उसकी मुक्ति है.

तेजी ग्रोवर की ये कविताएँ आज लिखी जा रही ज़्यादातर हिन्दी कविता से बिलकुल अलग हैं. यह अलगाव उन्हें एक ऐसी आभा देता है जो नाटकीय नहीं शान्त और मन्द्र है, लगभग मौन जैसा. तेजी की कविता आपको चकाचौंध और चीख-पुकार से हल्के से हाथ पकड़कर उधर ले जाती है जहाँ कुछ मौन है, कुछ शब्द हैं और कुछ ऐसी जगह जहाँ आप शायद ही पहले गये हों.“

अशोक वाजपेयी

तेजी ग्रोवर की कविताएँ
One does not know [in Jacobsen’s poetry]
when the verbal weave finishes and when the space begins.
                                                        --- Rilke



कठपुतली की आँख






1.

दूर से कोई देखता है कठपुतली की आँख से
रात में गए हुओं के चिह्न उभरते हैं

एक ही झाड़ी जलकर ख़ाक हुई है
एक ही पतिंगे के पंख झड़े हैं
एक ही पाँव का निशान है पानी के पास

प्यास लगती है
दूर से पता नहीं चलता, टीले के पार तक
किसे

वह अबूझ
पूछ-पूछ कर यात्री के पीछे जाती है




2.

रोशनी हर जगह चहचहाने लगती है
और पक्षी चमकते हैं

जो गए हैं
वे गए हैं अपनी छाया में सोए
वे आँसुओं की तरह सूख कर गए हैं

संकेत में
कोई संकेत भी नहीं है

कठपुतली सो सकती है
सूर्य की हवा में




3.

उनका जाना
कठपुतली की आँख में था

वे इतने रंगीन थे
कि कोई भी हरा सकता था उन्हें
इतने मोहक
कि उनके जाने का कोई पर्याय भी नहीं था
जिसे वे अपनी जगह भेज सकते थे

वे रख सकते थे, वे चाहते, तो अपने नृत्य को
जाने की जगह

वे एक आकार में
ठहर जाते
और अभिनय को तीर की तरह छोड़ देते

उनकी मृदुता
उनका भय
उनकी देह का स्वाँग, उनका प्रेम

कठपुतली की आँख में था




4.

वह देखती है उन्हें
वे देखने देते हैं

वह निहार
उनके अंगों में प्रत्यक्ष है
और दर्पण में नहीं है

बहुत दूर तक कुत्ते एक गन्ध के पीछे घूरते हुए जाते हैं
हल्की-सी हवा में एक तलवार हिलती है
और हवा की एक तितली गिर जाती है

वह देखती हैं उन्हें
वे देखने देते हैं

वह निहार
उनके अंगों में प्रत्यक्ष है
और दर्पण में नहीं है

एक अकुलाहट में वे उठकर पानी पीते हैं

चन्द्रमा
झील से
अक़्स को खींच लेता है




5.

बिम्ब के बिना रचना एक इच्छा थी

और इच्छा
अपने स्वभाव से बिम्ब के पीछे जाती थी

इस तरह
वे आए
और सरसराते हुए घूमने लगे यहाँ से वहाँ

वे धू-धूकर जलने लगे
और जलाने लगे

वे इतने मुखर हो गए
कि शान्त करना उन्हें
एक और रचना में व्यक्त होने लगा

फिर वे इतने शान्त
कि उठाने से भी उठते नहीं थे

फिर भी
दहकती रही अग्नि
सरसराहट
आती रही




6.

वे बिम्ब ही थे
जिनसे और बिम्ब उपजते थे
कुछ और मिट जाते थे
उनसे निकलना
उनकी अति के बाद ही सम्भव होता
उनका तिरस्कार
उन्हें रचने की सामर्थ्य से
रचने की सामर्थ्य को रचते भी बिम्ब थे
मिटाते भी थे

वे करघे
जो सुख
और दुख को रचने
सामने रखे दिखाई देते थे
उन्हीं में
सुख और दुख का वास था

पूरे प्रान्त में
करघों के सिवा कोई बिम्ब नहीं थे

प्राण में
काँप-काँप जाती थीं उँगलियाँ




7.

बारिश होने लगती है
कठपुतली की आँख में
अपने कुल को बचाने
चींटियाँ
दायरों में घूमने लगी हैं

दानों को बगराते हुए
वे पूस उठाते हैं
और खड़ी-खड़ी
बैठ जाती है एक चिता

कठपुतली की आँख में
कठपुतली के रंग उतर आए हैं

साँप की तरह
टकटकी लगाए
कोई एक इन्द्रधनुष-सा
तन जाता है दृश्य में

ग़ौर से देखो
तो कुछ नहीं है
कठपुतली की आँख में




8.

कहानी बुझ गई थी
अलाव से उठने का शउर
किसी में दिखाई नहीं देता था

वे बैठे रहे
अपनी चादरों की गुलकारी को छूते हुए
अपने सोने के दाँतों से मुसकुराते

पौ फट रही थी
कठपुतली की आँख में

सूर्य की जगह
कोयले सुलग रहे थे




9.

पगडण्डी के बीचों-बीच
पक्षियों की हड्डियाँ थीं
और सूर्य की धूप में
चमक रही थीं

उनका नाम लेने से वे उड़ते हुए सामने नहीं आते थे
उनके पैर कोमल थे
और गर्दन के रंगों से वे
चहचहाते फिरते थे वन में

अंडे ही अंडे थे
झाड़ियों के नीचे

हड्डियों में देखो
तो दुख दिखाई नहीं देता था




10.

वे उठे
और पानी पीने से पहले
उन्होंने दीवार को सजा दिया
कठपुतली की आँख से

प्यास लगी थी उन्हें
जो दीवार से दिख रही थी

वे जल्दी में थे
और पानी को उनकी देह में
रास्ता नहीं मिल रहा था

उन्होंने पुतलियों को नचाया
कभी ऊपर कभी नीचे

पानी
किसी हड्डी की तरह तड़प रहा था
कठपुतली की आँख में




11.

उसे भी नींद आती थी
कठपुतली की आँख को

लेकिन वह सोती नहीं थी

वह ज़िद थी
या धैर्य

कोई काम था उसे
या निष्काम थी वह
इसका पता लगाना कठिन था

कहीं नीचे
रँगो में हिलते हुए हाथ की तलवार में
कभी-कभी
पलक झपकने की आवाज़ आती थी
जिसे कठपुतली के कान से
वह सुन नहीं सकती थी




12.

उसकी आँख से
कुछ नहीं बरसता था

कुछ नहीं
जो अनस्तित्व की तरह था
अनस्तित्व
जो इच्छा में
उतर आता था

वह रेत में
रेत पर
रेत के बिना
एक चिह्न था
जिसके खेल में
इतना रँग दिखाई देता था

कि वह भी डर जाती थी
जो कहने को
सिर्फ़ कठपुतली की आँख थी




13.

रेत
तूफ़ान में थी

और
खुली हुई थी वह
जो कठपुतली की आँख थी

पनाह लेने
कई निर्गुणी आए
और चले गए

वे पक्षी
जिनकी आँख में रेत थी
वे भी पनाह लेने आए

घास
जो रेत में उगती थी

वह ओस
जो गिरती थी
तिनकों के हिलने से
और भी गिर जाती थी —
वह भी आई

वह धूप
जो ओस को पीती थी
उसे भी आना था
धूप की तरह
वह भी आई

और इस तरह
कोई अन्त नहीं था
कठपुतली की आँख में

उसे कुछ दिखाई नहीं देता था.




देवनागरी के विषय में
(शिव के शब्दमय शरीर के दर्शन)



वसुमन!
आप रह भी तो नहीं सकते
अपने शब्दमय शरीर में
हमें ठीक से पढ़े बिना।
इकार और ईकार में
हमारे ही अक़्स हैं
जो आँसू उमड़ रहे हैं, वे हम ही हैं, दुखहारी,
कोई और नहीं है
सियाह पत्थरों पर
गूँज कहाँ है
श्वेताम्बरी के मुख में
उच्चारण निर्दोष नहीं है
न वह
जहाँ जल है
तारल्य नहीं है
हठ है
प्यास है
और, स्पष्टाक्षर,
यही हमें लिखना है
पशुपति!
उकार और ऊकार में
जिन अश्वों का रुदन  आप श्रवण कर रहे हैं
वे नहीं हैं, प्रभो; भस्मशायी, वे नहीं हैं
सिर्फ़ उनकी प्यास है, महानाद,
वे नहीं हैं
इस भूखण्ड में
नैमिषारण्य के मौनी वृक्ष
तेल के कुँओं में दहक रहे हैं
यह अग्नि  है
प्यास है, हव्यवाह,
और सूक्ष्म नहीं हैं हम, कम हैं, सुन नहीं सकते
सियाह पत्थरों के किनारे
देखें तो कितने फ़न हैं, सौन्दर्य-धर्मा,
रस के अभाव में
जिन्हें डस लिया गया है
जटाधारी!
अर्घ्य में हल्की सी फ़ेनिल होती हुई वह अमल जलराशि
क्या नाम था उसका
इस पृष्ठभाग में
हमें क्यों थे कनेर, कर्णिकारप्रिय,
हमें क्यों थे सौन्दर्य के सहस्र फ़न
ये आभूषण हमें क्यों थे, व्याली
हमारे हृदयाकाश में
क्यों थे, विशालाक्ष,
आप कहाँ निकल आये थे.




सुखी! यह भी तुम्हारा नाम है
(अजातशत्रु शिव और दिव्य-ज्योति घाट, होशंगाबाद में बहती नर्मदा मैया की स्तुति में)


सुखी!

यह भी तुम्हारा नाम है
और अगर तुम्हें याद हो
सूक्ष्म भी तुम्हीं हो, प्रभो.
हे मदनदहनकारी!
यह देह
जो इस संसार में मुझ निरीह को है
मेरे पड़ोसी
मेरे मित्र
और मेरे इन दिनों के शत्रु को भी
क्या वही देह है
हे अर्धनारीश्वर!
हे परन्तप!
शत्रु-भाव रखने वाले को सन्ताप देते हो
और शत्रु भी तुम्हीं देते हो
जो मित्र हैं।
उन्हें भी, जो शत्रु हैं,
ऐसे ही शत्रु देते हो
जो मित्र हैं, हे अजातशत्रु!
हे भक्तवत्सल, हम मनुष्य हैं,
दुखहारी शब्द की ध्वनि करते हैं
और तुम्हारी ओर देखने लगते हैं।
हे नीलग्रीव, हमारी ग्रीवा कभी किस दिशा में
तारक समूहों के अभाव में, नक्षत्रविहीन अवकाश में
तुम्हें ढूँढ़ती है, हे व्यालाकल्प!
हम तुम्हारे ही सर्पों से बचते हुए
इस प्रपंच में उतर आये हैं
हे जटिल कलाधर!
वे कौन सी कलाएँ हैं जिनके लिए युद्ध रचा रहे हैं?
उतने विषधर भी नहीं हम कि सह सकते
मित्रों के मर्म तक अदृश्य हैं हमें
और उनके वध्य-स्थल ही दृश्य हैं
जिन पर उठ जाते हैं हमारे हाथ
और उचित कार्य का बोध मिट जाता है, हे स्पष्टाक्षर!
देवासुरमहामित्र!
हमारी शुभ्र आत्म-छवियाँ वे हाँक ले गये हैं जो शत्रु हैं
और अकम्पित हाथों से उन्हें बदल रहे हैं
जैसे वे मित्र हों।
उनकी शुभ्र आत्म-छवियाँ
हमारी शुभ्र आत्म-छवियाँ
हमारी शरण में आयी हैं, हे आश्रितवत्सल!
और हम उन्हें बदल रहे हैं,
और ज़ार-ज़ार रो रहे हैं, हे प्रसन्नात्मा,
कि साँझ के समय और कुछ नहीं था हमें, हे निरुपद्रव!
“तुमने जिन शिष्यों को उपदेश दिया है
उनमें कौन तुम्हारे समान है?
वे अधम  शिष्य आज भी
अन्यान्य शास्त्रों में भटक रहे हैं”
कार्तिकेय से पूछे गये प्रश्न से
तुम्हारे ही पुराण से
ये पंक्तियाँ हम यहाँ लेकर बैठ गये हैं
उस जलराशि के पास
जिसके एक क्षीणाकायी बिम्ब के तट पर
तुम ले आये हो हमें, हे अस्थिधन्वा!

(शिव को समर्पित ऊपर की दो कविताएँ शिवपुराण के दो अध्यायों पर आधारित है: “भगवान शिव के शब्दमय शरीर के दर्शन” और “सहस्र नाम सूची”)
_______



तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कविकथाकारचित्रकारअनुवादक. छह कविता संग्रहएक कहानी संग्रहएक उपन्यासएक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक. आधुनिक नोर्वीजीस्वीडीफ़्रांसीसीलात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशनदिल्लीद्वारा प्रकाशित हैं.  इसके अलावा स्वीडी भाषा में 2019 में उनकी कविताओं का संचयन।
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्काररज़ा अवार्ड और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठउज्जैनकी अध्यक्षता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वाणी फाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान (२०१९)स्वीडी शाही दम्पति द्वारा दी गयी Knight की उपाधिरॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ मेंऔर नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.
बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्यभोपालके लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.
2016-17 के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष कामऔर वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
tejigrover@yahoo.co.in

युवा कविता : एक : ओम निश्चल

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हिंदी में युवा विवादास्पद हैं, ‘युवा-कविता’ तो और भी. न जाने कौन रसायन पीकर ‘युवा’ हिंदी कविता में उतरता है कि चिर युवा ही बना रहता है. और फिर एक झटके में वरिष्ठ. ‘कू-ये-यार’ से निकले तो ‘सू-ये-दार’ चले टाइप से. राह में उसे कोई और मक़ाम नसीब ही नहीं. कुलमिलाकर २० से ६० वर्ष के बीच का वय मोटामोटी हिंदी के युवा कवि के पास रहता है. बहुत है. लेकिन जैसा कि आजकल यह भी देखा जाता है कि वास्तविक उम्र और शरीर की (biological)उम्र में अंतर होता है. ४० साल के  उम्र के लोगों की शारीरिक उम्र ६० तक चली जा रही है. तो आलोचक जरा इधर भी गौर फरमाएं कि हो सकता जो बन्दा ५० का दिख रहा हो वह अंदर से ७० के पार चला गया हो. अपनी कविता में. खैर. यह एक समस्या है इसपर मिलजुलकर ही विचार करना चाहिए.

इधर ‘युवा’ कवियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं. उनपर इकट्ठे बात नहीं हुई है. और यह कार्य ओम निश्चल जी से बेहतर कोई कर नहीं सकता. एक तो उनके पास सभी प्रकार के संग्रह पहुंचते हैं और बड़ी बात यह है कि वे इसे पढ़ते और हैं और उनपर सुचिंतित आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी लिखते हैं. अंत: हिंदी के युवा कविता पर सुदीर्घ लेखमाल की यह पहली कड़ी ख़ास आपके लिए. ओम निश्‍चल हिंदी के सुपरिचित कवि, आलोचक एवं भाषाविद हैं.  




युवा कविता : एक                                
ओम निश्चल







इधर जब से बाबुषा कोहली का संग्रह'बावन चिट्ठियाँ'व गीत चतुर्वेदी का संग्रह 'टेबुल लैंप'पढा है, सुशोभित शक्‍तावत का 'मलयगिरि का प्रेत', अंबर पांडेय का 'कोलाहल की कविताएं', मोनिका कुमार का 'आश्‍चर्यवत', व अविनाश मिश्र की कामसूत्र विषयक कविताएं----मुझे लगता है कवि अपने समय की सांप्रदायिकता, राजनीतिक मलिनता, हिंदू-मुसलमान करते न अघाती सियासत, दिलों में फॉंक पैदा करती दलबंदियों से कहीं ऊब-सा गया है. वह अपने रचनात्‍मक एकांत में इस राजनीतिक रुप से प्रगल्भ समय को घुसने नही देना चाहता. इसीलिए शायद 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'जैसे प्रखर ऐंद्रियबोध की कविताएं लिखने वाली कवयित्री बाबुषा कोहली अपने नए संग्रह में कविता के कैनवस को इस तरह नया विन्‍यास देती जान पड़ती हैं जैसे उन्होंने दशकों से सजे सजाये अपनी कविता के ड्राइंगरूम का विन्‍यास बदल दिया हो. ऐसा ही गीत चतुर्वेदी की 'टेबुललैंप'की गद्य कविताएं पढते हुए लगता है गोया वे कवि की अपने भीतर की जटिलताओं और अपनी ही अलक्षित अर्थ-क्षमताओं को खोलने की गुत्‍थियां हों या फिर अपने समय के पेचीदा प्रतिबिम्‍ब से आंख बचाकर निकल जाने का सचेत जतन.

सुशोभित शक्‍तावत 'मलयगिरि का प्रेत'में कविता से एक खास तरह का रिश्‍ता बनाते जान पड़ते हैं. इन कविताओं के पाठ में अपने ही भाषाई उद्यम से खेलने का हुनर तो दिखता ही है, कविता के प्राच्‍य संस्‍कारों का कहीं कहीं आवाहन भी सुन पड़ता है. ये कविताएं धुरंधरों की भी समझ से भी यदा कदा बाहर लगती है जब वे कविता के एक अराजक उल्‍लास में बदल जाती हैं. कविता के सारे प्रतिमानों रस छंद अलंकार ध्‍वनि रीति के पार जाते हुए ये कविताएं कवि के उस दुस्‍साहस का प्रमाण भी हैं जहां कुछ भी गतानुगतिक नहीं रह जाता. उतने ही बीहड़ और कविता के अभ्‍यस्‍त संसार से ऊबे हुए प्राणी लगने वाले अंबर पांडेय के लिए कविता जैसे क्रीड़ा का विषय हो जहां खेल ही खेल में वे सुख दुख जरा व्‍याधि और सांसारिकता की नश्‍वरता का एक शांत क्‍लांत स्‍वर पैदा करते हैं. उन पर दार्शनिकता और आध्‍यात्‍मिकता की संगत इतनी हावी है कि वह उन्‍हें संसार से जरा दो हाथ ऊपर रखती है. उनके यहां पेडों फलों फूलों की विरल छटाएं मिलती हैं पर केवल इतने भर से अंबर प्रकृति के कवि कहे जाने से इनकार करते हैं. उनके भीतर की जाने कैसी कैसी इच्‍छाएं अनिच्‍छाएं और दमित वासनाएं कविता के शास्‍त्रीय पाठ में उतरती हैं और बुलबुले की तरह अर्थ की एक अपरिभाषेय कौंध देकर विलुप्त हो जाती हैं.

ऐसे कवि कविता की शास्‍त्रीय कसौटियों से मापे नही जा सकते. ये मम्‍मट जैसे आचार्यों के लिए भी एक चुनौती हैं. इनकी कविता की अपनी अष्‍टाध्‍यायी और अपना भाष्‍य है.  मोनिका कुमार की कविताएं भी दुनियावी महासमर से गुजरते समय से विमुख किन्तु जीवनचर्या के महीन से महीनतर उपक्रमों से गुजरती हुई लगती हैं. हालांकि वे अपने स्‍थापत्‍य में साधारण ही हैं किन्‍तु कहने में एक किस्‍म की बेतकल्‍लुफी ही शायद उन्‍हें एक बेबाक कवि बनाती है. अपनी व्‍यंजनाओं में तेजस्‍वी और अपनी अभिधा में अतुलनीय अविनाश मिश्र के पहले संग्रह'अज्ञातवास की कविताएं'की कविताएं जिस तरह अपने समय का एक तीखा क्रिटीक रचती हैं, अपने दूसरे संग्रह की कामसूत्रविषयक कविताओं में वे कविता की बुनियादी सतह और रीतिबद्धता से टकराते हुए लगते हैं. इसी के कुछ अंतराल पर आए महेश वर्मा का संग्रह 'धूल की जगह'भी समय व समाज के विद्रूप में उलझने के बजाय कविता में हमारे राग विराग आसक्‍ति प्रेम द्वंद्व और विपर्ययों की खोजबीन करता है तथा मनेाविज्ञान की सूक्ष्‍म सतहों को कलात्‍मकता से उधेड़ता और रचता है.

आज के प्रखर आदिवासी कवियों जेसिंता केरकेट्टा, अनुज लुगुन और अन्‍ना माधुरी तिर्की तथा अंशु मालवीय इत्‍यादि को छोड़ दें तो क्‍या यह राजनीति-विमुखता का कविता समय है जो मानवीय संवेदना पर पड़ते समय के आघातों प्रत्‍याघातों से निरपेक्ष शुद्ध, शांत और निर्विकार कविता की ओर अग्रसर है. आखिर आठवें और नवें दशक की कविताओं के राजनीतिक बोध की तुलना में ये कविताएं इतनी शांत और निर्विकार क्‍यों लगती हैं. कहीं यह व्‍यर्थ के कोलाहल और राजनीतिक प्रेतबाधा से कविता को अवमुक्‍त रखने की चेष्‍टा तो नहीं. क्‍या यह कविता की कोई नई प्रत्‍यभिज्ञा है जो अपनी जानी पहचानी कलात्‍मक रागात्‍मकता से पुनराबद्ध होना चाहती है. इस दृष्‍टि से आज के युवा कवियों की कविताएं ध्‍यातव्‍य और बहसतलब हैं .


एक कवि की अंतर्यात्राएं: महेश वर्मा 
उन्हें युवा कवि कैसे कहें जब कि वे 49 बरस के हैं. किन्तु उनकी कविताओं में ताजगी ऐसी कि युवा कवियों के यहां भी विरलता से लक्ष्य है. धीरे धीरे कविता करते हुए महेश वर्मा युवतर पीढ़ी की सीढ़ियों से उछल कर मध्यवय में जा पहुंचे हैं किन्तु वे अब भी अपने मिजाज़ में युवतर ही माने जाते हैं. दिल्ली की केंद्रीयता से दूर किन्तु कविता के केंद्रबिन्दु में समा सकने वाली प्रतिभा लिए महेश वर्मा का बहुप्रतीक्षित संग्रह 'धूल की जगह'इस साल के शुरु में ही रजा फाउंडेशन एवं राजकमल के सहकार में प्रकाशित हुआ तब यह सहज ही कठिनाई नजर आती है कि इस समर्थ कवि को किन कवियों के बीच परिगणित किया जाए.

महेश वर्मा किस तरह के कवि हैं, यह उनके कविता क्रम में दर्ज कविताओं के शीर्षक को देख परख कर जाना जा सकता है. पिता बारिश में आएंगे, ऐसे ही वसंत में चला जाऊूंगा, धूल की जगह, भाषा, इस तस्वीर में मैं भी हूँ, पुराना दिन, अंतिम रात, तुम्हारी बात, मेरे पास, घर, चंदिया स्टेशन की सुराहियां, आदिवासी औरत रोती है, वक्तव्य, चढ़ आया है पानी, मक्खियां, शेर दागना, कल्पनाहीनता, दाहिने हाथ का अंगूठा, बोलो, हंसी, पानी, पहचान, सामाजिक, इस समय, उदाहरण, दरख्त, सुखांत, गांठ खोलो, अंत की ओर से, जलती टहनी, कन्हर नदी, नवनीता देवसेन, शाम, वृक्ष देवता आदि. हो सकता है इनमें सामाजिक उपयोगिता की प्रासंगिकता वाले विषय कम हों किन्तु कविता की 24 कैरेट वाली शुद्धता की दृष्टि से ये कविताएं अत्यंत संवेदी हैं. ये मानवीय मिजाज़ के अनेक रंगों को अपने स्थापत्य में पिरोकर प्रस्तुत करती हैं तथा कभी कभी लगता है ये कवि की अंतर्यात्राएं हैं. उसकी निजी अंतरंगता और अनुभव के भूगर्भीय हलचल की गवाहियां हैं. पर इस कवि के भीतर जीवन जगत में घटित होती यातनाओं के विरुद्ध एक बेआवाज़ कसमसाहट है जो 'अगर यह हत्या थी'जैसी कविता में देखी जा सकती है—

अगर दुख थी यह बात तो
यह संसार के सबसे सरल आदमी का दुख था
यह भूख थी अगर तो उन लोगों की थी
जो मिट्टी के बिस्कुट गढ़ कर दे रहे थे अपने बच्चों को
जो बीच बीच में देख लेते थे आकाश
अगर यह हत्या थी
तो यह एक आदिवासी की हत्या थी.(अगर यह हत्या थी)
एक ऐसी ही कविता है: 'आदिवासी औरत रोती हैं.'
आदिवासी औरत रोती है गुफाकालीन लय में.
इसमें जंगल की आवाज़ें हैं और पहाड़ी झरने के गिरने की आवाज़,
इसमें शिकार पर निकलने से पहले जानवर के चित्र पर टपकाया
गया आदिम खू़न टपक रहा है,
तेज़ हवाओं की आवाज़ें हैं इसमें और आग चिटखने की आवाज़.
बहुत साफ और उजली इस इमारत के वैभव से अबाधित
उसके रुदन से यहाँ जगल उतर आया है.
लंबी हिचकियों के बीच उसे याद आते जाएँगे
मृतक के साथ बीते साल, उसके बोल, उसका गुस्सा -
इन्हें वह गूँथती जाएगी अपनी आवाज़ के धागे पर
मृतक की आखिरी माला के लिए.
यह मृत्यु के बाद का पहला गीत है उस मृतक के लिए -
इसे वह जीवित नहीं सुन सकता.(पृष्ठ 56)

कैसे किसी आदिवासी की हत्या के बाद क्या कुछ उसके परिवार पर बीतता है, यह इस कविता के अंत:करण में महसूस किया जा सकता है. महेश वर्मा अपने चित्त से संवेदना की धूल पोंछते हैं और दुख सुख से बहुत करीब से बतियाते हैं. उनमें एक वीतराग भी झांकता है और अनुरागमयता की आंच भी . इसीलिए 'नवनीता देवसेन'कविता के बहाने वे भाषा की बेचैनी में एक सुर्ख हरकत पैदा करना चाहते हैं और कहते हैं –

जब एक बेचैन भाषा
रक्त की तरह दौड़ती हो भीतर
प्यार का वह शब्द कहो
या सिर्फ गुलाब कहो
और देखो
कैसे अपने आप सुर्ख हो जाता है आकाश.

पर महेश वर्मा एक संवेदनशील कवि हैं जिसने अपने बीच से गुजरते समय को नजदीक से देखा है और उस पर लगते खरोंचों का जायज़ा लिया है. वे जिन शब्दों से कविता के परिदृश्य को मार्मिक और मानवीय बनाते हैं उन्हीं शब्दों से कुछ लोग हत्या को वैधता प्रदान करने की युक्तियुक्तता खोजते हैं. महेश भाषा की इस छद्म भूमिका को इस तरह याद करते हैं ---

जो शब्द हत्या को वैध बनाते थे
वे आज भी हमारी भाषा में गूँज रहे हैं
ऐसे याद रखना कि यहीं पर एक
बलि दी गयी थी.(भाषा)

महेश वर्मा की कविताएं प्रेमशंकर शुक्ल के कवि-मिजाज की याद दिलाती हैं----भोपाल के ही एक समर्थ हिंदी कवि जो पत्थर से सतत संवाद करते रह सकते हैं और झील और नाव से अनेक मुद्राओं में वार्तालाप कर सकते हैं. महेश वर्मा में भले ही गीत चतुर्वेदी जैसा आवेग नहीं है न विट की दृश्यातीत व्यंजनाएं. पर अपने स्थापत्य में सघन संवेदन और हौले हौले छूने बेधने वाले दृश्यबंधों एवं गतिविधियों से विचलित और स्पंदित होते महेश वर्मा अपनी कविताओं को उस बिन्दु पर पहुंच कर मुक्त छोड़ देते हैं जहां हम उनके थिर कवि-मन की थाह ले सकते हैं. उनकी कविता न गत्यात्मक सरलता की कविता है न ठहरे हुए जल की सी अनुद्विग्नता की. हम उनके शब्दों और वाक्यों में जीवन और अपने समय का एक धूसर किन्तु गतिशील प्रतिबिम्ब देख सकते हैं.



कविता की शुद्धता में सांस लेने वाला कवि : मनोज कुमार झा
मनोज कुमार झा को बहुत पहले से जानता हूँ जब उनकी फुटकर कविताएं यत्र तत्र प्रकाशित हो रही थीं. फिर जब उनका संग्रह 'तथापि जीवन'आया उनके कवित्‍व के प्रति गहरी आश्‍वस्‍ति हुई. नया संग्रह कदाचित अपूर्ण इस बात का सबूत है कि वे कविता की शुद्धता में सांस लेने वाले कवियों में हैं. वे कभी कभी कलावादियों के मन-मिजाज के कवि अवश्‍य दिखाई पडते हैं किन्‍तु उनकी कविताओं के अंतस्‍सूत्रों में प्रवेश करें तो वे कविता में जीवन की जटिलताओं को खोलने वाले कवि लगते हैं. उनके भीतर स्‍थानिकता के गुणसूत्र गुंथे दिखते हैं. तथापि जीवन की ही एक कविता अकारण पढ़ कर लगा था, मनोज कुमार झा में संवेदना का एक कोना उन आंसुओं से भीगा हुआ लगता है जिनकी आज कोई कीमत नहीं. कम से कम न इन आंसुओं से चिकित्‍सातंत्र पिघलता है, न पूंजी के इस युग में बीमारों की कोई सुनवाई है. पर एक कवि तो इस तरह इन आंसुओं से बच कर नहीं निकल सकता. वह भले ही राहगीर हो पर पास से गुजर रही एम्‍बुलेंस उसके भीतर हलचल और बेचैनी पैदा कर देती है. उसके यहां इन आंसुओं की सुनवाई है. तभी तो कभी जगूड़ी ने लिखा था, '''मेरी कविता हर उस आंख की दरख्‍वाश्‍त है जिसमें आंसू हैं.''यही है साधारणीकरण जो कवि की संवेदना को सदैव सजल बनाए रखता है --

क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बुलेंस
कि जान लूँ बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध हैं तो कितने दाँत साबुत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पाँव
कोई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा
बस यूँ ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का
रहवैया और एक ही रस्ते से गुज़र रहे हम दोनों .

'तथापि जीवन'---की कविताओं से मनोज कुमार झा बिहार और झारखंड के ही श्रेष्‍ठ युवा कवियों प्रेमरंजन अनिमेष, संजय कुंदन, तुषार धवल, पंकज राग, प्रियदर्शन, शहशाह आलम, राकेश रंजन,निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन, शरद रंजन शरद आदि के बीच दूर से ही पहचाने जाते हैं. हालांकि उनकी भाषा में एक खास तरह का अटपटापन भी दिखता रहा है यानी उतना चाकचिक्‍य नहीं कि वह एकदम फिनिश्‍ड प्रोडक्‍ट की तरह लगे. पर हां उनकी कविताओं के लोकेल में पूरा बिहार अपने ययार्थ और भदेस के साथ दिखता है. वे अपनी जनपदीय चेतना और माटी होती जिन्‍दगी को उत्‍सवता का जामा पहनाने से बरजते हैं. वे बिहार के ज्‍वलंत प्रश्‍नों को अपनी कविता की रीतिबद्धता में ढाल कर कविता में एक अलग तरह का आस्‍वाद पैदा करने की चेष्‍टा करते हैं. ऐसा करते हुए कहीं कहीं उनमें अरुण कमल-जैसा निश्‍चयात्मक नियतिवादी जीवन स्‍वर उद्भूत होता है, कभी कभी अजानी न बरती गयी ऐसी शब्‍दावली भी उनके यहां जगह बनाती है जो शायद इस अवधारण से जन्म लेती है कि कविता से कुछ ऐसा लगना चाहिए जो अज्ञेय या अपरिभाषेय भी हो. मुझे बस रहने लायक जगह हो/और सहने लायक बाज़ार/जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं---में अखंड पनही का विशेष्‍य विशेषण हमें चौंकाता है तो अगम गम हुआ, हमें क्‍या  मिला/छला ही इस बड़ी छलांग ने में अगम गम और छलांग के छलने में ज्ञानेन्‍द्रपतीय कौशल-सा दिखने लगता है.

तथापि, हाल ही में आया उनका नया संग्रह 'कदाचित् अपूर्ण'उनकी कविताओं में दीखती उपर्युक्‍त विशिष्‍टताओं से अलग अपनी सादगी में अनूठा है. जिस कचोट और चोट से एक मामूली आदमी विचलित हो उठता है, उससे कवि के अंत:करण पर लगी चोट का अनुमान भर लगाया जा सकता है. 'कदाचित् निष्‍फल'की पंक्‍तियां देखिए कवि किस अकिंचन चाहतों से भरा है --

जब खींच ले गया सामने से पत्‍तल
उठा दिया पाँत से
तो सजल मन सोच सकुचाया
इतना भी न हुआ भाषा तक में
कि रोऊँ तो रोना छुपा ले देह
और नदियॉं भेजे कुछ उर्मियॉं उठाने को माथा
और गिर पडूँ धरती पर
तो मिट्टी सँवार दे सलवटें .

उसकी बेकली किसी कवि से मेल नहीं खाती. आखिर ऐसी अलग पहचान न हो और एक कवि सैकड़ों में मिल कर खो जाए तो वह फिर कवि कैसा. कवियों को ऐसा ही होना चाहिए जैसे ईश्‍वर की दुनिया में हर आदमी एक दूसरे से अलग होता है. आज की कविता पर यही तो आरोप है कि उस पर से नाम हटा दो तो वह किसकी है यह पता न चले. कविता तो वह है जो नाम हटा दो तो भी किसकी है यह पहचान हो जाए. तो क्‍या मनोजकुमार झा ऐसी पहचान बना पा रहे हैं. अभी इस पर कुछ निर्णायक तौर पर कहना मुश्‍किल है . मैं उन्‍हीं की जबान में कहना चाहूँगा कि वे अन्‍य कवियों से 'कदाचित् अलग'हैं. यह कदाचित् इस हिचक के साथ है कि अभी वे संग्रहों में दूसरे या तीसरे संग्रह की पायदान पर हैं. पिछले संग्रह से यह संग्रह अलग लगता है तो अगला आने वाला संग्रह उन्‍हें कम से कम अपनी एक अलग शैली निर्मित करने में मदद करेगा. पर मनोज के भीतर यह जो बेकली जन्‍म ले रही है वह उनके कवि को धीरे धीरे परिपक्‍व बना रही है. वे थोड़े से शब्‍दों में बड़ी बात कहने में प्रवीण हैं. उनकी कविता 'नदी को इंतजार करने दो'की पंक्‍तियां देखें--

आओ नदी को लॉंघती हुई आओ
पाँव रखों तो सख्‍त मिट्टी भी कर उले छल छल
एक देह नदी के आसमान को चीरती आए
घोलती रस पवन के प्रवाह में
और फिर लौटो नहीं
इंतजार करने दो नदी को
जैसे मैं करता रहा इंतजार
आखिर उसके जल में मेरी आंख का जल भी है शामिल.

कहना न होगा कि इस कवि के पास बेचैनियां बहुत हैं, बेकली बहुत है. संशय बहुत हैं, तथापि बहुत हैं, कदाचित् बहुत हैं. पर यह वही कवि है जो किसी वैष्‍णव जन की तरह पराई पीर जानने को विकल है ---

मैंने चाहा कि किसी को फो करूँ
तो किसी बच्‍चे की नींद न टूटे
न चमके स्‍क्रीन उसके सामने
जिसने अभी खींचा है रात को अपने करीब
जिसकी उंगलियों में दर्द हो
उसे तो हरगिज कॉल ना करूँ . (अपूर्णता)

मनोज कुमार झा पिछले कुछ सालों से मेरे जेहन में एक कवि की तरह अँटके हैं. उन पर इससे पहले शायद ही कुछ लिख सका होऊँ. पर वे लगातार अवलोकनों में रहे हैं. वे एक अच्‍छे अनुवादक तो हैं ही, अभावों से भरे कस्‍बे  के निवासी भी हैं . किन्‍तु उनकी कविताओं में न दैन्‍यं न पलायनम् का एक गर्वीला भाव दिखता है . उनका कवि विकास की दुदुभि में भी अभावों की सिसकियां सुन लेता है. यही उसके कवि होने की असली कसौटी है.



वाचालता के विरुद्ध संयम : अविनाश मिश्र 
मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूं तुममें
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें जरा-सा भी न घेरूं
और तुम्हें पूरा ढंक लूं (इत्र)

इन पंक्तिंयों को लिखने वाले कवि की उम्र कोई तीस के आसपास की होगी, चेहरा सहज और मासूम किन्तु उसकी संवेदना-संपन्न मेधा से निकलने वाली कविताओं का अपना अनूठापन है. जब फेसबुक के सहारे अपने को लोकप्रिय बनाने के नुस्खे आजमाए जाने लगे तो अविनाश ने यहां परसी जाने वाली तथाकथित बौद्धिकता के झाड़झंखाड़ को साफ करने का बीड़ा उठाया. उसके बौद्धिक प्रहारों से न तथाकथित युवा बच पाए न बुर्जुआ बौद्धिक. वह जितना अपनी फौरी रपटों के लिए आलोचना का शिकार हुआ उतना उसकी कविताओं का लोहा उसके समयुवा कवियों पर भारी पड़ता गया. लोग उसकी कविताई के सम्मुख हतप्रभ नजर आते. अज्ञातवास की कविताएं अविनाश मिश्र की काव्‍ययात्रा का मजबूत प्रस्‍थान बिन्‍दु हैं.

जब बाबुषा कोहली को भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से नवाजा गया तो किसी टिप्पणी में मुझे लिख कर यह तोष हुआ कि 'देवीप्रसाद मिश्र से अविनाश मिश्र तक हिंदी कविता का एक पुल बनता दिखाई देता है जिसके नीचे से बाबुषा जैसी कई मीठी नदियां बहती है.'कहने का आशय यह कि जिस कवित-विवेक के साथ अपने समय के यथार्थ को एक खास अंदाजेबयां में ढालने का काम देवीप्रसाद मिश्र ने किया; अनामिका, सविता सिंह, अनीता वर्मा, गीत चतुर्वेदी, प्रभात, आशुतोष दुबे, दिलीप शाक्य, लीना मल्होत्रा और यतींद्र मिश्र से होती हुई कविता अविनाश मिश्र तक पहुंच कर जैसे सर्वगुणसंपन्न नजर आती है. उनकी कामकला संबंधी चौंसठ सूत्र कविताएं पढते हुए मैंने जानना चाहा कि आखिर इतने सारे कवियों के बीच उसका आविर्भाव क्या इसीलिए हुआ है तो अविनाश ने कहा, ‘’कविता लिखना मेरे लिए एक निर्विकल्प स्थिति है. इसकी जगह दूसरा कोई और काम करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि मैं कविता लिखने को दूसरे कामों से अलगाता नहीं.‘’ अविनाश ने मुक्तिबोध की ये कविता-पंक्तिेयां दुहराईं -विचार आते हैं—लिखते समय नहीं,बोझ ढोते वक्त पीठ पर.... जब अधिकांश कवियों की कविताएं असंतोष ही जगाती हों तो इस परिदृश्य में बदलाव की बयार कैसे बहेगी? इस सवाल पर अविनाश कहते हैं, ‘’कविता संतुष्टि और बदलाव के ठेके नहीं उठाती. ये काम बाबाओं और राजनेताओं को शोभा देते हैं. कविता प्रथमत: कवि की उपस्थिति और उसकी अस्मिता का प्रकटीकरण है.‘’

अविनाश मिश्र की गति कविता और समीक्षा में समान है. उनके खाते में बेशक अभी कोई पुरस्कार नहीं, न उसकी कोई आकांक्षा ही उन्हें है, पर अब तक आए उनके दो संग्रह उनकी अचूक कवि-प्रतिभा के उदाहरण हैं. उनकी अब तक की उदघाटित कविताओं का संसार भाषा, कथ्य व संवेदना की दृष्टि से नई उदभावनाओं का परिचायक है, व्यक्त-अव्यक्त का विस्मयपूर्ण बखान है. उनकी दृष्टि विडंबनाओं और विचलनों का दूर तक पीछा करती है और उनमें छिपे हुए मानवीय आशयों को अपनी कविता के अंत:करण में शामिल करती है. वाचालता के विरुद्ध भाष्य रचते हुए इस युवा कवि की कविता अपने अर्थोत्कर्ष तक पहुंच कर अभिव्यक्ति की हर वह ऊँचाई पाना और छूना चाहती है जहां प्राय: काव्याभ्यासियों की दृष्टि नहीं पहुंच पाती. कहना न होगा कि कविताबाजों से लेकर दीप प्रज्वलन में लगे गणमान्यों, प्रूफ रीडरों, अनुवादकों, संपादकों, स्त्री के सोलह अभिमानों और कामकला के चौंसठ सूत्रों तक अविनाश ने कविता में नए से नए विषय और गूणसूत्रों का आवाहन किया है और कवि के रूप में एक न्यायसम्मत जगह बनाई है.



ये ख्‍याल ये बंदिशें ये सुर ये संगीत, यह वाग्‍मिता :बाबुषा कोहली
एक ऐसी किताब जो रस छंद के सम्‍मोहक अमूर्तनों आवर्तनों से बनी हो, जहां कविता और गद्य ऐसे मिलते हों जैसे धरती और आसमान एक संधि रेखा पर; जो यों तो दिखती जरूर है पर उस सीमांत तक पहुंच पाना संभव नहीं. बाबुषा कोहली की बावन चिट्ठियां ऐसी ही गद्य कविताओं का संग्रह है. कोई पुस्‍तक सिरहाने ही नहीं, आपके सतत सम्‍मुख रखी हो और आसानी से घुल जाने वाले आख्‍यान में न होकर ऐसे वैचारिक विन्‍यास में उपनिबद्ध हो जहां मन की लंबी लंबी उड़ानें हों, चित्‍त सत्‍वर गति से दोलायमान हो, वहां उसका कोई प्रतिबिम्‍ब बनता भी है तो स्‍थिर नहीं रहता. इसे पढ़ते हुए क्षण प्रति क्षण बदलते विचारों के स्‍थापत्‍य से सामना होता है. कभी किसी ख्‍याल किसी बंदिश किसी शेर किसी रुबाई में डूबे और भीगे भीगे गद्य की तासीर पढ़ते समय यह हमें तमाम अतिरेकों में ले जाती है. एक पन्‍ने पर पढ़ता हूँ एक खयाल और मुझे किसी शायर का एक शेर याद हो आता है. यह भी शायद बावन चिट्ठियों में कोई चिट्ठी है जहां कवयित्री ने टॉंक रखा है--- तुम्‍हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे .
खटमिट्ठी रात पर
ढुरक कर चंद्रमा का नमक
चखेंगे आकाश रसीला
हम
बादलों के सिलेटी बाग़ में
उगल कर गुठली
जब-तब सफ़ेद दिन उगा देंगे
खिड़की फॉंद कर दाखिल होंगे
तुम्‍हारी नींदों में ताउम्र
और
तुम्‍हारी सपनीली पवित्रता में
जामुन का दाग़ लगा देंगे.

कभी अज्ञेय ने कविता के औपचारिक फार्मेट से ऊब कर कहा होगा. 'छंद में मेरी समाई नहीं है/ मैं सन्‍नाटे का छंद हूँ.'कल तक मीठी कविताएं लिखने वाली कवयित्री बाबुषा कोहली अपने पहले संग्रह के साथ ही कविता की कोमल पाटी से अलग गद्य के ऐसे निर्भान्‍त अननुमेय संसार में विचरण करती रही हैं जहां दुनिया जहान की तमाम कलाएं आजमाई जा सकें. लिहाजा वे मन की मौज में हैं, यायावरी में हैं, संगीत सुनने के दौर से गुजर रही हैं, गालिब मीर जौक के अशआर दिमाग में हलचल मचा रहे हैं, बुखार की बड़बड़ाहट को शब्‍दों के क्रोसीन से शमित करने की चेष्‍टाओं में हैं, हर वक्‍त कोई न कोई ख्‍याल अपनी अपरिमिति  में अर्थ की एक नई आमद के साथ उदघाटित हो रहा है. यह जैसे रंगों की बारिश हो, शब्‍दों की एक नई खुलती जादुई सी दुनिया हो, अंदाजेबयां में शायराना किन्‍तु व्‍यवहार में कातिलाना हरकत से ऐसे ऐसे अर्थ उपजाने की कोशिशें हों, बाबुषा कोहली की बावन चिट्टियां ---गद्य पद्य चंपू सबके रसायन से समन्‍वित एक ऐसे संसार की तरह है जिसे ईश्‍वर रोज नए तरीके से रचता और सिरजता है.

यह जीवन के तमाम अप्रत्‍याशित अजाने क्षणों को बांध लेने में कुशल बाबुषा की गद्यमयता का संसार है जो शायद कविता के आजमाए फार्मूलों से ऊब कर गद्य के इस बीहड़ और विन्‍ध्‍याटवी में उतर आया है जहां कोई खयाल लता गुल्‍मों की तरह हमारे चित्‍त को आहलादित करता है तो कहीं प्रियंवदा और बुद्ध के आख्‍यान को सुनाती हुई एक बुढ़िया उस मुक्‍ति की कहानी सुनाती है जहां अरसे से अपने हृदय में बुद्ध के प्रति प्रेम का मौन संजोये प्रियंवदा जलती हथेली पर बुद्ध की आंखों से गिरी बूँदें गिरते ही इस दुनिया से आंखें मूंद लेती है.

बाबुषा कोहली के संग्रह 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'पर लिखते हुए अंत में मैंने अपनी प्रतीति जाहिर करते हुए कहा था इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि अभी अभी किसी शहनाईनवाज़ की महफिल से उठकर आया हूँ. इन चिट्ठियों के बहाने बाबुषा के कविता के उस नए संसार से परिचय मिलता है जिसे किसी यथार्थवादी प्रतिबिम्‍ब में डिकोड करना आसान नहीं है. इनमें दर्शन की अनेक प्रतीतियां हैं. हर क्षण को उसके नयेपन के साथ महसूस करना कवयित्री का लक्ष्‍य रहा है. इन कविताओं, अनुभूतियों के इन टुकड़ों का कोई निश्‍चित अर्थ करना आसान नहीं क्‍योंकि ये उस मन की चंचलताएं हैं जो एक भाव एक करवट ठहरती नहीं, क्षण भर में इंद्रधनुष सा पैदा कर तिरोहित हो उठती हैं. पर हां, केवल उल्‍लास ही नहीं, अवसाद के अनेक लम्‍हे यहां मौजूद हैं लेकिन किसी ऋजु रेखा पर न चलकर कविता के इस बीहड़ रास्‍ते पर चलती हुई भी बाबुषा अपने सरोकारों को किसी तिलिस्‍म या जादुई आभा में उलझाती नहीं बल्‍कि अपने तरीके से उसे सबल रूप से रेखांकित करती हैं . जब रुलाई फूटे का एक टुकड़ा देखें जहां कवयित्री कहती है :--

जब रूलाई फूटे किसी पेड़ से लिपट जाना.
रेलवे स्‍टेशन निकल जाना. भिखारियों का भूखा पेट देखना.
हिजड़ों को सूखा पेट दिखाना. उनके दुआओं वाले हाथ जबरन सिर पर
रख लेना. सिक्‍के बराबर आंसू बन जाना. ग़रीब की कटोरी में
छन्‍न से गिर जाना. (जब रुलाई फूटे)

इन चिट्टियों को पढ़ते हुए मेरी निगाह कवयित्री के इस कौल पर जाता है ---

जिसकी आत्‍मा अपने ही घात से लहूलुहान हो,
मैंने सीखा उस आदमी का माथा सहलाना.
मैं सीख रही हूँ अपना नाम लिखना, फिर मिटाना,
फिर लिखना, फिर मिटाना. ऐसे ही धीरे धीरे किसी दिन
अपने नाम की हिज्‍जे भूल जाना.

ये कविताएं ये गद्यविन्‍यास ये ख्‍याल ये बंदिशें ये सुर ये संगीत, साधना के ये शब्‍द, यह वाग्‍मिता शिउुली के उस फूल की तरह हैं जो झरते हैं तो सारे मोह-सम्‍मोह, आसक्‍तियां, सारी भौतिकताएं जैसे उसके सौंदर्य में विलीन हो उठती हैं. पर ये पूजा के फूल नहीं हैं . इन्‍हें निहारने का सुख ही अलग है. गद्य की ये वीथियां ऐसी ही हैं कि कोई इनमें आकर जैसे गुम हो जाए. अपनी पहचान खो बैठे.

मेरी आंखें पढ रही हैं कवयित्री का इंदराज ---
तुम्‍हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे .

और मुझे याद आता है किसी शायर का यह शेर --
शज़र में जितनी सूखी पत्‍तियां हैं
तुम्‍हारे नाम --- मेरी चिट्ठियां हैं .

ये बावन चिट्ठियां ऐसी संततियों की तरह हैं जिनकी शक्‍लें आपस में एक दूसरे से बिल्‍कुल नहीं मिलतीं किन्‍तु किन्‍तु उनमें एक ब्‍लडग्रुप जैसा गुणसूत्र समाया हुआ है.


कविता में अमूर्त और विस्‍मय : मोनिका कुमार
कविता में कभी कभी कुछ ऐसा घटता है जैसे कोई विस्‍मयादिबोधक. मोनिका कुमार का आगमन हिंदी कविता में ऐसे ही हुआ है. आश्‍चर्यवत. पंजाबी आबोहवा में जन्‍मी मोनिका कुमार के प्रेक्षण जीवन की सहजता के अतल से जैसे कुछ नायाब सा खोज लाते हैं. कविताएं अपना उन्‍वान बदल रही हैं, अपना पैरहन बदल रही हैं. जैसे कहानी वैसे ही कविता अब कहीं से शुरु होकर कहीं खत्‍म हो सकती है. वह कोई निबंधात्‍मक घटना नहीं है. हर कवि लीलाधर जगूड़ी की तरह सूक्‍ति प्रदाता नहीं होता. वह किसी वृत्‍तांत या नैरेटिव को ऐसे ही लेता है जैसे यह पूरा जीवन किसी बड़े नैरेटिव का हिस्‍सा हो. लंबे अरसे से ब्‍लाक, पत्र पत्रिकाओं में चर्चित रही मोनिका कुमार की कविताएं आश्‍चर्यवत् शीर्षक से  रजा फाउंडेशन की प्रकाशवृत्‍ति के तहत प्रकाशित हुई हैं.

कविता व शास्‍त्र के दिग्‍गज व्‍याख्‍याता वागीश शुक्‍ल इनमें एक एक्‍टिविज्‍म का रंग पाते हैं. वे कहते हैं, ''मोनिका कुमार के काव्‍य संग्रह की कविताओंंको देख कर हिंदी के समकालीन काव्‍यजगत का बहुत सा कुहासा कृत्रिम लगता है, प्रदूषण के उन मानदंडों की उपज जो हमारी जीवन शैली के नियामक हैं. इन कविताओं में यह भरोसा झलकता है कि ये मानदंड जीवन के नियामक नहीं हैं. जिस हद तक जीवन को उसकी शैली की दासता से छुड़ाने का नाम स्‍वतंत्रता है, उस हद तक ये कविताएं स्‍वतंत्रता की भी पक्षधर कही जा सकती हैं. उन्‍हें ये कविताएं समकालीन कविता को एक अलग और आकर्षक आभा से दीप्‍त करती प्रतीत होती हैं.

पांच खंडों में विभक्‍त इन कविताओं का कथ्‍य मिला जुला है. कवियों का मन इतना गुप्‍तसंकेती होता है कि उसे कोई राडार सही सही नहीं आंक सकता. स्‍त्रियों का मन तो और भी अबूझ. जीवन में खुशी और प्रेम की कोई गारंटी नहीं होती. मोनिका कुमार की कविताएं समकालीन कविता के मुहावरे से अलग दिखती हैं. कभी कभी एक ही कविता में कई असंबद्ध चीजें मिल कर कविता के चेहरे को विवर्ण बना देती हैं. कविता आदि से अंत तक किसी निश्‍चित अर्थ का संकेत नहीं देती. वह बहुत सारी बतकहियों, मंतव्‍यों, चुहलबाजियों का सारांश होती है. उस अर्थ में अपनी ही समवयस कवयित्रियों में मोनिका अलग सी छिटकी मालूम होती हैं. पर कुछ कविताओं मे उनकी कल्‍पना खिलती है जैसे कवि सुंदर, अवसाद के दिनों, पासपोर्ट, शीतलहर, मत कहना किसी को प्‍यार से खरगोश, आगन्‍तुक आदि. पर अधिकतर कविताएं बोलती तो बहुत हैं पर उनसे कोई सुनिश्‍चित प्रतिबिम्‍ब नहीं बनता. तथापि मोनिका कुमार की असंबद्ध-सी लगती काव्‍य-प्रतीतियॉं अमूर्तन और विस्‍मयता के विन्‍यास का ही परिचायक हैं.



शब्‍दों के एकांत से आती स्‍मृति की प्रतिध्‍वनियां : सुशोभित सक्‍तावत
कहते हैं कोई भी नया कवि पुरखे कवियों की कोख से जन्‍म लेता है. वह कवि परंपरा का वाहक, संवर्धक, रूढ़ियों का भंजक और नई परंपराओं का प्रस्‍तावक होता है. अनेक युवा कवियों की कविताओं से गुजरना हुआ है, उनकी अलभ्‍य कवि-कल्‍पनाओं के प्रांगण में शब्‍दों पदों को किलकत कान्‍ह घुटुरुवन आवत के आह्लादक क्षणों में पग धरते देखा है और अक्सर चकित होकर अपार काव्‍यसंसार में कवि-प्रजापति की निर्मितियों को निहारने, गुनने और सुनने का अवसर मिला है. पर कुछ दिनों के बाद कोई न कोई कवि फिर  ऐसा आता है कि वह साधारण से लगते मार्ग का अनुसरण न कर कविता को भी अपनी चिति में ऐसे धारण करता है जैसे वह उसकी अर्थसंकुल संवेदना को धारण करने का कोई अनन्‍य माध्‍यम हो. सुशोभित शक्‍तावत की हाल ही में कुछ कविताओं(मैं बनूंगा गुलमोहर--संग्रह) से गुजरना हुआ जो प्रेम और श्रृंगार के धूप दीप नैवेद्य से सुगंधित लगीं. उन कविताओं की गहन एकांतिक अनुभूतियों के बरक्‍स हाल ही आए 'मलयगिरि का प्रेत'की कविताएं सुशोभित के अत्‍यंत गुंफित और प्रस्‍फुटित कवि-चित्‍त की गवाही देती हैं. अक्‍सर उनकी कविताओं को देख पढ कर हममें एक विस्‍फारित किस्‍म की मुद्रा जागती है और हम कल्‍पनाओं के विरचित प्रांतर में अभिभूत हो उठते हैं.


सुशोभित जैसे विद्या-व्‍यसनी, कला-व्‍यसनी, गीत-संगीत-फिल्‍म, भाषा-व्‍यसनी कवि के यहां हर चीज एक नए ढंग से कवि के अनुभवों के लोक का हिस्‍सा बनती है. इस कवि को पढते हुए लगता है यह कवि उस जन-अरण्‍य से आया है जहां अभी मनुष्‍यजाति की आदिम चेतना सांस ले रही है, जहां जीवन की मौलिकताएं अभेद्य हैं, जहां वह अजबलि का साक्षी होता है , बलिपशु के कातर करुण क्रंदन का साक्षी होता है, जिस परिदृश्‍य में जाम्‍बुल वन की कन्‍या, सिंघाडों के तालाब वाला गांव, कृष्‍ण वट, मोरपंखों के बिम्‍ब और ग्रीष्‍म की चित्रलिपियां उसकी राह देखती हैं, जहां पिता की गर्भवती प्रेमिका की याद घनीभूत होकर कवि- मस्‍तिष्‍क पर हावी हो उठती है. एक दूसरा परिदृश्‍य इन कविताओं में कला संगीत नाट्य के रसमय संसार से जुड़ता है जिसमें कलाओं में रमने का अभ्‍यस्‍त कवि-चित्‍त अपने होने में इन कलाओं की संगति को महसूस करता है जैसे वह चिरऋणी होकर इनके प्रति आभार जताने के लिए पैदा हुआ है.

कलाओं, संगीत, शब्‍द और अर्थमयता की सरणियों में अनेकार्थ लक्षित करने वाला यह कवि कभी कभार लौकिक दुनिया में लौटता है जहां बेटे की सिंघाड़े सरीखी श्‍वेत धवल दंतुरित मुस्‍कान भोर के स्‍वप्‍न तक गूंजती रहती है. एक पके कटहल का गिरना भी उसके लिए कुतूहलमय है.  उसका गिरना जैसे किसी गंधमादन का अवतरण हो, वह    मुखर्जी मोशाय की गांगुलीबाड़ी को रसमय कर देता है, इस धप्‍प से गिरने का संगीत जितना रसोद्भावक है उससे कम रसाप्‍लावित कवि की संवेदना नहीं होती. वह तो जैसे इस गिरने को उत्‍सवता की तरह दर्ज करता है. वह रस के इस वानस्‍पतिक वैभव को जिन शब्‍दों में सहेजता है वह कवि के सरोकारों का उत्‍कीर्णन भी है. देखें कवि कटहल के इस भाव-विभाव को किस कवि विवेक से लेता है --

विनय सीखना हो
तो सीखो फलों से लदे
दबे झुके गाछ से
धैर्य धरा से
व्‍याप्‍ति मुखर्जी मोशाय के
यशस्‍वी आम्रकुंज से.
और सीखना हो संतोष
तो सीखो कटहल के फल से
जो अपने में इतना संपूर्ण
इतना निमग्‍नओर
इतना आत्‍मविभोर! (मलयगिरि का प्रेत, पृष्‍ठ42)

सुशोभित एक साथ कोमल व बीहड़ गद्यांश दोनों के कवि हैं. प्रेम कविताएं लिखने की पूरी उम्र हैं उनकी. ऐसी कविताओं के साथ न्‍याय भी किया है. वे एक साथ ऐंद्रिय और अतीन्‍द्रिय भाव बोध के साधक हैं. उनकी विज्ञता की छाया भी कविताओं पर कम नहीं पड़ती सो तार्किकता और काल्‍पिनकता की एक अप्रत्‍याशित उड़ान उनकेयहां मिलती है. पर जिन दो छोटी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे एक विरल कविताई का आभास हुआ वे --किताब में गुलाब और जैसे मैं, जैसे तुम हैं. हम केदारनाथ सिंह की कविता हाथ पढ़ चुके हैं. कोमल नाजुक सी कल्‍पना की छुवन से विरचित वह कविता एक अनूठे भावबोध और संवेदना के रसायन में हमें भिगो देती है और हम काश! की कशिश से भर उठते हैं. बहुतेरी व्‍याख्‍याएं उस कविता की हुई हैं----उनकी तमाम अर्थवान कविताओं से भी ज्‍यादा लोकप्रिय हो उठी वह कविता आज भी हमारी रागात्‍मकता का पर्याय है.

सुशोभित सक्‍तावत की दों कविताएं देखें --

हाथ गुलाब भी हो सकते हैं.

हथेलियां
किताब भी हो सकती हैं.

तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में

छुपा लो !

• 
केवल खिड़कियॉं हैं:
जैसे ऑंखें,
जैसे धूप .


केवल परदे हैं:
जैसे चेहरे,
जैसे हवा .

केवल दीवारें हैं
जैसे मैं,
जैसे तुम. 

सच कहें तो अच्‍छी कविताओं को व्‍याख्‍या की कोई दरकार नहीं होती. ये कविताएं उसी कोटि की हैं. सुशोभित की सारी कविताएं इतनी ऋजु नहीं हैं . वे सम्‍यक् अर्थ की निष्‍पत्‍ति के लिए पाठक को अपने उद्यम के लिए उत्‍प्रेरित भी करती हैं. मैं बनूंगा गुलमोहर की प्रेम कविताएं और गद्य गीत जिन्‍हें कवि ने स्‍वयं चित्रलिपि और रेखाचित्र कहा है सचमुच गद्य के नए रूप का प्रस्‍तावन हैं. ये किसी को अच्‍छी भी लग सकती हैं, खराब भी. क्‍योंकि यह पारंपरिक गद्य या कविताओं में अभी तक बरते गए चिंतनशील गद्य के प्ररुप से तनिक अलग हैं. ये कथानक में हैं, संवाद प्रतिसंवाद में हैं तथा वक्‍तव्‍यों और आत्‍मकथन और स्‍वगत रूप में भी.
सुशोभित की यही खूबी है और यही उनकी कविता की सीमाएं भी हैं---क्‍योंकि उनकी कविताएं न तो परंपरानुधावक हैं न वैसा होने की कोई ख्‍वाहिश रखती हैं. इसके साथ ही प्रकाशित 'मलयगिरि का प्रेत'की कविताएं कविता के एक नए स्‍थापत्‍य का वाहक हैं----वहां रागात्‍मकता नहीं, प्राच्‍य विद्या, दर्शन, अध्‍यात्‍म, आरण्‍यक, उपनिषद, राग, संगीत, फिल्‍म, नाट्य, गार्हस्‍थ्‍य, इतिहास, पुरातत्‍व तथा प्राचीनों से गप लगाते आधुनिक का-सा बोध है. पर अभी तो मेरा मन इन्‍हीं दो लघु कविताओं में रमा है. एक अनुगूंज की तरह . सच कहें तो कविताएं ऐसी ही  छोटी छोटी होनी चाहिए. देखन में छोटी लगें घाव करें गंभीर.



एक पुराधुनिक कवि का काव्‍याभ्‍यास : अम्‍बर पांडेय 
हाल के कविता परिदृश्‍य में पिछले दिनों जो नाम चर्चित रहा वह है अंबर पाण्‍डेय का. लगभग सुशोभित शक्‍तावत की तरह ही अचूक कल्‍पनाशील और अपनी ज्ञान गरिमा से अलंकृत अंबर की कुछ कविताएं सोशल मीडिया पर जारी हुईं तो एकाएक कोलाहल सा जाग उठा. दोपदी सिंघार और तोता बाला ठाकुर-के नामों से लिखी जाती वे कविताएं बताती थीं कि 'मैं खयाल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है.'कुतूहल इस बात का था कि यह कौन है जो एक नई भाषिक स्‍थानिकता की कविताएं लिख रहा है तथा स्‍त्री की पीड़ा को एक नव छायावादी स्‍वर दे रहा है. ये कविताएं बताती थीं कि ये कविताएं ---जो मार खा रोई नहीं ---से गुजरती ऐसी स्‍त्रियों की व्‍यथाओं का ऐसा कारुणिक आख्‍यान है जो किसी भोगे हुए यथार्थ का अतियथार्थवादी चित्रण है. बंगाल और देश दीगर क्षेत्रों के ऐसे गुह्य लोकों में ले जाती ये कविताएं एक नए मिजाज की कविताएं थीं जिनकी उत्‍कृष्‍टता से किसी को गुरेज न था सिवाय यह जानने के कि इसका रचयिता कोई और है. बाद में पता चला कि उन कविताओं का रचयिता एक पुरुष है और वह है अंबर रंजना पांडेय.

अंबर पाण्‍डेय ऐसे ही साहसिक कवि का नाम है जिसका काव्‍याभ्‍यास नए आयामों को छूने का कौशल रखता है. 2018 के आखिरी दिनों में आए अंबर पांडेय का कविता संग्रह कोलाहल की कविताएं इस बात का परिचायक हैं कि यह कवि किसी समकालीनता में नहीं, शाश्‍वत के  बीहड़ों में सांस लेता है. वह उतना ही छायावादी किन्‍तु उतना ही आधुनिक है या कहना चाहिए वह एक पुराधुनिक कवि है जो भाषा के भ्रष्‍ट होने में ही उसकी सच्‍ची चरितार्थता देखता है तो कदम्‍ब, बबूल, अमरूद, जामुन, न्‍योजो, बिल्‍व, पलाश, सार, आम- लंगड़ा, चौसा, तोतापुरी, महुआ और अश्‍वत्‍थ वृक्षों के साथ कविता की नव्‍यतम परिकल्‍पनाओं को साकार करता है.

अंबर पांडेय की कविताओं में एक अदृश्‍य रहस्‍य रोमांच है जो कविताओं की रीढ़ में एक नया रोमांच पैदा करता है. कविताओं का डिक्‍शन भी इस कवि का बहुत अलग है. वह व्‍याकरण के अनुशासन को तोड़ता हुआ कहीं भी अल्‍प विराम पूर्णविराम या अर्धविराम पर कविता छोड़ सकता है. उसके शब्‍द भी अटपटे होकर भी एक नया परिष्‍कार कविता की गतानुगतिकता में करते दीखते हैं जैसे वाराणसी में बाढ़ कविता लिखते हुए उसका यह लिखना ---

बंधु रे आपगा में अम्‍बु अपार
घाट पांक-गारे में लीन
घने पाकुर के श्‍याम पत्रों में
खो गया बासर, दीन
मंगते पर बीती रात
गिरी गाज गंगा किनार

यह वर्णन ज्ञानेन्‍द्रपति जैसे 'काशी के तकवाहे'तक पर कविता लिखने वाले कवि की व्‍याकरणिक इकाई से कितना अलग है. अंबर के यहां संस्‍कृत, बांग्‍ला के साथ तद्भव और प्रचलन से बाहर के अनेक ऐसे शब्‍द मिलेंगे कि लगेगा कि हम दशाब्‍दियों पहले के बनते हुए गद्य के स्‍थापत्‍य से गुजर रहे हैं. वह भाषा के तूणीर का साधता हुआ एक स्‍थपति सा प्रतीत होता है. उसकी भाषा कभी कभी अनुपन्‍यास की-सी कृष्‍ण बलदेव वैद सरीखी अकवितामयी भाषा भी लगती है . भाषा की विंध्‍याटवी से उठाए गए ऐसे शब्‍द मिलते हैं जैसे कौन कवि कहेगा आज भला यह कि ---''शुकपुष्‍पा के तरुओें तक चंण्‍ड मेघ घिर गए हैं'', या ''वसन्‍त में पर्जन्‍य छा गए.''या ''गह्वर गात्र, गुढ़े पर एकाकी, गूढ़ है. छाल पीकर अनेक गहेले जिनका मानस भटकता करता था, ठीक हो गए. गुडाकेश का गाछ इष्‍ट . ''

इस तरह भाषा अर्थ शैली शिल्‍प सब कुछ अपनी समकालीनता से अलग दिखता हुआ अंबर पांडेय की कविताओं को पढ़ने के लिए नए धीरज की मांग करता है. नामवर जी जब तब नए नए कवियों की कविताओं के लिए नए काव्‍यशास्‍त्र की मांग करते रहे हैं पर न ऐसा काव्‍यशास्त्र नामवर जी ने कभी सुझाया उसकी कसौटियां या सांचे रखे न इस दिशा में किसी काम की प्रत्‍याशा है. हम केवल सिर धुनने के लिए हैं कि ऐसे कवि आखिर कविता की किन नई कसौटियों पर परखे व व्‍यवहृत किए जाएं या ऐसे नवाचारों की स्‍वीकृति के लिए हमारा पाठक कितना अभ्‍यस्‍त हो सका है.

संस्‍कृत में कहा गया है, अनभ्‍यासे विषं शास्‍त्रम्. जिस तरह बिना काव्‍याभ्‍यास के अच्‍छी कविता लिखना असंभव है, वैसे ऐसे नवाचारों का अनभ्‍यासी पाठक इन कविताओं को लेकर सिर धुने तो अत्‍युक्‍ति नहीं . पर यह हमारे समाज की बौद्धिकता की सीमा है, कवि की नहीं. वह अपना भाष्‍य खुद क्‍योंकर लिखेगा. यह भाष्‍यकारों का काम है कि उसके लिखे को जन जन तक पहुंचाएं. भाषा अशुद्ध होकर धूल मिट्टी में सन कर ही नए स्‍वरूप में ढलती है . ऐसी ही एक कविता ''बहुत हैं मेरे प्रेमी''के पीछे कवि का भाषा-चिंतन देखिए ---

मैं तो भ्रष्ट होने के लिए ही
बनी हूँ
बहुत हैं मेरे प्रेमी
पाँव पड़ता हैं मेरा नित्य
                        ऊँचा-नीचा

मुझसे सती होने की आस
मत रखना, कवि

मैं तो अशुद्ध हूँ
घाट-घाट का जल
भाँत-भाँत की शैया
भिन्न-भिन्न भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे निकट

प्रौढ़ा हूँ, विदग्धा हूँ
जल चुकी हूँ
यज्ञ में, चिता में, चूल्हे में

कनपटियों की सिरायों में
टनटनाती रहीं सबके, दृष्टि में
रही अदृश्य होकर, जिह्वा पर
मैं धरती हूँ कलेवर
उदर में क्षुधा, अन्न में तोष
निद्रा में भी
स्वप्न खींच लाया मुझे
और ले लिया मेरे कंठ का चुम्बन

फिर कहती हूँ, सुनो
ध्यान धरकर

मैं किसी एक की होकर नहीं रहती
न रह सकती हूँ एक जगह
न एक जैसी रहती हूँ

नित्य नूतन रूप धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन हूँ रजस्वला
मैं अस्वच्छ हूँ टहकता हैं मेरा
रोम-रोम स्वेद से
इसलिए मैं लक्ष्मी नहीं हूँ
न उसकी ज्येष्ठ भगिनी

मैं भाषा हूँ, कवि
मुझे रहने दो यों ही
भूमि पर गिरी, धूल-मैल
से भरी

जड़ता में ढूँढ़ोगे तो मिलेगा
सतीत्व, जीवन तो स्खलन
हैं, कवि

जल गिरता हैं
वीर्य गिरता हैं
वैसे मैं भी गिरती हूँ
मुझे सँभालने का यत्न न करो
मैं भाषा हूँ
मैं भ्रष्ट होना चाहती हूँ .

कबीर, तुलसी, मीरा, रैदास बुद्ध, नानक सब इसी भ्रष्‍ट भाषा के कवि-चिंतक हैं. अंबर की ये कविताएं निश्‍चय ही आज के कविता परिदृश्‍य में एक नया कोलाहल पैदा करेंगी, इसमें संदेह नहीं.




प्रतिकार की काव्‍यात्‍मक फलश्रुति: जसिन्‍ता केरकेट्टा
ज्‍यादा दिन नहीं हुए जब आदिवासी इलाके की कवयित्री निर्मला पुतुल ने अचानक हिंदी कविता में उतर कर हाशिए के विमर्श को एक नई दिशा दी थी. तब हिंदी में स्‍त्री विमर्श, दलित विमर्श की आंच मंद मंद दहक रही थी और सामाजिक परिवर्तन की आबोहवा बदलने में इन विमर्शो का भी एक हल्‍का सा योगदान माना जा सकता है. निर्मला पुतुल की पहली खेप की कुछ कविताएं हिंदी कविता के सुधी मर्मज्ञ समालोचक प्रभाकर श्रोत्रिय ने उन्‍हें वागर्थ में छापा था. उसी का असर था कि आगे चल कर आदिवासी कविता में निर्मला पुतुल एक विशिष्‍ट कवयित्री के रूप में स्‍थापित हुईं. उसके बाद आदिवासी कवियों की एक नई पीढ़ी का उदय हुआ जसिन्‍ता केरकेट्टा जिसकी आधुनिक आमद हैं.

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जसिन्‍ता केरकेट्टा की कविता पुस्‍तक जड़ों की ज़मीन हाल ही में आई है जिसकी कविताएं आदिवासी जीवन और समाज के यथार्थ को नए तरीके से प्रस्‍तुत करती हैं. जिस तरह आधुनिकता के अभियान में देश से जंगल उजाड़े जा रहे हैं, आदिम गांव लुप्‍त हो रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट और सत्‍ता के गठजोड़ की नजर है, जिस तरह जल, जंगल और ज़मीन से आदिवासियों का हक छीना जा रहा है वह हमारी मानवीय सभ्‍यता के लिए भयावह है. पूंजी का आकर्षण आदिवासियों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर रहा है. ऐसे हालात में जिस तरह आदिवासियों को उनकी स्‍मृति, उनके अतीत, उनकी जीविका के स्रोतों से जुदा किया जा रहा है उसकी पीड़ा उसकी तहरीरें जेसिन्‍ता केरकेट्टा की कविताओं में दर्ज है.

कविता की सामाजिक उपयोगिता यही है कि जो काम समाजशास्‍त्र अर्थशास्‍त्र और सामाजिक अध्‍ययन के अन्‍य उपक्रम करते हैं एक कवि उसे अपनी तरह से व्‍यक्‍त करता है. उसके विवेचन में आधुनिक सभ्‍यता और सत्‍ता और समाज का क्रिटीक अपने गहरे अवसाद और आवेग के साथ धड़कता है. यह और बात है कि हर समय सैकड़ो कवियों में कुछ में यह चेतना होती है कि वे काव्‍यभाषा के स्‍तर पर भी सजग और प्रयोगधर्मी होते हैं तथा कविताओं को केवल शिकायतनामा में बदलने की अंतिम फलश्रुति मान कर नहीं बैठ जाते. जेसिन्‍ता केरकेट्टा की कविताएं केवल शिकायत के लहजे में नहीं, अंतश्‍चेतना और कवित विवेक के साथ भाषाई स्‍थापत्‍य की सहजता के साथ पेश आती हैं. जिन परिस्‍थितियों में आज के बड़े कवि कुंवर नारायण ने लिखा है : मुझे मेरे जंगल और वीराने दो . जिन परिस्‍थितियों में कभी सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना ने लिखा था  कि मुझे जंगल की याद मत दिलाओ/ जंगल की याद अब उन कुल्‍हाड़ियों की याद में बदल गयी है जो कभी मुझ पर चली थीं--आज वे परिस्‍थितियां कहीं ज्‍यादा भयावह है. हो न हो जंगलों के इसी दोहन ने आदिवासियों में प्रतिकार की आग दहका दी है तथा जो कह सकते हैं, बोल सकते हैं, वे उस प्रतिकार की भाषा बोल भी रहे हैं. प्रतिकार की भाषा न सत्‍ता को रास आती है न कारपोरेट को और अपने हक से बेदखल शख्‍स पर आसानी से 'नक्‍सल'का टैग लगा दिया जाता है. कवियों में यह प्रतिकार विट और व्‍यंजना की जिस कोख से पैदा होता है, वह अब कवियों में दुर्लभ हो चला है. सौभाग्‍य से कुछ कवियों में प्रतिकार विट और कविता को सार्थक बनाने वाले प्रत्‍यय सच्‍चे अर्थों में सक्रिय हैं तथा उनकी आवाज कविता में सुनी जा रही है. जेसिन्‍ता केरकेट्टा उन्‍हीं कवियों में एक हैं.

जेसिन्‍ता केरकेट्टा की कविता के कुछ उदाहरण द्रष्‍टव्‍य हैं --

बांधते हुए बांध कह रहे तुमसे
जब मैं टूटूँगा इस बार
कसम से
धो डालूंगा तुम्‍हारे सारे पाप (तुम्‍हारे सारे पाप, पृष्‍ठ 162)

मेरा पालतू कुत्‍ता
सिर्फ इसलिए मारा गया
क्‍योंकि खतरा देख वह भौंका था
मारने से पहले उनहोंने
उसे घोषित किया पागल
और मुझे नक्‍सल...
जनहित में .   (जनहित, पृष्‍ठ 158)

मशीनें
पेड़ों को उखाड़ने के बाद हॉंफती हैं
अब हॉफती मशीनें ढूढ़ती हैं
कहीं कोई पेड़ की छांह .( हांफती मशीनें)

ये कविताएं मरती हुई आदिम सभ्‍यता का शोकगीत हैं. कभी निर्मला पुतुल की आवाज में यह जादू था, आज वह जादू जेसिन्‍ता केरकेट्टा की कविताओं में बोल रहा है.



व्‍यंजना की मिठास : ओम नागर
राजस्थान में ऋतुराज एवं प्रभात की परंपरा के कवि ओम नागर के यहां कविता राजनीतिक पैंतरेबाजी का पूरा हिसाब रखती है और काव्यात्मक प्रतिफल में बदलती हुई एक सजग कवि के उत्तरदायित्व का परिचय देती है. ओम नागर की कविताएं जीवन की जटिलताओं और धूल धक्कड़ में गर्क होते ग्राम और कस्बाई जीवन की हकीकत का बयान करती हैं. उनके पहले संग्रह 'विज्ञप्ति भर बारिश'से कविता से उनकी प्रौढ़ता और परिपक्वता का आभास मिलता है. उनकी कविताएं सामयिक हालात का ही निर्वचन हैं.

राजस्‍थान की जमीन से जुड़े कवि के लिए यह कितना कठिन है कह पाना कि खेती किसानी दिनों दिन कितनी कठिन हो चली है. उपजाएं तो क्‍या उपजाएं--इसी व्‍यथा का निर्वचन है. शायद यही कठिनाई है कि कवि अपनी कविता 'जमीन और जमनाताल: तीन कविताएं'में पूछता है, ''आठो पहर यूँ खेत की मेड़ पर उदास क्‍यों बैठे रहते हो जमनालाल ?'यह उस किसान की त्रासदी का कच्‍चा चिट्ठा है जिसके खेत की मेड़ को चीरते हुए कोई राजमार्ग गुजरने वाला है. एक किसान भला अधिगृहीत जमीन के विरुद्ध किस कोर्ट कचहरी जा सकता है. ओम नागर, अकारण नहीं,कि खेती किसानी की बात करते हैं. किसानों की उदासियों की बात करते हैं. भूख पर तीन कविताएं लिख कर ओम नागर में भूख का पूरा व्‍याकरण खंगाल डाला है. ओम नागर बेशक खड़ी बोली के कवि हैं किन्‍तु  उनकी कविताओं में गांव का कठिन जीवन यथार्थ ओझल नहीं होता. वह भूख नहीं ओझल होती जो किसानों और आम नागरिकों के माथे पर नियति जैसे दर्ज हो गयी है.

वह कविसुलभ रोष से भर कर कहता है: एक दिन भूख के भूकंप से / थरथरा उठेगी धरा/ इस थरथराहट में तुम्‍हारी कँपकपाहट का कितना योगदान/ यह शायद तुम भी नहीं जानते/ तने के वजूद को कायम रखने के लिए / पत्‍तियों की मौजूदगी की दरकार का रहस्‍य/ जंगलों ने भरा है अग्‍नि का पेट. यह कवि ही विजुअलाइज कर सकता है कि इन दिनों जितनी लंबी फेहरिस्‍त भूख की/ भूखों मारने वालों की /उससे कई गुना भूखे पेट /फुटपाथ पर बदल रहे होते हैं करवटें. (विज्ञप्‍ति भर बारिश, पृष्‍ठ 41)

ओम नागर जिस रूखी सूखी धरती के कवि हैं, उस परिदृश्‍य को , जीवन नियति को अपनी कविताओं में भुला नहीं बैठते. वे अपने अशांतसमय को कविता में दर्ज करते हैं तो समय के संक्रमण को भी बखूबी महसूस करते हैं. उनके पास कुएँ की आत्‍मीय स्‍मृति है, सूखे के गहरे निशान हैं तो बेमौसम बारिश से उपजे करुण हालात भी जहॉं बारिश में कितने सपने कितनी खुशियां बह जाती हैं. जल उनके इलाके के लिए एक नेमत है तो वह यह जानता है कि मनुष्‍य ने कितनी गहराई तक पृथ्‍वी को खँखोरता जा रहा है और जल की सतह लगातार नीचे उतरती जा रही है. वह यह कहने से नहीं चूकता कि --
जल के लिए भविष्‍य में आसन्‍न्‍ खड़े हैं
तीसरे चौथे न जाने कितने महायुद्ध.
आज अगर तेल की धार पर टिकी है
संपन्‍न मुल्‍कों की कुटिल आंखें
कल जल के लिए बिछेंगी बिसातें
गंगा यमुना, चंबल, सिंध नील अमेजन
न जाने कितनी नर्मदाओं के तटों पर
लिखे जाएंगे फिर से रक्‍त रंजित
मानव सभ्‍यता के इतिहास. (जल के लिए, पृष्‍ठ 61)

ओम नागर की कविताओं में पानी की, जमीन की, किसानों की नियति की अनेक बातें आती हैं. जिनकी छिन गयी जमीन उन किसानों की व्‍यथा भी वे लिखते हैं और विज्ञप्‍ति भर बारिश लिखतें हुए उस कथ्‍य पर भी बल देते हैं जो व्‍यंजना की मिठास से भरी है.



बेचैनी और उद्विग्‍नता का कवि : शंकरानंद
जीवन यथार्थ के निकट वे कवि कम हैं जो शहराती भाव बोध को अपनी कविता के कथ्‍य में संजोते आए हैं .  इससे यह धारणा बनती है कि कविता की कच्‍ची और उर्वर जमीन आज भी गांवों व कस्‍बों में है जहां कविताएं धारोष्‍ण दूध की तरह थनों से उतरती हैं और न्‍यायिक प्रक्रिया में अपना हक़ मांगती हुई प्रतीत होती हैं. शंकरानंद के संग्रह 'इन्‍कार की भाषा'को पढ़ते हुए लगता है, लोकतंत्र में आवाज़ें खत्‍म की जा रही हैं, गौरेया प्रजाति का लोप हो रहा है, न्‍याय की तलाश में बार बार खारिज होती अपील, जो नहीं लौटा उसके लौट आने की उम्‍मीद के साथ गिर गिर कर सम्‍हलने की कोशिश करते बच्‍चे पर कविता लिख कर शंकरानंद ने जताया है कि अब कविता उनकी पकड़ में समा रही है, उनकी संवेदना में कवि की वेदना का आयतन सघन हो रहा है. धीरे धीरे आवाज़ उठाने की संभावनाएं खत्‍म होने के इस युग में कवि ही यह जोखिम लेता है कि वह नागरिकों की ओर से आवाज़ उठाए. शंकरानंद की कविताएं अपनी शिल्‍पविहीनता में मर्मस्‍पर्शी कविताएं हैं जो  युवा कवियों के मध्‍य शंकरानंद के कवित्‍व को ध्‍यानाकर्षी बनाती हैं. सहजता में जिए गए कविता के मार्मिक क्षणों को उनकी कविताओं में डिकोड किया जा सकता है.

शंकरानंद सहज कवि हैं. गांव- देहात की समस्‍याओं से वाकिफ . उनकी कविताओं में ऐसे तत्‍व दीख पड़ते हैं जो उनकी इस सजगता की गवाही देते हैं. जैसा कि मैंने कहा वे सहजता से किसी विषय को देखते हैं तथा अपने विचार  सामने रखते हैं. देखते देखते गांव घर में क्‍या कुछ बदला है, क्‍या कुछ नया आ रहा है जीवन में. एक नागरिक एक मतदाता को अपने होने की क्‍या क्‍या कीमत चुकानी पड़ती है, उनकी कविता एक कचोट की तरह जीवन के तमाम दु:स्‍वप्‍नों का भी हिसाब किताब रखती है. बहुतेरी सपाट सीधी एकरैखिक कविताओं के बावजूद उनकी कुछ कविताएं मुझे छूती हुई लगती हैं, जैसे पानी के लिए, न्‍याय की बात, पूरी पृथ्‍वी विदर्भ, वसंत के दिन आदि. इससे पहले की भी कुछ कविताएं बल्‍ब, नमक, मैं मजदूर, सिक्‍के का मूल्‍य, अनशन आदि छोटी किन्तु प्रभावी कविताएं लिखी हैं उन्‍होंने. उन्‍हें पढते हुए ग्रामीण और कस्‍बाई पूर्वी भारत की अर्थव्‍यवस्‍था व सामाजिक व्‍यवस्‍था की एक छवि प्रतिबिम्‍बित होती है. 'इनकार की भाषा'से उनकी एक कविता 'पूरी पृथ्‍वी विदर्भ'से ही उनकी बेचैनी और उदविग्‍नता का अनुमान लगाया जा सकता है ---
यह समय बीज के स्‍वप्‍न का है
जब खाली खेत से दानों की पुकार उठ रही है
वे दाने जो सांस बन कर लौटना चाहते हैं एक किसान के लिए
जिन घरों से रोने की आवाज़ उठ रही है
वह कोई रईस नहीं होगा
कौडी के दाम में अनाज बेच कर लौटा किसान होगा कर्ज़ में डूबा
जिसकी मृतक देह से छूट नहीं रहा जीवन
मुट्ठी में हैं दोने जैसे बीज
अब उन दानों को खेत नहीं आग मिलेगी
राख हो जाने के लिए

यह शोक का समय है जब जल रहा है बीच और स्‍वप्‍न
धुआं धुआं
एक किसान के लिए पूरी पृथ्‍वी विदर्भ है.

यह कविता पढ़ते हुए अचानक अरुण कमल याद हो आए--- बिहार के ही जाने माने हिंदी कवि जिन्‍होंने अपनी एक कविता में पूछा था---'क्‍या तुम जानते हो कि जब तुम खा रहे थे तब कोई जान दे रहा था विदर्भ अबोहर मदुरै में?’ शंकरानंद जैसे इस बात का प्रत्‍युत्‍तर देते हों अपने पूर्वज कवि को कि ''हां मुझे मालूम है, एक किसान के लिए यह पूरी पृथ्‍वी ही विदर्भ है.''

इस तरह हिंदी कविता का यह संसार जो इन युवा कवियों के माध्‍यम से खुल रहा है, वह इस बात का परिचायक तो है कि इधर एक नए अर्थ और अंतर्वस्‍तु का प्रकटीकरण संभव हुआ है . बाबुषा कोहली ने नए गद्य का प्रस्‍तावन संभव किया है तो सुशोभित और अंबर पांडेय ने अपने अनुभवबहुल संसार की गहराइयों का उत्‍खनन किया है. अविनाश मिश्र ने हमारे वक्‍त की विडंबनाओं पर तल्‍ख टिप्‍पणियां की हैं तो जसिंता केरकेट्टा ने जमीनी यथार्थ को परत दर परत उघाड़ने का यत्‍न किया है. यद्यपि इस यथार्थ समय में कविता हमेशा गुस्‍से और प्रतिकार की मुद्रा में ही रहे यह जरूरी नहीं. वह बाबुषा कोहली, गीत चतुर्वेदी, सुशोभित, अंबर पांडेय और मोनिका के अंदाजेबयां में भी लिखी जा रही है और कविता के एक व्‍यापक समाज में सराही और व्‍यवहृत की जा रही है.
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डबल सेवेन: ‘अच्छे दिनों’ का कोल्ड ड्रिंक : सौरव कुमार राय

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डबल सेवेन: ‘अच्छे दिनों’ का कोल्ड ड्रिंक                
सौरव कुमार राय







धुनिक भारतीय इतिहास में कुछ वर्ष सिर्फ कैलंडर वर्ष न रह कर किसी भव्य परिघटना की अभिव्यक्ति बन चुके हैं. उदाहरण स्वरूप 'सन सत्तावन'का उल्लेख आते ही 1857 का महान विद्रोह एवं उस से जुड़ी घटनाएं सहज ही जेहन में आ जाते हैं. कुछ ऐसा ही 'सन बयालीस'के साथ है जो हमें 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का स्मरण कराता है. इसी क्रम में आज़ाद भारत का कोई एक वर्ष जो हमारी जेहन में गहरा बैठा हुआ है वह है 'सन सतहत्तर'. यह वही वर्ष है जब भारत में प्रथम ग़ैर-काँग्रेसी सरकार केंद्र की सत्ता में स्थापित हुई. आपात काल के गर्भ से जन्मी 'जनता सरकार'भारतीय लोकतंत्र में एक मील का पत्थर है. परस्पर विरोधी विचारधारा के प्रवर्तक दलों की इस साझा सरकार से भारतीय जनमानस को काफी उम्मीदें थीं. साथ ही इस सरकार को जयप्रकाश नारायण का वरदहस्त भी प्राप्त था जिस से आम जन के प्रति इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गयी थी. ऐसे में रोटी एवं रोजगार जनता सरकार के एजेंडे में सर्वोपरि थे.

यदि हम जनता सरकार के कैबिनेट की संरचना देखें तो इसमें एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता शामिल थे. चाहे वो सर्वप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी हों या फिर किसान नेता चौधरी चरण सिंह या फिर एच. एम. पटेल, लाल कृष्ण आडवाणी और प्रकाश सिंह बादल सरीखे लोकप्रिय नेता. जनता सरकार में उद्योग मंत्री का पदभार उस समय के कद्दावर ट्रेड यूनियन नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने संभाला जो आगे चलकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में रक्षा मंत्री भी बने. जॉर्ज फर्नांडिस अपने समाजवादी विचारधारा के लिए सुप्रसिद्ध थे. उद्योग मंत्री के तौर पर उन्होंने विदेशी मुद्रा विनियमन (फेरा) अधिनियम, 1973 को कठोरता से लागू करना चाहा. इस अधिनियम का मूल उद्देश्य विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में व्यापार के संचालन को नियंत्रित करना था. यह बात भारत में काम कर रही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों  जैसे कि आई.बी.एम., कोका कोला, कोडेक एवं मोबिल को काफी नागवार लगी. यह कहा जाता है कि जॉर्ज फर्नांडिस ने कोका कोला पर अपने 'गुप्त नुस्ख़े'को सहायक भारतीय कंपनियों  के साथ साझा करने के लिए भी दबाव बनाया. इस के प्रतिरोध में कोका कोला ने जून 1977 में भारतीय बाजार से अपने हाथ वापस खींच लिए. परिणामतः, इसमें कार्यरत हज़ारों कर्मचारियों पर बेरोजगारी का खतरा मंडराने लगा. ऐसे में जनता सरकार ने कोका कोला के स्थान पर एक वैकल्पिक पेय पदार्थ की तलाश शुरू कर दी.

इस वैकल्पिक पेय पदार्थ का फॉर्मूला विकसित करने की ज़िम्मेदारी केंद्रीय खाद्य तकनीक अनुसन्धान संस्थान (मैसूर) को दी गयी. संस्थान के समक्ष सरकार द्वारा दो शर्तें राखी गयीं: पहली यह कि संभावित कोल्ड ड्रिंक का स्वाद कोका कोला से मिलता-जुलता होना चाहिए; और दूसरी यह कि इस का स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव कम-से-कम होना चाहिए. तदोपरान्त, संस्थान द्वारा विकसित फॉर्मूला के आधार पर इस वैकल्पिक पेय पदार्थ के वृहत् उत्पादन का उत्तरदायित्व सरकारी कंपनी मॉडर्न फूड इंडस्ट्री को सौंपा गया. इस तरह 1977 में कोका कोला के स्थान पर एक सरकारी कोला का उत्पादन शुरू हुआ जिसका नाम 'डबल सेवेन'अथवा 'सतहत्तर'रखा गया. इसका यह नाम तत्कालीन सांसद एच.एम. कामथ ने 'सन सतहत्तर'के स्मारिका स्वरुप सुझाया था जो सभी को काफी पसंद आया. यदि हम समाचार पत्रों में इस शीतल पेय का विज्ञापन देखें तो यह स्पष्ट तौर पर सन सतहत्तर के 'अच्छे दिनों'का कीर्तिगान जैसा प्रतीत होता है. जनता सरकार का यह मानना था कि सन सतहत्तर की परिघटनाएं जिसमें आपात काल का पराभव एवं जनता दल की विजय महत्वपूर्ण थी भारतीय इतिहास के अच्छे दिनों में से एक है. वस्तुतः, सन सतहत्तर एवं आपात काल की गूँज किसी-न-किसी रूप में जनता सरकार के संपूर्ण कार्यकाल में देखी जा सकती है. 


यह गौरतलब है कि डबल सेवेन का उद्घाटन स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने काफी ज़ोर-शोर से दिल्ली अवस्थित प्रगति मैदान में किया. डबल सेवेन की प्रशंसा करते हुए एक लोक सभा सदस्य ने तो यहाँ तक कहा कि अब हमारे पास राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्र गान, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय चिह्न और राष्ट्रीय पशु के साथ-साथ एक राष्ट्रीय शीतल पेय भी है. अतः इस नवोद्भिद शीतल पेय को एक ‘विशुद्ध राष्ट्रीय पेय’ की तरह प्रचारित करने की चेष्टा की गयी. यहाँ डबल सेवेन कई मायनों में राष्ट्रवाद एवं व्यावसायिक उत्पादों के मध्य अनन्य संबंध को भी परिलक्षित कर रहा था जिसकी झलक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी देखी जा सकती है. जनता को आकर्षित करने के लिए मॉडर्न फूड इंडस्ट्री ने 'डबल सेवेन टिंगल'जो कई मायनों में मौजूदा लिम्का के स्वाद से मिलता-जुलता था का भी उत्पादन शुरू किया.

इन सब के बावजूद, डबल सेवेन आमजन को लुभाने में असफल रहा. लोगों का यह मानना था कि डबल सेवेन में कोका कोला वाली बात नहीं है. इसी बीच कोका कोला ने भारतीय बाजार के अपने नुकसान की क्षतिपूर्ति हेतु पाकिस्तानी बाजार को साधना शुरू कर दिया. ऐसे में तत्कालीन समाचार पत्रों में पाकिस्तान से कोका कोला के सीमा पार तस्करी की भी रिपोर्ट मिलती है. 1980 में जनता सरकार के गिरने के साथ ही डबल सेवेन के समक्ष गंभीर संकट उत्पन्न होने लगा. नव निर्वाचित प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए यह शीतल पेय सन सतहत्तर में उनकी हार का संस्मरणात्मक प्रतीक था. अतः उन्होंने इसके उत्पादन को ज़ारी रखने के लिए किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता देने से साफ़ इंकार कर दिया. अंततः, मॉडर्न फूड इंडस्ट्री को 'सन सतहत्तर'के इस विचित्र प्रतीक का उत्पादन बंद करना पड़ा.

दूसरी तरफ, कोका कोला द्वारा भारतीय बाजार में खाली किये गए स्थान को भरने हेतु डबल सेवेन के तर्ज़ पर ही अनेक निजी कंपनियों ने भी इस से मिलते जुलते स्वाद वाले कोल्ड ड्रिंक का उत्पादन शुरू किया. इन में से कुछ प्रमुख थे कैम्पा कोला, थम्स अप, डबल कोला, ड्यूक, मैकडॉवेल क्रश और थ्रिल. 1980 का दशक इन शीतल पेयों के नाम रहा. हालांकि 1989 में भारतीय बाजार में पेप्सी के आगमन एवं 1993 में कोका कोला की वापसी के साथ ही आगामी कुछ वर्षों में भारतीय कोल्ड ड्रिंक बाज़ार का संपूर्ण गणित इन दो कंपनियों तक सिमट कर रह गया.
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सौरव कुमार राय
वरिष्ठ शोध सहायक
नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय  
नयी दिल्ली
skrai.india@gmail.com/
मोबाइल: 9717659097

पाब्लो नेरुदा : प्रेम, सैक्स और "मी टू" : कर्ण सिंह चौहान

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पाब्लो  नेरुदा : प्रेम, सैक्स और "मी टू"

पिछले दिनों हिंदी में बाबा नागार्जुन को लेकर जब “मी टू” का मामला सामने आया तब अधिकांश साहित्यकारों (जाहिर है साहित्य पुरुष-प्रधान होने से पुरुष ही अधिक) की प्रतिक्रिया एकदम जैंडर लाइन पर ही थी और लगभग वे ही घिसे-पिटे तर्क दिए जा रहे थे जो मर्दवादी मानसिकता में दिए जाते हैं. कुछ स्त्रियां भी उनके साथ खड़ी हुईं जैसे कुछ पुरुषों ने अपवाद-स्वरूप आरोपकर्ता का साथ दिया.
दुनिया के और देशों में  “मी टू” आधारित आरोप पहले ही शुरू हो चुके हैं. इनमें सबसे गंभीर मामला है पाब्लो नेरुदा का.
चौदह मई, 2018 के ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ में बेन बॉलिग ने नेरुदा के अंग्रेजी में अनुवाद होकर आए दो नए संकलनों के छपने पर चुटकी लेते लिखा– “क्या नेरुदा अभी भी पढ़े जा सकते हैं ?” और खुलासा करते हुए कहा कि इसके लिए जिम्मेदार खुद लेखक ही है जिसने अपनी जीवनी, रचनाओं और संस्मरणों में काफी कुछ ऐसा कहा है जिसे छोड़कर उसे पढ़ना संभव नहीं है. इसमें उसकी जीवनी में वर्णित एक तमिल महिला से जबरदस्ती वाला मामला तो है ही, बाकी संदर्भों की भी खोजबीन शुरू हो गई है.
ये खोज कितनी दूर तक जा पहुंची है इसका अंदाजा उपन्यासकार मारिओ वर्गास लोसा के उपन्यास “बकरी भोज” का एक प्रसंग उल्लेखनीय है. उसमें तानाशाह रफाएल ट्रुजिलो द्वारा एक युवती से जबरदस्ती करने की घटना का जिक्र किया गया है. उसमें लिखा है कि उसने ऐसा करने से पहले नेरुदा के काव्य-संकलन “बीस प्रेम कविताएं और निराशा का एक गीत” से पंद्रहवीं कविता उस लड़की को सुनाई. इसका सीधा सा अर्थ है कि नेरुदा की इन कविताओं में कुछ ऐसा है जिसे इस तरह के अपराध के लिए सहज ही प्रयोग में लाया जा सकता है.
फिर तो बात और आगे तक चली गई और लोगों ने इस दृष्टिकोण से नेरुदा के पूरे लेखन को खंगालना शुरू किया.
अपनी रुचियों और पसंदों को लेकर नेरुदा की उत्सवधर्मिता और बेबाकी, जो अभी तक पाठकों और लेखकों के लिए नेरुदा के लेखन के विशेष आकर्षण माने जाते रहे, अब इस मर्दवादी विमर्श के संदर्भ में उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल किए जाने लगे हैं. मसलन उनकी महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षी महाकाव्यात्मक लंबी कविता “केंटो जनरल”, जिसके पंद्रह भागों में दो सौ इकत्तीस कविताएं और लगभग पंद्रह सौ पंक्तियां हैं,में खाने, पीने और सैक्स को लेकर जो मर्दवादी मस्ती और उछाह दिखाई पड़ता है, वह स्वयं नेरुदा के खिलाफ खड़ा हो गया है. पहले दबी जबान से यह बात कही जाती थी, लेकिन अब कई ने खुलकर कहा कि नेरुदा की आधी कविताएं बेहद सतही और सपाट हैं और वे इस तरह की विकृतियों का शिकार हैं.
हिंदी में भी नागार्जुन की कविताओं को जनवादी मानकर विशेष दर्जा और सम्मान देते आ रहे अनेकानेक पाठकों और लेखकों ने कहा कि अब उनके लिए नागार्जुन को वैसी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ पढ़ना शायद संभव न हो. लेकिन हिंदुस्तान में रोजी-रोटी की बुनियादी समस्याओं की भीषणताओं के चलते ये मुद्दे शायद उतने महत्वपूर्ण न हो पाए हों कि आम लोगों का ध्यान आकर्षित कर पाएं और गंभीर विमर्श को विकसित हो सके. इसलिए थोड़ी-बहुत फुलझड़ियां चलकर दब गए.
नेरुदा का मामला बस यहीं खत्म नहीं हुआ. नवंबर, 2019 में चिले सरकार राजधानी सेंटियागो स्थित देश के व्यस्ततम हवाईअड्डे का नाम जब पाब्लो नेरुदा के नाम पर करना चाहती थी तो चिले के ही छात्र, महिला और मानवाधिकार संगठनों ने जमकर इसका विरोध करते हुए कहा कि जिस व्यक्ति ने अपनी जीवनी में स्वयं रेप की कथा बखान की है, उसे कैसे यह सम्मान दिया जा सकता है.
यह विवाद इतना बढ़ा कि दो खेमे आमने-सामने आ गए. नेरुदा के समर्थकों का कहना है कि केवल कुछेक मानवीय विकृतियों के आधार पर कैसे एक महान रचनाकार के कृतित्व को नकारा जा सकता है. जबकि उनका विरोध कर रहे लोगों और संगठनों का कहना है कि ऐसे मर्दवादी और विकृतियों से भरे व्यक्ति को कैसे गौरवान्वित किया जा सकता है और पढ़ा-पढ़ाया जा सकता है. उनका कहना है कि यह एक कविता या एक घटना का मामला नहीं है, संपूर्ण व्यक्तित्व का है.  दुनिया भर में स्कूल, कालेजों, विश्वविद्यालयों में नेरुदा की रचनाओं को पढ़ाने वाले अनेक अध्यापकों ने उन्हें पढ़ाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है.
ऐसा नहीं है कि साहित्यिक इतिहास में इस तरह की घटनाएं कोई नई बात हैं. अगर दुनिया के आधुनिक साहित्येतिहास में से ठोस उदाहरण लेकर बात करें तो यूरोपियन कविता में बिंबवाद और नव्यता के सर्जक एजरा पाउंड के फासिज्म प्रेम को ले सकते हैं जो किसी-न-किसी रूप में फासीवाद के पराभव और उसके समर्थन के लिए कवि को मिली सजा के बाद भी चलता रहा. उसका यह रवैय्या अर्नेस्ट हैमिंग्वे जैसे उसके अंतरंग मित्रों को तो परेशानी का वायस बन ही गया, दुनिया भर में लेखकों-आलोचकों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया कि रचना और व्यक्तित्व के बीच, रचना और उसके विचार के बीच यानी कुल मिलाकर रचना और यथार्थ जगत के बीच के रिश्तों  की पड़ताल, व्याख्या और मूल्यांकन किस आधार पर किए जायें. और भी ऐसे कितने ही उदाहरण हैं.
हमारे यहां यह दिक्कत कम नहीं रही. निर्मल वर्मा का उदाहरण तो जगजाहिर ही है कि हिंदी साहित्य बद्ध चिंतन की मुख्य धारा बने प्रगतिशील विचार द्वारा उनके वैचारिक आधार को खारिज किए जाने के बावजूद कोई उन्हें शीर्ष के कथाकार के आसन से खिसका नहीं पाया. एक समय था जब अज्ञेय का 'नदी के द्वीप'आया था जिसे लेकर प्रगतिशील खेमों में काफी कलह मची थी. उस पर जब प्रगतिशील लोगों की बहस छिड़ी कि एक तरफ वे इसे अच्छा उपन्यास मानते हैं और दूसरी तरफ उसके विचारों को समाज और क्रांति-विरोधी और निकृष्ट. सबने इसका एक सरल नुस्खा वाला हल यह कहकर निकाला “पके फल में कीड़े”. यह ठेठ हिंदी मार्का समाधान था, जिसे सौंदर्यशास्त्र की बहसों में लाना तक अपमानजनक  मालूम पड़ता है. हिंदी के लोगों ने मार्क्सवाद के प्रणेताओं को ठीक से पारायण किया होता तो मार्क्स द्वारा प्राचीन ग्रीक साहित्य और लेनिन द्वारा ताल्सताय की प्रशंसा के अधिक सबल तर्कों से प्रेरणा लेकर इस फतवेबाजी को स्वीकार्य रूप दे सकते थे.
खैर, केवल इतनी ही समस्या नहीं है, बल्कि उसका स्वरूप अधिक व्यापक और गहरा है. जबसे समाज में पीड़ित-उपेक्षित वर्गों और अस्मिताओं के उभार शुरू हुए हैं तबसे तो लगातार पुराने साहित्य और साहित्यकारों का लेखन, व्यक्तित्व और विचार पुनर्मूल्यांकनों और पुनर्परिभाषाओं के ज्वार-भाटे से जूझता ही रहा है. जितने भी महान लेखक, रचनाएं, विचार अतीत में और हमारे समय में भी माने जाते रहे, उन सबके सामने प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं. हर नई अस्मिता अपने हिसाब से प्राचीन और समकालीन साहित्य को देखने-दिखाने और व्याख्यायित करने का प्रयास करती है और उस आधार पर अधिकांश को खारिज करने की वकालत करती है.
और यह सच है कि जब ये रचनाएं या ग्रंथ लिखे गए उस समय जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाएं वर्चस्व में रहीं उनके दृष्टिकोण का प्रभाव लिखने वाले के लेखन पर पड़ा. कहने के लिए लेखक कितना ही क्रांतिकारी हो जाये, वर्गापसारित हो जाये, लेकिन काजल की कोठरी में रहने का कोई अवशेष उसके सोच, रचनात्मकता पर नहीं होगा, यह असंभव है. इस तरह हर लेखक और लिखित पुनर्मूल्यांकन की इस जद में हैं. काफी कुछ का अवमूल्यन और पुनर्स्थापन जारी है.

यहां हम साधारणीकृत तौर पर इस समस्या को न रखना चाहते हैं, न इसका कोई दो-टूक समाधान प्रस्तुत करने को कोई वरेण्य स्थिति मानते हैं. फिलहाल उन मुद्दों को केंद्र में लाना और उनपर गंभीर विचार के लिए वातावरण बनाना ही इसका मकसद हो सकता है. इसीलिए यहां हम पाब्लो नेरुदा को केंद्र में रखकर उठी इस समस्या पर फोकस करके उसे साधारणीकृत बहस के लिए छोड़ देना चाहते हैं.
क्योंकि मैंने पाब्लो नेरुदा की जीवनी का अनुवाद किया है इसलिए जीवनी के अंदर से ऐसे तमाम प्रसंगों को सबके सामने रखना अपना विस्तारित अनुवाद-कर्तव्य मानता हूं. उनकी जीवनी में जो सैक्स संबंधी प्रसंग आए हैं उन्हें एक-एक कर यहां दे रहे हैं.
उनमें कोलंबों में गुसल साफ करने वाली तमिल महिला के उस आपत्तिजनक और आपराधिक प्रसंग, जिसे बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है, के अलावा बाकी तमाम सैक्स या रोमांस से जुड़े प्रसंग भी हैं. इससे पाब्लो नेरुदा की रुचि और दृष्टि को गहराई से समझने में मदद मिलेगी.
* उदाहरणों को मूल रूप में प्रस्तुत करने के कारण यहां उन्हें विस्तार से देने में कापी-राइट एक्ट का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन उसके बिना इस विषय पर बात करना संभव नहीं था, इसलिए दिया है.

(एक)
पत्र-वाचन से पैदा उत्तेजना
[ यह प्रसंग पुस्तक के “गांव का छोकरा” नाम के पहले ही अध्याय में ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक में है जहां बालक नेरुदा घर में मां के पुराने बक्से में रखे पत्र देखता है. इसमें केवल ऐसी चीजों में विशेष जिज्ञासा और रुचि का ही पता चलता है जहां से प्रेम भाव का उन्नयन ही मानना चाहिए.]
हमारे घर में एक संदूक था जो बड़ी मनमोहक चीजों से भरा होता था. एक सुंदर तोते का चित्र उसकी तली के साथ चिपका हुआ था. एक बार जब मेरी मां उस गुप्त संदूक में कुछ ढूंढ रही थी तो मैं तोता पकड़ने के चक्कर में उसके भीतर सिर के बल जा गिरा. जब मैं बड़ा हो गया तो सयानों की तरह उसे खोलने लगा. उसके अंदर कई बहुत सुंदर कोमल पंखे भी थे.
मुझे उस संदूक के बारे में और भी कुछ याद आता है. पहली प्रेम कहानी जिसने मुझे झकझोर दिया. वहां ऐसे सैकड़ों पोस्टकार्ड थे जो मुझे ठीक से याद नहीं कि एनरिक (हैनरी) या एलबर्टो में से एक नाम से मारिया थीएलमैन को भेजे गए थे. ये बहुत ही आश्चर्यजनक थे. वे उस समय की महान अभिनेत्रियों के चित्रों के थे जिन पर शीशे के छोटे-छोटे टुकड़े लगे रहते या ऊपर की तरफ सचमुच के बाल. कुछ पर किलों, शहरों, विदेशों के दृश्य भी थे. मेरी दिलचस्पी तस्वीरों में थी. लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तो मैंने अच्छी लिखाई में लिखी प्रेम की वे टिप्पणियां भी पढ़ीं.
मैं लिखने वाले की कल्पना हमेशा एक छड़ीदार डर्बिनवासी के रूप में करता जिसके पास हीरे की टी-पिन है. दुनिया के सभी कोनों से भेजे गए उसके संदेश उद्दाम भावनाओं से भरे होते जिन्हें चौंकाने वाली भाषा में लिखा जाता. वह उश्रृंखल प्यार होता. मैं भी इस मारिया थीएलमैन नामक महिला से प्यार करने लगा. मैं एक बेहद आकर्षक अभिनेत्री के रूप में उसकी कल्पना करता जो हीरे मोतियों से लदी हो. लेकिन ये पत्र मेरी मां के संदूक में कैसे आए ! मुझे कभी इसका पता नहीं लगा.

(दो)
पत्र-लेखन और प्रेम कला का विकास
[ यह प्रसंग भी “गांव का छोकरा” नाम के पहले अध्याय के ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक से ही है. इसमें नेरुदा केवल प्रेम में रुचिशील ही नहीं, उसमें सक्रिय भागीदार की हैसियत से सामने आते हैं. प्रेमपत्र लिखने की उनकी प्रतिभा ही रही होगी कि प्रेम में पड़ा उनका मित्र उनसे अपनी प्रेमिका को पत्र लिखने का अनुरोध कर रहा है. अंत तक आते-आते लेखक ने उसे अपदस्थ करके स्वयं प्रेम का रस-पान शुरू कर दिया है. ]

मैं बड़ा हो गया. किताबें मुझे रुचिकर लगने लगीं. बफेलो बिल की साहसिक कहानियां और सलगारी की यात्राएं मुझे सपनों की दुनिया में ले जातीं. मेरा पहला और एकदम पवित्र प्यार लुहार की लड़की ब्लांका विल्सन को लिखे पत्रों में व्यक्त हुआ. दरअसल एक लड़का उसके प्यार में बुरी तरह गिर पड़ा था और उसने मुझसे उसके लिए प्रेमपत्र लिखने का अनुरोध किया. अब मुझे ठीक से याद नहीं कि ये पत्र किस तरह के थे लेकिन ये ही मेरी पहली साहित्यिक उपलब्धियां थीं. एक दिन जब मेरी उस लड़की से अचानक मुलाकात हुई तो उसने छूटते ही पूछा कि क्या मैं ही उन पत्रों का लेखक हूं जो उसके प्रेमी ने उसे दिए हैं. मैं अपने लिखे से इन्कार नहीं कर सका और बहुत ही शर्माते मैंने हां कही. तब उसने मुझे एक श्रीफल दिया, जो मैंने खाया नहीं बल्कि एक अमूल्य निधि की तरह संभाल कर रखा. इस तरह उस लड़की के दिल में अपने मित्र की जगह खुद को बिठाकर मैंने उसे अनगिनत प्रेमपत्र लिखे और अनगिनत श्रीफल पाए.

(तीन)
विकास-यात्रा के और अनुभव
[ यह प्रसंग भी पहले अध्याय के ‘बचपन और कविता’ उपशीर्षक में है. यहां लेखक स्वयं कोई पहल का कर्ता न होकर शिकार है.]
मेरे घर के सामने दूसरी तरफ दो लड़कियां रहती थीं जो मुझे ऐसे घूरती थीं कि मेरा चेहरा लाल हो जाता. वे बालप्रौढ़ होने के साथ ही उतनी ही दुष्ट थीं जितना मैं दब्बू और शांत था. एक बार मैं अपने दरवाजे पर खड़ा उनकी तरफ न देखने की कोशिश कर रहा था. वे ऐसी चीज पकड़े थीं जिसने मेरा ध्यान खींचा. मैं डरते-डरते पास गया तो उन्होंने मुझे एक पक्षी का घोंसला दिखाया जो सैवार और छोटे पंखों से बना था. उसमें अनेक सुंदर नीले-फीरोजी रंग के छोटे अंडे थे. जब मैं उन्हें देखने पास पहुंचा तो एक लड़की ने कहा कि पहले वे मेरे कपड़ों के अंदर टटोलकर देखेंगी. मैं इतना डर गया कि कांपने लगा और दूर छिटक गया. वे दोनों देवियां अपने सिर पर उस मनमोहक खजाने को रखे मेरी ओर लपकीं. इस पकड़म-पकड़ाई में मैं एक ऐसी संकरी गली में आ गया जो मेरे पिता की एक खाली बेकरी की तरफ जाती थी. मेरे कातिलों ने मुझे पकड़ ही लिया और वे मेरी पेंट उतारने लगीं  कि तभी रास्ते से मेरे पिता के कदमों की आहट सुनाई पड़ी. यही घोंसले का अंत था. वे सुंदर अंडे गिरकर चूर-चूर हो गए जबकि एक काउंटर के नीचे हमलावर और शिकार दोनों सांस रोके बैठे थे.


(चार)
सैक्स का पहला ठोस अनुभव – एक भोक्ता की तरह
[ यह प्रसंग पहले अध्याय के ही ‘गैहूं के बीच प्रेम’ उपशीर्षक में है. यहां सैक्स तो है, लेकिन नेरुदा की अपनी पहल पर नहीं, वह उसके भोक्ता या उपभोक्ता मात्र हैं.]
मैं काफी देर तक आंखें खोले पीठ के बल लेटा रहता. मेरा चेहरा और हाथ बालियों से भरे रहते.  रात साफ, ठंडी और गहरी थी. आकाश में चांद नहीं था लेकिन लगता तारे बारिस में नहाकर आए हैं और जैसे वे केवल मेरे लिए ही आकाश में चमक रहे हैं. फिर मैं सो जाता. लेकिन अचानक मेरी आंख खुल गईं क्योंकि कोई चीज मेरी तरफ बढ़ रही थी. किसी अजनबी का शरीर बालियों से होता मेरी ओर आ रहा था. मैं डर गया. वह चीज मेरे और-और पास आ रही थी. मैं उस अनजान चीज के सरकने से बालियों के दबने, टूटने की आवाज सुन सकता था. मेरा शरीर ऐंठ गया और मैं प्रतीक्षा कर रहा था. शायद मुझे उठकर चिल्लाना चाहिए. लेकिन मैं हिला तक नहीं. मैं अपने सिर के पास सांस की आवाज सुन सकता था.
अचानक एक हाथ मेरे ऊपर आया, एक बड़ा और कठोर हाथ. लेकिन वह किसी स्त्री का हाथ था. वह मेरी भोंहों, मेरी आंखों, मेरे चेहरे पर कोमलता से फिरने लगा. तब एक गरम मुंह मेरे मुंह से सट गया और मैंने महसूस किया कि उस स्त्री का शरीर मेरे शरीर को दबा रहा है.
धीरे-धीरे मेरा डर आनंद में बदलने लगा. मेरा हाथ उसके चोटी बंधे बालों पर, कोमल भंवों पर, पॉपी जैसी नरम आंखों पर और अन्य जगहों की खोज में फिरने लगा. मैंने दो स्तनों को महसूस किया जो पूरे भरे और सख्त थे, चौड़े गोल नितंब, मेरी टांगों को अपने में जकड़े टांगें. और मैंने अपनी उंगलियां उसकी जंघाओं के बीच के बालों से लगाईं जैसे पहाड़ के शैवालों पर. उस अनजान मुख से कोई शब्द तक नहीं निकला.

बालियों के पहाड़ जैसे ढेर के गढ़े में, सात आठ अन्य लोगों की उपस्थिति के बीच जरा भी आवाज किए प्यार करना कितना मुश्किल काम है. लोग भी ऐसे जिन्हें सोए से जगाना दुनिया में सबसे बड़ा अपराध होता. लेकिन प्यार में सब कुछ संभव है, बस थोड़ी सावधानी की जरूरत है. कुछ देर बाद वह अजनबी मेरे पास ही जोर-जोर से सांसें लेती सो गई. मैं बहुत घबरा गया. मैंने सोचा कि अभी दिन निकलेगा और वे लोग एक नंगी औरत को मेरे साथ लेटे हुए पाएंगे. फिर मुझे भी नींद आ गई. जब मैं उठा और भौंचक हाथ पास में बढ़ाया तो पाया कि वहां केवल गरम पूस और अनुपस्थिति है.  तभी एक पक्षी गा उठा और तब सारा जंगल ही कूजन से गुंजायमान हो गया. एक मोटर का हार्न तेजी से बजा और सब आदमी और स्त्रियां अपने काम पर लग गए. गहाई का एक और दिन शुरू हो रहा था.



(पांच)
सैक्स की पहली पहल
[ यह प्रसंग पुस्तक के दूसरे अध्याय “शहर में गुम” के उपशीर्षक ‘घर की तलाश’ में है. यह लेखक की पहल है एक विधवा के साथ.]

ठीक इसी समय अचानक मेरी दोस्ती एक विधवा के साथ हो गई जो मेरे मन में हमेशा रहेगी. उसकी आंखें बड़ी-बड़ी और नीलीं थीं जो अपने पति को याद करने पर पनीली और कोमल हो जातीं. वह कोई युवा उपन्यासकार था जो अपनी शारीरिक बनावट के कारण प्रसिद्ध था. उन दोनों की जोड़ी बहुत ही शानदार थी. वह सोने जैसे बालों, सुंदर शरीर और गहरी नीली आंखों वाली महिला थी और उसका पति बहुत ही लंबा गठे शरीर का आदमी. पति को क्षय रोग ने नष्ट कर दिया. बाद में मुझे लगा कि इसमें उसके सौंदर्य का भी योग रहा होगा.
उस सुंदर विधवा ने अभी काले वस्त्रों को छोड़ा नहीं था. उसकी काली और बैंगनी रेशमी ड्रैस लगती जैसे बर्फ के सफेद फूल पर उदासी का रंग चढ़ा है. एक दिन मेरे कमरे में लांड्री के पीछे उसका वह आवरण गिर गया और मैं उस जलती बर्फ के सब फलों को टटोलने और उनका स्वाद लेने में कामयाब हो गया. अभी परमानंद की प्राप्ति होने को ही थी कि मैंने देखा कि उसकी आंखें मेरी आंखों के नीचे बंद होने लगीं और उसने आह भरते, सुबकते हुए कहा ‘ ओह राबर्टो, राबर्टो !’ (यह आदतवश था. एक पवित्र कौमार्य नए ईश्वर को अंगीकार करने से पहले  लुप्त होते ईश्वर को पुकार रहा था).
मेरी जवानी और जरूरत के बावजूद यह विधवा मेरे लिए कुछ ज्यादा ही थी. उसके आमंत्रण और-और आतुर होते गए और उसका भावुक मन मुझे असमय विनाश की तरफ ले जा रहा था. इतनी ज्यादा मात्रा में प्यार की खुराक कुपोषित व्यक्ति के लिए अच्छी नहीं. और मेरा कुपोषण तो दिन-दिन और अधिक नाटकीय मोड़ ले रहा था.
(छह)
लफंगई का पहला प्रयोग
[यह प्रसंग पुस्तक के तीसरे अध्याय “दुनिया की सड़कें” के उपशीर्षक ‘मोंट परनासे’ (पैरिस की परनासे पहाड़ी) से है जिसमें टैक्सी में रह गई एक लड़की के साथ दो मित्रों के संभोग का किस्सा है. पाब्लो नेरुदा और उनके मित्र लेखक अल्वारो ने उसकी मजबूरी का फायदा उठाया. इसमें पाब्लो नेरुदा की अस्वीकार्य प्रवृत्ति का पहली बार पता चलता है.]

जो लड़की नहीं गई थी वह टैक्सी में ही हमारी प्रतीक्षा कर रही थी. अल्वारो और मैंने उसे सुबह का सूप पीने के लिए अपने यहां आमंत्रित किया. हमने बाजार से उसके लिए फूल खरीदे और उसकी बहादुरी के लिए उसे चूमा और पाया कि वह खासी आकर्षक थी. उसे खूबसूरत या घरेलू तो नहीं कहा जा सकता लेकिन पैरिस की लड़कियों की खासियत उसकी उठी नाक अच्छी थी. हमने उसे अपने मामूली से होटल में निमंत्रित किया और उसने कोई ना-नुकुर नहीं की.
वह अल्वारो के साथ उसके कमरे में गई. मैं बिस्तर पर गिरते ही थकान से नींद में चला गया. फिर देखा कि मुझे कोई जोर से झकझोर रहा है. वह अल्वारो था. उसका छोटा सा चेहरा कुछ अजीब लग रहा था. “सुनो”, उसने कहा. “वह औरत तो बहुत ही शानदार है. मैं सब कुछ तुम्हें नहीं बता सकता. तुम्हें खुद देखना होगा.”
कुछ मिनटों के बाद वह अजनबी मेरे बिस्तर में आ गई, कुछ सोई सी,पर तत्पर. उससे प्यार करते हुए मैंने उसकी रहस्यात्मक भेंट प्राप्त की. उसमें जो आनंद आया उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. अल्वारो सही था.
अगले दिन नाश्ते पर अल्वारो ने मुझे चेतावनी देते हुए स्पानी में कहा – “अगर हम तुरत इस औरत को नहीं छोड़ते तो हमारी यात्रा खत्म समझो. हम लोग संभोग के अनंत समुद्र में समा जाएंगे.”
(सात)
एक आपराधिक गुंफित कथा
[यह प्रसंग पुस्तक के “शानदार एकांत” नामक चौथे अध्याय के उपशीर्षक ‘एक विधुर का नाच’ से है. विधुर पाब्लो नेरुदा हैं और नचाने वाली एक बर्मी लड़की जोस्सी ब्लिस है जो उन्हें कलकत्ता में मिली. फिलहाल उस लड़की का कोई वक्तव्य या किसी के द्वारा इस प्रसंग पर किया शोध या डाला प्रकाश हमारे पास नहीं है, इसलिए पाब्लो नेरुदा के वर्णन पर विश्वास करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है. इसमें लेखक ने उस लड़की पर जो अन्याय किया उसका सारा दोष उसकी मानसिक बीमारी पर मढ़ा है. वह उसे बिन बताए दूसरी पोस्टिंग पर छोड़ चला गया. लेकिन उसे खोजते जब वह किसी तरह कोलंबो पहुंची तो लेखक का व्यवहार उसके प्रति काफी अमानवीय दिखाई पड़ता है.]

मैं लोगों के जीवन और आत्मा में इतना गहरे गया था कि मैं एक स्थानीय लड़की को दिल दे बैठा. गली में वह अंग्रेज महिला की तरह कपड़े पहनती थी और अपना नाम जोस्सी ब्लिस बताती थी. लेकिन अपने घर के अंदर (जहां मैं बाद में जाने लगा था) वह उन कपड़ों को उतार फेंकती और अपने सुंदर कपड़े पहनती तथा बर्मी नाम बताती.
मेरा घरेलू जीवन बहुत ही परेशानी भरा रहा. प्यारी जोस्सी ब्लिस धीरे-धीरे इतनी बड़बड़ाने वाली और अधिकार जमाने वाली हो गई कि उसकी ईर्ष्यालु बदमिजाजी बीमारी का रूप धारण कर गई. उसमें केवल यही एक कमी थी. अगर यह नहीं होती तो शायद मैं हमेशा के लिए उसके साथ रहता. मैं उसके नंगे पैरों, काले बालों में चमकते सफेद फूलों से बहुत प्यार करता था. लेकिन उसके ईर्ष्यालु स्वभाव ने उसे हिंसक बना दिया था. उसके सिर पर बात-बेबात भूत सवार हो जाता. जब भी बाहर से मुझे कोई पत्र आता तो वह ईर्ष्यालु हो आपे से बाहर हो जाती. वह बिना खोले ही मेरे टैलीग्राम छुपा देती और जो भी मैं करता उसकी नजर में संदेहास्पद होता.
कभी-कभी मैं रात में चमक देखकर जग जाता. मच्छरदानी के दूसरी तरफ भूत जैसा कुछ चल रहा होता. यह वही होती, अपने सफेद कपड़ों में और हाथ में लंबा चाकू लिए. वह मेरे बिस्तर के चारों तरफ घंटों घूमती रहती और तय नहीं कर पाती कि मुझे मारना है या नहीं. वह मुझसे कहती कि जब मैं मरूंगा तो उसके सारे डर दूर हो जाएंगे. अगले दिन वह कुछ रहस्यात्मक कर्मकांड करती जिससे कि मैं उसके प्रति वफादार बना रहूं.
शायद अंत में वह मुझे मार ही डालती. सौभाग्य से इस बीच मुझे अपने श्रीलंका तबादले की सूचना मिल गई. मैंने उसे बिना बताए अपने जाने की तैयारियां कर लीं और एक दिन मैं अपने कपड़े और किताबें वगैरह और दिनों की तरह ही घर पर छोड़ कर निकला और एक जहाज में सवार हो गया जो मुझे यहां से काफी दूर ले जाने वाला था.
मैं उस बर्माई बाघिन जोस्सी ब्लिस को दुख भरे मन से छोड़कर जा रहा था. जब जहाज बंगाल की खाड़ी में चलने को हुआ तो मैंने लिखना शुरू किया –“टेंगो डेल विउदो” (“विधुर का टेंगो नृत्य”), एक स्त्री को समर्पित दुखांत कविता. स्त्री जिसे मैंने खो दिया और जिसने मुझे खो दिया क्योंकि उसके खून में क्रोध का सागर लहराता था. रात बहुत लंबी थी और दुनिया बहुत अकेली थी.
सूरज की रोशनी में जलते मेरे उन दिनों पर बादल की छाया करने वाली घटना घटी. बिना किसी सूचना के मेरी बर्मी प्रेमिका जोस्सी ब्लिस ने मेरे घर के सामने धरना दे दिया. वह अपने सुदूर देश से आई थी. यह मानकर कि रंगून के सिवा दुनिया में कहीं चावल शायद होता ही नहीं है वह अपनी पीठ पर लादकर एक बोरी चावल भी लाई थी. इसके अलावा वह हमारे प्रिय पाल रॉबसन रिकार्ड और एक चटाई भी लाई थी. वह सारा दिन दरवाजे पर ही बैठी रहती और जो भी मुझसे मिलने आता उसे गालियां देकर भगा देती. अब उस पर ईर्ष्या का भूत पूरी तरह सवार हो चुका था जिसमें वह मेरे घर को भी जला रही थी. उसने एक बिचारी यूरोपियन लड़की पर हमला कर दिया जो यूं ही मुझसे मिलने चली आई थी.
उपनिवेशी पुलिस ने उसके इस अनियंत्रित अभद्र व्यवहार को गली की शांति के लिए खतरा मानते हुए मुझे चेतावनी दी कि या तो उसे घर के अंदर रखूं या वे उसे देश से बाहर निकाल देंगे. मैं कई दिनों तक पशोपेश में पड़ा रहा. एक तरफ उसका कोमल अतृप्त प्यार था और दूसरी तरफ उसके पागलपन का भय. मैं उसे अपने घर के अंदर नहीं आने दे सकता था. वह प्यार में चोट खाई आतंकवादी थी जो कुछ भी कर सकती थी.
और अंततः एक दिन उसने जाने का मन बना ही लिया. उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उसे जहाज तक छोड़ आऊं. जहाज जब चलने को हुआ और मैं उतरने लगा तो वह अपने चारों तरफ के यात्रियों से  अलग हो मेरी तरफ दौड़ी और मेरे चेहरे को बार-बार चूमने लगी. उसके आंसुओं से मैं नहा गया. जैसे कोई रस्म कर रही हो, उसने मेरे हाथ चूमे, मेरा सूट चूमा और इससे पहले कि मैं रोक पाता वह मेरे जूतों पर गिर गई. वह जब खड़ी हुई तो मेरे जूतों पर लगी सफेद पालिश से उसका मुंह सना हुआ था जैसे आटे से. लेकिन इसके बावजूद मैंने उसे जाने से नहीं रोका, न वापस अपने साथ आने के लिए कहा. मैंने किसी तरह अपने को काबू में रखा. एक तरफ मेरा दिल पुकार-पुकार कर कहता था कि उसे बुला लो लेकिन दूसरी तरफ बुद्धि मना करती थी. मैंने उसे जाने दिया, जिससे मेरे दिल में जो घाव हुआ वह आज भी वैसे ही है. उसके सफेद रंग पुते चेहरे से बहते अनियंत्रित आंसू मेरी स्मृति में अभी भी ताजा हैं.


(आठ)
लफंगई का एक और किस्सा
[यह प्रसंग पुस्तक के पांचवें अध्याय “स्पेन मेरे दिल में” के उपशीर्षक ‘फैडरिको कैसा था’ में है. इसमें प्रसिद्ध स्पानी लेखक लोर्का और पाब्लो नेरुदा के नव्य प्रयोगों का वर्णन है. इसी में एक करोड़पति की पार्टी में पाब्लो नेरुदा द्वारा अपरिचित से सैक्स की क्रिया और लोर्का द्वारा उसमें परोक्ष भागीदारी का वर्णन है. इसमें नेरुदा के अनेक विचनों के जाहिर होने के कारण इसे विस्तार से दे रहे हैं. ]

मुझे वह शाम याद आ रही है जब एक विशाल कामुक दुस्साहस में मुझे लोर्का का अनपेक्षित समर्थन मिला. हमें एक ऐसे करोड़पति ने आमंत्रित किया था जो अमेरिका या अर्जेंटीना में ही मिल सकते हैं. वह पैदायशी विद्रोही था, अपनी मेहनत से बना आदमी. उसने एक सनसनीखेज अखबार के द्वारा अपार धन संपत्ति जमा कर ली थी. एक विशाल बगीचे से घिरा उसका घर नव धनाढ्य के सपनों को साकार करने वाला था. घर के रास्ते में सैकडों पिंजरों में देश-विदेश से लाए रंग-बिरंगे पक्षी थे. उसका पुस्तकालय ऐसी विरल किताबों और पांडुलिपियों से भरा था जो उसने यूरोप की नीलामियों में खरीदी थीं. लेकिन सबसे आश्चर्यजनक चीज थी उसका विशाल पढ़ने के कमरे का फर्श जिस पर चीते की खालों को जोड़कर बनाया गया बड़ा कार्पेट बिछा था. मुझे पता चला कि उसके एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में कितने ही एजेंट थे जिनका एकमात्र काम था शेर, चीतों जैसे जानवरों की खाल एकत्रित करना.

ऐसा था नतालियो बोताना नाम के इस बदनाम और शक्तिशाली पूंजीपति का घर जो बूनो एयर्स के लोकमत का नियामक था. फैडरिको और मैं मेजबान के दायें-बायें बैठे. हमारे सामने ही एक बेहद सुकुमार महिला कवि बैठी थी जिसकी नजरें पूरे डिनर भर फैडरिको से अधिक मुझ पर टिकी हुई थीं. खाने में एक बैल भी शामिल था जिसे 8-10 लोग जलते कोयलों के पास उठाकर लाए थे. शाम का आकाश गहरा नीला और तारों से जगमग था. जलते मांस की खुशबू के साथ मिली मसालों की गंध और अनगिनत झींगुरों की झंकार और मेंढकों की टर्राहट.
खाने के बाद मेज से उठकर फैडरिको के साथ मैं और वह महिला प्रकाशित तरण ताल की ओर गए. फेडरिको बेहद खुश था और हर बात पर हंस रहा था. लोर्का आगे-आगे बतियाता और हंसता चल रहा था. वह बहुत खुश था. वह हमेशा ही ऐसा था. खुशी उसकी ऐसे ही अभिन्न अंग थी जैसे उसकी त्वचा.

झिलमिलाते तरण ताल के किनारे एक ऊंचा बुर्ज सा बना हुआ था. उसकी सफेदी रात के प्रकाश में चमक रही थी.

हम धीरे-धीरे उस बुर्ज के सबसे ऊपरी हिस्से पर आ गए. उसके ऊपर जाकर हम अलग-अलग शैलियों के तीन कवि दुनिया से एकदम बेखबर वहां थे. नीचे ताल की नीली आंखें चमक रही थीं. दूर कहीं हम पार्टी में बजते गिटारों और चलते संगीत को सुन सकते थे. ऊपर तारों भरी रात हमारे सिरों के इतना करीब थी जैसे हम उसे छू सकते थे.

मैंने उस लंबी और सुनहरी लड़की को अपनी बाहों में ले लिया. जब मैंने उसे चूमा तो पाया कि वह बेहद संवेदनशील, गदराई और पूरी औरत थी. फेडरिको को आश्चर्य हुआ जब हम वहीं खुले में फर्श पर पसर गए. जब मैं उसके कपड़े उतारने लगा तो लोर्का की बड़ी आंखें अविश्वास में फैल गईं.
यहां से भागो! और देखो कि कोई ऊपर न आने पाए !” मैंने जोर से आदेश सा देते उससे कहा.

जिस तरह तारों भरे आकाश को भेंट चढ़ाने का अवसर नजदीक आया, फेडरिको खुशी-खुशी कहे अनुसार अपने काम पर चला गया और बुर्ज की अंधेरी सीढ़ियों पर फिसल कर गिर पड़ा. महिला और मुझे न चाहते हुए भी उसकी मदद के लिए नीचे आना पड़ा. वह दो हफ्ते तक लंगड़ाता रहा.

(नौ)
और अंत में बलात्कार के आरोप की घटना
[ यही वह प्रसंग है जिसको लेकर छात्र, महिला और मानवाधिकार संगठनों ने पाब्लो नेरुदा पर बलात्कार के आरोप लगाए हैं. यह प्रसंग पुस्तक के चौथे अध्याय “एक शानदार एकांत” के ‘सिंगापुर’ उपशीर्षक में है, हालांकि यह घटना श्रीलंका के कोलंबो की है. हम इसपर किसी भी तरह की टिप्पणी किए बिना पाठकों के लिए पूरा प्रसंग यहां दे रहे हैं.]

मेरा एकांत बंगला शहरी आबादी से दूर था. जब मैंने उसे किराए पर लिया तो सबसे पहले यह देखा कि उसका गुसलखाना कहां है. मुझे वह कहीं नहीं मिला. असल मैं वह घर के अंदर के स्नानघर में नहीं था बल्कि घर के पीछे था. मैंने उत्सुकता से उसका मुआयना किया. वह लकड़ी का एक डिब्बा था जिसके बीच में एक छेद बना हुआ था. चिले में गांव में ऐसी कलाकृतियां हमने बचपन में देखी थीं. लेकिन वहां गुसलखाना या तो गहरे कुएं पर या बहते पानी के ऊपर होता था. यहां तो उस छेद के नीचे एक धातु का घड़ा लगा दिया गया था.
रोज सुबह वह घड़ा साफ मिलता था. मुझे नहीं पता उसका पाखाना कहां चला जाता था. एक सुबह मैं थोड़ा जल्दी उठा  और जो हो रहा था उसे  देखकर चकित रह गया.

घर के पीछे की तरफ एक सांवली औरत आई. ऐसी सुंदर औरत मैंने अभी तक श्रीलंका में देखी नहीं थी. वह नीची जाति की तमिल औरत थी. वह सबसे सस्ते कपड़े की लाल और सुनहरी रंग की सूती साड़ी पहने हुई थी. उसने नंगे पैरों में मोटे कड़े पहने हुए थे. उसकी नाक के दोनों तरफ लाल बिंदी सी कुछ थी. हो सकता है वे साधारण शीशे की ही हों लेकिन उस पर तो मोती सी दिखाई पड़ती थीं.

वह बिना मुझे देखे चुपचाप गुसलखाने की तरफ बढ़ गई और फिर उस गंदे पाखाने को सिर पर लेकर चली गई. उसकी चाल किसी देवी जैसी थी.

वह इतनी प्यारी थी कि उसके गंदे काम के बावजूद मैं उसे अपने मन से नहीं निकाल सका. एक शर्मीले जंगली जानवर की तरह वह एक दूसरी दुनिया का ही प्राणी थी. मैंने उसे बुलाया लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ. उसके बाद, मैं उसके रास्ते पर कोई उपहार रख देता, कोई रेशमी कपड़ा या कोई फल. वह उसे बिना देखे ही चली जाती. वह हेय दिनचर्या उसके सांवले सौंदर्य के द्वारा किसी महारानी के उत्सव जैसी हो गई.

एक सुबह मैंने उसे मनाने की ठान ली. मैंने उसकी कलाई जोर से पकड़ ली और उसकी आंखों में देखा. कोई ऐसी भाषा नहीं थी जिसमें मैं उससे बात कर सकता. बिना मुस्कुराए, वह मेरे साथ चली आई और फिर नंगी मेरे बिस्तर में थी. उसकी पतली सी कमर, भारी नितंब, गदराए कुच ऐसा लगता था जैसे कोई हजारों साल पुरानी प्रतिमा दक्षिण भारत से उठकर चली आई हो. वह एक पुरुष और मूर्ति का संभोग था. पूरे संभोग के दौरान उसकी आंखें खुली रहीं और वह पूरी तरह क्रियाहीन रही. उसका मुझसे वितृष्णा करना सही ही था. उसके बाद ऐसा कभी नहीं हुआ.


कुछ  प्रश्नसूचक  निष्कर्ष
इन सब वर्णनों से इतना तो स्पष्ट है कि नेरुदा ने अपनी जीवनी में प्रेम, सैक्स, दीवानगी, लफंगई, संभोग, वादाखिलाफी के जितने भी स्वयं से जुड़े अनुभव हो सकते हैं, उन्हें अपनी बेबाक शैली में बेहद ईमानदारी से प्रस्तुत किया है.

यह सही है कि इन प्रसंगों में नेरुदा का जो परम रोमांटिक व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है, वह बावजूद उनकी विचारधारा के उनकी रचनाओं में यहां-से-वहां तक फैला है. और ऐसा नहीं है कि यह केवल नेरुदा की अपनी कोई निजी विशेषता है. क्रांतिकारी विचारधारा में 'रेवोल्यूशनरी रोमांटिसिज्म'जिसे फ्रांसीसी मार्क्सवादी दार्शनिक हैनरी लेफीवा ने एक सौंदर्यशास्त्रीय मान्यता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, एक प्रबल प्रवृत्ति रही है. यानी पूंजीवादी देशों में पार्टी के नियंत्रण से बाहर चले ऐसे तमाम प्रगतिशील आंदोलन या व्यक्तिगत प्रवृत्तियां जो चीजों को रोमानी रूप में देखती हों और उनकी अभिव्यक्ति का बेहद निजी और रोमानी तरीका अपनाते हों. स्वयं हमारे यहां अधिकांश उर्दू कविता क्रांतिकारिता और रोमांटिकता के मिश्रित फार्म पर लिखी गई है. इसलिए नेरुदा में उसका होना कोई अनहोनी बात नहीं है.

तो क्या नेरुदा इस अतिरिक्त रोमांस में औचित्य की सीमाएं लांघने तक जाते हैं ! क्या वे इस अनौचित्य को गौरवान्वित करते हैं !

यह तो स्पष्ट है कि नेरुदा की भाषा-शैली और वर्णन-पद्धति ऐसे तमाम प्रसंगों में उत्सवधर्मिता की सीमाएं छूती है. उसमें बड़बोलापन भी है. कई लोगों ने यह कहा है और काफी हद तक है भी कि यह प्रवृत्ति लातीन अमरीकी जीवन और हर चीज को उत्सवधर्मी और लाउड बना देने की आम आदत से आई लगती है. इन वर्णनों में कई जगह इस अनौचित्य में मजा लेने का बोध होता है. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि नेरुदा इन वर्णनों को यथासंभव यथातथ्यता में बनाए रखने की कोशिश करते हैं.

केवल तीन प्रसंग ऐसे हैं जो नेरुदा के व्यक्तित्व के रुझानों पर सवालिया निशान लगाते  हैं. एक टैक्सी में आई लड़की के प्रति एकदम लफंगई का व्यवहार, दूसरे बर्मी लड़्की जोस्सी के प्रति अमानवीय आचरण और तीसरा गुसल साफ करने वाली तमिल लड़की पर जबरदस्ती की घटना. इनमें से दूसरी काफी जटिल है जिसमें एशिया और यूरोप की सांस्कृतियों का अभिरुचिगत बेमेलपन तो है ही, साथ ही राजनयिक जीवन से पैदा होने वाली विचलनगत विकृतियों का भी बड़ा योगदान है. हालांकि इसे नेरुदा ने जोस्सी के मानसिक असंतुलन, शंकालु चरित्र से जस्टीफाई करने की कोशिश की है, लेकिन पूरे वर्णन से यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि इसमें नेरुदा का रवैय्या बेहद गैर-जिम्मेदार, असंवेदनशील और भोगवादी नजर आता है जो परिस्थिति के जरा भी अपने से अन-अनुकूल हो जाने पर अमानवीयता की सीमाएं छूने लगता है.
जिस अंतिम घटना को लेकर "मी टू"का मामला तूल पकड़ गया है, वह निश्चित रूप से बिना इच्छा के जबदस्ती का है. हम जानते हैं कि एक पराधीन देश में, पराधीन मानस वह भी निम्न जाति और कर्म से जुड़ा, एक गोरे हाकिम के सामने कैसे असहाय और अप्रतिरोधई हो सकता है, वह यहां स्पष्ट है. नेरुदा ने अभिचार के बाद ही इसे अनुभव भी कर लिया है, लेकिन उस पर बहुत अफसोस नहीं है.
जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है कि ये सवाल साहित्येतिहास में उन तमाम कृतियों और उनके कृतिकारों पर उठाए जाएंगे जिन्होंने एक भिन्न सामाजिक, राजनैतिक अवस्थाओं, व्यवस्थाओं और उसके अंतर्गत बने मानव समता विरोधी जीवन मूल्यों के प्रत्यक्ष या प्रछन्न प्रभाव में लिखा और जिसके परिणामस्वरूप  वर्गों, अस्मिताओं, विचारों  की अवमानना हुई.
उसमें भी नेरुदा का मामला इसलिए और संगीन है कि वे मानव-समता के विचार के पक्षधर हैं.
_____

कर्ण सिंह चौहान 

स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि.बल्गारिया और हांगुक वि.वि.सिओलदक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.

लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मानसाहित्य के बुनियादी सरोकारप्रगतिवादी आंदोलन का इतिहासएक समीक्षक की डायरीयूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा)अमेरिका के आर पार (यात्रा)हिमालय नहीं है वितोशा (कविता)यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकेंपाब्लो नेरुदालू शुनकोरियाई कविता-संग्रह आदि प्रमुख  हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में  लेख प्रकाशित हुए.
karansinghchauhan01@gmail.com


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