इधर ‘युवा’ कवियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं. उनपर इकट्ठे बात नहीं हुई है. और यह कार्य ओम निश्चल जी से बेहतर कोई कर नहीं सकता. एक तो उनके पास सभी प्रकार के संग्रह पहुंचते हैं और बड़ी बात यह है कि वे इसे पढ़ते और हैं और उनपर सुचिंतित आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी लिखते हैं. अंत: हिंदी के युवा कविता पर सुदीर्घ लेखमाल की यह पहली कड़ी ख़ास आपके लिए. ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि, आलोचक एवं भाषाविद हैं.
युवा कविता : एक
ओम निश्चल
इधर जब से बाबुषा कोहली का संग्रह'बावन चिट्ठियाँ'व गीत चतुर्वेदी का संग्रह 'टेबुल लैंप'पढा है, सुशोभित शक्तावत का 'मलयगिरि का प्रेत', अंबर पांडेय का 'कोलाहल की कविताएं', मोनिका कुमार का 'आश्चर्यवत', व अविनाश मिश्र की कामसूत्र विषयक कविताएं----मुझे लगता है कवि अपने समय की सांप्रदायिकता, राजनीतिक मलिनता, हिंदू-मुसलमान करते न अघाती सियासत, दिलों में फॉंक पैदा करती दलबंदियों से कहीं ऊब-सा गया है. वह अपने रचनात्मक एकांत में इस राजनीतिक रुप से प्रगल्भ समय को घुसने नही देना चाहता. इसीलिए शायद 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'जैसे प्रखर ऐंद्रियबोध की कविताएं लिखने वाली कवयित्री बाबुषा कोहली अपने नए संग्रह में कविता के कैनवस को इस तरह नया विन्यास देती जान पड़ती हैं जैसे उन्होंने दशकों से सजे सजाये अपनी कविता के ड्राइंगरूम का विन्यास बदल दिया हो. ऐसा ही गीत चतुर्वेदी की 'टेबुललैंप'की गद्य कविताएं पढते हुए लगता है गोया वे कवि की अपने भीतर की जटिलताओं और अपनी ही अलक्षित अर्थ-क्षमताओं को खोलने की गुत्थियां हों या फिर अपने समय के पेचीदा प्रतिबिम्ब से आंख बचाकर निकल जाने का सचेत जतन.
सुशोभित शक्तावत 'मलयगिरि का प्रेत'में कविता से एक खास तरह का रिश्ता बनाते जान पड़ते हैं. इन कविताओं के पाठ में अपने ही भाषाई उद्यम से खेलने का हुनर तो दिखता ही है, कविता के प्राच्य संस्कारों का कहीं कहीं आवाहन भी सुन पड़ता है. ये कविताएं धुरंधरों की भी समझ से भी यदा कदा बाहर लगती है जब वे कविता के एक अराजक उल्लास में बदल जाती हैं. कविता के सारे प्रतिमानों रस छंद अलंकार ध्वनि रीति के पार जाते हुए ये कविताएं कवि के उस दुस्साहस का प्रमाण भी हैं जहां कुछ भी गतानुगतिक नहीं रह जाता. उतने ही बीहड़ और कविता के अभ्यस्त संसार से ऊबे हुए प्राणी लगने वाले अंबर पांडेय के लिए कविता जैसे क्रीड़ा का विषय हो जहां खेल ही खेल में वे सुख दुख जरा व्याधि और सांसारिकता की नश्वरता का एक शांत क्लांत स्वर पैदा करते हैं. उन पर दार्शनिकता और आध्यात्मिकता की संगत इतनी हावी है कि वह उन्हें संसार से जरा दो हाथ ऊपर रखती है. उनके यहां पेडों फलों फूलों की विरल छटाएं मिलती हैं पर केवल इतने भर से अंबर प्रकृति के कवि कहे जाने से इनकार करते हैं. उनके भीतर की जाने कैसी कैसी इच्छाएं अनिच्छाएं और दमित वासनाएं कविता के शास्त्रीय पाठ में उतरती हैं और बुलबुले की तरह अर्थ की एक अपरिभाषेय कौंध देकर विलुप्त हो जाती हैं.
ऐसे कवि कविता की शास्त्रीय कसौटियों से मापे नही जा सकते. ये मम्मट जैसे आचार्यों के लिए भी एक चुनौती हैं. इनकी कविता की अपनी अष्टाध्यायी और अपना भाष्य है. मोनिका कुमार की कविताएं भी दुनियावी महासमर से गुजरते समय से विमुख किन्तु जीवनचर्या के महीन से महीनतर उपक्रमों से गुजरती हुई लगती हैं. हालांकि वे अपने स्थापत्य में साधारण ही हैं किन्तु कहने में एक किस्म की बेतकल्लुफी ही शायद उन्हें एक बेबाक कवि बनाती है. अपनी व्यंजनाओं में तेजस्वी और अपनी अभिधा में अतुलनीय अविनाश मिश्र के पहले संग्रह'अज्ञातवास की कविताएं'की कविताएं जिस तरह अपने समय का एक तीखा क्रिटीक रचती हैं, अपने दूसरे संग्रह की कामसूत्रविषयक कविताओं में वे कविता की बुनियादी सतह और रीतिबद्धता से टकराते हुए लगते हैं. इसी के कुछ अंतराल पर आए महेश वर्मा का संग्रह 'धूल की जगह'भी समय व समाज के विद्रूप में उलझने के बजाय कविता में हमारे राग विराग आसक्ति प्रेम द्वंद्व और विपर्ययों की खोजबीन करता है तथा मनेाविज्ञान की सूक्ष्म सतहों को कलात्मकता से उधेड़ता और रचता है.
आज के प्रखर आदिवासी कवियों जेसिंता केरकेट्टा, अनुज लुगुन और अन्ना माधुरी तिर्की तथा अंशु मालवीय इत्यादि को छोड़ दें तो क्या यह राजनीति-विमुखता का कविता समय है जो मानवीय संवेदना पर पड़ते समय के आघातों प्रत्याघातों से निरपेक्ष शुद्ध, शांत और निर्विकार कविता की ओर अग्रसर है. आखिर आठवें और नवें दशक की कविताओं के राजनीतिक बोध की तुलना में ये कविताएं इतनी शांत और निर्विकार क्यों लगती हैं. कहीं यह व्यर्थ के कोलाहल और राजनीतिक प्रेतबाधा से कविता को अवमुक्त रखने की चेष्टा तो नहीं. क्या यह कविता की कोई नई प्रत्यभिज्ञा है जो अपनी जानी पहचानी कलात्मक रागात्मकता से पुनराबद्ध होना चाहती है. इस दृष्टि से आज के युवा कवियों की कविताएं ध्यातव्य और बहसतलब हैं .
एक कवि की अंतर्यात्राएं: महेश वर्मा
उन्हें युवा कवि कैसे कहें जब कि वे 49 बरस के हैं. किन्तु उनकी कविताओं में ताजगी ऐसी कि युवा कवियों के यहां भी विरलता से लक्ष्य है. धीरे धीरे कविता करते हुए महेश वर्मा युवतर पीढ़ी की सीढ़ियों से उछल कर मध्यवय में जा पहुंचे हैं किन्तु वे अब भी अपने मिजाज़ में युवतर ही माने जाते हैं. दिल्ली की केंद्रीयता से दूर किन्तु कविता के केंद्रबिन्दु में समा सकने वाली प्रतिभा लिए महेश वर्मा का बहुप्रतीक्षित संग्रह 'धूल की जगह'इस साल के शुरु में ही रजा फाउंडेशन एवं राजकमल के सहकार में प्रकाशित हुआ तब यह सहज ही कठिनाई नजर आती है कि इस समर्थ कवि को किन कवियों के बीच परिगणित किया जाए.
महेश वर्मा किस तरह के कवि हैं, यह उनके कविता क्रम में दर्ज कविताओं के शीर्षक को देख परख कर जाना जा सकता है. पिता बारिश में आएंगे, ऐसे ही वसंत में चला जाऊूंगा, धूल की जगह, भाषा, इस तस्वीर में मैं भी हूँ, पुराना दिन, अंतिम रात, तुम्हारी बात, मेरे पास, घर, चंदिया स्टेशन की सुराहियां, आदिवासी औरत रोती है, वक्तव्य, चढ़ आया है पानी, मक्खियां, शेर दागना, कल्पनाहीनता, दाहिने हाथ का अंगूठा, बोलो, हंसी, पानी, पहचान, सामाजिक, इस समय, उदाहरण, दरख्त, सुखांत, गांठ खोलो, अंत की ओर से, जलती टहनी, कन्हर नदी, नवनीता देवसेन, शाम, वृक्ष देवता आदि. हो सकता है इनमें सामाजिक उपयोगिता की प्रासंगिकता वाले विषय कम हों किन्तु कविता की 24 कैरेट वाली शुद्धता की दृष्टि से ये कविताएं अत्यंत संवेदी हैं. ये मानवीय मिजाज़ के अनेक रंगों को अपने स्थापत्य में पिरोकर प्रस्तुत करती हैं तथा कभी कभी लगता है ये कवि की अंतर्यात्राएं हैं. उसकी निजी अंतरंगता और अनुभव के भूगर्भीय हलचल की गवाहियां हैं. पर इस कवि के भीतर जीवन जगत में घटित होती यातनाओं के विरुद्ध एक बेआवाज़ कसमसाहट है जो 'अगर यह हत्या थी'जैसी कविता में देखी जा सकती है—
अगर दुख थी यह बात तो
यह संसार के सबसे सरल आदमी का दुख था
यह भूख थी अगर तो उन लोगों की थी
जो मिट्टी के बिस्कुट गढ़ कर दे रहे थे अपने बच्चों को
जो बीच बीच में देख लेते थे आकाश
अगर यह हत्या थी
तो यह एक आदिवासी की हत्या थी.(अगर यह हत्या थी)
एक ऐसी ही कविता है: 'आदिवासी औरत रोती हैं.'
आदिवासी औरत रोती है गुफाकालीन लय में.
इसमें जंगल की आवाज़ें हैं और पहाड़ी झरने के गिरने की आवाज़,
इसमें शिकार पर निकलने से पहले जानवर के चित्र पर टपकाया
गया आदिम खू़न टपक रहा है,
तेज़ हवाओं की आवाज़ें हैं इसमें और आग चिटखने की आवाज़.
बहुत साफ और उजली इस इमारत के वैभव से अबाधित
उसके रुदन से यहाँ जगल उतर आया है.
लंबी हिचकियों के बीच उसे याद आते जाएँगे
मृतक के साथ बीते साल, उसके बोल, उसका गुस्सा -
इन्हें वह गूँथती जाएगी अपनी आवाज़ के धागे पर
मृतक की आखिरी माला के लिए.
यह मृत्यु के बाद का पहला गीत है उस मृतक के लिए -
इसे वह जीवित नहीं सुन सकता.(पृष्ठ 56)
कैसे किसी आदिवासी की हत्या के बाद क्या कुछ उसके परिवार पर बीतता है, यह इस कविता के अंत:करण में महसूस किया जा सकता है. महेश वर्मा अपने चित्त से संवेदना की धूल पोंछते हैं और दुख सुख से बहुत करीब से बतियाते हैं. उनमें एक वीतराग भी झांकता है और अनुरागमयता की आंच भी . इसीलिए 'नवनीता देवसेन'कविता के बहाने वे भाषा की बेचैनी में एक सुर्ख हरकत पैदा करना चाहते हैं और कहते हैं –
जब एक बेचैन भाषा
रक्त की तरह दौड़ती हो भीतर
प्यार का वह शब्द कहो
या सिर्फ गुलाब कहो
और देखो
कैसे अपने आप सुर्ख हो जाता है आकाश.
पर महेश वर्मा एक संवेदनशील कवि हैं जिसने अपने बीच से गुजरते समय को नजदीक से देखा है और उस पर लगते खरोंचों का जायज़ा लिया है. वे जिन शब्दों से कविता के परिदृश्य को मार्मिक और मानवीय बनाते हैं उन्हीं शब्दों से कुछ लोग हत्या को वैधता प्रदान करने की युक्तियुक्तता खोजते हैं. महेश भाषा की इस छद्म भूमिका को इस तरह याद करते हैं ---
जो शब्द हत्या को वैध बनाते थे
वे आज भी हमारी भाषा में गूँज रहे हैं
ऐसे याद रखना कि यहीं पर एक
बलि दी गयी थी.(भाषा)
महेश वर्मा की कविताएं प्रेमशंकर शुक्ल के कवि-मिजाज की याद दिलाती हैं----भोपाल के ही एक समर्थ हिंदी कवि जो पत्थर से सतत संवाद करते रह सकते हैं और झील और नाव से अनेक मुद्राओं में वार्तालाप कर सकते हैं. महेश वर्मा में भले ही गीत चतुर्वेदी जैसा आवेग नहीं है न विट की दृश्यातीत व्यंजनाएं. पर अपने स्थापत्य में सघन संवेदन और हौले हौले छूने बेधने वाले दृश्यबंधों एवं गतिविधियों से विचलित और स्पंदित होते महेश वर्मा अपनी कविताओं को उस बिन्दु पर पहुंच कर मुक्त छोड़ देते हैं जहां हम उनके थिर कवि-मन की थाह ले सकते हैं. उनकी कविता न गत्यात्मक सरलता की कविता है न ठहरे हुए जल की सी अनुद्विग्नता की. हम उनके शब्दों और वाक्यों में जीवन और अपने समय का एक धूसर किन्तु गतिशील प्रतिबिम्ब देख सकते हैं.
कविता की शुद्धता में सांस लेने वाला कवि : मनोज कुमार झा
मनोज कुमार झा को बहुत पहले से जानता हूँ जब उनकी फुटकर कविताएं यत्र तत्र प्रकाशित हो रही थीं. फिर जब उनका संग्रह 'तथापि जीवन'आया उनके कवित्व के प्रति गहरी आश्वस्ति हुई. नया संग्रह कदाचित अपूर्ण इस बात का सबूत है कि वे कविता की शुद्धता में सांस लेने वाले कवियों में हैं. वे कभी कभी कलावादियों के मन-मिजाज के कवि अवश्य दिखाई पडते हैं किन्तु उनकी कविताओं के अंतस्सूत्रों में प्रवेश करें तो वे कविता में जीवन की जटिलताओं को खोलने वाले कवि लगते हैं. उनके भीतर स्थानिकता के गुणसूत्र गुंथे दिखते हैं. तथापि जीवन की ही एक कविता अकारण पढ़ कर लगा था, मनोज कुमार झा में संवेदना का एक कोना उन आंसुओं से भीगा हुआ लगता है जिनकी आज कोई कीमत नहीं. कम से कम न इन आंसुओं से चिकित्सातंत्र पिघलता है, न पूंजी के इस युग में बीमारों की कोई सुनवाई है. पर एक कवि तो इस तरह इन आंसुओं से बच कर नहीं निकल सकता. वह भले ही राहगीर हो पर पास से गुजर रही एम्बुलेंस उसके भीतर हलचल और बेचैनी पैदा कर देती है. उसके यहां इन आंसुओं की सुनवाई है. तभी तो कभी जगूड़ी ने लिखा था, '''मेरी कविता हर उस आंख की दरख्वाश्त है जिसमें आंसू हैं.''यही है साधारणीकरण जो कवि की संवेदना को सदैव सजल बनाए रखता है --
क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बुलेंस
कि जान लूँ बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध हैं तो कितने दाँत साबुत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पाँव
कोई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा
बस यूँ ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का
रहवैया और एक ही रस्ते से गुज़र रहे हम दोनों .
'तथापि जीवन'---की कविताओं से मनोज कुमार झा बिहार और झारखंड के ही श्रेष्ठ युवा कवियों प्रेमरंजन अनिमेष, संजय कुंदन, तुषार धवल, पंकज राग, प्रियदर्शन, शहशाह आलम, राकेश रंजन,निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन, शरद रंजन शरद आदि के बीच दूर से ही पहचाने जाते हैं. हालांकि उनकी भाषा में एक खास तरह का अटपटापन भी दिखता रहा है यानी उतना चाकचिक्य नहीं कि वह एकदम फिनिश्ड प्रोडक्ट की तरह लगे. पर हां उनकी कविताओं के लोकेल में पूरा बिहार अपने ययार्थ और भदेस के साथ दिखता है. वे अपनी जनपदीय चेतना और माटी होती जिन्दगी को उत्सवता का जामा पहनाने से बरजते हैं. वे बिहार के ज्वलंत प्रश्नों को अपनी कविता की रीतिबद्धता में ढाल कर कविता में एक अलग तरह का आस्वाद पैदा करने की चेष्टा करते हैं. ऐसा करते हुए कहीं कहीं उनमें अरुण कमल-जैसा निश्चयात्मक नियतिवादी जीवन स्वर उद्भूत होता है, कभी कभी अजानी न बरती गयी ऐसी शब्दावली भी उनके यहां जगह बनाती है जो शायद इस अवधारण से जन्म लेती है कि कविता से कुछ ऐसा लगना चाहिए जो अज्ञेय या अपरिभाषेय भी हो. मुझे बस रहने लायक जगह हो/और सहने लायक बाज़ार/जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं---में अखंड पनही का विशेष्य विशेषण हमें चौंकाता है तो अगम गम हुआ, हमें क्या मिला/छला ही इस बड़ी छलांग ने में अगम गम और छलांग के छलने में ज्ञानेन्द्रपतीय कौशल-सा दिखने लगता है.
तथापि, हाल ही में आया उनका नया संग्रह 'कदाचित् अपूर्ण'उनकी कविताओं में दीखती उपर्युक्त विशिष्टताओं से अलग अपनी सादगी में अनूठा है. जिस कचोट और चोट से एक मामूली आदमी विचलित हो उठता है, उससे कवि के अंत:करण पर लगी चोट का अनुमान भर लगाया जा सकता है. 'कदाचित् निष्फल'की पंक्तियां देखिए कवि किस अकिंचन चाहतों से भरा है --
जब खींच ले गया सामने से पत्तल
उठा दिया पाँत से
तो सजल मन सोच सकुचाया
इतना भी न हुआ भाषा तक में
कि रोऊँ तो रोना छुपा ले देह
और नदियॉं भेजे कुछ उर्मियॉं उठाने को माथा
और गिर पडूँ धरती पर
तो मिट्टी सँवार दे सलवटें .
उसकी बेकली किसी कवि से मेल नहीं खाती. आखिर ऐसी अलग पहचान न हो और एक कवि सैकड़ों में मिल कर खो जाए तो वह फिर कवि कैसा. कवियों को ऐसा ही होना चाहिए जैसे ईश्वर की दुनिया में हर आदमी एक दूसरे से अलग होता है. आज की कविता पर यही तो आरोप है कि उस पर से नाम हटा दो तो वह किसकी है यह पता न चले. कविता तो वह है जो नाम हटा दो तो भी किसकी है यह पहचान हो जाए. तो क्या मनोजकुमार झा ऐसी पहचान बना पा रहे हैं. अभी इस पर कुछ निर्णायक तौर पर कहना मुश्किल है . मैं उन्हीं की जबान में कहना चाहूँगा कि वे अन्य कवियों से 'कदाचित् अलग'हैं. यह कदाचित् इस हिचक के साथ है कि अभी वे संग्रहों में दूसरे या तीसरे संग्रह की पायदान पर हैं. पिछले संग्रह से यह संग्रह अलग लगता है तो अगला आने वाला संग्रह उन्हें कम से कम अपनी एक अलग शैली निर्मित करने में मदद करेगा. पर मनोज के भीतर यह जो बेकली जन्म ले रही है वह उनके कवि को धीरे धीरे परिपक्व बना रही है. वे थोड़े से शब्दों में बड़ी बात कहने में प्रवीण हैं. उनकी कविता 'नदी को इंतजार करने दो'की पंक्तियां देखें--
आओ नदी को लॉंघती हुई आओ
पाँव रखों तो सख्त मिट्टी भी कर उले छल छल
एक देह नदी के आसमान को चीरती आए
घोलती रस पवन के प्रवाह में
और फिर लौटो नहीं
इंतजार करने दो नदी को
जैसे मैं करता रहा इंतजार
आखिर उसके जल में मेरी आंख का जल भी है शामिल.
कहना न होगा कि इस कवि के पास बेचैनियां बहुत हैं, बेकली बहुत है. संशय बहुत हैं, तथापि बहुत हैं, कदाचित् बहुत हैं. पर यह वही कवि है जो किसी वैष्णव जन की तरह पराई पीर जानने को विकल है ---
मैंने चाहा कि किसी को फो करूँ
तो किसी बच्चे की नींद न टूटे
न चमके स्क्रीन उसके सामने
जिसने अभी खींचा है रात को अपने करीब
जिसकी उंगलियों में दर्द हो
उसे तो हरगिज कॉल ना करूँ . (अपूर्णता)
मनोज कुमार झा पिछले कुछ सालों से मेरे जेहन में एक कवि की तरह अँटके हैं. उन पर इससे पहले शायद ही कुछ लिख सका होऊँ. पर वे लगातार अवलोकनों में रहे हैं. वे एक अच्छे अनुवादक तो हैं ही, अभावों से भरे कस्बे के निवासी भी हैं . किन्तु उनकी कविताओं में न दैन्यं न पलायनम् का एक गर्वीला भाव दिखता है . उनका कवि विकास की दुदुभि में भी अभावों की सिसकियां सुन लेता है. यही उसके कवि होने की असली कसौटी है.
वाचालता के विरुद्ध संयम : अविनाश मिश्र
मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूं तुममें
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें जरा-सा भी न घेरूं
और तुम्हें पूरा ढंक लूं (इत्र)
इन पंक्तिंयों को लिखने वाले कवि की उम्र कोई तीस के आसपास की होगी, चेहरा सहज और मासूम किन्तु उसकी संवेदना-संपन्न मेधा से निकलने वाली कविताओं का अपना अनूठापन है. जब फेसबुक के सहारे अपने को लोकप्रिय बनाने के नुस्खे आजमाए जाने लगे तो अविनाश ने यहां परसी जाने वाली तथाकथित बौद्धिकता के झाड़झंखाड़ को साफ करने का बीड़ा उठाया. उसके बौद्धिक प्रहारों से न तथाकथित युवा बच पाए न बुर्जुआ बौद्धिक. वह जितना अपनी फौरी रपटों के लिए आलोचना का शिकार हुआ उतना उसकी कविताओं का लोहा उसके समयुवा कवियों पर भारी पड़ता गया. लोग उसकी कविताई के सम्मुख हतप्रभ नजर आते. अज्ञातवास की कविताएं अविनाश मिश्र की काव्ययात्रा का मजबूत प्रस्थान बिन्दु हैं.
जब बाबुषा कोहली को भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से नवाजा गया तो किसी टिप्पणी में मुझे लिख कर यह तोष हुआ कि 'देवीप्रसाद मिश्र से अविनाश मिश्र तक हिंदी कविता का एक पुल बनता दिखाई देता है जिसके नीचे से बाबुषा जैसी कई मीठी नदियां बहती है.'कहने का आशय यह कि जिस कवित-विवेक के साथ अपने समय के यथार्थ को एक खास अंदाजेबयां में ढालने का काम देवीप्रसाद मिश्र ने किया; अनामिका, सविता सिंह, अनीता वर्मा, गीत चतुर्वेदी, प्रभात, आशुतोष दुबे, दिलीप शाक्य, लीना मल्होत्रा और यतींद्र मिश्र से होती हुई कविता अविनाश मिश्र तक पहुंच कर जैसे सर्वगुणसंपन्न नजर आती है. उनकी कामकला संबंधी चौंसठ सूत्र कविताएं पढते हुए मैंने जानना चाहा कि आखिर इतने सारे कवियों के बीच उसका आविर्भाव क्या इसीलिए हुआ है तो अविनाश ने कहा, ‘’कविता लिखना मेरे लिए एक निर्विकल्प स्थिति है. इसकी जगह दूसरा कोई और काम करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि मैं कविता लिखने को दूसरे कामों से अलगाता नहीं.‘’ अविनाश ने मुक्तिबोध की ये कविता-पंक्तिेयां दुहराईं -विचार आते हैं—लिखते समय नहीं,बोझ ढोते वक्त पीठ पर.... जब अधिकांश कवियों की कविताएं असंतोष ही जगाती हों तो इस परिदृश्य में बदलाव की बयार कैसे बहेगी? इस सवाल पर अविनाश कहते हैं, ‘’कविता संतुष्टि और बदलाव के ठेके नहीं उठाती. ये काम बाबाओं और राजनेताओं को शोभा देते हैं. कविता प्रथमत: कवि की उपस्थिति और उसकी अस्मिता का प्रकटीकरण है.‘’
अविनाश मिश्र की गति कविता और समीक्षा में समान है. उनके खाते में बेशक अभी कोई पुरस्कार नहीं, न उसकी कोई आकांक्षा ही उन्हें है, पर अब तक आए उनके दो संग्रह उनकी अचूक कवि-प्रतिभा के उदाहरण हैं. उनकी अब तक की उदघाटित कविताओं का संसार भाषा, कथ्य व संवेदना की दृष्टि से नई उदभावनाओं का परिचायक है, व्यक्त-अव्यक्त का विस्मयपूर्ण बखान है. उनकी दृष्टि विडंबनाओं और विचलनों का दूर तक पीछा करती है और उनमें छिपे हुए मानवीय आशयों को अपनी कविता के अंत:करण में शामिल करती है. वाचालता के विरुद्ध भाष्य रचते हुए इस युवा कवि की कविता अपने अर्थोत्कर्ष तक पहुंच कर अभिव्यक्ति की हर वह ऊँचाई पाना और छूना चाहती है जहां प्राय: काव्याभ्यासियों की दृष्टि नहीं पहुंच पाती. कहना न होगा कि कविताबाजों से लेकर दीप प्रज्वलन में लगे गणमान्यों, प्रूफ रीडरों, अनुवादकों, संपादकों, स्त्री के सोलह अभिमानों और कामकला के चौंसठ सूत्रों तक अविनाश ने कविता में नए से नए विषय और गूणसूत्रों का आवाहन किया है और कवि के रूप में एक न्यायसम्मत जगह बनाई है.
ये ख्याल ये बंदिशें ये सुर ये संगीत, यह वाग्मिता :बाबुषा कोहली
एक ऐसी किताब जो रस छंद के सम्मोहक अमूर्तनों आवर्तनों से बनी हो, जहां कविता और गद्य ऐसे मिलते हों जैसे धरती और आसमान एक संधि रेखा पर; जो यों तो दिखती जरूर है पर उस सीमांत तक पहुंच पाना संभव नहीं. बाबुषा कोहली की बावन चिट्ठियां ऐसी ही गद्य कविताओं का संग्रह है. कोई पुस्तक सिरहाने ही नहीं, आपके सतत सम्मुख रखी हो और आसानी से घुल जाने वाले आख्यान में न होकर ऐसे वैचारिक विन्यास में उपनिबद्ध हो जहां मन की लंबी लंबी उड़ानें हों, चित्त सत्वर गति से दोलायमान हो, वहां उसका कोई प्रतिबिम्ब बनता भी है तो स्थिर नहीं रहता. इसे पढ़ते हुए क्षण प्रति क्षण बदलते विचारों के स्थापत्य से सामना होता है. कभी किसी ख्याल किसी बंदिश किसी शेर किसी रुबाई में डूबे और भीगे भीगे गद्य की तासीर पढ़ते समय यह हमें तमाम अतिरेकों में ले जाती है. एक पन्ने पर पढ़ता हूँ एक खयाल और मुझे किसी शायर का एक शेर याद हो आता है. यह भी शायद बावन चिट्ठियों में कोई चिट्ठी है जहां कवयित्री ने टॉंक रखा है--- तुम्हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे .
खटमिट्ठी रात पर
ढुरक कर चंद्रमा का नमक
चखेंगे आकाश रसीला
हम
बादलों के सिलेटी बाग़ में
उगल कर गुठली
जब-तब सफ़ेद दिन उगा देंगे
खिड़की फॉंद कर दाखिल होंगे
तुम्हारी नींदों में ताउम्र
और
तुम्हारी सपनीली पवित्रता में
जामुन का दाग़ लगा देंगे.
कभी अज्ञेय ने कविता के औपचारिक फार्मेट से ऊब कर कहा होगा. 'छंद में मेरी समाई नहीं है/ मैं सन्नाटे का छंद हूँ.'कल तक मीठी कविताएं लिखने वाली कवयित्री बाबुषा कोहली अपने पहले संग्रह के साथ ही कविता की कोमल पाटी से अलग गद्य के ऐसे निर्भान्त अननुमेय संसार में विचरण करती रही हैं जहां दुनिया जहान की तमाम कलाएं आजमाई जा सकें. लिहाजा वे मन की मौज में हैं, यायावरी में हैं, संगीत सुनने के दौर से गुजर रही हैं, गालिब मीर जौक के अशआर दिमाग में हलचल मचा रहे हैं, बुखार की बड़बड़ाहट को शब्दों के क्रोसीन से शमित करने की चेष्टाओं में हैं, हर वक्त कोई न कोई ख्याल अपनी अपरिमिति में अर्थ की एक नई आमद के साथ उदघाटित हो रहा है. यह जैसे रंगों की बारिश हो, शब्दों की एक नई खुलती जादुई सी दुनिया हो, अंदाजेबयां में शायराना किन्तु व्यवहार में कातिलाना हरकत से ऐसे ऐसे अर्थ उपजाने की कोशिशें हों, बाबुषा कोहली की बावन चिट्टियां ---गद्य पद्य चंपू सबके रसायन से समन्वित एक ऐसे संसार की तरह है जिसे ईश्वर रोज नए तरीके से रचता और सिरजता है.
यह जीवन के तमाम अप्रत्याशित अजाने क्षणों को बांध लेने में कुशल बाबुषा की गद्यमयता का संसार है जो शायद कविता के आजमाए फार्मूलों से ऊब कर गद्य के इस बीहड़ और विन्ध्याटवी में उतर आया है जहां कोई खयाल लता गुल्मों की तरह हमारे चित्त को आहलादित करता है तो कहीं प्रियंवदा और बुद्ध के आख्यान को सुनाती हुई एक बुढ़िया उस मुक्ति की कहानी सुनाती है जहां अरसे से अपने हृदय में बुद्ध के प्रति प्रेम का मौन संजोये प्रियंवदा जलती हथेली पर बुद्ध की आंखों से गिरी बूँदें गिरते ही इस दुनिया से आंखें मूंद लेती है.
बाबुषा कोहली के संग्रह 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'पर लिखते हुए अंत में मैंने अपनी प्रतीति जाहिर करते हुए कहा था इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि अभी अभी किसी शहनाईनवाज़ की महफिल से उठकर आया हूँ. इन चिट्ठियों के बहाने बाबुषा के कविता के उस नए संसार से परिचय मिलता है जिसे किसी यथार्थवादी प्रतिबिम्ब में डिकोड करना आसान नहीं है. इनमें दर्शन की अनेक प्रतीतियां हैं. हर क्षण को उसके नयेपन के साथ महसूस करना कवयित्री का लक्ष्य रहा है. इन कविताओं, अनुभूतियों के इन टुकड़ों का कोई निश्चित अर्थ करना आसान नहीं क्योंकि ये उस मन की चंचलताएं हैं जो एक भाव एक करवट ठहरती नहीं, क्षण भर में इंद्रधनुष सा पैदा कर तिरोहित हो उठती हैं. पर हां, केवल उल्लास ही नहीं, अवसाद के अनेक लम्हे यहां मौजूद हैं लेकिन किसी ऋजु रेखा पर न चलकर कविता के इस बीहड़ रास्ते पर चलती हुई भी बाबुषा अपने सरोकारों को किसी तिलिस्म या जादुई आभा में उलझाती नहीं बल्कि अपने तरीके से उसे सबल रूप से रेखांकित करती हैं . जब रुलाई फूटे का एक टुकड़ा देखें जहां कवयित्री कहती है :--
जब रूलाई फूटे किसी पेड़ से लिपट जाना.
रेलवे स्टेशन निकल जाना. भिखारियों का भूखा पेट देखना.
हिजड़ों को सूखा पेट दिखाना. उनके दुआओं वाले हाथ जबरन सिर पर
रख लेना. सिक्के बराबर आंसू बन जाना. ग़रीब की कटोरी में
छन्न से गिर जाना. (जब रुलाई फूटे)
इन चिट्टियों को पढ़ते हुए मेरी निगाह कवयित्री के इस कौल पर जाता है ---
जिसकी आत्मा अपने ही घात से लहूलुहान हो,
मैंने सीखा उस आदमी का माथा सहलाना.
मैं सीख रही हूँ अपना नाम लिखना, फिर मिटाना,
फिर लिखना, फिर मिटाना. ऐसे ही धीरे धीरे किसी दिन
अपने नाम की हिज्जे भूल जाना.
ये कविताएं ये गद्यविन्यास ये ख्याल ये बंदिशें ये सुर ये संगीत, साधना के ये शब्द, यह वाग्मिता शिउुली के उस फूल की तरह हैं जो झरते हैं तो सारे मोह-सम्मोह, आसक्तियां, सारी भौतिकताएं जैसे उसके सौंदर्य में विलीन हो उठती हैं. पर ये पूजा के फूल नहीं हैं . इन्हें निहारने का सुख ही अलग है. गद्य की ये वीथियां ऐसी ही हैं कि कोई इनमें आकर जैसे गुम हो जाए. अपनी पहचान खो बैठे.
मेरी आंखें पढ रही हैं कवयित्री का इंदराज ---
तुम्हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे .
और मुझे याद आता है किसी शायर का यह शेर --
शज़र में जितनी सूखी पत्तियां हैं
तुम्हारे नाम --- मेरी चिट्ठियां हैं .
ये बावन चिट्ठियां ऐसी संततियों की तरह हैं जिनकी शक्लें आपस में एक दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलतीं किन्तु किन्तु उनमें एक ब्लडग्रुप जैसा गुणसूत्र समाया हुआ है.
कविता में अमूर्त और विस्मय : मोनिका कुमार
कविता में कभी कभी कुछ ऐसा घटता है जैसे कोई विस्मयादिबोधक. मोनिका कुमार का आगमन हिंदी कविता में ऐसे ही हुआ है. आश्चर्यवत. पंजाबी आबोहवा में जन्मी मोनिका कुमार के प्रेक्षण जीवन की सहजता के अतल से जैसे कुछ नायाब सा खोज लाते हैं. कविताएं अपना उन्वान बदल रही हैं, अपना पैरहन बदल रही हैं. जैसे कहानी वैसे ही कविता अब कहीं से शुरु होकर कहीं खत्म हो सकती है. वह कोई निबंधात्मक घटना नहीं है. हर कवि लीलाधर जगूड़ी की तरह सूक्ति प्रदाता नहीं होता. वह किसी वृत्तांत या नैरेटिव को ऐसे ही लेता है जैसे यह पूरा जीवन किसी बड़े नैरेटिव का हिस्सा हो. लंबे अरसे से ब्लाक, पत्र पत्रिकाओं में चर्चित रही मोनिका कुमार की कविताएं आश्चर्यवत् शीर्षक से रजा फाउंडेशन की प्रकाशवृत्ति के तहत प्रकाशित हुई हैं.
कविता व शास्त्र के दिग्गज व्याख्याता वागीश शुक्ल इनमें एक एक्टिविज्म का रंग पाते हैं. वे कहते हैं, ''मोनिका कुमार के काव्य संग्रह की कविताओंंको देख कर हिंदी के समकालीन काव्यजगत का बहुत सा कुहासा कृत्रिम लगता है, प्रदूषण के उन मानदंडों की उपज जो हमारी जीवन शैली के नियामक हैं. इन कविताओं में यह भरोसा झलकता है कि ये मानदंड जीवन के नियामक नहीं हैं. जिस हद तक जीवन को उसकी शैली की दासता से छुड़ाने का नाम स्वतंत्रता है, उस हद तक ये कविताएं स्वतंत्रता की भी पक्षधर कही जा सकती हैं. उन्हें ये कविताएं समकालीन कविता को एक अलग और आकर्षक आभा से दीप्त करती प्रतीत होती हैं.
पांच खंडों में विभक्त इन कविताओं का कथ्य मिला जुला है. कवियों का मन इतना गुप्तसंकेती होता है कि उसे कोई राडार सही सही नहीं आंक सकता. स्त्रियों का मन तो और भी अबूझ. जीवन में खुशी और प्रेम की कोई गारंटी नहीं होती. मोनिका कुमार की कविताएं समकालीन कविता के मुहावरे से अलग दिखती हैं. कभी कभी एक ही कविता में कई असंबद्ध चीजें मिल कर कविता के चेहरे को विवर्ण बना देती हैं. कविता आदि से अंत तक किसी निश्चित अर्थ का संकेत नहीं देती. वह बहुत सारी बतकहियों, मंतव्यों, चुहलबाजियों का सारांश होती है. उस अर्थ में अपनी ही समवयस कवयित्रियों में मोनिका अलग सी छिटकी मालूम होती हैं. पर कुछ कविताओं मे उनकी कल्पना खिलती है जैसे कवि सुंदर, अवसाद के दिनों, पासपोर्ट, शीतलहर, मत कहना किसी को प्यार से खरगोश, आगन्तुक आदि. पर अधिकतर कविताएं बोलती तो बहुत हैं पर उनसे कोई सुनिश्चित प्रतिबिम्ब नहीं बनता. तथापि मोनिका कुमार की असंबद्ध-सी लगती काव्य-प्रतीतियॉं अमूर्तन और विस्मयता के विन्यास का ही परिचायक हैं.
शब्दों के एकांत से आती स्मृति की प्रतिध्वनियां : सुशोभित सक्तावत
कहते हैं कोई भी नया कवि पुरखे कवियों की कोख से जन्म लेता है. वह कवि परंपरा का वाहक, संवर्धक, रूढ़ियों का भंजक और नई परंपराओं का प्रस्तावक होता है. अनेक युवा कवियों की कविताओं से गुजरना हुआ है, उनकी अलभ्य कवि-कल्पनाओं के प्रांगण में शब्दों पदों को किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत के आह्लादक क्षणों में पग धरते देखा है और अक्सर चकित होकर अपार काव्यसंसार में कवि-प्रजापति की निर्मितियों को निहारने, गुनने और सुनने का अवसर मिला है. पर कुछ दिनों के बाद कोई न कोई कवि फिर ऐसा आता है कि वह साधारण से लगते मार्ग का अनुसरण न कर कविता को भी अपनी चिति में ऐसे धारण करता है जैसे वह उसकी अर्थसंकुल संवेदना को धारण करने का कोई अनन्य माध्यम हो. सुशोभित शक्तावत की हाल ही में कुछ कविताओं(मैं बनूंगा गुलमोहर--संग्रह) से गुजरना हुआ जो प्रेम और श्रृंगार के धूप दीप नैवेद्य से सुगंधित लगीं. उन कविताओं की गहन एकांतिक अनुभूतियों के बरक्स हाल ही आए 'मलयगिरि का प्रेत'की कविताएं सुशोभित के अत्यंत गुंफित और प्रस्फुटित कवि-चित्त की गवाही देती हैं. अक्सर उनकी कविताओं को देख पढ कर हममें एक विस्फारित किस्म की मुद्रा जागती है और हम कल्पनाओं के विरचित प्रांतर में अभिभूत हो उठते हैं.
सुशोभित जैसे विद्या-व्यसनी, कला-व्यसनी, गीत-संगीत-फिल्म, भाषा-व्यसनी कवि के यहां हर चीज एक नए ढंग से कवि के अनुभवों के लोक का हिस्सा बनती है. इस कवि को पढते हुए लगता है यह कवि उस जन-अरण्य से आया है जहां अभी मनुष्यजाति की आदिम चेतना सांस ले रही है, जहां जीवन की मौलिकताएं अभेद्य हैं, जहां वह अजबलि का साक्षी होता है , बलिपशु के कातर करुण क्रंदन का साक्षी होता है, जिस परिदृश्य में जाम्बुल वन की कन्या, सिंघाडों के तालाब वाला गांव, कृष्ण वट, मोरपंखों के बिम्ब और ग्रीष्म की चित्रलिपियां उसकी राह देखती हैं, जहां पिता की गर्भवती प्रेमिका की याद घनीभूत होकर कवि- मस्तिष्क पर हावी हो उठती है. एक दूसरा परिदृश्य इन कविताओं में कला संगीत नाट्य के रसमय संसार से जुड़ता है जिसमें कलाओं में रमने का अभ्यस्त कवि-चित्त अपने होने में इन कलाओं की संगति को महसूस करता है जैसे वह चिरऋणी होकर इनके प्रति आभार जताने के लिए पैदा हुआ है.
कलाओं, संगीत, शब्द और अर्थमयता की सरणियों में अनेकार्थ लक्षित करने वाला यह कवि कभी कभार लौकिक दुनिया में लौटता है जहां बेटे की सिंघाड़े सरीखी श्वेत धवल दंतुरित मुस्कान भोर के स्वप्न तक गूंजती रहती है. एक पके कटहल का गिरना भी उसके लिए कुतूहलमय है. उसका गिरना जैसे किसी गंधमादन का अवतरण हो, वह मुखर्जी मोशाय की गांगुलीबाड़ी को रसमय कर देता है, इस धप्प से गिरने का संगीत जितना रसोद्भावक है उससे कम रसाप्लावित कवि की संवेदना नहीं होती. वह तो जैसे इस गिरने को उत्सवता की तरह दर्ज करता है. वह रस के इस वानस्पतिक वैभव को जिन शब्दों में सहेजता है वह कवि के सरोकारों का उत्कीर्णन भी है. देखें कवि कटहल के इस भाव-विभाव को किस कवि विवेक से लेता है --
विनय सीखना हो
तो सीखो फलों से लदे
दबे झुके गाछ से
धैर्य धरा से
व्याप्ति मुखर्जी मोशाय के
यशस्वी आम्रकुंज से.
और सीखना हो संतोष
तो सीखो कटहल के फल से
जो अपने में इतना संपूर्ण
इतना निमग्नओर
इतना आत्मविभोर! (मलयगिरि का प्रेत, पृष्ठ42)
सुशोभित एक साथ कोमल व बीहड़ गद्यांश दोनों के कवि हैं. प्रेम कविताएं लिखने की पूरी उम्र हैं उनकी. ऐसी कविताओं के साथ न्याय भी किया है. वे एक साथ ऐंद्रिय और अतीन्द्रिय भाव बोध के साधक हैं. उनकी विज्ञता की छाया भी कविताओं पर कम नहीं पड़ती सो तार्किकता और काल्पिनकता की एक अप्रत्याशित उड़ान उनकेयहां मिलती है. पर जिन दो छोटी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे एक विरल कविताई का आभास हुआ वे --किताब में गुलाब और जैसे मैं, जैसे तुम हैं. हम केदारनाथ सिंह की कविता हाथ पढ़ चुके हैं. कोमल नाजुक सी कल्पना की छुवन से विरचित वह कविता एक अनूठे भावबोध और संवेदना के रसायन में हमें भिगो देती है और हम काश! की कशिश से भर उठते हैं. बहुतेरी व्याख्याएं उस कविता की हुई हैं----उनकी तमाम अर्थवान कविताओं से भी ज्यादा लोकप्रिय हो उठी वह कविता आज भी हमारी रागात्मकता का पर्याय है.
सुशोभित सक्तावत की दों कविताएं देखें --
हाथ गुलाब भी हो सकते हैं.
हथेलियां
किताब भी हो सकती हैं.
तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में
छुपा लो !
•
केवल खिड़कियॉं हैं:
जैसे ऑंखें,
जैसे धूप .
केवल परदे हैं:
जैसे चेहरे,
जैसे हवा .
केवल दीवारें हैं
जैसे मैं,
जैसे तुम.
सच कहें तो अच्छी कविताओं को व्याख्या की कोई दरकार नहीं होती. ये कविताएं उसी कोटि की हैं. सुशोभित की सारी कविताएं इतनी ऋजु नहीं हैं . वे सम्यक् अर्थ की निष्पत्ति के लिए पाठक को अपने उद्यम के लिए उत्प्रेरित भी करती हैं. मैं बनूंगा गुलमोहर की प्रेम कविताएं और गद्य गीत जिन्हें कवि ने स्वयं चित्रलिपि और रेखाचित्र कहा है सचमुच गद्य के नए रूप का प्रस्तावन हैं. ये किसी को अच्छी भी लग सकती हैं, खराब भी. क्योंकि यह पारंपरिक गद्य या कविताओं में अभी तक बरते गए चिंतनशील गद्य के प्ररुप से तनिक अलग हैं. ये कथानक में हैं, संवाद प्रतिसंवाद में हैं तथा वक्तव्यों और आत्मकथन और स्वगत रूप में भी.
सुशोभित की यही खूबी है और यही उनकी कविता की सीमाएं भी हैं---क्योंकि उनकी कविताएं न तो परंपरानुधावक हैं न वैसा होने की कोई ख्वाहिश रखती हैं. इसके साथ ही प्रकाशित 'मलयगिरि का प्रेत'की कविताएं कविता के एक नए स्थापत्य का वाहक हैं----वहां रागात्मकता नहीं, प्राच्य विद्या, दर्शन, अध्यात्म, आरण्यक, उपनिषद, राग, संगीत, फिल्म, नाट्य, गार्हस्थ्य, इतिहास, पुरातत्व तथा प्राचीनों से गप लगाते आधुनिक का-सा बोध है. पर अभी तो मेरा मन इन्हीं दो लघु कविताओं में रमा है. एक अनुगूंज की तरह . सच कहें तो कविताएं ऐसी ही छोटी छोटी होनी चाहिए. देखन में छोटी लगें घाव करें गंभीर.
एक पुराधुनिक कवि का काव्याभ्यास : अम्बर पांडेय
हाल के कविता परिदृश्य में पिछले दिनों जो नाम चर्चित रहा वह है अंबर पाण्डेय का. लगभग सुशोभित शक्तावत की तरह ही अचूक कल्पनाशील और अपनी ज्ञान गरिमा से अलंकृत अंबर की कुछ कविताएं सोशल मीडिया पर जारी हुईं तो एकाएक कोलाहल सा जाग उठा. दोपदी सिंघार और तोता बाला ठाकुर-के नामों से लिखी जाती वे कविताएं बताती थीं कि 'मैं खयाल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है.'कुतूहल इस बात का था कि यह कौन है जो एक नई भाषिक स्थानिकता की कविताएं लिख रहा है तथा स्त्री की पीड़ा को एक नव छायावादी स्वर दे रहा है. ये कविताएं बताती थीं कि ये कविताएं ---जो मार खा रोई नहीं ---से गुजरती ऐसी स्त्रियों की व्यथाओं का ऐसा कारुणिक आख्यान है जो किसी भोगे हुए यथार्थ का अतियथार्थवादी चित्रण है. बंगाल और देश दीगर क्षेत्रों के ऐसे गुह्य लोकों में ले जाती ये कविताएं एक नए मिजाज की कविताएं थीं जिनकी उत्कृष्टता से किसी को गुरेज न था सिवाय यह जानने के कि इसका रचयिता कोई और है. बाद में पता चला कि उन कविताओं का रचयिता एक पुरुष है और वह है अंबर रंजना पांडेय.
अंबर पाण्डेय ऐसे ही साहसिक कवि का नाम है जिसका काव्याभ्यास नए आयामों को छूने का कौशल रखता है. 2018 के आखिरी दिनों में आए अंबर पांडेय का कविता संग्रह कोलाहल की कविताएं इस बात का परिचायक हैं कि यह कवि किसी समकालीनता में नहीं, शाश्वत के बीहड़ों में सांस लेता है. वह उतना ही छायावादी किन्तु उतना ही आधुनिक है या कहना चाहिए वह एक पुराधुनिक कवि है जो भाषा के भ्रष्ट होने में ही उसकी सच्ची चरितार्थता देखता है तो कदम्ब, बबूल, अमरूद, जामुन, न्योजो, बिल्व, पलाश, सार, आम- लंगड़ा, चौसा, तोतापुरी, महुआ और अश्वत्थ वृक्षों के साथ कविता की नव्यतम परिकल्पनाओं को साकार करता है.
अंबर पांडेय की कविताओं में एक अदृश्य रहस्य रोमांच है जो कविताओं की रीढ़ में एक नया रोमांच पैदा करता है. कविताओं का डिक्शन भी इस कवि का बहुत अलग है. वह व्याकरण के अनुशासन को तोड़ता हुआ कहीं भी अल्प विराम पूर्णविराम या अर्धविराम पर कविता छोड़ सकता है. उसके शब्द भी अटपटे होकर भी एक नया परिष्कार कविता की गतानुगतिकता में करते दीखते हैं जैसे वाराणसी में बाढ़ कविता लिखते हुए उसका यह लिखना ---
बंधु रे आपगा में अम्बु अपार
घाट पांक-गारे में लीन
घने पाकुर के श्याम पत्रों में
खो गया बासर, दीन
मंगते पर बीती रात
गिरी गाज गंगा किनार
यह वर्णन ज्ञानेन्द्रपति जैसे 'काशी के तकवाहे'तक पर कविता लिखने वाले कवि की व्याकरणिक इकाई से कितना अलग है. अंबर के यहां संस्कृत, बांग्ला के साथ तद्भव और प्रचलन से बाहर के अनेक ऐसे शब्द मिलेंगे कि लगेगा कि हम दशाब्दियों पहले के बनते हुए गद्य के स्थापत्य से गुजर रहे हैं. वह भाषा के तूणीर का साधता हुआ एक स्थपति सा प्रतीत होता है. उसकी भाषा कभी कभी अनुपन्यास की-सी कृष्ण बलदेव वैद सरीखी अकवितामयी भाषा भी लगती है . भाषा की विंध्याटवी से उठाए गए ऐसे शब्द मिलते हैं जैसे कौन कवि कहेगा आज भला यह कि ---''शुकपुष्पा के तरुओें तक चंण्ड मेघ घिर गए हैं'', या ''वसन्त में पर्जन्य छा गए.''या ''गह्वर गात्र, गुढ़े पर एकाकी, गूढ़ है. छाल पीकर अनेक गहेले जिनका मानस भटकता करता था, ठीक हो गए. गुडाकेश का गाछ इष्ट . ''
इस तरह भाषा अर्थ शैली शिल्प सब कुछ अपनी समकालीनता से अलग दिखता हुआ अंबर पांडेय की कविताओं को पढ़ने के लिए नए धीरज की मांग करता है. नामवर जी जब तब नए नए कवियों की कविताओं के लिए नए काव्यशास्त्र की मांग करते रहे हैं पर न ऐसा काव्यशास्त्र नामवर जी ने कभी सुझाया उसकी कसौटियां या सांचे रखे न इस दिशा में किसी काम की प्रत्याशा है. हम केवल सिर धुनने के लिए हैं कि ऐसे कवि आखिर कविता की किन नई कसौटियों पर परखे व व्यवहृत किए जाएं या ऐसे नवाचारों की स्वीकृति के लिए हमारा पाठक कितना अभ्यस्त हो सका है.
संस्कृत में कहा गया है, अनभ्यासे विषं शास्त्रम्. जिस तरह बिना काव्याभ्यास के अच्छी कविता लिखना असंभव है, वैसे ऐसे नवाचारों का अनभ्यासी पाठक इन कविताओं को लेकर सिर धुने तो अत्युक्ति नहीं . पर यह हमारे समाज की बौद्धिकता की सीमा है, कवि की नहीं. वह अपना भाष्य खुद क्योंकर लिखेगा. यह भाष्यकारों का काम है कि उसके लिखे को जन जन तक पहुंचाएं. भाषा अशुद्ध होकर धूल मिट्टी में सन कर ही नए स्वरूप में ढलती है . ऐसी ही एक कविता ''बहुत हैं मेरे प्रेमी''के पीछे कवि का भाषा-चिंतन देखिए ---
मैं तो भ्रष्ट होने के लिए ही
बनी हूँ
बहुत हैं मेरे प्रेमी
पाँव पड़ता हैं मेरा नित्य
ऊँचा-नीचा
मुझसे सती होने की आस
मत रखना, कवि
मैं तो अशुद्ध हूँ
घाट-घाट का जल
भाँत-भाँत की शैया
भिन्न-भिन्न भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे निकट
प्रौढ़ा हूँ, विदग्धा हूँ
जल चुकी हूँ
यज्ञ में, चिता में, चूल्हे में
कनपटियों की सिरायों में
टनटनाती रहीं सबके, दृष्टि में
रही अदृश्य होकर, जिह्वा पर
मैं धरती हूँ कलेवर
उदर में क्षुधा, अन्न में तोष
निद्रा में भी
स्वप्न खींच लाया मुझे
और ले लिया मेरे कंठ का चुम्बन
फिर कहती हूँ, सुनो
ध्यान धरकर
मैं किसी एक की होकर नहीं रहती
न रह सकती हूँ एक जगह
न एक जैसी रहती हूँ
नित्य नूतन रूप धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन हूँ रजस्वला
मैं अस्वच्छ हूँ टहकता हैं मेरा
रोम-रोम स्वेद से
इसलिए मैं लक्ष्मी नहीं हूँ
न उसकी ज्येष्ठ भगिनी
मैं भाषा हूँ, कवि
मुझे रहने दो यों ही
भूमि पर गिरी, धूल-मैल
से भरी
जड़ता में ढूँढ़ोगे तो मिलेगा
सतीत्व, जीवन तो स्खलन
हैं, कवि
जल गिरता हैं
वीर्य गिरता हैं
वैसे मैं भी गिरती हूँ
मुझे सँभालने का यत्न न करो
मैं भाषा हूँ
मैं भ्रष्ट होना चाहती हूँ .
कबीर, तुलसी, मीरा, रैदास बुद्ध, नानक सब इसी भ्रष्ट भाषा के कवि-चिंतक हैं. अंबर की ये कविताएं निश्चय ही आज के कविता परिदृश्य में एक नया कोलाहल पैदा करेंगी, इसमें संदेह नहीं.
प्रतिकार की काव्यात्मक फलश्रुति: जसिन्ता केरकेट्टा
ज्यादा दिन नहीं हुए जब आदिवासी इलाके की कवयित्री निर्मला पुतुल ने अचानक हिंदी कविता में उतर कर हाशिए के विमर्श को एक नई दिशा दी थी. तब हिंदी में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श की आंच मंद मंद दहक रही थी और सामाजिक परिवर्तन की आबोहवा बदलने में इन विमर्शो का भी एक हल्का सा योगदान माना जा सकता है. निर्मला पुतुल की पहली खेप की कुछ कविताएं हिंदी कविता के सुधी मर्मज्ञ समालोचक प्रभाकर श्रोत्रिय ने उन्हें वागर्थ में छापा था. उसी का असर था कि आगे चल कर आदिवासी कविता में निर्मला पुतुल एक विशिष्ट कवयित्री के रूप में स्थापित हुईं. उसके बाद आदिवासी कवियों की एक नई पीढ़ी का उदय हुआ जसिन्ता केरकेट्टा जिसकी आधुनिक आमद हैं.
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जसिन्ता केरकेट्टा की कविता पुस्तक जड़ों की ज़मीन हाल ही में आई है जिसकी कविताएं आदिवासी जीवन और समाज के यथार्थ को नए तरीके से प्रस्तुत करती हैं. जिस तरह आधुनिकता के अभियान में देश से जंगल उजाड़े जा रहे हैं, आदिम गांव लुप्त हो रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट और सत्ता के गठजोड़ की नजर है, जिस तरह जल, जंगल और ज़मीन से आदिवासियों का हक छीना जा रहा है वह हमारी मानवीय सभ्यता के लिए भयावह है. पूंजी का आकर्षण आदिवासियों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर रहा है. ऐसे हालात में जिस तरह आदिवासियों को उनकी स्मृति, उनके अतीत, उनकी जीविका के स्रोतों से जुदा किया जा रहा है उसकी पीड़ा उसकी तहरीरें जेसिन्ता केरकेट्टा की कविताओं में दर्ज है.
कविता की सामाजिक उपयोगिता यही है कि जो काम समाजशास्त्र अर्थशास्त्र और सामाजिक अध्ययन के अन्य उपक्रम करते हैं एक कवि उसे अपनी तरह से व्यक्त करता है. उसके विवेचन में आधुनिक सभ्यता और सत्ता और समाज का क्रिटीक अपने गहरे अवसाद और आवेग के साथ धड़कता है. यह और बात है कि हर समय सैकड़ो कवियों में कुछ में यह चेतना होती है कि वे काव्यभाषा के स्तर पर भी सजग और प्रयोगधर्मी होते हैं तथा कविताओं को केवल शिकायतनामा में बदलने की अंतिम फलश्रुति मान कर नहीं बैठ जाते. जेसिन्ता केरकेट्टा की कविताएं केवल शिकायत के लहजे में नहीं, अंतश्चेतना और कवित विवेक के साथ भाषाई स्थापत्य की सहजता के साथ पेश आती हैं. जिन परिस्थितियों में आज के बड़े कवि कुंवर नारायण ने लिखा है : मुझे मेरे जंगल और वीराने दो . जिन परिस्थितियों में कभी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था कि मुझे जंगल की याद मत दिलाओ/ जंगल की याद अब उन कुल्हाड़ियों की याद में बदल गयी है जो कभी मुझ पर चली थीं--आज वे परिस्थितियां कहीं ज्यादा भयावह है. हो न हो जंगलों के इसी दोहन ने आदिवासियों में प्रतिकार की आग दहका दी है तथा जो कह सकते हैं, बोल सकते हैं, वे उस प्रतिकार की भाषा बोल भी रहे हैं. प्रतिकार की भाषा न सत्ता को रास आती है न कारपोरेट को और अपने हक से बेदखल शख्स पर आसानी से 'नक्सल'का टैग लगा दिया जाता है. कवियों में यह प्रतिकार विट और व्यंजना की जिस कोख से पैदा होता है, वह अब कवियों में दुर्लभ हो चला है. सौभाग्य से कुछ कवियों में प्रतिकार विट और कविता को सार्थक बनाने वाले प्रत्यय सच्चे अर्थों में सक्रिय हैं तथा उनकी आवाज कविता में सुनी जा रही है. जेसिन्ता केरकेट्टा उन्हीं कवियों में एक हैं.
जेसिन्ता केरकेट्टा की कविता के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं --
बांधते हुए बांध कह रहे तुमसे
जब मैं टूटूँगा इस बार
कसम से
धो डालूंगा तुम्हारे सारे पाप (तुम्हारे सारे पाप, पृष्ठ 162)
मेरा पालतू कुत्ता
सिर्फ इसलिए मारा गया
क्योंकि खतरा देख वह भौंका था
मारने से पहले उनहोंने
उसे घोषित किया पागल
और मुझे नक्सल...
जनहित में . (जनहित, पृष्ठ 158)
मशीनें
पेड़ों को उखाड़ने के बाद हॉंफती हैं
अब हॉफती मशीनें ढूढ़ती हैं
कहीं कोई पेड़ की छांह .( हांफती मशीनें)
ये कविताएं मरती हुई आदिम सभ्यता का शोकगीत हैं. कभी निर्मला पुतुल की आवाज में यह जादू था, आज वह जादू जेसिन्ता केरकेट्टा की कविताओं में बोल रहा है.
व्यंजना की मिठास : ओम नागर
राजस्थान में ऋतुराज एवं प्रभात की परंपरा के कवि ओम नागर के यहां कविता राजनीतिक पैंतरेबाजी का पूरा हिसाब रखती है और काव्यात्मक प्रतिफल में बदलती हुई एक सजग कवि के उत्तरदायित्व का परिचय देती है. ओम नागर की कविताएं जीवन की जटिलताओं और धूल धक्कड़ में गर्क होते ग्राम और कस्बाई जीवन की हकीकत का बयान करती हैं. उनके पहले संग्रह 'विज्ञप्ति भर बारिश'से कविता से उनकी प्रौढ़ता और परिपक्वता का आभास मिलता है. उनकी कविताएं सामयिक हालात का ही निर्वचन हैं.
राजस्थान की जमीन से जुड़े कवि के लिए यह कितना कठिन है कह पाना कि खेती किसानी दिनों दिन कितनी कठिन हो चली है. उपजाएं तो क्या उपजाएं--इसी व्यथा का निर्वचन है. शायद यही कठिनाई है कि कवि अपनी कविता 'जमीन और जमनाताल: तीन कविताएं'में पूछता है, ''आठो पहर यूँ खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल ?'यह उस किसान की त्रासदी का कच्चा चिट्ठा है जिसके खेत की मेड़ को चीरते हुए कोई राजमार्ग गुजरने वाला है. एक किसान भला अधिगृहीत जमीन के विरुद्ध किस कोर्ट कचहरी जा सकता है. ओम नागर, अकारण नहीं,कि खेती किसानी की बात करते हैं. किसानों की उदासियों की बात करते हैं. भूख पर तीन कविताएं लिख कर ओम नागर में भूख का पूरा व्याकरण खंगाल डाला है. ओम नागर बेशक खड़ी बोली के कवि हैं किन्तु उनकी कविताओं में गांव का कठिन जीवन यथार्थ ओझल नहीं होता. वह भूख नहीं ओझल होती जो किसानों और आम नागरिकों के माथे पर नियति जैसे दर्ज हो गयी है.
वह कविसुलभ रोष से भर कर कहता है: एक दिन भूख के भूकंप से / थरथरा उठेगी धरा/ इस थरथराहट में तुम्हारी कँपकपाहट का कितना योगदान/ यह शायद तुम भी नहीं जानते/ तने के वजूद को कायम रखने के लिए / पत्तियों की मौजूदगी की दरकार का रहस्य/ जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट. यह कवि ही विजुअलाइज कर सकता है कि इन दिनों जितनी लंबी फेहरिस्त भूख की/ भूखों मारने वालों की /उससे कई गुना भूखे पेट /फुटपाथ पर बदल रहे होते हैं करवटें. (विज्ञप्ति भर बारिश, पृष्ठ 41)
ओम नागर जिस रूखी सूखी धरती के कवि हैं, उस परिदृश्य को , जीवन नियति को अपनी कविताओं में भुला नहीं बैठते. वे अपने अशांतसमय को कविता में दर्ज करते हैं तो समय के संक्रमण को भी बखूबी महसूस करते हैं. उनके पास कुएँ की आत्मीय स्मृति है, सूखे के गहरे निशान हैं तो बेमौसम बारिश से उपजे करुण हालात भी जहॉं बारिश में कितने सपने कितनी खुशियां बह जाती हैं. जल उनके इलाके के लिए एक नेमत है तो वह यह जानता है कि मनुष्य ने कितनी गहराई तक पृथ्वी को खँखोरता जा रहा है और जल की सतह लगातार नीचे उतरती जा रही है. वह यह कहने से नहीं चूकता कि --
जल के लिए भविष्य में आसन्न् खड़े हैं
तीसरे चौथे न जाने कितने महायुद्ध.
आज अगर तेल की धार पर टिकी है
संपन्न मुल्कों की कुटिल आंखें
कल जल के लिए बिछेंगी बिसातें
गंगा यमुना, चंबल, सिंध नील अमेजन
न जाने कितनी नर्मदाओं के तटों पर
लिखे जाएंगे फिर से रक्त रंजित
मानव सभ्यता के इतिहास. (जल के लिए, पृष्ठ 61)
ओम नागर की कविताओं में पानी की, जमीन की, किसानों की नियति की अनेक बातें आती हैं. जिनकी छिन गयी जमीन उन किसानों की व्यथा भी वे लिखते हैं और विज्ञप्ति भर बारिश लिखतें हुए उस कथ्य पर भी बल देते हैं जो व्यंजना की मिठास से भरी है.
बेचैनी और उद्विग्नता का कवि : शंकरानंद
जीवन यथार्थ के निकट वे कवि कम हैं जो शहराती भाव बोध को अपनी कविता के कथ्य में संजोते आए हैं . इससे यह धारणा बनती है कि कविता की कच्ची और उर्वर जमीन आज भी गांवों व कस्बों में है जहां कविताएं धारोष्ण दूध की तरह थनों से उतरती हैं और न्यायिक प्रक्रिया में अपना हक़ मांगती हुई प्रतीत होती हैं. शंकरानंद के संग्रह 'इन्कार की भाषा'को पढ़ते हुए लगता है, लोकतंत्र में आवाज़ें खत्म की जा रही हैं, गौरेया प्रजाति का लोप हो रहा है, न्याय की तलाश में बार बार खारिज होती अपील, जो नहीं लौटा उसके लौट आने की उम्मीद के साथ गिर गिर कर सम्हलने की कोशिश करते बच्चे पर कविता लिख कर शंकरानंद ने जताया है कि अब कविता उनकी पकड़ में समा रही है, उनकी संवेदना में कवि की वेदना का आयतन सघन हो रहा है. धीरे धीरे आवाज़ उठाने की संभावनाएं खत्म होने के इस युग में कवि ही यह जोखिम लेता है कि वह नागरिकों की ओर से आवाज़ उठाए. शंकरानंद की कविताएं अपनी शिल्पविहीनता में मर्मस्पर्शी कविताएं हैं जो युवा कवियों के मध्य शंकरानंद के कवित्व को ध्यानाकर्षी बनाती हैं. सहजता में जिए गए कविता के मार्मिक क्षणों को उनकी कविताओं में डिकोड किया जा सकता है.
शंकरानंद सहज कवि हैं. गांव- देहात की समस्याओं से वाकिफ . उनकी कविताओं में ऐसे तत्व दीख पड़ते हैं जो उनकी इस सजगता की गवाही देते हैं. जैसा कि मैंने कहा वे सहजता से किसी विषय को देखते हैं तथा अपने विचार सामने रखते हैं. देखते देखते गांव घर में क्या कुछ बदला है, क्या कुछ नया आ रहा है जीवन में. एक नागरिक एक मतदाता को अपने होने की क्या क्या कीमत चुकानी पड़ती है, उनकी कविता एक कचोट की तरह जीवन के तमाम दु:स्वप्नों का भी हिसाब किताब रखती है. बहुतेरी सपाट सीधी एकरैखिक कविताओं के बावजूद उनकी कुछ कविताएं मुझे छूती हुई लगती हैं, जैसे पानी के लिए, न्याय की बात, पूरी पृथ्वी विदर्भ, वसंत के दिन आदि. इससे पहले की भी कुछ कविताएं बल्ब, नमक, मैं मजदूर, सिक्के का मूल्य, अनशन आदि छोटी किन्तु प्रभावी कविताएं लिखी हैं उन्होंने. उन्हें पढते हुए ग्रामीण और कस्बाई पूर्वी भारत की अर्थव्यवस्था व सामाजिक व्यवस्था की एक छवि प्रतिबिम्बित होती है. 'इनकार की भाषा'से उनकी एक कविता 'पूरी पृथ्वी विदर्भ'से ही उनकी बेचैनी और उदविग्नता का अनुमान लगाया जा सकता है ---
यह समय बीज के स्वप्न का है
जब खाली खेत से दानों की पुकार उठ रही है
वे दाने जो सांस बन कर लौटना चाहते हैं एक किसान के लिए
जिन घरों से रोने की आवाज़ उठ रही है
वह कोई रईस नहीं होगा
कौडी के दाम में अनाज बेच कर लौटा किसान होगा कर्ज़ में डूबा
जिसकी मृतक देह से छूट नहीं रहा जीवन
मुट्ठी में हैं दोने जैसे बीज
अब उन दानों को खेत नहीं आग मिलेगी
राख हो जाने के लिए
यह शोक का समय है जब जल रहा है बीच और स्वप्न
धुआं धुआं
एक किसान के लिए पूरी पृथ्वी विदर्भ है.
यह कविता पढ़ते हुए अचानक अरुण कमल याद हो आए--- बिहार के ही जाने माने हिंदी कवि जिन्होंने अपनी एक कविता में पूछा था---'क्या तुम जानते हो कि जब तुम खा रहे थे तब कोई जान दे रहा था विदर्भ अबोहर मदुरै में?’ शंकरानंद जैसे इस बात का प्रत्युत्तर देते हों अपने पूर्वज कवि को कि ''हां मुझे मालूम है, एक किसान के लिए यह पूरी पृथ्वी ही विदर्भ है.''
इस तरह हिंदी कविता का यह संसार जो इन युवा कवियों के माध्यम से खुल रहा है, वह इस बात का परिचायक तो है कि इधर एक नए अर्थ और अंतर्वस्तु का प्रकटीकरण संभव हुआ है . बाबुषा कोहली ने नए गद्य का प्रस्तावन संभव किया है तो सुशोभित और अंबर पांडेय ने अपने अनुभवबहुल संसार की गहराइयों का उत्खनन किया है. अविनाश मिश्र ने हमारे वक्त की विडंबनाओं पर तल्ख टिप्पणियां की हैं तो जसिंता केरकेट्टा ने जमीनी यथार्थ को परत दर परत उघाड़ने का यत्न किया है. यद्यपि इस यथार्थ समय में कविता हमेशा गुस्से और प्रतिकार की मुद्रा में ही रहे यह जरूरी नहीं. वह बाबुषा कोहली, गीत चतुर्वेदी, सुशोभित, अंबर पांडेय और मोनिका के अंदाजेबयां में भी लिखी जा रही है और कविता के एक व्यापक समाज में सराही और व्यवहृत की जा रही है.
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