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परख : बिसात पर जुगनू (वंदना राग) : सत्यम श्रीवास्तव

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‘बिसात पर जुगनू’ कथाकार वंदना राग का पहला उपन्यास है, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर है. कई बार मुझे लगता है कि साहित्य इतिहास में जिसे होना चाहिए चाहे वह व्यक्ति हो या घटना उसे भी गढ़ सकता है गढ़ लेता है. एक तरह से वह समय के अधूरेपन को भरता है. वर्तमान की आकांक्षा का फूल वह भूत में उगा सकता है. यह वही कर सकता है.

इसकी विस्तार से चर्चा कर रहें हैं सत्यम श्रीवास्तव






गल्प में इतिहास की ध्वनियाँ
सत्यम श्रीवास्तव 










क राजा है, उनका एक बेटा है जो अभिधा में कहें तो कोमल है, भावुक है और लगभग (जनाना मर्द) स्त्रेण है. उसमें राज परिवार के ‘युवराज सुमेर सिंह’ की तरह बल नहीं है, चपलता भी नहीं है. वो शिकार करने जाता है तो घायल खरगोश के खून को देखकर रूआँसा हो जाता है, जिसे फूलों की गंध बहुत अच्छी लगती है जो कई स्त्रियॉं के संपर्क में आता है लेकिन एक तलाश में बना रहता है जब तक उसे परगासो नहीं मिल जाती. परगासो जो मर्दाना जनानी है. उसमें पौरुष है. जो मेहनत से बनी है. जिसमें  उसके कुनबे के लोग किसी दैवीय शक्ति से सम्पन्न मानते हैं. जो अनाथ है. मिट्टी खोदकर बड़ी हुई है और किसी घटनाक्रम से वह महल तक पहुँच जाती है. जहां वह बागवानी करती है. वह निडर है और तथाकथित नीच जाति से आती है. उसमें श्रम का बलिष्ठ सौंदर्य है. परगासो से मिलकर सुमेर सिंह की तलाश पूरी होती है. जैसे अब तक उसे स्त्रियां में किसी पौरुष की चाह थी.
ये चरित्र ही उस पीरियड के आंतरिक द्वंद्व हैं. एक सुमेर सिंह को परगासो की तरह होना चाहिए लेकिन वह नहीं है और उसे इसका कोई मलाल भी नहीं है. वह जैसा है वैसा ही खुद को रखना चाहता है. पौरुष का बोझ उठाने से मुसलसल इंकार करता रहता है. परगासो से मिलने के बाद जैसे वह अपने व्यक्तित्व की संपूर्णता का एहसास करता है. पूरक होने की सुंदरतम अभिव्यक्ति यहाँ वंदना ने प्रेम संबंधों के बीच इतनी सहजता से की है कि उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि यही तो खूबसूरत रिश्ता है या सहजीवन की आधारशिला है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में भी एक तलाश बनी हुई है. इतनी सहजता, उस दौर की कठिन सामाजिक आचार संहिता में कल्पना से परे भी हो सकती है लेकिन अभिव्यक्ति में यह इतनी सहज है कि उपन्यास यहाँ कला की उस पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है जहां किसी प्रेक्षक को केवल यही लगता है कि वह एक जिये जा रहे जीवन का नैसर्गिक हिस्सा है. यह संभव है बल्कि यही संभव है.
परगासो जो विद्रोहिनी है. आज की भाषा में कहें जो ऐसी स्त्रियां के लिए कहा जाता है कि वो ‘तेज’ है. यह तेज उसके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है जो उसने जंगलों की खाक छानकर हासिल किया है. परगासो का महल तक पहुँचना भले ही एक इत्तेफाक रहा हो पर आगे की यात्रा वह अपने सक्षम व्यक्तित्व और तेज दिमाग के पहियों पर सवार होकर करती है. परगासो तेज है चालू नहीं है. वह धोखा नहीं देती. वह सुमेर सिंह को अपने जाल में फँसाती नहीं है. सुमेर सिंह उससे मछलियों की तरह प्यार करता है जो लहरों में फँसने नहीं आतीं और परगासो भी सुमेर सिंह से हवाओं की तरह प्रेम करती है जो उ
सके सीने को दबाने नहीं आतीं.
उनके बीच का संबंध हक़ीक़ी नहीं है बल्कि बेइंतिहाई शरीरी है. इतना कि यूवराज कई-कई दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते और परगासो भी बाहर बागवानी करते नहीं दिखाई देतीं. सामंती वातावरण में एक दुसाध महिला के साथ सुमेर सिंह का यह प्रेम, राज घराने की मर्यादायों की खिलाफत के तौर पर देखा जाता है और उन्हें महल के उसी नीचे वाले हिस्से में पीछे की तरफ बने एक कमरे तक महदूद किए जाने की सज़ा के तौर पर मुकर्रर कर दिया जाता है. जिसे सुमेर सिंह खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं. परगासो पर बढ़ती आत्म-निर्भरता को हम पितृसत्तात्मक आदर्श परिवार में देख सकते हैं पर इस कथा में हमें पात्रों को बदलने की शर्त वंदना रख देती हैं. हमें पुरुष की जगह स्त्री और स्त्री की जगह पुरुष को रख देना होगा. आधुनिक जमाने में हम इसे अंतरजातीय लेकिन विलोम दाम्पत्य के तौर पर देख सकते हैं. हालांकि उनके बीच बाकायदा शादी हुई या नहीं इसे लेकर वंदना ने कुछ बताया नहीं. अगर यह स्पष्ट नहीं हो पाया तो यह इक्कीसवीं सदी की वह औपचारिक- अनौपचारिक संस्था बनती हुई दिखलाई पड़ती है जिसे लेकर आधुनिक भारत के न्यायालय नई-नई तकरीरें कर रहे हैं और हिन्दी सिनेमा अभी उसे एक फैशन के तौर पर चलन में लाने की मज़ाकिया हद तक अगंभीर कोशिशें करते नज़र आ रहा है.
यहाँ तक फिर भी अंतर-वस्तु के तौर पर प्रेम और अटूट आकर्षण स्वीकार किया जा सकता है लेकिन जिस तरह से परगासो राज बचाने के लिए सैन्य रणनीति, प्रजा के बीच लामबंदी और अन्य रियासतों के साथ संयुक्त रणनीति बनाते हुए राज का नेतृत्व करती है वह ऐसा कथ्य है जिसे बार-बार पढ़े जाने की ज़रूरत है. इस पूरे घटनाक्रम में सुमेर सिंह की परगासो के साथ की कैमिस्ट्री और सपोर्ट और उसके नेतृत्व को लेकर स्वीकार्यता देखते बनती है. जो एक तरफ  परगासो की तीक्षण बुद्धि और बल को अधोलिखित करता है वहीं सुमेर सिंह के उस उदार और विराट व्यक्तित्व को भी जो सक्षम स्त्री के पीछे चलने को सहर्ष तैयार है. यहाँ शरीर की बलिष्ठता के बरक्स मन की उदारता का द्वंद्व सामने नहीं आता बल्कि कम बलिष्ठ शरीर और उदार हृदय मिलकर सम्पूर्ण और सहज व्यक्तित्व रचता है. यहाँ पहुँचकर उस कालखंड की कहानी में हमें सुमेर सिंह के रूप में एक और जुगनू मिल जाता है जो उस समय की बिसात पर पूरी सौम्यता में चमकता है.
जिन्होंने उपन्यास नहीं पढ़ा है उनके लिए सुमेर और परगासो की कहानी का सबसे प्रामाणिक राजदार फतेह अली खान हैं जिन्हें ख़तो-किताबत से सारे किस्सा–ए-हाल पता चलते रहते हैं और जो अपने रोज़नामचे के जरिये हम पाठकों को भी इत्तला करते चलते हैं.
अब तक जो कहानी कही गयी वो चांदपुर रियासत की थी. यह उपन्यास अपने पाठकों को यह इत्मीनान दिलाता चलता है कि कहानी कहीं की हो मानवीय संबध अनिवार्य रूप से मानवीय होते हैं. उपन्यास का ज़रूरी ठिकाना पटना का मुसव्विर ख़ाना है. मुसव्विर ख़ाना यानी चित्रकला की कार्यशाला. जहां चित्रकार आते हैं और अपनी कला की साधना करते हैं. यह शागिर्दों की तरह आते हैं. जिस दौर की यह बात है तब केवल पुरुष कलाकार ही यहाँ आते हैं. ‘पटना कलम’ चित्रकला की एक विशिष्ट शैली रही है जिसे पूरी जीवंतता के साथ वंदना ने पुनर्स्थापित किया है. फिर से दोहराना ज़रूरी है कि ‘पटना कलम’ का जो ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा शर्तिया यहाँ उससे ज़्यादा प्रामाणिक चित्रण यहाँ मिलेगा. इसके अलावा ‘कला’ को लेकर जो अगाध और उत्कट प्रतिबद्धता शंकर लाल में है और कला के जिन प्रयोजनों को पाने के लिए वो यह मुसव्विरख़ाना चलाते हैं लगता है कला के प्रयोजन ही उनके जीवन के भी प्रयोजन भी हैं. यूं तो शंकर लाल देश–दुनिया में चल रही तमाम घटनाओं से अनासक्त रहते हैं पर अंतत: उनकी निजी ज़िंदगी और मुसव्विरख़ाने की नियति इसी व्यापार प्रेरित राजनैतिक उथल-पुथल का शिकार हो जाती है. उनके यहाँ हर तरह के लोग आकर कला की साधना आते हैं लेकिन एक खास मेहमान और कलाकार यहाँ आता है जो चुपचाप अपना काम करता है. कुछ आधे-पूरे चित्र उकेरता है. जो चित्र यह कलाकार उकेरता है वो इतने वास्तविक और जीवंत होते हैं कि एक दिन जब जाने–अंजाने शंकर लाल ठीक उसी बस्ती में पहुँच जाते हैं जहां के वो चित्र हैं और पटना कलम शैली में हैं, तो जैसे शंकर लाल को एहसास होता है कि जो कलाकार उनके मुसव्विरख़ाना में आता है और जिसका भर नज़र चेहरा उन्होंने अब तक नहीं देखा है वो ज़रूर इसी बस्ती से ताल्लुक रखता है. 

यहअनचीन्हा सा कलाकार एक दिन खादीज़ा बेगम के रूप में शंकर लाल के सामने आता है. खादीज़ा बेगम अपने समय की उन रवायतों को तोड़ रही थीं जिनमें महिलाओं को इस तरह पुरुषों के क्षेत्रों में दाखिला नहीं मिलता था. खैर खादीज़ा बेगम, शंकर लाल की उस खोज को पूरा करती हैं और उनके लिए कला के मायने भी परिष्कृत करती हैं और एक अटूट डोर से इन दोनों का रिश्ता भी बंध जाता है. इसी मुसव्विरख़ाना में रुकबुद्दीन और विलियम नाम के दो कलाकारों के बीच भी बेइंतिहाई मरासिम पैदा होते हैं और जिनका अंत सुखद नहीं होता. रुकबुद्दीन,विलियम का कत्ल कर देता है. यह कत्ल करना एक रचनात्मक आवेग या भारी मनोवैज्ञानिक संवेग था इसका निर्णय करना कठिन है लेकिन इस समलैंगिक प्रेम का अंत जिस तरह होता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की पैठ पटना शहर तक होती है उस पर एक अंग्रेज़ का कत्ल शंकरलाल और मुसव्विरख़ाना को मुश्किल में ज़रूर डाल देता है. आगे की कहानी शंकर लाल को चीन का रुख करने और अपने शागिर्दों की बनाई कलाकृतियों को उनका मान दिलाने के रूप में होता है.
इस बीच मुसव्विरख़ाना को संभालने की ज़िम्मेदारी खादीज़ा बेगम पर आ जाती है. शंकर लाल की अगली पीढ़ी के समानान्तर खादीज़ा बेगम तन्हाई और गुमनामी में ज़िंदगी जीती हैं लेकिन कथा सूत्र में उनकी मौजूदगी बराबर बनी रहती है. यह प्रेम कथा भी हमें लगे हाथ दो ऐसे प्रदीप्तमान जुगनू दे जाते हैं जिनके बिना हमें आगे का रास्ता नहीं सूझता. हालांकि इस उपन्यास में जैसे वंदना ने इन दो जुगनुओं को ‘स्टिल फ्रेम’ में मढ़ कर रख दिया हो जो सही वक़्त पर अपनी जीवंत और ज़रूरी मौजूदगी के साथ लौटेंगे. यहाँ खदीज़ा बेगम एक भिन्न परिवेश की नायिका बनकर सामने आती हैं. परगासो दुषाधन की तरह तो ठीक- ठीक नहीं लेकिन कला की ऊंचाइयों से बना उदार हृदया. शंकर लाल की कला और ज़िंदगी को एकमेव करने और उसके अभीष्ट को हासिल करने की सलाइयतें दे सकने की क्षमता से लैस. लेकिन इतनी अकोमोडेटिव और इतनी इमपर्सनल कि भरोसा नहीं होता कि यह एक गरीब बस्ती में रहने वाली 19वीं सदी की भारतीय मुसलमान महिला है. 

परगासो के व्यक्तित्व में फिर भी एक ठसक है और कुछ हद तक अभिमान भी लेकिन यहाँ खदीज़ा बेगम कला की माफिक सौम्य, शीतल और उदात्त हैं. शंकर लाल भी खदीज़ा के लिए उतने ही रिसेप्टिव और उदार हैं. कोई किसी पर पूरी तरह आश्रित नहीं हैं लेकिन एक-दूसरे के लिए एक ही मकसद तय कर लेते हैं. इस प्रसंग में दो और हालांकि थोड़ा कम चमकदार जुगनू रुकबुद्दीन और विलियम भी हैं जिनसे पाठकों को कलात्मक बेचैनी और संवेगों की पाठशाला जितना ज्ञान मिल सकता है और जितना दोनों के बीच प्रगाढ़ता है उससे भाषा, क्षेत्र, जाति, धर्म जैसी जड़ हो चुकीं सामाजिक संस्थाओं के वजूद बेमानी हो जाते हैं. यह अंतरंगता किसी अभियान या मिशन का रूप नहीं लेती बल्कि इतनी सहजता से प्रकट होती है कि इसे अप्राकृतिक तो किसी भी रूप में नहीं कहा जा सकता. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार करने और गई-आपराधिक बताने में बहुत देर कर दी.
यह सतर्क आधुनिक दृष्टि से लिखा गया उपन्यास है. जिसमें ऐतिहासिकता तो है पर उसी में आधुनिकता भी इस कदर पैठी है कि कई बार काल खंड के परे सब आधुनिक ही हो जाता है. जैसा पहले भी कहा कि इस उपन्यास में कोई खल पात्र नहीं है. अंग्रेज़ भी यहाँ एक प्रवृत्ति के तौर पर हैं. लालच, व्यापार, संसाधनों पर कब्जा ये सब प्रवृत्तियाँ हैं और अंतत: यह उपन्यास सामंतवाद के ढहने और पूंजीवाद के स्थापित होने के बीच की समयावधि का है अत: इन दो साभ्यतिक विकास के चरणों के द्वंद्व तो यहाँ हैं. एक कम हृदय की व्यवस्था को निहायत हृदयहीन उत्पादन व्यवस्था द्वारा अतिक्रमित करने के इस संक्रमण काल में ऐसे तमाम द्वंद्व सहसा ब्यौरों के माध्यम से प्रकट होते हैं जिन्हें सतह पर भी पकड़ा जा सकता है.वंदना ने उपन्यास के हर पात्र को बहुत गरिमा बख्शी है.

अब बात करते हैं इस उपन्यास के सबसे ज़रूरी पात्र फतेह अली खान की. जिनके रोजनामचों के बगैर यह कहानी लिखी नहीं जा सकती थी. और यह संयोग नहीं है कि यह कहानी 1910 पर आकर इसलिए खत्म हो जाती है क्योंकि उसके बाद फतेह अली खान के रोज़नामचे नहीं मिलते. उनका इंतकाल हो जाता है और उनके रोज़नामचे बाहर नहीं आते. ऐसे तो फतेह अली खान पूरी कथा में प्रत्यक्ष या अपने रोजनामचों के मार्फत लगातार मौजूद हैं लेकिन उनकी कहानी ‘वेंटन’ चीन के समुद्री तट पर वह रूप अख़्तियार करती है जिसके बिना इस उपन्यास की कहानी पूरी नहीं होती या शुरू भी न हुई होती.

‘यू-यान’ यह नाम है उस महिला का जो चीन के समुद्री तट पर फतेह अली खान की दोस्त बनती है. ठीक- ठीक दोस्त तो नहीं, प्रेमी भी नहीं, पत्नी तो खैर नहीं ही...लेकिन यही इस उपन्यास की खासियत भी है कि यहाँ रिश्ते किसी एक रूढ़ि में प्रकट नहीं होते वो ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें हम अगर शौके-दीदार पैदा कर लें और लोगों की गरिमा रखते हुए उनके अंतरसंबन्धों में झाँके तो वो कहीं भी मिल सकते हैं. वंदना को इसलिए किसी भी तरह के रिश्तों को नाम ही दे देने की न तो इच्छा है और न ही जल्दबाज़ी. यह जोखिम वंदना ने लिया है और उसे जैसे एक चुनौती की तरह सृजन के उत्कृष्ट मापदण्डों तक ले गईं हैं कि जहां यह इतने सहज हो जाते हैं कि यह जानना मुनासिब नहीं लगता कि पूछें कि यू-यान और फतेह अली के बीच क्या रिश्ता था? या शंकर लाल और खदीज़ा बेगम के बीच क्या रिश्ता था?

पाठकों के हृदय को उदार बनाते हुए मानवीय संबंधों और खालिस स्त्री-पुरुष संबधों की भी कितनी ही संभावनाओं और विमाओं को गरिमामयी सुंदरता के रूप में संभव बनाती चलती हैं.

तो फतेह अली खान, राजा सुमेर सिंह के नौकर हैं जिन्हें  उनके जहाज सूर्यदरबार पर नौकरी मिली है. जहाज से वो हिंदुस्तान का सामान चीन ले जाते हैं. चीन में भी फ्रांसीसियों व अंग्रेजों का कब्जा व्यापारिक केन्द्रों पर होना शुरू हो गया है. चीन की स्थायी आबादी पर भी इसका गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. कल तक समुद्र पार का जो व्यापार बहुत सहज चल रहा था उस पर तमाम तरह की पाबन्दियाँ लग जाती हैं. जो सांस्कृतिक संबध कभी तत्कालीन भारत कहे जाने वाले देश और चीन कहे जाने वाले देश में रहे होंगे वो अब एक ही अवांछित दुश्मन के निशाने पर आ गए थे और इसका प्रभाव हजारों ज़िंदगियों पर पड़ रहा था.

फतेह अली खान और यू-यान के साथ यू-यान का एक बच्चा भी है. यू-यान का पति चीन में अंग्रेज़ व्यापारियों के खिलाफ मोर्चा लते हुए खेत हो जाता है. बहरहाल यह बच्चा फतेह को बहुत पसंद करता है और दोनों के बीच एक मुकम्मल दोस्ती हो जाती है. चूंकि यू-यान एक माँ  है तो बच्चे की उस सहज और पवित्र बुद्धि पर यकीन करते हुए फतेह के साथ बहुत ही सहज होती जाती है. एक समय आता है जब फतेह खान को बच्चे की तस्वीर बनाने की खातिर अपनी भूली-बिसरी कला याद आ जाती है और वह एक दिन यू-यान की इजाजत से बच्चे का चित्र बनाता है. यू-यान शर्त रखती हैं कि दो चित्र बनेंगे. एक वो रखेगी और एक फतेह अली खान. विराट और संश्लिष्ट कथा के रोमांच को खत्म किए बिना एक इशारा भर यहाँ किया जा सकता है कि यह दृश्य उपन्यास का बीज है. कान्हा, चिन-कान्हा सिंह ये वो दो चित्र हैं जो उस दिन पटना कलम शैली में फतेह अली खान ने बनाए. और जो सजीव था वो किसी तरह हिंदुस्तान पहुँच गया.

तो दो चित्र बनते हैं और एक सजीव कथ्य.  यू-यान और फतेह अली खान के बीच आपसी भरोसे के आधार बनते हैं. चित्र ली-ना को खोज के लिए प्रेरित करता है और जो सजीव हिस्सा इस प्रसंग में निकलता है वह इस खोज को परिणति तक ले जाता है. इसे पूरी तरह समझने के लिए पाठक को भी दिलचस्प २९५ पृष्ठों से गुजरना होगा.

एक अच्छे उपन्यास की जो अपेक्षित अर्हताएँ हैं वो यह उपन्यास शुरू से अंत तक सफलता पूर्वक निर्वाह करता है. शिल्प में एक नया जैसा प्रयोग लगता है पर मुझे यह भी लगता है कि अगर यह शिल्प नहीं होता तो फिर कैसा ही होता?? इतने बहुपरतीय, बहुविमीय और बहु-सांस्कृतिक कथानक को कहने के लिए यह शिल्प  लेखिका की मदद ही कर रहा है. मेरे लिए शिल्प और कथ्य की बहस में हमेशा कथ्य वरीयता पाता है और शिल्प उसका अनुगामी हो जाता है. लेकिन यहाँ वह भी द्वंद्व नहीं दिखता है. एक पीरियड उपन्यास में  जो इतने बड़े कैनवास पर फैला हो तब शिल्प सपाट नहीं हो सकता लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए यह भी नहीं लगता कि वंदना ने इंचीटेप लेकर भवन निर्माण से पहले ज़मीन को नापा ही होगा. पहले एक स्ट्रक्चर बनाया होगा और फिर ईंट-गारे से उसे भर दिया होगा. हालांकि जिस सहजता से शिल्प और कथ्य के तनाव के बीच रचनात्मक संतुलन इन्होंने साधा है वह इतनी सतर्क तैयारी की मांग तो करता ही है. और की भी होगी. लेकिन एक अच्छी कला वही है जो फूल प्रूफ फेयर कापी के तौर पर पाठकों के सामने आए.

इस शिल्प ने वंदना को बहुत सारी सहूलियतें दी हैं. इतनी कि इतिहास में रचनात्मक दखल  जा सके और इतिहास बुरा न माने लेकिन इतनी भी नहीं एक लंबा काल खंड अविश्वसनीय ही लगने लगे. लेखिका ने रोज़नामचे से लेकर अखबारों से लेकर, ब्रिटिश सरकार के गेजेट्स, लोक मान्यताओं, हरबोलों आदि सभी से यह रचना पूरी करने में दिल खोल कर मदद ली है और इन सबने इस रचना को हम तक पहुँचने में रचनाकार की भरपूर मदद की है.
गौरतलब यह है कि शिल्प बोझिल नहीं हुआ और कथा में अवरोध पैदा करते हुए नहीं लगा. वंदना की भाषा भीड़ में पहचानी जा सकती है. इसमें भी इस राय को पुख्ता आधार ही दिया है. संदर्भों के अनुसार बदलती रही है. यह देशज उपन्यास भी है और आधुनिक भी और अंततः: अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर भी इसके ठिकाने हैं इसलिए भाषा में स्वाभाविक वेरिएशन्स हैं. जो रचना को खूबसूरत बनाते हैं. मुझे कहीं- कहीं भाषा बेहद सतर्क ढंग से बनावटी भी लगी पर यह इसलिए भी हो सकता है कि बिहार की लोक भाषाओं से मेरा प्रत्यक्ष तजर्बा नहीं है. लेकिन कई बार खालिस बनावटी भी लगी. हालांकि इस भाषा के कारण कथानक या शिल्प या पात्रों के प्रति पाठक की सहजता में कोई फर्क नहीं पड़ेगा इससे मुतमईन हुआ जा सकता है.

नाटकीयता है इस उपन्यास में और कई बार बेहद सक्रियता के साथ. हालांकि ‘अचानक’ जैसा कुछ केवल अंतिम दृश्यों में होता है और जो इस रचना की परिणति भी है. आखिर संस्पेंस न होता, खोज न होती, कुछ जानने की ललक न होती तो यह उपन्यास ही क्यों रचा जाता? लेकिन यह अंतिम दृश्य भी इतना अनपेक्षित और सस्पेंस से भरपूर है कि यहाँ आकर पीछे के पढ़े जा चुके सारे पृष्ठ, सारे ब्यौरे एक साथ पटना के कला महाविद्यालय में ली-ना के बगल में जा खड़े होते हैं. यहाँ आकर आपके साथ भी वही घटता है जो ली-ना के साथ. यह संपृक्ति ही उपन्यास की परिणति है. जहां पाठक, लेखक और पात्रों का भेद मिट जाता है और सब एकमेव हो जाते हैं.
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सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम करते हैं. प्राकृतिक संसाधनों और गवर्नेंस के मुद्दों पर गहरी रुचि है. मूलत: साहित्य के छात्र रहे हैं. दिल्ली में रहते हैं और 'श्रुति'ऑर्गनाइजेशन से जुड़े हैं.

कथा-गाथा : कोरोना से ऐन पहले : पंकज मित्र

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कोरोना से ऐन पहले
पंकज मित्र



१)  
क्वॉरेंटाइन

ना बोल सुन सकने वाले कोका की उपस्थिति सोसाइटी की सबसे वाचाल उपस्थिति थी जहां पर भी कुछ शोरोगुल हो रहा हो यकीन मानिए कि वहां पर कोका जरूर होगा. मंगोलियन नाक नक्श वाले कोका की  धवल दंत पंक्तियां इतनी धवल थी कि नकली का आभास देती थी. उसका चेहरा मोहरा हर किसी को उसे बहादुर पुकारने को उकसाता था. कोई बहादुर पुकारता था तो कोई कोका लेकिन किसी के कुछ पुकारने से उसे फर्क कहां पड़ना था. चेहरे की भाव भंगिमा से और जरा से इशारे से वह समझ जाता था कि सामने वाला उससे क्या चाहता है- जैसे सोसाइटी का सेक्रेटरी स्टेनगन से गोली चलाने का इशारा करता तो कोका दौड़कर पानी का पाइप उठाकर नल चालू करके पौधों को पानी देने लगता. जरूर थोड़ा थोड़ा सुनाई देता होगाऐसा लोग मानते थे क्योंकि गेट पर किसी गाड़ी के हॉर्न बजते ही कैसे वह दौड़कर कहीं से प्रकट हो जाता गेट खोलने. 

वैसे तो यह काम गार्ड साहब का था पर गार्ड साहब तो गार्ड कम साहब ज्यादा थे. वह ज्यादातर समय फोन पर व्हाट्सएप वीडियोज़ देखने और अपने आसपास के मित्रों को फॉरवर्ड करने में मुब्तिला रहते थे. कोका उनके बहुत सारे तरद्दुद अपने सिर पर ले लेता.  कभी गाड़ी साफ करते हुए देखकर किसी ने कोका से पूछ लिया- गार्ड किधर हैतो कोका अपनी झक्क सफेद दंत पंक्तियां दिखा कर हंस पड़ता और अपने काम में जुट जाता था. वह इतने घंटे इसी सोसाइटी में दिखता था कि किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई कि वह रहता कहां हैखाता क्या हैकौन उसको पैसे देता हैकैसे काम चलता है उसका.

‘ऐ कोका! चल न क्रिकेट खेलते हैं!’ बच्चों का क्रिकेट का इशारा देखते ही कोका का चेहरा उजास से भर जाताभले ही सोसाइटी के बच्चे उसे कभी भी बैटिंग करने नहीं देते लेकिन उसकी उत्साहपूर्ण किलकारियां इस बात का गवाह थी कि वह कितना खुश था दौड़ दौड़ कर गेंद लाने में ही सही. बच्चों की चहचहाहट के बीच कोका की किलकारी अलग ही सुनाई देती थी-चीख और सीटी के बीच की कोई ध्वनि- यह उसके उल्लास की चरम अभिव्यक्ति थी.  गार्ड कभी कभी डांट भी देता

‘का डेहंडल के तरह कर रहा है रे कोकवा! इ लोग तो बच्चा हैतुम इतना बड़ा गधा हो गया आर..’.

यही सुभाषित अपने छोटे पुत्र के मुंह से अपने बड़े भाई के लिए सुनकर गुप्ता जी बिगड़ पड़े थे- कैसा लैंग्वेज सीख रहा हैकोका के साथ खेलने से हो रहा है. मिसेज गुप्ता ने गुप्ता जी को डांटते हुए कहा- कोका बोल ही नहीं सकता तो लैंग्वेज क्या सिखाएगा जी. इ सब गार्ड से सीखा है. कब से बोल रहे हैं सेक्रेटरी को बोलकर गार्ड को हटवाओ. गार्ड को हरदम फोन में डूबे देखकर सोसाइटी की महिलाएं चिढ़ती थीं. कोका से सब खुश रहती. उनकी हर छोटी-छोटी फरमाइशें दौड़ दौड़ कर पूरी करता है



‘ऐ कोका! गुपचुप वाले को रोक! नवीन स्टोर से एक किलो मैदा और आधा किलो सूजी ले आ दौड़ के! ऐ कोका! एक सौ आठ बेलपत्र तोड़ कर ला देना. आज सावन का आखिरी सोमवार न है.’

और इसी आखिरी सोमवारी के दिन सोसाइटी मेंबकौल सेक्रेटरी भोलेनाथ की कृपा हो गई थी. किनारे बने छोटे से शिव मंदिर के पास एक सांप दिख गया. शाम को दफ्तर से घर आने पर मेरे दोनों पुत्रों ने बाकायदा सांप पकड़ने का अभिनय किया. बड़ा वाला बार-बार दोनों हाथों की उंगलियों से दोनों आंखों के किनारे को दबाता और चाँऊ माँऊ जैसा कुछ बोलता और छोटा वाला शादियों में होने वाले नागिन डांस की तरह मुद्राएं बनाकर उछल रहा था इधर उधर.

‘पापाभैया कोका है और हम सांप. कोका ने सांप को कैसे पकड़ लिया देखिए.
अरे हांआज कोका नहीं रहता तो गजब हो जाता- यह बच्चे की मम्मी थी.
बार-बार आंख के किनारे को क्यों दबा रहे हो
बड़े से पूछाउत्तर छोटे ने दिया
कोका का रोल कर रहा है ना. कोका  जानते हैं पापाचिंकी है.’

क्या बेहूदा बात हैबच्चे कहां से सीख रहे हैं यह सब
मैं बच्चों की मां पर गरजा.

हां गार्ड कह रहा था कि चीनी लोगों के अलावा इस तरह से सांप कोई नहीं पकड़ सकता. वह लोग सांपचूहेचमगादड़ सब खा जाते हैं. सांप पकड़ कर सोसाइटी के पीछे वाले टीले की तरफ ले गया था.

हां पापाउधर ले जाकर पका कर खा गया होगा. –

फालतू बात मत करो. हर उस तरह का चेहरे वाला चीनी नहीं होता और है भी तो चिंकी नहीं कहना चाहिए. शायद नेपाल का होगा.

कैसे पताआपने कभी उसकी बोली सुनी हैऔर फिर सांप को कहां ले गया?
एक तो बेचारे ने तुम लोगों को सांप से बचाया और तुम लोग... अरे बहुत सारे लोग सांप को मारते नहीं हैं. छोड़ दिया होगा उधर ले जा कर.

मेरे जोर से बोलने से सब चुप तो हो गए लेकिन चेहरे बता रहे थे कि वह मुतमईन नहीं थे पूरी तरह मैं हर आदमी की तरह इत्मीनान था कि वह बात समझ गए होंगे. संडे की शाम थी और सोसाइटी में कोई शोरगुल नहीं. वॉक पर गया तो बच्चे मायूस होकर बैट बॉल लिए बैठे थे.

क्या बच्चा पार्टीक्रिकेट नहीं हो रहा आज?      
कैसे होगाकोका नहीं आया है ना.
कहां है कोका?

पता नहीं अंकल. तीन दिन से नहीं आ रहा जब से सांप पकड़ा था तभी से.
क्या सिंह जी कहां है कोका?
पता नहीं सर. केन्ने है. दस दुआरी है. होगा कोनों दूसरा जगह.

चिंता हुई कि कहीं सांप ने... फिर मामला हमारी सोसाइटी का था. कुछ हो हवा गया तो हम फंस जाएंगे.  सेक्रेटरी से इस पहलू पर बात की. वह भी चिंतित हो गया.
हां सर जी! उसको देख नहीं रहे हैं कई दिन से.

तो पता करना चाहिए नाकाम करवाने में तो आगे रहते हैं.
झुंझलाहट की वजह से कुछ ज्यादा जोर से बोल दिया होगा. वह सकपका गया.
लेकिन सर जी! हम लोग तो जानते भी नहीं हैं कहां रहता है.

आप जानते हैं सिंह जी?
नहीं सर भोरे आ ही जाता था तो कभी मालूम नहीं किए उधर पीछे जो बस्ती है ना उधर कहीं रहता है.

बच्चों में खुसुरफुसुर जारी थी. मेरा छोटा वाला अचानक बोला
पापा! भैया जानता है कोका का घर!
कैसे - त्योरियां चढ़ गई थी तो बड़ा वाला थोड़ा सहम गया. वैसे भी वह कम बोलता था.

नहीं.. वह.. मतलब.. वह रूआंसा हो गया था.

ठीक हैठीक है चलो. मैंसेक्रेटरीगार्ड  और मेरा बड़ा बेटा सब चले. लग रहा था कि पता नहीं क्या बात हो. गार्ड को पैसे देकर एक ब्रेड भी मंगवा लिया. जत्था चला टीले के पास से पगडंडी थी और टीले के उस पार एक झुग्गियों वाली बस्ती थी. रास्ते में भटकटैया की झाड़ियांगंदगी का साम्राज्य फैला था. शाम हो रही थी और टार्च की रोशनी की जरूरत पड़ गई थी. मोबाइल की टॉर्च की रोशनी में हम चले जा रहे थे गंदगी से पैरों को बचाते. बस्ती की शुरुआत में ही टीन टप्पर वाला बोरे से बना एक ढांचा था जिसकी तरफ बेटे ने इशारा किया. सिंह जी ने हाँक लगाई

रे कोकवा! कोई आवाज नहीं. फिर टीन के दरवाजे पर ठक ठकाया. फिर कोई आवाज नहीं. बोरा हटाकर नीम रोशनी में देखा एक टूटी सी फोल्डिंग खटिया पर एक आकृति. कराह जैसी आवाज भी आई. सभी ने अपने मोबाइल के टॉर्च रोशन कर लिए थे. सबसे पहली चीज जिस पर टार्च की रोशनी पड़ते ही चमक उठी वह थी कोका की धवल  दंत पंक्तियां. चेहरा अलबत्ता पीला पड़ा था. बेटा भावुक होकर उसकी तरफ बढ़ा तो कोका ने जोर-जोर से सिर हिलाकर हाथ से नहीं नहीं का इशारा किया. बेटा ठिठक गया -

का होलो रे कोकवा - सिंह जी थे. कोका ने सिर को छूकर बुखार होने का इशारा किया.
जूड़ी ताप! अरे तो उधर आता ना दवाई देते साहब लोग.

कोका हड़बड़ा कर उठ बैठा. उसने शायद अब हम लोगों को देखा था. बेटे ने क्रिकेट खेलने का इशारा किया. उन लोगों का इशारों में संवाद जारी था. कोका नहीं नहीं इशारा कर रहा था सिर को छूकर बता रहा था कि बुखार जो है वह बेटे को लग जाएगा. यह बेटे ने बताया हमेंइसलिए वह नहीं आ रहा था.

सेक्रेटरी ने दांत निकाल कर हंसते हुए कहा

उरे साला! अब समझ गया सर जी! इ कोरेंटाइन कर लिया है अपना को. बुखार बच्चा लोग में नहीं चला जाए इसीलिए.

कोका की म्लान हंसी में भी उसके दांत चमक उठे थे. अब तक कोरोना का प्रकोप दुनिया में फैला नहीं था.
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२)
सोशल डिस्टेंसिंग




अरे अशरफ! फिर तुम बाबा के बिछौना पर बैठ गया रे!

उधर से  कान पर से जनेऊ  उतार कर आते हुए बाबा बकुली लेकर लड़खड़ाते हुए बढ़े और मनोज जो बाबा के बिछावन पर बैठा थाउठकर तेजी से बाहर की तरफ भागा. बाबा ने बकुली उसकी तरफ फेंकी लेकिन निशाना चूक गया. बाबा को कम दिखता था और मजे की बात यह कि यह कहने वाला कौन था खुद अशरफ.

तहरा महतारी के! मीमा के जनमल! आर तहरा जगह ना मिलल बैठे केइ रकेशवा भी कम हरामी नइखन. सब मीमा तीमा के घरे बोला के बैठावन स. आबे द तोहार बाप के.

रोज का मामला. मेरे बाबा को दुनिया में अगर किसी से बेइंतहा नफरत थी तो वह थे मुसलमान जिन्हें वह मीमा कहकर बुलाते थे. और तो और एक बार तो समीउल्लाह साहब को जो मेरे पिता के कलीग थेमुंह पर ही कह दिया था-आप लोग का दोस्ती जो है ना वह घर से बाहर. उस दिन के बाद से समीउल्ला साहब कभी घर के अंदर नहीं आएबाहर से ही आवाज लगाते थे. लेकिन उनका बेटा अशरफ बेखटके  आता जाता रहता था और दोस्तों के साथ मिलकर बाबा को चिढ़ाता रहता था. एक बार तो पकड़ भी लिया बाबा ने उसका हाथ.

अरे बाबा! हम मनोज! अशरफ वह देखिए भाग रहा है.

बाबा उसका हाथ छोड़कर "तहरा महतारी के"कहते हुए दौड़े तब तक मनोज गेट फांद कर यह जा वह जा. बकुली पड़ जाती तो... मेरे पिता ने समीउल्ला साहब से अपने पिता के व्यवहार के लिए माफी मांगी तो समीचच्चा बोले- अरे छोड़िए पांडे जी! पुराने ख्यालात के आदमी हैं!. अपना जीने का तरीका है जिस पर जिंदगी भर अमल किया है. अभी अचानक बदल कैसे सकते हैं. हमने बिल्कुल दिल पर नहीं लिया है. अशरफ समीउल्लाह चाचा का बड़ा बेटा था और सब मिलाकर नौ भाई-बहन थे. नौ नंबर क्वार्टर में रहने और नौ भाई-बहनों के कारण मैं और मेरे दोस्त उसे नौटंकी बुलाते थे और वह बिल्कुल बुरा नहीं मानता था. समीचच्चा एक स्मार्ट आदमी थे. बिल्कुल नवीन निश्चल की तरह दिखते थे. जाहिर है कि उनके बच्चे भी सुंदर थे. सबसे सुंदर थी सलमाजो अशरफ के ठीक बाद थी हालांकि उसे देखा कम ही था. शायद खिड़की पर खड़े एक दो बार पर बुर्के में भी उसे पहचान लेते थे सिर्फ उसकी आंखें देख कर. उसकी आंखें भूरी थी और इसीलिए उसे देखते ही मैं अशरफ की ओर देखकर शुरू हो जाता था-

सौ में सूर
हजार में काना
सवा लाख में ऐंचाताना
ऐंचाताना करे पुकार
कुर्री से रहियो होशियार.

भाई जान! देखिए ना! सलमा झूठ मूठ चिढ़ने का नाटक करती और हम सारे दोस्त हंसते थे. 

दोस्तों के दल में अशरफ और प्रताप के बीच अक्सर कहा सुनी हो जाती जिसमें प्रताप अक्सर उत्तेजित हो जाता था और अशरफ हंस-हंसकर उसके क्रोध को और हवा देता.

क्या रे खाकी चड्डी! आज गया था सुबह लाठी भाँजने! अब बताओ बंदूक पिस्तौल के जमाने में अभी भी लाठी भाँज रहा है.   - हाँ रे मुसल्ला! बंदूक पिस्तौल पर तो तुम लोग का कॉपीराइट है. पूरा दुनिया में हंगामा मचा कर रखा है.

अरे नहींऐसा नहीं हैवक्त जरूरत तुम लोग भी प्रैक्टिस करता है जैसे गांधी जी पर किया था.

इतना कहते ही प्रताप अशरफ के पीछे दौड़ा और अशरफ एक दो तीन.

सुन ना सुन ना! अच्छा बे अशरफवा! तुम लोग का सचमुच हमलोग के खाने में थुकथुका देता है?

राकेश के बाबा तो कहते हैं ऐसा. बाबा कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे. का राकेश?

इस बार अशरफ के प्रताप के पीछे भागने की बारी थी और प्रताप एक दो तीन. राकेश यानी मेरी जान सांसत में. किसकी तरफ से बोले. दोनों को बराबर की मात्रा में डांट डपट करने के बदले वैद्यनाथ सिनेमा में नई पिक्चर दिखाने का वादा करना पड़ता  तभी समझौता संभव हो पाता था.

जिस दिन अयोध्या में एक मस्जिद गिरी उसी दिन मेरे बाबा भी गिरे थे और फिर उठे नहीं. कस्बे में तनाव पूर्ण माहौल था और मेरे घर में गमगीन. लेकिन अशरफ ने हम सबको चौंका दिया. बाबा की अर्थी पर इतनी जोर रोया कि हम सब भौंचक्के रह गए. मैं रोया था अपने बाबा के मरने पर पोते को जितना रोना चाहिए उतना ही. शुरू में तो हमने समझा कि हमेशा की तरह नाटक कर रहा है. लेकिन उसके झर झर बहते आंसू और बुक्का फाड़कर रोने की आवाज... श्मशान घाट तक रोता हुआ गया. - जानता है राकेश! बाबा चले गए तो जैसे कुछ खाली हो गया - दूसरे दिन अशरफ ने कहा- अब कौन दौड़ायेगा बकुली लेकर. वैसे भी हम लोग का भी साथ छूटने ही वाला है.

इस बार फिर हमारी बारी चौकने की थी.

क्यों?
हम लोग मोहद्दीपुर शिफ्ट हो रहे हैं.
मेरे पिता भी चौंके थे - क्या बात कर रहे हैं समी साहब?
हां पांडे जी! एक जमीन मिल रही थी सस्ते में. एक छोटा-मोटा मकान बनवा कर उधर ही चले जाएंगे.
इधर क्या तकलीफ थी?
नहीं तकलीफ तो कोई नहीं... मतलब.. माहौल तो आप देख ही रहे हैं.

चेहरे पर दर्द था समीचच्चा के. फिर एक दिन वह कयामत का दिन भी आ पहुंचा जब मय सरोसामान अशरफ का पूरा परिवार ट्रक में लदकर मोहद्दीपुर चला गया. सलमा हिजाब के अंदर चेहरा छुपाए थी पर उसकी भूरी आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. यह तो मैंने साफ देखा था. शुरुआती दौर में तो हम सभी दोस्तों का आना-जाना लगा रहा है अशरफ के घर लेकिन अशरफ जब अलीगढ़ चला गया पढ़ने तो यह सिलसिला टूट गया. हम लोग भी कैरियर की चिंताओं में ऊभचूभ करने लगे.

समी चाचा को प्रणाम नहीं किया राकेश?
पिता की आवाज सुनकर मैं चौंका और यह चौंकना चार गुना हो गया उस आदमी को देखकर जो मेरे पिता के सामने खड़े थे - झुके हुए कंधेछोटे-छोटे बालसिर पर गोल टोपीटखने तक पाजामालंबा ढीला सा चोगानुमा कुर्ताललाट पर नमाज का  गट्टा. समीचच्चा थे यह मानने में मुझे थोड़ा वक्त लग गया.

चाय! मेरी मां ने चाय रखी. 
और भाई साहब! सब बच्चे वगैरह ठीक हैंअशरफ भी बहुत दिनों से नहीं आया इधर.

सलाम भाभी जी! सब ठीक है अल्लाह के फजल से और सलमा का निकाह है अगले जुम्मे को. अशरफ भी आया हुआ है उधर निकाह की तैयारियों में मुब्तिला है.

दो झटके एक साथ! सलमा का निकाह और अशरफ कई दिनों से आया हुआ है और मिला तक नहीं!

चलता हूं पांडे जी! आप तो जानते ही हैं. सब इंतजाम करना है - चाय पीकर शीशे का गिलास रखते हुए.

समीचच्चा के जाने के बाद पिता मां को डांट रहे थे - क्या करती होशीशे के ग्लास  में चाय देने की क्या जरूरत थीअरे यह तो बाबूजी के समय का तरीका था न. हद करती हो!

देखे नहींसमी भाई साहब भी तो बड़ा भाई का कुर्ता और छोटा भाई का पजामा पहनने लगे हैं.
माँ टीवी ज्यादा देखने लगी थी. सलमा के निकाह के दिन मेरी हालत वही हो गई थी जो आमतौर पर साइलेंट प्रेमी की हो जाती है. वह बारातियों को फिरनी परोसता हुआ नजर आता है. लेकिन असली झटका तो बाकी था. मेरी निगाहें अशरफ को ढूंढ रही थी और उसके छोटे भाई को पूछा तो हंसते हुए बोला 
आपके सामने ही तो खड़े हैंवह रहे भाई जान! 

यह अशरफ है! कई बार उसे इधर-उधर आते-जाते देख चुका था लेकिन पहचान में ही नहीं आया. मुझे लगा समीचच्चा के कोई भाई बंद होंगे. वहीं धजा समी सच्चा की तरह - लंबा कुर्ताटखने तक पाजामागोल टोपीदाढ़ी भी बढ़ा ली थी और मूँछ लगभग साफ.  अशरफ कभी ऐसा हो सकता है कल्पना में भी नहीं था. हालांकि अशरफ ने मुझे भी देखा नहीं था तब तक- भाईजान! राकेश भैया ढूंढ रहे हैं आपको. - छोटे ने आवाज लगाई तो तपाक से मिला गले लगकर.

अभी फुर्सत मिली है तुम्हें?
तुम भी तो कई दिन से हो यहां- मैंने भी उलाहना दिया.
हां यारदरअसल निकाह की तैयारियों में रह गयामौका ही नहीं मिला.
यह क्या हाल बना रखा हैकुछ लेते क्यों नहींमतलब कहां हमारा स्मार्ट अशरफ और यह हाल?

दीन मजहब फॉलो करना कोई बुरी बात है क्या?
नहींमतलब तुम बदल गए हो. थोड़ा अलग लग रहे हो. दूर हो गए हो कुछ ज्यादा ही.

तुम लोगों ने दूर कर दिया है भाई. दीवार में पीठ सट जाए तो... छोड़ो चलो निकाह की रस्म हो रही है. बाद में बात करते हैं इस बारे में.
कोरोनावायरस से पहले ही सोशल डिस्टेंसिंग जैसे हावी हो चुका था.
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सैनिटाइजर


      
प्रोफेसर गुप्ता अद्भुत प्रोफेसर थेबड़े अकबालीबड़े मृदुभाषी और बड़े ही विनम्रसिर्फ उन्हें किसी ने कभी कुछ पढ़ते पढ़ाते नहीं देखा थाअखबार पढ़ते थे सिर्फ विश्वविद्यालय की निविदा सूचनाएं पढ़ने के लिएतभी किसी अखबार वाले का फोन आ जाता -

प्रणाम सरदेख लिए पूरे तीन कॉलम में छपा हैबिल लेकर कब तक आ जाएंगे सरजरा पेमेंटवा जल्दी करवा दीजिएगा.

कहां से होगा बाबू पेमेंट?  
हंस कर कहते प्रोफेसर गुप्ता
आज भी सी साहब का छात्र कल्याण संबंधी घोषणा का न्यूज़ कहां छपा?
अरे सरछपा है विश्वविद्यालय वाला पेज पर देखिए.

वही (स्थान विशेष के बालों का जिक्र करते हुएभर का न्यूज़ऐसे नहीं होता है बाबूतुम इतना अनुभवी पत्तरकार हो.

अरे सरहमारा भी मजबूरी समझिएहम लोग लिखते हैं बड़ान्यूज़डेस्क वाला काटकर छोटा कर देता है तो क्या करें?

तब तो विषविद्यालय का एडवर्टाइजमेंटवा भी  तो कट के छोटा हो जाएगा ना बाबू! - शहद घोलते हुए प्रोफेसर गुप्ता बोलते थेपत्रकार बेचारा "विषविद्यालयपर सिर धुनता रह जाता.
सुनो सुनोदेखो घबराओ मततुम बात करो अपने यहाँहम भी भी सी साहब से बात करेंगेमैंनेज हो जाएगा.

"मैंनेज हो जाएगातकिया कलाम था प्रोफेसर गुप्ता का जिसे गाहे-बगाहे चिपकाते रहते थे और मजे की बात यह कि मैंनेज हो भी जाता थाकैसे कैसे मैनेज करना पड़ता है वही जानते हैंनहीं तो कम झमेला थोड़े ही हुआ था जब कॉलेज रातो रात कांस्टीट्यूएंट होने वाला थावह तो गांव में थे धनकटनी करवा रहे थेखबर मिली थी कि कई कॉलेज कांस्टीट्यूएंट होने जा जिसमें एक के मैनेजिंग कमेटी के सेक्रेटरी उसके गुरुदेववही गुरुदेव जो सिर धुन धुन कर मंच पर कविताएं सुनाते थे और गुप्ता जी की जिम्मेवारी थी कम से कम पच्चीस छात्रों को जमा कर आगे वाली कुर्सियों पर बिठाए रखना और वाह वाहकमालफिर से कहिएवगैरह करवाने की

कभी-कभी चिढ़ भी जातेउन्हीं दो कविताओं पर कितनी बार... पर... आज वह दिन आ गया था जब उन तमाम सेवाओंमतलब खेत के खीराबैगनटमाटर के तमाम संदेशगाय का घी और समय-समय पर खैनी बना कर चुपचाप गुरुदेव को देनेसबका शिष्य ऋण गुरु को चुकाना थापहुंचे तो गुरुदेव के यहां मेला लगा था- गुरुदेव के कई रिश्तेदारकई भावी दामादकई सेवाभावी छात्र और एक झुंड वैसे शिक्षकों का भी था जो उस कॉलेज में पढ़ा रहा था लंबे समय से इसी दिन की आस मेंहोली दशहरा कुछ सौ रुपए मिल जाते थेगांव से चावल दाल आलू बांध कर ले आते और हॉस्टल नुमा कमरों में ठुँसकर गुजार रहे थे.  

कुछ ट्यूशन पढ़ा कर गुजारा करतेएक कमरे में कई रजिस्टर पड़े थे जिसमें गुरुदेव कॉलेज का प्रिंसिपलजो  गुरुदेव का दामाद ही थाएक गुंडा किस्म  का शिक्षकसभी उन रजिस्टरों में नाम चढ़ानेकाटनेभरनेमिटाने की प्रक्रिया में मग्न थे.

गुप्ता जी सीधे साष्टांग गुरुदेव के चरणों मेंआंसुओं से चरण पखारते हुए जो बोले उसका अर्थ था कि राजा रामचंद्र जी के राज में उनके हनुमान की यह दुर्दशा!  गुंडा शिक्षक के विरोध के बावजूद गुरु ने शिष्य की लाज रखी और एक कमजोर बंगाली शिक्षक जो कई वर्षों से पढ़ा रहा था और जहीन भी थाउसका नाम काटकर गुप्ता जी का नाम लिख दिया गयालेकिन सिर्फ नाम लिखने से नहीं होता थाएक फाइल बनाई जाती थीकागजों का मुंह भरा जाता यह साबित करने को कि गुप्ता जी कई वर्षों से कॉलेज में पढ़ा रहे हैंबीच में कई बार नाश्ता खाना चाय सिगरेट खैनी के दौर भी चलेजाहिर है गुप्ता जी ने सब मैनेज किया और गुप्ता जी प्रोफेसर गुप्ता में परिणत हुए

फिर कॉलेज से "विषविद्यालय" (गुप्ता जी के शब्दों मेंकी लंबी यात्राउसकी एक अलग कहानी है और किस्सा कोताह यह कि गुप्ता जी उस राजनीतिक दल की तरह हो गए जिसके विधायक तो कम ही रहते हैं पर हर बार सरकार उसी के सहयोग से बनती हैवीसी कोई भी हो गुप्ता जी को जरूर खोजता थाजब भी कुछ मैनेज करने की बात आती थीवह ऐसे जरूरी पुर्जे थे जिसके बिना काम अटक जाता थाएक बार एक वी सी साहब ने नाराज होकर विश्वविद्यालय की खरीद बिक्री कमेटी से उनका नाम हटा दियाबस दूसरे दिन से जो अखबारों मेंकुकुरमुत्तों की तरह उग आए स्थानीय टीवी चैनलों मेंनए वीसी के खिलाफ कैंपेन शुरू हुआ.

सब साबित करने में लग गये कि नया वीसी सर्वथा अयोग्यपरम भ्रष्टाचारीघृणित जातिवादी और कुछ हद तक सांप्रदायिक भी हैइस कैंपेन की दुर्गंध राजभवन तक पहुंचाने में कामयाब रहे गुप्ता जी मतलब मैनेज कर लिया और एक दिन वीसी चेंबर में वीसी साहब के साथ सुगंधित चाय पीते हुए देखे गएखरीद बिक्री कमेटी की तरफ से अगले ही महीने फर्नीचर की वृहत् खरीदारी हुई और वीसी साहब की पत्नी भी प्रसन्न हुईबहुत दिनों से टीक के फर्नीचर की इच्छा दबी हुई थी.

जो भी कहिएगुप्ता जी हैं काम के आदमी!
हूँ - कहकर वी सी साहब अखबार देखने लगे जिसमें उनकी ईमानदारी और विद्वता की खबरें छपी थीपर गुप्ता के असली पराक्रम की परीक्षा अब होनी थी? वी सी ने उन्हें बुलाया था
गुप्ता जीआप तो जानते ही हैंकितनी बड़ी महामारी पूरे विश्व में फैल रही है और इन चालीस हजार छात्रों के स्वास्थ्यउनके जीवन की जिम्मेवारी है हमारे ऊपरसरकार एडवाइजरी जारी कर रही है बार-बारहाथ धोइयेसैनिटाइजर का इस्तेमाल कीजिए.

जी सरहम लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिएमतलब आप विश्वविद्यालय के गारजन, (गार्जियन  कहना चाहते होंगेभी तो हैंहर कॉलेज के गेट पर सैनिटाइजर रखवा दिया जाए सरदरबान सुनिश्चित करें कि सेनीटाइजर के बाद ही स्टूडेंट कॉलेज में घुसे.

लेकिन यह प्रैक्टिकल होगाविश्वविद्यालय के अंदर में इतने कॉलेजहजारों छात्रड्रम के ड्रम सैनिटाइजर लग जाएगाहर कॉलेज के लिए!
मैनेज हो जाएगा सर!

प्रोफ़ेसर गुप्ता के चेहरे पर आत्मविश्वास की आभा से वी सी साहब चमत्कृत थे.
अभी सर जैसे बीस कॉलेज है ना तो बीस ड्रम  दे  दिया जाए विश्वविद्यालय की तरफ से और एक एक ड्रम सब कॉलेज में पहुंचा दिया जाए.
लेकिन बीस ड्रम सप्लाई कौन देगाइतना सैनिटाइजर!
मैनेज हो जाएगा सर!

मोबाइल लेकर प्रोफेसर गुप्ता चेंबर के बाहर चले गएकुछ मिनटों के बाद ही चहकते हुए लौटे

मैनेज हो गया सरबस कमेटी का मीटिंग करके टेंडर कर दिया जाएमरजेंसी (इमरजेंसी कहना चाहते होंगेमें जयसवाल जी से बात हो गई हैसप्लाई कर देंगे.
कौन जैस्वाल?
अरे सर जायसवाल जीअपने जिनका बी एड कॉलेज भी हैअपने विश्वविद्यालय के अंदर.
लेकिन उनका तो देसी लिकर का...
अरे सर तो सैनिटाइजर में और होता का हैस्प्रिट ही तो रहता हैउसी में थोड़ा एलोवेरा का जेलरस सुगंधी उगंधी मार केबस हो गया और क्या मैनेज हो गया थाहमने जयसवाल जी को फार्मूला बता दिया हैउनका टेंडर एल वन में डाल देंगे.

वी सी साहब प्रोफेसर गुप्ता की दुर्दमनीय प्रतिभा  पर कुर्बान हो गएआनन-फानन में मीटिंग बुलाई गई उसमें इस भीषण महामारी जिससे मानवता को कितना खतरा था इस पर विचार व्यक्त किए गएहाथ धोने के महत्वसैनिटाइजर की तुरंत आवश्यकता पर बल दिया गया और प्रोफेसर गुप्ता को नोडल अफसर बना दिया गयातय हो गया कि गुप्ता जी कल जायसवाल जी की फैक्ट्री (दारू भट्टीमें जाकर निर्देशन निरीक्षण कर आयेंगे कि सैनिटाइजर उच्च गुणवत्ता का बन पा रहा है कि नहींकागजी कारोबार तो होता रहेगाअभी तो वक्त की पुकार है तुरंत एक्शन लेनालेकिन एक्शन इतना तेज होगा ना गुप्ता जी सोच पाए थे न वीसी साहब

अभी तो जनता कर्फ्यू में ताली थाली बजाई ही थी उत्साह से गुप्ता जी ने मकान की छत पर काफी देर तकसपने में भी देखा था कि सैनिटाइजर का एक बड़ा सा कुंड है जिसमें वह तैर रहे हैंइस पार से उस पार जा रहे हैंवीसी साहब किनारे पर खड़े होकर उनकी हौसलाअफजाई कर रहे हैं-वाह कमाल कर दिया गुप्ता जीलेकिन मोबाइल पर वीसी साहब ने कुछ और ही कहा - सब रुकवा दीजिए गुप्ता जीसब कॉलेज विश्वविद्यालय बंद करवा दिया गया हैअब सैनिटाइजर की कोई जरूरत नहीं.

गुप्ता जी को उसी दिन से सैनिटाइजर से नफरत हो गई हैपत्नी कहती है कि बाहर से आए हैं सैनिटाइजर मल लीजिए हाथ परदेख नहीं रहे टीवी पर बताता है.
चुपएकदम चुप! - गरजते हैं प्रोफ़ेसर गुप्ता.- नाम मत लो सैनिटाइजर का!
कोरोनावायरस दरवाजे पर खड़ा हंस रहा है


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)
आइसोलेशन


  
वैसे तो गबरू मालिक है और झबरू उनका कुत्ता लेकिन अब गबरू न तो गबरू रहे थे और न झबरूझबरू रहा थागबरू के कंधे झुक गए थेकुर्सी से उठने के लिए भी ठेहुनों पर हाथ रखकर सहारा लेना पड़ता और झबरू के झबरे बाल झड़ गए थे खाज के कारणनाम तो उनका कुछ था जो पेंशन के खाते में दर्ज था और दस्तखत भी करते थे लेकिन इसकी जरूरत महीने में एक ही बार पड़ती थी जब बेटा उनको इज्जत से रिक्शा पर बिठाकर बैंक ले जाता था और उतनी ही बेइज्जती के साथ छोड़ जातातेतर टोली के एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर रहे थे वे और बाकायदा पैंट शर्ट पहनकर साइकिल पर स्कूल जाते थेबुजुर्ग हेड मास्टर साहब जो एक खुशमिजाज इंसान थे देखते ही कहतेआ गया गबरू जवानदोनों क्लास को एक साथ बैठा लोहम जरा डी ओ ऑफिस से आते हैं.

लेकिन यह सब बहुत पुरानी बातें हो गईअब तो बस वह हैं और उनका झबरू हैझबरू तब एक छोटा सा पिल्ला थाएक टांग घायल थीशायद मोहल्ले के बड़े कुत्तों ने झंझोर दिया थासाइकिल की टोकरी में बिठा कर लाए थेघावों पर मलहम लगायापट्टी भी बांधीदूध में रोटी सान कर दीउनका बेटा भी पूरे उत्साह के साथ लगा रहा उसकी सुश्रुषा मेंदस बारह साल का रहा होगा तबउसी ने नाम रखा था झबरू घने बालों के कारणअब तो बस वह है और झबरू है घर के बाहर ओसारे मेंचौकी पर वह बैठे रहते और झबरू चौकी के नीचेउठकर गली से पिछवाड़े की तरफ बने शौचालय में जातेझबरू भी साथ-साथ जाता था फिर वापस आता थाबेटे ने सरकारी योजना के जरिए एक एक्स्ट्रा शौचालय हासिल कर लिया थाघर के बाकी लोग मतलब बेटापतोहूपोता यहां तक कि खुद की पत्नी भी घर के अंदर बने शौचालय का इस्तेमाल करतेउनकी पत्नी एकमात्र पुत्र की गृहस्थी में बतौर सेविका अपनी भूमिका से खुशी-खुशी शामिल हो चुकी थी

टीवी पर आने वाले धारावाहिकों और पोते की आकर्षण में बँधी थीऐसा नहीं था कि हर दादा की तरह उन्हें पोते से प्यार ना हो पर जब आदमी अपने कानों से सुन ले तो... तब उनका ठिकाना बैठका हुआ करता था और पत्नी चाय लेकर आती तो कुछ देर बैठती थीएक सुबह उठे तो नीम का दातुन करते हुए थूक में खून के छींटे दिखेलगा कहीं दतवन मसूढ़ों में लग गया होगा . लेकिन जब मात्रा बढ़ गई तो बस डॉक्टर के बताने की देर थीसमझ तो गए ही थे वेबेटे ने सीधे इटकी सैनिटोरियम में भर्ती करा दियाजल्दी ठीक हो कर आ गए थे लेकिन तब तक उनका ठिकाना बदला जा चुका था वह ओसारे मेंउनके वापस आने पर झबरू ने उछल उछल कर और भौंक भौंक अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी इसीलिए उसका भी प्रवेश घर में वर्जित कर दिया गयाखुद अपने कानों से सुना था उन्होंनेपोते को उसकी मां डांट रही थी-

क्या बाबा बाबा करता रहता हैउधर नहीं जाएगाबीमारी लग जाएगा तुमको भीबहुत डेंजरस होता हैमुंह से खून निकलने लगेगा.

आँय रे झबरूतुम तो हरदम हमारे साथ रहता हैकभी तो खून नहीं निकला तुम्हारे मुंह से?
भौं भौं कर के झबरू ने इस बात की ताईद की थी उसे तो कुछ नहीं हुआपत्नी भी संझाबाती करने बस दरवाजे तक ही आती और लौट जातीचाय पीने साथ बैठती नहींचाय स्टूल पर रख कर चली जातीचाय रखते हुए भी साड़ी के आंचल से मुंह को दबाये रहती.

रे झबरूअच्छा किया तुम शादी नहीं किया!
झबरू ने भोंभों कर कहा कि हम इतना बेवकूफ थोड़े ही थेपरिवार का लोग जब तुमको कबाड़ के तरह किनारे फेंक देता है ना तब बहुत तकलीफ होता है रे.

झबरू ने भों भों कर कहा कि तब तो बहुत प्रेम उमड़ आया था बेटा पर जब मकान उसके नाम लिख दियापेंशन हर महीना ले लेता हैचिनिया बदाम खाने भर छोड़ देता है.

सब समझते हैं रे झबरूपेंशन नहीं रहता तो यहां ओसारा पर भी जगह नहीं मिलतादरवाजा तो दूसरी तरफ से खोल लिया नाबहू को दिक्कत है ना इधर से आने जाने पर भीदेख तो झबरूखाना नहीं दिया अभी तक.

झबरू दूसरी तरफ़ के दरवाजे पर जाकर भौंक भौंक कर खबर करता है कि आज गबरू को भोजन देना भूल गए हैं वेलेकिन बेटा बहू बाजार गएपोता स्कूल गया है और पत्नी सास भी कभी बहू थी देखकर टसुए बहाने में मगनझबरू दरवाजे को खरोंचता हैभौंकता हैभौंंकता ही जाता है पर टीवी जोर जोर से चल रहा हैपोता स्कूल से लौटते ही कॉल बेल बजाता हैदादी हुलस कर दरवाजा खोलती है-

आ गया रे मेरा बाबूचल जल्दी से ड्रेस बदल लेखाना देती हूँ.
दादीजानती होउधर झबरू नहीं है!
गया होगा इधर उधर कहीं.
नहीं रोज तो रहता है इस टाइम.
तुम कैसे जानता हैउधर जाने मम्मी मना किया ना.
क्यों मना की है?
उधर बाबा रहते हैं न?

तोबाबा तो अच्छे हैंरोज हमको देख कर हंसते हैं.
तुम रोज उधर जाता है?
हांस्कूल बस से उतरकर पहले उधर ही तो जाते हैंझबरू के साथ खेलते हैं तब इधर आते हैं.
चलो रगड़ कर हाथ पैर धो लोआज भी छुआ था झबरू को?
नहीं आज तो झबरू था ही नहींबाबा भी नहीं थे.
कहां चला गया बुढ़वाजान लेकर रहेगा.

बेटा पतोहू बिग बाजार के थैलों के साथ आकर देखते हैं
पोता खाना खा रहा है दादी सिर पर हाथ धरे बैठी है - ओह  रे करमआज तो बुढ़वा को खाना ही नहीं दिएदेखो ना ज्यादा भात देखकर याद आयाबोले भी तो नहीं एक बार भीदेखो ना कहीं चले गए हैं बाबूजी.

बेटा किटकिटाकर बोला - टीवी का आवाज में सुनोगी तब नाअब कहां खोजें?

बहू बेटा को एक किनारे ले जाकर फुसफुसाती है - जाने दोहमेशा का झंझट खत्म हुआ.

अक्कल नाम का चीज है कि नहीं? इसी महीना में लाइफ सर्टिफिकेट देना पड़ता हैकहां से देंगे?पेंशन भी रूक जायेगाबहुत ढूंढा बहुत ढूंढा न गबरु मिले न झबरूइश्तेहार  भी दिया - ढूंढने वाले को पच्चीस हजार का इनामपेंशन भी तो इतना ही था.

कोरोना काल से पहले ही आइसोलेशन से निकल भागे थे झबरू और गबरू.



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५)
लॉकडाउन


अपनी छत पर पचास पुशअप्स करके जैसे ही खड़ा हुआ तो लगा जैसे उस कोठरी में बने एकमात्र छोटे से जंगले के सामने से कोई अचानक हट गया. ऐसा कैसे हो सकता हैदरवाजे पर ताला बदस्तूर लगा हुआ था! जहां तक मेरी जानकारी थी उस मकान में तो कोई रहता नहीं था. शायद वहम हुआ होगा. दूसरे दिन भी जब ऐसा ही लगा तो पता करने की ठानी. देर रात छत पर गया तो उस जंगले से मद्धम सी रोशनी आती दिखी और ताला भी खुल चुका था. हालांकि यह अपने छोटे से टार्च की रोशनी के छोटे से भरोसे पर कह रहा हूं जो इतनी दूर से ताले पर रोशनी डालने के लिए शायद काफी ना था.

सुबह फिर छत पर आया तो वही नजारा!  दिन के साफ शफ्फाफ उजाले में ताला नजर आया. हालांकि इतनी बेकली गैरजरूरी थी. पर आज फिर लगा कि कोई जंगले पर से हट गया है. दरअसल यह मकान बन्ने भाई का था और नीचे एक बड़ी सी गोदाम नुमा जगह थी जिसमें दिनभर ठेले छकड़ों का आना-जाना लगा रहता था. कभी कभी छोटे ट्रकों से माल उतारने की घुर्राहटें और  इंसानी आवाजें सुनाई देती थी पर शाम के बाद अमूमन वीरानगी सी छाई रहती थी और पूरा मकान नीमरोशनी की एक आसेबजदा उदासी में डूबा सा लगता था. इसीलिए और सवालों की हुड़क मन में उठ रही थी. आखिर चक्कर क्या हैबन्ने भाई तो मोहल्ले की दूसरी तरफ रहते थे और कभी-कभारवक्तन फवक्तन ही नजर आते थे. वैसे बन्ने भाई की जो इनफरादियत थी उसकी वजह से सीधे सीधे पूछा नहीं जा सकता था - सख्त चेचकरू चेहराआबनूसी रंगतटखने तक का पाजामाबड़ा सा काला कुर्तागोल काले रंग की टोपीपेशानी पर नमाज का गट्टा और पाजामे के नेफे में खुँसा कट्टा.  मिल भी जाएँ तो पूछताछ की हिम्मत ना हो. लेकिन जब भी छत पर जाता तो जंगले की तरफ टकटकी लगाए देखता रहता  लेकिन वही मंजर दरपेश रहता. दरवाजे पर झूलता एक ताला था और छोटे जंगले पर... नहीं कोई नहीं... वहम ही रहा होगा.  पर उस दिन तो चांदनी रात थी. गर्मी लग रही थी तो छत पर टहलने चला गया. निगाहें उसी कोठरी की तरफ थी. हालांकि दूरी थोड़ी ज्यादा थी फिर भी लगा जैसे एक पल को दरवाजा सटाक से खुला और फटाक से बंद हो गया. कोई तो था जो कमरे में गया. काफी देर तक खड़ा रहा.

इंतजार करता रहा कि अगर कोई गया है तो निकलेगा पर जब घंटों तक कोई ना निकला तो फिर छत से नीचे आ गया. आखिर कौन गया था कोठरी मेंकहीं कोई चोर वोर तो नहींलेकिन नीचे गोदाम में तो रखवाली के लिए आदमी है तो सीढ़ियों से उसके सामने से चोर कैसे आ सकता हैमैंने कई बार  देखा है उस मुस्टंडे को एकदम चाक चौबंद मुस्तैदी से पहरा देते हुए. सुबह सुबह जब वॉक पर जाता हूं तो रशीद के टपरी पर चाय पीता भी नजर आता है.
सलाम भाई जान! उसने घूर कर देखा- हां बोलो!
आप रात को भी यहीं रहते हैं?
हां क्यों?
ऊपर वाला घर खाली है न?
अब उसने खा जाने वाली ठंडी निगाह डाली. - काहे?
नहीं एक आदमी किराए के लिए पूछ रहे थे.
मैं बचकर निकलना चाह रहा था
सुनो सुनो कौन आदमी?
 नहीं मतलब.. है... पहचान वाला है.
 तुम तो हाशिम साहब के लड़के हो ना?
जी.. जी..
जो भी है उसको बोलना जाकर बन्ने भाई से बात करेगा. तुम एजेंटी मत करो.

जिस ऐंठ और गुस्से से उसने यह बात कही मुझे अच्छा नहीं लगा. एक बात और हुई कि वह आदमी शाम में एक बार गोदाम की छत पर आने लगा. आताइधर उधर देखता जैसे नजर रख रहा हो. कसरत करते हुए मुझे देख कर चला जाता. हालांकि मैंने कोशिश की कि उससे नजरें ना मिले फिर भी... कोठरी के ताले को चेक करके वह फिर चला गया. दूसरे दिन रशीद चाय वाले ने मुझे बुलाया

ऐ बाबू सुनो इधर! ज्यादा छत पर मत घूमा करो और इधर उधर ताक झांक मत करो. अपना काम से काम रखो.

नहीं रशीद चा हम तो अपने छत पर खाली कसरत करते हैं बस.
बोल दिया ना बस. नहीं तो हाशिम साहब से कहना पड़ेगा.

इसके बाद तो बेचैनी और बढ़ गई. आखिर बात क्या है क्याकोई डर का सामान है उस कोठरी में जो यह लोग चाहते हैं कि कोई देखे नहीं किसी को पता ना चले उसके बारे में. जंगले के सामने से अचानक हट जाने का सिलसिला अभी भी जारी था. देर रात दरवाजे का सटाक से खुलना और झटाक से बंद हो जाना भी. शक धीरे धीरे यकीन में बदलता जा रहा था कि कोई तो रहता है उस कोठरी में और कोई तो आता जाता है. दोस्तों से जिक्र किया तो मजाक उड़ाने लगे

उस कोठरी में बला की खूबसूरत चुड़ैल का बसेरा है और उसे तुमसे मोहब्बत हो गई है. आखिर तेरा सिक्स पैक देखती है रोज अब तो दोस्तों से भी किसी मदद की तवक्को नहीं रही. मेरी और उस छत के दरम्यान  थोड़ी-चौड़ी गली थी. अगर छतें मिली रहती तो. बहादुरी दिखाई जा सकती थी लेकिन दूरी खासी थी और कई बार देखा था कि वह आदमी जो रखवाली करता था वह गली में भी घूम जाता था. लेकिन इस कदर बेकली बढ़ गई थी कि एक दिन एक शीशा लेकर छत पर गया ठीक उसी वक्त जब सूरज उस मकान की तरफ होता था फिर सूरज की किरणों को पीछे से वापस जंगले पर फेंका और अचानक... अब तो पूरा यकीन हो गया कि कोई तो रहता है.  रोशनी पड़ते ही हड़बड़ाहट में जंगला बंद भी कर दिया किसी ने. दूसरे दिन इरादा किया कि रशीद चा से दरयाफ्त करूंगा तो पहले तिरछी मुस्कान डाली फिर नाराज हो गए

तुमसे कहा था ना ज्यादा नाक न घुसेड़ो.  कुछ नहीं हैबन्ने भाई ने कश्मीरी सेव रखा हुआ है वहां पर.
लेकिन गोदाम तो नीचे है ना?

ज्यादा दिमाग ना लगाओ. लगता है तुम्हारे अब्बा को कहना ही पड़ेगा पढ़ाई लिखाई से ज्यादा तुम्हारा दिल जासूसी में लग रहा है.

अगले दिन जब हमेशा की तरह कसरती करतबों में मुब्तिला था तो नजर जंगले पर ही लगी थी. अचानक एक हाथ नमूदार हुआ - दूधिया गोरे रंग में जैसे चुटकी भर सिंदूर डाल दिया हो किसी ने और एक कागज का गोला सा जंगले से बाहर गिरा. फिर एक तवील खामोशी... क्या सचमुच कोई हैजिसने मेरे लिए कोई पैगाम भेजा... कोई बात या ऐसे ही.. बेमकसद. लेकिन यह तो तय हो गया था कि कोई इंसान तो है अंदर. तो फिर ताला क्यों बंद हैकागज मिले कैसेमुझे तो किसी हालत में उस छत पर जाने नहीं देगा वो रखवाला. उसे शायद थोड़ा शक भी हो गया था. कई बार उधर ताक झांक करते शायद देख भी चुका हो. मोहल्ले के बच्चों में से एक गुड्डू को पटाया. छोटा था पर होशियार.

अंकल! हमारी गेंद चली गई है उस छत पर. उतार लें जाकर वहाँ से?
कोई जरूरत नहीं है.
कमाल की एक्टिंग की रोने की.
 अंकल अब्बा मारेंगे. नई गेंद थी.

हममें करार हो चुका था. नई गेंद मैंने ही उस छत पर फेंकी थी.
जाओ जल्दी लेकर आ जाओ.

अगले कुछ लम्हों में गुड्डू उस कागज को मेरे हाथ में दे रहा था और नई गेंद लेकर भाग रहा था. कागज खोल कर देखते ही झटका लगा. उर्दू में लिखा था लिपस्टिक से और मैं उन मुसलमानों में था जो उर्दू की रस्मुलखत से वाकिफ न था. तकरीबन दौड़ता हुआ उर्दू पढ़ने वाले एक दोस्त के घर पहुंचा -

"बचा लो अल्लाह के वास्ते "-दोस्त ने बताया. रगों में खून जम गया हो. तो सचमुच कोई है उस कमरे में जिसको मदद चाहिए. अब तो बन्ने खान से बात करनी पड़ेगी. जरूरत हुई तो पुलिस भी... गलियारे में बन्ने भाई मिल भी गए इस्तिंजा से फारिग होकर  मिट्टी का ढेला छूकर उठे और पाजामे का नाड़ा बांध ही रहे थे कि मैंने आवाज दी - बन्ने भाईजान!

आवाज शायद लरज रही होगी. बन्ने मियां ने घूरा- हां बोलो! नेफे में खुँसा हुआ कट्टा साफ़ दिख रहा था.
ऐ शकूर!
जी भाईजान!
देख लेना जरा हाशिम साहब का लौंडा क्या चाहता है.
मेरी बात को जरा सी भी तवज्जो नहीं दी. लेकिन शकूर ने किनारे ले जाकर बन्ने भाई से सरगोशियों में कुछ कहा तो बन्ने मियाँ घूमकर मेरे सामने खड़े हो गए कमर पर हाथ रखे

सबने समझाया तुमको अपने काम से काम रखो. समझ में नहीं आतावह तो तुम्हारे अब्बा भले आदमी है इसीलिए... शकूर! जरा ठीक से समझा देना इसको.

रात में अब्बा से जिक्र करते ही मुझ पर ही बरस पड़े - तुम जानते भी हो किस से दुश्मनी मोल ले रहे होचुपचाप पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो.
रात में गाड़ियों की घर-घराहट से नींद उचट गई थी. पहले लगा कुछ सामान वगैरह आया होगा. बाज दफा ऐसा होता रहता था लेकिन इंसानी आवाजें भी थी जिसमें शकूर की खरज़दार अलग से  पहचानी जा रही थी. जैसे दबी आवाज में धमका रहा  हो किसी को- चुपचाप बैठो!
गाड़ियां चली गई थी. सुबह जल्दी ही छत पर चला गया. जंगला बंद था. दरवाजे पर ताला बदस्तूर झूल रहा था.
कोरोना की वजह से इक्कीस दिनों का लॉक डाउन शुरु हो चुका था और वह कागज अब तक मेरे पास पड़ा था - गहरे दुख और अफसोस के साथ.
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सत्यजित राय और पाथेर पंचाली : रंजना मिश्रा

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सत्यजित राय (সত্যজিৎ রায়)२ मई १९२१–२३ अप्रैल १९९२)






सत्यजित राय और पाथेर पंचाली                             
रंजना मिश्रा




‘For many a year,
I have travelled many a mile
To lands far away
I have gone to see the mountains,
The oceans I have been to view
But I failed to see that lay not two steps from my home
On a sheaf of paddy grain
A glistering drop of dew”


बांगला में छोटी सी यह कविता रविन्द्रनाथ टैगोर नें छह बरस के उस बच्चे की नोट बुक में लिखी जब वह अपनी मां के साथ उनसे मिलने शान्तिनिकेतन आया.

कवि गुरु ने उस बच्चे की माँ से कहा – “जब वह बड़ा हो जाएगा तो इन शब्दों का अर्थ समझेगा".

वे सच कह रहे थे. बच्चे ने कवि ठाकुर के सूत्र वाक्य को जाने अनजानें इस तरह आत्मसात किया, अपने आस पास के जीवन की कथा अपनी फिल्मों में इस तरह कही कि उन फिल्मों की वजह से वह विश्व सिनेमा के दस महत्वपूर्ण लोगों में गिना जाने लगा. उस बच्चे का नाम माणिक था जिसे दुनिया सत्यजीत राय (०२ मई १९२१ – २३  अप्रैल १९९२) के नाम से जानती है.

पाथेर पंचाली’ सत्यजित राय की पहली फिल्म थी जो धारावाहिक की तरह बांग्ला पत्रिकाओं में छपकर काफ़ी लोकप्रिय हो चुकी थी और इस उपन्यास के कई संस्करण आ चुके थे. उन दिनों वे सिग्नेट प्रेस में बतौर जूनियर विजुवलाइज़र काम करते थे और पुस्तक के नए संस्करण के कवर डिज़ाइन का काम उन्हें सौंपा गया था. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और कलात्मक पृष्ठभूमि के साथ पहली बार सत्यजीत राय ने ‘पाथेर पांचाली’ पढ़ी तो इस उपन्यास की मानवीयता, लयात्मकता, ग्रामीण बंगाल का सहज जीवन, इससे जुड़े सुख दुख, उनसे इतर सपने देखने की खूबसूरती ने उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले लिया और उन्होंने अपनी पहली फिल्म इसी उपन्यास पर बनाने का निश्चय किया.

अपने 1957के लेख 'अ लांग टाइम ऑन द लिट्ल रोड‘ में वे कहते हैं - 'ग्रामीण परिवेश के उस ढाँचे, उस वातावरण के मूल में अपू का परिवार था जिसे लेखक ने इतनी कुशलता से बुना था. उनके अंतर्सबंधों की बुनावट में भावनाओं का विलोम और जुड़ाव बड़ी ही सघनता से चित्रित हुआ था और उनके माध्यम से जीवन के चरित्र में विलोम और समन्वय का भी उतना ही सुंदर चित्रण था.’ पर फिल्म बनाने के पहले 13बरस उन्हें विश्व के महान फिल्म कारों जैसे रेनुआ, डी सिका, बर्गमैन की फिल्में देखते, उनका अध्ययन करते, फिल्मों के बारे लिखते उसके शिल्प को समझते बूझते और अपने ग्राफ़िक डिज़ायनर के काम से उबते हुए गुज़ारने थे, जब तक कि 1950में वे आर्ट डाइरेक्टर होकर लंदन किसी प्रॉजेक्ट के सिलसिले में कुछ समय बिताने नही चले गए. प्रसिद्ध फ्रेंच फिल्मकार रोनुवा के संपर्क में वे कलकत्ता के दिनों में ही आ चुके थे और पाथेर पंचाली के फ़िल्मांकन की रूपरेखा और फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं पर गंभीर विमर्श की भी शुरुआत हो चुकी थी. रेनुआ अपनी फिल्म 'द रिवर'की शूटिंग के सिलसिले में उन दिनों कलकत्ता आते रहते थे.

लंदन में बिताए उन दिनों ने सत्यजीत राय उर्फ माणिक दा की दुनिया बदल दी. छः महीनों में उन्होने 100से ज़्यादा फिल्में देखीं.  पाश्चात्य फिल्मोंफोटोग्राफी, संगीत और कला की दुनिया से उनका परिचय तो काफ़ी पहले से था अब वे इनकी दुनिया में गहरे उतर गए. ऐसे समय में जब भारतीय और बांगला फिल्में अतिरंजना और अति नाटकीयता का शिकार थीं, राय ने सिनेमा के माध्यम को अत्यंत व्यापक दृष्टि से देखना शुरू किया.

पाथेर पांचाली (1955) ग्रामीण बंगाल के एक छोटे से गाँव में जीवन का सजीव और मानवीय चित्रण है जिसमें गरीबी के चंगुल में फँसा कवि पिता है, जो सपने देखता है किसी दिन उसकी कविताओं की किताब छपेगी और उनके अच्छे दिन आएँगे. उसकी पत्नी सर्बोजया है जो अपने किशोरावस्था के सुखी जीवन के सपनों को नष्ट होते देखती है, थोड़ी चिड़चिड़ी थोड़ी कुंठित थोड़ी उदार थोड़ी सहृदय है और अपनी ज़िंदगी की कठिनाइयों से जूझते हुए  उम्मीद करती है किसी दिन वे बेटी दुर्गा के लिए सुपात्र ढूँढ पाएँगे और बेटे अपू को अच्छी शिक्षा दे पाएँगे. दुर्गा और अपू हैं उनकी बालसुलभ दुनिया है, उसका सौंदर्य और अभाव है और जीवन को प्रत्याशा से देखने का, उसकी विडंबनाओं को अपनी सरलता और जिजीविषा से जी जाने का जज़्बा है. हरिहर की बूढी बुआ इंदिर ठाकुरान की स्नेहमयी और कई बार अवांछित उपस्थिति है जो दुर्गा को हर दुख से बचा ले जाने तो तत्पर है.

पुनर्जागरण के बाद के उस दूरस्थ बंगाली गाँव निश्चिँदिपुर में आधुनिकता की आहट अभी क्षीण थी. यह भाप वाली रेल गाड़ी के गाँव के पास से गुज़रने और टेलिग्राफ के खंभों पर कान लगाने से ही सुनाई पड़ती और दुर्गा और अपू के लिए नई दुनिया का संकेत लाती. ट्रेन के दृश्य इस फिल्म त्रयी ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपुर संसार’ में प्रतीक की तरह उभर कर सामने आए हैं. वे अलग अलग समय की पात्रों की मानसिक स्थितियों, उनके जीवन में आते परिवर्तनों और उस कालखंड का बिंब बनकर उभरते हैं.

फिल्म पर बात करने से पहले पाथेर पांचाली के लेखक श्री बिभूतिभूषण बन्दोपाध्याय ( (12सेप्टेंबर 1894 – 1नवम्बर 1950) पर बात करना बेहद ज़रूरी हो जाता है क्योंकि उन्होने अपने लेखन मे जिस ग्रामीण बंगाल का जीवन प्रस्तुत किया वही इस फिल्म का आधार था. ‘पाथेर पांचाली’ बिभूति बाबू का आत्मकथात्मक उपन्यास है. यह बात इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि सत्यजीत राय की शिक्षा दीक्षा में ग्रामीण जीवन् का प्रभाव नहीं था, वे कलकत्ता के अत्यधिक सुसंस्कृत परिवार और वातावरण में बड़े हुए थे. राय की आगामी उपलब्धियों की बात न भी करें तो भी यह फिल्म उन्हें विश्व के महान फिल्मकारों में अग्रणी पंक्ति में शामिल करने के लिए काफी थी, जिनके बारे अकिरो कुरोसोवा ने कहा था– ‘सत्यजीत राय की फिल्मों के बारे न जानने का मतलब सूरज और चाँद विहीन दुनिया में रहना है'..

इस फिल्म में रोज़मर्रा के कई दृश्य हैं, जिनमें करुणा, मानवीयता, दुख का बिना प्रतिकार और दुर्भावना के गरिमापूर्वक सामना और पात्रों के संघर्ष की अंतर्धारा है जो बिना अतिरंजित हुए दर्शकों को छू जाती है. हर दृश्य वस्तुतः एक कोलाज़ है जिसमें गहन संवेदना भरी लयात्मक कथा जीवंत हैजिसमें हर पात्र अपनी जगह अपनी स्थितियों से जूझता है, जीवन में आशा ढूंढता है उसे जीने लायक बनाता चलता है. सुख और आशा बार बार दुख के पर्दों के पार से अपनी चमक दिखाते हैं और दुख, सुख के रास्तों पर अक्सर घात लगाए बैठा होता है और इन सबसे परे मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष और अपनी परिस्थितियों के परे जाकर फिर से जीने की कोशिश एक महागाथा बुनती है.  चाहे वे हरिहर हों जो अपनी कविताओं में आशा तलाशते हैं या सर्बोजया जो बनारस जाकर बेहतर ज़िंदगी ढूँढना चाहती है चाहे वह इंदिर ठाकुरान हो जो दुर्गा पर अपने स्नेह लुटाती है और रोज़मर्रा के झगड़ों से तंग आकर घर छोड़ जाती है पर अपू के जन्म की खबर पाकर हुलसती हुई घर वापस लौट आती है. या दुर्गा, जो ग़रीबी और अभाव में कई अपमान झेलती है फिर भी सहज होकर अपनी वय की लड़कियों की तरह भविष्य के सपने सजाती है, सारे अभावों को खेल कूद और शैतानी में भूलती रहती है या फिर नन्हा अपू जो दुर्गा दीदी का भक्त है और उसके पीछे साए की तरह घूमता रहता है.  उनका प्रिय खेल है कास के फूलों से लहलहाते जंगलों के बीच छुपकर दूर जा रही भाप वाली रेलगाड़ी को देखना. कितनी बालसुलभ कल्पनाओं को अपने में समेटे वह रेल रोज उनके गाँव के करीब से गुज़रती है जिसपर सवार कितने ही सपने दुर्गा और अपु के अभावग्रस्त बचपन की भरपाई करते हैं. शुरूआती दृश्यों में वह उस जीवन का बिम्ब है जो अभी उनकी पहुँच से परे है..

ग़रीबी हर दृश्य में उभरकर सामने आती है पर उसके साथ ही सामने आता है जीवन के प्रति गहरा विश्वास. इंदिर ठकुरान की मौत दुर्गा और अपू का मृत्यु से प्रथम साक्षात्कार है. इसका फ़िल्मांकन राय ने बड़ी ही संवेदनशीलता से किया है. सर्बोजया से नाराज़ हो इंदिर ठाकुरान गाँव के पोखर के पास बनी बांसवाडी में आ बैठती है और भूखी मर जाती है, उसके खाने का बर्तन पोखर के तालाब में डूबता उतराता नज़र आता है और उसके चेहरे पर मक्खियाँ नज़र आती हैं. पार्श्व में वैष्णव भजन की आवाज़ आती है जो इंदिर ठकुरान अक्सर अपू को सुलाते हुए गाया करती थी. छोटी सी मटकी  के गाँव के पोखर में डूबने उतराने का दृश्य कुछ सेकेंड्स का है पर गहरा प्रभाव छोड़ता है. चाहे वे मिठाई बेचनेवाले पाठशाला के मास्टर हों  या उनसे छुपकर कोई खेल खेलते बच्चे, गाँव में आने वाली जात्रा (बंगाल के लोक नाटक) का विवरण सुनाता कोई आगंतुक जो सरसों का थोड़ा तेल मुफ़्त में मास्टर से ले जाता है और मास्टर जी उसका गुस्सा बच्चो की हथेली पर डंडा बरसा कर निकालते हैं. राय ने ऐसे कई दृश्य इतनी संवेदनशीलता से फिल्माएँ हैं कि वे बरसों बाद भी स्मृति का हिस्सा बने रहते हैं.

ग़रीबी और अवसर की तलाश हरिहर को घर छोड़ने पर मज़बूर करती है और वह परिवार को गाँव में छोड़कर सार्थक जीवन यापन के बंदोबस्त में परदेस जाता है. इसी बीच बारिश में भीगने से दुर्गा को निमोनिया हो जाता है. बीमार दुर्गा को देखने आया डॉक्टर दुर्गा की जीभ देखता है तो दुर्गा मुस्कुराती है, वह अपू से कहती है - "ए बार ज्वोर छाडले एक बार रेलगाड़ी देखते जाबो" ( इस बार जब बुखार उतरेगा तो रेलगाड़ी देखने जाएँगे )अपू जवाब में कहता है - जाबी तो? (जाओगी ना?). उसे आने वाली मृत्य की आहट अभी नहीं सुनाई दे रही. उस रात घर तेज़ बारिश में ढह जाता है और समुचित इलाज़ के अभाव में दुर्गा की भी मृत्यु हो जाती है, एक सहज सुंदर जीवन का, जिसमें भविष्य के लिए छोटी छोटी आशाएं थीं, बिना किसी कारण अंत हो जाता है. दुर्गा जो प्रकृति के उत्सव में सब कुछ भूल कर उसका हिस्सा हो जाना चाहती थी, उससे एकरंग हो जाना चाहती थी वह असमय प्रकृति की क्रूरता और गरीबी का शिकार हो जाती है.

इस दृश्य में राय मृत्यु के पूर्वाभास को दिए के काँपने और थरथराने से दिखाते हैं. और तेज़ हवा से हिलते डुलते हुए घर के दरवाजे मृत्यु की पूर्व सूचना की तरह दिखाई देते हैं. दुर्गा की बीमारी के दृश्यों में कैमरा उसकी बंद आँखों पर केंद्रित होता है और बीतते समय को आँखों के पास बढ़ते काले धब्बों से दर्शित करता है, शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं होती और असमय मृत्यु की ओर जाती वे आँखें एक सुंदर जीवन के निकट अवसान का चित्र प्रस्तुत करती हैं. कुछ क्षणों के इस दृश्य में फिल्म अपना रस और स्वर पूरी तरह बदल देती है पर राय अपनी सधी हुई शैली के कारण कथा और दर्शकों के बीच कहीं नज़र नहीं आते. यह दर्शकों और कथा के बीच निजी आलाप के क्षण में तब्दील हो जाती है.

दुर्गा की मौत अपू के अब तक के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सच्चाई है, वह एकाएक अकेला हो गया है. इस अकेलेपन का सामना वह बड़ी ही गरिमा से करता है. वह माँ की तरह शोक स्तब्ध नहीं, वह अपने रोज़मर्रा के जीवन में वापस लौटने की कोशिश करता है, उसने बालसुलभ जिद छोड़ दी हैखुद तालाब में नहा कर आता  है, अपने बालों को कंघी करता है और खुद ही स्कूल चला जाता है. बस इस बार स्कूल के रास्तों पर वह अकेला है और बारिश से खुद को बचाने के लिए छाता ले जाना उसकी ही ज़िम्मेदारी है. उसने जीवन में दुख और दुख के स्वीकार को पूरी समग्रता और गहनता से पहली बार जाना है. सहज सा यह दृश्य अपनी पूरी भव्यता से जीवन की निरंतरता, लाइफ गोज़ ऑन का प्रतीक बन जाता है.

हरिहर अपने परिवार के साथ गाँव छोड़ देता है. कैमरे की दृष्टि से बारामदा  सूना नज़र आता है और घर के आँगन में दूसरे ही दिन साँप रेंगते दिख जाते हैं. गाँव छोड़ने के दिन अपू को दुर्गा की चुराई हुई माला मिलती है जिसकी वजह से दुर्गा ने माँ से मार खाई थी और अपू के पूछने पर उसे भी नहीं बताया था. अपू उसे तालाब में फेंक देता है. इतनी गरिमा से मृत दुर्गा के झूठ की रक्षा करते हुए अपू अपनी उम्र से कहीं बड़ा नज़र आता है. माला धीरे-धीरे तालाब में डूबती है और शैवाल उसे ढँक लेते हैं.

दुर्गा की स्मृति उस परिवार और गाँव के मानस में इसी तरह रहेगी, तालाब के तल पर बैठी उस माला की तरह और ऊपर तैरते शैवाल उसके छोटे से बालसुलभ झूठ की गरिमापूर्वक रक्षा करेंगे.

फिल्म का अंतिम दृश्य बचे हुए परिवार को बैलगाड़ी में बैठकर गाँव छोड़ने का है, जिसमें हरिहर, सर्बोजया और अपू तीनो पात्रों के चेहरे दुख का विभिन्न तरीके से चित्रण है. वे उस गाँव को हमेशा के लिए छोड़कर जा रहे हैं जहाँ उन्होने संघर्ष देखा, ग़रीबी देखी मृत्यु देखी पर आशा नहीं छोड़ी और वही आशा अब उसें उनके पैतृक गाँव से दूर लिए जा रही है. दुख हर किसी के चहरे पर अलग अलग भाव लेकर आता है और फिल्म समाप्त हो जाती है.

नैपथ्य से अब भी रेल की आवाज़ आती है पर इस बार वह प्रत्याशा नहीं दुखद विदा और अनिश्चित भविष्य का प्रतीक बनकर उभरती है.

इस फिल्म के सारे कलाकार (सिर्फ़ बुआ इंदिर ठाकुरान) को छोड़कर शौकिया  थे.  उन्हें कैमरे के सामने अभिनय का कोई अनुभव नहीं था. बुआ श्रीमती चुन्नी बाला  देवी जो करीब ८० वर्ष की थीं, उस फिल्म की एकमात्र कलाकार थीं जिन्हें कैमरे के सामने अभिनय का अनुभव था. हरिहर(पिता) के रूप में कानू बैनर्जी, सर्बोजया (माँ) के रूप में करुणा बैनर्जी, उमा दासगुप्ता ने दुर्गा  और  बचपन के अपू की भूमिका  में पिनाकी सेन गुप्ता  ने शानदार अभिनय किया. 

फिल्म में संगीत पंडित रविशंकरकैमरा संचालन (सिनेमैटोग्राफी) सुब्रोतो मित्रा, और संपादन दुलाल दत्ता का था.

राय पश्चिम की नियो रियलिज़्म फिल्म निर्माण की शैली से प्रभावित थे. इस शैली में अधिकतर शौकिया कलाकार अभिनय करते हैं, फिल्में कहानी के वातावरण के लिए समुचित लोकेशन पर शूट की जाती हैं, और इसमें करीब करीब डॉक्युमेंटरी जैसी सिनिमॅटिक भाषा का प्रयोग होता है. इस प्रभाव के लिए उन्हें निश्चित ही  ऐसे सिनेमेटोग्राफर की ज़रूरत थी जो गाँव में उपलब्ध प्रकाश के साथ शूट करने में सक्षम हो. करीब करीब सभी सिनेमेटोग्राफर इसे मुश्किल बता रहे थे सिवा सुब्रोतो मित्रा के. सुब्रोतो को वे रोनुवा की फिल्म 'द रिवर'की कलकत्ता शूटिंग के दिनों से जानते थे पर सुब्रोतो मित्रा को फिल्म कैमेरे के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था. उस समय तक वे स्टिल फोटोग्राफी ही करते थे. राय ने मशहूर फोटोग्राफर हेनरी कार्टिया ब्रेसों जो सामान्य जीवन में उपलब्ध लाइट में काम करने के लिए प्रसिद्ध थे और जिनकी ‘स्ट्रीट फोटोग्राफी’ ने नए तरह की फोटोग्राफी के कीर्तिमान स्थापित किए थेके खींचे गए चित्र सुब्रोतो को दिखाकर कहा कि उन्हें ऐसा ही प्रभाव चाहिए पाथेर पांचाली की सिनेमाटोग्राफी के लिए. 21बरस के सुब्रोतो मित्रा ने बाउन्स लाइटिंग की मदद से हर दृश्य को ऐसा ही प्रभाव दिया. ‘पाथेर पांचाली’ श्वेत श्याम फिल्म थी और इसका हर दृश्य एक खूबसूरत पेंटिंग या फोटोग्राफी की मिसाल है. इसकी सिनेमैटोग्राफी में वही लयात्मकता उभरकर सामने आई जो मूल उपन्यास में राय ने महसूस की थी.  जिस बाउन्स लाइटिंग का प्रयोग आज इतना प्रचलित है वह पहली बार इसी फिल्म में सुब्रोतो मित्रा और सत्यजीत राय के कई प्रयोगों के बाद की उपलब्धि थी. इस कैमरा तकनीक में रोशनी को छत या दीवार के माध्यम से परावर्तित कर दृश्यों और पात्रों पर आने दिया जाता है. जिससे पात्रों के चेहरे, भंगिमा और देह रेखाएँ अधिक स्वाभाविक और गीतात्मक होकर उभरती हैं. इनडोर शूटिंग के सारे दृश्य इसी तरह फिल्माए गए और आउटडोर शूट दिन के प्रकाश में की गई. सुब्रोतो मित्रा बाद में देश के सबसे अच्छे सिनेमैटोग्राफेरों में गिने गए.

राय जब पाथेर पांचाली के संगीत के लिए पंडित रविशंकर से कलकत्ता में मिले तो पंडित जी ने कोई लोक धुन गुनगुनाई जो बाद में फिल्म का थीम सॉन्ग बनी. यह एक सामान्य सी लोक धुन थी पर जिसमें उस समय का ग्रामीण बंगाल बेहद खूबसूरती से प्रतिध्वनित हुआ. तबला, सितार और अंत में बाँसुरी से सजी यह धुन बड़ी सहजता से सुनने वालों को धान के उन हरे भरे खेतों, बाँस के घने वनों और गाँवों- के बीच बने पोखर तालाबों की याद दिला सकती है, इस धुन में हर ग्रामीण समाज की सरलता प्रतिध्वनित हुई जो देश और संस्कृति की सीमाएँ लाँघकर अमेरिकी और योरोपीय देशों में भी उतनी ही लोकप्रिय हुई. यह स्मृति में रह जाने वाली धुन थी.

गौरतलब है कि राय में भारतीय और पाश्चात्य दोनो शैली के संगीत का गहन प्रभाव था पर किस संगीत या वाद्य को किस तरह फिल्मों में लाना है यह उनसे बेहतर कम ही लोग जानते थे और हैं. मिसाल के तौर पर वे कहते थे – ‘हमारी जीवन शैली, रहन सहन और खानपान, कुछ भी अब पाश्चात्य प्रभाव से अछूता नहीं रहा, इसलिए अगर समकालीन विषयों पर फिल्म बने और उसके संगीत में सिर्फ़ भारतीय प्रभाव दिखे तो यह सही नहीं होगा’. इस कथन के परिप्रेक्ष्य में 'पाथेर पांचाली'और उनकी आनेवाली सभी फिल्मों का संगीत पूरी तरह खरा उतरता है. पाथेर पांचाली के संगीत में तबला, सितार और बाँसुरी के छोटे छोटे टुकड़े बजते हैं जो उन दृश्यों की अंतर्धारा हैं और दृश्यों को मायने देते चलते हैं  जो बात शब्दों में नहीं व्यक्त हुई वह संगीत से व्यक्त हुई.
पंडित रविशंकर कई बार दृश्यों के लिए राय की 15या 25सेकेंड की माँग से परेशान हो जाते थे. पंडित जी फिल्मों में संगीत देने के अभ्यस्त नहीं थे, वे अपना संगीत घंटों के हिसाब से बजाने के, उसके अलाप विस्तार और पारंपरिक चलन के तरीके से बजाने के आदी थे. वे कहते ‘मैं तीन मिनट का एक टुकड़ा आपको दे सकता हूँ, पर कुछ सेकेंड्स के लिए बजाना मेरे बस की बात नहीं’. ऐसी स्थिति में राय संगीत की एडिटिंग करके उसे दृश्यों के हिसाब से उपयुक्त बना लेते. यहाँ उनकी संगीत की समझ काम आती थी और बाद में तो उन्होंने अपनी कई  फिल्मों का संगीत भी खुद ही दिया ! हरफ़नमौला राय के व्यक्तित्व का यह बड़ा ही रोचक पहलू था.

पाथेर पांचाली (१९५५) जब पहली बार 'कान फिल्म समारोह में प्रदर्शित की गई तो मशहूर फ़्रांसिसी फिल्म निर्माता, अभिनेता और फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा  के अग्रणी फ्रन्कोइस ट्रूफ्फ़ांट यह कहते हुए सिनेमा हाल से निकल गए कि वे 'किसानों को हाथ से खाते हुए नहीं देखना चाहते'. न्यूयार्क की टाइम्स मैगज़ीन के कला समीक्षक बोस्ले काउदर ने इसे 'आकर्षक'फिल्म कहा और कहा राय फिल्में बनाना नहीं जानते. ये दोनो पहली बार ऐसी कोई फिल्म देख रहे थे, जैसी इसके पहले उन्होने नहीं देखी थी. इनकी ऐसी राय के बावजूद 'पाथेर पांचाली (१९५५), ने राय को विश्व सिनेमा के इतिहास में अगली पंक्ति के फिल्मकारों में ला बिठाया. यह विश्व सिनेमा उत्कृष्टतम फिल्मों में गिनी जाती है और इसने अलग अलग श्रेणियों में ११ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते.
राय अपने पीछे फिल्मों के बारे ऐसी सोच ऐसी दृष्टि छोड़ गए कि भारतीय और विदेशी दोनो ही फिल्मकार उनके सिनेमा से आज भी दृष्टि पाते हैं. श्याम बेनेगल, रितुपर्णो घोष, गौतम घोष और अगर विदेशी फिल्मकारों की बात करें तो माइक ली, मार्टिन स्कोरसेस्स, वेस एनडरसन ('द दार्जलिंग अनलिमिटेड'फिल्म उन्होने राय को सपर्पित की थी).  टेरेन्स मलिक जैसे फिल्मकार आज जैसी सिनिमॅटिक भाषा  अपनी फिल्मों के बोलते दिखाई पड़ते हैं वह राय ने दशकों पहले अपनी फिल्मों में सीमित साधनों के माध्यम से कर दिखाया था. फिल्मों से जुडा उनका लेखन वृहत और  बेमिसाल है जिसमें फिल्म निर्माण के हर पहलू की उन्होने खुलकर चर्चा की है.

सत्यजीत राय  विश्व सिनेमा में उन लोगों में हमेशा शुमार किए जाएँगे जिन्होने सिनेमा को पुनः परिभाषित किया, इसे ज़्यादा मानवीय स्वर, भाषा और विषय प्रदान किये.

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उपनिवेश में महामारी और स्त्रियाँ : सुजीत कुमार सिंह

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(Female patient recovering from bubonic plague)













आज सम्प्रभु भारत कोरोना महामारी से जूझ रहा है, अंग्रेजी राज में जब प्लेग,हैजा, मलेरिया आदि महामारियाँ फैलतीं थीं तब तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की क्या भूमिका होती थी ? रचनाकार किस तरह से इसे देखते थे ? औपनिवेशिक शासन से उनकी क्या अपेक्षाएं थीं. ख़ासकर स्त्रियाँ इनसे कैसे लड़ रहीं थीं ? हिन्दू मुसलमान तब भी होता था आज भी है. उस समय अंधविश्वास था आज अफवाहें हैं. सुधार और वैज्ञानिक सोच की कोशिशें शुरू हो गयीं थीं.


लगभग एक दशक बाद आज यह सब देखना दिलचस्प तो है ही आँखें खोलने वाला भी है. सुजीत कुमार सिंह ने तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं को खंगाला है और उस समय की स्थिति पर यह शोध आलेख लिखा है. 
प्रस्तुत है.





       उपनिवेश में महामारी और स्त्रियाँ            
सुजीत कुमार सिंह 







पनिवेशिक भारत में स्त्रियों की समस्याओं की कई कोटियाँ थीं. इन समस्याओं को पितृसत्ता अपनी संकल्पनाओं के साथ दूर करने में लगा हुआ था तो स्त्रियाँ पितृ-व्यवस्था से लड़ते हुए एक ‘सुंदर दुनिया’ रचने में लगी हुयी थीं. जहाँ हिंदी प्रदेश में गोपाल देवीसुरथकुमारी देवीरामेश्वरी नेहरूशारदाकुमारी देवीयशोदा देवी अपने पत्रों के माध्यम से स्त्रियों को जागरूक कर रही थीं वहीँ पंजाब प्रांत में यही कार्य हरदेवीहेमंतकुमारी चौधुरानीसावित्री देवीमोहिनी बीए आदि कर रही थीं.

इक्कीसवीं सदी विज्ञान और तकनीकी का युग है. आज तरह-तरह के शोध और आविष्कार हो रहे हैं. अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोरोना पर भी वैक्सीन ईजाद कर लिया है. यह हम उन्नीसवीं या बीसवीं सदी के आरम्भ में सोच ही नहीं सकते थे. प्लेगमलेरियाहैज़ाइन्फ्लुएंजा जैसी महामारियों से दुनिया जूझती थी और वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे रह जाते थे. 

औपनिवेशिक भारत में रोगों का इलाज़ पारंपरिक तरीके से होता था. यह जानना मजेदार है कि हिंदी पट्टी में बीमारियों के नाम पर अज्ञानता का साम्राज्य था. अधिकांश वैद्य ब्राह्मण समुदाय से होते थे. वे मंत्रों द्वारा रोगियों का इलाज़ करते थे और जनता को ख़ूब ठगते थे. हैज़ा से बचने के लिए ‘महारामायण : विशूचिका आख्यान’ और बुख़ार को खत्म करने के लिए ‘ज्वर स्तोत्र’ जैसी पुस्तिकाएं लिखी गयीं.
(हेमंतकुमारी चौधुरानी)

‘चंद्रप्रभा’  जैसी पत्रिकाओं में मलेरिया-मंत्र भी मिलते हैं. भारतेंदु हैज़े से बचने के लिए जंतर पहनने को कारगर मानते थे. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘प्लेगस्तवराज’ की आरम्भिक और अंतिम पंक्तियाँ संस्कृत में लिखीं. बम्बई के प्रसिद्ध डाक्टर गोपीनाथ कृष्णजी की दवाईओं का एक विज्ञापन देखने से पता चलता है कि उनके पास बुखारबवासीरसुज़ाकसफ़ेद कोढ़हैज़े की दवाइयां उपलब्ध हैं लेकिन प्लेग-मलेरिया की नहीं. (अबलाहितकारकमार्च 1902अंक 11 : वर्ष 1).

देश और समाज की चिंता करने वाले बुद्धिजीवी जनता को सही तथ्यों से अवगत कराने के साथ ही महामारी सम्बन्धी अनेक भ्रमों से भी बचाते थे. वे भारतेंदु की तरह सलाह देने से बचते थे. ‘प्लेग से बचने के उपाय’ शीर्षक एक टिप्पणी में बिजनौर के श्रोत्रिय शंकरलाल बताते हैं कि नीम के पत्तों को जलाने से ताऊन नहीं होता. अपने गाँव का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं :

“मेरे गाँव में सन् 1900 में प्लेग आरम्भ हुआ और लगभग सौ मनुष्य मरे तब गाँव वालों ने अपने अपने घरों के कोने में बहुत कर के नीम के पत्तों को जलाना प्रारम्भ कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि प्लेग वहां से दूर हो गया. जिन घरों में प्लेग हुआ था उन के दरवाज़ों और ज़मीन पर भी नीम की डालियाँ लटकाईं गईं. यह अवश्य ध्यान देने योग्य है क्योंकि इसको निर्धन मनुष्य भी कर सक्ते हैं.’’
(अबलाहितकारकमार्च 1905अंक 1 : वर्ष 2).

आगे ‘राजपूताना अखबार’  में छपे एक नुस्ख़े को उद्धृत कर निर्धन मनुष्यों को प्लेग से बचने का एक और उपाय वे बताते हैं :

“ताज़ा और मुलायम नीम के पत्ते डेढ़ पाव पीस कर और एक बोतल पानी मिलाकर ठंढाई की तरह तैयार कर लें और घंटे घंटे बाद पिलायें जब तक कि बुखार कम न हो जावे. गिलटी पर जोंक लगवा कर नीम का भुरता बांधे. अगर जोंक न लगा सके तो लहसुन पीस कर उसकी टिकिया बना कर गिल्टी पर लगावे. एक घंटे बाद लहसुन की टिकिया उतार कर फिर नीम का भुरता बांधे. भुरते को आध आध घंटे में बदलते रहै हवा न लगने पावे. जब गिल्टी कम रहे तो टिंकचर आईडिंग का फाहा लगावे. ताऊन के दिनों में जो नीम की ताजी तीन पत्तियां रोज खाई जावें तो उन लोगों पर ताऊन का असर न होगा.”

इतना लम्बा उद्धरण यहाँ इसलिए कि श्रोत्रिय शंकरलाल आम जनता को नीम-हकीमों और भारतेंदु जैसों से बचा रहे थे. दरअसल ताऊन कैसे फैलता है– इसके बारे में लोग कम जानते थे. शंकरलाल ने ‘चूहों की जूं से ताऊन होता है’ शीर्षक लेख में विस्तार से प्लेग के बारे में बताया है. मद्रास के सेनीटरी कमिश्नर ने अपने एक व्याख्यान में बताया कि “तारकोल में गन्धक मिलाकर चुहों के सुराख में छोड़ दिया जाय उसकी बू से चूहे भाग जाते हैं यह मैंने परीक्षा की है.” 
(अबलाहितकारकजुलाई 1903अंक 3 : वर्ष 2). 

बिहार गवर्नमेंट के सेनिटरी कमिश्नर ने नीम की पत्तियों का प्रयोग करने का सुझाव दिया. गदाधर प्रसाद ने ‘चूहेनामा’ (स्त्री-दर्पणदिसंबर 1910)कविता में चूहों को भगाने का चित्रण किया है.        
                                    
औपनिवेशिक भारत में महामारियों के कहर को पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. 1911 की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि महामारियां देश की आबादी में कमी का कारण होती थीं. श्रोत्रिय शंकरलाल ने प्लेग सम्बन्धी अपने लेखों में एक जगह लिखा है कि ‘प्लेग से प्रलय का भय’ है.

शंकरलाल ‘बाल विधवा प्रचारिणी सभाबिजनौर’के प्रधान थे. विधवा-विवाह के पक्ष में उन्होंने ‘अबलाहितकारक’ नामक एक क्रांतिकारी पत्र निकाला था. वे दलील दिया करते थे कि विधवाओं की दयनीय स्थिति के कारण ही भारत में महामारियां आती हैं. बम्बई के एक चालीस वर्षीय कोढ़ी काठियावाड़ी ब्राह्मण ने एक तेरह वर्षीया कन्या के माँ-बाप को पाँच सौ रुपये देकर कन्या से विवाह कर लिया. कोढ़ी के हाथों एक कन्या का बेचा जाना शंकरलाल को रुला गया. उन्होंने लिखा:

“इन्हीं घोर पापों से तो प्रतिदिन ताऊन भोंचाल आदि शिर पर बने रहते हैं कि जिनमें लाखों हिन्दुस्तानी बेमौत मरते हैं.”
(अबलाहितकारकजून 1905अंक 6 : वर्ष 4).

श्रोत्रिय शंकरलाल ने 1897 से 1903 ई. तक भारत में प्लेग से मरने वालों का एक आंकड़ा दिया है: 

    सन्           प्लेग से मरने वालों  की संख्या                 
      1897             56000
      1898            187000
      1899            135000
      1900            193000
      1901            274000
      1902            577000

1903 ई. के जनवरीफरवरीमार्च माह में प्लेग से 331000 लोग मरे. पंजाब प्रांत में मरने वालों की संख्या सर्वाधिक थी. आंकड़ा देने के बाद वे लिखते हैं :

“जब तक हम लोग उस दयालू न्यायकारी सर्वपालक पिता से डर कर अनाथ और बिधवाओं के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तब तक कभी सुख और शान्ति के भागी नहीं बन सकते.”
(अबलाहितकारकमई 1903अंक 1 : वर्ष 2).

कम होती हिन्दू जनसंख्या की तरफ़ इशारा करते हुए शंकरलाल हिन्दुओं से निवेदन करते हैं कि वे विधवा-विवाह के लिए आगे आएं. गणितीय शैली में समझाते हुए कहते हैं :

“यदि प्लेग हमारे देश में बना ही रहा और ऐसे ही मृत्यु हरसाल होती रही विधवा विवाह प्रचलित न हुवा और पैदायश घटती गई क्योंकि यदि एक स्त्री अपनी जिन्दगी भर मेंकम से कम 10 बच्चे उत्पन्न करती तो विधवा हो जाने से वह वैसे ही रह जाती हैऐसी हालत में पैदायश प्रतिवर्ष घटती ही जाती है तब अवश्य एक न एक दिन थोड़े ही वर्षों में इस देश की क्या दशा होगी कितने पुरुष इस महा विकराल रूपी प्लेग के पंजे से जीवित रहेंगे बुद्धिमान पुरुष स्वयं विचार लें.”

इन तर्कों से हिन्दू सुधारक कहाँ तक प्रभावित हुएयह शोध का विषय है.

शिक्षा का घोर अभावपरदा-प्रथा आदि कारणों से स्त्रियाँ महामारियों में पीस जाती थीं. लाहौर से प्रकाशित होने वाली ‘चान्द’पत्रिका में संपादिका मोहिनी बीए ने 1911 ई. में आज़मगढ़ में फैले प्लेग पर एक ‘नोट्स’लिखा है. वह नोट्स मैं यहाँ हू-ब-हू दे रहा हूँ ताकि परदे से होने वाली हानियों को एक अन्य नज़रिए से भी समझा जा सके -

“संयुक्त प्रान्त के जिला आज़मगढ़ में इस साल प्लेग का बड़ा जोर रहा. लोग अपने आराम के मकान छोड़ छोड़ कर जंगलों में ख़ेमे और टटयां लगा कर मुसीबत में पड़े हुए हैं. मार्च के महीने में वहां गरमी भी ज़्यादा पड़ने लग पड़ती है और किसी किसी वक्त आंय्यां भी चलती हैं. इसी फ़िस्म की फूंस की टटयों में जो एक दूसरे से लगी हुई थीं चार खानदान के लोग ठहरे हुए थे जिन में से एक शेख़ तफजुल हुसैन साहिब वकील आज़मगढ़ थे. वकील साहिब कचहरी में थे कि दिन बारह बजे इन टटयो में आग लगी. एक शोर सा मिच गया. कुवां कोई क़रीब न था बसती भी दूर थी. देखते के देखते आग के शोले आसमान को पौंहचे. कई टटयों में से औरतें चादरें ओढ़ ओढ़ कर निकल आई और इधर उधर चली गईं. मगर वकील साहिब की टट्टी में से जिसमें आठ ओरतें थीं सिर्फ़ एक लड़की और दो बच्चे निकल के भागेबाकी छै औरतें अन्दर रहीं. उन में से बाज़ की गोदों में बच्चे भी थे. वह बेचारयां गोद में बच्चों को लिए हुए निकलने के लिए दरवाज़े की तरफ़ आती थीं और मरदों का सामना पाकर फिर उसी आग की तरफ उलटी चली जाती थीं. लोग आवाज़ें दे रहे थे कि बाहर भाग आओ मगर यह नहीं सोचते थे कि हम सामने खड़े हैं और इस लिए वह बाहर निकलने से झिझकती हैं. सुना है कि मर्द शायद हटे भी और औरतें निकलने का ख्याल कर ही रही थीं कि एक जलती हुई मोटी कड़ी ऊपर से गिरी और उस ने इन सब को एक दम में जला दिया. अफ़सोस.

हमे ज़्यादा अफ़सोस इस बात का है कि बाज़ अख़बारों ने उन के इस परदे की तारीफ़ की और इन औरतों के चलन को आदर्श ठहराया. आग लगे ऐसे परदे को जिस से भोले भाले बच्चों और शरीफ़ घराने की औरतों की जान जाए. बहनें यह न समझें कि परदे की इस क़िस्म की खराबयाँ मुसलमानों में ही होती हैं. हमने सुना है कि बाज़ हिन्दू बहनें भी इसी तरह घर की ऐसी ही झूटी लाज रखने के लिए दुन्या से चल बसी हैं.”
(चान्दमई 1911भाग 3 : नम्बर 3).

यहाँ मोहिनी बीए ने परदा-प्रथा का विरोध किया है. यह उस दौर की भयंकर बुराईयों में से एक थी लेकिन अंग्रेजी शिक्षा के चलते इस पर करारा प्रहार भी किया जा रहा था :

“सिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाई नाहीं देत्यो
सैया फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो
लहंगा दुपट्टा नीक न लागे
मेमन का गौन मंगाय नाहीं देत्यो?”
           
             
घर छोड़कर भागने में अभिजात स्त्रियों के सामने तमाम तरह के सामाजिक संकट खड़े हो जाते थे. उन्हें अपनी पूरी गृहस्थी छोड़कर आना पड़ता था और सदैव मृत्यु तथा अराज़क तत्वों का भय बना रहता था. 1905 ई. बिजनौर शहर में जब प्लेग फैला तो वहां के लोग भी भाग कर मैदान की शरण लिए. श्रोत्रिय शंकरलाल लिखते हैं :

“अब यहाँ भी प्लेग शुरू हो गया यद्यपि दो चार ही मृत्यु होती है परन्तु घबराहट बहुत है और विशेषकर हिन्दुओं में जिनका यह विश्वास है कि मृत्यु के बिना भी पुरुष मर जाता है इस कारण वह प्लेग से मरे हुवे पुरुष के पास तक नहीं जाते परन्तु मुसलमानों में इसके बिल्कुल विरुद्ध देखाएक ताऊन से मरे हुवे मुर्दे के जनाजे के पास सैकड़ों मुसलमान नमाज़ पढ़ रहे थे इन्हीं बातों से तो इनमें हमदर्दी है क्या हिन्दू भी कभी इनसे हमदर्दी का सबक सीखेंगे.”  आगे लिखते हैं:

“यहाँ के कई प्रतिष्ठित पुरुषों ने मकान में मरा चूहा निकलने के कारण प्लेग के भय से अपना अपना मकान छोड़ कर मैदान में डेरा किया हैइसी से शहर में अधिक घबराहट फैलकर लोग भाग रहे हैं ईश्वर कुशल करेकहीं मैदान में रहने वालों की झोपड़ी में भी चूहा न मरे नहीं तो वहां से भी भागने का कष्ट उठाना पड़ेगा.”
(अबलाहितकारकमार्च 1905अंक 1 : वर्ष 2).  
                  
           
मथुरा के महेन्द्रलाल शर्मा ‘स्त्रियां और प्लेग’ शीर्षक लेख में बताते हैं कि प्लेग से पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक मरती हैं क्योंकि घरों में मरे हुए चूहों को पहले स्त्रियां ही देखती हैं और मरे हुए चूहों कोबिना किसी से बतायेघर के बाहर फेंक आती हैं. महेंद्र जी के अनुसार-

“फल यह होता है कि स्त्रियां एकदम बीमार हो जाती हैं. उन की जांघ में जो गिलटी निकलती है अथवा बगल में उठती है उसे वे पुरुषों को देखनेसेकने अथवा चीरने नहीं देतीं.”
(स्त्री-दर्पणजुलाई 1910भाग 3 : अंक 1).

महेन्द्रलाल शर्मा स्त्रियों को सावधान करते हैं कि जब घर में चूहे मरें तो घर में आना-जाना बंद कर दें. हाथों में पहले मिट्टी का तेल लगाकर चूहों को बाहर फेंकें और चूहों के ऊपर मिट्टी का तेल डालकर जला दें. घर में ओढ़ने-बिछाने व पहनने के जो भी कपड़े होंउन्हें धूप में डालें. उनका सबसे महत्त्वपूर्ण सुझाव यह है कि जब प्लेग फैले तो घर छोड़कर स्त्रियों को झोपड़ी या डेरों में रहना चाहिए.



(दो)
आज से सौ साल पहले आई स्पैनिश फ्लू के आतंक को भी नवजागरणकालीन संपादकों ने अपनी पत्रिकाओं में दर्ज़ किया है. ‘स्त्री-दर्पण’ की संपादिका रामेश्वरी देवी नेहरू ‘श्लेष्माज्वरसमरज्वरइनफ्लूएनज़ा’ शीर्षक सम्पादकीय में फ्लू का पूरा इतिहास बताने का प्रयास करती हैं. वह लिखती हैं-

“हमारी पाठिकाएं अब इन नामों से भली प्रकार जानकार हो गयी होंगी. जिस भयंकर ज्वर रोग से भारत का नाश हो रहा हैअभी इस प्रांत में कुछ ही दिन पहले जिसने कराल लीला का महाप्रलय कर दिखाया थाऔर जो इस समय बंगाल में वही लीला खेलने लगा हैवही समरज्वरइनफ्लूएनज़ा आदि नामों से प्रसिद्ध हो गया है. पर इस रोग का निदान क्या हैइसका जन्म कहां और कैसे हुआसब लोग अभी संभवतः नहीं जानते होंगे. अच्छाउसी को सुनिए. योरप में एक मुल्क है स्पेन. उसकी राजधानी का नाम मैड्रिड है. मैड्रिड नगर में जर्मन लोगों ने एक बहुत बड़ा परीक्षा-मंदिर बनाया था. वहां विज्ञान जानने वाले पंडित लोग वैज्ञानिक चर्चा और परीक्षाएं किया करते थे. इन लोगों को न्यूमोनिया और इनफ्लूएनज़ा यानी श्लेष्माज्वर के बीज रखने वाले जीवानुओं यानी कीड़ों का आविष्कार करने के लिए आज्ञा मिली थी. ये जीवानु जब आविष्कृत हो गए तो उनको अमेरिका के जहाज़ी बन्दरों में छोड़ देने का प्रबंध होने लगा. यदि यह कार्य किया जा सकता तो अमरीकन जहाज़ों के मल्लाह और कर्मचारी लोग इस बीमारी से धड़ाधड़ बीमार हो हो कर मरने लगते और जहाज़ ले लेकर योरप में न आने पातेन आज अमेरिकन सेना के रणभूमि में आ धमकने के कारण जर्मनों की ऐसी बुरी तरह से अनायास हार हो सकती. पर हुआ कुछ और ही. विज्ञानबाज़ पंडितों में आपस ही में कुछ तकरार हो गयी और उस तकरार का फल यह हुआ कि ज्वर के जीवानु मैड्रिड नगर में ही फूट निकले. तब स्पेन राज्य भर में यह भयंकर ज्वर फ़ैल गया और वहीँ से समरभूमि में जा पहुंचा. वहां जो जो सिपाही बीमार होने लगेवे इसे अपने संग भारतवर्ष में ले आये. अब उन्हीं जर्मन पंडितों की पंडिताई भारतवर्ष के घर घर में रोना पीटना मचा रही है. कैसी अंधेर हो गयी! किसी ज्ञानी का कहना है कि असुरों का सा बलवान होना अच्छी बात हैपरन्तु उस बल से काम लेना उचित नहीं. यह कथन बहुत ठीक है. वह विद्या कैसी जो नाश करने वाली होविद्वान् ही हुए तो संसार का भला करो. परन्तु आज कल तो विद्वान् भी बहुधा अपना भला करने की युगत सोचते सोचते संसार को नाश करने के कारण बन जाते हैं.” 
(स्त्री-दर्पणजनवरी 1919भाग 20 : अंक 1).

यहाँ रामेश्वरी नेहरू ने यूरोप के ज्ञान पर सवाल उठाया है. विज्ञान के दुरूपयोग के चलते ही सम्पूर्ण विश्व आज संकट में है.

युद्ध पर रोक लगने के कारण फ्रांस ने बारह लाख सैनिकों को छुट्टी दे दी थी. भारतीय सैनिक लौटने लगे थे. भारत की हालत ख़राब होती जा रही थी. रामेश्वरी देवी नेहरू दुखी मन से लिखती हैं-  “इस समय भारत की दशा बहुत ही अनोखी हो रही है...रोगों के कारण यहाँ की प्रजा को अपार दुःख भोगने पड़ रहे हैं...रोग की ज्वाला दिन दिन बढ़ती जाती हैदवादारू और स्वास्थ्य वृद्धि के साधन भी दुर्लभ हो रहे हैं.” 
(स्त्री-दर्पणफरवरी 1919भाग 20 : अंक 2).

1918 ई. की ‘सफ़ाई महकमें की रिपोर्ट’ से पता चलता है कि इन्फ्लुएंजा और ज्वर से भारत में बत्तीस लाख मनुष्य काल के गाल में समा गए थे. उपनिवेश में महामारी से मरती हुई जनता को राम भरोसे छोड़ दिया जाता था. स्वास्थ्य-प्रबंधन के नाम पर खानापूर्ति की जाती थी. महामारी के आगमन की आशंका से सरकारी अफ़सर नागरिकों को सिर्फ़ सचेत कर देते थे कि

“मकान साफ़ रक्खोभीड़ में मत धँसोमेले ठेले में मत जाओनमक मिले हुए पानी से कुल्ले करोउसकी बतलाई हुयी दवाएं पानी में घोलकर उस पानी को नाक से सुड़को.”
(सरस्वतीसितम्बर 1919भाग 20 : संख्या 3).

दिसम्बर 1918 की ‘सरस्वती’ में एक लेख ‘खाँसी बुखार वाली मरी या इन्फ़्लूएन्ज़ा या मारवाड़ी ज्वर (Pendemic Influenza)’ शीर्षक से छपा है. मुझे इस शीर्षक को देखकर स्त्री-दर्पण का शीर्षक याद आया जिसमें मरी जैसे शब्दों से परहेज़ किया गया है. भारतीय मानस महामारियों को भूतपिशाचराक्षसअसुरसैय्यदजिन्नमरी आदि के रूप में ही देखने की आदी रही है. आजकल भारत में कोरोना के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.


(तीन)
चूँकि महामारियों से स्त्रियां ही ज्यादा मरती थीं तो यहाँ यह देखने की जरूरत है कि तमाम बीमारियों से लड़ने के लिए भारत की बौद्धिक औरतें क्या योजना बना रही थीं

पहली बात यह कि लड़कियों के लिए कोई मेडिकल कॉलेज नहीं था. वह मर्दों के कॉलेज में ही पढ़ती थीं. अत: दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज जब खुला तो स्त्री समाज ने खुशियाँ प्रकट कीं. दिल्ली के रईस सरदार नारायणसिंह बहादुर ने हार्डिंग कॉलेज को पच्चीस हज़ार रुपये इसलिए दिए ताकि सिख लड़कियां डाक्टरी की शिक्षा पा सकें.

यह सब अचानक नहीं हो गया. भारतीय महिलाएं इसके लिए जी-जान से लगी हुयी थीं. 1917 ई. में महिलाओं का एक प्रतिनिधि मंडल जब मान्टेगू से मिला तो उनसे विनम्र निवेदन किया गया कि भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जाय. 
(स्त्री-दर्पणदिसम्बर 1917भाग 10 : अंक 6).

मेडिकल कॉलेजों की संख्या क्यों बढ़ाई जायइसे हम मोहिनी बीए की निम्न  बातों से समझ सकते हैं. वह लिखती हैं :

“हिन्दोस्तान में आजकल लेडी डाक्टरों की बड़ी जरूरत है. विलायती मेम डाक्टर अव्वल तो हैं थोड़ी और जो हैं भी वह कुछ हमारी देशी बहनों के लिये इतनी मुफ़ीद नहींक्यूंकि न तो वह अच्छी तरह से हमारी ज़बान जानती हैंऔर न वह हमारी रसमों रिवाज़ से अच्छी तरह वाकिफ़ होती हैं और फिर देशी बीमारों की गौर कम करती हैं. कुछ परदे की वजह से और कुछ हिंदु बहिनों की स्वभाविक लज्जा के कारण हिन्दोस्तानी औरतें मर्द डाक्टरों से इलाज़ कराना मुनासिब नहीं समझतीं. और इसमें भी शक नहीं हो सकता कि बाज़ी बीमारियाँ ही ऐसी हैं जो एक स्त्री स्त्री को ही खुल कर बता सकती है.” 
(चान्दसितम्बर-अक्टूबर 1912भाग 4 : नम्बर 7-8).

विलायती डाक्टरनियों के बीच जब यह बहस छिड़ी कि भारत में डाक्टरनियों की कमी को पूरा करने के लिए विलायत से डाक्टरनियाँ बुलाई जायं तो मोहिनी बीए ने उनका पुरजोर विरोध किया और कहा कि इससे रुपया ज्यादा ख़र्च होगा. अत: यहाँ की औरतों को ही डाक्टरनियों का काम सिखाया जाय.

1909 ई. में आगरा मेडिकल कॉलेज (स्थापित : 1855 ई.) में जहाँ 270 लड़के पंजीकृत थे वहीँ लड़कियों की संख्या 68 थी. एक बार मेडिकल में प्रवेश पा जाने के बाद लड़कियाँ खूब परिश्रम करती थीं क्योंकि तत्कालीन समाज में यह माना जाता था कि गणित-विज्ञान जैसे विषयों में लड़कियां कमजोर होती हैं. उनका मस्तिष्क इन्हें झेल नहीं सकता. कस्बाई या ग्रामीण अभिभावक इन विषयों को तो स्कूल में पढ़ने ही नहीं देते थे. किन्तु शकुंतला जैसी लड़कियां पितृसत्ता की इस मानसिकता पर प्रहार भी कर रही थीं :

“मेडीकल स्कूल आगरा की अन्तिम डाक्टरी परीक्षा में शकुंतला नाम की छात्रा सब लड़कों व लड़कियों में प्रथम आईं हैं. इनके 1200 नम्बरों में 1166 आये हैं. लड़कों में जो प्रथम परीक्षोत्तीर्ण हुए हैं उनके 804 आये हैं. प्रथम नम्बर के छात्र से 362 नम्बर इनके अधिक हैं. क्या अब भी कोई कह सकते हैं कि विद्या-बुद्धि में स्त्रियां पुरुषों की समानता नहीं कर सकती!” 
(स्वदेश-बान्धववैशाख सं. 1976भाग 14 : संख्या 13).

यह स्त्रियों का दबाव ही था कि जालंधर स्थित कन्या महाविद्यालय की तरह अन्य कन्या गुरुकुलों में प्राथमिक चिकित्सा अनिवार्य कर दिया गया. इसे समाज सुधारकों ने भी जरूरी समझा था.
               

हेमंतकुमारी देवी चौधुरानी का सामाजिक और लेखन कार्य तत्कालीन सुधारकों से भिन्न रहा है. जब वह शिलांग में थीं तो वहाँ स्त्रियों की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था. अत: तमाम स्त्रियाँ बगैर चिकित्सा के ही मर जाती थीं. हेमंत दुखी होकर असम के चीफ़ कमिश्नर की पत्नी के पास जाकर उनसे अनुनय-विनय करती हैं. उनके पृथक महिला अस्पताल की मांग सुनकर स्थानीय डाक्टरों और अँगरेज़ अफसरों ने ज़बर्दस्त विरोध किया. सर हेनरी काटन ने उनके प्रस्ताव पर गहन सोच-विचार किया. अंतत: काटन ने एक लेडी डॉक्टर नियुक्त कर पृथक महिला अस्पताल खोलने की अनुमति दी.

हेमंतकुमारी ने पंजाब में स्त्री-शिक्षा के लिए ‘नारी-सभा’ की स्थापना की थी. इसके साथ ही “बीबी हरदेवी जी (जो अब मिसेस रोशनलाल हैं) के साथ मिलकर कायस्थ नारी जाति की उन्नति के लिए वनिता बुद्धि प्रकाशिनी सभा भी कायम की थी.”  हेमंत ने रतलाम से 1887 ई. में ‘सुगृहिणी’ नामक एक मासिक पत्रिका निकाला था. संभवतः किसी स्त्री द्वारा सम्पादित यह प्रथम हिंदी पत्रिका है.


निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक भारत के नागरिक अपने हौसले और ज़ज्बे से महामारियों से जूझ रहे थे. सरकार की नज़र में उनके प्राणों की कोई कीमत नहीं थी. ज्ञान-विज्ञान से हीन स्त्रियाँ कटोरा लेकर अपने लिए शिक्षा रूपी भीख मांग रही थीं. उनके संघर्ष के रास्ते में अनेक कांटे थे. वे तमाम कुरीतियों-कुप्रथाओं से लड़ते हुए चिकित्सा जैसी बुनियादी हक़ के लिए औपनिवेशिक सत्ता से टकरा रही थीं. वह सरकार को याद दिला रही थीं कि भारतीय भी हाड़-मांस से बने आप ही की तरह इंसान हैं. अत: महामारियों से मरने वालों की संख्या पर ध्यान दीजिए और हमें मरने से बचाइए : 


“हिन्दोस्तान की सब से बड़ी बला मलेरिया (मौसमी बुख़ार) है जैसे कि इंगलिस्तान की बला तपेदिक. प्लेग और हैज़े से डर बेशक ज़्यादा लगता है क्यूंकि इनसे आदमी मर जलदी जाता है लेकिन मलेरिया से आदमी मरते ज्यादा हैं. हर साल दस लाख आदमी हिन्दोस्तान में मलेरिया से मर जाते हैं.” 
(चान्दमई 1910भाग 2 : नम्बर 3).
_________________    




सुजीत कुमार सिंह
उच्च शिक्षा गोरखपुर और बनारस से.
शिल्पायन (दिल्ली) से अछूत  (राष्ट्रवादयुगीन दलित समाज की कहानियां) तथा हंस का रेखाचित्रांक का संपादन.
sujeetksingh16@gmail.com
मोबाइल : +91 94543 51608 

संजुक्ता दासगुप्ता की कविताएँ (अनुवाद- रेखा सेठी)

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'संजुक्ता दासगुप्ताअंग्रेज़ी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं. उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं— Snapshots (1996), Dilemma (2002), First Language (2005), More Light (2008), Lakshmi Unbound (2017)और Sita’s Sisters (2019).उदात्त की तलाश में उनकी कविता, अनेक तत्त्वों को साथ ले आती है. अपनी कविताओं में उन्होंने मिथक और दर्शन का सृजनात्मक प्रयोग किया है. अतीत में आवाजाही करते हुए ये कविताएँ समकालीन संवेदना की सघन अभिव्यक्ति हैं. ‘सीता की बहनें’ इसका विलक्षण उदाहरण है.

कवि होने के साथ-साथ संजुक्ता दासगुप्ता कलकता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अंग्रेजी विभाग की अध्यक्ष रही हैं. वे सफल अनुवादक एवं आलोचक भी हैं. उनकी आलोचकीय रचनाओं में प्रमुख हैं---The Novels of Huxley and Hemingway: A Study in Two Planes of Reality, Responses : Selected Essays, Media, Gender and Popular Culture in India: Tracking Change and Continuity.उन्हें अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है.'
रेखा सेठी





संजुक्ता दासगुप्ता की कुछ कविताएँ


सीता की बहनें  

सीता की बहन अच्छी औरत थी
वह केवल एक ही आदमी की हुई
ब्याह, सिंदूर-
चूड़ियाँ खनकती थीं उसकी कोमल कलाइयों में
उसका पति था उसका परमेश्वर
उसका मालिक और स्वामी
साँसें उसकी घुटी-घुटी थीं, होंठ बंद
वह शेर खूँखार था और यह भीगी बिल्ली
आँख मिलाना था एकदम वर्जित

"मेरी तरफ देखने की हिम्मत कैसे की"वह चिल्लाता
"मैं तुम्हारी आँखें निकाल लूँगा, बेशर्म औरत"

सीता की हैं असंख्य बहनें---क्या नाम हैं उनके
रीता, मीता, अर्पिता, सुमिता, रिनीता
लोलिता, बोनिता, अनीता, सुनीता, सुचेता...  

हज़ारों-हज़ार सीता की बहनें  
रटंतु तोतों-सी, दयनीय कठपुतलियाँ
रिमोट से चलती रोबोट जैसीं

सीता की बहनें देखती हैं नि:शब्द
सीता की बहनें हैं गूंगी और बहरी
सीता की बहनें जब करती हैं बंद आँखें
आँखों की जगह होते हैं खाली गड्ढे

सीता की बहनें पुकारती हैं माँ धरती को
“याद रखना माँ, हमारी बहन सीता की आत्महत्या,
बेगुनाह सीता की यातनापूर्ण परीक्षा
हे माँ, बचाना हमें
बचाया था जैसे सीता को, तुमने”

लेकिन हाय सीता की बहनों के लिए धरती की छाती नहीं फटी
सीता की उदास बहनों की लगातार उठती असहनीय चीखों ने
धरती माँ को संवेदनहीन पत्थर में बदल दिया!



एक सोये हुए गाँव की दास्तान

एक सोये हुए गाँव ने तमंचे उगाये
अचानक एक सोये हुए गाँव पर
कई रंग के झंडों ने चढ़ाई कर दी थी
उस साल खेतों में तमंचे उगे

किसानों ने देखे सपने अविनाशी उपग्रह शहर के
पटरियाँ सोने की और झंकार स्टील की
आलीशान एक चेतावनी

गहरी नींद में डूबा रहा
एक सोया हुआ गाँव
नहीं पकड़ पाया संदिग्ध बातों के द्विअर्थी मायने

हाय एक सोया हुआ गाँव
चंचल वायदों की लोरियों के बहकावे में
छला गया लच्छेदार बातों के पेचोखम में

सीधे-सादे गाँव वालों ने तमंचे उगाये उस वर्ष
बंदूकों के घोड़े दबाना सीखा
जबकि हलों पर जमती रही धूल 

एक सोये हुए गाँव ने
मृत्यु देखी उस वर्ष
कर उठे चीत्कार, "अकेला छोड़ दो हमें"

जो सच को झूठ की तरह बरतते हैं
उनके झाँसे में आ गए
सपनों के बदले पाए दु:स्वप्न
शैतानी चंगुल की गिरफ़्त में छटपटाये

एक सोया हुआ गाँव
डूब गया लहू और आँसुओं में
तीन फसलें उगाई-बंदूकों, गोलियाँ और बम

चालाक अजनबियों की शहद भरी बातों के
नशे में डूबे शब्दों के जाल में उलझे
एक ही रात में निवासी से शरणार्थी हुए

ताक़त का खेल चलता रहा
डर पीछा करता रहा उनका
बम विस्फोट का धमाका और मौत की ख़ामोशी

संज्ञाहीन संदेशवाहक लड़के-लड़कियाँ, बंधक मनुष्य
मूर्छित थी हिम्मतताई उस मैदानी गाँव में
ब्रेश्ट और गोर्की की माएँ फँस गयी थीं
कठपुतली नचाने वालों के जाल में.


एक रात अचानक गायब हो गया
यह सोया हुआ गाँव
अपने लोगों, मिटटी और खंदकों के साथ
उड़न-तश्तरी सा

यह सोया हुआ गाँव
फिर सो गया गहरी नींद
सुख की साँस लिए

जागना उनके लिए दुखद और भयावह रहा 




पतझड़

बसंत को अब मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ
मेरे झुर्रियों भरे हाथों को
थामता है पतझड़, कोमलता से
पतझड़ के आलिंगन में
मैं जानती हूँ अब
यदि पतझड़ आया है
तो बहुत दूर नहीं होगा शिशिर

बसंत अचानक ले आता खुशियाँ और ग़म  
और जादुई बरसात, घावों को भर कर
मुलायम कर देती
अब, अनचाहे ही खूब ख्याल रखने पर भी
बालों में सफेदी चाँदी-सी चमकती है
पतझड़ मेरी आँखों में है
मोतियाबिंद और झरते आँसुओं में
घिर आता धारा-प्रवाह, जबकि रोती नहीं मैं अब

उल्लास से भरा वसंत
झूठ लगता है अब
संवेदना जगाता पतझड़
करता है तैयार चिर शीत-निद्रा के लिए
पीछे से आ रही शिशिर के कदमों की आहट


 
(painting : Subrata Ghosh)




दुर्गा

ओ महिमामयी देवी भगवती
पाप नाशिनी दुर्गा
निरीह दुर्बलों की माँ
नर-पिशाच असुर मर्दिनी

देवी चंडी, उठाये शस्त्र
करती निरस्त्र शंका के दानव
स्त्री होकर उठाये शस्त्र
करने पार दुखों का सागर

माँ दुर्गा की कैसी वापसी
आसपास उसकी संतानें
अस्त्रों-शस्त्रों से सजी-धजी
चमकती शमशीर, भयंकर त्रिशूल
जंगल के राजा पर होकर सवार
अमंगल के हृदय में गड़ाए
अपना अचूक शूल

दुर्गा का बजाया शंख
सदियों से गूँज रहा
धरती की छाती में
सोये बीज जगाने को
निर्भय करती उसकी पुकार
नन्हें अंकुर को शीश उठाने को

बालक-सी असहाय धरती को
बाहों का झूला देती
माँ-रूपा देवी है दुर्गा !
  


मेरी माँ का हारमोनियम

हमारे चलते हुए गलियारे के कोने में
हारमोनियम पड़ा है चुपचाप
एक गहरे रंग के बक्से में
बड़े पत्थर की तरह

"मेरे पाँच साल के बेटे को
हरमोनियम का बहुत शौक है 
मेज़ पर कंघी बजाते हुए
वह मन ही मन हारमोनियम बजाता है"

हम भूल ही चुके थे कि
मेरी माँ का हारमोनियम
पड़ा है गलियारे के कोने में
शांत और अचल

जब-जब सफाई अभियान चलाते
हम परछत्ती पर ढूँढते 
माँ का हरमोनियम
किसी ने उसे दे तो नहीं दिया
कहीं कबाड़ी के साथ तो नहीं चला गया
मेरे मन में एक टीस-सी चुभती है

फिर अचानक
इक कौंध की तरह
मन के परदे पर कौंधता है
उस लंबी गलियारे में
उपेक्षित पत्थर-सा पड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम

बरसों बाद बक्से से निकाला जाता है  
वैसा ही शांत, मुस्कुराता है
जैसा वह हुआ करता था
ज़र्द पीली पड़ चुकी है सुरों की सफेदी
हारमोनियम का गहरा रंग
घुल गया ताज़ी हवा में

बरसों से गहरे रंग के लकड़ी के बक्से में जकड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम पुनः प्रकट होकर
कल एक नई यात्रा शुरू करेगा
पहुँचेगा जब
वह पाँच साल के बच्चे के घर

लेकिन आज की रात मैं उस पुराने हारमोनियम पर
उंगलियाँ फिराकर बजाऊँगी कुछ पुरानी धुनें
जो मैं और मेरी माँ साथ-साथ गाते थे  
कभी यह हारमोनियम
कई कार्यक्रमों में बड़े-बड़े सभागारों की यात्रा करता था

हमेशा गाते हुए, मेरी माँ को
अपना ही हारमोनियम बजाना अच्छा लगता
या मेरी संगत करना
जब गाऊँ मैं अकेली या उनके साथ
उस आखिरी बार भी हमने ऐसा ही किया था
जब साथ थे हम
अंतिम यात्रा पर उनके जाने से पहले

कल मेरी माँ बनेंगी गुरु
पाँच साल की उन नन्हीं उंगलियों की
जो बजाएँगी मेरी माँ का हारमोनियम
ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने कभी
उँगलियाँ साधना सिखाया था अपनी बेटी को
जब थी वह सिर्फ़ पाँच साल की

फिलहाल मैं विदा गीत गाऊँगी
बजाकर अपनी माँ का हारमोनियम



लोभ

हर रोज़ मेरा लोभ बढ़ता जा रहा

हर नयी सुबह
बंगाल की खाड़ी से
उगते सूरज को देखते रहने का लोभ

फूलों और कलियों से खेलने का लोभ
अपने अदृश्य गुप्त बगीचे में
फूलों के खिलने और बिखरने की नि:शब्द सिम्फनी

बारिश की शाम में
बकुल और कामिनी की सुगंध का लोभ
जब फुहार से भीग रहा होगा मेरा प्यासा रोम-रोम

शहद में डूबे फलों का लोभ
गर्मी के सूरज की छुअन से सुनहरा रंगा
गले से नीचे उतरता आमरस

लोभ, मेरे आसपास फैले ब्रह्माण्ड
और मेरे भीतर बसे ब्रह्माण्ड के
स्पर्श,  गंध,  स्वाद,  दृश्य और ध्वनि का   

लोभ है, निपट लोभ, ऐसा निर्लज्ज लोभ
उस ब्रह्माण्ड का, जिसे मैं आलिंगन में लिए हूँ
बिना किसी अधिकार की जकड़न के
उस लुभावने संपूर्ण का हिस्सा होने का लोभ




करुणा (एक)

करोन्, ज्योति-चक्र हुआ करता था 
सूरज और चाँद को घेरे रोशनी का घेरा 
लेकिन अब यह
प्रकाशहीन, क्रूर और निर्दयी कोरोना 
अदृश्य, मौन, अस्पृश्य
जब तक कि 
हम में से किसी को छू न दे

क्या यह नींद से जगाने की घंटी है 
सुस्त हो चुकी संवेदनाओं के बारे में
या फिर संसार के चक्र से मुक्ति का संकेत 
क्या यह मुक्ति है, निर्वाण सरीखी
करुणा, करुणा, करुणा
संवेदना, सहानुभूति, क्षमा

संसार से निर्वाण तक
ज्योति के चक्र में कोमल उठान 
_______

रेखा सेठीदिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ-साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं. उनका लेखन मूलत: समकालीन हिन्दी कविता तथा कहानी के विशेष आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित है. रचना के मर्म तक पहुँचकर उसके संवेदनात्मक आयामों की पहचान करना उनकी आलोचना का उद्देश्य है. उनके द्वारा अनूदित सुकृता पॉल कुमार की अंग्रेज़ी कविताओं का हिंदी अनुवादसमय की कसकशीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है.

लेखक और संपादक के रूप में उनकी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें प्रमुख हैं---स्त्री-कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य, स्त्री-कविता: पहचान और द्वंद्व,विज्ञापन डॉट कॉमआदि.उनके लिखे लेख व पुस्तक समीक्षाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं.उन्होंने अमरीका के रट्गर्स विश्वविद्यालय,लंदन के इम्पीरियल कॉलेजतथालिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगालमें हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में शोध-पत्र प्रस्तुत किये हैं.
reksethi@gmail.com
9810985759

भाषा, हिंदी और उपनिवेश : उदय शंकर

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डॉ. राजकुमार की पुस्तक ‘हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता’ भारत में अंग्रेजी राज के दरमियान निर्मित और विकसित हुए हिंदी भाषा,साहित्य और संस्कृति से उलझती है जिसे हम भारतीय कहते हैं उसमें कितना भारत है इसको देखती-परखती है.


इसकी समीक्षा उदय शंकर ने लिखी है. शोध और तथ्यों की रौशनी में गम्भीरता से वह इसे देखते हैं, सामाजिक विज्ञान की अवधारणाओं के समक्ष रखकर इस किताब के निष्कर्षों को जांचते चलते हैं. समीक्षा भी गम्भीर अकादमिक कार्य है इसे पढ़कर समझा जा सकता है.





भारोपीय भाषा परिवार, हिंदी और उत्तर औपनिवेशिकता[i]         
उदय शंकर


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डॉ.राजकुमार की पुस्तक हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता,अपने शीर्षक से ही स्पष्ट है, ‘उत्तर-आधुनिक सह-सबाल्टर्न सह उत्तर औपनिवेशिक विमर्श’ के ‘सैद्धांतिक निष्कर्षों’ के प्रभाव में लिखी गयी है. पुस्तक के लेखक इसका इशारा करते हुए अपनी योजना को इंगित करते हैं, “यूरो-केन्द्रीयता से बाहर निकलने की जद्दोजहद में उत्तर-उपनिवेशवाद का जन्म हुआ. उत्तर-उपनिवेशवाद ने ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया.” (राजकुमार, 2018:153)

उत्तर औपनिवेशिक विमर्शकार रंजीत गुहा भाषाशास्त्र, राजनीतिक-अर्थशास्त्र, यात्रा-संस्मरण, नृविज्ञान (ethnography), विज्ञान, सामाजिकी, मानविकी, कला जैसे सारे अध्ययन-क्षेत्रों में उपनिवेशवाद की मानसिकता के प्रभाव को रेखांकित करते हुए दर्शन को अलग से उभारते हैं. दर्शन में विवरणों/घटनाओं के बरअक्स विचार की छूट है (dealing with ideas rather than events). इसीलिए उनके परिक्षण के केंद्र में आते हैं- हेगेल. उनके आते ही दर्शन की यह विशेषता, विवरणों के बरक्स विचारने की, तर्क के द्वारा उपनिवेशवाद की विचारधाराओं और गतिविधियों की लीपापोती का यंत्र बन जाती है. वे हेगेल के विश्व-इतिहास की धारणा को प्रस्तुत करते हैं (गुहा, 2002: 3-5), अनुवाद से बचने के लिए हिंदी में पहले से ही उपलब्ध अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है.

1986 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ में हिंदीके आलोचक रामविलास शर्मा लिखते हैं, 
“इतिहास-दर्शन (Philosophy of History) की भूमिका में हेगेल ने तीन तरह के इतिहास लेखन की चर्चा की है. मौलिक, तथ्यपरक इतिहास घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करता है. चिंतन प्रधान इतिहास तथ्यों और घटनाओं की व्याख्या करता है. दार्शनिक इतिहास यह सिद्ध करता है कि मानव इतिहास निरपेक्ष विवेक का प्रतिफलन है. हेगेल अपना संबंध इसी तीसरी तरह के इतिहास से जोड़ते हैं. उनके लिए विवेक (रीजन) निरपेक्ष और अनंत ज्ञान है, असीम शक्ति है. मानव इतिहास द्वारा ईश्वर स्वयं को व्यक्त करता है; वह गुप्त रहस्य न बना रहे, इसीलिए इतिहास द्वारा वह मनुष्य को यह समझने का अवसर देता है कि वह क्या है. वस्तु (मैटर) और चेतना (स्प्रिट) दो भिन्न प्रपंच हैं. वस्तु का सारतत्व गुरुत्वाकर्षण है और चेतना का सारतत्व स्वतंत्रता है. दर्शनशास्त्र मनुष्य को स्वतंत्रता की और ले जाता है. विश्व इतिहास स्वतंत्रता की पहचान में प्रगति के अलावा और कुछ नहीं है.” 
(शर्मा, 1986: 249)

हेगल की विचार-सरणी में उपलब्ध ‘भाववादी भंगिमा’ की कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत आलोचनाओं के कुछ टुकड़ों को समेटते हुए रंजीत गुहा अपना स्फटिक विचार स्पष्ट करते हैं कि हेगल के लिए इतिहास, इतिहास में विवेक (reason) है. 
'इतिहास के प्रति यह नजरिया विश्व और उसकी ऐतिहासिकता को निर्मित करने वाले अधिकांश तत्वों से किनाराकशी है. यह एक तरह का पृथक्कीकरण (supersading) है. जहाँ, छंटाई (denial) और संरक्षण (preservation) की संगत अनिवार्य है, यह एक तरह का कथोपकथन (affirmation) है.’ 
(गुहा, 2002: 2)

ऊपर-ऊपर देखने से लगता है कि यह विश्व-इतिहास-दर्शन के इतने बड़े अग्रदूत (हेगल) का उत्तरउपनिवेशवादी विमर्श के अग्रदूत (रंजीत गुहा) द्वारा प्रस्तुत सूक्ष्म दार्शनिक निचोड़ है. जबकि सच्चाई यह है कि गुहा द्वारा हेगल के विवेच्य पुस्तक (Philosophy of History) में ही भौगोलिक अन्यता (Geogrophical Otherness) के विवरण प्रच्छन (explicit) रूप से मौजूद हैं. इन्हीं प्रच्छन विवरणों से डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक मार्क्स और पिछड़े हुए समाजके पचासों पन्ने भर जाते हैं. जहाँ अफ़्रीकी मूल और अफ़्रीकी मूल के अमेरिकन, चीनी, भारतीय, अरबी-पारसी लोगों के बारे में ‘नस्ली’ और ‘पूर्वाग्रहपूर्ण’ टिप्पणियां भरी पड़ी हैं.[ii]इस तरह रामविलास जी निष्कर्ष निकलते हैं कि 


“हेगेल का इतिहास-दर्शन यूरोप-केन्द्रित है, नस्लपंथी, गोरी जातियों खासकर जर्मन श्रेष्ठता का कायल है, भौगोलिक नियतिवाद का समर्थक है.” 
(शर्मा, 1986: 6
उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के अग्रदूत गुहा भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं.[iii]

विश्व में, भारत सहित, इतिहास-लेखन और ज्ञान की सक्रिय धाराओं और प्रणालियों पर हेगेलियन-दृष्टि हावी रही है. इसीलिए, उत्तरऔपनिवेशिक अध्य्याताओं के लिए हेगेल और हेगेलियन-दृष्टि पर कुठाराघात अपने देश को, अपनी जातीय ज्ञान परंपरा को पाना या उसके नजदीक जाना लगता है.



(दो)
हिंदी की जातीय संस्कृति से सम्बंधित एक बहस जो उभर कर सामने आती है वह है रामविलास शर्मा की ‘परंपरा का मूल्यांकन’[iv]वाली स्थापनाएं. और ‘परंपरा के मूल्यांकन’ के पीछे जो दृष्टि कायम कर रही थी, वह इस प्रकार है, 


“हिंदी जाति की संस्कृति भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है...जब वेद-मंत्र रचे गए, तब उस युग के आसपास सिंधु घाटी की महान सभ्यता विकसित हुयी थी. संस्कृत के विशाल वांग्मय के एक छोर पर तक्षशिला में पाणिनि हैं तो दूसरे छोर पर केरल में शंकराचार्य हैं. आधुनिक भाषाओं में लगभग चौथी ईस्वी शताब्दी से अब तक तमिल साहित्य की अटूट गौरवशाली परंपरा है...” 
(शर्मा, 1981: 28) 

हालाँकि एक अन्य पुस्तक में कहते हैं, 
“राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम कल्पना करें कि वेद मंत्र कृष्णा और गोदावरी के किनारे भी रचे गए थे अथवा एक पाणिनि केरल में थे और एक शंकराचार्य तक्षशिला में.” 
(शर्मा, 1953: 39) 

रामविलास शर्मा पूर्व-चर्चाओं और भविष्य की अवश्यम्भावी आलोचनाओं के प्रति सचेत हैं. “भाषा संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है, भाषा द्वारा हम अपनी संस्कृति व्यक्त करते हैं, भाषा स्वयं संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है.” (शर्मा, 2002: 406)इसके बाद तत्क्षण ही वे स्पष्ट कर देते हैं, जो कि भाषा-सम्बन्धी, संस्कृति-सम्बन्धी अध्ययन की सभी समस्यायों की ‘आसन्न जड़’ होती है, “...संस्कृति केवल विचारधारा नहीं है. उसमें मनुष्य की भावधारा, संवेदनाएं आदि भी सम्मिलित हैं.” (शर्मा, 2002: 407)



(तीन)
हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकतापुस्तक की शुरुआत ‘भारोपीय भाषा परिवार’ के प्रणेता विलियम जोन्स की अवधारणा की आलोचना से होती है. आर्य-भाषा परिवार और द्रविड़ भाषा परिवार जैसे विभाजन को टॉमस आर. ट्राटमान के हवाले से नस्लीय मानती है.[v]डॉ. राजकुमार इस तरह भाषा-विमर्श की बहस में उतर जाते हैं. ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ से उनकी स्पष्ट असहमति है, 


“इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की परिकल्पना को स्वीकार कर लेने पर हुआ यह कि भारत की कथित आर्य भाषाओं और यूरोप की भाषा के बीच तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा सामान्य तत्त्वों को सामने लाने का प्रयास तो खूब हुआ, लेकिन भारतीय भाषाओं के बीच समानता और निरंतरता को देखने और उनके निहितार्थों को समझने की कोशिश लम्बे समय तक कम ही की गयी.” 
(राजकुमार, 2018: 17-18)

सर विलियम जोन्स की ‘भारोपीय भाषा परिवार’ (1786), फ्रांसिस व्हाईट एलिस की ‘द्रविड़ भाषा परिवार’ (1816), जो बहुत दिनों तक रॉबर्ट कॉडवेल की पुस्तक ‘द्रविड़ भाषा परिवार का तुलनात्मक व्याकरण’ (1856) के प्रकाशनोपरांत हुए प्रचार के तले दब गया, और सर जॉन मार्शल की ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ 1924, यही तीन मूलभूत अवधारणाएं हैं जिनसे भारतीय-भाषाओं का भाषा-विमर्श जूझता रहता है. (ट्रॉटमैन, 2006: 74)

विलियम जोन्स की स्थापना के असर को सर्पवल्ली राधाकृष्णन के इस उद्धरण से समझा जा सकता है, “भारतीय और यूरोपीय लोगों की नस्ली समानताओं के बारे में चाहे सच्चाई कुछ भी हो, पर इसमें संदेह नहीं कि हिन्द-यूरोपीय भाषाएँ एक सामान स्रोत से निकली हैं और मानसिक सजातीयता को प्रकाशित करती हैं (जोर मेरा). संस्कृत अपनी शब्दावली और विभाक्तिमय रूपों में ग्रीक और लैटिन भाषा से अद्भुत समानता रखती है. सर विलियम जोन्स ने इसका समाधान  इन सब भाषाओं का एक सामान स्रोत बताकर किया है. 1786 में एशियाटिक सोसाइटी ऑव बंगाल के सम्मुख भाषण देते हुए उन्होंने कहा था: 


“संस्कृत चाहे कितनी ही पुरानी हो, पर इसकी गठन शानदार है. यह ग्रीक से अधिक निर्दोष और लैटिन से अधिक भरपूर और दोनों से कहीं अधिक परिष्कृत है. फिर भी उन दोनों के साथ इसकी धातुओं और व्याकरण के रूपों में इतनी समानता है कि वह आकस्मिक नहीं हो सकती. यह समानता वस्तुतः इतनी अधिक है कि इन भाषाओं की छानबीन करने वाला कोई भी भाषाशास्त्री यह माने बिना नहीं रह सकता कि यह सब एक सामान स्रोत से निकली है, जिसका संभवतः अब अस्तित्व नहीं रहा है. इसी तरह का एक कारण, यद्यपि यह इतना जोरदार नहीं है, यह मानने के लिए भी है कि गॉथिक और कैल्टिक दोनों भाषाएँ, एक विभिन्न वाग्भंगी से मिश्रित होते हुए भी उसी स्रोत से निकली है जिससे कि संस्कृत निकली है. और प्राचीन फारसी को भी उसी परिवार से जोड़ा जा सकता है.” 
(राधाकृष्णन, 2001: 25)

भारोपीय भाषा परिवार के सहारे मानसिक सजातीयता के जिस प्रकाशन की बात राधाकृष्णन कर रहे हैं, उसे भाषा-विज्ञानी सुनीति कुमार चटर्जी (चाटुर्ज्या) कुछ इस प्रकार कह रहे थे, “प्राचीन भारत की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों को ही भारत वर्ष में ‘आर्य’ नाम से प्रवेश करने वाली ‘विरोस’ की सच्ची संतान कहा जा सकता है...नात्सी जर्मनों को तो यह विश्वास करना सिखाया जाता था कि वे ही ‘विरोस’ के विशुद्धतम वंशज हैं.” (चाटुर्ज्या, 1989: 19)


“जब आर्य लोग भारत आये, तब देश जनशून्य न था. यहाँ भी कुछ ऐसी जातियां और जन बसे हुए थे जिनकी सभ्यता काफ़ी ऊँचे स्तर की थी. प्रागैतिहासिक काल में ‘आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत’ के सर्वप्रथम प्रतिपादित होते ही, भारत के उच्चजातीय सुशिक्षित जनगण ने तुरंत ही उसे स्वीकार कर लिया. शिक्षित जनों से प्रायः उच्च वर्ण के हिन्दुओं का ही बोध होता था, और आर्यों के आक्रमण वाले इस सिद्धांत से उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंची. अब वे अपने को मध्य-एशिया से आये हुए उन गौर वर्ण और अत्यंत सुसंस्कृत आर्य विजेताओं की वास्तविक संतान के रूप में मान सकते थे, जिन्होंने जंगली काले अनार्यों के अंधकारमय देश को सभ्यता के प्रकाश से आलोकित किया था इसके अतिरिक्त वे “आर्य” अर्थात भारतीय यूरोपीय भाषाएँ बोलने वाले यूरोपीयों को चचेरे भाइयों के रूप में देख सकते थे.” 
(चाटुर्ज्या, 1989: 40)

आंग्ल इतिहासकारों ने भी इस सम्बन्ध में अपने इन भारतीय बंधुओं को ‘हमारा आर्य भाई, नम्र स्वभाव हिन्दू’ कर सहलाया, सुनीति बाबू कहते हैं कि इस सिद्धांत को आसानी से हजम कर लेने का कारण भारतीय मानस का असाम्प्रदायिक होना था. (चाटुर्ज्या, 1989: 45)डॉ. राजकुमार सुनीति बाबू के इस प्रागैतिहासिक प्राकल्पिक आख्यान को अपनी पुस्तक में विलियम जोन्स के समय स्थिर करते हुए कहते हैं, “चार-पांच हजार वर्षों के अलगाव के बाद यूरोप के आर्यों का अपने बिछुड़े हुए भारतीय आर्यों से मिलन हुआ.” (राजकुमार, 2018: 17)


(चार)
सुनीति बाबू ‘आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत’ की हल्की चुटकी तो अवश्य लेते हैं लेकिन उनकी पुस्तक ‘भारतीय आर्यभाषा और हिंदी’ का आधार ‘भारोपीय परिवार’ की अवधारणा ही है. भारत में मोटे तौर पर चार भाषा परिवार हैं, भारोपीय भाषा परिवार, जिससे हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकतापुस्तक का समीपी संपर्क है, द्रविड़ भाषा परिवार, ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा परिवार (मुंडा, खासी, कोल, निकोबारी आदि) और चौथा चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (नागालैंड).
सुनीति बाबू हिंदी के ऐतिहासिक विकास-परंपरा को रेखांकित करते हुए चार चरण बताते हैं, आद्य आर्य भाषा (आ.आ.भा.), मध्य आर्य भाषा (म.आ.भा.) और नव्य आर्य भाषा (न.आ.भा.), नूतन आर्य भाषा (नू.आ.भा.). इसे बहुत सरल शब्दों में कहें तो पहले संस्कृत, फिर प्राकृत और आधुनिक हिंदी (और इसकी बोलियों के) के तत्क्षण पहले अपभ्रंश की गति दिखती है.

गौतम बुद्ध के समय यानी म.आ.भा. युग में उत्तर भारत की आर्य भाषा की स्थिति को विश्लेषित करते हुए सुनीति बाबू तीन भाषाई प्रदेश निर्दिष्ट करते हैं, उदीच्य, मध्य देश और प्राच्य, और पूर्व-पश्चिम के भेद को स्पष्ट करते हैं. उदीच्य को वे अब भी छांदस यानी वेद-भाषा के नजदीक मानते हैं और प्राच्य प्रदेश निरंतर छांदस से दूर होता चला गया. उदीच्य के लोग जब प्राच्य आते थे तो उन्हें यहाँ की भाषा समझ में नहीं आती थी. बुद्ध के दो ब्राह्मण शिष्यों को यह विचार आया कि क्यों न बुद्ध के उपदेशों को छान्दस यानी सुसिक्षितों की भाषा में अनुदित की जाएँ! लेकिन बुद्ध ने इस विचार को ठुकरा दिया  और जन-सामन्य की बोलियों को ही वरीयता दी. 


“...बौद्ध अथवा जैन प्रभाव से विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में साहित्य खड़ा हो गया. इस आन्दोलन के पीछे संभवतः कुछ ऐसी भावना थी कि लौकिक भाषा को छान्दस या ब्राहमण ग्रंथों की संस्कृत के विरोध में खड़ा किया जाए क्योंकि यह भाषा प्रथम तो वैदिक कर्मकांड पर आधारित कट्टरपंथी ब्राहमणों की भाषा मानी जाती थी, दूसरे, साधारण जनों के समझने में अत्यंत दुरूह होती जा रही थी; तीसरे, धीरे-धीरे उसका प्रारंभिक भाव तथा अर्थ विलुप्त होता जा रहा था... इस प्रकार परिवर्तित लोक भाषाओं ब्राहमणों के मन में बिल्कुल स्नेह या रस न था. पूर्व में रहते हुए वह हमेशा पश्चिम भूमि की और देखा करता था, जो वैदिक संस्कृति का जन्मस्थान थी, जहाँ का अभिजात समस्त आर्यावर्त के उच्च वर्गों का उद्गम-स्थान था और जहाँ आर्य भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती थी.” 


(चाटुर्ज्या, 1954: 65-66) इसी से मिलते-जुलते विचार उर्दू भाषा के इतिहासकार मसूद हुसैन खान के भी हैं.[vi]

इस तरह सुनीति बाबू वेद, ब्राह्मण और उदीच्य (पश्चिम) की अभिजात संस्कृति विरोध और मगध के आस-पास बौद्ध-जैन के लौकिक साहित्य के प्रादुर्भाव के आलोक में आद्य हिंदी के उद्भव-उत्थान का भ्रमण कर लेते हैं. इस भ्रमण की रही-सही पूर्णता को संत-साहित्य (भक्ति काल) परिधि में तब्दील कर देता है. इन स्थापनाओं के पार्श्व में ‘जॉर्ज गिर्यर्सन, राहुल सांकृत्यायन और काशी प्रसाद जायसवाल’ की सहमति की अनुगूँज समानांतर चलती रहती है.



(पांच)
रामविलास शर्मा भारोपीय भाषा परिवार की अवधारणा के प्रभाव में भारत के भाषा-परिवारों के अध्ययन की निष्पतियों से अपने को अलगाते हैं. वे इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि भारोपीय भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार, चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (नागालैंड की भाषाएं) के बोलने वाले सारे लोग बाहर से आये हैं! 


“भाषा और समाज’ पुस्तक में मैंने ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं को अस्वीकार किया. इंडो यूरोपियन भाषा के लिए एक आदि भाषा की जगह मैंने अनेक-स्रोत भाषाओं का प्रतिपादित किया... दरअसल किसी एक आदिभाषा का एकांत शुन्य में विकसित होना तभी संभव है जब हम यह मान लें कि उस आदि-भाषा के बोलने वाले किसी एक ख़ास नस्ल के एकांतवासी लोग थे.” 
(शर्मा, 2002: 23-24)

रामविलास जी का मानना है कि भाषाओं का जन्म मनुष्यों के उद्भव की धार्मिक कहानी की तरह नहीं होता है. अदम और इव की कहानी जैसे झूठी है वैसे ही ‘प्रोटो इंडोयूरोपियन’ की कहानी भी झूठी है. उनके अनुसार भाषा बनने के पहले संस्कृत भी कभी बोली रही होगी. जब संस्कृत बोली रही होगी तब वह अकेली बोली नहीं रही होगी बल्कि उसी के समानांतर और बोलियों होंगी. उन्हीं किसी में से कोई एक आद्य ‘देश भाषा’ रही होगी. उनका यह भी मानना है कि यह असंभव है कि अलग-अलग ध्वनियों और व्याकरणों वाली देश-भाषा किसी एक अपभ्रंश से निकली है. सुनीति बाबू और अन्य यूरोपीय भाषा-विज्ञानी जहाँ भाषाओं के बीच की समानता के आधार पर अध्ययन करते हैं वहीं रामविलास जी भिन्नताओं पर जोर देते हैं. किशोरी दास वाजपेयी का ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ एक आदर्श की तरह उनके साथ होता है, जहाँ संस्कृत और हिंदी के बीच समानता की जगह भिन्नताओं का का आंकड़ा खड़ा किया गया है. लब्बोलुआब यह कि संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-देशभाषा-हिंदी की यह सरणी उन्हें नहीं रुचती है. (तलवार, 1991: 55-71)

रामविलास शर्मा का उपर्युक्त सिद्धांत-कथन (भिन्नता वाला), जिसे प्रयोगिक जमीन पर संस्कृत-हिंदी के सन्दर्भ में किशोरीदास वाजपेयी ने परखा था, ‘बोली-भाषा’ वाली बहस में रामविलास जी को ज्यादा दूर तक साथ नहीं दे पाती है. बिहार की देश-भाषाओं (बोलियों) को बँगला, असमिया से अलगाने के लिए जहाँ भिन्नताओं का चरम खड़ा किया जाता है, वहीं देश-भाषाओं की खड़ी  बोली (हिंदी) से समीपी-संपर्क उकेरने की तत्परता भी दिखती है. क्योंकि इससे ‘हिंदी जाति’ की उनकी अवधारणा की पुष्ट होती है. (शर्मा, 2002: 335-369)

प्राच्य, मध्यदेश और उदीच्य के सन्दर्भ में आद्य-हिंदी को केन्द्रित कर सुनीति बाबू ने एक बात यह भी कही है कि प्राच्य जहाँ ऋण संस्कृत (पश्चकालीन संस्कृत) से, वहीं उदीच्य धन संस्कृत से समर्थित था, अर्थात वे ‘प्राच्य’ के भीतर के प्राच्य को वरीयता देते हुए देशी-भाषा का रास्ता प्रशस्त करते हुए नज़र आते हैं. रामविलास शर्मा इस बात का उत्तर गोल-मोल कर देते हैं, “संस्कृत के विकास में पूर्वी प्रदेशों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसे न समझ पाने के अनेक कारण हैं. एक कारण इरान-अफगानिस्तान होकर आर्यों के आगमन की कहानी है. दूसरा कारण कुरुक्षेत्र या उससे और भी उत्तर के प्रदेशों वेदों का सम्बन्ध है. तीसरा कारण पूर्वी प्रदेशों के वर्तमान गरीबी है जिससे संस्कृत जैसी भाषा के विकास में उनके योग की कोई कल्पना नहीं करता. (जोर मेरा)” (शर्मा, 2002: 190)




(छह)
किशोरी दास वाजपेयी की एक प्रकल्पना (hypothesis) हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकताके लेखक को लम्बी दूरी तक साथ देती है. 


काल की ही तरह देश-भेद से भी भाषा बदलती है, बहुत धीरे-धीरे. आप प्रयाग से पश्चिम चले, पैदल यात्रा करें, चार-पांच मील नित्य आगे बढ़ें, तो चलते-चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जायेंगे; पर यह न समझ पायेंगे कि हिंदी कहाँ किस गाँव में छूट गयी-पंजाबी कहाँ से प्रारंभ हुयी-पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया! ऐसा जान पड़ेगा कि प्रयाग से काबुल तक एक ही भाषा है. परन्तु यह यात्रा यदि वायुयान से करें और प्रयाग से उड़कर पेशावर या काबुल उतरें तो भाषा-भेद से आप चक्कर में पड़ जायेंगे. प्रयाग की भाषा कहाँ और काबुल की भाषा कहाँ! इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने पर आप हिंदी की विभिन्न बोलियोंमें तथा मैथिलि-उड़िया-बंगला आदि में अंतर वैसा नहीं लाख पायेंगे. यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें, तो ठेठ मद्रास तक पहुँच जायेंगे, भाषा सम्बन्धी कोई भी अड़चन सामने न आएगी. किन्तु वायुयान से उड़ कर मद्रास पहुँचिये, जान पड़ेगा भाषा में महान अंतर! आप कुछ समझ ही न सकेंगे.
(राजकुमार, 2018: 24)

वाजपेयी जी का यह कथन प्रकल्पना होने के बावजूद (क्योंकि ऐसा विषद पैदल-अनुभव बंजारों और ‘काबुली वालों’ के अलावा किसके पास है?) एक निहितार्थ ग्रहण किये हुए है. यह निहितार्थ मिले और चल दिएसे आगे जाकर निकलता है, वह है, भाषाई-क्षेत्रों की सांस्कृतिक विशेषता का अनुभव किये बिना उस भाषा की आत्मा को नहीं पाया जा सकता है. साहित्य-उत्पादनऔर संस्कृति-उद्योगके सन्दर्भ में यह अति आवश्यक हो जाती है. अंततः डॉ. राजकुमार का जोर इसी बात पर है.

किशोरी दास वाजपेयी के इस मंतव्य को जब शेल्डन पॉलक की ‘कॉस्मोपॉलिटन वर्नाकुलर’ वाली अवधारणा मिल जाती है, तब हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकतापुस्तक एक ढांचा खड़ा होता हुआ नज़र आता है. शेल्डन पॉलक के अनुसार भाषा-साहित्य में संस्कृत के वर्चस्व के इलाके का देशभाषीकरण (vernacularisation) उसी समय होता है जब यूरोप में लैटिन के वर्चस्व के इलाके में हो रहा था. वह बताते हैं कि देशभाषीकरण यह प्रक्रिया मध्य डेक्कन, कन्नड़, तेलगु, (9वीं शताब्दी) से से शुरू होती है और 15 वीं शताब्दी में मध्यदेश (ग्वालियर) पहुँच जाती है. यूरोपीय लोगों के आने से पहले मातृभाषा (Mother Tongue) संज्ञा-पद का नामोनिशान नहीं था,धीरे-से यह भी कह देते हैं कि ‘देशभाषीकरण’ में भक्ति आन्दोलन, जैन और बौद्ध प्रभावों का कोई योगदान नहीं था. (पॉलक, 2002: 591-625) लेकिन ध्यान देनी वाली बात यह भी है कि शेल्डन पॉलक द्वारा ‘देशभाषीकरण’ का जो मानचित्र (काल-क्रम सहित) प्रस्तुत किया गया है क्या वही मानचित्र और कालक्रम भक्ति-आन्दोलन के अध्येताओं/इतिहासकारों द्वारा नहीं बताया गया है?

भक्ति द्राविड़ उपजी लाये रामानंद
प्रगट करी कबीर ने सप्तद्वीप नौ खंड

हरिहर निवास द्विवेदी के हवाले से कहा गया है कि बंगाली वैष्णव भक्त कवियों के द्वारा ‘ब्रज भाषा’ शब्द का चलन 17वीं सदी में में व्यापक हुआ.(राजकुमार, 2018: 38)विद्यापति की ‘पदावली’ से प्रभावित होकर बंगला, उड़िया, असमिया कवियों ने, चैतन्य महाप्रभु के समय से ही, जो वैष्णव, राधा-कृष्ण से संदर्भित, पदावलियाँ लिखीं उसे ब्रज बोली (ब्रज बुली) कहा गया (सेन, 1935:1-3). यह एक तरह की ‘कृत्रिम’ (साहित्यिक) भाषा थी. “ब्रजबुली (ब्रज बोली), ब्रजभाव के उद्दीपन में केवल एक देश की भाषा नहीं रही, वह अनेक भाषाओं की भावात्मक संकलनी बन गयी...” (झा, 1974:आमुख)

ब्रजभाषा के ‘कॉस्मोपॉलिटन’ बनने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में शेल्डन पॉलक ने स्पष्ट रूप से कहा है कि कॉस्मोपॉलिटन भाषाओं का वर्नाकुलर होना जरुरी ही हो ऐसा नहीं है. इसके लिए वे संस्कृत और लैटिन का उदहारण देते हैं. वहीं कई-एक देशभाषाएँ ऐसी भी हैं जो अपने क्षेत्रीय-संसार में कॉस्मोपॉलिटन का दर्जा पा गयीं. ब्रजभाषा को उसकी स्थानीयता (भाषाई) से काटकर और अन्य ‘क्षेत्रीय देशभाषाओं’ से उसकी भिन्नता को नकार कर उसे कॉस्मोपॉलिटन बना दिया गया. (पॉलक, 1998: 7-8) अतः यहाँ फिर से वही प्रश्न सामने आ जाता है कि क्या ‘राजनीतिक’ कारणों (भक्ति आंदोलन) को किनारे रखकर सिर्फ ‘भाषा के इलाकाई-भ्रमण’ के सिद्धांत (किशोरी दास वाजपेयी) से ब्रज के कॉस्मोपॉलिटन होने को समझा जा सकता है?

इसी से संदर्भित एक अन्य प्रश्न कि किसी एक भाषा के कॉस्मोपॉलिटन वर्चस्व की हानि के उपरान्त दूसरी भाषा का कॉस्मोपॉलिटन स्वरूप उभरता है तो इस प्रक्रिया को आप कैसे रेखांकित करेंगे! क्या इस बात से किसी की आपत्ति होनी चाहिए कि ब्रज के कॉस्मोपॉलिटन होने या भारतीय सन्दर्भ में देशभाषीकरण के पहले संस्कृत कॉस्मोपॉलिटन भाषा थी. ब्रजभाषा के कॉस्मोपॉलिटन भाषा बन जाने के बावजूद ‘भारतीय अभिजात्य’ (दारा शिकोह) और भारतीय अभिजात्य के संपर्क में आने वाले यूरोपीय/विदेशी लोगों के लिए संस्कृत मुख्य आकर्षण था. ग्यारहवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अलबरूनी के संस्कृत-अभ्यास से तो परिचित ही हैं.

17वीं  सदी के मध्य, जब ब्रजभाषा अपने उरूज पर थी, फ़्रांसीसी डॉक्टर बर्नियर 1659 में भारत आए, आते ही दारा शिकोह के पारिवारिक चिकित्सक नियुक्त कर लिए गए; यह औरंगजेब से दारा शिकोह की अंतिम-निर्णायक लड़ाई के तुरंत पहले की बात है. अपनी यात्रा शुरू करने से पहले बर्नियर फ़्रांसीसी एपिकुरियन दार्शनिक, वैज्ञानिक और गणितविद् पियरे गसेन्डी (1592-1625) के शागिर्द थे और उनकी लैटिन रचनाओं का फ़्रांसीसी में अनुवाद किये थे. दारा शिकोह के बनारस-अनुवाद परियोजना के करीब दस वर्ष बाद 1667 में बर्नियर अपने एक पत्र में बताते हैं कि संस्कृत और फ़ारसी में पारंगत बनारस के पंडित के साथ उन्होंने किस तरह चिकित्सा और दर्शन की अद्यतन जानकारियों को साझा किया, सबसे मजेदार बात यह कि बर्नियर ने पंडित के लिए रेने देकार्त (15951650) और गसेन्डी की लेखनी को फ़ारसी में अनुवाद किया.

बर्निअर अपने पत्र की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं
आश्चर्यचकित मत होना कि बिना संस्कृत जाने संस्कृत की पुस्तकों से कुछ बातें तुझे बताऊंगा...  
(गनेरी,  2012: 177-188)   

डॉ. राजकुमार का यह कथन जायज है कि देशभाषा और व्यापक रूप से भारतीय वांग्मय में अनुवाद की परम्परा नहीं थी, मूल-ग्रन्थ की अवधारणा नहीं थी, टीका-भाष्य आदि ज्यादा प्रचलित थे. फ़ारसी और यूरोपीय लोगों के संपर्क में जब ‘फ़ारसी’ और यूरोपीय ढंग के अनुवाद की परंपरा चल पड़ी तब भी विदेशियों ने देशभाषा (उत्तर भारतीय) को महत्व नहीं दिया. राजकुमार का यह कहना भी सही हो सकता है कि देशभाषा के ‘पंडित’ कवियों की संस्कृत में पारंगतता थी और रीतिकालीन तक आते-आते उसमें फ़ारसी[vii]भी सम्मिलित हो गयी. लेकिन आश्चर्यजनक रूप वे संत कवियों को ‘ज्ञानी’ कहकर छोड़ देते हैं. 

देशभाषीकरण के बाद औपनिवेशिक युग में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन के अभाव को रेखांकित करते हैं, “संस्कृत सीखने की प्रक्रिया को सबसे बड़ा धक्का लोकभाषीकरण के दौरान नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दौर में अंग्रेजीकरण के कारण लगा. इसीलिए इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संस्कृत ग्रंथों का बड़े पैमाने पर अनुवाद लोकभाषा के अभ्युदय के दौरान नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के दौरान किया गया.”जबकि, कबीर की एक बहुचर्चित पंक्ति को किन्हीं और सन्दर्भ में राजकुमार खुद उद्धृत करते हैं, ‘संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर’.

‘परंपरा के आहत नैरन्तर्य’ से बहुविध आयामों से डॉ. राजकुमार खुद परिचित हैं. शुद्ध-हिंदी गढ़ने के प्रयास पर औपनिवेशिक प्रभुओं की ‘सहज छाप’ आरोपित करने के बावजूद वे मानते हैं कि लोकभाषा की पूर्व (प्राच्य) परंपरा के साथ न्याय नहीं हुआ है. ब्रजभाषा (यहाँ हिंदी भी कर दें तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है) और उर्दू के अंतर को वे वे सिर्फ लिपि और शब्द-चयन तक सीमित नहीं करते हैं बल्कि कह ही देते हैं कि ऐसा “सांस्कृतिक विरासत के भिन्न स्रोतों से अपना सम्बन्ध जोड़ने के कारण भी है.”(राजकुमार, 2018: 40) 

सांस्कृतिक विरासत के ‘निजी’ स्रोतों को कल्पित करने लेने का परिणाम उर्दू-हिंदी की अंतिम परिणति के रूप में हिन्दुस्तान की आज़ादी के साथ देश-विभाजन में दीख जाता है. वली का दिल्ली आगमन, शाह गुलशन से मुलाकात, शाह हातिम (दीवानजादा) का ‘इस्लाह ज़बान’, (भाषा-सुधार, (फ़ारूकी, 2007: 130), (फ़ारूकी, 2003: 805-863), के प्रवर्तक के बतौर उभरना, इंशाअल्लाह खान के उर्दू-मैन्युअल (उर्दू व्याकरण) से लेकर 15 फरवरी 1961 को ग़ालिब के 92वें जयंती पर बाबा-ए-उर्दू अब्दुल हक, जो कभी मानते थे कि उर्दू सिर्फ मुसलामानों की भाषा नहीं है, का यह कहना कि 


“पाकिस्तान को न तो जिन्ना ने बनाया है और न ही इक़बाल ने. हिन्दू-मुस्लमान के बीच का फसाद उर्दू भाषा थी. पूरा का पूरा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत उर्दू भाषा की देन है. इसलिए यह पाकिस्तान पर एक कर्ज की तरह है.” 
(राय, 1984: 264)

ब्रज-हिंदी-उर्दू के अतिरिक्त अन्य उत्तर भारतीय देशभाषाओं, ख़ासकर पुरबी, के ‘स्थानीय-रूपों’ के साहित्यिक उन्नयन की संभावना में आड़े आये ऐतिहासिक बाधा-विघ्नों के प्रति डॉ. राजकुमार चिंतित तो दीखते हैं लेकिन उसका कोई औपनिवेशिक सन्दर्भ न पाकर कह ही देते हैं कि “संभवतः हिन्दवी/ब्रजभाषा के कॉस्मोपॉलिटन रूप ने इस संभावना का निषेध कर दिया.” (राजकुमार, 2018: 44)   


(सात)
उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के संदर्भ में हिंदी गद्य को अपनी पुस्तक हिंदी की जातीय संस्कृति और उत्तरऔपनिवेशिकतामें डॉ. राजकुमार न के बराबर जगह देते हैं, हालांकि यह कहते जरूर नज़र आते हैं कि प्रेमचंद भारतीय परंपरा के लेखक हैं और एक अध्याय भी प्रेमचंद पर है (संज्ञान में यह है कि प्रेमचंद के बारे में लेखक की एक स्वतंत्र पुस्तक है). क्या यह अकारण है? आधुनिक भारतीय भाषाओं (हिंदी सहित) का कथा-साहित्य/गद्य इस बात की इजाज़त तो कतई नहीं देता है कि आप उसे ‘औपनिवेशिक चंगुल’ का गद्य बताकर छोड़ सकते हैं.

देशभाषाओं के विकास के शुरुआती चरण में ही अलबरूनी ने 1025 ई. के आस-पास लक्षित किया था कि भारतीय आर्य भाषा दो रूपों में विभाजित है. एक उपेक्षित कथ्य-भाषा है जिसका प्रयोग जन-सामान्य करते हैं. दूसरी शिष्ट, सुरक्षित उच्च वर्ग के लोगों में प्रचलित साहित्यिक भाषा है और इसे अध्ययन करके ही प्राप्त किया जाता है. यह साहित्यिक भाषा व्याकराणात्म्क विभक्ति-योग, व्युत्पति, तथा व्याकरण के नियमों एवं अलंकार-रस-शास्त्र की बारीकियों से आबद्ध है. 
(चाटुर्ज्या, 1954: 106-107)  

इस बात को और स्पष्ट करते हुए सुनीति कुमार चटर्जी लिखते हैं, 


“नव्य-भारतीय-आर्य को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश से रिक्थ रूप में मिली हुयी परंपरा काव्य शास्त्र की थी. संस्कृत के बृहत्काय काव्य-साहित्य की तुलना में यहाँ का गद्य लगभग नगण्य-सा है...पश्च्कालीन संस्कृत टीकाओं तथा गद्यकाव्यों की शैली नभाआ भाषाओँ में न आ सकी. नभाआ भाषाओँ में जहाँ कहीं भी गद्य का उपयोग हुआ है, वहां वह वैज्ञानिक या दार्शनिक या विचारात्मक रूप में न होकर, सीधे-सीधे कथात्मक रूप में हुआ है... ब्रिटिश काल के अंतर्गत भारतीय आर्य भाषा के विकास के एक बिल्कुल नूतन युग का सूत्रपात हो गया... अंग्रेजी के साथ-साथ भारत में गद्य का आविर्भाव हुआ, कविता की जगह तर्क ने ली.” 
(चाटुर्ज्या, 1954: 110)

देशभाषाओं (उत्तर भारतीय, नव्य आर्य भाषा) के विकास के दौरान गद्य की कोई इतिहास-प्रदत और लिखित परंपरा न के बराबर मिलती है. जिस तरह का गद्य मिलता है, उसके बारे में सुनीति बाबू ऊपर कह चुके हैं. साहित्यिक गद्य औपनिवेशिक युग की देन है. औपनिवेशिक युग के पहले गद्य की भाषा या तो संस्कृत रही या फारसी. उत्तरआधुनिक विमर्शकार रंजीत गुहा ने गद्यसाहित्य, कथा, उपन्यास के सन्दर्भ में ढेर सारी दार्शनिक निष्पतियों (scattered) को निकालने की गुंजाइश पैदा की है. प्रयोग की ज़मीन पर आधुनिक बंगाली गद्य के जनक रामराम बसु की चर्चा करते हैं कि कैसे एक सहायक पंडित ने 40 रूपये प्रति महीने की नौकरी पर बंगाली का पहला गद्य लिखा, राजा प्रतापादित्या. राजा प्रतापादित्या को बंगला के पहले गद्य के रूप में प्रकाशित होते देखते हुए इसाई मिशनरी की ख़ुशी को रंजीत गुहा बताते हैं. रंजीत गुहा की नज़र में राजा प्रतापादित्यइतिहास (हिस्ट्री) नहीं बल्कि रोमांचक, चमत्कार, ‘अद्भुत’ जैसा कोई टेक्स्ट बन गया है. इसका कारण बताते हुए रामराम बसु के पार्श्व में फ़ारसी के लगाव को इंगित करते हैं. 
(गुहा, 2002: 15, 72)

हिंदी-उर्दू दोनों के ‘प्रथम’ गद्यकार यथा, इंशा अल्लाह खानऔर मीर अम्मनसंस्कृत-ऋण थे लेकिन फ़ारसी में पारंगत. दोनों हिन्दू भी नहीं थे. बावजूद, दोनों की अपने ज़माने में चलती थी. ऐसी चलती बाद के दिनों में सिर्फ देवकीनंदन खत्री को ही प्राप्त हुयी. मीर अम्मन का बाग़-ओ-बहारऔर रानी केतकी की कहानीभविष्य में आने वाले गद्य की मिसाल बनी. रानी केतकी की कहानीके सत्तर साल बाद जाकर ‘हिंदी नयी चाल’ में ढलती है. इसी तरह अंग्रेजी में पहला गद्य लिखने वाले भारतीय शेख दीन मुहम्मद, बिहार के बक्सर से, जाति के नाई थे. तात्पर्य यही कि इन चारों का संस्कृत-परंपरा से कटाव था.

डॉ. राजकुमार रंजीत गुहा के हवाले से, और उसमें अपना जोड़ते हुए कहते हैं, 


“अद्भुत पर अनुभूति की विजय हुयी... साहित्य, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद आदुनिकता की ज्ञान-मीमांसा पर टिक जाती है और भारतीय ज्ञान-मीमांसा की परंपरा का इस्तेमाल सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए, एक ऐसा संस्करण संस्करण जिसकी पैकेजिंग भारत में की गयी हो...भारतीय भाषाओं में लिखने से कोई भारतीय नहीं हो जाता.” 
(राजकुमार, 2018: 79)


सवाल फिर से वही रह जाता है कि ‘भातीय होना’ क्या है? संस्कृत होना, उपनिषद होना ही भारतीय होना है? देशभाषा की सारी चिंताओं का फिर क्या करना होगा? डॉ. राजकुमार इससे भलीभांति परिचित हैं. इसीलिए लोक, लोककला, लोकगीत संदर्भित उनकी चिंताएं जायज हैं. लेकिन ज्यादा संभावना इसी की दिखती हैं कि यह लोक ‘अनुमान’ में ही तब्दील होकर न रह जाए!

उपनिवेश से मुक्ति के प्रसंग में तीन धाराएं (विचार) स्पष्ट रूप से संलग्न थीं, नेहरु, सुभाष और भगत सिंह की, गांधी प्रतीक थे; और जो धारा संलग्न नहीं थी उसने गांधी की ही हत्या कर दी, ‘प्रतीक’ की हत्या कर दी. अगर अभी भी कहीं उपनिवेशवादी मानसिकता है और उसे विमुक्त करने की जरुरत है तो, उसे कम से कम इन तीन धाराओं के साझे संघर्ष से तो गुजरना ही होगा. ‘भारतीयता’ रुपी प्रतीक की रक्षा इन्हीं साझे संघर्षों में संभव है.            

अपनी पुस्तक ‘पोस्ट कोलोनियल थ्योरी एंड द स्पेक्टर ऑफ़ कैपिटल’के पहले अध्याय के शुरुआत में ही विवेक छिब्बर कहते हैं कि पिछले दो दशकों से उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श अकादमिक पटल पर पर्याप्त रूप से छाया हुआ है. विश्व-साहित्य पटल पर गैर पश्चिमी साहित्य को जो ‘हाशिया’ हासिल था, इस ‘हाशिये की बहस’ ने उसे मुख्यधारा में ला दिया. न्युगी वा थ्युंगो, सलमान रुश्दी, ग्राबिएल गार्सिया मार्खेज आदि के साहित्य को अमेरिकन एकेडेमिया में जगह मिलने लगी. इस सफलता को छिब्बर भी सलाम करते हैं. 
(छिब्बर, 2013: 1) 
इसी प्रक्रिया में अरुंधती रॉय, अनीता देसाई, अरविन्द अडिगाएवं अंग्रेजी के अन्य भारतीय लेखकों की लोकप्रियता को भी शामिल कर सकते हैं.

अमेरिकी और यूरोपीय देशों के अंग्रेजी, विश्व-साहित्य और तुलनात्मक साहित्य के विभागों में उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के विजय-घोष को हिंदी का आलोचक, लेखक, अध्येता और पाठक  को किस तरह देखना चाहिए! हिन्दुस्तान की देशभाषा (वर्नाकुलर) हुए बिना कॉस्मोपॉलिटन भाषा के रूप में अंग्रेजी प्रतिष्ठित हो गयी है. यह हमारी नयी ‘संस्कृत’ है, और इसमें उत्तरऔपनवेशिक विमर्श का बहुत बड़ा योगदान है. इसे क्या ऐसे देखा जाना चाहिए?
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उदय शंकर ने जेएन.यू नई दिल्ली से अपना शोध कार्य पूरा किया है.
udayshankar151@gmail.com 


[i]हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता (राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, 2018,  पृष्ठ संख्या- 218, मूल्य- 699, सजिल्द) डॉ. राजकुमार की सद्य प्रकाशित आलोचना-विचार की पुस्तक है. एक पाठक के रूप में पढ़ते हुए यह चौंकाता है. दिनों बाद ऐसी पुस्तक देखने को मिली है जिसमें अध्ययन का दायरा बहुत बड़ा, तथा इसकी प्रस्तावनापश्चिमी, ख़ासकर अमेरिकीएकेडेमिया में अति प्रचारितहै और विचारधारा ख़ास लोगोंके लिए विवादित भी है. यह लेख इसी किताब के साथ एक यात्रा है.

[ii]उदाहरण के लिए, ‘नीग्रो लोगों में नैतिक भावना कमजोर होती है...माता-पिता बच्चों को बेच देते हैं इसी तरह बच्चे माता-पिता को बेच देते हैं...मिसाल के लिए लन्दन में एक नीग्रो ने कहा कि वह एकदम गरीब हो गया है क्योंकि उसने सारे सम्बन्धियों को बेच दिया है, चीन का सम्राट कुलपति के समान है और उसकी प्रजा बच्चों की तरह है...वहां इतिहास और विज्ञान दोनों में आत्मगत चेतना का अभाव है...अच्छे-भले बैठे हैं (मंगोल) मन में तरंग उठी, विनाशकारी अभियानों पर चल पड़े... अरब देश में रेगिस्तान है, वहां कट्टरता का होना स्वाभाविक है...जहाँ मैदानों में सभ्यता का विकास हुआ, वहां लोग अपने घरौंधे में बंद हैं... भारत की स्त्रियों में एक विशेष प्रकार का सौंदर्य है. इनके चेहरे पर पारदर्शी त्वचा है, उस पर हल्का गुलाबीपन है. यह सहज स्वास्थ्य की लालिमा नहीं है, यह ऐसी लालिमा है जिसका सहज संस्कार किया गया है, मानो भीतर से उसमें प्राण फूंक दिए हैं...यह ऐसी शिथिलता का सौन्दर्य है कि जो कुछ भी जड़, कठोर, अंतर्विरोधमय है, वह अंतर्धान हो जाता है, और हमें केवल भावप्रवण अवस्था में आत्मा दिखाई देती है. किन्तु इस आत्मा में स्वतंत्र, आत्मनिर्भर चेतना की मृत्यु का आभास मिलता है.(शर्मा, 1986: 254: 259)

[iii]...Strategy was the same as in the previous instance—that is, a joint operation of wars and words, modified only to the extent that the wars were to be British and the words German. 

Three centuries was a lot of time of course. Meanwhile, guns and gunboats had grown in size. Equally, if not more significantly, the hands and minds that deployed them were those the West had put at the helm of each of its emergent nation-states. Philosophy was attuned to this development at an early stage...But it was left to Hegel, caught up as he was in the ebb and flow of the European revolutions of his time, to lay the foundations of a comprehensive philosophy of history with the question of the state at its core. A people or a nation lacked history, he argued, not because it knew no writing but because lacking as it did in statehood it had nothing to write about. (Guha, 2002: 8-9)

[iv]डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘परंपरा का मूल्यांकन’ एक तरह से हिंदी की जातीय-संस्कृति या ज्ञान-परंपरा का एक एम्पिरिकल खाका प्रस्तुत करती है. जहाँ संस्कृत के भवभूति से लेकर उर्दू के फ़िराक गोरखपूरी तक को समेटा गया है. बीच में संत साहित्य, रीतिकालीन साहित्य, भारतेंदु हरिश्चंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला से लेकर आधुनिक साहित्य तक की चर्चा है.

[v]मनुस्मृति, कामसूत्र आदि के हवाले से काव्यमीमांसा में राजशेखर कहते हैं, “पूर्व और पश्चिम सागर एवं हिमालय तथा विन्ध्याचल के बीच का भाग आर्यावर्त कहा जाता है. इस आर्यावर्त में चार आश्रमों तथा चार वर्णों की व्यवस्था है. इन्हीं वर्णाश्रम के आधार पर यहाँ सदाचार प्रचलित है. प्रायशः यहीं का व्यवहार कवियों का आदर्श होता है. माहिष्पस्त नगरी से आगे दक्षिणापथ है. उसमें महाराष्ट्र, माहिषक, अश्मक, सिंहल, चोड, दंडक, पाण्डय, गांग, पल्लव, नासिक्य, कोंकण, कोल्ल्गिरी, वल्लर आदि जनपद हैं...इन सब देशों के बीच मध्यदेश है. यह कवियों के व्यवहार में प्रचलित है, पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यह केवल कवि-व्यवहार में ही प्रचलित नहीं, अपितु शास्त्रसमर्थित भी है. जैसा कि कहा है- हिमाचल और विन्ध्याचल के बीच विनाशन से पूर्व तथा प्रयाग से पश्चिम मध्यदेश कहा जाता है. 

दक्षिणात्यों की कृष्णता का उदारहण- सूर्यकायह बिम्ब जो गलाए स्वर्ण-गोलक के समान है तथा जिसकी ज्योति मंद पड़ गयी है. धीरे-धीरे निचे जा रहा है. उधर पूर्व दिशा में मुरल-देश (दक्षिण में अवस्थित देश) निवासिनी स्त्रियों के कपोल के भांति मलिन तथा वृक्षों की छायाओं से पुंजीभूत-सा अन्धकार का समूह प्रसृत हो रहा है.” (राजशेखर, 2013: 198-199, 205)

[vi]यदि आप बुद्धिस्ट सिद्ध साहित्य और नाथपंथी योगियों के साहित्य की बानगियों का परिक्षण करेंगे तब पायेंगे कि यह देशभाषा संग मिश्रित अपभ्रंश है, जैसे कि पुरानी खड़ी बोली. वे अपने दोहा में इसी भाषा का उपयोग करते थे और यह भाषा गुजरात, राजस्थान, ब्रज से लेकर बिहार तक के शिक्षित लोगों में प्रचलित थी. वहीं सिद्धों की भूमि होने के कारण मगध के पूर्वी छौंक को भी आप इसमें देख सकते हैं.’उद्धृत (राय, 1984: 51)

[vii]ब्रजभाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोय/ मिलै संस्कृत पारस्यो पै अति प्रगट जू होय. एलिसन बुश ने अपने लेख ‘रीति और रजिस्टर’ में फारसी और ब्रज, कैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ तरीके से संवाद कर रहे हैं, इसके उदाहरण के बतौर इसे उद्धृत किया है. (बुश, 2010:88)
(प्रतिमान के नए अंक में भी प्रकाशित')
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सन्दर्भ:
1.   गनेरी, जोनार्डन, 2012, दारा शिकोह एंड ट्रांसमिशन ऑफ़ उपनिषद टू इस्लाम, [इन:] माइग्रेटिंग टेक्स्ट्स एंड ट्रेडिशन, विलियम स्वीट (स.)यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओटावा प्रेस, पृष्ठ: 177-188.
2.   गुहा, रंजीत, 2002, हिस्ट्री ऐट लिमिट ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क.
3.   चाटुर्ज्यासुनीति कुमार, 1989, भारतीय आर्यभाषा और हिंदीराजकमल प्रकाशन प्रा. लि.दिल्ली.
4.   चाटुर्ज्या, सुनीति कुमार, 1954, भारतीय आर्यभाषा और हिंदी, राजकमल पब्लिकेशन लि. बम्बई.
5.   छिब्बर, विवेक, 2013, पोस्ट कोलोनियल थ्योरी एंड स्पेक्टर ऑफ़ कैपिटल, वर्सो, लन्दन-न्यूयॉर्क.
6.   झा, शैलेन्द्र, 1974, ब्रजबोली साहित्य, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना.
7.   तलवार, वीर भारत, 1991, हिंदी भाषा-विज्ञान की दूसरी परंपरा, [इन:] “पहल” – 42 (में प्रकाशित)ज्ञानरंजन (स.), पृष्ठ: 55-71
8.   थॉमस, आर. ट्रॉटमैन, 2006, लैंग्वेज एंड नेशन: द द्रविड़ियन प्रूफ्स ऑफ़ कोलोनियल मद्रास, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस, लन्दन.
9.   पॉलक, शेल्डन, 2002, कॉस्मोपॉलिटन वर्नाक्यूलर इन हिस्ट्री, [इन:] “पब्लिक कल्चर” 12 (3), ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ: 591-625
10. पॉलक, शेल्डन, 1998, द कॉस्मोपॉलिटन वर्नाक्यूलर, [इन:] “द जर्नल ऑफ़ एशियन स्टडीज” 57  (1), पृष्ठ: 6-37 
11. पॉलक, शेल्डन, 2002, कॉस्मोपॉलिटन वर्नाक्यूलर इन हिस्ट्री, [इन:] “पब्लिक कल्चर” 12 (3), ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ: 591-625
12. फारुकी, शम्सुर्रहमान, 2003, ए लॉन्ग हिस्ट्री ऑफ़ उर्दू लिटरेरी कल्चर पार्ट-1, [इन:] लिटरेरी कल्चरस्इन हिस्ट्री इन हिस्ट्री रीकंस्ट्रक्शनस् फ्रॉम साउथ एशिया,  शेल्डन पॉलक (स.), यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ: 805-863.
13. फारुकी, शम्सुर्रहमान, 2007, उर्दू का आरंभिक युग: साहित्य एवं साहित्य के पहलू, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली.
14. बुश एलीसन, 2010, रीति एंड रजिस्टर, [इन:] हिंदी एंड उर्दू लिटरेरी कल्चर, बिफोर द डिवाइडफ्रेंचेस्का ऑर्सेनी (स.), ओरिएंट ब्लैक स्वान प्रा. लि., पृष्ठ: 84-120
15. राजकुमार, 2018, हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली.
16. राजशेखर, 2013, काव्य-मीमांसा, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी.
17. राधाकृष्णन, 2001, उपनिषदों का सन्देश, राजपाल एंड संस, दिल्ली.
18. राय, अमृत, 1984, हाउस डिवाइडेड: द ओरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ़ हिंदी/हिंदवी, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली.
19. शर्मारामविलास, 2007, मार्क्स और पिछले हुए समाजराजकमल प्रकाशनप्रा. लि.दिल्ली.
20. शर्मारामविलास, 2006, भाषा और समाजराजकमल प्रकाशन प्रा. लि.दिल्ली.
21. शर्मारामविलास, 2004, परंपरा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.दिल्ली.
22. शर्मा, रामविलास, 2004, भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएं, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली.
23. सेन, सुकुमार, 1935, ए हिस्ट्री ऑफ़ ब्रजबुली लिटरेचर, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कलकता, कलकता.
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हां बोल दो न : टोबॉयस वोल्फ (यादवेन्द्र)

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अमरीकन कथाकार Tobias Wolff(जन्म: जून १९, १९४५) की कहानी ‘Say Yes’ का लेखक-अनुवादक यादवेन्द्र द्वारा हिंदी रूपांतरण ‘हां बोल दो न’ पढ़ते हुए लगता है कि आप किसी टिक-टिक करते टाइम बम्ब पर बैठे हैं जो अब फटा तब फटा. पत्नी के साथ किचन में हाथ बटाते हुए पति का यह कहना कि गोरे लोगों को कालों के साथ शादी नहीं करनी चाहिए’ इस कहानी को रंग भेद (भारत में जाति) और संस्कृतियों के अंतर में लावे की तरह धधक रहे ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा कर देता है. कहानी में बर्तन और साफ़ सफाई भी बहुत कुछ कहते हैं जैसे वे भी इस कहानी के पात्र हों.

प्रस्तुत है कहानी 



टोबॉयस वोल्फ
हां बोल दो न                       
यादवेन्द्र








सोई में अभी दोनों मिलकर बर्तन साफ कर रहे थे- उसकी पत्नी बर्तनों को धो रही थी और वह उन्हें सुखा रहा था. कल रात उसने बर्तन साफ किए थे. अपनी पहचान वाले लोगों में वह कम लोगों को जानता था जो घर के काम काज करना और समेटना करते थे. अभी कुछ दिनों पहले की बात है उसकी पत्नी से कोई सहेली कह रही थी कि तुम बड़ी किस्मत वाली हो कि तुम्हारा पति इतना मददगार और तुम्हारा हाथ बंटाने वाला है, यह बात उसने दूसरे कमरे से सुनी थी. उसके बाद उसे लगा जैसा वह सहेली कह रही थी उसे वैसा बनने की कोशिश करनी चाहिए. उसे लगा कि बर्तन साफ करने और सहेजने का काम ऐसा था जिसके माध्यम से वह यह साबित कर सकता था कि वह वास्तव में एक समझदार और मददगार पति है.

काम करते हुए वे अलग-अलग विषयों पर बात कर रहे थे पर अचानक उनकी बातचीत इस बिंदु पर आकर टिक गई कि गोरे लोगों को कालों के साथ शादी करनी चाहिए या नहीं. उसने अपनी राय दी कि सारे पहलुओं पर गौर करते हुए उसे यह विचार सही नहीं लग रहा है.
"क्यों?", उसकी पत्नी ने तपाक से पूछा.

कई बार उसकी पत्नी अपनी भवों को तिरछा कर निचला होंठ दबाकर उसे ऐसे ही घूरती है जैसे उस समय कर रही थी. अपनी पत्नी के ये तेवर देखकर उसने यही उचित समझा कि अपना मुंह बंद रखे, इस विषय में आगे और कुछ न बोले पर उसका ऐसा सोचना सच में संभव कहां हो पाया, जिस मुद्दे पर बात शुरू हुई थी वह आगे बढ़ती ही गई. पत्नी के चेहरे पर वही तीखे तेवर थे.

"क्यों?", एक बर्तन के अंदर अपना हाथ डालकर काम करते हुए पल भर को ठहर कर उसने फिर पूछा.

"सुनो", उसने कहा,"मैं अपने स्कूल में काले लड़कों के साथ पढ़ा हूं, मैंने कालों के साथ काम किया है और मुझे कभी उनके साथ कोई दिक्कत नहीं हुई, हमारे बीच बहुत अच्छे संबंध रहे. यहां मैं तुम्हें यह बात इसलिए बताना जरूरी समझता हूं जिससे तुम्हारे मन में यह गलतफहमी न पैदा हो जाए कि मैं काले गोरे का भेद करने वाला एक रेसिस्ट हूं."

"मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं", पत्नी ने जवाब में कहा और हाथ घुमा-घुमा कर बर्तन फिर से साफ करने लगी."मैं तो बस इतना मानती हूं कि यदि कोई गोरा इंसान किसी काले इंसान से शादी करता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है.... बस इतनी सी तो बात है."

"वे दोनों अलग संस्कृति वाले लोग हैं, हम दोनों जैसे एक समान संस्कृति के लोग नहीं हैं. कभी उन लोगों की बातचीत सुनो, उनकी जुबान तक हमसे अलग होती है. वैसे मुझे उनको लेकर कोई दिक्कत नहीं है, मैं उनके साथ बातचीत मजे से कर सकता हूं."
उसने जो कहा सचमुच वैसा करता भी था और ऐसा करके उसे अच्छा लगता था.
"पर यह मुश्किल तो है,उनकी संस्कृति का एक इंसान हमारी संस्कृति के किसी इंसान को वास्तविक रूप में अच्छी तरह से जान सकता ही नहीं, उनके बीच अंतर हर दम बना ही रहेगा."

"जैसे तुम मुझे जानते हो?", उसकी पत्नी ने पूछा.
"हां, बिल्कुल सही- जैसे तुम मुझे जानती हो."

"लेकिन यदि उन दोनों के बीच प्यार हो, तब?", पत्नी ने कहा.

उसने बर्तनों की सफाई के अपने काम की रफ्तार थोड़ी बढ़ा दी थी और उसकी तरफ सीधा देख कर बोल रही थी.

"देखो जो मैं कह रहा हूं उन शब्दों को मत पकड़ो, बाल की खाल निकालना छोड़ो... जो आंकड़े हमारे सामने हैं उनकी तरफ भी गौर करना चाहिए. वे साफ़-साफ़ बताते हैं कि गोरे और कालों की ज्यादातर शादियां ब्रेकअप के रूप में टूट जाती हैं."

"आंकड़े?", पत्नी जल्दी-जल्दी अपना काम पूरा करती जा रही थी.
कई बर्तनों में अब भी चिकनाई लगी हुई थी और कांटों के बीच में खाने के टुकड़े फंसे हुए थे.

"चलो तुम्हारी बात मान लेती हूं", पत्नी ने कहा: "पर विदेशियों का क्या? मुझे लगता है कि उनके बारे में भी तुम्हारी यही राय होगी कि अलग-अलग देशों से आए हुए दो लोग शादी करके भी बेमेल ही रहेंगे...रहने को चाहे वे जीवन भर साथ रह लें."

"यह तुम ठीक कह रही हो,सच्चाई यह है कि उनके बारे में भी मेरी राय यही है- बिल्कुल अलग तरह की परवरिश के बाद एक दूसरे से मिले दो लोग कैसे एक दूसरे को समझ सकते हैं?"

"अलग?", पत्नी ने कहा, "एक समान नहीं, जैसे हम दोनों?"
"हां, मैंने यही तो कहा कि अलग", उसने खीझ कर कहा.

उसे इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि पत्नी उसी के शब्दों को बार-बार इस तरह दोहरा रही है कि उनके अर्थ बदले हुए लगें या लगे जैसे मैं ढोंग वाली कोई बात कह रहा हूं.
इसी गुस्से में उसने चांदी के सारे बर्तनों को एक साथ सिंक में पटक दिया :

"ये सब गंदे हैं."
पत्नी ने उनकी तरफ निगाह मारी, अपने दोनों होंठ कस के दबा लिए और हाथ लगाकर बर्तनों को छुआ.

"ओह", उसने जोर से आवाज निकाली और पीछे की ओर कूद पड़ी. दाहिना हाथ ऊपर उठाकर देखा तो अंगूठे से खून बह रहा था.

"ऐन, अभी वहीं खड़ी रहो... मैं गया और बस आया", उसने कहा और दौड़ता हुआ सीढ़ियों से ऊपर बाथरूम तक गया. वहां रखी दवाइयां, रुई और बैंड एड लेकर नीचे आया तो देखा कि पत्नी फ्रिज से टिक कर, अपनी आंखें मूंदे हुए और दूसरे हाथ से अपना जख्मी अंगूठा थामे हुए खड़ी है.

उसने पत्नी का हाथ पकड़ा और अंगूठे के चारों ओर रुई लपेट दी, खून बहना रुक गया था.

उसने अंगूठे को थोड़ा दबाया जिससे यह देख सके कि जख्म कितना गहरा है...खून का एक कतरा नीचे फर्श पर टपक पड़ा. पत्नी ने उसकी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा.

(Promotesh Das Pulak: Beautiful way to die)
"मामूली सी चोट है, कोई गहरा जख्म थोड़े ही है...देखना, कल जब तुम इसे देखना चाहोगी तो ढूंढे भी नहीं मिलेगा.", उसने माहौल को हल्का करने की गरज से कहा. उसे उम्मीद थी कि पत्नी मदद करने की उसकी फुर्ती देखकर प्रभावित होगी... उसके मन में पत्नी की मदद करने की सरल इच्छा भर थी, उसके बदले किसी प्रकार के अवदान की बिल्कुल नहीं.

उसी समय उसके मन में यह ख्याल आया कि पत्नी उसके दयालु व्यवहार को देखकर इतना तो कर ही सकती है कि जो बहस अब तक चल रही थी उसको फिर से आगे न बढ़ाए... बहुत हो गया, वह उस विषय पर बात करते-करते थक चुका था.

"अब बाकी काम मैं कर लूंगा", उसने पत्नी से कहा:
"तुम यहां से हटो, और अब जाकर बिस्तर पर आराम करो."


"ठीक है, मैं हाथ सुखा लेती हूं", पत्नी ने जवाब दिया.


उसने चांदी के बर्तनों को फिर से हाथ लगाया, उनकी सफाई शुरू की पर कांटों का विशेष ध्यान रखा जिससे गफलत में पहले वाले हादसे की पुनरावृत्ति न हो.

"इसका मतलब यह हुआ कि यदि मैं काली होती तो तुम मुझसे शादी नहीं करते", पत्नी ने बात का सिरा आगे बढ़ाया.

"खुदा के लिए, ऐसा न कहो ऐन"
"तुमने ही तो कहा था...बोलो, क्या ऐसा नहीं कहा था तुमने?"

"नहीं, मैंने ऐसा बिल्कुल नहीं कहा. यह पूरा सवाल ही एकदम वाहियात और बेहूदा है. यदि तुम काली होतीं तो इस बात की भरपूर संभावना होती कि हम कभी मिलते ही नहीं. तुम्हारे तुम्हारी तरह के दोस्त होते होते और मेरे मेरी तरह के दोस्त होते. इतने सालों में अब तक मैं सिर्फ एक काली लड़की को जानता हूं जो डिबेट में मेरी पार्टनर हुआ करती थी और जब उससे मुलाकात हुई उससे पहले ही हमारी पहचान हो गई थी... और हम अपने भविष्य के बारे में सपने देखने लगे थे."

"फर्ज़ करो हम एक दूसरे से मिले होते... और मैं गोरी नहीं काली होती?"
"तब भी तुम मेरे साथ नहीं बल्कि किसी काले लड़के के साथ जुड़ी होतीं."

उसने साबुन के छींटे बर्तनों पर मारे, नल का पानी इतना गर्म था कि पहले तो बर्तनों का रंग नीला  हो गया, फिर धीरे-धीरे ठंडा होने पर चांदी का अपना स्वाभाविक  रंग लौट आया.

"फर्ज़ करो ऐसा नहीं होता... मैं काली होती और किसी काले लड़के के साथ मेरा कोई चक्कर नहीं होता. तब क्या हम मिलते और गोरे काले होते हुए भी दूसरे के प्यार में पड़ जाते?"पत्नी ने  जोर दे कर कहा.

उसने पत्नी को गौर से निहारा...देखा, वह भी उसकी ओर ही देख रही थी. पत्नी की आंखों में एक अलग तरह की चमक थी.

"देखो, इतनी देर से तुम कैसी बेवकूफी भरी बातों को घोंटती जा रही हो,  सीधी से बात यह है कि यदि तुम काली होतीं तो वह तुम  होतीं ही नहीं", इस बार उसने अपनी आवाज़ में निर्णायक गंभीरता थोपते हुए कहा.

ऐसा कहने के बाद उसने महसूस किया कि उसने जो कहा वह शत प्रतिशत सही था. इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि उसकी पत्नी यदि काली होती तो वह बिल्कुल नहीं होती जो आज है, इसीलिए उसने फिर से दुहराया:"यदि तुम काली होतीं तो जो आज हो वह तुम तुम होती ही नहीं ."

"जानती हूं"पत्नी ने कहा: "लेकिन मान लो "

उसने गहरी सांस ली. यह सही था कि बहस वह जीत गया था पर पत्नी ने हथियार अभी डाले नहीं थे.

"क्या मान लूं?", उसने पूछा.

"यही कि मैं काली हूं और मैं वही हूं जो मैं हूं... और हम दोनों प्यार में पड़ जाते हैं. तब क्या तुम मुझसे शादी करोगे?"

उसने इस मुद्दे पर विचार किया.

"चुप्पी मत ओढ़ो, बोलो", यह कहते हुए वह उसके पास आकर खड़ी हो गई,उसकी आंखों में अब पहले से ज्यादा चमक आ गई थी.
"बोलो, क्या मुझसे शादी करोगे?"
"मुझे सोचने तो दो", उसने जवाब दिया.

"बिल्कुल नहीं करोगे, मैं पहले ही बता सकती हूं. सोचने के बाद तुम यही जवाब दोगे... कि नहीं."
"तुम तो बस अपनी बात पर अड़ी हुई हो..."
"अब और सोच विचार नहीं ... सीधा बोलो: हां या ना?"
"हे भगवान... तो चलो ऐन, मैं ना कहूंगा."

"शुक्रिया", यह कहते हुए पत्नी किचन से निकलकर अंदर कमरे में चली गई. थोड़ी देर के बाद उसने पत्नी को किसी पत्रिका का पन्ना पलटते हुए सुना,उसे मालूम था कि पत्नी जितने क्रोध में है उसमें पढ़ाई तो क्या ही होगी. हालांकि पत्नी इस बात का ध्यान रख रही थी कि उसके क्रियाकलाप से उसके क्रोध का पता बिल्कुल न चले, इसीलिए वह पत्रिका के पन्नों को हौले-हौले पलट रही थी जिससे यह लगे कि वह छपे हुए एक-एक शब्द को बड़े गौर से पढ़ रही है. वह भरपूर कोशिश कर रही थी कि जता सके कि इन सारी बातों से उसके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. उसे मालूम था कि वह जो कर रही है उसे जतलाने के लिए ही कर रही है, इस बात ने पुरुष को ज्यादा आहत किया.

अब उसके पास भी पत्नी के प्रति बेरुखी दिखलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. बिल्कुल चुपचाप रह कर और धैर्यपूर्वक उसने शेष बचे बर्तनों को साफ किया, उन्हें सुखाया और जगह पर रखा. उसके बाद स्टोव और स्लैब को पोंछा,फर्श पर जो खून की एक बूंद पड़ी थी उसको भी साफ किया. जब सब काम पूरा हो गया तो उसने सोचा फर्श को बुहार भी दिया जाए. यह काम पूरा करने के बाद उसे तसल्ली हुई, किचन वैसा ही नया-नया  लगने लगा जैसे पहली बार वे जब घर देखने आए थे तब लगा था.

उसने कूड़े वाली बाल्टी उठाई और घर से बाहर निकलने को हुआ- आसमान एकदम साफ था और पश्चिम दिशा में उसे कुछ तारे दिखाई दिए जो शहर की चकाचौंध से धुंधले नहीं पड़े थे. एल कैमिनो पर ट्रैफिक की रफ़्तार धीमी दिखाई दे रही थी... उसकी गति भी उतनी ही सुस्त थी जितनी नीचे बहती नदी की.

उसे लगा उसने पत्नी से खा--खा झगड़ा मोल ले लिया. अब उम्र ही कितनी बची है- मुश्किल से 30साल और जब वे दोनों इस दुनिया में नहीं होंगे- फिर यह सब झगड़ा झंझट क्यों मोल लेना. सोचते सोचते उसे दोनों के साथ बिताए दिन याद आने लगे,उसे लगा कि दोनों के बीच कितनी अंतरंगता रही है, दोनों एक दूसरे को कितनी अच्छी तरह से जानते समझते हैं. यह सोचते हुए उसका गला इतना भर आया कि सांस लेना मुश्किल होने लगा.

उसके चेहरे और गर्दन में झुरझुरी उठने लगी, सीने में उसने गर्माहट महसूस की. थोड़ी देर इसी तरह खड़ा रह कर वह इन अनुभूतियों का आनंद लेता रहा. फिर कूड़े की बाल्टी लेकर वह घर से बाहर निकल आया.

बाहर निकलने पर दो कुत्ते कूड़े की बाल्टी के लिए छीना झपटी करने लगे- उनमें से एक जमीन पर लोट रहा था और दूसरे के मुंह में कुछ था जिसे धीरे-धीरे गुर्राते हुए उसने बाहर निकाला, फिर अपने मुंह में लिया और बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराए जा रहा था. उसके हाथ में कूड़े की बाल्टी  देखते ही दोनों कुत्ते झपट्टा मारते हुए उसकी तरफ बढ़े. आमतौर पर वह कुत्तों को अपनी ओर आते देख पत्थर मारकर उन्हें भगा देता था लेकिन आज उसने उन्हें रोका नहीं.

जब वह अंदर आया तो घर में अंधेरा पसरा हुआ था. पत्नी बाथरूम में थी, दरवाजे पर खड़े होकर उसने उसे आवाज दी. अंदर से उसे बोतलों के टकराने की आवाज आ रही थी लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला.

"ऐन, मैं बहुत शर्मिंदा हूं, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था", उसने कहा:"चलो, आगे से ऐसा नहीं करूंगा... वायदा करता हूं."
"कैसे भला?"उसने पूछा.
उसे इस सवाल की उम्मीद कतई न थी, पत्नी की आवाज और उसके अंदर समाए हुए भाव उसे एकदम अजनबी लगे. उसे समझ आ गया है कि जो भी जवाब उसे देना है बहुत सोच समझकर और सावधानी से देना होगा. वह दरवाजे से टिक कर खड़ा हो गया.

"मैं तुमसे शादी करूंगा",वह धीरे से फुसफुसाया.
"देखते हैं", उसने कहा..."तुम बिस्तर पर चलो, मैं एक मिनट में आई."
उसने अपने कपड़े उतारे और बिस्तर पर आकर चादर ओढ़ कर लेट गया. थोड़ी देर के बाद उसे बाथरूम का दरवाजा खोलने और फिर बंद करने की आवाज़ सुनाई दी.
"लाइट बंद कर दो",बिस्तर की ओर आते हुए उसने हिदायत दी.
"क्या कहा?"
"कहा,लाइट बंद कर दो."

उसने हाथ बढ़ाकर बिस्तर के बगल में रखा लैंप बंद किया, कमरे में अंधेरा पसर गया.
"अब ठीक है."उसने कहा.
वह बिस्तर पर वैसे ही पड़ा रहा लेकिन कहीं कुछ अलग हुआ नहीं.
"ठीक है."उसने फिर कहा.

उसे कमरे में चहलकदमी होती हुई महसूस हुई. वह उठ कर बैठ गया पर साफ़-साफ़ कुछ दिखाई नहीं पड़ा. कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था. उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा बिलकुल वैसे ही जैसे सुहागरात के पलों में धड़क रहा था. उस रात भी जब मध्य रात्रि में अंधेरे शोर के बीच उसकी नींद खुली तो वह उन आवाजों को दम साध कर सुनने की कोशिश करने लगा घर के बीच चहलकदमी करता कोई इंसान... पर उससे एकदम बेपरवाह, एकदम से अजनबी.

(अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण यादवेन्द्र )
यादवेन्द्र
______






बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.

प्अरचुर अनुवाद और मौलिक लेखन, साहित्य के अलावा सैर सपाटा, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी  का शौक.
yapandey@gmail.com

संजुक्ता दासगुप्ता की कविताएँ (अनुवाद- रेखा सेठी)

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'संजुक्ता दासगुप्ताअंग्रेज़ी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं. उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं— Snapshots (1996), Dilemma (2002), First Language (2005), More Light (2008), Lakshmi Unbound (2017)और Sita’s Sisters (2019).उदात्त की तलाश में उनकी कविता, अनेक तत्त्वों को साथ ले आती है. अपनी कविताओं में उन्होंने मिथक और दर्शन का सृजनात्मक प्रयोग किया है. अतीत में आवाजाही करते हुए ये कविताएँ समकालीन संवेदना की सघन अभिव्यक्ति हैं. ‘सीता की बहनें’ इसका विलक्षण उदाहरण है.

कवि होने के साथ-साथ संजुक्ता दासगुप्ता कलकता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अंग्रेजी विभाग की अध्यक्ष रही हैं. वे सफल अनुवादक एवं आलोचक भी हैं. उनकी आलोचकीय रचनाओं में प्रमुख हैं---The Novels of Huxley and Hemingway: A Study in Two Planes of Reality, Responses : Selected Essays, Media, Gender and Popular Culture in India: Tracking Change and Continuity.उन्हें अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है.'
रेखा सेठी





संजुक्ता दासगुप्ता की कुछ कविताएँ
(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद रेखा सेठी)




सीता की बहनें  

सीता की बहन अच्छी औरत थी
वह केवल एक ही आदमी की हुई
ब्याह, सिंदूर-
चूड़ियाँ खनकती थीं उसकी कोमल कलाइयों में
उसका पति था उसका परमेश्वर
उसका मालिक और स्वामी
साँसें उसकी घुटी-घुटी थीं, होंठ बंद
वह शेर खूँखार था और यह भीगी बिल्ली
आँख मिलाना था एकदम वर्जित

"मेरी तरफ देखने की हिम्मत कैसे की"वह चिल्लाता
"मैं तुम्हारी आँखें निकाल लूँगा, बेशर्म औरत"

सीता की हैं असंख्य बहनें---क्या नाम हैं उनके
रीता, मीता, अर्पिता, सुमिता, रिनीता
लोलिता, बोनिता, अनीता, सुनीता, सुचेता...  

हज़ारों-हज़ार सीता की बहनें  
रटंतु तोतों-सी, दयनीय कठपुतलियाँ
रिमोट से चलती रोबोट जैसीं

सीता की बहनें देखती हैं नि:शब्द
सीता की बहनें हैं गूंगी और बहरी
सीता की बहनें जब करती हैं बंद आँखें
आँखों की जगह होते हैं खाली गड्ढे

सीता की बहनें पुकारती हैं माँ धरती को
“याद रखना माँ, हमारी बहन सीता की आत्महत्या,
बेगुनाह सीता की यातनापूर्ण परीक्षा
हे माँ, बचाना हमें
बचाया था जैसे सीता को, तुमने”

लेकिन हाय सीता की बहनों के लिए धरती की छाती नहीं फटी
सीता की उदास बहनों की लगातार उठती असहनीय चीखों ने
धरती माँ को संवेदनहीन पत्थर में बदल दिया!



एक सोये हुए गाँव की दास्तान

एक सोये हुए गाँव ने तमंचे उगाये
अचानक एक सोये हुए गाँव पर
कई रंग के झंडों ने चढ़ाई कर दी थी
उस साल खेतों में तमंचे उगे

किसानों ने देखे सपने अविनाशी उपग्रह शहर के
पटरियाँ सोने की और झंकार स्टील की
आलीशान एक चेतावनी

गहरी नींद में डूबा रहा
एक सोया हुआ गाँव
नहीं पकड़ पाया संदिग्ध बातों के द्विअर्थी मायने

हाय एक सोया हुआ गाँव
चंचल वायदों की लोरियों के बहकावे में
छला गया लच्छेदार बातों के पेचोखम में

सीधे-सादे गाँव वालों ने तमंचे उगाये उस वर्ष
बंदूकों के घोड़े दबाना सीखा
जबकि हलों पर जमती रही धूल 

एक सोये हुए गाँव ने
मृत्यु देखी उस वर्ष
कर उठे चीत्कार, "अकेला छोड़ दो हमें"

जो सच को झूठ की तरह बरतते हैं
उनके झाँसे में आ गए
सपनों के बदले पाए दु:स्वप्न
शैतानी चंगुल की गिरफ़्त में छटपटाये

एक सोया हुआ गाँव
डूब गया लहू और आँसुओं में
तीन फसलें उगाई-बंदूकों, गोलियाँ और बम

चालाक अजनबियों की शहद भरी बातों के
नशे में डूबे शब्दों के जाल में उलझे
एक ही रात में निवासी से शरणार्थी हुए

ताक़त का खेल चलता रहा
डर पीछा करता रहा उनका
बम विस्फोट का धमाका और मौत की ख़ामोशी

संज्ञाहीन संदेशवाहक लड़के-लड़कियाँ, बंधक मनुष्य
मूर्छित थी हिम्मतताई उस मैदानी गाँव में
ब्रेश्ट और गोर्की की माएँ फँस गयी थीं
कठपुतली नचाने वालों के जाल में.


एक रात अचानक गायब हो गया
यह सोया हुआ गाँव
अपने लोगों, मिटटी और खंदकों के साथ
उड़न-तश्तरी सा

यह सोया हुआ गाँव
फिर सो गया गहरी नींद
सुख की साँस लिए

जागना उनके लिए दुखद और भयावह रहा 




पतझड़

बसंत को अब मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ
मेरे झुर्रियों भरे हाथों को
थामता है पतझड़, कोमलता से
पतझड़ के आलिंगन में
मैं जानती हूँ अब
यदि पतझड़ आया है
तो बहुत दूर नहीं होगा शिशिर

बसंत अचानक ले आता खुशियाँ और ग़म  
और जादुई बरसात, घावों को भर कर
मुलायम कर देती
अब, अनचाहे ही खूब ख्याल रखने पर भी
बालों में सफेदी चाँदी-सी चमकती है
पतझड़ मेरी आँखों में है
मोतियाबिंद और झरते आँसुओं में
घिर आता धारा-प्रवाह, जबकि रोती नहीं मैं अब

उल्लास से भरा वसंत
झूठ लगता है अब
संवेदना जगाता पतझड़
करता है तैयार चिर शीत-निद्रा के लिए
पीछे से आ रही शिशिर के कदमों की आहट


 
(painting : Subrata Ghosh)




दुर्गा

ओ महिमामयी देवी भगवती
पाप नाशिनी दुर्गा
निरीह दुर्बलों की माँ
नर-पिशाच असुर मर्दिनी

देवी चंडी, उठाये शस्त्र
करती निरस्त्र शंका के दानव
स्त्री होकर उठाये शस्त्र
करने पार दुखों का सागर

माँ दुर्गा की कैसी वापसी
आसपास उसकी संतानें
अस्त्रों-शस्त्रों से सजी-धजी
चमकती शमशीर, भयंकर त्रिशूल
जंगल के राजा पर होकर सवार
अमंगल के हृदय में गड़ाए
अपना अचूक शूल

दुर्गा का बजाया शंख
सदियों से गूँज रहा
धरती की छाती में
सोये बीज जगाने को
निर्भय करती उसकी पुकार
नन्हें अंकुर को शीश उठाने को

बालक-सी असहाय धरती को
बाहों का झूला देती
माँ-रूपा देवी है दुर्गा !
  


मेरी माँ का हारमोनियम

हमारे चलते हुए गलियारे के कोने में
हारमोनियम पड़ा है चुपचाप
एक गहरे रंग के बक्से में
बड़े पत्थर की तरह

"मेरे पाँच साल के बेटे को
हरमोनियम का बहुत शौक है 
मेज़ पर कंघी बजाते हुए
वह मन ही मन हारमोनियम बजाता है"

हम भूल ही चुके थे कि
मेरी माँ का हारमोनियम
पड़ा है गलियारे के कोने में
शांत और अचल

जब-जब सफाई अभियान चलाते
हम परछत्ती पर ढूँढते 
माँ का हरमोनियम
किसी ने उसे दे तो नहीं दिया
कहीं कबाड़ी के साथ तो नहीं चला गया
मेरे मन में एक टीस-सी चुभती है

फिर अचानक
इक कौंध की तरह
मन के परदे पर कौंधता है
उस लंबी गलियारे में
उपेक्षित पत्थर-सा पड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम

बरसों बाद बक्से से निकाला जाता है  
वैसा ही शांत, मुस्कुराता है
जैसा वह हुआ करता था
ज़र्द पीली पड़ चुकी है सुरों की सफेदी
हारमोनियम का गहरा रंग
घुल गया ताज़ी हवा में

बरसों से गहरे रंग के लकड़ी के बक्से में जकड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम पुनः प्रकट होकर
कल एक नई यात्रा शुरू करेगा
पहुँचेगा जब
वह पाँच साल के बच्चे के घर

लेकिन आज की रात मैं उस पुराने हारमोनियम पर
उंगलियाँ फिराकर बजाऊँगी कुछ पुरानी धुनें
जो मैं और मेरी माँ साथ-साथ गाते थे  
कभी यह हारमोनियम
कई कार्यक्रमों में बड़े-बड़े सभागारों की यात्रा करता था

हमेशा गाते हुए, मेरी माँ को
अपना ही हारमोनियम बजाना अच्छा लगता
या मेरी संगत करना
जब गाऊँ मैं अकेली या उनके साथ
उस आखिरी बार भी हमने ऐसा ही किया था
जब साथ थे हम
अंतिम यात्रा पर उनके जाने से पहले

कल मेरी माँ बनेंगी गुरु
पाँच साल की उन नन्हीं उंगलियों की
जो बजाएँगी मेरी माँ का हारमोनियम
ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने कभी
उँगलियाँ साधना सिखाया था अपनी बेटी को
जब थी वह सिर्फ़ पाँच साल की

फिलहाल मैं विदा गीत गाऊँगी
बजाकर अपनी माँ का हारमोनियम



लोभ

हर रोज़ मेरा लोभ बढ़ता जा रहा

हर नयी सुबह
बंगाल की खाड़ी से
उगते सूरज को देखते रहने का लोभ

फूलों और कलियों से खेलने का लोभ
अपने अदृश्य गुप्त बगीचे में
फूलों के खिलने और बिखरने की नि:शब्द सिम्फनी

बारिश की शाम में
बकुल और कामिनी की सुगंध का लोभ
जब फुहार से भीग रहा होगा मेरा प्यासा रोम-रोम

शहद में डूबे फलों का लोभ
गर्मी के सूरज की छुअन से सुनहरा रंगा
गले से नीचे उतरता आमरस

लोभ, मेरे आसपास फैले ब्रह्माण्ड
और मेरे भीतर बसे ब्रह्माण्ड के
स्पर्श,  गंध,  स्वाद,  दृश्य और ध्वनि का   

लोभ है, निपट लोभ, ऐसा निर्लज्ज लोभ
उस ब्रह्माण्ड का, जिसे मैं आलिंगन में लिए हूँ
बिना किसी अधिकार की जकड़न के
उस लुभावने संपूर्ण का हिस्सा होने का लोभ




करुणा (एक)

करोन्, ज्योति-चक्र हुआ करता था 
सूरज और चाँद को घेरे रोशनी का घेरा 
लेकिन अब यह
प्रकाशहीन, क्रूर और निर्दयी कोरोना 
अदृश्य, मौन, अस्पृश्य
जब तक कि 
हम में से किसी को छू न दे

क्या यह नींद से जगाने की घंटी है 
सुस्त हो चुकी संवेदनाओं के बारे में
या फिर संसार के चक्र से मुक्ति का संकेत 
क्या यह मुक्ति है, निर्वाण सरीखी
करुणा, करुणा, करुणा
संवेदना, सहानुभूति, क्षमा

संसार से निर्वाण तक
ज्योति के चक्र में कोमल उठान 
_______

रेखा सेठीदिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ-साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं. उनका लेखन मूलत: समकालीन हिन्दी कविता तथा कहानी के विशेष आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित है. रचना के मर्म तक पहुँचकर उसके संवेदनात्मक आयामों की पहचान करना उनकी आलोचना का उद्देश्य है. उनके द्वारा अनूदित सुकृता पॉल कुमार की अंग्रेज़ी कविताओं का हिंदी अनुवादसमय की कसकशीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है.

लेखक और संपादक के रूप में उनकी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें प्रमुख हैं---स्त्री-कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य, स्त्री-कविता: पहचान और द्वंद्व,विज्ञापन डॉट कॉमआदि.उनके लिखे लेख व पुस्तक समीक्षाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं.उन्होंने अमरीका के रट्गर्स विश्वविद्यालय,लंदन के इम्पीरियल कॉलेजतथालिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगालमें हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में शोध-पत्र प्रस्तुत किये हैं.
reksethi@gmail.com
9810985759

तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज : विजय कुमार

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(पिकासो)




लम्बी कविता
तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज
विजय कुमार
(कोरोना महामारी में संघर्ष करते हुए तमाम अनाम योद्धाओं को समर्पित)



उतरती धूप और सिहरती हुई पत्तियों ने
कहा कुछ मद्धम मद्धम
कबूतरों की शरारती आंखों ने
और
कोयल की कुहू कुहू ने भी कहा
कि
तुम्हारी खामोश मृत्यु के शोक गीत
लिखे जायेंगे इसी तरह से
तुम्हारी शोरगुल से भरी इस बेतरतीब दुनिया में

वे सांस लेते हैं बंद कमरों में
एक खालीपन की ऊब में
मृत्यु के गलियारे में जमा जरूरतों
और अर्थहीन वस्तुओं के पैम्फ्लेट पलटते


इस उदित होते अस्त होते सूरज को देखो
भूख तुम्हें बताएगी
कुछ आदिम सच्चाईयों के बारे में
सुनसान पड़ी सड़कों के कुछ और भी अर्थ हो सकते हैं
जो तुम्हें समझ में आयेंगे
क्रूरताओं के घूरे पर
कोई थकान उतरी पड़ी होगी
और
कुछ मर्म स्थल बचे हुए होंगे भूले बिसरे

रुई का एक फाहा उड़ता चला जायेगा
इस पूरे संसार पर


रिकॉर्ड रूम से
सेमिनारों से
विडियो कॉन्फ्रेंसों से
परे धकेले जा सकते हैं
तुम्हारी उपलब्धियों के बखान और
गला काट स्पर्धाओं के उद्बोधन
गायब हो चुके सफल मनुष्यों की खोपडियां
एक तरफ रख दी जायेंगी
उनके भीतर भरे हुए
जानकारियों के भंडारों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा
प्रेतों की तरह से खड़े होंगे
बंद पड़े शीशे के शो रूमों में
वैक्यूम क्लीनर ,
कारों के नये मॉडल ,
फ्रिज
और वातानुकूलित यंत्र


कम्यूटर के की-बोर्ड पर उंगलियां चल रही होंगी
पर स्क्रीन पर कुछ नहीं आएगा
कोई
भोलापन कहेगा कि यकीन करो मुझ पर
सुंदरता अभी भी टहल रही है
अंगडाई लेते कुत्तों के झुंड में
नो पार्किंग बोर्डों के नीचे से
लौट रहा होगा कोई अनाम वक्त
बाजारों में
बंद शॉपिंग कॉम्पलेक्सों के व्यर्थ सूचना पट्टों से
कुछ मत कहो कुछ मत कहो

उदास रोते हुए विवरण होंगे
एक लालची दुनिया की चिपचिपाहट
मुरझाये हुए गुलदस्ते, बर्गर किंग ,
ऑनलाइन पेमेंट के डेबिट कार्ड
भयभीत देहों से झर रहा होगा जिये हुए जीवन का पलस्तर
रोबदार समझी गयी हर आवाज में
भरी होगी अनिश्चय की कोई सड़ांध
और झुर्रियां सभ्यता की भी हो सकती है
इससे पहले कभी इतनी साफ नहीं देखी होंगी ।

बुनियादें हिल रही हैं
बुनियादें हिल रही हैं

कौन ? कौन ?
कोई नहीं बस एक मौन ।

अवरुद्ध हरकतों के पीछे जो अदृश्य है
उसे एक तेज चाकू की तरह से पढो
कि
पहले कब दो फांक खुल गया था इस तरह से समय




(दो)

हर चेहरे पर एक मास्क
हर मास्क के पीछे एक चेहरा
छुप गए सारे हाव भाव
मुस्कुराहटें
क्रोध
और कातरता

तुमने धरती को भी तो पहना दिया था एक मास्क
छिप गए पहाड़ नदियां चरागाह और जंगल
कई सदियों तक
धूप आई और गई
कई सूर्योदय हुए कई सूर्यास्त
पीढियां बीतती गईं
इतिहास के पन्ने पलटते गए
तुम्हारी अवैध संतान की तरह से
तुम्हारा ही एक शत्रु कहीं पल रहा था अनाम

सत्ताधीशों, सेनाध्यक्षों, नगरपिताओं
धनकुबेरों
अब
युद्ध की घोषणाएं करो
बिगुल बजाओ
प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान
बालकनियों में खड़े दासों से
घण्टे घड़ियाल बजवाओ
भेज दो सेनाओं को
विजय अभियान पर

पर कहां भेजोगे ?
किन दिशाओं में ?

आखेट स्थल कहाँ
युद्ध भूमियाँ कहाँ
पुलवामा कहां है
बालाकोट कहां है
सिनाई की पहाड़ियां कहाँ हैं
गाज़ा पट्टी कहां है
मेक्सिको की सीमा पर खड़ी
कंटीले तारों की बाड़ कहां है
कौन सी है 'लाइन ऑफ़ डिफेंस'
कौन सा है अतिक्रमण
शत्रु अदृश्य
निराकार
गति से अधिक तेज
तिलस्म की मानिंद सर्व व्यापी
आकार से अधिक सूक्ष्म

छह फुट की सोशल डिस्टेनसिंग
हंसती है एक बेहया हंसी
सारे भूमंडलीकरण पर

स्पर्श में छुपी है मृत्यु
स्पर्श में छिपे हैं अन्त
कल किसने देखा है
एक गुडी मुडी
सिकुडा हुआ वर्तमान
घडी की रेंगती सुइयों
सरकती हुई तारीखों पर
भोले विश्वासों पर, यकीनों पर
मेटल स्क्रीन, सीट बेल्ट, बटन और कमीज के अस्तर पर
और
व्यापार समझौतों की दुनिया पर

यह किसका अट्टाहास है ?
यह कब्र किसके लिये खोदी गयी है
यह शव पेटिका किसके लिये बन रही है
वह जो मरेगा कल या परसों या उसके अगले दिन
वह जो दुनिया का पांच लाख पांच सौ पचपनवा संक्रामक रोगी है
पर जो अभी ज़िन्दा है
तुम्हारे आँकड़ों में

छिन्न भिन्नताऐं कहती हैं
लिखो हमारे नए इतिहास
तुम्हारे स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन उदास
कारखाने बिसूरते हुए
शेयर बाजारों से उड़ती हैं धूल
निवेश सूचियां
सीली हुई मिसाइलों की तरह
फुसफुसा कर कहा उन्होंने कल
कि कहीं कोई कूड़ेदान खाली नहीं है
इस दुनिया में
पंख कटे मेघदूतों जैसे ये सारे डेवेलपमेंट प्लान
तुम्हारी मूर्खताओं के स्मारक हैं
वातानुकूलित अधिवेशन कक्षों से उठे
जो वक्ता
और जाने कब गली के गटर में गिर पड़े ।
लंच पर
एक सभासद ने कहा दूसरे से सहसा मुड़कर
सभा में आप देर तक कुछ बोल रहे थे
क्या बोल रहे थे
मैं भी तो कुछ बोलना चाहता था
बहस में शरीक भी होना चाहता था
पर राष्ट्रीय संकट की घड़ी है
रात को नींद ठीक से आती नहीं है

किसी ने कहा कि दुनिया हो गयी है अनिश्चित
दूसरे ने कहा यह जीवन संध्या है
तीसरे ने कुछ और कहा
चौथे ने कुछ और
बाकी मुंह बाये तबलीगी जमातियों की खोज के भड़कीले किस्से सुन रहे थे

दुश्मनों की शिनाख़्त हुई
विपदाओं ने रचे नए मुहावरे
कुछ नए शब्द ईजाद हुए
खौलते हुए खून के बारे में
कुछ कौमी घृणाओं और लानतों के बारे में
धमकी देता हुआ दहाड़ता था वाशिंग्टन में कोई बेचारगी में
हँस पड़ता था बेजिंग में कोई घाघ हँसी
प्रधान सेवक माँगता था राष्ट्र से माफी हर रोज एक नयी मोहक अदा में
पर कहीं कोई शब्द नहीं था
भूख की किसी अंधेरी गुफा के बारे में
सैंकड़ो मील चल पड़े
सिर पर पोटली उठाये
सड़क पर चलते चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में

एक खामोश रुदन अभी पड़ा था अलक्षित.



(तीन)

चिंतकों ने कहा के इस संसार के सारे संकट है मनुष्य निर्मित
पर हम पंगु है
भाषा में उनकी पहचान अब संभव नहीं
धर्म जाति कुल वंश देश भाषा समाज हैसियत
से परे अब उसकी पहचान
वह भाषा में समाता ही नहीं

कलाकारों ने कहा की
आकार – प्रकार दिखाई नहीं देता
शत्रु है अगोचर
वह रूप में अब बंधता नहीं
वह कभी विचारों से उठता है
कभी इरादों से
कभी त्वचा की सूक्ष्म रंध्रों से


कवि ने कहा कि सारे अतीत राजनीतिक हैं
और वर्तमान भी राजनीतिक है
ऊपर आकाश में चमकता चन्द्रमा भी राजनीतिक है
राजनीतिक हैं आकाश , धूप , परछाइयां , नदी , पोखर ,पहाड़
और आदिवासी भी
खामोशियों में किये गये एकालाप भी राजनीतिक हैं
हम हैं सिर्फ एक कच्चा माल उनके लिये
रोग , जीवाणु, औषधियां , प्रयोगशालाएं
सब राजनीतिक हैं
चिल्लाता है कोई ईरान से कोई बल्गारिया से
जो सेफ्टी किट भेजा गया वह नकली है
त्वचा की भी इस तरह से एक राजनीति है
सेनिटाइज़र नहीं बचे थे अब


चिंतकों लेखकों कलाकारों कवियों बौद्धिकों
तुम अमर रहो
तुम्हारी जन्म शताब्दियां मनायी जाती रहें
पिछले युगों की तरह से निर्विघ्न
तुम्हारी मेजों पर
जीवन और मृत्यु के सवाल
जमा रहें सारे शब्दकोश पैमाने सूक्ष्मदर्शी यंत्र
ध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ मुहावरे तर्कों के विश्लेषण

और
कल्पनाएं भी थोड़ी बहुत

इस बीच लोग जो रोज थोड़ा थोड़ा खत्म होते जा रहे थे
थोड़े से भोजन , थोड़ी सी साँसें , थोड़ी सी नींद
और
दस बाई दस की खोलियों आठ -दस ठुंसे हुए लोगों के उदास चेहरों के बीच से
घर की ओर लौटते नंगे पैर थे , भूख और जिल्लत की रोटी थी
घर पर छह महीने की बच्चियों को छोड़ आयी कुछ नर्से थीं
एक सफाई कर्मचारी गली में झाडू लगता हुआ अकेला
इनके आंसू छिप जाते थे सेफ्टी मास्कों के पीछे
चैनलों पर नाच गानों के बगल में
सलमान खान , कैटरीना कैफ और कपिल शर्मा के बगल में
रोज मरने वालों के आँकड़े
मेरा समय की सबसे बड़ी खबर थी
और मृतकों की संख्याएं
वे रोज पहले से ज़्यादा थीं उत्तेजक
रोज एक विकराल शोर शराबे में
मनाया जाता था मृत्यु का महोत्सव एक अलग त'रीके से
रोज एक नयी दिलचस्पी का सामान
जुटाया जाता था कितनी मेहनत से

किसी ने कहा कि बहुत कुछ घट रहा है
और कुछ सिद्ध नहीं होता
आकाश अपराध बोध से घिरा है
'इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष 'की घोषणा वाली वह किताब
धूल चाट रही है कहीं
और एक वायरस खोजता फिर रहा है सैमुअल हटिंग्टन की कब्र को
वुहान से मिलान तक
न्यूयॉर्क से ईरान तक

समय के इस अज्ञात को कहां पकड़ा जा सकता था ?
कहाँ था उसका ठिकाना ?
कौन से पते और कौन से पिन कोड पर ?

एक वरिष्ठ कवि कह गया कि संसार की सभ्यताएं
अपने अंतिम दिन गिन रही हैं
दूसरा वरिष्ठ कवि जाते जाते कह गया –
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो
मेरी हड्डियों में

मैं अपने वरिष्ठ कवियों के अस्थि कलशों को स्पर्श करना चाहता हूं
और
संसार के सारे म्युजियम
फिलवक्त लॉक डाउन की घेरा बंदी में हैं.
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मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं : गरिमा श्रीवास्तव

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मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं
चुप्पियाँ और दरारें                                                        
गरिमा श्रीवास्तव



हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले



जो औरतें बेहयाई का काम करें, तुम्हारी बीबियों में से, सो तुम लोग उन औरतों पर चार आदमी अपने से गवाह कर लो. अगर वो गवाही दे दें, तो तुम उनको घरों के अंदर क़ैद रखो. यहाँ तक कि मौत उनका खात्मा न कर दे या अल्लाह उनके लिए कोई और रास्ता निकाल दे."
(कुरान, आयत 15 )

और जो औरतें जवानी की हद से उतार कर बैठ चुकी हों, अगर वे अपनी चादरें रख दें तो उन्हें कोई गुनाह नहीं. अलबत्ता उनका इरादा साज-सिंगार का नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर फिर भी वे लज्जा-संकोच से चादरें डालती रहें, तो उनके हक़ में बेहतर है. अल्लाह तो सब कुछ सुनता और जानता है."
(24,सूरह नूर, आयत 60)

"अपने घरों में शराफ़त से रहो, बनाव-सिंगार जो अज्ञानता के जमाने में लोगों को दिखने के लिए होता था, उसे छोड़ दो, नमाज़ को क़ायम रखो. ज़कात अदा करती रहो और अल्लाह और उसके रसूल का हुक़्म मानती रहो."
(33, सूरह अहजाब, आयत 33)




१.

१५ वीं शताब्दी के आटोमन साम्राज्य की तुर्की कवयित्री मिहरी हातून की आत्माभिव्यन्जक कविताओं को  प्रारम्भिक दौर की आत्माभिव्यंजना  के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. आधुनिक काल आते आते मुस्लिम स्त्रियॉं ने आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा-विधा को अपनाया  जिनमें पर्दा प्रथा का दबाव, परनिर्भर होने की पीड़ा, प्रेम की अभिव्यक्ति के खतरे और पितृसत्ता और धर्म-कानून  की जकड़ से निकलने की छटपटाहट प्रमुख है. अधिकांश स्त्रियाँ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की कवायद, शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में आनेवाली कठिनाईयां, बहुपत्नीत्व प्रथा, यौन-शिक्षा का अभाव, यौनिकता की अभिव्यक्ति जैसे विषयों को कथ्यों के केंद्र में रखती हैं.


परिवार के पुरुषों के विषय में बहुत खुल कर कुछ कहने से बचने को भी उनकी रचनात्मक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. मुस्लिम स्त्रियाँ चाहे यूरोप में हों या एशिया में पर्दा-प्रथा पर ज़रूर बात करती हैं-हालाँकि यह बात उन सभी सामजिक समूहों पर लागू होती है जिनमें पर्दा प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है. यह भी देखने की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की आत्मकथाओं में सेंसरशिप के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं. कहीं तो अपने लिखे के न छप पाने का डर, कहीं लिखने की सुविधा छिन जाने का भय  और कहीं पाठकों को अपने बारे में बताने का अवसर खो जाने का अंदेशा इतना गहरा रहा है कि मध्यवर्ग से सम्बंधित स्त्रियाँ अपना अन्तरंग खोलने का रिस्क नहीं ले पायीं.,जिन्होंने यह चुनौती उठाई उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि उन्हें यह भय हमेशा से था कि हो सकता है कि पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनके लिखे हुए को समाजविरोधी मानकर अस्वीकृत कर दे. भविष्य में भी उन्हें पाठक मिलते रहें और वे धर्मगुरुओं द्वारा निन्दित भी न हों इसके लिए ये ज़रूरी था कि वे जीवन के सामान्य कार्यव्यापारों चर्चा करें. निजी बातों और सामाजिक-पारिवारिक दायरों को तोड़कर, सामाजिक-रीतिरिवाजों के विरुद्ध जाने का साहस उठाना उनके लिए बहुत जोखिम भरा था इसलिए बहुत दूर तक वे आत्मकथाकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा पातीं.


दूसरी ओर इस्लाम और समाजसुधारकों द्वारा तय स्त्री की आदर्श छवि जिसे मौलाना थानवी जैसों ने ‘बहिश्ती जेवर’ जैसी किताबें लिखकर लोकप्रिय कर दिया था, उस छवि को बनाये रखना भी इन लेखिकाओं के  सामने एक बड़ी चुनौती रही और जहां  स्त्रियों को शारीरिक तौर पर पर्दे के बाहर निकलने की छूट भी मिली तब भी उन्होंने अपने अन्तरंग को छुपाने के रास्ते ढूंढही लिए,आत्मकथात्मक प्रदर्शन के लिए उन्होंने नाटकीय भंगिमाएं अख्तियार कर लीं और इससे उनकी आवाजें परदे के भीतर ही रह गयीं और साथ ही उनकी यौनिकता भी. मुस्लिम स्त्रियों के आत्मकथ्यों पर विचार करते हुए हमें दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के साम्प्रदायिक संघर्षों की पृष्ठभूमि को भी  देखने-समझने की दृष्टि मिलती है. चारू गुप्ता ने यह दर्ज किया है कि हिन्दूत्व के प्रचारकों ने ‘हिन्दू स्त्रियों को  मुसलमान पुरुषों से अलग रखने आपसी दूरी बनाये रखने की मुहीम चलाई ताकि वे स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण कर सकें साथ ही अपनी सांप्रदायिक पहचान को भी पुख्ता कर सकें, उन्हें यह समझा दिया गया कि स्वस्थ, बलिष्ठ मुसलमान पुरुष उनके लिए खतरा हैं ‘(सेक्सुअलिटी, ओब्सेनिटी, कम्युनिटी: वीमेन, मुस्लिम्स एंड थे हिन्दू पब्लिक इन कोलोनियल इंडिया,चारू गुप्ता,परमानेंट ब्लैक 2000:268)


दूसरी ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान मुस्लिम समाजसुधारक भी अपने समुदाय की स्त्रियों को ‘सुरक्षित’रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. मुस्लिम स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण करने के लिए परदे को और ज़रूरी बताया जाने लगा, धर्मग्रंथों और हदीस का हवाला देकर परदे को मर्यादा से जोड़ा गया और हिन्दू स्त्रियों को गैर-पर्देदारी से रहने वाला बताया गया. मुस्लिम स्त्रियाँ, जो थोडा बहुत भी पढ़-लिख गयी थीं उन्हें इस बात का अंदाज़ा था हो गया था कि परदे की हद से बाहर एक विशाल और खुली दुनिया है, लेकिन परदे को तोड़ने और यौनिकता के मुद्दे पर खुलकर बोलने का साहस बहुत कम स्त्रियों के पास था. अभिजात्य समुदाय की स्त्रियाँ जिनमें से कई भोपाल और रामपुर जैसी रियासतों से सम्बद्ध थीं, उन्हें सच बोलने के खतरे कम थे. सत्ता और धन के बल पर वे प्रखर निंदा का शिकार होने से बच जाया करती थीं, साथ ही आभिजात ने उन्हें रसोईघर, बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारियों से एक सीमा तक मुक्त रखा, इतना समय भी मुहय्या करवाया कि स्त्रियाँ आपस में खुलकर बोलें और लिखकर भी अपने आपको अभिव्यक्त कर सकें.

 
मुस्लिम रियासतें, मसलन भोपाल जहाँ स्त्रियों के शासन की परंपरा रही वहां उन्होंने पर्देदारी के साथ  बाहर की दुनिया से संपर्क बनाये रखा.स्कूल,कालेजों, क्लबों में उनका आना-जाना रहा करता जहाँ स्त्री-यौनिकता के मसलों पर अपेक्षाकृत खुली चर्चा की संभावनाएं थीं. सेक्स सम्बन्धी शिक्षा का अभाव पूरे समाज में था. विशेष रूप से मुस्लिम समाज जहाँ खानदान के भीतर भी वैवाहिक सम्बन्ध होते थे वहां भी घर में प्रेम, सेक्स जैसे विषय वर्जित थे. ज़्यादातर बच्चियां अक्षर ज्ञान, कुरान पढ़ने तक ही सीमित थीं. माहवारी होते ही लड़कियों से स्कूल छुड़वा दिया जाता था. सेक्स या यौनिकता के मुद्दे टैबू की तरह थे, जिनका प्रभाव इन स्त्रियों के लेखन पर भी पड़ा. उनके लेखन में वास्तविक पाठक वर्ग की जगह एक काल्पनिक पाठक वर्ग हावी था. समाज सुधार आंदोलनों और आंदोलनों ने स्त्री-शिक्षा के पक्ष में माहौल तैयार किया जिसने आत्मकथा लेखन को गति प्रदान की. ये बात भी गौरतलब है कि आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त होने के बावज़ूद इन स्त्रियों ने अपने अन्तरंग जीवन के बारे में बहुत कम या नहीं लिखा. फिर भी मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लिखी अपनी कथाएं, स्मृतियाँ जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पंजाब से बंगाल, रामपुर से हैदराबाद, पाकिस्तान, बांग्लादेश तक के लगभग डेढ़-दो सौ वर्षों के अंतराल में बिखरी हुई हैं, उनके वैविध्य और वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है. ये देखना ज़रूरी है कि वे धर्म, परंपरा, परदेदारी और यौनिकता के मुद्दों पर क्या सोचती हैं साथ ही इसके लिए उनके विधागत चुनाव क्या हैं.


साथ ही कैसे औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक सामाजिक इतिहास की धारा के भीतर स्वयं को कहाँ और कैसे ‘प्लेस ‘करती हैं॰ अपने आत्म  को आवृत्त  रख कर कल्पना के ताने-बाने  बुन-चुन कर कविता कहानी, उपन्यास लिखना और बात है और आत्मकथ्य लिखकर पूरी दुनिया का सामना करने के लिए जो साहस चाहिए, वह इनमें है कि नहीं साथ ही सामाजिक इकाइयों से टकराने और सच को सच की तरह कहने का जज़्बा कितना है, उनकी चुप्पियों के क्या अर्थ हैं और उनका पाठ हम कैसे करते हैं. सेंसरशिप के दबाव और तनाव कैसे हैं और इन दबावों और तनावों का सामना करने के लिए मुस्लिम औरतें किन औजारों का इस्तेमाल करती हैं. कई ऐसी स्त्रियाँ हैं जो आत्मकथ्य में निजी सवालों से बचकर निकाल गईं हैं, जिससे पाठक को साफ समझ में आ जाता है कि वह निजी और पारिवारिक सेंसरशिप के दबाव में है, उनके  आत्मकथ्य का सम्यक विश्लेषण व्यावहारिक जीवन, उसके मन के कोने-अंतरे, दरारें, चोट और पीड़ाएं, नस्ल और रंगभेद, यौन अस्मिता, शोषण के विविध आयामी पक्ष, उसकी मनोसामाजिक, लैंगिक भेद और स्त्री अस्मिता के साथ, स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए अपनाई गई भाषा-भंमिमाएं, विविध मुद्राएं, प्रतिरोध के औजार, समर्पण और विवशता के कारणों की पड़ताल करना हम ज़रूरी समझते हैं. इन आत्मकथाओं पर हम निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत सोच सकते हैं -


(क) इन आत्मकथाओं का पाठक वर्ग कौन-सा है.
(ख) क्या आत्मकथाकार स्वयं को किसी विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधि मान कर लिख रही है.
(ग) उसने ने किस सीमा तक कल्पना और नाटकीयता का सहारा लिया है.
(घ) ‘टेक्स्ट’ में रचनाकार की जीवन यात्रा की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है-उसका लेखन और अस्मिता से क्या संबंध है.
(ङ) आत्मकथा में ‘मैं’ या ‘तुम’ को महत्व कितना और किस सीमा तक दिया गया है.
(च) अतीत की ‘मैं’ और वर्तमान की ‘मैं’-जो आत्मकथा में व्यक्त है-उन दोनों का अन्तः संबंध क्या है?
(छ) आत्मकथ्य में क्या कुछ प्रयोग किए गए हैं? यदि ‘हां’ तो इन प्रयोगों की प्रकृति क्या है?
(ज) रचना में संस्कृति, दर्शन और आत्म के सामाजिक संदर्भ की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है?
(झ) आत्मकथा लेखन का उद्देश्य क्या है?
(त) स्त्री यौनिकता जैसे मुद्दों पर वह कितनी और किस सीमा तक मुखर है?
(थ) वह सेंसरशिप से  किस तरह टकराती है.





२.

स्त्री वक्तव्यों के संदर्भ में यह माना जाता है कि सामाजिक अभ्यास अपनी पूरी तात्कालिकता और संपूर्णता के साथ एक उत्तेजक अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं, और स्त्री का अनुभव सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं रह जाता, वह सामाजिक संस्था के अनुभव में रूपांतरित होकर सार्वभौमिक हो जाता है. कही और अनकही स्त्री अनुभव कथाएं इसी प्रक्रिया में निजी से राजनीतिक हो जाती हैं, इसलिए स्त्री की अभिव्यक्ति को राजनीति से संबद्ध करके भी देखा जाता है.

स्त्रीवादी विमर्शकार अनुभव की अभिव्यक्ति पर बराबर बल देते हैं. गायत्री चक्रवती स्पीवॉक का कहना है- ‘Make visible the assignment of subject Positions’ वस्तुतः स्त्री के जीवन और अनुभव के विषय में लिखने के चार ढंग हैं:

पहला तो यह कि स्त्री स्वयं अपने बारे में कहे- इसके लिए वह ‘फिक्शन’ या चाहे तो आत्मकथा का सहारा ले सकती है.

दूसरा ढंग यह है कि पुरुष या स्त्री दूसरी के जीवन और अनुभवों के बारे में लिखे.

तीसरा तरीका यह है कि अब तक जिए जा चुके जीवन से प्राप्त अनुभव और आने वाले जीवन के बारे में पूर्वानुमान करके स्त्री लिखे. विदुषी और प्रतिभाशाली स्त्रियां अनजाने में ही अपनी भविष्य कथाएं लिख जाती हैं.

चौथा ढंग, जिस हाल के वर्षों में स्त्रियों ने अपनाया है, वह यह कि स्त्रियां अपने अतीत के बारे में ज्यादा ‘बोल्ड’ और ईमानदार तरीके से लिखकर, सत्ता और राजनीति की नियंत्रणकारी ताकतों से टकराएं, चूंकि शक्ति और सत्ता को हमेशा से स्त्रियों के लिए वर्जित माना गया या यों कहें कि इतिहास में कभी भी, स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचान गया.


पितृसत्तात्मक शक्तियों ने स्त्री को हमेशा यही समझाया कि यह उसके लिए ‘वर्जित क्षेत्र’ है. साथ ही यह भी, कि वे स्वयं समाज-नियंत्रक नहीं बनना चाहतीं उन्हें हमेशा अभिव्यक्ति से रोका गया; टेक्स्ट’ कथानक, उदाहरण का अंग बनाने से बचा गया क्योंकि भय था कि इसके द्वारा कहीं वे सत्ता अधिग्रहण न कर लें, अपने जीवन के निर्णय स्वयं न लेने लगे.’ समकालीन स्त्री विमर्शकारों ने आलोचकों द्वारा स्त्रीवाद की उपेक्षा के प्रश्न को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि स्त्रियों के अनुभवों की अभिव्यक्ति ज्यादा बेहतर और पारदर्शी होती है.


स्त्री को बोलना अपने-आप में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करता है. डेनिस रिले का मानना है कि यद्यपि स्त्री अधिकारों की लड़काई उसे राजनीति की ओर ले जाती है, लेकिन ‘स्त्रीवाद’ कभी भी अनुभवों की अपरिहार्यता समाप्त नहीं कर सकता. समाज में, जो हमें दिखाई देता है, वही सच नहीं होता. मसलन हम विभिन्न सामाजिक अस्मिताओं के संदर्भ में स्त्री अस्मिता को देखें. स्त्री अभिव्यक्ति ‘अस्मिता’ को पाने की ही कोशिश है, यह अस्मिता विभिन्न अस्मिताओं के पारम्परिक संघनन की प्रक्रिया से गुजरती है, उनकी जटिल संरचना के भीतर से अन्य अस्मिताओं को पीछे कर अपनी संपूर्ण ताकत के साथ उभरती है, किसी-किसी समाज और दौर में दबा भी दी जाती है, कहीं-कहीं उपेक्षा और प्रतिरोध झेलती है.


इस प्रक्रिया में कोई अस्मिता अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती है.इस नजरिये से देखने पर मुस्लिम आत्मकथाकारों मे पर्याप्त वैविध्य दीखता है कहीं तो वे निजी जीवन को यौनिकता से ही जोड़कर देखती हैं और समूचा आत्मकथ्य उनकी यौनिकता के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कुछ  पति या प्रेमी के साथ संबंधों की पुनर्व्याख्या करने को प्रगतिशीलता से जोड़कर देखती हैं, जिसके उदाहरणस्वरूप  तैयबजी वंश की स्त्रियों के आत्मकथ्य देखे जा सकते हैं. वहीं सुल्तान जहां  बेगम जैसी भी लिखती रहीं जिन्होंने अन्तरंग संबंधों को परदे के भीतर ढके रहने में ही भलाई समझी,पर्दे और बुर्के के पक्ष में दलीलें दीं.


कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक अनुभवों को साझा करने के लिए आत्मकथा विधा अपनाई.कई औरतें ऐसी भी रहीं जिन्होंने बतौर स्त्री झेला तो बहुत कुछ, पर खुलकर कभी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं, उनपर तरह -तरह की सेंसरशिप के दबाव रहे.कुछ ने उर्दू, बांग्ला,और  क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा तो कुछ ने भाषिक माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाया क्योंकि उन्हें लगा कि देशी भाषाओँ में अन्तरंग प्रसंग  और यौनिकता के मुद्दों पर लिखना सरल नहीं होगा और साथ ही वे वैश्विक पाठक वर्ग से वंचित भी रह जाएँगी. उर्दू में पहली गद्य लेखिका के तौर पर बीबी अशरफ का ज़िक्र आता  है, जिन्होने  उनीसवीं सदी के मध्य में स्त्री शिक्षा के रास्ते मे आने वाली कठिनाईयों का ज़िक्र ‘हयात–ए अशरफ’ में किया. (बाद के शोध से यह साबित हो गया कि वास्तव में यह किताब बीबी अशरफ ने नहीं तहज़ीब–ए निस्वान’ में लगातार छपने वाली मुहम्मदी बेगम ने लिखी थी. यह रिसाला 1898से 1949के बीच छपता था जिसके संपादक सैयद मुमताज़ अली थे.सी॰एम॰ नईम ने हयात ए अशरफ को 1900 -1910के बीच प्रकाशित माना)


बीबी अशरफ के आत्मकथ्य ‘हयात–ए-अशरफ’ से स्पष्ट है कि लिखना–पढ़ना अभिजात्य स्त्रियॉं के लिए अपेक्षाकृत सहज था, नीचे तबकों और निर्धन स्त्रियॉं के लिए बहुत कठिन. बीबी अशरफ एक शरीफ़ घराने से सम्बद्ध थीं और विधवा होने के बाद आजीविका निर्वाह के लिए उन्होने शिक्षण को पेशा बनाया. शौहर के मरने के बाद इद्दत के दिनों में उसने जब अपने पढ़ने की इच्छा को उजागर किया तो वयस्क, अनुभवी स्त्रियॉं ने निंदा की लेकिन वह मानी नहीं-


'मैंने रसोईघर से जली लकड़ियों के टुकड़े ,घड़े के ढक्कन और झाड़ू की तीलियों की मदद से घर की छत पर जाकर, आराम के घंटों मे लिखे हुए अक्षरों की नकल  करना शुरू कर दिया. मेरी पढ़ने–लिखने की इच्छा  ने मुझे अंधा कर दिया था. मैंने कागज़ पर कागज़ काले करना शुरू कर दिया,फिर भी मुझे समझ नहीं आता था कि मैं क्या लिख रही हूँ. मुझे इतनी समझ नहीं थी कि शिक्षक के अभाव में कोई पढ़ना-लिखना नहीं सीख सकता .मुझे लगता था कि जैसे अन्य कई गुण देखने और अनुकरण से सीख लिए जा सकते हैं ठीक वैसे ही पढ़ना भी आ जाता होगा .लेकिन इस तरह बहुत सारा समय गँवाने के बाद भी मुझे कुछ नहीं आया. मेरी पुकार अल्लाह ने सुनी और मुझे अध्यापक मिला.'

(सी॰एम॰ नईम,हाऊ बीबी अशरफ लर्ण्ट टु रीड एंड राइट :107-108एनुयल ऑफ उर्दू स्टडीज़ 6(1987) :107-108)


बीबी अशरफ ने पढ़ –लिख कर अपने परिवार की परवरिश की ,शिक्षा ग्रहण करने मे उन्होने चाहे जितनी कठिनाईयों का सामना किया हो ,इस्लाम के व्यावहारिक अनुशासन  को उन्होने कभी छोड़ा नहीं .शिक्षिका होकर भी पर्दे और बुर्के का नियमानुसार पालन करने के लिए अपने छात्रों के बीच उनकी तारीफ भी होती थी .



बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी



भारत में, सन 1920के आसपास अभिजात्य घरानों की मुसलमान स्त्रियाँ अँग्रेजी पढ़ने की ओर उन्मुख हुईं (आएशा जलाल, द कनवेनिएन्स ऑफ सब सर्विएंस: वुमेन एंड द स्टेट ऑफ पाकिस्तान’- ‘वुमेन ,इस्लाम एंड स्टेट’ में संकलित ,पृष्ठ 77)शिक्षा के इस नए दौर ने पढ़ी –लिखी स्त्रियॉं का एक ऐसा वर्ग बनाया जिसमें मुहम्मदी बेगम, नज़र सज्जाद हैदर, अब्बासी बेगम जैसी स्त्रियॉं को देखा जा सकता है जिन्होने रिसालों मे लिखना और छपना शुरू कर दिया था.  इस्लाम में जीवनी और आत्मकथा लेखन की एक लम्बी परंपरा की परिधि पर जिस संस्मरण को देखा जा सकता है वह है आबिदा सुल्तान जो भोपाल की राजकुमारी थी.




दाम्पत्य और सेक्सुअल थीम पर इतनी सच्ची अभिव्यक्ति अपने आप में विरल है.जहाँ आत्मविश्लेषण और निज की अभिव्यक्ति आत्मकथाओं का अनिवार्य तत्व है वहां इस्लाम धर्म को मानने वाले विशेषकर स्त्रियाँ निज की अभिव्यक्ति के लिए जिन चुनौतियों को झेलती हैं वे मानीखेज़ हैं. आबिदा सुल्तान ने ‘मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस’ में अपने दाम्पत्य जीवन के बारे खुलकर लिखा. उनका विवाह बचपन के मित्र करवयी  के नवाब सरवर अली खान से हुआ था. विवाह की प्रथम रात के बारे में वे लिखती हैं –



विवाह के तुरंत बाद मुझे दाम्पत्य जीवन का पहला आघात लगा. मुझे अंदाज़ा नहीं था कि प्रथम सहवास ही मुझे सन्न करने और डराने वाला होगा. इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी. सच तो यह था कि मुझे उस व्यक्ति से आघात मिला था जिससे मुझे इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी. हमारा पालन-पोषण धार्मिक और रुढ़िवादी पवित्र वातावरण में होने के कारण मेरे मन में वैवाहिक सम्बन्ध, विशेषकर सहवास के प्रति एक अपवित्रता का भाव था.लगता था यह कार्य अश्लील है. दाम्पत्य सेक्स के प्रति मेरी घृणास्पद प्रतिक्रिया पति को कुंठित कर देने वाली साबित हुई. वे जल्दी ही मेरे प्रति अपनी कड़वाहट और असंवेदनशीलता दिखाने लगे और वह सब करने लगे जो मुझे एक मनुष्य में सबसे ज्यादा नापसंद था. वे काहिल, आलसी और बदमिज़ाज हो गए,घरेलू नौकरों के साथ जुआ खेलकर अपना बेकार-खाली समय बिताने लगे. जल्द ही हमारे शयनकक्ष अलग-अलग हो गए. कुछ ही अरसे में हमारा विवाह मात्र कागज़ी और सामाजिक दिखावे के लिए रह गया."

(मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस, आबिदा सुल्तान, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,कराची,2004:98)


इन्हीं आबिदा सुल्तान की दादी भोपाल की बेगम सुल्तानजहां की आत्मकथा तीन भागों में उर्दू और अँग्रेजी में प्रकाशित हुई जो औपनिवेशिक सत्ता, राष्ट्रवादी विचारधारा के उदय और सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों के समानान्तर और परस्पर एक दूसरे को काटती हुई धाराओं से टकराती दीखती है. उनकी पोती आबिदा सुल्तान उन्हें ‘सरकार अम्मान’ कहकर संबोधित करती है


वह पवित्र,तापसी प्रवृत्ति की और उदारमना, मितव्ययी थी, भोपाल के हिन्दू, मुसलमान, जमींदार और किसान उसे पसंद करते थे, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह सत्ता में थी बल्कि इसलिए भी कि वह उनके लिए मातृस्वरूपा थी”


(भोपाल, आबिदा सुल्तान, मेमोयर्स ऑफ ए रिबेल प्रिंसेस, कराची: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, 2004:9).


सुल्तान जहां बेगम 1901- 1926के बीच भोपाल रियासत की सुल्तान रहीं, हाल के वर्षों मे इस बात पर गौर किया गया कि सुल्तान जहां जैसी स्त्री राजनीतिज्ञों की पूरे इतिहास में उपेक्षा की गयी, जबकि वे लगातार स्त्री सुधार कार्यक्रमों से जुड़ी रहीं उनके पर्दा ,इस्लाम ,दांपत्य पर उनके विचार हमें जानने को मिलते हैं तो वो भी उनके शासन काल के खत्म होने के 75वर्षों के बाद. भोपाल रियासत में आधुनिक विचारों का प्रचलन उनकी उपलब्धि रही, उन्होने स्थानीय शासन और औपनिवेशिक सरकार के बीच सेतु का काम किया,’एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘(खंड 1,2,3) उर्दू में ये तीनों भाग 1910में आये, जिनका अंग्रेजी तर्ज़ुमा 1920में काफी लोकप्रिय हुआ और स्त्री सुधारों पर लिखी पुस्तक ‘अल हिजाब :आरव्हाय द पर्दा इज़ नेससेरी’ को साथ पढ़ा जाना चाहिए.


भोपाल में ब्रिटिश सरकार ने ट्रेन, स्कूल, संचार पर अच्छा धन खर्च किया था,सुल्तान जहां बेगम ने हुक्मरानों के साथ बहुत ही अच्छे संबंध रखे ,वे  ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की तारीफ करती हैं वहीं उन्हे इस बात का भी एहसास है कि ब्रिटिश सरकार कभी भी हमारी नस्ल की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरी तरह समझ नहीं सकती. लेकिन वे कहीं भी दावा नहीं करतीं कि वे आम पाठकों के लिए पुस्तक लिख रही हैं (भोपाल नवाब सुल्तान जहां बेगम ,एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘,खंड 1,अनुवाद सी॰एच॰पायने.लंदन :जे मूर्रे,1912)


लेकिन उन्होने  जिस तरह से अपनी यात्राओं ,इस्लामिक रीति -रिवाजों ,शासन -नीतियों के बारे मे लिखा है उससे पता चलता है कि उनके संभावित पाठक विदेशी और गैर -इस्लामिक थे. वे उसका अँग्रेजी अनुवाद भी करवा रही थीं और इस तरह अपने आपको’ एजेंसी’ के रूप में स्थापित भी कर रही थीं ,आत्मकथा उनके लिए पश्चिम को भारत और इस्लाम के रीति रिवाजों की जानकारी देने का माध्यम थी .ब्रिटिश राज के प्रति उनकी वफ़ादारी का ज़िक्र बार -बार आत्मकथ्य में आया है,ऐसा इसलिए भी होगा कि स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका को ब्रिटिश राज ने स्वीकारा इस कृतज्ञता ज्ञापन के लिए वे आत्मकथ्य का सहारा लेती हैं .यह बात दूसरी है कि ब्रिटिश राज को सुल्तानजहां जैसे रियासतदार साम्राज्यवादी एजेंडे के अनुकूल लगते थे . वे आकाओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित करती हैं और इस तरह स्त्री शासिका होने के नाते अपनी एजेंसी को सुदृढ़ भी . लगातार पश्चिम के आलोक मे भारत को देखती है मसलन घरेलू जीवन के बारे में उनकी टिप्पणी है –“दांपत्य  जीवन का उद्देश्य है पति और पत्नी दोनों एक दूसरे को जीवन का आनंद दें ,लेकिन पश्चिम में यह अपवाद स्वरूप ही पाया जाता है जबकि भारत में यह सहज -स्वाभाविक है”सुल्तान जहां जिस आदर्श दांपत्य की बात कर रही हैं ,वह अपवाद ही है .परिवार की धुरी स्त्री को मानते हुए उनका स्वर आत्मकथ्य में उपदेशात्मक है ,उनका मानना है कि जिस औरत ने पश्चिमी चाल -चलन सीखा उसका घरेलू जीवन नष्ट हो गया .वे जिस आधुनिकता की बात करती हैं उसमें स्त्री की यौनेच्छा का कहीं ज़िक्र नहीं है उसमें स्त्री की भौतिक स्वतन्त्रता की बात है मानसिक स्वतन्त्रता की नहीं .वे ब्रिटिश राज की प्रशंसक हैं और भौतिक उपलब्धियों के संदर्भ मे पश्चिमी सभ्यता की तारीफ करती हैं .उनकी पोती आबिदा सुल्तान ने भी सुल्तान जहां द्वारा ब्रिटिश राज के निरंतर समर्थन किए जाने की तसदीक की.‘अल हिजाब में उन्होने मुसलमान स्त्रियॉं को पर्दे और हिजाब मे रहने की नसीहत दी और नवजागरण के अन्य समाजसुधारकों से अपने -आपको पर्दे के मसले पर अलगाने की कोशिश की ,साथ ही पाश्चात्य सभ्यता की तुलना में वे इस्लामिक रीति -रिवाजों को प्रस्थापित किया . यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं.आत्माभिव्यक्ति के लिए इन आभिजात्य स्त्रियों ने कई विधाएं अपनायीं.इनमें से शाहजहाँ बेगम (1838-1901)ने स्त्रियों को आचरण सिखाने के लिए ‘तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इंसान (1889) लिखी जिसमें स्त्री यौनिकता को महत्त्व देते हुए सेक्स में स्त्री की इच्छा की संतुष्टि की पक्षधरता करने के क्रम में स्वयं की नजीर पेश की. शाहजहाँ बेगम ने लिखा कि उनके पहले पति मुहम्मद खान उम्र में काफी बड़े थे इसलिए शाहजहाँ बेगम को युवावस्था में दुःख और गम ही मिले उनके शब्दों में ‘रंज ओ गम’ मिले .पति की मृत्यु के बाद उनके निजी सचिव सिद्दीक हसन खान से उन्होंने 1871में पुनर्विवाह किया तब उन्हें यौनतृप्ति और सुखी जीवन का अनुभव हुआ.इन प्रसंगों की चर्चा बेगम ने अपनी पुस्तक में  विस्तार से की,जिसका ‘टेक्स्ट’ अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वे स्त्रियों को सलाह देती हैं कि-‘संतानोत्पत्ति और गर्भ पर अपना नियंत्रण करके कैसे अपने जीवन पर नियंत्रण कर सकती हैं,यानि अपनी इच्छानुसार कैसे जीवन जी सकती हैं;इसके साथ ही वह इस्लाम को मानने की सलाह भी देती हैं’
(तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इन्सान- शाहजहाँ बेगम,मतबा ई अंसारी ,दिल्ली ,1889) 

शाहजहाँ बेगम के विचार अपने समय से बहुत आगे हैं साथ ही आश्चर्य में डालने वाले भी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छा से दूसरे विवाह  में उस व्यक्ति को पति के रूप में चुना था जो अल -ई -हदीस जैसे सुधारवादी मुस्लिम संगठन से सम्बद्ध था और कट्टर एवं उग्र विचारों के लिए जाना जाता था. शाहजहाँ बेगम की बेटी सुल्तानजहाँ बेगम(1868-1930) भोपाल रियासत की अंतिम शासक थी जिसने तीन भागों में आत्मकथा लिखी जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है आत्मकथा में स्त्रियों द्वारा यौनेच्छा की प्रकट अभिव्यक्ति की कड़ी आलोचना करते हुए  पश्चिमी आलोचकों का  मुस्लिम स्त्रियों के निजी जीवन में दखल देना शर्मनाक बताया गया.

(‘अल हिज़ाब का पर्दा क्यों ज़रूरी है’सुल्तानजहाँ बेगम,कलकत्ता ,थैकर,स्पिंक ,1922:148)

कई साल पहले जहाँ मां ने स्त्री यौनिकता पर खुलकर बोलने के खतरे उठाये थे वहीं बेटी सुल्तानजहाँ बेगम ने अपने दाम्पत्य और स्त्री यौनिकता के बारे में कुछ लिखना उचित नहीं समझा.मां-बेटी के आत्मकथा लेखन में लगभग दो दशकों का अन्तराल है लेकिन बेटी यानि सुल्तानजहाँ बेगम अन्तरंग सम्बंधों को परदे की चीज़ मानती है और 1902में पति अहमद अली खान की मृत्यु के समय करुण समर्पण लिखती है –


“मेरी कलम भले ही ‘दुःख’शब्द लिख ले और जुबान भी यह कह दे पर मेरी भावनाओं की गहराई की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द पर्याप्त नहीं है -कोई शब्द ऐसा नहीं है ,जो मेरा दुःख पूरी गहराई से अभिव्यक्त कर सके ,आँख के तारे का चला जाना ,जो मेरा सबसे गहरा मित्र था पिछले 27वर्षों से जिसने मुझे स्नेह और उपदेश दिए ,मुझे चिंताओं और मुश्किलों से उबरने में मदद की .उनकी सहानुभूति और प्रेम हमेशा मेरे लिए मददगार साबित हुए हैं -वास्तव में यह एक गहन और दृढ़ सम्बन्ध था .जीवन के इस मोड़ पर उसे खो देना वैसा ही है ,जैसा मुसीबतों के समुद्र में अकेले डूबना -उतराना.जब मुझे उसके चतुर सुझावों की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी-ऐसे में उसका चला जाना एक असहनीय आपदा है." 

(‘एन अकाउंट ऑफ़ माई लाइफ़’,नवाब सुल्तान जहाँ बेगम ,खंड 2,अनुवाद अब्दुस्समद खान ,बॉम्बे :द टाइम्स ,1922:36-37)

कुरान में आदर्श विवाह और आदर्श दंपत्ति के बारे में जो कहा गया है उन आदर्शों का पूरी तरह पालन दीखता है.



दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ




३.


क्या भोपाल-रियासत की सांस्कृतिक विरासत में ही ऐसा कुछ था जो इन स्त्रियों को अपने जीवन के बारे में बयान करने की प्रेरणा देता था.ये तो थी रियासत की स्त्रियाँ लेकिन सामान्य स्त्रियों का क्या,क्या वे भी आत्मभिव्यक्ति की इच्छा को परिणति तक पहुंचा पायीं.इसके बरक्स  अतिया फैजी (1877-1967)और नाज़िल फैजी (1874-1938) के  आत्मकथात्मक यात्रा संस्मरणों को देखा जा सकता है.1906से 1908के बीच उन्होंने यूरोप की यात्रायें कीं और संस्मरण लिखे. 

अतिया फैजी कवि इक़बाल की मित्र थीं (द अदर साईड ऑफ़ इक़बाल,सईद नक़वी,फ्राइडे टाइम्स लाहौर ,15अप्रैल 1911) अतिया फैजी की डायरी के कुछ हिस्सों का प्रकाशन ‘तहज़ीब-उन -निस्वान’ में हुआ ,जो बाद में पुस्तक रूप में भी सामने आई. हालाँकि 1907में अतिया इक़बाल से मिली थी मगर पूरी डायरी में इक़बाल का ज़िक्र सिर्फ दो बार आया है .दोनों बार अतिया ने उन्हें ,विद्वानदार्शनिक और कवि के रूप में याद किया है.उनके बीच कोई अन्तरंग संपर्क था इसकी तरफ कोई संकेत नहीं मिलता.जबकि सामान्य तौर पर कई अन्य ने उनको आत्मीय मित्रों के रूप में देखा.

अतिया ने बाद में ‘इक़बाल’(1947) शीर्षक से पत्रों का संग्रह भी छपवाया,लन्दन में उनकी निजी मुलाकातों के ब्यौरे इस पुस्तक में मिलते हैं.इन पत्रों में यह उल्लेख है कि इकबाल से अतिया फैजी की मुलाकातें सभाओं ,रात्रिभोजों और पिकनिक के दौरान हुआ करती थी.अतिया ने इकबाल के दिवंगत हो जाने के बाद ही पत्रों का संकलन छपवाने का साहस किया ,वैसे भी तब तक उनकी उम्र काफी हो चली थी.

’इक़बाल’ शीर्षक पुस्तक में  वे इकबाल से साथ अपने संबंधों को गुरु -शिष्यवत बता कर संवेदनात्मक संतुलन का परिचय देती हैं.(अतियाज़ जर्नी :अ मुस्लिम वूमन फ्रॉम कोलोनिअल बॉम्बे टू एडवर्डियन ब्रिटेन ,Siobhan lambert-Hurley and Sunil sharma,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ,दिल्ली ,2010:2)

पुरुष के साथ मैत्री भाव को छुपाकर रखना उनके मानसिक अनुकूलन को बताता है कि जब वे पश्चिम में थीं तो उन्हें कवि इकबाल से आत्मीयता मे कोई परहेज न था लेकिन देश-काल के बदलते ही स्त्री कैसे अपनी अभिव्यक्ति को सेंसर कर डालती है ,अतिया का लेखन इसका दिलचस्प उदाहरण है .नाज़िल फैजी ने बहन के नक़्शे -कदम पर चलते हुए अपने संस्मरण शाया किए लेकिन वह अतिया की अपेक्षा अधिक खुलकर स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बोलती है उसने पति इब्राहीम खान के साथ गुज़रे पलों के बारे में लिखा.

दिलचस्प है कि नाज़िल फैजी का विवाह 12वर्ष की उम्र में 1886में हुआ लेकिन संतान उत्पन्न न हो पाने के कारण सन 1913में तब तलाक़ हुआ जब उनकी उम्र 39की थी ,यानि तब जब कोई स्त्री यौन -आकर्षण की उम्र पार कर रही होती  है, ठीक उसी समय नवाब ने दूसरी स्त्री के साथ रहना चुन लिया.नाज़िल फैजी ने यूरोप की यात्रा के बारे में  ‘सैर ए यूरोप में’ लिखा.जो सतही तौर पर भले यात्रा संस्मरण हो पर उसमें संतानहीन स्त्री जो पति की उपेक्षा और तलाक का शिकार है उसकी पीड़ा के दस्तावेज़ छिपे हुए हैं(नाज़िल राफ़िया सुलतान नवाब बेग़म साहिबा ,सैर ए यूरोप ,लाहौर,यूनियन स्ट्रीम 18मई 1908)

 ‘सैर ए यूरोप’ पति और बहन अतिया के साथ जलमार्ग से ब्रिटेन और इस्ताम्बूल तक की गयी यात्रायें हैं.इस वृत्तान्त में नाजिल के अन्तरंग जीवन और निजी हताशा के संकेत हैं .ऐसा लगता है कि वह अपने निजी जीवन ,परेशानियों ,पति की बेरुखी के बारे में बोलना चाहकर भी बोल नहीं पा रही है.उसके लिखे हुए की दरारों को पढना पाठक का काम काम है.बाद में चलकर उसके बहनोई सैमुअल फैजी राहामिन के लिखे उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र के रूप में किसी नवाब की पत्नी का  चरित्र आया जिसका जीवन उपेक्षित और एकाकी है ,जो संभवतः नाजिल के जीवन की ही झलक है (गिल्डेड इंडिया सैमुअल फैजी राहामिन,,लन्दन ;हर्बर्ट जोसफ ,1938,रिव्यू टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ,26मार्च 1938:222) 

अतिया और नाजिल दोनों बहनों में समानता थी कि दोनों ने कथेतर विधाओं को रचनात्मकता के माध्यम के रूप में चुना लेकिन निजी प्रसंगों पर खुल कर बोलना दोनों ने गवारा नहीं किया ,इसके पीछे सामाजिक और निजी स्तर की सेंसरशिप को देखा जा सकता है.इन दोनों ने जिनका उल्लेख किया उनसे अपने संबंधों की गहराई को छुपा ले जाने के पीछे पारिवारिक  संबंधों के समीकरण गड़बड़ाने का भय ज़रूर था .मुहम्मद इकबाल से अतिया का पत्राचार लगभग सन 1911तक चला,इतनी लम्बी अवधि में आत्मीय संपर्क का स्थापित न होना ही अस्वाभाविक होता.नाजिल और अतिया दोनों ने बोलचाल की साधारण उर्दू का प्रयोग किया  .दोनों बहनों की पुस्तकों में उस समय चल रहे समाज -सुधार के एजेंडे का ज़िक्र मिलता है.अतिया ने अपनी पुस्तक में ‘तहज़ीबी बहनों’ (ज़माना की भूमिका )को संबोधित किया.नाजिल ने भी ‘हिन्दुस्तानी भाई -बहनों को सोचने पर मजबूर करने’ को”सैर- ए-यूरोप’  पुस्तक का उद्देश्य बताया.दोनों पर बदरुद्दीन तैयबजी का ज़बरदस्त प्रभाव था और वे चाहती थीं कि यूरोप और अरब के अनुभव और नजीरें  हिंदुस्तानियों  के पिछड़ेपन को दूर भगाने के काम आ सकें.

मुस्लिम आभिजात्य वर्ग से सम्बद्ध ये दोनों बहनें भारत में जनता के सामने खुलकर बोलने वाली पहली स्त्रियाँ थीं.लेकिन इनका लेखन इस ओर इशारा करता है कि सामाजिक -सांस्कृतिक और समुदायगत संरचना कहीं न कहीं अभिव्यक्ति के लिए विधागत चुनाव को नियंत्रित करने वाला कारक है.अतिया और नाज़िल की पुस्तकों को आत्मकथा नहीं कहा जा सकता लेकिन इनके लेखन में पत्र,डायरी शैली और बौद्धिक गद्य का सम्मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है.स्वानुभूत जीवन के बारे में संकेतों में बात करना कहीं न कहीं जीवन में परिवर्तनकामी शक्तियों का आह्ट का द्योतक है .

         

हम    कि    मगलूब-ए-गुमाँ थे     पहले
फिर वहीं हैं कि जहाँ थे पहले





पाकिस्तान बनने के बाद जो स्त्रियाँ आत्मकथा लेखन  के क्षेत्र में रचनारत रहीं उनपर कई  दृष्टियों से विचार हो सकता है -एक तो कि देशविभाजन की घटना के बदले सांस्कृतिक संदर्भ और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इनका नजरिया क्या था साथ ही इस्लामीकरण के आग्रह की पृष्ठभूमि में जेंडर के मुद्दों पर इनके जुड़ाव के आयाम क्या थे .कुरर्तुल एन हैदर   (कारे जहां दराज़ है) हमीदा अख्तर हुसैन रायपुरी (हमसफ़र)

निसार अज़ीज़ बट (गए दिनों की सरगाह) की कड़ी में बेगम शाइस्तासुहरावर्दी इकरमुल्लाह (1915-2000) की आत्मकथा ‘फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट’ (फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट ,शाईस्ता सुहरावर्दी कराची ,ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998 ) को देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने पाकिस्तान आन्दोलन के विस्तृत ब्यौरे दिए.जहाँ हिंदी क्षेत्र में स्त्रियों की राजनीतिक आत्मकथाओं की उपस्थिति विरल है वहीँ शाईस्ता बेगम ने पाकिस्तान की विधानसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पाठकों को बताया.शाइस्ता बेगम ने आत्मकथ्य में सगे -सम्बन्धियों का ज़िक्र प्रसंगवश तो किया है लेकिन निजी जीवन के अन्तरंग क्षणों के परिचय से उनका पाठक वंचित रह जाता है.

यद्यपि दो अध्यायों में वे वैवाहिक और राजनैतिक जीवन में संतुलन बनाये रखने की कोशिशों का उल्लेख करती हैं ,जिससे पाठक को यह अंदाज़ा हो जाता है कि आभिजात्य स्त्री के लिए भी राजनीति में  कैरियर बनाना तब भी आसान नहीं रहा होगा.बेगम शाईस्ता आत्मकथा के छठे और सातवें अध्यायों में ससुराल पक्ष के रीति रिवाजों ,भोजन -वस्त्र ,सम्बन्धियों का ज़िक्र करती हैं पर कहीं भी अपने पति का नाम तक नहीं लेतीं.वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में उनकी टिप्पणी है –“हमारे समाज में विवाह के बाद किसी लड़की के जीवन में सबसे बड़ा जो परिवर्तन आता है वह यह है कि उसे पूरी तरह अपने आप को नए परिवार के अनुरूप ढालना पड़ता है”.( फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट ,शाईस्ता सुहरावर्दी कराची ,ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998:61) 

अन्य कई मुस्लिम स्त्रियों ने अंग्रेजी में अपने सार्वजनिक जीवन के विषय में टिप्पणियां कीं लेकिन अक्सर ये स्त्रियाँ अपने आत्मीय संबंधों के बारे में खुलकर बोलने का साहस नहीं जुटा पायीं.इस कड़ी में बड़ी बहादुरी के साथ बुर्का त्याग देने वाली जहाँआरा हबीबुल्लाह (1915-2001)की पुस्तक ‘रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट’ को देखा जा सकता है जो बेगम शाईस्ता के आत्मकथ्य की तर्ज़ पर ही लिखी गयी है.रामपुर स्टेट के दिनों में जहाँ उनके वालिद मुख्यमंत्री थे और बहनोई स्टेट के नवाब -वहां के बारे में याद करते हुए भी आत्मीय प्रसंगों की चर्चा से बचीं सिवाय उस अध्याय के  जिसमें उन्होंने पाकिस्तान तम्बाकू कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ईशत हबीबुल्लाह के साथ अपने वैवाहिक प्रसंग को लिखा,लेकिन वहां भी अधिकांश बातें उनकी  संतानों के इर्द -गिर्द ही घूमती हैं.( रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट: ग्लिमप्स आफ ए प्रिंसली स्टेट ड्यूरिंग द राज, जहाँआरा हबीबुल्लाह ,आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2001,मूल उर्दू में लिखित यह पुस्तक अंग्रेजी में पहले प्रकाशित हुई थी .उर्दू में ‘ज़िन्दगी की यादें :रियासत रामपुर नवाब  का दौर’जो कराची से 2003में छपा).



हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र(1921-1988) जहाँआरा हबीबुल्लाह की चचेरी बहन थी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के नेत्र -चिकित्सा विभाग में चिकित्सक और  निदेशक बनने के बारे में उसने आत्मकथ्य में लिखा .पूरी आत्मकथा में कहीं भी उसके अविवाहित रह जाने ,एकाकी जीवन के कष्टों के बारे में ज़िक्र नहीं है.इसकी बजाय सर सैय्यद अहमद खां के समाज सुधार के एजेंडे और उनकी तारीफ में कई पन्ने लिखे गए हैं.(आत्मकथा, हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ,संपादन लोला चटर्जी,नई दिल्ली ,तृंका ,1996)


ऊपर जिन आत्मकथाओं का ज़िक्र किया गया है उनकी रचनाकारों मे से अधिकांश सन 1930के पहले पैदा हुईं थीं.ये सभी अभिजात्य परिवारों से सम्बद्ध थीं और सर सैयद अहमद खान के आधुनिक राष्ट्र राज्य मे स्त्री की बदली हुई भूमिका के आदर्श से परिचालित थीं .रशीद जहां (1905 -1952 ) सरीखी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी और प्रेरित स्त्रियॉं जब लेखन के क्षेत्र में आयीं तो उन्होने आधुनिकता के पक्ष में एक विमर्श करना  शुरू किया .समतावादी विचारधारा और रूढ़ियों के बहिष्कार की हवा चली  ,इसके परिणामस्वरूप ‘हलाक-ए अरबाब-ए ज़ौक़ (1939)जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आयीं .इनसे जुड़ी स्त्रियॉं ने घर के बाहर कदम रखकर आधुनिक विचारों का प्रचार –प्रसार करना प्रारम्भ किया.जहां इससे पहले की पीढ़ी अपनी शिक्षा के लिए संघर्षरत  रही थी वहीं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी स्त्रियों  ने शिक्षा को जनसुलभ बनाने ,पर्दे का विरोध करने ,स्त्री –स्वाधीनता के व्यावहारिक पक्षों पर बल दिया.

रशीद जहां ,इस्मत चुगताई ,रज़िया सज्जाद ज़हीर और खदीजा मस्तूर ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए ,इन स्त्रियॉं ने यह समझा कि आधुनिकता ,स्त्री और मध्यवर्गीय मुस्लिम स्त्री होने के क्या अर्थ हैं विशेषकर भारतीय मुस्लिम स्त्री होकर बौद्धिक कैसे हुआ जा सकता है ,और यह बौद्धिकता किस तरह समाज परिवर्तन का माध्यम बन सकती है(प्रियम्वदा गोपाल ,लिटेररी रेडिकलिस्म इन इंडिया :जेंडर ,नेशन एंड द ट्रांसिशन टू इंडेपेंडेंस ,लंदन ,रौल्टज,2005 ,पृष्ठ 5)

विभाजन की घटना ने स्त्री –पुरुष दोनों को प्रभावित किया ,देश –विभाजन ,पुनर्स्थापन,धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर नागरिकों के विभाजन के सबके अपने पाठ थे पाकिस्तान का बनना ,भारत के विभाजन की घटना ने राजनैतिक परिदृश्य पर जो परिवर्तन उपस्थित किए उनका भारत में रह रही और पाकिस्तान जाकर बस गयी मुस्लिम स्त्रियॉं पर गहरा प्रभाव पड़ा , इस दौर में गद्य लेखन विशेषकर आत्मकथा लेखन मे अप्रत्याशित तेज़ी देखी गयी .सबके पास अपनी –अपनी चुनौतियाँ और संघर्ष थे. पाकिस्तान को आधुनिक बनाने के लिए उन्नीसवीं सदी के समाजसुधार आंदोलनों के प्रभावों को मन मे ग्रहण किए हुए ये स्त्रियाँ लेखन मे प्रवृत्त हुईं .शायद सुधारवाद का दबाव उनके अवचेतन पर इतना रहा होगा कि वे अपने निजी प्रसंगों पर बहुत खुलकर नहीं बोलतीं .वस्तुतः इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र -आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए .इसके उदाहरण के तौर पर अदा जाफ़री की आत्मकथा “जो रही सो बेकरारी रही” को देखा जाना चाहिए. बदरुद्दीन तैय्यबजी के परिवार से सम्बद्ध रेहाना तैय्यबजी (1901-1975) ने आत्मकथा ‘द हार्ट ऑफ़ अ गोपी’ लिखी थी,जिसमें  महात्मा गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन का अनुकरण करने और अपने ऊपर गांधी के संश्लिष्ट प्रभाव का अंकन किया है.

आत्मकथा में वह स्वयं को ‘बापू’ के ब्रह्मचारी सिपाहियों में से एक बताती है.वह सीधे -सीधे न सही पर परोक्ष रूप से गांधी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करती है.वह स्वयं को कृष्ण की गोपिका कहकर ब्रह्मचारी रहने के व्रत और दैहिक संसर्ग की इच्छा के बीच के अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में लिखती है.गांधी को लिखे पत्रों में भी वह इस अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में खुलकर बयान करती है.वह गोपी के रूप में स्वयं को तथा कृष्ण के रूप में संभवतः गांधी को रखकर देखती है और भौतिक वास्तविकताओं से परे आध्यात्मिक मिलन का रूपक रचती है .लेकिन यह तय है कि रेहाना आत्मकथा विधा की अपरिमित संभावनाओं को जान नहीं पाई वर्ना यह किताब एक बोल्ड आत्मकथा हो सकती थी.



५.

नवाब सिकंदर बेगम(1818-68) के  यात्रा वृत्तान्त ‘ए पिल्ग्रिमेज टू मक्का’(1870) में कुछ आत्मकथात्मक प्रसंग मिलते हैं पर उनमें अंतरंगता का नितांत अभाव है जो लिखा तो उर्दू में गया पर प्रकाशित हुआ सिर्फ अंग्रेजी में,वह भी बेगम की मृत्यु के बाद.ये उन रचनाकारों में से थीं जिन्होंने खुलकर आत्माभिव्यक्ति का साहस नहीं दिखाया ,बल्कि उपन्यास और कहानी के माध्यम से अपनी बात कही.उन्होंने प्रेम ,विवाहपूर्व सेक्स ,समलैंगिकता ,स्त्री की यौनेच्छाओं जैसे मुद्दों पर बात की.

इनके अतिरिक्त जो स्त्रियाँ स्त्री लैंगिकता ,यौनेच्छा जैसे मुद्दों पर खुलकर लिख पायीं उनमें सलमा अहमद ,किश्वर नाहीद को ज़रूर देखा जाना चाहिए . ये स्त्रियाँ सिर्फ जेंडर की बात नहीं करतीं बल्कि धर्म -विशेषकर इस्लाम किस तरह स्त्री को ‘मानुष’ होने से रोकता है इसपर टिप्पणी करती हैं .इन रचनाकाओं मे पर्दा -प्रथा का विरोध ,बहुविवाह  के साथ -साथ धर्म कि जड़ मे आने वाले ऐसे बहुत सारे रिवाज जो स्त्री विरोधी हैं उनकी मुखर आलोचना मिलती है.

सलमा अहमद जो पाकिस्तान की जानी मानी व्यवसायी थीं उन्होंने अपनी दर्दनाक ज़िन्दगी के बारे में लिखा.(कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमद ,समा,कराची ,2002) जिसकी विशेषता है वैवाहिक जीवन के विषय में खुलकर बात करना.वे अपने वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में लिखती हैं –‘सुहागकक्ष  में मेरी प्रतीक्षा हो रही थी.अब दूसरा नाटक,दूसरा दू:स्वप्न शुरू होने को था-यह मैं नहीं थी जिसे वह छू रहा था ,यह मैं नहीं थी जिसके वह कपड़े उतार रहा था ,ये सब इतना अवास्तविक ,इतना पीड़ादायक था ,इतना झटका लगाने वाला था कि रजस्राव से चादर भीग गयी.तट के लग्ज़री होटल में ये एक डरावनी रात थी .रिवाज़ के अनुसार सुबह मेरे रिश्तेदार मुझे घर ले जाने के लिए आये.मैं क्षुब्ध थी और स्वयं को अपवित्र और चोटिल महसूस कर रही थी”( कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमद ,समा,कराची ,2002:26-27)

इसी सलमा अहमद की बहन नजमा भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान की बहू बनी. सलमा की आत्मकथा में नजमा और शहरयार के विवाह की तस्वीर भी है.इस तरह सलमा अहमद का सम्बन्ध भोपाल की रियासत से ठहरता है,जो भारत की एकमात्र ऐसी रियासत थी जहाँ 19वीं और 20वीं शती में स्त्री- शासक हुईं.यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं.


सईदा बानो अहम् की आत्मकथा ‘डगर से हटकर ‘(1990) में प्रकाशित हुई जीवन के उत्तरार्ध में सईदा ने यह आत्मकथा अपने पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध छपवाई ,जिसे बाद में उर्दू अकादमी ,दिल्ली से पुरस्कार भी मिला (सकीना हसन -सईदा की भतीजी से उसका साक्षात्कार 13फरवरी 2006को )सईदा हसन आल इंडिया रेडियो की पहली स्त्री उद्घोषक थीं जो सन 47में अपने छोटे बेटे को लेकर लखनऊ से दिल्ली नौकरी करने आ गयीं.(इंटिमेसी अगेंस्ट कन्वेंशन :मैरिज एंड रोमांस इन सईदा बानो’ज़ ‘डगर से हटकर ‘पेपर बाई आसिया आलम ,40एथ एनुअल कांफ्रेंस आफ़ साउथ एशिया ,यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कांसिन ,मेडिसन ,21-23अक्टूबर 2011.)सईदा ने अपने दाम्पत्य जीवन के विवादों और विवाह के टूटने के चित्रण खुलकर किये,यही कारण था कि लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी उनके बेटों ने आत्मकथा के छपने का विरोध किया.सईदा की आत्मकथा की तुलना आबिदा सुल्तान से भी की जा सकती है,वे दोनों अच्छी मित्र थीं और दोनों की परवरिश भोपाल में ही हुई थी आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने आत्मकथ्यों में बोल्डनेस दिखाई.आबिदा सुल्तान की आत्मकथा की चर्चा पहले  की जा चुकी है ,सईदा ने बताया कि उसने विवाह के तुरंत बाद हमबिस्तर होने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसे लगा कि पति नितांत अपरिचित हैं. .(डगर से हटकर:38)इस असुविधाजनक प्रसंग को लिखकर  अपनी अल्पवयस और उस समय तक यौन -संबंधों के बारे में अनभिज्ञता प्रदर्शित की.सईदा बानो ने विवाहेतर सम्बन्ध की चर्चा बड़ी बहादुरी से की है .नुरुद्दीन नामक वकील जिसकी अंग्रेज़ पत्नी अपने बच्चों को लेकर भारत की आज़ादी के बाद इंग्लैण्ड चली गयी,उससे सईदा को प्रेम  हुआ.

नुरुद्दीन के अकेलेपन को सईदा की दोस्ती ने भर दिया.इनदोनों का प्रेम लगभग 27वर्ष चला ,शुरूआती हिचक के बाद सईदा ने प्रेम के सामने पूर्ण समर्पण कर दिया ,जिसने सईदा के शब्दों में ‘सईदा का दिल खुशियों से भर दिया था ‘सन 1955में नुरुद्दीन की पत्नी दिल्ली लौट आई,उसे इस प्रेम सम्बन्ध पर आपत्ति थी(डगर से हटकर :186-190)इस सम्बन्ध को लेकर सईदा बहुत सम्वेदनशील थी क्योंकि इसने  ख़ुशी दी थी ,इसलिए एक दिन अचानक सब ख़त्म करना उसके लिए संभव  नहीं था,दूसरी बात यह थी कि इस सम्बन्ध की जानकारी मित्रों ,बच्चों और रिश्तेदारों को थी लेकिन सईदा के अनुसार ‘मेरी जीवनशैली की मर्यादा उन लोगों ने रखी,इस प्रेम सम्बन्ध के कारण मेरा अपमान कभी नहीं किया.’अतीत के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए सईदा लिखती है- 


“आज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वह पूरा प्रसंग बचकाना लगता है ,लेकिन ऐसा वक्त भी था कि उसकी एक झलक ,कुछ लम्हे के लिए मिलना ज़िन्दगी और मौत का सवाल ...रात के राहियों की तरह बचपने का यह खेल हमने 60-65और यहाँ तक कि 70बरस की उम्र तक भी खेला.जिस काम की मनाही हो उसे करने में जोखिम का अद्भुत आनंद छिपा हुआ होता है”   

( डगर से हटकर:226)सईदा द्वारा अपने प्रेम सम्बन्ध की स्पष्ट स्वीकृति अपने आप में विशिष्ट है ,जो उसकी आत्मकथा को प्रामाणिक बनाती है.



मेरा जीवन’ शीर्षक से डा.जाकिरा गौस(1911-2003) ने आत्मकथा लिखी.पढने की शौक़ीन ज़ाकिरा ने सत्तर वर्ष की अवस्था में मद्रास विश्वविद्यालय से उर्दू में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की.बचपन से ही डाक्टर बनने का सपना देखने वाली जाकिरा को पारिवारिक परिस्थितियों ने गृहस्थिन बनाया.वे आत्मकथा में अपने बचपन के रचानात्मक दिनों को याद करती हैं.वे अपने एक बुज़ुर्ग द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका ‘बज़्म ए अदब’ से प्रेरणा लेकर खानदान के भीतर ही हस्तलिखित पत्रिका ‘मुशीर उन निस्वान’निकालने लगीं.इस घरेलू पत्रिका के पाठक खानदान के भीतर के लोग ही थे पर इसमें भी अपने से बड़े -बुजुर्गों पर टिप्पणी करने से लोग बचते थे.सन 1956तक यह हस्तलिखित पत्रिका नियमित रूप से निकलती रही.सेल्फ सेंसरशिप के सन्दर्भ में जाकिरा गौस ने इसे याद किया है ,इसी के आधार पर ‘माई लाइफ’ शीर्षक से आत्मकथा अंग्रेजी में प्रकाशित हुई,जिसे खानदान के लोगों के लिए ही लिखा गया था,इसलिए बहुत से वर्णनों की ज़रूरत भी नहीं पड़ी.लेकिन वह यातनाप्रद बातों की चर्चा से बचीं और यदि कहीं किसी के बारे में प्रसंगवश नकारात्मक टिप्पणी कर भी देती हैं तो तुरंत वहीँ किसी सकारात्मक बात से संतुलन बना देती हैं.

इसी तरह पूरी आत्मकथा में सावधानी दिखाई पड़ती है ,वे विवादास्पद मुद्दों पर अपना पक्ष नहीं रखतीं और यदि कोई ऐसा मुद्दा आता भी है तो उनका बयान होता है -आपमें से कुछ इससे असहमत भी हो सकते हैं -उनसे अग्रिम क्षमायाचना के साथ.आत्मकथा में वे दर्ज़ करती हैं-‘पत्रिका के पहले अंक में महरूम चचाजान ने खानदान की कुछ मृतक औरतों के बारे में लिखा था,वर्णक्रम से .पाठकों को उनके बारे में कुछ लिखने को कहा गया था.मैंने नहीं लिखा ,लेकिन उसके बाद से ही मेरे दिमाग में यह विचार आया कि हालाँकि मेरा जीवन इतना महत्वपूर्ण नहीं है ,कि उसे लोग जानें फिर भी मैं अपने बारे में ज़रूर कुछ लिखूं.आरंभ में तो किसी कागज़ पर मैं यूँ ही कुछ उलझी हुई बातें लिखा करती थी .मैं आपसे उसे पढ़ने के लिए नहीं कह सकती पर मैं इतना जानती हूँ कि आपमें से कुछ लोग तो उसे पढ़ने के लिए कहेंगे ही.यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि मुझे मालूम है कि लोगों में दूसरे के निजी जीवन को जानने की इच्छा होती ही है...वैसे अपने निज के बारे में लिखना मेरा अपना चुनाव है,यह ऐसा विषय है जिसपर मेरी कलम बिना रुके दौड़ सकती है.मुझे मालूम है कि आत्मप्रशंसा करना एक कमी है फिर भी मुझे अनुमति दीजिये कि कहूँ कि जो कुछ मेरे जीवन में हुआ उसे लिखूं अपने बारे में कुछ ख़ास लिखना मुझे कभी पसंद नहीं आया.

आत्मकथा में जाकिरा अतिशयोक्तियों का प्रयोग करती हैं ,अपने पाठकों के पक्ष में वह अपनी आलोचना स्वयं करती चलती है .बार बार कहती है कि उसे ठीक से लिखना भी नहीं आता.अपने पाठकों से किसी वक्तव्य ,जिसके बारे में उसे लगता है कि वह आत्मप्रशंसात्मक हो सकता है -को देने के बाद अतिशय विनम्रता दिखाती है,जिसे फारसी और उर्दू गद्य की परंपरा में भी देखा जा सकता है.यहाँ देखने की बात है आत्मकथ्य में आत्म के विलोपन का प्रयास, सिर्फ औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थ हैं.वह चाहती है कि पारिवारिक सेंसरशिप उसपर हावी न हो उसकी साहित्यिक गतिविधियाँ अपनी गति से चलती रहें.इसलिए वह अपने आपको बहुत ही नाचीज़ दिखाती है,सगे -सम्बन्धियों पर कोई टीका -टिप्पणी नहीं करती.पूरी आत्मकथा बहुत सावधानी से लिखी हुई है ,हालाँकि इस कार्य में वह हर समय सफल नहीं हो पाती.जाकिरा अपने जन्म के प्रसंग में लिखती है –

“रबी उल अव्वाल 1340,यानि 18नवम्बर 1921को शुक्रवार के दिन हैदराबाद के हाजी मंजिल में मैं पैदा हुई,मुझसे पहले पैदा हुई दो बहनें मर चुकी थीं...मैं अब तक इस संसार में जी रही हूँ ,इतनी लम्बी ज़िन्दगी.कभी कभी सोचती हूँ मेरा जीवन कितना निरर्थक है ,अगर मैं भी अपनी बहनों की तरह पैदा होते ही मर जाती तो...क्या हुआ होता ?मेरे जैसे जीवन का क्या मूल्य है ...व्यर्थ और निरुद्देश्य’ जाकिर गौस लिखती है कि उनके पिता बी. ए.पास न कर पाने के कारण पक्की नौकरी से वंचित रहे ,खानदान के बाहर उन्होंने दूसरी शादी की ,दूसरा घर भी बसाया ,सभी पत्नियों को मिलकर उन्हें कई बच्चे हुए जिनमें पांच लड़कियों और एक लड़के ने ही पूर्ण जीवन जिया.ज़ाकिरा की मां ने बहुत अभावों में अपने बच्चों को पाला ,इसलिए अपने बच्चों को बहुत विनम्रता और खानदानी तहजीब सिखाई.उन्होंने सिखाया कि वे परनिर्भर हैं इसलिए उन्हें ऐसे रहना चाहिए जिससे परिवार के अन्य लोगों को कोई तकलीफ न हो.वह एक वाक़या याद करती है कि घर में कबाब बने थे -कुछ बच्चों ने जोश में आकर ज्यादा कबाब खा लिए,जिससे बाकी लोगों के लिए कम बचा.जैसे ही मेरी मां को यह पता चला उन्होंने बहुत कड़ाई के साथ ताक़ीद की, कि भविष्य में दूसरों के बारे में बिना सोचे कभी भोजन करने का साहस न करूँ.यह बात आज भी मेरे जेहन में बैठी हुई है कि मैं दूसरों के हिस्से के बारे में बिना सोचे हुए कभी भी खा नहीं पाती ...और कभी असफल रहने पर मेरी आत्मा कचोटती है’ अपने पिता के बारे में वह लिखती है –‘हमें उनसे हमेशा डर लगता था ...हम उनसे कांपते थे और हमसे वे सीधे बात नहीं करते थे.’अपनी मां के व्यक्तित्व के बारे में वह लिखती है कि मां कभी अपना प्यार दिखाती नहीं थी ,लेकिन मुझे मालूम था कि वो मुझे बहुत प्यार करती है.आर्थिक तंगी वाले संयुक्त परिवार में जाकिरा के परिवार का सम्मानजनक ढंग से जीना संभव नहीं हो पा रहा था.ऐसे हालातों में उसकी मां कुंठित हो रही थी.फिर भी अपनी बेटियों के भविष्य और व्यक्तित्व के विकास के लिए चिंतित रहा करती थी.वह अपनी बेटियों के लिए दिनचर्या लिखा करती ,जिसका पालन करना कठिन होता था.माँ अपने वात्सल्य को कभी जताती नहीं थी जिसके कारणों पर जाकिरा गौस की टिप्पणी है –‘बावजूद तमाम भावनाओं के माँ के मुख से मेरे लिए प्यार शब्द निकलना संभव नहीं था,लेकिन यह बात मुझे बड़े होने पर ही समझ आई.

अपनी मां के बहाने वह मुस्लिम परिवारों में प्रचलित बहुविवाह ,अशिक्षा के कारणों ,पर्दा -प्रथा और लैंगिक विभेद को परखती चलती है. ‘घर की औरतों का बाहर जाना बहुत कम ही होता था.खरीदारी का काम घर के पुरुष या नौकर ही करते थे.घर की बुज़ुर्ग औरतें युवा बहु -बेटियों को घर के भीतर रहने की सलाह देती थीं ,वे खानदान की परंपरा के पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं.घर की औरतों को हैदराबाद और मद्रास आने -जाने का मौका सिर्फ शादियों में मिलता था .यह वह समय था जब खानदान की नयी पीढ़ी  बाहर के समाज से जुड़ना चाह रही थी.औरतें मस्जिदों और तीर्थयात्रा के लिए भी जाती थीं लेकिन परदे में ही और किसी न किसी पुरुष की सरपरस्ती में.परदे का पूरा पालन किया जाता था.

घर से निकलते समय जनानखाने से दरवाज़े तक नौकरानी मोटे कपड़े का पर्दा पकड़ कर दोनों तरफ खड़ी हो जाती थीं.घर के आंगन से दरवाज़े पर खड़ी गाड़ी तक पर्दा कनात की तरह खड़ा किया जाता .रेल और जहाज़ में जनाना कम्पार्टमेंट होते.घर एक बंद संसार था ,जहाँ औरतों की उपस्थिति स्थायी थी और पुरुषों का आना -जाना लगा रहता.पुरुष- आधिपत्य के बावजूद घरेलू मामलों में स्त्रियों के अपने निर्णय ,विचार होते थे,,छोटी लड़कियों को घर के भीतर ही औरतें इमला सिखा देतीं .कई माओं ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेजने की पेशकश की .1931में अपनी माँ की वजह से जाकिरा की एक चचेरी बहन ने स्कूल में दाखिला ले लिया ,जो खानदान की एक बड़ी घटना थी.जाकिरा गौस आत्मकथा में अपने आत्मनिर्भर  बनने की यात्रा का बयान करती हैं कि किस तरह वे चांदनी रात में आँखे गड़ाकर किताबें पढ़ती थीं ,किसी के आने की आहट सुनते ही किताब छुपा देती थीं.

संयुक्त मुस्लिम परिवार में उन्होंने बहुविवाह और उससे प्रभावित बच्चों और स्त्रियों को नजदीकी से देखा.पहली पत्नी की उपेक्षा,सीमित आय में बहुत से परिवारों का पालन ,विवाह के कारण नए बच्चों की आमद से परिवार में कलह ,आर्थिक तंगी ,जगह की कमी इत्यादि के बारे में वे लिखती हैं-“बहुपत्नीत्व का रिवाज़  हमारे खानदान में कम ही था ,इसे आम तौर पर पसंद भी नहीं किया जाता था .अक्सर पहला विवाह परिवार जनों द्वारा तय किया जाता था,जबकि दूसरा विवाह उस व्यक्ति की निजी पसंद का होता था.अक्सर दूसरा विवाह नीचे दर्जे की लड़की के साथ किया जाता था.इन औरतों से खानदान की औरतें सामाजिक तौर पर कोई खास सम्बन्ध नहीं रखती थीं.

ऐसी औरतों के अस्तित्व की ओर से खानदान बेखबर रहने में भलाई समझता था.दूसरे-तीसरे विवाह वाली औरतों के रहने का अलग इंतजाम होता था.ऐसा बहुत कम होता था कि इन संबंधों से पैदा हुई संतानों का विवाह खानदानी घरों में हो.जबतक पुरुष आर्थिक तौर पर दोनों परिवारों का बोझ उठाने में सक्षम होता था ,स्थिति नियंत्रण  में रहती थीं.लेकिन यदि कोई स्त्री या उसके बच्चे उपेक्षित महसूस करते थे तो खानदान का कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आता था.’घर में एक ईसाई नर्स आती थी जो साफ़ सुथरे कपड़ों में स्मार्ट दीखती थी,परिवार के मर्द उसके औजारों /दवाई का बैग लेकर पीछे पीछे चलते यह देखकर जाकिरा के मन में डाक्टर बनने की इच्छा जगी.पिता ने ­­­­बारह वर्ष की उम्र में उसे स्कूल जाने की इज़ाज़त दी और नामपल्ली स्कूल में दर्ज़ा दो में बैठना शुरू किया .शादी के बाद उर्दू में स्नातक की उपाधि प्राइवेट से पढ़ कर पास की,बाद में उन्होंने लड़कियों के कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिली.

पूरी आत्मकथा में अपनी जवानी के दौर का ज़िक्र वे ज्वालामुखी के फटने की तरह करती हैं॰ यह ज़िक्र भी है कि कैसे पति ने एम.ए.करवाने से मना कर दिया,क्योंकि तब वह अपने पति से श्रेष्ठ हो जाती.जाकिरा ‘हमारा दौरे हयात’में लिखती है-‘अब मैं यह महसूस करती हूँ कि मेरे जीवन में जो कुछ भी हुआ अच्छे के लिए ही हुआ.मेरे लिए आर्ट्स पढना बेहतर रहा.मैंने बहुत सा साहित्य पढ़ा और लिखने की आदत ने मेरी दूसरी मानसिक चिंताओं को ख़त्म कर दिया.पहले लिखना मेरे लिए आवरण था बाद में लक्ष्य बन गया ...मैं आज जो कुछ भी हूँ लिखने के कारण ही हूँ.हमारे खानदानों में किसी स्त्री का अविवाहित रह जाना बहुत ही अलग घटना होती थी ,जिनका विवाह नहीं हो पाता वे अपने पिता या भाई के ऊपर निर्भर रहती थीं.

1920से 1950के दौर तक ऐसा होता था कि तीस पार से ऊपर की लड़कियों में लगभग 15प्रतिशत की शादी होती ही नहीं थी,सुशिक्षित लड़कियों को भी अविवाहित रह जाना पड़ता था.’ऊपर से साधारण दीखने वाली आत्मकथा मुस्लिम समाज के भीतर जेंडर के समीकरणों को गहरे तक रेखांकित करती है.अपने समकाल और भारत की बीसवीं सदी के पहले के सात दशकों का इतिहास इस पुस्तक में झलकता है.साथ ही परिवार और समाज द्वारा तयशुदा दायरे में कैसे एक स्त्री निज की पहचान को तलाशती है और बिना शोर -शराबे के अपनी पहचान स्थापित करती है,कोई जान भी नहीं पाता कि उसकी नामालूम सी कहानी कहाँ शुरू और कहाँ ख़त्म हुई. 

आत्मकथा लेखन को अपने तनाव और चिंतन-मनन की रचनात्मक ‘शेयरिंग’ से जोड़ा जा सकता है. हालांकि एक स्त्री, देश-काल की सांस्कृतिक सीमाओं के परे, आत्मकथ्य लिखते या कहते समय निरंतर इस तनाव से जूझती है कि वह जीवन सत्य के किन पहलुओं को छोड़े और जोड़े. चारित्रिक दुर्बलता और फिसलन के प्रसंगों में से किन्हें लिखे और किन्हें छोड़े, सत्य और कल्पित प्रसंगों में से क्या रखे! स्त्री रचनाकार का वैश्विक नजरिया, जीवन मूल्य, संस्कार, भाषिक कौशल, राजनीतिक संदर्भ और उसके जीवन की नियंत्रक शक्तियां-इसको प्रभावित करती हैं, इसलिए रीता फेल्स्की को लगता है कि ‘स्त्रियों की आत्मकथाओं में इच्छा और सत्य का तनाव, दिखाई देता है. उनका ईमानदार आत्म निरंतर सत्य के पक्ष में बोलने के लिए पर्युत्सुक रहता है जबकि बाहरी दबाव इस अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाते हैं. आत्मकथाओं को कौन-सा पाठक पढ़ेगा, पाठकीय वर्ग और रुचि भी रचना को प्रभावित करती है. स्वान्तः सुखाय का दावा करने वाले रचनाकार के अवचेतन में भी ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक स्वयं को प्रसारित करने की लालसा सुप्त रहती है.



६.

नवाब फैज़ुन्निसा बेगम(1834-1903) ने रूपजलाल(1876) नामक उपन्यास अपने असफल वैवाहिक जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए लिखा था ॰ किसी भी बंगाली मुस्लिम स्त्री द्वारा लिखे इस पहले उपन्यास की भूमिका आत्मकथात्मक है,जिसमे संक्षेप में मुस्लिम स्त्री पर समाज के दबावों और उसकी यौनिकता पर मर्दवादी पहरों की पहचान की गयी है .इसमें औपनिवेशिक बंगाली मुसलमान स्त्री के जीवन के यथार्थ चित्र हैं.रूपजलाल  जैसी रचना मुसलमान समाज में प्रचलित और इस्लाम से मान्यता प्राप्त बहुपत्नीत्व के ख़िलाफ़ आलोचनात्मक तर्क विकसित करती है. उपन्यास की नायिका रूपबानो अपने पति के बहुविवाह के प्रति कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराती है, लेकिन अंतत: उसे परम्परा के आगे समर्पण करना पड़ता है. रूपबानो भले ही 'बहुपत्नीत्व'के सामने घुटने टेक देती है लेकिन नवाब फ़ैजुन्निसा ने निजी जीवन में पति के बहु-विवाह पर आपत्ति करते हुए अलग रहने का निर्णय लिया था. 

उपन्यास की भूमिका में इसका उल्लेख करते हुए विफल वैवाहिक जीवन की यंत्रणा को रचना की प्रेरणा बताया गया है. रूपजलाल का कथ्य प्रेम, युद्ध, बहुपत्नीत्व के दायरे में ही घूमता है. फ़ैज़ुन्निसा लेखन में तथाकथित स्त्रीत्व का अतिक्रमण करते हुए स्त्री-यौनिकता के प्रश्नों पर विचार करती है. वह उस समाज का आंतरिक परिवेश चित्रित करती हैं जहाँ धर्म और पितृसत्ता का दबाव स्त्री को'आत्म'से संवाद करने की छूट नहीं देता.


फैज़ुन्निसा के लेखन को विद्रोह बल्कि अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिए .वह लेखन में स्त्रीत्व का अतिक्रमण करती है॰ अपने समय से कहीं आगे की इस रचना पर पाठकों और आलोचकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया. फ़ैज़ुन्निसा बांग्ला में लिखती थी लेकिन उन्हें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था. उन्होंने फैज़ुन लाइब्रेरी बनाई थी और रवींद्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्णकुमारी देवी (बांग्ला की पहली स्त्री-उपन्यासकार (दीपनिर्वाण, 1868) के स्त्री-संगठन शक्ति समिति की प्रखर सदस्य थीं. उन्हें औपनिवेशिक बंगाल और अन्य प्रांतों में हो रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हलचलों की पूरी जानकारी थी. अब्दुल कुदस ने आलोर दिशारी (अब्दुल कुदस (1979), द एनलाइटेंड गाइड, बंगला साहित्य अकादेमी, ढाका.) में लिखा है कि 'फ़ैज़ुन्निसा प्रतिदिन कुछ घंटे लाइब्रेरी में बिताती थी और 'इस्लाम प्रचारक'और 'सुधारक'जैसी पत्रिकाएँ नियमित तौर पर ख़रीदती थी. ऐसे वक्त में, जब स्त्री से सिर्फ़ यह अपेक्षा की जाती थी कि वह घर को आरामदायक शरणस्थली बनाए, कुशल गृहिणी बने, ऐसे में एक मुसलमान स्त्री का उपन्यास लिखना परम्परागत मूल्यों को चुनौती था और साहसिक अभियान की शुरुआत भी. भूमिका में वे बहुपत्नीत्व की कड़ी आलोचना करते हुए अपने परिवार के बारे में बहुत बोल्ड ढंग से लिखती हैं(फएजा एस. हसनत (2009), 'नवाब फ़ैज़ुन्निसाज़ रूपजलाल', वुमॅन ऐंड जेण्डर : द मिडल ईस्ट ऐंड द इस्लामिक वर्ल्ड, खण्ड 07, प्रकाशक कोनिक्टलज़िकी ब्रिल, एन.वी.)

फैज़ुन्निसा दो घनिष्ठ प्रसंगों का ज़िक्र करती है पहला तो यह कि अभी वह छोटी ही थी कि उसके विवाह का प्रस्ताव घर पर आया ,वह पिता का ही रिश्तेदार था,विवाह -सम्बन्ध की मनाही ने उस व्यक्ति को बुरी तरह तोड़ दिया और पूरा जीवन दुःख में बिताया (रूपजलाल -भूमिका:5-6)

फैज़ुन्निसा का कहना है कि इसके बाद उसका भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया ,पिता की मृत्यु हो गयी और मां  एक धनी व्यक्ति की दूसरी पत्नी बन गयी.अपने बारे में फैजुन लिखती है ‘शादी के कुछ वर्ष मैंने खुशी से गुज़ारे.पति अपने आप से ज्यादा मुझे प्यार करता ,मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ता.

इस बीच मैंने दो बेटियों को जन्म दिया.पति ने एक और शादी की थी पर पति मेरे प्रति आकर्षित रहता ,जिसे देख कर सौतन ईर्ष्या से जल-भुन जाती.वह मुझसे पीछा छुड़ाने के उपाय ढूँढने लगी.जो व्यक्ति मुझे एक मिनट के लिए अकेला न छोड़ता वह अब हमेशा के लिए अकेला छोड़ देना चाहता था.इसी परिस्थिति में मैं अलग घर लेकर रहने लगी.”(रूपजलाल -भूमिका :7)

यह बात महत्वपूर्ण है कि फैजुन ने अपना पुस्तकालय बनाया ,अख़बारों में लिखा और पति के आगे कभी हाथ नहीं पसारा और स्त्री -संगठनों की सदस्य रही.यद्यपि अपने उपन्यास में उसने रूप और जलाल की प्रेमकथा लिखी और प्रेम के आगे स्त्री का आत्मसमर्पण दिखाया लेकिन जीवन में  उसने इस्लाम में प्रचलित बहुपत्नीत्व का विरोध किया.निजी तौर पर फ़ैजुन्निसा द्वारा बहुपत्नीत्व को चुनौती देना और पारिवारिक सुरक्षा के दायरे से बाहर निकल कर एक आत्मनिर्भर ऐजेंट के रूप में सामने आना नयी स्त्री की छवि का दिशा-निर्देश करता है. 

अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुत: राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किये जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है. इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं, वर्चस्वशील विचार-सरणियों से टकराना होता है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परम्पराओं के आयाम अपने-आप में विशिष्ट होते हैं जो स्त्री को घर, पति, संतान की पूरी ज़िम्मेदारियाँ सौंपते हैं. यहाँ तक कि स्त्री के लिखे को पाठक और प्रकाशक भी उपेक्षित करते हैं. फैजुन्निस्सा स्त्री यौनिकता ,पर्दा ,शिक्षा और बहुविवाह के प्रश्नों पर विचार करती दीखती  हैं.



वहशत हवस की चाट गई ख़ाक-ए-ज़िस्म को
बे-दर घरों शक़्ल का साया कहाँ से आए


७.

मुस्लिम स्त्रियों के लिखे हुए को प्रकाश में लाये बिना हम राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की स्थिति और योगदान को समझ नहीं सकते ‘द वर्ल्ड ऑफ़ मुस्लिम वीमेन इन कोलोनियल बंगाल’ में सोनिया अमीन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए कहा है कि मुसलमानों की पितृसत्ताक व्यवस्था भी स्त्रियों को परम्पराश्रित आधुनिक विचारधारा देने का प्रयास कर रही थी.जहाँ हिन्दू और ब्राह्मो समाज सुधारकों की विचारधारा सीता ,सावित्री के पौराणिक ,मिथकीय चरित्रों पर आधारित थी वहीँ मुस्लिम समाजसुधारक स्त्रियों के सामने हज़रत मुहम्मद की पत्नी आयशा ,बेटी फातमा -जो धैर्य और सहनशीलता का उदाहरण  समझी जाती है -को आदर्श चरित्रों के रूप में रख रहे थे.हिन्दुओं की तर्ज़ पर उनका भी मानना था कि समुदाय की संस्कृति की रक्षा का दायित्व स्त्रियों  का ही होता है.

राष्ट्रीय आन्दोलन को जेंडर के दृष्टिकोण से यदि विश्लेषित किया जाए तो साहित्यिक और गैर-साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पितृसत्ता यह मान रही थी कि स्त्रियों का कोई अधिकार उनकी देह पर नहीं है ,मुस्लिम स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बहुस्तरीय था.बहुत से आलोचकों ने उस दौर की मुस्लिम स्त्रियों के लिखे और कहे हुए पर विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझी,पितृसत्ता से अनुकूलित राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की,जबकि मुस्लिम पितृसत्तात्मक नियंत्रण इस समय में स्त्रियों को आधुनिक करने की दिशा में प्रयास करना प्रारंभ कर रहा था,आधुनिकतावादी विचारधारा स्त्री पर परिवार और पुरुष के नियंत्रण को वैधानिक बनाने की प्रक्रिया में थी.

इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम स्त्रियों ने आधुनिकता का कृत्रिम जामा पहनने की अपेक्षा स्वयं को परदे में रखकर जीना और वहीँ मरना पसंद किया.रुकैय्या सखावत हुसैन ने ‘अबरोध बासिनी’में ज़िक्र किया है कि एक बार एक घर में आग लग गयी घर की मालकिन ने अपने सारे गहने एक पोटली में बांधे और जल्दी में शयनकक्ष से निकली ,बाहर निकलते ही उसने देखा कि आँगन में बहुत से लोगों की भीड़ जमा है -जो आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे .वह अपने शयनकक्ष में वापस चली गयी और बिस्तर के नीचे छिप गयी.

वह जल मरी लेकिन बाहर नहीं निकली,पर्दा प्रथा जिंदाबाद !’रुकय्या सखावत हुसैन ने 1905में सुल्ताना का सपना लिखा ,जिसमे उन्होंने परदे के भीतर घुटती हुई स्त्री की यातना और स्वातंत्र्य -स्वप्न का चित्रण किया.ठीक इसी समय लेखकों का ध्यान इस बात पर ज्यादा था कि नयी लेखिकाएं स्त्री की शुचिता ,पवित्रता ,सतीत्व की कहानियां लिखें॰  उनपर दबाव डाला  जाये कि लेखिकाओं को समाज के उच्चतर मूल्यों की स्थापना का प्रयास करना चाहिए.

मध्यवर्ग से सम्बंधित किसी लेखिका का साहस नहीं हुआ कि वे इन बने -बनाये नियमों के दायरे से बाहर जाए.इसलिए घर की परिधि में रोमांटिक अभिव्यक्तियों तक उनकी रचनात्मकता महदूद रही.मध्यवर्गीय परिवारों से सम्बद्ध लेखिकाओं ने तयशुदा दायरे में ही आत्माभिव्यक्तियाँ कीं और सीधे -सीधे अपनी बात कहने के खतरे ,जो अभिजात्य या उच्च वर्ग से संबद्ध लेखिकाएं उठा सकती थीं ,वो इन्होने नहीं उठाये और पुरुषों की दृष्टि के अनुरूप ही स्त्री -छवि चित्रित की.

हैदराबाद की बिल्कीस जहाँ खान(1930)और रामपुर की राजकुमारी मेहरुन्निसा (1933) ने अपने अंतरंग  जीवन के टुकड़े संस्मरणों में लिखे,इसके अलावा हमीदा हुसैन राजपुरी ने “हमसफ़र’(1992)शीर्षक से आत्मकथ्य लिखा,जिसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में ‘माय फेलो ट्रेवेलर’(2006) शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित हुआ.(हमसफ़र ,हमीदा अख्तर हुसैन ,दान्याल ,कराची ,1992)जोहरा सहगल(1912) की आत्मकथा ‘करीब से’ में जोहरा ने रंगमंच ,इप्टा और फ़िल्मी जीवन से जुड़े अनुभवों पर खुलकर लिखा साथ ही कामेश्वर सहगल से अंतर्जातीय विवाह और प्रेम प्रसंग पर लिखते हुए किसी सेंसरशिप की परवाह नहीं की.ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि जोहरा को विदेशों का अनुभव था और वह रामपुर के राजसी परिवार से जुडी हुई थी.इप्टा से ही सम्बद्ध शौक़त कैफ़ी (1928) ने उर्दू में’यादों की रहगुज़र’(स्टार पब्लिकेशन,दिल्ली 2004) लिखी.

इस पुस्तक में कैफ़ी आज़मी के साथ अपने प्रेम और विवाह -प्रसंग को अत्यंत दिलचस्प अंदाज़ में पत्रों में ज़ाहिर किया –“कैफ़ी ! मैं तुम्हें बहुत चाहती हूँ,इतना जिसकी कोई सीमा नहीं है ,संसार की कोई भी ताक़त मुझे तुम्हारे पास आने से नहीं रोक सकती ,कोई पर्वत ,पहाड़ ,समुद्र ,नदी,मनुष्य,कोई आकाश ,कोई ईश्वर,कोई देवदूत मुझे रोक नहीं सकता ,और केवल खुदा ही जानता है इस बारे में.”उधर कैफ़ी भी अपने खून से लिखे प्रेम पत्रों में इसी भाव की व्यंजना करते दीखते हैं’(कैफ़ी एंड आई -अ मेमोआयर ,शौकत कैफ़ी,अनुवाद नसरीन रहमान ,जुबान ,दिल्ली ,2010)



बुलबुल को बागबाँ से न सैययाद से गिला
किस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए –बहार में



जीबोन स्मृति’ शीर्षक से बंगाल की राजनीतिक कार्यकर्त्ता हमीदा रहमान (1920)ने आत्मकथा लिखी.आत्मकथा के केंद्र में पलाश नाम के व्यक्ति से प्रेम और विछोह है.पलाश ने हमीदा रहमान को पढने -लिखने और राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत करने की राह दिखाई ( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका ,अध्याय 1) पलाश सन 1930में हमीदा से मिला था ,तबसे निरंतर वे आपस में मिलते रहे ,राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में पलाश बेहद सक्रिय था और उसका भूमिगत हो जाना ,बीच बीच में किशोरी हमीदा से मिलने ने उनके बीच के संकोच और झिझक को हटा दिया था.हमीदा लिखती है –‘ईद की रात मैं हमेशा उसका इंतजार किया करती थी ,वह मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण क्षण होता.मैं अपने घर के फाटक के आगे टहलती रहती ,जबतक वह अपनी छोटी सी सायकिल से आ नहीं जाता.उसके आने पर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता.डर लगता कि कहीं ऐसा न हो वो ना आ पाए.पर वह हमेशा ईद को रात 9बजे आता,मैं बहुत खुश होती( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:97) 

आगे वह बताती है कि कैसे उनके बीच पत्रों का आदान -प्रदान शुरू हुआ और रोमांस फलता -फूलता गया.पाठक उनके विवाह की सूचना का इंतजार करता है ,लेकिन पलाश के भाई के विरोध के कारण यह सूचना पाठक को नहीं मिलती.हमीदा के पिता भारी -भरकम दहेज़ देने में असमर्थ थे.हमीदा पूरी तटस्थता से इस दुखद प्रसंग को यथार्थ रूप में चित्रित करती है ,अपने भावों और अनुभूतियों का कोई विवरण नहीं देती और बताती है कि पिता ने और लड़के देखने शुरू कर दिए,1942में उसका विवाह किसी और से हो गया.

लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती.शादी के एक दो साल बाद ही हमीदा कलकत्ता गयी और वहां उसे पलाश फिर मिला ,सत्रह साल की हमीदा पलाश से मिलकर बहुत खुश हो जाती –‘हम बाहर साथ -साथ जाते ,एक साथ सामूहिक रसोईयों में काम करते करते और भी नज़दीक आ गए.उस समय मेरे पति कलकत्ता में नहीं थे ,इसलिए हमारी नजदीकियां बढ़ती गयीं.जब कभी हम मिल नहीं पाते एक दूसरे के बगैर बहुत दुखी रहते.’     (जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28)     पलाश प्रसंग के 50वर्ष 

बाद लिखी आत्मकथा में हमीदा का कहना है तब उसका यह व्यवहार नादान उम्र के कारण था ,हालाँकि यह बात पाठक को बहुत दूर तक ग्राह्य नहीं होती क्योंकि वह लिखती है –‘तब मुझे मालूम ही नहीं था किसी पर- पुरुष से मित्रता पाप है.ये मेरी समझ के बाहर था कि बचपन के अभिन्न मित्र के साथ सम्बन्ध ,विवाह के बाद गलत कैसे हो सकते हैं.मैं वास्तव में तब अबोध थी.( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28) हमीदा और पलाश का संपर्क रिश्तेदारों की नज़र में आ गया और हमीदा को पलाश से मिलने की मनाही हो गयी.हमीदा को अध्यापिका नहीं बनने देने पर उसने आत्महत्या की असफल कोशिश की,1960तक पलाश राज्य विधानसभा का सदस्य और चार बच्चों का पिता बन चुका था ,वह फिर से हमीदा से मिलने आया जिसके बारे में वह लिखती है –

“मुझे पसंद नहीं था कि अब वह मुझसे मिले ,लेकिन मैं उसे आने से मना नहीं कर सकी.मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि पलाश को लेकर मुझमें एक कमज़ोरी थी.’(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:128-129) 

उसके मिलने आने से हमीदा को थोड़ी असुविधा हुई पर उसने वर्षों बाद बालपन के इस प्रेम -प्रसंग को लिखा.यह लिखना उसकी अन्तःप्रेरणा के कारण ही संभव हो पाया,क्योंकि ऐसे अन्तरंग प्रसंगों को बाहर लाने में बाहरी दबाव ज्यादा कारगर साबित नहीं होते .


राजनीतिक जीवन जीने वाली बेगम कुदसिया एजाज़ रसूल(1908) की आत्मकथा ‘फ्रॉम पर्दा टू पार्लियामेंट’ ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अनुभव उनकी किताब में दर्ज हैं.एक मुस्लिम लड़की जिसका लालन -पालन एक अभिजात्य और राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में हुआ,उसने कैसे परदे से पाकिस्तान मूवमेंट का अंग बनकर अपनी अलग पहचान बनायीं.बेगम रसूल की शादी अवध के जागीरदार नवाब एजाज़ रसूल से हुई जो मुस्लिम लीग के सदस्य थे.कुदसिया ने 1937से 1940तक काउन्सिल के उपप्रधान के तौर पर काम किया.वह पहली भारतीय मुस्लिम स्त्री थीं जो इतने ऊंचे पद तक पहुँचने में कामयाब हुई.स्वतंत्रता के बाद वे इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्य बनीं.ज़मींदारी प्रथा का पुरजोर विरोध करने और रैयत के पक्ष में आवाज़ उठाने के कार्यों ने उन्हें प्रसिद्धि दी और 1952में राज्यसभा की सदस्य बन गयीं.आत्मकथा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में नेतृत्वकारी क्षमता वाली स्त्रियों के अनुभव और क्षमता का उपयोग का प्रतिशत बहुत कम है .आज भी पूरे विश्व की स्त्रियों का लगभग 2प्रतिशत ही संसद तक पहुँचने में सक्षम हो पाया है.

राजनीतिक अर्थव्यवस्था,सत्ता के संश्लिष्ट समीकरणों में स्त्रियाँ नीति -निर्धारक पदों पर बहुत कम पहुँच पाती हैं.राष्ट्रीय आन्दोलन और देश विभाजन ने भी स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के नए अवसर दिए थे.विभाजन ने शिक्षा ,प्रशिक्षण और रोज़गार के नए अवसर भी साथ लेकर आया था,साथ ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की सीमायें भी टूटीं,उनका पुनर्निर्धारण हुआ.कई ऐसी स्त्रियाँ जिन्होंने पाकिस्तान के बनने के पक्ष में आंदोलनों में भाग लिया ,आन्दोलन के पहले और आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक सभाओं में खुलकर शिरकत की,मसलन बेगम शहनवाज़ ,बेगम राणा लियाकत अली खान, बेगम इकरामुल्लाह जिन्हें सन 47में पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही घर के भीतरी दायरे में ढकेल दिया गया उन्हें सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की अब मनाही थी.

फरीदा शाहिद का मानना है कि-‘इस्लाम के , अपने ढंग से लागू किया जाने के कारण पाकिस्तान में असमानता और अधीनस्थता की स्थिति को पोषण और बढ़ावा मिला.”(द कल्चरल आर्टिकुलेशन ऑफ़ पैट्रिआर्की,फरीदा शाहिद,1991:140) राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो स्त्रियाँ पुरुषों के समकक्ष  सभाओं ,बैठकों ,आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं,उनको तब रोकना गैर -प्रगतिशीलता में शुमार होता ,इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद सांस्कृतिक परम्परा ,आदर्श और परदे जैसे नियम लागू कर दिए गए जिससे स्त्री फिर से नियंत्रण में लायी जा सके.स्वतंत्रता के बाद की स्त्री आत्मकथाएं इसके साहित्यिक साक्ष्यों के रूप में देखी जा सकती हैं ,जो यह बताती हैं कि समाज का स्त्रियों को और स्त्रियों का समाज को देखने का नजरिया कैसा है ,साथ ही स्त्री के आसपास घटने वाले सामाजिक -राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति स्त्रियाँ क्या  सोचती हैं.पाकिस्तान की नागरिक बन गयी औरतों के आत्मकथ्यों  से सामाजिक परिवर्तनों की भूमिका को दर्ज करने और स्वयं समाज -परिवर्तन में उनकी भूमिका समझी जा सकती है.




९.                

आत्मकथात्मक टेक्स्ट तब बनते हैं ,जब कथाकार के भीतर निरंतर संवाद  से ही आत्मकथात्मक टेक्स्ट  बनते  हैं  ,एक समाज विमर्श के तौर पर यह संवाद लेखक ,टेक्स्ट और बाह्य-जगत के बीच बारीक और सघन अन्तः -सम्बन्ध है.जिस समय इस तरह के टेक्स्ट बनाये जा रहे होते हैं,उस समय ,उस काल खंड की विशेष भूमिका लेखक के चित्त पर पड़ती है,इसके साथ ही संभावित पाठक की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ,क्योंकि पाठ को पढ़ने का तरीका सबका अपना –अपना ही  होता है .पाठक,टेक्स्ट और लेखक के बीच का आपसी सम्बन्ध वह जटिल और बारीक तंतुओं से बुना हुआ होता है –जिसके निर्माण में इतिहास ,समाज और संस्कृति की भूमिका होती है.

ये टेक्स्ट इसका पता बताते हैं कि निज का परिविस्तार कैसे और किस ढंग से होता है .लेखन और पठन जैसी क्रियाएं किसी समुदाय के भीतर वैचारिकता को ,संस्कृति को स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर कैसे प्रभावित करती हैं.दरअसल आत्मकथाओं को हमें इस रूप में लेना चाहिए कि वे हमारे अनुभवों के विश्लेषण और पुनर्विश्लेषण करने में कैसे सहयोगी होती हैं .एक लिखित टेक्स्ट में जिस तरह के संसार का निर्माण होता है उसमें स्व के निर्माण के साथ – संसार के निर्माण का भाव अपने भीतर से आता है या यों कहें कि यह प्रक्रिया आत्म से  संवाद के अनंतर पूरी होती है .

स्त्रीवादी आलोचक नैन्सी के. मिलर का कहना है कि पढ़ी –लिखी या अकादमिक जगत से सम्बद्ध स्त्रियों द्वारा आत्मकथात्मक लेखन ज़रूरी है क्योंकि यह सर्व जन के इतिहास के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का काम करते हैं,दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति कथाएं जन –इतिहास को बेहतर ढंग से बताने का काम करती हैं.

अकादमिक जगत से जुड़ी आत्मकथाएं ,जिनमें किसी ने अपने जीवन के ब्यौरे (आत्मानुभव)दे रखे होते हैं वस्तुतः वे अपने आप को ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय जांच के लिए प्रस्तुत कर रही/रहा होता है.स्त्री –इतिहास को देखने के लिए बीसवीं शताब्दी में स्त्री के लिखे हुए की  ऐतिहासिक ,समाजशास्त्रीय पड़ताल ज़रूरी होगी क्योंकि ये वे हैं जो स्त्री सम्बन्धी मुद्दों से गहरे तौर पर सम्बद्ध राही हैं और अपने बारे में दस्तावेज़ लिखकर वे बहुत बड़ा बौद्धिक रचनात्मक कदम उठाती हैं.इस तरह वे स्वयं ही टेक्स्ट का अंश बन जाती हैं और साथ ही उन मुद्दों की भी जिनकी वकालत वे करती हैं.’(शेड्स आफ डीपर मीनिंग ‘ओन राइटिंग ऑटोबायोग्राफी,मैरी जेन डिकिन्सन:982)

एक तरफ तो इन स्त्रियों का लिखा हुआ स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है.दूसरी ओर इसे स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए.इन आत्मानुभवों को पढ़ने से इन स्त्रियों  की टकराहटों –चाहे वे समाज के साथ हों,परिवार के साथ हों या स्वयं के साथ हों ,के साथ –साथ व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों की भी परतें खुलती हैं.वे कौन से कारण हैं कि कोई स्त्री आत्मकथा जैसी विधा का चुनाव करती है ,जो भी उस आत्मकथ्य को पढ़ता है वह साहित्य -सजग मुद्रा (Metaliterary gesture) को सराहे बिना नहीं रह सकता .ऐसा टेक्स्ट जो निजी और सार्वजनिक के बीच मध्यस्थता कर सके और साथ ही स्वानुभवों को भी व्यक्त कर सके.उदाहरण के तौर पर  उर्दू में लिखी हुई बेगम अनीस किदवई की आत्मकथा को देखा जा सकता है.

गुब्बार –ए –कारवां में अनीस किदवई ने एक ओर देश विभाजन के पहले और बाद के सामाजिक –राजनैतिक हालातों का जायज़ा लिया है तो दूसरी ओर  मुस्लिम होने के नाते  शिक्षा ग्रहण करने और जीवन की धारा का निर्णय करने के लिए परिवार पर निर्भरता और स्त्री होने के कारण स्वयं पर पड़ने वाले सामाजिक ,पारिवारिक दबावों  ,जेंडर की राजनीति ,सेंसरशिप का ज़िक्र किया गया है.

एक स्त्री की दृष्टि से आजादी के आसपास के वर्षों में भारत –पाकिस्तान को देखने का यह अपनी तरह का पहला उल्लेखनीय प्रयास है ,जिसकी अगली कड़ी के तौर पर ‘आज़ादी की छाँव में ‘शीर्षक आत्मकथात्मक संस्मरण को देखा जा सकता है.जिसे भले ही आत्मकथा न कहा जाए क्योंकि उसमें व्यक्ति के आत्मख्यान से ज्यादा जगह सामाजिक –राजनीतिक प्रसंगों को मिली है जो दरअसल हिंदुस्तान की आजादी की छाँव में भी तपती रुखी धूप का ताप झेलने को विवश आम जन का आख्यान है जिसे आजादी के नाम पर विस्थापन,गरीबी ,शोषण ,अपमान का शिकार होना पड़ा.रोग –बीमारी,यौन और अन्य प्रकार की हिंसा के शिकार लोगों को जानवरों से भी बदतर दशा में खुले आसमान के नीचे गर्मी ,लू ,शीत और वर्षा के साथ देशव्यापी भ्रष्टाचार और अफवाहों का शिकार होना पड़ा.अनीस किदवई ने स्वयं जाकर शरणार्थी शिविरों में सेवा की ,साम्प्रदायिक उन्माद के शिकार हो चुके पति का शोक विस्मृत करने का यही तरीका था.


औरतों द्वारा लिखे ये आख्यान जो बिलकुल निजी अनुभवों से उद्भूत होते हैं वे चिंतन और विचार की बनी –बनायी सरणियों को तोड़ते हैं ,इन आख्यानों की विशेषता यह है इनमें लेखक विषयी (subject)को छोड़ता चलता है.स्त्री आत्मकथाकार अपने  निजी जीवन को बौद्धिक ,सांस्थानिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में रखकर आवा-जाही करती हैं.परंपरा से जो आत्मकथा का रूप है वह स्त्री और विशेषकर मुस्लिम स्त्रियों के यहाँ आकर बदल जाता है ये जीवनाख्यान निजी और सार्वजनिक दोनों हो उठते हैं ,क्योंकि इनमें समाज ,धर्म ,राजनीति उन समीकरणों से पाठक /आलोचक रूबरू होता है जो अपने रूपबंध में स्त्री और पुरुष पाठक /आलोचक दोनों को यह चुनौती देता है कि वे आत्म के वास्तविक ,काल्पनिक और प्रामाणिक विमर्श को प्रस्तुत करें.

मिखाइल बाख्तिन ने ‘साक्षी और न्यायाधीश’होने को ही मनुष्य होना कहा है ,जिसका अर्थ है हम देखते और तौलते हैं .देखना और स्थितियों को तौलना ही एक घटना को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा देखे जाने और एक ही स्थिति या घटना की विभिन्न व्याख्याओं को जन्म देता है.1947के भारत –विभाजन ने मानव –इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया .भारत –पाकिस्तान का लिखित इतिहास विस्थापित समूहों के संघर्षों ,हत्याओं ,यौन –हिंसा ,लूटपाट ,भ्रष्टाचार और असंतोष के तमाम साक्ष्यों का इतिहास है .लेकिन विभाजन ने भी अन्य किसी युद्ध की तरह ही स्त्रियों पर दूसरे ढंग का प्रभाव डाला.युद्ध के होने के कारणों में से किसे सही ठहराया जाये और किसे ग़लत,इस प्रश्न से भी पहले यह मुद्दा महत्वपूर्ण है कि जहाँ भी हिंसा ,झड़पें और युद्ध होते हैं वहां स्त्रियों और बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव भिन्न किस्म के होते हैं.

गुब्बार –ए –कारवां और आज़ादी की छाँव में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं.इतिहास की पुस्तकों में भारत –विभाजन के विषय में जो भी तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं उनमें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की आवाज़ नदारद है..इनकी आवाज़ों को साधारण –अति साधारण समझ कर उच्चवर्गीय राजनीति के बोझ तले दबा दिया गया ऐसे में गद्य और केवल गद्य ही ऐसी विधा थी जिसमें शोषितों ,पीड़ितों ,हाशिये के लोगों की आवाज़ ,धार्मिक संवेदना के मुद्दों को इन दोनों देशों में अभिव्यक्त किया जा सकता था.इंतज़ार हुसैन ,भीष्म साहनी,मंटो ,अमृता प्रीतम समेत कई रचनाकारों ने गद्य की विभिन्न विधाओं में देश –विभाजन ,यौन –हिंसा ,लूट –खसोट ,भ्रष्टाचार को स्वर दिया.लेकिन स्त्री –आत्मकथाकारों ने देश –विभाजन से रूबरू होकर जो अभिव्यक्ति की वह स्त्री दृष्टि से देखे-झेले  देश-विभाजन का प्रामाणिक आख्यान है.



१०.

बेगम अनीस किदवई(1906-1982) ने गुब्बार- ए- कारवां लिखी,जो अधूरी ही मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली से 1983में मूल उर्दू में छपी.उत्तर प्रदेश के बाराबंकी की रहने वाली  अनीस ने ‘आजादी की छांव में(1949) शीर्षक संस्मरण भी लिखा जिसका प्रकाशन सन 1974में हुआ.इनमें बेगम अनीस किदवई भारत -पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों और शरणार्थियों की समस्या का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं॰ गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ -स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है. जिसमें जो तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय स्त्रियों की जानकारी ही नहीं बल्कि भारतीय मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति पर भी पर्याप्त प्रकाश है.’गुब्बार ए कारवां(उर्दू) का हिंदी अनुवाद उनकी पोती प्रोफ़ेसर आयेशा किदवई कर रही हैं.

अनीस किदवई की आत्मकथा और संस्मरण में भारतीय राजनीति में भारत विभाजन के दौर में आये कई परिवर्तनों का ज़िक्र है .इतिहास जहाँ विभाजन के दौर को मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश शासन  के बीच के द्वंद्व पर केन्द्रित मानता है,अनीस किदवई एक स्त्री और वह भी मुसलमान स्त्री की आँखों से देखे राजनीतिक परिवर्तनों को पाठक के सामने लाती हैं. 

1946में हुए प्रांतीय चुनावों ने मुस्लिम लीग और कांग्रेस को दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग ने भी यहीं से जोर पकड़ा था-लेकिन इस मांग के जन - पक्ष पर इतिहासकार चुप रहे हैं.देश विभाजन के राजनीतिक -कूटनीतिक पक्षों पर तो विचार हुआ लेकिन इसके मानवीय पक्ष की उपेक्षा की गयी.अनीस किदवई ने स्वयं दंगे झेले ,पति को खोया,शरणार्थी शिविरों में लायी गयी उन सैकड़ों लड़कियों और बच्चों से रूबरू हुईं जो दंगों और हिंसा का शिकार हुए.

दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के दस्तावेज उनके संस्मरण में भरे पड़े हैं.इस नज़रिए से ये किताबें देश विभाजन और भारतीय राजनीति के संक्रमण के दौर  के स्त्री -पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है .वे उस दौर की कथा कहती हैं जब लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाना गैरज़रूरी था.अनीस खुद भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं ,’गुब्बार -ए-कारवां’ में वे बार -बार ज़िक्र करती हैं कि कैसे परिवार के लड़कों ,चचेरे भाईयों को बोलते -सीखते सुनकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी.तालीम के लिए वे जीवन भर बेचैन रहीं. विभाजन के दौरान हुई हिंसा का जेंडर पक्ष उभारने वाली वे पहली स्त्री रचनाकार हैं ,जो इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी चैतन्य थीं  और अपने परिवेश ,राजनीति,समाज और यौनिकता को समझने की उनकी अपनी दृष्टि थी .गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर लिखती है _” औरतों ने अपने घूंघट, कड़े और छागल उतार कर गाँधी जी की सदा पर लब्बैक कहा. सबसे पहले जिन चंद ख्वातीन के नाम हमारे देहात तक पहुंचे उनमें बेगम हसरत मौहानी, बी अम्मा कस्तूरबा गाँधी और मिसिस सरोजिनी नायडू के थे.


औरतों ने अपने जेवरात और छोटी मोटी पसंदाज़ की हुई रकमें मकामी कांग्रेस कमिटी को दान कर दी. बिदेशी कपड़ों से अपने बक्सा खाली कर के हर जिला के सदर ऑफिस में होली जलवा डाली . उन दिनों चीज़ें कम थीं मगर आला हुआ करती थीं इसलिए ज़रदोज़ी के इन कपड़ों से अक्सर मनूं चांदी कांग्रेस कमिटी को मिली.


बाराबंकी में जब बैलगाड़ियों और रथों में भर कर बिदेसी कपड़े नज़र-ए-आतिश हुए तो बीसों पर्दादार ख्वातीन ने भी तांगा और इक्कों पर पर्दा बंधवा कर अपने अपने गांव मोहल्ले से बाराबंकी का सफर किया. इनमें सिर्फ़ वही ख्वातीन थीं जो तहरीक के लिए चन्दा जमा करतीं चरखा  काड़ती और अपने खानदान के वीरों की आरती उतार कर जेल रुक्सत करती थीं.


मुझे वो सीन याद है जब एक बड़े खेमे में इर्द गिर्द पड़ी हुईं चिकों से झांकती हुईं हिन्दू मुस्लिम ख्वातीन होली को जलाते हुए जवाहरलाल को देखने के लिए एक पर एक टूटी पड़ती थी.


स्टेज पर जवाहरलाल जी चौधरी ख़लीक़ुज़ ज़मां और हरकिरन नाथ मिश्रा थे. मगर खूबसूरत नौजवान पंडित जी मोटे खद्दर की शेरवानी और चूड़ीदार पायजामे में सारे मजमें की तवज्जो का मरकज़ थे.

अंदर औरतें हस्ब-ए-आदत बोल रही थी किसी ने कहा देखो तो कैसा मोटा खद्दर पहन कर आये हैं. शेह्ज़ादों की तरह पले हैं और अरे इनके कपड़े तक तो पैरिस में धुलते हैं.

एक ने इंकशाफ किया अरे इन बाप बेटे ने तो अपने घर के बिदेसी कीमती बर्तन तक तोड़ डाले.

किसी और तरफ से आवाज़ आयी, ये पूरा खानदान त्याग मूर्ती हैं.मैं इन सबको नहीं जानती थी. सिर्फ़ ठाकुर रघुनाथ सिंह की फैमिली से वाकिफ़ थी जिनके बेटे के.डी.सिंह बाबू ने आगे चल कर मशहूर हॉकी चैंपियन की हैसियत से प्रेजिडेंट अवार्ड हासिल किया. लेकिन उससे क्या होता है उस वक़्त ये मुतफर्रक  अनासिर एकता और प्रेम की डोरी में बंधे एक ही जस्बे और एक ही नशे से सरशार थे.

मुझे अपनी तड़प और बेबसी भी याद है न सफर के काबिल थी ना तहरीक में शिरकत की इजाज़त न जेल जाने के लायक. दिल पर पत्थर रखे गांव में बैठी रही अल्बत्ताह औरतों में काम शुरू कर के कांग्रेस पार्टी का पहला जलसा मसौली में कर डाला. एक मोअम्मर खातून को सदर बना कर ज़िला के और देहात से भी ख्वातीन को  मदऊ किया. ऊट पटांग धुआँधार तकरीरें हुईं अब वो अंदाज़-ए-बयां और बालहाना जोश याद करती हूँ तो बेइख्तियार हसी आ जाती है मगर उस वक़्त रह रह कर अपने आज़्ज़ा पर और खुद शफ्फी साहब पर गुस्सा आता था की मुझे क्यों नहीं जाने देते.”( गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवई ,मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली,1983 )

बेगम किदवई आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियों की भूमिका पर विशेष चर्चा करती दीखती हैं.उनके वर्णन की विशिष्टता यह है कि वे स्त्रियों के आपसी वर्गीकरण ,पुरुषों से उनके फर्क के साथ -साथ असहयोग आन्दोलन में इन पुरुषों के भागीदार हो पाने के पीछे छिपी स्त्री की भूमिका को रेखांकित करना नहीं भूलतीं .आत्मकथा के ब्यौरे दिलचस्प होने के साथ -साथ तटस्थ भी हैं.स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले पुरुषों की अपेक्षा उनकी स्त्रियों की भूमिका अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण थी इस पर गुब्बार -ए-कारवां में वह लिखती हैं –“ अब से पहले सिर्फ़ आला तबके की लेडीज व विमेंस कांफ्रेंस, विमेंस लीग,विमेंस क्लब वगैरह की मेंबर हुआ करती थीं. अंजुमन ख्वातीन या अंजुमन तहज़ीब निस्वां के नाम से भी मकामी अंजुमनें औरतों की तालीम जिसे उन दिनों तालीमी निस्वां कहते थे के लिए कोशिशे कर रही थी और बहुत ही मेहतात किस्म का सोशल वर्क किआ करती थी.

सियासत से बस उनका इतना ही ताल्लुक था के मोहतरम शख्सियत की मौत पर ताज़ियति रेज़ॉलूशन पास कर दें और तोहमत बचपन की शादी बुरी रीत रस्मों के खिलाफ अपने इज्तेमा में  ये करारदाद मंज़ूर कर लें या औरतों के हकूक पर बहस कर लें. ज़्यादातर उनकी सरगर्मियां बड़े शहर में छोटे छोटे स्कूल क़ायम करने, ज़नाना क्लब क़ायम करने और डिनर पार्टियों तक महदूद थीं.

इस सिलसिले में लखनऊ में बेगम इनाम हबीबुल्लाह और उनकी बहन बेगम शाहिद हुसैन जज़ल हबीबुल्लाह की वाल्दह चंद रानियां औरतों के हुकूक और तालीम-ए-निस्वां के ज़बरदस्त हामी थीं. मिंटो मार्ले इस्लाहाट के तहत कुछ ख्वातीन मकामी म्युनिसिपल्टी की मेंबर भी बन चुकी  थीं इसलिए उन्हें ज़्यादा मवाकए मोअस्सर आ गए थे.

बेगम हबीबुल्लाह ने म्युनिसिपल बोर्ड की मेम्बरी के दौरान शहर के मुख्तलिफ हलकों में छोटे छोटे से बहुत से स्कूल खुलवाए. दिलकुशा क्लब में एक बड़े से बोर्ड पर रानियों और बेगमात के नाम उन्होंने क्लब के क़याम में मदद की. आज भी देखे जा सकते हैं इस क्लब में मुशायरे भी होते थे और पर्दादार बेगमात भी हफ्ते में एक बार तशरीफ़ लाती थीं.

एहसान फरामोशी होगी गर हम इन फैशनएबल बहनों की दुरुस्त की हुई पगडण्डी को नज़रअंदाज़ कर दें या उसकी अहमियत कम करने की कोशिश करें. ये सरासर अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्द्दुन की आशे ख्वातीन अंदर से हिन्दुस्तानी थीं और हिन्दुस्तानी औरतों के जमूद व बेहिसी को दूर करने के लिए कोशां.

कुछ भी हो,उन्होंने जो आवाज़ उठायी वो बारात और रिसालों के ज़रिये देहात तक पहुँच गयी.

तहज़ीब अस्मद खातून वगैरह कई रसाएल की एडिटर भी ख्वातीन थीं.उन्होंने इस्लाहे रसूम पर किताबें लिखीं शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ औरतों में पैदा  किया और खयालात व आज़ाम की तहरीर शकल दी. अकबर अलहाबादी ने कहा था "लड़कियां पढ़ रहीं हैं अंग्रेज़ी ढूंढ  ली कौम ने फलाह की राह"और "शौक तहरीर मज़ा में घुली जाती है बैठ कर परदे में बेपर्दा हुईं जाती है"इन आज़ाद ख्वातीन की बेपर्दगी पर भी उन्होंने ऐतराज़ किया "हामिदा चमकी न थी इंग्लिश से जब बेगाना थीं अब चिराग-ए-अंजुमन हैं तब चिराग-ए-खाना थीं"उन्होंने मर्दों को तम्बिया कि "हरम सराह की हिफाज़त को तेग ही न रही तो काम देंगी ये चिलमन की कबतक"इन आला तबके की अंग्रेज़ियत से मुतास्सिर औरतों तक मिडिल क्लास और लोअर क्लास की औरतों की रसाई न थी  ये तबका नसीहत आमेज़ मज़मून निगारी कर के अपनी आना को तस्कीम दे देता था इनमें एक मैं भी थी मगर सत्याग्रह की शमूलात के लिए जो औरतें मैदान में आयीं वो ज़्यादातर मत्तूस्त और गरीब तबके की थी इस तहरीक के साथ ही सियासी और मज़हबी अनासिर ने मिल कर औरतों में दिलेरी, जोश, सियासी सूझ बूझ और ईसार का जज़्बा पैदा कर दिया. अतिया फ़ैज़ी, अनसूया सारा भाई और बहुत सी ख्वातीन के नामों से आशना थे. कौमी तहरीक की इब्तिदा में तो औरतें बंधन तोड़ने की जां तोड़ तश्शूश करती रहीं. ज़्यादातर बुज़ुर्गों की मुख़ालेफ़त ने उनके कदम रोक दिए. कम ही खुल कर सामने आयीं और जेल गयीं. इनमे नेहरू खानदान की ख्वातीन भी थी. इसमें शक नहीं उनमें से चंद ही सियासी करवटों का साथ दे सकीं मगर दरपरदह अपने बेटों और भाइयों की हिम्मत बढ़ाने में उन्होंने काबिल-ए-तारीफ रोल अदा किया.

वो एक ऐसा दौर था के हिन्दुस्तान उसके लिए बिलकुल तैयार था के अमली जद्दो जहद औरतों की इज़्ज़त-ओ-नालूस को दानों पर लगा दें. ये बड़ी तरक्की पसंद भी  औरतों को नाकिस-अल-अक्ल और नाज़ुक फूल समझा करते थे. खुद मत्तूसत तबका की औरतों में भी इसकी सलाहियत ही थी कि वो सियासी ज़िन्दगी में कोई मकाम हासिल कर सकें. दुसरे में अपने बच्चे भी संभालने थे. मर्द जेल चले जाते और घर बच्चों का सारा बोझ औरत के कन्धों पर पद जाता.

उन दिनों उन्होंने मर्दानावार बच्चों की परवरिश लड़कियों की नादाइयाँ तालीम और चारके की कटाई बिदेसी माल के बायकाट वगैरह को अपने सर ले कर बेमिसाल कुर्बानी का मज़हरा किया. माली मुश्किलात ने कमर तोड़ दी लेकिन उन्होंने हिम्मत से सबका मुकाबला किया. कुरकियाँ, घरों की नीलाम, पुलिस की योरिश, आज़ा की इख़्तेलाफ़ सबका मुकाबला किया और ये बात मर्दों से मनवा ली के कौमी जद्दो जेहद में उनका हिस्सा रहा है. अगर वो इन ज़िम्मेदारियों को अपने सर ना लेती तो मर्दों की हिम्मत पस्त हो जाती. औरतों को ये एहसास भी हुआ की सिर्फ़ सियासत उनका पेशा नहीं है. सियासी मशागल के साथ सोशल और इख़्तेसादि तब्दीलियां लाना भी ज़रूरी है. इन सब कामों में उन्हें ज़िला लेवल पर मकामी ऑफिसरों से भी उलझना पड़ा जिनमें बेश्तर का रवैय्या हरगिज़ हमदर्दाना नहीं होता था. उनके खोले हुए इदारे सख्त तरीन इन्क्वायरी और तशद्दुद का निशाना बनते.”(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवई ,मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली ) 

अनीस ने स्त्रियों की सीमाओं और गाँधी की राजनीतिक -सामाजिक भूमिका पर बड़ी बेबाक टिप्पणियां की हैं जो इतिहास को स्त्री दृष्टि से देखने की वकालत करता है.निचले  तबकों ,हरिजन जातियों के साथ मध्यवर्गीय हिन्दू -मुस्लिम समाज कभी गाँधी के विचार से सहमत नहीं हो पाया.किदवई ने इसे रेखांकित किया है कि सभा -सोसायटियों ,सुधार-कार्यक्रमों के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने हरिजनों को सहानुभूति तो दी परन्तु उन्हें वैसे अपना नहीं सके जैसी परिकल्पना गांधी जी की थी-“... वो जब हरिजनों के लिए कुछ करते तो हमदर्दी व खुदा तरसी  के जज़्बे के साथ न की उनको बराबरी सतह पर लाने के लिए.”



११.

अनीस के संस्मरण ‘आज़ादी की छाँव में’ को उनकी आत्मकथा की अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए.’आज़ादी की छाँव में’ कुल 23अध्यायों में विभक्त है जिसमें सन 1947से 1948के दौर के भारत ,विशेषकर विभाजन के बाद के भारत के राजनीतिक -सामाजिक परिदृश्य पर प्रामाणिक और बेबाक टिप्पणियां हैं.पुस्तक का पहला अध्याय ही ‘करता हूँ जम्अ फिर जिगर -ए-लख्त-लख्त को’ शीर्षक से है .जिसमें अनीस की गहरी राजनीतिक विश्लेषक दृष्टि की झलक मिलने लगती है –“जून में दिल्ली की भंगी बस्ती में एक दिन बापू की प्रार्थना सभा में मेरी बहन बिल्कीस ने ,जो अपनी जोशीली तबियत की वजह से बोलते वक़्त बहुत बेचैन हो जाया करती हैं ,यह तय कर लिया कि आज बापू को पकड़कर पूछूंगी ज़रूर कि यह आपने क्या किया ?हिंदुस्तान हम सबका है ,हमको तो यहीं जीना और मरना है ,यह आबादी का तबादला और बंटवारा क्या ?एक टुकड़े से उन दिनों को क्या तस्कीन मिल सकती है जो एक ऐसे हिंदुस्तान का ख्वाब देखते रहे हैं जो एक हो ,महान हो और जिसे कोई जीत न सके .”(आज़ादी की छाँव में’,बेगम अनीस किदवई,अनुवाद नूर नबी अब्बासी ,नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ,2000:3) 

बेगम किदवई स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गवर्नमेंट हॉउस में जश्ने आज़ादी का आँखों देखा हाल बयान करती हुई लिखती हैं –“मेरा दिल डूबा जा रहा था .ऐसा लगता था कोई ख़ुशी का गला घोंट रहा है अरमानों पर ओस पड़ी जा रही है. आज तिरंगे झंडों की बहार में भी दिलकशी न थी !’इन्किलाब जिंदाबाद’के नारे और जय जयकार आज आत्मा से नहीं टकरा रहे थे .रगों में आज गरम खून नहीं दौड़ रहा था.हिंदी में लिखे हुए साईन बोर्ड ,नारे और पोस्टर सब ऐसा लगता था जैसे हमारा मुंह चिढ़ा रहे हैं ,मज़ाक उड़ा रहे हैं...चौकियों पर दाहिने -बाएं बौद्ध भिक्षु ,ब्राह्मण ,निरंकारी  पता नहीं कौन -कौन विराजमान थे .बहुत सी भाषाओँ में बहुत कुछ हुआ .अंग्रेजी ,संस्कृत ,अरबी ,कठिन हिंदी हरेक में .लेकिन कुछ न हुआ तो अपनी बोली में ,वाही प्यारी बोली :

जिसकी हर बात में सो फूल महक उठते थे

इतना कुछ हुआ मगर हमारे पल्ले कुछ न पड़ा.मेरी तरह और बहुत -सी औरतें भी रुंधे गलों और हैरान आँखों से सारा सीन देखकर जो घर पलटी तो ऐसा लगा जैसे कमर टूट गयी हो.खुद पहली आज़ाद हिंदुस्तान की गवर्नर सरोजिनी नायडू ,बावजूद कोशिश के ,शपथ पत्र सही न पढ़ सकीं.

क्या इसी भविष्य के लिए हमने सालहा साल इंतजार किया था ?हममें से कौन यह जानता था कि गड़े मुर्दे उखाड़े जाएँ ?और लोकतंत्र की जगह धर्म और मजहब की ठेकेदारी हुकूमत ले ले?”(पृष्ठ 5)

आजादी तो मिली लेकिन किस कीमत पर ?शरणार्थी कैम्पों के भीतर की अव्यवस्था,निर्धनता और अनाथ बच्चों की स्थिति के बारे में वे लिखती हैं –‘....छोटी -छोटी लड़कियां सूखे के मारे बच्चों को कन्धों से लटकाए ,चेहरों पर हसरत ,बेबसी और फाके की दास्तानें लिए कतार -दर -कतार दो छटांक दूध के इंतज़ार में सुबह से दोपहर तक खड़ी रहतीं .हर मां यह चाहती कि उसके बच्चे को दूध ज्यादा मिल जाए ताकि उसकी सूखी छातियों को थोड़ा-सा आराम नसीब हो.हर लड़की या लड़का इसरार करता कि ज़रा सा और दे दीजिये ,ताकि उसकी भूखी अंतड़ियाँ भी शरीक हो सकें .लेकिन मुस्तैद ,किफ़ायती वालंटियर उन्हें धक्के देकर निकाल देते.अगर वे ऐसा न करते तो सुबह की चाय कैसे बनती और वे सूखी रोटी किस चीज़ से भिगोकर अपने गले के नीचे उतारते.

इंसानों का यह जंगल जानवरों की सी ज़िन्दगी बसर कर रहा था.लोग हाथों में ले -लेकर या कागजों और ठीकरों में खाना खाते और ठीकरों पर मिट्टी मिले हुए आटे की सियाह रोटियां पकाते .तवा,देगची और गिलास सबका काम पत्तों और मटकी के टुकड़ों से लेते थे.दो ईंट रखकर ज़रूरत से निपटते और कभी कभी इन्हीं दो ईंटों से बावर्चीखाना भी बना लिया जाता ’(पृष्ठ33) आज़ादी की छाँव में -राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है जो देश विभाजन के दौरान और बाद के एक साल में भारत और पाकिस्तान की अवाम में पसरी अव्यवस्था ,भ्रष्टाचार और धीरे धीरे इस्लामी राष्ट्र में बदलते जा रहे पाकिस्तान और अफवाहों से घिरे हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविरों का लेखा -जोखा और  विभाजन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्र उपस्थित करती है.



जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है




१२.

शास्त्रीय गायन और ग़ज़ल से जुड़ी कलाकार, भारत और पाकिस्तान में अपनी गायकी से शोहरत हासिल करने  वाली मल्लिका पुखराज(1912-2004) ने उर्दू में आत्मकथा लिखी,जिसका अंग्रेजी अनुवाद सलीम किदवई ने ‘सांग संग ट्रू’(गीत, जो सच्चा गाया गया)शीर्षक से किया.आत्मकथा 50उपशीर्षकों में व्यवस्थित है जिसे पति सय्यद शब्बीर हुसैन शाह और महाराजा हरिसिंह को समर्पित किया गया है.प्रवाहमयी उर्दू के साथ अंग्रेजी ,पंजाबी और फ्रेंच के शब्दों का प्रयोग मल्लिका पुखराज के गहरे जीवनानुभवों और यात्राओं की ओर  संकेत करता है.हालाँकि सलीम किदवई को इसकी पाण्डुलिपि व्यवस्थित हस्तलिपि में नहीं मिली थी लेकिन मल्लिका ने 80वर्ष की उम्र में आत्मकथा लिखी और जन्म -कथा से लेकर बचपन ,युवावस्था , जम्मू और पटियाला के राज दरबारों के मीठे -खट्टे अनुभवों ,स्मृतियों को आत्मकथ्य में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा.

9वर्ष की उम्र में ही जम्मू के महाराजा हरिसिंह के दरबार में गायिका के तौर पर स्थापित होना ,ननिहाल और माता द्वारा मल्लिका को मिलने वाले वेतन का उपयोग ,मल्लिका की कमाई पर पूरे कुनबे का पलना ,युवावस्था के कुछ अधूरे प्रेम इन सबका बयान बड़ी ही बेबाकी से मल्लिका करती है.मल्लिका की मां अपनी तीन वर्षीया बेटी को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थी.उनकी इच्छा थी कि मल्लिका सभी कलाओं का उत्कृष्ट ज्ञान हासिल करे ,वह मल्लिका को लेकर बचपन में ही जम्मू चली आयीं और मल्लिका के पिता जो कुख्यात  जुआरी थे वे अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ गाँव में ही रहे.मां ने  मल्लिका को बड़े गुलाम अली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया ,और मल्लिका की संगीत शिक्षा आरंभ हुई.मल्लिका अपने जीवन के छोटे बड़े किस्सों का बयां करती है ,उसे यह अहसास है कि वह बहुत सुन्दर नहीं है लेकिन संगीत में वह श्रेष्ठ है -इसका ज़िक्र वह लगातार आत्मकथ्य में करती है-“मैंने फ्रेंच ब्रोकेड की साड़ी पहनी हुई थी ,उन दिनों अच्छी साड़ियाँ पेरिस ,बम्बई और पूना में बनती थीं.

मेरे पास महंगी साड़ियाँ बहुत सी थीं .हर साड़ी दूसरी से सुन्दर.महाराजा हरिसिंह ने मेरे लिए इन्हें विशेष आर्डर देकर मंगवाया था.मैं सुन्दर नहीं थी न ही मैं स्वयं को आकर्षक समझती थी,लेकिन मेरे केश विशिष्ट थे,मोटे घने काले बालों की चोटी जो एड़ी तक पहुँचती थी,शायद मुझे सुन्दर बनाती थी ..मैं प्रसाधन का प्रयोग नहीं करती ,दरअसल मुझे मालूम ही नहीं था कि सजा -संवरा कैसे जाये ..मुझे कांच की चूड़ियों का बड़ा शौक था ,कलाई से कोहनी तक मैं रंगीन कांच की चूड़ियाँ पहना करती...वह व्यक्ति जो हमारा मेजबान था वह बहुत सुदर्शन था और अच्छे कपड़े पहने हुआ था.मिल मालिक था और बाहर निर्यात करता था .अल्लाह ने उसे सुन्दरता के साथ -साथ मीठी ज़बान भी दी थी.पहली बार उससे मिलने पर ही मेरे भीतर तूफ़ान मचलने लगा.उसने मेरी आँखों में गहरे झाँका और एक छोटा सा रुमाल मेरे हाथ में देकर कहा –“इसे पर्स में रख लीजिये.

शायद जब आप इसे देखें तो मेरे बारे में सोचें.”(सांग संग ट्रू--मल्लिका पुखराज,अनुवाद सलीम किदवई ,जुबान,काली फॉर वीमेन,2003:237) आगे मल्लिका लिखती हैं –“मैंने वह रुमाल ले लिया और उसके बारे में सबकुछ याद करती रही,यह पहली बार हुआ कि किसीने पहली मुलाकात में ही मेरे दिलो -दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया हो .मैं बहुत लम्बे समय तक उसके बारे में सोचती रही.मैं हमेशा अपने दिल पर दिमाग को तरजीह देती थी.मुझे अच्छी तरह मालूम था कि प्रशंसा और चापलूसी का दौर तुरंत ख़त्म भी हो जाया करता है ,उसके बाद औरत अपने आपको गुमनामी के कुएं में हमेशा के लिए पायेगी.औरत पर अधिकार पाते ही मर्द उसे सम्मान देना बंद कर देता है.फिर वह अपने पुरुष स्वामी की दासी बनकर रह जाती है .मैंने आत्मसम्मान बनाये रखा और इसलिए स्वयं पर गर्व करती हूँ.मुझे शुरू से ही यह मालूम था कि ऐसे आवेगों पर कैसे काबू रखा जाये.दो दिनों के बाद वह अपने दोस्तों के साथ मेरा गाना सुनने आया ,उस दिन भी उसने बहुत बढ़िया कपडे पहने हुए थे .सच तो यह है कि मैं उसे पहले से भी ज्यादा पसंद करने लगी थी.कुछ घंटे बाद जब वह जाने लगा तो उसने धीरे से मुझसे पूछा-“क्या तुमने रुमाल देखा?

मैंने झूठ बोला –“हाँ एक दो बार “
क्या तुमने मेरे बारे में सोचा ?”
हाँ” मैंने सच्चाई से जवाब दिया.

मल्लिका आगे कहती है 

मेरा आकर्षण मां ने पढ़ लिया था और उससे अलग से मिलने से मन कर दिया.इस बात से वह बहुत खिन्न था ,वह चाहता था कि मैं रोज़ उससे मिलूँ.लेकिन मां के कारण मैं उससे मिल नहीं पाती थी.अकेले में हर वक्त मेरे परिवार का कोई न कोई सदस्य आसपास रहता था .मेरे ऊपर पूरा नियंत्रण मां का था.मुझे लगता है मैं कब और किसे अपने लिए पसंद करूँ यह मेरा निजी मसला होना चाहिए था ,क्या मेरे परिवार को मेरे बारे में हर निर्णय करने का अधिकार था ?क्या हमेशा मुझे वही करना होगा जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था..मैं परिवार की कैद में थी और परिवार के लोग उसका घर आना या हमारा आपस में मिलना बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे.(पृष्ठ 239) इसी चिढ़ में मैंने सबसे मिलना बंद कर दिया.”

मल्लिका कुछ और लोगों से संपर्कों का ज़िक्र करती हैं जिनमें उनकी गायकी और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी आत्मीयता चाहने वालों की फेहरिस्त है ,जिनमे एक व्यापारी जो 11बच्चों का पिता है आत्मकथा में मल्लिका बार –बार व्यंग्य और हास्य का पुट बिखेरती चलती हैं ,जिससे पाठक को ऊब नहीं होती.ऐसा ही एक प्रसंग है इसी  कद्रदान का जो मल्लिका के लिए रेवड़ियाँ लाया करता था और बहुत अच्छे कपड़े पहनता था ,उसके ग्यारह बच्चे थे और मल्लिका यह जान गयी कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी ,फिर भी वह मल्लिका के लिए उपहार लाया करते.एक दिन उसने अपना प्रेम मल्लिका के ऊपर ज़ाहिर कर ही दिया.मल्लिका लिखती हैं –“पता नहीं कैसे इतनी आर्थिक तंगी के बावजूद वह इतने अच्छे कपड़े पहन लेता था.एक दिन कहने लगा ‘मैं तुमसे एक लम्बे समय से मुहब्बत करता हूँ और रोज़ रात को 3बजे तुम मेरे सपनों में आती हो’.सुनते ही मैं ठठाकर हँस पड़ी.वह सुबक –सुबक कर रोने लगा.उसका बेतरह रोना देखकर मुझे बहुत हंसी आई कि ये मर्द भी क्या हैं.उस स्थिति के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हैं ,जिसका कारण वे स्वयं हैं.( मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:243)

तलाकशुदा स्त्रियों के बारे में मल्लिका लिखती हैं –“हमारे समय में तलाकशुदा स्त्री का जीवन नरकतुल्य था.तलाकशुदा स्त्री की बड़ी बेईज्ज़ती होती थी.आज की तरह तलाक का मसला छोटा -मोटा नहीं माना जाता था.उन दिनों तलाकशुदा स्त्री को बिलकुल अलग -थलग कर दिया जाता था .जिस तरह लोग परिजनों की मृत्यु का शोक जताने जाते हैं वैसे ही तलाकशुदा औरत के भाई ,माता -पिता के घर रिश्तेदार और मित्र पहुँचते थे तलाक पर अफ़सोस जताने.”(270) मल्लिका अपने ऊपर लादी हुई पारिवारिक और भावात्मक सेंसरशिप को बहुत कायदे से विश्लेषित करती हैं ,संगीत में पारंगत होने के साथ साथ कई जगहों पर रहने के कारण उनमें वह अंतर दृष्टि और व्यावहारिकता है कि वह माँ के भावुक स्टेट्समेंट्स की पड़ताल करती चलती हैं ,आगे चलकर  ने अपने ऊपर काबिज़ सेंसरशिप के विरोध में घर पर आने वाले सभी लोगों से मिलना बंद कर दिया.परतंत्रता की बेड़ी में छटपटाती हुई मल्लिका ने विद्रोह का स्वर बुलंद किया और रात के अँधेरे में भागकर अपने पुराने विश्वासी मित्र शब्बीर से विवाह कर लिया.माँ के विरोध ,मानसिक प्रताड़ना का सामना भी मल्लिका को करना पड़ा ,यहाँ तक कि उन्होंने महफ़िलों में गाना भी बंद कर दिया,बहुत वर्षों बाद उन्होंने रेडियो के लिए ग़ज़लें गायीं.पुस्तक  में मल्लिका ने अपने प्रेम और विवाह के विस्तृत ब्यौरे दिए हैं .उनकी माँ का उनके खिलाफ होना ,घर से आधी रात को निकल कर शब्बीर के साथ निकाह की दास्तान बहुत विस्तार से कही गयी है.

एक गायिका का अभिनेत्री बनने के अधूरे सपने का यथार्थ से साक्षात् होना फिर गायन की तरफ लौट आना, आल इंडिया रेडियो में गायकी करना इन सब प्रसंगों को जगह मिली है.’सांग संग ट्रू’ की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है इसके बावजूद इसमें तत्कालीन राजनीतिक सन्दर्भों,घटनाओं की चर्चा से भरसक बचा गया है.ग़ुरबत, ,तत्कालीन समाज -सुधार के आन्दोलन इन सबके तापमान का पता यह किताब नहीं देती और साधारण आत्मकथा बनकर रह जाती है.हालाँकि पुस्तक में कई करुण प्रसंग भी  हैं जो पाठक को प्रभावित करते हैं.जम्मू के महाराजा हरिसिंह जिनके दरबार में मल्लिका ने बचपन से ही गाना शुरू कर दिया था .आत्मकथा में उनके  और रियासतों के महाराजाओं के जीवन पर पर्याप्त जानकारी मिलती है.मल्लिका ने लिखा है कि-’दरबार साजिशों से भरा था ,मैं महाराजा के साथ कश्मीर की तरफ और शिकार पर भी जाया करती थी.जम्मू में हिन्दू -मुस्लिम दंगों के बाद स्थिति बदल गयी.

मुझपर महाराजा को विष देने का संदेह किया गया..उसके बाद मैंने जम्मू छोड़ने का निर्णय कर लिया” वे याद करती हैं कि "ऐसा भी समय था कि मैं हँसना चाहकर भी हँस नहीं सकती थी.हिन्दू -मुस्लिम दंगों से मेरा कोई लेना देना नहीं था .न ही ये बातें मेरी समझ में आती थीं ,तब भी हिन्दू मेरे शत्रु बन गए.जम्मू के बाहर वालों की बात छोड़ भी दें तो रियासत के भीतर के लोग भी इस बात पर भरोसा करने लग गए कि मैं महाराजा की जान लेना चाहती हूँ.”ऐसे माहौल में मल्लिका ने अपनी मां के साथ लाहौर की तरफ जाना तय किया ,दरबार में अंतिम गीत गाकर.मल्लिका लिखती हैं –‘महाराजा के दरबार में अंतिम गीत गाते हुए मेरी आवाज़ दर्द से भीगी हुई थी,मेरा दिल भीतर ही भीतर रो रहा था मेरे गले से करुण बांसुरी की धुन जैसी आवाज़ निकल रही थी .गीत ख़त्म होते ही महाराजा हरिसिंह दरबार छोड़कर भीतर चले गए,मुझे मौका भी नहीं मिल सका कि उनसे विदा ले सकूँ.”



मल्लिका ने माँ द्वारा उसके आर्थिक शोषण का भी चित्रण किया है .मां और नाना का परिवार मल्लिका के गायन पर निर्भर था ,उनलोगों ने बहुत रुपये उड़ाए भी और डुबाये भी.मल्लिका ने एक समय पर गाना बंद कर दिया.शब्बीर के साथ विवाह ने उन्हें सुख और पूर्णता दी,लेकिन छह बच्चों के बावजूद शब्बीर के असामयिक निधन ने मल्लिका को एकाकी कर दिया.बागबानी ,कढ़ाई-सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुज़ारे.उनके बेटे ने भी जायदाद सम्बन्धी मामलों में उनसे छल किया.उन्होंने नानक देव का चित्र कैनवास पर काढ़ा जो टोरंटो के गुरूद्वारे की शोभा बना. प्रसिद्ध लोक गायिका रेशमा जब उनसे मिलने आई तो उससे कई बार एक ही गीत सुना -हाय ओ रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा.अस्सी के उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और 93वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी.मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतन्त्रता पूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है ..मूल रूप से उर्दू में लिखी इस आत्मकथा को ‘सॉंग संग ट्रू’शीर्षक से सलीम किदवई ने अंग्रेजी में प्रकाशित करवाया,अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में सलीम किदवई ने बताया कि लाहौरी उर्दू में लिखे लम्बे –लम्बे वाक्यों को अनूदित करने में उन्हें खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही उन्हें एक पन्ने के लम्बे वाक्यों को पढ़ने का अभ्यास हो गया.

रेडियो  ग्रामोफ़ोन कंपनियों की पसंदीदा आवाज़ मल्लिका पुखराज को भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में समान यश मिला.आत्मकथा में उन्होंने अपने बचपन से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा है.आत्मकथा में उन्होंने पाठक को वैसे ही बांधे रखा है जिस तरह वे अपनी आवाज़ के जादू से श्रोताओं को बांधे रखती थीं.महाराजा हरिसिंह ने मल्लिका को अपने दरबार में आश्रय दिया था,जीवन के लगभग आठ दशकों का संगीतमय सफ़र मल्लिका ने पुस्तक में लिपिबद्ध किया है.

यह आत्मकथा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें एक स्त्री कलाकार के संघर्ष,राज्याश्रय की कठिनाईयों,दरबार की आतंरिक राजनीति ,स्त्री के बहुपक्षीय शोषण के साथ साथ मनुष्य होने के नाते उसके अंतर्विरोधों को भी पाठक जान पाता है.अपनी  महत्वाकांक्षा के कारण पुखराज को मां तीन वर्ष की उम्र में ही जम्मू लेकर चली गयी, मल्लिका की कहानी पराधीन और स्वाधीन भारत के संधिस्थल पर संगीत ,कला और नृत्य से रोज़ी –रोटी और सम्मान अर्जित करने वाले कलाकारों की कहानी है.ब्रिटिश भारत की नीतियों ने किस तरह कलाकारों को तवायफ़ों और तवायफों को देह –श्रमिकों में रिडयूस कर दिया.खानदानी गवैये और गायिकाएं जहाँ पहले संस्कृति के वाहक के तौर पर राज्याश्रय और सम्मान पाते थे,वहीँ अब बदले समय में उन्हें पुलिस से डरकर रहने पर विवश होना पड़ता था.

धीरे धीरे संपत्तिशाली और सत्ता की सरपरस्ती वाले कलाकारों को छोड़कर दूसरे पेशों को अपनाने के लिए इनमें से बहुत से मजबूर हुए.देखते –देखते उनकी सामाजिक हैसियत में भी गिरावट आई,इनमें से कई ने रेडियो और ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए गाना –बजाना शुरू कर दिया.यद्यपि मल्लिका की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी थी ,उनकी मां और कला के कद्रदानों ने  कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा.आत्मकथा में मल्लिका अपनी मां का ज़िक्र बार –बार करती हैं कि वे बेहद अनुशासनप्रिय थीं लेकिन मल्लिका का दम उनकी सरपरस्ती में घुटता था क्योंकि वे मल्लिका अपनी इच्छा और रूचि से अपने मित्रों का चुनाव करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं थी. उसकी कमाई से ही घर का सारा खर्च चलता था.बचपन में ही किन्हीं बाबा रोटीराम ने कह दिया था कि वह मल्लिका –ए- मुअज्ज़मा (महान साम्राज्ञी) बनेगी.

मल्लिका की मां ने उसे बचपन में ही बड़े ग़ुलामअली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया था ताकि मल्लिका संगीत में पारंगत हो सके.मल्लिका की आत्मकथा की भाषा प्रवाहमयी उर्दू है और बीच बीच में फ्रेंच और जर्मन के शब्द भी प्रयुक्त हैं.नौ वर्ष की उम्र में ही महाराजा हरिसिंह के दरबार में बतौर गायिका शामिल होने वाली मल्लिका को हिन्दुस्तानी ज़बान और तहजीब की संरक्षक के तौर पर देखा जाना चाहिए॰

मल्लिका पुस्तक में न सिर्फ स्त्री के अंतर्द्वंद्व बल्कि पुरुष की दृष्टि में स्त्री की भूमिकाओं की व्याख्या करती चलती हैं.बतौर कलाकार वे उन षड्यंत्रों और साजिशों की चर्चा भी करती हैं जिन्होंने उनके ऊपर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाला.मसलन वे हरिसिंह के दरबार के प्रसंग में लिखती हैं कि महाराजा ने उन्हें बतौर कलाकार 9वर्ष की उम्र में ही संरक्षण दिया ,धन ,दौलत ,मान-सम्मान किसी की कमी नहीं होने दी ,परन्तु देश के बंटवारे और हिन्दू –मुसलमान में भेदभाव और अफवाहों ने महाराज को भी नहीं बक्शा और दरबारी षड्यंत्रकारी हरिसिंह को यह समझाने में सफल हो गए कि मल्लिका पुखराज उन्हें विष देकर मारना चाहती है.मल्लिका को यह अपमान भीतर तक चुभ गया और उन्होंने हरिसिंह का दरबार अपना गीत गाकर छोड़ दिया-“इस कहानी के सबके अपने पाठ थे,मेरे ऊपर किसीको विश्वास नहीं था ,मेरे लिए यह सब झेलना बहुत मुश्किल था”( मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:213) मल्लिका ने माँ द्वारा उसके आर्थिक शोषण का भी चित्रण किया है.

मां और नाना का परिवार मल्लिका के गायन पर निर्भर था ,उनलोगों ने बहुत रुपये उडाए भी और डुबाये भी.मल्लिका ने एक समय पर गाना बंद कर दिया.शब्बीर के साथ विवाह ने उन्हें सुख और पूर्णता दी,लेकिन छह बच्चों के बावजूद शब्बीर के असामयिक निधन ने मल्लिका को एकाकी कर दिया.बागबानी ,कढ़ाई-सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुज़ारे.उनके बेटे ने भी जायदाद सम्बन्धी मामलों में उनसे छल किया.उन्होंने नानक देव का चित्र कैनवास पर काढ़ा जो टोरंटो के गुरूद्वारे की शोभा बना. प्रसिद्ध लोक गायिका रेशमा जब उनसे मिलने आई तो उससे कई बार एक ही गीत सुना -हाय ओ रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा.अस्सी के उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और 93वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी.मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतन्त्रता पूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है .

               

१३.

इसके बरक्स  रंगमंच और फ़िल्म से जुड़ी 1912में ही जन्मी जोहरा सहगल की आत्मकथा ‘क़रीब से’ (2013 ) जिसका हिंदी अनुवाद दीपा पाठक ने किया.जोहरा सहगल की यह पुस्तक रंगमंच और फ़िल्मी परदे पर लगभग सौ वर्षों की उनकी जीवन -यात्रा का ब्यौरा है .आत्मकथा में ज़ोहरा सहगल  अपने बचपन से लेकर अब तक के जीवन ,करियर ,विदेश यात्राओं और थियेटर से अपने जुड़ाव की तस्वीर बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत करती दीखती हैं.आत्मकथा की शुरुआत में ही वे लिखती है –“मैं कभी सोचती हूँ ज़िन्दगी एक बहुत बड़ा मजाक है .एक मैं हूँ जिसने रोज़ अपने दांत ब्रश किये,रोज़ नहाया ,बिलकुल धर्म की तरह बालों में तेल डालने ,कंघी करने और उन्हें धोने का धर्म निभाया ,साँसों की और बदन की कसरत पूरे नियम से की ,सच को जैसा देखा वैसा ही बोला ...खुद से भी ..लेकिन फिर भी ,क्या है ज़िन्दगी ?दिन-ब- दिन कमजोर होता शरीर ,पैरों की लड़खड़ाहट की वजह से मैं लगभग रुक सी गयी हूँ ,दांत एक -एक करके साथ छोड़ रहे हैं,आँखों की रौशनी इतनी धीमी पड़ती जा रही है कि अक्सर लिखते वक़्त मैं पंक्तियाँ और शब्द देख नहीं पाती...अगर मैं धार्मिक होती तो यही समय था जब मैं ईश्वर पर विश्वास करना शुरू करती ,लेकिन मैं नहीं हूँ और इस बारे में बेईमान नहीं हो सकती .मैं मानती हूँ कि कहीं कोई ऊर्जा है ,कोई कानून है ,कोई एक ऐसा न बदलने वाला नियम जिसमें लाल और पीले रंग को मिलाने पर नारंगी रंग बनता है...कुल मिलाकर देखा जाये तो मैंने एक जोशीली और मज़ेदार ज़िन्दगी जी है .मैंने बहुत -सी यात्रायें की हैं...मैं अपनी पीढ़ी के बहुत से मशहूर लोगों से मिली हूँ,मैंने दो विश्वयुद्धों का अनुभव किया है और इंग्लैण्ड में दो बार राजतिलक देखा जिसमें रेडियो पर प्रिंस एडवर्ड का इस्तीफे के वक़्त दिया भाषण सुनना भी शामिल है.

मैंने कई मशहूर कलाकारों के साथ काम किया ,चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम .भला इससे ज्यादा कोई और क्या चाहेगा?(‘करीब से’-तीसरी घंटी (भूमिका)जोहरा सहगल ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 2013:7-9)जोहरा सहगल की आत्मकथा में जर्मनी के नृत्य स्कूल में प्रशिक्षण से लेकर पृथ्वी थियेटर से जुड़े अपने रंगमंचीय अनुभवों का विस्तृत ब्यौरा है.आत्मकथा का प्रारंभ’परिवार का इतिहास “शीर्षक अध्याय से होता है और फिर सिलसिलेवार ढंग से बचपन और लाहौर (1919-1929),यूरोप और डांस स्कूल ,पहली वापसी समेत 12शीर्षकों के अंतर्गत जोहरा की ज़िन्दगी के उतार -चढ़ाव,प्रेम ,विवाह,करियर,पृथ्वी थियेटर और पृथ्वीराज कपूर से गहरे संवेदनात्मक वर्षो के साथ ,इप्टा का निर्माण ,उसका प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचना और फिर उसका निष्क्रिय हो जाना जोहरा की जीवन- यात्रा का प्रामाणिक और मय दिनांक ब्यौरा दिया गया है ,एक अभिनेत्री ,रंगकर्मी ,एक माँ और सबसे ऊपर एक स्वतन्त्रचेता  स्त्री जो तमाम विपरीत स्थितियों में भी हार नहीं स्वीकारती,अपने से कम वयस के पुरुष से अंतरजातीय विवाह करने का जोखिम उठाती है ,अपने भीतर के कलाकार की हर आवाज़ को सुनती हैं  ,बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में अपना विकास करती है.पति द्वारा आत्महत्या के प्रसंग  पर आत्मालोचन करती हुई  लिखती हैं-“ मैं अक्सर सोचती हूँ कि अगर कामेश्वर ने मुझसे शादी नहीं की होती तो क्या उनकी ज़िन्दगी किसी और तरीके से ख़त्म हुई होती.वे बहुत संवेदनशील इन्सान थे जो कभी भी इस बात को मान नहीं  पाए कि उनकी बीबी अपने काम में लगातार कामयाबी और इज्ज़त हासिल करती जा रही है जबकि उनकी खुद की कामयाबी जो कि हालाँकि कहीं ज्यादा ऊंचे दर्जे की थी ,रुक -रुककर उन्हें मिली.”(पृष्ठ123) जोहरा सहगल की आत्मकथा का वैशिष्ट्य है - आत्मप्रशंसा और श्लाघा से बचते हुए बहुत ही तटस्थ भाव से अपने साथ घटी घटनाओं के ब्यौरे देना ,साथ ही साथ अपने भीतर के जन्मजात अभिजात्य भाव को स्वयं चुनौती देना.आत्मकथ्य के प्रारंभ में ही उन्होंने अपने वंश वृक्ष का लेखा -जोखा दिया है.

नजीबाबाद के रियासती हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान के खानदान से ताल्लुक रखने वाली जोहरा अपने माँ -बाप की सात संतानों में तीसरी थीं जिसका बचपन शान –ओ- शौकत से गुज़रा.1930में उन्होंने ज़र्मनी के डांस -स्कूल में नृत्य सीखा 1933में वे वापस आयीं और 1935में उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित प्रसिद्ध नाट्य दल से जुड़ीं. कामेश्वर सहगल से प्रेम और फिर विवाह इसी दौरान हुआ.आत्मकथ्य लिखने के बारे में वे प्रारंभ में ही कहती है –“ कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता है ?सबसे बड़ी वजह तो यह कि इन्सान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है.ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाये रखने का जरिया लगता है.मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता है,भला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं की ,तुम्हारे संघर्ष की,तुम्हारे सुख या दुःख की?हाँ ,शायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो.हालाँकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देख -भाल करने के बावजूद कभी -कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी ज़िन्दगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी ..पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है.”(23)

जोहरा सहगल का आत्मकथ्य उदयशंकर के नाट्य-दल के बनने और फिर बिखर जाने की कहानी है साथ ही यह पृथ्वीराज कपूर की लगन और मेहनत के अंत:साक्ष्य देने वाली आत्मकथा है जिसमें बतौर निर्देशक और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर द्वारा पृथ्वी थियेटर के उतार-चढ़ाव की घटनाएँ बयान करने वाले ढेरों पत्र संकलित हैं.जोहरा सहगल का यह आत्मकथ्य स्व से ऊपर उठकर भारत में ‘इप्टा’ के बनने -बिगड़ने और फिर खड़े होने की दास्तान है.आत्मकथ्य में हालाँकि जोहरा राजनैतिक चर्चाओं और ब्यौरों से बची हैं फिर भी कथ्य के प्रवाह में तत्कालीन भारत की राजनीति अपनी झलक के साथ उपस्थित है,मसलन अपनी रजिस्ट्री- शादी के दिन का ज़िक्र करती हुई लिखती हैं -..नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे  बड़े शहरों में इसकी शाखाएं खुल गयीं..उस समय भारत  अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुज़र रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपंथी  हुआ करते थे जो हम सबको मिल -जुल कर काम करने को प्रेरित करते थे ...मेरी शादी का  दिन था 14अगस्त 1942..यह दूसरे विश्वयुद्ध का समय था ,भारत में अँगरेज़ सरकार के खिलाफ़ असहयोग आन्दोलन चल रहा था और चारों ओर अफरा-तफ़री  का माहौल था.”(82)  या 

1947के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाक़ये हुए ,कुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गयी,कलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया.उस समय देश में अंतरिम सरकार थी और जवाहर लाल नेहरु उसके उपाध्यक्ष बनाये गए थे ...”(93)जोहरा सहगल ने अपने नृत्य एवं रंगमंचीय करियर के लिए जी -तोड़ मेहनत की,साथ ही वे अपने बच्चों को भी ऊंची शिक्षा देने में सफल रहीं.आत्मकथ्य में,वे अपने बेटे पवन के साथ मेल न मिलने पर दुखी  और बेटी किरण  को नृत्य में मिली सफलता से बहुत उत्साहित दीखती हैं साथ ही दिल्ली में एक अदद बसेरा बसाने की कोशिश और सरकारी सहायता के न मिल पाने का खेद भी उनके जीवन के अंतिम दिनों में भी कचोटता है.परन्तु अंततः वे अपने बीते जीवन से संतुष्ट हैं तभी तो लिखती है –


“अपनी सोच और अपने तजुर्बों के हिसाब से सिखाने और निर्देशित करने की पूरी ज़िम्मेदारी लेने के लिहाज़ से मैं  बहुत आलसी थी.पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की  रौशनी का ही लुत्फ़ लेती रही क्योंकि उनके साथ काम करते हुए सारे नाटक ,सारे दौरों की तैयारियां कोई और मेरे लिए करता था,मुझे उसके लिए न कोई परेशानी उठानी पड़ती थी और न कोई ज़िम्मेदारी मुझपर थी.यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेहनत की ,लेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थियेटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता .मुझे लगता है ,यह करने के लिए मैं बहुत आलसी थी.हालाँकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला ,लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई,बहुत सारा तजुर्बा कमाया और कड़ी मेहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियाँ पायीं.और क्या चाहिए ,मैं इसे ऐसा ही चाहती थी.”

(क़रीब से ,जोहरा सहगल ,अनुवाद दीपा पाठक ,राजकमल प्रकाशन 2013:241)




१४.

बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा , (1918-1989)जो फिल्मों में रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई  ‘अ वुमन ऑफ़ सब्सटांस’ में  उसने अपने संस्मरणों में अन्तरंग जीवन के पहलुओं को लिखा.जिन्हें पढ़ कर मुस्लिम परिवारों के आतंरिक तापमान का अंदाजा हो जाता है.यह  रशीदजहाँ की छोटी बहन रंगमंच और सिने- अभिनेत्री की आत्मकथा है ,जिसे उनकी बेटी लुबना काज़िम ने सम्पादित किया.यह आत्मकथा स्वर्गीय रजिया भट्टी की प्रेरणा से  मासिक पत्रिका हेराल्ड के अगस्त 1982से अप्रैल 1983में नौ भागों में धारावाहिक रूप से छपी.आत्मकथा में सन 1857से 1983तक की घटनाओं का ज़िक्र है जिनमें भारतीय मुस्लिम समाज ,निजी पारिवारिक स्थितियां ,नवजागरण और समाज-सुधार के मुद्दे ,हिंदुस्तान –पाकिस्तान का विभाजन ,सिनेमा में बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा का जाना ,उनकी लोकप्रियता ,सामाजिक सेंसरशिप के दबाव जैसी चर्चाएँ प्रमुख हैं.खुर्शीद मिर्ज़ा ने देश –विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का निर्णय किया ,लेकिन आत्मकथा में वे स्वयं को पीछे छूट गए भारतीय सदस्य के रूप में देखती हैं.वह जब भी छुट्टियों में अलीगढ़ आती कराची की भीडभाड़ को भूल जाती.आत्मकथा में उन्होंने अपने पिता शेख अब्दुल्लाह के स्त्री –शिक्षा सम्बन्धी प्रयासों का ज़िक्र भी विस्तार से किया है.

दरअसल यह आत्मकथा एक तरह का सामाजिक –ऐतिहासिक दस्तावेज़ है.एक साथ तीन पीढ़ियों और बदलते हिंदुस्तान और पाकिस्तान की कहानी है .परदे को लेकर जो विमर्श इस आत्मकथा में मिलता है ,वह अन्यत्र दुर्लभ है .सन 1904में शेख अब्दुल्लाह ने जो  रिसाला खातून शीर्षक पत्रिका निकाली उसमें मुस्लिम स्त्रियों द्वारा किये गए पर्दा-विमर्श का ज़िक्र विस्तार से खुर्शीद मिर्ज़ा करती हैं .वे बताती हैं कि जब मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में उनके पिता ने कई ठोस प्रयास करने शुरू किये तो कई औरतों ने रिसाले को परदे को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ते हुए परदे के पक्ष में पत्र लिखे.

कई अभिजात्य स्त्रियाँ अपनी बेटियों को लड़कियों के स्कूल में भेजने को इसलिए तैयार नहीं थीं क्योंकि वहां नीचे तबके से भी लड़कियां आएँगी और फिर उनकी आभिजात्यता का क्या होगा.एक लम्बे समय तक स्त्री शिक्षा का मुद्दा बहस का विषय रहा ,फिर लोगों की रूढ़ धारणाओं में परिवर्तन आने लगे और 1927तक आते आते लड़कियों का स्कूल इंटरमीडिएट कालेज के स्तर पर पहुँच गया.इसमें इस्मत चुगताई जैसी हस्तियों ने शिक्षा ली थी.खुर्शीद मिर्ज़ा इस बात पर बल देती हैं कि लड़कियां शेक्सपीयर के ‘ए मिडसमर नाईट’ को पढ़ने के साथ -साथ बास्केटबाल और बेसबाल भी खेलती थीं .खुर्शीद मिर्ज़ा का फिल्मों को अपना करियर बनाना इस बात को दर्शाता है कि मुस्लिम समाज में आधुनिक चेतना का आगाज़ हो रहा था.मुसलमान औरतों की ज़िन्दगी कैसे भारत में बदलाव की और बढ़ रही थी ,यह पुस्तक उसका मुकम्मल बयान करती है.कैसे आज़ादी की लड़ाई उन्हें सामाजिक समारोहों में शामिल होने और स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे रही थी,लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी.हालाँकि शेख अब्दुल्लाह ने अपनी बेटियों को ऊँची शिक्षा के लिए विदेश भेजा.खुर्शीद ने दर्ज किया है कि मंझली आपा खातून जहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए गयीं और बड़ी आपा रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कॉलेज ,दिल्ली में पढ़ीं और छोटी मुमताज़ आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज ,लखनऊ से पढ़ाई की बावजूद इसके इन स्त्रियों को पुरुषों के साथ घूमने -फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी. 

खुर्शीद मिर्ज़ा अपने भाई के मित्र जाबिर अली के साथ दोस्ती ,प्रेम और विवाह की यात्रा को दिलचस्प ढंग से लिखती है –“ मैंने अपने प्रिय भाई हाटू की तर्ज़ पर यह सोचना शुरू कर दिया कि जाबिर की तुलना अन्य किसी से हो ही नहीं सकती .वह राजा भी था और नेता भी.मैंने कभी किसी दूसरे पर ध्यान ही नहीं दिया. हाटू की मित्र -मंडली में हमारे रिश्ते सभी से दोस्ताना थे,लेकिन जाबिर वह था जो विशिष्ट था .धीरे -धीरे मेरे हाटू भाई मुझसे दूसरी बातों के बारे में भी चर्चा करने लगे,खेल के अलावा,अब जाबिर भी अकेला आने लगा. हाटू भाई ने मुझे बताया कि  जाबिर मुझे पसंद करता है.मैं अन्दर ही अन्दर रोमांचित हो उठती मगर डर लगता था कि अगर किसी को पता चल गया तो ?

इसलिए दूसरों की उपस्थिति में मैं उससे परायेपन का व्यवहार करती ,उससे लड़ती और उसके घुंघराले बाल खींचती,चिकोटी काटती,उसके चेहरे या नाक पर साबुन मल देती और ऐसा ही बहुत कुछ .वह गर्मियों में हमारे साथ माथेरान आया था.हम पूरे दिन साथ रहते एक दूसरे को चिढ़ाते रहते,मुझे जाबिर के हाव -भाव से यह अहसास होने लगा कि वह मेरे बारे में क्या सोचता है (अ वीमेन ऑफ़ सबस्टांस-मेमोआयर्स ऑफ़ बेग़म खुर्शीद मिर्ज़ा,संपादन लुबना काजिम ,जुबान ,दिल्ली ,2005:105-106)             

संस्मरण में खुर्शीद जहाँ ने अपनी बड़ी बहन रशीदजहाँ जो पीडब्लूए से जुड़ी थी उसके बारे में विस्तार से हमीदा सैय्यादुज्ज़ाफ़र के हवाले से लिखा है-”शुरू से ही उसमें विद्रोही चेतना बहुत थी.बहुत कम उम्र में ही उसमें सामाजिक अन्याय और गैरबराबरी के प्रति अवहेलना का भाव था.पिता और मां के समाज -सुधार कार्यक्रमों से सम्बद्ध होने के कारण भी उसमें सामान्य जन से खुद को जोड़कर देखने का भाव था.1931-32में मह्मूदुज्ज़ाफ़र,सज्ज़ाद ज़हीर,अहमद अली और रशीदजहाँ की मुलाक़ात लखनऊ में हुई,इन सबमें सामाजिक अन्याय और गैर-बराबरी के प्रति विद्रोही चेतना थी और समाजवादी विचारधारा के प्रति विश्वास था.रशीदजहाँ ने वहीँ पर मह्मूदुज्ज़ाफ़र से प्रेमविवाह किया ,उनदोनों का घर मजलूमों और ज़रुरतमंदों के लिए हमेशा खुला रहता था.हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ने भी दर्ज़ किया कि –


“मेरी शादी के वक़्त तक रशीदजहाँ ने अपने आपको सभी भौतिक वस्तुओं से काट लिया था ,पैसा,संपत्ति ,निजी लाभ सबकुछ से.वह बिना किसी लगाव के अपनी कोई भी चीज़ दूसरों को देने के लिए तैयार रहती.उसका घर एक कम्यून बन गया था,जहाँ जाति,धर्म ,वर्ग किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं था.उसके घर में जाति से चर्मकार  लड़के के काम करने पर कुछ हिन्दू मित्रों को आपत्ति थी जिसके जवाब में रशीदजहाँ ने कहा –“वह लड़का बहुत से ऊँची जात वाले हिन्दुओं की अपेक्षा साफ़ -सुथरा है,तुम्हें अगर वह पसंद नहीं है तो तुम मेरे घर में भोजन मत करो.”



रशीदजहाँ को उनके प्रगतिशील विचारों और व्यवहार के लिए खुर्शीद मिर्ज़ा स्मरण करती हैं कि गर्भाशय के कैंसर से मरते वक्त रशीद का कहना था कि उसके शरीर को दफनाने से अच्छा है कि उसे मेडिकल कालेज में प्रयोग के लिए दे दिया जाये.रशीदा के पति ने पत्नी की मृत्यु के बाद ‘क्वेस्ट फॉर लाइफ़’ शीर्षक संस्मरणात्मक किताब में रशीदा की बीमारी और इलाज के लिए मास्को जाने के दिनों का सविस्तार वर्णन किया. .(हमीदा सैयद्दुज्जाफर 1921-28,संपादन लोला चटर्जी,नईदिल्ली ;त्रियाँका,1996) 

संस्मरण इस दौर के ब्यौरों के लिए पठनीय है.बेगम खुर्शीदमिर्जा ने इस किताब में यह बताया है कि कैसे भोपाल की बेगम के सहयोग से पिता ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए स्कूल बनाया और सर सैय्यद अहमद खां की नाराज़गी के बावजूद स्त्री शिक्षा के ये आरंभिक प्रयास कैसे बढ़ते गए.सन1857से 1983के लम्बे समय को समेटती यह किताब खुर्शीद्मिर्ज़ा की आपबीती भी है ,जिसमें भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा ,पर्दा प्रथा के साथ बतौर अभिनेत्री खुर्शीद(जो चित्रपट पर रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई) के जीवनानुभवों का ब्यौरा पाठक को मिलता है.

खुर्शीद ने अपने घर में एक छोटे स्कूल की शुरुआत से स्त्री -शिक्षा के आगाज़ का ज़िक्र किया है जिसमें घर की बड़ी लड़की  रशीदजहाँ समेत कई लड़कियों ने पर्देदारी में ही सही ,पढने के लिए जाना शुरू किया ,शेख अब्दुल्ला और उनकी बेगम के प्रयास से धीरे -धीरे छात्राओं  की संख्या में इज़ाफा होने लगा.शेख अब्दुल्ला जो भी देशी -विदेशी पत्र -पत्रिकाएं मंगवाते,  रशीदजहाँ उन्हें बहुत दिलचस्पी से पढ़ती.इन छोटी लड़कियों को शेक्सपीयर पढ़ना भी बहुत पसंद था .हेड मिस्ट्रेस मिस हाजरा ने भी इन्हें खूब प्रभावित किया.उन्हीं के माध्यम से स्वदेशी ,होमरूल आन्दोलन ,1905के बंग -भंग के खिलाफ़ विद्रोह के साथ टैगोर ,बंकिम आदि के लेखन से नई पीढ़ी  की लड़कियां परिचित हुईं.राष्ट्रवादी नेताओं मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माँ बी अम्मा के अलीगढ़ आने पर, रशीदजहाँ जो उस समय मात्र 14वर्ष की थी उनसे मिलने के लिए बेचैन हो गयी ,अंत में बी अम्मा से मिलने की अनुमति रशीदजहाँ को एक अध्यापिका के साथ मिली.

मुलाकात हुई और रशीदजहाँ खूब उत्साह के साथ घर लौटी पर बदले मन से  -गाँधी के प्रति श्रद्धा ने उसमें सिर्फ खादी पहनने का उत्साह पैदा किया.तबसे उसने सिर्फ खादी पहनी.परिवार में भी उसके इस फैसले पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की.आपा बी ने बहुत पहले मेडिसिन की पढ़ाई के लिए घर छोड़ दिया .वह स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनी कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उसने खूब नाम कमाया .1927में जब मैंने आपा बी को देखा तो वह खूब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी -उसे देखना एक आश्चर्य था...शायद यह उसी साल की बात है,आपा बी छुट्टियों में घर आई थीं.मां ने हमारे घने बालों से ,जिनमें जुएँ भरी रहती थीं हार मान ली थी .आपा बी (रशीदजहाँ)हर बार की तरह त्वरित समाधान के साथ मौजूद थीं .उन्होंने हमारे बालों में किरोसीन तेल  लगा दिया और लम्बे बालों को काट दिया.उनके अपने बाल पहले से ही कटे हुए थे मुझे बहुत पसंद थे और अब हमने भी लम्बी ,घनी कसी हुई चोटियों को अलविदा कहा.अंततः ये भी तो एक मुक्ति ही थी.”(माई सिस्टर रशीदजहाँ (1905-1952)द मेमोआयर्स ऑफ़ बेगम खुर्शीद् मिर्ज़ा,अध्याय 6,2005 ,जुबान बुक्स ,काली फार विमेन,हौजखास एन्क्लेव ,दिल्ली:90 )


बदलते भारत में मुस्लिम औरतों की आज़ादी के मुद्दे पर खुर्शीद मिर्ज़ा बेबाक टिप्पणी करती हैं उनका मानना है कि राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर चैतन्य  भारत में उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ,सामाजिक मेल -मिलाप के मौके तो मिल रहे थे लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. बौद्धिक रूप से सचेतन परिवारों की संख्या कम थी जो शेख अब्दुल्ला की तरह अपनी बेटियों को विदेश में तालीम हासिल करने भेजते.रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कालेज,दिल्ली, मंझली बहन ख़ातूनजहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए गयी,छोटी आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज लखनऊ से अंग्रेजी में एम्. ए.किया.इस तरह के विवरण देते हुए खुर्शीदमिर्ज़ा की टिप्पणी है कि- “फिर भी इन औरतों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी.



१५.

डॉटर ऑफ़ द ईस्ट ‘पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रह चुकी बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा है जो ‘मेरी आपबीती’ शीर्षक से हिंदी में अनूदित हुई.यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है .आत्मकथा अपने खानदान, पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को 1979में तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ द्वारा फांसी दिए जाने की घटना के इर्द -गिर्द,अपना राजनैतिक जीवन और पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया के हनन और उसके विरोध में फिर -फिर उठ खड़े होने की चुनौतियाँ झेलती बेनजीर के जीवन के बहुत से अनछुए पहलू सामने लाती है जो  पाठक की राजनीतिक समझ को साफ़ करते हैं और साथ ही दक्षिण एशिया के देश में धर्म ,राजनीति,सत्ताऔर फौजी शासन के  समीकरण से टकराते लोकतंत्र की दशा और दिशा  की जानकारी भी देते हैं .पिता की मृत्यु के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की कमान बेनजीर भुट्टो ने संभाल ली.वे सन1981के दौरान  पाकिस्तान में तीन  महीने नज़रबंद रहीं इसके बाद वे इंग्लैण्ड में निर्वासन में रहीं.अपने छोटे भाई शाहनवाज़ को दफ़नाने के लिए वे पाकिस्तान लौटीं.

लाखों की संख्या में जनता ने उनका स्वागत किया ,जनता जियाउलहक से तंग आ चुकी थी और बेनजीर भुट्टो में पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की छवि देखती थी.बेनजीर को फिर से जेल में बंद कर दिया गया.आत्मकथा में बेनजीर अपने जीवन के उन वर्षों को याद करती हैं जब उनपर कड़े पहरे थे,पहरेदारिन के बारे में वे लिखती हैं –“ चाहे मैं आ रही होऊं ,या बाहर जा रही होऊं.वह बेहद कठोर थी ,कोई सहानुभूति नहीं .मुझे लगता था कि हुकूमत ने जानबूझकर उसे मुझपर तैनात कर रखा था.

वह बहुत नीच लगती थी,वैसी ही जैसी घड़ी और अंगूठी उतरवाकर वापस न करने वाली.उसकी नज़र से बचने के लिए कुछ भी बहुत छोटी चीज़ नहीं थी ..”..”मैं तलाशी नहीं दूंगी ,मैं तलाशी दूंगी ही नहीं ,’मैं चीखी ,और कार से दूर जाने लगी...मैं जब जेल में अपने पिता से मिलने गयी तब भी तलाशी हुई ,वहां से बाहर निकलते समय मेरी तलाशी ली गयी,जब मैं अपनी मां के पास दूसरी जेल में गयी ,तब भी मेरी तलाशी ली गयी ,आते समय फिर ..मेरी बहुत बार तलाशी हो चुकी है ,अब बस ..बहुत हुआ’(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:144)


बेनजीर की आत्मकथा की विशेषता है कि वह एक राजनीतिक स्त्री की आत्मकथा होते हुए भी अपने -आप में में किसी आम  स्त्री की आत्मकथा मालूम देती है ,मसलन आत्मकथा में उन्होंने अपने बच्चों को लेकर ,अपने स्वास्थ्य को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की हैं वे देश की चिंता के समानांतर चलती रहती हैं,एक साधारण- सी  पितृविहीन लड़की, एक चिंतित माँ,एकाकी राजनीतिज्ञ की अनेकानेक छवियाँ पाठक के सामने कौंध जाती हैं ,लेकिन सब पर हावी रहती है व्यावहारिकता-लोकतंत्र की चिंता - देश के साथ उनका जुड़ाव.पुस्तक की भूमिका में वे लिखती हैं –“मैंने यह ज़िन्दगी खुद नहीं चुनी,ज़िन्दगी ने मुझे चुना .पाकिस्तान में जन्मी ,मेरी ज़िन्दगी बहुत उतार -चढ़ाव से भरी रही ,उसमें दुःख- विपत्तियाँ  हैं तो कामयाबी के झंडे भी फहराए हैं...पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं है ,न ही मेरी ज़िन्दगी कोई सीधी-सपाट ज़िन्दगी है .मेरे पिता और दो भाई मार दिए गए.मेरी माँ  ,मेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया .मैंने कई कई बरस का देश- निकाला झेला.इन तमाम दुःख -मुसीबतों के बावजूद ,मैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ .मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश में ,लोकतान्त्रिक चुनाव के ज़रिये पहली  प्रधानमंत्री बन सकी.यह चुनाव उस  बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ था ,जो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था.

इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरत ,देश की प्रधानमंत्री बनकर देश की अगुवाई कर सकती है और उसे देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रजामंदी दे सकते हैं ...इस दुनिया में बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वे इस समाज  में कुछ बदलाव ला सकें ,देश में आधुनिकता की राह बना सकें और मामूली भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों के बारे में घिसे -पिटे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगो को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है.”( मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:9) बेनजीर भुट्टो की यह आत्मकथा अपनी सीमाओं में बहुत ही सुरक्षित जीवन जीने वाली लड़की की जीवन -यात्रा  की कथा है जिसने रेडक्लिफ और आक्सफोर्ड में शिक्षा ग्रहण की.राजनीतिक परिवार के संस्कारों ने उन्हें साहस और सूझ-बूझ दी.वे  एक इस्लामिक देश की चुनी हुई  प्रधानमंत्री बनीं .पाकिस्तान में तख्तापलट के बाद उनके पिता को फांसी दे दी गयी थी और दो भाइयों को मार दिया गया.नज़रबंदी ,अपने ही बच्चों से अलग रहने की विवशता,पाकिस्तानी सेना का अधिनायकत्व,कारावास की भीषण यातनाएं ,जनरल मुशर्रफ के शासन काल तक तक उन्होंने राजनैतिक रूप से चैतन्य जीवन जिया ,उन्होंने लिखा –“2007में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ लौटते  वक्त न सिर्फ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए  मौजूद खतरों से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ.हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरूं तो गोलियों की शिकार हो जाऊं.पहले भी अल -क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है

.हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगा?क्योंकि मैं अपने वतन में लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतान्त्रिक चुनावों से नफ़रत है लेकिन मैं तो वही करुँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतान्त्रिक आकाँक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ”.. इस पत्र के कुछ ही महीने बाद 27दिसंबर 2007में बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी में मार दिया गया .उनकी आत्मकथा के बारे में सन्डे टाईम्स ने लिखा –“यह एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियाँ स्वीकार कीं,जिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुए ,जिसने पाकिस्तान की आजादी की मशाल जलाये रखी,बावज़ूद तानाशाही के विरोध के .” (मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:ब्लर्ब )




कागज़ी है पैरहन’ इस्मत चुगताई की आत्मकथा है जिसका देवनागरी में लिप्यंतरण इफ्तिखार अंजुम ने किया.बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में परदेदार कुलीन घराने की मुस्लिम स्त्री के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होने के कारण इस्मत चुगताई को मरणोपरांत  इस पुस्तक ने बहुत लोकप्रियता दिलवाई .हालाँकि इसे सीधे -सीधे आत्मकथा नहीं कहा जा सकता ,क्योंकि इसमें जन्म से आगे की घटनाएँ उस ढंग से सिलसिलेवार नहीं हैं ,यह खण्डों में बिना तरतीब के है .14अध्यायों में बंटी इस आत्मकथा का धारावाहिक रूप में ‘आजकल’उर्दू पत्रिका में (मार्च 1969से मार्च 1970 )प्रकाशन हुआ.इस्मत चुगताई की मृत्यु सन 1991में हुई और उसके तीन वर्ष बाद उर्दू पत्रिका में छपे उन टुकड़ों को एकत्र करके पुस्तकाकार छापने का निर्णय लिया गया. कागज़ी है पैरहन - परंपरागत अर्थों में आत्मकथा न होते हुए भी टुकड़े- टुकड़ों में इस्मत की जीवन स्मृतियों को सामने लाती है जिसका अंग्रेजी तर्जुमा करने वाले एम.असाउद्दीन का कहना है कि इस्मत समाज में व्याप्त लैंगिक विभेद और समाज की सामंती -पितृसत्ताक संरचना से भली -भांति परिचित थीं ,जिस समाज में वे रहती थीं उसके दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और विरोध  करने के लिए वे जो कर सकती थीं किया.’कागज़ी है पैरहन’ कुल 14अध्यायों में विभक्त है जिसे उर्दू पत्रिका ‘आजकल’ में 1970  के दौरान धारावाहिक रूप में पाठकों के सामने आने का मौका मिला.’आजकल’ ही वह पत्रिका थी जिसमें अनीस किदवई का आत्मकथ्य ‘गुब्बार ए-कारवां’छपा था.

इस पत्रिका ने कई लेखकों के आत्मकथ्य प्रकाशित किये.’कागज़ी है पैरहन’उन आत्मकथ्यों में से है जो ये बताते हैं कि रचना का आत्म बहुस्तरीय होता है और स्मृतियाँ ठीक उस ढंग से नहीं आतीं जैसा जीवन का सिलसिला होता है.बतौर रचनाकार ,बतौर स्त्री और बतौर मुस्लिम होने के नाते आत्मकथा लेखन के अनंतर जो चुनौतियाँ इस्मत के सामने आती हैं,उनके बारे में वे बताती हैं .लेखकीय इयत्ता और आत्म के  पुनर्प्रस्तुतिकरण के उत्कृष्ट उदाहरण के नज़रिए से इस आत्मकथा को देखा जाना चाहिए.इस्मत चुगताई के लेखन को उर्दू गद्य की आधुनिक लयकारी की दृष्टि से भी सराहा गया .इस्मत ने पढ़ने- लिखने और जीवन में अपना मुकाम हासिल करने के लिए किस तरह मुस्लिम परम्परावादी समाज का सामना किया ,उनकी जिद्द ही थी जिसने उनके भीतर लैंगिक विभेद के प्रति विद्रोह पैदा किया ,और ऐसे मुद्दों पर लिखवाया जिसमें समाज के रसूखदार लोगों का जीवन प्रतिबिंबित होता था.

लेखन प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है –“ लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैं ,उनसे बातें कर रही हूँ और वो सुन रहे हैं.मेरे कुछ हमखयाल हैं ,कुछ मोतरिज़ हैं ,कुछ मुस्कुरा रहे हैं,कुछ गुस्सा हो रहे हैं.कुछ का वाकई जी जल रहा है .अब भी मैं लिखती हूँ तो यही अहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूँ.”( कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:ब्लर्ब)


इस पुस्तक में स्मृतियाँ श्रृंखलाबद्ध रूप में नहीं आई हैं ,बचपन के बारे में इस्मत लिखती हैं-‘मेरी अम्मा को मेरी हरकतें एक आँख न भाती थीं .मेरे अंजाम की उन्हें सख्त फ़िक्र थी.ये मर्दमार बातें औरतों को जेब नहीं देतीं .वह इतनी गहराई से न इन बातों को समझती थीं और न समझा सकती थीं ,मगर  मुझे मालूम हुआ कि मेरी अम्मा क्यों डरती थीं.यह मर्द की दुनिया है ,मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है.औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनिया का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफरत के इज़हार का जरिया बना रखा है.वह उसे मूड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है.औरत को दुनिया में अपना मुकाम पैदा करने के लिए निस्वानी हर्बों से काम लेना पड़ता है .सब्र होशियारी ,दानिशमंदी ,सलीका जो मर्द को उसका मुहताज बना दे.शुरू ही से लड़के को मुहताज बनाना कि वह अपना बटन टांकते शरमाये.रोटी ठोकते डूब मरे.आसान -आसान छोटे छोटे काम जो नौकर कर सकते हैं ,अपने हाथ से करना .उसकी ज्यादतियों को सर झुकाकर सहना कि वह शर्मिंदा होकर क़दमों पर गिर पड़े .”(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:14)


इस्मत स्त्री की इस गुलाम मानसिकता से अपने ढंग से टकराती हैं .बहुत कम उम्र में लैंगिक विभेद को परख लेती हैं.वह रशीदजहाँ के बारे में लिखती है –“रशीदजहाँ ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था .मैंने उनसे साफ़गोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की.”( कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:15) इस्मत की आत्मकथा की विशेषता है साफ़गोई और बिना लाग-लपेट के अपनी बात को कहने की कोशिश ,वे अपने बचपन के दिनों से लेकर भाइयों के साथ पढ़ाई-लिखाई के अनुभवों के साथ यौनिकता के मुद्दों पर बड़े ही बेबाक अंदाज़ में बात करती हैं.वे धर्म ,राजनीति,परदे के मुद्दों पर पिता ,भाइयों ,पुरुष रिश्तेदारों से बात करती हैं ताकि जान सकें कि आधी आबादी ,जो बाहर की दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ़ है वह अंतरमहल की समस्याओं पर क्या सोच रखती है.”लड़कों के लिए यह आम रवैया मुनासिब समझा जाता है ,मैं लड़की थी .अम्मा ,खालायें,फूफियाँ,चचियाँ हैबतज़दा थीं.औरतज़ात को ये मुंहज़ोरियां जेब नहीं देतीं .ससुराल में कैसे गुज़र होगी ?समाज ने औरत का एक ठिकाना मुक़र्रर कर दिया है ,उससे बाहर क़दम रखा तो पैर छांट दिए जायेंगे.ज्यादा तालीम भी बलाए जान होती है .हमारे यहाँ कौलो -फ़ेल पर पाबन्दी नहीं थी .मगर यह शर्त सिर्फ़ मर्दों तक थी.मुझे इन हरकतों पर डांट खानी पड़ती थी ‘(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:17) 

लैंगिक विभेद युक्त समाज ,स्त्री के लिए सीमायें तय करता समाज इस पुस्तक में सब कहीं है.मुस्लिम समाज और औरतों की इच्छाओं ,कामनाओं को अनुशासन में रखती चली आती व्यवस्थाओं का पर्दाफाश ,बड़े ही सहज ढंग से यह पुस्तक करती चलती है.परदे और मुस्लिम स्त्री होने के कारण लादी गयी पाबंदियों की फेहरिस्त लम्बी है,इसलिए उनसे टक्कर लेकर अपनी इच्छा से अपने जीवन को जीने की छूट लेने की चुनौतियाँ और संघर्ष भी बड़े रहे होंगे ,यह आत्मकथा औरतों की चुप्पी और उनके कथन की  दरारों को चौड़ा करके दिखाती है ,जिनमें विभिन्न तबकों से आई हुई औरतें हैं,जिनकी आवाज़ दबते -दबते गूंगी हो गयी है .पति की कृपा पर उनकी यौनेच्छायें निर्भर हैं,अभिकर्ता के रूप में वे अपनी इस स्थिति को अस्वीकार करती हैं.वे हर तबके में दबी -कुचली और शोषित हैं लेकिन दिशाहारा॰



१६
               


उजाला दे चराग़-ए-रहगुज़र आसाँ नहीं होता
हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता   
(अदा ज़ाफरी )

इस्मत चुगताई की आत्मकथा के बरक्स अदा ज़ाफरी की आत्मकथा को रखकर देखना दिलचस्प है. देश विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर बसने वाली अदा ज़ाफरी ने गजलकार के तौर पर नाम कमाया लेकिन विवाह के पहले जब वे बदायूं में रहती थीं उन्हें लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा क्योंकि मुस्लिम खानदान स्त्री को पर्दे से बाहर आने नहीं देना चाहता था “जो रही वो बेखबरी रही" (1995) शीर्षक आत्मकथ्य में 1924मे उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुई अदा ज़ाफरी जेंडर और स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर  अपनी समकालीनों से भिन्न हैं. इनसे पहले अधिकतर मुस्लिम स्त्रियाँ जिन्होंने आत्मकथाएं लिखीं वे शिक्षितअभिजात्य अथवा राजनीतिक सक्रियता रखने वाले परिवारों से सम्बद्ध थीं. उनका लिखना उन्नीसवीं सदी के स्त्री सुधारों और स्त्री शिक्षा के कार्यक्रमों का ही एक विस्तार थाया यों कहें कि आत्मकथा लेखन के माध्यम से वे राष्ट्रीय आख्यान का अंग बन रही थीं और मुस्लिम आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक भूमिका अदा करने का प्रयास कर रही थींइसलिए उनके आत्माख्यानों मे विषय वैविध्य के साथ साथ एक विशिष्टता बोध भी दिखाई देता हैइनमें से कुछ यौनिकता के प्रश्नों पर अतिरिक्त मुखर हैं मसलन इस्मत चुगताई. तो कुछ के लिए प्रेम,पति,प्रेमी और यौनेच्छा पर एक पंक्ति भी लिख पाना मुमकिन नहीं हो पाया. कुछ पर खुद की सेंसरशिप हावी है कुछ पर इस्लाम की और कुछ के साथ परिवार,समाज,पाठक का भय चलता है जिसे उनके टेक्स्ट की दरारों से ही समझा जा सकता है. 

इसके लिए अदा ज़ाफरी के आत्मकथ्य को देखा जाना चाहिए जो एक साधारण परिवार से सम्बद्ध थी जिनका बचपन से एक ही सपना था कि वे अपनी खुली आँखों से दुनिया देखें. पर्दा और लैंगिक विभेदवादी परिवार और समाज में उन्हें ऐसी कोई छूट मिलनी संभव नहीं थीवे अपनी कथा में लिखती हैं कि स्वतंत्र होने के लिए उन्होने एक उच्च पदस्थ अधिकारी से विवाह कियाविवाह के बाद ही संभव हो पाया कि वे पति के साथ देश-दुनिया घूमें और नए नए लोगों से मिलें-जुलें. लेकिन बतौर कवयित्री एक लंबा कैरियर गुजरने के बाद उम्र के इकहत्तरवें साल मे  ही वे आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाईं.
(https://books.google.com/books?id=1lTnv6o-d_oC&pg=PA352)



इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद पाकिस्तान के माहौल और बचपन के अनुकूलन ने उनपर सेंसरशिप इस कदर तारी रखी कि वे परिवार के किसी पुरुष सदस्य पर टिप्पणी से बचती हैं यही नहीं वे जिन भी  पुरुषों का ज़िक्र करती हैं उन्हे ‘भाई ‘कहकर संबोधित करती हैं मानों पाठक की कल्पना पर लगाम लगा देना चाहती हों कि कहीं उन्हें ऐसी स्त्री न समझ लिया जाये जिसके मित्र पुरुष थे. उनकी कविता से प्रभावित होकर ही उनके पति ने विवाह -प्रस्ताव रखा थालेकिन वे कहती हैं कि विवाह के बाद मिली स्वतन्त्रतामाहौल ने भी बचपन के दिनों की परतंत्रता का मलाल उनके मन से दूर नहीं किया. 

पूरे आत्मकथ्य में उनका स्वर क्षमा-याचना का हैजैसे लिखना उनका अधिकार न होयह अवसर दिये जाने पर  वे परिवारसमाज की शुक्रगुजार हों. समकालीन पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों की प्रशंसा उनके आत्मकथ्य मे रेखांकित करने योग्य है जिसमें ग़ुलाम इश्हाक खानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ शामिल हैं जिन्होने लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज़ बुलंद की. आत्मकथ्य के अंतिम अध्याय में अदा ज़ाफरी ने स्वीकार किया है कि उन्होने उनलोगों का ज़िक्र ही छोड़ दिया है जो जीवन में कभी भी उनके लिए तकलीफ का सबब बने हैं. वे लिखती हैं- 

"ऐसा नहीं है कि मुझे किसीसे चोट नहीं पहुंची. जीवन में ऐसे बहुत से लोग आते ही हैं जिनसे टकराव होता ही हैइनकी गिनती दोस्तों से ज़्यादा होती है. तकलीफदेह बातों को याद करने का क्या फायदा. ज़िंदगी बहुत छोटी है और माफ़ करना मेरे अल्लाह की फितरत."
अदा जाफरी के आत्मकथ्य मे स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बात करने से हर संभव बचा गया हैउनकी कोशिश रही है कि पाठक समझे कि उनका पूरा जीवन बहुत ही नैतिक दृष्टिसामाजिक मान-मर्यादा के निर्वाह के साथ जिया गया हैऐसा नहीं कि उनके कुछ सपने नहीं होंगेसपने नहीं होते तो वे अपनी कविता मे इतने विविधमुखी रंगों का प्रयोग कैसे कर पातीं. यद्यपि वे घरेलू परिधि में बंधी हुई हैं लेकिन स्त्री स्वाधीनता के वैश्विक परिदृश्य से नितांत अपरिचित नहीं हैंवे पूरा अध्याय सिल्विया प्लाथ पर लिख डालती हैं और पितृसत्तात्मक जकदबंदी से निकलने का प्रयास करने वालियों की तारीफ़ भी करती हैं. जहां तक उनके निज का प्रश्न है वे सत्रह साल तक इसलिए कविता लिखना छोड़ देती हैं क्योंकि उनपर गृहस्थी के दायित्व थे. घर के दायरे से बाहर निकल कर वे कविता मे अपनी मुक्तिकामना अभिव्यक्त करती हैं. अदा ज़ाफरी को उनके द्वारा अपनाई गयी विधाओं और काव्यात्मक प्रयोगों के लिए जाना जाता है ,इसी वजह से अपने समकालीनों में वे ईर्ष्या और आलोचना का पात्र भी बनीं लेकिन स्त्रीवादी लेखन और बोल्डनेस की दृष्टि से उनकी आत्मकथा बहुत नरम हैउनका स्वर स्त्रीवाद की अन्य पक्षधरों की तरह बुलंद नहीं हैफिर भी वे पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ी दीखती हैं. उनके बारे में यशस्वी कहानीकार इंतज़ार हुसैन का कहना है कि बदायूं जैसी छोटी जगह पर रह कर उन्होने गज़ल के क्षेत्र में जो नाम कमाया वह अविस्मरणीय ही है.

उनका लिखना ही अपने–आप में पुरुष–सत्ता को चुनौती थीक्योंकि अदा ज़ाफरी ने सिर्फ गजलें ही नहीं कहीं बल्कि कविता के कई प्रयोग भी किए. इसके बावजूद उनकी आवाज़ में उस दौर की स्त्रीवादियों की तरह सीधे कह देने के साहस का अभाव हम पाते हैंजबकि जिस समय वे लिख रही थीं इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ चर्चा का विषय बन चुकी थी. अदा भी खुल कर अकेले घूमने की आज़ादीनयी-नयी जगहें देखने की तमन्ना से लबरेज दीखती हैं. 

अदा ज़ाफरी को पति की सरपरस्ती मे बहुत से देश यूरोप और अमेरिका घूमने का मौका मिला. बदायूं की वह लड़की जो पर्दे के भीतर ग़ज़ल कहती थी अब अपनी बात खुलकर सभा -सोसायटियों में करने लगी. उनका आत्मकथ्य को एक सोद्देश्य पाठ की दृष्टि से देखा जाना चाहिए जो बतौर कवयित्री उनके करियर पर उन दबावों की पड़ताल करता हैजिनके कारण वे बीच के सत्रह वर्ष कुछ लिख ही नहीं सकीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गुलाम इशाकखानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ़ के लोकतान्त्रिक रवैयों की तारीफ करती नहीं अघातीं. पति की तारीफ,उनके अपने जीवन में योगदान को नहीं भूलतीं.

पूरे आत्मकथ्य में उनका सुर बहुत मृदु और नपातुला  है. फिर भी जीवन के प्रतिउनका असंतोष पाठक की पकड़ मे आ ही जाता है. उन्हे अफसोस है कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों मे उन्हे खुलकर बोलनेघूमने-फ़िरने की आज़ादी नहीं थी, वे गज़लें कहतीं थीं तो पुरुष प्रधान समाज मे उन्हे अपमान का सामना करना पड़ा. विवाह-पूर्व के इन अनुभवों को वे कभी भुला नहीं पातीं. वे कहीं भी स्त्री-यौनिकताअपनी इच्छा कामना के बारे मे नहीं लिखतीं. इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे स्त्री के साथ परंपरागत ढंग से जुड़े टैबूसतीत्व के मानदंडों को चुनौती देना  तो दूर उनपर एक वाक्य लिखने का जोखिम तक नहीं उठाती. हालांकि ऐसा नहीं है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ मे शामिल स्त्रियॉं की भूमिका या  वैश्विक परिदृश्य  से अपरिचित हैंवे बोल्ड रूप मे सामने आ रही स्त्रियॉं की प्रशंसा भी करती हैं  अपनी मंद्र आवाज को लेकर क्षमा-याचना की मुद्रा मे भी हैं. 

पाठक महसूस कर लेता है कि इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद स्त्री यौनिकतास्त्री मुक्ति के प्रश्नों पर वे मौन हैं. वे सामाजिक ,पारिवारिक और व्यक्तिगत सेंसरशिप का पालन करती हैंपतिबच्चे,रिश्तेदार किसी को रुसवा करने का खतरा नहीं उठाना चाहतीं. इस  चुप्पी को आत्मकथ्य की दरारों से होकर समझा जाना चाहिएवे स्त्रीत्व के सभी कोमल गुणों से भरी हैंवे स्वयं को सहनशीलपरिवार और गृहस्थीबच्चों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करने वाली स्त्री के रूप में देखती हैं.

वे वह त्यागमयी स्त्री हैं जो पाकिस्तान का प्रतीक है– जिसके बच्चे उसे छोड़कर कई दिशाओं में चले गए हैं. उनका आत्मकथ्य ‘निज’ की आधुनिक परिभाषा से दूर दीखता हैवे देश विभाजन की पीड़ाबच्चों के दूर जाकर बसने  की तकलीफअतीत की स्मृतियों  का बयान करती चलती हैं. जेंडर के मुद्दे पर वे सिर्फ अपने  पत्नीत्व और मातृत्व की चर्चा करती हैं जिसमें स्त्री यौनिकता पर किसी टिप्पणी का नितांत अभाव है.



१७.

अदा ज़ाफरी के नियंत्रित आत्मकथ्य से ठीक उलट है आईने के सामने अतिया दाऊद का आत्मकथ्यजिसका देवनागरी लिप्यंतरण इजलाल मजीद ने किया. पाकिस्तान के जिले नौशेरा में जन्मी अतिया-दाऊद सिंधी की प्रमुख  कवयित्री हैं जिसमें एक बहुत ही साधारण परिवार के अतीत का प्रत्याख्यान है जो बहुत कम उम्र में अपने माँ–बाप को खो देती हैपरंपरागत और रूढ़ियों में डूबते–उतराते समाज के कई अक्स अतिया के आत्मकथ्य में देखे जा सकते हैंजिसकी भूमिका में अतिया ने अतीत को फिर से मुड़ कर देखने और दोहराने पर मानी खेज़ टिप्पणी करते हुए लिखा- 

सच बात तो  यह है कि अगर मैं यह पहले से जानती होती कि ज़िंदगी गुजारने से भी जियादह तकलीफदेह गुज़री हुई ज़िंदगी को दोहराना है तो मैं कभी नहीं लिखती. इस बात का मशवरा मेरे दोस्त आसिफ फर्रूखी ने दिया. गोया यह कि मुझे यह मशवरा देकर जलते हुए शोलों की तरफ धकेल दिया ....मसला यह था कि वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में जाकर ठहर जाती थी. जब मेरे बाप की मौत होती तो उस दिन फिर हो जाती जिस दिन मैं लिख रही हूँ. हर अजियतनाक इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से ..और मैं फूट–फूटकर रोयी हूँतड़पी हूँजुदाई की आग में जली हूँ. जब छोटी-सी बच्ची को उसकी भाभी डंडे से मारती है तो मेरा जिस्म उस अज़ाब को फिर से झेलता रहा ,सुलगता रहा. जब वो बच्ची लाल शर्बत की खुशबू सूँघती हैउसको भाभी के डर से पी नहीं सकती तो मेरे अंदर इस कदर प्यास भड़क उठी कि कितना भी पानी पिया मगर हलक में कांटे चुभते ही रहे. इस आपबीती को लिखते हुए मुझमें तब्दीलियाँ भी आयीं. जिन किरदारों से नफ़रत थीअंदर से राख़ की तरह दबी हुईवो बहुत खुलकर अब महसूस होने लगी. और जो मोहब्बत की दबी–दबी चिंगारियाँ थीं वो शोलों की तरह भड़क उठीं."

(आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:13 )

अतिया की जीवन यात्रा गरीबी और मुफ़लिसी से गुजरते हुए स्वयं अपने निर्णय लेकर जीवन में मर्जी से विवाह और बतौर एक्टिविस्ट और कवयित्री अपनी पहचान निर्मित करने की कहानी है. आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है अन्य कथाकारों से अलग हटकर स्पष्ट ढंग से अपनी इच्छा–अनिच्छायौन–शोषण के बारे में बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालना. निश्चय ही इसके लिए जिस साहस और पारिवारिक समर्थन की ज़रूरत होती होगी वह अतिया के पास है तभी तो वह बचपन में हुए यौन–शोषण को इन शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं- 

"उसने लकड़ियों का ढेर जमा कर लिया. मुझे हैरत नहीं हो रही थी क्योंकि यह आम बात थी. और बच्चों के मुक़ाबले में मुझे लोग ज़्यादा तवज्जो देते थे. मैं भी और दूसरे बच्चे भी इस बात के आदी थेजब लकड़ियाँ जमा कर चुके तो वह मेरे क़रीब आया और कहने लगाअब तो तुम खुश हो मैंने कहा – “हाँ “उसने मेरी शर्ट ऊपर कर दी और मेरी छातियों को हाथ से मसलने लगा. मेरी उम्र नौ साल रही होगी और मैं एक कमज़ोर-सी बच्ची थी. कुछ था भी नहींमुझे शर्म भी नहीं आई. मगर उसकी आँखों से मुझे खौफ़ आने लगा. उसकी शक्ल बिलकुल बदली हुई सी लग रही थी. खौफ़ के मारे मेरी आवाज़ घुटकर रह गयी. दूसरे बच्चे आ गए .....उसके बाद से मुझे अजनबी मर्दों से डर लगता था." 

(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,पहला संस्करण, राजकमल प्रकाशन 2004:46)

गाँव में रहते हुए अतिया अपने बचपन के दिनों का ज़िक्र इतने खुलेपन से करती है कि लगता नहीं वे किसी धार्मिकसामाजिक सेंसरशिप से डरती हैं. स्त्री पर पर्दे की पहरेदारी के सख्त कायदे कानून पिछड़े हुए गांवों में कैसे हैं इसपर वे लिखती हैं-

"मेरी हमउम्र एक बच्ची जो जिस्मानी तौर पर मुझसे मोटी थी और उसकी छोटी-छोटी सी छातियाँ निकलने लगी थींइसलिए वह अपने गिर्द एक दुपट्टा लपेट लेती थी. एक दफा उसने मुझे राज़दारी से बताया कि उसके घर में एक दाई खाला आती है. वह उसको कमरे के अंदर ले जाकर दरवाजा बंद करके एक खास बर्तन जो कि मिट्टी से बना हुआ होता है  और उससे जुआर या बाजरे या मकई की रोटी बनाई जाती हैसिंध में जिसको ‘थुपनी ‘कहते थेबहुत बेदर्दी के साथ उसकी छातियों को मसलती है. उसे बहुत दर्द होता है. उसने बताया कि अम्मा ने कहा है कि अगर उस वक़्त तुम चीख़ोगी या रोओगी तो बहुत मार पड़ेगी. इसलिए डर के मारे मैं रोती भी नहीं हूँफ़क़त आँसू बहते हैं और मैं इस तरह तड़पती हूँ. उसने जमीन पर लोटते हुए मुझे दिखाया."
आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:50)


अतिया दाऊद का आत्मकथ्य बहुत कुछ इस्मत चुगताई की आत्मकथा का विस्तार  लगता हैअतिया बचपने के खेल के बारे में जब लिखती हैं तो अनायास ही पितृसत्ता के छिपे हुए तेवरों को सामने लाने लगती हैं –

“जिस दिन हम घर–घर खेलते उस दिन मेरा ज़रूर लफड़ा हो जाता था. बच्चे इस खेल को ऐसे ही खेलना चाहते थे जिस तरह हक़ीक़त में हमारी ज़िंदगी में होता था और मैं उसमें तबदीली लाने की कोशिश करती थी. उस खेल के मुताबिक घर का एक बड़ा अब्बा होता था,वो सबको डांटता था. घर के मर्द बाहर से जाकर सौदा,सब्जी वगैरह ले आते थे. मगर यहाँ आकर मैं तकरार करती थी कि बाज़ार से सौदा लेने मैं जाऊँगी. बच्चे कहते थे ये नामुमकिन है. तुम अदी बनकर घर में खाना पकाओगीझाड़ू दोगी और ये सारे काम करोगी...”

(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:53 ) 

इक्कीसवी सदी में लिखी और प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में ‘आईने के सामने’ की गिनती होती है.

                 

                   १८.


हम गुनाहगार औरतें हैं ,जो अहले जुब्बा की तमकनत से
न रौब खाएं न जान बेचें ,न सर झुकाएँ ,न हाथ जोड़ें


बुरी औरत की कथा’शीर्षक से उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका किश्वर नाहीद ने आत्मकथ्य लिखाजिसका अँग्रेजी तर्जुमा दुर्दाना सुमरू ने ‘बैड वुमेन्स‘ स्टोरी’ शीर्षक से सन 2010में किया. किश्वर नाहीद उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर मे पैदा हुईं और सन 47के बाद पाकिस्तान चलीं गईं थीं. देश विभाजन और राजनीतिक हलचलों के बीच उन्होने समाज की प्रारम्भिक छवियाँ ग्रहण कीं. नब्बे के दशक में नाहीद की आत्मकथा ने पाकिस्तान की  लेखक–बिरादरी में बहुत से विवादों को जन्म दिया जिसे अदा ज़ाफरी की आत्मकथा के सामने रखकर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. किश्वर नाहीद एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध थीं बचपन से ही पर्दे और बुर्के की बाध्यता में वे कसमसाती रहती थीं. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें कॉलेज जाने का मौका मिला और तब उन्होने बगैर पर्दे के कक्षाएं करना शुरू कियालड़कों के साथ मुशायरोंडिबेट इत्यादि में भाग लेने लगींकॉलेज की ज़िंदगी ने उन्हें बाहरी संसार से परिचित होने का मौका दिया और उन्होने कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया यहाँ तक कि घरवालों की रजामंदी के बगैर प्रेम विवाह भी कर डालाकुछ ही दिनों में दांपत्य-कलह शुरू हो गएजिसका अंत नहीं था क्योंकि शौहर का जी किश्वर से भर चुका थावे आत्मकथा में लिखती हैं कि उन्होने अपने  शौहर का जी अपनी तरफ पलटने की बहुत कोशिश कीदो बच्चे भी हुए जो अपने पिता के पक्ष में ही थे. सन 1984में जबतक पति की मृत्यु नहीं हुई तबतक पारिवारिक कलह चलते रहे. 

‘बुरी औरत की कथा ‘में वे समाज की पितृसत्ता की आलोचना ही सिर्फ नहीं करतीं बल्कि स्त्री के विकास मे अवरोधक उस मानसिक अनुकूलन पर बारीक नज़र रखती हैंजिसका प्रतिनिधित्व अक्सर घरेलू औरतें करती हैंउन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे अपनी आंतरिक संरचना में पितृसत्ता की पोषक एजेंसी के रूप में कार्य करने लगती हैं. वे कामकाजी स्त्री की अपेक्षा कम काम करती हैं और घरेलू राजनीति में कामकाजी औरतों के लिए आलोचक बन जाया करती हैं. 

अदा जाफरी से बिलकुल उलट किश्वर नाहीद उन समस्याओं का चित्रण बेबाकी से करती हैं जिनका सामना किसी स्त्री को अपनी यौनिकता के कारण करना पड़ता है. इसके लिए वे स्वानुभवों का सहारा लेती हैंकार्यस्थल पर उन्हें देख कर सेक्सुअल फ़ेवर मांगनाद्वि-अर्थी बातें करनापत्नी की अनुपस्थिति में धोखे से अपने घर निमंत्रित करना इनसबका वे बिना किसी लाग–लपेट के ज़िक्र करती हैं. वे बताती हैं कि बचपन में एक मौलवी द्वारा  दैहिक शोषण से वे कैसे बच निकलती हैंलेकिन बड़ी होने पर कविता,गजल लिखने वाली लड़की को साहित्यकार सहयोगी भी नहीं बक्शतेस्त्री वहाँ भी उनके लिए सिर्फ एक देह है. 

पुरुष हर स्थिति में स्त्री के चरित्र को मलिन करता हैवह उसके आमंत्रण को स्वीकार कर ले तो भीऔर अस्वीकार कर दे तो भी. वह स्त्री की नकार सहन नहीं कर पाता. किश्वर के चरित्र की धज्जियां उड़ाने वाले लोग वे ही थे जिनके साथ किश्वर ने ऐसे–वैसे संपर्क से इंकार कर दिया था. स्त्री की समूची आकांक्षा–इच्छायौनिकता कैसे हिंसासंदेह और अपशब्दों में तब्दील हो जाती है इसे देखने के लिए इस आत्मकथ्य को पढ़ना चाहिए. एक जगह वे अपने शौहर के बारे मे लिख ही डालती हैं – ‘ऐसा भी होने लगा कि मैं उसकी जेब और वह मेरे बटुए की तलाशी लिया करता ...वह एक के बाद दूसरी बदलता रहता पर रात को वापस घर लौट आता ...मैं रोया करती लेकिन सीता की पंक्तियों को कभी मैंने दिल से बाहर नहीं किया'  किश्वर नाहीद ने अपनी मर्ज़ी से इसलिए विवाह किया कि वे एक स्वतंत्र जीवन जी सकेंजैसा चाहें  वैसा कर सकें जो कि परंपरागत विवाह में संभव नहीं हो पाता लेकिन इस क्रांतिकारी कदम ने उनका आगे का जीवन शंकाकलह और अपमान से भर दिया. शौहर नित नयी औरतों से जुड़ने लगा और किश्वर अपने आपको पहले से अधिक विवश और लाचार पाने लगी यहाँ तक कि उनके बेटे भी पिता के पक्ष में ही खड़े रहे.

किश्वर अपनी समसामयिक राजनीति पर भी पैनी नज़र रखती हैंइस दृष्टि से उनकी आत्मकथा एक दस्तावेज़ भी  हैवे लिखती हैं - 


पाकिस्तान ने अपने वजूद को औरत के वजूद की तरह तक़सीम होते देखा. खुद को औरत की तरह दौलत की गुलामी में जकड़ा हुआ महसूस किया. आकाओं ने दो सौ साल पुराना खेल फिर दोहराया. अब यह खेल वे खुद नहीं खेल रहे थे बल्कि उसके ज़रखरीद सियासतदाँ और नौकरशाही खेल रही थी. 1965में ‘छेड़छाड़’ आउट ताक़तों को आज़माने का खेल खेला गया. अब शिकार फिर औरतें ही थीं. पाकिस्तान लालकिले पर झण्डा लहराने के लालच में ‘थैंक यू अमेरिका’ से दो–चार हो रहा था."
किश्वर का बतौर स्त्री यूं सब कुछ खुल कर अभिव्यक्त कर देना अपने भीतर के भय पर विजय पाने की प्रक्रिया है. इस्लामिक देश में रूढ़ियों और राजनीति पर बोलना अपने-आप में चुनौती भरा है. निजी जीवन में किश्वर परंपरा का विरोध करती हैंसार्वजनिक जीवन में अकेलेपन के खतरे उठाती हैसत्ता हमेशा उसपर कुपित दृष्टि रखती हैउधर दूसरी ओर रूढ़ि–भंजन और विद्रोह का रोमांच तब खत्म-सा हो जाता है जब वह हड़बड़ाहट  में छीनी हुई आज़ादी के फलस्वरूप एक ऐसे पुरुष को प्रेमी फिर पति के रूप में चुन लेती हैजिसके लिए स्त्री सिर्फ एक देह  है. स्त्री अपना दांपत्य बचाने के लिए खुद को ‘देह’ के रूप में रिडयूस कर भी देती है पर वह भीतर से इसे स्वीकार नहीं कर पातीउसका आत्म-देहदमन और विद्रोह से बना है. इसी आत्म की अभिव्यक्ति वह विभिन्न तरीकों से करती है. उसकी देह पर बचपन से पहरा है. किश्वर लिखती हैं- 
"जब माँ ने मसाला पीसने को कहातो मैंने गली में निकलकर अपने हमउम्रों से पूछा “क्या यह मेरी सगी माँ हैं मुझे मिर्चें पीसने को दे देती हैं और मेरी उँगलियों में मिर्चें लग जाती हैं."आगे बढ़ूँ तो सात साल की उम्र ...अब मुझे बुर्का पहना दिया गया है. मैं गिर–गिर पड़ती थीमगर मुसलमान घरानों का रिवाज़ था. 13साल की उम्र कि जब सारे रिश्ते के भाइयों से मिलना बंद. दुपट्टा सीने पर ढकने का हुक्म. एहतेजाज़ सदा व सहरा. 15साल की उम्र कालेज में दाखिले के लिए भूख–हड़ताल. 19साल की उम्र यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए बावेला. 20साल की उम्रशादी खुद करने पर असरार. 20  साल की उम्र क्या आईशादी क्या हुईसोच मेरा पहरेदार हो गया ."
(बुरी औरत की कथाकिश्वर नाहीदयह अंश कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतेंसंपादक राजेन्द्र यादवराजकमल पेपरबैक्सपहला संस्करण 2008,पृष्ठ 32पर उद्धृत) 

आत्मकथ्य  की विशेषता है धर्म और परम्पराओं को दमनकारी शक्तियों के रूप में पहचानना जो स्त्री को मानुषी के रूप में गरिमा देने को तैयार ही नहीं. जो धर्म एक स्त्री से उसका बचपनउसकी युवावस्था छीन लेता हैसात साल की बच्ची को बुर्का ओढ़ने पर मजबूर कर देता है. पढ़ने के लिएबाहरी दुनिया देखने के लिए उस स्त्री को विद्रोही भूमिका अख़्तियार करनी पड़ती हैउसके लिए कुछ भी सहज नहीं हैयहाँ तक कि मित्रताएं भी नहीं. किश्वर नाहीद लिखती हैं कि बचपन में ही उनके कान ज़बरन छिदवा दिये गएबड़े होने पर उन्होने कानों में कुछ न पहनकर छेद बंद हो जाने दिये को विद्रोह के बीज के तौर पर चित्रित किया हैकि इस तरह एक स्त्री की ऊर्जा बचपन से ही रूढ़ि के विरोध में चली जाती है.

किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य प्रतिरोध  के साथ साथ अतीत के प्रति व्यामोह को तोड़ने के औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए नाहीद लिखती है – 


“कविता ने मुझे बहुत दुख दिये हैं. यदि मैं कविता लिखना छोड़ देती तो हो सकता है मुझे  पवित्र और कर्तव्यशील पत्नी के तौर पर स्वीकार कर लिया जाताअपने भाई–बहनों  के नजदीक होतीदुनिया के बारे में कुछ कम समझ होतीअधिकतर बातें बोलने के लिए बोलती जिसमें ईमानदारी का होना ज़रूरी नहींकुछ कम शत्रु बनते मेरे और यह भी महसूस करती हूँ कि अकेले रहने के कारण मेरी खुशियाँ कम कर दीं. लेकिन कविता ने मुझे संतुष्टि भी दी. मुझे समूचा संसार और मेरा पूरा देश अपनी ननिहाल जैसा लगने  लगा॰ ढेर सारे दोस्तों और शुभचिंतकों के स्नेह की  गर्माहट ने मुझे अनथक काम करने की प्रेरणा दी."
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :98-99)


किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य एक ऐसी पहचान को निर्मित करने का प्रयास है जिसकी जड़ें अंतर्विरोधों में गहरी धँसी हुई हैं. ऊपर से देखने पर यह आत्मकथ्य कई विधाओं के मिश्रण और दो देशों के बीच की आवाजाही को समेटता है पर भीतर ही भीतर पाकिस्तान की औरतों के हक़ में परचम लेकर खड़ी औरत की मुकम्मल कहानी बयान करता है. इसमें  इस्लामिक देश के बनने की कथा चलती हैजिसमें लोकतन्त्र का सपना लिए देश के  सामंतशाही और कट्टर बनने की प्रक्रिया  पैबस्त है. इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों के शीर्षक मुजरा करने वाली,रानीरखैलअप्राप्य प्रेमीसम्पूर्ण नारीवादिनीशर्मनाक परंपरावादी और ईव हैंसाथ ही राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए भाग्य का सैद्धान्तिक विश्लेषण भी है.

भूमिका में किश्वर ने 1940के बाद बदलती दुनिया और स्त्रियॉं के स्वयम के प्रति बदलते नज़रिये का पता दिया है. मिस्र के अपने मित्र के हवाले से वे कहती हैं –


“मेरी माँ भी तुम्हारी तरह ही बातें करती थी. वह बुर्का पहनती थी लेकिन अब मेरी बेटी बिकनी पहनती है”


(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :9)

1973में घटित हुए संवाद को वे 1993मे पुनर्स्मरण करती है और स्त्रियॉं के पहनावों मे आए बदलावों को स्त्री स्वतन्त्रता और विभिन्न समाजों के आंतरिक तापमान की तुलना करने के लिए इस्तेमाल करती हुई कहती हैं कि उनकी बहुएँ स्पेन और अमेरिका में शॉर्ट्स और स्कर्ट पहनती हैं. किश्वर की भतीजियाँ अमेरिका में डाक्टरी की पढ़ाई करती हैं जबकि उनकी माँ पाकिस्तान में डोली का इस्तेमाल करती थीं. 

पूरे उपमहाद्वीप में पिछले 40-45सालों में आ रहे बदलावों का जायज़ा लेते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि इन सालों में वैयक्तिक स्पेस की मांग बढ़ी है और पुरुष और स्त्री दोनों को पहले से ज़्यादा आज़ादी मिली है. वे घरेलू स्पेस को राष्ट्र की आजादी के परिविस्तार के तौर पर देखती हैंअपने ऊपर अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों मसलन मिलान कुंडेराविन्सेंट गौग,मारग्रेट अटवूड ,माया एंजेलो के प्रभाव को स्वीकार करती हैं.


पुस्तक के अंतिम भाग में निजी जीवन की छवियाँ,पारिवारिक तस्वीरेंदेश और विदेश के दूसरे लेखकों और अकादमिक दुनिया से जुड़े लोगों के साथ के कुछ चित्र शामिल हैं. इन तस्वीरों के साथ–साथ अखबारों की कटिंगकई निजी पत्रजिनमें किश्वर की शादी का सर्टिफिकेट भी हैइसके साथ अमेरीकन संगीतकार डोना जीन हेगन द्वारा किश्वर को समर्पित एक संगीत –निर्मिति भी शामिल है .बहुत ही गर्व से किश्वर अपने बारे में भारतीय अखबार में छपे लेख को भी इसी में स्थान देती हैं जिसमें एक कार्टून पत्र का हवाला देते हुए  22फरवरी 1973को पाकिस्तान के नेशनल काउंसिल ऑफ आर्ट के रेसिडेंट निदेशक के पद से हटाये जाने की अपील है. पुस्तक के अंतिम हिस्से में अपनी बात के सत्यापन के लिए उन्होने तसवीरों और अखबार की कतरनों का सहारा लिया है. इससे ज़ाहिर होता है कि वे अपने निजी दस्तावेज़ों का पाठ करने के लिए आख्यानात्मकता की जगह जन-सत्यापन की मदद लेने के पक्ष में हैं. साथ ही उन्हें अपने समकालीनों की उपेक्षा का डर भी है और निज जीवन की घटनाओं या निजी इतिहास को राष्ट्र के वैकल्पिक इतिहास के तौर पर पढ़वा ले जाने की चिंता भी. इन दोनों छोरकी चिंताओं के बीच के तनाव को कथ्य की दरारों में देखा जाना चाहिए . आत्मकथ्य का एजेंडा है –पाकिस्तान के सामंती समाज द्वारा घोषित ‘बुरी’औरत का प्रतिनिधित्व करना, शब्दोंतस्वीरोंनिजी और सामाजिक संवाद द्वारा आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा की विधा को अपनाना .

कहना न होगा कि वे अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल भी हुई हैं. उनकी कथा पाकिस्तानी समाज की आंतरिक तहों को उजागर करने में सफल है और इसीलिए ‘बुरी औरत की कथा है ‘जो सच्ची है तथा  ईमानदारी से बात करने का खतरा उठा रही है. 



मल्लिका अमरशेख  की आत्मकथा ‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’ (मुझे उद्ध्वस्त होना है- अंग्रेज़ी अनुवाद I want to destroy Myself-translated from Marathi by Jerry Pinto,Speaking Tiger Publishing House,2016) ने प्रकाशित होते ही तहलका  मचा दिया. मराठी के कवि और दलित पैंथर के  अग्रणी नेता नामदेव ढसाल की प्रेमिका और बाद में पत्नी बनी मल्लिका ने आत्मानुभवों को सबके सामने लाकर न सिर्फ निजी जीवन को सबके सामने व्यक्त करने का साहस किया बल्कि दलित राजनीतिउसके अंतर्विरोधों  और उसके नेतृत्व से जुड़े व्यक्तित्व के दोहरे-तिहरे चरित्र के बारे मे बेबाकी से लिखा. 

मल्लिका अमरशेख की बेबाकी ने दलित आंदोलन से जुड़े लोगों को उनका शत्रु भी बना दिया. मल्लिका के पिता शाहिर अमरशेख कम्युनिस्ट कार्यकर्ताट्रेड यूनियन और लोक गायकी से सम्बद्ध थे वे 1960के दशक में  महाराष्ट्र की राजनीति  में सक्रिय भी थे.

पिता की राजनैतिक सक्रियता ने मल्लिका को राजनीतिक दृष्टि से सचेतन बनाया साथ ही उम्र के सत्रहवें वर्ष में ही नामदेव ढसाल की कविताई और जुझारू व्यक्तित्व के सम्मोहन में ढसाल से विवाह का निर्णय ले लियालेकिन जीवन का यथार्थ कविता से नहीं चलता. यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि प्रारम्भिक रोमानी आकर्षण के बाद मल्लिका  ने जिसे नए सिरे से पहचाना  वह नामदेव ढसाल अपने निजी जीवन मेंसार्वजनिक चेहरे से बिलकुल अलग है- उसमें सभी  कमज़ोरियाँ हैं. दलित नेतृत्व की ज़िम्मेदारी उठाते उठाते नामदेव कब अपनी पत्नी के प्रति इतने क्रूर बन गए कि  वह उसी घर के दूसरे हिस्से मे अलग रहने लगीएक संतान के बाद दूसरी संतान को जन्म देने को तैयार नहीं. मल्लिका पति के सार्वजनिक जीवन मे आए व्यतिक्रम के बारे में लिखती है –

“कम्युनिस्ट  के रूप में उसी के समाज द्वारा गतिरोध पैदा हुआ. जल्दी मिली सफलता की आँधी  और असफलता के कारण  अपने  को फ़्रस्ट्रेशन से बचा पाना नामदेव के लिए संभव नहीं हुआइन स्थितियों ने उसे बिलकुल बदल डाला”…

आगे दलित कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए वह लिखती है-

"देखो तुम्हारा नेता शराबी हैरंडीबाज़ हैवह व्यवहार नहीं जानता लेकिन क्रांति करने निकला है.ऐसे कार्यकर्ता से तुम प्रेम करते होवह गुंडा हैगुप्तरोग का शिकार हैउसके मित्र भी उसके जैसे हैं. वे काहे के पैंथर". 
(गैर-दलित ,शरणकुमार लिंबाले,पृष्ठ 187)



मल्लिका को अपनी कल्पना के राजकुमार की छवि कभी नामदेव में दिखाई पड़ी थी. वे ढसाल की कविताउनकी राजनीतिक छवि और साहसिकता की तारीफ भी करती हैंउन्हें समान वैचारिक स्तर पर बात करने वालाकविहृदयकलापारखी प्रेमी-पति मिला है जिसका कहना था मेरी कविता ही राजनीति है. शुरुआत के दिनों के बाद ढसाल अपने सामाजिक-राजनीतिक कार्यों मे उलझ जाते हैं. मल्लिका कवयित्री है लेकिन वे मात्र ‘पत्नी ‘होकर जीना नहीं चाहतीं. उन्हें अपनी पहचान भी चाहिए लेकिन घर मे पैसों की तंगी हैऔर मल्लिका के भीतर सुखी समृद्ध जीवन जीने की  लालसा “हमेशा की बीमारी के कारणकमजोरी के कारणलालन-पालन और विपुल वाचन के कारण मैं एकाकीपन और मनस्वीपन के भावुक आवरण में उलझ गयीआज तक अपने आप को उससे अलग नहीं कर पायी. (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’,पृष्ठ 3) 

अपनी कैशोर्य कल्पना के विषय मे वह लिखती हैं– “मैंने अपने मन में राजकुमार का चित्र उकेरा था. मनमौजी ..कवि ,दीखने मे स्मार्ट ...सांवला ...उसकी चेष्टाओं में पौरुष हो...मर्दानगी हो”(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 26) 

युवा कल्पना के अनुसार मल्लिका की कल्पना का घर यों होता– “सौंदर्य-प्रसाधनसाड़ियाँबंगलापियानो किस तरफ होकाँच के दरवाजे, विशालविपुल रोशनी-खुली प्रसन्न हवालाइब्रेरी ...सामने छोटा-सा तालाब ...मछलियाँ ...लाल-पीली दौड़ती हुई ...खिड़की से दीखनेवाला मौलसिरी का पेड़ ...गुलमोहर ,रजनीगंधा के पौधे ...पीछे घना जंगल ,लाल पगडंडी (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 27) 

मल्लिका का मिज़ाज रोमेंटिक है वह जीवन को उसके पूरेपन मे जीना चाहती है उसका सपना है– “उबलती गरम चाय ...ठंडी बरसाती हवा ...बरसात का झोंका ...और हाथों मे कौमिक्स ... ओ  हो फिर क्या मानों ब्रहमस्वरूप के साक्षात्कार के आनंद मे खो जाती.मेरी वह चरम आनंद के सुख की कल्पना होती है.(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 06) ऐसा कवि मन लेकर मल्लिका प्रेम और गृहस्थी मे प्रवृत्त हुई है.

जल्दी ही पता चल जाता है कि नामदेव और मल्लिका दोनों विपरीत ध्रुवान्तों पर स्थित हैं जो आपस में  टकराते हैं,जूझते हैं और फिर अलग हो जाते हैं.उधर नामदेव ढसाल का सार्वजनिक,राजनैतिक जीवन बिखरता है और मल्लिका के स्वप्न यथार्थ से टकराते हैं.मल्लिका आत्मानुभवों को लिखती हैये अनुभव पढ़े जाने ज़रूरी हैं क्योंकि सार्वजनिक जीवन के चेहरों का वैयक्तिक स्वरूप कैसे अलग होता है या हो सकता है साथ ही किसी भी आंदोलनकर्ता के अपने अंतरविरोध हो सकते हैं जिससे व्यक्तिगत जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है, इसका  लेखा-जोखा पाठक को मिलता है. मल्लिका बार-बार जीवन को मुड़ कर देखती है.

स्त्री के लिखते ही  ‘निज ‘राजनैतिक ‘कैसे हो सकता है यह देखने के लिए इस आत्मकथा को पढ़ा जाना ज़रूरी है.जो स्त्री कभी कविता ,प्रेम और पुरुष को एक करके देखती थी वही नामदेव के पीने-पिलाने की आदत से आजिज़ आ चुकी हैअस्मिता और सांस्कृतिक एकता की राजनीति करने वाला व्यक्ति जब अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तो घर के भीतर के स्पेस मे वह स्त्री के लिए पीड़क साबित हो जाता हैफिर सबकुछ चाहे बच जाए प्रेम नहीं रहता. वह लिखती है कि कैसे बहुत सारा साम्यवादी साहित्यसोवियतलैंड मैगजीन के गट्ठर के गट्ठर वह बेच दिया करती थी कि घर का खर्च चल सके. 
“शुरुआत के दिनों मे हम निर्धन इसलिए थे कि जो भी धन था उसे हम दलित कार्यकर्ताओं पर खर्च कर दिया करते थे नामदेव की महंगी आदतों पर भीपर बाद के वर्षों में उसकी बीमारी और इलाज़ पर सारा पैसा खर्च होने लगा” 

मल्लिका ने नामदेव के इलाज़ का खर्च साधने के लिए अपनी माँ का घर भी बेच दियाआत्मकथा के अंग्रेज़ी अनुवाद से जो धन मिला वह भी नामदेव के इलाज़ में चला गयालेकिन नामदेव को बचाया नहीं जा सका. मुस्लिम पिताब्राह्मण माता की बेटी मल्लिका की जीवन यात्रा में अंतत: उसके हाथ कुछ नहीं लगता. स्त्री की स्पष्टवादिता और उस स्पष्टवादिता के खतरे, स्व की सीमा का अतिक्रमण करके ‘निज, का ‘पर’ में परिविस्तार और फिर समाज, इतिहास, वर्ग के संघातों से गुजरती हुई स्त्री जो एक ‘स्त्री’ मात्र नहीं रह जाती बल्कि लाखों-करोड़ों की आवाज बन जाती है. भिन्न समाज और भिन्न संस्कृति की रचनाकार देखे-अनदेखे सभ्य-असभ्य सामाजिकों की चेतना को अपने अनुभव के दायरे में कितनी सहजता घेर लेती हैं.



१९.

इन मुस्लिम स्त्रियॉं की आत्मकथाओं का परिविस्तार निज से लेकर समाज तक,परिवार से लेकर राजनीति तक फैला हुआ हैकहीं वे अभिव्यक्ति की नयी विधाओं की तलाश में सिर्फ आत्मकथा को मुकम्मल पाती हैंजबकि कुछ जो कविताग़ज़ल में अपनी बात ठीक उस तरह से नहीं कह सकींजिस ढंग से कहना चाहती थींवे आत्मकथा विधा को अपनाती हैं.

औपनिवेशिक अतीत और उत्तर औपनिवेशिक वर्तमान के इतिहास–लेखन के लिए ये आत्मकथाएं दस्तावेज़ बन सकती हैं. जहां प्रारम्भ में ये स्त्रियाँ अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैंसाक्षर बनने के लिएछपने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं वहीं नब्बे के दशक के बाद उनमें बदलाव को रेखांकित किया जा सकता हैअब वे शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैंदेश–विभाजनविस्थापन ने उन्हें अनुभव–परिपक्व बना दिया है इसलिए अब वे अपने गद्य में पात्रों को रचती हैं इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए॰ कहीं जीवन को, कहीं स्वयं को पात्र बनाती हैंउनकी कथाओं में पहले की अपेक्षा तटस्थतारूपबंध संबंधी प्रयोगकथानक के बेहतर रचाव के प्रयासों को रेखांकित किया जा सकता है. कहीं-कहीं कथा और आत्मकथा का अंतराल परस्पर संघनित होता दीखता हैपहले से कहीं ज़्यादा बोल्डनेस के साथ निज को खोलकर रख देने की कोशिश होती हैस्वयं को कटघरे में रखनाआत्म पर व्यंग्य करना उसी रणनीति का हिस्सा है जिससे पारिवारिक और सामाजिक सेंसरशिप की बेड़ियाँ टूटती हैं.

इसके साथ ही वैश्विक संदर्भ और घटनाएँ उसकी नज़र में हैंमसलन अदा ज़ाफरी भले ही निज को खोलकर अभिव्यक्त करने में हिचक जाती हों पर पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलनों पर पैनी नज़र रखती हैंयहीं नहीं पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में युद्ध के मसले को गंभीरता से उठाती हैंजिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना. इसी तरह किश्वर नाहीद अपनी कथा कहते हुए भी तीसरी दुनिया को परखती चलती हैंजिसके आलोक में स्वयं को, लैंगिक असमानता पर आधारित विकासशील समाज का प्रतिनिधि मानती हैं. यहीं पर वे स्थानीयता का अतिक्रमण करके वैश्विक नागरिकता की दिशा में कदम बढ़ाती हैं.
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भूपिंदरप्रीत की पन्द्रह कविताएँ (पंजाबी) : रुस्तम सिंह

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'कवि का काम शीशा साफ़ करना नहीं
धुँधले-से
आकार पैदा करना है'
भूपिंदरप्रीत (जन्म :1967) समकालीन पंजाबी कविता के परिदृश्य में महत्वपूर्ण और अग्रणी कवि माने जाते हैं, उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनकी कविताओं के अनुवाद आप पहले भी समालोचन में पढ़ चुके हैं. उनकी पन्द्रह नई कविताओं का हिंदी अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवि की मदद से किया है. 



भूपिंदरप्रीत की पन्द्रह कविताएँ (पंजाबी)                  
(पंजाबी से अनुवाद : कवि के साथ रुस्तम सिंह)
एक कोशिश धुआँ
जब मैं तुम्हारी बात कर रहा था
कारखाने की चिमनी से धुआँ उठ रहा था
चिमनी की तरह अन्दर से जली
तुम चुप थीं
ताप-घर के अँधेरे में झुलस रहा
कारीगर था मैं एक
सोचा
अगर मैंने धुएँ को देखना छोड़ दिया
तुम्हारा आकाश मुझसे
छूट जायेगा
पीछे बचेगा कारखाना
बात नहीं
ताप-घर में पिघलता
बात करता रहा
मैं तुमसे
धुएँ के आकाश में मिल जाने तक



ज़ीरो
अनिश्चित था
कि आओगी तुम
लाँघ कर मुझे अपने अन्दर से
और मिला दोगी
मेरे ही बंटे हुए भागों को आपस में
जो तकसीम हो रहे हैं
अपने ही बचे हुए भाग्य से
और वही हुआ
तुम नहीं आयीं
तुम्हारी जगह
खाली जगह आयी
जिसमें मैं सारे समीकरणों को
तुम्हारे समीकरणों से
मिलाते-मिलाते
एक हारा हुआ गणितज्ञ हो गया
और सोचने लगा
जहाँ से शुरू हुए थे
हमारी वो ज़ीरो कहाँ है





आ ही रहा हूँ

उस अनन्त खूबसूरती में
मैंने बाहें खोलीं
और रुके हुए समय के लिए रास्ता बना दिया
ज़ंग लगे पुल पर एक औरत धूम्रपान कर रही थी
पीठ पर लटका बच्चा
बहते पानी के ऊपर उड़ते धुएँ को देख खुश हो रहा था
पक्षी थे कि
घने वृक्षों से
तड़पकर निकलते
दुआओं की तरह
बददुआएँ थीं कि
मिट्टी में दबी
सिसक रही थीं
दम तोड़ रही थीं
मैंने अपनी बाहें खोलीं
और पागल सूर्य से कहा-
मेरी आत्मा के लिए आग का एक कोना बचा के रखना
आ ही रहा हूँ पास तुम्हारे
भटके समय को राह दिखाकर
हो ही जाना है ख़त्म उस औरत का धूम्रपान
कुछ ही देर में



तुझे पता है!
मुझे पता नहीं
मैं तुम नहीं
धरती पर डोलती तुम्हारी
परछाईं हूँ
और कहीं एक मृग है
चरना चाहता है जो
इस हरी परछाईं को
पर थक-हार सो जाता है नाभि में
मुझे पता है
मैं 'मैं'नहीं
एक मरीचिका हूँ
जो फिर से जन्म लेने के लिए
भटक रही है
तुम्हारी योनि की तलाश में
और रास्ते में आ जाता है बार-बार
ख़ुदा
तुझे पता है !



सब कुछ
सब कुछ वैसे ही है
जैसे न होने के लिए हुआ ही जा रहा हो सब
जैसे किताब अपना पन्ना
आप न पलट सके
जैसे कोई नियति के बाहर
न निकल सके
सब
टहनियां इस कदर टेढ़ी और रूखी हैं
जैसे किसी कहानी का अन्त न मिल रहा हो
फसलें इतनी लहरा रही हैं
जैसे उन्हें काटने वाला ही न रहा हो
धरती पर
सब
जैसे सुना तो वही जाता है
समझा भी वही
लिखा भी वही
पर कविता नहीं बनती
शब्द की आंत में ज़हरीला मादा होता है
और असन्तुलन में भटकते शब्द
एक बेज़ार हुए कवि को ढूँढते
वैसे के वैसे ही पड़े रहते हैं
ता-उम्र
सब कुछ



अभाव
कुछ खास नहीं था वहाँ
घास पर ख़ामोशी से ओस की बूँदें सूख रही थीं
पीले टूटे तिनकों पर
हरी छाया
तेज़ धार से बनते पानी के घुँघराले सफ़ेद बाल
मेरी कार के धुँधले शीशे पर गिरा
हंसनी का सफ़ेद पंख
और रोशनी में मर रहा
अन्धा जुगनू
कुछ खास नहीं था वहाँ
अपना ही अभाव था
रंजिश में खड़े लोहे के जँगाले पुल-सा
नीचे जिसके
नुकीले पत्थर पर
धूप में सुखा रहा था
फुंकार
एक चितकबरा सांप


नियति
धरती पर जलती आँख बन रही थी
सूर्य की
जब मैंने तुम्हें सूनी सड़क पर
अपनी ही
छाया ढूंढते देखा
चुप रहा
क्या कहता
अभी-अभी छूट के आया था
रात के सन्नाटे से
जिसकी शीतल चाँदनी में जम कर बर्फ़ हो गये थे
सारे शब्द
भटक गयी थी मेरी छाया

लोप होने के लिए जगह नहीं बची थी
आत्मा में
क्या कहता
बस देखता रहा तुमको
छाया ढूंढते
नियति है शायद सबकी



एकांत-शिविर
अपनी इस उम्र से आगे जाने के लिए
उम्र से पहले गिर गये
सफ़ेद बाल ढूंढ रहा हूँ
वो वस्तुएँ
जिनका भय था
कविता की काल-कोठरी में बस गयी हैं
मरी हुई स्मृतियाँ
कई बार
जीना सिखा देती हैं
मैं शब्दों की कब्रें खोद रहा हूँ
आनन्द
एक गुब्बारा
दुःख
लम्बा सफ़ेद धागा
पकड़कर जिसे एक बोधी बच्चा
पहाड़ की ढ़लान
उतर रहा है
और नहीं मिल रहा उसे
एकांत-शिविर



जाने दोगी न !
मुझसे बाहर जाने के लिए
एक आदमी तुमसे रास्ता माँग रहा है
तुम उसे नहीं जाने दोगी ना !
तुम जो सिर्फ़ मेरी हो
और उस आदमी के आगे खड़ी हो
मील-पत्थर की तरह
मुझे आज़ाद कर
नहीं जाने दोगी न !



आग का फूल
सिर्फ़ आधी लकड़ी जली थी
जब वह आयी
लपटों में एक चित्र बन रहा था
जिसका सम्बन्ध
कामना से ज़्यादा ईश्वर की चित्रकारी से था
राख में कोई जुगनू जल रहा था
मुझे लगा
मृत्यु एक शब्द है
जिसे तुम्हारी मौजूदगी में लिख रहा हूँ
दो इंच उठती लपट में
और खुश हो रहा हूँ
जैसे आसमान में आग का फूल
खिल गया हो



रेतघड़ी
समय ज़िद्दी है
पर डरता है मेरे कमरे में रखी तुम्हारी रेतघड़ी से
मैंने जब सोचा
तुम्हारी प्रतीक्षा को जज़्ब कर दूँ
कांच के खिलौने में
एक ऊँट कराहने लगा
रेगिस्तान में
पर नखलिस्तान नहीं
कविता में सिर्फ पानी की उदासी
होती है

यही सोच मैंने
जाते समय की पीठ पर तोड़ दी प्रतीक्षा
बचा ली रेत घड़ी
जीना इसे ही कहते हैं
क्या
ऊँट ऐसे ही करवट बदलता ?


चालक
कोरे कागज़ पर समय को लिखता मैं
थोड़ा काल-रहित होता हूँ
एक शब्द मुझे विचारों से धकेलकर
ढ़लान से उतरती एक
बकरी के पास बिठा देता है
पर बेबस होता हूँ
सन्तुलन कैसे पैदा करूँ
शब्द, बकरी और भाषा की ढलान में

पर ऐसा कभी-कभी हो जाता है
जो मैं हूँ
शब्द उसकी शब्दकशी नहीं करते
बस उसकी केंचुल उतार रख देते हैं एक पत्थर पर सूखने
और मुझे सुझाव देते हैं
कि समय
किसी बूढ़े आलोचक के साईकल के टायरों में भरी हवा है
बात बूढ़े की करो
पर लिखो साईकल पर
और अन्त में जो बचे
वो वो हो जिसको
कैरियर ना कहा जा सके
इसीलिए मेरी बेबाक यात्रा की ब्रेक मेरे अचेत में है
मैं दृष्टि को
साईकल का कैरियर मानता हूँ
पागलपन को बच्चे की गद्दी
और जब चलता हूँ कविता में
तो लगता है
कोई अदृश्य आत्मा इसकी चालक है


छिपकली चुप क्यों रहती है
फन्दे की तरह
लटकती रह जाएगी यह
बरामदे की दूधिया रोशनी
तुम्हारी रीढ़ जितनी लम्बी तो है
ये ट्यूब
क्या मेरे अंतस जितना गहरा अँधेरा होगा इसमें?
छिपकली कुछ नहीं बताती
एकटक देखती रहती है
पतंगे की ओर



रोशनी के टुकड़े तड़प रहेहैं
जहाँ से निकलना था
मासूमियत ने
वहाँ से पशु के कराहने की
आवाज़ आ रही है
ताज़ा हड्डी पर नक्काश
आदमी के ज़िंदा होने की
नक्काशी कर रहा है
सुबह की रोशनी को काटती
पवन-चक्की
चल रही है
रोशनी के टुकड़े तडप रहे हैं
धरती पर
संस्कृति की दुर्गंध है या कि
किसी बौद्धिक ट्रेन के उलट जाने की चीख़ें
नाक पर हाथ रख
बन्द आँखों की कविता लिखता
गुज़रता हूँ मैं
कटे सिर वाली गाय की खुली आँखों के पास से



कविता की मौत निश्चित है
जब भी निराश होता हूँ
अपनी भाषा से
वह मेरी अमूर्त कविता के पास रुककर कहती है ---
हर सभ्यता
नग्न रेशों से बुनी जाती है
हर रेशा
नग्न इच्छा से
कवि का काम शीशा साफ़ करना नहीं
धुँधले-से
आकार पैदा करना है
क्या कभी तूने तस्सवुर किया है
मिट्टी में दफ़न देह को चींटियां कितने कोणों से
खाकर ख़त्म करती हैं?
शब्द भी ऐसे ही कर रहे हैं तुम्हारे साथ
बुद्धि पर
पागल जाल फेंकते रहो
चाकू मूर्त
धार अमूर्त
मरना है तो धार से मरो
चाकू को चाकू कहने से कविता की मौत निश्चित है.
_____

कवि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.
rustamsingh1@gmail.com 

लॉकडाउन के बाद : स्कन्द शुक्ल

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डॉ. स्कन्द शुक्ल (MBBS, MD, DM : Rheumatologist, Immunologist) हिंदी के पाठकों के सुपरिचित लेखक हैं. रोगों की जटिलता, बचाव और निदान को सृजनात्मक भाषा में जिस तरह से वो प्रस्तुत करते हैं, वह अप्रतिम तो है ही उनकी प्रसिद्धि का कारण भी है. कविता-कहानी के साथ-साथ उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हैं- 'परमारथ के कारने'और 'अधूरी औरत'

कोरोना काल में मनुष्य क़ैद है, उसकी सामाजिक जटिलता भले ही स्थगित हो मानसिक जटिलता बढ़ी है. चिकित्सक अगर लेखक भी हो तो वह इसे किस तरह देखता है और लिखता है ? स्कन्द शुक्ल ने इसे एक दिलचस्प पर कारुणिक आख्यान में बदल दिया है.
पढ़ते हैं.   





लॉकडाउन के बाद                   
स्कन्द शुक्ल.







लॉकडाउन के दौर में वह अपने कमरे में अकेला क़ैद नहीं था. उसके पास उसका शानदार नया एंड्रॉयड सेलफ़ोन था, जिसमें पौने आठ अरब इंसान थे. साथ ही बालकनी के कोने में एक तोता, जिसे उसने बड़ी मेहनत से थोड़ी-सी मानव-भाषा सिखायी थी. माँ-बाप दिल्ली में बहन के पास गये थे और वहीं रह गये, छोटा भाई मुम्बई में फँसा रहा. फ़्लैट के काम-धाम के लिए एक कामवाली आती थी, उसे भी इस माहौल में छुट्टी दे दी गयी थी. तो इस तरह से पाँचवीं मंज़िल के दो बीएचके के उस इलाक़े में कुल तीन जन थे : एक इंसान, दूसरी मशीन और तीसरा तोता.

तोता तो फिर तोता ही था. उसके लिए भला लॉकडाउन में क्या बदला था ! वह तो पहले से लॉकडाउन में रहता आया था. तीन साल से उसी पिंजरे में. लॉकडाउन के भीतर लॉकडाउन ! जब आप लॉकडाउन में होते हैं, तब आपको उसके बाहर का लॉकडाउन प्रभावित नहीं करता. आपकी स्वतन्त्रता का निकटतम दायरा एक बार बँध गया, सो बँध गया. उससे बाहरी बन्धनों के होने-न होने से भला क्या फ़र्क़ ! दूर की परतन्त्रताएँ केवल समाचार हुआ करती हैं, उनमें व्यवहार का कष्ट देने की क्षमता नहीं होती. वहीं मिर्ची-अमरूद-चावल खाओ, उसी में गिराओ. वहीं पानी पीना, वहीं मल-मूत्र छोड़ देना. सुविधाएँ यहीं दी जाएँगी, सफ़ाई कर दी जाएगी. जितने पंख फड़फड़ाने हों, इसी में फड़फड़ाइए. बोल सकते हैं आप, चीख भी सकते हैं. पर बाहर निकलने का ख्याल ! भूल जाइए !

आरम्भ के दिनों में उसने तोते के साथ औपचारिकता-मात्र निभायी. पिंजरे में भोजन रख दिया, पानी दे दिया. धूप आने पर स्वर सुनायी दिया, तो स्थान बदल दिया. किन्तु इससे अधिक कुछ नहीं. एक पक्षी से इंसान कितनी देर सम्पर्क में रह सकता है ! देखें तो और लोग क्या कर रहे हैं ! किस तरह से लॉकडाउन का लुत्फ़ उठा रहे हैं. कुछ तो एक्साइटिंग चल रहा होगा !

अँगूठा मोड़कर स्क्रीन पर रखते ही वह सेलफ़ोन में समूची मानव-प्रजाति से जुड़ जाता है. सभी मित्र, ढेर सारे रिश्तेदार. देश-विदेश के सेलिब्रिटी, अनेक अनजाने लोग भी. सबसे पहले वह सोशल मीडिया पर नयी डीपी डालता. नीचे किसी कवि का ध्यान खींचता दार्शनिक वाक्य लिखता. फिर लाइक आते, कमेंट भी. वह उनके उत्तर लिखता. मुस्कुराता. मन में सोचता. सुख के क्षण टप-टप-टप मन के गमले की सूखी मिट्टी को भिगो देते. कुछ घण्टों का काम हो गया.

तोते की चीखें गाहे-बगाहे कानों में पड़तीं, तो ख़लल जान पड़ता. कम्बख़्त चैन से न ख़ुद रहता है, न रहने देता है ! अरे,खिड़की पर टँगे हो ; सामने इतना ऊँचा-चौड़ा नीला आसमान है. उसे चुपचाप निहारो न ! अपना चुग्गा खाओ, पानी पियो, पंखों की वर्जिश करो और बाहर की दुनिया को चुपचाप देखते रहो ! काहे डिस्टर्ब करते हो ! मगर मुआ सुआ कहाँ सुधरने वाला !  उसी समय अधिक चीखें निकालता, जब वह फ़ेसबुक या ह्वाट्सऐप पर अपनी वार्ताओं में मशगूल रहता. गोया उसकी खुशी से कुढ़ रहा हो. कम्बख़्त परिन्दा ! इंसानी ज़बान के चार शब्द क्या सीख लिये, इंसानी व्यवहार भी प्रदर्शित करने लगा ! अरे अपनी परिन्दगी की जद में रह न !

लेकिन वह यह भूल रहा था कि जब जन्तु पालतू हो जाता है, तब वह अपनी प्रकृत पाशविकता से हटकर पालक मनुष्यता की ओर आने का प्रयास करता है. मनुष्यगत अच्छाइयाँ ही नहीं, बुराइयाँ भी सोखने लगता है. पला हुआ जानवर पूरी तरह जानवर नहीं रहता; वह मिश्रित गुणधर्म वाला हो जाता है. उसी तरह जिस तरह पालने वाला मनुष्य पूरी तरह मनुष्य नहीं रहता, वह पशुता की ओर धीरे-धीरे खिंचने लगता है. पशुता की बुराइयाँ ही नहीं, अच्छाइयाँ भी. पशु-मनुष्य-संसर्ग से दोनों में बहुत-कुछ अदला-बदली करता है. एक-दूसरे से अनेक आचार व व्यवहार लिये जाते हैं. भाषा के मीठे बोलों से लेकर विषाणु तक !

असहजता से वह उठकर बैठ जाता है. दुनिया-भर में कोरोनावायरस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. मृत्यु-दर तीन-ही प्रतिशत के आसपास है, फिर क्यों इतने आकुल हो रहे हैं ? ज़्यादातर मरने वाले बीमार भी हैं और बुज़ुर्ग भी. ऐसे में स्वस्थ और युवा लोगों को इस तरह से क्यों घबराना ? वह फ़ेसबुक पर नसीहतें देता टाइप करता जाता है. चिल मारो यार ! अच्छा रोज़ कोई-न-कोई लाइव आकर कुछ-न-कुछ एक्साइटिंग करेगा ! ओके ? क्या मुर्दानी सूरतें बना रखी हैं ! अरे लॉकडाउन है  ! ऐसा मौक़ा फिर कभी मिलेगा ! एन्जॉय द चेंज !

आभासी प्रतिक्रियाओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गणितीय सत्यों की तरह प्रस्तुत होती हैं. पिछले क्षण इमोजी नहीं था, इस क्षण है. अभी पल-भर पहले ही लाइक ग़ायब था, अब आ गया है. सुबह तक प्रोफ़ाइल-पिक पर केवल चार-सौ लाइक थे, अब ढाई हज़ार हैं. सुख की नन्ही अफ़ीमी ... सॉरी ... डोपामीनी बूँदें गणित की संख्याओं की तरह मन के गमले में टपकायी जा रही हैं. एक-दो-तीन-चार-... तीस... सत्तर.. एक सौ चौदह.. तीन सौ नौ.. सात सौ इक्यासी... एक हज़ार दो सौ बारह ... .

अभी कल ही बिनमौसम पानी बरसा था. किन्तु इस वास्तविक बरसात में गणितीयता नहीं होती. बूँदों की संख्या इतनी अधिक होती है कि कोई उन्हें न गिन सकता है और न गिनना चाहता है. सब बस केवल दो ही चुनाव करते हैं. या तो भीगते हैं अथवा नहीं भीगते. पर सोशल मीडिया की स्नेहवर्षा इतनी तीव्र कभी नहीं होती कि वह गणित से अपना पीछा छुड़ा ले. बड़े-से-बड़े सेलिब्रिटी के सामने वह प्रसिद्धि के आँकड़े प्रस्तुत करती है. जहाँ आँकड़े हैं, वहाँ असुरक्षा है. जहाँ असुरक्षा है, वहाँ अकेलापन और अधिक है. आँकड़ों से असुरक्षा, असुरक्षा से अकेलापन. अकेलेपन से फिर आँकड़े. यही क्रम चलता जाता है.

वह कोरोनावायरस के आँकड़ों की टहनियों में किसी चमगादड़ की तरह उलझ जाता है. हॉर्स्शू-बैट जिसे इस महामारी के लिए ज़िम्मेदार माना जा रहा है. चेहरे पर घोड़े की नालनुमा संरचना जिससे वे उड़ते समय ध्वनियाँ निकालते हैं. जब वे टकराकर लौटती हैं,तब उन्हें सुनकर अपने-आप को हवा में बिना टकराये सन्तुलित रखते हैं. मनुष्य भी गज़ब प्राणी है !  बेचारे चमगादड़ के चेहरे पर घोड़े की नाल खोज लेता है ! फिर उसे अजीब-ओ-ग़रीब नाम दे डालता है !

दिन बदल रहे हैं : कुछ दिन तक वे नामों के खाँचों में बँटकर चलते हैं. तारीख़ें कुछ तिथियों तक संख्याओं की संज्ञाओं का सम्मान करती हैं. पर धीरे-धीरे ये दोनों संज्ञा-रहित और संख्या-रहित होते जाते हैं. वही रोज़ सूरज का निकलना और डूबना. वही रात का आना, फिर दिन में बदल जाना. वैसे ही चिड़ियों का बालकनी में चहचहाना, वैसे ही तोते का जब-तब बोलना या चीखना. इंटरनेट न हो, तब तो सचमुच समयबोध ही भूल जाए आदमी ! दैनिक जीवन की गणित घुलते ही वह फ़ोन में मौजूद गणित की ओर भागता है !

बाहर सब-कुछ अपरिमेय, भीतर सब-कुछ परिमेय ! न गिन पाना कितना एक-सा जान पड़ता है ! गिनने में कितनी नवीनताएँ मिलती हैं ! प्रकृति में वह बात कहाँ जो एंड्रॉयड के भीतर के संसार में है. अरे, किसी ने नयी डीपी लगायी है ! केवल ढाई-सौ लाइक ! भक्क !

कोरोनावायरस के आँकड़े दिन-दिन ऊँचे पायदान चढ़ रहे हैं. दुनिया-भर से मौतों की खबरें आ रही हैं. एंड्रॉयड में झलक रही हैं और वहाँ से उसकी आँखों से मन में उतर रही हैं. सुखदायी आँकड़ों के साथ दुखदायी आँकड़े भी. आज तो भारत में कुल मरीज़ पन्द्रह हज़ार से अभी अधिक हो गये ! उसकी सबसे अधिक चाही गयी तस्वीर पर आये लाइकों से भी कहीं ज़्यादा ! कहाँ रुकेगा यह वायरस जाकर ! ये निठल्ले वैज्ञानिक भी न जाने क्या कर रहे हैं ! टीका बना लेने में इतनी देर लगती है भला ! अरे पैसा बहाओ, रात-दिन जुटो, बना डालो ! ईज़ी !

वह मार्केटिंग-सेक्टर का आदमी रहा है. ठीक-ठाक सैलरी, पसन्द का काम. पर अब फ़ोन पर बिना तनख्वाह के काम करने को कहा जा रहा है. नौकरी रहेगी, पैसे नहीं मिलेंगे भाई- बॉस फ़ोन पर कहते हैं. आने वाला पूरा साल किल्लत का है. देखते हैं, कैसे मैनेज होता है ! बी प्रिपेयर्ड फ़ॉर टफ़ टाइम्स अहेड ! वह और बुझ जाता है. सामने कोरोनावायरस का बहु-शेयर्ड चित्र है. किसी गेंद से निकले ढेर सारे लम्बे काँटे. अरे ! कमरे में एक हू-ब-हू ऐसी ही गेंद टँगी है. शोपीस ! संसार की सबसे भयानक चीज़ें इतने सामान्य आकारों-आकृतियों की हो सकती हैं- वह सोचने लगता है. भयकारिता में भी ऐसी सामान्यता ! डर का इतना सहजरूपी होना !

वह अपने चेहरे को जब-तब शीशे में निहारने लगा है. पहले से कुछ वज़न गिरा है, चेहरा अब रोज़ शेव करना नहीं पड़ता. रूटीन के सारे काम अब बिना डेडलाइन के किये जाते हैं. लेकिन नौकरी पर लटकती तलवार ! वह तो जैसे हर दिन लम्बी होती जा रही है ! वह अपनी दोनों हथेलियों से चेहरे को टटोलता है. हॉर्सशू चेहरे पर ? नहीं पर वह चमगादड़ तो नहीं है ! रबिश!

पर विषाणु ने क्या दुनिया-भर को चमगादड़ों में नहीं बदल दिया ? अथवा इंसानी पहचानों के पीछे छिपी चमगादड़ी वास्तविकता को सामने नहीं रख दिया ? न जाने कितने ही लोगों के चेहरों पर ग़ुलामी के नालें गड़ी हैं, जो उन्हें इस महामारी से पहले दिखी नहीं थीं. वे उसी के सहारे परतन्त्र हुए उड़ते थे. बिना गिरे भरी गयी इन उड़ानों को ही वे अपना कौशल समझते हुए. जब-तब पकड़ लिये जाते थे, काट कर खा लिये जाते थे. महामारी का यह पैटर्न नया कहाँ है, यह तो पुराना है ! हम-सब हॉर्स्शू-बैट ही तो हैं ! कोरोनावायरस ने तो केवल हमारी पहचान को अधिक स्पष्ट ढंग से सामने रख दिया है !

उसका जी मिचला रहा है. लगता है उल्टी आएगी. गले में हल्की खराश भी है. हैं ! अरे ! पर वह बाहर तो कहीं गया नहीं ! अख़बार भी दो सप्ताह से बन्द है ! बस सब्ज़ी-दूध के लिए रोज़ एक-बार बिल्डिंग के नीचे उतरता है ! और कभी-कभार ऑर्डर ! केवल इतने से ! नहीं-नहीं ! इतना वहमी नहीं होना चाहिए !

सेलफ़ोन पर उसे जहाँ-तहाँ लॉकडाउन के प्रतिरोध की ख़बरें मिलती हैं. इडियट्स ! घरों में नहीं रह सकते ! चमगादड़ों की तरह यहाँ-वहाँ मँडरा रहे हैं ! देश के एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर सड़कों पर पैदल चलती मज़दूरों की भीड़. राशन के लिए दुकानों पर मारामारी. मुहल्लों में महामारी के लोगों की जाँच के लिए पहुँचे डॉक्टरों से मारपीट करते लोग. किसके चेहरे पर घोड़े की नाल नहीं गड़ी ? कौन ऐसी परिस्थितियों में स्वयं को पूरी तरह मनुष्य घोषित करने का दुस्साहस कर सकता है !

लगभग रोज़ ही उसकी मम्मी-पापा-बहन व उसके परिवार से बात होती रहती है.


“पापा आपको डायबिटीज़ है, उम्र भी साठ के ऊपर है. आपको बिल्कुल घर में ही रहना है. मम्मी को भी समझा दीजिएगा. मॉनिंगवॉक की अपनी आदत को इस समय ढील दीजिए ; कसरत के और भी तो तरीक़े हो सकते हैं न !” 


“अरे बेटा, लेकिन राशन व सामान के लिए तो बाहर निकलना ही होता है न ! दवा भी घर बैठे आने से रही !”

वे अपनी मजबूरी का हवाला देते हैं, वह चिढ़कर फ़ोन रख देता है. ये लोग कितने पिछड़े हुए हैं ! बिलकुल भी इंटरनेट-सैवी नहीं ! हद है !

लॉकडाउन ने इंटरनेट की दुनिया गुलज़ार कर रखी है. जो इंटरनेट जानते हैं, आराम से गुज़र-बसर कर ले रहे हैं. जो उससे खेल लेते हैं, वे और मज़े में हैं. लेकिन इस गुज़र-बसर-मज़े में भी वे गणितीयता से पिण्ड नहीं छुड़ा पाते. गणित सभी कम्प्यूटरीय रागों-द्वेषों का पैमाना है: इस गणिज्जाल के छिन्न-भिन्न होते ही वास्तविक संसार अपनी असहायता और असजता लिए सामने आ जाता है.

रोज़ उसे अपने चेहरे में चमगादड़ीय वृद्धि मिलती है. बाहर के जगत् को न देखने के कारण उसकी आँखें छोटी हो रही हैं. देर तक जग कर दफ्तर का काम करने के कारण शक्ल पर घोड़े की नाल और गहरा गयी है. कान सदा बॉस के ईमेल-एलर्ट पर धरे हैं; खाली समय पर वह सूचनाओं के अन्तर्जाल में भटकता उड़ा करता है. संसार क्या है, चीन की वह भीड़भाड़-भरी वेट मार्केट ही तो है, जहाँ क़िस्म-क़िस्म के जानवर दैहिक-मानसिक विष्ठाओं को साझे ढंग से त्यागते-भोगते अपने काटने की बारी की प्रतीक्षा करने के लिए अभिशप्त हैं. खच्च ! एक और गया किसी लोलुप के पेट में !

"हेलो मामा ! मेरी ऑनलाइन क्लासें चल रही हैं. बहुत पढ़ना पड़ता है आज-कल. मम्मी से पिटाई भी हो जाती है."

उसका नौ साल का भांजा फ़ोन पर बताता है. बचपन के लिए यह माहौल अजब चिड़चिड़ाहट लेकर आया है. बच्चों के विकास के लिए स्कूल व घर, दोनों की ज़रूरत है किन्तु एक-साथ नहीं. वे एक बार में एक ही परिवेश में पनप सकते हैं. अब जब स्कूल घर चला आया है और उनके बाहर घूमने-खेलने पर पाबन्दी लगी हुई है, तब उनकी तकलीफ़ तो बढ़नी ही है.

कभी-कभी वह सोकर उठता है तो ख़्याल आता है कि शायद यह-सब एक स्वप्न ही है. कोई विषाणु नहीं फैला है, कोई महामारी नहीं आयी है. लॉकडाउन केवल मन का भरम है, एक बुरा सपना जो बीत चुका है. तभी मोटरसायकिल के लोन की क़िस्त में कटने का मेसेज गूँज उठता है और पिछले एक महीने से जड़ बना एकांउट का आँकड़ा सामने है. सैलरी नहीं मिलेगी, लीव-विदआउट पे चलेगी ! वह खीझ उठता है बाहर उग आये सूरज पर ! फिर एक बार !

मानव क़ैद में है किन्तु प्रकृति उन्मुक्त महसूस कर रही है. लोग घरों में बन्द हैं, जानवर बाहर टहल रहे हैं. “मुम्बई के पास फ्लेमिंगो पक्षियों का मेला लगा है”, भाई कल ही फ़ोन पर बता रहा था. गंगा में डॉल्फ़िन तैर रही हैं, सागर-तटों पर कछुए अण्डे देने बड़ी तादाद में लौटे हैं. कुदरत के दीर्घकालिक घाव पूरे जा रहे हैं. कैसा मॉन्ट्रियल ? कौन-सा क्योतो ?  सारी योजनाएँ-परियोजनाएँ जो बनायी गयीं थीं. सभी नियमावलियाँ एवं मानक जो गढ़े गये थे, केवल छलने पर आमादा थे ? इंसान की नीयत ही नहीं थी कि पृथ्वी की सेहत सचमुच सुधरे, वह केवल एक कम बीमार ग्रह चाहता था जो उससे देखभाल की कम-से-कम फरियाद करे.

'न मरो, न मोटाओ'की कहावत उसके कानों में गूँजती है तो अपने एक मित्र की माँ याद आने लगती हैं. वह भी इसी शहर में है और सम्पर्क में भी. माँ को कई बीमारियाँ हैं, इलाज भी महँगा. ऐसे में वह पूरा इलाज नहीं कराता. सभी दवाइयाँ नहीं, सारी जाँचें नहीं. कहता है कि केवल उतना, जितने से अम्मा न मरें-न मोटाएँ. पृथ्वी और पार्थिव माँओं के प्रति लोगों का बर्ताव एक ही सिद्धान्त लिये है. न इनका जीवन हाय-मेन्टेन्स होना चाहिए, न बीमारी. सो इतने प्रयास ज़रूर करते रहो कि न बीमारी लायबिलिटी बने, न इलाज. बीच का रास्ता. न मरो-न मोटाओ. दुनिया तो इतने पर भी सन्तुष्टि से प्रशंसा करेगी ही कि कितना आदर्श पुत्र है ! बटोरो ब्राउनी !

उसे लगता है वह चिड़चिड़ा हो रहा है. उसकी गर्लफ्रेंड से जब भी फ़ोन पर बात होती है, आठ-या-दस वाक्यों के बाद दम तोड़ने लगती है. सरसता के लिए सामान्यता चाहिए, सामान्यता के लिए बाह्यता. जो बाहर नहीं जा पा रहा, वह कैसा सामान्य ? जो सामान्य नहीं , वह कैसे सरस हो ? रखो फ़ोन ! हाँ-हाँ , ईवन आय डोंट वॉन्ट टू टॉक टू यू ! हर समय कोरोना-कोरोना-कोरोना ! इस लड़की के पास और कोई रोमैंटिक बात जैसे है ही नहीं !


"समस्या पर ऊ डेरात नाय, बकी बतियात है",  माँ फ़ोन पर कहती हैं. "तुहँसे चर्चा न करै तौ केहसे करै ? जबसे ई बीमारी वाला बवाल भवा, यहर कब्भौ मिल्यो ?"

"कैसे मिलना हो माँ ! गया था एक दिन, पुलिस से डण्डे भी पड़े, मुर्गा भी बनना पड़ा ! वापस! फिर भी उसमें कोई सिम्पैथी नहीं !"वह किलसन के साथ कहता है. माँ उसके बदलते स्वभाव से चिन्तित हैं. ब्यवसाय और ब्यौहार जब दूनौं बीमार पडैं, तौ मनई पहिले आपन व्यवहार सम्भालै, भैया. ब्यौहार बचि गा, त ब्यवसाय लौटि आयी. पर जौ ब्यौहार नायँ बचा, तब ब्यवसाय पायौ जाय पर इंसान कस उबरी  ..."

"आप-लोग बहुत ओल्ड-स्कूल हैं माँ ! हमारे टाइम में व्यवहार उसी से होता है, जिसे व्यवसाय होता है किसी क़िस्म का. जो काम का, उसी से रिश्ते. बेकाम-नाकाम से हमारी पीढ़ी न जुड़ती है, न उन्हें जोड़ती है. सैलरी आये पहले तो ... न जाने यह कम्बख़्त वायरस कहाँ से आ गया!"

उसने अब-तक भय को अचानक ही जाना था. कोई भी घटना या वस्तु उसे तभी डराती है, जब वह अपने संग क्षण-भर में प्रकट होने का भाव लाती है. किन्तु पहली बार वह धीमेपन से डर रहा है, मानो कोई रसायन हो जो हाथों की रगों में धीरे-धीरे रिस रहा हो. हाथ ! अभी कितने दिन ही हुए जब उसने अपनी गर्लफ्रेंड के हथेली को सहलाते हुए किसी कवि की पंक्तियाँ टूट-फूट के संग सुनायी थीं ... उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैं सोच रहा था.... कि इस दुनिया को तुम्हारे. ... हाथ की तरह सुन्दर और गर्म होना चाहिए. वह सुख से चौंक उठी थी , "वाओ ! कितनी सुन्दर लाइनें ! कहाँ से टीपीं ?"देर तक वह सर्जना का दावा करता रहा था किन्तु जब उसने मानने से बार-बार इनकार दिया, तब सच किसी अधपचे भोजन की तरह मुँह से बाहर आ गिरा. "कोई केदारनाथ सिंह हैं. हिन्दी के कवि."

आज-कल उसे अपने हाथ ठण्डे महसूस होते. ऋतु के प्रभाव के कारण नहीं, यह महीना तो अप्रैल का है. यह गिरता तापमान अकेलेपन का है. समाजहीन व्यक्ति की ठण्डक का कोई सानी नहीं --- न कोई ऋतु, न कोई ऊँचाई. सर्वाधिक अकेला आदमी मरने के बाद होता है, लेकिन जब वह मृत्यु से बचने के उपाय करता है, तभी से यह मारक जाड़ा उसकी हड्डियों में घुसने लगता है. दुनिया उसकी गर्लफ्रेंड का हाथ कभी थी, आज नहीं है. आज तो हाथ दुनिया की तरह ठण्डे और मृतप्राय हैं, उनपर मास्कों के कफ़न डाल दिये गये हैं.

पिताजी उसे प्राणयाम की सलाह देते हैं. मेडिटेशन इस समय घर-बैठे उपचार है, जब बीमारी से ज़्यादा उसका ख़ौफ़ तुम्हें सताता हो. ह्वाट रबिश पापा ! ये-सब बाबा-वाबा टाइप काम करना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाना है. शिकारी को न देखने से क्या उसका ख़तरा कम हो जाता है ! नहीं डैड ! देखता हूँ कुछ !

सूचनाओं की क्रान्ति चारों ओर से आँकड़ों के कौर से खिला रही है. घर का राशन चाहे ख़त्म होने लगे, सूचनाएँ ख़त्म नहीं हो रहीं. वैज्ञानिक तथ्य, राजनीतिक घोषणाएँ, वायदे, भविष्यवाणियाँ --- सभी का दौर जारी है. विषाणु हवा में कितनी देर सक्रिय रहता है, सीवर में कितनी देर. कैसे मनुष्य-मनुष्य में फैलता है , किस तरह से आदमी की साँसें थकते-थकते धीरे-धीरे हार मानती जाती हैं. ज्योतिषी हैं कि उच्च के सूर्य से आशा लगाये हैं, महाशक्ति के राष्ट्रपति गठिया-रोग की किसी अज्ञात दवाई से. कोई गरमी से वायरस के हारने की बात कर रहा है, कोई गर्म पानी पीकर उसे छू कर रहा है,  तो कोई टीके की बेचैन ताक में है. सारे टोने-टोटके, भस्म-भभूत, असिद्ध-अपुष्ट उपाय उसके एंड्रॉयड फ़ोन पर लगातार चमक रहे हैं.

बीतते दिनों के साथ उसमें ढेरों जन्म हुए हैं, अनेक मौतें भी. उसके भीतर का मनुष्य क्षीण हो रहा है, चमगादड़ नित्य फड़फड़ा रहा है. जीवन की डोर पर वह उलटा लटका है अपने सूचना-फल को कुतरता हुआ. सारी दुनिया का उलटा बोध पाता हुआ. क्या विचित्र जीव ! फल जो सीधे उगता है, उसे चमगादड़ उलटा खाता है ! लेकिन फिर सीधी सूचनाओं को उलटे बिना खाया भी तो नहीं जा सकता न ! चमगादड़ होने का अभिशाप है यह !

यूट्यूब पर वह कोई गाना सुने ? या फिर किसी साहित्यकार की कविताओं में डूब जाए ? फ़िल्म-तारिकाओं के सुन्दर चित्र स्क्रॉल करे ? या फिर दाढ़ी बढ़ाने का, गंजे होने का, खाना बनाने का, कसरत करने का, नाचने का या डीपी बदलने का चैलेन्ज ख़ुद को और अपनी फ़ेसबुक-लिस्ट को दे डाले ! नहीं-नहीं-नहीं ! इन-सब से सूचनाओं के फल उगना बन्द नहीं होंगे ! फल उगेंगे तो चमगादड़ खाएगा ही ! इस काम के लिए वह पहले उलट कर थिरेगा ! सूचना का विपरीत सेवन ! यह रुकने वाला नहीं !

वह भूखा है, खाने के सामान के लिए नीचे जा सकता है. ऑर्डर दे सकता है, मँगा सकता है.  नीचे सब्ज़ी-दूध-फल लेने वह उतरता है, तब मास्क और ग्लव्स चढ़ाकर. ऊपर आकर उन्हें सावधानी से उतारता है. उन्हें धूप में डालता है. फिर हाथ-मुँह धोता है. भूख अपने लिए भोजन चाहती है, अकेलापन साहचर्य. नाक और मुँह इस वैषाण्विक दौर के नवीन गुप्तांग हैं : इन्हें यथासम्भव गुह्य-गोपन रखकर ही मनुष्य को बरतना है. अन्यथा संक्रामक अश्लीलता मनुष्य के जीवन को संकट में डाल सकती है. यह स्पर्श के संकट का दौर है , जिसमें स्पर्श-संवेदनशील पर सर्वाधिक पहरा है. होठ और उँगलियाँ परिधानों की परतन्त्र हैं, उनकी स्वच्छन्दता दण्डनीय. साहचर्य के लिए मौजूद सभी पौने आठ बिलियन साथी एंड्रॉयड में रहा करते हैं : वह उसमें बार-बार बदहवासी-भरी आवाजाही करता है.

पिछली तीन रातों से उसे नींद नहीं आ रही. सेलफ़ोन स्क्रॉल करते-करते उसी में गिर जाता है ; पता ही नहीं चलता कि जाग रहा है अथवा नींद में है. तभी चिच्चियाने की आवाज़ से लगता है कि बालकनी में कोई मौजूद है. वह उठता है और उधर की ओर बढ़ता है. पिंजरे में बन्द चमगादड़ फड़फड़ा रहा है. काली देह, पैनी नन्ही आंखें. कभी वह पिंजरे में उलटा लटक कर सन्तुलन बनाने लगता है, तो कभी धप्प से नीच गिर पड़ता है. वहीं अधत्यागा मल पड़ा है, वहीं अधखाया फल. न जाने इसकी क़ैद की अन्तिम गति क्या होगी !

पिंजरे के पहुँच कर वह ठिठक जाता है. चमगादड़ ने टकरा-टकरा कर अन्ततः पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया है. एक झटके में वह उसकी उँगली से आकर चिपक जाता है ! नहीं ! किन्तु ग्लव्स-चढ़े हाथों पर उसके नन्हे नुकीले दाँत महसूस नहीं होते. वह झटकता है और काले मांस का वह छोटा सा लोथड़ा खिड़की से बाहर उड़ जाता है.

उसे लगता है वह संक्रमित हो गया है. लेकिन चमगादड़ के काटने से तो यह रोग फैलता नहीं न ! वह तेज़ी से रबड़ के दस्तानों को हटाकर अपनी उँगलियों को देखता-टटोलता है. कोई ज़ख्म नहीं, न खून की कोई बूँद. मास्क के नीचे उसकी साँसें उखड़ती जान पड़ती हैं, धड़कन बिना रुके दौड़ रही हैं. क्या पता ! जितना ये वैज्ञानिक बताते हैं, सत्य उतना ही थोड़े है ! नीचे गिरे दस्तानों को वह उठाता है, रबर के आकार को टटोलता-झाड़ता है. एक सफ़ेद स्टिकर उसके भीतर चिपका पड़ा है, जिसमें तीन शब्द लिखे हैं : लीव विदाउट पे !

वह चौंक कर उठ बैठता है : रात नहीं दोपहर है. पूरा शरीर काँप रहा है, लगता है बुखार है. पानी ? नहीं, आज वह रखना भूल गया. दुबारा उँगलियों को टटोलता है, चेहरे को भी. सब कुछ तो सामान्य है, क्या नहीं है. प्यास लगी है, वह अपने पैरों को जबरन फ़र्श पर टिकाता है. वे काँप रहे हैं, जिस्म का वज़न नहीं ले रहे. वह भारी क़दमों के साथ आगे बढ़ता है. फ्रिज खोलता है, वहीं से झुककर बालकनी की ओर देखता है. तोता वहीं अपने बदन को निश्चल किये बैठा है. उसे सन्देह होता है, वह पानी की बोतल निकालकर उसकी ओर बढ़ता है. परिन्दे का बदन अपने पंख हल्के से खोल कर सन्तुलन बनाता है. एक निश्चिन्तता-भरी गहरी साँस भीतर आती है और उसके सिकुड़े फेफड़े खोल जाती है.

पिंजड़े एकदम साफ-सुथरा है. परिन्दा भी हरा-भरा. वह अपनी उँगली उसकी ओर बढ़ाता है, जैसे लॉकडाउन के पहले अक्सर लाड़ में बढ़ाया करता था. तोता उसकी तर्जनी पर अपनी चोंच का पैनापन धर देता है. कोई गड़न नहीं, न कोई चुभन. मनुष्य को पिछले इक्कीस दिनों में मिला यह पहला जीवन-स्पर्श है.


उसकी आँखों में कृतज्ञता तैर रही है. लॉकडाउनों में क़ैद दो जीवन आपस में संवाद-रत हैं. यह स्थिति लम्बी चल सकती है. शायद अगले महीने भी. उसके बाद भी स्थिति सामान्य शायद न हो सके. सामान्यताएँ जितनी आसानी से जाती हैं, उतनी आसानी से लौटतीं नहीं. उन्हें उपजाने व पनपाने में बहुत समय और बड़ी कोशिशें लगती हैं. वह बालकनी से नीचे झाँकता है, तो नज़रें फ़र्श पर गड़ी लाल टाइलों से टकराती हैं. काफ़ी ऊँचाई है ! वह अपनी उँगली खींच लेता है और पिंजरे का दरवाज़ा खोल देता है. पीछे हटता है और तोते की गतिविधि देखता है.

परिन्दा सावधानी से इधर-उधर-ऊपर-नीचे गर्दन मटकता बाहर निकलता है. आहिस्ता से उचक कर बालकनी के किनारे जा बैठता है. लड़खड़ाता है, फिर सन्तुलन बनाता है. अबकी वह उड़ता है और छज्जे पर जा बैठता है. वहाँ बैठकर पंख फड़फड़ाता है और अबकी बार सामने के पेड़ पर. लगता है पक्षी का लॉकडाउन बीत चुका है. उसके मन में एक चैन की साँस चलने लगती है कि तभी अगले पल कानों में चीख गूँज जाती है. हरे पंखदार जिस्म को बाहर मैदान में कुत्ते नोच रहे हैं.

उसके पैर उसका भार छोड़ देते हैं  वह ज़मीन पर आ धपकता है. तेज़ चलती साँसें सिसकियों में बदलती हैं, सिसकियाँ फफकियों में. अबकी बार वह रुकता नहीं है.
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वैधानिक गल्प: वैधानिक गल्प: एक इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट : सत्यम श्रीवास्तव

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कथाकार चंदन पाण्डेय का उपन्यास वैधानिक गल्पचर्चा में है. कृति जब अपने समय को छूती है और उसका एक तरह से प्रतिपक्ष रचती है, उसका पूरक बनती है तब वह उस समय का जरूरी आख्यान तो बनती ही है भविष्य में भी जिंदा रहती है. कालजयी होने के लिए काल में धसना जरूरी होता है.

सत्यम श्रीवास्तव अच्छा लिख रहें हैं उनके लिखे में ताजगी है. 
यह समीक्षा देखिये आप.





वैधानिक गल्प: एक इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट              
सत्यम श्रीवास्तव





न्दन पाण्डेय फेसबुक के जरिये मेरे मित्र हैं. उनसे कभी मुलाक़ात नहीं है,बात भी कभी हुई नहीं. मेरे पास उनका फोन नंबर भी नहीं है. लेकिन इससे क्या?मैं एक पाठक के तौर पर उनके लेखन का बड़ा मुरीद हूँ. उनकी कहानियों से परिचय काफी पुराना है. भूलनाउनकी ऐसी कहानी है जिसे कभी भूला नहीं जा सकता. और रिवाल्वरतो जैसे दिमाग का दही बना देती है. नसों को झकझोर देने वाली संवेगी कहानी है. क्या तो कहानीपन है और क्या भाषा. क्या प्रवाह,क्या दृश्य रचने की काबिलीयत. चन्दन आज के कहानीकार हैं. वो किस्सा-गो नहीं है. उनकी कहानियाँ पढ़े जाने में  ज़्यादा तीव्र एहसास देती हैं  

बहरहाल इन लंबी कहानियाओं के अलावा उनकी जो महारत है वो है फेसबुक पर की गयी छोटी-छोटी टिप्पणियाँ जो फेसबुक पर व्हाट इस इन यूअर माइंडके जवाब में फेसबुक यूजर्स लिखते हैं. इसमें शब्द सीमित रखने की अनिवार्यता होती है अन्यथा पोस्ट का बैक ग्राउंड बदल जाता है और सिमप्ल टेक्स्टबन जाता है जो अन्य यूजर्स का ध्यान अपनी तरफ खींच नहीं पाता.  अक्सर लोग इस ट्रिक का पालन करते हैं और अपनी बात सीमित शब्दों में कहने की कोशिश करते हैं.

मुझे याद है चन्दन ने एक बहुत संक्षिप्त सी स्टेटस टिप्पणी की थी कुछ समय पहले. उन्हें यह पढ़ कर याद आ जाएगी. टिप्पणी थी –

“इस देश में कहानी तो पुलिस लिखना जानती है या कहानी तो पुलिस ही लिखती है”.

इस टिप्पणी का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया है क्योंकि उनका जो छोटा सा (आकार में ही) उपन्यास आया है वो दरअसल इसी टिप्पणी का विस्तार है. जी हाँ!  मेरा पूरा यकीन है कि वैधानिक गल्पचन्दन ने कम बल्कि देश कि पुलिस ने ज़्यादा लिखा है. चन्दन ने पुलिस की तरह सोचा है. जैसे देश की पुलिस चन्दन से एक एफआईआर लिखवा रही हो और चन्दन लिखते जा रहे हों. इस्वेस्टिगेशन के दौरान चन्दन पुलिस के साथ- साथ चल रहे हों और ड्यूटी खत्म हो जाने के बाद जैसे वो वापिस चन्दन बनाकर अपनी मित्र के पति की तलाश में जुट जा रहे हों.

चन्दन को यह तरीका खोजने में थोड़ा वक़्त ज़रूर लगा होगा लेकिन जब एक बार पुलिस की कार्यशैली को पूरी तरह आत्मसात कर लिया तो बस बैठ गए ड्राफ्ट तैयार करने. बीच में खुद भी प्रकट होते रहे चन्दन बनकर. परिहास के लिए यह कहा जा सकता है कि चन्दन को यह गल्प मुकम्मल करने के लिए पुलिस को भी शुक्रिया कहना चाहिए. ज़्यादा उदारता दिखाते हुए उसे सह-लेखक का दर्जा भी दिया जा सकता था. हालांकि उन्होंने पुलिस के एक बहादुर सिपाही को गल्प समर्पित किया है लेकिन दूसरे कारणों से और शायद इसी से पता चलता है कि चन्दन असल में पुलिस की किस छवि को देखना चाहते हैं.

मेरा मानना है कि चन्दन ने उपन्यास के शीर्षक में ही पुलिस को सह–लेखक बना लिया है. आखिर पुलिस की गढ़ी हर कहानी वैधही तो होती है. यह उपन्यास नहीं बल्कि एक वैधानिक गल्पहै. गल्प का हिस्सा दोनों का है. वैधानिकता दिलाने का काम पुलिस का है.

यह दरअसल एक इंवेस्टिगेशन रिपोर्टहै. जिसमें लेखक भी एक सक्रिय भूमिका निभा रहा है. हालांकि वह अनामंत्रित है,झेंपा हुआ है,सजग है,प्रेम और दोस्ती को ऊंचा दर्जा देता है,कमज़ोर तो नहीं है लेकिन अपने अतीत को लेकर थोड़ा संकोची है और इस वजह से उतना साहसी नहीं है जितना साहस का काम वो कर रहा है. वह इंवेस्टिगेशन का हिस्सा तो है ही,इसकी रिपोर्ट लिखने का काम भी उसे ही मिला है. जिसे वह अवचेतन में ही सही भरपूर ईमानदारी से लिखने की कोशिश करता है. जो भी ब्यौरे मिल रहे हैं उनमें काँट-छांट नहीं करता है बल्कि अपनी जातीय ज़िंदगी के हिस्से जोड़ता चलता है. यह अलग तरह की इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट है और शायद इतनी ज़रूरी रिपोर्टों की आधिकारिक और वैधानिक भाषा ऐसी ही होनी चाहिए ताकि घटना से पहले,घटना के दौरान और घटना के बाद के सारे ब्यौरे बिना किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के ज्यों के त्यों दर्ज़ हो जाएँ और न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि जिसमें गवाही केवल घटना के समय मौजूद या नजदीकी से जुड़े लोगों की ही न हो बल्कि उन सभी की हो जो दूर-दूर तक इस घटना में किसी न किसी रूप में संपृक्त हों. इस रिपोर्ट को न्यायालय में जिरह से पहले सार्वजनिक कर दिया जाये और आधिकारिक या वैधानिक अदालत के साथ मुक़द्दमा पाठको की अदालत में भी चले. 

आह क्या तो व्यवस्था होगी?जहां समाज और सहृदय फैसले से पहले रिपोर्ट पढ़ें,खुद से उस घटना का संबंध जोड़ें,खुद को भी कटघरे में खड़ा भी करें और न्याय का अंतिम पन्ना लिखें. आखिरकार कोई घटना समाज में ही घटित होती है और समाज हम सबका है. हम सब किसी न किसी रूप में उस घटना में प्रत्यक्ष  या परोक्ष रूप से शामिल हैं. ज़रूरत पढ़े तो उस घटना के लिए खुद को सज़ा दें,दूसरे को भी उसकी गलतियाँ बताएं और उसे अगली ऐसी घटना को अंजाम देने से रोकें. यह न्याय-व्यवस्था का जनतांत्रिक स्वरूप होगा और सब एक दूसरे के लिए जिम्मेदार होंगे. सज़ा यहाँ सुधार का रूप लेगी और यह 140 परिवारों की पुश्तैनी जागीर नहीं रह जाएगी जो न्याय-व्यवस्था को संचालित करेगी और तब शायद मी लार्डभी किसी पान की गुमटी पर टहलते नज़र आ जाएँ और अपने ही खिलाफ लगे गंभीर आरोपों की जांच खुद न करें बल्कि समाज को भी सौंप दें. तसब्बुर है.  ख्याल ही सही लेकिन इन ख्यालों की उर्वर ज़मीन चन्दन पाण्डेय ने वैधानिक गल्पके माध्यम से हमें दे दी है.

वैधानिक गल्पहमारे अभी और बिलकुल अभी के वर्तमान और विशेष रूप से राजनैतिक वर्तमान को समझने की सबसे ज़रूरी कुंजी है. गल्प का नितांत शाब्दिक अर्थ है – मिथ्या प्रलाप,शेख़ी,डींग और आपसदारी में प्रयुक्त होने वाला शब्द –गप्प. इन गप्पों को,मिथ्या प्रलापों को,शेखियों और डींगों को समाज में प्राय: महत्वहीन ही नहीं बल्कि बुराई के तौर पर देखा जाता है. लेकिन जब इनका कर्ताकोई ऐसे पद या ओहदे पर हो जो किसी तरह विधि सम्मतहो. तब यही गप्पें,मिथ्या प्रलाप,शेखियाँ,और डींगे विधि का बलप्राप्त कर लेती हैं. हालांकि गप्पें,या डींगे या शेखियाँ यह बनी रहती हैं पर वह वैधानिक हो जाती हैं. यह जो बल है या आधार है जिससे इन बे सिर–पैर की बातों को सब मान्यता दे देते हैं यह कई तरह से प्राप्त हो सकता है. परियार में एक विधान या विधि काम कर सकती है,समाज में कुछ अलग विधि-विधान काम कर कर सकते हैं और आज के आधुनिक राष्ट्र–राज्य में कोई अन्य और सर्वोपरि विधान काम कर रहा होता है जैसे –संविधान. अलग अलग विधानों की मान्यताओं के आधार पर अलग अलग ओहदे के लोगों को अलग अलग तरह से गल्प रचने की सहूलियतें देश –समाज को मिली हुई हैं.

चन्दन ने इन अलग अलग वैधानिक स्रोतों की गहरी पड़ताल अपने उपन्यास में की है. काबिले-गौर बात यह है कि ये सारी पड़तालें मूल कथा और उसके अभिन्न ब्यौरों में ही मौजूद हैं. इन सत्ता–संरचनाओं के तमाम प्रचलित रूपों को लेकर कोई सामाजिक–राजनैतिक चिंतन करने की मुद्रा में वह नहीं आते बल्कि पाठक के समक्ष वह स्वत: अनावृत होते जाते हैं.

मूलत: अंतर-धार्मिक प्रेम संबंधों को केंद्र में रखकर जिस तरह आज के हिन्दूवादी बर्चस्व और उसे मिले राजनैतिक, कानूनी,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समर्थन की बहुआयामी परतें इस कहानी में खुलती हैं उससे सत्ता का डरावना कॉकटेल बनता है. एक तरह का प्रायोजित नेक्सस जो थोड़ी ही उर्वर ज़मीन में तेज़ी से अपनी जड़ें जमा लेता है.

लव-जिहाद जैसे पद-युग्म के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे गोमा में किस तरह ज़मीन तैयार है इसका बहुत स्वाभाविक चित्रण हुआ है. गोमा जो गोरखपुर से लगा हुआ है. इस पद-युग्म की तीक्ष्णता का ठीक अनुभव शायद मुंबई या दिली जैसे महानगर में अभी भी उस सहजता से न होता. यह संभाव है क्योंकि लव-जिहाद अपराध की एक नयी केटेगरी बनाई चुकी है. इस शब्द का ज़िक्र भारत की दंड संहिता में नहीं है. आधिकारिक रूप से इस तरह की घटना को यानी दो बालिग स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम को जिनमें पुरुष मुसलमान हो और स्त्री हिन्दू हो उसे देश का कानून अपराध नहीं मानता. देश के संविधान में यह उनकी चयन की स्वतन्त्रता है. और यह मौलिक अधिकार है जिसे कोई सरकार नहीं छीन नहीं सकती. लेकिन पिछले डेढ़ दशकों में यह एक अपराध मान लिया गया है.

असल में इस कथा में जो सबसे प्रोमिनेंट अंतर्धारा है वह लव-जिहादहै जो किसी एक साम्प्रादायिक–राजनैतिक गिरोह के दिमाग की उपज है,जिसे तमाम प्रचार माध्यमों से देश के कोने- कोने में फैलाया गया और पहले से सांप्रदायिक आधार पर गढ़ेगए समाज ने आत्मसात किया है. कानून के तथाकथित पहरेदारों ने अपने सांप्रदायिक रुझानों के आधार पर इसे अपराध में बदल डालने की देशव्यापी कार्यवाहियाँ कीं,मीडिया ने इसे पुख्तगी दी और अंतत: एक शैतानी विद्वेषपूर्ण कल्पना ने प्रेम जैसे पवित्र भाव और व्यक्ति (यों) की संविधान प्रदत्त अधिकारों के सहज इस्तेमाल को घनघोर ढंग से सांप्रदायिक अपराध में तबदील कर डाला. क्या यह हमारे समय की वो सबसे बड़ी गल्पनहीं है जिसे वैधानिकबना दिया गया है?

खुद देश का गृह मंत्रालय,सर्वोच अदालत,सैकड़ों उत्पीड़ित युवा इस बात से इंकार करते हैं कि दो अलग-अलग मज़हबों के वयस्क युवाओं के बीच अगर प्रेम का सोता फूट ही जाता है और वह परवान चढ़ ही जाता है तो इसमें कोई आपराधिक साजिश या मज़हबी षड़यंत्र नहीं है. लेकिन यह न केवल एक सोची-समझी मजहबी साजिश बना दी जाती है बल्कि पुलिस की कहानियों में यह गंभीर आपराधिक घटना की तरह कानूनी जामे के साथ पेश की जाती है.  

कोई ऐसी घटना कैसे आपराधिक बनती है और छोटे छोटे कस्बों में इसकी यान्त्रिकी क्या है और कैसे वर्गीय,धार्मिक,राजनैतिक और व्यापारिक हित काम करते हैं इसका बहुत शानदार चित्रण चन्दन ने अनसुईया के मित्र होने के नाते तो नहीं लेकिन दिल्ली से किसी रसूखदर मित्र द्वारा कुछ तिकड़म लगाकर पुलिस के आला अफसर के मार्फत उन्हीं के यहाँ एक पार्टी में शामिल होकर किया है. यह वह जमावड़ा है जहां सब अपने अपने स्वार्थ लिए शामिल होते हैं और सभी के स्वार्थ साधने के लिए एक ही कार्यवाही का मसौदा तैयार होता है और सभी इस कार्यवाही को अंजाम देने के लिए अपनी अपनी हैसियत और कैफियत से अपनी अपनी भूमिका तैयार कर लेते हैं और फिर अगले रोज़ से उस पर अम्मल बजावणी शुरू हो जाती है.

जिन पाठकों ने उपन्यास पढ़ा है और यह दृश्य याद है उन्हें हालांकि यह लगेगा कि ऐसी कोई योजना बनते हुए उस पार्टी में दिखाया तो नहीं गया. सच भी है. ऐसा कहा ही नहीं गया. न तो संवादों में और न ही लेखक के द्वारा. यहाँ हमें यह याद रखना होगा कि यही चन्दन पाण्डेय की खासियत है. वो कई मौकों पर शब्दों को लेकर इतने मितव्ययी हो जाते हैं कि उस दृश्य विशेष को ही मुखर होना पड़ता है. वह दृश्य खुद ही संवाद बन जाता है. आप चाहें तो एकालाप कह लें. जहां लोग बातें कर रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं. कई लोग एक साथ अलग- अलग बातें कर रहे हैं लेकिन आप उस पूरे दृश्य को समग्रता में आत्मलाप करते सुन रहे हैं. आपको वही सुनाई दे रहा होता है जो चन्दन वहाँ चल रहीं बातों और अन्य कार्यवाहियों/गतिविधियों से नहीं बल्कि उन सबों की एक जगह हुई मौजूदगी को ही दिखाकर कहना चाहते हैं. यहाँ आपको उपन्यास की मूल कथा और विशेष रूप से शीर्षक से अपना ध्यान नहीं हटाना है.

मुख्य बात है कि कुछ रचा जा रहा है और जो आपराधिक है. लेकिन उसे वैधानिक बनाया जा रहा है. अपराधों को वैधानिक बनाना ही आज की सबसे राजनीति और तमाम संस्थाओं का मुख्य पेशा हो गया है.

रफ़ीक़ और अनसुईया की ये कहानी ऐसे बहुत सपाट सी एक कहानी है जिसमें रफ़ीक़ का मुसलमान होना,लेकिन प्रगतिशील मूल्यों और विचारधारा के साथ सामाजिक जीवन में राजनैतिक सक्रियता से रंगमंच करना. युवाओं को बेहतर समाज बनाने के अपने सपनों में शामिल करना. एक अनाम से कॉलेज में आजीविका के लिए पढ़ाने का पेशा अपनाना. अपने मूल गाँव से दूर आकार यहाँ रहना बसना लेकिन समाज परिवर्तन की क्रांतिकारी गतिविधियों में खुद को संलग्न रखना. युवाओं की एक बढ़िया टीम खड़ी करना और जिसमें अनसुईया को जीवन की धुरी बनाए रखना. नाटक टीम में अन्य लड़कियों का भी काम करना. फिर एक के बाद एक तमाम घटनाएँ घटने जाना और उनके बीच कई बार कोई ठोस अंतरसंबंध ने दिखलाई पड़ना लेकिन अनिवार्य रूप से मौजूद होना. और जिसमें यह लेखक,एक लेखक के ही रूप में आभ्यांतरिक रूप से घटनाओं को एक लड़ी में पिरोने का काम करता है अंतत: कुछ ठोस पकड़ भेल लेता हो पर रफ़ीक़ का निश्चित तौर पर पता नहीं लगा पाना...रहस्य,रोमांच और सर्द उदासी,निराशा और साज़िशों को समझती,उससे जूझती घटनाओं के बीच लेखक को वह व्यक्ति भी मिलता है जिसे इस उपन्यास के माध्यम से सम्मान दिया गया है.

कहानी पूरी नहीं है. उतनी ही है जीतने से यह व्यवस्था और उसके वैधानिक स्रोत चिन्हित और बेनकाब किए जा सकें. सुखांत तो नहीं ही है,लेकिन दुखांत भी नहीं कहा जाएगा. कहानी बता कर पाठकों का रोमांच खत्म नहीं करना चाहिए. इसलिए ये ज़हमत तो पाठकों को उठाना ही चाहिए. और यह उपन्यास 140 पन्नों में आपको पढ़ने का आनंद देगा और जो वास्तव में उपन्यास पढ़ने का प्राथमिक और अनिवार्य उद्देश्य होता है या होना चाहिए और यह शास्त्रानुमोदित भी है.

अंत में यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि एक लेखक के तौर पर और एक पात्र के रूप में मौजूद लेखक के तौर पर भी खुद को कैसे असंपृक्त और लगभग निर्वैयक्तिक रखा जा सकता है यह वो विशिष्टता है जो इधर के लेखकों में बमुश्किल मिलती है. एकोमोडेटिव होना और होकर जीना और लिखना भी शायद इसे ही कहते हैं.

भाषा में प्रवाह है,रोमांच है और असर भी है लेकिन कई बार उसके तन्तु टूटते नज़र आते हैं. घटनाओं का पेस बहुत तेज़ हो जाता है और भाषा का प्रवाह कई बार उनके लिहाज से थोड़ा कनसुरहो जाता है. इसे कांट्रास्ट भी कह सकते हैं लेकिन मुझे थोड़ा बेहतर की गुंजाइश संभव लगती है.

संकेत खूब हैं,ब्यौरे भी खूब हैं. कई बार लगता है कि चन्दन इसे ब्यौरे से कह देंगे और पात्रों के आने की ज़रूरत ही नहीं पढ़ेगी. शुरुआत में जब वो गोमा का चित्रण करते हैं तो थोड़ी देर के लिए ऊब होती है लेकिन जब इंवेस्टिगेटिव एप्रोच लेते हैं मध्य के बाद तब लगता है कि इन ब्यौरों के बिना यह कहानी इस ट्रैक पर चल ही नहीं पाती. याद रखे जाने लायक प्रसंग और दृश्य तो हैं पर संवाद बहुत नहीं हैं.


बहरहाल,एक शानदार उपन्यास के लिए चन्दन को बहुत बहुत बधाई. युवा लेखकों के सरोकार केवल भाषा और स्टाइल में नवाचार ही नहीं हैं बल्कि गंभीर संरचनात्मक और राजनैतिक चिंताएँ उनके कथानक हैं,यह बहुत तसल्ली देता है और प्रेरणा भी.
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सत्यम श्रीवास्तव पिछले १५ सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम करते हैं. प्राकृतिक संसाधनों और गवर्नेंस के मुद्दों पर गहरी रुचि है. मूलत: साहित्य के छात्र रहे हैं. दिल्ली में रहते हैं और 'श्रुतिऑर्गनाइजेशन से जुड़े हैं.

मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं : गरिमा श्रीवास्तव

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मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं
चुप्पियाँ और दरारें                                                        
गरिमा श्रीवास्तव



हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले



जो औरतें बेहयाई का काम करें, तुम्हारी बीबियों में से, सो तुम लोग उन औरतों पर चार आदमी अपने से गवाह कर लो. अगर वो गवाही दे दें, तो तुम उनको घरों के अंदर क़ैद रखो. यहाँ तक कि मौत उनका खात्मा न कर दे या अल्लाह उनके लिए कोई और रास्ता निकाल दे."
(कुरान, आयत 15 )

और जो औरतें जवानी की हद से उतार कर बैठ चुकी हों, अगर वे अपनी चादरें रख दें तो उन्हें कोई गुनाह नहीं. अलबत्ता उनका इरादा साज-सिंगार का नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर फिर भी वे लज्जा-संकोच से चादरें डालती रहें, तो उनके हक़ में बेहतर है. अल्लाह तो सब कुछ सुनता और जानता है."
(24,सूरह नूर, आयत 60)

"अपने घरों में शराफ़त से रहो, बनाव-सिंगार जो अज्ञानता के जमाने में लोगों को दिखने के लिए होता था, उसे छोड़ दो, नमाज़ को क़ायम रखो. ज़कात अदा करती रहो और अल्लाह और उसके रसूल का हुक़्म मानती रहो."
(33, सूरह अहजाब, आयत 33)




१.

१५ वीं शताब्दी के आटोमन साम्राज्य की तुर्की कवयित्री मिहरी हातून की आत्माभिव्यन्जक कविताओं को प्रारम्भिक दौर की आत्माभिव्यंजना के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. आधुनिक काल आते आते मुस्लिम स्त्रियॉं ने आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा-विधा को अपनाया  जिनमें पर्दा प्रथा का दबाव, परनिर्भर होने की पीड़ा, प्रेम की अभिव्यक्ति के खतरे और पितृसत्ता और धर्म-कानून  की जकड़ से निकलने की छटपटाहट प्रमुख है. अधिकांश स्त्रियाँ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की कवायद, शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में आनेवाली कठिनाईयां, बहुपत्नीत्व प्रथा, यौन-शिक्षा का अभाव, यौनिकता की अभिव्यक्ति जैसे विषयों को कथ्यों के केंद्र में रखती हैं.

परिवार के पुरुषों के विषय में बहुत खुल कर कुछ कहने से बचने को भी उनकी रचनात्मक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. मुस्लिम स्त्रियाँ चाहे यूरोप में हों या एशिया में पर्दा-प्रथा पर ज़रूर बात करती हैं-हालाँकि यह बात उन सभी सामजिक समूहों पर लागू होती है जिनमें पर्दा प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है. यह भी देखने की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की आत्मकथाओं में सेंसरशिप के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं. कहीं तो अपने लिखे के न छप पाने का डर, कहीं लिखने की सुविधा छिन जाने का भय  और कहीं पाठकों को अपने बारे में बताने का अवसर खो जाने का अंदेशा इतना गहरा रहा है कि मध्यवर्ग से सम्बंधित स्त्रियाँ अपना अन्तरंग खोलने का रिस्क नहीं ले पायीं.,जिन्होंने यह चुनौती उठाई उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि उन्हें यह भय हमेशा से था कि हो सकता है कि पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनके लिखे हुए को समाजविरोधी मानकर अस्वीकृत कर दे. भविष्य में भी उन्हें पाठक मिलते रहें और वे धर्मगुरुओं द्वारा निन्दित भी न हों इसके लिए ये ज़रूरी था कि वे जीवन के सामान्य कार्यव्यापारों चर्चा करें. निजी बातों और सामाजिक-पारिवारिक दायरों को तोड़कर, सामाजिक-रीतिरिवाजों के विरुद्ध जाने का साहस उठाना उनके लिए बहुत जोखिम भरा था इसलिए बहुत दूर तक वे आत्मकथाकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा पातीं.

दूसरी ओर इस्लाम और समाजसुधारकों द्वारा तय स्त्री की आदर्श छवि जिसे मौलाना थानवी जैसों ने ‘बहिश्ती जेवर’ जैसी किताबें लिखकर लोकप्रिय कर दिया था, उस छवि को बनाये रखना भी इन लेखिकाओं के  सामने एक बड़ी चुनौती रही और जहां  स्त्रियों को शारीरिक तौर पर पर्दे के बाहर निकलने की छूट भी मिली तब भी उन्होंने अपने अन्तरंग को छुपाने के रास्ते ढूंढही लिए,आत्मकथात्मक प्रदर्शन के लिए उन्होंने नाटकीय भंगिमाएं अख्तियार कर लीं और इससे उनकी आवाजें परदे के भीतर ही रह गयीं और साथ ही उनकी यौनिकता भी. मुस्लिम स्त्रियों के आत्मकथ्यों पर विचार करते हुए हमें दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के साम्प्रदायिक संघर्षों की पृष्ठभूमि को भी  देखने-समझने की दृष्टि मिलती है. चारू गुप्ता ने यह दर्ज किया है कि हिन्दूत्व के प्रचारकों ने ‘हिन्दू स्त्रियों को  मुसलमान पुरुषों से अलग रखने आपसी दूरी बनाये रखने की मुहीम चलाई ताकि वे स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण कर सकें साथ ही अपनी सांप्रदायिक पहचान को भी पुख्ता कर सकें, उन्हें यह समझा दिया गया कि स्वस्थ, बलिष्ठ मुसलमान पुरुष उनके लिए खतरा हैं‘
(सेक्सुअलिटी, ओब्सेनिटी, कम्युनिटी: वीमेन, मुस्लिम्स एंड थे हिन्दू पब्लिक इन कोलोनियल इंडिया,चारू गुप्ता,परमानेंट ब्लैक 2000:268)

दूसरी ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान मुस्लिम समाजसुधारक भी अपने समुदाय की स्त्रियों को ‘सुरक्षित’रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. मुस्लिम स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण करने के लिए परदे को और ज़रूरी बताया जाने लगा, धर्मग्रंथों और हदीस का हवाला देकर परदे को मर्यादा से जोड़ा गया और हिन्दू स्त्रियों को गैर-पर्देदारी से रहने वाला बताया गया. मुस्लिम स्त्रियाँ, जो थोडा बहुत भी पढ़-लिख गयी थीं उन्हें इस बात का अंदाज़ा था हो गया था कि परदे की हद से बाहर एक विशाल और खुली दुनिया है, लेकिन परदे को तोड़ने और यौनिकता के मुद्दे पर खुलकर बोलने का साहस बहुत कम स्त्रियों के पास था. अभिजात्य समुदाय की स्त्रियाँ जिनमें से कई भोपाल और रामपुर जैसी रियासतों से सम्बद्ध थीं, उन्हें सच बोलने के खतरे कम थे. सत्ता और धन के बल पर वे प्रखर निंदा का शिकार होने से बच जाया करती थीं, साथ ही आभिजात ने उन्हें रसोईघर, बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारियों से एक सीमा तक मुक्त रखा, इतना समय भी मुहय्या करवाया कि स्त्रियाँ आपस में खुलकर बोलें और लिखकर भी अपने आपको अभिव्यक्त कर सकें.

मुस्लिम रियासतें, मसलन भोपाल जहाँ स्त्रियों के शासन की परंपरा रही वहां उन्होंने पर्देदारी के साथ  बाहर की दुनिया से संपर्क बनाये रखा.स्कूल,कालेजों, क्लबों में उनका आना-जाना रहा करता जहाँ स्त्री-यौनिकता के मसलों पर अपेक्षाकृत खुली चर्चा की संभावनाएं थीं. सेक्स सम्बन्धी शिक्षा का अभाव पूरे समाज में था. विशेष रूप से मुस्लिम समाज जहाँ खानदान के भीतर भी वैवाहिक सम्बन्ध होते थे वहां भी घर में प्रेम, सेक्स जैसे विषय वर्जित थे. ज़्यादातर बच्चियां अक्षर ज्ञान, कुरान पढ़ने तक ही सीमित थीं. माहवारी होते ही लड़कियों से स्कूल छुड़वा दिया जाता था. सेक्स या यौनिकता के मुद्दे टैबू की तरह थे, जिनका प्रभाव इन स्त्रियों के लेखन पर भी पड़ा. उनके लेखन में वास्तविक पाठक वर्ग की जगह एक काल्पनिक पाठक वर्ग हावी था. समाज सुधार आंदोलनों और आंदोलनों ने स्त्री-शिक्षा के पक्ष में माहौल तैयार किया जिसने आत्मकथा लेखन को गति प्रदान की. ये बात भी गौरतलब है कि आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त होने के बावज़ूद इन स्त्रियों ने अपने अन्तरंग जीवन के बारे में बहुत कम या नहीं लिखा. फिर भी मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लिखी अपनी कथाएं, स्मृतियाँ जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पंजाब से बंगाल, रामपुर से हैदराबाद, पाकिस्तान, बांग्लादेश तक के लगभग डेढ़-दो सौ वर्षों के अंतराल में बिखरी हुई हैं, उनके वैविध्य और वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है. ये देखना ज़रूरी है कि वे धर्म, परंपरा, परदेदारी और यौनिकता के मुद्दों पर क्या सोचती हैं साथ ही इसके लिए उनके विधागत चुनाव क्या हैं.

साथ ही कैसे औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक सामाजिक इतिहास की धारा के भीतर स्वयं को कहाँ और कैसे ‘प्लेस ‘करती हैं॰ अपने आत्म  को आवृत्त  रख कर कल्पना के ताने-बाने  बुन-चुन कर कविता कहानी, उपन्यास लिखना और बात है और आत्मकथ्य लिखकर पूरी दुनिया का सामना करने के लिए जो साहस चाहिए, वह इनमें है कि नहीं साथ ही सामाजिक इकाइयों से टकराने और सच को सच की तरह कहने का जज़्बा कितना है, उनकी चुप्पियों के क्या अर्थ हैं और उनका पाठ हम कैसे करते हैं. सेंसरशिप के दबाव और तनाव कैसे हैं और इन दबावों और तनावों का सामना करने के लिए मुस्लिम औरतें किन औजारों का इस्तेमाल करती हैं. कई ऐसी स्त्रियाँ हैं जो आत्मकथ्य में निजी सवालों से बचकर निकाल गईं हैं, जिससे पाठक को साफ समझ में आ जाता है कि वह निजी और पारिवारिक सेंसरशिप के दबाव में है, उनके  आत्मकथ्य का सम्यक विश्लेषण व्यावहारिक जीवन, उसके मन के कोने-अंतरे, दरारें, चोट और पीड़ाएं, नस्ल और रंगभेद, यौन अस्मिता, शोषण के विविध आयामी पक्ष, उसकी मनोसामाजिक, लैंगिक भेद और स्त्री अस्मिता के साथ, स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए अपनाई गई भाषा-भंमिमाएं, विविध मुद्राएं, प्रतिरोध के औजार, समर्पण और विवशता के कारणों की पड़ताल करना हम ज़रूरी समझते हैं. इन आत्मकथाओं पर हम निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत सोच सकते हैं -


(क) इन आत्मकथाओं का पाठक वर्ग कौन-सा है.
(ख) क्या आत्मकथाकार स्वयं को किसी विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधि मान कर लिख रही है.
(ग) उसने ने किस सीमा तक कल्पना और नाटकीयता का सहारा लिया है.
(घ) ‘टेक्स्ट’ में रचनाकार की जीवन यात्रा की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है-उसका लेखन और अस्मिता से क्या संबंध है.
(ङ) आत्मकथा में ‘मैं’ या ‘तुम’ को महत्व कितना और किस सीमा तक दिया गया है.
(च) अतीत की ‘मैं’ और वर्तमान की ‘मैं’-जो आत्मकथा में व्यक्त है-उन दोनों का अन्तः संबंध क्या है?
(छ) आत्मकथ्य में क्या कुछ प्रयोग किए गए हैं? यदि ‘हां’ तो इन प्रयोगों की प्रकृति क्या है?
(ज) रचना में संस्कृति, दर्शन और आत्म के सामाजिक संदर्भ की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है?
(झ) आत्मकथा लेखन का उद्देश्य क्या है?
(त) स्त्री यौनिकता जैसे मुद्दों पर वह कितनी और किस सीमा तक मुखर है?
(थ) वह सेंसरशिप से  किस तरह टकराती है.





२.

स्त्री वक्तव्यों के संदर्भ में यह माना जाता है कि सामाजिक अभ्यास अपनी पूरी तात्कालिकता और संपूर्णता के साथ एक उत्तेजक अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं, और स्त्री का अनुभव सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं रह जाता, वह सामाजिक संस्था के अनुभव में रूपांतरित होकर सार्वभौमिक हो जाता है. कही और अनकही स्त्री अनुभव कथाएं इसी प्रक्रिया में निजी से राजनीतिक हो जाती हैं, इसलिए स्त्री की अभिव्यक्ति को राजनीति से संबद्ध करके भी देखा जाता है.

स्त्रीवादी विमर्शकार अनुभव की अभिव्यक्ति पर बराबर बल देते हैं. गायत्री चक्रवती स्पीवॉक का कहना है- ‘Make visible the assignment of subject Positions’ वस्तुतः स्त्री के जीवन और अनुभव के विषय में लिखने के चार ढंग हैं:

पहला तो यह कि स्त्री स्वयं अपने बारे में कहे- इसके लिए वह ‘फिक्शन’ या चाहे तो आत्मकथा का सहारा ले सकती है.

दूसरा ढंग यह है कि पुरुष या स्त्री दूसरी के जीवन और अनुभवों के बारे में लिखे.

तीसरा तरीका यह है कि अब तक जिए जा चुके जीवन से प्राप्त अनुभव और आने वाले जीवन के बारे में पूर्वानुमान करके स्त्री लिखे. विदुषी और प्रतिभाशाली स्त्रियां अनजाने में ही अपनी भविष्य कथाएं लिख जाती हैं.

चौथा ढंग, जिस हाल के वर्षों में स्त्रियों ने अपनाया है, वह यह कि स्त्रियां अपने अतीत के बारे में ज्यादा ‘बोल्ड’ और ईमानदार तरीके से लिखकर, सत्ता और राजनीति की नियंत्रणकारी ताकतों से टकराएं, चूंकि शक्ति और सत्ता को हमेशा से स्त्रियों के लिए वर्जित माना गया या यों कहें कि इतिहास में कभी भी, स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचान गया.


पितृसत्तात्मक शक्तियों ने स्त्री को हमेशा यही समझाया कि यह उसके लिए ‘वर्जित क्षेत्र’ है. साथ ही यह भी, कि वे स्वयं समाज-नियंत्रक नहीं बनना चाहतीं उन्हें हमेशा अभिव्यक्ति से रोका गया; टेक्स्ट’ कथानक, उदाहरण का अंग बनाने से बचा गया क्योंकि भय था कि इसके द्वारा कहीं वे सत्ता अधिग्रहण न कर लें, अपने जीवन के निर्णय स्वयं न लेने लगे.’ समकालीन स्त्री विमर्शकारों ने आलोचकों द्वारा स्त्रीवाद की उपेक्षा के प्रश्न को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि स्त्रियों के अनुभवों की अभिव्यक्ति ज्यादा बेहतर और पारदर्शी होती है.

स्त्री को बोलना अपने-आप में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करता है. डेनिस रिले का मानना है कि यद्यपि स्त्री अधिकारों की लड़काई उसे राजनीति की ओर ले जाती है, लेकिन ‘स्त्रीवाद’ कभी भी अनुभवों की अपरिहार्यता समाप्त नहीं कर सकता. समाज में, जो हमें दिखाई देता है, वही सच नहीं होता. मसलन हम विभिन्न सामाजिक अस्मिताओं के संदर्भ में स्त्री अस्मिता को देखें. स्त्री अभिव्यक्ति ‘अस्मिता’ को पाने की ही कोशिश है, यह अस्मिता विभिन्न अस्मिताओं के पारम्परिक संघनन की प्रक्रिया से गुजरती है, उनकी जटिल संरचना के भीतर से अन्य अस्मिताओं को पीछे कर अपनी संपूर्ण ताकत के साथ उभरती है, किसी-किसी समाज और दौर में दबा भी दी जाती है, कहीं-कहीं उपेक्षा और प्रतिरोध झेलती है.

इस प्रक्रिया में कोई अस्मिता अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती है.इस नजरिये से देखने पर मुस्लिम आत्मकथाकारों मे पर्याप्त वैविध्य दीखता है कहीं तो वे निजी जीवन को यौनिकता से ही जोड़कर देखती हैं और समूचा आत्मकथ्य उनकी यौनिकता के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कुछ  पति या प्रेमी के साथ संबंधों की पुनर्व्याख्या करने को प्रगतिशीलता से जोड़कर देखती हैं, जिसके उदाहरणस्वरूप  तैयबजी वंश की स्त्रियों के आत्मकथ्य देखे जा सकते हैं. वहीं सुल्तान जहां  बेगम जैसी भी लिखती रहीं जिन्होंने अन्तरंग संबंधों को परदे के भीतर ढके रहने में ही भलाई समझी,पर्दे और बुर्के के पक्ष में दलीलें दीं.

कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक अनुभवों को साझा करने के लिए आत्मकथा विधा अपनाई.कई औरतें ऐसी भी रहीं जिन्होंने बतौर स्त्री झेला तो बहुत कुछ, पर खुलकर कभी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं, उनपर तरह -तरह की सेंसरशिप के दबाव रहे.कुछ ने उर्दू, बांग्ला,और  क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा तो कुछ ने भाषिक माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाया क्योंकि उन्हें लगा कि देशी भाषाओँ में अन्तरंग प्रसंग  और यौनिकता के मुद्दों पर लिखना सरल नहीं होगा और साथ ही वे वैश्विक पाठक वर्ग से वंचित भी रह जाएँगी. उर्दू में पहली गद्य लेखिका के तौर पर बीबी अशरफ का ज़िक्र आता  है, जिन्होने  उनीसवीं सदी के मध्य में स्त्री शिक्षा के रास्ते मे आने वाली कठिनाईयों का ज़िक्र ‘हयात–ए अशरफ’ में किया. 
(बाद के शोध से यह साबित हो गया कि वास्तव में यह किताब बीबी अशरफ ने नहीं तहज़ीब–ए निस्वान’ में लगातार छपने वाली मुहम्मदी बेगम ने लिखी थी. यह रिसाला 1898से 1949के बीच छपता था जिसके संपादक सैयद मुमताज़ अली थे.सी॰एम॰ नईम ने हयात ए अशरफ को 1900 -1910के बीच प्रकाशित माना)

बीबी अशरफ के आत्मकथ्य ‘हयात–ए-अशरफ’ से स्पष्ट है कि लिखना–पढ़ना अभिजात्य स्त्रियॉं के लिए अपेक्षाकृत सहज था, नीचे तबकों और निर्धन स्त्रियॉं के लिए बहुत कठिन. बीबी अशरफ एक शरीफ़ घराने से सम्बद्ध थीं और विधवा होने के बाद आजीविका निर्वाह के लिए उन्होने शिक्षण को पेशा बनाया. शौहर के मरने के बाद इद्दत के दिनों में उसने जब अपने पढ़ने की इच्छा को उजागर किया तो वयस्क, अनुभवी स्त्रियॉं ने निंदा की लेकिन वह मानी नहीं-

'मैंने रसोईघर से जली लकड़ियों के टुकड़ेघड़े के ढक्कन और झाड़ू की तीलियों की मदद से घर की छत पर जाकर, आराम के घंटों मे लिखे हुए अक्षरों की नकल  करना शुरू कर दिया. मेरी पढ़ने–लिखने की इच्छा  ने मुझे अंधा कर दिया था. मैंने कागज़ पर कागज़ काले करना शुरू कर दिया,फिर भी मुझे समझ नहीं आता था कि मैं क्या लिख रही हूँ. मुझे इतनी समझ नहीं थी कि शिक्षक के अभाव में कोई पढ़ना-लिखना नहीं सीख सकता. मुझे लगता था कि जैसे अन्य कई गुण देखने और अनुकरण से सीख लिए जा सकते हैं ठीक वैसे ही पढ़ना भी आ जाता होगा. लेकिन इस तरह बहुत सारा समय गँवाने के बाद भी मुझे कुछ नहीं आया. मेरी पुकार अल्लाह ने सुनी और मुझे अध्यापक मिला.'
(सी॰एम॰ नईम,हाऊ बीबी अशरफ लर्ण्ट टु रीड एंड राइट :107-108एनुयल ऑफ उर्दू स्टडीज़ 6(1987) :107-108)


बीबी अशरफ ने पढ़–लिख कर अपने परिवार की परवरिश कीशिक्षा ग्रहण करने मे उन्होने चाहे जितनी कठिनाईयों का सामना किया हो ,इस्लाम के व्यावहारिक अनुशासन  को उन्होने कभी छोड़ा नहीं. शिक्षिका होकर भी पर्दे और बुर्के का नियमानुसार पालन करने के लिए अपने छात्रों के बीच उनकी तारीफ भी होती थी.




बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

भारत में, सन 1920के आसपास अभिजात्य घरानों की मुसलमान स्त्रियाँ अँग्रेजी पढ़ने की ओर उन्मुख हुईं (आएशा जलाल, द कनवेनिएन्स ऑफ सब सर्विएंस: वुमेन एंड द स्टेट ऑफ पाकिस्तान’- ‘वुमेनइस्लाम एंड स्टेट’ में संकलित ,पृष्ठ 77) शिक्षा के इस नए दौर ने पढ़ी–लिखी स्त्रियॉं का एक ऐसा वर्ग बनाया जिसमें मुहम्मदी बेगम, नज़र सज्जाद हैदर, अब्बासी बेगम जैसी स्त्रियॉं को देखा जा सकता है जिन्होने रिसालों मे लिखना और छपना शुरू कर दिया था.  इस्लाम में जीवनी और आत्मकथा लेखन की एक लम्बी परंपरा की परिधि पर जिस संस्मरण को देखा जा सकता है वह है आबिदा सुल्तान जो भोपाल की राजकुमारी थी.

दाम्पत्य और सेक्सुअल थीम पर इतनी सच्ची अभिव्यक्ति अपने आप में विरल है. जहाँ आत्मविश्लेषण और निज की अभिव्यक्ति आत्मकथाओं का अनिवार्य तत्व है वहां इस्लाम धर्म को मानने वाले विशेषकर स्त्रियाँ निज की अभिव्यक्ति के लिए जिन चुनौतियों को झेलती हैं वे मानीखेज़ हैं. आबिदा सुल्तान ने ‘मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस’ में अपने दाम्पत्य जीवन के बारे खुलकर लिखा. उनका विवाह बचपन के मित्र करवयी  के नवाब सरवर अली खान से हुआ था. विवाह की प्रथम रात के बारे में वे लिखती हैं – 
विवाह के तुरंत बाद मुझे दाम्पत्य जीवन का पहला आघात लगा. मुझे अंदाज़ा नहीं था कि प्रथम सहवास ही मुझे सन्न करने और डराने वाला होगा. इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी. सच तो यह था कि मुझे उस व्यक्ति से आघात मिला था जिससे मुझे इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी. हमारा पालन-पोषण धार्मिक और रुढ़िवादी पवित्र वातावरण में होने के कारण मेरे मन में वैवाहिक सम्बन्ध, विशेषकर सहवास के प्रति एक अपवित्रता का भाव था. लगता था यह कार्य अश्लील है. दाम्पत्य सेक्स के प्रति मेरी घृणास्पद प्रतिक्रिया पति को कुंठित कर देने वाली साबित हुई. वे जल्दी ही मेरे प्रति अपनी कड़वाहट और असंवेदनशीलता दिखाने लगे और वह सब करने लगे जो मुझे एक मनुष्य में सबसे ज्यादा नापसंद था. वे काहिल, आलसी और बदमिज़ाज हो गएघरेलू नौकरों के साथ जुआ खेलकर अपना बेकार-खाली समय बिताने लगे. जल्द ही हमारे शयनकक्ष अलग-अलग हो गए. कुछ ही अरसे में हमारा विवाह मात्र कागज़ी और सामाजिक दिखावे के लिए रह गया."
(मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस, आबिदा सुल्तान, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,कराची,2004:98)

इन्हीं आबिदा सुल्तान की दादी भोपाल की बेगम सुल्तानजहां की आत्मकथा तीन भागों में उर्दू और अँग्रेजी में प्रकाशित हुई जो औपनिवेशिक सत्ता, राष्ट्रवादी विचारधारा के उदय और सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों के समानान्तर और परस्पर एक दूसरे को काटती हुई धाराओं से टकराती दीखती है. उनकी पोती आबिदा सुल्तान उन्हें ‘सरकार अम्मान’ कहकर संबोधित करती है

वह पवित्रतापसी प्रवृत्ति की और उदारमना, मितव्ययी थी, भोपाल के हिन्दू, मुसलमान, जमींदार और किसान उसे पसंद करते थे, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह सत्ता में थी बल्कि इसलिए भी कि वह उनके लिए मातृस्वरूपा थी”
(भोपाल, आबिदा सुल्तान, मेमोयर्स ऑफ ए रिबेल प्रिंसेस, कराची: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, 2004:9).


सुल्तान जहां बेगम 1901- 1926के बीच भोपाल रियासत की सुल्तान रहीं, हाल के वर्षों मे इस बात पर गौर किया गया कि सुल्तान जहां जैसी स्त्री राजनीतिज्ञों की पूरे इतिहास में उपेक्षा की गयी, जबकि वे लगातार स्त्री सुधार कार्यक्रमों से जुड़ी रहीं उनके पर्दाइस्लामदांपत्य पर उनके विचार हमें जानने को मिलते हैं तो वो भी उनके शासन काल के खत्म होने के 75वर्षों के बाद. भोपाल रियासत में आधुनिक विचारों का प्रचलन उनकी उपलब्धि रही, उन्होने स्थानीय शासन और औपनिवेशिक सरकार के बीच सेतु का काम किया,’एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘(खंड 1,2,3) उर्दू में ये तीनों भाग 1910में आये, जिनका अंग्रेजी तर्ज़ुमा 1920में काफी लोकप्रिय हुआ और स्त्री सुधारों पर लिखी पुस्तक ‘अल हिजाब :आरव्हाय द पर्दा इज़ नेससेरी’ को साथ पढ़ा जाना चाहिए.

भोपाल में ब्रिटिश सरकार ने ट्रेन, स्कूल, संचार पर अच्छा धन खर्च किया था,सुल्तान जहां बेगम ने हुक्मरानों के साथ बहुत ही अच्छे संबंध रखे ,वे  ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की तारीफ करती हैं वहीं उन्हे इस बात का भी एहसास है कि ब्रिटिश सरकार कभी भी हमारी नस्ल की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरी तरह समझ नहीं सकती. लेकिन वे कहीं भी दावा नहीं करतीं कि वे आम पाठकों के लिए पुस्तक लिख रही हैं (भोपाल नवाब सुल्तान जहां बेगम ,एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘,खंड 1,अनुवाद सी॰एच॰पायने.लंदन :जे मूर्रे,1912)

(Sultan Jahan Begum.)
लेकिन उन्होने  जिस तरह से अपनी यात्राओं ,इस्लामिक रीति -रिवाजों ,शासन -नीतियों के बारे मे लिखा है उससे पता चलता है कि उनके संभावित पाठक विदेशी और गैर -इस्लामिक थे. वे उसका अँग्रेजी अनुवाद भी करवा रही थीं और इस तरह अपने आपको’ एजेंसी’ के रूप में स्थापित भी कर रही थीं ,आत्मकथा उनके लिए पश्चिम को भारत और इस्लाम के रीति रिवाजों की जानकारी देने का माध्यम थी .ब्रिटिश राज के प्रति उनकी वफ़ादारी का ज़िक्र बार -बार आत्मकथ्य में आया है,ऐसा इसलिए भी होगा कि स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका को ब्रिटिश राज ने स्वीकारा इस कृतज्ञता ज्ञापन के लिए वे आत्मकथ्य का सहारा लेती हैं.यह बात दूसरी है कि ब्रिटिश राज को सुल्तानजहां जैसे रियासतदार साम्राज्यवादी एजेंडे के अनुकूल लगते थे. वे आकाओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित करती हैं और इस तरह स्त्री शासिका होने के नाते अपनी एजेंसी को सुदृढ़ भी . लगातार पश्चिम के आलोक मे भारत को देखती है मसलन घरेलू जीवन के बारे में उनकी टिप्पणी है –“दांपत्य  जीवन का उद्देश्य है पति और पत्नी दोनों एक दूसरे को जीवन का आनंद दें ,लेकिन पश्चिम में यह अपवाद स्वरूप ही पाया जाता है जबकि भारत में यह सहज-स्वाभाविक है”सुल्तान जहां जिस आदर्श दांपत्य की बात कर रही हैं ,वह अपवाद ही है. परिवार की धुरी स्त्री को मानते हुए उनका स्वर आत्मकथ्य में उपदेशात्मक है ,उनका मानना है कि जिस औरत ने पश्चिमी चाल-चलन सीखा उसका घरेलू जीवन नष्ट हो गया .वे जिस आधुनिकता की बात करती हैं उसमें स्त्री की यौनेच्छा का कहीं ज़िक्र नहीं है उसमें स्त्री की भौतिक स्वतन्त्रता की बात है मानसिक स्वतन्त्रता की नहीं .वे ब्रिटिश राज की प्रशंसक हैं और भौतिक उपलब्धियों के संदर्भ मे पश्चिमी सभ्यता की तारीफ करती हैं .उनकी पोती आबिदा सुल्तान ने भी सुल्तान जहां द्वारा ब्रिटिश राज के निरंतर समर्थन किए जाने की तसदीक की.

‘अल हिजाब में उन्होने मुसलमान स्त्रियॉं को पर्दे और हिजाब मे रहने की नसीहत दी और नवजागरण के अन्य समाजसुधारकों से अपने-आपको पर्दे के मसले पर अलगाने की कोशिश कीसाथ ही पाश्चात्य सभ्यता की तुलना में वे इस्लामिक रीति-रिवाजों को प्रस्थापित किया. 

(शाहजहाँ बेगम )
यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं. आत्माभिव्यक्ति के लिए इन आभिजात्य स्त्रियों ने कई विधाएं अपनायीं. इनमें से शाहजहाँ बेगम (1838-1901) ने स्त्रियों को आचरण सिखाने के लिए ‘तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इंसान (1889) लिखी जिसमें स्त्री यौनिकता को महत्त्व देते हुए सेक्स में स्त्री की इच्छा की संतुष्टि की पक्षधरता करने के क्रम में स्वयं की नजीर पेश की. शाहजहाँ बेगम ने लिखा कि उनके पहले पति मुहम्मद खान उम्र में काफी बड़े थे इसलिए शाहजहाँ बेगम को युवावस्था में दुःख और गम ही मिले उनके शब्दों में ‘रंज ओ गम’ मिले .पति की मृत्यु के बाद उनके निजी सचिव सिद्दीक हसन खान से उन्होंने 1871में पुनर्विवाह किया तब उन्हें यौनतृप्ति और सुखी जीवन का अनुभव हुआ.इन प्रसंगों की चर्चा बेगम ने अपनी पुस्तक में  विस्तार से की,जिसका ‘टेक्स्ट’ अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वे स्त्रियों को सलाह देती हैं कि-‘संतानोत्पत्ति और गर्भ पर अपना नियंत्रण करके कैसे अपने जीवन पर नियंत्रण कर सकती हैं,यानि अपनी इच्छानुसार कैसे जीवन जी सकती हैं;इसके साथ ही वह इस्लाम को मानने की सलाह भी देती हैं’
(तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इन्सान- शाहजहाँ बेगम,मतबा ई अंसारी,दिल्ली,1889) 

शाहजहाँ बेगम के विचार अपने समय से बहुत आगे हैं साथ ही आश्चर्य में डालने वाले भी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छा से दूसरे विवाह  में उस व्यक्ति को पति के रूप में चुना था जो अल-ई-हदीस जैसे सुधारवादी मुस्लिम संगठन से सम्बद्ध था और कट्टर एवं उग्र विचारों के लिए जाना जाता था. शाहजहाँ बेगम की बेटी सुल्तानजहाँ बेगम (1868-1930) भोपाल रियासत की अंतिम शासक थी जिसने तीन भागों में आत्मकथा लिखी जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है आत्मकथा में स्त्रियों द्वारा यौनेच्छा की प्रकट अभिव्यक्ति की कड़ी आलोचना करते हुए  पश्चिमी आलोचकों का  मुस्लिम स्त्रियों के निजी जीवन में दखल देना शर्मनाक बताया गया.
(‘अल हिज़ाब का पर्दा क्यों ज़रूरी है’सुल्तानजहाँ बेगम,कलकत्ता ,थैकर,स्पिंक ,1922:148)

कई साल पहले जहाँ मां ने स्त्री यौनिकता पर खुलकर बोलने के खतरे उठाये थे वहीं बेटी सुल्तानजहाँ बेगम ने अपने दाम्पत्य और स्त्री यौनिकता के बारे में कुछ लिखना उचित नहीं समझा. मां-बेटी के आत्मकथा लेखन में लगभग दो दशकों का अन्तराल है लेकिन बेटी यानि सुल्तान जहाँ बेगम अन्तरंग सम्बंधों को परदे की चीज़ मानती है और 1902में पति अहमद अली खान की मृत्यु के समय करुण समर्पण लिखती है –

“मेरी कलम भले ही ‘दुःख’शब्द लिख ले और जुबान भी यह कह दे पर मेरी भावनाओं की गहराई की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द पर्याप्त नहीं है-कोई शब्द ऐसा नहीं हैजो मेरा दुःख पूरी गहराई से अभिव्यक्त कर सकेआँख के तारे का चला जानाजो मेरा सबसे गहरा मित्र था पिछले 27वर्षों से जिसने मुझे स्नेह और उपदेश दिएमुझे चिंताओं और मुश्किलों से उबरने में मदद की .उनकी सहानुभूति और प्रेम हमेशा मेरे लिए मददगार साबित हुए हैं- वास्तव में यह एक गहन और दृढ़ सम्बन्ध था. जीवन के इस मोड़ पर उसे खो देना वैसा ही है,जैसा मुसीबतों के समुद्र में अकेले डूबना-उतराना. जब मुझे उसके चतुर सुझावों की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी-ऐसे में उसका चला जाना एक असहनीय आपदा है." 
(‘एन अकाउंट ऑफ़ माई लाइफ़’,नवाब सुल्तान जहाँ बेगम ,खंड 2,अनुवाद अब्दुस्समद खान ,बॉम्बे :द टाइम्स 1922:36-37)

कुरान में आदर्श विवाह और आदर्श दंपत्ति के बारे में जो कहा गया है उन आदर्शों का पूरी तरह पालन दीखता है.




                                  
                    ३.

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ

क्या भोपाल-रियासत की सांस्कृतिक विरासत में ही ऐसा कुछ था जो इन स्त्रियों को अपने जीवन के बारे में बयान करने की प्रेरणा देता था. ये तो थी रियासत की स्त्रियाँ लेकिन सामान्य स्त्रियों का क्या,क्या वे भी आत्मभिव्यक्ति की इच्छा को परिणति तक पहुंचा पायीं. इसके बरक्स  अतिया फैजी (1877-1967) और नाज़िल फैजी (1874-1938) के  आत्मकथात्मक यात्रा संस्मरणों को देखा जा सकता है.1906से 1908के बीच उन्होंने यूरोप की यात्रायें कीं और संस्मरण लिखे. 

अतिया फैजी कवि इक़बाल की मित्र थीं (द अदर साईड ऑफ़ इक़बालसईद नक़वीफ्राइडे टाइम्स लाहौर,15अप्रैल 1911) अतिया फैजी की डायरी के कुछ हिस्सों का प्रकाशन ‘तहज़ीब-उन -निस्वान’ में हुआजो बाद में पुस्तक रूप में भी सामने आई. हालाँकि 1907में अतिया इक़बाल से मिली थी मगर पूरी डायरी में इक़बाल का ज़िक्र सिर्फ दो बार आया है. दोनों बार अतिया ने उन्हेंविद्वानदार्शनिक और कवि के रूप में याद किया है. उनके बीच कोई अन्तरंग संपर्क था इसकी तरफ कोई संकेत नहीं मिलता. जबकि सामान्य तौर पर कई अन्य ने उनको आत्मीय मित्रों के रूप में देखा.

अतिया ने बाद में ‘इक़बाल’(1947) शीर्षक से पत्रों का संग्रह भी छपवायालन्दन में उनकी निजी मुलाकातों के ब्यौरे इस पुस्तक में मिलते हैं. इन पत्रों में यह उल्लेख है कि इकबाल से अतिया फैजी की मुलाकातें सभाओं,रात्रिभोजों और पिकनिक के दौरान हुआ करती थी. अतिया ने इकबाल के दिवंगत हो जाने के बाद ही पत्रों का संकलन छपवाने का साहस कियावैसे भी तब तक उनकी उम्र काफी हो चली थी.

’इक़बाल’ शीर्षक पुस्तक में  वे इकबाल से साथ अपने संबंधों को गुरु-शिष्यवत बता कर संवेदनात्मक संतुलन का परिचय देती हैं.

(अतियाज़ जर्नी:अ मुस्लिम वूमन फ्रॉम कोलोनिअल बॉम्बे टू एडवर्डियन ब्रिटेन,Siobhan lambert-Hurley and Sunil sharma,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ,दिल्ली ,2010:2)

पुरुष के साथ मैत्री भाव को छुपाकर रखना उनके मानसिक अनुकूलन को बताता है कि जब वे पश्चिम में थीं तो उन्हें कवि इकबाल से आत्मीयता मे कोई परहेज न था लेकिन देश-काल के बदलते ही स्त्री कैसे अपनी अभिव्यक्ति को सेंसर कर डालती हैअतिया का लेखन इसका दिलचस्प उदाहरण है. नाज़िल फैजी ने बहन के नक़्शे-कदम पर चलते हुए अपने संस्मरण शाया किए लेकिन वह अतिया की अपेक्षा अधिक खुलकर स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बोलती है उसने पति इब्राहीम खान के साथ गुज़रे पलों के बारे में लिखा.

दिलचस्प है कि नाज़िल फैजी का विवाह 12वर्ष की उम्र में 1886में हुआ लेकिन संतान उत्पन्न न हो पाने के कारण सन 1913में तब तलाक़ हुआ जब उनकी उम्र 39की थीयानि तब जब कोई स्त्री यौन-आकर्षण की उम्र पार कर रही होती  है, ठीक उसी समय नवाब ने दूसरी स्त्री के साथ रहना चुन लिया. नाज़िल फैजी ने यूरोप की यात्रा के बारे में  ‘सैर ए यूरोप में’ लिखा. जो सतही तौर पर भले यात्रा संस्मरण हो पर उसमें संतानहीन स्त्री जो पति की उपेक्षा और तलाक का शिकार है उसकी पीड़ा के दस्तावेज़ छिपे हुए हैं (नाज़िल राफ़िया सुलतान नवाब बेग़म साहिबा ,सैर ए यूरोपलाहौरयूनियन स्ट्रीम 18मई 1908)

सैर ए यूरोप’ पति और बहन अतिया के साथ जलमार्ग से ब्रिटेन और इस्ताम्बूल तक की गयी यात्रायें हैं. इस वृत्तान्त में नाजिल के अन्तरंग जीवन और निजी हताशा के संकेत हैं. ऐसा लगता है कि वह अपने निजी जीवन,परेशानियों,पति की बेरुखी के बारे में बोलना चाहकर भी बोल नहीं पा रही है. उसके लिखे हुए की दरारों को पढना पाठक का काम काम है. बाद में चलकर उसके बहनोई सैमुअल फैजी राहामिन के लिखे उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र के रूप में किसी नवाब की पत्नी का  चरित्र आया जिसका जीवन उपेक्षित और एकाकी है ,जो संभवतः नाजिल के जीवन की ही झलक है (गिल्डेड इंडिया सैमुअल फैजी राहामिन,,लन्दन ;हर्बर्ट जोसफ ,1938,रिव्यू टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ,26मार्च 1938:222) 

अतिया और नाजिल दोनों बहनों में समानता थी कि दोनों ने कथेतर विधाओं को रचनात्मकता के माध्यम के रूप में चुना लेकिन निजी प्रसंगों पर खुल कर बोलना दोनों ने गवारा नहीं कियाइसके पीछे सामाजिक और निजी स्तर की सेंसरशिप को देखा जा सकता है. इन दोनों ने जिनका उल्लेख किया उनसे अपने संबंधों की गहराई को छुपा ले जाने के पीछे पारिवारिक  संबंधों के समीकरण गड़बड़ाने का भय ज़रूर था. मुहम्मद इकबाल से अतिया का पत्राचार लगभग सन 1911तक चलाइतनी लम्बी अवधि में आत्मीय संपर्क का स्थापित न होना ही अस्वाभाविक होता. नाजिल और अतिया दोनों ने बोलचाल की साधारण उर्दू का प्रयोग किया. दोनों बहनों की पुस्तकों में उस समय चल रहे समाज-सुधार के एजेंडे का ज़िक्र मिलता है. अतिया ने अपनी पुस्तक में ‘तहज़ीबी बहनों’ (ज़माना की भूमिका)को संबोधित किया. नाजिल ने भी ‘हिन्दुस्तानी भाई-बहनों को सोचने पर मजबूर करने’ को ”सैर-ए-यूरोप’  पुस्तक का उद्देश्य बताया. दोनों पर बदरुद्दीन तैयबजी का ज़बरदस्त प्रभाव था और वे चाहती थीं कि यूरोप और अरब के अनुभव और नजीरें  हिंदुस्तानियों  के पिछड़ेपन को दूर भगाने के काम आ सकें.

मुस्लिम आभिजात्य वर्ग से सम्बद्ध ये दोनों बहनें भारत में जनता के सामने खुलकर बोलने वाली पहली स्त्रियाँ थीं. लेकिन इनका लेखन इस ओर इशारा करता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक और समुदायगत संरचना कहीं न कहीं अभिव्यक्ति के लिए विधागत चुनाव को नियंत्रित करने वाला कारक है. अतिया और नाज़िल की पुस्तकों को आत्मकथा नहीं कहा जा सकता लेकिन इनके लेखन में पत्रडायरी शैली और बौद्धिक गद्य का सम्मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है.स्वानुभूत जीवन के बारे में संकेतों में बात करना कहीं न कहीं जीवन में परिवर्तनकामी शक्तियों का आह्ट का द्योतक है.

         

हम    कि    मगलूब-ए-गुमाँ थे     पहले
फिर वहीं हैं कि जहाँ थे पहले




पाकिस्तान बनने के बाद जो स्त्रियाँ आत्मकथा लेखन  के क्षेत्र में रचनारत रहीं उनपर कई  दृष्टियों से विचार हो सकता है-एक तो कि देशविभाजन की घटना के बदले सांस्कृतिक संदर्भ और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इनका नजरिया क्या था साथ ही इस्लामीकरण के आग्रह की पृष्ठभूमि में जेंडर के मुद्दों पर इनके जुड़ाव के आयाम क्या थे. कुरर्तुल एन हैदर  (कारे जहां दराज़ है) हमीदा अख्तर हुसैन रायपुरी (हमसफ़र)

निसार अज़ीज़ बट (गए दिनों की सरगाह) की कड़ी में बेगम शाइस्तासुहरावर्दी इकरमुल्लाह (1915-2000) की आत्मकथा ‘फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट’ (फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट ,शाईस्ता सुहरावर्दी कराची ,ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998 ) को देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने पाकिस्तान आन्दोलन के विस्तृत ब्यौरे दिए. जहाँ हिंदी क्षेत्र में स्त्रियों की राजनीतिक आत्मकथाओं की उपस्थिति विरल है वहीँ शाईस्ता बेगम ने पाकिस्तान की विधानसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पाठकों को बताया. शाइस्ता बेगम ने आत्मकथ्य में सगे-सम्बन्धियों का ज़िक्र प्रसंगवश तो किया है लेकिन निजी जीवन के अन्तरंग क्षणों के परिचय से उनका पाठक वंचित रह जाता है.

यद्यपि दो अध्यायों में वे वैवाहिक और राजनैतिक जीवन में संतुलन बनाये रखने की कोशिशों का उल्लेख करती हैंजिससे पाठक को यह अंदाज़ा हो जाता है कि आभिजात्य स्त्री के लिए भी राजनीति में  कैरियर बनाना तब भी आसान नहीं रहा होगा. बेगम शाईस्ता आत्मकथा के छठे और सातवें अध्यायों में ससुराल पक्ष के रीति रिवाजोंभोजन-वस्त्रसम्बन्धियों का ज़िक्र करती हैं पर कहीं भी अपने पति का नाम तक नहीं लेतीं. वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में उनकी टिप्पणी है –“हमारे समाज में विवाह के बाद किसी लड़की के जीवन में सबसे बड़ा जो परिवर्तन आता है वह यह है कि उसे पूरी तरह अपने आप को नए परिवार के अनुरूप ढालना पड़ता है”.(फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंटशाईस्ता सुहरावर्दी कराचीऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998:61) 

अन्य कई मुस्लिम स्त्रियों ने अंग्रेजी में अपने सार्वजनिक जीवन के विषय में टिप्पणियां कीं लेकिन अक्सर ये स्त्रियाँ अपने आत्मीय संबंधों के बारे में खुलकर बोलने का साहस नहीं जुटा पायीं.इस कड़ी में बड़ी बहादुरी के साथ बुर्का त्याग देने वाली जहाँआरा हबीबुल्लाह (1915-2001)की पुस्तक ‘रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट’ को देखा जा सकता है जो बेगम शाईस्ता के आत्मकथ्य की तर्ज़ पर ही लिखी गयी है. रामपुर स्टेट के दिनों में जहाँ उनके वालिद मुख्यमंत्री थे और बहनोई स्टेट के नवाब- वहां के बारे में याद करते हुए भी आत्मीय प्रसंगों की चर्चा से बचीं सिवाय उस अध्याय के  जिसमें उन्होंने पाकिस्तान तम्बाकू कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ईशत हबीबुल्लाह के साथ अपने वैवाहिक प्रसंग को लिखालेकिन वहां भी अधिकांश बातें उनकी  संतानों के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं.(रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट: ग्लिमप्स आफ ए प्रिंसली स्टेट ड्यूरिंग द राज, जहाँआरा हबीबुल्लाहआक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2001,मूल उर्दू में लिखित यह पुस्तक अंग्रेजी में पहले प्रकाशित हुई थी.उर्दू में ‘ज़िन्दगी की यादें :रियासत रामपुर नवाब  का दौर’जो कराची से 2003में छपा).

हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र (1921-1988) जहाँआरा हबीबुल्लाह की चचेरी बहन थी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के नेत्र-चिकित्सा विभाग में चिकित्सक और  निदेशक बनने के बारे में उसने आत्मकथ्य में लिखा.पूरी आत्मकथा में कहीं भी उसके अविवाहित रह जाने,एकाकी जीवन के कष्टों के बारे में ज़िक्र नहीं है. इसकी बजाय सर सैय्यद अहमद खां के समाज सुधार के एजेंडे और उनकी तारीफ में कई पन्ने लिखे गए हैं.(आत्मकथा, हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ,संपादन लोला चटर्जी,नई दिल्ली ,तृंका ,1996)

ऊपर जिन आत्मकथाओं का ज़िक्र किया गया है उनकी रचनाकारों मे से अधिकांश सन 1930के पहले पैदा हुईं थीं.ये सभी अभिजात्य परिवारों से सम्बद्ध थीं और सर सैयद अहमद खान के आधुनिक राष्ट्र राज्य मे स्त्री की बदली हुई भूमिका के आदर्श से परिचालित थीं. रशीद जहां (1905 -1952 ) सरीखी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी और प्रेरित स्त्रियॉं जब लेखन के क्षेत्र में आयीं तो उन्होने आधुनिकता के पक्ष में एक विमर्श करना  शुरू किया. समतावादी विचारधारा और रूढ़ियों के बहिष्कार की हवा चली  ,इसके परिणामस्वरूप ‘हलाक-ए अरबाब-ए ज़ौक़ (1939)जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आयीं. इनसे जुड़ी स्त्रियॉं ने घर के बाहर कदम रखकर आधुनिक विचारों का प्रचार–प्रसार करना प्रारम्भ किया. जहां इससे पहले की पीढ़ी अपनी शिक्षा के लिए संघर्षरत  रही थी वहीं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी स्त्रियों  ने शिक्षा को जनसुलभ बनाने,पर्दे का विरोध करने ,स्त्री –स्वाधीनता के व्यावहारिक पक्षों पर बल दिया.

रशीद जहांइस्मत चुगताईरज़िया सज्जाद ज़हीर और खदीजा मस्तूर ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किएइन स्त्रियॉं ने यह समझा कि आधुनिकतास्त्री और मध्यवर्गीय मुस्लिम स्त्री होने के क्या अर्थ हैं विशेषकर भारतीय मुस्लिम स्त्री होकर बौद्धिक कैसे हुआ जा सकता हैऔर यह बौद्धिकता किस तरह समाज परिवर्तन का माध्यम बन सकती है (प्रियम्वदा गोपाल ,लिटेररी रेडिकलिस्म इन इंडिया :जेंडर ,नेशन एंड द ट्रांसिशन टू इंडेपेंडेंस ,लंदन,रौल्टज,2005 ,पृष्ठ 5)

विभाजन की घटना ने स्त्री –पुरुष दोनों को प्रभावित किया,देश–विभाजन,पुनर्स्थापन,धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर नागरिकों के विभाजन के सबके अपने पाठ थे पाकिस्तान का बननाभारत के विभाजन की घटना ने राजनैतिक परिदृश्य पर जो परिवर्तन उपस्थित किए उनका भारत में रह रही और पाकिस्तान जाकर बस गयी मुस्लिम स्त्रियॉं पर गहरा प्रभाव पड़ा, इस दौर में गद्य लेखन विशेषकर आत्मकथा लेखन मे अप्रत्याशित तेज़ी देखी गयी. सबके पास अपनी–अपनी चुनौतियाँ और संघर्ष थे. पाकिस्तान को आधुनिक बनाने के लिए उन्नीसवीं सदी के समाजसुधार आंदोलनों के प्रभावों को मन मे ग्रहण किए हुए ये स्त्रियाँ लेखन मे प्रवृत्त हुईं. शायद सुधारवाद का दबाव उनके अवचेतन पर इतना रहा होगा कि वे अपने निजी प्रसंगों पर बहुत खुलकर नहीं बोलतीं. वस्तुतः इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए .इसके उदाहरण के तौर पर अदा जाफ़री की आत्मकथा “जो रही सो बेकरारी रही” को देखा जाना चाहिए. बदरुद्दीन तैय्यबजी के परिवार से सम्बद्ध रेहाना तैय्यबजी (1901-1975) ने आत्मकथा ‘द हार्ट ऑफ़ अ गोपी’ लिखी थी,जिसमें  महात्मा गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन का अनुकरण करने और अपने ऊपर गांधी के संश्लिष्ट प्रभाव का अंकन किया है.

आत्मकथा में वह स्वयं को ‘बापू’ के ब्रह्मचारी सिपाहियों में से एक बताती है. वह सीधे-सीधे न सही पर परोक्ष रूप से गांधी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करती है. वह स्वयं को कृष्ण की गोपिका कहकर ब्रह्मचारी रहने के व्रत और दैहिक संसर्ग की इच्छा के बीच के अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में लिखती है. गांधी को लिखे पत्रों में भी वह इस अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में खुलकर बयान करती है. वह गोपी के रूप में स्वयं को तथा कृष्ण के रूप में संभवतः गांधी को रखकर देखती है और भौतिक वास्तविकताओं से परे आध्यात्मिक मिलन का रूपक रचती है .लेकिन यह तय है कि रेहाना आत्मकथा विधा की अपरिमित संभावनाओं को जान नहीं पाई वर्ना यह किताब एक बोल्ड आत्मकथा हो सकती थी.



५.



नवाब सिकंदर बेगम (1818-68) के यात्रा वृत्तान्त ‘ए पिल्ग्रिमेज टू मक्का’ (1870) में कुछ आत्मकथात्मक प्रसंग मिलते हैं पर उनमें अंतरंगता का नितांत अभाव है जो लिखा तो उर्दू में गया पर प्रकाशित हुआ सिर्फ अंग्रेजी मेंवह भी बेगम की मृत्यु के बाद. ये उन रचनाकारों में से थीं जिन्होंने खुलकर आत्माभिव्यक्ति का साहस नहीं दिखायाबल्कि उपन्यास और कहानी के माध्यम से अपनी बात कही. उन्होंने प्रेमविवाहपूर्व सेक्ससमलैंगिकतास्त्री की यौनेच्छाओं जैसे मुद्दों पर बात की.

इनके अतिरिक्त जो स्त्रियाँ स्त्री लैंगिकतायौनेच्छा जैसे मुद्दों पर खुलकर लिख पायीं उनमें सलमा अहमदकिश्वर नाहीद को ज़रूर देखा जाना चाहिए. ये स्त्रियाँ सिर्फ जेंडर की बात नहीं करतीं बल्कि धर्म- विशेषकर इस्लाम किस तरह स्त्री को ‘मानुष’ होने से रोकता है इसपर टिप्पणी करती हैं. इन रचनाकाओं मे पर्दा-प्रथा का विरोधबहुविवाह  के साथ-साथ धर्म कि जड़ मे आने वाले ऐसे बहुत सारे रिवाज जो स्त्री विरोधी हैं उनकी मुखर आलोचना मिलती है.

सलमा अहमद जो पाकिस्तान की जानी मानी व्यवसायी थीं उन्होंने अपनी दर्दनाक ज़िन्दगी के बारे में लिखा. (कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमदसमाकराची, 2002) जिसकी विशेषता है वैवाहिक जीवन के विषय में खुलकर बात करना. वे अपने वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में लिखती हैं –
‘सुहागकक्ष  में मेरी प्रतीक्षा हो रही थी. अब दूसरा नाटकदूसरा दू:स्वप्न शुरू होने को था- यह मैं नहीं थी जिसे वह छू रहा थायह मैं नहीं थी जिसके वह कपड़े उतार रहा थाये सब इतना अवास्तविकइतना पीड़ादायक थाइतना झटका लगाने वाला था कि रजस्राव से चादर भीग गयी. तट के लग्ज़री होटल में ये एक डरावनी रात थी. रिवाज़ के अनुसार सुबह मेरे रिश्तेदार मुझे घर ले जाने के लिए आये. मैं क्षुब्ध थी और स्वयं को अपवित्र और चोटिल महसूस कर रही थी”
(कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमद ,समा,कराची ,2002:26-27)

इसी सलमा अहमद की बहन नजमा भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान की बहू बनी. सलमा की आत्मकथा में नजमा और शहरयार के विवाह की तस्वीर भी है. इस तरह सलमा अहमद का सम्बन्ध भोपाल की रियासत से ठहरता हैजो भारत की एकमात्र ऐसी रियासत थी जहाँ 19वीं और 20वीं शती में स्त्री-शासक हुईं. यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं.

सईदा बानो अहम् की आत्मकथा ‘डगर से हटकर ‘(1990) में प्रकाशित हुई जीवन के उत्तरार्ध में सईदा ने यह आत्मकथा अपने पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध छपवाईजिसे बाद में उर्दू अकादमीदिल्ली से पुरस्कार भी मिला (सकीना हसन-सईदा की भतीजी से उसका साक्षात्कार 13फरवरी 2006को) सईदा हसन आल इंडिया रेडियो की पहली स्त्री उद्घोषक थीं जो सन 47में अपने छोटे बेटे को लेकर लखनऊ से दिल्ली नौकरी करने आ गयीं. 

(इंटिमेसी अगेंस्ट कन्वेंशन :मैरिज एंड रोमांस इन सईदा बानो’ज़ ‘डगर से हटकर ‘पेपर बाई आसिया आलम ,40एथ एनुअल कांफ्रेंस आफ़ साउथ एशिया ,यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कांसिन ,मेडिसन,21-23अक्टूबर 2011.)

सईदा ने अपने दाम्पत्य जीवन के विवादों और विवाह के टूटने के चित्रण खुलकर कियेयही कारण था कि लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी उनके बेटों ने आत्मकथा के छपने का विरोध किया. सईदा की आत्मकथा की तुलना आबिदा सुल्तान से भी की जा सकती हैवे दोनों अच्छी मित्र थीं और दोनों की परवरिश भोपाल में ही हुई थी आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने आत्मकथ्यों में बोल्डनेस दिखाई. आबिदा सुल्तान की आत्मकथा की चर्चा पहले  की जा चुकी हैसईदा ने बताया कि उसने विवाह के तुरंत बाद हमबिस्तर होने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसे लगा कि पति नितांत अपरिचित हैं. (डगर से हटकर:38) इस असुविधाजनक प्रसंग को लिखकर  अपनी अल्पवयस और उस समय तक यौन-संबंधों के बारे में अनभिज्ञता प्रदर्शित की. सईदा बानो ने विवाहेतर सम्बन्ध की चर्चा बड़ी बहादुरी से की है. नुरुद्दीन नामक वकील जिसकी अंग्रेज़ पत्नी अपने बच्चों को लेकर भारत की आज़ादी के बाद इंग्लैण्ड चली गयीउससे सईदा को प्रेम  हुआ.

नुरुद्दीन के अकेलेपन को सईदा की दोस्ती ने भर दिया. इनदोनों का प्रेम लगभग 27वर्ष चलाशुरूआती हिचक के बाद सईदा ने प्रेम के सामने पूर्ण समर्पण कर दियाजिसने सईदा के शब्दों में ‘सईदा का दिल खुशियों से भर दिया था ‘सन 1955में नुरुद्दीन की पत्नी दिल्ली लौट आईउसे इस प्रेम सम्बन्ध पर आपत्ति थी (डगर से हटकर :186-190) इस सम्बन्ध को लेकर सईदा बहुत सम्वेदनशील थी क्योंकि इसने  ख़ुशी दी थीइसलिए एक दिन अचानक सब ख़त्म करना उसके लिए संभव  नहीं थादूसरी बात यह थी कि इस सम्बन्ध की जानकारी मित्रोंबच्चों और रिश्तेदारों को थी लेकिन सईदा के अनुसार ‘मेरी जीवनशैली की मर्यादा उन लोगों ने रखीइस प्रेम सम्बन्ध के कारण मेरा अपमान कभी नहीं किया.’अतीत के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए सईदा लिखती है- 


“आज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वह पूरा प्रसंग बचकाना लगता है ,लेकिन ऐसा वक्त भी था कि उसकी एक झलककुछ लम्हे के लिए मिलना ज़िन्दगी और मौत का सवाल ...रात के राहियों की तरह बचपने का यह खेल हमने 60-65और यहाँ तक कि 70बरस की उम्र तक भी खेला. जिस काम की मनाही हो उसे करने में जोखिम का अद्भुत आनंद छिपा हुआ होता है” (डगर से हटकर:226)

सईदा द्वारा अपने प्रेम सम्बन्ध की स्पष्ट स्वीकृति अपने आप में विशिष्ट हैजो उसकी आत्मकथा को प्रामाणिक बनाती है.

मेरा जीवन’ शीर्षक से डा.जाकिरा गौस (1911-2003) ने आत्मकथा लिखी. पढने की शौक़ीन ज़ाकिरा ने सत्तर वर्ष की अवस्था में मद्रास विश्वविद्यालय से उर्दू में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की. बचपन से ही डाक्टर बनने का सपना देखने वाली जाकिरा को पारिवारिक परिस्थितियों ने गृहस्थिन बनाया. वे आत्मकथा में अपने बचपन के रचानात्मक दिनों को याद करती हैं. वे अपने एक बुज़ुर्ग द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका ‘बज़्म ए अदब’ से प्रेरणा लेकर खानदान के भीतर ही हस्तलिखित पत्रिका ‘मुशीर उन निस्वान’ निकालने लगीं. इस घरेलू पत्रिका के पाठक खानदान के भीतर के लोग ही थे पर इसमें भी अपने से बड़े-बुजुर्गों पर टिप्पणी करने से लोग बचते थे. सन 1956तक यह हस्तलिखित पत्रिका नियमित रूप से निकलती रही. सेल्फ सेंसरशिप के सन्दर्भ में जाकिरा गौस ने इसे याद किया हैइसी के आधार पर ‘माई लाइफ’ शीर्षक से आत्मकथा अंग्रेजी में प्रकाशित हुईजिसे खानदान के लोगों के लिए ही लिखा गया थाइसलिए बहुत से वर्णनों की ज़रूरत भी नहीं पड़ी. लेकिन वह यातनाप्रद बातों की चर्चा से बचीं और यदि कहीं किसी के बारे में प्रसंगवश नकारात्मक टिप्पणी कर भी देती हैं तो तुरंत वहीँ किसी सकारात्मक बात से संतुलन बना देती हैं.

इसी तरह पूरी आत्मकथा में सावधानी दिखाई पड़ती हैवे विवादास्पद मुद्दों पर अपना पक्ष नहीं रखतीं और यदि कोई ऐसा मुद्दा आता भी है तो उनका बयान होता है- आपमें से कुछ इससे असहमत भी हो सकते हैं -उनसे अग्रिम क्षमायाचना के साथ.आत्मकथा में वे दर्ज़ करती हैं- 


"पत्रिका के पहले अंक में महरूम चचाजान ने खानदान की कुछ मृतक औरतों के बारे में लिखा थावर्णक्रम से. पाठकों को उनके बारे में कुछ लिखने को कहा गया था. मैंने नहीं लिखालेकिन उसके बाद से ही मेरे दिमाग में यह विचार आया कि हालाँकि मेरा जीवन इतना महत्वपूर्ण नहीं हैकि उसे लोग जानें फिर भी मैं अपने बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. आरंभ में तो किसी कागज़ पर मैं यूँ ही कुछ उलझी हुई बातें लिखा करती थी. मैं आपसे उसे पढ़ने के लिए नहीं कह सकती पर मैं इतना जानती हूँ कि आपमें से कुछ लोग तो उसे पढ़ने के लिए कहेंगे ही. यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि मुझे मालूम है कि लोगों में दूसरे के निजी जीवन को जानने की इच्छा होती ही है...वैसे अपने निज के बारे में लिखना मेरा अपना चुनाव है,यह ऐसा विषय है जिसपर मेरी कलम बिना रुके दौड़ सकती है.मुझे मालूम है कि आत्मप्रशंसा करना एक कमी है फिर भी मुझे अनुमति दीजिये कि कहूँ कि जो कुछ मेरे जीवन में हुआ उसे लिखूं अपने बारे में कुछ ख़ास लिखना मुझे कभी पसंद नहीं आया.

आत्मकथा में जाकिरा अतिशयोक्तियों का प्रयोग करती हैंअपने पाठकों के पक्ष में वह अपनी आलोचना स्वयं करती चलती है. बार बार कहती है कि उसे ठीक से लिखना भी नहीं आता.अपने पाठकों से किसी वक्तव्य ,जिसके बारे में उसे लगता है कि वह आत्मप्रशंसात्मक हो सकता है -को देने के बाद अतिशय विनम्रता दिखाती है ,जिसे फारसी और उर्दू गद्य की परंपरा में भी देखा जा सकता है.यहाँ देखने की बात है आत्मकथ्य में आत्म के विलोपन का प्रयास, सिर्फ औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थ हैं. वह चाहती है कि पारिवारिक सेंसरशिप उसपर हावी न हो उसकी साहित्यिक गतिविधियाँ अपनी गति से चलती रहें.इसलिए वह अपने आपको बहुत ही नाचीज़ दिखाती हैसगे-सम्बन्धियों पर कोई टीका टिप्पणी नहीं करती.पूरी आत्मकथा बहुत सावधानी से लिखी हुई है ,हालाँकि इस कार्य में वह हर समय सफल नहीं हो पाती.जाकिरा अपने जन्म के प्रसंग में लिखती है –


“रबी उल अव्वाल 1340, यानि 18नवम्बर 1921को शुक्रवार के दिन हैदराबाद के हाजी मंजिल में मैं पैदा हुईमुझसे पहले पैदा हुई दो बहनें मर चुकी थीं...मैं अब तक इस संसार में जी रही हूँ ,इतनी लम्बी ज़िन्दगी.कभी कभी सोचती हूँ मेरा जीवन कितना निरर्थक है ,अगर मैं भी अपनी बहनों की तरह पैदा होते ही मर जाती तो...क्या हुआ होता ?मेरे जैसे जीवन का क्या मूल्य है ...व्यर्थ और निरुद्देश्य’ जाकिर गौस लिखती है कि उनके पिता बी. ए.पास न कर पाने के कारण पक्की नौकरी से वंचित रहेखानदान के बाहर उन्होंने दूसरी शादी की ,दूसरा घर भी बसायासभी पत्नियों को मिलकर उन्हें कई बच्चे हुए जिनमें पांच लड़कियों और एक लड़के ने ही पूर्ण जीवन जिया.ज़ाकिरा की मां ने बहुत अभावों में अपने बच्चों को पाला ,इसलिए अपने बच्चों को बहुत विनम्रता और खानदानी तहजीब सिखाई.उन्होंने सिखाया कि वे परनिर्भर हैं इसलिए उन्हें ऐसे रहना चाहिए जिससे परिवार के अन्य लोगों को कोई तकलीफ न हो.वह एक वाक़या याद करती है कि घर में कबाब बने थे -कुछ बच्चों ने जोश में आकर ज्यादा कबाब खा लिए,जिससे बाकी लोगों के लिए कम बचा. जैसे ही मेरी मां को यह पता चला उन्होंने बहुत कड़ाई के साथ ताक़ीद की, कि भविष्य में दूसरों के बारे में बिना सोचे कभी भोजन करने का साहस न करूँ. यह बात आज भी मेरे जेहन में बैठी हुई है कि मैं दूसरों के हिस्से के बारे में बिना सोचे हुए कभी भी खा नहीं पाती ...और कभी असफल रहने पर मेरी आत्मा कचोटती है’ 


अपने पिता के बारे में वह लिखती है –

‘हमें उनसे हमेशा डर लगता था ...हम उनसे कांपते थे और हमसे वे सीधे बात नहीं करते थे.’अपनी मां के व्यक्तित्व के बारे में वह लिखती है कि मां कभी अपना प्यार दिखाती नहीं थी ,लेकिन मुझे मालूम था कि वो मुझे बहुत प्यार करती है.आर्थिक तंगी वाले संयुक्त परिवार में जाकिरा के परिवार का सम्मानजनक ढंग से जीना संभव नहीं हो पा रहा था.ऐसे हालातों में उसकी मां कुंठित हो रही थी.फिर भी अपनी बेटियों के भविष्य और व्यक्तित्व के विकास के लिए चिंतित रहा करती थी.वह अपनी बेटियों के लिए दिनचर्या लिखा करती ,जिसका पालन करना कठिन होता था.माँ अपने वात्सल्य को कभी जताती नहीं थी जिसके कारणों पर जाकिरा गौस की टिप्पणी है –‘बावजूद तमाम भावनाओं के माँ के मुख से मेरे लिए प्यार शब्द निकलना संभव नहीं था,लेकिन यह बात मुझे बड़े होने पर ही समझ आई.

अपनी मां के बहाने वह मुस्लिम परिवारों में प्रचलित बहुविवाहअशिक्षा के कारणोंपर्दा-प्रथा और लैंगिक विभेद को परखती चलती है. ‘घर की औरतों का बाहर जाना बहुत कम ही होता था. खरीदारी का काम घर के पुरुष या नौकर ही करते थे.घर की बुज़ुर्ग औरतें युवा बहु -बेटियों को घर के भीतर रहने की सलाह देती थीं ,वे खानदान की परंपरा के पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं. घर की औरतों को हैदराबाद और मद्रास आने-जाने का मौका सिर्फ शादियों में मिलता था .यह वह समय था जब खानदान की नयी पीढ़ी  बाहर के समाज से जुड़ना चाह रही थी.औरतें मस्जिदों और तीर्थयात्रा के लिए भी जाती थीं लेकिन परदे में ही और किसी न किसी पुरुष की सरपरस्ती में.परदे का पूरा पालन किया जाता था.

घर से निकलते समय जनानखाने से दरवाज़े तक नौकरानी मोटे कपड़े का पर्दा पकड़ कर दोनों तरफ खड़ी हो जाती थीं.घर के आंगन से दरवाज़े पर खड़ी गाड़ी तक पर्दा कनात की तरह खड़ा किया जाता .रेल और जहाज़ में जनाना कम्पार्टमेंट होते.घर एक बंद संसार था ,जहाँ औरतों की उपस्थिति स्थायी थी और पुरुषों का आना -जाना लगा रहता. पुरुष- आधिपत्य के बावजूद घरेलू मामलों में स्त्रियों के अपने निर्णय ,विचार होते थे,,छोटी लड़कियों को घर के भीतर ही औरतें इमला सिखा देतीं. कई माओं ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेजने की पेशकश की. 1931में अपनी माँ की वजह से जाकिरा की एक चचेरी बहन ने स्कूल में दाखिला ले लिया,  जो खानदान की एक बड़ी घटना थी.जाकिरा गौस आत्मकथा में अपने आत्मनिर्भर  बनने की यात्रा का बयान करती हैं कि किस तरह वे चांदनी रात में आँखे गड़ाकर किताबें पढ़ती थीं,किसी के आने की आहट सुनते ही किताब छुपा देती थीं.

संयुक्त मुस्लिम परिवार में उन्होंने बहुविवाह और उससे प्रभावित बच्चों और स्त्रियों को नजदीकी से देखा. पहली पत्नी की उपेक्षासीमित आय में बहुत से परिवारों का पालन ,विवाह के कारण नए बच्चों की आमद से परिवार में कलह ,आर्थिक तंगी ,जगह की कमी इत्यादि के बारे में वे लिखती हैं-“बहुपत्नीत्व का रिवाज़  हमारे खानदान में कम ही था ,इसे आम तौर पर पसंद भी नहीं किया जाता था .अक्सर पहला विवाह परिवार जनों द्वारा तय किया जाता था,जबकि दूसरा विवाह उस व्यक्ति की निजी पसंद का होता था.अक्सर दूसरा विवाह नीचे दर्जे की लड़की के साथ किया जाता था.इन औरतों से खानदान की औरतें सामाजिक तौर पर कोई खास सम्बन्ध नहीं रखती थीं.

ऐसी औरतों के अस्तित्व की ओर से खानदान बेखबर रहने में भलाई समझता था.दूसरे-तीसरे विवाह वाली औरतों के रहने का अलग इंतजाम होता था.ऐसा बहुत कम होता था कि इन संबंधों से पैदा हुई संतानों का विवाह खानदानी घरों में हो.जबतक पुरुष आर्थिक तौर पर दोनों परिवारों का बोझ उठाने में सक्षम होता था ,स्थिति नियंत्रण  में रहती थीं.लेकिन यदि कोई स्त्री या उसके बच्चे उपेक्षित महसूस करते थे तो खानदान का कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आता था.’घर में एक ईसाई नर्स आती थी जो साफ़ सुथरे कपड़ों में स्मार्ट दीखती थी,परिवार के मर्द उसके औजारों /दवाई का बैग लेकर पीछे पीछे चलते यह देखकर जाकिरा के मन में डाक्टर बनने की इच्छा जगी.पिता ने ­­­­बारह वर्ष की उम्र में उसे स्कूल जाने की इज़ाज़त दी और नामपल्ली स्कूल में दर्ज़ा दो में बैठना शुरू किया. शादी के बाद उर्दू में स्नातक की उपाधि प्राइवेट से पढ़ कर पास कीबाद में उन्होंने लड़कियों के कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिली.

पूरी आत्मकथा में अपनी जवानी के दौर का ज़िक्र वे ज्वालामुखी के फटने की तरह करती हैं॰ यह ज़िक्र भी है कि कैसे पति ने एम.ए.करवाने से मना कर दियाक्योंकि तब वह अपने पति से श्रेष्ठ हो जाती. जाकिरा ‘हमारा दौरे हयात’ में लिखती है- ‘अब मैं यह महसूस करती हूँ कि मेरे जीवन में जो कुछ भी हुआ अच्छे के लिए ही हुआ.मेरे लिए आर्ट्स पढना बेहतर रहा.मैंने बहुत सा साहित्य पढ़ा और लिखने की आदत ने मेरी दूसरी मानसिक चिंताओं को ख़त्म कर दिया.पहले लिखना मेरे लिए आवरण था बाद में लक्ष्य बन गया ...मैं आज जो कुछ भी हूँ लिखने के कारण ही हूँ.हमारे खानदानों में किसी स्त्री का अविवाहित रह जाना बहुत ही अलग घटना होती थी ,जिनका विवाह नहीं हो पाता वे अपने पिता या भाई के ऊपर निर्भर रहती थीं.

1920से 1950के दौर तक ऐसा होता था कि तीस पार से ऊपर की लड़कियों में लगभग 15प्रतिशत की शादी होती ही नहीं थी,सुशिक्षित लड़कियों को भी अविवाहित रह जाना पड़ता था.’ऊपर से साधारण दीखने वाली आत्मकथा मुस्लिम समाज के भीतर जेंडर के समीकरणों को गहरे तक रेखांकित करती है.अपने समकाल और भारत की बीसवीं सदी के पहले के सात दशकों का इतिहास इस पुस्तक में झलकता है.साथ ही परिवार और समाज द्वारा तयशुदा दायरे में कैसे एक स्त्री निज की पहचान को तलाशती है और बिना शोर-शराबे के अपनी पहचान स्थापित करती है,कोई जान भी नहीं पाता कि उसकी नामालूम सी कहानी कहाँ शुरू और कहाँ ख़त्म हुई. 

आत्मकथा लेखन को अपने तनाव और चिंतन-मनन की रचनात्मक ‘शेयरिंग’ से जोड़ा जा सकता है. हालांकि एक स्त्री, देश-काल की सांस्कृतिक सीमाओं के परे, आत्मकथ्य लिखते या कहते समय निरंतर इस तनाव से जूझती है कि वह जीवन सत्य के किन पहलुओं को छोड़े और जोड़े. चारित्रिक दुर्बलता और फिसलन के प्रसंगों में से किन्हें लिखे और किन्हें छोड़े, सत्य और कल्पित प्रसंगों में से क्या रखे! स्त्री रचनाकार का वैश्विक नजरिया, जीवन मूल्य, संस्कार, भाषिक कौशल, राजनीतिक संदर्भ और उसके जीवन की नियंत्रक शक्तियां-इसको प्रभावित करती हैं, इसलिए रीता फेल्स्की को लगता है कि ‘स्त्रियों की आत्मकथाओं में इच्छा और सत्य का तनाव, दिखाई देता है. उनका ईमानदार आत्म निरंतर सत्य के पक्ष में बोलने के लिए पर्युत्सुक रहता है जबकि बाहरी दबाव इस अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाते हैं. आत्मकथाओं को कौन-सा पाठक पढ़ेगा, पाठकीय वर्ग और रुचि भी रचना को प्रभावित करती है. स्वान्तः सुखाय का दावा करने वाले रचनाकार के अवचेतन में भी ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक स्वयं को प्रसारित करने की लालसा सुप्त रहती है.



६.



नवाब फैज़ुन्निसा बेगम (1834-1903) ने रूपजलाल (1876) नामक उपन्यास अपने असफल वैवाहिक जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए लिखा था. किसी भी बंगाली मुस्लिम स्त्री द्वारा लिखे इस पहले उपन्यास की भूमिका आत्मकथात्मक हैजिसमे संक्षेप में मुस्लिम स्त्री पर समाज के दबावों और उसकी यौनिकता पर मर्दवादी पहरों की पहचान की गयी है .इसमें औपनिवेशिक बंगाली मुसलमान स्त्री के जीवन के यथार्थ चित्र हैं. रूपजलाल  जैसी रचना मुसलमान समाज में प्रचलित और इस्लाम से मान्यता प्राप्त बहुपत्नीत्व के ख़िलाफ़ आलोचनात्मक तर्क विकसित करती है. उपन्यास की नायिका रूपबानो अपने पति के बहुविवाह के प्रति कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराती है, लेकिन अंतत: उसे परम्परा के आगे समर्पण करना पड़ता है. रूपबानो भले ही 'बहुपत्नीत्व'के सामने घुटने टेक देती है लेकिन नवाब फ़ैजुन्निसा ने निजी जीवन में पति के बहु-विवाह पर आपत्ति करते हुए अलग रहने का निर्णय लिया था. 

उपन्यास की भूमिका में इसका उल्लेख करते हुए विफल वैवाहिक जीवन की यंत्रणा को रचना की प्रेरणा बताया गया है. रूपजलाल का कथ्य प्रेम, युद्ध, बहुपत्नीत्व के दायरे में ही घूमता है. फ़ैज़ुन्निसा लेखन में तथाकथित स्त्रीत्व का अतिक्रमण करते हुए स्त्री-यौनिकता के प्रश्नों पर विचार करती है. वह उस समाज का आंतरिक परिवेश चित्रित करती हैं जहाँ धर्म और पितृसत्ता का दबाव स्त्री को'आत्म'से संवाद करने की छूट नहीं देता.


फैज़ुन्निसा के लेखन को विद्रोह बल्कि अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिए.वह लेखन में स्त्रीत्व का अतिक्रमण करती है॰ अपने समय से कहीं आगे की इस रचना पर पाठकों और आलोचकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया. फ़ैज़ुन्निसा बांग्ला में लिखती थी लेकिन उन्हें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था. उन्होंने फैज़ुन लाइब्रेरी बनाई थी और रवींद्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्णकुमारी देवी (बांग्ला की पहली स्त्री-उपन्यासकार (दीपनिर्वाण, 1868) के स्त्री-संगठन शक्ति समिति की प्रखर सदस्य थीं. उन्हें औपनिवेशिक बंगाल और अन्य प्रांतों में हो रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हलचलों की पूरी जानकारी थी. अब्दुल कुदस ने आलोर दिशारी (अब्दुल कुदस (1979), द एनलाइटेंड गाइड, बंगला साहित्य अकादेमी, ढाका.) में लिखा है कि 

'फ़ैज़ुन्निसा प्रतिदिन कुछ घंटे लाइब्रेरी में बिताती थी और 'इस्लाम प्रचारक'और 'सुधारक'जैसी पत्रिकाएँ नियमित तौर पर ख़रीदती थी. ऐसे वक्त में, जब स्त्री से सिर्फ़ यह अपेक्षा की जाती थी कि वह घर को आरामदायक शरणस्थली बनाए, कुशल गृहिणी बने, ऐसे में एक मुसलमान स्त्री का उपन्यास लिखना परम्परागत मूल्यों को चुनौती था और साहसिक अभियान की शुरुआत भी. भूमिका में वे बहुपत्नीत्व की कड़ी आलोचना करते हुए अपने परिवार के बारे में बहुत बोल्ड ढंग से लिखती हैं 
(फएजा एस. हसनत (2009), 'नवाब फ़ैज़ुन्निसाज़ रूपजलाल', वुमॅन ऐंड जेण्डर : द मिडल ईस्ट ऐंड द इस्लामिक वर्ल्ड, खण्ड 07, प्रकाशक कोनिक्टलज़िकी ब्रिल, एन.वी.)

फैज़ुन्निसा दो घनिष्ठ प्रसंगों का ज़िक्र करती है पहला तो यह कि अभी वह छोटी ही थी कि उसके विवाह का प्रस्ताव घर पर आया ,वह पिता का ही रिश्तेदार था,विवाह -सम्बन्ध की मनाही ने उस व्यक्ति को बुरी तरह तोड़ दिया और पूरा जीवन दुःख में बिताया (रूपजलाल -भूमिका:5-6)

फैज़ुन्निसा का कहना है कि इसके बाद उसका भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया ,पिता की मृत्यु हो गयी और मां  एक धनी व्यक्ति की दूसरी पत्नी बन गयी.अपने बारे में फैजुन लिखती है ‘शादी के कुछ वर्ष मैंने खुशी से गुज़ारे.पति अपने आप से ज्यादा मुझे प्यार करता ,मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ता.

इस बीच मैंने दो बेटियों को जन्म दिया.पति ने एक और शादी की थी पर पति मेरे प्रति आकर्षित रहता ,जिसे देख कर सौतन ईर्ष्या से जल-भुन जाती.वह मुझसे पीछा छुड़ाने के उपाय ढूँढने लगी.जो व्यक्ति मुझे एक मिनट के लिए अकेला न छोड़ता वह अब हमेशा के लिए अकेला छोड़ देना चाहता था.इसी परिस्थिति में मैं अलग घर लेकर रहने लगी.”(रूपजलाल -भूमिका :7)

यह बात महत्वपूर्ण है कि फैजुन ने अपना पुस्तकालय बनाया ,अख़बारों में लिखा और पति के आगे कभी हाथ नहीं पसारा और स्त्री -संगठनों की सदस्य रही.यद्यपि अपने उपन्यास में उसने रूप और जलाल की प्रेमकथा लिखी और प्रेम के आगे स्त्री का आत्मसमर्पण दिखाया लेकिन जीवन में  उसने इस्लाम में प्रचलित बहुपत्नीत्व का विरोध किया.निजी तौर पर फ़ैजुन्निसा द्वारा बहुपत्नीत्व को चुनौती देना और पारिवारिक सुरक्षा के दायरे से बाहर निकल कर एक आत्मनिर्भर ऐजेंट के रूप में सामने आना नयी स्त्री की छवि का दिशा-निर्देश करता है. 

अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुत: राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किये जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है. इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं, वर्चस्वशील विचार-सरणियों से टकराना होता है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परम्पराओं के आयाम अपने-आप में विशिष्ट होते हैं जो स्त्री को घर, पति, संतान की पूरी ज़िम्मेदारियाँ सौंपते हैं. यहाँ तक कि स्त्री के लिखे को पाठक और प्रकाशक भी उपेक्षित करते हैं. फैजुन्निस्सा स्त्री यौनिकता,पर्दा,शिक्षा और बहुविवाह के प्रश्नों पर विचार करती दीखती  हैं.






७.


वहशत हवस की चाट गई ख़ाक-ए-ज़िस्म को
बे-दर घरों शक़्ल का साया कहाँ से आए


मुस्लिम स्त्रियों के लिखे हुए को प्रकाश में लाये बिना हम राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की स्थिति और योगदान को समझ नहीं सकते ‘द वर्ल्ड ऑफ़ मुस्लिम वीमेन इन कोलोनियल बंगाल’ में सोनिया अमीन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए कहा है कि मुसलमानों की पितृसत्ताक व्यवस्था भी स्त्रियों को परम्पराश्रित आधुनिक विचारधारा देने का प्रयास कर रही थी.जहाँ हिन्दू और ब्राह्मो समाज सुधारकों की विचारधारा सीतासावित्री के पौराणिकमिथकीय चरित्रों पर आधारित थी वहीँ मुस्लिम समाजसुधारक स्त्रियों के सामने हज़रत मुहम्मद की पत्नी आयशा,बेटी फातमा- जो धैर्य और सहनशीलता का उदाहरण  समझी जाती है -को आदर्श चरित्रों के रूप में रख रहे थे.हिन्दुओं की तर्ज़ पर उनका भी मानना था कि समुदाय की संस्कृति की रक्षा का दायित्व स्त्रियों  का ही होता है.

राष्ट्रीय आन्दोलन को जेंडर के दृष्टिकोण से यदि विश्लेषित किया जाए तो साहित्यिक और गैर-साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पितृसत्ता यह मान रही थी कि स्त्रियों का कोई अधिकार उनकी देह पर नहीं है ,मुस्लिम स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बहुस्तरीय था.बहुत से आलोचकों ने उस दौर की मुस्लिम स्त्रियों के लिखे और कहे हुए पर विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझी,पितृसत्ता से अनुकूलित राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की,जबकि मुस्लिम पितृसत्तात्मक नियंत्रण इस समय में स्त्रियों को आधुनिक करने की दिशा में प्रयास करना प्रारंभ कर रहा था,आधुनिकतावादी विचारधारा स्त्री पर परिवार और पुरुष के नियंत्रण को वैधानिक बनाने की प्रक्रिया में थी.

इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम स्त्रियों ने आधुनिकता का कृत्रिम जामा पहनने की अपेक्षा स्वयं को परदे में रखकर जीना और वहीँ मरना पसंद किया.रुकैय्या सखावत हुसैन ने ‘अबरोध बासिनी’में ज़िक्र किया है कि एक बार एक घर में आग लग गयी घर की मालकिन ने अपने सारे गहने एक पोटली में बांधे और जल्दी में शयनकक्ष से निकली ,बाहर निकलते ही उसने देखा कि आँगन में बहुत से लोगों की भीड़ जमा है -जो आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे. वह अपने शयनकक्ष में वापस चली गयी और बिस्तर के नीचे छिप गयी.

वह जल मरी लेकिन बाहर नहीं निकली,पर्दा प्रथा जिंदाबाद !’रुकय्या सखावत हुसैन ने 1905में सुल्ताना का सपना लिखा ,जिसमे उन्होंने परदे के भीतर घुटती हुई स्त्री की यातना और स्वातंत्र्य -स्वप्न का चित्रण किया.ठीक इसी समय लेखकों का ध्यान इस बात पर ज्यादा था कि नयी लेखिकाएं स्त्री की शुचिता ,पवित्रता ,सतीत्व की कहानियां लिखें॰  उनपर दबाव डाला  जाये कि लेखिकाओं को समाज के उच्चतर मूल्यों की स्थापना का प्रयास करना चाहिए.

मध्यवर्ग से सम्बंधित किसी लेखिका का साहस नहीं हुआ कि वे इन बने -बनाये नियमों के दायरे से बाहर जाए.इसलिए घर की परिधि में रोमांटिक अभिव्यक्तियों तक उनकी रचनात्मकता महदूद रही.मध्यवर्गीय परिवारों से सम्बद्ध लेखिकाओं ने तयशुदा दायरे में ही आत्माभिव्यक्तियाँ कीं और सीधे -सीधे अपनी बात कहने के खतरे ,जो अभिजात्य या उच्च वर्ग से संबद्ध लेखिकाएं उठा सकती थीं ,वो इन्होने नहीं उठाये और पुरुषों की दृष्टि के अनुरूप ही स्त्री -छवि चित्रित की.

हैदराबाद की बिल्कीस जहाँ खान (1930)और रामपुर की राजकुमारी मेहरुन्निसा (1933) ने अपने अंतरंग  जीवन के टुकड़े संस्मरणों में लिखेइसके अलावा हमीदा हुसैन राजपुरी ने “हमसफ़र’(1992)शीर्षक से आत्मकथ्य लिखाजिसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में ‘माय फेलो ट्रेवेलर’ (2006) शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित हुआ.(हमसफ़र,हमीदा अख्तर हुसैन ,दान्याल ,कराची ,1992) जोहरा सहगल(1912) की आत्मकथा ‘करीब से’ में जोहरा ने रंगमंच ,इप्टा और फ़िल्मी जीवन से जुड़े अनुभवों पर खुलकर लिखा साथ ही कामेश्वर सहगल से अंतर्जातीय विवाह और प्रेम प्रसंग पर लिखते हुए किसी सेंसरशिप की परवाह नहीं की.ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि जोहरा को विदेशों का अनुभव था और वह रामपुर के राजसी परिवार से जुडी हुई थी.इप्टा से ही सम्बद्ध शौक़त कैफ़ी (1928) ने उर्दू में’ यादों की रहगुज़र’(स्टार पब्लिकेशन,दिल्ली 2004) लिखी.

इस पुस्तक में कैफ़ी आज़मी के साथ अपने प्रेम और विवाह-प्रसंग को अत्यंत दिलचस्प अंदाज़ में पत्रों में ज़ाहिर किया –
“कैफ़ी ! मैं तुम्हें बहुत चाहती हूँ,इतना जिसकी कोई सीमा नहीं है ,संसार की कोई भी ताक़त मुझे तुम्हारे पास आने से नहीं रोक सकती ,कोई पर्वत ,पहाड़ ,समुद्र ,नदी,मनुष्य,कोई आकाश ,कोई ईश्वर,कोई देवदूत मुझे रोक नहीं सकता ,और केवल खुदा ही जानता है इस बारे में.”उधर कैफ़ी भी अपने खून से लिखे प्रेम पत्रों में इसी भाव की व्यंजना करते दीखते हैं’
(कैफ़ी एंड आई -अ मेमोआयर ,शौकत कैफ़ी,अनुवाद नसरीन रहमान ,जुबान ,दिल्ली ,2010)




८.

बुलबुल को बागबाँ से न सैययाद से गिला
किस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए –बहार में



जीबोन स्मृति’ शीर्षक से बंगाल की राजनीतिक कार्यकर्त्ता हमीदा रहमान (1920) ने आत्मकथा लिखी. आत्मकथा के केंद्र में पलाश नाम के व्यक्ति से प्रेम और विछोह है. पलाश ने हमीदा रहमान को पढने-लिखने और राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत करने की राह दिखाई (जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका ,अध्याय 1) पलाश सन 1930में हमीदा से मिला थातबसे निरंतर वे आपस में मिलते रहे,राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में पलाश बेहद सक्रिय था और उसका भूमिगत हो जानाबीच बीच में किशोरी हमीदा से मिलने ने उनके बीच के संकोच और झिझक को हटा दिया था. हमीदा लिखती है –


‘ईद की रात मैं हमेशा उसका इंतजार किया करती थी ,वह मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण क्षण होता.मैं अपने घर के फाटक के आगे टहलती रहती ,जबतक वह अपनी छोटी सी सायकिल से आ नहीं जाता.उसके आने पर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता.डर लगता कि कहीं ऐसा न हो वो ना आ पाए.पर वह हमेशा ईद को रात 9बजे आता,मैं बहुत खुश होती'.
( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:97) 

आगे वह बताती है कि कैसे उनके बीच पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हुआ और रोमांस फलता-फूलता गया.पाठक उनके विवाह की सूचना का इंतजार करता है ,लेकिन पलाश के भाई के विरोध के कारण यह सूचना पाठक को नहीं मिलती.हमीदा के पिता भारी -भरकम दहेज़ देने में असमर्थ थे.हमीदा पूरी तटस्थता से इस दुखद प्रसंग को यथार्थ रूप में चित्रित करती हैअपने भावों और अनुभूतियों का कोई विवरण नहीं देती और बताती है कि पिता ने और लड़के देखने शुरू कर दिए,1942में उसका विवाह किसी और से हो गया.

लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. शादी के एक दो साल बाद ही हमीदा कलकत्ता गयी और वहां उसे पलाश फिर मिलासत्रह साल की हमीदा पलाश से मिलकर बहुत खुश हो जाती– ‘हम बाहर साथ-साथ जातेएक साथ सामूहिक रसोईयों में काम करते करते और भी नज़दीक आ गए. उस समय मेरे पति कलकत्ता में नहीं थेइसलिए हमारी नजदीकियां बढ़ती गयीं. जब कभी हम मिल नहीं पाते एक दूसरे के बगैर बहुत दुखी रहते.’     
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28)     

पलाश प्रसंग के 50वर्ष बाद लिखी आत्मकथा में हमीदा का कहना है तब उसका यह व्यवहार नादान उम्र के कारण थाहालाँकि यह बात पाठक को बहुत दूर तक ग्राह्य नहीं होती क्योंकि वह लिखती है –‘तब मुझे मालूम ही नहीं था किसी पर- पुरुष से मित्रता पाप है.ये मेरी समझ के बाहर था कि बचपन के अभिन्न मित्र के साथ सम्बन्ध ,विवाह के बाद गलत कैसे हो सकते हैं.मैं वास्तव में तब अबोध थी.
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28) 

हमीदा और पलाश का संपर्क रिश्तेदारों की नज़र में आ गया और हमीदा को पलाश से मिलने की मनाही हो गयी.हमीदा को अध्यापिका नहीं बनने देने पर उसने आत्महत्या की असफल कोशिश की,1960तक पलाश राज्य विधानसभा का सदस्य और चार बच्चों का पिता बन चुका था ,वह फिर से हमीदा से मिलने आया जिसके बारे में वह लिखती है –

“मुझे पसंद नहीं था कि अब वह मुझसे मिले ,लेकिन मैं उसे आने से मना नहीं कर सकी.मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि पलाश को लेकर मुझमें एक कमज़ोरी थी.’(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:128-129) 

उसके मिलने आने से हमीदा को थोड़ी असुविधा हुई पर उसने वर्षों बाद बालपन के इस प्रेम -प्रसंग को लिखा.यह लिखना उसकी अन्तःप्रेरणा के कारण ही संभव हो पाया,क्योंकि ऐसे अन्तरंग प्रसंगों को बाहर लाने में बाहरी दबाव ज्यादा कारगर साबित नहीं होते .


राजनीतिक जीवन जीने वाली बेगम कुदसिया एजाज़ रसूल(1908) की आत्मकथा ‘फ्रॉम पर्दा टू पार्लियामेंट’ ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अनुभव उनकी किताब में दर्ज हैं.एक मुस्लिम लड़की जिसका लालन -पालन एक अभिजात्य और राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में हुआ,उसने कैसे परदे से पाकिस्तान मूवमेंट का अंग बनकर अपनी अलग पहचान बनायीं.बेगम रसूल की शादी अवध के जागीरदार नवाब एजाज़ रसूल से हुई जो मुस्लिम लीग के सदस्य थे.कुदसिया ने 1937से 1940तक काउन्सिल के उपप्रधान के तौर पर काम किया.वह पहली भारतीय मुस्लिम स्त्री थीं जो इतने ऊंचे पद तक पहुँचने में कामयाब हुई.स्वतंत्रता के बाद वे इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्य बनीं.ज़मींदारी प्रथा का पुरजोर विरोध करने और रैयत के पक्ष में आवाज़ उठाने के कार्यों ने उन्हें प्रसिद्धि दी और 1952में राज्यसभा की सदस्य बन गयीं.आत्मकथा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में नेतृत्वकारी क्षमता वाली स्त्रियों के अनुभव और क्षमता का उपयोग का प्रतिशत बहुत कम है .आज भी पूरे विश्व की स्त्रियों का लगभग 2प्रतिशत ही संसद तक पहुँचने में सक्षम हो पाया है.

राजनीतिक अर्थव्यवस्था,सत्ता के संश्लिष्ट समीकरणों में स्त्रियाँ नीति -निर्धारक पदों पर बहुत कम पहुँच पाती हैं.राष्ट्रीय आन्दोलन और देश विभाजन ने भी स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के नए अवसर दिए थे.विभाजन ने शिक्षा ,प्रशिक्षण और रोज़गार के नए अवसर भी साथ लेकर आया था,साथ ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की सीमायें भी टूटीं,उनका पुनर्निर्धारण हुआ.कई ऐसी स्त्रियाँ जिन्होंने पाकिस्तान के बनने के पक्ष में आंदोलनों में भाग लिया ,आन्दोलन के पहले और आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक सभाओं में खुलकर शिरकत की,मसलन बेगम शहनवाज़ ,बेगम राणा लियाकत अली खान, बेगम इकरामुल्लाह जिन्हें सन 47में पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही घर के भीतरी दायरे में ढकेल दिया गया उन्हें सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की अब मनाही थी.

फरीदा शाहिद का मानना है कि- ‘इस्लाम के, अपने ढंग से लागू किया जाने के कारण पाकिस्तान में असमानता और अधीनस्थता की स्थिति को पोषण और बढ़ावा मिला.”(द कल्चरल आर्टिकुलेशन ऑफ़ पैट्रिआर्की,फरीदा शाहिद,1991:140) राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो स्त्रियाँ पुरुषों के समकक्ष  सभाओं ,बैठकों ,आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं,उनको तब रोकना गैर -प्रगतिशीलता में शुमार होता ,इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद सांस्कृतिक परम्परा ,आदर्श और परदे जैसे नियम लागू कर दिए गए जिससे स्त्री फिर से नियंत्रण में लायी जा सके.स्वतंत्रता के बाद की स्त्री आत्मकथाएं इसके साहित्यिक साक्ष्यों के रूप में देखी जा सकती हैं ,जो यह बताती हैं कि समाज का स्त्रियों को और स्त्रियों का समाज को देखने का नजरिया कैसा है ,साथ ही स्त्री के आसपास घटने वाले सामाजिक -राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति स्त्रियाँ क्या  सोचती हैं.पाकिस्तान की नागरिक बन गयी औरतों के आत्मकथ्यों  से सामाजिक परिवर्तनों की भूमिका को दर्ज करने और स्वयं समाज -परिवर्तन में उनकी भूमिका समझी जा सकती है.




९.                

आत्मकथात्मक टेक्स्ट तब बनते हैंजब कथाकार के भीतर निरंतर संवाद से ही आत्मकथात्मक टेक्स्ट  बनते  हैं  ,एक समाज विमर्श के तौर पर यह संवाद लेखक ,टेक्स्ट और बाह्य-जगत के बीच बारीक और सघन अन्तः -सम्बन्ध है.जिस समय इस तरह के टेक्स्ट बनाये जा रहे होते हैंउस समय ,उस काल खंड की विशेष भूमिका लेखक के चित्त पर पड़ती है,इसके साथ ही संभावित पाठक की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ,क्योंकि पाठ को पढ़ने का तरीका सबका अपना –अपना ही  होता है. पाठक,टेक्स्ट और लेखक के बीच का आपसी सम्बन्ध वह जटिल और बारीक तंतुओं से बुना हुआ होता है –जिसके निर्माण में इतिहास ,समाज और संस्कृति की भूमिका होती है.

ये टेक्स्ट इसका पता बताते हैं कि निज का परिविस्तार कैसे और किस ढंग से होता है .लेखन और पठन जैसी क्रियाएं किसी समुदाय के भीतर वैचारिकता को ,संस्कृति को स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर कैसे प्रभावित करती हैं.दरअसल आत्मकथाओं को हमें इस रूप में लेना चाहिए कि वे हमारे अनुभवों के विश्लेषण और पुनर्विश्लेषण करने में कैसे सहयोगी होती हैं .एक लिखित टेक्स्ट में जिस तरह के संसार का निर्माण होता है उसमें स्व के निर्माण के साथ – संसार के निर्माण का भाव अपने भीतर से आता है या यों कहें कि यह प्रक्रिया आत्म से  संवाद के अनंतर पूरी होती है .

स्त्रीवादी आलोचक नैन्सी के. मिलर का कहना है कि पढ़ी –लिखी या अकादमिक जगत से सम्बद्ध स्त्रियों द्वारा आत्मकथात्मक लेखन ज़रूरी है क्योंकि यह सर्व जन के इतिहास के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का काम करते हैं,दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति कथाएं जन –इतिहास को बेहतर ढंग से बताने का काम करती हैं.

अकादमिक जगत से जुड़ी आत्मकथाएं ,जिनमें किसी ने अपने जीवन के ब्यौरे (आत्मानुभव)दे रखे होते हैं वस्तुतः वे अपने आप को ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय जांच के लिए प्रस्तुत कर रही/रहा होता है.स्त्री –इतिहास को देखने के लिए बीसवीं शताब्दी में स्त्री के लिखे हुए की  ऐतिहासिक ,समाजशास्त्रीय पड़ताल ज़रूरी होगी क्योंकि ये वे हैं जो स्त्री सम्बन्धी मुद्दों से गहरे तौर पर सम्बद्ध राही हैं और अपने बारे में दस्तावेज़ लिखकर वे बहुत बड़ा बौद्धिक रचनात्मक कदम उठाती हैं.इस तरह वे स्वयं ही टेक्स्ट का अंश बन जाती हैं और साथ ही उन मुद्दों की भी जिनकी वकालत वे करती हैं.’
(शेड्स आफ डीपर मीनिंग ‘ओन राइटिंग ऑटोबायोग्राफी,मैरी जेन डिकिन्सन:982)

एक तरफ तो इन स्त्रियों का लिखा हुआ स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है.दूसरी ओर इसे स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए.इन आत्मानुभवों को पढ़ने से इन स्त्रियों  की टकराहटों –चाहे वे समाज के साथ हों,परिवार के साथ हों या स्वयं के साथ हों ,के साथ –साथ व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों की भी परतें खुलती हैं.वे कौन से कारण हैं कि कोई स्त्री आत्मकथा जैसी विधा का चुनाव करती है ,जो भी उस आत्मकथ्य को पढ़ता है वह साहित्य -सजग मुद्रा (Metaliterary gesture) को सराहे बिना नहीं रह सकता .ऐसा टेक्स्ट जो निजी और सार्वजनिक के बीच मध्यस्थता कर सके और साथ ही स्वानुभवों को भी व्यक्त कर सके.उदाहरण के तौर पर  उर्दू में लिखी हुई बेगम अनीस किदवई की आत्मकथा को देखा जा सकता है.

गुब्बार –ए –कारवां में अनीस किदवई ने एक ओर देश विभाजन के पहले और बाद के सामाजिक –राजनैतिक हालातों का जायज़ा लिया है तो दूसरी ओर  मुस्लिम होने के नाते  शिक्षा ग्रहण करने और जीवन की धारा का निर्णय करने के लिए परिवार पर निर्भरता और स्त्री होने के कारण स्वयं पर पड़ने वाले सामाजिक ,पारिवारिक दबावोंजेंडर की राजनीति,सेंसरशिप का ज़िक्र किया गया है.

एक स्त्री की दृष्टि से आजादी के आसपास के वर्षों में भारत –पाकिस्तान को देखने का यह अपनी तरह का पहला उल्लेखनीय प्रयास है ,जिसकी अगली कड़ी के तौर पर ‘आज़ादी की छाँव में ‘शीर्षक आत्मकथात्मक संस्मरण को देखा जा सकता है.जिसे भले ही आत्मकथा न कहा जाए क्योंकि उसमें व्यक्ति के आत्मख्यान से ज्यादा जगह सामाजिक –राजनीतिक प्रसंगों को मिली है जो दरअसल हिंदुस्तान की आजादी की छाँव में भी तपती रुखी धूप का ताप झेलने को विवश आम जन का आख्यान है जिसे आजादी के नाम पर विस्थापन,गरीबी ,शोषण ,अपमान का शिकार होना पड़ा.रोग –बीमारी,यौन और अन्य प्रकार की हिंसा के शिकार लोगों को जानवरों से भी बदतर दशा में खुले आसमान के नीचे गर्मी ,लू ,शीत और वर्षा के साथ देशव्यापी भ्रष्टाचार और अफवाहों का शिकार होना पड़ा.अनीस किदवई ने स्वयं जाकर शरणार्थी शिविरों में सेवा की ,साम्प्रदायिक उन्माद के शिकार हो चुके पति का शोक विस्मृत करने का यही तरीका था.


औरतों द्वारा लिखे ये आख्यान जो बिलकुल निजी अनुभवों से उद्भूत होते हैं वे चिंतन और विचार की बनी –बनायी सरणियों को तोड़ते हैं ,इन आख्यानों की विशेषता यह है इनमें लेखक विषयी (subject)को छोड़ता चलता है.स्त्री आत्मकथाकार अपने  निजी जीवन को बौद्धिक ,सांस्थानिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में रखकर आवा-जाही करती हैं.परंपरा से जो आत्मकथा का रूप है वह स्त्री और विशेषकर मुस्लिम स्त्रियों के यहाँ आकर बदल जाता है ये जीवनाख्यान निजी और सार्वजनिक दोनों हो उठते हैं ,क्योंकि इनमें समाज ,धर्म ,राजनीति उन समीकरणों से पाठक /आलोचक रूबरू होता है जो अपने रूपबंध में स्त्री और पुरुष पाठक /आलोचक दोनों को यह चुनौती देता है कि वे आत्म के वास्तविक ,काल्पनिक और प्रामाणिक विमर्श को प्रस्तुत करें.

मिखाइल बाख्तिन ने ‘साक्षी और न्यायाधीश’होने को ही मनुष्य होना कहा है ,जिसका अर्थ है हम देखते और तौलते हैं .देखना और स्थितियों को तौलना ही एक घटना को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा देखे जाने और एक ही स्थिति या घटना की विभिन्न व्याख्याओं को जन्म देता है.1947के भारत –विभाजन ने मानव –इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया .भारत –पाकिस्तान का लिखित इतिहास विस्थापित समूहों के संघर्षों ,हत्याओं ,यौन –हिंसा ,लूटपाट ,भ्रष्टाचार और असंतोष के तमाम साक्ष्यों का इतिहास है .लेकिन विभाजन ने भी अन्य किसी युद्ध की तरह ही स्त्रियों पर दूसरे ढंग का प्रभाव डाला.युद्ध के होने के कारणों में से किसे सही ठहराया जाये और किसे ग़लत,इस प्रश्न से भी पहले यह मुद्दा महत्वपूर्ण है कि जहाँ भी हिंसा ,झड़पें और युद्ध होते हैं वहां स्त्रियों और बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव भिन्न किस्म के होते हैं.

गुब्बार –ए –कारवां और आज़ादी की छाँव में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं.इतिहास की पुस्तकों में भारत –विभाजन के विषय में जो भी तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं उनमें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की आवाज़ नदारद है..इनकी आवाज़ों को साधारण –अति साधारण समझ कर उच्चवर्गीय राजनीति के बोझ तले दबा दिया गया ऐसे में गद्य और केवल गद्य ही ऐसी विधा थी जिसमें शोषितों ,पीड़ितों ,हाशिये के लोगों की आवाज़ ,धार्मिक संवेदना के मुद्दों को इन दोनों देशों में अभिव्यक्त किया जा सकता था.इंतज़ार हुसैन ,भीष्म साहनी,मंटो ,अमृता प्रीतम समेत कई रचनाकारों ने गद्य की विभिन्न विधाओं में देश –विभाजन ,यौन –हिंसा ,लूट –खसोट ,भ्रष्टाचार को स्वर दिया.लेकिन स्त्री –आत्मकथाकारों ने देश –विभाजन से रूबरू होकर जो अभिव्यक्ति की वह स्त्री दृष्टि से देखे-झेले  देश-विभाजन का प्रामाणिक आख्यान है.



१०.


बेगम अनीस किदवई (1906-1982) ने गुब्बार- ए- कारवां लिखीजो अधूरी ही मकतब -ए-जामियादिल्ली से 1983में मूल उर्दू में छपी. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी की रहने वाली  अनीस ने ‘आजादी की छांव में (1949) शीर्षक संस्मरण भी लिखा जिसका प्रकाशन सन 1974में हुआ. इनमें बेगम अनीस किदवई भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों और शरणार्थियों की समस्या का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं॰ गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ -स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है. जिसमें जो तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय स्त्रियों की जानकारी ही नहीं बल्कि भारतीय मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति पर भी पर्याप्त प्रकाश है. ’गुब्बार ए कारवां(उर्दू) का हिंदी अनुवाद उनकी पोती प्रोफ़ेसर आयेशा किदवई कर रही हैं.

अनीस किदवई की आत्मकथा और संस्मरण में भारतीय राजनीति में भारत विभाजन के दौर में आये कई परिवर्तनों का ज़िक्र है .इतिहास जहाँ विभाजन के दौर को मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश शासन  के बीच के द्वंद्व पर केन्द्रित मानता है,अनीस किदवई एक स्त्री और वह भी मुसलमान स्त्री की आँखों से देखे राजनीतिक परिवर्तनों को पाठक के सामने लाती हैं. 

1946में हुए प्रांतीय चुनावों ने मुस्लिम लीग और कांग्रेस को दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग ने भी यहीं से जोर पकड़ा था-लेकिन इस मांग के जन - पक्ष पर इतिहासकार चुप रहे हैं.देश विभाजन के राजनीतिक -कूटनीतिक पक्षों पर तो विचार हुआ लेकिन इसके मानवीय पक्ष की उपेक्षा की गयी.अनीस किदवई ने स्वयं दंगे झेले,पति को खोया,शरणार्थी शिविरों में लायी गयी उन सैकड़ों लड़कियों और बच्चों से रूबरू हुईं जो दंगों और हिंसा का शिकार हुए.

दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के दस्तावेज उनके संस्मरण में भरे पड़े हैं. इस नज़रिए से ये किताबें देश विभाजन और भारतीय राजनीति के संक्रमण के दौर  के स्त्री-पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. वे उस दौर की कथा कहती हैं जब लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाना गैरज़रूरी था. अनीस खुद भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं,’गुब्बार -ए-कारवां’ में वे बार-बार ज़िक्र करती हैं कि कैसे परिवार के लड़कोंचचेरे भाईयों को बोलते-सीखते सुनकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी. तालीम के लिए वे जीवन भर बेचैन रहीं. विभाजन के दौरान हुई हिंसा का जेंडर पक्ष उभारने वाली वे पहली स्त्री रचनाकार हैंजो इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी चैतन्य थीं  और अपने परिवेशराजनीतिसमाज और यौनिकता को समझने की उनकी अपनी दृष्टि थी. गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर लिखती है -


औरतों ने अपने घूंघट, कड़े और छागल उतार कर गाँधी जी की सदा पर लब्बैक कहा. सबसे पहले जिन चंद ख्वातीन के नाम हमारे देहात तक पहुंचे उनमें बेगम हसरत मौहानी, बी अम्मा कस्तूरबा गाँधी और मिसिस सरोजिनी नायडू के थे. औरतों ने अपने जेवरात और छोटी मोटी पसंदाज़ की हुई रकमें मकामी कांग्रेस कमिटी को दान कर दी. बिदेशी कपड़ों से अपने बक्सा खाली कर के हर जिला के सदर ऑफिस में होली जलवा डाली. उन दिनों चीज़ें कम थीं मगर आला हुआ करती थीं इसलिए ज़रदोज़ी के इन कपड़ों से अक्सर मनूं चांदी कांग्रेस कमिटी को मिली. बाराबंकी में जब बैलगाड़ियों और रथों में भर कर बिदेसी कपड़े नज़र-ए-आतिश हुए तो बीसों पर्दादार ख्वातीन ने भी तांगा और इक्कों पर पर्दा बंधवा कर अपने अपने गांव मोहल्ले से बाराबंकी का सफर किया. इनमें सिर्फ़ वही ख्वातीन थीं जो तहरीक के लिए चन्दा जमा करतीं चरखा  काड़ती और अपने खानदान के वीरों की आरती उतार कर जेल रुक्सत करती थीं. मुझे वो सीन याद है जब एक बड़े खेमे में इर्द गिर्द पड़ी हुईं चिकों से झांकती हुईं हिन्दू मुस्लिम ख्वातीन होली को जलाते हुए जवाहरलाल को देखने के लिए एक पर एक टूटी पड़ती थी. स्टेज पर जवाहरलाल जी चौधरी ख़लीक़ुज़ ज़मां और हरकिरन नाथ मिश्रा थे. मगर खूबसूरत नौजवान पंडित जी मोटे खद्दर की शेरवानी और चूड़ीदार पायजामे में सारे मजमें की तवज्जो का मरकज़ थे. अंदर औरतें हस्ब-ए-आदत बोल रही थी किसी ने कहा देखो तो कैसा मोटा खद्दर पहन कर आये हैं. शेह्ज़ादों की तरह पले हैं और अरे इनके कपड़े तक तो पैरिस में धुलते हैं.एक ने इंकशाफ किया अरे इन बाप बेटे ने तो अपने घर के बिदेसी कीमती बर्तन तक तोड़ डाले. किसी और तरफ से आवाज़ आयी, ये पूरा खानदान त्याग मूर्ती हैं.

मैं इन सबको नहीं जानती थी. सिर्फ़ ठाकुर रघुनाथ सिंह की फैमिली से वाकिफ़ थी जिनके बेटे के.डी.सिंह बाबू ने आगे चल कर मशहूर हॉकी चैंपियन की हैसियत से प्रेजिडेंट अवार्ड हासिल किया. लेकिन उससे क्या होता है उस वक़्त ये मुतफर्रक  अनासिर एकता और प्रेम की डोरी में बंधे एक ही जस्बे और एक ही नशे से सरशार थे.मुझे अपनी तड़प और बेबसी भी याद है न सफर के काबिल थी ना तहरीक में शिरकत की इजाज़त न जेल जाने के लायक. दिल पर पत्थर रखे गांव में बैठी रही अल्बत्ताह औरतों में काम शुरू कर के कांग्रेस पार्टी का पहला जलसा मसौली में कर डाला. एक मोअम्मर खातून को सदर बना कर ज़िला के और देहात से भी ख्वातीन को  मदऊ किया. ऊट पटांग धुआँधार तकरीरें हुईं अब वो अंदाज़-ए-बयां और बालहाना जोश याद करती हूँ तो बेइख्तियार हसी आ जाती है मगर उस वक़्त रह रह कर अपने आज़्ज़ा पर और खुद शफ्फी साहब पर गुस्सा आता था की मुझे क्यों नहीं जाने देते.”
(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवईमकतब -ए-जामिया ,दिल्ली,1983 )

बेगम किदवई आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियों की भूमिका पर विशेष चर्चा करती दीखती हैं. उनके वर्णन की विशिष्टता यह है कि वे स्त्रियों के आपसी वर्गीकरण,पुरुषों से उनके फर्क के साथ-साथ असहयोग आन्दोलन में इन पुरुषों के भागीदार हो पाने के पीछे छिपी स्त्री की भूमिका को रेखांकित करना नहीं भूलतीं. आत्मकथा के ब्यौरे दिलचस्प होने के साथ -साथ तटस्थ भी हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले पुरुषों की अपेक्षा उनकी स्त्रियों की भूमिका अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण थी इस पर गुब्बार -ए-कारवां में वह लिखती हैं –
“अब से पहले सिर्फ़ आला तबके की लेडीज व विमेंस कांफ्रेंस, विमेंस लीगविमेंस क्लब वगैरह की मेंबर हुआ करती थीं. अंजुमन ख्वातीन या अंजुमन तहज़ीब निस्वां के नाम से भी मकामी अंजुमनें औरतों की तालीम जिसे उन दिनों तालीमी निस्वां कहते थे के लिए कोशिशे कर रही थी और बहुत ही मेहतात किस्म का सोशल वर्क किआ करती थी.सियासत से बस उनका इतना ही ताल्लुक था के मोहतरम शख्सियत की मौत पर ताज़ियति रेज़ॉलूशन पास कर दें और तोहमत बचपन की शादी बुरी रीत रस्मों के खिलाफ अपने इज्तेमा में ये करारदाद मंज़ूर कर लें या औरतों के हकूक पर बहस कर लें. ज़्यादातर उनकी सरगर्मियां बड़े शहर में छोटे छोटे स्कूल क़ायम करने, ज़नाना क्लब क़ायम करने और डिनर पार्टियों तक महदूद थीं. इस सिलसिले में लखनऊ में बेगम इनाम हबीबुल्लाह और उनकी बहन बेगम शाहिद हुसैन जज़ल हबीबुल्लाह की वाल्दह चंद रानियां औरतों के हुकूक और तालीम-ए-निस्वां के ज़बरदस्त हामी थीं. मिंटो मार्ले इस्लाहाट के तहत कुछ ख्वातीन मकामी म्युनिसिपल्टी की मेंबर भी बन चुकी  थीं इसलिए उन्हें ज़्यादा मवाकए मोअस्सर आ गए थे. बेगम हबीबुल्लाह ने म्युनिसिपल बोर्ड की मेम्बरी के दौरान शहर के मुख्तलिफ हलकों में छोटे छोटे से बहुत से स्कूल खुलवाए. दिलकुशा क्लब में एक बड़े से बोर्ड पर रानियों और बेगमात के नाम उन्होंने क्लब के क़याम में मदद की. आज भी देखे जा सकते हैं इस क्लब में मुशायरे भी होते थे और पर्दादार बेगमात भी हफ्ते में एक बार तशरीफ़ लाती थीं. एहसान फरामोशी होगी गर हम इन फैशनएबल बहनों की दुरुस्त की हुई पगडण्डी को नज़रअंदाज़ कर दें या उसकी अहमियत कम करने की कोशिश करें. ये सरासर अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्द्दुन की आशे ख्वातीन अंदर से हिन्दुस्तानी थीं और हिन्दुस्तानी औरतों के जमूद व बेहिसी को दूर करने के लिए कोशां. कुछ भी हो,उन्होंने जो आवाज़ उठायी वो बारात और रिसालों के ज़रिये देहात तक पहुँच गयी.

तहज़ीब अस्मद खातून वगैरह कई रसाएल की एडिटर भी ख्वातीन थीं.उन्होंने इस्लाहे रसूम पर किताबें लिखीं शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ औरतों में पैदा  किया और खयालात व आज़ाम की तहरीर शकल दी. अकबर अलहाबादी ने कहा था "लड़कियां पढ़ रहीं हैं अंग्रेज़ी ढूंढ  ली कौम ने फलाह की राह"और "शौक तहरीर मज़ा में घुली जाती है बैठ कर परदे में बेपर्दा हुईं जाती है"इन आज़ाद ख्वातीन की बेपर्दगी पर भी उन्होंने ऐतराज़ किया "हामिदा चमकी न थी इंग्लिश से जब बेगाना थीं अब चिराग-ए-अंजुमन हैं तब चिराग-ए-खाना थीं"उन्होंने मर्दों को तम्बिया कि "हरम सराह की हिफाज़त को तेग ही न रही तो काम देंगी ये चिलमन की कबतक"इन आला तबके की अंग्रेज़ियत से मुतास्सिर औरतों तक मिडिल क्लास और लोअर क्लास की औरतों की रसाई न थी  ये तबका नसीहत आमेज़ मज़मून निगारी कर के अपनी आना को तस्कीम दे देता था इनमें एक मैं भी थी मगर सत्याग्रह की शमूलात के लिए जो औरतें मैदान में आयीं वो ज़्यादातर मत्तूस्त और गरीब तबके की थी इस तहरीक के साथ ही सियासी और मज़हबी अनासिर ने मिल कर औरतों में दिलेरी, जोश, सियासी सूझ बूझ और ईसार का जज़्बा पैदा कर दिया. अतिया फ़ैज़ी, अनसूया सारा भाई और बहुत सी ख्वातीन के नामों से आशना थे. कौमी तहरीक की इब्तिदा में तो औरतें बंधन तोड़ने की जां तोड़ तश्शूश करती रहीं. ज़्यादातर बुज़ुर्गों की मुख़ालेफ़त ने उनके कदम रोक दिए. कम ही खुल कर सामने आयीं और जेल गयीं. इनमे नेहरू खानदान की ख्वातीन भी थी. इसमें शक नहीं उनमें से चंद ही सियासी करवटों का साथ दे सकीं मगर दरपरदह अपने बेटों और भाइयों की हिम्मत बढ़ाने में उन्होंने काबिल-ए-तारीफ रोल अदा किया.

वो एक ऐसा दौर था के हिन्दुस्तान उसके लिए बिलकुल तैयार था के अमली जद्दो जहद औरतों की इज़्ज़त-ओ-नालूस को दानों पर लगा दें. ये बड़ी तरक्की पसंद भी  औरतों को नाकिस-अल-अक्ल और नाज़ुक फूल समझा करते थे. खुद मत्तूसत तबका की औरतों में भी इसकी सलाहियत ही थी कि वो सियासी ज़िन्दगी में कोई मकाम हासिल कर सकें. दुसरे में अपने बच्चे भी संभालने थे. मर्द जेल चले जाते और घर बच्चों का सारा बोझ औरत के कन्धों पर पद जाता.

उन दिनों उन्होंने मर्दानावार बच्चों की परवरिश लड़कियों की नादाइयाँ तालीम और चारके की कटाई बिदेसी माल के बायकाट वगैरह को अपने सर ले कर बेमिसाल कुर्बानी का मज़हरा किया. माली मुश्किलात ने कमर तोड़ दी लेकिन उन्होंने हिम्मत से सबका मुकाबला किया. कुरकियाँ, घरों की नीलाम, पुलिस की योरिश, आज़ा की इख़्तेलाफ़ सबका मुकाबला किया और ये बात मर्दों से मनवा ली के कौमी जद्दो जेहद में उनका हिस्सा रहा है. अगर वो इन ज़िम्मेदारियों को अपने सर ना लेती तो मर्दों की हिम्मत पस्त हो जाती. औरतों को ये एहसास भी हुआ की सिर्फ़ सियासत उनका पेशा नहीं है. सियासी मशागल के साथ सोशल और इख़्तेसादि तब्दीलियां लाना भी ज़रूरी है. इन सब कामों में उन्हें ज़िला लेवल पर मकामी ऑफिसरों से भी उलझना पड़ा जिनमें बेश्तर का रवैय्या हरगिज़ हमदर्दाना नहीं होता था. उनके खोले हुए इदारे सख्त तरीन इन्क्वायरी और तशद्दुद का निशाना बनते.
”(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवई,मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली) 

अनीस ने स्त्रियों की सीमाओं और गाँधी की राजनीतिक-सामाजिक भूमिका पर बड़ी बेबाक टिप्पणियां की हैं जो इतिहास को स्त्री दृष्टि से देखने की वकालत करता है. निचले  तबकोंहरिजन जातियों के साथ मध्यवर्गीय हिन्दू-मुस्लिम समाज कभी गाँधी के विचार से सहमत नहीं हो पाया.किदवई ने इसे रेखांकित किया है कि सभा-सोसायटियोंसुधार-कार्यक्रमों के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने हरिजनों को सहानुभूति तो दी परन्तु उन्हें वैसे अपना नहीं सके जैसी परिकल्पना गांधी जी की थी- “... वो जब हरिजनों के लिए कुछ करते तो हमदर्दी व खुदा तरसी  के जज़्बे के साथ न की उनको बराबरी सतह पर लाने के लिए.”



११.

अनीस के संस्मरण ‘आज़ादी की छाँव में’ को उनकी आत्मकथा की अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए.’ आज़ादी की छाँव में’ कुल 23अध्यायों में विभक्त है जिसमें सन 1947से 1948के दौर के भारतविशेषकर विभाजन के बाद के भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर प्रामाणिक और बेबाक टिप्पणियां हैं. पुस्तक का पहला अध्याय ही ‘करता हूँ जम्अ फिर जिगर-ए-लख्त-लख्त को’ शीर्षक से है. जिसमें अनीस की गहरी राजनीतिक विश्लेषक दृष्टि की झलक मिलने लगती है – 

“जून में दिल्ली की भंगी बस्ती में एक दिन बापू की प्रार्थना सभा में मेरी बहन बिल्कीस ने जो अपनी जोशीली तबियत की वजह से बोलते वक़्त बहुत बेचैन हो जाया करती हैंयह तय कर लिया कि आज बापू को पकड़कर पूछूंगी ज़रूर कि यह आपने क्या किया हिंदुस्तान हम सबका हैहमको तो यहीं जीना और मरना हैयह आबादी का तबादला और बंटवारा क्या ?एक टुकड़े से उन दिनों को क्या तस्कीन मिल सकती है जो एक ऐसे हिंदुस्तान का ख्वाब देखते रहे हैं जो एक होमहान हो और जिसे कोई जीत न सके.”
(आज़ादी की छाँव में’,बेगम अनीस किदवई,अनुवाद नूर नबी अब्बासी ,नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ,2000:3) 

बेगम किदवई स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गवर्नमेंट हॉउस में जश्ने आज़ादी का आँखों देखा हाल बयान करती हुई लिखती हैं – 

“मेरा दिल डूबा जा रहा था. ऐसा लगता था कोई ख़ुशी का गला घोंट रहा है अरमानों पर ओस पड़ी जा रही है. आज तिरंगे झंडों की बहार में भी दिलकशी न थी !’इन्किलाब जिंदाबाद’ के नारे और जय जयकार आज आत्मा से नहीं टकरा रहे थे. रगों में आज गरम खून नहीं दौड़ रहा था. हिंदी में लिखे हुए साईन बोर्डनारे और पोस्टर सब ऐसा लगता था जैसे हमारा मुंह चिढ़ा रहे हैंमज़ाक उड़ा रहे हैं...चौकियों पर दाहिने-बाएं बौद्ध भिक्षुब्राह्मणनिरंकारी  पता नहीं कौन-कौन विराजमान थे. बहुत सी भाषाओँ में बहुत कुछ हुआ. अंग्रेजी,संस्कृत,अरबी,कठिन हिंदी हरेक में. लेकिन कुछ न हुआ तो अपनी बोली में,वाही प्यारी बोली :जिसकी हर बात में सो फूल महक उठते थे

इतना कुछ हुआ मगर हमारे पल्ले कुछ न पड़ा. मेरी तरह और बहुत-सी औरतें भी रुंधे गलों और हैरान आँखों से सारा सीन देखकर जो घर पलटी तो ऐसा लगा जैसे कमर टूट गयी हो.खुद पहली आज़ाद हिंदुस्तान की गवर्नर सरोजिनी नायडूबावजूद कोशिश केशपथ पत्र सही न पढ़ सकीं. क्या इसी भविष्य के लिए हमने सालहा साल इंतजार किया था हममें से कौन यह जानता था कि गड़े मुर्दे उखाड़े जाएँ और लोकतंत्र की जगह धर्म और मजहब की ठेकेदारी हुकूमत ले ले?”(पृष्ठ 5)

आजादी तो मिली लेकिन किस कीमत परशरणार्थी कैम्पों के भीतर की अव्यवस्था,निर्धनता और अनाथ बच्चों की स्थिति के बारे में वे लिखती हैं –‘....छोटी -छोटी लड़कियां सूखे के मारे बच्चों को कन्धों से लटकाएचेहरों पर हसरत ,बेबसी और फाके की दास्तानें लिए कतार-दर -कतार दो छटांक दूध के इंतज़ार में सुबह से दोपहर तक खड़ी रहतीं. हर मां यह चाहती कि उसके बच्चे को दूध ज्यादा मिल जाए ताकि उसकी सूखी छातियों को थोड़ा-सा आराम नसीब हो.हर लड़की या लड़का इसरार करता कि ज़रा सा और दे दीजिये ,ताकि उसकी भूखी अंतड़ियाँ भी शरीक हो सकें. लेकिन मुस्तैदकिफ़ायती वालंटियर उन्हें धक्के देकर निकाल देते.अगर वे ऐसा न करते तो सुबह की चाय कैसे बनती और वे सूखी रोटी किस चीज़ से भिगोकर अपने गले के नीचे उतारते.

इंसानों का यह जंगल जानवरों की सी ज़िन्दगी बसर कर रहा था. लोग हाथों में ले-लेकर या कागजों और ठीकरों में खाना खाते और ठीकरों पर मिट्टी मिले हुए आटे की सियाह रोटियां पकाते. तवा,देगची और गिलास सबका काम पत्तों और मटकी के टुकड़ों से लेते थे. दो ईंट रखकर ज़रूरत से निपटते और कभी कभी इन्हीं दो ईंटों से बावर्चीखाना भी बना लिया जाता’(पृष्ठ33) आज़ादी की छाँव में-राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है जो देश विभाजन के दौरान और बाद के एक साल में भारत और पाकिस्तान की अवाम में पसरी अव्यवस्थाभ्रष्टाचार और धीरे धीरे इस्लामी राष्ट्र में बदलते जा रहे पाकिस्तान और अफवाहों से घिरे हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविरों का लेखा-जोखा और  विभाजन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्र उपस्थित करती है.

                    

                   १२.


जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है


शास्त्रीय गायन और ग़ज़ल से जुड़ी कलाकार, भारत और पाकिस्तान में अपनी गायकी से शोहरत हासिल करने  वाली मल्लिका पुखराज (1912-2004) ने उर्दू में आत्मकथा लिखीजिसका अंग्रेजी अनुवाद सलीम किदवई ने ‘सांग संग ट्रू’ (गीत, जो सच्चा गाया गया) शीर्षक से किया. आत्मकथा 50उपशीर्षकों में व्यवस्थित है जिसे पति सय्यद शब्बीर हुसैन शाह और महाराजा हरिसिंह को समर्पित किया गया है. प्रवाहमयी उर्दू के साथ अंग्रेजीपंजाबी और फ्रेंच के शब्दों का प्रयोग मल्लिका पुखराज के गहरे जीवनानुभवों और यात्राओं की ओर  संकेत करता है. हालाँकि सलीम किदवई को इसकी पाण्डुलिपि व्यवस्थित हस्तलिपि में नहीं मिली थी लेकिन मल्लिका ने 80वर्ष की उम्र में आत्मकथा लिखी और जन्म-कथा से लेकर बचपन,युवावस्था, जम्मू और पटियाला के राज दरबारों के मीठे-खट्टे अनुभवोंस्मृतियों को आत्मकथ्य में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा.

9वर्ष की उम्र में ही जम्मू के महाराजा हरिसिंह के दरबार में गायिका के तौर पर स्थापित होनाननिहाल और माता द्वारा मल्लिका को मिलने वाले वेतन का उपयोगमल्लिका की कमाई पर पूरे कुनबे का पलनायुवावस्था के कुछ अधूरे प्रेम इन सबका बयान बड़ी ही बेबाकी से मल्लिका करती है. मल्लिका की मां अपनी तीन वर्षीया बेटी को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थी. उनकी इच्छा थी कि मल्लिका सभी कलाओं का उत्कृष्ट ज्ञान हासिल करे वह मल्लिका को लेकर बचपन में ही जम्मू चली आयीं और मल्लिका के पिता जो कुख्यात जुआरी थे वे अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ गाँव में ही रहे. मां ने  मल्लिका को बड़े गुलाम अली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दियाऔर मल्लिका की संगीत शिक्षा आरंभ हुई. मल्लिका अपने जीवन के छोटे बड़े किस्सों का बयां करती है,उसे यह अहसास है कि वह बहुत सुन्दर नहीं है लेकिन संगीत में वह श्रेष्ठ है -इसका ज़िक्र वह लगातार आत्मकथ्य में करती है- 

“मैंने फ्रेंच ब्रोकेड की साड़ी पहनी हुई थी ,उन दिनों अच्छी साड़ियाँ पेरिस ,बम्बई और पूना में बनती थीं.मेरे पास महंगी साड़ियाँ बहुत सी थीं. हर साड़ी दूसरी से सुन्दर.महाराजा हरिसिंह ने मेरे लिए इन्हें विशेष आर्डर देकर मंगवाया था.मैं सुन्दर नहीं थी न ही मैं स्वयं को आकर्षक समझती थी,लेकिन मेरे केश विशिष्ट थे,मोटे घने काले बालों की चोटी जो एड़ी तक पहुँचती थीशायद मुझे सुन्दर बनाती थी ..मैं प्रसाधन का प्रयोग नहीं करतीदरअसल मुझे मालूम ही नहीं था कि सजा -संवरा कैसे जाये ..मुझे कांच की चूड़ियों का बड़ा शौक थाकलाई से कोहनी तक मैं रंगीन कांच की चूड़ियाँ पहना करती...वह व्यक्ति जो हमारा मेजबान था वह बहुत सुदर्शन था और अच्छे कपड़े पहने हुआ था.मिल मालिक था और बाहर निर्यात करता था. अल्लाह ने उसे सुन्दरता के साथ -साथ मीठी ज़बान भी दी थी.पहली बार उससे मिलने पर ही मेरे भीतर तूफ़ान मचलने लगा.उसने मेरी आँखों में गहरे झाँका और एक छोटा सा रुमाल मेरे हाथ में देकर कहा –“इसे पर्स में रख लीजिये.शायद जब आप इसे देखें तो मेरे बारे में सोचें.”
(सांग संग ट्रू--मल्लिका पुखराज,अनुवाद सलीम किदवई ,जुबान,काली फॉर वीमेन,2003:237) 

आगे मल्लिका लिखती हैं –

“मैंने वह रुमाल ले लिया और उसके बारे में सबकुछ याद करती रही,यह पहली बार हुआ कि किसीने पहली मुलाकात में ही मेरे दिलो -दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया हो. मैं बहुत लम्बे समय तक उसके बारे में सोचती रही. मैं हमेशा अपने दिल पर दिमाग को तरजीह देती थी. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि प्रशंसा और चापलूसी का दौर तुरंत ख़त्म भी हो जाया करता हैउसके बाद औरत अपने आपको गुमनामी के कुएं में हमेशा के लिए पायेगी.औरत पर अधिकार पाते ही मर्द उसे सम्मान देना बंद कर देता है. फिर वह अपने पुरुष स्वामी की दासी बनकर रह जाती है. मैंने आत्मसम्मान बनाये रखा और इसलिए स्वयं पर गर्व करती हूँ.मुझे शुरू से ही यह मालूम था कि ऐसे आवेगों पर कैसे काबू रखा जाये.दो दिनों के बाद वह अपने दोस्तों के साथ मेरा गाना सुनने आयाउस दिन भी उसने बहुत बढ़िया कपडे पहने हुए थे.सच तो यह है कि मैं उसे पहले से भी ज्यादा पसंद करने लगी थी. कुछ घंटे बाद जब वह जाने लगा तो उसने धीरे से मुझसे पूछा-“क्या तुमने रुमाल देखा?

मैंने झूठ बोला –“हाँ एक दो बार “
क्या तुमने मेरे बारे में सोचा ?”
हाँ” मैंने सच्चाई से जवाब दिया.

मल्लिका आगे कहती है मेरा आकर्षण मां ने पढ़ लिया था और उससे अलग से मिलने से मन कर दिया.इस बात से वह बहुत खिन्न था ,वह चाहता था कि मैं रोज़ उससे मिलूँ.लेकिन मां के कारण मैं उससे मिल नहीं पाती थी.अकेले में हर वक्त मेरे परिवार का कोई न कोई सदस्य आसपास रहता था .मेरे ऊपर पूरा नियंत्रण मां का था.मुझे लगता है मैं कब और किसे अपने लिए पसंद करूँ यह मेरा निजी मसला होना चाहिए था ,क्या मेरे परिवार को मेरे बारे में हर निर्णय करने का अधिकार था ?क्या हमेशा मुझे वही करना होगा जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था..मैं परिवार की कैद में थी और परिवार के लोग उसका घर आना या हमारा आपस में मिलना बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे.(पृष्ठ 239) इसी चिढ़ में मैंने सबसे मिलना बंद कर दिया.”

मल्लिका कुछ और लोगों से संपर्कों का ज़िक्र करती हैं जिनमें उनकी गायकी और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी आत्मीयता चाहने वालों की फेहरिस्त हैजिनमे एक व्यापारी जो 11बच्चों का पिता है आत्मकथा में मल्लिका बार –बार व्यंग्य और हास्य का पुट बिखेरती चलती हैंजिससे पाठक को ऊब नहीं होती. ऐसा ही एक प्रसंग है इसी  कद्रदान का जो मल्लिका के लिए रेवड़ियाँ लाया करता था और बहुत अच्छे कपड़े पहनता थाउसके ग्यारह बच्चे थे और मल्लिका यह जान गयी कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थीफिर भी वह मल्लिका के लिए उपहार लाया करते. एक दिन उसने अपना प्रेम मल्लिका के ऊपर ज़ाहिर कर ही दिया. मल्लिका लिखती हैं –“पता नहीं कैसे इतनी आर्थिक तंगी के बावजूद वह इतने अच्छे कपड़े पहन लेता था. एक दिन कहने लगा ‘मैं तुमसे एक लम्बे समय से मुहब्बत करता हूँ और रोज़ रात को 3बजे तुम मेरे सपनों में आती हो’. सुनते ही मैं ठठाकर हँस पड़ी. वह सुबक–सुबक कर रोने लगा. उसका बेतरह रोना देखकर मुझे बहुत हंसी आई कि ये मर्द भी क्या हैं. उस स्थिति के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हैंजिसका कारण वे स्वयं हैं."
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:243)

तलाकशुदा स्त्रियों के बारे में मल्लिका लिखती हैं –“हमारे समय में तलाकशुदा स्त्री का जीवन नरकतुल्य था. तलाकशुदा स्त्री की बड़ी बेईज्ज़ती होती थी. आज की तरह तलाक का मसला छोटा-मोटा नहीं माना जाता था. उन दिनों तलाकशुदा स्त्री को बिलकुल अलग-थलग कर दिया जाता था. जिस तरह लोग परिजनों की मृत्यु का शोक जताने जाते हैं वैसे ही तलाकशुदा औरत के भाईमाता-पिता के घर रिश्तेदार और मित्र पहुँचते थे तलाक पर अफ़सोस जताने.” (270) 

मल्लिका अपने ऊपर लादी हुई पारिवारिक और भावात्मक सेंसरशिप को बहुत कायदे से विश्लेषित करती हैं,संगीत में पारंगत होने के साथ साथ कई जगहों पर रहने के कारण उनमें वह अंतर दृष्टि और व्यावहारिकता है कि वह माँ के भावुक स्टेट्समेंट्स की पड़ताल करती चलती हैं,आगे चलकर  ने अपने ऊपर काबिज़ सेंसरशिप के विरोध में घर पर आने वाले सभी लोगों से मिलना बंद कर दिया.परतंत्रता की बेड़ी में छटपटाती हुई मल्लिका ने विद्रोह का स्वर बुलंद किया और रात के अँधेरे में भागकर अपने पुराने विश्वासी मित्र शब्बीर से विवाह कर लिया.माँ के विरोध,मानसिक प्रताड़ना का सामना भी मल्लिका को करना पड़ायहाँ तक कि उन्होंने महफ़िलों में गाना भी बंद कर दिया,बहुत वर्षों बाद उन्होंने रेडियो के लिए ग़ज़लें गायीं.पुस्तक  में मल्लिका ने अपने प्रेम और विवाह के विस्तृत ब्यौरे दिए हैं .उनकी माँ का उनके खिलाफ होना,घर से आधी रात को निकल कर शब्बीर के साथ निकाह की दास्तान बहुत विस्तार से कही गयी है.

एक गायिका का अभिनेत्री बनने के अधूरे सपने का यथार्थ से साक्षात् होना फिर गायन की तरफ लौट आना, आल इंडिया रेडियो में गायकी करना इन सब प्रसंगों को जगह मिली है.’सांग संग ट्रू’ की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है इसके बावजूद इसमें तत्कालीन राजनीतिक सन्दर्भों,घटनाओं की चर्चा से भरसक बचा गया है. ग़ुरबत,,तत्कालीन समाज -सुधार के आन्दोलन इन सबके तापमान का पता यह किताब नहीं देती और साधारण आत्मकथा बनकर रह जाती है. हालाँकि पुस्तक में कई करुण प्रसंग भी  हैं जो पाठक को प्रभावित करते हैं.जम्मू के महाराजा हरिसिंह जिनके दरबार में मल्लिका ने बचपन से ही गाना शुरू कर दिया था. आत्मकथा में उनके  और रियासतों के महाराजाओं के जीवन पर पर्याप्त जानकारी मिलती है. मल्लिका ने लिखा है कि- 'दरबार साजिशों से भरा थामैं महाराजा के साथ कश्मीर की तरफ और शिकार पर भी जाया करती थी. जम्मू में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद स्थिति बदल गयी. मुझपर महाराजा को विष देने का संदेह किया गया..उसके बाद मैंने जम्मू छोड़ने का निर्णय कर लिया” 

वे याद करती हैं कि 

"ऐसा भी समय था कि मैं हँसना चाहकर भी हँस नहीं सकती थी. हिन्दू-मुस्लिम दंगों से मेरा कोई लेना देना नहीं था. नही ये बातें मेरी समझ में आती थींतब भी हिन्दू मेरे शत्रु बन गए. जम्मू के बाहर वालों की बात छोड़ भी दें तो रियासत के भीतर के लोग भी इस बात पर भरोसा करने लग गए कि मैं महाराजा की जान लेना चाहती हूँ.” 

ऐसे माहौल में मल्लिका ने अपनी मां के साथ लाहौर की तरफ जाना तय कियादरबार में अंतिम गीत गाकर. मल्लिका लिखती हैं –

"महाराजा के दरबार में अंतिम गीत गाते हुए मेरी आवाज़ दर्द से भीगी हुई थीमेरा दिल भीतर ही भीतर रो रहा था मेरे गले से करुण बांसुरी की धुन जैसी आवाज़ निकल रही थी. गीत ख़त्म होते ही महाराजा हरिसिंह दरबार छोड़कर भीतर चले गएमुझे मौका भी नहीं मिल सका कि उनसे विदा ले सकूँ.”

मल्लिका ने माँ द्वारा उसके आर्थिक शोषण का भी चित्रण किया है. मां और नाना का परिवार मल्लिका के गायन पर निर्भर थाउनलोगों ने बहुत रुपये उड़ाए भी और डुबाये भी. मल्लिका ने एक समय पर गाना बंद कर दिया. शब्बीर के साथ विवाह ने उन्हें सुख और पूर्णता दीलेकिन छह बच्चों के बावजूद शब्बीर के असामयिक निधन ने मल्लिका को एकाकी कर दिया. बागबानीकढ़ाई-सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुज़ारे. उनके बेटे ने भी जायदाद सम्बन्धी मामलों में उनसे छल किया. उन्होंने नानक देव का चित्र कैनवास पर काढ़ा जो टोरंटो के गुरूद्वारे की शोभा बना. प्रसिद्ध लोक गायिका रेशमा जब उनसे मिलने आई तो उससे कई बार एक ही गीत सुना - हाय ओ रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा. अस्सी के उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और 93वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी. मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतन्त्रता पूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है ..मूल रूप से उर्दू में लिखी इस आत्मकथा को ‘सॉंग संग ट्रू’ शीर्षक से सलीम किदवई ने अंग्रेजी में प्रकाशित करवायाअंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में सलीम किदवई ने बताया कि लाहौरी उर्दू में लिखे लम्बे–लम्बे वाक्यों को अनूदित करने में उन्हें खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही उन्हें एक पन्ने के लम्बे वाक्यों को पढ़ने का अभ्यास हो गया.

रेडियो  ग्रामोफ़ोन कंपनियों की पसंदीदा आवाज़ मल्लिका पुखराज को भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में समान यश मिला. आत्मकथा में उन्होंने अपने बचपन से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा है.आत्मकथा में उन्होंने पाठक को वैसे ही बांधे रखा है जिस तरह वे अपनी आवाज़ के जादू से श्रोताओं को बांधे रखती थीं.महाराजा हरिसिंह ने मल्लिका को अपने दरबार में आश्रय दिया थाजीवन के लगभग आठ दशकों का संगीतमय सफ़र मल्लिका ने पुस्तक में लिपिबद्ध किया है.

यह आत्मकथा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें एक स्त्री कलाकार के संघर्ष,राज्याश्रय की कठिनाईयों,दरबार की आतंरिक राजनीतिस्त्री के बहुपक्षीय शोषण के साथ साथ मनुष्य होने के नाते उसके अंतर्विरोधों को भी पाठक जान पाता है. अपनी  महत्वाकांक्षा के कारण पुखराज को मां तीन वर्ष की उम्र में ही जम्मू लेकर चली गयी, मल्लिका की कहानी पराधीन और स्वाधीन भारत के संधिस्थल पर संगीतकला और नृत्य से रोज़ी –रोटी और सम्मान अर्जित करने वाले कलाकारों की कहानी है. ब्रिटिश भारत की नीतियों ने किस तरह कलाकारों को तवायफ़ों और तवायफों को देह–श्रमिकों में रिडयूस कर दिया. खानदानी गवैये और गायिकाएं जहाँ पहले संस्कृति के वाहक के तौर पर राज्याश्रय और सम्मान पाते थेवहीँ अब बदले समय में उन्हें पुलिस से डरकर रहने पर विवश होना पड़ता था.

धीरे धीरे संपत्तिशाली और सत्ता की सरपरस्ती वाले कलाकारों को छोड़कर दूसरे पेशों को अपनाने के लिए इनमें से बहुत से मजबूर हुए. देखते–देखते उनकी सामाजिक हैसियत में भी गिरावट आईइनमें से कई ने रेडियो और ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए गाना–बजाना शुरू कर दिया. यद्यपि मल्लिका की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी थीउनकी मां और कला के कद्रदानों ने  कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा. आत्मकथा में मल्लिका अपनी मां का ज़िक्र बार–बार करती हैं कि वे बेहद अनुशासनप्रिय थीं लेकिन मल्लिका का दम उनकी सरपरस्ती में घुटता था क्योंकि वे मल्लिका अपनी इच्छा और रूचि से अपने मित्रों का चुनाव करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं थी. उसकी कमाई से ही घर का सारा खर्च चलता था. बचपन में ही किन्हीं बाबा रोटीराम ने कह दिया था कि वह मल्लिका–ए-मुअज्ज़मा (महान साम्राज्ञी) बनेगी.

मल्लिका की मां ने उसे बचपन में ही बड़े ग़ुलामअली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया था ताकि मल्लिका संगीत में पारंगत हो सके. मल्लिका की आत्मकथा की भाषा प्रवाहमयी उर्दू है और बीच बीच में फ्रेंच और जर्मन के शब्द भी प्रयुक्त हैं. नौ वर्ष की उम्र में ही महाराजा हरिसिंह के दरबार में बतौर गायिका शामिल होने वाली मल्लिका को हिन्दुस्तानी ज़बान और तहजीब की संरक्षक के तौर पर देखा जाना चाहिए॰

मल्लिका पुस्तक में न सिर्फ स्त्री के अंतर्द्वंद्व बल्कि पुरुष की दृष्टि में स्त्री की भूमिकाओं की व्याख्या करती चलती हैं.बतौर कलाकार वे उन षड्यंत्रों और साजिशों की चर्चा भी करती हैं जिन्होंने उनके ऊपर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाला.मसलन वे हरिसिंह के दरबार के प्रसंग में लिखती हैं कि महाराजा ने उन्हें बतौर कलाकार 9वर्ष की उम्र में ही संरक्षण दिया,धन,दौलत,मान-सम्मान किसी की कमी नहीं होने दी,परन्तु देश के बंटवारे और हिन्दू–मुसलमान में भेदभाव और अफवाहों ने महाराज को भी नहीं बक्शा और दरबारी षड्यंत्रकारी हरिसिंह को यह समझाने में सफल हो गए कि मल्लिका पुखराज उन्हें विष देकर मारना चाहती है. मल्लिका को यह अपमान भीतर तक चुभ गया और उन्होंने हरिसिंह का दरबार अपना गीत गाकर छोड़ दिया- “इस कहानी के सबके अपने पाठ थे,मेरे ऊपर किसीको विश्वास नहीं थामेरे लिए यह सब झेलना बहुत मुश्किल था”
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:213) 

              

१३.


इसके बरक्स  रंगमंच और फ़िल्म से जुड़ी 1912में ही जन्मी जोहरा सहगल की आत्मकथा ‘क़रीब से’ (2013 ) जिसका हिंदी अनुवाद दीपा पाठक ने किया. जोहरा सहगल की यह पुस्तक रंगमंच और फ़िल्मी परदे पर लगभग सौ वर्षों की उनकी जीवन-यात्रा का ब्यौरा है. आत्मकथा में ज़ोहरा सहगल  अपने बचपन से लेकर अब तक के जीवनकरियर ,विदेश यात्राओं और थियेटर से अपने जुड़ाव की तस्वीर बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत करती दीखती हैं.आत्मकथा की शुरुआत में ही वे लिखती है –
“मैं कभी सोचती हूँ ज़िन्दगी एक बहुत बड़ा मजाक है. एक मैं हूँ जिसने रोज़ अपने दांत ब्रश कियेरोज़ नहायाबिलकुल धर्म की तरह बालों में तेल डालनेकंघी करने और उन्हें धोने का धर्म निभायासाँसों की और बदन की कसरत पूरे नियम से की ,सच को जैसा देखा वैसा ही बोला ...खुद से भी ..लेकिन फिर भीक्या है ज़िन्दगी दिन-ब-दिन कमजोर होता शरीरपैरों की लड़खड़ाहट की वजह से मैं लगभग रुक सी गयी हूँदांत एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैंआँखों की रौशनी इतनी धीमी पड़ती जा रही है कि अक्सर लिखते वक़्त मैं पंक्तियाँ और शब्द देख नहीं पाती...अगर मैं धार्मिक होती तो यही समय था जब मैं ईश्वर पर विश्वास करना शुरू करतीलेकिन मैं नहीं हूँ और इस बारे में बेईमान नहीं हो सकती. मैं मानती हूँ कि कहीं कोई ऊर्जा हैकोई कानून हैकोई एक ऐसा न बदलने वाला नियम जिसमें लाल और पीले रंग को मिलाने पर नारंगी रंग बनता है...कुल मिलाकर देखा जाये तो मैंने एक जोशीली और मज़ेदार ज़िन्दगी जी है. मैंने बहुत-सी यात्रायें की हैं...मैं अपनी पीढ़ी के बहुत से मशहूर लोगों से मिली हूँमैंने दो विश्वयुद्धों का अनुभव किया है और इंग्लैण्ड में दो बार राजतिलक देखा जिसमें रेडियो पर प्रिंस एडवर्ड का इस्तीफे के वक़्त दिया भाषण सुनना भी शामिल है. मैंने कई मशहूर कलाकारों के साथ काम कियाचाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. भला इससे ज्यादा कोई और क्या चाहेगा?
(‘करीब से’-तीसरी घंटी (भूमिका)जोहरा सहगल ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 2013:7-9)

जोहरा सहगल की आत्मकथा में जर्मनी के नृत्य स्कूल में प्रशिक्षण से लेकर पृथ्वी थियेटर से जुड़े अपने रंगमंचीय अनुभवों का विस्तृत ब्यौरा है. आत्मकथा का प्रारंभ’ परिवार का इतिहास “शीर्षक अध्याय से होता है और फिर सिलसिलेवार ढंग से बचपन और लाहौर (1919-1929),यूरोप और डांस स्कूल ,पहली वापसी समेत 12शीर्षकों के अंतर्गत जोहरा की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव,प्रेम,विवाह,करियर,पृथ्वी थियेटर और पृथ्वीराज कपूर से गहरे संवेदनात्मक वर्षो के साथइप्टा का निर्माणउसका प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचना और फिर उसका निष्क्रिय हो जाना जोहरा की जीवन-यात्रा का प्रामाणिक और मय दिनांक ब्यौरा दिया गया है,एक अभिनेत्रीरंगकर्मी,एक माँ और सबसे ऊपर एक स्वतन्त्रचेता  स्त्री जो तमाम विपरीत स्थितियों में भी हार नहीं स्वीकारतीअपने से कम वयस के पुरुष से अंतरजातीय विवाह करने का जोखिम उठाती हैअपने भीतर के कलाकार की हर आवाज़ को सुनती हैंबहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में अपना विकास करती है. पति द्वारा आत्महत्या के प्रसंग पर आत्मालोचन करती हुई  लिखती हैं-
“मैं अक्सर सोचती हूँ कि अगर कामेश्वर ने मुझसे शादी नहीं की होती तो क्या उनकी ज़िन्दगी किसी और तरीके से ख़त्म हुई होती. वे बहुत संवेदनशील इन्सान थे जो कभी भी इस बात को मान नहीं  पाए कि उनकी बीबी अपने काम में लगातार कामयाबी और इज्ज़त हासिल करती जा रही है जबकि उनकी खुद की कामयाबी जो कि हालाँकि कहीं ज्यादा ऊंचे दर्जे की थीरुक-रुककर उन्हें मिली.”(पृष्ठ123) 

जोहरा सहगल की आत्मकथा का वैशिष्ट्य है- आत्मप्रशंसा और श्लाघा से बचते हुए बहुत ही तटस्थ भाव से अपने साथ घटी घटनाओं के ब्यौरे देना,साथ ही साथ अपने भीतर के जन्मजात अभिजात्य भाव को स्वयं चुनौती देना. आत्मकथ्य के प्रारंभ में ही उन्होंने अपने वंश वृक्ष का लेखा -जोखा दिया है.

नजीबाबादके रियासती हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान के खानदान से ताल्लुक रखने वाली जोहरा अपने माँ-बाप की सात संतानों में तीसरी थीं जिसका बचपन शान–ओ-शौकत से गुज़रा.1930में उन्होंने ज़र्मनी के डांस-स्कूल में नृत्य सीखा 1933में वे वापस आयीं और 1935में उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित प्रसिद्ध नाट्य दल से जुड़ीं. कामेश्वर सहगल से प्रेम और फिर विवाह इसी दौरान हुआ. आत्मकथ्य लिखने के बारे में वे प्रारंभ में ही कहती है – 

“कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता हैसबसे बड़ी वजह तो यह कि इन्सान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है. ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाये रखने का जरिया लगता है. मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता हैभला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं कीतुम्हारे संघर्ष कीतुम्हारे सुख या दुःख कीहाँशायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो. हालाँकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देख-भाल करने के बावजूद कभी-कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी ज़िन्दगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी ..पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है.”(23)

जोहरा सहगल का आत्मकथ्य उदयशंकर के नाट्य-दल के बनने और फिर बिखर जाने की कहानी है साथ ही यह पृथ्वीराज कपूर की लगन और मेहनत के अंत:साक्ष्य देने वाली आत्मकथा है जिसमें बतौर निर्देशक और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर द्वारा पृथ्वी थियेटर के उतार-चढ़ाव की घटनाएँ बयान करने वाले ढेरों पत्र संकलित हैं. जोहरा सहगल का यह आत्मकथ्य स्व से ऊपर उठकर भारत में ‘इप्टा’ के बनने-बिगड़ने और फिर खड़े होने की दास्तान है. आत्मकथ्य में हालाँकि जोहरा राजनैतिक चर्चाओं और ब्यौरों से बची हैं फिर भी कथ्य के प्रवाह में तत्कालीन भारत की राजनीति अपनी झलक के साथ उपस्थित हैमसलन अपनी रजिस्ट्री-शादी के दिन का ज़िक्र करती हुई लिखती हैं - नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे  बड़े शहरों में इसकी शाखाएं खुल गयीं..उस समय भारत  अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुज़र रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपंथी  हुआ करते थे जो हम सबको मिल-जुल कर काम करने को प्रेरित करते थे ...मेरी शादी का  दिन था 14अगस्त 1942..यह दूसरे विश्वयुद्ध का समय थाभारत में अँगरेज़ सरकार के खिलाफ़ असहयोग आन्दोलन चल रहा था और चारों ओर अफरा-तफ़री  का माहौल था.(82)  या 

1947के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाक़ये हुएकुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गयीकलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया. उस समय देश में अंतरिम सरकार थी और जवाहर लाल नेहरु उसके उपाध्यक्ष बनाये गए थे...” (93)

जोहरा सहगल ने अपने नृत्य एवं रंगमंचीय करियर के लिए जी- तोड़ मेहनत कीसाथ ही वे अपने बच्चों को भी ऊंची शिक्षा देने में सफल रहीं. आत्मकथ्य मेंवे अपने बेटे पवन के साथ मेल न मिलने पर दुखी  और बेटी किरण  को नृत्य में मिली सफलता से बहुत उत्साहित दीखती हैं साथ ही दिल्ली में एक अदद बसेरा बसाने की कोशिश और सरकारी सहायता के न मिल पाने का खेद भी उनके जीवन के अंतिम दिनों में भी कचोटता है. परन्तु अंततः वे अपने बीते जीवन से संतुष्ट हैं तभी तो लिखती है –
“अपनी सोच और अपने तजुर्बों के हिसाब से सिखाने और निर्देशित करने की पूरी ज़िम्मेदारी लेने के लिहाज़ से मैं  बहुत आलसी थी.पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की  रौशनी का ही लुत्फ़ लेती रही क्योंकि उनके साथ काम करते हुए सारे नाटक ,सारे दौरों की तैयारियां कोई और मेरे लिए करता था,मुझे उसके लिए न कोई परेशानी उठानी पड़ती थी और न कोई ज़िम्मेदारी मुझपर थी.यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेहनत कीलेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थियेटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता. मुझे लगता है ,यह करने के लिए मैं बहुत आलसी थी.हालाँकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला ,लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई,बहुत सारा तजुर्बा कमाया और कड़ी मेहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियाँ पायीं.और क्या चाहिए ,मैं इसे ऐसा ही चाहती थी.”
(क़रीब से ,जोहरा सहगल ,अनुवाद दीपा पाठक ,राजकमल प्रकाशन 2013:241)




१४.


बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा, (1918-1989) जो फिल्मों में रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई  ‘अ वुमन ऑफ़ सब्सटांस’ में  उसने अपने संस्मरणों में अन्तरंग जीवन के पहलुओं को लिखा. जिन्हें पढ़ कर मुस्लिम परिवारों के आतंरिक तापमान का अंदाजा हो जाता है. यह  रशीदजहाँ की छोटी बहन रंगमंच और सिने- अभिनेत्री की आत्मकथा हैजिसे उनकी बेटी लुबना काज़िम ने सम्पादित किया. यह आत्मकथा स्वर्गीय रजिया भट्टी की प्रेरणा से मासिक पत्रिका हेराल्ड के अगस्त 1982से अप्रैल 1983में नौ भागों में धारावाहिक रूप से छपी. आत्मकथा में सन 1857से 1983तक की घटनाओं का ज़िक्र है जिनमें भारतीय मुस्लिम समाजनिजी पारिवारिक स्थितियांनवजागरण और समाज-सुधार के मुद्देहिंदुस्तान–पाकिस्तान का विभाजन. सिनेमा में बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा का जानाउनकी लोकप्रियतासामाजिक सेंसरशिप के दबाव जैसी चर्चाएँ प्रमुख हैं. खुर्शीद मिर्ज़ा ने देश–विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का निर्णय कियालेकिन आत्मकथा में वे स्वयं को पीछे छूट गए भारतीय सदस्य के रूप में देखती हैं. वह जब भी छुट्टियों में अलीगढ़ आती कराची की भीडभाड़ को भूल जाती. आत्मकथा में उन्होंने अपने पिता शेख अब्दुल्लाह के स्त्री–शिक्षा सम्बन्धी प्रयासों का ज़िक्र भी विस्तार से किया है.

दरअसल यह आत्मकथा एक तरह का सामाजिक–ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. एक साथ तीन पीढ़ियों और बदलते हिंदुस्तान और पाकिस्तान की कहानी है. परदे को लेकर जो विमर्श इस आत्मकथा में मिलता हैवह अन्यत्र दुर्लभ है. सन 1904में शेख अब्दुल्लाह ने जो  रिसाला खातून शीर्षक पत्रिका निकाली उसमें मुस्लिम स्त्रियों द्वारा किये गए पर्दा-विमर्श का ज़िक्र विस्तार से खुर्शीद मिर्ज़ा करती हैं. वे बताती हैं कि जब मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में उनके पिता ने कई ठोस प्रयास करने शुरू किये तो कई औरतों ने रिसाले को परदे को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ते हुए परदे के पक्ष में पत्र लिखे.

कई अभिजात्य स्त्रियाँ अपनी बेटियों को लड़कियों के स्कूल में भेजने को इसलिए तैयार नहीं थीं क्योंकि वहां नीचे तबके से भी लड़कियां आएँगी और फिर उनकी आभिजात्यता का क्या होगा. एक लम्बे समय तक स्त्री शिक्षा का मुद्दा बहस का विषय रहाफिर लोगों की रूढ़ धारणाओं में परिवर्तन आने लगे और 1927तक आते आते लड़कियों का स्कूल इंटरमीडिएट कालेज के स्तर पर पहुँच गया. इसमें इस्मत चुगताई जैसी हस्तियों ने शिक्षा ली थी. खुर्शीद मिर्ज़ा इस बात पर बल देती हैं कि लड़कियां शेक्सपीयर के ‘ए मिडसमर नाईट’को पढ़ने के साथ-साथ बास्केटबाल और बेसबाल भी खेलती थीं. खुर्शीद मिर्ज़ा का फिल्मों को अपना करियर बनाना इस बात को दर्शाता है कि मुस्लिम समाज में आधुनिक चेतना का आगाज़ हो रहा था. मुसलमान औरतों की ज़िन्दगी कैसे भारत में बदलाव की और बढ़ रही थीयह पुस्तक उसका मुकम्मल बयान करती है. कैसे आज़ादी की लड़ाई उन्हें सामाजिक समारोहों में शामिल होने और स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे रही थीलेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. हालाँकि शेख अब्दुल्लाह ने अपनी बेटियों को ऊँची शिक्षा के लिए विदेश भेजा. खुर्शीद ने दर्ज किया है कि मंझली आपा खातून जहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए गयीं और बड़ी आपा रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कॉलेजदिल्ली में पढ़ीं और छोटी मुमताज़ आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेजलखनऊ से पढ़ाई की बावजूद इसके इन स्त्रियों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी. 

खुर्शीद मिर्ज़ा अपने भाई के मित्र जाबिर अली के साथ दोस्तीप्रेम और विवाह की यात्रा को दिलचस्प ढंग से लिखती है – 


“मैंने अपने प्रिय भाई हाटू की तर्ज़ पर यह सोचना शुरू कर दिया कि जाबिर की तुलना अन्य किसी से हो ही नहीं सकती. वह राजा भी था और नेता भी. मैंने कभी किसी दूसरे पर ध्यान ही नहीं दिया. हाटू की मित्र-मंडली में हमारे रिश्ते सभी से दोस्ताना थेलेकिन जाबिर वह था जो विशिष्ट था. धीरे-धीरे मेरे हाटू भाई मुझसे दूसरी बातों के बारे में भी चर्चा करने लगेखेल के अलावाअब जाबिर भी अकेला आने लगा. हाटू भाई ने मुझे बताया कि  जाबिर मुझे पसंद करता है. मैं अन्दर ही अन्दर रोमांचित हो उठती मगर डर लगता था कि अगर किसी को पता चल गया तो इसलिए दूसरों की उपस्थिति में मैं उससे परायेपन का व्यवहार करतीउससे लड़ती और उसके घुंघराले बाल खींचतीचिकोटी काटतीउसके चेहरे या नाक पर साबुन मल देती और ऐसा ही बहुत कुछ. वह गर्मियों में हमारे साथ माथेरान आया था. हम पूरे दिन साथ रहते एक दूसरे को चिढ़ाते रहतेमुझे जाबिर के हाव-भाव से यह अहसास होने लगा कि वह मेरे बारे में क्या सोचता है." 

(अ वीमेन ऑफ़ सबस्टांस-मेमोआयर्स ऑफ़ बेग़म खुर्शीद मिर्ज़ा,संपादन लुबना काजिम,जुबान ,दिल्ली ,2005:105-106)             

संस्मरण में खुर्शीद जहाँ ने अपनी बड़ी बहन रशीदजहाँ जो पीडब्लूए से जुड़ी थी उसके बारे में विस्तार से हमीदा सैय्यादुज्ज़ाफ़र के हवाले से लिखा है- शुरू से ही उसमें विद्रोही चेतना बहुत थी. बहुत कम उम्र में ही उसमें सामाजिक अन्याय और गैरबराबरी के प्रति अवहेलना का भाव था. पिता और मां के समाज-सुधार कार्यक्रमों से सम्बद्ध होने के कारण भी उसमें सामान्य जन से खुद को जोड़कर देखने का भाव था.1931-32में मह्मूदुज्ज़ाफ़रसज्ज़ाद ज़हीरअहमद अली और रशीदजहाँ की मुलाक़ात लखनऊ में हुईइन सबमें सामाजिक अन्याय और गैर-बराबरी के प्रति विद्रोही चेतना थी और समाजवादी विचारधारा के प्रति विश्वास था. रशीदजहाँ ने वहीँ पर मह्मूदुज्ज़ाफ़र से प्रेमविवाह कियाउनदोनों का घर मजलूमों और ज़रुरतमंदों के लिए हमेशा खुला रहता था. हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ने भी दर्ज़ किया कि – “मेरी शादी के वक़्त तक रशीदजहाँ ने अपने आपको सभी भौतिक वस्तुओं से काट लिया थापैसासंपत्तिनिजी लाभ सबकुछ से. वह बिना किसी लगाव के अपनी कोई भी चीज़ दूसरों को देने के लिए तैयार रहती. उसका घर एक कम्यून बन गया थाजहाँ जातिधर्मवर्ग किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं था. उसके घर में जाति से चर्मकार  लड़के के काम करने पर कुछ हिन्दू मित्रों को आपत्ति थी जिसके जवाब में रशीदजहाँ ने कहा–“वह लड़का बहुत से ऊँची जात वाले हिन्दुओं की अपेक्षा साफ़-सुथरा हैतुम्हें अगर वह पसंद नहीं है तो तुम मेरे घर में भोजन मत करो.”


रशीदजहाँ को उनके प्रगतिशील विचारों और व्यवहार के लिए खुर्शीद मिर्ज़ा स्मरण करती हैं कि गर्भाशय के कैंसर से मरते वक्त रशीद का कहना था कि उसके शरीर को दफनाने से अच्छा है कि उसे मेडिकल कालेज में प्रयोग के लिए दे दिया जाये. रशीदा के पति ने पत्नी की मृत्यु के बाद ‘क्वेस्ट फॉर लाइफ़’ शीर्षक संस्मरणात्मक किताब में रशीदा की बीमारी और इलाज के लिए मास्को जाने के दिनों का सविस्तार वर्णन किया.
(हमीदा सैयद्दुज्जाफर 1921-28,संपादन लोला चटर्जी,नईदिल्ली ;त्रियाँका,1996) 

संस्मरण इस दौर के ब्यौरों के लिए पठनीय है. बेगम खुर्शीदमिर्जा ने इस किताब में यह बताया है कि कैसे भोपाल की बेगम के सहयोग से पिता ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए स्कूल बनाया और सर सैय्यद अहमद खां की नाराज़गी के बावजूद स्त्री शिक्षा के ये आरंभिक प्रयास कैसे बढ़ते गए. सन1857से 1983के लम्बे समय को समेटती यह किताब खुर्शीद्मिर्ज़ा की आपबीती भी हैजिसमें भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षापर्दा प्रथा के साथ बतौर अभिनेत्री खुर्शीद (जो चित्रपट पर रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई) के जीवनानुभवों का ब्यौरा पाठक को मिलता है.

खुर्शीद ने अपने घर में एक छोटे स्कूल की शुरुआत से स्त्री -शिक्षा के आगाज़ का ज़िक्र किया है जिसमें घर की बड़ी लड़की  रशीदजहाँ समेत कई लड़कियों ने पर्देदारी में ही सहीपढने के लिए जाना शुरू कियाशेख अब्दुल्ला और उनकी बेगम के प्रयास से धीरे-धीरे छात्राओं  की संख्या में इज़ाफा होने लगा. शेख अब्दुल्ला जो भी देशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाएं मंगवातेरशीदजहाँ उन्हें बहुत दिलचस्पी से पढ़ती. इन छोटी लड़कियों को शेक्सपीयर पढ़ना भी बहुत पसंद था. हेड मिस्ट्रेस मिस हाजरा ने भी इन्हें खूब प्रभावित किया. उन्हीं के माध्यम से स्वदेशीहोमरूल आन्दोलन, 1905के बंग-भंग के खिलाफ़ विद्रोह के साथ टैगोरबंकिम आदि के लेखन से नई पीढ़ी  की लड़कियां परिचित हुईं. राष्ट्रवादी नेताओं मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माँ बी अम्मा के अलीगढ़ आने पर, रशीदजहाँ जो उस समय मात्र 14वर्ष की थी उनसे मिलने के लिए बेचैन हो गयीअंत में बी अम्मा से मिलने की अनुमति रशीदजहाँ को एक अध्यापिका के साथ मिली.

मुलाकात हुई और रशीदजहाँ खूब उत्साह के साथ घर लौटी पर बदले मन से -गाँधी के प्रति श्रद्धा ने उसमें सिर्फ खादी पहनने का उत्साह पैदा किया. तबसे उसने सिर्फ खादी पहनी. परिवार में भी उसके इस फैसले पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की. आपा बी ने बहुत पहले मेडिसिन की पढ़ाई के लिए घर छोड़ दिया. वह स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनी कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उसने खूब नाम कमाया. 1927में जब मैंने आपा बी को देखा तो वह खूब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी -उसे देखना एक आश्चर्य था...शायद यह उसी साल की बात हैआपा बी छुट्टियों में घर आई थीं. मां ने हमारे घने बालों सेजिनमें जुएँ भरी रहती थीं हार मान ली थी. आपा बी (रशीदजहाँ) हर बार की तरह त्वरित समाधान के साथ मौजूद थीं. उन्होंने हमारे बालों में किरोसीन तेल  लगा दिया और लम्बे बालों को काट दिया. उनके अपने बाल पहले से ही कटे हुए थे मुझे बहुत पसंद थे और अब हमने भी लम्बीघनी कसी हुई चोटियों को अलविदा कहा. अंततः ये भी तो एक मुक्ति ही थी.”
(माई सिस्टर रशीदजहाँ (1905-1952)द मेमोआयर्स ऑफ़ बेगम खुर्शीद् मिर्ज़ा,अध्याय 6,2005 ,जुबान बुक्स ,काली फार विमेन,हौजखास एन्क्लेव ,दिल्ली:90 )


बदलते भारत में मुस्लिम औरतों की आज़ादी के मुद्दे पर खुर्शीद मिर्ज़ा बेबाक टिप्पणी करती हैं उनका मानना है कि राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर चैतन्य  भारत में उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतासामाजिक मेल-मिलाप के मौके तो मिल रहे थे लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. बौद्धिक रूप से सचेतन परिवारों की संख्या कम थी जो शेख अब्दुल्ला की तरह अपनी बेटियों को विदेश में तालीम हासिल करने भेजते. रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कालेजदिल्ली, मंझली बहन ख़ातूनजहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए गयी,छो टी आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज लखनऊ से अंग्रेजी में एम्. ए.किया. इस तरह के विवरण देते हुए खुर्शीदमिर्ज़ा की टिप्पणी है कि- “फिर भी इन औरतों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी."



१५.
डॉटर ऑफ़ द ईस्ट ‘पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रह चुकी बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा है जो ‘मेरी आपबीती’ शीर्षक से हिंदी में अनूदित हुई. यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. आत्मकथा अपने खानदान, पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को 1979में तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ द्वारा फांसी दिए जाने की घटना के इर्द-गिर्दअपना राजनैतिक जीवन और पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया के हनन और उसके विरोध में फिर-फिर उठ खड़े होने की चुनौतियाँ झेलती बेनजीर के जीवन के बहुत से अनछुए पहलू सामने लाती है जो  पाठक की राजनीतिक समझ को साफ़ करते हैं और साथ ही दक्षिण एशिया के देश में धर्मराजनीतिसत्ताऔर फौजी शासन के  समीकरण से टकराते लोकतंत्र की दशा और दिशा  की जानकारी भी देते हैं. पिता की मृत्यु के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की कमान बेनजीर भुट्टो ने संभाल ली. वे सन1981के दौरान  पाकिस्तान में तीन  महीने नज़रबंद रहीं इसके बाद वे इंग्लैण्ड में निर्वासन में रहीं. अपने छोटे भाई शाहनवाज़ को दफ़नाने के लिए वे पाकिस्तान लौटीं.

लाखों की संख्या में जनता ने उनका स्वागत कियाजनता जियाउलहक से तंग आ चुकी थी और बेनजीर भुट्टो में पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की छवि देखती थी. बेनजीर को फिर से जेल में बंद कर दिया गया. आत्मकथा में बेनजीर अपने जीवन के उन वर्षों को याद करती हैं जब उनपर कड़े पहरे थेपहरेदारिन के बारे में वे लिखती हैं – “चाहे मैं आ रही होऊंया बाहर जा रही होऊं. वह बेहद कठोर थीकोई सहानुभूति नहीं. मुझे लगता था कि हुकूमत ने जानबूझकर उसे मुझपर तैनात कर रखा था. वह बहुत नीच लगती थीवैसी ही जैसी घड़ी और अंगूठी उतरवाकर वापस न करने वाली. उसकी नज़र से बचने के लिए कुछ भी बहुत छोटी चीज़ नहीं थी ..”.. मैं तलाशी नहीं दूंगीमैं तलाशी दूंगी ही नहीं," मैं चीखीऔर कार से दूर जाने लगी...मैं जब जेल में अपने पिता से मिलने गयी तब भी तलाशी हुईवहां से बाहर निकलते समय मेरी तलाशी ली गयीजब मैं अपनी मां के पास दूसरी जेल में गयीतब भी मेरी तलाशी ली गयीआते समय फि.. मेरी बहुत बार तलाशी हो चुकी हैअब बस ..बहुत हुआ’
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:144)


बेनजीर की आत्मकथा की विशेषता है कि वह एक राजनीतिक स्त्री की आत्मकथा होते हुए भी अपने-आप में में किसी आम  स्त्री की आत्मकथा मालूम देती हैमसलन आत्मकथा में उन्होंने अपने बच्चों को लेकरअपने स्वास्थ्य को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की हैं वे देश की चिंता के समानांतर चलती रहती हैंएक साधारण-सी  पितृविहीन लड़की, एक चिंतित माँएकाकी राजनीतिज्ञ की अनेकानेक छवियाँ पाठक के सामने कौंध जाती हैंलेकिन सब पर हावी रहती है व्यावहारिकता-लोकतंत्र की चिंता- देश के साथ उनका जुड़ाव. पुस्तक की भूमिका में वे लिखती हैं –

“मैंने यह ज़िन्दगी खुद नहीं चुनीज़िन्दगी ने मुझे चुना.पाकिस्तान में जन्मीमेरी ज़िन्दगी बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रहीउसमें दुःख-विपत्तियाँ  हैं तो कामयाबी के झंडे भी फहराए हैं...पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं हैन ही मेरी ज़िन्दगी कोई सीधी-सपाट ज़िन्दगी है. मेरे पिता और दो भाई मार दिए गए. मेरी माँमेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया. मैंने कई कई बरस का देश-निकाला झेला. इन तमाम दुःख-मुसीबतों के बावजूदमैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ. मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश मेंलोकतान्त्रिक चुनाव के ज़रिये पहली  प्रधानमंत्री बन सकी. यह चुनाव उस  बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ थाजो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था. इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरतदेश की प्रधानमंत्री बनकर देश की अगुवाई कर सकती है और उसे देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रजामंदी दे सकते हैं ...इस दुनिया में बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वे इस समाज  में कुछ बदलाव ला सकेंदेश में आधुनिकता की राह बना सकें और मामूली भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों के बारे में घिसे-पिटे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगो को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है.”
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:9) 

बेनजीर भुट्टो की यह आत्मकथा अपनी सीमाओं में बहुत ही सुरक्षित जीवन जीने वाली लड़की की जीवन-यात्रा  की कथा है जिसने रेडक्लिफ और आक्सफोर्ड में शिक्षा ग्रहण की.राजनीतिक परिवार के संस्कारों ने उन्हें साहस और सूझ-बूझ दी. वे  एक इस्लामिक देश की चुनी हुई  प्रधानमंत्री बनीं .पाकिस्तान में तख्तापलट के बाद उनके पिता को फांसी दे दी गयी थी और दो भाइयों को मार दिया गया.नज़रबंदीअपने ही बच्चों से अलग रहने की विवशता,पाकिस्तानी सेना का अधिनायकत्व,कारावास की भीषण यातनाएंजनरल मुशर्रफ के शासन काल तक तक उन्होंने राजनैतिक रूप से चैतन्य जीवन जिया,उन्होंने लिखा – 


2007में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ लौटते  वक्त न सिर्फ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए  मौजूद खतरों से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ.हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरूं तो गोलियों की शिकार हो जाऊं. पहले भी अल-क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है. हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगाक्योंकि मैं अपने वतन में लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतान्त्रिक चुनावों से नफ़रत है लेकिन मैं तो वही करुँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतान्त्रिक आकाँक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ”..
 इस पत्र के कुछ ही महीने बाद 27दिसंबर 2007में बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी में मार दिया गया.उनकी आत्मकथा के बारे में सन्डे टाईम्स ने लिखा-

“यह एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियाँ स्वीकार कीं,जिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुएजिसने पाकिस्तान की आजादी की मशाल जलाये रखी,बावज़ूद तानाशाही के विरोध के.” 
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:ब्लर्ब )




कागज़ी है पैरहन’ इस्मत चुगताई की आत्मकथा है जिसका देवनागरी में लिप्यंतरण इफ्तिखार अंजुम ने किया. बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में परदेदार कुलीन घराने की मुस्लिम स्त्री के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होने के कारण इस्मत चुगताई को मरणोपरांत  इस पुस्तक ने बहुत लोकप्रियता दिलवाई. हालाँकि इसे सीधे-सीधे आत्मकथा नहीं कहा जा सकताक्योंकि इसमें जन्म से आगे की घटनाएँ उस ढंग से सिलसिलेवार नहीं हैं,यह खण्डों में बिना तरतीब के है.14अध्यायों में बंटी इस आत्मकथा का धारावाहिक रूप में ‘आजकल’ उर्दू पत्रिका में (मार्च 1969से मार्च 1970 )प्रकाशन हुआ. 

इस्मत चुगताई की मृत्यु सन 1991में हुई और उसके तीन वर्ष बाद उर्दू पत्रिका में छपे उन टुकड़ों को एकत्र करके पुस्तकाकार छापने का निर्णय लिया गया. कागज़ी है पैरहन- परंपरागत अर्थों में आत्मकथा न होते हुए भी टुकड़े-टुकड़ों में इस्मत की जीवन स्मृतियों को सामने लाती है जिसका अंग्रेजी तर्जुमा करने वाले एम.असाउद्दीन का कहना है कि इस्मत समाज में व्याप्त लैंगिक विभेद और समाज की सामंती-पितृसत्ताक संरचना से भली-भांति परिचित थींजिस समाज में वे रहती थीं उसके दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और विरोध  करने के लिए वे जो कर सकती थीं किया.

’कागज़ी है पैरहन’ कुल 14अध्यायों में विभक्त है जिसे उर्दू पत्रिका ‘आजकल’ में 1970  के दौरान धारावाहिक रूप में पाठकों के सामने आने का मौका मिला. ’आजकल’ ही वह पत्रिका थी जिसमें अनीस किदवई का आत्मकथ्य ‘गुब्बार ए-कारवां’ छपा था.

इस पत्रिका ने कई लेखकों के आत्मकथ्य प्रकाशित किये. ’कागज़ी है पैरहन’ उन आत्मकथ्यों में से है जो ये बताते हैं कि रचना का आत्म बहुस्तरीय होता है और स्मृतियाँ ठीक उस ढंग से नहीं आतीं जैसा जीवन का सिलसिला होता है. बतौर रचनाकारबतौर स्त्री और बतौर मुस्लिम होने के नाते आत्मकथा लेखन के अनंतर जो चुनौतियाँ इस्मत के सामने आती हैंउनके बारे में वे बताती हैं. लेखकीय इयत्ता और आत्म के  पुनर्प्रस्तुतिकरण के उत्कृष्ट उदाहरण के नज़रिए से इस आत्मकथा को देखा जाना चाहिए. इस्मत चुगताई के लेखन को उर्दू गद्य की आधुनिक लयकारी की दृष्टि से भी सराहा गया. इस्मत ने पढ़ने-लिखने और जीवन में अपना मुकाम हासिल करने के लिए किस तरह मुस्लिम परम्परावादी समाज का सामना कियाउनकी जिद्द ही थी जिसने उनके भीतर लैंगिक विभेद के प्रति विद्रोह पैदा कियाऔर ऐसे मुद्दों पर लिखवाया जिसमें समाज के रसूखदार लोगों का जीवन प्रतिबिंबित होता था.

लेखन प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है –
“लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैंउनसे बातें कर रही हूँ और वो सुन रहे हैं. मेरे कुछ हमखयाल हैंकुछ मोतरिज़ हैंकुछ मुस्कुरा रहे हैंकुछ गुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूँ तो यही अहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूँ.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:ब्लर्ब)


इस पुस्तक में स्मृतियाँ श्रृंखलाबद्ध रूप में नहीं आई हैं,बचपन के बारे में इस्मत लिखती हैं- 


"मेरी अम्मा को मेरी हरकतें एक आँख न भाती थीं. मेरे अंजाम की उन्हें सख्त फ़िक्र थी. ये मर्दमार बातें औरतों को जेब नहीं देतीं. वह इतनी गहराई से न इन बातों को समझती थीं और न समझा सकती थींमगर  मुझे मालूम हुआ कि मेरी अम्मा क्यों डरती थीं. यह मर्द की दुनिया हैमर्द ने बनाई और बिगाड़ी है. औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनिया का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफरत के इज़हार का जरिया बना रखा है. वह उसे मूड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है. औरत को दुनिया में अपना मुकाम पैदा करने के लिए निस्वानी हर्बों से काम लेना पड़ता है. सब्र होशियारीदानिशमंदीसलीका जो मर्द को उसका मुहताज बना दे. शुरू ही से लड़के को मुहताज बनाना कि वह अपना बटन टांकते शरमाये. रोटी ठोकते डूब मरे. आसान-आसान छोटे छोटे काम जो नौकर कर सकते हैंअपने हाथ से करना. उसकी ज्यादतियों को सर झुकाकर सहना कि वह शर्मिंदा होकर क़दमों पर गिर पड़े.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:14)


इस्मत स्त्री की इस गुलाम मानसिकता से अपने ढंग से टकराती हैं. बहुत कम उम्र में लैंगिक विभेद को परख लेती हैं. वह रशीदजहाँ के बारे में लिखती है– 

“रशीदजहाँ ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था.मैंने उनसे साफ़गोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की.”(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:15) 


इस्मत की आत्मकथा की विशेषता है साफ़गोई और बिना लाग-लपेट के अपनी बात को कहने की कोशिश ,वे अपने बचपन के दिनों से लेकर भाइयों के साथ पढ़ाई-लिखाई के अनुभवों के साथ यौनिकता के मुद्दों पर बड़े ही बेबाक अंदाज़ में बात करती हैं. वे धर्मराजनीति,परदे के मुद्दों पर पिताभाइयों,पुरुष रिश्तेदारों से बात करती हैं ताकि जान सकें कि आधी आबादी ,जो बाहर की दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ़ है वह अंतरमहल की समस्याओं पर क्या सोच रखती है. 
”लड़कों के लिए यह आम रवैया मुनासिब समझा जाता हैमैं लड़की थी. अम्माखालायेंफूफियाँचचियाँ हैबतज़दा थीं. औरतज़ात को ये मुंहज़ोरियां जेब नहीं देतीं. ससुराल में कैसे गुज़र होगी समाज ने औरत का एक ठिकाना मुक़र्रर कर दिया हैउससे बाहर क़दम रखा तो पैर छांट दिए जायेंगे .ज्यादा तालीम भी बलाए जान होती है. हमारे यहाँ कौलो-फ़ेल पर पाबन्दी नहीं थी. मगर यह शर्त सिर्फ़ मर्दों तक थी. मुझे इन हरकतों पर डांट खानी पड़ती थी‘
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:17) 

लैंगिक विभेद युक्त समाज ,स्त्री के लिए सीमायें तय करता समाज इस पुस्तक में सब कहीं है. मुस्लिम समाज और औरतों की इच्छाओंकामनाओं को अनुशासन में रखती चली आती व्यवस्थाओं का पर्दाफाशबड़े ही सहज ढंग से यह पुस्तक करती चलती है. परदे और मुस्लिम स्त्री होने के कारण लादी गयी पाबंदियों की फेहरिस्त लम्बी हैइसलिए उनसे टक्कर लेकर अपनी इच्छा से अपने जीवन को जीने की छूट लेने की चुनौतियाँ और संघर्ष भी बड़े रहे होंगेयह आत्मकथा औरतों की चुप्पी और उनके कथन की  दरारों को चौड़ा करके दिखाती हैजिनमें विभिन्न तबकों से आई हुई औरतें हैंजिनकी आवाज़ दबते-दबते गूंगी हो गयी है. पति की कृपा पर उनकी यौनेच्छायें निर्भर हैंअभिकर्ता के रूप में वे अपनी इस स्थिति को अस्वीकार करती हैं. वे हर तबके में दबी-कुचली और शोषित हैं लेकिन दिशाहारा॰



१६
               


उजाला दे चराग़-ए-रहगुज़र आसाँ नहीं होता
हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता   
(अदा ज़ाफरी )

इस्मत चुगताई की आत्मकथा के बरक्स अदा ज़ाफरी की आत्मकथा को रखकर देखना दिलचस्प है. देश विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर बसने वाली अदा ज़ाफरी ने गजलकार के तौर पर नाम कमाया लेकिन विवाह के पहले जब वे बदायूं में रहती थीं उन्हें लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा क्योंकि मुस्लिम खानदान स्त्री को पर्दे से बाहर आने नहीं देना चाहता था “जो रही वो बेखबरी रही" (1995) शीर्षक आत्मकथ्य में 1924मे उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुई अदा ज़ाफरी जेंडर और स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर  अपनी समकालीनों से भिन्न हैं. इनसे पहले अधिकतर मुस्लिम स्त्रियाँ जिन्होंने आत्मकथाएं लिखीं वे शिक्षितअभिजात्य अथवा राजनीतिक सक्रियता रखने वाले परिवारों से सम्बद्ध थीं. उनका लिखना उन्नीसवीं सदी के स्त्री सुधारों और स्त्री शिक्षा के कार्यक्रमों का ही एक विस्तार थाया यों कहें कि आत्मकथा लेखन के माध्यम से वे राष्ट्रीय आख्यान का अंग बन रही थीं और मुस्लिम आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक भूमिका अदा करने का प्रयास कर रही थींइसलिए उनके आत्माख्यानों मे विषय वैविध्य के साथ साथ एक विशिष्टता बोध भी दिखाई देता हैइनमें से कुछ यौनिकता के प्रश्नों पर अतिरिक्त मुखर हैं मसलन इस्मत चुगताई. तो कुछ के लिए प्रेम,पति,प्रेमी और यौनेच्छा पर एक पंक्ति भी लिख पाना मुमकिन नहीं हो पाया. कुछ पर खुद की सेंसरशिप हावी है कुछ पर इस्लाम की और कुछ के साथ परिवार,समाज,पाठक का भय चलता है जिसे उनके टेक्स्ट की दरारों से ही समझा जा सकता है. 

इसके लिए अदा ज़ाफरी के आत्मकथ्य को देखा जाना चाहिए जो एक साधारण परिवार से सम्बद्ध थी जिनका बचपन से एक ही सपना था कि वे अपनी खुली आँखों से दुनिया देखें. पर्दा और लैंगिक विभेदवादी परिवार और समाज में उन्हें ऐसी कोई छूट मिलनी संभव नहीं थीवे अपनी कथा में लिखती हैं कि स्वतंत्र होने के लिए उन्होने एक उच्च पदस्थ अधिकारी से विवाह कियाविवाह के बाद ही संभव हो पाया कि वे पति के साथ देश-दुनिया घूमें और नए नए लोगों से मिलें-जुलें. लेकिन बतौर कवयित्री एक लंबा कैरियर गुजरने के बाद उम्र के इकहत्तरवें साल मे  ही वे आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाईं.
(https://books.google.com/books?id=1lTnv6o-d_oC&pg=PA352)



इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद पाकिस्तान के माहौल और बचपन के अनुकूलन ने उनपर सेंसरशिप इस कदर तारी रखी कि वे परिवार के किसी पुरुष सदस्य पर टिप्पणी से बचती हैं यही नहीं वे जिन भी  पुरुषों का ज़िक्र करती हैं उन्हे ‘भाई ‘कहकर संबोधित करती हैं मानों पाठक की कल्पना पर लगाम लगा देना चाहती हों कि कहीं उन्हें ऐसी स्त्री न समझ लिया जाये जिसके मित्र पुरुष थे. उनकी कविता से प्रभावित होकर ही उनके पति ने विवाह -प्रस्ताव रखा थालेकिन वे कहती हैं कि विवाह के बाद मिली स्वतन्त्रतामाहौल ने भी बचपन के दिनों की परतंत्रता का मलाल उनके मन से दूर नहीं किया. 

पूरे आत्मकथ्य में उनका स्वर क्षमा-याचना का हैजैसे लिखना उनका अधिकार न होयह अवसर दिये जाने पर  वे परिवारसमाज की शुक्रगुजार हों. समकालीन पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों की प्रशंसा उनके आत्मकथ्य मे रेखांकित करने योग्य है जिसमें ग़ुलाम इश्हाक खानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ शामिल हैं जिन्होने लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज़ बुलंद की. आत्मकथ्य के अंतिम अध्याय में अदा ज़ाफरी ने स्वीकार किया है कि उन्होने उनलोगों का ज़िक्र ही छोड़ दिया है जो जीवन में कभी भी उनके लिए तकलीफ का सबब बने हैं. वे लिखती हैं- 


"ऐसा नहीं है कि मुझे किसीसे चोट नहीं पहुंची. जीवन में ऐसे बहुत से लोग आते ही हैं जिनसे टकराव होता ही हैइनकी गिनती दोस्तों से ज़्यादा होती है. तकलीफदेह बातों को याद करने का क्या फायदा. ज़िंदगी बहुत छोटी है और माफ़ करना मेरे अल्लाह की फितरत."
अदा जाफरी के आत्मकथ्य मे स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बात करने से हर संभव बचा गया हैउनकी कोशिश रही है कि पाठक समझे कि उनका पूरा जीवन बहुत ही नैतिक दृष्टिसामाजिक मान-मर्यादा के निर्वाह के साथ जिया गया हैऐसा नहीं कि उनके कुछ सपने नहीं होंगेसपने नहीं होते तो वे अपनी कविता मे इतने विविधमुखी रंगों का प्रयोग कैसे कर पातीं. यद्यपि वे घरेलू परिधि में बंधी हुई हैं लेकिन स्त्री स्वाधीनता के वैश्विक परिदृश्य से नितांत अपरिचित नहीं हैंवे पूरा अध्याय सिल्विया प्लाथ पर लिख डालती हैं और पितृसत्तात्मक जकदबंदी से निकलने का प्रयास करने वालियों की तारीफ़ भी करती हैं. जहां तक उनके निज का प्रश्न है वे सत्रह साल तक इसलिए कविता लिखना छोड़ देती हैं क्योंकि उनपर गृहस्थी के दायित्व थे. घर के दायरे से बाहर निकल कर वे कविता मे अपनी मुक्तिकामना अभिव्यक्त करती हैं. अदा ज़ाफरी को उनके द्वारा अपनाई गयी विधाओं और काव्यात्मक प्रयोगों के लिए जाना जाता है ,इसी वजह से अपने समकालीनों में वे ईर्ष्या और आलोचना का पात्र भी बनीं लेकिन स्त्रीवादी लेखन और बोल्डनेस की दृष्टि से उनकी आत्मकथा बहुत नरम हैउनका स्वर स्त्रीवाद की अन्य पक्षधरों की तरह बुलंद नहीं हैफिर भी वे पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ी दीखती हैं. उनके बारे में यशस्वी कहानीकार इंतज़ार हुसैन का कहना है कि बदायूं जैसी छोटी जगह पर रह कर उन्होने गज़ल के क्षेत्र में जो नाम कमाया वह अविस्मरणीय ही है.

उनका लिखना ही अपने–आप में पुरुष–सत्ता को चुनौती थीक्योंकि अदा ज़ाफरी ने सिर्फ गजलें ही नहीं कहीं बल्कि कविता के कई प्रयोग भी किए. इसके बावजूद उनकी आवाज़ में उस दौर की स्त्रीवादियों की तरह सीधे कह देने के साहस का अभाव हम पाते हैंजबकि जिस समय वे लिख रही थीं इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ चर्चा का विषय बन चुकी थी. अदा भी खुल कर अकेले घूमने की आज़ादीनयी-नयी जगहें देखने की तमन्ना से लबरेज दीखती हैं. 

अदा ज़ाफरी को पति की सरपरस्ती मे बहुत से देश यूरोप और अमेरिका घूमने का मौका मिला. बदायूं की वह लड़की जो पर्दे के भीतर ग़ज़ल कहती थी अब अपनी बात खुलकर सभा -सोसायटियों में करने लगी. उनका आत्मकथ्य को एक सोद्देश्य पाठ की दृष्टि से देखा जाना चाहिए जो बतौर कवयित्री उनके करियर पर उन दबावों की पड़ताल करता हैजिनके कारण वे बीच के सत्रह वर्ष कुछ लिख ही नहीं सकीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गुलाम इशाकखानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ़ के लोकतान्त्रिक रवैयों की तारीफ करती नहीं अघातीं. पति की तारीफ,उनके अपने जीवन में योगदान को नहीं भूलतीं.

पूरे आत्मकथ्य में उनका सुर बहुत मृदु और नपातुला  है. फिर भी जीवन के प्रतिउनका असंतोष पाठक की पकड़ मे आ ही जाता है. उन्हे अफसोस है कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों मे उन्हे खुलकर बोलनेघूमने-फ़िरने की आज़ादी नहीं थी, वे गज़लें कहतीं थीं तो पुरुष प्रधान समाज मे उन्हे अपमान का सामना करना पड़ा. विवाह-पूर्व के इन अनुभवों को वे कभी भुला नहीं पातीं. वे कहीं भी स्त्री-यौनिकताअपनी इच्छा कामना के बारे मे नहीं लिखतीं. इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे स्त्री के साथ परंपरागत ढंग से जुड़े टैबूसतीत्व के मानदंडों को चुनौती देना  तो दूर उनपर एक वाक्य लिखने का जोखिम तक नहीं उठाती. हालांकि ऐसा नहीं है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ मे शामिल स्त्रियॉं की भूमिका या  वैश्विक परिदृश्य  से अपरिचित हैंवे बोल्ड रूप मे सामने आ रही स्त्रियॉं की प्रशंसा भी करती हैं  अपनी मंद्र आवाज को लेकर क्षमा-याचना की मुद्रा मे भी हैं. 

पाठक महसूस कर लेता है कि इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद स्त्री यौनिकतास्त्री मुक्ति के प्रश्नों पर वे मौन हैं. वे सामाजिकपारिवारिक और व्यक्तिगत सेंसरशिप का पालन करती हैंपतिबच्चे,रिश्तेदार किसी को रुसवा करने का खतरा नहीं उठाना चाहतीं. इस  चुप्पी को आत्मकथ्य की दरारों से होकर समझा जाना चाहिएवे स्त्रीत्व के सभी कोमल गुणों से भरी हैंवे स्वयं को सहनशीलपरिवार और गृहस्थीबच्चों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करने वाली स्त्री के रूप में देखती हैं.

वे वह त्यागमयी स्त्री हैं जो पाकिस्तान का प्रतीक है– जिसके बच्चे उसे छोड़कर कई दिशाओं में चले गए हैं. उनका आत्मकथ्य ‘निज’ की आधुनिक परिभाषा से दूर दीखता हैवे देश विभाजन की पीड़ाबच्चों के दूर जाकर बसने  की तकलीफअतीत की स्मृतियों  का बयान करती चलती हैं. जेंडर के मुद्दे पर वे सिर्फ अपने  पत्नीत्व और मातृत्व की चर्चा करती हैं जिसमें स्त्री यौनिकता पर किसी टिप्पणी का नितांत अभाव है.



१७.

अदा ज़ाफरी के नियंत्रित आत्मकथ्य से ठीक उलट है आईने के सामने अतिया दाऊद का आत्मकथ्यजिसका देवनागरी लिप्यंतरण इजलाल मजीद ने किया. पाकिस्तान के जिले नौशेरा में जन्मी अतिया-दाऊद सिंधी की प्रमुख  कवयित्री हैं जिसमें एक बहुत ही साधारण परिवार के अतीत का प्रत्याख्यान है जो बहुत कम उम्र में अपने माँ–बाप को खो देती हैपरंपरागत और रूढ़ियों में डूबते–उतराते समाज के कई अक्स अतिया के आत्मकथ्य में देखे जा सकते हैंजिसकी भूमिका में अतिया ने अतीत को फिर से मुड़ कर देखने और दोहराने पर मानी खेज़ टिप्पणी करते हुए लिखा- 

सच बात तो  यह है कि अगर मैं यह पहले से जानती होती कि ज़िंदगी गुजारने से भी जियादह तकलीफदेह गुज़री हुई ज़िंदगी को दोहराना है तो मैं कभी नहीं लिखती. इस बात का मशवरा मेरे दोस्त आसिफ फर्रूखी ने दिया. गोया यह कि मुझे यह मशवरा देकर जलते हुए शोलों की तरफ धकेल दिया ....मसला यह था कि वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में जाकर ठहर जाती थी. जब मेरे बाप की मौत होती तो उस दिन फिर हो जाती जिस दिन मैं लिख रही हूँ. हर अजियतनाक इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से ..और मैं फूट–फूटकर रोयी हूँतड़पी हूँजुदाई की आग में जली हूँ. जब छोटी-सी बच्ची को उसकी भाभी डंडे से मारती है तो मेरा जिस्म उस अज़ाब को फिर से झेलता रहासुलगता रहा. जब वो बच्ची लाल शर्बत की खुशबू सूँघती हैउसको भाभी के डर से पी नहीं सकती तो मेरे अंदर इस कदर प्यास भड़क उठी कि कितना भी पानी पिया मगर हलक में कांटे चुभते ही रहे. इस आपबीती को लिखते हुए मुझमें तब्दीलियाँ भी आयीं. जिन किरदारों से नफ़रत थीअंदर से राख़ की तरह दबी हुईवो बहुत खुलकर अब महसूस होने लगी. और जो मोहब्बत की दबी–दबी चिंगारियाँ थीं वो शोलों की तरह भड़क उठीं."
(आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:13 )

अतिया की जीवन यात्रा गरीबी और मुफ़लिसी से गुजरते हुए स्वयं अपने निर्णय लेकर जीवन में मर्जी से विवाह और बतौर एक्टिविस्ट और कवयित्री अपनी पहचान निर्मित करने की कहानी है. आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है अन्य कथाकारों से अलग हटकर स्पष्ट ढंग से अपनी इच्छा–अनिच्छायौन–शोषण के बारे में बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालना. निश्चय ही इसके लिए जिस साहस और पारिवारिक समर्थन की ज़रूरत होती होगी वह अतिया के पास है तभी तो वह बचपन में हुए यौन–शोषण को इन शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं- 


"उसने लकड़ियों का ढेर जमा कर लिया. मुझे हैरत नहीं हो रही थी क्योंकि यह आम बात थी. और बच्चों के मुक़ाबले में मुझे लोग ज़्यादा तवज्जो देते थे. मैं भी और दूसरे बच्चे भी इस बात के आदी थेजब लकड़ियाँ जमा कर चुके तो वह मेरे क़रीब आया और कहने लगाअब तो तुम खुश हो मैंने कहा – “हाँ “उसने मेरी शर्ट ऊपर कर दी और मेरी छातियों को हाथ से मसलने लगा. मेरी उम्र नौ साल रही होगी और मैं एक कमज़ोर-सी बच्ची थी. कुछ था भी नहींमुझे शर्म भी नहीं आई. मगर उसकी आँखों से मुझे खौफ़ आने लगा. उसकी शक्ल बिलकुल बदली हुई सी लग रही थी. खौफ़ के मारे मेरी आवाज़ घुटकर रह गयी. दूसरे बच्चे आ गए .....उसके बाद से मुझे अजनबी मर्दों से डर लगता था." 
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,पहला संस्करण, राजकमल प्रकाशन 2004:46)

गाँव में रहते हुए अतिया अपने बचपन के दिनों का ज़िक्र इतने खुलेपन से करती है कि लगता नहीं वे किसी धार्मिकसामाजिक सेंसरशिप से डरती हैं. स्त्री पर पर्दे की पहरेदारी के सख्त कायदे कानून पिछड़े हुए गांवों में कैसे हैं इसपर वे लिखती हैं-

"मेरी हमउम्र एक बच्ची जो जिस्मानी तौर पर मुझसे मोटी थी और उसकी छोटी-छोटी सी छातियाँ निकलने लगी थींइसलिए वह अपने गिर्द एक दुपट्टा लपेट लेती थी. एक दफा उसने मुझे राज़दारी से बताया कि उसके घर में एक दाई खाला आती है. वह उसको कमरे के अंदर ले जाकर दरवाजा बंद करके एक खास बर्तन जो कि मिट्टी से बना हुआ होता है  और उससे जुआर या बाजरे या मकई की रोटी बनाई जाती हैसिंध में जिसको ‘थुपनी ‘कहते थेबहुत बेदर्दी के साथ उसकी छातियों को मसलती है. उसे बहुत दर्द होता है. उसने बताया कि अम्मा ने कहा है कि अगर उस वक़्त तुम चीख़ोगी या रोओगी तो बहुत मार पड़ेगी. इसलिए डर के मारे मैं रोती भी नहीं हूँफ़क़त आँसू बहते हैं और मैं इस तरह तड़पती हूँ. उसने जमीन पर लोटते हुए मुझे दिखाया."आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:50)


अतिया दाऊद का आत्मकथ्य बहुत कुछ इस्मत चुगताई की आत्मकथा का विस्तार  लगता हैअतिया बचपने के खेल के बारे में जब लिखती हैं तो अनायास ही पितृसत्ता के छिपे हुए तेवरों को सामने लाने लगती हैं –

“जिस दिन हम घर–घर खेलते उस दिन मेरा ज़रूर लफड़ा हो जाता था. बच्चे इस खेल को ऐसे ही खेलना चाहते थे जिस तरह हक़ीक़त में हमारी ज़िंदगी में होता था और मैं उसमें तबदीली लाने की कोशिश करती थी. उस खेल के मुताबिक घर का एक बड़ा अब्बा होता था,वो सबको डांटता था. घर के मर्द बाहर से जाकर सौदा,सब्जी वगैरह ले आते थे. मगर यहाँ आकर मैं तकरार करती थी कि बाज़ार से सौदा लेने मैं जाऊँगी. बच्चे कहते थे ये नामुमकिन है. तुम अदी बनकर घर में खाना पकाओगीझाड़ू दोगी और ये सारे काम करोगी...”
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:53 ) 

इक्कीसवी सदी में लिखी और प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में ‘आईने के सामने’ की गिनती होती है.

                 

                   १८.


हम गुनाहगार औरतें हैं ,जो अहले जुब्बा की तमकनत से
न रौब खाएं न जान बेचें ,न सर झुकाएँ ,न हाथ जोड़ें


बुरी औरत की कथा’शीर्षक से उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका किश्वर नाहीद ने आत्मकथ्य लिखाजिसका अँग्रेजी तर्जुमा दुर्दाना सुमरू ने ‘बैड वुमेन्स‘ स्टोरी’ शीर्षक से सन 2010में किया. किश्वर नाहीद उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर मे पैदा हुईं और सन 47के बाद पाकिस्तान चलीं गईं थीं. देश विभाजन और राजनीतिक हलचलों के बीच उन्होने समाज की प्रारम्भिक छवियाँ ग्रहण कीं. नब्बे के दशक में नाहीद की आत्मकथा ने पाकिस्तान की  लेखक–बिरादरी में बहुत से विवादों को जन्म दिया जिसे अदा ज़ाफरी की आत्मकथा के सामने रखकर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. किश्वर नाहीद एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध थीं बचपन से ही पर्दे और बुर्के की बाध्यता में वे कसमसाती रहती थीं. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें कॉलेज जाने का मौका मिला और तब उन्होने बगैर पर्दे के कक्षाएं करना शुरू कियालड़कों के साथ मुशायरोंडिबेट इत्यादि में भाग लेने लगींकॉलेज की ज़िंदगी ने उन्हें बाहरी संसार से परिचित होने का मौका दिया और उन्होने कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया यहाँ तक कि घरवालों की रजामंदी के बगैर प्रेम विवाह भी कर डालाकुछ ही दिनों में दांपत्य-कलह शुरू हो गएजिसका अंत नहीं था क्योंकि शौहर का जी किश्वर से भर चुका थावे आत्मकथा में लिखती हैं कि उन्होने अपने  शौहर का जी अपनी तरफ पलटने की बहुत कोशिश कीदो बच्चे भी हुए जो अपने पिता के पक्ष में ही थे. सन 1984में जबतक पति की मृत्यु नहीं हुई तबतक पारिवारिक कलह चलते रहे. 

‘बुरी औरत की कथा ‘में वे समाज की पितृसत्ता की आलोचना ही सिर्फ नहीं करतीं बल्कि स्त्री के विकास मे अवरोधक उस मानसिक अनुकूलन पर बारीक नज़र रखती हैंजिसका प्रतिनिधित्व अक्सर घरेलू औरतें करती हैंउन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे अपनी आंतरिक संरचना में पितृसत्ता की पोषक एजेंसी के रूप में कार्य करने लगती हैं. वे कामकाजी स्त्री की अपेक्षा कम काम करती हैं और घरेलू राजनीति में कामकाजी औरतों के लिए आलोचक बन जाया करती हैं. 

अदा जाफरी से बिलकुल उलट किश्वर नाहीद उन समस्याओं का चित्रण बेबाकी से करती हैं जिनका सामना किसी स्त्री को अपनी यौनिकता के कारण करना पड़ता है. इसके लिए वे स्वानुभवों का सहारा लेती हैंकार्यस्थल पर उन्हें देख कर सेक्सुअल फ़ेवर मांगनाद्वि-अर्थी बातें करनापत्नी की अनुपस्थिति में धोखे से अपने घर निमंत्रित करना इनसबका वे बिना किसी लाग–लपेट के ज़िक्र करती हैं. वे बताती हैं कि बचपन में एक मौलवी द्वारा  दैहिक शोषण से वे कैसे बच निकलती हैंलेकिन बड़ी होने पर कविता,गजल लिखने वाली लड़की को साहित्यकार सहयोगी भी नहीं बक्शतेस्त्री वहाँ भी उनके लिए सिर्फ एक देह है. 

पुरुष हर स्थिति में स्त्री के चरित्र को मलिन करता हैवह उसके आमंत्रण को स्वीकार कर ले तो भीऔर अस्वीकार कर दे तो भी. वह स्त्री की नकार सहन नहीं कर पाता. किश्वर के चरित्र की धज्जियां उड़ाने वाले लोग वे ही थे जिनके साथ किश्वर ने ऐसे–वैसे संपर्क से इंकार कर दिया था. स्त्री की समूची आकांक्षा–इच्छायौनिकता कैसे हिंसासंदेह और अपशब्दों में तब्दील हो जाती है इसे देखने के लिए इस आत्मकथ्य को पढ़ना चाहिए. एक जगह वे अपने शौहर के बारे मे लिख ही डालती हैं – ‘ऐसा भी होने लगा कि मैं उसकी जेब और वह मेरे बटुए की तलाशी लिया करता ...वह एक के बाद दूसरी बदलता रहता पर रात को वापस घर लौट आता ...मैं रोया करती लेकिन सीता की पंक्तियों को कभी मैंने दिल से बाहर नहीं किया'  किश्वर नाहीद ने अपनी मर्ज़ी से इसलिए विवाह किया कि वे एक स्वतंत्र जीवन जी सकेंजैसा चाहें  वैसा कर सकें जो कि परंपरागत विवाह में संभव नहीं हो पाता लेकिन इस क्रांतिकारी कदम ने उनका आगे का जीवन शंकाकलह और अपमान से भर दिया. शौहर नित नयी औरतों से जुड़ने लगा और किश्वर अपने आपको पहले से अधिक विवश और लाचार पाने लगी यहाँ तक कि उनके बेटे भी पिता के पक्ष में ही खड़े रहे.

किश्वर अपनी समसामयिक राजनीति पर भी पैनी नज़र रखती हैंइस दृष्टि से उनकी आत्मकथा एक दस्तावेज़ भी  हैवे लिखती हैं - 


पाकिस्तान ने अपने वजूद को औरत के वजूद की तरह तक़सीम होते देखा. खुद को औरत की तरह दौलत की गुलामी में जकड़ा हुआ महसूस किया. आकाओं ने दो सौ साल पुराना खेल फिर दोहराया. अब यह खेल वे खुद नहीं खेल रहे थे बल्कि उसके ज़रखरीद सियासतदाँ और नौकरशाही खेल रही थी. 1965में ‘छेड़छाड़’ आउट ताक़तों को आज़माने का खेल खेला गया. अब शिकार फिर औरतें ही थीं. पाकिस्तान लालकिले पर झण्डा लहराने के लालच में ‘थैंक यू अमेरिका’ से दो–चार हो रहा था."
किश्वर का बतौर स्त्री यूं सब कुछ खुल कर अभिव्यक्त कर देना अपने भीतर के भय पर विजय पाने की प्रक्रिया है. इस्लामिक देश में रूढ़ियों और राजनीति पर बोलना अपने-आप में चुनौती भरा है. निजी जीवन में किश्वर परंपरा का विरोध करती हैंसार्वजनिक जीवन में अकेलेपन के खतरे उठाती हैसत्ता हमेशा उसपर कुपित दृष्टि रखती हैउधर दूसरी ओर रूढ़ि–भंजन और विद्रोह का रोमांच तब खत्म-सा हो जाता है जब वह हड़बड़ाहट  में छीनी हुई आज़ादी के फलस्वरूप एक ऐसे पुरुष को प्रेमी फिर पति के रूप में चुन लेती हैजिसके लिए स्त्री सिर्फ एक देह  है. स्त्री अपना दांपत्य बचाने के लिए खुद को ‘देह’ के रूप में रिडयूस कर भी देती है पर वह भीतर से इसे स्वीकार नहीं कर पातीउसका आत्म-देहदमन और विद्रोह से बना है. इसी आत्म की अभिव्यक्ति वह विभिन्न तरीकों से करती है. उसकी देह पर बचपन से पहरा है. किश्वर लिखती हैं- 
"जब माँ ने मसाला पीसने को कहातो मैंने गली में निकलकर अपने हमउम्रों से पूछा “क्या यह मेरी सगी माँ हैं मुझे मिर्चें पीसने को दे देती हैं और मेरी उँगलियों में मिर्चें लग जाती हैं."आगे बढ़ूँ तो सात साल की उम्र ...अब मुझे बुर्का पहना दिया गया है. मैं गिर–गिर पड़ती थीमगर मुसलमान घरानों का रिवाज़ था. 13साल की उम्र कि जब सारे रिश्ते के भाइयों से मिलना बंद. दुपट्टा सीने पर ढकने का हुक्म. एहतेजाज़ सदा व सहरा. 15साल की उम्र कालेज में दाखिले के लिए भूख–हड़ताल. 19साल की उम्र यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए बावेला. 20साल की उम्रशादी खुद करने पर असरार. 20  साल की उम्र क्या आईशादी क्या हुईसोच मेरा पहरेदार हो गया ."
(बुरी औरत की कथाकिश्वर नाहीदयह अंश कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतेंसंपादक राजेन्द्र यादवराजकमल पेपरबैक्सपहला संस्करण 2008,पृष्ठ 32पर उद्धृत) 

आत्मकथ्य  की विशेषता है धर्म और परम्पराओं को दमनकारी शक्तियों के रूप में पहचानना जो स्त्री को मानुषी के रूप में गरिमा देने को तैयार ही नहीं. जो धर्म एक स्त्री से उसका बचपनउसकी युवावस्था छीन लेता हैसात साल की बच्ची को बुर्का ओढ़ने पर मजबूर कर देता है. पढ़ने के लिएबाहरी दुनिया देखने के लिए उस स्त्री को विद्रोही भूमिका अख़्तियार करनी पड़ती हैउसके लिए कुछ भी सहज नहीं हैयहाँ तक कि मित्रताएं भी नहीं. किश्वर नाहीद लिखती हैं कि बचपन में ही उनके कान ज़बरन छिदवा दिये गएबड़े होने पर उन्होने कानों में कुछ न पहनकर छेद बंद हो जाने दिये को विद्रोह के बीज के तौर पर चित्रित किया हैकि इस तरह एक स्त्री की ऊर्जा बचपन से ही रूढ़ि के विरोध में चली जाती है.

किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य प्रतिरोध  के साथ साथ अतीत के प्रति व्यामोह को तोड़ने के औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए नाहीद लिखती है – 


“कविता ने मुझे बहुत दुख दिये हैं. यदि मैं कविता लिखना छोड़ देती तो हो सकता है मुझे  पवित्र और कर्तव्यशील पत्नी के तौर पर स्वीकार कर लिया जाताअपने भाई–बहनों  के नजदीक होतीदुनिया के बारे में कुछ कम समझ होतीअधिकतर बातें बोलने के लिए बोलती जिसमें ईमानदारी का होना ज़रूरी नहींकुछ कम शत्रु बनते मेरे और यह भी महसूस करती हूँ कि अकेले रहने के कारण मेरी खुशियाँ कम कर दीं. लेकिन कविता ने मुझे संतुष्टि भी दी. मुझे समूचा संसार और मेरा पूरा देश अपनी ननिहाल जैसा लगने  लगा॰ ढेर सारे दोस्तों और शुभचिंतकों के स्नेह की  गर्माहट ने मुझे अनथक काम करने की प्रेरणा दी."
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :98-99)


किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य एक ऐसी पहचान को निर्मित करने का प्रयास है जिसकी जड़ें अंतर्विरोधों में गहरी धँसी हुई हैं. ऊपर से देखने पर यह आत्मकथ्य कई विधाओं के मिश्रण और दो देशों के बीच की आवाजाही को समेटता है पर भीतर ही भीतर पाकिस्तान की औरतों के हक़ में परचम लेकर खड़ी औरत की मुकम्मल कहानी बयान करता है. इसमें  इस्लामिक देश के बनने की कथा चलती हैजिसमें लोकतन्त्र का सपना लिए देश के  सामंतशाही और कट्टर बनने की प्रक्रिया  पैबस्त है. इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों के शीर्षक मुजरा करने वाली,रानीरखैलअप्राप्य प्रेमीसम्पूर्ण नारीवादिनीशर्मनाक परंपरावादी और ईव हैंसाथ ही राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए भाग्य का सैद्धान्तिक विश्लेषण भी है.

भूमिका में किश्वर ने 1940के बाद बदलती दुनिया और स्त्रियॉं के स्वयम के प्रति बदलते नज़रिये का पता दिया है. मिस्र के अपने मित्र के हवाले से वे कहती हैं –


“मेरी माँ भी तुम्हारी तरह ही बातें करती थी. वह बुर्का पहनती थी लेकिन अब मेरी बेटी बिकनी पहनती है”
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :9)

1973में घटित हुए संवाद को वे 1993मे पुनर्स्मरण करती है और स्त्रियॉं के पहनावों मे आए बदलावों को स्त्री स्वतन्त्रता और विभिन्न समाजों के आंतरिक तापमान की तुलना करने के लिए इस्तेमाल करती हुई कहती हैं कि उनकी बहुएँ स्पेन और अमेरिका में शॉर्ट्स और स्कर्ट पहनती हैं. किश्वर की भतीजियाँ अमेरिका में डाक्टरी की पढ़ाई करती हैं जबकि उनकी माँ पाकिस्तान में डोली का इस्तेमाल करती थीं. 

पूरे उपमहाद्वीप में पिछले 40-45सालों में आ रहे बदलावों का जायज़ा लेते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि इन सालों में वैयक्तिक स्पेस की मांग बढ़ी है और पुरुष और स्त्री दोनों को पहले से ज़्यादा आज़ादी मिली है. वे घरेलू स्पेस को राष्ट्र की आजादी के परिविस्तार के तौर पर देखती हैंअपने ऊपर अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों मसलन मिलान कुंडेराविन्सेंट गौग,मारग्रेट अटवूड ,माया एंजेलो के प्रभाव को स्वीकार करती हैं.


पुस्तक के अंतिम भाग में निजी जीवन की छवियाँ,पारिवारिक तस्वीरेंदेश और विदेश के दूसरे लेखकों और अकादमिक दुनिया से जुड़े लोगों के साथ के कुछ चित्र शामिल हैं. इन तस्वीरों के साथ–साथ अखबारों की कटिंगकई निजी पत्रजिनमें किश्वर की शादी का सर्टिफिकेट भी हैइसके साथ अमेरीकन संगीतकार डोना जीन हेगन द्वारा किश्वर को समर्पित एक संगीत –निर्मिति भी शामिल है. बहुत ही गर्व से किश्वर अपने बारे में भारतीय अखबार में छपे लेख को भी इसी में स्थान देती हैं जिसमें एक कार्टून पत्र का हवाला देते हुए  22फरवरी 1973को पाकिस्तान के नेशनल काउंसिल ऑफ आर्ट के रेसिडेंट निदेशक के पद से हटाये जाने की अपील है. पुस्तक के अंतिम हिस्से में अपनी बात के सत्यापन के लिए उन्होने तसवीरों और अखबार की कतरनों का सहारा लिया है. इससे ज़ाहिर होता है कि वे अपने निजी दस्तावेज़ों का पाठ करने के लिए आख्यानात्मकता की जगह जन-सत्यापन की मदद लेने के पक्ष में हैं. साथ ही उन्हें अपने समकालीनों की उपेक्षा का डर भी है और निज जीवन की घटनाओं या निजी इतिहास को राष्ट्र के वैकल्पिक इतिहास के तौर पर पढ़वा ले जाने की चिंता भी. इन दोनों छोरकी चिंताओं के बीच के तनाव को कथ्य की दरारों में देखा जाना चाहिए. आत्मकथ्य का एजेंडा है –पाकिस्तान के सामंती समाज द्वारा घोषित ‘बुरी’औरत का प्रतिनिधित्व करना, शब्दोंतस्वीरोंनिजी और सामाजिक संवाद द्वारा आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा की विधा को अपनाना.

कहना न होगा कि वे अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल भी हुई हैं. उनकी कथा पाकिस्तानी समाज की आंतरिक तहों को उजागर करने में सफल है और इसीलिए ‘बुरी औरत की कथा है ‘जो सच्ची है तथा  ईमानदारी से बात करने का खतरा उठा रही है. 



मल्लिका अमरशेख  की आत्मकथा ‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’ (मुझे उद्ध्वस्त होना है- अंग्रेज़ी अनुवाद I want to destroy Myself-translated from Marathi by Jerry Pinto,Speaking Tiger Publishing House,2016) ने प्रकाशित होते ही तहलका  मचा दिया. मराठी के कवि और दलित पैंथर के  अग्रणी नेता नामदेव ढसाल की प्रेमिका और बाद में पत्नी बनी मल्लिका ने आत्मानुभवों को सबके सामने लाकर न सिर्फ निजी जीवन को सबके सामने व्यक्त करने का साहस किया बल्कि दलित राजनीतिउसके अंतर्विरोधों  और उसके नेतृत्व से जुड़े व्यक्तित्व के दोहरे-तिहरे चरित्र के बारे मे बेबाकी से लिखा. 

मल्लिका अमरशेख की बेबाकी ने दलित आंदोलन से जुड़े लोगों को उनका शत्रु भी बना दिया. मल्लिका के पिता शाहिर अमरशेख कम्युनिस्ट कार्यकर्ताट्रेड यूनियन और लोक गायकी से सम्बद्ध थे वे 1960के दशक में  महाराष्ट्र की राजनीति  में सक्रिय भी थे.

पिता की राजनैतिक सक्रियता ने मल्लिका को राजनीतिक दृष्टि से सचेतन बनाया साथ ही उम्र के सत्रहवें वर्ष में ही नामदेव ढसाल की कविताई और जुझारू व्यक्तित्व के सम्मोहन में ढसाल से विवाह का निर्णय ले लियालेकिन जीवन का यथार्थ कविता से नहीं चलता. यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि प्रारम्भिक रोमानी आकर्षण के बाद मल्लिका  ने जिसे नए सिरे से पहचाना  वह नामदेव ढसाल अपने निजी जीवन मेंसार्वजनिक चेहरे से बिलकुल अलग है- उसमें सभी  कमज़ोरियाँ हैं. दलित नेतृत्व की ज़िम्मेदारी उठाते उठाते नामदेव कब अपनी पत्नी के प्रति इतने क्रूर बन गए कि  वह उसी घर के दूसरे हिस्से मे अलग रहने लगीएक संतान के बाद दूसरी संतान को जन्म देने को तैयार नहीं. मल्लिका पति के सार्वजनिक जीवन मे आए व्यतिक्रम के बारे में लिखती है –

“कम्युनिस्ट  के रूप में उसी के समाज द्वारा गतिरोध पैदा हुआ. जल्दी मिली सफलता की आँधी  और असफलता के कारण  अपने  को फ़्रस्ट्रेशन से बचा पाना नामदेव के लिए संभव नहीं हुआइन स्थितियों ने उसे बिलकुल बदल डाला”…

आगे दलित कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए वह लिखती है-

"देखो तुम्हारा नेता शराबी हैरंडीबाज़ हैवह व्यवहार नहीं जानता लेकिन क्रांति करने निकला है.ऐसे कार्यकर्ता से तुम प्रेम करते होवह गुंडा हैगुप्तरोग का शिकार हैउसके मित्र भी उसके जैसे हैं. वे काहे के पैंथर". (गैर-दलित ,शरणकुमार लिंबाले,पृष्ठ 187)



मल्लिका को अपनी कल्पना के राजकुमार की छवि कभी नामदेव में दिखाई पड़ी थी. वे ढसाल की कविताउनकी राजनीतिक छवि और साहसिकता की तारीफ भी करती हैंउन्हें समान वैचारिक स्तर पर बात करने वालाकविहृदयकलापारखी प्रेमी-पति मिला है जिसका कहना था मेरी कविता ही राजनीति है. शुरुआत के दिनों के बाद ढसाल अपने सामाजिक-राजनीतिक कार्यों मे उलझ जाते हैं. मल्लिका कवयित्री है लेकिन वे मात्र ‘पत्नी ‘होकर जीना नहीं चाहतीं. उन्हें अपनी पहचान भी चाहिए लेकिन घर मे पैसों की तंगी हैऔर मल्लिका के भीतर सुखी समृद्ध जीवन जीने की  लालसा “हमेशा की बीमारी के कारणकमजोरी के कारणलालन-पालन और विपुल वाचन के कारण मैं एकाकीपन और मनस्वीपन के भावुक आवरण में उलझ गयीआज तक अपने आप को उससे अलग नहीं कर पायी. (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’,पृष्ठ 3) 

अपनी कैशोर्य कल्पना के विषय मे वह लिखती हैं– “मैंने अपने मन में राजकुमार का चित्र उकेरा था. मनमौजी ..कवि ,दीखने मे स्मार्ट ...सांवला ...उसकी चेष्टाओं में पौरुष हो...मर्दानगी हो”(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 26) 

युवा कल्पना के अनुसार मल्लिका की कल्पना का घर यों होता– “सौंदर्य-प्रसाधनसाड़ियाँबंगलापियानो किस तरफ होकाँच के दरवाजे, विशालविपुल रोशनी-खुली प्रसन्न हवालाइब्रेरी ...सामने छोटा-सा तालाब ...मछलियाँ ...लाल-पीली दौड़ती हुई ...खिड़की से दीखनेवाला मौलसिरी का पेड़ ...गुलमोहर ,रजनीगंधा के पौधे ...पीछे घना जंगल ,लाल पगडंडी (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 27) 

मल्लिका का मिज़ाज रोमेंटिक है वह जीवन को उसके पूरेपन मे जीना चाहती है उसका सपना है– “उबलती गरम चाय ...ठंडी बरसाती हवा ...बरसात का झोंका ...और हाथों मे कौमिक्स ... ओ  हो फिर क्या मानों ब्रहमस्वरूप के साक्षात्कार के आनंद मे खो जाती.मेरी वह चरम आनंद के सुख की कल्पना होती है.(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 06) ऐसा कवि मन लेकर मल्लिका प्रेम और गृहस्थी मे प्रवृत्त हुई है.

जल्दी ही पता चल जाता है कि नामदेव और मल्लिका दोनों विपरीत ध्रुवान्तों पर स्थित हैं जो आपस में  टकराते हैं,जूझते हैं और फिर अलग हो जाते हैं.उधर नामदेव ढसाल का सार्वजनिक,राजनैतिक जीवन बिखरता है और मल्लिका के स्वप्न यथार्थ से टकराते हैं.मल्लिका आत्मानुभवों को लिखती हैये अनुभव पढ़े जाने ज़रूरी हैं क्योंकि सार्वजनिक जीवन के चेहरों का वैयक्तिक स्वरूप कैसे अलग होता है या हो सकता है साथ ही किसी भी आंदोलनकर्ता के अपने अंतरविरोध हो सकते हैं जिससे व्यक्तिगत जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है, इसका  लेखा-जोखा पाठक को मिलता है. मल्लिका बार-बार जीवन को मुड़ कर देखती है.

स्त्री के लिखते ही  ‘निज ‘राजनैतिक ‘कैसे हो सकता है यह देखने के लिए इस आत्मकथा को पढ़ा जाना ज़रूरी है.जो स्त्री कभी कविता ,प्रेम और पुरुष को एक करके देखती थी वही नामदेव के पीने-पिलाने की आदत से आजिज़ आ चुकी हैअस्मिता और सांस्कृतिक एकता की राजनीति करने वाला व्यक्ति जब अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तो घर के भीतर के स्पेस मे वह स्त्री के लिए पीड़क साबित हो जाता हैफिर सबकुछ चाहे बच जाए प्रेम नहीं रहता. वह लिखती है कि कैसे बहुत सारा साम्यवादी साहित्यसोवियतलैंड मैगजीन के गट्ठर के गट्ठर वह बेच दिया करती थी कि घर का खर्च चल सके. 
“शुरुआत के दिनों मे हम निर्धन इसलिए थे कि जो भी धन था उसे हम दलित कार्यकर्ताओं पर खर्च कर दिया करते थे नामदेव की महंगी आदतों पर भीपर बाद के वर्षों में उसकी बीमारी और इलाज़ पर सारा पैसा खर्च होने लगा” 

मल्लिका ने नामदेव के इलाज़ का खर्च साधने के लिए अपनी माँ का घर भी बेच दियाआत्मकथा के अंग्रेज़ी अनुवाद से जो धन मिला वह भी नामदेव के इलाज़ में चला गयालेकिन नामदेव को बचाया नहीं जा सका. मुस्लिम पिताब्राह्मण माता की बेटी मल्लिका की जीवन यात्रा में अंतत: उसके हाथ कुछ नहीं लगता. स्त्री की स्पष्टवादिता और उस स्पष्टवादिता के खतरे, स्व की सीमा का अतिक्रमण करके ‘निज, का ‘पर’ में परिविस्तार और फिर समाज, इतिहास, वर्ग के संघातों से गुजरती हुई स्त्री जो एक ‘स्त्री’ मात्र नहीं रह जाती बल्कि लाखों-करोड़ों की आवाज बन जाती है. भिन्न समाज और भिन्न संस्कृति की रचनाकार देखे-अनदेखे सभ्य-असभ्य सामाजिकों की चेतना को अपने अनुभव के दायरे में कितनी सहजता घेर लेती हैं.



१९.

इन मुस्लिम स्त्रियॉं की आत्मकथाओं का परिविस्तार निज से लेकर समाज तक,परिवार से लेकर राजनीति तक फैला हुआ हैकहीं वे अभिव्यक्ति की नयी विधाओं की तलाश में सिर्फ आत्मकथा को मुकम्मल पाती हैंजबकि कुछ जो कविताग़ज़ल में अपनी बात ठीक उस तरह से नहीं कह सकींजिस ढंग से कहना चाहती थींवे आत्मकथा विधा को अपनाती हैं.

औपनिवेशिक अतीत और उत्तर औपनिवेशिक वर्तमान के इतिहास–लेखन के लिए ये आत्मकथाएं दस्तावेज़ बन सकती हैं. जहां प्रारम्भ में ये स्त्रियाँ अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैंसाक्षर बनने के लिएछपने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं वहीं नब्बे के दशक के बाद उनमें बदलाव को रेखांकित किया जा सकता हैअब वे शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैंदेश–विभाजनविस्थापन ने उन्हें अनुभव–परिपक्व बना दिया है इसलिए अब वे अपने गद्य में पात्रों को रचती हैं इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए॰ कहीं जीवन को, कहीं स्वयं को पात्र बनाती हैंउनकी कथाओं में पहले की अपेक्षा तटस्थतारूपबंध संबंधी प्रयोगकथानक के बेहतर रचाव के प्रयासों को रेखांकित किया जा सकता है. कहीं-कहीं कथा और आत्मकथा का अंतराल परस्पर संघनित होता दीखता हैपहले से कहीं ज़्यादा बोल्डनेस के साथ निज को खोलकर रख देने की कोशिश होती हैस्वयं को कटघरे में रखनाआत्म पर व्यंग्य करना उसी रणनीति का हिस्सा है जिससे पारिवारिक और सामाजिक सेंसरशिप की बेड़ियाँ टूटती हैं.

इसके साथ ही वैश्विक संदर्भ और घटनाएँ उसकी नज़र में हैंमसलन अदा ज़ाफरी भले ही निज को खोलकर अभिव्यक्त करने में हिचक जाती हों पर पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलनों पर पैनी नज़र रखती हैंयहीं नहीं पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में युद्ध के मसले को गंभीरता से उठाती हैंजिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना. इसी तरह किश्वर नाहीद अपनी कथा कहते हुए भी तीसरी दुनिया को परखती चलती हैंजिसके आलोक में स्वयं को, लैंगिक असमानता पर आधारित विकासशील समाज का प्रतिनिधि मानती हैं. यहीं पर वे स्थानीयता का अतिक्रमण करके वैश्विक नागरिकता की दिशा में कदम बढ़ाती हैं.
__________

राहुल राजेश की कविताएँ

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पहली कविता बहेलिये की तरफ से नहीं पक्षी की तरफ से चीख़ बनकर उठी थी हालाँकि बहेलिये का भी कोई सच हो सकता है. कविता सच और सच में फ़र्क करती है, इतनी नैतिकता उसमें है, होनी चाहिए. वह किसी की भी कैसी भी सत्ता हो उसके दरबार में डफली नहीं बजाती वह तो उनसे जूझ रहे, मिट और टूट रहे लोगों की आवाज़ में रहती है. ऐश्वर्य, अहंकार और शोर से परे किसी एकाकी स्त्री के बालों में फूल की तरह सजना चाहती है.


कवि राहुल राजेश की कविताएँ सच को हर तरफ से टटोलने की कोशिश करती हैं उनमें एक तीखा विडम्बना बोध है. 

उनकी कुछ नई कविताएँ पढ़ें.



राहुल राजेश की कविताएँ               



गवैये

पहले वे कतार में खड़े हो जाते हैं
बाद में नियम और शर्तें पढ़ते हैं

और स्वादानुसार
अपनी आवाज गढ़ते हैं

उन्हें मालूम है
आवाज में कितना नमक मिलाएँ
कि जूरी का मुँह मीठा हो जाए

और बख्शीश
झोली में आ जाए !



संदिग्ध

जब स्वर
कोरस में बदल जाए

तो समझिए
स्वर को अवकाश है

क्योंकि कोरस में
स्वर की बंदिश नहीं

और कोई भी अभी
कोरस के बाहर जाकर

संदिग्ध होना नहीं चाहता !



रुख़

वे हवा का रुख़ पहचानते नहीं

मोड़ लेते हैं
अपनी तरफ

कुछ इस तरह
कि रुख़ की हवा निकल जाए

और उनके रुख़ पर
कोई उँगली भी न उठा पाए !




स्वांग

विरोध-प्रतिरोध के स्वर
अभी इतने स्वांगपूर्ण हैं

कि विरोध के असली स्वर
अक्सर अनसुने रह जा रहे

अभिनय करने वाले सभी
अभी मंच पर हैं

और असली प्रतिपक्ष

नेपथ्य में ।



साथी

जहाँ सबसे अधिक ज़रूरत थी
उनकी आवाज़ की



वहाँ वे चुप्प रहे

जब कभी
उनसे हाथ माँगा
कहा उन्होंने
मेरे हाथ बँधे हैं

जब भी बात हुई
मुझे दाद दी
तुम बहुत हिम्मत की
लड़ाई लड़ रहे हो

इन स्साल्लों को बेनकाब करना
बहुत ज़रूरी है !

मैंने जब कभी टोका
आप कभी कुछ खुलकर नहीं कहते ?

उन्होंने कहा
यार, मैं इन पचड़ों में नहीं पड़ता !

वे सब के सब
यशस्वी कवि थे.




फाँक

वे संतरे की तरह
सुंदर और रसदार थे

बाहर से बहुत
सुडौल और गोल

उतार कर देखा जो
छिलका तो पाया

वे कई-कई
फाँक थे !




सच

देखो भाई,
तुझे भी अपना सच पता है
मुझे भी अपना सच पता है

और यह जो तीसरा है
उसे हम दोनों का सच पता है !

इसलिए वह
न तेरे कहे सच पर यकीन करता है
न मेरे कहे सच पर !

हम लिखकर, पढ़कर, बोलकर
रंग कर, पोत कर, घंघोल कर

जो सच दिखाना चाहते हैं

वह हरगिज यकीन नहीं करता
उस सच पर !

वह जीवन की किताब बाँचता है
हमारी-तुम्हारी नहीं !

और यह जो चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ
आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ या सौवाँ है
वह भी कतई यकीन नहीं करता

क्योंकि उसके लिए
सिर्फ़ और सिर्फ़ वही सच है

जिसे खुद उसने
अपनी नंगी आँखों से देखा है !



काफ़िर

जिस मिट्टी से लिया नमक
जिस हवा से ली नमी
जिस पानी से पायी चमक

उसी मिट्टी को मारी लात
उसी हवा में लहराया खंजर
उसी पानी में मिलाया ज़हर

उफ्फ !
मैं काफ़िर कैसे हो गया ?




न होगा !

आप हाँक लगाएँ
और मैं भी दौड़ा चला आऊँ

न होगा !

आप दिन को कह दें रात
तो मैं भी कह दूँ रात

न होगा !

आप कह दें क्रांति
और मैं लिख दूँ क्रांति

न होगा !

आप जिधर मुड़ें
मैं भी उधर मुड़ जाऊँ

न होगा !

भेड़ चाल आपको मुबारक हो
यश ख्याति मंच पुरस्कार
आपको मुबारक हो !

अकेले पड़ जाने के भय से
अपनी ही नज़रों में गिर जाऊँ

अभिव्यक्ति के ख़तरे न उठाऊँ

मुझसे न होगा !

झूठ की मूठ पकड़कर
मैं कवि कहलाऊँ

मुझसे न होगा !!
  

सेकुलर

वह मुसलमान होकर भी
रामलीला में नाचता है !

इस बात को कुछ इस तरह
और इतनी बार दुहराया गया
मानो सेकुलर होने के लिए
इससे अधिक और क्या चाहिए ?

मैं हिंदू होकर भी
हर साल अज़मेर शरीफ़ जाता हूँ

हर हफ्ते
झटका नहीं, हलाल खाता हूँ !

मुझसे बड़ा सेकुलर
कोई हो तो बताओ कॉमरेड !!
   


मैं मारा जाऊँगा

मैं मारा जाऊँगा एक दिन
किसी भीड़ में

किसी रात के अँधेरे में
किसी अविश्वसनीय हादसे में

मैं मारा जाऊँगा एक दिन
बचाते हुए आदमी पर से
आदमी का उठता विश्वास...

मेरे मारे जाने से
किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा ?

इस थाने की पुलिस
उस थाने का मामला बताएगी
उस थाने की पुलिस इस थाने का

और मरने के बाद भी
मैं थाने-पुलिस के चक्कर लगाता फिरूँगा !

मेरी लाश को घेर कर
कोई सड़क जाम नहीं करेगा

मेरी लाश पर
न लाल झंडा लहराएगा, न भगवा

मेरी लाश पर
कोई तिरंगा भी नहीं लपेटेगा

मैं न तो शहीद हूँ
न कोई नामचीन नेता !

मैं तो फ़कत एक नामालूम नागरिक हूँ
इस देश का !!
 


कवियों में

हाँ भाई,
मैं मानुष थका-मांदा हूँ

कवियों में
पस्मांदा हूँ !!
________ 

राहुल राजेश
J-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063.
मो. 9429608159.
ईमेल: rahulrajesh2006@gmail.com

मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं : गरिमा श्रीवास्तव

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मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएं
चुप्पियाँ और दरारें                                                        
गरिमा श्रीवास्तव



हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले



जो औरतें बेहयाई का काम करें, तुम्हारी बीबियों में से, सो तुम लोग उन औरतों पर चार आदमी अपने से गवाह कर लो. अगर वो गवाही दे दें, तो तुम उनको घरों के अंदर क़ैद रखो. यहाँ तक कि मौत उनका खात्मा न कर दे या अल्लाह उनके लिए कोई और रास्ता निकाल दे."
(कुरान, आयत 15 )

और जो औरतें जवानी की हद से उतार कर बैठ चुकी हों, अगर वे अपनी चादरें रख दें तो उन्हें कोई गुनाह नहीं. अलबत्ता उनका इरादा साज-सिंगार का नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर फिर भी वे लज्जा-संकोच से चादरें डालती रहें, तो उनके हक़ में बेहतर है. अल्लाह तो सब कुछ सुनता और जानता है."
(24,सूरह नूर, आयत 60)

"अपने घरों में शराफ़त से रहो, बनाव-सिंगार जो अज्ञानता के जमाने में लोगों को दिखने के लिए होता था, उसे छोड़ दो, नमाज़ को क़ायम रखो. ज़कात अदा करती रहो और अल्लाह और उसके रसूल का हुक़्म मानती रहो."
(33, सूरह अहजाब, आयत 33)




१.

१५ वीं शताब्दी के आटोमन साम्राज्य की तुर्की कवयित्री मिहरी हातून की आत्माभिव्यन्जक कविताओं को प्रारम्भिक दौर की आत्माभिव्यंजना के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. आधुनिक काल आते आते मुस्लिम स्त्रियॉं ने आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा-विधा को अपनाया  जिनमें पर्दा प्रथा का दबाव, परनिर्भर होने की पीड़ा, प्रेम की अभिव्यक्ति के खतरे और पितृसत्ता और धर्म-कानून  की जकड़ से निकलने की छटपटाहट प्रमुख है. अधिकांश स्त्रियाँ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की कवायद, शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में आनेवाली कठिनाईयां, बहुपत्नीत्व प्रथा, यौन-शिक्षा का अभाव, यौनिकता की अभिव्यक्ति जैसे विषयों को कथ्यों के केंद्र में रखती हैं.

परिवार के पुरुषों के विषय में बहुत खुल कर कुछ कहने से बचने को भी उनकी रचनात्मक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. मुस्लिम स्त्रियाँ चाहे यूरोप में हों या एशिया में पर्दा-प्रथा पर ज़रूर बात करती हैं-हालाँकि यह बात उन सभी सामजिक समूहों पर लागू होती है जिनमें पर्दा प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है. यह भी देखने की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की आत्मकथाओं में सेंसरशिप के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं. कहीं तो अपने लिखे के न छप पाने का डर, कहीं लिखने की सुविधा छिन जाने का भय  और कहीं पाठकों को अपने बारे में बताने का अवसर खो जाने का अंदेशा इतना गहरा रहा है कि मध्यवर्ग से सम्बंधित स्त्रियाँ अपना अन्तरंग खोलने का रिस्क नहीं ले पायीं.,जिन्होंने यह चुनौती उठाई उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि उन्हें यह भय हमेशा से था कि हो सकता है कि पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनके लिखे हुए को समाजविरोधी मानकर अस्वीकृत कर दे. भविष्य में भी उन्हें पाठक मिलते रहें और वे धर्मगुरुओं द्वारा निन्दित भी न हों इसके लिए ये ज़रूरी था कि वे जीवन के सामान्य कार्यव्यापारों चर्चा करें. निजी बातों और सामाजिक-पारिवारिक दायरों को तोड़कर, सामाजिक-रीतिरिवाजों के विरुद्ध जाने का साहस उठाना उनके लिए बहुत जोखिम भरा था इसलिए बहुत दूर तक वे आत्मकथाकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा पातीं.

दूसरी ओर इस्लाम और समाजसुधारकों द्वारा तय स्त्री की आदर्श छवि जिसे मौलाना थानवी जैसों ने ‘बहिश्ती जेवर’ जैसी किताबें लिखकर लोकप्रिय कर दिया था, उस छवि को बनाये रखना भी इन लेखिकाओं के  सामने एक बड़ी चुनौती रही और जहां  स्त्रियों को शारीरिक तौर पर पर्दे के बाहर निकलने की छूट भी मिली तब भी उन्होंने अपने अन्तरंग को छुपाने के रास्ते ढूंढही लिए,आत्मकथात्मक प्रदर्शन के लिए उन्होंने नाटकीय भंगिमाएं अख्तियार कर लीं और इससे उनकी आवाजें परदे के भीतर ही रह गयीं और साथ ही उनकी यौनिकता भी. मुस्लिम स्त्रियों के आत्मकथ्यों पर विचार करते हुए हमें दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के साम्प्रदायिक संघर्षों की पृष्ठभूमि को भी  देखने-समझने की दृष्टि मिलती है. चारू गुप्ता ने यह दर्ज किया है कि हिन्दूत्व के प्रचारकों ने ‘हिन्दू स्त्रियों को  मुसलमान पुरुषों से अलग रखने आपसी दूरी बनाये रखने की मुहीम चलाई ताकि वे स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण कर सकें साथ ही अपनी सांप्रदायिक पहचान को भी पुख्ता कर सकें, उन्हें यह समझा दिया गया कि स्वस्थ, बलिष्ठ मुसलमान पुरुष उनके लिए खतरा हैं‘
(सेक्सुअलिटी, ओब्सेनिटी, कम्युनिटी: वीमेन, मुस्लिम्स एंड थे हिन्दू पब्लिक इन कोलोनियल इंडिया,चारू गुप्ता,परमानेंट ब्लैक 2000:268)

दूसरी ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान मुस्लिम समाजसुधारक भी अपने समुदाय की स्त्रियों को ‘सुरक्षित’रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. मुस्लिम स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण करने के लिए परदे को और ज़रूरी बताया जाने लगा, धर्मग्रंथों और हदीस का हवाला देकर परदे को मर्यादा से जोड़ा गया और हिन्दू स्त्रियों को गैर-पर्देदारी से रहने वाला बताया गया. मुस्लिम स्त्रियाँ, जो थोडा बहुत भी पढ़-लिख गयी थीं उन्हें इस बात का अंदाज़ा था हो गया था कि परदे की हद से बाहर एक विशाल और खुली दुनिया है, लेकिन परदे को तोड़ने और यौनिकता के मुद्दे पर खुलकर बोलने का साहस बहुत कम स्त्रियों के पास था. अभिजात्य समुदाय की स्त्रियाँ जिनमें से कई भोपाल और रामपुर जैसी रियासतों से सम्बद्ध थीं, उन्हें सच बोलने के खतरे कम थे. सत्ता और धन के बल पर वे प्रखर निंदा का शिकार होने से बच जाया करती थीं, साथ ही आभिजात ने उन्हें रसोईघर, बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारियों से एक सीमा तक मुक्त रखा, इतना समय भी मुहय्या करवाया कि स्त्रियाँ आपस में खुलकर बोलें और लिखकर भी अपने आपको अभिव्यक्त कर सकें.

मुस्लिम रियासतें, मसलन भोपाल जहाँ स्त्रियों के शासन की परंपरा रही वहां उन्होंने पर्देदारी के साथ  बाहर की दुनिया से संपर्क बनाये रखा.स्कूल,कालेजों, क्लबों में उनका आना-जाना रहा करता जहाँ स्त्री-यौनिकता के मसलों पर अपेक्षाकृत खुली चर्चा की संभावनाएं थीं. सेक्स सम्बन्धी शिक्षा का अभाव पूरे समाज में था. विशेष रूप से मुस्लिम समाज जहाँ खानदान के भीतर भी वैवाहिक सम्बन्ध होते थे वहां भी घर में प्रेम, सेक्स जैसे विषय वर्जित थे. ज़्यादातर बच्चियां अक्षर ज्ञान, कुरान पढ़ने तक ही सीमित थीं. माहवारी होते ही लड़कियों से स्कूल छुड़वा दिया जाता था. सेक्स या यौनिकता के मुद्दे टैबू की तरह थे, जिनका प्रभाव इन स्त्रियों के लेखन पर भी पड़ा. उनके लेखन में वास्तविक पाठक वर्ग की जगह एक काल्पनिक पाठक वर्ग हावी था. समाज सुधार आंदोलनों और आंदोलनों ने स्त्री-शिक्षा के पक्ष में माहौल तैयार किया जिसने आत्मकथा लेखन को गति प्रदान की. ये बात भी गौरतलब है कि आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त होने के बावज़ूद इन स्त्रियों ने अपने अन्तरंग जीवन के बारे में बहुत कम या नहीं लिखा. फिर भी मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लिखी अपनी कथाएं, स्मृतियाँ जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पंजाब से बंगाल, रामपुर से हैदराबाद, पाकिस्तान, बांग्लादेश तक के लगभग डेढ़-दो सौ वर्षों के अंतराल में बिखरी हुई हैं, उनके वैविध्य और वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है. ये देखना ज़रूरी है कि वे धर्म, परंपरा, परदेदारी और यौनिकता के मुद्दों पर क्या सोचती हैं साथ ही इसके लिए उनके विधागत चुनाव क्या हैं.

साथ ही कैसे औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक सामाजिक इतिहास की धारा के भीतर स्वयं को कहाँ और कैसे ‘प्लेस ‘करती हैं॰ अपने आत्म  को आवृत्त  रख कर कल्पना के ताने-बाने  बुन-चुन कर कविता कहानी, उपन्यास लिखना और बात है और आत्मकथ्य लिखकर पूरी दुनिया का सामना करने के लिए जो साहस चाहिए, वह इनमें है कि नहीं साथ ही सामाजिक इकाइयों से टकराने और सच को सच की तरह कहने का जज़्बा कितना है, उनकी चुप्पियों के क्या अर्थ हैं और उनका पाठ हम कैसे करते हैं. सेंसरशिप के दबाव और तनाव कैसे हैं और इन दबावों और तनावों का सामना करने के लिए मुस्लिम औरतें किन औजारों का इस्तेमाल करती हैं. कई ऐसी स्त्रियाँ हैं जो आत्मकथ्य में निजी सवालों से बचकर निकाल गईं हैं, जिससे पाठक को साफ समझ में आ जाता है कि वह निजी और पारिवारिक सेंसरशिप के दबाव में है, उनके  आत्मकथ्य का सम्यक विश्लेषण व्यावहारिक जीवन, उसके मन के कोने-अंतरे, दरारें, चोट और पीड़ाएं, नस्ल और रंगभेद, यौन अस्मिता, शोषण के विविध आयामी पक्ष, उसकी मनोसामाजिक, लैंगिक भेद और स्त्री अस्मिता के साथ, स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए अपनाई गई भाषा-भंमिमाएं, विविध मुद्राएं, प्रतिरोध के औजार, समर्पण और विवशता के कारणों की पड़ताल करना हम ज़रूरी समझते हैं. इन आत्मकथाओं पर हम निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत सोच सकते हैं -


(क) इन आत्मकथाओं का पाठक वर्ग कौन-सा है.
(ख) क्या आत्मकथाकार स्वयं को किसी विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधि मान कर लिख रही है.
(ग) उसने ने किस सीमा तक कल्पना और नाटकीयता का सहारा लिया है.
(घ) ‘टेक्स्ट’ में रचनाकार की जीवन यात्रा की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है-उसका लेखन और अस्मिता से क्या संबंध है.
(ङ) आत्मकथा में ‘मैं’ या ‘तुम’ को महत्व कितना और किस सीमा तक दिया गया है.
(च) अतीत की ‘मैं’ और वर्तमान की ‘मैं’-जो आत्मकथा में व्यक्त है-उन दोनों का अन्तः संबंध क्या है?
(छ) आत्मकथ्य में क्या कुछ प्रयोग किए गए हैं? यदि ‘हां’ तो इन प्रयोगों की प्रकृति क्या है?
(ज) रचना में संस्कृति, दर्शन और आत्म के सामाजिक संदर्भ की अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या है?
(झ) आत्मकथा लेखन का उद्देश्य क्या है?
(त) स्त्री यौनिकता जैसे मुद्दों पर वह कितनी और किस सीमा तक मुखर है?
(थ) वह सेंसरशिप से  किस तरह टकराती है.






२.

स्त्री वक्तव्यों के संदर्भ में यह माना जाता है कि सामाजिक अभ्यास अपनी पूरी तात्कालिकता और संपूर्णता के साथ एक उत्तेजक अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं, और स्त्री का अनुभव सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं रह जाता, वह सामाजिक संस्था के अनुभव में रूपांतरित होकर सार्वभौमिक हो जाता है. कही और अनकही स्त्री अनुभव कथाएं इसी प्रक्रिया में निजी से राजनीतिक हो जाती हैं, इसलिए स्त्री की अभिव्यक्ति को राजनीति से संबद्ध करके भी देखा जाता है.

स्त्रीवादी विमर्शकार अनुभव की अभिव्यक्ति पर बराबर बल देते हैं. गायत्री चक्रवती स्पीवॉक का कहना है- ‘Make visible the assignment of subject Positions’ वस्तुतः स्त्री के जीवन और अनुभव के विषय में लिखने के चार ढंग हैं:

पहला तो यह कि स्त्री स्वयं अपने बारे में कहे- इसके लिए वह ‘फिक्शन’ या चाहे तो आत्मकथा का सहारा ले सकती है.
दूसरा ढंग यह है कि पुरुष या स्त्री दूसरी के जीवन और अनुभवों के बारे में लिखे.
तीसरा तरीका यह है कि अब तक जिए जा चुके जीवन से प्राप्त अनुभव और आने वाले जीवन के बारे में पूर्वानुमान करके स्त्री लिखे. विदुषी और प्रतिभाशाली स्त्रियां अनजाने में ही अपनी भविष्य कथाएं लिख जाती हैं.
चौथा ढंग, जिस हाल के वर्षों में स्त्रियों ने अपनाया है, वह यह कि स्त्रियां अपने अतीत के बारे में ज्यादा ‘बोल्ड’ और ईमानदार तरीके से लिखकर, सत्ता और राजनीति की नियंत्रणकारी ताकतों से टकराएं, चूंकि शक्ति और सत्ता को हमेशा से स्त्रियों के लिए वर्जित माना गया या यों कहें कि इतिहास में कभी भी, स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचान गया.


पितृसत्तात्मक शक्तियों ने स्त्री को हमेशा यही समझाया कि यह उसके लिए ‘वर्जित क्षेत्र’ है. साथ ही यह भी, कि वे स्वयं समाज-नियंत्रक नहीं बनना चाहतीं उन्हें हमेशा अभिव्यक्ति से रोका गया; टेक्स्ट’ कथानक, उदाहरण का अंग बनाने से बचा गया क्योंकि भय था कि इसके द्वारा कहीं वे सत्ता अधिग्रहण न कर लें, अपने जीवन के निर्णय स्वयं न लेने लगे.’ समकालीन स्त्री विमर्शकारों ने आलोचकों द्वारा स्त्रीवाद की उपेक्षा के प्रश्न को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि स्त्रियों के अनुभवों की अभिव्यक्ति ज्यादा बेहतर और पारदर्शी होती है.

स्त्री को बोलना अपने-आप में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करता है. डेनिस रिले का मानना है कि यद्यपि स्त्री अधिकारों की लड़काई उसे राजनीति की ओर ले जाती है, लेकिन ‘स्त्रीवाद’ कभी भी अनुभवों की अपरिहार्यता समाप्त नहीं कर सकता. समाज में, जो हमें दिखाई देता है, वही सच नहीं होता. मसलन हम विभिन्न सामाजिक अस्मिताओं के संदर्भ में स्त्री अस्मिता को देखें. स्त्री अभिव्यक्ति ‘अस्मिता’ को पाने की ही कोशिश है, यह अस्मिता विभिन्न अस्मिताओं के पारम्परिक संघनन की प्रक्रिया से गुजरती है, उनकी जटिल संरचना के भीतर से अन्य अस्मिताओं को पीछे कर अपनी संपूर्ण ताकत के साथ उभरती है, किसी-किसी समाज और दौर में दबा भी दी जाती है, कहीं-कहीं उपेक्षा और प्रतिरोध झेलती है.

इस प्रक्रिया में कोई अस्मिता अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती है.इस नजरिये से देखने पर मुस्लिम आत्मकथाकारों मे पर्याप्त वैविध्य दीखता है कहीं तो वे निजी जीवन को यौनिकता से ही जोड़कर देखती हैं और समूचा आत्मकथ्य उनकी यौनिकता के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कुछ  पति या प्रेमी के साथ संबंधों की पुनर्व्याख्या करने को प्रगतिशीलता से जोड़कर देखती हैं, जिसके उदाहरणस्वरूप  तैयबजी वंश की स्त्रियों के आत्मकथ्य देखे जा सकते हैं. वहीं सुल्तान जहां  बेगम जैसी भी लिखती रहीं जिन्होंने अन्तरंग संबंधों को परदे के भीतर ढके रहने में ही भलाई समझीपर्दे और बुर्के के पक्ष में दलीलें दीं.

कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक अनुभवों को साझा करने के लिए आत्मकथा विधा अपनाई.कई औरतें ऐसी भी रहीं जिन्होंने बतौर स्त्री झेला तो बहुत कुछ, पर खुलकर कभी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं, उनपर तरह -तरह की सेंसरशिप के दबाव रहे.कुछ ने उर्दू, बांग्ला,और  क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा तो कुछ ने भाषिक माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाया क्योंकि उन्हें लगा कि देशी भाषाओँ में अन्तरंग प्रसंग  और यौनिकता के मुद्दों पर लिखना सरल नहीं होगा और साथ ही वे वैश्विक पाठक वर्ग से वंचित भी रह जाएँगी. उर्दू में पहली गद्य लेखिका के तौर पर बीबी अशरफ का ज़िक्र आता  है, जिन्होने  उनीसवीं सदी के मध्य में स्त्री शिक्षा के रास्ते मे आने वाली कठिनाईयों का ज़िक्र ‘हयात–ए अशरफ’ में किया. 
(बाद के शोध से यह साबित हो गया कि वास्तव में यह किताब बीबी अशरफ ने नहीं तहज़ीब–ए निस्वान’ में लगातार छपने वाली मुहम्मदी बेगम ने लिखी थी. यह रिसाला 1898से 1949के बीच छपता था जिसके संपादक सैयद मुमताज़ अली थे.सी॰एम॰ नईम ने हयात ए अशरफ को 1900 -1910के बीच प्रकाशित माना)

बीबी अशरफ के आत्मकथ्य ‘हयात–ए-अशरफ’ से स्पष्ट है कि लिखना–पढ़ना अभिजात्य स्त्रियॉं के लिए अपेक्षाकृत सहज था, नीचे तबकों और निर्धन स्त्रियॉं के लिए बहुत कठिन. बीबी अशरफ एक शरीफ़ घराने से सम्बद्ध थीं और विधवा होने के बाद आजीविका निर्वाह के लिए उन्होने शिक्षण को पेशा बनाया. शौहर के मरने के बाद इद्दत के दिनों में उसने जब अपने पढ़ने की इच्छा को उजागर किया तो वयस्क, अनुभवी स्त्रियॉं ने निंदा की लेकिन वह मानी नहीं-

'मैंने रसोईघर से जली लकड़ियों के टुकड़ेघड़े के ढक्कन और झाड़ू की तीलियों की मदद से घर की छत पर जाकर, आराम के घंटों मे लिखे हुए अक्षरों की नकल  करना शुरू कर दिया. मेरी पढ़ने–लिखने की इच्छा  ने मुझे अंधा कर दिया था. मैंने कागज़ पर कागज़ काले करना शुरू कर दिया,फिर भी मुझे समझ नहीं आता था कि मैं क्या लिख रही हूँ. मुझे इतनी समझ नहीं थी कि शिक्षक के अभाव में कोई पढ़ना-लिखना नहीं सीख सकता. मुझे लगता था कि जैसे अन्य कई गुण देखने और अनुकरण से सीख लिए जा सकते हैं ठीक वैसे ही पढ़ना भी आ जाता होगा. लेकिन इस तरह बहुत सारा समय गँवाने के बाद भी मुझे कुछ नहीं आया. मेरी पुकार अल्लाह ने सुनी और मुझे अध्यापक मिला.
(सी॰एम॰ नईम,हाऊ बीबी अशरफ लर्ण्ट टु रीड एंड राइट :107-108एनुयल ऑफ उर्दू स्टडीज़ 6(1987) :107-108)

बीबी अशरफ ने पढ़–लिख कर अपने परिवार की परवरिश कीशिक्षा ग्रहण करने मे उन्होने चाहे जितनी कठिनाईयों का सामना किया हो ,इस्लाम के व्यावहारिक अनुशासन  को उन्होने कभी छोड़ा नहीं. शिक्षिका होकर भी पर्दे और बुर्के का नियमानुसार पालन करने के लिए अपने छात्रों के बीच उनकी तारीफ भी होती थी.




बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी




भारत में, सन 1920के आसपास अभिजात्य घरानों की मुसलमान स्त्रियाँ अँग्रेजी पढ़ने की ओर उन्मुख हुईं (आएशा जलाल, द कनवेनिएन्स ऑफ सब सर्विएंस: वुमेन एंड द स्टेट ऑफ पाकिस्तान’- ‘वुमेनइस्लाम एंड स्टेट’ में संकलित ,पृष्ठ 77) शिक्षा के इस नए दौर ने पढ़ी–लिखी स्त्रियॉं का एक ऐसा वर्ग बनाया जिसमें मुहम्मदी बेगम, नज़र सज्जाद हैदर, अब्बासी बेगम जैसी स्त्रियॉं को देखा जा सकता है जिन्होने रिसालों मे लिखना और छपना शुरू कर दिया था.  इस्लाम में जीवनी और आत्मकथा लेखन की एक लम्बी परंपरा की परिधि पर जिस संस्मरण को देखा जा सकता है वह है आबिदा सुल्तान जो भोपाल की राजकुमारी थी.

दाम्पत्य और सेक्सुअल थीम पर इतनी सच्ची अभिव्यक्ति अपने आप में विरल है. जहाँ आत्मविश्लेषण और निज की अभिव्यक्ति आत्मकथाओं का अनिवार्य तत्व है वहां इस्लाम धर्म को मानने वाले विशेषकर स्त्रियाँ निज की अभिव्यक्ति के लिए जिन चुनौतियों को झेलती हैं वे मानीखेज़ हैं. आबिदा सुल्तान ने ‘मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस’ में अपने दाम्पत्य जीवन के बारे खुलकर लिखा. उनका विवाह बचपन के मित्र करवयी  के नवाब सरवर अली खान से हुआ था. विवाह की प्रथम रात के बारे में वे लिखती हैं – 
विवाह के तुरंत बाद मुझे दाम्पत्य जीवन का पहला आघात लगा. मुझे अंदाज़ा नहीं था कि प्रथम सहवास ही मुझे सन्न करने और डराने वाला होगा. इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी. सच तो यह था कि मुझे उस व्यक्ति से आघात मिला था जिससे मुझे इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी. हमारा पालन-पोषण धार्मिक और रुढ़िवादी पवित्र वातावरण में होने के कारण मेरे मन में वैवाहिक सम्बन्ध, विशेषकर सहवास के प्रति एक अपवित्रता का भाव था. लगता था यह कार्य अश्लील है. दाम्पत्य सेक्स के प्रति मेरी घृणास्पद प्रतिक्रिया पति को कुंठित कर देने वाली साबित हुई. वे जल्दी ही मेरे प्रति अपनी कड़वाहट और असंवेदनशीलता दिखाने लगे और वह सब करने लगे जो मुझे एक मनुष्य में सबसे ज्यादा नापसंद था. वे काहिल, आलसी और बदमिज़ाज हो गएघरेलू नौकरों के साथ जुआ खेलकर अपना बेकार-खाली समय बिताने लगे. जल्द ही हमारे शयनकक्ष अलग-अलग हो गए. कुछ ही अरसे में हमारा विवाह मात्र कागज़ी और सामाजिक दिखावे के लिए रह गया."
(मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस, आबिदा सुल्तान, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,कराची,2004:98)

इन्हीं आबिदा सुल्तान की दादी भोपाल की बेगम सुल्तानजहां की आत्मकथा तीन भागों में उर्दू और अँग्रेजी में प्रकाशित हुई जो औपनिवेशिक सत्ता, राष्ट्रवादी विचारधारा के उदय और सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों के समानान्तर और परस्पर एक दूसरे को काटती हुई धाराओं से टकराती दीखती है. उनकी पोती आबिदा सुल्तान उन्हें ‘सरकार अम्मान’ कहकर संबोधित करती है

वह पवित्रतापसी प्रवृत्ति की और उदारमना, मितव्ययी थी, भोपाल के हिन्दू, मुसलमान, जमींदार और किसान उसे पसंद करते थे, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह सत्ता में थी बल्कि इसलिए भी कि वह उनके लिए मातृस्वरूपा थी”
(भोपाल, आबिदा सुल्तान, मेमोयर्स ऑफ ए रिबेल प्रिंसेस, कराची: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, 2004:9).


सुल्तान जहां बेगम 1901- 1926के बीच भोपाल रियासत की सुल्तान रहीं, हाल के वर्षों मे इस बात पर गौर किया गया कि सुल्तान जहां जैसी स्त्री राजनीतिज्ञों की पूरे इतिहास में उपेक्षा की गयी, जबकि वे लगातार स्त्री सुधार कार्यक्रमों से जुड़ी रहीं उनके पर्दाइस्लामदांपत्य पर उनके विचार हमें जानने को मिलते हैं तो वो भी उनके शासन काल के खत्म होने के 75वर्षों के बाद. भोपाल रियासत में आधुनिक विचारों का प्रचलन उनकी उपलब्धि रही, उन्होने स्थानीय शासन और औपनिवेशिक सरकार के बीच सेतु का काम किया,’एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘(खंड 1,2,3) उर्दू में ये तीनों भाग 1910में आये, जिनका अंग्रेजी तर्ज़ुमा 1920में काफी लोकप्रिय हुआ और स्त्री सुधारों पर लिखी पुस्तक ‘अल हिजाब :आरव्हाय द पर्दा इज़ नेससेरी’ को साथ पढ़ा जाना चाहिए.

भोपाल में ब्रिटिश सरकार ने ट्रेन, स्कूल, संचार पर अच्छा धन खर्च किया था,सुल्तान जहां बेगम ने हुक्मरानों के साथ बहुत ही अच्छे संबंध रखे ,वे  ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की तारीफ करती हैं वहीं उन्हे इस बात का भी एहसास है कि ब्रिटिश सरकार कभी भी हमारी नस्ल की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरी तरह समझ नहीं सकती. लेकिन वे कहीं भी दावा नहीं करतीं कि वे आम पाठकों के लिए पुस्तक लिख रही हैं (भोपाल नवाब सुल्तान जहां बेगम ,एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘,खंड 1,अनुवाद सी॰एच॰पायने.लंदन :जे मूर्रे,1912)

(Sultan Jahan Begum.)
लेकिन उन्होने  जिस तरह से अपनी यात्राओं ,इस्लामिक रीति -रिवाजों ,शासन -नीतियों के बारे मे लिखा है उससे पता चलता है कि उनके संभावित पाठक विदेशी और गैर -इस्लामिक थे. वे उसका अँग्रेजी अनुवाद भी करवा रही थीं और इस तरह अपने आपको’ एजेंसी’ के रूप में स्थापित भी कर रही थींआत्मकथा उनके लिए पश्चिम को भारत और इस्लाम के रीति रिवाजों की जानकारी देने का माध्यम थी .ब्रिटिश राज के प्रति उनकी वफ़ादारी का ज़िक्र बार -बार आत्मकथ्य में आया है,ऐसा इसलिए भी होगा कि स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका को ब्रिटिश राज ने स्वीकारा इस कृतज्ञता ज्ञापन के लिए वे आत्मकथ्य का सहारा लेती हैं.यह बात दूसरी है कि ब्रिटिश राज को सुल्तानजहां जैसे रियासतदार साम्राज्यवादी एजेंडे के अनुकूल लगते थे. वे आकाओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित करती हैं और इस तरह स्त्री शासिका होने के नाते अपनी एजेंसी को सुदृढ़ भी. लगातार पश्चिम के आलोक मे भारत को देखती है मसलन घरेलू जीवन के बारे में उनकी टिप्पणी है –“दांपत्य  जीवन का उद्देश्य है पति और पत्नी दोनों एक दूसरे को जीवन का आनंद देंलेकिन पश्चिम में यह अपवाद स्वरूप ही पाया जाता है जबकि भारत में यह सहज-स्वाभाविक है” सुल्तान जहां जिस आदर्श दांपत्य की बात कर रही हैंवह अपवाद ही है. परिवार की धुरी स्त्री को मानते हुए उनका स्वर आत्मकथ्य में उपदेशात्मक हैउनका मानना है कि जिस औरत ने पश्चिमी चाल-चलन सीखा उसका घरेलू जीवन नष्ट हो गया. वे जिस आधुनिकता की बात करती हैं उसमें स्त्री की यौनेच्छा का कहीं ज़िक्र नहीं है उसमें स्त्री की भौतिक स्वतन्त्रता की बात है मानसिक स्वतन्त्रता की नहीं .वे ब्रिटिश राज की प्रशंसक हैं और भौतिक उपलब्धियों के संदर्भ मे पश्चिमी सभ्यता की तारीफ करती हैं .उनकी पोती आबिदा सुल्तान ने भी सुल्तान जहां द्वारा ब्रिटिश राज के निरंतर समर्थन किए जाने की तसदीक की.

‘अल हिजाब में उन्होने मुसलमान स्त्रियॉं को पर्दे और हिजाब मे रहने की नसीहत दी और नवजागरण के अन्य समाजसुधारकों से अपने-आपको पर्दे के मसले पर अलगाने की कोशिश कीसाथ ही पाश्चात्य सभ्यता की तुलना में वे इस्लामिक रीति-रिवाजों को प्रस्थापित किया. 


(शाहजहाँ बेगम )
यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं. आत्माभिव्यक्ति के लिए इन आभिजात्य स्त्रियों ने कई विधाएं अपनायीं. इनमें से शाहजहाँ बेगम (1838-1901) ने स्त्रियों को आचरण सिखाने के लिए ‘तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इंसान (1889) लिखी जिसमें स्त्री यौनिकता को महत्त्व देते हुए सेक्स में स्त्री की इच्छा की संतुष्टि की पक्षधरता करने के क्रम में स्वयं की नजीर पेश की. शाहजहाँ बेगम ने लिखा कि उनके पहले पति मुहम्मद खान उम्र में काफी बड़े थे इसलिए शाहजहाँ बेगम को युवावस्था में दुःख और गम ही मिले उनके शब्दों में ‘रंज ओ गम’ मिले .पति की मृत्यु के बाद उनके निजी सचिव सिद्दीक हसन खान से उन्होंने 1871में पुनर्विवाह किया तब उन्हें यौनतृप्ति और सुखी जीवन का अनुभव हुआ.इन प्रसंगों की चर्चा बेगम ने अपनी पुस्तक में  विस्तार से की,जिसका ‘टेक्स्ट’ अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वे स्त्रियों को सलाह देती हैं कि-‘संतानोत्पत्ति और गर्भ पर अपना नियंत्रण करके कैसे अपने जीवन पर नियंत्रण कर सकती हैं,यानि अपनी इच्छानुसार कैसे जीवन जी सकती हैं;इसके साथ ही वह इस्लाम को मानने की सलाह भी देती हैं’
(तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इन्सान- शाहजहाँ बेगम,मतबा ई अंसारी,दिल्ली,1889) 

शाहजहाँ बेगम के विचार अपने समय से बहुत आगे हैं साथ ही आश्चर्य में डालने वाले भी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छा से दूसरे विवाह  में उस व्यक्ति को पति के रूप में चुना था जो अल-ई-हदीस जैसे सुधारवादी मुस्लिम संगठन से सम्बद्ध था और कट्टर एवं उग्र विचारों के लिए जाना जाता था. शाहजहाँ बेगम की बेटी सुल्तानजहाँ बेगम (1868-1930) भोपाल रियासत की अंतिम शासक थी जिसने तीन भागों में आत्मकथा लिखी जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है आत्मकथा में स्त्रियों द्वारा यौनेच्छा की प्रकट अभिव्यक्ति की कड़ी आलोचना करते हुए  पश्चिमी आलोचकों का  मुस्लिम स्त्रियों के निजी जीवन में दखल देना शर्मनाक बताया गया.
(‘अल हिज़ाब का पर्दा क्यों ज़रूरी है’सुल्तानजहाँ बेगम,कलकत्ता ,थैकर,स्पिंक ,1922:148)

कई साल पहले जहाँ मां ने स्त्री यौनिकता पर खुलकर बोलने के खतरे उठाये थे वहीं बेटी सुल्तानजहाँ बेगम ने अपने दाम्पत्य और स्त्री यौनिकता के बारे में कुछ लिखना उचित नहीं समझा. मां-बेटी के आत्मकथा लेखन में लगभग दो दशकों का अन्तराल है लेकिन बेटी यानि सुल्तान जहाँ बेगम अन्तरंग सम्बंधों को परदे की चीज़ मानती है और 1902में पति अहमद अली खान की मृत्यु के समय करुण समर्पण लिखती है –


“मेरी कलम भले ही ‘दुःख’शब्द लिख ले और जुबान भी यह कह दे पर मेरी भावनाओं की गहराई की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द पर्याप्त नहीं है-कोई शब्द ऐसा नहीं हैजो मेरा दुःख पूरी गहराई से अभिव्यक्त कर सकेआँख के तारे का चला जानाजो मेरा सबसे गहरा मित्र था पिछले 27वर्षों से जिसने मुझे स्नेह और उपदेश दिएमुझे चिंताओं और मुश्किलों से उबरने में मदद की .उनकी सहानुभूति और प्रेम हमेशा मेरे लिए मददगार साबित हुए हैं- वास्तव में यह एक गहन और दृढ़ सम्बन्ध था. जीवन के इस मोड़ पर उसे खो देना वैसा ही है,जैसा मुसीबतों के समुद्र में अकेले डूबना-उतराना. जब मुझे उसके चतुर सुझावों की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी-ऐसे में उसका चला जाना एक असहनीय आपदा है." 
(‘एन अकाउंट ऑफ़ माई लाइफ़’,नवाब सुल्तान जहाँ बेगम ,खंड 2,अनुवाद अब्दुस्समद खान ,बॉम्बे :द टाइम्स 1922:36-37)

कुरान में आदर्श विवाह और आदर्श दंपत्ति के बारे में जो कहा गया है उन आदर्शों का पूरी तरह पालन दीखता है.




                                  
                  
                  ३.

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ

क्या भोपाल-रियासत की सांस्कृतिक विरासत में ही ऐसा कुछ था जो इन स्त्रियों को अपने जीवन के बारे में बयान करने की प्रेरणा देता था. ये तो थी रियासत की स्त्रियाँ लेकिन सामान्य स्त्रियों का क्या,क्या वे भी आत्मभिव्यक्ति की इच्छा को परिणति तक पहुंचा पायीं. इसके बरक्स  अतिया फैजी (1877-1967) और नाज़िल फैजी (1874-1938) के  आत्मकथात्मक यात्रा संस्मरणों को देखा जा सकता है.1906से 1908के बीच उन्होंने यूरोप की यात्रायें कीं और संस्मरण लिखे. 

अतिया फैजी कवि इक़बाल की मित्र थीं (द अदर साईड ऑफ़ इक़बालसईद नक़वीफ्राइडे टाइम्स लाहौर,15अप्रैल 1911) अतिया फैजी की डायरी के कुछ हिस्सों का प्रकाशन ‘तहज़ीब-उन -निस्वान’ में हुआजो बाद में पुस्तक रूप में भी सामने आई. हालाँकि 1907में अतिया इक़बाल से मिली थी मगर पूरी डायरी में इक़बाल का ज़िक्र सिर्फ दो बार आया है. दोनों बार अतिया ने उन्हेंविद्वानदार्शनिक और कवि के रूप में याद किया है. उनके बीच कोई अन्तरंग संपर्क था इसकी तरफ कोई संकेत नहीं मिलता. जबकि सामान्य तौर पर कई अन्य ने उनको आत्मीय मित्रों के रूप में देखा.

अतिया ने बाद में ‘इक़बाल’(1947) शीर्षक से पत्रों का संग्रह भी छपवायालन्दन में उनकी निजी मुलाकातों के ब्यौरे इस पुस्तक में मिलते हैं. इन पत्रों में यह उल्लेख है कि इकबाल से अतिया फैजी की मुलाकातें सभाओं,रात्रिभोजों और पिकनिक के दौरान हुआ करती थी. अतिया ने इकबाल के दिवंगत हो जाने के बाद ही पत्रों का संकलन छपवाने का साहस कियावैसे भी तब तक उनकी उम्र काफी हो चली थी.

’इक़बाल’ शीर्षक पुस्तक में  वे इकबाल से साथ अपने संबंधों को गुरु-शिष्यवत बता कर संवेदनात्मक संतुलन का परिचय देती हैं.
(अतियाज़ जर्नी:अ मुस्लिम वूमन फ्रॉम कोलोनिअल बॉम्बे टू एडवर्डियन ब्रिटेन,Siobhan lambert-Hurley and Sunil sharma,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ,दिल्ली ,2010:2)

पुरुष के साथ मैत्री भाव को छुपाकर रखना उनके मानसिक अनुकूलन को बताता है कि जब वे पश्चिम में थीं तो उन्हें कवि इकबाल से आत्मीयता मे कोई परहेज न था लेकिन देश-काल के बदलते ही स्त्री कैसे अपनी अभिव्यक्ति को सेंसर कर डालती हैअतिया का लेखन इसका दिलचस्प उदाहरण है. नाज़िल फैजी ने बहन के नक़्शे-कदम पर चलते हुए अपने संस्मरण शाया किए लेकिन वह अतिया की अपेक्षा अधिक खुलकर स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बोलती है उसने पति इब्राहीम खान के साथ गुज़रे पलों के बारे में लिखा.

दिलचस्प है कि नाज़िल फैजी का विवाह 12वर्ष की उम्र में 1886में हुआ लेकिन संतान उत्पन्न न हो पाने के कारण सन 1913में तब तलाक़ हुआ जब उनकी उम्र 39की थीयानि तब जब कोई स्त्री यौन-आकर्षण की उम्र पार कर रही होती  है, ठीक उसी समय नवाब ने दूसरी स्त्री के साथ रहना चुन लिया. नाज़िल फैजी ने यूरोप की यात्रा के बारे में  ‘सैर ए यूरोप में’ लिखा. जो सतही तौर पर भले यात्रा संस्मरण हो पर उसमें संतानहीन स्त्री जो पति की उपेक्षा और तलाक का शिकार है उसकी पीड़ा के दस्तावेज़ छिपे हुए हैं (नाज़िल राफ़िया सुलतान नवाब बेग़म साहिबा ,सैर ए यूरोपलाहौरयूनियन स्ट्रीम 18मई 1908)

सैर ए यूरोप’ पति और बहन अतिया के साथ जलमार्ग से ब्रिटेन और इस्ताम्बूल तक की गयी यात्रायें हैं. इस वृत्तान्त में नाजिल के अन्तरंग जीवन और निजी हताशा के संकेत हैं. ऐसा लगता है कि वह अपने निजी जीवन,परेशानियों,पति की बेरुखी के बारे में बोलना चाहकर भी बोल नहीं पा रही है. उसके लिखे हुए की दरारों को पढना पाठक का काम काम है. बाद में चलकर उसके बहनोई सैमुअल फैजी राहामिन के लिखे उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र के रूप में किसी नवाब की पत्नी का  चरित्र आया जिसका जीवन उपेक्षित और एकाकी है ,जो संभवतः नाजिल के जीवन की ही झलक है (गिल्डेड इंडिया सैमुअल फैजी राहामिन,,लन्दन ;हर्बर्ट जोसफ ,1938,रिव्यू टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ,26मार्च 1938:222) 

अतिया और नाजिल दोनों बहनों में समानता थी कि दोनों ने कथेतर विधाओं को रचनात्मकता के माध्यम के रूप में चुना लेकिन निजी प्रसंगों पर खुल कर बोलना दोनों ने गवारा नहीं कियाइसके पीछे सामाजिक और निजी स्तर की सेंसरशिप को देखा जा सकता है. इन दोनों ने जिनका उल्लेख किया उनसे अपने संबंधों की गहराई को छुपा ले जाने के पीछे पारिवारिक  संबंधों के समीकरण गड़बड़ाने का भय ज़रूर था. मुहम्मद इकबाल से अतिया का पत्राचार लगभग सन 1911तक चलाइतनी लम्बी अवधि में आत्मीय संपर्क का स्थापित न होना ही अस्वाभाविक होता. नाजिल और अतिया दोनों ने बोलचाल की साधारण उर्दू का प्रयोग किया. दोनों बहनों की पुस्तकों में उस समय चल रहे समाज-सुधार के एजेंडे का ज़िक्र मिलता है. अतिया ने अपनी पुस्तक में ‘तहज़ीबी बहनों’ (ज़माना की भूमिका)को संबोधित किया. नाजिल ने भी ‘हिन्दुस्तानी भाई-बहनों को सोचने पर मजबूर करने’ को ”सैर-ए-यूरोप’  पुस्तक का उद्देश्य बताया. दोनों पर बदरुद्दीन तैयबजी का ज़बरदस्त प्रभाव था और वे चाहती थीं कि यूरोप और अरब के अनुभव और नजीरें  हिंदुस्तानियों  के पिछड़ेपन को दूर भगाने के काम आ सकें.

मुस्लिम आभिजात्य वर्ग से सम्बद्ध ये दोनों बहनें भारत में जनता के सामने खुलकर बोलने वाली पहली स्त्रियाँ थीं. लेकिन इनका लेखन इस ओर इशारा करता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक और समुदायगत संरचना कहीं न कहीं अभिव्यक्ति के लिए विधागत चुनाव को नियंत्रित करने वाला कारक है. अतिया और नाज़िल की पुस्तकों को आत्मकथा नहीं कहा जा सकता लेकिन इनके लेखन में पत्रडायरी शैली और बौद्धिक गद्य का सम्मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है.स्वानुभूत जीवन के बारे में संकेतों में बात करना कहीं न कहीं जीवन में परिवर्तनकामी शक्तियों का आह्ट का द्योतक है.

         

हम    कि    मगलूब-ए-गुमाँ थे     पहले
फिर वहीं हैं कि जहाँ थे पहले




पाकिस्तान बनने के बाद जो स्त्रियाँ आत्मकथा लेखन  के क्षेत्र में रचनारत रहीं उनपर कई  दृष्टियों से विचार हो सकता है-एक तो कि देशविभाजन की घटना के बदले सांस्कृतिक संदर्भ और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इनका नजरिया क्या था साथ ही इस्लामीकरण के आग्रह की पृष्ठभूमि में जेंडर के मुद्दों पर इनके जुड़ाव के आयाम क्या थे. कुरर्तुल एन हैदर  (कारे जहां दराज़ है) हमीदा अख्तर हुसैन रायपुरी (हमसफ़र)

निसार अज़ीज़ बट (गए दिनों की सरगाह) की कड़ी में बेगम शाइस्तासुहरावर्दी इकरमुल्लाह (1915-2000) की आत्मकथा ‘फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट’ (फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट ,शाईस्ता सुहरावर्दी कराची ,ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998 ) को देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने पाकिस्तान आन्दोलन के विस्तृत ब्यौरे दिए. जहाँ हिंदी क्षेत्र में स्त्रियों की राजनीतिक आत्मकथाओं की उपस्थिति विरल है वहीँ शाईस्ता बेगम ने पाकिस्तान की विधानसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पाठकों को बताया. शाइस्ता बेगम ने आत्मकथ्य में सगे-सम्बन्धियों का ज़िक्र प्रसंगवश तो किया है लेकिन निजी जीवन के अन्तरंग क्षणों के परिचय से उनका पाठक वंचित रह जाता है.

यद्यपि दो अध्यायों में वे वैवाहिक और राजनैतिक जीवन में संतुलन बनाये रखने की कोशिशों का उल्लेख करती हैंजिससे पाठक को यह अंदाज़ा हो जाता है कि आभिजात्य स्त्री के लिए भी राजनीति में  कैरियर बनाना तब भी आसान नहीं रहा होगा. बेगम शाईस्ता आत्मकथा के छठे और सातवें अध्यायों में ससुराल पक्ष के रीति रिवाजोंभोजन-वस्त्रसम्बन्धियों का ज़िक्र करती हैं पर कहीं भी अपने पति का नाम तक नहीं लेतीं. वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में उनकी टिप्पणी है –“हमारे समाज में विवाह के बाद किसी लड़की के जीवन में सबसे बड़ा जो परिवर्तन आता है वह यह है कि उसे पूरी तरह अपने आप को नए परिवार के अनुरूप ढालना पड़ता है”.(फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंटशाईस्ता सुहरावर्दी कराचीऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998:61) 

अन्य कई मुस्लिम स्त्रियों ने अंग्रेजी में अपने सार्वजनिक जीवन के विषय में टिप्पणियां कीं लेकिन अक्सर ये स्त्रियाँ अपने आत्मीय संबंधों के बारे में खुलकर बोलने का साहस नहीं जुटा पायीं.इस कड़ी में बड़ी बहादुरी के साथ बुर्का त्याग देने वाली जहाँआरा हबीबुल्लाह (1915-2001)की पुस्तक ‘रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट’ को देखा जा सकता है जो बेगम शाईस्ता के आत्मकथ्य की तर्ज़ पर ही लिखी गयी है. रामपुर स्टेट के दिनों में जहाँ उनके वालिद मुख्यमंत्री थे और बहनोई स्टेट के नवाब- वहां के बारे में याद करते हुए भी आत्मीय प्रसंगों की चर्चा से बचीं सिवाय उस अध्याय के  जिसमें उन्होंने पाकिस्तान तम्बाकू कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ईशत हबीबुल्लाह के साथ अपने वैवाहिक प्रसंग को लिखालेकिन वहां भी अधिकांश बातें उनकी  संतानों के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं.(रिमेम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट: ग्लिमप्स आफ ए प्रिंसली स्टेट ड्यूरिंग द राज, जहाँआरा हबीबुल्लाहआक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2001,मूल उर्दू में लिखित यह पुस्तक अंग्रेजी में पहले प्रकाशित हुई थी.उर्दू में ‘ज़िन्दगी की यादें :रियासत रामपुर नवाब  का दौर’जो कराची से 2003में छपा).

हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र (1921-1988) जहाँआरा हबीबुल्लाह की चचेरी बहन थी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के नेत्र-चिकित्सा विभाग में चिकित्सक और  निदेशक बनने के बारे में उसने आत्मकथ्य में लिखा.पूरी आत्मकथा में कहीं भी उसके अविवाहित रह जाने,एकाकी जीवन के कष्टों के बारे में ज़िक्र नहीं है. इसकी बजाय सर सैय्यद अहमद खां के समाज सुधार के एजेंडे और उनकी तारीफ में कई पन्ने लिखे गए हैं.(आत्मकथा, हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ,संपादन लोला चटर्जी,नई दिल्ली ,तृंका ,1996)

ऊपर जिन आत्मकथाओं का ज़िक्र किया गया है उनकी रचनाकारों मे से अधिकांश सन 1930के पहले पैदा हुईं थीं.ये सभी अभिजात्य परिवारों से सम्बद्ध थीं और सर सैयद अहमद खान के आधुनिक राष्ट्र राज्य मे स्त्री की बदली हुई भूमिका के आदर्श से परिचालित थीं. रशीद जहां (1905 -1952 ) सरीखी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी और प्रेरित स्त्रियॉं जब लेखन के क्षेत्र में आयीं तो उन्होने आधुनिकता के पक्ष में एक विमर्श करना  शुरू किया. समतावादी विचारधारा और रूढ़ियों के बहिष्कार की हवा चली  ,इसके परिणामस्वरूप ‘हलाक-ए अरबाब-ए ज़ौक़ (1939)जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आयीं. इनसे जुड़ी स्त्रियॉं ने घर के बाहर कदम रखकर आधुनिक विचारों का प्रचार–प्रसार करना प्रारम्भ किया. जहां इससे पहले की पीढ़ी अपनी शिक्षा के लिए संघर्षरत  रही थी वहीं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी स्त्रियों  ने शिक्षा को जनसुलभ बनाने,पर्दे का विरोध करनेस्त्री–स्वाधीनता के व्यावहारिक पक्षों पर बल दिया.

रशीद जहांइस्मत चुगताईरज़िया सज्जाद ज़हीर और खदीजा मस्तूर ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किएइन स्त्रियॉं ने यह समझा कि आधुनिकतास्त्री और मध्यवर्गीय मुस्लिम स्त्री होने के क्या अर्थ हैं विशेषकर भारतीय मुस्लिम स्त्री होकर बौद्धिक कैसे हुआ जा सकता हैऔर यह बौद्धिकता किस तरह समाज परिवर्तन का माध्यम बन सकती है (प्रियम्वदा गोपाललिटेररी रेडिकलिस्म इन इंडिया:जेंडरनेशन एंड द ट्रांसिशन टू इंडेपेंडेंसलंदनरौल्टज,2005,पृष्ठ 5)



विभाजन की घटना ने स्त्री –पुरुष दोनों को प्रभावित कियादेश–विभाजनपुनर्स्थापनधर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर नागरिकों के विभाजन के सबके अपने पाठ थे पाकिस्तान का बननाभारत के विभाजन की घटना ने राजनैतिक परिदृश्य पर जो परिवर्तन उपस्थित किए उनका भारत में रह रही और पाकिस्तान जाकर बस गयी मुस्लिम स्त्रियॉं पर गहरा प्रभाव पड़ा, इस दौर में गद्य लेखन विशेषकर आत्मकथा लेखन मे अप्रत्याशित तेज़ी देखी गयी. सबके पास अपनी–अपनी चुनौतियाँ और संघर्ष थे. पाकिस्तान को आधुनिक बनाने के लिए उन्नीसवीं सदी के समाजसुधार आंदोलनों के प्रभावों को मन मे ग्रहण किए हुए ये स्त्रियाँ लेखन मे प्रवृत्त हुईं. शायद सुधारवाद का दबाव उनके अवचेतन पर इतना रहा होगा कि वे अपने निजी प्रसंगों पर बहुत खुलकर नहीं बोलतीं. वस्तुतः इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए .इसके उदाहरण के तौर पर अदा जाफ़री की आत्मकथा “जो रही सो बेकरारी रही” को देखा जाना चाहिए. बदरुद्दीन तैय्यबजी के परिवार से सम्बद्ध रेहाना तैय्यबजी (1901-1975) ने आत्मकथा ‘द हार्ट ऑफ़ अ गोपी’ लिखी थी,जिसमें  महात्मा गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन का अनुकरण करने और अपने ऊपर गांधी के संश्लिष्ट प्रभाव का अंकन किया है.

आत्मकथा में वह स्वयं को ‘बापू’ के ब्रह्मचारी सिपाहियों में से एक बताती है. वह सीधे-सीधे न सही पर परोक्ष रूप से गांधी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करती है. वह स्वयं को कृष्ण की गोपिका कहकर ब्रह्मचारी रहने के व्रत और दैहिक संसर्ग की इच्छा के बीच के अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में लिखती है. गांधी को लिखे पत्रों में भी वह इस अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में खुलकर बयान करती है. वह गोपी के रूप में स्वयं को तथा कृष्ण के रूप में संभवतः गांधी को रखकर देखती है और भौतिक वास्तविकताओं से परे आध्यात्मिक मिलन का रूपक रचती है .लेकिन यह तय है कि रेहाना आत्मकथा विधा की अपरिमित संभावनाओं को जान नहीं पाई वर्ना यह किताब एक बोल्ड आत्मकथा हो सकती थी.



५.



नवाब सिकंदर बेगम (1818-68) के यात्रा वृत्तान्त ‘ए पिल्ग्रिमेज टू मक्का’ (1870) में कुछ आत्मकथात्मक प्रसंग मिलते हैं पर उनमें अंतरंगता का नितांत अभाव है जो लिखा तो उर्दू में गया पर प्रकाशित हुआ सिर्फ अंग्रेजी मेंवह भी बेगम की मृत्यु के बाद. ये उन रचनाकारों में से थीं जिन्होंने खुलकर आत्माभिव्यक्ति का साहस नहीं दिखायाबल्कि उपन्यास और कहानी के माध्यम से अपनी बात कही. उन्होंने प्रेमविवाहपूर्व सेक्ससमलैंगिकतास्त्री की यौनेच्छाओं जैसे मुद्दों पर बात की.

इनके अतिरिक्त जो स्त्रियाँ स्त्री लैंगिकतायौनेच्छा जैसे मुद्दों पर खुलकर लिख पायीं उनमें सलमा अहमदकिश्वर नाहीद को ज़रूर देखा जाना चाहिए. ये स्त्रियाँ सिर्फ जेंडर की बात नहीं करतीं बल्कि धर्म- विशेषकर इस्लाम किस तरह स्त्री को ‘मानुष’ होने से रोकता है इसपर टिप्पणी करती हैं. इन रचनाकाओं मे पर्दा-प्रथा का विरोधबहुविवाह  के साथ-साथ धर्म कि जड़ मे आने वाले ऐसे बहुत सारे रिवाज जो स्त्री विरोधी हैं उनकी मुखर आलोचना मिलती है.

सलमा अहमद जो पाकिस्तान की जानी मानी व्यवसायी थीं उन्होंने अपनी दर्दनाक ज़िन्दगी के बारे में लिखा. (कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमदसमाकराची, 2002) जिसकी विशेषता है वैवाहिक जीवन के विषय में खुलकर बात करना. वे अपने वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में लिखती हैं –
‘सुहागकक्ष  में मेरी प्रतीक्षा हो रही थी. अब दूसरा नाटकदूसरा दू:स्वप्न शुरू होने को था- यह मैं नहीं थी जिसे वह छू रहा थायह मैं नहीं थी जिसके वह कपड़े उतार रहा थाये सब इतना अवास्तविकइतना पीड़ादायक थाइतना झटका लगाने वाला था कि रजस्राव से चादर भीग गयी. तट के लग्ज़री होटल में ये एक डरावनी रात थी. रिवाज़ के अनुसार सुबह मेरे रिश्तेदार मुझे घर ले जाने के लिए आये. मैं क्षुब्ध थी और स्वयं को अपवित्र और चोटिल महसूस कर रही थी”
(कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी,  सलमा अहमदसमा,कराची, 2002:26-27)

इसी सलमा अहमद की बहन नजमा भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान की बहू बनी. सलमा की आत्मकथा में नजमा और शहरयार के विवाह की तस्वीर भी है. इस तरह सलमा अहमद का सम्बन्ध भोपाल की रियासत से ठहरता हैजो भारत की एकमात्र ऐसी रियासत थी जहाँ 19वीं और 20वीं शती में स्त्री-शासक हुईं. यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं.

सईदा बानो अहम् की आत्मकथा ‘डगर से हटकर ‘(1990) में प्रकाशित हुई जीवन के उत्तरार्ध में सईदा ने यह आत्मकथा अपने पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध छपवाईजिसे बाद में उर्दू अकादमीदिल्ली से पुरस्कार भी मिला (सकीना हसन-सईदा की भतीजी से उसका साक्षात्कार 13फरवरी 2006को) सईदा हसन आल इंडिया रेडियो की पहली स्त्री उद्घोषक थीं जो सन 47में अपने छोटे बेटे को लेकर लखनऊ से दिल्ली नौकरी करने आ गयीं. 
(इंटिमेसी अगेंस्ट कन्वेंशन :मैरिज एंड रोमांस इन सईदा बानो’ज़ ‘डगर से हटकर ‘पेपर बाई आसिया आलम ,40एथ एनुअल कांफ्रेंस आफ़ साउथ एशिया ,यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कांसिन ,मेडिसन,21-23अक्टूबर 2011.)

सईदा ने अपने दाम्पत्य जीवन के विवादों और विवाह के टूटने के चित्रण खुलकर कियेयही कारण था कि लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी उनके बेटों ने आत्मकथा के छपने का विरोध किया. सईदा की आत्मकथा की तुलना आबिदा सुल्तान से भी की जा सकती हैवे दोनों अच्छी मित्र थीं और दोनों की परवरिश भोपाल में ही हुई थी आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने आत्मकथ्यों में बोल्डनेस दिखाई. आबिदा सुल्तान की आत्मकथा की चर्चा पहले  की जा चुकी हैसईदा ने बताया कि उसने विवाह के तुरंत बाद हमबिस्तर होने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसे लगा कि पति नितांत अपरिचित हैं. (डगर से हटकर:38) इस असुविधाजनक प्रसंग को लिखकर  अपनी अल्पवयस और उस समय तक यौन-संबंधों के बारे में अनभिज्ञता प्रदर्शित की. सईदा बानो ने विवाहेतर सम्बन्ध की चर्चा बड़ी बहादुरी से की है. नुरुद्दीन नामक वकील जिसकी अंग्रेज़ पत्नी अपने बच्चों को लेकर भारत की आज़ादी के बाद इंग्लैण्ड चली गयीउससे सईदा को प्रेम  हुआ.

नुरुद्दीन के अकेलेपन को सईदा की दोस्ती ने भर दिया. इनदोनों का प्रेम लगभग 27वर्ष चलाशुरूआती हिचक के बाद सईदा ने प्रेम के सामने पूर्ण समर्पण कर दियाजिसने सईदा के शब्दों में ‘सईदा का दिल खुशियों से भर दिया था ‘सन 1955में नुरुद्दीन की पत्नी दिल्ली लौट आईउसे इस प्रेम सम्बन्ध पर आपत्ति थी (डगर से हटकर :186-190) इस सम्बन्ध को लेकर सईदा बहुत सम्वेदनशील थी क्योंकि इसने  ख़ुशी दी थीइसलिए एक दिन अचानक सब ख़त्म करना उसके लिए संभव  नहीं थादूसरी बात यह थी कि इस सम्बन्ध की जानकारी मित्रोंबच्चों और रिश्तेदारों को थी लेकिन सईदा के अनुसार ‘मेरी जीवनशैली की मर्यादा उन लोगों ने रखीइस प्रेम सम्बन्ध के कारण मेरा अपमान कभी नहीं किया.’अतीत के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए सईदा लिखती है- 


“आज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वह पूरा प्रसंग बचकाना लगता है ,लेकिन ऐसा वक्त भी था कि उसकी एक झलककुछ लम्हे के लिए मिलना ज़िन्दगी और मौत का सवाल ...रात के राहियों की तरह बचपने का यह खेल हमने 60-65और यहाँ तक कि 70बरस की उम्र तक भी खेला. जिस काम की मनाही हो उसे करने में जोखिम का अद्भुत आनंद छिपा हुआ होता है” (डगर से हटकर:226)

सईदा द्वारा अपने प्रेम सम्बन्ध की स्पष्ट स्वीकृति अपने आप में विशिष्ट हैजो उसकी आत्मकथा को प्रामाणिक बनाती है.

मेरा जीवन’ शीर्षक से डा.जाकिरा गौस (1911-2003) ने आत्मकथा लिखी. पढने की शौक़ीन ज़ाकिरा ने सत्तर वर्ष की अवस्था में मद्रास विश्वविद्यालय से उर्दू में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की. बचपन से ही डाक्टर बनने का सपना देखने वाली जाकिरा को पारिवारिक परिस्थितियों ने गृहस्थिन बनाया. वे आत्मकथा में अपने बचपन के रचानात्मक दिनों को याद करती हैं. वे अपने एक बुज़ुर्ग द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका ‘बज़्म ए अदब’ से प्रेरणा लेकर खानदान के भीतर ही हस्तलिखित पत्रिका ‘मुशीर उन निस्वान’ निकालने लगीं. इस घरेलू पत्रिका के पाठक खानदान के भीतर के लोग ही थे पर इसमें भी अपने से बड़े-बुजुर्गों पर टिप्पणी करने से लोग बचते थे. सन 1956तक यह हस्तलिखित पत्रिका नियमित रूप से निकलती रही. सेल्फ सेंसरशिप के सन्दर्भ में जाकिरा गौस ने इसे याद किया हैइसी के आधार पर ‘माई लाइफ’ शीर्षक से आत्मकथा अंग्रेजी में प्रकाशित हुईजिसे खानदान के लोगों के लिए ही लिखा गया थाइसलिए बहुत से वर्णनों की ज़रूरत भी नहीं पड़ी. लेकिन वह यातनाप्रद बातों की चर्चा से बचीं और यदि कहीं किसी के बारे में प्रसंगवश नकारात्मक टिप्पणी कर भी देती हैं तो तुरंत वहीँ किसी सकारात्मक बात से संतुलन बना देती हैं.

इसी तरह पूरी आत्मकथा में सावधानी दिखाई पड़ती हैवे विवादास्पद मुद्दों पर अपना पक्ष नहीं रखतीं और यदि कोई ऐसा मुद्दा आता भी है तो उनका बयान होता है- आपमें से कुछ इससे असहमत भी हो सकते हैं -उनसे अग्रिम क्षमायाचना के साथ.आत्मकथा में वे दर्ज़ करती हैं- 
"पत्रिका के पहले अंक में महरूम चचाजान ने खानदान की कुछ मृतक औरतों के बारे में लिखा थावर्णक्रम से. पाठकों को उनके बारे में कुछ लिखने को कहा गया था. मैंने नहीं लिखालेकिन उसके बाद से ही मेरे दिमाग में यह विचार आया कि हालाँकि मेरा जीवन इतना महत्वपूर्ण नहीं हैकि उसे लोग जानें फिर भी मैं अपने बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. आरंभ में तो किसी कागज़ पर मैं यूँ ही कुछ उलझी हुई बातें लिखा करती थी. मैं आपसे उसे पढ़ने के लिए नहीं कह सकती पर मैं इतना जानती हूँ कि आपमें से कुछ लोग तो उसे पढ़ने के लिए कहेंगे ही. यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि मुझे मालूम है कि लोगों में दूसरे के निजी जीवन को जानने की इच्छा होती ही है...वैसे अपने निज के बारे में लिखना मेरा अपना चुनाव है,यह ऐसा विषय है जिसपर मेरी कलम बिना रुके दौड़ सकती है.मुझे मालूम है कि आत्मप्रशंसा करना एक कमी है फिर भी मुझे अनुमति दीजिये कि कहूँ कि जो कुछ मेरे जीवन में हुआ उसे लिखूं अपने बारे में कुछ ख़ास लिखना मुझे कभी पसंद नहीं आया.

आत्मकथा में जाकिरा अतिशयोक्तियों का प्रयोग करती हैंअपने पाठकों के पक्ष में वह अपनी आलोचना स्वयं करती चलती है. बार बार कहती है कि उसे ठीक से लिखना भी नहीं आता.अपने पाठकों से किसी वक्तव्य ,जिसके बारे में उसे लगता है कि वह आत्मप्रशंसात्मक हो सकता है -को देने के बाद अतिशय विनम्रता दिखाती है ,जिसे फारसी और उर्दू गद्य की परंपरा में भी देखा जा सकता है.यहाँ देखने की बात है आत्मकथ्य में आत्म के विलोपन का प्रयास, सिर्फ औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थ हैं. वह चाहती है कि पारिवारिक सेंसरशिप उसपर हावी न हो उसकी साहित्यिक गतिविधियाँ अपनी गति से चलती रहें.इसलिए वह अपने आपको बहुत ही नाचीज़ दिखाती हैसगे-सम्बन्धियों पर कोई टीका टिप्पणी नहीं करती.पूरी आत्मकथा बहुत सावधानी से लिखी हुई है ,हालाँकि इस कार्य में वह हर समय सफल नहीं हो पाती.जाकिरा अपने जन्म के प्रसंग में लिखती है –


“रबी उल अव्वाल 1340, यानि 18नवम्बर 1921को शुक्रवार के दिन हैदराबाद के हाजी मंजिल में मैं पैदा हुईमुझसे पहले पैदा हुई दो बहनें मर चुकी थीं...मैं अब तक इस संसार में जी रही हूँ ,इतनी लम्बी ज़िन्दगी.कभी कभी सोचती हूँ मेरा जीवन कितना निरर्थक है ,अगर मैं भी अपनी बहनों की तरह पैदा होते ही मर जाती तो...क्या हुआ होता ?मेरे जैसे जीवन का क्या मूल्य है ...व्यर्थ और निरुद्देश्य’ जाकिर गौस लिखती है कि उनके पिता बी. ए.पास न कर पाने के कारण पक्की नौकरी से वंचित रहेखानदान के बाहर उन्होंने दूसरी शादी की ,दूसरा घर भी बसायासभी पत्नियों को मिलकर उन्हें कई बच्चे हुए जिनमें पांच लड़कियों और एक लड़के ने ही पूर्ण जीवन जिया. ज़ाकिरा की मां ने बहुत अभावों में अपने बच्चों को पाला ,इसलिए अपने बच्चों को बहुत विनम्रता और खानदानी तहजीब सिखाई.उन्होंने सिखाया कि वे परनिर्भर हैं इसलिए उन्हें ऐसे रहना चाहिए जिससे परिवार के अन्य लोगों को कोई तकलीफ न हो. वह एक वाक़या याद करती है कि घर में कबाब बने थे- कुछ बच्चों ने जोश में आकर ज्यादा कबाब खा लिए,जिससे बाकी लोगों के लिए कम बचा. जैसे ही मेरी मां को यह पता चला उन्होंने बहुत कड़ाई के साथ ताक़ीद की, कि भविष्य में दूसरों के बारे में बिना सोचे कभी भोजन करने का साहस न करूँ. यह बात आज भी मेरे जेहन में बैठी हुई है कि मैं दूसरों के हिस्से के बारे में बिना सोचे हुए कभी भी खा नहीं पाती ...और कभी असफल रहने पर मेरी आत्मा कचोटती है’ 


अपने पिता के बारे में वह लिखती है – ‘हमें उनसे हमेशा डर लगता था ...हम उनसे कांपते थे और हमसे वे सीधे बात नहीं करते थे.’अपनी मां के व्यक्तित्व के बारे में वह लिखती है कि मां कभी अपना प्यार दिखाती नहीं थी ,लेकिन मुझे मालूम था कि वो मुझे बहुत प्यार करती है.आर्थिक तंगी वाले संयुक्त परिवार में जाकिरा के परिवार का सम्मानजनक ढंग से जीना संभव नहीं हो पा रहा था.ऐसे हालातों में उसकी मां कुंठित हो रही थी.फिर भी अपनी बेटियों के भविष्य और व्यक्तित्व के विकास के लिए चिंतित रहा करती थी.वह अपनी बेटियों के लिए दिनचर्या लिखा करती ,जिसका पालन करना कठिन होता था.माँ अपने वात्सल्य को कभी जताती नहीं थी जिसके कारणों पर जाकिरा गौस की टिप्पणी है –‘बावजूद तमाम भावनाओं के माँ के मुख से मेरे लिए प्यार शब्द निकलना संभव नहीं था,लेकिन यह बात मुझे बड़े होने पर ही समझ आई.

अपनी मां के बहाने वह मुस्लिम परिवारों में प्रचलित बहुविवाहअशिक्षा के कारणोंपर्दा-प्रथा और लैंगिक विभेद को परखती चलती है. ‘घर की औरतों का बाहर जाना बहुत कम ही होता था. खरीदारी का काम घर के पुरुष या नौकर ही करते थे.घर की बुज़ुर्ग औरतें युवा बहु-बेटियों को घर के भीतर रहने की सलाह देती थींवे खानदान की परंपरा के पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं. घर की औरतों को हैदराबाद और मद्रास आने-जाने का मौका सिर्फ शादियों में मिलता था. यह वह समय था जब खानदान की नयी पीढ़ी  बाहर के समाज से जुड़ना चाह रही थी.औरतें मस्जिदों और तीर्थयात्रा के लिए भी जाती थीं लेकिन परदे में ही और किसी न किसी पुरुष की सरपरस्ती में. परदे का पूरा पालन किया जाता था.

घर से निकलते समय जनानखाने से दरवाज़े तक नौकरानी मोटे कपड़े का पर्दा पकड़ कर दोनों तरफ खड़ी हो जाती थीं.घर के आंगन से दरवाज़े पर खड़ी गाड़ी तक पर्दा कनात की तरह खड़ा किया जाता .रेल और जहाज़ में जनाना कम्पार्टमेंट होते.घर एक बंद संसार था ,जहाँ औरतों की उपस्थिति स्थायी थी और पुरुषों का आना -जाना लगा रहता. पुरुष- आधिपत्य के बावजूद घरेलू मामलों में स्त्रियों के अपने निर्णय ,विचार होते थेछोटी लड़कियों को घर के भीतर ही औरतें इमला सिखा देतीं. कई माओं ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेजने की पेशकश की. 1931में अपनी माँ की वजह से जाकिरा की एक चचेरी बहन ने स्कूल में दाखिला ले लिया,  जो खानदान की एक बड़ी घटना थी.जाकिरा गौस आत्मकथा में अपने आत्मनिर्भर  बनने की यात्रा का बयान करती हैं कि किस तरह वे चांदनी रात में आँखे गड़ाकर किताबें पढ़ती थीं,किसी के आने की आहट सुनते ही किताब छुपा देती थीं.

संयुक्त मुस्लिम परिवार में उन्होंने बहुविवाह और उससे प्रभावित बच्चों और स्त्रियों को नजदीकी से देखा. पहली पत्नी की उपेक्षासीमित आय में बहुत से परिवारों का पालन ,विवाह के कारण नए बच्चों की आमद से परिवार में कलहआर्थिक तंगीजगह की कमी इत्यादि के बारे में वे लिखती हैं-“बहुपत्नीत्व का रिवाज़  हमारे खानदान में कम ही थाइसे आम तौर पर पसंद भी नहीं किया जाता था .अक्सर पहला विवाह परिवार जनों द्वारा तय किया जाता था,जबकि दूसरा विवाह उस व्यक्ति की निजी पसंद का होता था.अक्सर दूसरा विवाह नीचे दर्जे की लड़की के साथ किया जाता था.इन औरतों से खानदान की औरतें सामाजिक तौर पर कोई खास सम्बन्ध नहीं रखती थीं.

ऐसी औरतों के अस्तित्व की ओर से खानदान बेखबर रहने में भलाई समझता था.दूसरे-तीसरे विवाह वाली औरतों के रहने का अलग इंतजाम होता था.ऐसा बहुत कम होता था कि इन संबंधों से पैदा हुई संतानों का विवाह खानदानी घरों में हो.जबतक पुरुष आर्थिक तौर पर दोनों परिवारों का बोझ उठाने में सक्षम होता थास्थिति नियंत्रण  में रहती थीं. लेकिन यदि कोई स्त्री या उसके बच्चे उपेक्षित महसूस करते थे तो खानदान का कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आता था.’घर में एक ईसाई नर्स आती थी जो साफ़ सुथरे कपड़ों में स्मार्ट दीखती थी,परिवार के मर्द उसके औजारों /दवाई का बैग लेकर पीछे पीछे चलते यह देखकर जाकिरा के मन में डाक्टर बनने की इच्छा जगी.पिता ने ­­­­बारह वर्ष की उम्र में उसे स्कूल जाने की इज़ाज़त दी और नामपल्ली स्कूल में दर्ज़ा दो में बैठना शुरू किया. शादी के बाद उर्दू में स्नातक की उपाधि प्राइवेट से पढ़ कर पास कीबाद में उन्होंने लड़कियों के कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिली.

पूरी आत्मकथा में अपनी जवानी के दौर का ज़िक्र वे ज्वालामुखी के फटने की तरह करती हैं॰ यह ज़िक्र भी है कि कैसे पति ने एम.ए.करवाने से मना कर दियाक्योंकि तब वह अपने पति से श्रेष्ठ हो जाती. जाकिरा ‘हमारा दौरे हयात’ में लिखती है- ‘अब मैं यह महसूस करती हूँ कि मेरे जीवन में जो कुछ भी हुआ अच्छे के लिए ही हुआ.मेरे लिए आर्ट्स पढना बेहतर रहा.मैंने बहुत सा साहित्य पढ़ा और लिखने की आदत ने मेरी दूसरी मानसिक चिंताओं को ख़त्म कर दिया.पहले लिखना मेरे लिए आवरण था बाद में लक्ष्य बन गया ...मैं आज जो कुछ भी हूँ लिखने के कारण ही हूँ.हमारे खानदानों में किसी स्त्री का अविवाहित रह जाना बहुत ही अलग घटना होती थी ,जिनका विवाह नहीं हो पाता वे अपने पिता या भाई के ऊपर निर्भर रहती थीं.

1920से 1950के दौर तक ऐसा होता था कि तीस पार से ऊपर की लड़कियों में लगभग 15प्रतिशत की शादी होती ही नहीं थी,सुशिक्षित लड़कियों को भी अविवाहित रह जाना पड़ता था.’ऊपर से साधारण दीखने वाली आत्मकथा मुस्लिम समाज के भीतर जेंडर के समीकरणों को गहरे तक रेखांकित करती है.अपने समकाल और भारत की बीसवीं सदी के पहले के सात दशकों का इतिहास इस पुस्तक में झलकता है.साथ ही परिवार और समाज द्वारा तयशुदा दायरे में कैसे एक स्त्री निज की पहचान को तलाशती है और बिना शोर-शराबे के अपनी पहचान स्थापित करती है,कोई जान भी नहीं पाता कि उसकी नामालूम सी कहानी कहाँ शुरू और कहाँ ख़त्म हुई. 

आत्मकथा लेखन को अपने तनाव और चिंतन-मनन की रचनात्मक ‘शेयरिंग’ से जोड़ा जा सकता है. हालांकि एक स्त्री, देश-काल की सांस्कृतिक सीमाओं के परे, आत्मकथ्य लिखते या कहते समय निरंतर इस तनाव से जूझती है कि वह जीवन सत्य के किन पहलुओं को छोड़े और जोड़े. चारित्रिक दुर्बलता और फिसलन के प्रसंगों में से किन्हें लिखे और किन्हें छोड़े, सत्य और कल्पित प्रसंगों में से क्या रखे! स्त्री रचनाकार का वैश्विक नजरिया, जीवन मूल्य, संस्कार, भाषिक कौशल, राजनीतिक संदर्भ और उसके जीवन की नियंत्रक शक्तियां-इसको प्रभावित करती हैं, इसलिए रीता फेल्स्की को लगता है कि ‘स्त्रियों की आत्मकथाओं में इच्छा और सत्य का तनाव, दिखाई देता है. उनका ईमानदार आत्म निरंतर सत्य के पक्ष में बोलने के लिए पर्युत्सुक रहता है जबकि बाहरी दबाव इस अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाते हैं. आत्मकथाओं को कौन-सा पाठक पढ़ेगा, पाठकीय वर्ग और रुचि भी रचना को प्रभावित करती है. स्वान्तः सुखाय का दावा करने वाले रचनाकार के अवचेतन में भी ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक स्वयं को प्रसारित करने की लालसा सुप्त रहती है.



६.



नवाब फैज़ुन्निसा बेगम (1834-1903) ने रूपजलाल (1876) नामक उपन्यास अपने असफल वैवाहिक जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए लिखा था. किसी भी बंगाली मुस्लिम स्त्री द्वारा लिखे इस पहले उपन्यास की भूमिका आत्मकथात्मक हैजिसमे संक्षेप में मुस्लिम स्त्री पर समाज के दबावों और उसकी यौनिकता पर मर्दवादी पहरों की पहचान की गयी है .इसमें औपनिवेशिक बंगाली मुसलमान स्त्री के जीवन के यथार्थ चित्र हैं. रूपजलाल  जैसी रचना मुसलमान समाज में प्रचलित और इस्लाम से मान्यता प्राप्त बहुपत्नीत्व के ख़िलाफ़ आलोचनात्मक तर्क विकसित करती है. उपन्यास की नायिका रूपबानो अपने पति के बहुविवाह के प्रति कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराती है, लेकिन अंतत: उसे परम्परा के आगे समर्पण करना पड़ता है. रूपबानो भले ही 'बहुपत्नीत्व'के सामने घुटने टेक देती है लेकिन नवाब फ़ैजुन्निसा ने निजी जीवन में पति के बहु-विवाह पर आपत्ति करते हुए अलग रहने का निर्णय लिया था. 

उपन्यास की भूमिका में इसका उल्लेख करते हुए विफल वैवाहिक जीवन की यंत्रणा को रचना की प्रेरणा बताया गया है. रूपजलाल का कथ्य प्रेम, युद्ध, बहुपत्नीत्व के दायरे में ही घूमता है. फ़ैज़ुन्निसा लेखन में तथाकथित स्त्रीत्व का अतिक्रमण करते हुए स्त्री-यौनिकता के प्रश्नों पर विचार करती है. वह उस समाज का आंतरिक परिवेश चित्रित करती हैं जहाँ धर्म और पितृसत्ता का दबाव स्त्री को'आत्म'से संवाद करने की छूट नहीं देता.


फैज़ुन्निसा के लेखन को विद्रोह बल्कि अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिए.वह लेखन में स्त्रीत्व का अतिक्रमण करती है॰ अपने समय से कहीं आगे की इस रचना पर पाठकों और आलोचकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया. फ़ैज़ुन्निसा बांग्ला में लिखती थी लेकिन उन्हें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था. उन्होंने फैज़ुन लाइब्रेरी बनाई थी और रवींद्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्णकुमारी देवी (बांग्ला की पहली स्त्री-उपन्यासकार (दीपनिर्वाण, 1868) के स्त्री-संगठन शक्ति समिति की प्रखर सदस्य थीं. उन्हें औपनिवेशिक बंगाल और अन्य प्रांतों में हो रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हलचलों की पूरी जानकारी थी. अब्दुल कुदस ने आलोर दिशारी (अब्दुल कुदस (1979), द एनलाइटेंड गाइड, बंगला साहित्य अकादेमी, ढाका.) में लिखा है कि 

'फ़ैज़ुन्निसा प्रतिदिन कुछ घंटे लाइब्रेरी में बिताती थी और 'इस्लाम प्रचारक'और 'सुधारक'जैसी पत्रिकाएँ नियमित तौर पर ख़रीदती थी. ऐसे वक्त में, जब स्त्री से सिर्फ़ यह अपेक्षा की जाती थी कि वह घर को आरामदायक शरणस्थली बनाए, कुशल गृहिणी बने, ऐसे में एक मुसलमान स्त्री का उपन्यास लिखना परम्परागत मूल्यों को चुनौती था और साहसिक अभियान की शुरुआत भी. भूमिका में वे बहुपत्नीत्व की कड़ी आलोचना करते हुए अपने परिवार के बारे में बहुत बोल्ड ढंग से लिखती हैं 
(फएजा एस. हसनत (2009), 'नवाब फ़ैज़ुन्निसाज़ रूपजलाल', वुमॅन ऐंड जेण्डर : द मिडल ईस्ट ऐंड द इस्लामिक वर्ल्ड, खण्ड 07, प्रकाशक कोनिक्टलज़िकी ब्रिल, एन.वी.)

फैज़ुन्निसा दो घनिष्ठ प्रसंगों का ज़िक्र करती है पहला तो यह कि अभी वह छोटी ही थी कि उसके विवाह का प्रस्ताव घर पर आया ,वह पिता का ही रिश्तेदार था,विवाह -सम्बन्ध की मनाही ने उस व्यक्ति को बुरी तरह तोड़ दिया और पूरा जीवन दुःख में बिताया (रूपजलाल -भूमिका:5-6)

फैज़ुन्निसा का कहना है कि इसके बाद उसका भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया ,पिता की मृत्यु हो गयी और मां  एक धनी व्यक्ति की दूसरी पत्नी बन गयी.अपने बारे में फैजुन लिखती है ‘शादी के कुछ वर्ष मैंने खुशी से गुज़ारे.पति अपने आप से ज्यादा मुझे प्यार करता ,मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ता.

इस बीच मैंने दो बेटियों को जन्म दिया.पति ने एक और शादी की थी पर पति मेरे प्रति आकर्षित रहता ,जिसे देख कर सौतन ईर्ष्या से जल-भुन जाती.वह मुझसे पीछा छुड़ाने के उपाय ढूँढने लगी.जो व्यक्ति मुझे एक मिनट के लिए अकेला न छोड़ता वह अब हमेशा के लिए अकेला छोड़ देना चाहता था.इसी परिस्थिति में मैं अलग घर लेकर रहने लगी.”(रूपजलाल -भूमिका :7)

यह बात महत्वपूर्ण है कि फैजुन ने अपना पुस्तकालय बनाया ,अख़बारों में लिखा और पति के आगे कभी हाथ नहीं पसारा और स्त्री -संगठनों की सदस्य रही.यद्यपि अपने उपन्यास में उसने रूप और जलाल की प्रेमकथा लिखी और प्रेम के आगे स्त्री का आत्मसमर्पण दिखाया लेकिन जीवन में  उसने इस्लाम में प्रचलित बहुपत्नीत्व का विरोध किया.निजी तौर पर फ़ैजुन्निसा द्वारा बहुपत्नीत्व को चुनौती देना और पारिवारिक सुरक्षा के दायरे से बाहर निकल कर एक आत्मनिर्भर ऐजेंट के रूप में सामने आना नयी स्त्री की छवि का दिशा-निर्देश करता है. 

अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुत: राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किये जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है. इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं, वर्चस्वशील विचार-सरणियों से टकराना होता है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परम्पराओं के आयाम अपने-आप में विशिष्ट होते हैं जो स्त्री को घर, पति, संतान की पूरी ज़िम्मेदारियाँ सौंपते हैं. यहाँ तक कि स्त्री के लिखे को पाठक और प्रकाशक भी उपेक्षित करते हैं. फैजुन्निस्सा स्त्री यौनिकता,पर्दा,शिक्षा और बहुविवाह के प्रश्नों पर विचार करती दीखती  हैं.






७.


वहशत हवस की चाट गई ख़ाक-ए-ज़िस्म को
बे-दर घरों शक़्ल का साया कहाँ से आए


मुस्लिम स्त्रियों के लिखे हुए को प्रकाश में लाये बिना हम राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की स्थिति और योगदान को समझ नहीं सकते ‘द वर्ल्ड ऑफ़ मुस्लिम वीमेन इन कोलोनियल बंगाल’ में सोनिया अमीन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए कहा है कि मुसलमानों की पितृसत्ताक व्यवस्था भी स्त्रियों को परम्पराश्रित आधुनिक विचारधारा देने का प्रयास कर रही थी.जहाँ हिन्दू और ब्राह्मो समाज सुधारकों की विचारधारा सीतासावित्री के पौराणिकमिथकीय चरित्रों पर आधारित थी वहीँ मुस्लिम समाजसुधारक स्त्रियों के सामने हज़रत मुहम्मद की पत्नी आयशा,बेटी फातमा- जो धैर्य और सहनशीलता का उदाहरण  समझी जाती है -को आदर्श चरित्रों के रूप में रख रहे थे.हिन्दुओं की तर्ज़ पर उनका भी मानना था कि समुदाय की संस्कृति की रक्षा का दायित्व स्त्रियों  का ही होता है.

राष्ट्रीय आन्दोलन को जेंडर के दृष्टिकोण से यदि विश्लेषित किया जाए तो साहित्यिक और गैर-साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पितृसत्ता यह मान रही थी कि स्त्रियों का कोई अधिकार उनकी देह पर नहीं है ,मुस्लिम स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बहुस्तरीय था.बहुत से आलोचकों ने उस दौर की मुस्लिम स्त्रियों के लिखे और कहे हुए पर विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझी,पितृसत्ता से अनुकूलित राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की,जबकि मुस्लिम पितृसत्तात्मक नियंत्रण इस समय में स्त्रियों को आधुनिक करने की दिशा में प्रयास करना प्रारंभ कर रहा था,आधुनिकतावादी विचारधारा स्त्री पर परिवार और पुरुष के नियंत्रण को वैधानिक बनाने की प्रक्रिया में थी.

इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम स्त्रियों ने आधुनिकता का कृत्रिम जामा पहनने की अपेक्षा स्वयं को परदे में रखकर जीना और वहीँ मरना पसंद किया.रुकैय्या सखावत हुसैन ने ‘अबरोध बासिनी’में ज़िक्र किया है कि एक बार एक घर में आग लग गयी घर की मालकिन ने अपने सारे गहने एक पोटली में बांधे और जल्दी में शयनकक्ष से निकली ,बाहर निकलते ही उसने देखा कि आँगन में बहुत से लोगों की भीड़ जमा है- जो आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे. वह अपने शयनकक्ष में वापस चली गयी और बिस्तर के नीचे छिप गयी.

वह जल मरी लेकिन बाहर नहीं निकली,पर्दा प्रथा जिंदाबाद !’रुकय्या सखावत हुसैन ने 1905में सुल्ताना का सपना लिखा ,जिसमे उन्होंने परदे के भीतर घुटती हुई स्त्री की यातना और स्वातंत्र्य -स्वप्न का चित्रण किया.ठीक इसी समय लेखकों का ध्यान इस बात पर ज्यादा था कि नयी लेखिकाएं स्त्री की शुचिता ,पवित्रता ,सतीत्व की कहानियां लिखें॰  उनपर दबाव डाला  जाये कि लेखिकाओं को समाज के उच्चतर मूल्यों की स्थापना का प्रयास करना चाहिए.

मध्यवर्ग से सम्बंधित किसी लेखिका का साहस नहीं हुआ कि वे इन बने -बनाये नियमों के दायरे से बाहर जाए.इसलिए घर की परिधि में रोमांटिक अभिव्यक्तियों तक उनकी रचनात्मकता महदूद रही.मध्यवर्गीय परिवारों से सम्बद्ध लेखिकाओं ने तयशुदा दायरे में ही आत्माभिव्यक्तियाँ कीं और सीधे-सीधे अपनी बात कहने के खतरेजो अभिजात्य या उच्च वर्ग से संबद्ध लेखिकाएं उठा सकती थींवो इन्होने नहीं उठाये और पुरुषों की दृष्टि के अनुरूप ही स्त्री-छवि चित्रित की.

हैदराबाद की बिल्कीस जहाँ खान (1930)और रामपुर की राजकुमारी मेहरुन्निसा (1933) ने अपने अंतरंग  जीवन के टुकड़े संस्मरणों में लिखेइसके अलावा हमीदा हुसैन राजपुरी ने “हमसफ़र’(1992)शीर्षक से आत्मकथ्य लिखाजिसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में ‘माय फेलो ट्रेवेलर’ (2006) शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित हुआ.(हमसफ़र,हमीदा अख्तर हुसैन ,दान्याल ,कराची ,1992) जोहरा सहगल(1912) की आत्मकथा ‘करीब से’ में जोहरा ने रंगमंच ,इप्टा और फ़िल्मी जीवन से जुड़े अनुभवों पर खुलकर लिखा साथ ही कामेश्वर सहगल से अंतर्जातीय विवाह और प्रेम प्रसंग पर लिखते हुए किसी सेंसरशिप की परवाह नहीं की.ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि जोहरा को विदेशों का अनुभव था और वह रामपुर के राजसी परिवार से जुडी हुई थी.इप्टा से ही सम्बद्ध शौक़त कैफ़ी (1928) ने उर्दू में’ यादों की रहगुज़र’(स्टार पब्लिकेशन,दिल्ली 2004) लिखी.

इस पुस्तक में कैफ़ी आज़मी के साथ अपने प्रेम और विवाह-प्रसंग को अत्यंत दिलचस्प अंदाज़ में पत्रों में ज़ाहिर किया –
“कैफ़ी ! मैं तुम्हें बहुत चाहती हूँ,इतना जिसकी कोई सीमा नहीं है ,संसार की कोई भी ताक़त मुझे तुम्हारे पास आने से नहीं रोक सकती ,कोई पर्वत ,पहाड़ ,समुद्र ,नदी,मनुष्य,कोई आकाश ,कोई ईश्वर,कोई देवदूत मुझे रोक नहीं सकता ,और केवल खुदा ही जानता है इस बारे में.”उधर कैफ़ी भी अपने खून से लिखे प्रेम पत्रों में इसी भाव की व्यंजना करते दीखते हैं’
(कैफ़ी एंड आई -अ मेमोआयरशौकत कैफ़ीअनुवाद नसरीन रहमानजुबानदिल्ली, 2010)




८.

बुलबुल को बागबाँ से न सैययाद से गिला
किस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए –बहार में



जीबोन स्मृति’ शीर्षक से बंगाल की राजनीतिक कार्यकर्त्ता हमीदा रहमान (1920) ने आत्मकथा लिखी. आत्मकथा के केंद्र में पलाश नाम के व्यक्ति से प्रेम और विछोह है. पलाश ने हमीदा रहमान को पढने-लिखने और राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत करने की राह दिखाई (जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका ,अध्याय 1) पलाश सन 1930में हमीदा से मिला थातबसे निरंतर वे आपस में मिलते रहे,राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में पलाश बेहद सक्रिय था और उसका भूमिगत हो जानाबीच बीच में किशोरी हमीदा से मिलने ने उनके बीच के संकोच और झिझक को हटा दिया था. हमीदा लिखती है –


‘ईद की रात मैं हमेशा उसका इंतजार किया करती थी ,वह मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण क्षण होता. मैं अपने घर के फाटक के आगे टहलती रहती ,जबतक वह अपनी छोटी सी सायकिल से आ नहीं जाता.उसके आने पर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता.डर लगता कि कहीं ऐसा न हो वो ना आ पाए.पर वह हमेशा ईद को रात 9बजे आता,मैं बहुत खुश होती'.
( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:97) 

आगे वह बताती है कि कैसे उनके बीच पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हुआ और रोमांस फलता-फूलता गया.पाठक उनके विवाह की सूचना का इंतजार करता है ,लेकिन पलाश के भाई के विरोध के कारण यह सूचना पाठक को नहीं मिलती.हमीदा के पिता भारी -भरकम दहेज़ देने में असमर्थ थे.हमीदा पूरी तटस्थता से इस दुखद प्रसंग को यथार्थ रूप में चित्रित करती हैअपने भावों और अनुभूतियों का कोई विवरण नहीं देती और बताती है कि पिता ने और लड़के देखने शुरू कर दिए,1942में उसका विवाह किसी और से हो गया.

लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. शादी के एक दो साल बाद ही हमीदा कलकत्ता गयी और वहां उसे पलाश फिर मिलासत्रह साल की हमीदा पलाश से मिलकर बहुत खुश हो जाती– ‘हम बाहर साथ-साथ जातेएक साथ सामूहिक रसोईयों में काम करते करते और भी नज़दीक आ गए. उस समय मेरे पति कलकत्ता में नहीं थेइसलिए हमारी नजदीकियां बढ़ती गयीं. जब कभी हम मिल नहीं पाते एक दूसरे के बगैर बहुत दुखी रहते.’     
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28)     

पलाश प्रसंग के 50वर्ष बाद लिखी आत्मकथा में हमीदा का कहना है तब उसका यह व्यवहार नादान उम्र के कारण थाहालाँकि यह बात पाठक को बहुत दूर तक ग्राह्य नहीं होती क्योंकि वह लिखती है –‘तब मुझे मालूम ही नहीं था किसी पर- पुरुष से मित्रता पाप है.ये मेरी समझ के बाहर था कि बचपन के अभिन्न मित्र के साथ सम्बन्ध ,विवाह के बाद गलत कैसे हो सकते हैं.मैं वास्तव में तब अबोध थी.
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28) 

हमीदा और पलाश का संपर्क रिश्तेदारों की नज़र में आ गया और हमीदा को पलाश से मिलने की मनाही हो गयी.हमीदा को अध्यापिका नहीं बनने देने पर उसने आत्महत्या की असफल कोशिश की,1960तक पलाश राज्य विधानसभा का सदस्य और चार बच्चों का पिता बन चुका था ,वह फिर से हमीदा से मिलने आया जिसके बारे में वह लिखती है –

“मुझे पसंद नहीं था कि अब वह मुझसे मिले ,लेकिन मैं उसे आने से मना नहीं कर सकी.मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि पलाश को लेकर मुझमें एक कमज़ोरी थी.’(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:128-129) 

उसके मिलने आने से हमीदा को थोड़ी असुविधा हुई पर उसने वर्षों बाद बालपन के इस प्रेम -प्रसंग को लिखा.यह लिखना उसकी अन्तःप्रेरणा के कारण ही संभव हो पाया,क्योंकि ऐसे अन्तरंग प्रसंगों को बाहर लाने में बाहरी दबाव ज्यादा कारगर साबित नहीं होते .


राजनीतिक जीवन जीने वाली बेगम कुदसिया एजाज़ रसूल(1908) की आत्मकथा ‘फ्रॉम पर्दा टू पार्लियामेंट’ ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अनुभव उनकी किताब में दर्ज हैं.एक मुस्लिम लड़की जिसका लालन -पालन एक अभिजात्य और राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में हुआ,उसने कैसे परदे से पाकिस्तान मूवमेंट का अंग बनकर अपनी अलग पहचान बनायीं.बेगम रसूल की शादी अवध के जागीरदार नवाब एजाज़ रसूल से हुई जो मुस्लिम लीग के सदस्य थे.कुदसिया ने 1937से 1940तक काउन्सिल के उपप्रधान के तौर पर काम किया.वह पहली भारतीय मुस्लिम स्त्री थीं जो इतने ऊंचे पद तक पहुँचने में कामयाब हुई.स्वतंत्रता के बाद वे इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्य बनीं.ज़मींदारी प्रथा का पुरजोर विरोध करने और रैयत के पक्ष में आवाज़ उठाने के कार्यों ने उन्हें प्रसिद्धि दी और 1952में राज्यसभा की सदस्य बन गयीं.आत्मकथा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में नेतृत्वकारी क्षमता वाली स्त्रियों के अनुभव और क्षमता का उपयोग का प्रतिशत बहुत कम है .आज भी पूरे विश्व की स्त्रियों का लगभग 2प्रतिशत ही संसद तक पहुँचने में सक्षम हो पाया है.

राजनीतिक अर्थव्यवस्था,सत्ता के संश्लिष्ट समीकरणों में स्त्रियाँ नीति -निर्धारक पदों पर बहुत कम पहुँच पाती हैं. राष्ट्रीय आन्दोलन और देश विभाजन ने भी स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के नए अवसर दिए थे.विभाजन ने शिक्षा ,प्रशिक्षण और रोज़गार के नए अवसर भी साथ लेकर आया था,साथ ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की सीमायें भी टूटींउनका पुनर्निर्धारण हुआ.कई ऐसी स्त्रियाँ जिन्होंने पाकिस्तान के बनने के पक्ष में आंदोलनों में भाग लिया ,आन्दोलन के पहले और आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक सभाओं में खुलकर शिरकत की,मसलन बेगम शहनवाज़ ,बेगम राणा लियाकत अली खान, बेगम इकरामुल्लाह जिन्हें सन 47में पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही घर के भीतरी दायरे में ढकेल दिया गया उन्हें सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की अब मनाही थी.

फरीदा शाहिद का मानना है कि- "इस्लाम के, अपने ढंग से लागू किया जाने के कारण पाकिस्तान में असमानता और अधीनस्थता की स्थिति को पोषण और बढ़ावा मिला.”(द कल्चरल आर्टिकुलेशन ऑफ़ पैट्रिआर्की,फरीदा शाहिद,1991:140) राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो स्त्रियाँ पुरुषों के समकक्ष  सभाओंबैठकोंआंदोलनों में भाग लेने लगी थींउनको तब रोकना गैर-प्रगतिशीलता में शुमार होता ,इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद सांस्कृतिक परम्पराआदर्श और परदे जैसे नियम लागू कर दिए गए जिससे स्त्री फिर से नियंत्रण में लायी जा सके.स्वतंत्रता के बाद की स्त्री आत्मकथाएं इसके साहित्यिक साक्ष्यों के रूप में देखी जा सकती हैंजो यह बताती हैं कि समाज का स्त्रियों को और स्त्रियों का समाज को देखने का नजरिया कैसा हैसाथ ही स्त्री के आसपास घटने वाले सामाजिक -राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति स्त्रियाँ क्या  सोचती हैं. पाकिस्तान की नागरिक बन गयी औरतों के आत्मकथ्यों  से सामाजिक परिवर्तनों की भूमिका को दर्ज करने और स्वयं समाज -परिवर्तन में उनकी भूमिका समझी जा सकती है.




९.                

आत्मकथात्मक टेक्स्ट तब बनते हैंजब कथाकार के भीतर निरंतर संवाद से ही आत्मकथात्मक टेक्स्ट  बनते  हैं  ,एक समाज विमर्श के तौर पर यह संवाद लेखक ,टेक्स्ट और बाह्य-जगत के बीच बारीक और सघन अन्तः -सम्बन्ध है.जिस समय इस तरह के टेक्स्ट बनाये जा रहे होते हैंउस समय ,उस काल खंड की विशेष भूमिका लेखक के चित्त पर पड़ती है,इसके साथ ही संभावित पाठक की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ,क्योंकि पाठ को पढ़ने का तरीका सबका अपना –अपना ही  होता है. पाठक,टेक्स्ट और लेखक के बीच का आपसी सम्बन्ध वह जटिल और बारीक तंतुओं से बुना हुआ होता है –जिसके निर्माण में इतिहास ,समाज और संस्कृति की भूमिका होती है.

ये टेक्स्ट इसका पता बताते हैं कि निज का परिविस्तार कैसे और किस ढंग से होता है. लेखन और पठन जैसी क्रियाएं किसी समुदाय के भीतर वैचारिकता को ,संस्कृति को स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर कैसे प्रभावित करती हैं.दरअसल आत्मकथाओं को हमें इस रूप में लेना चाहिए कि वे हमारे अनुभवों के विश्लेषण और पुनर्विश्लेषण करने में कैसे सहयोगी होती हैं. एक लिखित टेक्स्ट में जिस तरह के संसार का निर्माण होता है उसमें स्व के निर्माण के साथ–संसार के निर्माण का भाव अपने भीतर से आता है या यों कहें कि यह प्रक्रिया आत्म से  संवाद के अनंतर पूरी होती है .

स्त्रीवादी आलोचक नैन्सी के. मिलर का कहना है कि पढ़ी–लिखी या अकादमिक जगत से सम्बद्ध स्त्रियों द्वारा आत्मकथात्मक लेखन ज़रूरी है क्योंकि यह सर्व जन के इतिहास के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का काम करते हैं,दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति कथाएं जन –इतिहास को बेहतर ढंग से बताने का काम करती हैं.

अकादमिक जगत से जुड़ी आत्मकथाएं ,जिनमें किसी ने अपने जीवन के ब्यौरे (आत्मानुभव)दे रखे होते हैं वस्तुतः वे अपने आप को ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय जांच के लिए प्रस्तुत कर रही/रहा होता है.स्त्री –इतिहास को देखने के लिए बीसवीं शताब्दी में स्त्री के लिखे हुए की  ऐतिहासिक ,समाजशास्त्रीय पड़ताल ज़रूरी होगी क्योंकि ये वे हैं जो स्त्री सम्बन्धी मुद्दों से गहरे तौर पर सम्बद्ध राही हैं और अपने बारे में दस्तावेज़ लिखकर वे बहुत बड़ा बौद्धिक रचनात्मक कदम उठाती हैं.इस तरह वे स्वयं ही टेक्स्ट का अंश बन जाती हैं और साथ ही उन मुद्दों की भी जिनकी वकालत वे करती हैं.’
(शेड्स आफ डीपर मीनिंग ‘ओन राइटिंग ऑटोबायोग्राफी,मैरी जेन डिकिन्सन:982)

एक तरफ तो इन स्त्रियों का लिखा हुआ स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है. दूसरी ओर इसे स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए.इन आत्मानुभवों को पढ़ने से इन स्त्रियों  की टकराहटों –चाहे वे समाज के साथ हों,परिवार के साथ हों या स्वयं के साथ हों ,के साथ –साथ व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों की भी परतें खुलती हैं.वे कौन से कारण हैं कि कोई स्त्री आत्मकथा जैसी विधा का चुनाव करती है ,जो भी उस आत्मकथ्य को पढ़ता है वह साहित्य-सजग मुद्रा (Metaliterary gesture) को सराहे बिना नहीं रह सकता .ऐसा टेक्स्ट जो निजी और सार्वजनिक के बीच मध्यस्थता कर सके और साथ ही स्वानुभवों को भी व्यक्त कर सके.उदाहरण के तौर पर  उर्दू में लिखी हुई बेगम अनीस किदवई की आत्मकथा को देखा जा सकता है.

गुब्बार –ए –कारवां में अनीस किदवई ने एक ओर देश विभाजन के पहले और बाद के सामाजिक –राजनैतिक हालातों का जायज़ा लिया है तो दूसरी ओर  मुस्लिम होने के नाते  शिक्षा ग्रहण करने और जीवन की धारा का निर्णय करने के लिए परिवार पर निर्भरता और स्त्री होने के कारण स्वयं पर पड़ने वाले सामाजिक ,पारिवारिक दबावोंजेंडर की राजनीति,सेंसरशिप का ज़िक्र किया गया है.

एक स्त्री की दृष्टि से आजादी के आसपास के वर्षों में भारत –पाकिस्तान को देखने का यह अपनी तरह का पहला उल्लेखनीय प्रयास है ,जिसकी अगली कड़ी के तौर पर ‘आज़ादी की छाँव में ‘शीर्षक आत्मकथात्मक संस्मरण को देखा जा सकता है.जिसे भले ही आत्मकथा न कहा जाए क्योंकि उसमें व्यक्ति के आत्मख्यान से ज्यादा जगह सामाजिक –राजनीतिक प्रसंगों को मिली है जो दरअसल हिंदुस्तान की आजादी की छाँव में भी तपती रुखी धूप का ताप झेलने को विवश आम जन का आख्यान है जिसे आजादी के नाम पर विस्थापन,गरीबी ,शोषण ,अपमान का शिकार होना पड़ा.रोग –बीमारी,यौन और अन्य प्रकार की हिंसा के शिकार लोगों को जानवरों से भी बदतर दशा में खुले आसमान के नीचे गर्मी ,लू ,शीत और वर्षा के साथ देशव्यापी भ्रष्टाचार और अफवाहों का शिकार होना पड़ा.अनीस किदवई ने स्वयं जाकर शरणार्थी शिविरों में सेवा की ,साम्प्रदायिक उन्माद के शिकार हो चुके पति का शोक विस्मृत करने का यही तरीका था.


औरतों द्वारा लिखे ये आख्यान जो बिलकुल निजी अनुभवों से उद्भूत होते हैं वे चिंतन और विचार की बनी –बनायी सरणियों को तोड़ते हैं ,इन आख्यानों की विशेषता यह है इनमें लेखक विषयी (subject)को छोड़ता चलता है.स्त्री आत्मकथाकार अपने  निजी जीवन को बौद्धिक ,सांस्थानिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में रखकर आवा-जाही करती हैं.परंपरा से जो आत्मकथा का रूप है वह स्त्री और विशेषकर मुस्लिम स्त्रियों के यहाँ आकर बदल जाता है ये जीवनाख्यान निजी और सार्वजनिक दोनों हो उठते हैं ,क्योंकि इनमें समाज ,धर्म ,राजनीति उन समीकरणों से पाठक /आलोचक रूबरू होता है जो अपने रूपबंध में स्त्री और पुरुष पाठक /आलोचक दोनों को यह चुनौती देता है कि वे आत्म के वास्तविक ,काल्पनिक और प्रामाणिक विमर्श को प्रस्तुत करें.

मिखाइल बाख्तिन ने ‘साक्षी और न्यायाधीश’ होने को ही मनुष्य होना कहा हैजिसका अर्थ है हम देखते और तौलते हैं. देखना और स्थितियों को तौलना ही एक घटना को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा देखे जाने और एक ही स्थिति या घटना की विभिन्न व्याख्याओं को जन्म देता है.1947के भारत–विभाजन ने मानव –इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया. भारत–पाकिस्तान का लिखित इतिहास विस्थापित समूहों के संघर्षोंहत्याओंयौन –हिंसालूटपाटभ्रष्टाचार और असंतोष के तमाम साक्ष्यों का इतिहास है. लेकिन विभाजन ने भी अन्य किसी युद्ध की तरह ही स्त्रियों पर दूसरे ढंग का प्रभाव डाला.युद्ध के होने के कारणों में से किसे सही ठहराया जाये और किसे ग़लत,इस प्रश्न से भी पहले यह मुद्दा महत्वपूर्ण है कि जहाँ भी हिंसा ,झड़पें और युद्ध होते हैं वहां स्त्रियों और बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव भिन्न किस्म के होते हैं.

गुब्बार –ए –कारवां और आज़ादी की छाँव में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं.इतिहास की पुस्तकों में भारत –विभाजन के विषय में जो भी तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं उनमें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की आवाज़ नदारद है..इनकी आवाज़ों को साधारण –अति साधारण समझ कर उच्चवर्गीय राजनीति के बोझ तले दबा दिया गया ऐसे में गद्य और केवल गद्य ही ऐसी विधा थी जिसमें शोषितों ,पीड़ितों ,हाशिये के लोगों की आवाज़ ,धार्मिक संवेदना के मुद्दों को इन दोनों देशों में अभिव्यक्त किया जा सकता था.इंतज़ार हुसैन ,भीष्म साहनी,मंटो ,अमृता प्रीतम समेत कई रचनाकारों ने गद्य की विभिन्न विधाओं में देश –विभाजन ,यौन –हिंसा ,लूट –खसोट ,भ्रष्टाचार को स्वर दिया.लेकिन स्त्री –आत्मकथाकारों ने देश –विभाजन से रूबरू होकर जो अभिव्यक्ति की वह स्त्री दृष्टि से देखे-झेले  देश-विभाजन का प्रामाणिक आख्यान है.



१०.


बेगम अनीस किदवई (1906-1982) ने गुब्बार- ए- कारवां लिखीजो अधूरी ही मकतब -ए-जामियादिल्ली से 1983में मूल उर्दू में छपी. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी की रहने वाली  अनीस ने ‘आजादी की छांव में (1949) शीर्षक संस्मरण भी लिखा जिसका प्रकाशन सन 1974में हुआ. इनमें बेगम अनीस किदवई भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों और शरणार्थियों की समस्या का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं॰ गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ -स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है. जिसमें जो तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय स्त्रियों की जानकारी ही नहीं बल्कि भारतीय मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति पर भी पर्याप्त प्रकाश है. ’गुब्बार ए कारवां(उर्दू) का हिंदी अनुवाद उनकी पोती प्रोफ़ेसर आयेशा किदवई कर रही हैं.

अनीस किदवई की आत्मकथा और संस्मरण में भारतीय राजनीति में भारत विभाजन के दौर में आये कई परिवर्तनों का ज़िक्र है .इतिहास जहाँ विभाजन के दौर को मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश शासन  के बीच के द्वंद्व पर केन्द्रित मानता है,अनीस किदवई एक स्त्री और वह भी मुसलमान स्त्री की आँखों से देखे राजनीतिक परिवर्तनों को पाठक के सामने लाती हैं. 

1946में हुए प्रांतीय चुनावों ने मुस्लिम लीग और कांग्रेस को दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग ने भी यहीं से जोर पकड़ा था-लेकिन इस मांग के जन - पक्ष पर इतिहासकार चुप रहे हैं.देश विभाजन के राजनीतिक -कूटनीतिक पक्षों पर तो विचार हुआ लेकिन इसके मानवीय पक्ष की उपेक्षा की गयी.अनीस किदवई ने स्वयं दंगे झेले,पति को खोया,शरणार्थी शिविरों में लायी गयी उन सैकड़ों लड़कियों और बच्चों से रूबरू हुईं जो दंगों और हिंसा का शिकार हुए.

दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के दस्तावेज उनके संस्मरण में भरे पड़े हैं. इस नज़रिए से ये किताबें देश विभाजन और भारतीय राजनीति के संक्रमण के दौर  के स्त्री-पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. वे उस दौर की कथा कहती हैं जब लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाना गैरज़रूरी था. अनीस खुद भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं,’गुब्बार -ए-कारवां’ में वे बार-बार ज़िक्र करती हैं कि कैसे परिवार के लड़कोंचचेरे भाईयों को बोलते-सीखते सुनकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी. तालीम के लिए वे जीवन भर बेचैन रहीं. विभाजन के दौरान हुई हिंसा का जेंडर पक्ष उभारने वाली वे पहली स्त्री रचनाकार हैंजो इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी चैतन्य थीं  और अपने परिवेशराजनीतिसमाज और यौनिकता को समझने की उनकी अपनी दृष्टि थी. गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर लिखती है -


औरतों ने अपने घूंघट, कड़े और छागल उतार कर गाँधी जी की सदा पर लब्बैक कहा. सबसे पहले जिन चंद ख्वातीन के नाम हमारे देहात तक पहुंचे उनमें बेगम हसरत मौहानी, बी अम्मा कस्तूरबा गाँधी और मिसिस सरोजिनी नायडू के थे. औरतों ने अपने जेवरात और छोटी मोटी पसंदाज़ की हुई रकमें मकामी कांग्रेस कमिटी को दान कर दी. बिदेशी कपड़ों से अपने बक्सा खाली कर के हर जिला के सदर ऑफिस में होली जलवा डाली. उन दिनों चीज़ें कम थीं मगर आला हुआ करती थीं इसलिए ज़रदोज़ी के इन कपड़ों से अक्सर मनूं चांदी कांग्रेस कमिटी को मिली. बाराबंकी में जब बैलगाड़ियों और रथों में भर कर बिदेसी कपड़े नज़र-ए-आतिश हुए तो बीसों पर्दादार ख्वातीन ने भी तांगा और इक्कों पर पर्दा बंधवा कर अपने अपने गांव मोहल्ले से बाराबंकी का सफर किया. इनमें सिर्फ़ वही ख्वातीन थीं जो तहरीक के लिए चन्दा जमा करतीं चरखा  काड़ती और अपने खानदान के वीरों की आरती उतार कर जेल रुक्सत करती थीं. मुझे वो सीन याद है जब एक बड़े खेमे में इर्द गिर्द पड़ी हुईं चिकों से झांकती हुईं हिन्दू मुस्लिम ख्वातीन होली को जलाते हुए जवाहरलाल को देखने के लिए एक पर एक टूटी पड़ती थी. स्टेज पर जवाहरलाल जी चौधरी ख़लीक़ुज़ ज़मां और हरकिरन नाथ मिश्रा थे. मगर खूबसूरत नौजवान पंडित जी मोटे खद्दर की शेरवानी और चूड़ीदार पायजामे में सारे मजमें की तवज्जो का मरकज़ थे. अंदर औरतें हस्ब-ए-आदत बोल रही थी किसी ने कहा देखो तो कैसा मोटा खद्दर पहन कर आये हैं. शेह्ज़ादों की तरह पले हैं और अरे इनके कपड़े तक तो पैरिस में धुलते हैं.एक ने इंकशाफ किया अरे इन बाप बेटे ने तो अपने घर के बिदेसी कीमती बर्तन तक तोड़ डाले. किसी और तरफ से आवाज़ आयी, ये पूरा खानदान त्याग मूर्ती हैं.

मैं इन सबको नहीं जानती थी. सिर्फ़ ठाकुर रघुनाथ सिंह की फैमिली से वाकिफ़ थी जिनके बेटे के.डी.सिंह बाबू ने आगे चल कर मशहूर हॉकी चैंपियन की हैसियत से प्रेजिडेंट अवार्ड हासिल किया. लेकिन उससे क्या होता है उस वक़्त ये मुतफर्रक  अनासिर एकता और प्रेम की डोरी में बंधे एक ही जस्बे और एक ही नशे से सरशार थे.मुझे अपनी तड़प और बेबसी भी याद है न सफर के काबिल थी ना तहरीक में शिरकत की इजाज़त न जेल जाने के लायक. दिल पर पत्थर रखे गांव में बैठी रही अल्बत्ताह औरतों में काम शुरू कर के कांग्रेस पार्टी का पहला जलसा मसौली में कर डाला. एक मोअम्मर खातून को सदर बना कर ज़िला के और देहात से भी ख्वातीन को  मदऊ किया. ऊट पटांग धुआँधार तकरीरें हुईं अब वो अंदाज़-ए-बयां और बालहाना जोश याद करती हूँ तो बेइख्तियार हसी आ जाती है मगर उस वक़्त रह रह कर अपने आज़्ज़ा पर और खुद शफ्फी साहब पर गुस्सा आता था की मुझे क्यों नहीं जाने देते.”
(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवईमकतब -ए-जामिया ,दिल्ली,1983 )

बेगम किदवई आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियों की भूमिका पर विशेष चर्चा करती दीखती हैं. उनके वर्णन की विशिष्टता यह है कि वे स्त्रियों के आपसी वर्गीकरण,पुरुषों से उनके फर्क के साथ-साथ असहयोग आन्दोलन में इन पुरुषों के भागीदार हो पाने के पीछे छिपी स्त्री की भूमिका को रेखांकित करना नहीं भूलतीं. आत्मकथा के ब्यौरे दिलचस्प होने के साथ -साथ तटस्थ भी हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले पुरुषों की अपेक्षा उनकी स्त्रियों की भूमिका अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण थी इस पर गुब्बार -ए-कारवां में वह लिखती हैं –
“अब से पहले सिर्फ़ आला तबके की लेडीज व विमेंस कांफ्रेंस, विमेंस लीगविमेंस क्लब वगैरह की मेंबर हुआ करती थीं. अंजुमन ख्वातीन या अंजुमन तहज़ीब निस्वां के नाम से भी मकामी अंजुमनें औरतों की तालीम जिसे उन दिनों तालीमी निस्वां कहते थे के लिए कोशिशे कर रही थी और बहुत ही मेहतात किस्म का सोशल वर्क किआ करती थी.सियासत से बस उनका इतना ही ताल्लुक था के मोहतरम शख्सियत की मौत पर ताज़ियति रेज़ॉलूशन पास कर दें और तोहमत बचपन की शादी बुरी रीत रस्मों के खिलाफ अपने इज्तेमा में ये करारदाद मंज़ूर कर लें या औरतों के हकूक पर बहस कर लें. ज़्यादातर उनकी सरगर्मियां बड़े शहर में छोटे छोटे स्कूल क़ायम करने, ज़नाना क्लब क़ायम करने और डिनर पार्टियों तक महदूद थीं. इस सिलसिले में लखनऊ में बेगम इनाम हबीबुल्लाह और उनकी बहन बेगम शाहिद हुसैन जज़ल हबीबुल्लाह की वाल्दह चंद रानियां औरतों के हुकूक और तालीम-ए-निस्वां के ज़बरदस्त हामी थीं. मिंटो मार्ले इस्लाहाट के तहत कुछ ख्वातीन मकामी म्युनिसिपल्टी की मेंबर भी बन चुकी  थीं इसलिए उन्हें ज़्यादा मवाकए मोअस्सर आ गए थे. बेगम हबीबुल्लाह ने म्युनिसिपल बोर्ड की मेम्बरी के दौरान शहर के मुख्तलिफ हलकों में छोटे छोटे से बहुत से स्कूल खुलवाए. दिलकुशा क्लब में एक बड़े से बोर्ड पर रानियों और बेगमात के नाम उन्होंने क्लब के क़याम में मदद की. आज भी देखे जा सकते हैं इस क्लब में मुशायरे भी होते थे और पर्दादार बेगमात भी हफ्ते में एक बार तशरीफ़ लाती थीं. एहसान फरामोशी होगी गर हम इन फैशनएबल बहनों की दुरुस्त की हुई पगडण्डी को नज़रअंदाज़ कर दें या उसकी अहमियत कम करने की कोशिश करें. ये सरासर अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्द्दुन की आशे ख्वातीन अंदर से हिन्दुस्तानी थीं और हिन्दुस्तानी औरतों के जमूद व बेहिसी को दूर करने के लिए कोशां. कुछ भी हो,उन्होंने जो आवाज़ उठायी वो बारात और रिसालों के ज़रिये देहात तक पहुँच गयी.

तहज़ीब अस्मद खातून वगैरह कई रसाएल की एडिटर भी ख्वातीन थीं.उन्होंने इस्लाहे रसूम पर किताबें लिखीं शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ औरतों में पैदा  किया और खयालात व आज़ाम की तहरीर शकल दी. अकबर अलहाबादी ने कहा था "लड़कियां पढ़ रहीं हैं अंग्रेज़ी ढूंढ  ली कौम ने फलाह की राह"और "शौक तहरीर मज़ा में घुली जाती है बैठ कर परदे में बेपर्दा हुईं जाती है"इन आज़ाद ख्वातीन की बेपर्दगी पर भी उन्होंने ऐतराज़ किया "हामिदा चमकी न थी इंग्लिश से जब बेगाना थीं अब चिराग-ए-अंजुमन हैं तब चिराग-ए-खाना थीं"उन्होंने मर्दों को तम्बिया कि "हरम सराह की हिफाज़त को तेग ही न रही तो काम देंगी ये चिलमन की कबतक"इन आला तबके की अंग्रेज़ियत से मुतास्सिर औरतों तक मिडिल क्लास और लोअर क्लास की औरतों की रसाई न थी  ये तबका नसीहत आमेज़ मज़मून निगारी कर के अपनी आना को तस्कीम दे देता था इनमें एक मैं भी थी मगर सत्याग्रह की शमूलात के लिए जो औरतें मैदान में आयीं वो ज़्यादातर मत्तूस्त और गरीब तबके की थी इस तहरीक के साथ ही सियासी और मज़हबी अनासिर ने मिल कर औरतों में दिलेरी, जोश, सियासी सूझ बूझ और ईसार का जज़्बा पैदा कर दिया. अतिया फ़ैज़ी, अनसूया सारा भाई और बहुत सी ख्वातीन के नामों से आशना थे. कौमी तहरीक की इब्तिदा में तो औरतें बंधन तोड़ने की जां तोड़ तश्शूश करती रहीं. ज़्यादातर बुज़ुर्गों की मुख़ालेफ़त ने उनके कदम रोक दिए. कम ही खुल कर सामने आयीं और जेल गयीं. इनमे नेहरू खानदान की ख्वातीन भी थी. इसमें शक नहीं उनमें से चंद ही सियासी करवटों का साथ दे सकीं मगर दरपरदह अपने बेटों और भाइयों की हिम्मत बढ़ाने में उन्होंने काबिल-ए-तारीफ रोल अदा किया.

वो एक ऐसा दौर था के हिन्दुस्तान उसके लिए बिलकुल तैयार था के अमली जद्दो जहद औरतों की इज़्ज़त-ओ-नालूस को दानों पर लगा दें. ये बड़ी तरक्की पसंद भी  औरतों को नाकिस-अल-अक्ल और नाज़ुक फूल समझा करते थे. खुद मत्तूसत तबका की औरतों में भी इसकी सलाहियत ही थी कि वो सियासी ज़िन्दगी में कोई मकाम हासिल कर सकें. दुसरे में अपने बच्चे भी संभालने थे. मर्द जेल चले जाते और घर बच्चों का सारा बोझ औरत के कन्धों पर पद जाता.

उन दिनों उन्होंने मर्दानावार बच्चों की परवरिश लड़कियों की नादाइयाँ तालीम और चारके की कटाई बिदेसी माल के बायकाट वगैरह को अपने सर ले कर बेमिसाल कुर्बानी का मज़हरा किया. माली मुश्किलात ने कमर तोड़ दी लेकिन उन्होंने हिम्मत से सबका मुकाबला किया. कुरकियाँ, घरों की नीलाम, पुलिस की योरिश, आज़ा की इख़्तेलाफ़ सबका मुकाबला किया और ये बात मर्दों से मनवा ली के कौमी जद्दो जेहद में उनका हिस्सा रहा है. अगर वो इन ज़िम्मेदारियों को अपने सर ना लेती तो मर्दों की हिम्मत पस्त हो जाती. औरतों को ये एहसास भी हुआ की सिर्फ़ सियासत उनका पेशा नहीं है. सियासी मशागल के साथ सोशल और इख़्तेसादि तब्दीलियां लाना भी ज़रूरी है. इन सब कामों में उन्हें ज़िला लेवल पर मकामी ऑफिसरों से भी उलझना पड़ा जिनमें बेश्तर का रवैय्या हरगिज़ हमदर्दाना नहीं होता था. उनके खोले हुए इदारे सख्त तरीन इन्क्वायरी और तशद्दुद का निशाना बनते.
”(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवई,मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली) 

अनीस ने स्त्रियों की सीमाओं और गाँधी की राजनीतिक-सामाजिक भूमिका पर बड़ी बेबाक टिप्पणियां की हैं जो इतिहास को स्त्री दृष्टि से देखने की वकालत करता है. निचले  तबकोंहरिजन जातियों के साथ मध्यवर्गीय हिन्दू-मुस्लिम समाज कभी गाँधी के विचार से सहमत नहीं हो पाया.किदवई ने इसे रेखांकित किया है कि सभा-सोसायटियोंसुधार-कार्यक्रमों के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने हरिजनों को सहानुभूति तो दी परन्तु उन्हें वैसे अपना नहीं सके जैसी परिकल्पना गांधी जी की थी- “... वो जब हरिजनों के लिए कुछ करते तो हमदर्दी व खुदा तरसी  के जज़्बे के साथ न की उनको बराबरी सतह पर लाने के लिए.”



११.

अनीस के संस्मरण ‘आज़ादी की छाँव में’ को उनकी आत्मकथा की अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए.’ आज़ादी की छाँव में’ कुल 23अध्यायों में विभक्त है जिसमें सन 1947से 1948के दौर के भारतविशेषकर विभाजन के बाद के भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर प्रामाणिक और बेबाक टिप्पणियां हैं. पुस्तक का पहला अध्याय ही ‘करता हूँ जम्अ फिर जिगर-ए-लख्त-लख्त को’ शीर्षक से है. जिसमें अनीस की गहरी राजनीतिक विश्लेषक दृष्टि की झलक मिलने लगती है – 

“जून में दिल्ली की भंगी बस्ती में एक दिन बापू की प्रार्थना सभा में मेरी बहन बिल्कीस ने जो अपनी जोशीली तबियत की वजह से बोलते वक़्त बहुत बेचैन हो जाया करती हैंयह तय कर लिया कि आज बापू को पकड़कर पूछूंगी ज़रूर कि यह आपने क्या किया हिंदुस्तान हम सबका हैहमको तो यहीं जीना और मरना हैयह आबादी का तबादला और बंटवारा क्या ?एक टुकड़े से उन दिनों को क्या तस्कीन मिल सकती है जो एक ऐसे हिंदुस्तान का ख्वाब देखते रहे हैं जो एक होमहान हो और जिसे कोई जीत न सके.”
(आज़ादी की छाँव में’,बेगम अनीस किदवई,अनुवाद नूर नबी अब्बासी ,नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ,2000:3) 

बेगम किदवई स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गवर्नमेंट हॉउस में जश्ने आज़ादी का आँखों देखा हाल बयान करती हुई लिखती हैं – 

“मेरा दिल डूबा जा रहा था. ऐसा लगता था कोई ख़ुशी का गला घोंट रहा है अरमानों पर ओस पड़ी जा रही है. आज तिरंगे झंडों की बहार में भी दिलकशी न थी !’इन्किलाब जिंदाबाद’ के नारे और जय जयकार आज आत्मा से नहीं टकरा रहे थे. रगों में आज गरम खून नहीं दौड़ रहा था. हिंदी में लिखे हुए साईन बोर्डनारे और पोस्टर सब ऐसा लगता था जैसे हमारा मुंह चिढ़ा रहे हैंमज़ाक उड़ा रहे हैं...चौकियों पर दाहिने-बाएं बौद्ध भिक्षुब्राह्मणनिरंकारी  पता नहीं कौन-कौन विराजमान थे. बहुत सी भाषाओँ में बहुत कुछ हुआ. अंग्रेजी,संस्कृत,अरबी,कठिन हिंदी हरेक में. लेकिन कुछ न हुआ तो अपनी बोली में,वाही प्यारी बोली :जिसकी हर बात में सो फूल महक उठते थे

इतना कुछ हुआ मगर हमारे पल्ले कुछ न पड़ा. मेरी तरह और बहुत-सी औरतें भी रुंधे गलों और हैरान आँखों से सारा सीन देखकर जो घर पलटी तो ऐसा लगा जैसे कमर टूट गयी हो.खुद पहली आज़ाद हिंदुस्तान की गवर्नर सरोजिनी नायडूबावजूद कोशिश केशपथ पत्र सही न पढ़ सकीं. क्या इसी भविष्य के लिए हमने सालहा साल इंतजार किया था हममें से कौन यह जानता था कि गड़े मुर्दे उखाड़े जाएँ और लोकतंत्र की जगह धर्म और मजहब की ठेकेदारी हुकूमत ले ले?”(पृष्ठ 5)

आजादी तो मिली लेकिन किस कीमत परशरणार्थी कैम्पों के भीतर की अव्यवस्था,निर्धनता और अनाथ बच्चों की स्थिति के बारे में वे लिखती हैं –‘....छोटी -छोटी लड़कियां सूखे के मारे बच्चों को कन्धों से लटकाएचेहरों पर हसरत ,बेबसी और फाके की दास्तानें लिए कतार-दर -कतार दो छटांक दूध के इंतज़ार में सुबह से दोपहर तक खड़ी रहतीं. हर मां यह चाहती कि उसके बच्चे को दूध ज्यादा मिल जाए ताकि उसकी सूखी छातियों को थोड़ा-सा आराम नसीब हो.हर लड़की या लड़का इसरार करता कि ज़रा सा और दे दीजिये ,ताकि उसकी भूखी अंतड़ियाँ भी शरीक हो सकें. लेकिन मुस्तैदकिफ़ायती वालंटियर उन्हें धक्के देकर निकाल देते.अगर वे ऐसा न करते तो सुबह की चाय कैसे बनती और वे सूखी रोटी किस चीज़ से भिगोकर अपने गले के नीचे उतारते.

इंसानों का यह जंगल जानवरों की सी ज़िन्दगी बसर कर रहा था. लोग हाथों में ले-लेकर या कागजों और ठीकरों में खाना खाते और ठीकरों पर मिट्टी मिले हुए आटे की सियाह रोटियां पकाते. तवा,देगची और गिलास सबका काम पत्तों और मटकी के टुकड़ों से लेते थे. दो ईंट रखकर ज़रूरत से निपटते और कभी कभी इन्हीं दो ईंटों से बावर्चीखाना भी बना लिया जाता’(पृष्ठ33) आज़ादी की छाँव में-राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है जो देश विभाजन के दौरान और बाद के एक साल में भारत और पाकिस्तान की अवाम में पसरी अव्यवस्थाभ्रष्टाचार और धीरे धीरे इस्लामी राष्ट्र में बदलते जा रहे पाकिस्तान और अफवाहों से घिरे हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविरों का लेखा-जोखा और  विभाजन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्र उपस्थित करती है.

                    

                   १२.


जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है


शास्त्रीय गायन और ग़ज़ल से जुड़ी कलाकार, भारत और पाकिस्तान में अपनी गायकी से शोहरत हासिल करने  वाली मल्लिका पुखराज (1912-2004) ने उर्दू में आत्मकथा लिखीजिसका अंग्रेजी अनुवाद सलीम किदवई ने ‘सांग संग ट्रू’ (गीत, जो सच्चा गाया गया) शीर्षक से किया. आत्मकथा 50उपशीर्षकों में व्यवस्थित है जिसे पति सय्यद शब्बीर हुसैन शाह और महाराजा हरिसिंह को समर्पित किया गया है. प्रवाहमयी उर्दू के साथ अंग्रेजीपंजाबी और फ्रेंच के शब्दों का प्रयोग मल्लिका पुखराज के गहरे जीवनानुभवों और यात्राओं की ओर  संकेत करता है. हालाँकि सलीम किदवई को इसकी पाण्डुलिपि व्यवस्थित हस्तलिपि में नहीं मिली थी लेकिन मल्लिका ने 80वर्ष की उम्र में आत्मकथा लिखी और जन्म-कथा से लेकर बचपन,युवावस्था, जम्मू और पटियाला के राज दरबारों के मीठे-खट्टे अनुभवोंस्मृतियों को आत्मकथ्य में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा.

9वर्ष की उम्र में ही जम्मू के महाराजा हरिसिंह के दरबार में गायिका के तौर पर स्थापित होनाननिहाल और माता द्वारा मल्लिका को मिलने वाले वेतन का उपयोगमल्लिका की कमाई पर पूरे कुनबे का पलनायुवावस्था के कुछ अधूरे प्रेम इन सबका बयान बड़ी ही बेबाकी से मल्लिका करती है. मल्लिका की मां अपनी तीन वर्षीया बेटी को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थी. उनकी इच्छा थी कि मल्लिका सभी कलाओं का उत्कृष्ट ज्ञान हासिल करे वह मल्लिका को लेकर बचपन में ही जम्मू चली आयीं और मल्लिका के पिता जो कुख्यात जुआरी थे वे अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ गाँव में ही रहे. मां ने  मल्लिका को बड़े गुलाम अली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दियाऔर मल्लिका की संगीत शिक्षा आरंभ हुई. मल्लिका अपने जीवन के छोटे बड़े किस्सों का बयां करती है,उसे यह अहसास है कि वह बहुत सुन्दर नहीं है लेकिन संगीत में वह श्रेष्ठ है -इसका ज़िक्र वह लगातार आत्मकथ्य में करती है- 

“मैंने फ्रेंच ब्रोकेड की साड़ी पहनी हुई थी ,उन दिनों अच्छी साड़ियाँ पेरिस ,बम्बई और पूना में बनती थीं.मेरे पास महंगी साड़ियाँ बहुत सी थीं. हर साड़ी दूसरी से सुन्दर.महाराजा हरिसिंह ने मेरे लिए इन्हें विशेष आर्डर देकर मंगवाया था.मैं सुन्दर नहीं थी न ही मैं स्वयं को आकर्षक समझती थी,लेकिन मेरे केश विशिष्ट थे,मोटे घने काले बालों की चोटी जो एड़ी तक पहुँचती थीशायद मुझे सुन्दर बनाती थी ..मैं प्रसाधन का प्रयोग नहीं करतीदरअसल मुझे मालूम ही नहीं था कि सजा -संवरा कैसे जाये ..मुझे कांच की चूड़ियों का बड़ा शौक थाकलाई से कोहनी तक मैं रंगीन कांच की चूड़ियाँ पहना करती...वह व्यक्ति जो हमारा मेजबान था वह बहुत सुदर्शन था और अच्छे कपड़े पहने हुआ था.मिल मालिक था और बाहर निर्यात करता था. अल्लाह ने उसे सुन्दरता के साथ -साथ मीठी ज़बान भी दी थी.पहली बार उससे मिलने पर ही मेरे भीतर तूफ़ान मचलने लगा.उसने मेरी आँखों में गहरे झाँका और एक छोटा सा रुमाल मेरे हाथ में देकर कहा –“इसे पर्स में रख लीजिये.शायद जब आप इसे देखें तो मेरे बारे में सोचें.”
(सांग संग ट्रू--मल्लिका पुखराज,अनुवाद सलीम किदवई ,जुबान,काली फॉर वीमेन,2003:237) 

आगे मल्लिका लिखती हैं –

“मैंने वह रुमाल ले लिया और उसके बारे में सबकुछ याद करती रही,यह पहली बार हुआ कि किसीने पहली मुलाकात में ही मेरे दिलो -दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया हो. मैं बहुत लम्बे समय तक उसके बारे में सोचती रही. मैं हमेशा अपने दिल पर दिमाग को तरजीह देती थी. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि प्रशंसा और चापलूसी का दौर तुरंत ख़त्म भी हो जाया करता हैउसके बाद औरत अपने आपको गुमनामी के कुएं में हमेशा के लिए पायेगी.औरत पर अधिकार पाते ही मर्द उसे सम्मान देना बंद कर देता है. फिर वह अपने पुरुष स्वामी की दासी बनकर रह जाती है. मैंने आत्मसम्मान बनाये रखा और इसलिए स्वयं पर गर्व करती हूँ.मुझे शुरू से ही यह मालूम था कि ऐसे आवेगों पर कैसे काबू रखा जाये.दो दिनों के बाद वह अपने दोस्तों के साथ मेरा गाना सुनने आयाउस दिन भी उसने बहुत बढ़िया कपडे पहने हुए थे.सच तो यह है कि मैं उसे पहले से भी ज्यादा पसंद करने लगी थी. कुछ घंटे बाद जब वह जाने लगा तो उसने धीरे से मुझसे पूछा-“क्या तुमने रुमाल देखा?

मैंने झूठ बोला –“हाँ एक दो बार “
क्या तुमने मेरे बारे में सोचा ?”
हाँ” मैंने सच्चाई से जवाब दिया.

मल्लिका आगे कहती है मेरा आकर्षण मां ने पढ़ लिया था और उससे अलग से मिलने से मन कर दिया.इस बात से वह बहुत खिन्न था ,वह चाहता था कि मैं रोज़ उससे मिलूँ.लेकिन मां के कारण मैं उससे मिल नहीं पाती थी.अकेले में हर वक्त मेरे परिवार का कोई न कोई सदस्य आसपास रहता था .मेरे ऊपर पूरा नियंत्रण मां का था.मुझे लगता है मैं कब और किसे अपने लिए पसंद करूँ यह मेरा निजी मसला होना चाहिए था ,क्या मेरे परिवार को मेरे बारे में हर निर्णय करने का अधिकार था ?क्या हमेशा मुझे वही करना होगा जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था..मैं परिवार की कैद में थी और परिवार के लोग उसका घर आना या हमारा आपस में मिलना बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे.(पृष्ठ 239) इसी चिढ़ में मैंने सबसे मिलना बंद कर दिया.”

मल्लिका कुछ और लोगों से संपर्कों का ज़िक्र करती हैं जिनमें उनकी गायकी और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी आत्मीयता चाहने वालों की फेहरिस्त हैजिनमे एक व्यापारी जो 11बच्चों का पिता है आत्मकथा में मल्लिका बार –बार व्यंग्य और हास्य का पुट बिखेरती चलती हैंजिससे पाठक को ऊब नहीं होती. ऐसा ही एक प्रसंग है इसी  कद्रदान का जो मल्लिका के लिए रेवड़ियाँ लाया करता था और बहुत अच्छे कपड़े पहनता थाउसके ग्यारह बच्चे थे और मल्लिका यह जान गयी कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थीफिर भी वह मल्लिका के लिए उपहार लाया करते. एक दिन उसने अपना प्रेम मल्लिका के ऊपर ज़ाहिर कर ही दिया. मल्लिका लिखती हैं –“पता नहीं कैसे इतनी आर्थिक तंगी के बावजूद वह इतने अच्छे कपड़े पहन लेता था. एक दिन कहने लगा ‘मैं तुमसे एक लम्बे समय से मुहब्बत करता हूँ और रोज़ रात को 3बजे तुम मेरे सपनों में आती हो’. सुनते ही मैं ठठाकर हँस पड़ी. वह सुबक–सुबक कर रोने लगा. उसका बेतरह रोना देखकर मुझे बहुत हंसी आई कि ये मर्द भी क्या हैं. उस स्थिति के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हैंजिसका कारण वे स्वयं हैं."
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:243)

तलाकशुदा स्त्रियों के बारे में मल्लिका लिखती हैं –“हमारे समय में तलाकशुदा स्त्री का जीवन नरकतुल्य था. तलाकशुदा स्त्री की बड़ी बेईज्ज़ती होती थी. आज की तरह तलाक का मसला छोटा-मोटा नहीं माना जाता था. उन दिनों तलाकशुदा स्त्री को बिलकुल अलग-थलग कर दिया जाता था. जिस तरह लोग परिजनों की मृत्यु का शोक जताने जाते हैं वैसे ही तलाकशुदा औरत के भाईमाता-पिता के घर रिश्तेदार और मित्र पहुँचते थे तलाक पर अफ़सोस जताने.” (270) 

मल्लिका अपने ऊपर लादी हुई पारिवारिक और भावात्मक सेंसरशिप को बहुत कायदे से विश्लेषित करती हैं,संगीत में पारंगत होने के साथ साथ कई जगहों पर रहने के कारण उनमें वह अंतर दृष्टि और व्यावहारिकता है कि वह माँ के भावुक स्टेट्समेंट्स की पड़ताल करती चलती हैं,आगे चलकर  ने अपने ऊपर काबिज़ सेंसरशिप के विरोध में घर पर आने वाले सभी लोगों से मिलना बंद कर दिया.परतंत्रता की बेड़ी में छटपटाती हुई मल्लिका ने विद्रोह का स्वर बुलंद किया और रात के अँधेरे में भागकर अपने पुराने विश्वासी मित्र शब्बीर से विवाह कर लिया.माँ के विरोध,मानसिक प्रताड़ना का सामना भी मल्लिका को करना पड़ायहाँ तक कि उन्होंने महफ़िलों में गाना भी बंद कर दिया,बहुत वर्षों बाद उन्होंने रेडियो के लिए ग़ज़लें गायीं.पुस्तक  में मल्लिका ने अपने प्रेम और विवाह के विस्तृत ब्यौरे दिए हैं .उनकी माँ का उनके खिलाफ होना,घर से आधी रात को निकल कर शब्बीर के साथ निकाह की दास्तान बहुत विस्तार से कही गयी है.

एक गायिका का अभिनेत्री बनने के अधूरे सपने का यथार्थ से साक्षात् होना फिर गायन की तरफ लौट आना, आल इंडिया रेडियो में गायकी करना इन सब प्रसंगों को जगह मिली है.’सांग संग ट्रू’ की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है इसके बावजूद इसमें तत्कालीन राजनीतिक सन्दर्भों,घटनाओं की चर्चा से भरसक बचा गया है. ग़ुरबत,,तत्कालीन समाज -सुधार के आन्दोलन इन सबके तापमान का पता यह किताब नहीं देती और साधारण आत्मकथा बनकर रह जाती है. हालाँकि पुस्तक में कई करुण प्रसंग भी  हैं जो पाठक को प्रभावित करते हैं.जम्मू के महाराजा हरिसिंह जिनके दरबार में मल्लिका ने बचपन से ही गाना शुरू कर दिया था. आत्मकथा में उनके  और रियासतों के महाराजाओं के जीवन पर पर्याप्त जानकारी मिलती है. मल्लिका ने लिखा है कि- 'दरबार साजिशों से भरा थामैं महाराजा के साथ कश्मीर की तरफ और शिकार पर भी जाया करती थी. जम्मू में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद स्थिति बदल गयी. मुझपर महाराजा को विष देने का संदेह किया गया..उसके बाद मैंने जम्मू छोड़ने का निर्णय कर लिया” 

वे याद करती हैं कि 

"ऐसा भी समय था कि मैं हँसना चाहकर भी हँस नहीं सकती थी. हिन्दू-मुस्लिम दंगों से मेरा कोई लेना देना नहीं था. नही ये बातें मेरी समझ में आती थींतब भी हिन्दू मेरे शत्रु बन गए. जम्मू के बाहर वालों की बात छोड़ भी दें तो रियासत के भीतर के लोग भी इस बात पर भरोसा करने लग गए कि मैं महाराजा की जान लेना चाहती हूँ.” 

ऐसे माहौल में मल्लिका ने अपनी मां के साथ लाहौर की तरफ जाना तय कियादरबार में अंतिम गीत गाकर. मल्लिका लिखती हैं –

"महाराजा के दरबार में अंतिम गीत गाते हुए मेरी आवाज़ दर्द से भीगी हुई थीमेरा दिल भीतर ही भीतर रो रहा था मेरे गले से करुण बांसुरी की धुन जैसी आवाज़ निकल रही थी. गीत ख़त्म होते ही महाराजा हरिसिंह दरबार छोड़कर भीतर चले गएमुझे मौका भी नहीं मिल सका कि उनसे विदा ले सकूँ.”

मल्लिका ने माँ द्वारा उसके आर्थिक शोषण का भी चित्रण किया है. मां और नाना का परिवार मल्लिका के गायन पर निर्भर थाउनलोगों ने बहुत रुपये उड़ाए भी और डुबाये भी. मल्लिका ने एक समय पर गाना बंद कर दिया. शब्बीर के साथ विवाह ने उन्हें सुख और पूर्णता दीलेकिन छह बच्चों के बावजूद शब्बीर के असामयिक निधन ने मल्लिका को एकाकी कर दिया. बागबानीकढ़ाई-सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुज़ारे. उनके बेटे ने भी जायदाद सम्बन्धी मामलों में उनसे छल किया. उन्होंने नानक देव का चित्र कैनवास पर काढ़ा जो टोरंटो के गुरूद्वारे की शोभा बना. प्रसिद्ध लोक गायिका रेशमा जब उनसे मिलने आई तो उससे कई बार एक ही गीत सुना - हाय ओ रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा. अस्सी के उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और 93वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी. मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतन्त्रता पूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है ..मूल रूप से उर्दू में लिखी इस आत्मकथा को ‘सॉंग संग ट्रू’ शीर्षक से सलीम किदवई ने अंग्रेजी में प्रकाशित करवायाअंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में सलीम किदवई ने बताया कि लाहौरी उर्दू में लिखे लम्बे–लम्बे वाक्यों को अनूदित करने में उन्हें खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही उन्हें एक पन्ने के लम्बे वाक्यों को पढ़ने का अभ्यास हो गया.

रेडियो  ग्रामोफ़ोन कंपनियों की पसंदीदा आवाज़ मल्लिका पुखराज को भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में समान यश मिला. आत्मकथा में उन्होंने अपने बचपन से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा है.आत्मकथा में उन्होंने पाठक को वैसे ही बांधे रखा है जिस तरह वे अपनी आवाज़ के जादू से श्रोताओं को बांधे रखती थीं.महाराजा हरिसिंह ने मल्लिका को अपने दरबार में आश्रय दिया थाजीवन के लगभग आठ दशकों का संगीतमय सफ़र मल्लिका ने पुस्तक में लिपिबद्ध किया है.

यह आत्मकथा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें एक स्त्री कलाकार के संघर्ष,राज्याश्रय की कठिनाईयों,दरबार की आतंरिक राजनीतिस्त्री के बहुपक्षीय शोषण के साथ साथ मनुष्य होने के नाते उसके अंतर्विरोधों को भी पाठक जान पाता है. अपनी  महत्वाकांक्षा के कारण पुखराज को मां तीन वर्ष की उम्र में ही जम्मू लेकर चली गयी, मल्लिका की कहानी पराधीन और स्वाधीन भारत के संधिस्थल पर संगीतकला और नृत्य से रोज़ी –रोटी और सम्मान अर्जित करने वाले कलाकारों की कहानी है. ब्रिटिश भारत की नीतियों ने किस तरह कलाकारों को तवायफ़ों और तवायफों को देह–श्रमिकों में रिडयूस कर दिया. खानदानी गवैये और गायिकाएं जहाँ पहले संस्कृति के वाहक के तौर पर राज्याश्रय और सम्मान पाते थेवहीँ अब बदले समय में उन्हें पुलिस से डरकर रहने पर विवश होना पड़ता था.

धीरे धीरे संपत्तिशाली और सत्ता की सरपरस्ती वाले कलाकारों को छोड़कर दूसरे पेशों को अपनाने के लिए इनमें से बहुत से मजबूर हुए. देखते–देखते उनकी सामाजिक हैसियत में भी गिरावट आईइनमें से कई ने रेडियो और ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए गाना–बजाना शुरू कर दिया. यद्यपि मल्लिका की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी थीउनकी मां और कला के कद्रदानों ने  कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा. आत्मकथा में मल्लिका अपनी मां का ज़िक्र बार–बार करती हैं कि वे बेहद अनुशासनप्रिय थीं लेकिन मल्लिका का दम उनकी सरपरस्ती में घुटता था क्योंकि वे मल्लिका अपनी इच्छा और रूचि से अपने मित्रों का चुनाव करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं थी. उसकी कमाई से ही घर का सारा खर्च चलता था. बचपन में ही किन्हीं बाबा रोटीराम ने कह दिया था कि वह मल्लिका–ए-मुअज्ज़मा (महान साम्राज्ञी) बनेगी.

मल्लिका की मां ने उसे बचपन में ही बड़े ग़ुलामअली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया था ताकि मल्लिका संगीत में पारंगत हो सके. मल्लिका की आत्मकथा की भाषा प्रवाहमयी उर्दू है और बीच बीच में फ्रेंच और जर्मन के शब्द भी प्रयुक्त हैं. नौ वर्ष की उम्र में ही महाराजा हरिसिंह के दरबार में बतौर गायिका शामिल होने वाली मल्लिका को हिन्दुस्तानी ज़बान और तहजीब की संरक्षक के तौर पर देखा जाना चाहिए॰

मल्लिका पुस्तक में न सिर्फ स्त्री के अंतर्द्वंद्व बल्कि पुरुष की दृष्टि में स्त्री की भूमिकाओं की व्याख्या करती चलती हैं.बतौर कलाकार वे उन षड्यंत्रों और साजिशों की चर्चा भी करती हैं जिन्होंने उनके ऊपर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाला.मसलन वे हरिसिंह के दरबार के प्रसंग में लिखती हैं कि महाराजा ने उन्हें बतौर कलाकार 9वर्ष की उम्र में ही संरक्षण दिया,धन,दौलत,मान-सम्मान किसी की कमी नहीं होने दी,परन्तु देश के बंटवारे और हिन्दू–मुसलमान में भेदभाव और अफवाहों ने महाराज को भी नहीं बक्शा और दरबारी षड्यंत्रकारी हरिसिंह को यह समझाने में सफल हो गए कि मल्लिका पुखराज उन्हें विष देकर मारना चाहती है. मल्लिका को यह अपमान भीतर तक चुभ गया और उन्होंने हरिसिंह का दरबार अपना गीत गाकर छोड़ दिया- “इस कहानी के सबके अपने पाठ थे,मेरे ऊपर किसीको विश्वास नहीं थामेरे लिए यह सब झेलना बहुत मुश्किल था”
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:213) 

              

१३.


इसके बरक्स  रंगमंच और फ़िल्म से जुड़ी 1912में ही जन्मी जोहरा सहगल की आत्मकथा ‘क़रीब से’ (2013 ) जिसका हिंदी अनुवाद दीपा पाठक ने किया. जोहरा सहगल की यह पुस्तक रंगमंच और फ़िल्मी परदे पर लगभग सौ वर्षों की उनकी जीवन-यात्रा का ब्यौरा है. आत्मकथा में ज़ोहरा सहगल  अपने बचपन से लेकर अब तक के जीवनकरियर ,विदेश यात्राओं और थियेटर से अपने जुड़ाव की तस्वीर बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत करती दीखती हैं.आत्मकथा की शुरुआत में ही वे लिखती है –
“मैं कभी सोचती हूँ ज़िन्दगी एक बहुत बड़ा मजाक है. एक मैं हूँ जिसने रोज़ अपने दांत ब्रश कियेरोज़ नहायाबिलकुल धर्म की तरह बालों में तेल डालनेकंघी करने और उन्हें धोने का धर्म निभायासाँसों की और बदन की कसरत पूरे नियम से की ,सच को जैसा देखा वैसा ही बोला ...खुद से भी ..लेकिन फिर भीक्या है ज़िन्दगी दिन-ब-दिन कमजोर होता शरीरपैरों की लड़खड़ाहट की वजह से मैं लगभग रुक सी गयी हूँदांत एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैंआँखों की रौशनी इतनी धीमी पड़ती जा रही है कि अक्सर लिखते वक़्त मैं पंक्तियाँ और शब्द देख नहीं पाती...अगर मैं धार्मिक होती तो यही समय था जब मैं ईश्वर पर विश्वास करना शुरू करतीलेकिन मैं नहीं हूँ और इस बारे में बेईमान नहीं हो सकती. मैं मानती हूँ कि कहीं कोई ऊर्जा हैकोई कानून हैकोई एक ऐसा न बदलने वाला नियम जिसमें लाल और पीले रंग को मिलाने पर नारंगी रंग बनता है...कुल मिलाकर देखा जाये तो मैंने एक जोशीली और मज़ेदार ज़िन्दगी जी है. मैंने बहुत-सी यात्रायें की हैं...मैं अपनी पीढ़ी के बहुत से मशहूर लोगों से मिली हूँमैंने दो विश्वयुद्धों का अनुभव किया है और इंग्लैण्ड में दो बार राजतिलक देखा जिसमें रेडियो पर प्रिंस एडवर्ड का इस्तीफे के वक़्त दिया भाषण सुनना भी शामिल है. मैंने कई मशहूर कलाकारों के साथ काम कियाचाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. भला इससे ज्यादा कोई और क्या चाहेगा?
(‘करीब से’-तीसरी घंटी (भूमिका)जोहरा सहगल ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 2013:7-9)

जोहरा सहगल की आत्मकथा में जर्मनी के नृत्य स्कूल में प्रशिक्षण से लेकर पृथ्वी थियेटर से जुड़े अपने रंगमंचीय अनुभवों का विस्तृत ब्यौरा है. आत्मकथा का प्रारंभ’ परिवार का इतिहास “शीर्षक अध्याय से होता है और फिर सिलसिलेवार ढंग से बचपन और लाहौर (1919-1929),यूरोप और डांस स्कूल ,पहली वापसी समेत 12शीर्षकों के अंतर्गत जोहरा की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव,प्रेम,विवाह,करियर,पृथ्वी थियेटर और पृथ्वीराज कपूर से गहरे संवेदनात्मक वर्षो के साथइप्टा का निर्माणउसका प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचना और फिर उसका निष्क्रिय हो जाना जोहरा की जीवन-यात्रा का प्रामाणिक और मय दिनांक ब्यौरा दिया गया है,एक अभिनेत्रीरंगकर्मी,एक माँ और सबसे ऊपर एक स्वतन्त्रचेता  स्त्री जो तमाम विपरीत स्थितियों में भी हार नहीं स्वीकारतीअपने से कम वयस के पुरुष से अंतरजातीय विवाह करने का जोखिम उठाती हैअपने भीतर के कलाकार की हर आवाज़ को सुनती हैंबहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में अपना विकास करती है. पति द्वारा आत्महत्या के प्रसंग पर आत्मालोचन करती हुई  लिखती हैं-
“मैं अक्सर सोचती हूँ कि अगर कामेश्वर ने मुझसे शादी नहीं की होती तो क्या उनकी ज़िन्दगी किसी और तरीके से ख़त्म हुई होती. वे बहुत संवेदनशील इन्सान थे जो कभी भी इस बात को मान नहीं  पाए कि उनकी बीबी अपने काम में लगातार कामयाबी और इज्ज़त हासिल करती जा रही है जबकि उनकी खुद की कामयाबी जो कि हालाँकि कहीं ज्यादा ऊंचे दर्जे की थीरुक-रुककर उन्हें मिली.”(पृष्ठ123) 

जोहरा सहगल की आत्मकथा का वैशिष्ट्य है- आत्मप्रशंसा और श्लाघा से बचते हुए बहुत ही तटस्थ भाव से अपने साथ घटी घटनाओं के ब्यौरे देना,साथ ही साथ अपने भीतर के जन्मजात अभिजात्य भाव को स्वयं चुनौती देना. आत्मकथ्य के प्रारंभ में ही उन्होंने अपने वंश वृक्ष का लेखा -जोखा दिया है.

नजीबाबादके रियासती हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान के खानदान से ताल्लुक रखने वाली जोहरा अपने माँ-बाप की सात संतानों में तीसरी थीं जिसका बचपन शान–ओ-शौकत से गुज़रा.1930में उन्होंने ज़र्मनी के डांस-स्कूल में नृत्य सीखा 1933में वे वापस आयीं और 1935में उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित प्रसिद्ध नाट्य दल से जुड़ीं. कामेश्वर सहगल से प्रेम और फिर विवाह इसी दौरान हुआ. आत्मकथ्य लिखने के बारे में वे प्रारंभ में ही कहती है – 

“कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता हैसबसे बड़ी वजह तो यह कि इन्सान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है. ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाये रखने का जरिया लगता है. मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता हैभला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं कीतुम्हारे संघर्ष कीतुम्हारे सुख या दुःख कीहाँशायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो. हालाँकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देख-भाल करने के बावजूद कभी-कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी ज़िन्दगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी ..पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है.”(23)

जोहरा सहगल का आत्मकथ्य उदयशंकर के नाट्य-दल के बनने और फिर बिखर जाने की कहानी है साथ ही यह पृथ्वीराज कपूर की लगन और मेहनत के अंत:साक्ष्य देने वाली आत्मकथा है जिसमें बतौर निर्देशक और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर द्वारा पृथ्वी थियेटर के उतार-चढ़ाव की घटनाएँ बयान करने वाले ढेरों पत्र संकलित हैं. जोहरा सहगल का यह आत्मकथ्य स्व से ऊपर उठकर भारत में ‘इप्टा’ के बनने-बिगड़ने और फिर खड़े होने की दास्तान है. आत्मकथ्य में हालाँकि जोहरा राजनैतिक चर्चाओं और ब्यौरों से बची हैं फिर भी कथ्य के प्रवाह में तत्कालीन भारत की राजनीति अपनी झलक के साथ उपस्थित हैमसलन अपनी रजिस्ट्री-शादी के दिन का ज़िक्र करती हुई लिखती हैं - नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे  बड़े शहरों में इसकी शाखाएं खुल गयीं..उस समय भारत  अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुज़र रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपंथी  हुआ करते थे जो हम सबको मिल-जुल कर काम करने को प्रेरित करते थे ...मेरी शादी का  दिन था 14अगस्त 1942..यह दूसरे विश्वयुद्ध का समय थाभारत में अँगरेज़ सरकार के खिलाफ़ असहयोग आन्दोलन चल रहा था और चारों ओर अफरा-तफ़री  का माहौल था.(82)  या 

1947के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाक़ये हुएकुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गयीकलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया. उस समय देश में अंतरिम सरकार थी और जवाहर लाल नेहरु उसके उपाध्यक्ष बनाये गए थे...” (93)

जोहरा सहगल ने अपने नृत्य एवं रंगमंचीय करियर के लिए जी- तोड़ मेहनत कीसाथ ही वे अपने बच्चों को भी ऊंची शिक्षा देने में सफल रहीं. आत्मकथ्य मेंवे अपने बेटे पवन के साथ मेल न मिलने पर दुखी  और बेटी किरण  को नृत्य में मिली सफलता से बहुत उत्साहित दीखती हैं साथ ही दिल्ली में एक अदद बसेरा बसाने की कोशिश और सरकारी सहायता के न मिल पाने का खेद भी उनके जीवन के अंतिम दिनों में भी कचोटता है. परन्तु अंततः वे अपने बीते जीवन से संतुष्ट हैं तभी तो लिखती है –
“अपनी सोच और अपने तजुर्बों के हिसाब से सिखाने और निर्देशित करने की पूरी ज़िम्मेदारी लेने के लिहाज़ से मैं  बहुत आलसी थी.पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की  रौशनी का ही लुत्फ़ लेती रही क्योंकि उनके साथ काम करते हुए सारे नाटक ,सारे दौरों की तैयारियां कोई और मेरे लिए करता था,मुझे उसके लिए न कोई परेशानी उठानी पड़ती थी और न कोई ज़िम्मेदारी मुझपर थी.यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेहनत कीलेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थियेटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता. मुझे लगता है ,यह करने के लिए मैं बहुत आलसी थी.हालाँकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला ,लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई,बहुत सारा तजुर्बा कमाया और कड़ी मेहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियाँ पायीं.और क्या चाहिए ,मैं इसे ऐसा ही चाहती थी.”
(क़रीब से ,जोहरा सहगल ,अनुवाद दीपा पाठक ,राजकमल प्रकाशन 2013:241)




१४.


बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा, (1918-1989) जो फिल्मों में रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई  ‘अ वुमन ऑफ़ सब्सटांस’ में  उसने अपने संस्मरणों में अन्तरंग जीवन के पहलुओं को लिखा. जिन्हें पढ़ कर मुस्लिम परिवारों के आतंरिक तापमान का अंदाजा हो जाता है. यह  रशीदजहाँ की छोटी बहन रंगमंच और सिने- अभिनेत्री की आत्मकथा हैजिसे उनकी बेटी लुबना काज़िम ने सम्पादित किया. यह आत्मकथा स्वर्गीय रजिया भट्टी की प्रेरणा से मासिक पत्रिका हेराल्ड के अगस्त 1982से अप्रैल 1983में नौ भागों में धारावाहिक रूप से छपी. आत्मकथा में सन 1857से 1983तक की घटनाओं का ज़िक्र है जिनमें भारतीय मुस्लिम समाजनिजी पारिवारिक स्थितियांनवजागरण और समाज-सुधार के मुद्देहिंदुस्तान–पाकिस्तान का विभाजन. सिनेमा में बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा का जानाउनकी लोकप्रियतासामाजिक सेंसरशिप के दबाव जैसी चर्चाएँ प्रमुख हैं. खुर्शीद मिर्ज़ा ने देश–विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का निर्णय कियालेकिन आत्मकथा में वे स्वयं को पीछे छूट गए भारतीय सदस्य के रूप में देखती हैं. वह जब भी छुट्टियों में अलीगढ़ आती कराची की भीडभाड़ को भूल जाती. आत्मकथा में उन्होंने अपने पिता शेख अब्दुल्लाह के स्त्री–शिक्षा सम्बन्धी प्रयासों का ज़िक्र भी विस्तार से किया है.

दरअसल यह आत्मकथा एक तरह का सामाजिक–ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. एक साथ तीन पीढ़ियों और बदलते हिंदुस्तान और पाकिस्तान की कहानी है. परदे को लेकर जो विमर्श इस आत्मकथा में मिलता हैवह अन्यत्र दुर्लभ है. सन 1904में शेख अब्दुल्लाह ने जो  रिसाला खातून शीर्षक पत्रिका निकाली उसमें मुस्लिम स्त्रियों द्वारा किये गए पर्दा-विमर्श का ज़िक्र विस्तार से खुर्शीद मिर्ज़ा करती हैं. वे बताती हैं कि जब मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में उनके पिता ने कई ठोस प्रयास करने शुरू किये तो कई औरतों ने रिसाले को परदे को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ते हुए परदे के पक्ष में पत्र लिखे.

कई अभिजात्य स्त्रियाँ अपनी बेटियों को लड़कियों के स्कूल में भेजने को इसलिए तैयार नहीं थीं क्योंकि वहां नीचे तबके से भी लड़कियां आएँगी और फिर उनकी आभिजात्यता का क्या होगा. एक लम्बे समय तक स्त्री शिक्षा का मुद्दा बहस का विषय रहाफिर लोगों की रूढ़ धारणाओं में परिवर्तन आने लगे और 1927तक आते आते लड़कियों का स्कूल इंटरमीडिएट कालेज के स्तर पर पहुँच गया. इसमें इस्मत चुगताई जैसी हस्तियों ने शिक्षा ली थी. खुर्शीद मिर्ज़ा इस बात पर बल देती हैं कि लड़कियां शेक्सपीयर के ‘ए मिडसमर नाईट’को पढ़ने के साथ-साथ बास्केटबाल और बेसबाल भी खेलती थीं. खुर्शीद मिर्ज़ा का फिल्मों को अपना करियर बनाना इस बात को दर्शाता है कि मुस्लिम समाज में आधुनिक चेतना का आगाज़ हो रहा था. मुसलमान औरतों की ज़िन्दगी कैसे भारत में बदलाव की और बढ़ रही थीयह पुस्तक उसका मुकम्मल बयान करती है. कैसे आज़ादी की लड़ाई उन्हें सामाजिक समारोहों में शामिल होने और स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे रही थीलेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. हालाँकि शेख अब्दुल्लाह ने अपनी बेटियों को ऊँची शिक्षा के लिए विदेश भेजा. खुर्शीद ने दर्ज किया है कि मंझली आपा खातून जहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए गयीं और बड़ी आपा रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कॉलेजदिल्ली में पढ़ीं और छोटी मुमताज़ आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेजलखनऊ से पढ़ाई की बावजूद इसके इन स्त्रियों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी. 

खुर्शीद मिर्ज़ा अपने भाई के मित्र जाबिर अली के साथ दोस्तीप्रेम और विवाह की यात्रा को दिलचस्प ढंग से लिखती है – 


“मैंने अपने प्रिय भाई हाटू की तर्ज़ पर यह सोचना शुरू कर दिया कि जाबिर की तुलना अन्य किसी से हो ही नहीं सकती. वह राजा भी था और नेता भी. मैंने कभी किसी दूसरे पर ध्यान ही नहीं दिया. हाटू की मित्र-मंडली में हमारे रिश्ते सभी से दोस्ताना थेलेकिन जाबिर वह था जो विशिष्ट था. धीरे-धीरे मेरे हाटू भाई मुझसे दूसरी बातों के बारे में भी चर्चा करने लगेखेल के अलावाअब जाबिर भी अकेला आने लगा. हाटू भाई ने मुझे बताया कि  जाबिर मुझे पसंद करता है. मैं अन्दर ही अन्दर रोमांचित हो उठती मगर डर लगता था कि अगर किसी को पता चल गया तो इसलिए दूसरों की उपस्थिति में मैं उससे परायेपन का व्यवहार करतीउससे लड़ती और उसके घुंघराले बाल खींचतीचिकोटी काटतीउसके चेहरे या नाक पर साबुन मल देती और ऐसा ही बहुत कुछ. वह गर्मियों में हमारे साथ माथेरान आया था. हम पूरे दिन साथ रहते एक दूसरे को चिढ़ाते रहतेमुझे जाबिर के हाव-भाव से यह अहसास होने लगा कि वह मेरे बारे में क्या सोचता है." 
(अ वीमेन ऑफ़ सबस्टांस-मेमोआयर्स ऑफ़ बेग़म खुर्शीद मिर्ज़ा,संपादन लुबना काजिम,जुबान ,दिल्ली ,2005:105-106)             

संस्मरण में खुर्शीद जहाँ ने अपनी बड़ी बहन रशीदजहाँ जो पीडब्लूए से जुड़ी थी उसके बारे में विस्तार से हमीदा सैय्यादुज्ज़ाफ़र के हवाले से लिखा है- शुरू से ही उसमें विद्रोही चेतना बहुत थी. बहुत कम उम्र में ही उसमें सामाजिक अन्याय और गैरबराबरी के प्रति अवहेलना का भाव था. पिता और मां के समाज-सुधार कार्यक्रमों से सम्बद्ध होने के कारण भी उसमें सामान्य जन से खुद को जोड़कर देखने का भाव था.1931-32में मह्मूदुज्ज़ाफ़रसज्ज़ाद ज़हीरअहमद अली और रशीदजहाँ की मुलाक़ात लखनऊ में हुईइन सबमें सामाजिक अन्याय और गैर-बराबरी के प्रति विद्रोही चेतना थी और समाजवादी विचारधारा के प्रति विश्वास था. रशीदजहाँ ने वहीँ पर मह्मूदुज्ज़ाफ़र से प्रेमविवाह कियाउनदोनों का घर मजलूमों और ज़रुरतमंदों के लिए हमेशा खुला रहता था. हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ने भी दर्ज़ किया कि – “मेरी शादी के वक़्त तक रशीदजहाँ ने अपने आपको सभी भौतिक वस्तुओं से काट लिया थापैसासंपत्तिनिजी लाभ सबकुछ से. वह बिना किसी लगाव के अपनी कोई भी चीज़ दूसरों को देने के लिए तैयार रहती. उसका घर एक कम्यून बन गया थाजहाँ जातिधर्मवर्ग किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं था. उसके घर में जाति से चर्मकार  लड़के के काम करने पर कुछ हिन्दू मित्रों को आपत्ति थी जिसके जवाब में रशीदजहाँ ने कहा–“वह लड़का बहुत से ऊँची जात वाले हिन्दुओं की अपेक्षा साफ़-सुथरा हैतुम्हें अगर वह पसंद नहीं है तो तुम मेरे घर में भोजन मत करो.”


रशीदजहाँ को उनके प्रगतिशील विचारों और व्यवहार के लिए खुर्शीद मिर्ज़ा स्मरण करती हैं कि गर्भाशय के कैंसर से मरते वक्त रशीद का कहना था कि उसके शरीर को दफनाने से अच्छा है कि उसे मेडिकल कालेज में प्रयोग के लिए दे दिया जाये. रशीदा के पति ने पत्नी की मृत्यु के बाद ‘क्वेस्ट फॉर लाइफ़’ शीर्षक संस्मरणात्मक किताब में रशीदा की बीमारी और इलाज के लिए मास्को जाने के दिनों का सविस्तार वर्णन किया.
(हमीदा सैयद्दुज्जाफर 1921-28,संपादन लोला चटर्जी,नईदिल्ली ;त्रियाँका,1996) 

संस्मरण इस दौर के ब्यौरों के लिए पठनीय है. बेगम खुर्शीदमिर्जा ने इस किताब में यह बताया है कि कैसे भोपाल की बेगम के सहयोग से पिता ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए स्कूल बनाया और सर सैय्यद अहमद खां की नाराज़गी के बावजूद स्त्री शिक्षा के ये आरंभिक प्रयास कैसे बढ़ते गए. सन1857से 1983के लम्बे समय को समेटती यह किताब खुर्शीद्मिर्ज़ा की आपबीती भी हैजिसमें भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षापर्दा प्रथा के साथ बतौर अभिनेत्री खुर्शीद (जो चित्रपट पर रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई) के जीवनानुभवों का ब्यौरा पाठक को मिलता है.

खुर्शीद ने अपने घर में एक छोटे स्कूल की शुरुआत से स्त्री -शिक्षा के आगाज़ का ज़िक्र किया है जिसमें घर की बड़ी लड़की  रशीदजहाँ समेत कई लड़कियों ने पर्देदारी में ही सहीपढने के लिए जाना शुरू कियाशेख अब्दुल्ला और उनकी बेगम के प्रयास से धीरे-धीरे छात्राओं  की संख्या में इज़ाफा होने लगा. शेख अब्दुल्ला जो भी देशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाएं मंगवातेरशीदजहाँ उन्हें बहुत दिलचस्पी से पढ़ती. इन छोटी लड़कियों को शेक्सपीयर पढ़ना भी बहुत पसंद था. हेड मिस्ट्रेस मिस हाजरा ने भी इन्हें खूब प्रभावित किया. उन्हीं के माध्यम से स्वदेशीहोमरूल आन्दोलन, 1905के बंग-भंग के खिलाफ़ विद्रोह के साथ टैगोरबंकिम आदि के लेखन से नई पीढ़ी  की लड़कियां परिचित हुईं. राष्ट्रवादी नेताओं मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माँ बी अम्मा के अलीगढ़ आने पर, रशीदजहाँ जो उस समय मात्र 14वर्ष की थी उनसे मिलने के लिए बेचैन हो गयीअंत में बी अम्मा से मिलने की अनुमति रशीदजहाँ को एक अध्यापिका के साथ मिली.

मुलाकात हुई और रशीदजहाँ खूब उत्साह के साथ घर लौटी पर बदले मन से -गाँधी के प्रति श्रद्धा ने उसमें सिर्फ खादी पहनने का उत्साह पैदा किया. तबसे उसने सिर्फ खादी पहनी. परिवार में भी उसके इस फैसले पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की. आपा बी ने बहुत पहले मेडिसिन की पढ़ाई के लिए घर छोड़ दिया. वह स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनी कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उसने खूब नाम कमाया. 1927में जब मैंने आपा बी को देखा तो वह खूब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी -उसे देखना एक आश्चर्य था...शायद यह उसी साल की बात हैआपा बी छुट्टियों में घर आई थीं. मां ने हमारे घने बालों सेजिनमें जुएँ भरी रहती थीं हार मान ली थी. आपा बी (रशीदजहाँ) हर बार की तरह त्वरित समाधान के साथ मौजूद थीं. उन्होंने हमारे बालों में किरोसीन तेल  लगा दिया और लम्बे बालों को काट दिया. उनके अपने बाल पहले से ही कटे हुए थे मुझे बहुत पसंद थे और अब हमने भी लम्बीघनी कसी हुई चोटियों को अलविदा कहा. अंततः ये भी तो एक मुक्ति ही थी.”
(माई सिस्टर रशीदजहाँ (1905-1952)द मेमोआयर्स ऑफ़ बेगम खुर्शीद् मिर्ज़ा,अध्याय 6,2005 ,जुबान बुक्स ,काली फार विमेन,हौजखास एन्क्लेव ,दिल्ली:90 )


बदलते भारत में मुस्लिम औरतों की आज़ादी के मुद्दे पर खुर्शीद मिर्ज़ा बेबाक टिप्पणी करती हैं उनका मानना है कि राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर चैतन्य  भारत में उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतासामाजिक मेल-मिलाप के मौके तो मिल रहे थे लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. बौद्धिक रूप से सचेतन परिवारों की संख्या कम थी जो शेख अब्दुल्ला की तरह अपनी बेटियों को विदेश में तालीम हासिल करने भेजते. रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कालेजदिल्ली, मंझली बहन ख़ातूनजहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए गयी,छो टी आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज लखनऊ से अंग्रेजी में एम्. ए.किया. इस तरह के विवरण देते हुए खुर्शीदमिर्ज़ा की टिप्पणी है कि- “फिर भी इन औरतों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी."



१५.
डॉटर ऑफ़ द ईस्ट ‘पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रह चुकी बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा है जो ‘मेरी आपबीती’ शीर्षक से हिंदी में अनूदित हुई. यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. आत्मकथा अपने खानदान, पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को 1979में तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ द्वारा फांसी दिए जाने की घटना के इर्द-गिर्दअपना राजनैतिक जीवन और पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया के हनन और उसके विरोध में फिर-फिर उठ खड़े होने की चुनौतियाँ झेलती बेनजीर के जीवन के बहुत से अनछुए पहलू सामने लाती है जो  पाठक की राजनीतिक समझ को साफ़ करते हैं और साथ ही दक्षिण एशिया के देश में धर्मराजनीतिसत्ताऔर फौजी शासन के  समीकरण से टकराते लोकतंत्र की दशा और दिशा  की जानकारी भी देते हैं. पिता की मृत्यु के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की कमान बेनजीर भुट्टो ने संभाल ली. वे सन1981के दौरान  पाकिस्तान में तीन  महीने नज़रबंद रहीं इसके बाद वे इंग्लैण्ड में निर्वासन में रहीं. अपने छोटे भाई शाहनवाज़ को दफ़नाने के लिए वे पाकिस्तान लौटीं.

लाखों की संख्या में जनता ने उनका स्वागत कियाजनता जियाउलहक से तंग आ चुकी थी और बेनजीर भुट्टो में पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की छवि देखती थी. बेनजीर को फिर से जेल में बंद कर दिया गया. आत्मकथा में बेनजीर अपने जीवन के उन वर्षों को याद करती हैं जब उनपर कड़े पहरे थेपहरेदारिन के बारे में वे लिखती हैं – “चाहे मैं आ रही होऊंया बाहर जा रही होऊं. वह बेहद कठोर थीकोई सहानुभूति नहीं. मुझे लगता था कि हुकूमत ने जानबूझकर उसे मुझपर तैनात कर रखा था. वह बहुत नीच लगती थीवैसी ही जैसी घड़ी और अंगूठी उतरवाकर वापस न करने वाली. उसकी नज़र से बचने के लिए कुछ भी बहुत छोटी चीज़ नहीं थी ..”.. मैं तलाशी नहीं दूंगीमैं तलाशी दूंगी ही नहीं," मैं चीखीऔर कार से दूर जाने लगी...मैं जब जेल में अपने पिता से मिलने गयी तब भी तलाशी हुईवहां से बाहर निकलते समय मेरी तलाशी ली गयीजब मैं अपनी मां के पास दूसरी जेल में गयीतब भी मेरी तलाशी ली गयीआते समय फि.. मेरी बहुत बार तलाशी हो चुकी हैअब बस ..बहुत हुआ’
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:144)


बेनजीर की आत्मकथा की विशेषता है कि वह एक राजनीतिक स्त्री की आत्मकथा होते हुए भी अपने-आप में में किसी आम  स्त्री की आत्मकथा मालूम देती हैमसलन आत्मकथा में उन्होंने अपने बच्चों को लेकरअपने स्वास्थ्य को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की हैं वे देश की चिंता के समानांतर चलती रहती हैंएक साधारण-सी  पितृविहीन लड़की, एक चिंतित माँएकाकी राजनीतिज्ञ की अनेकानेक छवियाँ पाठक के सामने कौंध जाती हैंलेकिन सब पर हावी रहती है व्यावहारिकता-लोकतंत्र की चिंता- देश के साथ उनका जुड़ाव. पुस्तक की भूमिका में वे लिखती हैं –

“मैंने यह ज़िन्दगी खुद नहीं चुनीज़िन्दगी ने मुझे चुना.पाकिस्तान में जन्मीमेरी ज़िन्दगी बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रहीउसमें दुःख-विपत्तियाँ  हैं तो कामयाबी के झंडे भी फहराए हैं...पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं हैन ही मेरी ज़िन्दगी कोई सीधी-सपाट ज़िन्दगी है. मेरे पिता और दो भाई मार दिए गए. मेरी माँमेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया. मैंने कई कई बरस का देश-निकाला झेला. इन तमाम दुःख-मुसीबतों के बावजूदमैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ. मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश मेंलोकतान्त्रिक चुनाव के ज़रिये पहली  प्रधानमंत्री बन सकी. यह चुनाव उस  बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ थाजो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था. इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरतदेश की प्रधानमंत्री बनकर देश की अगुवाई कर सकती है और उसे देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रजामंदी दे सकते हैं ...इस दुनिया में बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वे इस समाज  में कुछ बदलाव ला सकेंदेश में आधुनिकता की राह बना सकें और मामूली भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों के बारे में घिसे-पिटे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगो को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है.”
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:9) 

बेनजीर भुट्टो की यह आत्मकथा अपनी सीमाओं में बहुत ही सुरक्षित जीवन जीने वाली लड़की की जीवन-यात्रा  की कथा है जिसने रेडक्लिफ और आक्सफोर्ड में शिक्षा ग्रहण की.राजनीतिक परिवार के संस्कारों ने उन्हें साहस और सूझ-बूझ दी. वे  एक इस्लामिक देश की चुनी हुई  प्रधानमंत्री बनीं .पाकिस्तान में तख्तापलट के बाद उनके पिता को फांसी दे दी गयी थी और दो भाइयों को मार दिया गया.नज़रबंदीअपने ही बच्चों से अलग रहने की विवशता,पाकिस्तानी सेना का अधिनायकत्व,कारावास की भीषण यातनाएंजनरल मुशर्रफ के शासन काल तक तक उन्होंने राजनैतिक रूप से चैतन्य जीवन जिया,उन्होंने लिखा – 


2007में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ लौटते  वक्त न सिर्फ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए  मौजूद खतरों से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ.हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरूं तो गोलियों की शिकार हो जाऊं. पहले भी अल-क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है. हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगाक्योंकि मैं अपने वतन में लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतान्त्रिक चुनावों से नफ़रत है लेकिन मैं तो वही करुँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतान्त्रिक आकाँक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ”..
 इस पत्र के कुछ ही महीने बाद 27दिसंबर 2007में बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी में मार दिया गया.उनकी आत्मकथा के बारे में सन्डे टाईम्स ने लिखा-

“यह एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियाँ स्वीकार कींजिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुएजिसने पाकिस्तान की आजादी की मशाल जलाये रखी,बावज़ूद तानाशाही के विरोध के.” 
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:ब्लर्ब )




कागज़ी है पैरहन’ इस्मत चुगताई की आत्मकथा है जिसका देवनागरी में लिप्यंतरण इफ्तिखार अंजुम ने किया. बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में परदेदार कुलीन घराने की मुस्लिम स्त्री के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होने के कारण इस्मत चुगताई को मरणोपरांत  इस पुस्तक ने बहुत लोकप्रियता दिलवाई. हालाँकि इसे सीधे-सीधे आत्मकथा नहीं कहा जा सकताक्योंकि इसमें जन्म से आगे की घटनाएँ उस ढंग से सिलसिलेवार नहीं हैं,यह खण्डों में बिना तरतीब के है.14अध्यायों में बंटी इस आत्मकथा का धारावाहिक रूप में ‘आजकल’ उर्दू पत्रिका में (मार्च 1969से मार्च 1970 )प्रकाशन हुआ. 

इस्मत चुगताई की मृत्यु सन 1991में हुई और उसके तीन वर्ष बाद उर्दू पत्रिका में छपे उन टुकड़ों को एकत्र करके पुस्तकाकार छापने का निर्णय लिया गया. कागज़ी है पैरहन- परंपरागत अर्थों में आत्मकथा न होते हुए भी टुकड़े-टुकड़ों में इस्मत की जीवन स्मृतियों को सामने लाती है जिसका अंग्रेजी तर्जुमा करने वाले एम.असाउद्दीन का कहना है कि इस्मत समाज में व्याप्त लैंगिक विभेद और समाज की सामंती-पितृसत्ताक संरचना से भली-भांति परिचित थींजिस समाज में वे रहती थीं उसके दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और विरोध  करने के लिए वे जो कर सकती थीं किया.

’कागज़ी है पैरहन’ कुल 14अध्यायों में विभक्त है जिसे उर्दू पत्रिका ‘आजकल’ में 1970  के दौरान धारावाहिक रूप में पाठकों के सामने आने का मौका मिला. ’आजकल’ ही वह पत्रिका थी जिसमें अनीस किदवई का आत्मकथ्य ‘गुब्बार ए-कारवां’ छपा था.

इस पत्रिका ने कई लेखकों के आत्मकथ्य प्रकाशित किये. ’कागज़ी है पैरहन’ उन आत्मकथ्यों में से है जो ये बताते हैं कि रचना का आत्म बहुस्तरीय होता है और स्मृतियाँ ठीक उस ढंग से नहीं आतीं जैसा जीवन का सिलसिला होता है. बतौर रचनाकारबतौर स्त्री और बतौर मुस्लिम होने के नाते आत्मकथा लेखन के अनंतर जो चुनौतियाँ इस्मत के सामने आती हैंउनके बारे में वे बताती हैं. लेखकीय इयत्ता और आत्म के  पुनर्प्रस्तुतिकरण के उत्कृष्ट उदाहरण के नज़रिए से इस आत्मकथा को देखा जाना चाहिए. इस्मत चुगताई के लेखन को उर्दू गद्य की आधुनिक लयकारी की दृष्टि से भी सराहा गया. इस्मत ने पढ़ने-लिखने और जीवन में अपना मुकाम हासिल करने के लिए किस तरह मुस्लिम परम्परावादी समाज का सामना कियाउनकी जिद्द ही थी जिसने उनके भीतर लैंगिक विभेद के प्रति विद्रोह पैदा कियाऔर ऐसे मुद्दों पर लिखवाया जिसमें समाज के रसूखदार लोगों का जीवन प्रतिबिंबित होता था.

लेखन प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है –
“लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैंउनसे बातें कर रही हूँ और वो सुन रहे हैं. मेरे कुछ हमखयाल हैंकुछ मोतरिज़ हैंकुछ मुस्कुरा रहे हैंकुछ गुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूँ तो यही अहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूँ.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:ब्लर्ब)


इस पुस्तक में स्मृतियाँ श्रृंखलाबद्ध रूप में नहीं आई हैं,बचपन के बारे में इस्मत लिखती हैं- 
"मेरी अम्मा को मेरी हरकतें एक आँख न भाती थीं. मेरे अंजाम की उन्हें सख्त फ़िक्र थी. ये मर्दमार बातें औरतों को जेब नहीं देतीं. वह इतनी गहराई से न इन बातों को समझती थीं और न समझा सकती थींमगर  मुझे मालूम हुआ कि मेरी अम्मा क्यों डरती थीं. यह मर्द की दुनिया हैमर्द ने बनाई और बिगाड़ी है. औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनिया का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफरत के इज़हार का जरिया बना रखा है. वह उसे मूड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है. औरत को दुनिया में अपना मुकाम पैदा करने के लिए निस्वानी हर्बों से काम लेना पड़ता है. सब्र होशियारीदानिशमंदीसलीका जो मर्द को उसका मुहताज बना दे. शुरू ही से लड़के को मुहताज बनाना कि वह अपना बटन टांकते शरमाये. रोटी ठोकते डूब मरे. आसान-आसान छोटे छोटे काम जो नौकर कर सकते हैंअपने हाथ से करना. उसकी ज्यादतियों को सर झुकाकर सहना कि वह शर्मिंदा होकर क़दमों पर गिर पड़े.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:14)


इस्मत स्त्री की इस गुलाम मानसिकता से अपने ढंग से टकराती हैं. बहुत कम उम्र में लैंगिक विभेद को परख लेती हैं. वह रशीदजहाँ के बारे में लिखती है– 

“रशीदजहाँ ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था.मैंने उनसे साफ़गोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की.”(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:15) 


इस्मत की आत्मकथा की विशेषता है साफ़गोई और बिना लाग-लपेट के अपनी बात को कहने की कोशिश ,वे अपने बचपन के दिनों से लेकर भाइयों के साथ पढ़ाई-लिखाई के अनुभवों के साथ यौनिकता के मुद्दों पर बड़े ही बेबाक अंदाज़ में बात करती हैं. वे धर्मराजनीति,परदे के मुद्दों पर पिताभाइयों,पुरुष रिश्तेदारों से बात करती हैं ताकि जान सकें कि आधी आबादी ,जो बाहर की दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ़ है वह अंतरमहल की समस्याओं पर क्या सोच रखती है. 
”लड़कों के लिए यह आम रवैया मुनासिब समझा जाता हैमैं लड़की थी. अम्माखालायेंफूफियाँचचियाँ हैबतज़दा थीं. औरतज़ात को ये मुंहज़ोरियां जेब नहीं देतीं. ससुराल में कैसे गुज़र होगी समाज ने औरत का एक ठिकाना मुक़र्रर कर दिया हैउससे बाहर क़दम रखा तो पैर छांट दिए जायेंगे .ज्यादा तालीम भी बलाए जान होती है. हमारे यहाँ कौलो-फ़ेल पर पाबन्दी नहीं थी. मगर यह शर्त सिर्फ़ मर्दों तक थी. मुझे इन हरकतों पर डांट खानी पड़ती थी‘
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:17) 

लैंगिक विभेद युक्त समाज ,स्त्री के लिए सीमायें तय करता समाज इस पुस्तक में सब कहीं है. मुस्लिम समाज और औरतों की इच्छाओंकामनाओं को अनुशासन में रखती चली आती व्यवस्थाओं का पर्दाफाशबड़े ही सहज ढंग से यह पुस्तक करती चलती है. परदे और मुस्लिम स्त्री होने के कारण लादी गयी पाबंदियों की फेहरिस्त लम्बी हैइसलिए उनसे टक्कर लेकर अपनी इच्छा से अपने जीवन को जीने की छूट लेने की चुनौतियाँ और संघर्ष भी बड़े रहे होंगेयह आत्मकथा औरतों की चुप्पी और उनके कथन की  दरारों को चौड़ा करके दिखाती हैजिनमें विभिन्न तबकों से आई हुई औरतें हैंजिनकी आवाज़ दबते-दबते गूंगी हो गयी है. पति की कृपा पर उनकी यौनेच्छायें निर्भर हैंअभिकर्ता के रूप में वे अपनी इस स्थिति को अस्वीकार करती हैं. वे हर तबके में दबी-कुचली और शोषित हैं लेकिन दिशाहारा॰



१६
               


उजाला दे चराग़-ए-रहगुज़र आसाँ नहीं होता
हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता   
(अदा ज़ाफरी )

इस्मत चुगताई की आत्मकथा के बरक्स अदा ज़ाफरी की आत्मकथा को रखकर देखना दिलचस्प है. देश विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर बसने वाली अदा ज़ाफरी ने गजलकार के तौर पर नाम कमाया लेकिन विवाह के पहले जब वे बदायूं में रहती थीं उन्हें लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा क्योंकि मुस्लिम खानदान स्त्री को पर्दे से बाहर आने नहीं देना चाहता था “जो रही वो बेखबरी रही" (1995) शीर्षक आत्मकथ्य में 1924मे उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुई अदा ज़ाफरी जेंडर और स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर  अपनी समकालीनों से भिन्न हैं. इनसे पहले अधिकतर मुस्लिम स्त्रियाँ जिन्होंने आत्मकथाएं लिखीं वे शिक्षितअभिजात्य अथवा राजनीतिक सक्रियता रखने वाले परिवारों से सम्बद्ध थीं. उनका लिखना उन्नीसवीं सदी के स्त्री सुधारों और स्त्री शिक्षा के कार्यक्रमों का ही एक विस्तार थाया यों कहें कि आत्मकथा लेखन के माध्यम से वे राष्ट्रीय आख्यान का अंग बन रही थीं और मुस्लिम आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक भूमिका अदा करने का प्रयास कर रही थींइसलिए उनके आत्माख्यानों मे विषय वैविध्य के साथ साथ एक विशिष्टता बोध भी दिखाई देता हैइनमें से कुछ यौनिकता के प्रश्नों पर अतिरिक्त मुखर हैं मसलन इस्मत चुगताई. तो कुछ के लिए प्रेम,पति,प्रेमी और यौनेच्छा पर एक पंक्ति भी लिख पाना मुमकिन नहीं हो पाया. कुछ पर खुद की सेंसरशिप हावी है कुछ पर इस्लाम की और कुछ के साथ परिवार,समाज,पाठक का भय चलता है जिसे उनके टेक्स्ट की दरारों से ही समझा जा सकता है. 

इसके लिए अदा ज़ाफरी के आत्मकथ्य को देखा जाना चाहिए जो एक साधारण परिवार से सम्बद्ध थी जिनका बचपन से एक ही सपना था कि वे अपनी खुली आँखों से दुनिया देखें. पर्दा और लैंगिक विभेदवादी परिवार और समाज में उन्हें ऐसी कोई छूट मिलनी संभव नहीं थीवे अपनी कथा में लिखती हैं कि स्वतंत्र होने के लिए उन्होने एक उच्च पदस्थ अधिकारी से विवाह कियाविवाह के बाद ही संभव हो पाया कि वे पति के साथ देश-दुनिया घूमें और नए नए लोगों से मिलें-जुलें. लेकिन बतौर कवयित्री एक लंबा कैरियर गुजरने के बाद उम्र के इकहत्तरवें साल मे  ही वे आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाईं.
(https://books.google.com/books?id=1lTnv6o-d_oC&pg=PA352)



इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद पाकिस्तान के माहौल और बचपन के अनुकूलन ने उनपर सेंसरशिप इस कदर तारी रखी कि वे परिवार के किसी पुरुष सदस्य पर टिप्पणी से बचती हैं यही नहीं वे जिन भी  पुरुषों का ज़िक्र करती हैं उन्हे ‘भाई ‘कहकर संबोधित करती हैं मानों पाठक की कल्पना पर लगाम लगा देना चाहती हों कि कहीं उन्हें ऐसी स्त्री न समझ लिया जाये जिसके मित्र पुरुष थे. उनकी कविता से प्रभावित होकर ही उनके पति ने विवाह -प्रस्ताव रखा थालेकिन वे कहती हैं कि विवाह के बाद मिली स्वतन्त्रतामाहौल ने भी बचपन के दिनों की परतंत्रता का मलाल उनके मन से दूर नहीं किया. 

पूरे आत्मकथ्य में उनका स्वर क्षमा-याचना का हैजैसे लिखना उनका अधिकार न होयह अवसर दिये जाने पर  वे परिवारसमाज की शुक्रगुजार हों. समकालीन पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों की प्रशंसा उनके आत्मकथ्य मे रेखांकित करने योग्य है जिसमें ग़ुलाम इश्हाक खानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ शामिल हैं जिन्होने लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज़ बुलंद की. आत्मकथ्य के अंतिम अध्याय में अदा ज़ाफरी ने स्वीकार किया है कि उन्होने उनलोगों का ज़िक्र ही छोड़ दिया है जो जीवन में कभी भी उनके लिए तकलीफ का सबब बने हैं. वे लिखती हैं- 


"ऐसा नहीं है कि मुझे किसीसे चोट नहीं पहुंची. जीवन में ऐसे बहुत से लोग आते ही हैं जिनसे टकराव होता ही हैइनकी गिनती दोस्तों से ज़्यादा होती है. तकलीफदेह बातों को याद करने का क्या फायदा. ज़िंदगी बहुत छोटी है और माफ़ करना मेरे अल्लाह की फितरत."
अदा जाफरी के आत्मकथ्य मे स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बात करने से हर संभव बचा गया हैउनकी कोशिश रही है कि पाठक समझे कि उनका पूरा जीवन बहुत ही नैतिक दृष्टिसामाजिक मान-मर्यादा के निर्वाह के साथ जिया गया हैऐसा नहीं कि उनके कुछ सपने नहीं होंगेसपने नहीं होते तो वे अपनी कविता मे इतने विविधमुखी रंगों का प्रयोग कैसे कर पातीं. यद्यपि वे घरेलू परिधि में बंधी हुई हैं लेकिन स्त्री स्वाधीनता के वैश्विक परिदृश्य से नितांत अपरिचित नहीं हैंवे पूरा अध्याय सिल्विया प्लाथ पर लिख डालती हैं और पितृसत्तात्मक जकदबंदी से निकलने का प्रयास करने वालियों की तारीफ़ भी करती हैं. जहां तक उनके निज का प्रश्न है वे सत्रह साल तक इसलिए कविता लिखना छोड़ देती हैं क्योंकि उनपर गृहस्थी के दायित्व थे. घर के दायरे से बाहर निकल कर वे कविता मे अपनी मुक्तिकामना अभिव्यक्त करती हैं. अदा ज़ाफरी को उनके द्वारा अपनाई गयी विधाओं और काव्यात्मक प्रयोगों के लिए जाना जाता है ,इसी वजह से अपने समकालीनों में वे ईर्ष्या और आलोचना का पात्र भी बनीं लेकिन स्त्रीवादी लेखन और बोल्डनेस की दृष्टि से उनकी आत्मकथा बहुत नरम हैउनका स्वर स्त्रीवाद की अन्य पक्षधरों की तरह बुलंद नहीं हैफिर भी वे पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ी दीखती हैं. उनके बारे में यशस्वी कहानीकार इंतज़ार हुसैन का कहना है कि बदायूं जैसी छोटी जगह पर रह कर उन्होने गज़ल के क्षेत्र में जो नाम कमाया वह अविस्मरणीय ही है.

उनका लिखना ही अपने–आप में पुरुष–सत्ता को चुनौती थीक्योंकि अदा ज़ाफरी ने सिर्फ गजलें ही नहीं कहीं बल्कि कविता के कई प्रयोग भी किए. इसके बावजूद उनकी आवाज़ में उस दौर की स्त्रीवादियों की तरह सीधे कह देने के साहस का अभाव हम पाते हैंजबकि जिस समय वे लिख रही थीं इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ चर्चा का विषय बन चुकी थी. अदा भी खुल कर अकेले घूमने की आज़ादीनयी-नयी जगहें देखने की तमन्ना से लबरेज दीखती हैं. 

अदा ज़ाफरी को पति की सरपरस्ती मे बहुत से देश यूरोप और अमेरिका घूमने का मौका मिला. बदायूं की वह लड़की जो पर्दे के भीतर ग़ज़ल कहती थी अब अपनी बात खुलकर सभा -सोसायटियों में करने लगी. उनका आत्मकथ्य को एक सोद्देश्य पाठ की दृष्टि से देखा जाना चाहिए जो बतौर कवयित्री उनके करियर पर उन दबावों की पड़ताल करता हैजिनके कारण वे बीच के सत्रह वर्ष कुछ लिख ही नहीं सकीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गुलाम इशाकखानबेनज़ीर भुट्टोनवाज़ शरीफ़ के लोकतान्त्रिक रवैयों की तारीफ करती नहीं अघातीं. पति की तारीफ,उनके अपने जीवन में योगदान को नहीं भूलतीं.

पूरे आत्मकथ्य में उनका सुर बहुत मृदु और नपातुला  है. फिर भी जीवन के प्रतिउनका असंतोष पाठक की पकड़ मे आ ही जाता है. उन्हे अफसोस है कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों मे उन्हे खुलकर बोलनेघूमने-फ़िरने की आज़ादी नहीं थी, वे गज़लें कहतीं थीं तो पुरुष प्रधान समाज मे उन्हे अपमान का सामना करना पड़ा. विवाह-पूर्व के इन अनुभवों को वे कभी भुला नहीं पातीं. वे कहीं भी स्त्री-यौनिकताअपनी इच्छा कामना के बारे मे नहीं लिखतीं. इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे स्त्री के साथ परंपरागत ढंग से जुड़े टैबूसतीत्व के मानदंडों को चुनौती देना  तो दूर उनपर एक वाक्य लिखने का जोखिम तक नहीं उठाती. हालांकि ऐसा नहीं है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ मे शामिल स्त्रियॉं की भूमिका या  वैश्विक परिदृश्य  से अपरिचित हैंवे बोल्ड रूप मे सामने आ रही स्त्रियॉं की प्रशंसा भी करती हैं  अपनी मंद्र आवाज को लेकर क्षमा-याचना की मुद्रा मे भी हैं. 

पाठक महसूस कर लेता है कि इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद स्त्री यौनिकतास्त्री मुक्ति के प्रश्नों पर वे मौन हैं. वे सामाजिकपारिवारिक और व्यक्तिगत सेंसरशिप का पालन करती हैंपतिबच्चे,रिश्तेदार किसी को रुसवा करने का खतरा नहीं उठाना चाहतीं. इस  चुप्पी को आत्मकथ्य की दरारों से होकर समझा जाना चाहिएवे स्त्रीत्व के सभी कोमल गुणों से भरी हैंवे स्वयं को सहनशीलपरिवार और गृहस्थीबच्चों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करने वाली स्त्री के रूप में देखती हैं.

वे वह त्यागमयी स्त्री हैं जो पाकिस्तान का प्रतीक है– जिसके बच्चे उसे छोड़कर कई दिशाओं में चले गए हैं. उनका आत्मकथ्य ‘निज’ की आधुनिक परिभाषा से दूर दीखता हैवे देश विभाजन की पीड़ाबच्चों के दूर जाकर बसने  की तकलीफअतीत की स्मृतियों  का बयान करती चलती हैं. जेंडर के मुद्दे पर वे सिर्फ अपने  पत्नीत्व और मातृत्व की चर्चा करती हैं जिसमें स्त्री यौनिकता पर किसी टिप्पणी का नितांत अभाव है.



१७.

अदा ज़ाफरी के नियंत्रित आत्मकथ्य से ठीक उलट है आईने के सामने अतिया दाऊद का आत्मकथ्यजिसका देवनागरी लिप्यंतरण इजलाल मजीद ने किया. पाकिस्तान के जिले नौशेरा में जन्मी अतिया-दाऊद सिंधी की प्रमुख  कवयित्री हैं जिसमें एक बहुत ही साधारण परिवार के अतीत का प्रत्याख्यान है जो बहुत कम उम्र में अपने माँ–बाप को खो देती हैपरंपरागत और रूढ़ियों में डूबते–उतराते समाज के कई अक्स अतिया के आत्मकथ्य में देखे जा सकते हैंजिसकी भूमिका में अतिया ने अतीत को फिर से मुड़ कर देखने और दोहराने पर मानी खेज़ टिप्पणी करते हुए लिखा- 

सच बात तो  यह है कि अगर मैं यह पहले से जानती होती कि ज़िंदगी गुजारने से भी जियादह तकलीफदेह गुज़री हुई ज़िंदगी को दोहराना है तो मैं कभी नहीं लिखती. इस बात का मशवरा मेरे दोस्त आसिफ फर्रूखी ने दिया. गोया यह कि मुझे यह मशवरा देकर जलते हुए शोलों की तरफ धकेल दिया ....मसला यह था कि वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में जाकर ठहर जाती थी. जब मेरे बाप की मौत होती तो उस दिन फिर हो जाती जिस दिन मैं लिख रही हूँ. हर अजियतनाक इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से ..और मैं फूट–फूटकर रोयी हूँतड़पी हूँजुदाई की आग में जली हूँ. जब छोटी-सी बच्ची को उसकी भाभी डंडे से मारती है तो मेरा जिस्म उस अज़ाब को फिर से झेलता रहासुलगता रहा. जब वो बच्ची लाल शर्बत की खुशबू सूँघती हैउसको भाभी के डर से पी नहीं सकती तो मेरे अंदर इस कदर प्यास भड़क उठी कि कितना भी पानी पिया मगर हलक में कांटे चुभते ही रहे. इस आपबीती को लिखते हुए मुझमें तब्दीलियाँ भी आयीं. जिन किरदारों से नफ़रत थीअंदर से राख़ की तरह दबी हुईवो बहुत खुलकर अब महसूस होने लगी. और जो मोहब्बत की दबी–दबी चिंगारियाँ थीं वो शोलों की तरह भड़क उठीं."
(आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:13 )

अतिया की जीवन यात्रा गरीबी और मुफ़लिसी से गुजरते हुए स्वयं अपने निर्णय लेकर जीवन में मर्जी से विवाह और बतौर एक्टिविस्ट और कवयित्री अपनी पहचान निर्मित करने की कहानी है. आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है अन्य कथाकारों से अलग हटकर स्पष्ट ढंग से अपनी इच्छा–अनिच्छायौन–शोषण के बारे में बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालना. निश्चय ही इसके लिए जिस साहस और पारिवारिक समर्थन की ज़रूरत होती होगी वह अतिया के पास है तभी तो वह बचपन में हुए यौन–शोषण को इन शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं- 


"उसने लकड़ियों का ढेर जमा कर लिया. मुझे हैरत नहीं हो रही थी क्योंकि यह आम बात थी. और बच्चों के मुक़ाबले में मुझे लोग ज़्यादा तवज्जो देते थे. मैं भी और दूसरे बच्चे भी इस बात के आदी थेजब लकड़ियाँ जमा कर चुके तो वह मेरे क़रीब आया और कहने लगाअब तो तुम खुश हो मैंने कहा – “हाँ “उसने मेरी शर्ट ऊपर कर दी और मेरी छातियों को हाथ से मसलने लगा. मेरी उम्र नौ साल रही होगी और मैं एक कमज़ोर-सी बच्ची थी. कुछ था भी नहींमुझे शर्म भी नहीं आई. मगर उसकी आँखों से मुझे खौफ़ आने लगा. उसकी शक्ल बिलकुल बदली हुई सी लग रही थी. खौफ़ के मारे मेरी आवाज़ घुटकर रह गयी. दूसरे बच्चे आ गए .....उसके बाद से मुझे अजनबी मर्दों से डर लगता था." 
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,पहला संस्करण, राजकमल प्रकाशन 2004:46)

गाँव में रहते हुए अतिया अपने बचपन के दिनों का ज़िक्र इतने खुलेपन से करती है कि लगता नहीं वे किसी धार्मिकसामाजिक सेंसरशिप से डरती हैं. स्त्री पर पर्दे की पहरेदारी के सख्त कायदे कानून पिछड़े हुए गांवों में कैसे हैं इसपर वे लिखती हैं-

"मेरी हमउम्र एक बच्ची जो जिस्मानी तौर पर मुझसे मोटी थी और उसकी छोटी-छोटी सी छातियाँ निकलने लगी थींइसलिए वह अपने गिर्द एक दुपट्टा लपेट लेती थी. एक दफा उसने मुझे राज़दारी से बताया कि उसके घर में एक दाई खाला आती है. वह उसको कमरे के अंदर ले जाकर दरवाजा बंद करके एक खास बर्तन जो कि मिट्टी से बना हुआ होता है  और उससे जुआर या बाजरे या मकई की रोटी बनाई जाती हैसिंध में जिसको ‘थुपनी ‘कहते थेबहुत बेदर्दी के साथ उसकी छातियों को मसलती है. उसे बहुत दर्द होता है. उसने बताया कि अम्मा ने कहा है कि अगर उस वक़्त तुम चीख़ोगी या रोओगी तो बहुत मार पड़ेगी. इसलिए डर के मारे मैं रोती भी नहीं हूँफ़क़त आँसू बहते हैं और मैं इस तरह तड़पती हूँ. उसने जमीन पर लोटते हुए मुझे दिखाया."आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:50)

अतिया दाऊद का आत्मकथ्य बहुत कुछ इस्मत चुगताई की आत्मकथा का विस्तार  लगता हैअतिया बचपने के खेल के बारे में जब लिखती हैं तो अनायास ही पितृसत्ता के छिपे हुए तेवरों को सामने लाने लगती हैं –

“जिस दिन हम घर–घर खेलते उस दिन मेरा ज़रूर लफड़ा हो जाता था. बच्चे इस खेल को ऐसे ही खेलना चाहते थे जिस तरह हक़ीक़त में हमारी ज़िंदगी में होता था और मैं उसमें तबदीली लाने की कोशिश करती थी. उस खेल के मुताबिक घर का एक बड़ा अब्बा होता था,वो सबको डांटता था. घर के मर्द बाहर से जाकर सौदा,सब्जी वगैरह ले आते थे. मगर यहाँ आकर मैं तकरार करती थी कि बाज़ार से सौदा लेने मैं जाऊँगी. बच्चे कहते थे ये नामुमकिन है. तुम अदी बनकर घर में खाना पकाओगीझाड़ू दोगी और ये सारे काम करोगी...”
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:53 ) 

इक्कीसवी सदी में लिखी और प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में ‘आईने के सामने’ की गिनती होती है.

                 

                   १८.


हम गुनाहगार औरतें हैं ,जो अहले जुब्बा की तमकनत से
न रौब खाएं न जान बेचें ,न सर झुकाएँ ,न हाथ जोड़ें


बुरी औरत की कथा’शीर्षक से उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका किश्वर नाहीद ने आत्मकथ्य लिखाजिसका अँग्रेजी तर्जुमा दुर्दाना सुमरू ने ‘बैड वुमेन्स‘ स्टोरी’ शीर्षक से सन 2010में किया. किश्वर नाहीद उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर मे पैदा हुईं और सन 47के बाद पाकिस्तान चलीं गईं थीं. देश विभाजन और राजनीतिक हलचलों के बीच उन्होने समाज की प्रारम्भिक छवियाँ ग्रहण कीं. नब्बे के दशक में नाहीद की आत्मकथा ने पाकिस्तान की  लेखक–बिरादरी में बहुत से विवादों को जन्म दिया जिसे अदा ज़ाफरी की आत्मकथा के सामने रखकर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. किश्वर नाहीद एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध थीं बचपन से ही पर्दे और बुर्के की बाध्यता में वे कसमसाती रहती थीं. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें कॉलेज जाने का मौका मिला और तब उन्होने बगैर पर्दे के कक्षाएं करना शुरू कियालड़कों के साथ मुशायरोंडिबेट इत्यादि में भाग लेने लगींकॉलेज की ज़िंदगी ने उन्हें बाहरी संसार से परिचित होने का मौका दिया और उन्होने कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया यहाँ तक कि घरवालों की रजामंदी के बगैर प्रेम विवाह भी कर डालाकुछ ही दिनों में दांपत्य-कलह शुरू हो गएजिसका अंत नहीं था क्योंकि शौहर का जी किश्वर से भर चुका थावे आत्मकथा में लिखती हैं कि उन्होने अपने  शौहर का जी अपनी तरफ पलटने की बहुत कोशिश कीदो बच्चे भी हुए जो अपने पिता के पक्ष में ही थे. सन 1984में जबतक पति की मृत्यु नहीं हुई तबतक पारिवारिक कलह चलते रहे. 

‘बुरी औरत की कथा ‘में वे समाज की पितृसत्ता की आलोचना ही सिर्फ नहीं करतीं बल्कि स्त्री के विकास मे अवरोधक उस मानसिक अनुकूलन पर बारीक नज़र रखती हैंजिसका प्रतिनिधित्व अक्सर घरेलू औरतें करती हैंउन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे अपनी आंतरिक संरचना में पितृसत्ता की पोषक एजेंसी के रूप में कार्य करने लगती हैं. वे कामकाजी स्त्री की अपेक्षा कम काम करती हैं और घरेलू राजनीति में कामकाजी औरतों के लिए आलोचक बन जाया करती हैं. 

अदा जाफरी से बिलकुल उलट किश्वर नाहीद उन समस्याओं का चित्रण बेबाकी से करती हैं जिनका सामना किसी स्त्री को अपनी यौनिकता के कारण करना पड़ता है. इसके लिए वे स्वानुभवों का सहारा लेती हैंकार्यस्थल पर उन्हें देख कर सेक्सुअल फ़ेवर मांगनाद्वि-अर्थी बातें करनापत्नी की अनुपस्थिति में धोखे से अपने घर निमंत्रित करना इनसबका वे बिना किसी लाग–लपेट के ज़िक्र करती हैं. वे बताती हैं कि बचपन में एक मौलवी द्वारा  दैहिक शोषण से वे कैसे बच निकलती हैंलेकिन बड़ी होने पर कविता,गजल लिखने वाली लड़की को साहित्यकार सहयोगी भी नहीं बक्शतेस्त्री वहाँ भी उनके लिए सिर्फ एक देह है. 

पुरुष हर स्थिति में स्त्री के चरित्र को मलिन करता हैवह उसके आमंत्रण को स्वीकार कर ले तो भीऔर अस्वीकार कर दे तो भी. वह स्त्री की नकार सहन नहीं कर पाता. किश्वर के चरित्र की धज्जियां उड़ाने वाले लोग वे ही थे जिनके साथ किश्वर ने ऐसे–वैसे संपर्क से इंकार कर दिया था. स्त्री की समूची आकांक्षा–इच्छायौनिकता कैसे हिंसासंदेह और अपशब्दों में तब्दील हो जाती है इसे देखने के लिए इस आत्मकथ्य को पढ़ना चाहिए. एक जगह वे अपने शौहर के बारे मे लिख ही डालती हैं – ‘ऐसा भी होने लगा कि मैं उसकी जेब और वह मेरे बटुए की तलाशी लिया करता ...वह एक के बाद दूसरी बदलता रहता पर रात को वापस घर लौट आता ...मैं रोया करती लेकिन सीता की पंक्तियों को कभी मैंने दिल से बाहर नहीं किया'  किश्वर नाहीद ने अपनी मर्ज़ी से इसलिए विवाह किया कि वे एक स्वतंत्र जीवन जी सकेंजैसा चाहें  वैसा कर सकें जो कि परंपरागत विवाह में संभव नहीं हो पाता लेकिन इस क्रांतिकारी कदम ने उनका आगे का जीवन शंकाकलह और अपमान से भर दिया. शौहर नित नयी औरतों से जुड़ने लगा और किश्वर अपने आपको पहले से अधिक विवश और लाचार पाने लगी यहाँ तक कि उनके बेटे भी पिता के पक्ष में ही खड़े रहे.

किश्वर अपनी समसामयिक राजनीति पर भी पैनी नज़र रखती हैंइस दृष्टि से उनकी आत्मकथा एक दस्तावेज़ भी  हैवे लिखती हैं - 


पाकिस्तान ने अपने वजूद को औरत के वजूद की तरह तक़सीम होते देखा. खुद को औरत की तरह दौलत की गुलामी में जकड़ा हुआ महसूस किया. आकाओं ने दो सौ साल पुराना खेल फिर दोहराया. अब यह खेल वे खुद नहीं खेल रहे थे बल्कि उसके ज़रखरीद सियासतदाँ और नौकरशाही खेल रही थी. 1965में ‘छेड़छाड़’ आउट ताक़तों को आज़माने का खेल खेला गया. अब शिकार फिर औरतें ही थीं. पाकिस्तान लालकिले पर झण्डा लहराने के लालच में ‘थैंक यू अमेरिका’ से दो–चार हो रहा था."
किश्वर का बतौर स्त्री यूं सब कुछ खुल कर अभिव्यक्त कर देना अपने भीतर के भय पर विजय पाने की प्रक्रिया है. इस्लामिक देश में रूढ़ियों और राजनीति पर बोलना अपने-आप में चुनौती भरा है. निजी जीवन में किश्वर परंपरा का विरोध करती हैंसार्वजनिक जीवन में अकेलेपन के खतरे उठाती हैसत्ता हमेशा उसपर कुपित दृष्टि रखती हैउधर दूसरी ओर रूढ़ि–भंजन और विद्रोह का रोमांच तब खत्म-सा हो जाता है जब वह हड़बड़ाहट  में छीनी हुई आज़ादी के फलस्वरूप एक ऐसे पुरुष को प्रेमी फिर पति के रूप में चुन लेती हैजिसके लिए स्त्री सिर्फ एक देह  है. स्त्री अपना दांपत्य बचाने के लिए खुद को ‘देह’ के रूप में रिडयूस कर भी देती है पर वह भीतर से इसे स्वीकार नहीं कर पातीउसका आत्म-देहदमन और विद्रोह से बना है. इसी आत्म की अभिव्यक्ति वह विभिन्न तरीकों से करती है. उसकी देह पर बचपन से पहरा है. किश्वर लिखती हैं- 
"जब माँ ने मसाला पीसने को कहातो मैंने गली में निकलकर अपने हमउम्रों से पूछा “क्या यह मेरी सगी माँ हैं मुझे मिर्चें पीसने को दे देती हैं और मेरी उँगलियों में मिर्चें लग जाती हैं."आगे बढ़ूँ तो सात साल की उम्र ...अब मुझे बुर्का पहना दिया गया है. मैं गिर–गिर पड़ती थीमगर मुसलमान घरानों का रिवाज़ था. 13साल की उम्र कि जब सारे रिश्ते के भाइयों से मिलना बंद. दुपट्टा सीने पर ढकने का हुक्म. एहतेजाज़ सदा व सहरा. 15साल की उम्र कालेज में दाखिले के लिए भूख–हड़ताल. 19साल की उम्र यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए बावेला. 20साल की उम्रशादी खुद करने पर असरार. 20  साल की उम्र क्या आईशादी क्या हुईसोच मेरा पहरेदार हो गया ."
(बुरी औरत की कथाकिश्वर नाहीदयह अंश कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतेंसंपादक राजेन्द्र यादवराजकमल पेपरबैक्सपहला संस्करण 2008,पृष्ठ 32पर उद्धृत) 

आत्मकथ्य  की विशेषता है धर्म और परम्पराओं को दमनकारी शक्तियों के रूप में पहचानना जो स्त्री को मानुषी के रूप में गरिमा देने को तैयार ही नहीं. जो धर्म एक स्त्री से उसका बचपनउसकी युवावस्था छीन लेता हैसात साल की बच्ची को बुर्का ओढ़ने पर मजबूर कर देता है. पढ़ने के लिएबाहरी दुनिया देखने के लिए उस स्त्री को विद्रोही भूमिका अख़्तियार करनी पड़ती हैउसके लिए कुछ भी सहज नहीं हैयहाँ तक कि मित्रताएं भी नहीं. किश्वर नाहीद लिखती हैं कि बचपन में ही उनके कान ज़बरन छिदवा दिये गएबड़े होने पर उन्होने कानों में कुछ न पहनकर छेद बंद हो जाने दिये को विद्रोह के बीज के तौर पर चित्रित किया हैकि इस तरह एक स्त्री की ऊर्जा बचपन से ही रूढ़ि के विरोध में चली जाती है.

किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य प्रतिरोध  के साथ साथ अतीत के प्रति व्यामोह को तोड़ने के औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए नाहीद लिखती है – 


“कविता ने मुझे बहुत दुख दिये हैं. यदि मैं कविता लिखना छोड़ देती तो हो सकता है मुझे  पवित्र और कर्तव्यशील पत्नी के तौर पर स्वीकार कर लिया जाताअपने भाई–बहनों  के नजदीक होतीदुनिया के बारे में कुछ कम समझ होतीअधिकतर बातें बोलने के लिए बोलती जिसमें ईमानदारी का होना ज़रूरी नहींकुछ कम शत्रु बनते मेरे और यह भी महसूस करती हूँ कि अकेले रहने के कारण मेरी खुशियाँ कम कर दीं. लेकिन कविता ने मुझे संतुष्टि भी दी. मुझे समूचा संसार और मेरा पूरा देश अपनी ननिहाल जैसा लगने  लगा॰ ढेर सारे दोस्तों और शुभचिंतकों के स्नेह की  गर्माहट ने मुझे अनथक काम करने की प्रेरणा दी."
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :98-99)


किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य एक ऐसी पहचान को निर्मित करने का प्रयास है जिसकी जड़ें अंतर्विरोधों में गहरी धँसी हुई हैं. ऊपर से देखने पर यह आत्मकथ्य कई विधाओं के मिश्रण और दो देशों के बीच की आवाजाही को समेटता है पर भीतर ही भीतर पाकिस्तान की औरतों के हक़ में परचम लेकर खड़ी औरत की मुकम्मल कहानी बयान करता है. इसमें  इस्लामिक देश के बनने की कथा चलती हैजिसमें लोकतन्त्र का सपना लिए देश के  सामंतशाही और कट्टर बनने की प्रक्रिया  पैबस्त है. इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों के शीर्षक मुजरा करने वाली,रानीरखैलअप्राप्य प्रेमीसम्पूर्ण नारीवादिनीशर्मनाक परंपरावादी और ईव हैंसाथ ही राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए भाग्य का सैद्धान्तिक विश्लेषण भी है.

भूमिका में किश्वर ने 1940के बाद बदलती दुनिया और स्त्रियॉं के स्वयम के प्रति बदलते नज़रिये का पता दिया है. मिस्र के अपने मित्र के हवाले से वे कहती हैं –


“मेरी माँ भी तुम्हारी तरह ही बातें करती थी. वह बुर्का पहनती थी लेकिन अब मेरी बेटी बिकनी पहनती है”
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :9)

1973में घटित हुए संवाद को वे 1993मे पुनर्स्मरण करती है और स्त्रियॉं के पहनावों मे आए बदलावों को स्त्री स्वतन्त्रता और विभिन्न समाजों के आंतरिक तापमान की तुलना करने के लिए इस्तेमाल करती हुई कहती हैं कि उनकी बहुएँ स्पेन और अमेरिका में शॉर्ट्स और स्कर्ट पहनती हैं. किश्वर की भतीजियाँ अमेरिका में डाक्टरी की पढ़ाई करती हैं जबकि उनकी माँ पाकिस्तान में डोली का इस्तेमाल करती थीं. 

पूरे उपमहाद्वीप में पिछले 40-45सालों में आ रहे बदलावों का जायज़ा लेते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि इन सालों में वैयक्तिक स्पेस की मांग बढ़ी है और पुरुष और स्त्री दोनों को पहले से ज़्यादा आज़ादी मिली है. वे घरेलू स्पेस को राष्ट्र की आजादी के परिविस्तार के तौर पर देखती हैंअपने ऊपर अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों मसलन मिलान कुंडेराविन्सेंट गौग,मारग्रेट अटवूड ,माया एंजेलो के प्रभाव को स्वीकार करती हैं.


पुस्तक के अंतिम भाग में निजी जीवन की छवियाँ,पारिवारिक तस्वीरेंदेश और विदेश के दूसरे लेखकों और अकादमिक दुनिया से जुड़े लोगों के साथ के कुछ चित्र शामिल हैं. इन तस्वीरों के साथ–साथ अखबारों की कटिंगकई निजी पत्रजिनमें किश्वर की शादी का सर्टिफिकेट भी हैइसके साथ अमेरीकन संगीतकार डोना जीन हेगन द्वारा किश्वर को समर्पित एक संगीत –निर्मिति भी शामिल है. बहुत ही गर्व से किश्वर अपने बारे में भारतीय अखबार में छपे लेख को भी इसी में स्थान देती हैं जिसमें एक कार्टून पत्र का हवाला देते हुए  22फरवरी 1973को पाकिस्तान के नेशनल काउंसिल ऑफ आर्ट के रेसिडेंट निदेशक के पद से हटाये जाने की अपील है. पुस्तक के अंतिम हिस्से में अपनी बात के सत्यापन के लिए उन्होने तसवीरों और अखबार की कतरनों का सहारा लिया है. इससे ज़ाहिर होता है कि वे अपने निजी दस्तावेज़ों का पाठ करने के लिए आख्यानात्मकता की जगह जन-सत्यापन की मदद लेने के पक्ष में हैं. साथ ही उन्हें अपने समकालीनों की उपेक्षा का डर भी है और निज जीवन की घटनाओं या निजी इतिहास को राष्ट्र के वैकल्पिक इतिहास के तौर पर पढ़वा ले जाने की चिंता भी. इन दोनों छोरकी चिंताओं के बीच के तनाव को कथ्य की दरारों में देखा जाना चाहिए. आत्मकथ्य का एजेंडा है –पाकिस्तान के सामंती समाज द्वारा घोषित ‘बुरी’औरत का प्रतिनिधित्व करना, शब्दोंतस्वीरोंनिजी और सामाजिक संवाद द्वारा आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा की विधा को अपनाना.

कहना न होगा कि वे अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल भी हुई हैं. उनकी कथा पाकिस्तानी समाज की आंतरिक तहों को उजागर करने में सफल है और इसीलिए ‘बुरी औरत की कथा है ‘जो सच्ची है तथा  ईमानदारी से बात करने का खतरा उठा रही है. 



मल्लिका अमरशेख  की आत्मकथा ‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’ (मुझे उद्ध्वस्त होना है- अंग्रेज़ी अनुवाद I want to destroy Myself-translated from Marathi by Jerry Pinto,Speaking Tiger Publishing House,2016) ने प्रकाशित होते ही तहलका  मचा दिया. मराठी के कवि और दलित पैंथर के  अग्रणी नेता नामदेव ढसाल की प्रेमिका और बाद में पत्नी बनी मल्लिका ने आत्मानुभवों को सबके सामने लाकर न सिर्फ निजी जीवन को सबके सामने व्यक्त करने का साहस किया बल्कि दलित राजनीतिउसके अंतर्विरोधों  और उसके नेतृत्व से जुड़े व्यक्तित्व के दोहरे-तिहरे चरित्र के बारे मे बेबाकी से लिखा. 

मल्लिका अमरशेख की बेबाकी ने दलित आंदोलन से जुड़े लोगों को उनका शत्रु भी बना दिया. मल्लिका के पिता शाहिर अमरशेख कम्युनिस्ट कार्यकर्ताट्रेड यूनियन और लोक गायकी से सम्बद्ध थे वे 1960के दशक में  महाराष्ट्र की राजनीति  में सक्रिय भी थे.

पिता की राजनैतिक सक्रियता ने मल्लिका को राजनीतिक दृष्टि से सचेतन बनाया साथ ही उम्र के सत्रहवें वर्ष में ही नामदेव ढसाल की कविताई और जुझारू व्यक्तित्व के सम्मोहन में ढसाल से विवाह का निर्णय ले लियालेकिन जीवन का यथार्थ कविता से नहीं चलता. यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि प्रारम्भिक रोमानी आकर्षण के बाद मल्लिका  ने जिसे नए सिरे से पहचाना  वह नामदेव ढसाल अपने निजी जीवन मेंसार्वजनिक चेहरे से बिलकुल अलग है- उसमें सभी  कमज़ोरियाँ हैं. दलित नेतृत्व की ज़िम्मेदारी उठाते उठाते नामदेव कब अपनी पत्नी के प्रति इतने क्रूर बन गए कि  वह उसी घर के दूसरे हिस्से मे अलग रहने लगीएक संतान के बाद दूसरी संतान को जन्म देने को तैयार नहीं. मल्लिका पति के सार्वजनिक जीवन मे आए व्यतिक्रम के बारे में लिखती है –

“कम्युनिस्ट  के रूप में उसी के समाज द्वारा गतिरोध पैदा हुआ. जल्दी मिली सफलता की आँधी  और असफलता के कारण  अपने  को फ़्रस्ट्रेशन से बचा पाना नामदेव के लिए संभव नहीं हुआइन स्थितियों ने उसे बिलकुल बदल डाला”…

आगे दलित कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए वह लिखती है-

"देखो तुम्हारा नेता शराबी हैरंडीबाज़ हैवह व्यवहार नहीं जानता लेकिन क्रांति करने निकला है.ऐसे कार्यकर्ता से तुम प्रेम करते होवह गुंडा हैगुप्तरोग का शिकार हैउसके मित्र भी उसके जैसे हैं. वे काहे के पैंथर". (गैर-दलित ,शरणकुमार लिंबाले,पृष्ठ 187)



मल्लिका को अपनी कल्पना के राजकुमार की छवि कभी नामदेव में दिखाई पड़ी थी. वे ढसाल की कविताउनकी राजनीतिक छवि और साहसिकता की तारीफ भी करती हैंउन्हें समान वैचारिक स्तर पर बात करने वालाकविहृदयकलापारखी प्रेमी-पति मिला है जिसका कहना था मेरी कविता ही राजनीति है. शुरुआत के दिनों के बाद ढसाल अपने सामाजिक-राजनीतिक कार्यों मे उलझ जाते हैं. मल्लिका कवयित्री है लेकिन वे मात्र ‘पत्नी ‘होकर जीना नहीं चाहतीं. उन्हें अपनी पहचान भी चाहिए लेकिन घर मे पैसों की तंगी हैऔर मल्लिका के भीतर सुखी समृद्ध जीवन जीने की  लालसा “हमेशा की बीमारी के कारणकमजोरी के कारणलालन-पालन और विपुल वाचन के कारण मैं एकाकीपन और मनस्वीपन के भावुक आवरण में उलझ गयीआज तक अपने आप को उससे अलग नहीं कर पायी. (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’,पृष्ठ 3) 

अपनी कैशोर्य कल्पना के विषय मे वह लिखती हैं– “मैंने अपने मन में राजकुमार का चित्र उकेरा था. मनमौजी ..कवि ,दीखने मे स्मार्ट ...सांवला ...उसकी चेष्टाओं में पौरुष हो...मर्दानगी हो”(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 26) 

युवा कल्पना के अनुसार मल्लिका की कल्पना का घर यों होता– “सौंदर्य-प्रसाधनसाड़ियाँबंगलापियानो किस तरफ होकाँच के दरवाजे, विशालविपुल रोशनी-खुली प्रसन्न हवालाइब्रेरी ...सामने छोटा-सा तालाब ...मछलियाँ ...लाल-पीली दौड़ती हुई ...खिड़की से दीखनेवाला मौलसिरी का पेड़ ...गुलमोहर ,रजनीगंधा के पौधे ...पीछे घना जंगल ,लाल पगडंडी (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 27) 

मल्लिका का मिज़ाज रोमेंटिक है वह जीवन को उसके पूरेपन मे जीना चाहती है उसका सपना है– “उबलती गरम चाय ...ठंडी बरसाती हवा ...बरसात का झोंका ...और हाथों मे कौमिक्स ... ओ  हो फिर क्या मानों ब्रहमस्वरूप के साक्षात्कार के आनंद मे खो जाती.मेरी वह चरम आनंद के सुख की कल्पना होती है.(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 06) ऐसा कवि मन लेकर मल्लिका प्रेम और गृहस्थी मे प्रवृत्त हुई है.

जल्दी ही पता चल जाता है कि नामदेव और मल्लिका दोनों विपरीत ध्रुवान्तों पर स्थित हैं जो आपस में  टकराते हैं,जूझते हैं और फिर अलग हो जाते हैं.उधर नामदेव ढसाल का सार्वजनिक,राजनैतिक जीवन बिखरता है और मल्लिका के स्वप्न यथार्थ से टकराते हैं.मल्लिका आत्मानुभवों को लिखती हैये अनुभव पढ़े जाने ज़रूरी हैं क्योंकि सार्वजनिक जीवन के चेहरों का वैयक्तिक स्वरूप कैसे अलग होता है या हो सकता है साथ ही किसी भी आंदोलनकर्ता के अपने अंतरविरोध हो सकते हैं जिससे व्यक्तिगत जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है, इसका  लेखा-जोखा पाठक को मिलता है. मल्लिका बार-बार जीवन को मुड़ कर देखती है.

स्त्री के लिखते ही  ‘निज ‘राजनैतिक ‘कैसे हो सकता है यह देखने के लिए इस आत्मकथा को पढ़ा जाना ज़रूरी है.जो स्त्री कभी कविता ,प्रेम और पुरुष को एक करके देखती थी वही नामदेव के पीने-पिलाने की आदत से आजिज़ आ चुकी हैअस्मिता और सांस्कृतिक एकता की राजनीति करने वाला व्यक्ति जब अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तो घर के भीतर के स्पेस मे वह स्त्री के लिए पीड़क साबित हो जाता हैफिर सबकुछ चाहे बच जाए प्रेम नहीं रहता. वह लिखती है कि कैसे बहुत सारा साम्यवादी साहित्यसोवियतलैंड मैगजीन के गट्ठर के गट्ठर वह बेच दिया करती थी कि घर का खर्च चल सके. 
“शुरुआत के दिनों मे हम निर्धन इसलिए थे कि जो भी धन था उसे हम दलित कार्यकर्ताओं पर खर्च कर दिया करते थे नामदेव की महंगी आदतों पर भीपर बाद के वर्षों में उसकी बीमारी और इलाज़ पर सारा पैसा खर्च होने लगा” 

मल्लिका ने नामदेव के इलाज़ का खर्च साधने के लिए अपनी माँ का घर भी बेच दियाआत्मकथा के अंग्रेज़ी अनुवाद से जो धन मिला वह भी नामदेव के इलाज़ में चला गयालेकिन नामदेव को बचाया नहीं जा सका. मुस्लिम पिताब्राह्मण माता की बेटी मल्लिका की जीवन यात्रा में अंतत: उसके हाथ कुछ नहीं लगता. स्त्री की स्पष्टवादिता और उस स्पष्टवादिता के खतरे, स्व की सीमा का अतिक्रमण करके ‘निज, का ‘पर’ में परिविस्तार और फिर समाज, इतिहास, वर्ग के संघातों से गुजरती हुई स्त्री जो एक ‘स्त्री’ मात्र नहीं रह जाती बल्कि लाखों-करोड़ों की आवाज बन जाती है. भिन्न समाज और भिन्न संस्कृति की रचनाकार देखे-अनदेखे सभ्य-असभ्य सामाजिकों की चेतना को अपने अनुभव के दायरे में कितनी सहजता घेर लेती हैं.



१९.

इन मुस्लिम स्त्रियॉं की आत्मकथाओं का परिविस्तार निज से लेकर समाज तक,परिवार से लेकर राजनीति तक फैला हुआ हैकहीं वे अभिव्यक्ति की नयी विधाओं की तलाश में सिर्फ आत्मकथा को मुकम्मल पाती हैंजबकि कुछ जो कविताग़ज़ल में अपनी बात ठीक उस तरह से नहीं कह सकींजिस ढंग से कहना चाहती थींवे आत्मकथा विधा को अपनाती हैं.

औपनिवेशिक अतीत और उत्तर औपनिवेशिक वर्तमान के इतिहास–लेखन के लिए ये आत्मकथाएं दस्तावेज़ बन सकती हैं. जहां प्रारम्भ में ये स्त्रियाँ अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैंसाक्षर बनने के लिएछपने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं वहीं नब्बे के दशक के बाद उनमें बदलाव को रेखांकित किया जा सकता हैअब वे शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैंदेश–विभाजनविस्थापन ने उन्हें अनुभव–परिपक्व बना दिया है इसलिए अब वे अपने गद्य में पात्रों को रचती हैं इन स्त्रियॉं का आत्मकथा विधा में  लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा मे स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप मे पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए॰ कहीं जीवन को, कहीं स्वयं को पात्र बनाती हैंउनकी कथाओं में पहले की अपेक्षा तटस्थतारूपबंध संबंधी प्रयोगकथानक के बेहतर रचाव के प्रयासों को रेखांकित किया जा सकता है. कहीं-कहीं कथा और आत्मकथा का अंतराल परस्पर संघनित होता दीखता हैपहले से कहीं ज़्यादा बोल्डनेस के साथ निज को खोलकर रख देने की कोशिश होती हैस्वयं को कटघरे में रखनाआत्म पर व्यंग्य करना उसी रणनीति का हिस्सा है जिससे पारिवारिक और सामाजिक सेंसरशिप की बेड़ियाँ टूटती हैं.

इसके साथ ही वैश्विक संदर्भ और घटनाएँ उसकी नज़र में हैंमसलन अदा ज़ाफरी भले ही निज को खोलकर अभिव्यक्त करने में हिचक जाती हों पर पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलनों पर पैनी नज़र रखती हैंयहीं नहीं पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में युद्ध के मसले को गंभीरता से उठाती हैंजिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना. इसी तरह किश्वर नाहीद अपनी कथा कहते हुए भी तीसरी दुनिया को परखती चलती हैंजिसके आलोक में स्वयं को, लैंगिक असमानता पर आधारित विकासशील समाज का प्रतिनिधि मानती हैं. यहीं पर वे स्थानीयता का अतिक्रमण करके वैश्विक नागरिकता की दिशा में कदम बढ़ाती हैं.
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इरफ़ान ख़ान : साधारण का सौन्दर्य : रश्मि रावत

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इरफ़ान ख़ान (७ जनवरी १९६७- २९ अप्रैल २०२०)



इरफ़ान ख़ान : साधारण का सौन्दर्य         
रश्मि रावत








‘अंग्रेजी मीडियम’ फिल्म के दौरान दर्शकों को दिए हुए उनके इस संदेश के बाद उनकी आवाज सुनने को नहीं मिलेगी, ये उनके लाखों प्रशंसकों ने नहीं सोचा होगा. स्थिति को पूरी गहराई से महसूस करने के बाद भी सबने यही उम्मीद की थी कि ‘महायोद्धा’ (The Warrior) लौटेगा. यह संदेश जब रिकॉर्ड किया गया तब उनका न्यूरोएंडोकेराइन ट्यूमर का इलाज चल रहा था. इसमें अपने अनोखे अंदाज में उन्होंने कहा

“मेरे शरीर में कुछ अनचाहे मेहमान बैठे हुए हैं. उनसे वार्तालाप चल रहा है. देखते हैं कि ऊँट किस करवट बैठता है. जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जाएगी. कहावत है कि ‘व्हेन लाइफ गिव्स यू लेमन, यू मेक अ लेमनेड’ बोलने में अच्छा लगता है लेकिन सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन आपके पास सकारात्मक रहने के अलावा विकल्प ही क्या है. हम सबने इस फिल्म को उसी सकारात्मकता के साथ बनाया है और मुझे उम्मीद है कि सिखाएगी, हँसाएगी, रुलाएगी और फिर हंसाएगी. ट्रेलर का मजा लीजिए और एक-दूसरे के प्रति करुणा रखिए, और हाँ, मेरा इंतजार करना.”

Wait for me” कानों में पड़े उनके इन आखिरी शब्दों में ही उनकी संजीदा आवाज गूँज रही है. इतनी तरह के किरदार मुकम्मल तरीके से उन्होंने जिस गरिमा से निभाये हैं, उससे दिल के इतने करीब वह आ गए थे, कि आवाज के उस पार उनकी बोलती गहरी आँखों को अपने अंतरपट में साफ देख पा रही हूँ. बड़ी-बड़ी, बोलती आँखें. दूसरों को सुनने से जिस तरह का बोलना आ जाता है, उस तरह से बोलती आँखें. उनमें सामने वाला अपनी छवि देख पाता है. शारीरिक कष्टों की उमड़न भी होगी उनमें, अपनों से दूर जाने की असह्य वेदना भी और सपनों-आकांक्षाओं को अधूरा छोड़ कर जिंदगी की रेल से उतरने का फरमान निगल पाने की विवश कातरता भी. इन सब मिले-जुले एहसासों की भाप से तरल आँखों में उन अनाम, अनदेखे अनेक प्रशंसकों से जुड़ने का स्पेस फिर भी रहा होगा, जिन्हें ध्यान में रख कर वे विभिन्न किरदारों को छोटे-बड़े, देशी-विदेशी परदों में जीते रहे. जनता की बोली और परिवेश को ऐसे ही तो कोई इतनी सलाहियत से जीवंत नहीं कर सकता कि जब जो भूमिका निभा रहे हों, उस समय वही उनकी असल बोली-बानी और जिंदगी बन जाए.

दिलो-दिमाग की उथल-पुथल को आँखों से कह देने वाली उनकी अदाकारी ने आँखों को पढ़ सकने वाली अनगिनत आँखें भी गढ़ीं, जो आँखों की और खामोशी की भाषा समझ सकती हैं. उन्होंने लम्बा संघर्ष किया अपनी मनचाही भूमिकाएँ पाने के लिए. अंदर ही अंदर शायद वे जानते थे कि इनमें उनका होना एक नई इबारत लिख सकता है. मुख्यधारा सिनेमा के द्वारा अपनाये जाने से पहले का लम्बा संघर्ष जिस गरिमा से उन्होंने जिया वह किसी बड़ी प्रेरणा ओर सरोकार के सम्भव नहीं हो सकता था. ९० का दशक शुरू होने से कुछ पहले से इरफ़ान की फिल्मी यात्रा शुरू हो चुकी थी. इन चंद सालों में उनके साथ या थोड़ा आगे-पीछे बॉलीवुड में प्रवेश करने वाली खान तिकड़ी तथा और भी कुछ स्टार बड़े पर्दे पर धूम मचाने लगे थे. उस समय इरफ़ान टी.वी सीरियलों में और सिनेमा में छोटी-बड़ी भूमिकाएँ कर रहे थे. ‘श्रीकांत’, ‘चंद्रकांता’, ‘भारत एक खोज’, ‘चाणक्य’, ‘द ग्रेट मराठा’ आदि धारावाहिकों में विविध भूमिकाएँ निभाईं उन्होंने. दूरदर्शन पर ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ नाम के टेलीप्ले में भी काम किया था. इसमें उन्होंने लेनिन की और सुरेखा सीकरी ने उनकी पत्नी क्रूपस्काया की भूमिका निभाई थी. यह टेलीप्ले मिखाइल शात्रोव के रूसी प्ले के रूपांतरण (हिंदी अनुवाद - उदय प्रकाश) पर आधारित था. भाँति–भाँति के किरदार छोटे-बड़े पर्दे पर निभाते हुए अपनी असल जमीन पाने की तलाश और तराश उनमें निरंतर बनी रही.

सन 2001 में विदेशी फिल्म ‘द वॉरियर’ ने उन्हें नई उठान दी.  तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में छात्र राजनीति पर बनी ‘हासिल’ (2004) फिल्म से बॉलीवुड में उनकी वह जगह बननी शुरू हुई, जिसे पाने के लिए वे कई सालों से पूरी तरह सक्षम थे. मगर दर्शकों ने उनके लिए अपने दिल में जगह इस फिल्म से बनानी शुरू की. तिग्मांशु और इरफ़ान की जोड़ी ने फिल्म में नया ही रंग जमा दिया था. कुंभ के मेले का एक दृश्य फिल्म में था. कुंभ का मेला चल रहा था. उस समय तक कोई काम आरम्भ नहीं हुआ था. सम्भवतः स्क्रिप्ट तक फाइनल नहीं हुई थी. सबसे पहले कुंभ में जा कर अंतिम दृश्य के ही शॉट ले लिए गए थे. वर्ना मेला उठ जाता. इस तरह के कई दिलचस्प किस्से फिल्म से जुड़े हुए हैं. सहायक कलाकार भी इरफ़ान के साथ काम करने में सहज महसूस करते थे. उनकी उपस्थिति किसी को संकुचित नहीं करती थी. इसलिए जूनियर कलाकारों के साथ उनकी जुगलबंदी दोनों की ऊर्जा और असर में इजाफा करती थी.

कम समय में ही अपने अभिनय का लोहा उन्होंने मनवा दिया और दिखा दिया कि कलाकार व्यावसायिक दुनिया का एक अंग हो कर भी मानवीय सरोकार और सौंदर्यबोध की शर्तों को इस खूबसूरती से निभा सकता है. कलाकार कोई बेयरा नहीं जो ग्राहकों की रूचि के अनुसार व्यंजन परोसेगा. वह वही कहेगा जो कहा जाना चाहिए, और अपने अंदाज में पूरे दम-खम से. मानो कह रहा हो- तुम सुनो ताव हो तो सुनने का. चाव तो हम अपनी आँखों से और आवाज से पैदा कर ही लेंगे. हम तरह-तरह से भाँति-भाँति के किरदारों के रूप में अपनी कहते रहेंगे तुम्हें भी शायद किसी-न-किसी भूमिका में अपनी धुन मिल ही जाएगी.

यह सब बातें इसलिए भी दिमाग में आईं कि अदायगी का कौशल, पात्रों के हिसाब से भाषा साधने का हुनर उनके पास था. उनकी आँखें उनकी ताकत थी. उनकी आँखों में एक कशिश सी थी. हमेशा कुछ तलाशती सी आँखें. साधारण आम आदमी की भूमिका में जो आँखें निरीहता की जबरदस्त अभिव्यक्ति देती थीं वही नकारात्मक भूमिका में क्रूर और डरावनी हो सकती थीं. उनमें अपनी आँखों और बोली से परिवेश को जिंदा कर देने की कूवत थी. उनके यहाँ किरदार एक भाव में नहीं बँधता. एक से दूसरे, तीसरे, चौथे ...में आता-जाता किरदार समाज में निर्धारित सरहदों को तोड़ता-पिघलाता सा रहता है. इंसान के भीतर छिपे अनेक इंसानों के बीच की आवाजाही जितनी इरफ़ान में मिलती है, वह विरल है.

उनके बारे में कहा जाता है कि वे कभी किसी भूमिका में बँधे नहीं, फंसे नहीं. अलग-अलग माध्यमों से विविध रंग-रूप, बोली-बानी अपनाते रहे. पिछली के सब निशान धो-पोंछ के नई ताजगी से अगली भूमिका अपनाने के लिए पूरे सन्नद्ध.  अलग भूमिकाओं में ही नहीं, एक ही भूमिका में भी उनका किरदार व्यक्तित्व के बने-बनाए ढाँचों को पिघलाता रहता है. अंतर्द्वंद्व को बखूबी अपने हाव-भाव से वे दिखा पाते हैं. जैसे शैक्सपियर की रचना पर आधारित ‘मकबूल’ में उनका किरदार बहुत जटिल है. एक ओर वह अब्बा (पंकज कपूर) का विश्वासपात्र है, दूसरी ओर उनकी पत्नी तब्बू उसकी माशूक है और दिलो-जान से उस पर फिदा. प्रेम भी है, अपराध भाव भी, पाप का बोध भी, महत्त्वाकांक्षा, हिंसा, करुणा सब है उसके व्यक्तित्व में. स्क्रिप्ट में जितना उन्हें लिख के दिया जाता होगा,  अपनी आँखों और अदायगी से वे उससे कहीं ज्यादा असर डालने में सक्षम थे. इसमें एक बड़ा हाथ उनके हुनर के अलावा उनके लोकतांत्रिक मिजाज का भी रहा होगा, जिसमें कलाकार दर्शकों के लिए भी स्पेस छोड़ता है. अपनी नजरों से देखे जाने के लिए. दो किरदारों या मनोभावों की उस बारीक सी सीमारेखा में खुद को ठिठका कर दर्शकों से खुद को जोड़ लेने की और उनके प्रवेश के लिए एक नामालूम सी झिरी छोड़ने की ये अदा बहुत भाती है. और ये तभी आ सकती है जब धर्म, वर्ग, जेंडर, राष्ट्र के साँचे किसी को बाँध कर रखने में अक्षम हो जाएँ, परिधि वहाँ घुलती हुई नजर आती है, वह देश की भौगोलिक परिधि हो या नगर और ग्राम की. किसी एक के कहाँ थे इरफ़ान.

बॉलीवुड के थे तो हॉलीवुड के भी. हॉलीवुड फिल्मों ‘स्पाइडर मैन’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’, ‘इन्फर्नो’ में काम किया. एक हॉलीवुड अभिनेता ने उनकी प्रशंसा में कहा था कि इरफ़ान की आँखें भी अभिनय करती हैं. वे शहर के थे तो गाँव के भी. पानसिंह तोमर जिस भदेस भाषा में बात करता है. स्थानीय पुट लिए परिवेश को प्रामाणिकता से वहन करने वाली उस भाषा के कारण किसी को उम्मीद ही नहीं थी कि फिल्म दर्शकों द्वारा स्वीकृत हो भी सकती है. इसलिए बनने के काफी समय बाद २०१० में लगी और शुरू के कुछ दिन दर्शक कम ही मिले मगर फिर लोगों पर पड़े उसके प्रभाव के कारण दर्शकों की जुबान पर उसका स्वाद बना रहा और धीरे-धीरे दर्शक उसके लिए उमड़ने लगे. अपनी रील लाइफ में और रियल लाइफ में भी स्त्री के प्रति उनका व्यवहार बराबरी का रहा. धर्म की कट्टरता के सख्त खिलाफ थे ही. यह उनके आचरण में दिखता भी था. विवाह भी अपनी सहपाठी, लम्बे समय से प्रेमिका रही सुतपा सिकदर से किया. उनका आपसी प्रेम एक मिसाल था. अंतिम पलों में भी उन्हें इस बात का अफसोस था कि पत्नी के साथ और वक्त नहीं बिता पा रहे हैं और बीमारी के दौरान असहनीय पीड़ा से जूझते हुए जब उन्हें लग रहा था कि वे पूरी तरह दर्द की गिरफ्त में हैं, सारी सृष्टि इस पीड़ा में ही समा गई है और कि दर्द खुदा से भी बड़ा है, सब दिलासे व्यर्थ हो चले थे, तब भी पत्नी के कारण मिले हौसले का जिक्र उन्होंने किया.

शुरुआत में उनका परिवार उनके अभिनय अपनाने से नाखुश था. उनके एन.एस.डी जाने पर माँ ने कहा कि अब बस नाचना गाना ही करेगा तू-  तो इरफ़ान ने जवाब दिया कि चिंता न करो, बहुत कुछ ऐसा भी करूँगा जो तुम्हें अच्छा लगेगा. यह बात उन्होंने पूरे मन से निभाई भी.  अपने बेटे में स्त्री के प्रति सुलझी हुई सोच एक माँ के लिए गर्व का विषय है.

पिछले कुछ समय से मैं स्त्री-सरोकारों से जुड़े मंचों से निवेदन कर रही हूँ कि क्यों न जेंडर संवेदित पुरुष लेखकों के लिए पुरस्कार घोषित किए जाएँ? मामला विचाराधीन है. शायद कुछ हो निकट भविष्य में. मुझसे बॉलीवुड में इसके लिए कोई नाम पूछा जाए तो यह पुरस्कार मैं इरफ़ान खान को देना चाहती. अधिकतर स्त्रियाँ सम्भवतः समर्थन करेंगी.

‘द लंचबॉक्स’ (2013) में अपने पति के लिए युवा स्त्री के अपने हाथ से बना कर भेजे गए खाने का डिब्बा अकेले रहने वाले अधेड़ विधुर इरफ़ान को गलती से मिल जाता है. उसका पहला कौर मुँह में डालने के साथ जो हाव-भाव इरफ़ान के चेहरे में उभरते हैं,  उन्हें देख कर लगता है कि धरती पर अगर कहीं स्वाद है तो यहीं है सिर्फ यहीं है इस टिफिन में. है तो महानगरों के अकेले पड़ते आदमी और दाम्पत्य को भावशून्य यांत्रिकता के साथ जीने को अभिशप्त युवा स्त्री की बेस्वाद जिंदगी की कहानी. मगर इरफ़ान ने मौन ढंग से सूक्ष्म रेखाओं से बेआवाज किरदार में वह सारे भाव भी तो पिरोये हैं जिन्होंने उन सबके दिलों में भी रस ग्रहण करने वाली ग्रंथियों को हौले से जिंदा कर दिया होगा, जिन्हें यह लंचबॉक्स बिना गलती के मयस्सर है, जिन्हें घर के ताले खुद नहीं खोलने होते, जिन्हें देख कर मौहल्ले में खेलते बच्चे सहम नहीं जाते.

वे मकबूल जैसे विलक्षण किरदार को बड़े सहज ढंग से निभा सकते थे,  तो दूसरी ओर सीधे-सादे सरल पात्रों में अपने विलक्षण संस्पर्श से नई जान फूंक देते थे. ‘पीकू’ में एक ओर दीपिका पादुकोण जैसी युवा ग्लैमरस हीरोइन के साथ हीरो के रूप में सहज दिखते हैं, वहीं अमिताभ बच्चन के साथ पेट की आँतों के बारे में, कब्ज और फारिग होने की मुद्राओं के बारे में विस्तार से बात करते हैं.  रोजमर्रा के कार्य व्यापार के डिटेल्स को भी दिलचस्प बना देना आसान काम तो बिल्कुल नहीं रहा होगा. 

‘हिंदी मीडियम’ (2017) का अंग्रेजी न जानने वाला, पत्नी और बच्ची को बेशर्त, बेशुमार प्यार करने वाला किरदार हो. स्विमिंग की स्पेलिंग पूछे जाने पर जिस तरह की मासूम और दिलचस्प प्रतिक्रिया इरफ़ान देते हैं, वह बस वही कर सकते थे कि इतने मामूली दृश्य को याद करके आज भी होंठो में मुस्कान आ जाती है. दिल में भाव उगते हैं कि स्विंमिंग की स्पेलिंग का तैरने से जितना (अ) सम्बंध है उतना ही तो जीवन की मूल कविता से दुनियादारी के तमाम प्रपंचों का.

‘करीब-करीब सिंगल’ (२०१७) का योगी कॉफी ठीक उच्चारण से नहीं मँगा पाते, सभ्य-शिष्ट लोग उस पर हँसते हैं तो क्या. फोन पर बात करते-करते खर्राटे लेने लगता है तो क्या ? स्त्री मन को समझने और सराहने में इससे बाधा कहाँ आती है. जब बिना किसी जजमेंट के साथी स्त्री के ह्रदय को समझता और स्वीकारता है तो अपने व्यक्तित्व के अनगढ़पन के लिए भी प्यार पाने लगता है. अपने ऊबड़-खाबड़ व्यक्तित्व को बदलने की उसे जरूरत नहीं. अपनी इसी वास्तविकता के साथ उसे भरपूर प्यार मिलता है. क्योंकि वह बिना कोई शर्त और बंधन लगाए स्त्री को प्यार करता है. चूंकि बेकार के थोपे हुए बोझ अपने ऊपर लादने की जिम्मेदारी स्त्री के ऊपर से झड़ गई तो मुक्त हो कर वह भी साथी के पुरुष मन को समझने लगती है. जहाँ पुरुष लगातार स्त्री पर हावी रहता है,  वहाँ तो ध्यान ही नहीं जाता कि पुरुष –मन होता भी है. इस तरह साधारण से, खुरदरे किरदारों में इरफ़ान का विशिष्ट स्पर्श एक ऐसी तरलता भर देता है कि उनके कोनों की चुभन घिस के एक चाहे जाने वाली सादगी में बदल जाती है. इस फिल्म में प्रेम की एक नई इबारत वे अपने असाधारण अभिनय से लिखते हैं जिसके सामने बॉलीवुड का रोमानी प्रेम बड़ा बेस्वाद सा लगता है. जिसकी सिर्फ कामना की जा सकती है. असलियत में जिया पाया नहीं जा सकता. उस प्रेम के सभी मिथ यहाँ टूटते दिखते हैं. उम्रदराज, दो एकाकी लोगों का प्रेम, जो अपने असल रूप में ही एक-दूसरे के सामने आते हैं. प्रेम में न किसी खास उम्र की दरकार है न युवा लगने का दवाब, न सभ्यता और शिष्टाचार के अनुष्ठान निभाने की कोई कोशिश. न दोनों एक-दूसरे के लिए व्यक्तित्व बदलते हैं न दूसरे से कोई शर्त रखते हैं जबकि लगभग हर तरह से एक-दूसरे के कंट्रास्ट हैं. एक नींद की गोली लेने वाली एक बैठे-बैठे खर्राटे लेने वाला. एक शालीन एक पूरा रंगीला.

पूर्व प्रेम के बारे में पूछने पर अकुंठ भाव से कहता है तीन बार टूट कर प्रेम किया. और फिर ट्रेन, हवाई जहाज, टैक्सी हर तरह की यात्रा करवाता है उसे उन तीनों से मिलाने के लिए. एक अपने दो बच्चों के साथ सुखी गृहस्थन. बच्चे योगी (इरफ़ान) को मामा बोलते हैं. परिजन की तरह प्यार से दोनों की उस घर में खातिरदारी होती है. एक सुदूर प्राकृतिक सौंदर्य वाली शांत जगह में नृत्य स्कूल चला रही और कला के सुख से सरोबार है. इस तरह इस यात्रा में स्त्री मन तक उसकी पहुँच भी पार्वती को दिखती है और प्यारा सा पुरुष मन भी. जिसे महिला मित्रों से न शिकवे हैं न कोई अपेक्षा. ऊबड़-खाबड़ से दिखने वाले लाउड व्यक्तित्व के अंदर कोमल मन है.  उसके लिए प्रेम मुक्त करने की चीज है और उसके साहचर्य में कोई अपने अस्तित्व में रहते हुए हल्का हो के जी सकती है, अपनी ही धड़कनों की ताल पर. शायद उसके साथ से ही उन्होंने अपनी ताल पहचानी हो और वह भी उन तीनों के साथ से समृद्ध ही हुआ हो. तभी तो इतने चाव से उन्हें याद कर रहा है. इस यात्रा से पार्वती उसके साथ के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाती है. 

फिर और अच्छे से ‘जज्बा’ फिल्म का अंतिम दृश्य समझ आता है, जिसमें वह ऐश्वर्या रॉय को कॉलेज समय से ही चाहता है. उसकी किसी और से शादी हो गई, फिर तलाक हो गया. एक बच्ची के साथ अकेली रहती है लम्बे समय से. कैसे-कैसे तूफान उसकी जिंदगी में आते हैं. इरफ़ान नायक के रूप में हमेशा नायिका के साथ खड़े हैं. उनके प्यार में एकल हैं पर आजीवन इंतजार में रहना चाहते हैं कि उसके मन में प्रेम जगे तभी वह आयें . अंतिम सीन में सहायक कलाकार कहता है कि जाने क्यों दिया रोका क्यों नहीं. बड़े ही प्रामाणिक और प्रभावी ढंग से इरफ़ान बस एक वाक्य में ही सब उड़ेल देते  हैं कि ‘प्यार करता हूँ इसीलिए तो जाने दिया .‘ सही भी है . प्रेम मुक्त करने का ही तो नाम है और प्रेम में पुरुष को इंतजार करना ही चाहिए.


अभिनय में अपनी विलक्षण छाप छोड़ने वाले इरफ़ान का व्यक्तित्व भी खासा प्रभावशाली था. साहित्य से अनुराग उनका था ही. अध्ययनशील थे. अपने समय के जरूरी सवालों में न केवल हस्तक्षेप करते थे,बल्कि खतरे भी उठाते थे. जैसे धार्मिक कट्टरता का विरोध करना. 90 के दशक में जिस तरह की फिल्में पसंद की जा रही थीं,  जिस तरह के दर्शकों को ध्यान में रख कर फिल्में बन रही थीं,  उस तरह के मैनरिज्म को अपनाना, प्रेम के रोमानीपन की मखमली चादर को ओढ़ कर महानगरों और विदेशी धरती पर मल्टी प्लैक्स के महँगे सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों के मनोजगत में अटने लायक नायक का मुहावरा खोजना क्या बड़ी बात उनके लिए होती. इरफ़ान खान यथार्थवादी विरासत से जुड़े हुए अभिनेता हैं. इक्कीसवीं सदी ने जब अपना मुहावरा बदला,  व्यावसायिक फिल्मों में यथार्थवाद का पुट होना जरूरी तत्व हो गया. कला और व्यवसायिक फिल्मों के बीच का अंतराल कम हुआ. विषय में बड़े बदलाव न भी हुए हों तो भी ट्रीटमेंट पूरी तरह बदलने लगे. अब स्टारडम की और पहले जैसी खास फिल्मी संवाद अदायगी की दरकार फिल्मों में न रही. वास्तविक जिंदगी में बोले जाने वाला ढंग वैसे का वैसा फिल्म का हिस्सा बनता है. जैसे पान सिंह तोमर भदेस भाषा बोलता है. 

विशाल भारद्वाज जैसे कई निर्देशकों को फिल्मी मैनरिज्म के बावजूद यथार्थवादी अभिनेता चाहिए था. इरफ़ान की भेदती हुई, कौंधती हुई आँखों वाले व्यक्तित्व से बेहतर कौन हो सकता था जो हैदर के रूहदार का किरदार निभा पाता. इंटरवल से तुरंत पहले उसका फिल्म में प्रवेश होता है मगर फिर भी पूरी फिल्म में असर दिखता है. अकेले दृश्यों और संक्षिप्त भूमिकाओं से भी इरफ़ान पूरी फिल्म में एक असर छोड़ने का माद्दा रखते थे. खुरदुरे किरदारों को जीने की गुंजाइश बननी शुरू हुई 90 के दशक में विदेशी फिल्मों और धारावहिकों के बढ़ते प्रभाव के कारण बॉलीवुड  के परिपक्व होते जाने से. सिनेमा के बदलते मुहावरे के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राजकुमार राव,आयुष्मान खुराना जैसे यथार्थवादी चेहरों की माँग बढ़ी है. सलमान खान बजरंगी भाई जान जैसी और अक्षय कुमार पैडमैन, टॉयलेट जैसी फिल्में करने लगते हैं.

इस सामाजिक और फिल्मी गतिकी को भली-भाँति समझने के बाद भी इरफ़ान खान के लिए अलग से यह कहना चाहती हूँ कि केवल परिवेश की अनुकूलता इरफ़ान की इस तरह के गढ़न की जिम्मेदार नहीं, बल्कि ये उनके भीतर के कलाकार का चुनाव भी था कि उन्होंने ९० के दशक में फिल्मी सितारा बनने के समयानुकूल मुहावरे न अपना कर अपनी सही जमीन का धैर्य से इंतजार किया और जहाँ, जितना मौका मिला, वहाँ अमिट प्रभाव छोड़ कर सिनेमा की दिशा निर्धारित करने वालों से एक तरह से संवाद किया अपने काम के जरिए. वर्ना चाहते तो हीरो बन कर इससे कहीं ज्यादा पैसे कमा सकते थे. पर उनकी भरपूर माँग के बाद भी कम बजट फिल्में और चुनौतीपूर्ण साधारण रोल करना उन्होंने नहीं छोड़ा.

असल जिंदगी को ढाँपने वाले नहीं उसे जीने लायक खूबसूरत बताने वाले, आम इंसान की खूबसूरती उभारने वाले किरदार ही उनकी भावभूमि बनाते थे. जिन्हें प्रभावी बनाने के लिए वह अतिशय परिश्रम कर सकते थे. धैर्य से उस समय की प्रतीक्षा कर सकते थे जब  यथार्थ जिंदगी की आम जरूरतों पर फिल्में बनेंगी और दर्शकों द्वारा हाथोंहाथ ली जाएँगी. जब समाज, साहित्य और सिनेमा में ग्रैंड नैरेटिव टूटने लगेंगे और हमारे बीच के दिखने वाले चेहरे को परदे पर हमारे जैसा ही कुछ करते हुए देखने भी लोग जाएँगे. और अगर यह चेहरा इरफ़ान खान जैसे बेहद सशक्त नायक का हो तो अपने को कुछ ज्यादा पहचानते हुए, कुछ अधिक खूबसूरत समझते हुए बाहर निकलेंगे. सादगी के, साधारणता के इस सौंदर्य की खोज हमें हमारी वास्तविक जिंदगी से जोड़ती है न कि उसकी कटुता को चंद लम्हों तक भुलाए रखने के लिए हम इरफ़ान खान की फिल्में देखने जाते हैं.

आम आदमी को जीने का, प्रेम करने का, मनचाहा करने का, घूमने-फिरने का, कभी-कभी बचपनी सी जिद करने का भी, सब कुछ करने का हक है. यह सब करता हुआ वह अपने पूरे खुरदुरेपन के साथ भी भला लगता है, सुंदर लगता है. उसे जबरन अपने ऊपर कुछ ओढ़ने या अपने वजूद को छीलने-काटने की कोई जरूरत नहीं. समाज में प्रचलित नैतिकताओं की पोटली को भी बोझ की तरह सिर में ढोते रहने की जरूरत नहीं. बस आदमी होना  काफी है. खून में बहती आदमियत काफी है अच्छा करवाने के लिए. हमारे समाज में नॉर्मल्सी (सामान्यता) की भी बड़ी कठोर परिभाषा है. उससे डिगते ही मानो आप जीने का हक खो देते हैं. ये कठोर परिभाषाएँ उनकी फिल्मों में चूर-चूर होती हैं और पटल पर दृश्यमान होता है एक आदमी जो बस अपने इंसान होने मात्र के कारण भरपूर जीने का हक रखता है. उसका यह अधिकार उसके देश, भाषा, धर्म, जाति, जेंडर, उम्र, किसी से न तय होता है न बाधित ही. अपने वास्तविक जीवन में भी इरफ़ान हमेशा वैसे ही सादे बने रहे. जमीन से पकड़ उनकी कभी ढीली नहीं हुई. वैसे ही दोस्तों के साथ फुटपाथ पर चाय पीना. पड़ौस के बच्चों के साथ फुटबाल खेलना. हमारे साहित्य के दायरे में ही कितने परिचित, मित्र लोग हैं जिनका इतने बड़े नायक के साथ सहज भाव से उठना-बैठना है.

साधारण जिंदगी के सौंदर्य का आख्यान रचने वाले इरफ़ान खान का जाना सिनेमा जगत का नहीं पूरे समाज की बहुत बड़ी क्षति है. जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. अभी तो उन्होंने अपना राग पकड़ा था अभी तो उसमें कितना कुछ गाए जाना बाकी था. अभी तो कितनी आँखें बची थीं जिनसे उनका संवाद होना बचा था. जिन्हें आँखें पढ़ने का पाठ सीखना था उनसे. मगर मैं एक और कारण से भी दुख में हूँ. जब भी अपनी स्थिति के फायदे गिनती थी, तो उसमें से एक होता था. इरफ़ान खान का हम लोगों से चंद साल बड़ा होना. उनका आगे चलना. कितनी कुंठाएँ तोड़ी हैं उनकी फिल्मों ने हमारे भीतर की. हर रंग-रूप-उम्र में जीने का हौसला देती हुई फिल्मों ने इतनी मुलायमियत से प्रौढ़ प्रेम को परदे पर रंगा. सोचती थी कि गरिमा से भरपूर जीते हुए बुढ़ापे का भी मुहावरा हमारे बूढ़े होने से बहुत पहले ही इरफ़ान अपनी फिल्मों में बना जाएंगे हमारे लिए और हम उनके प्याले से कुछ बूँदे ले कर बैठे-ठाले सीख लेंगे. पर इरफ़ान खान तो यह काम हमारे लिए ही छोड़ गये कि जीने की जो व्याकरण लिख के गया हूँ खुद गढ़ लो उससे हर उम्र की कोई जिंदा सार्थक कहानी.
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राग पूरबी (कविताएँ) : शिरीष मौर्य

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कवि-आलोचक शिरीष मौर्य इधर विषय केन्द्रित कविताएँ लिख रहें हैं. बौद्धमत से सम्बंधित सिद्धों के ‘चर्यापद’ को आधार बनाकर लिखी उनकी कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी हैं. 

प्रस्तुत श्रृंखला ‘राग पूरबी’ पश्चिम द्वारा अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण निर्मित ‘पूरब’ से आमना-सामना करती हैं. पूरब के अपने पूरबीपन (एशियाई) के महीन रेशों को खोलती हैं, उसकी गरमाहट को महसूस करती हैं. एक तरह से ये कविताएँ सभ्यताओं के आपसी रिश्तों की एक असमाप्त कविता बन जाती है. भाषा में भी इसका ख्याल रखा गया है. कविता जब इतिहास में प्रवेश करती है तब महाकाव्य का रास्ता निकलता है. यह समय महाकाव्यों का तो नहीं है. यह समय सत्य की असंख्य श्रृंखलाओं का है. 

प्रस्तुत है इस श्रृंखला की ये १७ कविताएँ.



  
भूमिका राग पूरबी

जब मग़रिब में
सूरज
डूबता है

बजता है
मशरिक़ में
राग पूरबी

संझा की द्वाभा वाला
एक राग ख़ास
जिसके
मग़रिब और मशरिक़
ऋषभ और धैवत
दोनों कोमल
किसी
सपने सरीखे

शेष शुद्ध
ज्यों चलता संसार का
अपना
सब कारोबार
  
(प्रो.एडवर्ड सईद और इज़रायली कवि येहूदा आमीखाई की स्मृति को ये कविताएं सादर समर्पित हैं.)







राग पूरबी                         
शिरीष मौर्य



राग पूरबी १.

ये रसोईघरों में
पुलाव बनने की रुत है

कई रोज़ से
जो हर वक़्त कड़क धूप
गिर रही थी
मकानों,अहातों
खेतों, बाज़ारों
इंसानों की देह और
किरदारों पर
उन सब पर अब
मशरिक़ी हवाओं की
मेहरबानी है

सब ओर पानी पानी है

रसोईघर में बनते
पुलाव की महक
और बरतनों की खनक
निहायत मशरिक़ी चीज़ें
पहले से नहीं थीं
अब हैं

बरतन
बेआवाज़ मशरिक़ी मिट्टी के थे

खिचड़ी थी शायद मशरिक़ी
लेकिन पुलाव




थोड़ा मग़रिबी था

घोड़े भी
मग़रिब से आए और
मशरिक़ी चारागाहों में
चरने लगे
और उनके साथ इधर पिछले कई सालों में
तवारीख़ को भी
चर गए कुछ लोग
घोड़ों की पीठ पर जीन कसने का
काम उन्हीं का था
उन्हीं ने हर हमले की तैयारी की

इंसानी रिश्तों की लहलहाती फ़स्लों पर
लीद करते रहे
उनके सिखलाए घोड़े
और आम इंसान घोड़ों की नस्ल पर
इठलाते रहे

हम तब समझे
मसले की संज़ीदगी
जब
हमारे पुलाव में
लीद की महक आने लगी

हमें जिन घोड़ों की सवारी करनी थी
उन्हीं की लीद तले दबी हुई है
हमारी दुनिया

और ये दुनिया भी क्या अजब चीज़ है
साहब
हमें उन्हीं रास्तों पर ले जाती है
तवारीख़ में जहाँ
हमें हमारी पहली रोटी मिली थी

और हमारे ख़ून का पहला कतरा 
गिरा था


(John William Waterhouse, 1849 – 1917 IN THE HAREM, AN ODALISQUE)



राग पूरबी २

पूछना था
कि पहली रोटी किसने बनाई
मग़रिब ने
या मशरिक़ ने?

पूछता हूँ पहला तेग़
पहला तबर
पहली तोप किसने बनाई?

किसने ईजाद किया
फाँसी का फन्दा ?

तीर ओ कमान का ख़याल
पहले किसे आया?

संगसार कर देने का चलन
किसने चलाया?

क़ानून में
सज़ा ए मौत मग़रिब का फ़ैसला था
कि मशरिक़ का?

दुनिया में मौत के तरीक़े
ज़्यादा हैं
कि इलाज के?

ये भी इसी अहद का
एक क़िस्सा है
कि रोटियाँ कपड़े में लिपटी
ताख पर धरी


बासी हो जाती हैं
और घर से दूर उन्हें कमाने वाला
आदमी
नादार ओ नाशाद गुज़र जाता है

गुज़र जाने से पहले
पूछता है
फ़िलवक़्त पायमाली कहाँ ज़्यादा है ?

जवाबदेही किसी की नहीं
पर बोलने से पहले
हर कोई
ठीक ठीक जान लेना चाहता है
कि पूछने वाला
कहाँ गुज़रा था
मग़रिब में
कि मशरिक़ में?

अजब दुनिया है
साहब
इधर मौत की वज्ह कोई नहीं पूछता
सिम्त सब पूछते हैं

उधर हौले से करवट बदल लेती हैं
क़ब्र में ख़ामोश सोई हुई
हमारी रूहें





राग पूरबी ३

आतिशपरस्ती
न मग़रिबी थी न मशरिक़ी

ज़िन्दगी की ज़रूरतों ने
आग को चुना
जैसे पानी को चुना
माँस और अनाज को चुना
जूट और कपास को चुना

फिर उन ज़रूरतों ने
रहने के इलाक़े चुने
न जुनूब की फ़िक़्र की
न शुमाल की

जुनूब में
अकसर ही समन्दर मिला
और शुमाल में पहाड़
इंसान की फ़ितरत ए तशद्दुद और
बहसतलबी
न डूबने को तैयार थी
न बर्फ़ में
गड़ जाने को

उसने
अपनी दो सहूलियात और सिम्त चुनीं
मग़रिब ओ मशरिक़

इंसानियत के
सारे काफ़िले इन्हीं दो सिम्त में
दफ़्न हैं


अब हवाएँ किसी सिम्त की हों
अपने साथ
ख़ून की ही बास लाती हैं

अजब दुनिया है
साहब
मग़रिब से देखें तो मशरिक़ में
और मशरिक़ से देखें तो मग़रिब में
बरबाद ओ तबाह नज़र
आती है





राग पूरबी ४

अजब दुनिया है
साहब
जिसमें रहते हुए
हम ताउम्र उन ताबीरों में उलझे रहे
जो वाबस्ता थीं
किन्हीं और के ख़्वाबों से

हम नहीं जान पाए
कि हमारे क़त्ल का भी ख़्वाब
देखा था
किन्हीं लोगों ने

किन्हीं और लोगों ने
अपनी ताबीरों में
हमें मरने से बचाया था

हम किसी के लबों पर प्यास
किसी के दिल में आस
और किसी के ज़ेहन में गुज़रे ज़माने की
बास की तरह थे

महज आज की नहीं
ये तवारीख़ी बात है
कि मशरिक़ ओ मग़रिब के सब रास्ते
हमेशा से
कूच ए नख़्ख़ास की तरह थे

जहाँ गोबर
और लीद की महक के बीच
सिर्फ़ गुबरैले ही थे
जो अपनी ज़िन्दगी
अमन ओ चैन से गुज़ारते थे

जिन पर हर वक़्त पसमांदा डंगरों के
खुरों की आवाज़ आती थी
दुनिया
उनके मुँह और नाक से उठ रही
गर्म भाप से भर जाती थी

अजब दुनिया है
साहब
मग़रिब की बात करें कि मशरिक़ की
तवारीख़ की बात करें कि मुस्तकबिल की
ख़्वाबों की बात करें कि ताबीरों की
पसमांदा डंगरों के
सिर्फ़ खुरों की आवाज़ आती है
क़त्ल होने से पहले
वे ख़ुद कभी किसी को नहीं पुकारते हैं

आज भी
मुआशरे में वे चंद गुबरैले ही हैं
जो अमन ओ चैन से अपनी
ज़िन्दगी
गुज़ारते हैं


(The Blue Veil, Fabio Fabbi, 19th Century Orientalist Painting)


राग पूरबी ५

मैंने हवा को
उसकी गिज़ा दी
और पानी को उसकी

एक दिन
मैं मुल्क के सुल्तान को
उसकी गिज़ा दूँगा

और सबसे आख़िर में
आग को
और ख़ाक़ को

कोई नहीं पूछेगा
कि मुझे भी मेरे हिस्से की गिज़ा मिले
ये किस पे फ़र्ज़ था

मुल्क में हर आदमी को
उसके हिस्से की गिज़ा मिले
ये किस पे फ़र्ज़ है
कहीं कुछ सुनाई नहीं देता

मैं सुन पाता हूँ तो उन कीड़ों की
आवाज़
जो देह को भीतर से खाते हैं
और हवा की
जो बाहर से सहलाती है
इन दिनों





राग पूरबी ६

मुल्क में गर्म हवाएँ चलती हैं
हम छुप जाते हैं

मुल्क में ठंडी हवाएँ चलती हैं
हम सो जाते हैं

बारिशें होती हैं तो सूखा रहना
चाहते हैं
धूप हो तेज़ तो भीगना चाहते हैं

हम मज़हबी किताबें पढ़ कर
ख़ुश होना
और मुल्क का आईन* पढ़ कर
रोना चाहते हैं

एक दिन
जब हमारी गवाही होगी
हम झूठ बोल देंगे
सच पर
इस तरह गिरेंगे
जैसे मरहूम की देह पर
पछाड़ें खा खा गिरते हैं
घर के लोग

हमारे पास ताबूत बहुत हैं
बहुत सारे इंतिज़ाम कफ़न और दफन के

हम
अदालतों से दया
और


हुक्मुरानों से इंसाफ़ माँगने वाले
लोग हैं
हमारा कुछ नहीं हो सकता

हमें याद ही नहीं
कि तवारीख़ में रोटी और आग
पानी और सहरा के बीच
ख़ाक़ पर
हमारे बिस्तर थे

आज
हम सितारों के लिए लड़ने
और रोटी को
भूल जाने वाले लोग हैं

लोग भी क्या
गिरोह ही हैं पूरे

हमारा सितारा उफ़क़ पर
किस ओर है
कोई नहीं जानता

पर हर कोई जानता है
झगड़ा हमारा





राग पूरबी ७

दरिन्दों में घायल तेंदुआ हूँ
चरिन्दों में सींग टूटा हिरन
परिन्दों में बेनाख़ून उकाब

दौर ए आज़माइश में बेकार है
शाइस्तगी की उम्मीद
मुझ से

मैं पुरबिया
जितना
टूटता बिखरता हारता हूँ
और भी
मुँहजोर हुआ जाता हूँ






राग पूरबी ८

चींटियों ने
उड़ उड़कर बारिशों का
एलान किया

फ़ाख़्ताओं ने
गुनगुनी धूप के साथ आँगन में
उतर कर
सर्दियों की पहली ख़फ़ीफ़ 1
इबारत लिख
हमारे सिरहाने रख दी

बहारों के तो थे हरकारे बहुत
ख़ियाबाँ 2 से लेकर
शाइर तक
कौन ज़्यादा आदिल 3 था
तितलियाँ
बेहतर जानती हैं

गर्मियों का परचम
आसमान में लहराया जंगली सुग्गों ने
अज़ीज़ों का
दिल आबाद करते हुए
वो आम के
बाग़ीचे बरबाद करते रहे

पहरेदारों ने
एक हाँका भर लगाया
और कुछ न कहा

इस सब के बीच
तवारीख़ में
न जाने कितने हुक्मरान बने
और मिट गए

दुनिया
ज़ारशाही से जम्हूरियत तक
आई

कुदरत ने बनाया
सबसे बेहतर आईन
और
हमारी नींदों के तले
छुपा दिया

कोई हैरत नहीं
कि नींद में ही मुस्कुराते हैं
तमाम
पसमांदा लोग
            और बस
            उतनी भर देर मुल्क का
            निज़ाम
            रोशन रहता है
           
1.हल्का/नाज़ुक
2.फुलवाड़ी
3.न्याय करने वाला

(Boulanger-harem-du-palais)




राग पूरबी ९

सुनो ये जो हमें
बुख़ार है
ये बहुत लम्बे सफ़र पर
हाँक दिए गए
घोड़े की
बेहद गर्म साँस हैं

नादानी में देखे गए 
ख़्वाब
लगातार
हमारे तलुवों में
चिकोटियाँ काटते हैं

हमारी देह पर
हमारे अरमानों का ख़फ़ीफ़ सा
एक लिबास है
     और पाँवों में सफ़र बबूलों की
     घाटी का

एक दिन
किसी रेगिस्तानी दरिया में
लेटे होंगे
हम
बेपैरहन

हमारे घोड़े
महीनों से सूखे बेबारिश मैदानों में
खुरों से
घास की सूखी जड़ें
उखाड़ेंगे


और
तपती चट्टानों पर पड़ा होगा
हमारा बुख़ार

सबसे मुश्किल एक ख़याल
की तरह


(Edouard Frederic Wilhelm Richter,1844 - 1913 )




राग पूरबी १०

अजब दुनिया है
साहब
जिसे कीड़ों ने धरती के अंदर
क़ायम किया

हमारे पाँवों तले
कुछ ही नीचे चलती रहीं
दीमकें
चींटियों के ख़ानदान
अज़ल से
वहाँ आबाद रहे
उनके अंडे हम अपनी पीठ पर
ढोते रहे ख़्वाब में कई बार
हम ख़ुद एक
बहुत बड़ी चींटी थे
कोई चींटी थी
बहुत बड़ा एक आदमी

अजब दुनिया है
साहब
जिसे मछलियों ने पानी के सहारे
बुना

इंसानों ने जाल बिछाए
तो सबसे पहले
निकल भागा पानी ही

अजब दुनिया है
साहब
जिसे चिड़ियों ने  
हरदम
हरदम
हवाओं पर सवार रक्खा

हंस के
पंखों से बना तकिया
अपने बच्चों के सिरहाने
लगाती रहीं माँएँ
लेकिन
बहुत नाज़ुक एक अंडा
हर बार
बच्चों की
नींद में टूट जाता था
और वे
चीख़ कर जाग पड़ते

अजब दुनिया है
साहब
जिसे हम इंसानों ने
इस धरती पर
ढेर सारी तक़लीफ़ों और ख़्वाबों के सहारे
बसाया

अब इस दुनिया में
हम
दीमकों की तरह खाते हैं

मछलियों की तरह
जीते हैं

चींटियों की तरह रेंगते
और
अपने मैय्यार से 
किसी बच्चे के ख़यालों में
बहुत संभाल कर
रखे गए
बहुत रंगीन ओ नायाब
अंडे की तरह
गिर कर टूट जाते हैं

हंस के पंखों का तकिया
न नींदों की
निगरानी कर सकता है
न ख़्वाबों की

माँओ! 
पहली ही फ़ुरसत में
उसे पत्थर के किसी टुकड़े से
बदल लाओ






राग पूरबी ११

याददाश्त
गहरे भूरे रंग की
कोई चीज़ है
तमन्नाएँ
लाल रंग की
      
बाद में
दोनों ही नीली पड़
जाती हैं
      
मैं
देख नहीं सका
पर ख़ुशी का भी
एक ख़ास रंग था
जब वह
मेरी ज़िन्दगी से
रुख़सत हुई

ग़म
बेरंग सा कुछ है
और
दर्द के हैं कई रंग

आमाल से जानता हूँ
भूख का
एक ही रंग नहीं होता
जैसा कि
बताया गया था

वो तय होता है इस बात से
कि भूख
किसे लगी है

सबसे अबूझ रंग
उस
प्यास का है
जो पीने को इंसान का
ख़ून
माँगती है

और
उस हसरत का
जो प्यास बुझने के बाद
जगती है
एक और
प्यास की तरह




राग पूरबी १२

यूनान में एथेना
और रोम में मिनर्वा थी
ज्ञान की देवी

मेसोपोटामिया में थी
निसाबा

सिंधु के पार
सरस्वती

मग़रिब हो कि मशरिक़
औरतों के आँचल में
दुधमुँहे बच्चे की तरह रहा और पला
ज्ञान का संसार

मर्द
पहले चरवाहे
फिर ब्योपारी और लड़ाके बने
जिबह करते रहे
हर उस जिन्दा चीज़ को
जिसे कभी
गोद में उठा कर चूमा था
उन्होंने

हैरत नहीं कि हरमीस 1 था
उनका देवता

1. धन- दौलत, व्यापार और सौभाग्य का यूनानी  
  देवता, जो बेहद धूर्त और चालाक है.





राग पूरबी १३

मर्द का पंजा हो
शेर जैसा
जहाँ पड़े उतना माँस
नोच ले
शेरदिली की उम्मीद तो
उस से 
पहले ही है

घोड़े की तरह हो
जिंसी ताक़त
अक़्ल हो भेड़ियों जैसी
उकाब की
चोंच जैसी नाक
मज़बूत

बाँहें
हाथी की सूँड़ की तरह

पानी में मछली की तरह तैरे
पेड़ पर चढ़े
भालू की तरह

अपनी समझ में तो
अल्लाह ने मर्द को भी इंसान ही
बनाया था
माँओं ने पोसा भी इंसान की ही
तरह

मर्दाना फ़ितरत जिसे
कहते हो
उसी में थे
जानवर हो जाने के
तमाम
इमकान

मर्दों ने
दुनिया को गाय की तरह दुहा
बकरे की तरह
टटोलीं इसके जिस्म की बोटियाँ
घोड़ों की तरह
इसकी सवारी की
रिसाले बनाए

जीतनी चाही हर जंग

दिनों में
अजदहों की तरह निगली
अपनी गिज़ा 
और रातों में
बैलों की तरह खड़े
ऊँघते रहे

मज़हबी किताबों में हुक्म था
मर्द जिंसी ज़रूरतों के लिए बुलाएँ
तो औरतें
हर हाल बिना उज़्र
उनके पास जाएँ

एक नहीं
कई वजहें थीं
कि औरतें
मुँह मोड़ लेतीं

लेकिन
उन्होंने मुँह नहीं
मोड़ा

ये जो
शेर की तरह घोड़े की तरह हाथी की तरह
भालू की तरह
ताक़तवर
मछली की तरह चपल
भेड़ियों की तरह चुस्त ओ चालाक
मर्दाना जिस्म दिखते हैं
हर तरफ़

सुपुर्दगी ए ख़ाक के वक़्त
उनके मुँह से
किसी औरत के ख़ून की महक
आती है
नमाज़ ए जनाज़ा तक
सूख जाता है
किसी औरत की छाती का
दूध

ये दुनिया
सिर्फ़ अल्लाह की नहीं
औरतों की भी बनाई हुई है
जाहिलो ! 


(John-Frederick-Lewis-A-Lady-Receiving-Visitors-The-Reception)



राग पूरबी १४

नमाज़ों के
मुसल्ले बिछे
पूजा की
चौकियाँ सजीं

कोई देवी देवता ऐसा
न बचा
जिसे पूजा न गया हो

मज़ारों पर जाना सुन्नत तो
नहीं था
पर लोग गए

फ़क़ीर
अलख जगाते रहे
पीर लोगों की
मुरादें पूरी करते रहे

अघोरियों तांत्रिकों तक भी
गई दुनिया
कुछ आदमज़ात भी भगवान कहाए
ज्यों गुनाह के मुजस्समे
बदकार

चिड़ियों ने
कोई इबादत कोई पूजा
नहीं की
और ख़ुश रहीं

मछलियों ने अपने गलफड़े
आज़माए
और ख़ुश रहीं

चीटिंया
रेंगती रहीं अपनी तबील
क़तारों में

अल्लाह के
घर तक का आटा
वे अपनी पीठ पर
ढो लाईं
और ख़ुश रहीं

हर कोई अपनी मेहनत से
ख़ुश रहा

मुसल्ले
घरों के कोनों में पड़े 
सड़ गए
जिनके बारे सोचा था
कि एक दिन वे
जादुई कालीन बनेंगे

लगातार सीलन में रहने से
गल गईं चौकियाँ
उनके सहारे
कैसे पार होता भवसागर

मरना सब को था
पर ज़र्रा ज़र्रा
जा ब जा   
मौत की रवायत
यहाँ
इंसानों ने चलाई

और बिना ख़ुश रहे
एक रोज़ रवायतन ही
वे मर गए

उन्हें
मछलियों ने गलफड़ों की
हवा दी

चींटियाँ ले गईं उन्हें अपनी
पीठ पर
अल्लाह के घर तक

उनकी
यादों के तिनके अपनी चोंच में
दबा कर
उड़ती हैं चिड़ियाँ

इस तरह
कि कोई तिनका
नीचे खड़े
लोगों के ज़ेहन में
नहीं गिरता

(Jean-leon-gerome-une-plaisanterie-1882)




राग पूरबी १५

हमने
बहुत तरक़्क़ी की है

घरों की छतों पर
धुआँ
जो अजदाद के ज़माने में
भूखे पेटों को
खाना पकने की इत्तला
देता था
अब फ़साद का पता
देता है

खाना
तो अब हमारा मुआशरा 
बे धुआँ पका लेता है
पर ख़ुद
इस क़दर जलता है
कि हर वक़्त
धुआँ देता है

दूर से
धूल उठती दीखती थी
राह पर
तो लगता था अम्मा ने रस्ता
बुहारा है

अब रास्ते सब पक्के डामर
वाले
चैन ओ अमन की ख़ातिर
पुलिस के बूटों की आवाज़ से
गूँजते हैं
उन पर धूल
कभी नहीं उड़ती
सिर्फ़ ख़ून बहता है

हमने इतनी तरक़्क़ी की है
कि जो रास्ते अम्मा ने बुहारे थे
हमारी यादों में भी
अब बाक़ी नहीं रहे

न उन पर वो फूल बेला के
झरे हुए चहुँओर
जिनकी ख़ुश्बू को बुहार
हमारे लिए
छोटे छोटे ढेर बना देती थी
अम्मा
किनारे किनारे
ख़ुश्बू की राह से हम घर
लौटते थे

घर लौटना
अब ज़िन्दगी में रूमान न रहा
न अरमान

पहले से बहुत बड़े और शानदार
घर हैं हमारे पास
लेकिन अब हम कभी कभी ही
घर लौटते हैं

जबकि पुराने वो घर
सब ढह चुके
और अम्मा की सिर्फ़ तस्वीर बची है
तो मुझे
मेरी हड्डियों से
ऐसी आवाज आती है
जैसी उन घरों में
अचानक
किसी खम्बे या शहतीर के
टूट जाने से आती थी

मैं अपने टूट गए पाँवों पर
एक समूचा
पुराना घर लिए चलता हूँ

और मेरे लड़खड़ा कर
गिर जाने की
कोई गुंजाइश भी
अब
नहीं बची है




राग पूरबी १६

मशरिक़ में रहती थी
अम्मा
मैं शुमाल से उसे पुकारता था
तो हमेशा
हवाओं के साथ
मेरी पुकार
मग़रिब में भटक
जाती थी

मैं चला जाता था
दूर जुनूब तक
अम्मा को
पुकारते पुकारते

गठिया की वजह से
अम्मा धीरे धीरे चलती थी
उसने सारे घर को
चलना सिखाया था
और घर
अब बहुत तेज़ चलता था

अम्मा पीछे रह जाती थी
और फिर
एक दिन वो बहुत पीछे
रह गई

आज
जब दा'इम चोटों के चलते
मैं भी
पीछे छूटने लगा हूँ

तो अम्मा मेरे साथ चलती है 

एक दिन
मैं भी बहुत पीछे छूट जाऊँगा
तब शायद
सिर्फ़ अम्मा ही मेरे साथ रहे

पुराने सामान में कभी मिले
मेरा जूता
तो समझ लेना
अब मैं कहीं आता जाता नहीं
सिर्फ़ अम्मा के साथ
रहता हूँ

अम्मा की वह याद पूरबी
मेरे रहने को
एक घर है अब.




राग पूरबी १७

मैं ख़ुश दिखता हूँ
जो ख़ुश रहने से कहीं ज़्यादा
ज़रूरी चीज़ है

मैं चलता हूँ
तो मेरी कोशिश नहीं दिखती
बस चलना दिखता है

बोलूँ तो
जामुन की डाल सी चरमराती है
सर के ऊपर

बैठूँ कहीं थक कर
तो गिर जाता है समूचा पेड़ ही

बिल्लियाँ
मेरा रास्ता नहीं काटतीं
मैं उनकी
राह तकता हूँ

मेरे सीने में
हर वक़्त चिड़ियें उड़ती हैं
बहेलिये
मेरे आस पास
मँडराते हैं

मुझे सिखाया गया है
कि मुल्क में
इस तरह रहो कि किसी को
पता न चले
तुम्हारा रहना

इस
जम्हूरियत में
मैं एक
निपट गँवार भर हूँ
जो ख़ुद को
ठगे जाने से
बचा नहीं पाता है

बस
इतनी अक़ल और होश
मुझ में हैं
कि कभी कभी
लड़खड़ाता हुआ सा
उठता हूँ

और मुल्क के
आईन की कुछ धूल पोंछ
देता हूँ
________________ 
सम्पर्क:
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियालपीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)244 715

इरफ़ान ख़ान : साधारण का सौन्दर्य : रश्मि रावत

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अभिनेता इरफ़ान ख़ान (७ जनवरी १९६७- २९ अप्रैल २०२०) अब नहीं रहे, उनकी प्रभावशाली आँखों का अभिनय, उनकी फ़िल्में बची रहेंगी. विदेशी फिल्मों में भी वे नज़र आते थे. कल बी. बी. सी. ने उनपर एक वृत्त चित्र भी प्रदर्शित किया. उनके व्यक्तित्व की सहजता और खुलापन ने हिंदी फिल्मों को कुछ और जेंडर संवेदित किया है. उनकी फिल्मों और शख्सियत पर यह आलेख लेखिका रश्मि रावत का है.

इरफ़ान ख़ान के प्रति श्रद्धासुमन स्वरूप यह आलेख प्रस्तुत है.



इरफ़ान ख़ान : साधारण का सौन्दर्य         
रश्मि रावत










‘अंग्रेजी मीडियम’ फिल्म के दौरान दर्शकों को दिए हुए उनके इस संदेश के बाद उनकी आवाज सुनने को नहीं मिलेगी, ये उनके लाखों प्रशंसकों ने नहीं सोचा होगा. स्थिति को पूरी गहराई से महसूस करने के बाद भी सबने यही उम्मीद की थी कि ‘महायोद्धा’ (The Warrior) लौटेगा. यह संदेश जब रिकॉर्ड किया गया तब उनका न्यूरोएंडोकेराइन ट्यूमर का इलाज चल रहा था. इसमें अपने अनोखे अंदाज में उन्होंने कहा

“मेरे शरीर में कुछ अनचाहे मेहमान बैठे हुए हैं. उनसे वार्तालाप चल रहा है. देखते हैं कि ऊँट किस करवट बैठता है. जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जाएगी. कहावत है कि ‘व्हेन लाइफ गिव्स यू लेमन, यू मेक अ लेमनेड’ बोलने में अच्छा लगता है लेकिन सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन आपके पास सकारात्मक रहने के अलावा विकल्प ही क्या है. हम सबने इस फिल्म को उसी सकारात्मकता के साथ बनाया है और मुझे उम्मीद है कि सिखाएगी, हँसाएगी, रुलाएगी और फिर हंसाएगी. ट्रेलर का मजा लीजिए और एक-दूसरे के प्रति करुणा रखिए, और हाँ, मेरा इंतजार करना.”

Wait for me” कानों में पड़े उनके इन आखिरी शब्दों में ही उनकी संजीदा आवाज गूँज रही है. इतनी तरह के किरदार मुकम्मल तरीके से उन्होंने जिस गरिमा से निभाये हैं, उससे दिल के इतने करीब वह आ गए थे, कि आवाज के उस पार उनकी बोलती गहरी आँखों को अपने अंतरपट में साफ देख पा रही हूँ. बड़ी-बड़ी, बोलती आँखें. दूसरों को सुनने से जिस तरह का बोलना आ जाता है, उस तरह से बोलती आँखें. उनमें सामने वाला अपनी छवि देख पाता है. शारीरिक कष्टों की उमड़न भी होगी उनमें, अपनों से दूर जाने की असह्य वेदना भी और सपनों-आकांक्षाओं को अधूरा छोड़ कर जिंदगी की रेल से उतरने का फरमान निगल पाने की विवश कातरता भी. इन सब मिले-जुले एहसासों की भाप से तरल आँखों में उन अनाम, अनदेखे अनेक प्रशंसकों से जुड़ने का स्पेस फिर भी रहा होगा, जिन्हें ध्यान में रख कर वे विभिन्न किरदारों को छोटे-बड़े, देशी-विदेशी परदों में जीते रहे. जनता की बोली और परिवेश को ऐसे ही तो कोई इतनी सलाहियत से जीवंत नहीं कर सकता कि जब जो भूमिका निभा रहे हों, उस समय वही उनकी असल बोली-बानी और जिंदगी बन जाए.

दिलो-दिमाग की उथल-पुथल को आँखों से कह देने वाली उनकी अदाकारी ने आँखों को पढ़ सकने वाली अनगिनत आँखें भी गढ़ीं, जो आँखों की और खामोशी की भाषा समझ सकती हैं. उन्होंने लम्बा संघर्ष किया अपनी मनचाही भूमिकाएँ पाने के लिए. अंदर ही अंदर शायद वे जानते थे कि इनमें उनका होना एक नई इबारत लिख सकता है. मुख्यधारा सिनेमा के द्वारा अपनाये जाने से पहले का लम्बा संघर्ष जिस गरिमा से उन्होंने जिया वह किसी बड़ी प्रेरणा ओर सरोकार के सम्भव नहीं हो सकता था. ९० का दशक शुरू होने से कुछ पहले से इरफ़ान की फिल्मी यात्रा शुरू हो चुकी थी. इन चंद सालों में उनके साथ या थोड़ा आगे-पीछे बॉलीवुड में प्रवेश करने वाली खान तिकड़ी तथा और भी कुछ स्टार बड़े पर्दे पर धूम मचाने लगे थे. उस समय इरफ़ान टी.वी सीरियलों में और सिनेमा में छोटी-बड़ी भूमिकाएँ कर रहे थे. ‘श्रीकांत’, ‘चंद्रकांता’, ‘भारत एक खोज’, ‘चाणक्य’, ‘द ग्रेट मराठा’ आदि धारावाहिकों में विविध भूमिकाएँ निभाईं उन्होंने. दूरदर्शन पर ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ नाम के टेलीप्ले में भी काम किया था. इसमें उन्होंने लेनिन की और सुरेखा सीकरी ने उनकी पत्नी क्रूपस्काया की भूमिका निभाई थी. यह टेलीप्ले मिखाइल शात्रोव के रूसी प्ले के रूपांतरण (हिंदी अनुवाद- उदय प्रकाश) पर आधारित था. भाँति–भाँति के किरदार छोटे-बड़े पर्दे पर निभाते हुए अपनी असल जमीन पाने की तलाश और तराश उनमें निरंतर बनी रही.

सन 2001 में विदेशी फिल्म‘द वॉरियर’ ने उन्हें नई उठान दी.  तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में छात्र राजनीति पर बनी ‘हासिल’ (2004) फिल्म से बॉलीवुड में उनकी वह जगह बननी शुरू हुई, जिसे पाने के लिए वे कई सालों से पूरी तरह सक्षम थे. मगर दर्शकों ने उनके लिए अपने दिल में जगह इस फिल्म से बनानी शुरू की. तिग्मांशु और इरफ़ान की जोड़ी ने फिल्म में नया ही रंग जमा दिया था. कुंभ के मेले का एक दृश्य फिल्म में था. कुंभ का मेला चल रहा था. उस समय तक कोई काम आरम्भ नहीं हुआ था. सम्भवतः स्क्रिप्ट तक फाइनल नहीं हुई थी. सबसे पहले कुंभ में जा कर अंतिम दृश्य के ही शॉट ले लिए गए थे. वर्ना मेला उठ जाता. इस तरह के कई दिलचस्प किस्से फिल्म से जुड़े हुए हैं. सहायक कलाकार भी इरफ़ान के साथ काम करने में सहज महसूस करते थे. उनकी उपस्थिति किसी को संकुचित नहीं करती थी. इसलिए जूनियर कलाकारों के साथ उनकी जुगलबंदी दोनों की ऊर्जा और असर में इजाफा करती थी.

कम समय में ही अपने अभिनय का लोहा उन्होंने मनवा दिया और दिखा दिया कि कलाकार व्यावसायिक दुनिया का एक अंग हो कर भी मानवीय सरोकार और सौंदर्यबोध की शर्तों को इस खूबसूरती से निभा सकता है. कलाकार कोई बेयरा नहीं जो ग्राहकों की रूचि के अनुसार व्यंजन परोसेगा. वह वही कहेगा जो कहा जाना चाहिए, और अपने अंदाज में पूरे दम-खम से. मानो कह रहा हो- तुम सुनो ताव हो तो सुनने का. चाव तो हम अपनी आँखों से और आवाज से पैदा कर ही लेंगे. हम तरह-तरह से भाँति-भाँति के किरदारों के रूप में अपनी कहते रहेंगे तुम्हें भी शायद किसी-न-किसी भूमिका में अपनी धुन मिल ही जाएगी.

यह सब बातें इसलिए भी दिमाग में आईं कि अदायगी का कौशल, पात्रों के हिसाब से भाषा साधने का हुनर उनके पास था. उनकी आँखें उनकी ताकत थी. उनकी आँखों में एक कशिश सी थी. हमेशा कुछ तलाशती सी आँखें. साधारण आम आदमी की भूमिका में जो आँखें निरीहता की जबरदस्त अभिव्यक्ति देती थीं वही नकारात्मक भूमिका में क्रूर और डरावनी हो सकती थीं. उनमें अपनी आँखों और बोली से परिवेश को जिंदा कर देने की कूवत थी. उनके यहाँ किरदार एक भाव में नहीं बँधता. एक से दूसरे, तीसरे, चौथे ...में आता-जाता किरदार समाज में निर्धारित सरहदों को तोड़ता-पिघलाता सा रहता है. इंसान के भीतर छिपे अनेक इंसानों के बीच की आवाजाही जितनी इरफ़ान में मिलती है, वह विरल है.

उनके बारे में कहा जाता है कि वे कभी किसी भूमिका में बँधे नहीं, फंसे नहीं. अलग-अलग माध्यमों से विविध रंग-रूप, बोली-बानी अपनाते रहे. पिछली के सब निशान धो-पोंछ के नई ताजगी से अगली भूमिका अपनाने के लिए पूरे सन्नद्ध.  अलग भूमिकाओं में ही नहीं, एक ही भूमिका में भी उनका किरदार व्यक्तित्व के बने-बनाए ढाँचों को पिघलाता रहता है. अंतर्द्वंद्व को बखूबी अपने हाव-भाव से वे दिखा पाते हैं. जैसे शैक्सपियर की रचना पर आधारित ‘मकबूल’ में उनका किरदार बहुत जटिल है. एक ओर वह अब्बा (पंकज कपूर) का विश्वासपात्र है, दूसरी ओर उनकी पत्नी तब्बू उसकी माशूक है और दिलो-जान से उस पर फिदा. प्रेम भी है, अपराध भाव भी, पाप का बोध भी, महत्त्वाकांक्षा, हिंसा, करुणा सब है उसके व्यक्तित्व में. स्क्रिप्ट में जितना उन्हें लिख के दिया जाता होगा,  अपनी आँखों और अदायगी से वे उससे कहीं ज्यादा असर डालने में सक्षम थे. इसमें एक बड़ा हाथ उनके हुनर के अलावा उनके लोकतांत्रिक मिजाज का भी रहा होगा, जिसमें कलाकार दर्शकों के लिए भी स्पेस छोड़ता है. अपनी नजरों से देखे जाने के लिए. दो किरदारों या मनोभावों की उस बारीक सी सीमारेखा में खुद को ठिठका कर दर्शकों से खुद को जोड़ लेने की और उनके प्रवेश के लिए एक नामालूम सी झिरी छोड़ने की ये अदा बहुत भाती है. और ये तभी आ सकती है जब धर्म, वर्ग, जेंडर, राष्ट्र के साँचे किसी को बाँध कर रखने में अक्षम हो जाएँ, परिधि वहाँ घुलती हुई नजर आती है, वह देश की भौगोलिक परिधि हो या नगर और ग्राम की. किसी एक के कहाँ थे इरफ़ान.

बॉलीवुड के थे तो हॉलीवुड के भी. हॉलीवुड फिल्मों ‘स्पाइडर मैन’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’, ‘इन्फर्नो’में काम किया. एक हॉलीवुड अभिनेता ने उनकी प्रशंसा में कहा था कि इरफ़ान की आँखें भी अभिनय करती हैं. वे शहर के थे तो गाँव के भी. पानसिंह तोमर जिस भदेस भाषा में बात करता है. स्थानीय पुट लिए परिवेश को प्रामाणिकता से वहन करने वाली उस भाषा के कारण किसी को उम्मीद ही नहीं थी कि फिल्म दर्शकों द्वारा स्वीकृत हो भी सकती है. इसलिए बनने के काफी समय बाद २०१० में लगी और शुरू के कुछ दिन दर्शक कम ही मिले मगर फिर लोगों पर पड़े उसके प्रभाव के कारण दर्शकों की जुबान पर उसका स्वाद बना रहा और धीरे-धीरे दर्शक उसके लिए उमड़ने लगे. अपनी रील लाइफ में और रियल लाइफ में भी स्त्री के प्रति उनका व्यवहार बराबरी का रहा. धर्म की कट्टरता के सख्त खिलाफ थे ही. यह उनके आचरण में दिखता भी था. विवाह भी अपनी सहपाठी, लम्बे समय से प्रेमिका रही सुतपा सिकदर से किया. उनका आपसी प्रेम एक मिसाल था. अंतिम पलों में भी उन्हें इस बात का अफसोस था कि पत्नी के साथ और वक्त नहीं बिता पा रहे हैं और बीमारी के दौरान असहनीय पीड़ा से जूझते हुए जब उन्हें लग रहा था कि वे पूरी तरह दर्द की गिरफ्त में हैं, सारी सृष्टि इस पीड़ा में ही समा गई है और कि दर्द खुदा से भी बड़ा है, सब दिलासे व्यर्थ हो चले थे, तब भी पत्नी के कारण मिले हौसले का जिक्र उन्होंने किया.

शुरुआत में उनका परिवार उनके अभिनय अपनाने से नाखुश था. उनके एन.एस.डी जाने पर माँ ने कहा कि अब बस नाचना गाना ही करेगा तू-  तो इरफ़ान ने जवाब दिया कि चिंता न करो, बहुत कुछ ऐसा भी करूँगा जो तुम्हें अच्छा लगेगा. यह बात उन्होंने पूरे मन से निभाई भी.  अपने बेटे में स्त्री के प्रति सुलझी हुई सोच एक माँ के लिए गर्व का विषय है.

पिछले कुछ समय से मैं स्त्री-सरोकारों से जुड़े मंचों से निवेदन कर रही हूँ कि क्यों न जेंडर संवेदित पुरुष लेखकों के लिए पुरस्कार घोषित किए जाएँ? मामला विचाराधीन है. शायद कुछ हो निकट भविष्य में. मुझसे बॉलीवुड में इसके लिए कोई नाम पूछा जाए तो यह पुरस्कार मैं इरफ़ान खान को देना चाहती. अधिकतर स्त्रियाँ सम्भवतः समर्थन करेंगी.

‘द लंचबॉक्स’ (2013) में अपने पति के लिए युवा स्त्री के अपने हाथ से बना कर भेजे गए खाने का डिब्बा अकेले रहने वाले अधेड़ विधुर इरफ़ान को गलती से मिल जाता है. उसका पहला कौर मुँह में डालने के साथ जो हाव-भाव इरफ़ान के चेहरे में उभरते हैं,  उन्हें देख कर लगता है कि धरती पर अगर कहीं स्वाद है तो यहीं है सिर्फ यहीं है इस टिफिन में. है तो महानगरों के अकेले पड़ते आदमी और दाम्पत्य को भावशून्य यांत्रिकता के साथ जीने को अभिशप्त युवा स्त्री की बेस्वाद जिंदगी की कहानी. मगर इरफ़ान ने मौन ढंग से सूक्ष्म रेखाओं से बेआवाज किरदार में वह सारे भाव भी तो पिरोये हैं जिन्होंने उन सबके दिलों में भी रस ग्रहण करने वाली ग्रंथियों को हौले से जिंदा कर दिया होगा, जिन्हें यह लंचबॉक्स बिना गलती के मयस्सर है, जिन्हें घर के ताले खुद नहीं खोलने होते, जिन्हें देख कर मौहल्ले में खेलते बच्चे सहम नहीं जाते.

वे मकबूल जैसे विलक्षण किरदार को बड़े सहज ढंग से निभा सकते थे,  तो दूसरी ओर सीधे-सादे सरल पात्रों में अपने विलक्षण संस्पर्श से नई जान फूंक देते थे. ‘पीकू’ में एक ओर दीपिका पादुकोण जैसी युवा ग्लैमरस हीरोइन के साथ हीरो के रूप में सहज दिखते हैं, वहीं अमिताभ बच्चन के साथ पेट की आँतों के बारे में, कब्ज और फारिग होने की मुद्राओं के बारे में विस्तार से बात करते हैं.  रोजमर्रा के कार्य व्यापार के डिटेल्स को भी दिलचस्प बना देना आसान काम तो बिल्कुल नहीं रहा होगा. 

‘हिंदी मीडियम’ (2017) का अंग्रेजी न जानने वाला, पत्नी और बच्ची को बेशर्त, बेशुमार प्यार करने वाला किरदार हो. स्विमिंग की स्पेलिंग पूछे जाने पर जिस तरह की मासूम और दिलचस्प प्रतिक्रिया इरफ़ान देते हैं, वह बस वही कर सकते थे कि इतने मामूली दृश्य को याद करके आज भी होंठो में मुस्कान आ जाती है. दिल में भाव उगते हैं कि स्विंमिंग की स्पेलिंग का तैरने से जितना (अ) सम्बंध है उतना ही तो जीवन की मूल कविता से दुनियादारी के तमाम प्रपंचों का.

‘करीब-करीब सिंगल’ (२०१७) का योगी कॉफी ठीक उच्चारण से नहीं मँगा पाते, सभ्य-शिष्ट लोग उस पर हँसते हैं तो क्या. फोन पर बात करते-करते खर्राटे लेने लगता है तो क्या ? स्त्री मन को समझने और सराहने में इससे बाधा कहाँ आती है. जब बिना किसी जजमेंट के साथी स्त्री के ह्रदय को समझता और स्वीकारता है तो अपने व्यक्तित्व के अनगढ़पन के लिए भी प्यार पाने लगता है. अपने ऊबड़-खाबड़ व्यक्तित्व को बदलने की उसे जरूरत नहीं. अपनी इसी वास्तविकता के साथ उसे भरपूर प्यार मिलता है. क्योंकि वह बिना कोई शर्त और बंधन लगाए स्त्री को प्यार करता है. चूंकि बेकार के थोपे हुए बोझ अपने ऊपर लादने की जिम्मेदारी स्त्री के ऊपर से झड़ गई तो मुक्त हो कर वह भी साथी के पुरुष मन को समझने लगती है. जहाँ पुरुष लगातार स्त्री पर हावी रहता है,  वहाँ तो ध्यान ही नहीं जाता कि पुरुष –मन होता भी है. इस तरह साधारण से, खुरदरे किरदारों में इरफ़ान का विशिष्ट स्पर्श एक ऐसी तरलता भर देता है कि उनके कोनों की चुभन घिस के एक चाहे जाने वाली सादगी में बदल जाती है. इस फिल्म में प्रेम की एक नई इबारत वे अपने असाधारण अभिनय से लिखते हैं जिसके सामने बॉलीवुड का रोमानी प्रेम बड़ा बेस्वाद सा लगता है. जिसकी सिर्फ कामना की जा सकती है. असलियत में जिया पाया नहीं जा सकता. उस प्रेम के सभी मिथ यहाँ टूटते दिखते हैं. उम्रदराज, दो एकाकी लोगों का प्रेम, जो अपने असल रूप में ही एक-दूसरे के सामने आते हैं. प्रेम में न किसी खास उम्र की दरकार है न युवा लगने का दवाब, न सभ्यता और शिष्टाचार के अनुष्ठान निभाने की कोई कोशिश. न दोनों एक-दूसरे के लिए व्यक्तित्व बदलते हैं न दूसरे से कोई शर्त रखते हैं जबकि लगभग हर तरह से एक-दूसरे के कंट्रास्ट हैं. एक नींद की गोली लेने वाली एक बैठे-बैठे खर्राटे लेने वाला. एक शालीन एक पूरा रंगीला.

पूर्व प्रेम के बारे में पूछने पर अकुंठ भाव से कहता है तीन बार टूट कर प्रेम किया. और फिर ट्रेन, हवाई जहाज, टैक्सी हर तरह की यात्रा करवाता है उसे उन तीनों से मिलाने के लिए. एक अपने दो बच्चों के साथ सुखी गृहस्थन. बच्चे योगी (इरफ़ान) को मामा बोलते हैं. परिजन की तरह प्यार से दोनों की उस घर में खातिरदारी होती है. एक सुदूर प्राकृतिक सौंदर्य वाली शांत जगह में नृत्य स्कूल चला रही और कला के सुख से सरोबार है. इस तरह इस यात्रा में स्त्री मन तक उसकी पहुँच भी पार्वती को दिखती है और प्यारा सा पुरुष मन भी. जिसे महिला मित्रों से न शिकवे हैं न कोई अपेक्षा. ऊबड़-खाबड़ से दिखने वाले लाउड व्यक्तित्व के अंदर कोमल मन है.  उसके लिए प्रेम मुक्त करने की चीज है और उसके साहचर्य में कोई अपने अस्तित्व में रहते हुए हल्का हो के जी सकती है, अपनी ही धड़कनों की ताल पर. शायद उसके साथ से ही उन्होंने अपनी ताल पहचानी हो और वह भी उन तीनों के साथ से समृद्ध ही हुआ हो. तभी तो इतने चाव से उन्हें याद कर रहा है. इस यात्रा से पार्वती उसके साथ के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाती है. 

फिर और अच्छे से ‘जज्बा’ फिल्म का अंतिम दृश्य समझ आता है, जिसमें वह ऐश्वर्या रॉय को कॉलेज समय से ही चाहता है. उसकी किसी और से शादी हो गई, फिर तलाक हो गया. एक बच्ची के साथ अकेली रहती है लम्बे समय से. कैसे-कैसे तूफान उसकी जिंदगी में आते हैं. इरफ़ान नायक के रूप में हमेशा नायिका के साथ खड़े हैं. उनके प्यार में एकल हैं पर आजीवन इंतजार में रहना चाहते हैं कि उसके मन में प्रेम जगे तभी वह आयें. अंतिम सीन में सहायक कलाकार कहता है कि जाने क्यों दिया रोका क्यों नहीं. बड़े ही प्रामाणिक और प्रभावी ढंग से इरफ़ान बस एक वाक्य में ही सब उड़ेल देते  हैं कि ‘प्यार करता हूँ इसीलिए तो जाने दिया .‘ सही भी है . प्रेम मुक्त करने का ही तो नाम है और प्रेम में पुरुष को इंतजार करना ही चाहिए.

अभिनय में अपनी विलक्षण छाप छोड़ने वाले इरफ़ान का व्यक्तित्व भी खासा प्रभावशाली था. साहित्य से अनुराग उनका था ही. अध्ययनशील थे. अपने समय के जरूरी सवालों में न केवल हस्तक्षेप करते थे,बल्कि खतरे भी उठाते थे. जैसे धार्मिक कट्टरता का विरोध करना. 90 के दशक में जिस तरह की फिल्में पसंद की जा रही थीं,  जिस तरह के दर्शकों को ध्यान में रख कर फिल्में बन रही थीं,  उस तरह के मैनरिज्म को अपनाना, प्रेम के रोमानीपन की मखमली चादर को ओढ़ कर महानगरों और विदेशी धरती पर मल्टी प्लैक्स के महँगे सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों के मनोजगत में अटने लायक नायक का मुहावरा खोजना क्या बड़ी बात उनके लिए होती. इरफ़ान खान यथार्थवादी विरासत से जुड़े हुए अभिनेता हैं. इक्कीसवीं सदी ने जब अपना मुहावरा बदला,  व्यावसायिक फिल्मों में यथार्थवाद का पुट होना जरूरी तत्व हो गया. कला और व्यवसायिक फिल्मों के बीच का अंतराल कम हुआ. विषय में बड़े बदलाव न भी हुए हों तो भी ट्रीटमेंट पूरी तरह बदलने लगे. अब स्टारडम की और पहले जैसी खास फिल्मी संवाद अदायगी की दरकार फिल्मों में न रही. वास्तविक जिंदगी में बोले जाने वाला ढंग वैसे का वैसा फिल्म का हिस्सा बनता है. जैसे पान सिंह तोमर भदेस भाषा बोलता है. 

विशाल भारद्वाज जैसे कई निर्देशकों को फिल्मी मैनरिज्म के बावजूद यथार्थवादी अभिनेता चाहिए था. इरफ़ान की भेदती हुई, कौंधती हुई आँखों वाले व्यक्तित्व से बेहतर कौन हो सकता था जो हैदर के रूहदार का किरदार निभा पाता. इंटरवल से तुरंत पहले उसका फिल्म में प्रवेश होता है मगर फिर भी पूरी फिल्म में असर दिखता है. अकेले दृश्यों और संक्षिप्त भूमिकाओं से भी इरफ़ान पूरी फिल्म में एक असर छोड़ने का माद्दा रखते थे. खुरदुरे किरदारों को जीने की गुंजाइश बननी शुरू हुई 90 के दशक में विदेशी फिल्मों और धारावहिकों के बढ़ते प्रभाव के कारण बॉलीवुड  के परिपक्व होते जाने से. सिनेमा के बदलते मुहावरे के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राजकुमार राव,आयुष्मान खुराना जैसे यथार्थवादी चेहरों की माँग बढ़ी है. सलमान खान बजरंगी भाई जान जैसी और अक्षय कुमार पैडमैन, टॉयलेट जैसी फिल्में करने लगते हैं.

इस सामाजिक और फिल्मी गतिकी को भली-भाँति समझने के बाद भी इरफ़ान खान के लिए अलग से यह कहना चाहती हूँ कि केवल परिवेश की अनुकूलता इरफ़ान की इस तरह के गढ़न की जिम्मेदार नहीं, बल्कि ये उनके भीतर के कलाकार का चुनाव भी था कि उन्होंने ९० के दशक में फिल्मी सितारा बनने के समयानुकूल मुहावरे न अपना कर अपनी सही जमीन का धैर्य से इंतजार किया और जहाँ, जितना मौका मिला, वहाँ अमिट प्रभाव छोड़ कर सिनेमा की दिशा निर्धारित करने वालों से एक तरह से संवाद किया अपने काम के जरिए. वर्ना चाहते तो हीरो बन कर इससे कहीं ज्यादा पैसे कमा सकते थे. पर उनकी भरपूर माँग के बाद भी कम बजट फिल्में और चुनौतीपूर्ण साधारण रोल करना उन्होंने नहीं छोड़ा.
असल जिंदगी को ढाँपने वाले नहीं उसे जीने लायक खूबसूरत बताने वाले, आम इंसान की खूबसूरती उभारने वाले किरदार ही उनकी भावभूमि बनाते थे. जिन्हें प्रभावी बनाने के लिए वह अतिशय परिश्रम कर सकते थे. धैर्य से उस समय की प्रतीक्षा कर सकते थे जब  यथार्थ जिंदगी की आम जरूरतों पर फिल्में बनेंगी और दर्शकों द्वारा हाथोंहाथ ली जाएँगी. जब समाज, साहित्य और सिनेमा में ग्रैंड नैरेटिव टूटने लगेंगे और हमारे बीच के दिखने वाले चेहरे को परदे पर हमारे जैसा ही कुछ करते हुए देखने भी लोग जाएँगे. और अगर यह चेहरा इरफ़ान खान जैसे बेहद सशक्त नायक का हो तो अपने को कुछ ज्यादा पहचानते हुए, कुछ अधिक खूबसूरत समझते हुए बाहर निकलेंगे. सादगी के, साधारणता के इस सौंदर्य की खोज हमें हमारी वास्तविक जिंदगी से जोड़ती है न कि उसकी कटुता को चंद लम्हों तक भुलाए रखने के लिए हम इरफ़ान खान की फिल्में देखने जाते हैं.

आम आदमी को जीने का, प्रेम करने का, मनचाहा करने का, घूमने-फिरने का, कभी-कभी बचपनी सी जिद करने का भी, सब कुछ करने का हक है. यह सब करता हुआ वह अपने पूरे खुरदुरेपन के साथ भी भला लगता है, सुंदर लगता है. उसे जबरन अपने ऊपर कुछ ओढ़ने या अपने वजूद को छीलने-काटने की कोई जरूरत नहीं. समाज में प्रचलित नैतिकताओं की पोटली को भी बोझ की तरह सिर में ढोते रहने की जरूरत नहीं. बस आदमी होना  काफी है. खून में बहती आदमियत काफी है अच्छा करवाने के लिए. हमारे समाज में नॉर्मल्सी (सामान्यता) की भी बड़ी कठोर परिभाषा है. उससे डिगते ही मानो आप जीने का हक खो देते हैं. ये कठोर परिभाषाएँ उनकी फिल्मों में चूर-चूर होती हैं और पटल पर दृश्यमान होता है एक आदमी जो बस अपने इंसान होने मात्र के कारण भरपूर जीने का हक रखता है. उसका यह अधिकार उसके देश, भाषा, धर्म, जाति, जेंडर, उम्र, किसी से न तय होता है न बाधित ही. अपने वास्तविक जीवन में भी इरफ़ान हमेशा वैसे ही सादे बने रहे. जमीन से पकड़ उनकी कभी ढीली नहीं हुई. वैसे ही दोस्तों के साथ फुटपाथ पर चाय पीना. पड़ौस के बच्चों के साथ फुटबाल खेलना. हमारे साहित्य के दायरे में ही कितने परिचित, मित्र लोग हैं जिनका इतने बड़े नायक के साथ सहज भाव से उठना-बैठना है.

साधारण जिंदगी के सौंदर्य का आख्यान रचने वाले इरफ़ान खान का जाना सिनेमा जगत का नहीं पूरे समाज की बहुत बड़ी क्षति है. जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. अभी तो उन्होंने अपना राग पकड़ा था अभी तो उसमें कितना कुछ गाए जाना बाकी था. अभी तो कितनी आँखें बची थीं जिनसे उनका संवाद होना बचा था. जिन्हें आँखें पढ़ने का पाठ सीखना था उनसे. मगर मैं एक और कारण से भी दुख में हूँ. जब भी अपनी स्थिति के फायदे गिनती थी, तो उसमें से एक होता था. इरफ़ान खान का हम लोगों से चंद साल बड़ा होना. उनका आगे चलना. कितनी कुंठाएँ तोड़ी हैं उनकी फिल्मों ने हमारे भीतर की. हर रंग-रूप-उम्र में जीने का हौसला देती हुई फिल्मों ने इतनी मुलायमियत से प्रौढ़ प्रेम को परदे पर रंगा. 

सोचती थी कि गरिमा से भरपूर जीते हुए बुढ़ापे का भी मुहावरा हमारे बूढ़े होने से बहुत पहले ही इरफ़ान अपनी फिल्मों में बना जाएंगे हमारे लिए और हम उनके प्याले से कुछ बूँदे ले कर बैठे-ठाले सीख लेंगे. पर इरफ़ान खान तो यह काम हमारे लिए ही छोड़ गये कि जीने की जो व्याकरण लिख के गया हूँ खुद गढ़ लो उससे हर उम्र की कोई जिंदा सार्थक कहानी.
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रश्मि रावत
लेखक-आलोचक 
ईमेल rasatsaagar@gmail.com
9717948782

यतीश कुमार की कविताएं

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यतीश कुमार की कविताएं              
  


इंतज़ार


वह रो नहीं रही थी
उसके गालों पर
आँसुओं के अवशेष थे

इंतज़ार को
मुरझाने की बीमारी है
प्रतीक्षा में फड़फड़ाती चिन्दियाँ
रोशनदान से झाँकती रहती हैं

मद्धिम रोशनी में दीखता है
इंतज़ार कितना बोझिल है
जो आधे कटे चाँद को
अपनी ओर झुकाए रखता है

मुझे बायीं करवट सोना पसंद है
और उसे दायीं
हमारे बीच बहती है
एक विचलित नदी रात भर

नींद के हाशिए पर चहलकदमी करते-करते
सुबह कब हो गई पता ही नहीं चला
और जब जागा
तब स्वप्न का एक छिलका
हाथ में रह गया



इंतज़ार -दो

खोखले अजगर की तरह
एक तहखाना
भीतर कुंडली मारे  बैठा  है

हर्फ़ों का पुलिंदा
वहीं नजरबंद है


मन बलाओं का घर बन बैठा है
गर एक को रफा करता हूँ
तो दूसरी चली आती है

खोई हुई रातों की तलाश में
दिन भर भटकता हूँ
जबकि सुबह का इंतज़ार
रात को और लंबी कर देता है

'नींद'भी तो लफ़्फ़ाज़ी है मेरे लिए
मेरे साथ ही करवट बदलती है
इसरार करता हूँ कि बस नींद आ जाये

तदबीर अगर इतनी सहल होती
तो ऐंठन से मुझे मुक्ति मिल जाती
और मैं अधजला मशाल
अंधी सुरंग होने से बच जाता
  
मसला

रात हमेशा से
दो तारीख़ों का मसला है
जो दिन के उजाले में कभी नहीं होते

अक्सर यह भी सोचता हूँ
कि सारे मसले
कमबख़्त रातों के साथ ही क्यों होते हैं !

अगर एक बातूनी लड़की
अचानक गुपचुप बैठ जाए
तो मसला दिन में भी पैदा हो जाता है

मसला दरअसल एक चुनाव है
तिल-तिल जलने
और एकबारगी जल जाने के बीच

बत्ती बुझ गई
मन अनबूझ रह गया

जबकि शरीर है
कि निरन्तर जलता जा रहा है
पूरी तरह से बुझ जाने की आकांक्षा को
ख़ारिज करता हुआ


विडंबना

विद्रोह का सफ़र तय करना है
और विरोध की  कलम लिए बैठा  हूँ

इन सब के बीच
भाषा का प्रवाह समंदर-सा है।

बहुत बोलता हुआ आदमी
चुप्पी के क्षणों में
खामोश रहकर बड़ा हो जाता है

बिल्कुल सीधे दीखते हैं राजपथ
उसपर चलने वालों की चाल टेढ़ी
वहाँ तक पहुँचने वाली पगडंडियाँ
सरपट और रपटीली


दबाव सृजन चाहता है
पर इस कठिन समय में
सबसे मुश्किल है
चुपचाप जिंदा रहना

मुर्दे सीधा सोते हैं
आदमी तो नींद में भी टेढ़ा ही रहता है
ग़फ़लत है कि चीजें
सीधी बेहतर हैं या टेढ़ी


विडंबना-2

गुस्से की उमेठन
पीठ पर उग आई
थोड़ा उकड़ूँ हो गया हूँ

अबाबील निगाहों में
पागल सी इच्छा
और परेशानियों में अटा मैं

अपने और अजनबी के बीच
पहाड़ों पर घुलता अँधेरा हूँ

जिज्ञासा और मनोकामना के बीच
टहलता कवि हूँ

कुछ कहानियों में शांति
और कुछ में शोर है
मेरी लेखनी अभी भी
इनके बीच डोल रही है।

अनिश्चय और भय के बीच की
सहजता से परेशान हूँ

नाराज़गी ने मेरे चेहरे पर
इतनी कहानियाँ लिखी है
कि मेरी अपनी कहानी
भीड़ में स्वयं को ढूँढ रही है

इन दृश्यों के बीच
चट्टानों की आड़ में
अँधेरा परछाई से मिल रहा है


मेरे ओसारे की धूप का क़ातिल
मेरी अपनी छाया है
जिसके साये में
निश्चय और अनिश्चय
दोनों ही दुबक रहे हैं

अब तय यह  करना है
किसका हाथ पहले पकड़ें ?


स्त्री

जब वह सो रही होती है
तो लगता है
नन्हीं सी अबोध परी सो रही है

उसके सर पर हाथ फेरता हूँ
तो वह मेरी हथेली
अपनी नन्ही उँगलियों में लपेट लेती है

मुझे लगता है
ईश्वर ने मेरा हाथ थामा है

निशंक सोते देखता हूँ जब पत्नी को
तो पृथ्वी शांत नीम नींद में लगती है
पलकों में जबकि
घर की सारी बलाएँ क़ैद रहती हैं

इस समय
ईश्वर नींद से गुजर रहा होता है

जब माँ को सोते हुए देखता हूँ
तो लगता है
ईश्वर नींद में भी
सबके लिए उतना ही चिंतित है

जीवन में समस्त ऊर्जा स्रोत 
जिन-जिन स्त्रियों से मिला
उनकी जागती-सोती आँखों से ही
मैंने प्रार्थनाओं से भरा स्वर्ग देखा है


ईश्वर मिथक नहीं सच है
और आपके इर्द-गिर्द हाथ थामे
यक़ीन दिलाता है कि
ईश्वर कोई पुरुष नहीं होता


आज वसंत है

फूल

घास और नमक शाश्वत हैं
पर फूल सबसे प्रिय

प्रेम लबालब है
लोग उसे रोज़ तोड़ते हैं

फूल २

सवेरे शादी रात श्राद्ध में
मेरी तरह वे भी जाते हैं

मेरे लिए ऐसा करना
दो कमरों में जाने जैसा है

फूल ३

इबादत का बाज़ार गरम है
फूल अब प्रचार चिन्ह है

एक फूल पोस्टरों पर बेवजह खिलता है
फूल से मेरा प्रेम भग्न हो रहा है

फूल ४

फूलों के बीच
कुछ जंगली फुल
सहजता से मिल रहे हैं

अब इनके काँटे आस्तीन में
चाकू का काम कर रहे हैं

फूल ५

नज़र ऊपर और हाथ जिनके नीचे हैं
उन्हें और किसी चीज़ से नहीं
फूल की माला पहनाकर
विचारों से मारा जा सकता  है
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