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परख : केवल कुछ वाक्य (उदयन वाजपेयी) : मिथलेश शरण चौबे

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केवल कुछ वाक्य
स्मृति की आत्मा, कल्पना की देह : आकांक्षा का स्थापत्य
मिथलेश शरण चौबे


'यदि मुझे किसी के मन से प्रेम है तो मुझे उसके शरीर से भी प्रेम है. यदि मुझे किसी के शब्द अच्छे लगते हैं तो मुझे उसके होंठ भी अच्छे लगते हैं. पर यदि उसके इन होंठों को कोई काट डालता, मैं उसे फिर भी प्रेम करती.'
                                                                   
 मारीना स्वेतायेवा




              

म बहुधा शब्दों पर आश्रित होते हैं, भाषा हमारी सबसे विश्वसनीय शरणस्थली है. हम बीतते हैं, शब्द हमारे बीतने को निबाहते हैं ताकि हमारा बीतना बच सके, और इस तरह हम ही बच सकें. शब्द भी प्रतीक्षा करते होंगे. भाषा हमारे बीतने की प्रतीक्षा सबसे ज़्यादा उत्कट रूप में करती होगी. हमें पनाह देने में ही उसकी अर्थवत्ता आलोकित होती है. हम उससे भाषित हैं और वह हमारे बीतने से मूर्त. कई भाषाएँ यदि आपस में बातचीत करती होंगी तो उनके केन्द्रीय विषयों में एक हमारा बीतना होता होगा. हम इस्तेमालपरक भाव में शब्दों को बरतते हैं तो भाषा हमारे घटित की चारदीवारी में ही हमें कैद कर देती है. यदि कृतज्ञता भाव से हम भाषा के पास जाते हैं तो वह हमारे अघटित को भी पोषित करती है. यह अत्यल्प होता है. इसके विलोम जो अकसर होता है, उस मूर्त के मोह से बचाव के रास्ते ही साहित्य का सच हैं.
             
कोई कितना भी अकेलेपन में जी रहा हो, अकेला नहीं बीतता. हम जिनके साथ बीतते हैं वे हमारे साथ बीत रहे होते हैं. यह साथ सिर्फ़ अनुभव के हिस्से नहीं बचता, अनुभव तो केवल एक टेक है, दरअसल यह साहचर्य भाषा की वजह से बचा रहता है. हम जितना खो सकते हैं उतने खोने की प्रक्रिया में निमग्न रहते हैं.  भाषा हमें बचाने के निरन्तर उपक्रम में संलग्न रहती है. हम जो खो देते हैं, भाषा उसे सहेजती है. अर्थात हमारे खोने की अनौचित्यपूर्ण शैली के विरुद्ध भाषा सहेजने के औचित्य को चरितार्थ करती है.

आत्मालाप हर सुन्दर कविता की बुनियाद है. दरअसल एक अर्थ में सभी कविताएँ अन्ततः आत्मालाप ही हैं. कोई कविता कितनी भी सामाजिकता को प्रतिकृत करती हो, वह उस कवि का आत्मालाप ही है.                                      
               
(उदयन)
देहरहित होकर भी कोई पूरी तरह मर्त्य नहीं होता. स्मृतियों में उपस्थिति बनी रहती है, ऐसी उपस्थिति का काल भले ही सबका अलग हो. विभिन्न कला रूपों में उन्हें मूर्त किया जा सकता है. हम गाँधी, मदर टेरेसा आदि के रेखांकनों से लेकर मिथकीय चरित्रों के कलारूपों में मूर्त होने के अनुभव को सामने रखकर इस प्रक्रिया से साकार लोक को समझ सकते है. नाटक और पेंटिंग्स में यह पुनर्वास बहुत मिलता है. पण्डवानी जैसी गायन शैलियाँ भी इसी क्रम में देखी जा सकती हैं. साहित्य में रेखाचित्र, जीवनी के अलावा भी यह व्याप्ति मिलती है लेकिन उस सघनता और उत्कट रूप में नहीं जिसे अन्य कलारूप चरितार्थ करते हैं. निराला के यहाँ समृति का पुनर्वास तथा कमलेश जैसे कवि के यहाँ पितरों का आह्वान व उनके बसाव की चिन्ता को हम इसी क्रम में देख सकते हैं.  
               
लेखक के पास भाषा वह एकमात्र और अन्तिम स्थल है जहाँ वह अपने इस लोक से गमन कर चुके पुरखों को वापस लौटा सकता है. साहित्य में यह पुनर्वास यदि अत्यल्प हो सका है तो कदाचित इसके लिए उसके यथार्थ आग्रही होने की एकमात्र मंशा को ही दोष देना होगा. यह भले ही माना गया हो कि स्मृति कल्पना का अभाव है, लेकिन कुछ अभाव इतने समृद्ध हो सकते हैं यह केवल कुछ वाक्य पढ़कर महसूस कर सकते हैं. एक बात और महसूस होती है कि स्मृतियाँ इतनी जड़ नहीं होती कि कल्पना उसे अपनी आकांक्षा अनुरूप चरितार्थ न कर सके और न ही कल्पना इतनी निष्ठुर कि स्मृति को अलक्षित कर जाए. बिना स्मृतियों की समृद्धि के कल्पना की कल्पना असम्भव लगती है. कल्पनाएँ स्मृति को दुलारती हैं और अपने कुछ कवच या कहें कि पारदर्शी वस्त्र उन्हें ज़रूर पहनाती हैं कि वे वर्तमान की चकाचौंध में भी अपनी लौ को बचाए रख सकें.
               
भाषा इस लौ को दीप्त रखने का काम करती है. जैसे मूर्तियों में कोई मूर्तिकार किसी को साकार करता है, कवि शब्दों की कारीगरी से भाषा में उसे साकार करता है. इस अर्थ में भाषा एक लोक है जिसमें दूसरे लोक के वासियों के पुनर्वास का अवसर रचनाकार के पास होता है. यह एक दुहरी प्रक्रिया है : एक तरफ़ अपनी स्मृति को रचना और दूसरा भाषा के लोक में दूसरे लोक के वासियों का आह्वान करना. किसी अन्य लोक में विचरित पुरखों को उनके छूटे लोक में लाने की पुकार भाषा की अत्यन्त मार्मिक और विस्मयकारी हलचल है. एक लेखक आखिर किस तरह अपने पुरखों का तर्पण कर सकता है. वह आम मनुष्यों की भाँति, किसी एक पक्ष में पानी के अर्घ्य और पुकार की मार्मिकता से तो अपने ऋण से मुक्त नहीं हो सकता. यदि वह ऐसा कर भी रहा हो तो क्या वे पुरखे उस पर यकीन करेंगे? उसके पास पुरखों को यकीन दिलाने के लिए उन्हें भाषा के ज़रिये अवतरित करना एक अन्तिम विकल्प है. 
               
इस संग्रह की कविताओं में दिवंगतों के साथ जीवितों के साहचर्य का एक नैरन्तर्य है, जिसमें किसी का अनुपस्थित होना कोई बाधा उत्पन्न नहीं करता. पिता अगर कहीं बैठे हैं तो वे हमेशा से हमेशा तक के लिए वहाँ मौजूद हैं. जीवित ही मृतकों को नहीं देखते, मृतक भी आसन्न मृतकों का शोक मनाते हैं. और यह इतना सघन है कि जीवितों को अपने जीवित होने पर ही संदेह पैदा करा सके -         
“आकाश के कौने में शायद एक आँगन हैजहाँ माँ पिता को चाय दे रहीं हैं. नानी नाना पर बिगड़ रही हैं और नाना गोल टेबिल पर ताश फैलाए अपने दोस्तों के आने का इन्तज़ार कर रहे हैं.”
यह स्वर स्मृति में दर्ज़ होकर भी निजता के पार ले जाता है जब पुरखों का अपना आकांक्षा संसार प्रकट होता है–            
“आकाश की कुहेलिका में पिता की तलाश करती माँ कभी किसी रास्ते पर मुझे मिल जाया करती.”
बीते हुए घटित में कल्पित अघटित का समावेश इस निपटता से होता है कि जो मार्मिक दृश्य उभरते हैं उनमें दोनों का फ़र्क विलीन हो जाता है. हालाँकि ऐसे किसी यत्न का होना प्रकट नहीं होता.

भाषा के लोक में पुरखों को पुनर्वासित करने के इस कविता उद्यम के प्रति कवि का अनाश्वस्त भाव, विनय के मर्म की ध्वनियों को बढ़त देता हुआ लगता है –

“काका मैं तुम्हें तब भी नहीं बचा पाया और अब इन ढेरों कविताओं में भी हर बार उसी तरह विफल हो जाता हूँ.”

इन कविताओं में अनुपस्थितों की जितनी सघन उपस्थिति है उतना ही जगहों से उनकी सम्बद्धता. कोई स्मरण स्थान विहीन नहीं है. जैसे किसी को उसकी किन्हीं एकाधिक चेष्टाओं से ही स्मृत नहीं किया जा रहा वरन उन समूचे दृश्यों के साथ उन्हें साकार देखना चरितार्थ हुआ है जिनमें वे अपनी जगहों से मुकम्मल होते हैं. जगहों के साथ अकसर समय भी आभासित है. पुराने मकान में, बरामदे के ऊपर एक कमरा, सबसे ऊपर की सीढ़ी पर, मेरी तरफ़, आकाश के कौने में, आँगन के बगल में पक्के चबूतरे पर, दरवाज़े पर, कुँए के पास,बगल के अँधेरे कमरे में, सबसे नीचे, भीतर, बाहरपहाड़ों में, टेबिल की दूसरी तरफ़घर के बाहरसफ़ेद कपड़े के नीचेकाली आलमारी के सामने  आदि अकेले स्थानवाचक नहीं हैं, न ही रात, सुबह, दोपहर समयवाचक ; इन्हीं में कहीं कुटुम्ब के मृतक रहते हैंकहीं पितामाँ, बाबा, नाना, नानी उपस्थित हैं और इन्हीं में वे भी उपस्थित हैं जो इन सबको अब भी उनकी पूर्व जीवन्त उपस्थिति की तरह देख पा रहे हैं.

इन कविताओं की आन्तरिक शक्ति सहजता है. सहज रिश्तों की दैनिक बातें,साधारण-सी हरकतेंकुछ निजी आदतें,घरेलू चीज़ें और उनके अभ्यस्त लोगों का सरल व्यवहार : यह सब एक धीमे आलाप की तरह उठना शुरू होता है. इसमें ऊँचाई, श्रेष्ठता, विस्तार आदि उत्तरोत्तर वृद्धि से विमुख नैरन्तर्य में विलीन होते हैं.   

मृत्यु के संगीत में ये कविताएँ आप्लावित हैं लेकिन अतिक्रमित नहीं. कभी यह संगीत कविता से प्रवाहित छन्द, उसके विन्यास से प्रकट है तो कहीं जैसे उसे सुनने की आतुरता ही ज़ाहिर करता है. मृत्यु : पिछली मौत की पुनरावृत्ति है और प्रत्येक बचे हुए की मौत की तैयारी. अपार दुख के बावजूद यह सहजता से घटित होने के अभिशाप-सी उपस्थित है. 

किसी मृत्यु में अपने मृत होने को देख पाना, एक सांगीतिक आवृत्ति की तरह इन कविताओं से निःसृत है, जीवित रहने के पार्श्व में मृत होने का अघटित प्रतीक्षित है -  

“नानी की पारदर्शी त्वचा के पार दिखाई पड़ता है माँ का अदृश्य जीवन”
“पिता के न होने के शरीर में मेरा प्रवेश हो रहा है”
“इन्हीं में से किसी एक के पीछे न होने का मंच तैयार हो चुका है”

यहाँ अनुपस्थितों की उपस्थिति स्मरण तक सीमित न रहते हुए समूची ऐन्द्रियता के साथ दैनिन्दिन गतिविधियों में लिप्त है, कवि जैसे याद न कर उन गतिविधियों से निर्मित दृश्यों को एकान्त में किसी नोटबुक में उतार रहा है. ये कविताएँ इस अर्थ में विरल तो ज़रूर हैं कि अनभ्यस्त को पढ़ने और सुनने का किंचित अधीर लेकिन ठिठकता-सा, मार्मिक लेकिन सहजता की मुलामियत से उत्पन्न, स्मृति के अटाले से आयातित लेकिन कल्पना से अपने जीवन में आच्छादित करता, कविता में कविता होने के जोखिम और सीमान्त तक उसकी समृद्धि में चरितार्थ होता एक ऐसा अनुभव दे पाती हैं जिसमें भाषा पुनर्वास की जगह है, एक-एक पंक्ति किसी स्वर के मानिन्द अर्थ की आकांक्षा के भ्रमण पर है.


कवि-कथाकार-निबन्ध लेखक उदयन वाजपेयी इस विरल आस्वाद के स्वाभाविक कवि हैं उनके इस सद्यप्रकाशित कविता संग्रह केवल कुछ वाक्य को विरलता के सघन प्रतिरूप में भी हम पढ़ सकते हैं.
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केवल कुछ वाक्य
उदयन वाजपेयी
धौली बुक्स, भुवनेश्वर
295 रूपये

मिथलेश शरण चौबे    
sharan_mc@rediffmail.com

परख : 'एंट्स एमंग एलीफेंट्स (सुजाता गिडला) : शुभनीत कौशिक

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शुभनीत कौशिक इतिहास के अध्येता हैं, सुजाता गिडला की चर्चित किताब 'एंट्स एमंग एलीफेंट्स: एन अनटचेबल फ़ेमिली एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया'पर लिखी यह उनकी समीक्षा है. 

इस किताब और उसके तमाम सन्दर्भों को इतने सुंदर और सटीक ढंग से वे पेश करते चलते हैं कि स्वतंत्र आलेख पढने जैसा अनुभव होता है. भाषा के बर्ताव से साहित्य में उनकी गहरी रूचि का भी पता चलता है.   




‘लहू है कि तब भी गाता है’: एक अछूत परिवार की संघर्ष-गाथा   

शुभनीत कौशिक






संविधान सभा में दिये गए अपने आख़िरी प्रसिद्ध भाषण में डॉ. बी.आर. आंबेडकरने भारत को ‘श्रेणीबद्ध असमानताओं का समाज’ बताते हुए कहा था कि 

‘26 जनवरी 1950 के दिन हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीतिक तौर पर तो हम समान होंगे, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता पहले की तरह ही मौजूद होगी. राजनीति में तो हम 'एक व्यक्ति एक वोट, एक वोट एक मूल्य'के सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे. लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हिंदुस्तान की सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के चलते'एक व्यक्ति एक मूल्य'के सिद्धांत को नकारते रहेंगे.’ 

अकारण नहीं कि संविधान सभा को स्पष्ट शब्दों में आगाह करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि जब तक राजनीतिक लोकतंत्र की बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र न स्थापित हो जाए, अकेले अपने दम पर राजनीतिक लोकतंत्र अधिक समय तक नहीं चल सकता.

स्वाधीन भारत में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर हर कहीं दिखने वाले इन्हीं अंतर्विरोधों, असमानताओं की कहानी है सुजाता गिडला की किताब ‘एंट्स एमंग एलीफ़ेंट्स : एन अनटचेबल फ़ैमिली एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया’ (हार्पर कॉलिन्स, 2017). एक दलित परिवार के जीवन-संघर्षों को बयान करते हुए यह किताब आधुनिक भारत में दलित समुदाय की संघर्षों की गाथा बन जाती है. एक व्यक्ति, परिवार, समुदाय की इस कहानी को ऐतिहासिक संदर्भ में रखते हुए सुजाता उसे आधुनिक भारत के स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र-राज्य के रूप में उभरने की परिघटना से जोड़ देती हैं. इसी क्रम में वे जाति, धर्म, संपत्ति, सामाजिक हैसियत और जेंडर के अंतरसंबंधों की भी पड़ताल करती हैं.

आत्मकथात्मक भूमिका से शुरू होने वाली यह किताब दलित अनुभवों के कहानी बनने की प्रक्रिया की महत्ता को रेखांकित करती है. सुजाता के शब्दों में, नए देश में आकर नए दोस्तों के साथ रहते हुए मुझे एहसास हुआ कि जो कुछ मेरे परिवार के साथ घटा, जो कुछ हमने किया. वह ऐसी कहानी है जो सुनाई जानी चाहिए, जो कि लिखी जानी चाहिए.’इस वाक्य के पीछे वह साहस खड़ा है, जो अपनी जातिगत अस्मिता को लेकर अब कतई असहज नहीं. वह उसके प्रकट हो जाने को लेकर भय से ग्रस्त नहीं है. यह आत्म-सम्मान का वह गहरा एहसास है, जो अब अपने और अपने परिवार की कहानियों को शर्म की कहानी मानने से या उन्हें कहते हुए शर्माने से इंकार करता है. अपने अनुभवों को लिखने-सुनाने के इस साहस ने दलितों को अपना अतीत भूलने की बजाय, उसे याद करते हुए अपने वर्तमान अनुभवों के आलोक में एक बेहतर भविष्य रचने का जीवट दिया है. इसी जीवट की ओर इशारा करते हुएदया पवारने अपनी आत्मकथा ‘अछूत’में लिखा था :
'मैंने भी भूतकाल को पूरी तरह भूल जाने की कोशिश की. पर क्या इतनी सहजता से भूतकाल पोंछा जा सकता है? कुछ दलितों को यह कूड़ा-करकट बाहर उलीचने जैसा लगता है. परंतु आदमी यदि अपना भूतकाल नहीं जानता तो वह अपना भविष्य भी तय नहीं कर सकता.'  

‘एंट्स एमंग एलीफ़ेंट्स’ अवमानना के उन अनुभवों की कहानी है, जिनसे हर दलित अपने जीवन में दो-चार होता है. अवमानना की वे जगहें गाँव, शहर, शिक्षण संस्थान, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकते हैं. आईआईटी, मद्रास जैसे उत्कृष्ट संस्थान में पढ़ते हुए भी सुजाता को अवमानना के इन अनुभवों से गुजरना पड़ा. उल्लेखनीय है कि अभी कुछ वर्षों पहले ही जब आईआईटी, मद्रास में छात्रों द्वारा चलाए जा रहे ‘आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल’ पर बगैर किसी कारण के प्रतिबंध लगा दिया था. तब आंबेडकरवादी छात्रों ने इस संस्थान के सवर्ण चेहरे को उजागर करते हुए इसे ‘अय्यर-आयंगर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ कहा था. पचास के दशक के आख़िरी वर्षों में सुजाता की माँ मंजुला को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए भी कुछ ऐसे ही पीड़ादायी अनुभवों से गुजरना पड़ा था. अतीत के उन पीड़ादायी अनुभवों को याद करते हुए, उन्हें लिखते हुए व्यक्ति फिर से उन अनुभवों को जीता है, उनकी त्रासद पीड़ा से होकर गुजरता है. पीड़ा के इस दोहरे अनुभव के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’में ठीक ही लिखा था : 
‘एक लंबी जद्दोजहद के बाद, मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया. तमाम कष्टों, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा. उस दौरान मैंने गहरी मानसिक यंत्रणाएँ भोगीं. स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा-  कितना दुखदायी है यह सब.’   

सुजाता के अनुसार, अवमानना की यह प्रक्रिया पड़ोस से ही शुरू हो जाती है, जहाँ एक सवर्ण हिन्दू अपने दलित पड़ोसी की उपस्थिति को स्वीकार करने से इंकार देता है, वह उसकी मौजूदगी को दर्ज़ ही नहीं करता. यह बाबूराव बागुल जैसे दलित चिंतकों का अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि उन्होंने अवमानना के अनुभवों और उससे जुड़ी धारणाओं से गुजरते हुए सृजनात्मकता के सूत्र तलाशने की कोशिश की. बाबूराव बागुल ने अवमानना को ऐसी चेतना के रूप में देखा, जिसकी धार तलवार जैसी तीक्ष्ण और प्रखर है. राजनीतिविज्ञानी गोपाल गुरु बागुल की इसी सृजनात्मक पहल के बारे में अपने लेख 
‘अवमानना के आयाम’ में लिखते हैं ‘बागुल के लिए अछूत, मृत्यु, पंच महाभूत अथवा अग्नि की तरह है जिनका आलिंगन नहीं किया जा सकता. बागुल की दुनिया में अवमानना एक पवित्र आग की तरह क्रांतिकारी-चेतना के कुंड में दहकती रहती है. उसी से उत्पीड़क के खिलाफ़ प्रतिरोध और विद्रोही स्मृति का जन्म होता है.’ 

सुजाता गिडला श्रेणीबद्ध असमानता के प्रति भी सजग हैं और इस क्रम में आंध्र के दलित समुदायों की बात करते हुए वे माला समुदाय के लोगों द्वारा ख़ुद को मदिगा आदि दूसरी दलित जातियों से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति को भी दर्शाती हैं. वे जातिगत विषमता और अवमानना के साथ जेंडर आधारित असमानता, घरेलू हिंसा का विवरण भी देती हैं. यह लैंगिक असमानता एक ओर सत्यमूर्ति द्वारा राजनीतिक सक्रियता के चलते अपनी पत्नी के प्रति घोर उदासीनता और अपने पारिवारिक दायित्वों की सिरे-से उपेक्षा करने में, प्रसन्ना राव द्वारा अपनी पत्नी और तीन बच्चों को वर्षों के लिए अकेले और बेसहारा छोड़ जाने में सामने आती हैं. वहीं दूसरी ओर, यह घरेलू हिंसा के उस वातावरण के रूप में भी प्रकट होती है, जिसमें सुजाता की माँ मंजुला अपने पति प्रभाकर राव द्वारा मानसिक और शारीरिक रूप से लगातार प्रताड़ित की जाती है.       

(सुजाता गिडला)
माला समुदाय की सामाजिक पृष्ठभूमि की बात करते हुए सुजाता उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का विवरण देती हैं. जिसके अंतर्गत जंगलों में रहने वाला एक ख़ानाबदोश समुदाय ब्रिटिश नीतियों के चलते एक जगह बसने और खेती करने को विवश हुआ. यहीं से आधुनिक भारत में उसके पराभव, विस्थापन और उत्पीड़न की कहानी भी शुरू होती है. जहाँ उसके द्वारा साफ की गई बंजर जमीन, उसकी बरसों की मेहनत से तैयार हुए उपजाऊ खेत धीरे-धीरे उसके हाथों से निकलकर एक-एक कर सवर्ण जमींदारों और महाजनों के हाथ में चले जाते हैं. वह पहले घुमंतू और ख़ानाबदोश से किसान बनता है और अंततः एक भूमिहीन मजदूर में तब्दील हो जाता है. हिन्दू समाज उसे अछूत का दर्जा देता है और इस तरह उसे उसकी स्मृतियों, विश्वासों, मिथकों और किंवदंतियों से भी वंचित कर देता है.

औपनिवेशिक नीतियों ने सदियों तक पारंपरिक हिन्दू समाज की सीमाओं से परे रहने समुदायों को नए क़ानूनों और बदलावों की जद में लाया. इसकी बानगी देते हुए सुजाता यनाडी आदिवासियों का उदाहरण देती हैं, जो निजी संपत्ति की धारणा के विरुद्ध थे. इसी कारण वे धनी लोगों के घरों में चोरी करना अपना कर्तव्य समझते थे. ब्रिटिश राज ने संपत्ति और स्वामित्व संबंधी अपनी मान्यताओं के प्रतिकूल व्यवहार करने वाले यनाडी जनजाति जैसे समुदायों को ‘क्रिमिनल ट्राइब’ घोषित कर दिया था. 1871 में पहले-पहल ब्रिटिश सरकार ने उत्तर भारत में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ लागू कर अनेक आदिवासी और घुमंतू जतियों को ‘आपराधिक जाति’ घोषित किया. इसके ठीक चालीस साल बाद ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ मद्रास प्रेसीडेंसी में भी लागू हुआ, जिसके तहत येरुकुल, कोरावा, कोराचा जैसी दक्षिण भारत की जनजातियों को अपराधी करार दे दिया गया. 

समाजशास्त्री मीना राधाकृष्णन ने घुमंतू जातियों और ब्रिटिश राज के बीच होने वाली मुठभेड़, क्रिमिनल ट्राइब’ की नई श्रेणी (कैटेगरी) की निर्मिति, औपनिवेशिक सरकार द्वारा ऐसे समुदायों की पहचान के लिए अपनाई गई पद्धतियों और सर्विलांस के तरीकों का गहन अध्ययन अपनी किताब ‘डिसऑनर्ड बाय हिस्ट्री : “क्रिमिनल ट्राइब्स” एंड ब्रिटिश कॉलोनियल पॉलिसी’ में किया है. इस संदर्भ में, इतिहासकार भांग्या भुक्या की पुस्तक ‘सब्जुगेटेड नोमैड्स’भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जोकि हैदराबाद में निज़ामशाही के काल में तेलंगाना क्षेत्र की एक ऐसी ही घुमंतू जनजाति लंबाड़ा के ऐतिहासिक अनुभवों को दर्ज़ करती है.         

हिन्दू समाज के पूर्वाग्रहों और औपनिवेशिक नीतियों का शिकार बने एक ऐसे ही घुमंतू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मण गायकवाड़ ने अपनी प्रसिद्ध आत्मकथा ‘उचल्या’ (हिंदी में ‘उठाईगीर’/ ‘उचक्का’ शीर्षक से प्रकाशित) में लिखा था :

'जिस समाज में मैं जन्मा उसे यहाँ की वर्ण-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था ने नकारा है. सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों से मनुष्य के रूप में इस व्यवस्था द्वारा नकारा गया मेरा यह समाज पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया. अंग्रेज़ सरकार ने तो ‘गुनहगार’ का ठप्पा ही हमारे समाज पर लगा दिया और सबने हमारी ओर गुनहगार के रूप में ही देखा और आज भी उसी रूप में देख रहे हैं. रोजी-रोटी के सभी साधन और सभी मार्ग हमारे लिए बंद कर दिए गए और इस कारण चोरी करके जीना यही एक मात्र पर्याय हमारे सम्मुख शेष रह गया. संभवतः विश्वभर में हमारी एकमात्र जाति होगी जिसे जन्म से ही गुनहगार घोषित किया गया है, जिनके माथे पर जन्म से ही ‘अपराधी’ की मुहर लगाई गई है.'

सुजाता गिडला की यह किताब एक दलित परिवार के टूटने-बिखरने, बिखरकर एकजुट होने की साहसिक गाथा है. इस कहानी में जहाँ एक ओर सुजाता की माँ मंजुला के खम्माम परिवार की दास्तान है, जिसमें मंजुला के दो भाई सत्यम यानी के.जी. सत्यमूर्ति और कैरी के साथ-साथ मंजुला के माता-पिता मरयम्मा और प्रसन्ना राव की जीवनगाथाएँ भी गूँथी हुई हैं. तो वहीं ख़ुद सुजाता के अपने माता-पिता मंजुला और प्रभाकर राव के तनावपूर्ण संबंधों की कहानी भी है. एक दलित परिवार की यह कहानी आंध्र प्रदेश के गाँवों से होते हुए विज़ाग, गुंटूर, वारंगल जैसे शहरों की ओर जाती है और कई बार फिर गाँव की ओर भी लौटती है. लेकिन इस पूरे सफर में कहीं भी दलित होने के अभिशाप से उनका पीछा नहीं छूटता. 

सुजाता एक ऐसा आख्यान रचती हैं, जिसमें एक परिवार राष्ट्र के स्वाधीन होने, औपनिवेशिक दासता से मुक्ति पाने का न सिर्फ साक्षी बनता है. बल्कि वह उत्तर-औपनिवेशिक राज्य की दमनकारी नीतियों का भुक्तभोगी भी बनता है. लेकिन इस समूची किताब में केंद्रीय भूमिका में हैं सत्यम यानी आंध्र प्रदेश के चर्चित साम्यवादी नेता और कवि के.जी. सत्यमूर्ति (1931-2012). राष्ट्र और परिवार के इस अंतर्गुंफित आख्यान की परतें के.जी. सत्यमूर्ति के जीवन-यात्रा के पड़ावों के रूप में एक-एक कर खुलती हैं.
(के. जी. सत्यमूर्ति)

सत्यमूर्ति, बीसवीं सदी के चौथे दशक में अपने छात्र जीवन में ही राजनीतिक रूप से सक्रिय हो उठते हैं. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान वह कांग्रेस की ओर आकर्षित होते हैं. वे महज चौदह साल की उम्र में ही गुडीवाड़ा यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी बन जाते हैं. गुंटूर के आंध्र क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ते हुए सत्यमूर्ति के राजनीतिक विचारों में धीरे-धीरे परिपक्वता आती है. यहीं एक ओर सत्यमूर्ति की दोस्ती कुछ साम्यवादी युवकों से होती है और सत्यमूर्ति का रुझान साम्यवादी दल और विचारों की ओर गहरा होता चला जाता है. और दूसरी ओर, साहित्य के प्रति सत्यमूर्ति का गहरा आकर्षण उन्हें तेलुगु में नवलेखन की ताजी बयार लाने वाले ‘नव्य साहित्यं’ के पैरोकार साहित्यकारों की कृतियों से परिचित कराता है. विशेषकर तेलुगु के महाकवि श्री श्री की रचनाएँ सत्यमूर्ति के मन पर गहरी छाप छोड़ती हैं और वे ख़ुद भी‘शिवसागर’नाम से वैसी ही सामाजिक सरोकारों से जुड़ी क्रांतिकारी कविताएं लिखने की ओर प्रवृत्त होते हैं. सत्यमूर्ति पर श्री श्री के प्रभाव की बानगी इस बात से भी मिलती है कि वे अपने युवा साथियों से कहते कि ‘लिखो श्री श्री की तरह और लड़ो लेनिन की तरह’!

कॉलेज हॉस्टल की फीस न चुका न पाने की वजह से भूखे रहने को मजबूर सत्यमूर्ति के अनुभवों के बारे में सुजाता लिखती हैं कि ‘गुडीवाड़ा में दूसरे माला परिवारों और सत्यम के परिवार के बीच फर्क बहुत कम था. वे सभी चीटियाँ थीं. लेकिन ए.सी. कॉलेज में सत्यम हाथियों के बीच एक चींटी था.’ आज़ादी के कुछ महीनों बाद इसी कॉलेज में हुए छात्रों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए लाठी चार्ज के दौरान सत्यमूर्ति को इस बात का एहसास हुआ कि देश भले आज़ाद हुआ हो लेकिन राज्य की नीतियों और उसके चरित्र में कोई अंतर नहीं आया है. यहीं से कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू के प्रति भी सत्यमूर्ति का मोहभंग होता है. यह मोहभंग तेलंगाना आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों पर मालाबार पुलिस की बर्बरता, आंध्र राज्य की मांग को लेकर हुए आंदोलन पर भारतीय राज्य द्वारा की गई दमनात्मक कार्यवाहियों से और गहरा होता चला गया.

उन्हीं दिनों में कुंदुर्ति आंजनेयुलु और जी. वेंकटेश्वर राव सरीखे तेलुगु के दिग्गज कवियों ने ‘तेलंगाना’ और ‘उदयिनी’ सरीखे काव्य-ग्रंथ लिखकर तेलंगाना आंदोलन को अमर कर दिया था. यही वह समय था जब सत्यनारायण और वासिरेड्डी भास्करराव ने संयुक्त रूप से ‘मा भूमि’ (‘जमीन हमारी’) शीर्षक से एक क्रांतिकारी नाटक लिखा और तेलंगाना में जोतने वाले को जमीन की मांग कर रहे किसानों को एक नया नारा दिया. उस समय तेलुगु में लिखे गए अनेक प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थों के शीर्षक भी उनके क्रांतिकारी और विद्रोही तेवर का आभास देते हैं. मसलन, अग्नि वीणा’, ‘रुद्र वीणा’, ‘अग्निधारा’, ‘वज्रायुधम’, ‘संघर्षण’ आदि. (देखें, बालशौरि रेड्डी, ‘तेलुगु वांगमय : विविध विधाएँ’).      

सत्यमूर्ति की राजनीतिक सक्रियता के साथ-साथ सुजाता गिडला सांस्कृतिक मोर्चे पर उनकी पहलकदमियों से भी हमें वाबस्ता कराती हैं. मसलन, सत्यमूर्ति द्वारा गुडीवाड़ा में जन नाट्य मंच के रूप में ‘गुडीवाड़ा कल्चरल फोरम’की स्थापना. सत्यमूर्ति द्वारा चलाए गए इस नाट्य समूह के अधिकांश सदस्य दलित ही थे. कॉलेज में रहते हुए सत्यमूर्ति ने ‘केका’पत्रिका का सम्पादन किया, जो कुछ अंकों के बाद ही बंद हो गई थी. लेकिन आगे चलकर उनके ये शुरुआती अनुभव उन्हें तब काम आए, जब उन्होंने ‘युवजन’ सरीखी पत्रिका का सम्पादन शुरू किया. कॉलेज के दिनों में में ही सत्यमूर्ति का परिचय प्रगतिशील तेलुगु साहित्यकारों के संगठन ‘अभ्युदय लेखक संघ’ और उसकी पत्रिका ‘अभ्युदय’ से हुआ था और वे उससे भी गहरे प्रभावित हुए थे. 

बाद में, वारंगल में रहते हुए सत्यमूर्ति ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सत्यमूर्ति का कहना था कि यह आंदोलन ‘आंध्र बनाम तेलंगाना’ का आंदोलन नहीं है, बल्कि शोषकों के विरुद्ध शोषितों का आंदोलन है. असमानता के विरुद्ध लड़ते हुए, जोतने वाले को जमीन की नीति पर अमल की मांग करते हुए साठ के दशक के आख़िरी वर्षों में सत्यमूर्ति साम्यवादी दल की ढुलमुल नीतियों से असंतुष्ट होकर नक्सलवादी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए. 1967 में ही चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में बंगाल में नक्सल आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. इसी दौरान सत्यमूर्ति रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े. तीन साल बाद नक्सलवादी आंदोलन का समर्थन करते हुए सत्यमूर्ति ने के. सीतारामय्या आदि के साथ मिलकर ‘विप्लव रचयितल संघम’ (क्रांतिकारी लेखक संघ) की भी स्थापना की. 1980 में सत्यमूर्ति ने ‘पीपुल्स वार ग्रुप’की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सत्यमूर्ति की इस राजनीतिक-वैचारिक यात्रा का दिलचस्प विवरण भी सुजाता गिडला अपनी किताब में बख़ूबी देती हैं.     

अस्सी के दशक में सत्यमूर्ति ने असमानता के विरुद्ध लड़ने का दावा करने वाले साम्यवादी और नक्सलवादी दलों के नेतृत्व में व्याप्त असमानता और जातिगत पूर्वाग्रहों के प्रति आवाज़ उठाने का साहस किया. सत्यमूर्ति लंबे समय से इस असमानता को देख रहे थे, पर वे संघर्ष और क्रांति को प्राथमिकता देते चले जा रहे थे. लेकिन जब उनके युवा साथियों ने इस बाबत सत्यमूर्ति से बात की, तो सत्यमूर्ति ने जातिगत भेदभाव पर अब एक क्षण भी चुप रहना ठीक नहीं समझा. पार्टी के बैठक में उन्होंने मुखर होकर जातिगत भेदभाव की समस्या को उठाया, जिसमें उन्हें दलित युवाओं का पूरा समर्थन भी मिला. इस साहस की बड़ी क़ीमत भी सत्यमूर्ति ने चुकाई, जब उन्हें जातिगत भेदभाव का सवाल उठाने के लिए पार्टी से निकाल दिया गया. लेकिन इसके बावज़ूद भी सत्यमूर्ति असमानता के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की प्रतिबद्धता और अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से रत्ती भर भी नहीं डिगे. उन्होंने दलितों को क्रांति के हिरावल दस्ते के रूप में संगठित करना शुरू किया. सुजाता गिडला सत्यमूर्ति के राजनीतिक और संगठनात्मक विचारों में आए इस क्रांतिकारी बदलाव को भी रेखांकित करती हैं.

सत्यमूर्ति की अटूट प्रतिबद्धता, समतामूलक समाज की स्थापना हेतु उनके अनवरत संघर्ष और उनकी अडिग निष्ठा राहुल सांकृत्यायन के उस आदर्श की भी याद दिलाती है, जिसकी प्रेरणा उन्हें भगवान बुद्ध से मिली थी. बुद्ध ने कहा था : 
‘बेड़े की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया, नकि सिर पर उठाए-उठाए फिरने के लिए.’ 

सुजाता गिडला ने अपनी इस किताब की भूमिका 15 अप्रैल, 2012 को लिखकर ख़त्म की और उसके ठीक दो दिन बाद ही विद्रोही नेता सत्यमूर्ति का निधन हो गया. सत्यमूर्ति जैसे प्रतिबद्ध लोगों के लिए ही कवि पाश ने लिखा होगा कि :

जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से ज़िंदगी का सफ़र शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दबकर उग आते हैं.  
________

शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और फ़िलहाल बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.
kaushikshubhneet@gmail.com

वांग पिंग की कविताएँ : अनुवाद लीलाधर मंडलोई

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आप्रवासी कविता

हम अपने साथ अपनी मातृ भाषा लिए जा रहे हैं

मैं वहाँ से आया  हूँ
मैं यही का हूँ
मैं न वहाँ हूँ, न यहाँ हूँ
मेरे दो नाम हैं
जो कभी आपस में मिल जाते हैं
कभी जुदा हो जाते हैं
मैं बोलता भी दो भाषाओं में हूँ
पर यह नहीं याद
कि सपना किस भाषा में देखता हूँ ..... 

महमूद दरवेश की ये पंक्तियाँ  भले ही तकनीकी रूप से वांग पिंग जैसे आप्रवासी कवि पर लागू न होती हों लेकिन एक संस्कृति से उखड़कर दूसरी संस्कृति में समान स्तर पर अपनी जड़े जमाना कभी आसान नहीं रहा-  इसकी प्राथमिक शर्त अनिवार्य रूप से पुरानी स्मृतियों को पूरी तरह से धो पोंछ देना होगा....पर मानव प्रवृत्ति ऐसी है नहीं कि सहज रूप में इसे  साधने  दे.

इन दिनों लॉक डाउन के चलते घर परिवार की सीमाओं में कैद संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में न लौटें यह मुमकिन नहीं...खास तौर पर लीलाधर मंडलोई जैसा स्वयं अपने जंगल, पहाड़ और भूमि से विस्थापित स्मृतियों की गट्ठर खुशी-खुशी साथ लेकर चलने वाला कवि अपनी मिट्टी पानी हवा और जनों को याद करते आप्रवासी कवियों के सान्निध्य में आत्मीयता महसूस करें तो कोई अचरज नहीं. मंडलोई जी को निकट से जानने वालों को मालूम है कि दिल्ली में इतने सालों से रहने के बावजूद न उनसे सतपुड़ा के जंगल पहाड़  छूटे और न ही स्मृतियाँ .... और इसको लेकर वे किसी तरह का अभिजात्य भी नहीं पालते.

957में चीन में जन्मी वांग पिंग 26वर्ष की उम्र में अमेरिका जाकर बस गईं और वहीँ सृजनात्मक लेखन के प्रति उनका रुझान हुआ. वे कविताएँ, कहानी, उपन्यास और कथेतर गद्य  लिखती हैं. उनकी कई किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित हैं जिनमें से कुछ को पुरस्कार भी मिले. अमेरिकी और चीनी संस्कृतियों के अतः संबंधों पर उनका मुख्य लेखन केंद्रित है. साहित्य के अलावा चीन का पर्यावरण संरक्षण भी उनकी चिंता में शामिल है.

वांग पिंग  की कुछ कविताएँ, अनुवाद किये हैं हिंदी के अनूठे कवि, गद्यकार, फिल्मकार और छायाकार  लीलाधर मंडलोई ने.



हम जिन चीजों को समुद्र पार ले जाने चाहते हैं

हम आँसू भरी आँखों से विदा होकर जा रहे हैं
अलविदा पिता, अलविदा माँ
हम अपने छोटे से झोले में यहाँ की मिट्टी ले जा रहे हैं
ताकि हमारे घर हमारे हृदय से धूमिल न हों
हम अपने साथ
गाँव के नाम,कथाएं,स्मृतियाँ ,खेत,नाव ले जा रहे हैं
हम लोभ के लिए छेड़े गए छद्म युद्धों के
घाव साथ लेकर जा रहे हैं
हम खनन, अकाल, बाढ़, नर संहारों की
दुखद  स्मृतियाँ साथ ले जा रहे हैं
हम अपने परिवारों और पड़ोसियों की 
उस राख को भी साथ ले जा रहे हैं
जो कुकुरमुत्ता मेघों के बीच स्वाहा हो गए थे
हम समुद्र में डूबते अपने द्वीपों को ले जा रहे हैं
हम नयी ज़िंदगियों के लिये हाथ,पाँव,हड्डियाँ और
सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क ले जा रहे हैं
हम मेडिसिन, इंजीनियरिंग, नर्सिंग, शिक्षा, गणित व
कविता के डिप्लोमा साथ ले जा रहे हैं
भले ही दूसरे तट पर उनका कोई अर्थ न हो
तब भी
हमारे पुरखों की पीठों पर निर्मित 
रेलमार्ग, बाग बगीचे, कपडा धुलाई के तामझाम,भंडारा,मालवाहक ट्रक,
खेत,कारखाने,नर्सिंगहोम,अस्पताल, स्कूल ,मंदिर
सब के सब लेकर जा रहे हैं
हम अपने पुराने घरों को उनकी रीढ़ सहित
अपने सीनों में नये सपनों के साथ चिपकाए लिए ले जा रहे हैं
हम कल,आज और कल को साथ-साथ ले जा रहे हैं
हम जबरन थोपे गए युद्ध की
अनाथ संतानें हैं
हम औद्योगिक कचरों से छिछले होते जा रहे
समुद्र के शरणार्थी हैं
और हम अपने साथ अपनी मातृ भाषा लिए जा रहे हैं
प्यार प्यार प्यार
अमन अमन अमन
उम्मीद उम्मीद उम्मीद
(चीनी भाषा में लिखे अक्षर)
हम अपनी रबर की नाव से चले
इस तट से ...अगले तट....
अगले तट.....
अगले तट.....



आप्रवासी कविता नहीं लिख सकते

'ओह ना,तुम्हारी वाक्य संरचना में यह नहीं है संभव'
एच.व्ही. ने अपनी चीनी पुत्रवधु से कहा
जो अंग्रेज़ी में कविता लिख रही थी
      
वह मेज़ की ओर चलती है
वह एक मेज़ की ओर चलती है

वह अब मेज़ की ओर चलती है
वह अब एक मेज़ की ओर चल रही है

इससे क्या फ़र्क पड़ता है
आख़िरकार इससे क्या फ़र्क पड़ता है
        
प्रकृति में कुछ भी संपूर्ण नहीं
कैसे भी वाक्य में नहीं व्यक्त हो सकता संपूर्ण विचार

भाषा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है
और अभिशाप भी, साथ में
आप्रवासी वाक्य संरचना को इतना भाव देने की जरूरत नहीं
कविता एक पशु की तरह जन्म लेती है
सर्वश्रेष्ठ तब होती है
जब वह आज़ाद और नग्न होती है.



सच, झूठ और शेक्सपियर के खटमल

1
खटमलों ने मुझे
पेरिस, सेनफ्रांसिस्को और ओकलाहोमा शहर में काटा
काव्य उत्सवों के दौरान 
वे सभ्य,सुसंस्कृत, रक्त पिपासु और खूंखार थे
    
ख़ून,कविता और सेक्स के लिये
वे आज़ाद होकर कहाँ-कहाँ  तक 
यात्रा कर लेते थे


2      

खटमल-
सुगंध में तर और गरमागरम रक्त
से भरी औरतों से प्यार करते हैं

वे थके-मांदे, अवसादग्रस्त और खब्तियों  को
स्पर्श नहीं करते
भूल कर भी
     
3

हम कहते हैं, हम सत्य को प्यार करते हैं
हमारा दावा सत्य के रंगीन चेहरों के लिये
रहता  है हरदम
हमें गुमान है कि सत्य पर सिर्फ़ हमारा हक़  है
लेकिन सत्य है कि
मुट्ठी में कसकर भींचने के बाद भी
रेत की मानिंद फिसलता जाता है


4

अरस्तु विश्वास करते थे
खटमल से 
सर्पदंश का इलाज हो सकता है
कान के संक्रमण
अथवा उन्माद का भी



5

देखना ही विश्वास करना है
अथवा हम देखते सिर्फ़  वही हैं
जिसका विश्वास करते हैं

आँखों को चुंधियाते प्रकाश में
झालर और गोटे ही
बन जाते हैं पहचान

                         
6
          
           
खटमल पसंद की कद काठी चुनते हैं      
सेक्स के लिये 
सहवास के लिये उन्हें मानसिक आघात चाहिये होता हैं
ईर्ष्या की हदों को पार करते
नर और मादा
पेट के अंदर पेट घुसेड़ डालने को होते हैं उन्मत्त

                          
7

तीन चक्र के बाद
अरब,चीनी, अफ्रीकी और मेक्सिकन
प्रतियोगिता से बाहर हो गये
केवल पाँच ही डटे हैं अब
ईनाम के लिए
जिस से बन सकता है घर
रामल्ला के एक कवि का 
जिसे न अपना जन्मदिन मालूम है
न ही अपना जन्मस्थान
अथवा वह चीनी लेखिका
जो अपने गठिया से सिकुड़ते हाथों
और बुदबुदाते हृदय से
अवाँ गार्द  उपन्यास रचती है

                        
8

ओकलाहोमा शहर में
अभी तापमान 80डिग्री फॉरेनहाइट है
फिर भी मैं  केंपस संग्रहालय के अंदर
बुरी तरह काँप रही हूँ
पिकासो,मानेट,रेम्बरां की कलाकृतियों
कांसे के पंख ..... प्रार्थना
और रक्त के बीच रहते हुए भी
            
     
9

"वे तुम्हें नहीं काट रहे हैं
यह भला कैसा न्याय  हुआ ?",
मैं अपनी देह से 18पीढ़ियों के
खटमलों को झाड़ते हुए चीखी
जार्ज के बिस्तर पर लेटे लेते लुइस ठहाका लगा कर हँसा
उसे एक भी खटमल ने नहीं काटा था
वह कटाक्ष करते हुए बोला:
"सुनो, अब यह न कहना
कि खटमल भी नस्ली होते हैं"


10

लाल चकत्तों भरे चेहरे पर आग सी जलन लिए
मैं पेरिस से मुसकुराते हुए लौटी
यदि ज्वायस,पाउंड,स्टीन और गिंसबर्ग को
इन्हीं खटमलों ने काटा है
तो इसका अर्थ यही हुआ न
कि अब मैं उनके ख़ून, डी.एन.ए.,सच , झूठ
और सृजनात्मक प्रतिभा की वाहक बन गयी हूँ?


अनुवादक का वक्तव्य :

"वैसे अपना छिंदवाड़ा 1970में छोड़ कर पढ़ने के लिए बाहर निकला और दुनिया जहान घूमता हुआ 1997से दिल्ली में रह रहा हूं पर क्या सचमुच मुझसे अपना छिंदवाड़ा और सतपुड़ा कभी छूट पाया?अनुवाद के माध्यम से दुनियाओं को जाना. अनुवाद किये भी- अनातोली पारपरा और ताहा ख़लील के, शकेब जलाली की शायरी का लिप्यंतरण किया. विस्थापन की कविताओं के कुछ अनुवाद अंग्रेजी से किये. अब यह नयी पारी है."

 (इन सभी कविताओं के अनुवाद लीलाधर मंडलोई की आगामी पुस्तक का हिस्सा हैं)



बटरोही : हम तीन थोकदार

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हम तीन थोकदार             
बटरोही                                              






ह कहानी बहुत पुराने ज़माने की है, हालाँकि इसका सम्बन्ध आज के हिंदुस्तान का साथ है. आज के ज़माने में थोकदार तो होते नहीं, इसलिए नयी पीढ़ी की समझ में यह कहानी आसानी से नहीं आएगी. वक़्त के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, कभी-कभी इतने कि अर्थ का अनर्थ तक हो जाता है. पचहत्तर साल पहले जब मैं इस दुनिया में आया था, तब भी हमारे बुजुर्गों को थोकदार कहा जाता था, हालाँकि मानो दिखावे के लिए; मगर अतीत में सचमुच के थोकदार होते थे, इस कारण इस शब्द का हमारी जातीय स्मृति के साथ अन्तरंग सम्बन्ध है.

पहाड़ों में जमीन की जोत का स्वरूप मैदानों की तरह का तो होता नहीं, सीढ़ीदार खेतों के बीच हरेक के पास छिटके हुए जमीन के टुकड़े होते हैं, जिनमें इतनी पैदावार नहीं होती कि वो मैदानों के जमींदारों की तरह शान से जिंदगी बसर कर सकें. पुराने ज़माने से खेतिहर किसानों के बीच से ही किसी सयाने भू-स्वामी को राजा के द्वारा लगान इकठ्ठा करने का अधिकार दिया जाता था जो थोकदार कहलाते थे. यही थोकदार राजनीतिक-आर्थिक मामलों में राजा का सलाहकार भी होता था. बाद में जनसंख्या विस्तार के साथ गाँवों की संख्या बढ़ी और उसी अनुपात में थोकदारों की भी. राजा के द्वारा तय किये गए नियमों के अधीन होते हुए भी थोकदार के पास शक्ति और अधिकारों की कुछ हद तक स्वायत्तता हुआ करती थी. अपने गाँव-इलाके में वह हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के वरिष्ठता क्रम के अनुसार अपने गाँवों का सामाजिक ढाँचा निर्मित करता था.

थोकदार खेतिहर राजपूत होता था, जो अपने समाज के धार्मिक ताने-बाने और कर्मकांडों की पूर्ति के लिए एक ब्राह्मण परिवार को गाँव में बसा लेता था और खेती-बाड़ी तथा दूसरे जीवन-यापन सम्बन्धी कामों का लिए शिल्पकारों को. ये शिल्पकार ही एक तरह से सामाजिक अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ होते थे; जो अपनी मेहनत से थोकदार के निर्देशों पर पूरे समाज को गतिशील रखते थे.

इस कहानी के नायक ऐसे ही तीन थोकदार हैं जो न सिर्फ तीन अलग-अलग यथार्थों और काल-खण्डों के हैं, इस कहानी के लेखक के अनुभव जगत में से अंकुरित तीन अलग-अलग स्थितियां हैं. आप चाहें तो इन्हें यथार्थ संसार में पैदा हुए एक पहाड़ी लेखक की कल्पना में से रूपाकार ग्रहण किये हुए तीन आभासी चेहरे मान सकते हैं ; या विस्तार में फैली हमारी पृथ्वी के मध्य-हिमालय क्षेत्र के रंगमंच में जन्म लेने के बाद एक अभिनेता के चेहरे के तीन आयाम मान लें; या प्रकृति निर्मित आभासी दुनिया में से जन्म लेने वाले यथार्थ और फिर उस यथार्थ में से मनुष्य निर्मित आभासी चेहरे के तीन आयाम भी मान सकते हैं.


⇚ हानी का पहला थोकदार मैं खुद हूँ– भारत के उत्तराखंड प्रान्त के अल्मोड़ा जिले की सालम पट्टी के बेहद पिछड़े छानागाँव में पैदा हुआ लक्ष्मण सिंह बिष्ट, जिसे दस साल की उम्र में गाँव से शहर जाने के बाद कहानीकार बनने का शौक चर्राया, इसलिए खुद ही उसने अपना नया नाम रख लिया ‘बटरोही’.

दूसरा थोकदार इस कहानीकार के द्वारा 1988 में लिखे गए उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’का नायक है थोकदार कल्याण सिंह बिष्ट, जो भारत की आजादी से पहले अल्मोड़ा-चमोली जिलों के सीमान्त पर बसे एक काल्पनिक गाँव ‘तलचट्टी’ का रहने वाला है. गाँव से जब वह पहली बार शहर गया तो उसने जिद ठान ली कि वह अपने गाँव को शहर जैसा ही बनाएगा. उसका देश भारत आजाद हो चुका था और उसने सुना कि नए भारत में शहर नामक ऐसी जगहें जन्म ले रही हैं, जो उसकी थोकदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नए खुशहाल समाज का ढाँचा तैयार करने में लगे हैं. इस बदले हुए भारत को देखने के लिए वह शहरों की ओर चल पड़ा.

शहर पहुँचने के बाद उसे जो नया पहाड़ी समाज मिला वह गाँव के सामुदायिक ताने-बानों को झटके से तार-तार कर चुका स्वार्थी समाज था. उसने देखा, लोगों के आपसी विश्वास और सद्भाव से गुंथे उसके तरल समाज से एकदम उलट नए सरोकारों और आदमी की निजी चिंताओं वाला अपने में ही सिमटा एक क्रूर समाज उसके सामने था. उसके अन्दर घुसने के बाद उसे लगा कि उसका गाँव तो शहर नहीं बन सकता था, अलबत्ता खुद के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसके थोकदारी समाज को ही शहर बनना पड़ेगा. दोनों में से किसी एक को चुनना होगा. उसने शहर और गाँव के बीच पुल बनाने की भरसक कोशिश की, मगर उसके गाँव लौटने तक उसका गाँव  खुद ही लपक कर शहर के आगोश में आ चुका था. उसके पास अब कोई रास्ता नहीं था. धीरे-धीरे उसका कायांतरण भी शहर के रूप में होने लगा.

अपने-आपको और अपने गाँव को अनेक तकलीफ भरी कोशिशों के बाद बदलने के बाद एक दिन जब वह शहर बन चुके अपने गाँव पहुँचा तो उसके गाँव में एक युवा प्रशासनिक अधिकारी आया था जिसने उसके गाँव को उसी सदाशयता में बुनने की कोशिश की जो कभी थोकदार कल्याण सिंह बिष्ट का सपना था. मगर अब न वह खुद बदल सकता था और न उसका गाँव. उसकी समझ में नहीं आया कि इस नए गाँव को स्वीकार करे या अस्वीकार! तो भी, जिंदगी भर की खुशियों से भरा थोकदार उस अधिकारी को आगोश में लेकर झूम उठा. थोकदार ने उसके सामने सवालों की झड़ी लगा दी कि इतने दिन तक वो कहाँ था!  ख़ुशी से वह इतना बावला हो गया कि उसे पता तक नहीं चला, तलचट्टी का वह प्रशासनिक अधिकारी कब उसकी गोद में दम तोड़ चुका था.

तीसरा थोकदार न तो यथार्थ चरित्र है, न आभासी. निश्चय ही वह सदाशयी थोकदार परम्परा का हिस्सा है, मगर उसका जीवन उसी तरह के संयोगों से निर्मित है जिनसे हमारे दोनों पूर्व थोकदारों का बना है. पौड़ी गढ़वाल की यमकेश्वर तहसील के पंचुर गाँव में आज से अड़तालिस साल पहले 5 जून, 1972 को जन्मे इस असाधारण प्रतिभाशाली बच्चे अजय सिंह बिष्टने बिना किसी तरह के बड़बोले दावों के ही अपने अड़ियल ‘थोकदारी’ तौर-तरीकों से हमारे भारत देश की सांस्कृतिक शक्ल ही बदल डाली. ठेठ पहाड़ी शक्ल-सूरत वाले, सीधे-सादे इस लड़के के मन में, जब वह हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से बी. एस-सी. कर रहा था, सिद्धार्थ की तरह विराग पैदा हुआ और वह पढ़ाई-लिखाई छोड़कर गोरखपुर के एक योगी की शरण में चला गया जिसने उसका उपनाम रख डाला ‘आदित्यनाथ’. एक ईमानदार फारेस्ट रेंजर पिता से सादगी के संस्कार प्राप्त यह होनहार थोकदार-पुत्र आज हमारे देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुखिया है. लॉक डाउन के दिनों के इस आभासी और यथार्थ के मिलेजुले अभिनेता को भारतीय रंगमंच में परदे के पीछे आसानी से पहचाना जा सकता है.

वर्तमान भारतीय रंगमंच के ये तीनों अभिनेता आजकल भले ही अपने नाम के साथ ‘थोकदार’ उपाधि न लगाते हों, तीनों ही अपनी कार्य-प्रणाली से पक्के थोकदार हैं. अपने अक्खड़पन, किसी हाल में समझौता न करने और पुराने ज़माने के योगियों की तरह जिंदगी का लुत्फ़ उठाने की जिद से भरे हुए.     

⇚ तीन थोकदारों की इस कहानी को मैं हर हाल में दुनिया छोड़ने से पहले लिख डालना चाहता हूँ. आज साल 2020 के अप्रैल की 18 तारीख है और एक सप्ताह के बाद 25 अप्रैल, 2020 को मेरे परिवार के लोग मेरा 75वा जन्मदिन मनाने जा रहे हैं इसलिए यह कहानी मैं अपने पचहत्तरवे साल में अवश्य लिख डालना चाहता हूँ. अन्धविश्वासी मैं कभी नहीं रहा, फिर भी जाने क्यों मेरे कानों में लम्बे समय से रह-रह कर पैंसठ साल पहले एक झोलाछाप ज्योतिषी की यह आवाज गूँज रही है कि भगवान ने मेरी उम्र सिर्फ पचहत्तर साल तय की है, इस कारण यह मेरी जिंदगी का आखिरी साल है.

उस वक़्त मेरी उम्र दस-बारह साल की थी और मैं अपने ममकोट (ननिहाल) पट्टी लखनपुर के गाँव पनुवानौला गया हुआ था. अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर बसे इस छोटे-से गाँव में सड़क के किनारे पच्चीसेक साल का मामूली शक्ल-सूरत वाला एक गँवई लड़का लोगों का हाथ देखकर उनका भविष्य बाँच रहा था. कौतूहलवश मैंने भी उसकी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया. उसने पहले मुझे अपनी हथेली में पाँच आने रखने को कहा और बताया कि अगर उसकी भविष्यवाणी गलत साबित हुई तो वह मेरे पैसे वापस कर देगा. उसका दावा था कि वह आज से लेकर मेरी मृत्यु तक की सारी महत्वपूर्ण घटनाओं का सच्चा चिट्ठा सामने रख देगा. मैंने उसकी चालाकी भांपते हुए आशंका व्यक्त की कि इस बात का क्या भरोसा कि वह मेरे पैसे ऐंठकर भाग नहीं जायेगा; उसने कहा, वह सारी बातें लिखकर मुझे देगा, और कोई भी बात गलत होने पर वह मुझे मेरे घर के पते पर आकर पकड़ सकता है. इस शर्त पर मैं राजी हो गया और मैंने उसे पांच आने दे दिए. उसने मेरे भविष्य के बारे में जो भी बातें बताईं उन्हें अपने पता लिखे एक कागज पर लिखकर मुझे दे दिया.

पैसठ साल तक पहाड़ी गाँव की एक मरियल दुकान से ख़रीदे गए कागज के एक पन्ने को सुरक्षित रखने की बात की सच्चाई पर विश्वास करना नींद में देखे गए सपने को सच सिद्ध करने की जिद से कम नहीं है; अलबत्ता बचपन की उस उम्र में इस तरह की बातों में सभी लोग भरोसा कर लिया करते ही हैं, मैंने भी कर लिया. अगले दसेक सालों तक वह पर्चा मेरे पास सुरक्षित रहा, इसका कारण यह था कि उस दौरान की सभी बातें सच निकली. नास्तिक होते हुए भी मैं उस ज्योतिषी के प्रति आस्थावान हो गया और मेरी आस्था संयोगों में बढती चली गई. उसने इस बीच मेरे घर में या परीक्षा में आने वाले संकट या उपलब्धियों को लेकर जो भविष्यवाणी की थी, एकदम सच निकली थी. मैंने उसके दिए पते पर उसे खोजने की कोशिश की, मगर उस पते पर उस नाम का कोई ज्योतिषी नहीं रहता था. मजेदार बात यह हुई कि करीब पचास-साठ सालों तक उसकी ज्यादातर बातें सही साबित हुईं. हो सकता है कि कई बातें गलत भी सिद्ध हुई हों, मगर उनकी ओर मेरा ध्यान नहीं गया, अलबत्ता उसकी इस बात पर मुझे भरोसा पैदा होता चला गया कि एक सफल और उपलब्धिपूर्ण जिंदगी जीने के बाद पचहत्तर की उम्र पार करते ही मेरी मृत्यु हो जाएगी.
   

⇚ पिछले कुछ महीनों से मुझे विचित्र किस्म के सपने आ रहे हैं, खासकर 22 नवम्बर से पूरे देश में फैली कोरोना महामारी के कारण लागू लॉक डाउन के बाद से. पूरा देश अपने घरों के अन्दर कैद है; बाहर एकदम सन्नाटा है. घरों के अन्दर कैद लोग भी इतनी धीमी आवाज में बातें करते हैं कि उस आवाज को दूसरे कमरे में बैठे सदस्य को भी सुनने में कठिनाई होती है.    

हो सकता है कि कल रात देखे गए सपने का सम्बन्ध हंगरी के भारतीय राज-दूतावास से आई उस मेल के साथ हो जिसमें अमृता शेरगिल कल्चरल सेंटर, बुदापैश्त की निदेशक तनुजा शंकर ने दुनिया भर में फैले कोरोना संकट के दौरान हिंदी लेखकों और हंगरी में हिंदी पढ़ रहे विद्यार्थियों के द्वारा आयोजित होने वाले इंडो-हंगेरियन साहित्य से जुड़े ऑन-लाइन ‘वेबनार’ में भाग लेने के लिए मुझे भेजे गए निमंत्रण के साथ हो. वह मेल 17 अप्रैल, 2020 की थी जिसमें उन्होंने बुदापैश्त विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्ष डॉ. मारिया नेज्येशी का हवाला देकर मुझसे वेबनार में भाग लेने का विशेष आग्रह किया था. बता दूं, तेईस साल पहले 1997 से 2000 तक मैंने भारतीय विदेश मंत्रालय की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के अंतर्गत हंगरी की राजधानी बुदापैश्त के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में वहां के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई थी.

मगर इस कहानी का सम्बन्ध उस सपने के साथ नहीं है; न मारिया के साथ और न तनुजा शंकर के भेजे मेल से, अलबत्ता मेरे गाँव फतेहपुर के इस फार्म हाउस के साथ जरूर है जहाँ मैं पिछले पांच महीनों से रह रहा हूँ.

आजकल दिखाई दे रहे अजीबोगरीब सपनों का सम्बन्ध अवश्य ही फतेहपुर और बुदापैश्त की एक-जैसी भौगोलिक स्थिति के साथ हो सकता है. यह तुलना पाठकों को बेवकूफ़ी लगेगी, खासकर इसलिए कि कहाँ यूरोप की सबसे बड़ी नदी डेन्युब के किनारे बसा हुआ दुनिया का सबसे खूबसूरत सपनीला शहर बुदापैश्त और कहाँ नैनीताल जिले के भाबर में बसा फटीचर गाँव फतेहपुर. मगर हंगरी से लौटने के बाद मुझे इन दोनों जगहों में गजब की समानता महसूस होती रही है, खासकर, प्रवास के दिनों में मुझे शरण देने वाले शहर के ‘बुदापैश्त’ नामकरण की वजह से.

हंगेरियन में ‘बुदा’ शब्द का अर्थ है ‘पहाड़’ और ‘पैश्त’ का अर्थ ‘मैदान’. प्राचीन रोमन साम्राज्य में गर्म पानी के स्रोतों और विशालकाय एम्फीथियेटरों वाले इस खूबसूरत शहर को यूरोप की सबसे बड़ी नदी दुना (डेन्युब) के दोनों किनारों पर इस तरह बसाया गया है कि इसका आधा हिस्सा पहाड़ी है और आधा मैदानी. पहाड़ी और मैदानी भाग को डेन्युब नदी के नौ विशाल खूबसूरत पुलों के जरिये जोड़ा गया है. ये पुल अपने शिल्प और सौन्दर्य में पूरी दुनिया में अनूठे हैं.

हमारा फतेहपुर गाँव भी ‘बुदापैश्त’ जैसा ही है. उत्तर की ओर गाँव के सिरहाने की तरह बिछी 
नैनीताल की पहाड़ियां और दक्षिण की ओर विस्तार में फैला मैदानी शिवालिक अंचल. हो सकता है, इसी कारण मुझे लॉक डाउन के दिनों में फतेहपुर में देखे हुए सपने की पृष्ठभूमि में बुदापैश्त शहर के कोलोश्तोर उत्सा मोहल्ले का वह घर दिखाई दिया हो जहाँ मैंने जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन गुजारे.

दरअसल, 17 अप्रैल की रात को फतेहपुर के घर में मुझे जो सपना दिखाई दिया था, उसमें मेरा बिस्तर बुदापैश्त के कोलोश्तोर उत्सा के इसी घर में लगा था. वहीं पर आधी रात को नैनीताल के मेरे इतिहासकार-साहित्यकार दोस्त ‘पद्मश्री’ शेखर पाठक का फोन आया था और हमेशा की तरह उसने सबसे पहले ‘थोकदारज्यू पैलाग’ कहकर मेरा अभिवादन किया था. सपने में था, इसलिए मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया कि जिन दिनों मैं बुदापैश्त में था, शेखर मुझे ‘थोकदारज्यू’ संबोधन से नहीं पुकारता था. अपने इस नए संबोधन को 17 अप्रैल की रात को सुनकर मुझे इसलिए ताज्जुब नहीं हुआ था, क्योंकि शेखर मुझे हाल के दो-तीन सालों से इसी नाम से पुकारता रहा है; मुझे सपना इसलिए भी यथार्थ लगा क्योंकि लॉक डाउन के दिनों में बतियाने के लिए मैं हर वक़्त किसी अन्तरंग दोस्त की तलाश में रहता था. भले ही यह बातचीत आभासी होती थी, फिर भी मुझे उस दौरान बेहद सुकून मिला था.

सपने में मैंने शेखर के साथ कोरोना वाइरस को लेकर घंटों बातें कीं और यह विश्वास व्यक्त किया कि संकट का यह दौर एक दिन हमारा पिंड जरूर छोड़ देगा... उसके बाद हम लोग अपने ही घर में कैद अपने प्यारे देश भारत और लॉक डाउन को लेकर बातें करते रहे. हमने क्या-क्या बातें की, इसके डिटेल मुझे याद नहीं हैं,मगर मेरे लिए उसके द्वारा बार-बार किये जाने वाले संबोधन ‘थोकदारज्यू’ की गूँज 18 अप्रैल, 2020 को पूरे दिन तक अपने दिमाग में महसूस होती रही थी.


⇚ वास्तविकता यह है कि थोकदारों को मैंने भी नहीं देखा है. हमारे परिवारों में कहा जाता था कि थोकदार बड़े गुस्सेबाज और अकड़ वाले होते हैं, वो किसी की नहीं सुनते, सिर्फ अपने मन की करते हैं. मेरी दादी, जिसे मैंने देखा नहीं था, उनकी यह बात कि ‘थोकदार का दिमाग उसके घुटने में होता’ है, हमारे संयुक्त परिवार में एक किम्वदंती की तरह प्रचलित थी. औरतें पुरुषों की बातें आतंक की तरह एक-दूसरे को सुनाती थीं. औरतें कभी पुरुषों की आँखों की ओर देखकर नहीं, उनके पांवों की ओर देखकर बातें करती थीं और पुरुष अपनी पत्नियों की ओर नहीं, अपने दायें या बाएँ कंधे की ओर देखकर बातें करते थे. वो धरती को माँ मानते थे और अपने जीवन में सिर्फ तीन लोगों का सम्मान करते थे– माँ, मातृभूमि और अपने देवता का. इन तीनों को याद करते ही उनकी आँखें कृतज्ञता से छलक उठती थीं और मांशपेशियाँ फड़कने लगती थीं. उनका कहना था कि उनकी रक्षा के लिए ही वे इस संसार में आए हैं और उनके लिए वह किसी भी वक़्त ख़ुशी से अपने प्राणों की आहुति दे सकते थे, धधकती ज्वाला में कूद कर उनके प्राण बचा सकते हैं.

छुटपन में हमारा ज्यादातर वक़्त इस पहेली को सुलझाने में बीतता था कि किसी का दिमाग उसके घुटने में कैसे हो सकता है! यह जानते हुए कि दिमाग घुटने के नहीं, सिर के अन्दर होता है, दादी की बात को हम झुठला भी नहीं सकते थे. दादी ही हमारे लिए ज्ञान का सबसे मूल्यवान खजाना थी. उनकी बातों को लेकर सवाल उठाने की बात तो हम सोच ही नहीं सकते थे. एक दिन जब मैंने यही बात अपनी माँ और पुरोहित जी की आपसी बातचीत के बीच सुनी तो पता चला कि इसे थोकदारों की प्रशंसा में कहा गया था. माँ हर बात की पुष्टि के लिए पुरोहित जी के पास जाती थी और वह माँ को कोई भी बात इस तरह समझाते थे, मानो संस्कृत के किसी जटिल श्लोक का विश्लेषण कर रहे हों. उनके अनुसार वह संसार की सबसे कठिन देव- भाषा की सरल पहाड़ी भाषा में व्याख्या करते थे. थोकदारों के बारे में दादी के द्वारा कहे गए सूत्र वाक्य की व्याख्या भी वह इस तरह करते थे कि जिस प्रकार घुटना शरीर का सबसे सख्त हिस्सा होता है, कठिन-से-कठिन चोट का भी उस पर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही थोकदार के मुंह से एक बार निकली बात को कोई बदल नहीं सकता. पुरोहितजी कहते, माँ और मातृभूमि की रक्षा उसका वीर पुत्र नहीं करेगा तो कौन करेगा!

इसीलिए पुरोहित जी की व्याख्याएँ हमारे परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक कभी ख़त्म न होने वाली परंपरा की तरह अपनाई जाती थीं, उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता था. पुरोहित जी धर्म के प्रतिनिधि थे इसलिए धर्म की रक्षा का अर्थ पुरोहित जी की रक्षा समझा जाता था. शायद इसीलिए, माँ की तरह हमें पुरोहितजी के चेहरे में भगवान की आभा के दर्शन होते थे. शायद इसीलिए धर्म, ईश्वर, पुरोहित, धरती माता और मातृभूमि के प्रति विश्वास को हम सब लोग तर्कातीत मानते थे. तर्क की उपस्थिति का अर्थ ही इन सारी शक्तियों के अस्तित्व का नकार था, जिसमें थोकदार भी शामिल था. हमें सिखाया गया था कि जिंदगी को सार्थक बनाने के लिए तर्क की नहीं, आस्था की जरूरत होती है, इसलिए सवालों को हमारे दिमागों से निकाल दिया गया था. यह बात हमारी समझ में कभी नहीं आई कि दिमाग का वास्तविक रहवास सिर है, घुटना नहीं.
(क्रमश:)
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क्या आचार्य रामचंद्र शुक्ल जातिवादी और साम्प्रदायिक हैं ? प्रेमकुमार मणि

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन  और आलोचना के क्षेत्र में अभी भी शीर्ष पर हैं. बिना उनसे वाद–विवाद के आप हिंदी साहित्य से संवाद नहीं कर सकते. उनपर बहुत पहले से जातिवादी और साम्प्रदायिक होने के आरोप लगते रहें हैं. क्या वे ऐसे हैं ? अगर हैं भी तो क्यों हैं ? क्या अपनी ख़ास पृष्ठभूमि के कारण. आचार्य शुक्ल का समय अस्मिताओं के निर्माण और रेखांकन का समय था. धर्म भी गढ़ा जा रहा था जाति भी. कमोबेश इस तरह की ‘चेतना’ उस समय हर जगह देखी जा सकती है.

अगर उनका हिंदी साहित्य का इतिहास अब अपर्याप्त और अधूरा लगता है, एकांगी और पूर्वग्रह से ग्रस्त भी, तो समुचित और संतुलित इतिहास लिखने से किसी ने क्या किसी को मना कर रखा है? 

वरिष्ठ कथाकार प्रेमकुमार मणि साहित्य के इतिहास और उसके परिदृश्य से  सुपरिचित हैं. आचार्य शुक्ल उनकी रुचि के विषय भी रहें हैं. यह आलेख शुक्ल जी को उनके समय से साथ उपस्थित करता है और उनकी कमियों खूबियों को बड़े ही सहज और दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करता है. आचार्य शुक्ल को समझने के लिए अब यह जरूरी आलेख है.  





क्या आचार्य रामचंद्र शुक्ल जातिवादी और साम्प्रदायिक हैं ?
प्रेमकुमार मणि


चार्य रामचंद्र शुक्ल पर एक बार फिर चर्चा शुरू हुई है. मुझे यह अच्छा लगता है कि हमारे सांस्कृतिक-साहित्यिक जीवन में यह दम है कि वह इन बातों पर बार-बार  बहस-विमर्श करे. इस बार आवाज एक  युवा कवि की ओर से उठी है कि रामचंद्र शुक्ल का इतिहास जातिवादी और सांप्रदायिक है और इसका विकल्प ढूँढने की कोशिश होनी चाहिए. यह भी कि इसे संग्रहालय में रख देना चाहिए.

मुझे युवाओं के ऐसे स्वर में साहस और संकल्प का भाव दिखता है. मैं इनकी प्रतीक्षा करता हूँ. बूढी-बासी-उबाऊ बातें सुनते-सुनते जब थक जाता हूँ,  और ऐसी कोई धड़कती-कड़कती आवाज सुनाई पड़ती है,तब मेरी बाँछे खिल जाती हैं. मैं इस युवा स्वर के साहस को रेखांकित करते हुए,उस पर विचार करना चाहता हूँ. लेकिन कुछ लोग हैं जो ‘मूर्धा ते विपतिश्यत’ (जिह्वा काट ली जाएगी) भाव से धमकी जारी करते हैं. किसी को भी ब्रह्म या ईश्वर का दर्जा देने और उसे विमर्श से बाहर रखने का इनका आग्रह होता है. यही पुरोहितवाद है, ब्राह्मणवाद है. आप गाँधी पर कोई बहस नहीं कर सकते, मार्क्स पर नहीं कर सकते, आंबेडकर पर नहीं कर सकते. उनके चेले-चपाटी आपका मस्तक-भंजन कर देंगे. हिंदी- साहित्य में यही दर्ज़ा रामचंद्र शुक्ल, निराला और प्रेमचंद को मिला हुआ है. आप इनकी पूजा कीजिए,इनकी समीक्षा मत कीजिए. यह भला क्या बला है !

मेरी दृष्टि में किसी की प्रशस्ति के मुकाबले उसे नकारना मुश्किल होता है. ईश्वर की पूजा करना सरल है,लेकिन उसे नकारने के लिए बुद्ध और डार्विन होना पड़ता है. गांधीवादियों ने गांधी की पूजा कर-कर के उन्हें मूरत अर्थात बेजान बना दिया,लेकिन नेहरू-आंबेडकर ने उनकी आलोचना की. और सच पूछा जाय तो अपने जीवन के आखिर दौर में गाँधी इन्ही दो में भारत का भविष्य देख रहे थे. गांधी ने हस्तक्षेप करके नेहरू को प्रधानमंत्री और आंबेडकर को संविधान निर्मात्री समिति का अध्यक्ष बनवाया था. इसलिए कि वह गांधी थे. कुछ लोग सवाल उठाने वालों को सूली पर चढ़ाते हैं. यही लोग अपने नायक को पूजा की चीज बना देते है, देवता बना देते हैं और अंततः एक पंथ बन जाता है. इसके साथ ही मठ और मठाधीश भी बन जाते हैं. गांधी के नाम पर मठ बनाने की अनेक लोगों ने कोशिश की. गाँधी शांति प्रतिष्ठानों के रूप में कुछ मठ स्थापित भी हो चुके हैं.

रामचंद्र शुक्ल के साथ भी ऐसा हुआ. उनके पंथ के भी मठ और महाधीश हुए. ये लोग स्वयं को शुक्ल जी का ध्वजवाहक समझते हैं. लेकिन, रामचंद्र शुक्ल की यदि कोई परंपरा है तो उसे हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध और नामवर सिंह जैसे लोगों ने समृद्ध किया. समृद्ध शब्द में ही एक ख़ारिज करने की प्रवृति या शक्ति होती है. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी को उसे ख़ारिज अथवा पराजित करने के अर्थ में ही समृद्ध करती है. वह पिता और गुरु अभागा होता है,जो अपने पुत्र और शिष्य से पराजित नहीं होता. रामचंद्र शुक्ल की परंपरा यदि कोई है,तो इसी रूप में होनी चाहिए.

मैं साहित्य का विधिवत छात्र नहीं रहा,इसलिए शायद आधिकारिक स्तर पर बात करने का पात्र न होऊं,लेकिन चर्चा तो कर ही सकता हूँ. यही कारण है, मैंने  इस आलेख का शीर्षक चर्चा रखा है, विमर्श नहीं. विमर्श के लिए जो विद्वता अपेक्षित है वह मुझ में नहीं है. रूचि के आधार पर चर्चा तो की ही जा सकती है. यह कहने के लायक अवश्य हूँ कि रूचि के साथ  शुक्ल जी को मैंने भी पढ़ा है. उन्हें जब तक मूल रूप से नहीं पढ़ पाया था,तब  तक उन्हें लेकर  कई तरह की बातें मेरे मन में थी. एक दफा इस विषय पर डॉ. रामविलास शर्मा को एक लम्बा प्रतिवाद-पत्र लिख भेजा. उन्होंने एक पंक्ति का जवाब दिया कि पत्र पढ़ लिया है. रामविलास जी से  जब मिला,तब उस पत्र की चर्चा की,लेकिन मेरे प्रश्नों पर कुछ नहीं बोले. उनका व्यक्तित्व निश्चय ही आकर्षक था लेकिन मैंने अनुभव किया कि वह  विद्वान तो हैं,लेकिन उस स्तर के  चिंतक शायद नहीं हैं.


चिंतक होने केलिए विद्वान होना आवश्यक नहीं है. कबीर बड़े चिंतक थे, तुलसी बड़े विद्वान. 


विश्लेषणात्मक-प्रतिभा के अभाव में चिंतन-प्रवृति का विकास असंभव होता है.


मैंने जब शुक्ल जी को पढ़ा,तब यह अनुभव किया कि उनके बारे


में अनेक गलत समझदारियाँ उनके ऐसे ही चेलों द्वारा विकसित हुई. उन्हें अनेक 'विद्वान'अनुयायी 


मिले थे. ऐसे अनुयायी अधिकांश मामलों में गुरु का बँटाधार ही करते हैं.


उन्नीसवीं सदी के रुसी आलोचक चेर्नीशेव्स्की कहते थे, किसी लेखक को जानने के लिए उसके जीवन को जानना आवश्यक होता है. शुक्ल जी के जीवन को जाने बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल होगा. 1994 में शुक्ल जी की प्रपौत्री मुक्ता जी से अचानक की मुलाकात हुई थी. दूरदर्शन के दिल्ली केंद्र पर उन्होंने मेरा इंटरव्यू किया था. दलित साहित्य पर भी सवाल थे. साक्षात्कार की औपचारिक बातचीत समाप्त होने के बाद में उन्होंने अपना परिचय दिया. उपरांत वार्ता में शुक्ल जी के बारे में  कुछ बातें जानने को मिली. मेरी कुछ जिज्ञासा थी और उनके समुचित जवाब मुझे मिले. बाद में अनेक जीवनियों के साथ उनके द्वारा  लिखी शुक्ल जी की  जीवनी भी पढ़ पाया.

शुक्ल जी का सामाजिक चिंतन क्या था, इसे प्रतिपादित करना सरल नहीं है. उनके साथ उनके समय की सोच और सीमायें थी,लेकिन वह पक्के तौर पर रूढ़िवादी नहीं थे. बल्कि इससे विपरीत ज़माने के हिसाब से कुछ अधिक आधुनिक थे. इन प्रवृतियों को उनके पहनावे, खान-पान, या फिर घरेलू और लोक व्यवहारों में देख सकता था. उनके पिता चन्द्रबली शुक्ल अफसर थे और विचारों से हिन्दुत्व के प्रति संशयवादी थे. अपने पहनावे और विचारों से वह इस्लाम की ओर आकृष्ट थे. उनके गाँव अगौना में ब्राह्मणों की कोई आबादी नहीं थी. रामचंद्र शुक्ल की विधवा दादी ने अपने कुल-गाँव भेंड़ी से अपमानित हो कर केवल सात साल के बेटे के साथ गृहत्याग कर दिया था और अगौना में वहां की रानी से कुछ बीघे जमीन हासिल कर खेती-बाड़ी शुरू कर घर-घरौंदा बसाया था. इस नए गांव में उनके गोतिया- बिरादर का कोई नहीं था. इस पृष्ठ-भूमि से आये रामचंद्र में अपने किस्म की एक अक्खड़ता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनी रही. अपनी दादी से उनकी अधिक पटती थी. उनसे वह रामायण का वह प्रसंग हमेशा सुनते थे,जिसमें सीता को वनवास मिला था. दादी स्वयं को इसी रूप में आंकती थीं. इस प्रसंग का पाठ करते उनकी दादी रोने लगती थीं. बालक रामचंद्र उनके आंसू पोछते हुए स्वयं रोने लगते थे.

तुलसीकृत रामायण में सीता वनगमन प्रसंग नहीं है. इससे ज्ञात होता है, रामचंद्र शुक्ल की दादी वह रामायण पढ़ती थीं,जिसमें लव-कुश कांड भी है. लव-कुश कथा के बिना रामायण अधूरा है. इसी अध्याय में राम का रावणीकरण होता है और विरथ लवकुश के साथ रथी राम की लड़ाई होती है. राम पराजित होते हैं और सरयू में डूब मरते है,या डुबा दिए जाते हैं. रामचंद्र शुक्ल में तुलसीदास पर जब विमर्श किया,उन्हें महिमा मंडित किया,तब अपनी दादी को भूल गए. यह गलती तो उनसे हुई. यदि उन्होंने अपनी दादी के नजरिये को बचाया होता,तो रामकथा में रामराज्य वर्णन को फालतू और लवकुश द्वारा रामराज्य के विध्वंस को रामायण का मूल स्वीकार कर लिया होता. लोकमंगल वगैरह की अवधारणा से उनकी मुक्ति हो जाती और वर्णवाद के समर्थन की तोहमत उन्हें नहीं झेलनी होती. रामकथा का वर्णवादी अध्याय रामराज में ही आरम्भ होता है.  

रामचंद्र शुक्ल का जीवन देखने से पता चलता है कि सनातन धर्म की अपेक्षा उनकी रूचि बौद्ध धर्म में अधिक थी,जो वर्णाश्रम धर्म का विरोधी था. शुक्ल जी ने एडविन अर्नाल्ड की प्रसिद्ध पुस्तक लाइट ऑफ़ एशिया का 'बुद्ध चरित'नाम से हिंदी पद्यानुवाद किया था. उन्होंने प्रसिद्ध जर्मन जीवविज्ञानी एर्न्स्ट हैकेल (1834-1919) की किताब रिडल्स ऑफ़ द यूनिवर्स का 'विश्व-प्रपंच'नाम से अनुवाद किया था. हैकेल की किताब 1899 में आई थीं और पूरी दुनिया में उसने कुछ वैसा ही महत्व पाया था,जैसा डार्विन की किताब 'ऑन द ओरिजिन ऑफ़  स्पेसीज'ने.  
शुक्ल जी ने 'विश्व-प्रपंच'नाम से जो अनुवाद किया है,उसके पन्द्रहवें प्रकरण में 'ईश्वर और जगत'विषय पर विशद और विस्तृत चर्चा है. यह न केवल ईश्वर के अस्तित्व को, बल्कि उसके पाखंडों की भी पोल खोलता है. यह सब समझने वाला आदमी वर्ण व्यवस्था का समर्थन कैसे कर सकता है ? लेकिन यह अंतर्विरोध तो कुछ जगहों पर दिखता है. हिंदी साहित्य के इतिहास में भी और चिंतामणि के कतिपय निबंधों में भी. हालांकि, ह्वेनसांग वाले लेख में वर्ण व्यवस्था का सीधा विरोध वह करते हैं.

सब से अधिक विरोध उनके द्वारा कबीर को उचित सम्मान नहीं दिए जाने और उन्हें (कबीर को) गँवार कहे जाने पर है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है. गँवार शब्द का उपयोग शुक्ल जी के पिता खूब करते थे. जरा-सा भी उनकी रूचि के अनुरूप नहीं रहने वाले को वह गँवार कहते थे. रामचंद्र शुक्ल जिन्हें घर में झिनकू कहा जाता था,दलित बच्चों के साथ खेलते थे,और यह उनके अफसर पिता को ख़राब लगता था. वह फटकार लगाते थे कि गंवार बच्चों के साथ मत खेलो. यह शब्द मानो उनके अवचेतन का हिस्सा हो गया. कालांतर में, रामचंद्र शुक्ल इसका व्यवहार अपनी पत्नी के लिए करने लगे जब तब उन्हें झिड़की देते कि क्या गँवार बनी रहती हैं. स्वाभाविक था,इस शब्द को उन्होंने कबीर के साथ भी चस्पां कर दिया. कबीर को समझने में उन्हें वक़्त लगा. इसकी एक अलग कथा है. 
शुक्ल जी में यह अंतर्विरोध क्यों और कैसे है ? इस पर जैसी चर्चा होनी चाहिए थीं,नहीं हुई है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी शब्द-सागर, जिसकी भूमिका रूप में 'हिंदी साहित्य का इतिहास'है, का लेखन उन्होंने स्वतंत्र रूप से नहीं, एक प्रोजेक्ट के रूप में किया था. इस पर श्यामसुंदर दास जी की छत्रछाया थी. इसलिए शुक्ल जी यहां वैचारिक रूप से स्वतंत्र नहीं थे. शुक्ल जी पर काम करने वालों ने इस बिंदु पर भी कोई ध्यान नहीं दिया. 

लेकिन शुक्लजी का लेखन तुलसी तक ही सीमित नहीं  है. उनका लेखन बहुआयामी है. मात्रा के हिसाब से भी उन्होंने  बहुत लिखा है. सब पर विचार करते हुए, इस विषय पर हमें कोई निर्णय करना  चाहिए. जहाँ तक वर्णधर्म -विषयक विमर्श है,उस पर भी हमें उस पूरे ज़माने के सापेक्ष हो कर विचार करना चाहिए. शुक्लजी का जीवन 1884-1941 के बीच का है. कम उम्र से ही वह लिखने लगे थे. जब उन्होंने लिखना आरम्भ किया,तब हिंदी का अपना कोई वैचारिक परिदृश्य नहीं था. जुबान अभी खड़ी हो रही थी. ब्रजभाषा का प्रभाव हिंदी पद्य-साहित्य पर गहरा था. खड़ी बोली जरूर हिंदी भाषा का रूप लेने लगी थी. सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में हिंदी प्रदेश की कोई उल्लेखनीय पहचान नहीं थी. उस वक़्त के बड़े जुझारू नेता लाल-बाल-पाल हिंदी इलाके से बाहर के थे.
लाहौर में आर्य समाजियों द्वारा और इलाहाबाद में कतिपय कायस्थ और ब्राह्मण बुद्धिजीवियों द्वारा 'सत्यसभा'नाम की एक वैचारिक संस्था के माध्यम से सनातनी रीति-रिवाजों पर कुछ प्रश्न उठाये जा रहे थे. आर्य समाज का तो आमजन से जुड़ाव था,लेकिन इलाहाबाद की सत्य सभा का दायरा विलायत-पलट लोगों तक ही सीमित था और इस रूप में यह ब्रह्मो समाज से भी अधिक संकरे घेरे में कैद था. बनारस तो कुल मिला कर गाल-बजाऊ पंडितों का बौद्धिक अखाडा था,जहाँ अध्ययन-मनन कम, एक दूसरे की टांग-खिंचाई अधिक  होती थी. काशीदार पण्डित दो सुखों के बीच पेंडुलम की तरह डोलते रहते थे- एक था निंदा-सुख और दूसरा आलस-सुख. ऐसे ही मस्त माहौल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र और बद्रीनारायण चौधरी उपाध्याय  प्रेमघन जैसे अमीर सुहृदय साहित्य का अखाडा जमाये बैठे होते थे.
शुक्ल जी के समय भारतेन्दु जी तो नहीं थे,लेकिन प्रेमघन जी का सान्निध्य कुछ समय तक उन्हें भी मिला था. प्रेमचंद ने लिखना आरम्भ किया था और समृद्ध वेग से चर्चित हो रहे थे. जयशंकर प्रसाद और गुप्त जी का साहित्य आकार लेने लगा था. निराला ने हाजिरी लगा दी थी.  महावीर प्रसाद द्विवेदी कुव्वत भर हिंदी को संवार रहे थे. यही हिंदी का हाल था.  बंगला,गुजराती,मराठी आदि का साहित्य और सामाजिक-विमर्श बहुत आगे था. सब मिला कर यहां एक अल्हड किस्म की देशभक्ति थी,जिसके ऊपर 1857 के विद्रोह की चादर लिपटी थी .

राजनीतिक स्तर पर यह इलाका तिलक के राष्ट्रवाद से प्रभावित था, जिसकी अपनी सीमाएं थीं. जिन लोगों ने उस वक़्त के मॉडरेट और रेडिकल पॉलिटिक्स का अध्ययन-विश्लेषण किया है,वे समझ सकते हैं कि गुत्थी कहाँ उलझी हुई थी. मॉडरेट पक्ष का मानना था कि सामाजिक रूप से प्रगतिशील हुए बिना हम राजनीतिक स्तर पर प्रगतिशील नहीं हो सकते. लोकतान्त्रिक समाज के लिए पुराने सामाजिक सोच को बदलना होगा. स्त्रियों और निम्न वर्गीय बहुजनों की सामाजिक मुक्ति के बिना हम राजनीतिक मुक्ति की बात नहीं कर सकते. तिलक और दूसरे तथाकथित 'गरमदली'मॉडरेट मंतव्यों से सहमत नहीं थे. वे उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक संघर्ष को आगे और सामाजिक मुक्ति के प्रश्नों को गौण या फ़िलहाल निलंबित रखने के पक्ष में थे.

गाँधी ने जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत भूमि को अपना कार्यक्षेत्र बनाया,तब उनके सामने भी यह प्रश्न था. गाँधी ने एक मॉडरेट नेता गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु माना था,लेकिन 1920 में तिलक की मृत्यु के पूर्व मिल कर उनका समर्थन भी हासिल किया था. जाहिर है वह इन दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाने की जुगत में थे. विरुद्धों के बीच सामंजस्य स्थापित करना राष्ट्रीय संघर्ष के लिए आवश्यक होता है. देश में अस्मिताओं के प्रश्न पर आवाजें सुनाई देने लगी थीं. सांस्कृतिक क्षितिज पर कोई आदिवासी आवाज़ तो नहीं उठी थी,लेकिन 1914 में ही हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत'सरस्वती में प्रकाशित हुई. खड़ी बोली का शीर्षक लिए भोजपुरी जबान की ऐतिहासिक कविता. मुल्क का पहला दस्तावेजी दलित सांस्कृतिक स्वर. ठीक दो साल बाद देश से बाहर एक यूनिवर्सिटी में बैठ कर युवा आंबेडकर ने 'कास्ट इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म,जेनेसिस एंड डेवलपमेंट'शीर्षक से महत्वपूर्ण निबंध (1916)लिखा. 1920 में ही देश के बाहर कुछ लोगों ने बैठ कर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी बना डाली. 1920 से ही कांग्रेस का गाँधी युग आरम्भ हुआ. गाँधी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आंदोलन की शुरुआत कर दी. कुल मिला कर यह कि  युवा रामचंद्र एक उथल-पुथल वाले ज़माने से गुजर रहे थे. बिना किसी समृद्ध वैचारिक पृष्ठभूमि के इतने बड़े सामाजिक-राजनीतिक झंझा वात को झेलना एक चिंतनशील  युवा के लिए निश्चय ही उलझाव पैदा करने वाला रहा होगा.
  
रामचंद्र शुक्ल इन सब के बीच क्या कर रहे थे, इसे देखना दिलचस्प होगा. इस बीच अंग्रेजी में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ 'नॉन को-ऑपरेशन एंड नॉन मर्केंटाइल क्लासेज'. यह संभवतः 1921 में प्रकाशित हुआ था. इस लेख में असहयोग आंदोलन को उन्होंने वर्गीय नजरिये से देखने की कोशिश की.  बनियों के बेटे अपने व्यापार नहीं छोड़ रहे हैं,लेकिन गैर-व्यापारी तबकों के बेटे अपनी नौकरियां छोड़ रहे हैं. यह क्या माजरा है ? शुक्ल जी सवाल उठाते हैं. और इस आवाज से ऐसी खलबली मचती है कि गाँधी इस लेख को ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं. 1923 में अपने बनारस प्रवास में गाँधी ने रामचंद्र शुक्ल से मिलने की इच्छा जतलाई. मदनमोहन मालवीय जी ने शुक्लजी को बुलवाया. बातें की. बातचीत में शुक्ल जी ने गांधीजी से आग्रह किया कि कांग्रेस से व्यापारियों को निकालें,क्योंकि स्वराज मिलने पर ये शासन व्यवस्था को अपने प्रभाव में ले लेंगे,उसमें  हिस्सेदारी चाहेंगे. इन व्यापारियों के कारण स्वराज का स्वरुप ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह का हो जायेगा.

गांधीजी ने शुक्ल जी को आश्वस्त किया कि किसी कीमत पर वह ऐसा नहीं होने देंगे. यह भी कि आज़ाद भारत किसानों और मिहनतक़शों के हाथ में  होगा. समकालीनों ने जैसा लिखा है, शुक्लजी ने यह भी सवाल उठाया कि आपके आंदोलन में केवल शिक्षित लोग आ रहे हैं,लेकिन देश में अशिक्षित कामगारों की संख्या अधिक है. उनकी भागीदारी नहीं हुई तब स्वराज मुट्ठी भर लोगों का हो जायेगा. गाँधी जी इस आशंका से सहमत थे और उन्होंने इस विषय पर भी उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा नहीं होगा. गांधीजी ने शुक्ल जी को आश्वस्त करते हुए कहा था कि वे इन वंचित तबकों पर ध्यान देंगे,आप लोगों को भी स्वतंत्रता आंदोलन को साथ देना चाहिए. 'लेकिन आपने तो मेरे भाषण को ही 'हाफ रिलीजस हाफ पोलिटिकल'कह दिया. मैं स्वीकार करता हूँ,लेकिन आंदोलन में अधिक लोगों की भागीदारी के लिए यह करना पड़ता है. ('मुक्ता - कुसुम चतुर्वेदी द्वारा लिखित शुक्ल जी की जीवनी में इस प्रकरण की विस्तृत चर्चा है.)

हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि स्वयं गाँधी ने कई अवसरों पर खुल कर वर्णाश्रम धर्म और जातिप्रथा का समर्थन किया. इस मुद्दे पर गाँधी और टैगोर का चर्चित वैचारिक संग्राम हुआ. 1930 के दशक के शुरू में गाँधी की वैचारिक मुठभेड़ आंबेडकर के साथ होती है. गाँधी खुद को बदलने की कोशिश करते हैं. इसी बीच उन्होंने अछूतों के लिए हरिजन नाम रखा और कांग्रेस की सक्रियता से किनारा कर के दलितोद्धार कार्यक्रम में लग गए. स्वयं को परिवर्तित करने या बदलने की सुविधा हर किसी को मिलनी चाहिए. इसे ही तो रैखिक विकास कहते हैं.


शुक्ल जी  बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में आ गए थे. हिंदी साहित्य के इतिहास, जिसे पहले उन्होंने विकास कहा था, के लेखन का कार्य चल रहा था. 1919 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी और 1920 में उनके राजनीतिक प्रेरणा-स्रोत  तिलक का देहावसान हो गया. 1923 में गाँधी जी से  मिल कर वह उत्साहित अनुभव कर रहे थे. जाने कितने तरह के गृह-कलह और समस्याएं उनके इर्द-गिर्द थीं. आर्थिक समस्याएं अलग थीं. 1920 से 40 तक यदि हिंदी साहित्य ने बहुत कुछ हासिल किया और बदलाव देखे,तो इस बीच मुल्क की राजनीति ने भी अभूतपूर्व करवट ली. 1925 में कानपुर में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का अधिवेशन हुआ. बंगाल के अनुशीलन समिति के तर्ज पर भगत सिंह और उनके साथियों ने हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना (हिसप्रस ) बनाई,जो अनुशीलन समिति से वैचारिक स्तर पर कहीं अधिक परिपक्व था. उत्तरप्रदेश में चंद्रशेखर आज़ाद इसे संभाल रहे थे. आज़ाद से शुक्ल जी ने मुलाकात की और उन्हें अपना समर्थन दिया. 1934 में पटना में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ. इसके पूर्व नेहरू और सुभाष बोस ने अपने समाजवादी रुझान को सार्वजनिक कर दिया था. कांग्रेस के भीतर और बाहर जबरदस्त वैचारिक संघनन चल रहा था.

ऐसे में शुक्ल जी कहाँ थे ? इसे देखना चाहिए. 1933 में आरएसएस के नेताओं ने मालवीय जी से मिलने की इच्छा जाहिर की. मालवीय जी ने यह कह कर इंकार कर दिया कि अब मैं कांग्रेस के सिवा किसी की बात नहीं सुनूंगा. मालवीय जी के इंकार करने की बात सुन कर शुक्ल जी इतने खुश हुए कि उनकी सराहना करने उनके घर पहुंच गए. 1933 में काशी की नवगठित साहित्यिक संस्था प्रसाद परिषद् के अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लेखकों के बीच बोलने के लिए आमंत्रित किया. नेहरू सपत्नीक आये. तिलक के वैचारिक शिष्य ने गाँधी के वैचारिक शिष्य के लिए स्वयं मानपत्र लिखा और संस्था के अध्यक्ष के नाते उसका स्वयं पाठ किया. यह निश्चय  ही रेखांकित करने  योग्य घटना है. 

कूपमंडूक बनारसी लेखकों ने इस गोष्ठी का वहिष्कार किया था. इसे लेकर  हिंदी साहित्य में महीनों बहस चली और सामाजिक प्रतिक्रियावादियों की ओर से शुक्ल जी की खूब आलोचना हुई. अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इस प्रसंग को विस्तार से लिखा है. वह तस्वीर मैंने देखी है जिसमें नेहरू के साथ शुक्ल,प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद बैठे हैं. कमला नेहरू भी हैं. नेहरू ने हिंदी लेखकों की तंगदिली और वैचारिक दरिद्रता पर अपना भाषण केंद्रित किया था. सम्पूर्णानद ने नेहरू जी को आश्वस्त किया कि हिंदी साहित्य के ये तीन धुरंधर आपके विचारों के ही पैरोकार हैं.


शुक्ल जी पर बाल गंगाधर तिलक के व्यक्तित्व और विचारों  का प्रभाव था. लेकिन  अजीब बात है कि वह इस का अधिक प्रकटीकरण नहीं करते. इस प्रभाव का आप अनुमान ही लगा सकते हैं.  यूँ भी शुक्लजी अपने लेखन में राजनीतिक नेताओं की बहुत चर्चा नहीं करते. साहित्य से ही उन्हें फुर्सत कम मिलती थी. उनका पहला लेख 'कविता क्या है'था. कहा जाता है सम्पूर्ण जीवन वह इसी की व्याख्या करते रहे. उनकी अपनी प्रवृत्ति थी,जिसे बहुत कम लोग समझ पाते थे. साहित्य में वह रहस्यवाद का चाहे जितना विरोध करें, अपने व्यक्तित्व में वह रहस्याच्छादित थे. उनकी घनी मूछें निश्चय ही इसमें सहायक रही होंगी. मैंने उनके व्यक्ति चित्र  के बारे में जितना पढ़ा- जाना है,उसके अनुसार वह अंतर्मुखी, मितभाषी और परिश्रमी थे. उन्होंने आलोचना-विवेचना का जो काम चुना था,उसमें समाज से अधिक पोथियों को पढ़ना था. इसलिए किसी रचनाकार लेखक के मुकाबले उनके व्यक्तित्व की तुलना किसी साधक से करनी होगी. प्रेमचंद या प्रसाद रचनाकार थे. उनके व्यक्तित्व को समझना अपेक्षाकृत आसान है, रामचन्द्र शुक्ल को समझना आसान नहीं है. वहाँ परत-दर-परत है. आप कोई एक निर्णय लेते हैं,तब तक आपको अनुभव होगा,शुक्लजी ने तो अमुक जगह ऐसा लिखा है.

कुछ  अंतर्विरोध अनेक बार दिख जायेंगे. ऐसे अंतर्विरोध तिलक में भी दिखते हैं,यही कारण है एक तरफ वह बोल्शेविक नेता लेनिन का ध्यान खींचते हैं,भारतीय कम्युनिस्टों को प्रभावित करते हैं और दूसरी तरफ आरएसएस के सभी संस्थापक सदस्यों के दादागुरु भी पाए जाते हैं. अपने छात्र-जीवन में जवाहरलाल नेहरू तिलक से ही प्रभावित थे. उनके इस प्रभाव को उनके पिता के साथ हुए वैचारिक संवाद ने ख़त्म किया. इसे नेहरू के जीवनीकार बलराम नंदा ने अपनी किताब में स्पष्ट किया है. इस विमर्श को  विस्तार देना विषयांतर होना होगा.

मैं आपको उस विषय पर लाना चाहूँगा,जिस पर सब से अधिक विवाद है. शुक्ल जी की सामाजिक चेतना और उनकी साहित्येतिहास-दृष्टि. उनकी सामाजिक चेतना पर कुछ बातें मैंने पहले की है. इस चेतना के निर्माण में जिन तत्वों की भूमिका होती है,उसकी भी चर्चा  की है. हमारे हिंदी साहित्य संसार में भी लम्बे समय से इस पर चर्चा हो रही है;और संभवतः आगे भी होगी. इससे केवल इस विषय की महत्ता का ही अनुमान किया जा सकता है .

'हिंदी साहित्य का इतिहास'का पहली दफा प्रकाशन 1929 में हुआ. फिर संशोधित-परिवर्धित रूप 1941 में प्रकाशित हुआ. उन्होंने कोई डींग नहीं मारी. विनम्रता से कहा- 'मुझे अपने साहित्य का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कवि-कीर्तन  करना.इस साफगोई अथवा खरे वक्तव्य में शुक्ल जी का दृढ़ व्यक्तित्व कोई भी देख सकता है. एक बेघर आदमी घर बनाता है,तो उसकी जिद होती है कि घर बन तो जाये. उनकी दादी ने अगौना गांव में मिहनत से मिटटी का घर बनवाया था. यह सब कहानी उन्होंने अपनी दादी से सुनी थी. मिहनत,धैर्य और साहस का काम होता है,घर बनाना. जिन्हें केवल मीन-मेख निकालना होता है, छिद्रान्वेषण  करना होता है,वे कुछ और होते हैं.  शुक्ल जी ने लिखा-
'प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है,तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन होता चला जाता है. आदि से अंत तक इन्हीं चित्त वृत्तियों  की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास'कहलाता है. जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक,सामाजिक,सांप्रदायिक और धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है . ...इस दृष्टि से हिंदी-साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रूचि-विशेष का संचार-पोषण किधर और किस प्रकार हुआ.'

किसी खास समय में जनता की विशेष अभिरुचि किस ओर है,उसके मद्देनज़र साहित्य का विवेचन होना चाहिए. इसका  तात्पर्य यह भी है कि विवेचना के कोई कोई स्थायी औजार नहीं हैं और न ही विवेचन कर्ता की व्यक्तिगत रुचि का कोई मूल्य होना चाहिए. यदि उसकी व्यक्तिगत अभिरुचि है भी, तो उसे जनता की अभिरुचि और समय-काल अथवा युग धर्म के नियंत्रण-निदेशन में होना चाहिए. इस आधार पर हर विशेष ज़माने में जनता की विशेष अभिरुचि को ध्यान में रख कर साहित्य का पुनर्मूल्यांकन होते रहना चाहिए. इसलिए यह कहा जाना फिजूल है कि हिंदी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखे जाने की जरुरत है. शुक्लजी मना कहाँ करते है ! वह तो इसकी सिफारिश करते हैं,प्रोत्साहित करते हैं. उन्होंने स्वयं बड़े स्तर पर संशोधन 1941 वाले संस्करण के पूर्व किया. उनके बाद भी अनेक लोगों ने अपने तरीके से संशोधन-परिवर्धन का यह कार्य किया . करना ही चाहिए. लेकिन इससे शुक्लजी का महत्व कम कैसे हो सकता है ? उनका समर्थन करें अथवा विरोध ; उन्हें आधार तो बनाना ही होगा. यही शुक्ल जी का महत्व है.

हिंदी-साहित्य के इतिहास का उन्होंने काल-विभाजन किया. लगभग नौ सौ साल के इतिहास को उन्होंने आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा. फिर इनका ज़माने की अभिरुचि के आधार पर साहित्यिक नामकरण भी किया. आदिकाल को वीरगाथाकाल, पूर्वमध्यकाल को भक्तिकाल, उत्तरमध्यकाल को रीतिकाल और आधुनिक काल को गद्यकाल  कहा. आदिकाल को तो उन्होंने प्राक-इतिहास की तरह लिया,लेकिन भक्ति, रीति और आधुनिक काल पर उनकी गहरी विवेचना हुई.  उन्होंने रीतिकाल को सामाजिक-साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रतिगामी बतलाया और भक्तिकाल में कबीर-रैदास की परंपरा के कवियों की रहस्यवादी  कह कर उपेक्षा की. इसके मुकाबले  सूफी कवि मल्लिक मोहम्मद जायसी को उन्होंने तुलसी और सूर के साथ प्रतिष्ठित किया. आधुनिक काल में उद्दाम राष्ट्रवादी कवियों के मुकाबले उन्होंने सुमित्रानंदन पंत और जयशंकर प्रसाद के छायावादी रुझानों में अधिक रूचि ली, जो रहस्यवाद  का ही एक रूप है. शुक्लजी का तर्क  है, छायावाद  काव्य  का क्षेत्र  है,जबकि रहस्यवाद साधना  का.

रहस्यवाद की  वह उपेक्षा करते हैं. भक्तिकाल के निर्गुनिये कवियों और उनके साहित्य को वह इसी कोटि में रखते हैं. उनका कहना है ये भौतिक जीवन से भागने वाले लोग हैं. रहस्यवाद जीवन से दूर ले जाने वाली प्रवृत्ति है.  इसके मुकाबले सगुन भक्ति कवियों में से एक तुलसीदास पर स्वयं को इस तरह केंद्रित करते हैं कि शेष सब पीछे छूट जाते हैं. शुक्ल जी यहीं उलझ जाते हैं. तुलसीदास जीवन के कवि हैं और कबीर रहस्य और  वैराग्य  के यह कोई कैसे स्वीकार कर सकता है ! तुलसीदास ने अपनी पत्नी के 'महाभिनिष्क्रमण'के उपरांत गृहत्याग किया था. लेकिन कबीर तो कभी घर नहीं छोड़ते. उनकी पत्नी हैं,बच्चे हैं. उन्होंने आखिर तक अपना पेशा भी नहीं छोड़ा. बुनकर बने रहे. चदरिया बुनते रहे. रैदास ने इसी तरह अपनी मोचीगिरि कभी नहीं छोड़ी. निर्गुण परंपरा के अधिकतर कवि अपने पेशे से जुड़े रहे. तुलसीदास ने कभी कोई शारीरिक श्रम किया हो,उत्पादन के ढाँचे से जुड़े हों,इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती. वह मांग कर खाने वाले थे. 'मांगी के खैबो,मसीत में सोइबो .'परजीवी-पराश्रित थे. और शायद इसलिए थे कि वर्णाश्रम समाज-व्यवस्था में उनके लिए कोई शारीरिक कार्य तय नहीं था. यही शास्त्रीय विधान था. वर्णवादी-मनुवादी समाज-व्यवस्था की पहली शर्त है कि व्यक्ति के पेशे का चुनाव स्वयं व्यक्ति नहीं, समाज करेगा. द्विज समाज इसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से जनित संततियों को प्रोत्साहित और दण्डित करने के ख्याल से करता है. दम्पतियों की सजा संततियों को झेलनी पड़ती है. 

उत्पादन प्रक्रिया से दूर रहना द्विज होने की पहली शर्त होती है. भक्ति का दासत्व और दरिद्रता स्वीकारने के बाद भी तुलसीदास और दूसरे द्विज कवियों में शारीरिक श्रम का संस्कार विकसित नहीं हो सका. इससे वह परहेज करते रहे. इसके अनेक परिणाम निकले. इसीलिए हम देखते हैं, व्यक्ति और  काव्य  दोनों  स्तर पर तुलसी के यहाँ भीषण  हाहाकार है. उनके यहां हाय-हाय मची होती है. उल्लास का चिर अभाव होता है. इसके मुकाबले कबीर के यहाँ जीवन की मस्ती और उल्लास अधिक है. यह श्रम का उल्लास है,आत्मनिर्भरता का उल्लास है. और जिस लोक-मंगल की बात शुक्लजी करते हैं,वह भी ठोस रूप में है.

तुलसी का लोक उनका द्विज मंडल है,उनका रामराज द्विजहितकारी है. कबीर के यहाँ रामराज के मुकाबले अमरदेश है,जहाँ कोई वर्णधर्म और जात-पात नहीं है. उनका लोकमंडल विस्तृत है. तुलसीदास के रामराज में 'वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग'हैं,तो कबीर के अमरदेस में  बिना श्रम किये किसी का प्रवेश ही संभव नहीं. यहां सबको अपनी बुनी चदरिया ही ओढ़नी पड़ती है. दूसरे की बुनी चादर और दूसरे का अर्जित भोग रामराज में चलता है. यह दोनों का स्पष्ट अंतर है.

शुक्लजी भक्तिकाल की इन गुत्थियों को क्यों नहीं समझ सके ? शायद इसलिए कि उत्पादन  के साधनों और  तबकों  के संस्कृति पर प्रभाव को वह नहीं आँक सके और दूसरे कि तुलसीदास की कथित लोकप्रियता के झांसे में वह आ गए. लोकप्रियता के परिमंडल और उसकी प्रकृति-प्रवृत्ति की अपेक्षित मीमांसा वह नहीं कर सके.  दो रामों के संघर्ष में वह 'जगत-पसारा 'राम को त्याग'दसरथ घर जाया'राम के साथ खड़े हो गए. रीति काल के दरबारी साहित्य को जिन कारणों से उन्होंने ख़ारिज किया था,उससे अधिक तत्व तुलसीदास को ख़ारिज करने के लिए थे. इसके विपरीत कबीर और निर्गुण धारा के कवियों में जो उन्हें रहस्यवाद दिख रहा था, दरअसल वह दस्तकार तबकों की आध्यात्मिकता थी,जिसकी जरुरत उन्हें श्रम और कारीगरी को नियमित करने के लिए आवश्यक होती है. कविता  में यह उनकी मुक्ति-आकांक्षा बन जाती है. जिस तरह निर्गुण भक्ति धारा के कवियों ने जाति और वर्ग भेद (ऊंच-नीच ) को नाकारा था,वैसे ही,बल्कि उनसे अत्यंत न्यून स्तर पर आधुनिक काल के छायावादी कवियों ने मुक्ति-आकांक्षा की थी. भक्तिकालीन निर्गुण-धारा के कवियों की मुक्ति-आकांक्षा सामाजिक थी, छायावादी कवियों की मुक्ति-आकांक्षा व्यक्तिगत. लेकिन, छायावाद का समर्थन और रहस्यवाद के विरोध में गहरा अंतर्विरोध है .

शुक्ल जी बुद्धि-विवेकवादी थे. यह बुद्धि-विवेकवाद तुलसी की अपेक्षा कबीर में अधिक घना है. उनका सब कुछ जीवन के अनुभव और विवेक से लिया हुआ है,अर्जित किया हुआ है. तुलसीदास पुस्तकीय ज्ञान की बातें अधिक करते हैं,जिसे वह शास्त्र-निगम कहते हैं. वहाँ जो जीवन है,उस पर गाढ़ी रामनामी है. वहाँ रहस्यवाद से अधिक उलझाव है. लेकिन,यह होता, तो यह होता तो फिजूल की चर्चा है. शुक्ल जी ने जो लिखा है,जो उपलब्ध है,जिसकी मान्यता है, वही सच है. और वह है,जैसा कि गजाननमाधव मुक्तिबोध ने अपने निबंध 'मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू'में लिखा है 'पंडित रामचंद्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवादग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक-दूसरे से ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्लजी (जिनके प्रति हमारे मन में अत्यंत आदर है) सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हों. तुलसीदास को पुरातनवादी कहा जायेगा कबीर की तुलना में, जिनके विरुद्ध शुक्लजी ने चोटें की है.'
शुक्लजी के प्रति अत्यंत सम्मान वाली बात मुक्तिबोध की है,मेरी नहीं. मुक्तिबोध की तरह अनेक लोग हैं जो उनके प्रति गहरा सम्मान रखते हुए उनके मत के प्रति अपना विरोध दर्ज करते हैं. यही तरीका है. पूर्व के ऋषि-चिंतकों के मत का निषेध करना उनके प्रति असम्मान प्रदर्शित करना नहीं है और उनके मत का पहलवानी के तरीके से समर्थन करना भले ही किसी को उनकी पूजा लगे,वस्तुतः उनकी परंपरा को प्रदूषित करना है. एक बड़े समादृत आलोचक ने यही किया है.


हम जातिवादिता के आरोप को भी देखना चाहेंगे. शुक्लजी ने कबीर पर चोटें की. यह सच है. लेकिन इसमें जातिवाद कहाँ है ? शुक्लजी के समय तक जो जानकारी थी,उसके अनुसार कबीर और तुलसी समान सामाजिक पृष्ठभूमि के थे. उस वक़्त तक कबीर का 'दलितीकरण'नहीं हुआ था. तत्कालीन जनश्रुतियों के अनुसार दोनों का जन्म ब्राह्मण परिवारों में हुआ था. कबीर 'विधवा ब्राह्मणी'के पुत्र थे,तो तुलसी का जन्म हुलसी-आत्माराम दुबे के घर हुआ था. कबीर को जन्मते यदि लहरतारा सरोवर किनारे रख दिया गया था,तो तुलसी भी उन्हीं के शब्दों में 'माता-पिता जग जाइ  तज्यौ'थे. एक का पालन नीमा जुलाहे के घर हुआ,तो दूसरे का पालन चुनिया दासी के घर. दोनों कुजात ब्राह्मण. यदि कोख और जन्म की अपेक्षा जीवन का परिवेश प्रधान है,तो दोनों निम्नजातीय. यह अलग बात है कि तुलसी में द्विज  बनने की आकांक्षा इतनी बलवती है कि वह रामचरित मानस में वर्णवाद के समर्थन में खड़े दिखते हैं. जब वह विफल होते हैं,कवितावली में उनका विद्रोह उठ खड़ा होता है. तुलसी के इन अंतर्विरोधों पर हरिशंकर परसाई ने एक संक्षिप्त टिप्पणी की है. शुक्लजी ने तुलसी को इस नजरिये से नहीं देखा. लेकिन उन्होंने उन्हें ब्राह्मण कवि के रूप में देखा, यह कहना शायद सही नहीं होगा. उनकी किताब त्रिवेणी के तीन कवियों में दो तो स्पष्टतः गैर द्विज हैं,तीसरे तुलसी हैं. और शुक्लजी में जातिवाद देखने वालों से विनम्रता पूर्वक कहना चाहूँगा कि जिस रीतिकाल को उन्होंने सिरे से ख़ारिज किया, उसमें क्या केवल अद्विज रचनाकार थे ? दरबारों में किस तबके का प्रवेश संभव था ? रीतिकाल के सबसे समादृत कवि केशवदास की बिरादरी क्या थी ?

तुलसी के  समर्थन और कबीर की उपेक्षा का आधार जाति नहीं, बल्कि वह अभिरुचि थी,जिससे  शुक्लजी अपने आरंभिक दौर में बंधे थे. मेरी समझ से यह अभिरुचि उनके समय की भी अभिरुचि थी. इसकी गहराई में जाने के लिए हमें उस हिंदी नवजागरण की तहों में जाना होगा,जिनकी कुछ समय पहले तक हमारे यहाँ खूब चर्चा थी. इस नवजागरण ने उत्तरप्रदेश के अवध इलाके में फूली-फली उस साँझा-संस्कृति की जड़ें हिला दी,जिस पर आज भी कुछ लोग मोहित हैं. यह साँझा-संस्कृति उच्चवर्गीय मुसलमानों की संस्कृति के साथ कश्मीरी पंडितों और कायस्थों के एक तबके का हेलमेल अथवा सांस्कृतिक समर्पण था. यह हिन्दुओं के एक उच्चवर्गीय और पढ़े-लिखे हिस्से का फ़ारसी लिपि और उर्दू  जुबान, शेरो-शायरी, मुस्लिम पहनावे और खानपान से जुड़ाव था. यही गंगा-जमुनी अथवा साँझा संस्कृति थी.
हिन्दुओं के एक संभ्रांत हिस्से ने इससे बगावत की. नागरी  लिपि और हिन्दू संस्कृति की बात की. यह आंदोलन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में चला,लेकिन बीसवीं सदी के आरम्भ यानि कम से कम तीन दशकों  तक इसका प्रभाव बना रहा. शुक्लजी का इससे प्रभावित होना दिखता है. १९२२ में उनके द्वारा अनूदित एक उपन्यास 'शशांक'मैंने पढ़ा है,जो बंगला लेखक राखालदास बंद्योपाध्याय के उपन्यास का हिंदी अनुवाद है. इस की भूमिका भी शुक्लजी ने लिखी है. वह लिखते हैं-  
'मुसलमानी या फारसी तमीज के कायल इसमें यह देख सकते हैं कि हमारी भी अलग शिष्टता थी,अलग सभ्यता थी,पर वह विदेशी प्रभाव से लुप्त हो गयी. वे राजसभाएँ न रह गईं. हिन्दू राजा भी मुसलमानी दरबारों की नक़ल करने लगे; प्रणाम के स्थान पर सलाम होने लगा. हमारा पुराना शिष्टाचार अन्तर्हित हो गया और हम समझने लगे कि हम में कभी शिष्टाचार था ही नहीं.'  

यह मंतव्य शुक्लजी का है और इस वक्तव्य में उनकी पीड़ा समझी जा सकती है. साँझा-संस्कृति में  उच्चवर्गीय मुसलमानों और वैसे ही हिन्दुओं की जो सांस्कृतिक एकता बनी थी, वह कालांतर में हमारी तथाकथित सेक्युलर सोच की बुनियाद बन गयी. सेक्युलरवाद भी उच्चवर्गीय हिन्दुओं और मुसलमानों का एक साँझा मंच बन  कर रह गया. इससे दलित और बहुजन तबका कभी नहीं जुड़ सका. यह सोचने की बात है कि आम्बेडकर जैसे महत्वपूर्ण नेता,जिन्होंने दलित प्रश्न को राजनीति के केंद्र में लाया,सेक्युलरवाद पर कभी जोर क्यों नहीं देतेइस परिप्रेक्ष्य में यह समझा जा सकता है कि शुक्लजी के वैचारिक आवेग क्या थे. यही आवेग उन्हें तुलसी के नजदीक ले गया. उन्हें महसूस हुआ कि तुलसी के द्वारा आमजनों में एक स्वतंत्र हिन्दू सभ्यता-संस्कृति का विकास संभव है. प्रेमचंद के नेतृत्व में कबीर की परम्परानुसार हिन्दू-मुस्लिम किसानों और कारीगरों की मिली-जुली संस्कृति की प्रस्तावना अभी आरंभिक दौर में थी,इसलिए शुक्लजी ने तुलसीदास का महिमा-मंडन किया.
प्रेमचंद ने तो तुलसीदास को पढ़ने की जरूरत भी नहीं समझी थी. बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा कोलकाता में आयोजित एक तुलसी जयंती समारोह में उन्होंने जाने से इंकार कर दिया था. बनारसीदास जी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने  बतलाया है कि मैं तुलसीदास पर नहीं बोलना चाहता. लगभग इन्हीं दिनों की बात होगी जब शुक्लजी को कबीर के  महत्व का अनुभव हुआ  होगा. इसका पता मुक्ता- कुसुम  चतुर्वेदी द्वारा लिखी शुक्लजी की जीवनी में वर्णित एक प्रसंग से मिलता है. उनके ज़माने में भी एक बार अयोध्या की बाबरी-मस्जिद पर हमला हुआ था. यह १९३४  की बात है. कुछ लोगों ने उक्त मस्जिद के एक स्तम्भ को तोड़ डाला था. शुक्लजी के ज्येष्ठ पुत्र केशवचन्द्र शुक्ल फैज़ाबाद में ही डिप्टी कलेक्टर थे. उनसे जब विस्तृत जानकारी मिली,तब वह आहत हुए. सांप्रदायिक झगड़ों से आज़ादी की लड़ाई बाधित होगी, देश कमजोर होगा,जैसे ख्याल उन्हें परेशान कर रहे थे. अब वह बहुत कुछ बदल चुके थे. मुल्क की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों ने उन्हें प्रभावित किया था. गांधीजी को समर्थन का आश्वासन देने वाले,अपने से पाँच साल छोटे जवाहरलाल नेहरू को मानपत्र देने वाले रामचंद्र शुक्ल ने भावुक हो कर अपने बेटे से कहा- 'अब कबीर पर लिखने का समय है.'लेकिन अफ़सोस कि उसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया. २ फ़रवरी १९४१ को मात्र चौबीस घंटे की बीमारी में वह अचानक चल बसे.


तो क्या, शुक्ल जी बिलकुल खारिज कर दिए जाने योग्य है ? यह यह कर उन्हें ख़ारिज कर दिया जाय कि साहित्य का गलत इतिहास लिख कर उन्होंने हमें भटका दिया,जैसा कि कुछ लोग आज नेहरू को यह कहते हुए ख़ारिज करने में लगे हैं कि उन्होंने देश को रसातल में ला दिया. ऐसा कहना शायद अपराध होगा. मैं शुक्लजी के लिखे पर न थोथी दलील देने के पक्ष में हूँ,न ही उन्हें नज़रअंदाज़  करने के. वह आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह  हैं,और रहेंगे. हम उनके लिखे की बार-बार मीमांसा करेंगे. उन्हें उलट-पुलट देंगे,लेकिन उनके महत्व को नकारना स्वयं को नकारना होगा. 

उन्होंने रीतिकाल के मुकाबले  भक्तिकाल को रेखांकित कर एक दिशा दे दी. सब कुछ उन्हें ही नहीं कर देना था. बाद की पीढ़ियों को भी कुछ करना था. यही परंपरा  है, या होनी  चाहिए. आधुनिक यूरोपीय दर्शन परंपरा में हेगेल के भाववादी दर्शन को कार्ल मार्क्स  ने व्यवस्थित किया. मार्क्स ने कहा- हेगेल का दर्शन सिर के बल खड़ा था,मैंने उसे पैर के बल खड़ा कर दिया. हेगेल था,इसीलिए मार्क्स संभव हुआ. विकास का सिलसिला ऐसे ही चलता है.
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प्रेमकुमार मणि
9431662211 

कोरोना वायरस के बाद क्या होता है ? : यान लियांके

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कोरोना का कहर चीन में दिसम्बर से शुरू हो गया था. अब वह इसपर जीत के जश्न की मुद्रा में है. कहानी सिर्फ इतनी नहीं है ? इस बीच बहुत कुछ घटित हुआ. यातना,पीड़ाऔर असहायता की जीती जागती कहानियाँ विजय के दर्प में  मौन हो गयीं.

चीनी कथाकार प्रो. यान लियांके ने इसे  स्मृतियों पर पाबंदी के रूप में देखा है. स्मृतियों को न लिखने के दबाव का ज़िक्र यान लियांके करते हैं. सत्ता चाहे किसी भी देश की हो अपनी अक्षमता और असंवेदनशीलता पर पर्दा डाल रहीं हैं. यह बेचैन करने वाला भाषण हमारे लिए भी जरूरी है. इसका समय से अनुवाद किया है लेखक-वैज्ञानिक यादवेन्द्र ने. प्रोफेसर यान लियांके  ने यह भाषण हांगकांग युनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सृजनात्मक लेखन के ग्रेजुएट विद्यार्थियों को 21फरवरी 2020को दिया था जिसका चीनी से अंग्रेजी अनुवाद ग्रेस चोंगने किया है. 
प्रस्तुत है 



यान लियांके
स्मृतियाँ झूठ से सामना होने पर सवाल जरूर पूछेंगी                
अनुवाद यादवेन्द्र







1958में चीन के एक गाँव में जन्मे यान लियांके चीन के अत्यंत प्रतिष्ठित कथाकार हैं जिनके अनेक कथा संकलन और उपन्यास प्रकाशित, पुरस्कृत और विभिन्न भाषाओँ में अनूदित हैं. चीन के सर्वप्रतिष्ठित लू शुन प्राइज और लाओ शे अवार्ड से सम्मानित हो चुके हैं और फ्रांज काफ़्का प्राइज सहित अनेक विश्वस्तरीय साहित्यिक सम्मानों के अधिकारी रहे हैं. मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज के लिए वे एकाधिक बार शीर्ष दावेदार भी रहे हैं. कभी चीन की सेना में प्रोपेगैंडा लेखक रह चुके यान लियांके अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए देश के शासन के बार बार कोपभाजन बनते रहे हैं- उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे और देश से बाहर यात्रा करने पर रोक लगायी गयी. उनकी ड्रीम ऑफ़ दिंग विलेज, सर्व द पीपल, लेनिन्स किसेज, द ईयर्स, मंथ्स, डेज इत्यादि चर्चित किताबें हैं. 




प्यारे  विद्यार्थियों,
यह मेरा पहला ई लेक्चर है पर शुरू करने से पहले मैं तुमलोगों को थोड़ा पीछे ले जाना चाहता हूँ. 

जब मैं छोटा था और एक ही गलती बार-बार दोहराता था तो मेरे माँ  पिताजी मुझे खींच कर सामने खड़ा करते और मेरे माथे की ओर ऊँगली दिखा कर कहते : तुम इतने भुलक्कड़ कैसे हो गए?

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो चीनी भाषा के क्लास में कई बार ऐसा होता था कि सैकड़ों बार याद की हुई कविता या कोई और पाठ ठीक से सुना नहीं पाता था- तब  टीचर मुझे खड़ा कर देते और पूरी क्लास के सामने कहते : तुम इतने भुलक्कड़ कैसे हो गए?

स्मरण करने की जो क्षमता है वह ऐसी मिट्टी है जिसमें स्मृतियाँ पनपती हैं. इस मिट्टी में पैदा होने वाले फल हैं स्मृतियाँ. स्मृतियाँ और किसी चीज को याद रखने की क्षमता ही मनुष्य को पशुओं या पेड़ पौधों से अलग करती है. यह विकास और परिपक्वता की हमारी पहली जरूरत है. कई मौकों पर मैं यह मानने को मजबूर होता हूँ कि यह भोजन करने, कपड़े पहनने या साँस लेने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है- एक बार हम अपने स्मृतियों से टूट कर अलग हो जाएँ तब हम यह भी भूल जाएँगे कि खाना कैसे खाया जाता है... या खेत में हल कैसे जोता जाता है. सुबह जब हम उठेंगे तब हमें यह भी याद नहीं रहेगा कि हमने पहनने वाले कपड़े कहाँ रखे हैं. हमें भरोसा होने लगेगा कि राजा कपड़ों के बगैर जब नंगा होता है तभी सुंदर लगता है.

पर आज मैं इन बातों को क्यों याद कर रहा हूं? इसकी वजह है कोविड-19- एक राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा जिसको अभी तक वास्तव में काबू नहीं किया जा सका है... परिवार अभी भी यहाँ  वहाँ  बिछुड़े पड़े हैं और पूरे हुबेई, वुहान और दूसरे शहरों में ह्रदय विदारक चीत्कारें अब भी सुनाई दे रही हैं. हालाँकि यह भी सही है कि चारों तरफ विजय गान गूँज  रहे हैं.. क्योंकि अपने अनुकूल आँकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं. चारों ओर लाशें बिछी पड़ी हैं और लोग शोक में डूबे हुए हैं ... फिर भी विजयोल्लास भरे गीत गाये जाने को तैयार हैं और लोग यह घोषणा करने के लिए तत्पर भी कि "ओह, देखो कितने बुद्धिमान और महान हैं हमारे लोग!"

जब से यह कोविड-19हमारे जीवन में आया है तब से लेकर अब तक हमें बिल्कुल नहीं मालूम कि वास्तव में कितने लोगों की जान इसने ली- कितने लोग अस्पतालों में मर गए और अस्पतालों से बाहर कितने मर खप गए. हमें इस अफरातफरी में इसका मौका ही नहीं मिला कि हम किसी तरह की छानबीन करें और इस बारे में किसी से कोई प्रश्न पूछें.... लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि ऐसी छानबीन और सवाल समय के साथ धूमिल पड़ जाएँगे  या भुला दिए जाएँगे  और हमारे सामने यह हादसा हमेशा-हमेशा के लिए एक गूढ़ रहस्य बनकर खड़ा रहेगा. आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए हम विरासत में जीवन मरण

का ऐसा उलझा हुआ मकड़जाल छोड़ जाएँगे  जिसकी किसी की स्मृति में भी कोई जगह नहीं होगी.

जब यह महामारी थोड़ा थमे और हमें दम लेने दे तब हमें शियांगलिन चाची (लू शुन के उपन्यास की एक बेवकूफ़ किसान पात्र) की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए जो हमेशा यही रट लगाए रहती  थी :
"मुझे यह तो मालूम था कि सर्दियों की बर्फबारी में जंगली जानवर गाँव  में घुस आएँगे  और झपट्टा मारकर किसी को भी उठा ले जाएँगे  क्योंकि उस समय उनके पास पहाड़ पर खाने के लिए कुछ नहीं होता... लेकिन मुझे इसका जरा भी इल्म नहीं था कि वे बसंत ऋतु में भी आ सकते हैं."
या फिर हमें आ क्यू की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए- आ क्यू भी लू शुन के उपन्यास का एक किरदार है जो इस मुगालते में जीता था कि वह बहुत कामयाब है और दूसरों से श्रेष्ठ इंसान है... और बार-बार पिटाई खाने पर, अपमानित होने पर और यहाँ तक के मृत्यु के मुहाने पर  खड़ा होकर भी चिल्लाता रहता था कि आखिर विजय हमारी ही हुई .

अतीत में और वर्तमान में भी ऐसा क्यों होता रहा है कि इंसान, परिवार, समाज, युग या देश पर एक के बाद एक विपत्ति आती रही है? और इतिहास की ये त्रासद विभीषिकाएँ एक-एक बार में हजारों लाखों सामान्य लोगों को अपना शिकार बनाती रहीं. इनके पीछे अनगिनत कारण हो सकते हैं जिनको हम जानते नहीं, जिनके बारे में हम तहकीकात नहीं करते या जिनके बारे में हमें हिदायत दी गई है कि कोई सवाल नहीं करना है (और हम उनका बड़ी शालीनता के साथ सिर झुका कर पालन भी करते हैं). इन सब के पीछे सिर्फ और सिर्फ एक फैक्टर है- मनुष्य, हम सब सामूहिक रूप में जिसके लिए मनुष्य जाति का नाम दे सकते हैं, हम सब चीटियों की तरह नाचीज़ हैं- और हम भूल जाने वाले लोग हैं, स्मृतियों को पीछे छोड़ देने वाले लोग.

हमारी स्मृतियाँ  नियंत्रित की जा रही हैं, अदला बदली की जा रही हैं और मिटाई भी जा रही हैं. हम सिर्फ यह याद रखते हैं कि दूसरों ने हमें क्या-क्या याद रखने को कहा... और बड़ी मासूमियत से यह भूल जाते हैं कि भूल जाने को क्या कहा गया. जब हमें तरेर कर आंख दिखाई जाती है, हम खामोश हो जाते हैं... और जब हुक्म दिया जाता है तब जोर-जोर से गाने लगते हैं.

इस जमाने में स्मृतियाँ एक  औजार की तरह हो गई हैं जिनसे सामूहिक और राष्ट्रीय स्मृतियाँ  निर्मित की  जाती हैं- ध्यान रहे यह निर्मिति उन्हीं से मिल कर बनती है जिन्हें हमें भूलने को कहा जाता है या याद करने को कहा जाता है.

एक उदाहरण देता हूँ - मैं उन पुरानी किताबों की धूल भरी जिल्दों की बात नहीं कर रहा हूँ जो अब अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं बल्कि बिल्कुल आसपास की- 20साल पहले की- जो कुछ प्रमुख घटनाएँ घटी हैं उनको याद करते हैं... वैसे घटनाएँ जो तुम्हारी तरह के 80और 90के दशक में पैदा हुए नौजवानों के लिए प्रासंगिक हैं  और जिनके तजुर्बे को तुम याद कर सकते हो- जैसे एड्स, सार्स और कोविड-19जैसी राष्ट्रीय आपदाएँ - ये सभी मानव निर्मित त्रासदियाँ हैं? या ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके सामने इंसान का कोई वश नहीं चलता- जैसे तांगशान या  वेंचुआन के विनाशकारी भूकंप? क्या दोनों तरह की विपत्तियों में ह्यूमन फैक्टर को एक समान माना जा सकता है? क्या यह नहीं लगता कि 17साल पहले फैली सार्स महामारी में और इन दिनों के कोविड-19महामारी के फैलने का पैटर्न एक ही तरह का है? क्या इन दोनों घटनाओं का थिएटर डायरेक्टर एक नहीं लगता? 17सालों के अंतराल के बाद बिल्कुल एक ही तरह का घटनाक्रम हमारी आँखों के सामने फिर से दोहराया गया है. इंसान के तौर पर हमारी हैसियत ही क्या है धूल के सिवा? हम इतने अड़ने और  अक्षम हैं कि नाटक के डायरेक्टर के बारे में जान पाएँ ... और न ही हमारे पास कोई ऐसा कोई कौशल है जिससे स्क्रिप्ट लिखने वाले के विचारों और धारणाओं के सूत्र पकड़ सकें.

पर क्या जब अगली बार फिर से एक बार हमारी आँखों  के सामने यह मौत का नाटक दोहराया जाएगा तो हमें अपने आप से यह सवाल नहीं करना चाहिए कि पिछली बार जब ऐसा हुआ था उस समय की हमारी स्मृतियाँ  कहां गुम हो गईं? हम उनके बारे में क्यों नहीं याद करते?

कोई तो होगा जिसने हमारी स्मृतियों को धो पोंछ कर मिटा डाला, लीप पोत कर सब कुछ साफ कर दिया.... कौन है वह?

सड़क पर, खेत में जो गंदगी पड़ी रहती है कूड़ा कचरा पड़ा रहता है-  स्मृतिविहीन लोग वही कूड़ा कचरा हैं. उन्हें कुचलते हुए जूते मनमाफिक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ते जा रहे हैं.

स्मृतिविहीन लोग वास्तव में लकड़ी के उन लट्ठों और तख्तों की मानिंद होते हैं जो उस पेड़ को भूल जाते हैं जिसने उन्हें पैदा किया, जीवन दिया. ध्यान रखो, ऐसे लोगों के जीवन पर कुल्हाड़ियों और आरियों का भरपूर नियंत्रण होता है और उनका भविष्य यही तय करते हैं.

यदि हम लिखने पढ़ने से प्यार करने वाले लोग, जीवन को एक अर्थ देने वाले लोग अपनी स्मृतियों से विमुख हो जाएँ - चाहे वह जीवन के स्मृतियाँ हों या रक्तपात की स्मृतियाँ- तब लिखने का मतलब ही क्या रह जाता है? साहित्य का मूल्य फिर क्या बचेगा? ऐसे में  किसी समाज को लेखकों की आवश्यकता ही क्या हैआपके अथक परिश्रम और अध्यवसाय से उपजे हुए साहित्य और अनेकानेक किताबों को कठपुतलियों से अलग कैसे माना जा सकता है जब उन सब  के विषय और रचना शैली को नियंत्रित कोई और कर रहा हो? यदि रिपोर्टर जो देखते हैं उसे अपनी रिपोर्ट में न लिखें, लेखक अपनी स्मृतियों और भावनाओं को अपनी रचनाओं में स्थान न दें और आम इंसान हरदम गीतात्मक शैली में पॉलिटिकल करेक्टनेस की ढपली बजाते रहें तो हाड़ मांस और रक्त प्रवाह वाले हम इंसानों को धरती पर आकर जीने का मकसद भला कौन बताएगा?

फर्ज़ करो- फांग फांग जैसे लेखक वुहान में मौजूद नहीं होते तब क्या होता? उन्होंने अपनी डायरी अपनी कलम, व्यक्तिगत स्मृतियाँ  और भावनाएँ  किसी दबाव में आकर इतिहास में  दर्ज करने से रोकी नहीं.

ऐसा नहीं है कि फांग फांग ही ऐसा करने वाली इकलौती इंसान हैं बल्कि उनकी तरह के हजारों लाखों लोग हैं जो अपने मोबाइल के माध्यम से संकट में मदद की गुहार लगाते रहे. पर हमने क्या सुना? क्या देखा?

कभी-कभी ऐसा होता है कि हमारे दौर की अभूतपूर्व झंझा में हमारी स्मृतियों की फालतू के फोम, पागल लहर और शोर कहकर उपेक्षा की जाती है... नतीजा यह होता है कि समय की तेज धार उन आवाजों को उन शब्दों को कुचलती हुई मिटाती हुई आगे बढ़  जाती है- लगता है जैसे कभी उनका अस्तित्व था ही नहीं. समय का अभियान जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है सब कुछ धुंधला पड़ता हुआ ओझल हो जाता है.  हमारा मांस हमारा लहू हमारा शरीर हमारी आत्मा सब तिरोहित हो जाते हैं यद्यपि  ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ बिल्कुल ठीक दुरुस्त चल रहा है. ऐसे दौर में वह छोटा सा आलंब भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता जिससे ध्वस्त होती हुईं दुनिया को सहारा देकर फिर से खड़ा किया जा सके. तब  इतिहास ऐसी दंत कथाओं, भूले बिसरे और काल्पनिक किस्से कहानियों का एक संकलन बन कर रह जाता है जिनमें न तो कोई सच्चाई होती है न आधार. इस नजरिए से देखो तब समझ आएगा कि कितना जरूरी है  हमारा आसपास घट रही महत्वपूर्ण घटनाओं को याद रखना और अपनी स्मृतियों को बगैर किसी हस्तक्षेप के अ संशोधित और सच्चे रूप में सुरक्षित संरक्षित रखना.

जब भी हम कभी छोटा से छोटा सच भी बोलेंगे तो इन्हीं स्मृतियों के जखीरे से हमें यथार्थता और साक्ष्य का आधार मिलेगा. सृजनात्मक लेखन के विद्यार्थियों के लिए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. तुम में से अधिकांश लोग अपना जीवन लेखन, सत्यान्वेषण और स्मृतियों को उद्घाटित करने को समर्पित करने का सपना देखते हो. उस दिन की कल्पना करो जब हमारी तरह के लोग भी अपनी बचीखुची प्रामाणिकता और स्मृतियाँ  खो देंगे ..... तो फिर क्या इस दुनिया में किसी प्रकार की निजी या ऐतिहासिक प्रामाणिकता और सत्य के बचे रहने की कोई उम्मीद शेष बचेगी?

चलो मान लेते हैं कि हमारी याददाश्त की क्षमता और संचित स्मृतियाँ  दुनिया को या इसकी सच्चाई को बदलने में किसी तरह की भूमिका नहीं निभा सकतीं लेकिन जब हम केंद्रीकृत और नियंत्रित "सच"के सामने खड़े होंगे तो इतना तो निष्कर्ष निकाल ही सकते हैं कि कहीं किसी चीज पर पर्दा डाला गया है .....  या समग्र परिदृश्य से कुछ ऐसा जरूर है जो छूट रहा है. हमारे अंदर कितनी भी क्षीण आवाज हो लेकिन वह बोलेगी जरूर: "यह सच नहीं है."कोविड-19महामारी को ही लें तो जब हालात सुधरेंगे तब भी हमें इंसानों के, परिवारों के और हाशिए पर धकेल दिए गए समाजों के शोकाकुल क्रंदन और चीत्कार जरूर सुनाई पड़ेंगे चाहे बाहर कितना भी कानफोड़ू उत्सव और विजयोल्लास का तमाशा किया जा रहा हो.

स्मृतियाँ  दुनिया बदल नहीं सकतीं लेकिन हमें वास्तव में दिलेर बनाती हैं, हममें हौसला भरती हैं.

बहुत मुमकिन है कि स्मृतियाँ हमें वास्तविकता को बदल डालने की शक्ति से लैस न कर पाएँ  लेकिन जब जब झूठ से हमारा आमना सामना होगा हमारे दिलों में सवाल हूक बन कर जरूर उभरेंगी. जब भविष्य में हमारे सामने किसी दिन दूसरा "ग्रेट लीप फॉरवर्ड"अभियान आकर खड़ा हो जाएगा तो कम से कम अपने बुनियादी कॉमन सेंस के आधार पर हम समझ तो सकेंगे कि  न तो रेत से लोहा बनाया जा सकता है और न ही हवा से खाद्यान्न. इसी तरह यदि "कल्चरल रिवॉल्यूशन"का दूसरा संस्करण हमारे सामने आ खड़ा हो तो हम इतना तो तय कर ही सकेंगे कि हमें अपने अभिभावकों को न तो जेल में डालने देना है  और न ही फाँसी पर चढ़ने देना है.

प्यारे विद्यार्थियों, हम सभी आर्ट्स के विद्यार्थी हैं और अपना जीवन भाषा के माध्यम से यथार्थ और स्मृतियों से जुड़े रहकर बिताने को तत्पर हैं. अभी थोड़ी देर के लिए हम सामूहिक या राष्ट्रीय या जातीय स्मृतियों की बात छोड़ देते हैं और सिर्फ अपनी निजी स्मृतियों की बात करते हैं- इतिहास गवाह है कि हमेशा राष्ट्रीय और सामूहिक स्मृतियाँ  हमारी निजी स्मृतियों के ऊपर अपनी लंबी चादर फैला देती हैं और अंततः मनमाफ़िक उसे बदल डालती हैं. अभी आज के इस दौर में जब कोविड-19महामारी पूरी तरह से जीवित है और हमारी स्मृति का हिस्सा नहीं बनी है तब भी हमें विजय गीत और हर्षोल्लास के तेज ढोल नगाड़े के शोर चारों ओर सुनाई दे रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में मुझे उम्मीद है कि आप में से हर एक नौजवान और हम सभी जिन लोगों ने कोविड-19का अत्यंत भयावह तांडव देखा है उन इंसानों की तरह बर्ताव करेंगे जिनकी स्मृतियाँ  अभी धुली-पुंछी नहीं हैं- जिनके बुनियादी अस्तित्व में स्मृतियों से फूट कर निकली स्मृतियाँ जीवित हैं.

निकट भविष्य में उम्मीद है हम यह देखेंगे कि पूरा देश कोविड-19के ऊपर विजय के उपलक्ष में संगीत और गीतों के जश्न में  झूम रहा है. मैं उम्मीद करूँगा  कि हम उन खोखले लेखकों की तरह बाहर जो ढोल नगाड़े बज रहे हैं उसकी प्रतिध्वनि और भोंपू नहीं बनेंगे बल्कि अपनी स्मृतियों को  पूरी प्रामाणिकता के साथ धारण कर जीवन यापन कर रहे लोगों की तरह बर्ताव करेंगे.

जब यह उत्सव अपने पूरे शबाब पर होगा तो हम स्टेज पर भागीदार अभिनेता और वाचक बन कर अपना पार्ट नहीं अदा करेंगे और न ही दर्शकों के बीच शामिल होकर करतल ध्वनि से इस तमाशे का स्वागत करेंगे. हमें यदि स्टेज पर जाना ही पड़ा तो हम किसी कोने में डबडबाई आँखों  के साथ चुपचाप उदास खड़े रहेंगे. यदि हमारी प्रतिभा, साहस और मानसिक शक्ति हमें फांग फांग जैसा लेखक नहीं बना पाती तो कम से कम हम उन लोगों में कतई शामिल नहीं होंगे जो फांग फांग का मजाक बनाते हैं और उनकी सच्चाई  पर संदेह करते हैं. विजय उत्सव मनाने के बाद यदि हम अमन चैन और समृद्धि की ऊँचाई  हासिल  कर भी लेते हैं तब भी हम ऊँचे  स्वर में भले ही कोविड-19के उत्स और प्रसार के बारे में प्रश्न न कर सकें लेकिन धीमी आवाज में या फुसफुसाहट में ही सवाल जरूर पूछेंगे- यह भी हमारी अंतरात्मा और साहस का प्रतीक है. 
ऑस्चविट्ज कंसंट्रेशन कैंप के बाद कविताएँ  लिखना निश्चय ही क्रूर कर्म था लेकिन यदि हम अपने शब्दों से, अपनी बातचीत से, अपनी स्मृतियों से इस क्रूरता को पोंछ डालेंगे तो यह और भी ज्यादा बर्बर कर्म होगा....कहीं ज्यादा निर्दयतापूर्ण और भयावह.

यदि हम लाई वेनलियांग जैसे व्हिसल ब्लोअर नहीं बन सकते तो कम से कम व्हिसल सुन कर चौकन्ना हो जाने वाला इंसान तो बनना ही चाहिए.


यदि हम जोर से चिल्ला कर अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम फुसफुसा कर तो जरूर कहें. यदि हम फुसफुसा कर भी अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम चुपचाप खड़े रहने वाले ऐसे इंसान तो जरूर बनें  जिन्होंने अपनी स्मृतियाँ  बचा कर रखी हैं. कोविड-19 की शुरुआत, इसके नरसंहार और फैलाव के अपने अनुभवों को अपने अंदर संजोकर रखें और जब चारों ओर सड़क चौराहों पर इस महामारी को पराजित कर देने का विजय पर्व मनाया जाए, समवेत स्वर में गीत गाते हुए मार्च किया जाए तो हमें चुपचाप सिर झुका कर किनारे खड़े हो जाना चाहिए- हम दरअसल वे लोग हैं जिनके मनों में अनगिनत कब्रें खुदी हुई हैं, मौतों की ह्रदय विदारक स्मृतियाँ  अंकित हैं ... हम ये तमाम बातें भूले नहीं हैं और एक न एक दिन ऐसा आएगा जिसमें हम ये तमाम स्मृतियाँ  भविष्य की पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपकर प्रयाण कर जाएँगे.
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यादवेन्द्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोडपटना - 800014
मोबाइल - +91 9411100294

ऋषि कपूर : सौन्दर्य का साधारणीकरण : सुशील कृष्ण गोरे

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ऋषि  कपूर
सौन्दर्य का  साधारणीकरण                         
सुशील कृष्ण गोरे






1973 का वर्ष हिंदी सिनेमा का एक बहुत निर्णायक वर्ष था. 70 का पूरा दशक एक-दूसरे को लपेटती और एक दूसरे के ऊपर से निकलने की जद्दोज़हद करने वाली कई फिल्मी धाराओं का दशक रहा है. सच कहा जाए तो भारतीय सिनेमा और ख़ास तौर से हिंदी सिनेमाई इतिहास का यह दशक बहुत सारे प्रयोगों एवं परिवर्तनों से भरा था. कुछ परिभाषाएं पर्दे से हट रही थीं या यूँ कहा जाए कि तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक दबावों के बरक्श उभरने के लिए बेताब मनोभावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम प्रयोगों के लिए जगह छोड़ रही थीं.

सिनेमा अपने पिछले दो दशकों के निर्माण एवं चित्रण के स्थूल दायरों को मानो खुद तोड़ने के लिए किसी मौके का इंतजार कर रहा था. अब तक हमारे सिनेमा को एक पहचान और एक दर्शक वर्ग प्राप्त हो चुका था. राजा हरिश्चंद्र से शुरू हुआ फिल्मी सफर आराधना तक आते-आते एक महत्वपूर्ण कालखंड पार कर चुका था. वह इतना अत्मविश्वास बटोर चुका था कि सिनेमाई कला के उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए तैयार था. 70 का दशक सिनेमा के लिए एक मील का पत्थर इसलिए भी था क्योंकि यहां से एक युग के बदलने की कसमसाहट सिनेमा के बाहर भी शुरू हो गई थी और भीतर भी.

सिनेमा के भीतर का बदलाव थीम और क्राफ्ट दोनों स्तरों पर हुआ. अगर फिल्मी नायकों के संदर्भ में विश्लेषण किया जाए तो इसके ठीक पहले शम्मी कपूर, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, राज कुमार, सुनील दत्त, मनोज कुमार, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत, जितेंद्र, धर्मेंद्र आदि का दौर था. 1969 में दो फिल्में ‘आराधना’ और ‘दो रास्ते’ बनती हैं और राजेश खन्ना रातों-रात एक रोमांटिक हीरो के बतौर फिल्मी पर्दे पर छा जाते हैं.

60 एवं 70 के संधि-काल का परिदृश्य एक साथ हिंदी सिनेमा के कई बड़े कलाकारों से भरा पड़ा था. कुछ की चमक मद्धिम पड़ रही थी तो कुछ की रोशनी नई दमक के साथ छिटक रही थी. 1970 की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में राज कपूर और ‘जॉनी मेरा नाम’ में देव आनंद मुख्य भूमिका में दिखे. वैसे तो 1973 में रिलीज हुई ‘विक्टोरिया नंबर 203’ में अशोक कुमार भी नज़र आए थे. देव साहब ने तो आगे, हरे रामा हरे कृष्णा, शरीफ बदमाश, छुपा-रुस्तम, अमीर-गरीब, बुलेट, देश-परदेश में 1978 तक काम किया.

इस प्रकार 1970 के दशक में रणधीर कपूर, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन जैसे बहुत ढेर सारे फिल्म स्टार एक साथ सक्रिय थे और सभी का अपना-अपना अच्छा-खासा दर्शक वर्ग था. राज कुमार, संजय खान, मनोज कुमार, शशि कपूर जैसे अभिनेता भी अपनी-अपनी ख़ास पहचान के साथ हिंदी चित्रपट पर लगातार उपस्थित थे. 

इनमें से दो प्रमुख अभिनेताओं राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की एक साथ उपस्थिति अपने आप में एक फिल्मी द्वैत था. कहीं ‘अमर प्रेम’ के राजेश खन्ना का प्रेम में डूबा और खोया-सा टूटा-विरक्त उदास चेहरा तो कहीं सावन की कड़कती घटाओं में मुमताज के साथ घास में तर-बतर भीगते ‘प्रेम कहानी’ का एक लड़का होना – वे दोनों में बेमिसाल थे. ये उनके जैसे प्रेमी के ही वश की बात थी कि वे फिल्मी पर्दे पर अपनी लाजवाब अदायगी से यह गाकर दर्शकों को बेहाल कर दें कि – आंखों से आंखें मिलती हैं वैसे; बेचैन हो के तूफां में जैसे; मौज़ कोई साहिल से टकराए. यह जादू था – देश के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना का.

दूसरी तरफ यही समय था हिंदी फिल्मों के एक दूसरे महानायक अमिताभ बच्चन के धमाकेदार पदार्पण का. जंजीर, नमक हराम, अभिमान, मिली– अमिताभ बच्चन की ये चंद फिल्में एक ही वर्ष 1973 में रिलीज हुईं. 1975 की ‘दीवार’ से अमिताभ ने फिल्मों में एंग्री यंग मैन के एक नए युग की बुनियाद रख दी और अगले दो दशकों तक उसके एकमात्र निर्विरोध शहंशाह बने रहे. इसके अलावा फिल्मों के विश्लेषक जानते हैं कि 70 का दशक ‘न्यू वेव सिनेमा’ यानी ‘समांतर सिनेमा’ या ‘कला फिल्म आंदोलन’ का भी महत्वपूर्ण दशक रहा है. अंकुर, गरम हवा, निशांत, मंथन, जुनून, गोधूलि, आक्रोश, स्पर्श, अंगूर, गोलमाल जैसी लीक से हटकर बनी फिल्में इसी दशक में रिलीज हुई थीं. इस पर कभी अलग से बातचीत की जाएगी. 

ऋषि कपूर की हिंदी फिल्म जगत में एंट्री का वर्ष भी 1973 ही है. बॉबी में राजा के किरदार में ऋषि ने 18 साल के एक बिल्कुल कच्ची उम्र के सलोने मासूम लड़के के रूप में अपने अभिनय का करियर शुरू किया था. 16 साल की डिंपल कपाड़िया से पहली मुलाकात में ऋषि का एकदम जड़ और अवाक् चेहरा, प्रेम में डूब गई आंखें आज भी ज़हन में अल्हड़ प्रेम की एक क्लासिक तस्वीर की तरह कौंध जाती हैं. एक अर्से से त्याग, निष्ठा, समर्पण वाले आदर्शवादी प्रेम का पाठ पढ़ते-पढ़ते और सिनेमा देखते-देखते लगभग ऊब चुकी पीढ़ी को ऋषि और डिंपल का यह प्रेमबिद्ध फोटोफ्रेम इसलिए भी कालातीत लगता है क्योंकि इस वाले प्रेम में मुक्ति एवं विद्रोह दोनों की अनुगूंजें देर तक गूंजती रहती हैं.

हिंदी सिनेमा के दर्शकों को पहली बार देह की निकटता में इस कदर दमकते तरुणाई के प्रेम का एहसास कैमरे से निरूपित होते देखने को मिला था जिसमें भोक्ता अपनी सुधबुध खो दे, आत्मविसर्जित हो जाए, विजड़ित हो जाए. ऋषि की आंखों में गिरफ्त डिंपल कपाड़िया पर आज के भी रूमानी जोड़े फिदा हो जाते हैं जब वे भूलकर गीला बेसन लगे अपने हाथ की ऊंगलियों से अपनी लटें ऊपर को सहेजती हैं और बेसन उनके बालों में लग जाता है. जरूर इस दृश्य का फिल्मांकन एक नए युग के प्रस्फुटन का क्षण रहा होगा. यह पश्चिमी परिधान में एक निरद्वन्द्व तरुणी के आत्मविश्वास की नई भाषालिपि थी. देखते-देखते डिंपल का पोल्का छींट वाला नॉटेड क्रॉप ब्लाउस और ऋषि का ओवरसाइज्ड ग्लासेस 70 के दशक का नया फैशन स्टेटमेंट बन गया. यही बात फिल्म में डिंपल ने ऋषि से एक संवाद में कहा भी है कि- मुझे जरा कोई छू के तो दिखाए. मैं 21 वीं सदी की लड़की हूँ. राजकपूर ने 1973 की नायिका से यह बुलवाया था– जो मैं समझता हूँ कि अनायास तो बिल्कुल नहीं रहा होगा. इसमें भी स्त्री की एक बोल्ड इमेज की गढ़ंत देखी जा सकती है. क्या यह उभरते स्त्रीवादी विमर्श का एक फिल्मी प्रतिरूपण नहीं था. 
 
ऋषि कपूर ने इस फिल्म से नौजवान प्रेमियों के प्रेम के लिए एक स्पेस बनाया. उनके पहले भी फिल्मों में प्यार था लेकिन उनमें बाली उम्र का प्रणय नहीं था – शायद यह सामाजिक मर्यादा या लोकधारणाओं में स्वीकार्य नहीं रहा होगा. प्रौढ़ता युक्त प्रेम स्वीकार्य होता होगा. यदि यही था तो नए जमाने के किशोर की नज़र में यह मर्यादा एक प्रतिबंध था, सोशल टैबू था और साभ्यतिक प्रतिमानों के ऊलट था. बॉबी में इस प्रतिबंध का बिना व्यापक तोड़फोड़ किए विरोध दर्शाया गया है. यह 70 के दशक में युग के बदलते फिल्मी मयार का एक हिस्सा था जिसे ऋषि और डिंपल के प्रेमी युगल ने कोमल रूमानियत के साथ लेकिन अपनी शर्तों पर इंसानी उन्मुक्ति के साथ जिंदगी जीने के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के साथ पर्दे पर साकार किया है. उन्मुक्त प्रेम की चंचल शरारतों और चुहलबाजियों का कोई उदाहरण फिल्म इतिहास में जब भी दिया जाएगा– लाईब्रेरी के अंदर बैठी डिंपल को बाहर बुलाने के लिए ऋषि कपूर का बाहर से उनके मुँह पर धूप का शीशा चमकाने का सिर्फ एक ही उदाहरण काफी होगा. ऋषि कपूर के शायद इसी खिलंदड़ेपन से रीझकर ही उस समय की लड़कियों ने राजेश खन्ना की तरह ऋषि कपूर को भी खून से लिखे खत भेजे और बॉबी टी-शर्ट पहने थे.  

अब ऋषि कपूर इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन, उनकी फिल्में और उनका हुनर हमेशा उनकी याद दिलाएंगी. पश्चिमी सिनेमा के क्राफ्ट से प्रभावित समीक्षक या फिल्म इतिहासकार वैसे भी मानकर चलते हैं कि हिंदी सिनेमा में कुछ बहुत उल्लेखनीय नहीं होता है. भले ही बॉक्स ऑफिस से प्रति व्यक्ति टिकट बुकिंग और प्रति वर्ष फिल्म निर्माण की संख्या के आधार पर बॉलीवुड दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग बन गया हो. मतलब वही कि यह गुणात्मक नहीं; केवल मात्रात्मक बढ़त है.

सभी समीक्षक एक साथ मानते हैं कि 70 का दशक मसाला फिल्मों का स्वर्ण काल है. यानी ऐसी फिल्में जिसमें नायिका के साथ बाग-बगीचों में नाच-गाना, प्यार में बाधा पहुंचाने वाले किराए के विलेन के साथ ढिशुम-ढिशुम, फिलर में हास्य, खोया-पाया फार्मूला, सनसनीखेज नाटकीयता, एकाध कोर्ट दृश्य, आदि से युक्त 2 घंटे 20 मिनट की चटपटी और बिना निष्कर्ष की फिल्में.    

बॉबी कई मायनों में हिंदी सिनेमा की एक लैंडमार्क फिल्म थी. यह फिल्म हिंदी सिनेमा के पहले शो मैन राजकपूर ने बनाई थी और कहा जाता है कि उन्होंने यह फिल्म ‘संगम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के पिट जाने से हुए घाटे से उबरने के लिए बड़ी आशाएं लेकर बनाई थीं. यह भी कहा जाता है कि राजकपूर की माली हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि वे शुरू में राजेश खन्ना को इस फिल्म का हीरो बनाना चाहते थे लेकिन उनको पारिश्रमिक देने भर का पैसा उनके पास नहीं था. ऋषि कपूर भी इस सच्चाई को कई बार स्वीकार कर चुके थे कि यही वज़ह थी कि उनके पिता राजकपूर ने बॉबी में उनको लीड रोल में रखकर फिल्म का निर्माण पूरा किया. इसके अलावा राजकपूर ने एक नई अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया को इस फिल्म में नायिका का रोल दिया.

कौन जानता था कि – अपने फिल्म निर्देशन एवं अभिनय का लोहा मनवा चुके एक बहुत कद्दावर शो मैन और आर के फिल्म्स का समय बंबई फिल्म जगत में इतना खराब हो जाएगा. लेकिन, किस्मत व्यक्ति की जिंदगी में कभी भी नया मोड़ ला सकती है. बॉबी की अपार सफलता से केवल एक शो मैन ही नहीं उबरा. बल्कि, बॉबी ने सिनेमा में एक बिल्कुल नए मिजाज एवं तरंग का सूत्रपात भी किया. इस ब्लॉकबस्टर फिल्म ने कई मायनों में एक ट्रेंड सेटर का काम किया. कहा यह भी जाता है कि राज साहब ने इसकी कहानी में शेक्सपियर के रोमियो जूलियट की सघन प्रेमासक्ति को निरूपित करने की कोशिश की थी जिसमें जान डालने का काम मशहूर लेखक एवं फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास साहब की पटकथा ने किया था. अत्यंत सहज एवं सरल पटकथा की इस फिल्म ने एक इतिहास रच दिया – आज भी मुद्रास्फीति के हिसाब से बॉबी भारतीय सिनेमा इतिहास की व्यावसायिक रूप से सबसे सफल 20 फिल्मों में शुमार होती है.

तत्कालीन प्रेम का सपाट रंग-ढंग निभाने वाले कई नायक-नायिकाओं के जोड़े उस समय के रजतपट पर केवल मौजूद ही नहीं थे बल्कि पूरी लोकप्रियता के साथ दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे थे. देव आनंद, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, शशि कपूर, मनोज कुमार, संजय खान, विनोद खन्ना, राजेश खन्ना एवं अमिताभ बच्चन जैसे सशक्त फिल्मी हस्ताक्षर अपने कैरियर के पूरे उत्कर्ष पर थे. इनके अलावा विनोद मेहरा, अमोल पालेकर, विजय अरोड़ा, नवीन निश्चल जैसे दूसरी पंक्ति के अभिनेता भी सक्रिय थे. इन सभी अभिनेताओं की अभिनय कला मुख्य रूप से रोमांस एवं एक्शन की दो प्रतिनिधि धाराओं में प्रदर्शित हो रही थी. या तो वे ट्रैजिक हीरो थे या एंग्री यंग मैन. इनसे थोड़ा हटकर टीन एज लव स्टोरी के लिए एक छोटी-सी जगह खाली थी जिसे ऋषि कपूर ने भरा. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं कि राजेश खन्ना, संजीव कुमार और धर्मेंद्र जैसे बड़े-बड़े अभिनेताओं की प्रतिभा ने बहुमुखी रूप में हिंदी सिनेमा को समृद्ध किया है और उनकी सामूहिक ऊर्जा एवं सिनेमाई सृजन का नतीजा है कि 70 का दशक सिनेमा का सबसे प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील दशक है. यह फिल्मी ग्लैमर का एक नया युग था.

ऋषि कपूर के लिए इतने स्थापित सितारों से दमकते सिल्वर स्क्रीन पर अपना एक स्थान बनाना आसान काम नहीं था. लेकिन, बॉबी के ऋषि ने पहली बार में ही हिंदी फिल्मों का मुहावरा बदलने का अपना फैसला सुना दिया था. टीन एजर और बहुत मासूम दिखने के बावजूद वह अपने धन एवं रुतबे के रोब में आकंठ डूबे अपने पिता से आंखें मिलाकर यह पूछ ही लेता है कि क्या 12 साल की उम्र में बोर्डिंग स्कूल भेजे जाने की वज़ह मुझे सजा देना था. वह 18 साल का तरुण है लेकिन फिर भी समाज के क्लास बैरियर को तोड़ने से नहीं घबराता. वह अमीर बाप का बेटा होकर भी बचपन से उसे पालने वाली गरीब मिसेज ब्रगैंजा के वात्सल्य पर मिटने के लिए तैयार है. वह मजहबी भेदभाव को भी ठोकर मारता है और कैथलिक प्रेमिका को दीवानगी की हद तक प्यार करता है. हो सकता है कि मेलोड्रामा की यह प्रवृत्तियां गंभीर सिने समीक्षकों एवं दर्शकों को कुछ ख़ास नज़र न आती हों लेकिन यकीनन इनके बीच से हिंदी सिनेमा की एक नई राह निकली, फिल्मों को टीन रोमांस का एक नया टेंप्लेट मिला जो इतना पॉपुलर हुआ कि आज भी एक फार्मूले के रूप में कायम है.

ऋषि कपूर को भी कभी यह गुमान नहीं था कि वे अभिनय सम्राट हैं या फिल्म जगत के कोई ऑफ-बीट करिश्माई कलासाधक हैं. बल्कि, ऋषि कपूर हर बात ईमानदारी से मुँह पर कह देने या कुबूल कर लेने के लिए मशहूर थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा “खुल्लम खुल्ला” में सचमुच बहुत खुलेपन से बहुत सारी आत्मस्वीकृतियां की हैं. उन्होंने लिखा है कि मैं बहुत सुशिक्षित नहीं हूँ, मैं फिल्मों के अलावा कुछ नहीं कर सकता, मैं फिल्मों का अभी भी एक विद्यार्थी हूँ, किस्मत की बात है कि मैं स्टारडम की इतनी ऊंचाइयों तक पहुंच गया, इत्यादि. फिल्मों के अतिरिक्त वे समसामयिक मुद्दों पर चुप नहीं रहते थे. ट्विटर्स पर 35 लाख फालोअर वाले ऋषि अपने ट्विट्स के चलते काफी चर्चा में रहते थे और कई बार विवादों में भी घिरे. 

एक बार शाहरूख खान ने बॉबी फिल्म के बारे में एक बहुत पते की बात कही थी – ‘ऋषि कपूर से पहले भी प्रेम था लेकिन वह पुरुष एवं स्त्री का प्रेम था. ऋषि कपूर से किशोरवय के लड़के-लड़कियों का प्यार पहली बार सिनेमा का विषय बना.’ यह प्रेम के लिए कोई बहुत बड़ा विद्रोही पाठ या सिनेमाई कथायात्रा का कोई कलात्मक अध्याय भले न हो, तो भी एक नया कथासूत्र तो जरूर था. आप देखेंगे कि कैशोर्य प्रेम कथाएं एक लंबी धारा में बहुत दूर तक गईं जिनमें प्रेम भी जीवन के साथ आबद्ध अन्य मानवीय पहलुओं के संदर्भों में बहुत समृद्धि एवं ऊष्मा के साथ अभिव्यक्त हो सका और प्रकटन के स्तर पर वह टीन एज रोमांस में भी रूपांतरित हुआ. क्या आप एक दूजे के लिए (1981), लव स्टोरी (1981), कयामत से कयामत तक (1988) और मैंने प्यार किया (1989) को बॉबी का विस्तार नहीं मानेंगे.

मैं बॉबी बचपन में नहीं देख सका और बहुत बाद तक नहीं देख सका था क्योंकि जब मैं सिनेमा देखने लायक हुआ तब तक ऋषि कपूर की लैला मजनू और हम किसी से कम नहीं की धूम मची हुई थी. 6 साल की उम्र में ‘लैला मजनू’ और 7 साल की उम्र में ‘हम किसी से कम नहीं’, मेरे पिता ने देवरिया के विजय टाकिज में मुझे दिखाई थीं. पता नहीं क्या देखी मैंने उनमें कि बहुत दिनों तक ‘लैला मजनू’ के ऋषि एवं रंजीता का प्यार पर कुर्बान और जुल्म सहता चरित्र तथा ‘हम किसी से कम नहीं’ के तीनों मुख्य कलाकार ऋषि कपूर, तारिक खान, काजल किरण का एक-एक दृश्य मेरे स्मृति पटल पर छाया रहा. मुझे बार-बार ऋषि कपूर के गुंडों द्वारा तारिक खान की निर्ममतापूर्ण पिटाई का दृश्य बेचैन कर देता था और उसके द्वारा गाया गया वह मशहूर गाना – क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम, वो इरादा– अपनी समस्त मार्मिकता के साथ मेरे कानों में बजता रहता था. दोनों फिल्मों में प्रेम की वेदना और उल्लास को स्वर देने वाले मोहम्मद रफ़ी साहब की गायकी ने मेरे दिल पर गहरा असर छोड़ा था. एक तरफ ऋषि कपूर की दीवानगी और माशूका तक पहुँचने के रास्ते में आने वाले हर दरिया-सहरा को पार कर जाने की जिद तो दूसरी तरफ शहरी पृष्ठभूमि में खिलंदड़ और रोमानी सिंगर-डांसर का छैल-छबीला रूप ‘हमको तो यारा तेरी यारी जान से प्यारी’ और ‘ये लड़का हाय अल्ला, कैसा है दीवाना’ गाते हुए मेरे दिल-दिमाग पर वर्षों छाया रहा. यह प्रेम और जीवन के सौंदर्य का साधारण अर्थों में समझ नहीं था तो फिर क्या था.

इस प्रकार ऋषि कपूर की फिल्म कहानी लिखता जाऊँ तो उनके सिनेमा में बार-बार प्रेम और रोमांस का एक ही प्रतिनिधि जेनर सामने आएगा. वह है 70 से 90 के दशक तक लगभग 20 साल के हिंदी सिनेमा कैनवस पर प्रेम और रोमांस के अनेक आख्यान रचता और बहुतेरे किरदारों को जीता एक हाथ में गिटार और दूसरे हाथ में लड़की को थामे ऋषि कपूर का जबरदस्त रोमांटिक किरदार जो कभी डस्टिन हॉफमैन से बहुत प्रभावित था. 

नि:संदेह बाद के वर्षों में ऋषि कपूर ने चरित्र भूमिकाएं करनी शुरू कर दी थीं. उनमें वे घर के बड़े-बुजुर्ग व्यक्ति के किरदारों को निभाने में महारत हासिल कर रहे थे. ‘डी डे’ के इकबाल सेठ और ‘मुल्क’ में मुराद अली के रूप में उनकी भूमिकाओं को भी याद किया जाएगा. आखिरी दौर में ऋषि ने ऑल इज वेल, पटेल की पंजाबी शादी, 102 नॉट आउट, राजमा चावल, जैसी कुछ फिल्मों में कॉमेडी भी की जो कि उनकी अभिनय क्षमता का शुरू से एक सबल पक्ष रहा है. 

दर्शक अमर अकबर एंथनी के अकबर इलाहाबादी को कभी नहीं भूल पाएंगे. इसी तरह सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ अभिनीत ऋषि की कभी-कभी, नसीब, कुली, अजूबा रोमांटिक कामेडी की जोड़ीदार भूमिकाएं कभी-कभी उनको उनकी ही लीक से अलग भी ले जाती नज़र हैं जो उन्होंने रफू चक्कर, खेल खेल में, बारूद, सरगम, कर्ज़, प्रेम रोग, सागर, नगीना, चांदनी, हीना, बोल राधा बोल से बना ली थीं.   

अलविदा चिंटू जी !!!
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कथा-गाथा : वह दूसरा : जया जादवानी

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वह दूसरा                 
जया जादवानी  
   
    




ब से हमने होश संभाला है, हम हमेशा साथ ही रहते रहे हैं. साथ खाना-पीना. उठना-बैठना-सोना, लड़ना-झगड़ना, रूठना-मनाना भी. यहाँ तक कि जब एक आम के पेड़ पर चढ़ आम तोड़ रहा होता तो दूसरा झोली फैलाए नीचे खड़ा होता. क्लास में जब एक को बाहर खड़े रहने की पनिशमेंट मिलती तो दोनों साथ खड़े हो जाते और जब बदमाश लड़कों से एक को मार पड़ती तो दोनों रोते. बदला लेने जाते तो कमज़ोर होने की वजह से दोनों पिटते, दोनों हारे से घर लौटते और अगले दिन दोनों भूल जाते. बचपन से लेकर जवानी इसी मौज में बीत गई, जो है, न उसको लेकर ख़ास ख़ुशी, जो नहीं है, न उसको लेकर कोई ख़ास ग़म. यह नहीं कि हममें कभी झगड़ा नहीं हुआ, हुआ बहुत बार, कई-कई दिन हमने एक-दूसरे से बात नहीं की, दूर-दूर रहे पर कभी जुदाई का अहसास तक नहीं हुआ. दिन-दिन भर हमने एक-दूसरे के बगैर सब कुछ खाया पर भरा नहीं पेट और आख़िरकार हम ढूंढ़ ही लेते एक-दूसरे को.


हममें से कोई भी कभी भी बात शुरू कर सकता है बगैर झिझके या बगैर किसी शिकायत के और हमने की भी.  हमारे भीतर किसी ने इतनी जगह नहीं घेरी थी, जितनी हमने एक-दूसरे की पर तब तक हम इसे ज़ाहिरा नहीं जान पाए थे, जब तक मेरे जीवन में एक लड़की नहीं आ गई. 

जीते हम तभी तक हैं, जब तक कोई वजह आकर शामिल नहीं होती जीवन में, एक बार वजह मिल गई तो फ़िर जीना भूल उसी के इर्दगिर्द चक्कर काटने को ही जीना मान लेते हैं. कालेज में पढ़ते-पढ़ते जैसा कि आम तौर पर होता है, मैंने और उस लड़की नेकम्पूटर साइंस का एक प्रोजेक्ट साथ किया था और अब जीवन के प्रोजेक्ट की बाबत विचार कर रहे थे. ज्यादा से ज्यादा वक्त हम साथ बिताते, कालेज में मिलते तो कालेज से बाहर मिलने की ख्वाहिश, बाहर मिलते तो अगले दिन मिलने की ख्वाहिश, हाथ पकड़ते तो साथ बैठने की, साथ बैठते तो प्रेम कर लेने की , वह भी कर लेते तो कुछ और करने की. हम यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहते थे और यह सिलसिला न टूटे इसके लिए हम मैरिज कर लेना चाहते थे हालांकि मैरिज भी मैं ही करना चाहता था, वह नहीं. वह ‘लिव-इन’ की हिमायती थी ताकि रास्ते खुले रहें और हममें से कोई भी कभी भी निकल सके और मैं उसे निकलने का कोई अवसर नहीं देना चाहता था.

वह एक हाई क्लास लड़की थी और हाई क्लास की लड़कियां इश्क नहीं करतीं, वे एक शौहर तलाश करती हैं, जो उनकी जिस्मानी और ज़ज्बाती ज़रूरतों को एक पपेट बनकर पूरा कर सके और दिन भर ‘जानू-जानू’ कहता उनके पीछे फिरता रहे. वे किसी दकियानूसी मर्द के अंगूठे तले ज़िंदगी बसर नहीं कर सकतीं. मैं यह जानता था फ़िर भी उसे चाहता था. शायद हर मर्द की यह आरज़ू होती है कि वह औरत को उसकी पटरी से उतारे और अपने रास्ते ले चले.   

जीने की इस सारी आपाधापी में मैं उसे भूल ही बैठा था. उसने भी मेरे पास आना छोड़ दिया था. वह भी समझ गया था, मेरे वक्तों का हिसाब कोई और रखने लगा है. जाने क्या बात है, लड़कियां अपने प्रेमियों को पूरा निगल जाना चाहती हैं, वह एक कौर तक किसी और को नहीं देना चाहतीं, भले उस थाली में कीड़े पड़ जाएं और वह किसी के खाने लायक न रहे. औरत की ज़हनी और ज़ज्बाती भूख मिटाने में ही एक मर्द की ज़िंदगी ख़तम हो जाती है. ये उसकी बदनसीबी है, जिसे वह अपनी खुशनसीबी मान हँसता चला जाता है ... 

मुझे उसका अभाव खलता था, मैं हर रोज़ सोचता था कि आज घड़ी भर उसके साथ बैठूँगा पर मेरी सारी घड़ियों का टाइम तो वह लड़की मिलाती थी. मुझे पता ही नहीं चला कब मैंने अपना वक्त उसके पास गिरवी रख दिया, जिसे मैं कभी छुड़ा न पाया.  

कॉलेज के साथ ही मुझे जल्दी ही जॉब भी मिल गई. मैकेनिकल इंजीनियरिंग के आखिरी साल मेरा सलेक्शन कालेज कैम्पस में ही हो गया. मुझे खुश होना चाहिए था पर मुझसे ज्यादा वह लड़की खुश थी. उसका भविष्य सिक्योर था. उसकी जॉब सर्चिंग चल ही रही थी कि हमने घरवालों को तैयार कर लिया और आख़िरकार हमने शादी कर ली.
    
यह तो बहुत बाद में समझ आता है कि न शादी का मोहब्बत से कोई ताल्लुख है, न मोहब्बत का शादी से. जब हम जबरदस्ती दोनों को जोड़ देते हैं तो वहां एक गाँठ बन जाती है और रफ़्ता-रफ़्ता यही गाँठ कैंसर बन जाती है, जिसे काट कर फेंक देने के बावज़ूद तुम्हारे बचने की कोई गारंटी नहीं. वैसे भी जिस्म की जन्नत कुछ सालों में बहुत बोसीदा हो जाती है और हम खुद को उसके कैदी समझने लगते हैं पर कैदी समझना और कैद से निकलना दो अलग बातें हैं. 

तुम इस कैद से निकलना भी चाहो तो भी जिस्मानी आदतें तुम्हें इसमें सफल नहीं होने देंगी. जिस्म तो एक ऐसा बियाबान है, जहाँ जितना भी चलो, रास्ते कभी ख़त्म नहीं होते, इस मुख़्तसर सी देह के रास्ते इतने तवील होते हैं कि अंततः हम चलते-चलते ‘चल’ ही देते हैं.

यह जीवन का एक बना बनाया फ्रेम था, जिस पर औरों की तरह मैं भी चल पड़ा था. हममें से बहुत इसके आगे नहीं सोच पाते या नहीं सोचना चाहते ..... एक अच्छा सा घर, एक अच्छी फैमिली, अच्छी शादी, अच्छे बच्चे, उनका अच्छा सा सेटलमेंट फिर अपने बुढ़ापे का अच्छा सेटलमेंट और अच्छी मृत्यु. यह ‘अच्छा’ लफ्ज़ हमारे जिस्म के घोड़े के लिए बहुत बुरा साबित होता है. हम हमेशा किसी हंटर की ज़द में होते हैं. सहो और चुप रहो. यह नहीं कि इस बोरडम की बाबत मैं नहीं जानता था, उसने मुझे बहुत पहले यह चेतावनी दे दी थी कि बनी-बनाई राह पर चलने से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे. 

हमें तो दरअसल अपनी ही बनाई राह पर चलना है. पर अपनी बनाई राह? कौन सी? और क्या बनाना है? ये जो जीवन हमें मिला है, उसी को ठीक से जी लें, ग़नीमत है. मैं उसकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं था. उसकी आँखों के सवाल मुझे परेशान करने लगे थे. मैं उससे खुद कन्नी काट लेता था.

अब मैं अपनी लाइफ़ बनाने में मुब्तला हो गया. मेरी पत्नी की जॉब लग गई तो हमने अपना घर बुक कर लिया. बैंगलोर में एक फ़्लैट लेना यानी उसकी किस्तों के लिए दिन-रात एक करना. आधी किश्तें उतार पाए कि बच्चा भी प्लान कर लिया गया क्योंकि हमारी शादी को दस साल हो गए थे. वह आया तो उसके लिए सहूलियतें इकठ्ठी करने में लग गए .... एक बच्चा यानी बीस-पच्चीस साल का प्रोग्राम. सच कहें तो हमारे पास वक्त बच्चे के लिए भी नहीं था पर हम अपनी आखिरी बूँद तक निचोड़ कर उसे दे देना चाहते थे और हमने दी भी. 

इस आपाधापी में भी कभी-कभी वह याद आता, जो कहता था, अपनी ‘अना’ को अपना मालिक मत बनाओ. बाहरी मकसद ‘अना’ को मजबूत बनाते हैं. जीवन जीने का नाम है. इसे सफ़लता के तराज़ू में तौल कर नष्ट मत करो. अब कोई बताए, बचपन से ही सफ़लता का जिस तराज़ू के एक तरफ़ हमें बिठा दिया जाता है, दूसरी तरफ़ हमारी दुनियावी उपलब्धियों को, उससे उतरने का साहस हम कहाँ से लाएं?   

तो इस ज़िंदगी के टूटे हुए गिटार की तारें जोड़ने-बैठाने में ही हमारा बहुत वक्त ज़ाया हो रहा था. एक तार कसते तो दूसरी आहें भरने लगती और गिटार बेसुरा होने लगता. हालाँकि मुझे याद नहीं कि एक सही धुन निकालने में मैं कब कामयाब हुआ पर कोशिश मैं दिलो-जान से कर रहा था. कोशिशें ही तो आखिरकार थका देती हैं, जब वो सिर्फ़ बाहरी होती हैं और उनमें हमारा मन शामिल नहीं होता. फ़िर ऐसा होने लगा कि तारें ढ़ीली होते-होते टूटने लगीं और वह मन भी मरने लगा जो अभी तक पेचकस हाथ में पकड़े इस सितार की निगहबानी कर रहा था. पेचकस मेरे हाथ से गिर गया.    

इस बीच वह कहाँ चला गया, मैं जान ही नहीं पाया. वह मुझसे नाराज़ होगा यह जानता था पर यह भी जानता था वह मुझे छोड़ कर नहीं जाएगा. और बच्चा होने के बीस साल बाद जब वह हायर स्टडी के लिए बाहर चला गया तब मैं जैसे किसी गहरी नींद से जागा. मैं अपना साठवां बरस पार कर गया था और फेन छोड़ते घोड़े की तरह हांफ रहा था, कई बीमारियाँ गले लगा चुका था और अब कहीं थम जाना चाहता है.

बरसों बाद अब वह मुझे शिद्दत से याद आ रहा है. मैं उसे ढूंढता हूँ पर वह मुझे दिखाई नहीं देता. कई संभावित जगहों पर उसे जांचने की कोशिश की, नहीं मिला. क्या हुआ? क्या अकाल मृत्यु का शिकार हो गया? मुझे बिना बताए? नहीं .... मैं नहीं मान सकता. और मैं उसे ढूंढता रहा .... ढूंढता रहा, ढूंढता रहा. जब वह आसानी से मुझे मिल रहा था, मैंने उसकी कदर नहीं की और अब? मेरी पत्नी भी नहीं समझ पा रही थी कि मुझे आखिर चाहिए क्या?

वह बदस्तूर अपनी जॉब कर रही थी और अपनी कंपनी की सी.ई.ओ. बनकर अपने हासिलात पर खुश थी. इस ख़ुशी में वह फैलकर मोटी हो गई थी ... पराग सारा झर चुका था और झर रही सूखी पत्तियां रोज़ सुबह हमारे बिस्तर पर पड़ी मिलती थीं, जिन्हें उठाकर चुपचाप अपने भीतर के डस्टबिन में गिरा देता था. सिर्फ़ यही नहीं भीतर न जाने कितनी आंधियां शोर मचातीं थीं और मैं इस अंधड़ से हर रोज़ दो-चार होता था. मेरी बीमारियाँ बढ़ती ही जा रहीं थीं और आखिरकार मैंने अपनी जॉब छोड़ दी और राहत की सांस ली. तब तक बहुत कुछ टूट चुका था जिसे अब रिपेयर भी नहीं किया जा सकता. दो कदम चलते ही मेरी सांस फूलने लगती और मैं वहीँ बैठ जाता. फिर मैं जल्दी ही जान गया यह एक बेचैन सांस है जो जाने कब टूट जाए और इसके पहले कि टूट जाए, मैं उसे ढूंढ लेना चाहता हूँ.

वक्त हमारे सारे दिन ले लेता है और हमें मुट्ठी भर लम्हे दे देता है. उसके साथ बिताए लम्हे मेरी हथेलियों में रेत से गड रहे हैं. वे अंदर ही अंदर ज़ख़्मी होती जा रही हैं. कुछ झर रहा है आहिस्ता-आहिस्ता, जीवन से, आसमान से, पेड़ों से, हवाओं से, हर सांस से, कुछ झर रहा है, मेरी बीबी ने मेरा टाइम लेना और देना दोनों छोड़ दिया है.

वह अधिकतर अपने दोस्तों के साथ शराब और सिगरेट पीते वक्त गुज़ारती है, बाहर खाना खाती है और लौटते में मेरे लिए भी कुछ ले आती है. कभी खाता हूँ, कभी नहीं खाता. मेरी भूख सचमुच मर चुकी है, मेरे अंदर का बहुत कुछ मर चुका है. मेरे पास व्यर्थ हो रहा वक्त का वह टुकड़ा है, जो किसी को नहीं चाहिए, खुद मुझे भी नहीं. 

मैं बहुत धीरे-धीरे अपने भीतर एक पुरानी दीवार सा ढहता जा रहा हूँ, किस अतल-तल में, पता नहीं. और अब आहिस्ता-आहिस्ता मैं उसे भूलता भी जा रहा हूँ,  वह जैसे किसी और जन्म की बात हो, अब मैं जान गया हूँ कि मैंने उसे खो दिया है. अब अकेली और हारी हुई मृत्यु निश्चित है, मैं बिस्तर से लग गया. मेरी नींद उड़ चुकी थी और कोई भी दवा असर नहीं कर रही थी. झाड़-झंखाड़ सी मेरी सफ़ेद दाढ़ी, जिसे आदतन खुजलाता हुआ मैं न जाने क्या ढूँढा करता था.

एक दिन मेरी बीबी ने सख्त हिदायत दी कि आज डॉ. के यहाँ अपाइंटमेंट है, कमअज़कम ये खसरा दाढ़ी तो बना लूँ. मुझे आदमी बनाने की अपनी व्यर्थ कोशिशों पर वह अक्सर रोती है. तब मैं उसे चुपचाप देखा करता हूँ. मैंने अपने आंसुओं की कभी उससे बात नहीं की. यह शायद मेरा आख़िरी अपाइंटमेंट हो, सोचकर उठा और किसी तरह उठकर आईने के सामने खड़ा हो गया. मेरी आँखें मेरी आँखों को नहीं, दाढ़ी को देख रही हैं, झूलती त्वचा और आँखों के आसपास की सांवली झुर्रियां देख रही हैं. जो अवयव अपने पैरों पर खड़े थे, वही पैरों के पास ढेर हो गए हैं. 

मैं कांपते हाथ से दाढ़ी बनाने के औज़ार से जूझ रहा हूँ कि बहुत गहरा कट लग गया. खून की कुछ बूंदें बेसिन में टपक पड़ीं, मैं चौंक कर जैसे किसी नींद से जागा, और खुद को आईने में ध्यान से देखा, अचानक मुझे वह दिखाई दिया, आईने में मेरी दो बूढ़ी आँखों में से झांकता, बिल्कुल उसी तरह मुस्कराता, उतना ही जवान, तना ही जीवंत, उतना ही मासूम, उसने मेरी आँखों में अपनी आँखें मटकाईं और मेरे हाथों से दाढ़ी बनाने का औज़ार गिर पड़ा, मेरे मुंह से एक चीख निकल गई और मैं वहीँ लडखडाता गिर पड़ा, मेरी आँखों से नदी बह रही है और वह मानो किसी बोट पर बैठा दूर जाता लग रहा है, उसे रोकने को मेरे होठों से कुछ लफ्ज़ निकले जो मेरे गले की कीचड़ में फंस कर खो गए.
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जया जादवानी

रायपुर

 

मैं शब्द हूँ, अनन्त भावनाओं के बाद भी, उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य (कविता संग्रह)

मुझे ही होना है बार-बार, अन्दर के पानियों में कोई सपना काँपता है, मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूँ कांधे पर अपना हल लिए (कहानी संग्रह)
तत्वमसि; कुछ न कुछ छूट जाता है; मिट्ठो पाणी, खारो पाणी (उपन्यास) आदि
             jayasnowa@gmail.com                                       




शशिभूषण द्विवेदी : मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ : हरे प्रकाश उपाध्याय

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कथाकार शशिभूषण द्विवेदी के कुसमय चले जाने से हिंदी साहित्यिक समाज अवसाद में है. शशिभूषण द्विवेदी अपनी तीखी बेलौस कहानियों के कारण जाने जाते थे. दिल्ली जैसे महानगर में कलम की बदौलत टिकना आसान नहीं है. इस संघर्ष में हिंदी के कई कथाकार पत्रकार उनके मित्र और साझेदार थे. शशिभूषण द्विवेदी का जीवन खुद उनकी कहानियों के पात्रों की तरह थे अनियंत्रित और अप्रत्याशित था.
शशिभूषण द्विवेदी के मित्र और कथाकार हरे प्रकाश ने यह संस्मरण लिखा है. मार्मिक है और उदास करने वाला. यह कोई उम्र थी ऐसे मित्रों को छोड़ कर जाने की.
प्रस्तुत है. 


मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ             
हरे प्रकाश उपाध्याय


कथाकार शशिभूषण द्विवेदी (26 जुलाई 1975-7 मई 2020, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश) के दो कहानी संग्रह- ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘कहीं कुछ नहीं’ प्रकाशित हैं. उन्हें ‘ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार’, ‘सहारा समय कथा चयन पुरस्कार’, ‘कथाक्रम कहानी पुरस्कार’ आदि से सम्मानित किया गया था. सम्प्रति ‘कादम्बिनी’ में वरिष्ठ उप संपादक थे. 



शिभूषण ने जाने से दो दिन पहले फेसबुक पर लिखा कि अतीत में ठीक-ठीक वापसी संभव नहीं है. उसे याद करने में यही मुश्किल है. हालांकि क्या शशिभूषण को याद करने के लिए मुझे अतीत में लौटना होगा?मुझे भरोसा नहीं होता कि वह मेरे लिए कभी अतीत होगा, वह मुझसे अधिक से अधिक दो दिन के लिए नाराज़ हो सकता है, पर वह कभी मेरे लिए अतीत नहीं हो सकता. कतई नहीं. वह या हम, चाहें भी तो ज़ुदा नहीं हो सकते. इस बारे में अब कोई संदेह नहीं है क्योंकि अनेक अवसरों और घटनाओं से यह बात अनेक बार प्रमाणित हो चुकी है. अब इसे और प्रमाणित करने की कोई ज़रुरत नहीं है. अब इस बात पर कोई संदेह नहीं करेगा. आपके लिए शशिभूषण की मौत हो सकती है, मेरे लिए शशिभूषण कभी नहीं मरेगा, न मैं उसके लिए मरूंगा. वह ज़रूर नाराज़ होगा, इसीलिए वह मुझे परेशान करने के लिए यह सूचनाएं खुद ही बँटवा रहा होगा कि हरे प्रकाश को पता तो चले.... मैं इस सूचना पर भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि मैं उसकी हरकतों को जानता हूँ. वह कल को आपके सामने आकर आपसे यह भी कह सकता है कि हरे प्रकाश ने ही मुझे मार दिया था, वह तो संयोग कहो कि मैं इस दुनिया से जाने को राज़ी ही नहीं हुआ.... वह आपसे कुछ भी कह सकता है, प्लीज़ आप उस पर भरोसा मत कीजिए.

मैं इंतज़ार करूंगा कि वह मुझे फोन करेगा, हरे प्रकाश, जानते हो दरअसल हुआ क्या.... मैं गुस्से में होऊंगा तो कहूँगा, हाँ मैं सब जानता हूँ. तुम अपनी हरक़तों से बाज़ आओ. बहुत अधिक गुस्सा होऊंगा तो कुछ नहीं बोलूँगा और वह बोलता चला जाएगा... वह पहले दोस्तों की बातें करेगा, फिर नयी लेखिकाओं की बातें करेगा, फिर शराब की बातें करेगा, फिर अपने दफ्तर की बातें करेगा. वह बोलता रहेगा और अगर मैं नहीं बोलूँगा तो बोलेगा- भाड़ में जाओ. शाम तक वह फिर फोन करेगा. मुझे बात करनी होगी, हर हाल में. आप बताइये, बताइये आप, यह आदमी मेरे लिए अतीत कैसे हो सकता है...?कतई नहीं. आप अपनी सूचनाएं अपने पास रखिए, मैं उसी से पूछूँगा. पर मैं बहुत ज़िद्दी हूँ, मैं फोन नहीं करूंगा उसे, वह फोन करेगा मुझे. मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ....

शशिभूषण ने मुझे जितनी गलियाँ दी है, उतनी किसी ने नहीं दी. हालांकि ऐसी उसकी कोई छवि नहीं है. शशिभूषण ने जैसे-जैसे संगीन आरोप मुझ पर लगाए हैं, आप उसके बारे में सोच तक नहीं सकते. पर शशिभूषण ने मुझे जितना प्यार किया है, उतना किसी ने नहीं किया है. शशिभूषण से जितना लड़ा हूँ मैं, उतना किसी से नहीं लड़ा. हम दोनों ने संघर्ष के दिन साथ मिलकर काटे हैं और संघर्ष की शामों को साथ मिलकर रसरंजित किया है. रात को अवारा साथ भटके हैं. अनेक लेखकों के पास साथ-साथ मिलने गये हैं. उसने मेरे बारे में भी अनेक क़िस्से गढ़े हैं और लोगों को सुनाये हैं.

ब्रजेश्वर मदान कहा करते थे कि यह जन्मजात क़िस्सागो है. हालांकि उसकी कहानियों में क़िस्सागोई उतनी नहीं है. वह व्यंग्य का भी उस्ताद था, पर अपनी कहानियों में उसका इस्तेमाल नहीं करता है. वह कहानियों में क्राफ्ट पर ज़ोर देता है. कई-कई ड्राफ्ट में अपनी कहानियाँ लिखता है और कहानियों को बहुआयामी बनाने की कोशिश करता है. बीच में व्यंग्य की बात आ गयी तो बता दूँ, नहीं तो भूल जाऊंगा, एक समय उसने कलियुगी वेदव्यासके नाम से ब्लॉगों पर व्यंग्य लिखकर साहित्यिक जगत में बड़ा तूफान खड़ा किया था. अभी तक अनेक लोगों के लिए यह रहस्य ही है किकलियुगी वेदव्यासकौन था. मैं भी सार्वजनिक तौर पर आज पहली बार यह राज़ खोल रहा हूँ. मैं तुम्हारे बहुत सारे राज़ खोल दूँगा शशिभूषण, ...पर उसे घंटा फर्क नहीं पड़ेगा... मुझे पता है.
   
शशिभूषण से मेरा परिचय कोई बहुत पुराना नहीं है. यही कोई चौदह-पंद्रह साल पहले की बात है. वह नोएडा में राष्ट्रीय सहारा में संपादकीय और साहित्य पेजों को निकालने में सहयोग करता था और मैंने अभी हाल में ही में पटना से दिल्ली जाकर बस सड़कें नापना शुरू किया था. रमणिका जी के यहाँ टिका हुआ था और अख़बारों के लिए कुछ-कुछ लिख रहा था, जिसे फ्रीलांसिंग कह सकते हैं. पता नहीं, कहाँ से नंबर लेकर उसने ही एक दिन फोन किया. मैंने उसकी एक-दो कहानियाँ पढ़ी थी. शायद उसे तब तक ज्ञानपीठ नवलेखन का पुरस्कार मिल चुका था और उसका ज्ञानपीठ से पहला कहानी संग्रह- ब्रह्महत्या और अन्य कहानियाँप्रकाशित हो चुका था. उसने बहुत अनौपचारिक तरीक़े से फोन किया, जैसे हम दोनों काफी अरसे से परिचित ही नहीं, दोस्त भी हों- हाँ हरे प्रकाश, कुछ कविताएं लेकर किसी दिन सहारा आ जाओ. मिलते हैं.... यही एक्जेक्ट वर्ड थे या ऐसा ही कुछ था. मैं तो दिल्ली में नया था, जहाँ कहीं भी अख़बारों में कोई सूत्र दिखता था, लपक कर पकड़ता था. 

शायद उसी दिन या अगले ही दिन शाम को पहुँच गया नोएडा. दफ्तर में पहुँचकर मैंने उसकी खोज़-ख़बर की और मिलते ही वह मुझे पहचान गया, जैसे कितने सालों से जानता हो. बहुत आत्मीयता से बल्कि अनौपचारिक तरीके से मिला और कुछ मिनटों के भीतर उसने मुझे विमल झा औरब्रजेश्वर मदान से मिलवाया. मेरी कविताएं ले लीं. इस बीच भागकर अपने डेस्क पर जाकर वह जल्दी-जल्दी अपना पेज भी तैयार कर रहा था. जब मेल-मुलाक़ात के बाद चलने के लिए उससे इज़ाज़त लेने गया, तो कहीं से एक चाय लाकर मुझे पकड़ा गया और एक कोने में पड़े सोफे पर कुछ देर बैठकर इंतज़ार करने को कहा. थोड़ी-थोड़ी देर पर आता और कहता, और थोड़ी देर रुको. वह जितनी आत्मीयता दे रहा था तो मुझे रुकने में कोई बहुत असमंजस नहीं महसूस हो रही थी.

दिल्ली में मैं नया था पर इतना तो जान ही गया था कि दिल्ली के लिए यह अज़ूबी चीज़ ही है कि आपको अपने पास मनुहार करके बेवजह कोई रोके.अच्छा लग रहा था. मन में दोस्ती जैसी फीलिंग आने लगी. क़रीब घंटे भर रुकवाने के बाद वह फ्री हुआ और मदान साब के पास जाकर अधिकारपूर्वक कुछ पैसे माँगे. उन्होंने थोड़े-बहुत नख़रे के साथ उसे बहुत प्यार से पैसे दे भी दिये. वह मुझे लेकर सीधे ऑफिस से निकलकर सेक्टर बारह के मार्केट में ठेके पर पहुँचा. बिना यह जाने कि मैं पीता हूँ या नहीं, उसने सीधे यह पूछा कि वोदका लोगे या व्हीस्की?मैंने अभी नया-नया ही शौक पाला था और इतना पता भी नहीं था, क्या वोदका, क्या व्हीस्की... और जिस तरह उसने सीधे दुकान पर ही ले जाकर पूछा था, तो मना कर देने का तो ऑपशन भी नहीं था, सो इतना ही कहा- अब आपकी जो मर्ज़ी. अब याद नहीं आता कि वह क्या था, पर इतना पक्का याद है कि वह क्वार्टर ही था, ले आया.

वहीं एक लीटर पानी की बोतल लेकर ठेके के बगल में खड़े हो गये, पहले दो-दो घूँट पानी पी गयी और और फिर पानी में मिलाकर चार-चार घूँट वह द्रव्य ग्रहण किया गया. जब तक यह सब संपन्न हुआ, पीछे से मदान साब भी वहाँ पहुँचे. शशिभूषण ने बहुत प्रशंसा के लहजे में उनके सामने उनकी ख़ासियत बताई, अरे जानते नहीं हो तुम.... मदान साब का यहाँ खाता चलता है. महीने में हिसाब होता है. मदान साब ने तो ठेके के काउंटर पर ही खड़े होकर चार या छह घूँट में हाफ निपटा दिया और पानी की लगभग पूरी बोतल शशिभूषण को हैंडओवर करते हुए सेल्स पर्सन को शशिभूषण को एक क्वार्टर देने का आदेश भी जारी किया. हमारा कार्यक्रम थोड़ा और विस्तारित हुआ. बाद में उसी मार्केट में मदान साब ने हम दोनों को डिनर भी कराया और अपनी ढेर सारी कविताएं भी इस पूरे दौरान सुनाई.

उन दिनों कविता लिखने का नया-नया शौक उन्हें भी चढ़ा था. वे कमाल के कहानीकार और राष्ट्रीय स्तर के फिल्म पत्रकार थे. सहारा समय में उनका कॉलम आता था उन दिनों- राजपथ-जनपथ क्रॉसिंग. मैं भूल नहीं रहा हूँ तो शायद यही नाम था उनके कॉलम का. वे कभी फिल्मी कलियाँ नामक मैगजीन के एडीटर रह चुके थे. बड़े ही मेधावी और सरल आदमी थे. उनके बोलने के लहजे में पंजाबीयत थी. वही उनसे पहला परिचय शशिभूषण के मार्फत हुआ था. वे बातचीत में अक्सर उदय प्रकाश जी की बहुत तारीफ़ करते थे. उसके बाद तो मदान साब से भी उसी तरह के अनौपचारिक संबंध विकसित हुए, जो शशिभूषण के साथ हुए- तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई.
  
मदान साब के साथ के क़िस्से मैं लिखूँगा तो उसमें कुणाल चला आएगा, अभिषेक कश्यप जी आएंगे, प्रभात रंजन आएंगे. वह पूरा एक अलग चैप्टर है. पर एक घटना यहाँ प्रसंगवश बहुत याद आ रही है, वैसे मदान साब के साथ सारी घटनाएं बहुत ही मज़ेदार हैं. वे हम लोगों को प्यार भी बहुत करते थे, हमारा बहुत ख्याल भी रखते थे, उम्र में बहुत लंबा फासला होने के बावजूद हमारे दोस्ताना ताल्लुकात थे. वे बहुत झक्की क़िस्म के भी इन्सान थे और शाम के बाद तो वे बादशाह ही होते थे. उनकी तुनुकमिजाजी इतनी प्यारी थी कि देखते बनती थी. उनकी बहुत तुनुकमिज़ाजियाँ हम लोगों ने झेली है और कुछ तुनुकमिज़ाजियाँ तो बाजाप्ता सीखी भी है. अब वह हमारे अपने जीवन का हिस्सा है.

एक क़िस्सा बताता हूँ. एक बार सहारा दफ्तर में शशिभूषण के आमंत्रण पर ही पहुँचा था. शशिभूषण फ्रीलांसिंग के बहाने से मुझे नोएडा अपने दफ्तर बुलाता था, और मैं जो भी अगड़म-बगड़म लिखकर देता, उसे वह पूरा का पूरा छाप भी देता था पर उसकी रुचि मेरे लिखे में कतई नहीं थी, मैं जान गया था. बस मेन मकसद वह शाम की अड्डेबाज़ी ही थी. उसी अड्डेबाजी में धीरे-धीरे मदान साब भी बहुत बेतकल्लुफ़ तरीके से शामिल हो गये थे. अड्डेबाजी में कभी-कभी बहुत देर हो जाती. ऐसी-ऐसी बातें निकलतीं कि समय का कुछ ख्याल ही नहीं रहता और लगता कि अब नोएडा से मेरे दिल्ली लोदी कॉलोनी वापस लौटने की कोई बस मिलने की संभावना बिलकुल ही नहीं बची और हमारी हर अड्डेबाजी के पश्चात अक्सर ऐसा ही होता, तो मदान साब अपने घर पर रुकने का ऑफर देते. अपने घर के ऊपरी हिस्से पर जो दो-तीन कमरों का फ्लैट था, वह अकेले ही रहते थे. घर पर कोई कामवाली आती थी. सारी सुविधाएं थीं. किचेन में सारा सामान पड़ा रहता था, पर खाना शायद ही कभी बनता हो. मदान साब देर से सोकर उठते, तैयार होते और ऑफिस के लिए निकल लेते. घर से बस उनका इतना ही भर वास्ता था.

ख़ैर मैं भटक गया....तो वह सर्दियों की कोई शाम थी, हमारी बैठकी जमी और काफी समय हो गया तो हम लोग बाहर ही अपना खाना-वाना खाकर मदान साब के प्रस्ताव पर एक ही रिक्शे में लदकर तीनों उनके घर पहुँचे. वहाँ भी बैठकर तीनों बातें करने लगे. किसी बात को लेकर मदान साब शशिभूषण पर भड़क गये. शशिभूषण भी अपनी बात पर अड़ गया. रात में ठंड काफी बढ़ गयी थी. शशिभूषण के पास हाफ स्वेटर ही थी. मदान साब अपने कमरे में गये, अपना एक नया स्वेटर उठा लाये. शशिभूषण को दिया. शशिभूषण ने उसे मोड़-माड़कर पहन भी लिया. मदान साब लंबे-चौड़े आदमी, शशिभूषण दुबला-पतला छोटा आदमी, वह स्वेटर उसमें क्या आता, पर उसने उसको जैसे-तैसे पहन लिया. बाद में तो अनेक बार देखा कि शशिभूषण उनके शर्ट को भी जैसे-तैसे पहनकर अपने ऑफिस भी पहुँच जाता था, फिर गंदे होने पर उनके घर पर फेंक आता था. तो ख़ैर उस रात स्वेटर पहनने के बाद मदान साब ने उससे सख्त शब्दों में कहा- अब तू मेरे घर से निकल जा. मेरे सामने उनकी इस तरह की तब शायद पहली तुनुकमिजाजी थी. मुझे भी बहुत बुरा लगा. मैंने शशिभूषण को कहा कि चलो, अभी चलो इनके घर से. इन्होंने इस तरह कह कैसे दिया. अब शशिभूषण मुझे समझाने और रोकने लगा. मदान साब अब भी उसी तरह अड़े हुए- तुम दोनों जाओ. अभी जाओ बिलकुल. 

मैं उनके घर से निकल आया. पीछे-पीछे शशिभूषण भी आया. उसका कमरा वहाँ से काफी दूर था और मैं तो ख़ैर बहुत दूर रहता था. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. कॉलोनी के कुत्ते भूँक रहे थे. कोई रिक्शा वगैरह भी मिलने का सवाल नहीं था. फिर शशिभूषण ने कहा कि प्रभात पास में रहता है. उसने प्रभात जी को फोन किया. प्रभात रंजनउस समय अपने पास के फ्लैट में अकेले ही थे. वे रज़ाई ओढ़े हुए, पैदल चलते हुए आ गये. इस सारे घटनाक्रम को मदान साब भी वाच कर रहे थे. वे आये, वापस लौटने को कहने लगे पर हम लोग प्रभात जी के घर गये. वहाँ थोड़ी देर और बैठकी जमी. फिर आवाज़ बदलकर किसी स्त्री आवाज़ में प्रभात जी ने मदान साब से थोड़ी देर बात की, उनकी कविताओं की तारीफ़ की, अपने ऊपर कविता लिखने का मनुहार भी किया. हमलोगों ने बहुत मज़े लिए. अज़ब दिन थे वे भी. अज़ीब सी बेचैनियाँ छाई रहती थीं हम लोगों में. रात-दिन में हमारे लिए ज्यादा फर्क न था.

नोएडा में शशिभूषण का बहुत छोटा सा कमरा था. उसने बाद में सहारा से पुरस्कार से मिले पैसे से कंप्यूटर खरीद लिया कि उस पर कहानियाँ लिखेगा मगर उसमें ब्लू फिल्में अधिक देखता था. खुद ही टीवी और कंप्यूटर को खोलकर बना भी लिया करता था. सहारा वालों ने उसका बहुत शोषण किया. इसके पहले वह जागरण और अमर उजाला में अनेक जगहों पर काम किया, वहाँ भी बहुत शोषण हुआ. पर वह बातचीत में इन सब चीज़ों को कभी शिकायत या अफ़सोस के साथ नहीं बताता था. उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी. उसे लगता था कि यह सब स्वाभाविक और सहज ही है.     
मीडिया में अगर आपका गॉडफादर न हो तो आपकी सारी प्रतिभा बस आपके अपमान का ही सबब बनती है. शशिभूषण ने अपनी अर्द्धपक्ष कहानी में बहुत अच्छे से चित्रित किया है कि किस तरह मीडिया घरानों में गुबरैलों और केंचुओं की भरमार है. हालांकि इस कहानी में भी इन गुबरैलों और केंचुओं से उसे व्यक्तिगत तकलीफ हो, ऐसा नहीं प्रकट किया है. वह उस कहानी में अपने को शोषण की जगह प्रेम में मिले धोखे पर खुद को फोकस करता है. बावजूद इसके कहना नहीं होगा कि शशिभूषण हमेशा पत्रकारिता जगत के इन गुबरैलों और केंचुओं से घिरा रहा. वे उसका खून पीते रहे, पर उसे इस बात का कोई अफ़सोस नहीं था. 

वह अपने दोस्तों और शुभचिंतकों से शिकायत रख सकता था. उनके ख़िलाफ किसी हद तक जाने को तत्पर रहता था, उन्हें माफ़ नहीं कर पाता था पर वह उन लोगों से कभी कोई शिकायत नहीं रखता था, जो उसकी प्रगति और प्रतिष्ठा में वास्तविक रूप से बाधक थे. वह उनकी ज्यादा बात भी नहीं करता था. वह दोस्तों से ही लड़ता था, उनसे ही प्रतिस्पर्धा रखता था, उनसे ही ईर्ष्या करता था मगर जो वास्तविक दुश्मन थे, उन्हें वह नज़रअंदाज़ कर देता था. उसने कभी कोई गॉड फादर नहीं बनाया. वह बहुत देर तक किसी की परवाह नहीं करता था. ज्यादा सलाह-मशवीरे और उपदेश देने वालों से वह दूर भागता था. वह अपने ढंग से जीवन जीता था और उसकी शर्तों पर उसके जीवन में शामिल होने वाले लोगों से ही वास्ता रखता था.

वह बहुत महत्वाकांक्षी भी नहीं था. बल्कि उसके भीतर महत्वाकांक्षा जैसी कोई चीज़ थी भी नहीं. वह अपनी मौज़ में जीने वाला आदमी था और अपनी तमाम प्रतिभा के बावजूद अपनी मुश्किल परिस्थितियों से बाहर निकलने और सफल होने जैसी कोई आकांक्षा उसमें शायद ही थी. हालांकि वह हमेशा छोटी-छोटी चीजों के लिए परेशान रहा. अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति ही उसकी सबसे बड़ी आकांक्षाएं थीं. मैंने बतौर सहकर्मी काम किया है. मैंने देखा है कि अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकाशन संस्थाओं से प्रूफ, अनुवाद, कुछ लिखने आदि के काम जुटाता था. उसको करने के बाद कुछ छिटपुट पैसे मिल जाएं, इन सब में बहुत तत्परता से जुटा रहता था पर अपनी नौकरी में किसी प्रमोशन या बड़े पद पर पहुँचने की बात वह बिलकुल भी नहीं सोचता था. 

अपने तमाम सहकर्मियों से प्रतिभा में किसी मायने में तनिक भी उन्नीस न होने के बावजूद उनकी तुलना में अपने बहुत कम वेतन को लेकर उसके भीतर अफसोस, चिंता या शिकायत मैंने कभी नहीं देखी. वह अपनी नौकरी में बहुत सिंसियर भी नहीं था. मन किया तो ऑफिस गये और मन नहीं किया तो नहीं गये. सहकर्मी और बॉस फोन पर ज्यादा परेशान करने लगे तो फोन बंद कर लिया. यह सब उसमें सामान्य बातें थीं. पर दफ्तर में उसके ऊपर चाहे सारे सहकर्मियों का काम सौंप दिया जाए, तो बगैर किसी ना-नुकुर के उसमें जुट जाता था. उसे कोई शिकायत नहीं रहती कि उससे ज्यादा काम क्यों लिया जा रहा है. और मन में आया तो कभी भी बीच में उठकर बिना बताये किसी दोस्त के बुलावे पर अड्डे बाजी के लिए निकल सकता था. अब झख मारें ऑफिस वाले.

सहारा में अनेक वर्षों तक दक्षता के साथ काम करने के बावजूद उसके वरिष्ठों ने उसकी सेवा कंफर्म नहीं की और वह डेली वेजेज वर्कर या फ्रीलांसर ही बना रहा. जबकि अपने दम पर संपादकीय और साहित्य पेजों सहित कई महत्वपूर्ण परिशिष्टों का संपादन वह करता रहा.

जब मैं कादम्बिनी में आया तो एक दिन हमारे संपादक विष्णु नागरजी ने एक दिन मुझे बुलाकर कुछ अच्छे युवा पत्रकारों के बारे में पूछा, उन्हें कादम्बिनी के लिए एक सहयोगी एप्वाइंट करना था. मैंने एक और सिर्फ एक नाम शशिभूषण का बताया. नागर जी ने कहा कि अच्छा, उसका मिलने के लिए बुलवा लो. वह सहारा में ही काम कर रहा था. मैंने उसको फोन किया. हमारा दफ्तर क्नाट प्लेस में के. जी. मार्ग पर था. फोन करने पर उसने कोई बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की, कहा कि देखो ऐसा है, मेरे पास बस किराये के पैसे नहीं है. ऐसा करो कि शाम में इधर ही आ जाओ, बात कर लेंगे. मैं उसे जानता था, उसे नौकरी की कोई परवाह नहीं है, उसे बैठकी की परवाह है. उसके साथ बैठकी की मेरी भी ऐसी आदत लगी थी कि मैं भी चाहता था कि वह हमारे दफ्तर में ही काम करने आ जाए तो अपने पास ही लोदी कॉलोनी में ही उसकी रहवास करा देंगे, तो हमारी बैठकी नियमित हो जाएगी. मैंने उससे कहा कि, देखो तुम किसी से बस किराये के पैसे ले लो और चले आओ. नौकरी तो नागर साब देंगे, उनसे बात करनी होगी तुम्हें. और शाम को अपन आज बैठकी इधर ही कर लेंगे. 

वह इस पर आने को बहुत जल्दी राजी नहीं हुआ. काफी मान-मनौव्वल के बाद मैंने जब कहा कि चलो, आ जाओ, बस के आने-जाने के किराये मुझसे ले लेना. फिर वह आया, नागर साब से मिला. मृणाल जी से मिला और संयोग से जल्दी ही उसे यह नौकरी मिल भी गयी. फिर जब नौकरी मिल गयी तो मैंने उसके लिए लोदी कॉलोनी में कमरा ढूँढा. अब जब शिफ्ट करने की बारी आयी तो वह कहने लगा कि मैंने तो नोएडा में तीन महीने का अपना किराया ही नहीं दिया है और मकान मालिक से बचने के लिए मदान साब के यहाँ रह रहा हूँ. उसने कहा कि मैं यह नौकरी नहीं कर सकूँगा, जहाँ हूँ वहीं रहने दो. वहाँ उसको बमुश्किल इतने पैसे मिलते थे कि महीने में दस-बारह दिन के ही ख़र्चे ठीक से चल सकें. फिर मैं नोएडा गया. हमलोगों ने बारह सौ रुपये में नोएडा से लोदी कॉलोनी सामान पहुँचाने की एक छोटी गाड़ी की. मकान मालिक से मिलकर हिसाब-किताब किया और वह लोदी कॉलोनी शिफ्ट हो गया. अब हम दोनों साथ ऑफ़िस जाते.

वह घर-परिवार की भी बहुत सी बातें मुझसे शेयर करता. हम दोनों आपसे में कभी-कभी बुरी तरह लड़ भी लेते. पर याद नहीं आता कि आठ से दस घंटे से अधिक हमारी कभी बातचीत बंद हुई हो. बात करने का कोई न कोई बहाना निकल ही आता, फिर बात करनी पड़ती. हमारी दोस्ती काफी मशहूर भी हुई. इस बीच कुणाल सिंह भी ज्ञानपीठ में नौकरी लग जाने के कारण लोदी कॉलोनी में ही रहने लगा था. लोदी कॉलोनी में रहते वक्त की सारी तफसील कुणाल कभी लिखेगा, तो अच्छा लिखेगा. सारी बातें मुझे याद भी नहीं रहती, न लिखने कोई बहुत शऊर है मुझे. मैं तो सिर्फ वही बातें लिख रहा हूँ, जिसे मैं ही लिख सकता हूँ.

एक घटना के बारे में बताना बहुत ज़रूरी है. एक बार की बात है, शायद ज्ञानपीठ का कोई कार्यक्रम था. तो प्रभात रंजन, शशिभूषण और मैंने तय किया कि हम तीनों शाम को एक साथ बैठेंगे. तो शाम को मेरे ही कमरे पर बैठकी जमी. थोड़ा-थोड़ा ही रसरंजन हुआ और फिर प्रभात जी ने इच्छा जताई कि वे अब नोएडा अपने रहवास के लिए निकलेंगे. मैंने कहा कि नीचे चलकर मार्केट में साथ खाना खाते हैं. शशिभूषण ने साफ मना कर दिया. वह वही मेरे कमरे में ही लेट गया. मैं और प्रभात जी नीचे आये, खाना खाया. फिर वे निकल गये. मैं शशिभूषण के लिए खाना पैक कराकर ले आया. आया तो देखा कि जो बोतल आधी से अधिक बची थी, वह पूरी साफ़ है. मैंने शशिभूषण को खाना खाने के लिए झकझोर कर जगाया पर वह नहीं उठा. मैं भी सो गया. सुबह उठकर देखता हूँ तो जिस चादर को वह ओढे हुए था, उसमें खून लगा है. मैंने उसको जगाया, तो देखा उसका चेहरा सूजा हुआ है. पूछा, यह क्या हुआ यार... उसने कहा, पता नहीं. थोड़ा-थोड़ा दर्द कर रहा है. फिर अपने कमरे पर चला गया. ऑफिस निकलते समय फोन किया तो उसने कहा कि तुम जाओ, मैं आज आराम कर रहा हूँ. मैं ऑफिस से वापस लौटकर आया तो उसके कमरे पर गया. 

देखता हूँ कि एक गिलास में व्हिस्की डाली है और वह एक पाइप से उसे शिप कर रहा है. बताने लगा, यार देखो मुँह खुल नहीं रहा. दर्द कर रहा था तो दर्द कम करने के लिए इस जुगाड़ से दवा ले रहा हूँ. अगले दिन उसको पास के अस्पताल ले गये. वहाँ उन लोगों ने एक्सरे वगैरह का रिपोर्ट लाने का एडवाइस देकर कुछ दवा लिख दी. इसके बाद ऑफिस पहुँचा तो दो-चार घंटे बाद सहकर्मी एक ब्लॉग दिखाने लगे. उस पर शशिभूषण ने बहुत विस्तार से किस्सा बनाकर लिखा हुआ है कि हरे प्रकाश ने किसी बात पर नाराज़ होकर जबड़ा तोड़ दिया है. इतना ही नहीं उसमें यह साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी कि किस तरह हरे प्रकाश अव्वल दर्जे का क्रिमिनल है और उसका लंबा आपराधिक इतिहास है.

मैं हतप्रभ. हमारे संपादक नागर जी तक भी ख़बर पहुँची. उन्होंने भी उस ब्लॉग को पढ़ा. उसे फोन किया जाए तो उसका फोन बंद. उन्होंने मुझे छुट्टी दी, मैं उसके कमरे पर पहुँचा तो वह थोड़ा-बहुत नशे में कमरे में बैठा कुछ लिख रहा है. पूछा तो कहा, यार ... ये फलाना (नाम नहीं लेना चाहता, उन सज्जन का) बहुत चूतिया है. तुम यहाँ से गये तो वे लोग आ गये और ज़बरन बोलने लगे कि हरेप्रकाश ने ही तुम्हारा जबड़ा तोड़ा है. तो मैंने मज़ाक में उन लोगों को तुम्हारे बारे में झूठ-सच बताने लगा. उसने खुद ही लिखकर लगा दिया अपने ब्लॉग पर. सच में पब्लिश कर दिया है क्या, बहुत बड़ा चूतिया है. ख़ैर शशिभूषण ने इलाज़ कराया और दो दिन बाद फिर से मेरे साथ ही ऑफिस जाने लगा. जिन सज्जन ने यह हरक़त की थी, वे उम्रदराज हैं और मेरे ही प्रांत के हैं. उस समय वे भी दिल्ली में रहकर फ्रीलांसिंग कर रहे थे. कविता भी लिखते हैं. उनको लोग बड़ा सज्जन मानते हैं पर वे छुपे रुस्तम हैं.

उन दिनों रवीन्द्र कालिया जी ने नया ज्ञानोदयका युवा लेखन अंक निकाला था, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ था. उस अंक में उऩकी रचना न शामिल होने से वे बहुत आहत हुए थे और रवीन्द्र कालिया के खिलाफ बाजाप्ता संगठित आंदोलन चला रहे थे. उनके खिलाफ एक पूरी बुकलेट ही उन्होंने निकाली थी. वे मुझसे उस समय खफा इसलिए थे कि उनका पुराना परिचित होने के बावजूद उस बेहूदा अभियान में उनका साथ नहीं दे रहा था. उन्होंने दिल्ली और पटना के कुछ और लेखकों से भी मुझे लेकर कुछ बेहद घटिया बातें की थीं, जिनसे मेरा कोई लेना-देना न था. उन लेखकों के मन में आज भी मेरे प्रति मलाल है. मगर मैंने कोई सफ़ाई नहीं दी, न इसकी ज़रूरत समझी.

शशिभूषण और मेरी दोस्ती को लेकर बीच में दरार पैदा करने की कोशिश बहुत लोगों ने की, पर उसने कभी भी पूरे दिन का अबोला मेरे साथ नहीं रखा. लोदी कॉलोनी के बाद मैं जब साहिबाबाद रहने चला गया तो वह भी दो सप्ताह के भीतर ही वहाँ ठिकाना ढूँढकर रहने चला आया. फिर हम साथ ही ऑफिस आते-जाते. घर से निकलकर वह फोन करता और हम साथ स्टेशन पहुँचते और वहाँ से पैसेंजर ट्रेन से दिल्ली पहुँचते. एक ही दफ्तर में काम करते बल्कि हमारे बैठने की जगह भी अगल-बगल ही थी. अनेक बार हमने एक ही टिफिन में साथ बैठकर लंच किया. शाम को दफ्तर से हम तीन लोग सुरेश नीरव, शशिभूषण और मैं एक साथ निकलते. शिवाजी ब्रिज से पैसेंजर पकड़ते. कभी ट्रेन लेट होती तो साथ रसरंजन करते हुए ट्रेन का इंतज़ार करते. इस डेली पैसेंजरी पर उसने कहीं बहुत मार्मिक संस्मरण लिखा है.

नागर जी के कादम्बिनी से जाने के बाद हमारे जो नये इंचार्ज आये. उन्होंने हम तीनों को बहुत परेशान किया. जिनसे हम लोगों ने मिलकर लोहा लिया. बाद में मैं लखनऊ आ गया तो शशिभूषण से बातचीत में अंतराल आ गया था पर जब भी मैं दिल्ली जाता तो उससे मिलने की कोशिश करता. अगर एक-दो दिन मुझे रुकना होता तो अक्सर वह मेरे साथ रुकता भी. उसकी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ तद्भव में छपीं. वह तद्भव के संपादक और कथाकार अखिलेश की बहुत आदर करता था और मैं भी करता हूँ. कभी वह मुझसे नाराज़ होता तो मेरी शिकायत उनसे करता. दरअसल हम दोनों ही उन्हें अपने पारिवारिक सदस्य की तरह मानते हैं. शशिभूषण को लगता और सही ही लगता कि अगर हरे प्रकाश को कोई समझा सकता है तो अखिलेश ही समझा सकते हैं. 

अखिलेश जी जब भी दिल्ली आते तो हम लोगों को ज़रूर बताते थे. हम साथ मिलने जाते थे. कालिया जी भी हमारे अभिभावक की तरह थे और बहुत प्यार करते थे. एक समय दिल्ली में कुणाल, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, शशिभूषणऔर मैं एक घनिष्ठ पारिवारिक सदस्य की तरह रहे. हमारा करीब रोज़ का मिलना-जुलना था. वह युवा कवि अविनाश मिश्र को बहुत प्यार करता था. जब भी हमारी बात होती, अविनाश के बारे में ज़रूर बात करता. वह प्रभात रंजन के भी बहुत करीब था, बल्कि प्रभात रंजन से भी उसकी लड़ाई और प्यार दोनों तरह के ताल्लुकात थे. कुल मिलाकर वह इतना अपना था, कि उसके जैसा कोई नहीं हो सकता. और हाँ वह था नहीं बल्कि है. वह इसे पढ़ेगा और मेरी बाट लगा देगा. 
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हरे प्रकाश उपाध्याय
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
204, सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023
मोबाइल-8756219902                  


कोरोना काल में चित्रकार

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(कोलाज: सुमन सिंह)

आइडिया ऑफ़ समालोचन यह था/है कि यह निरी साहित्य की ही पत्रिका न रहे दूसरे सामाजिक अनुशासनों से भी संवादरत रहे और कला के दीगर माध्यमों से भी जुड़ी रहे. आलोचक रवि रंजन ने मिखाइल बख्तिन के हवाले से समालोचन को ‘विवेकशील अनकेस्वरता’ का मंच कहा है.

आप इसे पिछले एक दशक से देख-पढ़ रहें हैं. शायद एक मात्र पत्रिका है जिसने अपने ख़ास अंदाज़ में विशेषांक की शुरुआत की थी,इस कड़ी में प्रस्तुत है ‘कोरोना काल में चित्रकार’. प्रमुख २५ चित्रकारों ने इस समय को शब्द-बद्ध किया है. साथ में उनकी कलाकृतियाँ भी दी जा रहीं हैं.

इस अंक के अतिथि संपादक संस्कृतिकर्मी और कई कला-पत्रिकाओं के संपादक रहे राकेश श्रीमाल हैं. चित्रकारों से आप चित्र तो बनवा सकते हैं लेकिन लिखवाना दुष्कर है. बकौल राकेश श्रीमाल इनमें से कुछ लोगों ने तो युवावस्था में प्रेम पत्र लिखने के बाद पहली बार कलम उठाई है. इस श्रमसाध्य उद्यम के लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए.

कोरोना-काल के विचलित कर देने वाले इस एकांत में हमारे संस्कृतिकर्मियों के मन में क्या चल रहा है और इसे वह कैसे देख रहें हैं. जानना बहुत मूल्यवान और रचनात्मक है. उनकी कला और कृतियों  को समझने का भी एक रास्ता यहाँ से जाता है.    



कोरोना काल में चित्रकार                                             





१.
अखिलेश
II असहाय होने का अहसास II

इसमें याद आने की बात इसलिए नहीं है कि इसके पहले कोई कोरोना नहीं फैला था. चूँकि ऐसा हुआ नहीं सो घर में समय बिताने की सीमा नहीं रही. वैसे भी कोई क़ानून रचने में बाधा नहीं डाल सकता. किसी भी कलाकार को कानूनन कलाकर्म करने का कारण नहीं दिया जा सकता. वह रचता है अपने एकान्‍त में. यह एकान्‍त बाहरी नहीं भीतर से पाया एकान्‍त है. जीवन जीने की उलझन और कलाकर्म का संशय दो विपरीत बातें हैं. हम अनजाने जीवन जीते हैं और वो एक वक़्त पर आकर पूरा हो जाता है. कलाकर्म हर दर्शक के साथ पूरा होता रहता है. आज जो दर्शक मोनलिसा देख रहा है उसके लिए यह कलाकृति आज पूरी हो रही है. तब यह कहना कि आज का समय जो कोरोना-काल है, जहाँ सामाजिक जीवन स्थगित है, रचनात्मक जीवन में कुछ मोहलत मिली है, तब समझ में न आने वाली बात इसलिए नहीं है कि यह कोरोना-काल आप स्वयं के लिए निर्मित करते रहे हैं. 


एकान्त की खोज़ कलाकार नहीं करता, वह पाता है. बाहरी एकान्त से ज़्यादा उसे भीतरी एकान्त की ज़रूरत है. जिसे वह एकाग्रता और ध्यान से पाता है. इस तरह के रचनात्मक एकान्त के आदी कलाकार के जीवन में कृत्रिम कोरोना-काल उथल-पुथल नहीं ला सकता. यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसकी चाहना न हो. यह मन-माँगा काल है जिसे समेटकर सहेजना सामान्य प्रक्रिया है. सामाजिक रूप से इस भीषण समय में रचने का आनन्द उसी तरह का है जो अन्यथा था.

इस दौरान मैंने कुछ काम इस तरह के किए जिन्हें मैं लम्बे समय से टालता आ रहा था. जिसमें पत्राचार को व्यवस्थित करना भी शामिल है. मेरे लिए भी यह आश्चर्य का विषय रहा, जब मैं उन्हें देख रहा था. मेरे पास जो पत्र हैं उनमें निर्मल वर्मा के यदि दस से ज़्यादा ख़त हैं तो कृष्ण बलदेव वैदके ख़त चालीस के क़रीब होंगे. दयाकृष्ण, यशदेव शल्य, मुकुँद लाठ, अनुपम मिश्र, वागीश शुक्ल, मणि कौल, कुमार शाहनीरज़ा, अंबादास, कोलते, उदयन वाजपेयी, हुसेन, मनीषा कुलश्रेष्ठ, गिरिराज किराडू, आशुतोष भारद्वाज अनिरुद्ध उमटआदि अनेक विद्वत जनो के ख़त का ज़ख़ीरा है. इसमें मैंने अनेक युवा चित्रकारों का नाम ही नहीं लिया कि बिलावजह name dropping का आरोप मुझ पर लगेगा.

इस कोरोना काल में कला,जो कल्पना की कोरी स्लेट पर उभरती है, को समय सापेक्ष बनाना अत्याचार होगा. वैसे भी कला में समय कल्पना सापेक्ष है. यह समय है प्रकृति को जानने का. मानुष होने के अहंकार को त्यागने का. समुद्र के किनारे ऊँट और हिरण को दौड़ते कुलाँचे भरते देख उनको अपने साथ जगह देने का. यह कोरोना-काल, ऐसा मानना कि मनुष्य के लिए ही आया है, यह दरिद्रता है. विचारों की दरिद्रता. यह सबके लिए समान है और मनुष्य भी एक प्राणी ही है. मैं रेखांकन भी कर रहा हूँ, कुछ पढ़ रहा हूँ और एक लम्बे साक्षात्कार में भी हूँ जो राजेश्वर त्रिवेदी कर रहे हैं. दोस्तों से फ़ोन पर बात और कुछ पत्र-लेखन जारी है. दोनों बेटे ईबयुग और भाद्रपद से बातचीत लगभग रोज़ होती रहती है. इस तरह इस एकान्त में डूबने का सौभाग्य जो मिला है.

जो सौभाग्य मिला है इस एकांत में डूबने का, वह प्रेरित करता है वार्तालाप के लिए. यह वार्तालाप अपने चित्रों के साथ भी है और बचे हुए समय के साथ भी. रेखांकन समय चाहता है और इन दिनों मैं रेखांकन ही कर रहा हूँ. जिसमें रूप का एकान्त है, रेखा की गतियाँ हैं और स्थगन है.

एकान्त और स्मृति का साथ स्थायी लगता है. मुझे भी ऐसी बहुत सी यादें प्रफुल्लित करती हैं और बहुत सी उस एकान्त को सार्थक कर देती हैं. प्रियजनों की स्मृति हमेशा सुख देती हैं और उनके ना होने का गम भी नहीं होने देती. हमेशा यही लगता है कि उनकी जगह मैं भी इस अबूझ संसार से जा सकता था. अबूझ इसलिए भी कह रहा हूँ कि पिछले दिनों युवाल नोउवा हरारीकी तीन पुस्तकें, जिनका अनुवाद हमारे मित्र Madan Soniने किया है, पढ़ीं और जिस क्रमबद्ध तरीके से उन्होंने मनुष्य के पतन-यत्नों का ज़िक्र किया है, वह तारीफ के काबिल है. किंतु इस कोरोना-काल में फैले वाइरस का ज़िक्र करना उनकी कल्पना से बाहर ही रहा. उन्होंने मनुष्य के पतन का एक बड़ा कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा, जो बहुत भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता भी है. 

उनकी तीसरी किताब "इक्कीसवीं शताब्दी के लिए इक्कीस सबक"में भी किसी वायरस से खतरे का जिक्र नहीं है. युवाल को उम्मीद ही नहीं थी कि इन सब के अलावा भी कई और रास्ते हैं, जिन पर मनुष्य चल रहा है. वह आव्हान कर चुका है बहुत से जाने-अनजाने रास्तों का, जिनसे वह नष्ट होना चाहेगा. उसे अंदाज नहीं है कि आव्हान उसी ने किया है. अपने एकान्त से आतंकित आदमी कोरोना-एकान्त में रच रहा है, नया भविष्य, जिससे निकलने के बाद दुनिया भर के मनुष्य थोड़ा सा बदलेंगे और बहुत सा संसार बदलेगा. यह थोपा हुआ एकान्त मनुष्य की आजाद ख्याली के खिलाफ बड़ा अवांछित हस्तक्षेप है. जिसको वह पकड़ नहीं सकता, धरना दे नहीं सकता, जहाँ सारी विचारधाराएं खोखली सिद्ध हो गईं, जहाँ मनुष्य को असहाय होने के अलावा कोई और अहसास नहीं बचा. उस एकान्त में रचना ही मनुष्य होने, बचे रहने की उम्मीद है


२.
सीरज सक्सेना
ll रंग पहले गीले होते हैं, फिर सूख जाते हैं ll

जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ घरबन्दी और बढ़ गई है. पर बतौर स्वतन्त्र कलाकार अपना सारा काम अब तक घर से ही संचालित होता आया है सो इस घरबन्दी का असर मुझ जैसे फ्रीलान्स कलाकार की दिनचर्या पर कम ही हुआ है. सुबह शुरू होती है स्टूडियो में फैले सूर्यप्रकाशित मौन से. छत पर दिन भर खिली धूप पसरी रहती है.अपने सोलर कुकर में दालभात और कुछ अन्य भोजन पकता हैं. चिड़ियों की चहचाहट भी इन दिनों खूब सुनाई दे रही हैं. सुबह शाम बिना नागा सफ़ेद छाती वाला किलकिला (white throated kingfisher) इधर से उधर उड़ते हुए खूब चहकता है वैसे यह पक्षी उड़ने के बाद बहते हुए पानी को देर तक ताकता रहता है और बिना चूके अपना शिकार करता है. उसकी इस अचूक दृष्टि के पीछे उसका धैर्य ही है जो उसे एक अचूक शिकारी बनाता है. बुलबुल भी नीम के पेड़ पर दिन भर उछल कूद करती है. जब सूरज सर के ऊपर होता है लगभग बारह बजे, तब लम्बी और नुकीली चोंच वाली पर्पल सन बर्ड अपनी छोटी और चमकीली देह में दूर से ही दिख जाती है. नीम के पेड़ पर हरियल (हरे कबूतर ) भी दिखाई देते हैं. जो कि इसी घरबन्दी काल में यहां पुनः लौट आए हैं. इन हरे कबूतरों और नीम के पेड़ के बारे में भी मैंने हाल ही में विस्तार से लिखा हैं.नीम के पेड़ पर गिलहरियाँ भी दिन भर चढ़ती उतरती हैं. इन दिनों पक्षियों और शावकों को सड़क पर वाहनों का भी डर नहीं हैं. उनकी चाल में एक ख़ुशी, अभय और संतोष है.


बमुश्किल कोई वाहन इन दिनों सड़क पर नज़र आता है. वाहन नहीं होने से हार्न और उनकी गति से उत्पन्न शोर भी नदारद हैं, न ही प्रदूषित हवा है. हमारा समाज कुछ सभ्य लग रहा है और स्वच्छ भी. इस तरह की शांति दिल्ली और उससे लगे इलाकों में पिछले बीस सालों में कभी नहीं देखी. अब लग रहा है कि यह एक पुरानी सभ्यता और संस्कृति के धनी देश की राजधानी हैं.

टी वी पर दिखाया जा रहा हैं कि हमारी पवित्र गंगायमुना आदि नदियाँ अब स्वच्छ हो गई है और निर्मल भी. जबकि तमाम सरकारें अरबों रूपए नदी की सफाई में पिछले कुछ सालों में साफ़ कर चुकी हैं.पर यह जो परिणाम इस घरबन्दी में सामने आया है रोचक है. आसमान भी इन रातों तारों से भरा दिखाई देने लगा हैं. सप्त ऋषि तारा समूह जो दूरबीन से भी नहीं दिखता थाइन दिनों आँखों से ही दिखाई दे रहा हैं. प्रश्नवाचक चिन्ह में बंधे ये सात तारे न जाने कब से हमें किसी अनजाने प्रश्न को सुलझाने की ओर इशारा कर रहे हैं. ऋषि वशिष्ट नामक तारे के पास ही एक छोटा तारा जो हमेशा इसके साथ होता हैटिमटिमाता हुआ इन दिनों दिख रहा है. कहा जाता हैं कि यह उनकी पत्नी अरुंधति है. अपनी दूरबीन से चाँद और बाकी तारों को देखना इस काल की एक उपलब्धि की तरह हैं. यह शुभ है कि पक्षी हमारे करीब आ गए हैं और हवा पानी भी स्वच्छ हो रहे हैं. आखिर हम सब अपनी लालसाओं को तृप्त कर अंत में एक स्वस्थ जीवन शैली ही तो चाहते हैं. ऐसा जीवन जिसमे साफ़ हवा, पानी, वनस्पति और अन्य जीव जंतु भी सहजता से विचरते हों.

मित्रों से भी फोन पर बात हो जाया करती हैं वे सभी भी अपने अपने घरों में है इस बीच पढ़ने की गति भी बढ़ी हैं और लिखना भी उसी का असर हैं. तरह तरह के रोचक और हास्यास्पद सन्देश भी व्हाट्सएप पर रोज़ाना आ रहे हैं उन्हें डिलीट करने में भी समय का एक बड़ा हिस्सा निकल जाता है. रोज़ घर की सफाई के साथ साथ डिजिटल कूड़ा भी बुहारना होता है.

मुंबई में रहने वाले कवि,कहानीकार मित्र सुभाशीष चक्रवर्ती (जिनका झारखण्ड के प्रति विशेष प्रेम हैं) के साथ मिलकर एक समूह बनाया है जिसमे हमने वहां के बच्चो से आग्रह किया है कि अगर उनकी चित्रकला में रूचि हैं तो वे इस समय चित्र बनाए और हमें भेजे. बच्चो का इसके प्रति उत्साह देखते ही बनता है. बच्चों के माता पिता भी उनके इस काम में, उनकी इस रंगीन दुनिया में शामिल हो रहे हैं. इस बात को लगभग तीन हफ्ते हो गए हैं और अब तक पांच सौ चित्र प्राप्त हो चुके हैं. दो बच्चो को मै अपना चित्रपुस्तकें और कुछ कला सामग्री भेंट करूंगा. एक मई को तीन चित्र चुने जाएंगे और उन नामों की घोषणा होगी. और जब यह घरबंदी टूटेगी तब राँची में इन चित्रों की एक प्रदर्शनी आयोजित की जाएगी और बच्चों का उत्साहवर्धन किया जाएगा. घर में रहते हुए भी अपनी प्रतिभा को सवाँरा जा सकता है. जिन्हे संगीत का शौक है वे अपने गीत व नृत्य सोशल मंच पर साझा कर सकते हैं.बच्चों के लिए जब स्कूल बंद हैं बच्चे पार्क भी नहीं जा रहे हैं घरों में हैं ,राज्य सरकारें व केंद्र सरकार भी कुछ सृजनात्मक आयोजन कर सकती है.

कल आठ अप्रेल को कुमार जी का जन्मदिन था. यूट्यूब पर हिंदी समाचार चैनल "दी लल्लनटॉप"के सौरभ द्विवेदी ने कुमार जी (कुमार गन्धर्व) का जन्मदिन मनाया और फेसबुक पर एक लाइव गोष्ठी आयोजित की. जिसमे सौरभ के अलावा युवा कवि हिमांशु बाजपेयी बतौर श्रोता शामिल हुए तथा देवास से कलापिनी जी और सोपान जोशी (पर्यावरणविद) के बीच एक घंटा इक्कीस मिनिट सहज सुन्दर और महत्त्वपूर्ण संवाद हुआ. जिसमें कुमार जी के बचपनभ्रमणशिक्षासंगीत, भोजन के अलावा भजनों की भी बात हुई. राग के बारे में बताते हुए कलापिनी जी ने कहा कि कुमार जी राग को सीधा सीधा नहीं बल्कि कुछ तिरछा होकर अन्य कोणों से भी देखने के बारे में कहते थे. यह (चित्र) देखने के मामले में भी एक उपयोगी अभ्यास हो सकता है.

प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल को भी रायपुर से फेसबुक पर लाइव देखा-सुना. उनको सुनना हिंदी के एक सहज और पारदर्शी रंग से रूबरू होने जैसा होता है. जो किसी अन्य लेखक में नहीं मिलता.

अब तक मैंने तीन चित्र बड़े कागज़ पर, एक बड़ा रेखांकन और दो छोटे-बड़े केनवास पर चित्र भी बनाए हैं. एक अधूरा केनवास अपने पूर्ण होने की प्रतीक्षारत हैं.

स्वर्गीय रविंद्र कालिया जी की बेहद लोकप्रिय किताब "ग़ालिब छुटी शराब"भी पढ़ी. एक बार पढ़ना शुरू किया तो चार दिन किताब ही पढता रहा. इस किताब में शराब के जरिए रविंद्र जी के जीवन को खुद उन्होंने ही स्वच्छ पारदर्शिता के साथ संजोया हैं. मेरा मानना है कि हर युवा कलाकार को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए. इस किताब में हिंदी गद्य की लय ऐसी है कि उसकी लत पड़ जाए.

खाली स्वच्छ कागज़ पर ज्यों ही मैं अपना स्याही से लबरेज़ ब्रश लाता हूँ. स्याही ब्रश से उतर चित्र सतह पर इठलाने लगती हैं. रेखाएं इस एकांत में कुछ दृश्य लिपि की तरह लिखने लगती हैं. कागज़ पर लिखा जाना और मेरा उसे देखना ये दोनों काम एक ही समय में होते हैं.यह लिपि की तरह लगने वाला रेखांकन जो पढ़ने से शुरू होता है और अंततः एक दृश्य अनुभव में तब्दील होता हैं.पर्याप्त रौशनी में भी जलते हुए दिए की उपस्थिति मुझे अपने चित्रकर्म के दौरान संगीत की ही तरह आवश्यक लगती हैं. दिए की रौशनी और संगीत किसी प्रिय सखी की तरह मेरे पास होकर मुझे चित्ररत देखते हैं और मैं भी रह रह कर उन्हें. एक रेखाचित्र बनाने में कागज़,स्याही या रंग, ब्रश,समय के अलावा भी बहुत कुछ अनिवार्य होता हैं. यह बात वे आसानी से समझ पाएंगें जिन्हे एक चित्र और पोस्टर का भेद पता है. स्याही शब्द को पढ़ते ही तमाम पाठकों के मन में काली स्याही का आना स्वाभाविक है पर चित्रकार के स्टूडियो में अनेक रंगो की स्याहियाँ होती है. सफ़ेद भी. रेखा चित्र इन दिनों पत्र की तरह लग रहे हैं. यह पत्र आज के समय,मौन,किसी जानी पहचानी खुशबू या शायद किसी की अनुपस्थिति को सम्बोधित हैं.

परत दर परत रंग एक केनवास पर रखे जाते हैं (कुछ चित्रकार रंगों को अपने केनवास या कागज़ पर बहाते हैं तो कुछ रंगो को पोंछते हैं). रंग जब रखे जाते हैं तो अमूमन वे गीले होते हैं फिर वे सूख जाते है. गीले रंग की सुर्खी और उसी रंग के सूख जाने के बाद की रंगत में महसूस किया जा सकने वाला फर्क होता हैं. (कुछ चित्रकार इस सुर्खी को ध्यान में रख कर चित्र बनाते हैं तो कुछ रंगो के साथ खुद को बहा देते हैं और सूखे जाने के बाद अपने केनवास पर रंगों को ठिठक कर देखते हैं)रंग इस शांति में (जिसे चिड़िया रह रह कर भेदती है) और मुखर हो गए हैं और चित्रकार मौन हैं. सफ़ेद (जिसे अक्सर कोरा केनवास कहा जाता है) अपने मौन में कुछ और श्रृंगारित लग रहा हैं. अब जब न अधिक गर्मी हैं न ही ठण्ड. मौसम सुखद हैं. रंगों, कागज़, केनवास और समय की कोई कमी नहीं है.

नीले, हरे, पीले और हलके भूरे चित्र इस दौरान बने हैं. मुझे रह रह कर याद आते हैं भीमबेटका के वे आदिम चित्रकारपिछले कुछ वर्षों में हुई विदेश यात्राओं में मिले मित्र बने चित्रकार,नदियाँ और भाषाएं जिसे मैंने करीब से सुना है. वे खुशबुएँ भी जो अब मेरी स्मृति का स्थाई हिस्सा है.

रह रह कर याद आ रही हैं चित्रकार अम्बादास की बाल सुलभ मुस्कान, जिसमे खिला रहता है उनके चित्रों तक पहुंचने का अभी-अभी यौवन पाया एक पुष्प का चेहरा. अष्वित (पोलैंड) में देखे स्त्रियों के बालों का एक विशाल गुच्छ,हजारों लोगों के ऐनक,जूते और उनकी चींख. उस अनुभव के बारे में आज तक मेरी कलम एक वाक्य तक नहीं लिखा पायी हैं यह हताशा भी रह-रह कर अक्सर इन दिनों याद आती हैं. लाखों लोगों को जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे उन्हें बिना किसी अपराध के मार डाला गया. और विज्ञान,तकनीक,आदि का इस सामूहिक कत्ल में आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल किया गया. यूरोप के देशों में आज भी यह दर्द एक सूख चुके घाव के रूप में देखा जा सकता है.

दिन में बना नीला चित्र साधारणतः किसी रात के आस पास ही क्यों ठहर जाता हैं.कला व्याकरण में रंगो पर समझ के दोष से मुक्ति कब मिलेगी? इस भेद तक इन दिनों (जब न कहीं जाने का, न किसी से मिलने की हड़बड़ी और उत्साह है) पहुंचने की कोशिश में हूँ. रंग का सीधे सीधे स्मृति और दृश्य अनुभव से लेना देना है उसे किसी परिभाषा की दरकार नहीं.

अपनी सिरेमिक कार्यशाला में नहीं हूँ अभी, पर हवा में मै मिटटी से कई रूप बनाता हूँ और फिर उसे ढहा देता हूँ. मिटटी की नरमी मेरी उंगलियां महसूस करती हैं.

कुछ लोगों को लग रहा हैं कि वे घरों में कैद हैं पर सच्चाई इससे परे हैं. घर वैसा ही है हम ही इसमें कैदी की तरह खुद को बरत रहे हैं. यह वक्त है खुद के घर को टटोलने का देखने का कि हमने कितना कुछ व्यर्थ का सामान जमा कर रखा हैं. खुद के भीतर झाँकने का भी यह एक महत्त्वपूर्ण और सुनहरा वक्त हैं. आधुनिक और विकास के इस पथ पर दौड़ते दौड़ते हम कहाँ तक आ पहुंचे है. यह समय कुछ देर ठहर कर, अपने सफर को देखने का है, उसे महसूस करने का है. पता नहीं फिर हमें यह अवसर मिले न मिले. जब सब कुछ तथाकथित रूप से सामान्य हो जाएगा. सड़कों पर शोर करते हुए अपने दम्भ में वाहन दौड़ने लगेंगे. फिर हम कलाई में बंधी घडी के काँटों में उलझे समय के अधीन हो जाएंगे और देह और घर के बाहर होने वाले कामों में खुद को खपा देंगे, तब शायद हम इसी समय के बारे में सोचेंगे और बार-बार हाथ धोते हुए पछतायेंगे.

३.
मनीष पुष्कले
II करुणा डायरी II

प्रत्यक्ष : २५-०३-२०२०
पहले ऐसा विश्व युद्ध के दौरान हो चुका था. वैश्विक स्तर पर सामाजिक विराम की ऐतिहासिक सूचना आज हमारे जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव तब बनी है जब आधुनिक संचार क्रांति ने अवसाद और मृत्यु के इस काल में बाहर से जुड़े रहने के लिए संप्रेषण की नईं तकनीकें विकसित कर लीं हैं. इन साधनों की अनुपस्थिति में विश्वयुद्ध की यंत्रणाओं से पूर्ववर्ती जन-जीवन कितना अवसाद ग्रस्त हुआ होगा, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. आधुनिक यंत्रों से लैस आज का समाज अपने इस प्रत्यक्ष अनुभव के बावजूद उस दौर की उन मनः स्थितियों को नहीं समझ सकता जो जीवन में अनिश्चितताओं के पूर्ण स्थापन और संभावनाओं के पूर्ण स्थगन से प्रगट होतीं हैं. उस दौर के समाज ने अपनी उम्मीदों और हताशाओं के परस्पर संघर्षों के बावजूद कई कालजयी चित्रों, कविताओं और साहित्य से हमें परिष्कृत किया है. लेकिन, क्योंकि तकनीकी विकास ने २१वी शताब्दी के इस काल की उद्विग्नता और संदिग्धार्थता को २०वी शताब्दी की अनिश्चितताओं और अवसादों के समक्ष मानसिक तौर से कम यंत्रणाप्रद बना दिया हैं, इसलिए यह संभव है कि यह काल परिष्कार की दृष्टि से निष्पत्ति को क्षीण करे. यह खुलापन हमें मुबारक हो.

आविष्कार : २८-०३-२०२०
याद रहे, कि नए संक्रमणों से बचने के लिए नए टीकों का आविष्कार होता है और नए युद्ध के लिए नए हथियारों का. एक में मनुष्य आविष्कार के पहले मरता है और दूसरे में उसके बाद. जो युद्ध से बचे रहे आयेंगे, वे संक्रमण से मारे जायेंगे और जो संक्रमण से बचेंगे, उन्हें युद्ध में जीना होगा. हथियारों की हठ और विषाणुओं के विष के अलावा अगर मनुष्य में निर्मिति की कोई अलग संभावना बचेगी तो वह सिर्फ कला में ही होगी. लेकिन इसी बीच यह भी सुना है कि शल्यप्रक्रिया में सफलतापूर्वक स्थापना के बाद अब रोबोटिक-आर्ट पर गहन शोध हो रहा है. जब मनुष्यार्जित ज्ञान और उसकी कल्पनाशीलता उसके ही अस्तित्व का विलोम हो चुकी होगी, तब हम अपना दर्द इसलिए नहीं देख सकेंगे क्योंकि विलोमीकरण और विलोपीकरण की महान परस्परता में महीन चूक की भी कोई संभावना नहीं बचेगी.

अखबार : ०२-०४-२०२०
वैसे तो सबसे पहले मुझे समझाया गया था कि इस संक्रमित समय में अखबार नहीं लेना है. बाद में चेतावनी भी मिली. लेकिन, क्योंकि समझाइशें और चेतावनियाँ सिर्फ मुझ पर ही प्रक्षेपित की गयीं थीं, अतः अख़बारवाला अभी तक हर सुबह सकुशल अपना फ़र्ज़ निभा जाता है. हर सुबह रबड़ में क़ैद कागज़ का यह असहाय पुंगा अपनी मुक्ति के लिए मेरा इंतज़ार करता हुआ जमीन पर धराशायी-सा पड़ा जरूर मिलता है लेकिन इस क़ैद में वह कभी-भी अपने चारों खानों को चित नहीं होने देता. मेरे कर-कमलों से हर सुबह उसकी मुक्ति का उपक्रम मेरे हाथों से उसकी इस जिजीविषा का सम्मान तो है ही लेकिन उसके साथ वह मेरे ऊपर प्रक्षेपित की गयीं उन समझाइशों और चेतावनियों का जवाब भी है, जो बताता है कि अखबार में संक्रमण नहीं बल्कि उसकी खबर होती है, और यह भी, कि संक्रमण समय में नहीं मनुष्य में होता है. इस तरह से सत्य के प्रयोग के साथ दिन की शुरुआत में ही यह प्रमाणित हो जाता है कि जब तक खबर मिलती रहे तब तक संक्रमण और हम, दोनों अपने-अपने पृथक स्थानों पर सुरक्षित हैं. 

यह क्षण इस संज्ञान का भी है कि खबर और खबरदार की पारस्परिक आत्मीयता में उनकी आपसी अंतर निर्भरता का बड़ा स्थान होता है. आज के दौर में इस सम्बन्ध के टूटने का मतलब है कि संक्रमण ने खबरदार को विस्थापित कर दिया है, कि खबरदार अब खुद की खबर का नायक बन गया है. क्योंकि, मैं अभी खबर नहीं हुआ हूँ, इसलिए दिन के बाकी प्रहरों में दूसरों की खबर लेने के पहले स्वयं को खबरदार करना इसलिए अति-आवश्यक मानता हूँ ताकि हम उन प्रहरों में दूसरों के सूक्ष्म प्रहारों से खुद को बचा सकें. इस तरह अखबार का निश्चेत पुंगा अपनी मुक्ति के अहसास में सूर्य के अपना सर उठाते हुए अंततः मेरे सत्य का सूक्ष्म प्रहरी बन ही जाता है.

अवसर : ०४-०४-२०२०
बाहर कोरोना का तनाव है. लेकिन मेरे घर के भीतर वह ना कर पाने का तनाव है जिसे सभी मित्र बड़ी रूचि से अपने-अपने यहाँ कर रहे हैं. हालांकि मेरे तनाव का मुख्य कारण मैं स्वयं ही हूँ, लेकिन उसके चलते आज इस बात पर मैं कामना से भिड़ गया कि अगर उसने वर्षों से रोजाना के उत्स की तरह चली आ रही साफ़-सफाई की जिद या रस्म को न पाला होता तो आज मेरे स्टूडियो में भी बे-मौसम दिवाली होती. इस काल में मैं भी निस्तेज पड़ चुके अटाले को बाहर फेंक सकता था और स्टूडियो की अनेकों बेतरतीब उपस्थितियों को सुलझाकर रख सकने की तरकीबों की सोच में झुलस सकता था. लेकिन अपनों की नज़रअन्दाजी और स्वयं की शिथिल दूरदर्शिताओं के चलते मुझे उस अभियान को छेड़ सकने का सुख और अवसर नहीं मिल सका, जो मेरे अनेक मित्रों को इस कोरोना काल में नसीब हो रहा है. सभी अपने स्टुडियो को ऐसे साफ़ कर रहे हैं जैसे बालों में से जुएँ निकाल रहे हो. मैं जानता हूँ कि ऐसे मौके अक्सर नहीं आते. यह वैशाख में कार्तिक का अवसर है, जिसकी अमावस्या बेहद लम्बी है. मेरी इस बेतुकी और अजीब बहस पर कामना का कहना है कि कोरोना का इलाज फिर भी संभव है, लेकिन मेरा नहीं. मेरा अणु-अणु उसके इस तंज में विष से भर गया है, लेकिन, फिर भी मन में इस बात की शान्ति है कि इन मित्रों के स्टूडियो की साफ़-सफाई को देखकर अब कभी कोई आगंतुक उनसे भी पूछ सकता है कि 'आजकल काम क्यों नहीं करते ?", लेकिन, साथ में इस बात की चिंता भी है कि इस अलगाव से उनके कपाल से क्रिएटिव खुजली का पतन न हो जाए..? अब उन्हें यह कैसे समझाऊँ कि जुएँ और वाइरस में वैसा ही अंतर है जैसा अपनों की नज़रअन्दाजी और मेरी दूरदर्शिता में. अंत में इस बात का सुखद अहसास है कि शायद अब मेरे मित्र मुझे बेहतर समझ सकेंगे. निःसंदेह ही उनकी स्पष्टता और साफ़गोई की सफ़ेदी से मेरे धूसर पार्श्व झिलमिला उठेंगे.

स्टूडियो : ०६-०४-२०२०
कोरोना काल के इस समय ने फिलहाल हम चित्रकारों की जमात को तीन श्रेणियों में बाँट दिया है.
पहली श्रेणी में वे कलाकार हैं जिनके स्टूडियो घर से अलग हैं. वे इसलिए परेशान हैं कि कर्फ्यू के चलते अपने निवास स्थान से स्टूडियो तक ना पहुँच पाना उनकी मजबूरी है. हाल फिलहाल, घर में बैठे इन निठल्ले कलाकारों को कोरोना संक्रमण हो न हो, क्रिएटिव डाईरिया की संभावना इनमें सबसे ज्यादा है. इस बीमारी के भी लक्षण बेहद तीव्र हैं. उनके साथ बतियाते हुए हमारे फ़ोन पर उन्हें प्रकट होते आसानी से देखा जा सकता है. हमारे फ़ोन के बढ़ते तापमान में इस संक्रमण के फैलने की संभावना भी उसी अनुपात में बढ़ती है. 

दूसरी श्रेणी में वे कलाकार हैं जिनका स्टूडियो तो उनके घर की हद में ही है लेकिन उनका काम उनके असिस्टेंट करते थे. सोशल डिस्टेंसिंग से मिले नए संकोचों के कारण सहायकों की अनुपस्थिति ने इन्हें लाचार बना दिया है. कर्फ्यू ने उन सहायकों की काम पर जल्दी लौट सकने की बची-खुची संभावनाओं को जड़ से खत्म कर दिया है. स्वयं काम न करने के लम्बे अभ्यास के बाद आलस्य का प्रकोप इस श्रेणी के कलाकारों पर भारी पड़ रहा है. इस श्रेणी का मुख्य लक्षण बढता हुआ वज़न और उलझा हुआ विज़न है. इन दिनों ये कलाकार जिम में सक्रिय हैं. क्योंकि बाहर जाना मना है, इसलिए स्टूडियो ही आजकल इनका अखाड़ा है. 

तीसरी श्रेणीं में वे आते हैं जिनका स्टूडियो घर में ही है और ये स्वयं ही अपने चित्र बनाते हैं. सौभाग्य से मैं इस तृतीय श्रेणीं का कर्मचारी हूँ. इस श्रेणी के कलाकार इन दिनों क्या सोच और कर रहे हैं वह तो मुझे नहीं पता, लेकिन इस श्रेणी का एक अ-साधारण कर्मचारी होने के नाते मेरे सामने यह प्रश्न जरूर है कि इन उलझे हालातों के बीच, समय ने अपने बाह्य-स्थगनों से फलक पर उपजीं इन श्रेणियों के निमित्त से मुझे आत्म-गौरव का जो अविस्मरणीय अवसर प्रदान किया है, उसके लिए मैं अपना धन्यवाद आखिर किसे दूं ? सोशल डिस्टेंसिंग जैसे नव-नारे को, कर्फ्यू से बाध्य समाज को या सम्पूर्ण विश्व की गति को अपनी सूक्ष्म काया से रोक देने वाले शक्तिशाली विषाणु कोरोना को?

इस काल के पहले मेरे मानस में इस दुःख का तनिक अहसास तक नहीं था कि हम तृतीय श्रेणी के निवासियों के इन गौरवपूर्ण क्षणों की सार्वजनिकता को अपने सम्मान में वैश्विक मूर्छा में डूबा ऐसा मंच मिलेगा, जिसके समक्ष अँधेरा पसरा हुआ है.

माँ की याद : ०८-०४-२०२०
आज जतिन दास के कॉल और माँ की याद ने एक साथ दस्तक दी. जतिन बोले, "सिर्फ यह जानने के लिए फ़ोन किया है कि तुम सभी ठीक तो हो न ?"बातों-बातों में वे कहने लगे कि स्टूडियो न जा सकने और घर में अन्य कला सामग्री के अभाव में वे इन दिनों घर में बैठे-बैठे खूब ड्राइंग कर रहे हैं. उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो ? मैंने कहा कि मैं भी काम तो कर रहा हूँ लेकिन यह कोरोना काल मेरे लिए कुछ अतिरिक्त संभावनाओं का प्रस्ताव लेकर फिलहाल तक तो नहीं आया है. अतः मैं अपने अभाव में जस का तस हूँ. जो पहले कर रहा था, वही अभी भी है. स्थगन और निरंतरताओं के मध्य मेरा संघर्ष यथावत है. जतिन बड़े प्रेम से बोले, ड्राइंग करना. "ड्राइंग इज़ द मदर ऑफ़ आल फॉर्म्स". 

आत्मीयता से भरे उनके इस सुझाव को सुनकर मुझे अपने प्रत्युत्तर की तात्कालिकता में यह बिलकुल ठीक नहीं लगा कि मैं उनसे कहूं कि मैं पिछले साल-भर से छोटी, बड़ी और बहुत बड़ी, तरह-तरह के आकारों की ड्राइंग लगातार कर रहा हूँ और अभी-भी शाम के २-३ घंटे उसके लिए ही हैं. लेकिन जतिन दास के वाक्य "ड्राइंग इज़ द मदर ऑफ़ आल फॉर्म्स"की गूँज मेरे कानों में देर तक बनी रही. उसकी गूँज में समाए 'माँ'शब्द से माँ की याद जब फिर से गहरा गयी तो मैंने उन्हें फ़ोन किया. माँ ने हमारे प्रति अपनी चिंताओं और इस समय में अपनी मुश्किलों की उलझनों को दिखाते-छिपाते हुआ धीरे से कहा, "बेटा, यहाँ सब कुछ बंद है..राशन भी ख़त्म होने को है". उनकी मंद आवाज को सुनते हुए उस समय जो ड्राइंग कर रहा था, उसमें अब कुछ रेखाएं आत्म-ग्लानि की भी हैं...!

भण्डार : १०-०४-२०२०
आज के अखबार ने सुबह से मुझ खबरदार को आत्म-विश्वास से भर दिया है. विश्वभर में चल रहे कोरोना प्रकोप की ह्रदय विदारक खबरों के बीच एक खबर ऐसी भी छपी है कि वैश्विक कीमतों में आई गिरावट का फायदा उठाते हुए भारत ने किसी भी प्रकार की आपात स्थिति से बचने के लिए अपने रणनीतिक भंडारों को भरने की तैयारी शुरू कर दी है. इसके बाद मैं बड़ा निश्चिंत हूँ कि अपने घर में हमने भी आपातकाल के इन क्षणों में सुरक्षित बचे रहने के लिए अपने घरेलू रणनीतिक भंडार को ठीक समय पर कायम कर लिया था. एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मैंने वही अपने घर के लिए सोचा था जो सरकार ने देश और उसके नागरिकों के लिए सोचा है. यह विरल क्षण है जब नागरिक और सरकार के सरोकारों और उनकी दूरदर्शिता में इतना बड़ा साम्य है, लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि एक नागरिक अपनी नज़र में गिर न जाने के डर से बाजार के गिरने का इंतज़ार नहीं करता.

प्रूफ रीडिंग : ११-०४-२०२०
रामचंद्र गुहा ने आज के आलेख में डरों की तुलना की है. उनका कहना है कि विश्व युद्धों के दौरान भी अपनी अकाल मृत्यु के डर से आम जनता अपने घरों में ऐसे ही दुबकी बैठी थी जैसे इन दिनों हम अपने घरों में दुबक कर बैठने को मजबूर हैं. लेकिन गुहा ने यह क्यों नहीं सोचा कि डरा-दुबका समाज खालीपन की मजबूरियों में हमेशा अपने सुनहरे भविष्य और उसमे अभूतपूर्व शान्ति की प्रार्थना करता है, और यह भी नहीं कहा कि वर्तमान के इस क्षण में हमें अपने उज्जवल भविष्य की प्रार्थनाओं को शुरू करने से पहले तत्काल ही अपने पूर्ववर्ती निवेदनों को एक बार पलटकर जरूर देख लेना चाहिए ?
हमें, उनकी प्रूफ-रीडिंग की आवश्यकता को हल्के से बिलकुल भी नहीं लेना चाहिए. खासकर तब, जब उन पूर्ववर्ती फरियादों के बावजूद हमारा वर्तमान कराह रहा हो.
आखिर याचना का परिणाम यातना कैसे हो गया ?


४.
अवधेश यादव
II एकाकी होकर पड़ाव की खोज II

इस तरह की स्थिति में घर पर रहने का पहला ही अनुभव है. हालांकि मुझे भयानक ऊब या बाहर जाने की तीव्र उत्कंठा अभी तक महसूस नहीं हुई. यह भी अजीब अनुभव है कि सामान्य दिनों में यदि इस तरह घर में रुकना पड़े तो वह मुझे बहुत कष्टप्रद लगता था. जबकि वर्तमान परिस्थितियों में मुझे अब तक कोई विशेष अवरोध महसूस नहीं हुआ.

मेरा स्टूडियो घर से कुछ किलोमीटर दूर एक दूसरे इलाके में है. सो मेरी सारी कला सामग्री वही छूट गई और लॉक डाउन शुरू हो गया. केवल एक पेंसिल से ख़ाली बची एक छोटी स्केच बुक में कुछ रेखांकन किए हैं.

कला सामग्री उपलब्ध ना होने की स्थिति में इस ओर ध्यान गया कि अपनी कलात्मक चेष्टा किसी सामग्री विशेष पर ही निर्भर क्यों रहे, कि मुझे अपने रचनात्मक अभ्यास के लिए अपने आसपास मौजूद सामग्री को देखना और उनका उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए. मेरी दोस्त स्मृति बहुत खूबी से ऐसा करती है. फिलहाल इस संभावना की पड़ताल जारी है.
वैसे फोन के माध्यम से फोटोग्राफी तो है ही.

ललित कला संस्थान में अपने अध्ययन के दौरान मुझे फोटोग्राफी में खासी रुचि रही है, फिल्म रोल वाली फोटोग्राफी के उस जमाने में फोटोग्राफी ठीक से जारी तो नहीं रख सका लेकिन पिछले कुछ सालों से एंड्रॉयड फोन के मार्फत लगातार फोटो खींचे हैं लगभग कुछ हजार फोटो. साल भर पहले तक एक डेस्क जॉब में था. थोड़े ही समय के लिए, लगभग 2 साल. लेकिन उसी दौरान सौभाग्य वश मेरा कार्यालय लाल बाग के बगल वाली सड़क पर था और दिन में दो-तीन बार लाल बाग में जाना होता था वहां जंगली वनस्पति और बहुत छोटे फूलों को फोटोग्राफी के कारण नजदीक से देखने का अपना अनुभव बना और इस तरह प्रकृति के सूक्ष्म बदलावों को महसूस करने का मौका मिला. यह समझ में आया कि हम सबके आसपास एक समानांतर संसार सांस लेता है और हम पूरी तरह उससे बेखबर होते हैं. 

थोड़ा ध्यान और धीरज रखने पर उस संसार के स्पंदन को अनुभव किया जा सकता है. मोबाइल फोटोग्राफी मैं लगभग रोज करता हूं. कुछ मित्र मेरे इन छाया चित्रों को पसंद भी करते हैं तो हौसला बढ़ता है. पिछले कुछ दिनों में मैंने खाली सड़क, बिजली की तारें और सड़क पर बनती परछाइयों के छायाचित्र खींचे हैं. सड़क पर आसपास की वस्तुओं और बिजली के खंभों की पड़ती परछाइयाँ मुझे दृश्य रूप में आकर्षक लगती हैं और उनमें कुछ रोचक संयोजन दिखाई पड़ते हैं.

लॉक डाउन के दौरान खबरों और सोशल मीडिया से ज्ञात हुआ कि देश-दुनिया के कई शहरों में, चूंकि मानव की चहल-पहल कम है, तो बहुत से वन्य जीव जंतु शहरी परिवेश में घूमते पाए जा रहे हैं. मौसम साफ़ और प्रदूषण कम हुआ है. इस कारण यह कल्पना हुई कि यदि मनुष्य चाहे तो हर सप्ताह, हर महीने कुछ दिन घर से ना निकलने की आदत डालें तो पर्यावरण और प्रकृति पर बहुत सुखद प्रभाव पड़ सकता है, लेकिन सवाल यही है कि क्या मनुष्य सामान्य समय आ जाने पर ऐसा कुछ करेगा?

क्या मनुष्य को स्वयं को केंद्र में रखने का हठ कम नहीं करना चाहिए?
एक चित्रकार होने और मनुष्य होने के नाते एकांत महसूस करता हूं, भौतिक स्तर पर नहीं, बल्कि अनुभूति के स्तर पर. मानसिक एकांत. फिर भी भांति भांति के विचारों का घमासान मचा रहता है, किन्तु रचनात्मकता के संसार में अंततः आपको अपना पड़ाव नितांत एकाकी होकर ही खोजना पड़ता है. कई बार आसपास पर्याप्त उपस्थितियों के रहते भी एकांत का अनुभव किया है. इसलिए मुझे यह समय बहुत अलग नहीं जान पड़ रहा.

ऐसे लोगों का खयाल भी आ रहा है जो इस विवशता भरे समय में अपनी जीविका चलाने में असमर्थ हैं, इसलिए चिंता भी होती है और विवशता का अनुभव भी होता है.

मैं पढ़ाकू तो नहीं हूं लेकिन निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, गुंटर ग्रास, स्टीफन ज्वाईग, गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज, दोस्तोवस्कीआदि की पुस्तकें पढ़ना इस समय बखूबी हो रहा है. वरिष्ठों की ऐसी पाठकीय संगत पाना बिला शक सौभाग्य की बात है.

अभी अभी पहली बार चेखव की दो कहानियां भी पढ़ीं. लॉक डाउन के ठीक पहले लगभग 12 चित्र जल रंग से बनाए थे. उनमें कुछ नए तत्व मिलने लगे थे, या हो सकता है कि मुझे ऐसी खुशफहमी हो रही हो. उम्मीद है लॉक डाउन के बाद चित्रों में कुछ नया कर सकूंगा. फिलहाल दृश्य कल्पना में रूप-अरूप तरल रूप में कौंधते रहते हैं, उनमें से कुछ संभवतः धरातल पर आ सकें.

इस दौरान अपने आस पास के दृश्य संसार को नई दृष्टि से देखना भी हो रहा है. ऐसी बहुत सी मामूली चीज़ें जिन्हें मैंने अन्यथा लक्ष्य नहीं किया या नज़र अंदाज़ किया, जैसे घर के अक्सर उपेक्षित छोड़े गए कोने, गमले में अप्रत्याशित उग आई वनस्पति, धूप के मार्ग में आने वाली चीज़ों की परछाइयों से उद्घाटित आकार, कबूतरों की उड़ान के पैटर्न, पहले से कुछ साफ़ हो गया छत और छज्जे से दिखने वाला आकाश.

महसूस हो रहा है कि खलिश की मौजूदगी में देखना और अधिक प्रगाढ़ भी हो सकता है. खालीपन को देखते हुए कई धुंधली स्मृतियां दस्तक देने लगी हैं, जिनमें पढ़ा, सुना, देखा, अनुभव किया गया संसार और अनेक उपस्थितियों का शुमार है. इस तारतम्य में बहुत सी पुरानी तस्वीरें हाथ लगीं, जिनमें कॉलेज के शुरुआती दिनों से लेकर पिछले दशक तक की यात्राओं, प्रदर्शनियों, सहपाठियों, वरिष्ठ कलाकारों से मिलने की स्मृतियां उभर आईं. संभव है आगामी रचनाओं में उनकी अनुगूंज दिखाई दे.

कल्पना करता हूं कि एकदम खाली सड़क पर पियानो बजाया जा सकता था, यदि मुझे पियानो बजाना आता और मेरे पास पियानो होता, तो मैं घर के सामने चौराहे पर अपनी ड्यूटी निभाते पुलिस वालों के समक्ष पियानो बजाता. मैं उनके लिए "धीरे धीरे मचल ऐ दिल ऐ बेकरार"बजाता, या फिर आइजैक अल्बेनिज की रचना अस्तुरिआ का वादन करता, भले ही उन्हें उसमें रुचि ना होती. या शायद उन्हें वह पसंद आ ही जाती. यदि गा सकता तो मैं इस्पहानी गीत "नो तेंगो लुगार"गाता जिससे मुझे इज़रायली यहूदी गायिका यास्मीन लेवी को टॉवर ऑफ डेविड के परिसर में गाते हुए सुनने पर प्यार हो गया. जिसके बोलों का सार यह है कि मेरा कोई घर नहीं, मेरे पास कोई जमीन नहीं, ना ही मेरा कोई देश है. रोमा बंजारों का दर्द भरा गीत. यास्मीन के गीत ऐसे लगते हैं जैसे किसी के आर्तनाद को मेरे दिल के माध्यम से प्रकट किया जा रहा हो. कुशलता होती तो में पियानो पर मोजार्ट का टर्किश मार्च बजाता.कि यूं होता तो क्या होता..


५.
देवीलाल पाटीदार
Il अपना एकांत मैं खुद रचता हूँ II

पश्चिमी निमाड़ के धार जिले के सुंद्रेल गांव में 1960 में मेरा जन्म हुआ. जिस किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ वहां चार पीढ़ी के कुल पैंतीस लोग एक साथ रहते है जो निमाड़ी बोली बोलते हैं. 1965 में स्कूल जाना शुरु किया. उन दिनों जमीन में बिछी टाट पट्टी पर बैठ आलती पालती मारकर ब्लैक बोर्ड पर बने अ आ इ ई को देखकर अपनी स्लेट पर हुबहू बनाना शुरू किया. मेरे लिए चित्रकला की यही से शुरुआत हुई. जिस कारण घर में, घर के बाहर या खेत खलिहान में, जो भी चीजें मेरा ध्यान आकर्षित करती थी, उन्हें उस वक्त गांव में उपलब्ध रंगों से जैसे हल्दी, कुमकुम, होली के रंग, कोयला से चित्र बनाना भी स्कूल के दिनों से लगातार चलता रहा.

स्कूली शिक्षा समाप्ति के पहले ही पूरे गांव में पारिवारिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कला व सजावट से संबंधित सारी आवश्यकताओं को मैंने पूरा किया. अपनी रुचि के अनुसार कला की शिक्षा के लिए परिवार के सहयोग से मैं इंदौर आ गया, जहां मैंने समकालीन चित्र रचना सीखी जिनसे में पारंपरिक रूप से पूर्व में ही परिचित था. इन पाँच वर्षों में समकालीन चित्रकला, नाटक, कविता, और साहित्य के साथ ही साथ मैंने हिंदी बोलना भी सीखा, लेकिन शुद्ध हिंदी लिखना मुझे अभी भी नहीं आता है. उन दिनों के बहुत सारे मित्र आज भी मेरे अभिन्न मित्र हैं.

भारत भवन के उद्घाटन के पूर्व भारत भवन से जुड़ने और उसके लिए काम करने का मुझे अवसर मिला, जिसके कारण अविभाजित मध्य प्रदेश के लोक व आदिवासी समाज को नजदीक से देखने व समझने और सीखने का जो अनुभव रहा उसने मेरे मानस को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मैं ज. स्वामीनाथन का बहुत आभारी हूं, जिनके साथ मैंने जीवन, जगत और कला की बारीकियों को देखने समझने बरतने की भी एकदम नई दृष्टि पाई. 38 वर्षों के बाद जब मैं अपने काम और जीवन दृष्टि का स्रोत खोजता हूं तो वह मुझे कहीं ना कहीं आदिवासी और लोक अंचलो में मिलता है. मैं अपने काम पर देश और विदेश में पिछले 150 साल में हुए कला आंदोलनों से किसी तरह का कोई भी संबंध और प्रभाव नहीं पाता. इस बात की मुझे खुशी है कि मैं जो भी जैसा भी हूं खुद से हूं. भारत भवन में रहते हुए देश-विदेश के विभिन्न विधाओं के शीर्षस्थ कलाकारों को नजदीक से देखने जानने का अवसर मिला जिससे मुझे अपनी कला और जीवन दृष्टि बनाने में मदद मिली.

इस पृष्ठभूमि को जान लेने के बाद मेरे लिए एकांत का क्या अर्थ है, यह बात मेरे काम करने के तरीकों में निहित है. जब भी मैं काम करने पद्मासन में बैठता हूं और अपनी गोद में कागज लेकर ब्रश की नोक पर अपने को एकाग्र करता हूं, तब मेरी सारी उंगलियों की पोर मेरी श्वास से 16 अंगुल के करीब होती हैं. जिस कारण मेरी ऊर्जा श्वास के माध्यम से एक चक्र बनाती है, जिसमें आधा चक्र अंदर और आधा चक्र बाहर बनता हैं. उस चक्र के बनते ही मेरा एकांत पहले सृजित होता है और चित्र सृजन उसके बाद संभव होता है. परंपरा से हमारे देश में सारे रचनाकार इसी तरह अपना एकांत और अपना सृजन पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे हैं. अपने इसी स्वभाव और रचना प्रक्रिया के कारण मैं कभी भी खड़े होकर ईज़ल पेंटिंग नहीं करता . मुझे अपना एकांत सृजित करने के लिए अपने आसन की जरूरत है जो जमीन पर संभव है. इस आसन में शरीर गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध संघर्षरत नहीं होता. यह स्थिति चित्त को एकाग्र करने में सहायक होती हैं.

जगह घर हो, ऑफिस हो, या बाजार या बगीचा, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं जब चाहे,जहां चाहूँ, अपना एकांत रच लेता हूं. कई दोस्तों के बीच रसरंजन की पार्टी ही क्यों ना हो, वहां भी अपना एकांत में खुद रचता हूं. दूसरे की अनुपस्थिति को मैं एकांत नहीं मानता . इस अनअपेक्षित लॉकडाउन ने कई तरह के प्रश्न और समस्याएं दुनिया के आगे खड़ी कर दी है. जिसमें उनसे बच निकलने या अपनी पूर्व की व्यस्तताओं के व्यस्त रहने का कोई अवसर नहीं छोड़ा है. आपको अपने बारे में अपनी समझ के बारे में विचार करना ही होगा. आज दुनिया जिस स्थिति और विकट परिस्थिति में घिर चुकी है. उमसे क्या खोया, क्या पाया जैसी चीजों के बारे में मनुष्य जाति को सोचना ही पड़ेगा. इस महामारी के बाद बची हुई दुनिया में हमें कैसे चलना चाहिए यह फिर से तय किए बिना कोई मूर्ख या अंधा ही फिर से वैसा का वैसा जीवन चाहेगा. हम सब आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ बेहतर करना चाहते हैं तो फिर सिर्फ पुनर्विचार ही इस वक्त का कुल हासिल सबक और तकाजा है.

इस लॉक डाउन के समय घर में रहते-रहते पिछले वर्षों से रुकी हुई मेरी ड्राइंग और पेंटिंग फिर से शुरू हो गई. लगातार दिन और रात अनवरत अपने मन मस्तिष्क और एहसास को तुरंत कागज पर दर्ज कर रहा हूँ. दुनिया भर की जो स्थिति परिस्थिति निर्मित हो रही है उसे देखने समझने के दुर्भाग्यवश विकट बेचैनी दिन रात बनी हुई है, उस बेचैनी को रूप देने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है. विकल्पहीनता की इस मानसिक स्थिति में पिछले कुछ वर्षों से पूरी तरह बंद मेरा रचनाकर्म फिर से शुरू हो गया. 

इस बीच जो भी रचा है वह कभी ना कभी आपसे साझा करूंगा. अभी तो बस इतना ही कि यह गुस्सा और बेचैनी ठीक उसी तरह की है जिस तरह भोपाल गैस कांड के बाद मैंने भुगती और महसूस की थी. उस वक्त की बेचैनी को भी मैंने कागज पर चित्रित किया था. आप कल्पना करें कि जब एक शहर में ही हजारों लोगों का मरना दुनिया की सबसे बड़ी भीषण त्रासदी गिना जा रहा था, अब जब दुनिया के हर देश में व हर शहर में गैस कांड की तरह लोगों का मरना आप भाषा के किन शब्दों में व्यक्त करेंगे, क्योंकि भीषण और त्रासदी जैसा शब्द उन दिनों भोपाल पर खर्च हो चुका है. इस भीषण त्रासदी व महामारी के बाद विकास के हमारे रोल मॉडल और इच्छित जीवन पध्दति व भोग की असीम इच्छा के साथ दुनिया को जीत लेने के मूर्ख उत्साह पर फिर से सोचना ज़रूरी है.

६.
अमित कल्ला
II अनदेखे, अनसुने, अनछुए का इंतज़ार II

कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र देश दुनिया में किया गया यह लम्बा लॉकडाउन अधिकतर लोगों के लिए तकलीफों भरा सबब बना हुआ है. हमारे चारों तरफ कहने को तो सब कुछ ठहरा हुआ है और हम पर शासन का गहरा पहरा भी है, लेकिन लगातार कितना कुछ अलग-अलग उन नामरूपों में हमारे इर्दगिर्द रचा बुना जा रहा है, जाने अनजाने कितना कुछ घट भी रहा है, जो आज हमारी नज़रों से ओझल है, लेकिन आने वाले समय में निश्चित ही जिसकी बड़ी प्रासंगिकता होगी. मेरे लिए एकांत यानी, खुद को तलाशना exploring self है. अपने आप को सही-सही अर्थों में जानना है, स्वयं से सच्चा संवाद करना है. वास्तव में जो जीवन की सबसे बड़ी और सार्थक खोज भी है. एकांत में वह ताकत है जो सहज रूप से हमें अपने स्वरुप को जानने में सहायता करती है जिसके पीछे इस मुक़द्दस दुनिया से ज्यादा बेहतर जुड़ने का मर्म छिपा है.

व्यापक तौर पर अगर हम अगर एकांत के दार्शनिक पहलुओं को खंगालें, तो हमारे तमाम धर्म, सम्प्रदाय और मजहबों में न केवल एकांत रूपी इस तत्व का भरपूर गुणगान किया गया है, अपितु इसे साधने की नाना प्रकार की विधियाँ भी विस्तार से बतलायी गयी हैंl लिहाज़ा जिसके कई आयाम और मायने हैं, जो किसी एक स्थान पर रहने से ज्यादा बड़ा मसला है, जिसका मूल स्वभाव संधानात्मक है. यथासंभव उसका अभ्यास करने के लिए मन और शरीर दोनों ही स्तरों पर सघनता से तैयार होना होता है. मैं अपने आपको इस पूरी दशा में एकदम अलग ही मुकाम कर खड़ा पाता हूँ, यक़ीनन देश और दुनिया में हो रही जनहानि मुझे चिंता में डालती है. आसपास के माहौल को देखने पर सामने आ रही बुनियादी वस्तुओं की भारी कमी और तमाम मुश्किलात मन को ठिठकाते भी हैं. कभी कभी ज़ज्बाती भी हो जाता हूँ, लेकिन इन सभी हालातों के बावजूद मेरे लिए बड़ी बात यह है कि मैं निरंतर अपने स्टूडियो में कला की संगति में हूँ. अपने बाहरी परिवेश में हुए बदलावों के अलावा अमूमन जीवन पहले जैसा ही महसूस कर रहा हूँ. निसंदेह आज जिस टाइम और स्पेस में हम मौजूद हैं, उसकी गति में कहीं ज्यादा ठहराव ज़रूर दिखता है . समय के इन बिम्बों की मेरे लिए तो असंख्य भौतिक, भौगोलिक और दार्शनिक उपमाएं हैं .

पिछले दो दशकों के यायावरी जीवन में पहली बार मैं इतने लम्बे समय के लिए अपने घर में हूँ, या फिर यूँ कहूँ कि किसी एक जगह पर हूँ. अन्यथा हमेशा ही किसी न किसी प्रयोजन को लेकर यात्राओं का सिलसिला ज़ारी रहता है. कभी-कभी लम्बी यात्राओं के दौरान निसर्ग की संगति में भी मैं उस एकांत को सहज अनुभव करता रहा हूँ, जो मन को बाहरी मार्ग से अंतर मार्ग पर लाने का माध्यम है. जिससे वह विचारों और वस्तु स्थितियो के दरमियान अनेक पहलुओं पर कनटमप्लेट किया जा सके, जिसके मार्फ़त आत्मशक्ति को बढाकर मन का सहज निग्रह संभव हो सके. लेकिन इन दिनों एक अलग किस्म की यात्रा के मुकम्मल मंजरों को देख पा रहा हूँ. जहाँ मेरे लिए किसी रचना के परिपक्व होने के चारों और होने वाली जीवन सरीखी यात्रा है, जो उस अनागत अनंत को अपने भीतर ही कहीं बूँद-बूँद पा लेने को आतुर है, किसी सूक्ष्म बिम्ब के सहसा विस्तार में तब्दील हो जाने की. 

यक़ीनन उसी विराट की सलवटों में सिमटकर अनकहे को कहने और अपने ही भीतर एक नयी दुनिया को गहकर सलामती से उसमें बने रहने की यात्रा. जिसके दरमियाँ अनेकों स्तरों पर अभिव्यत होना ही उसका असल प्रयोजन है. कला उस सनातन मौन को संजीदगी से कहकर संभावनाओं के दरिया जैसी, लहर दर लहर अविरल बहते रहने का नाम है. जहाँ अनुभव ही उसका मुकम्मल मंसब मालूम पड़ता है जिसे यथासंभव पा लेना उस अनामी इबादत का एक अभिन्न हिस्सा है .

यह बात सही है कि आज का यह एकांत हम पर आरोपित है. लेकिन उसके बावजूद हमारा समूचा समाज बड़ी ही ज़िम्मेदारी से सहेजता हुआ उसकी लय में रमता जा रहा है. वैसे हमारे यहाँ एकांत की संकल्पना का एक सुन्दर संस्कार भी रहा है, जो किन्ही जोगी, महात्मा, फकीरों, कलाकारों या आध्यात्मिक साधकों के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस सामान्य इंसान के लिए कई मायनों में अमृतफल है. मन में जिसकी चाहना हो, उस घट की अंत: चेतना के ऊपर की ओर उठने के अनन्य संकेत हैं. दुनियादारी में मोटे तौर पर इस एकांत को अस्वीकृत किया जाता रहा है, उन्मुक्तता में बंधन जैसा मानकर उसे भय का पर्याय करार दिया गया है.

बहरहाल इन दिनों मैंने कलाविद रूपनारायण बाथम के आग्रह पर इंडियन आर्ट हिस्ट्री के स्कल्पचर सेक्शन को एक नए सरल तरीके से लिखने की शुरुआत की है. जिसमें उसके ऐतिहासिक पक्ष के साथ उसमें व्याप्त सौंदर्य के अभिन्न पहलुओं को उजागर किया जा सके, उन्हें मुकम्मल ढंग से जाना जा सके. लिहाज़ा सिन्धु काल से लेकर मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त, सातवाहन, गुर्जर-प्रतिहार, चंदेल-परमार, पाल-सेन, चालुक्य-होयसेल, दक्षिण भारत के चेर, चोल, पंड्या से लेकर नोलाम्बा-नायकोंइत्यादि पर लिखने का क्रम बदस्तूर जारी है. इसी बीच दो बड़े आकार के कैनवास भी पेंट किए हैं. जिनमें फॉर्म और स्पेस को लेकर काम किया है और साथ ही कुछ पेपर शीट्स पर ड्राइंग का अभ्यास चल रहा है. मेरे लिए उन कैनवासों की सतहों पर अनेकानेक रंगबिरंगे फॉर्म्स को अनवरत इंटरलॉकिंग किया जाना ही सबसे बड़ा अवधान साबित हो रहा है, जिसमें लगातार गोते लगाना, स्वयं को परत दर परत खोलते जाने की स्वभाविक ढंग से अभिन्न संवाद की ही एक खूबसूरत प्रक्रिया है. जिसमें मुझे अनागत संगीत के स्वर, ब्रश के अनगिनत स्ट्रोक्स में सुनाई देते हैं .

वैसे स्टूडियो में हमेशा ही रंगों की भरमार रहती है लेकिन इस बार सफ़ेद रंग की किल्लत है, जिसे मैं कई तरह की रंगतें बनाने के काम में लेता हूँ. वैसे अपने चित्रों में मैं सफ़ेद रंग ज्यादा नहीं लगाता, लेकिन स्टूडियो में उसकी अनुपस्थिति इन दिनों मेरी चेतना में बनी रहती है. जिसे अगले कई दिनों तक लाना संभव नहीं है.

इन बड़े चित्रों को उकेरते हुए मुझे लगातार स्पेस को लेकर भी कई किस्म के विचार आ रहे हैं. जो तह ब तह उसके तमाम कायदों के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं. वस्तुतः जो मेरे अपने अनुमानों पर ही आधारित हैं. स्वाभाविक रूप से जो फिजिकल और मेंटल दोनों स्तरों पर व्याप्त हैं. लिहाज़ा एकांत के इस दौर में उसकी प्रासंगिकता मन पर कहीं ज्यादा प्रभाव डालती है, जिन्हें मैं अपनी स्केच बुक में मिनिएचर फॉर्म में उतारने की कोशिश करता हूँ. जो किसी सब्जेक्ट में पर्सनल इन्वोल्वमेंट से भी ज्यादा बड़ा मसौदा जान पड़ता है, जिसके कई पक्ष हैं और उन पर मुझे संजीदगी से काम करने की ज़रूरत महसूस होती है. ऐसा लगता है कि अपने-अपने स्पेस की सही समझ होने में शायद अधिकांश समस्याओं का निदान छिपा हो, इसी कड़ी में पिछले कई दिनों से मैं अपने स्टूडियो की छत और वहाँ से दिखाई देने वाले सूर्यास्त को एक नए नजरिये से देख पा रहा हूँ. जिसमें मुझे भविष्य की किसी संभावित कृति का भान होता है, जो शाम होते ही हर रोज़ अपना आकर लेने लगती है. जहाँ मूर्त और अमूर्तता के दृष्टिकोण से भरेपूरे रूपक अपनी पूर्णता के साथ अपने होने को जग ज़ाहिर करते हैं .

बीते सप्ताह इस्टर्न आर्ट एंड कल्चर फाउंडेशन संस्था द्वारा एक अखिल भारतीय ऑन लाइन आर्ट कैंप का आयोजन किया गया, चित्रकार मित्र मनोज सांधा के कहने पर मैंने भी पेंटिंग बनायी, जो एक रोचक अनुभव रहा. सोशल मीडिया के माध्यम से संपन्न हुए इस कैम्प से देश भर के कलाकार समाज में एक नवाचार दिखाई दिया है. जिसके फलस्वरूप अब कई राज्यों के छोटे-छोटे कला समूहों द्वारा ऐसे वर्चुअल मीडियम में आयोजन किये जा रहे हैं, जिनके लिए मैं उनकी आधारभूत मदद कर रहा हूँ

कलादर्शन में रूचि होने के कारण इन दिनों भरपूर विषय सम्मत प्रमाणिक चिंतन मनन भी हो रहा है. कलामर्मज्ञ उदयन वाजपेयीके वक्तव्य की एक पंक्ति से उपजे भाव को यथासंभव समझने की चेष्टा में हूँ, जहाँ वे अविश्वास को स्थगित करने की बात करते हैं, जो आगे चलकर कलाकर्म के अनुभव आधारित दर्शन के दिगंत विस्तार के बारे में बतलाती है. भीतर मन में अनुभव की महत्वता और उसके मानकों के बारे में बेहतर समझ को बनाने की जुम्बिश चल रही है. यक़ीनन यह सच ही जान पड़ता है कि अनुभव से भरे धुंधलके के बिना कोई भी कला, कला नहीं हो सकती. उसमें छिपा रहस्य ही उसका मूल सौन्दर्य तत्व होता है, जो एक नए अंदाज़े बयां में किसी भी कलाकार के मार्फ़त उसे इस दुनिया के सामने लाता है. जहाँ बहुत सारा अनदेखा, अनसुना, अनछुआ है जिसे किसी सहृदयी का इंतज़ार है. लिहाज़ा हमारे मन की सक्रिय भागीदारी ही किसी भी कृति के कला होने का संज्ञान करवाती है, ये दोनों ही ओर से परस्पर होने वाली खूबसूरत प्रक्रिया का नाम है, जिसके बहाव से गुज़रकर वह सर्जना अपने होने के असल रूपाकारों को पाकर गहरे शब्दार्थों में समा जाती है.

पिछले दिनों अपने मोबाईल से आभासी दूरी बनांने के बावजूद समय-समय पर कला और साहित्य से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से विभिन्न विषयों पर बातचीत हो ही जाती है जिनमें शिक्षाविद रमेश थानवी, ब्रजरतन जोशी, आर बी गौतम, डेनियल कॉनेल, संदीप मील, राघवेन्द्र रावत, अक्षय आमेरिया, हिमांशु महापात्रा, हिमांशु व्यास, यतीश कासरगोड, अशोक आत्रेय, प्रदीप्त कुमार दास, गोपाल सिंह, अशोक दर्द, चित्रकार मित्र विजेंद्र एस विज, जयप्रकाश चौहान के अलावा नितिन कुलकर्णी, इमरान, फिल्मकार अभिषेक कुमावत और रविशेखर शामिल रहे हैं.

कलाकारों द्वारा इस लम्बे एकांत में बिताए समय के बावजूद मुझे लगता है कि कला कभी भी एकांतिक नहीं हो सकती, चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न हो. उसकी अपनी सामाजिकी जरूर होती है, अपने परिवेश से जुड़ते संस्कार और सरोकार अवश्य होते हैं, जो कि कलाकार के माध्यम से अनेक रूपाकारों में अभिव्यक्त होते हैं. इस सन्दर्भ में प्रभाकर कोल्ते और स्वर्गीय उमेश वर्मा को नहीं भूल सकता, जिनके लिए मनचाहा एकांत किसी रवायत जैसा रहा है. रचना की प्रायोगिक भिन्नता, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का उसका एक दूसरे से अलग होना इस पूरे क्रम में सौंदर्य का पर्याय है. जिसके मर्म की संवेदनशीलता को जल्द से जल्द समझ जाना और उस भिन्नता का सम्मान करना एक संवेदनशील समाज के लिए भी बेहद जरुरी है. इस लिहाज़ से बरसों से मैं हमारे समय के मौजूदा लेखक-चिन्तक नंदकिशोर आचार्य को प्रेरणा सा देखता रहा हूँ. चेतन-अचेतन रूप से जिसकी सुनिश्चित अभिव्यक्ति उसके काम में साफ़ नज़र आती है जिसका आधार कहीं न कहीं गहरे एकांत का आस्वादन है, जो बेहद प्रेरणादायी है.

दरअसल आज बहुत कुछ सहने का भी समय है. कहते हैं, जो सहता है वही रहता है. एक कलाकार के जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैं, जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं. यक़ीनन सहने का दौर अनंत तकलीफों के साथ-साथ बड़ा रोचक भी होता है. बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा. आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञान न केवल अपने अंतिम पड़ावों पर है, बल्कि इस महामारी के सामने चारों खाने चित हुआ बैठा है. मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छूकर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती है. जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत होगी, सच्चे लेखक, कवि, कलाकारों की ज़रूरत होगी. जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बेअसर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे. उन अंतरालों को गढ़े, जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सके, अपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके, अपने मन की कह सके, जहाँ अधूरे में चाह के पूरा होने के लिए ताउम्र भटकता रहे.

अपने आध्यात्मिक संस्कारों की वज़ह से ऐसे समय में मुझे कृष्ण, क्राइस्ट, हज़रत मोहम्मद, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, गुरुनानक देव से लेकर संत अंटोनी, संत पॉल, जांग दोंगलिंग, मिलरेपा, गुरु गोरख, भर्तहरी, रामकृष्ण परमहंस, लाहिड़ी महाशय, रमण मह्रिषी, निसर्ग दत्त महाराज, आचार्य तुलसी और श्री अरविन्द जैसे तमाम पूरब और पश्चिम के सिद्ध और संतों की याद आती है जिन्होंने अपने अपने अनुभवों से हमेशा ही इस गहन एकांत की सिफारिश की है. यह एक संयोग की बात है कि इन दिनों विनोबा भावेकी एक पुस्तक गीता-प्रवचन पढने के दौरान मैंने पाया कि वहाँ भी एकान्तिक व्यक्तिव को स्थितप्रज्ञ होने की लक्षणा दी है. “आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते”जो स्वयं के भीतर बसता है और संतुष्ट रहता है, वही वास्तव में योगी है. जिसके लिए एकांत में रहना सबसे बड़ा सुख है और जिसका अभ्यास स्वाभाविक रूप से करना ही उसकी असल प्रणति है.


७.
भारती दीक्षित
II धीरे-धीरे ही सम्भव है गूंथना, बुनना, रचना को II

कलाकार होने और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण बाज़ दफे खींचतान होती है कलाकार और ज़िम्मेदारियों में. कई दफ़े ज़िम्मेदारियों के आवरण में जाना होता है पर तब भी विचारों का बुनना जारी रहता है और फ़ारिग होते ही आतुर कलाकार अपने कला कर्म में रम जाता है. चूँकि घर से ही कला सृजन करती हूँ, इसलिए मुश्किल नहीं आती. सिर्फ समय को समायोजित करना होता है.

अभी जो वक़्त है जब थमा हुआ है सब कुछ. सीमित हैं ज़िंदगियाँ अपने-अपने घरों की चारदीवारी तक. पेट भरने की मशक्कत में कहीं बेख़ौफ़ भी हैं जिंदगियाँ, क्योंकि भूख का पलड़ा भारी है. एकांत के साथ है दहशत का विलाप. महामारी के आंकड़ों का गणित है. चाहे बढ़ते मरीज़ों के आंकड़ों हो या मृत व्यक्तियों के. ये गणित ही भय का कारण है. अपनों की फ़िक्र भी इस पर हावी हो जाती है लेकिन सकारात्मक सोच, उसकी आशा, रचना कर्म में कायम रहती है. क्योंकि सृजन तो सीमित नहीं है न, नया कुछ सीखना, विचार करना, शब्दों की दुनिया में डूबना, यही सब उथल-पुथल मन-मस्तिष्क में अपनी धमाचौकड़ी मचाए रहते हैं. किसी अपरिचित राग के आरोह-अवरोह की मानिंद.

इस वक्त...मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में परिवर्तन ज़रूर आया है. परिवार के सभी सदस्य भी घर पर हैं, इससे ज़िम्मेदारियाँ बढ़ीं और समय कम हुआ. मेरे स्वयं के समय में कमी आई. पर रचना प्रक्रिया में नहीं. सोचती हूँ तो लगता है सबसे ऊपर है स्वास्थ्य, साथ ही सकारात्मक और रचनात्मक सोच. बाहरी जगत का वर्तमान एकांत, इससे कलाकार अपरिचित नहीं. ऐसे ही एकांत में तो हम रमते हैं, क्योंकि वो तो हमेशा स्वतः के एकांत में रहता आया है, विचारों की दुनिया में जो पृष्ठभूमि है उसके सृजन की और जो वर्षो- वर्ष चलती रहती है. इन दिनों मैं मिट्टी-धागे से बने शिल्प निर्माण का काम कर रही हूँ. सृजन कोई भी हो धैर्य, समय और विश्वास मांगता है. आपस में तालमेल मांगता है. 


मिट्टी में काम करना और उसे बुनना भी. शनैः शनैः बुनता हुआ धागा अपने लिए रास्ता बनाता जाता है, हर अगले चरण के लिए, ताकि पूर्णता प्राप्त कर पाए. एक-एक तार स्वतः अगले तार के लिए समर्पित. पकी हुई मिट्टी धागे के लिए अड़चनें डालती है, पर धागा मार्ग खोज ही लेता है. धागा ढल जाता है मिट्टी के अनुसार. आत्मसात कर लेते हैं दोनों एक दूसरे को, जैसे हैं वैसे ही, जस के तस. कहीं कोई अहं नहीं. मैं नहीं होता, हम हो जाते वहाँ. मिट्टी में काम करना एक अलग अनुभूति है कि कैसे गीली मिट्टी उंगलियों और हथेलियों की ऊष्मा ,दाब और दुलार पा कर बदल जाती है, एक अलग ही आकार में जो हर बार से भिन्न होता जाता है. उसका बदलता हुआ रंग और स्वरूप, डाल देता है हैरत में.

धीरे-धीरे
गूंथती और बुनती हुई
माटी की देह पर
धागे से बुनी कहानी
भोग चुके अतीत के साथ
अनदेखे भविष्य की ओर
जीते हुए इस एकांत में

कुछ काम पहले से बने हुए थे, पके हुए. मिट्टी शिल्पों पर बुनने का भी काम किया. हरे और सफ़ेद रंग के साथ और कुछ बुनना अभी शेष है. अभी उनकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है, मेरे साथ उत्साहित हैं वे सभी भी.

अभी इन्हीं दिनों कुछ रेखांकन किए, काले रंग का बदलता अक्स लिए हुए, बिंदुओं का संसार लिए हुए. कलाकार का एकालाप रंगों, रेखाओं और आकार के माध्यम से बिखर जाता है कैनवास या कागज़ पर. रंग उसका भाव पढ़ बहने लगते हैं. रेखाएं उसे धीरे-धीरे आकार दे विस्तार दे देती हैं. उनका आपस का वार्तालाप उसे चित्र में बदल देता है.

पढ़ने का काम भी जारी है. पढ़ना मेरे एक और काम से अनायास जुड़ गया है. चूँकि मैं किस्सागो भी हूँ और मंच पर दास्तानगोई भी करती हूँ, साथ ही you tube पर मेरा कहानियों का चैनल भी है 'कहानी के झरोखे से'. जिसमें कई प्रतिष्ठित कहानीकारों की कहानियों का वाचन कर चुकी हूँ. जिनमें निर्मल वर्मा, चेखवइत्यादि की कहानियां शामिल हैं. फेहरिस्त लम्बी है. कई कहानियों का वाचन कर चुकी हूँ अभी तक...यात्रा जारी है. आने वाले समय में मंच पर भारत के कुछ व्यक्ति विशेष पर दास्तानगोई की योजना है. उस पर भी काम कर रही हूँ यानी शोध जारी है. मीना कुमारी पर दास्तानगोई करने की बेहद तमन्ना है. इन दिनों तस्नीम खानकी किताब 'दास्तानें ए हज़रत'की कई कहानियों को पढ़ा, वे बेहतरीन कहानीकार हैं. उन्हीं की एक कहानी "खामोशियों का रंग नीला है"का वाचन मैंने इन्हीं लॉक डाउन के दिनों अपने चैनल पर किया भी है. इसके अलावा भीष्म साहनी, प्रियंवद, चेखव, ध्रुव शुक्ल, पियूष दैय्या, निर्देश निधि और अन्य की कहानियाँ पढ़ीं. मुझे लगता है कि लिखे हुए शब्द हमें खुद में ही डुबो देते हैं, भीगा देते हैं वे मन के भीतर तक. फिर स्मृति में कैद हो जाते हैं हमेशा के लिए. निःसंदेह किताबें और संगीत मेरे एकांत को विस्मयकारी तरीके से समृद्ध करते हैं.

आम दिनों से अलग इस वक़्त प्रसार के साधनों का भरपूर प्रयोग हो रहा है जैसे मोबाइल और इंटरनेट. अब अपनों से कई बार बात हो रही है, जो पहले इतनी नहीं होती थी. सभी चिंतित हैं, चाहते हैं कि सभी स्वस्थ रहें. अपनों से की गई बातें चाहे लिखित रूप में हों या मौखिक, वे ढ़ाढ़स देती हैं. सुकून मिलता है कि सब कुशल है. ऐसे समय सामाजिकता की भूमिका का एहसास होता है, भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही.

एक बात और महसूस कर रही हूँ कि अवकाश के समय जब भी छत पर बैठती हूँ, तो देखती हूँ आसमान साफ हो गया है. वो छोटे-छोटे टिमटिमाते तारे पहले इतने स्पष्ट नहीं दिखते थे, जितने अब दिखते हैं. यह शायद हमारे देखने मे बदलाव आया है. पहले इतने एकांत में रहते हुए हम उन्हें इस तरह नहीं देख पाते थे. खामोशियों में गाते ये झींगुर बरबस याद दिला देते हैं अजंता में बिताई हुई वह रात. तब वहां भी रात्रि में अद्भुत, महान और कालजयी कला की सांध्य आरती, ये झींगुर इसी तरह गा रहे थे और चाँद अपनी तारों रूपी पूरी मंडली के साथ हर रोज़ उस आरती में उपस्थित होता. वहां जैसी शांति थी, वैसी ही अब यहाँ शहर में है, जो सुखद है. इन दिनों चिड़ियों की चहचहाहट, उनका उन्मुक्त गगन में उड़ना, रंग बदलता हुआ आसमान सब कुछ नया है, प्रदूषण मुक्त और ऊर्जा से भरा हुआ. पर अब लगता है कि हम इन्सान इस पर्यावरण की भाषा को, उसकी संस्कृति को क्या केवल इस लॉक डाउन की अवधि में ही देख-समझ पाएंगे? क्या इस धरोहर को बचाने के लिए थोड़ा अनुशासन ला पाएंगे?

ये मौका है सँभलने का, खुद को निखारने का, पुनः व्यवस्थित करने का. ये वक़्त अवसाद, पीड़ा, भय, तनाव लेकर आया तो है किंतु इसे तब्दील किया जा सकता है सकारात्मक सोच से.... तो खंगालें अपने -अपने झोले को और देखें कि क्या रह गया करने को शेष अभी, क्या कोई ऐसा काम रह गया जों समय की दौड़ में पीछे छूट गया. वक़्त और काम की आपाधापी में क्या कोई रिश्ता छोड़ आएं हैं कहीं...या छोटा सा लम्हा जो दब गया है कहीं बोझ तले. तो निकालें उन्हें बाहर और बिखेर दें अपने आस-पास. फिर देखें कैसे महकेंगे ये सब. समेट लें वक़्त में बिखरी सारी ऊर्जा और रच दें नई अनूठी रचना. हम फिर से सामाजिकता की कश्ती पर सवार होंगे.

 
८.
सफदर शामी
II एकांत नहीं अनेकांत II

मेरा कमोबेश ये ही ख्याल है कि पूरे मुल्क में, जो यक-ब-यक तालाबंदी करना पड़ी है, उस से उपजी परिस्थितियां कलाकारों के लिए अलग और कोई ऐसा नया माहौल ले कर नहीं आई है जिस से भारतीय कलाकारों की आर्टिस्टिक क्रिएटिविटी में बड़ी उथल पुथल या कोई नया बदलाव पैदा हो. अपनी ज़रूरत का अकेलापन हर कलाकार के पास होता है या अपने ढंग से अर्जित कर ही लेता है. वैसे उसके बिना भी काम असंभव हो, ऐसा भी नहीं है. क्योंकि अंततः एक कलाकार भी सामाजिक प्राणी ही है और वह अपने समय और समाज के बीच ही सांस लेता है. जहां तक रचनात्मक एकांत की बात है, वह अधिक से अधिक कलाकार की सुविधा हो सकती है शर्त नहीं.

कला समाज का ही परावर्तन है. वही उसमे परिलक्षित होता है. इसलिए मुझे कहने दीजिये कि 
मानव रहित एकांत कलाकार की कल्पना नहीं. चाहत भी नहीं. कलाकार एक हद तक अपने सृजन के लिए, कुछ ही समय के लिए, निर्विघ्न एकांत चाहता है. जिसे पर्सनल ब्रूडिंग कह सकते हैं. पर जनशून्य एकांत, एक कलाकार क़तई नहीं चाहता, वह एक संन्यासी की ज़रूरत है, कलाकार की नहीं. वह शून्य में प्रवेश नहीं करता. हालांकि महामारी की इस वैश्विक तालाबंदी ने मानव रहित एकांत का आभास अवश्य करवा दिया है. 
जिस तरफ़ देखो सड़कें, गलियां, मुहल्ले, बाज़ार सब कुछ निर्जन. देश की सीमाओं के बाहर तक फैले हुए ख़ौफ़नाक सन्नाटे ने प्रकृति को हमारे बहुत क़रीब कर दिया है. इंसानों और वाहनों के शोर में हमारे आसपास के पक्षियों के वजूद का एहसास पहले कभी नहीं हुआ लेकिन अब कहीं दूर पैड़ों पर बैठे हुए पक्षियों के चहचहे भी निस्तेज मौन को चुनौती देते हुए हम तक पहुंचते रहते हैं. शहरी पशु पक्षियों की मौजूदा नस्ल ने पहली बार इतनी ख़ामोश और वीरान बस्तियां देखी होगी.

जब मुझे एकांत के बारे में लिखने को कहा गया तो मैं थोड़ी उलझन में पड़ गया. एकांत में 'अंत'शामिल है. एकांत को क्या 'एक'का अंत मान लिया जाए...? अगर ऐसा है, तो फिर वह 'एक'कौन है..? कौन है, 'एक'जो अंत से दूर रह जाएगा और इस कोरोना के क़हर में तो सब कुछ 'अंत'के निकट-सा दिखाई देता है. सिर्फ़ दिखाई देता है, लेकिन अंत हो जाएगा ऐसा मैं तो बिल्कुल ही नहीं मानता.

यह एक प्रलय जैसा जान पड़ता है क्योंकि पृथ्वी की सभ्यता के उदय के बाद से ऐसा पहली बार हो रहा है, जब सब कुछ स्थगित है. परन्तु प्रलय की जो भारतीय अवधारणा है उस में भी 'एक'बचा रहता है अक्षय वट वृक्ष के पत्ते पर. यानी यदि प्रलय को देखें तो उस में भी 'लय'है. वह 'लय'सृजन की ही है. मैं कुछ रूपकात्मक ढंग से अपनी बात रख रहा हूँ. और एकांत के प्रश्न का सरलीकरण भी नहीं कर रहा हूँ. मौजूदा समय की जो अवांछित देन है वो एकांत से अधिक फ़ुरसत है. ये फ़ुरसत हमारी खोजी हुई फ़ुरसत नही है.

फ़ुरसत किसी भी तरह की, कोई भी हो, वह निर्विघ्न नहीं होती. किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य की चिंता या संभावना से पूरी तरह ख़ाली नहीं होती. मगर यह तालाबंदी की प्रदत्त लंबी अवधि की विवश फ़ुरसत है. दूसरे शब्दों में कहूँ कि ये थोपी हुई फ़ुरसत है. बाहरी कार्य के दबाव से मुक्त नितांत फ़ुरसत. जिस में जीवन की हलचल की हत्या हो गई है. हलचल न हो तो जीवन ही कैसा...?

मैं सोचता था कि इस नज़रबंदी के दौरान बहुत कुछ करने का अवसर मिलेगा. इस बहुत कुछ के विचार ने लंबी फ़ुरसत की अनुभूति को भी व्यस्तता में बदल दिया. रोज़मर्रा के जीवन की कमर तोड़ दी. इसे मैं एकांत जैसे शब्द के पड़ोस में भी रखना नहीं चाहता. कलाकार एकांत नही, अनेकांत रचता है.

मैं दुनियादारों की तरह इस एकांत के उपयोग और उपभोग की बात को अच्छा नहीं समझता. क्षमा चाहूंगा इसके लिए. क्योंकि ऐसे एकांत में, जिसमें मृत्यु का भय, दुर्दान्त आतंकवादी की तरह पूरी दुनिया में दहशत गर्दी मचाए हुए है, तब इस एकांत के उपयोग और उपभोग की बात को कुछ शर्म के साथ देखता हूँ. दरअसल यह मनुष्य विरोधी हो जाना है. जब हज़ारो लाखों लोगों को मृत्यु निगल रही हो और कलाकार समाधिष्ट मुद्रा में अपने रचने के एकांत पर गिद्ध दृष्टि जमाये बैठा रहे, ये उसकी युगदृष्टा होने के दावे को खोखला सिद्ध करती है.

नियमित रूप से पढ़ना न हो पाने के सबब काफ़ी कुछ ऐसा है जिसे पढ़ने के लिए लंबा अंतराल प्रतीक्षित था. पेंटिंग करने के भी अपने तक़ाज़े हैं. घर में अरसे से पड़ी बेतरतीब वस्तुएं भी तवज्जो की हक़दार हैं. परिवार जनों की अपनी अपेक्षाएं अलग. महाप्रकोप की तनावपूर्ण परिस्थितियों में नागरिकों में संक्रमण ढूंढने की बजाय धर्म ढूंढने की सियासत पर लिखने का नैतिक दबाव भी था. वर्तमान में सब से 'निगेटिव'शब्द 'पॉज़िटिव'होना है लेकिन फिर भी सूचना माध्यमों का 'निगेटिव'होना देश के लिए अत्यंत घातक लगा, इसलिए लिखा भी. कुल मिलाकर ज़हन में इतने सारे कामों की क़तार किसी एक काम में भी निरंतरता बरक़रार नहीं रहने देती.

आज जब दुनिया का बड़ा हिस्सा इसलिए बंद कर दिया गया है ताकि इंसानों की सांसें चलती रहें. ऐसे अवसादित समय से कलाकार का संवेदनशील मन प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकता है. वैसे भी कलाकार के अंतस् में एकांत का वास नहीं होता. हो भी नहीं सकता. विचारों और भावनाओं का मुसलसल कोलाहल रहता है. यही कोलाहल उसे रचना कर्म के लिए संचालित करता है. हाँ, कभी कभी इक ख़ास मनःस्थिति रचना कर्म से रोकती भी है लेकिन यह ख़ला भी रचना काल ही होता है. अकस्मात मिल गए इस पर्याप्त मगर संकट के समय में मनोदशा आम दिनों से बिल्कुल भिन्न है.

यह समय पहली बार महाविनाश का एक भयभीत प्रतीक बन कर समूचे संसार के सामने है. मुझे ऐसे में कीनेथ रेक्ज़ार्थ की बात याद आती है "Against the destruction of the world, there is only one answer, and that is the creation"इसलिए मुझे लगा कि विनाश के विरुद्ध सिर्फ़ सृजन ही सर्वाधिक शक्तिशाली है. कोरोना को बहुत शक्तिशाली माना जा रहा है लेकिन मुझे लगता है कि हम विनाशकारी को ही शक्तिशाली मानने की एक ग़लत धारणा बना चुके हैं. जबकि विनाशी नष्ट कर सकता है रच नहीं सकता. जो रच सकता है उसे ही सब से शक्तिशाली मानना चाहिए.

कोरोना कारावास में साधन की सीमाओं से उपजी रिक्तता ने स्मृति का विस्तृत मैदान खोल दिया है. बहुत छोटी और अनावश्यक लगने वाली घटना भी स्मृति पटल पर उभर आती है. दरअसल अतीत जैसा भी हो, स्मरणीय होता है. चूंकि यह उचित समय है उन सारी अच्छी बुरी यादों को लिखने का, लिहाज़ा जब पेंटिंग नहीं कर रहा होता हूं तो पीछे छूटे हुए समय को लिखने का प्रयास करता हूं. पुश्तैनी गांव भौंरासा से लेकर देवास में अफ़ज़ल साहब के सान्निध्य तक और इंदौर से लेकर मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस आदि के लिए कार्य करते हुए संघर्ष करने तक बहुत कुछ है जिसे लिखना चाहता हूं. ये आत्मान्वेषण का समय है और जवाबदेही का भी.

निश्चित ही वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार एक सुखद अनुभूति है कि जब सारी दुनिया थम गई हो, तब भी कला कर्म ही है जो जारी रह सकता है और शायद अधिक शिद्दत के साथ. इस चौतरफ़ा निराशा के मौसम में 'रचने'से ही 'बचने'की आशा को क़ूवत मिलती है. लेकिन किस क़ीमत पर, ये हमें नहीं भूलना चाहिए.

कोरोना ने निश्चय ही एक बहुत बड़ा सबक़ दिया है लेकिन अभी तक का सबक़ यही है कि हम किसी सबक़ से कोई सबक़ नहीं लेते. मैं नहीं जानता कि कोरोना का कारावास हटेगा तो हम सब बहुत ज्ञानी हो जाएंगे और प्रकृति के विरुद्ध जारी विनाश की युक्तियां हम फिर से नहीं खोजेंगे. क्यों कि हम इस अकाट्य विश्वास के साथ जीते हैं कि अंत नहीं होगा. हम सब एनलाइट्मेंट के केंद्रीय आशावाद में विश्वास रखते हैं.

ये अकेलापन ऐसा अकेलापन है जिसमें सब अकेले हैं. ये सामुहिक अकेलेपन का दौर है. बड़ी संख्या ऐसे ग़ैर कलाकार वर्ग की है जिनके लिए इतने लंबे समय घर में रहना पहला अनुभव होगा और अवांछित भी. फ़ोन पर बतियाने के लिए हर किसी के उपलब्ध होने में उन्हें संदेह भी नहीं. अपनी उबाऊ परिस्थितियों के मद्देनज़र औरों को भी फ़ोन पर बात करने के इच्छुक मान लेना स्वभाविक है. नतीजतन समय का एक बड़ा हिस्सा फ़ोन के सुपुर्द हो जाता है. चाहे अनचाहे दूसरों के एकाकीपन को दूर करने का माध्यम भी बनना पड़ता है. शायद ये वक़्त की ज़रूरत भी है. फ़ोन के दूसरे छोर पर कोई हमारा अपना ही होता है. उनकी भावनाएं भी अपने साथ अपनों के अकेलेपन को दूर करने की होती है.

हालात कितने ही कठिन हों, उसका एक उजला पहलू होता ही है. इस दीर्घकालिक तालाबंदी ने व्यस्तताओं में घिरे लोगों को भी अपनों की मिज़ाज पुरसी का अवसर दे दिया है. सामाजिक दूरी (social distancing) ने भावनात्मक निकटता पैदा कर दी है. बहुमूल्य वस्तुओं ने अपनी हैसियत खो दी है. समाज में भी उच्च और निम्न वर्ग का अंतर मिट गया है. मजबूरियों और सीमाओं के स्तर पर सब समान हैं. धर्म का आडंबर अस्थाई तौर पर ही सही, पूरी तरह बंद है. इस आपात स्थिति ने विश्व स्तर पर भी कुछ समानताएं पैदा कर दी हैं. सभी की समस्याएं, चुनौतियां, ख़तरे, सावधानियां, उपाय सब कुछ समान हैं.

आज नहीं तो कल इस समस्या का उपाय इंसान खोज ही लेगा. कोरोना का रोना भी समाप्त हो जाएगा, लेकिन दुनिया शायद पहले जैसी नहीं रहेगी. कला परिदृश्य भी भिन्न होगा. इस विपदा से चमत्कारिक रूप से बाहर निकलना तो संभव लगता नहीं, लंबा समय दरकार है. लेकिन इस विनाशकारी सन्नाटे में सृजन ही हमें उम्मीद और साहस दे सकता है और वही हमारे बस में भी है.

घर में मैं भी औरों की तरह मृत्यु बोध से घिरा हुआ हूँ और अगर डूब ही रहा है सब कुछ, तो भी हम कुछ बचाने के लिए दौड़ने के संकल्प को न भूलें, इसलिए अपने ढंग से काम कर ही रहा हूँ.

फ़्रांसिस ब्राउन के लिखे का एक टुकड़ा याद आ रहा है..."पृथ्वी का अंतिम मनुष्य कमरे में अकेला था- और ठीक उस समय दरवाज़े पर दस्तक हुई".इसलिए मुझे मेरा आत्मसजग मन कहता है कि अगर एकांत में अंत शामिल है, तो निराशा में भी आशा मौजूद है.


९.
विनय अम्बर
II गिरते हुए पुलों पर रेल का गुजरना II

ग्वालियर में एक सामंती ठाकुर किन्तु रागात्मक और कलात्मक परिवार में सारे अंधविश्वासों के बीच जन्म लिया. गीता का पाठ, रामायण की लय, आल्हा की टेर सुनने के साथ ही जादू-टोना, अघोरी, तंत्र-मंत्र की जो दौड़ हो सकती है, 14 साल की उम्र में ही देख ली थी. ग्वालियर की तानसेन कला वीथिका अपना अड्डा हुआ करती थी. मिस हिल स्कूल से भाग कर अपना बचपन यहीं बिताया. यहीं तय हुआ कि चित्र बनाना जीवन का पहला और अंतिम उद्देश्य होगा. जबकि चित्र बनाना जंजाल लगता था.

जबलपुर आकर पुराने फ़िल्मी गीतों के माध्यम से संगीत से जो रिश्ता बना, वह आज भी वाइलिन बजाते हुए सम्पूर्ण शास्त्रीयता के साथ मौजूद है. पंद्रह साल अखबारनवीसी की. उसी दौरान उस समय के लगभग सभी मूर्धन्य कलाकारों को सामने से सुना और गंभीरता से लिखा. इनमें भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, मालिनी राजुरकर, किशोरी अमोनकर, अली अकबर खां, विलायत खां, पन्नालाल घोष, कुमार गन्धर्व, एन. राजम को सुनना अद्भुत लगता है. पत्रकारिता के प्रारम्भ में ही धन-बल की महिमा और ताकत से सामना हो चुका था, सो जी ऊब चूका था. अच्छी-खासी रोबदार दुनिया छोड़ कर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय हो गया. रंगकर्म में रूचि होने के कारण उसके साथ मजबूत रिश्ता बना. कविताओं से प्रेम है, वे जीने का साहस देती हैं.

इसी ताकत को विस्तार देने, कविता के काम को समझते हुए कविता पोस्टर जैसे गुरिल्ला कला पर खूब काम किया. लगभग पाँच हजार के ऊपर कविता पोस्टर बनाये, बाँटे, शायद ही कोई महत्त्वपूर्ण कवि बचा हो, वह देश का हो या विदेश का.

आप सब सोच सकते हैँ कि ये सब लिखने की क्या जरूरत थी. सही भी है, पर मुझे कवि विष्णु खरे की एक बात याद है कि किसी भी व्यक्ति की रचनात्मकता को देखना हो तो उसका जीवन, जीवन जीने के ढंग को सबसे पहले सम्पूर्णता में देखना चाहिए. उसके संघर्ष, विचार और उद्देश्य की भी पड़ताल करना चाहिए. वह जिस तरह जीता है, सोचता है, वैसा ही रचता भी है.

अमूमन रोजमर्रा की जिंदगी में जो काम करता हूँ, वही इन लॉक डाउन के दिनों में भी जारी है. मजेदार बात यह है कि मुझे घर का काम करते देख, जो महिलाएं पहले हँसती थीं और मर्द तंज कसते थे, वे महिलाएं अपने मर्दों को अब मेरा उदाहरण देती हैं और वे मर्द मुझे कोसते हैं. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मैं कौन-कौन से काम करता हूँ.

जैसे मैं कार ड्राइव नहीं करता. ड्राइविंग सुप्रिया करती है. मैं उसे धोता-पोंछता हूँ. इस लॉक डाउन में घर पर रहना मेरे लिए सामान्य ही है. इस दिनचर्या में प्रवृतिनुसार कुछ खोजबीन करते हुए कई इंटरव्यू, रिपोर्ट, जवानी की यादें, टूटी और छूटी मोहब्बतों के ख़त और तस्वीरें, जिंदाबाद कहते हुए सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. सारे गिरते हुए पुलों से रेल गुजरने लगती है और रेतीले जजीरे हरे भरे से हो जाते हैं. गले तक पिये गये इश्क़ का नशा एक बार फिर तारी होने लगता है.

उस्ताद अमजद अली खां के सबसे बड़े भाई उस्ताद मुबारक अली खां का इंटरव्यू और मेरे द्वारा लिए गये ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के निगेटिव भी इस तालाबंदी में मिल गए, जो अब तक रहस्यमयी तरीके से छुपे हुए थे. ये तीन दशक पहले लिये थे. अमज़द-मुबारक की कहानी कमाल है. आगे फिर कभी.

तो बात व्यक्ति, उसकी रचनात्मकता और उसके जीवन पर चल रही थी. जब मेरे और मेरी रचनात्मकता पर बात आती है तो मै निःसंदेह विचलित हो जाता हूँ, विचलित रहता हूँ. वैसे भी दुनिया को देखने का मेरा अपना ढंग मुझे विचलित ही रखता है. मैं अपने स्वतः के सुख के लिए चित्र नहीं बना पाता, मेरे अंदर वह एकांत ही नहीं है, वह आत्मा ही नहीं है, जो सब कुछ सुन्दर और सापेक्ष देख सके. जो स्वतः के सुख की योजना बना सके. वह खुद ही अमूर्त है. आदिम लोग उसे रक्त-माँस और साँस जैसी भौतिक वस्तु मानते थे और धर्म उसे (यानि आत्मा को) अशरीर और अमर अभौतिक शक्ति मानता है. विज्ञान इसे astrial body मानता है. यह तीनो स्तर पर मेरी चेतना को प्रभावित नहीं कर पाती.
हो सकता है मैं यूटोपियन हूँ. किसी दुसरी ही दुनिया के बारे में सोचता हूँ,
जो होना चाहिए थी,
बनाई जा सकती थी,
नहीं बना पाए,
पर संभव तो थी,
और शायद है भी.

जो है उसमें यही देखने मिलता है कि मानव सभ्यता के विकास और धर्म की उत्पत्ति ने मनुष्य को एक तरफ असीम मानवीय मूल्यों एवं संबंधों का सुन्दर आकाश दिया, वहीं दूसरी तरफ सत्ता की क्रूरता को भी मानव जीवन का हिस्सा बनाया. देवता और डर को पर्यायवाची बना दिया. डर ने सत्ता और सत्ताधारी को देवता बना दिया. देवता क्रूरता की हदें पार करने लगा.

इसी बीच अमूर्त देवता मूर्त रूप लेने लगा. मनुष्य के उर्वर दिमाग़ ने कहानियाँ रचना शुरू की. कहानियाँ गुफाओं की दीवारों पर चित्र के रूप में और मूर्ति शिल्पों का रूप लेकर पत्थरों में से उद्घाटित होने लगीं. मनुष्य का यह हूनर, सभ्यता और संस्कृति का नाम रखकर दुनिया में शासन और शोषण करने के हथियार बन गए. धर्म और संस्कृति ने सभ्यता का राजनीतिकरण कर दिया. यदि गौर से देखें तो गुजरी सदियाँ मनुष्यता का शोषण करते दिख जाएंगी. वर्तमान समय ही मनुष्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है. ये उन्हीं गुजरी शताब्दियों की देन है, जिनमें हम हर तरफ लगातार रात-दिन तरक्की कर वाह-वाही लूट रहे थे.

मनुष्य की चेतना ने अपने हक को लेकर सवाल किये और दासता का विरोध किया, तो फिर से उसे धर्म के रास्ते की ओर तमाम मुक्ति के प्रलोभनों के साथ भीड़ बनाकर ले जाया गया. उसके भावुक मनोविज्ञान के साथ खेला गया. मतलब यह कि मनुष्यजनित हर उस चीज का... जैसे जाति, वर्ग, भाषा, रंग, पहनावा, शक्ल, त्यौहार और काम का राजनीतिकरण हुआ. उसी तरह व्यापक तौर पर कला का भी राजनीतिकरण हुआ. मनुष्य के जीवन में कला की भी राजनीति है, कला भी एक औजार है राजनीति का. नहीं होती तो, रंगो का बटवारा न हुआ होता. उदाहरण बतौर पहले रामचंद्र अपनी पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण और सेवक हनुमान के साथ मुसकुराते हुए न विराजे होते और न बाद में, समुद्र के बीच गुस्से में धनुष ताने खड़े हुए न दिखाये जाते. श्रीकृष्ण गोपियों, गायों के साथ, पर्वत उठाये हुए या युद्ध क्षेत्र में उपदेश देते रथ पर न बैठे होते... और न बाद में अकेले सुदर्शन चक्र लिए दौड़ रहे होते. ये भी कला के ही नमूने हैं. कलाकार के द्वारा ही बनाये गये हैं. ऐसे असंख्य उदाहरण हैं.

कला वही नहीं है जो कैनवास पर है, कागज पर है,मूर्त है या अमूर्त है. जो कला कागज पर या कैनवास पर है, उसकी भी अपनी राजनीति है. यहाँ राजनीति से मतलब किसी राजनीतिक पार्टी की राजनीति से नहीं है, बिल्कुल नहीं है. बल्कि उसके मानवीय पक्ष से है. उसके मनोविज्ञान के अपहरण से है. उसकी अशिक्षा से, गरीबी से है. संभवतः अगले साल तक मेरी किताब "कला की राजनीति "आपके पास होगी. पिछले दो वर्ष से उस पर काम जारी है.

चित्रकला की दुनिया में 95 प्रतिशत युवा मध्यम वर्ग से आता है. यह वही मध्यम वर्ग है जो विरोध और विद्रोह का परिचायक है. जिसके पास सपना है, नई और खूबसूरत दुनिया बनाने का. अभाव ही तो सपने की जरूरत बनते हैं.

मैं तमाम नीले रंगों के सामने अनगिनत हरे रंग स्थापित कर देता हूँ और उन नीले और हरे रंगों के सामने एक छोटा चुटकी भर लाल रंग गिरा देता हूँ, तो हाहाकार मच जाता है. सारे पीले, सफ़ेद, नारंगी रंग हैरान हो जाते हैं. इनके लिए इंसानी दिमाग की कीमत क्या है, ये सब जानते हैं.

मेरे भीतर एक कोलाहल है. असंख्य आवाजें हैं. इन आवाजों में जीवन जीने की लालसा है. जीवन के प्रति भरोसा है, जीवन के असंख्य गीत है.

प्रेम है..
त्रासदी है..
मृत्यु है..
उसका उत्सव है..
ग़रीबी है..
भूख है..

मैं इस समय तीसरे और शायद चौथे विश्वयुद्ध के दौर में हूँ. ऐसा युद्ध जिसमें कोई बन्दूक नहीं, कोई मिसाइल नहीं, कोई अणु परमाणु बम नहीं, धमाका नहीं, परन्तु मृत्यु है. मृत्यु का भय है. जीवन की अनिश्चितता है. जहाँ व्यक्ति का व्यक्ति पर भरोसा नहीं है. विज्ञान और मनोविज्ञान जनित यह युद्ध मुझे दुनिया को नए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देखने के लिए विवश भी कर रहा है और उत्साहित भी.

मेरी कोई शैली नहीं है, न कोई मुहावरा है जिसे देख आप पहचान सकें कि यह चित्र मेरा है. फिर भी, मेरे कुछ चित्र बहुत समय लेते है, सबसे बतियाने में. छोटी-छोटी बारीक लकीरों से मेरे चित्रों के जिस्म की खाल बनती है. बिलकुल वैसे ही जैसे हमारी खाल होती है और उसमें जीवन जीने की लालसा संघर्ष करती रहती है. कुछ चित्र बहुत जल्द बन जाते हैं, जबकि वे आकार में बड़े होते हैँ. वे एकाएक बन जाते हैं, लगभग किसी प्रेम की तरह.

रंग और लकीरें यहाँ भी गुत्थम गुत्था नहीं हो पाते, पर साथ रहते हैं. फिर अचानक बगावत होती है और दोनों आपस में ऐसे लिपट जाते हैं, जैसे दो प्रेमी अरसे बाद लिपटते हैं. अपने अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ.

चित्र को लेकर मेरा मानना है कि चित्र मेरी पहली भाषा है. यह मेरी मातृ भाषा है. मैं अपनी भाषा में जीवन की हर घटना को आसानी से संजोकर रख सकता हूँ. मेरी भाषा विगत, वर्तमान और भविष्य की सामाजिकता एवं संस्कृति की अबूझ वर्णमाला में समय की स्लेट पट्टी पर लिखे जाने का प्रयास है. मैं चित्र की भाषा को इसी तरह बरतता हूँ .

अपने आप को मजदूर ही मानता हूँ. 8 से 10 घंटे काम करता हूँ. मजदूरी से जितना गहरा गड्ढा खोदता हूँ, मेरा ठेकेदार उतना मेहनताना मुझे दे देता है. इन दिनों मजदूरी तो उतनी ही कर रहा हूँ पर ठेकेदार मुनासिब मजदूरी दे, ये मुमकिन नहीं है. चूंकि मेरी पत्नी कोई नौकरी नहीं करती, वह भी मेरी तरह मजदूर है. एक बेटा है, मुझे मालूम है कि आने वाले समय में पेट भरना मुश्किल होगा, मित्रों से कोई छोटी मोटी सही, मजदूरी वाली नौकरी तलाशने के लिए निवेदन कर रहा हूँ. वे मेरी बातों पर गम्भीर नहीं, जबकि मैं बहुत परेशान हूँ.

लॉक डाउन है, ब्लैक आऊट नहीं है. यानी रात में अंधेरा नहीं होता, यही अंतर है बस... सो रात भी दिन जैसी ही लगती है. इन दिनों मैंने दो नए चित्र बनाए. रात में ज्ञान रंजन जी की नई किताब 'उपस्थिति का अर्थ'पढ़ी. मोपासा की कहानियाँ पढ़ना जारी है. एक बड़ा कैनवास सुप्रिया ने स्ट्रेच कर दिया है. वे भी अपने काम में तल्लीन हैँ. बेटा बिगुल भी समय को चित्रित कर रह है, थोड़ा चिंतित है.

हम कुदरत का करिश्मा देख रहे हैं. पेड़ की पत्तियों से धूल गायब है. कभी जो परिंदे नहीं देखे, वे घर के सामने के दरख्तों पर देख पा रहे हैं. उनकी आवाजें सुन पा रहे हैं. 1970-72 का समय कुछ कुछ इसी तरह का था. सन्नाटे की ध्वनि रात को जल्दी ले आती है. मनुष्य की अति को घर के कोनो में दुबके देख आनंद आना स्वाभाविक है.

हम शताब्दियों बाद यह अनुभव ले रहे हैं और शायद शताब्दियों तक ये अनुभव आने वाली पुश्तों को न मिले... आखिर में यही कह सकता हूँ

मुझे मालूम है
मछलियों पर कोई अपना
हुकुम नहीं चला सकता...
परिंदो का कोई नेता नहीं
हो सकता है
यही रहस्य हो
इस जीवन की
सुंदरता का


१०.
वाज़दा खान
II ठहरकर भीतर की यात्रा करना II

आसमान ज्यादा नीला और शफ्फाक है, सूरज ज्यादा चमकीला. पेड़, पत्तियां, पौधे ज्यादा ताजे हरे हैं. परिन्दों की चहकती आवाज़ में शहद घुला प्रतीत हो रहा है. ढेर सारा हरा रंग हवा के साथ लहराता, बल खाता, नीले, सफेद, आसमानी आसमान को रह रहकर स्पर्श करता हुआ, सूखी-पीली पत्तियां हवा में नृत्य करती ज़मीन पर गिरती-बिखरतीं. पत्ती विहीन शाखें जैसे जश्न मनाती हों अपने निर्वाण का. कई शाखों पर शिशु पत्तियों का आगाज़, जैसे कुछ शुभ आगमन की सूचना. क्या आजकल मुझे ऐसा अधिक दिखाई दे रहा है या हमेशा से ऐसा था, पर मुझे नहीं दिखा. क्या यही एकांत में जीना है?

सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट की मीठी ध्वनि से मानों कानों में संगीत घुल जाता है. मन जैसे तरोताजा हो जाता है, पूरे दिन के लिये. सड़क पर इक्का दुक्का वाहन की आवाज़, घर के सामने हरित पार्क में पसरा सन्नाटा. पर सन्नाटा कहाँ? किस्म किस्म की चिड़ियों की चहकार, प्यारी गिलहरियों की नाजुक आवाज़ें, फिजा में बिखरती हवा के संग इधर-उधर डोलतीं. उनकी आवाज़ें सुनती हूँ तो सोचती हूँ पेड़ों की हरी पीली पत्तियों में कुछ छुपे, कुछ दिखायी देते ये सभी पक्षी, क्या बातें करते होंगे आपस में, इन फुर्सत के पलों में. शायद अपना दुख-सुख साझा करते होंगे? निश्चय ही उन्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि आजकल मानव लोक कहां लोप हो गया. जरूर आपस में चर्चा करते होंगे कि सारी सड़कें सूनी क्यों हैं? कोई शोर नहीं सुनाई देता, किसी तरह का कोई प्रदूषण भी नहीं. क्या उन्हें समझ में आता होगा यह सब? कितने खुश होते होंगे वे खुले चमकीले नीले आकाश के नीचे, पृथ्वी पर उगे हरे पेड़ों की टहनियों, शाखों पर फुदकते, कुहुकते, चहकते. क्या वे इस तरह के सुन्दर जीवन की कल्पना नहीं करते होंगे? आह, कैसी कर्णप्रिय स्वर लहरियां हैं उनकी. मानों सारा संगीत उन्हीं की बोली से उपजा हो.

कैसी शान्त चमकीली सड़कें हैं. वह शोर जिसे न सुनने की आदत इतनी जल्दी पड़ गयी हमें, जब पुन: शुरू हो जायेगा तो कैसे सहन होगा. हालांकि इस खूबसूरत सन्नाटे और सुकून के पीछे कितनी भयानक सच्चाई छिपी है कि याद करने को जी नहीं चाहता. इन्सान की फितरत है कि अपनी गलतियों से कोई सबक न लेते हुए सब कुछ सामान्य होते ही ये आकाश, सड़कें, पेड़-पत्तियां, फिजा सभी कुछ धूल, धुएं, वाहनों की कर्कश ध्वनि से पुन: भर जायेंगे. सारे खूबसूरत मासूम पंछी न जाने कहाँ लोप हो जाएंगे. कहाँ पनाह पाते होंगे आखिर पेड़ों की अंधाधुन्ध कटाई में.

इटली, अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों में कोरोना से उपजे विनाश को देख सुनकर मन इतना द्रवित है कि किसी काम पर ध्यान ही नहीं केंद्रित हो पा रहा और पश्चाताप अलग से कि अचानक मिले इस समय का सदुपयोग मैं नहीं कर पा रही हूँ. इतना क्रूर और भीषण वक्त हम पहली बार देख रहे हैं. सारी दुनिया का समय एक साथ जैसे एक जगह रुका हुआ है. क्या पृथ्वी को प्रदूषण मुक्त करने, पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने के लिये इतनी बड़ी कीमत देनी होगी? अब भी मनुष्य न चेता तो?

परन्तु धीरे धीरे खुद को सान्त्वना देती हूँ. हर घटित का अच्छा और बुरा पक्ष होता है. यह बुरा वक्त भी बीत जाएगा. मगर इस बुरे दौर का अच्छा पक्ष ये है कि हम खुद अपने साथ हैं अपने भीतर. हमारे अलावा कोई नहीं, न भीड़, न कोलाहल, न कोई भागमभाग और न किसी से मेल मुलाकात. हम खुद अपने में अवस्थित अपने एकांत के साथ हैं. देखा जाए तो यह खुद के विश्लेषण करने का समय है, खुद से कन्फेशन करने का समय है, आत्म स्वीकृति का समय है. वैसे तो कलाकार अपने मन के एकांत में ही रहता है. एकांत में रचता है, गुनता है. इसीलिये कुछ अतिरिक्त एकांत या समय उपलब्ध हो रहा हो, मुझे ऐसा नहीं लगता. चित्र निर्मिति वैसे भी बहुत समय लेती है, मन के भीतर चलती है तब भी, और कैनवास पर उतरती है, तब भी. यह रचना प्रक्रिया दोनों तरह के एकांत, मन के और भौतिक एकांत में ही सम्भव है. हां, व्यर्थ की भागदौड़ से या जरूरी काम की भागदौड़ से भी जो ऊर्जा बच रही है, वह निश्चित ही इस एकांत समय में अतिरिक्त है, जो रचनात्मकता से जुड़ रही है.

दिल्ली की तेज रुखी रफ्तार व कोलाहल में मन जो कहीं खोया हुआ था, आजकल ठहरकर जैसे आत्म मंथन की प्रक्रिया में अपने भीतर लौटा हो. ऐसा नहीं कि किताबें पहले नहीं पढ़ी हैं, कविता पहले नहीं लिखी है या रंगों रेखाओं से पहली बार मुखातिब हूँ. बस, जो ये इतना सुकून फिजाओं में पसरा हुआ है वह इतना नया है कि उसके साथ जैसे मैं अपनी समस्त रचनात्मकता को पुनर्नवा कर रही हूँ ठहर कर.

आजकल का एकांत मुझे उस समय की याद में ले जाता है, जो इलाहाबाद में छूट गया. छोटा सा घर, उसी में स्टूडियो मगर खूबसूरत पेड़ों के झुरमुटों, लतरों से घिरा, तितली, गौरैया, तोता, कौआ, कोयल, जुगुनू, गिलहरी, गुलाब, गेंदा, डहेलिया, गुलमेंहदी, दाऊदी, पलाश और जाने क्या क्या. चारों ओर छायी शान्ति और खुशबू के बीच में बैठकर बहुत सा कालजयी साहित्य पढ़ा. उन्हीं के बीच ईज़ल लगाकर बहुत से चित्र रचे. खूबसूरत रंगों में ढली शामें, नर्म ओस की सुबह, बाग बगीचे, सब वहीं छूट गए दिल्ली आने के बाद. इलाहाबाद में घर प्रयाग रेलवे स्टेशन के बहुत पास था. अक्सर हम सुबह जाकर वहाँ बैठते, प्लेटफॉर्म खाली रहता, घंटों रेखांकन बनाते चुपचाप बैठकर, सूरज को उगता देखते. इसके साथ ही याद आता है मुझे दिल्ली की गढ़ी कला कुटीर का एकांत.

दिल्ली आते ही ललित कला अकादमी के रीजनल सेन्टर गढ़ी आर्टिस्ट स्टूडियो में काम करने का अवसर मिला. वैसे तो वहाँ बहुत सारे स्टूडियो हैं, मगर सबकी अपनी अपनी निजता है. उस वक्त दिल्ली के मकान जिसे जनता फ्लैट कहा जाता है, के कमरे इतने छोटे होते कि लेटो तो पैर सामने वाली दीवार से जा टकराये. वे कमरे कम, दड़बे ज्यादा लगते, मुझे उनमें घबराहट होती. मगर फाके के दिनों में सिर छुपाने के लिये थोड़ी सी जगह भी बहुत लगती है. ऐसे में गढ़ी का सुरम्य वातावरण, हरसिंगार, आम, अशोक, जामुन आदि तमाम वृक्ष. तरह तरह के रंग बिरंगे फूल व लॉन में बेन्च पर अकेले बैठकर उन्हें घंटों देखना, रेखांकन करना मेरा शगल था. प्रथम तल पर स्थित स्टूडियो की खिड़की से आकाश में बादलों का आपस में बातें करते देखना, उनका तेजी से इधर उधर भागना, जैसे सब मेरे भीतर के एकांत में रच बस जाते. जो अनेक रंग, आकार और शब्दों का रूप ले लेते कई बार, तो कुछ स्मृति कोष में संचित हो जाते. दड़बेनुमा घर से निकलकर प्रदूषण से भरी सड़कों को पार करते गढ़ी में पहुंचते ही मुर्झाया कलाकार मन जैसे खिल उठता. कई बार सहसा छूट जाता यहां कि तेज रफ्तार, भीड़ और बेगानेपन में मेरा एकांत. तब सोचती कि मेरी रचनात्मकता कैसे जीवित रहेगी. बहरहाल, मेरा यह सब लिखने का तात्पर्य इतना है कि एक बार फिर से उसी तरह की निजता व शान्तचित्त होकर काम में रम जाने की अनुभूति हो रही है. भले ही इसकी वजह कुछ और है.

घर की बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठकर जस्टिन गार्डर की पुस्तक 'सोफी का संसार' (अनुवाद सत्यपाल गौतम) को आज पढ़कर खत्म किया. साढ़े चार सौ पन्ने की इस पुस्तक को किसी न किसी वजह से पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था, सो अब जाकर सम्भव हो पाया. दर्शन के अमूर्त प्रश्नों पर आधारित यह पुस्तक दर्शनशास्त्र में रुचि रखने वालों के लिये अच्छी पुस्तक है. किताब की लेखन शैली अत्यन्त रोचक व पठनीय है. जब तक मैं इस घर में शिफ्ट नहीं हुई थी, उस वक्त इसके पास वाले मकान में रहना होता था. मैं रोज दूर से इस नीम के पेड़ को देखा करती और सोचती, काश.. इसके सानिध्य में बैठकर कुछ रचने गुनने को मिले तो क्या बात हो? जैसे इलाहाबाद में पेड़ों की झुरमुटों के बीच पेन्टिंग बनाती या पुस्तकें पढ़ती थी. और जब मुझे इस घर में शिफ्ट होने का अवसर मिला तो कनफोड़ू ट्रैफिक की वजह से एक दिन भी बालकनी में बैठकर लिखना, पढ़ना, रचना नहीं हो पाया, वह तमन्ना अब जाकर पूरी हुई.

परन्तु जहाँ ये खूबसूरत सन्नाटा, पंछियों की आवाजें, गिलहरियों का शाखों पर उछलना, कूदना, जमीन पर गिरती पीली पत्तियों व उनके ढेर, जिसमें अनेक मूर्त-अमूर्त आकार परिकल्पित होते, मन को सौन्दर्यात्मक भाव व प्रसन्नता से भरते, वहीं रात में जब कुत्ते व सियारों के समवेत स्वर में विलाप करने की तेज आवाजें आती तो यह समय, यह एकांत का सन्नाटा बेहद डरावना प्रतीत होने लगता है. मन पर एक अजीब किस्म की उद्विग्नता छा जाती है. कितनी आशंकायें मन में जन्म लेने लगती हैं. तब लगता है कि कैसा है यह समय कि हम बहुत खुश भी नहीं हो पा रहे हैं और उदास भी नहीं हो पा रहे हैं.

मैं जिस घर में रहवासी हूं उसके मकान मालिक यानी अंकल को रोज मैं मकान के गेट के पास चहलकदमी करते व लगातार फोन पर बातें करते हुए देखती हूँ. उनकी अपनी एक संस्था है जिसके द्वारा इस विपत्त समय में लोगों की सहायता करने में जी जान से जुटे हैं. वे फोन पर बराबर संस्था के लोगों को ठीक प्रकार से काम करने का निर्देश देते रहते हैं. उनकी यह आजकल रोज की दिनचर्या है सैकड़ों जरूरतमन्द लोगों के लिये खाना बनवाकर उनकी बस्तियों में बंटवाना, जिन्हें एक वक्त का भी खाना नसीब नहीं हो रहा है. इस निर्मम समय में एक जिम्मेदार नागरिक की तरह अपने उत्तरदायित्व समझते हुए, अपने संस्था के सदस्यों के साथ अंकल दाल, चावल के पैकेट तथा अन्य रोजमर्रा की सामग्री का भी वितरण दूर दूर तक करवाते हैं. खबरों में पढ़ती हूं कि दूरदराज में कितने लोग भूखे पेट सोने के लिये बाध्य हैं, मन बहुत आहत होता है, यह सब पढ़ सुनकर. दूर ही क्यों घरों में काम करने वाली बाइयां इस समय कितनी क्राइसिस में जूझ रही हैं. मेरे पास बाई का एक दिन फोन आया कि दीदी बहुत परेशानी है. न खाने को कुछ है और पैसा भी नहीं है, क्या करूं. किसी तरह से कॉलोनी के गेट तक आयी वह. कॉलोनी के अन्दर आने वाले सभी रास्ते इस समय बन्द कर दिये गये हैं. कुछ पैसे और अंकल से दाल चावल का पैकेट लेकर साथी गोकर्ण उसे वहां बाहर के गेट तक देने गये, तब मन को थोड़ा तसल्ली हुई.

कभी कभार फोन पर बातें करते हुए अंकल के कुछ शब्द मुझे सुनायी पड़ जाते हैं. 'लकड़ियां कम पड़ रही हैं', 'अन्तिम निवास'जैसे शब्द मेरे कानों में पड़े. कितनी असहाय स्थिति है. संसार की नि:सारता का बोध होने लगता है. जिस वजह से यह शांति, यह समय हमें मिला है. वह इतना क्रूर क्यों है. प्रकृति इतनी कठोर कैसे हो गई. कभी कभार मन को परेशान करने वाले ख्याल तीव्रतर होते जाते हैं. आखिर क्या है हमारा पृथ्वी पर जन्म लेने का उद्देश्य? क्या करने आए हैं हम और क्या कर रहे हैं? एक क्षण भी न लगे इस नश्वर देह को मिट्टी में बदलने में. फिर भी लोभ, लालच, हिंसा, नफरत से पटा पड़ा है इंसान का मन. फिर लौटती हूँ अपने रंगों-रेखाओं पर. बार बार लौटती हूँ, जहां शायद अपने होने की सार्थकता पा सकूं, अंशमात्र ही सही, क्षणिक खुशी ही सही. मगर वही उदासी घर करने लगती है. आने वाला समय और विकट होने वाला है. इसके बाद क्या होगा? इतने दिनों तक पृथ्वी के बन्द होने पर क्या होगा लोगों के भविष्य का. आने वाले समय में आर्थिक मंजर कितना भयंकर हो सकता है, ये सब ख्याल भी इस एकांत समय में मन में चक्कर काटते रहते हैं.

बहरहाल, इस घोषित एकांत का अब तक का कुल जमा हासिल इतना ही है कि अपनी बिखरी पड़ी सारी कविताओं को एक जगह एकत्र कर पाण्डुलिपि की शक्ल प्रदान कर दी है. कुछ नई भी रच डालीं पाण्डुलिपि बनाते बनाते. दो एक किताबें पढ़े जाने के इंतजार में लगी हैं. निर्मल वर्मा की 'लेखक की आस्था', हालांकि मैं इसे पढ़ चुकी हूं. परन्तु काफी पहले, अब पुन: नई दृष्टि, नए विचारों के साथ पढ़ना चाहती हूँ. मेरी राय में हर कलाकार को यह किताब पढ़नी चाहिये. इससे उनकी सृजनात्मक सोच को धार मिलेगी. इसके अलावा 'भारतीय रहस्यवाद'पर एक पुस्तक और लुडवन विटगेन्स्टाइन की 'ट्रेक्टेटस लॉजिको- फिलोसॉफिकल्स' (अनुवाद अशोक वोहरा) पाश्चात्य दर्शन पर आधारित है. ये सब क्रम में लगी हैं पढ़ने के लिये. स्टूडियो में कई नये कैनवास चित्र शुरू करने के लिए सामने रखे हैं. परन्तु वे अभी कोई रूप-अरूप लेने की प्रक्रिया के बीच में हैं. अभी मैं उनके बारे में कुछ नहीं कह सकती. 


मुझे अपनी रचना प्रक्रिया के लिये बेहद धीमा एकांत मुफीद होता है. अलबत्ता पहले के दो अधबने चित्र (3x4 फीट) जरूर पूरे किये हैं. जब भी कोई पेन्टिंग पूर्ण होती है, मुझे बेहद खुशी का अनुभव होता है. कम से कम यह खुशी दूसरे चित्र के शुरू होने तक तो बनी ही रहती है. यही हैं हमारे भाव, यही है हमारी संवेदना. मन, वचन और कर्म से रचनात्मक बने रहना. स्टूडियो में चारों तरफ नए पुराने बने चित्र एक साथ निकाल कर रखे हैं. बराबर उन्हें निरखती परखती हूँ कि उसमें क्या कमी बेसी है, और है तो क्यों है. कैसे उन्हें और अच्छे ढंग से और सकारात्मक तथा सौन्दर्यात्मक रूप में विकसित किया जा सकता है. सोते-जागते उन्हीं के बीच में रहते यह प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है. जैसा कि मैंने पहले कहा कि यह निरीक्षण का समय है. रचना में डूबे रहने का समय है.

बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठने और पढ़ने व रेखांकन करने का सिलसिला, सामने बने पार्क के घने पेड़ों की हरियाली को महसूस करते, पंछियों का संगीत सुनते और पेड़ों की पत्तियों से छन छन कर आते चन्द्रमा के प्रकाश में डूबे डूबे लगता है जैसे मैं प्रकृति और अपनी रचनात्मक अनुभूति के बहुत करीब आ गयी हूँ.  


११.
रवीन्द्र व्यास
II मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूँ II

खाली जगहें हैं, खाली आवाज़ें हैं. इतनी खाली जगहें मुझे कभी दिखाई नहीं दीं. इतनी आवाज़ें मुझे कभी सुनाई नहीं दीं.

यह खाली मटके के तल में लोटे के टकराने की आवाज़ है. मैं उस पर कान धरता हूँ, वह आवाज़ देर तक गूंजती लगती है. यह आवाज़ माँ की याद से लिपट कर आती है. मैं जब भी माँ के बारे में सोचता हूँ, मुझे मटके में पानी भरने की आवाज़ सुनाई देती है. वह सब सुन लेती थी, सब देख लेती थी. माँ अक्सर सोने से पहले हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रख देती थीं. हमें विश्वास था कि जब आधी रात को हमारे कंठ सूख रहे होंगे, तो हम अंधेरी रात में हाथ बढ़ाकर सुराही को छू लेंगे और अपनी प्यास बुझा लेंगे. मां कभी नहीं भूलती हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रखना. गर्मी में आधी रात को मां हमारे लिए हमेशा एक सुराही में बदल जाती थी. फिर एक दिन ऐसा आया कि वह सुराही हमारे सिरहाने से चली गई. उसकी हमें इतनी आदत हो गई कि हम मां के जाने के बाद भी आधी रात को प्यासे कंठ की प्यास बुझाने हाथ बढ़ाते रहे. हम हाथ बढ़ाते तो वहां सिर्फ हवा हाथ आती. हम अंधेरे में सुराही का आकार ढूंढ़ते रहते. जब हम सुबह उठते थे, वहां सुराही रखने का एक भूरा और गोल सुंदर आकार बन जाया करता था. अब बरसों हो गए, वैसा आकार मैंने अपने घर में नहीं देखा. अब उस गोल भूरे निशान की जगह एक खाली जगह है. उस खाली जगह में स्मृति रहती है. माँ सब सुन लेती थी, सब देख लेती थी....मैंने उस पर कविता लिखी :

एक दिन मां बिना कुछ कहे कहीं चली गई
सुबह जब उठे तो हमें किसी ने नहीं देखा
फिर एक पेड़ हिला, उस पर चिडि़या बैठी, एक फूल झरा
एक गाय आई, एक कुत्ता
इनको भी किसी ने नहीं देखा
रात की रोटी दूसरे दिन दोपहर तक सूखती रही
बिल्ली दूध पीकर चली गई

मैं बारिश में भीगता हूँ
छींकता हूँ
मुझे भी किसी ने नहीं देखा
मैंने माँ को ढूंढ़ा
वह जहां सोयी थी, वहाँ बच्चे अकेले हैं

हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रखी हुई थी

खाली जगहें हैं. खाली आवाज़ें हैं. इनके बीच मैं यादों से घिरा हूँ. पिता के जाने के बरसों बाद मुझे लगा कि मेरी पीठ के पीछे एक खाली जगह बन गई है. इस खाली जगह में पिता की आवाज़ रहती है. घर में वहाँ पहले एक पलंग था. पिता थे. पलंग से लगी एक दीवार थी. दीवार पर उनके सिर टिकाने से बन गया एक धब्बा था. वे गर्मी के दिनों में संतरे के छिलके सुखाकर, पीसकर, खोपरे के तेल में डाल लेते थे. फिर छानकर सिर में लगाते थे. दीवार पर धब्बा इसी तेल का था. उनके पलंग के नीचे खून से लाल हो गई पेशाब की बूंदों के निशान थे. उन्हें कैथेटर लगा था. वे उठकर चलते तो, कैथेटर को अपने धूजते हाथों से थामकर चलते थे. दर्द में कराहते थे. माँ उनका हाथ पकड़कर बैठी रहती, उन्हें सहलाती, उनका दर्द कम करने की कोशिश करती रहतीं. फिर एक दिन ऐसा आया कि पलंग खाली हो गया. दीवार पर सिर टिकाने से बना वह धब्बा मिट गया. पलंग के नीचे खून मिली पेशाब की बूंदों के निशान भी मिट गए.

अब वह जगह खाली है. आज भी घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए वह खाली जगह बार-बार दिखाई देने लगती है.. पिता जब बीमार पड़े, तो मैंने अपना बनाया एक चित्र उन्हें दिखाया. मैं सुबह सरसों के तेल से उनकी मालिश करता और उन्हें नहलाने के बाद बरामदे की धूप में कुर्सी पर बैठा देता. वे मेरे चित्र देखकर खुश होते. मैं उनकी खुशी देखकर ज़्यादा खुश होता. उन दिनों मैंने चित्रों को गंभीरता से बनाना शुरू ही किया था. मुझे याद है, मैंने पहला चित्र हरे रंग का बनाया था. उसे देख उनकी आंखों में चमक थी. तब मैंने लगातार रोज़ चित्र बनाए. हरे, नीले और पीले, ज़्यादातर हरे. रोज़ धूप में उनको नया चित्र दिखाता. मैं सिर्फ पिता को दिखाने के लिए चित्र बनाने लगा. मेरे चित्र पिता के लिए थे. उनकी आंखों में चमक लाने के लिए थे. मुझे लगा वे ठीक हो रहे हैं. मैं शुद्ध रंग लगाता था, उन दिनों कलर मिक्सिंग नहीं करता था. बस, रंग लगाता था.

मैं नौकरी के लिए जब भी घर से निकलता, पिता कुछ न कुछ फरमाइश करते- बेटा आज अमरूद ले आना. बेटा आज पाइनएपल ले आना. बेटा आज जामुन ले आना. यह फेहरिस्त लंबी होती. मैं जब भी घर से निकलता, मुझे लगता मेरी पीठ के पीछे पिता की आवाज़ आकर बैठ जाएगी. कई बार वे सोए होते और मैं घर से निकलता तो लगता, पिता ने कुछ कहा है लेकिन मुझे सुनाई नहीं देता. बस महसूस होता कि पिता ने कुछ कहा है. पिता की जगह खाली है लेकिन मेरी पीठ के पीछे उनकी आवाज़ की जगह बन गई है. इन दिनों वह आवाज़ अब भी सुनाई देती है.. वह खाली जगह दिखाई देती है. और मेरी पीठ के पीछे बनी खाली जगह में पिता की आवाज़ गूंजती रहती है. मैं सुनता रहता हूं.. उनकी तस्वीरें देखता रहता हूँ.

मैं लगातार बरसों सिर्फ हरे रंग में चित्र बनाता रहा. जैसे सात रंगों का इंद्रधनुष होता है, मैं सिर्फ हरे का इंद्रधनुष रचना चाहता था. उसके हर टोन को समझना चाहता था. हरे की ओट में छिपे हरे को देखना चाहता था. हरे की चोट में छिपे हरे को महसूस करना चाहता था. हरे का मतलब मेरे लिए पिता की आंखों की चमक था. मैं पिता की आंखों की चमक को पेंट करना चाहता रहा. धूप में बैठे वे अक्सर आंगन में लगे अमरूद, मीठी नीम, पारिजात और गुड़हल के पेड़ों को निहारते रहते थे. उनकी आंखें चमकती रहती थीं, कोई पारदर्शी चीज़ की तरह.ये पेड़ अब भी हैं और मैं इन दिनों इन पेड़ों को कुछ ज़्यादा ही ध्यान से देख रहा हूँ. हरे की आवाज़, हरे की लय, हरे की हर हरी रंगत, हर हरकत, हरे के पीछे छिपे हर हरे को देखने की कोशिश.

हिलती पत्तियों को देखता हूँ. हरा धीरे से करवट लेकर पहले पीले और फिर भूरे में बदल जाता है. वह भूरा पत्ता हवा में उड़कर मेरी दहलीज पर आ जाता है. उस भूरे में भी मैं हरा ढूंढने की कोशिश करता हूँ.

इन दिनों माँ की तस्वीर पर ध्यान जाता है. पिता के जाने के बाद मैंने पहली बार जब माँ का भाल बिना बिंदी के देखा तो स्तब्ध रह गया. माँ के भाल पर बिंदी की जगह गोल खाली जगह बन गई थी. माँ के भाल पर मुझे वह खाली जगह अमावस्या का एक ऐसा चंद्रमा लगता, जो ना घटता है ना बढ़ता है. बस, अपनी जगह हमेशा के लिए स्थिर. मैं अक्सर अपनी माँ का वह भाल देखा करता, जिस पर अमावस्या का चंद्रमा है. मैं जब भी माँ का चेहरा देखता, मुझे वही खाली सफ़ेद जगह ही दिखाई देती . एक दिन मैंने गौर किया कि मेरे चित्रों में गोल सफ़ेद आकार अपने आप आने लगे हैं. कई में एक, कई में दो और कई में बहुत सारे. छोटे-बड़े सफ़ेद गोल आकार. इन दिनों मैंने माँ के फोटो को ग़ौर से देखा. उसमें भी उसके भाल पर वही सफ़ेद गोल खाली जगह बनी हुई है.

मेरे चित्रों में हरे के साथ यह सफ़ेद अपने आप आने लगा. मेरे बनाए लगभग हर हरे चित्र में ये सफ़ेद गोल आकार दिखाई देते हैं. ये कैसे आ गए, मैं ठीक ठीक बता नहीं सकता. मेरे जीवन में हरे की चमक और सफ़ेद की उदासी साथ साथ चलती दिखाई देती है.

इन दिनों मैं रोज़ ही चित्र बना रहा हूँ. पहले रात में बनाता था लेकिन अब सुबह बनाता हूँ. मैं सफ़ेद पर हरा रंग लगाता हूँ, ताकि कोई पारदर्शी चीज़ की चमक पैदा हो सके. लेकिन सफ़ेद में छिपा अदृश्य गोल आकार मुझे उदास कर देता है. दोनों जीवन में इतना घुले-मिले हैं कि कभी सफ़ेद और हरा अलग नहीं हो पाता. यह एकांत मेरा हमेशा की तरह बहुत निजी एकांत है. इसमें मृत्यु की आहटें भी हैं और समय का कोलाहल भी. कभी कभी यह सब इतना क़रीब लगता है कि घर में ही होता लगता है. इस एकांत ने मुझे फिर से काग़ज़ दे दिए हैं, ब्रश और रंग दे दिए हैं. मैं चित्र बना रहा हूँ. चित्र बनाते हुए मैं चित्र के ज़रिए अपनी देहरी से बाहर निकल रहा हूँ. दूसरों के क़रीब पहुंच रहा हूँ. मैं इस अंधेरे से भरे समय में लोगों की आंखों में हरे की चमक देखना चाहता हूँ.

मैं इंदौर के श्रीकृष्ण टॉकीज के सामने प्राथमिक स्कूल में पढ़ा. उसके बाद देवलालीकर कला वीथिका के पीछे माध्यमिक स्कूल में. हमारा स्कूल फाइन आर्ट्स कॉलेज की बिल्ड़िंग में ही था. सीढ़ियों से पहली मंजिल पर जाकर लड़के-लड़कियों को चित्र और मूर्तियां बनाते देखना मेरे लिए रोमांचक और रहस्यभरा था. वहाँ जाने में डर लगता था. कोई वहां से निकलकर नीचे आता तो मैं भाग जाता था. पता नहीं था, एक दिन मैं भी चित्र बनाने लगूंगा.

पहली बार इतने लंबे समय के लिए घर में हूँ. खिड़की से धूप आती है. हरे-पीले पत्तों से छनकर जब वह मेरे सफ़ेद पजामे पर बैठती है तो किसी तितली के पंखों में बदल जाती है. मैं देर तक उसे बैठा रहने देता हूँ. छाया में पेड़ की डाली हिलती है. इस एकांत ने मुझे अपनी लय हासिल करने में मदद की है. यह समय मेरे लिए सफ़ेद काग़ज़ में बदल गया है. लेकिन एक गहरे संकोच से ब्रश उठाता हूँ और सफ़ेद काग़ज़ को देख काँप जाता हूँ. मुझमें चित्रकार का आत्मविश्वास नहीं आया अभी. बहुत देर ठिठका रहता हूँ. मन में हूक उठती है.
मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूँ.

इस बंद वातावरण में ठंडी हवा का झौंका भी आता है तो लगता है, यही जीवन का सबसे बड़ा सुख है. पत्रकारिता की नौकरी ऐसी है कि सुबह जल्दी नहीं उठ पाता था, सूर्योदय बहुत कम देखने को मिला. आजकल सुबह जल्दी नींद खुल जाती है. उगता सूरज अच्छा लगता है. देर तक निहारने की इच्छा बनी रहती है. पंछी और गिलहरियां देहरी पर आ जाते हैं. अच्छा लगता है.
किसी की आंखें अच्छी लगती हैं. उसकी चमक अच्छी लगती है. किसी की आवाज़ अच्छी लगती है, किसी के भाल पर बिंदी.
किसी को ढूंढना अच्छा लगता है, पुकारना भी.
मैं पुकारता हूँ हरे को. उसकी हर रंगत को, ताकि हरे में किसी की आंखों की चमक पेंट कर सकूं...

१२.
सुमन कुमार सिंह
II कुछ ना कुछ बदलेगा जरूर II

कमोबेश इस विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने जो लॉकडाउन की स्थिति पैदा की हैं, वह अभूतपूर्व है. क्योंकि जब हम इतिहास के पन्नों में जाते हैं तो इतना तो पता चलता है कि इससे पहले प्लेग जैसी महामारी ने व्यापकता में संसार को प्रभावित किया था. पन्द्रहवीं सदी से लेकर क्रमशः उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक कई महामारी का असर बरकरार रहा. खासकर पंद्रहवीं सदी से लेकर सत्रहवीं सदी तक के इसके प्रकोप ने यूरोप के कला एवं सांस्कृतिक जगत को बेहद प्रभावित किया था. इस युग के भयानक आघात ने लेखकों और कलाकारों की कल्पना को दशकों तक चिंता और अनिश्चितता में डाले रखा. अपने अस्तित्व पर आई इस असुरक्षा ने कलाकारों को जीवन के विषयों से दूर ले जाकर नर्क व शैतान जैसे विषयों को चित्रित करने को प्रेरित कर दिया. कहा तो यहाँ तक जाता है कि उस दौर के कई चित्रकारों ने केवल यह मानते हुए कलाकर्म से नाता ही तोड़ लिया कि इस नारकीय दुनिया में सुंदरता लाने की कोशिश करने या सौंदर्यबोधक चित्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है. 


यहाँ तक कि महान कलाकार रेम्ब्रां भी इससे अप्रभावित नहीं रह पाए. उनके द्वारा अपनी पत्नी हेंडरिकजे स्टॉफल्स के बनाए गए व्यक्ति चित्र को उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में स्थान दिया जाता है. स्टॉफल्स भी इसी महामारी की भेंट चढ गयी थी, माना जाता है कि उनके इस आकस्मिक निधन ने रेम्ब्रां के कलाकर्म को बेहद प्रभावित भी किया. उनकी इस मृत्यु से उपजे अवसाद को रेम्ब्रां द्वारा बनाए गए आत्म चित्रों में भी देखा जा सकता है.

किसी त्रासदी के अंकन की बात भारतीय संदर्भ में करें तो बंगाल के भीषण अकाल ने कई कलाकारों के कलाकर्म पर प्रभाव डाला था. पिछले दिनों कला समीक्षक अशोक भौमिक के सौजन्य से चित्तोप्रसाद द्वारा इस विषय पर बने कुछ चित्र और रेखांकन भी देखने को मिले. वहीं दिल्ली जैसे महानगरों से दिहाड़ी मजदूरों के पलायन के क्रम में सोशल मीडिया पर एक चित्र बार-बार दिखायी दिया. जिसमें लहूलुहान ब्लेड की धार पर चलते हुए मजदूरों को दिखाया गया था, इंटरनेट पर पड़ताल से पता चला कि यह चित्र अमेरीका में रह रहे सीरियाई कलाकार मुस्तफा जैकब की कृति है. जिसे उन्होंने सीरिया संकट के दर्द को उजागर करने के उद्देश्य से बनाया था. बहरहाल दूर अमेरीका में बैठे इस कलाकार की उक्त कृति ने अपने देश के उस पलायन को जुबां दी, जिस पर हमारा कला जगत लगभग मौन ही रहा.

अब इतिहास से हटकर अगर वर्तमान की बात करें, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि यहाँ मेरी स्थिति थोड़ी भिन्न है. जिसका एक कारण तो मीडिया से जुड़ी अपनी नौकरी का होना है, दूसरा कतिपय अन्य कारणों से भी समकालीन कला जगत की गतिविधियों में मेरा आना-जाना कुछ खास नहीं हो पाता है. बमुश्किल साल भर में दर्जन भर कला प्रदर्शनियां ही देख पाता हूँ. अभी तो एक सच यह है कि प्रत्येक दूसरे दिन हमें अपने दफ्तर भी जाना पड़ता है. गाजियाबाद स्थित वैशाली के अपने आवास से नोएडा स्थित दफ्तर के लगभग आठ से दस किलोमीटर के सफर में आते-जाते लॉकडाउन से पसरे सन्नाटे का गवाह भी बनता हूँ. हालांकि इसी आने-जाने की वजह से पलायन के उस दौर को भी नजदीक से देखने का दर्द भी झेलना पड़ा, जो उन बदहवास लोगों के चेहरे पर झलक रहा था. इससे भी ज्यादा अफसोस इस बात का है कि हम सिर्फ तमाशबीन की हैसियत से यह सब कुछ सिर्फ देखते ही रहे. इस मूकदर्शक की भूमिका की ही परिणति रही कि लगभग एक सप्ताह से अधिक समय तक मन उचाट ही रहा. बमुश्किल दफ्तर के कामकाज के अलावा अपने नियमित ब्लॉग और कॉलम लेखन को अंजाम दे पाया. 

विगत कुछ वर्षों से पेंटिग तो नियमित नहीं ही कर पा रहा हूं, किन्तु समय मिलने पर कुछ स्केच या ड्राइंग कर लिया करता था. अपने अखबार के दफ्तर में भी यदा-कदा स्केचिंग वगैरह हो जाती थी, किन्तु इस बीच सब कुछ बाधित सा ही रहा. शुरूआत में कोशिश रही कि सोशल मीडिया पर पुरानी या संदर्भ से इतर तस्वीरों के जरिये जो भ्रांतियां पैदा की जा रहीं हैं, उसका तथ्य पूर्ण खंडन करता रहूँ. सोशल मीडिया के लिए कुछ चुनिंदा कलाकृतियों के मेल से घर में रहने के संदेश वाले कुछ पोस्टर भी बनाए और उसके साथ महान रचनाकारों की कुछ चुनिंदा पंक्तियां भी डाली. इसी बीच यह भी कोशिश रही कि अमेरीका और यूरोप के कुछ समकालीन कलाकारों से जुड़े लेखों का हिन्दी अनुवाद अपने ब्लॉग पर लगाता रहूँ, यह क्रम कमोबेश अभी भी जारी है. लेकिन नियमित नहीं हो पा रहा है. तब भी कोशिश रहती है कि कोरोना संकट से कला जगत में उत्पन्न स्थितियों से जुड़ी वैश्विक खबरों का हिन्दी अनुवाद करता रहूँ.

इन सबके साथ कुछ स्केच और रेखाचित्र बनाने का क्रम चलता ही रहता है. वैसे बता दूं कि अपना स्टूडियो एक कंप्यूटर टेबल, किताबों की दो-एक अलमीरा और ढेर सारी स्केच बुक के पन्नों तक ही सीमित है. पहले भी वर्ष 1996 से लेकर 2014 तक के एक ऐसे दौर से गुजर चुका हूँ, जब अपनी कला का वास्ता सिर्फ नौकरी तक सीमित होकर रह गया था. हालिया वर्षों में दो-चार सामूहिक प्रदर्शनियों में भागीदारी के अलावा नौकरी से इतर अगर कुछ कर पा रहा हूं, तो वह है नियमित कला विषयक अध्ययन और लेखन. लॉकडाउन के इस ‘स्टे एट होम’ का आने वाले दिनों में कला जगत पर क्या असर दिखता है,यह अनुमान लगाना मुश्किल ही है. अभी तो यही ज्ञात हो पा रहा है कि हमारे फ्रीलांस कलाकारों से लेकर लोक चित्रकारों तक को इस लॉकडाउन और इससे उपजने वाली मंदी की आशंका ने अंदर तक हिला रखा है. वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि जान है तो जहान है. लेकिन कहीं ना कहीं हमें इस बात पर भी गौर करना ही पड़ेगा कि उपभोक्ता वाद और पूंजीवाद के पीछे भागती हमारी यह दुनिया क्या अपने पिछले निर्णयों पर पुनर्विचार करेगी. 

हम जानते हैं कि विश्व युद्ध की भयावहता ने जहां गुएर्निका जैसी कालजयी रचना को जन्म दिया था, वहीं तत्कालीन परिस्थितियों से उद्वेलित कलाकारों के एक समूह ने दादावाद जैसे प्रयोगों को भी अपनाया था. वैसे जिस उपभोक्तावाद की हम बात कर रहे हैं, उसके प्रतिरोध में कला में एंडी वारहोल जैसे कलाकारों ने पॉप आर्ट जैसे प्रयोग पहले ही कर रखे हैं. इसलिए इतना तो कहा जा सकता है कि कुछ ना कुछ बदलेगा जरूर, बस कामना करें कि जो भी बदलाव आए वह मानवता के लिए सकारात्मक हो.



१३.
जयप्रकाश
Il अपना ही जन्म होते देखना II

जब इस विकट परिस्थिति का पूरी तरह प्रभाव नहीं था, तब भी कागज पर रेखांकन और केनवास पर कुछ आकृतियां उभर रही थीं. शायद इसलिए भी कि हमारे जैसे स्वतंत्र चित्रकार इसके आदी हो चुके होते हैं. सफेद या खाली सतह को देख मन उसमें कुछ करने को उत्साहित हो ही जाता है. एकाग्रता बढ़ने पर अंतःकरण का संवाद इन एकांत क्षणों में मौन की गूँज का पर्याय बन जाता है. एकांत में बनते चित्र के साथ मौन के वार्तालाप का संबंध बहुत गहरा होता है. खाली फलक के साथ रंग-आकारों का समागम उस फलक के शांत चित्त धरातल को जीवंत कर देता है. मैंने अपने अमूर्त चित्रों में एक साथ कई रंगों के मिश्रित होने के बाद उनमें आकारों का एक होना देखा, मानो उनके खोने के बाद ही वे अस्तित्व में होने का सुख देते हैं. क्या इस भीषण समय में मैं भी खुद को खोकर अपने को नया आकार दे पा रहा हूँ? उसी तरह जैसे आकाश में स्वछंद उड़ते पक्षी की चहचहाहट के संगीत को अन्य दूसरी संगत की आवश्यकता नहीं होती, क्या मुझे भी उस संगत की आवश्यकता नहीं, जो मेरा अतीत था?

जो आकार रंगों के साथ उभरता जाता है उसके साथ काम करने लगता हूँ. उन फॉर्म्स का रंगों के साथ अबाधित फैलाव ही मुझे वहाँ मौजूं लगता है, जो यकीनन स्थिर तो कतई नही है. सौंदर्य को निहारने के लिए शब्दों की उपमा आवश्यक नही होती, उसी प्रकार प्रकृति में होने वाली हलचल की भी अपनी ध्वनियाँ होती हैं, जो मूलतः एकांत में मौन होकर सुनी जा सकती हैं. मेरे अमूर्त चित्रों में रंग और आकार निर्भय होकर विचरते हैं, जिसकी ध्वनियों को मैं मौन होकर सुनता हूँ. यह मौन तो एकांत की ही संगत से उपजता है जो किसी बांहय रूप से बाध्य नही है. इस अमूर्तता में अंतर्मन का गहरा संवाद है जो जीवन को प्रकृति की तरह ही मौन किन्तु जीवन को सरलता, सहजता से जीना सीखाता है. इस क्रम में यह एकांतिक संवाद निःशब्द हो परस्पर बना रहता है. मेरे कुछ चित्र इस तरह "साउंड ऑफ साइलेंस"सीरीज़ पर बने हैं.

इस दौरान कागज पर रेखांकनों के अतिरिक्त 5x5 फ़ीट के कैनवासो को किया और उनमें उन्मुक्त होते हुए रंगों-रेखाओं की स्वतंत्र लहरों की गूँज महसूस की. जिसे शब्दों के साथ कविता बद्ध भी किया. यहाँ कविता का आना भी सायास ही हुआ. ऐसा हो ही जाता है अक्सर. चूंकि संवाद की निरंतरता में कभी-कभी शब्दरूपी विचार मन पर अंकित हो जाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि शब्द एकांत के साथ अपना आनंद ढूंढ ही लेते हैं.

रंग-आकारों के साथ संवाद का क्षण तो एकांत में ही मिल सकता है जो इस समय भी मिला. एकांत भी उन्हीं क्षणों की भांति है जो मुझे अक्सर अपने कला कार्य को करते हुए महसूस होता है. हाँ, इन दिनों थोड़ा ज्यादा वक्त मिला है ये भी सोचता हूँ.

कभी-कभी विश्वव्यापी हो चुके इस संकट में मिल रहे इस एकांत में वक्त के साथ जूझ रहे सभी उन मित्रों, कलाकारों और आमजनों के प्रति चिंता भी होती है जो शायद इस समय बहुत सी असुविधाएँ झेल रहे होंगे. एक कला साधक का एकांत में कला में साधनारत रहना कठिन तो नही है किंतु उसके पास भी अपनी जरूरत की चीजें हो, तो बेहतर है. खासतौर से वे, जो पूरी तरह कला पर निर्भर हो. ऐसे माहौल में इस विचार का आना स्वाभाविक ही है. अपने सभी प्रियजनों की तरह हम भी घर में ही हैं. घर और स्टूडियो फिलहाल तो एक ही जगह है. मेरी पत्नी सोनाली सिरेमिक और चित्र दोनों में काम करती है. हम दोनों के लिए घर पर कार्य करना ही बेहतर हो पाया. यह भी अच्छा रहा कि कला सामग्री जैसे मिट्टी, केनवास, रंग आदि पर्याप्त मात्रा में फिलहाल घर पर ही मौजूद हैं. नहीं भी होता तो कुछ और सृजनात्मक होता. क्योंकि मिक्स-मीडिया में काम करना मुझे पसंद है.

मुझे नहीं पता कि मुझमें एक चित्रकार बनने की इच्छा कब हुई होगी. लेकिन ऐसी अनुभूति मुझे होती रही कि यही वह सुखद सृजन की यात्रा है जिसे मुझे निरंतर करते रहना है. चित्र बनाने की तरफ मेरा झुकाव मुझे बचपन में अपने पिताजी को देख कर हुआ. वे साइन बोर्ड, पोस्टर बनाते थे. इस कारण घर में रंग बिखरे होते थे. जिससे रंगों के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ा. उस समय सूखे रंगों को मिश्रित कर दीवारों पर किरम-कांटे करना बहुत भाता था. इसी वजह से चित्रकला के प्रति रुचि उत्पन्न हुई. उस समय मैं पिताजी के साथ काम में हाथ बंटाता था. इन अनुभवों ने आगे जाकर मुझे असुविधाओं में भी स्वयं पर निर्भर होना सिखाया. वास्तव में जब हम अपनी जरूरतों पर धैर्य से काबू पाना सीख जाते हैं, तब ऐसे संकट काल से लड़ना भी सीख जाते हैं.

देवास को पहचानकर आध्यात्मिक व कला-साधना के लिए अनेक कलासाधकों ने एकांत के लिए उत्तम माना. माँ चामुण्डा की नगरी से विख्यात, सिद्ध स्थान शीलनाथ की तपोभूमि के तप का प्रताप तथा कुमार जी (प. कुमार गंधर्व) का साधना स्थल "भानुकुल"आज भी संगीत के अमरत्व से सबको अपनी और खींचता है . संगीत सम्राट रज्जब अली खां साहब, अरमान अली खां साहब जैसे मूर्धन्य कलाकारों की स्मृति में संगीत सभाओं की लहरें आज भी यहाँ गूँजती हैं. जिसको देखने, सुनने देश के दूरस्थ शहरों से अनेक श्रोता जुटते हैं. अन्य कला साधकों की भांति चित्रकला के विद्वान चित्रकारों के लिए भी यह भूमि उनकी कला साधना के लिए प्रेरणा बनी.

यह उन कला साधकों की साधना का ही परिणाम है जो यहाँ कभी एकांत की खोज में साधना के लिए आए और अपनी साधना में, तप से इस स्थान को पावन करते रहे. एकांत में कला का स्वरूप कलाकार की साधना के लिए वृहत हो सकता है. एकांत होकर भी जहाँ चेतना है वहीं जीवन होता है जिसके प्रभाव से सभी चेतन्य हो उठते हैं.

जीवन में ऐसे पलों का अनुभव भी होता है जब एकांत के क्षणों को ना चाहते हुए भी जीना होता है. कभी-कभी लगता है कि ऐसा समय किसी विशेष कार्य की पूर्ति के लिए भी आता है. ऐसा कार्य, जो हम करना चाहते थे, लेकिन कर नहीं पाए थे. ऐसा भी होता है जो कभी आपने सोचा न हो, वह भी संभव हो जाए. वायु में वायु से, जल में जल से और माटी में रहकर माटी से यदि प्रेम न हो तो मानव को मानवता से अपनत्व कैसे मिलेगा. किसी का भी कला से जुड़ाव केवल कलाकार बनकर ही नहीं हो पाता. वह व्यक्ति जो अपने ढंग से जानने समझने की जिज्ञासा रखता हो, वह भी कला से जुड़ा ही होता है. यहाँ मन की बात करें, तो जिस काम में हमारा मन नहीं होता, उसे करके कोई संतुष्टि नही होती. यूँ रोजमर्रा में पढ़ना और लेखन अपनी तरह से होता ही था किंतु इस एकांत के दौरान कुछ अधिक पढ़ने-लिखने की इच्छा बनी. इन दिनों समकालीन कला में मालवा का परिवेश पर लिखना हुआ, जो अभी जारी है.

मालवा में लोक गीतों की भी अपनी परंपरा रही है. मालवा के लिए कहा भी गया है -'मालव भूमि गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर.'कलाओं के परिप्रेक्ष्य में संगीत के साथ-साथ साहित्य का भी खासा जुड़ाव प्रारब्ध से ही मालवा में रहा है. वर्तमान स्थिति में लोक-जीवन से जुड़ी कलाओं में आधुनिक संसाधनों- सुविधाओं का प्रभाव उसकी अपनी मौलिकता पर दिखाई देने लगा है, जो चिन्तनीय है. इसकी वर्तमान स्थिति को लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ . यहाँ की संझा,मांडना इत्यादि लोक कलाओं में अपने क्षेत्र की पहचान दिखती है. ये कला को कला की तरह देखना नहीं सिखाती बल्कि भावों को अभिव्यक्ति से जोड़ना सिखाती है.

इस एकांत में मैंने अपनी पिछली यात्राओं पर भी कुछ लिखा, जिनमें रूस और बांग्लादेश की यात्रा प्रमुख हैं. यात्रा मेरे लिए खुद को परिष्कृत करना ही होती है. आनंदित होना यात्रा का पहला चरण है और अचंभित होना अंतिम. बीच का अंतराल ही शायद हमारा जीवन है, हमारी कला है और मानव होने के नाते हमारी सन्तुष्टि भी.

अचानक आई इस आपदा ने हमारे जीवन में उथल-पुथल जरूर मचा दी है, जिससे पूरी दुनिया में मनुष्य होने के मायने भी बदल गए हैं. हम अपनी दिनचर्या में जो आसपास देखने के आदी रहे हैं, अचानक उसमें ठहराव सा महसूस करने लगे हैं. कलाकार भी कोई अलग प्राणी नही है कि उसका जीवन प्रभावित न हो. बल्कि सबसे अधिक ही हुआ है. रचनात्मक स्तर पर इस खालीपन से भरे बदलाव ने मेरे लिए व्यापक रिक्तता भर दी है. मैं इसे धीरे-धीरे ही भरने की कोशिश करूँगा. यह समय किसी पुनर्जन्म से कमतर नहीं है. इसीलिए शायद में इन दिनों नए सिरे से अपना ही जन्म होते देख रहा हूँ. मैं अपने नए चित्रों के साथ खुद को भी नए सिरे से जन्म दे रहा हूँ, खुद को भी रच रहा हूँ. यही इस समय की मेरी उपलब्धि है और शायद कुल जमा हासिल भी.
 

१४.
अनिरुद्ध सागर
II होना किसी पहाड़ की तरह II

इन दिनों का समय यानी लॉक डाउन मुझे अपनी स्मृतियों में बरबस ही ले जाता है. मेरे लिए यह वक़्त जैसे भागते-दौड़ते अचानक रुककर पीछे की तरफ टकटकी लगाए देखने का हो गया है. जब भी मैं अपने अतीत को याद करता हूँ, उन यादों में पापा (नवीन सागर) सबसे पहले याद आते हैं. वे हमेशा मुझे उस याद में अपने स्कूटर पर भोपाल के रोशनपुरा की घाटी उतरते हुए, हवा उनके मखमली बालों को उड़ाती हुई और वे गुनगुनाते हुए मेरी ओर आ रहे होते हैं. यहाँ मुझे मेरी एक कविता याद आ रही है ----
पापा के कुछ पुराने मित्र

जिनसे आज तक मैं मिला नहीं
और जिन्होंने
मुझे इस उम्र में अभी तक देखा नहीं
वे मुझे देखकर कहते हैं क्या तुम नवीन के पुत्र हो

जिस उम्र में मैं अभी हूँ
कहीं ना कहीं उस उम्र में
जिस उम्र में पापा हुआ करते थे
मैं अगर कहीं ना कहीं
उनकी शक्ल लिये हुए हूँ
तो मैं अपने आप को आईने में देख
अपने भीतर
अपने पिता को ढूंढता हूँ
कोशिश करता हूँ जीने की
उस उम्र को
जिस उम्र में "मैं"अभी
और
"वे"कभी हुआ करते थे
पर हर बार असफल होता हूँ
इस उम्मीद में दोहराता हूँ बार बार खुद को
मेरे जीवन में कोई तो ऐसा समय होगा
जिसमें जी लूंगा मैं उनको

पापा हमेशा से स्वतंत्र रूप से काम करना चाहते थे. वे कहानी लिखते, कविता लिखते, और कभी कभी चित्र बनाया करते. देर रात तक नुसरत को सुनते थे. रामकुमारके चित्र उन्हें पसंद थे. उन्हें इस तरह से कला के किसी भी रूप में डूबे रहना पसंद था और यही वो अपने परिवार से भी अपेक्षा रखते थे. इसीलिए उन्होंने अपने तीनों बच्चों की रुचि को देखते हुए उनके आस पास कला संसार रच दिया.

मेरा मन पढ़ाई लिखाई में कतई नहीं लगता था. परीक्षा पास आते ही मेरे तो होश उड़ जाते थे. इसलिए मम्मी और पापा को काफी खासी चिंता रहती थी मेरे भविष्य को लेकर. तब पापा ने निर्णय लिया कि मेरी पढ़ाई छुड़वा कर मिट्टी का काम सिखाया जाए . पर उनके इस फैसले का कड़ा विरोध उनके आस पास के लगभग सभी लोगों ने किया, लोगों का मानना था कि इस तरह मेरी ज़िन्दगी खराब हो जाएगी और मैं बड़ा होकर पापा को दोष दूंगा, पर पापा की दूरदर्शिता ही थी कि उसी समय उन्होंने मेरे आज को देख लिया था. वे अपने फैसले पर जमे रहे और लोगों को समझाया.

आज पूरी दुनिया में क्या हो रहा है. बहुत बड़ा वर्ग अपने बच्चों की स्कूली पढ़ाई पर इतना जोर नहीं देते, जितना वे बच्चों की रुचि पर देते हैं. बचपन से ही उन्हें उनकी रुचि के साथ तैयार करते हैं. वरना पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है और हम लोगो को पता ही नहीं होता कि हम किसमे ज्यादा अच्छे हैं. हम पूरी उम्र कुछ और ही करते हुए बिता देते हैं. पापा की इस दूरदर्शिता को मेरा सलाम.

इस तरह 1990 में जब 15 वर्ष का हुआ, मुझे याद है कि अप्रैल की एक सुबह मेरा परिचय भारत भवन के सेरेमिक कार्यशाला में पापा ने मिट्टी से करवाया. इस तरह से मेरे जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ और भारत भवन जाने का सिलसिला भी.

उन दिनों सेरेमिक कार्यशाला में शंपा शाहको काम करते हुए देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ और उनसे ही सेरेमिक की शिक्षा प्राप्त की. अब इतनी छोटी उम्र से ही ऐसी जगह जाना जहाँ कला, कलाकारों, ओर कला रसिकों का जमावड़ा होता हो तो ना चाहते हुए भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ ही जाता है.

भारत भवन का किनारा बड़े तालाब के किनारे से मिलता है. जब मैं इस संगम पर बैठता था और दोनों की विशालता का अनुभव लेता था, तब मन कविता कहने लगता था. मैं आंनद से भर जाता. दोनों की ऊर्जा को भरकर वापिस मिट्टी में मिट्टी हो जाता, मैं का नामोनिशान मिट जाता. जो दिन ऐसा बीत जाए, उस दिन लगता जैसे वह सब मिल गया जिसकी ज़िन्दगी में चाह थी. भारत भवन आकर हम खुद के बहुत करीब होते हैं इसलिए क्योंकि उसे बनाया ही इस तरह से गया है कि आपको अगर उसके भीतर जाना है तो अपने भीतर उतरना होगा और इसी समय आप एक साथ दो जगह उतर रहे होते हैं एक खुद में और दूसरा भारत भवन में.

खैर, अब जीवन का ज्यादातर हिस्सा मिट्टी के साथ गुजरने लगा. पापा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. मुझे रोज नये नये आइडिया देते. मिट्टी में काम करने के, चित्र बनाने के लिए रंगो के पहाड़ खड़े कर देते, कला संबंधी किताबों का अंबार लगा देते और फिर उन किताबों पर लंबी बातचीत होती, आकारों पर बातचीत, किसी बड़े गायक के जीवन पर बातचीत जो हम लोगों को प्रेरित करे और कभी कभी तो अपने साथ अपनी कल्पनाओं में उड़ा ले जाते, जहाँ से हम कभी वापिस नहीं आना चाहते. आज भी हम लोग उन्हीं कल्पनाओं में उनके साथ उड़ रहे हैं.

वर्ष 1995 में दिसंबर में मैं दिल्ली आ गया, मेरे दूसरे गुरु पी. आर. दरोज के पास. उनके पास मैं दो तक रहा और सेरेमिक की दूसरी अन्य बारीकियों को सीखा. 14 अप्रैल 2000 को पापा अचानक चले गए. मुझे घर संभालने के लिए वह सब करना पड़ा, जो पापा खुद के लिए भी कभी नहीं चाहते थे. उन्हीं के दफ्तर में
नौकरी. उन्हीं की मेज के सामने मेरी मेज.

वर्ष 2010 तक मै उस नौकरी में रहा. उसके बाद से स्वतंत्र रूप से काम करने लगा. 2013 में सेरेमिक कला शिविर में 18 भारतीय कलाकारों के साथ चीन की यात्रा की. 2015 में पुनः भोपाल से दिल्ली आया और संस्कृति दिल्ली ब्लू पॉटरी में बतौर शिक्षक जुड़ गया. यहाँ दो साल तक सेरेमिक के अपने अनुभव को लोगों के साथ साझा किया. अब एक बार फिर स्वतंत्र रूप से अपना काम कर रहा हूँ. अपने स्टूडियो दिल्ली में और अपने अनुभव बाँट रहा हूं लोगों के साथ. मैं अपनी पहचान मेरे पिता नवीन सागर और माँ छाया सागर से मानता हूँ. इसीलिए मैंने अपने स्टूडियो का नाम "नवीन छाया सेरेमिक स्टूडियो"रखा है.

बचपन से ही मुझे पहाड़ और पहाड़ में बनी गुफायें और गुफा में बने चित्र अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. उत्साह में, रहस्य से भरा, रोमांचित होता, कुछ नया खोज लेने की चाह में पहाड़ों पर घूमता. देखता कि पहाड़ के पीछे क्या है.पर हर बार पहाड़ के पीछे पहाड़ या दूर तक बहती नदी या दूर दूर तक फैले हरे हरे खेत या खुले मैदान या पानी की लहरों की तरह बहते हुए दिखते छोटे छोटे असंख्य पहाड़.

मैं मध्य प्रदेश से हूं. जहां विंध्याचल की कहानी बहती है. जहाँ सतपुड़ा की रानी प्राचीन नदी नर्मदा बहती है.

बचपन में मैंने इन पहाड़ों को रेल की खिड़की से देखा है. कभी रात में उन्हें रात होते हुए देखा है, कभी दिन में हरे हरे गुदगुदे रूप में देखा है तो कभी नदी में नदी होते हुए देखा है. वे बचपन से ही आकार ले रहे थे मेरे भीतर, पर उन्हें कहने के लिए कभी शब्दों की कमी खली, तो कभी मिट्टी की कमी.

जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, शब्द भी बढ़ने लगे और मिट्टी भी हाथों में चढ़ने लगी. फिर एक दिन मेरी मुलाकात राजस्थान के अरावली पहाड़ों की श्रृंखला से होती है और मैं इनसे इतना अधिक प्रभावित होता हूँ कि वहीं खड़े खड़े मेरे भीतर के शब्द, एक कविता रचते हैं और ये सिलसिला लंबा चलता है. फिर एक दिन अचानक मेरे हाथों की मिट्टी भी पहाड़ का रूप रचने लगती है.
मैं दंग था !
आश्चर्यचकित !
मेरा यहाँ खुद से खुद का परिचय होना होता है और यहीं से मेरा दूसरा जन्म भी, अनिरुद्ध सागर का जन्म !

पहाड़ों पर लिखी कविताओं में से एक कविता की कुछ पंक्तियां --
शायद यही प्रतिबिंब है
इन पहाड़ों के पीछे मेरा
बीते जन्म में
"मैं"भी कभी
इन्हीं पहाड़ों के आस पास
"पहाड़"हुआ करता था

मुझे जब यह सब लिखने के लिए कहा गया, तब से रोज सोचता रहा कि थोड़ी देर में लिखता हूँ, आज लिखता हूँ, कल लिखूंगा, पर कमबख्त ये तीनों समय आ ही नहीं रहे थे. और दिन-ब-दिन बीतते चले जा रहे थे. अब लिख रहा हूँ, तब लगता है कि यह समय अब मोबाइल का हो चुका है. सब कुछ मोबाइल हो गया है, जीवन भी और विचार भी. इस मोबाइल में तो सारा संसार बसा हुआ है. इस संसार से बाहर आकर अपने आस पास के संसार में इन लिखे जा रहे शब्दों से प्रवेश कर पा रहा हूँ. जब सब कुछ मोबाइल पर ही मिल रहा तो क्यों कर उससे बाहर आया जाए, क्यों ना कोरोना को मोबाइल पर ही हराया जाए.
खैर ! ये तो एक बचने का तरीका है, लिखने से.
अभी जब लॉकडाउन शुरू ही हुआ था तब ही मैंने अपना पूरा स्टूडियो नयी जगह पर शिफ्ट किया था.

अब नई जगह पर पूरे स्टूडियो का सामान अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ है. सब व्यवस्थित करना है, पर कोरोना ने सब कुछ रोक दिया. कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब कुछ बिखर सा गया है.मैं, मेरा जीवन, मेरे विचार, लगभग आधे-अधूरे हो गए लगते हैं. लगने लगा है कि अब अपनी अंगुली भी हिलाऊंगा तो मुझे कोरोना हो जायेगा, ये भय सताने लगा है. एक और भय साथ में जुड़ गया बाज़ार का भय, कला बाज़ार का भय ? अब मैं और मेरे जैसे कितने ही, क्या कला को निरंतर कर पाएंगे ? हम अपनी सोच में तो कला को निरन्तर रख सकेंगे पर अपने माध्यम में ?

मेरा स्टूडियो मेरा विचार है
स्टूडियो का सामान एक एक शब्द है
और ये सारे शब्द अस्त व्यस्त हैं अभी
पहले इनको व्यवस्थित करूँगा
फिर खुद को
अभी मेरे भीतर शब्दों का बहुत शोर गुल है
एकांत से बहुत दूर

इस लॉक डाउन के बाद कहाँ से शुरू करूँगा, ये समझ पाना बहुत मुश्किल है. क्योंकि अभी तक खुद मेरी शुरुआत वहाँ से नहीं हो पाई, जहाँ से मैं चाहता हूँ, या चाह सकता हूँ. असमंजस में हूँ.

जब से हम सब अपने अपने घरों में प्रतिबंधित हुए हैं, तब से मैं ठीक वैसे नहीं सोच पा रहा, जैसे मैं सोचता हूँ या सोचता आया हूँ या सोच सकता हूँ.

असल में अक्षरों की भीड़ है भीतर और ये सब मिलकर लगातार शब्द बनाते रहते हैं, अब शब्दों की भीड़ है भीतर और ये सब मिलकर लगातार वाक्य पर वाक्य बनाते रहते हैं. ये वाक्य मिलकर जैसे ही एक विचार के रूप में पूर्ण होने की प्रक्रिया में होते हैं तभी दूसरा विचार आ कर पहले विचार को तोड़ देता है और ये प्रक्रिया जारी रहती है, इसी तरह लगातार मेरे भीतर. वहीं एक तरफ लगता है कि लगातार एक ही प्रक्रिया से सोचते रहने से मैं नया क्या सोचूंगा ?

जैसे भी सोचना हो, पर जरूरी ये है कि कुछ तो सोचा जाए. रोजमर्रा से कुछ अलग. उसके लिए जरूरी हैं जीवन में कुछ घटित होना और वह तब ही संभव है जब मैं बाहर निकलूंगा और बाहर निकलने के लिए लॉकडॉउन नहीं होगा. लाकडाउन को हटाने के लिए कोरोना को हराना होगा और उसके लिए मुझे अपने घर में ही प्रतिबंधित होकर रहना होगा. मतलब साफ है कि कोरोना एकांत लेकर तो आया है. सवाल है कि एकांत किसके लिए. जवाब है हम सबके लिए. हम सबका अंत एकांत में. मानव जाति का अंत एकांत में.

और तो और हमारे शरीर का अंत भी एकांत में होना तय किया है इस कोरोना ने . मतलब मनुष्य जाति ने हजारों वर्षों में अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के जिन कर्म कांड की व्यवस्था की थी उस पर इस कोरोना ने कुछ ही महीनों में पानी फेर दिया. वहीं एक तरफ लगता है मनुष्य धर्म और कर्म काण्ड के नाम पर एक दूसरे को डराता आया है. पर लगता है मृत्यु के भय ने सबके विश्वास को हिला कर रख दिया है. तभी तो कोरोना संक्रमित व्यक्ति के अंत समय में उसके अपने भी साथ नहीं होते. इस तरह के अंत की कल्पना से ही मेरी घबराहट और बैचेनी बढ़ जाती है और बढ़ जाता है भय, भय से भरा गुस्सा.

भय मृत्यु का नहीं. भय है तो एकांत में होने वाली मृत्यु से. शायद खुद से ही गुस्सा हूँभयभीत हूँ खुद से, खुद पर ही खुद की झुंझलाहट है, खुद से ही चिढ़ गया हूँ इतना कि खुद को ही नहीं देखना चाहता खुद के घर में.

एक तरफ खुद से ही खुद को कहता हूँ- क्यों भयभीत होते हो, क्यों झुंझलाते हो खुद पर, क्यों चिढ़ते हो खुद से, तुम क्यों नहीं यह सब मिट्टी से कह देते. मिट्टी तुम्हें वो आकार देगी, जो शब्दों के रूप में तुम्हारे भीतर उमड़ घुमड़ रहे हैं. उसके आकार रूपी शब्दों में वो ऊर्जा है जो तुम्हें इस दलदल से बाहर निकाल लाएगी.

कभी कभी शब्दों में वो ताकत नहीं होती
जो आकार में होती है
कभी कभी हम शब्द से शब्द ही समझते हैं
और आकार से आकार
और कभी कभी आकार से शब्द
और शब्द से आकार निकलते हैं

तुमको तो पता है तुम जब मिट्टी को छूते हो तुम्हारे भीतर एक लहर दौड़ती है. तब तुम सब भूल जाते हो और मिट्टी के साथ मिट्टी हो जाते हो. तब तुम उस प्रकृति का हिस्सा होते हो. तुम्हें अपने अस्तित्व के बारे में पता चलता है कि तुम मिट्टी को नहीं, मिट्टी तुमको आकार दे रही होती है. तब तुम्हारा घमंड टूटता है और तब ही पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीद बनती है.


१५.
अशोक भौमिक
II चित्रकार बनने का 'लोभ' II

एकांत का मैं आदी नहीं हूँ. इसलिए कोरोना काल का यह थोपा हुआ एकांत मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव है. 'मेरे लिए नया अनुभव है'यह लिख कर मैं कुछ रुक जाता हूँ, क्योंकि मुझे शायद यह कहना था कि यह हम सब के लिए नितान्त नया अनुभव है. दिल्ली के फुटपाथ पर अपनी छह महीने की बच्ची को लिटा कर उत्तराँचल से आयी मजदूर की बीवी महक बिलख बिलख कर रो रही है, "बाबू, तीन दिनों से खाना नहीं नसीब हुआ. बेटी भूख से तड़प रही है क्योंकि मुझे दूध नहीं उतर रहा है."बेटी की हालत देख कर पिता भी रो रहा है. आसमान में जरा भी प्रदूषण नहीं है, पेड़ों की हरी पत्तियों को मानों किसी ने अभी अभी पोछा है. मैं स्ट्रेचर पर नया कैनवास चढ़ाता हूँ.

आगरा की काली सड़क पर फैले दूध का रंग और भी सफ़ेद लग रहा है, जिसे कुत्ते चाट रहे हैं. एक आदमी अंजुलि में सड़क से दूध बटोर कर कटोरी भर रहा है. मेरे हाथ में फ्लैक व्हाइट का पिचका हुआ ट्यूब है. आज वाकई सफ़ेद रंग की कमी खल रही है.

सोचता हूँ, लॉकआउट तोड़ कर महक से जाकर पूछूँ कि बच्चे को दूध न पिला पाने का यह अनुभव नया है क्या ?
कुत्ते के बगल में दूध बटोरते उस आदमी से पूछूँ, कि इस मटमैले रंग के दूध को पी लेने का अनुभव नया है क्या ?

मैं अपने से ही पूछता हूँ- "किस देश में लोग एक जुट होकर थाली पीटते हैं ताकि महक की बेटी जैसे करोड़ों भूखे बच्चों की कहीं आँखें न लग आएँ ? किस देश में सड़क से दूध बटोरते मजदूर का उत्साह बढ़ाने के लिए एक जुट होकर ताली बजाते हैं लोग ? किस देश के लाखों-लाख 'प्रवासी'मज़दूर 900 किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल चल देते हैं? सड़क के दोनों ओर अमराइयों में कोयल कूकती है, गिलहरी आँखें फाड़े एक खामोश जुलूस को देखती रहती है. और हम उनसे सोशल डिस्टेंस बनाये रखते हुए गर्म कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए कविता लिखते हैं और यह जुलूस लम्बा होता रहता है, और लम्बा होता रहता है. 

वैसे इस जुलूस के दिल्ली की दहलीज़ पार करने के पहले ही दर्जनों कविताएँ लिख कर फेसबुक-व्हाट्सएप् की दीवारें चमका भी देते हैं कविगण. और हम जो चित्रकार हैं, या तो 'ऑनलाइन आर्टिस्ट कैम्प'में नाम शामिल करवाने की जुगत भिड़ा रहे हैं या फिर एकांत और सृजन के अन्तर सम्बन्धों पर आध्यात्मिक किस्म की बयान बाज़ी में मस्त हैं.

किन्तु... यह सच है कि भारतीय चित्रकला अपने सबसे संकट के दौर से गुज़र रही है. महामारी के पहले से ही हर चित्रकार इस गहराते संकट को अनुभव कर रहा है और यह संकट केवल आर्थिक ही नहीं है. नोटबंदी और जी एस टी के बाद चित्रों की बिक्री में व्यापक असर पड़ा है और ऐसे में , लगभग सभी छोटी बड़ी गैलरियों ने अपनी-अपनी दूकान बढ़ा कर चादर तान ली है. बावजूद इसके, मुझे लगता है कि चित्रों का न बिकना उतना गंभीर विषय नहीं है जितना कि समाज का चित्रकला के प्रति उदासीन हो जाना! इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों से (कम से कम महानगरों के) चित्रकारों ने जनता से कट कर रहना शुरू कर दिया था. हमारे अधिकांश पूर्वज चित्रकारों ने जनता से कटे रहना ही पसंद किया. लिहाज़ा, आम लोगों की समझ से बाहर, आज़ादी के बाद की भारतीय चित्रकला का संसार ऐसा है जहाँ चित्रकार बनने के 'लोभ'ने हमें इंसान नहीं बने रहने दिया. किसी समाज में जितनी मूर्खताओं और धूर्तताओं की कल्पना की जा सकती है, भारतीय चित्रकला का वर्तमान जगत अपने में उससे कहीं ज्यादा समेटे हुए है. 

झूठ की ऐसी दुनिया में बाज़ार के हाथों महज़ कठपुतली ही क्यों न हो ; हम मौका पाते ही समाज में कलाकार होने की 'विशिष्ट'मुद्रा में तन जाते हैं. हमारी भाषा बदल जाती है और हम दुरूहतम शब्दों के प्रयोग से जनता को आतंकित कर उनसे दूरी बढ़ाने में सक्षम हो जाते हैं. हम राष्ट्रीय कला अकादमी में भारतीय होने का दवा करते हैं पर अपने प्रदेश में दूसरे प्रदेश के कलाकारों (या अपने ही प्रदेश के) से घृणा करते हैं. हम विदेशी कलाकारों की निर्लज्ज नक़ल कर, अपनी कला में भारतीयता का दावा पेश करते हैं. कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध पर बात करते हुए हमने रंगकर्मियों, कवियों, संगीतकारों के परिश्रम और रचनाशीलता को जानने की कोशिश नहीं की. हमने अपने आप से ये नहीं पूछा कि हज़ारों घोड़े बनाने वाला चित्रकार और 'अँधेरे में'के कवि की रचनाशीलता का फर्क क्या है और क्यों है. 

क्यों एक चित्रकार फरारी गाड़ी में नंगे पाँव इतराते हुए, जीते जी किंवदन्ती बनने का सपना देखता है, जबकि दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्षरत कवि, पूरी जिंदगी एक क्षण के लिए भी जनता का साथ नहीं छोड़ता. चित्तप्रसाद जैसे चित्रकार के चित्रों में, कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र और बंगाल से लेकर तेलंगाना तक की जनता का सुख-दुःख दिखाई देता है, किन्तु विदेश में समूची ज़िन्दगी बिता कर 'कला में भारतीयता'की खोज करने वाला चित्रकार विशिष्ट बन जाता है. हमारी संकीर्णताएँ हमें अपने सादे से पोर्ट्रेट पर 'बिहारी'लिख कर प्रांतीयता का ज़हर फ़ैलाने का तर्क तो देती हैं पर भारत के अमरोहा में जन्मे कलाकार सादेकैन को हम नहीं पहचानते हैं और न ही 1943 के अकाल पर ऐतिहासिक चित्रों को रचने वाले चित्रकार ज़ैनुल आबेदीन को ही हम जानते हैं.

यकीन मानिये, मैं अपनी पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी के सभी कलाकारों से प्यार करता हूँ (और ये बात उनमें से बहुतों को यकीनन मालूम होगी) और उनकी इन तुच्छताओं के लिए उन्हें बुरा-भला कहने के लिए ये लेख नहीं लिखा गया है. मैं उनकी मजबूरियों को जानता हूँ -समझता हूँ. जानता हूँ कि हम एक ऐसे वक़्त में जी रहे हैं जहाँ अच्छे बुरे का मानदंड ही नहीं रह गया है और चित्र 'किसे कहते हैं'इसकी जिम्मेदारी उन लोगों ने हथिया ली है, जिनका चित्रकला से कोई लेना देना नहीं है. सरकारी अकादमियों और अन्य कला संस्थानों को चलाने वाले प्रशासनिक सेवा के तमाम अधिकारियों ने कलाकारों को चलते फिरते भिक्षा पात्रों में तब्दील कर दिया है और वे अधिकारी स्वयं को चित्रकला के बारे में अंतिम राय देने में सक्षम मान बैठने की ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं. आने वाला कल, निश्चय ही कला और कलाकारों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार इन लोगों के कर्मों को बेहतर चिन्हित कर सकेगा.

आज भारतीय समकालीन चित्रकला शुद्ध रूप से नव-धनिकों के उस वर्ग की रूचि (या कुरुचि) द्वारा संचालित हो रही है, जिसका आगमन इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में रातों रात दलाली और सट्टेबाजी से कमाई गई अकूत पूँजी के साथ हुआ. इस वर्ग की दृष्टि में अनैतिकता और भ्रष्टाचार जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं था और इन्होंने भारतीय कला गैलरियों को अपने मौसेरे भाई के रूप में पाया. कालेधन के निवेश, सट्टेबाजी, नीलामी में फिक्सिंग, नकली चित्रों का बाज़ार, पैसे देकर दूसरों से अपने चित्र बनवाना, चित्रकारों पर मोटे मोटे ग्रंथाकार प्रकाशनों में मिथ्या, लोभ और मूर्खता का प्रदर्शन, आदि ऐसी बातें हैं जिसे हम केवल समकालीन भारतीय चित्रकला में ही देख सकते हैं. 

इन सब के बावजूद, जब हम चित्रकार समाज में अपने को 'विशिष्ट'प्रमाणित करने के लिए आध्यात्मिक शब्दावलियों का हास्यास्पद प्रयोग करते हैं या अपने दिशाहीन चित्रों को केवल पुनरावृत्ति के माध्यम से महान साबित करते हैं, तब हम वास्तव में अपनी परंपरा का ही अनुसरण कर रहे होते हैं. आज़ाद हिन्दुस्तान में 'सफल'हुए हमारे पूर्वज चित्रकारों ने इन्हीं तरीकों से अपना धंधा जमाया था.

कोरोना काल के इस एकान्त में हम चित्र तो बनाएंगे ही, पर इसी एकांत में हमें अपने भीतर झाँक कर देखना और आम जनता की आँखों में अपनी परछाइयों को भी पहचानना होगा. आज़ादी के बाद भारतीय कला बड़े पैमाने पर दो महाशक्तियों के बीच चल रहे 'शीत-युद्ध'की शिकार होकर अपनी दिशा खो बैठी और कई मौकापरस्त कलाकारों को आदर्श के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई. आज इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में यह कला पूरी तरह से कुछ बड़े दलाल पूँजीपतियों और उनके पैसों पर पल रहे क्यूरेटरों के कार्य-व्यापार के रूप में संकुचित हो गयी है. ऐसे क्यूरेटर और कला समीक्षक कैनवास पर कूँची द्वारा रंग लगाने वाली कला को निरर्थक सिद्ध करते हुए कृति से ज्यादा कृति के कांसेप्ट की भाषाई व्याख्या को महत्व दे रहे हैं.

उत्तर कोरोना काल में यह बेलगाम प्रवृत्ति निश्चय ही जनता से चित्रकला को हमेशा के लिए दूर कर देने का प्रयास करेगी, इसलिए मौजूदा एकान्त में चित्रकारों को अपने अपने ख्वाबगाहों से बाहर निकल कर इस साज़िश को समझना होगा. इसे समझने में हालाँकि ज्यादा कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मौजूदा कला बाज़ार दिवंगत कलाकारों के चित्रों की खरीद फरोख्त को ही समर्पित है, जहाँ जिन्दा कलाकारों की कोई जगह नहीं है. जीवित कलाकारों के लिए कुछ वज़ीफ़े, पुरस्कार, चंद सरकारी आवास और कुछ पद्म सम्मान आदि ही बचे हैं, जिनसे आम जनता का कोई लेना देना नहीं है. इस कठोर यथार्थ से रू ब रू होने का यही सबसे सही समय है. अगर आज हम यह सवाल अपने आप से नहीं करते है, तो किसी ऐसे ही आने वाले दुःसमय में चित्रकारों से शायद ही कोई पूछेगा कि--
"आप समाज से कट कर इस एकान्त में कैसे जी रहे हैं?"


१६.
महावीर वर्मा
lIमेरे चित्रों में मेरा ही अंश है II

जीवन में एकांत की महत्ता यूँ तो हर किसी को आत्म-विश्लेषण, आत्ममंथन के लिए होती है, लेकिन कलाकार अपनी समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं को एकाकार कर बेहतर रचने व गढ़ने का प्रयास करते हैं.

किसी भी सृजनधर्मी के जीवन में यह एकांत संजीवनी की तरह होता है, जहाँ वह अपनी संवेदनाओं को साकार करने का प्रयास करता है. एकांत भी उसको अनुभवों की स्नेहिल थपथपी से कल्पनाओं की ऐसी अंतहीन यात्राओं पर ले जाता है, जहाँ जाना वास्तविक यात्राओं में सम्भव नहीं.

यही एकांत जब अवांछित तरीके से किसी चित्रकार की दिनचर्या में प्रवेश करता है, चाहे वह कानूनन आक्षेपित हो, परिस्थितिजन्य प्रदाय हो या सामाजिक रूप से आरोपित, चित्रकार के उस कालखंड को पूरी तरह से प्रभावित कर देता है. साथ ही उसकी अभिव्यक्ति में यह एक मुहूर्त बनकर उपस्थिति पाता है. चित्रकार समय व परिस्थितियों के साथ कदमताल कर जीवन के महत्वपूर्ण सबक हासिल करता हुआ अभिव्यक्ति के जरिए अपनी कृति को अपने समाज से जोड़ने का प्रयास करता है. जैसा कि इटालियन दार्शनिक और साहित्यकार नोबेल पुरस्कार विजेता डारियो फो ने भी कहा है कि"अभिव्यक्ति का कोई भी रूप- थिएटर, साहित्य, या कला जो अपने वक्त के बारे में कुछ नहीं कहता, अप्रासंगिक है."

कहना मुनासिब होगा कि कलाकार के कलाकर्म में समय, संघर्ष और समाज की अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिए. मैं भी इसी के सापेक्ष रचता हूँ. रचना वही कालजयी हो पाती है जो अपने अंदर अपने समय को सहेजे हुए होती है. यही समय हमारी रचनात्मक उर्वरा को विकसित कर व्यक्तित्व का निर्माण करता है. विश्व के ऐसे अनेक व्यक्तित्व हमारे ज़हन में उतर आते हैं, चाहे वह महान अभिनेता चार्ली चैपलिन हो या चित्रकार फ्रांसिस्को गोयापाब्लो पिकासो, विंसेंट वैन गॉग, एडवार्ड मुंख या भारत से चित्तप्रसाद, रवींद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल ,मकबूल फिदा हुसैन या गणेश पाइनजैसे समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले चित्रकार हों. इन सब का निर्माण इनके समय, संघर्ष और समाज ने हीं किया है. चित्रों में समय की इसी अभिव्यक्ति के कारण इनकी कृतियां कालजयी बनी और ये सब कलाकार अक्षय बन पाए हैं.

एकांत ने जीवन में मुझको बहुत कुछ दिया है. बचपन में कभी-कभी अनायास ही कुछ बोलने की इच्छा ना होना, मैं जहाँ पला-बढ़ा, राजस्थान के बूंदी जिले का वह छोटा सा नगर (लाखेरी) भी पहाड़ियों और पत्थरों का ही तो था. उन पहाड़ियों के भ्रमण और पत्थरों की सतही बनावट को देखते-देखते समय बीतता था. मेरे चित्रों में भी यही टेक्सचर प्रमुखता पाता रहा है. मेरा माध्यम स्याही व पेन रहा है और मुझे स्वीकारने में संकोच नहीं होता कि इस माध्यम का चुनाव मैंने फैशन में नहीं, बल्कि यह समय और संघर्ष के चलते किया था. पिता पत्थरों की खान में मजदूरी करते थे. इसलिए आवश्यक सामग्री की अनुपलब्धता के चलते बॉल पेन और शर्ट में लगने वाला बकरम ये ही मेरा माध्यम बने थे.

जब अपनी शिक्षा पूरी कर रहा था, उस समय पैसों की तंगी के चलते मैं पोट्रेट चित्रण की ओर बढ़ने लगा था. क्योंकि यहाँ रंगों की खुशबू के साथ अर्थ अर्जन भी होने लगा था. बूंदी जैसे छोटे शहर में जीवन आसानी से चल पा रहा था. ऐसा करते मैंने व्यक्ति चित्रण में अपना नाम बना लिया था. लेकिन रचना का सुख यहाँ नहीं था. मन में अपने स्वतंत्र चित्रण की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, ऐसे में बीच-बीच में थोड़ा हिम्मत कर स्वतंत्र चित्र बनाने की कोशिश भी करता रहता था. इस तरह पोर्ट्रेट बनाते हुये मैंने अपना फॉर्म भी विकसित कर लिया था, जो राजस्थानी माण्डना (लोक चित्रों) से प्रेरित था.

यह समय मेरे सीखने का समय था. चित्रण के इस दौर में मुझे बार-बार यह समझ आ रहा था कि बिंबों की पुनरावृत्ति होने लगी थी. चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना होनी नहीं चाहिए, यह बात मैं जानता तो था, लेकिन काम करते हुए दिल्ली और जयपुर जैसे बड़े शहरों के चित्रकारों की तरफ जब भी ध्यान जाता, तो यह समझता कि चित्रों में परंपरा और लोक बिंबो की उपस्थिति, कला बाजार में कुछ हद तक उनके विक्रय की संभावनाओं को बढ़ा देती है. परिवार की आर्थिक हालात भी इस मोह से उबरने नहीं दे रही थी, सो जानते हुए भी मेरे चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना बनी रहती थी.

वर्ष 1999 के मध्य में समय ने करवट ली और मेरा चयन भारतीय रेल शिक्षा सेवा में बतौर कला अध्यापक हो गया, अब मेरी समस्त चिंताएं खत्म हो गई थी. मैंने तय कर लिया था कि निर्वाह करने के बोझ से मुक्त होकर अपना नया रास्ता खोजना है. धीरे-धीरे मैं बाजार और अकादमिक शिक्षा बंधनों को छोड़ अपनी चित्र भाषा की तलाश में लग गया. बूंदी में बिताए समय के अनुभव साथ थे, जिन्होंने मुझे सचेत करना शुरू किया कि पुराने को कैसे भुलाया जाकर नए की तरफ बढ़ना है. चित्र में अब आकार अपने आप को ज्यामितीय लय में ढालने लगे थे, इसी ज्यामितीय लय ने मुझे चित्र में प्रवाहिता के बारे में समझने में मदद की थी.

मैं अब ऐसी यात्रा का मुसाफिर बन गया था, जिसका गंतव्य मुझे नहीं मालूम था. लेकिन आने वाले पड़ावों के साथ चित्रों में होने वाले परिवर्तन मुझे तैयार कर रहे थे. नए कलाकार मित्रों से मित्रता होने लगी थी, कुछ हमउम्र, कुछ वरिष्ठ मित्रों के साथ होने वाले संवादों ने चित्रण के विषय में मेरी अवधारणाओं पर जमी पूर्व की गर्द को हटाना शुरू कर दिया.

मेरी पहली एकल प्रदर्शनी भारत भवन भोपाल में आयोजित हुई, इसमें प्रदर्शित श्याम-श्वेत चित्रों में रूपों की संरचना ज्यामितीय थी. प्रदर्शनी को भरपूर प्रशंसा मिली, लेकिन यह मेरी शुरुआत भर थी. मैं अपनी चित्र भाषा को लेकर और ज्यादा सचेत तथा संवेदनशील हो गया तथा लगातार प्रयासरत रहने लगा कि अपना आकार विकसित करूँ. नौकरी से घर लौटने के बाद अपनी पारिवारिक भूमिका का निर्वहन कर बाकी समय मैं अपने आप को देने लगा था.

मुझे घर, अपना स्टूडियो और अपना एकांत तीनों अच्छे लगने लगे और चित्र बनाना मेरी दिनचर्या में शरीक हो गया. यहाँ इसका आशय यह नहीं कि मैं बाहरी दुनिया से पूरी तरह से कट जाता, ऐसा नहीं कि बाहरी आवाजें सुनाई ना देआवाज़े अंदर आती भी थी, लेकिन रचना सुख ने मुझे समस्त झंझावतों से मुक्त कर दिया था. अब न तो चित्रों के बाज़ार का मोह बचा ,ना ही अच्छे और बुरे चित्रों की चिंता, क्योंकि चित्र कभी अच्छे या बुरे होते ही नहीं हैं. चित्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति ही कर सकता है, वही मैं करने लगा. इस एकांत ने मुझे बाहरी दुनिया के रिश्तो के बनावटीपन, थोथे बंधनों और दिखावे के मोह से मुक्त कर दिया था. चित्रण प्रक्रिया एवं रचना के सुख ने मुझे पूरी तरह तैयार कर दिया था कि जरूरी नहीं, मैं बड़े शहरों की ओर पलायन कर बड़े चित्रकारों की तरह शहरों में रहकर ही चित्र रचना कर, वहाँ के कला जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करूँ. मैं छोटे शहर में भी मौलिक और बेहतर चित्र बना सकता हूँ. यह सबक मैंने रतलाम के एक घर के छोटे से कमरे वाले स्टूडियो में काम करके अच्छी तरह सीख लिया था.

जब भी मुझे मौका मिला, मैं प्रदर्शनी भी करता. चित्रों को मैं बनाता हूँ, यह मुझे सही नहीं लगता. बल्कि चित्रों में मैं अपने को अभिव्यक्त करता हूँ. इन चित्रों को मैं अपना नहीं कह सकता क्योंकि उनमे केवल मैं ही हूँ. जब मैं प्रदर्शनी करता हूँ, वहाँ भी मैं स्वयं अपने को ही चित्रों में प्रदर्शित करता हूँ. प्रदर्शनी में प्रदर्शित यह समस्त चित्र मेरा ही अंश होते हैं. जिस तरह मैं प्रदर्शनी के दौरान मित्र बनाता हूँ, उसी तरह मेरे यह अंश भी दर्शकों से संवाद करते हैं. चित्रण की इस यात्रा में अब तक मैं जहाँ पहुंच पाया हूँ, उसके विभिन्न अनुभवों वाले पड़ावों ने मुझे निरंतर सिखाया और खुद से मुक्त किया है.

आज इस यात्रा में रोशनाई व कलम के साथ मैं मनचाहा कागज और कैनवास भी इस्तेमाल कर रहा हूँ. किसी दुश्चिंता के बिना रचना का भरपूर आनंद उठाते हुए अपनी संवेदनाओं को साकार कर रहा हूँ. मेरे चित्रों की विषय वस्तु भी मैं बिना किसी दबाव के अपने आसपास के समाज से चुनता हूँ. यही सामाजिक ताना-बाना लगातार मेरे चित्रों में प्रतिध्वनित भी होता है.

लॉक डाउन के इस समय में चित्र एवं साहित्य से जुड़े मित्रों से निरंतर हो रहे संवाद के साथ सोशल मीडिया में महामारी के प्रभाव से हो रही उथल-पुथल की तस्वीरों एवं सूचनाओं ने हमारी सामाजिक संरचना को हिला दिया है. बहुत कुछ आस-पास ऐसा घटित हो रहा है, जिसने मुझे और अधिक संवेदनशील बना दिया है.बार-बार यही प्रयास होता है कि विषाद हावी ना हो पाए, लेकिन कुछ ऐसा घटित हो ही जाता है, जो अंतरमन को उद्वेलित कर देता है. मैंने अपने जीवन काल में यह पहली बार अनुभव किया है कि किस तरह से चित्र अनायास ही बन जाते है, बनाए नहीं जा सकते. सोमनाथ होर जैसे कलाकार कैसे तेभागा डायरी रच डालते हैंकैसे चित्तप्रसाद अकाल को चित्रित कर जाते हैं, कैसे फ्रांसिस्को गोया 3 मई बना देते हैं, कैसे विंसेंट वैन गॉग आलूभक्षी बनाते हैं और कैसे पाब्लो पिकासो ग्वेर्निका जैसे कालजयी चित्रों को रच पाते हैं, यह मेरे लिए किसी अचम्भे से कम नहीं हैं.

लॉक डाउन से पूर्व मेरे चित्रों में मेरे आस-पास का समाज, उसका समय और संघर्ष ही विषय के रूप में स्थान पाता रहा था. लेकिन लॉक डाउन के इस एकांत ने उसमें भी हस्तक्षेप किया है. पूर्व में किशोरों की मनःस्थिति जहाँ विषय के केंद्र में होती थी, वहीं अब एकांत ने उस को विस्तार देकर चित्रों को अधिक संवेदनशील और स्पर्शी बना दिया है. महामारी के इस कालखंड ने चित्रण को जिस तरह प्रभावित किया है, इस परिवर्तन को मैं चित्रकार ऑडोल्फ़ गोता लिएब (1930 से 1974) के विचारों के माध्यम से अभिव्यक्त करूँ, तो ऐसे कहूंगा "रंगों का सौंदर्य निरर्थक है यदि उसके साथ भावना का सौंदर्य नहीं है. चित्रकला रंगो, रेखाओं व आकारों की रचना मात्र है, यह विचार ही घृणास्पद है."

एकांत का यह कालखण्ड मेरे जीवन में एक बदलाव लाया है. यहाँ न तो सुविधाओं की कमी खलती है, ना ही रंग-रोगन इत्यादि की. चिंता केवल यही होती है कि किसी भी स्थिति में अभिव्यक्ति होती रहे. इसने सिर्फ समय सापेक्ष चित्रण के लिए प्रेरित किया है. रचना प्रक्रिया में पेन की निब से उपजे संगीत ने मन को कभी बोझिल होने नहीं दिया. इस समय में कुछ नए नाटकों, कहानियों ने भी मेरे हर दिन को स्फूर्तिवान व ताजगी पूर्ण बनाया है. 

मैं कह सकता हूँ कि एकांत एक कलाकार के जीवन में आगत हो, आरोपित हो या आमंत्रित हो, अभिनव रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए समय सापेक्ष अभिव्यक्ति तो करवाता ही है. आज जो भी रचा गया है कालांतर में वह संदर्भों से मुक्ति पाकर विशुद्ध चित्र के रूप में कला जगत में अपनी छोटी सी उपस्थिति दर्ज करवा पाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है.



१७.
सुप्रिया
II सारा समय भी कम लगता है II

मेरे एकांत में खबरें रोज़ मातम की तस्वीरें दिखा रही हैं. जो हमें ये अहसास दिला रही हैं कि हम कम से कम बेहतर हालातों में हैं. भले ही सड़क पर एक औरत अपने मरे हुए बच्चे को कंधे पर टाँगे बदहवास निकल रही हो. साइकिल के डंडे पर अपने जीवित बच्चे को, लाश की भांति टाँगे अपने गाँव लौटता भूखा मजदूर, इस कोरोना काल के एकांत की दुनिया की सबसे ऐतिहासिक तस्वीरों का अजीब खज़ाना होगा.

इस लॉक डाउन में मजदूरों के प्रति मीडिया की सहानुभूति मजदूरों से अधिक मीडिया की मजबूरियों की कहानी बता रही हैं. दर्शक हमेशा भावुक विषयों को अपने से जोड़ कर देखता है और कोरोना काल का सबसे मार्मिक दृश्य भारत के मजदूरों ने दिखाया है. मेरे चित्रों में आरम्भ से ही मजदूर जीवन, उनके श्रम से खड़ी की हुई इमारतों ने अपनी जगह बनाई. मैंने पाया कि उनके वस्त्रों में चटकीले रंगों को चुन कर ही शायद वे अपने जीवन को सहज शफ्फाक सफेद-काले होने से बचाते रहे हैं. कई बार सुबह सुबह अपने इलाके के नज़दीक फुटपाथ पर उनके बीच बैठ स्केचिंग करते हुए, उनको खुद से जोड़े रखने और सहज महसूस करवाने के लिए मैं उनकी साड़ियों की तारीफ कर दिया करती. मजदूरों का जीवन जेंडर समानता का बड़ा उदाहरण है. उनके समाज में पानी भरना, खाना पकाना, कपडे धोना, रेत और सीमेंट ढोना, जेंडर देख कर तय नहीं होता. मजदूरों का शरीर सौष्ठव इतना सख्त होता है कि डेढ़ दो हज़ार किलोमीटर अपने सर पर गृहस्थी लादे चल पड़ना उनको डराता नहीं. डरते तो हम हैं उनकी भीड़ से, जिसे देख उन पर हुए ज़ुल्म नहीं, बल्कि संक्रमण का खतरा पहले दिखता है. वे क्या करते, जिन्हें पता चला कि कल सुबह न फुटपाथ हमारा होगा, न कोई ठेकेदार हमें दिहाड़ी देगा. उनके पास जलाने के लिए नहीं था कोई दिया और नहीं थी बजाने कोई थाली. उनके सामने सैंकड़ों किलोमीटर लम्बी सड़क थी, जो उन्हें गांव तक पहुँचा सके शायद.

ऐसी ही किसी सड़क की यात्रा करते हुए मैं जम्मू कश्मीर से मध्यप्रदेश पहुँची होंगी. चार साल की थी मैं तब. मेरा जन्म कश्मीर में होने से कश्मीरी भी कहलाउंगी, माँ मिथिलांचल और पिता के भोजपुरी होने के नाते ठेठ बिहारी कहलाने में कोई झिझक नहीं है मुझे. बचपन का वक़्त जम्मू के रजौरी जिले में बीता, जिसकी स्मृतियाँ ज्यादा साफ़ नहीं हैं ज़ेहन में. कालाकोट नाम की जगह पर कोल् माइंस में काम करते थे पिता. वे कोयला खदानों में उत्पादन और सुरक्षा के काम देखते थे. फर्स्ट ऐड और रेस्क्यू में एक्सपर्ट होने के कारण देश की कई खदानों में जब कभी आग लगी तो वहाँ भी अपने अनुभव की वजह से कितनी ही जाने बचाई भी होंगी.

हमने जम्मू से जब पलायन किया तो अविभाजित मध्य प्रदेश, यानी वर्तमान छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले की वेस्ट झगराखंड कॉलेरी में, खोंगापानी नाम की जगह पर रहते हुए जीवन की लम्बी स्मृतियों को बटोरा. केंद्रीय विद्यालय झगराखंड की कक्षाओं की खिड़कियों से हसदेव नदी का किनारा साफ़ दिखता था. स्कूल से घर तक का रास्ता स्कूल बस से लगभग पंद्रह किलोमीटर रहा होगा. अगर आपका बचपन रोज़ ही तीस किलोमीटर घने जंगलों, खतरनाक और रोमांचक घाटियों के बीच से निकलता हो, तो उसकी छाप तो चढ़ ही गई होगी नाज़ुक मन पर कहीं. घर से स्कूल बस तक पहुँचने का रास्ता रोज़ ही कोयले से लदी माल गाड़ी के खिसकते डिब्बों के नीचे से बस्ता टाँगे दौड़ कर निकलने के अभ्यास का हिस्सा था. कभी कभार तो पटरियों पर खड़े इंजन के डिब्बे से उतर कर अपने घर पहुँचने का एडवेंचर आज रोमांच के सभी क्षणों पर भारी रहता है. इस घर में रहते हुए हम इतनी बड़ी ज़मीन के मालिक थे कि पापा सीढ़ीनुमा खेती भी कर लिया करते थे. गर्मी की छुट्टियां बीही के पेड़ पर लटकते हुए निकल जाती थीं.

अंडरग्राउंड माइंस में काम करने जाते मजदूर, कमर पर बॅटरी बांधे, गम बूट, टोपी, टॉर्च और एक लाठी के सहारे ही रोज आठ नौ सौ फ़ीट नीचे खानों में उतरते हुए इतने सहज रहते थे जैसे कि मॉर्निंग वाक पर निकले हों. हाँ, वे शायद मॉर्निंग वॉकर्स ही रहे होंगे, जो एक अंधी खाई में आँखों से नहीं, अपनी लाठी से अपना रास्ता टटोलते हुए उतरते थे. आठ दस घंटे में पचास-पचास किलोमीटर के इलाके में विस्फोट कर कोयला निकालते थे. क्या ये कोरोना उनको उतना ही डराता होगा जितना हमें डरा रहा है?

वहाँ मजदूरों में (जिनको लोडर्स कहते थे) ओवरटाइम का इतना उत्साह था कि रोज़ ही सोलह घंटे काम करने की होड़ लगी रहती थी. पगार तो उन्हें बहुत अच्छी मिल जाती थी लेकिन, शायद ही कोई मजदूर रहा हो जिसके बच्चों ने स्कूल में पैर रखा होगा. क्या अब वहाँ के लोग लॉक डाउन के नियमों को समझ रहे होंगे? मैं उन मजदूरों की प्रतिनिधि तो नहीं बन सकती, लेकिन मुझे उस जीवन को इतने नज़दीक से देखने और जीने का मौका मिला. 3 से 4 रिक्टर स्केल के भूकंप का झटका हमारे लिए नियमित दिनचर्या का हिस्सा था. कोलेरी के इलाके में लोगों का साफ़ रंग भी अच्छा खासा दब जाता था. दबे हुए सांवले रंग के लोगों के चेहरे पर कोयले की एक परत टेलकम पाउडर का काम करती रहती थी. मुझे इस कालिख के सौंदर्य को स्वीकारने में बहुत उम्र लग गई. क्योंकि लड़कियों में गोरे रंग के प्रति काम्प्लेक्स कूट कूट कर भरा जाता है. हमारा समाज गोरी लड़कियों को अब भी आश्चर्य चकित हो कर ही देखता है. गोरे रंग के लोगों के अंदर आत्मविश्वास बाई डिफ़ॉल्ट पाया जाता है.

रसोई गैस उस समय हमारे घर तक आई नहीं थी. लेकिन ईंधन के लिए कच्चा कोयला सभी को उपलब्ध था. कच्चा कोयला तब तक ईंधन नहीं बनता, जब तक उसको पकाया न जाए. पकाने के लिए मेरी माँ कोयले के होलिका जितने ऊँचे ढेर को आग में झोंक देती थी और फिर उसके बाद तैयार ईंधन को एक कोठरी में रख देती थी. इस तरह से हमें कोयले को घरेलु ईंधन बनाने का विज्ञान भी समझ आया. उन दिनों पिता के धैर्य को पर्वत की तरह अडिग देखा और माँ को सबसे सशक्त महिला की भूमिका में. बड़ी तलब है मुझमें सिगड़ी के जलते कोयले की खुशबू और खदान का तीनो टाइम बजने वाले सायरन को सुनने की. हमारी सड़कों पर धुल की काली धुंध देखने की ललक मुझ में बहुत बाकी है अभी. मैं क़ित-क़ित, कंचे, गिल्ली-डंडा, टीप रेस और पतंगें उड़ाने की प्रतियोगिता में मेरी बारी आने का इंतज़ार अब तक भी कर रही हूँ.

मेरे शहर जबलपुर में भी कोरोना के मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं और समूचा विश्व जब लगभग लॉक डाउन से एक साथ प्रभावित हो गया है, तो न केवल मानव मन की असुरक्षाएं एक हो गईं हैं बल्कि वैश्विक समानता का वक़्त भी आ गया है. ऐसा भ्रम सा प्रतीत होता है शायद कि हथियारों की होड़ से इतर, हम जीवन को जीने का सही तरीका कविता, कहानी, चित्र, संगीत और किताबों में फिर ढूंढने लगे हैं.

ऐसे ही वक़्त में कुछ यूँ भी हो रहा है कि वे सभी सवाल रह-रहकर उभरते हैं, जो समाज अक्सर पूँछता रहा कि-
पेंटिंग तो अच्छी बनाती हो, पर काम क्या करती हो?
कहीं जॉब क्यों नहीं कर लेती?
या तुम्हारे पति ही कोई नौकरी कर लेते?

अब न जाने कब तक हम सब पेंटिंग करते रहेंगे! अब अपने घरों के अंदर बैठे चित्र ही तो बना रहे हैं. हालांकि इससे समाज में चित्र की भूमिका और चित्रकार के महत्व को समझने में कोई ख़ास मदद नहीं मिलेगी. चित्रकार का संघर्ष सदा से अनामंत्रित और गैरज़रूरी रहा है. ऐसे में आफत तब और बढ़ जाती है, जब चित्रकार बनने जैसा कोई ख्याल किसी लड़की के जेहन में आ जाए.

बारहवीं करते करते स्कूल की ही ड्राइंग टीचर (अनीता डोंगरे मैडम) ने बताया कि तुम जबलपुर जाओ और वहाँ पेंटिंग में ही पढ़ाई करो. जबलपुर पहुँच मानकुंवर बाई महिला महाविद्यालय से पेंटिंग की पढ़ाई करते हुए होम साइंस हॉस्टल में जिया जीवन सबसे यादगार सबक में से एक रहा. पेंटिंग में एम ए किया. यह सोच ही रही थी कि अब आगे क्या? तभी नियति ने विनय से मिलवाया और अठारह साल से हम साथ हैं. विनय से मिलने के बाद कुऍं के मेढक को बाहर निकल दुनिया देखने का मौका मिला. वह भी विनय जैसे खड़ूस, दढ़ियल लेकिन एक कमिटेड आदमी की संगत में. 


ये आदमी इतना तल्ख़ आलोचक है कि आपको कभी चने के झाड़ पर चढ़ने नहीं देगा. बल्कि ऐसा आइना सामने रख देता है कि आप दुबारा से स्वर और व्यंजन पढ़ने लगते हैं. ऐसे में मेरे जैसी लड़की की छठी इंद्री अपना काम बहुत ईमानदारी से कर रही थी. विनय की संगत का जितना हो सकता है, उतना लाभ मिला. वर्ष 2002 में हबीब तनवीर के नाटकों के होर्डिंग्स मैंने पेंट किए. नाटक, गोष्ठियां, कविता, चित्र मेरी ज़िंदगी में अपना घर बनाते गए. एक साल बाद ही 2003 में मजदूर दिवस पर मेरे चित्रों की एकल प्रदर्शनी लगी जो कि विवेचना रंगमंडल और दादा अरुण पांडेय के सहयोग से सफल ही कही जा सकती है.

मैं और मेरी कलायात्रा दीवारों पर, कैनवास पर, कागज़ पर, कविता की किताबों के सहारे आगे बढ़ रही थी. सबसे पहली पुस्तक, जिसको मैंने एक रात में ही शुरू और ख़त्म कर दिया था, 'कुफ्र'थी. मेरी नज़र में किसी भी विषय पर लिखा गया कोई भी साहित्य तब तक अधूरा होगा, जब तक की उसको किसी स्त्री की दृष्टि से न देखा गया हो. कुफ्र पढ़ने के बाद असर ये हुआ कि अब मैं कुछ भी पढ़ने को लेकर बहुत चुनिंदा हो गई हूँ. मुझे पाब्लो नेरुदा की रुकी पृथ्वी से माच्चु पिच्चू के पत्थर, बर्तोल्त ब्रेख्त की लघु कविताएं, सआदत हसन मंटो, कात्यायनी की चंपा, पाश की प्रेम, विद्रोह में डूबी कविताएं, रविंद्रनाथ टैगोर की 'नौका डूबी'को बार बार पढ़ना अच्छा लगता है. जो फिल्में मुझे भावुक कर देती हैं, उनको भी एकांत में फिर देख लेने में चूकती नहीं.

मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी मामूली विषय के महत्व को सबसे अच्छी तरह से स्थापित करने में फिल्मे अधिक निपुण होती हैं. मुझे तो फिल्में अपना किरदार ही बना लेती हैं. जो भी फिल्म मुझे प्रिय रहती है, मैं स्वयं उनके दृश्यों को अपने जीवन के कुछ पलों में जीने लगती हूँ. फिल्मों के बहुत सारे गीतों को गुनगुनाते हुए, बहुत से अप्रिय और बेहूदा मौसमों को तमीज से किनारे किया है. कई बार मुहावरों की जगह मैं फ़िल्मी गीतों की लाइन बोल पड़ती हूँ. अच्छी फिल्मे देखने का चस्का बहुत है पर आम तौर से मैं फिल्म तब तक नहीं देखती, जब तक कि एक ही सीटिंग में पूरी फिल्म देखने का वक़्त न निकले. (दबी हुई इच्छा तो एक फिल्म बनाने की है ही) 

अंग्रेजी फिल्मे देखने का लालच मुझे इसलिए भी है कि हर दृश्य किसी वेल कंपोज्ड कैनवास की तरह नज़र आता है. उनमें प्रकाश का अचूक इस्तेमाल होता है. फिल्मों को लेकर मेरे बेटे बिगुल की असाधारण पसंद मुझे हैरान करती है. बिगुल बहुत पहले ही हिंदी सिनेमा के लिए पार्टिकुलेट हो गया था. आने वाले समय में कोरोना की विभीषिका को बेहतर तरीके से दर्शाने के लिए फ़िल्में बड़ा काम करेंगी, ऐसा लगता है मुझे.

मैंने लीगल जर्नलिज़म करते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायलय की मर्यादाओं को भी करीब से समझा. जुडिशल रिपोर्टिंग करते हुए मैं समझ गई कि कानून अँधा ही होता है, वकील वह पढ़ा लिखा चश्मा होता है, जो न्यायाधीश को न्याय के लिए ज़रूरी बिंदुओं को दिखाता है और तब तक दिखाता है, जब तक न्याय की पट्टी न उतर जाए. साल साल भर से लापता लड़कियों को पुलिस तब झट से ढूंढ निकालती है, जब कोर्ट में हेबियस कार्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका) लग जाती है. कई वर्ष पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के इंटरव्यूज देखते हुए न्यायधीशों के नज़रिये को एकदम अलग पाया. जस्टिस के के लाहोटी की एक प्रेस कांफ्रेंस में मेरे साथी पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आपको नहीं लगता कि महिलाओं के लिए बने कानूनों का बड़ा दुरूपयोग हो रहा है? उन्होंने कहा कि "यह सोचना कि क़ानून का दुरूपयोग हो रहा है उससे पहले यह सोचिए कि क्या अब तक कानून वाकई में ज़रूरतमंदों तक पहुँच पाया है."

इस सब दुनियादारी के साथ मशक्कत करते हुए पेंटिंग करना कभी नहीं छूटा. प्रदर्शनियों का हिस्सा मैं बनी रही. एक दिन स्टूडियो में किताबों का शेल्फ ठीक करते हुए समकालीन कला की एक किताब के कवर पर ए रामचंद्रन की पेंटिंग देखी, तो थोड़ा सा विश्वास हो चला कि अमूर्तन से लदे-फदे चित्रों के इस भारतीय चित्रकला के युग में फूल, पत्तियों और मानव आकृतियों की कहानियां अब भी अपना महत्व रखती हैं. मुझे एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग करना भी कम रोचक नहीं लगता था. लेकिन मुझको छूने वाले पात्र और उनका जीवन कैनवास पर उतारने के लिए आकृतियों का पीछा करना मैं कभी छोड़ नहीं सकी. रामचंद्रन को और जानने की इच्छा ने पीएचडी स्कॉलर बना दिया. बहुत से शीर्ष और वरिष्ठ कलाकारों, लेखकों, कवियों और चर्चित हस्तियों की संगत उनके अनुभवों, सुझावों और निर्देशों को प्राप्त करना मुझे बहुत सरलता से मिल गया. मैं बहुत जल्दी ही कला की प्रशंसक बन जाती हूँ, बावजूद इसके मैं बार बार लौट कर रामचंद्रन के चित्रों को ही ताकती हूँ. मैं रामचंद्रन के जीवन और उनकी कला की यात्रा से जल्दी ट्यून्ड हो जाती हूँ. मुझे गाहे बगाहे उनका समय और निर्देश मिलना अपने लिए उपहार की तरह देखती हूँ. जल्द ही पीएचडी सबमिट करना होगा, ऐसा अलार्म बज चुका है.

विनय के साथ जितना जिया, उसमें यह तो समझ ही गई कि इस आदमी की जड़ें जितनी दिख रही हैं, उससे कहीं अधिक गहराई तक छूती हैं पृथ्वी को. अतुलनीय अभावों और सीमित संसाधनों के साथ आरम्भ हुआ इत्यादि आर्ट फाउंडेशन का रोमांचकारी सफर, जिसमें पिछले चार सालों से युवा कलाकार, कला विशेषज्ञ, समीक्षक, नाटक, संगीत, नृत्य, साहित्य, कविता, सामाजिक विषय पर संगोष्ठियां, थर्ड जेंडर को मुख्य धारा से जोड़ना और ज़रूरत पड़ने पर रैली और धरने पर भी बैठ जाना शामिल हो गया. जबलपुर आर्ट लिटरेचर एंड म्यूजिक फेस्टिवल कई मायनों में देश का प्रतिष्ठित आयोजन बन चुका है. इसका निष्पादन करते हुए कला और कलाकार का समाज में योगदान क्या हो सकता है, उसको लेकर कमोबेश मन को थोड़ी तसल्ली सी होती है.

अपने आरंभिक जीवन के अनुभवों ने मुझे जहाँ दृढ आकार दिया, वहीँ बाद के अनुभवों से दुःख और संघर्षों के महत्त्व को समझा. संवेदनाओं के रस को बूंद बूंद पीना सीखा. सबसे अधिक सीखा अगर तो लड़की होने की अतिरिक्त उलझनों से, जिनको जल्द ही ताकत भी बना लिया मैंने. अब मुझे कोई लाज नहीं आती यह सुन कर कि तुम लड़की हो, इसलिए तुम्हारा यह काम हो जाता है. वही लोग पहले कहा करते थे कि तुम लड़की हो, इसलिए तुमसे नहीं होगा. लडकियां बहुत उम्र तक मासूम रह जाती हैं. प्रेम में पगी लडकियां ताउम्र हसीन दिखती हैं. लड़कियों का मन आयल पेंट की तरह होता हैं, जल्दी सूखता नहीं. उनको बहुत इत्मीनान से हैंडल किया जाना चाहिए, उनके अंदर प्रेम कभी कम नहीं हो पाता. उसी तरह, जिस तरह बढ़ता है उनका साहस.

कोरोना काल में अपने और विनय की आरंभिक दिनों की प्रेम कहानियां याद करते हुए कई बार भावुक हो जाती हूँ. लौट कर बिगुल का चेहरा देखती हूँ, तो लगता है कि अब समाचार चैनलों का गलीज़ चेहरा देखने का वक़्त नहीं बचा है. सारा समय पेंटिंग, प्रेम, परिवार, किताबों और कविताओं में ही कम लगता है. मैं कोरोना की वजह से मिले इस एकांत को अपने नास्टैल्जिया को जीने के अवसर की तरह मान रही हूँ. इस कोरोना एकांत के पहले हम सब एकांत ही मांग रहे थे, अपने थके हुए वक़्त में. अब जब सबसे आगे दौड़ने की होड़ ही रुक चुकी है, तो हम कहाँ जाएंगे? हमने तो यूँ भी चित्र बनाने के लिए ही एकांत माँगा था. पूर्व कोरोना काल ने हमें भौतिक सुखों की मायावी दुनिया को जीना सिखाया और वर्तमान हमें भौतिकताओं से दूर करने के लिए तैयार कर रहा है. कोरोना काल से प्राप्त शिक्षा उत्तर कोरोना काल में कितनी बचेगी, यह कह सकना जल्दबाजी हो जाएगी.
 

१८
नरेंद्र पाल सिंह
II बनना नए मानव भूगोल का II

आज लगभग सभी देश एक अज्ञात संक्रमण से प्रभावित हैं, कहने को उसे नाम दे दिया गया है. समस्त मानव जाति इस बीमारी के कारण त्राहि त्राहि कर रही है. इस समय सिर्फ़ और सिर्फ एक ही रास्ता बच गया है, एकांत, एकांत और सिर्फ एकांतवास.

स्वयं को एकान्त में रखना ही इलाज है, पर दुर्भाग्य से इस तरह के इलाज की आदत अमूमन इंसानों को नहीं है. वे इस इलाज से ही छटपटा रहे हैं, गोया यह इलाज ही उनकी असल बीमारी हो. पहली बार लग रहा है कि हम सब कितने बेचारे और कितने निर्भर हैं. हम इस भागदौड़ और अव्वल रहने की धुन में केवल अपने साथ रहना ही भूल गए है. शायद यही सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी भी है. ग्रीक ट्रेजेडी से लाखों-लाख गुना बड़ी, समूचे विश्व में अचानक घट रही ट्रेजेडी.

इस वक़्त सिर्फ धैर्य रखना जरुरी है, संयम से एकाग्रचित्त होकर, कुछ भी कार्य करना उचित होगा. मैं अपनी आदत के तहत रंग रेखाओं से खेलने लगा. इंसानों के अन्दर जीवन के कई अनछुए पहलू होते हैं. जाने अनजाने में जो वक़्त ने निश्चय किया है, उसे हम सब को स्वीकार करना चाहिए. ना कि उतावलेपन में आकर अपना, अपने परिवार तथा समाज का अहित कर बैठें. समय की तेज चलती अंधड़ ने आज दुनियाभर के इंसानों को मौत की लहरों पर बैठा दिया है. संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्तियों के लिए यह बड़ी जिम्मेदारी का वक़्त है. हम सबके रचनात्मक काम को आने वाला समय एक दूसरे इतिहास की तरह देखेगा. निश्चित ही हमारे सृजन में यह आमूल-चूल बदलाव का ठहराव है. हमें ठहरकर नए सिरे से सोचना होगा, इस जीवन को, इसकी क्षणभंगुरता को, रंगों को, लय को और समूची मानवीयता को.

इस भीषण दौर के पहले हम सब उन कार्यों के बारे में सोचते रहते थे कि थोड़ा समय होता तो ये किया जा सकता था. देखा जाए तो आज मानव जाति के पास और कुछ नहीं बचा है, सिवाए जीवित रहने तक के समय के. समय की इतनी सारी सम्पति इसके पहले मानव के पास कभी नहीं रही. अब मानव की अपनी इकाई ही उसकी पूरी दुनिया है. अपने से बाहर उसके पास अब क्या बचा है. जो बचा भी है, उसे छूने, उसका उपभोग करने में वह डरने लगा है. यह कोई मामूली दृश्य नहीं है. यह विश्वव्यापी नया मानव-भूगोल है.

इसी समय को पाने के लिये बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ज्ञानी नाना प्रकार के उपाय करते रहें हैं. आज जब नियति ने यह सबकी झोली में डाल दिया है, तो पूरी व्यवस्था, वैज्ञानिक चेतना और मानवीय व्यवहार इस झोली को खाली करने के भरपूर प्रयासों में जी-जान से जुटी हुई है.

मैंने इन दिनों बहुत मित्रों से पूछा कि आपने अपने जीवन में केवल अपने साथ कितना समय पहले गुजारा था. अधिकांश लोगों को पहले इस स्वतः साथ का अर्थ ही नहीं पता था. अब वे इसे शायद नकारात्मक तरीके से महसूस कर रहे हों. पहले कुछ लोगों से मैंने यही सवाल उनके अंतिम वक़्त में पूछा था, तब उनकी आँखों में पश्चाताप एवं अफ़सोस के आँसू थे.

आम तौर पर हमारे आधुनिक कलाकार गाँव से आते हैं, लेकिन महानगरों की चकाचौंध में उनका गांव से रिश्ता लगभग सतही हो जाता है. एक कलाकार के रूप में जब भी मैं अपनी तीन दशकों की कला यात्रा का विश्लेषण करता हूँ, तो मुझे लगता है कि मेरा गांव से रिश्ता बहुत गहरा और अर्थपूर्ण है. भले मेरा स्टूडियो दिल्ली जैसे महानगर में है, पर मैं अपने बिहार के गांव कोनंदपुर से केवल आत्मीय रिश्ता ही नहीं ,बल्कि उससे सक्रिय रचनात्मक सम्बन्ध बनाये रखता हूँ. मैंने कुछ ऐसे ही साधन, औज़ार या यंत्र चुने हैं, जो कभी हमारे ग्रामीण जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा रहे कि शायद उनके बिना रहने की कल्पना भी नहीं की गयी होगी. पर बाद में वे सब कब धूमिल होते गए, उसकी सुध भी किसी ने नहीं ली.

मेरे चित्र संसार में ग्रामीण जीवन केवल सजावटी आकार नहीं है. मेरी कोशिश रहती है कि आधुनिक उपकरणों के दबाव के बावजूद उस जीवन की सार्थक सचाइयों को सामने ला सकूँ. मैं गांव की धीरे-धीरे गायब हो चुकी और गायब हो रही संस्कृति को अपनी एक विशेष चित्र-सीरीज में प्रस्तुत करना चाहता हूँ. मैं एक आधुनिक कलाकार हूँ, पर मेरी रचनात्मकता का एक बड़ा स्रोत आज भी ग्रामीण यथार्थ है.

हमारा देश हमेशा से समृद्ध संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है. सदियों से पूरी दुनिया में भारत, संस्कृति और सभ्यता का परिचायक रहा है. हाल के दशकों के आधुनिक दौर में सामाजिक सरोकार तथा जीवन मूल्यों मेँ बहुत ज्यादा बदलाव आया है. मैं एक कलाकार हूँ. मेरा दायित्व आम जन-जीवन, समाज तथा प्रकृति से जुड़े सभी बदलाव को देखने-परखने से ज्यादा बनता है. मैं अपने आस पास होने वाली सभी घटनाओं को आत्मसात करता हूँ. यही वज़ह है कि मेरी चित्रकला में आम जनजीवन से वास्ता रखने वाली घटनाओं का जीवन्त रूप दिखता है.

पहले घरों में इस्तेमाल होने वाले बर्तन मिट्टी, कांसा, पीतल के होते थे, आज प्लास्टिक तथा स्टील ने जगह ले ली है. जिससे इन रोजगार से जुड़े लोग, जैसे प्रजापति, कुम्हार अपना व्यवसाय छोड़ चुके हैं. इस आधुनिक दौर में आवागमन के साधन तथा संसाधन दोनों बदल गए. पहले डोली, पालकी, बैलगाड़ी, तांगा इत्यादि हुआ करते थे. किन्तु आज के दौर में सभी विलुप्त हो चुके हैं. इनकी जगह मोटर, कार, मोटरसाइकिल, रेलगाड़ी, हवाईजहाज जैसे संसाधन का दौर आ गया है. हमारे जीवन में बहुत प्रमुख स्थान हमेशा से मनोरंजन का रहा है. हम लोग बचपन से हमारे जीवन में नाटक, नौटकीं, बाइस्कोप या रेडियो के अभ्यस्त रहे हैं. अचानक यह सब बदल गया. तकनीकी विकास के दौर में खिलौने की तरह मोबाइल आ गया.

जीव जंतु, पशु, पंछी मेरा प्रिय विषय रहे हैं. इनके अतिरिक्त मिट्टी से जुड़े रोजगार, व्यवसाय तथा जीवन शैली में मेरी रुचि रही है. हमारी आने वाली पीढ़ियों को यहाँ की समृद्ध संस्कृति तथा इतिहास को देखने समझने के लिए बहुत कुछ धरोहर है. मैं अपनी कला यात्रा को अभी बहुत आगे तक जारी रखना चाहता हूँ. जिससे होने वाले बदलाव को अपने चित्रों में दर्ज कर सकूँ. मानव जाति, हमारी समृद्ध संस्कृति, आम जनजीवन और इस महामारी के बाद के बदल चुके जीवन को दिखा सकूँ.



१९
सुमित मिश्रा
II एकांत के हवन में सामग्री का अभाव II

लॉक डाउन शब्द नहीं, आतंक है, भय है और प्रहार है. अलग-अलग वर्ग और मनोदशा पर अलग-अलग तरह से. मैं जिस कार्यक्षेत्र से सम्बंधित हूँ (फ़िल्म और टेलीविजन) उसमें दो वर्ग हैं, एक जो रचनाशील हैं और एक जो मेहनतकश हैं. हमारी कल्पना को आकार देने वाले जो सबल कंधे हैं, वो अक्सर आर्थिक रूप से दुर्बल होते हैं. इनकी आमदनी का स्त्रोत रोज़ की दिहाड़ी होती है. ये लोग अथक परिश्रम करके भी इतना नहीं कमा पाते हैं कि एक महीना भी निश्चिन्त हो बैठ कर खा सकें. इस लॉक डाउन में अनायास ही उनके बारे में सोचने पर विवश हो जाता हूँ. हमारे लिए तो एक रचनात्मक जुनून है. लेकिन वह बड़ा वर्ग, जिनके लिए फ़िल्म निर्माण से जुड़ना सिर्फ़ एक मज़दूरी है, उनके लिए यह समय आर्थिक संकट का आतंक लेकर आया है. भविष्य की अनिश्चितता का भय है और रोज़गार पर प्रहार है. कब तक सब बंद रहेगा, नहीं मालूम. लेकिन खुलने के बाद भी स्थिति सामान्य होने में कितना वक़्त लगेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है.

उनकी पीड़ा को सिर्फ़ अपने कमरे की खिड़की पर खड़े हो कर महसूस कर सकता हूँ. इस अपाहिज व्यथा का कोई हल नहीं है मेरे पास. असहाय महसूस करता हूँ खुद को, शायद पहली बार.

इस व्यथा के अलावा एक और व्यथा है, व्यक्तिगत और रचनात्मक व्यथा. सच कहूँ, अगर पाँव के नीचे ज़मीन और सर के ऊपर आसमान ना हो तो ख़ुद के होने का एहसास नहीं होता. शहर के होने का एहसास भी शहर में ही होना है. किसी के सर के ऊपर और किसी के पैरों के नीचे बने कमरे को में शहर नहीं मानता. अफ़सोस इन दिनों शहर में नहीं हूँ. अपने कमरे में हूँ और इस आरोपित एकांत की अवहेलना भी नहीं कर सकता. मेरे लिए एकांत एक मानसिक अवस्था है, जिसे मैं हमेशा अपने साथ लिए घूमता हूँ, भटकता हूँ.

मेरे लिए भीड़ का मतलब होता है भीड़ का हर एक चेहरा, एक मुकम्मल किताब और भटकना मेरे लिए एक अनुभव. अनुभव ख़ुद से खुद तक पहुँचने का. एकांत और अकेलेपन के फ़र्क़ को समझता हूँ. रचनाशील बने रहने के लिए एकांत चाहिए. अकेलापन अवसाद की तरफ़ ले जाता है और एकांत साक्षी भाव की तरफ़.

रचनाशीलता एक प्रक्रिया है, जिसके लिए विषय, भाव, रंग और आकार को आत्मसात् करना होता है. हर क्षण परिवर्तित होते हुए आसमान को देखना होता है. हवाओं के घटते-बढ़ते दबाव को महसूस करना होता है. हँसी और अट्टहास, शोर और कोलाहल के फ़र्क़ को समझना होता है. सच कहूँ तो कॉफ़ी हाउस में बैठ कर एक ही प्याली के हर घूँट का फ़र्क़ भी समझना होता है. इतना संवेदनशील और इतना अनुभवी बनना होता है एक रचनाकार को. और ये सभी अनुभव मुझे भीड़ में मिलते हैं. ये सब मुझे खुले आसमान के नीचे रेत या ज़मीन पर नंगे पाँव चलते हुए मिलते हैं. मुम्बई गुजरात हाईवे पर ड्राइव करते हुए और जितनी रफ़्तार से मैं आगे जा रहा होता हूँ, उतनी ही रफ़्तार में लहलहाते पेड़ो का हरापन पीछे की तरफ भागता रहता है. जीवन के अनुभव अमूमन विपरीत दिशा में ही भागते रहते हैं. उन्हीं के मध्य में कोई एक बिंदु, कोई एक रेखा, कोई एक रंग, कोई एक आकार, हमारे सृजन के लिए ठिठका हुआ रहता है. हम कभी समय चुराते हैं और उसे अपनी रचनात्मकता में दर्ज कर देते हैं. एकांत में हवन किया जा सकता है लेकिन उसमें आहुति देने के लिए सामग्री तो इन्हीं सब अनुभवों से एकत्रित करना होती है.

सोच समग्र होनी चाहिए, किस्तों में नहीं. जैसे चित्र और धारावाहिक में फ़र्क़ होता है. वही फ़र्क़ समूचे आसमान को निहारने में और अलग-अलग कमरे की खिड़की से उस खिड़की भर आसमान को निहारने में होता है. मेरे लिए लॉक डाउन या सामाजिक दूरी बिलकुल रचनात्मक नहीं है, क्योंकि मैं कलाकार हूँ, शिल्पी नहीं. सबसे पहले हमें हुनर और कला के फ़र्क़ को समझना होगा. कला एक स्वभाव है जबकि हुनर एक तकनीक है. स्वभाव को बचाए रखने के लिए स्वभाव में ही बने रहना होगा. स्वभाव से अलग होना मतलब स्व का अभाव. इस अभाव में रचना नहीं हो सकती है.

बहुत पहले से,लगभग तब से जब आत्मपरिचय हुआ था, यह मेरे स्वभाव में है कि रचनात्मक बने रहने के लिए भीड़ में होना चाहिए, जिसमें एकांत की साधना कर सकूँ मैं. इंसानों की भीड़, चिड़ियों का झुंड, लहरों का सैलाब, नरम-गरम रेतीली ज़मीन, हवाओं का बवंडर.... सब चाहिए मुझे. वह भी सहज प्राकृतिक रूप में, कृत्रिम नहीं. इनसे गुज़र कर, इनमें भटक कर मैं रचनात्मकता तक पहुँच पाता हूँ.

बचपन से ही पढ़ना मुझे पसंद है. ख़ुद की समृद्ध लाइब्रेरी भी है. लेकिन किताब के ढेर के समक्ष बैठ कर या ख़ुद को कमरे में क़ैद करके नहीं पढ़ सकता हूँ. पढ़ते वक़्त भी मुझे पृष्ठभूमि में खुलेपन का विस्तार चाहिए होता है. मुझे याद है बीएचयू का विशाल पुस्तकालय. देख कर लगता था मानो ख़ज़ाना हो. वहाँ से किताब निकाल कर अपने संकाय में बने एक छोटे तालाब के किनारे या मधुबन के खुले माहौल में बैठ कर ना जाने कितनी ही किताबें पढ़ी मैंने.

रचने के लिए भटकने की आदत भी बहुत पुरानी है. बचपन से किशोरावस्था (१९९६) तक मुज़फ़्फ़रपुर में था. एक हरे रंग की हीरो साइकिल, कपड़े का एक झोला, उसमें जलरंग, ब्रश और पेपर लिए भटकते रहता था. कभी बेला तो कभी चक्कर मैदान, तो कभी गंडक के किनारे.. जहाँ मन किया बैठ गया और कुछ बनाने लगा. कुछ सोचने, चिंतन का मन करता तो भारत जलपान में अकेले बैठ कर चाय पीते हुए और ज़्यादा कल्पनाशील हो जाता. उसके बाद बनारस आ गया. भटकने की प्रवृति और बढ़ गयी. यहाँ बीएचयू का मैदान था. वक्र गलियाँ थीं, जो जाड़े की सर्द रातो में पीली बुझती हुई रोशनी और धूँध के साथ छायावादी कविता बन जाती थी. यहाँ गंडक की जगह गंगा के किनारे ने ले लिया था और इन सब में भटक कर, थकने के बाद बैठने के लिए मणिकर्णिका घाट था. जहाँ सामने जलती हुई चिता को देखते हुए, पीठ पीछे डूबते हुए सूरज की लाल गरमाहट अपनी पीठ पर महसूस करता था. आधी रात के बाद अपने होस्टल के कमरे में दिन भर इकट्ठा किये हुए अनुभव को इत्मीनान से साग के पत्ते की तरह छाँटता था. पिछली सदी के ठेठ अंत में मुम्बई आ गया. 

अपनी कला को सिनेमा से जोड़ने. लेकिन भटकने की प्रवृति शांत नहीं हुई. यहाँ वक्र गलियों की जगह व्यस्त सड़कों ने ले ली और गंगा की जगह विशाल अरब महासागर. भटकने की इच्छा अभी भी शेष है. महानगरों में भटकता हूँ, खचाखच भीड़ में खोने के लिए और छोटे गाँव में ठहराव में होने के लिए. लगातार भटकता हूँ. मेरे लेखन, निर्देशन और मेरी कला के लिए मेरा भटकाव एक कसरत है, एक रियाज है. जीवित तो रह लूँगा, स्वस्थ नहीं रह पाऊँगा, भटकाव के बिना.
लेकिन अब...
अब थम सा गया हूँ.. बचत की प्रवृति नहीं रही शुरू से, भटकाव के दौरान जो भी अनुभव (राजनीतिक या भावनात्मक) इकट्ठे हुए, वे सब खर्च भी कर दिए. अब अगर ख़ाली हूँ तो खर्च भी नहीं कर सकता.

सच में थम गया हूँ मैं, थम गयी है मेरी रचनाशीलता. क्या करूँ, शिल्पी नहीं हूँ, कलाकार हूँ. भीड़ में भागने की आदत है. आसमान और ज़मीन के बीच रंगों, आकारों, ध्वनियों, भावनाओं में भटकने की भी आदत है. इन दिनों फेफड़े में थोड़ी अतिरिक्त हवा भर रहा हूँ और पंखों में अतिरिक्त जज़्बा.... एक नयी उड़ान के इंतज़ार में.
 

२०
शम्मा शाह
II बघवा रेंगाइले धीरे-धीरे II

यूं तो यह मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि वह जब भी आती है, उसका आना अप्रत्याशित ही होता है. हम उसके लिए कभी तैयार नहीं होते. पर अभी कुछ दिनों से सोच रही हूँ, तो लग रहा है कि जिन भी घटनाओं, चीजों की हमारे भीतर स्मृति बनती है, वे सब की सब अचानक ही होती हैं- अच्छी, बुरी दोनों.

कभी कई-कई दिन एक दिन का ही दुहराव लगते हैं. कभी तो पूरी जिंदगी ही सिर्फ दोहराव लगती है. हालांकि हम लेखक कलाकार तबियत के लोग अक्सर एक रूटीन, नीरस दिनचर्या से नहीं बंधे होते. छोटी छोटी और ढेर सारी ऐसी चीजें हो सकती हैं, जो हमें रमा ले, भिगा दें, खुश कर दें या फिर अवसाद से भर दें. ख़ुद मेरे साथ ही कितनी बार ऐसा होता है कि लगता है जैसे मन किसी झूले पर सवार है. अभी किलकारी मारता आसमान छूने को है और अगले ही पल लगता है धरती का गहन अंधेरा खींच लेगा उसे अपने भीतर... मन की यह जो अस्थिर, चंचल गति है, उसी के लिए मोटी-बा यानी मेरी माँ की दादी मालवी में कहा करती थीं- "मन के मते मत चालजे, यह तो पल-पल में बदले!"

बहरहाल, जीवन की इस औचक धर-पकड़ पर लौटती हूँ. कोरोना नामक इस अदृश्य, ताजपोश, विश्व विजय पर निकले जीवाणु की आहट दिसंबर से चीन -सिंगापुर से आ रही थी. आज जब हर घड़ी, दुनिया भर के लोग एक दूसरे से कनेक्टेड हैं, खबरे आग से भी तेज़ गति से हम तक पहुंचती हैं, फिर भी, यह ताज़पोश दुनिया के जिस भी देश पहुंचा, उसने उन्हें औचक ही पकड़ा - सोता हुआ. हम कलाकारों को यह मौका तक ना मिला कि 'ग़म को धुएं में उड़ाता चला गया'पंक्ति गाने का बंदोबस्त या शाम को कुछ ताज़ा अनुभव करने के लिए जरुरी चंद बूंदों का ही जुगाड़ बिठा पाते!

मुझे खैरागढ़, छत्तीसगढ़ की उमा बाई देवार (जो बहुत सुंदर गोदने गोदती थीं और गोदना बनाते हुए दर्द ज़रा कम हो, इसलिए साथ में गाना भी सुनाती थी) का सुनाया एक गाना अनायास याद आ रहा है, जो उन्होंने मुझे कभी मानव संग्रहालय में सुनाया था -

कर-गोरी भाजी रांधे, पढ़री मोर भाटा वो
सउरेंगी घेउ ला कड़काए, बोदेला डीरा
बघवा रेंगाइले धीरे धीरे, डोंगरी के तीरे
नई लगे माया वो शिकारी भैया?
बघवा रेंगाइले धीरे धीरे..

हिंदी में इसका अर्थ कुछ यूं होगा कि जो श्याम-वर्णी गोरी है, वह भाजी पका रही है, जो गौर वर्णी है, वह बैंगन बना रही है. जो सांवली है, वह घी तपा रही है. घर की छप्पर पर लौकी फल रही है. बाघ धीरे-धीरे पहाड़ी के किनारे-किनारे पानी पीने चला जा रहा है. ओ शिकारी, तुझे ज़रा भी माया-ममता नहीं? इस चित्र- सरीखे गाने में अचानक धर लिया जाएगा बाघ... या यह भी हो सकता है कि इस शिकारी पर कोई और निशाना साधे बैठा हो! कैसा बेलाग यह चक्र.., हर जीव, किसी अन्य जीव का भोजन!

मुझे लगता है कि जब-जब जीवन में हमारा सामना विकट परिस्थितियों से होता है, तो हम खुद को एक दोराहे पर पाते हैं. जहाँ से एक राह अपने भीतर की ओर मुड़ कर, पलटकर देखने की हो सकती है, कि जो हो रहा है,वह क्यों हो रहा है? उसका हमसे क्या नाता है? उसका इस सृष्टि से क्या नाता है, आदि को देखें और दूसरी राह वह, जो फौरन हमें इस स्थिति के लिए जिम्मेदार मुजरिम की जल्द से जल्द शिनाख्त करने को उकसाती है. एक तीसरी राह भी हो सकती है कि दुनिया में जो होता है, हो, मेरी बला से, किसी तरह से मैं अपने को सुरक्षित कर लूं. एक चौथा रास्ता भी हो सकता है कि, वही होगा जो मंजूरे खुदा होगा. आप हम कौन होते हैं कुछ करने वाले? सोचने पर हो सकता है और भी कई राहें दिखें. बात यह नहीं है कि इनमें से कौन सी राह सही है, कौन सी गलत. अलग-अलग परिस्थितियों में इन सभी राहों की अपनी कोई अहमियत हो सकती है. पर एक कलाकार के रूप में यदि मैं खुद को पहचानती हूँ, तब मेरी राह क्या हो सकती है?

बीमारी के दौरान लंबा समय अस्पताल में भर्ती रहने के बाद निर्मल जी (निर्मल वर्मा) घर लौटे थे. मेरी बहन राजुला उनसे मिली तो उन्होंने कहा था- "इन दिनों इसी बात को समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि यह बीमारी मेरे पास क्यों आई? यदि मैं इसे नहीं समझ पाया तो फिर उसका मेरे पास आना ही व्यर्थ हो जाएगा. जो कुछ भी घटता है उसका महत्व सिर्फ इस बात में है कि हम उसका क्या बना पाते हैं."निर्मल जी की यह बात तब भी हिला गई थी और आज भी झकझोरती है. लगभग अपनी मृत्यु शैय्या पर, हमारा एक लेखक, ख़ुद को मिले दर्द को, अज्ञात से मिली एक भेंट की तरह देख रहा है. वह उसे साधने, उससे कुछ गढ़ने की संभावना के बारे में सोच रहा है. यह कैसी अप्रतिम, कितनी ताकत देने वाली बात है. और साथ ही यह बात एक कलाकार, एक आत्म-चेतस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी क्या होती है, उसका भी बोध कराती है. 

मुझे निर्मल जी की यह बात इन दिनों लगातार याद आ रही है. जब राकेश जी ने इस लाक डाउन समय और उसके परिप्रेक्ष में एक कॉलम का ज़िक्र किया, तब मैं अपनी एक नितांत निजी उलझन का सामना करने की कोशिश कर रही थी. सोचा क्यों न इस कॉलम और इस अदृश्य आतंकी वायरस की घेरे बंदी के चलते मिले इस अवसर पर मैं आप सबके साथ इसका साझा करूं? शायद यहीं से मुझे कोई राह मिले. उलझन का स्वरुप कुछ यूं है कि, मेरा माटी और शब्द दोनों से ही बहुत करीबी नाता लम्बे समय से रहा आया है. यह दोनों मेरे लिए पहाड़ और समुद्र की तरह हैं. बचपन से ही मेरे लिए समुद्र का अर्थ था - ननिहाल और पहाड़ का अर्थ था- ददिहाल. 

उन दिनों साल में दो बार लंबी छुट्टियां हुआ करती थी. एक, दीपावली की और दूसरी गर्मियों की. एक में हम समुद्र के पास यानी मुंबई जाते थे और दूसरी में हम ददिहाल यानी अल्मोड़ा जाते थे. दोनों यात्राएं मुझे रोमांचित करती थीं. लेकिन, जिस तरह वे दूर-दूर और अलग-अलग थे, कुछ वैसी ही मेरे भीतर शब्दों और मिट्टी के भी साथ न हो पाने की दिक्कत है. जिन दिनों मैं मिट्टी में काम कर रही होती हूँ, उन दिनों मेरा लिखना पढ़ना लगभग बंद सा हो जाता है. मेरा समूचा आत्म एक तरह से आकार- निराकार- आकार की धुन्ध से घिरा रहता है. जब यह समय लंबा चलता है, उन दिनों तो यदि मैं कोई वैचारिक गोष्ठी आदि में भी जाती हूँ, तो वहाँ भी मुझे अपने सुनने के अनुभव को प्रश्न के या टिप्पणी के रूप में रखने में दिक्कत सी होती है. दिमाग का जैसे एक हिस्सा ही शिथिल पड़ जाता है. वैसे ही जिन दिनों मैं कुछ गंभीरता से लिख पढ़ रही होती हूँ

उन दिनों अक्सर मिट्टी में काम नहीं कर पाती. क्या आप यकीन करेंगें कि मेरी दादी और नानी आपस में कभी नहीं मिली और बचपन में आप समझ ही सकते हैं कि यह मेरे लिए इतना दुखदायी था. क्योंकि मैं तो एक ही समय पर दोनों जगह होना चाहती थी. अब तो दादा-दादी, नाना-नानी नहीं रहे. समुद्र को बेतहाशा प्यार करने वाली माँ भी नहीं रहीं. पर, अल्मोड़ा के पहाड़ और जुहू का समुद्र किनारा आज भी है. बचपन में इन्हें उठाकर एक दूसरे के पड़ोस में रख देने का ख्याल कितनी कितनी बार आता था. 1971 में जब पड़ोसी देश से हमारा युद्ध चल रहा था, तब मैं और माँ मुंबई में थे. मैं कोई पांच बरस की रही होंगी पर मुझे ब्लेक आउट, खिड़की के कांच पर पोते गए गहरे रंग, रह रह कर आती सायरन की आवाज और उड़ते लड़ाकू विमानों की गश्त हू-बहू याद है. मैं माँ की दादी की गोद में सिर छुपाकर कहती -'मोटी-बा, कई वेगा?'और वे कहती 'कई वेगा? तमारा डरवा से कई दुश्मन का विमान भागी जाएगा के?'मैं उन्हें कह नहीं पाती लेकिन मन में यही लगा रहता कि किसी तरह पापा और दादा दादी ,बाकी सब मुंबई आ जाएं.

कुल मिलाकर मेरे लिए समुद्र और पहाड़, दो ध्रुवों की तरह दूर-दूर रहे आए. कई फिल्मों में उन्हें साथ साथ देखा. लेकिन उनका साथ होना अवास्तविक और सिनेमा का हिस्सा ही बना रहा. दक्षिण कोरिया में संयोग से नाओरी नामक जगह, जहाँ पर सिरामिक के एक शिविर में 15 दिन रहना हुआ, वहाँ पहाड़ और समुद्र साथ साथ थे. मैं तो उनके इस असल में एक दूसरे के पड़ोस में होने से हतप्रभ रह गई थी. रात में लहरों के शोर से कभी नींद खुलती और उठ कर बैठो तो खिड़की के पार पहाड़ मां की तरह घुटने मोड़कर, पर सीधा सोता हुआ दिखता! अब जब कि मैं समुद्र और पहाड़ को असल में साथ-साथ देख चुकी हूँ, तब क्या शब्द और माटी को भी मेरे पास साथ-साथ नहीं आ जाना चाहिए?

दरअसल शब्द और माटी के आकार के बीच यह जो खाई सी खुदी हुई है, उसकी तह में और कई बातें भी होंगी. मसलन एक यही कि माटी में काम करने वाले अधिकांश कलाकारों का अव्वल तो पढ़ने-लिखने से ही नहीं के बराबर वास्ता है और यदि है भी तो वो अंग्रेजी भाषा के मार्फत है. दूसरी, जो शायद ज्यादा जटिल और बड़ी मुश्किल है, वह है जीवन के रोजमर्रा के छोटे-छोटे ब्योरे, मसलन, मछली वाले का छींकने की तरह आवाज लगाना, स्कूल बस के इंतज़ार में खड़ी बच्ची का अकेले नाचना और इन सब का मेरे मिट्टी के काम का हिस्सा नहीं बन पाना. मानव संग्रहालय और फिर बाद में मध्य प्रदेश ट्राइबल म्यूज़ियम बनने के दौरान दुर्गा बाई, खुमान सिंह, लोकनाथ जी, सहदेव भाई से जो कहानियां सुनीं वह भी जैसे मेरे मिट्टी के काम की दहलीज पर बैठी हैं, पर उस तरह मिट्टी में उतरती नहीं हैं. इसके चलते मैं अपने भीतर एक तरह की फाँक महसूस करती रहती हूँ. शब्दों में जब कहती हूँ तो मिट्टी की लोच, उसकी मुलायमियत, आकार के सौष्ठव का न होना अखरता है....

यूं तो मेरा स्टूडियो मेरा घर ही है, माटी काम हो या लिखना पढ़ना, सब घर से करती आई हूँ, वर्षों से. इसलिए अपने एकांत में रहने की ही आदी हूँ. इन दिनों होने को तो दिनचर्या में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है फिर भी, उषा, सुमन जी, संतोषी की मदद की बदौलत जो अपने लिए समय मिलता था, उसमें भारी कटौती हुई है. और फिर उन से होने वाली रोज की बातचीत से और ऐसे ही अन्य कई लोगों के वास्तव में दिखते-मिलते रहने से जीवन से जो एक जिंदा संबंध बना रहता है, उसकी कमी महसूस हो रही है. हम एकांत तो चाहते हैं, लेकिन अकेलापन तो हरगिज नहीं चाहते. वायरस ने जिस तरह से दूसरों को हमारे लिए और हमें दूसरों के लिए खतरा बना दिया है और हम सबको संक्रमण के संभावित स्रोत में बदल दिया है, वह अपने आप में बहुत अस्वाभाविक स्थिति है. जैसे-जैसे समय बीत रहा है, स्थिति की अनिश्चितता हमारी बेचैनी बढ़ा रही है. लगता है जैसे कहीं कोई टाइमर फिट कर दिया गया है, जो दिखाई नहीं दे रहा, पर जिसकी टिक टिक लगातार सुनाई दे रही है. 

लेकिन हमें यह भी नहीं पता कि टाइमर की मियाद कब तक है और टाइमर के अंत में क्या होगा. इससे बचने के लिए और भी अधिक सघनता से अपने और अपनों के साथ होने की कोशिश कर रही हूँ. अपनों में बहुत से जीवित लोग हैं, पर उनसे कहीं अधिक मृत हो चुके, पूर्वज बन चुके लोग हैं. इनमें से कितने तो ऐसे हैं, जो मुझसे एक शताब्दी पहले जन्मे थे. मसलन, ऐन्तन चेख़व को ही ले लीजिए. इसके अलावा इन दिनों ज्यां काक्तो,अब्बास किरस्तमी, कीज़लोवस्की की फिल्में, चित्र, कविताएं ,भी देख रही हूँ. जिन्होंने कई विधाओं में काम किया है और इनके काम मे कोई फांक नहीं दिखती. मैं यदि मोर्चे पर डटी रही तो क्या अपने भीतर की इस फांक को कुछ पाट पाऊँगी?


२१.
हुकुम लाल वर्मा
lIखेती और कला में एक जैसा आंनद है II

कला साधक ज्यादातर एकांत वासी होते हैं. कला साधना के लिए एकाग्रता उतनी ही जरूरी है, जितना एकांत. एकांत में ही कलाकार अपनी स्मृति में स्वच्छंद विचरण कर सकता है, इसी से उसकी कला स्मृति व विचार से होते हुए कैनवास में उतरती है. तालाबंदी से उत्पन्न हुआ एकांत कलाकार के लिए एक अवसर की तरह है. उसे अपनी स्मृति में गहराई से उतरने का मौका देता यह समय उसे अपनी लघुता का अहसास भी कराता है.

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी गर्मी का मौसम प्रकृति में कुछ विशेष तरह की विविधता लेकर आया है. ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति ज्यादा पारदर्शी हो जाती है. दूर तक परत दर परत दृश्य दिखाई देने लगते हैं. इस मौसम में कुछ वृक्षों में पतझड़ होता है, तो किसी में नए पत्ते, नए फूल खिलने लगते हैं. जिससे वातावरण सुहासित, सुगंधित हो वैभव का अकेलापन भी ले आता है. जैसे नीम कड़वा होता है पर उसकी फूल की खुशबू मनमोहक होती है. इस सुगंध से मधुमक्खी और भंवरा मदमस्त हो सुरमयी संगीत रचते हैं, जो शास्त्रीय संगीत सा कर्णप्रिय लगता है. बबूल और अर्जुन के वृक्षों में पतझड़ होने से उसमें रंगों की विविधता दिखाई देती है. करंज और पीपल में अभी-अभी बिल्कुल नए पत्ते खिले हैं, जैसे प्रकृति ने उन्हें धोकर-साफकर लगाया हो. मैं अपने कैनवास में रंगों को परत दर परत लगाता हूँ और स्मृति की परतें को जैसे उधेड़कर फिर-फिर बुनने लगता हूँ.

कृषि कार्य और कला कार्य मैं चुनौती, संघर्ष और आनंद एक से ही हैं. कलाकार रंग और रेखाओं से खेलता है तो किसान मिट्टी, बीज, हल से मेहनत कर फसल उगाता है. दोनों की प्रक्रिया सृजन की है. प्रक्रिया में तब तक ही आनंद है, जब तक परिणाम की फिक्र नहीं. लगभग बीस-तीस वर्षों से नागर बैला (हल) की जगह ट्रैक्टर में जुताई-बुवाई से लेकर, वह सब कार्य जो बैलगाड़ी से करते थे, वह ट्रैक्टर ने हथिया लिया है. मैं अपने कैनवास में चौडे ब्रश से रंगों को एक दूसरे के ऊपर परतों मैं लगाता हूँ, कहीं स्प्रे से रंगों को बहा देता हूँ, स्पेचुला (कलर फैलाने की पट्टी) से रंगों को पारदर्शी प्रभाव देने के लिए खींचकर निकाल देता हूँ. बोल्ड स्ट्रोक एक दूसरे के ऊपर गुत्थम-गुत्थी करते हुए उलझते और सुलझते हुए, कहीं विरोधी रंगों को जगह देते हुए, आपस में मिलकर रहते हैं. यह ठीक उसी तरह का है, जैसे मिट्टी तैयार करने के लिए, जैसी जरूरत हो उसी तरह से जुताई दाएं-बाएं, आगे-पीछे करने से जो दृश्य बनता है, वह मेरे कैनवास के बोल्ड स्ट्रोक की याद दिला देते हैं. नौ हल चलने के जैसा ट्रैक्टर एक साथ खेत में चौड़ी पट्टी बनाते हुए चलता है. ट्रैक्टर का हल और ब्रश की पट्टियां मुझे एक जैसी पट्टियां ही लगती हैं.

मेरे लिए मेरे खेत की भूमि विस्तृत कैनवास जैसी लगती है. जिसमें धान, सोयाबीन, अरहर, गेहूं व चना आदि फसलें बो देता हूँ. बुवाई करते समय कुछ बीज पीले, तो कुछ बीज भूरे होते हैं. फिर सभी फसलों में हरे-हरे कोमल पत्ते आ जाने से पूरा खेत हरे रंग से ढक जाता है. सभी तरफ हरा और सिर्फ हरा दिखाई देता है. धान पकने पर पूरे खेत में सभी तरफ सुनहरा पीला हो जाता है. कहीं-कहीं नीम बबूल के पेड़ों में हरा दिखाई देता है. खेतों से दिखते आसमान में नीले रंग के कई शेड्स उभर जाते हैं. धान की विविधता के लिए छत्तीसगढ़ बड़ा समृद्ध है. यहाँ धान की अनेक किस्में हैं. इसीलिए छत्तीसगढ़ को "धान का कटोरा"भी कहा जाता है. मेरे चित्रों में पीला रंग धान का ही प्रतिबिम्ब है.

पिछले वर्ष बारिश अनियमित रही. सावन-भादो में बहुत कम बारिश हुई और शीत ऋतु में लगातार हर हफ्ते वर्षा और ओलावृष्टि होने से दलहन फसलें बर्बाद हो गई. इस वर्ष का मौसम दलहन फसल के लिए कोरोना साबित हुआ. इन फसलों में ज्यादा पानी सहने की क्षमता नहीं होती. वर्षा इस गर्मी के मौसम में भी यदा-कदा हो रही है. इस समय खेती-किसानी में रबी सीजन के आखिरी चरण में खेतों की सफाई चल रही है. जिससे अगले सीजन की बुवाई में आसानी हो. 


देशभर में जब से तालाबंदी हुई है, तभी से रबी फसलों की कटाई-मिजाई शुरू की थी, जो अब लगभग पूर्ण होने को है. वैसे भी खेती का कोई न कोई कार्य साल भर चलते ही रहता है. कभी काम कम नहीं होता. गांव में इस तालाबंदी का आंशिक असर दिखता है. सभी ग्रामीण अपने कृषि कार्य को अंतिम रूप देने में लगे हुए हैं. यह तालाबंदी या आपदा की स्थिति तभी पता चलती है, जब किसी जरूरी कार्य से शहर जाना होता है. बाकी सभी जगह ग्रामीण जन भी मास्क लगाए या चेहरे में गमछा लपेटे दिखते हैं. जिससे पता चलता है कि कोई खतरनाक बीमारी का प्रकोप चल रहा है. 

यहां भी सड़कें, चौक-चौराहा सुनसान हैं. पर खेत-खलिहान में किसान मजदूर काम करते जरूर दिखते हैं. मेरा गांव बहुत छोटा है और आबादी भी बहुत कम. लगभग साढे तीन सौ लोग होंगे. करीब बीस वर्षों से यहाँ रहने वालों की जनसंख्या नहीं बढ़ी है. क्योंकि हर वर्ष लोग रोजगार की तलाश में शहर चले जाते हैं. शहर का आकर्षण, चकाचौंध,महानगरों का मायावी संसार, माल्स, रोशनी से चमकते बाजार और अनेक तरह की गैर जरूरी खरीदारी, यही जिंदगी की सच्चाई लगती है और इस होड़ में रेशम के कीड़े की तरह फंसा इंसान अपनी ही दुनिया में लाचार-बेबस दिखाई देता है. शहर को भोगने के बाद ही गांव के सादा जीवन के महत्व को समझा जा सकता है. शहरों में लगभग सभी जगह फ्लेटो में या दो-तीन कमरों के मकान में, लगातार रहने से जैसे इस तालाबंदी में जीवन कारागार की तरह हो जाता है. गांव इन सब परेशानियों से दूर है. यहाँ घर से निकलते ही खेत-खलिहान, तालाब, पेड़-पौधे, पक्षी के कलरव से मन प्रसन्नता और शांति से भरा रहता है.
ग्रामीण जीवन में किसान अपने ही खेत से उगाया हुआ गेहूं, धान, अरहर, व चना आदि खाने के लिए करीब एक साल से दो साल तक के लिए भंडारण करके रखता है. जो इस तरह की विकट परिस्थिति में काम आता है. शहरों में बड़े से बड़े व्यक्ति के पास ऐसी सुविधा नहीं है. वह बाजार पर निर्भर है और लगभग एक-दो महीने का ही राशन रख पाता है. गांव का जीवन निश्चिंत है, यह निश्चिंतता ही कला साधक का साहस और धैर्य है.

समृद्धि अक्सर अहंकार लेकर आती है और विपदा, करुणा, दया, माननीय भाव लेकर. इस कोरोना काल में विश्वव्यापी विपदा के समय लोगों के मन में स्वाभाविक रूप से प्रवासी मजदूर, बेसहारा लोगों के प्रति सहानुभूति के भाव व सहयोग की भावना दिखाई देती है. लोग जरूरतमंदों को खाना खिला रहे हैं, वहीं कई स्वयंसेवी संस्था कोरोना के बारे में जगह-जगह समूहों में इस बीमारी से बचने के लिए सतर्क रहने का परामर्श दे रही हैं. यह समय शादी-ब्याह, उत्सव व त्यौहारों का है, जो अभी स्थगित है. किसी को नहीं पता कि कब तक रहेगा. कलाकृतियों के सृजन में भी पता नहीं होता कि चित्र किस रूप में पूर्ण होगा, इसका अंतिम दृश्य रूप क्या होगा. छत्तीसगढ़ में अक्ति (अक्षय तृतीया ) का त्यौहार गुड्डे-गुड़ियों की शादी व किसानों के लिए नववर्ष, खेती-किसानी का शुभारंभ करने का होता है. जिसे कृषक लोग व्यक्तिगत तौर पर मना रहे हैं. कहीं कोई भीड़ नहीं. प्रसंगवश यह लिख देना उचित होगा कि आम के वृक्ष में पहली बार फल लगने पर अक्ती के दिन उसकी शादी की जाती है, इसके बाद ही उसका फल खाया जाता है. इस महामारी ने उत्सव को एकांतिक बना रखा है. यह कोरोना मानव जीवन में आक्रामक होकर दाखिल हुआ है. इंसानों की दिखावे की प्रवृत्ति और उसकी फिजूलखर्ची को उसने लाकडाउन कर रखा है. मितव्ययता जीवन की एक आदत जैसी बनती जा रही है.

यह तालाबंदी प्रकृति के लिए वरदान सिद्ध हुई है. सुना है महानगरों का वातावरण सुंदर और साफ हो गया है. नदिया, पेड़-पौधे, सड़क, बाग-बगीचे में कोई प्रदूषण नहीं, इस तालाबंदी के चलते फैक्ट्रियां बंद, गाड़ी मोटर बंद, नदियों में कोई गंदी नालियों का पानी नहीं जा रहा है. प्रकृति अपने आप मानव द्वारा पैदा किए गए प्रदूषण को जल्दी साफ कर लेती है, पर खुद मानव अपने अंदर के भ्रष्टाचार-लोभ से प्रकृति को कब तक प्रदूषित करता रहेगा. इस तालाबंदी में यह वाकई गहराई से और गम्भीर हो सोचने की जरूरत है.
 

२२
अनीस नियाजी
lIयह खोखलेपन की चरम परिणति है II

यह इस सदी की भीषणतम त्रासदी होने के साथ ही मानव सभ्यता में एक विरल घटना है. इसका प्रभाव और परिणाम मानव की कई पीढ़ियों तक संवाहित हो सकते हैं. इसके पहले भी कॉलरा और हैजा ने मनुष्यता को बहुत नुकसान पहुंचाया है और उन व्याधियों के उपचार की समय पर खोज होने से उन्हें तो रोका भी जा सका था, किंतु अभी तक इसका उपचार भी न मिल पाया है और इसने लगभग समूचे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया है. विश्व के समस्त मानवीय कार्यव्यहार ठप्प हो गए हैं. मनुष्यों ने अपने को खुद के साथ ही कैद कर लिया है. कृत्रिम मनुष्य के निर्माण की आशा रखने वाले इस दंभी मनुष्य को एक लघुकाय अदृश्य निर्जीव से तत्व ने उपस्थित होकर समस्त वैज्ञानिक अहंकार और विकास को अंगूठा दिखा दिया है. क्या कभी सोचा जा सकता था कि अमेरिका जैसा समर्थ देश, जिसने कई देशों का विध्वंस कर दिया, उसे एक अदना सा जीव घुटने टेकने को मजबूर कर देगा. प्रकृति में अदम्य आगाघ सहनशीलता है, अप्रतिम प्रेम है, देने की अकूत प्रवृति है लेकिन जब उसके अस्तित्व से, उसकी बुनियाद से खिलवाड़ होता है, तब वह विकराल रूप दिखाती है यह उदाहरण हमारे सामने है. प्रकृति के ही एक मामूली से तत्व ने समूची विकसित उन्नत सभ्यता को जीर्ण शीर्ण कर दिया है. मनुष्यों की जान के लाले पड़े हुए हैं.

भारतीय सभ्यता ने अपने मिथकों के द्वारा प्रकृति के इस स्वभाव को व्यक्त किया है. शिव का तांडव और छिन्नमस्ता इसके अच्छे उदाहरण हैं. जब मनुष्य अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है और सामर्थ्यता सीमालंघन करने लगती है, तब स्वयं शक्ति अपना संहार करती है और अपने को प्रकृति में विलीन कर देती है. फिर एक नई सुबह होती है, प्राणों का संचार होता है और जीवन फिर सहज रूप से चल पड़ता है.

प्रकृति में कोई भी घटना अचानक नहीं घटती है, क्योंकि उसका सिस्टम, उनका विन्यास, इतना सुगठित और सुसंचालित होता है कि अचानक से उसमें विघटन होना संभव नहीं है. मनुष्य के अप्राकृतिक क्रियाकलाप सदियों तक इसकी आंतरिक संरचना में प्रवेश कर उस के बुनियादी ढांचे से छेड़छाड़ करते रहे हैं, प्रकृति की सहनशीलता को पार करने पर वह अपना रौद्र रूप दिखाती है. तांडव के रूप में फिर से वह अपने आप को दुरुस्त करती है.

मनुष्य लगातार अपनी अंतहीन खोजों में लगा है. उसकी आवश्यकताएं दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं. प्रकृति से वह लगातार दूर होता जा रहा है. कृत्रिम जीवन में वह काफी हद तक आगे बढ़ चुका है. जीवन मूल्य बदले हैं. मानव की मानव के प्रति आस्था और विश्वास में पतनशीलता आ चुकी है. अत्यधिक वैभव और विलासिता पाने के चक्कर में उसका जीवन मशीनी होकर रह गया है. मानवीय मूल्यों के विनाश के साथ नैतिक मूल्य भी अवनति के गर्त में जा चुके हैं. आडंबर और खोखलेपन का बोलबाला है. भौतिक विकास और समृद्धि के साथ ही संकीर्णता, जातिवाद, सांप्रदायिक वैमनस्य और राजनीतिक पतन ने पूरे समाज को अघोगति की ओर धकेल दिया है. कानून व्यवस्था लचर हो चुकी है. लोगों के झुंड, कानून अपने हाथ में लेकर निर्दोष लोगों, साधु संतों की हत्या तक करने लगे हैं. भीड़तंत्र समाज पर हावी हो गया है. दुर्भाग्य की बात तो यह है कि पढ़ा-लिखा सुसंकृत समाज भी दिशाहीन हो इस अराजक भीड़तंत्र का समर्थन कर रहा है. राजनीतिक चातुर्य ने समाज के प्रचारतंत्र को पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया है. सांप्रदायिक विद्वेष की आग लगातार सुलगाई जा रही है. संस्थागत रूप से इसे पोषित किया जा रहा है. इससे भी बड़े दु:ख की बात यह है कि ऐसे त्रासद समय में हमें एक देश के रूप में एकजूट खड़े हो इस विपदा से जूझना है. बजाए इसके, हमें वर्गों में, समाजों में, धर्मों मेंबेशर्मी से बांट दिया गया है, यह तरीका नहीं है इस महामारी से जूझने का.

जब मनुष्य के पास अधिक संसाधन नहीं थे, तब वह अधिक संप्रभु, अधिक संपन्न, अधिक उन्नत और अधिक सहज था. वह निरापद जीवन जीता था. लेकिन जैसे-जैसे भौतिक संपन्नता आती गई, विलासिता बढ़ती गई, वैसे-वैसे मानवता का अवमूल्यन भी होने लगा. हमारी बौद्धिक और आध्यात्मिक संपदा भी शनैः शनैः जाती रही. यह त्रासदी मनुष्य से प्रकृति के अलगाव की, उससे बैर की, उससे छेड़छाड़ और लगातार अमानवीय होते जाने का दुष्परिणाम है. मनुष्य अपने हितों के दोहन में इतना लीन हो गया, प्रकृति का इतना क्रूरता से दोहन किया गया, उसने यह नहीं सोचा कि इसका परिणाम इतना भयानक होगा. प्रकृति में संतुलन है तो हमारा जीवन भी सुगम है.

मनुष्यों की आबादी विकराल रूप से बढ़ती जा रही है, वृक्ष लगातार घट रहे हैं, जंगल कम हो रहे हैं, हिंसक पशु नगरों में आने लगे हैं, नदिया, कुएं सूख रहे हैं. क्या होगा कल, कैसे जी पाएंगे हम, किसी ने नहीं सोचा. मनुष्य के अदूरदर्शी निर्णय ने कई बार धरती को संकट में डाला है. हिरोशिमा का परिणाम हमारे सामने है, चीन में माओ के एक गलत निर्णय से पूरे चीन समाज को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा था. भारत में बंगाल का दुर्भिक्ष्य भी मानव की, मानव पर उत्पीड़न की कहानी ही है. हिटलर, मुसोलिनी और नेपोलियन के कृत्यों को भी इस दुनिया ने देखा है और इनके अंजाम से भी हम वाकिफ हैं. इस सबके बावजूद मनुष्य इन घटनाओं से सबक नहीं ले पाया.

सामंतवाद ने अपने डैने फैला दिए हैं, उसने राजनीतिक चोला पहन लिया है और शेर की खाल ओढ़कर शेर होने का स्वांग सफलतापूर्वक किया जा रहा है. मानवीय मूल्य और मर्यादाएं लगातार खंडित की जा रही हैं. वैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर कर उन पर कब्जा किया जा चुका है. देश अराजकता के सुलगते ढेर पर खड़ा कर दिया गया है.

महामारी का प्रकोप दिनों दिन बढ़ता जा रहा है, जीवन में हर पल संशय बना हुआ है. मनुष्य भय से थरथर कांप रहा है. लगातार घर में रहते हुए कई लोगों का मानसिक संतुलन खो गया है. प्रवासी कामगारों और मजदूरों का और भी बुरा हाल है. उनके कष्ट अमानवीयता की पराकाष्ठा को पार कर चुके हैं. व्यवस्था के नाम पर उन्हें डंडे से पीट-पीटकर अधमरा तक कर दिया गया है. कई तो अकाल काल के ग्रास भी बन चुके हैं. तालाबंदी से छोटे दुकानदार और दैनिक वेतन भोगियों का जीवन नरक बन चुका है. इलाज करने वाले डॉक्टर, परिचारक बीमारी से संक्रमित हो रहे हैं. कई डॉक्टर, परिचारक, थानेदार, पुलिस कर्मी कर्तव्य का निर्वाह करते मृत्यु के आगोश में जा चुके हैं. डॉक्टरों, परिचारको, सुरक्षा दलों पर पत्थरबाजी हो रही है,उन पर हमले किए जा रहे हैं. हिंसक झुंडों का बोलबाला है. षड्यंत्रों ने मानवीय मूल्यों की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी है. अमानवीयता, अराजकता और अफरा-तफरी के इस समय में शायद यह नटराज का तांडव या छिन्नमस्ता का अपने ही मस्तक को धड़ से अलग करना है, ताकि वह शक्ति जो बेलगाम हो गई थी, अपने ही नियंत्रण में नहीं थी, उसे वापस प्रकृति में विलीन कर देना ताकि फिर एक रचनात्मक जीवनदायिनी शक्ति का प्रवर्तन हो सके.

रचनात्मकता का जन्म ही पीड़ा से होता है. जन्मदाता को तो पीड़ा सहना ही है. पीड़ा की गहनतम अनुभूतियों से ही कालजयी रचनाओं का जन्म होता है. यह पीड़ाएँ आभ्यांतरीक होती है. रैम्ब्रा जैसे वैभवशाली और समृद्ध राजा जैसे शाही जीवन के आदी कलाकार के जीवन का आखिरी समय संत्रास और आर्थिक अभाव में गुजरा है. वेन गाँग का दृष्टांत तो हमारे सामने है ही, कोई भी कलाकार पीड़ा की सघन अनुभूतियों के बगैर सृजनात्मकता नहीं पा सकता. एब्स्ट्रेक्ट- एक्सप्रेशनिस्ट कलाकार हमेशा रचनात्मक तनाव में जीते थे. जब शिव ने हलाहल का पान किया, तब ही सृजन के अमृत का रसास्वादन हो पाया था.

मुझे बचपन से ही चितरने का शौक था. जैसे सभी बच्चों को होता है, जो आगे चलकर माध्यमिक तथा हायर सेकेंडरी तक भी पहुंच गया. यहीं से उसने मुझे कला महाविद्यालय की ओर उन्मुख किया. यहाँ मैंने कला की अकादेमिक तालीम पाई. पेंसिल के ग्रेड ,टोंस, फूल, पत्तियां, बर्तन आदि संयोजनों को पहले पेंसिल से, फिर जल रंगों से हुबहु बनाने का अभ्यास, फिर मनुष्य के चेहरे, फिर लाईफ, संयोजन और प्रसिद्ध कलाकारों के चित्रों को नकल करने का अभ्यास किया तथा किन्हीं अंशो में प्रवीणता भी पाई.

अध्ययन के बाद जब मैं कला क्षेत्र में आया तो मुझे लगा कि यह जो मैंने सीखा है, यह पूनरूत्थानावादी यूरोपीय कला या रूबैंस या माइकल एंजेलो के समय के लिए मुफीद है, आज की कंटेंपरेरी कला की मांग कुछ और ही है. अतः मैं उसी और उन्मुख हो गया. अनेक रचनात्मक उतार-चढ़ाव आते रहे और मैं अपने स्वभाव के हिसाब से चित्र बनाने लगा. चित्र बनाना मेरा व्यवसाय नहीं बन पाया, लेकिन चित्र बनाना मेरी आदत जरूर बन गया. काफी सालों बाद मैंने देखा कि जो कुछ मैंने कॉलेज के दिनों में सीखा था, वह पूरा का पूरा विस्मृत हो चुका है, कुछ भी अब काम का नहीं. मेरी सर्जना प्रयोग, तात्कालिकता तथा खोज पर आधारित हो गई. चित्र अपने आप में से उपजने लगे. लेकिन हर रचना का अपना स्वभाव दिखने लगा और लगने लगा कि यह रचनाएं दृश्यात्मक आख्यान हैं. इनमें मानवीय स्वभाव की शर्मीली गंध है, अनुभूति की सहजता है और इनमें अज्ञेय का वास भी है.

जब से यह लाँक डाउन शुरू हुआ, उसके बाद रातों की नींद वैसी नहीं रही, जैसी पहले होती थी. वह टुकड़ों-टुकड़ों में बीतने लगी. दिमाग में कुछ हलचल सी होने लगी. बीच रात में हाथ कागज-पेन ढूंढने लगे. कुछ शब्द उन कागजो पर बिछने लगे --

सभ्यता के
भीषणतम समय में आर्तनाद
कातर आंखें करती पुकार
असंख्य खिलवाड़ प्रकृति से
दुष्कर्म को भोग रहे हैं हम
एक साथ
कैद होकर
डर डर कर
खंडित-खण्डित
अमानवीयता के गर्त में डूब
प्रलय तो निश्चित ही है
सावधान
अगर बचना है
प्रकृति के
इस अभिशाप से
करो प्रार्थना
गाओ सोलोमन के
श्रेष्ठ प्रेमगीत
याद करो मेघदूत का प्रेम निवेदन
उठाओ
शपथ प्राणपण से
संधान करो
लक्षित करो प्रेम
और छोड़ दो
उदात्त
सहज रूप में
क्योंकि
प्रेम है तो जीवन है
जीवन है तो कला है


२३.
चरण शर्मा
IIयात्रा में जरूरी है सामान II

बचपन जैसा सबका होता है, वैसा ही मेरा रहा. वह जीवन का एक ऐसा हिस्सा होता है, जहाँ हम बहुत कुछ सीख रहे होते हैं और इस सीखने की प्रक्रिया से नितांत अनजान भी होते हैं. ऐसी पढाई जीवन में फिर कभी सम्भव नहीं हो पाती. एक उम्र के बाद हमें यह पता होता है कि हम क्या सीख रहे हैं और उसे सीखने का शॉर्टकट क्या है. फिर हम सीखते नहीं, केवल जानने भर के लिए रट लेते हैं. जैसे चित्र बनाते हुए मुझे यह गलतफहमी बिलकुल नहीं रहती कि मैं चित्र बना रहा हूँ. असल में चित्र खुद-ब-खुद बनता है, मैं तो माध्यम भर रहता हूँ.

एक पारम्परिक परिवार में जन्म होने पर उसके तौर तरीके भी हम सीख ही लेते हैं. मेरा बचपन एक संयुक्त परिवार में बीता. पिताजी के पांच भाई, दादा, दादी और परिवार के करीब २० बच्चे, लगभग एक ही उम्र के.. धीरे-धीरे परिवार बड़ा होता है और सांसारिक झगड़े भी देखने को मिलते हैं. घर में सभी चित्रकार थे. दादाजी , पिताजी व उनके भाई. सब एक ही व्यवसाय, एक ही कॉमन स्टूडियो और एक ही रसोई. चित्रकार होते हुए भी वे सब इन्सान तो थे ही. अपने-अपने स्वार्थ और मतलब के साथ जीने वाले. यहीं से जीवन में बिखराव आने की शुरुआत हुई. जो बचपन में सीखा था, वह विश्वास-अविश्वास के जल में घुलने लगा. अनिश्चित भविष्य के चित्र मन में बनने-बिगड़ने लगे. आगे जाकर सगे भाइयों के रिश्तों में दरार की सूखी परतों ने जगह बना ली. जीवन के भूदृश्य में भूचाल महसूस होने लगा.
मेरे पिताजी, मानो एक अलग ही दुनिया के निवासी थे. सबसे बड़े होने के कारण उनकी ज़िम्मेदारी भी बड़ी थी. वे भी असमंजस में रहने लगे. दादा जी उस वक़्त के जाने माने चित्रकार थे. पुष्टिमार्गीय चित्र-रचना में उनका एक विशिष्ट स्थान था. नाथद्वारा वैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रमुख तीर्थ रहा है और उसी में उनका कार्य और बहुत नाम रहा.
जीवन में शुरुआती पढाई का अपना महत्त्व है. नाथद्वारा में एक छोटे सरकारी स्कूल में पहली से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई की. गणित व अन्य विषयों में प्राइवेट ट्यूशन कर पास होता रहा. पहाड़े रटते-रटते और गुरुजनों के हाथ से मार की एक लम्बी कहानी है. पढ़ने में कोई विशेष रुचि नहीं थी. स्कूल के बाद गुरुदेव भूदेव प्रसाद जोशी के पास जाना होता था. जोशी जी के बेटे सी पी जोशी, जो कॉलेज के बड़े नेता है, कक्षा में सहपाठी रहे. बाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति की. हाई स्कूल की शिक्षा भी हायर सेकेंडरी स्कूल से ही हुई. यहाँ भी वही हाल, जो एक साधारण विद्यार्थी का होता है.परन्तु नेता बनने का शौक लग गया और अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा. स्कूल के जीवन की कई ऐसी घटनाएं हैं, जिन पर अलग कुछ लंबा लिखा जा सकता है.

मुंबई का मोह फिल्मों को देखने से हुआ. उस समय कला के बारे में कोई विचार या मोह नहीं था. घर में जो चित्रकारी होती थी, उसे भी में कला नहीं, रोजी-रोटी मानता था. उन दिनों मन-मस्तिष्क में फिल्मों का प्रभाव ज़्यादा था. हमारे परिवार का मुंबई से एक अलग तरह का सम्बन्ध था. कई रिश्तेदार वहाँ रहते थे. नाथद्वारा तीर्थ होने की वजह से मुंबई के कई परिवार आते थे. उनका पहनावा, खान पान व अन्य बातें हमारे नाथद्वारा के जन-जीवन को प्रभावित करती थी.

एक दिन सुबह, पन्द्रह वर्ष का मैं, घर से जैसे-तैसे जुगाड़ कर सौ रुपए लेकर मुंबई का रुख करता है. एक दिन पहले सोचा था कि कल जाना है, पर क्यों जाना है, यह कभी भी सोच नहीं पाया. ट्रेन का अकेला सफर, स्कूल की यूनिफार्म में, सभी लोग और यात्री मुझे देखते थे. टिकट लिया था, इसलिए डर नहीं था.

सफर में रतलाम आया. रतलाम की सर्दी और कम्बल बेचने वाले का प्यार, कितनी यादें रह जाती हैं. यात्रा में यात्रा के लिए जरूरी सामान होना चाहिए, पर मेरे पास केवल टिकट था और कुछ पैसे. यात्रा के सामान को लेकर पहले कुछ सोचा ही नहीं था. मैंने अपने आप से यह सवाल ही नहीं किया था कि उसका जवाब खोजता. रतलाम में एक थैला खरीदा कम्बल वाले से, सबसे सस्ता. मोल भाव कर एक चादर ली और अगली ट्रेन का सफर. उस भीड़ में केवल अपने आप को अकेला पा रहा था. घर और घर वालों की यादें साथ थी. रास्ते में आते रहे स्टेशन, बेमन से पढ़ता रहा उनके नाम. एक गुजराती परिवार ने जब खाना निकाला, तो मेरी तरफ देख मुझे भी दिया. जीवन का वह ऐसा क्षण था, मैं भिखारी की तरह महसूस कर रहा था और भूख के महत्त्व को जान रहा था. इस वक़्त 'जय श्री कृष्ण'जो हम नाथद्वारा में हर एक से बोलते थे, काम आया. फिर भूख ने जय श्री कृष्ण का सही मतलब समझा दिया.

जैसे-तैसे मुंबई सेंट्रल आया तो लगा, अब क्या होगा. भीड़ देख डर लगने लगा. कहाँ जाऊँ का बड़ा सवाल मेरे मन में उठने लगा. कई जगहों के नाम याद आने लगे, आधे अधूरे. किसी का फ़ोन नम्बर नहीं था और ना ही किसी का पूरा पता. था तो केवल एक थैला,एक साधारण कम्बल और जेब में कुल पच्चीस रुपए. मुंबई सेंट्रल पर कुली को दस रुपए देकर पुलिस से बचकर अखबार व कम्बल के साथ एक रात गुज़ारी. रात, नींद, अकेलापन, डर, घर, माँ, पिताजी, भाई, बहन और भगवान सब एक साथ पीछे छूट चुके गहरे अंधेरे जंगल में खोज करने जैसे याद आने लगे थे.

केवल एक नाम मेरे अंकल एम.के. शर्मा का याद था, जो बोरीवली में कहीं रहते थे. बोरीवली जाने का क्या तरीका था, पता किया. लोकल से सुबह बोरीवली पहुंचा. बोरीवली में देखा, वहाँ थोड़ी कम भीड़ थी. यह सब आज से ६० वर्ष पहले की बात है. तब वहाँ तांगा चलता था. तांगे वाले से पूछा कि शर्मा नाम के एक आर्टिस्ट, जो भगवान के चित्र बनाते हैं, कहाँ रहते हैं. वह देखने लगा. उसका देखना बड़ा अजीब था, भाषा भी अलग थी. उसने दूसरे तांगे वाले की ओर इशारा किया. दूसरे तांगे वाले को वही बात बताई. भगवान के चित्र, देवी-देवताओं के चित्र बनाते हैं और बोरीवली में किसी सेठ के पास रहते हैं. उसकी आँखों में मैंने आशा का भाव देखा. वो गुजराती था. उसने कहा, 'क्या थी आवो छो? गुजराती थोड़ी बहुत आती थी, नाथ द्वारा की वजह से. मैंने उसे राजस्थान, श्रीनाथ जी वगैरह का नाम लिया. उसने कहा बैठो. मुझे थोड़े समय के बाद एक बंगले के बाहर लाकर बोला, 'देखो, यहाँ वो चित्रकार रहते हैं. मैंने उनसे मेरे पिताजी का चित्र बनवाया था. शायद वे ही हों, बाहर देश के हैं. बंगले में वह मेरे साथ आया. मैं वहाँ का दृश्य देख अचम्भे में था. मैं सोच भी नहीं सकता था. मेरा पूरा परिवार माँ, पिता जी,भाई सब रो रहे थे. घर में अजीब माहौल था. मुझे ज़िंदा देख कर और सामने देख कर क्या हुआ होगा, क्या हुआ, मुझे कुछ भी मालूम नहीं. मैं मेरी माँ की गोद में था. सब मुझे आश्चर्य से देख रहे थे.

एक लंबे अरसे बाद पत्थरों, झरोखों के माध्यम से मैंने बीते हुए कल को समझने-देखने की अपनी शैली रची थी. मेरे झरोखों को देखने का मेरा एक अलग ही तरीका और अलग ही देखना रहा. वह मुझे मेरी स्मृतियों में ले जाता रहा. झरोखों को देखकर या महसूस कर अपनी ही कुछ बात करने लग जाता हूँ. एक चित्रकार के लिए अपने चित्रों का विषय चुनना और उस चुनाव के वक़्त एक अलग तरह की अभिव्यक्ति करना, यह मेरे लिए चुनौती ही रहा. ऐसी रचना-प्रक्रिया की मानसिकता और नजरिया निजी ही होता है. मैंने देखा, खिड़कियां हर काल खंड की तरह अलग रूप लेती हैं. हर गाँव, शहर, प्रदेश, देश-विदेश में खिड़कियों के अलग-अलग आकार हैं, भिन्न रंग-रूप व माप हैं. उन खिड़कियों व दरवाज़ों के बंद होने व खुलने के अपने तरीके, अपनी आवाज़, अपनी पहचान होती है. घर में रहने वाले अपनी खिड़कियों, दरवाज़ों से परिचित होते हैं. उनकी आवाज़ को पहचानते हैं. मेरी इस यात्रा को मैंने अलग ही ढंग से देखा है. खिड़कियां बाहर देखने के लिए होती हैं लेकिन मैंने हर खिड़की को बाहर से देखा. खिड़की को बाहर से देखने में ही मुझे अपना कैनवास नज़र आया. और वह कैनवास में आकृतियों की तरह जन्म लेने लगा. रेखाओं, रंगों और संयोजन के साथ.

मेरा मानना है कि कलाकार को कला की शिक्षा अनिवार्य लेना चाहिए. पारम्परिक घरानों की कला व कलाकारों के बीच रह कर विधि-विधान, कार्यशैली, कारीगरी सब सीखी जा सकती है. इस तरह की कला शिक्षा का अभाव खलता है. हालांकि कला किसी भी सीमाओं में बंध कर नहीं हो सकती. स्वतंत्रता उसका अधिकार है, अगर आप को कला समझना है तो सौंदर्य शास्त्र को भी समझना होगा.

जब तब आधुनिक कला के कलाकारों की जीवनियां पढ़ने-समझने लगा, तो अंदर का कलाकार, जो परंपरा से जुड़ा था, कुछ नया करने की ललक से छटपटाने लगा. इन दिनों वही सब याद आ रहा है. यह महामारी जीवन से डरा-धमका सकती है, लेकिन कला से नहीं. पिछली सीरीज में मैंने अक्षरों को लेकर काम किया था. आज भी भारतीय परंपरा में छोटे बच्चे को पहला अक्षर ज्ञान देने के अवसर को संस्कार ही माना जाता है. यही संस्कार मेरे नए चित्रों में 'आकार'का रूप धरते हैं. अंततः कला-कर्म ही किसी कलाकार का संस्कार होता है.
 

२४.
प्रियंका सिन्हा
llएकांत कभी अशांत भी II

हर इंसान की जिंदगी में ऐसा भी वक़्त आता है, जो उसने पहले कभी नहीं देखा. ऐसा ही समय अभी चल रहा है. किसी ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि पूरा विश्व इस तरह थम सा जाएगा. यातायात ठप्प, बाज़ार बंद और लोग घरों में कैद हो जाएंगे, घर से बाहर निकलना तनाव को जन्म देगा.

अपनी स्वेच्छया से कुछ अंतराल के लिए खुद को स्टूडियो में कैद कर लेना, किसी कलाकार के लिए यूँ तो सामान्य सी बात है. किन्तु एक लम्बे समय के लिए इस तरह बंद कर दिया जाए, तो ऐसे में घुटन का होना स्वाभाविक है. अब भले ही यह लॉक डाउन किसी आसन्न खतरे से आपको बचने-बचाने के लिए ही क्यों ना हो. ऐसे में कई बार मन खिन्न हो उठता है. ऐसी स्थिति में सोच की दिशा बदल कर स्वयं मंथन का यह एक अच्छा अवसर है. ध्यान केंद्रित कर हमारा अपने ही अंदर झांक लेना बुद्धिमत्ता है. प्रकृति की अनुपम छटाएं देखने को मिल रही हैं. लोगों की भीड़ और मोटर गाड़ियों की रेलम-पेल से वंचित सड़क शांत और निःशब्द है. प्रदूषण मुक्त शुध्द हवा को महसूस कर पा रही हूँ. किसी न किसी काम में मसरूफ़ हो जाने की आदत मुझको हमेशा संभाल लेती है. इन सबके बावजूद यह एकांत जब कभी ज्यादा अशांत लगने लगता है, तो मैं ध्यान लगाने बैठ जाती हूँ ; और मीलों का सफर क्षणों में तय कर आती हूँ.

अपनी बात करूं तो मुझे पारदर्शिता अच्छी लगती है. पहले ढक देना और फिर उसे उघाड़ कर देखना अच्छा लगता है. जिन चीजों को खुद ही छुपा देती हूँ, उसे तलाशती रहती हूँ. रंगों से ढंक देती हूँ पूरी सतह, जब तक उसका कोरापन बाहर झांकना बंद ना कर दे. जब तक उसके अंगों में रंगों की तासीर समूची रच बस ना जाए. फिर देखती हूँ उघाड़ कर, उसका अपना क्या-कुछ बचा है या सब मेरा हो गया है. इस खेल-खेल में सतहों और रंगों की साजिश में, कभी कहीं से खुद को बचा लेना और पानी के बुंदों की आँख-मिचौनी के बीच, कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं मेरी चित्र भाषा है. अपनी कला को जीना मेरा जीवन है, या कहूं कि जीवन में कला है. कला मुझे जी रही है या मैं कला को, पूरा ठीक ठीक कहना मुश्किल होगा, अपने ही बनाए चित्रों की गहराई में उतरने, विचरने, गोते लगाने के लिए मैं घंटों, दिनों, सप्ताह, महीनों बिता सकती हूँ. यह सब तब से चल रहा है, जब से रंगों से भरी छटाएं मुझसे बातें करतीं थीं. मुझे प्रकृति के सारे रंग आसपास सहेज कर रखे मिलते रहे हैं और प्रेरणा मेरे इर्द-गिर्द पालथी लगाए बैठी रहती है. मेरा जन्म बौद्ध गया में हुआ. बौद्ध भिक्षुओं के साथ समय व्यतीत करने का भरपूर अवसर मिला. वहाँ मुझे संतुलन की परिभाषा समझने को मिली. यहीं से संतुलन को लेकर मेरे सफर की शुरुआत रही.

कलाकार कितना संवेदनशील है, इसे अलग से परिभाषित करने की जरूरत नहीं. हम सभी जानते और समझते हैं कि संवेदनशील व्यक्ति जब अभिव्यक्त करता है तो वह ईमानदार होता है, अब भला माध्यम कोई भी हो और कैसा भी. देखा जाए तो घुमा फिराकर हम सब जो कह रहे हैं, उसका अभिप्राय एक जैसा ही है, अलबत्ता कहने के तरीके का फर्क हो सकता है. अब यहाँ पर प्रश्न खड़ा होता है कि लिखने की शैली की तारीफ ज्यादा मायने रखती है या कही गई बात?

मेरी समझ से सच तो यही है कि हम वास्तविकता से भाग नहीं सकते. आज हर व्यक्ति के दिमाग में कहीं न कहीं एक ही शब्द आ रहा है कोरोना और उससे उपजा संकट. यह एक ऐसी आपदा है, जिसके बारे में चाहे-अनचाहे हम दिन भर सोचते ही रहते हैं. आज एक ऐसी महामारी का प्रकोप हम झेल रहे हैं जिसने खबरदार होने का वक्त तक नहीं दिया. ऐसे में क्या तैयारी हो सकती थी, आनन-फानन में सारे फैसले लिए गए I वैसे इन दिनों बहुत लोग व्रत रख रहे हैं, भजन भी कर रहे हैं, साथ ही धार्मिक सीरियल भी देख रहे हैं. घर के अन्दर खुश हैं, ऐसे में सोच रहे हैं काश हमारे देश में भूख न लगने वाली गोली विकसित हो गयी होती तो शायद परेशानी कुछ कम होती. क्योंकि इस लॉक डाउन की असली दिक्कत तो भूख का लगना है, वैसे तो लोग सोशल मीडिया पर दनादन पूड़ियाँ छोले और गुलाब जामुन भी खा और परोस रहे हैं. 

उधर प्रदुषण मुक्त होकर प्रकृति भी खुश है, तो नदियों की कलकल में अतिरिक्त उछाल दिख रहा है, मानव जनित मलिनताओं के अतिरिक्त बोझ से कुछ समय के लिए निवृति पाने पर. कुदरत खुश है लेकिन कहीं न कहीं हमारी इस सृष्टि का वह रचयिता हमारी करतुतों से उदास है. ऐसे में ज़िंदगी रुदाली होना चाहती है. फिर कभी लगता है दुनिया में समाजवाद बस आने ही वाला है. अब बात आती है उस सामाजिकता की, जिसका होना मनुष्य होने की एक महत्वपूर्ण शर्त है. हमारा प्रोफेशन कुछ भी हो, लेकिन किसी प्रोफेशनल से पहले हम एक इंसान हैं, इसके बाद हम अन्य कुछ होते हैं, डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता, व्यवसायी या फिर कलाकार. आज हमारे बीच कितने ऐसे सामर्थ्यवान होंगे, चाहे वो कलाकर ही क्यों ना हों, जिन्होंने आपसे यह पूछा है कि- "आपको खाने-पीने का कोइ अभाव तो नहीं". 

इसके बाद क्या यह सवाल नहीं बनता है कि- क्या सच में हम एक सुत्र में बंधे हैं? कभी कभी तो लगता है कि इस एक सूत्र का सूत्र-वाक्य बस खामख्याली ही है. इस तरह की बड़ी-बड़ी बातें और बड़े-बड़े वादे मुझे ना आते हैं, ना भाते हैं. मुझे तो आज नजर आते हैं वे गरीब, जो मेरे घर के आसपास ही रहते हैं. कभी हाथ में झोला और गोद में बच्चे लिए निकल गए यह कहते, कि दीदी जिंदगी रही तो फिर मिलेंगे. नज़र आते है वे अदृश्य पहाड़, जो शवों के ढेर से बन रहे हैं, वह नहीं दिखने वाली खाई, जो शवों से पट गयी है और वे अनगिनत डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी, जो बलिदान हो गए अपने कर्तव्य की बलिवेदी पर. यह सब देख-सुनकर बस मुँह से निकल जाता है ओह... आज ऐसे समय मुझे ओंकार राही के उपन्यास 'शव यात्रा'और 'शामिल रिश्तेदार'याद आतें हैं. अब शवों की यात्रा निकलती तो है, लेकिन बिना किसी रिश्तेदार के. 

आज अपने किसी दर्द या परेशानी को बयां करना तब बड़ी बेईमानी लगने लगती है, जब हम उन लोगों को देखते हैं, जिन्होंने पैरों में चप्पल पहने बगैर, अपने हाथों में पोटली एवं साथ में पत्नी और बच्चों को लेकर निकल चुके हैं अपने गांव या शहर की ओर. हम नहीं जानते हैं कि मीलों के सफर पर निकले ये लोग किन परिस्थितियों का सामना कर रहे होंगे या किया होगा. मानसिक पीड़ा के इस घनघोर क्षण में मैं कैसे कहूँ कि मैं इन सबसे निर्लिप्त होकर रंगों से खेल रही हूँ. पौधों से मिल रही हूँ और चिड़ियों से बतिया रही हूँ. सच कहूँ तो मैं रंगों से बतिया नहीं पा रही, हवाओं का आनंद लेते हुए भी डर रही हूँ, क्योंकि सब घातक वायरस से भरा लग रहा है. कभी सोचती हूँ कि इतने लोग जो काल के गाल में समा गए, क्या हम उनके परिजन नहीं हैं. आगे और भी दुश्चिंताएँ हैं. कल को रोटी मिलेगी या नहीं. अगर वह मिल भी गयी तो घर का किराया कहाँ से आएगा? फिर यह भी लगता है जिनके पास यह सब शानों शौकत पहले से ही मौजूद है,क्या अब भी वह अपना वही रौब दिखाएंगे, पहले की ही तरह, या यह स्वीकारेंगे कि नियति के आगे हम सब कितने तुच्छ प्राणी साबित हो चुके हैं.

बहरहाल, आजकल पड़ोसियों को कहीं जाने की जल्दबाजी नहीं, सो अब देर तलक पूजा की घंटी बजने की आवाज आती है. मेंरे मन में तब बस यही विचार आता है कि हे भगवान, कम से कम इन की सुन लेना. मैं बचपन से घर में पूजा पाठ की प्रक्रिया, जो देखती आ रही हूँ, उसमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं रही मेरी. मैं अगरबत्ती की दो बत्तियां जलाने में विश्वास नहीं रखती, इसलिए उस तरह की कोई पूजा पाठ भी नहीं करती I जब कभी करने भी बैठी हूँ तो मेरे आगे यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि आखिर हम कितना जानते हैं इन सबके बारे में. क्या हम वास्तव में पूजन या अर्पण का अर्थ समझते भी हैं ? हम जल, अक्षत, रोली, क़लावा, धतुर, बेल पत्र या फिर फल-फूल व मिष्टान्न ही क्यूँ न चढ़ाते हों, उसका सही-सही अर्थ और अभिप्राय जानते भी हैं? मैंने भी अपना एक सरल मार्ग निकाला है भक्ति और ध्यान का, मुझे महसूस होता है कि हर सुबह हमें छूकर कुछ ऐसे गुजर जाती है, जैसे वह आपको बहुत कुछ देना चाहती है, मानो उसके पास देने को बहुत सारा होता है, पर हमारी अंजुलि लेने को बहुत छोटी लगती है.

मेरे मोबाइल के कैमरे में मैंने एक तितली पकड़ी थी, शायद उनसे रंग लेकर कभी कोई सपनों की तस्वीर बना सकूं. मुझे और बहुत सारी तितलियां पकड़नी है, पर समय की महानदी के उस पार का क्षितिज सूरज को निगल गया है और घने काले बादल छा गए हैं. फिलहाल इस तरफ का आकाश अपने आसपास के बादलों को समेटने में लगा है. बारिश से धरा धुलने के बाद सुबह की नयी किरणों के साथ ये तितलियाँ फिर आएंगी और फिर मैं उन्हें अपने देखे हुए दृश्यों के इतिहास में पकड़ूँगी और उनसे रंग लेकर चित्र बनाऊंगी.

इस लॉक डाउन के दौरान मैंने अपनी उन गतिविधियों की ओर ध्यान दिया, और दे रही हूँ, जिनके लिए सामान्य दिनों में वक़्त नहीं निकाल पाती थी. हम कितने ही व्यवस्थित क्यों ना हो जाए, यानी हम सब कुछ अपने हिसाब से ठीक कर लें, लेकिन बहुत कुछ ठीक होने के लिए बचा ही रहता है. हमारी दिनचर्या भी, जीने के लिए साजों-सामान भी और हमारी रचनात्मकता भी. हमारा सन्तुष्ट होना हमेशा तात्कालिक होता है, इच्छाओं में, प्रेम में, सृजन में. हम फिर से बहुत जल्दी असन्तुष्ट हो जाते हैं, खाली हो जाते हैं. उसे फिर से भरे जाने की राह को ताकते रहते हैं. इस 'खाली'को कितना हम भर पाते हैं, कितना यह समय, हम इसे कभी नहीं समझ पाते. यह सब सोचकर ठहर जाती हूँ और थमकर इस पल को भरपूर जीने की कोशिश करने लगती हूँ I


२५.
अनूप श्रीवास्तव
IIवह देखता हूँ, जो सामने नहीं है II
स्पेन में तब सब ठीक था. कैलेंडर में नया वर्ष आ चुका था. हम नए वर्ष की योजना बना रहे थे. स्पेन जाने के लिए टिकिट और वीसा कब करना है, यह सब बातें हो रही थी. तब तक भारत में भी सब सामान्य था. जब दूसरे देशों से संक्रमण की खबरें आना शुरू हो गईं थीं. मैं और पत्नी रितिका (सेरेमिक कलाकार) अपनी पुरी ऊर्जा से धार स्थित रिनूप स्टूडियो पर कार्य कर रहे थे. सोशल मीडिया के माध्यम से चीन में कोरोना वायरस से हो रही तबाही के वीडियो, फोटो आदि देखने को मिल रहे थे. तब चीन के लोग अजीबो गरीब तरीके से अपने आप को बचाने की कोशिश कर रहे थे. ये सब इसलिए भी मेरे ज्यादा करीब हो गया था, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय ग्रुप के कलाकार हम सभी मित्र चीन में रहने वाले अपने मित्रों के सुरक्षित व स्वस्थ रहने की मंगल कामना कर रहे थे. मुझे चीन की अपनी दो यात्राएं भी याद आने लगी थी. शंघाई इंटरनेशनल कंटेंपरेरी एक्सचेंज एग्जीबिशन एंड वर्कशाॅप 2016 में बिताए बारह दिन. आर्ट 2018 इंटरनेशनल, चीन में रितिका के साथ बिताए दो सप्ताह और वहाँ देखे नए व पुराने शहर, पारम्परिक चित्र, म्यूजियम, प्रदर्शनी, कई देशों के नए बने मित्र और वहाँ का भोजन, जो हमारे लिए खाना बेहद कठिन था. स्पेन के जरागोज शहर के Giuseppe Strano Spito अप्रैल में भारत आने वाले थे, उन्हीं के लिए टिकिट देखी जा रही थी, ताकि उनकी यात्रा सुखद व सुरक्षित रहे. वह भारत में पहले हमारे धार स्थित रिनूप स्टूडियो मैं कुछ दिन बिताने वाले थे, यहाँ आकर वे सेरेमिक में कुछ कार्य करना चाहते थे. Giuseppe प्रतिष्ठित कलाकार हैं और अनेक देशों में उनके बनाए अमूर्त मूर्तिशिल्प प्रदर्शित हैं. मूर्तिकला के साथ चित्र, परफॉर्मिंग आर्ट, इंस्टॉलेशन, मिक्स मीडिया अनेक विधाओं में वे काम करते हैं. उनका भारत के अलग-अलग शहरों में प्रदर्शनी व प्रेजेंटेशन रखा जाना था. चीन के साथ दुनिया के अन्य देशों में कोरोना वायरस ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था. स्पेन में कोरोना ने कुछ हफ्तों में एक भयावह रूप ले लिया था और मैसेंजर में रोज स्पेन की हालत मित्र Giuseppe बता रहे थे. अब तय हो गया था कि उनका आना संभव नहीं है. वह हमें मना नहीं कर पा रहे थे, पर हम समझ गए थे कि अब स्थिति खराब हो चुकी है. फिर हम ने ही उन्हें आने से मना कर दिया था. कुछ दिनों बाद भारत में भी संक्रमण फैल गया था.

अब मैसेंजर से वो हमारे हाल चाल पूछते और हम उनके. इस यात्रा के साथ बहुत कुछ स्थगित हो गया. प्रदर्शनी, प्रजेंटेशन, जो अलग-अलग शहरों में होने थे. साथ ही पोलैंड के वारसॉ में साधु श्रृंखला के चार चित्र, जो सिंहस्थ में मैंने बनाए थे, वह भी अप्रैल में प्रदर्शित होने वाले थे. अगस्त के मध्य में जहांगीर आर्ट गैलरी में समूह प्रदर्शनी होनी थी.

इन दिनों धार में आए दिन संक्रमित व्यक्ति की संख्या बढ़ने को लेकर सब परेशान है. बहुत कुछ बदल सा गया है, अब कुछ भी सामान्य नहीं है. इस बड़ी समस्या के साथ सकारात्मक व रचनात्मक बदलाव भी देखने को मिला है. इतने लंबे लॉक डाउन में सब लोगों ने अपने घरों में व्यस्त रहने के नए नए रास्ते खोज लिए हैं. घर से दूर मल्टी नेशनल कंपनियों में काम कर रहे दोस्त अपने शहर, घर, पुराने दोस्तों और उन गलियो को याद कर रहे हैं, जहाँ बचपन बीता था. अब कहानियों का दौर फिर से शुरू हो गया है. दोस्त ने एक पत्र व्हाट्सएप पर भेजा है. इसमें उसने अपने बचपन को याद किया है. घर पर बोले जाने वाले नाम को अंत में लिख कर वह अपने आप को बचपन में ले जा रहा है. जो नाम कई सालो से वो भागम भाग में छोड़ चुका था. यहाँ एक दोस्त ने अपनी बेटी के साथ घर की दीवार पर एक फूलों से लटकती बेल की पेंटिंग बनाई है. वह असल में अपनी बेटी के साथ अपने बचपन को याद कर रहा है. पेंटिंग बनाना उसे बेहद पसन्द था. हम दोनों को बचपन में पुरस्कार में रंग और पैलेट मिले थे. यहाँ कुछ लोग अब भी घर से निकल रहे हैं. ये लोग भूखे लोगों तक भोजन, राशन देने के लिए निकले हैं. पशु पक्षी के लिए भी लोग सुबह चारा-दाना लेकर गाड़ी से घूम रहे हैं. घर का सबसे छोटा बच्चा दादाजी को घर से बाहर जाने नहीं दे रहा है. लोग बच्चों को लेकर यातना से भरी लम्बी यात्रा तय कर घर जा रहे हैं. छोटे बच्चे रो रहे हैं, अब वे थक गए हैं.

इन दिनों हमारी दिनचर्या में खासा प्रभाव नहीं पड़ा है. दिन रोज की तरह चमकती सुनहरी धूप से शुरू होता है, छत पर साफ नीला आसमान, दूर तक दिखते रंग बिरंगे घर, फूलों से लदे पेड़, पक्षियों की चहचहाहट, लाल मेट पर गिरता पसीना, धूप में अपनी परछाई को उछलते देखना, गिनती करना, साँस को पकड़ना-छोड़ना, वैसा ही है सब कुछ.

मैं और रितिका स्वतंत्र रूप से काम करते हैं, इसलिए हमारे दिन का बड़ा हिस्सा स्टूडियो में निकलता है, जो हमारे घर से महज़ आधा किलोमीटर दूर है. स्टूडियो के पास की सड़क मांडू ओर महेश्वर की ओर जाती है. मांडू पर इन दिनों एक सीरीज बनाई है. इस बार रंगों और रेखाओं से मांडू की यात्रा की है. हर रंग मुझे अपनी यात्राओं की ही याद दिलाता है. चित्र फिर उस समय को दोहराता है. पैलेट पर रंग परस्पर मिल रहे हैं, रंग पेपर पर गहरे हल्के हो रहे हैं. यलो ऑकर, ब्राउन, परशन ब्लू, या काले रंग को जब ब्रश छूता है, तब वह उस दिन को जीने लगता है. मैंने एक-एक चित्र में वह दिन, वह मौसम बिताया है. इन दिनों तो चित्रों के साथ ही जैसे यह जीवन बीत रहा है.

सामने पहाड़ी पर फड़के स्टूडियो है. ये मेरे जीवन का पहला स्टूडियो है, जो घर के बेहद करीब होने से बचपन से ही जाना होता रहा है. पद्मश्री रघुनाथ फडके साहब व उनके शिष्यों द्वारा बनाई मूर्तियां आज भी जीवित लगती है. रचनात्मकता का एक बड़ा हिस्सा यही से मुझमें आता है. बचपन में देखे चित्र व मूर्तियां मुझे इस ओर आकर्षित करती थी. स्टूडियो कलाकार के जीवन में एक अलग जगह रखता है. ये मेरा भाग्य ही रहा कि कॉलेज के दिनों से आज तक मुझे अपने स्टूडियो में ही काम करने को मिला. धार में पाँच बाई पचास फ़ीट का पेंटिंग बनाने के लिए मुझे अस्सी फ़ीट का स्टूडियो मिला था. भोपाल में भी मुझे शहर के बीच में न्यू मार्केट में एक बड़ा स्टूडियो हमारी दोस्त के कारण काम करने के लिए मिला था. वह सच में सपने जैसा स्टूडियो था. चोथी मंजिल पर शहर के मध्य, एक बड़ी जगह, जहाँ से पूरा भोपाल दिखता था. बाहर गैलरी में छोटा सा बगीचा. यहाँ मैंने खूब मन लगाकर काम किया था. कालेज के दिनों में भी मुझे एक बड़ी जगह काम करने के लिए मिली थी. हम कुछ मित्रों ने एक स्टूडियो पुराने रेस्ट हाउस में बनाया था. दिन-रात का लंबा समय वहाँ व्यतीत होता था. पिछले वर्ष नवंबर में हमने धार में स्टूडियो बनाया है, सिरेमिक फर्निश के साथ. रितिका और मेरी काम करने की अलग-अलग जगह है. इन दिनों भी हमारा ज्यादा समय स्टूडियो पर बीतता है. मुझे स्टूडियो पर रहना अच्छा लगता है.

पिछले कुछ सालों में दो-चार बार जबलपुर जाने को मिला. इस यात्रा में भी मैंने हमेशा की तरह ड्राइंग किए. खास कर भेडाघाट में. मित्र हरिओम कलर और पेपर ले आए थे. चट्टानों के बीच भरी धूप में पूरे दिन वहाँ ड्राइंग किए थे. वे एक्रेलिक के माध्यम से सूखे ब्रश से करे थे. मुझे ड्राइंग करना बेहद पसन्द है इसलिए वहाँ दिख रहे आकारों को मैंने पेपर पर आसानी से उतार दिया था. उस समय मैंने चट्टानों के स्ट्रोक,चट्टानों पर उभरे आकार, पोधे ये सब किए थे. लॉक डाउन के पहले मुझे किसी काम से जबपुर फिर जाने को मिला. इस बार मैंने दुर्गेश के माध्यम से, भेड़ाघाट की चट्टानों को नाव में बैठ करीब से देखा. जब चट्टानों के करीब जाते हैं, तब हर बार कुछ नया पाते हैं. पानी के कारण चट्टानों में अनेक रेखाएं व छोटे-छोटे छेद दिख रहे थे. वे आकार और बिंदु मैने इस बार भी अपनी ड्राइंग बुक में नोट कर लिए थे. उस दिन हमने नर्मदा जी के पास बैठ कुछ समय बिताया था.

इन दिनों मैंने कागज पर नोट किए उन आकारों और कुछ ड्राइंग को देख आगे की यात्रा शुरू की है. सूखे ब्रश से कुछ नए ड्राइंग किए हैं. खाकी पुस्ठे का एक बंडल कुछ समय पहले लाया था, समय निकाल कर अलग-अलग माध्यम से इन पर काम करना चाह रहा था. इन दिनों खाकी पुस्ठे की ओर खासा आकर्षित हुआ हूँ. मैं इन पर पोस्टर रंग को स्वतंत्र होकर लगा रहा हूँ. इन्हें लम्बे समय तक देख रहा हूँ. कहीं खो गया हूँ. खेत, पहाड़, जंगल, भेडाघाट की उन चट्टानों को देख रहा हूँ, जो अभी सामने नहीं हैं. मुझे चित्रों के साथ लगातार बने रहना बेहद पसंद है, रंग मेरे बचपन के मित्र हैं.

इन दिनों रितिका भी बहुत व्यस्त हैं. रितिका और मेरा ज्यादा समय साथ में ही निकलता है. रितिका दिन और रात लग कर स्टूडियो पर काम करती है. इन दिनों रितिका के स्टूडियो का तापमान बहुत ज्यादा है, क्योंकि सूर्य की सीधी रोशनी इस पर पड़ती है ओर मिट्टी जल्दी सूखती है. मिट्टी की एक लंबी यात्रा शुरू होती है जब मिट्टी हाथ में होती है. मिट्टी छूने पर मुलायम होती है, इसे बड़े ध्यान से रखना पड़ता है. थोड़ा भी जोर इसे तोड़ देता है. इसे दो बार अग्नि परीक्षा से निकलना होता है. तब जाकर रंग बारह सौ डिग्री पर खिलता है. इस पूरी प्रक्रिया में कलाकार इसके बहुत करीब होता है. वह फर्निश का तापमान गिरने का इंतजार करता है. 

फर्निश का थोड़ा खुलना उत्सुकता बढ़ा देता है पहली नजर में पास या फेल का फैसला हो जाता है. स्टूडियो के बाहर जब ढलते सूर्य की तरफ देखता हूँ, एक ही बात मन में आती है कि निश्चित ही यह समय बेहद कठिन है. लेकिन फिर ख्याल आता है कि भीमबेटका के रंग और रेखाएं आज भी जीवित है.
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राकेश श्रीमालपढाई की रस्मी-अदायगी के साथ ही पत्रकारिता में शामिल हो गए थे. इंदौर के नवभारत से उन्होंने शुरुआत की. फिर एकाधिक साप्ताहिक और सांध्य दैनिक में काम करते हुए मध्यप्रदेश कला परिषद की पत्रिका 'कलावार्ता'के सम्पादक बने. इसी बीच कला-संगीत-रंगमंच के कई आयोजन भी मित्रों के साथ युवा उत्साह में किए. प्रथम विश्व कविता समारोह, भारत भवन, कथक नृत्यांगना दमयंती जोशी, निर्मल वर्मा, खजुराहो नृत्य महोत्सव और कला और साम्प्रदायिकता पर कलावार्ता के विशेषांक निकाले. फिर मुंबई जनसत्ता में दस वर्ष काम करने के पश्चात महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से  'पुस्तक-वार्ता'के संस्थापक सम्पादक के रूप में जुड़े. मुंबई में रहते हुए उन्होंने 'थिएटर इन होम'नाट्य ग्रुप की स्थापना की. वे कुछ वर्ष ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के कार्य परिषद सदस्य और उसके प्रकाशन परामर्श मंडल में रहे. दिल्ली में रहते हुए एक कला पत्रिका ''की शुरुआत की. उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. फिलहाल कोलकाता में इसी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र से 'ताना-बाना'पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं.
9674965276

मंटो का उपन्यास : बग़ैर उनवान के : विनोद तिवारी

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सआदत हसन मंटो
हम मर्ज़ बताते हैं लेकिन दवाखानों के मुहतमिम[1]नहीं
विनोद तिवारी


मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूँगा,जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता,इसलिए कि वह मेरा काम नहीं दर्जियों का है. लोग मुझे सियाह-कलम कहते हैं लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता,सफेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और ज़्यादा नुमायाँ हो जाए. 

-मंटो



फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक ज्यां पॉल सार्त्र ने कहीं लिखा है कि लेखकों को अपने घर ज्वालामुखी के मुहाने पर बनाना चाहिए. सार्त्र का यह कथन दुनिया के मशहूर अफ़साना-निगार सआदत हसन मंटो पर सौ फीसद लागू होती है. मंटो ने जिस दम पर जीवन जिया वह साधारण जीवन नहीं था. इस असाधारण जीवन का चुनाव उन्होंने जानूझकर किया हो यह तो नहीं,पर जिस बुर्जुवा समाज के वे हिस्से थे उस समाज के दोगलेपन पर जब वह अपनी जीनियासिटी और साहस के साथ कलम उठाते हैं तो अधिकांश लोगों को ऐसा लगता है कि मंटो जानबूझकर सुर्खियाँ बटोरने के लिए यह सब करता है. काश ! सचमुच अपने लेखन में मंटो उतना चालाक और उतना रणनीतिक रहा होता,जितना उसके समकालीन बहुत सारे लेखक थे.

मुखौटा मंटो का आभूषण कभी नहीं रहा. इसलिए मंटो के जीवन और साहित्य में कोई दोहरापन,किसी तरह की फाँक,चालाकी और धूर्तता की कोई वर्णमाला या उसको शासित करने वाले व्याकरण आपको नहीं मिलेंगे. बाज़दफ़ा नहीं हरदफ़ा जो कुछ भी है बेबाक और बेलौस. मंटो की मंटोईयत यही है. इस मंटोईयत के बारे में जो बात सबसे अधिक मायने रखती है,वह यह है कि मंटो के प्रशंसक हों या निंदक दोनों उन पर फ़िदा रहते हैं. यह मंटो की कलम का ही जादू है. सचमुच,बिना कलम के मंटो सिर्फ सआदत हसन है और मंटो की शख्शियत के बिना सआदत हसन की क्या हैसियत.
  
दुनिया भर में मंटो की पहचान एक विलक्षण अफ़साना-निगार के रूप में है. मंटो अपने समय से बहुत आगे के रचनाकार हैं. वे औरत-मर्द की जाती ज़िंदगी के रिश्ते और उन रिश्तों की पाक-नापाक सलाहियतों और दुश्वारियों को सामाज-मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के सहारे वि-रचित करते हुए जिस तरह से समाज,राजनीति और मज़हब के झूठे किन्तु चमकदार रेशमी ताने-बाने का रेज़ा-रेज़ा उधेड़ते हैं वह बुर्ज़ुवा समाज के बीच कैसे उचित माना जाता. पर मंटो तो मंटो,अपनों के बीच भी अकेला अडिग.

हिंदी के कम लोगों को पता है कि मंटो ने एक उपन्यास भी लिखा है. एक छोटा उपन्यास,जिसे अँग्रेजी वाले नावेला (Novella) कहते हैं. कभी-कभी हल्के-फुल्के अंदाज़ में नावेलेट (Novelette). यह उपन्यास बगैर किसी उनवान (शीर्षक) के लाहौर से ही निकलने वाली पत्रिका कारवाँमें किश्तवार शाया हुआ था. बाद में,मंटो के देहांत के एक साल पहले सन 1954 ईस्वी में,वह पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ. चूँकि,कारवाँमें यह बिना किसी उनवान के छपता रहा था,मंटो ने इसका नाम रख दिया बगैर उनवान के.
  
इस उपन्यास का उर्दू से हिंदी में तर्जुमा किया था कवि,कथाकार,नाटककार,संपादक,प्रकाशक और अनुवादक सतीश स्याल उर्फ सतीश जमाली ने. सतीश जमाली (17 अगस्त, 1940- 20 जून 2016) पठानकोट के रहने वाले थे. पंजाब में एटलस साइकिल की अपनी नौकरी छोड़कर वे 1968 ईस्वी में इलाहाबाद आ गए. दरम्यानी कद,इकहरी काया,गोरा रंग और सपाट चेहरा. उस सपाट चेहरे पर गड्ढे में धँसी खोजी घुच्ची आँखें और उभरती ऊँची खुदगर्ज नाक,दोनों जैसे परस्पर एक दूसरे को संतुलित करते हों. यह नाक ही थी कि,जिसे सतीश जमाली ने ताजिंदगी बचाए बनाए रखा. वगरना,ज़िंदगी ने सतीश जमाली को कौन-कौन से रंग नहीं दिखाये. पर,उस आदमी ने कभी भी हार नहीं मानी.

सतीश जमाली ने प्रथम पुरुष’,थके हारे’,ठाकुर संवाद’,नागरिक’,जंग जारीथके हारे’,सहपाठी तथा अन्य कहानियाँऔर बच्चे और अन्य कहानियाँजैसे कहानी संग्रह दिये और प्रतिबद्ध’,तीसरी दुनियाऔर छापपर टोलाजैसे उपन्यास लिखे. आदमी आज़ाद हैनाम से उन्होंने एक नाटक भी लिखा था. सतीश जमाली ने श्रीपत राय,उपेंद्रनाथ अश्क,भैरव प्रसाद गुप्त जैसे लोगों के साथ काम किया. कहानीपत्रिका के बाद नयी कहानीनाम से खुद की पत्रिका निकाली. चित्रलेखानाम से प्रकाशन शुरू किया. बाद में और भी कई छोटे-छोटे प्रकाशन शुरू किए. ज़िंदगी को जीना और चलाना तो होता ही है. वह इतनी भी आसान नहीं जितना उसे माना या कहा जाता है.  
  
चित्रलेखा प्रकाशन से ही मंटो के उपन्यास बगैर उनवान केका हिंदी अनुवाद सन 1985 ईस्वी में प्रेम कहानीनाम से प्रकाशित हुआ. अनुवाद खुद सतीश जमाली ने किया है. सतीश जमाली एक छोटे प्रकाशक थे. प्रकाशन उनके लिए जीविकोपार्जन हेतु निजी उद्यम था. इस अनुवाद का हिंदी में जिस तरह से स्वागत होना चाहिए वह तो दूर लोगों को पता तक नहीं कि मंटो के उपन्यास बगैर उनवान केका हिंदी में अनुवाद हो चुका है. कोई चर्चा नहीं,कोई पहल नहीं. अभी,इसी साल (ईस्वी सन 2020) में वाणी प्रकाशन से पेपर बैक में मंटो के उक्त उपन्यास का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. अनुवाद पत्रकार,लेखक,फिल्म समीक्षक और अनुवादक राजकुमार केसवानी ने किया है. मुझे नहीं पता कि राजकुमार केसवानी को,आज से 35 साल पहले किए गए सतीश जमाली द्वारा उपर्युक्त अनुवाद की जानकारी थी या नहीं. अगर होती तो प्रस्तवाना में उनका जिक्र जरूर किया गया होता (हालाँकि,हिंदी में इस तरह का रिवाज़ नहीं के बराबर है). अब थोड़ा राजकुमार केसवानी की उस प्रस्तावना की इस बात को “...लेकिन बदकिस्मती से हिंदी में यह आधी-अधूरी शक्ल में ही पेश हुई है” समझने की कोशिश की जाय.


इस वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि राजकुमार केसवानी को हिंदी के कुछ अनुवादों की जानकारी जरूर है. क्या पता उन्होंने सतीश जमाली वाले अनुवाद को भी देखा हो?पर,यहाँ यह बताना जरूरी है कि सतीश जमाली का अनुवाद आधी-अधूरी शक्लमें नहीं है,बल्कि,मुकम्मल शक्लमें ही है– कुल 96 पृष्ठों में,बिना किसी प्रस्तवाना के और भूमिका के. वाणी से प्रकाशित अनुवाद में कुल 102 पृष्ठ हैं,जिसमें से 4 पेज राजकुमार केसवानी की प्रस्तावना और 8 पेज उपन्यास के दाबीचा (भूमिका) को निकाल दिया जाय तो मुकम्मल उपन्यास 90 पृष्ठ का ही ठहरता है. मंटो ने नेहरू को लिखे एक पत्र को इस उपन्यास का दाबीचा बनाया है. वह पत्र कई मायनों में बहुत ही महत्व का है,पर उपन्यास से उसकी कोई संगति नहीं,यह केसवानी जी स्वयं ही प्रस्तावना में लिख चुके हैं. सही भी है,अगर इस दाबीचा के बिना भी उपन्यास पढ़ा जाय तो कोई फर्क नहीं पड़ता. वैसे भी,एक उपन्यास के लिए भूमिका कोई बहुत जरूरी चीज नहीं होती.

 ऐसे में,यह कहना कि मुकम्मल शक्लमें पहली बार यह उपन्यास प्रकाशित हो रहा है,का अर्थ क्या हो सकता है?सिवाय सुर्खी पाने वाले उस चौंकाऊ वाक्य के जिसे पत्रकारिता में यूं ही उपयोग में लाया जाता है. इसे राजकुमार केसवानी ज़्यादा बेहतर जानते होंगे. उन्होंने लंबे समय तक अच्छी पत्रकारिता की है. वह एक अच्छे पत्रकार रहे हैं. बहरहाल,आइए मंटो के इकलौते उपन्यास बगैर उनवान के (अनु. प्रेम कहानी) से इश्क-मुहब्बत की कुछ बातें की जाएँ.


मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, इसलिए कि तुम नफरत के काबिल हो :

ऐसी लड़कियों से जो  प्रेम का नाम सुनकर यह समझें
कि एक बहुत बड़ा पाप उनसे हो गया,वह प्रेम नहीं कर सकता था.

मंटो ने औरत-मर्द के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रिश्ते को लेकर कई कहानियाँ लिखीं हैं. उनके अफसानों में प्रायः औरत को लेकर मर्द जात की मानसिक और सामाजिक बनावट और व्यवहार का जो दोगलापन दिखता है और वे जिस बेरहमी से उसका पोस्टमार्टम करते हैं वह बूर्जुआ समाज का वह आईना है जिससे लोग बचना चाहते हैं. मंटो की ताकत (और यह ताकत ही उनकी खासियत है) यह है कि वे मज़हब,ईमान,इलाहियत[2],दीनियात[3],आखिरत[4]आदि के बहु-परतीय चेहरे को बेपर्द करते हुए उनके सामने इस आईने को रखते चले जाते हैं. यह उनका बहुत ही प्रिय विषय रहा है यह उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति की जाती ज़िंदगी की कहानी कहता है जो मुहब्बत करना चाहता है पर समाज क्या कहेगा इस भय-ग्रंथिसे छूट नहीं पाता है. हालाँकि,हम जिस समाज में रहते हैं इसकी चिंता मर्द उतना नहीं करते जितना औरतें करती हैं कि समाज क्या कहेगा. लेकिन,यहाँ पर मंटो ने एकदम नया विषय और प्लाट लिया है. एक मर्द कैसे मुहब्बत करना चाहता है पर कैसे करे,किससे करे?

उपन्यास का नायक सईद सोचता है कि प्रेम के बिना आदमी कैसे सम्पूर्ण हो सकता है?’वह अपने बारे में सोचता है कि उसका दिल प्रेम करने लायक है फिर भी कोई उससे प्रेम क्यों नहीं करता ?या वह किसी से प्रेम क्यों नहीं कर पाता ?क्या लड़कियां भोंदू और भोले और मासूम लोगों से ही प्रेम करना चाहती हैं उस जैसे समझदार और ईमानदार आदमी से कोई लड़की प्रेम क्यों नहीं करती है?उसे भी लतीफ़ और अपने अन्य दोस्तों की तरह किसी न किसी लड़की को प्रेम करने के लिए फाँसना चाहिए. उपन्यास अपनी प्रस्तावना में सईद की इस तड़प से शुरू होता है कि सईद की समझ में नहीं आता था कि प्रेम कैसे पैदा हो जाता है,बल्कि यह कहिए कि पैदा हो सकता है. वह जिस भी समय चाहे उदास और क्रुद्ध हो सकता है और अपने आप को खुश भी कर सकता है,परंतु वह प्रेम नहीं कर सकता,प्रेम जिसके लिए वह इतना बेचैन रहता था.

यह प्रस्तावना इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें मंटो प्रेम हो जाने के उस हर चलन और समझ का परिहास करते हैं जिसे नौजवान प्रेम करना कहते हैं. जिसे लव एट फ़र्स्ट साईटकहा जाता है,सईद का उस पर कोई भरोसा नहीं. वह कहता है कि वह लोग झूठे हैं जो कहते हैं कि प्रेम चुटकियाँ बजते हो जाता है.क्या सचमुच,इश्क़ करना इतना आसान है. फिर,कबीर ने जो कहा है या जिगर मुरादाबादी ने जो फ़रमाया है उसका मानी क्या है ?परंतु,उन लोगों के लिए इसका क्या मानी जो एम. असलम[5]और बहज़ाद[6]के भद्दे और छिछोरे मोहब्बत के अफ़साने पढ़कर और गीत गाकर मुहब्बत करते हैं – दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे.
  
सईद इस भद्दे और छिछोरे प्रेम से अलग तरह का कोई प्रेम करना चाहता है. लोगों से उसने यह सुन रखा था कि सबके जीवन में एकबार प्रेम का अवसर अवश्य आता है. हम हिंदी वाले भी जयशंकर प्रसाद के एक पात्र[7]के हवाले से यह जानते हैं कि सबके जीवन में एकबार प्रेम की दीपावली जलती है.इस प्रेम के अवसर की तलाश में सईद लड़कियां खोजने और उन्हें फांसकर उनसे मुहब्बत करने की मंशा से निकलता है. वह लतीफ़ की दरी की दुकान पर कई दिनों तक बैठता है कि वहाँ से आने-जाने वाली लड़कियों में से किसी से कह सके कि वह उससे मुहब्बत करना चाहता है. लेकिन,वहाँ कुछ दिन बैठ कर ही उसे महसूस होता है कि जितने लोग बाजार में चलते-फिरते हैं सब के सब जैसे सफ़ेद चादर की तरह हैं.

यह वाक्य एक पूरी कविता है,जो बहुअर्थी है. मंटो के किस्सागोई की यह क़ाबिलियत बहुत ही कम लोगों में दिखती है. इस वाक्य का यहाँ अर्थ करना उसकी हदें तय करना होगा. आगे,उपन्यास के कुछ प्रसंगों और चरित्रों से जुड़कर यह वाक्य स्वतः अर्थ से भर उठेगा. वह यहाँ से ऊबकर,दूसरी कोशिश करता है. लड़कियों के स्कूल के सामने कंपनी बाग के पास रेलवे फाटक के पास कई दिनों तक मँडराता है. इस उपन्यास का लोकेल अमृतसर और लाहौर हैं. समय बीसवीं सदी का तीसरा दशक है. जिस कंपनी बाग का ऊपर जिक्र आया है वह अमृतसर का कंपनी बाग है. मंटो लुधियाना में पैदा जरूर हुए थे पर पले-बढ़े अमृतसर में थे. उनके पिता एक बैरिस्टर थे,बहुत ही कड़क और अनुशासनप्रिय. ध्यान देने वाली बात यह है कि मंटो की तरह इस उपन्यास का नायक सईद भी वकीलों के परिवार से है. मंटो की अपने पिता कभी बनी नहीं. मंटो को शुरू से ही साहित्य,संगीत,थियेटर आदि कलाओं में दिलचस्पी थी. नौजवानी के दिनों में उन्होंने अपने कुछ दोस्तो के साथ मिलकर एक क्लब बनाया था जहाँ वह नाटक,संगीत आदि के लिए लोगों को एकत्र कर सकें. उनके बैरिस्टर पिता को यह सब नाच-गाना बिलकुल पसंद नहीं था. वही,एक बुर्ज़ुवा समाज में हर मध्यवर्गीय पिता की चिंता कि कहीं उसके बच्चे बिगड़ न जाएँ. पर,मंटो ने कभी इसकी परवाह ही नहीं की.

सईद मुहब्बत करने की चाहत लिए रेलवे फाटक के पास कई दिनों तक खड़ा रहा कि स्कूल आती-जाती लड़कियों में से किसी को अपने प्रेम के लायक चुन सके– “वह दस दिनों तक लगातार फाटक पर जाता रहा,शुरू-शुरू में दो-तीन दिन वह इन लड़कियों की तरफ ध्यान देता रहा,मगर अगले दिन जब सुबह की ठंडी हवा चल रही थी,जिसमें कंपनी बाग के तमाम फूलों की खुशबू बसी हुई थी,उसने अचानक अपने आपको इन लड़कियों के बजाय पेड़ों को बड़े ध्यान से देखते पाया जिनमें अनगिनत चिड़ियाँ चहचहा रही थीं,सुबह की खामोशी में चिड़ियों का चहचहाना कितना अच्छा लगता था. इसलिए जब उसने ध्यान दिया तो उसे पता चला कि वह एक सप्ताह से लड़कियों के बजाय इन चिड़ियों,पेड़ों और फ़्रंटियर मेल में दिलचस्पी ले रहा है.”

ऐसा आदमी भला क्या खाकर वैसा प्रेम कर पाएगा जैसा उसके हमउम्र कर रहे थे. प्रेम शुरू करने की उसने और भी बहुतेरी चेष्टाएँ कीं,पर असफल रहा. एक आखिरी कोशिश उसने करने की कोशिश की. तय किया कि शोहदों की तरह इधर-उधर भटकने से अच्छा है कि अपनी गली में ही किसी लड़की से मुहब्बत क्यों न की जाय ?उसने फटाफट गली की आठ-नौ लड़कियों की सूची बना डाली. फिर,एक-एक कर सब नामों पर विचार करने लगा. सागरा और नईमा. नहीं,ये दोनों तो कट्टर मौलवियों की लड़कियाँ हैं. उनसे प्रेम के बारे में सोचना भी बेकार था. उनको केवल खुदा से प्रेम करना सिखाया गया था.

पुष्पा,विमला और राजकुमारी– तीनों हिंदू लड़कियाँ. इनमें से किसी से भी प्रेम करना मतलब,हिंदू-मुस्लिम फ़साद. फ़ातिमा का नाम आते ही सईद का मन बिचक गया,फातिमा एक साथ दो लोगों से मुहब्बत कर रही थी. जुबेदा से तो कोई मुहब्बत करने की सोच हे नहीं सकता था. उसका भाई ख़ानदान की इज्ज़त के नाम पर किसी की भी जान ले सकता है. बाकी बची वह कश्मीरी लड़की जिसका नाम नहीं मालूम,जो पश्मीना शाल का व्यापार करने वाले चार भाइयों के यहाँ घर का सारा काम करती थी– नौकरानी थी.

सईद की इस सूची और लड़कियों के बारे में जो उसकी समझ है उस पर गौर किया जाय तो साफ हो जाता है कि मुहब्बत निजी चाहत का मसला होते हुए भी निजी नहीं है. वह मज़हब का मसला है,वह समाज का मसला है. उसके पार,उससे इतर मुहब्बत की कोई नागरिकता कोई पहचान नहीं. मंटो इस उपन्यास में,एक व्यक्तिके निजीप्रेमऔर कामसम्बन्धों को समाज और मज़हब की इस घेरेबंदी के बरक्स,आमने-सामने रखकर,उसका बहुत ही संजीदगी के साथ एक क्रिटिक तैयार करते हैं.
  
उपन्यास के उपर्युक्त शुरू के प्रसंग कथानकके लिए प्रस्तावना भर हैं. वास्तव में मंटो उस कश्मीरी लड़की राजो तक पाठक को ले आने के लिए यह प्रस्तावना बुनते हैं. जैसा कि ऊपर कहा गया कि राजो चार व्यापारी भाइयों के घर नौकरानी थी और वहीं उनके घर पर,साथ रहती थी. पूरे मोहल्ले में राजो को एक चालाक और बदचलन लड़की की तरह देखा जाता था. लोगों की धारणा बन गयी थी कि यह लड़की पश्मीना की शाल का व्यापार करने वाले उन चारो भाइयों के लिए जाड़े में शाल का काम देती थी– “गली के सब समझदार लोग राजो के बारे में जानते थे. मौसी मख्तो गली की सबसे बूढ़ी औरत थी. उसका चेहरा ऐसा था कि जैसे पीले रंग के सूट की अंटियाँ बड़ी असावधानी से नोंचकर एक दूसरे में आसवधानी से उलझा दी गयी हों. यह बुढ़िया भी जिसकी आँखों को बहुत कम दिखाई देता था और जिसके कान लगभग बहरे थे,राजो से चिलम भरवाकर उसके पीठ पीछे अपनी बहू से या जो कोई उसके पास बैठा हो,कहा करती थी,इस लौंडिया को इस घर में ज़्यादा न आने दिया करो,वरना किसी दिन अपने ख़सम से हाथ धो बैठोगी.”

जबकि,राजो अपनी मुस्कुराहट,अपनी मेहनत से खाली समय में सबका कुछ न कुछ काम कर ही जाती. कभी किसी की चोटी गूँथ दिया,कभी बच्चों के पोतड़े बदल दिये,कभी किसी के सिर से जूएँ निकाल दिए. कभी गँठिया की बीमारी से दर्द के मारे कराहती बुढ़िया के पैर दबा दिए. वह हर समय इसकी चेष्टा करती कि वह सबको खुश देख सके.
  
वेश्याओं के जीवन पर मंटो कई अच्छी कहानियाँ लिख चुके हैं. मंटो की खासियत यह है कि वे मनुष्य जीवन के उन गड्ढों,दरारों,स्याह कोनों-अंतरों को भी दिखाने और रौशन करने की हिमाकत करते हैं जिन पर सभ्य समाज कूड़ा-करकट डालकर,पर्दे की ओट देकर ओझल कर दिये जाने की कोशिश करता है. पर,क्या इससे मर्ज़ ख़त्म हो जाएगा या नासूर बनता चल जाएगा?मंटो इसी सवाल को अपने लेखन में बार-बार उठाते हैं. इस उपन्यास में सईद सोचता है कि
“यह कितना कष्टदायी जीवन है. किसी को अनुमति नहीं कि वह अपने जीवन के गड्ढे दूसरों को दिखाए. वह लोग,जिनके कदम मजबूत नहीं उनको अपनी लड़खड़ाहटें छिपानी पड़ती हैं क्योंकि इसी का रिवाज है. हर व्यक्ति को एक जिंदगी अपने लिए और एक दूसरे के लिए गुजारनी होती है. आँसू भी दो तरह के होते हैं,ठहाके भी दो तरह के. एक वह आँसू,जो जबर्दस्ती आँखों से निकालने पड़ते हैं और एक वह जो पाने आप निकलते हैं....वह सोचता था कि राजो की सदा मुसकुराती आँखों में आँसू नजर आए और वह इन आँसुओं को सभ्यता की दीवारें तोड़ कर अपनी उँगलियों से छुए. वह अपने आँसुओं का स्वाद अच्छी तरह जानता था,परंतु वह दूसरों की आँखों के आँसू भी चखना चाहता था. विशेष रूप से किसी औरत के आँसू. उसकी यह इच्छा तेज हो गई.”


तुम बीमार हो...तुम्हें एक नर्स की ज़रूरत है

सईद को ऐसा महसूस हुआ कि
औरत के संबंध में उसके तमाम भाव अपने कपड़े उतार रहे हैं.

यह उपन्यास बहु-परतीय सामाजिक-ग्रंथियों के दबाव से संचालित एक पुरुष की प्रेमऔर कामसंबंधी  भय-ग्रंथिको लेकर खुद से जद्दोजहद और संघर्ष का उपन्यास है. यह संघर्ष समाज की सामूहिक चेतना(Collective Consciousness)और उस समाज में एक नागरिक की हैसियत रह रहे व्यक्तिकी वैयक्तिक चेतना(Individual Conscious) के बीच के संघर्ष को बहुत ही सृजनात्मक तरीके से सामने लाता है. उपन्यास का नायक सईद एक पुरुषहै,जिसको समाज में निश्चित ही एक स्त्रीकी तुलना में अधिक सामाजिक और आर्थिक अधिकार हासिल हैं फिर भी वह राजो से अपनी मुहब्बत का इज़हार क्यों नहीं कर पाता है?क्यों राजो से मुहब्बत करते हुए भी वह उससे दूर भागना चाहता है ?उपन्यास अपने आखिरी हिस्से में एक व्यक्तिकी इसी कशमकश और छटपटाहट को दर्शाता है.यही इस उपन्यास का नयापन है. एक नए विषय के साथ एक नया कथानक. बुर्जुवा सामज में यह छटपटाहट,यह जद्दोजहद,यह संघर्ष जितना सईद का है उससे ज़्यादा खुद मंटो का. इस उपन्यास में सईद,मंटो का आल्टर इगो (Alter Ego) है. इसको उपन्यास के प्रसंगों और उदाहरणों के हवाले से आगे चलकर विश्लेषित करने का प्रयास किया जाएगा.
  
मंटो की तुलना डी. एच. लॉरेंस,आस्कर वाइल्ड,ग्वे दि मोपासाँ जैसे दुनिया के महान लेखकों से की जाती है. मंटो,मोपासाँ की तरह एक व्यक्ति की वासनाओं और समाज की वर्जनाओं के बीच के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व को जिस खूबी के साथ रचते हैं वह दुरूह मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों और दार्शनिक स्थापनाओं को व्यावहारिक धरातल पर समझने की बेहतरीन कुंजी है. मंटो व्यक्ति-मन की जटिलताओं और गुत्थियों को मनोविश्लेषणवाद के सिद्धांतों के सहारे सुलझाने और दिखाने की कोशिश के रचनाकार नहीं हैं. वह तो बहुतों के यहाँ मिल जाएगा. मंटो,बुर्ज़ुवा समाज के समाज-मनोवैज्ञानिक साँचे में एक व्यक्तिकी स्वतंत्र नागरिकता क्या होनी चाहिए,इसकी तलाश और समझ के व्यावहारिक कथाकार हैं. जिस तरह डेविड एमिल दुर्खीम[8]के यहाँ  समाज की सामूहिक-चेतना(कलेक्टिव कांसियसनेस)द्वारा बनाए गए और निश्चित किए गए व्यक्ति के अधिकारों और कर्तव्यों और उसके अनुसार उसमें रहने वाले एक व्यक्ति की वैयक्तिक-चेतना (इंडिविजुअलकांसियसनेस) के बीच द्वंद्व में समाज और व्यक्ति के रिश्ते को समझने वाले सिद्धान्त (जिसे युंग और फ्रायड ने आगे चलकर मनोविज्ञान के सिद्धांतों द्वारा मानव-मन की जटिलताओं के चिकित्साशास्त्र के रूप में विकसित किया) के बीज-तत्व मिलते हैं,उसी तरह से भारतीय उपमहाद्वीप के कथा साहित्य के संदर्भ में,समाज-मनोवैज्ञानिक धरातल पर समाजऔर व्यक्तिके बीच के द्वंद्व और संघर्ष के बीज मंटो के यहाँ प्राप्त होते हैं. 

सामूहिक चेतनाके चलते व्यक्तिसमाज के तथाकथित नैतिक,मूल्यगत और आदर्शात्मक मान्यताओं और वर्जनाओं के द्वारा संचालित और नियंत्रित होने के लिए बाध्य किया जाता है,अगर कोई व्यक्ति इनसे मुक्त होने की कोशिश करता है तो उसका समाज के साथ-साथ खुद से जो संघर्ष होता है,यह उपन्यास इसी विषय को लेता है. उपन्यास में सईद का चरित्र इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर बुना गया है.
  
उपन्यास अपने दो-तीन अध्यायों में जिस प्रस्तावना के साथ शुरू होता है (जिसका जिक्र ऊपर आया है) वह आगे के अध्यायों में अपने उद्देश्य की ओर एक मजबूत कथानक के साथ उपस्थित होता है. उपन्यास के नायक सईद के अंदर जिस शिद्दत से मुहब्बत करने की तड़प बनी हुई थी वह अब पूरी होती दिखती है. जिस राजो को पूरा मोहल्ला उसके संदिग्ध चरित्र और रहन के चलते तरह-तरह की नजरों से देखता है और अपने घर की बहू-बेटियों को उससे ज़्यादा घुलने-मिलने से बरजता है उसी राजो से सईद को मुहब्बत हो जाती है. क्योंकि,“राजो गिलाफ़-चढ़ी औरत नहीं थी. वह जैसी भी थी,दूर से नजर आती थी. वह बिलकुल साफ थी.”

प्रसंगतः,अब हमें ऊपर आए उस काव्यात्मक वाक्य की अर्थगर्भिता के सिरे खुलते हुए दिखने लगते हैं जिसमें यह कहा गया है कि,जितने लोग बाज़ार में चलते-फिरते हैं सब के सब सफ़ेद चादर की तरह हैं. राजो सफ़ेद चादर नहीं है,गिलाफ़ चढ़ी औरत नहीं है. जिसे सभ्य समाज कहते हैं,उसका कोई आवरण वह नहीं ओढ़ती है. हम सब जानते हैं कि मंटो ने एक ही जीवन जिया,एक ही चरित्र जिया. वे दोहरे जीवन और चरित्र को बर्दाश्त नहीं करते थे. वे दोस्ती,दुश्मनी,प्रेम,काम सबमें एक चरित्र के हिमायती थे इसीलिए दोगलेपन को नापसंद करते थे,उससे चिढ़ते थे. इसीलिए उनकी कहानियों में,आवरण ओढ़े,मुखौटा पहने बुर्ज़ुवा समाज की बार-बार धज्जियां उड़ाई गयी हैं. इन कहानियों में वे उन सभी स्त्री-चरित्रों के समर्थन में खड़े होते हैं जिनको भोगते हुए,भोगने की लालसा पाले हुए सभ्य समाज के अधिकांश लोग नफ़रत करते हैं. मंटो को यह नाकाबिले-बर्दाश्त है. तभी तो वह बेहिचक कहते हैं –

“अगर आप जमाने की हक़ीक़त से नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़सानों को पढ़िये. अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब कि यह ज़माना भी नाकाबिले-बर्दाश्त है.”  
सुगंधी,सुल्ताना,मोजेल,कुलवंत कौर जैसे नायाब स्त्री-चरित्र मंटो ने दिये हैं वह कहीं और नहीं मिलेंगे. नंगी आवाजें,काली सलवार,शिकारी औरतें,सरकंडों के पीछे,दो क़ौमें जैसी कहानियाँ औरत-मर्द के रिश्ते के फ़रेब और दोगलेपन के साथ समाज के अनगिनत मुखौटों और साँचों को जिस तरह से तोड़ती हैं,वैसी कहानियाँ दुनिया में किसी अफ़साना निगार के पास नहीं हैं. इस उपन्यास में राजो और मिस फारिया का चरित्र भी जिस तरह से औरत-मर्द के रिश्ते की परिभाषा बदलते हैं,वह नायाब है.
  
एक दिन एक ऐसी घटना घटती है कि उपन्यास जिस कथानक को बुनना चाहता है उसका प्रसंग उपस्थित हो जाता है. दिसंबर का आखिरी दिन. सर्द जाड़े की रात. सईद की अपने कमरे में सोने की तमाम कोशिशें नाकाम होती जा रही हैं. अत्यधिक ठंड के मारे उसे नींद नहीं आ रही है. आधी रात हो चुकी है. अचानक बाहर से कुछ आवाजें सईद के कानों में पड़ती हैं,किसी की मिन्नतें करने जैसी काँपती सी आवाज. वह खिड़की के दराज़ों से बाहर झाँकता है तो देखता है कि “वही...वही लड़की यानी व्यापारियों की नौकरानी बिजली के लैंप के नीचे खड़ी थी,एक सफेद बानियान में. उस बानियान के नीचे उसकी छातियाँ नारियलों की तरह लटकी हुई थीं. वह इस तरह से खड़ी हुई थी,जैसे अभी-अभी कुश्ती खत्म की हो....इतने में किसी पुरुष की भिंची हुई आवाज आई – खुदा के लिए अंदर चले आओ...कोई देख लेगा तो आफत ही आ जाएगी. जंगली बिल्ली की तरह गुर्रा कर लड़की ने कहा – नहीं आऊँगी,बस एक बार जो कह दिया,नहीं आऊँगी....मुझे मेरे कपड़े ला दो. बस,अब मैं तुम्हारे यहाँ नहीं रहूँगी. मैं तंग आ गयी हूँ. मैं कल से वकीलों के घर नौकरी कर लूँगी...समझे.” और अगली सुबह जब नया साल धूप सेंक रहा था तो सईद ने पाया कि राजो सचमुच उसके घर काम करने चली आई है. उसकी उदार और कृपालु माँ ने उसे नौकरी पर रख लिया है.
  
अब यहीं से सईद की मुश्किल शुरू हो जाती है. उसे राजो से मुहब्बत तो है पर वह उसे बताना नहीं चाहता,वह राजो को ही क्या किसी को भी नहीं बताना चाहता. लोग अगर जान गए तो उसके बारे में क्या सोचेंगे कि मियाँ गुलाम रसूल क बेटा,जो ज़्यादा किसी से बातें नहीं करता,सारा दिन बैठक में मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहता है,ऐसा निकला. व्यक्तिके चेतन और अवचेतन का द्वंद्व यहाँ शुरू हो जाता है. समाज की सामूहिक चेतना (कलेक्टिव कांसियसनेस) और व्यक्ति की चेतना (इंडिविजुअल कांसियसनेस) के बीच संघर्ष शुरू हो जाता है. सईद के चरित्र के इस भीतरी और बाहरी द्वंद्व को मंटो ने जिस तरह से एक व्यक्ति की मानसिक दशा,उस स्थिति से उत्पन्न दबाव,तनाव और बेचैनी के जरिए सृजित किया है,वह अत्यंत ही सच्चा और खरा है. सईद,राजो से मुहब्बत करता है,पर ज़ाहिर नहीं होने देना चाहता. उसकी इच्छा है कि राजो किसी न किसी बहाने से उसके सामने रहे पर पास आने पर,सामने आने पर वह उसे फटकार कर दूर भगाता रहता है – 

“वह इस औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकता था. उसे देखकर उसका कुछ ऐसा ही हाल हो जाता,जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था. इसमें कोई संदेह नहीं कि वह उसके प्रेम में बुरी तरह जकड़ गया था. परंतु वह इस प्यार को बिलकुल दबा देना चाहता था.”

सईद की मानसिक चाहना और सामाजिक नैतिकता का संघर्ष इस भयानक स्तर तक पहुंचता है कि वह बीमार पड़ जाता है. उसे तेज़ बुखार हो जाता है,यह बुखार 105 डिग्री तक पहुंचता है. मंटो ने स्वाभाविक से लगने वाले,किन्तु एक युक्ति (डिवाइस) की तरह से इस बुखार वाले प्रसंग को उपस्थित किया है. यह बुखार ही है जिसमें सामूहिक चेतनाके दबाव से मुक्त होकर सईद की व्यक्ति-चेतनाउसका अवचेतन मुखर होकर बाहर आ पाता है – “इधर मेरे तरफ देखो ! जानती हो,मैं तुम्हारी मुहब्बत में गिरफ़्तार हूँ. बहुत बुरी तरह मैं तुम्हारी मुहब्बत में फँस गया हूँ,जिस तरह कोई दलदल में फँस जाय. मैं जानता हूँ,तुम मुहब्बत के काबिल नहीं हो,मगर मैं यह जानते-बूझते तुमसे मुहब्बत करता हूँ. लानत है मुझ पर...लेकिन छोड़ो इन बातों को...इधर मेरी तरफ देखो. खुदा के लिए मुझको तकलीफ न दो. मैं बुखार में उतना नहीं फुंक रहा...राजो।राजो...मैं...मैं...। उसके विचारों का सिलसिला टूट गया और उसने डाक्टर मुकुंदलाल भाटिया से कोनीन की हानियों पर बहस शुरू कर दी.”
  
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ,कुछ न समझे खुदा करे कोई. पर,पाठक समझ जाते हैं. राजो समझ कर भी अपनी परिस्थित अनुसार नासमझ बनी रहती है. बुखार कम होने पर सईद को डबल निमोनिया हो जाता है. इस हालत में उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है. वह सोचता है कि चलो यह अवसर भी अच्छा बन पड़ा. अस्पताल में रहूँगा तो राजो की छाया नहीं परेशान करेगी. पर,अस्पताल में उसकी सेवा और टहल में लगी मिस फ़ारिया उसे बहुत अच्छी लगने लगती है. मिस फरिया भी सईद के सलीके और औरत के प्रति उसके व्यवहार के चलते उसको पसंद करने लगी है. दोनों में मुहब्बत भले न हो पर एक इंसानी जज्बाती रिश्ता बन जाता है– “नर्स,मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ. तुमने मेरी बहुत खिदमत की है. काश,मैं उसका बदला तुमसे मुहब्बत करके दे सकता. एंग्लो-इंडियन नर्स के होंठो पर एक बारीक सी मुस्कान फैल गयी. आँखों की पुतलियाँ नचाकर उसने कहा,तो क्यों नहीं करते...करो.’...मुझे इसका अफसोस है. तुम इस काबिल हो कि तुमसे आइडोफार्म की तेज़ बू समेत मुहब्बत की जाए...मगर इट इज टू लेट.”

मंटो के दिल में औरतों के लिए बहुत अधिक ईमानदारी और इज्ज़त थी. उन पर लिखने और काम करने वाली उनकी तीसरी पीढ़ी की रिश्ते में भतीजी (ग्रैंड-नीस) आयशा जलाल और अँग्रेजी लेखिक और पत्रकार प्रीति तनेजा को पढ़ने से इस बात की तस्दीक होती है. मंटो के अंदर कहीं न कहीं एक औरत का हिस्सा मौजूद है,जो सामान्यतः मर्दों की सोच से अलग हटकर औरतों की बारे में सोचता है. इसी उपन्यास में सईद का दोस्त मिस फरिया के बारे में जिस तरह की सोच रखता है,प्रायः सभी मर्द उसी सोच से औरत को देखना-पाना चाहते हैं. वह कहता है कि मैं इश्क-विश्क में बहुत विश्वास नहीं करता. औरत से बहुत देर तक मैं चिपट कर नहीं रह सकता. मैं उस कहावत पर विश्वास करता हूँ कि मिश्री की मक्खी बनो,शहद की मक्खी नहीं. पर,सईद इसके उलट सोचता है. वह औरत को केवल शारीरिक भूख मिटाने मात्र की वस्तु भर नहीं मानता. उसकी नज़र में मुहब्बत का दर्जा बहुत ही ऊँचा है –

“मैं यह नहीं कहता कि मुहब्बत एक निहायत ही एक साफ़ खयाल का नाम है. मुझे ऐसा मालूम होता है कि मुझे पता है,मुहब्बत क्या है...मगर...मैं साफ़-साफ़ बता नहीं सकता. मैं समझता हूँ,मुहब्बत हर शख्स के अंदर एक खास खयाल लेकर पैदा होती है. जहां तक उस खास हरकत का ताल्लुक है,एक ही रहता है. अमल भी एक ही है. नतीजा भी आमतौर पर एक ही जैसा निकलता है.”

सईद के लिए मंटो के आल्टर ईगोकी जो बात ऊपर लायी गयी थी,वह यहाँ तालमेल बिठाती हुई दिखती है. पर सईद के मुहब्बत संबंधी इसी ख़्याल के तारतम्य में ही एक बात और निकल कर आती है कि अगर मुझे किसी से इश्क हो जाए तो मैं उस पर अपनी मल्कियत चाहता हूँ. वह औरत सारी की सारी मेरी होनी चाहिए.सईद की यह यह ख़्वाहिश आधुनिक समाजों में पैदा हुई,पली-बढ़ी एक औरत के लिए शायद मंजूर न किया जा सके. मंटो,बहुत ही ऊँचे दर्जे के कलाकार हैं. सईद के अंदर इस किस्म की उधेड़-बुन के सहारे वे मर्द और औरत के बीच हर तरह के सामाजिक और मानसिक साँचे और ढाँचे को प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसे सामंती समाज और आधुनिक समाज का अंतर और विकास कहा जाता है. मिस फारिया को लेकर अब्बास और सईद की बातचीत वाले इस प्रसंग से मंटो इस अंतर और प्रगति को सही मायनों में रखकर देखने की माँग रखते हैं. वास्तव में,यह दो तरह की सामाजिक संरचनाओं,दो तरह के मानसिक साँचों को जिस सूक्ष्मता से वे इस बातचीत के प्रसंग में सामने ले आते हैं वह दरअसल,सामंती समाज में पुरुष की स्त्री को  भोगने वाली वृत्ति और आधुनिक समाज में पुरुष की स्त्री पर सम्पूर्ण अधिकार वाली वृत्ति को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देखना है. यहाँ आकर मंटो की एक औरत के प्रति जो समझ और सोच का दायरा है वह अपने समय से बहुत-बहुत आगे चला जाता है. उपन्यास का यह प्रसंग,इस उपन्यास को आज की बहस का उपन्यास बना देता है.
  
धीरे-धीरे सरकते हुए उपन्यास अपने क्लाईमेक्स पर पहुँचता है. सईद,अस्पताल से ठीक होकर घर लौटता है पर उसकी भय-ग्रंथिबार-बार उसे उकसाती है कि वह राजो से दूर रहे. हो सके तो उससे बचने के लिए यहाँ से कहीं दूर चला जाए– 

“जिस तरह लोग भूत-प्रेत से डरते हैं,इसी तरह वह इस प्रेम से डरता था. उसको हर समय डर रहता था कि एक वक्त ऐसा आएगा,जब उसके जज़्बात बेलगाम हो जाएँगे और वह कुछ कर बैठेगा. क्या कर बैठेगा...यह उसको मालूम नहीं था. परंतु,वह उस तूफान की प्रतीक्षा कर रहा था,जिसके चिह्न उसे अपने अंदर दिखाई दे रहे थे. इस प्रेम ने उसे डरपोक बना दिया था...”

अपने इसी डर से बचने के लिए वह अमृतसर से लाहौर चला आता है. पर,लाहौर पहुँचने पर एक दूसरा ही संयोग घटित होता है. उपन्यासकार ने जैसे जानबूझकर यह संयोग उपस्थित किया है. क्योंकि,सईद के अंदर जिस सामूहिक चेतनाऔर वैयक्तिक चेतनाकी जीत-हार का भयानक संघर्ष चल रहा है,यह संयोग उसका क्लाईमेक्स है. मुहब्बत और शादी के झूठे वादे में अपना सब कुछ गँवा चुकी लुटी-पिटी सी अस्पताल की नर्स मिस फारिया से उसका सामना हो जाता है. मिस फारिया उसको देखते ही उससे लिपटकर फफकने लगती है. वह सईद को सबकुछ बताना चाहती है जो कुछ इस बीच उसके साथ घटा है. सईद उसे अपने कमरे पर चलने का प्रस्ताव देता है. एक मर्द से धोखा खाई हुई फारिया को सईद पर पूरा विश्ववास है. दोनों साथ चल देते हैं. कमरे पर आकर अपनी पूरी आपबीती फारिया सईद को बताती है. सदा हँसती-मुसकुराती रहनी वाली मिस फारिया को पूरी हमदर्दी जताते हुए सईद उसके आँसू पोंछकर उसे चारपाई पर बिठाता है. बड़े होने पर यह किसी भी औरत को छूने का यह उसका पहला अवसर है. इस समय वह जो महसूस होता है उसे छिपाता नहीं है बल्कि प्रकट कर देता है – 

'“तुम हमारी सोसायटी से लगता है वाकिफ नहीं हो. हम लोग अपनी माँ बहन के सिवा किसी औरत को नहीं जानते. हमारे यहाँ औरतों और मर्दों के बीछ एक मोटी दीवार पड़ी है...अभी-अभी तुम्हारी बाँह पकड़कर मैंने तुम्हें उस चारपाई पर बिठाया था. जानती हो,मेरे जिस्म में एक सनसनी दौड़ गई थी. तुम इस बंद कमरे में मेरे पास खड़ी हो,जानती हो मेरे दिमाग में कैसे-कैसे ख्याल चक्कर लगा रहे हैं...मुझे भूख महसूस हो रही है,मेरे पेट में हलचल मच रही है...तुमने अपने उस आशिक की बातें कीं और मेरे दिल में यह ख्वाहिश पैदा होती है कि उठकर तुम्हें सीने से लगा लूँ  और इतना भिचूँ,इतना भिचूँ कि खुद मैं बेहोश होकर गिर पड़ूँ...लेकिन मुझे अपने पर काबू पाने का गुर हासिल हो चुका है,इसलिए कि मैं अपनी कई ख्वाहिशें अब तक कुचल चुका हूँ...मैं...मैं हमदर्दी के काबिल हूँ.”

यह है उस सामूहिक-चेतना का सायास-अनायास एक व्यक्ति के ऊपर दबाव और नियंत्रण.
  
मिस फारिया,जो ख़ुद का दुःख से भारी थी,अपना दुःख भूलकर वह सईद के दुःख को सहलाने लगी. उसकी ट्रेनिंग यही थी. वह एक नर्स जो थी. सईद की पीठ पर  सहानुभूति से हाथ फेरते हुए वह कहने लगी–

“यह अजीब बात है,तुम एक औरत से मुहब्बत करते हो और साथ ही मुहब्बत जताना भी नहीं चाहते,वहाँ से भाग आए हो...और किसी दूसरी औरत से भी मुहब्बत करना नहीं चाहते...” फिर वह थोड़ी देर रुककर वह सईद से कहती है तुम बीमार हो...तुम्हें एक नर्स की जरूरत है.”

क्या सचुमुच,सईद बीमार है?उसको फरिया जैसे एक नर्स की जरूरत है जो उसकी बीमारी का इलाज़ कर सके ?क्या यह इलाज़ इतना आसान है ?इस बीमारी के लक्षणों को पहचाने बिना,उसके मूल कारणों को खोजे बिना और मिल जाने पर उसे काटकर अलग किए बिना ऐसी बीमारी का इलाज़ आसान नहीं. पर,मंटो तो मंटो हैं. वे आसान काम भला क्यों करें. इस उपन्यास में भी उन्होंने सामूहिक-चेतनाके आगे एक व्यक्ति को हारते हुए नहीं बल्कि उससे विजित होकर बाहर निकलते हुए दिखाया है. सईद के अंदर से जिस सामूहिक-चेतना का भय नहीं निकल रहा था,उसे वह अंतत: निकाल फेंकते हैं. इसे अविश्वसनीय और असामान्य व असाधारण परिणाम के रूप में कुछ लोग देख सकते हैं. इसे,सामाज की वास्तविकता और चलन के विरूद्ध माना जा सकता है क्योंकि,समाज में रहकर व्यक्ति सामाजिक मान्यताओं से अलग कैसे जा सकता है. लेकिन मंटो इसकी परवाह नहीं करते हैं. नर्स मिस फरिया,पीठ सहलाते-सहलाते आगे बढ़कर सईद को चूम लेती है.

“फारिया के होठों की छुअन ने झिंझोड़कर सईद की रूह को आज़ाद कर दिया. तुरंत ही उसने ज़ोर से फारिया के सख्त सीने को अपनी छाती के साथ भींच लिया और दूसरे ही क्षण वे दोनों पलंग पर एक दूसरे में गुम थे.... फरिया ने अपने को उसकी बांहों में सौंप दिया.”
 
पर,सईद के अंदर जिस भय-ग्रंथिने दृढ़ता से अपना घर बनाया हुआ है वह इतनी आसानी से कैसे नेस्तनाबूत हो. उसने तुरंत सईद को धर दबोचा. अकस्मात,सईद हाँफते हुए फारिया से अलग हट कर यह कहते हुए दूर खड़ा हो जाता है कि मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूँ. फारिया मुसकुराते हुए उसके पास आती है और उसके गले में अपनी बाँह डालती हुई कहती है – बेवकूफ मत बनो. सईद कहता है,“मैं ख़ुद नहीं बनता,बेवकूफ या जो कुछ भी हूँ यह मेरे माहौल की वजह से है....तुम्हारी सोच आज़ाद है,लेकिन मेरी सोच माहौल की जंजीरों में जकड़ी हुई है. तुम मुकम्मिल हो,लेकिन मैं अधूरा हूँ...” लेकिन मंटो,उपन्यास को यहीं खत्म नहीं करते. अगर उपन्यास  यहीं खत्म हो जाता तो व्यक्ति-चेतना पर समूहिक-चेतना विजित हो जाती.

सईद के अकस्मात फारिया से अलग हट जाने के प्रसंग से मंटो समाज और व्यक्ति के बीच आज़ादी और परिपूर्णता (फुलफिलमेंट) का जो द्वंद्व है,जो संघर्ष है उसे और गहरा,और तीव्र और कठिनतर दिखाने की कोशिश करते हैं. जो सईद समाज की बनाई नैतिकताओं,वर्जनाओं,स्वीकृति-अस्वीकृति के नियमों से पूरे उपन्यास में डरता,जिरह करता ख़ुद से लड़ता है,उपन्यास के अंत में जीत जाता है. राजो की तरह फारिया से बचने के लिए वह भाग खड़ा नहीं होता. वह लौटता है और आखिर में उपन्यास इस वाक्य से समाप्त होता है – 

“...उसने सुर्ख आँखों से फारिया को देखा और आगे बढ़कर अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर जमा दिए. एक बार फिर लोहे के पलंग पर वे एक-दूसरे में गुम हो गए थे.”
  
मंटो समाज में फैली ऐसी अनेकों बीमारियों के मूल कारणों को खोजते हैं,उनकी शिनाख़्त करते हैं और बेहिचक,निर्भय होकर उनकी नश्तरजनी करते हैं. यही कारण है कि तथाकथित सभ्य-समाज की नजरों में वे फ़ोहश-निगार हैं,विकृति के रचनाकार हैं. हम हशमत[9]कहते हैं –

“कोई भी इंसान की रूहों पर चढ़े,गिलाफ़ों को उतारेगा,उघाड़ेगा,दिल-दिमाग की लगी कनातों में झाँकेगा,वह बदले में खुद भी झिंझोड़ा जाएगा. नंगा किया जाएगा. नाप लिया जाएगा. मंटो के साथ ऐसा ही हुआ.”
  
यह उपन्यास हर उस व्यक्ति का उपन्यास है,जिस पर ऊल-जलूल,बेकार,सड़े-गले सामाजिक उसूलों का इतना गहरा और व्यापक सामाजिक व मनोवैज्ञानिक असर रहता है और वह जीवन भर उससे टकराता और उससे छूटने का संघर्ष करता रहता है. मंटो,धर्म और समाज के नीति-नियामक विधि-विधानों,भाग्य,नियति,रीति आदि के दुष्चक्र में फाँसे गए व्यक्तिकी वैयक्तिक आज़ादी के समर्थक लेखक हैं. वह अपने पात्रों के व्यक्तिगत/चरित्ररगत गुण-दोष को सामाजिक-साँचों और उसकी निर्मितियों के मूल कारणों से जोड़कर परिभाषित और विश्लेषित करते हैं. ये सामाजिक-धार्मिक साँचे एक व्यक्ति को ताजिंदगी किसी न किसी तरह भाग्य,नियति,पाप,पुण्य,लोक-परलोक,नैतिक, अनैतिक और भी न जाने कितनी श्रेणियों में दबाकर,नियंत्रित कर रखते हैं. मंटो,इस तरह के किसी भी साँचे को आरोपित मानते हैं,जो व्यक्ति के स्वाभाविक और नैसर्गिक निर्माण,विकास और अधिकार में बाधक होते हैं. 

यह उपन्यास इस विषय का बहुत ही महत्वपूर्ण पाठहै. लोगों की नजरों से इतना महत्वपूर्ण उपन्यास अचर्चित कैसे रह गया ?हिंदी में अब तक इस पर बात तो दूर,अधिकांश लोगों को इसकी जानकारी तक नहीं है,आश्चर्य होता है. पर,आश्चर्य भी क्योंकर हो.



[1]प्रबन्धक,व्यवस्थापक
[2]देवत्व
[3]धर्मज्ञान की शिक्षा
[4]परलोकवाद
[5]मंटो,राजेंद्र सिंह बेदी,कृश्न चंदर,इस्मत चुगताई,ख्वाज़ा अहमद अब्बास आदि के दौर के अफ़साना-निगार. बक़ौल मंटो इन्होंने प्रेम और यौन मनोविज्ञान पर बेहद भद्दे और छिछोरे अफ़साने लिखे हैं.  
[6]बहज़ाद लखनवी (मूल नाम – सरदार अहमद खाँ). शायर और गीतकार.
[7]ध्रुवस्वामिनी
[8]सोशियोलोजी एंड फिलासफ़ी (1954) नामक पुस्तक
[9]कृष्णा सोबती,हम हशमत – 2.
____________________________
विनोद तिवारी
आलोचक और संपादक

‘आलोचना की पक्षधरता’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’ आदि आलोचना-कृतियाँ इसी वर्ष प्रकाशित.
‘नई सदी की दहलीज़ पर’ आलोचना पुस्तक के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान’ से सम्मानित.
‘पक्षधर’ पत्रिका के संपादक.


दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी का अध्यापन
सम्पर्क:  C-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012
 मो. : 09560236569/vinodtiwaridu@gmai.com

छज्जे से झाँकती पृथ्वी : संतोष अर्श

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छज्जे से झाँकती पृथ्वी
संतोष अर्श                                       

“Possibly, a good side of the Coronavirus, is it might bring people to think about what kind of a world do we want.”
Noam Chomsky

मनुष्य से संक्रमित पृथ्वी सेल्फ़ आइसोलेशन में जाना चाहती है :   

पिछले वर्ष अगस्त से अक्टूबर तक फेफड़े जैसे अमेज़ॅन के सघन वर्षावन दावाग्नि से धधक रहे थे और बहुसंख्य प्राणी उनमें जीवित भुन गये. उनका प्रकृतिप्रदत्त अभयारण्य उन्हीं के लिये गैस चैम्बर बन (बना दिया?) गया. और अब एक रक्तबीज विषाणु मनुष्य के श्वसन-तंत्र का अतिक्रमण कर उसे अवरुद्ध कर रहा है. यदि मनुष्य का स्वयं को प्रकृतिजीवी मानने का दावा है और उसने महामारियों का इतिहास विस्मृत नहीं किया है, तो उसे यह प्रकोप इतना अप्रत्याशित नहीं लगना चाहिए।

लगभग सत्तर लाख वर्गकिलोमीटर में विस्तृत और आठ देशों (ब्राज़ील, बोलीविया, पेरु, इक्वाडोर, कोलंबिया, वेनेजुएला, गुयाना, और सूरीनाम) का आच्छादन करने वाले ये ऊष्णकटिबंधीय वर्षावन संसार के उच्चतम जैव-विविधता का क्षेत्र थे और दुनिया के तीस फ़ीसदी विविध वन्य-जीवों का वास स्थल (हैबिटेट) भी. धरती पर जितने मनुष्य हैं, उससे पचास गुने अधिक (३९० बिलियन) वृक्षों की हरित छाया में सोलह हज़ार से अधिक प्रकार के जीव पलते थे. पृथ्वी पर सघन वर्षावनों का आधा भाग, जो बीस प्रतिशत प्राणवायु का उत्पादन करता था, जिसके लिए ब्राजील का विश्वप्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता चीको मेंडेस मार दिया गया था, महाप्रलय-सी अग्नि में जल गया. साथ ही पर्यावरणवाद का विचार एक और बार झुलसा. फिर नवंबर से ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स से ‘काली ग्रीष्म’प्रारंभ हुई. इस दावाग्नि में असंख्य जीव जीवित जल गये. जिनकी गणना एक अनुमान भर है.

लातीनी अमेरिका के सबसे बड़े देश ब्राज़ील के महावनों की तबाही का उत्तरदायी नेता जाइर बोलसोनारो हमारे सत्तरवें गणतंत्र दिवस का विशिष्ट अतिथि बना. कोरोना आपदा आने के बाद उसने हमारे देश को लिखी चिट्ठी में हनुमान, लक्ष्मण और संजीवनी बूटी का उल्लेख किया. वह, जो अपने देश की अनगिनत संजीवनी बूटियाँ जलकर राख होते हुए देखता रहा. ब्राज़ील के इस नए राष्ट्रपति ने देश के ‘आंतरिक विकास’ के लिये अमेज़ॅन वनों के संरक्षण की पर्यावरणिक मान्याताओं को ताक पर रखा और कहा कि,न तो वह डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़ का एजेंडा मानेगा और न ही इन जंगलों के आदिम निवासियों के लिए इन्हें आरक्षित रखेगा. इस तरह इन महावनों के बड़े हिस्से के जलकर राख होने का आरोप एक ट्वीट में ‘शुष्क मौसम, हवा और ताप’पर लगा दिया गया. पूँजी ने राजनीति से मिलकर सदा ही प्रकृति के नष्ट होने का आरोप प्रकृति पर लगाया है और निर्धनता का आरोप निर्धन पर.

फ़रवरी में हमारे देश में दुनिया भर के पूँजीपतियों के मुखिया देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी आये थे. देश ने उन्हें ‘नमस्ते ट्रम्प’ कहा और स्वागत में अनुमानित सौ करोड़ रुपये भी व्यय किये. एक महीने बाद जब आपदा का भीषणसमय आया तब ‘हाईड्रोऑक्सीक्लोरोक्विन’ के लिए अमेरिका के राष्ट्रवादी राष्ट्रपति भारत पर ‘जवाबी कार्रवाई’ के लिए भी तैयार थे. इस बात को ढकने के लिए हमारे देश की सत्ता-चेरी मीडिया को अतिरिक्त वाग्जाल बुनना पड़ा. ट्रम्प,जिन्हें अमेरिका के एक बूढ़े दार्शनिक और भाषाविद् ने अभी-अभी ‘मनोरोगी विदूषक’ (Sociopathic Bufoon) कहा है, तीन वर्ष पूर्व विकास और पर्यावरण के साथ-साथ गंभीर कार्बन उत्सर्जन पर आधारित २०१५ का ‘पेरिस समझौता’ तोड़ चुके थे. पेरिस समझौता तोड़ते वक़्त उनका कहना था कि यह अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए नुक़सानदेह और ‘स्थायी-हानि’ का सबब है. उस समय ट्रम्प ने सस्ती मज़दूर मंडी एशिया की दूसरी और तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- भारत और चीन का भी उल्लेख किया था। इस समझौते के टूटने से पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध नेताओं,कार्यकर्ताओं और अन्य आशान्वित जनों को गहरी ठेस लगी थी. हिंसक,अहंमन्य,अहंस्फीत राष्ट्रवाद के आगे सभी आवाज़ें अनसुनी रह गयीं. आज जब कोविड-१९ से अमेरिका बहुत हलकान है और न्यूयॉर्क जैसे नगर में विषाणुदूषित शवों का निकलना ज़ारी है, ट्रम्प ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के अमेरिकी अनुदान पर रोक लगा दी है. और अमेरिका में काम कर रहे, वहाँ के आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सस्ते कुशल श्रमिक वतन वापसी की उम्मीद में हैं. परंतु वे इतने सस्ते मजूर भी नहीं हैं कि गिट्टी,मौरंग और सीमेंट ब्लेन्ड करने वाले ट्रक के उदर में छिपकर उन्हें वापस लौटना पड़े और सत्ता की पुलिस उन्हें उसकी नाभि के छिद्र से बाहर निकाले.      

मनुष्य के पास आत्मा-परमात्मा का जो प्रपंच है,उसमें वन्य जीवों की आत्माओं के लिए सीमित स्थान है. शुक्र है कि भारतीय दंत-कथाओं में यह प्रचुर व आवधारणात्मक रूप में है. अगस्त, २०१९ से अब तक जितने वन्य-जीव जलकर मरे हैं, या जिन्हें जलाया गया है, क्या उनकी आत्मायें भस्म हो चुके जंगलात में भटकती होंगी ? मूक पशु-पक्षियों को प्रतिशोध का कोई मौक़ा नहीं मिलता, जबकि महावृत्तांतों में यह सृष्टि अत्यंत दयालु परमेश्वर की सुंदरतम रचना कही जाती है। कोरोना विषाणु कहाँ से आया है ? वैज्ञानिक अभी तक बहुस्तरीय प्रकोप बन गये नोवल कोरोनावाइरस के उद्गम का पता लगाने की स्पर्धा में हैं. जेनेटिक आकलन के आधार पर उनका संदेह ‘पैंगोलिन’नाम के चींटीभक्षक निरीह जंतु पर है जो चीन में उसके माँस और अनोखे शल्क के लिए अफ्रीका और पूर्वी एशिया के अन्य क्षेत्रों से स्मगल किया जाता है. इस बारे में अध्ययन ज़ारी है,परन्तु उनका विश्वास है कि यह रोगक विषाणु किसी पशु से ही कूदकर मनुष्य शरीर के भीतर उतरा है. तो क्या दुनिया भर के अतियांत्रिक,स्वचलित क़साईख़ानों में कटने वाले पशुओं का प्रतिशोध एक रोगक (Pathogen) विषाणु लेगा जो चीन के वुहान से चला है ? या फिर यह जैविक अस्त्र-शस्त्रधारी वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं की टकराहट है ?जिसमें एशिया की सबसे बड़ी ‘मज़दूर मंडी’ हमारा प्यारा महादेश भी यातना झेल रहा है.  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानी जाय (ट्रम्प का कहना है कि डबल्यूएचओ चीनी गुट में है) तो ३१ दिसंबर,२०१९ यानी पिछले वर्ष के अंतिम दिन चीन के देशीय डबल्यूएचओ कार्यालय में वुहान प्रांत का एक निमोनिया का मामला सूचित हुआ. ३० जनवरी,२०२० को यह चिंता जन स्वास्थ्य आपातघोषित की गयी और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने इस स्वास्थ्य समस्या से जूझने की तैयारी हेतु ६७५ मिलियन डॉलर की माँग की. ११ फ़रवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वाइरस से उपजी संक्रामक बीमारी का नामकरण कोविड-१९ किया. ११ मार्च को डबल्यूएचओ ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया. १२ को यूरोप के डबल्यूएचओ के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. हैन्स हेनरी पी. काल्वेज ने यूरोप को इस महामारी का अभिकेन्द्र कहा.

११ मार्च को डबल्यूएचओ द्वारा महामारी घोषित होने पश्चात् ११ दिनों तक हमारे देश में सब कुछ सामान्य था. अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें आ रहे थीं। यूरोप से,अमेरिका से खाड़ियों से. १७ को कुछ संदेह उपजा,जब स्कूल और कॉलेजों को बंद किया जाने लगा। फिर एक दिन लॉकडाउनघोषित हुआ. सत्ताओं के अत्यंत निकट रहने वाला यह शब्द जनता को कहीं दूर से आया हुआ लगा. और विस्थापित मज़दूर लौटने लगे. दूध और तेल के टैंकर्स के कुओं में छिपकर. साइकिल से,ठेलों से,मोटरसाइकिल से,अपने झोलों, बच्चों और स्त्रियों तक को कंधे पर उठाये हुए. हज़ार-दो-दो-हज़ार किलोमीटर की सत्याग्रही पदयात्राएं जिनके अपूर्ण रह जाने की प्रायिकताएँ थीं. खण्ड-प्रलय में प्रवाहित जन-नद. जिनमें से कुछ कभी नहीं लौट सके. कुछ ने मार्ग में ही दम तोड़ दिया. कुछ पहुँचे भी होंगे. दिल्ली के आनंद विहार में खौफ़ और दहशत से भरी हुई क़यामत की भीड़ इकट्ठी हुई थी। लेकिन वहाँ नूह की क़श्ती नहीं पहुँची। ज़ुलेखा पूँजी आपदा के समय भी युसुफ़ श्रमिकों को अनिश्चित, अजनबी, परदेसी स्थानिकता में रोक कर रखना चाहती थी.उसके पीछे न्यायसंगत ठहराया जाने वाला कारण यह था कि कहीं वे लौट गये और दोबारा नहीं आये तो उत्पादन और मुनाफ़े के संबंध असंतुलित हो जाएंगे. मुनाफ़े और उत्पादन के इस संतुलन को साधने के लिये जगत के जैविक,अजैविक हरेक पक्ष को गहरे तक असंतुलित किया जा चुका है. उत्पादन और मुनाफ़े के प्रश्न पर पूँजी मनुष्य की सांस्कृतिक अस्मिता को भूल जाती है. भविष्यहीन इस परिदृश्य में मज़दूर एक बार फिर पूँजी के बनाये प्रेत जैसा दिखा. पूँजी की नज़र से जिसका कोई घर-परिवार नहीं है,कोई देश नहीं है,कोई आसरा नहीं है,सवारी नहीं है.सरकार उनसे रेल किराया वसूलना चाहती है,पुलिस और सेना उन्हें नियंत्रित रखना चाहती है. मीडिया उन्हें तत्काल अराजक घोषित कर देना चाहती है.  

निजी पूँजी के मिथकों को ध्वस्त करते हुये सरकारी कर्मचारियों और अस्पतालों की तरह टी.वी. पर एक सरकारी चैनल भी इस मुश्किल घड़ी में काम आया. रामायण का पुनःप्रसारण शुरू कर दिया गया. मध्यवर्ग टीवी पर अरुण गोविल,दीपिका चिखलिया और सुनील लहरी को वनवास पर जाते देख कर ज़ार-ज़ार रोने लगा और आनंद विहार पर नरकवास से लौटती विस्थापित श्रमिकों की उद्विग्न भीड़ उसकी आँखों से ओझल हो गयी. पूँजीवादी करुणा और सामंती भावुकता में कितना साम्य है ! आपदा में हमारे देश के मध्यवर्ग ने एक बार फिर ऐतिहासिक ढंग से इसी करुणा और भावुकता का मिश्रित शर्बत पिया-पिलाया और तृप्त हुआ. तालियाँ,थालियाँ पीटी जा रही हैं. पटाखे दग़ रहे हैं,दीवाली मनायी जा रही है. आपदा का हास्यास्पद उत्सवीकरण हो गया है. अफ़वाहें तकनीक की बहुत तेज़ गति पर सवारी कर रही हैं.अख़बार और वणिक-पूँजी से संचालित अन्य संचार माध्यम भी झूठ और हिंसा परोसने में मारुत तुल्य वेगंहैं. बुद्धिजीवी क़यास लगा रहे हैं। शायद मज़दूरों को एअरलिफ़्ट करा लिया जाय ?शायद सारे निजी अस्पताल सरकार अपने संचालन में ले ले ?परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। हाँ,मध्यप्रदेश में नयी सरकार के नये (मुख्य भी) मंत्रियों ने सामाजिक दूरीका पालन करते हुए, मुँह पर मास्क पहन कर लोकतन्त्र को बचाने की शपथ ली. लोकतंत्र जो स्थगित है या चौड़ी सड़कों पर सन्नाटे की तरह पसरा हुआ है. 

अब घृणा का प्रसारण शुरू हुआ। भूमंडलीकृत पूँजी अथवा नवउदारवाद और अमरीकी संस्कृति के उपभोग ने (हमारी भोक्ता-तपस्या से प्रसन्न हो कर) हमें कृतकृत्य भाव से घृणा और अहं का वरदान दिया है. ज़ोम्बीवाद की राजनीति करने वालों ने आपदा से निपटने की अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए आपदा का राजनीतिकरण कर दिया। उनके प्रिय पूँजीपतियों के कथित समाचार माध्यमों ने कोरोना वाइरस को मुसलमान बनाना शुरू किया. इस तरह समाज के अहंवादी नक़ली और मूर्ख हिस्से को जीवित रहने के लिए एक स्थायी शत्रु प्राप्त हुआ.उसके जीवित रहने (सरवाइवल) के लिये एक रचा गया शत्रु अतिआवश्यक है. अंततः घंटा-थाली बजाकर,मोमबत्ती जलाकर वाइरस को मारने का नासा प्रमाणित दावा करने वाले लोग जी-जान से मुसलमानों के विरुद्ध जुट गये। श्रम और निर्धनता को हेय मानने वाली संस्कृति से अनुप्राणित समाज को सरमायादारी की सियासत ने वर्क फ्राम होमदिया कि,कोरोना-19 महामारी यदि ठहर भी जाये तो इस महाद्वीप पर एक नरसंहार संभावित रहे और पूँजीवादी रक्तचूषक राजनीति का भविष्य सुरक्षित रहे.

मास्क के भीतर की भाषा :

वाइरस के आने की ख़बर के साथ मूर्खताओं का महाआख्यान प्रारम्भ हुआ. यह गोमूत्र पार्टियों से लेकर गो-कोरोना-गो के सामूहिक नारों तक ध्वनित,व्यंजित हुआ. धर्मगुरुओं के अक़ीदे ने इसमें चार चाँद लगाये. इन्हीं में से अचानक प्रकट हुई धर्मप्रचारक तबलीगी ज़मात. और यूटोपियाई जीवन में हिंसक निष्ठा रखने वाले मन-मस्तिष्क की भित्तियों पर कुटिलतापूर्वक इस भीति की पुताई कर दी गयी. मंदिरों-मस्जिदों में छिपे हुए लोग संक्रमित पाये गये और संक्रमण के साथ वे यहाँ-वहाँ छिटके भी। ये सब अभूतपूर्व नहीं,किंतु आशा से अधिक था. संसार भर में जहाँ नागरिकों के सोचने-विचारने का तरीक़ा बदल रहा है,वहीं भारत में खुलेआम कुंठाओं का प्रदर्शन हुआ. कुंठाएँ बुरी नहीं होतीं. ये मनुष्य के वास्तविक चरित्र और बर्ताव को सामने ला कर उसका विरेचन करती हैं. सत्तामुखी लोग सरकार से प्रश्न करने वालों को अपना शत्रु समझ बैठे. सोशल मीडिया पर आईटी-सेल्सके पेड-ट्रोल्सके घृणा-अनुष्ठान में ब्यूरोक्रेट्स,कलाकार,लेखक,संस्कृतिकर्मी भी सम्मिलित हैं. उनका कहना है कि जहाज़ के डूबते समय कैप्टन के विरुद्ध होना नैतिक नहीं है। इस तर्क से वे जहाज़ को डूबने से बचाने के लिए उस पर सवार कमज़ोर और संख्या में कम लोगों को गहराई में फेंक देने के निर्णय को स्वीकार लेंगे. वे कह रहे हैं, यह समय राजनीति का नहीं है,क्योंकि वे व्यापक जनसमूह की तबाही तक अपनी राजनीति बनाये रखना चाहते हैं. नैतिकता सामंतवाद की अंतिम दुहाई है. जनसमुद्र में घृणा की जो सुनामी उठने को आकुल है,उसके लिए भी महामारी से बच गये लोगों को तैयार रहना होगा. आरोप-प्रत्यारोप,निर्णायक दोषारोपण,गाली-गलौज़, धार्मिक-जातीय विद्वेष,सामाजिक विखण्डन यथावत नहीं;पूर्व से अधिक तीव्र,कुंठित और आवेगमय हैं.

लॉकडाउन में सेलिब्रेटी अजनबीयत से गुज़र रहे हैं. चूना-रौशनी के लिए लालायित रहने वाले नार्सिसिस्ट और आत्ममुग्ध लोग सोशल मीडिया पर लाइव आ रहे हैं. दैनिक जीवन के क्रिया-प्रदर्शन का दोहराव करते हुए. जो वे करते आए हैं वही सब. इस समय वे डरे हुए हैं कि मृत्यु के भय से आक्रांत उनके प्रशंसक उन्हें भूल न जायें. लोकप्रियता के लिए वे आपदा को इस्तेमाल करने का नया कौशल दिखा रहे हैं. वे कितने नक़ली हैं,कि जनता उनके लिए लोकप्रियता का स्रोत मात्र है. बाक़ी सबकुछ उनकी दृष्टि से अदृश्य है. वे आपदा के समय भी सेलिब्रेटी बने रहना चाहते हैं. मृत्यु के समीप भी वे अपने भ्रम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. भूख से रिरियाते चेहरों के दारुण वीडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल हैं तो प्रतिदिन नए व्यंजन बनाकर वहीं उन्हें परोसने वाली मध्यवर्गीय अश्लीलताएँ भी सरे-आम हैं. घरबंदी का लुत्फ़ ले रहे कुछ भरे पेट मध्यवर्गीय दिल्ली-मुंबई-सूरत से लौट रहे या लौटने का प्रयास कर रहे मज़दूरों को राक्षस बताने लगे. व्यंजना में वाइरस को साम्यवादी कहा गया और यह है भी क्योंकि, वर्गीय आधार पर यह मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं कर रहा है. इसने पूँजी की विराट वैश्विक संरचना को झकझोर कर इसकी चूलें हिला दी हैं. संभवतः तभी इसके लिए ऐसी तैयारी है। वरना ग़रीबों की मृत्यु के अन्य कारक प्रभु-वर्ग के लिए अदृश्य की लीलाएँ हैं. उनके काल्पनिक स्वर्ग और नर्क का फ़र्क़ मिटाने वाला वाइरस वामपथगामी ही होना चाहिए.किंतु नहीं, देशी प्रभुओं ने इसे बहरहाल मुसलमान घोषित कर रखा है.

संकट का सौंदर्य : अनिश्चितताओं से घिरा जीवन सभ्यताओं का मखौल उड़ा रहा है-  

वैश्विक अर्थव्यवस्था एक भोगवादी मस्तिष्क का भ्रम और मुनाफ़ाखोर मन का उद्गार है. इसकी बात करते समय हमें अक्सर यह नहीं बताया जाता कि समस्त उत्पादनों के कच्चे माल का एकमात्र स्रोत प्रकृति है. नवें दशक से ही भारत और दुनिया भर के विचारक,दार्शनिक,समाज-वैज्ञानिक,कवि-लेखक आदि भूमंडलीकरण, उदारीकरण और बाज़ारी संस्कृति का बहुस्तरीय, रचनात्मक विरोध करते आये हैं. एक तरह से यह उनकी आदत में शुमार हो गया था. इसे मुद्दे को टालने की बुरी लत भी दुनिया को लग चुकी थी. यह मानवीय त्रासदी है कि अस्तित्व पर संकट आने के समय ही किसी तरह की अवधारणा पर पूर्ण विश्वास किया जाता है. संकट टल जाने के बाद मनुष्य उसे फिर भूल जाता है,उसकी स्मृति समकालिक प्रपंचों की बंधक है. टिकाऊ विकास और वैश्विक पर्यावरण संरक्षण के नारे पिछले एक दशक में विफलताओं की ओर बढ़े हैं. इन प्रयत्नों का वृहत् भाग संतोषजनक परिणाम नहीं दे सका.यही कारण है कि भूमंडलीकरण के लाभार्थियों की अगली क़तार में खड़े लोग उतने ही भयभीत भी हैं. उन्हें वाइरस के भूमंडलीकृत होने की आशा नहीं थी. जीवन का यह संगीन संकट अगर छह माह भी ठहरा तो अगले छह सालों तक अर्थव्यवस्था का पूर्व जैसी स्थिति में आना असंभव है. माइक्रोसॉफ्ट,गूगल और अमेज़ॅन जैसी संस्थाओं से डॉलर कमाने वाले लोग भूल चुके हैं कि ज़मीन के एक टुकड़े,दो मवेशी और चार पेड़ों के साथ भी अनगिनत जीवनों की कई पीढ़ियाँ गुज़र गयी हैं. 

जो बनायी गयी इस हिंसक व्यवस्था में जीने के लिये विवश या अभिशप्त रहे हैं उनके पास अब खोने के लिये जान के सिवाय कुछ नहीं है. न देश-गाँव, न देशी बीज,न मवेशी,न वनस्पति,न आहार. न कारीगरी के वे देशज पेशे और जीवन शैली. सबकुछ साभ्यतिक परिवर्तनों की आँधी में उड़ गया। संततिवाद की संस्कृति,अशिक्षा और जलवायु ने हमारे देश की आबादी को जिस स्तर पर पहुँचा दिया है,वहाँ कोई भी महामारी प्रलय की तरह विध्वंसक हो सकती है. ग़रीब और विस्थापित लोग भूख और दुर्भिक्ष से अराजक हो कर किस ओर जाएँगे ?अमीरों की रक्षा हेतु सेना की रायफ़लें और वंचितों के लिये उनकी गोलियाँ हैं. आपदा बनी रही तो ऐसे दृश्य आम हो जाएँगे. अमेरिका में अश्वेत संक्रमितों की संख्या अधिक है. हमारे देश में मेहनत-मज़दूरी और ऐसे ही अन्य पेशे वालों में जातीय एकांगीपन है. जिन्हें वैक्सीन से अधिक आवश्यकता आहार की है. इस समय जब सड़क पर कोई नहीं है,मजदूर खड़ा हुआ है. लौट रहा है. चल रहा है. संघर्ष कर रहा है.      

उत्तर-मानव :
कई दिनों की घरबंदी से
हर्ष में है पृथ्वी !

फेन जैसा एक मृग तट पर
लहरों सा उछल कर
लहरों से खेल रहा है, निर्भय.

एक चिड़िया सोने की डाल पर
हीरक सी चमक रही है.

दिन के आकाश का नीलम शीशा
थोड़ा नीचे सरक आया है
और संझा का एक तारा
हमारी छतों के समीप.
जब मनुष्य इस पर नहीं रहेंगे
तब पृथ्वी कितनी सुन्दर हो जाएगी.  

कुछ समय पूर्व एक पर्यावरणवादी स्थापना आई थी कि यदि पृथ्वी को एक दीर्घ समयावधि तक ख़ाली कर (Evacuate)दिया जाय तो यह ठीक वैसी हो जाएगी,जैसी बिगबैंग के पश्चात् थी. घरबंदी,बाज़ारबंदी और संगरोध के समय जब ऊर्जा खपत न्यूनतम स्तर तक पहुँची है,तब प्रकृति स्वयं को बहाल (Restore)कर रही है. कई आश्चर्यजनक,सकारात्मक बदलाव धरती की सतह और गगन मण्डल तक देखे जा रहे हैं. ओज़ोन क्षरण कम हो गया है. उसका घाव भर रहा है. व्हेल तटीय सतह पर आ रही है. क्षैतिज दृश्य स्पष्ट हो रहे हैं. नदियों का जल साफ़ हो रहा है. प्राणी प्रसन्न हैं. चिड़ियाँ अधिक गा रही हैं. सतह का तापमान कम हुआ है. शोर,धुआँ और कृत्रिम प्रकाश कम होने से कीट-पतंगों तक पर प्रभाव पड़ा है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर बड़ी-बड़ी योजनाएँ,संसाधन और धनराशियों के लिए असमर्थता का विलाप करने वाली सरकारों को देखना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण के लिए ये सभी व्यर्थ हैं. प्रकृति के ऊपर से मानवीय अतिक्रमण को केवल हटा देना है,वह अपना उपचार स्वयं कर लेगी. वैज्ञानिक और अभियांत्रिकीय अतिव्याप्तियों को कोसना भी निर्मूल है. विज्ञान का उपयोग मानवता को बचाने के लिए कम और उसे नष्ट करने के लिए अधिक हुआ है. यह अब तक पूँजी का सबसे स्वामिभक्त सेवक (दास) रहा है. इसे भी इस गिरफ़्त से छुड़ाया जाना चाहिए.

हेनरी डेविड थोरोका मानना था कि एक ही शाश्वत क़ानून इस सृष्टि पर लागू होता है और वह है प्रकृति का क़ानून (Law of Nature). शेष क़ानून सत्ता-संरचना द्वारा बुना गया मायाजाल है. उसका निर्माण और पालन करने वाले मूर्ख होते हैं. सामूहिक रूप से भेदभाव, अन्याय, अत्याचार और दमन के साथ जीवन निर्वाह करने की विवशतापूर्ण प्रणालियाँ. इसी व्यवस्था को जीवन-शैली,सभ्यता,संस्कृति इत्यादि संज्ञाएँ दी जाती रही हैं. थोरो का यह विचार सौंदर्य विषयक हमारी धारणाओं को परिवर्तित करने वाला है. सुंदर तभी तक सुंदर रहता है,जब तक मनुष्य की (कु) दृष्टि (उसके पास सुदृष्टि का भ्रम है,सुदृष्टि नहीं) उस पर नहीं पड़ती. उसकी इंद्रियों की ज़द में आते ही सबकुछ असुंदर हो जाता है,क्योंकि उसके नष्ट होने की आशंका भी जन्म ले लेती है. मनुष्य स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता रहा है। इतिहास में कई मौक़ों पर उसने मनुष्य ही के विरुद्ध इसका हिंसक मुज़ायरा किया है. मानव इतिहास बर्बरताओं और अत्याचारों का इतिहास है. उसमें जो अधिक ग्राह्य था,उसे विशेष महत्त्व नहीं दिया गया. लालच,भोग और वर्चस्व मानवीयता के सभ्य (?) हिस्से की चेतना का मूल हैं. प्रकृति और पर्यावरण की उपेक्षा ने मनुष्य को उसकी सीमाओं तक धकेल दिया है. एक सूक्ष्म प्रोटीन मॉलिक्युल के समक्ष वह कितना बेबस नज़र आ रहा है. महाशक्तियों और स्वर्गीय ऐंद्रिक भोगवाद की महागाथाएँ आज निस्सार और असहाय दीख रही हैं. अनिश्चितता की धूसर और मोटी दीवार ने मानवीय दूरदर्शिताओं को संकुचित कर दिया है. अनुलोम का विलोम हो रहा है. महाशक्तियाँ महादुर्बल हो रही हैं.

इन दिनों हमारी भाषा बदल गयी है. इसमें संगरोध,पृथक्करण,स्व-एकाकी,शारीरिक दूरी, सामुदायिक-संक्रमण,सामाजिक-प्रसार जैसे शब्दों और पदावलियों का बहुतायत है. क्वॉरन्टीन औपनिवेशिककाल से भी पूर्व खोजी समुद्री यात्राओं के समय का अवधि सूचक शब्द है. यह अवधि चालीस दिन की होती है. पानी के जहाज़ों के अलावा शहादत के चालीसवें (चेहल्लुम) से भी इसका कोई प्राचीन सांस्कृतिक संबंध हो सकता है. रक्त-संबंधों,मित्रताओं और मृत्युशोक की परिभाषाएँ उलट गई हैं. क्वॉरन्टीन एक यातना का नाम है. सत्ताएँ कारागार के नियमों को न मानने वाले उदण्ड क़ैदियों को भी आइसोलेशन या तन्हाई की सज़ा देती आई हैं. मनुष्य स्वयं में एक सत्ता है और सत्ता-मीमांसक भी,वह स्वयं अपराधी है,स्वयं न्यायाधीश, वह स्वकारागार में स्वयं को बंदी करता है और मुक्त भी. वह रक्षित और अरक्षित है. जीवन और मृत्यु का उसे मिथ्याभास है. जीवन-मरण उसकी अपनी क्रियाएँ और अवधारणाएँ हैं. इस संकट की खूबसूरती में मरना भी बदल गया है. यह मरना इस प्रकार का है कि कोई शव को भी नहीं स्वीकार करेगा. मृतक के लिए क़ब्रिस्तानों और श्मशानों की डगर कठिन हो चुकी है. मृत्यु की आध्यात्मिक मानी जाने वाली सुंदरता मानवीय क्षुद्रताओं की कुरूपता बन चुकी है.

हमारे जैसे देशों के नागरिक अपनी अरक्षिततता के साथ जीवित हैं. जहाँ कोई उत्तरदायी नहीं है. जो सत्ताओं के ऐतिहासिक चरित्र को जानते हैं वे उनसे किसी तरह की प्रत्याशा नहीं रखते. यह सब अभी लंबे समय तक चल सकता है. तकनीक हमारी निगरानी के लिए प्रत्येक जगह है. निजता को हमारे शरीर के भीतर तक घुस कर भंग किया जा चुका है. अगर हमने कभी सोनोग्राफ़ी या एम.आर.आई जैसी जाँच कराई है तो निगरानी करने वालों को हमारे गुर्दों,लीवर और हृदय का आकार तक मालूम है. हमारी चेतना की बाह्य सक्रियता को चिह्नित किया जा चुका है. बस हमारे मस्तिष्क के भीतर वे घुसा ही चाहते हैं. नियंत्रक आपदा का भरपूर लाभ उठाएंगे. क़ानूनों को बदलेंगे. सैनिक शासन और अधिनायकवाद पुराने पड़ चुके हैं. कुछ और नया,जघन्य,क्रूर और बर्बर लाया जा सकता है.

महामारी से बच जाना कोई दैवीय चमत्कार नहीं है. कृत्रिम अनुकूलन मानव की सभी शक्तियों से बढ़ कर है. वह धरती का महानतम (आ) जीवक है. परंतु प्रश्न यह है कि सभ्यता के इस महासागर में अकस्मात उत्पन्न महामारी के इस विक्षोभ से वह क्या सीखना चाहता है ?जैसा कि और भी लोग कह चुके हैं,कि यह कोई युद्ध नहीं हैं. यहाँ जय-पराजय नहीं है. युद्ध में शत्रु पक्ष होता है. यहाँ कोई शत्रु नहीं है. फेफड़े में पहुँच कर अपनी प्रतिकृति बनाने वाला वाइरस भी प्राकृतिक अंतर्जगत से निकला है. प्रकृति शत्रु नहीं है. उसका शत्रु-मित्र रूप मानवीय क्रिया-कलाप रचते हैं. फ़िलहाल इसे मानव और प्रकृति के अति प्राचीन संघर्ष के रूप में देखना चाहिए. सिवाय इसके,सब कुछ एक रिक्त परिकल्पना है.                       

हम लौट रहे हैं. पीछे जाने पर वे बुराइयाँ भी पड़ी मिलेंगी जिन्हें हम त्याग चुके थे. आपदा में अपने घरों से झाँकते स्वार्थी मनुष्य को देख कर लगता है कि जीवित रहने की चिंता में वह पदानुक्रमों और पदसोपानों को त्याग कर वापस आदिमानव भी बन सकता है. उस समय में जा सकता है, जब वह सूर्यास्त होते ही गुफ़ाओं में बंद हो कर उसके मुहाने पर एक भारी चट्टान फँसा देता था. किन्तु,यह लाचार सभ्य नागरिक वनों में रहने वाले उन प्रकृतिजीवी आदिवासियों को अपने साभ्यतिक विकास का अवरोध समझता रहा है,जो अपने पेड़-पहाड़-ज़मीन के लिए आतंकी होने का अपयश उठा कर सत्ताओं की गोलियों से मरने का चुनाव करते आये हैं. मनुष्य की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून) में बड़ा भाग उसकी हिंसा का रहा है. प्रकृति और पारिस्थितिकी को नष्ट कर,अपने जैसे मनुष्यों और मानवेतर जीवों को हीन बना कर ही वह अपना कम्फ़र्ट ज़ोन तैयार करता है. यही उसका इम्यून है. एक वैक्सीन (टीके) की हमें प्रतीक्षा है. उच्च-आधुनिक लैब्स में विषाणु प्रतिरक्षक के प्रयोग और प्रभाव भी पशुओं पर आज़माये जा रहे होंगे. यद्यपि अभी इस नतीज़े तक कोई नहीं पहुँचा है,किन्तु कहा जा रहा है कि यह विषाणु एंथ्रोपॉजेनिटिक (मानव निर्मित) है. ईरान के नेता अयोतल्लाह अली खमेनई ने महामारी के शुरुआती दिनों में ही इसे मानवजनित कहा है. हम सभ्यता के जिस मोड़ पर हैं,वहाँ प्रत्येक ख़तरा मानवजनित ही लगता है. स्पष्ट और असंदिग्ध केवल मृत्यु है.

मनुष्यता से अब और अधिक आशाएँ व्यर्थ लगती हैं,लेकिन आशा एक छली शब्द है. प्रकृति और जीव के सम्बन्धों और उनसे बनी जैविकी से ही कोई उम्मीद की जा सकती है. प्रकृति और मनुष्य के सह-संबंध प्राथमिक,जैविक सत्य है. इस वाइरस का कोई वैक्सीन आज नहीं तो कल विज्ञान की मदद से बना लिया जाएगा. आपदा से उपजी अनिश्चितता और अदूरदर्शिता समाप्त हो जाएगी. सब कुछ सामान्य और पूर्ववत हो जाएगा. दृष्टिकोण में अभी भी सब कुछ सामान्य ही है. देर तक टिक जाने वाली असामान्यताएँ मनुष्य को सामान्य अनुभव होने लगती हैं. असामान्यताएँ व्यवहृत हो कर सामान्य हो जाती हैं. मनुष्य और परिस्थिति आपस में सुलह कर लेते हैं. मनुष्यता का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए मानव केंद्रित दृष्टिकोण का त्याग करना होगा. कायांतरित,हृदयान्तरित,व्यक्तित्वांतरित होना होगा. बल्कि,कवयित्री बाबुषा कोहली के शब्दों में- “आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ,और एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है.”   


संदर्भ (साभार):   
Noam Chomsky, Coronavirus pandemic could have been prevented, ALJAZEERA.com
Matthew Stewart, An Analysis of Amazonian Forest fire, towardsdatascience.com
David Cyranoski, Mystery deepens over animal source of coronavirus, nature.com
विश्व स्वास्थ्य संगठन, Who.int   
यह वैश्विक महामारी एक नई दुनिया का प्रवेश द्वार है, अरुंधति राय, janchowk.com
The world after coronavirus, Yuval Noah Harari, www.ft.com
कोरोना के इर्द गिर्द कुछ गद्य : मदन सोनी,समालोचन 

स्मृति शेष : इतिहासकार हरि वासुदेवन : शुभनीत कौशिक

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कोरोना समय में अलग-अलग क्षेत्रों के कई महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए, फिल्मों से अभिनेता इरफ़ान और ऋषि कपूर, इतिहासकार हरि वासुदेवन,  समाजशास्त्री योगेंद्र सिंह और अब आलोचक नंदकिशोर नवल. इनमें से हरि वासुदेवन का देहांत कोरोना संक्रमण से हुआ है. पार्थिव रूप में ये हस्तियाँ हमारे बीच भले न हों इनका कार्य और इनकी कृतियाँ स्मृतियों को जिंदा रखेंगी.


इतिहासकार हरि वासुदेवन के योगदान को याद कर रहें हैं इतिहास के अध्येता शुभनीत कौशिक. 



इतिहासकार हरि वासुदेवन (1952-2020) को याद करते हुए                 
शुभनीत कौशिक





तिहासकार हरि वासुदेवन का 10 मई, 2020 को कोरोना वाइरस से संक्रमण की वजह से कोलकाता में निधन हो गया. 1952 में एक मलयाली परिवार में पैदा हुए हरि वासुदेवन ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के क्राइस्ट कॉलेज से उच्च शिक्षा हासिल की. बाद में, उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से ही पीएचडी भी की. इतिहासकार नॉर्मन स्टोन (1941-2019) उनके शोध-निर्देशक थे, जिन्हें यूरोपीय इतिहास संबंधी अपनी प्रसिद्ध किताबों मसलन, ‘ईस्टर्न फ्रंट, 1914-1917’ और‘फॉन्टाना हिस्ट्री ऑफ यूरोप, 1878-1919’के लिए जाना जाता है. अभी पिछले ही वर्ष जब नॉर्मन स्टोन का निधन हुआ, तब हरि वासुदेवन ने अपने शिक्षक की स्मृति में ‘द टेलीग्राफ़’में एक लेख भी लिखा था. जिसमें उन्होंने नॉर्मन स्टोन के अकादमिक योगदान और उनके जीवन के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा था. वर्ष 1978 में अपनी पीएचडी पूरी करने के बाद हरि वासुदेवन कलकत्ता विश्वविद्यालय में यूरोपीय इतिहास के प्राध्यापक नियुक्त हुए और दशकों तक उन्होंने वहाँ अध्यापन कार्य किया. रूस समेत समूचे मध्य एशिया के इतिहास में उनकी गहरी दिलचस्पी और विशेषज्ञता ने उन्हें भारतीय इतिहासकारों में विशिष्ट स्थान दिलाया.


विज़नरी अकादमिक और संस्था-निर्माता
वर्ष 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के अनुरूप एनसीईआरटी की सामाजिक-विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में हरि वासुदेवन के योगदान के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा. सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तक सलाहकार समिति के अध्यक्ष के रूप में हरि वासुदेवन ने नीलाद्रि भट्टाचार्य, योगेन्द्र यादव, सुहास पलशीकर, तापस मजूमदार सरीखे विद्वानों के साथ काम करते हुए इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की बेहतरीन पाठ्य-पुस्तकें तैयार कराने में अग्रणी योगदान दिया. एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में आए बदलावों की बानगी उनकी विषय-वस्तु, प्रस्तुति, कलेवर में तो मिलती ही है. साथ ही, यह बदलाव बच्चों के साथ संवाद स्थापित करने और उन्हें जानकारियों के बोझ से दबाने की बजाय जिज्ञासु बनाने पर दिए गए ज़ोर में भी दिखता है. इन पाठ्य पुस्तकों में बच्चों को अपने सामाजिक परिवेश, शहर-गाँव, परिवार, समाज और स्कूल को भी एक नई दृष्टि से देखने, सवाल पूछने के लिए आमंत्रित किया गया. मसलन, इतिहास की एक पाठ्य पुस्तक की भूमिका में नीलाद्रि भट्टाचार्यलिखते हैं :

जब हम अपने आस-पास की चीज़ों के बारे में इतिहास की दृष्टि से सवाल उठाना सीख जाते हैं तो इतिहास एक नया अर्थ ग्रहण कर लेता है. हमें रोज़मर्रा की साधारण चीज़ों को भी एक अलग कोण से देखने का मौका मिल जाता है. हमें अहसास होने लगता है कि जो चीजें इतनी मामूली दिखाई देती हैं उनका भी एक इतिहास है जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हैं. 

बाद में, जब भाजपा सरकार द्वारा इन पाठ्यपुस्तकों में मनमाने ढंग से बदलाव किया जाने लगा तो हरि वासुदेवन ने इसका मुखर विरोध किया. उन्होंने चेताया कि ये बदलाव इन पाठ्यपुस्तकों की उस मूलभावना के विरुद्ध हैं, जिसके अनुरूप इन किताबों को तैयार किया गया है.


इतिहासकार होने के साथ-साथ हरि वासुदेवन एक विज़नरी अकादमिक भी थे. उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामियामें सेंट्रल एशियन प्रोग्राम को शुरू करने में उल्लेखनीय भूमिका तो निभाई ही. साथ ही, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज़के निदेशक के रूप में उन्होंने कोलकाता स्थित इस संस्थान की अकादमिक गतिविधियों और सक्रियता को बढ़ाने में अप्रतिम योगदान दिया. वर्ष 1993 में स्थापित हुए इस संस्थान का उद्देश्य आधुनिक काल में पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के समाजों के इतिहास, राजनीति, अर्थतन्त्र, संस्कृति आदि के गहन अध्ययन को बढ़ावा देना था.

इतिहासकार बरुन दे इस संस्थान के पहले निदेशक थे. हरि वासुदेवन चार वर्षों तक (2007-11) इस संस्थान के निदेशक रहे और ये वर्ष इस संस्थान की उन्नति के लिए अहम साबित हुए. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के फ़ेलो और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का सदस्य होने के साथ-साथ वे कोलकाता स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ डिवेलपमेंट स्टडीज़ के अध्यक्ष भी रहे. हरि वासुदेवन कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक द्वारा शुरू किए गए ‘रेडिएटिंग ग्लोबलिटीज़’ प्रोजेक्ट से भी जुड़े रहे. वे प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार के निवास-स्थान को एक संग्रहालय एवं शोध केंद्र के रूप में परिवर्तित करने की परियोजना पर भी काम कर रहे थे. कहना न होगा कि ये सारी गतिविधियाँ हरि वासुदेवन की सक्रियता की बानगी देती हैं. 


भारत-रूस संबंध और मध्य एशिया का इतिहास
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही सोवियत रूस के इतिहास में हरि वासुदेवन को गहरी दिलचस्पी हुई. अपनी पीएचडी में उन्होंने उन्नीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में रूस की प्रांतीय राजनीति, जेम्स्त्वो’नामक स्थानीय स्वशासन की प्रणाली का ऐतिहासिक अध्ययन किया. उनके शोध-ग्रंथ का शीर्षक था : ‘रशियन प्रोविंसियल पॉलिटिक्स, सेंट्रल गवर्नमेंट एंड द त्वेर प्रोविंसियल जेम्स्त्वो, 1897-1900’.भारत-रूस सम्बन्धों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के उनके अकादमिक प्रयासों ने उन्हें एशियाटिक सोसाइटी द्वारा शुरू किए गए ‘रशियन आर्काइव प्रोजेक्ट’से भी जोड़ा. इस परियोजना के अंतर्गत उन्होंने पूरबी रॉय और सोभनलाल दत्ता गुप्ता के साथ रूसी फ़ेडरेशन के आर्काइव में उपलब्ध आधुनिक भारत से संबंधित ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का सम्पादन ‘इंडो-रशियन रिलेशंस, 1917-1947’शीर्षक से दो खंडों में प्रकाशित हुई किताब में किया.

उल्लेखनीय है कि इस संकलन में रूसी क्रांति के ठीक बाद 1917 से लेकर 1947 तक तीस वर्षों के दौरान सोवियत रूस से भारतीय शख़्सियतों और संगठनों से हुए पत्राचार और दस्तावेज़ शामिल किए गए. ये दस्तावेज़ जहाँ एक ओर रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, मानवेंद्रनाथ रॉय, राजा महेंद्र प्रताप, मीनू मसानी, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्यायजैसे व्यक्तियों से जुड़े थे. वहीं दूसरी ओर ये साम्यवादी पार्टी, सरवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी जैसे संगठनों और सर्वे ऑफ इंडिया जैसे सरकारी विभागों से भी जुड़े थे. इस संकलन में राहुल सांकृत्यायनसे जुड़े पत्र और दस्तावेज़ भी शामिल हैं. यहाँ यह उल्लेख कर देना प्रासंगिक होगा कि राहुल सांकृत्यायन ने बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में तीन सोवियत-यात्राएं की थीं. बाद में, राहुल जी ने वर्ष 1956 में दो खंडों में ‘मध्य एशिया का इतिहास’नामक प्रसिद्ध किताब भी लिखी थी, जो बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित की गई थी.             

हरि वासुदेवन की प्रमुख पुस्तकें हैं : ‘शैडोज़ ऑफ सब्सटेन्स : इंडो-रशियन ट्रेड एंड मिलिट्री टेक्निकल को-ऑपरेशन सिंस 1991’; ‘इन द फुटस्टेप्स ऑफ अफनासी निकितीन : ट्रैवेल्स थ्रू यूरेशिया एंड इंडिया इन द ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी’. ‘शैडोज़ ऑफ सब्सटेन्स’में जहाँ हरि वासुदेवन ने सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस और भारत के व्यापारिक, सैन्य एवं तकनीकी सम्बन्धों के बारे में लिखा. जिसमें उन्होंने 1991 के बाद भारत-रूस के व्यापारिक सम्बन्धों में निजी उद्यमों के बढ़ते महत्त्व को भी रेखांकित किया. वहीं ‘इन द फुटस्टेप्स ऑफ अफनासी निकितीन’में उन्होंने वर्ष 2006-7 में सम्पन्न हुए ‘निकितीन अभियान’ का दिलचस्प विवरण दिया है. यह अभियान पंद्रहवीं सदी के रूसी यात्री अफनासी निकितीन की स्मृति में आयोजित किया गया, जो भारत की यात्रा करने वाले और यात्रा-वृतांत लिखने वाले पहले यूरोपीय यात्रियों में से एक था. उल्लेखनीय है कि अफनासी निकितीन ने वर्ष 1466-72 के दौरान भारत समेत एशिया के अनेक देशों की यात्रा की थी और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वॉयेज बियाण्ड थ्री सीज़’में इस साहसिक यात्रा का विवरण दिया था.

‘निकितीन अभियान’ में निकितीन के पदचिह्नों पर चलते हुए मॉस्को, अस्त्र्खान, तुर्की, ईरान और भारत में कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र की यात्राएं भी की गईं, जिसका विवरण हरि वासुदेवन ने उक्त पुस्तक में दिया है. इसके अलावा उन्होंने ‘कमर्शियलाइज़ेशन एंड एग्रीकल्चर इन लेट इंपीरियल रशिया’ और ‘डिसेंट एंड कन्सेन्सस : प्रोटेस्ट इन प्री-इंडस्ट्रियल सोसाइटीज़’ सरीखी पुस्तकों का सम्पादन भी किया था.


प्रतिरोध का इतिहास और समकालीन विश्व राजनीति
1989 में प्रकाशित हुई ‘डिसेंट एंड कन्सेन्सस’ में भारत, बर्मा और रूस में हुए प्रतिरोधों और आंदोलनों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन किया गया था. हरि वासुदेवन के अलावा इस पुस्तक के सह-संपादक थे, इतिहासकार बासुदेव चट्टोपाध्याय और रजतकान्त राय. इस किताब की भूमिका लिखते हुए हरि वासुदेवन ने प्रतिरोध का इतिहास लिखते हुए उसमें शामिल विभिन्न सामाजिक समूहों के दृष्टिकोण और उनकी संवेदनाओं और प्रत्यक्षीकरण को समझने के साथ ही प्रतिरोध के बहुवर्गीय चरित्र को जानने पर भी ज़ोर दिया था. ‘हिस्ट्री फ्राम बिलो’ की अवधारणा के अनुरूप इतिहासलेखन पर बल देते हुए हरि वासुदेवन ने इतिहासकारों से विभिन्न ऐतिहासिक कारकों के प्रति सजग रहने और इतिहास को आकार देने में उनकी भूमिका को समझने का आह्वान किया. 

इस पुस्तक में शेखर बंद्योपाध्याय, परिमल घोष, अरुण बंद्योपाध्याय, सुरंजन दास, भास्कर चक्रवर्तीके लेख भी शामिल थे. हरि वासुदेवन ने इस किताब में 1905 की रूसी क्रांति की उत्पत्ति, स्थानीय स्वशासन के संगठन ‘जेम्स्त्वो’ के ऐतिहासिक महत्त्व और भारत-रूस में हुए प्रतिरोधों के तुलनात्मक पक्ष पर लिखा था. उल्लेखनीय है कि ‘जेम्स्त्वो’ ने रूस के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य और बैंकिंग जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में अहम योगदान दिया था और त्वेर के ‘जेम्स्त्वो’ का ऐतिहासिक अध्ययन हरि वासुदेवन ने अपने शोध-ग्रंथ में भी किया था. भारत और रूस के संदर्भ में लिखते हुए उन्होंने व्यापक गरीबी और देरी से औद्योगीकरण जैसे ऐतिहासिक कारकों की एकसमान मौजूदगी के बारे में भी विस्तारपूर्वक लिखा था.

हरि वासुदेवन समकालीन घटनाक्रम और विश्व-राजनीति के प्रति भी लगातार सजग रहे. अभी पिछले महीने ही कोविड-19 के आर्थिक प्रभावों और चीन की आर्थिक स्थिति के बारे में उन्होंने एक लेख लिखा था. जिसमें उन्होंने लिखा है कि लॉकडाउन के बाद वित्तीय और आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के लिए रणनीति बनाते समय भारत को विश्व परिदृश्य पर नजर बनाए रखने के साथ ही दक्षिण एशिया के घटनाक्रमों पर भी लगातार दृष्टि रखनी होगी. विशेषकर, चीन की आर्थिक और व्यापारिक नीतियों पर. इस लेख में हरि वासुदेवन ने चीन व रूस के व्यापारिक सम्बन्धों के रणनीतिक महत्त्व के साथ-साथ वुहान के अलावा चीन के अन्य प्रमुख प्रान्तों और महानगरों मसलन, बीजिंग, तियानजिन, शंघाई आदि में कोरोना के रोकथाम हेतु अपनाई गई नीतियों, उनके भावी परिणामों पर भी विस्तृत चर्चा की थी.(देखें : https://www.orfonline.org/expert-speak/economic-recovery-and-recurring-lockdown-in-china-after-covid19-crisis-64729/ )


परिवार
हरि वासुदेवन के पिता मेथिल वासुदेवन एक एयरोनॉटिकल इंजीनियर थे और वे रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) से जुड़े हुए थे. हाल ही में, हरि वासुदेवन ने अपनी माँ श्रीकुमारी मेनन के संस्मरणों पर आधारित पुस्तक ‘मेमायर्स ऑफ ए मालाबार लेडी’भी पूरी की थी. प्रख्यात कला इतिहासकार ताप्ती गुहा-ठाकुरताउनकी पत्नी हैं और फ़िल्म अध्येता और इतिहासकार रवि वासुदेवनउनके भाई हैं. 

इतिहासकार हरि वासुदेवन को भारत और मध्य एशिया के ऐतिहासिक अंतरसंबंधों के सूत्र तलाशने, एशियाई अध्ययन से जुड़ी भारतीय संस्थाओं को दिशा देने और स्कूली बच्चों को समाज-विज्ञान से परिचित कराने वाली एनसीईआरटी की बेहतरीन पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में सूत्रधार की भूमिका निभाने के लिए याद किया जाएगा.
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शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.
kaushikshubhneet@gmail.com 

नंदकिशोर नवल : आलोचक का दायित्व-बोध : विमल कुमार

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श्रद्धा सुमन
नंदकिशोर नवल : आलोचक का दायित्व-बोध      
विमल कुमार





नंद जी खड़ाऊँ पहनते थे. मुझे आज भी उनके खड़ाऊँ की आवाज़ कानों में साफ सुनाई पड़ती रहती  है. वे अपने ऊपर के कमरे से सीढ़ियों से उतरते थे. आंगन के सामने एक छोटे से कमरे में मैं बैठा उनका इंतज़ार करता था. वे अक्सर  सफेद कुर्ता पाजामा या धोती या लुंगी पहने आते  थे. कई बार तो सफेद बनियान और लुंगी.

वे हिंदी के आलोचक थे. वे एक शिक्षक भी थे. वे समकालीन कविता के गहरे प्रेमी थे. तब पटना विश्वविद्यालय में कोई उनके जैसा समकालीन कविता का प्रेमी नहीं था. जब मैं मिला और बताया कि कविताएँ लिखता हूँ तब  उन्होंने मुझसे पूछा था- क्या आपने उदय प्रकाश की कविता पढ़ी है, स्वप्निल श्रीवास्तव की पढ़ी है? वे तब वेणु गोपाल की चर्चा करते थे. ये तीनों नाम मैंने पहली बार उनके मुख से ही सुना था. महेंद्रू के रानी घाट का वह मकान मुझे आज भी याद है. आंगन के ऊपर बैठकी में एक बार श्याम कश्यप को पहली बार उनसे बातचीत करते देखा था. तब मैंने इंटर पास किया था और शहर में किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो मेरा मार्गदर्शन कविता में करें. मुझे आज यह याद नहीं कि किसने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी थी या मैं बिना किसी व्यक्ति के रेफेरेंस से मिला था. पटना में एक तरफ मधुकर गंगाधर थे जो रेणुजी के सहयोगी थे दूसरी तरफ शंकर दयाल सिंह का पारिजात केंद्र था पर एक तीसरा केंद्र नवल जी थे.

वे जे पी आंदोलन के दिन थे. जे पी को भाकपा फासिस्ट बता रही थी. पटना के बेली रोड पर  एंटी फासिस्ट सम्मेलन हुआ था जहां आज चिड़िया खाना है. नंदकिशोर नवल जी भी जे पी को लेकर आलोचनात्मक थे. उसका कारण यह था कि वे बिहार प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और तब पार्टी की ऑफिसियल लाइन इंदिरा जी के साथ थी लेकिन नवल जी इंदिरा जी के उस तरह समर्थक नहीं थे क्योंकि वह एक लेखक भी थे पर जी पी आंदोलन को लेकर वह  संशय में भी थे. बाद में मुझे उसके कारण समझ में आये पर पटना में यह बात साहित्यिक हलको में प्रसिद्ध थी कि नवल जी गंभीर व्यक्ति है और समकालीन कविता में गहरी रुचि रखते है.

आज मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं उनसे पहली बार कैसे  मिला था. लेकिन यह मुझे अच्छी तरह याद है कि उनको मैंने अपनी कविताओं की एक छोटी सी कॉपी दिखाई थी जो तब वैशाली-कॉपी में लिखी गयी थी.

उन्होंने तब मुझे कुछ कवियों को पढ़ने की सलाह दी थी. मैं तब साहित्य में नव सिखुआ था. केवल मधुकर गंगाधर और शंकर दयाल सिंह से मिला था पर समकालीन साहित्य विशेषकर कविता में उन लोगों की कोई गति नहीं थी. अरुण कमल का नाम भी पहली बार उनके मुंह से  सुना था और एक दिन अरुण कमल उनसे मिलने आये थे लेकिन मैं उनसे मिला नहीं. उस छोटे से कमरे में बैठा नवल जी का इस बात के लिए इंतज़ार करता रहा कि वे कब सीढ़ियों से उतरकर आएंगे. 

मैं हिंदी का छात्र नहीं था इसलिए तब हिंदी आलोचना के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था. केवल शुक्ल जी, रामविलास जी और नामवर जी का नाम सुना भर था. नवल जी तब आलोचना के क्षेत्र में स्थापित हो रहे थे और उनकी कीर्ति फैलने लगी थी. युवा लेखकों में वे लोकप्रिय हो रहे थे. बिहार में नलिन विलोचन शर्मा,डॉ  नागेश्वर लाल, सुरेंद्र चौधरी और चंद्र भूषण तिवारी ये चार नाम ही तब आलोचक के रूप में जाने जाते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नवल जी अधिक जाने गए और सबसे अधिक किताबें उन्होंने ही लिखीं. आखिर क्या कारण है कि नवल जी को आज अधिक याद किया जा रहा है. हिंदी आलोचना में आखिर उन्होंने क्या अवदान था ? 

पटना के साहित्यिक जगत में तब यह बात प्रचलित थी कि नामवर जी से नवल जी के मधुर संबंध है और वे उनको बहुत मानते हैं. वैसे तब खगेन्द्र जी और नवल जी की जोड़ी भी  चर्चित थी लेकिन ख्याति अधिक नवल जी की थी. बाद में मैं बी ए इतिहास में आनर्स करने रांची चला गया और 82 में दिल्ली आ गया पढ़ने, तब नवल जी के सम्पर्क में नहीं रहा पर कुछ पत्राचार रहा. उनके पोस्टकार्ड मुझे आज भी याद हैं. किसी बड़े लेखक से यह मेरा पहला पत्राचार था. तब वह ‘आलोचना’ पत्रिका में हिंदी आलोचना का विकास नामकएक श्रृंखला लिख रहे थे. उनके लेखों को पढ़कर एक पत्र लिखा जिसका जवाब उन्होंने दिया था. मेरी जानकारी में आजादी के बाद हिंदी आलोचना के विकास पर वह पहला विस्तृत लेख था जो बाद में उनकी किताब के रूप में छपा. आज वह किताब हिंदी आलोचना के विकास पर  महत्वपूर्ण मानी जाती और छात्रोपयोगी भी. वह एक शिक्षक थे इस नाते वह ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो छात्रों के भी काम आए. दिल्ली आकर मैं अपनी पढ़ाई और नौकरी के संघर्ष में फंस गया जिससे उनके सम्पर्क में नहीं रह पाया, लेकिन पटना जब तब गया तो कभी- कभी उनसे मिलने भी गया. विवाह के बाद पत्नी के साथ भी.  

उनकी कृतियों से परिचित था, जब भी उनकी किताब आई उसे उलटा पलट जरूर. 80 के बाद उनकी कई किताबें आई और वे एक महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में उभरे. वे एक लिक्खाड़ के रूप में भी चर्चित थे. दरअसल वह एक पेशेवर आलोचक थे. जीवन में कुछ करना चाहते थे. एक शिक्षक के रूप में भी उनकी बहुत ख्याति थी. पर उन्हें लिखने में आनंद आता था. वे अपने निंदकों और आलोचकों की परवाह नहीं करते थे. वे अपने विचारों में दृढ़ थे. लेखकों के बारे उनकी अपनी स्वतंत्र राय थी. वे कहते थे युवा लोगों को मध्यकाल के कवियों को पढ़ना चाहिए. एक बार उन्होंने मुझसे अपूर्वानंद के बारे में कहा कि वे अज्ञेय आदि में दिलचस्पी लेते हैं लेकिन भक्तिकाल के  कवियों में नही. तब अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं हुआ था पर उत्तरशती में उनकी एक कविता पढ़ी थी और नवल जी को एक कार्ड भी भेजा था. 

नवल जी को ख्याति निराला रचनावली के सम्पादन से मिली. मुक्तिबोध रचनावली की तरह वह एक व्यवस्थित रचनावली थी. बाद में तो कई खराब रचनावलियाँ आई. वे शुद्ध हिंदी पर बल देते थे और  प्रूफ की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करते थे. इस प्रसंग में वे शिवपूजन सहाय की चर्चा करते थे. उन्होंने शिवपूजन जी के गद्य पर एक लेख लिखा था जो इस तरह का पहला लेख था. मुझे याद है कि पूर्वग्रह में नवल जी का एक पत्र छपा तथा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘मेरे जीवन का यह पहला लेख है जो किसी पत्रिका में शुद्ध छपा है.’

निराला को वे बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि मानते थे. एक बार इलाहाबाद में  हिंदी साहित्य सम्मेलन के निराला पर कार्यक्रम में वे आये थे और उनकी ही अध्यक्षता में गोष्ठी थी. मैंने पहली बार कोई लेख मंच से पढ़ा. पर्चा खत्म होने पर उन्होंने  मेरी तारीफ की जबकि उन्होंने कभी मेरी तारीफ नहीं की थी. मुझे आश्चर्य भी हुआ और उनके इस उत्साह से बल भी मिला.

शायद वह निराला के प्रति मेरे अगाध प्रेम को  भांप गए थे. उस कार्यक्रम में सत्यप्रकाश मिश्र और नीलाभ भी थे. नवल जी में एक खासियत थी कि उन्होंने केवल निराला पर ही नहीं बल्कि राष्ट्र वादी कवियों मैथिली शरण गुप्त और दिनकर पर भी लिखा. हमारे वामपंथी आलोचकों ने इन दोनों का मूल्यांकन नहीं किया बल्कि उपेक्षा तक की और उन्हें  दक्षिणपंथी खेमे का नायक बना दिया.

आज के कई समकालीन कवि इन दोनों का नाम सुनकर नाक भौंह सिकोड़ते है लेकिन नवल जी ने बिना किसी पूर्वग्रह के इनका मूल्यांकन किया,विश्लेषण किया. ‘दिनकर’ पर जब भाजपा ने दिल्ली के विज्ञान भवन में एक समारोह किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संस्कृति के चार अध्याय पर बोला तो उसे कवर करने मैं गया हुआ था. वह इतना नकली और राजनीतिक कार्यक्रम था कि मुझे इस बात से चिढ़ हुई कि दिनकर का इस्तेमाल किया जा रहा,तब रात मैंने नवल जी को फोन कर उनकी राय दिनकर के बारे में पूछी और बताया कि मोदी ने दिनकर के बारे में क्या-क्या बोला तो नवल जी ने छूटते ही कहा –

"दिनकर दक्षिणपंथी नही थे. भाजपा उनको भुना रही है और उनकी गलत छवि बना रही है."

मैंने अगले दिन दिनकर विवाद पर एक खबर भी चलाई थी. नवल जी टेक्स्ट आधारित आलोचना करते थे हालांकि लेखकों का एक वर्ग उनकी आलोचना पद्धति से खुश नहीं था. दिनमान में एक युवा लेखक ने  नवल जी की आलोचना की थी पर धीरे-धीरे  नवल जी की धाक अपने कार्यों से बनने लगी. रामविलास जी की तरह वे अपने काम में लगे रहे और समारोहों में जाना कम कर दिया. वे उत्तर छायावाद को भी केंद्र में ले आये. हिंदी आलोचना में उत्तर छायावाद पर ध्यान नहीं दिया गया. नवल जी के ससुर रुद्र जी उत्तर छायावाद के कवि थे. उन्होंने उनकी भी रचनावली सम्पादित की. एक बार जब मैं और रामकृष्ण पाण्डेय उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि


"लेखक का काम केवल लिखना नहीं बल्कि उसे छपवाना भी है और उसे पाठकों तक पहुंचना भी.”

असल में नवल जी एक पेशेवर लेखक थे जिन्होंने अपने जीवन का सार्थक इस्तेमाल किया और तुलसी दास से लेकर युवा कवि राकेश रंजन तक को पसंद किया. वे वाम पंथी थे पर केवल वाम पंथी नहीं थे.
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कथा-गाथा : पातकी रूढ़ि : अम्बर पाण्डेय

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अम्बर पाण्डेय की नई कहानी ‘पातकी रूढ़ि’ पृष्ठभूमि, विषय और भाषा तीनों स्तरों पर विस्मित करती है. अम्बर आख्यान अतीत से उठाते हैं, उसपर शोध करते हैं और फिर अपनी कल्पना से बुन कर एक नया संसार खड़ा कर देते हैं, देश-काल में उसका घटित होना हम देखने लगते हैं.
शास्त्रीय संगीत के घर घरानों में गहरे पैठकर यह कथा लिखी गयी है. 




पातकी रूढ़ि                   
अम्बर पाण्डेय





“कैसे दिए” एक बाई टोकरा सिर पर धरे चली जा रही थी. लाँग की धोती में सुपुष्ट जंघाएँ और उसके ऊपर मटकते विशाल नितम्ब देखकर उसे रोकने की इच्छा के बस में होकर कहा, “कैसे दिए?” बाई पलटी, बोली, “क्याऽऽऽ?” आँख फाड़कर ठाढ़ी रही. उसके ढंग से भौंचक उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने कड़क स्वर में कहा, “आम नहीं तो क्या तेरी गाँड”. बाई तब भी तस से मस न हुई, टोकरा सिर से उतारकर कमर टेढ़ी की, बायाँ नितम्ब निकाला और उसपर टोकरा टिका लिया. “मोल लेकर निकली हूँ, बेचनेवाली नहीं” उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने सुना बाई सुरीली थी. नाट्यमण्डली की नौकर लगती है. सब अंग बराबर ढँके थे मगर फिर भी ढंग ऐसा कि पुतली अटककर रह जाएँ.

“देखिए, अटरूँमियाँ आप मानपुर-नरवर घराने की पाग हो. आपकी गायकी में घरानेदार गायकी का रूप ही उतरता तो मैं ऐसा न कहता. आपने घराने की गायकी का रूप तामीर किया है. तासीर पैदा करने की बात होती तो कलावंतें भी कर लेती है आपकी गायकी नवादी दंगदार है इसलिए कहता हूँ सांगली में कलावंत बाइयों से ख़बरदार रहना. यह कलावंत बाइयाँ रुपए पर जान देती तो पैसा फेंककर इसने मुक्ति हो जाती मगर यह विद्याव्यसनी होती है. आज तुमसे लगी तो दो राग तुमसे सीखे कल अल्लादिया खाँ से लग गई. तुम तो जयपुरअतरौली घराने से ज़्यादा अप्रचलित रागों का भण्डारख़ाना हो. आज तुमसे बसन्त सीखा पता लगा कल किराने के उस्ताद करीमखाँ के ढुंगण लगकर मल्हार सीख रही है” चचेरे भाई कड़वे खाँ साहेब ने सांगली में उतरते ही उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब को हिदायत की थी. “विद्याव्यसनी माने?” उन्होंने पूछा. “वेश्या” कड़वे खाँ गाड़ी का भाड़ा देते हुए बेध्यानी में बोलें.

कड़वे खाँ के घर बेटी दामाद आए हुए थे. दामाद को पीलिया हुआ था और उपचार को यहाँ थे. उमर कच्ची थी और किराने घराने की तरफ़ के थे इसलिए कड़वे खाँ का घर पर गानाबजाना बिलकुल बंद था. दामाद कोई चीज़ न ले जाए इसका डर ऐसा था कि बेटी भी जब तक नैहर में रहती रियाज़ बंद रहता. देर दिन तक खटिया तोड़ते रहते और मन ही मन गाते. बहुत काल तक संगीत न हो तो ठाढ़े-खड़े मोलभाव कर रहे है और औरत की आवाज़ सुरीली लग रही है ऐसा होता है. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब के संग भी उस दोपहर ठेठ यही घटा था. वे कुछ देर बाई को देखते रहे, बाई भी ऐन आँख में आँख डाले ठाढ़ी रही. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ही ज़रा बाँके हुए और अपनी राह पकड़कर निकल लिए. “कहाँ ठहरे हो खाँ साहेब  बताते तो जाओ” बाई पीछे से चिल्लाई. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब सीध पकड़ चलते गए. मुड़कर देखा तक नहीं.

लू चलने लगी. हाय में भरम हुआ और दूसरी गली में मुड़ गए. आम के ठेले, टोकने यहाँ आते आते कम हो चले थे मगर ग़ायब न हुए थे. हर किवाड़ पर हल्दी के ढेर लगे थे. आम की सुगन्ध से नासापुट भरे हो और उसमें हल्दी की सुगन्ध आ मिले तो क्या दशा होगी आप कल्पना कीजिए. चक्कर आने लगे और आनंद भी लगे जैसे तुर्की तम्बाकू का गहरा कश खींचा हो. वैद्य जी ने दमे का उपचार शुरू करने से पहले उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब का बरसों का नज़ला निकाला था. नकसुरे तो खाँ साहेब न थे मगर नज़ला लेकर गाना सहज खेल न था. नाक खुली तो गन्धों ने धावा बोल दिया जैसे ससुराल में नौशे पर सालियाँ बोलती है. जाने किसका मुँह देखकर निकले, भटकते उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने सोचा और आसपास पानी की आस में नज़र दौड़ाई. ज़ुहर की अज़ान होने लगी. खाँ साहेब तुरतफुरत बढ़े चले जा रहे थे हालाँकि रास्ता पता न था.

मुर्दा सड़ गया लगता है. रूमाल निकालकर मुँह ढँका और चारोंतरफ़ निहारने लगे. आम, हल्दी के सुवास से भरी कनपटियों की नसें खिंच गई और उबकाई आने लगी. दवा घी के संग लेना पड़ती थी जिसके कारण उलटी होने में खाँ साहेब को देर न लगती. ज़रा माथा दुखा, चक्कर आए और उलटियाँ होने लगी. एक स्थान पर छाया देखी तो वहाँ सुस्ताने लगे. खुड्डी के किनारे खड़े है, टट्टी की बदबू के बीच, होश तक न था कि ठण्डी बयार लग रही थी. कुर्ता भीगकर सीने से लग गया था और टोपी से बूँदें झड़ती थी.

“एक जागी पाड ना ठरत” ऊपर कोई गा रहा था. बच्चे की अटपटी आवाज़ थी मगर सुर बड़े बराबर लगा रहा था. खटाखट सँकरा चढ़ाव नाप गए, अँधेरा ऐसा कि सीधे हाथ को बायाँ न सूझे. “हृदय भरत रिक्त होत” आह रे ऐसा सुर कान में पड़े युग बीत गया लगता है. भीतर पहुँचे तो देखते है तरबूज़ की फाँक काट काटकर काँसे की तश्तरी में धरी थी, गंगाल में पानी भरा है और आम पड़े है. ख़स की टट्टी के मारे कमरे में अँधेरा है और टूटीफूटी छत आँख पर नहीं पड़ती थी. पवन शीतल ऐसा जो ठिठककर रह गया हो. फ़र्श पर चाँदनी बिछी हुई थी और एक बारह तेरह साल की लड़की आदमकद दर्पण के आगे बैठकर गा रही थी. संग संग दर्पण में देख देखकर मुँह भी बनाती जाती थी. “अंधारबिंब काई फुटत तेंवि वारी दंत...” लड़की गाना बन्द करके उठ खड़ी हो गई. दर्पण में खाँ साहेब को देखकर घबरा गई थी.

“गाओ, रुको मत, गाओ. राग आकर खड़ा है” खाँ साहेब ने कहा और वही फ़र्श पर बैठ गए. ख़स की टट्टियों के बीच बीच से आते उजियार में लड़की का मुँह उन्होंने दर्पण में देखा. उसका हल्दी की पकी गाँठ जैसा साँवला रंग और बटुआ मुँह, सुतवाँ नाक और चातकों से प्यासे नयन थे. उमर बारह से एक दिन ज़्यादा न होगी, बदन सब हड्डी हड्डी था. “तुम राग हो क्या! इधर क्यों घुस आए?” लड़की ने रौब झाड़ा.
“जितना कहा उतना मानो. गाओ” खाँ साहेब  ने डपटा.

खाँ साहेब के गले की तासीर ऐसी थी कि “अति कोपयुक्त होय परी सुखवितें मला” लड़की गाने लगी. लू के मारे को जैसे मेघ की छाँह मिल गई, मग़रिब की अज़ान सुनकर खाँ साहेब जागे तो देखते है एक सुकड़ा डोकरा उन्हें हवा कर रहा है. उन्हें होश पकड़ते देर लगी कि कहाँ है! सपना देखकर उठे है या अब भी सपना देख रहे है. रुलाई फूट पड़ी. बयालीस साल का लम्बा-चौड़ा मर्द घर में आकर पहले सो जाए और उठे तो रोए, इसे भालचन्द्र गवस कैसे समझता!

“आप गुंता का गाना सुनकर यहाँ ठहरे फिर आपकी आँख लगी” भालचन्द्र गवस ने बताया और शर्बत का लोटा आगे किया. खाँ साहेब ने सुना न सुना पता नहीं पर शर्बत गटागट पी गए. दो कमरों का मकान सांगली में भालचंद्र गवस ने किराए पर लिया था, अंदर पाकशाला बाहर बैठक उसी में गद्दे डालकर तीनों जन सो जाते थे- गुंता, उसकी माँ शांतला और पिता भालचंद्र. गुंता को शांतला ने चिकोटी खोड़ी, “जा बाहर जा”. गुंता ऊँची खिड़की पर बने आले पर बैठी बाहर देख रही थी, “मैं नहीं जाती उस मानुष ने मिलने. मुझे ऐसे बोला गाओ जैसे चन्द्रपूर नटवर मंडळी का मालिक हो. कोई टिकट कटाकर आया मुझको सुनने!”

“गुंताबाईssss ऐं बाहर आ” बाहर से बाबा ने आवाज़ दी. रसोई की खिड़की से लगे पीपल पर एक उदुंबर वृक्ष बड़ा हो गया था. शांतला के मना करने के बाद भी गुंता मज़े में उस वृक्ष को ज़ीने की तरह बापरती थी. “औदंबर पर श्रीपाद वल्लभ का निवास है, लड़की होकर चढ़ेगी तो दुख उठाएगी, गुंता” शांतला जब तक अपना वाक्य पूरा करती गुंता उदुंबर की सबसे ऊँची और अभी तक कोमल डाली पर वानरी की भाँति लटकी हुई थी. शांतला आम का रस निकाल रही थी, बिगड़े हाथ लिए खिड़की पर दौड़ी, “मानुष की औलाद है बप्पा कि बन्दर की. इधर आ, मान मेरी, इधर आ और खाँ साहेब  को प्रणाम करके आ”.

गुंता वृक्ष की एक डाल से दूसरी पर पाँव रखती ऐसे उतरती जा रही थी जैसे पत्थर का पक्का ज़ीना हो, “मैं नहीं आती उस रागखाँ का हुकम बजाने! आया बड़ा, बोला, ‘गाओ’, गुंता उसकी नौकर बैठी है”, कहकर गुंता उदुंबर से पीपल की शाखा पर कूदी और फिर सीधे मिट्टी में लोटपोट. वहाँ से खाँ साहेब को “कुतरा, साला” चिल्लाती लक्ष्मी मौसी के घर भाग गई. शांतला ने रसोई के किवाड़ की साँकल खड़काई और भालचन्द्र आम के रस से भरा गिलास उसके हाथ से ले गया.

“सांगली में सबका नाम बालचंद्र होता है क्या! तुम लोगों को कोई दूसरा नाम नहीं मिलता! मेरे बैद का नाम भी बालचंद्र है” खाँ साहेब शर्बत के बाद आम का रस भी गटागट पी गए. “वैद्य जी का नाम तो बालचंद्र है मैं भालचंद्र हूँ” भालचन्द्र ने सफ़ाई दी, “जिसका आपने गाना सुना बड़ी माता निकली तो मूक हो गई थी गुंता. चन्द्रपूर नटवर मंडळी से निकाला तो यहाँ आए उपचार के लिए. डेढ़ माह में बोलना दूर गाने लगी”.

“हूँ, तुम्हारी बेटी है? सुरीली है सीखे तो गवैया हो सकती है” खाँ साहेब उठ खड़े हुए तो यह आमरस, शर्बत सब मुझसे तालीम लेने के लिए थे. अच्छे फँसे अटरूँपिया. मानपुर नरवर घराने के संगीत की शमा अब कलावंत के दो कमरों के घर में रौशन होगी. “नमाज़ का वक़्त हो गया. हमें रंगवणाबजार की राह बताइए” खाँ साहेब जाने को हुए.

“अरे आप तो एकदम से जाने लगे. मैं छोड़ आता हूँ आपको घर तक” भालचन्द्र भी खड़ा हो गया.

“न, आप बस राह बता दीजिए. आपके संग चलने पर चैन में हर्जा होगा” खाँ साहेब ने कहा और बिना जवाब सुने अंधेरी सीढ़ियाँ उतरने लगे.

“रुकिए, मैं चिमनी ले आता हूँ” भालचन्द्र रसोई की ओर दौड़े, “चिमनी चिमनी”.

“चिमनी में तेल नहीं है” शांतला ने कहा और आले में रखे गृहदेवता का दीपक उठाकर दे दिया. दीपक लेकर भालचन्द्र नीचे भागा तब तक खाँ साहेब आधी गली पार कर गए थे.

“खाँ साहेब, ओ खाँ साहेब जी” भालचन्द्र दीपक हाथ में लिए उनके पीछे दौड़ रहा था. खाँ साहेब ने पलटकर भी न देखा. जब भालचन्द्र एकदम पास आ गया तो पलटकर देखने को छोड़ कोई उपाय न रहा.

“ऐं ज़रा दूर हट, जलाएगा क्या” खाँ साहेब को उससे चिढ़ हुई. यह तो पीछे ही पड़ गया.

“आप दक्षिणा लिए बिना न जाए” कहकर भालचन्द्र ने दीपक खाँ साहेब को थमाया और ख़ुद जेबें टटोलने लगा. खाँ साहेब दीपक लिए खड़े है और भालचन्द्र ख़ाली जेबें उलट उलटकर देख रहा है. विक्टोरिया निकालकर खाँ साहेब के हाथ पर रखा और तुरंत दीपक उनके हाथ से ले लिया. एक पानी भरती गृहिणी उन्हें अचरज से देख रही थी पास में उसका ख़सम भी आँख फाड़ फाड़कर देख रहा था. ऐं, बीच गैल विक्टोरिया थमाना ये शरीफ़ों के ढंग है, दुनिया निहार रही है. खाँ साहेब न हुए गली रस्ते पुकार लगाते मंगते हो गए. खाँ साहेब ग़ुस्से से लाल पीले हो गए. विक्टोरिया भालचन्द्र के सिर पर मारा और बिना एक शब्द कहे सुने रंगवणाबजार की ओर दौड़े. “विदा तो लेते जाइए. लक्ष्मी का ऐसे कोई अपमान करता है क्या, सुनिए खाँ साहेब, sss” पीछे भालचन्द्र दौड़ने को हुआ पर आगे बढ़ा नहीं. यहाँ से अभी निकला तो विक्टोरिया हाथ से गया.

झुटपुटा गहरा गया और गैसबत्तियाँ जल गई. उधर हाथ में दीपक लिए भालचन्द्र विक्टोरिया ‘कहाँ गिरा है’ ढूँढने लगा. गुंता धूल में लोटपोट, मुँह आम से लिपटाए कहीं से चली आ रही थी, “बाबा अंधारे में क्या खो गया?”

दीपक उठाकर देखा बेटी की कैसी छबिदार मूरत थी. गुंताबाई गवस- नाम तक में संगीत था. बस यह कलाकार हो जाए तो इसके पाए का हिंदुस्तान में कोई न हो. दीपक के प्रकाश में आम से लिपटा मुख कैसा भट्टी पर खदकते कुन्दन के घोल सा दिपदीपाता है. मेरी गुंता भाव बताकर गाने लगे तो काशी की बाइयाँ इसके आगे पानी भरें.

“विक्टोरिया खो गया री गुंता” भालचन्द्र के बोलने की देर थी कि गुंता भी ढूँढने लग पड़ी, “बाबा इधर दीपक करो ना ना ना इधर तो उजियार करो”. दोनों बाप-बेटी को ढूँढते ढूँढते जब देर हुई तो शांतला ऊपर से चिल्लाई, “रोटी नहीं खाओगे क्या, अब तक नीचे बैठे रहोगे” खिड़की से देखा दीपक नाच रहा हैं और गुंता उसके प्रकाश के पीछे पीछे मटक रही है. “बाबा का विक्टोरिया खो गया” गुंता ने कहा और विक्टोरिया की जगह उसे इकन्नी मिल गई. पट्ठी चतुर थी चुपचाप दबा गई. हमारा तो विक्टोरिया खोया है यह इकन्नी ज़रूर गुल्ला ताई की होगी.

रोटी गुड़ और नमक के संग खाते भालचन्द्र का जी बैठ गया था, आज का दिन ही बिगड़ गया. विक्टोरिया इकन्नी हो गया और खाँ साहेब भी रूठकर चले गए. उधर खाँ साहेब को पानी भी कड़वा लगता था. आँख लगने का नाम न लेती थी, शायद दोपहर को सोने का फल है. आँख न लगती ठीक था पर मन भी एक ठौर न टिकता. पंछी की पुतली जैसे फिरती है मन यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहीं और और कहीं और से गुंताबाई के घर जा भागता. ऐसी रात तो हमारे मानपुर में नहीं होती कभी- ऐसी कलूटा. चाँद ने क्या इन मरहट्ठों के देश से मुँह फेर लिया. खुदा खुदा ये आसमान है कि दवात ढुरक गई. घड़ी को लगता जैसे दिल का दौरा पड़ा है. पंसलियों के बीच सुन्न सुन्न लगता. जी डूबा जा रहा है और साँस नहीं आ रही फिर थोड़ी देर जब मन गुंता के घर पहुँच जाता, उसका वह नाट्यगीत मन में बजने लगता तो शान्ति मिलती. खाँ साहेब बाहर दालान में खटोला डालकर सोते थे. उस दिन दस बार पेशाब करने गए, गली में दो बार टहलें और हज़ारों बार करवटें बदली मगर नींद नहीं आई तो नहीं आई. भोर भोर ज़रा आँख लगी तो मेहतरानी ने झाड़ू लगा लगाकर ऐसा धूला उड़ाया कि दम फूल गया, छींकें आने लगी और थोड़ी देर में वे बेहोश हो गए.

ईसाई अस्पताल में लोहे के पलंग पर पड़े हुए है और कड़वे खाँ माथे पर हाथ फेर रहे है, “क्या हो गया रे अटरूँ मियाँ तुम्हें! खटोले से उठे और बेहोश!”

“मरीज़ को दिक न करें” नर्स कर्कश थी. हाथ में कटोरीभर दलिया लिए खड़ी थी. पीछे एक बुढ़िया नर्स सुई तैयार कर रही थी. कड़वे खाँ खड़े हो गए हालाँकि अटरूँ उनके बेटे की उमर के थे, वह साठ और अटरूँ खाँ बयालीस के थे मगर जवान मर्द का सुई लगते समय पुट्ठा देखने का उन्हें कोई शौक़ न था. नर्स ने दलिया की कटोरी एक तरफ़ रखी और खाँ साहेब को पलटने का इशारा किया. पजामा सरकाकर दूसरी पुट्ठे पर टिंक्चर मलने लगी. कड़वे खाँ को राजवाड़े का भंडारी अस्पताल में मिल गया और वे उससे बात करने लगे. खाँ साहेब को सुई लगते ही नसों में झनझनाहट हुई और रीढ़ में ताक़त दौड़ गई. “दलिया ख़त्म कीजिए फटाफट” नर्स ने हिदायत दी. चिड़िया को दे रही हो इतना तो दलिया लाई थी, खाँ साहेब ने दो कौर में ख़त्म किया और खिड़की से कूदकर भाग गए.

भरी घाम में पूछते पूछते गुंताबाई के घर पहुँचे. देर तक खुड्डी से लगे लगे खड़े रहे कि ज़ीना चढ़े या नहीं. जिस औरत के लिए जान पर बन आई थी. प्राण अब गए कि कब गए हो रहे थे, साँस लेना मुश्किल था दिल का धड़कना मुहाल उसकी गली में उसके मकान के नीचे खड़े खड़े पसीना पसीना होते रहे. फिर पंसलियों में सुन्न सुन्न लगा जैसे दिल की जगह बड़ा भरी छेद हो गया हो. बेहोश न हो जाए इस डर से दो छलांग में ज़ीना चढ़कर गुंताबाई के कमरे में कूद पड़े.

“तुम फिर आ गए ऐं! क्या चन्द्रपूर नटवर मंडळी का नाटकघर समझा है हमारे घर को” गुंता चक्की पर चावल पीस रही थी. पसीने से बाल भीगे थे और ललाट चमक रहा था. चावल पिसने की महक से कमरा भरा था. भीतर कढ़ी उबल रही थी और नीचे शांतला कपड़े कूट रही थी. उदुंबर पर कौएँ हल्ला कर रहे थे बीच बीच में कबूतरों की गुटरगूँ होती थी.

खाँ साहेब ने आव देखा न ताँव और दिया गुंताबाई को एक तमाचा, “खरज लगा”. तमाचा खाकर गुंता रोते रोते खरज लगाने को हुई तो खाँ साहेब ने उसे एक और तमाचा लगाया. अबकी बाएँ कान में रेलगाड़ी की सीटी बजी और उस कान से कुछ देर के लिए सुनाई देना बंद हो गया. “तम्बूरे के बिना खरज लगाती है. जा, तानपुरा ला”. तानपुरा घर में नहीं था. शांतला कपड़े सुखाकर ऊपर आई तो नज़ारा किया, किवाड़ की आड़ में खड़ी खड़ी प्रसन्न होती रही. किवाड़ के पीछे से उसकी बेटी गुंता का भविष्य स्वर्णिम दिखाई देता था. गुंता फूट फूटकर रो रही थी, घर में घुस आया राक्षस और दे चाँटे पर चाँटे. हाय मैं बहरी हो गई. खाँ साहेब को न रोग न कमजोरी जैसे नसें खुल गई हो. यह औरत तो रोती भी सुरीला है. वे गुंताबाई पर ऐसे मुग्ध थे जैसे संगीत नाटक में शकुंतला पर दुष्यन्त.

नारी ताड़ना से वश में होती है, सुना था आज देख भी लिया. भालचन्द्र रात तीन बजे उठकर कमरा धोने लगता. शांतला ऊँघती ऊँघती रसोई में जलेबी के लिए चाशनी तैयार करने लगती और दूध औटाती क्योंकि ब्रह्ममुहूर्त के अभ्यास के बाद खाँ साहेब का नाश्ता होता था और रोज़ रोज़ हलवाई से मँगवाना महँगा पड़ता. गुंता को संडास में जबरन बैठाती कि अभ्यास के बखत टट्टी न आए. पानी पीना तो दूर कुल्ला तक करने की मनाही थी. उस दिन मार खाने के बाद गुंता जो कहा जाता करती थी, पलटकर जवाब देना भूल गई और न इधर उधर कहीं जाती. उदुंबर के डालियाँ जो गुंता के पैर बार बार पड़ने के कारण ठूँठ हो गई थी वहाँ भी फल लगने लगे. कोंपलें फूट पड़ीं.

ब्रह्ममुहूर्त में चाकर कभी जागते कभी जागते न थे लिहाज़ा ख़ुद खाँ साहेब कन्धे पर तानपुरा धरे चले आते. जाते जेठ की हवा आम के बागों और उससे भी दूर समुद्र से होती यों चलती थी कि सांगली को उड़ा ले जाएगी. रह रहकर तम्बूरे के तार झंकृत हो जाते. सामने से आते पंडे-पुजारी उन्हें देख बाट बदल लेते कि कोई संगीतप्रेमी प्रेत जा रहा है.

साढ़े तीन बजे रात जिसने चन्द्रमा देखा है उसे ही भैरव सध सकता है नहीं तो दूसरों के वास्ते जोगिया, भटियार, तोड़ी है . सोचते सोचते आकाश निहारते ठोकर खाते खाँ साहेब गुंताबाई के घर पहुँचते. नाट्यगीत कभी न गाने की सौगन्ध खाँ साहेब ने गुंता से ली थी. स्वप्न में भी संगीत नाटक के वे लुच्चे गाने गुंताबाई जीवन में कभी न गाएँगी. भूखों भी मरना पड़े तब भी नाट्यगीत को “ना”. उसके बाद खाँ साहेब खरज पर जो टिके तो महीनों बीत गए. “खरज को ऐसे लगाओ जैसे नौशा नई बहू को हाथ लगाता है” बेचारी बारह की वयसवाली गुंताबाई को क्या पता था कि कैसे नौशा नई बहू को हाथ लगाता है, “हाथ बढ़ाया फिर पीछे, फिर बहलाया, बातों में लगाया, फिर ज़रा सा आगे बढ़े. झपट्टा मारकर खरज पकड़ा कि छछून्दर पकड़ी. कलाई गहने का खेल, सुननेवाला का मन ऐसा रंग जाए जैसे किसी ने मंजीठ में डुबाकर निकाला हो.”



(दो)
जेठ से भादों आ गया. “ध्यान धर, मंजिष्ठा का रंग जब तक न दिखाई दें तब तक सा लगा” खाँ साहेब ने कहा और तानपुरा लगाने लगे. उस दिन गोकुळाष्टमी थी. दधि हांडी गली में बँध रही थी. माँ ने व्रत किया था और चम्पक के पुष्पों की वेणी बाँधकर बाबा के संग हरिहरेश्वर देवालय गई थी. एक वेणी गुंताबाई भी बाँधकर बैठी षडज लगा रही थी. पावस आरम्भ होते ही दो चार मोर मोरनियों ने उदुंबर पर क़ब्ज़ा कर लिया. तम्बूरा सुनते ही मोर बोलने लगते. बार बार गुंता को जाकर उन्हें फटकारना पड़ता था. मोर धीरे धीरे निर्लज्ज हो गए और जब तक लग्गे से कोंचो नहीं वे अपने ठिकाने से हिलते नहीं थे. अबके उन्हें उड़ाने गई तो देर तक खड़े खड़े उन्हें देखती रही. लौटी तो खाँ साहेब आग बबूला हो रहे थे.

लाल लाल आँखों से कुछ देर देखते रहे फिर कान ऐसा उमेठा कि गुंता का पूरा शरीर पलट गया मगर मजाल है कि कान खाँ साहेब की उँगलियों से छूटा हो. कान से कपोल तक सब मंजिष्ठा के रंग का हो गया. एक बार हाथ छूटा तो खाँ साहेब का हाथ रुक न सका, “देखूँ ज़रा तेरे पुट्ठे हुए कि नहीं गुलाबी, ला बता मुझे कल्लो”. गुंताबाई ने उस दिन पहली बार साड़ी पहनी थी. भगवान घनश्याम के वर्णवाली नीली साड़ी में उसका श्याम हाड़ हाड़ शरीर कितना कोमल लगता था जैसे काँच की पुतली हो. साड़ी-पेटीकोट उलटकर खाँ साहेब उसके पुट्ठें देखने लगे. गुलाबी तो नहीं हुए थे नील ज़रूर पड़ गया था.

देर दोपहर जब शांतला और भालचन्द्र घर पहुँचे तो शांतला को गुंता पर बहुत क्रोध आया, दूध उफन उफनकर तपेली कोयला हो गई. धुले कपड़े बाहर बरसात में पड़े थे. खाँ साहेब रबड़ी खाए बिना सिधार गए और यह लाट साहब सोई पड़ी है. “उपवास के दिन मध्याह्न शयन, शिव शिव” भालचन्द्र ने गुंता को उठाया. वे बेटी पर कभी कुपित न होते थे. लाड़ से रखते थे और उस दिन कुन्द की वेणी ख़ासकर गुंता के लिए मंदिर से लाए थे. गुंता ने आँखें मली, कुचली हुई वेणी उतारकर धरी और नई बाँध ली.

खाँ साहेब का प्राण यों बेकल थे जैसे नागिन डँसकर आप उलट जाती है. मुँह में कौर धरते तो जी मुँह को आता और सोने का जतन करते तो लगता सीने पर डाकिन आकर विराजी है. घर घर में भगत बेसुरे भजन गा रहे थे उससे अलग जी उचटता. उन्होंने मन बना लिया कि हैदराबाद से बड़ौदा चले जाएँगे. उन्होंने अपने बड़े बेटे जुगनू खाँ को चिट्ठी लिखी कि अपनी माँ, भाई बहनों और बीवी-बच्चे को लेकर मयसमान फ़ौरन कोल्हापुर आ जाए. जुगनू खाँ तेईस साल का था और उसके एक डेढ़ साल का बेटा था.

संसार से खाँ साहेब बैराग हो गया था. जिस संसार में बारह साल की लड़की भी कुँवारी न हो वहाँ क्या रहना! इस पाप के घड़े को ठोकर मारकर वे जोग धार ले ऐसा सोच सोचकर कुछ देर तक सुबक सुबककर रोते रहे. फिर आँसू पोंछे और उठकर बैठ गए. बैराग ग़ुस्से में बदल गया. रण्डी से जी जोड़ने पर कौन से लगाव की उम्मीद थी अटरूँपिया!

पीत करी थी नीच से, पल्ले लागी कीच. सीस काट आगे धरा, अंत नीच का नीच. सोचते सोचते खाँ साहेब सो गए.

बहुत दिन बीते खाँ साहेब न आए. शांतला गुंता को धीर धरने को कहती. भालचन्द्र ने उधार लेकर कोल्हापुर से तम्बूरा मँगवा दिया था. गुंता खाँ साहेब को अपना तम्बूरा दिखाना चाहती थी. क्वाँर की धूप में जैसे घासपाँत जलते है यों गुंता का हृदय दहकता. उस दिन गुंता से ऐसा क्या अपराध हुआ कि खाँ साहेब इतना काल गया पलटकर नहीं आए. उल्टे खाँ साहेब ने ही उसे पीटा. उसे और भी कष्ट दिया. कितना कष्ट दिया रे बाबा. उसने एक बार भी शिकवा नहीं लगाया. मूक होकर रही तब भी वह नहीं आए. एक बार खाँ साहेब का मुख देखने की इच्छा से आकुल गुंता ज़ीना बिलारी भी चढ़ती तो दौड़ी चली आती कि खाँ साहेब आए होंगे. ऐसे संगीत नाटक के वह गीत जिसमें स्त्री पुरुष के प्रेम की बातें होती है सब गुंता पर सत्य हुए.

जुगनू खाँ बीवी, बच्चें, भाई बहन और अपनी माँ के संग सांगली पहुँचा. खाँ साहेब की बीवी माखन बी हालाँकि छत्तीस की थी मगर दुखिया-डुकरिया लगती थी. आते ही बैद के पास जाने की रट लगा दी. कहने लगी हाज़मा बिगड़ा बिगड़ा रहता है. खाँ साहेब से किसी बात पर अड़ी अड़ी रहती. पोते को छाती से चिपटाए रात को खाट पर पड़ जाती. सूनी दोपहरों को दूसरी जनानियों में मगन रहती.

“बड़ौदा में उस पतुरिया का पीहर है. वहाँ जाकर तो मुझे जूतों में दाल खानी है” एक रोज़ जुगनू खाँ से उसकी माँ माखन बीवी ने कहा. उनका इशारा जयाबाई पणकर की तरफ़ था. जयाबाई पणकर मानपुर नरवर घराने की सबसे सुयोग्य गायिका थी. वह कोंकण की थी पर माखन बीवी को भरम था कि उसकी माँ बड़ौदा की है.

जयाबाई की बीनकार माँ बहुत पहले बड़ौदा में नौकर थी. वहीं खाँ साहेब ने उसे गंडा बाँधा, उसके हाथों से ले लेकर मिठाइयाँ उड़ाई उसे अपने हाथों से गुड़, धना और चने खिलाए और अपना घर ख़राब कर लिया. “क्या तुझे खानपान की कोई तकलीफ़ है? कोई गहना-लत्ता कम है?” कई दफ़ा अटवाटी-खटवाटी किए पड़ जाती तो खाँ साहेब पूछते. माखन बीवी की सास रंज होकर कहती, “सौत सर पर बैठाई, अब खानपान लत्ते-गहने पर पी के पातर सिर धरे हाँ नहीं तो कि”. 

“अब्बा, सुना आपने? किरानेवाले अब्दुल करीम खाँसाहेब की बीवी ताहिराबेगम अपने पाँचों बच्चों को लेकर भाग गई” जुगनू खाँ ने एक शाम बात चलाई. जामुन की बहारें थी. नमक लगा लगाकर बेटे, बाप और चाचा जामुन उड़ा रहे थे.

कड़वे खाँ का दामाद किराना घराने से था और अब्दुल करीम खाँ साहब का नातेदार था,  ये भी कोई तमीज़ है बड़ों के बारे में बतियाने की. क्या मतलब कि भाग गई! मियाँ बीवी में खटपट कहाँ नहीं होती!” खाँ साहेब ने गुठली थूकते हुए कहा. जुगनू खाँ चुप्पा हो गए. जब बहुत देर तक कुछ बोले नहीं तो कड़वे खाँ ने पूछा, “दोनों अलग हो गए क्या?”

जुगनू खाँ को फिर जोश आया, “हाँ बीवी अलग हो गई और वापस अपना पुराना धरम ले लिया. बड़े बेटे अब्दुल रहमान का नाम धरा है सुरेश, चम्पाकली का नाम हुआ है हीरा और खुद का नाम ताराबाई माने”.

“ऐं तो कौन सी नई बात की है. ताराबाई नाम तो उसका शादी से पहले का है. हीराबाई उसकी माँ का नाम है सो नातिन का धर दिया. ऐसे ख़राब खून को ब्याहोगे तो ऐसी ही औलादें होंगी. हीराबाई जोऊकर मारुतिराव सरदार की रखैल थी. खाँ साहब ताराबाई को लेकर भाग गए और बरसों बिना शादी के दोनों संग रहें” खाँ साहेब बड़बड़ाने लगे.

“अब्बा, जो पूना चले तो कैसा रहे?” जुगनू खाँ धीमे से बोला.

“और पूना में खाए क्या धूल का पुआ!” खाँ साहेब गुर्राए. जिस दिन से गुंताबाई के संग लगे थे मन था कि तत्ता ही रहता था.

“अब्दुल करीम खाँ साहेब का स्कूल उजड़ गया. चेले-चपाटे मारे मारे फिर रहे है. सब बम्मन है और पूना के. एक एक ने एक सौ पच्चीस तौला सोना चढ़ाया था गंडे के टेम” जुगनू बुदबुदाया.
पास पड़ा डंडा लेकर खाँ साहेब दौड़े, “घरानेदार गायकी को अब रंडियों की तरह हाट हाट बेचते फिरे”. जुगनू हाथ नहीं आया मगर खाँ साहेब को पता चल गया कि कोई बड़ौदा नहीं जाना चाहता. बच्चों को बम्बई-पूना जाने की चाट लगी है और इसमें उनकी माँ की शह है.

मकान, स्कूल की जगह और इतनी बड़ी गृहस्थी के लिए रुपया चाहिए. बड़ौदा जाने का उनका भी जी नहीं था मगर हैदराबाद से भी तबियत तंग थी. क्या करे कुछ समझ न आता था. अगर यह औरत चलन की नेक होती तो इससे भागने को देस देस मारे मारे न फिरते. उनका मतलब गुंता से था. बारह की उमर में जो कुँवारी न रहे तो क्या माँ के पेट से सब खेली खाई आई है. एक दिन नौकर के हाथ जामुन का टोकरा और मिठाई बाँधी और भालचन्द्र को खबर दी कि अगले जुमेरात गंडा बँधेगा. चढ़ावे को दो जोड़ा कपड़े, टोपी, जूतियाँ, सवा सौ तौला सोना, चाँदी का लोटा लगेगा, पाँवभर केसर और पाँच सेर मिठाई.

“देख कहता था न धीरज धर. कौन बनाता है कलावंत नारी को गंडाबंध शिष्य! तू अकेली होगी. मानपुर घराने की हो गई तू” भालचन्द्र ने गुंता से कहा. चढ़ावे का सामान पूरे घर में बिखरा था. लगता था जैसे शादी का घर है. नए जोड़े, टोपियाँ, जूतियाँ, मिठाइयाँ, सूखे मेवे, केसर, कस्तूरी, धना, गुड़ और फूलों के ढेर.

“माँ, देखो चाँदी का लोटा कैसे महकता है” गुंता ने शांतला से कहा फिर दुख से उसका मुख बुझे दीपक सा हो गया. काले मोतियों के पोत गले में डाले माँ कैसी लगती है! गणेश जी के जाने के बाद जैसे पंडाल लगता है. शांतला के सब गहने बिक गए. उसके बदले कोल्हापुर से अशर्फ़ियाँ लाई गई. दस दस तौले की बारह अशर्फ़ियाँ और पाँच तौले की अंगूठी. चाँदी का लोटा उधार लिया. कपड़े-लत्ते घर में बचा बचाकर रखे पैसों से ख़रीदे.

“माँ, गंडा बँधवाने का क्या लाभ! मैं ऐसे ही सीख लूँगी. अपने दागीने बेचकर उस नासी के सब हवाले क्यों करे!” गुंता ने माँ का हृदय परखने के लिए कहा. डरती भी रही कि माँ हाँ न कह दे और खाँ साहेब के नाम का गंडा उसकी कलाई पर बँधते बँधते रह जाए. खाँ साहेब के प्रेम में वह पूरी पृथ्वी सोने में मढ़कर खाँ साहेब की ओर लुढ़काने को तैयार थी. शांतला ने कुछ नहीं कहा. गुंता का हृदय ऐसी ध्वनि करने लगा जैसे बाहर निकल आएगा.

“अरे यह एक सौ पच्चीस तौला तो तू एक एक सभा में कमा लेगी” भालचन्द्र ने बात सम्भाली, “फिर लाद देना माँ को ऊपर से नीचे तक सोने में. मैं पता नहीं रहूँगा कि नहीं तेरा गाना सुनने”. गुंता रोने लगी. बाबा ऐसा क्यों कहते है. अच्छे भले स्वस्थ मानुष ऐसा कहते अच्छा लगता है भला. खाँ साहेब से दस बारह साल छोटे ही होंगे बाबा पर बुड्ढे लगते थे. शांतला के भी नयन टपकने लगे. देर तक कोई कुछ बोला नहीं.

गंडाबंधन इतनी भीड़भाड़ में हुआ कि गुंता खाँ साहेब को बता ही न सकी कि वह खाँ साहेब के लिए प्राण तक देने को उत्सुक है. वे अपने बेटे, भाई-भतीजों के संग आए और अतिथिसत्कार में ही सब समय चला गया. ढाके की मलमल के गुलाबी कुर्ते में खाँ साहेब की गठा हुआ सीना देख देखकर उसे कसने का कितना जी होता था. खाँ साहेब की गर्दन कितनी बलवती दिखती थी लम्बी और मोटी. बाँहें ऐसी कि पहलवान को काँख में दबा ले तो मारकर ही छोड़े और जाँघों की एक एक माँसपेशियाँ गिन लो. उस दिन गुंता कुछ न देख सकी पर अब खाँ साहेब को ठीक से देख लेना चाहती थी. जिसपर अपना जीवन और प्राण अर्पण किया उसकी मूर्ति हृदय में अविचल विराजमान रहे. 

छोड़ एक जुगनू खाँ को पूरा कुटुम्ब पूना चला गया. उसकी बीवी और बेटा भी पूना गए. जुगनू खाँ को यह आदेश था कि गुंताबाई को भैरवी और यमन सिखाए. उन ज़मानों में शुरू में रागों के नाम न बताए जाते थे. रातदिन सुर भरना यह शग़ल था लिहाज़ा जुगनू खाँ भी यही करते. नौजवान का पहले ब्याह करो, उसे संगति का सुख हो और फिर एक अचानक दिन उसकी बीवी को उससे दूर कर दो यह कौन सी रीत थी! जुगनू खाँ समझ न पाते. जाते जाते खाँ साहेब ने बस इतना कहा, “ज़्यादा दुनियादारी करिएगा जुगनूमियाँ तो फेफड़े बैठते देर न लगेगी और साँस गवैये का आधार है. लंगोट के पक्के रहिए, चचा कड़वे की देखरेख में रहिए.”



(तीन)
हैदराबाद में चारमीनार की सैरसपाटे थे, लाड़ बाज़ार की भीड़भाड़, बचपन के दोस्ताने थे और ठौर ठौर दाग़ देहलवीं को गाती बाइयाँ थी. वहाँ जुगनू की बीवी वज़ीरन थी. वह हरे छींट का खड़ा दुपट्टा पहनती थी, गले में कटहले की लड़ और कानों में मोती की बालियाँ आँखों को कैसे हरे हरे लगते थे. मीठा पकाना, मीठा कहना और मीठा गाना उनका दिनोंदिन का शग़ल था.

यहाँ सांगली की नारें कटु बोलती, ज़रा बात में लड़ने ठाढ़ी हो जाती और तीखा पकाती, खाती. सकारे उठकर सीधे उस गुंताबाई को भैरव सिखाने जाते. दोपहर लौटकर थोड़ा आराम, सूरज ढलते ढलते फिर गुंताबाई के घर पहुँचकर यमन कल्याण चलता. हलवाई के यहाँ एक पैसे का दूध पीकर लौट आते. अचकन गंडाबँध के दिन से जो खूँटी पर टाँगी तो महीनों हुए टँगी की टँगी रही. पहनने का मौक़ा न आया. चचा राजबाड़े एक दफ़ा भी नहीं ले गए कि अचकन पहनते और दो कमरों में बसर करनेवाली गुंताबाई के दड़बे में अचकन पहनकर कौन सी नवाबी दिखाना थी!

गुंता यों रहती जैसे बालराँड हो. बाल दिनों से न धोए न गूँथे. कुंकुम लगा है कि नहीं पता नहीं क्योंकि दर्पण में इतने दिनों से मुख तक नहीं देखा. सूती धोतियाँ पहने रहती और सफ़ेद ब्लाउस. खाँ साहेब के यों अचानक जाने से हुआ अचरज दिन दिन बीतते अंदर तक रिस रिसकर उसके हृदय की शिरा शिरा निर्बल कर गया था जैसे पानी के रिसते रहने से महल खण्डहर हो जाते है. उसे कुछ सूझ न पड़ता. माँ के दागीने गए, बाबा ने उधार किया इसलिए हिंस्र पशु जैसे अपने चित्त को वह किसी भाँति साधकर भैरव पर टिकाती. यमन कल्याण भी वह गाती थी और जुगनू खाँ को लगता था कि उसके यमन कल्याण में राग का सत्य स्वरूप प्रकट होता है पर गुंताबाई का जी भैरव पर टिकता.

अगहन के जाड़े थे और उजाला भी न हुआ था. गुंताबाई भैरव के लिए तम्बूरा लगा रही थी और जुगनू खाँ तम्बाकू मसल रहे थे. गुंता की लट पूरे मुँह पर बिखरी हुई थी, पपोटें सूजे हुए जैसे रातभर सोई न हो. दुबली इतनी कि गले की हड्डियाँ गाते समय धौंकनी सी चलती. कुचैली धोती में पद्मासन लगाए बैठी थी. मानपुर-नरवर घराने में रीत थी कि सबसे पहले पद्मासन में बैठना बताओ. “पुरुष तो आदत डाल लेते है मगर औरत की जात चंचल बड़ी देर में सीखती है” खाँ साहेब ने गुंता को सबसे पहले होशियार किया था और गुंता सप्ताहभर में तीन तीन घंटा पद्मासन लगाकर बैठने लगी.

अलाप लगाने को हुई तो जुगनू खाँ ने टोका, “सुनो, गुंताबाई हमारी बात. घराने मानपुर-नरवर की आत्मा है रस. रस की सृष्टि के लिए सब संगीत है. सुर, ताल सब वृथा जो रस न आए. राग को न्यौता और राग आया तो उसे रस पिलाओ न पिलाया तो राग बद्दुआ देकर लौट जाता है. राग का अपना स्वाभाविक रस है मगर गाने का ठौर, काल और गवैये का मन इन तीन चीजों से रस में हेरफेर होता रहता है. रस खुदा की बनाई चीज़ नहीं रस गवैये की बनाई चीज़ है फिर भी रस खुदा का बिरादर है. जानो रस को अल्लाह ने अपना भाई माना है. रस सिद्ध करो. रस सुर और पुकार से पैदा होता है. समझी, पुकार का वक़ार समझो जो नाच में नज़र है वह गाने में पुकार.”

बम्बई चौक पर जलसा था. १९२४ का बसन्त अभी लगा ही था और उस जलसे में कौन नहीं था. भातखंडे पण्डित उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ साहेब और खाँ अटरूँ खाँ साहेब के संग बैठे थे. दो चार कुर्सी छोड़कर उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहेब अपने गानेवाले अजूबा कुत्ते टीपू को लेकर बैठे थे. बीवी छोड़ जाने के बाद से सेहत में बिगाड़ था और तबियत उखड़ी. सबसे छोटी गुंताबाई गवस थी लिहाज़ा उसकी टेर सबसे पहले हुई. पहली महफ़िल और इतनी बड़ी हस्तियाँ सामने विराजी. खाँ साहेब को देखकर बार बार रोना आता था सो अलग. खाँ साहेब आँख में आँख देकर गुंताबाई को देखते तक नहीं. ऐसे देखते जैसे गुंताबाई औरतज़ात न होकर गगरी-लोटा हो.

जुगनू खाँ ने पीछे से दोनों हाथ उठाकर धीरज धराया. जुगनू खाँ अपने बाप से कितने अलग है! इतने दिनों बाद पहली बार गुंताबाई को लगा जब उसने स्टेज से जुगनू खाँ को देखा. खाँ साहेब नाटे, क़द्दावर और साँवले जबकि जुगनू खाँ लम्बे लम्बे हाथ पैरोंवाले, दराजक़द, गुलाबी रंगत के थे. नौउम्री में जो भीतर लगातार कम्पन होता रहता है, मन फ़ौव्वारे सा उछलता रहता है वह जुगनू खाँ को देखते ही लगता था. देर तक गुंताबाई तम्बूरा लगाती रही. महफ़िल में खुसरपुसर चालू हुई तो सफ़ेद साड़ी और मोतियों की लड़ पहने एक सुंदर प्रौढ़ा मंच पर आई.

साड़ी सफ़ेद न थी उसपर बहुत हल्के गुलाबी धागे से फूल कढ़े थे. कानों में हीरों के बुंदे ऐसे चमकते थे कि मुँह पर आँख न टिके और विदेशी इत्र ऐसा लगाये थी कि लगता उसके पल्लू से लगकर सो जाओ. “गाओ, बेटी. क्या गाओगी?” उस भव्य स्त्री ने पूछा. कितनी रुआबदार आवाज़ थी मगर फिर भी ऐसी कि गुड़ की डली कानों में फूटे. गुंताबाई को हिम्मत हुई, कहा, “भैरवी”.
“जलसे का श्रीगणेश भैरवी से!” उस स्त्री ने पूछा. उसकी आँखें निराशा की नीली रेख से खिंच गई. गुंताबाई को उसके निकट आने से बहुत संतोष हुआ था इसलिए निधड़क उत्तर दिया, “हमारे गुरु ने हमें भैरव और यमनकल्याण सिखाया है”.

“सन्ध्याकाल है यमनकल्याण गाओ” कहकर वह खड़ी हो गई. कितनी लम्बी थी और कितनी सुडौल, गुंताबाई ने आँख उठाकर देखा. चौदह की गुंताबाई उसके आगे कैसी चाकर सी दिखती. उस भव्य स्त्री के पाँवों में सोने की मोटे मोटे छड़े जब तक वह स्त्री मंच से उतर नीचे तक बिछी गादियों में ओझल न हुई गुंता देखती रही. गुंताबाई गवस ने भैरवी ही गाई और क्या ख़ूब गाई.

“हृदय बींधकर रख दिया बालिका ने. ऐसी पुकार बरसों हुए नहीं सुनी. घग्घेखाँ लगाते थे ऐसी पुकार. भई मानपुर-नरवर की गायकी का क्या ख़ूब उठान है. भैरवी कैसी करुण है आज पता लगा” भातखंडे पण्डित ने कहा. उसके बाद तीन दिन जलसा चला. खाँ साहेब को देखती गुंता बैठी रहती. बीच बीच में वे उस सुंदर प्रौढ़ा के कानों में कुछ कहते जाते. बीस-बाईस साल की एक लड़की संग बैठी थी उससे गुंता ने पूछा, “ये बाई कौन है?” उसकी खाँ साहेब से ऐसी संगत देखकर गुंता को बुरा गुजरा था.

“तुम्हारे घराने की तो है जयाबाई पणकर. खाँ साहेब अटरूँ खाँ साहेब से सीख रही है. ख़ूब अच्छा मल्हार गाती है” उस लड़की ने कहा. गुंता थोड़ी देर तक जयाबाई पणकर को देखती रही फिर बात बदलने को उस लड़की से पूछा, “तुम्हारे गुरु कौन?”

“मैं मोगूबाई कुर्डीकर. पहिले अलादियाँखाँ साहेब से सीख रही थी अब आगरे घराने में आई” उस लड़की ने कहा. कैसी उदास आँखें थी और मुस्कुराती तो ऐसा लगता रो पड़ेगी.

“तुम्हारे यहाँ खटराग गाते है न छह रागों का इकल्ला राग?” गुंता ने जी बहलाने को पूछा. मोगूबाई रोने लगी. गुंता ने उसकी चोटी पकड़ ली और गुदगुदी करने लगी. मोगूबाई बीस की रही होगी और गुंताबाई पंद्रह की. दोनों हँसी-ठट्ठा करने लगी. इतने दिन बाद पहली बार गुंता हँस बोल रही थी. जुगनू खाँ उसे विस्मय से निहारता रहा, अच्छा अपनी संगीसाथिनों के संग हँसती-बोलती होगी. जयाबाई पणकर ने दोनों लड़कियों को आँख दिखाई और गुंताबाई को बुलाकर कहा, “जाओ मेरी मोटर लेकर बम्बई घूमो. नौकर है मोटर में, जाओ समुद्र देख आओ”. दोनों जाने को हुई तो जुगनू खाँ ने टोका, “यही बैठो. सबको सुनो. सैर को नहीं आई”.



(चार)
जयाबाई पणकर ने शीला धर से कहकर १९७३ में गंगूबाई हंगल के संग गुंताबाई गवस को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिलाया. ऐसा हुआ कि गुंताबाई बाद में बम्बई आई और मटुंगा में मकान लेकर रहने लगी. जुगनू खाँ का उसपर बहुत लाड़ था और उसने गुंताबाई को हज़ारों बंदिशें बताई थी. जयाबाई पणकर,  हीराबाई बरौडकर, केसरबाई केरकर और गुंताबाई गवस यह चार गायिकाओं ने बड़ी धूम मचाई. पुकार अंग के कारण मानपुर नरवर घराने में रस का जैसे साक्षात् दर्शन होता था इसलिए जयाबाई पणकर और गुंताबाई गवस की अधिक प्रसिद्धि थी. खाँ साहेब का देहान्त १९४७ को आज़ादी मिलने से एक दिवस पूर्व हुआ.

जुगनू खाँ से जयाबाई पणकर की पटती न थी. आख़ीर जयाबाई पणकर को उसकी माँ माखनबीवी अपनी सौत मानती थी. गुंताबाई भी जयाबाई पणकर का मुख देखना गवारा न करती. ऐसे खाँ साहेब के देहान्त के बाद जयाबाई पणकर अकेली पड़ी मगर उन्होंने अपनी बेटी गौड़सारस्वतों में ब्याही थी और बहू दैवज्ञ ब्राह्मणों के परिवार से लाई थी इसलिए बड़े बड़े कार्यक्रम में उनका आना जाना था. नेहरू ने एक सभा में उन्हें ‘स्वरस्वती’ की उपाधि दी थी.

जुगनू खाँ के कारण घरानेदारी निभाने का ज़िम्मा गुंताबाई गवस के कन्धों पर आया. घराने की बंदिश, ख़ास राग-रागिनी गुंताबाई गवस के भाग्य में पड़ी. ऋतु के रागों के लिए मानपुर-नरवर घराने की ख्याति थी और जयाबाई पणकर का मल्हार और गुंताबाई गवस बसन्त सुनना सहृदय अपना परम सौभाग्य समझते. फिर अप्रैल १९६६ को मटुंगा रेल हादसे में जुगनू खाँ चल बसे.

शीला धर साँवली पर बहुत मनमोहक थी. कांजीवरम की नीली साड़ी पहनकर वे जयाबाई पणकर के वर्ली स्थित बंगले पर पहुँची. जयाबाई पणकर के पति डॉक्टर लम्बोदर दामोदर पणकर कोल्हापुर के सिविल सर्जन पद से सेवानिवृत थे और बगीचे में बैठकर अख़बार पढ़ रहे थे. बगीचा समुद्र से लगा हुआ था. पत्थर की दीवार से आ आकर लहरों के पछाड़ खाने की आवाज़ आती रहती. देर तक शीला धर बगीचे में बैठी डॉक्टर साहब से बात करती रही. डॉक्टर साहब को इंदिरा गाँधी के विषय में जानने में बहुत रुचि थी और शीला धर के पति इंदिरा गाँधी के ख़ास सलाहकार थे. शीला धर जयाबाई पणकर से मिलने आई थी पर वे कहीं दिखाई न देती थी.

नौकर ने आकर खबर की कि खाना लग गया है और दोनों भीतर पहुँचें. चाँदी के बर्तनों में तरह तरह व्यंजन सजाए खाने की मेज़ पर जयाबाई पणकर बैठी थी. वे आज भी बहुत हल्के रंग की गुलाबी शिफ़ॉन की साड़ी पहने थी. गले में पन्नों की लड़ और कानों में हीरों के जुगनू, हाथों में हाथीदाँत के कंगन और शीला धर ने देखा जब वे उनके स्वागत में खड़ी हुई कि उस बुढ़ापे में भी ऊँची एड़ी की सैंडल और सोने की मोटी मोटी छड़ें पहनी है. फ़्रांसीसी सुगन्ध से उनके काले बाल महक रहे थे. गवैया के बजाय वे राजपरिवार की कोई रेटायअर्ड सदस्य लगती थी.

“कोकम की कढ़ी लो थोड़ी” जयाबाई पणकर ने कहा. डॉक्टर चुपचाप खाते रहे फिर सोने चले गए. आइस क्रीम के कटोरे लेकर दोनों समुद्र से लगे एक छोटे से कमरे में आ गई. एसी के कारण तापमान सोलह डिग्री सेलिसियस था और सोफ़े ऐसे कि धँसते चले जाओ. शीला ने बैठते ही कहा, “हाउ कोज़ी!” बातों के दौर में लंच से शाम की चाय का समय हो गया.

“खाँ साहेब ने गुंताबाई गवस को कभी सिखाया ही नहीं” सोफ़े पर पाँव चढ़ाए बैठी जयाबाई पणकर ने चकली खाते हुए कहा.

“वे तो कहती थी खाँ साहेब ने उन्हें गंडा बाँधा था” शीला धर ने चाय का घूँट भरा और बोली. कड़क, बहुत ज़्यादा शक्कर और इलायची वाली चाय थी.

“जुगनू खाँ इसके उस्ताद थे. जुगनू खाँ कड़वे खाँ साहेब के संग बहुत रहे और अपने ताऊ घोड़े हुसैन खाँ के संग भी. उन्हें मानपुर-नरवर घराने की एक एक चीज़ याद थी. खाँ साहेब तो पूना में रहे मुझे सिखाया. खाँ साहेब गुंताबाई से बहुत कुपित रहते थे” जयाबाई पणकर को इसी वर्ष पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था इसलिए आनंदातिरेक के कारण वे बहुत अधिक बोलने लगी थी, “तुमसे एक बात कहूँ. कादम्बरी में न लिखना”.

“जयाताई मैं उपन्यास नहीं लिख रही हूँ” शीला धर ने तुरंत सफ़ाई पेश की.

“हाँ जो भी क़िस्से-कहानी तुम लिखती हो उसमें मत बताना. गुंताबाई की जो बेटी है, बैंक में रुपए गिनती थी. क्या नाम है? शान्तला खत्री. वह जुगनू खाँ की बेटी है. बात यों हुई कि जुगनू खाँ से सीखते सीखते गुंताबाई गर्भवती हुई तब जुगनू खाँ उसे लेकर पूना आया और खाँ साहेब ने कहा इसे जयाबाई के यहाँ रखो. बहुत कष्ट का काल था. गुंताबाई का बाप उसे ढूँढता फिर रहा था. एक लड़का था जगरूप खत्री नाट्य मंडळी में नायिका बनता था फिर बम्बई गया सिनेमा में काम करने. उससे मैंने गुंताबाई का लग्न कराया. गृहस्थी का सब सामान दिया. दागीने बनवाए” जयाबाई बोलते बोलते फुसफुसाने लगती. शीला धर को अपना कान बिलकुल उनके मुँह में देना पड़ रहा था.

“तब से ही खाँ साहेब को गुंताबाई फूटी आँख न सुहाती थी. जुगनू खाँ गुंता पर अंत समय तक प्राण देता रहा. मरा भी उसी स्टेशन पर जहाँ गुंताबाई गवस का घर था. गुंताबाई का आदमी सिनेमा में सफल न हो सका. दारू पी पीकर मर गया. उससे गुंताबाई को एक लड़का है सारंग खत्री. अच्छा गाता है. मेरे पास आता है नई चीजें सीखने.”

शीला धर ने पूछा, “आपसे भी तो नहीं पटती थी गुंताबाई की.”

“कृतघ्न थी बहुत. जुगनू खाँ के मरने के बाद तुमसे कहकर उसे संगीत नायक अकादमी दिलाया मैंने. उसके बाद बहुत अहंकारी हो गई. गोमंतक सारस्वत परिषद की वार्षिक सभा थी. उसी बरस उसे पद्मश्री और मुझे पद्मभूषण मिला था. गोमंतक समाज के लिए विशेष अवसर था क्योंकि सबसे अधिक पद्म पुरस्कार हमारे समाज को मिले थे. उसे भी बुलाया भाषण करने. सुख का अवसर था और जानती हो उसने घमंड में आकर क्या कहा?” जयाबाई ने आँख उठाकर पूछा.

“क्या?” शीला धर उन्मन हो गई थी. गोमंतक सारस्वत परिषद की सभा में क्या हुआ यह जानने में उनकी किंचित रूचि न थी.

“भाषण में कहा कलावंत स्त्रियों को आज पुरस्कार मिल रहे है बहुत अच्छा पर यह न भूलिए कि इसके पीछे हमने कितना त्याग किया है. कोंकण में हमारे शरीरों को गौड़सारस्वतों ने जैसा चाहा बापरा. फिर संगीत सीखने गए तो गुरुओं से शरीर का धंधा किया. नाट्यमंडळियों में शरीर का धंधा किया. पेशा वेश्या देश शय्या रहा. यह नहीं भूलना चाहिए हमें”. जयाबाई के कहने का ढंग थोड़ा बदला जैसे गुंताबाई गवस की मंच पर भाषण देने की नकल कर रही हो, “समाज के वृद्धों और गुरुजनों के सिर नीचे हो गए. कल की आई औरत हमें बता रही है कि हमारे समाज की औरतें शरीर का धंधा करती थी! यही नहीं यह भी कि हम इसे गर्व का विषय माने न कि लज्जा का जानकर छुपाए! पहले पूर्वजों को वेश्या कहा फिर गुरुजनों को झूठा”.

“मैं पीछे गई उससे मिलने तो हमारा बहुत टंटा हुआ. ख़ुद नाली में लोटकर चाहे गू मल मुख पर मगर जिन लोगों से सीखा उनका नाम धरना क्यों! तो बोली कोंकण में गौड़ सारस्वतों ने उसकी माँ-नानियों का ख़ूब शोषण किया. जुगनू खाँ की औलाद पैदा की तो मज़े लेकर की कौन सा दुख उठाया तूने! मैंने पूछा तो कुछ बोली नहीं. खाँ साहेब और जुगनू खाँ की इज्जत करती थी मगर वे भी तो उत्तर भारत के आद्यगौड़ समाज के थे. ख़तना कराया तो जाति ख़त्म हुई ऐसा सोचना कैसे हुआ! सरस्वती की साधना करनेवाले कलावंत बम्मन नहीं हुए तो क्या हुए! फिर दूसरे बम्मनों को कोसकर कौन सा कल्याण. उसके मटुंगा के घर की बात है. मैं खड़ी खड़ी लौट आई. पानी तलक नहीं पिया. फिर एक दिन घर आई विदेश साबुनों का डब्बा लेकर”.

जयाबाई पणकर बोलती गई पर शीला धर के पल्ले कुछ अधिक नहीं पड़ा. शीला धर के अफ़सर पति का काम ख़त्म हुआ तो वे दिल्ली लौट आए. जयाबाई पणकर से कोई ख़ास जानकारी उन्हें मिली नहीं. जयाबाई संगीत की बात छिपा जाती थी. संसार भर की बात करती मगर संगीत की बात गुप्त रखती. शीला को लगता था जयाबाई पणकर को भारतरत्न देना चाहिए. धर साहब से कहा तो वे कुछ देर चुप रहे फिर फ़ाइल से आँख उठाकर कहा, “गवैये को भारत रत्न!” “उनसे अच्छा मियाँ का मल्हार कोई नहीं गा सकता” शीला ने कहा.

“मुझे तुम्हारी वह गुंताबाई गवस का बसन्त बहुत अच्छा लगता है” धर साहब बोले फिर फ़ाइल उठाकर दूसरे कमरे में चले गए. मसला उलझा था और उन्हें फ़िलहाल रागदारी पर चर्चा चलाने की कोई इच्छा न थी. 



(पांच)
तीन दिन के जलसे के बाद जुगनू खाँ की बहुत इच्छा थी कि पूना जाकर बीवी-बच्चे से मिल आए. खाँ साहेब इसपर चिढ़ गए, “गुंताबाई को लेकर दुनिया के सपाटे करने के ख़्वाब है. आँख का पानी रखने में अब इतना ज़ोर! बीवी से मिलने को मरे जा रहे है”.

“अब्बा एक बार अम्माँ से मिल लेता” जुगनू खाँ मिमियाए.
“गुंताबाई को सांगली छोड़कर आओ पूना. रहना महीना दो महीना” जयाबाई पणकर ने बीच बचाव किया और बताशे, लड्डू रास्ते के लिए दे दिए. खाँ साहेब के किसी रसोइये को कहकर रास्ते के लिए पूरी और आलू की सब्ज़ी धरवा दी. जुगनू खाँ और गुंताबाई का रेलगाड़ी का टिकट आ गया.

रात डेढ़ बजे सांगली में उतरे. फाल्गुन की पूर्णिमा थी. दूसरे दिन धुलेंडी इसलिए ताँगेवाले न थे. स्टेशन पर गुंताबाई को छोड़कर जुगनू खाँ गाड़ीवान ढूँढते रहे. गुंताबाई का घर दूर था. कितना विशाल और कितना लाल चन्द्रमा निकला था उस रात और वासंती पवन में थोड़ी थोड़ी शीतलता शेष थी.

बड़े जतन के बाद एक बैलगाड़ीवाला घर छोड़ने को तैयार हुआ. लग्न पीछे वधू लानेवाली गाड़ी थी. दुपहरिया के फूलों के रंग की झण्डी ऊपर लगी हुई थी और हल्दी से रंगे चंदोबे पर अनार के रक्तवर्ण से स्वस्तिक बनाए गए थे, दारूहल्दी से किनोर किनोर कमलावलियाँ. बीच बीच में लाख के लाल ठप्पे और ढाक के फूलों की छींट पड़ी थी. कुसुम्भी रेशम का अंदर गदेला पड़ा हुआ था जिसपर मंजीठिया रंग के मख़मल के तकिए थे.

पिछोर में पेटियाँ और पोटले रखें और पहले गुंताबाई गवस चढ़ी पीछे जुगनू खाँ. चंदोबे के छेद से देखने पर जानते कि चन्द्रमा गुंताबाई का पीछा कर रहा है. तम्बाकू फूँकते गुंताबाई ने पहली बार जुगनू खाँ को देखा था. बार बार बीड़ी बुझ जाती और जैसे ही वे माचिस जलाते गुंताबाई के पान से लाल पड़े होंठ दिखाई देते.

“बसन्त ज़र्द है. हमारे घराने में तीव्र मध्यम लगाते है. पीला कैसा है जानती हो? सुना था जब अब्बा ने गाया था?” जुगनू खाँ ने पूछा. ओहार के जोड़ों के बीच जो जगह थी वहाँ से ठण्डी हवा आ रही थी, जुगनू खाँ की लहरिया पगड़ी ढीली होकर खुल रही थी. उसके पेंच खुल खुलकर उसके कंधों पर आ गए थे. गुंताबाई ने उत्तर नहीं दिया, वह ऊँघ रही थी. “बसन्त कोई आनंद का राग नहीं. कच्चे गवैये इसे आनंद का राग समझते है. कोई जलसा हो तो उसकी तैयारी को लेकर जो बेचैनी होती है न बसन्त उस बेचैनी का राग है. तुम्हें बसन्त बताऊँगा कल से” जुगनू खाँ ने गुंताबाई का कंधा झँझोड़ा.

“जैसे श्री चिढ़ का राग है वैसे बसन्त बेचैनी का. अच्छा बताओ- उसका रंग कैसा है? अब्बा के गाते टेम कौन से रंग का दिखाई दिया था?” जुगनू खाँ ने फिर तीली सुलगाई. क्षणभर को गुंता के बड़रे नयन दीप्त हो उठें.

“जैसे लाल पगड़ी को कोई बहुत धोए और बहुत धूप में पहने तब जैसा रंग खिलकर निकलता है वैसा” गुंता ने उत्तर दिया, “मगर उन्होंने तो दोनों मध्यम लगाए थे”.

“वह उस्ताद है चाहे दोनों मध्यम लगाए. मानपुर-नरवर घरानेदारी में बस तीव्र मध्यम” जुगनू खाँ ने बताया और फिर चिल्लाए, “ऐं ज़रा रोक गाड़ी”. गाड़ी से फिर झट से कूदें. आधी रात को नीम तले रुकने का क्या कारण! ओहार के जोड़ों से बाहर देखती गुंता सोचने लगी.

“जा, ले आ झटपट” रुपया देते गुंता ने देखा.
“कलाली खुली न होगी” गाड़ीवान बोला.
“बहस मत कर. लेकर आ” जुगनू खाँ ने जवाब दिया. गाड़ीवान दौड़ गया और जुगनू खाँ तम्बाकू पीते रहे.

जब पूरा पी चुके पर्दा उलटकर भीतर झाँका, “बस चलते है. बसन्त में एक ब्याकुल टेर होती है मगर दुख की नहीं न सुख की”.

“फिर?” गुंताबाई ने पूछा. पर्दा हटने के कारण जुगनू खाँ के मस्तक के पीछे चन्द्रमा जैसे खड़े खड़े डोल रहा था. उनकी पाग पूरी तरह खुलकर कंधों पर पड़ी थी और काले स्याह बाल कानों के ऊपर उड़ रहे थे. “कुसुम्भ सुजान निज़ामुद्दीन पियू” जुगनू खाँ ने स्थायी बोलकर बताई, “जा घरी न तुमको देखूँ, कौन बिध जिऊँ”. गुंताबाई के बाएँ पाँव का अँगूठा साड़ी से निकलकर दिखाई दे रहा था. उसका नाख़ून कमल की पंखुड़ी की तरह दिखाई देता था जुगनू खाँ ने धीमे से उसे पकड़ लिया. ऊँघती गुंता को पता तक न चला. उसका मगज बंदिश में अटक गया था, “कुसुम्भ सुजान निज़ामुद्दीन पियू”. गाड़ीवान बहुत देर में लौटा और ख़ाली हाथ. आते ही गद्दी पर बैठ गया और गाड़ी हाँकने लगा.

“क्यों बे लाया?” जुगनू खाँ गरजे.

“कलाली बंद थी उस्ताद” गाड़ीवान ने कहा और फिर, “चल चल चल” रटने लगा. जुगनू खाँ बुदबुदाते रहे, “होते मर क्यों नहीं गया खनगी के पूत”.

घर पहुँचे तो ताला लगा था. जुगनू खाँ गाड़ी में बैठे थे, “क्या हुआ गुंताबाई?”

“ताला लगा है” गुंता चिल्लाई. फिर देर तक दोनों पड़ौसियों के किवाड़ खटखटाते रहे पर लोग छक सोए थे. गुल्ला ताई के पति ने बहुत देर बाद दरवाज़ा खोला, “अरे गुंता! तेरी माँ को ईसाई अस्पताल में भर्ती किया है. दिमाग़ पर बुख़ार चढ़ा बोलकर. भालचन्द्र ने टेलीग्राम दोपहर को ही दिया. तेरी मौसी के संग सो जा. सकाले अस्पताल जाना”.

गुंता गाड़ी की ओर दौड़ी, “खाँ साहेब मुझे अस्पताल ले चलो, खाँ साहेब”.

अस्पताल के बड़े फाटक पर ताला लटका था और लाख बजाने पर भी कोई न उठा. चन्द्रमा अस्त होने को था. बहुत रात हो रही थी.

“ऐं, गाड़ी यही खड़ी कर दे. बाईजी यही सोएँगी. गुंता तुम गाड़ी में बिसराम करो. अस्पताल खुलते देर नहीं लगेगी”. गुंता गाड़ी में आकर बैठ गई. नींद तो आने से रही. अपनी माँ शांतला की बीमारी का सुनकर रोने लगी. जुगनू समझाने लगे, “कुछ नहीं होगा तेरी माँ को. चिंता नक्को, गुंताबाई”. फिर अचानक गुंताबाई का अँगूठा पकड़ लिया. गुंताबाई छुड़ाने को कसमसाई तो जुगनू खाँ पाँव उठाया और अँगूठा मुँह में भरकर काट लिया. गुंता चिल्लाने लगी, “छोड़ो खाँ साहेब. तुम्हारे अब्बा क्या कहेंगे”. गाड़ीवान दौड़ा आया, “बाई, क्या हुआ बाई”.

“कुछ नहीं, खसम-लुगाई के बीच मत बोल” गुंताबाई ने कहा. कैसी पकी आवाज़ है, जुगनू खाँ सुनते रहे.

चार बजे फाटक खुला तो गुंता भागी भागी भीतर पहुँची. अस्पताल में ज़्यादा मरीज़ न थे. एक कोने में शान्तला पलंग पर सोई हुई थी और बाबा ज़मीन पर. पलंग पर सोती माँ कितनी सुन्दर दिखती है, गुंता ने देखा और निश्चय किया कि जलसे से मिली रक़म से माँ बाबा के लिए पलंग गढ़ाएगी. “बाबा, उठो बाबा. क्या हुआ माँ को?” भालचन्द्र को जगाते हुए गुंता ने पूछा.

“तू आ गई. डॉक्टर बोले माथे पर ताप चढ़ गया” भालचन्द्र तुरंत उठकर बैठ गया, “उठाऊँ शान्तला को. कब से तेरे बारे में बड़बड़ा रही थी”.

गुंता शांतला के माथे पर देर तक हाथ फेरती रही. जब नहीं उठी तो भालचन्द्र नाड़ी देखने लगा. गुंता दौड़कर नर्स को बुला लाई. पसीने से लथपथ गुंता रोने लगी, “माँ, तू मरना मत. तू कभी मरना मत. तू कभी भी मरना मत.”

“चुपकर लड़की. वह सोई है. हल्ला मत कर” नर्स ने डाँटा.
उस दिन सूर्योदय के बहुत देर बाद शांतला उठी. गुंता जाग रही थी. शांतला के उठते ही उसके हाथ में जलसे से मिली रक़म पकड़ाते हुए कहने लगी, “माँ इससे तेरे और बाबा के लिए पलंग बनवाऊँगी”. शान्तला का ज्वर उतर गया था. ईसाइयों के संग भारत में चिकित्सा और सेवा का नया युग आरम्भ हुआ था. नन बन चुकी नर्स तब तक रोगी के लिए दलिया ले आई थी.
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 #४७१४ नहीं बल्कि ४७११ 
#वायु की सुई  

महामारी : आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण : सौरव कुमार राय

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(Photo courtesy : Ben Mckeown )




कोरोना आपदा को केंद्र में रखकर लिखे गये वैचारिक और सृजनात्मक लेखन समालोचन पर आप अनवर पढ़ रहें हैं अबतक आपने-

अशोक वाजपेयी, विजय कुमार (कविताएँ),

राजिंदर सिंह बेदी, फणीश्वर नाथ रेणु, पंकज मित्र, प्रचण्ड प्रवीर (कहानियाँ),

यान लियांके (अनुवाद यादवेन्द्र), मदन सोनी, स्कन्द शुक्ल, रश्मि रावत, संतोष अर्श, सुशील कृष्ण गोरे, सुजीत कुमार सिंह, प्रांजल सिंह, (आलेख), और

चित्रकार- अखिलेश, सीरज सक्सेना, मनीष पुष्कले, अवधेश यादव, देवीलाल पाटीदार, अमित कल्ला, भारती दीक्षित, सफदर शामी, विनय अम्बर,वाज़दा खान,रवीन्द्र व्यास, सुमन कुमार सिंह, जयप्रकाश, अनिरुद्ध सागर, अशोक भौमिक, महावीर वर्मा, सुप्रिया, नरेंद्र पाल सिंह, सुमित मिश्रा, शम्मा शाह,हुकुम लाल वर्मा,अनीस नियाजी, चरण शर्मा, प्रियंका सिन्हा,अनूप श्रीवास्तव(चित्रकार-श्रृंखला संपादक राकेश श्रीमाल) को पढ़ा.

इसी क्रम में आज इस महामारी के आर्थिकराजनीतिक एवं सामाजिक आयामों पर चर्चा कर रहें हैं नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के वरिष्ठ शोध सहायक सौरव कुमार राय



महामारी : आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण            
सौरवकुमारराय 




कोरोना महामारी के हालिया प्रकोप ने अचानक से मानव इतिहास की कुछ प्रमुखमहामारियों को चर्चा में ला दिया है. इस संदर्भ में जिन महामारियों पर सबसे ज्यादाचर्चा हो रही है वे हैं-

  1. चौदहवीं शताब्दी यूरोप में फैली प्लेग महामारी(जिसे 'ब्लैकडेथ'के नाम से भी जाना जाता है);
  2. सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में अमेरिकी महाद्वीपोंमें फैलने वाली चेचक और प्लेग महामारियां;
  3. भारतीय उपमहाद्वीप में 1890 के दशक में फैलीप्लेग महामारी तथा
  4. 1918 में फैली स्पेनिश इन्फ्लुएंजा नामक वैश्विक महामारी.
वर्तमानमहामारी के साथ-साथ इन महामारियों पर एक सरसरी नज़र स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि किसीभी महामारी की शुरुआत एक जैविक परिघटना के रूप में होती है, लेकिन यह जल्द ही राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाक्रम में बदल जाती है. दूसरे शब्दों में, किसी भी महामारी कोसिर्फ सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाली किसी रोग विशेष के व्यापक प्रसार के तौर पर नहींसमझा जा सकता है, वरन इसके आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं पर विचार करना उतनाही आवश्यक है.
अगर हम गौर करें तो यह पाएंगे कि महामारियों मेंउत्पादन की प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता होती है. यह चौदहवीं शताब्दीयूरोप के 'ब्लैक डेथ'या प्लेग महामारी के मामले में सबसे स्पष्ट था. 'ब्लैक डेथ'नेलगभग एक तिहाई यूरोपीय लोगों को मार डाला, जिससे यूरोप में काम करने वाले लोगों अथवासर्फ़ (बंधुआ मजदूर) की संख्या में जबरदस्त गिरावट आई. नतीजतन, सामंतों को इन सर्फ़ोंको कई रियायतें देनी पड़ीं. कालांतर में इसने स्वतंत्र लघु कृषक प्रणाली तथा खेतिहरमजदूर आधारित कृषि व्यवस्था को जन्म दिया. इस प्रकार चौदहवीं शताब्दी के प्लेग महामारीने यूरोप में सर्फ़ आधारित सामंती उत्पादन प्रणाली की जड़ों को हिला कर रख दिया तथा पूंजीवादीउत्पादन प्रणाली की तरफ संक्रमण की नींव रखी.
कुछ ऐसी ही क्रांतिकारी आर्थिक परिवर्तनों की भविष्यवाणीवर्तमान कोरोना महामारी के संदर्भ में भी की जा रही है. यह तर्क दिया जा रहा है किनिश्चित तौर से कोरोना महामारी वैश्विक अर्थव्यवस्था की संकल्पना को गहरा धक्का पहुंचाएगी.इस संबंध में जॉन फेफर ने अपने हालिया लेख में कोरोना महामारी को वैश्विक अर्थव्यवस्थाके लिए दिल के दौरे के तौर पर देखा है जिसके गंभीर परिणाम आने वाले कुछ वर्षों मेंदेखने को मिल सकते हैं. विद्वान तो यहाँ तक तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा महामारी हमेंराष्ट्र केंद्रित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की तरफ वापस ले जाएगी. विशेषज्ञ आर्थिक मंदीऔर कई कंपनियों के दुनिया भर में पतन की भी भविष्यवाणी कर रहे हैं जिससे बेरोजगारीबढ़ेगी. अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को पहले से ही मौजूदा संकट केकारण गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. यह उन्मुक्त पूँजी आधारित उत्पादनकी वर्तमान प्रणाली में दूरगामी परिवर्तन का कारण बन सकता है.
मानव इतिहास में महामारियां अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिकपरिवर्तनों की भी जनक रही हैं. यहाँ तक कि 'प्लेग ऑफ़ जस्टिनियन'जैसी महामारी तो शक्तिशालीपूर्वी रोमन साम्राज्य के पतन का भी कारण बनी. इसी प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में 1890 के दशक में फैली ब्यूबॉनिक प्लेग महामारी और 1918 के इन्फ्लुएंजा महामारी ने राष्ट्रवादीआंदोलन को बल दिया. इन दो महामारियों ने भारत में 'सभ्यता के प्रसार'के औपनिवेशिकदावे की निरर्थकता को साबित कर दिया. महात्मा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान और सूर्यकांतत्रिपाठी निराला के परिवार के सदस्यों सहित लाखों भारतीयों ने इन महामारियों के आगेघुटने टेक दिए. औपनिवेशिक शासन के तहत खराब स्वास्थ्य ढांचे की मौजूदगी इन दो महामारियोंके दौरान स्पष्ट तौर पर उजागर हो गयी जिसने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जनाक्रोश कोऔर अधिक उभारा.
वास्तव में, जैसा कि इतिहासकार डेविड अर्नाल्ड तर्कदेते हैं, इन महामारियों का उपयोग औपनिवेशिक शासन द्वारा भारतीयों की राजनीतिक गतिशीलताको प्रतिबंधित करने और उनकी राष्ट्रवादी भावनाओं को दबाने के अवसरों के रूप में कियागया था. इसीतर्जपरएकअन्यइतिहासकारअनिलकुमारअपनीपुस्तकमेडिसिनएंडराजमेंयहतर्कदेतेहैंकिप्लेगकेविरुद्धऔपनिवेशिकमुहिम प्लेगफैलाने वाले रोगाणु की तुलना में भारतीयों के विरुद्ध ज्यादा नजर आती है. हालाँकि, इसने राष्ट्रवादी भावना को प्रश्रय ही दिया. उदाहरणस्वरूप, बंबई प्रेसीडेंसी में प्लेगमहामारी के प्रसार को रोकने के नाम पर औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा की जा रही ज़्यादतियोंके विरुद्ध राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबारों 'मराठा'और 'केसरी'मेंऔपनिवेशिक शासन के खिलाफ लगातार कई लेख प्रकाशित किये. यह कहा जाता है कि तिलक के लेखनसे ही प्रेरित होकर चापेकर बंधुओं ने अंततः पूना के प्लेग कमिश्नर डब्ल्यू सी रैंड, जो अपने प्लेग रोधी उपायों के लिए काफी कुख्यात हो गया था, की हत्या कर दी. यह गौरतलबहै कि तिलक पर उपर्युक्त लेखन के लिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा देशद्रोह का आरोप भी लगायागया था. 
यदि हम वर्तमान महामारी के संदर्भ में बात करें तोयुवाल नोआह हरारी तथा श्लोमो बेन-एमी जैसे विद्वानों ने हाल ही में उत्तर-कोरोना महामारीयुग के साथ-साथ आसन्न राजनीतिक परिवर्तनों के बारे में चर्चा की है. हरारी के अनुसारकोरोना महामारी सख्त राजनीतिक निगरानी और भविष्य में अपने नागरिकों पर राज्य के अत्यधिकनियंत्रण को बढ़ावा दे सकती है. 'फाइनेंशियल टाइम्स'के लिए लिखे गए अपने हालिया निबंधमें वह लिखते हैं कि 'यह तूफ़ान गुज़र जाएगा, अवश्य गुज़र जाएगा, हममें से ज़्यादातरज़िंदा बचेंगे लेकिन हम एक बदली हुई दुनिया में रह रहे होंगे. आपातकाल में उठाए गएबहुत सारे कदम ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएंगे. यही आपातकाल की फ़ितरत है, वह ऐतिहासिकप्रक्रियाओं को फ़ास्ट फॉरवर्ड कर देती है. ऐसे फ़ैसले जिन पर आम तौर पर वर्षों तकविचार-विमर्श चलता है, आपातकाल में वे फ़ैसले कुछ घंटों में हो जाते हैं. अधकचरा औरख़तरनाक टेक्नोलॉजी को भी काम पर लगा दिया जाता है क्योंकि कुछ न करने के ख़तरे कहींबड़े हो सकते हैं. समूचे देश के नागरिक विशाल सामाजिक प्रयोगों के चूहों (गिनी पिग)में तब्दील हो जाते हैं.'इसी क्रम में हरारी आगे तर्क देते हैं कि उत्तर-कोरोना युगमें राष्ट्रवादी अलगाव में भी वृद्धि की गुंजाइश है. इसी प्रकार श्लोमो बेन-एमी भीकहते हैं कि इतिहास में यह देखा गया है कि हर त्रासदी और महामारी के बाद पुरानी मान्यताएंटूटती हैं और नई चीज़ें सामने आती हैं. 
पेंटिग : सरिता पाण्डेय
यदि हम महामारियों के सामाजिक आयाम पर चर्चा करेंतो हम यह पाएंगे कि महामारियों के दौरान समाज एवं सरकारें दोनों ही प्रायः 'बलि काबकरा'ढूंढते हैं. महामारी के दौरान समाज के किसी वर्ग अथवा समूह विशेष को जिम्मेदारठहराना तथा उसे प्रताड़ित करना एक ऐतिहासिक सत्य है. जब रोमन साम्राज्य में एंतोनियनप्लेग फैला तो रोम के शासक ने इसके लिए ईसाइयों को ज़िम्मेदार ठहराया. कुछ ऐसा ही 'ब्लैकडेथ'के समय भी हुआ जब यूरोप में यहूदियों को प्लेग फैलाने के लिए विशेष रूप से जिम्मेदारठहराया गया. इस संबंध में अंग्रेजी इतिहासकार साइमन स्कैमा लिखते हैं कि 'ब्लैक डेथ'के दौरान यहूदियों पर ये आरोप लगाया गया कि ईसाइयों के प्रति धार्मिक वैमनस्यता केचलते इन लोगों ने जानबूझकर पानी के कुएँ तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों को प्लेग से संक्रमितकर दिया था.
कुछ इसी प्रकार औपनिवेशिक भारतीय शासन ने हिंदुस्तानमें महामारियों के बारम्बार प्रकोप के लिए सदैव भारतीयों के 'गंदे'तथा 'अस्वच्छ'आदतोंको प्राथमिक कारण के रूप में पेश किया. आगे चलकर ‘प्रबुद्ध’ भारतीय मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवीवर्ग ने इस दोष को निचली जातियों और वर्ग से संबंधित अपने साथी देशवासियों पर स्थानांतरितकरने का प्रयास किया. इस क्रम में किसी भी शहर में मौजूद गरीब बस्तियों को विशेष रूपसे ‘बीमारियों के भंडार’ के रूप में देखा जाने लगा. वास्तव में, मध्यम वर्ग की जातिगतसंकल्पना में स्वच्छता संबंधी विवेक अथवा समझ के आधार पर किसी जाति विशेष की पहचानकी जा सकती थी. यह ध्यातव्य है कि इस मध्यम वर्गीय संकल्पना में निचली जातियों और वर्गोंको स्वच्छता के प्रति सर्वथा उदासीन जनता के रूप में प्रस्तुत किया गया जो महामारीके फैलने के लिए उर्वर भूमि प्रदान करती थी.
बलि का बकरा ढूंढने की उपरोक्त कवायद वर्तमान मेंकोरोना महामारी के संदर्भ में भी देखी जा सकती है. यदि हम वैश्विक स्तर पर देखें तोअमेरिका लगातार कोविड-19 को 'चीनी'विषाणु के तौर पर पेश करना चाह रहा है. इसके पीछेकी वैश्विक राजनीति काफी स्पष्ट है. वस्तुतः, किसी भी महामारी के दौरान अफ़वाहों काबाज़ार काफी गर्म रहता है. एक अफ़वाह जो मौजूदा महामारी के दौरान काफी प्रचलित हो रहीहै वो यह कि कोरोना विषाणु का अविष्कार चीन ने एक जैविक हथियार के तौर पर किया है.परंतु भूलवश यह वुहान स्थित प्रयोगशाला से फूट कर चीन में ही फ़ैल गया.
कुछ ऐसी ही अफ़वाह 1918 में स्पेनिश इन्फ्लुएंजा केसमय भी परिसंचारित हो रही थी. उस दौर में काफी लोगों का यह मानना था कि स्पेनिश फ्लूका इज़ाद जर्मनों ने स्पेन स्थित एक प्रयोगशाला में अमेरिकी सैनिकों को संक्रमित करनेके उद्देश्य से एक जैविक हथियार के तौर पर किया था, जिससे कि अमेरिका मित्र राष्ट्रोंकी मदद न कर पाए. परंतु वैज्ञानिकों के बीच आपसी तकरार के चलते यह विषाणु मैड्रिड शहरमें ही फूट निकला तथा धीरे-धीरे पूरे विश्व में फ़ैल गया.
वर्तमान संदर्भ में भारत में एक अल्पसंख्यक समुदायको जिस प्रकार से कोरोना महामारी के प्रसार के लिए लगातार ज़िम्मेदार ठहराया जा रहाहै, महामारी के वक्त बलि का बकरा ढूंढने की उपरोक्त प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है.कुछ धार्मिक नेताओं के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार ने पूरे समुदाय को महामारी के इस दौरमें बहुसंख्यक राजनीति का 'सॉफ्ट-टारगेट'बना दिया है. बहरहाल, उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि किसी भीमहामारी की शुरुआत भले ही सूक्ष्म जीवों से संक्रमण से होती है, किन्तु यह जल्द हीसमाज, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था को भी अपने जद में ले लेती है.


अतः हमारा महामारीबोध समाज, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही पूर्ण हो सकता है.महामारियों का वर्तमानतथा इतिहास हमें यही सिखाता है.

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सौरवकुमारराय
वरिष्ठशोधसहायक
नेहरूस्मारकसंग्रहालयएवंपुस्तकालय,नयीदिल्ली
skrai.india@gmail.com/मोबाइल: 9717659097

बटरोही : हम तीन थोकदार (दो)

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वरिष्ठ कथाकार बटरोही के आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ की यह दूसरी किश्त है. इतिहास, संस्कृति,और मिथक कैसे बनते और बदलते रहते हैं इसे यहाँ देखा जा सकता है. कथारस से संतुलित इस यात्रा में बटरोही पाठकों की दिलचस्पी कहीं से भी कम नहीं होने देते, पहाड़ की ऊंचाई और अंतरंगता से भरपूर इस आख्यान को ऐसा लगता है कोई पुरातत्ववेत्ता लिख रहा है.



यात्रा बूमरैंग - कोरोना समय में थोकदार      
पिछले अंक में:

75 साल पहले एक थोकदारी समाज की स्मृतियों के साथ पैदा हुए इन पंक्तियों के लेखक की भेंट अचानक 18 अप्रैल, 2020 को कोरोना वायरस के साथ हुई. यह वायरस अपने साथ पैंसठ साल पहले मिले एक झोला-छाप ज्योतिषी का यह सन्देश भी लाया था कि यह उसकी जिंदगी का आखिरी साल है. एक साल के बाद उसके पास कुछ नहीं बचेगा, न जिंदगी, न घटनाएँ और न अहसास.

स्मृतियाँ तेजी से पीछे की ओर लौटीं तो वह जिंदगी भर अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर वायरस द्वारा थमाए उस कोरे काग़ज को पढ़ने की कोशिश करने लगा. कोरे काग़ज को क्या पढ़ा जा सकता है, भले ही वह कंप्यूटर में ही क्यों न लिखा गया हो! क्या एक बार जी जा चुकी ज़िंदगी को दुबारा पाया जा सकता है? क्या लौटती/लौटी हुई जिन्दगी वही होती है जिसे हमने जिया था? जिंदगी का चयन तो उसे ढोने वाले का नहीं होता, मगर बूमरैंग के बाद उसे फिर से देखने की इच्छा तो होती ही है. क्या सबको होती है?...

यह अनुभूति ख़ुशी, कष्ट और उलझन की है या पुनर्सृजन की? जब पिछला सब कुछ मिट चुका हो, तब यह बात भी बेमानी हो जाती है कि कहाँ से शुरू किया जाए! मानो नियति द्वारा अनायास उछाली गई जिंदगी का बूमरैंग. किसी को नहीं मालूम होता कि जिंदगी की यह गेंद किस जगह से पहली उछाल मारेगी, कहाँ पर टप्पा खाएगी और कहाँ पर रुकेगी. यह बात बेमानी नहीं तो सार्थक भी नहीं है कि वह कहाँ से शुरू हुई थी, कहाँ से बूमरैंग हुई थी और कहाँ पर जाकर रुकी. ये सारी जगहें पड़ाव थे, ठिकाने थे या घर? निरे आभास थे, कल्पना थे या यथार्थ, जिन्हें हमने कभी पूरे होशो-हवास में छुआ था, महसूस किया और अपना हिस्सा बनाया था...

यह न तो किस्सागोई है, न ज्ञान की तलाश और न ही कोई विन्यास. फ़क़त अहसास हैं जिन्हें मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ.


छोटा-सा ब्रेक : लॉक डाउन डायरी

फतेहपुर, हल्द्वानी, जिला नैनीताल :  3 मई, 2020 : लॉक डाउन का दूसरा चरण आज ख़त्म हो गया है. सारा देश इसी दिन के इंतज़ार में था मगर लॉक डाउन ख़त्म नहीं हुआ; अलबत्ता दो सप्ताह के लिए उसका विस्तार हो गया. पूरे देश को तीन जोनों में बांटा गया है और नैनीताल जिला ऑरेंज जोन में है. लोग उम्मीद लगाये बैठे थे कि उत्तराखंड के बाकी पहाड़ी जिलों की तरह नैनीताल भी ग्रीन जोन में आ जायेगा. मगर यह देखकर लोगों को ताज्जुब हुआ कि लॉक डाउन में उधम सिंह नगर तो ग्रीन जोन घोषित हो गया और नैनीताल ऑरेंज.

फतेहपुर का मेरा फार्म हाउस हल्द्वानी के कालाढूंगी चौराहे से सिर्फ आठ किलोमीटर दूर है, रामनगर रोड पर. इसके बावजूद मुझे यह बात एक स्थानीय अख़बार से पता चली कि हल्द्वानी एकाएक ‘कोरोना पीड़ितों’ की हिट लिस्ट में आ गया है. अख़बार ने एक विस्फोट की तरह सूचना दी कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में कोरोना संक्रमण वाले कुछ जमाती घुस आए हैं. 4 अप्रैल के बाद तो अख़बार ने घटना का सिलसिलेबार ब्यौरा इस प्रकार प्रस्तुत किया:


“4 अप्रैल को नैनीताल जिले में एक साथ पांच कोरोना पॉजिटिव के मरीज रिपोर्ट हुए. 6 को बनभूलपुरा के दो इलाके लाइन नं. 17 और मलिक का बगीचा सील किया गया. 7 को बनभूलपुरा क्षेत्र के 28 रास्ते भी बंद हुए. 9 को बनभूलपुरा हॉट स्पॉट घोषित. इलाके को पूरी तरह सील कर दिया गया. 12 को बनभूलपुरा लाइन नं. आठ में लोग सड़क पर उतरे और हंगामा हुआ. 13 को इलाके में शासन के आदेश पर कर्फ्यू लगाया गया. कर्फ्यू का शत-प्रतिशत अनुपालन कराने के लिए दो कंपनी पैरामिलिट्री फ़ोर्स बुलाई गई...


“लाइन नं. आठ में रविवार को पुलिस की टीम मौलाना सहित अन्य लोगों का मेडिकल टेस्ट कराने को लेकर समझाने के लिए बंजारान मस्जिद में थी. पुलिस के बाहर निकलने पर एक अफवाह फ़ैल गई. इसके बाद सैयदों की भीड़ पुलिस के खिलाफ नारेबाजी करते हुए सड़क पर उतर गई. भीड़ के अनियंत्रित होने पर मौलाना हस्तक्षेप करने आगे आए. पुलिस अधिकारियों और धर्म गुरुओं के समझाने पर भीड़ तितर-बितर हो गई. इस मामले में जिला पुलिस ने स्पष्ट कर दिया था कि लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले बख्शे नहीं जायेंगे. डीजी कानून व्यवस्था अशोक कुमार ने पत्रकारों को बताया कि बनभूलपुरा लॉकडाउन मामले में मुकदमा दर्ज किया गया है. इस मामले में पुलिस अवश्य कार्रवाही करेगी. एसएसपी ने बताया कि बनभूलपुरा पुलिस ने 200 अज्ञात लोगों के खिलाफ धारा 147, 148, 188, 269, 270 के तहत मुकदमा दर्ज किया है...    


“डीएम ने बनभूलपुरा के लोगों से अपील की है कि कर्फ्यू के दौरान घरों से बाहर न निकलें. शासन और प्रशासन का उद्देश्य है कि कोरोना संक्रमण से कोई व्यक्ति और समुदाय प्रभावित न होने पाए. प्रशासन द्वारा बनभूलपुरा के लोगों को सभी मेडिकल सुविधाओं के साथ ही आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करायी जाएगी. आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए विभागीय अधिकारियों को लगाया गया है. एसएसपी सुनील कुमार मीणा ने कहा कि शासन के कर्फ्यू सम्बन्धी निर्णय का पूर्ण रूप से पालन कराया जायेगा... डीआईजी जगत राम जोशी ने सोमवार की शाम कर्फ्यूग्रस्त क्षेत्र का भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया...


“देर शाम साढ़े आठ बजे बुलाई गई बैठक में सिटी मजिस्ट्रेट प्रत्यूष सिंह और एसपी सिटी अमित श्रीवास्तव ने कहा कि सिर्फ अफवाह के आधार पर भीड़ इकठ्ठा हो गई थी. उलेमा ने कहा कि स्वास्थ्य परीक्षण के बाद वे चौबीस घंटे मस्जिद में रहेंगे और सभी निर्देशों का पालन करेंगे. एसपी सिटी अमित श्रीवास्तव ने बताया कि उलेमा की बातें मान ली गई हैं. अब उलेमा मस्जिद में, जब कि अन्य लोग आम्रपाली संस्थान में क्वारनटीन होंगे. यदि रिपोर्ट नेगेटिव आती है तो होम क्वारनटीन किया जायेगा. बैठक में बंजारान मस्जिद के मौलाना अब्दुल बासित, मौलाना मुकीम कासमी, मौलाना मुफ़्ती कमर इक़बाल, मोहम्मद युसूफ, पार्षद गुफरान, महबूब आलम, अरशद अयूब, आदिल मिकरानी, इस्लाम मिकरानी, हाफिज कासिम, हाजी रशीद आदि मौजूद थे. (साभार, ‘अमर उजाला’, नैनीताल संस्करण)    

कोरोना वायरस का खौफ पूरे देश में इस कदर छाया हुआ है कि लगता है, मानो पूरे देश की साँस ठहर गई है. जो जिस जगह है, वहीं पर रुक गया है, मानो रफ़्तार में परेड कर रही सैनिक टुकड़ी की गारद सलामी ले रहे मुख्य अतिथि ने ही झटके से ‘थम’ कहकर परेड को रोक दिया हो. पिछली दोनों बार में लॉक डाउन के विस्तार की घोषणा खुद प्रधान मंत्री ने की थी; इस बार, संभव है संयोग से ही, पूरे दिन सिर्फ दो चेहरे उभरे और भाग्यवश दोनों उत्तराखंडी थे. बचपन से ही मेरे आदरणीय मित्र रहे भगत सिंह कोश्यारी जी, जो उस दिन महाराष्ट्र के राज्यपाल की कुर्सी पर बैठे हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को राज्यसभा का सदस्य नामित करने सम्बन्धी विवाद को लेकर विमर्श कर रहे थे और पूर्व थल-सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत, चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ बनने के बाद देश को संबोधित कर रहे थे. जब से प्रधान मंत्री ने राष्ट्रीय सलाहकार के रूप में अजित डोभाल साहब को नियुक्त किया था, उत्तराखंडवासियों की ज़बान पर सिर्फ मोदीजी का नाम सुनाई दे रहा था. लोगों का कहना था, इतने उत्तराखंडी एक साथ कभी राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बने थे. 

बेशक, लॉक डाउन का लोगों ने स्वागत किया हो या नहीं, मानवेतर प्रकृति ने उसका न सिर्फ स्वागत किया, उसे भरपूर गले लगाया है. वसंत ऋतु शुरू हुए तीन महीने से ज्यादा का वक़्त गुजर चुका है, मगर हर सुबह अपनी ताजगी के साथ उसका मदभरा चेहरा नयी ऊर्जा से खिल उठता है. पहाड़ी चिड़ियों का मधुर संगीत वर्षों के बाद शाश्वत उमंग के साथ सुनाई देने लगा है, एन वक़्त पर जो पक्षी मैदानों की ओर स्थानांतरित होकर हमें जगाने के लिए उपस्थित हो जाते, मगर कुछ समय से उनकी आहट धीमी पड़ गई थी, वो उसी तत्परता से अपना परिचय देने के लिए लोगों की दहलीज पर फुदकने लगी थीं. पहाड़ों की गोद वर्षों बाद अपने सुपरिचित फूलों, वनस्पतियों, तितलियों, भौंरों और सुगन्धित लताओं से भरने लगी थी. वसंत का ऐसा निष्कलंक चेहरा लोग सचमुच भूल चुके थे. कई दशकों के बाद लोगों ने देखा, आकाश कितना नीला, पहाड़ियां इतनी धुली-धुली और प्रकृति का हर रंग कितना चटकीला और सौम्य है!...

जो अख़बार मार-काट और षड्यंत्रकारी घटनाओं से पटे रहते थे, इतने दुबले कलेवर वाले हो गए थे कि उन्हें देखकर दया आती थी. बौद्धिक और राजनीतिक लफ्फाजी को मानो एक अनुशासन मिल गया था. वही कहा जा रहा था जितना जरूरी हो! अधिकांश टीवी चैनल एक ही तरह की भाषा बोल रहे थे, खुद को अलग दिखाने के लिए उनके एंकर अपनी आवाज सबसे तेज बनाने में लगे हुए थे, उनकी आवाज को मानो जंक लग गया हो.


(ब्रेक के बाद)
‘द्यौव में’ : मेरा पहला स्कूल 
(मेरा पहला स्कूल - द्यौव में : देवीथल)

जुलाई, 1949 को एक गर्मी भरे दिन, जिंदगी के तीन साल पूरे होने पर पिताजी मुझे ‘द्यौवमें’ में ले गए. यह मेरे पहले स्कूल का नाम था. इस स्कूल को मेरे पटवारी दादाजी ने इलाके के बच्चों को साक्षर करने के लिए खोला था. दादाजी ही मुख्य कर्ता-धर्ता थे, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं थी कि यह कहे, बच्चा अभी अंडर-एज है. शायद यही वजह थी कि मेरा बौद्धिक विकास कक्षा के पाठ्यक्रम के अनुरूप कभी नहीं हो पाया. हिंदी व्याकरण तो मेरी समझ में कभी आया ही नहीं.

मेरा गाँव ‘छानगों’ (छाना गाँव) अल्मोड़ा जिले की वर्तमान तहसील लमगड़ा की पुरानी पट्टी सालम की मुख्य नदी पनार के किनारे चारों ओर से अनेक पर्वत-श्रृंखलाओं से घिरी एक पहाड़ी के मध्य में बसा सामान्य-सा गाँव है. चारों ओर से यह विशाल चट्टानों से घिरा हुआ है, जिन्हें ‘कोट’ (किला) कहा जाता है. एक कोट का स्वामी थोकदार रहा होगा, और हमारे गाँव का किला था ‘ग्वाल्दे कोट’ (ग्वल्ल देवता का किला). वर्तमान तोकों के साथ भी इनका अवश्य सम्बन्ध रहा होगा, जो एक ग्राम-इकाई का भी द्योतक था.

हमारे पुरखों के ज़माने में पूरे थोकदारी-इलाके में कोई स्कूल नहीं था. आम लोग स्कूल के बारे में कोई जानकारी नहीं रखते थे. पिताजी और उनके एक सहपाठी-दोस्त चिंतामणीजी दो ही ऐसे लोग थे जिन्होंने सामने के शिखर पर बने स्कूल की दस मील  (पंद्रह किलोमीटर) की कठिन चढ़ाई चढ़-उतर कर दर्जा दो तक पढ़ा था. शायद यही वजह थी कि वो अपनी आगामी पीढ़ी के लिए शिक्षा की अहमियत से परिचित थे. (इसीलिए उन्होंने मुझे तीन वर्ष की उम्र में कक्षा एक में भरती कर दिया था.) उनके लिए यह दौर निश्चय ही मुश्किल रहा होगा. गाँव से तीन किमी उतर कर घाटी में बहती पनार नदी तक पहुंचना और फिर नदी पार कर फिर से पांच किलोमीटर चढ़कर स्कूल पहुंचना. पढ़ाई करने के बाद फिर से उतना ही चलकर वापस आना.

बरसात में यात्रा सचमुच डरावनी हो जाती रही होगी, जब नदी का पानी उस बनैली घाटी में गुस्सैल नाग की तरह फुंफकारता हुआ चक्कर काटता होगा और पुरखों के थोकदारी साम्राज्य को अपने आगोश में लेने के लिए सारी ताकत झोंक देता होगा. नदी अपने पाटों को कई गुना विस्तार देकर मल्ला और तल्ला सालम को इस तरह विभाजित कर देती होगी कि दोनों इलाके दो अलग-अलग संसारों का रूप धारण कर लेते होंगे.

आपातकालीन आवागमन के लिए कुछ खास जगहों से ही नदी को पार किया जा सकता था. ये जगहें कम गहरी होती थीं, तो भी इन्हें रोज की तरह कपड़े उतारकर ही पार किया जा सकता था. नदी के बीच ठहरी हुई भारी शिलाओं से निर्मित इन प्राकृतिक पुलों के बारे में केवल इलाके के कुछ खास बुजुर्ग ही जानते थे; या फिर पिताजी और चिंतामणीजी. तो भी, कितनी ही सावधानी क्यों न बरतें, सिर पर रखी कपड़ों और कापी-किताबों की गठरी भीग ही जाती होगी. एक हाथ से सिर के कपड़ों और दूसरे हाथ से पांवों का संतुलन बनाते हुए जब वह दूसरे किनारे पहुँचते होंगे,कपड़ों को पहनने लायक सुखाने के बाद फिर से पहनने में भी वक़्त लगता ही होगा. स्कूल पहुँचने से पहले कुलदेवी के मंदिर में प्रणाम करना अघोषित परंपरा थी, इसमें भी समय जरूर लगता होगा.


अच्छी बात यह थी कि उन दोनों ने अपनी यह शिक्षा-यात्रा किशोर उम्र में शुरू की थी... करीब पंद्रह-सोलह वर्ष में. अठारह-बीस की उम्र में जब पिताजी दूसरा दर्जा पास करने के बाद शिक्षित होकर वापस गाँव लौटे होंगे, तब दोनों का गाँव में कैसा स्वागत हुआ होगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है. (चिंतामणी जी दर्जा दो की परीक्षा देने के बाद से ही शास्त्री की अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए बनारस चले गए थे.) शिक्षित होने के दो-एक साल के बाद पिताजी की शादी कर दी गई थी जिसके साथ उनके थोकदारी इलाके में मेरा अस्तित्व धारण करने का रहस्य छिपा हुआ था.


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किस्सा गाँव के उस प्राइमरी स्कूल का तो नहीं, नौ-दस साल की मेरी उम्र का है, जब मैं नैनीताल के सरकारी मिडिल स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था. बिशनदत्त पन्त यानी ‘बिशन गुरू’ हमारे क्लास-टीचर और हिंदी के अध्यापक थे. पूरा स्कूल उनके गुस्से से कांपता था.

हिंदी की कक्षा में ही गुरूजी ने एक दिन मुझसे पूछा, ‘इससे पहले किस स्कूल में पढ़ते थे?’
मैंने तपाक-से उत्तर दिया, ‘जी, द्यौव में में.’
उन्होंने मानो सुना नहीं, थोड़ा गुर्रा कर पूछा, ‘कहाँ?’ मैंने फिर वही उत्तर दिया. तब भी वह नहीं समझे और अपनी बैंत पकड़े मेरी डेस्क के पास आ धमके.
‘कहाँ?’
मैंने फिर वही जवाब दुहराया.
अबकी बार मानो उनकी सब्र का बांध टूट पड़ा, मेरी पीठ पर दो बैंत सटका कर चिल्लाए, ‘ये मै-मै क्या कर रहा है? यहाँ से पहले किस स्कूल में पढ़ता था?’
मैंने फिर दोहराया, ‘द्यौव में’ में.’

उन्होंने कई बार फिर पूछा और हर बार मैंने उन्हें यही उत्तर दिया. हर बार वह चिल्लाते रहे कि मैं यह ‘मै-मै’ क्या बक रहा हूँ, और मैं हर बार अपने स्कूल का वही नाम दुहराता रहा. काफी मशक्कत के बाद गुरूजी यह तो समझ गए कि मेरे स्कूल का नाम ‘द्यौव’ है, मगर तब भी उनकी समझ में नहीं आया कि मैं बार-बार ‘मै-मै’ क्यों कह रहा हूँ.

75 वर्षों तक हर साल किसी-न-किसी रूप में हिंदी-व्याकरण पढ़ने-पढ़ाने और संसार भर के देसी-विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने के बावजूद मैं आज तक किसी को नहीं समझा पाया कि मेरे पहले स्कूल का नाम व्याकरण की दृष्टि से क्यों गलत था? मैं खुद भी आज तक बिशन गुरू को दिये गए अपने उत्तर को लेकर आश्वस्त नहीं हूँ, इसीलिए चाहता हूँ कि अपनी जिंदगी के इस आखिरी साल में गुरूजी के सवाल का जवाब खोजकर अपने शुभचिंतकों को बता ही दूं.


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मैं नहीं जानता कि यह उस दौर की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति थी या मेरे पिताजी और चिंतामणीजी की अपने स्कूल के लिए बनाई गई नीति; जो स्कूल हमारे लिए ‘द्यौवमें’ में खोला गया था, उसमें कक्षा दो तक की पढ़ाई कुमाउनी में होती थी, छठी तक हिंदी में, और कक्षा छः से तमाम दूसरे विषयों के अलावा दो नयी भाषाएँ- अंग्रेजी और संस्कृत- की पढ़ाई शुरू होती थी.

‘कुमाउनी’ हिंदी की तीन उपभाषाओं में से एक, ‘मध्य-पहाड़ी’ की बोली है. मेरे गाँव का सम्बन्ध कुमाउनी के मानक रूप खस-पर्जिया क्षेत्र के साथ है जो अल्मोड़ा शहर से लगा होने के कारण साक्षरता की दृष्टि से अपेक्षाकृत आगे हैं. भाषाविद इस भाषा की जड़ें शौरसेनी अपभ्रंश में, जबकि कुछ दूसरे लोग दरद-खस प्राकृत के साथ बताते हैं. बताया गया है कि यह भाषा प्राचीन आर्यों और यक्षों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा का मिश्रित रूप है. गाँवों में बोली जाने वाली कुमाउनी और शहर के लोगों की भाषा में बहुत ज्यादा फर्क है. शहर में रहने वाले पढ़े-लिखे कुमाउनियों की भाषा में, जिनमें बहुसंख्य ब्राह्मण और ‘साह’ (वैश्य) लोग आते हैं, तत्सम शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं जब कि ठाकुर और शिल्पकार परिवारों की भाषा का सम्बन्ध प्राचीन प्राकृतों के साथ होने के कारण उनकी भाषा के अनेक संज्ञा-रूप विशेषणों के आधार पर कुछ हद तक मनमाने ढंग से बनाये गए हैं, जैसा कि प्रत्येक लोक भाषा में होता है.

हमारे पहाड़ी नामों पर शायद शिष्ट भाषाओं का ही दबाव रहा होगा कि प्राकृत ‘द्यौव में’ का संस्कृतीकरण एक दिन ‘देवीथल’ कर दिया गया; हमारे बचपन के संज्ञा-शब्द को अशुद्ध करार देते हुए नए शब्द को शुद्ध मान लिया गया, जो आज तक चला आ रहा है. मुझे नहीं मालूम कि ‘द्यौव में’ (देवता का स्थान) को बदल कर ‘देवीथल’ (देवी का स्थान) नाम किसने बनाया, लेकिन इस बदलाव में मुझे बचपन से ही अपने परमपिता देवताओं और मातृशक्ति देवियों के बीच हुए लम्बे संघर्ष की आहट सुनाई देती रही है. मुझे नहीं मालूम कि उनमें से कौन जीता, मगर मानव सभ्यता के विकास-क्रम में मनुष्य की जिजीविषा, जीवन-संघर्ष, प्रकृति बनाम मानव के अस्तित्व के किस्सों, मिथकों, इतिहास आदि शक्तियों द्वारा प्राप्त विवरणों से पता चलता है कि पुरुष देवों और स्त्री देवियों का यह शक्ति-संघर्ष सदियों से चला आ रहा है.

पुरावेत्ता बताते हैं कि पुरुष प्रधान आर्य संस्कृति से पहले इन पहाड़ों में स्त्री प्रधान संस्कृतियाँ निवास करती थीं, जिनके वर्चस्व को ख़त्म करके आर्यों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने में शताब्दियाँ लगी थीं. बोलचाल की भाषा के रूप में ‘दरद पैशाची’ प्राकृतों का प्रयोग करने वाली पिशाच जाति से जुड़े अनेक प्रसंग हमारे इलाके में आज भी मौजूद हैं. हमारे पुरखों के मूल गाँवों से मिलते-जुलते कितने ही गाँव आधुनिक काली कुमाऊँ क्षेत्र की राजधानी चम्पावत के आस-पास स्थित हैं, जो हिडिम्बा और घटोत्कच के मंदिरों के रूप में जाने जाते हैं, मूल आदिवासी उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं.
(स्कूल परिसर में बिरखम :वीरखंभा)

हमारे स्कूल ‘द्यौव में’ पहाड़ी की पीठ पर हमारे थोकदार पुरखों के द्वारा बड़ी संख्या में विशालकाय वीर-स्तम्भ गाढ़े गए थे, जिन्हें हमारी भाषा में ‘बिरखम’ कहा जाता है. काली कुमाऊँ का यह इलाका रण-बाँकुरे क्षत्रियों का है, जो अपनी वीरता, सदाशयता और लोक-कल्याण की भावना के लिए विख्यात रहे हैं. अष्टधातु के रंग के ये बिरखम पांच-छह फुट लम्बे और गोलाई में इतने विशाल हैं कि एक प्रौढ़ व्यक्ति इन्हें दोनों हाथों से घेर नहीं सकता. खास बात यह है कि ये पहाड़ की चोटियों में ही रखे गए हैं और एक शिला को एक वीर द्वारा स्थापित किया गया है. उड़ीसा के पैका वीरों के समान इन्हें भी ‘पैक’ कहा जाता था और बचपन से ही इनमें भारी-से-भारी शिलाओं को ढोने का कौशल सिखाया जाता था.

गाँव के सबसे निकट के इस पर्वत-शिखर द्यौवमें के ठीक सामने समुद्र सतह से 7000 फुट की ऊँचाई पर हमारे इलाके की कुलदेवी ‘धुरका’ का मंदिर है, जहाँ पूरे सालम और काली-कुमाऊँ क्षेत्र के लोग हर साल सामूहिक पूजा के उद्देश्य से एकत्र होते हैं. ‘धुरका’ स्थानीय बोली में वन देवी का नाम है, जिसे शुद्धतावादियों ने ‘दुर्गा’ का अपभ्रंश मानकर आर्यों के साथ जोड़ दिया गया. यहाँ भी ‘धुरका’ अशुद्ध और ‘दुर्गा’ शुद्ध रूप में स्वीकार कर दरद-पैशाची के अस्तित्व को नकार दिया गया है. मगर प्राचीन भाषाओं के ये अवशेष दैवी-शिखरों पर स्थापित वीर खम्बों की स्मृतियों के जीवंत गवाह हैं.


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“काफलीखान से भनोली मोटर मार्ग पर स्थित चैलछीना और गुणादित्य के मध्यवर्ती ऊंचे शिखर पर धुर्कादेवी मल्ला सालम का सुप्रसिद्ध शक्ति पीठ है. कुमाऊँ के सभी शाक्तपीठों -देवीधुरा, गंगोलीहाट, धौलादेवी, दन्या के समान इसकी भी पूरे इलाके में मान्यता है. इस पर चढ़ने के लिए चारों ओर से विकट चढ़ाई है. पूर्वोत्तरी ढाल पर सभी शाक्तपीठों की भांति देवदार का घना और विस्तृत सुरक्षित वन है, जिसमें कई बड़े-बड़े, पुराने-से-पुराने देवदार के वृक्ष हैं. निर्जल, अनुर्वर, तीक्ष्ण ढालों पर इतना अच्छा वन बड़ी दुर्लभ सम्पदा है.

“मंदिर की रूप-रचना देखने से प्रतीत होता है कि यह चंद राजाओं के काल में बना होगा. इसे कम-से-कम चार सौ वर्ष पुराना तो होना ही चाहिए. यहाँ पर 6-6”, 8-8” नाप की मूर्तियाँ और उनके टुकड़े पड़े हैं. संभवतः ये नवग्रहमंडल के पटल के टुकड़े हों या किसी विष्णु प्रतिमा के भी टूटे-फूटे भाग भी हो सकते हैं जिनको कहीं दूर से लाकर रख दिया गया होगा...देवी को पुजारी लोग वैष्णवी बताते हैं. किन्तु मंदिर के बाहर एक कोने में चामुंडा की स्थापना की गई है. बलि भी दी जाती है, यहाँ नित्य पूजा होती है...”
(विवरण साभार : ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ – डॉ. राम सिंह) 

धुर्कादेवी के शिखर पर खड़े होकर कुमाऊँ की पहाड़ियाँ एक गोल आवर्त की भांति उसको चारों ओर से घेरे प्रतीत होती हैं. यहाँ से मध्य हिमालय का अधिकांश भाग पश्चिमी हिमालय के  कुमाऊँ-गढ़वाल के प्रमुख हिम शिखरों सहित देखा जा सकता है. रानीखेत की तुलना में धुर्कादेवी के शिखर से चारों ओर का विहंगम दृश्य कई गुना अधिक रोमांचक और मन-भावन प्रतीत होता है. किसी अन्य देवीपीठ से इतनी समग्रता में पर्वतीय छटा के अनुपम दृश्य नहीं दिखाई पड़ते हैं. धुर्कादेवी शिखर के दोनों ओर अर्ध-चंद्राकार आवर्त के रूप में जेंती, देवीधुरा, एड़द्यो, धामद्यो, मोरनौला, पहाड़पानी, शहरफाटक आदि मनभावन शिखर हैं जिनका आपस में अटूट राजनीतिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध है. सैकड़ों किस्से-किम्वदंतियां हैं और हैं उनसे जुड़े असंख्य लोक-विश्वास.

पनार नदी के पश्चिमी जलागम के ऊँचाई वाले स्थान में कोटौली नामक गाँव है जो मल्ला सालम पट्टी के अंतर्गत आता है. यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक-देवता ऐड़ी का प्रसिद्ध स्थान है. लोगों का विश्वास है कि ऐड़ी देवता ने यहाँ पर अपनी पहचान के लिए आसमान से ‘तिरसूल’ (त्रिशूल) और ‘गांजा’ (गदा) बरसाई (गिराई) थी. इसलिए ऐड़ी के गांजा को ‘बरसी गांजा’ कहते हैं. जब ऐड़ी के जागर लगते हैं, इनको ऐड़ी का प्रतिरूप मानकर स्थापित किया जाता है. शेष समय में ये देवता के भंडार में रहते हैं. लोगों का कहना है कि ऐड़ी का यह ‘तिरसूल’ अष्टधातु का है.

जेंती सालम का प्रमुख व्यापारिक, ऐतिहासिक एवं शैक्षिक गतिविधियों का प्रधान केंद्र है. लोहाघाट-अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग के मोरनौला (7500 फुट) से एक मार्ग उत्तर-पूर्व के ढलान में जेंती पहुँचता है. जेंती से अल्मोड़ा की दूरी 64 किमी, लोहाघाट की दूरी 79 किमी, भनोली की दूरी 35 किमी है. ये स्थान जेंती से क्रमशः पश्चिम, पूर्व और उत्तर में स्थित हैं. जेंती मोरनौला से होकर हल्द्वानी (133 किमी) और नैनीताल (103 किमी) से भी जुड़ा है. इस प्रकार जेंती सालम क्षेत्र का हृदय है. यह एक लम्बी पहाड़ी धार के उत्तरी ढलान में बिखरी छोटी-छोटी बस्तियों का समूह है.

जेंती का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल पूर्व में ऊँट के कूबड़ की भांति उठी धामदेव की  उत्तल वेदिका है. प्राकृतिक रूप से यह अपने-आप में एक चमत्कार ही है कि जहाँ सामान्य रूप से पहाड़ों के शिखर नुकीले और दोनों ओर ढालू हुआ करते हैं, उसके विपरीत धामदेव की ऊपरी सतह काफी विस्तृत और चौरस है. लोक परम्पराओं में इस चौरस वेदिका का उल्लेख प्राचीन काल से ही होता आ रहा है.         
 

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पहाड़ों की चोटियों में देवताओं का निवास माना जाता है. गाँव और इलाके की सबसे ऊंची चोटी पर कुलदेवी का और देवताओं की श्रेणी के अनुसार अपेक्षाकृत कम ऊंचे टीलों पर दूसरे स्थानीय देवताओं का आवास माना जाता है. इन छोटे-बड़े शिखरों पर स्थानीय शिल्पकारों के द्वारा मंदिर निर्मित किये गए हैं जिन्हें कभी टीलों के नाम से या कभी सम्बंधित देवता के नाम से जाना जाता है. देवता को ‘दे’ या ‘द्यौ’ संबोधन से पुकारा जाता है और ये संबोधन ही लोगों की ज़बान पर आते-आते संज्ञा-सूचक बन जाते हैं.  कभी-कभी टीले की स्थिति, दिशा और स्थानीय कबीलों के साथ उसके रिश्तों के आधार पर उनके नए संज्ञा या विशेषण-नाम गढ़कर उन शिखरों और देवताओं को पुकारा जाता है. चूँकि देवता का निवास टीले के ऊपर है इसलिए देवता के नाम के साथ ‘में’ को प्रत्यय की तरह ऐसे जोड़ दिया जाता है कि ‘में’ संज्ञा शब्द का हिस्सा बन जाता है. देव-भाषा के व्याकरण के अनुसार बहस हो सकती है कि ग्रामीणों को ऐसी स्थिति में ‘में’ प्रत्यय का प्रयोग करना कहिये या ‘पर’ का, मगर यह एक फालतू दिमागी कसरत होगी क्योंकि देवभाषा के व्याकरण से ये ग्रामीण जरा-भी परिचित नहीं हैं. जैसे ‘ग्वाल्दे’ (ग्वल्ल देवता) शब्द अपने-आप में पर्याप्त है मगर बताया जाना है उस स्थान के बारे में. स्थानीय व्याकरण के हिसाब से उसे ‘ग्वाल्दे में’ (ग्वल्ल देवता का स्थान/मंदिर/ चोटी) कहना ही शुद्ध होगा. इसी तरह ‘एड़द्यो में’ (एड़ी देवता और उसके मंदिर की पहाड़ी), ‘द्यौव में’ (देवता की धरती और उसका स्थान) आदि. कभी-कभी सीधे विशेषणों के साथ जोड़कर भी संज्ञा शब्द बनाये गए हैं जैसे ‘गैर में’ (गहराई के टीले वाली धरती का स्थान), ‘सैण में’ (समतल भूमि वाले टीले की धरती) आदि.

विद्यालय भी देवता के आशीर्वाद से प्राप्त स्थान माना गया है, इसलिए उसे ‘द्यौव’ (देवता का स्थान) कहा गया; उस स्थान पर स्कूल बना तो ग्रामीणों के व्याकरण के अनुसार उस जगह का नाम ‘द्यौव में’ होना ही था. इतना ही नहीं, जगह और स्कूल का सम्मिलित नाम भी ‘द्यौव में’ हो गया. एक ही शब्द ‘द्यौ’ के साथ दो प्रत्यय ‘व’ और ‘में’ जोड़कर शब्द का अनुशासन बिगाड़ दिया, मगर यह तर्क तो शुद्धतावादियों का है!

संस्कृत व्याकरण के नियमों के हिसाब  से यह सब भ्रष्ट और बेहूदा कसरत हो सकती है, मगर मैं अपने पूज्य थोकदार पुरखों की बौद्धिक कसरत को ख़ारिज तो नहीं कर सकता था. ऐसे में न तो प्राकृत परंपरा से जुड़े मेरे पुरखों के तर्कों को संस्कृत परंपरा वाले बिशन दत्त पन्त उर्फ़ ‘बिशन गुरू’ समझ सकते थे और न हम थोकदार उनकी परंपरा के तर्कों को.


‘जाग में’ यानी देवता का स्थान 
समय का चक्का विपरीत दिशा में घूमकर 75 साल पहले मेरे गाँव ‘छानगों’ पहुँचकर ठहर गया है. इस वक़्त मैं अपने ‘जागमें’ में हूँ; जागमें, यानी देवता का स्थान. (‘जाग’ के ‘जा’ को ह्रस्व ‘आ’ पढ़ें.) पहाड़ियों का यह देवता हिन्दुओं के देवताओं से भिन्न है हालाँकि वक़्त का अनंत सफ़र तय करने के बाद यह देवता भी हिन्दू देवताओं का जैसा ही चिकना-चुपड़ा बन गया है. इसके बावजूद दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती. समानता अगर कोई है तो इस रूप में कि हिन्दुओं के कथित पढ़े-लिखे ‘सभ्य’ समाज के ‘भगवान’ की तरह इसके भी अनेक अर्थ और पर्यायवाची बना दिए गए हैं.
(गाँव का दृश्य)

निश्चय ही देव भाषा की परम्परा के लोगों के लिए ‘जाग’ शब्द ‘जागर’ या ‘जागरण’ का संक्षिप्त रूप होगा हालाँकि जरूरी नहीं कि इसका अर्थ भी वही हो. देवता के अलावा इस शब्द का एक अर्थ ‘जगह’ है, इसके अलावा ‘चौकसी’, ‘जागृत अवस्था’, ‘चेतनावस्था’, ‘सावधान’, ‘इंतजार’ आदि अनेक अर्थों में इसका प्रयोग होता है; मगर कुमाउनी-गढ़वाली में इसका सबसे प्रचलित अर्थ है ‘ठहरो’, ठहरने का आदेश... जाहिर है कि एक पहाड़ी आदमी को आदेश सिर्फ देवता ही दे सकता है. घने जंगलों, बलखाती-गरजती नदियों और ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में बेख़ौफ़ मुक्त विचरण करते एक पहाड़ी को. उसे रोकना आसान नहीं; इसलिए रोकने का आदेश देना पड़ता है, और यह आदेश उसे सिर्फ और सिर्फ देवता ही दे सकता है.

हर पहाड़ी गाँव के मध्य में कुल देवता का मंदिर होता है, जिसे लोग पूरे आदर के साथ ‘जागमें’ पुकारते हैं. यह स्थान सिर्फ गाँव की भौगोलिक सीमा का ही केंद्र नहीं होता, गाँव की सांस्कृतिक चेतना का भी केंद्र होता है. गाँव से जुड़े किसी भी प्राणी का, जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी; यहाँ तक कि पेड़-पौंधे, कीट-फतिंगे और भूत-प्रेत भी शामिल हैं, से जुड़े किसी भी सामाजिक, अधिदैविक, आध्यात्मिक या धार्मिक काम की शुरुआत बिना ‘जागमें’ में हाजिरी लगाये संभव नहीं है. प्रत्येक उत्सव और सामुदायिक कार्य-कलाप का आरम्भ यहीं से होता है. गाँव की औरतें, पुरुष, बच्चे और बुजुर्ग जरूरत पड़ने पर यहीं आकर देवता के सामने अपनी गलतियों, अपराधों का स्वीकार करने के बाद पश्चाताप करते हैं, किसी परिचित या अपरिचित व्यक्ति के द्वारा पैदा किये गए संकट की शिकायत करते हैं और उसे दण्डित करने की विनती करते हैं.

पहाड़ों के ये मंदिर गोरख परंपरा के हैं, इसलिए इनमें निवास करने वाले देवता औघड़, जोगी, मुक्त विचरण करने और बिना छत और दरवाजों के खुले में रहने वाले, अत्याचारियों को तत्काल दंड देने वाले और सदाचारियों के ऊपर आए संकट को दूर कर शांति तथा सद्भाव का माहौल निर्मित करने वाले परोपकारी देवता हैं. अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं इसलिए मानवीय रूपाकार में नहीं, अमूर्त, वायवीय शक्तियों के रूपक हैं. ये देवता आम पहाड़ी आदमी की शक्ल-सूरत, पहनावे, चाल-ढाल, सपनों और आकांक्षाओं की बातें करते हैं, इसलिए आम पहाड़ी आदमी उन पर पूरा भरोसा करता है और उनके द्वारा किये जाने वाले विश्वासघात की बात तो सपने में भी नहीं सोचता. खास बात यह है कि आज भी लोग मुख्य धारा के देवताओं की अपेक्षा इन पर अधिक विश्वास करते हैं. ये देवता भी एक योगी के रूप में लोगों पर उपकार करने का प्रदर्शन करने के बजाय अपने समाज और परिवेश के कल्याण के लिए प्रकृति से भिक्षा मांगते हैं.
(क्रमशः)
  9412084322 / batrohi@gmail.com  
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पहला हिस्सा यहाँ पढ़ें. 

तिब्बत : भुचुंग डी सोनम की कविताएँ : अनुवाद - अनुराधा सिंह

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भुचुंग डी सोनम तिब्बत के महत्वपूर्ण कवि हैं, निर्वासन की उनकी कविताओं ने विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त की है. हिंदी में उन्हें प्रस्तुत कर रहीं हैं अनुराधा सिंह, कविताओं का अनुवाद किया है और टिप्पणी भी लिखी है. तिब्बत के निर्वासित कवियों पर अनुराधा की किताब भी जल्दी ही आने वाली है.

इन कविताओं को देखते हुए कविता की ताकत का एहसास होता है. वास्तव में इन्हें नुकीले तीरों से लिखा गया है. निर्वासन की पीड़ा और विडम्बना को पढ़ते हुए यह एहसास घना होता जाता है कि जबरन अपनी जमीन से बेदखल कर दिए जाने का क्या दर्द होता है.


अनुराधा सिंह हिंदी की जितनी अच्छी कवयित्री हैं उतनी ही समर्थ अनुवादक भी. इन अनुवादों को पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि ये अनूदित हैं. 

प्रस्तुत है.



न्यूयार्क में तिब्बत :भुचुंग डी सोनम
अनुराधा सिंह




तिब्बत दुनिया के जनतांत्रिक नक़्शे पर फ़ैल गयी स्याही है, सूख चुकी अपने ही संताप से, हुई और स्याह, और अबूझ.  




उनका देश अब दुनिया के नक़्शे पर कहीं नहीं. चीन ने तिब्बत पर भौगोलिक कब्ज़ा जमाने के साथ वहाँ की एतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सम्पदा को भी नष्ट किया है. लेकिन यह त्रासदी घटने के साथ ही यह एक और असंभव घटना घटी कि तिब्बत अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर सारी दुनिया में फ़ैल गया. अपनी तिब्बती नागरिकता को बचाये रखने के लिए असंख्य तिब्बती, चीन के अनाधिकृत कब्ज़े में अपना नाम और पहचान खोते जा रहे तिब्बत से बाहर निकल गए. उन्होंने चीन की नागरिकता स्वीकार करने की बजाय शरणार्थी होना स्वीकार किया. यही नहीं, भारत समेत दुनियाभर के जिन तमाम देशों की शरण उन्होंने ली वहाँ नागरिकता का प्रस्ताव दिए जाने पर भी नहीं स्वीकारा. उन्होंने जानबूझकर खुद को उन देशों के नागरिक अधिकारों से वंचित रखा ताकि तिब्बत सदैव उनके अपने राष्ट्र के रूप में जीवित रहे. 

तिब्बत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है. जो हमेशा जीवित रहते हैं. अपनी ज़मीन छीन लिए जाने के बाद भी.

निर्वासित तिब्बतियों की रचनात्मक अभिव्यक्ति के तौर पर कविता उनके साहित्य की प्रमुख विधा रही है. वैसे भी तिब्बती समुदाय के लिए कविता का महत्त्व हमेशा किसी भी अन्य विधा से कहीं बढ़कर रहा है. उनका अधिकांश धार्मिक साहित्य गद्य की बजाय पद्य में सृजित है. ये धार्मिक आदिग्रन्थ गीतों और भजनों के संकलन हैं.

निर्वासित तिब्बती कवियों में तीन पीढ़ियाँ स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती हैं. गेंदुन छुम्बे, चोग्यम द्रन्ग्पा रिन्पोचे और धोंदुप ग्याल पहली पीढ़ी के कवि थे. उन्होंने मातृभूमि की कीर्ति और निर्वासन की यंत्रणा को अपनी रचनाओं की विषयवस्तु बनाया. उनकी कविता की भावभूमि अतीत की मनोरम स्मृतियों से उर्वर रही. दूसरी पीढ़ी के के. धोंदुप, लासांग सेरिंग आदि का नज़रिया कुछ अलग हो गया. जल्द से जल्द तिब्बत लौट जाने का वह स्वप्न जो वे निर्वासन के पहले दिन से संजोए थे अब फीका पड़ने लगा था. उन्होंने धीरे धीरे निर्वासन के कठोर यथार्थ के साथ समझौता करना शुरू कर दिया था. तीसरी पीढ़ी में तेनज़ीं सुन्डू, सेरिंग वांगमो धोम्पा, भुचुंग डी सोनम जैसे युवा कवि अब तिब्बत को एक आंशिक सत्य की तरह ही पहचानते हैं जो उनके पूर्वजों के स्वानुभूत सत्य से बिल्कुल अलग है.

ये कवि अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से प्रेरणा तो लेते हैं किन्तु अपने भावों का उद्घाटन अपनी अलहदा मुखर और सशक्त शैली में करते हैं. वापसी के सुखद स्वप्न से मोहभंग और निर्वासन की त्रासदी का यथार्थ इन कवियों की कविताओं में मूल विषय के रूप में उपस्थित रहता है.
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anuradhadei@yahoo.co.in







तिब्बत
भुचुंग डी सोनम की कविताएँ                  
अनुवाद : अनुराधा सिंह




कब हुआ था मेरा जन्म ?

माँ कब हुआ था मेरा जन्म?
उस साल जब नदी सूख गयी थी
कब हुआ था वैसा ?
उस साल जब फसल बर्बाद हुई  थी
हम रहे थे भूखे कई-कई दिन
और भयाकुल थे कि तुम बचोगे नहीं
क्या यही था वह वर्ष जब हम आये थे एक नये घर में?
हाँ, यही था वह वर्ष जब उन्होंने हमारे घर को हथिया  लिया था
बाँट दिया था उसे देशभक्त पार्टी सदस्यों के बीच.
और हम निर्वासित कर दिये गये थे गौशाला में जहां जन्मे थे तुम
कौन सा था वह साल माँ?
वही जब उन्होंने बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया था
पिघला दी थीं ताँबे की तमाम मूर्तियां बन्दूक के छर्रे बनाने के लिए
और तुम पैदा हुए थे जब आकाश धूल से आच्छादित था
मां, क्या यही था वह साल जब दादा हमसे दूर चले गए थे ?
हाँ, वही साल कि जब तुम्हारे दादा को बंदी बना  लिया था उन्होंने
मल साफ़ करते थे वे वहाँ
और खेतों में कीड़ों को मारते थे
तुम जन्मे और घर में कोई मर्द नहीं था
माँ, क्या मैं जन्मा था उस साल जब दीवारें गिराई गयीं थीं ?
हाँ, वही था यह साल जब उन्होंने प्रार्थना घर को नेस्तानाबूद कर दिया था
खपच्चियाँ उड़ा दीं थीं छत की धन्नियों की, भित्तिचित्र मटमैले कर दिए थे
तुम जन्मे जब पूरब दिशा से एक वहशी हवा बह रही थी
कौन सा था वह साल माँ ?
वही जब उन्होंने जला दिया था धर्म ग्रंथों को
गाँव के चौराहों पर
और अपने दल की तारीफ में गाये थे क्रांति गीत
तुम पैदा हुए थे और घास के तिनकों ने उगना बंद कर दिया था
माँ, क्या यही था वह साल जब तुमने गाना बंद कर दिया था?
हाँ, यही था वह साल जब वे पड़ोसन को ले गये थे
डाल दिया था श्रम शिविर में
क्योंकि नहर खोदते समय वह गुनगुना रही थी एक लोकगीत
तुम जन्मे जब लोग एक एक कर गायब होते जा रहे थे
कब हुआ था यह ?
उसी साल था जब उन्होंने दीवारों पर
बड़ा सा लाल नारा लिख दिया  था-
‘जो सर बाहर निकले, कुचल दिए जायेंगे’
तुम पैदा हुए थे
जब सूर्य आकाश से तिरोहित हो गया था
कब  माँ?
उसी  साल  जब तुम्हारे पिता.....तुम्हारे पिता......




उन्हें हड़प लो

आपकी प्लेट में रखा बटर चिकन
कल तक वह मुर्गी था
जिसके चूज़े अंडों से निकले नहीं अभी
आप स्वादिष्ट भोजन का आनंद लीजिये

पिछली गर्मियों मैंने जिस ऊँट की सवारी की थी
वह अब चमड़े का एक बैग बन चुका है
सजा है एक आधुनिक शोरूम में
कुबड़ा होना भी एक श्राप है

उस पर बहुत फबता है मस्कारा
पर उसकी आँखों तक आने से पहले
वह कितने ही चूहों की आँखें फोड़ चुका होता है
चूहे अब बिल्लियों से अधिक मस्कारे से डरते हैं

बुद्ध की प्राचीन मूर्ति की नक़ल
उसके आलीशान स्नानगृह में खड़ी है
जनमानस की सामूहिक आस्था का प्रतीक
अब रोज़ उसे मूतते हुए घूरता है

वह दहाड़ता हुआ गर्वीला बाघ
जो बड़ी शान से बंगाल के जंगलों में
चहलकदमी किया करता था
अब तुम्हारी पोशाक का बॉर्डर है
लेकिन
उसे पहन कर भी तुम
बस एक भीगा हुआ कुत्ता दिखते हो.



फासले से गीत
(वेज़र के लिए)

मेरी देह इस तपते हुए कमरे में फँसी है
छत से आती रौशनी मुझे चौंधिया रही है
चमड़ा मढ़ा सोफा मुझे आमंत्रित करता है
कि अपनी पीठ सीधी कर लूँ ज़रा
लेकिन मेरा ह्रदय भाग-भाग जाता है
गाँव के साथ बहती नदी की ओर
हवा के साथ रह-रह कर डोलते
चमड़े के पट्टों से बने पुल की ओर
धूल से भरे उस अहाते की ओर
जहाँ माँ खेत में काम करते हुए मुझे
एक चट्टान से बाँध दिया करती थी

यहाँ के सिलेटी घर मुझे घूरते हैं
ट्रेन में ठन्डे, चिड़चिड़े, थके हुए, अकेले, खोये-खोये लोग
अपने जीवन का कोई अन्य संस्करण चाह रहे हैं
मेरा मन दौड़ कर स्कॉर्पियन पहाड़ी के साथ बसे
उस गाँव में पहुँच जाता है
जहाँ विलो के वृक्ष सीटियाँ बजाते है
जहाँ एक दिन
मैंने एक किसान की झोपड़ी में आग लगा दी थी

मैं, अब हवा में उड़ता सिंहपर्णी का एक रेशा हूँ
अपनी सुनाओ, मेरे बाग़ी दोस्त !
जानता हूँ कि मेरी ही तरह तुम भी
एक उन्मादी शहर के
अगम्य कोने में फँस गये हो
क्या तारों के पीताभ प्रकाश में
तुम्हारा सोफा भी तुम्हें आमंत्रित करता है?
या दीवार पर लगी एक आँख तुम्हारी माँसपेशियों की एक-एक फड़क
पर नज़र रखती है ?
मैं जानता हूँ कि तुम्हारा ह्रदय भी दौड़-दौड़कर
उसी पहाड़ी घर में जा पहुँचता है
जहाँ नीलवर्ण आकाश के नीचे
प्रखर तारे तुम्हें देखते थे.

फ़ासले से भी यही गाता हूँ-
तुम और मैं, केसर के धनुष से छूटे हुए
तीर के दो टुकड़े हैं
तुम और मैं, यारलुंग नदी के सींचे हुए जौ
की दो बालियाँ हैं

हर दिन जब मैं इन्टरनेट खोलता हूँ
मेरा दिल धडकता है
कि कहीं मुझे तुम्हारे लापता होने की खबर न मिले
जैसे डोमा किअब
अपनी किताब ‘हिमालायाज़ ऑन फायर’ के
किताबों के कुनबे में जन्म लेने से पहले ही
कैदख़ाने की कोठरी में ग़ुम हो गये
जैसे ‘जाम्यांग की’ एक शाम
ख़बर लिखने के साथ ही
अदृश्य हो गयीं
जैसे वह ओपेरा मास्टर जो
अपने क्रन्तिगीत के हवाओं में बहने से पहले ही
अँधेरे का बंदी बना लिया गया
जैसे बारखोर की वह वृद्ध स्त्री
जो अपने प्रार्थना चक्र के साथ लापता हो गयी

फ़ासले से भी मैं गाता हूँ-
तुम और मैं उसी पात्र के दो टुकड़े हैं
जिसमें मिलारेपा अपनी बिच्छू बूटी उबालते थे
हम दोनों उस हपुषा वृक्ष के दो पत्ते हैं
जो महकता है अम्नी माचें की पहाड़ियों में

यहाँ निर्वासन में
मेरी झुर्रियाँ और गहरा रही हैं
पेड़ों पर पतझड़ उतरा है
तुम उसी शहर में अपनी कलम को और धार दोगे
जहाँ तुम्हारा हर शब्द नापा जाता है
हर साँस पर नज़र रखी जाती है
हर कदम का पीछा किया जाता है
फिर भी तुम्हारी कलम उन्हीं गाथाओं के साथ नृत्य करती रहती है
जो मुझ तक किसी और भाषा में पहुँचती हैं

फ़ासले से मैं गाता हूँ–
तुम और मैं, उस कविता से विखंडित दो शब्द हैं
जिसे गेंदुं छुम्बे ने कैदखाने की कोठरी में लिखा था
तुम और मैं युरुपों की तलवार
की दो खपच्चियाँ हैं
जिसने अप्रैल की उस रात्रि को वेध दिया था

एक दिन तुम और मैं ल्हासा के
एक गंदले होटल में
एक कटोरा थुकपा खायेंगे
एक दिन हम दोनों दो हिम सिंह होंगे
और नेनचें तांक्ला के
पहाड़ों में विचरेंगे.

(वेज़र एक तिब्बती कवि, लेखक, ब्लॉगर व लोकप्रसिद्ध बुद्धिजीवी हैं. चीनी शासन ने उनके लेखन से क्षुब्ध होकर ल्हासा में किये जाने वाले उनके सम्पादकीय कार्य से उन्हें निष्काषित कर दिया गया था. वे अब बेजिंग में रहती हैं, जो उनकी जन्मभूमि तिब्बत से उनका बलात् निर्वासन है.)





निर्वासन

घर से दूर
अपने छत्तीसवें किराये के कमरे में
मैं एक फँसी हुई मधुमक्खी
और तीन टांगों वाली मकड़ी के साथ रहता हूँ
मकड़ी दीवार पर रेंगती है
मैं फर्श पर
मधुमक्खी खिड़की बजाती है
मैं मेज़
अक्सर हम अपने अपने एकाकीपन की
राशि बाँटते हुए एक दूसरे को घूरते हैं
वे दीवारों को बीट और जालों से
रंग देती हैं
मैं उन्हें अलग-अलग नाम दे देता हूँ
मसलन जाल, व्यूह, फंदा,
पंख, भुनभुनाहट, फड़फड़ाहट

दूर घर से
मेरे मिनट घंटों के समान हैं
मकड़ी जिस खिड़की से छत तक की यात्रा करती है
मधुमक्खी जिस खिड़की से कूड़ेदान तक उड़ती है
घूरता हूँ उसी खिड़की से बाहर
नहीं बोल सकता हममें से कोई दूसरे की भाषा

मैं चाहता हूँ
काश! मेरे चुप होने से पहले
बहरे हो जाओ तुम.

समालोचन का यह लोगो विश्वप्रसिद्ध
चित्रकार और सिरेमिक कलाकार सीरज सक्सेना ने तैयार किया है.




एक गीत

मेरे सारे पल तुमसे बावस्ता हैं
फिर भी एकाकी हूँ
तुम्हारी प्रतिछाया को धूम्र सा लपेटे
जैसे तरुवर के नीचे उगा एक सिंहपर्णी

मेरा मानस तुम्हारे विचारों से संतृप्त
और ह्रदय अब तक रीता
जैसे तुम्हारी घोड़ियों के झुण्ड से छूटा हुआ
एक खुरविहीन गर्दभ

तुम निष्कलंक दूरस्थ चन्द्रमा
मैं
तुम्हारे नूर में नहाई अगली लहर की
प्रतीक्षा में लीन
तट पर पड़ा रोड़ा

मैं एक पतित पर्ण से अधिक कुछ नहीं
या हपुषा वृक्ष में अटका हुआ एक पंख भर
लेकिन घेरे रखता हूँ तब तक तुम्हारी पुतली को
जब तक नक्षत्र चन्द्रमा से अधिक कांतिवान नहीं हो जाते

तुम्हारी गर्माहट पाने के लिए
मैं गिद्ध सी उड़ान भरता हूँ
और मेरे गौरैय्या से पंख
मुझे मेरे कमरे के निर्जन कोने तक ही ले जा पाते हैं

मैं अपने लैपटॉप के धूमिल स्क्रीन को
अनवरत घूर रहा हूँ
कि शायद उस शीतल बयार का गीत लिख सकूं
जो आप्लावित हो तुम्हारी
मोहक सुगन्धि से.



कहीं ज़्यादा

कौन जाने ?
वे जो सोचते हैं कैसे सोचते हैं
कैसे तय करते हैं
कि किस हड्डी से प्रेम करना है
किसका तिरस्कार
किसके सामने दुम हिलानी है
कहाँ लटकानी है जीभ

यदि तुम एक कुत्ता होते
तो किस पर भौंकते?



अब वह बोस्टन में है

डेविड स्क्वायर टी- स्टेशन पर
निकास द्वार और
लकड़ी की लम्बी बेंच के बीच 
वह बुनती रहती है दस्ताने, बच्चों के दस्ताने,
मफलर और मंकी कैप
फिर उन्हें एक डोरी और ज़मीन पर फैला देती है
सामने बिछी रहती है एक चौरस चादर

मुस्कुराती है आते-जातों को देखकर
इतना अधिक कि जीभ निकाल लेती है
और फिर लपेटकर रख लेती है मुंह में 
वह अंग्रेजी में दस तक गिन लेती है
गुड और थैंक यू बोलना भी जानती है
उसकी नातिन उसकी शिक्षक है

एक पहाड़ की तरह बैठी है वह ज़मीन पर
सलाइयों के बीच चलती लड़ाई
को उसके हाथ नियंत्रित किये रहते हैं
माथे पर धनुषाकार झुर्रियाँ हैं
और जो आँखों के किनारे से निकलती हैं
वे अस्त होते सूर्य की किरणों सी हैं

कभी-कभी वह अचानक बुनना बंद कर देती है
सीने पर हाथ जोड़
“हे येशी नोर्बू, परम पूजनीय
कर्मों की झंझा में उडती हुई मैं यहाँ
गोरों की इस भूमि पर आ गिरी हूँ
इस धरती पर ऐसे पड़ी हूँ जैसे
२५ साल और परायी धरती पर पड़ी रही

तेनजिन गेत्सो की अभिलाषा पूरी कर दो
मुझे वापस अपने घर भेज दो हे प्रभो!
ताकि चैन से मर सकूं,”

कभी वह काठमांडू में बौद्धनाथ स्तूप
के चारों ओर बनी सड़क पर बैठी थी
बेचते हुए सम्पा, चूरा और चाय बिस्कुट
जूझते हुए धुएँ और धूल से

वही थी धर्मशाला में भी
बैठी मंदिर के द्वार के पास एक स्टूल पर
लगाये रेहड़ी लाफिंग नूडल्स, मोमो और आलू खस्ता की
गिनते हुए हर शाम कुछ मैले कुचैले नोटों को 

उसके बाद दिल्ली में कनाट प्लेस की
फुटपाथ पर भी थी वही
बेचती स्वेटर, जैकेट और टीशर्ट
अपनी जपमाला से जूझती मच्छरों से

वही अब बोस्टन में है
मुख्य द्वार और बेंच के बीच
सप्ताह में सात दिन
बुनती दस्ताने, मंकी कैप, बच्चों के दस्ताने

“मैं इस सफ़र से थकी नहीं 
पर यह इंतजार बहुत लम्बा है.”

और तभी एस्केलेटर से
उतरता है
अपने घर लौटने वाले लोगों का झुण्ड.




लाल ललाट
(तेनज़ीं सुन्डू के लिए)

वे मुझसे पूछते हैं, उसका खून इतना गर्म क्यों है?
मैं उन्हें बताता हूँ –
जब लाल बंदूकें हमारी शांत पहाड़ियों में गरजी थीं
तुम अनाथ हो गए थे
तुम्हें पर्वतों ने भी अकेला छोड़ दिया था जब
हमारे काठ के कटोरे पलट दिए गये थे

तुम्हारा रक्त समय के ज्वार से टकराता है
खौलता मेरा रक्त भी है
लेकिन यह मेरे ललाट को लाल नहीं करता
मेरी भावनाओं को उन्मादित नहीं करता

मेरे भीतर भी दौड़ रहा है वही खून
जो पहाड़ी पवन के गीत गाते हुए
महान योद्धाओं के साथ कदमताल करते हुए
दौड़ता है तुम्हारे भीतर
हम दोनों के रक्त पर एक ही बर्फ़ के
फ़ाहों के चिन्ह अंकित हैं

वे तुम्हारे लिए पूछते हैं
उसका स्वर ऐसा तीव्र क्यों है
और मैं कहता हूँ-
हमारे नीले आकाश से लहराते गिरते
बमों ने
तुम्हारे गीत चुरा लिए हैं
ढहती छतों के नीचे से आती हमारी माँओं की चीत्कार ने
तुम्हारा सब स्वर माधुर्य
भंग कर दिया है
घड़ी तुम्हारे समय के विरुद्ध चल रही है
मेरा स्वर भी तीव्र होता है
पर यह मेरे ललाट को लाल नहीं करता
जबकि
पर्वतीय देवताओं का आव्हान करने के लिए
योद्धाओं की शौर्य गाथा सुनाने के लिए
तुम जैसा हो सकने के लिए
पुकारती है मुझे भी वही आवाज़
जो तुम्हें पुकारती है.

(तेनज़ीं सुन्डू एक क्रन्तिकारी कवि हैं जिन्होंने अपने मस्तक पर एक लाल रंग का पट्टा इस प्रण के साथ बांधा है कि वे साम्यवादी चीन के ग़ैरवाजिब कब्ज़े से तिब्बत की मुक्ति तक इसे नहीं खोलेंगे.) 







शाम सात की सैर
माल्डन शहर, बोस्टन, अमेरिका

ऑबर्न मार्ग पर
जहाँ मैं रहता हूँ
छत्तीस कार और दो लोग थे
एक जवान काली लड़की, सलीके से सजी- धजी
अपने रूप-रंग को ठीक से समझती हुई
मुझे पर एक सरसरी निगाह डालती है.
एक सोलह साल का लड़का
मेरे नज़दीक से गुज़र गया है
मुझे एक मुस्कराहट की तलाश थी
पार्किंग में खड़ी कारों ने मुझे घूरा 
अमरीका बहुत पैसेवाला और अकेला है.

ट्रेमोंट स्ट्रीट, जिससे होकर रोज़ स्कूल जाता हूँ
वहाँ भी पचपन कारें और दो आदमी हैं
एक शानदार भारी सफ़ेद औरत
नीली जींस और हरी टीशर्ट में अपने गमलों से
मुरझाये पत्ते तोड़ रही है
दस कदम आगे एक विशालकाय गोरा आदमी
मेरे बगल से जॉगिंग करता गुज़रा है 
मुझे एक मुस्कराहट की तलाश थी
उसने मुझे बड़ी गहराई से संदेही दृष्टि से निरखा
मैं दुबला हूँ मेरी त्वचा पीली है
माउंट वर्नन स्ट्रीट पर
मैं अपनी बस का इंतज़ार करता हूँ
चालीस कारें छह लोग और एक कुत्ता 
दो जोड़े सीढ़ियों पर बतिया रहे हैं
एक जोड़ा एक तिब्बती कुत्ते को साथ लिए
हाथ में हाथ डाले टहल रहा है

औरत ने अपना मोबाइल फोन झटका
मुझे एक मुस्कुराहट की तलाश थी 
‘हाय जेन, फोटो ईमेल से भेज दो !’
अमरीका स्क्रीनों के बीच बसता है

सड़क के पार लाल बत्ती के पास
एकमंजिला मकान सल्फर रौशनी के नीचे
किसी धनाढ्य के महल सा दीखता हुआ 
जिसकी पार्किंग मेरी रद्दी की टोकरी की तरह कारों से भरी है
बाहर बोर्ड पर लिखा है
‘वेयर श्मशान गृह’
मैं अपने किराये के कमरे की और मुड़ चला हूँ
मृत्यु में सब बराबर होकर पृथ्वी की ओर लौट आते हैं.

 



द्रापची एकांत कारावास में एक हजारवाँ दिन

तुम बस मुझे बाहर घसीट लाओ
मैं तुम्हारे सारे आरोप स्वीकार कर लूँगा
और अपराध-स्वीकरणपत्र पर हस्ताक्षर भी कर दूँगा
नहीं. मुझ पर बलप्रयोग की दरकार नहीं
मैं देह से टूटा हुआ ही हूँ.
फिर भी चाहो तो निस्संकोच मुझ पर
नयी कराटे- किक का अभ्यास कर सकते हो
मैं एक जीवनरहित घन हूँ.

इस ठंडी कोठरी में मुझे गर्मी लगती है
सन्नाटे में आवाज़ें सुनाई देती हैं
मेरा यह नष्ट जीवन विखंडित छवियों की
बौछार से आक्रांत है
मेरी रक्तरंजित नाक
कब की जलबुझ चुकी अगरबत्ती की
सुगंध को सूँघ रही है
उसके नीले धुएँ के छल्ले
अब भी मेरी उलझी हुई सोच में तैर रहे हैं
मुझे बिजली के झटके खाने की लत लग चुकी है
अपनी बिजली की छड़ से मुझे कोंचो न
तुम्हारी आवाज़ में आज डंक क्यों नहीं है
अपना कंठ साफ़ करो, अपना चेहरा लाल करो
अपनी गर्दन की नसें तान लो, नाक सिकोड़ लो
और फिर मैं तुम्हारी ज़ोरदार चिल्लाहट सुनना चाहता हूँ
मेरे पेट में भर ताक़त मारो
मुझे उल्टा टांग दो
इस सबसे मैं जोश से भर जाता हूँ
और अपने ध्येय पर ध्यान केन्द्रित रख पाता हूँ
मुझे बुद्ध और स्पष्ट दिख रहे हैं
तुम्हारे कंधे पर जड़े लाल सितारे धुंधले हो रहे हैं
तूफ़ानी दर्रे पर एक हिम सिंह
बुरी तरह छटपटा रहा है
यह भ्रम है, भ्रांति है या कल्पना है
मुझे इस अँधेरे से बाहर खींच निकालो
मैं अपराध- स्वीकरणपत्र पर सही कर दूँगा
मुझमें कुछ शेष नहीं
सिवाय उस सच के जो मेरे दिमाग में नज़रबंद है

(द्राप्ची, ल्हासा में चीनी शासन के अधीन वह कुप्रसिद्ध कारावास है जहाँ तिब्बती राजनैतिक बंदियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है)



विषैले बाण निषिद्ध हैं
(सोशल- मीडिया को समर्पित)

अपना परिचय देता हूँ-  मैं हूँ एक पायदान, कुत्ते का एक बाल, एक कंटीला तार.
मैं दरअसल ‘तुम’ हूँ. हाँ, ‘तुम’, आसक्त दृष्टि से कम्प्यूटर स्क्रीन को घूरता हुआ
एक फेसबुकिया, ट्विटर अनुगामी, ‘लाइक’ आकांक्षी, वज्र मंदबुद्धि.
कुएँ का सब पानी चुक गया है.
यह बौद्धिक मृत्यु मुबारक हो.

कुंठा एक कचरे की थैली में बेतरह ठुंसी, सीढ़ियों से लुढ़कती आती है
और एन तुम्हारे दरवाज़े पर फट जाती है.
ख़ुशी एक साफ़ नदी में बहती हुई विष्ठा है

काश! तुम वह काला बिंदु होते जो एक युद्ध की लम्बी गाथा को पूर्णविराम दे सकता.
विराम.
तुम एक अर्धविराम या डैश तो हो सकते हो लेकिन
वे इस मामले को पूर्णविराम देना नहीं चाहते.
यह काला बिंदु अब मृत्यु की अन्तिमता ही हो सकता है.

मैं एक चमचा, चाटुकार, ख़ुशामदी, हूँ अस्थिरबुद्धि
मैं कंप्यूटर पर बैठा एक ‘लाइक- क्लिक’ से प्रसन्न होने वाला
गिरोह सरगना का चेला
मेरे हाथ बड़े हैं लेकिन मेरा दिमाग गड़बड़ तारों वाला डाँवाडोल और शिथिल
इलेक्ट्रिक पक्षी भर है.
दिए गये आदेशों को मानना मेरा धर्म है.
कोई व्यावहारिक विकल्प दिए बिना आलोचनाओं को वायरल कर फेंकते जाना
सिस्टम में बग होने की निशानी है जो एक मक्खी भी हो सकता है.
ये आरोप. ये गुलेलों के निशाने. यह घबराहट .
यदि स्पष्टता की शर्त का आरम्भ इस अव्यवस्था से है
तो आगे के सारे रास्ते शर्तिया नर्क की ओर जायेंगे

एक बूढी औरत ज़ी ज़िम्पिंग को शी- चैंग- फैंग यानी ‘ख़राब शराब को फेंक दो’ कहती है 
दिल में दर्द, पैर- दर्द, उँगली में दर्द, शिश्न में दर्द, आदमी के लिए कोई उम्मीद बाक़ी नहीं. मैं बजाय आदमी के एक झड़ा हुआ पत्ता होना पसंद करूँगा .
मैं कोई योद्धा नहीं, सिर्फ अपना रास्ता साफ़ करना जानता हूँ.
मेरे दादा ने कहा था कि शब्द जब तक तुम्हारे मुँह में रहें आसान होते हैं
हाथ में आते ही कठिन हो जाते हैं .
मैं सोचता हूँ कि वे तभी तक आसान होते हैं जब तक हमारे सपनों में रहते हैं.

यदि मेरा दिमाग भी मेरी नाक की तरह बहता
तो रुमालों से बने असंख्य कालीन हवा में तैरते रहते
जिन पर बलगम से कहानियाँ लिखी होतीं .

लिखने के लिए जितना कुछ है उतने शब्द नहीं.

हर क्रांति अपने घर में कप तोड़ने के साथ शुरू होती है
यह सोफासेट बाहर करके यहाँ लकड़ी की चारपाई डाल दो
मोटापा क्रन्तिकारी विचारों का नाश कर देता है

उम्मीद जो है सो है, मात्र चार अक्षरों का एक शब्द.
मैं जो हूँ सो हूँ, एक आम आदमी.
मैं और उम्मीद, लंगड़ाते हुए दो दोस्त.

एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति सोशल मीडिया पर
लोकतान्त्रिक बहस करते युवाओं को मानसिक रूप से पंगु, 
आत्मदयाग्रस्त, नाटकीय, आत्महंता और अवसादी कहता है.
लगता है कि वह कभी ठंडी ज़मीन पर नहीं बैठा.
मैं एक तिब्बती हूँ, मैं शब्दबाणों का उपहास करना जानता हूँ .

मैंने स्वयं को कब से नहीं देखा, यदि तुम मुझे कहीं पाओ
तो किराये के इस दिमाग का रास्ता दिखा देना.

सिंहपर्णी के सूखे तने पर बैठी हुई मक्खी. वातमय दिवस, सूर्यास्त.
मैं जल में सिर के बल कूदता हूँ

मैंने अपना ह्रदय दो ढेलों के लिए बेच दिया था 
एक को समुद्र में फेंक दिया
दूसरे को अपने तकिये के नीचे दबा लिया
तबसे मेरे सपने ठिठुर रहे हैं.

मैं पर्वतीय दर्रे तक अपनी आवाज़ का पीछा करता हूँ
वहाँ अब गीतों के वाण नहीं
सिर्फ वायुअश्व के रुदन की छाया है

सोमवार क्या शानदार दिन है!
मैं काम में भूल जाता हूँ कि अपने एकांत में
मैं भौंकता हुआ
एक बेसहारा श्वान हूँ
घड़ी मुझे पागल होने से बचाती है.
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भुचुंग डी सोनम

निर्वासन, अलगाव के पंगु कर देने वाले दुःख में मिश्रित आश्वासन की फिसलती रेत है.”
भुचुंग डी. सोनम

समकालीन तिब्बती कविता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक भुचुंग डी सोनम का जन्म १९७२ में तिब्बत में हुआ था. देश से निर्वासन के बाद वे धर्मशाला, भारत में तिब्बती बच्चों के स्कूल में पढ़े. आगे की पढाई उन्होंने सेंट ज़ेवियर्स, अहमदाबाद और फिर अमरीका में पूरी की. उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं, कॉनफ्लिक्ट ऑफ़ डुएलिटी, सांग्स फ्रॉम अ डिस्टेंस, सांग्स ऑफ़ द ऐरो, याक हॉर्न्स : नोट्स ऑन कंटेम्परेरी तिबेतन राइटिंग, म्यूज़िक, फिल्म एंड पॉलिटिक्स, डैन्डेलियन्स ऑफ़ तिबेत, म्यूज़ेज़ इन एक्ज़ाइल: एन एन्थोलॉजी ऑफ़ तिबेतन पोएट्री,बर्निंग द सन’स ब्रेड: न्यू पोएट्री फ्रॉम तिबेत (नई तिब्बती कविता का संचयन और अंग्रेजी अनुवाद). वे ‘तिबेतराइट्स’ नामक एक महत्वपूर्ण साइट के संस्थापक सदस्य हैं. सोनम अपने क्षेत्र के श्रेष्ठ आलोचकों और अनुवादकों में शुमार होते हैं और तिब्बती व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओँ में एक जैसी दक्षता से लिखते हैं. 

‘इन दिनों वे न्यूयार्क के निवासी हैं
उनका स्थायी पता चोरी हो गया है.’
रैंगसें (आज़ादी)

घर वापसी की कोशिश है. यह अपना नेता बाहर से नहीं चुनती, बल्कि यह विश्वास करती है कि हम अपना नेतृत्व खुद कर सकते हैं. रैंगसें उन सब क्रियाकलापों का नाम है जो हम अपने तिब्बत के लिए रोजाना करते हैं- अपनी आज़ादी के लिए किये गए सब सामूहिक कृत्य और उत्साही इच्छाएँ. रैंगसें का अर्थ है हार न मानना- वस्तुतः कभी हार न मानना; अपनी लड़ाई को हमेशा, किसी भी वक़्त, किसी भी जगह ले जा सकना और ज़ारी रखना, इसका अर्थ यह जानना भी है कि सत्य है और जीत उसकी ही होती है.

व्यापक और अखिल चेतना है. जो एक कवि के लिए उसके शब्द हैं, एक किसान के लिए उसकी भूमि, एक चरवाहे के लिए उसकी झोपड़ी, एक कारखाना मज़दूर के लिए उसके औज़ार, एक निर्वासित के लिए उसकी वे नदियाँ, पहाड़, उसका घर जिन्हें वह बहुत पहले छोड़ आया है, एक ख़ानाबदोश के लिए घास के मैदान पर उसका वह तम्बू जहाँ बैठकर वह मक्खन मथ सकता है, गीत गा सकता है, किसी भी विकराल आतंकपूर्ण छाया के बिना.

विदेशी भूमि पर एक लम्बा इंतज़ार है. एक लड़ाई जो कतई आसान नहीं, यह जेल की एक संकरी कोठरी में यातनादायक वर्ष हैं, चिलचिलाती धूप में बीच सड़क पर एक मोटे पुलिसमैन की लाठी से पिटना है. यह स्वेच्छा से अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भी आत्मिक संतुष्टि पाना है. 

रैंगसें (आज़ादी) का अर्थ आसपास की छतों से देखते कैमरा की चिंता के बगैर बारखोर (ल्हासा) में जौ की बीयर पी सकना है.

यह एक उम्मीद है कि एक दिन मेरी देह को एक अंतिम चढ़ावे की तरह गहरे नीले आसमान से उतरते गिद्धों के हवाले कर दिया जायेगा.
अनुराधा सिंह
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कथा-गाथा : वापसी : प्रेमकुमार मणि

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वापसी                      
प्रेमकुमार मणि





यूँतो हप्ते भर से बीमारी को लेकर  खुसुर-पुसुर मची थी, और इस बात की चर्चा थी कि कारखाना कभी भी बंद हो सकता है, लेकिन आज एलानिया तौर पर कह दिया गया था कि कल से फ़ैक्ट्री अगले आदेश तक के लिए बंद की जा रही है. मजदूरों को कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर मामला क्या है. इस जीवन में जाने कितनी बीमारियां आईं और गईं, लेकिन ऐसा कोहराम कभी नहीं देखा था. इसी शहर में प्लेग, डेंग,  मलेरिया, मियादी और खोंखी-सर्दी के जाने कितने रेले आये और गए. मजदूर टस से मस नहीं हुए थे. लेकिन महामारी की इस खबर  ने शहर में दहशत फैला दी थी. स्वस्थ-टाँठ लोग भी मुँह पर पर पट्टी बाँध कर चल रहे थे. दुनिया भर में इस बीमारी का जोर है,ऐसी बात कही जा रही थी.

गोबरधन इसे अफवाह बता रहा था. उसका कहना  था, बीमारी भी कोमल सुकुमार देह देख के पड़ाव डालता है. खिच्चा मास और ताज़ा खून मजूर के देह में कहाँ से मिलेगा. रोज़ तो मच्छर जाने केतना नहीं खून पी जाता है. रात को एक दफा जो नींद आती है भोर में मुर्गे की बोली सुन कर ही खुलती है. दिन भर खटने के बाद रात को थकान के मारे  खाने का जी नहीं करता. लेकिन नहीं खायेगा तो अगले रोज की खटाई फिर कैसे होगी. इसलिए चार रोटी दबानी ही होती है.

यही तो मजूर की ज़िंदगी है.

    
महेन्दर, रामविलास और सिवचंदर सरिया बनाने के एक छोटे -से  कारखाने में काम करते थे,जिस में कुल जमा तीन सौ मजदूर थे. रात-दिन तीन पारियों में काम होते थे. फैक्ट्री की चिमनी कभी बंद नहीं होती थी. स्क्रैप गला कर सरिया की ढलाई की जाती थी. यादव सरिया का दिल्ली के आसपास के कई जिलों पर अच्छा कब्ज़ा था. कुछ  साल के भीतर ही कम्पनी कहाँ से कहाँ पहुँच गयी थी. हल्ला था,  मालिक सीमेंट की फ़ैक्ट्री डालने  का भी मंसूबा बाँध रहा है. सिवचंदर सोचता था ऐसा हुआ,तो मनेजर साहब का गोड़- हाथ पकड़ कर अपन छोटे भाई का भी कोई बंदोबस्त करवा लेगा,जो गांव में बहेंगवा बना मटरगस्ती करता है और बूढ़े बाप पर बोझ है. गाँव अब रहने लायक जगह नहीं रह गयी है.

उसे खूब अच्छी तरह याद है कि महेन्दर भाई ने किस तरह उसे साथ लाया था. रामविलास और वह साथ-साथ ही आये थे. रेल से जहाना-गया तो खूब किया था और कई बार पटना भी आना-जाना हुआ था,लेकिन पहली बार उसने दिल्ली की यात्रा की थी. दिल्ली देस नहीं,परदेस  है;पराया देस. सब कुछ अजगुत-अजगुत लग रहा था.   टीशन पर उतरा तो भीड़ देख माथा चकरा गया. चुपचाप महेन्दर भाई के पीछे लगा रहा. एक बार तो उसकी तरह का  शर्ट देख कर वह दूसरे के पीछे लग गया, तब पीछे मुड़ कर महेन्दर भाई ने ही टोका. इस तरह बचते-बचाते उसके ठिकाने पर आया. महीना भर उजबक बना रहता था. एक-एक बात समझना पड़ता था.  बोली-चाली,खान-पान में भी बड़ा भेद था. जीवन के तौर -तरीके  भी भिन्न. फिर भी यह नयी दुनिया थी. गाँव की तरह खुली हवा और मोरहर का किनारा भले नहीं हो, भय नहीं था. खाने  के लिए चार रोटियाँ मिल जाय और पुरसुकून शांति तब उसे और क्या चाहिए. दिल्ली में भीड़-भाड़ कोंचा-कोंची चाहे जितनी हो रणवीर सेना नहीं थी,इतना ही काफी था. वह महेन्दर भाई के प्रति कृतज्ञ था. उसने ठान लिया था कि महेन्दर भाई को कभी बेइज्जत नहीं होने देगा. इतने  साल हो गए,उसने कोई ऐसा अवसर नहीं आने दिया.

तीनो दस गुना दस के एक ही कमरे में रहते. उसी में खाना पकाने का कामचलाऊ सरंजाम होता. नीचे फर्श पर ही दरी बिछा कर तीनों एक साथ सो जाते. तीनों में कोई भी आलसी नहीं थे. अपने किस्म का अपनापा और प्रेम भी तीनों में था. हालांकि तीनों के जात तीन थे,लेकिन मन ऐसा एक था जितना रामायण में राम के भाइयों का भी नहीं था. छुट्टी के रोज जब इत्मीनान के वक़्त होते तो महेन्दर कहता था हम लोग राम भरत लछुमन तो हो गए,लेकिन एक सतरोहन बाकी है. किसी सतरोहन को ढूँढ लाना है.  शिवचंदर का ध्यान अपने भाई पर टिका था. कहता- सतरोहन भी जल्दी आ जायेगा महेन्दर भाई. काम तो ढूंढिए पहले. यहां आ कर बोझ तो नहीं न बनाना है.

तीनों जने बिहार के जहानाबाद जिले के थे. उनका गाँव बहुत ही पिछड़े इलाके में था. जब नक्सलवाद की आंधी उठी,तब अन्य गांवों की तरह उनका गाँव भी उसका अखाडा बना. खातेदार मालिकों और जोतदार रैयतों के  बीच तनातनी बढ़ने लगी. भूमिधारियों की रणवीर सेना ने जब गाँव पर पहली दफा आक्रमण किया तो दस लोग मारे गए,दूसरी दफा में नौ. लाल सेना ने जवाबी करवाई में बगल के गाँव में इसके दुगुना यानी अड़तीस का सफाया कर बदला लिया और हंगामा मच गया. किसी का भी गाँव में रहना अब सुरक्षित नहीं था. जवाबी हमले क़े डर से लोग गाँव छोड़ कर जहाना शहर आ गए. रिक्शा ठेला चलाएंगे,लेकिन गाँव नहीं जायेंगे. गाँव अब इंसान क़े रहने की जगह नहीं रह गयी थी. इलाका आग की झील बन गया था. इसी माहौल से  कोई  बीस साल पहले थोड़े आगे-पीछे तीनों आये थे. महेन्दर सब से पहले आया था. उसने दो साल तक पंजाब के एक गांव में खेतिहर मजूर का काम भी किया था.

बीते सालों में दिल्ली धीरे -धीरे अपनी हो गयी लगती थी. यहाँ तक कि खांटी पंजाबी गालियाँ भी सब ने सीख ली थीं. खड़ी बोली में मगही जुबान के तड़के लगा कर एक अलहदा-सी जुबान भी गढ़ ली थी. सड़क किनारे लगने वाले बाजार से सेकंड हैंड कपडे भी दो-दो जोड़ी थे,सब के पास. बैंक में सब के खाता थे और पाँच-दस हजार उन खातों में जरूर पड़े रहते थे. तीनों दो हज़ार महीना के हिसाब से घर भी भेजते थे. गाँव की जिंदगी में इसी से उनके घरों में उछाह आ गया था. एक ही साथ तीनों ने अलग-अलग ट्रांसिस्टर रेडियो अपने घरों के लिए ख़रीदे थे,जो कई साल से उनके घरों को संगीतमय रखते थे. तीनों की बीवियाँ नियमित उनसे फोन पर बतियाती थीं.

इधर कुछ सालों से गाँव में शांति थी. खून खराबा बन्द हो गया था. गाँव तक जाने वाली पगडंडी पक्की सड़क में बदल चुकी थी. और भी बहुत कुछ हुआ था. हल-बैल वाली खेती बन्द हो गयी थी. पूरे गांव में किसी के दरवाजे पर अब बैल नहीं थे. ट्रेक्टर-कटर-थ्रेसर से पूरी खेती होती. ढेंकी-ओखली-मूसल सब जाने कहाँ चले गए थे. आधे गांव में लकड़ी-गोइठा की जगह  गैस स्टोव से खाना पकने लगा था.  बीपीएल कार्ड पर सब को  चार रूपये  किलो  के हिसाब से पैंतीस किलो गेहूं-चावल  मिलने लगे थे. बुढ़ापे का पेंशन माँ-बाबू को मिलने लगा था. और सब से बड़ी बात गाँव से बुरी खबरों का आना बन्द हो गया था. कुछ साल बंद रहने के बाद खेती-बारी की फिर से शुरुआत हो गयी थी. लोग जहाना से एक बार फिर गॉँव लौट आये थे.

तीनों सोचते थे, अपने इलाके में ही ऐसा कारखाना बैठ जाता और वही जॉब मिल जाता,तब इतना दूर पराये देस में काहे रहते. एक बार सुनने में आया कि वहां भी कुछ कल-कारखाना खुलने वाला है. लेकिन यह अफवाह था. चुनाव के वक़्त का झूठा वायदा. दसियों साल बीत गए और कहीं कुछ नहीं हुआ, तो सब ने मान लिया अपने देस में कुछ होने वाला नहीं है. जिंदगी जीना है, तो मन को मारना होगा. घर-परिवार से दूर वनवास की यह ज़िंदगी जो जीता है,उसी को इसका भाव मालूम होता है. लेकिन, जैसा कि एक फ़िल्मी गीत है ना ! ‘ज़िंदगी तो जीना ही पड़ता है.  यदि यह जहर भी है, तो पीना ही पड़ता है.’ 

लेकिन, मैंने  इन सब के इतिहास की नहीं,  फ़िलहाल की कहानी कहने के लिए आपको आमंत्रित किया है. जैसा कि मैंने बतलाया कोविड महामारी के बाद  इन का कारखाना बंद हो गया. उस रोज यही चर्चा रही कि मार्च महीने के बाद गर्मी बढ़ेगी और इस रोग के भाइरस ताप से मर जायेंगे,जैसे अपने कारखाने में हाई हीट पर स्क्रैप का लोहा पिघल कर कड़ाह के बन रहे गुड़ जैसा तरल हो जाता है. इसलिए बीस मार्च को जब फ़ैक्ट्री बंद की गयी,तब यही अनुमान किया गया कि महीने के आखिर तक के लिए यह बंद हुआ है. लेकिन,इस बीच अफवाहों का बाजार गर्म रहा. गांव से भी जानकारी मिली कि वहां भी स्कूल-कॉलेज सब बन्द हो गए हैं और कोई गांव से नहीं निकल रहा है. इन्हीं अफवाहों को सुनते-सुनाते तीन चार रोज बीते और 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने अगले महीने की चौदह तारीख तक के लिए लॉक डाउन की घोषणा कर दी. रेल-जहाज,बस-ट्रक सब बन्द.  आनन्-फानन ऐसी कि आठ बजे रात को वह बताते हैं कि आज ही बारह बजे रात से कोई अपने घर से बाहर नहीं निकले.  ऐसा फरमान तो आज तक नहीं सुना था.

प्रधानमंत्री का भाषण तीनों ने एक साथ अपने मोबाइल पर सुना था. तरकारी बन गयी थी और रोटी पकनी बाकी थी.

रामविलास ने महेन्दर भाई से कहा- हम को तो खतरा के बात मालूम पड़ रहा है भाई जी. चौदह तारीख आज ही है ? इतना रोज का तनख्वाह मलिकवा बइठा के देगा,आपको लगता है ?

महेन्दर कुछ नहीं बोला.
सिवचन्दर रोटी बेलने में लग गया. खा-पी ले,जो होना होगा सो होगा.

    
प्रधानमंत्री के भाषण के बाद पूरा मुलुक अपने घरों में बंद हो गया. इतना डर कभी नहीं देखा गया था. बीमारी से किस देस में कितने लोग मरे और कैसे मरे,यही  चर्चा सब की जुबान पर थी. घर पर सिवचन्दर ने बीवी से बात की तो उसने बतलाया, 'इतना डर तो रणवीर सेना का भी नहीं था. का असरफ-टोला और का रेयान- टोला सब एक लेखा डर से घर में घुसल हैं' 

महेन्दर उम्र में भी बाकी दोनों से बड़ा था, और इसलिए इस छोटे कुनबे का स्वाभाविक गार्जियन था. उसने अगले रोज सब के बैलेंस पैसे के बारे में जानकारी ली. तीनों एक साथ एटीएम तक गए और जितना निकाल सकते थे, उतनी रकम निकाल लाये. सब मिला कर बाईस हज़ार निकले. लौटते वक्त देखा, पंसारी की दुकान पर भीड़ लगी है. तीनों ने एक दूसरे को देखा. कुछ  खरीदारी कर लेना जरूरी था.  आटा,चावल, दाल,आलू जैसी चीजें खरीद कर वे लौट रहे थे कि रामविलास ने टोका, साबुन भी कुछ अधिक ले लेना चाहिए. हाथ को कई-कई बार साबुन से धोना है. लौट कर तीनों फिर दुकान पर गए और साबुन की इतनी अधिक बाटियाँ खरीदी; जितनी आज तक कभी नहीं खरीदी थी.

दिन के तीसरे पहर खा-पी के अपनी खोली में पसरे हुए थे कि महेन्दर के मोबाइल पर किशुन का फोन आया-

‘भाई रे, ई बन्दी अबही जैतो नाय. हमरा तो मकान मालिक डेरा छोड़ने को बोल रहा है. कहता है, जितना जल्दी हो छोड़ दो. अब हम काहाँ जावें भइवा. तोहरे खोली पर आ जावें ?

महेन्दर क्या जवाब देवे. कैसे मना करे किशुना को. पांच साल पहले बाबू की बीमारी में एक यूनिट खून दिया था अपनी देह का. अहसान एकबारगी कैसे भूल जाय !  न नहीं कर सका. रामविलास और सिवचन्दर ने भी महेन्दर भाई के निर्णय का स्वागत किया. लेकिन फिर तीनों एक साथ डर भी गए. कहीं हमलोग का मकान मालिक भी कुछ टंटा नहीं खड़ा करे. ई मालिक भी कुछ कम हरामी नहीं है.

महेन्दर ने कई दोस्तों से बात कर इस चीज की जानकारी ली कि क्या गांव लौटना संभव हो सकता है. सब जगह से नकारा जवाब मिला. किसी भी तरह घर नहीं लौटा जा सकता. ख़बरें मिल रही थीं कि हर जगह मजदूरों में बेचैनी है. काम-धंधे बन्द तो इतने रोज परदेश में रह कर क्या करेंगे ! जो सुरक्षित घरों में थे, वे लोग इस लॉक-डाउन को लेकर उत्सव मना रहे थे. एक रोज थाली और ताली पीटी गयी,दूसरे रोज दीप जलाये गए.

यहाँ खोली में बन्द-बन्द जान पर पड़ी थी. बाहर निकलो तो पुलिस डंडे बरसाती थी. दुबके रहने की भी सीमा होती है. दस गुना दस के कमरे में अब चार जने पड़े अपनी किस्मत को कोस रहे थे. वक़्त काटे नहीं कट रहा था.

दूसरी दफा जब लॉक डाउन की तारीख बढ़ी,तब मालिक ने खबर ली. मुंह पर पट्टी बाँधे खुद चल कर आया. जब किराया ले लिया, तब बोला कि अगले महीने से घर खाली करना है. और नहीं करना है तो तीन महीने का एडवांस किराया जमा करना है.

महेन्दर को मालिक पर दया आयी. बोला- इतने साल से आपके किरायेदार हैं. हम किराया देने में कभी हील- हुज़्ज़त करने गए ? और आप इस आफत की घड़ी में हम पर अविश्वास कर रहे हैं ? हम आपका किराया लेकर भाग रहे हैं ?

मालिक तो मालिक था. उसने कड़ाई से कहा- हम भाषण सुनने नहीं आये हैं. एडवांस दो, या डेरा छोडो.' फरमान सुना कर वह क्षण भर नहीं रुका.

मालिक के जाने के बाद चारोँ ने बैठ कर परिस्थितियों का आकलन किया. क्या किया जाय,कैसे किया जाय. राशन-पानी भी सीमित थे. पैसे बहुत थोड़े बच गए थे. बैंक भी खाली कर चुके थे. फ़ैक्ट्री से कुछ मिलने की उम्मीद नहीं. मालिक का ऐसा  व्यवहार !  आफत ही आफत. बीमारी से भी बड़ी विपदा तो इन पर अभी आ पड़ी थी. क्या किया जाय ?



(दो)
तीसरे रोज सुबह-सुबह किशुन का मोबाइल टनटनाया. पंकज का फ़ोन था. नरेला से पचास से अधिक साथी पैदल आनंद विहार टर्मिनल की तरफ कूच कर गए हैं. वहां से  सरकार रेल और बस से अपने मजदूर भाइयों को अपने वतन बुलाने का बंदोबस्त करेगी. यूपी की सरकार तो अपने मजूर भाइयों को पूरी दुनिया से बटोर रही है. कल तक का समय है. 'पहले आओ,पहले पाओ'की नीति. जो जिस क्रम में टर्मिनल आवेगा, उसी क्रम में उसका नंबर लगेगा. हजार रुपया पर हेड का किराया.

अपने जानते किशुन ने ठीक से जानकारी ली,लेकिन महेन्दर भाई से भी बात कराना जरुरी समझा. महेन्दर कुछ उत्साह में आ गया. तरकारी बनाने के लिए आलू-भंटा की कटाई हो चुकी थी,और आटा गूँथा जा रहा था. महेन्दर ने भी प्रधानमंत्री की ही स्टाइल में आनन-फानन हुकुमजारी किया- तो साथियो, तैयार हो जाओ. चलो अपने देस ! !
-चलो. चलो अपने देस !

चारों एकबारगी उत्साह में आ गए. लगा स्वर्ग से बुलावा आया है. महेन्दर, सिवचन्दर और रामविलास का गांव तो एक ही था, किशुन का गांव गया के पास था. सब की दिशा एक ही थी. तय हुआ,दो-दो रोटी पेट में डाल लिया जाय. रामविलास भोजन को पेट्रोल कहता था. उसके लिए भोजन की यही अहमियत थी. चलना है तो पेट में कुछ होना जरुरी है. डेग लम्बा-लम्बा मारना है. यह भी चिंता थी कि टर्मिनल पर जल्दी पहुंचना है. नहीं तो नंबर पीछे चला जायेगा.

जल्दी-जल्दी तरकारी बनी. रोटियाँ पकाने में जल्दीबाज़ी हुई तो कुछ जल गयीं,कुछ अधपकी रह गयीं. लेकिन घर-वापसी के उत्साह में सब ने चार-चार  के हिसाब से जल्दी-जल्दी खायी. एक रोटी बच गयी,तो बड़े प्रेम से दूर खड़े कुत्ते को आवभगत के साथ बुला कर  दिया. जल्दी-जल्दी कपडे समेटे. सिवचन्दर के अलावा तो किसी ने नहाया भी नहीं था. नहान-धोन का समय नहीं था. जल्दी कूच करने की हुद थी.

‘अपना -अपना गमछा जरूर ले लेना है. मुंह ढाँपे चलना है. सरकार का नियम है.'महेन्दर ने चेतावनी दी.

‘और लाइफबॉय साबुन धोकड़ी में ही रखना है साथी.'रामविलास ने पूरक चेतावनी दी.

रामविलास ने बचे हुए आटा और आलू प्याज को भी पॉलीथिन में बाँध कर एक अलग थैले में कर लिया. थोड़ा  सत्तू भी बचा हुआ था सब को इसी के साथ रख लिया. पानी रखने  के लिए दो खाली बोतलें भी रख ली. पता नहीं कब किस चीज की जरूरत पड़ जाय. गृहस्थी की समझ रामविलास को कुछ अधिक ही रहती है. 

नौ बजे तक चारों मुख्य सड़क पर आ गए थे. सबकी पीठ पर प्लास्टिक का थैला. गले में गमछा, पॉकेट में साबुन. दिल में जज्बा. चलो-चलो अपने गाँव ! ! चलो अपने देस !!

महेन्दर जब से परदेस में रह रहा है जाने कितनी दफा अपने गाँव आया-गया है. लेकिन इस बार का जाना,जैसे दिल्ली से विदाई की तरह का है. बीस साल से यहाँ है. यह भी पता है दिल्ली वालों के पास सब कुछ है दिल नहीं है. लेकिन ईमान-धरम  भी नहीं है,यह इस बार पता चला. इतना निठुर हुआ जाता है भला ! मकान मालिक को देवता आदमी समझता था. बाप की बीमारी में भी किराया बाकी नहीं रखा. सबका सिला यही दिया कि इस आफत की बेला में अपना असली चेहरा दिखला दिया. कर्कट की छावनी वाली बित्ता भर की कोठरी का दो हज़ार महीना देता है. दो हज़ार ले कर हम भाग जावेंगे,यही न सोचा इस ने ? यही है इंसानियत. ओह ! किसे क्या कहे. फैक्ट्री अचानक से बन्द कर दी. यह भी नहीं सोचा कि बन्द कर रहे हैं, तो कुछ एडवांस का इंतज़ाम कर दें. मजूर क्या खाएंगे, इसकी चिंता नहीं की. सरकार का एलान होता है कि मजदूर वापस घर नहीं जाएँ. मजदूर क्या करें ? मरें ? 

मुख्य सड़क पर आते-आते मजदूरों की भीड़ बढ़ती चली जा रही थी. तरह-तरह के ठिकानों पर काम करने वाले. दिहाड़ी मजदूर. रिक्शा-ऑटो ड्राइवर, मिस्त्री, कुली-खलासी से लेकर घरेलू काम करने वाले स्त्री-पुरुष. सड़क पर मानो मजदूरों की रैली निकली हो. एक जनसमंदर बनता जा रहा था.  ये तमाम लोग 'बाइली'थे- बाहरी. दिल्ली उनकी नहीं थी. दिल्ली तो सेठों,नेताओं और ठेकेदारों  की है. मजदूरों ने उसे गढ़ा,बनाया, संवारा,लेकिन खुद बाइली बने रहे. उसने सुना था कि यह पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थित है. फन पर  यह  धरती माता है  या  नहीं, पंडित लोग जानें; लेकिन यह दिल्ली और दुनिया के सारे शहर जरूर मजदूरों के कंधे पर खड़े हैं. मजदूर अपना कन्धा हटा लें,तो ये सारे शहर भहरा कर गिर पड़ेंगे.

लोग कदम -कदम बढ़ रहे थे. चुप-चाप. एक ही संकल्प कि गाँव-घर जाना है. अधिकांश लोग बिहार-पूर्वी उत्तरप्रदेश के थे. चलते-चलते किसी का मोबाइल टनटनाता और वह उसे कान से सटा लेता. बीच-बीच में कोई खबर भी फ़ैलती. सरकार रुकने के लिए कह रही है.

‘साली सरकार ! पंद्रह रोज से भूखे बिलबिला रहे थे,तब पूछने नहीं आया कोई. अब रुकने को कह रहे हैं. उनके भोसड़ा में डेरा डालें ? आयं !’

‘मकान मालिक डंडा किये था,तब नहीं पूछने गए कि बेचारों पर रहम करो. जिनके घरों में वर्षों से झाड़ू-पोछा किया,उनसे मिलने गए तो ऐसा मुँह फेर लिया कि कभी देखा ही नहीं हो.’

जितने लोग उतनी बातें. सब के मन में झंझावात चल रहा था. लोग मौन थे. लेकिन ज्वालामुखी की तरह उनके  दिल सुलग रहे थे.

महेन्दर ने भी आज तक अनुमान नहीं किया था कि शहर में इतने मजदूर हैं. पता नहीं क्यों उसे कुछ उत्साह जैसा अनुभव हो रहा था. एक बार तो उसके मन में आया कि तमाम मजदूर टर्मिनल की तरफ नहीं जाकर यदि जो प्राइम मिनिस्टर की कोठी पर ही धावा बोल दें तो कैसा रहे. आओ प्रधानजी, करो चाय पर चर्चा. बहुत करते हो अपने  मन की बात, इस दफा हमारी  भी सुनो !

सब के मन में कुछ न कुछ फूट रहा था. भीड़ ऊपर से चाहे जितनी शांत हो, भीतर-भीतर विचलित और बेचैन थी.

सिवचन्दर को कभी कोई गंभीर बात दिमाग में नहीं आती. सुधुआ है. पेट भरे सो काम ! उसने प्रेमपूर्वक कहा- 'महेन्दर भाई,बहुत रोज से आप सतरोहन ढूँढ रहे थे.' किशुन की तरफ इशारा कर कहा- 'आ गए आखिरी बेला में सतरोहन.'यह कैसा रमैन-पाठ है भाई कि चारों भाई बन से अजुध्या जी लौट रहे हैं.'

रामविलास को बात कुछ अच्छी लगी. उसे घर जाने का उत्साह कुछ अधिक था. खी-खी दाँत निपोर कर उसने खुश होने की कोशिश की- 'ठीक कहा चन्दर भाई,हमलोग अजुध्या जी को चल दिए हैं.' उसकी दादी  रमैन का कलेजा छूने वाला गीत गाती थी . अजुध्या जी में मूसलधार  बरखा हो रही है. राजमहल में बैठी  कौशल्या माता रो रही है कि इस बरखा में उनके राम-लखन भीग रहे होंगे. भीगत होइहें राम-लखन दुनो भाई. रामविलास के मन में चलचित्र की तरह दृश्य उभर रहे हैं.

जब दादी यह गीत गाती थी,तब एक बार उसका आँचल पकड़ कर उसने पूछा था- सीताजी  के लिए कौशल्या माता नहीं रोती थी दादी ?
‘मेरा रामविलास !' दादी ने कलेजे से सटा लिया था.  "तू बड़ा दयालु होगा रे !"
दादी को कभी नहीं भूल पाता रामविलास. दादी मानुष नहीं देवी थी,देवी. उसकी आँखें भीग गयीं.

क्या हमारे लिए भी कोई रोता होगा ? उसे पहले बीवी का ख्याल आया. फिर माई का. दादी तो अब इस दुनिया में नहीं है. वह जरूर हमारे लिए रोती. अचानक उसके मन में गीत की एक लड़ी इठलाई -

कदम-कदम बढ़ाये जा
ख़ुशी के गीत गाये जा
यह ज़िंदगी है कौम  की
तू कौम पे लुटाये जा....




(तीन)
ले बलैय्या ! हुआ बखेड़ा !
कारवां अभी यमुना पुल के इसी पार था कि भीड़ में खल-बली  मची. खबर फैली कि पुलिस टर्मिनल से लोगों को खदेड़ रही है. लाठी-चार्ज कर रही है. आंसू गैस छोड़  रही है. यह भी कि रेल और बस खुलने की बात भी पूरी तरह अफवाह है. सरकार ने लाठी-चार्ज के अलावा और कोई व्यवस्था नहीं की है.

यह तो हतप्रभ करने वाली खबर थी. भीड़ समंदर की लौटती लहरों की मानिन्द वापस लौट रही थी. कुछ लोग सड़क किनारे सुस्ताने के लिए बैठ गए थे. ये चारों भी सड़क किनारे खाली घासदार जगह देख बैठ गए. अब क्या किया जाय;यह उनके सामने यक्षप्रश्न जैसा था. चारों ने एक दूसरे को देखा और फिर चुप लगा गए. सबकी नजर केवल महेन्दर पर थी. अब तो न घर के रहे, न घाट के. शाम होने को थी और कोई निर्णय करना जरुरी था.

महेन्दर ने डेरा के बगल वाले साथी सुनील गोंड को फोन लगाया,जो मध्यप्रदेश का था और परिवार के साथ रहता था. उसका डेरा छोड़ने का कोई इरादा नहीं था. वह जानना चाहता था कि क्या हाल है. यह भी कि बाजार करने के लिए हमलोग दूर आ गए हैं और लौटने में देर हो सकती है.

उधर से जो खबर मिली वह उदास करने वाली थी. सुनील ने कहा- कोई बारह बजे मकान मालिक आया था. हमसे भी पूछ रहा था कि लोग कहाँ गए. किसी ने उसे बता दिया था कि आपलोग बिहार के लिए चल दिए हो. कुछ समय बाद वह फिर आया और उसने बड़ा- सा ताला कमरे पर जड़ गया. सुनील का कहना  था,आपलोग मकान मालिक से चाबी लेकर ही  इधर  आओ. नहीं तो दिक्क्त होगी.

महेन्दर ने सभी साथियों को बात बतला दी. सब के मुंह लटक गए. अब क्या किया जा सकता है ?'साथी चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा. जो होगा,देखा जायेगा. यह किसी एक का निर्णय नहीं है,सबका निर्णय है. हमलोग सब कुछ हार चुके हैं साथी,हिम्मत हार गए,तो कही के नहीं रहेंगे.'
रामविलास ने अपने अंदाज में सब को सम्बोधित किया था. सिवचन्दर ने हामी भरी. किशुन ने जब आहत स्वर में कहा कि लगता है मुझी से गलती हो गयी, तो महेन्दर ने उसका हाथ दबाया- नहीं किशुन भाई,रामविलास ठीक बोल रहा है, डेरा छोड़ना और घर के लिए चलना सब का फैसला था. हम  ही लोग क्यों इतने हज़ारों लोग तो इस कारवां में हैं. हम मजदूरों की तकदीर ही ख़राब चल रही है भाई. सब कुछ हमारे खिलाफ हो गया लगता है. ई स्साली सरकार भी हम लोगों को ही तंग-तबाह कर रही है.

सिवचन्दर ने देखा की थोड़ी  दूर एक जगह चाय बिक रही है. रामविलास को वह खींच ले गया और चाय की प्यालियाँ ले आया. चारों ने चाय पी. फोन पर इधर -उधर की जानकारी ली. फिर सभी उसी घास पर ढह गए. थके थे,इसलिए थोड़ा आराम कर लेना जरूरी समझा.

मोबाइल पर समय देखा तो सात बज रहे थे. शाम गहराने लगी थी. रौशनी में सारा शहर नहा चुका था.  सुबह की चार रोटियों के सिवा दिन में किसी ने कुछ और खाया भी नहीं था. सिवचन्दर  बोतल में पानी भर लाया और जुगाड़ी रामविलास ने अपने थैले से बड़ा -सा कटोरा और गिलास  निकाला और सत्तू का घोल तैयार किया. सब ने एक-एक गिलास सत्तू का घोल पीया,तब जान में जान आयी.

इसी जान और जोश में महेन्दर ने अपना संकल्प अनुमोदन के लिए साथियों के सामने रखा-  'हमलोग रुकेंगे नहीं साथी. यात्रा जारी रहेगी. दिल्ली के हालात भी ठीक नहीं हैं. लोगों के व्यवहार बदल रहे हैं. और तो और ससुरी सरकार डरी हुई है. यदि हमलोगों को मरना ही है तो अपने लोगों के बीच में मरेंगे. हज़ार किलोमीटर की दूरी है. हमारे ही इलाके के थे पहाड़-पुरुष दशरथ मांझी. सुना था वह दिल्ली पैदल  ही आये थे एक बार. हमलोग चार हैं. हमलोग दिल्ली से अपने देस पैदल ही नहीं जा सकते क्या ? चलेंगे, चलते रहेंगे, चाहे जितने रोज में पहुंचें. जहाँ चाह,वहाँ राह.
थकान से देह में जितनी ऊर्जा थी,उसमें पूरे उल्लास के साथ साथियों ने एक साथ कोहराम किया- 'हमलोग धरती नाप देंगे साथी. इतिहास बनाएंगे हमलोग.'
सिवचन्दर को हाई स्कूल  में पढ़ी कविता की पंक्तियाँ याद आई और उसने उसे नारे की तरह पूरे वेग में उछाला -

मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है.

सिवचन्दर पागलों की तरह चिल्लाया- इन्किलाब ज़िंदाबाद.

किशुन ने फोन पर बेहतर रुट की जानकारी ली. महेन्दर ने उसे  इसी बात का जिम्मा दिया था. भोजन की जिम्मेदारी सिवचन्दर-रामविलास को थी. बाकी काम के लिए महेन्दर था. चलने के पहले बोखार और दर्द की दवा रख लेना जरुरी समझा गया. जूतों के हाल लिए गए. चलेंगे. साथ देने लायक जूते थे. तय हुआ कि कल भोर से हमलोग यात्रा शुरू कर देंगे.

बगल के पार्क में सबने पड़ाव डाले. चाय वाले से बात हो गयी कि अपनी भट्टी पर वह बीस  रुपया लेकर खाना पकाने देगा. बर्तन भी देगा. चायवाला भी बिहारी ही था.  रामविलास ने जात का हवाला देकर उसे पटाया था.

महेन्दर ने कहा- 'ऐसे मिजाजी  साथी रहें तब इंसान क्या नहीं कर सकता ? हिमालय चढ़ सकता है.’

‘हमारी यात्रा इतिहास  बनाएगी महेन्दर भाई. देखना जब हमलोग गाँव पहुंचेंगे तब लोग हमारी आरती उतारेंगे. दिल्ली से गाँव पांव पैदल जाना इतिहास रच देने से तनिक कम नहीं होगा. अगले चुनाव में हमलोग आपको ही मुखिया नहीं बना दिए तो फिर क्या. देखना क्या करते हैं हमलोग.’

अगले रोज अलसुबह चारों जब निकले, तब मोबाइल चार बजने की सूचना दे रहा था. उन्हें उम्मीद थी कि  पांव-पैदल यात्रा इन चार जनों की ही होगी. लेकिन कोई दस किलोमीटर चल कर वे जैसे ही एनएच चौबीस पर आये देखा, सैकड़ों लोग इसी तरह पांव-पैदल चल रहे हैं. मानो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें खींचे जा रही हो. सड़क पर यह भीड़ लगातार गाढ़ी ही होती जा रही थी. महेन्दर विस्मित था कि इतने लोग चले जा रहे हैं. उसे विश्वास नहीं हुआ तो एक-दो  से पूछा और पता चला कि वे सब अपने गाँव जा रहे हैं. उन्हीं से यह भी पता चला कि मुख्यमंत्री ने लोगों को अपनी जगह पर ही रहने को कहा है,और यह भी कि अपने सूबे में वह किसी को घुसने नहीं देंगे.

महेन्दर स्वभाव से गमखोर और चुप्पा किसिम का आदमी रहा था,लेकिन राहगीर साथी कि इस बात पर उसे गुस्सा आ गया. बोला- सूबा उनकी बपौती है का ? हम तो अपने गाँव जायेंगे, देखते हैं कौन रोकता है.

‘अरे,वो मुख्यमंत्री है भाई. उसके पास पुलिस-फ़ोर्स है. वो नहीं चाहेगा,तो हम कैसे घुसेंगे ?
‘हम तो जायेंगे,देखते हैं,कौन रोकता है हम सब को?

‘हम से इतना गुस्सा काहे दिखाते हो भाई. हम भी तो आप ही के राह पर हैं. कोई नहीं रोकेगा,तो अच्छा है. और रोकेगा भी तो क्या. कमसे कम हम अपने देस की माटी पर तो मरेंगे.’

दोपहर कुछ खाने-पीने के बाद जब चारों कुछ सुस्ताने बैठे तब महेन्दर ने इंगित किया,रामविलास का चेहरा मुरझाया हुआ है. वह चहकता रहता था,लेकिन जरुरत से ज्यादा चुप था. महेन्दर ने पूछा-

'रामविलास, तबियत तो सही है न?
उस ने 'हाँ'का सिर हिलाया.
महेन्दर ने पूछ लिया- 'कुछ उदास दिख रहे हो भइवा.'
रामविलास ने मुंह लटका लिया.
चिंता से भरे महेन्दर ने फिर पूछा- 'कुछ हुआ तो नहीं ?
‘कुछ नहीं.’
‘तो ?
‘घर पर फोन किया था भाई.’
‘हाँ,तो ? सब ठीक है न ?

‘ठीक काहे नहीं रहेगा. हमारे आप के लेखा कोई मजूर के जिंदगी जी रहा है लोग ! ठीक तो रहबे करेगा न !’   

कहते-कहते रामविलास की आँखे भर आयीं. तनिक रुक कर बोला- घर का लोग बोल रहा है कि ऐसे बखत में इतना हलकान हो कर आने की कौन जरुरत थी. जादे उम्मीद है कि गाँव में हमलोगों को घुसने नहीं देगा.  पंचायत का फैसला हुआ है कि बाइली लोग गाँव में घुसेंगे तो महामारी फैलाएंगे.'

‘यह किसने कहा ? 'महेन्दर ने जोर देकर पूछा.
‘घरवाली  बोली और कौन बोलेगा.’
‘तो वह तुम्हारे आने की खबर से खुश नहीं है ?

‘नहीं है. कह रही है,आप लोग बीमारी का भाइरस लाइयेगा और कुच्छो नहीं. आने पर भी आप लोगों को घर में नहीं,महीना भर तक स्कूल में रखा जायेगा.’

महेन्दर ने झट से अपने घर फोन लगाया. अब तक उसने फोन नहीं किया था. आने की योजना अचानक बनी थी,भागम-भाग में. इसलिए घर बात करने की फुर्सत नहीं मिली थी. उसने भी फोन बीवी को ही लगाया. वह मानो इंतज़ार ही कर रही थी. उठाते ही झांव से बोली-

‘वाह ! तो चुप्पा-चुप्पा आ रहे है ? कहिया से चले हैं ? जेवार से खबर मिलता है हम को...  गाँव भर में हल्ला हो गया है सब के आने का. हम कौन है कि हम को खबर करेगा लोग. घर का मुर्गी दाल बराबर. रामविलास के घर खबर पहिले आता है और बासी खबर हम को मिलता है.'

वह सुपरफास्ट ट्रेन की तरह रुकने का नाम नहीं ले रही थी. बोले जा रही थी-

‘सुने जे बड़ा हलकान हुए आप लोग. बड़ा दुःख हुआ. लेकिन इतना हलकान हो के गाँव आने का कौन जरुरत था.'

पूरी बातचीत में उसने हूँ-हाँ भी नहीं किया. बस सुनता रहा और फिर अचानक फोन काट दिया. बोलने के लिए रह ही क्या गया था.

काफी देर तक ग़ुम-शुम रहने के बाद उस ने अचानक उपदेशक जैसी मुद्रा बना ली. बोलने लगा-
‘भांड में जाय गाँव-घर और भांड में जाय देस. सब मतलब के लोग हैं. हुंह... सुनता था संसार मोह माया पर टिका है. झूठी बात. स्साला ये संसार भय पर टिका है,डर पे टिका है. लोभ पे टिका है. किसी का कोई नहीं संसार में. झूठा है यह संसार झूठा ! ठीक कहा है कबीर सहेबवा..यह संसार झाड़ का झाखड़.. स्साले जिस गाँव के लिए हम चले हैं,वहां हमारे रोकने के लिए बांस-बल्ली लगा रहे हैं लोग. स्कूल में रखेंगे लोग. बीवी आने से खुश नहीं.. घर के लोग खुश नहीं... गांव के लोग खुश नहीं,  सरकार खुश नहीं...  और हमलोग चले हैं अपने देस.. दिल्ली में मकान मालिक ने डेरे में ताला जड़ दिया और गांव के लोग गांव में बांस बल्ली लगा कर रास्ता रोक दिया. सरकार सीमान पर रोकने का फरमान जारी कर रही है. हम कहाँ जाएँ,का करें ?  हाय री ज़िंदगी ! यही है हमारी ज़िंदगी !’

सिवचन्दर सड़क छाप कुत्ते की माफिक मुँह आसमान की ओर करके रोने लगा. महेन्दर भाई को उसने इतना दुखी कभी नहीं देखा था. उसने मानो आसमान को ही सम्बोधित किया- 'हम नहीं जायेंगे गाँव. हम अब रेल की पटरी पर जायेंगे.. वहीं कट मरेंगे...'

रामविलास ने सिवचन्दर के कंधे पर हाथ रखा- भाई ,पगलाओ नहीं. होश से काम लो. इतना भावुक होने का समय नहीं है. तुम तो इतना होशियार हो. तुम ऐसा सोचोगे तो कैसे होगा.

सिवचन्दर रामविलास से लिपट गया. बोला- अब का होगा भइवा ?
‘सब अच्छा होगा.' रामविलास बुजुर्ग की तरह बोला.
महेन्दर ने कहा- ‘साथी लोग, मेरा बरमण्ड गरम है अभी. सब लोग सोचो क्या करना है अभी ?

रामविलास और किशुन मानो एक साथ ही बोले- 'गाँव चलो साथी,गाँव, जो भी होगा,जैसा भी होगा,अब वहीं होगा. जान देने से अच्छा है कुछ करना.'
सिवचन्दर ने अंतिम बात में अपनी आवाज मिलायी- जान देने से अच्छा है,कुछ करना...
चारों ने अपनी गठरी उठाई. उठ कर खड़े हुए और फिर चल दिए.
किसी ज़माने में रामविलास ने गाँव में हो रहे नाटक में एक  गीत गाया था. उसकी कुछ पंक्तियाँ उसे याद थीं. उसके कंठ में खनक भी थी. वह जोर-जोर से गाने लगा-

देस हमारा,धरती अपनी
हम धरती  के लाल..
नया इंसान बनाएंगे
नया संसार बसायेंगे..
__________
प्रेमकुमार मणि/
9431662211

बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनें और जॉर्ज ग्रियर्सन : यादवेन्द्र

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स्वाधीन भारत के इस कोरोना काल में मजदूरों की जो दुर्दशा हो रही है, वह अमानवीय तो है ही औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा कुली के रूप में हिन्दुस्तानियों ख़ासकर बिहार और पूर्वी उत्तर-प्रदेश के मजदूरों की भर्ती और अप्रवास की भी याद दिलाती है. तब भी इन मजदूरों में स्त्रियाँ शामिल थी, उन्हें ज्यादा पसंद किया जाता था.

लेखक अनुवादक यादवेन्द्र बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनों पर अपनी आगामी किताब के संदर्भ में शोध कार्य कर रहें हैं. भाषाशास्त्री और हिंदी साहित्य के इतिहासकार के रूप में समादृत जॉर्ज ग्रियर्सन 1883के अपने इस रिपोर्ट में जो गिरमिटिया मजदूरों पर है, अंग्रेजी सरकार के निष्ठावान प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं. यह लेख इसी रिपोर्ट पर आधारित है.




बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनें और जॉर्ज ग्रियर्सन         

यादवेन्द्र







रवरी 1883में प्रख्यात भाषा शास्त्री के तौर पर विख्यात सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने  बंगाल सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट "रिपोर्ट ऑन कोलोनियल इमीग्रेशन फ्रॉम द बंगाल प्रेसिडेंसी"शीर्षक से एक रिपोर्ट सौंपी. बंगाल सरकार ने 'द एमिग्रेशन एक्ट 1871'के लागू होने के बाद  किस तरह से उसके प्रावधानों का पालन किया गया, क्या उनमें किसी तरह की खामी है और यदि है तो उन खामियों को कैसे दुरुस्त किया जा सकता है- इन तीन प्रमुख बिंदुओं पर अध्ययन करने के लिए शासन ने जॉर्ज ग्रियर्सन को कहा था. बंगाल प्रेसीडेंसी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले गिरमिटिया मजदूर भर्ती करने वाले प्रमुख शहरों का व्यापक दौरा कर उन्होंने सरकारी दस्तावेज खंगाले और संबंधित अफसरों, एजेंटों और बाहर भेजे गए लोगों के परिजनों से बातचीत की. इन्हीं विषयों पर उपलब्ध विस्तृत जानकारी उन्होंने अपनी रिपोर्ट में संकलित की.

इस रिपोर्ट में ग्रियर्सन स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि मैं यह मान कर अपनी यह रिपोर्ट तैयार कर रहा हूँ कि सरकार बिहार से अधिकाधिक संख्या में मजदूरों को प्रवास के लिए भर्ती करने की इच्छुक है पर इसके लिए अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले कानूनी रास्तों का ही सहारा लेगी. तत्कालीन परिस्थितियों में ब्रिटिश उपनिवेश में भारत का लेबर मार्केट में दबदबा था. और अंग्रेज जब चाहते तब उनके आपूर्ति को नियंत्रित कर अपना दबदबा कायम रखते. इसका दूसरा पहलू बहुत दिलचस्प है जिसमें ग्रियर्सन कहते हैं कि हालॉकि मजदूरों की माँग पूरी करने में चीन भारत से आगे है लेकिन चीनी मजदूरों और भारतीय मजदूरों के बीच एक बड़ा अंतर है-

जहाँ  चीनी मजदूर अपने लिए पर्याप्त पैसा इकट्ठा करने के बाद स्वतंत्र हो जाना चाहते हैं और अपने पूर्व मालिकों के समकक्ष स्थापित होना चाहते हैं वहीं भारतीय मजदूरों की महत्वाकांक्षाएँ बड़ी सीमित होती हैं, उनकी ख्वाहिश बेहतर पगार पाने वाले कुली बने रहने की होती है उससे ज्यादा की उन्हें दरकार नहीं होती. यही कारण है कि इन उपनिवेशो में भारतीय मजदूर ज्यादा लोकप्रिय हैं.

1881 - 82में करीब 1800मजदूर बंगाल प्रेसीडेंसी से दुनिया के विभिन्न देशों में गिरमिटिया प्रणाली के अंतर्गत भेजे गए और जिसमें से 90%से ज्यादा बिहार के पटना, शाहाबाद और सारण जिलों से भेजे गए. इनके अलावा गया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और चंपारण जिलों से भर्ती किए गए. अंग्रेज़ अपने जिन उपनिवेशों में मजदूर ले जाने के लिए उत्सुक थे उनमें मॉरिशस (आम बोलचाल में मिरिच), गयाना (दमरा) और ट्रिनिडाड (चिनितात) अग्रणी थे.

प्रवास के मुद्दे पर ग्रियर्सन अपने विचार स्पष्ट शब्दों में कहते हैं:

"बाहर विदेश जाने वाले पुरुषों को लेकर आम जनता के मन में जिस तरह के पूर्वाग्रह और शंकाएँ  हैं उससे कहीं ज्यादा पूर्वाग्रह स्त्रियों को लेकर हैं. यह व्यापक धारणा आम भारतीय के मन में बनी हुई है कि भर्ती करने वाले एजेंट सीधी-सादी और बेहद ईमानदार महिलाओं को बहला-फुसलाकर बाहर ले जाते हैं और उसके बाद उनसे वेश्यावृत्ति कराते हैं.

वे एक पढ़े लिखे समझदार स्थानीय नागरिक के एक प्रतिवेदन का वे हवाला देते हैं जिसमें कहा गया है कि

"गिरमिटिया प्रणाली के अंतर्गत बहुत बड़े पैमाने पर अत्याचार और भ्रष्टाचार किया जाता है. ऐसी घटनाएँ  बहुत आम हैं कि भर्ती करने वाले एजेंट और उनके कारिंदे गरीब परिवारों की बहू-बेटियों को और कई बार सम्मानित परिवारों के स्त्रियों को भी, बहला-फुसलाकर अपने चंगुल में फाँस  लेते हैं और उन्हें कभी भी साफ-साफ शब्दों में यह नहीं बताते कि विदेश ले जाकर उनसे काम क्या काम कराया जाएगा. हर तरह के प्रलोभन देकर उन्हें पहले अपने परिवारों से दूर और घरों से बाहर किया जाता है. कभी-कभी किसी दूसरी जगह रख कर डिपो ले जाया जाता है और तब खुलासा किया जाता है कि किस देश ले जाया जाने वाला है. यह देखा जाता है कि अधिकांश स्त्रियाँ  इस खुलासे के बाद देश छोड़ कर विदेश जाने के लिए एकदम मना कर देती हैं लेकिन एक बार घर छोड़ कर बाहर कदम रख देने के बाद सम्मान सहित परिवारों में लौटना उनके लिए संभव नहीं रह जाता. एकबार हमेशा-हमेशा के लिए घर का रास्ता बंद हो जाने के बाद उन स्त्रियों के पास एजेंट का ठिकाना छोड़कर  कहीं और जाने का कोई रास्ता नहीं बचता- थोड़े बहुत विरोध के बाद दो-चार दिनों में वे अपनी नियति को मानकर हथियार डाल देती हैं. वैसे भी  एजेंट के पास ना नूकुर करने वालों को काबू में करने में सक्षम बलशाली लोगों की फौज होती है. ऐसी कई स्त्रियाँ  अपनी जान बचाने के लिए भर्ती एजेंटों और उनके संगी साथियों की रखैल बन कर रहने के लिए तैयार हो जाती हैं."

इस प्रतिवेदन में कुछ उदाहरण ऐसे गिनाए गए हैं जिनमें उग्र विरोध करने वाली स्त्रियों को शांत करने के लिए यह कह दिया जाता है कि ठीक है, जब तुम नहीं राजी तो हम तुम्हें बाहर नहीं भेजेंगे. उनकी जगह कुछ अन्य स्त्रियों को डिपो लाकर कागज पर उनके नाम पते लिखा दिए जाते हैं. जब प्रतिरोध थोड़ा कम हो जाता है तो मौका देखकर जहाज खुलने के ऐन समय फर्जी नाम पते पर ही पुरानी स्त्रियों को जबरन विदेश जाते जहाज पर लाद दिया गया.

हालाँकि अपनी रिपोर्ट में ग्रियर्सन कहते हैं कि यह मेरे विचार नहीं हैं बल्कि आम भारतीय के प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत उस व्यक्ति का विचार है जिसके प्रतिवेदन का मैंने उद्धरण दिया है. इसके साथ ही वे अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर देते हैं कि मेजर पिचर* की रिपोर्ट में भी इसी आशय की बात लिखी गई है.

ग्रियर्सन ने विस्तृत पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट में प्रवास पर जाने की इच्छुक महिलाओं  को चार वर्गों में विभाजित किया है  :

*उन मजदूरों की पत्नियाँ जो पहले प्रवास में रह चुके हैं और अब अपनी पत्नियों को लेकर जाना चाहते हैं- पर प्रवास में रह रहे मजदूरों की पत्नियों की संख्या बहुत मामूली थी.

*ऐसी विधवा स्त्रियाँ जिनकी देखरेख करने वाला कोई सगा संबंधी नहीं है-  विधवाओं के बारे में ग्रियर्सन का कहना था कि वे लांछन मुक्त थीं और कोई भी देश उनको लेने में आनाकानी नहीं करता. पर उनके साथ मुश्किल यह थी कि वे अपना देश छोड़ने को आसानी से राजी नहीं होती थीं.

*विवाहित स्त्रियाँ जो अपने घरों से निकल गईं - या तो उनके पतियों और परिवारों ने उन्हें त्याग दिया या (हो सकता है उनके कोई प्रेमी हों, या न भी हों) या इतर कारणों से अपने पतियों के बंधन से मुक्त होना चाहती हैं.

*वेश्याएँ- वेश्याओं का जहाँ तक सवाल था उनको अपने देश में आने की इजाजत कानूनी रूप में देने के लिए कोई देश कोई समाज खुले तौर पर तैयार नहीं होता.

ग्रियर्सन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अंग्रेज हुकूमत वाले उपनिवेशों में महिलाओं को आमंत्रित करने के लिए सबसे बड़ी उम्मीद चौथी श्रेणी की महिलाओं पर ही टिकी हुई थी- वे बहुत आसानी से अपना घर बार छोड़कर नए परिवेश में जा बसने को तैयार रहतीं और अपेक्षाकृत शुद्ध और निर्मल (comparatively pure) भी थीं.

"किसी से भी पूछा जाए तो वह यह नहीं कहेगा कि इन बेचारियों को विदेश ले जाने के लिए तैयार करना कोई पाप है- यह उनके लिए भी अच्छा था और देश के लिए भी अच्छा था. एक बार जब महिलाएँ अपना घर छोड़ देती हैं- चाहे वे स्वेच्छा से बाहर निकल जाएँ  या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए- उनके पति कभी उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे. और यदि उनके लिए विदेश जाने का यह रास्ता बंद कर दिया गया तो ले देकर उनके सामने दो ही विकल्प बचेंगे- आत्महत्या या वेश्यावृत्ति.",ग्रियर्सन लिखते हैं.

रिपोर्ट में अपना पक्ष वे एकदम स्पष्ट कर देते हैं कि जहाँ  तक बिहार का संबंध है उन्हें भर्ती करने वाले एजेंटों द्वारा विवाहित महिलाओं को बहलाने फुसलाने और प्रलोभन देकर भर्ती करने के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं लगती. अपने निष्कर्षों में वे कहते हैं कि जिन जिलों में गिरमिटिया भर्तियाँ बहुत लोकप्रिय हैं वहाँ  के ग्रामीण इस तरह की घटनाओं से इंकार करते हैं लेकिन जिन इलाकों में भर्तियाँ कम हैं, नहीं हैं या बदनाम हैं उन जिलों में ऐसी शिकायतें अक्सर सुनने में आती हैं. तो इसका कारण यह हो सकता है कि लोगों को सही बात की जानकारी न हो.

वे साफ़-साफ़ कहते हैं कि गिनती ज्यादा से ज्यादा करने के लिए महिलाओं को येन केन प्रकारेण भर्ती करने की घटनाएँ  नहीं होती, ऐसा नहीं है,  लेकिन जहाँ  तक विवाहित महिलाओं का संबंध है इन शिकायतों पर विश्वास नहीं किया जा सकता.

"ऐसी एक भी घटना सामने आए तो पूरे जिले में हंगामा मच जाएगा. और ऐसी जुर्रत करने वाले भर्ती एजेंट को लोग पीट पीट कर मार डालेंगे और यदि वह बच गया तो उसके ऊपर आपराधिक मुकदमा चलना  निश्चित है. इसका दूसरा परिणाम यह होगा कि उस जिले में भर्ती की प्रक्रिया हमेशा हमेशा के लिए ठप हो जाएगी. चंपारण जिले में ऐसा ही हुआ जिसके कारण वहाँ  से न तो कोई मजदूर बाहर जाने के लिए भर्ती हुआ और न ही कोई भर्ती एजेंट जिले में अपनी शक्ल दिखाने की हिम्मत जुटा पाया. स्थानीय  जनता भर्ती एजेंटों और उनके गुर्गों पर बहुत पैनी नजर रखती  है और जब किसी इलाके में कोई स्त्री घर से गायब हो जाए तो उनका सीधा निशाना ये ही होते हैं. इस तरह के बहुत सारी शिकायतें विभिन्न जिलों में मजिस्ट्रेट के सामने की जाती हैं- अपने अध्ययन के दौरान मैंने ऐसे बहुत सारे मामलों के रिकॉर्ड देखे लेकिन ऐसी हर शिकायत का अंजाम एक ही हुआ- शिकायत सिरे से झूठी पाई गई. कुछ मामलों में यह देखा गया कि गायब हुई औरत ऐसे किसी एजेंट से कभी मिली ही नहीं. कभी-कभी ऐसा भी देखने में आया कि वह अपने प्रेमी के साथ घर से भागी और बाद में कहीं भर्ती एजेंटों से उन दोनों की मुलाकात हुई और वे गिरमिटिया मजदूर बनकर कहीं और चले गए."

1883की ग्रियर्सन की रिपोर्ट में यह दर्ज है कि बांकीपुर, पटना और शाहाबाद के बाद सोनपुर मेला बाहर भेजे जाने वाले कुलियों की बहाली के लिए सबसे मुफीद जगह थी. एक एजेंट से बात का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि उस मेले में एक बार में 100के करीब लोग भर्ती हो जाते हैं लेकिन उस साल बरसात बहुत हुई थी मेला मंदा था, इसलिए एजेंट (दीप लाल नाम था उसका)  केवल 30लोगों को भर्ती कर पाया.

सारण की एक ब्राह्मण महिला की चर्चा दीप लाल करता है जो गयाना से कुछ साल रह कर वापस आई थी पर (उसके अनुसार) गाँव में कोई नाते रिश्तेदार नहीं मिले सो वह अपने पति और बच्चों के पास वापस गयाना चली गई. उसे वापस भेजने का काम दीप लाल ने ही संपन्न किया- उसके बयान के अनुसार वह महिला इतने गहने और बक्सों में भरे पैसे लेकर गयाना लौटी कि उन्हें उठाने के लिए चार आदमियों की जरूरत पड़ी.

दीप लाल ने ग्रियर्सन को बताया कि विदेश जाने के लिए जहाज पर चढ़ने के दिन हर पुरुष कुली के लिए उसे 18रु मिलते हैं और महिला कुली के लिए 26रु मिलते हैं- लेकिन यदि कलकत्ता के डिपो में ही किसी की मृत्यु हो जाए या कोई वहाँ से भाग जाए तो उसके आधे पैसे काट लिए जाते हैं. अपने लिए विभिन्न इलाकों में काम करने वाले नुमाइंदों (अरकाटी) को वह प्रति पुरुष के लिए दस और महिला के लिए चौदह रूपये देता है.

महिला कुलियों की उपलब्धता कम रहती थी जबकि माँग ज्यादा, और महिलाओं को भर्ती करने में एक कानूनी अड़चन यह होती थी कि उसके परिजनों की लिखित सहमति अनिवार्य होती है. कुलियों की भर्ती करने वाले लोगों के वक्तव्य ग्रियर्सन ने रिकॉर्ड किये हैं- उनका कहना है कि उन्हें हर महिला कुली के लिए 10से 15रु अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं जिससे उसके परिजनों को खिला पिला कर लिखित सहमति पत्र प्राप्त की जा सके.

उनका सुझाव है कि यदि किसी साल निर्धारित अनुपात से ज्यादा महिलाएँ भर्ती के लिए उपस्थित हो जाएँ तो अतिरिक्त संख्या को अगले वर्षों की कम भर्ती के साथ समायोजित  कर दिया जाए.

भर्ती करने वाले एजेंट और उनके नुमाइंदों से बात करके ग्रियर्सन बार-बार यह मुद्दा उठाते हैं कि भर्ती करने का जिम्मा महिला एजेंटों  को भी को दिया जाना चाहिए. रिपोर्ट में  इस तरह के भी संदर्भ आए कि पहले रानीगंज में, गया में और आरा में ऐसी महिला एजेंट हुआ करती थीं. एक महीने में जो एजेंट  ढाई सौ कुलियों की भर्ती करे उसे 50रु प्रतिमाह का इनाम मिलता है और यदि 500कुलियों की भर्ती करे तो यह राशि बढ़कर 100रु  प्रति माह हो जाती है. ग्रियर्सन अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि कुलियों की भर्ती करने वाले सभी एजेंटों का एक स्वर से यह कहना है की महिलाओं की भर्ती करना सबसे मुश्किल काम होता है. वे इस बात को बड़ी दृढ़ता के साथ सामने रखते हैं कि यदि वे इज्जतदार औरतों को अपने काम में मदद करने के लिए अपने प्रतिनिधियों के तौर पर  शामिल कर सकें तो उससे उन्हें बहुत  मदद मिलेगी और तादाद और चरित्र में भी अच्छी महिलाओं की भर्ती की जा सकती है.

बांकीपुर, पटना में काम करने वाले सब एजेंट दीप लाल सिंह के हवाले से वे लिखते हैं कि यदि महिला भर्ती कर्ताओं को यह काम सौंपा जाए तो कहीं ज्यादा सफलता मिलेगी- वे ऊंची जाति की महिलाओं तक अपनी पैठ आसानी से बना सकती हैं. ऐसे परिवारों की जो महिलाएं अपने घरों से निकाल दी गई हैं उनके सामने दो ही रास्ते बचते हैं- या तो वे शहर की तरफ रुख कर कोई गलत रास्ता अख्तियार करें या आत्महत्या कर लें. यदि ऐसी परित्यक्त और संकटग्रस्त महिलाओं को भर्ती किया जा सके तो मुझे यह ज्यादा व्यावहारिक और भलाई का काम लगता है. 

ग्रियर्सन अपने दौरे में जब मुजफ्फरपुर पहुँचे तो उन्होंने कागजातों की जाँच  के बाद एक बहुत दिलचस्प तथ्य की तरफ इशारा किया- उन्होंने पाया कि वहाँ 1980तक बाहर जाने के लिए जितनी भी भर्ती हुई वह सारी की सारी महिलाओं की हुई, एक भी पुरुष इनमें शामिल नहीं था. इसको थोड़ा सा और विस्तार दिया तो मालूम हुआ कि जुलाई 1877से नवंबर 1880के बीच मुजफ्फरपुर से 51व्यक्तियों की भर्ती हुई जिनमें से 22पुरुष थे- और इन सब की भर्ती 1880में ही की गई. अगले तीन सालों में भर्ती लगभग ठप रही.

रिकॉर्ड देखने के बाद ग्रियर्सन ने खुद मौके पर जाकर बाहर जाने के लिए भर्ती होने वाली कई महिलाओं के पते ठिकाने ढूँढ़ने की कोशिश की. रिपोर्ट में शामिल अपनी डायरी में उन्होंने लिखा है कि उनमें से ज्यादातर महिलाएँ मुजफ्फरपुर शहर की ही थीं और लोगों को उनके बारे में मालूम था. वे सभी औरतें ऐसी वेश्याएँ थीं जिनका धंधा कोई ख़ास चल नहीं रहा था इसीलिए उन्होंने बाहर जाकर नया विकल्प ढूँढ़ने  का फैसला किया- वहाँ  उनके कोई नाते रिश्तेदार नहीं थे और न ही ऐसा कोई था जो उनकी खोज खबर लेता. पहले उनके बारे में जानने वालों को यह भी नहीं मालूम था कि वे अब क्या कर रही हैं, जिंदा भी हैं या मर गईं.

अपनी रिपोर्ट में ग्रियर्सन 1874की बेतिया की एक घटना का उल्लेख करते हैं जिसमें त्रिनिडाड के लिए भर्ती करने वाले एजेंट ने बेतिया शहर की एक ईसाई महिला और उसके बच्चों को गलत तरीके से झूठ बोलकर, दबाव डालकर भर्ती किया था. इसकी शिकायत होने पर काफी बवाल हुआ,पिटाई के डर से वह एजेंट तो फरार हो गया पर उसके बाद वहाँ  दूसरे एजेंट के लिए काम करना असंभव  हो गया. दुर्भाग्य से बेतिया की उस महिला को भर्ती करने वाली एजेंट खुद भी एक महिला थी. वे इस घटना के हवाले से  लिखते हैं कि एजेंटों की बहाली में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो बेतिया जैसी घटनाएँ और भी होंगी और विदेशों को भेजे जाने के लिए कुलियों की भर्ती पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा.

बेतिया की उस औरत के बयान को ग्रियर्सन उद्धृत करते हैं जिसमें वह बताती है कि किस तरह से उसे बहला-फुसलाकर विदेश जाने के लिए भर्ती होने को राजी किया गया था.

"एक दिन कुएँ पर एक अपरिचित महिला से मुलाकात हुई तो उसने मुझे कहा कि यदि मेरे साथ चलोगी तो मैं तुम्हारे  लिए पटना में अच्छे रोजगार का इंतजाम कर सकती हूँ, जिसमें  अच्छे पैसे मिलेंगे. उसके बाद दूसरे और फिर तीसरे दिन कुएँ पर मैं जब भी जाती तो वह आ जाती और मुझसे यही बात दुहराती. इस घटना से पहले मैं उससे कभी नहीं मिली थी. चौथे दिन जब फिर से मेरी उससे मुलाकात हुई तो उसने मुझे फिर से ज्यादा पैसे का लालच दिया और कहा कि वह उसके साथ पटना चले. उसके कहने पर उसके साथ-साथ मैं अपने दो बच्चों के साथ संत घाट के एक बगीचे में चली गई जहाँ पहले से दो चपरासी इंतजार करते हुए मिले. जब हमारी मुलाकात हुई तो अंधेरा हो चुका था. मैं उन चपरासियों का नाम भी नहीं जानती थी न उन्हें पहले कभी देखा था. वहाँ से अंधेरे में वे सब मुझे पकड़ कर बेतिया शहर ले गए और एक घर में बंद कर दिया. तीन-चार दिनों से चल रहे इस घटनाक्रम के बारे में मैंने अपने पति से कुछ नहीं बताया था क्योंकि उस महिला ने मुझे इसकी सख्त हिदायत दे रखी थी कि मैं घर में इस बारे में किसी को न बताऊँ- वैसे मेरा अपने पति से कोई झगड़ा चल रहा हो,ऐसा भी नहीं था."

दरभंगा की यात्रा के दौरान उन्हें दो ऐसी महिलाओं की रिपोर्ट मिलती है जो भर्ती होने के लिए आई तो थीं लेकिन उनकी भर्ती को रद्द कर दिया गया. उस पर अफसोस जाहिर करते हुए ग्रियर्सन ने अपनी टिप्पणी में  कहा कि उनके आवेदन को रद्द करने का  कारण यह बताया गया है  कि जब उनसे घर परिवार के बारे में सवाल किए गए तो वे  इनके बारे में लगातार परस्पर विरोधी जानकारी दे रही थीं. मजिस्ट्रेट उनके बार-बार बदलते जवाबों से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने उनके आवेदन सीधे सीधे रद्द कर दिए, बेहतर यह होता कि उनकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ दिन लगा कर थोड़ी जाँच और कर ली जाती और उनके बारे में फैसला तब लिया जाता. उनका सुझाव है कि यदि किसी स्त्री मजदूर के बारे में किसी तरह की शंका हो तो उसे रजिस्ट्रेशन ऑफिस में 10दिनों तक रोके रखने की इजाजत दी जाए और उसकी इच्छा की अनदेखी कर के विदेश भेजे जाने के अवसर से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए.

छपरा की तहकीकात के ग्रियर्सन दो उदाहरण देते हैं- एक मनहरनी (216नंबर/ 1872) जिसके पिता का नाम श्रीपाल दुसाध लिखा हुआ था, लेकिन जब वे उस पते पर पहुँचे तो न श्रीपाल के बारे में किसी ने कुछ बताया न ही मनहरनी के बारे में बताया.

पड़ोस का ही एक उदाहरण वे रोजिया मुसम्मात का देते हैं  (212नंबर/ 1873)- जब उस पते पर पहुँचकर वे अधान मियाँ से मिलते हैं जो रिकॉर्ड के अनुसार रोजिया का पिता था तो उस ने सिरे से नकार दिया कि उसकी न तो इस नाम की कोई लड़की थी और न ही वह इस नाम से परिचित है. ग्रियर्सन कहते हैं कि हो सकता है किन्हीं कारणों से वह घर से भाग गई हो या परिवार ने उसे घर से निकाल दिया हो इसलिए कोई उसका नाम नहीं ले रहा है.

उपर्युक्त उदाहरण वास्तविक पहचान छिपाने के उद्देश्य से नाम और पते में हेरा फेरी करने की बात में  सामने आता  है.

रिपोर्ट के अंत में जॉर्ज ग्रियर्सन ने जो सुझाव दिए हैं वे गिरमिटिया प्रणाली को मजबूत बनाने को ध्यान में रख कर दिए गए पर  साथ-साथ सरकार का माननीय चेहरा दिखाने की भी कोशिश की गई है.

 #  मजदूरी करने के लिए विदेश जाने वालों को वे जानकार और सजग बनाने की वकालत करते हैं. वे कहते हैं कि प्रवास के देशों के बारे में इच्छुक लोगों  को ज्यादा भौगोलिक जानकारी दी जानी चाहिए.
# विभिन्न उपनिवेशों द्वारा प्रवासी मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाओं और शर्तों के बारे में पर्चे छपवा कर गाँव के पंचों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
# जिले के अफसरों को लोगों को सर्दी के दिनों में जहाज यात्रा करने की सलाह देनी चाहिए जिससे वे गर्मी और भीड़भाड़ से बच सकें.
आगे वे इस उपनिवेशी प्रणाली को और मजबूत बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देते हैं- जैसे मजदूरों की भर्ती की पूरी प्रक्रिया में जिले के अफसरों के कामकाज में पुलिस को हस्तक्षेप करने से रोका जाए और भर्ती करने वालों के खिलाफ शासन का रवैया मित्रवत रहे
,ज्यादा सख्त नियम कानून बनाने की जरूरत नहीं है. स्पष्ट है वे गिरमिटिया प्रणाली को बनाये रखने के पक्ष में खड़े दीखते हैं.
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