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संगीता गुप्ता : शब्द और चित्र

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संगीता गुप्ता चित्रकार और कवयित्री हैं. उनके चित्रों की देश-विदेश में ३० एकल और २०० से अधिक सामूहिक प्रदर्शनियाँ आयोजित हुईं हैं. कई कविता संग्रह और हिंदी-अंग्रेजी में कुछ किताबें प्रकाशित हैं.

संगीता गुप्ता की इधर की कविताओं में प्रेम का रंग और चढ़ा है और वह चटख, धूसर, मटमैला, और फीके रंगों में तरह-तरह से सामने आता है. उनकी संवेदना कभी चित्र का रूप लेती है और कभी शब्दों में ढल जाती है. चित्रों के साथ शब्दों का प्रयोग करने वाली वे विरल चित्रकार हैं. कविता और पेंटिग का साहचर्य उनकी ‘मुसव्विर का ख्याल’ पुस्तक में बखूबी देखा जा सकता है. उनकी कविताएँ उर्दू नज़्मों के नज़दीक बैठती हैं.  

कुछ पेंटिग और कविताएँ आपके लिये.    




संगीता गुप्ता की कविताएँ                                       



(मुसव्विर का खयाल)

1)
हरसिंगार इस उम्मीद में
रात भर झरता है कि
किसी सुबह जब तुम आओ तो
तुम्हारी राहें महकती रहें
बेमौसम भी बादल बरसते हैं कि
कभी तो तुम्हें भिगा सकें
सूरज उगता-डूबता है कि
आते-जाते तुम्हें देख लेगा
रात तुम्हारे साथ सोने को
बहुत तरसती है
चांद कब से लोरियो का खज़ाना
समेटे बैठा है कि
तुम आओ तो तुम्हें थपक दे
मेरे साथ पूरी कायनात को
तुम्हारा इंतजार रहता है.







2)
ज़मीन की तरह मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ
ख्वाहिश है
रोशनी की रफ्तार से चलूं
और वक्त थम जाये
ठहर जाए
जिस्म से परे
रूह निकल जाये
मुसलसल
जमीन की तरह
मैं भी
रोशनी के सफर पर हूँ. 






 3)

 कल उम्मीदें  बोईं  हैं
 गमलों में
 देखें कब
 खिलती  हैं. 





4)
 मत दो वैभव
 मत दो सफलता
 मत दो यश
 बस मेरे प्रभु
 रहने दो मेरे साथ
 मेरे प्रेम की
 सामर्थ. 





5)

तूफान अक्सर
बिन बताये ही आते हैं
उथल-पुथल मचा कर
लौट जाते हैं
ज़िंदगी ब-दस्तूर चलती है
फ़क़त आप-आप नहीं रहते
वक़्त बदला जाता है
कई दर्द कई जख़्म
साथ हो लेते हैं. 




6)

फिर सावन आया 
नीम, जामुन और नन्हे पौधे 
सब भीग रहे 
सावन सबके लिए आया 
मीठी फुहारें सबको महका रहीं 
तुम भी कहीं भीग रहे होगे 
कुछ सावन में 
कुछ यादों में 
कुछ मेरे करीब होने के एहसास में 
इन सब को भीगते देखना 
अच्छा-सा  लगता 
मैं भी अरसे बाद 
मुस्करा पड़ी हूं 
देखो न
फिर सावन आया . 
__________________________________

संगीता गुप्ता
25 मई, 1958,गोरखपुर
कवयित्री, चित्रकार एवं फिल्म निर्माता.

प्रकाशित कृतियाँ : वीव्ज़ ऑफ टाइम (2013), विज़न एंड इल्यूमिनेशन (2009), लेखक का समय (2006), प्रतिनाद (2005), समुद्र से लौटती नदी (1999), इस पार उस पार (1996), नागफनी के जंगल (1991), अन्तस् से (1988). बेपरवाह रूह (2017), मुसव्विर का खयाल (2018 ) रोशनी का सफ़र (2019) आदि
30  एकल एवं 200 से अधिक सामूहिक चित्रकला प्रदर्शनियाँ आयोजित.
अनुवाद : 'इस पार उस पार’ बंगला में एवं 'प्रतिनाद’ अंग्रेजी, जर्मन और बंगला में अनूदित.  
  

मुख्य आयकर आयुक्त पद से सेवानिवृत्त 
sangeetaguptaart@gmail.com

हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति (अभय कुमार दुबे) : नरेश गोस्वामी

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विकासशील समाज अध्ययन पीठ (CSDS) के प्रोफ़ेसर, भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक और 'प्रतिमान'के प्रधान संपादक अभय कुमार दुबे को अक्सर टीवी चैनलों की बहसों में हम सुचिंतित हस्तक्षेप करते हुए देखते हैं.

हिंदी में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर मौलिक स्तरीय लेखन की कमी तो है ही, अभय कुमार दुबे पिछले कई दशकों से इस क्षेत्र में लिख रहें हैं. ‘हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’उनकी नवीनतम पुस्तक है जो वाणी से प्रकाशित हुई है. भारत की दक्षिणपंथी विचारधारा और राजनीति को समझने की यह हिंदी में एक महत्वपूर्ण कोशिश है जिसे इसके समीक्षक नरेश गोस्वामी के अनुसार यह किसी को ‘प्रछन्‍न प्रतिक्रियावाद या पराजय से उपजी आत्‍म-भर्त्‍सना भी लग सकती है.’


बहरहाल इस बहसतलब कृति की गम्भीर विवेचना यहाँ प्रस्तुत है.  






हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति
प्रदत्‍त विमर्श से सवाल पूछने का साहस                          
नरेश गोस्वामी






भय कुमार दुबे की यह किताब एक ऐसे वक़्त में आई है जब भारत की बाहरी और भीतरी पहचान के परिचित चिह्न हर दिन अपना अर्थ खोते जा रहे हैं. मसलन, आज स्‍वाधीनता-संघर्ष की प्रक्रिया में अर्जित समता, सहअस्तित्‍व, सहिष्‍णुता और बंधुत्‍व जैसे मूल्‍य हांफते नज़र आते हैं. राजनीति समाज के बृहत्‍तर कल्‍याण के आदर्श से स्‍खलित होकर चुनाव का पूर्व-प्रबंधित गणनशास्‍त्र बन चुकी है, और धर्म को राजनीति से दूर रखने का संकल्‍प असंदिग्‍ध रूप से भुलाया जा चुका है. सामाजिक न्‍याय का उदात्‍त आदर्श संबंधित राजनीतिज्ञों के भ्रष्‍ट आचरण, लूट-खसोट, संपत्ति-अर्जन, परिवार और कुनबापरस्‍ती के कारण धूल-धूसरित हो चुका है. अर्थव्‍यवस्‍था के सूचकांक औंधे पड़े हैं. मीडिया पुराने कंकालों पर रंग-रोगन करके उनसे इतिहास और समाज की व्‍याख्‍या करवा रहा है. जो गर्हित, अशुभ और त्‍याज्‍य था, वह राजनीति और समाज का नीति-निर्देशक बन बैठा है. हालत यह हो गयी है कि राजनीतिज्ञों और अपराधियों की भाषा में अंतर करना मुश्किल होता जा रहा है. लोकतंत्र बहुसंख्‍यकवाद का पर्याय बन गया है और सत्‍ता की नृशंस कारगुज़ारियों का न्‍यूनतम प्रतिरोध भी राष्‍ट्रद्रोह कहलाने लगा है.

ज़ाहिर है कि ऐसे असामान्‍य वक़्त और माहौल में लिखी गयी किताब पुरानी आश्‍वस्तियों और निष्‍कर्षों का भाष्‍य नहीं हो सकती. इसलिए, अभय कुमार दुबे की यह किताब बहुत से लोगों को प्रछन्‍न प्रतिक्रियावाद या पराजय से उपजी आत्‍म-भर्त्‍सना भी लग सकती है. 

यह किताब भारत की राजनीति में पिछले दो दशकों के दौरान हुए अंत:स्‍फोट को हिंदुत्‍व बनाम सेकुलर-वामपंथी-उदारतावादी जैसे दो प्रतिस्‍पर्धी विमर्शों के ज़रिये समझने का प्रयत्‍न करती है. लेखक ने सेकुलर, वामपंथी और उदारतावादी शक्तियों के विमर्श को मध्‍यमार्गी विमर्श कहकर संबोधित किया है. किताब का बुनियादी तर्क साफ़ और ऊंचे स्‍वर में कहता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श से निकली राजनीति लोकतंत्र में बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों को पढ़ने और उसका प्रतिरोध करने में नाकाम रही है. ज़ाहिर है कि यह अपने आप में कोई विलक्षण सूत्रीकरण नहीं है. दरअसल, किताब की विलक्षणता इस विफलता के कारणों की पड़ताल में लगे बौद्धिक श्रम— तथ्‍यान्‍वेषण, तर्क-योजना, समाज-वैज्ञानिक लेखन के सघन और आवश्‍यक ब्‍योरों, उद्धरणों के व्‍यापक उपयोग तथा आम सहमति के तहत वर्जित मान लिए गए परिप्रेक्ष्‍यों के पुनरीक्षण में निहित है.

लेखक का विश्‍लेषण बताता है कि संघ परिवार की वैचारिक प्रयोगशाला में हिंदू-एकता की व्‍यूह-रचना 1974 में तैयार हो चुकी थी. तीन दशक तक यह व्‍यूह-रचना व्‍यावहारिक राजनीति में अपना मुक़ाम ढूंढती रही. राज्‍यों के अलावा वह एकाधिक बार केंद्रीय सत्‍ता तक पहुंची, फिर उससे बाहर भी हुई लेकिन 2004 वह इस स्थिति में आ चुकी थी कि चुनाव में स्‍पष्‍ट पराजय के बावजूद उसे कांग्रेस से ज्‍़यादा हिंदू वोट मिले. कांग्रेस के दस वर्षीय शासन के दौरान संघ परिवार के कामकाज का अबाध गति से विस्‍तार होता रहा. केंद्र और कई राज्‍यों में ग़ैर-भाजपाई सरकारें बनीं लेकिन राजनीतिक विमर्श लगातार बहुसंख्‍यकवादी होता चला गया. लेखक का स्‍पष्‍ट कहना है कि ग़ैर-भाजपा दलों की राजनीति और उसके सहायक-समर्थक बुद्धिजीवियों का विमर्शी हस्‍तक्षेप इस बहुसंख्‍यकवाद का मुक़ाबला करने में विफल रहा.

इस तरह यह किताब संघ-भाजपा विरोधी विमर्श की प्रस्‍थापनागत सीमाओं और उसकी व्‍यावहारिक कमियों व विफलताओं का विश्‍लेषण करती है. लेखक अपने उद्यम को इस विमर्श की आंतरिक आलोचना के रूप में देखता है. लेकिन, ग़ौर से देखें तो लेखक ने एक तरह से इस मध्‍यमार्गी प्रतिरोधी विमर्श का तख्‍़ता पलट दिया है.

लेखक का तर्क है कि बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श के ऊपर ज्ञान की एक ख़ास राजनीति हावी रही है, और इस राजनीति की सीमा केवल इस बात में निहित नहीं है कि वह संघ परिवार की हिंदुत्‍ववादी परियोजना के बदलते पते और विन्‍यास को समझने में अक्षम रही है, बल्कि उसका ज्‍़यादा संगीन दोष यह है कि उसने अपने ही उस हिस्‍से को मौन कर दिया है जो हिंदुत्‍व की प्रचलित समझ से हट कर कुछ अलग कहना चाहता है. इस प्रकार, हिंदुत्‍व की बहुसंख्‍यकवाद विरोधी राजनीति के मध्‍यमार्गी विमर्श को लेखक ने दो हिस्‍सों में विभाजित किया है. उसके अनुसार इसमें एक ही हिस्‍सा मुखर है, जबकि दूसरे हिस्‍से को राजनीतिक सहीपन (पॉलिटिकल करेक्‍टनेस) के दबाव में उपेक्षित कर दिया गया है. मुखर हिस्‍से के साथ दिक़्क़त ये है कि वह ‘अत्‍यधिक विचारधारात्‍मक होने के नाते तक़रीबन एक आस्‍था का रूप ले चुका है’, और मौन हिस्‍से का संकट यह है कि ‘समाज, संस्‍कृति और राजनीति की ज़मीन के कहीं अधिक निकट’ तथा ‘अधिक शोधपरक और तर्कसंगत समाज-वैज्ञानिकता से संपन्‍न’ होने के बावजूद उसे ताक पर रख दिया है.

राजनीतिक सहीपन से यहां लेखक का मंतव्‍य उस वर्चस्‍वी आग्रह से है जो अपने ‘अनुकूल न बैठने वाली या उसके लिए थोड़ी भी दिक़्क़ततलब प्रत्‍येक वैचारिक संरचना को अपनी तार्किकता, सुसंगति और तथ्‍यात्‍मकता के बावजूद या तो ख़ारिज’ कर देता है ‘या अगर ख़ारिज करना मुश्किल हो तो उसे एक चालाक ख़ामोशी के तहत पृष्‍ठभूमि में’ धकेल देता है.

लेखक की दलील है कि ज्ञान की राजनीति का यह मध्‍यमार्गी विमर्श छह प्रकार की विसंगतियों से ग्रस्‍त रहा है. एक तरह से कहा जाए तो यह पूरी किताब इस विमर्श में चिह्नित की गयी इन विसंगतियों की चतुर्दिक् विवेचना ही है. इसलिए किताब के बाक़ी पहलुओं पर बात करने से पहले इन विसंगतियों का जायज़ा लेना ज़रूरी होगा. लेखक के अनुसार मध्‍यमार्गी बहुसंख्‍यकवादी विमर्श की संरचना मुख्‍यत: छह ‘आस्‍थाओं’ पर टिकी है: 


एक,भारत में हिंदू बहुसंख्‍यक हैं लेकिन यह एक जनसंख्‍यामूलक तथ्‍य भर है; भारतीय सभ्‍यता एक सामासिक सभ्‍यता है जिसे पूरी तरह हिंदू सभ्‍यता कहना ग़लत होगा;हिंदू भिन्‍न-भिन्‍न अस्मिताओं से मिल कर बने हैं, और उनके बीच इतने अंतर्विरोध एवं विरोधाभास मौजूद हैं कि उनमें किसी समरूप चेतना की निशानदेही नहीं की जा सकती. इस आस्‍था के संबंध में लेखक का तर्क यह है कि सेकुलर और उदारतावादी नज़रिये से किए गए अनुसंधानों से भी यह बात पुष्‍ट होती है कि समय की दीर्घावधि में हिंदुओं की विविध अस्मिताओं के बीच एकरूपता का प्रसार हुआ है, लेकिन बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श ऐसे अनुसंधानों पर अघोषित मौन आरोपित कर देता है.

दो,भारतीय समाज बहुत से छोटे-बड़े समुदायों का समुच्‍चय है जिसे किसी भी तरह की समरूप और एकाश्‍म संरचना में नहीं ढाला जा सकता; भारत का यही बहुलतावाद हिंदुत्‍ववादी एकता में बाधा बनता रहा है, और उसकी यह भूमिका आगे भी जारी रहेगी. लेखक इस आस्‍था का प्रत्‍याख्‍यान करते हुए कहता है कि हिंदू या मुसलमानों की विशाल राजनीतिक एकताओं की संभावना का यह नकार बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों पर पर्दा डालने का काम करता है क्‍योंकि इससे बहुलतावाद के राजनीतिक और सामाजिक पहलू गड्डमड्ड हो जाते हैं. इसके चलते बहुसंख्‍यकवाद के आलोचक यह देखना भूल जाते हैं कि  सामाजिक बहुलतावाद को उसकी जगह जस का तस छोड़ कर उस पर राजनीतिक एकरूपता बख़ूबी क़ायम की जा सकती है.

तीन, भारतीय सेकुलरवाद की पहली जि़म्‍मेदारी अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकारों और दूसरा दायित्‍व यहां के बहुलतावाद की रक्षा करना है. लेखक इस आस्‍था का खण्‍डन करते हुए यह तजवीज़ करता है कि यह स्‍वीकार करते ही हमारा सेकुलरवाद अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकारों और बहुलतावाद का पर्याय बन जाता है, और इसका परिणाम यह होता है कि बहुसंख्‍यकवाद के आलोचक अल्‍पसंख्‍यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदायों की विकृतियों पर सवाल करना छोड़ देते हैं. इस प्रवृत्ति का फ़ायदा हिंदुत्‍ववादी राजनीति को मिलता है. लेखक के अनुसार यह आस्‍था इसलिए भी अनिष्‍टकारी हो जाती है क्‍योंकि वह संविधान में उल्लिखित सर्वधर्मसमभाव को भारतीय सेकुलरवाद की अंतिम परिभाषा मान बैठती है, जबकि उसका अभिप्रेत यह है कि राज्‍य धर्म की बहुलताओं से फ़ासला बनाकर रखे. लेकिन धीरे-धीरे हुआ यह कि भारतीय सेकुलरवाद बहुलताओं का पर्याय बनता गया है. लेखक की दलील है कि सेकलुरवाद का यह अर्थ-संकुचन मुसलमान, सिख और ईसाई जैसे समुदायों को लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की एकाश्‍म इकाइयों में बदलकर पूरे लोकतंत्र को ही ‘समुदायों के लोकतंत्र’ में तब्‍दील कर देता है. अंतत: इस सोच की व्‍यावहारिक निष्‍पत्ति ‘सेकुलरवाद और साम्‍प्रदायिकता की समुदायगत परिभाषा’ में निकलती है, और यहीं से वह भ्रामक नज़रिया प्रबल होने लगता है जिसके तहत कुछ समुदायों को सेकुलरवाद का और कुछ को साम्‍प्रदायिकता का वाहक घोषित कर दिया जाता है.

मसलन, पिछले तीन दशकों में जिन द्विज समुदायों ने भाजपा को वोट दिया है उन्‍हें साम्‍प्रदायिकता का वाहक, जबकि पिछड़े और दलित समुदायों को सेकुलरवाद का पैरोकार मान लिया गया है. लेखक का कहना है कि यह एक विकट घालमेल है क्‍योंकि बहुलतावाद समुदायों और सांस्‍कृतिक विविधताओं की ओर इंगित करता है, जबकि एक सिद्धांत के रूप में सेकुलरवाद राज्‍य की समुदायों और धर्मों के प्रति तटस्‍थता की बात करता है. इस घालमेल के कारण एक ओर तो मध्‍यमार्गी विमर्श धर्म के मामले में राज्‍य की दृढ़ तटस्‍थता की हिमायत नहीं कर पाता और दूसरे, उसे हिंदुत्‍ववादियों की तरफ़ से अल्‍पसंख्‍यकों के तुष्‍टीकरण का आरोप झेलना पड़ता है.

चार, मध्‍यमार्गी विमर्श इस धारणा का शिकार हो गया है कि पारंपरिक रूप से उपेक्षित, वंचित, शोषित और दमित जातियां ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक क्रांतिकारी संघर्ष में जुटी हैं. इस धारणा के तहत हिंदू और द्विज होने को एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया है. इसका असर यहां तक जाता है कि ‘जैसे शूद्र (पिछड़ी) जातियां चातुर्वर्ण्‍य का हिस्‍सा न होकर तीन सर्वण जातियों के मुका़बले अवर्ण समाज का अंग हों’. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कथित तौर पर सन्‍नद्ध इन जातियों का विमर्श कुछ ऐसा दावा करना चाहता है कि कमज़ोर जातियां (विशेषकर पूर्व-अछूत अनुसूचित जातियां) हिंदू पहचान से बाहर जाने को बैठी हैं. इस धारणा के पैरोकारों को लगता है कि इससे निकलने वाली राजनीति हिंदुत्‍व के प्रभाव और उसकी रणनीति को बेअसर करने की क्षमता रखती है. लेखक के अनुसार ‘दुष्‍ट ब्राह्मणवाद’ का यह विचार हिंदुत्‍व के आलोचकों के बीच इतना प्रभावशाली है कि वे इस धारणा को हिंदू समुदाय की विभिन्‍न जातियों के बीच बन सकने वाली राजनीतिक एकता पर ही विचार करने की ज़हमत ही नहीं उठाना चाहते, जबकि इसके उलट वे हिंदू बहुसंख्‍यकवाद के खि़लाफ़ वंचित, कमज़ोर जातियों तथा अल्‍पसंख्‍यकों की एक विशाल बहुजन एकता की कल्‍पना कर डालते हैं.

इस‍ सिलसिले में पांचवीधारणा भारतीय उदारतावाद से वास्‍ता रखती है. इस उदारतावाद के सिद्धांतकार यह मान कर चलते हैं कि भारत में लोकतंत्र का एक ऐसा संवैधानिक चुनावी तंत्र विकसित हो चुका है जिसमें किसी भी दल को राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा में बने रहने के लिए अपना अतिवाद छोड़ना पड़ता है. इस संबंध में बहुधा विभिन्‍न कम्‍युनिस्‍ट दलों और बहुजन समाज पार्टी का उदाहरण दिया जाता है. इसलिए उदारतावाद के सिद्धांतकारों को लगता है कि अंतत: हिंदू राष्‍ट्रवाद की उग्रता भी इसी तरह ख़त्‍म हो जाएगी. लेकिन, लेखक का तर्क है कि इस धारणा और भारतीय बहुलतावाद का योगफल भारत में दिनोंदिन मज़बूत होते जाते बहुसंख्‍यकवाद को परास्‍त नहीं कर सकता. उसका कहना है कि पिछले पैंतीस सालों से केवल संघ परिवार ही नहीं, बल्कि लगभग सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी तरह से बहुसंख्‍यकवादी राजनीति कर रहे हैं, और हमारा चुनावी लोकतंत्र इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का कोई तरीक़ा विकसित नहीं कर पाया है. इस धारणा का एक बेहद नकारात्‍मक प्रभाव यह हुआ है कि बहुसंख्‍यकवाद के अधिकांश आलोचक भाजपा की चुनावी हार के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं. उन्‍हें यह तक ध्‍यान नहीं रहता कि हिंदुत्‍ववादी विकृतियां ग़ैर-भाजपाई सरकारों के शासन में बदस्‍तूर फलती-फूलती रहती हैं.

मध्‍यमार्गी विमर्श की छठीभ्रांत धारणा के रूप में  लेखक ने वामपंथी, सेकुलर तथा उदारतावादी बौद्धिकता के उन्‍नासिक रवैये को चिह्न्ति किया है. लेखक के अनुसार यह रवैया हिंदुत्‍ववादियों—ख़ास तौर पर संघ परिवार की बौद्धिकता को हीन और विचार करने लायक़ ही नहीं मानता. उसे धर्म से प्रभावित कोई भी राजनीतिक-सामाजिक कार्रवाई या उद्यम अकल्‍पनीय और अवांछनीय लगता है. वह नये समाज की रचना को मूलत: ग़ैर-धार्मिक— प्रगतिशील, आधुनिक, उदारतावादी, सेकुलर और समतामूलक परिप्रेक्ष्‍य में ही कल्पित करता है. लेखक के अनुसार ‘यह मान्‍यता इतनी प्रभावशाली है कि इसके तहत ऐसी कोई भी बौद्धिकता भारतीय समाज के लिए बेकार मान ली गयी है जो किसी धर्म के मूल्‍यों के प्रभुत्‍व में उदारता, सेकुलरवाद और समता के विचार का उपकरण के तौर पर इस्‍तेमाल करती हो’.

इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि बहुसंख्‍यकवाद विरोधी विमर्श के मुखर पक्ष ने कभी हिंदू एकता के संघ-पूर्व विमर्श— दयानंद और विवेकानंद आदि के चिंतन से उद्भूत सामाजिक-वैचारिक सूत्रों पर ध्‍यान नहीं दिया. वह यह नहीं देख सका कि ये चिंतक धर्म और उसके सामाजिक ढांचे को अक्षुण्‍ण रखते हुए सामाजिक व्‍यवस्‍था और उसकी संस्‍थाओं में संशोधन की ज़मीन तैयार कर रहे थे. इस धारणा के अंतर्सूत्रों की एक दूसरी और ज्‍़यादा सामयिक समस्‍या की ओर इशारा करते हुए लेखक बिजली की कौंध सरीखी दलील पेश करता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर सिद्धातकारों का संघ परिवार की राजनीति का विश्‍लेषण सातवें दशक से आगे नहीं देख पाता. लेखक ने बेधक ढंग से कहा है कि इन सिद्धांतकारों को हिंदुत्‍व के उन सामाजिक-राजनीतिक सूत्रीकरणों की कोई ख़ास ख़बर नहीं है जो उसने सातवें दशक के बाद तैयार किए हैं.




(II)
जैसा कि हमने शुरू में इंगित किया था, ले‍खक का मानना है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के इस आधिकारिक संस्‍करण ने अपने समांतर चलने वाले एक ज्‍़यादा ज़मीनी और यथार्थ-सजग हिस्‍से को हमेशा चर्चा से बाहर रखा है, जबकि हिंदू बहुसंख्‍यकवाद के उभार के संदर्भ में यह हिस्‍सा समाज और राजनीति के नये विन्‍यास की ओर इशारा करता है. लेकिन इस संबंध में यह सूत्र ओझल नहीं होना चाहिए कि मध्‍यमार्गी विमर्श का यह मौन पक्ष उसके मुखर पक्ष का विलोम नहीं है. यह पक्ष भारतीय राजनीति, समाज, संस्‍कृति और इतिहास की ज्‍वलंत बहसों को अलग नज़रिये से देखता रहा है.

मसलन, यह नज़रिया बताता है कि जिस मनुवादी व्‍यवस्‍था को मध्‍यमार्गी विमर्श हिंदुत्‍व की केंद्रीय परियोजना मानता है, उसे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने 1974 में यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ‘जन्‍मत: वर्ण-व्‍यवस्‍था अथवा जाति-व्‍यवस्‍था का भाव समाप्‍त हो गया, ढांचा रह गया... अत: सभी को मिल कर सोचना चाहिए कि जिसका समाप्‍त होना उचित है, जो स्‍वयं ही समाप्‍त हो रहा है, वह ठीक ढंग से कैसे समाप्‍त हो’.इससे यह भी पता चलता है कि संघ हिंदू समाज में बिना कोई रैडिकल बदलाव किए व्‍यापक एकता की सफल योजनाएं बनाता रहा है. इससे स्‍पष्‍ट होता है कि मध्‍यमार्गी विमर्श का मुखर पक्ष हिंदू धर्म के उन्‍नीसवीं सदी के उत्‍तरार्ध में उभरते ग्रहणशील, समावेशी और सहिष्‍णु पाठ के साथ न केवल रचनात्‍मक संवाद करने से बचता रहा, बल्कि उसने इसे एक प्राच्‍यवादी निर्मिति घोषित करके ब्राह्मणवाद की लांछित श्रेणी में डाल दिया. इसका परिणाम यह हुआ वह केवल हिंदू राष्‍ट्रवादियों के इस्‍तेमाल की चीज़ बन कर रह गया.  

दूसरे, वह उन अलक्षित रह जाने वाली प्रक्रियाओं और घटना-क्रमों की ओर इंगित करता है जिनके चलते यह हिंदू पहचान उत्‍तरोत्‍तर मजबूत होती गई है. इस संबंध में औपनिवेशिक जनगणना, प्रतिनिधित्‍वमूलक राजनीति तथा आज़ादी के बाद संस्‍थापित किए गए क़ानूनों का उल्‍लेख किया जा सकता है. क्रमश: बात करें तो औपनिवेशिक सत्‍ता द्वारा जनगणना के निर्णय ने हिंदू समुदाय के ढीले-ढाले आत्‍म-बोध को समरूपीकरण की दिशा में प्रवृत्‍त कर दिया. चूंकि औपनिवेशिक शासन प्राच्‍यवाद द्वारा थमाए गए निष्‍कर्षों की रोशनी में काम कर रहा था. इसलिए वह जनगणना के आंकड़ों को हिंदू धर्म की चातुर्वण्‍य-व्‍यवस्‍था में फि़ट करना चाहता था. जनगणना अधिकारियों को इस मिशन में लंबे समय तक सफलता नहीं मिली क्‍योंकि ज्‍़यादातार लोगों को अपने वर्ण के बारे में स्‍पष्‍ट जानकारी ही नहीं थी. लेकिन, एक बार जब यह तय हो गया कि जातियों और समुदायों को एक निश्चित पदानुक्रम में रखा जाएगा तो लोगों में सामाजिक हैसियत का सवाल महत्‍वपूर्ण हो गया. यादव और कुर्मी जैसी किसान जातियां क्षत्रिय वर्ण की दावेदारी करने लगीं. आगे चलकर जब औपनिवेशिक सत्‍ता ने प्रतिनिधित्‍व के सिद्धांत के अंतर्गत भारत के लोगों को सरकार के ढांचे में शामिल करने का निर्णय लिया तो उसने हिंदू समुदाय को प्रकारांतर से यह भी जतला दिया कि उसकी राजनीति मुसलमानों की राजनीति से केवल अलग ही नहीं, बल्कि उनकी प्रातिनिधिक राजनीति के साथ उसका छत्‍तीस का संबंध है. हिंदू समुदाय के समरूपीकरण की प्रक्रिया में यह एक अहम मुक़ाम था.

समरूपीकरण में बहुसंख्‍यकवाद का अंदेशा अंतर्निहित होता है. यहां इस तथ्‍य का उल्‍लेख ज़रूरी है कि हिंदू बहुमत के आग्रह को मज़बूत करने में उत्‍तर-औपनिवेशिक क़ानूनों की स्‍पष्‍ट भूमिका रही है. यानी दूसरे शब्‍दों में कहें तो बहुंख्‍यकवाद का नाभिक तैयार करने में हमारे उदारतावादी लोकतंत्र का भी अदृश्‍य हाथ रहा है. लेखक समाजशास्‍त्री दीपांकर गुप्‍ता के हवाले से बताते हैं कि हिंदू ‘बहुमत’ आज़ादी के बाद बने क़ानूनों की देन है. इनके पहले विवाह, उत्‍तराधिकार और अभिभावकत्‍व के नियमों में एकरूपता नहीं थी. अगर एक स्‍थान और समुदाय में उत्‍तराधिकार के नियम मिताक्षरा प्रणाली के तहत आते थे तो दूसरे स्‍थान और समुदाय में दायभाग के नियम चलते थे. लेकिन नये क़ानूनों ने विभिन्‍न रीति-नीतियों पर पाटा फेरकर उन्‍हें एकरूप बना दिया.

इस क्रम में लेखक ने रत्‍ना कपूर के विश्‍लेषण को उद्धृत करते हुए दिखाया है उच्‍च न्‍यायालयों सहित सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी हिंदू धर्म को एक समरूप और शास्‍त्रोक्‍त संहिता के तौर पर परिभाषित करता रहा है. अयोध्‍या विवाद तक आते-आते तो यह प्रक्रिया इतनी सहज मान ली गयी थी कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अपने एक फ़ैसले में ‘हिंदुत्‍व‘ और ‘हिंदू धर्म’ को एक दूसरे का समानार्थी ही ठहरा दिया. ग़ौरतलब है कि अयोध्‍या मामले में न्‍यायालय ने हिंदुत्‍ववादी पक्ष का यह तर्क स्‍वीकार कर लिया था कि हिंदुओं की धार्मिक स्‍वतंत्रता सिर्फ़ उपासना की व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें किसी स्‍थान पर सामूहिक रूप से पूजा करने का अधिकार भी शामिल है. आज जब हम इन घटनाओं पर पलट कर देखते हैं तो हैरानी होती है कि यह सब खुले तौर पर हो रहा था, लेकिन मध्‍यमार्गी विमर्श का मुखर हिस्‍सा इस प्रवृत्ति से वाकिफ़ होने के बावजूद उसे न अपनी प्रतिरोधी दलीलों में शामिल कर पाया, और न ही उसका प्रतिवाद करने की नीति बना पाया.

मध्‍यमार्गी विमर्श का मौन पक्ष यह खुलासा करता है कि रजनी कोठारी जैसे विद्वानों ने हिंदू बहुसंख्‍यकवाद की आहट आज से तीन दशक पहले ही सुन ली थी. 1985 में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्‍होंने यह बात साफ़ तौर पर दर्ज की थी कि हमारी राजनीति एक चुनावी खेल में अवमूल्यित कर दी गयी है और इस प्रवृत्ति ने लोकतंत्र को साम्‍प्रदायिक बहुसंख्‍यकवाद में बदल दिया है. इस लेख में उन्‍होंने उन विकृतियों— राज्‍य और नागरिक समाज के बीच मौजूद मध्‍यवर्ती व राजकीय संस्‍थाओं की अनदेखी करके सीधे जनता से अपील करने, सर्वोच्‍च नेता पर ज़ोर देने, राजनीतिक प्रक्रियाओं और संहिताओं के बजाय चुनावी विजय को सर्वोपरि समझने तथा राजनीतिक दलों को व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव का साधन न मानकर सत्‍ता तक पहुंचने का औज़ार मान लेने की मा‍नसिकता का विस्‍तृत विश्‍लेषण किया था. कोठारी ने यह भी कहा था कि चुनावों को संख्‍या के खेल में अपघटित करने के परिणाम फ़ौरन प्रकट नहीं हुए क्‍योंकि उन्‍हें जाति और क्षेत्र के मुहावरे में पेश किया जाता रहा. सूत्र रूप में कहा जाए तो कोठारी इस नतीजे तक पहुंच गए थे कि चुनाव आधारित राजनीति में बहुसंख्‍यकवाद एक एक दुर्दम परिघटना बन चुकी है जिस पर न भारतीय समाज की बहुलताओं का वश चलता है, न लोकतंत्र का. ग़ौरतलब है कि यह वह दौर था जब कांग्रेस अपनी सत्‍ता के शीर्ष पर थी. उसे अभूतपूर्व बहुमत मिला था. लेकिन इसी समय हिंदूवादी संगठन भी अपनी सुप्‍तावस्‍था से बाहर आ रहे थे.

लेकिन यह विचित्र है कि नवें दशक में जब पिछड़ी और दलित जातियों ने पहली बार स्‍वतंत्र रूप सत्‍ता की दावेदारी की तो कोठारी ने इस राजनीतिक गोलबंदी को भारतीय लोकतंत्र की सकारात्‍मक ऊर्जा के रूप में चिह्नित किया. यह एक ऐसा विमर्श था जो द्विज जातियों को साम्‍प्रदायिक और कमज़ोर जातियों को धर्मनिरपेक्षता का वाहक घोषित कर रहा था. लेखक के अनुसार मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर हिस्‍से की बुनियादी ख़ामी यह थी कि उसने बिना जांच-पड़ताल किए ही यह मान लिया कि दलित-पिछड़ी जातियों का गठजोड़ हिंदू बहुसंख्‍यकता के आग्रहों को स्‍वयं ही परास्‍त कर देगा, जबकि आज यह बात पूरी तरह साफ़ हो चुकी है कि दलित और पिछड़ी जातियों की यह गोलबंदी पूरे दलित या पिछड़े समुदायों की गोलबंदी न होकर दलितों और पिछड़ों के सबसे प्रभावीशाली जाति-समूहों की गोलबंदी थी. जब ये जाति-समूह सत्‍तारूढ़ हुए तो उन्‍होंने संख्‍यात्‍मक तथा आर्थिक-सामाजिक स्थिति के हिसाब से कमतर माने जानेवाले अन्‍य जाति-समूहों को हाशिये पर ठेल दिया.

वंचित समुदायों के दूरगामी सशक्‍तीकरण और उनकी मुक्ति की संभावनाओं से लैस सामाजिक न्‍याय जैसी अवधारणा का जैसा अवमूल्‍यन इस राजनीतिक नेतृत्‍व ने गठजोड़ के तौर पर या स्‍वतंत्र रूप से किया है, वह पिछले तीन दशकों की राजनीति का बेहद स्‍याह पक्ष है. इस नेतृत्‍व से उम्‍मीद की जाती थी कि वह ‘राजनीति की नयी भाषा’ गढ़ेगा और ‘नयी संस्‍थागत राजनीति की गुंजाइश’ खोलेगा, लेकिन अपने भ्रष्‍टाचार और सिद्धांतहीनता के कारण सामाजिक न्‍याय की पूरी राजनीति दो हिस्‍सों में बंट कर रह गयी, जिनमें एक ताक़तवर हिस्‍सा मुसलमान वोटरों को साथ लेकर सेकुलर राजनीति का स्‍वांग करता रहा, जबकि दूसरा हिस्‍सा राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व और आर्थिक अवसरों, दोनों से वंचित रह गया. ज़ाहिर है कि मध्‍यमार्गी विमर्श के मुखर हिस्‍से पर यह आरोप ग़लत नहीं है कि उसने इस विपर्यय पर उसी समय उंगली नहीं रखी.

इस प्रसंग में यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि सामाजिक न्‍याय की राजनीति का द्विभाजन जाति के स्‍तर पर भी जारी रहा. सामाजिक न्‍याय का दलित घटक अपने इस सिद्धांत को इच्‍छा की तरह देखता रहा कि पिछड़े वर्गों को भी उसकी मुहिम में शामिल हो जाना चाहिए, जबकि सच्‍चाई यह है कि पिछड़े समुदायों की ताक़तवर जातियों को दलित राजनीति से जुड़ने में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी.    

विमर्श का मौन पक्ष इस तथ्‍य पर ज़ोर देता है कि जिस तरह मुखर पक्ष ने दलितों और पिछड़े वर्गों के अंदरूनी विभाजनों को देखने से इंकार किया, उसी तरह मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त ऊंच-नीच का भी यथातथ्‍य विश्‍लेषण नहीं किया. वह मुस्लिम समाज की निचली जातियों के राजनीतिक सशक्‍तीकरण की मुहिम— पसमांदा आंदोलन की दूर-दूर से तारीफ़ करता रहा लेकिन उसने कभी इस आंदोलन के ज़रिये मुस्लिम समाज की ज़मीनी आलोचना विकसित करने की कोशिश नहीं की.

मौन विमर्श का विश्‍लेषण करते हुए लेखक ने भारतीय राजनीति की एक अत्‍यंत  विवादास्‍पद अवधारणा— सेकुलरवाद के व्‍यावहारिक फलितार्थों की शिनाख्‍़त की है. इस संबंध में उन्‍होंने हमारे समय के दो प्रखर राजनीतिक विचारकों— धीरूभाई शेठ और राजीव भार्गव के हालिया कृतित्‍व को उद्धृत किया है.

उल्‍लेखनीय है कि धीरूभाई शेठ कभी भी मध्‍यमार्गी विमर्श के औपचारिक पैरोकार नहीं रहे हैं. भारतीय राजनीति में बहुसंख्‍यकवाद के अंदेशों, अल्‍पसंख्‍यक समुदायों के अधिकारों, लोकतंत्र में समुदायगत पहचान तथा व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के टकराव तथा सेकुलरवाद और बहुलतावाद के घालमेल को वे अलग नज़रिये से देखते रहे हैं.

हिंदुत्‍ववादी राजनीति की उग्रता और उसकी बढ़ती स्‍वीकार्यता को धीरूभाई सेकुलर विमर्श की संकीर्णता का परिणाम मानते हैं. उनके मुताबिक़ पिछले तीन दशकों के दौरान सेकुलर विमर्श एक चुनावी गतिविधि बन कर रह गया. उसने हिंदुत्‍व के विरोध और अल्‍पसंख्‍यकों के समर्थन में जो भी व्‍यहू-रचना तैयार की, वह प्रति-साम्‍प्रदायिक पदावली में सिमट कर रह गयी. यह प्रति-विमर्श भाजपा को जब तब चुनावों में तो हराता रहा पर वह उस राष्‍ट्रीय-सेकुलर स्‍पेस में वापसी नहीं कर पाया जहां हिंदू राष्‍ट्रवाद से लोहा लेने की संभावना मौजूद थी. धीरूभाई इस प्रति-विमर्श की कमज़ोरी की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि अगर उसने भाजपा के छद्म-सेकुलरवाद के आरोप का सामने आकर मुक़ाबला किया होता और उसे अपने कथित सच्‍चे सेकुलरवाद की दावेदारी साबित करने की चुनौती दी होती तो ‘सेकुलर’ दल सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद के सेकुलर और राष्‍ट्र-विरोधी चरित्र की बात जनता तक ले जाने में सफल हो सकते थे.

इस प्रसंग में धीरूभाई पहचान की राजनीति को भी प्रश्‍नांकित करते हैं. उनका मानना है कि पहचान की राजनीति करते हुए हमने हिंदू, मुसलमान, सिक्‍ख और ईसाई को अपनी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की इकाई बना दिया है. उनके अनुसार यह एक ऐसी व्‍यवस्‍था बन गयी है जिसमें नागरिक होने के बजाय किसी धार्मिक समुदाय का सदस्‍य होने को ज्‍़यादा महत्व दिया जाता है. इस प्रक्रिया के तहत राजनीति ने नागरिकों से उनका चेहरा छीनकर उनकी जगह समुदायों और समूहों को प्रतिष्ठित कर दिया है.

धीरूभाई यह भी मानते हैं कि राज्‍य की नीति के तौर पर नेहरू का सेकुलरवाद लोगों के लिए एक अपरिचित विचार था. चूंकि वह लोगों के ‘अंतर-सामुदायिक सहजीवन के वास्‍तविक अनुभवों’ पर आधारित नहीं था, इसलिए इस सेकुलरवाद को बहुलतावाद के मुहावरे में ढालने की कोशिश की गयी. उनका कहना है कि सेकुलरवाद और बहुलतावाद का यह अपमिश्रण अंतत: प्रतिस्‍पर्धी साम्‍प्रदायिकता की ज़मीन तैयार करता है क्‍योंकि समूहों की प्रतिस्‍पर्धी राजनीति उन्‍हें सेकुलरवाद के साथ एक घातक भिडंत में झोंक देती है.

भारतीय सेकुलरवाद की संरचना, उसके अंतर्निहित उद्देश्‍य तथा उसके क्रियात्‍मक रूप पर राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव का चिंतन पिष्‍टपेषित फारमूलों से हमेशा अलग रहा है. उदारतावादी शिविर के अन्‍य चिंतकों की तरह नवें दशक के दौरान राजीव भार्गव भी यही मानते थे कि अंतत: संविधान का बहुलतावादी और समावेशी स्‍वरूप हिंदुत्‍ववादी शक्तियों की उग्रता और उसके अतिवाद को नियंत्रित कर लेगा. लेकिन, अपने हालिया लेखन में उन्‍होंने भारतीय सेकुलरवाद के सत्‍य और उसकी प्र‍तीति का बेजोड़ विश्‍लेषण किया है. राजीव का कहना है कि   


‘हम लोगों ने अपने सेकुलरवाद को धर्म-विरोधी के रूप में प्रस्‍तुत करके समुदायवादी और सम्‍प्रदायवादी के बीच का फ़र्क़ ख़त्‍म कर दिया तथा हर समुदायवादी को भी तत्‍त्‍व को भी साम्‍प्रदायिक ख़ाने में डाल दिया है. लेकिन ऐसा बहुसंख्‍यकों के साथ ही हुआ. दूसरी ओर, अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की साम्‍प्रदायिक गतिविधि को हमने समुदायवादी ही माना... हम सेकुलरवाद के इस पहलू को तक़रीबन भूल ही गए कि यह एक धर्म के भीतर एक समूह द्वारा दूसरे समूह के शोषण या दमन का निषेध करता है’.  





(III)
कहना न होगा कि यह किताब सेकुलर, वामपंथी, उदारतावादी और बहुजनवादी तमात खित्‍तों के विमर्शकारों और समर्थकों को नाराज़ कर सकती है. पाठक को मध्‍यमार्गीय विमर्श का यह विवेचन एक सीमा के बाद आंतरिक आलोचना के बजाय कुछ-कुछ भर्त्‍सना जैसा भी लग सकता है. इसका एहसास लिए लेखक को भी है कि 


‘चूंकि इस प्रक्रिया में स्‍वाभाविक तौर पर संघ-विरोधी विमर्श की स्‍थापित संरचनाओं की बुनियादी ख़ामियां उभर कर आएंगी, इसलिए ज्ञान की विवादात्‍मक राजनीति के तहत मुझ पर हिंदुत्‍ववादी परियोजना के एक नये प्रच्‍छन्‍न समर्थक होने का आरोप लगाया जा सकता है’.  

अपने-अपने वैचारिक शिविरों के पहचान-पत्र लेकर चलने वाले लोगों को लेखक का तार्किक परिप्रेक्ष्‍य बहुत निष्‍ठुर और आक्रामक लग सकता है. यह बेचैनी तब और तेज़तर हो जाती है जब लेखक मध्‍यमार्गी विमर्श के दशकों से प्रचलित-परिचित शीराज़े को अपने तर्कों और तथ्‍यों छिन्‍न-भिन्‍न कर डालता है. यह किताब भारतीय इतिहास, संस्‍कृति, समाज और राजनीति से बावस्‍ता उन धारणाओं और परिप्रेक्ष्‍यों को अस्थिर कर देती है जिन्‍हें हम स्‍कूली पाठ्यक्रम से लेकर उच्‍च शिक्षा तक पढ़ते-समझते-गुनते और साझा करते रहे हैं.

ऐसे में, यह कहना बहुत ग़लत नहीं होगा कि इस किताब को पढ़ने के लिए ख़ास तरह का बौद्धिक धैर्य चाहिए.यह धैर्य पाठक से मांग करता है कि वह अपने सक्रिय जीवन में सायास-अनायास अर्जित की गयी अवधारणाओं, मान्‍यताओं, वैचारिक पदों और श्रेणियों पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार रहे. इस मानसिक तैयारी में यह सजगता भी शामिल है कि अंतत: कोई भी विमर्श अपने समय के समग्र यथार्थ का पर्याय न होकर उसका संकेतक मात्र होता है. चूंकि यथार्थ के नियामक तत्‍व हमेशा परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए हमें विमर्श की प्रासंगिकता और उसके औचित्‍य की समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए.

लेकिन, मौजूदा विमर्शों की लगभग विस्मित कर देने वाली नक़्शा-नवीसी और द्वितीयक स्रोतों के कुशल उपयोग के बावजूद इस किताब में हिंदुत्‍व के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की अनदेखी एक बहसतलब मुद्दा है.

बहरहाल, आखि़र में, चंद सतरें इस किताब की बनावट के बारे में. यह किताब विवादात्‍मक शैली में लिखा गया एक लंबा निबंध है. इस तरह, यह किताब की उस पारंपरिक सरंचना से एक अलग नवाचार है जिसमें पाठ्य-वस्‍तु अध्‍यायों में विन्‍यस्‍त रहती है, लिहाज़ा पाठक के पास यह निर्णय करने की गुंजाइश रहती है कि वह जहां-तहां नज़र डालते हुए किस अध्‍याय पर फ़ोकस करे. लेकिन, यह निबंध पाठक से आद्योपांत पढ़े जाने की उम्‍मीद करता है क्‍योंकि यहां विषय के अन्‍यान्‍य सूत्र इतने अंतर्ग्रथित हैं कि उन्‍हें समग्रता में पढ़े बग़ैर इस निबंध के उद्देश्‍य तक नहीं पहुंचा जा सकता.  
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naresh.goswami@gmail.com

खंजना सरमा की कविताएँ (असमिया) : अनुवाद रुस्तम सिंह

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खंजना सरमा (जन्म 1978) असम के पाठसाला में रहती हैं. 2019 में उनकी कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक हैपानीर दुआरयानिपानी द्वार. इसके अलावा उनकी कविताएँ असम की कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
मूल असमिया से इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद ख़ुद कवयित्री ने किया है जिनका अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवयित्री के सहयोग हिंदी में  किया है. 


असमिया
खंजना सरमा की कविताएँ                                        
अनुवाद रुस्तम सिंह




1. 
उस खास जगह की राह 
कोई नहीं जानता. 
यहाँ, वहाँ भटकते हैं हम. 
भिन्न-भिन्न सड़कें ले आती हैं हमें 
वापिस उसी राह पर. 
जहाँ ख़त्म होती है राह 
वहीं शुरू होती है हमारी यात्रा. 
इसलिए 
हमें नहीं पता 
किस राह से हम लौटेंगे.

2. 
खिड़की केवल 
रोशनी के लिए है. 
डूब जाती है वह 
प्राचीन पोखर में 
अपने ही अँधेरे को भगाने के लिए. 
बन्द हवा का दुःख 
खुली खिड़की में से 
तलाश रहा है अपनी राह. 
रोशनी की छाया में 
खिड़की गाती है 
आत्मा का गीत.

3. 
हमारे कदम पानी जैसे हैं. 
पिछले साल की 
आधी-भीगी चप्पलें 
अब मिल नहीं रहीं. 
रात की आँख 
अँधेरे से चमकती है. 
एक काला साँप 
मेरी ओर रेंगता है. 
छतों में से 
आग गिरती है 
और भेजों को जला देती है. 
और सब-के-सब पानी पर चलते हैं.

4. 
विदा के समय 
फूलों में से आँसू झरते हैं. 
घास का नन्हा सूखा तिनका 
चिड़िया की चोंच में से 
छूट जाता है. 
एक अनजाना पक्षी 
हमारे हृदय में पंख फड़फड़ाता है. 
एक छाया फैल गयी है. 
वह ज़मीन को हड़पना चाहती है
पानी को हड़पना चाहती है. 
धूप और बारिश को
रोशनी और अँधेरे को
हवा और साँस को. 
ओह चमेली ! 
तुम्हारी कलियाँ कल खिलने वाली हैं.

5. 
एक मछली-काँटा 
खींच लिया गया है 
पानी के भीतर. 
वह डूबने ही वाला है. 
जब पानी सूख जायेगा 
नाव चिपट जायेगी भूमि से.

6. 
सदियों बाद 
मैं लौटी हूँ 
इस जगह को. 
मेरे घर को जाने वाली 
पुरानी संकरी सड़क 
अब निर्जन पड़ी है. 
पता नहीं पेड़ 
कब से मौन खड़े हैं. 
उनका सन्नाटा 
सुदृढ़ करता है 
हवा की उदासी को
अँधेरे की ठण्डक को. 
मुझे कुछ भी याद नहीं
न कोई शब्द
न कोई आवाज़. 
मैं बस वापिस चाहती हूँ 
अपनी भूमि की सुगन्ध
जो पीछे छूट गयी थी. 
पर कुछ भी नहीं होता. 

मैं अपने घर के सामने 
निस्तब्ध खड़ी हूँ. 
हज़ारों घोंघे 
मेरी देह पर रेंग रहे हैं 
और मैं 
एक मूर्ति में बदल गयी हूँ.

7. 
तब भी
पानी गा रहा है 
मछली की 
जमी हुई आँखों में. 
संगीत 
जितना घूमते हुए 
ऊपर उठ रहा है
उतनी ही गहरी है 
न होने की आवाज़. 
रेत 
फिसलती जा रही है 
उँगलियों के बीच में से
यहाँ तक कि रेतघड़ी भी ख़ाली है. 
डूबता सूर्य 
आग फैला रहा है पानी में. 
जाड़े का अन्तिम पत्ता 
गिर गया है कहीं. 
और शंखों की गहराई में से 
उठ रही है 
ठण्डी क़ब्र की ख़ामोशी.

8.
हवा में गूँज रही हैं 
मौन प्रार्थनाएँ. 
झिलमिलाती बत्तियों की 
ख़ुशबू 
निष्ठा को बढ़ा रही है. 
रोशनी रोशनी को राह दिखा रही है. 
पृथ्वी पर 
जला हुआ दीया 
अपने हाथ 
चाँद की ओर फैला रहा है. 
सब लोग 
एक ही प्रार्थना को गा रहे हैं. 
तुलसी के नीचे 
नमी गर्म होने लगी है. 
ओ कि तुम्हारा दीया 
मेरी रोशनी के किनारे पर 
जलने लगे !

9. 
देहरी पर 
एक हरा पत्ता. 
कुचला हुआ. 
जब शब्द कम हों तो 
अभाव महसूस होता है. 
और जो क्षणभंगुर है 
वह स्थायित्व लाता है. 
जो हवा में उड़ता है 
वह ठहर जाता है.

10. 
अपने आँगन में 
वीपिंग विलो मत लगाओ --- 
हम एक-दूसरे को सलाह देते हैं 
जब हम मिलते हैं और विदा लेते हैं. 
हम घर लौटते हैं और 
देखते हैं कि हमारे अपने ही 
पानी जैसे हृदय में 
चुपचाप एक विलो उग रहा है. 
कभी वह झुकता है और नाचने लगता है. 
कभी वह तेजी से इधर-उधर झूलता है
तूफ़ान में भी बचा रहता है. 
अपने ठण्डे आँसुओं से 
वह हमें क़ब्र की राह दिखाता है.

11.
लकड़ी की 
दो पुरानी कुर्सियों के पास 
बैठा है मौन. 
यहाँ एक ठण्डी नदी बह रही है. 
उसमें साँसों की दो निस्तब्ध लहरें हैं. 
पतझड़ के शुष्क पत्ते गीला कर रहे हैं 
मौन की पलकों को. 
उनका घर पेड़ की पत्तियों में है. 
अन्तिम बारिश की 
दो बूँदों की तरह वे बिखर रहे हैं. 

नयी पत्तियाँ आने वाली हैं.
______________________


rustamsingh1@gmail.com

समकालीन हिंदी कहानी में मानवीय संसक्ति : रवि रंजन

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(by Peju Alatise)


समकालीन हिंदी कहानी में मानवीय संसक्ति                       
रवि रंजन
  

नीलोत्पल : युद्ध और शांति (कविता)

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युद्ध और शांति                               
_________________________________________ 
नीलोत्पल



1.
युद्ध केवल युद्ध नहीं होता
अंत में
अधिक हिंस्र
अधिक अमानवीय बन जाता है

वह बाज के पंजों में दबी
नन्ही चिड़िया का आर्तनाद है

सरहद से जो लौटा नहीं
उस प्रतीक्षा में पथराई आंखें हैं
जो डूब जाएंगी

मैं इनकार करता हूं
दुनिया के सारे युद्धों से

युद्ध करुणा का अंत है.


2.

हालांकि
युद्ध चारों तरफ़ है
जो लिख रहे हैं
जो नहीं लिख रहे हैं
वे सब एक युद्ध में है

वे जो लाइनों में लगे हैं
जो 13रोस्टर का विरोध कर रहे हैं
जिन्हें पिछले कई सालों से चिन्हित नहीं किया गया
वे जो बेमियादी हड़ताल पर ही सद्गति को प्राप्त हुए
वे किसान जो बार बार दिल्ली आकर
शासन के बहरे कानों में
अपना दर्द सूख जाते हैं

वे जिन्हें मुआवजा नहीं मिला
अपनी आवाज उठाते उठाते
निरूपाय से लगते हैं

सफाई कर्मी अतिथि शिक्षक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता
जो सड़कों के हवाले से हुमच रहे हैं

न्याय करने वाले जज
ख़ुद न्याय की शरण में
बाहर सड़कों पर बैठ गए हैं

वे सभी युद्धरत है


3.

युद्ध सिर्फ़ उस वक़्त युद्ध नहीं होता
जब लड़ा जाता है

पहले और बाद में
वह भी मारे और पराजित किए जाते हैं
जिन्हें अंत तक कुछ पता नहीं चलता


4.

युद्ध जीवन की सबसे बड़ी
विफलता का दूसरा नाम है


5.

युद्ध दो देशों या अन्य देशों के बीच या खिलाफ़ नहीं होता

थोड़ा वह सीमा के भीतर भी चलता है
ज्यादातर मांओं के साथ होता है

कुछ दोस्त है अलहदा
वे बेचैन चील की तरह
शहर के ऊपर मंडराते हैं

सरहद की गोलाबारी से सहमे परिंदे
लौटते नहीं
उनके जर्जर घोंसले और मृत अंडे
समय का भयावह मंजर है

दिलों को तोड़ना यह भी युद्ध है.


6.

जिन्हें युद्ध चाहिए
अंत में मारे जाते हैं

जिन्हें युद्ध नहीं चाहिए
अंत में वे भी मारे जाते हैं

युद्ध के बाद
कोई उम्मीद नहीं बचती


7.

जंगल की लड़ाई
जंगल में ही समाप्त हो जाती है

हमने लड़ते हुए
कई सरहदें लांघी हैं

यह जानते हुए कि
युद्ध एक क्षरण है
हमारी तमाम उपलब्धियों का
फ़िर भी हमने विसंगतियां बनाए रखी

उन्माद हमारा नया हथियार हैं


8.

युद्ध के अनेक परिणाम है
लेकिन एक स्थायी है
कि वह कभी ख़त्म नहीं होता


9.

डाल से सिर्फ़ पत्ते नहीं झड़ते
थोड़ा नमक
थोड़ा आंसू भी गिरता है
आंखें यह देख नहीं पाती

विदा होने का एक अर्थ
यह भी है कि पत्ते ही नहीं
एक दिन पेड़ भी गुम हो जाता है

युद्ध में हम शव नहीं गिन सकते
सारे आंसू चीत्कार और भीतर के दंश को नहीं समझ सकते

एक दिन यह भी समाप्त हो जाता है


10.

जिन्हें नहीं पता
युद्ध की हानियाँ 
जब वे भी युद्ध का समर्थन करते है
मुझे यह समझने में दिक्कत होती है 
कि हम सिर्फ़ कॉलर के भीतर ही शरीफ़ हैं
अन्यथा तो हमने जैसे कोई
हिंसक पशु भीतर पाल रखा है

समय बीतता है
और एक दिन हम मारे जाते हैं

उन मरे हुए लोगों में
एक युद्ध जितना ही सन्नाटा
और चीत्कार बची होती है.

(G.R. Iranna, Hold the Peace )

11.

हर युद्ध पिछले युद्ध की तरह
अंतिम और निर्णायक घोषित किया जाता है

पिछली बार की तरह
शांति और समझौतों पर बहस होती है

शहीदों की संख्या और उनके शौर्य के किस्से लिखे जाते हैं

लोग जिन्हें युद्ध और सिनेमा में
लगभग समान दिलचस्पी रहती है
अंत में उबकर अपनी सीट छोड़कर
बाहर निकल जाते हैं.


12.

एक दिन आपसी जंग में
बहुत सारी चीटियां मारी गईं

उनकी उजड़ी बस्ती
और लाशों के ढेर के बीच
कई सारे गिद्द आ बैठे

जंगल का यह पुराना नियम है
जो मार दिया जाता है
उनके निशान भी मिटा दिए जाते हैं.


13.

हम अपने बनाए जंगल में रहते हैं

हम निशान मिटाने के बाद
इस बात पर बहस करते हैं
कि दूसरा पक्ष हमेशा क्रूर होता है
जबकि लड़ाई का बिगुल
हम साथ मिलकर बजाते हैं.


14.

सीमाओं के दोनों और कितने है
जो लगातार इस कोशिश में रहते है
कि किसी भी बिंदु पर
कोई सहमति नहीं बने
ख़ासकर जब रक्तपात मुंहबाए खड़ा हो

इनकी शक्ल इतनी कॉमन है
कि कभी-कभी ये हममें भी शामिल हो जाते हैं
और समर्थन में साथ साथ चल पड़ते है
कुछ फासलों के बाद
अंतर पाटना मुश्किल हो जाता है

हम जिसे राष्ट्रवाद कहते हैं
और असहमतियों से डरते हैं
वह शांति और इंसानियत से बड़ी नहीं

सच बोलना भी देश के लिए है
अतिवादियों से बचना भी देश बचाना है
हल को समझना भी देश समझना है.



15.

सिर्फ़ देश कहने से देश नहीं बचता

लोगों के बीच जाकर हांकना
और कहना कि देश आज सुरक्षित है
वह नहीं बचता
वह पड़ोस को कोसने से भी नहीं बचता

देश एक धागा है
आदि से अंत तक
हमारे आंसू, पसीने, प्रेम, दोस्ती, शांति
और भावनाओं में गुंथा हुआ है

देश अपने तट पर हिलता मस्तूल है
जिसे हर हाथ ने थाम रखा है



16.

समय थोड़ा असभ्य और बनावटी है

इसलिए यह कहना कि
हमने समझ लिया देश को
एक महीन लकीर को काटने जैसा है

समझ पैदा होते नहीं आती
वह तब भी नहीं आती
जब सारी सनक एक होकर चिल्लाती है
कि देश बचाओ!!!

कभी-कभी यह देश
हमारे मानसिक विकार को भी ढोता है,
सहता है

युद्ध दो तरफा नहीं होता
एक तरफा ही खेल है
जो दोनों ओर से दिखाया जाता है.



17.

राजनीति बड़ी क्रूर होती है
वह अन्य अन्य परिस्थितियों में
पहचाने जाने लायक
बहुत कम सवाल छोड़ती है

जो सवाल वह छोड़ती है
वह कभी सुलझाने लायक नहीं होते

राजनीति उवाच है
बड़ा उवाच
और हम उसका बड़बड़ाना

हम बिखरे को समेटते हैं
राजनीति समेट कर बिखेर देती है.



18.

इस तरह से
कुछ जानना असंभव है

जो युद्ध के पक्ष में है
वे घर के पक्ष में नहीं हो सकते

यह सीधी बात है.



19.

बहेलिया अपने ख़ाली जाल में
बहुत सी चिड़ियों को फांस लेता हैं
चिड़ियां शोर करती हैं
बहेलिया दूर से शांत होकर देखता है
थोड़ी देर में आकाश
चीत्कारों से भर जाता है

चीत्कारे शांत होने पर
बहेलिया नृशंस हंसी हंसता है

जबकि
हम सब भूल जाते हैं
चिड़ियां विद्रोह नहीं
अपनी आज़ादी को कह रही थीं.



20.

शांति के लिए
यदि युद्ध जरूरी है
तो ऐसी शांति भी अशांत है



21.

इंसान से इंसान के बीच का संबंध इतना है
कि जितनी भी सीमाएं और रेखाएं
खींच दी जाती रही
हमने उन्हें पार किए बिना भी
संबंध बनाएं
चाहे उनका मक़सद एक दूसरे से भिन्न और व्यक्तिगत हो



22.

यह जानना समझना कि
हिंसक और क्रूर बातों में
शामिल होने के लिए
हम कभी तैयार नहीं रहे

हमने ऐसा कोई पाठ नहीं पढ़ा
जो अपने समकाल में या आगे चलकर
हथियार उठाने या हिंस्र हो जाने के लिए कहता हो
तब भी इस पृथ्वी पर
अनगिनत युद्ध हुए हैं
लोग मारे जाते रहे
सदियों रक्त बहा


यह जानना समझना कि
देवताओं ने कितने युद्ध लड़े और क्यों लड़े?



23.

शांति जीवन का स्थायी भाव है

यह बात तुम्हारे पक्ष में
जाती ज़रूर है कि
तुमने फतेह हासिल की युद्ध में
जबकि तुम्हारी संवेदनाओं में
कई चिथड़ा लाशें हैं
जिनकी मृत्यु अब असंभव है.




24.


तुम एक युद्ध लड़ते हो
और अपनी इंसानियत को
सदियों पीछे धकेल देते हो

तुम युद्ध लड़ते हो
और सभी स्त्रियां रोना छोड़ देती हैं
महज अपनी मृत्यु तलक

तुम एक युद्ध लड़ते हो
और तुम्हारी आत्मा तुम्हें छोड़ देती है
जैसे तुम बिना दिल के पैदा हुए थे

तुम एक युद्ध लड़ते हो
और बकरी के सारे मेमने
जिन्हें फूदकने के लिए धरती चाहिए
अपने ख़ून सने पंजों के साथ
लौटते हैं हमारी दुनिया में

तुम एक युद्ध लड़ते हो
यह लड़े जाने के सर्वथा खिलाफ़ है
तुम आईने में उतरते हो
जो एक दिन टूट जाता है
तुम उसी अपनी टूटी छवि के शिकार हो

तुम एक युद्ध लड़ते हो
मृत्यु की हो रही बारिश के बीच
ढेरों आंसुओं, गले हुए चुंबनों, लंगड़ाती मनुष्यता
और निस्तब्ध प्रेम की करुण पुकार
सारा कुछ जीवन के शेष भाग में रह जाता है
लोग अंत तक प्रार्थना की जगह
आंसू और उदासी को पढ़ते हैं

तुम एक युद्ध लड़ते हो
याद रखने लायक कुछ नहीं बचता
सब कुछ तबाह और तिक्त स्मृतियों का शिकार हो जाता है
बचे हुए विजेता
अंतिम यात्रा में गल जाते हैं
कोई आत्मग्लानि युद्ध के बोझ को कम नहीं कर सकती.
___________________________

मो यान और चीन की एक बच्चा नीति : विजय शर्मा

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मो यान  और चीन की एक बच्चा नीति
विजय शर्मा


चीन की बढ़ती आबादी की समस्या से निपटने के लिए 1979 में एक बच्चा नीति की स्थापना हुई. हालाँकि इसे अस्थाई उपाय कहा गया लेकिन यह कई दशकों तक चलती रही. इसके पहले भी चीन में परिवार नियोजन के लिए 1970 में, ‘देर से, लंबी अवधि के बाद तथा कम’ की नीति अपनाई गई थी. वैसे 1979 की नीति केवल शहरी इलाके के लिए थी, ग्रामीण और एथनिक समूहों को इससे बाहर रखा गया था. परिवार की आ-मद-नी को भी एक फ़ैक्टर रखा गया. दूसरे-तीसरे बच्चों के लिए उन पर भी शर्तानुसार पाबंदियाँ थीं. पहला बच्चा यदि अपंग हुआ तो दूसरे बच्चे की छूट का प्रवधान भी था. इसे लागू करने के लिए अधिकारियों ने खूब मनमानी की. जुर्माना, स्त्रियों की जबरदस्ती नसबंदी (पुरुषों की क्यों नहीं?) और गर्भपात जैसे क्रूर तरीकों को अपनाया. किसानों के घर जला दिए गए. कॉलेज प्रोफ़ेसरों को अपना पद गँवाना पड़ा, लोगों को अपने शिशु की हत्या करनी पड़ी. कई स्थानों पर दंगे तक हुए. एक ऑफ़ीसर इस दु:खद स्मृति से अब भी नहीं उबरा है, उसने एक गर्भवती स्त्री का पीछा किया और वह गर्दन तक तालाब के पानी में डूब कर अपना गर्भ बचाने की गुहार लगाती रही थी.

दुनिया के अधिकाँश देशों की भाँति चीन में भी परिवार में लडके को वरीयता दी जाती है. एक बच्चा नीति से इस पर भी असर पड़ा, धड़ाधड़ बालिका भ्रूण की हत्या होने लगी. पैदा हो जाए तो मरने के लिए छोड़ दिया जाता. जल्द ही इस नीति से आबादी में स्त्री-पुरुष अनुपात में विषमता आ गई. बूढ़ों की संख्या बढ़ने लगी. अब आर्थिक नीतियाँ बदलने से पहले सी बातें भी नहीं रह गई थीं. 2013 में नीति में लचीलापन लाया गया और कुछ परिवारों को दो बच्चे पैदा करने की अनुमति मिलने लगी. फ़िर 2015 में सब परिवारों को दो बच्चे की अनुमति दे दी गई और अब अफ़वाह है कि शीघ्र ही पूरी नीति को समाप्त कर दिया जाएगा और परिवार तीन बच्चे पैदा कर सकेंगे. विडम्बना है कि एक सर्वे के अनुसार अब परिवार अधिक बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते हैं.

मो यान का उपन्यास ‘फ़्रॉग’ चीन की एक बच्चा नीति पर आधारित है. वे कहते हैं कि उनके नवीनतम उपन्यास ‘फ़ॉग’ में केंद्रीय चरित्र उनकी एक मौसी है. उपन्यास में उसका नाम गुगु है. इस उपन्यास में नोबेल पुरस्कार की घोषणा होते ही पत्रकार साक्षात्कार का अनुरोध लिए उसके घर की ओर दौड़ पड़े. पहले वह धैर्य से इसको एकॉमडेट करती रही फ़िर जल्द ही उनके ध्यान से बचने के लिए अपने बेटे के घर चली गई. वे इससे इंकार नहीं करते हैं कि ‘फ़ॉग’ लिखने में उनकी मौसी उनकी मॉडल थी, लेकिन उसमें और काल्पनिक मौसी में बहुत अंतर है. साहित्यिक ऑन्ट बहुत आक्रमक और शासन करने वाली है, शातिर भी जबकि उनकी वास्तविक ऑन्ट दयालु और सौम्य है. एक जिम्मेदार पत्नी और प्यार करने वाली माँ. उनकी असली ऑन्ट के सुनहरे साल बहुत खुशहाल और संतोषजनक थे जबकि काल्पनिक ऑन्ट को अनिद्रा की शिकायत है और उसके आखिरी साल आध्यात्मिक रूप से दु:खद हैं. वह रात को काला लबादा पहन कर भूतनी की तरह चलती है. वे अपनी ऑन्ट के अनुग्रहीत हैं कि वे कल्पना में उन्हें ऐसे बदल कर उपन्यास में इस तरह प्रस्तुत करने के बावजूद उनसे गुस्सा नहीं हैं. वे वास्तविक और काल्पनिक व्यक्ति के जटिल रिश्ते को समझती हैं, वे उनकी इस समझदारी का भी आदर करते हैं.

यह उपन्यास चीन में 2009 में प्रकाशित हुआ और इसे 2011 का माओ डन साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त हुआ. अब इसका इंग्लिश अनुवाद प्राप्त है, जिसे उनके अनुवादक हॉवर्ड गोल्डब्लाट ने ही किया है. यह भी उनके अधिकाँश कार्य की भाँति उनके इलाके गाओमी में ही स्थित है. शीर्षक ‘फ़्रॉग’ के विषय में मो यान का कहना है कि आदमी के शुक्राणु, प्रारंभिक स्तर के गर्भ और टेडपोल्स तथा बुलफ़्रॉग्स को मिला कर उन्होंने गूँथा है. लेकिन असल में वे इस उपन्यास में प्रेम और जीवन के महत्व को स्थापित करते हैं. पूरी कहानी पत्रों द्वारा कही गई है, पत्र जो जापान के एक प्रसिद्ध लेकिन अनाम लेखक को लिखे गए हैं. कथावाचक (पत्र लिखने  वाला) गुगु के बारे में एक नाटक लिखने का इरादा रखता है. एक लघु नाटक उपन्यास में परिशिष्ट के रूप में जुड़ा हुआ भी है.

कहानी जब प्रारंभ होती है उस समय गुगु की उम्र 70 साल है. वह एक प्रसिद्ध डॉक्टर की बेटी है. उसका जीवन काल चीन का इतिहास भी प्रस्तुत करता है. इस काल में चीन जापान का अधिकृत हिस्सा रहा, 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत हुई, भूख का तांडव हुआ और तमाम तरह के अत्याचार हुए, कम्युनिस्ट शासन के पहले 30 साल में खूब राजनैतिक उथल-पुथल हुई. अंत में राज्य निर्देशित पूँजीवाद भी आया. कुछ लोग धनी हो गए, बाकी गरीबी के गर्त में डूब गए. 

गुगु किशोरावस्था से ही बहुत जादूई व्यक्तित्व की थी और वह दाई के रूप में प्रशिक्षित भी थी. उसने पुरानी दाइयों की छुट्टी कर दी थी, और खूब बच्चे जनाए थे. लेकिन समय के साथ राज्य की नीति बदली और गुगु राज्य की एक बच्चा नीति के तहत जुनूनी ढ़ंग से जबरदस्ती गर्भपात कराने लगी, नतीजन लोग उससे नफ़रत करने लगे. तमाम गर्भवती स्त्रियाँ और अजन्मे शिशुओं की भयंकर हत्याएँ होने लगीं. इसकी चपेट में खासतौर पर गरीब आए, अमीरों के पास बच निकलने के कई उपाय थे.

इसी थीम पर उनकी कहानी ‘एबॉंडेड चाइल्ड’ है. मो यान की कहानी ‘एबान्डेंड चाइल्ड’ पढ़ते हुए लगता है हम भारतीय समाज का चित्र देख रहे हैं. कथावाचक को सूरजमुखी के खेत में पड़ी हुई एक बच्ची मिलती है. मानवता के नाते वह उसे उठा लेता है लेकिन यहीं से उसकी मुसीबतें प्रारंभ हो जाती हैं क्योंकि यह नवजात एक लड़की है. और दुनिया के अधिकाँश देशों की भाँति चीन में भी सबको बेटा चाहिए और बेटी को जनमते ही मार डालने के हर संभव प्रयास होते हैं. कथावाचक जापान की दो कहानियों का स्मरण करता है जहाँ बेटी को क्रूरतम तरीके से मार डाला जाता है. बेटियों पर कोई खर्च नहीं करना चाहता है. चीन की एक बच्चा नीति का यथार्थ उघाड़ती यह कहानी बहुत-कुछ कहती है.
कथावाचक के इस शिशु को घर लाने से न उसके माता-पिता खुश हैं और न ही उसकी पत्नी. और-तो-और उस पर जुर्माना होता है क्योंकि उसकी पहले से एक बेटी है. वह तमाम नि:संतान, विधवा, विधुर लोगों को यह बच्ची देना चाहता है लेकिन कोई भी लड़की लेने को तैयार नहीं है, सबको बेटा चाहिए. लेकिन एक बच्चा नीति तथा बेटे की चाहत ने समाज का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुरुषों को शादी करने के लिए लड़की नहीं मिल रही है. कथावाचक का एक मित्र एक बड़ा अजीव प्रस्ताव देता है वह कहता है कि मुझे यह बच्ची दे दो. मैं इसे पाल-पोस कर बड़ा करूँगा और जब यह 18 साल की हो जाएगी तो इससे शादी कर लूँगा. तब इस आदमी की उम्र होगी पचास साल. कथावाचक इस घृणित प्रस्ताव को बीच में ही रोक देता है. समस्या के हल के लिए वह अपनी एक ऑन्टी के पास जाता है ऑन्टी अस्पताल में नर्स है. मगर वहाँ एक स्त्री अपनी चौथी बेटी को जन्म दे कर भाग गई है अत: ऑन्टी कहती है क्यों नहीं वह इस बच्ची को ले जाए और इसका भी पालन-पोषण करे. कथावाचक अपने समाज के रवैये से बेचैन और परेशान है मगर लाचार है. कहानी बच्ची के अंत को खुला छोड़ती है, कोई हल नहीं सुझाती है. पाठक भी इसे पढ़ कर बेचैन होता है. उनकी यह कहानी ‘शीफ़ू यूशेल डू एनीथिंग फ़ॉर ए लाफ़’ संग्रह में संकलित है.
मो यान का उपन्यास ‘फ़्रॉग’ तथा उनकी कहानी ‘एबॉंडेड चाइल्ड’ चीन की एक बच्चा नीति की विडम्बना को दिखाती है.

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कुमार अम्बुज की कविताएँ

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हिंदी के महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज की कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं. ये कविताएँ हमारे समय को संबोधित हैं, ये हर उस काल से आखें मिलाती हैं जब कवियों से कहा जाता है कि कुछ तो है तुम्हारे साथ गड़बड़, तुम सत्ता और व्यवस्था के लिए संदिग्ध हो, जब ठंडी मौतें बहुमत के सुनसान में घटित होने लगती हैं. निराशा इतनी ज्यदा है कि अब उसी से कुछ उम्मीद है.

कुमार अम्बुज कथ्य को उसकी संभव उचाई तक ले जाते हैं और वह अपने शिल्प से कहीं गिरता नहीं है, एक विस्फोट की तरह खुलता है और वहाँ ले जाता है जहाँ अब जाने से बचते हैं.

यह कवि का प्रतिपक्ष है जो हमेशा इसी तरह जलता है, हर अँधेरे में कभी मशाल की तरह कभी आँखों की तरह.  
  


कुमार अम्बुज की कविताएँ
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दैत्याकार संख्‍याएँ

बार-बार पूछा जाता है तुम कुल कितने हो
कितने भाई-बहन, कितने बाल-बच्‍चे, कितने संगी-साथी
कितने हैं तुम्हारे माँ-बाप, और तुम कुल जमा हो कितने
अंदर  हो कितने और बाहर कितने?

मैं थोड़ा सोच में पड़ जाता हूँ और अपने साथ
कुछ पेड़ों को जोड़कर बताता हूँ, कुछ इतिहासकारों,
वैज्ञानिकों, कुछ प्राचीन मूर्तियों को करता हूँ शामिल
कवियों, विचारकों, कहानियों के पात्रों, पूर्वजों को,
कुछ किताबों और आसपास के जिंदा लोगों को गिनता हूँ

वे हँसकर बताते हैं कि हम रोज काट रहे हैं हजारों वृक्ष
बुद्धिजीवियों को डाल दिया है स्टोन-क्रॅशर में
तोड़ी जा चुकी हैं तमाम मूर्तियाँ
तुम्‍हारी कथाओं के पात्रों को दिखा दिया है बाहर का रास्‍ता
दुरुस्‍त हो चुके हैं सारे पाठ्यक्रम, बंद कर दी हैं लायब्रेरियाँ 
उधर  जिंदा ही जलाये जा रहे हैं तुम्हारे जिंदा लोग
इन्‍हें घटाओ और अब बताओ,

       इन सबके बिना तुम कितने हो?

और सोचो, तुम इतने कम क्यों हो
इतने ज्यादा कम हो कि संदिग्ध हो
कुछ तो है तुम्हारे ही साथ गड़बड़
जो तुम हर जगह, हर युग में अकेले पड़ जाते हो
अपनी जाति, अपने धर्म, अपने ही देश में कम पड़ जाते हो
इतने कम होना ठीक नहीं
इतने कम होना राजनीति में मरणासन्न होना है
जीवन में इतने कम होना जीवन पर संकट है

इतने कम होने का मतलब तो नहीं होना है
इतने कम होना दृश्‍य में अदृश्‍य हो जाना है

आखिर कहता हूँ, हाँ भाई,
मैं इतना ही कम हूँ और अकेला हूँ
वे कई लोग हैं, हथियारबंद हैं,
हर तरह से ताकतवर हैं लेकिन आश्वस्त नहीं हैं,
उन्‍हें लगता है कुछ छिपा रहा हूँ

वे जारी रखते हैं अपनी तीसरे दर्जे की पूछताछ :
    इतने बहुमत के बीच तुम कैसे रह सकते हो अकेले
    तुम एक राष्ट्र में निवास करते हो किसी गुफा में नहीं
    इस तरह यदि कई लोग अकेले रहने लग जाएँ
    तो फिर हमारे बहुत ज्‍यादा होने का क्या मतलब है
    यह अकेले होना षडयंत्र है
    जब तक तुम इस तरह अकेले हो एक खतरा हो
    बताओ, तुम कुल कितने जन अकेले हो

जरूरी है गिनती
पता तो चले कि तुम ऐसे कैसे अकेले हो
जो अपने साथ जंगलों को, कीट-पतंगों, दार्शनिकों,
उपन्यासों, मिथकों, पुरखों और पहाड़ों को जोड़ लेते हो
भरमाते हो सबको, हमेशा ही सरकार को गलत बताते हो
कहते हो कि अकेले हो लेकिन सड़कों पर तो तुम
ज्यादा दिखते हो, मारने पर भी पूरे नहीं मरते हो
हम सबके लिए मुसीबत हो, हम जो इतने ज्यादा हैं
जिन्‍हें तुम कुछ नहीं समझते, कुछ भी नहीं समझते,
मगर भूल जाते हो तुम बार-बार कि हम बहुमत हैं,
तुम भूल जाते हो  कि हम  हैं:  दैत्याकार संख्याएँ.






सरकारी मौत अंधविश्‍वास है

कहते हैं उसे आज तक किसी ने ठीक से देखा नहीं
लेकिन वायरस की तरह वह हर जगह हो सकती है

धूल में, हवा, पानी, आकाश में,
सड़कों पर, घरों में, दफ्तरों, मैदानों, विद्यालयों में,
ज्योंही प्रतिरोधक-क्षमता कम होती है वह दबोच लेती है
कोई भागता है तो पीछे से गोली लग जाती है
खड़ा रहता है तो सामने माथे पर हो जाता है सूराख

तब आता है सरकारी बयान
कोई मरा नहीं है सिर्फ कुछ लोग लापता हैं
फिर इन लापताओं की खोज में मरने लगते हैं तमाम लोग
कचहरी में, सचिवालय, थाने और अस्‍पताल के बरामदों में
खेत-खलिहानों, चौपालों, क़ैदखानों में, कतारों में, भीड़ में,
शेष सारे बहुमत की ख़ुशियों के वसंत में
झरते हुए पत्तों के साथ झरते हैं
हवाएँ उन्हें अंतरिक्ष में उड़ा ले जाती हैं

आरटीआई से भी किसी मौत का पता नहीं चलता
न्‍यायिक जाँच में भी समिति को कुछ पता नहीं चलता
लोग इस तरह मरने लगते हैं कि उन्हें खुद पता नहीं चलता
एक दिन लोगों को अपने लोग पहचानने से इनकार कर देते हैं
जैसे लावारिस लाशों को पहचानने से इनकार करते हैं
मरे हुए आदमियों का कोई घर नहीं होता
उन्‍हें खदेड़ दिया जाता है फुटपाथों से भी
उनसे हर कोई हर जगह सिर्फ़ कागज़ माँगता है
पत्नी, बच्चे, पड़ोसी सब कहते हैं कागज़ लाओ, कागज़ लाओ
सरकार भी दिलासा देती है तुम जिंदा हो, बस, कागज़ लाओ
काम-धाम, खाना-पीना, हँसना-बोलना छोड़कर वे खोजते हैं कागज़

लेकिन उनकी दुनिया में वह कागज़ कहीं नहीं मिलता
थक-हारकर उन्‍हें यकीन हो जाता है वे सपरिवार मर चुके हैं
फिर वे खुद कहने लगते हैं हम तो सदियों से मरे हुए हैं,
हम गर्भ में ही मर गए थे, हमारे पास कोई कागज़ नहीं था
हम नै‍सर्गिक मृतक हैं, हमारे पास कोई कागज़ नहीं है
हमारे पितामह धरती पर कागज़ आने के पहले से रहने आ गए थे
और वे तो कब के दिवंगत हुए कोई कागज़ छोड़कर नहीं गए
सरकार कहती है हम कभी किसी को नहीं मारते

भला हम क्‍यों मारेंगे लेकिन लोगों को
लोगों के द्वारा लोगों के लिए बनाए गए
कानून का पालन करना चाहिए, हम केवल पालनहारे हैं

खुद सरकार ने कहा है सरकार कभी किसी को नहीं मारती
सरकारी मौत एक अंधविश्‍वास है, सब अपनी ही मौत मरते हैं
अखबार और टीवी चैनल दिन-रात इसीकी याद दिलाते हैं.





कुशलता की हद

यायावरी और आजीविका के रास्तों से गुजरना ही होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
बल्कि अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ

जो कहते हैं: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था

जीवन रीतता चला जाता है और भरी बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलक जाता है कमीज और पैंट की संधि पर
छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिये लंबा वक्त गुजर जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता

जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नये सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है.





यह भी एक आशा

सबसे ज्यादा ताकतवर होती है निराशा
सबसे अधिक दुस्साहस कर सकती है नाउम्मीदी

यह भी एक आशा है
कि चारों तरफ बढ़ती जा रही है निराशा.

_________________

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह—‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह—‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ—‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त .

kumarambujbpl@gmail.com

बाहर कुछ जल रहा है : लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ : अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

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हंगरी के लेखक लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ (Laszlo Krasznahorkai, जन्म : १९५४) के छह उपन्यास प्रकाशित हैं और उन्हें इनके लिए कई राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं जिसमें ‘ManInternational Booker Prize’ भी शामिल है. इस कहानी (Something Is Burning Outside) का हंगेरियन से अंग्रेजी अनुवाद Ottilie Mulzet’ ने किया है जिससे यह  हिंदी अनुवाद संभव हुआ है.  

इसका हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.


बाहर कुछ जल रहा है                                            
लैस्ज़्लो क्रैस्ज़्नाहोरकाइ
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय





ज्वालामुखी के गह्वर में स्थित संत ऐन्ना झील एक मृत झील है. यह झील 950मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और लगभग हैरान कर देने वाली गोलाई में मौजूद है. यह झील बरसात के पानी से भरी हुई है. इसमें जीवित रहने वाली एकमात्र मछली ‘कैटफ़िशप्रजाति की है. जब भालू देवदार के जंगल में से चहलक़दमी करते हुए यहाँ पानी पीने के लिए आते हैं तो वे इंसान के यहाँ आने वाले रास्ते से अलग दूसरे ही रास्ते चुनते हैं. दूसरी ओर एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ कम ही लोग जाते हैं. यह एक धँसने वाला, सपाट, दलदली इलाक़ा है. आज लकड़ी के तख़्तों से बना एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता इस दलदली इलाक़े के बीच में से होकर गुज़रता है. इस झील का नाम काईदार झील है. जहाँ तक पानी की बात है, अफ़वाह यह है कि यहाँ का पानी बेहद ठंड में भी नहीं जमता है. बीच में यह पानी हमेशा गरम रहता है. यह झील लगभग हज़ार सालों से मृत है और यही हाल इस झील के पानी का है. अधिकतर यहाँ एक गहरा सन्नाटा ज़मीन की छाती पर बोझ बनकर मँडराता रहता है.

आयोजकों में से एक ने पहले दिन आने वाले अतिथियों को जगह दिखाते हुए कहा कि यह चिंतन-मनन और घूमने-फिरने के लिए आदर्श स्थान है. इस बात को सबने याद रखा. उनका शिविर सबसे ऊँचे पहाड़ के पास ही था जिसके शिखर का नाम ‘हज़ार मीटर की चोटीथा. इसलिए चोटी के नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक दोनों दिशाओं में लोगों का आना-जाना लगा रहा. हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं था कि नीचे शिविर में उसी समय ज़बरदस्त गतिविधियाँ नहीं हो रही थीं. हमेशा की तरह समय बीतता जा रहा था. इस जगह की कल्पना करके सोचे गए रचनात्मक विचार और भी ज़बरदस्त तरीक़े से आकार और अंतिम रूप ले रहे थे. तब तक सभी अतिथि अपनी-अपनी नियत जगहों पर स्थापित हो चुके थे. ज़रूरत की कुछ चीज़ें उन्होंने अपने हाथों से लगा ली थीं. अधिकांश ने मुख्य भवन के निजी कक्ष को प्राप्त कर लिया था. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने काफ़ी समय से इस्तेमाल में न आई झोंपड़ियों में रहना स्वीकार किया था. आगंतुकों में से तीन लोग ऐसे थे जिन्होंने शिविर के केन्द्र-बिंदु वाले भवन की बहुत बड़ी अटारी पर क़ब्ज़ा कर लिया.

यहाँ भी तीनों ने अपने लिए अलग-अलग जगहें निर्धारित कर लीं. यह चीज़ सभी को बेहद ज़रूरी लग रही थी. वे काम करते हुए भी अपनी निजता में अकेले रहना चाहते थे. सभी को शांति चाहिए थी. वे उत्तेजना और अशांति से दूर रहना चाहते थे. इस तरह वे सभी अपने-अपने काम में जुट गए और इसी तरह काम करने में दिन बीतने लगे. ख़ाली समय में बाहर चहलक़दमी की जाती, झील में सुखद डुबकी लगाई जाती और शाम के समय शिविर के किनारे आग जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठकर गाने गाए जाते. साथ ही घर की बनी फलोंवाली ब्रांडी पीने का लुत्फ़ उठाया जाता.

इस वृत्तान्त का अनुमान लगाना भ्रामक था. जो तथ्य धीरे-धीरे किंतु वास्तविक रूप से उभर कर सामने आए, उनसे तो यही लगा. काम के पहले दिन सबसे तीक्ष्ण दृष्टि वालों का भी यही विचार था. लेकिन तीसरा दिन होते-होते इस बात पर आम राय बन गई. उन बारह लोगों में से एक बाक़ी सबसे अलग था. उसका वहाँ आना भी बेहद रहस्यमय था. कम-से-कम उसका वहाँ आना बाक़ियों से तो बिल्कुल अलग था. वह वहाँ रेलगाड़ी और फिर बस से नहीं आया था. यह चाहे कितना भी अकल्पनीय लग रहा था, अपने आने के दिन शायद शाम छह या साढ़े छह बजे वह शिविर का मुख्य द्वार खोल कर सीधा अंदर आ गया था. उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह वहाँ पैदल चलकर ही पहुँचा हो. दूसरों को देखकर उसने केवल रूखाई से अपना सिर हिला दिया था. जब आयोजकों ने विनम्रतापूर्वक और सम्मान से उसका नाम पूछा, और फिर वे उससे यह पूछने लगे कि वह यहाँ तक कैसे पहुँचा था, तो उसने उत्तर दिया कि कोई उसे कार से सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था. लेकिन उस प्रगाढ़ ख़ामोशी में किसी ने भी वहाँ किसी कार की आवाज़ नहीं सुनी थी जो उसे ‘सड़क के एक मोड़ तक’ छोड़ जाती. यह पूरा विचार ही अविश्वसनीय लग रहा था कि कोई उसे पूरे रास्ते नहीं बल्कि केवल सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था. इसलिए, किसी को भी उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था. या यदि और सटीक ढंग  से कहें तो किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि उसके शब्दों की व्याख्या कैसे की जाए. अत: उसके आने के पहले दिन एकमात्र सम्भव और विवेकपूर्ण वैकल्पिक राय यही लग रही थी कि वह पूरा रास्ता पैदल चलकर आया था. हालाँकि यह राय भी अपने-आप में असंगत लग रही थी. क्या उसने बुख़ारेस्त से अपनी यात्रा इसी प्रकार शुरू की होगी और यहाँ के लिए ऐसे ही निकल पड़ा होगा ? और क्या बिना किसी रेलगाड़ी या बस पर चढ़े वह केवल पैदल चलता हुआ यहाँ तक पहुँच गया था ? फिर तो कौन जानता है , वह कितने हफ़्तों तक पैदल चला होगा.

क्या संत ऐन्ना झील तक की लम्बी यात्रा इसी प्रकार समाप्त करके वह एक शाम छह या साढ़े छह बजे शिविर का मुख्य द्वार खोलकर सीधा वहाँ पहुँच गया था ? जब उससे यह प्रश्न किया गया कि क्या आयोजन-समिति श्री इयोन ग्रिगोरेस्क्यू को सम्मानित कर रही थी, तो उसने उत्तर में केवल रुखाई से अपना सिर हिला दिया.

यदि उसके वृत्तांत की विश्वसनीयता का अनुमान उसके जूतों की हालत से लगाया जाता तो फिर किसी के मन में कोई संदेह नहीं रह जाता. शायद शुरू में वे जूते भूरे रंग के थे. वे गर्मियों में पहने जाने वाले नक़ली चमड़े के हल्के जूते थे. जूतों की अंगूठे वाली जगह पर सजावट की गई थी , लेकिन अब वह सजावट उखड़ कर एक ओर लटकी हुई थी. दोनों जूतों के तल्ले आधे उखड़े हुए थे. जूतों की एड़ियाँ पूरी तरह घिस चुकी थीं और दाएँ अंगूठे के पास एक जूते के चमड़े में छेद हो गया था जिसके कारण भीतर पहनी हुई जुराब वहाँ से नज़र आ रही थी. लेकिन यह केवल उसके जूतों की ही बात नहीं थी. अंत तक इस सब को एक रहस्य बने रहना था. कुछ भी हो , उसके कपड़े दूसरों द्वारा पहने गए पश्चिमी परिधानों से अलग दिखाई दे रहे थे. ऐसा लगता था जैसे वह 1980के दशक के दुर्दांत तानाशाह के युग से, उस समय की दुर्दशा के काल से सीधे वर्तमान युग में आ पहुँचा कोई पात्र हो. उसकी अज्ञात रंग की चौड़ी पतलून फ़लालेन जैसे किसी मोटे कपड़े से बनी हुई प्रतीत हो रही थी. वह पतलून उसके टखनों पर स्पष्टता से फड़फड़ा रही थी. किंतु उसने जो कार्डिगन पहन रखा था, वह देखने में और ज़्यादा कष्टकर लग रहा था. वह दलदली-हरे रंग का बेहद ढीला , निराश कर देने वाला कार्डिगन था. उसने उसे चौकोर खाने वाली क़मीज़ के ऊपर पहन रखा था और इस मौसम की गर्मी के बावजूद उसकी क़मीज़ के ठोड़ी तक के सभी ऊपरी बटन बंद थे.

वह किसी जल-पक्षी की तरह पतला-दुबला था और उसके कंधे झुके हुए थे. उसके डरावने, मरियल चेहरे पर दो गहरी भूरी जलती हुई आँखें मौजूद थीं. वे वाक़ई जलती हुई आँखें थीं — किसी अंदरूनी आग से जलती हुई आँखें नहीं, बल्कि केवल प्रतिबिम्बित करती हुईं, जैसे वे दो स्थिर आईने हों जो यह बता रहे हों कि बाहर कुछ जल रहा है.

तीसरा दिन होते-होते वे सभी समझ गए थे कि यह शिविर उसके लिए शिविर नहीं था. यहाँ होने वाला काम उसके लिए काम नहीं था. यह ग्रीष्म ऋतु उसके लिए ग्रीष्म ऋतु नहीं थी. तैरना या अन्य कोई आरामदायक छुट्टी मनाने का उपक्रम, जो आम तौर पर ऐसे सामूहिक आयोजनों का हिस्सा होता है, उसके लिए नहीं था. उसने आयोजकों से अपने लिए एक जोड़ी जूतों की माँग की और वे उसे मिल गए. (उन्होंने उसे वे जूते दे दिए जो बाहर अहाते में एक कील से लटके हुए थे.) वह उन जूतों को पूरा दिन पहनकर शिविर के इलाक़े के भीतर ही ऊपर-नीचे टहलता रहता. वह न तो पहाड़ी पर चढ़ता-उतरता, न ही झील के किनारे टहलने के लिए जाता. वह दलदली झील पर बने तख़्तों के मार्ग पर भी कभी नहीं चलता. वह अपना अधिकांश समय भीतर ही बिताता. कभी-कभी वह इधर-उधर चलता हुआ पाया जाता. ज़्यादातर वह यह देखता रहता कि कौन क्या कर रहा है. वह मुख्य भवन के सभी कमरों के सामने से गुजरता. वह अपने चेहरे पर अति व्यस्त भाव लिए चित्रकारों, छाप या मुहर लगाने वालों तथा मूर्तिकारों के पीछे खड़े हो कर यह देखता रहता कि हर काम में प्रतिदिन कितनी प्रगति हो रही है. वह अटारी पर चढ़ जाता तथा छप्पर और लकड़ी की झोंपड़ी में घुस जाता, लेकिन उसने कभी किसी से कोई बात नहीं की. पूछने पर भी उसने शब्दों में कभी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया, गोया वह गूँगा-बहरा हो या वह किसी की कही कोई बात नहीं समझ पा रहा हो. उसका व्यवहार शब्दहीन था. जैसे वह उदासीन, जड़ या मूढ़ हो या कोई भूत-प्रेत हो. और तब बाक़ी के सभी ग्यारह लोग सतर्क होकर उसे देखने लगे, जैसे ग्रिगोरेस्क्यू उन्हें देखता था. वे सभी एक नतीजे पर पहुँचे और उन्होंने उस शाम जलती हुई आग के इर्द-गिर्द इस विषय पर चर्चा की. (ग्रिगोरेस्क्यू वहाँ अन्य साथियों के साथ कभी नहीं देखा गया क्योंकि वह हर शाम जल्दी सोने चला जाता था.) अन्य सभी लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि उसका यहाँ आगमन आश्चर्यजनक था , उसके जूते अजीब थे और उसका कार्डिगन, उसका भीतर धँसा चेहरा, उसका दुबलापन, उसकी आँखें— ये सभी चीज़ेँ विचित्र थीं. लेकिन उन्होंने पाया कि उसकी एक चीज़ सबसे विशिष्ट थी, जिसका उन्होंने अभी तक संज्ञान भी नहीं लिया था. वह चीज़ वाक़ई आश्चर्यजनक थी. दरअसल यहाँ मौजूद यह प्रख्यात सर्जनात्मक आकृति, जो सदा सक्रिय रहती थी, पूरी तरह से कार्यहीन और ख़ाली थी जबकि बाक़ी सभी लोग काम-काज में व्यस्त थे.

वह ख़ाली था. यानी कुछ भी नहीं कर रहा था. यह बात समझ में आने पर वे सब हैरान रह गए. लेकिन वे ज़्यादा हैरान इस बात पर हुए कि उन्होंने शिविर के शुरुआती दिनों में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था. यदि गिना जाए तो आज आठवाँ दिन चल रहा था. आगंतुकों में से कुछ तो अपनी कला को अंतिम रूप दे रहे थे, किंतु उस अजनबी के कुछ न करने के इस अजीब तथ्य की ओर उन सब ने अब जाकर ध्यान दिया था.
वह वास्तव में कर क्या रहा था ?
कुछ नहीं. कुछ भी नहीं.
उस समय के बाद से वे सभी अनजाने में ही उस पर निगाह रखने लगे. एक बार दसवें दिन उन्होंने पाया कि पौ फटने के बाद से सुबह के पूरे समय काफ़ी अरसे तक ग्रिगोरेस्क्यू कहीं दिखाई नहीं दिया, हालाँकि वह बहुत जल्दी उठ जाता था. अधिकांश लोग तब सोते रहते थे. उस समय किसी ने भी उसे कहीं जाते हुए नहीं देखा. वह झोंपड़ी के पास नहीं था, छप्पर के निकट नहीं था, न भीतर था, न बाहर था. दरअसल इस बीच वह किसी को भी दिखाई नहीं दिया था , गोया वह कुछ समय के लिए ग़ायब हो गया हो.

बारहवें दिन के अंत में कुछ लोगों ने उत्सुकता से भर कर अगली सुबह तड़के उठने का फ़ैसला किया ताकि वे इस मामले की जाँच कर सकें. हंगरी के एक चित्रकार ने सब को सुबह जल्दी उठाने की ज़िम्मेदारी सँभाल ली.

अभी भी अँधेरा ही था जब वे सब अगली सुबह सो कर उठे और उन्होंने पाया कि ग्रिगोरेस्क्यू अपने कमरे से नदारद था. वे सब मुख्य द्वार की ओर पहुँचे, वापस लौटे, और झोंपड़ी तथा छप्पर तक गए किंतु कहीं भी उसका नामो-निशान नहीं था. भौंचक्के होकर उन्होंने एक-दूसरे को देखा. झील की ओर से हल्की हवा बह रही थी, पौ फटने लगी थी और धीरे-धीरे सुबह के उजाले में उन्हें एक-दूसरे की आकृतियाँ दिखाई देने लगी थीं. चारों ओर घना सन्नाटा था.

और तब उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी. जहाँ वे खड़े थे, वहाँ से वह आवाज़ बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी. वह दूर कहीं से आ रही थी. शायद शिविर के अंतिम छोर से. या ठीक से कहें तो उस अदृश्य सीमा-रेखा के दूसरी ओर से, जहाँ दो बहिगृह मौजूद थे. वे शिविर की सीमा-रेखा पर स्थित थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उस बिंदु के बाद से भू-भाग किसी खुले आँगन जैसा नहीं दिखता था. अभी प्रकृति ने उस मैदान पर वापस क़ब्ज़ा नहीं किया था, किंतु किसी ने उस भू-भाग में कोई रुचि नहीं दिखाई थी. असल में वह एक असभ्य, डरावनी जगह थी जहाँ कोई इंसान नहीं आता-जाता था. शिविर के मालिकों ने भी उस भू-भाग पर इतना ही दावा किया था कि वे वहाँ फ़्रिज और रसोई से निकलने वाला कूड़ा-कचरा फेंक दिया करते थे. इसलिए समय के अंतराल के साथ उस पूरे इलाक़े में अभेद्य, हठी, आदमकद झाड़-झंखाड़ उग आए थे. ये बेकार की कँटीली, मोटी, प्रतिकूल वनस्पतियाँ अविनाशी लगती थीं.

उस पार कहीं से, उस झाड़-झंखाड़ में से उन्होंने वह आवाज़ सुनी जो छन कर उनकी ओर आ रही थी.

वे सब हिचक कर ज़्यादा देर तक रुके नहीं रहे बल्कि एक-दूसरे की ओर देख कर वे आगे किए जाने वाले काम में जुट गए. चुपचाप सिर हिला कर वे उस झाड़-झंखाड़ में घुस गए. वे सब उस आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ रहे थे.

वे उस झाड़-झंखाड़ में काफ़ी अंदर तक चले गए थे और अब शिविर की इमारतों से दूर आ गए थे. तब जाकर वे उस आवाज़ के क़रीब पहुँच पाए और यह पता लगा पाए कि शायद वहाँ कोई खुदाई कर रहा था.

वे और आगे बढ़े. अब किसी उपकरण के ज़मीन की मिट्टी से टकराने की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. किसी गड्ढे में से मिट्टी निकाले जाने, और उस मिट्टी के लम्बी घास पर गिर कर फैलने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी.

उन्हें दाईं ओर मुड़कर दस-पंद्रह कदम आगे चलना पड़ा. किंतु वे वहाँ इतनी जल्दी पहुँच गए कि वे सब ढलान से नीचे लगभग गिरने ही वाले थे. उन्होंने देखा कि वे एक विशाल और गहरे गड्ढे के किनारे खड़े थे. वह गड्ढा तीन मीटर चौड़ा और पाँच मीटर लम्बा था. उस गड्ढे के तल पर उन्हें ग्रिगोरेस्क्यू खुदाई करता हुआ नज़र आया. वह गड्ढा इतना गहरा था कि उसका सिर बड़ी मुश्किल से नज़र आ रहा था. अपने काम में व्यस्त होने की वजह से उसने उन सब के आने की आवाज़ नहीं सुनी थी. वे सब उस गहरे गड्ढे के किनारे खड़े होकर वहाँ से नीचे के दृश्य को देखते रहे.

वहाँ नीचे, उस गहरे गड्ढे के बीच में उन्हें मिट्टी से बनाया गया लगभग सजीव लगने वाला एक घोड़ा दिखाई दिया. उस घोड़े का सिर एक ओर ऊँचा उठा हुआ था. उसके दाँत दिख रहे थे और उसके मुँह से झाग निकल रहा था. वह घोड़ा जैसे किसी भयावह शक्ति से डरकर सरपट दौड़ रहा था, जैसे वह कहीं भाग रहा हो. वे सब इस दृश्य को देखने में इतने मग्न हो गए कि उन्होंने इस बात की ओर बहुत बाद में ध्यान दिया कि ग्रिगोरेस्क्यू ने एक बहुत बड़े इलाक़े से झाड़-झंखाड़ काट दिए थे और वहाँ यह गहरा गड्ढा खोद दिया था. गड्ढे के बीच में मौजूद उस मुँह से झाग निकालते, सरपट दौड़ते घोड़े के आस-पास से उसने सारी मिट्टी हटा दी थी. ऐसा लग रहा था जैसे ग्रिगोरेस्क्यू ने उस घोड़े को धरती के गर्भ से खोद निकाला था, उसे मुक्त कर दिया था जिसके कारण वह आदमक़द घोड़ा सबको दिखाई देने लगा था. ऐसा लग रहा था जैसे वह घोड़ा ज़मीन के नीचे मौजूद किसी भयानक चीज़ से डर कर भाग रहा हो. भौंचक्के हो कर वे सब ग्रिगोरेस्क्यू को देखते रहे जो उनकी मौजूदगी से पूरी तरह अनभिज्ञ अपने काम में व्यस्त था.

वह पिछले दस दिनों से यहाँ खुदाई कर रहा है— उस गहरे गड्ढे के बग़ल में खड़े हो कर उन्होंने अपने मन में सोचा. यानी वह पौ फटने के समय से लेकर पूरी सुबह तक इन सारे दिनों में यहाँ खुदाई करता रहा है.
किसी के पैरों के नीचे से मिट्टी फिसल कर नीचे गिरी और तब ग्रिगोरेस्क्यू ने ऊपर देखा. पल भर के लिए वह रुका. फिर उसने अपना सिर झुकाया और वह दोबारा अपने काम में व्यस्त हो गया. सभी कलाकार खुद को असुविधाजनक स्थिति में महसूस करने लगे. उन्हें लगा कि किसी-न-किसी को कुछ कहना चाहिए.
वाह, यह शानदार है, “ फ़्रांसीसी चित्रकार इयोन ने धीमे स्वर में कहा.

ग्रिगोरेस्क्यू ने दोबारा अपना काम करना बंद किया और वह नीचे लटकी हुई एक सीढ़ी पर चढ़ कर उस गड्ढे में से बाहर निकल आया. उसने अपनी कुदाल में लगी मिट्टी को ज़मीन पर पटक कर झाड़ा और एक रुमाल से अपने माथे का पसीना पोंछा. फिर वह उन सब लोगों की ओर आया और उसने अपनी बाँहों की धीमी, चौड़ी क्रिया के साथ उस पूरे भू-दृश्य की ओर इशारा किया.
इस जैसे यहाँ अब भी बहुत-से मौजूद हैं”, उसने धीमी आवाज में कहा.
फिर उसने अपनी कुदाल उठाई और सीढ़ियों के सहारे वह वापस उस गहरे गड्ढे में उतर गया, जहाँ उसने दोबारा खुदाई आरम्भ कर दी.
शेष सभी कलाकार गड्ढे के बग़ल में ऊपर खड़े हो कर अपने सिर हिलाते रहे. फिर वे सभी चुपचाप शिविर के मुख्य भवन की ओर लौट गए.
अब केवल विदाई शेष रह गई थी. निदेशकों ने एक बड़े भोज का आयोजन किया, और फिर अंतिम शाम भी आ गई. अगली सुबह शिविर के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया गया. एक बस का प्रबंध किया गया था और कार से बुख़ारेस्ट या हंगरी से आए हुए कुछ लोग भी शिविर से विदा हो गए.

ग्रिगोरेस्क्यू ने वे जूते वापस प्रबंधकों को लौटा दिए. उसने दोबारा अपना घिसा हुआ फटा जूता पहन लिया और उसने अपना कुछ समय प्रबंधकों के साथ बिताया. फिर शिविर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव के पास सड़क के मोड़ पर, उसने अचानक चालक को बस रोकने के लिए कहा. उसने जो कहा उसका आशय कुछ-कुछ यह था कि यहाँ से आगे उसका अकेले जाना ही बेहतर होगा. लेकिन दरअसल उसने क्या कहा था, यह किसी को समझ में नहीं आया क्योंकि उसने यह बेहद धीमी आवाज़ में कहा था.

फिर मोड़ मुड़ कर बस आँखों से ओझल हो गई. तब ग्रिगोरेस्क्यू सड़क पार करने के लिए मुड़ा और नीचे उतर रहे सर्पीले रास्ते पर वह अचानक ग़ायब हो गया. अब वहाँ केवल वह भू-भाग मौजूद था जहाँ पहाड़ों की ख़ामोश व्यवस्था थी. उस विशाल भू-भाग में ज़मीन नीचे गिरे हुए मृत पत्तों से ढँकी हुई थी. भू-भाग का वह असीम विस्तार भेस बदलने वाला, छिपाने वाला और सब कुछ गुप्त रखने वाला लग रहा था, जैसे जल रही ज़मीन के नीचे मौजूद हर चीज़ को वह ढँक दे रहा हो.

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कहीं अधिक बड़े सच का लिबास है 'श्रीवन'का पागलपन : विनोद शाही

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कहीं अधिक बड़े सच का लिबास है 'श्रीवन'का पागलपन
विनोद शाही

"अनुराधा ने मैत्रेय का नाम श्रीवन रख दिया था. उसे स्कूल में बच्चे मिस्टर फॉरेस्ट कहते थे. उसने सब पेड़ों के नाम लेखकों  के नाम पर रख छोड़े थे.  दोस्तोवस्की, काफ्का, नीत्शे, प्रूस्त वगैरह-वगैरह."

     
18वीं सदी के आखिरी पड़ाव को याद कीजिए. यह वह दौर था जब ज्ञानोदय के आखिरी चरण में मानव जाति औद्योगिक विकास के शिखर की ओर  उन्मुख थी. नगरीकरण हमारे सामने आधुनिकीकरण और विकास का एकमात्र रूप बनकर प्रस्तुत था. प्रकृति से टूटती हुई यह नई दुनिया खुद को  पागलपन की ओर बढ़ता हुआ पा रही थी. वह साम्राज्यवादी होकर  बाकी दुनिया पर काबिज़ तो हो रही थी, पर इसी वजह से वह खुद को नैतिक अंतर-विरोधों के कारण अस्तित्व के संकट के रूबरू पा रही थी. पूंजी की दुनिया के भीतर से उपजा श्रम का अजनबीपन विश्व के सामने विकराल समस्या की तरह प्रस्तुत हो रहा था. 18 वीं सदी के आखिरी दौर में प्रकट होने वाले स्वच्छंदतावाद में एक करुणा भरी पुकार आई थी कि हमें जैसे भी हो प्रकृति में वापसी करनी पड़ेगी. वह बात थोड़ी आदर्शवादी थी, लेकिन जल्द ही पूंजी की दुनिया में जिस तरह का अलगाव हमें घेरने लगा था, उसके बाद कुदरती जीवन दर्शन को व्यवहारिक और ठोस रूप में उपलब्ध करने की नई-नई विचारधाराएं हमारे सामने आने लगी थी. वह एक बड़े संकट की घड़ी थी जिससे उबरने में मानव जाति में बड़े-बड़े दर्शनों की ओर रुख किया था. मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और आधुनिकता से जुड़े अनेक दर्शन उसी के भीतर से पैदा हो रहे थे, जिनकी मदद से मानव जाति में दो  विश्व युद्धों से उपजने वाले पागलपन से खुद को ग्रस्त हो जाने से बचाने का प्रयास किया था. 
     

अब हम उसी संकट के अगले चरण में हैं.  इस अगले चरण पर हालात पहले के मुकाबले में कहीं अधिक जटिल हैं, जो हमें फिर से पागलपन के एक नए ज्वार में धकेल कर बहा ले जाना चाहते हैं. हुआ यह है कि अब मानव जाति के पास प्रकृति में वापसी की संभावना और उम्मीद भी  नहीं रह गई है. अब तो बात प्रकृति को ही बचाने और संरक्षित करने तक पहुंच गई है. सवाल यह हो गया है कि अब हम प्रकृति में लौटेंगे भी तो कैसे लौटेंगे ? प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित हो गया है. शुद्ध हवा में सांस लेना तक दूभर होता चला जा रहा है. खाने पीने की तमाम चीजें जहरीली हो रही है. जमीन में रासायनिक पदार्थों की इतनी मिलावट हो गई है कि हवा पानी मिट्टी और आकाश तक कुछ भी प्राकृतिक नहीं बचा है. ऐसे में अब पूरे उत्तर औद्योगिक विकास को ही एक तरफ रख कर प्रकृति की नैसर्गिक जैविकता में छलांग लगानी पड़ेगी. परंतु वह बात हास्यास्पद ही नहीं, हमारी विकास विरोधी सनक या पागलपन जैसी नजर आती है. जब प्रकृति ही हाशिये पर है तो प्रकृति के ज़रिये अर्थपूर्ण  होने और उस अर्थ में समाज के भविष्य को तलाशने वाले लोग  भला पागल क्यों नहीं समझे जाएंगे . 
     
ऐसी स्थिति में जब पूरा विकास आख्यान पागल हो रहा हो तो हम एक विधिवत सिलसिलेवार कथा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. जिसे हम समाज का इतिहास कहते हैं, वह अब किसी परंपरागत किस्म के उपन्यास का कथानक बनने से इनकार करने लगा है. अगर इस भूमिका को अपनी निगाह में रखेंगे, तो हम विक्रम मुसाफिर के 'श्रीवन'जैसे उपन्यास में उतरने के लिए एक जरूरी भावभूमि में अपने आप को पा सकते हैं. अन्यथा यह उपन्यास हमें 'उपन्यास के अंत'की स्थितियों में ले जाकर फेंकने वाले आधुनिकतावादी उपन्यासों जैसा ही कुछ लग सकता है. हमारे दौर में जब बात उपन्यास के अंत की होती है, तो उसका मतलब होता है, उपन्यास का कथानक के कालक्रमिक अंतर्विकास से मुंह मोड़ लेना. ऐसे उपन्यास पढ़ते हुए हमें मुख्य कथा बिखर गई सी मालूम पड़ती है. लगता है जैसे कथा के पास अब उसकी परिणतियां नहीं बची है. इसलिये ये कथाएं  बेतरतीब हो गई दिखाई देती है. कथा का यह जो एक खास तरह का पागलपन है उसे हम अपने समय के इतिहास के बेतरतीब होने का परिणाम भी मान सकते हैं. ऐसे में कोई सिलसिलेवार तरीके की, आरंभ मध्य अंत वाली कहानी नहीं कह सकता. तब एक उपन्यास किस की कथा कहेगा
     

श्रीवन

'श्रीवन'पढ़ते हुए हमें पहला ख्याल यह आता है कि कथा भी एक विचार हो सकती है. क्यों कि कथा समय का आख्यान होती है, इसलिए कथा का विचार हो जाना, समय का पागल हो जाना भी है. ऐसे में अगर कथा नहीं बचती, तो विचार के अंतर्विकास को कथा कहना या  समझना एकदम गैर वाजिब भी नहीं लगता. जब बाहर की घटनाएं बेतरतीब हो गई हों, तब भी अर्थ के धरातल पर तो कोई तरतीब बची  रह ही जाती है.  इस उपन्यास की कथा बाहर की घटनाओं के भीतर गहराई में मौजूद अर्थ की तख्ती को पकड़ने से जुड़ी है. परंतु जब हम सतह को भेद कर भीतर उतरते हैं, तो कुछ भी हाथ न लगने का खतरा भी उठाते हैं.  
     
गहराई में क्या है, इसे जानने के लिए हमें सामाजिक इतिहास के हाशिए पर जाना ही पड़ता है, उस हाशिए पर जहाँ के हालात अराजक ही नहीं विक्षिप्तावस्था की दहलीज तक पहुंचा दिए गए हैं. यह एक दुखद स्थिति है, परंतु इस चुनौती से यह उपन्यास बखूबी मुठभेड़ करता है.

      
'श्रीवन'के साथ हम एक ऐसे उपन्यास में दाखिल होते हैं, जहां मुख्य कथा के नाम पर बस कुछ बेतरतीब घटनाएं हैं.  ये घटनाएं शिक्षा जगत और पत्रकारिता की दुनिया के अंतर्विरोधों के वृतांत के हाशिए पर घटित होती हैं. फिर वे हमें पागलपन की ओर धकेले जा रहे पात्रों की मार्फत उस हाशिये के हाशिये पर मौजूद किन्ही स्थितियों में दाखिल होने का न्योता देती हैं. यह देरिदा के विखंडनवादी अर्थ निर्णय जैसी बात लगती है, जहां मुख्य अर्थ को बेदखल करके ही आप भीतर के अर्थ में प्रवेश कर सकते हैं.
     
'श्रीवन'के केंद्र में मैत्रेय नाम का एक पात्र है जो किसी विद्यालय में पढ़ाता है. अंग्रेजी का यह प्राध्यापक एक दिन अचानक अपने विद्यालय से इस्तीफा देकर समाज की मुख्यधारा को जैसे अलविदा कहता हुआ निकल जाता है. समाज के हाशिए की ओर जाते हुए उसका पहला पड़ाव एक पहाड़ी इलाके का डाक बंगला है, जो पर्यटकों का सीजन न होने की वजह से इन दिनों वीरान पड़ा है. उस डाक बंगले की देखरेख करने वाला साहिब सिंह उसे इन दिनों भूतों के डेरे की तरह देखता है. वह कहता है कि यहाँ इन दिनों  'हर कमरे में कुछ आत्माएं रहती हैं'. ऐसी जगह इन दिनों  इक्का-दुक्का लोग ही ठहरते हैं. परंतु मैत्रेय उसी जगह को कुछ महीने ठहरने के लिए चुन लेता है. यह पूरी स्थिति समाज की मुख्यधारा के हाशिये को एक कथा-स्थिति में बदल देती है.
      
इस डाक बंगले में आसपास के गांवों और कस्बों में घटित होने वाली बातें खबरों की तरह उनके सामने आती है. ये खबरें यदा-कदा साहिब सिंह की मार्फत डाक बंगले में प्रवेश करती है. साहिब सिंह किसी बाबरी नाम की महिला के संबंध में कुछ घटनाओं को हमारे सामने लाता है. बाबरी माने एक पागल औरत. इसके बारे में यह बात उपन्यास के आरंभ में सुनाई देती है कि 'अच्छे घर की महिलाएं बड़ी जल्दी पागल बना दी जाती है'. इस पंक्ति में इस पूरे उपन्यास का आख्यान छिपा है, परंतु उसे जानने के लिए हमें इस पंक्ति को बाद में घटी घटनाओं के संदर्भ में डीकोड करना पड़ता है. 
     
इस उपन्यास की कथा को एक आख्यान इसलिए कहा जाना चाहिए, क्योंकि यह कथानक होने की शर्तें पूरी नहीं करता. यह पूरा उपन्यास अन्यत्र घटी घटनाओं का साक्षी भर बनता है. इसलिए वह हमें उन घटनाओं के आख्यान से वाकिफ कराता है और फिर एक दिन मैत्रेय के उस कमरे को छोड़कर चले जाने के साथ समाप्त हो जाता है. मैत्रेय कहाँ जाता है, इसका पता भी हमें इस उपन्यास से नहीं चलता. बाहरी कथाओं के नाम पर हमारे हाथ उनके कथन मूलक वृत्तांत के अलावा कुछ नहीं लगता. परंतु वह जो हाशिये के हाशिये की कथा है, यानी उस बाबरी औरत की कथा, वह इस पूरी प्रक्रिया के द्वारा केंद्र में आ जाती है और इस उपन्यास को एक गहरे अर्थ से जोड़ देती है. 
     
गौण होने के बावजूद मुख्य हो जाने वाली कथा में बाबरी उस पहाड़ी इलाके में घूमती हुई वहाँ के लोगों के द्वारा पूजे जाने वाले देवी देवताओं को 'उनकी जून से छुटकारा दिलाने'की जद्दोजहद में लगी हुई है. उसे लगता है कि गांव के लोगों ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवी देवताओं को अपना बंधक बनाकर रख लिया है. अब देवी देवता खुद छुटकारा चाहते हैं. इसलिए वह उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें नदी में विसर्जित करना चाहती है.
      
कथा का  देवी देवताओं को मुक्त  कराने  वाला  पहलू  बहुत  क्रांतिकारी  मालूम पड़ता है.  तथापि  इसका एक दूसरा पहलू भी है.  उस ओर यह उपन्यास  इशारा तो करता है, परंतु खुद को उस पर केंद्रित नहीं करता.  हालांकि  वह जो छिपा हुआ पक्ष है, वह हमारे सामाजिक यथार्थ की  ज़मीन है. पहाड़ी इलाके के लोग बहुत कठिनाई से अपना जीवन यापन करते हैं. तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोध है, जिनके बीच से होकर के वे किसी तरह जीने लायक स्थिति में आ पाते हैं. इस संदर्भ में उपन्यास के कुछ अंश इस तरह हैं :

"50 साल पहले जब मैं पैदा हुआ गांव में किसी के पास घड़ी नहीं थी, समय सबके पास था."
"गांव के गांव अतिक्रमण वाली जमीन पर बने हैं. पेड़ पशुओं की तरह काटे जा रहे हैं और देवता पशु बलि मांगते हैं."
     
ऐसी स्थितियों का सामना करने की हिम्मत उन्हें अगर कहीं से मिलती है, तो वह इन्हीं देवी देवताओं के माध्यम से मिली हुई मनोवैज्ञानिक सहायता के रूप में उन्हें मिल पाती है. वहाँ गांव के लोग जगह-जगह किनहीं पत्थरों को रख छोड़ते हैं, जिन्हें वे अक्सर पूजते हैं. ये देवी देवता विधिवत मंदिरों में बैठे हुए मुख्य धारा की संस्कृति का केंद्र बन सकने वाले  ईश्वर के अवतार नहीं है. ये जन आकांक्षाओं के देवी देवता है, जो पहाड़ों में इधर-उधर कहीं भी धरे हुए मिल जाएंगे. उन्हें बस एक चबूतरा चाहिए, जहाँ वे स्थापित हो सकें. उन्हें हम उनके ऊपर लगे कुछ ऐसे निशानों से ही पहचान सकते हैं जिन्हें पूजा के दौरान उन पर अंकित किया जाता है. उन्हें देखकर ही हमें यह अनुमान होता है कि वे पत्थर नहीं, देवी देवता है. यह संस्कृति का भी एक तरह का लोक पक्ष है. लोगों को इन के ऊपर भरोसा होता है. भरोसा इसलिए होता है क्योंकि इसके अलावा उनके पास भरोसा करने के लिए और कुछ नहीं है.  लोकतांत्रिक संस्थाएं यानी स्कूल, अस्पताल या पुलिस थाने ऐसी संस्थाएं हो गये है जिन्हें वे अपने पक्ष में खड़ा नहीं देख पाते. 
     
यदा-कदा ही कोई आदमी ऐसा आता है जो पहाड़ी इलाके की इन संस्थाओं को उन लोगों के लिए निजी कारणों से हितकारी बनाता है. जैसे इधर टिक गया सरकारी अस्पताल का एक डॉक्टर है, 'जो दवाई के लिए मरीज नहीं ढूंढता, अपितु मरीज के लिए दवाई देता है'. इसलिए उसका भी जगह-जगह से तबादला हो जाता है. वह मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ज़ के निशाने पर रहता है क्योंकि वह उनके मुनाफे को बढ़ाने वाली दवाइयों की पर्चियां नहीं लिखता. आखिरकार उसे इस पहाड़ी इलाके में फेंक दिया जाता है. वह कहता भी है कि उसके 'इतने तबादले हो गए हैं कि अब तो उसका तबादला अरुंधति नक्षत्र वाले उस अस्पताल में कर दिया जाना चाहिए जिसे वह इस पूरे ब्रह्मांड का सबसे बड़ा अस्पताल कहता है'. 
     
इस उपन्यास के अनेक पात्र ऐसे हैं जो प्रकृति और प्राकृतिक स्वभाव, व्यवहार और नैतिकता से संचालित होकर निजी कारणों से वहां किसी तरह आ कर इकट्ठे हो गए हैं. इनका वहाँ होना समाज की निजी आलोचना की तरह है. इन्हीं पात्रों की मार्फत कथा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हम पाते हैं कि इस कथा के अधिकांश मुख्य पात्र या पागल है या पागलपन की कगार पर है. इस कथा के पात्रों के पागलपन को हम सामाजिक यथार्थ की आलोचना की एक युक्ति की तरह देख सकते हैं. 
     


"क्या मृत्यु समय की किताब का कोरा पागलपन नहीं है?"

उपन्यास का मुख्य पात्र मैत्रेय किताबों में डूबा हुआ पात्र है. उसकी सनक इतनी गहरी है कि लगता है जैसे किताबें उसके पागलपन का पर्याय हो गई हों. हालांकि इस पात्र को हम विधिवत पागल पात्र की कोटि में नहीं रख सकते, लेकिन यथार्थ को किताबों की मार्फत देखने समझने की कोशिश वैसी ही है जैसे कि कोई पागल अपने मन की दुनिया के आईने में ही पूरी दुनिया को उतारकर देखने की कोशिश किया करता है. मैत्रेय की कथा में क्योंकि अंतर-विकास नहीं है इसलिए कोशिश की गई है कि समय को ठहरा दिया जाए. कथा समय के साथ आगे बढ़ती है. परंतु डाक बंगले में, जहां मैत्रेय ठहरा हुआ है, समय भी ठहरा हुआ दिखाई देता है. ऐसे में कथा किताबों के समय में प्रवेश कर जाती है और किताबों के जरिए अनेक ऐसी स्थितियों को हमारे सामने रखती है, जिनसे यह भ्रम पैदा किया जाता है कि आख्यान आगे बढ़ रहा है. किताबें इस तरह मैत्रेय के मन के अचेतन की दुनिया की तरह हमारे सामने आती हैं. किताबों को वह अपने चेतन मन का इलाज करने वाले मनोविश्लेषक की तरह देखता है. इस तरह वह खुद अपना इलाज करने वाले पागल की एक अलग ही कोटि का पात्र बन जाता है जो किताबों की उस दुनिया में आता जाता रहता है जो उसके अपने अचेतन मन से मेल खाती है और व्यापक रूप में समाज के सामूहिक अचेतन का आईना भी हो पाती हैं.

'समय मनोविश्लेषक है और छूट रहा है, जबकि अचेतन मन की तरह वह मृत्यु में विश्वास नहीं रखता."

     
यहां पाते हैं कि अचेतन मन में प्रवेश दरअसल मृत्यु से मुक्ति का एक तरीका है. चेतन मन से जुड़ा संसार इतना क्रूर हो गया है कि वहां मनुष्य हर कदम पर मृत्यु के रूबरू खड़ा हो गया दिखाई देने लगा है. इसलिए अचेतन को सजग तरीके से जीने का प्रयास इस उपन्यास को एक गहरा आयाम प्रदान करता है. यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया जाता है:

"क्या मृत्यु समय की किताब का कोरा पागलपन नहीं है?"
     
अब हम समझ सकते हैं कि यह उपन्यास किताब और मृत्यु के बीच किस तरह के संबंध को देखता है. किताबों को अपना साथी इसलिए बनाया जाता है ताकि मृत्यु को टाला जा सके; उस मृत्यु को जो क्रूर समय की उपज है और जिसे भूलने भुलाने की जरूरत हर वक्त हमारे सामने बनी रहती है:

"किताबों की समांतर दुनिया में उसने अक्सर किताबों से बातें की थीं."
  
पागलपन में मनुष्य अपने आप से बातें करता है. किताबों के पागलपन में बात किताबों से बातें करने तक चली आती है. फिर इससे किताबी बहस निकलती है जिसका संबंध यथार्थ और अस्तित्व के सवालों को भूलने य, उन्हें स्थगित करने या उनसे निजात पाने से अधिक होता है:

"जैसे सोचना सांस लेने के लिए एक संघर्ष हो."
"शब्द भी बहुरूपिए हैं. शक्ल बदल कर काम चला लेते हैं."
"प्रश्न से सात कदम आगे रहना उत्तर को उत्तर बनाए रखता है."
"चिंतन उत्तर नहीं है. चिंतन से हमारे प्रश्न और मुखर हो जाते हैं."
"आप जिसे बहस कहते हैं, मैं उसी समय की द्वंद्वात्मक बर्बादी कहता हूं."

     
इन उदाहरणों को समझना हो, तो हमें विवेक के मतलब को समझना पड़ता है. विवेक में प्रश्न और उत्तर के बीच में एक संतुलन होता है. जो आदमी पूर्वाग्रही होता है, वह उत्तर पर अपने आप को केंद्रित करता है और अपने उत्तर को भी सही मानने का दावा पेश करता है. ज्यादातर लोग इसी कोटि के होते हैं. लेकिन जो व्यक्ति खुद को प्रश्न में ही रखने के लिए उत्सुक है और उत्तर से बचता है, वह पागलपन के एक लक्षण की तरह हमारे सामने आता है. वह केवल एक अनिश्चयात्मक द्वंद्व में खुद को झोंके रखना चाहता है और उसे ही यथार्थ का पर्याय मानता है.
     
सामान्य रूप में हालात इतने अंतर्विरोधपूर्ण है कि वहां सजन नैतिक बोध और प्राकृतिक चेतना वाला व्यक्ति पागल हुए बिना रह ही नहीं सकता है. उपन्यास में एक जगह ऐसी पंक्ति आती है कि 'हालात इतने अधिक संगीन है कि उन में अगर कोई व्यक्ति खुदकुशी नहीं करता तो यह बात हैरान करने वाली है."इस उपन्यास में कोई पात्र खुदकुशी नहीं करता है. लेकिन क्योंकि कोई खुदकुशी नहीं करता, इसलिए यहां कई पात्र धीरे-धीरे पागलपन की ओर बढ़ते चले जाते हैं. इस पागलपन पर मृत्यु हमेशा एक छाया की तरह मंडराती रहती है. मैत्रेय को देख कर एक बार आशुतोष के पिता ने यह कहा था :
"आशुतोष के मरने के बाद तुम्हारी शक्ल उससे मिलने लगी है."


"मैं अपने पीछे शून्य नहीं एकांत छोड़ जाऊंगा."

उपन्यास में पागलपन भी कई तरह का है. इसलिये वह कई तरह की समाज-सांस्कृतिक आलोचनाओं का  मनोविज्ञान है. मैत्रेय, आशुतोष और अनुराधा समाज के विशिष्ट वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. वे शिक्षित, प्रतिभावान और रचनात्मक हैं. अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक जगह मैत्रेय कहता है कि उसे 'समय में नहीं प्रतिभा ने नष्ट किया है'.वह एक असफल लेखक है. आशुतोष प्रतिभावान कलाकार है, लेकिन सामाजिक अंतर्विरोधों के प्रति अत्यधिक असंतोष और प्रतिरोध उसे समाज के लिए मिसफिट बनाता है. इस उपन्यास में उसकी एक खास पेंटिंग हमारा ध्यान खींचती है, जिसमें एक बड़ा सा बंद ताला है जो सिगरेट पी रहा है. यह आधुनिक मनुष्य के चित्त का चित्र है. ताला बंद है. वह खुल नहीं पा रहा है, परंतु वह सिगरेट पीता हुआ आधुनिकता के दंभ या दिखावे में जीने की कोशिश कर रहा है. इसे हम आशुतोष के चरित्र की व्याख्या के लिए भी आधार बना सकते हैं. इस तरह के अंतर्विरोध अंततः आशुतोष को नष्ट कर देते हैं. अनुराधा पत्रकारिता व लेखन में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है. परंतु रचनात्मकता की मौलिक अभिव्यक्ति के लिए वहां जगह कम है, इसलिए वह भी लगातार भटकती रहती है. आखिरकार वह पागलपन की दहलीज तक पहुंच जाती है. वह आकाश को देखकर समझती है कि वह उसका आईना है. परंतु साथ ही इस अविश्वास को भी प्रकट करती है कि आकाश यदि आईना है तो उसमें में उसका चेहरा दिखाई क्यों नहीं देता. इस कथा स्थिति मूलक बिंब के अर्थ स्पष्ट हैं. वह विराट मैं जीना चाहती है, परंतु हालात उसे सीमाओ में बांधकर पागल बनाए दे रहे हैं. ये सभी पात्र सत्य की तलाश में निकले हैं, परंतु झूठ के अतिशय प्रभाव के कारण अपनी तेजस्विता को अभिव्यक्ति के लायक नहीं पाते हैं. मैत्रेय को लगता है जैसे झूठ बाजार का चलन है जिसे लोग बैस्ट सेलर की तरह खरीद कर पढ़ते हैं:

"बेस्ट सेलर क्या है? पहले बहुत बिके हुए को खरीद कर लोग पढ़ना चाहते हैं.
वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि"झूठ आवरण है स्मृति का."इस झूठ का दूसरा नाम है कॉमन सेंस.  और "पागलपन कॉमन सेंस की अतिवृष्टि है."यह सब जानते हुए भी मैत्रेय खुद को किताबें पढ़ने में डूबोए रखता है क्योंकि "पढ़ना भूलने भुलाने की तरकीब है."पढ़ते रहने के इस दुष्चक्र से उबरने के लिए मैत्रेय और अनुराधा  इस  सलाह पर अमल करने की कोशिश करते है कि उन्हें खूब लिखना चाहिए. परंतु जब बात लिखने की आती है, तो वे पाते हैं कि "जिसे अंत की फिक्र नहीं होती, वह कविता पूर्ण होती है."हमेशा के लिए अपूर्ण रह जाने की स्थिति को स्वीकार करने का मतलब है पागलपन की ओर रुख करना, क्योंकि इस स्थिति का समाधान उन्हें इस बात में लगता है कि "पागल दुखी नहीं होते. वे दुनिया के जंजाल से दूर होते हैं."इस दुनिया में पागल सुखी है क्योंकि वे कुछ एक शब्द या वाक्य को सदा दोहराते रह सकते हैं और उनका काम चल जाता है. इसलिये वे इस सूत्र वाक्य को सत्य के पर्याय की तरह  स्वीकार कर लेते हैं कि  "एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से द्वार खुलता है."नतीजतन बाहर की दुनिया में अपने लिए माकूल अभिव्यक्ति न पास रखने की वजह से वे अपने भीतर ही भीतर घुटकर अंतर्मुखी हो जाते हैं. इस तरह उनकी प्रतिभा उन्हें सत्य के करीब ले जाने की बजाय उस पागलपन में धकेल देती है, जहां शून्य से प्रकट होने वाले निर्वाण की वजह  एकांत  अराजकता का साम्राज्य है.  मैत्रेय कहता है: 
"मैं अपने पीछे शून्य नहीं एकांत छोड़ जाऊंगा."

     
उसे लगता है कि "एकांत प्रेम का प्रतिद्वंद्वी है."यह दोनों अगर बेकाबू हो जाएंतो  इन दोनों के भीतर से  पागलपन में  उतर जाने के लिए रास्ता खुल सकता है. अनुराधा प्रेम के भीतर रहती हुई पागलपन की ओर जा रही है तो मैत्रेय प्रेम से दूर भागता हुआ अपने एकांत के माध्यम से पागलपन की ओर रुख कर रहा है. .यह जो इस तरह का पागलपन में ले जाने वाला एकांत है, उसे वह"प्रत्यभिज्ञा का विकल्प"कहता है और इस तरह वह अपने निर्वाण को स्थगित रखने का एक बहाना पा लेता है.
     
'श्रीवन'को हम पागलपन के ऐसे विमर्श का उपन्यास कह सकते हैंजिसका अर्थ तब खुलता है जब हम उसे प्रकृति की सहज और नैसर्गिक सामान्य दशा के बरअक्स रख कर देखते हैं. यह ऐसा पागलपन है, जिस में एक खास तरह की सच्चाई है. उस सच्चाई को जीने लायक बनाने के लिए  इस उपन्यास के पात्र उसे अपनी सनक या जुनून की करीबी स्थिति बना लेते हैं. लेकिन इस प्रक्रिया में वे खुद समाज के हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं. इसलिए उन्हें ऐसे पागलपन की ओर उन्मुख पात्र कहा जा सकता है, जो विशिष्ट कोटि के पात्र है  परंतु अविशिष्ट होते हुए हमारे सामने आते हैं.  शहरी जीवन की विशिष्टता को खोकर वे प्रकृति और सत्य के करीब आने की कोशिश करते हैं. वे उन आम लोगों से अलग तरह के हैं जिन्हें सामान्य जीवन दशाओं के अंतर्विरोध सहन नहीं कर पाते. इस कोटि में बाबरी औरत आती है जो कभी ठाकुर परिवार की बड़ी बहू थी. 
     
ठाकुरों का सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा अहम् और निम्न तबकों के प्रति उनकी असहिष्णुता बाबरी के सामान्य मानव हो सकने के रास्ते में रुकावट बन जाती है. बड़े घर की  बड़ी बहू की एक सामान्य औरत जैसी भलमनसाहत  ही उसे पागलपन की ओर धकेल देती है. ऐसे लोगों के पागलपन को सामान्य कोटि का पागलपन कह सकते हैं.
     
इस तरह हम पागलपन की दो मनोवैज्ञानिक कोटियों को इस उपन्यास में देखते हैं. एक बावरी औरत जैसे पात्रों की कोटि है जो सामान्य जीवन जीने की कोशिश में असफल होने की वजह से असामान्य बना दिए जाते हैं, तो दूसरी अनुराधा, मैत्रेय और आशुतोष जैसे विशिष्ट होने का प्रयास करने वाले लोगों के आंशिक पागल होने की कोटि है, जो उत्तराधुनिक बौद्धिक दुनिया में अधिक नुमाया होकर सामने आने लगी है.
       
अपनी सामान्य किस्म की  माननीय नैतिकता की रक्षा न कर पाने की वजह से बाबरी, उस सामान्य नैतिकता की रक्षा करने वाले देवी देवताओं को डुबोने में लगी हुई कथा के आरंभ में ही दिखाई दे जाती है.  इस तरह वह इस उपन्यास में पहाड़ी देवी देवताओ  के विलोम के रूप में प्रस्तुत एक प्रति-देवी मालूम पड़ती है.
"उसे (मैत्रेय को) लगा, पागल औरत, गालियां और देवी देवता पर्यायवाची है.

परंतु देवी देवताओं को डुबोने की बात को एक अपराध मान कर इस बाबरी को लोगों के द्वारा पकड़ लिया जाता है. देवी देवता बरामद हो जाते हैं. उन्हें यथा स्थान वापस स्थापित कर दिया जाता है और उस पागल औरत की इतनी पिटाई की जाती है कि वह मरणासन्न स्थिति में पड़ी रह जाती है. उसकी उस स्थिति पर करुणार्द्र डाक बंगले का देखरेख करने वाला साहिब सिंह उसे डाक बंगले में उठा लाता है. उसका इलाज करने के लिए झोला उठाने वाला वही डॉक्टर आता है जो खुद भी हाशिए पर पङ़ा है. इलाज बाबरी का होता है, हालांकि असल में इलाज उनका होना चाहिए जिनकी बाबत लेखक ने कहा है कि
"पहाड़ी लोग भीत भीत छींक छींक देवी देवता जनते रहते हैं."
      
और इलाज उस डाक बंगले में रहने वाले मैत्रेय का भी होना चाहिए जो किताबों के प्रति अपनी सनक के कारण पागलपन के बहुत करीब आ गया प्रतीत होता है. वह हर समय किताबों में अपने आप को खोजता रहता है. वह जिंदगी से ज्यादा किताबों में सुकून पाता है. उसे हम इस कथा का मुख्य पात्र कह सकते हैं क्योंकि उसकी प्रेमिका अनुराधा उसे ही श्रीवन कहती है. उसने यह नाम उसे इसलिए दिया है क्योंकि जिस स्कूल में पढ़ाता था वहां के बच्चे उसे मिस्टर फॉरेस्ट कहते थे. मिस्टर फॉरेस्ट कहलाने के पीछे कारण यह था कि मैत्रेय ने वहां मौजूद पेड़ों के नाम बड़े-बड़े लेखकों के नाम पर रख छोड़े थे. इस तरह मैत्रेय प्रकृति पर किताबों को आरोपित करने वाले पात्र के रूप में हमारे सामने आता है. वह सीधे प्रकृति से रिश्ता नहीं बना पाता. उसकी पूरी जद्दोजहद ही इस सवाल का जवाब खोजने की है कि प्रकृति से उसे जोड़ने में किताबें और उनकी भाषा ही उसकी मदद क्यों करती है. इसलिए वह एक जगह जाकर यह महत्वपूर्ण सवाल भी उठाता है कि 'क्या वह पहाड़ को पहाड़ शब्द को बीच में लाए बिना देख सकता है या नहीं ?' 

'सावित्री को नदी की गहराई में बसने वाली स्त्री होना पड़ता है'

वह इतना अधिक भाषाग्रस्त व्यक्ति है कि हर जगह हर स्थिति को वह किताब के भीतर से देखना समझना और पहचानना चाहता है. उसने इस उपन्यास में बड़े-बड़े विषयों के ऊपर बड़ी-बड़ी बहसें की है, परंतु कहीं भी उसका अपना मत हमारे सामने नहीं आता. हर जगह वह बड़ी-बड़ी किताबों के बड़े-बड़े उद्धरण अपने विचार के रूप में प्रस्तुत करता है और फिर खुद ही उन विचारों को भी ले आता है जो पूर्वप्रस्तुत  विचारों का खंडन करते हैं. इसलिये वह पढ़ने पढ़ाने से ताल्लुक रखने वाली पाठशाला से इस्तीफा देकर 'पढ़े हुए से मुक्ति दिलाने वाली पाठशाला'खोजता है. 'इस तरह लेखक ने उसे खुद का खुद ही खंडन करने वाले किताबी पात्र के रूप में चित्रित किया है. यह पात्र लगता है जैसे वाल्ट व्हिटमैन की 'सॉन्ग ऑफ माइसेल्फ'की पहली पंक्ति से निकलकर हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है. वह पहली पंक्ति है, 'डू आई कंट्राडिक्ट मायसेल्फ'. 
     
यह बात अमेरिका में 19 वी सदी के आखिरी चरण में तब कहीं गई, जब औद्योगिक क्रांति के कारण प्रकट हुए  नगरीकरण का लाभ उठाने वाले लोग प्रकृति की बात करते हैं. जब वे ऐसा करते हैं तो दरअसल वे अपने विरोध में जाकर खड़े होने का प्रयास कर रहे होते हैं. जिसे हम 'मैं'कहते हैं वह सामाजिक विकास और प्रगति के विरोध में जाकर खड़ा हो गया  मालूम पड़ता है.  परंतु यह जो अंतर्विरोधपूर्ण व्यक्तित्व है, यह औद्योगिक समाज की उपज था. हमारे समाज में इस तरह के पात्र अब कोई अर्थ नहीं रखते. इसीलिए मैत्रेय नामक यह  पात्र  हमें समाज के हाशिए पर जाता हुआ दिखाई देता है. वह अपनी बात को ठीक से कह भी नहीं पा रहा है. उसके आसपास के सभी शुभचिंतक  उसे यही सलाह देते हैं कि यदि उसे अर्थ पूर्ण होना है तो उसे अपनी अनुभूतियों को लिखना होगा. परंतु वह जो कुछ भी लिखता है, अधूरा छूट जाता है. वह कहता भी है कि उसकी लिखी हर कहानी अधूरी रह जाने के लिए अभिशप्त है. इसीलिए यह उपन्यास भी इस पात्र की एक अधूरी रह जाने के लिए अभिशप्त कथा ही है. इस संदर्भ में उपन्यास का निम्न उद्धरण अर्थपूर्ण है:

"ब्रह्मांड परमाणु से नहीं, कहानियों से निर्मित है. मैं कहता हूं दोनों से नहीं, मुझसे भी नहीं, इसलिए मैं कोई कहानी नहीं लिख पाया ."

     
इस पात्र का नाम मैत्रेय है, जो गौतम बुद्ध का दूसरा नाम है. इसे हम इस पात्र के सांस्कृतिक आदर्शीकरण के लिए लाई गई युक्ति की तरह देख सकते हैं. कुछ अन्य पात्र उसकी तुलना बुद्ध से करते भी हैं. अनुराधा एक जगह उसे कहती है कि तुम 'बुद्ध इसलिए नहीं हो सकते क्योंकि तुम बुद्ध की तरह भिक्षा नहीं मांग सकते'. जिस समाज में बुद्ध हुए वहां अहंकार को नष्ट करने का रास्ता उन्हें भिक्षुक बन जाने के भीतर से निकलता दिखाई दिया था. परंतु हमारे समय में भिक्षा मांगना भी एक व्यवसाय में बदल गया है. बुद्ध का भिक्षुक होना एक राजपुरुष का भिक्षुक होना था, जो अहंकार से मुक्ति पाने का उपाय हो सकता था. जबकि हमारे समय में भिक्षुक होना अकर्मण्यता या अभाव ग्रस्तता से उपजी आत्मग्लानि से बच पाने की व्यवस्था अधिक हो जाता है. इसलिये हमारा समय अब किसी  भिक्षुक  को बुद्ध नहीं बनाता. वह मैत्रेय को भी बुद्ध नहीं बना पाता. नतीजतन वह अपने 'अव्यक्त'बने रह जाने की कुंठा या ग्रंथि का शिकार पात्र बनकर रह जाता है. अपनी इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक जगह वह यह सवाल उठाता है कि :
"क्या हम अव्यक्त की खुलती गांठ है, जो खुलते ही नहीं रह जाएगी?"

      
यह मैत्रेय की त्रासद नियति है कि वह अपनी किताबों की दुनिया में खोया खोया अक्सर अव्यावहारिक किस्म के प्रतिरोध तक चला जाता है. इस वजह से एक दफा वह पुलिस की तफ्तीश का सामना कर चुका है. दूसरी दफा वह फिर से उस बावरी औरत के साथ की गयी लोगों की मारपीट के खिलाफ पुलिस में रपट कराना चाहता है, परंतु वे लोग जो बाबरी औरत का इलाज करने में रुचि रखते हैं, वे भी उसके पक्ष में खड़े होकर पुलिस तक जाने की बात से सहमत नहीं हो पाते. वे जानते हैं कि बाबरी औरत को कानूनी न्याय दिला देने की स्थिति में भी सामाजिक न्याय मिलने की कोई सूरत बाकी नहीं बची है. ऐसी स्थिति में मैत्रेय इतना ही कह पाता है कि उसका किताबों से भरा झोला ही एकमात्र ऐसी चीज है जो उसका अपना है, उसके अपने व्यक्तित्व का पर्याय, 'जो कंधा नहीं बदल सकता'. इसका मतलब यह भी है कि उस जैसा और कोई व्यक्ति नहीं हो सकता. यह एक खास तरह का व्यक्तित्व मूलक अहंकार है. इस अव्यक्त किस्म के अहंकार की पुष्टि करने के लिए वह यह कहता है कि अगर वह किसी दिन खो  जाए या मर जाए, तो उसके 'झोले को पहाड़ी प्रदेश के सबसे ऊंचे देवदार की सबसे ऊंची टहनी पर टांग दिया जाए'. यह जो मरने पर भी ऊंचा उठे रहने से जुड़ी इच्छा है. वह बात उसके अधूरे और पर्याप्त होने  के आख्यान  को अचानक हमारे सामने बेनकाब करके छोड़ जाती है. 
     
ऐसे में हमारे पास इस पूरी कथा में सिवाएं उस बाबरी औरत की कथा के और कुछ भी बचा हुआ दिखाई नहीं देता. बाबरी ठाकुर परिवार की बड़ी बहू के रूप में संघर्षशील महिला के रूप में हमारे सामने आती है. उसके पिता एक मंदिर में जाकर इसलिए वापस चले आते हैं क्योंकि वहां चमड़े के जूते या बेल्ट पहनकर जाने की मनाही है. वे सवाल उठाते हैं कि वे अपनी देह के चमड़े को बाहर छोड़कर भीतर कैसे जा सकते हैं ? प्रतिरोध की यह चेतना उसके व्यक्तित्व में उसे वंश गत संस्कारों से आयी है. परंतु ठाकुर परिवारों के दंभ और अहंकार पूर्ण माहौल में आखिरकार वह अपने लिए जगह निकालने के बावजूद खुद को हाशिए पर पाती है. जो जगह वह निकालती है वह यह है कि वह निम्न जाति के लोगों के प्रति थोड़ा सद्भावना पूर्ण व्यवहार करती है. यह बात ठाकुरों को अखर जाती है और वे उसे अपने घर से निकाल कर मायके भेज देते हैं. उसका पति पहले से ही एक नाचने गाने वाली औरत को सरेआम घर ले आया है और उसी के साथ रहता है. मायके भेज दी गई यह स्त्री रास्ते में नदी के उफान पर आने की वजह से एक निम्न जाति के घर में पनाह लेती हैं, जिसे उसका चारित्रिक दोष मान लिया जाता है. कुछ दिन बाद उस निम्नजाति के पात्र की हत्या हो जाती है. वह अपने मायके की ओर जाती है तो मायके वाले भी उसे अपने घर में वापस लेने से किसी तरह मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे हृदय विदारक हालात का सामना कर पाने में खुद को असमर्थ पाने की वजह से आखिरकार वह पागल हो जाती है. जिस तरह का निष्पाप और समर्पित जीवन इस बड़ी बहू ने जिया होता है, उसकी वजह से उसका खुद को सावित्री समझना उचित ही है. परंतु हालात ऐसे हो गए हैं कि उस 'सावित्री को नदी की गहराई में बसने वाली स्त्री होना पड़ता है'.  वह सतह को देखने वाले समाज से परे अपने अचेतन मन की नदी  की गहराई में चली जाती है. बाबरी का यह अचेतन, अब इस समाज की सतही नैतिकता और उसके पर्याय देवी-देवताओं से बदला चुका रहा है. वह उसे उसके देवी देवताओं के साथ जीने देने के लिए राजी नहीं है. इसलिए वह जैसे ही फिर से ठीक होती है, इस उपन्यास के अंत में पुवः  एक बोरी में उस पहाड़ी इलाके के तमाम देवी-देवताओं को भर लाती हैं और भरी हुई नदी में  उन्हें विसर्जित करने में सफल हो जाती है.
     
पहाड़ी इलाके के देवी देवताओं को नदी में फेंक देने का अर्थ यह है कि ऐसा करके बावरी सामाजिक अंतर्विरोधों और सांस्कृतिक पाखंडों को नदी में विसर्जित प्रवाहित कर देती हैं. 
     
मैत्रेय इस बावरी औरत के साथ हुए अन्याय के खिलाफ रपट लिखाने के लिए जाता है परंतु लौटकर नहीं आता. उसका कहीं कोई पता नहीं चलता. उस से ताल्लुक रखने वाला अगर कुछ मिलता है तो वह  एक मफलर है, जिस पर लहू के कुछ निशान हैं. आखिरकार उसे मरा हुआ मानकर उसके झोले को देवदार की ऊंची टहनी पर टांग दिया जाता है. वह प्रकृति को सबसे ऊंचा मानने से जुड़ा एक मृत्यु ध्वज है. मैत्रेय केवल एक प्रतीक है जिसे प्रकृति के सबसे ऊंचे स्थान पर एक पताका के रूप में फहराना चाहिए, परंतु उसके पास एक आकाश तो है पर कोई जमीन नहीं है. क्योंकि उसके पास कोई जमीन नहीं है, तो इसका तात्पर्य यह है कि अभी हमारा समाज प्रकृति को इस प्रकार इस रूप में इतनी ऊंची जगह देने के लिए तैयार नहीं है. यह उपन्यास इस बड़े विमर्श के लिए एक भूमिका बनाता है. यह बात बहुत अर्थ पूर्ण ही नहीं भविष्य के लिए संभावनाओं से युक्त भी मानी जा सकती है.
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संपर्क: ए 563 पालम विहार, गुरु ग्राम 122 017

कथा - गाथा : पहला ही आख़िरी है : आदित्य शुक्ल

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पहला ही आख़िरी है                                     
आदित्य शुक्ल




मैंजिस कहानी को महीनों से लिखने की कोशिश कर रहा था उसके सन्दर्भ में मेरे साथ आज एक अज़ीब घटना हुई. सुबह मैं जब सोकर उठा तो मैंने देखा वो कहानी ख़ुद ब ख़ुद लिख गयी है, न सिर्फ़ लिख गयी है बल्कि उस वेबसाइट पर छप भी गयी है जिसपर छपने के लिए भेजने की मैं योजना बना रहा था- नहीं मैं किसी सपने की बात नहीं कर रहा - ऐसा सच में आज हुआ है और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आप ये पंक्तियाँ कैसे पढ़ रहे होते?

वैसे इस कहानी की सबसे अज़ीब बात ये है कि इसे कहीं से भी शुरू करके कहीं भी ख़त्म किया जा सकता है. यह कहानी इस दुनिया की नियति जितनी अनिश्चित है. क्या अभी भी लोग ऐसी कहानियां लिखते हैं जिनमें दुनिया की समस्याओं पर चिंता जताई गयी हो? छोटे और गरीब देशों में तो आये दिन धरने प्रदर्शन होते रहते हैं– कुछ लोगों ने यह संभावना भी ज़ाहिर की है चिली के लोग नव-उदारवाद को ख़त्म करने पर तुल गए हैं. पर यहाँ, क्या लोगों को वाकई चिंतित होते हैं?ऐसा सोचकर मुझे थोड़ी देर के लिए ख़ुशी होती है. ख़ैर आपको इतना बताऊंगा कि मुझे इस कहानी के पन्नों को तह करके अपने डेस्क पर रखकर इसे देर तक निहारना पसंद है. जैसे आपके सामने बैठी हो आपकी प्रियतमा. मेरी प्रियतमा मेरी आंखों के सामने बहुत दिन से नहीं आयी है. या यूं भी कह लें कि अब मेरी कोई प्रियतमा नहीं है. कुछ दिन पहले मैंने होने से नहीं होने में उतर गयी उस स्त्री को फोन करके कहा- कुछ पल के लिए तुम थी, बाकी के लिए तुम नहीं हो, तुम्हारे होने न-होने में मेरा सारा समय खप गया.

उसने कोई उत्तर नहीं दिया. फ़ोन के दूसरे छोर पर एक घुप्प ख़ामोशी. फ़िर उसने कई दिन तक मुझसे कोई बात नहीं की. एक दोस्त ने यह बताया कि मैंने फ़ोन पर उससे जो बात कही थी उससे मिलती जुलती बात बोर्हेस ने भी लिखी है. मैंने उसकी बात को टाल तो दिया पर भूला नहीं.

कई दिन बाद उसने मुझे फ़ोन किया और कहा कि वो मुझसे कुछ बताना चाहती है.


'कुछ बहुत अपशगुन जैसा हो गया है. हलांकि मैं ये सब में विश्वास तो नहीं करती नहीं फ़िर भी जब कुछ बुरा होता है तो पल भर के लिए यह एहसास आपके मन में आता जरूर है. उस दिन बाबा से मेरा झगड़ा हुआ. मैं घूमते-घूमते कब्रिस्तान चली गयी. दिन भर एक अजनबी की कब्र से पीठ सटाकर बैठी रही और एक के बाद एक सिगरेट फूंके. मेरा मन हुआ मैं कब्रिस्तान में किसी के साथ सेक्स करूं. सूखे पत्तों और मिटीयारी घास पर लेटकर. तुम्हारे साथ नहीं किसी और के साथ. तुम्हारे अलावे किसी भी और के साथ. बुरा मत मानना - मेरे मन में ऐसा, ठीक ऐसा ही ख्याल आया था. और फ़िर मैंने बाबा को जी भरकर कोसा. उन्हें गालियाँ दीं. मेरा मन हुआ उनकी आंखों के सामने जाकर सिगरेट पीऊं, शराब पीऊं और नाचूं झूमूं. जितना हो सके उतना उनका दिल जलाऊं. मैंने कब्रिस्तान में चीखकर कहा – मर जाओ बाबा! शाम को जब मैं घर लौटी बाबा नहीं रहे. वे चल बसे थे. बस वह एक अज़ीब दिन था.'

यह अपराध-बोध मुझसे उठाया नहीं जाता.

अपराध-बोध?  कौन कम्बख़्त इस दुनिया में कोई बोझ उठाना चाहता है. पहाड़ियों पर ठहरते अंधेरे में देखा है पुल पर गुजरते हुए दो-पहिया वाहनों को? अंधेरे को चीरकर प्रकाश-पुंज बनाते उनके पीले हेडलाइट देखें हैं कभी आपने? पुल पर बोझ बनकर ही आदमी इस दुनिया से उस दुनिया में प्रवेश कर पा रहा है...
                            
                       
महीनों से मैं जिस कहानी की तलाश में था वह मुझे एक कचरे के डब्बे में पड़ी मिली और पहली नज़र में मैंने उसे ऐसे ही नज़रअंदाज किया जैसे कोई व्यक्ति अपने प्रियजनों को करता है - जिनके प्यार की निश्चितता होती है - कैसे, कितनी बेरहमी से हम उसे नज़रअंदाज कर देते हैं. ख़ोज तो मैं कुछ और रहा था और मेरे हाथ लगी यह कहानी.

सर्दी के उस दिन जब मैं घर से लौटकर वापस शहर आया- शहर हॉलीवुड के किसी डिस्टोपियन शहर जैसा दिखने लगा था. हर ओर धुँआ ही धुँआ. लोग बताते थे कि इस वातावरण में साँस लेना चालीस सिगरेट पीने जैसा था. लोग मास्क पहनकर चलते थे. जो लोग मास्क पहनकर नहीं चलते थे वे उन लोगों पर हँसते थे जो मास्क पहनकर चलते थे. असल में सरकार को मास्क पहनने वालों को मास्क पहनने की और मास्क नहीं पहनने वालों को मास्क पहनने वालों पर नहीं हँसने की ट्रेनिंग देनी चाहिए. जिन्हें अपने जान की बहुत परवाह थी वे हाय-तौबा मचाए हुए थे. हलांकि मुझे भी अपने जान की परवाह थी पर एक पल भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं मर रहा होऊं. मेरा जीवन जस का तस नीरस चल रहा था. अपने बाबा की मौत के बाद विनीता ने मुझसे तीन चार बार बात की थी, एक आध बार फोन सेक्स और फिर अचानक एक दिन वह कहाँ गायब हो गयी मुझे पता नहीं चला – कोई सम्पर्क नहीं. मेरा मन हुआ मैं उसे ढूंढता; मगर मैंने अब अपने मन की सुननी बंद कर दी है और चुप रहने की कोशिश करता हूँ हलांकि चुप्पी मुझसे सधती नहीं.

जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार कहते-कहते मेरी ज़ुबान थक गयी है. उनके तो कान पर कोई जूं नहीं रेंगता ऊपर से बकबक करने के जुर्म में मुझे कब पुलिस उठाकर ले जाए इसका कोई अता-पता नहीं. मेरे दिमाग़ में चल रहे विचारों के लिए कब मुझे पुलिस उठा ले जाए, कह नहीं सकते. और उधर, आधा से ज्यादा शहर नींद की गोलियां लेकर सोया हुआ है. अगले दिन अधिक से अधिक वह उठकर अपने दफ्तर के काम-काज निपटाएगा और पूरे दिन घर लौटकर खाने, सेक्स करने और सोने के सपने देखेगा. अगर कूपमण्डूक होगा तो यह भी सोचेगा कि गलती से कंडोम का पैकेट पूजा के कमरे में न रख जाए, मंगलवार के दिन गलती से सेक्स न हो जाए.

रेलवे स्टेशन से जब मैं अपने अपार्टमेंट के दरवाज़े पर पहुँचने ही वाला था मुझे ख्याल आया कि दरवाज़े खुले छोड़कर कमरे के अंदर बैठने पर ऐसा लगता है मानो कमरे के बर्तन में से धीरे-धीरे जगह रिसने लगा हो और कहीं रिसते-रिसते एक दिन यहां जगह कम न पड़ जाए! फिर ताले में चाभी घुमाते मैंने इस उम्मीद से दरवाज़ा खोला कि शायद मैं कमरे में अंदर ख़ुद को पा सकूं. फिर यह छोटा-सा विश्व मेरी तरफ शोर की तरह खुलता है जिसके अंतर्जगत में अपनी लिए थोड़ी सी चुप की जगह बना लेता हूँ. मैं एक अधूरे वाक्य के रिक्त-स्थान की जगह का भुला दिया गया हुआ एक शब्द हूँ और जाने कबसे मैं अपना पीछा कर रहा हूँ. दरवाज़े के ताले में चाभी घुमाते मैं ऐसे ही व्यर्थ की काव्यात्मक पंक्तियों के बारे में सोच रहा था.

अँधेरे कमरे में जब मैंने अपनी परछाई को जैकेट उतरकर हैंगर में लगाते देखा तो ऐसा लगा मानो कंधे से कोई लाश उतार रहा हो.
घर में दरवाज़े की नीचे से किसी ने एक लिफाफा सरका दिया था. उसे खोलकर देखा तो यह विनीता का ख़त था.


प्रिय आदित्य,

‘मुझे लगता है मैं राष्कलनिकोव* जैसा महसूस कर रही हूँ - जैसा वह दो हत्याएं करके महसूस करने लगा था. जिस बुखार, शर्म और प्रायश्चित से वह भर गया था मैं भी वैसा ही महसूस करती हूँ. जी में आता है आत्महत्या कर लूं तो शायद इस पीड़ा, बुखार और शर्म से मुक्ति मिले परन्तु ऐसी मनोवस्था में अपने बिचारे परिजनों का चेहरा आंखों के सामने तिर जाता है. अपने पिता का गरीब आशियाना, उनकी पसीने की कमाई का एक-एक पैसा जो मेरे जीवन निर्माण में खर्च हो रहा है उसकी बिना पर मैं और शर्मसार हो जाती हूँ और मेरे सामने इस पीड़ित जीवन को जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. मैं लगातार अपने आप से और न जाने किन-किन ताकतों से लड़ रही हूँ यह मुझे भी नहीं पता और अंततः मुझे यह भी कभी नहीं पता रहा कि मैं अपने बचकानेपन में अपने और दूसरों के लिए ऐसी पीड़ाजनक स्थितियां बना दूँगी, जैसी फिलहाल मेरी ज़िन्दगी और मेरी जिंदगी से जुड़े हुए लोगों के लिए खड़ी कर दीं हैं. मेरे हाथ कांप रहे हैं और मुझे खुद भी नहीं पता मैं क्या लिख रही हूँ. मेरे लिखे हुए अधिकतर शब्द गलत टाइप हो जाते हैं और मैं मैं को मैम लिख दे रही हूँ. लिख को लिखख लिख दे रही हूँ. ऐसी अचेतना का कभी शिकार नहीं हुई. बुखार में मैंने कुछ दवाइयां ले लीं थीं और उनका मुझपर न जाने क्या असर होने वाला है. याद है तुम्हें, अक्सर कहते थे कि कभी बैठकर दास्तोयेवस्की पर बातें करेंगे और संयोग देखो कि उसका जिक्र करने के लिए मैंने कैसी स्थिति का चयन किया है?मुझे तुम्हारी याद आती है लेकिन अब हम दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं. बाबा के जाने के बाद मेरा जीवन एकदम बदल गया है. मेरे कुछ कपड़े और किताबें तुम्हारे पास हैं जिन्हें कभी मौका मिलने पर तुमसे ले लूंगी. फ़िलहाल के लिए माफ़ करना. और मेरे लिए एक बार मेरा पसंदीदा वाक्य एक बार जरूर बुदबुदाना, मं कल्पना करके खुश हो लूंगी – ‘बेबी इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?’

एक बार उसने मुझसे कहा था कि हम जिनती बार सेक्स करते हैं उतनी बार बच्चे पैदा हों तो कितना अच्छा लगता न – घर में चारों ओर प्यारे-प्यारे बच्चे होते! मैंने ठहरकर कहा – ‘बेबी, इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?

तबसे यह वाक्य उसका पसंदीदा बन गया था जिसे वह बार-बार मुझसे बुलवाती.
फिर मैंने बुदबुदाकर कहा – ‘बेबी, इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?’  

फ़िर मैंने उसे कई ख़त लिखे जिन्हें मैंने बाद में फाड़कर फेंक दिया. मैं यह कहना पसंद करता हूँ कि मैंने उसे प्रेम किया था लेकिन प्रेम की इतनी परिभाषाएं पढ़ने को मिलती हैं कि मैं अब निश्चित नहीं प्रेम के बारे में. मैं अक्सर उसके बारे में सोचता हूँ और अगर कई दिन उसे सोचे बगैर गुजर जाते तो वह खुद ब खुद मेरे सपने में आ जाती है.

और ऐसा लगता है मानो जीवन एक बहुत लम्बा लापरवाही का दिन हो और पहला शुरू ही आखिरी समाप्त हो. जैसे कहानी ना हो सच हो और सच ना हों कहानी हों...
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shuklaaditya48@gmail.com

आख्यान-प्रतिआख्यान (१):अग्निलीक(हृषीकेश सुलभ):राकेश बिहारी

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यूरोप में राष्ट्र राज्य-और उपन्यासों का उदय साथ-साथ हुआ, लोकतंत्रात्मक समाज  की ही तरह उपन्यासों में भी तरह-तरह के पात्र आपस में भिन्न विचारों के साथ संवादरत रहते हैं. भारत जैसे देशों में उपन्यास उपनिवेश का प्रतिपक्ष बना.

लाला श्रीनिवास दास रचित ‘परीक्षा गुरु’ १८८२ में प्रकाशित हुआ था, ‘हिंदी में अंग्रेजी ढंग के इस पहले उपन्यास’ से आख्यान की जो यात्रा प्रारम्भ हुई थी वह अब नई सदी में प्रवेश कर चुकी है. भारतीय और हिंदी उपन्यासों ने इस बीच बनते हुये भारत की आंतरिक विसंगतियों, सुप्त और लुप्त अस्मिताओं, अनुपस्थित स्त्री की उपस्थिति और भारतीयता की खोज़ में अपने को विन्यस्त किया.

नई सदी के हिंदी उपन्यास उत्तर-आधुनिकता,जादुई यथार्थवाद, उत्तर-सत्य, उत्तर-लोकतंत्र, नुकीली होती अस्मिताओं, बर्बर साम्प्रदायिकता, स्मृतिहीनता और डर के बीच अपना आकार ले रहें हैं, उन्हें रच रहें हैं और अब सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में सामने खड़े हैं.

आलोचक राकेश बिहारी का नई सदी की हिंदी कहानियों का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ आधार प्रकाशन से छप कर आ गया है. इसके प्रकाशक देश निर्मोही के अनुसार इसे किसी उपन्यास की तरह लोकप्रियता मिल रही है.

राकेश बिहारी का नया स्तम्भ ‘आख्यान-प्रतिआख्यान’ हृषीकेश सुलभ के  उपन्यासअग्निलीक से आरम्भ हो रहा है. इस स्तम्भ में वह नई सदी के महत्वपूर्ण उपन्यासों पर अपना आकलन प्रस्तुत करेंगे.

आज बसंत पंचमी है, इस अवसर पर इससे बेहतर और क्या किया जा सकता है.


आख्यान-प्रतिआख्यान (१)
अग्निलीक पर चलने की मुश्किलें                                    
(संदर्भ: हृषीकेश सुलभ का उपन्यासअग्निलीक’)

राकेश बिहारी



मैला आँचलके प्रथम संस्करण की भूमिका में पूर्णिया को उपन्यास का कथानक बताते हुये रेणु कहते हैं- इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी हैं, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया. कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा, जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता.” 

मैला आँचलके प्रकाशन के ठीक 65 वर्षों बाद प्रकाशित समर्थ और वरिष्ठ कथाकार हृषीकेश सुलभ के पहले उपन्यासअग्निलीकपर बात करते हुयेमैला आँचलकी भूमिका के उपर्युक्त अंश की याद आने का कारण सिर्फ इतना नहीं है कि इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के आवरण पर प्रकाशित प्रकाशकीय प्रस्तावना में यह कहा गया है कि

यह कथा फणीश्वरनाथ रेणु की कथा-भूमि की याद दिलाती है. रेणु ने कोसी तट के आसपास बसे गावों को अपना कथा-विषय चुना था, सुलभ जी ने अपने इस पहले उपन्यास में घाघरा नदी के किनारे बसे गावों की कथा कही है.

मैला आँचलका  प्रकाशन महज एक उपन्यास का छपना नहीं था बल्कि हिन्दी उपन्यास के इतिहास में यह एक ऐसी परिघटना थी, जिसनेदेहाती दुनिया’ (शिवपूजन सहाय) से शुरू हुई आंचलिक उपन्यासों की परंपरा को एक ऐसी ठोस रचनात्मक दिशा दी  जिसमें आजआधा गाँव’ (राही मासूम रज़ा), ‘डूब’ (वीरेंद्र जैन), ‘इदन्नममऔरचाक’ (मैत्रेयी पुष्पा) जैसे उपन्यासों की मजबूत कड़ियाँ मौजूद हैं.  उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है, पर गौर किया जाना चाहिए कि इन उपन्यासों में महाकाव्यों की तरह किसी चरित्र विशेष को नायकत्व नहीं प्राप्त है, बल्किकथा-भूमिऔरकथा-समयखुद ही यहाँ नायक की तरह कथा के केंद्र में विन्यस्त हैं. पात्र के बजाय स्थान और समय को नायकत्व प्रदान करने की इसी विशेषता के कारणअग्निलीकको हिन्दी उपन्यास की इस समृद्ध परंपरा की अद्यतन कड़ी के रूप में शामिल होने का हक और हुकूक स्वतः ही हासिल हो जाता है. यहाँ यह भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है कि किसी अंचल विशेष की भाषा, लोक-व्यवहार, आचार-संस्कार, रीति-रिवाज आदि की मुखर अभिव्यक्ति के कारण इन्हें आंचलिक उपन्यास भले कहा जाता है, पर इन उपन्यासों में व्यक्त चिंताएँ संदर्भित अंचल के कूल-कछारों का अतिक्रमण कर मनुष्य और मनुष्यता की वृहत्तर सीमाओं में घुलमिल जाती हैं.

कहने की जरूरत नहीं कि संज्ञा (मनुष्य) से विशेषण (मनुष्यता) बनने की इस प्रक्रिया में व्याकरण के नियमों से ज्यादा जल, जंगल और जमीन जैसी अन्यान्य मनुष्येतर संज्ञाओं से जुड़े प्रश्नों और चिंताओं की बड़ी भूमिका होती है है. यहाँ जिन उपन्यासों का संदर्भ आया है, उनमें भले किसी पात्र या चरित्र को उक्त उपन्यासों का नायकत्व हासिल नहीं हो, पर उपन्यास के कथानक का अतिक्रमण करते हुये अपनी स्वतंत्र पहचान अर्जित करने का उनका सामर्थ्य और संदर्भित कथा-भूमि तथा कथा-समय के सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों से टकराने का दृष्टिपूर्ण साहस ही इनके आंचलिक संदर्भों कोग्लोबलमहत्व और स्वीकृति प्रदान करता है. इस आलेख की शुरुआत में उद्धृतमैला आँचलकी भूमिका मेंमैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पायावाले हिस्से को इस संदर्भ में इसलिए भी रेखांकित किया जाना चाहिए किअग्निलीककी सामर्थ्य और सीमा को परखने के लिए यह एक जरूरी उपकरण साबित हो सकता है. 

अग्निलीक’, जिसे मैंने यहाँ आंचलिक उपन्यासों की परंपरा की अद्यतन कड़ी कहा है, का कथानक एक ऐसे यथार्थवादी धरातल पर विकसित होता है, जिसमें समकालीन राजनैतिक संदर्भों के आलोचनात्मक विश्लेषण की अपार संभावनाएं सन्निहित हैं. चार पीढ़ियों के विस्तृत कालखंड को समेटने का दुष्कर कार्य करने वाले इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण और जरूरी हिस्सा जिस कालखंड में घटित होता है, वह न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे भारत की राजनीति की दशा-दिशा बदलने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और  आर्थिक बदलावों का गवाह है, जिसेमण्डल’, ‘मंदिरऔरउदारीकरणके तीन सुविधाजनक पदों की पृष्ठभूमि में चीन्हा-समझा जा सकता है. इसी समयावधि में जातिवादी बर्चस्व की ऐंठ से भरे सामंतवाद को दलितों-पिछड़ों की राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध ने न सिर्फ चुनौती दी बल्कि उनके समानान्तर अपनी एक नई दुनिया का निर्माण भी किया. यहाँ इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि इन सामाजिक-राजनैतिक बदलावों की दिशा सर्वथा सकारात्मक ही नहीं रही और ना ही सामंतवाद पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. बल्कि इसी कालखंड में दलितों-पिछड़ों के कंधे पर सवारी कर अपना बर्चस्व कायम करने वाला एक नवसामंती तबका भी आ खड़ा हुआ और पुराने सामंतों ने अपनी खोई हुई सत्ता को वापस हासिल करने के लिए चालाकियों के नए परिधान भी धारण किए. यह सुखद है कि सामाजिक-राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों और पुराने सामंतों के खुरचनी अवशेषों की नई धूर्तताओं को रोशनी में लाने का काम यह उपन्यास बखूबी करता है.

हाशिये पर बसर कर रहे समाज की नवचेतना और नवसामंतों के उदय की अभिसंधि पर उगने वाले अंतर्विरोधों की पहचान हृषीकेश सुलभ की बहुचर्चित कहानीपांडे का पयानमें भी बहुत बारीकी से हुई है. पर यहाँ इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध की अंतर्दृष्टि से सम्पन्न जातीय संघर्षों-विमर्शों के महत्व को बिना रेखांकित किए सिर्फ उनके अंतर्विरोधों की चर्चा से इस विमर्श के परिप्रेक्ष्य को उसकी संपूर्णता में नहीं परखा जा सकता. कहानी के सीमित कलेवर में तो एक बार यह न भी खटके, पर इतने बड़े समयान्तराल की कथा कहने वाले उपन्यास से यह मांग जरूरी और जायज है. गौरतलब है किअग्निलीकजिस मुखरता से सामाजिक राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों को रेखांकित करता है, उतनी ही आसानी और सहजता से उसकी पृष्ठभूमि में अनिवार्यतः उपस्थित जातीय अस्मिताबोध से उत्पन्न टकराहटों और उसकी आड़ में जड़ जमाने वाले नवसामंतों की कारगुजारियों दोनों ही की लगभग अनदेखी कर जाता है या उससे बच निकलता है. जबकि उपन्यास की कथा-भूमि सीवान के आसपास का इलाका न सिर्फ इन नई सामाजिक-राजनैतिक परिघटनाओं का बड़ा गवाह रहा है, बल्कि सत्ता के शह पर राजनीति और अपराध का भयानक गठजोड़ जिस दबंगई से यहाँ फलता-फूलता रहा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है. इस पूरे प्रकरण पर उपन्यास की नज़र किस तरह पड़ती है उसे सीधे उपन्यास की जुबानी ही सुना जाना चाहिए- 

सीवान एक छोटा-सा कस्बाई शहर था, सत्ता पोषित एक दुर्दांत अपराधी के आतंक की छाया में यह शहर लंबे समय तक जैसे-तैसे सांस लेकर जीता रहा था.” 

लंबे समयका यह त्रासद प्रकरण, जिसने इस पूरे इलाके के वजूद को सिहराए रखा हो, को उसके सामाजिक प्रभावों की गहराइयों में बिना उतरे महज इन दो वाक्यों में समेट कर यह उपन्यास जिस तरह आगे बढ़ जाता है, वह इसके सुदीर्घ कालखंड और कथानक के स्वाभाविक राजनैतिक गुण-सूत्रों के मद्देनजर इस उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत के रूप में पेश आता है. हालांकि पटना और सीवान के दो राजनैतिक परिवारों के बीच की नातेदारी और देवली गांव के पंचायत चुनावों में मुस्लिम और यादव समुदाय के राजनीतिक समीकरणों की तरफ एक हल्का-सा इशारा उपन्यास जरूर करता है, पर वह इतना हल्का है जिसमेंबच निकलनेकी अनुगूंजें बहुत आसानी से सुनी-समझी जा सकती हैं. समकालीन राजनीति के उस बीहड़ में बिना धँसे संदर्भित जनपद के राजनैतिक-सामाजिक बदलावों को रेखांकित करने की रूमानी रचना-प्रविधि ने उपन्यास को कथानक की उन गहराइयों तक नहीं पहुँचने दिया है जिसकी जड़ें 1857 के सिपाही विद्रोह से लेकर बिहार में 2016 में लागू हुई शराबबंदी तक फैली हुई हैं.     

अग्निलीकके आरंभ और अंत दोनों छोरों पर दो हत्याएं घटित होती हैं- शुरुआत में शमशेर साँई नामक एक राजनैतिक कार्यकर्ता की हत्या और आखिर में मनोहर रजक नामक एक दलित छात्र की हत्या जो रसूखदार मुखिया लीलाधार यादव की पोती रेवती से प्रेम करता था. इन दोनों हत्याओं के बीच उपन्यास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कई और हत्याएं भी होती हैं, जिनके पीछे प्रेम और राजनीति ही हैं. राजनीति और संस्कृति के बीच एक अनोन्याश्रयी संबंध भी होता है. कभी सांस्कृतिक बदलाव राजनैतिक बदलावों के कारण बनते हैं तो कभी राजनैतिक चेतना सांस्कृतिक परिवर्तनों की वाहिका बनती है. प्रेम, जो सामान्यतया ऊपर से एक नैसर्गिक अभिक्रिया या स्वतःस्फूर्त रूहानी संयोग की तरह घटित होता दिखाई पड़ता है, अपने समय की राजनैतिक-सामाजिक हलचलों से निरपेक्ष नहीं हो सकता बल्कि उससे गहरे प्रभावित होता है. गौरतलब है कि यथार्थ के सख्त धरातल पर खड़े राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक से निर्मित यह उपन्यास लगभग आद्योपांत अलग-अलग पीढ़ी के उत्कट प्रेम-प्रसंगों से सिंचित है. उपन्यासकार के शब्दों में ही कहें तो इस पूरे उपन्यास मेंप्रेम की लरज़ती-काँपती छायाएंमौजूद हैं. हत्या और प्रेम की बहुतायत को देखते हुये हो सकता है कुछ लोगअग्निलीकको हत्या और प्रेम का उपन्यास ही कह-समझ बैठें, पर मूल्य निर्णय की ऐसी जल्दबाजियां इस उपन्यास के साथ न्याय नहीं कर सकती हैं. 

प्रेम के प्राकृतिक पक्ष, उसकी दैहिक स्वाभाविकताओं और प्रेम-प्रसंगों में अमूमन घटित होने वाली वंचनाओं को यह उपन्यास जिस चाक्षुस और स्पर्शी प्रभावोत्पादकता के साथ दर्ज करता है, वह इसके महत्वपूर्ण हासिलों में से एक है. उपन्यास में वर्णित प्रेम-प्रसंग और उनकी नियतियाँ कई जगह पाठकों को नम करते हुये उनके भीतर करुणा उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखती हैं. प्रेम की स्वाभाविक अनुभूतियों को पूरे कलात्मक वैभव के साथ पाठकमन पर उकेरने के लिए निश्चय ही हृषीकेश सुलभ बधाई के पात्र हैं. बहुत संभव है मुझ सहित कुछ लोगों (पढ़ें, लेखकों) के लिए उनकी यह उपलब्धि एक खास तरह की ईर्ष्या और स्पर्धा का कारण भी हो. पर इस संदर्भ में मेरी चिंताएँ यहाँ दूसरी हैं, दुहरी भी.  भारतीय समाज की अंतःसंरचना में अनिवार्यतः उपस्थित जाति, वर्ग और संस्कृति की आचार संहिताओं  से पोषित टकराहटों का तनाव प्रेम की नैसर्गिकता को जिस तरह नियंत्रित और संचालित करता है, क्या उसका मुकम्मल चेहरा इस उपन्यास में मौजूद है? यदि नहीं, तो क्यों और यदि हाँ, तो यह उपन्यास उन आचार संहिताओं की सुविधाजनक चौहद्दियों का कितना और किस तरह अतिक्रमण करता है? प्रेम की सामाजिक नाकेबंदी और उसके अतिक्रमण को लेकर मेरे भीतर उठ रहे ये प्रश्न सिर्फ मेरे नहीं हैं. 

इसे बहुत पहलेअलग-अलग वैतरणी’ (शिव प्रसाद सिंह) के सरूप भगत ज्यादा स्पष्ट और मुखर भाषा में पूछ चुके हैं-“’परेमकोई बुरी चीज नहीं. मगर ई कैसा परेम भाई! आज तक किसी राजपूत-बामन लड़की के साथ चमार दुसाध का परेम काहे नहीं हुआ?”तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद आज जब इस प्रश्न के सकारात्मक उत्तर सहज ही हमारे समाज में दिखने लगे हैं, ‘अग्निलीकसे गुजरते हुये सरूप भगत का यह प्रश्न यदि लगभग अनुत्तरित ही रह जाता है तो इसके कारणों को भी कहीं न कहीं उसबच निकलनेकी लेखकीय नियति में तलाशा जा सकता है. इस बात पर भी गौर किए जाने की जरूरत है कि नन्हें मियां और नबीहा के सफल किन्तु अति संक्षिप्त प्रेम-प्रसंग के अपवाद को छोड़ दें तो उपन्यास में आए लगभग सभी प्रेम चाहे वह यशोदा और लीला साह का हो या रामझरी और अकलू यादव का, कुंती और मास्टर मुचकुंद शर्मा का हो या फिर रेवती और मनोहर रजक का, सबके सब असफल हैं. इनमें से एकाधिक स्थितियों में प्रेमी की हत्या भी हो जाती है. प्रेम में असफलता या हत्या कोई नई या अकल्पनीय स्थितियाँ नहीं हैं, पर चार पीढ़ियों के अंतराल में फैले हुये ये विविध प्रेम-प्रसंग जिस तरह बिना किसी उल्लेखनीय संघर्ष के असफल हो जाते हैं और समाज में घटित हो रहे तमाम बदलावों के बावजूद यदि इनमें से एक भी प्रसंगअलग-अलग वैतरणीके सरूप भगत के उस असुविधाजनक प्रश्न का कोई माकूल उत्तर नहीं दे पाता है तो यह चिंता और निराशा की बात है. 

उपन्यास में होने वाली कई-कई हत्याओं को लेकर कथाकार प्रभात रंजन द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुये, जो यूट्यूब पर उपलब्ध है, हृषीकेश सुलभ इसे आज के हत्यारे समय का प्रतीक कहते हैं. बेशक यह एक हत्यारा समय है, लेकिन सिर्फ इतना भर कहकर इस समय के साथ न्याय नहीं किया जा सकता. कारण कि यह समय सिर्फ हत्या का ही नहीं, अस्मिताबोध से उत्पन्न वंचितों-पीड़ितों के संघर्ष का भी है. समय के इस दूसरे पक्ष की अनुपस्थिति के कारण ही अपने वर्तमान स्वरूप में उपन्यास में घटित कई हत्याएं, खासकर मनोहर रजक की हत्या अस्वाभाविक, गैरज़रूरी और आरोपित लगती है. 

हृषीकेश सुलभ एक शब्द-समृद्ध और भाषा-सजग कथाकार हैं. नाटक की दुनिया में भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण इनकी कथा-भाषा और दृश्य-विधान पर नाटक की स्वाभाविक तकनीकों का सहज प्रभाव देखने को मिलता है. संवाद और दृश्यों में व्याप्त नाटकीयता इनकी कहानियों में निहित बहुपरतीय  अर्थ-छवियों को लगातार समृद्ध करती रही है. कलकल करती नदी की तरह बहने वाली इनकी तरल भाषा अपनी इंद्रधनुषी भावप्रवणता से पाठकों को एक चुम्बकीय सम्मोहन में बांध कर रखने का जो  सामर्थ्य रखती है, उसे इस उपन्यास में सहज ही महसूस किया जा सकता है. तत्सम और लोक के सहमेल से बनी इस भाषा का यह मुहावरा हृषीकेश सुलभ ने अपनी मिट्टी और परिवेश के साथ एक सघन आत्मीय जुड़ाव से अर्जित और पोषित किया है. निर्मल वर्मा से लेकर प्रियंवद तक भाषा का निजी मुहावरा विकसित करने वाले लेखकों की एक विशिष्ट पांत हिन्दी में मौजूद है. लेकिन इस भाषा की दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब कथाकार कथा में वर्णित यथार्थ और कथा-पात्रों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से बेखबर होकर सबकुछ एक ही तरह की भाषा में कहना शुरू कर देता है.अग्निलीकमें भाषा की यह दिक्कत तीन स्तरों पर पेश आती है. 

पहली दिक्कत यह कि एक राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक के यथार्थ का वहन करने के लिए जिस भाषा का उपयोग यहां हुआ है वह अपने स्वभाव और संरचना में बेहद रूमानी है. कथानक के यथार्थ और कथा-भाषा के बीच स्थित इस दूरी का ही परिणाम है कि प्रेम के नैसर्गिक सौन्दर्य, देह के प्राकृतिक आकर्षण और त्याग-समर्पण की अश्रुविगलित कारुणिकताओं के उत्सवीकरण की कई-कई छवियों से सुसज्जित इस उपन्यास में खुद को बचाए रखने के संघर्ष से दीप्त प्रेम का कोई मजबूत चेहरा मौजूद नहीं है. अपनी भाषा के नाजुक सौन्दर्य के प्रति अटूट लेखकीय मोह यहाँ जिस तरल सहजता से परिवेश और प्रकृति के खूबसूरत लैंडस्केप की रचना करता है, उसी प्रभावोत्पादकता के साथ यथार्थ की विभीषिकाओं के भीतरी तहों में नहीं उतर पाता. या यूं कहें कि भाषा का लालित्यपूर्ण सौन्दर्य पाठकों को इस कदर सम्मोहित कर लेता है कि कथानाक में निहित त्रासदी उस तक संप्रेषित ही नहीं हो पाती. उदाहरण के लिए उपन्यास के उत्तरार्ध में वर्णित अनावृष्टि के दृश्य को देखा जा सकता है- सावन भादों में भी धरती की प्यास नहीं मिटी, आषाढ़ की छिटपुट वर्षा धरती की कोख तक नहीं पहुँच सकी. धरती की कोख अगर नम नहीं होती खरीफ की फसल तो जाती ही है, रबी की आस भी टूट जाती है. देवली, मनरौली, पुरैना, मानिकपुर आदि गांवों के चँवर में धान की रोपनी तक नहीं हो सकी. आषाढ़ के पानी में लगे बीचड़े रोपनी के इंतज़ार में खड़े-खड़े झुलस गए. सावन-भादो में बाँकी अदा से लहराने वाली संपही के पेट में धूल उड़ती रही. दुधही के विशाल उदर में फटी दरारें जल की बूंदों की आस में मुंहबाये  आसमान की ओर ताकती-तरसती रह गईं. 

इसमें कोई संदेह नहीं कि गद्य की यह खूबसूरती विरल है. पर इसकी दिक्कतें दूसरी हैं. यहाँ भाषा प्रकृति के विजुअल्स रचने में इस कदर डूबी हुई है कि संदर्भित यथार्थ की विभीषिका झेलने वाला व्यक्ति समूह इस तस्वीर में आने से रह जाता है. अपनी तमाम खूबसूरती के बावजूद उपन्यास की भाषा की दूसरी दिक्कत है- नैरेटर और पात्रों की भाषा का लगभग एक जैसा होना. हालांकि कुछ शब्दों के आंचलिकीकरण (यथा- जिंदगी के लिए  जिनगी, ब्लाउज के लिए बेलाउज, उम्र के लिए उमिर आदि का प्रयोग ) के माध्यम से लेखक ने पात्रों की भाषा को नैरेटर की भाषा से अलग करने की कोशिश जरूर की है पर अपने भाषाई मुहावरे और अनुशासित वाक्य संरचना से वह उन्हें नहीं बचा पाया है. परिणामतः पूरा उपन्यास और उसके पात्र जैसे लगभग एक ही भाषा में बोलते प्रतीत होते हैं. इस क्रम में कई बार नैरेटर कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भी कर जाता है, जो उपन्यास और उपन्यासकार की असावधानी के रूप में सामने आता है. इसे समझने के लिए उपन्यास के प्रथम पृष्ठ के तीसरे वाक्य को देखा जाना चाहिए-यह कच्ची सड़क गाँव के दक्खिनी छोर पर बसे हरिजनों के टोला टोटहा से आती थी...उल्लेखनीय है कि हरिजन शब्द का प्रयोग 1982 से ही गैरकानूनी है. किसी पात्र द्वारा कहे गए संवाद में इस शब्द के प्रयोग को तो एक स्तर पर समझा जा सकता है, पर नैरेटर की भाषा में यह असावधानी खटकनेवाली है. दरअसल कानूनी-गैरकानूनी की खांचेबंदी से अलग यह हमारे अवचेतन में स्थित जातिबोध और उससे संबन्धित ग्रंथियों से जुड़ा प्रश्न है. यहाँ एक बार फिरमैला आँचलके ही एक संदर्भ पर ध्यान दिया जाना चाहिए-खेलावन सिंह यादव को लोग नया मातबर कहते हैं लेकिन क्षत्रिय टोली को अबगुअर टोलीकहने की हिम्मत कोई नहीं रखता. 

इस तरहअग्निलीकमें प्रयुक्तहरिजनों का टोलाऔरमैला आँचलमें प्रयुक्तगुअर-टोलीको समानान्तर रखकर मध्यम और अनुसूचित जातियों के बदलते अस्मिताबोध के प्रति दोनों उपन्यासों के दरम्यान पसरे फासले को समझा जा सकता है. दृश्य, परिवेश और पात्रों के बदलने के बावजूदचाँदनी का बरसना’, ‘खल्वट माथा’ ‘नेह-छोह’, ‘लोप होना’, ‘कज्जल जलजैसे शब्दों-पदो की बारंबार आवृति उपन्यास की भाषा की तीसरी दिक्कत है, जिससे कई बार इसके एकरस होने का अहसास भी होता है.अग्निलीककी इन भाषाई दिक्कतों पर बात करते हुये यह भी कहा जाना जरूरी है कि यह अकेले इस उपन्यास की दिक्कत नहीं है. भाषा का निजी मुहावरा औरसिग्नेचरविकसित करनेवाले लगभग सभी लेखकों के साहित्य में ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं. नैरेटर और पात्रों की भाषा के बीच अंतर नहीं होने के साइड इफ़ेक्ट् को   

मजबूत स्त्री चरित्रों की रचना हृषीकेश सुलभ की कथा-यात्रा की एक ऐसी विशेषता है जो इन्हें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कथाकारों से अलग करती है. वर्ग, वर्ण और स्थान की हदबंदियों से अलग दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुखों और स्वप्नों में एक खास तरह की साझेदारी होती है. आधुनिक समय में देश और दुनिया के  तमाम स्त्री आंदोलन स्त्रियों के उस साझेपन को न सिर्फ पहचानते हैं बल्कि दुख और सपनों की वह साझेदारी ही उन्हें परस्पर आबद्ध भी रखती है, जिसे स्त्रीवाद और समाजशास्त्र की शब्दावली मेंग्लोबल सिस्टरहुडयासार्वभौम भगिनीवादके नाम से जाना जाता है. हृषीकेश सुलभ की कहानियाँ स्त्री स्वर की मजबूत अभियक्ति के कारण मुझे हमेशा से प्रिय रही हैं. इनकी कहानी `अगिन जो लागी नीर मेंकी माधुरी देवी और सुवन्ती स्नेहा जैसी स्त्रियाँ जिस तरह बदलावों की नई इबारत लिखती हैं वह हमें कई तरह की आश्वस्तियों से भर देता है. 


मजबूत स्त्री चरित्रों के सृजन का वह सिलसिलाअग्निलीकमें कुछ और आगे बढ़ता है. रेशमा, जसोदा, कुंती, रेवती, रामझरी, नबीहा, नाज बेगम, गुल बानो, मुन्नी बी जैसी स्त्रियों के चरित्र और व्यक्तित्व में व्याप्त इस्पाती दृढ़ता इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है. जिस तरह यह उपन्यास एक स्त्री के अपूरित स्वप्न को दूसरी स्त्री के स्वप्न में विस्तारित करता है, वह स्त्री मन और जीवन में हो रहे बड़े बदलावों की मुनादियाँ हैं जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. शमशेर साईं, जिसकी हत्या के साथ उपन्यास का आरंभ होता है, की पत्नी गुल बानो और बचपन से ही जीवन के झंझावातों से जूझकर खुदमुख्तार बनी रेशमा, जो अपनी प्रेम कहानियों और दबंगई के लिये कुख्यात है, का बहनापा इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है. ध्यान देने योग्य  है कि रेशमा का प्रेमी अकरम अंसारी जो सरपंच है, शमशेर साँई की हत्या का अभियुक्त है. ऊपर से देखें तो रेशमा और गुल बानो के निजी हितों की टकराहटें दोनों को एक दूसरे का दुश्मन भी बना सकती थीं, पर यह उपन्यासकार की उस सूक्ष्म दृष्टि की ताकत है कि वह इस लघु यथार्थ का अतिक्रमण कर उन दोनों के दुखों के साझेपन को पहचानते हुये उनके बीच बहनापे का एक बृहत्तर संसार रचने में कामयाब होता है. लेकिन कई-कई मजबूत स्त्री किरदारों के हासिल के बीच जो एक बात खटकनेवाली है, वह है स्त्री देह के प्रति लगभग पूरे उपन्यास में फैली हुई लोलुपता. स्त्री पात्रों को देखते ही जैसे नैरेटर की निगाहें उसकीगदराई जवानी’, ‘गठीली देहऔरछाती की गोलाइयोंको टटोलने लगती है. यहाँ थानाध्यक्ष गरभू पांड़े द्वारा रौंदी जाने के बाद शारीरिक-मानसिक तकलीफ से घिरी रेशमा की मनःस्थितियों का वर्णन करते हुये नैरेटर की भाषा को देखा जाना चाहिए- 

रेशमा की अधनंगी देह बिछावन पर कुहुक रही थी और पतिया मलिया में सरसों का तेल लिए उसे मालिश कर रही थी. संभोग-प्रिया रेशमा को अपनी देह से घिन आने लगी थी. गरभू पांड़े ने उसकी देह को रौरव नरक में बदल दिया था.” 

अपने साथ दुष्कर्म होने के बाद एक स्त्री अपनी देह को लेकर किस हद तक विक्षोभ से भर सकती है, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसे समझने की कोशिश कर सकता है, पर ऐसी स्त्री की उस दारुण मनोदशा का वर्णन करते हुये उसके लिएसंभोग-प्रियाऔरअधनंगीजैसे विशेषणों का प्रयोग करना उस मर्दवादी लोलुपता को ही दर्शाता है जो दुख-तकलीफ के क्षणों में भी पर्वर्टेड सुख के संधान का अवसर खोज ही निकालता है. यदि यह हरकत गरभू पांड़े जैसे किसी चरित्र की होती तो उसे इस विचलन के प्रकटीकरण की तरह देखा जा सकता था पर नैरेटर या सूत्रधार, जो कथा में लेखक का प्रतिनिधि होता है, की भाषा में यह फिसलन पात्रों की निर्मिति और सर्जक की सजगनिगाही के बीच स्थित दरारों की तरफ ही इशारा करता है.  

मैला आँचलकी ही तरह अग्निलीक भी एक पात्रबहुल उपन्यास है. ऊपर उल्लिखित स्त्री पात्रों के समानान्तर इस उपन्यास में ढेर सारे पुरुष पात्र भी हैं जिनमें मुखिया लीलाधार यादव, सरपंच अकरम अंसारी, लीला साह, पिंटू सिंह, अकलू यादव, मुंशी दामोदर लाल, बिलट महतो, नौषर साईं, बैगा सुनार, मंसूर मिया, सुजीत, मुचकुंद शर्मा, मनोहर रजक, अनिल मांझी आदि के नाम उनकी प्रसंगानुसरूप उपस्थिति के कारण याद रह जाते हैं. हालांकि उपन्यास में पात्रों का आना-जाना इस त्वरित गति से होता है कि उनके चारित्रिक विकास या पराभव का कोई उल्लेखनीय ग्राफ नहीं बन पाता है, जिसका कारण कभी तो पात्रों की द्रुत आवाजाही होती है तो कभी उनके गुण-धर्म के विपरीत उन पर आरोपित कर दी गईं लेखकीय निर्मितियाँ. उदाहरण के लिए लीलाधार यादव, मनोहर रजक, जसोदा और रेवती को देखा जा सकता है, जिनके चरित्र का स्वाभाविक विकास उयपन्यास में नहीं हो पाया है. कई बार चरित्रों को कथानक में जिस तरह प्रवेश होता है उसका निर्वाह उसके अनुरूप नहीं हो पाता. इस सिलसिले में लीलाधार यादव के चरित्र को देखा जाना चाहिए. 


जिस अवतारी तरीके से उनके जन्म की कथा उपन्यास में लिखी गई है, उसे देख कर लगता है कि उपन्यास के पटल पर उनका कोई भव्य-दिव्य चरित्र खड़ा होने वाला है, पर ऐसा नहीं हो पाता. वैसे ही जशोदा जिस तरह रातों रात अपने घर वालों की मर्जी के आगे समर्पण कर देती है या रेवती अपनी चारित्रिक दृढ़ताओं के बावजूद बिना किसी उल्लेखनीय हील हुज्जत के अपने सपनों की तिलांजलि देकर अपने दादा के कहने पर पंचायत का चुनाव लड़ने को तैयार हो जाती है, उसके व्यक्तित्व की निर्मिति से बहुत मेल नहीं खाता है. यहाँ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि लीलाधार यादव के कहने पर ही, रेशमा ने भी चुनाव लड़ने के लिए अपनी सहमति दी है. हालांकि उपन्यास की कथा जिस तरह लिखी गई है उससे ऐसा लगता है कि उपन्यासकार इन स्त्रियों को पितृसत्ता के मोहरे की तरह दिखाना चाहता है. स्त्रियों के लिए सुरक्षित सीटों की आड़ में पितृसत्ता जो खेल खेलती है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता. पर उसके लिए वह जिन स्त्रियों का चुनाव करती है, वह रेशमा और रेवती जैसी मजबूत स्त्रियाँ नहीं होती हैं. इसलिए रेशमा और रेवती को पितृसत्ता के हाथों का मोहरा बना दिया जाना भी उनके चरित्र की स्वाभाविक दिशा नहीं है. 

बहुत सारे पात्रों की आवाजाही के बीच शमशेर साँई की हत्या की वह गुत्थी, जिसकी चिंता से उपन्यास का आरंभ हुआ था, का अंत तक नहीं सुलझना भी उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत है. न्यायिक प्रक्रिया के चलने के बावजूद यदि ऐसा होता तो यही स्थिति शिथिल और विलंबित न्यायिक प्रक्रिया का रूपक हो सकती थी. लेकिन, शमशेर साँई की हत्या के प्रकरण को चार्जशीट दाखिल करने, आरोपितों के जेल जाने और बेल पर उनके बाहर आने की बहुत ही शुरुआती और संक्षिप्त कवायदों के बाद लगभग विस्मृत कर दिया गया है. नतीजतन, अपने आरंभिक कौतूहल का समाधान नहीं हासिल होने के कारण पाठक खुद को रिक्तहस्त तो महसूस करता ही है, शमशेर साँई की कथा को विस्मृत कर देने के कारण उपन्यास के हाथ से वह सूत्र भी फिसल जाता है, जो उपन्यास की सभी उपकथाओं और अनुषंगों को परस्पर आबद्ध रख सकती थी.     

अग्निलीककी सामर्थ्य और सीमा पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि उपन्यास के पूर्वार्द्ध में घटित कई प्रसंगों की सघनता और विडंबनाओं के उद्घाटन के लिए प्रयुक्त भोजपुरी लोकगीतों पर बात न की जाये. प्रयोग हुआ है. एकाध अपवाद को छोड़ दें तो इन सारे गीतों को उनके मूल रूपों में नहीं देकर लेखक ने अपनी भाषा में पुनर्सृजित किया है. उपन्यास के प्रसंगों के बीच अपनी भाषा में लोकगीतों के पुनःसृजन के दो कारण हो सकते हैं- एक प्रभावी अर्थ-सम्प्रेषण की कोशिश और दूसरा मूल लोकगीतों के उद्धरण के कारण उपन्यास को आंचलिक करार दिये जाने का भय. जो लोग हृषीकेश सुलभ के रचना संसार से परिचित हैं उन्हें यह बखूबी पता है कि उन्होंने कहानी के शिल्प में भोजपुरी लोकगीतों की प्रभावी पुनर्रचना भी की है. कुछ वर्ष पूर्व संभवतः पाखी में प्रकाशित उनकी कहानीसीता राम और रावण’, जिसके केंद्र में सीता निर्वासन की कथा है, इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. घोषित तौर पर एक मुकम्मल कहानी के रूप में किसी लोकगीत की पुनर्रचना अपने उद्देश्य और प्रभाव दोनों ही में नितांत अलग होती है. पर, उपन्यास के विविध प्रसंगों में किया गया यह प्रयोग उस तरह का प्रभाव तो नहीं ही पैदा करता, स्वाभाविक नैरेशन के बीच अपनी अलग भाषावाली के कारण कुछ ज्यादा नाटकीय भी प्रतीत होता है. मूल लोकगीत का कोई संदर्भ नहीं दिये जाने के कारण, बहुत से पाठक जो मूल रचना से परिचित नहीं हैं, शायद यह भी नहीं समझ पाएँ कि यह किसी लोकगीत की पुनर्रचना है. 


कहानी के केंद्र में अमूमन जीवन का कोई एक टुकड़ा होता है, वहीं उपन्यास समूची मनुष्य जाति का आख्यान है, जो मनुष्य और उसके जीवन-जगत को समग्रता में संप्रेषित करता है. उपन्यास की सफलता इसी में निहित है कि वह असंभाव्य को भी अपने रचना फ़लक पर एक विश्वसनीय संभाव्य बनाकर पेश करे. विश्व और भारतीय कथा साहित्य में उपन्यास का यह इतिहास रोमांस से यथार्थ तक की लम्बी यात्रा के रूप में दर्ज है.अग्निलीककी दिक्कत यह है कि इसमें यथार्थ और रोमांस का अपेक्षित संतुलन नहीं बन सका है. दूसरे शब्दों में यथार्थ की ठोस धरातल पर खड़े कथानक को यहाँ रोमांटिक भाषा और ट्रीटमेंट से परखने की कोशिश की गई है. यही कारण है कि पठनीयता और रोचकता की अप्रतिम मौजूदगी के बावजूद यह एक बड़ा उपन्यास होने से रह जाता है और हृषीकेश सुलभ की रचना यात्रा में वैसी उल्लेखनीय अभिवृद्धि नहीं करता जो उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से अर्जित किया है. मुझ जैसे उनके अनगिनत प्रशंसकों को उनके उसबड़ेउपन्यास का इंतज़ार है जिसकी रचना के सामर्थ्य के लक्षण उनके कथा-संसार में बखूबी मौजूद हैं.अग्निलीककोउसउपन्यास के पूर्वाभ्यास की तरह देखा जाना चाहिए. 
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नन्दकिशोर आचार्य की कविता का आकाश : ओम निश्चल

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न सही
तुम्हारे दृश्य में
मैं कहीं

अंधेरों में सही.’

इस वर्ष के हिंदी के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नन्दकिशोर आचार्य का कविता संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ सम्मानित हुआ है. चौथे सप्तक के कवि नन्दकिशोर आचार्य के बारह कविता संग्रह, आठ नाटक, सात आलोचना पुस्तकें, और बारह सामजिक दार्शनिक पुस्तकें प्रकाशित हैं. उनके कवि-कर्म और काव्य-गंतव्य पर चर्चा शुरू होनी चाहिए. यह अवसर भी है. 

आलोचक ओम निश्चल का यह आलेख इसी निमित्त प्रस्तुत है.




नन्दकिशोर आचार्य की कविता का आकाश                   

ओम निश्चल




नन्दकिशोर आचार्य को उनके संग्रह छीलते हुए अपने को’’ पर साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार दिया जाना प्रसन्‍नता का विषय है कि एक चिंतक कवि को यह पुरस्‍कार दिया गया है जिसकी कविता आत्‍मोपचार की तरह लगती है. नंद किशोर आचार्य की अब तक कोई एक दर्जन से ज्‍यादा काव्‍यकृतियां आ चुकी हैं. पिछले चार- पांच वर्षों में ही नन्दकिशोर आचार्य के कई संग्रह आए हैं. 'चांद आकाश गाता है', 'गाना चाहता पतझड़', आकाश भटका हुआ, छीलते हुए अपने को और'केवल एक पत्ती ने'इत्यादि.पर सच कहा जाए तो इन सभी संग्रहों का मिजाज एक-सा है. यों देखने में उनकी कविताएँ  अपने ही चित्त में रमी हुई लगती हैं जैसे सामाजिक सरोकारों से उनका कोई लेना देना ही न हो. पर अज्ञेय के नक्‍शे कदम पर चलने वाले नन्दकिशोर आचार्य ने उन्‍हीं की तरह अपनी कविता को निज-मन-मुकुर बनाने की चेष्‍टा की है. अज्ञेय की कविता तो अपने इस कौल करार के बाद भी बहुधा ज्‍यादा ही बोलती है, पर आचार्य की कविताएँ  वाकई कम बोलती हैं. इस तरह खामोशी को ही रचने-बुनने की अज्ञेय की अवधारणा के वे सच्‍चे अनुयायी दिखते हैं. पर नन्दकिशोर आचार्य के कवित्व में न केवल मितभाषिता है, बल्‍कि उसमें अर्थ-गांभीर्य भी है. 

भारवि के अर्थ-गौरव की तरह नन्दकिशोर आचार्य की लघु कविताओं में अपार भाव-संसार लहराता मिलता है. जल-संकट से जूझने वाले राज्‍य राजस्‍थान के रहने वाले आचार्य के यहां जल और जल-संकट को लेकर जितने बिम्‍ब और अनुगूँजें मिलेंगी, उतनी शायद अन्‍य कवियों में नहीं, यहॉं तक कि राजस्‍थान के कवियों में भी नहीं. अचरज नहीं कि कविता के सरोवर में आचार्य के उतरने का पहला साक्षी'जल है जहाँ'रहा है जो कि उनका पहला संग्रह ही नहीं, कविता में उनकी प्राथमिक पैठ का परिचायक भी है. उनके भीतर अक्‍सर अवसान, मृत्‍यु और उदासियों का लगभग वैसा ही सुपरिचित वातावरण मिलता है जैसा प्राय: कलावादियों के यहां. पर यह अच्‍छी बात है कि उनके यहां समकालीनों जैसी स्‍थूलता के दर्शन नही होते, बल्‍कि प्रकृति, स्‍वभाव, पंचभूतों और फैले हुए अछोर जीवन के छोटे से छोटे क्षण-कण बीनते- बटोरते हुए वे एक ऐसी अर्थच्छटा बिखेर देते हैं जैसे धरती पर हास बिखेरती चांदनी या आकाश में उजास फेंकती तारावलियां. उनकी कविताओं की गैलेक्‍सी में अनुभूति के हर लम्‍हे को महसूस किया जा सकता है. उनकी एक कविता :'रह गया होकर कहानी'के बोल हैं: 
       
कविता होना था मुझे
रह गया होकर कहानी 
न कुछ हो पाने की 

मेरा सपना
होना था जिसे 
रह गयी होकर रात 
नींद के उखड़ जाने की

उम्र पूरी चुकानी थी
एक पल मुस्‍कराने की. 

एक जीवन की पूरी यात्रा--पूरी नियति सन्‍निहित है इन पदावलियों में. आचार्य जहां एक तरफ तत्‍वचिंतक की हैसियत रखते हैं, गांधीवादी मानववादी चिंतन की आस्‍तित्‍विक पहचान उनके यहां दीखती है, वहीं उनके भीतर निवास करने वाले एक सुकोमल चित्त वाले कवि से भी भेंट होती है जो'सनातन'और'चिति'का उपासक है. अज्ञेय ने लिखा था न कि :''कवि गाता है: अनुभव नहीं/ न ही आशा-आकांक्षा: गाता है वह/ अनघ/ सनातन जयी.''यह चिरन्‍तनता आचार्य की कविताओं में मौजूद है जो समय के सुदीर्घ अंतराल के बावजूद कुम्‍हलाने वाली नहीं है. वह मानवीय भावनाओं की एक सतत उपस्‍थिति है. आचार्य इसी सातत्‍य के अनुगायक हैं.

अछोर समय के बहते संगीत के श्रोता हैं. अपने कवि-स्‍वभाव का परिचय देते हुए वे एक कविता: 'भाषा से प्रार्थना'में कहते हैं:    

वह-- एक शब्‍द है
एक शब्‍द हैतुम
भाषा से मेरी 
बस यही प्रार्थना है
तुमको'वह'न कहना पड़े
इसलिए खोजने दो
अपने में
अपने'मैं'को मुझे---
शब्‍द है वह भी. 

अपने'मैं'को अपने में खोजते हुए इस कवि को भले ही कोई निज की चित्तवृत्ति का प्रकाशक माने, अंतत: कविता का प्रदेय क्‍या यही नहीं है कि हम उसमें अपना अक्‍स देख सकें. वह समाज का दर्पण होने के पहले कवि का अपना दर्पण भी तो है. हालांकि आचार्य ने एक जगह कविता को दर्पण नहीं, चाकू बताया है---आत्‍मा में गहरे तक धँसा, न जिसको रख पाना मुमकिन, न निकाल पाना. तथापि, आचार्य ने अपनी कविता को समाज का दर्पण होने के पहले निज का मन-मुकुरबनाया है. उनकी कुछ कविताएँ  उद्धृत करते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि प्रेम कविता किस तरह हमारे चित्‍त को बींधती है, इसे कोई कवि ही महसूस कर सकता है. जिसका अनुभव जितना व्‍यापक, संवेदी और गहरा होगा, उसकी अभिव्‍यक्‍ति भी उतनी ही अनूठी और वेधक होगी. ये कविताएँ  इस बात की गवाही देती हैं :

शब्‍द से ही रचा गया है सब-कुछ
यह मैं नहीं मानता था
जब तक मैंने 
नहीं सुनी थी तुम्‍हारी आवाज़
हर पल ही 
रचती रहती है
संसार जो मेरा.                   
(तुम्‍हारी आवाज़)

तुम्‍हारी नींद में जागा हुआ
हूँ मैं
मेरे ध्‍यान में सोयी हुई 
हो तुम
ध्‍यान में जगा भी लूँ तुम्‍हें
जाग कर फिर सो जाओगी---
नींद में जगता रहूँगा मैं.            
(नींद में जगता)

आना
जैसे आती है सांस
जाना
जैसे वह जाती है
पर रुक भी जाना
कभी
कभी जैसे वह
रुक जाती है.                    
(रुक भी जाना कभी)

उनकी कविता पर विहंगम दृष्‍टि डालते हुए अचानक एक बेहतरीन प्रेम कविता पर दीठ बिलम जाती है और वह कविता है भी ऐसी नव्‍य भव्‍य : 

जंगल बोलता है चिड़िया की खामोशी
बोलता है
तुम्‍हारी चुप में सूनापन
मेरा जैसे
जंगल खिल आता है
फूल होने में
खिल आता हूँ मैं 
तुम्‍हारे होने में जैसे                
तुम्‍हें सुना करता हूँ 
मैं
मुझमें खिल आती हो
तुम.           
(खिल आती हो तुम)

इन कविताओं से आचार्य का जो मिजाज सामने आता है, वह सामान्‍यत: एक रोमैंटिक कवि का-सा लगता है.वह है भी इस अर्थ में कि कविता में रोमैंटिक होना कवि के लिए अपकर्ष का कारण नहीं है. पूरी योरोपीय रोमैंटिक कविता गवाह है कि मानव-मन के रहस्‍य को उकेरने-व्‍यक्‍त करने में उसने कामयाबी हासिल की है. इन प्रेम कविताओं में एक निरलंकृति है किन्‍तु अपनी पूरी झंकृति के साथ. एक परिष्‍कृति है अपनी सुसंगति के साथ. और आचार्य जैसा कवि तो हर कविता को प्रेम कविता मानने वाला कवि है. उनकी हर कविता प्रेम कविता है. अशोक वाजपेयी ने लिखा है:'शब्‍द से भी जागती है देह/ जैसे एक पत्‍ती के आघात से होता है सबेरा.'आचार्य की कविताओं में हम शब्‍दों का जादू महसूस कर सकते हैं. जैसे केवल एक पत्‍ती में हम प्रकृति के समूचे सौंदर्य को महसूस कर सकते हैं, एक चावल में परिपक्‍वता के आभास की तरह. 

समकालीनता की मांग हम हर कवि से नहीं कर सकते.नंद किशोर आचार्य समकालीनता में सांस लेते हुए भी समय के पार जाने वाले कवियों में हैं. बहुत बोलने वाली कविता उन्‍हें स्वीकार्य नहीं है. आखिरकार वे अज्ञेय के शिष्‍यों में हैं जिसे सन्नाटे का छंद बुनना भला लगता रहा है तथा जिन्होंने कहा भी है :'शोर के इस संसार में मौन ही भाषा है.'अकारण नहीं कि बार बार वे खामोशी की ओर लौटते हैं और उसमें डुबकी लगाते हुए एक विरल अर्थ खोज लाते हैं. क्‍योंकि बकौल कवि,

''निरर्थक ध्‍वनि ही तो है वह
जिसे अपना अर्थ दूँगा मैं......
मेरी कहन होगी वह.''

आचार्य इसी'कहन'---इसी'गहन मौन'के कवि हैं. अपनी तरह से कविता की तलाश में यायावरी करते हुए वे आखिरकार यही सवाल करते हैं---

और क्‍या होता है
होना
कविता होने के सिवा----
एक लय चुप कर देती है
अपनी खामोशी में
लेती हुई मुझे.       
(शब्‍द होता है)

आचार्य की कविता जैसे मनुष्‍य की धीमी से धीमी आवाज़पदचाप और ख्‍वाहिशों को दर्ज करना जानती है. 'इतनी शक्‍लों में अदृश्‍यकी कविता 'सच हूँ या सपना हूँ- 

कैसे कहूँ यह तो तुम्‍हें कहना है
जिसका सच हो पाता मैं
या रह पाता सपना.

उनके इस मिजाज की गवाही देती है. खुशबू है प्रतीक्षा जबरूह की छाजन मेंऔर काल सपना देखता है--खंडों में उप निबद्ध आचार्य की कविताएं सूनेपन और नीरवता में अपने रंग बिखेरती हैं. छोटी-छोटी कविताओं के संसार से बनी ये सारी कविताएं जैसे एक धारावाहिता का हिस्‍सा होंजैसे डायरी के पन्‍ने पर रोज ब रोज कुछ न कुछ टांकी गयी इबारतें हों. जीवन जो तमाम जंजालों से घिरा हैउसमें फुर्सत के कुछ पलों को सृजन के क़तरों में बिखेर देना ही जैसे आचार्य के कवित्‍व का लक्ष्‍य हो. इन कविताओं के बिम्‍ब बहुल संसार में कहीं झरे पत्‍तों की सुलगन है, मन के अतल अँधियारे हैंसघन कोहरे को चीरती चिड़ियों की आवाज हैआकाश में बदलती पुकार हैधरती के साज़ पर बारिश की अनुगूँजें हैं, ओठों की कोरों में कॉंपती स्‍मिति-सी किरणाभा हैआवाज़ की बारिश में भींगना हैअपनी कविताओं में भी उसी की अनुगूँजों को सुनना है. मुलाहिजा जो ये पंक्तियां:

कब मालूम था मुझको
उस आवाज़ की अनुगूँज भर हूँ मैं
अपनी कविता में जब तक
मैंने सुना नही उसको
ख़ुद को सुनना है कविता
या अपनी आवाज़ में सुनते रहना उस को.

आचार्य की कविताकी गैलेक्‍सी लघु तारिकाओं-सी क्षणिकाओं से भरी है. एक एक प्रेक्षण एक एक कविता में ढल कर संवेदना का अंश बन गया है. यहां आचार्य के अनुभवों की मुलायम वीथियॉं हैं. सच कहा जाए तो इन कविताओं में आचार्य का अपना मिजाज ही बोलता है. वे सफर में रहते हैं तो उनका सैलानी भाव बोलता है, वे प्रकृति के मध्‍य विरम रहे हों तो जंगल, बादल, बारिश, चिड़िया, सन्‍नाटा और अपने दार्शनिक एकांत में हों तो दर्शन बोलता है उनकी कविताओं में. लय से प्रलय की झंकार सुनाई देती है. जीने की बेतुकी में अतुकांत कविता सुन पड़ती है. आचार्य के इस संग्रह को पढ़ते हुए उर्दू शायरी से उनका प्रेम जाहिर होता है. अक्‍सर अपनी कविताओं की जड़ों तक पहुंचने के लिए वे ग़ालिब, इकबाल, फ़ानी बदायुँनी तथा ज़ौक को उद्धृत करते हैं. काल सपना देखता है की कविताएँ  काल, मृत्‍यु, व्‍यर्थता के रूपकों में अनुभवों को सिरजा है. वे काल को बहेलिया व आत्‍मभक्षी के रूप में चिह्नित करते हैं. एक वृक्ष के अंतत: काठ में परिणत हो जाने की कथा को वे बडी मार्मिकता से एक कविता में दर्ज करते हैं:

हरा भी था कभी
कट कर हो गया जो काठ--------
किसी की कुर्सी, किसी की मेज, किसी की खाट
लाठी भी किसी की कभी---होता रहा है वह
कटते-छिलते बच रहा है जो---बुरादा थोड़ा, कुछ छिलके---
वह भी इंतजार में है
किसी की बोरसी के लिए.
(बच रहा है जो)----

इस बहाने शायद वे मनुष्‍य जीवन की सार्थकता जताना चाहते हैं. इस तरह सपनों, इच्‍छाओं, प्रतीक्षाओं तथा प्रकृति के सघन अवलोकनों और प्रेक्षणों से बनी आचार्य की कविताएँ  एक दीवाने का ख्‍वाब बन कर महुए के फूल की तरह टप टप बरसती हैं. एक कवि का अकेलापन इस ख्‍वाब को कितनी कितनी शक्‍लों में चित्रित करता हुआ दिखता है. चेतना में वेदना की हल्‍की खरोंचें रचती हुए ये कविताएँ  कवि के चित्‍त का जैसे पूरा नक्‍श उकेर देती हैं. 

कविता की अप्रतिम वाचालता और मुखरता के युग में भी कुछ कवि ऐसे हैं जिनका शब्‍द संयम काबिलेगौर है. जल है जहाँ, आती है जैसे मृत्‍यु, से लेकर अब तक नंद किशोर आचार्य का कविता संसार एक चिंतक कवि के अंत:बाह्य उद्वेलनों का उदाहरण है. वे जीवन जगत के नित्‍य परिवर्तित क्रिया व्‍यापार को हर पल एक कवि एक मनुष्‍य की आंखों से निहारते हैं और संवेदना के बहुवस्‍तुस्‍पर्शी आयामों में उसे उद्घाटित करते हैं. उनके यहां कविता जिन चाक्षुष दृश्‍यों में सामने आती है , उसके नेपथ्‍य में भूमंडल की महीन से महीन आहट होती है. उनकी कविता में बिम्‍ब जलतरंगों की तरह बजते हैं. कविता अर्थ से ज्‍यादा प्रतीति में ध्‍वनित होती है. प्रतीति से ज्‍यादा गूंज में और अनुगूँज में. उनके शब्‍द मौन में बुदबुदाते से प्रतीत होते हैं मौन के संयम की गवाही देते हुए तथा अपनी मुखरता में सम्‍यक् अनुशासित. मौन को वे किस रूप में देखते हैं?

'यह जो मूक है आकाश
मेरा ही गूंगापन है
अपने में ही घुटता हुआ
पुकार लूं अभी जो तुमको
गूंज हो जाएगा मेरी.'

अपनी प्रकृति में नंद किशोर आचार्य की कविताएं छोटी होती हैं. इस अर्थ में हम उन्‍हें लघु कविताओं का प्रवर्तक कह सकते हैं. आती है जैसे मृत्यु से लेकर अब तक के चौदह कविता संग्रहों तक उनका यही रूप दिखता है. फार्म की दृष्टि से उनकी कविताएं पूर्ववत् ही हैं. शायद इससे ज्‍यादा बड़े आयतन की कविताओं के लिए उन्‍होंने किसी दूसरे फार्म की आजमाइश भी नहीं की. पर ये कविताएं  जहां अनुभव के उपार्जन से निकली सदूक्‍तियों जैसी हैं, जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों के सारांश जैसी हैं वहीं ये अपने ही प्रति रूप सरीखे प्रियजन से संवाद भी करती है. ऐसी ही एक कविता :

न सही तुम्‍हारे दृश्‍य में 
मैं कहीं
दृश्‍य से थक कर 
जब जब मुदेंगी आंखें,
पाओगी मुझको वहीं
(अंधेरे में सही, पृष्‍ठ 14)

नंद किशोर आचार्य समकालीनता में सांस लेते हुए भी समय के पार जाने वाले कवियों में हैं. बहुत बोलने वाली कविता उन्‍हें स्‍वीकार्य नहीं है. आखिरकार वे अज्ञेय के शिष्‍यों में हैं जिसे सन्‍नाटे का छंद बुनना भला लगता रहा है तथा जिन्‍होंने कहा भी है :'शोर के इस संसार में मौन ही भाषा है.अकारण नहीं कि बार बार आचार्य खामोशी की ओर लौटते हैं और उसमें डुबकी लगाते हुए एक विरल अर्थ खोज लाते हैं. अपनी तरह से कविता की तलाश में यायावरी करते हुए वे आखिरकार यही सवाल करते हैं---

'और क्‍या होता है होना
कविता होने के सिवा----
एक लय चुप कर देती है अपनी खामोशी में लेती हुई मुझे.'       

उनकी कविताओं में गूंज, अनुगूंज, संयमित मुखरता और मौन आद्यन्‍त व्‍याप्‍त है. कविता में जो कुछ है वह जीवन ने दिया है. जीवनानुभवों ने दिया है. जिंदगी की चुभन से कविता निकलती है. जीवन को तभी तो वे आड़े हाथो लेते हैं. कि तुम भी भला क्‍या करती--तुम्‍हारे पास केवल जहरीले डंक हैं--पर उसे आश्‍वस्‍त भी करते हैं---उसके  प्रति कृतज्ञ भी होते हुए इस स्‍वीकार के साथ कि :   मेरे पास है. शब्‍दों का अमृतकुंड.-----यह  जो  शब्‍दों  का अनहद हैमौन की गूंज है, गूंगेपन से निस्‍सृत सुर है, यह जो आवाजों का समुच्‍चय है उसमें अपनी आवाज़ के साथ कवि भी सक्रिय है जिसमें उस एक का स्‍वर भी समाहित है जिसे वह पुकारता ही रहता है. यह जो पुकार है, जिसे कभी मुक्‍तिबोध ने यों महसूस किया है---मुझे पुकारती हुई पुकार कहीं खो गयी---आचार्य के भीतर भी रच बस-सी गयी है. वह भी शब्‍दों को समर्पित है. अपने में इन्‍हीं शब्‍दों को बसाकर वह आकाश की तरह भटकता रहता है. शायद आवाजों के इसी कोरस को सुनने वाले आकाश की तरह कवि अपने को भटका हुआ महसूस करता है. 

यों तो हर कवि की कविता ही अपनी पारिभाषिकी रचती है. वही कवि का आत्‍मिक वक्‍तव्‍य होती है. दुनिया के महान से महान कवियों ने कविता को अपने तरीके से देखा समझा है. आचार्य कविता को किस तरह देखतेहैं, इसे उन्‍होंने ''वही है कविता ''में व्‍यक्‍त किया है. दो के बीच की खामोशियां जिस बिन्‍दु पर एक साथ मिलती हैं---एक दूजी से अपनी व्‍यथाएं साझा करने के लिए---वही है कविता---खामोशियों की व्‍यथा--- आचार्य कहते हैं. इस समझ का एक दूसरा पहलू भी है. कविता में शब्‍द हर कोई अपनी तरह बरतता है, पर शब्‍द की बेकली अपने को पाने के लिए होती है---आचार्य कहते हैं---'वही है कविता. बाकी सब पता नहीं, क्‍या है.'

उनकी कविताओं से उनके मिजाज को पहचाना जा सकता है. इनमें वे कहते हैं, ''तुम्‍हारे सूने में रमता ख्‍याल हूँ.''अथवा ''तुम्‍हारे खयालों के नीड़ में बैठा उड़ता रहता हूँ मैं.''ये कविताएं ऐसे रमते हुए ख्‍याल की कविताएं हैं. ख्‍यालों के नीड़ में बैठे कवि की कविताएं है. वे बारिश में दग्‍ध होते पेड़ के विपरीत जख्‍मों के हरे होने का सबब खोजते हैं तो यह अनुभव भी करते हैं कि हर मौसम को यानी खिलने से झरने तक को अपने भीतर महसूस करना ही एक पेड़ होना है. कोई हरे-भर होने से कोई पेड़, पेड़ नहीं होता. यह है अनुभव का भव. यानी दूसरे अर्थों में जीवन के हर दुर्वह एवं सुखद पलों और बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के अनुभवों से गुजर कर ही व्‍यक्‍ति व्‍यक्‍ति होता है. 

नंद किशोर आचार्य जिस जमीन से ताल्‍लुक रखते हैं, वह राजस्‍थान की रेतीली धरती है. सो उनके यहां जल, नदी, बारिश, पेड़ पावस और हरे इत्‍यादि का जैसा जिक्र होता है उसकी तासीर अलग अलग होती है. यहां बसंत भी अलग तरह से आता है. पावस के पतझड़ करने का बिम्‍ब भी आता है, पर जहां कहीं संयोग से मरुथल से एक दृश्‍य भर की हरियाली भी खिल उठती है, वह कवि  के चाक्षुष फ्रेम में आ बसता है. हल्‍की सी बारिश से हरापन ही नहीं, किसी की याद का दर्द भी खिल कर हरा हो उठता है. खिलने, मरने, जीने, बारिश, पतझर, ,उड़ान भरने और बिछड़ने मिलने तक के कितने ही प्रतीक आशय गरिमामय ढंग से उनकी कविता में आते हैं. उनकी कविता आंखों की उदासी में भी झॉंकती है और वे हैं  कि महसूस करते हैं ---

मैं भी हूँ. 
अनसुनी डाक-सा. 
किसी पाखी की.

पर यह अच्‍छी बात है कि उनके यहॉं समकालीनों जैसी स्‍थूलता के दर्शन नही होतेबल्‍कि  प्रकृतिस्‍वभावपंचभूतों और फैले हुए अछोर जीवन के छोटे से छोटे क्षण-कण बीनते- बटोरते हुए वे एक ऐसी अर्थच्छटा बिखेर देते हैं जैसे धरती पर हास बिखेरती चॉंदनी या आकाश में उजास फेंकती तारावलियॉं. उनकी कविताओं की गैलेक्‍सी में अनुभूति के हर लम्‍हे को महसूस किया जा सकता है.इन कविताओं के बिम्‍बबहुल संसार में कहीं झरे पत्‍तों की सुलगन है, मन के अतल अँधियारे हैंसघन कोहरे को चीरती चिड़ियों की आवाज हैआकाश में बदलती पुकार हैधरती के साज़ पर बारिश की अनुगूँजें हैं, ओठों की कोरों में कॉंपती स्‍मिति-सी किरणाभा हैआवाज़ की बारिश में भींगना हैअपनी कविताओं में भी उसी की अनुगूँजों को सुनना है.

कुल मिलाकर आचार्य की कविता सूनेपन में एक अनुगूंज की तरह है और अनुगूंज में एक सूनेपन की तरह. पर यदि उनकी कविता में शब्‍द अपना होना ढूँढते है, अपनी बसावट ढूँढते हैं तो शायद शब्‍दों की नियति भी यही है कि वे कविता के सही पते पर पहुंच सकें. 

मैने कहा भी है कि अन्‍यत्र कि आचार्य की कविता की गैलेक्‍सी लघु तारिकाओं-सी क्षणिकाओं से भरी है. बारीक से बारीक प्रेक्षण उनकी  कविता के अयस्‍क में ढल कर संवेदना का अंश बन गया है. 
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ओम निश्‍चल             
जी-1/506, उत्‍तम नगर 
नई दिल्‍ली 110059
फोन 8447289976
मेल: dromnishchal@gmail.com

आख्यान-प्रतिआख्यान (१):अग्निलीक(हृषीकेश सुलभ):राकेश बिहारी

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यूरोप में राष्ट्र राज्य-और उपन्यासों का उदय साथ-साथ हुआ, लोकतंत्रात्मक समाज  की ही तरह उपन्यासों में भी तरह-तरह के पात्र आपस में भिन्न विचारों के साथ संवादरत रहते हैं. भारत जैसे देशों में उपन्यास उपनिवेश का प्रतिपक्ष बना.
लाला श्रीनिवास दास रचित ‘परीक्षा गुरु’ १८८२ में प्रकाशित हुआ था, ‘हिंदी में अंग्रेजी ढंग के इस पहले उपन्यास’ से आख्यान की जो यात्रा प्रारम्भ हुई थी वह अब नई सदी में प्रवेश कर चुकी है. भारतीय और हिंदी उपन्यासों ने इस बीच बनते हुये भारत की आंतरिक विसंगतियों, सुप्त और लुप्त अस्मिताओं, अनुपस्थित स्त्री की उपस्थिति और भारतीयता की खोज़ में अपने को विन्यस्त किया.
नई सदी के हिंदी उपन्यास उत्तर-आधुनिकता,जादुई यथार्थवाद, उत्तर-सत्य, उत्तर-लोकतंत्र, नुकीली होती अस्मिताओं, बर्बर साम्प्रदायिकता, स्मृतिहीनता और डर के बीच अपना आकार ले रहें हैं, उन्हें रच रहें हैं और अब सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में सामने खड़े हैं.
आलोचक राकेश बिहारी का नई सदी की हिंदी कहानियों का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ आधार प्रकाशन से छप कर आ गया है. इसके प्रकाशक देश निर्मोही के अनुसार इसे किसी उपन्यास की तरह लोकप्रियता मिल रही है.
राकेश बिहारी का नया स्तम्भ ‘आख्यान-प्रतिआख्यान’ हृषीकेश सुलभ के  उपन्यासअग्निलीक से आरम्भ हो रहा है. इस स्तम्भ में वह नई सदी के महत्वपूर्ण उपन्यासों पर अपना आकलन प्रस्तुत करेंगे.
आज बसंत पंचमी है, इस अवसर पर इससे बेहतर और क्या किया जा सकता है.


आख्यान-प्रतिआख्यान (१)
अग्निलीक पर चलने की मुश्किलें                                    
(संदर्भ: हृषीकेश सुलभ का उपन्यासअग्निलीक’)

राकेश बिहारी




मैला आँचलके प्रथम संस्करण की भूमिका में पूर्णिया को उपन्यास का कथानक बताते हुये रेणु कहते हैं- इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी हैं, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया. कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा, जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता.” 

मैला आँचलके प्रकाशन के ठीक 65 वर्षों बाद प्रकाशित समर्थ और वरिष्ठ कथाकार हृषीकेश सुलभ के पहले उपन्यासअग्निलीकपर बात करते हुयेमैला आँचलकी भूमिका के उपर्युक्त अंश की याद आने का कारण सिर्फ इतना नहीं है कि इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के आवरण पर प्रकाशित प्रकाशकीय प्रस्तावना में यह कहा गया है कि

यह कथा फणीश्वरनाथ रेणु की कथा-भूमि की याद दिलाती है. रेणु ने कोसी तट के आसपास बसे गावों को अपना कथा-विषय चुना था, सुलभ जी ने अपने इस पहले उपन्यास में घाघरा नदी के किनारे बसे गावों की कथा कही है.

मैला आँचलका  प्रकाशन महज एक उपन्यास का छपना नहीं था बल्कि हिन्दी उपन्यास के इतिहास में यह एक ऐसी परिघटना थी, जिसनेदेहाती दुनिया’ (शिवपूजन सहाय) से शुरू हुई आंचलिक उपन्यासों की परंपरा को एक ऐसी ठोस रचनात्मक दिशा दी  जिसमें आजआधा गाँव’ (राही मासूम रज़ा), ‘डूब’ (वीरेंद्र जैन), ‘इदन्नममऔरचाक’ (मैत्रेयी पुष्पा) जैसे उपन्यासों की मजबूत कड़ियाँ मौजूद हैं.  उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है, पर गौर किया जाना चाहिए कि इन उपन्यासों में महाकाव्यों की तरह किसी चरित्र विशेष को नायकत्व नहीं प्राप्त है, बल्किकथा-भूमिऔरकथा-समयखुद ही यहाँ नायक की तरह कथा के केंद्र में विन्यस्त हैं. पात्र के बजाय स्थान और समय को नायकत्व प्रदान करने की इसी विशेषता के कारणअग्निलीकको हिन्दी उपन्यास की इस समृद्ध परंपरा की अद्यतन कड़ी के रूप में शामिल होने का हक और हुकूक स्वतः ही हासिल हो जाता है. यहाँ यह भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है कि किसी अंचल विशेष की भाषा, लोक-व्यवहार, आचार-संस्कार, रीति-रिवाज आदि की मुखर अभिव्यक्ति के कारण इन्हें आंचलिक उपन्यास भले कहा जाता है, पर इन उपन्यासों में व्यक्त चिंताएँ संदर्भित अंचल के कूल-कछारों का अतिक्रमण कर मनुष्य और मनुष्यता की वृहत्तर सीमाओं में घुलमिल जाती हैं.

कहने की जरूरत नहीं कि संज्ञा (मनुष्य) से विशेषण (मनुष्यता) बनने की इस प्रक्रिया में व्याकरण के नियमों से ज्यादा जल, जंगल और जमीन जैसी अन्यान्य मनुष्येतर संज्ञाओं से जुड़े प्रश्नों और चिंताओं की बड़ी भूमिका होती है है. यहाँ जिन उपन्यासों का संदर्भ आया है, उनमें भले किसी पात्र या चरित्र को उक्त उपन्यासों का नायकत्व हासिल नहीं हो, पर उपन्यास के कथानक का अतिक्रमण करते हुये अपनी स्वतंत्र पहचान अर्जित करने का उनका सामर्थ्य और संदर्भित कथा-भूमि तथा कथा-समय के सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों से टकराने का दृष्टिपूर्ण साहस ही इनके आंचलिक संदर्भों कोग्लोबलमहत्व और स्वीकृति प्रदान करता है. इस आलेख की शुरुआत में उद्धृतमैला आँचलकी भूमिका मेंमैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पायावाले हिस्से को इस संदर्भ में इसलिए भी रेखांकित किया जाना चाहिए किअग्निलीककी सामर्थ्य और सीमा को परखने के लिए यह एक जरूरी उपकरण साबित हो सकता है. 

अग्निलीक’, जिसे मैंने यहाँ आंचलिक उपन्यासों की परंपरा की अद्यतन कड़ी कहा है, का कथानक एक ऐसे यथार्थवादी धरातल पर विकसित होता है, जिसमें समकालीन राजनैतिक संदर्भों के आलोचनात्मक विश्लेषण की अपार संभावनाएं सन्निहित हैं. चार पीढ़ियों के विस्तृत कालखंड को समेटने का दुष्कर कार्य करने वाले इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण और जरूरी हिस्सा जिस कालखंड में घटित होता है, वह न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे भारत की राजनीति की दशा-दिशा बदलने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और  आर्थिक बदलावों का गवाह है, जिसेमण्डल’, ‘मंदिरऔरउदारीकरणके तीन सुविधाजनक पदों की पृष्ठभूमि में चीन्हा-समझा जा सकता है. इसी समयावधि में जातिवादी बर्चस्व की ऐंठ से भरे सामंतवाद को दलितों-पिछड़ों की राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध ने न सिर्फ चुनौती दी बल्कि उनके समानान्तर अपनी एक नई दुनिया का निर्माण भी किया. यहाँ इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि इन सामाजिक-राजनैतिक बदलावों की दिशा सर्वथा सकारात्मक ही नहीं रही और ना ही सामंतवाद पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. बल्कि इसी कालखंड में दलितों-पिछड़ों के कंधे पर सवारी कर अपना बर्चस्व कायम करने वाला एक नवसामंती तबका भी आ खड़ा हुआ और पुराने सामंतों ने अपनी खोई हुई सत्ता को वापस हासिल करने के लिए चालाकियों के नए परिधान भी धारण किए. यह सुखद है कि सामाजिक-राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों और पुराने सामंतों के खुरचनी अवशेषों की नई धूर्तताओं को रोशनी में लाने का काम यह उपन्यास बखूबी करता है.

हाशिये पर बसर कर रहे समाज की नवचेतना और नवसामंतों के उदय की अभिसंधि पर उगने वाले अंतर्विरोधों की पहचान हृषीकेश सुलभ की बहुचर्चित कहानीपांडे का पयानमें भी बहुत बारीकी से हुई है. पर यहाँ इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि राजनैतिक चेतना और अस्मिताबोध की अंतर्दृष्टि से सम्पन्न जातीय संघर्षों-विमर्शों के महत्व को बिना रेखांकित किए सिर्फ उनके अंतर्विरोधों की चर्चा से इस विमर्श के परिप्रेक्ष्य को उसकी संपूर्णता में नहीं परखा जा सकता. कहानी के सीमित कलेवर में तो एक बार यह न भी खटके, पर इतने बड़े समयान्तराल की कथा कहने वाले उपन्यास से यह मांग जरूरी और जायज है. गौरतलब है किअग्निलीकजिस मुखरता से सामाजिक राजनैतिक नवोन्मेष के अंतर्विरोधों को रेखांकित करता है, उतनी ही आसानी और सहजता से उसकी पृष्ठभूमि में अनिवार्यतः उपस्थित जातीय अस्मिताबोध से उत्पन्न टकराहटों और उसकी आड़ में जड़ जमाने वाले नवसामंतों की कारगुजारियों दोनों ही की लगभग अनदेखी कर जाता है या उससे बच निकलता है. जबकि उपन्यास की कथा-भूमि सीवान के आसपास का इलाका न सिर्फ इन नई सामाजिक-राजनैतिक परिघटनाओं का बड़ा गवाह रहा है, बल्कि सत्ता के शह पर राजनीति और अपराध का भयानक गठजोड़ जिस दबंगई से यहाँ फलता-फूलता रहा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है. इस पूरे प्रकरण पर उपन्यास की नज़र किस तरह पड़ती है उसे सीधे उपन्यास की जुबानी ही सुना जाना चाहिए- 


सीवान एक छोटा-सा कस्बाई शहर था, सत्ता पोषित एक दुर्दांत अपराधी के आतंक की छाया में यह शहर लंबे समय तक जैसे-तैसे सांस लेकर जीता रहा था.” 

लंबे समयका यह त्रासद प्रकरण, जिसने इस पूरे इलाके के वजूद को सिहराए रखा हो, को उसके सामाजिक प्रभावों की गहराइयों में बिना उतरे महज इन दो वाक्यों में समेट कर यह उपन्यास जिस तरह आगे बढ़ जाता है, वह इसके सुदीर्घ कालखंड और कथानक के स्वाभाविक राजनैतिक गुण-सूत्रों के मद्देनजर इस उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत के रूप में पेश आता है. हालांकि पटना और सीवान के दो राजनैतिक परिवारों के बीच की नातेदारी और देवली गांव के पंचायत चुनावों में मुस्लिम और यादव समुदाय के राजनीतिक समीकरणों की तरफ एक हल्का-सा इशारा उपन्यास जरूर करता है, पर वह इतना हल्का है जिसमेंबच निकलनेकी अनुगूंजें बहुत आसानी से सुनी-समझी जा सकती हैं. समकालीन राजनीति के उस बीहड़ में बिना धँसे संदर्भित जनपद के राजनैतिक-सामाजिक बदलावों को रेखांकित करने की रूमानी रचना-प्रविधि ने उपन्यास को कथानक की उन गहराइयों तक नहीं पहुँचने दिया है जिसकी जड़ें 1857 के सिपाही विद्रोह से लेकर बिहार में 2016 में लागू हुई शराबबंदी तक फैली हुई हैं.     

अग्निलीकके आरंभ और अंत दोनों छोरों पर दो हत्याएं घटित होती हैं- शुरुआत में शमशेर साँई नामक एक राजनैतिक कार्यकर्ता की हत्या और आखिर में मनोहर रजक नामक एक दलित छात्र की हत्या जो रसूखदार मुखिया लीलाधार यादव की पोती रेवती से प्रेम करता था. इन दोनों हत्याओं के बीच उपन्यास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कई और हत्याएं भी होती हैं, जिनके पीछे प्रेम और राजनीति ही हैं. राजनीति और संस्कृति के बीच एक अनोन्याश्रयी संबंध भी होता है. कभी सांस्कृतिक बदलाव राजनैतिक बदलावों के कारण बनते हैं तो कभी राजनैतिक चेतना सांस्कृतिक परिवर्तनों की वाहिका बनती है. प्रेम, जो सामान्यतया ऊपर से एक नैसर्गिक अभिक्रिया या स्वतःस्फूर्त रूहानी संयोग की तरह घटित होता दिखाई पड़ता है, अपने समय की राजनैतिक-सामाजिक हलचलों से निरपेक्ष नहीं हो सकता बल्कि उससे गहरे प्रभावित होता है. गौरतलब है कि यथार्थ के सख्त धरातल पर खड़े राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक से निर्मित यह उपन्यास लगभग आद्योपांत अलग-अलग पीढ़ी के उत्कट प्रेम-प्रसंगों से सिंचित है. उपन्यासकार के शब्दों में ही कहें तो इस पूरे उपन्यास मेंप्रेम की लरज़ती-काँपती छायाएंमौजूद हैं. हत्या और प्रेम की बहुतायत को देखते हुये हो सकता है कुछ लोगअग्निलीकको हत्या और प्रेम का उपन्यास ही कह-समझ बैठें, पर मूल्य निर्णय की ऐसी जल्दबाजियां इस उपन्यास के साथ न्याय नहीं कर सकती हैं. 

प्रेम के प्राकृतिक पक्ष, उसकी दैहिक स्वाभाविकताओं और प्रेम-प्रसंगों में अमूमन घटित होने वाली वंचनाओं को यह उपन्यास जिस चाक्षुस और स्पर्शी प्रभावोत्पादकता के साथ दर्ज करता है, वह इसके महत्वपूर्ण हासिलों में से एक है. उपन्यास में वर्णित प्रेम-प्रसंग और उनकी नियतियाँ कई जगह पाठकों को नम करते हुये उनके भीतर करुणा उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखती हैं. प्रेम की स्वाभाविक अनुभूतियों को पूरे कलात्मक वैभव के साथ पाठकमन पर उकेरने के लिए निश्चय ही हृषीकेश सुलभ बधाई के पात्र हैं. बहुत संभव है मुझ सहित कुछ लोगों (पढ़ें, लेखकों) के लिए उनकी यह उपलब्धि एक खास तरह की ईर्ष्या और स्पर्धा का कारण भी हो. पर इस संदर्भ में मेरी चिंताएँ यहाँ दूसरी हैं, दुहरी भी.  भारतीय समाज की अंतःसंरचना में अनिवार्यतः उपस्थित जाति, वर्ग और संस्कृति की आचार संहिताओं  से पोषित टकराहटों का तनाव प्रेम की नैसर्गिकता को जिस तरह नियंत्रित और संचालित करता है, क्या उसका मुकम्मल चेहरा इस उपन्यास में मौजूद है? यदि नहीं, तो क्यों और यदि हाँ, तो यह उपन्यास उन आचार संहिताओं की सुविधाजनक चौहद्दियों का कितना और किस तरह अतिक्रमण करता है? प्रेम की सामाजिक नाकेबंदी और उसके अतिक्रमण को लेकर मेरे भीतर उठ रहे ये प्रश्न सिर्फ मेरे नहीं हैं. 

इसे बहुत पहलेअलग-अलग वैतरणी’ (शिव प्रसाद सिंह) के सरूप भगत ज्यादा स्पष्ट और मुखर भाषा में पूछ चुके हैं-“’परेमकोई बुरी चीज नहीं. मगर ई कैसा परेम भाई! आज तक किसी राजपूत-बामन लड़की के साथ चमार दुसाध का परेम काहे नहीं हुआ?”तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद आज जब इस प्रश्न के सकारात्मक उत्तर सहज ही हमारे समाज में दिखने लगे हैं, ‘अग्निलीकसे गुजरते हुये सरूप भगत का यह प्रश्न यदि लगभग अनुत्तरित ही रह जाता है तो इसके कारणों को भी कहीं न कहीं उसबच निकलनेकी लेखकीय नियति में तलाशा जा सकता है. इस बात पर भी गौर किए जाने की जरूरत है कि नन्हें मियां और नबीहा के सफल किन्तु अति संक्षिप्त प्रेम-प्रसंग के अपवाद को छोड़ दें तो उपन्यास में आए लगभग सभी प्रेम चाहे वह यशोदा और लीला साह का हो या रामझरी और अकलू यादव का, कुंती और मास्टर मुचकुंद शर्मा का हो या फिर रेवती और मनोहर रजक का, सबके सब असफल हैं. इनमें से एकाधिक स्थितियों में प्रेमी की हत्या भी हो जाती है. प्रेम में असफलता या हत्या कोई नई या अकल्पनीय स्थितियाँ नहीं हैं, पर चार पीढ़ियों के अंतराल में फैले हुये ये विविध प्रेम-प्रसंग जिस तरह बिना किसी उल्लेखनीय संघर्ष के असफल हो जाते हैं और समाज में घटित हो रहे तमाम बदलावों के बावजूद यदि इनमें से एक भी प्रसंगअलग-अलग वैतरणीके सरूप भगत के उस असुविधाजनक प्रश्न का कोई माकूल उत्तर नहीं दे पाता है तो यह चिंता और निराशा की बात है. 

उपन्यास में होने वाली कई-कई हत्याओं को लेकर कथाकार प्रभात रंजन द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुये, जो यूट्यूब पर उपलब्ध है, हृषीकेश सुलभ इसे आज के हत्यारे समय का प्रतीक कहते हैं. बेशक यह एक हत्यारा समय है, लेकिन सिर्फ इतना भर कहकर इस समय के साथ न्याय नहीं किया जा सकता. कारण कि यह समय सिर्फ हत्या का ही नहीं, अस्मिताबोध से उत्पन्न वंचितों-पीड़ितों के संघर्ष का भी है. समय के इस दूसरे पक्ष की अनुपस्थिति के कारण ही अपने वर्तमान स्वरूप में उपन्यास में घटित कई हत्याएं, खासकर मनोहर रजक की हत्या अस्वाभाविक, गैरज़रूरी और आरोपित लगती है. 

हृषीकेश सुलभ एक शब्द-समृद्ध और भाषा-सजग कथाकार हैं. नाटक की दुनिया में भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण इनकी कथा-भाषा और दृश्य-विधान पर नाटक की स्वाभाविक तकनीकों का सहज प्रभाव देखने को मिलता है. संवाद और दृश्यों में व्याप्त नाटकीयता इनकी कहानियों में निहित बहुपरतीय  अर्थ-छवियों को लगातार समृद्ध करती रही है. कलकल करती नदी की तरह बहने वाली इनकी तरल भाषा अपनी इंद्रधनुषी भावप्रवणता से पाठकों को एक चुम्बकीय सम्मोहन में बांध कर रखने का जो  सामर्थ्य रखती है, उसे इस उपन्यास में सहज ही महसूस किया जा सकता है. तत्सम और लोक के सहमेल से बनी इस भाषा का यह मुहावरा हृषीकेश सुलभ ने अपनी मिट्टी और परिवेश के साथ एक सघन आत्मीय जुड़ाव से अर्जित और पोषित किया है. निर्मल वर्मा से लेकर प्रियंवद तक भाषा का निजी मुहावरा विकसित करने वाले लेखकों की एक विशिष्ट पांत हिन्दी में मौजूद है. लेकिन इस भाषा की दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब कथाकार कथा में वर्णित यथार्थ और कथा-पात्रों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से बेखबर होकर सबकुछ एक ही तरह की भाषा में कहना शुरू कर देता है.अग्निलीकमें भाषा की यह दिक्कत तीन स्तरों पर पेश आती है. 

पहली दिक्कत यह कि एक राजनैतिक गुण-धर्म वाले कथानक के यथार्थ का वहन करने के लिए जिस भाषा का उपयोग यहां हुआ है वह अपने स्वभाव और संरचना में बेहद रूमानी है. कथानक के यथार्थ और कथा-भाषा के बीच स्थित इस दूरी का ही परिणाम है कि प्रेम के नैसर्गिक सौन्दर्य, देह के प्राकृतिक आकर्षण और त्याग-समर्पण की अश्रुविगलित कारुणिकताओं के उत्सवीकरण की कई-कई छवियों से सुसज्जित इस उपन्यास में खुद को बचाए रखने के संघर्ष से दीप्त प्रेम का कोई मजबूत चेहरा मौजूद नहीं है. अपनी भाषा के नाजुक सौन्दर्य के प्रति अटूट लेखकीय मोह यहाँ जिस तरल सहजता से परिवेश और प्रकृति के खूबसूरत लैंडस्केप की रचना करता है, उसी प्रभावोत्पादकता के साथ यथार्थ की विभीषिकाओं के भीतरी तहों में नहीं उतर पाता. या यूं कहें कि भाषा का लालित्यपूर्ण सौन्दर्य पाठकों को इस कदर सम्मोहित कर लेता है कि कथानाक में निहित त्रासदी उस तक संप्रेषित ही नहीं हो पाती. उदाहरण के लिए उपन्यास के उत्तरार्ध में वर्णित अनावृष्टि के दृश्य को देखा जा सकता है- सावन भादों में भी धरती की प्यास नहीं मिटी, आषाढ़ की छिटपुट वर्षा धरती की कोख तक नहीं पहुँच सकी. धरती की कोख अगर नम नहीं होती खरीफ की फसल तो जाती ही है, रबी की आस भी टूट जाती है. देवली, मनरौली, पुरैना, मानिकपुर आदि गांवों के चँवर में धान की रोपनी तक नहीं हो सकी. आषाढ़ के पानी में लगे बीचड़े रोपनी के इंतज़ार में खड़े-खड़े झुलस गए. सावन-भादो में बाँकी अदा से लहराने वाली संपही के पेट में धूल उड़ती रही. दुधही के विशाल उदर में फटी दरारें जल की बूंदों की आस में मुंहबाये  आसमान की ओर ताकती-तरसती रह गईं. 

इसमें कोई संदेह नहीं कि गद्य की यह खूबसूरती विरल है. पर इसकी दिक्कतें दूसरी हैं. यहाँ भाषा प्रकृति के विजुअल्स रचने में इस कदर डूबी हुई है कि संदर्भित यथार्थ की विभीषिका झेलने वाला व्यक्ति समूह इस तस्वीर में आने से रह जाता है. अपनी तमाम खूबसूरती के बावजूद उपन्यास की भाषा की दूसरी दिक्कत है- नैरेटर और पात्रों की भाषा का लगभग एक जैसा होना. हालांकि कुछ शब्दों के आंचलिकीकरण (यथा- जिंदगी के लिए  जिनगी, ब्लाउज के लिए बेलाउज, उम्र के लिए उमिर आदि का प्रयोग ) के माध्यम से लेखक ने पात्रों की भाषा को नैरेटर की भाषा से अलग करने की कोशिश जरूर की है पर अपने भाषाई मुहावरे और अनुशासित वाक्य संरचना से वह उन्हें नहीं बचा पाया है. परिणामतः पूरा उपन्यास और उसके पात्र जैसे लगभग एक ही भाषा में बोलते प्रतीत होते हैं. इस क्रम में कई बार नैरेटर कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भी कर जाता है, जो उपन्यास और उपन्यासकार की असावधानी के रूप में सामने आता है. इसे समझने के लिए उपन्यास के प्रथम पृष्ठ के तीसरे वाक्य को देखा जाना चाहिए-यह कच्ची सड़क गाँव के दक्खिनी छोर पर बसे हरिजनों के टोला टोटहा से आती थी...उल्लेखनीय है कि हरिजन शब्द का प्रयोग 1982 से ही गैरकानूनी है. किसी पात्र द्वारा कहे गए संवाद में इस शब्द के प्रयोग को तो एक स्तर पर समझा जा सकता है, पर नैरेटर की भाषा में यह असावधानी खटकनेवाली है. दरअसल कानूनी-गैरकानूनी की खांचेबंदी से अलग यह हमारे अवचेतन में स्थित जातिबोध और उससे संबन्धित ग्रंथियों से जुड़ा प्रश्न है. यहाँ एक बार फिरमैला आँचलके ही एक संदर्भ पर ध्यान दिया जाना चाहिए-खेलावन सिंह यादव को लोग नया मातबर कहते हैं लेकिन क्षत्रिय टोली को अबगुअर टोलीकहने की हिम्मत कोई नहीं रखता. 

इस तरहअग्निलीकमें प्रयुक्तहरिजनों का टोलाऔरमैला आँचलमें प्रयुक्तगुअर-टोलीको समानान्तर रखकर मध्यम और अनुसूचित जातियों के बदलते अस्मिताबोध के प्रति दोनों उपन्यासों के दरम्यान पसरे फासले को समझा जा सकता है. दृश्य, परिवेश और पात्रों के बदलने के बावजूदचाँदनी का बरसना’, ‘खल्वट माथा’ ‘नेह-छोह’, ‘लोप होना’, ‘कज्जल जलजैसे शब्दों-पदो की बारंबार आवृति उपन्यास की भाषा की तीसरी दिक्कत है, जिससे कई बार इसके एकरस होने का अहसास भी होता है.अग्निलीककी इन भाषाई दिक्कतों पर बात करते हुये यह भी कहा जाना जरूरी है कि यह अकेले इस उपन्यास की दिक्कत नहीं है. भाषा का निजी मुहावरा औरसिग्नेचरविकसित करनेवाले लगभग सभी लेखकों के साहित्य में ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं. नैरेटर और पात्रों की भाषा के बीच अंतर नहीं होने के साइड इफ़ेक्ट् को   

मजबूत स्त्री चरित्रों की रचना हृषीकेश सुलभ की कथा-यात्रा की एक ऐसी विशेषता है जो इन्हें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कथाकारों से अलग करती है. वर्ग, वर्ण और स्थान की हदबंदियों से अलग दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुखों और स्वप्नों में एक खास तरह की साझेदारी होती है. आधुनिक समय में देश और दुनिया के  तमाम स्त्री आंदोलन स्त्रियों के उस साझेपन को न सिर्फ पहचानते हैं बल्कि दुख और सपनों की वह साझेदारी ही उन्हें परस्पर आबद्ध भी रखती है, जिसे स्त्रीवाद और समाजशास्त्र की शब्दावली मेंग्लोबल सिस्टरहुडयासार्वभौम भगिनीवादके नाम से जाना जाता है. हृषीकेश सुलभ की कहानियाँ स्त्री स्वर की मजबूत अभियक्ति के कारण मुझे हमेशा से प्रिय रही हैं. इनकी कहानी `अगिन जो लागी नीर मेंकी माधुरी देवी और सुवन्ती स्नेहा जैसी स्त्रियाँ जिस तरह बदलावों की नई इबारत लिखती हैं वह हमें कई तरह की आश्वस्तियों से भर देता है. 



मजबूत स्त्री चरित्रों के सृजन का वह सिलसिलाअग्निलीकमें कुछ और आगे बढ़ता है. रेशमा, जसोदा, कुंती, रेवती, रामझरी, नबीहा, नाज बेगम, गुल बानो, मुन्नी बी जैसी स्त्रियों के चरित्र और व्यक्तित्व में व्याप्त इस्पाती दृढ़ता इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है. जिस तरह यह उपन्यास एक स्त्री के अपूरित स्वप्न को दूसरी स्त्री के स्वप्न में विस्तारित करता है, वह स्त्री मन और जीवन में हो रहे बड़े बदलावों की मुनादियाँ हैं जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. शमशेर साईं, जिसकी हत्या के साथ उपन्यास का आरंभ होता है, की पत्नी गुल बानो और बचपन से ही जीवन के झंझावातों से जूझकर खुदमुख्तार बनी रेशमा, जो अपनी प्रेम कहानियों और दबंगई के लिये कुख्यात है, का बहनापा इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है. ध्यान देने योग्य  है कि रेशमा का प्रेमी अकरम अंसारी जो सरपंच है, शमशेर साँई की हत्या का अभियुक्त है. ऊपर से देखें तो रेशमा और गुल बानो के निजी हितों की टकराहटें दोनों को एक दूसरे का दुश्मन भी बना सकती थीं, पर यह उपन्यासकार की उस सूक्ष्म दृष्टि की ताकत है कि वह इस लघु यथार्थ का अतिक्रमण कर उन दोनों के दुखों के साझेपन को पहचानते हुये उनके बीच बहनापे का एक बृहत्तर संसार रचने में कामयाब होता है. लेकिन कई-कई मजबूत स्त्री किरदारों के हासिल के बीच जो एक बात खटकनेवाली है, वह है स्त्री देह के प्रति लगभग पूरे उपन्यास में फैली हुई लोलुपता. स्त्री पात्रों को देखते ही जैसे नैरेटर की निगाहें उसकीगदराई जवानी’, ‘गठीली देहऔरछाती की गोलाइयोंको टटोलने लगती है. यहाँ थानाध्यक्ष गरभू पांड़े द्वारा रौंदी जाने के बाद शारीरिक-मानसिक तकलीफ से घिरी रेशमा की मनःस्थितियों का वर्णन करते हुये नैरेटर की भाषा को देखा जाना चाहिए- 


रेशमा की अधनंगी देह बिछावन पर कुहुक रही थी और पतिया मलिया में सरसों का तेल लिए उसे मालिश कर रही थी. संभोग-प्रिया रेशमा को अपनी देह से घिन आने लगी थी. गरभू पांड़े ने उसकी देह को रौरव नरक में बदल दिया था.” 

अपने साथ दुष्कर्म होने के बाद एक स्त्री अपनी देह को लेकर किस हद तक विक्षोभ से भर सकती है, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसे समझने की कोशिश कर सकता है, पर ऐसी स्त्री की उस दारुण मनोदशा का वर्णन करते हुये उसके लिएसंभोग-प्रियाऔरअधनंगीजैसे विशेषणों का प्रयोग करना उस मर्दवादी लोलुपता को ही दर्शाता है जो दुख-तकलीफ के क्षणों में भी पर्वर्टेड सुख के संधान का अवसर खोज ही निकालता है. यदि यह हरकत गरभू पांड़े जैसे किसी चरित्र की होती तो उसे इस विचलन के प्रकटीकरण की तरह देखा जा सकता था पर नैरेटर या सूत्रधार, जो कथा में लेखक का प्रतिनिधि होता है, की भाषा में यह फिसलन पात्रों की निर्मिति और सर्जक की सजगनिगाही के बीच स्थित दरारों की तरफ ही इशारा करता है.  

मैला आँचलकी ही तरह अग्निलीक भी एक पात्रबहुल उपन्यास है. ऊपर उल्लिखित स्त्री पात्रों के समानान्तर इस उपन्यास में ढेर सारे पुरुष पात्र भी हैं जिनमें मुखिया लीलाधार यादव, सरपंच अकरम अंसारी, लीला साह, पिंटू सिंह, अकलू यादव, मुंशी दामोदर लाल, बिलट महतो, नौषर साईं, बैगा सुनार, मंसूर मिया, सुजीत, मुचकुंद शर्मा, मनोहर रजक, अनिल मांझी आदि के नाम उनकी प्रसंगानुसरूप उपस्थिति के कारण याद रह जाते हैं. हालांकि उपन्यास में पात्रों का आना-जाना इस त्वरित गति से होता है कि उनके चारित्रिक विकास या पराभव का कोई उल्लेखनीय ग्राफ नहीं बन पाता है, जिसका कारण कभी तो पात्रों की द्रुत आवाजाही होती है तो कभी उनके गुण-धर्म के विपरीत उन पर आरोपित कर दी गईं लेखकीय निर्मितियाँ. उदाहरण के लिए लीलाधार यादव, मनोहर रजक, जसोदा और रेवती को देखा जा सकता है, जिनके चरित्र का स्वाभाविक विकास उयपन्यास में नहीं हो पाया है. कई बार चरित्रों को कथानक में जिस तरह प्रवेश होता है उसका निर्वाह उसके अनुरूप नहीं हो पाता. इस सिलसिले में लीलाधार यादव के चरित्र को देखा जाना चाहिए. 


जिस अवतारी तरीके से उनके जन्म की कथा उपन्यास में लिखी गई है, उसे देख कर लगता है कि उपन्यास के पटल पर उनका कोई भव्य-दिव्य चरित्र खड़ा होने वाला है, पर ऐसा नहीं हो पाता. वैसे ही जशोदा जिस तरह रातों रात अपने घर वालों की मर्जी के आगे समर्पण कर देती है या रेवती अपनी चारित्रिक दृढ़ताओं के बावजूद बिना किसी उल्लेखनीय हील हुज्जत के अपने सपनों की तिलांजलि देकर अपने दादा के कहने पर पंचायत का चुनाव लड़ने को तैयार हो जाती है, उसके व्यक्तित्व की निर्मिति से बहुत मेल नहीं खाता है. यहाँ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि लीलाधार यादव के कहने पर ही, रेशमा ने भी चुनाव लड़ने के लिए अपनी सहमति दी है. हालांकि उपन्यास की कथा जिस तरह लिखी गई है उससे ऐसा लगता है कि उपन्यासकार इन स्त्रियों को पितृसत्ता के मोहरे की तरह दिखाना चाहता है. स्त्रियों के लिए सुरक्षित सीटों की आड़ में पितृसत्ता जो खेल खेलती है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता. पर उसके लिए वह जिन स्त्रियों का चुनाव करती है, वह रेशमा और रेवती जैसी मजबूत स्त्रियाँ नहीं होती हैं. इसलिए रेशमा और रेवती को पितृसत्ता के हाथों का मोहरा बना दिया जाना भी उनके चरित्र की स्वाभाविक दिशा नहीं है. 

बहुत सारे पात्रों की आवाजाही के बीच शमशेर साँई की हत्या की वह गुत्थी, जिसकी चिंता से उपन्यास का आरंभ हुआ था, का अंत तक नहीं सुलझना भी उपन्यास की एक बड़ी दिक्कत है. न्यायिक प्रक्रिया के चलने के बावजूद यदि ऐसा होता तो यही स्थिति शिथिल और विलंबित न्यायिक प्रक्रिया का रूपक हो सकती थी. लेकिन, शमशेर साँई की हत्या के प्रकरण को चार्जशीट दाखिल करने, आरोपितों के जेल जाने और बेल पर उनके बाहर आने की बहुत ही शुरुआती और संक्षिप्त कवायदों के बाद लगभग विस्मृत कर दिया गया है. नतीजतन, अपने आरंभिक कौतूहल का समाधान नहीं हासिल होने के कारण पाठक खुद को रिक्तहस्त तो महसूस करता ही है, शमशेर साँई की कथा को विस्मृत कर देने के कारण उपन्यास के हाथ से वह सूत्र भी फिसल जाता है, जो उपन्यास की सभी उपकथाओं और अनुषंगों को परस्पर आबद्ध रख सकती थी.     

अग्निलीककी सामर्थ्य और सीमा पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि उपन्यास के पूर्वार्द्ध में घटित कई प्रसंगों की सघनता और विडंबनाओं के उद्घाटन के लिए प्रयुक्त भोजपुरी लोकगीतों पर बात न की जाये. प्रयोग हुआ है. एकाध अपवाद को छोड़ दें तो इन सारे गीतों को उनके मूल रूपों में नहीं देकर लेखक ने अपनी भाषा में पुनर्सृजित किया है. उपन्यास के प्रसंगों के बीच अपनी भाषा में लोकगीतों के पुनःसृजन के दो कारण हो सकते हैं- एक प्रभावी अर्थ-सम्प्रेषण की कोशिश और दूसरा मूल लोकगीतों के उद्धरण के कारण उपन्यास को आंचलिक करार दिये जाने का भय. जो लोग हृषीकेश सुलभ के रचना संसार से परिचित हैं उन्हें यह बखूबी पता है कि उन्होंने कहानी के शिल्प में भोजपुरी लोकगीतों की प्रभावी पुनर्रचना भी की है. कुछ वर्ष पूर्व संभवतः पाखी में प्रकाशित उनकी कहानीसीता राम और रावण’, जिसके केंद्र में सीता निर्वासन की कथा है, इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. घोषित तौर पर एक मुकम्मल कहानी के रूप में किसी लोकगीत की पुनर्रचना अपने उद्देश्य और प्रभाव दोनों ही में नितांत अलग होती है. पर, उपन्यास के विविध प्रसंगों में किया गया यह प्रयोग उस तरह का प्रभाव तो नहीं ही पैदा करता, स्वाभाविक नैरेशन के बीच अपनी अलग भाषावाली के कारण कुछ ज्यादा नाटकीय भी प्रतीत होता है. मूल लोकगीत का कोई संदर्भ नहीं दिये जाने के कारण, बहुत से पाठक जो मूल रचना से परिचित नहीं हैं, शायद यह भी नहीं समझ पाएँ कि यह किसी लोकगीत की पुनर्रचना है. 


कहानी के केंद्र में अमूमन जीवन का कोई एक टुकड़ा होता है, वहीं उपन्यास समूची मनुष्य जाति का आख्यान है, जो मनुष्य और उसके जीवन-जगत को समग्रता में संप्रेषित करता है. उपन्यास की सफलता इसी में निहित है कि वह असंभाव्य को भी अपने रचना फ़लक पर एक विश्वसनीय संभाव्य बनाकर पेश करे. विश्व और भारतीय कथा साहित्य में उपन्यास का यह इतिहास रोमांस से यथार्थ तक की लम्बी यात्रा के रूप में दर्ज है.अग्निलीककी दिक्कत यह है कि इसमें यथार्थ और रोमांस का अपेक्षित संतुलन नहीं बन सका है. दूसरे शब्दों में यथार्थ की ठोस धरातल पर खड़े कथानक को यहाँ रोमांटिक भाषा और ट्रीटमेंट से परखने की कोशिश की गई है. यही कारण है कि पठनीयता और रोचकता की अप्रतिम मौजूदगी के बावजूद यह एक बड़ा उपन्यास होने से रह जाता है और हृषीकेश सुलभ की रचना यात्रा में वैसी उल्लेखनीय अभिवृद्धि नहीं करता जो उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से अर्जित किया है. मुझ जैसे उनके अनगिनत प्रशंसकों को उनके उसबड़ेउपन्यास का इंतज़ार है जिसकी रचना के सामर्थ्य के लक्षण उनके कथा-संसार में बखूबी मौजूद हैं.अग्निलीककोउसउपन्यास के पूर्वाभ्यास की तरह देखा जाना चाहिए. 
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राकेश बिहारी 
(11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
कहानी तथा कथालोचना विधाओं में समान रूप से सक्रिय 
प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह)केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी  (कथालोचना) 
सम्पादन :  स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन), ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली
कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकटपत्रिका का विशेषांक)समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेदपत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित'अर्य संदेश'का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित), ‘रचना समयका कहानी विशेषांक. 
वर्ष 2015 के लिएस्पंदनआलोचना सम्मान से सम्मानित. 

संपर्क: D 4 / 6, केबीयूएनएल कॉलोनी, काँटी बिजली उत्पादन निगम लिमिटेड
पोस्ट– काँटी थर्मल, जिला- मुजफ्फरपुर– 843130 (बिहार) 
मोबाईल – 9425823033; ईमेल – brakesh1110@gmail.com 

विजया सिंह की कविताएँ

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विजया सिंह चंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब  Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है:  Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016). साहित्य अकादेमी ने उनका कविता संग्रह ‘First Instinct’ प्रकाशित किया है.

विजया हिंदी में भी कविताएँ लिखती हैं, समालोचन पर आप उन्हें पढ़ते आ रहें हैं. उनकी कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.






विजया सिंह की कविताएँ




शाहीन बाग की औरतें 

शाहीन बाग की औरतों का ज़िक्र छिड़ा 
बरगद के नीचे पंच परमेश्वर ने सुनाया फ़ैसला  
गुनहगार हैं ये औरतें 
बस एक दो दिन और 
सड़कें क्या इनके मियाँ की हैं?
हम करदाताओं के पैसों से बनी हैं ये सड़कें 
लोगों के चलने   
गाड़ियों के आने-जाने के लिए 
इनके पसरने के लिए नहीं 

औरतों ने कहा :
यहाँ हम अनार छीलेंगी 
स्वेटर बुनेंगी 
पिलाएँगी चाय 
देखेंगीं चाँद   
करेंगी बहस 
पढ़ेंगी संविधान 
बजाएँगी गिटार 
लहरायेंगी तिरंगा 

देंगी अपना दिल 
जो उतना ही लाल है जितना हर किसी का   
गाएँगी मर्सिया 
उनके लिए 
जो जीते जी मर चुके 
हम करेंगी पड़ताल 
धड़कन की उनकी
जो धकेलने को बेताब हैं हमें 
सरहद के उस पार 

ये सड़कें हमारी माएँ हैं 
इसके किनारे खड़ा यह पेड़ 
बचाना है इसे कटने से  
रात की रानी से महकाना है 
इस भारी हवा को 
जो ठहर गई है  
सेकने हैं भुट्टे 
चबाने हैं चने 
देना है एक और मौक़ा 
उस हिरन को 
जो भाग रहा है शिकारी से   
वह जो बना रही है सड़क 
उसके बच्चों के पास नहीं है स्वेटर
यह सड़क इसने बनाई है 
मिलके उसके साथ जिसके पास नहीं हैं गर्म कपड़े और पेट भर खाना.  




स्वर्ण चंपा दहक रहे हैं

तुम्हारे अखरोट 
हम खा गए
तुम्हारे बादाम
चिल्गोज़े चबा गए
केसर-दूध और दही में घोल पी गए
सेबआडू , खुमानी
सब पर हमारी नज़र है
तुम्हारे ग़लीचेशाल
और लकड़ी की नक्काशी वाली अलमारियां
हमें चाहियें अपने घरों के लिये

चाहिये हमें तुम्हारी नदियों का पानी
पहाड़ोंझरनोंऔर चरागाहों के नज़ारे
गर्मी की छुट्टियों  के लिये

रोगन-जोश और कहवा
इनके ज़ायके भी चाहियें
और तो और हमारे एल्बमों के लिये
हमें चाहिए एक फ़ोटो कश्मीरी लिबास में  

तुमने मेहमान नवाज़ी के सब कर्तव्य निभाए
अपनी गाड़ियों में तुम हमें ऊँचे –ऊँचे पहाड़ों से लौटा लाये
बदले में हमने क्या दिया ?

प्रजातंत्र  ?
जिसके एक हाथ में बंदूकदूसरे में भोंपू
आँखों की पुतलियों के बराबर छर्रे
भेदने को तुम्हारे बच्चों के आकाश
जवान जिस्मों पर नीले-लाल निशान

तुम्हें उठते ही बैठा दिया जाता है
बैठते ही उठा दिया जाता है
तुम्हारे सवाल हमारे कानों में शोलों की तरह दहकते हैं
और अंगारे बन बरसते हैं स्वर्ण चंपा की पंखुड़ियों पर

तुम्हारी चीखें हमें सुनाई नहीं पड़तीं 
तुम्हारे ज़ख़्म हम भरने नहीं देते
हम तुम्हारे बीच ऐसे घूमते हैं कि तुम हमें दिखाई नहीं देते. 




बहनें 

पूछना है मुझे उनसे 
क्या तुमने जाना 
कभी भी  
सुख 
चरम सुख 
आलिंगन में उसके 
जिसकी बाँह पकड़ 
गुड़िया सी सजी 
गहनों से लदी
तुम घूमीं  
अग्नि के चारों और 

क्या छुआ कभी अपने आप को 
वहाँ जहाँ मना किया सबने छूने से 
क्या देखा कभी ख़ुद को  
निर्वस्त्र 
नहाते हुए नहीं 
उत्सुकता से
बेलाज   
शीशे में ?
क्या ऐसा कोई शीशा था 
तुम्हारे  
हमारे घर में ?
कैसे छुआ उसने तुम्हें पहली बार
क्या उसे आता था करना प्यार 
क्या कुछ कहा उसने कान में तुम्हारे?
क्या तुम भी कुछ कह पायीं ?
कैसे सौंपती हो अपने को हर बार  
क्या उसे पा सकी कभी  
बाहरअंदरकहीं भी ?

सोने सी काया 
बिजली सा दिमाग़ 
चुस्त हाथ पैर 
मृदु मुस्कान 
कोकिल कंठ  
क्या पढ़ा कभी अश्लील साहित्य 
देखी कोई फ़िल्म ऐसी 
जिसने जगाया कामना को 
और नहीं दिया 
अपराधबोध 
कितना पाया अपनी देह को?



औरत

यह औरत 
इसमें अभी गुंजाइश है
नज़ाकत की 
हलांकि
इसके चेहरे की कठोरता यह संकेत नहीं देती 
इसके सुडोल, कोमल कंधों की झलक देता
कोल्ड शोल्डर कट’ वाला कुर्ता 
बताता है 
अभी पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुई है 
नर्म ख़रगोश सा 
कुछ बचा है इसके भीतर.



दिल का नगर

दिल 
दिल्ली है या आगरा 
फतेहपुर सिकरी 
या पुराना क़िला 
लोग कर रहे हैं जिक्र 
पुरानी इमारतों और शहरों का 
घूमते जाते हैं गोल-गोल 
और तय नहीं कर पाते 
कब ठहरना है, कब चलना है 
किसी ने कहा 
दिल तो टूटना ही था 
बाज़ीगर थी वह लड़की 
मक्कारियाँ थीं किरदार में उसके 
उसने कहा 
नहीं कर पाएगा वह फिर से भरोसा 
और छोड़ गया सब पीछे 
उसके सिरहाने मिला दीवान ग़ालिब का. 





गणपत्या की गजब गोष्ठी : अम्बर पाण्डेय

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उपन्यास-अंश
गणपत्या की गजब गोष्ठी                                
अम्बर पाण्डेय

(दुनिया के सभी अनागरिकों के लिए)



धुर्जटा गौडसारस्वत ब्राह्मणों के मठ केवलाद्वैत स्वामी अखण्डतीर्थ की एक शाखा गुड्डीपेठ, हैदराबाद में है. जिसके शिवालय में मेरे बाबा हरि गणपति वैद्य पुरोहित थे. धुर्जट्यापूर, गोवा हमारा पैतृक प्रदेश है और बाबा वहाँ के श्रीकण्ठ महादेव मंदिर की प्रतिवर्ष यात्रा करते थे उस वर्ष मुझे भी वहाँ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. मेरा उपनयन श्रीकण्ठ महादेव मंदिर के प्रांगण में मकरसंक्रान्ति की दोपहर सम्पन्न हुआ. वय उस दिन मेरी साढ़े पन्द्रह थी और मेरा शरीर उत्तरायण की धूप से और अधिक श्याम और अधिक सुन्दर हो गया था. यदि आप गोवा जाए तो धुर्जट्यापूर के श्रीकण्ठ महादेव मंदिर के दर्शन अवश्य करें. कहते है कि मंदिर की ध्वजा मात्र के दर्शन से जन्म जन्म के दारिद्र्य का नाश हो जाता है. यहाँ काले पाषाण के शिवलिंग पर श्रीयन्त्र खुदा हुआ है और किंवदंती है कि प्रतिप्रदोष यहाँ हीरे, मुक्ता, माणिक्य, पुष्पराग और स्वर्ण बरसता है जिसे कुबेर बीनकर ले जाते है.

सेंट ख़ालिद हायर सेकंडरी स्कूल में मुझे अंग्रेज़ी शिक्षा दीक्षा के बीच यज्ञोपवीत सम्भालने में बहुत दिक़्क़त होती. लघुशंका निवारण के समय लड़के मेरा कान पर चढ़ा जनेऊ खींचते और झगड़ा हो जाता. फिर मैंने इससे बचने का यह तरीक़ा निकाला कि जब वे जनेऊ खींचे उनकी ओर लिंग करके उनपर मूत्रधार छोड़ दूँ. इससे स्कूल में मेरा भय बैठ गया. दो चार मुसलमान दोस्तों की टोपी खींचकर उनपर भी मूत्रत्याग करने पर वे भी मुझसे डरने लगे. नित्यनियम से मैं अपने भाऊ और बाबा के साथ प्रातः और संध्याकाल में सन्ध्या करता और धार्मिक पुस्तकों का भी अध्ययन करने लगा. ब्राह्मणों की जीवनशैली के प्रति मेरी रूचि इतनी बढ़ी कि मैंने घर पर धोती पहनना आरम्भ कर दिया और अपने लक्स के जाँघिये भाऊ को पन्द्रह पन्द्रह रुपए में बेचकर लट्ठे का बना कौपीन पहनना शुरू कर दिया. जब दसवीं में पूरे तेलंगाना में मैं मेरिट में प्रथम आया तब मैंने निर्णय कर लिया कि अब शिखा भी रखूँगा और मैंने अपना सिर भी मुंडा लिया.

गणपति, चुटिया रखने का मंसूबा कब हुआ?” भोजन पर बाबा ने शिकवा लगाया.
यज्ञोपवीत के साथ चुटिया जरूरी है. मैंने सूर्यदेवता से मनोरथ किया था कि पूरे तेलंगाना राज्य में मेरिटलिस्ट में पहिला आया तो चुटिया नहीं कटाऊँगा” मैंने कहा और बाबा की आँख में आँख डालकर देखने लगा.
मास्टरलोग संतप्त होंगे” बाबा ने कहा और मेरी नजर से बचने को मुँह झुकाकर थाली में देखने लगे.
हुआ करें” मुझे पता था कि मेरी चुटिया देखकर मास्टरों से ज्यादा बाबा को संताप हुआ था.
चुटिया रखो जनेऊ पहनो रात्रिदिवस उपासना करो मगर पढ़ाई से टकटकी नहीं छूटना चाहिए. तुम्हारे बाबा तुम्हें सोफ़्टवेयर इंजीनर बनाने का स्वप्न तुम्हारे जन्म से करते है” आई ने कहा और रोटी का डब्बा लेकर हमारे सामने ही बैठ गई. भाऊ का मुँह उतर गया. बारहवीं में दो साल फेल होने के बाद वह बाबा के साथ कर्मकाण्ड सीख रहे थे. दुर्गासप्तशती और रुद्र पाठ करके जीवनयापन करना उनका भविष्य था, हाईटेक सिटी में जाकर काँचमड़ित ऊँची इमारत में टाई बाँधकर कम्प्यूटर के आगे बैठने का घरभर का स्वप्न धरा का धरा रह गया था.  आधी रोटी का टुकड़ा वह चबाते रहे फिर हाथ धो लिए.

केवल डेढ़ रोटी खाएगा भात छुवा तक नहीं” आई का मुँह उतर गया. उनके मन को भाऊ की अवस्था देखकर बहुत क्लेश होता था. एक बार उन्होंने बुआ को कहा भी था, “देखो, मेरा रामभद्र कितना सुस्वरूप दिखता है, लम्बा और कंधे ऐसे निकलते हुए. नाक लम्बी और आँखें बड़ी बड़ी गाय की आँखों जैसी. अब अभागा बहुत शोचनीय लगता है. तीसरी दफ़ा बारहवीं की परीक्षा देगा. गणपति फेल होता तो संताप न होता. उसे अनुज मानकर रामभद्र सम्भाल लेता. साँवले, तगड़े शरीर से गणपति कोई भी काम करता अच्छा लगता फिर उसकी धर्म में बहुत आस्था है पूजापाठ के आश्रय वह अपना आयुष्य काट लेने में लायक था. रामभद्र को देखकर ही भास होता है कि वह मृदु हृदय का धनी है और वह किसी सुघड़ कन्या की बाट जोहता है जो उसका हृदय अपने हाथों में ले सके, उसे स्नेह दे सके. मेरे रामभद्र को प्रीति की बहुत गरज है रे सावित्रा”

सुनकर तुम मेरे क्लेश की कल्पना कर सकते हो. मैं दुलाई तानकर शाम से ही बिस्तर में घुस गया और रोने का प्रयास करने लगा किन्तु रोना आ ही नहीं रहा था. आई भोजन के लिए पुकारने लगी. “मुझे नींद आ रही है” सुनने पर आई ने कहा, “परवाह नहीं. नींद आ रही होगी तो पेट भरा होगा. बाला तू खा” आई ने भाऊ से कहा और घरभर घी और भात की सुगंध से भर गया. भाऊ परीक्षा में शून्य पाकर भी ममतापात्र बना हुआ था हरामी. मैं वायुवेग से पाकघर में दाखिल हुआ और भाऊ की थाली खींचकर गुड़ और घी से सना भात खाने लगा.

ऐसा शिष्टाचार सिखाने से पहिले मेरे जीव का नाश होना था” आई चिल्लाई मगर मैं निर्लज्ज होकर अपने मुख में भाऊ का रात्रजेवण ठूँसता रहा. “सूअड़्ले, भकोसे जा रहा है देखता नहीं बाला की थाली है” आई का माथा तमतमा रहा था और कुंकू का तिलक ऐसा लगता था जैसे ज्येष्ठ के अपराह्नाकाश में चंड मार्तण्ड. थाली समेत मैं उठा और बचा भात खिड़की से बाहर उलट दिया, टोमी झपटा और घी-गुड़ पाकर आमोद से पूँछ हिला हिलाकर नाचने लगा. आई खिड़की पर दौड़ी.

जाने दो आई, जठर की उत्कंठा के मारे त्रास में था” भाऊ ने भला बनने का करतब किया.
वाह रे क्षुधादर्शक के नाती! कोई शुद्ध घी से सना भात कुतरे-मार्जार को देता है! आने दे तुम्हारे बाबा को ऐसा पिटवाऊँगी कि कूल्हें न सूजे तो मेरा नाम जया नहीं” आई ने फ़र्श से थाली उठाई और बड़बड़ाने लगी.

हाँ, हाँ, सब मेरी गाँड सुजाओ. अध्ययन भी मैं करूँ, कोई जेवण न पूछे और पीटे भी मुझे! भाऊ तो कलेक्टर है न” मैं चिल्लाचोट करने में किसी से कम था क्या. मुझे गायत्री के हज़ार जप का बल था.

जबान देखो इसकी! भात नहीं दिया इसे गू खिलाया बालपन से, दूध नहीं पिलाकर अपना मूत पिलाती थी मैं” आई मोरी में भांडे घिसते हुए बोली. आँखों के किनारों में थोड़े अश्रु भी अब तलक दीप्त होने लगे थे. बाबा के आने की भी बेला होने होने की थी. मुझे होश हुआ और घबराहट होने लगी. इतने में दरवाजे पर खटका हुआ. बाबा पैर धो रहे थे.

धड़ धड़ वह जब अंदर आए तो छपछप तलवों के पगचिह्न फ़र्शियों पर बन गए, “गाँड, गू-मूत यही सब सिखाने को देस से तुम्हें यहाँ लाया! पिताजी कहते थे कुछ नहीं धरा नगर में. आज देखा. बालक तो बालक उनकी माँ भी यही कर रही है. अपने कुलदैवत की सेवा छोड़ बिना कारण हैदराबाद में जोशीपन की जीविका पकड़ी” अब तो राखोड़ी से घिसे पीतल के चमचम भांडे पर आई के नेत्र टपटप गिरने लगे. भाऊ ने भी संयम खो दिया, “सब गणपत का खोडपण है. पहले मेरी थाली छीन ली फिर आधी खाकर कुतरे के आगे पटक दी और लगा आई को अपशब्द कहने. जिव्हा पर कोई बन्दिश नहीं”.

कोप से मेरा गला भर आया और मैं कुछ कह न सका.उस रात्रि आई ने भोजन नहीं किया न बाबा ने उन्हें भोजन करने का आग्रह किया. भाऊ ही “थाली परोस दूँ क्या थाली परोस दूँ क्या” ऐसी दरखास्त लगाता रहा मगर मजाल है कि थाली परोसकर लाया भी हो. आई ने पाकघर की अबेराअबेरी की और वहीं साड़ी ओढ़कर सो गई. भाऊ रात पड़े थोड़ी देर को गायब हो गया. मुझे ख़बर थी कि ख़ुद से बड़ी वय की एक लड़की से उसका मेलजोल है. मैं कुछ कहता न था हालाँकि मैंने उसे अपने एक मित्र से एक बार कहते सुना था, “हाँ यार वह राँड मेरे जीव से ख़ूब ख़ूब लगी है. क्या तो नगद लगती है तेरी वहिनी”. ऐसी छछोर बातें पिछले दिनों से भाऊ बहुत करने लगा था.

 कभी कभी निद्रा में मुझे “गोमता गोमता” कहकर जकड़ लेता और चमाट लगाने पर ही उसे होशावस्था होती थी. बहुत दिवस तक मैं यह समझता रहा कि भाऊ गोमाता का स्वप्न देखता होगा और भावातिरेक में मुझे जकड़ता है. यह बहुत बाद में पता चला कि उस लड़की का नाम गोमती है और भाऊ निद्रा में मुझे गोमती समझकर जकड़ता है और ‘गोमता गोमता’ करता है. तब मुझे स्वयं से घृणा हुई और भाऊ के प्रति प्रचंड कोप, एक रात्रि मैंने ऐसा चमाट लगाया कि भाऊ का सबेरे गाल सूजा हुआ था. आई ने खूब हल्ला किया कि गई रात्रि ऐसा क्या हुआ! बाबा ने भी जवाबतलबी की पर भाऊ निशब्द रहा, इसपर बाबा ने कुपित होकर उसे दो चमाटें और लगा दिए.

दूसरे दिवस बाबा दोपहरी को जब मन्दिर से भोजन को आए तो आई से घर का सामान बाँधने को कहा, “बाला, तू अपनी आई को काम में टेका देना. गणपत मेरे साथ जाकर मंदिर के पीछे गोशाला रहने को दुरुस्त करेंगे. आज रात्रि से पहिले वहाँ जाएँगे”.

मैंने गणित विषय लिया था जिसमें बहुत पढ़ना पड़ता था. जाने की इच्छा छटाँक न थी पर कल रात्रि हुई मारामारी के पीछे और बाबा को गरज है यह सोचकर मैंने तत्काल धोती का फेंटा कसा और चलने को उत्सुक खड़ा हो गया. “मालिक भाड़ा बढ़ाने को बोले क्या? अचानक सामान बाँधो बोले तो” आई ने पूछा. वह आटा गूँध रही थी, आज जेवण में विलम्ब हुआ. भाऊ की वजह से लेटलतीफ़ी हुई वह आटा पिसाने गया तो दो घण्टे बाद आया, “बिजली गुल हुई” बोलकर.

कल रात्रि जो हुआ उसके बाद दो दो तरुण होते पुत्रों को लेकर यहाँ पड़ा रहूँ! तुमने भी तो कल मुतारी सफ़ा करनेवाली बाइयों की माफ़िक़ रोडछाप बातें की. यह सब नीचे लोगों की संगत का परिणाम है इसलिए मठ के दफ़्तर धुर्जट्यापूर दूरध्वनि पर बात करके निश्चित किया है अब यहाँ एक रात्रि विश्राम नहीं”. आई का चेहरा कठोर पड़ा पर वह रोई नहीं. उठी और थालीपीठ को भाऊ की पुरानी बनियान से ढँककर सामान बाँधने लगी. भाऊ लोहे के पलंग खड़े करने लगा. “जल्दी ही ठेला करके लाता हूँ. गोशाला दुरुस्त करने में भी दो ढाई घंटे से कम न लगेंगे” बाबा ने कहा. मेरा पूरा दिवस फोकट जाएगा ऐसा सोचते मैं अपनी काठी बाबा के पीछे घसीटता गुड्डीपेठ से अतलिंगापल्ली चला.

पूरे दिन भूखा रहा कुटुम्ब नौ बजे सिगड़ी को घेरकर तपेली में बटाटे उबलने की प्रतीक्षा कर रहा था. भाऊ भूख के मारे बार बार बटाटों में चाकू कोंचकर देखता था कि बटाटे पक गए है या नहीं. “आप प्रत्येक धनतेरस पर कुकर लाने का वायदा करते पर अब तलक लाकर नहीं दिया” आई ने कहा. भाऊ की भूख आई से देखी न जाती थी. “गनपत्या, जाकर पापड़ ले आ. मन्दिर से तीसरा गृह पापड़ कारख़ाना है” बाबा ने कहा. मैं रुपया लेने को खड़ा रहा. “रुपए की गरज नहीं. मेरी पहचान है फोकट में दे देगी सुरेखावहिनी”. मैं दौड़ा पर फाटक खोलते ही आई ने टोका, “किसी से फोकट पापड़-बड़ी माँगने की गरज नहीं. जेवण में देर नहीं. बैठ जा. अधरात कारख़ाना खुला होगा?”

सुरेखावहिनी का कुटीर उद्योग है. उनके गृह में ही कारख़ाना चलता है” बाबा ने कहा. “इसलिए रोज लेटलतीफ़ी होती थी लौटते टेम. पापड़ बेलते होगे वहाँ” आई अचानक बोल पड़ी.

 “बच्चों के आगे भी आड़ नहीं!” बाबा फुसफुसाए. तो बाबा पापड़वाली के प्रियकर और भाऊ गोमता के ख़ाली मैं ही ठूँठ एकटा था. अहा, भाऊ की ढीली लंगोट वंशानुगत है, ऐसा विचार मन में आया. बाबा के विषय में मैं चाहकर भी ऐसा विचार नहीं कर सकता था. त्रिकालसन्ध्या, सोमवार और प्रदोष के व्रत और नित्य रुद्रीपाठ, शिवाभिषेक करनेवाले बाबा पापड़वाली से चोंचले करेंगे, विश्वास नहीं होता था. बाबा से आई भी कुछ बिना चिन्तन के न कहती थी. तभी कल आई का जी ख़राब था. तभी बाबा इतने कम भाड़े का गृह त्यागकर इस गोशाला में हमें ले आए ताकि पापड़वाली के निकट रह सके.

मंदिर में केवल एक गौ थी और गोशाला बड़ीजंगी. छप्पर और भित्ति में एक हाथ का अन्तर था. पावस, पवन को खुली छूट थी. बाबा और मैंने वहाँ पतरें ठोंके, छप्पर को तिरपाल से पाटा और प्रवेशद्वार दुरुस्त किया. अंदर कमरे थे पर द्वार नहीं थे. पुराने गृह से यह बहुत बड़ा था. चारे के कोठार को पाकघर बनाया, गाय बाँधने के जगह पर बाबा का लोहे का पलंग डाला. आई को कभी पलंग पर सोते नहीं देखा था पर बाबा ज़िद्दी होकर आई के लिए एक पुराना पलंग कहीं से लाए. ख़ुद के पलंग से जोड़कर आई का पलंग रखा.  भाऊ से मैंने अलग सोने का निश्चय किया और पीछे की अंधारभरी खोली में अपनी किताबें और कपड़े रख लिए. पलंग नहीं था इसलिए भूशयन का संकल्प लिया. बाबा ने पानी की कोठियों में नाली खुदवाकर स्नानघर बना दिया और मंदिरप्रांगण के एकमात्र संडास पर ताला डाल दिया ताकि हमारे कुटुम्बियों को छोड़ कोई मुसाफ़िर वहाँ न जा सके.

आई और भाऊ को यह स्थान बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था. आई के मन में पापड़वाली को लेकर शंका बैठ गई थी और यहाँ आकर भाऊ का गोमता से वियोग हो गया था. इसके अलावा उस बसाहट में नीचे लोगों में घुलनेमिलने में आई और भाऊ को थोड़ा भी संताप नहीं होता था. यज्ञोपवीत धारण करने के बाद मुझे उनके मुख देखना भी बर्दाश्त न था. वे दोनों मज़े में उनसे मेलजोल रखते थे. इस मामले में मैं बाबा पर गया था आख़िर पापड़वाली गौड़सारस्वत थी ऐसा मैंने बाद के दिनों में पता लगाया. उसके पति ने उसे छोड़कर मुसलमान बाई रखी थी.

मुझे इस गृह में शुद्धता का अनुभव होता. मंदिर में अधिक श्रद्धालु नहीं आते थे. केवल धुर्जटा गौडसारस्वत समाज के लोग आते और वे भी सोमवार या विशेष पर्वों पर. पूरे प्रांगण को जैसे जी चाहे बापरो. पानी की कंगाली नहीं थी. गूलर, वट और अश्वत्थ के वृक्ष थे. वहाँ तो पूरी गली गू से बासती थी. जिधर देखो उधर मूतारी सफ़ा करनेवालों के दर्शन होते थे. स्वच्छता के हज़ारों शासकीय विज्ञापनों का उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. सबेरे होते ही रोटी रोटी करते थे और दारू दारू करके रात्रि को लुढ़क जाते. संडास सफ़ा करते करते उनकी घ्राणशक्ति लुप्त हो गई थी लगता था.

गनपत्या, तुझे अपने ब्राह्मण होने का ग़ैरवाजिब घमण्ड है” एक दफ़ा भाऊ ने मुझसे कहा था जब मैंने उसके एक मित्र की माँ से मरीअम्मां का प्रसाद लेना नकार दिया था. “तुम्हारी वो गोमता सुलभ संडास सफ़ा करती है इसलिए मेरा शुद्धाशुद्ध का विचार तुम्हें हेतुशून्य लगता है. लगा करे मुझे क्या परवा” मैंने भाऊ पर ऐसा आक्रमण किया कि उसकी सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. वह आसपास देखने लगा कहीं आई तो नहीं सुन रही, मैंने अवसर देखकर और अधिक कहा, “ऊँची नौकरी कर सकते फिर भी यहीं पड़े गंद करते है साले, थू”. भाऊ मुँह झुकाए खोली से निकलकर सड़क पर भाग गया. उस दिन के पीछे इस विषय पर मुझसे कुछ कहने का साहस उसने नहीं किया.

अलग खोली होने से पहिली दफ़ा मैंने एकटेपन का आनन्द समझा. अध्ययन में विघ्न नहीं और दोपहरीभर दिवास्वप्न में मैं देखता कि हाईटेक सिटी में छबीसवें माले में अपने दफ़्तर में फटाफट काम निबटा रहा हूँ. मेरी चुटिया, जनेऊ और धोती से मेरे अफ़सरों को बहुत संताप है पर वह कुछ नहीं कहते क्योंकि मेरा काम ही ऐसा परिपूर्ण और त्रुटिरहित है. दोपहर को आख़िरी माले के पाट पर चढ़कर मध्याह्नसन्ध्या की वजह से सभी कामगारों के हृदय में मेरे प्रति कितना सम्मान है.

पूरा दिवस मैं अपनी खोली में काट देता. जेवण और संडास के लिए ही बाहर निकलता था. बिजली का बिल मन्दिर के खाते से जाता था इसलिए अंधारी खोली में दिन में भी बत्ती जलाकर रखता. दिन में बत्ती जलाने पर जो सुख होता है उसका वर्णन ब्रह्मा के वश की भी बात नहीं, ऐसा लगता मैं कोई शहर श्रीमंत हूँ. बल्ब के पीले पीले प्रकाश में फटली दुलाई के पुष्प नैसर्गिक दिखते और मुझपर सौन्दर्य का ऐसा आवेश होता कि उन पुष्पों से मुझे सुवास आने लगता. छप्पर से छिद्रों से आती किरणें परमेश्वर के हजार चक्षु लगती जिनके नीचे मैं खड़ा होता तो आत्म आलोकस्नात हो जाता. जैसे स्वर और व्यंजनों का समूह वाक्य में पड़कर अर्थपूर्ण हो जाता है वैसे ही इस खोली में आते ही मेरे जीवन को अर्थ प्राप्त हो गया था.

कल एकटा अपनी अंधारी खोली में बिलकुल मत बैठना” आई ने भाकरी थाली में उछालते कहा. मैथी का पिठले बना था. आज तो सब मैं ही खाऊँगा, ऐसा सोचकर मैं जेवण पर टूट पड़ा. “भात मुझे दो नक्को. केवल भाकरी” मैंने कहा.

पेटभर खाओ कल उपवास है, जनेऊ हुआ अब प्रतिप्रदोष उपवास. कल क्षारयुक्त कुछ नहीं” आई बोली.

साबूदाने वडे खाता न मैं” मैंने छठवीं भाकरी तोड़ते कहा.

बाबा को देखा कभी खाते, भाऊ को देखा! मैं तो जैसे साबूदाने वडा, सींगदाने की चटनी और सिंघाड़े का शीरा खाकर उपवास करती हूँ न! तू बालपण से देखता आया है फिर! केवल फल खाकर सबूरी करना कल” आई ने चिढ़कर कहा. अब तो कल लवण-तैल का कुछ मिलने नहीं वाला ऐसा सोचकर मैंने दो और भाकरी खाने का निर्णय लिया और पिठले का कटोरा आधा अपनी थाली में उलट लिया. आई भवें उठाए नेत्र फाड़ फाड़कर देखती रही पर कहा एक शब्द भी नहीं. भाऊ को भी पिठले बहुत भाता था और अब तलक वह घर नहीं आया था. खा रहा होगा चाट उसी गोमता के संग चारमीनार पर. आई का मेरे प्रति जो आचरण था वह मुझे बहुत क्लेश देता था. भाऊ लोफ़री करता था, लेटलतीफ़ी करता था, बारहवीं में अटककर शिक्षण का त्याग किया तब भी आई की उसपर ममता में लेशमात्र कम्ती नहीं हुई उल्टे उन्हें मुझसे चिढ़ छूटती. ऐसा आचरण करती जैसे मुझे कोई धुर्जटा शिवालय के फाटक पर पटक गया था, ऐसा सोचते सोचते खाते खाते भी मेरे नेत्रों से अश्रु टपकने लगे. मैंने शब्द नहीं कहा और अश्रु पोंछकर हाथ धो लिए.

थाली में ढेर सारा पिठले पलटते सोचा नहीं था कि खाते न बनेगा. सम्पूर्ण थाली खाओ. बालपण के कुटैव अब नक्को होना यहाँ” आई चिल्लाई.

पलटी हुई तो? पेट ख़राब हो गया लगता है” मैंने कहा और अपनी खोली की तरफ़ भागा कि आई के आगे रो न पड़ूँ.

पेटार्थी कहीं का” आई पिठले मेरी थाली से अलग रखते हुए पीछे से चिल्लाई.

दौड़ा दौड़ा अभी खोली आया. बिजली बुझाई और अपनी फटली-बसोड़ी गोदड़ी पर औंधे मुँह पड़ गया. स्वादिष्ट जेवण का प्रभाव था या दुख की निद्रा ही ऐसी प्रबल होती है; मैं सूर्य चढ़े जागा. अचम्भा तो यह था कि न जगाने को न आई आई न भाऊ. सीधे संडास की तरफ़ दौड़ा. प्रदोष व्रत के कारण शिवालय में भीड़ थी, आँगन तक क़तार लगी हुई थी. 

जब वापस आया तो पाकघर में विलक्षण दृश्य था. भाऊ कोने में गले की हड्डी में ठुड्डी दिए बैठा था और आई चिल्लाचोट कर रही थी. बाबा कनस्तर पर बैठे बड़बड़ा रहे थे. “दारू पी कैसे तूने” आई चकले पर बेलन फेंकते हुए चिल्लाई.
बीयर थी वह. कड़कमद्य नहीं” भाऊ ने फटी फटी आँखों से मुझे देखते हुए कहा.

खुल गई तेरी निद्रा. देख लिए दारू, बीड़ी और रंडियों के स्वप्न” आई ने अब  मुझपर भी आक्षेप किया, “दोनों सन्तान अपने कुतरीबाज बाप पे गई मेरे तो भाग फूटे रे बाबा”.

तेरा भेजा दही हुआ क्या री” बाबा खड़े होकर चिल्लाए. बाबा ने आई पर कभी हाथ नहीं उठाया था पर आज लगा कुछ अश्रुतपूर्व घटेगा. 

अच्छा तो पापड़वाली कुतरी नहीं अप्सरा है अप्सरा” आई निर्भय थी. बाबा आगे बढ़े तो भाऊ उछला और दोनों के बीच में आ गया.

हट बीच में से हम धनी-लुगाई के. आज देखती मैं कैसा लगता तेरे बाप का चमाट” आई चिल्लाई. बाहर शिवालय में भीड़ मची थी. वहाँ भगवान के सम्मुख देणगी लेने को घर का कोई मानुष नहीं बैठा था. सब रुपया दर्शनार्थी पेटी के हवाले कर रहे होंगे.

बाबा ने खुद को सम्भाला, दो मिनट तलक आई को घूरते रहे फिर शान्त होकर बाहर निकल गए. टंटे का अकाल ख़ात्मा हुआ . भाऊ भी शिवालय की तरफ़ दौड़ा. आई देर तक रोती रही और मैं नहाने पीछे नल पर आ गया. सब चिढ़चिढ़ पापड़वाली के पीछे है और उसपर भाऊ का मद्यपान. हाईटेक सिटी में नौकरी करता और दारू बीड़ी पीता तो कोई कुछ नहीं कहता. पुरोहिती की जीविका पकड़कर ऐसे शौक पाले तो आई और बाबा का कोप वाजिब ही है. आई के ऊपर भी बाबा ने रखैल लाकर पटकी तो बात वाजिब की. आई की दिवसरात्रि की किटकिट से कौन मर्द का माथा नहीं ठनकेगा. पूरा दिवस रुद्रपाठ, उपासना, मंदिर के तमाम झमेले तब मनुष्यजात को थोड़ा स्नेहभाव तो चाहिए.

देवालय में जो आता बदरीफल और धतूरे चढ़ाता. अपराह्नसन्ध्या के पश्चात् भी चाय की व्यवस्था नहीं हुई थी. कल उपवास रखने के नाम मुझे भीति थी पर आज अचानक गायत्रीजप के काल अनुष्ठानों के प्रति प्रीति उत्पन्न हुई और टपरी पर चायपान के लिए जाने का प्रश्न भी न उठता था. पेट में मूषकों का उत्पात चालू हो गया और लगा देवालय का पाट माथे पर घिरा आता हो. मैं मन्दार, धतूरों और कमलों में से बदरीफल बीनने लगा. बाबा ने उपहासदृष्टि से देखा और एक पुरातन बाई से दक्षिणा लेने लगे. भाऊ ने चार पाँच बदरीफल बीने और मेरी ओर पटक दिए.

बदरीफल बटोरकर मैं अपनी खोली की तरफ़ भागा. आदिशंकराचार्य की कृति कौपीनपंचकं जैसा भिक्षु जीवन काटने का ध्येय था और कहाँ अब अभिषेक के दूध से धुले चिक्कण बदरीफल खाकर जठराग्नि शान्त कर रहा था. एक तरफ़ तो मैं फल खाना नहीं चाहता था और दूसरी तरफ़ चाहता था कि बदरीफलों पर लगाने के लिए खार और मिरची मिल जाएँ. ‘गणपत्या, श्रीकण्ठ जी का प्रसाद खाने में बारीक से बारीक गैरवाजिबी भी नहीं’ मैं ख़ुद ही बोलता और खाता जाता था कि आई का स्वर सुना. आई का रुदन बुआ से कुछ कहते कहते बोलों के बीच में उमगकर खोली में भर रहा था. मेरे कान गरम हो गए लगा कोई लालगरम लोहा छुवा रहा हो.

देख न, ताई तू बता, उस पापड़वाली के पीछे जमी-जकड़ी गृहस्थी त्यागकर यहाँ गोशाला में ला पटका. यहाँ आते दस दिवस न गए कि बाला दारू में धुत्त अर्धरात्र घर आया. सकारे, मुझपर हाथ उठाने खड़े हो गए दो दो मेरी तरुण सन्तानों के आगे. कैसी कंगाली में दिन काटे इनके संग देस में. अरबी के पत्ते खाकर महीने कट जाते दूसरी भाजी देखने को नहीं मिलती थी गाँठ में न रोकड़ न जिव्हा पर मधुर वचन इनके. यहाँ आकर राशनपानी का करार हुआ तो रखेली लाकर बैठाई कपाल पर”.

आई के वचन सुनकर बदरीफल खाते खाते मेरे कण्ठ में जैसे चक्की का पाट अटक गया, न श्वास ऊपर जाती थी न नीचे. ख़ूब घबराहट होने लगी, आई का दुख कितना बड़ा है. जिसका आदमी दूसरी लुगाई के पीछे लट्टू रहे उसकी खिन्नता की धारणा मैं कैसे कर सकता था फिर भी आई के अश्रु देखे न जाते थे. बाबा की ढीली लंगोट, दो-दस मिनट की चूमाचाटी के कारण आई को कैसा कष्ट उठाना पड़ रहा था.

ताते टपटप अश्रु गाल से पोंछे ही थे कि देवालय के आँगन से जबर कोलाहल उठा. गोद के फल और गुठलियाँ झटकारकर मैं उस तरफ़ दौड़ा. बाहर का दुर्घट ऐसा विस्मयकारक था कि उसका वर्णन करते मैं अशक्त अनुभव करता हूँ.

कैसी गजब गोष्ठी ले बैठा रे तू गणपत्या!

आँगन में सहस्रों भक्त कुछ देखने को उत्सुक धक्कामुक्की करते एक दूसरे पर चढ़े जाते थे. पुरातन बाइयाँ जिनकी कटि झुक गई थी वे भी शीश निकाल निकालकर देखने का प्रयास करती थी. बलिष्ठ पुरुष अपने विस्तृत कन्धों से दूसरों को धकियाकर आगे आ गए थे और एकटक देखते थे. बालकों को उनके पिताओं ने अपने कन्धों पर बैठा लिया था और वे ताली बजा रहे थे. जो बच्चे अपनी माताओं के संग आए थे वे रो रोकर अपने माताओं को वह अद्भुत दृश्य देखने नहीं दे रहे थे. जूने-जर्जर पुरुष स्त्रियों के गोल नितम्बों पर  चिकोटियाँ काटने का आनन्द लेते हुए आगे आ गए थे. गूलर पर रहनेवाला बन्दरों का कुटुम्ब तक प्रसाद के फल हाथों में पकड़े खाना-फेंकना भूलकर टकटकी बाँधे देखता था. मन्दिर के कपोत छज्जे पर जैसे मन्त्रबिद्ध अनिमेष सम्मुख देख रहे थे, आकाश के पक्षी चित्रलिखित ऊपर आकाश ही में ठहर गए थे और नीचे देख रहे थे. वट के खोखल में रहनेवाला वृद्ध नाग तक निकल आया था और मस्तक तक चमकती मणि की चकाचौंध के कारण ठीक से देखने में असमर्थ वह बार बार अपना फण झटकता था.

आई और बुआ भी दौड़ती बाहर आई. उनके स्तनों पर उछलती मोहनमाला और कानों में झलमलाते मुक्ताफूलों से मेरी आँखें चौंधियाँ गई और मैंने अपने ललाट पर करतल रखकर पुनः देखने का प्रयास किया कि इतने में एक विशाल सांड भीड़ चीरता, अपने सींगों से सज्जनों को गिराता आँगन के बीच में आया. भगदड़ मच गई, लोग त्राहि त्राहि करते भागे. अपने तारुण्य और मर्दानी काठी पर इतराते पहलवान की जाँघ की हड्डी तोड़ता सांड आगे दौड़ा और उसे रास्ता देते हुए लोग चितरबितर होने लगे. कुछ दृश्य से ऐसे बँधे थे कि सांड से निर्भय केवल देखे जा रहे थे.

जब सांड उस अद्भुत दृश्य के स्थान पर पहुँचा जो भीड़ से घिरा गोलाकार था तब अनेक हाथ और अंगुल लम्बी एक स्त्री ने उस सांड के दाएँ सींग को पकड़कर उसे रोक लिया. सांड की कद्दावर काठी सींग से पूँछ पर्यन्त उछलने लगी, कसमसाई पर उस स्त्री ने सांड को नहीं छोड़ा. मैंने उसके ताल पर धीमे धीमे हिलते फिर थिरते पुनः हिलते बड़े बड़े चरण देखे जो इतने गाढ़े आलते से रंगे थे कि एड़ियाँ यों लगती जानो लंका के कमलों की गट्ठरों में छुपा नाग नाच रहा हो. पाँवों के अंगूठों में वह चाँदी के बड़े बड़े फूल और अंगुलियों में मत्स्याकार बिछवें पहनी हुई थी इसके अलावा पीतल के घुँघरू जो मँज मँज कर सोने से चमकते थे, चाँदी की पाजेब, कड़ा और झाँझर अलग बँधे, लटके हुए थे.

मुख उठाकर देखने पर मेरी उसके स्त्री न होने की धारणा पुष्ट हुई. उसके केश जैसे अकाल श्वेत हो गए थे क्योंकि माथे पर झुर्रियाँ नहीं थी और दाढ़ी उस्तरे से उल्टा उल्टा छीलने पर भी गाल हरियाले दिखाई देते थे. नयन कोने कोने से  रतनारे थे और वह सांड को पकड़े बाबा और भाऊ को कनखियों से निहार रही थी. लगता था जैसे उनसे मुग्ध भी है और उनपर कुपित भी. ऐसा बलिष्ठ हिजड़ा मैंने जीवन में इससे पहले नहीं देखा था

जैसे इससे सुंदर हिजड़ा भी मैंने पहिले नहीं देखा था जैसा सुन्दर हिजड़ा उस बलिष्ठ हिजड़े के पीछे नाच रहा था और जिसके कारण बलिष्ठ हिजड़े ने सांड को सींग पकड़कर रोका हुआ था. उस सुंदर हिजड़े की अदृष्टप्रायः कटि पर वृश्चिकाकुट्टितम करने से एक लड़ीवाली करधन काँची जैसे खुलने खुलने को थी जबकि पच्चीस लड़ियों से बना गिलट का कलाप उछल उछलकर त्रिभुवन दीप्त कर रहा था और उस दीप्ति के कारण संसार की ऊष्मा न बढ़े इसलिए उसने कुंद की एक लड़ी कमर पर कस ली थी जिसके कारण देखनेवालों की पुतलियाँ शीतल हो रही थी.

भाऊ ने भीत स्वर में कहा, “इत्तीच रकम में संयम करो. जास्ती माने कितना दें! सम्पूर्ण देणगी तुम्हें इच दी तो मठ के दफ़्तरवाले बाबा पे कोप करेंगे, मानो”.

सुन्दर हिजड़ा नृत्य के मध्य अचानक अतिभंग मुद्रा में स्थिर हो गया जैसे किसी ने मन्त्र फेर दिया हो, बलिष्ठ हिजड़ा हँसा और एक हाथ लोलहस्त मुद्रा (गाय की पूँछ की भाँति हाथ लटकाना) में छोड़, दूसरे से अभी भी सांड को पकड़े कहने लगा, “तब तू हमारी गुरुमाँ दिल्बरुंनिसादेवी से निबटना. ऐसू कजूष पंडा अभू तलक देखने में आया नको जिंदगी कटी मेरी हैदराबाद में. बोलकू चेता रही मैं बुलबुल सतवंती बाई. हिजड़ों की रकम खाकर कुल का नास इच होंगा कह दे रही मैं. चल हरिणी”.

बलिष्ठ हिजड़े बुलबुल सतवंती नायक ने सांड का सींग परे करके छोड़ दिया और सांड निर्बल, भयभीत की भाँति पूँछ दबाए सब्ज़ीमंडी की तरफ़ भागा. सुन्दर हिजड़े हरिणी ने अपनी काँची कसी, छींटदार साड़ी ठीक की और बुलबुल सतवंती नायक के संग चल पड़ी. भीड़ विसर्जित हो गई और आई खोली के अंदर दौड़ी आई और धड़ाम से गिर पड़ी. बाहर हिजड़ों का ढोली भाऊ से सौ रुपया माँग रहा था. बुआ घरभर में भागादौड़ी मचाने लगी. बाबा के आई के मुख पर पानी डालने से आई को होशावस्था हुई और वह बारम्बार बस यही कहने लगी, “जिनावरों के शाप से दुख इच दुःख, दुख इच दुख. जिवलग से विभक्तपना होते विलम्ब नहीं. रुपया एकदाच दे दे रे”.

सन्ध्याकाल को मुझे हिजड़ों की इमारत पर जाकर देणगी के इक्कीस सौ रुपए दे आने का हुकुम हुआ. हिजड़ों की इमारत जाने में मुझे बहुत जोर आ रहा था. कोई मुझे उनसे मिलतेजुलते देख ले तो इससे मेरे पण्डितपने की छाप पर तो कालिख पुतती बल्कि मेरे पुरुषत्व पर भी आँच आती कि गणपत्या हिजड़ों में उठाबैठी करता है पर आई भाऊ को भेजने पर सख्त ना बोली, “बाला नाजुक है जल्दी नजराता है. उसको मैं भेज सकती नको. गणपत्या तू जा. जास्ती देर वहाँ बैठना नको. खानापीना नको. रोकड़ देकर सीधे बाहेर”. मेरा हृदय बैठ गया. आई मुझको ऐसा हब्शी खबड़ा समझती थी कि मैं जनखों के यहाँ भी भकोसने बैठूँगा! ऐसा सदमा हुआ कि जाने को ना कहने की सूझ भी नहीं पड़ी.

मैं हिजड़ों की इमारत की तरफ़ निकल पड़ा. अतिलिंगस्वामी के मन्दिर के पीछे जो मुसलमानों की ज़ूनी बस्ती है वहीं हिजड़ों की इमारत थी. मलेच्छों के प्रति मेरे हृदय में उपेक्षा थी और उनकी ओर थोबड़ उठाकर उनके थूथनों का दर्शन मैं करूँ मुझे स्वीकार न था इसलिए मुँह झुकाए मैं चला जा रहा था. गू की ढेरियों से पूरी गली भरी थी और लौडे-बच्चियाँ खुली नालियों में पाखाना कर रहे थे. वहीं मैदे की सेंवई और पापड़ सूख रहे थे. हर दूसरे घर में कसाईखाना था या बिरयानी सेंटर. बासों का वर्णन करते तो घण्टा कट जाए पर पूरा न हो ऐसी ऐसी बासें थी.

बकरे के अंडकोष चाचियाँ अपने बच्चों को देती थी उन्हें खाकर अपने फाटक पर हगने पर जो बास उठे वह तो जगह जगह पर थी. फिर नालियों में हलाल जिनावर के रक्त की दुर्गन्ध घ्राणेंद्रिय को सुन्न कर देती थी पर इससे पहले कि श्वास ले पाओ पाँव पाँव पर दीवाल की टेक जो मुतारियाँ थी उसकी तेज बास से कपाल झन्ना जाता. फिर कोई लाल केशों के बीच श्याम टक्कलवाला बुड्ढा पास से गुजरता तो दो टके के अत्तर से पलटी होने का संकट लगता. दूध पिलानेवाली औरत अपना पोल्का दस रोज तलक न धोए तो जैसी बासती वैसे ही यहाँ सब महिलाएँ बास रही थी. तुम समझोगे कि मेरे अंदर मुसलमान भाइयों के लिए द्वेषभाव है पर मैं सबकुछ सफ़ा चाहता था और सब बहन-बंधु सुबकपन से रहे ऐसा चाहता था.  मेरा दाख़िला स्वच्छपणे के लिए था न कि मलेच्छों के तिरस्कार वास्ते.

नेत्रों में सूरमे के बारीक डोरे दिए भीतिजनक मुसलमानों की पुरुषमण्डली मार्ग पर ही मटन खा रही थी. उनका अट्टहास सुनकर मुझे लगा मेरी तरफ़ देखकर हँस रहे है इसलिए मैं एक अंदरूनी-अन्धारी गली में घुस गया. यहाँ जगह जगह लौहखण्ड की कामगारी हो रही थी. अलमारी, टेबुल, लौहद्वार बन रहे थे. पाँव पाँव पर मर्दमानुष वेल्डिंग की ज्वाला फूँक रहे थे और बीच बीच में मुँह ख़ाली करने के वास्ते गुटखा थूकते जाते थे.

पाँय पाँय चलने की वजह से घामाघूम मैं एक दर्ज़ी की दुकान से पिछवाड़ा टेककर साँस लेने लगा, वहाँ पेढ़ी पर एक मुसलमान महिला बुरखे में नाप दे रही थी. दर्ज़ी कम से कम निन्नयानबें वर्ष का होगा और गर्विष्ठ, मांसल स्तनों को इंचटेप से नापते उसके हाथ थरथर हो रहे थे. हृदय की तेज धड़धड़ के कारण स्तन यों ऊपर-नीचे होते कि उस जूने दर्ज़ी के सींक और बस रक्तवाहिनियाँ रह गए हाथ बार बार फिसल जाते और नाप पुनः लेना पड़ता. मेरी दृष्टि वहाँ एकाग्र जब हुई तब विचार आया कि कैसा गलीज हृदय है रे तेरा गणपत्या, जोशी कुटुम्ब की महिला होती तो तू ऐसे टकटकी लगाता! मुसलमान मादा देखकर मचल पड़ा भ्रष्ट बामन.

अम्माँ ने बखत पे दूध पिलाया नको, टुकटुक देकेच जा रा” बुरखे से वह चिल्लाई और दर्ज़ी नप्ती का गज उठाकर मेरे पीछे दौड़ा. मैंने फटाफट अंगूठे में चप्पल फँसाई और नाली फाँदकर भागा. भागता भागता कहाँ पहुँचा ज्ञान नहीं, तीव्र प्यास लग रही थी और शुद्ध सफ़ा पानी मिलना अकल्प. बास के मारे भेजा घेरियाँ मार रहा था. तभी बीड़े-मुखवास की दुकान पर खड़े हिजड़ों के ढोली पर आँख पड़ी. केस हरेगुलाबी रंगाकर पाँव चौड़े किए चिरुट फूँक रहा था. साथ में लहरी सदरे-पजामे में एक लड़की खड़ी थी. सपाट छाती और चपटी नाकवाली लड़की नखरे दिखा दिखाकर तंबोली से बात कर रही थी. बीड़ा उठाने को पलटी तो देखा कि लड़की की तशरीफ बैठी है और कमर मोटी. ख़ाली एक टकटकी में मैं समझ गया कि धर्मांतरवाली मुसलमान है. उसके पितरों का अंदाजा और अपनी पुतलियों को मर्यादित करके मैं ढोली के पास पहुँचा.

इससे पहिले कि मैं एक शब्द भी बोलता, ढोली चौकसी करने लगा, “अतलिंगापल्ली के तुम दिकते नको फीर इदर आए कायको?”

हिजड़ों की इमारत किधर पूछे तो” मैंने थूक गटकते हुए कहा. पुदीने की ठंडीगार सुगन्ध मेरे मुँह पर छोड़ते हुए अब लड़की चौकसी करने लगी, “हिजड़ों के इमारत क्या लेने जा रे” और तंबोली, ढोली और लड़की जोर जोर से हँसने लगे. ऐसी आई होने से नाशेच्छा करनेवाला शत्रु चांगला आखीर मुझे हिजड़ों की इमारत तो न भेजता. जी ऐसा अपटा कि लड़की का गला उमेठ दूँ. संयम करके कनपटी पोंछने लगा.

अइसू घाबरा हो रा कइकू. धीक धर. पीछू आ मेरे” हिजड़ों का ढोली बोला और नाली के किनारे किनारे चलने को कहकर आगे बढ़ा, “ऐसू अवासवा कू नजर में लाता नको में. बमना आट में देककू तेरसू हमतुम हुआ” . हिजड़ों के पिछाड़े ढोल पीटनेवाला मुझसे हम तुम हो ऐसा होने से पूर्व नाली का पानी पीकर मैं जान देता.

दड़ी मारकू चल रा कइकू. बातां करते तो रस्ता सरेंगा फुरत” ढोली बोला. मैंने थोड़ी गोष्ठी की तो मूर्ख रोलने लगा था. गली पतली होती गई अँधार जास्ती. तब एक गुलाबी दीवालोंवाली दाक्षिणात्य शैली में बनी ज़ूनी इमारत के हरे फाटक की साँकल ढोली ने बजाई.

मुज़े पीत का याँ कोई फल न मिला.
मेरे जी को यह आग लगा सी गई.
मुज़े ऐश यहाँ कोई पल न मिला 
मेरे जी को यह आग लगा सी गई.“

अपनी मरदानी ध्वनि को मधुर करके कोई हिजड़ा अन्दर गा रहा था. मध्य मध्य में प्रभाव वास्ते सिसकारी भरता जाता. दो दफ़ा निश्वास छोड़ता जैसे यष्टि से जीव भागा जा रहा हो. ढोली ने फिर साँकल बजाई तो हिजड़ा और जोर से गायकी करने लगा.

मैं थी नन्हीं सी जान गरीब बड़ी
कभी भूलके न दुःख किसी को दिया
न तो रूठी कभी न किसी से लड़ीSSS”
लड़ी पर ऐसी तान लगाई कि लगा कोई फूटा कनस्तर घसीट रहा हो. ढोली को बर्दाश्त न हुआ और उसने जोर जोर से साँकल पीटना शुरू कर दिया.

न तो रूठी कभी न किसी से लड़ीS.कुक्कासुल्ली, कइकू हौला हो रा क्या भी हल्ला कर्रा” फाटक का आधा पाट उठाकर मैना सतवंती नायक ने मुँह निकालकर चिल्लाई. डेढ़ दिन की दाढ़ी से मुँह हरा था पर कंकू के तिलक से भाल शृंगारित हो रहा था. “में हजामत से पेले कलक्टर को भी कू बखत देती नक्कू”. वह पाट अटकाने को हुई तो ढोली बोला, “माँ की किरकिरी, इने दिल्बरुंनिसम्माँ से मिलना. तेरसे नको”.

उनो मूड़ तत्ता हो रा. अभू कोनसे भी मिल री नी. दूर से हो री वो” मैना सतवंती ने पाट उलटा और फिर गाने लगी,
छबीली है सूरत हमारे सजन की.
कि या पूतली उस कहूँ अप-नयन की.
 छबीलीsss”.

हिजड़ा दूर से हो सकते कैसे!” ढोली पलटते हुए बोला.
दूर से मतलब” मैंने पूछा.
ढोली हँस हँसकर लोटपोट होने लगा “हौला हे क्या रे. पोट्टी पिराबलम”.

मुझे भी जबर विस्मय हुआ कि हिजड़े को मासिकधर्म हो सकता है कैसे!
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चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म : अनुत्तरित प्रश्न : प्रचण्ड प्रवीर

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देवकीनन्दन खत्री द्वारा रचित उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ हिंदी में अब एक क्लैसिक की हैसियत रखता है. आलोचना ने जिसे शुरू में तिलस्मी कहकर उपेक्षित किया उसी ने बाद में इसके साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र की भी खोज़ की.

गम्भीर विवेचक-आलोचक वागीश शुक्ल की कृति ‘‘चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म’इस कड़ी में नवीनतम और प्रौढ़ हस्तक्षेप है. वागीश शुक्ल फ़ारसी साहित्य के भी विद्वान अध्येता हैं. उन्होंने फ़ारसी और उर्दू दास्तानों से भी इसकी तुलना की है.

रज़ा फाउन्डेशन ने इसे राजकमल के सहयोग से प्रकाशित किया है. हिंदी के अनूठे कथाकार-अनुवादक प्रचण्ड प्रवीर की यह समीक्षा ख़ास तौर पर समालोचन के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है.   





 
        
चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म:अनुत्तरित प्रश्न                       
प्रचण्ड प्रवीर

(वागीश शुक्ल)


ह-रह कर मेरे मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न गूँजते रहते हैं. कई प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं और कई नए प्रश्न खड़े होते रहते हैं. प्रश्नों के अन्तहीन सिलसिले में दो प्रश्न इस तरह से हैं:

पहला:क्या आजादी से पहले भारत में रंगीन कपड़े बहुत मंहगे हुआ करते थे? प्रश्न का सन्दर्भ है गाँधी जी के समय के तस्वीर, और आज से सौ साल पहले के भारत की तस्वीरें, जब कपड़ा ही महँगा हुआ करता था. खादी का आन्दोलन आत्मनिर्भरता का प्रतीक था और पण्डित नेहरू ने गाँधी जी को स्वदेशी तथा खादी के बारे में कहा कि वे इसे गम्भीरता से नहीं लेते. समय बदलने के समय खादी अप्रासंगिक तो हो ही गया है और अब बिना मशीन के सूत कातना बेमानी-सी बात ही नज़र आती है. रंगरेज शब्द जो बहुत सी गीतों में है, जिसने गुलाबी रंग दीना दुपट्टा मेरा, उस रंगरेज की अब हैसियत क्या हस्ती भी नहीं रही. राजस्थान में जहाँ लोग सदियों से लाल-पीले कपड़े पहनते आ रहे हैं, वहाँ क्या स्थिति रही होगी? अगर रंगीन कपड़े हर समय उपलब्ध थी तो क्या गाँधी जी के अनुयायियों को रंगीन कपड़ों से चिढ़ थी, या श्वेत श्याम तस्वीरें होने के कारण सभी कुछ काला-सफेद दिखता है? सौ साल पहले की बात कौन ठीक-ठीक बता सकता है?

दूसरा:खजुराहो के मन्दिरों में जहाँ विष्णु के मंदिर, शिव के मंदिर, यहाँ तक के जैन मन्दिर आदि भी एक ही तरीके से बने हुए हैं. वहाँ के मन्दिर निर्माण की शास्त्रीय विधि के अनुसार – अर्द्धमण्डप, मण्डप, महामण्डप और गर्भगृह जिस तरह सारे उपासना स्थलों के लिए थे, अगर वह परम्परा अक्षुण्ण रहती तो क्या वे मूर्तिकार सर्वसमन्वयी भाव से प्रेरित हो कर मस्जिद भी उसी तरह बनाते जिसमें गर्भगृह में शून्य होता किन्तु उसके ऊपर गुम्बद न हो कर पिरामिड जैसा ही आकार होता. क्या वह इस्लाम में स्वीकार कर लिया जाता? क्यों अथवा क्यों नहीं?

इन दो प्रश्नों के उत्तरों की खोज तो चलती रहेगी. इसी तरह फिलहाल मूर्धन्य और विलक्षण विद्वान तथा आलोचक श्री वागीश शुक्ल की आलोचनात्मक रचना 'चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म कई प्रश्नों का उत्तर देती है तो साथ ही कई नये प्रश्न खड़े करती है.
हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकी नन्दन खत्री विरचित चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति और भूतनाथ के दास्तानों को उपेक्षित किया जा सकता है किन्तु नकारा नहीं जा सकता. सन् १८८८ में चन्द्रकान्ता के छपने के सिलसिले के साथ १८९४ से १९०५ तक चन्द्रकान्ता सन्तति का मासिक पत्रिका में नियमित छपना चालू रहा. सन्तति पर उस समय प्रकाशित एक टिप्पणी इस तरह है:


चन्द्रकान्ता-सन्तति का दूसरा भाग इस विषय पर हिन्दी में रची जा रही एक महान् कथाकृति की वर्तमान कड़ी है. इस भाषा में यह अपने तरह की अकेली रचना है और लोग इसे बहुत पढ़ते तथा पसन्द करते हैं. जब यह पूरी हो जायेगी तब यह उर्दू कथा-साहित्य की दो महाकाय कृतियों: बोस्तान+ए+ख़याल और दास्तान+ए+अमीरहम़जा– से मुक़ाबिला करेगी. इस (चन्द्रकान्ता-सन्तति) की यह विशेषता है कि इसमें वे अश्लीलताएँ नहीं हैं जो इसके प्रतिद्वन्द्वी प्रकाशनों (दास्तान+ए+अमीरहमज़ा और बोस्तान+ए+ख़्याल) में हैं.
(पृष्ठ १३, चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म)
 
बाबू देवकीनन्दन खत्री दिवंगत होने से पहले भूतनाथ के शुरुआती भाग लिख चुके थे, जिसे उनके पुत्र ‘दुर्गाप्रसाद खत्री’ ने पूरा किया. प्रेमचंद की जीवनी पढ़ते समय हम यह सीख कर बड़े हुए कि उनसे पहले साहित्य में केवल जादू-टोना और तिलिस्म था. प्रेमचंद ने बारह वर्ष की आयु में ही दास्तान+ए+अमीरहमज़ा की पाँचवी जिल्द ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ पढ़ लिए थे, जिसे कि हिन्दुस्तान में ही लिखा गया था. आज वैसे भी कोई-कोई ही चन्द्रकान्ता पढ़ता है. अभिजात्य और पढ़े लिखों में हिन्दी पढ़ना-पढ़ाना पहले ही की तरह गौण है, इस हिसाब से यह प्रश्न भी बना रह जाता है कि हिन्दी साहित्य भी संस्कृत साहित्य भी अमरीकी विश्वविद्यालयों की शोध का विषय मात्र बन कर रह जाएगा? वे ही हमें बताएँगे कि कौन-सा साहित्य कितना ‘धार्मिक’, ‘अभिजात्य’ और ‘पठनीय’ है? मुझे इसमें ज़रा भी आश्चर्य न होगा कि देवदत्त पटनायक या अमीष त्रिपाठी, या फिर सलमान रश्दी ही चन्द्रकान्ता का अंग्रेजी पुनर्व्याख्यान लिख दें और वह ५०० करोड़ की बजट की हॉलीवुड फिल्म बन कर आएगी, फिर भारत के लोग चन्द्रकान्ता अंग्रेजी में पढ़ने लगेंगे, किन्तु उनकी सोच का पैमाना वही होगा जो कि पाश्चात्य विमर्श निकला पूर्वाग्रह होगा.
 
वागीश शुक्ल की आलोचना की किताबें: छन्द छन्द पर कुङ्कुम : निराला की राम की शक्ति पूजा (प्रभात प्रकाशन, २००२), साहित्य समालोचन पर विचारात्मक निबन्ध संग्रह – शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं (वाणी प्रकाशन, २००६) और चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म (राजकमल प्रकाशन, २०१९) – हिन्दी आलोचना के लिए अविस्मरणीय प्रतिमान हैं.
      
इसके अतिरिक्त वागीश शुक्ल के लेख समग्रता से पढ़े जाने चाहिए. 'शकुन्तला पर रोमिला थापर'नाम से उनका अंग्रेजी निबन्ध रोमिला थापर की चालाकियों भरी प्रस्थापनाओं का खण्डन ऐसा है जिसका प्रतिखण्डन या इसके बाद रोमिला थापर का मण्डन करने की चेष्टा कहीं दिखायी नहीं पड़ती. जहाँ तक मेरी जानकारी है कि रोमिला थापर ने इस पर कभी कोई वक्तव्य दिया भी नहीं, और दे भी नहीं सकतीं. परन्तु हिन्दी के दलित विमर्श में रोमिला थापर की स्थापनाओं को लिया जाता है, क्योंकि यह पूर्वाग्रहों का समर्थन करते हैं. 

(https://groups.google.com/forum/#!topic/samskrita/T8T3OofH3Fg, https://www.dailypioneer.com/2015/sunday-edition/revisiting-abhijnanasakuntalam.html)
 
चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ– हिन्दी साहित्य का ऐसा मुकाम है जिस को अनदेखा कर के चलने में सुविधा मानी जाने लगी है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जिनका योगदान मध्यगुगीन काव्यों को हिन्दी तक लाना माना जाना चाहिए, उन्होंने चन्द्रकान्ता को साहित्य की कोटि से बाहर रखा. आधुनिक हिन्दी की वामपंथी मूल्यों वाले राजेन्द्र यादव ने चन्द्रकान्ता की भूमिका का शीर्षक – 'दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान'रखा. वे लिखते हैं :

...आज हमारे पास न तो इस समीक्षा की समझ का मानकीकरण है, न मुहावरे... शायद औजार तो हैं ही नहीं! हम या तो काव्यशास्त्र के औजारों से काम चला रहे हैं, या दर्शन-शास्त्र की बारीकियों में घुस जाते हैं. मानवीय अस्तित्व और नियति को समझने के लिए हर शास्त्र या ज्ञान अनिवार्य है, लेकिन हर विधा का अपना एक मुहावरा होता है और वह पूरे परिपेक्ष्य के विचार, पुनर्विचार से ही उभरकर आता है – दार्शनिक प्रतिपत्तियाँ, राजनैतिक स्थितियाँ या समाजशास्त्रीय सूक्तियाँ समझ को धार और शक्ति दे सकती हैं, खुद साहित्य का स्थानापन्न नहीं हो सकती. (पृष्ठ दो, चन्द्रकान्ता, राजकमल पेपरबैक्स)

रस-सिद्धान्त में यह फिट नहीं होती थी और साहित्यिक उन्नासिक (स्नॉब) वर्ग ऐय्यारी-तिलिस्मी और घटाटोप घटना-प्रधान शुद्ध मनोरंजनाग्रही उपन्यास को अपनी चिन्ता के लिए अछूत समझता था. (पृष्ठ तीन, चन्द्रकान्ता, राजकमल पेपरबैक्स)
     
इन टिप्पणियों में यह चलताऊ विचार आसानी से पकड़ में नहीं जाते हैं, कि साहित्य में जीवन होना चाहिए. यहाँ जीवन का अर्थ 'रोजमर्रा के अनुभव', 'व्यक्तिगत अनुभव'या राजनैतिक पार्टी के द्वारा चलाए गए एजेंडे का समानुभव होने चाहिए, ऐसा न हुआ साहित्य तो केवल विचार है. रोमिला थापर की शकुन्तला, जैसा कि हम वागीश शुक्ल के बृहद लेख में देखते हैं, एक गैरजिम्मेदार अंग्रेजी अनुवाद के बेईमानी भरी प्रस्थापनाएँ हैं. ऐसा ही कुछ राजेन्द्र यादव की भूमिका में भी मिलता है, जिसमें दास्तान-ए-अमीर-हमज़ा और बोस्तान-ए-ख़याल का जिक़्र उतना भर ही है जितने अपना एजेंडा फिट किया जा सके.
     
इसी तरह रस सिद्धान्त में अंगी रस की अवधारणा परिस्फुटित न होने से काव्य समालोचना में रस सिद्धान्त के फिट न होने का सवाल उसके अन्यथा समझने से ही होता है. मैं समझता हूँ कि रस सिद्धान्त की दोयम दर्ज की व्याख्या जो डॉ. नगेन्द्र ने अपनी पुस्तक (रस-सिद्धान्त –  १९६४) में की है, जिस ले कर विचारक दया कृष्ण ने अपने लेख (Rasa: The Bane of Indian Aesthetics, Contrary Thinking: Selected Essays of Daya Krishna, Oxford University Press, 2011) जो आपत्तियाँ उठायीं हैं वह सब चलताऊ हैं और अन्यथा ही हैं. हिन्दी के ऐसे बड़े व्याख्याताओं के कच्चे कामों ने साहित्य और समालोचना को बहुत क्षति पहुँचायी है.
 
प्रस्तुत पुस्तक के पहले अध्याय में वागीश जी स्पष्ट करते हैं वे चन्द्रकान्ता विमर्श में स्वर्गीय राजेन्द्र यादव, प्रो. प्रदीप सक्सेना, फ़्रांचेस्का ओर्सिनी, आर्थर डडने, एलिसन बुश, दीक्षा गजभिये आदि के विचारों की कड़ी में प्रशंसक होने के नाते कुछ जोड़ना चाहते हैं.
        
मैं इस किताब को राजेन्द्र यादव की प्रतिस्थापनाओं के सुविचारित उत्तरों की तरह देखना पसंद करता हूँ. वे प्रतिस्थापनाएँ कुछ इस तरह से हैं:
      
. ‘केओस’, मूल्यों का जैसे घपला.... इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उस समय का आदमी चन्द्रकान्ता के कथ्य की तरह बिना अपनी जमीन ओर जीवन-पद्धति छोड़े हुए ही आधुनिक सुख-सुविधाएँ पा लेना चाहता हो– (पृष्ठ दो, चन्द्रकान्ता, राजकमल पेपरबैक्स)
 
. बड़ी किताबों के घोषित लक्ष्य आज बहुत अजीब, निर्विशिष्ट और हास्यास्पद लगते हैं. केवल एक अपवाद है और वह है कार्ल मार्क्स; उसे पता था कि वह अपनी किताब से दुनिया के नक्शे को कहाँ और किस आधारभूत स्तर पर बदलने जा रहा है. (पृष्ठ तीन, वही)
 
३.चन्द्रकान्ता अपनी पराजय का इक़बाली-बयान ही नहीं, बल्कि सामन्ती शौर्य की घनघोर असफलता के बाद बौद्धिक चातुर्य की दिशा में एक अचेतन प्रयोग है... यानी भौतिक सामर्थ्य की व्यर्थता के बाद बौद्धिक श्रेष्ठता साबित करने का एक काल्पनिक और कमजोर प्रयास... (पृष्ठ नौ, वही)
 
४.चन्द्रकान्ता के नायकों के उद्देश्य बहुत ही भौतिक और सांसारिक हैं. यानी तिलिस्मों के भीतर दबी, सुरक्षित अकूत-अथाह दौलत को प्राप्त करना – दोस्त और दुश्मन इसी से तय होते हैं और इसी मूल कथानक में तिलिस्म में चकाचौंध कर डालने वाले करिश्में ऐयारों की दाँतों तले उँगली दबाने वाली साँस रोक हैरत-अंगेज़ कारगुज़ारियाँ हैं. (पृष्ठ दस, वही)

५.सारे कथानक में सबसे प्रमुख और निर्णायक तत्त्व है लालच... इसलिए यहाँ इस सूत्र को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है कि क्यों यह इकहरी परम्परागत दृष्टि सारे उपन्यास में इस सिरे से उस सिरे तक छायी रही. धन-दौलत के लिए ही ये सारे छल-छन्द, मार-धाड़, रातों की भाग-दौड़ या नृशंसताएँ और हत्याएँ हुई हैं. (पृष्ठ बीस, वही)
 
६.बहरहाल, दरबार की नाराजगी और घाटे की असफलता के इसी उत्साहहीन मानसिक माहौल में 'चन्द्रकान्ता'का जन्म हुआ. (बाबू देवकीनन्दन खत्री के व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में) (पृष्ठ बीस, वही)
 
७.संशय, उत्सुकता, चमत्कार, गति यही कुछ तत्त्व चन्द्रकान्ता की रीढ़ हैं. (पृष्ठ सत्ताईस)
 
८.अपने मूल में चन्द्रकान्ता भयानक राष्ट्रीय हीन-भावना से उद्भूत रचना है. (पृष्ठ तीस)
 
९.तिलिस्म के अस्तित्व या कल्पना के पीछे देवकीनन्दन खत्री का अपना तर्क है. ....यह होशियारी भी बरती कि एक ही चाबी या किताब से सारा तिलिस्म न खुले और एक विशेष भाग तक ले जा कर वह तरीका बेकार हो जाये. (पृष्ठ इकत्तीस)
      
१०.  (दीवार-क़हक़हा के सम्बन्ध में ....) बचाव, प्रतिरक्षा और बे-असर इस तिलिस्मी चक्कर से – जो विदेशी टेक्नोलॉजी का भारतीय प्रत्यारोपण मात्र है – बेदाग निकलने की क्रिया; क्या मेरी स्थापनाओं का समर्थन नहीं करती? (पृष्ठ उन्तालीस)
      
११.'चन्द्रकान्ता'का उद्देश्य चाहे जैसी दिलचस्प मनोरंजक कहानी सुनाना रहा हो और उसके कथानक चाहे जितने कपोल कल्पित हों या उसे तथाकथित ऐतिहासिकता का जामा पहनाया गया हो – उसमें कही भी तत्कालीन राजनैतिक स्थिति सीधे-सीधे क्यों नहीं आती? कथा में साक्षात् किसी भी विदेशी सत्ता का न होना आकस्मिक है या सुविचारित? ...यह सब कहीं-न-कहीं अंग्रेजी शासन और उसने खिला सांस्कृतिक या राजनैतिक प्रतिरोध के रूपक बनकर आये हैं. (पृष्ठ उन्तालीस)
 
१२.चन्द्रकान्ता अपनी स्वायत्तता की स्थापना और किसी भी विदेशी सत्ता के सचेत और निरन्तर नकार की स्वप्नाकांक्षा-भरी कहानी लगती है. (पृष्ठ इकतालीस)
 
मैं समझता हूँ कि वागीश शुक्ल की आलोचना राजेन्द्र यादव और अन्य अध्येताओं के सतही अध्ययन और पूर्वाग्रही निष्कर्षों का खण्डन है. वे राजेन्द्र यादव के साथ-साथ श्रीयुत शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसे मूर्धन्य अध्येताओं की मासूमियत पर नज़र डालते हैं. इस सन्दर्भ में दास्तान+ए+अमीरहमज़ा की पड़ताल करते हुए ‘क्या उर्दू दास्तान साहित्य है?’ – लेख में वे लिखते हैं :
 
यह आश्चर्य और चिन्ता का विषय है कि अमर ऐयार हमज़ा में बख़्तक को ज़िन्दा उबालकर उसका गोश्त नौशीरवाँ और उसके दरबारियों को खिला देता है और हमारे आधुनिक समीक्षक इसे अमर ऐयार की 'शरारतों'में गिनते हैं....यह विशेष खेदजनक है कि श्री शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसे मूर्धन्य अध्येता ने चाणक्य की कूटनीति से अमर ऐयार के अमानुषिक कृत्य को तुलनीय माना है. मुझे इस आलोचकीय धाँधली की कोई व्याख्या इसके अलावा समझ में नहीं आती कि किसी तरह एक ऐसा हम्माम तैयार किया जाय जिसमें अमर ऐयार की बेहूदगियों को ढकेलकर यह कहा जा सके कि इसमें हम सब नंगे ही तो हैं." 
(पृष्ठ ७४-७५, चन्द्रकान्ता सन्तति का तिलिस्म).
 
इसके अलावा वागीश जी ने सश्रम कुछ अनुच्छेदों का तुलनात्मक वर्णन किया है जिससे यह स्थापित करते हैं कि यह साहित्यिक रचना  दास्तान+ए+अमीरहमज़ा और तिलिस्म+ए+होशरुबा के बरअक्स ही लिखी गयी है. हालांकि वह उर्दू दास्तानों में मौज़ूद अश्लीलता से कहीं दूर थी. उस अश्लीलता का भी संक्षेप में वर्णन किया गया है जिसे मैं उद्धृत करना आवश्यक नहीं समझता.
(देवकीनंदन खत्री)

मैं समझता हूँ कि अगर किसी भी आदमी को कुछ भी लगातार निरर्थक भी बोलने या करने को छोड़ दिया जाय तो वह शुरुआती उड़ान भरने के बाद अपनी ज़मीन पर उतर आता है. अगर वह लेखक हो तो ‘प्रूस्त’ और ‘ज्वायस’ का प्रलाप तक हो जाएगा. इसी तरह शेक्सपीयर के नाटक से ले कर डॉन किशोते के आख्यान,  दोस्तोव्यस्की के उपन्यासों में जुआरियों, वेश्याओं से ले कर मिर्गी पीड़ित नायक, प्रेमचंद के मातृविहीन नायक और जे. के. रॉलिंग के हैरी पॉटर के जादू में व्यक्तिगत अनुभव, राजनैतिक, सामाजिक व दार्शनिक दृष्टि निकते आते हैं चाहे वह कितना सचेत क्यों न हो.

देवकी बाबू के लेखन में यह राजनैतिक चेतना सुस्पष्ट थी, जिसे प्राय: अनदेखा कर दिया जाता है:
 
खत्री जी ने जिस समय लिखना प्रारम्भ किया, हिन्दी एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रही थी जिसका सिर्फ़ एक छोर उस मोरचे से जुड़ता था जिस पर उसे १९०० ईसवी में अदालती कामकाज में देवनागरी अक्षरों में लिखी जाने वाली हिन्दी को मान्यता मिलने के रूप में जीत मिली. हिन्दी में लिखना-बोलना आज भी जोख़िम से ख़ाली नहीं अगर आप यह नहीं साबित करते रहते कि आप अंग्रेज़ी में दक्ष हैं किन्तु जब की हम बात कर रहे हैं तब कार्यालय, न्यायालय और विद्यालय की निचली सीढ़ी पर भी चढ़ने के लिए वह अधिकृत नहीं थी और उसे जो टाट-पट्टी आज बैठने को मिल जाती है वह भी नसीब नहीं थी. (पृष्ठ १८, च० स० क० ति०)

इसी तरह हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के ध्येय में वे पारम्परिक सांस्कृतिक सृजनात्मक मानक चुनते हैं. इस तरह वे तिलिस्म की परम्परा को लेते तो हैं, पर दास्तानगोई की अश्लीलता और जादू-टोने को उतार फेंकेते हैं. इस तरह चन्द्रकान्ता की आधुनिक मानकों पर मानववादी आलोचना लंगड़ी है. वह इस बात को नहीं देखती कि तिलिस्मी आख्यान किस तरह से उतर कर आती है. इसके लिए राजेन्द्र यादव की आलोचना सचेत तो है, किन्तु संवेदनशील नहीं है. इस क्रम में यह भी उद्धृत करना ठीक होगा :

हमज़ा का अँग्रेज़ी में अनुवाद आ चुका है और होशरुबा का अँग्रेज़ी अनुवाद छप रहा है किन्तु मैं नहीं समझता कि इन दोनों में किसी का देवनागरी में रूपान्तरण कभी भी सम्भव है – होंगी हिन्दी और उर्दू दो सगी बहनें किन्तु यदि वे दो भाषाएँ मानी जाती हैं तो ऐसा उचित और सकारण है. ज़टली (जाफ़र जटल्ली (१६५८-१७१३) – शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का लेख देखें –http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00fwp/srf/srf_zatalli_2008.pdf) 

और चिरकीन (शेख बाकर अली चिरकीन -१७९७-१८३२) का काव्य संग्रह, रेख़ती साहित्य और हज़्व साहित्य का बहुलांश, हिन्दी में नहीं छप सकता किन्तु उर्दू में वे 'मुख्य-धारा'से बाहर के ग्रन्थ नहीं माने जाते. (पृष्ठ २८, च० स० क० ति०)
      
कहा जाता है कि चिरकीन मौलिक ग़ज़लें लिखते थे. लेकिन उनकी ग़ज़लें चुरा का दूसरे अपने नाम से पढ़ने लगे. उल्टे किसी ने उन पर ही नकल की तोहमत लगा दी, जिससे वह गुस्से में ऐसे बिफरे कि मल-मूत्र की दुनिया में ही ‘रस’ ढूँढने लगे, सफल भी हुए. और यह आस्वादन किसी परम्परा में सम्मानित भी हुआ. हिन्दी के एक अति महत्त्वाकांक्षी कवि ने हाल में ऐसी कविता भी लिखी, किन्तु वे भी शब्दों के रोज-मर्रा के प्रायोगिक आरूप से बच कर ‘गुदा’ तक ही पहुँच सके. तमाम लिप्साओं के बावजूद ऐसे कवि इससे आगे न बढ़ सकते हैं क्योंकि हिन्दी परम्परा आड़े आती है. आशा है ऐसी रचनाएँ उर्दू में  मुकाम पाएँगी और उसका तर्जुमा आने वाले जश्न-ए-रेख्ता में पढ़ा भी जाएगा.

बहरहाल, उर्दू दास्तानों का तिलिस्म की व्युत्पत्ति करते समय हम मध्ययुगीन सभ्यताओं में तिलिस्म के प्रयुक्त अर्थ तक इस तरह पहुँचते हैं.

इस प्रकार तिलिस्म का मुख्य अर्थ हुआ एक ऐसा जादुई घेरा जिसे मान्त्रिक शक्ति से 'बाँधा'जाता था और जिसका 'तोड़ना'असाधारण मान्त्रिक शक्तियों पर ही निर्भर था. (पृष्ठ ४३)

इस तिलिस्म के बहाने उर्दू दास्तान गढ़े गए. लेकिन अब खाली दिमाग को भी कुछ न कुछ लिखना हो, अंतत: वह अपने मूल लिप्सा (युक्ति रहित संवेदन) या मूल्य (युक्ति से कुछ परे अभीष्ट निर्णय) के विपरीत और सुदूर आयामों में ही झूलेगा. मध्ययुगीन इस्लामिक सभ्यता का लक्ष्य अपने धर्म का विस्तार मात्र था. इसलिए उर्दू दास्तानों ने 'मुसलमान-बनाम-कुफ़्फ़ार'की युद्ध कथा में खुद को प्रस्तुत किया है. इसके नायक ‘लश्कर+ए+इस्लाम’ के मुजाहिद हैं, और दुश्मन कुफ़्फ़ार, जो इस्लाम पूर्व अरबी मूर्तिपूजक हों या ईरान के अग्निपूजक या भारतीय सनातनी. लेकिन तिलिस्म+ए+होशरुबा में यह स्पष्ट रूप से हिन्दू हैं जिनका बलात्कार किया जाता है और इस्लाम के नाम पर जायज़ भी ठहराया जाता है.
 
कुफ़्फ़ार का यह अपमान दास्तानों में तरह-तरह से किया गया है. इन दास्तान में अपनी सारी जादुई ताक़त के बावुजूद, कुफ़्फ़ार कहीं मलमूत्र में लथेड़े जाते हैं तो कहीं समलैंगिक रतिकर्म और अगम्यागमन में लिप्त दिखाये जाते हैं. इन दास्तानों में कुफ़्फ़ार की लड़कियाँ असाधारण कामुकता के साथ लश्कर+ए+इस्लाम के जवानों से पेश आती दिखायी जाती हैं. (पृष्ठ ६६)
 
हालांकि यह सब को भुला कर देखने की सुविधा हमारे आलोचकों में है, इसलिए वह ऐसी बातें देख कर भी चन्द्रकान्ता में उसकी शालीन और शिष्ट प्रतिक्रिया नहीं देख पाने की सुविधा उठाते हैं. इसी तरह चन्द्रकान्ता के तिलिस्म में मुख्य और निर्णायक तत्त्व वह लालच देख पाते हैं. वह पाठ को पढ़ने से यह पता चलता है कि लालच न केवल कुछ बदमाशों का है, बल्कि उनके ‘सामंती मूल्यों’ का भी है. जबकि चन्द्रकान्ता पढ़ने वाला मामूली पाठक भी जानता है कि यह सच नहीं है.
 
वास्तविकता यह है कि न केवल दौलत अपितु स्वयं तिलिस्म ही नायकों के लिए गौण है, वीरेन्द्र सिंह तिलिस्म इसलिए तोड़ते हैं कि चन्द्रकान्ता उसमें कै़द है, और इन्द्रजीत सिंह तथा आनन्द सिंह इसलिए कि वे ख़ुद ही इसमें क़ैद हो गये हैं. दौलत उन्हें मिलती है, इसलिए कि वे सही वारिस हैं, इसलिए भी कि उन्हें तिलिस्म तोड़ने पर ही यह दौलत तो मिलती किन्तु इसका कोई भौतिक और उपभोगपरक महत्त्व अगर है भी तो वह महाराज सुरेन्द्र सिंह से कहे गये इन्द्रदेव के इस कथन से निरस्त हो जाता है – "सच तो यों है कि जितनी दौलत यहाँ हैं, उसके रखने का ठिकाना भी यहीं हो सकता है."  यह दौलत तिलिस्म से बाहर ले जा कर खाने-उड़ाने में ख़र्च करने के लिए बनी ही नहीं है, यह समृद्धि है, देश का अर्थ-बल जो योग्य राजा के हाथों में ही अपना अस्तित्व प्रकट करता है.

यह एक आश्चर्यजनक संयोग है कि खत्री जी जब तिलिस्म का आर्थिक तर्क प्रस्तुत करते हैं तब वे अनजाने ही सही, उसके मूल यूनानी शब्द 'तेलेस्मा'के अर्थ तक पहुँचते हैं: दौलत महज एक धरोहर है, एक थाती तो तिलिस्म द्वारा सुरक्षित रखी जाती है और सही मालिक तक पहुँचती है. वह सही मालिक अपने शारीरिक बल के साथ-साथ अपने नैतिक बल से भी पहचाना जाता है, प्रजापालन, न्यायप्रियता, सुशासन आदि उसमें होने ही चाहिए. (पृष्ठ ४७)
     
इसके बाद भी राजेन्द्र यादव चन्द्रकान्ता (सन्तति) आदि को मूल्यों का घपला कहते हैं. किसी का किसी के प्रति मिल जाना और विश्वासघात की घटनाएँ. जबकि ऐयारों का प्रमुख गुण स्वामीभक्ति रहा. जो भी विश्वासघात है, उसके कथानक में कारण छुपे हुए हैं. इसी तरह बाबू देवकीनन्दन खत्री योग्यता के लिए विक्रमादित्य के खजाने से ले कर ज्योतिष तक सहारा लेते हैं, जो कि आख्यान परम्परा की सांस्कृतिक या सृजनात्मक धरोहर है. वागीश शुक्ल बाबू देवकीनन्दन खत्री की निष्ठा भारत के गौरवशाली अतीत में ढूँढते हैं जिसे राजेन्द्र यादव दयनीय मानते हैं. दयनीय क्यों हैं? क्योंकि हम तो पिट गये हैं! एक बार जो पिट गया वो तो पिट ही गया. और जिसने किसी भी तरह पीट दिया वही हीरो है. इसलिए सारी पाश्चात्य उपलब्धि भौतिक ज्ञान की नहीं, गणित की नहीं, ज्ञान के क्षेत्र की नहीं, अपितु ‘पाश्चात्य सभ्यता’ की उपलब्धि समझी जाती है, भले ही उसकी जड़े कहीं से भी पोषित हों.
 
यह गया हुआ गौरव एक (सांस्कृतिक) तिलिस्म के नीचे दबा हुआ ख़जाना ही है. यह वह भारत है जो कभी 'सोने की चिड़िया'था और जिसकी तिलिस्मी इमारत को अनाधिकारियों ने कुछ समय के लिए चाहे अपने क़ब्ज़े में ले रखा हो, उसके भीतरी दरजों की उन्हें कोई ख़बर नहीं है. (पृष्ठ ४९)
 
रस सिद्धांत अपने मूल में नाटकों से जुड़ा हुआ है. हमें यह मालूम होना चाहिए कि मध्ययुगीन ईसाइयों में और इस्लाम में नाटक खेला जाना कुफ्र माना जाता रहा है. योरोप में पुनर्जागरण के बाद ही नाटकों को पुनर्जीवन और सम्मति मिली, जो पहले वैसी नहीं थी. मैं जानना चाहता हूँ कि मुगलों के दरबार में या उससे पहले लोदी वंश, गुलाम वंश आदि किसी भी इस्लामिक शासन में कोई नाटक कभी खेला गया हो, या किसी मुसलमानी राजा से उसकी सम्मति प्राप्त हो, इसका कोई प्रमाण है?
 
संस्कृत नाटकों में एक प्रकार का नाटक 'भाण'कहलाता है जिसकी यह ख़ूबी है कि इसमें एक ही अभिनेता होता है और उसे नाटक ख़ुद ही करना होता है, किसी दूसरे पात्र का भी संवाद वह "क्या कह रहे हो/रही हो?"से शुरू करके आगे बढ़ाता है. ज़ाहिर है उसे अनेक लोगों की बोली की ही नहीं बात की भी विश्वसनीय अनुकृति उतारनी पड़ती है, साथ ही हाट-बाज़ार, मन्दिर मेला, युद्ध  और राजदरबार, सब अपने अकेले दम पर दिखाना होता है और मजमा इकट्ठा करके उसे बाँधे रखना पड़ता है. मुझे इसमे सन्देह नहीं है कि जिसे हम आज'भाँड़'कहते हैं, वह इसी 'भाण'से निकला है और ईरान की 'नक़्क़ाली'कला इसी नाटकीय प्रस्तुति से निकली है. इसी 'नक़्क़ाली'से 'दास्तान-गोई'का जन्म हुआ है.... (पृष्ठ ७७)
 
लेकिन दास्तानगोई का मूल संस्कृत नाटक में है, यह हम नहीं जानते हैं. राजेन्द्र यादव की स्थापनाओं का जवाब बड़ा सीधा-सा ही है. देवकी बाबू अँग्रेजों के खिलाफ़ नहीं, सांस्कृतिक मूल्यों के पुनरुत्थान के लिए लिख रहे थे.
 
खत्री जी को उस समय के और हिन्दू लेखकों की तरह ही हिन्दू जाति के उत्थान के लिए ही लिखना था. यह संकल्प इतने से ही प्रकट था कि वे उर्दू में नहीं, हिन्दी में लिख रहे थे. उनके सामने यह विकल्प अवश्य था कि वे अपना उपन्यास 'ऐतिहासिक'बनाते और हिन्दू नायक तथा मुसलमान प्रतिनायक चुनते किन्तु यह उनकी विवेकी बुद्धि का परिचायक है कि उन्होंने यह सरल विकल्प नहीं चुना. और इसलिए जब उन्होंने अपने उपन्यास के लिए दो सर्वथा कल्पित 'मध्यकालीन'राजपूत राजाओं का द्वन्द्व पृष्ठभूमि के रूप में लिया तो उसमें कोई धार्मिक धार देने की सम्भावना भी समाप्त कर दी. यह एक बड़ी सोच का सबूत है अगर हम इसका ध्यान रखें कि उसी समय लिखी जा रही उर्दू दास्तानों का रुख़ हिन्दुओं के प्रति क्या था. (पृष्ठ ८१)

खत्री जी हिन्दू-मुसलमान की अदलाबदली के द्वारा उर्दू दास्तानों की पूरी नक़ल कर ही नहीं सकते थे क्योंके देवों और दैत्यों की लड़ाई में भी सनातन भारतीय पौराणिक वर्णन-परिपाटी उनकी आराधाना और उपासना के आधार पर कोई भेद नहीं करती-रावण उन्हीं वेदों का विद्वान् है जिन वेदों के विद्वान राम के गुरु वसिष्ठ हैं. हिन्दू धर्म ने अपनी सनातन सार्वत्रिकता और सार्वजनीनता को कभी छोड़ा ही नहीं इसलिए उसमें वैसी चाभियाँ ही विकसित नहीं हो सकीं जो हर बन्द दरवाज़ा खोल सकें.

यह शिल्प की सूक्ष्मता है. इसे आलोचकों को हिन्दूवादी आख्यान कहने की सुविधा तो है, किन्तु उनमें इस विवेचना ‘सत्यपरक’ कहने और स्वीकार करने का साहस न हो.
वागीश शुक्ल बड़ी सूक्ष्मता से यह स्थापित करना चाहते हैं कि सम्भवत: बाबू देवकी नन्दन खत्री चन्द्रकान्ता का कालखण्ड महमूद ग़जनवी का समय रखना चाहते थे, जिसे पहली बार इस्लाम का हमला होता है और सोमनाथ का मन्दिर तोड़ दिया जाता है. लेकिन खत्री जी की कल्पना की उड़ान मध्यकालीन भारतीय काव्यों से प्रेरणा पाती थीं, क्योंकि उन्हें ग्यारहवीं सदी तक पहुँच नहीं थी, जैसे कि तिलिस्म+ए+होशरुबा लखनऊ की तहजीब से जुदा नहीं है.
 
"न अँग्रेज़ हैं न मुग़ल, न गुप्त हैं न मौर्य. कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं है और ये सभी राजा अपने कुछ कोसों में सिमटे राज्यों और कुछ हज़ारों में सिमटी फ़ौजों के साथ परम निरंकुश हैं– वे न केवल अपनी प्रजा को मृत्युदण्ड तथा देसनिकाला देने का अनिर्बाध अधिकार रखते हैं अपितु आपस में अनिर्बाध रूप से लड़ाई छेड़ सकते हैं और उसमें जीतने पर विजेता विजित का राज्य अपने अधिकार में ले सकता है.....ये ठेठ ठकुरई ठसक के सरोकार हैं जो आल्ह-ऊदल जैसे लोक-काव्यों से ले कर पृथ्वीराज रासो और पदमावत जैसे महा-काव्यों में हमें दीखते हैं." 
(पृष्ठ ९३)
 
बाबू देवकीनन्दन खत्री का लेखन युक्तिसंगत, नवजागरण की राह पर वैज्ञानिक था ही, किन्तु उन्होंने कटुता और अश्लीलता का दामन नहीं थामा. सारे प्रश्नों के बाद भी यह प्रश्न जो अनुत्तरित रह जाता है कि आखिर इन उपन्यासों में वह कौन सी चुम्बकीय शक्ति है, जो पाठक को एकदम से जकड़ लेती है. क्या सन् २०२० में कोई बारह-चौदह साल का लड़का भी इससे उतना ही प्रभावित हो सकता है जितने हम, हमारे पिता, पितामह और प्रमितामह हुए थे?
       
आलोचना की भारतीय परम्परा और मौलिक चिन्तन का सत्यपरक दृष्टान्त हमें वागीश जी नयी पुस्तक में मिलता है. यह करीब चार-पाँच साल पहले लिखी जा चुकी थी. किन्तु हिन्दी में जिम्मेदार और विचारशील प्रकाशनों के अभाव के कारण पाठकों को अब उपलब्ध हुयी है. आशा है कि इसे गम्भीरता से लिया जाएगा और शब्दों की व्युत्पत्ति तथा ऐतिहासिक विकास के साथ, बहुआयामी चिन्तनों को समावेशित करते हुए हिन्दी की आलोचना परम्परा समृद्ध हो सकेगी.


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परख : आईनासाज़ (अनामिका) : अर्पण कुमार

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वरिष्ठ लेखिका अनामिका का उपन्यास 'आईनासाज़'  इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से छप कर आया है.  इसको देख-परख रहें हैं अर्पण कुमार.






आईनासाज़ का आईना                                    
अर्पण कुमार




वयित्री और गद्यकार अनामिका के उपन्यास-लेखन की कड़ी में उनका नवीनतम उपन्यास ‘आईनासाज़’ आया है. उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में स्वभावतः स्त्री-स्वभाव के कई प्रामाणिक और आत्मपरक रंग देखने को मिलते हैं, जिसके पीछे की संवेदनशीलता से सहज ही पाठकों का ‘साधारणीकरण’ होता चला जाता है. ‘स्त्री-विमर्श’ का स्वर उनकी रचनाओं में कहीं स्पष्ट और बोल्ड होता है तो कहीं पंक्तियों के बीच (between the lines) उन्हें समझना होता है. स्त्री, उनकी रचनाओं में केंद्रीय स्थान रखती है. यह उनके नवीनतम उपन्यास ‘आईनासाज़’ पर भी लागू है. वैसे भी, जीवन की कोई सच्ची और दुनियावी कथा स्त्रियों को शामिल किए बगैर नहीं कही जा सकती.

‘आईनासाज़’ में अनामिका ने बड़ी ही सरल और प्रवहमान मगर काव्यात्मकता,  अनुभवजन्यता और दार्शनिकता से संपृक्त भाषा में कथा का नैरेटिव प्रस्तुत किया है. उनके कथा-कविता जगत में अक्सरहाँ स्मृतियाँ बहुत सघनता और अपनापे से प्रस्तुत होती हैं. ऐसा लगता है, जैसे, वे उन्हें सालों-साल सँभालती, बचाती चलती आई हों और उन्हें धीरे-धीरे बड़े जतन से लोगों के समक्ष खोलती चलती हों. ऐसी स्मृतियों की सघनता हमें उनके इस उपन्यास में भी देखने को मिलती है. एक लड़की या कहें छोटी बच्ची के चोरी-छिपे, मुँह में देर तक दबाकर रखे गए लेमनचूस के खाने से कथा की शुरुआत होती है.

ग्रैंड कैनियन की भौगोलिक, प्राकृतिक सुंदरता के वर्णन से उपन्यास में वर्तमान का आगमन होता है. पात्र क्रमशः पन्नों पर उतरते चले आते हैं और हमारा उनसे परिचय होता चला जाता है. सूत्रधार कथा-वाचिका सपना है. उसके कुछ निकट के दोस्त हैं. सिद्धू उर्फ मानस की और उसकी पत्नी महिमा. उन दोनों की बेटी रम्या है. रम्या गूँगी है. उससे महिमा स्वयं काफ़ी उदास रहने लगी है. मानस, कथा-वाचिका सपना से न सिर्फ़ अपने परिवार की बल्कि मध्य एशिया की समस्या पर और अमेरिका के प्राकृतिक सौंदर्य पर भी चर्चा करता है. वह कभी वह कैलीफोर्निया से कथा-वाचिका को वहाँ के चित्र भेजता है और वहाँ की जगहों के बारे में बताता है. इधर, डॉ. नफीस हैदर, सपना के पति हैं और वे पेशे से डॉक्टर हैं. वे अपनी पत्नी सहित अपनी पुश्तैनी हवेली में पहली मंज़िल पर रहते हैं. उसी हवेली में नीचे, उनकी क्लिनिक है और परित्यक्त समूहों से आए बच्चों का आवासीय विद्यालय भी. इस विद्यालय को नफीस के अब्बा ने खोला था.   

यह उपन्यास कई खंडों में विभाजित है. 'चल खुसरो घर आपने', 'अथ खुसरो कथा', 'सिद्धू उर्फ मानस'आदि. जैसा कि ऊपर बताया गया, यह पूरा उपन्यास सपना के मुख से कहलाया गया है. इसमें बहुत सारे पात्र हैं, जिनमें से अधिकांश के साथ लेखिका द्वारा पूरा निर्वहन किया गया है. सपना के जीवन के संघर्ष को क्रमवार बहुत रोचक तरीके से ठहर-ठहर कर चित्रित किया गया है. 

सपना के पिता की कश्मीर में एक बम-विस्फोट में मौत, बिहार और दिल्ली में उसका यौन-शोषण उसका ड्रग का शिकार होना, सूफ़ी गायक सिद्धू द्वारा उसे इस नशे से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना, उसकी नफ़ीस हैदर से शादी का होना - ये तमाम प्रसंग उपन्यास में कुशलतापूर्वक उकेरे गए हैं. स्पष्ट है कि उपन्यास की कथा वाचिका सपना अपने जीवन में तमाम तरह के अच्छे-बुरे रंगों को देख चुकी है. अतः उसके वर्णन (नैरेटिव्स) में सहज ही एक आत्म-दग्धता और उससे व्युत्पन्न दार्शनिकता दिखती है. यहीं पर एक पुस्तक का ज़िक्र आता है, जो कैसे सपना के युवा मन को संस्कारित करता है, उसे दृष्टि और सोच की उदारता देता है. वह पुस्तक एक उपन्यासिका है, जिसे ललिता चतुर्वेदी के पिता ने लिखा है. सपना बताती है,  'यह पूर्वाग्रह तोड़ने में इस छोटी-सी उपन्यासिका का हाथ भी है, जो एम.ए. में हिंदी माध्यम के छात्रों को ग़ुलाम वंश और उसके बाद का इतिहास पढ़ाने वाली मेरी शिक्षक ललिता चतुर्वेदी ने यह कहकर हमें पढ़वाया था कि इससे उस समय का जन जीवन और बाद का सूफ़ी मानस समझने में हमको मदद मिलेगी.'

कश्मीर के आंतकी हमले में अपने पिता को खो बैठी सपना के लिए किसी धर्म-विशेष के प्रति किसी आक्रोश को स्थायी रूप से घर न करने देने की कोशिश में ललिता चतुर्वेदी ने संभवतः ऐसा किया हो, इसका ज़िक्र सपना स्वयं भी करती है. ललिता, सपना को एक लंबा पत्र लिखती है, जिसके साथ वे उस उपन्यासिका की छाया प्रति भी उसके लिए भिजवाती हैं. साथ ही, मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक की अपनी यात्रा का भी ज़िक्र करती चलती हैं.

इस उपन्यास की भाषा प्रभावित करती है. यहाँ बाँग्ला, अँग्रेजी सहित हिंदी की बोलियों के कई शब्द भी आए हैं, जिनसे उपन्यास का भाषिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक कलेवर काफ़ी खिल गया है. पृष्ठभूमि में अमीर ख़ुसरो की कहानी है, जिनके साथ इस उपन्यास के कई पात्र अपनी एकमेवता महसूस करते हैं और अमीर की जीवन-दृष्टि कहीं-न-कहीं उन्हें अपनी जीवन-दृष्टि भी लगती है. कविता करने वाली और सपना से स्नेह रखनेवाली उसकी शिक्षिका ललिता, अपने को उसी सूफ़ी परंपरा से जोड़ कर देखती हैं. साथ हँसने-रोने की यह साझा संस्कृति, इस उपन्यास के कई पात्रों में हमें दिखती हैं. मसलन, सपना और ललिता में भी. एक तरफ़ कथा-वाचिका सपना है जिसका जीवन गरीबी और नशा के बीच गुज़रा है, जहाँ उसका दैहिक शोषण भी ख़ूब हुआ. दूसरी तरफ़, प्राध्यापिका ललिता के सफल और ख़ुशहाल जीवन के अंदर झाँककर उनके घर में उनकी हैसियत की भी निर्मम पड़ताल की गई है. एक पढ़ी-लिखी, चेतना-संपन्न और आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर स्त्री की आज भी हमारे समाज में वह वांछित स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी वे हक़दार हैं. ऐसे में जो अशिक्षित और लोगों की नज़र में अनार्जक स्त्रियों के साथ उनके घरों में क्या-क्या हो सकता है, इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है.

लेखिका ने ललिता के घर के अंदरूनी वातावरण को उपस्थित कर हमारा ध्यान उसी ओर खींचने का प्रयास किया है.  इस उपन्यास में वैवाहिक जोड़ों में कई अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विमर्श भी स्वयं उपस्थित हो गया है. सपना की शादी नफ़ीस हैदर से होती है, वहीं सिक्ख परिवार से ताल्लुक रखनेवाले सिद्धू उर्फ मानस की शादी, बाँग्ला पृष्ठभूमि से आई महिमा से होती है. बाँग्ला पृष्ठभूमि के हिसाब से मानस के ढलने और एक नई संस्कृति के साथ उसके तादात्म्य की प्रक्रिया को  भी दिखाया गया है, जहाँ बदलते समय में पुरुषों के भीतर होनेवाले ऐसे बदलावों को पूरी सकारात्मकता में देखने की ज़रूरत है. स्पष्ट है कि यह पूरी कथा, आधुनिक पीढ़ी के माध्यम से कही गई है, जो अपने तईं कहीं अधिक उदार, ग्लोबल और समावेशी है. दोस्तों के लिए कुछ ठोस करने के कई प्रेरक प्रसंग भी यहाँ देखने को मिलते हैं. सपना ने ‘इप्टा’ के नामी-गिरामी नाट्य-निर्देशक रहे अपने ससुर के माध्यम से इप्टा के उतार-चढ़ाव की यात्रा को भी दिखाया है. कई सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों की उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखने की ऐसी कई चुनौतियों का भी यहाँ उचित ही संकेत किया गया है. इससे वर्ण्य युग का परिवेश, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर अपनी पूरी सघनता के साथ उभर कर आ पाता है.  

समकालीन कथा के अतिरिक्त यहाँ एक मध्यकालीन कथा है, जिसके लिए यह उपन्यास रचित किया गया और जो उपन्यास के केंद्र में है. वह चरित्र बहुकला प्रवीण अमीर खुसरों का है. यह उपन्यासकार की दक्षता है कि यहाँ अमीर ख़ुसरो की कथा को बड़े सधे अंदाज़ से आज की वर्तमान पीढ़ी के साथ जोड़ दी गई है. इसके लिए लेखिका ने प्रस्तुत उपन्यास के आरंभ में वहाँ तक आने के लिए कई प्रसंग जोड़े हैं, जिसमें वर्षों पुरानी उपन्यासिका पर शोध करने के बहाने उसके महत्व को रेखांकित किया गया है. दूसरे, यहाँ जो कई पात्र हैं, उनके भीतर भी क्रमशः अमीर ख़ुसरो के प्रति एक उत्सुकता और रुचि पैदा होती है. इस तरह, यहाँ पूरी उपन्यासिका की कथा को तो रखा ही गया है, दूसरे उसके साथ जुड़ी आधुनिक पीढी के विभिन्न संघर्षों और युगीन चुनौतियों से निपटने की उनकी कहानियों को यहाँ साथ-साथ प्रस्तुत किया गया है. दो अलग-अलग युगों की ब्लेंडिंग करना आसान नहीं था, मगर लेखिका द्वारा यह समायोजन भली-भाँति किया गया है. दोनों युगों की भाषा-प्रकृतियों का भी विशेष ध्यान रखा गया है. इसलिए, यहाँ भाषा और उससे निर्वहन के स्तर पर हम दो भिन्न दुनियाओं के रंग देख पाते हैं. साथ ही, आधुनिक समय में स्वभावतः अलग-अलग पीढ़ी के पात्र हैं, अतः उस पीढ़ी-अंतराल को भी हम यहाँ प्रकटतः देख/ समझ पाते हैं. इस उपन्यास पर अगर चर्चा करनी होगी तो इसपर दो स्तरों पर चर्चा करनी होगी. पहला अमीर खुसरो केंद्रित उपन्यासिका पर और दूसरा वर्तमान पीढ़ी पर.

चूँकि अमीर ख़ुसरो स्वयं एक कवि और संगीतज्ञ हैं, अतः इस उपन्यासिका में अमीर ख़ुसरो के लेखक-निर्माण की प्रक्रिया को भी पूरी तरह समझने का प्रयास किया गया है. उनकी इस यात्रा को लेखिका ने बड़े प्रभावी रूप से उभारा है. ‘हिंद का तोता’ माने जानेवाले अमीर ख़ुसरो ने गज़ल, खयाल, कव्वाली, रुबाई, तराना जैसी काव्य-शैलियों में रचना की. अमीर ख़ुसरो पर केंद्रित यह उपन्यासिका मूल उपन्यास के भीतर ही है और उसके कथा-प्रसंग के एक हिस्से के रूप में आता है. हालाँकि, वहाँ उसकी एक स्वतंत्र सत्ता है और उसे एक प्रवाह में, एक निरंतरता में प्रस्तुत किया गया है. यह उपन्यासिका मूलतः 'मैं'शैली में है, जिसमें अमीर ख़ुसरो अपने जीवनानुभवों को अपनी साहित्य-यात्रा और अपने अन्य कला-रूपों से जोड़ते चलेते हैं. अमीर ख़ुसरो का शुरूआती जीवन, उनके नाना के यहाँ गुज़रा. वहाँ के कई क़िस्से और प्रसंग अमीर ख़ुसरो के साहित्यकार-कलाकार रूप को समझने में मददगार होते हैं. किशोर अमीर का प्रकृति-प्रेम, स्वयं में खोए रहने का उसका दार्शनिक अंदाज़, नाना की डाँट, चीज़ों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करने की उसकी प्रवृत्ति-यह सब मिलकर अमीर के 'फॉर्मेटिंग इयर्स'को गढ़ने का काम करते हैं. इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक को ऐसा एहसास होता है कि वह अमीर ख़ुसरो की आत्मकथा को ही पढ़ रहा है. एक उपन्यासकार के रूप में यह अनामिका की सफलता है. ऐसा तभी संभव है, जब लेखिका ने अमीर ख़ुसरो को लेकर न सिर्फ़ काफ़ी चिंतन किया हो बल्कि उस परिवेश, भाषा और समय को लेकर भी पर्याप्त अनुसंधान किया हो. उन्हें लेकर उसकी पत्नी के बीच संबंधों का उतार-चढ़ाव होता है, मगर उसे पूरी वयस्कता के साथ प्रबंधित होते दिखाया गया है. हमें यह पूरे समाज को किसी अंधविश्वास को समर्थित न करते हुए उसे संवेदना के स्तर पर जाकर पकड़ने की कोशिश की है.

अमीर ख़ुसरो के व्यक्तित्व के कई रंग देखने को मिलते हैं. पति, प्रेमी, पिता और शिष्य के रूप में समय-समय पर उनके कई रूप, बड़े मौलिक और मार्मिक रूप में चित्रित हो पाए हैं. उनकी पुत्री-विह्वलता के कई प्रसंग हमें देखने को मिलते हैं. शुरू में उनकी पुत्री कायनात के बचपन के कई ख़ुशगवार पल हैं तो बाद में उसके घर से चले जाने के कई उदासी-भरे क़िस्से भी हैं. अमीर ख़ुसरो की पुत्री कायनात से उसके अगाध प्रेम को अनामिका ने बख़ूबी पकड़ा है. जवान होती एक पुत्री की भलमनसाहत में चिंतित पिता के कशमकश को और उसके बरअक्स महरू की साफगोई को उपन्यास में भली-भाँति उद्घाटित किया गया है. यह कायनात कब अमीर ख़ुसरो और उसकी पत्नी महरू के बीच संवाद का सेतु बन खड़ी हो उठती है, ऐसे प्रकरणों में आम हिंदुस्तानी गृहस्थी के अपनत्व भरे कई रंग उभर आते हैं. इन प्रसंगों को उनकी रूबाइयों, पहेलियों के संदर्भों के माध्यम से समझाया गया है. यहाँ अमीर ख़ुसरो की सत्ता से नज़दीकी और बाद में उससे हुए उनके मोहभंग और उनके भीतर के अकेलेपन को भी वाणी प्रदान की गई है. 

इस अभिव्यक्ति में दरबारी लेखकों की स्थिति का स्पष्ट चित्रण हुआ है, जहाँ सत्ता के लाभ ही नहीं बल्कि उसकी ऊब और उसके अकेलेपन को भी अभिव्यक्ति मिली है. इस नश्वरता को सर्वप्रथम कोई संवेदनशील कलाकार ही समझता है. इस उपन्यास के बहाने अनामिका ने न सिर्फ़ एक लेखक के महत्व को स्थापित किया है और साथ ही उसके आत्म-संघर्ष और उद्वेलन को भी पूरी साफ़गोई से चित्रित किया है. वह सत्ता के साथ रहते हुए चाहे जितना ही उसके क़रीब क्यों न हो, शहंशाह कभी भी उसे सीमांकित कर जाता है. अमीर खुसरो की पूरी कथा को बड़ी ख़ूबसूरती और समुचित वातावरण-निर्माण  के साथ कहा गया है. स्त्री-पुरुष संबंधों में विवाहेतर प्रेम संबंधों को बड़ी बारीकी और संवेदनशीलता से उकेरा गया है. अमीर ख़ुसरो की कथा अपने पूरे स्ट्रेच में एक साथ समाप्त होती है, वहीं उसके बहाने जुड़ी आधुनिक कथा, उपन्यासिका के आरंभ में और उसकी समाप्ति के बाद भी ज़ारी रहती है. इस अर्थ में ये दोनों कथाएँ एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर जुड़ी हुई हैं. अमीर ख़ुसरो की कहानी में कई महत्वपूर्ण पात्र हैं. हसन,  अलाउद्दीन खिलजी,   महरू, अमीर ख़ुसरो के बचपन के दोस्त कादर मियाँ आदि से जुड़े कई प्रसंग हमारी चेतना में गहरे पैठ जाते हैं. उनके चरित्र पूरी शिद्दत से उभर कर आ पाए हैं. अलाउद्दीन ख़िलज़ी की अमीर ख़ुसरो से की गई वादा-ख़िलाफ़ी, पद्मिनी के ज़ौहर की स्थिति आदि के विवरण बड़े मार्मिक बन पड़े हैं. अमीर ख़ुसरो के कहने पर ही पद्मिनी, ख़िलज़ी को अपनी सूरत, आईने के माध्यम से दिखाने को तैयार हुई थी. बाद में, ख़िलज़ी की लपलपाती इच्छा कहीं थमती नहीं जान पड़ती है,  अमीर से किए गए वादे को वह भुला बैठता है  और अंततः पद्मिनी द्वारा ज़ौहर का मार्ग अख़्तियार किया जाता है. इसे लेकर अपने सुल्तान के प्रति अमीर ख़ुसरो के मन में आक्रोश है और वह पद्मिनी के इस हश्र के लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानता है. अनामिका ने अमीर ख़ुसरो के भीतर के इस अंतर्द्वंद्व को भली-भाँति पकड़ा है.

यहीं पर, स्त्री को अपनी संपत्ति मानकर चलनेवाली पुरुष-मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गई है. ज़ौहर करने से पूर्व पद्मिनी, अमीर ख़ुसरो को पत्र लिखती है, जिसमें वह अमीर ख़ुसरो को किसी अपराध-भाव में आने से मना करती है, वहीं वह नागमती के प्रति जाने-अनजाने स्वयं के द्वारा हुए अन्याय को स्वीकारती हुई उसकी और रत्नसेन के पुनर्मिलाप की कामना भी करती है. एक कलाकार होने के नाते अमीर ख़ुसरो के भीतर की संवेदनशीलता, इन स्त्रियों से कहीं गहरे तक प्रभावित है. अमीर खुसरो के मन में ऐसी स्त्रियों के प्रति अगाध आदर-भाव है.

यहाँ सर्व-धर्म-समभाव की ज़रूरत पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है. जिसमें स्वयं शहंशाह की पत्नी 'मलिका'को भी इसके प्रचार-प्रसार में संलग्न दिखाया गया है. कहना न होगा कि आज धार्मिक संकीर्णता जिस तरह बढ़ती चली जा रही है, धार्मिक उदारता और सम-भाव की भावना की ज़रूरत भी उतनी ही तीव्र होती जा रही है. ईरान की राबिया फकीर का ज़िक्र भी कई बार आता है. सूफ़ी मान्यता से प्रभावित और समाज की सेवा और कल्याण और उसके आध्यात्मिक उत्थान में  संलग्न और अपने इस काम के प्रति समर्पित एक भरी-पूरी ज़मात दिखाई पड़ती है, जो अँधेरे में रोशनी की मानिंद हमारे सामने प्रकट हैं. विदित है कि अमीर ख़ुसरो के निज़ामुद्दीन औलीया से संबंध बड़े गहरे और आत्मिक रहे हैं. अमीर खुसरो पर निज़ामुद्दीन औलिया का प्रभाव सर्वाधिक है. उन दोनों के बीच हर तरह की साहित्यिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चर्चा होती रही है. उस संबंध की रूहानियत और उसकी ऊँचाई को यहाँ सुचिंतित रूप में व्याख्यायित किया गया है. यह कहना ग़लत न होगा कि अमीर ख़ुसरो की रचनाएँ, औलिया की दार्शनिक और सूफ़ी संदेशों के ही साहित्यिक रूपांतरण हैं. 

इस उपन्यास में आज की ज़रूरत सांप्रदायिक सद्भाव पर केंद्रित विषय को उपन्यास का केंद्रीय विषय बनाया गया है और उसे एक ग्लोबल परिदृश्य और मध्यकालीन समय से जोड़कर लिखा गया है, जिसे 'गुडिया भीतर गुड़िया'की तर्ज़ पर 'उपन्यास भीतर उपन्यास'के रूप में गढ़कर उसे आधुनिक पीढ़ी के साथ जोड़ते हुए उसे एक समसामयिकता का महत्व भी प्रदान किया गया. समाज में कई धाराएँ चलती हैं, जिनमें कई निजी सह सामूहिक प्रयास भी शामिल हैं. इन प्रयत्नों से समाज के भाईचारा की भावना को संबल प्रदान होता है और उसके लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है.

इस उपन्यास को दो उपन्यासों की तरह पढ़ने का आनंद प्राप्त होता है. अनामिका के दूसरे उपन्यासों की ही तरह यहाँ भी पात्रों की बहुतायत है, मगर अधिकांश पात्रों के साथ समुचित लेखकीय निर्वाह संभव हो पाया है. पात्रों के बीच आपसी सामंजस्य हो या उनका स्वतंत्र चरित्र-चित्रण हो या उनकी अपनी अंतर्कथाएँ हों, हर आवश्यक पहलू से उपन्यास का गठन सशक्त जान पड़ा है. शुरू में यह उपन्यास दोस्तों के कम्यून से शुरू होता है, जो विभिन्न देशों में छितराकर भी सोशल मीडिया पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. इस उपन्यास का अंत, सपना के एक पत्र से होता है, जो वह अपने दोस्तों महिमा और सिद्धू को और साथ ही अमीर खुसरो को संबोधित करके लिखती है. मतलब यह कि अंत में सारी कड़ियाँ एक बार फिर जुड़ जाती हैं.

कहने की ज़रूरत नहीं कि 'आईनासाज़'में धर्म, लिंग, जाति, संप्रदाय, वर्ग, वर्ण, व्यवसाय से परे हर व्यक्ति को विशिष्ट माना गया है और उसकी पूरी गरिमा को स्थापित किया गया है. यह वज़ूद के विश्वास को रूपायित करनेवाला उपन्यास है. सूफ़ी संप्रदाय की कई स्थापनाओं से प्रभावित इस उपन्यास में विभिन्न धर्मों, वर्गों और जातियों के बीच आवाज़ाही है और उनकी पारस्परिकता में ही मनुष्यता की सार्थकता को समझा जा सकता है.

यह मात्र संयोग नहीं कि इस उपन्यास में आज के बदलते परिवेश में स्त्री-पुरुष संबंधों को एक बृहत्तर और उदार रूप में देखा गया है, जहाँ स्त्री-पुरुष के बीच की दोस्ती को एक रूहानी ऊँचाई भी प्रदान की गई है. यहाँ एक उदार पुरुष का स्वरूप भी उभारा गया है, जिसे हम सिद्धू के रूप में ज़्यादा संघटित होकर देखते हैं. वह एक तरफ़ सपना को सँभालने में पूरा सहयोग करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अपनी मूक-वधिर बेटी और उससे बुरी तरह प्रभावित अपनी पत्नी महिमा को भी सँभालता है. निश्चय ही, आज सिद्धू जैसे अधिक-से-अधिक पुरुषों की हमारे समाज को ज़रूरत है, जो स्त्री को उसकी संवेदनशीलता के स्तर पर जाकर समझे. किसी हेकड़ी या अनावश्यक शौर्य-प्रदर्शन से दूर ऐसे पुरुष पिता, पति, भाई और मित्र-हर रूप में स्त्री को संपूर्ण करते हैं. स्त्री-पुरुष के बीच की यह समझदारी, आज के वक़्त की ज़रूरत है.

इस उपन्यास में पत्र-शैली का इस्तेमाल भी उपन्यास की गति को आगे बढ़ाने में सफलतापूर्वक हो सका है. इसमें पत्र-लेखन के आधुनिकतम संस्करण यथा व्हाट्सएप आदि का इस्तेमाल भी किया गया है, जिससे इसमें उचित ही सम-सामयिकता का पुट भी समाहित हो पाया है. कभी सिद्धू, सपना को तो सपना, उसकी पत्नी महिमा को तो कभी ललिता, सपना को पत्र लिखती हैं. इनके माध्यम से भी उपन्यास के कई कथा-तंतु पकड़ में आते हैं.

इस उपन्यास में एक प्रसंग आता है. ‘सिलसिला’ का. 'सूफियों में एक शब्द चलता है-सिलसिला! एक तरह का गुरु-ऋण जो हम प्रत्यक्ष तो नहीं उतार सकते, पर उससे कुछ उऋण ऐसे हो सकते हैं कि जो सीखा है, उसे आत्मसात करके उस सूत्र का 'सिलसिला'आगे बढ़ा दे.’ यह मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रहराक्षस'की भी याद दिलाता है. दो अलग-अलग तरीकों में एक ही बात कही गई है. कोई सीखी हुई बात जब आगे नहीं बढ़ा पाता है, तो वह ब्रहराक्षस बन जाता है. इस योनी से मुक्ति के लिए उसे किसी को शिष्य बनाकर पूरी शिक्षा प्रदान करनी होती है.

कहा जा सकता है कि यह उपन्यास, प्रेम और परिवार का, राजनीति और साहित्य का, धर्म और अध्यात्म का संगम कहा जा सकता है. यहाँ भारतीयता, देशजता और स्थानिकता का महाराग है, जिसे विश्वव्यापी स्तर पर प्रस्तुत किया गया है. यहाँ अध्यात्म और बौद्धिकता, साहित्य और संगीत, अतीत और वर्तमान की कई परतें हैं, जिन्हें हम सहज ही एक-एक कर उघड़ते हुए दिखते हैं. हिंसा और घृणा से ओतप्रोत समाज में सहित्य सहित कला के सभी रूपों की प्रासंगिकता को उभारा है, उसे रेखांकित किया है. 

अनामिका ने अपने इस उपन्यास में एक साथ दो अलग-अलग युगों को साधा है, उनके बीच की परंपरा को आपस में नाल-बद्ध किया है. वर्तमान को अतीत की विरासत की याद दिलाई है, उसके कई रंगों को अपने तईं कुछ और चटखता प्रदान की है. अनामिका के उपन्यासकार की एक विशेषता है. वह कथाओं के भीतर चलती कई उप-कथाओं का एक कोलाज बनाता है, जिससे पूरा परिदृश्य अपनी पूरी सघनता में स्पष्ट हो जाता है. उनके उपन्यासकार की यह विशेषता ‘आईनासाज़’ में भी देखने को मिलती है. 
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arpankumarr@gmail.com

संत रैदास के पद : सदानंद शाही

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मध्यकाल के कवि केवल कवि नहीं थे, जैसे कबीर निरे कवि नहीं हैं, रैदास भी उसी तरह से भारतीय समाज की विसंगतियों के बीच पथ-प्रदर्शक, और नेतृत्वकर्ता की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे. मध्यकाल के सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष धार्मिक मुहावरों में खड़े किये जाते थे और लड़े जाते थे. 

'गुरुग्रन्थ साहब'में कई संत कवियों की कविताओं को सम्मलित किया गया है. उनमें से संत रैदास के छह पदों का आज की हिंदी कविता में रूपांतरण सदानंद शाही ने किया है और संत रैदास के आदर्श राज्य की कल्पना बेगमपुर पर एक टिप्पणी भी लिखी है.


संत रैदास के पद
सदानन्द शाही



संतरैदास  और कबीर  एक नया शहर बसाना चाहते थे.  उस शहर का नाम उन लोगों ने रखा था ‘बेगमपुर’. रैदास इस शहर के मुख्य आर्किटेक्ट थे. उन्होंने बेगमपुर का नक्शा बनाया था जिसमे  उन्होंने अपनी कल्पना के  शहर की खूबियाँ बताई हैं.  

उन्होने शहर का नाम रखा बे-गमपुर. यहाँ रहने वाले को न कोई दुख होगा न ही किसी तरह की चिन्ता होगी. किसी तरह का टैक्स देने की फिक्र नहीं होगी. उस शहर में न किसी तरह का अपराध होगा न ही दण्ड का विधान. किसी को किसी तरह का भय भी नहीं होगा सब निर्भय होंगे. यहाँ की शासन व्यवस्था सुद्र्ढ़ होगी. वह खौफ के बल पर नहीं, बल्कि प्रेम और सद्भाव के बल चलेगी. इस शहर के सभी नागरिक निर्भय होकर रहेंगे. यह ऐसा खूबसूरत वतन होगा जहाँ खैरियत ही खैरियत होगी.  

इस शहर  की बादशाहत मजबूत और मुकम्मल होगी. किसी को संविधान विरुद्ध कुछ करने का साहस नहीं होगा. इस शहर के सभी रहवासी अव्वल दर्जे के नागरिक होंगे. किसी को भी दूसरे या तीसरे दरजे का नागरिक नहीं समझा जाएगा. किसी से भेद भाव नहीं किया जाएगा. भरपूर रोजी रोटी और आबोदाना के लिए यह शहर  मशहूर होगा.  

इस शहर में रहने वाले सुखी और हर तरह से सम्पन्न होंगे. किसी पर कोई रोक टोक नहीं होगी. जिसका जहाँ कहीं भी जाने का मन करेगा वह वहाँ आ जा सकेगा. ऐसे शहर की कल्पना संत रैदास ने की है.  सभी तरह के मोह और  बन्धनों से मुक्त संत रैदास की संगत उसे ही नसीब होगी जो उनके सपनों के शहर बेगमपुर का नागरिक होगा. 

अगर हम भेद-भाव रहित समता पर आधारित समाज बनाना चाहते हैं तो इस नक्शे को फिर से खोजना होगा. जाहिर है यह नक्शा और कहीं नहीं रैदास की कविता मेँ ही मौजूद है. इसलिए जरूरी है कि रैदास कि कविता को आग्रह  मुक्त होकर पढ़ा जाय. इसी पढ़ने के क्रम मेँ रैदास के कुछ पदों का आधुनिक हिन्दी कविता के ढंग मेँ रूपांतर हो गया है,जिसे यहाँ साझा कर रहे हैं. आइये इन पंक्तियों के सहारे बेगमपुर का नक्शा तलाशने की कोशिश करें. 



स्मरण में है आज जीवन : सूरज पालीवाल

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स्मरण में है आज जीवन           
सूरज पालीवाल


शैलेंद्र शैल हिंदी कविता में सुपरिचित नाम है. वे लगातार पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक मित्रों के बीच अपनी उपस्थिति बनाये रखते हैं. कई बार नौकरियों के झमेले और बढ़ते पारिवारिक दायित्वों के चक्कर में साहित्यिक रुचि धीरे-धीरे तिरोहित होने लगती है. इसकी गुंजाइश तब और अधिक हो जाती है जब नौकरी साहित्य से एकदम भिन्न प्रकार की हो. शैल जी के साथ यह संभावना और बलवती हो जाती यदि वे अपनी मूल प्रवृति की उपेक्षा और साहित्यिक मित्रों से दूरी बना लेते. जिस प्रकार जीवन में कई बार दो धु्रवांतों को साधने की कला विकसित कर ली जाती है उसी प्रकार शैल जी ने भी नौकरी और साहित्य-दोनों के साथ चलने का संकल्प लिया.
कहना न होगा कि वे एम.ए. करते ही भारतीय वायु सेना में अधिकारी बन गये थे. सेना की नौकरी एकदम भिन्न प्रकार की होती है, ऊपर से देखने पर वहां भावुकता के लिये कोई जगह नहीं होती पर जरा ठहरकर सोचिये यदि भावुकता के लिये सेना में कोई जगह नहीं होती तो अपने देश की मिट्टी को अपनी मातृभूमि मानकर शहीद हो जाने वाले सैनिकों के लिये क्या कहेंगे ? समाज अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिये कुछ भी बेचने को तैयार खड़ा है पर सैनिक अपने जीवन को ही दांव पर लगा देता है. यह भावुकता सेना के कड़े अनुशासन में भी विद्यमान रहती है, न वह उच्छृंखल होती है और न स्वच्छंद. शैल जी पूरे जीवन सेना में अधिकारी रहे पर जहां भी रहे वहां पर अपने साहित्यिक मित्रों के साथ अपनी साहित्यिक अभिरुचि पर धार धरते रहे. यही कारण है कि तीन खंडों में विभाजित संस्मरणों की इस पुस्तक में साहित्यिक मित्रों पर लगभग आधे पृष्ठ लिखे गये हैं. वे इस बात को मानते हैं कि साहित्य ने उन्हें जितनी पहचान दी है, उतनी नौकरी में नहीं मिली.
‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में लगभग 16 संस्मरण हैं. पहले खंड को ‘साहित्य की परिधि से’ नाम दिया गया है जिसमें आठ संस्मरण हैं. ये आठों संस्मरण हिंदी की उन जानी-मानी हस्तियों पर हैं, जिन्हें पढ़कर शैल जी से ईर्ष्या होती है कि उन्हें यह सौभाग्य अकेले कैसे मिला ? यह विरल स्थिति है इसलिये कि हम सब अपने-अपने विश्वविद्यालयों से पढ़कर आये हैं पर उनमें कितने नाम हैं, जिन्हें हम गर्व के साथ दूसरों के सामने ले सकते हैं और उन पर संस्मरण लिखकर स्वयं को उस पंक्ति में खड़ा कर सकने की स्थिति में होते हैं, जिस पंक्ति में वे स्वनामधन्य लेखक खड़े हैं. पहला ही संस्मरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर है, जिनके वे विद्यार्थी रहे हैं. कहना न होगा कि आ. द्विवेदी के प्रिय छात्र डॉ. नामवर सिंह अपने पूरे जीवन अपने गुरु का पुण्य स्मरण करते रहे और कहते रहे कि मेरे गुरुवर ऐसा कहते थे या ऐसा सोचते थे. नामवर जी स्वयं बड़ा नाम है पर उनके गुरु तो बहुत बड़े थे, ऐसे बड़े गुरु का छात्र होने का सौभाग्य शैल जी को भी मिला, यह कम बड़ी बात नहीं है.
शैल जी अपने गुरु पर संस्मरण लिखकर उनका साहित्यिक मूल्यांकन नहीं कर रहे थे वैसे भी संस्मरण में इस प्रकार का मूल्यांकन संभव नहीं है. मूल्यांकन के लिये जिस प्रकार के शुष्क और कठोर औजारों की आवश्यकता होती है, उस तरह के औजार संस्मरण को सूखा और व्यर्थ बना देते हैं. संस्मरणों में जिस प्रकार की आत्मीय अंतःसलिला प्रवाहित होती है, उससे वे न केवल पठनीय बल्कि स्मरणीय भी बन जाते हैं. शैल जी की पर्यवेक्षण क्षमता गजब की है इसलिये वे बहुत बड़े रहस्योद्घाटनों से बचकर बहुत छोटी किंतु मारक पहचानों को अपने संस्मरणों के घटक के रूप में प्रयोग करते हैं. उदाहरण के रूप में कहूं तो इस संस्मरण के पहले ही अनुच्छेद में वे बहुत सारी ऐसी बातें कह देते हैं, जो हिंदी के सामान्य पाठक के लिये नयी भी है और जरूरी भी ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वर्ष 1960 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देकर पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर सुशोभित हुये. इतने महान लेखक, विचारक, समालोचक और अध्यापक का चंडीगढ़ में आना अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना थी. इसने चंडीगढ़ के साहित्यिक हलकों और विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्फूर्ति भर दी.
‘मैं वर्ष 1961 में एम.ए. करने जलंधर से चंडीगढ़ आया तो आचार्य जी के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुआ. उनका ऊंचा लंबा कद, गौरवर्ण, उन्नत ललाट, चश्में के भीतर से झांकती बड़ी-बड़ी आंखें और पान खाने से कत्थई पड़ गये दांत एक विशिष्ट छाप छोड़ते थे. सादा धोती कुर्ता और कपड़े का जूता उनकी वेशभूषा थी. सर्दी में बंद गले का कोट और कभी-कभार मफलर भी. पढ़ाते समय कुर्सी पर बैठे-बैठे वे एक पैर हिलाते रहते थे.’
यह आ. द्विवेदी का ऐसा परिचय है, जो किताबों के अलावा अन्य किसी संस्मरण में भी नहीं मिलता है. अधिकतर लोग उनके पांडित्य से प्रभावित होकर लिखते हैं पर शैल जी उनके आत्मीय और सरल व्यक्तित्व से अधिक प्रभावित हैं. इस प्रकार के संस्मरण वही आदमी लिख सकता है जो न दूसरे के ज्ञान से आक्रांत है और न अपने ज्ञान से दूसरों को आक्रांत करना चाहता है. अधिकांश अध्यापक खड़े होकर पढ़ाते हैं पर द्विवेदी जी बैठकर पढ़ाते थे और एक पैर हिलाते रहते थे,यह स्वाभाविक टिप्पणी है, इसलिये महत्वपूर्ण भी है. इस प्रकार का पर्यवेक्षण छात्र ही कर सकता है और छात्र भी वह जो उनकी सहजता से प्रभावित हो.
शैल जी के संस्मरणों की यह विशेषता है कि वे बहुत सामान्य सूचनाएं देकर उस समय की अर्थपूर्ण उपस्थिति को साकार करते हैं. अधिकांश संस्मरणों में देखा जाता है कि जिस व्यक्ति पर संस्मरण लिखा गया है, उसकी उपस्थिति को गौण करके संस्मरणकार आगे चलता रहता है पर शैल जी ऐसा नहीं करते बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वे अपनी उपस्थिति को केवल एक दृष्टा के रूप में रखते हैं. द्विवेदी जी के बारे में यह जानकारी शायद ही किसी ने दी होगी कि ‘उन्हें चावल, मछली और अरहर की बघारी हुई दाल पसंद थी.’ यह इस तरह की जानकारी है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या खाते थे पर फर्क इसलिये पड़ता है कि अपने गुरु की रुचियों के बारे ज्यादातर छात्र अनभिज्ञ रहते हैं लेकिन शैल जी पूरी तरह विज्ञ हैं. वे इस सामान्य नियम से भी परिचित थे कि जिन्हें खाने पर बुला रहे हैं उनके लिये उनकी रुचि का खाना परोसा जाये.
शैल जी ने इसी संस्मरण में एक दूसरी जानकारी और दी है, जिसे देने के कई अर्थ हैं- ‘आचार्य जी को अपने ड्राइंग रूम में बिठाते हुये मैं आह्लादित हो उठा. फ्रिज में बियर पड़ी थी पर आचार्य जी के सामने पीने का प्रश्न ही नहीं था. सबने शर्बत पिया.’
यह जानकारी सामान्य है कि ‘सबने शर्बत पिया’ लेकिन ‘फ्रिज में बियर पड़ी थी’. ये दो वाक्य हैं, दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं पर दोनों का संबंध मजबूती के साथ जुड़ा हुआ है. यह संस्मरण ऐसे समय में लिखा गया है जब कई अध्यापक छात्रों के साथ रसरंजन करते हुये विश्वविद्यालयीय राजनीति में अपना पक्ष प्रबल बनाये रखते हैं. यह जानकारी इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि शैल जी तब वायु सेना में अफसरी कर रहे थे लेकिन अपने गुरु के सामने वे उतने ही सलज्ज विद्यार्थी के रूप में प्रस्तुत हो रहे थे, जितने अपने अध्ययन काल में थे. यह विनम्रता आज गायब होती जा रही है.  शैल जी ने आ. द्विवेदी का एक ओैर उदाहरण दिया है, जिससे वे भी चकित हैं और आज इस संस्मरण पढ़कर हम भी. शैल जी के घर पर खाने में थोड़ी देर थी तो द्विवेदी जी ने कहा ‘वे एकांत में बैठकर शाम के समारोह के लिये अध्यक्षीय भाषण लिखना चाहते हैं.’
संस्मरण में यह मात्र सूचना है लेकिन यह सामान्य सूचना नहीं है, यह आज के समय के लिये चुनौती है. जब कालेज और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरगण बगैर किसी पूर्व तैयारी के तुरंत भाषण देने के लिये चल देते हैं तब आ. द्विवेदी जैसे उद्भट विद्वान को उनसे कुछ सीखना चाहिये. वे चाहते तो बिना लिखे ही बोल सकते थे, लेकिन उन्हें मालूम था कि सामने बैठा श्रोता मूर्ख नहीं होता, वह वक्ता की नब्ज पहचानता है, वह किसी और को कितना सुनने आता है या मजबूरी में आता है पर द्विवेदी जी को तो वह सुनने के लिये ही आया है. ऐसी बहुत सहज-सामान्य घटनाओं के माध्यम से शैल जी अपने संस्मरण को अविस्मरणीय बनाते हैं. वे इस संस्मरण के माध्यम से चंडीगढ़ के हिंदी विभाग की कीर्ति को भी रेखांकित करते हैं, जिससे पूरा हिंदी जगत चकित था.
आ. द्विवेदी के बाद दूसरा महत्वपूर्ण संस्मरण अपने दूसरे गुरु डॉ. इंद्रनाथ मदान पर है. मदान जी को हिंदी जगत उनकी उदारता के लिये जानता है कि उन्होंने खुद एसोशिएट प्रोफेसर रहते हुये आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को प्रोफेसर नियुक्त करवाया. यह विरल घटना है जो उनकी उदारता और ज्ञान के प्रति सम्मान के लिये हिंदी जगत में आज भी कही-सुनी जाती है. आज तरक्की के लिये नाममात्र की संगोष्ठियों से लेकर स्तरहीन लेख लिखने और दूसरों के पुराने लेख चुराकर अपने नाम से छपवाने की दौड़ जारी है. विभागों में जब भी इस प्रकार की नियुक्तियों की स्थिति आती है, तब स्थितियां देखने योग्य होती हैं, कौन कितना लहालोट होकर कुलपति के पैर छू रहा है और कौन आफिस के चक्कर लगा रहा है कि मालूम हो जाये कि कौन विशेषज्ञ आ रहे हैं. आशार्थियों के शोध छात्र घरों में बैठकर इधर-उधर से सामग्री छपवाने की जुगाड़ बैठा रहे हैं ताकि अपने गुरु की एपीआई बढ़ जाये. धनराशि से लेकर न जाने क्या-क्या समर्पित किये जाते हैं, जो न केवल हास्यास्पद होते हैं अपितु शर्मनाक भी होते हैं. पर एक डॉ. मदान थे, जिन्होंने द्विवेदी जी की प्रतिभा और परेशानी को देखते हुये खुद की प्रोफेसरी सहर्ष दे दी-ऐसा उदाहरण हिंदी में शायद ही दूसरा हो.
इस प्रकार की उदारता के कई किस्से शैल जी के पास हैं, जिन्हें वे धीरे-धीरे सुनाना पसंद करते हैं. हड़बड़ी में न वे खुद रहते हैं और न यह चाहते हैं कि दूसरा भी हड़बड़ी दिखाये. डॉ. मदान का परिचय देते हुये उन्होंने लिखा
‘मैंने डॉ. इंद्रनाथ मदान को पहले-पहल वर्ष 1959 में डी.ए.वी. कालेज जलंधर में देखा था. उनके साथ एक छोटे कद के मोटे चश्मे वाले अन्य व्यक्ति को भी देखा. पता चला वे मोहन राकेश थे. वे दोनों एम.ए. के छात्रों को पढ़ाते थे और मैं नया-नया फरीदकोट से इंटर करते-करते आया था. हम उन दोनों को दूर से ही देखते, कभी बात करने का साहस नहीं जुटा पाये. उन्होंने लाहौर में एम.ए. करने के बाद कई नौकरियां कीं. अपने शुरूआती संघर्षों के बारे में उन्होंने एक संस्मरण में लिखा है-अब जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है माक्र्स फ्रायड से अधिक बलवान है. जब जवानी थी तो पैसे नहीं थे और जब पैसे मिलने लगे तो जवानी सरक चुकी थी. इस तरह शुरू में नौकरियों के चक्कर ने शादी के लिये निकम्मा बना दिया वरना हम भी आदमी थे काम के.’
यह मदान जी का परिचय है पर इस परिचय के साथ मोहन राकेश का जिस प्रकार परिचय दिया गया है, उस पर कौन मोहित नहीं होगा. हिंदी का इतना बड़ा नाम कि संस्मरण पढ़कर मैं डी.ए.वी. कॉलेज, जलंधर को इसलिये देखने गया था कि वहां मोहन राकेश पढ़ाते थे. मेरे लिये वह कॉलेज कई विश्वविद्यालयों से बड़ा था. मैंने उस नहर को भी देखने की कोशिश की जिसके बारे में रवींद्र कालिया ने अपने संस्मरणों में लिखा है, पर दुर्भाग्य कि वह नहर अब सूख चुकी है. हम अपनी स्मृतियों और धरोहरों के बारे में कितने विरक्त हैं कि हमें यह अहसास ही नहीं होता कि भावी पीढ़ी के लिये भी कुछ महत्वपूर्ण धरोहरों को सुरक्षित रखा जाये.
 
1964 में डॉ. मदान को पंजाब सरकार ने साहित्य शिरोमणि पुरस्कार से सम्मानित किया, यह मात्र सूचना है जिसपर प्रसन्न हुआ जा सकता है पर पुरस्कार लेते हुये डॉ. मदान ने जो कहा, वह उन्हें और उनके व्यक्तित्व को समझने के जरूरी है. उन्होंने कहा
‘मैं सच कहता हूं कि मैं लेखक नहीं हूं और यह विनय भाव से नहीं अहं भाव से कह रहा हूं. अगर पंजाब सरकार को मेरे साहित्यकार होने का वहम हो गया है तो मैं इसका दोषी नहीं हूं. इस अभिनंदन समारोह में जिस सव्यसाची का हाथ है, उसका नाम लिये बिना नहीं रह सकता. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने अपराध को स्वीकार भी कर लिया है. इसलिये सबकी स्नेह सराहना का ऋण चुकाने के लिये यह थैली, जो मुझे मिली है, सव्यसाची को सौंपना चाहता हूं ताकि यह हिंदी के काम आ सके. हिंदी के लिये जब साधन नहीं थे तब साधना थी, लेकिन आज जब साधन हैं तो साधना रूठ रही है. अंत में मेरी एक छोटी-सी चाह भी है. इस अवसर की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये खाली थैली मुझे लौटा दी जाये. और खालीपन से मेरा सदा मोह भी रहा है.’
कहना न होगा कि उनके इस वक्तव्य को पढ़कर कोई भी पाठक बहुत देर तक विस्मित होकर चुप बैठा रहेगा, उनका यह वक्तव्य इसलिये चकित करता है कि आज तो अदना-सा पुरस्कार पाकर भी आदमी अपने अहम् का विस्फोट करता हुआ न जाने क्या-क्या कह जाता है. पर डॉ. मदान ऐसा नहीं करते. वक्तव्य के अंतिम शब्द कि ‘खालीपन से मेरा सदा मोह भी रहा है’ उनके अपने जीवनानुभवों का क़ड़वा सच है. कुमार विकल पर लिखे संस्मरण में कई बार डॉ. मदान की उदारता और सहजता का जिक्र आया है, जिसे पढ़कर उनके प्रति सम्मान और बढ़ता है-
‘डॉ. मदान क्रानिक बैचलर थे और कुमार की कविता की निष्पक्ष समीक्षा करते थे. जब कभी हमारा पीने का मूड होता, जो अक्सर होता, और पैसों की किल्लत, हम उनके घर पहुंच जाते. हम दोनों उन्हें बड़े सटल तरीके से भावनात्मक स्तर पर ब्लैक मेल करते. आज जब मैं यह याद करता हूं तो अपनी इस हरकत पर बेहद गुस्सा आता है. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि हम स्वयं अपने आपको उनके घर खाने पर आमंत्रित कर लेते. हमें पता था कि वे मोहन राकेश और एकाध अन्य जिगरी दोस्त के अलावा किसी के साथ बैठकर नहीं पीते थे. वे हमें पैसे देते और कहते-जाओ भूख चमकाने के लिये कुछ ले आओ. हम बोतल लाकर उनके ड्राइंगरूम में बैठे पीते रहते. वे स्वयं सलाद काटकर हमारे सामने रख देते. वे कढ़ी बहुत अच्छी बनाते थे. बीच-बीच में किचन में जाते और अपने कुक चुन्नीलाल को हिदायतें देते रहते. फिर बाथरूम जाते और वहां रखी जिन की बोतल से एक पैग  पीकर पान चबाते हुये हमारे पास आकर बातचीत का छोर फिर से पकड़ते.’

शैल जी इसके उलट आ. द्विवेदी के बारे में पहले ही बता चुके हैं कि फ्रिज में बीयर रखी है और वे सब लोग शर्बत पीते हैं लेकिन डॉ. मदान पर लिखते हुये वे खुलते हैं. यह दो आचार्यों के व्यक्तित्व का अंतर है लेकिन इससे यह अनुमान लगाना गलत होगा कि कौन सही या कौन गलत है या कौन सहज और कौन असहज है. हिंदी समाज भुलक्कड़ भी है और कृतघ्न भी इसलिये हिंदी की नयी पीढ़ी डॉ. मदान और उनके योगदान को भूल चुकी है, शैल जी का यह संस्मरण डॉ. मदान के उदार और विशाल व्यक्तित्व को फिर से जीवित करता है लेकिन यह उनके बारे में जानने की प्यास को कम करने की अपेक्षा और अधिक बढ़ाता है. शैल जी से आग्रह है कि वे डॉ. मदान पर विस्तार से लिखें इसलिये कि उनके पास जो जानकारियां हैं वे अब शायद ही अन्य किसी के पास सुरक्षित हों.
जिस प्रकार अपने गुरुओं पर लिखना कठिन है, अपने दोस्तों पर लिखना भी उतना ही कठिन है. लिखते हुये कहीं दोस्ती आड़े आती है तो कहीं खुद्दारी. दोनों को साथ लेकर चलना मुश्किल होता है. इस स्थिति में मन कड़ा कर लिखने भी बैठिये तो अंदर का ज्वार विवेक को कई बार दबा देता है. गुजरे हुये दोस्त पर लिखना तो और भी कठिन होता है. मैं जब कुमार विकल पर शैल जी के संस्मरण को पढ़ रहा था तो कई बार मैं स्वयं को संभाल नहीं सका. क्या कोई कवि अपनी कविता को धार देने के लिये अपने ऊपर इतना अत्याचार कर सकता है ? जीवन की चकाचौंध से विरक्ति और हर समय कविता में डूबे रहना, अपने और अपने परिवार के प्रति अत्याचार नहीं हैं तो और क्या हैं ? इस संस्मरण को पढ़ते हुये मुझे आज के कवि और विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर्म कर रहे कवि याद आते रहे, जो मोटी तनख्वाह वसूलते हुये एक ओर दुनियाभर के लाभ-लोभ के चक्कर तथा दूसरी ओर कवि की मायावी दुनिया में लिप्त रहते हैं. ऐसे कवियों को देखकर कुमार विकल क्या कहते होंगे, यह शैल जी ने नहीं लिखा लेकिन उनके गुरु डॉ. मदान ने लिखा
‘यहां गर्मी बहुत है ओर उधर डॉ. कुंतल मेघ मनाली में शिव-पार्वती पर सांस्कृतिक चिंतन कर रहे हैं. शायद दो-चार सांस्कृतिक कविताएं फूटेंगी.’
कहना न होगा कि कुमार विकल के अंदर बेचैनी बहुत थी, यह बेचैनी उन्हें सामान्य जीवन नहीं जीने दे रही थी. क्या कुमार विकल जैसे कवि सामान्य जीवन जी सकते थे या सामान्य जीवन जीकर वे अपनी कविताओं से दुनिया को बदलने का सपना देख सकते थे ? यह संभव नहीं है, ऐसे लोग अपना रास्ता अलग बनाते हैं जो धारा के विपरीत होता है. अधिकांश समझदार लोग हवा का रुख पहचानकर चलना शुरू करते हैं पर कुमार विकल जैसे लोग हवा तो क्या आंधी के विरोध में चलने का फैसला करते हैं, इसी से उनकी कविता में ताप आता है और वह लोगों के सिर पर चढ़कर बोलती है. उनके यह कहने में किसी को भी अहम् की बू आ सकती है कि‘हिंदी में केवल तीन कवि हुये हैं- कबीर, निराला और कुमार विकल’ पर कुछ हद तक यह बात सही है. तीनों में अपने समय से टकराने की ताकत और दुनिया को बदलने की जो बेचैनी है, वह विरल है,जो तीनों को एक धारा से जोड़ती है.
शैल जी ने कुमार विकल की इस खासियत के बारे में लिखा है ‘मुझे नहीं पता कि कुमार पंजाबी कवि पाश से कभी मिला भी था और मिला भी था तो कितनी बार. पंजाब में फैले आतंकवाद के दिनों में दोनों की सोच में काफी हद तक समानता थी. पाश की कविताओं में भी वही आग थी जो कुमार की कविता को जीवंत बनाती थी. दोनों ही अपनी-अपनी कविता के माध्यम से अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों से जूझ रहे थे. जहां एक ओर पाश कहता है-मैं एक कुत्ते की तरह लड़ना चाहता हूं, एक ऐसे कुत्ते की तरह जो अपनी पूरी ताकत से अपने आपको पानी में डूबने से बचाना चाहता है’ तो दूसरी ओर कुमार ‘दीवार के इस पार, उस पार’ कविता में कहता है-इस रहस्यमय तंत्र में, जब मैं मरूंगा एक कुत्ते की मौत, तो दीवार के उस पार, कोई नहीं करेगा मेरी लाश स्वीकार.’
इस तरह की कविताओं के ताप को अनुभव करने के लिये किसी आलोचक की जरूरत नहीं है, ये सीधे-सीधे आग उगलती कविताएं हैं जो मानव विरोधी व्यवस्था के विरोध में लिखी गई हैं.
व्यवस्था विरोध एक ओर कवि के रूप में मजबूत बनाता है तो दूसरी ओर परिवार और घर में कमजोर भी करता है. बड़े और चेतना संपन्न कवि इन दो पाटों के बीच लगातार पिसते हुये अकेलेपन के शिकार होते चले जाते हैं. कुमार विकल ने अपनी इसी तरह की परेशानी के बारे में शैल जी को लिखा
‘प्यारे भाई शैल, तुम रोज याद आते हो और बहुत याद आते हो. इस शहर से बुरी तरह ऊब गया हूं और खास तौर से इस क्लर्की से. लेकिन सामने कोाई निजात नहीं. नौकरशाही की यातना को जितना मैंने भोगा है, शायद मेरे परिचितों और मित्रों में किसी ने नहीं. समझौतों और चापलूसी से मुझे बहुत तकलीफ होती है.’इसी तरह एक और पत्र में वे लिखते हैं ‘जब तक तुम इलाहाबाद में थे तो मुझे एक बात का कभी अहसास नहीं हुआ कि तुम काफी दूर हो क्योंकि किसी भी दिन तुम्हारा फोन आ सकता है-मैं चंडीगढ़ में हूं या दिल्ली तक कभी भी आ सकते हो. लेकिन कलकत्ता, न जाने क्यों मुझे दूरी का अहसास होने लगता है. इधर मेरा अकेलापन बढ़ रहा है. आजकल शामें घर में ही व्यतीत होती हैं. मध्यवर्गीय संभ्रांत लोग अच्छे नहीं लगते. अपने साथ जीने का तरीका सीख रहा हूं. अकेलापन अच्छा लगता है-लेकिन ज्यादा गहराई से नहीं. फिर भी चाहता हूं कि कभी रात को धुत्त सड़कों पर भटका जाये, फिजूल औैर अर्थहीन बातें की जायें. लेकिन किसके साथ ?’

इस मनःस्थिति ने उन्हें अल्कोहलिक बना दिया था, वे अपने अकेलेपन से भी लड़ रहे थे और शराब पर होती निर्भरता से भी. कविता में डूबकर जीने वाले किसी भी कवि के जीवन में इस प्रकार की स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिनका इलाज किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं है. अपनी इस स्थिति के बारे में उन्होंने शैल जी को लिखा
‘मैं गलत दिनों से गुजर रहा हूं. डाक्टरी इलाज के बिना मेरा लौटना संभव नहीं. डैथ-विश बहुत छाई हुई है. सो तुम प्लीज मेरी नीरू बहन से जरूर मिलो ताकि मैं दिल्ली अपना इलाज करवा सकूं. इधर बहुत कविताएं लिखी हैं. दूरदर्शन केंद्र मुझे लेकर एक छोटा-सा वृत्तचित्र बना रहा है. लेकिन शैल, इस सबसे क्या होगा ?’
यह एक कवि की निराशा नहीं है बल्कि उनके समय की निराशा है, जो ईमानदार व्यक्ति को लगातार अकेला और निःसहाय करती जाती है. यह संस्मरण न केवल कुमार विकल की कविता यात्रा का जीवंत दस्तावेज है अपितु उन जैसे कवि के निरंतर छीजते जाने का भी प्रमाण है.
1969 में शैल जी का स्थानांतरण इलाहाबाद हो गया. इलाहाबाद उन दिनों साहित्य का गढ़ माना जाता था. रवींद्र कालिया इलाहाबाद में ही थे, जो डी.ए.वी. कालेज, जलंधर में उनके वरिष्ठ थे. शैल जी जलंधर और चंडीगढ़ के साहित्यिक संस्कारों को लेकर इलाहाबाद गये थे. हालांकि वे अब वायु सेना में थे पर साहित्यिक विरादरी में उनका मन अधिक रमता था. नौकरी उन्हें आर्थिक चिंताओं से मुक्त रख रही थी तो साहित्य उनकी मानसिक खुराक थी. कालिया जी के घर पर ज्ञानरंजन से पहली मुलाकात हुई. यह मुलाकात दो ऐसे व्यक्तियों की मुलाकात थी जो जीवन को भरपूर जीना चाहते थे. लगभग आधी शताब्दी पहले हुई मुलाकात स्थायी बन गई और अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हुये भी दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बने रहे. ज्ञान जी के बारे में हिंदी में यह मशहूर है कि वे बहुत छोटे पत्र लिखते हैं पर शैल जी को लिखे पत्र इस बात की गवाही नहीं देते. 1992 में उन्होंने शैल जी को पत्र लिखा कि ‘तुम पहल के शुरूआती दिनों से जुड़े हो. इस लंबी यात्रा की कहानी अब परिपक्व हो गयी है. आपातकाल की दिक्कतों से लेकर आर्थिक संघर्ष तक सभी मित्रों ने बहुत सहारा दिया, जिसे मैं अपनी अर्जित पूंजी मानता हूं. तुम सब लोग पहल के निकलने के साझीदार हो, मैं हमेशा ही तुम्हें याद करता हूं-क्योंकि उसी समय के बहुत से लोग बिला गये. तुमने सघनता और मैत्री को बनाये रखा.’
इसी तरह का एक और पत्र 1996 में लिखा ‘लंबे मार्ग में बहुत से आये और बहुत से गये लेकिन मैं इस बात को भीतरी स्मृति में कभी नहीं भुला सकता कि तुमने 30 साल तक निरंतर साथ निभाया है. हर तरह से तुम साथ खड़े रहे हो. मित्रता का तार कभी टूटा नहीं. मुझे इस तरह के रिश्तों की मन में बहुत सांत्वना और खुशी रहती है.’
शैल जी को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वे ‘पहल’ के निकलने की तैयारी के दिनों से ज्ञान जी से जुड़े हैं इसीलिये उन्होंने आपातकाल के दिनों की उन भीषण घटनाओं को भी याद किया है जो अब इतिहास बन चुकी हैं. आपातकाल के दौरान ‘पहल’ और ज्ञान जी के विरुध्द स्थानीय मित्रों के अलावा ‘धर्मयुग’ और ‘कादंबिनी’ के संपादकों तक ने कूट षड्यंत्र रचे थे जिनका सामना ज्ञान जी ने निडरता के साथ किया, जो आज उनकी अपनी उपलब्धि भी है और सार्थकता भी.
‘इंडिया टुडे’ के ‘साहित्य वार्षिकी 2019’ में बाबुषा कोहली ने ज्ञान जी का साक्षात्कार लिया है, जिसमें उन्होंने फिर से उस षड्यंत्र को आरोप की तरह पूछा है. बाबुषा कोहली ने बगैर पर्याप्त जानकारी के क्यों पूछा यह तो वही जानें पर ज्ञान जी ने जो तल्ख उत्तर दिया, वह महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा
‘आपके सवाल में एक गैर जानकारी भरा मिथ्या आरोप भी है. हमने चार दशक की यात्रा में कभी भी ऐसे फैसले नहीं लिये जो अफसोसनाक रहे हों. पहल वामपंथ के सभी धड़ों और लोकतांत्रिकों का प्यार और सहयोग पाती रही है, यही उसकी प्राणशक्ति है. दक्षिणपंथ, कलावाद, फासीवाद के विरुद्ध पहल का रचनात्मक संसार कभी लड़खड़ाया नहीं. निरंतरता और विश्वसनीयता पहल की पूंजी है. आपके पास कोई प्रामाणिक जानकारी है इसमें मुझे शंका है. पहल ने आपात काल का कभी समर्थन नहीं किया, जबकि वह आपात काल के कुछ महीनों पूर्व ही निकली थी. हमारे दांत भी नहीं आये थे फिर भी हमने उसी अंधेरे दौर में फासिज्म के विरुद्ध एक अंक निकाल कर अपने को प्रकट किया. इस अंक में सारी दुनिया के फासीवाद-विरोध की महानतम रचनाएं शामिल हैं. कृपया पहल का वह अंक देखें. पहल किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका नहीं है, न रही है. हमारे ऊपर यह दबाव प्रलेस के बड़े रचनाकारों की तरफ से बनाया गया था कि पहल को संगठन की मुख-पत्रिका बना दें, पर हमने उसका स्पष्ट तिरस्कार किया. आप आपात काल के दौर में प्रकाशित धर्मयुग और कादम्बिनी के अंकों को देखें. इनमें लेख, कॉलम और संपादकीयों के मार्फत आपात काल का रचनात्मक विरोध प्रकाशित करने के खिलाफ कितना कुछ लिखा गया है ? पहल को सेंसर करने, संपादक की नौकरी लेने और जेल भेजने संबंधित बयान, प्रस्ताव और लेख छपे हैं. चार छह कॉलम में यह प्रकाशित है. जासूस तंत्र और जिलाधीश द्वारा पहल के प्रकाशन को अवरुद्ध करने का प्रयास हुआ. रवींद्र कालिया के इलाहाबाद प्रेस पर ये शक्तियां पहुंचीं और आप टिप्पणी करती हैं कि पहल ने आपात काल का समर्थन किया.’  
ज्ञान जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों का जिस प्रामाणिकता के साथ उत्तर दिया है, उसकी पुष्टि शैल जी ने अपने संस्मरण में और विस्तार से की है. ज्ञान जी अपनी तरह से ‘पहल’ का संपादन कर रहे हैं, यह बात छुटभैयों की समझ न तब आई थी और न अब आ रही है. अब भी तरह-तरह के आरोप उन पर लगाये जाते हैं पर वे निश्चिंत होकर न केवल पहल का संपादन कर रहे हैं अपितु रचनात्मक उत्कर्ष के लिये लगातार तत्पर हैं. हिंदी में ‘सरस्वती’ के बाद यह पहली पत्रिका है, जिसका इतिहास निडरता के साथ समय से मुठभेड़ करती रचनाओं को प्रकाशित करने का रहा है.
शैल जी का यह संस्मरण केवल ज्ञान जी से 50 साल की मैत्री का ही दस्तावेज नहीं है अपितु ‘पहल’ के संघर्षों का प्रामाणिक इतिहास भी है. शैल जी ने रवींद्र कालिया, सतीश जमाली के साथ निर्मल वर्मा पर भी संस्मरण लिखा है. इसके साथ ही सातवें दशक के इलाहाबाद पर भी उनका एक संस्मरण है. ये सब संस्मरण न केवल इलाहाबाद के साहित्य जगत के जीवंत इतिहास हैं बल्कि उन दोस्तों के साथ बिताये पलों के भी गवाह हैं, जिन्होंने वायु सेना के एक अधिकारी को लगातार साहित्यिक बनाये रखा. चंडीगढ़ से लेकर इलाहाबाद तक साहित्य जगत के वे सारे चर्चित लोग इन संस्मरणों में शैल जी की नजरों से अलग-अलग रूपों में आये हैं, जिन्हें पढ़कर बाद की दो-तीन पीढ़ियां जवान हुईं.
पुस्तक के दूसरे खंड में संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा तथा जगजीत सिंह पर संस्मरण हैं. पं. जी से बाद में भेंट हुई, जो औपचारिक ही कही जायेगी पर जगजीत सिंह तो उनके साथ पढ़ते थे. जगजीत सिंह ने चित्रा जी से मिलवाते हुये यही परिचय दिया था‘यह शैल है बी.ए. में हम इकट्ठा पढ़ते थे. पढ़ता तो यह था, मैं तो कभी-कभी हाजिरी पूरी करने के लिये क्लास में चला जाता था.’यह परिचय दोनों की आत्मीयता का प्रमाण है. शैल जी ने जगजीत सिंह के विकास के हरेक सोपान का परिचय देते हुये लिखा है कि कैसे उसकी धुन ने उसे गजल गायकी का बेताज बादशाह बनाया. हम जिन जगजीत सिंह को जानते हैं वे ‘मिर्जा गालिब’ की गाई गई गजलों से जानते हैं लेकिन शैल जी जगमोहन से जगजीत सिंह बनते हुये उनके विकास क्रम में उन्हें जानते हैं. तीसरे खंड में ‘आत्मीय स्मृतियों की परिधि से’ के अंतर्गत 6 संस्मरण हैं. पत्नी उषा पर लिखा गया संस्मरण ‘दर्द आएगा दबे पांव ..’ शीर्षक से है. शैल जी के लगभग सारे संस्मरण पहले परिचय के साथ शुरू होते हैं पर पत्नी पर लिखा गया यह संस्मरण लंदन में मैडम तुसाड के वैक्स म्यूजियम से शुरू होता है. कहना न होगा कि वे अपनी बीमार पत्नी उषा को उसकी परिचारिका को साथ लेकर बेटे बहू से मिलने लंदन गये थे. जिस संधिवात की बीमारी से उषा जी का चलना-फिरना भी मुश्किल था, उस अवस्था में लंदन तो क्या पड़ौस में जाने में भी परेशानी होती है. वे पति पत्नी बाद में थे पहले तो मित्र थे और मित्र से पहले स्वस्थ प्रतिस्पर्धी. इस संस्मरण की शुरूआत भी फैज के शेर से हुई है, जो पढ़ते ही उदास कर जाता है ‘दर्द आएगा दबे पाव लिये सुर्ख चराग, वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे.’वो दर्द उषा जी और उनकी इस अवस्था के लिये है जिसे शैल जी मन से अनुभव करते हैं और उसकी घनीभूत पीड़ा को लगभग मौन होकर सहते भी रहते हैं. एक साथ पढ़ने वाले मित्र जब पति पत्नी बनते हैं, तो जीवन में एक खुलापन भी होता है और एक चुनौती भी. इस खुलेपन और चुनौती को दोनों ने हर स्थिति में स्वीकार किया इसलिये परिवार में वह संवेदनशीलता बनी रही जो कभी मित्रता और विवाह के केंद्र में थी. शैल जी ने उन भावुक क्षणों को भरे मन से रेखांकित किया है जब बीमार पत्नी पति से कहती है
‘भगवान करे तुम्हें मेरी उम्र भी लग जाये. तुमसे पहले तो मैं अपने सिरजनहार के पास जाऊंगी. मैं बहू-बेटे, बेटी-दामाद किसी पर भी बोझ नहीं बनना चाहती. तुम्हारी बात और है. तुम दोस्त पहले हो, पति बाद में और तुमने जीवन भर मेरा हाथ थामने की शपथ ली है.’
ये वाक्य किसी भी पाठक को भावुक करते हैं, भारतीय परिवारों की यह अमूल्य धरोहर है जिसे पति पत्नी दोनों मिलकर जीते और अनुभव करते हैं. मां पर लिखा संस्मरण ‘मां का पेटीकोट’ सिर्फ मां का ही नहीं बल्कि परिवार के संघर्षों को एक-एक कर सामने लाता है. मध्यवर्गीय परिवारेां की परेशानियों और चिंताओं को सबसे अधिक मां ही झेलती है, परिवार में घटित होने वाली कोई भी घटना बगैर मां को छुए नहीं निकलती पर मां ही है जो चुपचाप सब कुछ सहती रहती है. पिता की तरक्की होती रही, जगहें बदलती रहीं, बच्चे बड़े होते रहे पर मां की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया. वे घर के हर सदस्य के लिये रात-दिन चिंतित रहतीं पर अपने स्वास्थ्य का कोई ध्यान नहीं रखतीं. शैल जी ने मां की पारिवारिक व्यस्तता में निढाल होते जाने को क्रमशः रचा है, जो मध्यवर्गीय भारतीय परिवारेां की हरेक मां से मेल खाता है. ‘पिता की बाइसिकल’ और ‘मां का पेटीकोट’ संस्मरण को एक साथ पढ़ने के बाद जो चित्र बनता है, वह ठेठ भारतीय परिवारों की उन चिंताओं का चित्र है, जिसमें माता-पिता रात-दिन खपते रहते हैं पर अपने बच्चों को जहां तक हो कोई परेशानी नहीं आने देते. शैल जी की परवरिश ऐसे ही सामान्य परिवारों की तरह एक परिवार में हुई जिसकी धड़कनें आज भी सुनी जा सकती हैं.
अंतिम संस्मरण ‘किस्से मेरी मयनोशी के’ अलग तरह से लिखा गया है, जिसमें पहली बार शराब पीने से लेकर अलग-अलग किस्म के मित्रों के साथ शराब पीने के आत्मीय किस्से हैं. बाद में तो वे वायु सेना में चले गये, जहां शराब पीना बुरा नहीं माना जाता. शराब के साथ दिक्कत यह है कि उसे शराबियों ने इतना बदनाम कर दिया है कि सामान्य स्थितियों में उसे बुरा माना जाता है. आश्चर्य यह है कि जो शराब पीते हैं वे भी संभ्रांत परिवारों में उसके विरोध में किस्से सुनाते हैं और जो नहीं पीते उन्हें तो आबेहयात के बारे में कुछ मालूम ही नहीं होता. बहरहाल शराब पीने की चीज है, लिखने की नहीं इसलिये इस संस्मरण पर बहुत अधिक लिखने की जरूरत नहीं है सिवाय यह बताने के कि शराब ने शैल जी को शैलेंद्र शैल बनाये रखा, जो अब भी सहज होकर लगातार लिख रहे हैं और लिखते भी रहेंगे.
‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ पढ़ते हुये मुझे बार-बार इस बात का अहसास होता रहा कि लोग झूठे और चमत्कारी संस्मरण क्यों लिखते हैं ? शैल जी ने तो ऐसा नहीं किया वे तो बहुत सामान्य होकर उन घटनाओं के बारे में लिख रहे हैं, जो घटनाएं या व्यक्ति उनके जीवन में महत्वपूर्ण हैं. यह बात दूसरी है कि उन घटनाओं और विशेष व्यक्तियों की यादों में  कुछ ऐसा था, जो आज लिखने-पढ़ने और गुनने लायक है. इन संस्मरणों को पढ़ते हुये न केवल कुछ नगरों के वैशिष्ट्य को देखा-पहचाना जा सकता है बल्कि कुछ चरित्रों की महत्ता को भी रेखांकित किया जा सकता है. इसलिये ये संस्मरण अपनी सहजता में विशिष्ट और प्रामाणिक हैं.
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वी 3, प्रोफेसर आवास, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 442001
मो. 9421101128, 8668898600

जनवरी : संदीप नाईक की कविताएँ

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जनवरी माँ की गोद है                                 


जनवरी - १
इतनी मिली शुभेच्छाएँ
नये साल की
कुछ भी शुभ होने की
गुंजाईश नही बची

फूलों से लेकर पौधों
आसमान से ज़मीन
नदियों से समुंदर तक
अटी पड़ी थी कामनाएं

नये साल का ताज़ा
पहला दिन जन्मा तो
अंबार लग गया खुशियों का
दुख मिट ही गया दुनिया से

सोचा कि जन्मे हर दिन
नये साल का पहला दिन




जनवरी - २
धुन्ध में लिपटी आती है
हवाओं में डूबती शाम
काम पर जाते कोहरे की सुबह में
अकड़ते है पैर चलते हुए
उंगलियाँ मरोड़ने में
मौत का साक्षात एहसास होता है

आईने में भी भाप जमी है
अदृश्य बर्फ हर जगह है
आदमी बोलता नही
ठिठुरता है पत्तों की तरह

अक्स देखने को परेशान हूँ
अपना चेहरा छुप गया है
ओस गेहूँ की बालियों पर दबी है
मैं पूछता हूँ चने की हरियाली से
जनवरी का दर्द और रो लेता हूँ




जनवरी - ३
आसमान रंगीन हो गया है
जीवन की पतंगों से
इतनी कटी है पर डोर को
दोष नही देता कोई

पतंग के माथे है
खुशियों की ऊंची उड़ान
या कि
टूटकर कही अनजान टुकड़े पर
गिर जाने का बोझ

हाथ में उड़ान के सपने लिए
अपने जीवन में लौटते है
किसी कटी पतंग के मानिंद
माँझा तेज़ करते है लूटे हुए से

जनवरी एक साल बाद आती है
इसका कोई अफसोस नहीं करता





जनवरी - ४
मन के कोनों से
ओटले तक उतर आई धूप
छज्जे से उतरी धूप
पतरों के छेदों से गोबर लिपे
फर्श पर उतरती धूप
चने की नाज़ुक पत्तियों पर से
ओस को धोकर अपना
साम्राज्य स्थापित करती धूप

कोहरे को छाँटकर भक्क़ से
उजास फैलाती
होठों पर मुस्कान
आँखों में आश्वस्ति लाती
पानी की तलछट में
सब कुछ दिखलाती
गुनगुने एहसासों को मनाती
अलसाये दिन को जाग्रत कराती
धूप का महीना है जनवरी

नए स्तम्भ और गढ़ रचने का महीना है
अभेद्य किलों के पार उतरने का संताप है जनवरी



जनवरी - ५
शाम की तीखी हवा घुसती है
हर जगह से हर कोने में
कमरों में बंद कमरे सिहरते है
खिड़कियाँ दरवाज़ें दुश्मन
पानी गटकने से बेहतर
झूल जाएं फांसी के तख्ते पर

एक उदासी पसरती है शाम से
देर रात तक भभक उठती है
कुहासे में डूबी स्मृतियों के पोर से
परछाईयाँ उभरकर रुला देती है
आँसू निकलते नही जम जाते है

जनवरी के बेवफा शामें महबूबा है
जो किसी अवांगर्द अफ़साने की
याद दिलाकर दूर छोड़ आती है
कि एक दिन होगा मिलन यूँही

मौत के बाद तो सब कुछ झीना हो ही जाता है



जनवरी - ६
जन्मदिनों का महीना है
पहली तारीख से छब्बीस तक
असंख्य जन्में लोग कोसते है माँ बाप
और मास्टरों को जिन्होंने दर्ज कर दी
जनवरी जीवन के खाते में

हंसते है लोग जनवरी में जन्में लोगों पर
कुछ कहा नही जायें इन परेशान आत्माओं को

जनवरी नये साल का शुभ माह नही
सही नक्षत्रों में जन्में ग़लत हो गये लोगों की दास्तान है
जीवन की स्पर्धाओं में रह गए दर्जनों बार
जनवरी में दर्ज तारीखों से और इस तरह
बिगड़ी भी कुंडलियां

कहते है जनवरी में असली जन्में लोग
दिसम्बर के पहले ही फतह हासिल कर लिये



जनवरी - ७
बीते बरस के हरे घाव
स्मृतियों के दंश और मिठास
भूलने की सुबह है
जनवरी

प्रेम की पींगे बढ़ाती
कजरारी आँखों और कांपते होठों को ढाढ़स
किसी अनमोल तोहफे की उधेड़बुन
में फट से बीत जाने की
छोटी दोपहरें और उदास शामें
जनवरी की प्रतिछाया है

अपनी परछाई को बड़ा कर आँकने
गफ़लतों से निकलकर उम्मीदों का नाम
प्रेम दिवस के इंतज़ार में हर क्षण
जीने - मरने का नाम भी है जनवरी




जनवरी - ८
गांधी की हत्या जनवरी है
बहत्तर वर्षों बाद भी ज़िंदा है जो
जागना जनवरी है
शाहीनबाग जनवरी है
लखनऊ, इलाहाबाद से गौहाटी तक
केरल से पंजाब तक
जनवरी ही जनवरी है

जनवरी नही है तो नागपुर में
जनवरी नही है तो कुछ जगहों पर जहां
शब्द सम्पदा की जगह कूड़ा कचरा इकठ्ठा है
इतने बड़े भारत में टनों से निकलता
स्वच्छ भारत का कूड़ा कही तो होगा जमा

अदालतों का मौन और आदमी की मुखरता
औरतों के हाथों में झंडे और बच्चों की किलकारी
सत्ता के मद और अहंकार
जिद और स्वार्थ लोलुपता का पर्याय है
जनवरी

जनवरी के आने से ही खुलेंगे रास्ते
आएगी सुबह नई
गाये जाएंगे फिर फ़ैज़, जालिब, दुष्यंत
और एक बार तख्त उछाले जाएँगे

ताज़ गिराने की शुरुवात है जनवरी




जनवरी - ९
हड़बड़ाहट में यूँ आ गई
मानो स्टेशन पर कोई रेल
हिलते डुलते चढ़े भी और मिली नही जगह

सफ़र आगे और लम्बा है
मुसाफिरों का रेला बरकरार
मुतमईन हूँ कि एक तय शुदा समय पर
ले जाकर छोड़ ही देगी

बाजदफ़े यात्राएँ अधूरी रह जाना भी ज़रूरी है
हम अपने में जब खो जाते है तो
भीतर की यात्राएं ही सुकून देती है

जनवरी अन्तस की यात्रा का प्रारब्ध है
जो कही जाकर खत्म होगी ही

पटरियों की तड़फ और पीड़ा
जनवरी के साथ जीवन का साहचर्य है



जनवरी - १०
तीस को जन्मी थी माँ
तीस को मारा था गांधी को
सुबह ग्यारह बजे का सायरन
बजता और खड़े हो जाते हम

स्कूल से थकी मांदी लौटी माँ
मरने तक कहती रही
मेरा जन्मदिन मनहूस ही रहा
जनवरी का खात्मा
सब कुछ ठीक कर देता था

हमने माँ के जन्मदिन को हमेंशा
एक अपराध बोध में ही मनाया
कहने की हिम्मत भी नही होती कि
तीस जनवरी से मेरा गहरा वास्ता है

जनवरी माँ ही है
सालभर के सुख दुख की जननी
भरी पूरी इकतीस दिन की बेख़ौफ़
पीछे पीछे चले आते है मार्च अप्रैल
किन्हीं हत्यारों की तरह
जनवरी की सर्द हवाओं का गला घोंटने

जनवरी औचक की तरह आती है
जनवरी में अक्सर उदास होता हूँ
माँ की गोद की तरह है जनवरी
मैं फिर से सब थामना चाहता हूँ
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naiksandi@gmail.com 
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