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प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ

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प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ 



आज जब हम संकट से घिरे हैं

पेड़ पहाड़ों की मुस्‍कुराहट हैं
नदियाँ समन्‍दर की प्रेमिकाएँ
हम नदियों के रास्‍तों में आए
पहाड़ो से छीन ली मुस्‍कान
तितलियों ने बस फूलों को चुना
वे खुद को भी उड़ता हुआ फूल ही समझती हैं
मगर वे अक्‍सर हमारी अधूरी हसरत रहीं 
नहीं मिलने पर कुचल दी गईं

कुत्‍तों ने आधी रोटी के बदले हमें दोस्‍त समझा
और कभी पलट कर नहीं पूछा कि हम उन्‍हें क्‍या समझते हैं
बिल्लियाँ आती रहीं दबे पाँव हाल-चाल जानने
हमने उनके मुँह पर दरवाजे खिड़कियाँ बंद किए
 
आज जब हम संकट से घिरे हैं
पहाड़ नदियाँ फूल तितलियाँ सब चले आए हैं अपनों की तरह हमारे नजदीक
कुत्‍ते मुँह उठाकर आसमान से प्रार्थना कर रहे हैं
बिल्लियों ने भूला दिए हैं अपने सारे अपमान.



 सुनने के लिए एक सपना चाहिए

रंगों की अपनी आवाज़ होती है 
वह आवाज़ कानों तक नहीं सपनों तक पहुँचती है
धरती के पास इतने रंग हैं
पक्षियों के पशुओं के मछलियों के कीट पतंगों के
समंदर मरुस्थल पहाड़ों के 
नदियों मैदानों के 
फ़सलों के जंगलों के 
धरती को सुनने के लिए हमें एक विशाल सपना चाहिए.



चीख

सुनो! बचा लो
बचा सको तो बचा लो
सब पर बाढ़ की तरह
फिर रहा है समय
अरे! कोई तो सुनो !
गर्दन से ऊपर तक
चढ़ आया है यह
कहीं तो कोई
हाथ बढ़ाओ

मेरी दीवार से
अंडे ले
गुजर रही चींटियो
कोई और नहीं
तो तुम ही सुनो
मैं कितनी धीमी
आवाज में पुकारूँ
कि सुन सकें तुम्हारे अदृश्‍य कान
मेरी चीख
मुझे भी
सुरक्षित कर दो
अपने अंडों की तरह.


  
मुझे याद करना 

जब सब खत्‍म हो रहा हो  
और सबसे निरुपाय महसूस करो 
मुझे याद करना 
मैं तुम्‍हारी हथेली पर मोती बन आ बैठूँगा 
जिसे तुम अपनी आँखों के कोरों पर लगा लेना 
फिर कलेजे तक उसकी ठंडक महसूस होने लगेगी  

भरी दुपहरी 
जब बुक्‍का फाड़ कर रोने को जी चाहे 
और गला रुँधा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हारे कंधे पर एक मानवीय रूई की गर्माहट 
महसूस होगी 
जिसके कोयों को तुम गर्मी की लू में उड़ा देना 
वे शाम तक आसमान में बादलों की शक्‍ल ले बरसने लगेंगे 

जब आस-पास बहुत भीड़ हो 
फिर भी इस दुनिया में सबसे अकेला महसूस हो रहा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हें आसमान का सबसे दूर का सितारा भी अपने दिल जितना करीब महसूस होने लगेगा
और उसकी चमक से तुम्‍हारा मन रोशनी सा दमकने लगेगा 



धरती माँ की तरह आती है सपनों में 

पीछे से आकर आँखों पर हाथ रख दूँगा  
और खिंचे चले आएँगे तुम्‍हारे सब दुख
फिर उन्‍हें छोड़ आऊँगा पेड़ों के पत्‍तों पर 
जहाँ ओस बनकर टपकते रहेंगे भोर तक 
इस तरह धरती तक पहुँच सकेंगे तुम्‍हारे दुख 

जब चीजें मनुष्‍य के वश के बाहर हो जाती हैं 
तब धरती की जरूरत पड़ती है उसे 
और धरती अपनी उदात्‍तता में माँ की तरह आती है सपनों में 
अपनी सारी बाहें फैलाए  





वो रंग

होली की रात
चाँद उतरा
ऐन बाखर के नीम के पार
फिर लटक कर झूला
उसकी सबसे ऊँची डाल से
पास ही एक मोर बैठा था
बहुत शर्माया सा
बहुत से रंग लेकर आया साथ
चाँद कुछ मूड में था

रंगों के उस खेल में
फिर खूब रँगा मोर को
मोर ने फिर चाँद को
उस दिन ऐसी यारी हुई
कि मोर ने बनवा लिए चाँद अपने पंखों पर
और चाँद ने गुदवा लिया मोर
अपने ही गाल पर

वो रंग ऐसा चढ़ा कि
अब छूटता नहीं
हर पूनम को याद कर होली
चाँद निकल पड़ता है नहाने समंदर की ओर
और मल मलकर ऐसा नहाना शुरू करता है
कि खुद ही घिसता जाता है
और बारिशों में हर बादल को देख
मोर पुकार पुकार कर कहता है
मेह आओ मेह आओ
मेरा रंग छुड़ाओ
मगर वो रंग है कि
अब छूटता ही नहीं







दोस्तियाँ और रिश्ते जो हमने चुने

ये उष्ण स्पर्श, आलिंगन और चुम्बन
हमने गढ़े हैं लुहार बनकर गर्म लोहे की तरह
ये उत्सव से रतजगे और उनकी टूटने की हद तक की भावुकता
हमने सजाए हैं अपने लिए
ये मनुष्यता और सुन्दरता से छलकते दोस्तियों और रिश्तों के जाम
किसी कोख से जन्म लेने के कारण नहीं बने
इन्हें हमने ही तैयार किया है अपने पीकर मदहोश हो जाने के लिए
रुखसत होते वक्त हम ही छोड़ आते हैं अपने अपने दिल दोस्तों के कन्धों पर
और लटका लाते हैं उनके अपने साथ अमलतास के पीले गुच्छे बनाकर
अपने टूटकर गिर जाने के लिए
सितारों की तरह खुद ही चुना है रात का आसमान

अब इनसे बचकर जाएँ भी तो क्यों जब इतना सब कुछ है यहाँ 



समंदर के सपनों में चाँद

इतनी दूर से चलकर आई हो
मेरी नींद में

आओ बैठो
छुअन के इस गुलमोहर के नीचे
तुम्हारे लिए सपनों की दरी बिछाई है
जूड़े की पिन ढीली करो
और जरा आराम से बैठो

ऐसा लग रहा है
जैसे आज समंदर के सपनों में
चाँद उससे मिलने आया है



दृश्‍य

धीमे धीमे बहती हवा
कुर्ते में एक लहर बना रही है
उस काई रंग के कुर्ते में
वो एक सरोवर लग रही है

वह देखो पास ही खड़ा कोई
जामुन के पेड़ सा उस पर झुका जाता है

उनके बदन के हरे बाँसों से
एक अद्भुत चमक उठ रही है
जिससे यह जगह
जंगल की तरह रोशन हो गई है



तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर

तुम बैठो कुर्सी पर आराम से टेक लगाकर
मैं बैठूँ पैरों के पास
और अपना सिर तुम्‍हारे घुटनों पर रख लूँ

तुम्‍हारे घुटने जिस रोशनी से चमकते हैं
मैं उस तिलिस्‍म को चूम लूँ
मैं उन पाँवों को चूम लूँ
जिन पर तुम्‍हारी यह प्‍यारी ताम्‍बई देह थमी है

लाख के लाल कनफूल और हरा कुर्ता पहने
तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर
और मैं एक बच्‍चे की तरह उचक कर तुम्‍हारे फूलों को चूम लूँ
_______________________




लॉकडाउन के बाद : स्कन्द शुक्ल

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डॉ. स्कन्द शुक्ल (MBBS, MD, DM : Rheumatologist, Immunologist) हिंदी के पाठकों के सुपरिचित लेखक हैं. रोगों की जटिलता, बचाव और निदान को सृजनात्मक भाषा में जिस तरह से वो प्रस्तुत करते हैं, वह अप्रतिम तो है ही उनकी प्रसिद्धि का कारण भी है. कविता-कहानी के साथ-साथ उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हैं- 'परमारथ के कारने'और 'अधूरी औरत'

कोरोना काल में मनुष्य क़ैद है, उसकी सामाजिक जटिलता भले ही स्थगित हो मानसिक जटिलता बढ़ी है. चिकित्सक अगर लेखक भी हो तो वह इसे किस तरह देखता है और लिखता है ? स्कन्द शुक्ल ने इसे एक दिलचस्प पर कारुणिक आख्यान में बदल दिया है.
पढ़ते हैं.   



लॉकडाउन के बाद                   
स्कन्द शुक्ल




लॉकडाउन के दौर में वह अपने कमरे में अकेला क़ैद नहीं था. उसके पास उसका शानदार नया एंड्रॉयड सेलफ़ोन था, जिसमें पौने आठ अरब इंसान थे. साथ ही बालकनी के कोने में एक तोता, जिसे उसने बड़ी मेहनत से थोड़ी-सी मानव-भाषा सिखायी थी. माँ-बाप दिल्ली में बहन के पास गये थे और वहीं रह गये, छोटा भाई मुम्बई में फँसा रहा. फ़्लैट के काम-धाम के लिए एक कामवाली आती थी, उसे भी इस माहौल में छुट्टी दे दी गयी थी. तो इस तरह से पाँचवीं मंज़िल के दो बीएचके के उस इलाक़े में कुल तीन जन थे : एक इंसान, दूसरी मशीन और तीसरा तोता.

तोता तो फिर तोता ही था. उसके लिए भला लॉकडाउन में क्या बदला था ! वह तो पहले से लॉकडाउन में रहता आया था. तीन साल से उसी पिंजरे में. लॉकडाउन के भीतर लॉकडाउन! जब आप लॉकडाउन में होते हैं, तब आपको उसके बाहर का लॉकडाउन प्रभावित नहीं करता. आपकी स्वतन्त्रता का निकटतम दायरा एक बार बँध गया, सो बँध गया. उससे बाहरी बन्धनों के होने-न होने से भला क्या फ़र्क़! दूर की परतन्त्रताएँ केवल समाचार हुआ करती हैं, उनमें व्यवहार का कष्ट देने की क्षमता नहीं होती. वहीं मिर्ची-अमरूद-चावल खाओ, उसी में गिराओ. वहीं पानी पीना, वहीं मल-मूत्र छोड़ देना. सुविधाएँ यहीं दी जाएँगी, सफ़ाई कर दी जाएगी. जितने पंख फड़फड़ाने हों, इसी में फड़फड़ाइए. बोल सकते हैं आप, चीख भी सकते हैं. पर बाहर निकलने का ख्याल! भूल जाइए!

आरम्भ के दिनों में उसने तोते के साथ औपचारिकता-मात्र निभायी. पिंजरे में भोजन रख दिया, पानी दे दिया. धूप आने पर स्वर सुनायी दिया, तो स्थान बदल दिया. किन्तु इससे अधिक कुछ नहीं. एक पक्षी से इंसान कितनी देर सम्पर्क में रह सकता है! देखें तो और लोग क्या कर रहे हैं! किस तरह से लॉकडाउन का लुत्फ़ उठा रहे हैं. कुछ तो एक्साइटिंग चल रहा होगा! 

अँगूठा मोड़कर स्क्रीन पर रखते ही वह सेलफ़ोन में समूची मानव-प्रजाति से जुड़ जाता है. सभी मित्र, ढेर सारे रिश्तेदार. देश-विदेश के सेलिब्रिटी, अनेक अनजाने लोग भी. सबसे पहले वह सोशल मीडिया पर नयी डीपी डालता. नीचे किसी कवि का ध्यान खींचता दार्शनिक वाक्य लिखता. फिर लाइक आते, कमेंट भी. वह उनके उत्तर लिखता. मुसकुराता. मन में सोचता. सुख के क्षण टप-टप-टप मन के गमले की सूखी मिट्टी को भिगो देते. कुछ घण्टों का काम हो गया ... 



तोते की चीखें गाहे-बगाहे कानों में पड़तीं, तो ख़लल जान पड़ता. कम्बख़्त चैन से न ख़ुद रहता है, न रहने देता है! अरे,खिड़की पर टँगे हो; सामने इतना ऊँचा-चौड़ा नीला आसमान है. उसे चुपचाप निहारो न! अपना चुग्गा खाओ, पानी पियो, पंखों की वर्जि करो और बाहर की दुनिया को चुपचाप देखते रहो ! काहे डिस्टर्ब करते हो! मगर मुआ सुआ कहाँ सुधरने वाला !  उसी समय अधिक चीखें निकालता, जब वह फ़ेसबुक या ह्वाट्सऐप पर अपनी वार्ताओं में मशगूल रहता. गोया उसकी खुशी से कुढ़ रहा हो. कम्बख़्त परिन्दा! इंसानी ज़बान के चार शब्द क्या सीख लिये, इंसानी व्यवहार भी प्रदर्शित करने लगा! अरे अपनी परिन्दगी की जद में रह न! 



लेकिन वह यह भूल रहा था कि जब जन्तु पालतू हो जाता है, तब वह अपनी प्रकृत पाशविकता से हटकर पालक मनुष्यता की ओर आने का प्रयास करता है. मनुष्यगत अच्छाइयाँ ही नहीं, बुराइयाँ भी सोखने लगता है. पला हुआ जानवर पूरी तरह जानवर नहीं रहता ; वह मिश्रित गुणधर्म वाला हो जाता है. उसी तरह जिस तरह पालने वाला मनुष्य पूरी तरह मनुष्य नहीं रहता, वह पशुता की ओर धीरे-धीरे खिंचने लगता है. पशुता की बुराइयाँ ही नहीं, अच्छाइयाँ भी. पशु-मनुष्य-संसर्ग से दोनों में बहुत-कुछ अदला-बदली करता है. एक-दूसरे से अनेक आचार व व्यवहार लिये जाते हैं. भाषा के मीठे बोलों से लेकर विषाणु तक!


असहजता से वह उठकर बैठ जाता है. दुनिया-भर में कोरोनावायरस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. मृत्यु-दर 3-ही प्रतिशत के आसपास है, फिर क्यों इतने आकुल हो रहे हैं? ज़्यादातर मरने वाले बीमार भी हैं और बुज़ुर्ग भी. ऐसे में स्वस्थ और युवा लोगों को इस तरह से क्यों घबराना ? वह फ़ेसबुक पर नसीहतें देता टाइप करता जाता है. चिल मारो यार ! अच्छा रोज़ कोई-न-कोई लाइव आकर कुछ-न-कुछ एक्साइटिंग करेगा ! ओके? क्या मुर्दानी सूरतें बना रखी हैं! अरे लॉकडाउन है ! ऐसा मौक़ा फिर कभी मिलेगा! एन्जॉय द चेंज !

आभासी प्रतिक्रियाओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गणितीय सत्यों की तरह प्रस्तुत होती हैं. पिछले क्षण इमोजी नहीं था, इस क्षण है. अभी पल-भर पहले ही लाइक ग़ायब था, अब आ गयाहै. सुबह तक प्रोफ़ाइल-पिक पर केवल चार-सौ लाइक थे, अब ढाई हज़ार हैं. सुख की नन्ही अफ़ीमी ... सॉरी ... डोपामीनी बूँदें गणित की संख्याओं की तरह मन के गमले में टपकायी जा रही हैं. एक-दो-तीन-चार-... तीस-... सत्तर-... एक सौ चौदह-... तीन सौ नौ-... सात सौ इक्यासी-... एक हज़ार दो सौ बारह ... . 

अभी कल ही बिनमौसम पानी बरसा था. किन्तु इस वास्तविक बरसात में गणितीयता नहीं होती. बूँदों की संख्या इतनी अधिक होती है कि कोई उन्हें न गिन सकता है और न गिनना चाहता है. सब बस केवल दो ही चुनाव करते हैं. या तो भीगते हैं अथवा नहीं भीगते. पर सोशल मीडिया की स्नेहवर्षा इतनी तीव्र कभी नहीं होती कि वह गणित से अपना पीछा छुड़ा ले. बड़े-से-बड़े सेलिब्रिटी के सामने वह प्रसिद्धि के आँकड़े प्रस्तुत करती है. जहाँ आँकड़े हैं, वहाँ असुरक्षा है. जहाँ असुरक्षा है, वहाँ अकेलापन और अधिक है. आँकड़ों से असुरक्षा, असुरक्षा से अकेलापन. अकेलेपन से फिर आँकड़े. यही क्रम चलता जाता है. 

वह कोरोनावायरस के आँकड़ों की टहनियों में किसी चमगादड़ की तरह उलझ जाता है. हॉर्स्शू-बैट जिसे इस महामारी के लिए ज़िम्मेदार माना जा रहा है. चेहरे पर घोड़े की नालनुमा संरचना जिससे वे उड़ते समय ध्वनियाँ निकालते हैं. जब वे टकराकर लौटती हैं,तब उन्हें सुनकर अपने-आप को हवा में बिना टकराये सन्तुलित रखते हैं. मनुष्य भी गज़ब प्राणी है!  बेचारे चमगादड़ के चेहरे पर घोड़े की नाल खोज लेता है ! फिर उसे अजीब-ओ-ग़रीब नाम दे डालता है! 

दिन बदल रहे हैं : कुछ दिन तक वे नामों के खाँचों में बँटकर चलते हैं. तारीख़ें कुछ तिथियों तक संख्याओं की संज्ञाओं का सम्मान करती हैं. पर धीरे-धीरे ये दोनों संज्ञा-रहित और संख्या-रहित होते जाते हैं. वही रोज़ सूरज का निकलना और डूबना. वही रात का आना, फिर दिन में बदल जाना. वैसे ही चिड़ियों का बालकनी में चहचहाना, वैसे ही तोते का जब-तब बोलना या चीखना. इंटरनेट न हो, तब तो सचमुच समयबोध ही भूल जाए आदमी! दैनिक जीवन की गणित घुलते ही वह फ़ोन में मौजूद गणित की ओर भागता है!

बाहर सब-कुछ अपरिमेय, भीतर सब-कुछ परिमेय! न गिन पाना कितना एक-सा जान पड़ता है ! गिनने में कितनी नवीनताएँ मिलती हैं! प्रकृति में वह बात कहाँ जो एंड्रॉयड के भीतर के संसार में है. अरे, किसी ने नयी डीपी लगायी है ! केवल ढाई-सौ लाइक! भक्क! 

कोरोनावायरस के आँकड़े दिन-दिन ऊँचे पायदान चढ़ रहे हैं. दुनिया-भर से मौतों की खबरें आ रही हैं. एंड्रॉयड में झलक रही हैं और वहाँ से उसकी आँखों से मन में उतर रही हैं. सुखदायी आँकड़ों के साथ दुखदायी आँकड़े भी. आज तो भारत में कुल मरीज़ पन्द्रह हज़ार से अभी अधिक हो गये! उसकी सबसे अधिक चाही गयी तस्वीर पर आये लाइकों से भी कहीं ज़्यादा! कहाँ रुकेगा यह वायरस जाकर! ये निठल्ले वैज्ञानिक भी न जाने क्या कर रहे हैं! टीका बना लेने में इतनी देर लगती है भला! अरे पैसा बहाओ, रात-दिन जुटो, बना डालो! ईज़ी! 

वह मार्केटिंग-सेक्टर का आदमी रहा है. ठीक-ठाक सैलरी, पसन्द का काम. पर अब फ़ोन पर बिना तनख्वाह के काम करने को कहा जा रहा है. नौकरी रहेगी, पैसे नहीं मिलेंगे भाई- बॉस फ़ोन पर कहते हैं. आने वाला पूरा साल किल्लत का है. देखते हैं, कैसे मैनेज होता है! बी प्रिपेयर्ड फ़ॉर टफ़ टाइम्स अहेड! वह और बुझ जाता है. सामने कोरोनावायरस का बहु-शेयर्ड चित्र है. किसी गेंद से निकले ढेर सारे लम्बे काँटे. अरे! कमरे में एक हू-ब-हू ऐसी ही गेंद टँगी है. शोपीस! संसार की सबसे भयानक चीज़ें इतने सामान्य आकारों-आकृतियों की हो सकती हैं- वह सोचने लगता है. भयकारिता में भी ऐसी सामान्यता ! डर का इतना सहजरूपी होना!

वह अपने चेहरे को जब-तब शीशे में निहारने लगा है. पहले से कुछ वज़न गिरा है, चेहरा अब रोज़ शेव करना नहीं पड़ता. रूटीन के सारे काम अब बिना डेडलाइन के किये जाते हैं. लेकिन नौकरी पर लटकती तलवार! वह तो जैसे हर दिन लम्बी होती जा रही है! वह अपनी दोनों हथेलियों से चेहरे को टटोलता है. हॉर्सशू चेहरे पर? नहीं पर वह चमगादड़ तो नहीं है! रबिश!

पर विषाणु ने क्या दुनिया-भर को चमगादड़ों में नहीं बदल दिया? अथवा इंसानी पहचानों के पीछे छिपी चमगादड़ी वास्तविकता को सामने नहीं रख दिया? न जाने कितने ही लोगों के चेहरों पर ग़ुलामी के नालें गड़ी हैं, जो उन्हें इस महामारी से पहले दिखी नहीं थीं. वे उसी के सहारे परतन्त्र हुए उड़ते थे. बिना गिरे भरी गयी इन उड़ानों को ही वे अपना कौशल समझते हुए. जब-तब पकड़ लिये जाते थे, काट कर खा लिये जाते थे. महामारी का यह पैटर्न नया कहाँ है, यह तो पुराना है! हम-सब हॉर्स्शू-बैट ही तो हैं! कोरोनावायरस ने तो केवल हमारी पहचान को अधिक स्पष्ट ढंग से सामने रख दिया है! 

उसका जी मिचला रहा है. लगता है उल्टी आएगी. गले में हल्की खराश भी है. हैं! अरे! पर वह बाहर तो कहीं गया नहीं! अख़बार भी दो सप्ताह से बन्द है! बस सब्ज़ी-दूध के लिए रोज़ एक-बार बिल्डिंग के नीचे उतरता है! और कभी-कभार ऑर्डर! केवल इतने से! नहीं-नहीं! इतना वहमी नहीं होना चाहिए! 

सेलफ़ोन पर उसे जहाँ-तहाँ लॉकडाउन के प्रतिरोध की ख़बरें मिलती हैं. इडियट्स ! घरों में नहीं रह सकते ! चमगादड़ों की तरह यहाँ-वहाँ मँडरा रहे हैं ! देश के एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर सड़कों पर पैदल चलती मज़दूरों की भीड़. राशन के लिए दुकानों पर मारामारी. मुहल्लों में महामारी के लोगों की जाँच के लिए पहुँचे डॉक्टरों से मारपीट करते लोग. किसके चेहरे पर घोड़े की नाल नहीं गड़ी ? कौन ऐसी परिस्थितियों में स्वयं को पूरी तरह मनुष्य घोषित करने का दुस्साहस कर सकता है !

लगभग रोज़ ही उसकी मम्मी-पापा-बहन व उसके परिवार से बात होती रहती है.


“पापा आपको डायबिटीज़ है, उम्र भी साठ के ऊपर है. आपको बिल्कुल घर में ही रहना है. मम्मी को भी समझा दीजिएगा. मॉनिंगवॉक की अपनी आदत को इस समय ढील दीजिए ; कसरत के और भी तो तरीक़े हो सकते हैं न !”


“अरे बेटा , लेकिन राशन व सामान के लिए तो बाहर निकलना ही होता है न ! दवा भी घर बैठे आने से रही !” वे अपनी मजबूरी का हवाला देते हैं, वह चिढ़कर फ़ोन रख देता है. ये लोग कितने पिछड़े हुए हैं ! बिलकुल भी इंटरनेट-सैवी नहीं ! हद है !

लॉकडाउन ने इंटरनेट की दुनिया गुलज़ार कर रखी है. जो इंटरनेट जानते हैं, आराम से गुज़र-बसर कर ले रहे हैं. जो उससे खेल लेते हैं, वे और मज़े में हैं. लेकिन इस गुज़र-बसर-मज़े में भी वे गणितीयता से पिण्ड नहीं छुड़ा पाते. गणित सभी कम्प्यूटरीय रागों-द्वेषों का पैमाना है : इस गणिज्जाल के छिन्न-भिन्न होते ही वास्तविक संसार अपनी असहायता और असजता लिए सामने आ जाता है. 

रोज़ उसे अपने चेहरे में चमगादड़ीय वृद्धि मिलती है. बाहर के जगत् को न देखने के कारण उसकी आँखें छोटी हो रही हैं. देर तक जग कर दफ्तर का काम करने के कारण शक्ल पर घोड़े की नाल और गहरा गयी है. कान सदा बॉस के ईमेल-एलर्ट पर धरे हैं; खाली समय पर वह सूचनाओं के अन्तर्जाल में भटकता उड़ा करता है. संसार क्या है, चीन की वह भीड़भाड़-भरी वेट मार्केट ही तो है, जहाँ क़िस्म-क़िस्म के जानवर दैहिक-मानसिक विष्ठाओं को साझे ढंग से त्यागते-भोगते अपने काटने की बारी की प्रतीक्षा करने के लिए अभिशप्त हैं. खच्च ! एक और गया किसी लोलुप के पेट में!


"हेलो मामा! मेरी ऑनलाइन क्लासें चल रही हैं. बहुत पढ़ना पड़ता है आज-कल. मम्मी से पिटाई भी हो जाती है."

उसका नौ साल का भांजा फ़ोन पर बताता है. बचपन के लिए यह माहौल अजब चिड़चिड़ाहट लेकर आया है. बच्चों के विकास के लिए स्कूल व घर, दोनों की ज़रूरत है किन्तु एक-साथ नहीं. वे एक बार में एक ही परिवेश में पनप सकते हैं. अब जब स्कूल घर चला आया है और उनके बाहर घूमने-खेलने पर पाबन्दी लगी हुई है, तब उनकी तकलीफ़ तो बढ़नी ही है. 

कभी-कभी वह सोकर उठता है तो ख़्याल आता है कि शायद यह-सब एक स्वप्न ही है. कोई विषाणु नहीं फैला है, कोई महामारी नहीं आयी है. लॉकडाउन केवल मन का भरम है, एक बुरा सपना जो बीत चुका है. तभी मोटरसायकिल के लोन की क़िस्त में कटने का मेसेज गूँज उठता है और पिछले एक महीने से जड़ बना एकांउट का आँकड़ा सामने है. सैलरी नहीं मिलेगी, लीव-विदआउट पे चलेगी! वह खीझ उठता है बाहर उग आये सूरज पर! फिर एक बार! 

मानव क़ैद में है किन्तु प्रकृति उन्मुक्त महसूस कर रही है. लोग घरों में बन्द हैं, जानवर बाहर टहल रहे हैं. “मुम्बई के पास फ्लेमिंगो पक्षियों का मेला लगा है”, भाई कल ही फ़ोन पर बता रहा था. गंगा में डॉल्फ़िन तैर रही हैं, सागर-तटों पर कछुए अण्डे देने बड़ी तादाद में लौटे हैं. कुदरत के दीर्घकालिक घाव पूरे जा रहे हैं. कैसा मॉन्ट्रियल? कौन-सा क्योतोसारी योजनाएँ-परियोजनाएँ जो बनायी गयीं थीं, सभी नियमावलियाँ एवं मानक जो गढ़े गये थे, केवल छलने पर आमादा थे? इंसान की नीयत ही नहीं थी कि पृथ्वी की सेहत सचमुच सुधरे, वह केवल एक कम बीमार ग्रह चाहता था जो उससे देखभाल की कम-से-कम फरियाद करे. 

'न मरो, न मोटाओ'की कहावत उसके कानों में गूँजती है तो अपने एक मित्र की माँ याद आने लगती हैं. वह भी इसी शहर में है और सम्पर्क में भी. माँ को कई बीमारियाँ हैं, इलाज भी महँगा. ऐसे में वह पूरा इलाज नहीं कराता. सभी दवाइयाँ नहीं, सारी जाँचें नहीं. कहता है कि केवल उतना, जितने से अम्मा न मरें-न मोटाएँ. पृथ्वी और पार्थिव माँओं के प्रति लोगों का बर्ताव एक ही सिद्धान्त लिये है. न इनका जीवन हाय-मेन्टेन्स होना चाहिए, न बीमारी. सो इतने प्रयास ज़रूर करते रहो कि न बीमारी लायबिलिटी बने, न इलाज. बीच का रास्ता. न मरो-न मोटाओ. दुनिया तो इतने पर भी सन्तुष्टि से प्रशंसा करेगी ही कि कितना आदर्श पुत्र है ! बटोरो ब्राउनी !

उसे लगता है वह चिड़चिड़ा हो रहा है. उसकी गर्लफ्रेंड से जब भी फ़ोन पर बात होती है, आठ-या-दस वाक्यों के बाद दम तोड़ने लगती है. सरसता के लिए सामान्यता चाहिए, सामान्यता के लिए बाह्यता. जो बाहर नहीं जा पा रहा, वह कैसा सामान्य ? जो सामान्य नहीं, वह कैसे सरस हो ? रखो फ़ोन! हाँ-हाँ, ईवन आय डोंट वॉन्ट टू टॉक टू यू! हर समय कोरोना-कोरोना-कोरोना! इस लड़की के पास और कोई रोमैंटिक बात जैसे है ही नहीं!


"समस्या पर ऊ डेरात नाय बकी बतियात है"माँ फ़ोन पर कहती हैं. "तुहँसे चर्चा न करै तौ केहसे करै ? जबसे ई बीमारी वाला बवाल भवा, यहर कब्भौ मिल्यो ?" 

"कैसे मिलना हो माँ! गया था एक दिन, पुलिस से डण्डे भी पड़े, मुर्गा भी बनना पड़ा! वापस! फिर भी उसमें कोई सिम्पैथी नहीं!"

वह किलसन के साथ कहता है. माँ उसके बदलते स्वभाव से चिन्तित हैं.

“ब्यवसाय और ब्यौहार जब दूनौं बीमार पडैं, तौ मनई पहिले आपन व्यवहार सम्भालै, भैया. ब्यौहार बचि गा, त ब्यवसाय लौटि आयी. पर जौ ब्यौहार नायँ बचा, तब ब्यवसाय पायौ जाय पर इंसान कस उबरी "

"आप-लोग बहुत ओल्ड-स्कूल हैं माँ ! हमारे टाइम में व्यवहार उसी से होता है, जिसे व्यवसाय होता है किसी क़िस्म का. जो काम का, उसी से रिश्ते. बेकाम-नाकाम से हमारी पीढ़ी न जुड़ती है, न उन्हें जोड़ती है. सैलरी आये पहले तो ... न जाने यह कम्बख़्त वायरस कहाँ से आ गया !"

उसने अब-तक भय को अचानक ही जाना था. कोई भी घटना या वस्तु उसे तभी डराती है, जब वह अपने संग क्षण-भर में प्रकट होने का भाव लाती है. किन्तु पहली बार वह धीमेपन से डर रहा है, मानो कोई रसायन हो जो हाथों की रगों में धीरे-धीरे रिस रहा हो. हाथ ! अभी कितने दिन ही हुए जब उसने अपनी गर्लफ्रेंड के हथेली को सहलाते हुए किसी कवि की पंक्तियाँ टूट-फूट के संग सुनायी थीं. "उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैं सोच रहा था ... कि इस दुनिया को तुम्हारे ... हाथ की तरह सुन्दर और गर्म होना चाहिए."वह सुख से चौंक उठी थी , "वाओ ! कितनी सुन्दर लाइनें ! कहाँ से टीपीं ?"देर तक वह सर्जना का दावा करता रहा था किन्तु जब उसने मानने से बार-बार इनकार दिया, तब सच किसी अधपचे भोजन की तरह मुँह से बाहर आ गिरा. "कोई केदारनाथ सिंह हैं. हिन्दी के कवि."

आज-कल उसे अपने हाथ ठण्डे महसूस होते. ऋतु के प्रभाव के कारण नहीं, यह महीना तो अप्रैल का है. यह गिरता तापमान अकेलेपन के कारण है. समाजहीन व्यक्ति की ठण्डक का कोई सानी नहीं- न कोई ऋतु, न कोई ऊँचाई. सर्वाधिक अकेला आदमी मरने के बाद होता है, लेकिन जब वह मृत्यु से बचने के उपाय करता है, तभी से यह मारक जाड़ा उसकी हड्डियों में घुसने लगता है. दुनिया उसकी गर्लफ्रेंड का हाथ कभी थी, आज नहीं है. आज तो हाथ दुनिया की तरह ठण्डे और मृतप्राय हैं, उनपर ग्लव्स के कफ़न डाल दिये गये हैं.

पिताजी उसे प्राणयाम की सलाह देते हैं. मेडिटेशन इस समय घर-बैठे उपचार है, जब बीमारी से ज़्यादा उसका ख़ौफ़ तुम्हें सताता हो. ह्वाट रबिश पापा! ये-सब बाबा-वाबा टाइप काम करना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाना है. शिकारी को न देखने से क्या उसका ख़तरा कम हो जाता है! नहीं डैड! देखता हूँ कुछ!

सूचनाओं की क्रान्ति चारों ओर से आँकड़ों के कौर से खिला रही है. घर का राशन चाहे ख़त्म होने लगे, सूचनाएँ ख़त्म नहीं हो रहीं. वैज्ञानिक तथ्य, राजनीतिक घोषणाएँ, वायदे, भविष्यवाणियाँ- सभी का दौर जारी है. विषाणु हवा में कितनी देर सक्रिय रहता है, सीवर में कितनी देर. कैसे मनुष्य-मनुष्य में फैलता है, किस तरह से आदमी की साँसें थकते-थकते धीरे-धीरे हार मानती जाती हैं. ज्योतिषी हैं कि उच्च के सूर्य से आशा लगाये हैं, महाशक्ति के राष्ट्रपति गठिया-रोग की किसी अज्ञात दवाई से. कोई गरमी से वायरस के हारने की बात कर रहा है, कोई गर्म पानी पीकर उसे छू कर रहा हैतो कोई टीके की बेचैन ताक में है. सारे टोने-टोटके, भस्म-भभूत, असिद्ध-अपुष्ट उपाय उसके एंड्रॉयड फ़ोन पर लगातार चमक रहे हैं. 

बीतते दिनों के साथ उसमें ढेरों जन्म हुए हैं, अनेक मौतें भी. उसके भीतर का मनुष्य क्षीण हो रहा है, चमगादड़ नित्य फड़फड़ा रहा है. जीवन की डोर पर वह उलटा लटका है अपने सूचना-फल को कुतरता हुआ. सारी दुनिया का उलटा बोध पाता हुआ. क्या विचित्र जीव ! फल जो सीधे उगता है, उसे चमगादड़ उलटा खाता है ! लेकिन फिर सीधी सूचनाओं को उलटे बिना खाया भी तो नहीं जा सकता न ! चमगादड़ होने का अभिशाप है यह !

यूट्यूब पर वह कोई गाना सुने? या फिर किसी साहित्यकार की कविताओं में डूब जाए? फ़िल्म-तारिकाओं के सुन्दर चित्र स्क्रॉल करे? या फिर दाढ़ी बढ़ाने का, गंजे होने का, खाना बनाने का, कसरत करने का, नाचने का या डीपी बदलने का चैलेन्ज ख़ुद को और अपनी फ़ेसबुक-लिस्ट को दे डाले! नहीं-नहीं-नहीं! इन-सब से सूचनाओं के फल उगना बन्द नहीं होंगे! फल उगेंगे तो चमगादड़ खाएगा ही ! इस काम के लिए वह पहले उलट कर थिरेगा! सूचना का विपरीत सेवन! यह रुकने वाला नहीं!

वह भूखा है, खाने के सामान के लिए नीचे जा सकता है. ऑर्डर दे सकता है, मँगा सकता है.  नीचे सब्ज़ी-दूध-फल लेने वह उतरता है, तब मास्क और ग्लव्स चढ़ाकर. ऊपर आकर उन्हें सावधानी से उतारता है. उन्हें धूप में डालता है. फिर हाथ-मुँह धोता है. भूख अपने लिए भोजन चाहती है, अकेलापन साहचर्य. नाक और मुँह इस वैषाण्विक दौर के नवीन गुप्तांग हैं : इन्हें यथासम्भव गुह्य-गोपन रखकर ही मनुष्य को बरतना है. अन्यथा संक्रामक अश्लीलता मनुष्य के जीवन को संकट में डाल सकती है. यह स्पर्श के संकट का दौर है, जिसमें स्पर्श-संवेदनशील पर सर्वाधिक पहरा है. होठ और उँगलियाँ परिधानों की परतन्त्र हैं, उनकी स्वच्छन्दता दण्डनीय. साहचर्य के लिए मौजूद सभी पौने आठ बिलियन साथी एंड्रॉयड में रहा करते हैं : वह उसमें बार-बार बदहवासी-भरी आवाजाही करता है.

पिछली तीन रातों से उसे नींद नहीं आ रही. सेलफ़ोन स्क्रॉल करते-करते उसी में गिर जाता है ; पता ही नहीं चलता कि जाग रहा है अथवा नींद में है. तभी चिचियाने की आवाज़ से लगता है कि बालकनी में कोई मौजूद है. वह उठता है और उधर की ओर बढ़ता है. पिंजरे में बन्द चमगादड़ फड़फड़ा रहा है. काली देह, पैनी नन्ही आंखें. कभी वह पिंजरे में उलटा लटक कर सन्तुलन बनाने लगता है, तो कभी धप्प से नीच गिर पड़ता है. वहीं अधत्यागा मल पड़ा है, वहीं अधखाया फल. न जाने इसकी क़ैद की अन्तिम गति क्या होगी !

पिंजरे के पहुँच कर वह ठिठक जाता है. चमगादड़ ने टकरा-टकरा कर अन्ततः पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया है. एक झटके में वह उसकी उँगली से आकर चिपक जाता है! नहीं! किन्तु ग्लव्स-चढ़े हाथों पर उसके नन्हे नुकीले दाँत महसूस नहीं होते. वह झटकता है और काले मांस का वह छोटा सा लोथड़ा खिड़की से बाहर उड़ जाता है. 

उसे लगता है वह संक्रमित हो गया है. लेकिन चमगादड़ के काटने से तो यह रोग फैलता नहीं न ! वह तेज़ी से रबड़ के दस्तानों को हटाकर अपनी उँगलियों को देखता-टटोलता है. कोई ज़ख्म नहीं, न खून की कोई बूँद. मास्क के नीचे उसकी साँसें उखड़ती जान पड़ती हैं, धड़कन बिना रुके दौड़ रही हैं. क्या पता ! जितना ये वैज्ञानिक बताते हैं, सत्य उतना ही थोड़े है ! नीचे गिरे दस्तानों को वह उठाता है, रबर के आकार को टटोलता-झाड़ता है. एक सफ़ेद स्टिकर उसके भीतर चिपका पड़ा है, जिसमें तीन शब्द लिखे हैं: लीव विदाउट पे !

वह चौंक कर उठ बैठता है : रात नहीं दोपहर है. पूरा शरीर काँप रहा है, लगता है बुखार है. पानी? नहीं, आज वह रखना भूल गया. दुबारा उँगलियों को टटोलता है, चेहरे को भी. सब कुछ तो सामान्य है, क्या नहीं है. प्यास लगी है, वह अपने पैरों को जबरन फ़र्श पर टिकाता है. वे काँप रहे हैं, जिस्म का वज़न नहीं ले रहे. वह भारी क़दमों के साथ आगे बढ़ता है. फ्रिज खोलता है, वहीं से झुककर बालकनी की ओर देखता है. तोता वहीं अपने बदन को निश्चल किये बैठा है. उसे सन्देह होता है, वह पानी की बोतल निकालकर उसकी ओर बढ़ता है. परिन्दे का बदन अपने पंख हल्के से खोल कर सन्तुलन बनाता है. एक निश्चिन्तता-भरी गहरी साँस भीतर आती है और उसके सिकुड़े फेफड़े खोल जाती है. 

पिंजड़े एकदम साफ-सुथरा है. परिन्दा भी हरा-भरा. वह अपनी उँगली उसकी ओर बढ़ाता है, जैसे लॉकडाउन के पहले अक्सर लाड़ में बढ़ाया करता था. तोता उसकी तर्जनी पर अपनी चोंच का पैनापन धर देता है. कोई गड़न नहीं, न कोई चुभन. मनुष्य को पिछले इक्कीस दिनों में मिला यह पहला जीवन-स्पर्श है.

उसकी आँखों में कृतज्ञता तैर रही है. लॉकडाउनों में क़ैद दो जीवन आपस में संवाद-रत हैं. यह स्थिति लम्बी चल सकती है. शायद अगले महीने भी. उसके बाद भी स्थिति सामान्य शायद न हो सके. सामान्यताएँ जितनी आसानी से जाती हैं, उतनी आसानी से लौटतीं नहीं. उन्हें उपजाने व पनपाने में बहुत समय और बड़ी कोशिशें लगती हैं. वह बालकनी से नीचे झाँकता है, तो नज़रें फ़र्श पर गड़ी लाल टाइलों से टकराती हैं. काफ़ी ऊँचाई है ! वह अपनी उँगली खींच लेता है और पिंजरे का दरवाज़ा खोल देता है. पीछे हटता है और तोते की गतिविधि देखता है.

परिन्दा सावधानी से इधर-उधर-ऊपर-नीचे गर्दन मटकता बाहर निकलता है. आहिस्ता से उचक कर बालकनी के किनारे जा बैठता है. लड़खड़ाता है, फिर सन्तुलन बनाता है. अबकी वह उड़ता है और छज्जे पर जा बैठता है. वहाँ बैठकर पंख फड़फड़ाता है और अबकी बार सामने के पेड़ पर. लगता है पक्षी का लॉकडाउन बीत चुका है. उसके मन में एक चैन की साँस चलने लगती है कि तभी अगले पल कानों में चीख गूँजा जाती है. हरे पंखदार जिस्म को बाहर मैदान में कुत्ते नोच रहे हैं. 

उसके पैर उसका भार छोड़ देते हैं, वह ज़मीन पर आ धपकता है.  तेज़ चलती साँसें सिसकियों में बदलती हैं, सिसकियाँ फफकियों में. अबकी बार वह रुकता नहीं है.
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shuklaskand@yahoo.co.in

प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ

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प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लि‍खते हैं. उनकी लि‍खी बच्‍चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्‍चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्‍था 'रूम टू रीड'द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता और शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ भी करते हैं. फ्रीलांसर हैं.  

प्रमोद पाठक संयम और सौन्दर्य के कवि हैं. इन कविताओं का स्वर मंद्र है मनुष्यता की सुगंध से भीगा हुआ. प्रमोद ने कुछ याद रह जाने वाली प्रेम कविताएँ लिखीं हैं.

साथ में प्रसिद्ध कलाकार-चित्रकार सीरज सक्सेना के नये रेखांकन भी प्रकाशित किये जा रहें हैं. 








प्रमोद पाठक की कुछ नई कविताएँ        



आज जब हम संकट से घिरे हैं
पेड़ पहाड़ों की मुस्‍कुराहट हैं 
नदियाँ समन्‍दर की प्रेमिकाएँ 
हम नदियों के रास्‍तों में आए 
पहाड़ो से छीन ली मुस्‍कान
तितलियों ने बस फूलों को चुना 
वे खुद को भी उड़ता हुआ फूल ही समझती हैं 
मगर वे अक्‍सर हमारी अधूरी हसरत रहीं  
नहीं मिलने पर कुचल दी गईं 
कुत्‍तों ने आधी रोटी के बदले हमें दोस्‍त समझा 
और कभी पलट कर नहीं पूछा कि हम उन्‍हें क्‍या समझते हैं
बिल्लियाँ आती रहीं दबे पाँव हाल-चाल जानने 
हमने उनके मुँह पर दरवाजे खिड़कियाँ बंद किए 
  
आज जब हम संकट से घिरे हैं 
पहाड़ नदियाँ फूल तितलियाँ सब चले आए हैं अपनों की तरह हमारे नजदीक 
कुत्‍ते मुँह उठाकर आसमान से प्रार्थना कर रहे हैं

बिल्लियों ने भूला दिए हैं अपने सारे अपमान. 






रंगों की अपनी आवाज़ होती है 
वह आवाज़ कानों तक नहीं सपनों तक पहुँचती है
धरती के पास इतने रंग हैं
पक्षियों के पशुओं के मछलियों के कीट पतंगों के
समंदर मरुस्थल पहाड़ों के 
नदियों मैदानों के 
फ़सलों के जंगलों के 
धरती को सुनने के लिए हमें एक विशाल सपना चाहिए.



चीख
सुनो! बचा लो
बचा सको तो बचा लो
सब पर बाढ़ की तरह
फिर रहा है समय
अरे! कोई तो सुनो !
गर्दन से ऊपर तक
चढ़ आया है यह
कहीं तो कोई
हाथ बढ़ाओ

मेरी दीवार से
अंडे ले
गुजर रही चींटियो
कोई और नहीं
तो तुम ही सुनो
मैं कितनी धीमी
आवाज में पुकारूँ
कि सुन सकें तुम्हारे अदृश्‍य कान
मेरी चीख
मुझे भी
सुरक्षित कर दो
अपने अंडों की तरह.


  
मुझे याद करना 
जब सब खत्‍म हो रहा हो  
और सबसे निरुपाय महसूस करो 
मुझे याद करना 
मैं तुम्‍हारी हथेली पर मोती बन आ बैठूँगा 
जिसे तुम अपनी आँखों के कोरों पर लगा लेना 
फिर कलेजे तक उसकी ठंडक महसूस होने लगेगी  

भरी दुपहरी 
जब बुक्‍का फाड़ कर रोने को जी चाहे 
और गला रुँधा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हारे कंधे पर एक मानवीय रूई की गर्माहट 
महसूस होगी 
जिसके कोयों को तुम गर्मी की लू में उड़ा देना 
वे शाम तक आसमान में बादलों की शक्‍ल ले बरसने लगेंगे 

जब आस-पास बहुत भीड़ हो 
फिर भी इस दुनिया में सबसे अकेला महसूस हो रहा हो 
मुझे याद करना 
तुम्‍हें आसमान का सबसे दूर का सितारा भी अपने दिल जितना करीब महसूस होने लगेगा
और उसकी चमक से तुम्‍हारा मन रोशनी सा दमकने लगेगा 



धरती माँ की तरह आती है सपनों में 
पीछे से आकर आँखों पर हाथ रख दूँगा  
और खिंचे चले आएँगे तुम्‍हारे सब दुख
फिर उन्‍हें छोड़ आऊँगा पेड़ों के पत्‍तों पर 
जहाँ ओस बनकर टपकते रहेंगे भोर तक 
इस तरह धरती तक पहुँच सकेंगे तुम्‍हारे दुख 

जब चीजें मनुष्‍य के वश के बाहर हो जाती हैं 
तब धरती की जरूरत पड़ती है उसे 
और धरती अपनी उदात्‍तता में माँ की तरह आती है सपनों में 
अपनी सारी बाहें फैलाए  






वो रंग
होली की रात
चाँद उतरा
ऐन बाखर के नीम के पार
फिर लटक कर झूला
उसकी सबसे ऊँची डाल से
पास ही एक मोर बैठा था
बहुत शर्माया सा
बहुत से रंग लेकर आया साथ
चाँद कुछ मूड में था

रंगों के उस खेल में
फिर खूब रँगा मोर को
मोर ने फिर चाँद को
उस दिन ऐसी यारी हुई
कि मोर ने बनवा लिए चाँद अपने पंखों पर
और चाँद ने गुदवा लिया मोर
अपने ही गाल पर

वो रंग ऐसा चढ़ा कि
अब छूटता नहीं
हर पूनम को याद कर होली
चाँद निकल पड़ता है नहाने समंदर की ओर
और मल मलकर ऐसा नहाना शुरू करता है
कि खुद ही घिसता जाता है
और बारिशों में हर बादल को देख
मोर पुकार पुकार कर कहता है
मेह आओ मेह आओ
मेरा रंग छुड़ाओ
मगर वो रंग है कि
अब छूटता ही नहीं






दोस्तियाँ और रिश्ते जो हमने चुने
ये उष्ण स्पर्श, आलिंगन और चुम्बन
हमने गढ़े हैं लुहार बनकर गर्म लोहे की तरह
ये उत्सव से रतजगे और उनकी टूटने की हद तक की भावुकता
हमने सजाए हैं अपने लिए
ये मनुष्यता और सुन्दरता से छलकते दोस्तियों और रिश्तों के जाम
किसी कोख से जन्म लेने के कारण नहीं बने
इन्हें हमने ही तैयार किया है अपने पीकर मदहोश हो जाने के लिए
रुखसत होते वक्त हम ही छोड़ आते हैं अपने अपने दिल दोस्तों के कन्धों पर
और लटका लाते हैं उनके अपने साथ अमलतास के पीले गुच्छे बनाकर
अपने टूटकर गिर जाने के लिए
सितारों की तरह खुद ही चुना है रात का आसमान

अब इनसे बचकर जाएँ भी तो क्यों जब इतना सब कुछ है यहाँ 



समंदर के सपनों में चाँद
इतनी दूर से चलकर आई हो
मेरी नींद में

आओ बैठो
छुअन के इस गुलमोहर के नीचे
तुम्हारे लिए सपनों की दरी बिछाई है
जूड़े की पिन ढीली करो
और जरा आराम से बैठो

ऐसा लग रहा है
जैसे आज समंदर के सपनों में
चाँद उससे मिलने आया है





दृश्‍य
धीमे धीमे बहती हवा
कुर्ते में एक लहर बना रही है
उस काई रंग के कुर्ते में
वो एक सरोवर लग रही है

वह देखो पास ही खड़ा कोई
जामुन के पेड़ सा उस पर झुका जाता है

उनके बदन के हरे बाँसों से
एक अद्भुत चमक उठ रही है
जिससे यह जगह
जंगल की तरह रोशन हो गई है



तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर
तुम बैठो कुर्सी पर आराम से टेक लगाकर
मैं बैठूँ पैरों के पास
और अपना सिर तुम्‍हारे घुटनों पर रख लूँ

तुम्‍हारे घुटने जिस रोशनी से चमकते हैं

मैं उस तिलिस्‍म को चूम लूँ
मैं उन पाँवों को चूम लूँ
जिन पर तुम्‍हारी यह प्‍यारी ताम्‍बई देह थमी है

लाख के लाल कनफूल और हरा कुर्ता पहने
तुम मुझ पर झुको गुलमोहर बनकर
और मैं एक बच्‍चे की तरह उचक कर तुम्‍हारे फूलों को चूम लूँ
_______________________

कलाकार, कवि,गद्यकार सीरज सक्सेना (३० जनवरी १९७४, मध्य-प्रदेश) सिरेमिक, वस्त्र, पेंटिंग, लकड़ी और ग्राफिक कला जैसे विभिन्न माध्यमों में २२ वर्षों से सक्रिय हैं. उन्होंने इंदौर स्कूल ऑफ आर्ट्स से कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की है. अभी तक उन्होंने भारत और विदेशों में 26 एकल प्रदर्शनियों और 180 से अधिक समूह प्रदर्शनियों में भाग लिया है. उन्होंने देश विदेश में कई स्थानों पर आर्ट इंस्टालेशन किये हैं इनमें साई, पीटीआई, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय नई दिल्ली और अर्बोटेम बॉटनिकल गार्डन पोलैंड शामिल हैं. पिछले सात सालों से वन वेलनेस रिट्रीट, देहरादून से एक कलाकार के रूप में जुड़े हुए हैं. उन्होंने वन के लिए 300 से अधिक कलाकृतियां बनायी हैं. आकाश एक ताल है,सिमट सिमट जल और कला की जगहें उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं.
समालोचन का लोगो भी सीरज सक्सेना द्वारा ही बनाया गया है. 
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pathak.pramod@gmail.com

siirajsaxena@gmail.com 

शायद कि याद भूलने वाले ने फिर किया : पंकज पराशर

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शायद कि याद भूलने वाले ने फिर किया       
(चंद तवाइफ़ों की दास्तान-ए-ज़िंदगी)
पंकज पराशर


हालाँकि इस मज़मून में मैं बात तो सीधे ज़ोहराबाई आगरेवाली की ज़िंदगी से शुरू करना चाहता था, लेकिन शुरुआत चूँकि मैंने एक हालाँकिसे की है, तो बराए-मेहबरबानी दास्तान-ए-ज़ोहराबाई से पहले ज़रा सब्र करके इस हालाँकिका क़िस्सा थोड़ा सुन लीजै. उसके बाद हम ज़ोहराबाई के वक़्ती और समाजी हालात के मुताल्लिक भी कुछ-न-कुछ सुनाए बग़ैर थोड़ी मानेंगे!जैसे पुराने लखनऊ में वाज़िद अली शाह इंदर सभाशुरू करने से पहले माहौल बनाते थे, पारसी थियेटर वाले आगा हश्र कश्मीरी या नारायण प्रसाद बेताबके नाटक की शुरुआत सामूहिक मंगलाचरण से करते थे, हालाँकि मंगलाचरण से पहले ही वे दिलकश मौसिकी से समाँ बाँध देते थे. उसी तरह 18 दिसंबर, 1887 को सारण के कुतुबपुर दियारा में दलसिंगार ठाकुर के घर जन्मे भिखारी ठाकुर जब बिदेसिया, बेटी-बेचवाऔर गबरघिचोरखेलने जाते थे, तो नाच शुरू करने से पहले ही लहराबजाकर दर्शकों में जबर्दस्त फुरफुरी पैदा कर देते थे!

बहरहाल, क़िस्सा-ए-ज़ोहराबाई से पहले हमारे-आपके बीच जब यह कमबख़्त हालाँकिआ ही गया है, तो मेरे ख़्याल से कुछ और हालाँकियोंपर भी एक नज़र डालते हुए चलना ग़ैर-मुनासिब न होगा!हिंदुस्तान की तारीख़ को जब आप ज़रा ग़ौर से देखेंगे, तो पाएँगे कि तारीख़ में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं, जहाँ असली क़िस्से के बराबर इन हालाँकियोंने अहम किरदार अदा किया है. कभी-कभी तो हिंदुस्तान की तारीख़ को बदल देने की हैसियत का एहसास कराया है. 23 जून, 1757 को बंगाल के नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे 'पलाशी'(पलासी या प्लासी नहीं, क्योंकि पलाश के पेड़ों के सघन वन वाला इलाका होने के कारण इस जगह को पलाशी कहा जाता था)की लड़ाई हुई थी, तो लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया, हालाँकिसिराजुदौला के पास अठारह हजार सिपाही थे और अँगरेजों के पास महज तीन सौ सिपाहियों की सेना!

ज़ोहराबाई के बारे में सोचते हुए मुझे अपने ज़माने की मशहूर तवायफ़ बड़ी मलका जानकी साहिबज़ादी गौहर जान और शहर इलाबाद से पटना तशरीफ़ लेकर आई बाई जीअल्लाजिलाई की याद भी बारहा आई. जो मौसिकी आज इंटरनेट की मेहरबानी से यू-ट्यूबऔर अन्य जगहों पर उपलब्ध है, उसका विकास किन-किन दुश्वारियों, किन लोगों की ज़िद और जुनून की वज़ह से मुमकिन हो पाया, यह जानना भी बेहद दिलचस्प है!हम सब जानते हैं कि दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे विकसित हुई और नदियों की वज़ह से ही सैकड़ों साल तक उनका वज़ूद बना रहा. दुनिया की कोई भी पुरानी से पुरानी सभ्यता हो, मसलन वह चाहे सिंधु, गंगा, दजला-फरात, नील या ह्वांगहो की हो, वे नदियों की घाटियों में ही पनपी और विकसित हुई. शहर दरभंगा बागमती नदी के किनारे बसा हुआ एक ऐसा शहर है, जो इतिहास में मधुबनी पेंटिंग के साथ-साथ कला-संस्कृति के केंद्र के रूप में मशहूर रहा है. दरभंगा राजघराने में संगीत और नृत्य के एक-से-एक कद्रदान हुए. सन् 1700 ईस्वी में जब दरभंगा रियासत की राजगद्दी पर राजा राघव सिंह आसीन हुए, तो दरभंगा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक बड़े केंद्र के रूप में उभर कर सामने आया और उनके बाद आए शासकों के समय में भी यह निरंतरता बनी रही. महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह और उनके निधन के बाद राजा बने उनके अनुज रामेश्वर सिंह भी अपने ज़माने में भारतीय संगीत के बड़े कद्रदान माने जाते थे. 

कलाकारों को इनाम-इकराम देने और अपनी दरियादिली के लिए वे भारत भर में प्रसिद्ध थे. उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, गौहर जान, रामचतुर मल्लिक, रामेश्वर पाठक और सियाराम तिवारी जैसे चर्चित संगीतज्ञ इस राजघराने से जुड़े रहे. 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराँव में जन्मे कमरुद्दीन उर्फ भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की ज़िंदगी का एक तवील अरसा दरभंगा में बीता. बाद में बनारस को उन्होंने अपना पक्का ठिकाना बना लिया. शहनाई में बिस्मिल्ला खाँ ने इतना नाम पैदा किया कि उन्हें भारत की आज़ादी के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने शहनाई बजाने का अवसर मिला और सन् 1997 में आज़ादी के पचास साल पूरे होने के अवसर पर भी संसद भवन में बजाने सम्मान मिला. उनके ख़ानदान में उनके परदादा हुसैन बख़्श खाँ, दादा रसूल बख़्श खाँ, चाचा ग़ाजी बख़्श खाँ और पिता पैगंबर बख़्श खाँ भी अपने ज़माने के नामी शहनाई वादक थे, लेकिन बिस्मिल्ला खाँ जैसी शोहरत इनमें से किसी को नहीं मिली. उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ भी अपने वाद्य में मुरकी, खटका, मींड आदि ला सकने की अपनी सामर्थ्य का श्रेय तत्कालीन दो बनारसी गायिकाओं रसूलनबाई और बतूलन बाई को देते थे.[1]



रसूलन बाई
बात जब रसूलन बाई की निकल ही आई है, तो ज़रा उनकी भी मौसिकी से मोहब्बत की रूदाद भी सुन लीजै. रसूलन बाई का तआल्लुक बनारस के बेहद ग़रीब घराने से था. उनके पास अगर कोई दौलत थी, तो वह थी अपनी माँ से मिली हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विरासत. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का जो ज़रा भी जानकार होगा, वह रसूलन बाई की ठुमरी सुनकर यह सोचने पर मज़बूर हो जाएगा कि रसूलन ठुमरी को गाती थी या ठुमरी ख़ुद ही ख़ुदा की नेमत की तरह उनके गले में उतरती थी, यह पता करना ज़रा मुश्किल था. आज़ादी मिलने के साथ जब देश का बँटवारा हुआ और लोग इंसान से ज़्यादा हिंदू-मुसलमान हो गए, तो आम लोगों के सामने इस पार हिंदुस्तान या उस पार पाकिस्तान चले जाने का मसला आया. शहर बनारस से भी बहुत सारे लोग पाकिस्तान जाने लगे, तो मलका-ए-ठुमरी रसूलन बाई के शौहर सुलेमान मियाँ भी पाकिस्तान जाने के लिए नीयत और सामान दोनों बाँधने लगे. रसूलन के मियाँ सुलेमान को नये मुल्क पाकिस्तान के आकर्षण ने अपनी तरफ़ खींच लिया था, जबकि रसूलन बाई को नये बने पाकिस्तान से ज़्यादा पुराने बनारस से लगाव था. 

रसूलन बी ने सुलेमान मियाँ को समझाने कि बारहा कोशिशें की. नये मुल्क में वहाँ हमारा कौन इस्तकबाल करने को बैठा है?न घर, न घाट, न वहाँ कोई जान-पहचान, जबकि बनारस हमारा अपना आबा-ए-वतन है! वहाँ पाकिस्तान में हमारा क्या है?पर चूँकि सुलेमान मियाँ सफर के लिए नीयत और सामान बाँध चुके थे, लिहाजा उनके ऊपर रसूलन बाई की दलाएल का कोई असर न हुआ. वे न माने. वे नहीं माने तो रसूलन भी नहीं मानी. रसूलन ने अपने शौहर सुलेमान मियाँ के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार दिया और बनारस में अकेले ही रहना तय किया. रसूलन के इस फ़ैसले से सुलेमान मियाँ को बड़ा झटका लगा, मगर मर्द की अना भी तो कोई चीज़ है. जब औरतें अपने मियाँ के हुक्म की गुलाम हुआ करती थी, तब रसूलन बाई इतनी ख़ुदमुख़्तार भला कैसे हो सकती थीं कि वह मियाँ की हुक़्मउदूली करे? नतीज़ा यह हुआ कि अपनी शरीक़-ए-हयात रसूलन बी को बनारस में ही छोड़कर सुलेमान मियाँ अकेले ही पाकिस्तान के लिए निकल गए. इधर रसलून बी ने तो फैसला कर ही लिया था कि वह हिंदुस्तान में रहेंगी, तो बनारस में ही रहीं. लेकिन यह जानना बेहद तक़लीफदेह है कि जिस बनारस के लिए रसूलन बाई ने अपने मियाँ सुलेमान तक को छोड़ दिया, उस शहर बनारस ने उनकी कोई कद़र नहीं की. मान-सम्मान देना तो दूर, उन्हें दो वक़्त की रोटी के लिए भी काफी जिल्लत उठानी पड़ी.  

आज़ादी के बाद हिंदुस्तान में सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का तेज़ कुछ इस कदर जाग्रत हुआ कि पहले तो लोगों ने बनारस की तवाइफ़ों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया कि इनकी उपस्थिति से बनारस की शुचिता और पवित्रता को ख़तरा है. फिर उसके बाद शहर बनारस में उनकी मौज़ूदगी पर ही सवाल उठाने लगे. उनके डर से मौसिकी के कद्रदानों ने कोठों की ओर रुख करना छोड़ दिया. फिर तो ग़ुरबत और मुफ़लिसी की वो शाम आयी, जिसकी फिर कभी सुबह हुई ही नहीं!बनारस के लोगों ने जब जीना मुहाल कर दिया, तो रसूलन बी इलाहाबाद की ओर निकल गईं. नौबत ये आ गई कि दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए मलका-ए-ठुमरी रसूलन बाई अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में शहर इलाहाबाद के फुटपाथ पर कुछकुछ बेचा करती थीं. अब ये तो ख़ुदा ही जाने कि वे इलाहाबाद की सड़कों पर अपने टूटे-बिखरे ख़्वाबों के किरचें देखा करती थीं या अपने अधूरे अरमानों को बाँचा करती थीं! आकाशवाणी इलाहाबाद उनकी गायी हुई ठुमरियों को बजाता तो मुसलसल था, लेकिन उसी आकाशवाणी इलाहाबाद की सड़कों पर बेघर-बेसहारा फिरतीं हुई रसूलन बाई के हालात से बेख़बर था. आकाशवाणी से जब रसूलन बी जब अपने नाम के साथ बाईका तख़ल्लुस सुनतीं, तो उनका दर्द आख़िरकार छलक ही आता, बाकी सब बाई तो देवी बन गई, एक मैं ही बाई रह गई!’ 

रसूलन बाई की एक यादगार ठुमरी है, ‘लागत करेजवा में चोट, फूल गेंदवा ना मारो’. घायल हृदय का वास्ता देकर, इज़हार-ए-मुहब्बत के नाज़ुक एहसास की उम्मीद जताने वाली इस ठुमरी का एक हर्फ़ वक़्त के साथ बदल दिया गया. फूल गेंदवा ना मारो, लागत जोबनवां में चोटलफ़्ज़ में ये बदलाव उन हालात पर सांकेतिक कटाक्ष है, जिनके तहत रसूलन बाई को ग़ुरबत की ज़िंदगी गुजारनी पड़ी. 

लोगों की तारीफ़, वाह-वाह और एक और...एक औरगीत की फरमाइश सुनने की आदी रसूलन बाई को बदलते हिंदुस्तान की संगदिली और बेशर्मी ने बुरी तरह तोड़ दिया.[2]जो नाज़ुकमिज़ाज दिल महफ़िल में बैठे लोगों के टेढ़े बोल निकल जाने से भी घायल हो जाते थे, उस दिल को इतने पत्थरों के चोट सहने पड़ेंगे, ये पाकिस्तान न जाने का फैसला करते हुए न तो रसूलन बाई ने कभी सोचा होगा, न रसूलन की ठुमरी के असल कद्रदानों ने.

 
गौहर जान
सन् 1880 से 1898 तक लक्ष्मीश्वर सिंह दरभंगा नरेश थे. बताते चलें कि ये वही महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह हैं, जो सन् 1885 में काँग्रेस की स्थापना के समय उसकी पहली बैठक में मौज़ूद थे. इसके बाद कलकत्ते में हुए काँग्रेस के द्वितीय अधिवेशन का पूरा खर्च (2500 रूपये) उन्होंने ही दिया था. सन् 1892 में अँगरेजी हुकूमत की जब भवें ज़रा टेढ़ी हो जाने के कारण काँग्रेस को इलाहाबाद में अधिवेशन करने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिल रही थी, तो लक्ष्मीश्वर सिंह ने एक अँगरेज हाकिम का पूरा लोथर हाउसही ख़रीद कर दे दिया था.[3] 

इन्हीं महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के राजमहल लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में सन् 1887 में जब बड़ी मलका जानकी साहिबज़ादी गौहर जान ने महज चौदह बरस की उम्र में गाना पेश किया था. राज दरभंगा के लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में मौज़ूद तमाम लोग गौहर की गायकी के कायल हो गए. गौहर का जब गायन समाप्त हुआ, तो राजदबार से जुड़े तमाम गायक, वादक और संगीत के रसिया घंटों वाह-वाह करते रहे. गौहर जान को दरभंगा शहर इतना पसंद आया कि वह बाक़ायदा दरभंगा राज से जुड़ गईं. उसके बाद कुछ वर्षों तक वह इस शहर में रहीं. लक्ष्मीश्वर सिंह जब तक जीवित रहे, दरभंगा राज से गौहर जान सीधे तौर पर जुड़ी रहीं. अपने 56 बरस के जीवन काल में गौहर तीन राजदरबारों से जुड़ीं-दरभंगा राजदरबार से, कलकत्ता के मटियाबुर्ज में निर्वासित जीवन जी रहे अवध के नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से और जीवन के अंत में मैसूर के राजा कृष्ण राजा वडियार-(चतुर्थ) के राजदरबार से. हिंदुस्तान के भद्र समाज के इन चेहरों से बेख़बर गौहर ने बाद में इस चीज़ को देखा कि उनके दौर का रसिक समाज इन गायिकाओं पर रुपया तो भरपूर लुटाता था, किंतु बड़ी से बड़ी पेशेवर गायिका को राज-समाज में न तो ब्याहता का दर्जा मिलता था और न सम्मानित पुरुष कलाकारों जैसा आदर भरा व्यवहार दिखाता था, ख़ास तौर पर तब, जब उनकी गायकी और यौवन ढलाव पर आ जाएँ. 

बड़ी मलका जान, जानकीबाई छप्पनछुरी और ज़ोहराबाई आगरेवाली जैसी गायिकाओं की कला के दीवाने भारत के दोमुँहे भद्र समाज के विपरीत इन गायिकाओं की असंदिग्ध प्रतिभा के कारण इन तमाम गायिकाओं का उस दौर के तमाम उस्ताद गायकों के बीच गहरा सम्मान बना रहा. वे अक्सर संगीत की बारीकियों पर इनसे चर्चा करते और अपनी जानकारियों का आदान-प्रदान किया करते.[4]

तत्कालीन संयुक्त प्रांत यानी आज के उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में 26 जून, 1873 को पैदा हुई गौहर जान का ख़ानदान मिश्रित धर्म, मिश्रित संस्कृति और मिश्रित राष्ट्रीयता का अद्भूत नमूना था. उनकी दादी हिंदू थीं और दादा ब्रिटिश और पिता आर्मेनियाई मूल के ईसाई. पिता विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड पेशे से इंजीनियर थे और आज़मगढ़ में उनकी ड्राई आईसकी फैक्ट्री थी. विक्टोरिया की माँ एक आर्मीनियाई यहूदी थी और पिता अँगरेज़ ईसाई. विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड ने सन् 1872में विक्‍टोरिया हेमिंग से शादी की थी. विक्टोरिया हेमिंग को गीत-संगीत और नृत्य से जुनून की हद तक लगाव था और वह घंटों रियाज़ में अपना वक़्त बिताया करती थी. इस वज़ह से आईस-फैक्ट्री से थके-माँदे जब विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड घर लौटते, तो घर में गीत-संगीत और नृत्य चल रहा होता. इस वज़ह से पहले तो पति-पत्नी के बीच कहासुनी हुई, फिर उसके बाद झगड़े होने शुरू हो गए. पति-पत्नी बीच दूरियाँ बढ़ने लगीं और दांपत्य-प्रेम में लगातार कमी आती चली गयी. इसी बीच पति-पत्नी के बीच ख़ुर्शीद नामक एक रईस वोका भी प्रवेश हो गया. 

ख़ुर्शीद से विक्टोरिया की नज़दीकी की एक वज़ह यह भी थी कि ख़ुर्शीद जितना विक्टोरिया को चाहता था, उतना ही उसे विक्टोरिया के संगीत से भी लगाव था. सही वक़्त पर ख़ुर्शीद ने विक्टोरिया के रूप और संगीत दोनों से गहरी मुहब्बत का न सिर्फ़ खुलेआम इज़हार किया, बल्कि कलहपूर्ण वातावरण में रह रही विक्टोरिया हेमिंग के जख़्मी दिल पर मुहब्बत का मरहम भी लगाता रहा. इन्हीं विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड और विक्टोरिया हेमिंग की इकलौती बेटी थी एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड, जो बाद में गौहर जान के नाम से मशहूर हुई. बेटी एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड जब छह साल की हुई, तो विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड और विक्टोरिया हेमिंग की शादीशुदा ज़िंदगी में इतनी कड़वाहटें आ चुकी थी कि दोनों ने तलाक ले लेना ही बेहतर समझा और अंततः सन् 1879 में दोनों के बीच आख़िरकार तलाक हो ही गया.  

पति से अलग होने के बाद विक्टोरिया हेमिंग, बनारस के रईस ख़ुर्शीद से शादी करके आज़मगढ़ से बनारस चली गई. बनारस पहुँचकर विक्टोरिया हेमिंग ने इस्लाम कुबूल करके अपना नाम बड़ी मलका जानरख लिया. अपने नाम से पहले उन्हें बड़ीशब्द इसलिए जोड़ना पड़ा, क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तान में मलका जान नाम की दो और मशहूर गायिकाएँ मौज़ूद थीं और वे भी मलका जान के नाम से ही जानी जाती थीं. एक थी ख़ुद बड़ी मलका जान आगरेवाली, दूसरी थी मुल्क पुखराज की मलका जान और तीसरी थी चुलबुली मलका जान. बड़ी मलका जान बाकी दो मलका जान से उम्र में बड़ी थीं, तो ज़ाहिर है अपने नाम में मलका जान से पहले बड़ी जोड़ लेना कतई ग़ैर मुनासिब न था. 

अपना धर्म बदलकर विक्टोरिया से बड़ी मलका जान बनने के बाद उन्होंने बेटी को भी धर्म परिवर्तित करवाकर एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड से गौहर जान बना दिया. बड़ी मलका जान उस ज़माने की मशहूर कथक नृत्यांगना और शास्त्रीय संगीत की गायिका थीं. ख़ुर्शीद के साथ निकाह के बाद बड़ी मलका जान तकरीबन चार सालों तक बनारस में रहीं. उसके बाद सन् 1883में उन्होंने कलकत्ता में निर्वासित जीवन जी रहे अवध के नवाब वाजिद अ‍ली शाह के दरबार में तीन सौ रूपये महीने की मुलाज़मत क़ुबूल करके कलकत्ता चली गईं. बड़ी मलका जान कथक की प्रशिक्षित नृत्यांगना तो थी ही, उन्हें उर्दू कविता और ग़ज़ल गायन में भी महारत हासिल थी. बड़ी मलका जान ध्रुपद, ख़याल से लेकर ठुमरी, होरी, चैती, कजरी और ग़ज़ल सब कुछ गाती थीं. उनके गाये कई गाने रिकॉर्ड किए गए और हर रिकॉर्ड के अंत में वे कहती हैं, माई नेम इज मलका जानया मलका जान ऑफ आगरा.

दरअसल सन् 1848 में जब साम्राज्य विस्तार की रणनीति लेकर लॉर्ड डलहौजी हिंदुस्तान का गवर्नर जनरल बनकर आया, तो अगले ही साल 1849 में उसने साजिश करके पंजाब को अँगरेजी राज का हिस्सा बना लिया और महाराजा दिलीप सिंह को पेंशन देकर इंग्लैंड भिजवा दिया. इसके बाद सन् 1856 में अँगरेजों ने अवध के नवाब वाज़िद अली शाह (शासन कालः 13 फरवरी, 1847 से 11 फरवरी, 1856) को भी देश निकाला देकर कलकत्ता के मटियाबुर्ज इलाके में भेज दिया, ताकि बरतानवी हुकूमत को उनकी हरकतों पर नज़र रखने में सहूलियत हो. बरतानवी हाकिमों का फरमान सुनने के बाद नवाब वाज़िद अली शाह अपने परिवार के कुछ सदस्यों और अपनी चार बीवियों के साथ कलकत्ता चले गए. अगले साल 1857 में जब गदर का विद्रोह शुरू हुआ, तो बरतानवी हुकूमत ने एहतियातन नवाब वाज़िद अली शाह को नज़रबंद कर दिया. 

गदर के विद्रोह को कुचलने के बाद अवध अँगरेजों के कब्जे़ में आ तो गयामगर सबसे आख़िर में और वो भी लखनऊ शहर में बीस हज़ार लोगों का क़त्ल-ए-आम करने के बाद. इन्हीं नवाब वाज़िद अली शाह ने ‘परीख़ाना’ नाम से एक किताब लिखी थी, जो उनकी ज़िंदगी की खुली दास्तां तो है ही, यह किताब उन्नीसवीं सदी की लखनवी संस्कृति का कीमती दस्तावेज़ भी है. किताबें पढ़ने और लिखने के वे इतने शौकीन थे कि अपने जीवन काल में 60 से अधिक किताबें लिखीं. इसके अलावा वह कथक के कुशल नर्तक और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इतने गहरे धँसे हुए थे कि कई नये राग भी बनाए और आम लोगों के बीच ‘ठुमरी’ को लोकप्रिय बनाने में उनका बहुत अहम योगदान माना जाता है. लखनऊ से निर्वासित होकर नवाब वाज़िद अली शाह जब कलकत्ता जा रहे थे, तो ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ गाते हुए विदा हुए थे. ठुमरी के माहिर और क़द्रदान इन्हीं नवाब साहब के मटियाबुर्ज स्थित राजदरबार से बड़ी मलका जान जुड़ीं, लेकिन उनके राजदरबार से जुड़ने के महज़ चार साल के भीतर ही नवाब साहब का इंतकाल हो गया.

नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से जुड़ने और वहाँ के दीगर रईस क़द्रदानों की बदौलत बड़ी मलका जान ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के 24, चितपुर रोड (वर्तमान में रवीन्द्र सरणी) में चालीस हज़ार रूपये में एक बड़ी-सी कोठी ख़रीद ली. इसी घर में बड़ी मलका जान ने बेटी गौहर जान की नृत्य और संगीत की शिक्षा शुरू करवाई. पटियाला के काले खाँ उर्फ 'कालू उस्‍ताद', रामपुर के उस्‍ताद वज़ीर खाँ और पटियाला घराने के संस्‍थापक उस्‍ताद अली बख़्श (पटियाला घराना के संस्थापकने ग़ौहर को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन की शिक्षा दी. महान् कथक गुरु वृंदादीन महाराज (मशहूर कथक नर्तक बिरजू महाराज के दादा के भाई) से गौहर ने कथक सीखासृजनबाई से ध्रुपद और चरनदास से बंगाली कीर्तन की शिक्षा ली. वास्तव में बड़ी मलका जान और उनकी बेटी गौहर जान के पहले शिक्षक उस्ताद इमदाद खाँ साहब थे, जो माँ और बेटी के गायन के दौरान सारंगी बजाया करते थे.[5]

ग़ौहर जान की गायकी का व्यापक असर न सिर्फ हिंदुस्तान के भद्र समाज पर था, बल्कि संगीत के क्षेत्र में नाम और नामा की चाहत रखने वाली अनेक गायिकाएँ गौहर जान को सुनते हुए उन्हीं की तरह गाने की हसरत अपने दिल में पाले रखती थीं. इस प्रसंग में अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ बेगम अख़्तर की याद भला किसे न आएगीबेगम अख़्तर बंबई (अब मुंबई) जाकर फिल्मों में अपना किस्मत आजमाना चाहती थीं, लेकिन जब उन्होंने बड़ी मलका जान और उनकी बेटी ग़ौहर जान का गायन सुना, तो फिल्मों में जानने का इरादा छोड़ दिया और अपने आपको पूरी तरह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए वक़्फ कर दिया. हुआ कुछ यूँ कि एक बार गौहर जान शहर फ़ैज़ाबाद तशरीफ़ लाईं, जिनकी उन दिनों पूरे हिंदुस्तान में धूम मची हुई थी. इत्तेफ़ाक से वे उस कमरे में गईं जहाँ ‘बिब्बी’ उर्फ़ अख़्तरी पढ़ती थीं.
किस्सा है कि बिब्बी ने गौहर का दामन थाम लिया और कहा, ‘आप गौहर जान हैं न?’ आप ठुमरी गातीं हैं. गौहर जान बोलीं, ‘क्या तुम भी गाती हो?’ बिब्बी ने उन्हें ख़ुसरो का कलाम ‘अम्मा मोरे भैया को भेजो सावन आया’ गाकर सुनाया. गौहर जान अख़्तरी से इस कलाम को सुनकर अवाक रह गईं. बोलीं, ‘अगर इस बच्ची को सही तालीम मिल गई, तो ये मलिका-ए-ग़ज़ल बनेगी![6] ...और वे वाकई बनीं. चूँकि उनकी वालिदा मुश्तरीबाई भी लखनऊ के नवाबों की दरबारी गायिका थीं, इसलिए घर में पहले से ही मौसिकी का अच्छा माहौल था.       
  
गौहर की माँ बड़ी मलका जान चूँकि गीत-संगीत में पारंगत थीं, इसलिए गीत-संगीत और नृत्य की बारीकियों को देखते-सुनते हुए उनका बचपन गुज़रा. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कथक सीखने के अतिरिक्त गौहर ने रवींद्र संगीत की शिक्षा भी ली थी. दरभंगा के अलावा नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार में भी गौहर को ख़ूब वाहवाही मिली. गायन की कला से लोगों को हैरत में डाल देने वाली गौहर पहली डांसिंग गर्लभी थीं और ग्रामोफोन पर रिकॉर्डिंग करवाने वाली पहली पफॉर्मर होने का एजाज़ भी उन्हें हासिल है. यही नहीं, दिसंबर 1911में दिल्‍ली दरबार में प्रिंस ऑफ वेल्सकिंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में गाने के लिए ग़ौहर जान को बुलवाया गया, जहाँ अपनी समकालीन तवाइफ़ इलाहाबाद की जानकीबाई छप्पनछुरीके साथ इस अवसर के लिए विशेष रूप से एक युगल गीत तैयार किया था, ये है ताज़पोशी का जलसा मुबारक हो, मुबारक हो. जब यह गीत जब समाप्त हुआ, तो सम्राट और साम्राज्ञी को सलाम करने के लिए दोनों गायिका गौहर और जानकी बाई उनकी क़रीब गई. सम्राट ने दोनों की कला की ख़ूब तारीफ़ की और बतौर इनआम सोने की सौ अशर्फियाँ दीं.

इस शानदार समारोह में सम्राट-साम्राज्ञी और तमाम रियासतों के राजाओं-महाराजाओं और ज़मींदारों की मौज़ूदगी में गौहर जान को जानकीबाई के साथ अपनी गायकी का जलवा दिखाने का एक दुर्लभ अवसर मिला था. गौहर की एक और ख़ास बात क़ाबिले-ग़ौर है कि लखनऊ की तवाइफ़ उमराव जान उर्दू में अदातख़ल्लुस से शेर कहती थीं, तो उर्दू शेरो-शायरी से गहरी दिलचस्पी होने की वज़ह से गौहर जान भी हमदमतख़ल्लुस से ग़ज़लें और शेर कहा करती थीं. गौहर जान हमदमका एक शेर अब भी उसकी गायकी की क़द्र करने वाले क़द्रदानों की ज़ुबान पर है, शायद कि याद भूलने वाले ने फिर किया/ हिचकी इसी सबब से है गौहर लगी हुई.


 
जानकीबाई छप्पनछुरी 
हालाँकि उस ज़माने में राजदरबारों में गाना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती थी. गायिका को तवाइफ़ कहा जाता, बावज़ूद इसके कि उस दौर में तवाइफ़ का मतलब जिस्मफ़रोशी नहीं था. तवाइफ़ें सिर्फ मौसिकी के जरिए महफ़िलों में समां बाँधा करती थीं. गौहर जान अपनी समकालीन तवाइफ़ जिन जानकीबाई छप्पनछुरीको जीवन भर अपना प्रतिद्वंद्वी समझतीं रहीं, उन जानकीबाई का जीवन भी उपेक्षा, अपमान और संघर्ष की एक लंबी दास्तां है. सन् 1880 में बनारस में जन्मी जानकीबाई के पिता शिव बालकराम बनारस के जाने-माने पहलवान थे और माँ मानकी गाने-बजाने का शौक रखती थी. मानकी का यह शौक शिवबालक को पसंद नहीं था, लिहाजा पत्नी और बेटी दोनों को छोड़कर शिवबालक ने दूसरी शादी करके अलग घर बसा लिया. मानकी ने बनारस का घर बेच दिया और जान-पहचान की एक महिला की मदद से इलाहाबाद आ गई, जिसने इलाहाबाद में उस ज़माने के एक मशहूर कोठे के मालिक के हाथों दोनों माँ-बेटी मानकी और जानकी दोनों को बेच दिया. कोठे के मालिक की मौत के बाद मानकी ने मालकिन बनकर कोठा चलाना शुरू कर दिया. एक दिन मानकी ने ग़ौर किया कि बेटी जानकी को संगीत में रुचि है, तो मानकी ने बेटी को मौसिकी सिखाने के लिए दो हज़ार रूपये माहवार पर लखनऊ के उस्ताद हस्सू खाँ को रख लिया. नृत्य और संगीत अतिरिक्त जानकी ने अँगरेज़ी, संस्कृत और फारसी भाषा भी सीखी और शेर-ओ-शायरी का उसे ऐसा चस्का लगा कि उसने शेर कहना शुरू कर दिया, जिसका दीवान-ए-जानकीउन्वान से एक मजमुआँ (संग्रह) भी छपा.

जानकीबाई के नाम के साथ छप्पनछुरीजुड़ने की दास्तान भी बेहद तक़लीफदेह है. उसके दाग़दार और बुरे चेहरे के पीछे कि कहानी छिपी दो कहानी कही-सुनी जाती है, अब ख़ुदा ही जाने इनमें से कौन-सी कहानी सच है. एक कहानी यह है कि एक मनचले के प्रस्ताव को जब जानकीबाई ने ठुकरा दिया, तो उसने छुरी से छप्पन दफा वार करके जानकी की सूरत बिगाड़ दी. दूसरी कहानी यह कही जाती है कि जानकीबाई ने एक बार अपनी सौतेली माँ लक्ष्मी को अपने प्रेमी के साथ केलि करते हुए देख लिया, जिससे क्रोधित होकर सौतेली माँ के प्रेमी ने जानकी की ऐसी गत बना दी. बहरहाल, इस वज़ह से जानकी की आवाज़ जितनी मधुर और कर्णप्रिय थी, उसी अनुपात में उसकी सूरत उतनी ही बिगड़ चुकी थी. जानकी की समकालीन तवाइफ़ें जहाँ अपनी गायकी के अतिरिक्त ख़ूबसूरती की वज़ह से राजदरबारों में शोहरत पा रही थीं, वहीं जानकी ने मात्र अपनी आवाज़ और गायकी के दम पर कामयाबी की ऐसी बुलंदी पर पहुँची कि ग्रामोफोन कंपनी उनकी रिकार्ड का एक संस्करण 25 हज़ार का निकालती थी. जानकीबाई के नाम यह एक ऐसा रिकॉर्ड था, जिसने उसे सुपरस्टार बना दिया था.[7]

इलाहाबाद के अतरसुइया थाने पर आयोजित हुए एक कार्यक्रम में जानकीबाई ने मशहूर गायिका गौहर जान को मुकाबले में हराया था. सत्रह हज़ार चाँदी के सिक्कों से मंच पट गया था. आज के चैनल युग के बग़ैर जो लोकप्रियता जानकीबाई ने उन दिनों कमाई थी, वह सदियों में किसी कलाकार को नसीब होती है. पर ख़ैर, ज़िंदगी ने उन्हें उतने ग़म दिये, जितनी खुशी मौसिकी ने दिये. जानकी बाई की शादी इलाहाबाद में एक वकील शेख़ अब्दुल हक से हुई थी, लेकिन शादी के बाद जानकी ने ग़ौर किया कि वकील साहब उनके साथ धोखा कर रहे हैं, लिहाजा कुछ ही साल बाद ही जानकीबाई वकील शेख़ अब्दुल से तलाक लेकर अलग हो गई. इससे जानकबाई को ऐसा सदमा लगा कि भौतिक सुखों से उसे विरक्ति हो गई. उसके बाद जानकी ने अपने नाम पर एक धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना की, जो अभी भी इलाहाबाद में मौजूद है. जानकी ने अपनी अर्जित अपार संपत्ति और ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी से प्राप्त धन से ज़रूरतमंद छात्रों को आर्थिक मदद देतीं, ग़रीबों के बीच कंबल बाँटती, मंदिरों-मस्जिदों को दान देतीं और भूखे-प्यासे लोगों के लिए सदाव्रत चलवातीं.[8] 18 मई, 1934 को शहर इलाहाबाद में जब जानकीबाई ने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो उनके पास उस वक़्त कोई अपना, कोई क़रीबी नहीं था!

सन् 1887 में अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में रहने वाले जर्मन मूल के इमाएल बर्लिनर आवाज़ को रिकार्ड करके उसे सुरक्षित रखने और बाद में कभी भी सुनने की तकनीक का आविष्कार करने में अंततः सफल रहे. ठीक दो साल बाद इस तकनीक के व्यावसायिक इस्तेमाल और बड़े पैमाने पर रिकार्डिंग करके रिकॉर्डेड प्लेट्स बनाकर बेचने के लिए सन् 1897 में इमाएल बर्लिनर ने द ग्रामोफोन कंपनीके नाम से एक कंपनी बनाई. इसी कंपनी ने बीसवीं सदी के पहले दशक की शुरुआत में अपने एजेंट फ्रेडरिक विलियम गैसबर्ग को कंपनी के लिए व्यावसायिक संभावना की तलाश करने के लिए हिंदुस्तान भेजा. गैसबर्ग ने उन दिनों हिंदुस्तानी की सबसे मशहूर गायिका ग़ौहर जान को ग्रामोफोन कंपनी के लिए गाने का प्रस्ताव दिया. शास्त्रीय संगीत को महज तीन मिनट में गाना और रिकार्ड कराने का काम बहुत चुनौतीपूर्ण तो था ही, बेहद उलझन भरा काम भी था. इसी वज़ह से उस वक़्त के दिग्गज कलाकारों ने ग्रामोफोन कंपनी के एजेंट फ्रेडरिक विलियम गैसबर्ग के प्रस्ताव पर कंपनी के लिए गाने से मना कर दिया. क्योंकि वे लोग यह चुनौती स्वीकार नहीं करना चाहते थे. 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत तो दूर, किसी भी भारतीय संगीत को तीन मिनट में गा देना बेहद मुश्किल काम था. ऐसे में तीन मिनट के अंदर ठुमरी या ख़याल गा देने की चुनौती को गौहर ने स्वीकार कर लिया. इसके एवज में ग़ौहर ने ग्रामोफोन कंपनी के एजेंट गैसबर्ग से 3000 रूपये की माँग की. इतना रूपया उन दिनों हिंदुस्तान में बहुत बड़ी रकम होती थी, क्योंकि बीस रूपये में तो एक तोला सोना मिलता था. बहरहाल, हिंदुस्तान में गौहर जान की लोकप्रियता को देखते हुए गैसबर्ग ने इतनी भारी रकम की माँग को भी मान लिया और रिकॉर्डिंग की तैयारी करने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता चले गए.

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के इतिहास में 02 नवंबर, 1902 वह तारीख़ है, जिस दिन गौहर जान ने कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में अस्थायी रूप से बनाए गए स्टुडियो में राग जोगिया में तीन-चार मिनट में ख़याल गाकर उसे रिकॉर्ड करवाया. इस रिकार्डिंग के साथ ही हिंदुस्तान ही नहीं, दक्षिण एशिया के इतिहास में भी गौहर जान पहली ऐसी गायिका बन गईं, जिनके गाने से रिकार्डिंग की शुरुआत हुई. रिकार्डिंग होने के कारण ही आज भी गौहर के गाने लोगों को उपलब्ध हैं. कहते हैं कि गौहर जान अपनी हर रिकॉर्डिंग के लिए नए कपड़े और ज़ेवर पहनकर स्टुडियो आती थीं. एक दिलचस्प बात यह है कि गाने की रिकार्डिंग करवाते समय जब गाना समाप्त हो जाता, तो वे आख़िर में बोलतीं, माय नेम इज ग़ौहर जान

गाने के अंत में ऐसा बोलना दरअसल एक तकनीकी बाध्यता थी. क्योंकि गाने की रिकार्डिंग करके प्लेट्स बनाने के लिए उसे जर्मनी के हनोवर शहर भेजा जाता था. वहाँ तकनीशियन गाने को सुनते, प्लेट्स बनाते और अंत में उस कलाकार के नाम को सुनकर यह समझ जाते कि इस गीत को किसने गाया है. तब उस कलाकार के नाम का लेबल प्लेट्स पर लगाकर हिंदुस्तान के बाज़ारों में भेज दिया जाता. इस प्रक्रिया से गुज़रकर प्लेट्स को हिंदुस्तान के बाज़ारों में आने में तकरीबन साल भर का वक़्त लग जाता था और बाज़ार में गौहर जान के नये रिकार्ड्स आने की ख़बर फैलते ही ख़रीदारों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी.        

गौहर जान ने महफिलों में गायन से ज़्यादा अपनी रिकार्डिंग के जरिये ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती, भजन और तराना दूर-दूर के लोगों तक पहुँचाया. इस वज़ह से उनकी शोहरत इस तेज़ी से फैली कि गौहर बीसवीं सदी के तीन दशकों तक हिंदुस्तान की सबसे महँगी गायिका बनी रहीं. महफिल में गाने का दावत देने के लिए आने वाले क़द्रदानों से जब तक सोने की एक सौ गिन्नियाँ नहीं धरवा लेतीं, तब तक हामी ही नहीं भरती थीं. उस वक़्त के हिंदुस्तान की वह पहली करोड़पति गायिका थीं, जो रानियों की तरह बहुत ठाट-बाट से रहती थीं. 

शाहखर्च ऐसी कि पालतू बिल्ली ने जब बच्चे दिये, तो अपनी कोठी पर एक पार्टी की, जिसमें बीस हज़ार रूपये फूँक दिये, जिसकी क़ीमत आज के हिसाब से तकरीबन नौ करोड़, छह लाख के आसपास बैठती है. करोड़ कलकत्ता में रहने वाली वह ऐसी पहली शख़्स थीं, जो चार घोड़े जुते हुए सुसज्जित बग्घी से चलती थीं, जिससे चिढ़कर वायसराय ने उन पर एक हज़ार रूपये जुर्माना लगा दिया, जो उन्होंने चुकाया. मगर अपनी शाही शौक और शाही जीवन-शैली से समझौता नहीं किया. बचपन में देखी हुई ग़रीबी ने उन्हें इतना व्यावहारिक बना दिया था कि ग़ौहर ने अपनी कमाई से कलकत्ता में कई कोठियाँ और ख़ूब ज़मीन-जायदाद ख़रीदे और अपनी जवानी के दिनों में रिश्तेदारों पर ख़ूब पैसा लुटाया, बावज़ूद इसके कि तेरह बरस की उम्र में बलात्कार का दंश भी उसे झेलना पड़ा था. 

इससे बड़ी दर्दनाक बात और क्या होगी कि एक पेशेवर गायिका और डांसिंग गर्लके तौर पर लोगों की बेपहनाह मुहब्बत हासिल करने वाली गौहर की ज़िंदगी में शौहर तो आए, लेकिन नसीब में सिवाए धोखा और तन्हाई के और कुछ न आया. इसी दौर में उस वक़्त उर्दू के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने ग़ौहर पर तंज़ करते हुए एक शेर कहा था. पूरा किस्सा कुछ यूँ है, गौहर जान एक मर्तबा इलाहाबाद गयीं और जानकीबाई तवाइफ़ के मकान पर ठहरीं। जब गौहर जान रुख़्सत होने लगीं, तो अपनी मेज़बान से कहा किमेरा दिल ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से मिलने को बहुत चाहता है.जानकी-बाई ने कहा किआज मैं वक़्त मुक़र्रर कर लूंगी, कल चलेंगे.चुनांचे दूसरे दिन दोनों अकबर इलाहाबादी के यहाँ पहुँचीं। जानकीबाई ने तआरुफ़ कराया और कहा ये कलकत्ता की निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ गायिका गौहर जान हैं. आपसे मिलने का बेहद इश्तियाक़ था, लिहाज़ा इनको आपसे मिलाने लायी हूँ. अकबर ने कहा, “ज़हे नसीब, वर्ना मैं न नबी हूँ न इमाम, न ग़ौस, न क़ुतुब और न कोई वली जो क़ाबिल-ए-ज़यारत ख़्याल किया जाऊँ. पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ़ अकबर रह गया हूँ. हैरान हूँ कि आपकी ख़िदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूँ. ख़ैर एक शेर बतौर यादगार लिखे देता हूँ.ये कहकर मुंदरजा ज़ैल शेर एक काग़ज़ पर लिखा और गौहर जान के हवाले किया,

'ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा.[9]

सन् 1904-05के दौरान गौहर जान की मुलाकात मशहूर गुजराती थियेटर कलाकार अमृत केशव नायक से हुई, जो कि पारसी थे. अमृत केशव नायक से गौहर जान ने गीत-संगीत की बहुत-सी बारीकियाँ सीखीं और सीखने-सिखाने की इस प्रक्रिया में दोनों को एक-दूसरे से प्यार हो गया. दोनों शादी करने को लेकर गंभीर थे, लेकिन कुदरत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. अचानक सन् 1907 में केशव नायक की मौत हो गई और शादी से पहले ही इस प्रेम कहानी का अंत हो गया. इसके बाद अपने से उम्र में काफी छोटे अपने सेक्रेटरी अब्बास के साथ गौहर ने शादी की, लेकिन यह शादी भी कुछ ही वक़्त तक चल पायी. दरअसल अब्बास शुरू से ही उनके प्रति वफ़ादार नहीं था और वह कुछ ज़्यादा ही चालाक किस्म का आदमी था. गौहर तो उसको अपना शौहर मानकर उसके मोहब्बत में गिरफ़्तार थीं, जबकि इधर अब्बास रूपये-पैसे का ग़बन करने और उनकी जायदाद अपने नाम कराने में मुब्तिला था. दोनों के बीच जब अनबन शुरू हुई, तो तलाक का मुआमला अदालत पहुँच गया. कोर्ट-कचहरी के चक्कर में गौहर की जायदाद का बड़ा हिस्सा महँगे वकीलों की फीस देने में बिक गया. उनकी माली हालत बेहद ख़राब हो गई. 

कभी रानियों की तरह ठाट-बाट से रहने वाली गौहर के सामने फ़ाकाकशी की नौबत आ गई. इसी समय में उन्हें मैसूर के राजा कृष्णा वाडियर की ओर से अपने राजदरबार में आने का निमंत्रण मिला. नाकाम मोहब्तत और टूट चुके घर का सदमा ही जैसे गौहर के लिए काफी नहीं था. तलाक के मुआमले को लेकर कोर्ट-कचहरी की झंझटों से परेशान हो चुकीं ग़ौहर ने आख़िरकार मैसूर राजदरबार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. आज़मगढ़, कलकत्ता, बनारस, दरभंगा होते हुए ज़िंदगी के आख़िरी सालों में गौहर मैसूर चली गईं. महज 56 साल की उम्र में 17 जनवरी, 1930 को जब ग़ौहर ने मैसूर में आख़िरी साँस ली, तो वह बेहद अकेली और बीमार थीं और उनके आसपास कहने को कोई भी अपना नहीं था. अपने ज़माने की सुपरस्टार और करोड़पति गायिका गौहर जान की मौत तो आबा-ए-वतन से भी बहुत दूर हुई, जहाँ किसी अपने के हाथों से उन्हें मिट्टी तक नसीब न हुई!        

दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ख़ुद एक अच्छे सितारवादक थे, इसलिए गीत-संगीत से जुड़े लोगों के प्रति उनके मन में बहुत स्नेह और सम्मान था. ग्वालियर घराने के अपने ज़माने के मशहूर सरोदवादक उस्ताद मुराद अली खाँ को उनके समय में दरभंगा में खूब यश और धन मिला. दरभंगा का आमता नामक गाँव विख्यात ध्रुपद गायकों का गाँव है. यहाँ के संगीत को आमता घरानाया मल्लिक घरानाभी कहते हैं. पुराने लोग बताते हैं कि आमता घराने के मल्लिक लोग मूलतः गौड़ ब्राह्मण हैं, जिनके पूर्वज राजस्थान से दरभंगा आए थे. इस घराने में ध्रुपद की तीन सौ वर्षों से भी अधिक प्राचीन परंपरा है और आज भी उसी निरंतरता में यह परंपरा कायम है. इस घराने की ख़ासियत है चार पट गायन शैली, जिसमें ध्रुपद के अतिरिक्त ख़याल, ठुमरी, दादरा, लोक संगीत तथा विद्यापति के पद को ठुमरी एवं भजन अंग में प्रस्तुत किया जाता है. आमता घराने में पद्मश्री रामचतुर मल्लिक विख्यात गायक हुए, जिनके परदादा रामकृष्ण मल्लिक और कर्ताराम मल्लिक अपने ज़माने के चर्चित गायक और उस्ताद भूपत खाँ के शागिर्द थे. 

रामचतुर मल्लिक को संगीत की शिक्षा अपने पिता राजितराम मल्लिक और चाचा क्षितिपाल मल्लिक से मिली. सन् 1924 में महाराज रामेश्वर सिंह के समय में रामचतुर मल्लिक को दरभंगा राज से निमंत्रण मिला, तो वे दरबार से जुड़ गए. फिर तो दरबार में आने वाले अनेक गायकों-वादकों को सुनने और सीखने का उन्हें स्वर्णिम अवसर मिला और उनकी गायकी में निखार आता चला गया. सन् 1937 जब रामचतुर मल्लिक इंग्लैंड और फ्रांस की यात्रा पर गए, तो अपनी गायकी से उन्होंने दर्शकों-श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया. ध्रुपद के अतिरिक्त विद्यापति के गीतों को अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करने के कारण रामचतुर मल्लिक की कीर्ति दूर-दूर तक फैली. वे जुड़े हुए तो थे दरभंगा रियासत, लेकिन उन्हें ग्वालियर, बीकानेर, जोधपुर आदि शहरों में भी गाने का अवसर मिला. रामचतुर मल्लिक के अलावा इस घराने में विदुर मल्लिक, अभय नारायण मल्लिक, प्रेम कुमार मल्लिक ने धुपद की परंपरा को आगे बढ़ाया. बिहार में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं, दरभंगा, बेतिया और डुमराँव. बेतिया घराने में श्यामा मल्लिक, कुंज बिहारी मल्लिक, उमा चरण मल्लिक प्रसिद्ध गायक हुए हैं. इन पेशेवर गायकों के अतिरिक्त बेतिया राजघराने के राजा आनंद किशोर और नवल किशोर दोनों ध्रुपद के रचनाकार और प्रसिद्ध गायक हुए.  

तवाइफ़ें उस दौर के रजवाड़ों, नवावों और रईसों की शान-ओ-शौकत का पैमाना हुआ करती थीं. मसलन गौहर जान, ज़ोहराबाई, अल्लाजिलाई, जद्दनबाई-जैसी तवायफ़ों को शादी-ब्याह या किसी अन्य माँगलिक अवसर पर गाने लिए बुलवाना समाज में शान की बात समझी जाती थी. अज़ीमाबाद के पश्चिम में आधुनिक चौहट्टा के सुनसान इलाके में तवाइफ़ों ने आकर बसना शुरू कर दिया, जहाँ अज़ीमाबाद के शरीफ़ घरों के नौजवान आम लोगों की नज़रें बचाकर पहुँचने लगे. फिर तो आज के खजाँची रोड से लेकर मुसल्लहपुर भट्ठी तक तवाइफ़ों का मुहल्ला गुलज़ार हो गया. जहाँ आज दरभंगा हाउस है, वहाँ नवाबों के द्वारा बनवाए गए डांसिंग हॉलमें उस दौर की महँगी और मशहूर तवाइफ़ें आकर नाचती थीं. सन् 1850 के आसपास पटना सिटी के नवाब सैयद इब्राहीम हुसैन खाँ ने अपने साले की शादी में पाँच दिनों तक नाच-गाने का आयोजन किया था. अनेक शहरों से तवाइफ़ें बुलवाई गई थीं. कलकत्ता और दिल्ली से एक सौ से ऊपर अँगरेज़ हाकिम तवाइफ़ों का नाच-गान देखने के लिए आए थे-कुर्ता, पाज़ामा और टोपी पहनकर. उस दौर के पटना में जस्टिस सर्फुद्दीन और सर अली इमाम का बड़ा नाम था. जस्टिस सर्फुद्दीन ने अपने इकलौते बेटे सैयद अहमद सर्फुद्दीन की शादी में दो दिनों तक सदर गली में तवाइफ़ों की महफिल सजवाई थी. धौलपुर कोठी में बाबू कृष्णा की शादी में जो तवाइफ़ों की महफ़िल सजी थी, वह पटना के बड़े महफिलों में से एक थी.[10]

सन् 1813 में पटना के प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रज़ा शाह ने संगीत के बारे में एक किताब लिखी, नग़मात-ए-आसफ़ी, जिसमें उन्होंने रागों को तक़सीम करने वाली पुरानी रवायत को छोड़कर बिलावल को मूल स्केल के रूप में स्वीकार किया. बाद में इस बात को पंडित विष्णु नारायण भातखंडे (1860-1936) ने भी माना. मोहम्मद रज़ा शाह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थाट पद्धति के जनक माने जाते थे और थाटनाम से ही उन्होंने एक बाजा भी बनाया था.

अज़ीमाबाद (पटना) में तवाइफ़ों की संस्कृति को गहराई से समझने के लिए थोड़ा अज़ीमाबाद की तारीख़ से रू-ब-रू होना पड़ेगा. सन् 1702 ईस्वी में जब मुग़ल बादशाह औरंगजेब के पोते शहजादा अज़ीमुश्शान को बिहार का गवर्नर नियुक्त किया गया, तो वह बिहार सहित बंगाल का भी शासक बना. आलसी और आरामतलब अज़ीमुश्शान ने हुकूमत के कामकाज का ज्यादातर भार मुर्शीद कुली खाँ कंधों पर डाल दिया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रशासनिक कामकाज को बेहतर बनाने के नाम पर मुग़ल बादशाह से अनुमति लेकर शहजादा ने सन् 1704 में पटना का नाम अज़ीमाबाद रख दिया. अज़ीमुश्शान एक दशक तक पटना का गवर्नर रहा और इस दौरान उसने इस शहर को सुंदर बनाने के लिए तकरीबन एक करोड़ रूपये खर्च किये. उसके बाद पटना के सौंदर्य, वहाँ मिलने वाली सुविधाएँ और दौलत से भरपूर लोगों की चर्चा हिंदुस्तान के अनेक रियासतों में होने लगी. हिंदु-मुसलमान दोनों की मिली-जुली आबादी वाला पटना अपनी क़द्रदानी के लिए भी बेहद मशहूर शहर था. जिसकी वज़ह से एक-से-एक नामी गायक-वादक और अदीब शहर अज़ीमाबाद का रुख करने लगे. बड़ी कनीज़, मोहम्मद बाँदी, ज़ोहराबाई आगरेवाली, अल्लाजिलाई इलाहाबादवाली, बी रमजो, बी छुट्टन सरीखे कलाकारों ने आकर शहर अज़ीमाबाद की रौनक बढ़ाई. लखनऊ से चौधराइन बचवा और मुस्तफा हुसैन भांड का दल तथा जयपुर की गौहर बाई का नाम पटना के लोगों का मनोरंजन करने वालियों में शुमार है. संगीत के इतिहासकारों का मत है कि गायिकी में ज़ोहराबाई के टक्कर की गायिका उन दिनों बहुत कम थी. ऊँगलियों पर गिनी जाने लायक बस एक या दो.                

ज़ोहराबाई आगरेवाली
संगीत की दुनिया में ज़ोहराबाई आगरेवाली (1868-1913) का नाम और काम दोनों बेमिसाल है. एच.एम.वी. यानी हिज मास्टर्स वॉयसने सन् 1902 में ग़ौहर जान से भारत में रिकार्डिंग की शुरुआत की थी, लेकिन ज़ोहराबाई को एच.एम.वी. ने सन् 1908 से रिकार्ड करना शुरू किया. क्लासिक गोल्ड कैसेट ऑफ ज़ोहराबाईके कार्ड नोट पर ज़ोहराबाई के बारे में क्या लिखा गया है, ज़रा देखिये, ज़ोहरा बाई उस युग की एक महान गायिका थीं जब रिकॉर्डिंग की कला भारत में शुरुआती दौर में थी. ज़ोहराबाई दरअसल ख़ुदमुख़्तारी का दूसरा नाम थीं. एक शाही शादी समारोह में उनका उन दिनों की एक प्रसिद्ध गायिका के साथ झगड़ा हो गया. उसके बाद ज़ोहराबाई छह साल के लिए आत्म-निर्वासन में चली गईं. इस अवधि के दौरान वह एक गाँव में रहीं और आगरा घराने के उस्ताद शेर खान से संगीत का कठोर प्रशिक्षण लिया. ज़ोहरा ने उनसे मंच पर गायन की बारीक-से-बारीक पहलुओं को सीखा. उसके बाद नई ज़ोहराबाई एकदम बदली हुई, एकदम निखरी हुई अलग शख़्सियत के रूप में दुनिया के सामने आईं. उनके गाने का एक अलग ही ढंग था-वह बहुत ताक़त लगाकर मर्दाना अंदाज़ में थोड़ा आक्रामक तरीके से गाती थीं-कुछ-कुछ गंगूबाई हंगल की तरह. उनके प्रशंसकों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है, जिनमें उनकी समकालीन तवाइफ़ गौहर जान से लेकर किराना घराना की मशहूर गायिका गंगूबाई हंगल तक का नाम शामिल है.[11] 

ज़ोहराबाई दरअसल ख़याल के साथ-साथ ठुमरी और ग़ज़ल गायकी के लिए जानी जाती थीं, जिसकी बहुत सारी बारीकियाँ उन्होंने ढाका के उस्ताद अहमद खाँ से सीखी थी. उनके गायन की शैली ने आगरा घराने के उस्ताद फ़ैयाज खाँ को भी बेहद प्रभावित किया और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ तो उनका सबसे ज़्यादा सम्मान करने वालों में से थे.  
ज़ोहराबाई ने अपने आपको बहुत कठोर प्रशिक्षण से तैयार किया था, इसलिए ज़ोहरा के गायन में वैविध्य बहुत है. सन् 1985 में अपनी माँ के साथ संगीत के प्रशिक्षण लेने के लिए ज़ोहरा जब शहर दरभंगा पहुँची थी, तो उस वक़्त वह बहुत छोटी थी. साँवली, छरहरी और बड़ी-बड़ी आँखों वाली जोहराबाई ने बाद में अपनी माँ के साथ पटना का रुख़ किया और पटना कॉलेज के पास आकर रहने लगी. सन् 1900 ईस्वी के आसपास कुछ लड़के उसके कोठे पर संगीत सुनने के लिए पहुँचे. उन लड़कों की सूरत देखकर ही ज़ोहराबाई पहचान गई कि ये पटना कॉलेज में पढ़ने वाले शरीफ घरों के लड़के हैं. उन लड़कों का आवभगत करने के बाद उनके कोठे पर आने का कारण पूछा. छात्रों ने बेताब होते हुए कहा कि  वे लोग उनका गाना सुनने के लिए आए हैं. उसके बाद ज़ोहरा तैयार होने के लिए भीतर चली गईं और अपने साज़िंदों से भी तैयारी करने को कहा. 

दो घंटे तक उन्होंने लड़कों को गाना सुनाया और रुख़्सत करते हुए यह हिदायत दी कि अब फिर कभी किसी कोठे का रुख न कीजिएगा. बाद में पटना के मछरहट्टा में ज़ोहराबाई ने एक आलीशान कोठी बनवाई. ज़ोहरा को शाह अकबर साहब दानापुरी से गहरा लगाव था, लेकिन वह बीवी बनी किसी और की. किसी बीमारी की वज़ह से ज़ोहरा का फेफड़ा ख़राब होने लगा और धीरे-धीरे जिंदगी की डोर कम होने लगी थी. यही उसी मौत की वज़ह भी बनी. औलाद के नाम पर एक ही बेटी थी, जो हैजा के चपेट में आकर मर गई.[12]ज़ोहराबाई के गाए मशहूर गीतों में से एक प्रेम जोगन बनजब रिकार्ड हुआ, तब उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ साहब पैदा ही हुए थे. ज़ोहराबाई को बदनाम करने की नीयत से लोगों ने यह अफ़वाह फैलायी कि अपने से उम्र में बहुत छोटे फ़ैयाज़ खाँ साहब के साथ ज़ोहारबाई के ताल्लुक़ातहैं, जिनको ज़ोहरा प्यार करती थीं.

संगीत के जाने-माने अध्येता गजेन्द्र नारायण सिंह ने लिखा है कि ठुमरी गाने में पटना की ज़ोहराबाई अव्वल थीं. लोग उन्हें बड़ी ज़ोहरा भी कहते हैं. ज़ोहरा की कहनऐसी दिलकश होती थी कि उनकी एक बोलपर ठुमरी के उस्ताद और विख्यात हारमोनियम वादक भैयासाहब गणपतराव ऐसे मुग्ध हुए कि गंडा बँधवा कर शागिर्द बनने पर उतारू हो गए. मियाँ अली क़दर के तबले की ठमक तथा उस्ताद बहादुर हुसैन खाँ की सारंगी की खनक से उनकी ठुमरियों में चार चाँद लग जाते थे. ज़ोहरा बाई ग़ज़लें गाने में भी महारत रखती थीं. क्या रुतबा और शानो-शौकत थी ज़ोहरा की, कि बड़े-बड़े ख़ानदानी गवैये तक उन्हें सुनने के लिए मचल उठते थे. ज़ोहरा की बदौलत संगीत की दुनिया में पटना का बड़ा नाम था.[13]

आम तौर पर लोग ऐसा मानते हैं कि उस दौर की तवाइफ़ें कव्वाली, ग़ज़लें और नज़्में गाती थीं या कोई ऐसा गीत, जिससे टूटे दिल वाले निराश और हताश लोगों के दिल को करार मिले. मग़र ज़ोहराबाई ने अपनी गायकी से तवाइफ़ की इस छवि को तोड़ा. वे ग़ज़ल, नज़्म गाने के साथ-साथ भक्तिपरक गीत गाने वाली अपने दौर की अकेली गायिका थीं. बेहद अफ़सोस की बात है कि मर्दाना आवाज़ की मलिका ज़ोहराबाई की कुल 78 रिकार्ड को ही बचाया जा सका. बाकी रिकार्ड अब कहाँ हैं, किनके संग्रहालय में सुरक्षित हैं, यह आज शायद ही किसी को मालूम हो.

अल्लाजिलाई
सन् 1935 में सत्रह-अठाहर बरस की अल्लाजिलाई नामक बेहद ख़ूबसूरत और मधुर आवाज़ की धनी तवाइफ़ शहर इलाहाबाद से आकर पटना सिटी में बसी थी. थोड़े ही समय में अल्लाजिलाई ने अपनी कला ऐसा प्रदर्शन किया कि पूरा पटना शहर उस पर फिदा हो गया. गली-गली में लोगों के बीच उसके चर्चे होने लगे. बड़ी-बड़ी कोठियों में रहने वाले ज़मींदारों, नवाबों के बीच जब इलाहाबाद से आकर पटना सिटी में नये कोठे के मालकिन बनी अल्लाजिलाई की चर्चा पहुँची, तो कई क़िस्से बनने और हवा में उड़ने के लिए जैसे तड़फड़ाने लगे. लोग आते और घंटों वाह-वाह किया करते. खुले हाथों से दौलत लुटाया करते. इससे अल्लाजिलाई को इलाहाबाद छोड़कर पटना आने के अपने फ़ैसले पर फ़ख्र होता. अल्लाजिलाई के आत्म-सम्मान और स्वभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसने अपने क़द्रदानों से कभी कुछ नहीं माँगा, लेकिन उसकी महफ़िल में आकर दौलत लुटाने वाले बहुतेरे थे. जिस वज़ह से कम हैसियत के लोगों अल्लाजिलाई की महफ़िल में जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी. 

अल्लाजिलाई का कोठा इतना आलीशान था कि उसका घर कश्मीरी सनमाइका, हाथी दाँत, बेल्जियम के बने पाँच सौ कमलनुमा झाड़, चाँदी के आईने, गमले और गुलदान आदि बहुमूल्य सामग्रियों से सुसज्जित था. रोम और ईरान की बनी कालीनें, मखमल के पर्दे आदि लगे होने के कारण अद्भुत भव्यता झलकती थी. ये सारी चीज़ें उसकी सुंदरता पर मोहित होकर गुज़री के एक नवाब ने दी थी. पटना की कोई भी महफ़िल उन दिनों अल्लाजिलाई के बग़ैर सजती ही नहीं थी. दो-तीन वर्षों के भीतर बिहार के अनेक ज़मींदारों के यहाँ अल्लाजिलाई के रूप और गायकी क़िस्से पहुँच चुके थे, लेकिन दुर्भाग्य से महज चौबीस साल की उम्र में ही उसका निधन हो गया. पटना सिटी के मख़्दूम शहाबुद्दीन के मज़ार (कच्ची दरगाह) के पास अल्लाजिलाई नामक इस तवाइफ़ का संगरमरमर का मकबरा आज भी देखा सकता है.[14]

बी छुट्टन
सन् 1875 की बात है. पटना के त्रिपोलिया के पास हफ्तख़ाना या कहें सतघरवा में एक तवाइफ़ बी छुट्टन रहती थी. हफ़्ताखाना में एक-दूसरे से बिल्कुल सटे हुए एक ही ढंग के सात मकान बने हुए थे, इस वज़ह से उन मकानों को लोग सतघरवा कहते थे. सतघरवा के इन्हीं मकानों में बी छुट्टन के अलावा बी रमजो और बाकी और तवाइफ़ें रहती थीं. शाम को झरोखे में बैठकर नीचे के लोगों को देखा करती थीं और नीचे के लोग उनको देखा करते थे. झरोखे के नीचे पान की दुकान पर माल-ओ-दौलत के मुआमले में तकरीबन बरबाद हो चुके एक ज़मींदार के चौदह-पंद्रह साल की उम्र का बेटा अली अहमद झरोखे के नीचे खड़े होकर बी छुट्टन को देखा करता. वह रोज़ शाम को आता और सतघरवा के जिस घर में बी छुट्टन रहती थी, उस घर के झरोखे के नीचे पान की दुकान के पास खड़े होकर बी छुट्टन के रूप का दीदार करना उसका रोज़ का काम हो गया. इस तरह जब कई दिन हो गए, तो बी छुट्टन को किसी ने बताया कि एक नवाबज़ादे रोज झरोखे के नीचे आते हैं और आपको मुसलसल देखा करते हैं.

एक दिन अपने किसी मुलाज़िम या मुलाज़मा को भेजकर बी छुट्टन ने अली अहमद नामक उस नवाबज़ादे को अपने कोठे पर ऊपर बुलवाया. बहुत ख़ूलूस से बिठाया और कहा, मियाँ आप आ गए!आपकी बड़ी मेहरबानी. मैं रोज़ आपको दूर से देखा करती थी और आपकी तरफ़ खिंची चली जाती थी. आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया और मुझे आपको अपने पास बुलाना ही पड़ा. अब आ ही गए हैं, तो झिझक छोड़िए और कुछ अपनी सुनाइए, कुछ मेरी सुनिए. बात ऐसे ही तो बनती है![15]

बी छुट्टन ने इस ढंग से नवाबज़ादे अली अहमद से बातें की, कि जब वे मुतमइन हो गए कि उनकी इश्क़बाजी की ख़बर उनके घर तक नहीं पहुँचेगी, तो ज़नाब ने दिल की गठरियों को खोलना शुरू किया. बी छुट्टन ने उनको रोज़ नीचे से मुसलसल देखे जाने का जब सबब पूछा किया, तो ज़नाब ने कहा कि वे बी छुट्टन पर फ़िदा हैं. उनसे मोहब्बत हो गई है!बी छुट्टन को नवाबज़ादे की इस बात से थोड़ी हैरत हुई, क्योंकि उम्र के मुआमले में बी छुट्टन और अली अहमद के बीच तकरीबन बारह-तेरह साल का फ़ासला था. मियाँ अली अहमद से तफ़सील जानने के बाद मालूम हुआ कि ज़नाब कैवाशिकोह में रहते हैं. वालिद का इंतकाल हो चुका है. उनसे बड़ी दो बहने थीं, जो अब हयात नहीं हैं. वालिद का इंतकाल होते ही चचा ने जायदाद का ज़्यादातर हिस्सा अपने क़ब्जे में कर लिया. थोड़ी-सी ज़मींदारी बच गई है, शहर में चार छोटे-छोटे मकान और दुकान हैं, जिनका किराया आता है. किरायेदार भी वक़्त पर किराया नहीं देते. बस इसी तरह घर चल रहा है. 

बी छुटट्न ने जब उनकी पढ़ाई-लिखाई के बाबत पूछा, तो ज़नाब ने बताया कि थोड़ी उर्दू-फारसी घर पर पढ़ी है. दो साल पहले स्कूल में दाख़िला करवाया था. मोगलपुरा में रिश्ते के मामूँ रहते हैं, वही कभी-कभार आकर ख़ैरियत ले लेते हैं. स्कूल में भी लोकल गार्जियन वही हैं. चूँकि वे ख़ुद ही एक नवाब साहब के यहाँ मुलाज़मत करते हैं, इसलिए ज़रा मसरूफ रहते हैं. बराबर मिलने नहीं आ पाते हैं. अली अहमद साहब की रुदाद सुनने के बाद बी छुट्टन ने मुहब्बत की ऐसी मिसाल पेश की, जिसकी कोई दूसरी मिसाल मुहब्बत की तारीख़ में नहीं मिलती. बी छुट्टन ने न केवल अली अहमद को अपने खर्चे से पढ़ाया-लिखाया, बल्कि उनकी वालिदा की पसंद की लड़की से शादी भी करवाई. लॉ की पढ़ाई करवा कर अली अहमद साहब को नामी वकील बनवाया और यह सलाह दी कि वे पटना की बजाए कलकत्ता में रहें और वहीं अपना घर बसाएँ.  

विदेशी व्यापारियों और विदेशी सैनिकों के पटना आने-जाने के कारण ज़ोहराबाई, अल्लाजिलाई, बी छुट्टन, बी रमजो जैसी जिन तवाइफ़ों ने कभी जिन इलाकों को बाज़ार-ए-हुश्न बना रखा था, वे इलाके धीरे-धीरे अपनी अपनी ढलान की ओर जाने लगे. सन् 1900 ईस्वी के बाद चौहट्टा के आसपास बहुत तेज़ी से आबादी बढ़नी शुरू हुई. पटना कॉलेज और उसके आसपास रहने वाले लोगों ने इस इलाके में तवाइफ़ों के घर होने पर एतराज़ करना शुरू कर दिया. तवाइफ़ों को इस इलाके से हटवाने के लिए लोग इस मुआमले को लेकर पटना हाई कोर्ट चले गये. अदालत में ज़िरह के मैदान में दलाएल (तर्कों) के ज़िरह-बख़्तर पहनकर नामी वकील उतारे गए. महीनों तक लंबी-लंबी बहसें चली और आख़िरकार सन् 1935 में पटना हाई कोर्ट में तवाइफ़ें अपना मुकद्दमा हार गईं. उसके बाद उनको इस इलाके से हटाकर पटना सिटी भेज दिया गया.[16]

जिन तवाइफ़ों के रहने से इस इलाके की आलीशान इमारतें कोठे के रूप में जानी जाती थीं, वे तमाम इमारतें अब फिर से कोठी में तब्दील की जाने लगीं. फिर से शरीफ़ज़ादों और नवाबज़ादों के रहने के लायक होने लगीं. सन् 1913 में ही ज़ोहराबाई अल्लाह को प्यारी हो चुकी थी और 1930 में ग़ौहर जान का भी अपने आबा-ए-वतन से दूर मैसूर में इंतकाल हो चुका था. सन् 1800 में जो बाज़ार-ए-हुश्न पटना में बसा था, वह 1935 तक आते-आते उजड़ गया. इन तवाइफ़ों के साथ ही तहज़ीब और मौसिकी के ठिकानों का भी धीरे-धीरे इंतकाल हो गया. अब रह गये हैं उनके क़ब्रों के कुछ निशां और कुछ पुराने बुजुर्गों की यादों में बसी वे दास्तां जो कहीं-कहीं दर्ज़ तो हो गईं, मगर ज़्यादातर बेचैन रुह अफ़साने आज भी पटना सिटी की गलियों में अपने अफ़सानानिग़ारों बड़ी बेकली से ढूँढ़ती रहती हैं. इस ग़म-ए-दुनिया ने ग़र थोड़ी भी मोहलत दी, तो आगे कोशिश रहेगी कि इन अफ़सानों को रोने के लिए एक कंधा दे सकूँ और ज़ेहन से आहिस्ता-आहिस्ता उतरने के लिए सुकून चंद लम्हे भी!आमीन.
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संदर्भ
[2]मुबारकः www.thelallantop.com, Feb. 15, 2018
[5]Sampath, Vikram: The romance of Gauhar Jaan, live mint,16 April, 2010
[6]भारद्वाज, अनुरागः https://satyagrah.scroll.in, October 07, 2019
[7]Sampath, Vikram:https://theprint.in, 2 June, 2019
[8]ibid
[10]प्रसाद, ओमप्रकाशः बिहारः एक ऐतिहासिक अध्ययन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ. 298
[12]प्रसाद, ओमप्रकाशः बिहारः एक ऐतिहासिक अध्ययन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ. 298
[13]रंजन सूरिदेव-प्रभाकर प्रसादः पाटलिपुत्र की धरोहर-रामजी मिश्र मनोहर, मोतीलाल-बनारसीदास, 1998, पृ. 63
[14]प्रसाद, ओमप्रकाशः बिहारः एक ऐतिहासिक अध्ययन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ. 298
[15]सिंह, अरुणः लोकमत दीप भव 2019, अंक-9
[16]प्रसाद, ओमप्रकाशः बिहारः एक ऐतिहासिक अध्ययन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ. 298

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान,
पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय,
मानसा रोड, बठिंडा-151001.
फोन-8218785993

कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु : प्रेमकुमार मणि

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कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु                    
प्रेमकुमार मणि





रेणु का कहानीकार रूप उनके उपन्यासकार रूप से महत्व में कुछ अधिक ही है. हिंदी कहानियों में प्रेमचंद के बाद ग्रामीण छवियाँ कम मिलने लगी थीं. साहित्य में जो आधुनिक प्रवृत्तियाँ उभर रही थीं, उनके लिए नगरीय मध्यवर्ग का परिवेश अधिक उपयुक्त है, ऐसा लेखकों का मानना था. जैनेन्द्र कुमार, यशपाल, अज्ञेय जैसे लेखकों ने ग्रामीण पृष्ठभूमि से स्वयं को लगभग अलग ही रखा हुआ था. आज़ादी  के बाद साहित्य में जो युवा स्वर उभर रहे थे उनका भी यही हाल था. नयी कहानी आंदोलन तो पूरे तौर पर मध्यवर्ग का साहित्यान्दोलन था, जिसकी जड़ें नगरीय जीवन में थीं. ग्रामीण परिवेश-पृष्ठभूमि के साथ कोई समर्थ हिंदी लेखक कहानी क्षेत्र में उन दिनों  नहीं था. ऐसे में ही रेणु अपने ठेठ ग्रामीण परिवेश और पूरे आंचलिक वितान के साथ हिंदी कहानी के परिदृश्य पर उभरते हैं और अपनी रचनात्मकता से एक हलचल पैदा कर देते हैं. 

गाँव हिंदी कहानी के केंद्र में एक बार फिर आता है और हम कह सकते हैं कि पहले की अपेक्षा अधिक ताकत और विश्वसनीयता से अपनी पहचान स्थापित करता है. कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के बाद गाँव अपनी समग्रता में रेणु की कहानियों में ही स्थान पाता है. हिंदी कहानी को सबसे अधिक विश्वसनीय ग्रामीण पात्र रेणु ने ही दिए हैं. उनके पात्र हमें अपनी उस आंचलिक दुनिया में खींच ले जाते हैं,जो भारतीय गाँवों का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे  अपने दिल की बात अपनी पूरी रागात्मकता से प्रस्तुत करते  हैं. उनकी कोशिश हमें अपने परिवेश में शामिल-समाहित कर लेने की होती है.  इसलिए उनकी कहानियाँ एक कज्जल-विश्वसनीयता के घेरे में हमें बाँध लेती हैं. रेणु जब  अपनी दुनिया के चित्र उकेर रहे होते हैं, तब इतने तन्मय हो जाते हैं कि उनके शब्द,चित्र और चेतना मिलकर एकाकार हो जाते हैं. हिंदी कहानी की किसी प्रचलित धारा अथवा आंदोलन से घोषित रूप में वह कभी नहीं जुड़ते. न ही कलावादी खेमे से, न ही प्रगतिशील कहे जाने वाले मार्क्सवादी खेमे से. अपनी जगह वह खुद बनाते हैं. लेकिन यह जरूर है कि उनकी कहानियाँ हमे भारत के उस  जीवन से जोड़ती हैं,जो हाशिये पर हैं. बिना किसी नारेबाजी अथवा बड़बोलेपन के उनकी कहानियाँ हमें भारत की मिहनतक़श जनता की धड़कनों के  करीब ले जाती हैं. 

आश्चर्य होता है कि जीवन की इतनी विविध छवियाँ उनने किस तरह  आत्मसात कीं. लोक जीवन के राग-अनुरागों, उनकी समझ,उनकी संवेदना और विवेक को उन्होंने अपने अंदाज़ में पकड़ने की कोशिश की है. परिवेश तो जितना रेणु की कहानियों में जीवन्त हुआ है,उतना अन्य किसी हिंदी कहानीकार में नहीं. पात्र और परिवेश के किसी द्वैत की निर्मिति वह नहीं करते ; बल्कि दोनों का अद्वैत गढ़ते हैं. यही रेणु की खूबी है. इस रूप में ही वह अनूठे-अप्रतिम हैं. हिंदी साहित्य को ‘तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम’, ‘रसप्रिया’, ‘ठेस’.‘आत्मसाक्षी’, ‘लाल पान की बेगम’ जैसी अविस्मरणीय कहानियाँ रेणु ने दी हैं. यदि उन्होंने और कुछ न लिख कर केवल ‘तीसरी कसम’  भी लिखा होता,तब भी गुलेरीजी की तरह वह हिंदी कथा जगत में अमर होते. 

  
हम रेणु की कहानियों के विविध पक्षों पर यहाँ विचार करना चाहेंगे. लेकिन सबसे पहले उनकी कहानियों के विकास-क्रम को समझना चाहेंगे. संख्या के हिसाब से उनने कुल जमा तिरसठ (63) कहानियाँ हिंदी-साहित्य को दी हैं. उनकी पहली कहानी ‘बट-बाबा’ 27 अगस्त 1944 के कोलकाता (तब कलकत्ता)  के साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई. और अंतिम कहानी ‘अगिनखोर’ नयी दिल्ली से प्रकाशित ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के 5-12 नवंबर 1972 के अंक में. वय के हिसाब से,अपनी पहली कहानी के प्रकाशित होने के समय, रेणु तेईस वर्ष के थे और अंतिम  कहानी के प्रकाशित होने के समय 51 वर्ष के. इस तरह 28 वर्षों के लेखन-काल  में 63 कहानियाँ संख्या के हिसाब से बहुत अधिक नहीं कही जाएँगी.

यदि उनकी कहानियों के विकास-क्रम की और सूक्ष्म जाँच करेंगे तब इस निष्कर्ष पर आएँगे कि 1944 से 1953 तक उनके कहानी-लेखन का अप्रेंटिसशिप अथवा आरंभिक दौर ही है. इस बीच उनकी पंद्रह कहानियाँ आती हैं. लेकिन इन सब से किसी भी कहानी को,उनने अपने होते, अपने संकलन में नहीं लिया तो यही कहा जायेगा कि इन्हें स्वयं लेखक ने उल्लेखनीय नहीं  समझा. इस मामले में मैं रेणु के साथ होना चाहूँगा. 1944 से 1953 तक की उनकी कहानियों को केवल संख्या के ख्याल से ही हम रेणु की कहानी स्वीकार करते हैं. फिर यह उनके लेखकीय विकास को समझने में सहायक होता है. लेकिन 1955 में इलाहाबाद से धर्मवीर भारती के संपादन में निकलने वाले ‘निकष’ में उनकी कहानी ‘रसप्रिया’ छपती है और यह उनके कहानीकार के नए अंदाज़ को प्रस्तुत करती है. 1956 में श्रीपत राय के संपादन में प्रकाशित होने वाली ‘कहानी’ पत्रिका में ‘लाल पान की बेगम’ प्रकाशित होती है और उससे अगले वर्ष पटना से नर्मदेश्वर प्रसाद के संपादन में प्रकाशित होने वाली अपरम्परा’ में उनकी कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम’ नाम से प्रकाशित होती है. 1959 में उनका पहला कहानी संकलन ‘ठुमरी’ शीर्षक से प्रकाशित होता है,जिसमें उनकी नौ कहानियाँ होती हैं. ये हैं– रसप्रिया, तीसरी कसम, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, सिरपंचमी का सगुन, तीर्थोदक, तीन बिंदिया, ठेस और नित्यलीला.

कहा जाना चाहिए कि 1955 से 1959 तक की अवधि उनकी कहानियों का स्वर्ण या सुनहला-काल है. हम कह सकते है कि उनका यह काल थोड़े उतार के साथ कुछ आगे तक चला. 1966 में उनका दूसरा संकलन ‘आदिम रात्रि की महक’प्रकाशित हुआ. इस बीच ‘संवदिया’, ‘एक आदिम रात्रि की महक’, ‘आत्मसाक्षी’,‘जलवा’ जैसी कहानियाँ उन्होंने लिखीं. ‘आत्मसाक्षी’ कहानी अलग-अलग कारणों से अज्ञेय और हिंदी-साहित्य के जर्मन अध्येता लोठार लुटसेको बहुत पसंद थी. इसी बीच रेणु की एक कहानी ‘तीसरी कसम’ पर फिल्म बनी और रेणु कुछ समय के लिए फ़िल्मी-प्राणी हो गए. कहानियाँ 1972 तक लिखीं और वे प्रकाशित भी हुईं,लेकिन रसप्रिया,तीसरी कसम, ठेस, पंचलाइट, लाल पान की बेगम या आत्मसाक्षी जैसी उल्लेखनीय कहानी वह नहीं लिख सके. 1966-67 के सूखे और 1975 में पटना नगर में आयी भीषण बाढ़ पर उनके रिपोर्ताज किसी कहानी से कम मोहक नहीं हैं,लेकिन उन्हें कहानी कहना शायद ज्यादती होगी.

रेणु जिस ज़माने में थे,उसमें हिंदी की अनेक लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाएँ थीं. धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, ज्ञानोदय, कल्पना, कहानी, माया, नयी कहानियाँ और सारिका जैसी पत्रिकाएँ उन दिनों समादृत थीं. रेणु इन सब में प्रकाशित हुए हैं. धर्मयुग में उनकी पाँच और सारिका में चार कहानियाँ प्रकाशित हुईं. ‘आत्मसाक्षी’ माया पत्रिका में छपी थीकल्पना, ज्ञानोदय, नयी कहानियाँ, कहानी, साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी उनकी कहानियाँ प्रकाशित हुईं. जनता, समाज,राष्ट्र-सन्देश,अवंतिका,योगी और स्थापना जैसी पत्रिकाओं में भी वह छपते थे. लेकिन संख्या के हिसाब से उनकी कहानियाँ सबसे अधिक जिन दो पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं वे हैं– ‘विश्वमित्र  और ‘ज्योत्स्ना’. उनके आरंभिक दौर की लगभग दस कहानियाँ विश्वमित्र में ही छपीं. इसी तरह 1962 से 1972 तक  पटना से शिवेंद्र नारायण के संपादन में निकलने वाली ‘ज्योत्स्ना’ में उनकी कुल सत्रह कहानियाँ प्रकाशित हुईं.

सब मिला कर हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि उनके कथा-लेखन के तीन पड़ाव या चरण हैं. एक पड़ाव 1953 तक आता है. 1954 में अपने पहले ही उपन्यास ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से उन्हें जो प्रसिद्धि मिलती है,उससे उनमें एक लेखकीय जिम्मेदारी का बोध आता है. इसके बाद वह बहुत संभल कर लिखते हैं. यही कारण है,1955 में प्रकाशित ‘रसप्रिया’ के बाद उन्होंने एक से एक अनेक अविस्मरणीय कहानियाँ लिखीं. उनका तीसरा पड़ाव 1966 में आरम्भ होता है. ‘तीसरी कसम’ फिल्म की प्रसिद्धि ने पहले से ही ख्यातनाम रेणु को एक  किंवदंती-पुरुष बना दिया. उनका लिखा अब कुछ भी छप सकता था. उनके लिखे के प्रकाशन से पत्रिकाओं की मर्यादा बढ़ जाती थी. इस कारण शायद बहुत नहीं चाहते हुए या फिर जैसा कि फ्रीलांस लेखक करते हैं,नियमित पारिश्रमिक के लिए भी रेणु ने अधिक लिखा होगा. 

ऐसा अधिकांश  लेखक करते हैं. इसका बड़ा उदहारण प्रेमचंद हैंया रूसी  लेखक चेखब. रेणु की इस तरह की  कहानियों में भी एक  आकर्षण है. जैसे कि ज्योत्स्ना में ही फ़रवरी 1965 में छपी एक कहानी ‘आज़ाद परिंदे’ गरीब परिवारों के आवारा हो रहे बच्चों की एक विश्वसनीय दास्ताँ बयाँ करती है. ऐसे बच्चों पर इतने विश्वसनीय रूप से हिंदी में कोई दूसरी कहानी नहीं है. ‘भित्ति चित्र की मयूरी’ भी एक ऐसी ही कहानी है,जिसमें लेखक ने अपनी ही एक कहानी ‘ठेस’ के पात्र सिरचन को फुलमत्ती और उसकी माँ के रूप में ला खड़ा किया है. लेकिन इस बीच रेणु ने ‘अगिनखोर’ जैसी कहानियाँ भी लिखी,जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता. मुझे नहीं मालूम इसके लिए लेखक ने अन्यत्र कुछ लिखा है या नहीं. जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कुछ कहानियाँ उन्होंने किसी न किसी दबाव में लिखी होंगी.



(दो)
रेणु कहानियाँ लिखते नहीं, बुनते हैं, जैसे कबीर चादर बुनते थे और उसी तर्ज पर अपनी कविता भी. कबीर ने चादर बुनने की प्रक्रिया अपने एक पद में बतलायी है. ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया. वह चादर ठोंक-ठोंक कर बुनते हैं,ढीले-ढाले ढंग से नहीं. उनकी बुनावट का यह कसाव ही उनकी कला और कविता  का उत्कर्ष  है. मजाल नहीं कि एक शब्द या एक सूत का बेज़ा इस्तेमाल हो जाय. इस मायने में रेणु के आदर्श कबीर ही हैं. वह भी ठोंक-ठोंक कर अपनी कहानियाँ रचते हैं. शब्दों के महत्व अपनी जगह सुरक्षित हैं,लेकिन उनकी कहानियाँ पढ़ते समय शब्द अदृश्य होने लगते हैं और पाठक  के मन में परिवेश मूर्तमान हो  उभरने लगते हैं,जिसमें राग भी है,अनुराग भी. गीतात्मकता उनके उपन्यासों में भी है,लेकिन उसका सर्वांग रूप उनकी कहानियों में ही उभरता है. उपन्यासों में गीतात्मकता को पूरी तरह  सुरक्षित रखना उसके धज अथवा कैनवास के कारण मुश्किल भी था. कहानियों में इसे सुरक्षित रखना रेणु के लिए संभव था. इसमें वह सफल भी दिखते हैं. 

‘रसप्रिया’ उनकी ऐसी कहानी है जिसमें पँचकौड़ी मिरदंगिया के बहाने ग्रामीण जीवन में चल रहे, अनवरत रोमांस और उसकी परिणति को पूरे सौष्ठव के साथ वह रखते हैं. यह अद्भुत प्रेमकथा है. अधिकांश प्रेम कथाओं जैसी ट्रेजेडी से कुछ अलग इस कथा की ट्रेजेडी हमें समाज के आर्थिक-सामाजिक अंतर्संघर्ष और उसमें कलाकार की नियति पर सोचने के लिए विवश भी करती है. इस कहानी के रचनाकाल का ध्यान कीजिए– 1955. दुनिया की राजनीति में शीतयुद्ध की महामारी है. दुनिया भर के लेखक इससे अपने अंदाज़ में निबट रहे हैं. लेकिन राजनीतिक तौर पर अन्य अधिकांश लेखकों से सचेत रेणु उन मनुष्य समूह की नियति को देखने की कोशिश कर रहे होते हैं जो चुपचाप अपने समय का इतिहास लिख रहे होते हैं. मोहना की माँ और पँचकौड़ी मिरदंगिया आपको चाहे जितने निरीह दिखें,वे भी अपने समय को अनेकानेक  संकेतों से सम्बोधित कर रहे होते हैं. उनके पास भी बहुत कुछ है कहने के लिए. 

रेणु ऐसे ही मूक रहे पात्रों के कथावाचक हैं.  रेणु यह नहीं मानते कि ग्रामीण सर्वहारा के जीवन में आर्थिक दुःख के सिवा और कुछ होता ही नहीं. वह यह भी कहना चाहते हैं कि उनका आर्थिक-सामाजिक दैन्य उनके जीवन को कई स्तरों पर विरूप कर देता है. उनका कुछ भी सुरक्षित नहीं रह जाता. उनका जीवन-राग मुश्किल में होता है. लेकिन चाहे जो हो,ये मिहनतक़श लोग जो आमतौर पर हमारे सामाजिक जीवन के हाशिये पर होते हैं, राग-अनुराग से विरत नहीं हो सकते. वह अपनी धड़कनों को खोना नहीं चाहते. उनका महत्व समझते हैं. 

रेणु की अन्य कई कहानियों जैसे ‘पंचलाइट’, ‘तीसरी कसम’. ‘अच्छे लोग’ या फिर आखिरी  दौर  की कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ में भी रागात्मकता के विविध रूपों को आप देख सकते हैं. पंचलाइट के गोधन और मुनरी, तीसरी कसम का हिरामन, ‘अच्छे लोग’ के उजागिर और बिरौलीवाली या ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ की फुलपतिया सब एक ही पीड़ा या रस में डूबे हुए पात्र हैं. इस  बीच रेणु कृष्ण की पौराणिकता को लेकर भी एक बहुत खूब कहानी बुनते हैं ‘नित्यलीला’. इस कहानी की चर्चा कम ही हुई है. उनके प्रथम कहानी संकलन ‘ठुमरी’ में यह संकलित है. कृष्ण-लीला के एक ऐसे अभिराम दृश्य को रेणु गढ़ते है,जो कृष्ण की प्रचलित पौराणिकता में शायद नहीं है,लेकिन अपनी बुनावट और कथा में वह इतनी सरस और गीतात्मक है जिसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है. पौराणिकता को नए अंदाज़ में कहने का एक प्रचलन हमारे साहित्य में तेजी से उभरा है. लेकिन पौराणिकता का इस्तेमाल अपनी कथा रचना में हम कैसे करें,यह कोई रेणु से सीखे.

रेणु राजस्थानी लेखक विजयदान देथाकी तरह लोककथाओं का पुनर्पाठ-पुनर्प्रस्तुति या पुनर्लेखन नहीं करते. मेरी जानकारी में उनकी कोई ऐसी कहानी नहीं है,जो किसी प्रचलित कथा की  पुनर्प्रस्तुति हो, तीसरी कसम भी नहीं. हाँ,लोक जीवन के प्रचलित लोक गीतों,मुहावरों,अन्य जनश्रुतियों और सबसे बढ़ कर उनके राग-अनुराग का इस्तेमाल अपनी कथा बुनने में वह अवश्य करते हैं. रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ और देथा की कहानी ‘दुविधा’ में कुछ-कुछ साम्य है,लेकिन अपनी बुनावट में दोनों बिलकुल अलग हैं. देथा ने एक प्रचलित राजस्थानी लोककथा को एक आधुनिक कहानी का रूप दिया है ; लेकिन रेणु की ‘तीसरी कसम’ उनकी अपनी है,उसकी कथा-वस्तु को रेणु ने स्वयं गढ़ा-बुना है. वह उनकी मौलिक रचना है. हाँ,इसमें महुआ घटवारिन जैसी लोक- कथा या कई गीतों के खूबसूरत इस्तेमाल उन्होंने अपनी बुनावट में जरूर किये हैं. 


यह है लोकतत्वों के इस्तेमाल की कला. इसे रेणु पूरी दक्षता से करते हैं. उनकी यही दक्षता कला का स्वरूप ग्रहण कर लेती है,फिर इसकी नकल किसी के लिए भी मुश्किल हो जाती है. फ़िल्मकार शैलेन्द्र ने 'तीसरी कसम'कहानी पर फिल्म बनाई,जो कई कारणों से चर्चित भी हुई. लेकिन उस फिल्म को देखने और कहानी को पढ़ने के अनुभव पृथक होते हैं. कहानी के लालित्य को फिल्म में हम अनुभव नहीं करते. कहानी-पाठ का जो प्रभाव एक संवेदनशील मन पर होता है,उसे फिल्म संभव नहीं कर पाती. रेणु की कहानियों की यह विशेषता ही कही जाएगी कि उसके रूपांतर से उसकी प्रभान्विति बिखर जाती है. खास कर जिस वातावरण को वह जो शब्दरूप देते हैं,उसका दृश्यांकन कतई संभव नहीं है. आलोचक डॉ सुरेंद्र चौधरी ने उनके इस महत्व को समझा था. सीधे उन्हें ही उद्धृत करना चाहूंगा-

'रेणु अपनी कहानियों में वातावरण को बड़ी सावधानी से, पर अत्यंत सहजता के साथ संयोजित करते हैं. रंग-रेखाओं में उभारते हैं. उनका व्यक्त-अव्यक्त अर्थ हर दबाव के साथ प्रकट होता है. वातावरण की सघनता नई कहानियों में अपना विशिष्ट महत्व रखती है. प्रायः रेणु के समकालीन लेखकों ने वातावरण को कलात्मक-संश्लिष्टता दी है,उसे कहानी के बाहरी तत्व से भिन्न अंतरंग बनाया है. लेकिन रेणु में उसकी छविमयता और सघनता की अपनी विशेषताएं हैं. यही कारण है कि रेणु को अक्सर आंचलिक कह कर इस पूरे आंदोलन के बदलावों से अलग भी रखने के प्रयास हुए हैं. इस बहस में पड़े बगैर कि रेणु वातावरण से ही आंचलिक रोमांसों के कहानीकार हैं या नहीं, मैं यहां सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि अन्य लेखकों की तुलना में रेणु का 'वातावरण'अपेक्षाकृत अधिक संवेद्य,सहज और स्पर्शयुक्त है. प्रतीक स्थितियों और अन्यपदेश के प्रयोग के बिना भी उनकी कहानियों के वातावरण को पहचाना जा सकता है. अपने वातावरण को कथा के 'रूपक'के लिए प्रयोग में लाने  के उदाहरण इन कहानियों में कम ही मिलेंगे..... रेणु की कहानियों का वातावरण रहस्यहीन और प्रत्यक्ष होता है. जहाँ प्रत्यक्ष की छायाएं रहती भी हैं,वहां उन्हें मानव-स्वभाव के साथ एक कर लेना रेणु को आता है. इस प्रकार रेणु की कहानियों का परिचित वातावरण भी हमें थकाता नहीं है, बार -बार नए कार्यकलापों,निष्कर्षों और परिणामों से जुड़ा होकर हमें ताज़ादम बनाता है.'
(फणीश्वरनाथ रेणु : सुरेंद्र चौधरी,विनिबंध,साहित्य अकादमी, पृष्ठ 35-36)

रेणु की सबसे  लम्बी और चर्चित कहानी 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम'है. विधुर गाड़ीवान हिरामन की इस  कथा का आरम्भ ही होता है 'हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी  लगती है ….'से. गाड़ीवान  के जीवन में गुदगुदी कैसी ! लेकिन रेणु के गाड़ीवान में यह गुदगुदी ही उसकी आत्मा है. और इसके इर्द-गिर्द है उसका पूरा स्वरूप जिसमें उसके दोस्त-यार,उसकी भौजाई,उसके प्यारे बैल और उसके समय का सारा क्लेश है. महुआ घटवारिन की व्यथा है, सौदागर है. उसका स्व-रूप  कैसा है ? रेणु की जुबान में ही देखिये - 

"चालीस का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा,देहाती नौजवान अपनी गाडी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्पी नहीं लेता. घर में बड़ा भाई है,खेती करता है. बाल-बच्चेवाला आदमी है. हिरामन भाई से बढ़कर भाभी की इज़्ज़त करता है. भाभी से डरता भी है. हिरामन की भी शादी हुई थी,बचपन में ही गौने के पहले ही दुल्हिन मर गयी. हिरामन को अपनी दुल्हिन का चेहरा याद नहीं. दूसरी शादी

दूसरी शादी न करने के अनेक कारण हैं. भाभी  की जिद्द,कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवाएगी. कुमारी का मतलब हुआ पांच-सात साल की लड़की. कौन मानता है सरधा-कानून ?कोई लड़की वाला दोब्याहू को अपनी गरज में पड़ने पर  ही दे सकता है. भाभी उसकी तीन-सत्त कर के बैठी है, सो बैठी है. भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती !... हिरामन  ने तय कर लिया है,शादी नहीं करेगा. कौन बलाय मोल लेने जाय ! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई ! और सब कुछ छूट जाय,गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन."
तो तीसरी कसम का नायक हिरामन ऐसा है. काला-कलूटा,चालीस साल का  देहाती नौजवान. भारतीय काव्यशास्त्र ने नायक के लिए जो धीरललित,धीरोदात्त, धीरप्रशांत और धीरोद्धत के प्रतिमान बनाये हैं,उसमें हिरामन भला कहाँ प्रवेश पाने योग्य है ? लेकिन समाजवादी रेणु उसे खड़ा करते हैं.  साहित्य में नए व्याकरण भी खड़े करने हैं उन्हें. उनका हिरामन हीराबाई द्वारा परख लिया गया है.

"हीराबाई ने परख लिया,हिरामन सचमुच हीरा है."रेणु को हिरामन के व्यक्तित्व ही नहीं,उसके समाज और उसकी सोच की भी परवाह है. हिरामन आम से कुछ अलग है,खास किस्म का इंसान. भाभी से बहुत डरता है,लिहाज करता है. विधुर हिरामन की दूसरी शादी न होने के भी कारण हैं.  'भाभी की जिद्द,कुमारी लड़की से ही हिरामन  की शादी करवाएगी'गाँव के लोगों को भी शारदा-कानून की जानकारी है,भले ही वे उसकी अवहेलना  कर जाते हैं. और इन सबके बीच हिरामन तय करता है वह शादी नहीं करेगा. वह सब कुछ छोड़ सकता है गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता.

रेणु को समझना प्रगतिवादियों के लिए मुश्किल रहा. इसके कारण थे. प्रगतिवादियों का किताबी अध्ययन उन्हें जिस मार्क्सवादी समझ के नजदीक ला सका,वह यह तय करने में असमर्थ था कि श्रमिक अपने कारोबार से वैसा ही प्रेम करता है,जैसा कलाकार अपनी कला से या कवि अपनी कविता से. श्रम करना भार नहीं है,वह जीवन का गीत है,जिसके बिना श्रमिक नहीं रह सकता. हिरामन सबकुछ छोड़ सकता है किन्तु गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता. जैसे कबीर ने बुनकरी और रैदास ने अपनी मोचीगीरी नहीं छोड़ी थी. हिंदी साहित्यालोचकों ने कभी इस बिंदु पर विचार करने की कोशिश नहीं की कि कबीर और रैदास की कविताओं में जो उल्लास है,वह तुलसी की कविताओं में क्यों नहीं है ? कबीर या रैदास की कविताओं में हाहाकार कम है,जीवन का उल्लास अधिक है. इसके उलट तुलसी की कविताओं में उल्लास कम, हाहाकार अधिक है. इसका  कारण संभवतः तुलसी का शारीरिक श्रम से दूर होना और दूसरों के श्रम पर जीने वाला होना है. तुलसी दूसरों के श्रम पर जीने-खाने वाले सामाजिक समूह से हैं. कबीर और रैदास स्वयं श्रमिक रचनाकार हैं.  

रेणु की कहानियों में अन्य प्रगतिवादी लेखकों के मुकाबले जीवन की हाय-हाय कम है और उल्लास कहीं अधिक है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि उनके पात्र ही नहीं स्वयं लेखक रेणु भी ठेठ किसान पृष्ठभूमि से आते हैं. खेती से उनका दिल जुड़ा हुआ था. धान की रोपाई और कटाई के वक़्त वह सब कुछ छोड़ कर गाँव पहुँच आते थे और खेतों में भी उतर जाते थे. वही समझ सकते थे कि हिरामन के लिए गाड़ीवानी कितना मायने रखता है. गाड़ी हांकते हुए ही हीराबाई को वह महुआ घटवारिन की गीतात्मक कथा सुनाता  है,जैसे कृष्ण अर्जुन को गीता सुना रहे थे. रेणु को समझना प्रगतिवादियों के लिए इसीलिए मुश्किल रहा कि उन्हें साहित्य के पारम्परिक ढांचों में रख कर परखना किसी केलिए भी संभव नहीं होता.


(तीन)
ठेठ प्रगतिवादी तबियत के आलोचकों को रेणु-साहित्य शायद इसलिए भी नहीं भाया  कि रेणु ने सपाट मार्क्सवादी समझ की कोई परवाह नहीं की,किन्तु जैसा कि इटालियन मार्क्सवादी चिंतक अंटोनिओ ग्राम्शी  ने सांस्कृतिक वर्चस्व की चुनौतियों का अनुमान किया था, रेणु ने भी बिना  ग्राम्शी  के लेखन से परिचित हुए इस पर अपने तरीकों से विमर्श किया. रेणु का लेखन इसे बिना कोई वैचारिक  बैनर लगाए रेखांकित करता है.  रेणु ने  सांस्कृतिक वर्चस्व की चुनौतियों को न केवल गंभीरता से समझा,बल्कि उनका मुकाबला भी किया था. ऐसा मुकाबला प्रेमचंद ने भी किया था. लेकिन रेणु  प्रेमचंद से एक कदम आगे आते हैं. यह शायद इसलिए कि प्रेमचंद के मुकाबले के रेणु के समय सामाजिक-राजनीतिक स्थितियां अधिक साफ़ थीं. रेणु जब युवा ही थे. देश को औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी मिल गयी थी. राष्ट्रीय आंदोलन के सिमट जाने से दूसरे प्रश्न अधिक स्पष्टता से उभर आये थे, रेणु का वर्णित लोक बहुत सीधा-सादा नहीं है, बहुत कुछ राजनीतिक भी है. यह ठीक है कि वह अनपढ़ है,किन्तु जीवन की पेंचीदगियों को समझने में अक्षम और अपनी अस्मिता के प्रति लापरवाह कदापि नहीं है. जनतांत्रिक समाज में उसे केवल वोट करने का अधिकार मिला है,लेकिन उसे इस बात की प्रतीति हो गयी है कि पुरोहितों, ज़मींदारों और महाजनों का जमाना कानूनन जा चुका है. अपनी बहुआयामी अस्मिता की परवाह उन्हें भी खूब है.  

जीवन में रोटी का अपना महत्व है, इसे वे समझते हैं,लेकिन वही सब  कुछ नहीं है.  किसी प्रगतिवादी कहानीकार की तुलना में उनकी कहानियों में सर्वहारा जनमन की धड़कन हम अधिक विश्वसनीयता से सुन सकते हैं. 'ठेस'कहानी का सिरचन कलाकार है. रेणु के शब्दों में

'जाति का कारीगर'. थोड़ा मुंहजोर है,लेकिन कामचोर नहीं. मोथी और पटेर जैसे घासों से एक से एक खूबसूरत शीतलपाटी,पटेर और आसनी बनाता है. उसकी कलाकारी मशहूर है. लेकिन इस लोक-शिल्पी की भी इज़्ज़त है, आत्मसम्मान है. उसे दौलत नहीं चाहिए. प्रेम से सुस्वादु भोजन मिल जाय और पान का बीड़ा ; फिर तो उसके शिल्प का कमाल कोई देख ले. मानू के घर अपमानित  सिरचन अपनी छुरी-हंसिया लेकर उठ जाता है. नहीं होगा उससे काम. लेकिन मानू के पान के बीड़े को वह कैसे भूल सकता है. विदा होते समय स्टेशन पर वह सारी फरमाइशें पहुंचा जाता है– 'सब चीज है दीदी ! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी,कुश की.

मानू मोहर छाप वाली धोती का दाम देने लगती है,सिरचन जीभ को दाँत से काट कर दोनों हाथ जोड़ लेता है. उसे इनाम नहीं चाहिए. मानू बहन को वह उदास नहीं कर सकता. उसकी चाची ने उसे अपमानित किया है,उसने नहीं. और ऐसे में मानू क्यों नहीं फूट-फूट कर रोने लगे ! कुछ ऐसा ही हाल 'संवदिया'के हरगोबिन का है. रेणु के सर्वहारा पात्र आर्थिक स्तर पर भले निर्धन  हों,सांस्कृतिक स्तर पर अत्यंत संपन्न हैं. प्रेमचंद के घीसू-माधव यदि रेणु के यहाँ नहीं मिलते तो इसके कारण हैं.

'लाल पान की बेगम'की बिरजू की माँ कितनी छोटी-सी इच्छा पालती है. उसे बस अपनी बैलगाड़ी पर बैठ कर नाच देखने जाना है. उसका शौहर आने वाला है. आया नहीं है. इंतज़ार में वह चिड़चिड़ा हो रही है. जंगी की पतोहू के 'लाल पान की  बेगम 'का  कटाक्ष झेलती बिरजू की माँ का तन मन जुड़ा जाता है,जब उसका शौहर गाडी लिए आ जाता है. उदार बनी बिरजू की माँ जंगी की पतोहू (बहू) को भी गाडी पर निमंत्रित कर बैठाती है. यही तो जीवन है. भूलो और आगे बढ़ो. अपने दोनों बच्चों बिरजू और चम्पिया के संग वह  जंगी की पतोहू के साथ गीत गाना चाहती है. रेणु का चित्रण देखिये- 

'बिरजू को गोद में लेकर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाये. बिरजू की माँ ने जंगी की पतोहू की ओर देखा,धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी. कितनी प्यारी पतोहू है ! गौने की साड़ी से एक खास  किस्म की गंध निकलती है. ठीक ही तो कहा  है उसने ! बिरजू की माँ बेगम है,लाल पान की बेगम. यह तो कोई बुरी बात नहीं है. हाँ, वह सचमुच लाल पान की बेगम है.'

 
'ठुमरी'में जितनी कहानियां संकलित हैं, उनमें रेणु लोक-रंग और जनजीवन में अधिक निमग्न दिखते हैं. उनके पास इतना कुछ कहने  के लिए है कि आश्चर्य होता है. रेणु ने इतना  कुछ कहाँ देखा,जिया और संजोया. 'तीसरी कसम'में गाड़ीवानों की ज़िंदगी को उनने जितनी आत्मीयता से उकेरा है,उसे देख कर आश्चर्य होता है,यह सब लेखक के अनुभव में आया कैसे? वही रेणु जब सिरचन और फुलपत्ती या हरगोबिन की कहानी सुनाते हैं तब हम दांतो तले ऊँगली दबाते हैं. लेकिन आश्चर्य कई  गुना बढ़ जाता है,जब लेखक रेणु राजनीतिक मिथ्याचारों की बखिया उधेड़ने लगते हैं. मैंने पहले ही लिखा है कि 1955 से 1960,उनके लेखन  का उत्कर्ष-काल है. इस बीच उनके राजनीतिक सरोकार हाइबरनेशन अथवा शीतनिष्क्रियता में चले गए थे. लेकिन ये प्रश्न उन्हें लगातार परेशान भी करते रहे. उनके लेखन में भी ये सवाल खूब मिलते हैं. सब जानते हैं रेणु लेखक होने के पूर्व एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता थे. वह उस बिहार से थे,जहाँ 1934 में ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हो चुका था और जहाँ का  समाजवादी आंदोलन मजबूत स्थिति में था. युवा रेणु इस आंदोलन के हिस्सा रहे थे. उन्होंने पड़ोसी मुल्क नेपाल में भी क्रांति  की धजा फैलानी चाही थी, हालांकि आरम्भ से ही रेणु राजनीतिक तिकड़म-धंधों के विरूद्ध रहे. राजनीतिक दल में कार्यकर्ताओं,जो एक समय वह स्वयं थे, की अस्मिता के लिए वह आजीवन चिंतित रहे. 

हिंदी लेखकों में राजनीतिक दिलचस्पी और सक्रियता रखने वाले यशपाल और राहुल जीभी रहे,लेकिन रेणु ने जिस तरह  राजनीति को समझा था दूसरा कोई नहीं समझ सका. आज़ाद भारत के समाज में राजनीतिक कार्यकर्त्ता एक नया वर्ग  था, बहुत कुछ औद्योगिक मजदूर वर्ग की तरह. इसे समझने के लिए कोई लेखक नहीं था. रेणु ने इसे अपना विषय  बनाया था. 1945 में लिखी उनकी एक कहानी है 'पार्टी का भूत'. इस कहानी में एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता जाने कितने तरह के सवालों से जूझ रहा होता है. लेकिन राजनीतिक कार्यकर्त्ता के दर्द को 1965 में लिखी गयी एक कहानी 'आत्मसाक्षी'में जिस तरह रखते हैं वह किसी को भी अतिरिक्त रूप से संवेदित कर जाती है. 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का दो भागों में विभाजन हो जाता है. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी का एक आम कार्यकर्त्ता गनपत अपने को इतना अकेला और असहाय पाता है कि पूरी राजनीति से ही उसका मोहभंग हो जाता है. 'उसको पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया है.वह पार्टी ऑफिस में ही रहता भी है,क्योंकि उसका कोई घर-बार नहीं है. पार्टी ऑफिस को उसने खुद खड़ा किया है. लेकिन अब उसे खाली करने के लिए कहा गया  है. 

पिछले तीस-पैंतीस  वर्षों से पार्टी के लिए डफली बजा-बजा कर भीख मांगने वाला और प्रचार करने वाला गनपत अचानक यह महसूस करता है कि वह गलत रास्ते पर था. 

"परिवार,जाति,धर्म,समाज और हर अन्याय-अत्याचार से हमेशा लड़नेवाला लड़ाकू गनपत आज अखाड़े में हारे हुए पहलवान की तरह पड़ा हुआ है. सभी उसकी पीठ पर एक लात लगा कर,गाली देकर चले जाते हैं...पैंतीस साल तक साधु-संन्यासियों की तरह लँगोटबंद रहकर जीभ-मुँह और मन में लगाम लगा कर,उसने पब्लिक का काम किया. किसी का एक तिनका न चुराया,न पार्टीका एक पैसा गोलमाल किया. माँ-बाप, भाई-बहन,गाँव-समाज और परबतिया से भी बढ़ कर पार्टी और पार्टी के झंडे को प्यार किया. सब बे-का-र..! गनपत को लगता है कि चाँद-सूरज में भी दरार पड़ गयी है. दुनिया की हर चीज दो भागों में बँटी हुई-सी लगती है. हर आदमी के दो टुकड़े,दो मुखड़े और दरका हुआ दिल !..जिन बातों को आजतक पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों की और जंगबाज़ों की बात समझ कर अनसुनी कर देता  था,आज वे ही बातें बार-बार याद आती हैं.." 

उसके भीतर से सवाल फूटते हैं- 

"गनपत,तुम्हारे लीडर लोग,यानी तुम्हारी पार्टी, जाति और धर्म को अफीम कहती है. मगर तुम्हारे लीडर लोग अपने बच्चे-बच्चियों की  शादी किसी दूसरी जाति में क्यों नहीं करते ? लड़के की शादी में कॉमरेड रामलगन सरमा ने पचीस हज़ार रुपये तिलक में गिनवा लिया. तुम्हारे लीडरों के बच्चे दार्जिलिंग और देहरादून में पढ़ते हैं. तुम्हारे सेक्रेटरी  की बीवी कांग्रेसी-मिनिस्टर होने के लिए जाति की गुटबंदी करती है. तुम्हारे…"

गनपत का मोहभंग एक पूरे राजनीतिक ढाँचे-से मोहभंग है,जिसे दलीय-जनतंत्र कहा जाता है. हर दल में लीडर पुरोहित, सामंत या पूंजीपति की तरह निरंकुश हो गया है. कार्यकर्ताओं की स्थिति सर्वहारा मज़दूरों से भी बदतर हो चुकी है. रेणु स्वयं इस स्थिति में वर्षों रहे,ऐसा अनुमान किया जा सकता है. 'आत्मसाक्षीके बाद उन्होंने कोई महत्वपूर्ण कहानी नहीं लिखी,हालांकि उनकी कई कहानियां उसके बाद भी प्रकाशित हुईं. राजनीतिक रूप से भी रेणु इस बीच शिथिल रहे. लेकिन इस बार उनका सचमुच हाइबरनेशन था. 1974 में बिहार में थके-हारे और कभी उनके आदर्श रहे समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने जब सम्पूर्ण-क्रांति का आह्वान किया,तब रेणु मानो उसका इंतज़ार ही कर रहे थे. दलविहीन जनतंत्र की सैद्धांतिकी रेणु को निश्चित ही अपने करीब लगी होगी. इसकी पृष्ठभूमि उनके मन में लम्बे समय से विकसित हो रही थी. यह अलग बात है कि जेपी आंदोलन की विफलता और उसके मिथ्याचार को लेकर वह चुप नहीं रहते. उस आंदोलन के घोर दक्षिणपंथी रुझानों पर भी उनकी नजर होती ही होती.

पूरे राजनीतिक उपक्रम में विचारों का संकट एक अलग प्रसंग है. इस पर राजनीतिक दार्शनिकों को चिंता करनी होती  है. लेकिन कार्यकर्ताओं की तकलीफों और दलों में उभर रहे पाखंडों पर तो लेखक को नजर रखनी ही होगी. हिंदी में यह काम बहुत कम लेखकों ने किया है. इसलिए रेणु अधिक महत्वपूर्ण दिखते हैं.

रेणु अपनी कहानियों द्वारा हमारी चेतना का एक नया आयाम विकसित करते हैं. उनका  साहित्यिक नजरिया हिंदी साहित्य के सामान्य नजरिये से तनिक भिन्न है. उस पर बंगला साहित्य-संस्कृति के प्रभाव को अनदेखा  नहीं किया जा सकता. लेकिन ध्यान देने की बात है कि शरतचंद्र और रवीन्द्रनाथ दोनों महार्घ साहित्याचार्यों  को वह एक साथ आत्मसात किये प्रतीत होते हैं. रवीन्द्र ने जब पहली दफा ही यूरोप की यात्रा की थी तब महसूस किया था कि वहां औद्योगिक क्रांति ने सरंजाम चाहे जितने विकसित किये हों,उसने मनुष्य के सुकून को हर लिया है. इसके मुकाबले उनके बंगाल में गरीबी चाहे जैसी हो बाउल गीत भी हैं. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने साहित्य में मनुष्य के इस राग  को बचाये  रखने  की कोशिश की. रेणु ने निःसंदेह  इस परंपरा  को अपने तरीके  से आगे बढ़ाने की कोशिश की. इसी तरह प्रेमचंद से उन्होंने मिहनतक़श तबके से जुड़ने  की परंपरा को आत्मसात किया. यही  कारण है  कि  आर्थिक और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित और शोषित तबके की जितनी छवियाँ रेणु की कहानियों में मूर्तमान हुई हैं,उतनी शायद ही किसी दूसरे हिंदी लेखक की कहानियों में हुई हैं. वह इंगित करते हैं गाँव-कस्बों और धूल में पड़े ये अनमोल अपरूप ही भविष्य के भारत के असली नायक होंगे. हिरामन, पँचकौड़ी, हरगोबिन,सिरचन आदि ही नए भारत और उसके जनतंत्र का इतिहास रचेंगे. 

रेणु के पात्र न तो गंवार हैं,न ही अबोध. वे पूरी तरह सचेष्ट हैं. सामाजिक-आर्थिक बदलावों पर उनकी नजर है. सामाजिक गतिकी को रेणु सूक्ष्मता से समझते-बूझते हैं. उनका जन,उनके पात्र असहाय और रहम के पात्र नहीं हैं. रेणु अपने पात्रों से एकात्म हैं,वह उसके लिए तनिक भी बाहरी नहीं  हैं. यही रेणु की विशेषता है. उनकी कहानियों पर विमर्श करते हुए,हमें इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए.
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प्रेमकुमार मणि 
9431662211

बटरोही : हम तीन थोकदार (तीन)

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हम तीन थोकदार (तीन)
पूर्व-कथा के रूप में लेखक की ओर से दो शब्द
बटरोही




जिन्दगी का बूमरैंग देखना आकर्षक तो लगता है, मगर खिझाने और परेशान करने वाला ज्यादा होता है...

पिछले तीन दिनों के तनाव के बाद जब मैं ‘हम तीन थोकदार’ की तीसरी किश्त का दूसरा-तीसरा ड्राफ्ट नए सिरे से लिख रहा था, सिर्फ यही दो वाक्य लिख पाया. उसके बाद फिर से बेचैनी ने घेर लिया. मानो मैं सवालों के अदृश्य षड्यंत्रकारी घेरो के बीच फंस गया हूँ जहाँ बंद गली के आखिरी मुहाने के अलावा कुछ भी नहीं बचा हो. कह सकते हैं कि मैं अभिमन्यु की तरह के चक्रव्यूहों से घिर गया था; मगर मेरे लिए तो यह उपमा एक गाली होगी... तो क्या मैं एकलव्य की तरह अकेला पड़ गया हूँ? नहीं, एकलव्य भी तो उसी ब्राह्मणवादी सोच के कवच के रूप में जन्मा चरित्र है, वह कैसे मेरी उलझन का प्रतीक बन सकता है?

तो क्या मैं कोई नया प्रतीक गढ़ूं? कब तक हम लोग नए-नए प्रतीक गढ़ते रहेंगे? मुझसे पहले कितने ही लोग अपने कवच के रूप में प्रतीक गढ़ चुके हैं? क्या मैं उन प्रतीकों से काम नहीं चला सकता? जिन असंख्य लोगों ने अतीत में अपने-अपने स्तर पर प्रतीक गढ़े, क्या वे लोग मेरे दुश्मन थे?

बहस खड़ी करूंगा तो फिर उसी अंधी गली में पहुँच जाऊँगा. नहीं, यह मैं नहीं चाहता. सीधे मुद्दे पर आता हूँ. पिछली दो किश्तों में मैंने अपने पक्ष को भरपूर विनय के साथ आपके सामने रखा. यही सोचकर कि लोग उदारता के साथ उन पर सोचेंगे. कई लोगों की समझ में शायद सन्दर्भ ही आया ही नहीं इसलिए आगे बढ़ गए. जो लोग मेरे प्रति सम्मान का भाव रखते थे, कमेन्ट बॉक्स में एक प्रश्नचिह्न डाल गए. कोरोना समय के इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर में एक साथ अनेक बहसें चल रही हैं, हर बहस का सूत्रधार अपने पक्ष को एकमात्र सच मानते हुए बहस में शामिल होना चाहता है. इन लाखों-करोड़ों बहसों में से सिर्फ हाल की बहसों को उठाकर देख लीजिये... नेहरू और सावरकर; पटेल, भगत सिंह, गाँधी, गोडसे, भारत, पाकिस्तान... ये तो राजनीतिक चरित्र हैं, जो नई बहसें भारी-भरकम गोहों के डायनासौरी फनों के साथ सीधे आँख में आँख डालकर मासूम सवालों के तीर छोड़ रहे हैं, उन्हें आप कैसे डील करेंगे? कुछ पुराने चेहरे: तोगड़िया, आडवाणी, गाँधी परिवार, मोदी, सुनील दत्त, अमिताभ बच्चन, गुलज़ार...और फिर उसी क्रम में नए चेहरे: अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, शक्तिकांत दास, रंजन गोगोई, अनुराग ठाकुर, अनुपम खेर, अक्षय कुमार, नसीरुद्दीन शाह, संविद पात्रा, रवीश कुमार, दाहिने-बाएं खड़े नए-नए बिहार, गुजरात, जेएनयू और साईनबाग... और इनमें से जन्म ले रहे तमाम असुविधाजनक चेहरे...

यह तो खैर लम्बी लिस्ट है, मैं सिर्फ एक नाम पर ठहर जाता हूँ: योगी आदित्यनाथ उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट पर. इसलिए कि वो मेरे आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ के कथानायक हैं. अगर मुझे मालूम होता कि उनका चेहरा लोगों को इस कदर उलझन में डाल देगा तो शायद मैं उन्हें अपनी कहानी का नायक बनाता ही नहीं; हालाँकि ऐसे भी काम नहीं चलता क्योंकि वो न होते तो कहानी आगे बढ़ती ही कैसे? मैं कैसे समझाऊँ कि आख्यान में वो न तो कथा-चरित्र हैं और न आभासी चेहरे. वह उसी तरह का एक वास्तविक चेहरा है, जैसे इस आख्यान का लेखक लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ या उसके उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का नायक कल्याण सिंह बिष्ट उर्फ़ कलुवा थोकदार.

गड़बड़ शायद तब हो जाती है जब स्थानीय और राष्ट्रीय चेहरों की छवियाँ और उनकी महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराने लगती हैं. हम लोग किसी चेहरे को या तो उसकी स्थानीय छवि के रूप में स्वीकार करने के आदी होते हैं या सार्वजनिक. ऐसा भी तो हो सकता है कि इन दोनों छवियों को एक और तार जोड़ रहा हो सकता है जिसका किसी स्थानीय या राष्ट्रीय छवि से कोई लेना-देना ही न हो!
मैं इसे एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करता हूँ.

वर्ष 1961 में जब मैं पहली बार अल्मोड़ा में शैलेश मटियानी से मिला, वो इतने बेचैन थे, मानो गुस्से-से फुफकारता हुआ कोई बहौड़िया (किशोर नर बछड़ा). अल्मोड़ा की एक ब्राह्मण युवती के साथ उनका प्रेम-सम्बन्ध चल रहा था और सारा शहर एक स्वर में उनके पीछे पड़ गया था. उन पर आरोप था कि वो हमारी क्षेत्रीय संस्कृति को दूषित करने में लगे हैं (जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा, पन्त-इलाचन्द्र की बराबरी करने निकला है!... ऐसे लेखक को फ़ौरन शहर से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए.) उन दिनों मैं मटियानी जी से बे-तरह प्रभावित था, इसलिए उनका पक्ष लेकर लोगों से झगड़ने, बहस करने लगा. कुछ दिनों बाद मैंने देखा, लोग मुझे भी उन्हीं नजरों से देखने लगे जैसे मटियानी जी को. हालत यह हो गयी थी कि साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों के इतने संपन्न शहर में उनके सिर्फ एक दोस्त बचे थे, पानू खोलिया. (मैं तो नैनीताल से उनसे मिलने अल्मोड़ा गया हुआ था.) उन्हीं के साथ वो कभी-कभार शहर में घूमते दिखाई देते थे क्योंकि शहर के कई लोग इस ताक में रहते थे कि वो अकेले दिखें तो उन्हें सबक सिखाया जाए. हालत यह हो गई थी कि अल्मोड़ा के कुछ साहित्य-प्रेमी उन दिनों रामपुरी चाकू और लाठियां लेकर घूमने लगे थे.

उन्हीं दिनों, या उसी के कुछ समय बाद, एक और प्रेम प्रसंग शहर में चर्चित हुआ, मोहन उप्रेती और नईमा खान का. उसका भी विरोध कम नहीं हुआ, मगर अंतर-धार्मिक मुद्दा होने के बावजूद शहर के बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग उप्रेती-नईमा के साथ खड़ा था. दोनों ने अपने अल्मोड़ा के साथियों के साथ मिलकर अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम किये, यही कारण है कि आज यह जोड़ी कुमाऊँ की सांस्कृतिक उपलब्धियों की पहचान के रूप में पूरे देश में जानी जाती है. दूसरी ओर शैलेश मटियानी को दुबारा अल्मोड़ा में घुसने नहीं दिया गया और उनके साथ जुड़ा ‘संस्कृति-द्रोही’ का ठप्पा कभी मिट नहीं पाया.

क्या यह सही नहीं है कि मोहन उप्रेती और शैलेश मटियानी की सांस्कृतिक प्रतिभा में से किसी को उन्नीस नहीं कहा जा सकता. शायद राष्ट्रीय स्तर पर मटियानी कहीं अधिक जाने जाते हैं. और क्या यह भी सच नहीं है कि अगर अपने युवा काल में शैलेश मटियानी को हिंदी समाज का सहारा मिल गया होता तो वह अपने अंतिम दिनों में मानसिक परेशानी (विक्षिप्तता!) के शिकार न हुए होते और अपनी उस बहु-प्रतीक्षित रचना को लिख सके होते, जिसकी चर्चा वो हमेशा अपने मित्रों से किया करते थे.

(ऐसा नहीं है कि इस आख्यान का पाठकों ने स्वागत नहीं किया; बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने न सिर्फ पिछली दो किश्तों को पसंद किया, अपने बहुमूल्य सुझाव भी भेजे. विशेष रूप से आख्यान-लेखक इन सहृदय पाठकों का आभारी है : अरुण देव, मनोज सहाय, स्वप्निल श्रीवास्तव, किरण अग्रवाल, दिवा भट्ट, हरि मृदुल, सुभाष पन्त, अरुण कुकसाल, रेनू अग्रवाल, रवि रंजन, यादवेन्द्र, सुधा पन्त, एसपी लाल, मिताली मुखर्जी, शिल्पा रोंघे आदि.)

‘भै भुखो, मैं सिती’
नोस्टाल्जिया नहीं, सचमुच केदिन

‘भै भुखो, मैं सिती’ (भाई भूखा था, मैं सोई रह गई) कुमाऊँ की प्रसिद्ध लोक-कथा है, जो पहाड़ी भाई-बहिनों के अन्तरंग प्रेम के रूप में सदियों से सुनाई जाती रही है. धर्मवीर भारती के चर्चित यात्रा-वृतांत ‘ठेले पर हिमालय’ की प्रेरणा यही लोक-कथा है. इसमें उन्होंने हिमालय क्षेत्र के लोगों के साथ वहां की प्रकृति और शेष प्राणियों के संबंधों के आत्मीय चित्र प्रस्तुत किये हैं.
लोक-कथा सिर्फ इतनी है कि नव-वर्ष के उपलक्ष्य में कई ऊंची-नीची पहाड़ियों को पार करने के बाद हर साल की तरह अपनी बहिन के लिए पकवानों का उपहार लेकर भाई उसके ससुराल पहुंचता है. भाई को जब पता चला कि दिन-भर की थकी-मादी बहिन सोई हुई है, वह उसके सिरहाने पकवानों का टोकरा रखकर लौट जाता है. सुबह उठने के बाद जब बहिन को वास्तविकता मालूम पड़ती है, भाई से भेंट न हो पाने के दुख, अवसाद और अपराध बोध के कारण उसके प्राण चल बसते हैं और वह पक्षी बनकर शिखरों, वनों, घाटियों में बेचैन भटकती हुई अपनी व्यथा का बखान करती रहती है.
उत्तराखंड में इस प्रथा को ‘भिटौली’ कहते हैं.


(छोटा-सा ब्रेक : लॉक डाउन डायरी)
27 मई, 2020, नैनीताल का मेरा घर : माउंट रोज, तल्लीताल 

करीब सात महीनों के बाद फतेहपुर के अपने शीतकालीन आवास में फंसा रहने के बाद रविवार 24 मई को अपनी निजी कार से नैनीताल पहुँचा. अपने ही घर से मुक्त होने और फिर खुद के ही घर में घुसने के लिए सरकारी नियमों का मुहताज होना पड़ा. वहां के दरवाजों पर ताला लगाने और यहाँ के दरवाजों का ताला खोलने तक की पूरी अवधि भर सरकारी नियमों की दहशत भरी उबाऊ प्रक्रिया से गुजरना एकदम नया अनुभव था, खासकर इस उम्र में.

कथाकार अमित श्रीवास्तव हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक हैं. सरल, कलाप्रेमी और संवेदनशील. पग-पग पर आ रही परेशानियों के बीच जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो सोचा उनके साथ परिचय का फायदा उठाया जाय. फोन से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि जिले के अन्दर एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए अब परमिट की जरूरत नहीं है. ‘आप अपनी गाड़ी से जा सकते हैं, ड्राईवर के अलावा एक और जन’. उन्होंने कहा. मैंने बताया कि मुझे और मेरी पत्नी को गाड़ी चलानी नहीं आती, इसलिए ड्राइवर को मिलाकर तीन लोगों को इजाजत देनी होगी. हम दोनों सत्तर से ऊपर की उम्र के सीनियर सिटिजन हैं, सरकार को हम जैसे लोगों की परेशानियों के बारे में सोचना चाहिए. कुछ देर के लिए वह मौन रहे, मानो समस्या पर मंथन कर रहे हों. ‘ऊपर से ऐसे ही नियम बताये गए हैं,’ उन्होंने कहा. लगा, उन्हें खुद ही अपनी प्रतिक्रिया से संतोष नहीं हुआ; अगले दिन अख़बार में पढ़ा कि फोर व्हीलर में तीन लोग यात्रा कर सकते हैं. हमारे लिए इतना पर्याप्त था.

अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई. फतेहपुर से ही एक ड्राईवर की व्यवस्था की. वह हमें नैनीताल तक छोड़ देगा. लेकिन लौटेगा कैसे? लॉक डाउन के कारण सरकारी बसें बंद थीं, टैक्सी वाले पूरी गाड़ी बुक कराकर आ-जा रहे थे मगर सिर्फ एक सवारी लेकर. यह संभव नहीं था कि ड्राईवर को पूरी गाड़ी का किराया देकर वापस भेजता; अंततः तय हुआ कि वह हमें नैनीताल के घर छोड़कर हमारी ही कार से फतेहपुर लौटेगा और कार को हमारे फार्म हाउस के गैरेज में डालकर अपने घर चला जाएगा. हालाँकि ड्राईवर ने अतिरिक्त पैसा लिया, पेट्रोल भी दुगुना खर्च हुआ मगर रास्ता निकल ही आया. कार और घर की चाभी बगल में भाभी जी को सौंपकर हम लोगों ने एकबारगी चैन की साँस ली.


तीसरे दिन पडौसी ‘आशा वर्कर’ ने कॉल बेल बजायी और बताया कि हमें बीडी पांडे हॉस्पिटल में रिपोर्ट करनी होगी, हमारे स्वास्थ्य की जाँच होगी और चौदह दिन तक घर पर ही क्वारंटाइन में रहना होगा. समस्या खड़ी हुई कि तल्लीताल के घर से मल्लीताल के अस्पताल तक कैसे जाएँ; गाड़ी तो फतेहपुर वापस जा चुकी थी, टैक्सी चल नहीं रही थी. तीखी धूप में हांफते हुए अस्पताल की चढ़ाई चढ़ना और लौटते हुए फिर घर तक की चढ़ाई... यह सब नई मुसीबत ओढ़ना भी हो सकता था. ‘आशा वर्कर’ से जिरह करना फिजूल था, वह क्या कर सकती थी? उसने सूचना दे दी थी, हमारा नाम, उम्र और मोबाइल नंबर नोट कर लिया था, अब आगे का रास्ता हमें खुद ही खोजना था... स्थानीय पत्रकार खबर की ताक में घर के इर्दगिर्द मंडरा ही रहे थे, बटरोही जी और पुलिस अधीक्षक को एक साथ घेरने का मौका उनके लिए ख़बरों के इस अकाल-दौर में छोटा-मोटा आकर्षण नहीं था.

बहरहाल, यह मेरा सिरदर्द था जिसे थोकदारों की कहानी के बीच घसीटना किसी भी रूप में ठीक नहीं था. जाँच के बाद अगर मामला पॉजिटिव रहा तो क्वारनटीन के बाद की स्थिति अख़बार वाले पूरी ईमानदारी और वस्तुनिष्ठता के साथ समाज को बता ही देंगे. उस झोला छाप ज्योतिषी की भविष्यवाणी के सत्य होने की स्थिति में मेरे न रहने पर भी या अस्पताल के कोरोना वारियर्स की कोशिशों से मुझे अगर पुनर्जीवन प्राप्त हो गया तो मुझे शासन-प्रशासन का आभारी तो होना ही पड़ेगा. फ़िलहाल मुझे आख्यान की तीसरी किश्त लिखनी है.

(ब्रेक के बाद)
अपनी ही ज़िन्दगी की शुरुआत

75 साल पहले जब परत-दर-परत चंद्राकार बिछी पहाड़ियों के बीच मौजूद अपने पत्थर-छाये घर के आँगन में मैं खुद के अस्तित्व को तलाशने की कोशिश कर रहा था, नक्षत्रों के झुण्ड की तरह कितने तो बिम्ब मन के अन्दर भर जाते थे और मैं बिना रोक-टोक अपने मन के संसार से बाहरी संसार के बीच वायु की गति से दौड़ा करता था. माँ की कोख में अनाम सोया हुआ मैं अपने बूते आकार धारण करता चला गया और माँ ने जिस पल मुझे यह संसार सौंपा, तब भी मैं उसे आँख भर नहीं देख पाया था. शरीर की आँखों से मैंने उसे उस दिन देखा जब मुझे भरपेट दूध पिलाकर उसने घर के कामों को निबटाने के लिए बाहर की दुनिया में प्रवेश किया. वह मुझे बड़ी-सी टोकरी में बिछे रुई-कपड़ों के गद्दे पर सुला जाती और मेरी उपस्थिति को भूलकर दूसरे लोगों की चिंता करने लगती. अपने संसार के बीच रहते हुए मुझे हर पल माँ की उपस्थिति का अहसास रहता और लगता, उसकी उपस्थिति के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है.
(युवा बिष्ट)

इस संसार में मेरे आगमन के दो साल बाद जब एक दिन माँ ‘ग्वाल्देमें’ की पश्चिमी पहाड़ी पर घास काट रही थी, तीखे ढलान वाली पहाड़ी पर से उसका पाँव फिसला था और वह सैकड़ों फुट नीचे बह रही बरसाती नदी में गिर पड़ी थी. मैं अपने बिछौने पर से ही माँ को लुढ़कते हुए देख पा रहा था. उसकी देह को पहाड़ी की ढलान पर खड़े इकलौते सेमल के पेड़ ने रोक लिया था और वह त्रिशंकु की तरह धरती और आकाश के बीच अटकी हुई थी. औरतें जब माँ की खबर देने गाँव की ओर लौट रही थीं, औरतों में से ही किसी के मुंह से मैंने अज्ञात व्यक्ति के लिए संबोधित यह गाली सुनी कि ऐसे घरवाले को भला कैसे माफ़ किया जा सकता है, जो पेट के बच्चे के साथ उसे ‘हत्यारी शिला’ पर घास काटने भेजता है. माँ उस वक़्त जिन्दा थी, मगर वो औरतें ऐसे रो रही थीं मानो माँ की देह से उसके प्राण नीचे घाटी में छिटक कर आर-पार बिखर गए हों.

हो सकता है कि माँ के प्राण उस वक़्त देह से बाहर न निकले हों, शायद इसी अनुमान के कारण  गाँव के पुरुष अपनी जान को जोखिम में डालकर सेमल के पेड़ पर लटकी माँ की देह को ग्वाल्देमें के शिखर तक जीता-जागता ले आए थे. मगर माँ के प्राण तो मुझ पर अटके थे, इसलिए वह जीवित थी. अपनी आँखों से मेरे और मेरी आँखों से खुद को दर्शन देने के बाद गाँव से बीस मील दूर शहर अल्मोड़ा तक जब गाँव के लोग माँ को चारपाई पर लिटाये हुए ले जा रहे थे, रास्ते में ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए. उसके बाद माँ अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ मेरी स्मृति में आ बसी थीं और हम दोनों एकाकार हो गए थे.

फतेहपुर में पिताजी की ‘बिशन कुटी’    
फतेहपुर का घर ‘बिशन कुटी’ मैंने बुदापैश्त से लौटने के बाद 2003 में पिताजी की स्मृति में बनवाया था हालाँकि इसकी बुनियाद 1997 में विदेश जाने से पहले डाल गया था. सच तो यह है कि इस घर को मैं माँ की स्मृति को ही समर्पित करना चाहता था, मगर ऐसा नहीं हो सका. बड़े भाई ने पांच साल पहले अपना मकान बनाया और उसका नाम माँ की स्मृति में ‘माधवी विला’ रख दिया था. हल्द्वानी में ही स्थायी रूप से रह रही मेरी दीदी ने सुझाया कि मैं अपने घर का नाम पिताजी की स्मृति में रखूँ ताकि माता-पिता दोनों की स्मृति हम लोगों के साथ हमेशा बनी रहे.

पिताजी के प्रति मेरे मन में अतिरिक्त भावुक लगाव कभी नहीं रहा; नोस्टाल्जिया भी नहीं, अलबत्ता मन में कहीं यह बात दबी हुई थी कि दो साल की उम्र में माँ की मृत्यु होने के बाद उन्होंने दूसरे थोकदारों की तरह शादी नहीं की थी और लम्बे समय तक शायद मेरे भविष्य के बारे में सोचते रहे थे. संभव है, उस उम्र में मैंने सोचा हो कि वो मेरी आगामी जिंदगी में माँ की भूमिका भी निभाएंगे, कुछ सालों तक उन्होंने निभाई भी, लेकिन मुझे वह ज्यादा समय तक अपने साथ नहीं रख सके. गाँव के स्कूल से छठी क्लास पास करने के बाद वो मुझे एक दिन अपनी विधवा बहन के पास नैनीताल छोड़ गए, यह कहकर कि मैं उनके घरेलू कामों में हाथ बंटा दूंगा, जिसकी एवज में वो मुझे दिन के खाली वक़्त में स्कूल भेज कर पढ़ा देंगी. नैनीताल में मैंने दोनों काम अपनी सामर्थ्य-भर निभाए, इस रूप में पिताजी की दोनों इच्छाएं पूरी हुई. इसके बाद पिताजी के साथ मेरा संपर्क टूटता चला गया. कभी-कभी मैं नैनीताल से उनको चिट्ठी लिख देता, जो शुरू-शुरू में मेरी पढ़ाई की प्रगति को लेकर होते थे; दो-एक चिट्ठियों में बुआजी की मेरे प्रति बेरुखी का भी जिक्र था, अपने हमउम्र बच्चों को प्राप्त सुख-भोगों का जिक्र करते हुए उन्हें खुद के लिए भी प्राप्त करने की लालसा-भरी इच्छा होती, मगर पिताजी की ओर से पत्रों का कभी कोई उत्तर नहीं आया तो मेरे पत्रों का सिलसिला भी भंग हो गया.

इसके बावजूद जिंदगी जीने का सिलसिला असंभव घटनाओं के बीच पूरी ताकत के साथ सफलता प्राप्त करने के सपनों की जद्दोजहद के साथ जारी रहा. इसी क्रम में नयी सहस्राब्दी के पहले दिन जब मैं बुदापैश्त से लन्दन होता हुआ एयर इंडिया की फ्लाइट संख्या ए. आई. 142 से नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरा, ठीक उसी पल मुझे अहसास हुआ कि पिताजी या बुआजी ने मेरे प्रति जो भी व्यवहार किया हो, वे लोग न होते तो दुनिया के एक बड़े हिस्से का चक्कर लगाने के बाद मैं आज इस जगह खड़ा न होता. बिना अतिरिक्त रूप से भावुक या नोस्टाल्जिक हुए मुझे लगा, मुझे इन दोनों का ऋणी होना चाहिए और मैंने निर्णय लिया कि फतेहपुर के घर का नाम अपने स्वर्गीय पिता ठाकुर बिशन सिंह बिष्ट की स्मृति में ‘बिशन कुटी’ रखूँगा और नैनीताल पहुँचने से पहले ही मैंने संगमरमर की नाम-पट्टी तैयार करवाई जिसे बाद में स्व-घोषित मुहूर्त पर दीवार पर चिपका दिया.


जिम कॉर्बेट ने बसाई छोटी हल्द्वानी
भारत की आज़ादी के ठीक एक दशक के बाद 100 रुपए बीघा के हिसाब से खरीदी गई जमीन तब पिताजी को बहुत महँगी लगी थी. नैनीताल के दक्षिणी छोर से लगी तराई-भाबर की यह जमीन तब पहाड़ियों के लिए साक्षात् नरक-जैसी थी. सांप-कीड़ों, मच्छरों और हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से घबराये पहाड़ियों को यहाँ किसी भी कीमत पर बसना मंजूर नहीं था हालाँकि उन्हें खुली छूट दी गई थी कि वो जितनी चाहें जमीन पर कब्ज़ा कर लें, उनके नाम पट्टा लिख दिया जायेगा. इन प्रलोभनों के बावजूद कोई पहाड़ी वहाँ नहीं बसा.

यह वो दौर था जब पश्चिमी पाकिस्तान से भारत में प्रवेश कर चुके विस्थापितों के रेले को उस वक़्त के गृहमंत्री पंडित गोविंदबल्लभ पन्त ने यह सोचकर नैनीताल की तराई में जबरन बसाया था कि जिन्दा रहेंगे तो तराई आबाद हो जाएगी, वरना आज़ादी के बाद पैदा हुए सबसे बड़े शरणार्थी संकट से मुक्ति तो मिल ही जाएगी. देखिए, आदमी के अस्तित्व की जिजीविषा क्या- कुछ नहीं कर दिखाती! विस्थापितों ने देखते-देखते इसे उत्तराखंड का ही नहीं, देश का सबसे आकर्षक और खुशहाल इलाका बना डाला.

नैनीताल के अंग्रेज प्रकृति-प्रेमी जिम कॉर्बेट ने, जो खुद को पहाड़ी ही मानते थे, हल्द्वानी के पास कालाढूंगी में अपना घर बनाकर पहाड़ियों को आकर्षित करने के लिए बगल में ही ‘नई हल्द्वानी’ नाम से एक गाँव बसाया लेकिन फिर भी पहाड़ के लोगों की हिम्मत नहीं हुई. ऐसा नहीं है कि तराई-भाबर के इस इलाके में तब कोई रहता नहीं था, यहाँ के स्थानीय आदिवासी थारू, बुक्सा, गुज्जर और रुहेले किसान यहाँ सदियों से रह रहे थे लेकिन पहाड़ों के बंद समाज के रहवासी थोकदारों की बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई और वे लोग अपने सीढ़ीदार पहाड़ी खेतों के एकांत में ही दुबके रह गए. दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई, मगर उन्हें तो देश की रफ़्तार का हिस्सा नहीं बनना था, सो एक बार ठिठके तो हमेशा के लिए ठिठके ही रह गए.

जिन दिनों पिताजी ने फतेहपुर में जमीन खरीदी, फतेहपुर या हल्द्वानी में कोई ‘बनभूलपुरा’ नहीं था और न तराई की जमीन में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के आज जैसे रिश्ते विकसित हुए थे. यह बात तो हमने एकदम हाल में, लॉक डाउन का दूसरा चरण शुरू होने के बाद, एक विस्फ़ोट की तरह सुनी थी कि हमारे गाँव में एक-एक ‘बनभूलपुरा’, ‘जमाती’ और ‘साईन बाग’ घुस आए हैं और उन्होंने सारे शासन-प्रशासन की रातों की नींद हराम कर रखी है. गाँव वाले नहीं जानते थे कि उन्हें ये लोग क्या तकलीफ दे रहे हैं, मगर कोई कष्ट न होते हुए भी शासन-प्रशासन के लोग बार-बार उनकी तकलीफों की खुद ही रूपरेखा बनाकर मीडिया को सौंप रहे थे, इसलिए गाँव वालों को भी धीरे-धीरे महसूस होने लगा था कि वे तकलीफ में हैं.


सुल्ताना डाकू की प्रेमिका से जमीन का सौदा 
फतेहपुर में बसने के बाद हमारे परिवार का सम्बन्ध तराई की एक और चर्चित हस्ती सुल्ताना डाकू के साथ स्थापित हुआ. जिस दबंग औरत से पिताजी ने जमीन खरीदी थी उसे लोग ‘पधानी’ के नाम से पुकारते थे. तब वह एक बीहड़ इलाका था, जहाँ घुसने में अच्छे-अच्छे लोगों की हवा निकलती थी. वह औरत वहां शान से रहती थी. उसकी वीरता और दबंगई के अनेक किस्से लोगों के बीच प्रचलित थे, जिनमें सबसे लोकप्रिय यह था कि वह सुल्ताना डाकू की सबसे विश्वस्त प्रेमिका थी. हालाँकि सुल्ताना के बारे में कहा जाता था कि वह रुपया-पैसा या औरतों को नहीं, सिर्फ अनाज लूटता था, इसके बावजूद लोगों को यह भरोसा था कि इस बीहड़ इलाके में कहीं-न-कहीं सोना-जवाहरात दबा हुआ हो सकता है. जल्दी ही ऐसी बातें अफवाह साबित हुई क्योंकि ज्यों-ज्यों जंगल काटकर खेत तराशे गए, किसी को खुदाई में कोई दौलत नहीं मिली.

अब तो हल्द्वानी और फतेहपुर महानगर के दो पड़ौसी मुहल्ले बनने की राह में हैं, इसलिए भी सरकार से लेकर भू-माफिया और आम आदमी तक इस इलाके को ललचाई नज़र से देखने लगे हैं. बेशक, माँ की यादें इस इलाके के साथ जुड़ी हुई नहीं हैं, मगर मेरी उस बहन का घर हल्द्वानी में ही है, जिसने मेरे फार्म-हाउस का नाम पिताजी की स्मृति में रखने का सुझाव दिया था. बहन का उल्लेख यहाँ इसलिए जरूरी है क्योंकि लोग बताते थे कि मेरी माँ की शक्ल हू-ब-हू उससे मिलती थी. इसे यों भी कह सकते हैं कि मेरी स्मृति में माँ की छवि बहन के रूप में है. यह उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि इस आख्यान के तीनों कथा-नायकों से जुड़ी इस कड़ी का सम्बन्ध उनकी बहनों के साथ है.


थोकदारों की जिंदगी में आई औरतें चिड़िया बन जाती थीं  
मुझे नहीं मालूम कि मुझसे बिछुड़ने के बाद माँ को किस चिड़िया की योनि मिली, अलबत्ता मेरी स्मृति में उसकी छवि स्त्री की करुणा और स्नेह की प्रतीक किसी मणि की तरह है. माँ के न रहने के बाद उसकी जगह मुझसे सात-आठ साल बड़ी बहन ने ले ली थी, जो इन दिनों बयासी साल की एक कमजोर बूढी औरत है और हल्द्वानी में ही रहती है. बचपन में उसने मुझे पक्षियों से जुड़ी अनेक लोक-कथाएं सुनाई थीं जो मेरे मन में सारी जिंदगी पहाड़ी स्त्री के पक्षी-मिथक के रूप में मौजूद रहीं. इसी से मेरे मन में बैठा यह विश्वास मजबूत होता चला गया कि पहाड़ी औरतें संसार से विदा लेने के बाद पक्षी की योनि ग्रहण करती हैं.

जीतेजी पक्षी का मिथक बन चुकी अपनी बहन को लेकर मैंने प्री-ग्रेजुएशन के दिनों में कॉलेज-मैगज़ीन के लिए एक कहानी लिखी थी, ‘घुघूती-बासूती’, जिसे वर्ष 1962-63 की कहानी प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला था. यह भी मजेदार संयोग है कि उन्हीं दिनों मैंने गढ़वाल क्षेत्र के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण कुकरेती की एक कहानी ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ पढ़ी जो पहाड़ी स्त्री के कठिन संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति है. शायद पहाड़ी जीवन के इस पक्ष को लेकर लिखी गयी पहली हिंदी कहानी. इस कहानी में  पपीहे की तरह के एक पक्षी ‘चोळ’ का जिक्र था जो पहाड़ों में गर्मियों की आहट के साथ ही ‘स्वर्ग भैया, पानी दो, पानी दो’ की टेर लगाता हुआ इस शिखर से उस शिखर तक उड़ता हुआ आकाश से पानी की भिक्षा मांगता रहता है.  

आगे बढ़ने से पहले इस आख्यान के दूसरे कथा-नायक पौड़ी-गढ़वाल के पंचूर गाँव के अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ के जीवन में घटित स्त्री-पक्षी प्रसंग के बारे में बता दूँ.


5 जून 1972 को उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित यमकेश्वर तहसील के पंचुर गाँव के एक मध्यवर्गीय गढ़वाली राजपूत परिवार में जन्मे अजय सिंह बिष्ट के पिताजी का नाम आनन्द सिंह बिष्ट था जो एक फॉरेस्ट रेंजर थे. इनकी माँ का नाम श्रीमती सावित्री देवी है. अपने माता-पिता के सात बच्चों में तीन बड़ी बहनों व एक बड़े भाई के बाद अजय पांचवें हैं एवं इनसे और दो छोटे भाई हैं.
 
(शशि पयाल) 
अजय की बड़ी बहन शशि का प्रभाव उन पर सबसे अधिक पड़ा. शशि पौड़ी के कोठार गांव की रहने वाली हैं और तीर्थ नगरी ऋषिकेश में चाय की दुकानें चलाती हैं. उन्हें सादगी में रहना काफी पसंद है. शादी के बाद से ही शशि एकदम साधारण जीवन बिता रही हैं. उनकी एक दुकान नीलकंठ मंदिर के पास है और दूसरी चाय की दुकान भुवनेश्वरी मंदिर के पास. इन दोनों दुकानों में चाय, पकौड़ी और प्रसाद मिलता है. शशि देवी के पति पूरन सिंह पयाल पूर्व ग्राम प्रधान रह चुके हैं. इसके अलावा नीलकंठ मंदिर के पास उन का एक लॉज भी है. शशि देवी कहती हैं कि वो अपने भाई से बेहद प्यार करती हैं. उनके अनुसार, जब उन्हें पता चला कि उनका भाई योगी बन गया है, वो हर साधु में अपने भाई की शक्ल देखती हैं. उनकी शादी के बाद ही उनके भाई अजय घर छोड़कर चले गए थे. सांसद बनने से लेकर अब तक उनकी कोई बात नहीं हो पाई है. शशि देवी का कहना है कि वो अपने भाई से उत्तराखंड का भला चाहती हैं. भले ही उनका भाई उनके लिए कुछ करें या नहीं, लेकिन पहाड़ की जनता के लिए कुछ भला जरूर करें.
(अजय सिंह बिष्ट) 

बहन श्रीमती शशि पयाल कहती हैं कि उन्होंने भाई को छुटपन में स्कूल से लाने और ले जाने का काम किया है. पिछले 27 सालों से वह अपने भाई से नहीं मिल पाई हैं. बचपन की कुछ बातों को याद करते हुए बहन शशि बताती हैं, ‘बचपन में रक्षाबंधन के त्यौहार के दिन भाई हमेशा उनसे यही कहा करते थे कि ‘अभी तो फिलहाल मैं कुछ नहीं कमा रहा हूं,लेकिन जब बड़ा हो जाऊंगा तो तुम्हें खूब सारे उपहार दूंगा.’ 

इसके अलावा योगी आदित्यनाथ के छोटे भाई शैलेंद्र मोहन बिष्ट भारतीय सेना में 'सूबेदार'हैं. शैलेंद्र मोहन बिष्ट चीन से सटी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात हैं. शैलेंद्र मोहन गढ़वाल स्काउट यूनिट में माणा बॉर्डर पर तैनात हैं. माणा बॉर्डर चीन के साथ लगा हुआ है. ये वही रास्ता है, जहां से चीन की सेना ने कई बार घुसपैठ करने की नाकाम कोशिश की है. भारतीय सेना ने बार-बार चीन के सैनिकों को करारा जवाब दिया है. इसी गढ़वाल राइफल में सूबेदार हैं शैलेंद्र मोहन बिष्ट. गढ़वाल स्काउट यूनिट स्थानीय लोगों को पहाड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए सैनिकों के रूप में तैयार करती है. बॉर्डर के दूसरी तरफ चीन की सेना द्वारा घुसपैठ के बढ़ते खतरों के की वजह से माणा की सीमा का काफी सामरिक महत्व है. सूबेदार शैलेंद्र मोहन अपने बड़े भाई योगी आदित्यनाथ को बेहद पसंद करते हैं. (साभार: राज्य समीक्षा रिपोर्ट, उत्तराखंड)

हमारे तीसरे कथा-नायक कल्याण सिंह बिष्ट का स्त्री-पक्ष थोड़ा अलग तरह का है. अल्मोड़ा-चमोली जिले की सीमा पर बसे तलचट्टी गाँव का थोकदार कल्याण सिंह को बचपन के दिनों में ‘कलुआ थोकदार’ के नाम से जाना जाता था. दरअसल वह एक आभासी चरित्र है : 1988 में प्रकाशित मेरे उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का नायक. आभासी चरित्र है इसलिए उसका कोई स्त्री-पक्ष नहीं है क्योंकि उसकी न कोई बहन है, न प्रेमिका और न पत्नी. लेकिन हाँ, उपन्यास में एक स्त्री-चरित्र जरूर है ‘कुंतुली’, जो थोकदार के हलवाहे शिल्पकार भंगिरुआ की सात साल की बेटी है. कुंतुली इतनी भोली है कि जब उसके पिता उसी के हम-उम्र मालिक-थोकदारज्यू को आठ-दस मील की चढ़ाई तक पीठ में ढोकर कुल देवता के मंदिर तक ले जा रहे होते हैं, वह सबके सामने जिद करती है कि वह भी देवता को समर्पित होने वाले पशु-बलि का उत्सव देखने मंदिर तक जाएगी; मगर यह संभव नहीं हो पाता.

जवान होने पर कुंतुली उसके गाँव में पहाड़-वासियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर शोध-कार्य करने के लिए आए एक सवर्ण शोध छात्र नितिन पन्त की हवस का शिकार बन जाती है और सवर्णों के मिथक ‘सिंह-वाहिनी’ के सामानांतर दलितों के मिथक ‘महिष-वाहिनी’ के रूप में अपने प्रेमी से बदला लेती है.

इस प्रकार उपन्यास में स्त्री-पक्ष तीन रूपों में सामने आता है: पुरोहितों की सिंहवाहिनी, थोकदारों की पक्षीवाहिनी और दलितों की महिषवाहिनी के रूप में. ये तीनों पक्ष यह बताते हैं कि सदियों से स्त्री सिर्फ पुरुषों की वाहिनी रही है जिसका अपना निजी व्यक्तित्व कभी विकसित नहीं हो पाया. वह अपनी छवि कभी सिंह में, कभी पक्षी में और कभी भैंस की योनि में तलाशती रही, मगर अर्थहीन भटकन के सिवा कुछ भी उसके हाथ नहीं लगा.


सबसे पहले थोकदारों का स्त्री-पक्षी आयाम, जिसके तीन पक्षों की जानकारी पाठकों को मिल चुकी है. घुघुती, कफुवा, न्योली, चोळ, और वे अनगिनत पक्षी जो पहाड़ी वनांचलों में पूरे वर्ष बेचैन भटकते रहते हैं. जाने कब से पहाड़ी स्त्री ने उनकी आवाज को अपना स्वर बनाकर अपने सन्देश चारों दिशाओं में भेजे हैं, मगर आज तक वह आवाज उसके समाज की आवाज नहीं बन पाई है.  मजेदार बात यह है कि आज भी समाज उसकी आवाज को नोस्टेल्जिया की तरह याद करता है, जहाँ औरत देवी है, माँ है, संरक्षण देने वाली बहन है; और है भोग का जरिया. अपने वास्तविक दुखों पर स्मृतियों का मरहम लगाकर वह खुद की तकलीफों को नहीं, परिजनों को कष्टों से मुक्ति दिलाती रही है.

वर्ष 1961-64 के दौरान, जब मैं नैनीताल कॉलेज में पढ़ रहा था, दीदी के जीवन में ऐसा संकट आ पड़ा जिसके निदान का रास्ता किसी की समझ में नहीं आ पा रहा था. ऐसी परिस्थिति में जैसा कि होता है, अंधविश्वासों का सहारा लिया जाता है, दीदी के परिजनों ने भी वही रास्ता अपनाया. दीदी ने दो-तीन शिशुओं को जन्म दिया, लेकिन कोई जीवित नहीं रह पाया. प्यारे-से आत्मीय शिशु, जिन्हें मैंने भी अपनी गोद में खिलाया था. उन सभी शिशुओं की परवरिश उसी आत्मीयता के साथ की गयी, जैसी दीदी ने मेरी की थी. मगर सब कुछ एक अभिशाप की तरह सामने आता चला गया, मानो सब कुछ पूर्व-निर्धारित हो.

हमारा परिवार बहुत पहले इसी तरह के संकट से गुजर चुका था. तब मेरा जन्म नहीं हुआ था, पिताजी की पहली संतान के रूप में हमारा बड़ा भाई था पूरन. बताते हैं कि आठ-दस सालों का, सपनीली और शांत आँखों वाला वह बच्चा घर की पहली संतान होने के कारण सबका दुलारा था. एक दिन किसी बात पर उसका झगड़ा किसी हम-उम्र बच्चे से हुआ तो उसकी शिकायत भाई ने पिताजी से की. गुस्सैल पिताजी ने अपनी ओर से दो-चार हाथ अपनी ओर से और जमाकर, यह कहकर उसे घर से बाहर कर दिया कि उसका भी तो कुछ कसूर रहा होगा. जाड़ों के ठिठुरन भरे दिन थे, भावुक भाई उस कड़ाके की सर्दी में घर के नीचे वाले खेत पर पड़ी शिला पर उदास बैठा रहा. घर के लोग समझे कि वह घर में ही कहीं छिपा होगा, किसी ने उनकी खबर नहीं ली. आधी रात को पिताजी का गुस्सा जब शांत हुआ, उसकी तलाश हुई. नीचे के खेत में भाई पथरीली मेड़ के किनारे अकेला शांत बैठा था. उठाकर देखा तो बर्फीली ठण्ड से वह अचेत था और जब तक कुछ उपचार करते वह प्राण त्याग चुका था. मुझे नहीं मालूम कि हमारे उस सबसे बड़े भाई को मृत्यु के बाद कौन-सी योनि मिली, मगर परिवार के लोगों ने बताया कि उसके बाद पिताजी किसी से भी ऊँची आवाज में नहीं बोलते थे.

(बटरोही की दीदी- धना बोरा

दीदी की संतानों की कहानी अलग थी; करुणा और संताप से भरी, जिसके लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता था. मानो कोई अज्ञात शक्ति डरावना खेल खेल रही हो. सभी लोग परेशान थे, अपनी ओर से कोई रास्ता खोज रहे थे, मगर लाचार थे. एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा था कि किसी तांत्रिक या डंगरिये (देवता का अवतार ग्रहण करने वाला) की शरण में जाएँ. देवता का आवाहन किया गया, जिसने बताया कि इस अदृश्य शाप की छाया को मिटाने के लिए दीदी के आगामी नवजात शिशु को पन्याण (बर्तन मलने वाली जगह) में छोड़ दिया जाए, जिसे कोई सधवा स्त्री उठाकर अपना बच्चा स्वीकार कर ले. बाद में दीदी उस स्त्री से अपनी ही संतान को खरीद ले.

इस बार की संतान को दीदी ने इसी रिवाज के अनुसार अपनाया. चूंकि वह बच्ची पन्याण में मिली थी, इसलिए उनका नाम पनुली रक्खा गया जिसका संस्कृतीकरण ‘पुष्पा’ बना दिया गया. दीदी ने पुष्पा को भी उन्हीं पक्षी-गीतों को गाते और लोक-कथाओं को सुनाते हुए बड़ा किया, जिनके संस्कार उसने कभी मुझमें डाले थे.

गीत की कड़ियाँ मुक्त स्नेह को छलकाते हुए फालतू किस्म की तुकबंदी द्वारा निर्मित होती थीं, जिसमें शब्दावली का नहीं, भावनाओं के ज्वार का महत्व था. पीठ के बल लेटी हुई माएँ और बहनें अपनी संतान को पावों की कुर्सी पर बैठाकर पक्षी के-से मधुर कंठ से गातीं:

घुघूती-बासूती
को खालो, दूध-भाती...

अगली पंक्तियाँ पात्र और देश-काल-परिस्थिति के अनुसार रची जाती थीं, जिन पर किसी किस्म के छंद या व्याकरण के नियम लागू नहीं होते थे. यह प्रसंग मैंने अपनी पहली कहानी के रूप में कलमबद्ध किया था और बारहवीं कक्षा के मुझ छात्र को स्नातक-स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की प्रतिस्पर्धा में पहला पुरस्कार मिला था. यह कहानी मेरे किसी संग्रह में संकलित नहीं है, मगर मेरी साहित्यिक आधारशिला का पहला पत्थर यही बनी.


‘काफल पाक्को, मेंल नि चाक्खो’
ये कथाएं भोली-भाली बेटियों की करुणा में से उपजी व्यथाएँ हैं और दर्जनों गझिन पेड़ों से भरी पहाड़ियों से घिरे अपने ससुराल के गाँव में अपने भाई के स्नेह को याद करने वाली अन्तरंग भावनाएं हैं. सीमित उपज वाले खेतों-वनों में अपनी शक्ति का सर्वस्व झोंक देने वाली इन भावुक-सरल युवतियों के पारदर्शी मन में से उपजी ये कथाएँ उन्ही की अज्ञात पहचान की तरह एक दिन नराई या खुद (नौस्टल्जिया) बनकर आकाश-पृथ्वी, नदी-वनांचल के बीच खो जाती हैं:

काट्न्या-काट्न्या पल्युं ऊंछो, चौमासी को बन..
बग्न्या पाणी थामी जां छ, नी थामीनो मन...
(कितना ही काटिए, बरसात के मौसम में वनस्पतियाँ काटते-काटते ही अंकुरित हो आती हैं, बहता हुआ पानी भी एक समय के बाद थम जाता है; अगर नहीं थमता है तो आदमी का मन!)

मेरे दूसरे कथा-नायक अजय सिंह बिष्ट के गाँव के बारे बताते हुए उन्हीं के गाँव के राधाकृष्ण कुकरेती अपनी कहानी ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ (1962) में लिखते हैं:

“मेरा गाँव न तो पहाड़ की चोटी पर बसा हुआ है और न एकदम घाटी में. बांज, बुरांस से ढकी पहाड़ की चोटियाँ, जिन पर जाड़ों में बर्फ पड़ जाती है, काफी दूर ऊपर रह जाती हैं, और तंग, गहरी घाटी भी काफी ऊपर ढलुवा धरती पर सीढ़ीनुमा खेतों के बीच मेरा गाँव बसा हुआ है. उस ढलुवा धरती पर कब गाँव बसा, अब गाँव के बुजुर्ग भी नहीं बता पाते. शायद शुरू में गाँव में सिर्फ चार-पांच ही परिवार थे, लेकिन आज तो वह बीस-पच्चीस परिवारों का भरा-पूरा-सा गाँव है."

“गाँव के आस-पास बंजर जमीन काफी थी, जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, बंजर धरती को सब्बल और गैंतियों से गाँव के लोग खेती योग्य बनाते गए, वह जमीन पहले बिलकुल ढलुवां थी और गाँव के पशुओं के चरने लायक घास ही वहां उगती थी, लेकिन जब आबादी बढ़ने लगी तो इन्सान के मजबूत हाथों ने उस बंजर धरती पर सब्बल और गैंतियों की चोट की तो सीढ़ीनुमा खेत बन गए और उन खेतों में गेहूं, जौ, कोदो और झंगोरा की फसल लहलहाने लगी, गाँव वालों को अनाज की विशेष दिक्कत न होती. फिर घाटी में नदी के किनारे की क्यारियों में बरसाती धान भी गुजारे लायक हो जाता. जाड़ा शुरू होते ही गाँव के नौजवान मेहनत-मजदूरी के लिए किसी ठेकेदार के साथ कटान के जंगलों में चले जाते और फिर वसंत शुरू होते ही फसल बोने के लिए चले आते."

“लेकिन जब एकाएक मुझे अपने गाँव में पानी के अभाव की याद आती है तो मेरा गला सूखने लगता है और उभरी हुई भावनाएं किसी अनजाने-से बोझ दब जाती हैं क्योंकि पानी के अभाव में मेरे गाँव के निवासी हमेशा से रोते आए हैं. पानी का चश्मा डेढ़-दो मील की उतराई पर है, जहाँ से गाँव चढ़ने के लिए सीधी चढ़ाई लगती है, फिर भी उस चश्मे पर सिर्फ अंगुल-भर पानी आता है और आधे घंटे से पहले एक बर्तन नहीं भर पाता. गर्मियां शुरू होते ही पानी और भी कम होने लगता है और जैसे-जैसे चश्मे का पानी घटता जाता है, गाँव की औरतों का खून भी घटता जाता है क्योंकि पानी और घास-लकड़ी ढोने की जिम्मेदारी तो सिर्फ औरतों की ही होती है; मर्द तो खेतों में हल लगा लेते हैं या दिन भर ढोर-डंगरों को चुगा लिया और रात को गोठ में सो गए."

“पानी के अभाव में गाँव की औरतें तो रोती ही हैं, लेकिन उस अभिशाप के शिकार नौजवान लड़के भी होते हैं. पानी की दिक्कत की वजह से आस-पास के गाँव वाले मेरे गाँव में लड़की देने को तैयार नहीं होते और बुजुर्ग लोग बड़ी उम्र तक भी अपने जवान लड़कों की शादियाँ नहीं कर पाते. गाँव का पुरोहित या बुजुर्ग जब किसी दूसरे गाँव में बहू ढूंढने जाते हैं, तो हर आदमी का एक ही जवाब होता है कि साहब! लड़की देने में तो इनकार नहीं, लेकिन आपके गाँव में पानी नहीं और औरतें जिंदगी भर पानी के लिए तरसती हैं. लड़कियां अपने माँ-बाप को मन-ही-मन गालियाँ देती रहती हैं कि निरपाणी का गाँव ही रह गया था हमारे लिए! किसी औरत का मासूम बच्चा मर जाए, तो उस सदमे को कुछ महीनों बाद भूल जाती है, क्योंकि फिर उसे अपनी गोद हरी होने की उम्मीद हो जाती है, लेकिन पानी का दुःख वह कभी नहीं भूल पाती. और तब बड़ी मुश्किल से मेरे गाँव के नौजवानों की शादियाँ दूर कहीं ऐसे इलाके में हो पाती हैं, जहाँ मेरे गाँव की पानी की बदनामी की चर्चा न हो या वह किसी भी हालत में अपनी बेटी का ब्याह करना चाहता हो. मेरे गाँव में नौजवानों की शादियों की समस्या पानी की समस्या से जुड़ी हुई है."

“...फिर गर्मियों का मौसम आ गया और गाँव में पानी का अकाल शुरू हो गया. खेतों से गहूं, जौ की फसल खलिहानों में आने लगी. हर खलिहान में फसल की मंड़ाई के लिए बैलों की जोड़ियाँ रेटने लगीं. बैलों को रिटाने वाली औरतें-मर्द वक़्त काटने के लिए इधर-उधर के किस्से शुरू कर देते हैं और तभी चोळी (चातक) पक्षी असमान में मंडराते हुए अपने कातर स्वर में ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ की रट लगाए पंख फड़फड़ाता दृष्टिगोचर होता, तो बूढ़ी औरतें अपनी बहू-बेटियों को चोळी पक्षी की कहानी सुनाने लगतीं कि हमारे ही गाँव जैसा एक गाँव था, जहाँ पानी की बहुत तंगी थी. एक दिन एक औरत ने अपनी बेटी और बहू को खलिहान से थके-प्यासे बैल सौंपते हुए कहा कि बैल बहुत प्यासे हैं और जो बैलों को नदी से जल्दी पानी पिलाकर लाएगी, उसे खाने को खीर दूँगी और जो देर से लाएगी उसे छछेड़ा मिलेगा. दोनों ननद-भावज बैलों को लेकर नदी के रास्ते रवाना हुईं. बहू तो बैलों को नदी ले गई, लेकिन ननद अपनी वाली बैलों की जोड़ी को रास्ते से ही वापस ले आई और माँ से कह दिया कि बैलों को नदी से पानी पिलाकर ले आई है, ताकि उसे खाने को खीर मिल सके. उसे खीर तो मिल गई लेकिन दूसरी सुबह तक प्यासे बैल मर गए. बैल मरते समय उसे शाप दे गए कि जन्म-जन्मांतरों तक भी वह पानी के लिए तरसती रहेगी."

“बैलों की मौत के सदमे से वह लड़की काफी दिनों तक परेशान रही और फिर एक दिन अचानक दम तोड़ गई. दूसरे जन्म में उसे चोळी (चातक) पक्षी की योनि मिली, जो आसमान में पंख फडफडाते हुए बारिश की बिनती करती रहती है – ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ क्योंकि आसमान से गिरती जो बूँदें उसके मुंह में गिर जाती हैं, वह गले से उतार लेती है, वरना नदी और तालाब की तरफ जब भी अपनी प्यासी निगाहें फैलाती है, तो पानी उसे बिलकुल लाल नज़र आता है, गाढ़े खून की तरह, और किसी ने आज तक उसे नदी या तालाब का पानी पीते नहीं देखा.”

(‘सरग ददा पाणि-पाणि’, कहानी-संग्रह, लेखक राधाकृष्ण कुकरेती, दूसरा परिवर्धित संस्करण, 1985, हिमवंत प्रकाशन, नया जमाना प्रेस, 15-ए, कचहरी रोड, देहरादून.)
(क्रमशः)

बीजो की यात्रा : सत्यदेव त्रिपाठी

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मनुष्य भी जानवर है, पर विकसित होकर उसने सबसे बुरा व्यवहार जानवरों से ही किया, जो उपयोगी थे उन्हें पालतू बना लिया. कहते हैं कुत्ते मनुष्य के सबसे पुराने साथी है. हजारों साल के इस ‘साथ’ ने मनुष्यों में सहअस्तित्व की कुछ रेखाएं तो खींचीं हैं हालाँकि वे गहरी नहीं हैं. गहरी होती तो हथिनी के गर्भाशय को मनुष्य विस्फोट से क्यों उड़ाता?

यह संस्मरण कुत्ते बीजो पर है. रंग-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी पशुओं (पालतू) पर लगातार लिख रहें हैं. बैलों पर लिखा उनका संस्मरण आपने समालोचन पर पढ़ा है. कुछ वर्ष पहले कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय ने कुत्ते पर पूरा उपन्यास लिखा था- ‘हमारा रीफ’.

यह अंक उस हथिनी और उसके बच्चे को मनुष्यों की तरफ से क्षमा याचना करते हुए प्रस्तुत हैं.  



संस्मरण     
बीजो का यात्रा  
सत्यदेव त्रिपाठी 


26 अप्रैल, 2020 को अपना बीजो हमें छोड़कर अपनी महायात्रा पर निकल गया. कोरोनान आया होता, तो 26-27 अप्रैल को मैं मुम्बई में उसके पास होता.

लेकिन इस महामारी की तालेबन्दी (लॉकडाउन) लगने के समय इत्तफाक़ से मैं अपने गाँव (आज़मगढ़) के घर पहुँच गया था. और सबसे सुरक्षित जगह रहने पर इतरा ही रहा था कि बन्दी का ठीक एक महीना बीतते-बीतते 21 अप्रैल की सुबह मुम्बई से कल्पनाजी (पत्नी) का भेजा वीडियो आया, जिसमें फर्श पर नीमबेहोशी में लेटे बीजू के सूजे नथुने और भारी हो आये मुँह से बहती लार देखकर यह इतराना परम दुर्भाग्य का सबब लगने लगा. उसके अंतिम प्रयाण के आसार साफ दिख रहे थे. अंत समय साथ न हो पाने का क्लेश सालने लगा था.... किंतु उसकी उत्कट जिजीविषा और डॉक्टर उमेश जाधव की चिकित्सा पर कहीं भरोसा भी था और 14 सालों के अपने गहन लगाव व गाढ़े सह-वास की भावात्मक आस्था का सम्बल भी. इसी के बल विश्वास-सा था कि चार सालों से ढेरों स्वास्थ्य-संकटों से काल तुझसे होड़ है मेरीके बल जिस तरह पार पाता रहा है, अब इस आसन्न मौत को भी मेरे आने तक टाल ही देगा. लेकिन काल से अपनी इस अंतिम होड़ में वह पाँच दिन ही जूझ पाया. शायद उसे भी मेरे-अपने आसंगों के चलते भरोसा था कि चाहे कहीं रहूँ, उसके पास पहुँचने के लिए मुझे एक दिन काफी है. लेकिन इस बार के प्रकोप की वैश्विक विवशता से वह बेचारा अनजान था और मैं मजबूर....

कोरोना-बन्दी के बावजूद अकुल (बेटे) की तत्परता से डॉ. जाधव लगभग रोज़ ही उपचार के लिए आते रहे. जो कुछ भी उचित व कारग़र लगा, करते रहे- सुई (इंजेक्शन) लगाते रहे, दवाएँ चढ़ाते रहे. तल्लीन सम्मोहित-सी अवस्था में बेटा उनके साथ मंत्रवत सबकुछ कराता रहापहले दिन ही जाँच के लिए ख़ून ले गयेकैंसर का अन्देशा था. गले में बड़ी-सी गिल्टी निकल आयी थी. पानी के अलावा कुछ अन्दर जा न रहा था. हाँ, अपने बेहद पसन्दीदा पेडिग्री के दो-चार दाने अवश्य किसी-किसी तरह निगल ले रहा था. प्राय: हर गतिविधि को मोबाइल में कैद करके भेजती हुई कल्पनाजी यथासम्भव मेरी अनुपस्थिति की पीड़ा को पूरने का उपक्रम करती रहीं. मैं चित्रलिखे-सा देखता रहा...जिन्दगी भर खाने पर इतना ज़ोर देने वाला, मेरी तरह खाने के लिए कुख्यात बीजो के न खा पाने की दयनीयता देखी न जा रही थी.... आख़िर परसों सुबह 11 बजे के वीडियो में डॉक्टर के परीक्षण के दौरान ही उसकी साँस थमने और अकुल द्वारा नयी मोटी चद्दर में लपेटे जाने तथा इन कोरोना-दिनों के ख़ास सेवक राहुल के सहयोग से गाड़ी की डिक्की में रखने और डिक्की के बन्द होने के दृश्य के साथ लगभग चौदह सालों की उसकी इहलीला का पटाक्षेप हो गया.... बीजो की जिन्दगी का कारवाँ गुज़र गया, हम गेट के बाहर निकलती बेलिनो की डिक्की देखते और हाथ मलते रह गये....

पहली प्रतिक्रिया मन में उभरीचलो, मुक्त हुआ, बहुत हलकान हो रहा था. हमें भी राहत हुईसर्वाधिक कल्पनाजी को, क्योंकि सबकुछ के बावजूद आठो याम की अनिवार्य देखरेख तो अंतत: उनके माथे ही भींजती थी. लेकिन मुक्ति की राहत का ख्याल नितांत फौरी निकला. घर से उसके जाते ही सूनापन पसरने लगाघर में, मन में...बीजू की जोड़ीदार चीकू की सूनी आँखों और मूक बेचैनियों में, परेल स्थित श्वान-श्मशान में दफ़ना के एक-डेढ बजे के आसपास बेटा लौट आया था. इसके बाद कुछ हाल-चाल लेने-देने के लिए जैसे बचा ही न हो.... हालाँकि बीजो यहाँ गाँव भी आया था मेरे साथ. तीन-चार दिन रहा था. पूरे गाँव की परिक्रमा की थी. उसकी सुन्दरता व स्वभाव से घर व पास-पड़ोस भी बीजो से काफी मुतासिर है. सुनकर सभी उदास व मेरे प्रति सदय भी हो रहे, लेकिन मेरी भरी-भरी यादों के सामने सबके आसंग रीते हैं. अपनी यादों में डूबा मैं तो अकेला...लेकिन वहाँ वे दोनो माँ-बेटे तो मिलके यादों को बाँटके हल्के हो सकते हैं..’, पर शायद ऐसा हो नहीं पा रहा है.... हम तीनो अपने ही में हूँ मैं साक़ी, पीने वाला, मधुशालाकी पूर्णता के एकांतों में, अपने दिवंगत प्यारे बीजो की तमामोतमाम हलचलों के सूनेपन में डूब-उतरा रहे हैं.... अब जब वह सदा के दुनियावी दृष्टि में ओझल हो चुका है, सोते-जागते, उठते-बैठते, उसके रूप-गुण-क्रियादि के एक-एक दृश्य बरबस आँखों में उभर रहे हैं...   

सन् 2006 के अक्तूबर वगैरह के किसी दिन की बात है, जब अकुल अपना खुला लैपटॉप लेकर पास आया और एक सुन्दर से श्वान-शिशु की तस्वीर दिखाते हुए पूछा कैसा लग रहा है यह? मैंने सहज ही कहा – ‘सुन्दर है...बहुत सुन्दर. और उसने चहक कर कहा – ‘तो ले आऊँ’? बताया कि गोरेगाँव के किसी एजेण्ट की मार्फ़त मिलेगा आठ हजार रुपये में....

पैसे से कोई पेट(पालतू) नहीं आयेगा’ - मेरा गँवईं पारम्परिक मन बिदक उठा था.
फिर स्पष्ट किया कि जिस नस्ल-जाति का जैसा कहो, मैं एक-दो महीने के भीतर मँगा दूँगा, पर पैसे देकर खरीदेंगे नहीं. यदि फिर भी तुम पैसे देकर लाये, तो हमारा-तुम्हारा हिसाब अलग-अलग हो जायेगा....

मेरी इस कड़ी और निर्णायक बात को सुनकर उस वक्त तो वहाँ से हट गया था, पर सप्ताह-दस दिनों बाद सन् 2006 के नवम्बर महीने की वह छ्ठीं तारीख़ थी, जब सुबह ही सुबह मैं अखबार पढ़ रहा था, आके सामने बैठा और पूर्ण विश्वास के स्वर में स्मित अदा के साथ बोला डैडी, मैं वह डॉगी लाऊँगा खरीदके ही लाऊँगा...और हिसाब भी अलग नहीं करूँगा...’. दो मिनट की अपलक मौन समक्षता के बाद मैं धीरे से मुस्कुरा उठा और वह हाहा-हाहा करके हँसने लगा.... असल में लैपटॉप के पर्दे पर बिराजमान उस प्यारी सूरत पर मैं भी रीझ गया था और उसके आने की कामना कर रहा था.... फिर क्या, उसी शाम इस नायक का आगमन होके रहा...और फिर तो खरीदकर पेट्स लाने का चलन बन गया. आगे चलकर पैसे से डोबरमैन श्वान गबरू आया, चित्तू (बिल्ली) आयी और मेरी जडता भी टूटी....

बमुश्क़िल 15-20 दिनों का जन्मा रहा होगा. चेहरा मासूमियत-भोलेपन की सहज मिसाल, जिसमें और इजाफा किये दे रहा था उसका भूसर सफेद (ऑफ व्हाइट) रंग...जो आगे चलकर नहलाने के बाद उजले जैसा चमकने लगता था. सबसे अधिक ध्यान खींचते थे लप्चे-लटकते व गरदन मुड़ने की अनुहारि पर लचकते कान. आँखों में चहुँओर को देख लेने की सुस्त जिज्ञासा, किंतु चेहरे पर परम निश्चिंतता के भाव.... तब आँखों के नीचे नाक तक का भाग अपेक्षाकृत लम्बोतरा लगता था, जो उसके बड़े होने के साथ ही मोटाते हुए समरूप होता गया. अपेक्षाकृत मोटी पूँछ बढ़ने के साथ सानुपातिक रूप से मोटी ही बनी रही, पर शृंगार थी उसके रूप का.... कुल मिलाकर इतना सुडौल व दर्शनीय था बन्दा कि बरबस पड़ जाये नज़र, तो पूरा देख लेने पर भी जल्दी न हटे– ‘तिन्ह देखे अली सतभायउँ ते, तुलसी तिन ते मन फेरि न पाये. उस नन्हीं-सी हस्ती का सम्पूर्ण प्रभाव भी बहुत मोहक यूँ था, कि जगह के अनजानेपन या नये लोगों के प्रति अपरिचय-भाव के निशां तक नहीं थे.... तब तो ख़ैर छोटा था, ऐसी बातों का उसे पता ही न रहा, पर बड़े होने पर सिद्ध हुआ कि यही उसका स्व-भाव था. उसे ऐसे कुछ की पड़ी ही नहीं थी.... कभी भी कहीं भी ले जाओ, सहज ही चला जाता- रह लेता. छोटे-छोटे सुघर तराशे-से पैर इतने कोमल लगे थे (बाद में खूब भारी व मजबूत हुए) कि कैसे चलेंगे की चिंता के साथ इन्हें जमीन पर मत उतारना, मैले हो जायेंगेकी याद आ गयी थी. शुक्र ये था कि संक्रमणसे बचाने के लिए उसे महीने भर एक कमरे में बन्द रखना था आज के कोरोना वाली यही सामाजिक असंपृक्ति (सोशल डिस्टैसिंग). सो, उसे रसोईंघर की बगल के कक्ष में रखा गया. इस कूकर जैसी जाति के लिए पहली बार ऐसा करते हुए उस वक़्त अजूबा भी लगा था, पर महीने भर के अनुभव ने इसकी अहमियत को समझा दिया था. फिर कुछ सालों बाद आये गबरू के लिए ऐसी साज-सँभार अनिवार्य लगी मेरी एक और जड़ता टूटी.... आगे चलकर लक्ष्य किया गया कि उसी कमरे में बीजो सर्वाधिक रहना चाहता था वहीं असली सुक़ून मिलता था उसे.

अब नामकरण की बारी थी. अकुल का सोचा-समझा नाम आया – Bijou, जिसेहिन्दी में ठीक-ठीक लिखना हो, तो बिजौया बिजोउहोगा. उसी ने बताया - यह फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ होता है -  ज्वेल (जेवेल - Jewel) . आज तो सोने-चाँदी या गहनों की हर दूसरी दुकान ज्वेलरी शॉपही होती है - याने यह शब्द आभूषण के अर्थ में व्यवहृत हो रहा है. लेकिन ठीक-ठीक कहना हो, तो शायद अभिप्रेत है - ‘रत्नया रत्नजड़ित आभूषण. तात्पर्य बेशकीमत से है. इस भाव के लिए बोलचाल में ज्यादा प्रचलित शब्द है हीरा – ‘बड़ा हीरा आदमी है हीरामन’ (तीसरी कसम). लेकिन ऐसा अर्थगर्भित नाम बिजौया बिजोउकदाचित उच्चरित तो हो सकता है, लेकिन इससे बुलाना तो बिल्कुल असहज है - पुकारा जाना तो असम्भव. फिर हम घर वाले तो किसी तरह कमोबेस साध भी सके- अर्ध शुद्ध ही सही, हमेशा बीजोबोलते रहे, लेकिन सरनाम तो हुआ बीजूही, जिसमें अंग्रेजी का कोई चिह्न तक नहीं नितांत लोक शब्द. यहाँ तक भी ठीक था, लेकिन जौनपुर की ठेंठ गँवईं सेविका निर्मला व गोरखपुर की उषा ने बीजू को हमारे गाँवों में मशहूर नामबना दिया - ‘बिरजू’, जो शुद्ध ब्रजराजके बृजराजका अपभ्रंश है. हाईस्कूल में गणित के हमारे सरनाम व सरहँग (डॉमिनेटिंग) अध्यापक ब्रजराज राय बिरजू माट्साहबही कहलाये. और गाँव के दो-तीन दिनों तो अधिकांश ने लाड़ से बिजुआ’-‘बिरजुआकहा.... बहरहाल, फ्रांस से सम्मौपुर (आज़मगढ) तक की यह नाम-यात्रा मेरे लिए एहि करनाम अनेक अनूपाके वाचक रूप में बड़ी रोचक रही, जिसमें कहहिं सबै अपने बल बूताका सहज गुर भी शामिल है.... लेकिन फ्रेंच Bijou का यह ह्स्र देखकर अगली बार बेटे ने भारतीय लोक के मुताबिक विशुद्ध देसी नाम गबरू ही चुना शब्द-संस्कृति की सही दिशा रवां हुई.    

वे दिन सचमुच बड़े सुहाने थे. युनिवर्सिटी से आते ही सबसे पहले बीजो-कक्ष में जाते और दिन भर की उसकी एक-एक गतिविधि की चर्चा करते...रात-रात को जब उठते, जाके देख-निहार आते. उसकी तमाम मुद्राओं-गतियों-अदाओं के फोटो लेते रहते. लेकिन वो बात कि पूत के पाँव पालने में ही दिखते हैं, को साकार करते हुए बीजो की दो आदतें उसकी अबोधावथा से ही नुमायां होने लगीं -जो भी दो, खा लेता वैसे देते वही, जो डॉक्टर कहते. और जो कुछ करने के लिए कहो, अपनी समझ के मुताबिक ठीक-ठीक वैसा मानने-करने की कोशिश करता.... हाँ, बचपने में कभी ऐसा भी होता, जब अपने खिलन्दड़ेपन में उसे कहो कुछ, तो करता कुछ.... परन्तु उसकी रूपाकृति के सलोनेपन में उसकी ये बचकानी शरारतें (चाइल्डिश मिस्चीव्स) भी रमणीय बन जातीं.... एक बार सुबह घूमते हुए कुछ लंतरानी की. छोटा था, तो डाँटा नहीं, पर बतौर नसीहत दरवाज़े के बाहर छोड़ के दरवाज़ा बन्द कर लिया. सोचा थाअभी चिल्ला के दरवाजा पीटेगा...पर वह चुप. दस मिनट बाद देखने निकला, तो गायब. होश उड़ गये. जिधर से घुमा के लाया था, उधर ही भागा, तो अपने घर के पीछे वाले रोड पर ठीक बीच में निश्चिंत बैठा मिला - सर पीट लिया...! लेकिन बुलाया, तो पीछे-पीछे चला आया जैसे कुछ हुआ ही न हो. ऐसे में कभी शंका भी होती, पगलेट तो नहीं है...!! लेकिन उसकी भलमंसाहत के साथ इस बेफिक्री को मिला दिया जाये, तो ये सब उसके भावी संतत्त्व की निशानियां थीं.

अच्छी तरह चलने-दौडने लगा था, तब से ही मैं अपने रोज़ाना के प्रभात-भ्रमण में कभी-कभार उसे जुहू तट पर लिये जाता. पट्टा बिना लगाये टहलाना ग़ैरकानूनी है, पर मेरी समझ में यह समाता नहीं. शायद यह चेतना (सेंसिबिलिटी) गाँव से बनी है, जहाँ ये लोग छुट्टे-छुट्टे हमारे पीछे-पीछे सारे खेत-सिवान घूम आते हैं हल्कू के झबरा (पूस की रात - प्रेमचन्द) की तरह मना करने के बावजूद. इस प्रकार जिस मुम्बई में पट्टे के बिना कुत्तों को लेके बाहर निकलने पर जुर्माना और सज़ा आम बात है, उसी में यह गैरकानूनी काम मैं सरेआम आज तक करता आ रहा हूँ - पूरे विश्वास के साथ पाप हो या पुण्य हो, कुछ भी नहीं मैंने किया है आज तक आधे हृदय से’....सो, अपने इन्हीं सब अनुभवों व धारणाओं से परिचालित उस नन्हें से लगभग आज्ञाकारी बच्चे बीजो को भी छुट्टा लेकर चलता रहा.... सच मेंसंज्ञान होने के पहले का 3-4 महीने का समय इतना लुभावना बीता कि आज भी उसकी अनुभूति से तन-मन पुलकित हो उठता है. यूँ तो बुलबुल-गौरैये-तोते, गाय-बैल-भैंसें, कुत्ते-बिल्ली-चूहे...आदि दर्जनाधिक प्राणी हमारे जीवन में आये, जिसमें आधे दर्जन से अधिक तो श्वान ही रहे. सबने बहुत सुख-दुख दिये, लेकिन इनके दो शीर्ष हैंबीजो और बच्ची. बच्चीभी रोज़ मथती है, कभी तो अक्षरों में उतरे बिना मानेगी नहीं. लेकिन बीजो पहला व अब तक का आख़िरी पालतू रहा, जिसका प्रशिक्षण हुआ. खरीदने की तरह यह भी मेरे मानस में पैठे संस्कारों के अनुरूप न था, पर शहरी चलन और बीजो के अभिजात नस्ल के मुताबिक कराना तो था ही.


योग्य प्रशिक्षक की तलाश पूरी कर दी मेर मित्र स्व. डॉ. राम सागर पाण्डेय ने. महाराष्ट्र कॉलेज के उनके सहकर्मी, गणित-अध्यापक प्रो.दिनेश हट्ट्ंगड़ी कुत्तों के कुशल प्रशिक्षक (ट्रेनर) थे. पाण्डेयजी के कहने से सप्ताह में तीन दिनों सुबह 7 से 8 बजे तक बीजो को सिखाने आने के लिए सहर्ष तैयार हो गये. हम घर के पीछे जमनाबाई स्कूल के पश्चिमी द्वार के सामने वाली खुली जगह पर चले जाते वहीं हमने कार चलाना भी सीखा है. नयी पीढ़ी (वह भी मीडिया वाली) की सुबह अमूमन देर से होती है और कल्पनाजी बाहर निकलने में परम आलसी ठहरीं. सो, दोनो एक-दो दिन ही आये. लेकिन मुझे तो बीजो को सीखते देखने का मज़ा लेना था. फिर सर का सिखाना तो लाजवाब. वे ख़ुद कुत्ता पालते भी थे और कुत्तों की कौशल-स्पर्धा (टैलेण्ट कॉण्टेस्ट) के लिए तैयार करते थे, लेके जाते थे. इतना बड़ा श्वान-प्रेमी मैंने दूसरा नहीं देखा. बीजो में रमते थे. उसे सहलाते हुए बतियाते-बतियाते कान के पास यूँ बुदबुदाने लगते गोया कोई मंत्र सिखा रहे हों. कभी यह किसी बड़े षडयंत्र की कानाफूसी लगती, कभी प्रेमी-प्रेमिका की गुह्य गुफ़्तगू...लेकिन इस सबका नतीजा यह हुआ कि बीजो उनके ताल पर नाचने लगाअनुहरि ताल गतिहि नट नाचा.... सैल्यूट-बॉय-बॉय...आदि तो प्राथमिक व प्रदर्शन-परक थे, लेकिन काम के थे- सिटकहते ही पिछले दो पाँवों पर अधबैठे हो जाना. डाउनकहते ही चारो पैरों से बैठ जाना.कमपर आ जाना, ‘गोपर चले जाना.वेटपर जहाँ रहे, वहीं रुक कर बाट देखते रहना और स्टेपर जिस मुद्रा में रहे, अगले आदेश तक उसी में रह जाना...आदि. इन उपयोगी सीखों से सम्पन्न हुए बीजो के लिए दण्ड जतिन करके रामराज्य की तरह पट्टे व ज़ंजीर की ज़रूरत ही खत्म हो गयी. वेटऔर कमतो इतने उपयोगी हुए कि जुहू जाने में सड़क पार करते हुए गाड़ी-मोटर की भीड़ आ गयी, तो वेटकहते ही हमारे पाँव के पास रुक जाता और कमकहते फिर चल पड़ता.... कोई मिल गया, बीजो से वेटकहके दो मिनट बात कर ली, फिर कमकह के चल पड़े.... कुछ खाने-पीने चले, ‘डाउनकह दिया, बीजोजी बालू पर पसर के बैठ गये, फिर गेटअपकहा, उठ के चल पड़े.... इस सीखने में सर के सिखाने के कौशल के साथ बीजो की ग्राह्यता को भी श्रेय देना होगा.

लेकिन सिखाने का शृंगार तो यह रहा कि प्रशिक्षण के अंतिम दौर में एक दिन जब हर दिन की तरह सिखाना हो जाने के बाद घर में बैठे चाय पी रहे थे, सर ने एक रुमाल बीजू को दिखाया और फिर घर के दूसरे कमरों में कहीं जाके रख आये. आके बीजू को ख़ास तरह से टहोका. वह कमरे से निकला और 2-3मिनटों में रुमाल लेकर आ गया. यह कैसेकब सिखाया, हमेशा साथ रहते हुए भी मैं जान न पाया और बीजो समझ गयाकर लाया. फिर तो बचे लगभग 3-4 दिनों में तरह-तरह की चीज़ो को छुपाने व भिन्न-भिन्न स्थानों से खोज निकालने की लुका-छिपी (हाइड ऐण्ड सीक) का यह अभ्यास-खेल रोज़ होता. इस बावत पूछने पर सर ने ही बताया कि बीजू की यह लैब्रे प्रजाति आस्ट्रेलिया मूल की है. इस प्रजाति को विशेष रूप से विकसित ही इसी प्रयोजन के लिए किया गया है कि मारे गये शिकार-पक्षी को दूर जाके गन्ध के बल से ढूँढ  लाये.... उन्होंने यह भी बताया कि इस जाति वाले खाने के लिए किसी की जान ले सकते हैं. लेकिन बाद में पता चला कि बीजो इसमें अपवाद है.

वैसे श्वान मात्र अपनी तेज घ्राण-श्रवण शक्ति के लिए विख्यात है, पर इस रूप में खास तौर पर विकसित की गयी इस लैब्रे प्रजाति में ये शक्तियां कई गुना ज्यादा होती हैं. फिर बीजो में इसकी गहराई भी दिखी. उसे आहट ही नहीं, आहट की पहचान भी होती. अत: बीजो आवाज करे, तो किसी अनहोनी का कयास हो जाता. और यह भान उसे अगल-बगल के परिसरों का भी होता. उसका भौंकना शेर की गर्जना जैसा होता – दूर तक जाता. उसकी श्रवण-सीमा भी काफी बड़ी और विश्वस्त थी क्या चिह्नित (ब्रैण्डेड) सामानों की ही तरह? घर के किसी सिरे पर लेटे-लेटे उसे पता होता था कि पूरे परिसर में कहाँ-क्या हो रहा है. बीजो की इस घ्राण-शक्ति की त्रासदी बनकर आता गणेश-विसर्जन. हमारे घर की बगल वाली सड़क समुद्र की ओर जाती है, तो दोपहर से आधी रात तक तमाम गणपति के साथ बाजे-गाजे की भयंकर आवाजें जब हमें इतना परेशान करती हैं, तो कई गुना अधिक श्रवणीयता वाले बीजो के तो कान ही फटने को होते. घर के कहीं भीतरी कोने में छिप जाता. फिर लैब्रे जाति खूँखार नहीं, प्रेमल होती है. ये नयन-सुखकारक तो होते ही हैं. इसीलिए सम्भ्रांत इलाकों में जहाँ श्वान-पालन जरूरत व रुचि से अधिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है, इसी प्रजाति के पालतू श्वान बहुतायत में दिखते हैं सुबह का जुहू-तट इसका पक्का प्रमाण देता है.

हट्टंगड़ी सर ने प्रशिक्षण में अच्छे कामों पर सराहना के लिए गले पे सहलाने और गुड ब्वायकहने का गुर बताया. इसका जम के पालन हुआ, सुफल भी खूब मिला. बस मैंने वो गुड ब्वायको अच्छा बच्चाकर दिया, तो गुजराती घर में सरस दीकरोभी हुआ. इस तरह बीजो बेचारे को अंग्रेजी के साथ मेरी हिन्दी और सामान्य रूप से घर की गुजराती भी सीखनी पड़ी. गलती करने पर ज़ोर से नोकहना तथा तमाचे मारने की चेतावनी देना, पर मारना नहीं..., की सीख को भी बदस्तूर जारी रखा सिर्फ नोको नहींईंईंकरके. लेकिन खेद है कि लुका-छिपी वाला चमत्कारी पाठ (लेसन) हमारे किसी काम का न हुआ. रोज़ कुछ खोजवाने का काम था नहीं और कोई घर आये, तो अपने बच्चे से शो करायें, के प्रदर्शन में हमारी रुचि नहीं. अत: उस नस्ल का जातीय कौशल तो हम अनाड़ियों के बीच लुप्त ही हो गया. इसी रौ में घुमाने के दौरान अपने ठीक बाईं तरफ रहते हुए कदम से कदम मिलाकर चलना भी सिखाया था, जो अनुशासन व लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत सही था, लेकिन वह करना और रोज़-रोज़ करना...बड़ा मशीनी (मैकेनिकल) लगा. इसमें मुझे और बीज़ो दोनो को यांत्रिक हो जाना पड़ता था. हमारे लिए यह भ्रमण सिर्फ़ व्यायाम नहीं, मस्ती भी है, सामाजिकता भी है और एक प्रभाती संस्कृति भी. इसमें अपनी पुरानी अदा हमें भाती, जिसमें हम दोनो अपनी-अपनी तरह अपने-अपने कदम से चलें - साथ-साथ रहें, आस-पास रहें न कि उतने पास-पास, कि घूमना भी काम करना (ड्यूटी) हो जाये. अत:इस ‘गुनमय फल जासूको ‘निरस बिसद’के कारण छोड़ना ही पड़ा.

सीखने के बाद बीजो के घर-बाहर दोनो के व्यवहार में बड़े गुणात्मक परिवर्तन हुए. काश, हमारी भी शिक्षा में ऐसा होता कि पढ़के निकलते, तो बच्चे संस्कारित हो जाते...!! बीजो प्राय: आज्ञाकारी तो था ही, अधिक अनुशासित हो गया और सबसे अधिक यह कि जागरूक हो गया जैसे सर ने उसके दिल-दिमांग के बन्द दरवाज़े खोल दिये हों.... कुछ दिनों बाद की ही एक घटना अपनी विरलता में दिलचस्प भी है और सनसनीखेज़ भी.... हम घूमने निकलते, तो अँधेरा ही रहता. सड़क की बत्तियां जलती रहतीं. जुहू स्कीम के पाँचवे रोड से सीधे सेण्टॉर होटेल वाले बीच पर जाते हुए दसवें रोड से थोड़ा आगे, अमिताभ बच्चन के जलसासे थोड़ा पहले पहुँचे थे, बत्तियां अभी बन्द हुई ही थीं कि सामने से आती एक सफेद मारुति वैन हमारे पास आके रुकी. बीजो सजग हो गया लगा कि सयाना हो गया है. आगे बैठे आदमी ने रास्ता पूछा. मैं इत्मीनान से बता के चुका ही था कि पीछे का खिसकाऊ (स्लाइडिंग) दरवाज़ा खुला और मेरे दाहिने खड़े बीजो ने झट से अन्दर छलांग लगा दी. दो पैर अन्दर पहुँचे कि मैंने दाहिने हाथ से उसे पीठ-पेट से अँकवार में थाम लिया. अन्दर रिवाल्ववरधारी दिखा और हथियारों का ज़खीरा. पर कोई हरकत न हुई, मैं बीजो को लिये पीछे हटा और वैन आगे बढ़ गयी. आधे मिनट में इतना सब झटित हुआ कि कुछ समझ में न आया. हम दोनो हैरतंगेज़ आक्रोश से वैन को जाते देख रहे थे और मेरे बताये की तरफ बायें मुड़ने के बाद कुछ राहत मिली. बीजो की साँसें तेज थीं हल्का हाँफ रह था. उसकी प्रत्युत्पन्न मति और साहस से चकित-हर्षित मैं उसे सहलाते हुए शांत करने के मिस अपने को भी आश्वस्त कर रहा था. तब से कई दिनों जब वहाँ पहुँचते, रोम  भरभरा उठते थे. उस दिन से बीजो के प्रति विश्वास काफी बढ़ गया. 

भ्रमण अनुशासित यूँ हुआ कि साढ़े पाँच से पौने छह के बीच हम निकल जाते और 7 बजे तक घर वापस. सप्ताह में एक रोज़ बीजो को समुद्र में नहलाना प्राय: रविवार को और रोज़ आते-जाते 10,000 कदम चलना. आते-जाते दो-एक लोग रोज़ ही आज्ञा माँगकर बीजो की फोटो लेते बच्चे छूने की कोशिश करते.... चलते हुए भी रोक कर ऐसा करने वाले मिलते. समुद्र में नहलाते हुए यह संख्या अधिक हो जाती.... कुछेक व्यावहारिक लोग मुझे भी बीजो के साथ खड़े कर लेते.... लेकिन जब कभी शाम को मैं घर होता और विख्यात जेवीपीडी इलाके की अपनी हाटकेश सोसाइटी में जॉगर्स पार्क के किनारे से जमनाबाई स्कूल से होते हुए पुष्पानरसी पार्क तक घुमाने निकलता, तो प्राय: सभी भवनों-पार्कों-स्कूल के दरबानों-चालकों और आती-जाती काम करने वालियों...आदि द्वारा बीजो को सहलाने-लाड़ करने, हालचाल पूछने वाले ढेरों होते.... सोसाइटी के झाडू वाले दादा को तो देखते ही बीजो ख़ुद दौड़ पड़ता.... कुछ लोग तो जेबों-आँचलों में सुदामा के चावल की तरह बिस्किट-नमकीन लाते और वर्षा बिल्डिंग वाले भाई तो पेडिग्री के दाने खरीदकर लाते.... जहाँ मुझे पूछने वाला कोई नहीं पार्क के दरबान को कार्ड दिखाके अन्दर जाना पड़ता है, वहाँ बीजो की इस लोकप्रियता के लिए मैंने गालिब से क्षमायाचना सहित उनके शेर को फिर यूँ बदला ऐसा भी है कोई कि जो बीजो को न माने, बच्चा तो है सुन्दर और सरनाम बहुत है’....

अब तक जितने श्वान पालतुओं को मैं लेके घूमा, चहुँ ओर के सड़क के जाति देखि गुर्राऊकुत्तों से उनकी तकरार अवश्य हुई. लेकिन बीजो की ओर कुत्ते भौंकते हुए आते, पर वह अपनी राह चलता रहता - हाथी चला जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं. और यह चमत्कार ही है कि कभी किसी ने बीजो को छूआ नहीं. दो-चार बार ऐसा होते देख मैं भी निश्चिंत हो गया. पूरे जीवन में सिर्फ़ एक बार कुत्तों ने उसे छूआ था. उत्पल संघवी स्कूल और अमिताभ बच्चन के सोपानवाले पुराने बँगले के बीच के 11वें रास्ते पर वह जगह बड़ी सुहानी है, जहाँ से होके मैं बार-बार पैदल गुजरना चाहता हूँ. वहीं तीन कुत्ते उसकी तरफ दौड़े थे और एक ने पीछे से ज्यों ही छुआ, बीजो बिजली की गति से पलटा, धर दबोचा. दबोचे हुए ही शेष दोनो की तरफ देख के गरजा और दोनो भाग चले.... फिर पोंपों करते पहले वाले को भी छोड़ दिया और ‘संत न छोड़े संतई, कोटिक मिलें असंत’का प्रमाण बनकरहृदयँ न हरष-विषाद कछुकी तरह बीजो यों चलने लगा, गोया कुछ हुआ ही न हो. मैं स्तम्भित!! ख़ुद न देखता, तो विश्वास न करता कि बीजो ने ऐसा किया. घर जाके बताया,तो वो हाल हुआ कि कोई और बताता, तो झूठा कहा जाता.

घर में भी बीजो का रहना ऐसा ही दिलचस्प व उल्लेख्य है. बीजो सेदो साल पहले बच्ची घर में आ गयी थी. तब वह दो दिन की थी. अपने स्नेह-शऊर से उसने सबका दिल जीत लिया था. और कुत्ते-बिल्ली की दुश्मनी सरनाम है. लेकिन बच्ची के इस विरोधी को तो कुछ पता ही न था. बल्कि उसे तो बिल्ली से अपने जातीय बैर वाले सम्बन्ध का ही पता न था. असल में मूलत: उसके अन्दर बैर भाव था ही नहीं जैसे जन्म से मनुष्य में नहीं होता, हम सिखाते हैं. लेकिन अन्य प्राणियों में जातीय स्मृति जन्मना होती है. बिल्ली को देखते ही छोटे-छोटे पिल्लों को गुर्राते देखा है मैंने. परंतु बीजो को कभी नहीं देखा. इसीलिए हम लाड़ से उसे संत कहते और मनुष्य कहना भी उसका अपमान मानते. बीजो को श्वान-योनि देने के लिए कभी विनोद में ब्रह्मा को कोसते हुए बीजो को रूप-आबण्टन में हुई विभागीय भूल (ऑफीशियल मिस्टेक इन बॉडी एलॉटमेण्ट) का परिणाम बताते. गरज़ यह कि बीजो के इसी संत-स्वभाव ने बच्ची को धीरे-धीरे निडर बनाया. बच्ची की रुचि के लिए बीजो अपनी पसन्द को छोड़ने लगा. बच्ची जहाँ बैठना-सोना चाहती, वहाँ से हट जाता. फिर बच्ची उसे हटाने लगीऔर वह हटने लगा. इस तरह बीजो पर बच्ची की हुकूमत चलने लगी सबल पर निर्बल की हुकूमत अभिनव व सच्चा जनतंत्र या रामराज्य. और एक दिन ऐसा हुआ कि बीजो की पीठ पर बच्ची सोने लगी. इस दृश्य को देखकर लोग ताज्जुब करते, बीजो की उदारता का गुणगान करते, जिसमें सचाई भी है, लेकिन यह सम्बन्ध इतना अनोखा भी नहीं कई जगहों पर है. साथ रहते-रहते मनुष्य लड़ते हैं भाई महाभारत करते हैं. पशु-पक्षी पहले लड़ें भले, पर साथ रहने पर अच्छे दोस्त होकर रह जाते हैं.... आगे चलकर आयी चीकू के साथ भी ऐसा हुआ. उसकी भी हुकूमत चली बीजो पर और बड़ी बात तो यह कि बीजो के अनुकरण मात्र से वह एकदम पालतू हो गयी – अलग से प्रशिक्षण की जरूरत न पड़ी.

बीजो क आगमन के साढ़े तीन साल बाद दिसम्बर, 2009 में मेरा काशी विद्यापीठ जाने का ठहर गया – योजना-तैयारी तो सालों से चल रही थी. इससे सारी व्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए. वहाँ किराये के घर में मुझे व्यवस्थित कर देने के बाद कल्पना व अकुल ने बीजो को भी लाने का प्रस्ताव रखा. दोनो अपनी पसन्द को मेरे लिए वार रहे थे– शायद मेरी-बीजो की पारस्परिकता को देखते हुए. मुझे नये कदम उठाने पसन्द हैं. घर भी कल्पनाजी ने लिया था बीजू को रखने लायक- बंगले का पूरा तलमंजिल. लेकिन मैं गृहपति को द्वैध में नहीं डालना चाहता था. मन तो बहुत छटपटाया शायद बीजो का भी. बस, अपने घर की तलाश शुरू कर दी और अक्तूबर 2010 में निजी मकान (बना-बनाया) ले लिया. 8 दिसम्बर, 2010 को गृहप्रवेश हुआ, तो बेटा एक दिन पहले बीजो को लेके आ गया. गृहोत्सव का मजा दूना हो गया.... फिर उत्सव के केन्द्र में बीजो आ गया. और आते ही थोक रूप में शहर के लगभग दो सौ लोगों के सामने प्रस्तुत (इंट्रोड्यूस) भी हो गया.अगले दिन से बीजो की, उसके सुरूप व सद्चरित्र का गाथाएं यहाँ भी कही-सुनी जाने लगीं. घर का नवोन्मेष (रेनोवेशन) कराते हुए मुख्य द्वार (मेन गेट) का नीचे वाला हिस्सा डेढ़ फिट कटाके तिरछी सलाखें लगायी गयीं - सिर्फ़ बीजो के लिए, ताकि वह वहाँ बैठ के सड़क और आने-जाने वालों को देख सके, जो उसे बहुत पसन्द है. इसमें एक और छूट उसने ले ली, हमने दे दी. बाहर के बरामदे में अपने लोगों के लिए एक तख़्ता रखा गया, जिस पर बीजो बैठने-लेटने लगा. वहाँ से गेट के ऊपर से रोड दिखता. उसी के नीचे वह सोता भी ज्यादा. ये दोनो जगहें उसकी पसन्दीदा हो गयीं. हमें बैठना होता, तो तख़्ते को साफ करके पोंछ लेते. यहाँ छत भी पहली ही मंजिल पर मिली, जो पूरे दिन खुली भी रहती. वहाँ भी बीजो किसी भी वक्त चला जाता और रेलिंग के पास बैठता, जहाँ से सामने की पूरी सड़क व आधी कॉलोनी दिखती. कुल मिलाकर उसे अपनी मूल जगह से छूटने का दुख भले हो, रहने का सुख कम न था– थैंक्स टु कल्पनाजी....

लेकिन छत से जुड़ा एक मामला भी उल्लेख्य है. सामने वाले ग्रंडील जवान ठाकुर साहेब अपनी पहली मंजिल पर व्यायाम करते और बीजो को इससे जाने क्या चिढ़ पैदा हो गयी कि तख़्ते पर खड़े होकर उनकी ओर भौंकने लगता. हमने बारहा मना किया, विकासजी ने आके दोस्ती का हाथ बढ़ाया, खिलाने-पिलाने के रूप में कुछ घूस भी दी. उनसे दोस्ती हो भी गयी, पर व्यायाम के वक़्त वे बीजो के लिए कुछ और हो जाते. अंत में हारके उन्हें कसरत के लिए अन्दर भागना ही पड़ा. ऐसे विभ्रम-विश्वास उसके कुछ और भी थे. मुम्बई के घर में तीसरी मंजिल वाली कृपा बेन और थोड़ा-बहुत दूसरी मंजिल वाली जागृति बेन के साथ भी यही सलूक करता. इनके नीचे-ऊपर आते-जाते हुए भौंकता ही. अज़नवियों में भी कुछेक विरलों को तो परिसर में आने ही नहीं देता. मुझे तो यह बेसबब नहीं, उसकी छ्ठीं इन्द्रिय का संज्ञान लगता. इसी से मैंने उसे बरजना भी बन्द कर दिया था, और कभी बरजता, तो मुँहदेखी वाला बरजना वह समझता भी. मुम्बई के मुकाबले यहाँ कड़ी ठण्डक और भयंकर गर्मी का मौसम अवश्य त्रासद सिद्ध हुआ. शुरुआत ठण्ड से हुई, जो लैब्रे की प्रकृति के अनुकूल होने से बीजो को बहुत सता नहीं पायी. हाँ, गर्मी में बहुत परेशान हुआ. लेकिन पहले तो उसकी पानी-प्रियता मुफ़ीद सिद्ध हुईटिल्लू चलाके ठण्डे पानी से रोज़ नहला देते. किंतु असली त्राण एसी था. दिन भर एसी में रहता. कॉलोनी में आम चर्चा होती कि पण्डितजी का एसी तो कुत्ते के लिए चलता है, जबकि होनी यूँ चाहिए थी कि पण्डितजी का कुत्ता भी एसी में रहता है.

प्रभात-भ्रमण के लिए तो जुहू का विकल्प बनारस तो क्या, किसी समुद्र-विहीन शहर में हो नहीं सकता. डीएलडब्ल्यू-परिसर में स्थित जंगल में बने जिस भ्रमण-मार्ग (वॉकिंग ट्रैक) पर मैं जाता हूँ, वहाँ भी श्वान अग्राह्य ही होता...तो उसके सामने सूर्य-सरोवर के चारो ओर की खुली जगह में जाने लगा. लेकिन हर स्थिति में ‘सुख-दु:खे समे कृत्वा लाभालाभो जयाजयौ’वाले बीजो को तो कोई फर्क पड़ा नहीं. उतने ही चाव से जाता. उसे ‘संत’ यूँ ही थोड़े कहते हैं!! लेकिन सुख-सुविधाओं के मामले के अलावा जब बात भावात्मकता की आती, तो बीजो की स्थितप्रज्ञता कमलनाल की भाँति टूट जाती – ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’न रह पाती. गृह-प्रवेश के बाद दो-तीन दिनों में ही सब लोग चले गये. घर में रह गये सिर्फ़ मैं और दीदी. मैं दिन भर विश्वविद्यालय चला जाऊँ, तो सिर्फ़ दीदी, जो मुम्बई के मंसायन से आने वाले बीजो के लिए एकाकीपने का सबब बनता. मेरे जाते हुए उसकी छटपटाहट और आने के बाद का उतावलापन इसका प्रमाण देता. दीदी बताती कि साढ़े तीन बजे से ही गाड़ी की आवाज अकनने लगता और मेन रोड से कॉलोनी की गली में घुसते ही अपनी गाडी की आवाज पहचान जाता. गेट पे आ जाता. जब एक-दो दिनों के लिए सेमिनारों में या एकाध सप्ताह के लिए मुम्बई जाने के लिए मेरी अटैची तैयार होने लगती, तभी से ताड़ लेता और उदास हो जाता. यह मुम्बई में भी होता. कल्पनाजी भी कहतीं कि जाते हुए उसे बतिया-बता के जाया करो, तब ठीक रहता है – गोया सुनके समझ जाता हो, वरना बहुत तंग रहता है. बनारस में मेरे चले जाने पर रात को मेरा स्लीपर उठाके ले जाता और उसी पर बैठके सोता. याद आता कि मेरे गोवा जाने पर पहली में पढ़ता हुआ बेटा भी मेरा फोटो लेके सोता. सुनकर जी तडप जाता...और कई यात्राएं रद्द भी कर देता.

बगल वाले अजय सिंह के साथ हमारा रिश्ता घर जैसा हो गया थाआज भी है, तो उनका दरवाज़ा (गेट) खुला देख या फिर खुलवा के वहाँ चला जाता और कुछ देर मन-बदलाव कर लेता. बिन्दुजी का बिस्किटादि से आतिथ्य भी ग्रहण कर लेता, ऐसे पड़ोस की कल्पना भी मुम्बई में नहीं की जा सकती. वाचस्पति भाई साहेब ने बीजो को अपने घर (सामने घाट) आमंत्रित किया. वे एक बार मुम्बई के घर में भी बीजो से मिले थे. शकुंतला भाभी ने भरपूर आतिथ्य तो किया ही, पूरा घर-छत...आदि यूँ दिखायागोया पुराना मित्र आया हो. उतने समय अपने प्यारे पॉमेरियन को कमरे में बन्द कर दिया था, ताकि बाभन-कुत्ता-हाथी, ये न जाति के साथीवाली श्वान-वृत्ति से कोई अयाचित स्थिति न पैदा हो.... उन्होंने ही डॉक्टर भी मुहय्या कराया था, जो सालाना सुई लगाने के साथ गाहे-बगाहे इलाज़ भी करते. एक बार बड़ी-सी सुई लगाने चले, तो बीजो को दोपट में बाँधने के लिए कहा. मैंने कहा–‘मैं सहला रहा हूँ, आप लगाइये’. जब बीजो ने चुप बैठे लगावा लिया, तो हैरत में पड़ बोले–‘ऐसे तो आदमी भी नहीं लगवाते’. मैंने अपना आप्त वाक्य कहा – ‘यह बच्चा तो स्थितप्रज्ञ संत है’.

भगीरथ-प्रयत्न के बावजूद महाराष्ट्र से मेरी सेवाएं स्थानांतरित न हो पायीं. पुनर्ग्रहणाधिकार (लिएन) की तारीख़ (30 दिसम्बर, 2011)तक वापस पहुँचना तयथा. इस तरह बीजो का काशी-निवास साल भर का रहा. इस दौरान हम काशी में जब भी घूमने निकले, वह गाड़ी में साथ होता. गोदौलिया में गंगा-आरती, सुबह के शूलटंकेश्वर, पूरे दिन सारनाथ...आदि देख आये थे. बीएचयू परिसर में नये विश्वनाथ मन्दिर के आसपास तो प्रभात-भ्रमण कई बार हो जाता. काशी विद्यापीठ में तो नौकरी ही थी – एकाधिक बार बिहरना हुआ. एक दिन नौका-विहार करते हुए गंगा उस पार रामनगर की गोद में रेत पर खेल कर जुहू की याद ताज़ा कर चुके थे. अपने साथ गाँव की यात्रा करा ही चुके थे. ननिहाल न ले जा पाये, जिसकी कचोट आज साल रही है.... जब वापस ले जाने के लिए अकुल के आने का दिन तय हो गया, तो कल्पनाजी ने मौज में कहा–‘गंगा-स्नान तो करा दो बीजो को’. मैं भी मौज में आ गया. एक दोपहर अपने घर से सर्वाधिक करीब और श्वान-स्नान हेतु किंचित् निरापद अस्सी घाट ले गया. गंगा-सफाई के नाम पर करोडों रुपये खर्च होने के बावजूद उतनी ही गन्दी गंगा में तो शव-दाह पर भी मैं नहीं नहाता. सो, पानी में उतरना था नहीं. जिधर भी ले जाऊँ, लोग नहाते दिखें – उसमें साधुवेश वाले भी. मैं संकोच में लिये घूम ही रहा था कि एक नहाते हुए साधु ने ही हाथ से बुलाने का इशारा करते हुए पूछ दिया- ‘नहलाना है’? बस, मैंने कुदा दिया. साधु ने लोक लिया. और मल-मल कर नहलाते हुए श्लोक भी बोलता रहा –गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती, नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेsस्मिन संन्निधिं कुरु’.इस अभिनव गंगा-स्नान को हम लतीफे की तरह लोगों को सुनाते और अंत में जोड़ देते– साधु अवश्य ही बीजो-रूप पर रीझ गया था....                

लाते हुए तो देखा नहीं था, जाते हुए स्टेशन पहुँचाने गया, तो गॉर्ड की केबिन में 2x2 फिट की वह बन्द कोठरी देखी, जिसमें 30 घण्टे की यात्रा बीजो ने कैसे की होगी, अकल्पनीय लगा. बीजो के धैर्य और संतोष पर उसके सामने माथा झुक गया. मैंने पहले देखा होता, तो आने देता ही नहीं. लेकिन बीजो को अपने पास बुलाने के मेरे मोह को पूरा करने के लिए अकुल ने कैसी कठकरेजियत की पीड़ा झेली, को समझ के भी सर नीचा हो गया.       

    
मैं और बीजू दो-चार दिनों आगे-पीछे ही बनारस से मुम्बई आये और अपनी-अपनी दैनन्दिनी में लग गये. मुम्बई वापसी पर घर-बाहर का बीजो-मित्र समुदाय सिहाते हुए उछाह के साथ उससे मिला – ‘अरे बीजू आ गया’ करके दौड़ते और ‘कैसा था बीजू’...करके भेंटने लगते. इसने भी सबके इस्तक़बाल को उनके आसंग के अनुसार अपनी अदा में क़बूल किया – किसी का कुछ भूला नहीं था. और यदि मेरी नौकरी का यह अंतिम चरण था, तो मोटे-मोटे तौर पर बीजो के जीवन का भी उत्तरार्ध शुरू हो रहा था. लैब्रे जाति वालों के बारे में विश्रुत है कि उनके अंतिम दिन कठिन दैहिक कष्ट में बीतते हैं. बीजो के ऐसे दिन थोड़े जल्दी ही आ गये. हालाँकि बुढ़ाई में लैब्रे नस्ल वालों के शरीर जितने भारी हो जाते हैं, बीजो का कभी उतना हुआ नहीं या हमने होने नहीं दिया. उनके जैसा अजलस्त भी नहीं हुआ कि चलना-फिरना दूभर हो जाये - रुक जाये और घर में पड़े-पड़े गन्दगी करे.... अंतिम दिन तक चलता-फिरता रहा.... लेकिन बनारस से आने के बाद एकाध साल में ही उसके दाहिने पट्ठे (पीछे के दाहिने पैर के बाहरी ओर घुटने के ऊपर) में एक गुमटा निकलने लगा. डॉ परमार थे हमारे पशु-परिवार के चिकित्सक . उनकी दवा शुरू हुई, पर गुमटा कम होने का नाम न ले. कई महीने बाद दूसरे डॉक्टरों से सलाह लेने के सिलसिले में बेटे ने डॉ उमेश जाधव का चयन किया. उन्होंने भी महीनों परीक्षण-प्रयोग किया. फिर फैसला दिया - इसे ऐसे ही रहने दें. हानिरहित (हार्मलेस) है. काट के निकाला जा सकता है, पर जोख़म है. अब मानने के सिवा कोई उपाय न था. कोई दो साल रहा वह गुमटा और और बढ़ते-बढ़ते आधा किलो से ज्यादा का हो गया था. चलते हुए झूलता, पाँव में लड़ता-घिसता.... लेकिन हाय रे बीजो की अपरम्पार सहन-शक्ति और धीरज!! वह चलता, जरूरत पड़ने पर दौड़ता.... क़ुदरत ने इतना सुन्दर रूप देके भेजा था, लेकिन उसमें बट्टा लगाता चला गया. पर कहना होगा कि उसके चाहकों ने रूप-कुरूप का भेद नहीं किया, वैसा ही प्यार-दुलार देते रहे.... परंतु ‘बीजो को क्या हुआ है’, ‘यह क्यों निकाला नहीं जा रहा’, बताते-समझाते थक जाना पड़ता.... कुछ अज़नवी श्वान-प्रेमियों ने हमारी भर्त्सना भी की– इलाज़ नहीं कर सकते, तो रखते क्यों हैं? उन्हें लगा, हम जीव को कष्ट देके पैसे बचा रहे हैं.

अंत में एक दिन उसमें से मवाद बहते दिखा. डॉ. जाधव आये. देखकर कहा – अब काट के निकालना अनिवार्य है, वरना जहर फैल सकता है – पाँव से पूरी देह तक. देर करनी न थी, हम चाहते भी न थे. हम तीनो लेकर गये डॉक्टर जाधव के क्लीनिक. गुमटे के चहुँ ओर ही सुन्न किया (लोकल एनीस्थीसिया दिया) गया, वरना अनंत बेहोशी में चले जाने का ख़तरा था. डॉक्टर के दो बलिष्ठ सहयोगी भी थे. शल्य-क्रिया के मेज पर हम सबने उठा के लेटाया. गुमटे के चारो तरफ सफाई करने, बाल निकालने तक ही हमें वहाँ रहने दिया गया. उसके वीडियो भी बनाये मैंने. फिर बीजो को छोड़के बाहर जाने की पीड़ा का क्या कहें...!! लेकिन बीजो तो शांत सहयोग के सिवा कुछ कर ही नहीं सकता था. बाद में डॉक्टर ने भी इसकी तस्दीक दी.... कल्पनाजी शल्य के बाद की हालत को देखने से बचने के लिए घर में उसे रखने-सुलाने की माकूल व्यवस्था कराने के बहाने थोड़ा पहले लौट आयीं. मैं बीजो को लेकर पीछे की सीट पर बैठा. शाम का वक्त था. यातायात ठसा पड़ा था. बेटे ने इधर-उधर से मोड़-माड़ कर निकालते हुए कौशल पूर्वक गाड़ी चलायी, तब भी दस मिनट का रास्ता लगभग डेढ़ घण्टे में तय हुआ. लेकिन बीजोजी कष्ट के बावजूद मासूम बच्चे की तरह गोद में सर रखे और उदार बूढ़े की तरह बेआवाज कसमसाते पड़े रहे. 3-4 दिनों पट्टी (ड्रेसिंग) होती रही. बिना गुमटे के बीजो को देखना पुन: प्रीतिकर लगा और इस बार ‘गुमटा निकल गया? कैसे निकला?’...आदि के उत्तर देना और इसके बाद ‘बड़ा अच्छा हुआ’, ‘शाबाश बीजू...’ आदि टिप्प्णियां सुनना खूब भला भी लगता रहा.       

इतने से ही बेचारे बीजो की जान नहीं छूटी. इसी सबके बीच उसके शरीर में जिवड़े दिखने लगे थे. पहले तो यह सोचकर कि कहीं से छूत लगी होगी, जिससे आये होंगे और बढ़ गये होंगे, उन्मूलन के आम-ख़ास सारे उपाय हुए – जीव-नाशक शैम्पू, छिड़कने व लेप करने की दवाएं.... समुद्र के पानी में मैं देर-देर तक बिठाता, ताकि खारे पानी में अकुला के मरें – दो-चार उतराते भी थे मरके.... नीम का तेल पोतके धूप में बिठा देने जैसे गँवईं इलाज भी किये. बार-बार बाल भी काट देते कि उन्हें छिपने की जगह न रहे. इसके चलते बीजो के बाल भी उतने घउलर (गझिन-लम्बे-बिखरे) नहीं हो पाते, जितने आम तौर पर लैब्रे वालों के हो जाते हैं. लेकिन इतना सु-दर्शन बीजो प्राय: जड़ से कटे बालों में और भी अजीब दिखता. वही बीजो है, पहचान में न आता. पर नियति के सामने क्या करते...!! बाल काटने के काम में सर्वाधिक सक्रिय-सन्नद्ध कल्पनाजी होतीं – यहाँ तक कि बहुत बार ख़ुद भी काटतीं. काटने के तरह-तरह के औज़ार लाके रख लिये. और बीजो बेचारा अपनी आज्ञाकारिता में इस समर्पण भाव से कटवाता कि ‘बाल काट लो या देह, चूँ न करूँगा मैं’. उसे राहत भी होती. फिर बाल बढ़ते भी जल्दी – लैब्रे-प्रकृति.

सब कुछ होता, पर जिवड़े उजहते (समूल खत्म होते) नहीं. दो-चार दिन कुछ कम रहते, बीजो शांत रहता. फिर फैल जाते, वह छटपटाने लगता. जब रात को सब कुछ शांत हो जाता, तो उसके सोने में जिवड़े उपराते. सोती रातों को बीजो कभी झटके में अपने बिस्तर से उठके चल देता - शायद उनके ज्यादा काटने से हैरान होकर, तो गादी पर दो-चार रेंगते हुए पाये जाते. लेकिन सुबह एक नहीं दिखते, सब उसकी देह में घुस के समा जाते. गादी की खोल रोज़ बदली जाती. इन लघुतम तनधारी जिवडों की चालाकियों (कनिंगनेस) के आईने में आज अतनुधारी कोरोना वायरस कुछ-कुछ समझ मे आ रहे हैं. उनसे सताये जाते बीजो की छटपटाहट देखी नहीं जाती थी, आज शहरों में बसे-फँसे देश भर के गाँवों के मजदूरों की भूखी-प्यासी दुर्दशा सुनी नहीं जा रही है. दिन में जब खाली होतीं, उषा—निर्मलादि सेविकायें भी उसके जिवड़े निकालने लगतीं- गाँव मे ‘ढील हेरने’ की उनकी आदत का उपराम. हमारी भी आदत हो गयी थी कि जब भी रात को उठते, देखने के लिए बत्ती जला देते और दो-चार उसके बदन पर ऊपर ही तथा दो-एक बिस्तर पर रेंगते हुए दिख जाते. फिर सहज ही उन्हें चुटकी से पकड़कर निकालने चलते और खोज-खोज के निकालने में लग जाते.... कटोरी में पानी ले लेते और एक-एक उसी में डालते हुए घण्टों निकालते रहते.... कभी तो सुबह हो जाती. कितनी कटोरियां भर जातीं. हममें से प्राय: कोई सुबह ऐसा करते पाया जाता.... कई बार दिन में अकुल भी ऐसा करते मिलता.

काफी दिनों बाद डॉक्टर की जाँच-परख से निष्कर्ष निकला कि बीजो के शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो जिवड़े पैदा कर रहे हैं. इस लिहाज से दवायें-सुइयां शुरू हुई थीं. अपेक्षित आराम होते न पाकर डॉक्टर ने कुछ दवा बदली थी कि इसी दौरान मैं पहुँच गया. मैं चाहे महीने बाद आऊँ, बीजो को भूलता नहीं कि सुबह 5 बजे घुमाने ले जाऊँगा. इसके लिए मेरे चाय बनाते-पीते हुए वह साथ-साथ रहता. उस दिन किचन में खड़ा हुआ और अचानक धड़ाम से गिर गया. मैं घबरा के देखने लगा, तो साँसें चलती हुई महसूस ही नहीं हुईं. चिल्ला के कल्पना को बुलाते व बीजो को झिझोड़ते हुए फूट-फूट के रो पड़ा. विजड़ित-सी खड़ी रह गयीं कल्पना भी. 3-4 मिनट बाद उसके पेट में हरकत हुई, तो जान में जान आयी. फिर धीरे-धीरे साँसें ठीक चलने लगीं. 9-10 बजे बेटा नीचे आया, तो बताया कि दवा का असर है. डॉक्टर ने बताया है कि चक्कर भी आ सकता है और बेहोशी भी. फिर तो मेरी रुलाई भी घर में खासा विनोद बन गयी.

उन दिनों इन रोगों-इलाजों एवं ढल गयी उम्र के कारण कुछ उल्लेख्य परिवर्तन हुए थे... दरवाजे की घण्टी बजने पर दौड़ के पहुँचना, स्वागत करना या भड़कना बहुत कम हो चला था. पूरे समय घर की बहुत सारी चहलकदमी भी काफी कम हो गयी थी. किसी भी दरवाजे पर छेंक के बैठना श्वान-स्वभाव है, जो बढ़ गया – बहुत कहने पर ही हटता. थोड़ी चिड़चिड़ाहट भी आ गयी थी. हमारे संग-साथ की आकांक्षा ज्यादा होने लगी थी – शायद मानसिक आवश्यकता बढ़ने लगी थी. हमारी तरफ से प्रेम-लगाव के साथ अब देख-भाल (केयर) की मात्रा स्वत: बढ़ गयी थी. लेकिन उसकी ख़ुराक़ व खाने में कोई कमी नहीं आयी थी. तत्परता अब आग्रह हो चली थी.... सुबह जरा भी देर होने पर कल्पनाजी को जगा देता था, जबकि पहले उठने का इंतज़ार करता था. अब उसकी बात तुरत न मानी जाये, तो नाराज़ हो जाता. सिफारिश करके मनाने पर ही मानता था. इधर दो-चार सालों से महादेवी है, जो छह बजे घर जाने के पहले उसकी रोटियां बनाती. 5 बजे से उसके पीछे पड़ जाता, चौका-बेलन हाथ में उठवा के ही मानता. यह भोजन-वृत्ति भी अचानक चार दिन ही बन्द हुई, तो आसन्न ख़तरे की घण्टी हम सुन पाये.

बनारस से आने के कुछ ही बाद अपने परिसर में श्वानों की छह आमद में से बची एकमात्र को अकुल की संवेदना फिर उठा लायी थी. वह चीकू त्रिपाठी आज कल्पनाजी के शब्दों में ‘डेलीकेट डार्लिंग’ है. किंतु इसके अपने दुर्लालित्य भी हैं. जैसा कि तब अकुल का अग्रकथन (प्रेडिक्शन) था, चीकू के साथ ने मनोवैज्ञानिक रूप से बीजो की आयु-सेहत व सक्रियता में संजीवनी का काम किया है. इधर बीजो घूमते हुए कमजोरी से थक के बैठ जाता, तो बार-बार जाके चीकू उसे सूँघती, सर लगाके उठाने का प्रयास करती और न उठने पर कुछ दूर जाके उसकी तरफ दौड़ के आती – खेलने को आमंत्रित करती... आख़िर बीजो को उठा के ही मानती. न उठने पर मेरे साथ इंतज़ार भी करती. रात को घूमने जाने से कसरियाता, तो प्राकृतिक निपटान करा देने की गरज़ से बिना गट्ठी बाँधे ही पट्टा गले में डाल देता. और जिस बीजो को कभी पट्टा बाँधा नहीं गया, वह पट्टा गले में आते ही चल पड़्ता – पशु-प्रवृत्ति की दासता की बलिहारी...!! लेकिन तब वह निपटान करके भाग भी आता. यह बात अलग है कि सुबह के भ्रमण में कभी आलस्य नहीं करता– पहले से ही उठके तैयार रहता.... तभी तो सालों बाद अभी मार्च (2020) के पहले हफ्ते में एक सुबह मौज-मौज में ही जुहू तक चला आया. पहुँच के तो दस मिनट बालू पर पड़ गया, पर फिर उठके आ भी गया. क्या पता था कि यही उसकी अंतिम जुहू-यात्रा और 8 मार्च को वहाँ से आना, मेरी उससे अंतिम भेंट होगी...!!           

बीजो की देह गति तो कॉलोनी के चहुँ ओर से जुहू तट तक ही थी, पर भावात्मक सम्बन्धों की उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी. घूमते हुए मिलने वालों के जिक्र हुए, घर आने वाला हर शख़्स भी बीजो का दोस्त हो जाता था. उसे वह अपनी स्मृति में सँजो लेता था. इसीलिए दोस्तों-मेहमानों के अलावा दूधवाले, फल वाले, सामान पहुँचाने वाले (डेलीवरी ब्वाय), अख़बार वाले, बिजली-पानी की मरम्मत करने वाले और पोस्टमैन-कोरियर वाले तक...सबके साथ उसके सम्बन्धों-संवादों के अपने सिलसिले होते.... उसे चाहने वाले तमाम लोग पूरे देश व विदेश में पहुँचे हैं. अवसान के दिन स्टेटस लगा दिया था. खबर पाकर सभी अफसोस व संवेदना से भींगे-भरे हुए हैं. मुम्बई का तो पूछना ही क्या, दिल्ली-कलकत्ता, बड़ोदा-अहमदाबाद, पुणे-औरंगाबाद, आगरे-इलाहाबाद, बस्ती- गोरखपुर...आदि से लेकर यूके-यूएस से भी सन्देश-फोन आने लगे – महीनो आते रहे....

इन दिनों महाभारत चल रहा है. दर्जा पाँच की पुस्तक में ‘वीर अभिमन्यु’ पाठ था, जिसमें अभिमन्यु की मृत्यु के बाद अर्जुन को मोह से उबारने के लिए कृष्ण स्वर्ग ले जाते हैं. काश, आज ऐसा हो पाता...!! लेकिन डर जाता हूँ, कहीं उसी तरह बीजो भी कोई अभिशप्त जीव रहा हो, जिसे 14 साल का मृत्युलोक-वास मिला रहा हो और वहाँ जाने पर वह भी हमें न पहचाने. उसके भाव-कर्म को देखके उसका अभिशप्त जीव होना तो पक्का लगता है, पर विश्वास है कि वहाँ भी हमें देखते ही वह उसी तरह भाग के पास आयेगा, जैसे कुछ दिनों बाद बाहर से आने पर आता था. 

उसी तरह गोद में बैठ-लिपटके छटपटायेगा और उसके लिए हमेशा लाये जाने वाले ‘मारी’ बिस्किट के पैकेट को मेरी जेब से निकालने के लिए मचलेगा...फिर हाथ से एक-एक बिस्किट खाते-खाते गोद में ही सो जायेगा....
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सम्पर्क :
मातरम्, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी-221004
9422077006

मार्खेज़ : सोई हुई सुंदरी और हवाई जहाज़ : सुशांत सुप्रिय

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Sleeping Beauty and the Airplane’ गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ (6 March 1927: 17 April 2014) के 1992 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘Strange Pilgrims’ में संकलित है. प्रस्तुत हिंदी अनुवाद Edith Grossman के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है.

मार्खेज़ की कहानियां अपने पहले वाक्य से ही आपको अपने सम्मोहन में बाँध लेती हैं,मार्खेज़ का ख़ुद का भी यह मानना रहा है कि पहला वाक्य कथा की नियति निर्धारित कर देता है. इस कहानी का नैरेटर युवा स्त्री के सौन्दर्य के सम्मोहन में है. फिर ..

इसका अनुवाद कवि-कथाकार सुशांत सुप्रिय ने किया है. उनकी कहानियों के अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. 
 



गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़
सोई हुई सुंदरी और हवाई जहाज़                  
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय





ह सुंदर और फुर्तीली थी. पाव-रोटी के रंग की उसकी त्वचा बेहद मुलायम थी. उसकी आँखें हरे बादामों की तरह थीं और कंधों तक आ पहुँचे उसके बाल काले और सीधे थे. उसके इर्द-गिर्द एक प्रभा-मंडल था, किंतु वह इंडोनेशिया से लेकर एंडीज़ पर्वतमाला वाले देशों तक कहीं की भी लगती थी. उसने सुरुचिपूर्ण ढंग के कपड़े पहने हुए थे. उसने वन-बिलाव के खाल की जैकेट पहनी हुई थी. बढ़िया रेशम का ब्लाउज़ पहना हुआ था, जिस पर नाज़ुक फूलों की कढ़ाई बनी हुई थी. साथ ही उसने प्राकृतिक सन के कपड़े की पतलून पहन रखी थी. और धारी वाले उसके जूते बोगेनवीलिया के रंग के थे. मैंने आज तक इतनी संदर युवती नहीं देखी थी. जब मैं हवाई जहाज़ का ‘बोर्डिंग-पास’ लेने के लिए क़तार में लगा हुआ था, मैंने उसे किसी शेरनी की तरह चुपके से गुज़रते हुए देखा. मैं पेरिस के चार्ल्स दे गौले हवाई अड्डे से न्यू यॉर्क के लिए उड़ान भरने वाले हवाई जहाज़ में बैठने जा रहा था. वह कोई अलौकिक, दिव्य सुंदरी थी जो पल भर के लिए अस्तित्व में आई और अपनी झलक दिखला कर हवाई अड्डे की भीड़ में खो गई.

इस समय सुबह के नौ बज रहे थे. सारी रात बर्फ़बारी होती रही थी और शहर की सड़कों पर भीड़ आम दिनों की अपेक्षा अधिक थी. राज-मार्ग पर वाहन धीमी गति से चल रहे थे. सड़क के किनारे माल ढोने वाले लम्बे ट्रक खड़े थे. कारें बर्फ़ में ही रेंग रही थीं. लेकिन हवाई अड्डे के भीतर अब भी वसंत ऋतु जैसा सुहाना मौसम था.

मैं हॉलैंड की एक वृद्ध महिला के पीछे क़तार में खड़ा था. उस महिला ने अपने ग्यारह सूटकेस के वजन को लेकर काउंटर पर बैठी क्लर्क से एक घंटे तक बहस की. मैं ऊबने लगा था जब मैंने पल भर के लिए उस अलौकिक सुंदरी को देखा जिसे देखकर मेरी साँसें थम-सी गईं. इसलिए मुझे यह पता नहीं चला कि उस वृद्ध महिला और क्लर्क के बीच का विवाद कैसे ख़त्म हुआ. फिर टिकट देने वाली क्लर्क मुझे आसमान से वापस ज़मीन पर ले आई जब उसने मेरा ध्यान कहीं और होने पर मुझे झिड़का. बहाना बनाते हुए मैंने उससे पूछा कि क्या वह ‘पहली नज़र में प्यार’ पर यक़ीन करती है. “बिल्कुल,” वह बोली, “और किसी तरह से प्यार होना असंभव है.”

उसकी निगाहें कम्प्यूटर-स्क्रीन पर जमी रहीं और उसने मुझसे पूछा कि मुझे धूम्रपान करने वाली या न करने वाली, किस तरह की सीट चाहिए.

“कोई भी सीट चलेगी,” मैंने जानबूझकर दुर्भावना से भर कर कहा , “बस मुझे ग्यारह सूटकेस वाली उस महिला के बग़ल वाली सीट नहीं दीजिएगा.”

उसने एक सस्ती मुस्कान देते हुए मुझे सराहा किंतु अपनी निगाहें उस चमकती स्क्रीन पर टिकाए रखीं.

“एक अंक चुनिए. तीन, चार या सात.”
“चार.”
उसने एक विजयी मुस्कान दी.
“मैं पंद्रह वर्षों से यहाँ काम कर रही हूँ. आप पहले शख़्स हैं जिसने अंक सात नहीं चुना.”

उसने मेरे बोर्डिंग पास पर मेरा सीट नंबर लिख दिया और मेरे बाक़ी दस्तावेज़ों के साथ उसे मुझे लौटा दिया. मुझे मेरे काग़ज़ पकड़ाते हुए उसने अपनी अंगूरी रंग की आँखों से पहली बार मुझे देखा. यह तब तक के लिए सान्त्वना जैसा था जब तक मैंने दोबारा उस सुंदरी को नहीं देखा. चलते समय उस क्लर्क ने मुझे बताया कि हवाई अड्डा बंद कर दिया गया था और सभी उड़ानें देरी से उड़ने वाली थीं.

“कितनी देरी से ?

“केवल ऊपर वाला जानता है, “उसने मुसकुराते हुए कहा.” आज सुबह रेडियो ने बताया कि यह साल का सबसे बड़ा बर्फ़ीला तूफ़ान है.”

वह ग़लत थी. दरअसल वह पिछले सौ बरसों का सबसे भयावह बर्फ़ीला तूफ़ान था. लेकिन पहले दर्ज़े के प्रतीक्षा-कक्ष में वसंत इतना वास्तविक था कि गुलदानों में ताज़ा गुलाब खिले हुए थे. यहाँ तक कि रेकॉर्डेड संगीत भी उतना ही उत्कृष्ट और शांति प्रदान करने वाला लग रहा था जितना उस संगीत के रचयिताओं ने सोचा होगा. और तभी अचानक मुझे ख़्याल आया कि यह जगह उस सुंदरी के लिए उपयुक्त आश्रय-स्थल थी. मैंने उस प्रतीक्षा-स्थल के अन्य क्षेत्रों में उस सुंदरी को ढूँढ़ा और मैं अपनी निर्भीकता पर चकरा गया. लेकिन वहाँ प्रतीक्षा कर रहे अधिकांश लोग वास्तविक जीवन में मिलने वाले पुरुष थे जो अपना समय अंग्रेज़ी अख़बार पढ़ने में बिताते थे जबकि उनकी बीवियाँ किसी अन्य पुरुष के बारे में सोच रही होती थीं. वे काँच की विशालदर्शी खिड़कियों में से बर्फ़ में जमे पड़े हवाई जहाज़ों को देख रही होती थीं. या वे बर्फ़ से घिरे कारख़ानों या रोइये के विशाल मैदानों को तबाह कर देने वाले खूँखार शेरों के बारे में सोच रही होती थीं. दोपहर होते-होते वहाँ बैठने की कोई जगह नहीं बची और वहाँ उमस और गर्मी इतनी असहनीय हो गई कि मैं ताज़ा हवा में साँस लेने के लिए छटपटा कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ.

बाहर मैंने अभिभूत कर देने वाला एक दृश्य देखा. हर तरह के लोगों की वजह से प्रतीक्षा-कक्षों में भीड़ हो गई थी. लोग दमघोंटू गलियारों में और यहाँ तक कि सीढ़ियों पर भी बैठे हुए थे. बहुत से लोग अपने पालतू जानवरों के साथ ज़मीन पर ही बैठे हुए थे. उनके बच्चे वहीं थे और उनकी यात्रा का सामान भी वहीं पड़ा था. शहर से सम्पर्क भी बाधित हो चुका था, और पारदर्शी प्लास्टिक का यह महल तूफ़ान में फँसी अंतरिक्ष की किसी विशालकाय संपुटिका जैसा लग रहा था. मैं अपने मन में इस विचार को आने से नहीं रोक सका कि वह परम सुंदरी भी इस पालतू भीड़ में कहीं फँसी हुई होगी. इस स्वप्न-चित्र ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए नया संबल प्रदान किया.


दोपहर के भोजन-काल तक हम सब समझ गए थे कि यह प्रतीक्षा लम्बी होने वाली थी. सात रेस्त्रां, कैफ़ेटेरिया और शराबखानों के आगे लम्बी क़तारें थीं और तीन घंटों के भीतर ही सभी दुकानें बंद कर देनी पड़ीं क्योंकि उन में मौजूद खाने-पीने की हर चीज़ ख़त्म हो चुकी थी. वहाँ मौजूद बच्चों को देखकर ऐसा लगता था जैसे पूरी दुनिया के बच्चे वहीं आ गए हों. वे एक साथ रोने लगे और लोगों के झुंड से पसीने की तेज़ गंध आने लगी. यह सहज-बोध का समय था. इस समूची दौड़-भाग में जो एकमात्र चीज़ मुझे खाने के लिए मिली, वह थी वनीला आइस-क्रीम के दो अंतिम कप. ये मुझे बच्चों की एक दुकान में मिले. बैरे मेज़ों पर कुर्सियाँ रख रहे थे क्योंकि ग्राहक जा चुके थे. मैं धीरे-धीरे अपनी आइस-क्रीम ख़त्म कर रहा था. सामने एक आईना था जिसमें अपनी छवि देखते हुए मैं उस सुंदरी के बारे में सोच रहा था.

न्यू यॉर्क की जिस उड़ान को सुबह ग्यारह बजे उड़ना था, वह रात के आठ बजे उड़ पाई. जब तक मैं हवाई जहाज़ में चढ़ पाया, पहले दर्ज़े के अधिकांश यात्री अपनी सीटों पर बैठ चुके थे. एक परिचारिका मुझे मेरी सीट तक ले गई. तभी जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया. मेरी बग़ल में खिड़की के साथ वाली सीट पर वही परम सुंदरी अपना स्थान ग्रहण कर रही थी. वह एक निपुण यात्री लग रही थी. यदि मैंने कभी यह बात लिखी तो कोई भी मेरी इस बात पर यक़ीन नहीं करेगा— मैंने सोचा. मैंने किसी तरह हकलाते हुए अनिश्चितता भरे स्वर में उसका स्वागत किया किंतु उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया.


वह इतने आराम से वहाँ बैठी थी जैसे वह अगले कई बरसों तक वहीं रहने वाली थी. उसने अपनी हर चीज़ को क़रीने से सही जगह पर रखा और अपनी सीट को आदर्श घर जैसा बना लिया जहाँ हर चीज़ उसकी पहुँच के भीतर थी. इस बीच एक परिचारक ने हमारा स्वागत शैम्पेन से किया. मैंने सुंदरी को शैम्पेन देने के लिए एक गिलास उठाया किंतु समय रहते ही मुझे ऐसा न करने का अहसास हो गया. उसे केवल एक गिलास पानी चाहिए था. उसने परिचारक से पहले न समझ में आने वाली फ़्रांसीसी भाषा में, और फिर उससे कुछ प्रवाही अंग्रेज़ी में कहा कि उड़ान के दौरान उसे किसी भी कारण-वश सोते हुए से न जगाया जाए. उसकी ऊष्म, गंभीर आवाज़ में पूर्व-देश के वासियों जैसी उदासी घुली हुई थी.

MÁRQUEZ AND HIS WIFE-MERCEDES BARCHA
(MÁRQUEZ AND HIS WIFE-MERCEDES BARCHA)
जब परिचारक पानी लेकर आया तो सुंदरी ने प्रसाधन के सामान से भरा एक छोटा डिब्बा अपनी गोदी में रख कर खोल लिया. उस डिब्बे के कोने ताँबे के थे और वह दादी-माँ के छोटे-से बक्से जैसा लगता था. उस डिब्बे में रंग-बिरंगी गोलियाँ मौजूद थीं और सुंदरी ने उस डिब्बे में से दो सुनहरी गोलियाँ निकालीं. वह अपना हर काम सुव्यवस्थित और विधिवत ढंग से करती थी. ऐसा लगता था कि जन्म से लेकर अब तक उसके साथ कोई अनहोनी घटना नहीं घटी थी. अंत में सुंदरी ने खिड़की को ढँक दिया और अपनी सीट को पीछे की ओर धकेल कर थोड़ा नीचे कर लिया. फिर उसने खुद को कमर तक कम्बल से ढँक लिया और बिना अपने जूते उतारे हुए उसने मेरी ओर पीठ कर ली. फिर वह बिना किसी रुकावट के, बिना लम्बी साँस भरे, और बिना अपनी जगह में कोई बदलाव किए सो गई. न्यू यॉर्क तक पहुँचने में आठ लम्बे घंटों और बारह मिनटों का समय लगा और वह सुंदरी सारा समय सोती रही.

वह एक लम्बी यात्रा थी. मैं हमेशा से यह मानता आया हूँ कि एक सुंदर युवती से अधिक सुंदर प्रकृति की और कोई रचना नहीं हो सकती. मेरे लिए एक पल के लिए भी बग़ल में सोई सुंदरी के सम्मोहन से बच पाना असम्भव था. वह किसी पुस्तक की जादुई पात्र-सी थी. जैसे ही हवाई जहाज़ ने उड़ान भरी, पुराना परिचारक ग़ायब हो गया. उसकी जगह एक नया परिचारक आ गया और वह सुंदरी को उठाना चाहता था ताकि वह उसे साज-सिंगार का सामान और संगीत सुनने के लिए इयर-फ़ोन दे सके. मैंने सुंदरी के निर्देश को दोहराया जो उसने पिछले परिचारक को दिया था किंतु यह परिचारक स्वयं सुंदरी के मुँह से सुनना चाहता था कि उसे रात का भोजन भी नहीं चाहिए था. परिचारक सुंदरी के निर्देशों के बारे में निश्चित होना चाहता था. उसने मुझे झिड़क दिया क्योंकि सुंदरी ने ‘व्यवधान न डालें’ वाली सूचना-पट्टिका अपने गले में नहीं लटकाई हुई थी.

मैंने अकेले ही रात का भोजन किया. यदि सुंदरी जगी होती तो मैं उसे क्या कहता, यह सोचते हुए मैं खाना खाता रहा. उसकी नींद इतनी पक्की थी कि एक बार तो मुझे यह परेशान कर देने वाला ख़्याल आया कि शायद उसने नींद की गोलियाँ नहीं ली थीं बल्कि आत्म-हत्या करने के इरादे से गोलियाँ ले ली थीं. मैंने अपना हर जाम उस सुंदरी के नाम पिया. “हे परम सुंदरी, तुम्हारी सेहत के नाम !”

रात का भोजन ख़त्म होने के बाद हवाई जहाज़ के भीतर रोशनी कम कर दी गई और स्क्रीन पर एक फ़िल्म चला दी गई जिसे कोई नहीं देख रहा था. हम दोनों विश्व के अँधेरे में एक-दूसरे की बग़ल में अकेले थे. शताब्दी का सबसे भयावह बर्फ़ीला तूफ़ान ख़त्म हो चुका था. अटलांटिक महासागर के ऊपर उड़ रहा हवाई जहाज़ विशाल और पारदर्शी लग रहा था. जैसे सितारों के बीच वह हवाई जहाज़ गतिहीन-सा टँगा हुआ हो. फिर मैंने सुंदरी को इंच-दर-इंच कई घंटों तक निहारा. जीवन के एकमात्र चिह्न जो मैं उसमें ढूँढ़ पाया वे उसके माथे पर से गुज़रने वाली सपनों की परछाइयाँ थीं, जो समुद्र के ऊपर से गुज़रने वाले बादलों जैसी थीं. अपने गले में उसने इतनी पतली चेन पहन रखी थी जो उसके गले की सुनहरी त्वचा के सम्पर्क में आ कर अदृश्य लग रही थी. उसके सुंदर कान अन-छिदे थे. उसके नाखून स्वस्थ और गुलाबी रंग के थे. अपने बाएँ हाथ में उसने सादा फीता पहन रखा था. चूंकि वह बीस वर्ष से अधिक की नहीं लग रही थी, मैंने खुद को इस विचार से सांत्वना दी कि वह शादी की अँगूठी नहीं थी बल्कि किसी अल्पकालिक सम्बन्ध की निशानी थी. “यह जानना कि तुम सो रही हो, निश्चित, सुरक्षित, हे त्याग की वाहिका, हे पवित्र देवी, हथकड़ी जैसी मेरी बाँहों के इतने क़रीब.”

झाग भरे शैम्पेन को याद करते हुए मैंने यह सोचा और मुझे जेरार्डो डिएगो का गीत याद आ गया. तब मैंने अपनी सीट को नीचे की ओर झुका कर पीछे धकेला और मेरी सीट सुंदरी की सीट के बराबर स्तर पर आ गई. फिर हम दोनों एक-दूसरे के इतने पास इकट्ठे सोते रहे जितने पास पति-पत्नी भी अपने बिस्तर पर नहीं सोते.

सुंदरी की साँसें भी उतनी ही मीठी थीं जितनी उसकी आवाज़ थी और उसकी त्वचा से उसके नाज़ुक सौंदर्य की ख़ुशबू फूट कर बाहर आ रही थी. यह अविश्वसनीय लग रहा था. पिछली वसंत ऋतु में मैंने यासुनारी कावाबाटा का एक उपन्यास पढ़ा था. वह क्योटो के प्राचीन काल के मध्य वर्ग से संबंधित था. उस उपन्यास के मुख्य पात्र हर रात शहर की सबसे सुंदर युवतियों को नग्न और नशे में देखने के लिए लाखों रुपए खर्च करते थे. वे मुख्य पात्र प्रेम की कष्टदायी अवस्था में उसी बिस्तर पर नग्न युवतियों को देख कर तड़पते हुए अपना समय व्यतीत करते थे. वे नशे में धुत्त उन नग्न युवतियों को जगा या छू नहीं सकते थे. वे ऐसा करने का प्रयास भी नहीं करते थे क्योंकि उनके आनंद का सार उन नग्न युवतियों को उस अवस्था में केवल सोते हुए देखना था. उस रात जब मैं उस सुंदरी को सोते हुए देख रहा था तब मैं न केवल वृद्धावस्था की उस परिमार्जित सुशीलता को समझ पाया बल्कि मैंने उसे पूरी तरह जिया भी.

“कौन जानता था,” शैम्पेन से तीव्र हो चुके अपने घमंड की वजह से मैंने सोचा , “कि मैं इस बढ़ी हुई उम्र में उम्र में एक प्राचीन जापानी बन जाऊँगा.”

मुझे लगता है, शैम्पेन के नशे और स्क्रीन पर चल रही फ़िल्म के मूक विस्फोटों की वजह से मैं कई घंटे सोया. जब मैं जगा तो मेरा सिर दर्द से फट रहा था. मैं उठ कर शौचालय गया. मेरी सीट से दो सीट पीछे वही ग्यारह सूटकेस वाली महिला भद्दे ढंग से अपनी सीट पर ऐसे पसरी हुई थी जैसे वह रण-भूमि में भुला दी गई कोई लाश हो. उसकी पढ़ने वाली ऐनक और मनकों की एक माला सीटों के बीच के गलियारे में गिरी हुई थी. मैंने उन गिरी हुई चीज़ों को नहीं उठाने की ख़ुशी का मज़ा लिया.

शैम्पेन के नशे से उबरने के बाद मैंने खुद को शीशे में देखा. मैं बदसूरत और घिनौना लग रहा था. मैं हैरान रह गया कि प्रेम की तबाही इतनी भयानक हो सकती है. हवाई जहाज़ ने बिना चेतावनी के अचानक अपनी ऊँचाई खो दी. फिर वह सँभला और सीधी उड़ान भरने लगा जबकि उसमें हर जगह ‘कृपया अपनी सीट पर वापस जाएँ’ के चिह्न चमकने लगे. मैं जल्दी से इस उम्मीद में शौचालय से बाहर निकला कि इस वायुमण्डलीय विक्षोभ की वजह से सुंदरी अब उठ गई होगी और अपने डर पर विजय प्राप्त करने के लिए उसे मेरी बाँहों के आश्रय में आना पड़ेगा. जल्दबाज़ी में मैं उस ग्यारह सूटकेस वाली हालैंड की महिला की गिरी हुई ऐनक को लगभग कुचल ही देता और यदि ऐसा हुआ होता तो मुझे ख़ुशी होती. लेकिन मैंने अपने बढ़े हुए कदम वापस खींच लिए, गलियारे में गिरी हुई उसकी चीज़ों को उठाया और उसका अहसान मानते हुए उसकी चीज़ें उसकी गोद में रख दीं कि उसने मुझ से पहले सीट नम्बर ‘चार’ की संख्या नहीं चुनी थी.

सुंदरी की नींद अपराजेय थी. जब हवाई जहाज़ स्थिर हुआ तब मुझे किसी बहाने से सुंदरी को हिला कर जगा देने के अपने लालच को रोकना पड़ा. दरअसल उड़ान के अंतिम घंटे में मैं उसे जगा हुआ देखना चाहता था चाहे वह इस तरह जगाए जाने से बेहद नाराज़ ही क्यों नहीं हो जाती. इस तरह मैं अपनी आज़ादी और सम्भवत: अपनी युवावस्था वापस पा लेता. किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका. “लानत है” मैंने बेहद तिरस्कार से भर कर खुद से कहा , “आख़िर मैं वृषभ राशि में पैदा क्यों नहीं हुआ ?

जैसे ही हवाई जहाज़ हवाई अड्डे पर उतरने लगा, सुंदरी अपने-आप उठ गई. वह इतनी सुंदर और तरोताज़ा लग रही थी जैसे वह गुलाबों के बगीचे में सो कर उठी हो. और तब जा कर मुझे यह अहसास हुआ कि जो लोग हवाई जहाज़ में एक-दूसरे के बग़ल में बैठ कर यात्रा करते हैं वे वर्षों से शादी-शुदा जोड़ों की तरह सुबह जगने के बाद एक-दूसरे को ‘सुप्रभात’ नहीं कहते. सुंदरी ने भी यही किया. सबसे पहले उसने अपना नक़ाब उतारा. फिर उसने अपनी चमकीली आँखें खोलीं, अपनी सीट को सीधा किया, कम्बल को एक ओर किया और दूसरी ओर गिर आए अपने बालों को सँवारा. तब उसने प्रसाधन के सामान वाला छोटा डिब्बा अपनी गोद में खोल लिया और जल्दी से अनावश्यक रूप में खुद को सँवारा. इस सब में इतना समय निकल गया कि उसे तब तक मेरी ओर देखने का समय नहीं मिला जब तक हवाई जहाज़ का दरवाज़ा नहीं खुल गया. फिर उसने वन-बिलाव के खाल वाली अपनी जैकेट पहनी, और लगभग मेरे पैरों पर चढ़ती हुई और ‘पारम्परिक लातिन अमेरिकी स्पैनिश भाषा में ‘माफ़ कीजिए’ कहती हुई वह चली गई. उसने मुझे ‘अलविदा’ नहीं कहा. उसने मुझे इस बात के लिए ‘धन्यवाद’ भी नहीं दिया कि मैंने हम दोनों की रात्रिकालीन यात्रा को सुखद बनाने के लिए कितना कुछ किया था. वह सीधे न्यू यॉर्क के अमेज़न जंगल की आज की धूप में ग़ायब हो गई.
___________


सुशांत सुप्रिय


A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड,
इंदिरापुरम्,ग़ाज़ियाबाद - 201014
(उ. प्र.)
मो : 8512070086/ ई-मेल : sushant1968@gmail.com

खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ : रंजना अरगडे

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रंजना अरगडे का कवि शमशेरबहादुर सिंह पर आलोचनात्मक कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है. इधर वे सृजनात्मक लेखन की तरफ उन्मुख हुई हैं. ‘खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ’ उनकी लम्बी कविता है जिसके केंद्र में स्त्री प्रश्न है. कविता के इस ‘केलिडोस्कोप’ में रंग,छवियां और यथार्थ की अनेक परतें हैं. इस कविता को रेखांकित किया जाना चाहिए.
इसके साथ चित्रकार और सिरेमिक कलाकार सीरज सक्सेना के १४ नये रेखांकन भी प्रकाशित किये जा रहें हैं जो इस काल की विद्रूपता को बखूबी प्रकट करते हैं.



कविता
खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ                               
रंजना अरगडे






खंड़ : एक



१.
अकसर उजालों से अँधेरों में
कभी नीम अँधेरों से नीम उजालों में
अनवरत चलती वे लड़कियाँ
कब औरतें बन गुम हो जाती हैं
पता ही नहीं चलता.
कहीं पर भी दर्ज नहीं होती उनकी गुमशुदगी.

वे गुम नहीं होना चाहतीं थी कभी भी
पर उजाले की चादरों पर
अँधेरों की नक्काशी इस क़दर उकेरी जाती है
कि गायब हो जाते हैं उनके चेहरे.
न पर्दा है न बुरका है न घूंघट ही
फिर भी दिखाई नहीं पड़ती वे लड़कियां जो औरतें बन कर गुम हो गई हैं.

कहाँ गुम होती हैं औरतें
झरोखों से झांकती
खिड़कियों की सलाखों को पकड़
आसमान की धूप-छाँहीं देखतीं
पंछियों, बादलों की आवाजाही देखतीं औरतें?
बंद दरवाज़ों के कमरों में बैठीं
ग़ालिब से पूछती हैं
बे-दरो-दीवार का घर क्या तुमसे बन सका था चचा?
फूल- पौधे- पेड़- पंछी …  सब केवल दिखते हैं.
खिल-खिल, चह-चह उनके कानों तक आते-आते
गोया आवाज़ों और रंग-रेखाओं की धुँधली स्मृतियां बन जाती हैं.

खिड़कियों और झरोखों से झांकती औरतें
लगातार एक वह दरवाज़ा खोजती हैं
जिनके भीतर से वे आ तो गईं हैं
पर अब जा नहीं सकती.
(एलिस के पास होगी कोई चाभी या मिठाई का टुकड़ा या शरबत?)





२.
अलहदा कोठरियों वाला
यह बड़ा–सा मक़ान
(जिसे सबसे पहले रघुवीर सहाय ने लिखा था)
घर कह लीजिए!
गोया कोई सेल्यूलर जेल हो
पर उससे थोड़ा भिन्न,                   
इसमें झरोखे और खिड़कियाँ हैं.
यह ख्वाहिशों, सपनों, उम्मीदों का सेल्यूलर जेल है
देह का नहीं.
दिन-रात आँखों पर पट्टी बाँधे
गृहस्थी का कोल्हू चलातीं
चकरघिन्नी-सी गोल-गोल घूमती चक्कर काटती हैं इनमें रहती ये औरतें-कैदिनें 
      



३.
अनपढ़ औरतों से पढ़ी- लिखी औरतें अलग होती हैं.
उन्हें पता चलता है
कि उनका शोषण हो रहा है.
वे इसे केवल अपनी नियति नहीं मानतीं .
उनको पुरुषों के अन्याय की समझ है और
सामाजिक संरचना की जटिलताओं,दोषों और मर्यादाओं का
और इसका, उसका, तिसका सब का पता भी है.
पर बहुत कुछ नहीं  कर सकती हैं  फिर भी,
कई बार पढ़ी-लिखी औरतें.
पढ़-लिख कर औरतों की समझ में आता है
कि वे केवल औरतें हैं.
किताब में लिखा झूठ नहीं होता है,
पर होता होगा सच, किसी के लिए.
सच तो है वह ज़िंदगी है जो उनके हिस्से में आई
और उसका सच यह है कि वे औरतें हैं.
और अगर ये औरतें
लिखने-पढ़ने वाली संवेदनशील कवि कलाकार हों
तब तो वे समाज, घर परिवार और सपनों के तिराहे पर खड़ी
उस बस का इंतज़ार करती हैं जो तय है, लगभग, नहीं ही आने वाली होती है.
जैनेन्द्र की मृणाल का समय अभी इतिहास नहीं हुआ है
और मैत्रेय पुष्पा का समय अभी आया नहीं है.

एक यूटोपियाई दुनिया
जिसमें लड़की दहेज में लाती है पूर्व प्रेमी के पत्र
धरती है पति के हाथों में
और वह  कुछ नहीं कहता.
वह सरे आम इसका ज़िक्र भी करती है
उसे बुरा नहीं लगता.
और उससे वैसा ही प्रेम करता है
जैसा वह सोचती है उसे करना चाहिए.

नारीवाद का इतिहास जानने वाली,
शोध करने वाली पढ़ी-लिखी लड़कियाँ
औरतें बनने के बाद भी
इतना ही जान पाती हैं कि वे औरतें हैं.
अपनी समझ और बुद्धि का
तब तक उपयोग नहीं कर पाती हैं
जब तक कि अपना प्रतिरूप नहीं गढ़ लेतीं.   
(अगर उन्हें गढ़ने की ज़मीन मिले तो!)





४.
दीवार पर उकेरी गईं हैं उसके आँसू पसीने और रक्त कणों की छापें
निराश दिन और उदास रातों की कहानियाँ.
उसके आहत घायल और मृत भाव-कल्पना की प्राणहीन छवियां हैं.
जिन्हें उसने कविता में बुन कर अपने लिए एक अभेद्य वस्त्र बुन लिया है.
यह वस्त्र लपेट कर वह चुन दिए गए दरवाज़ों के आर-पार आ-जा सकती है.
कोई भी हो सकती है वह….
आशा, रतन, उमा, रोहिणी, जयश्री, ममता, प्रतिभा, रश्मि, प्रियंका , नसरीन, ज़ुलेखा, दक्षा, रक्षा…
कोई भी……. कितनी ही…..

वे प्रेम कविताएं नहीं लिख सकतीं
ऐसी ही एक औरत ने मुझसे कहा था .                              
उसने लिखा भी है यह बात कहीं किसी कविता में.
यही औरतें शायद ढूंढ़ सकें वह गुम दरवाज़ा.
लेकिन तब,
जब दीवारें बे-मानी हो जाएंगी उनके लिए!!
प्रेम किए बिना भी प्रेम कविता लिखना अपराध है.
और अगर लरिकै में भूल कर बैठी हों
या जवानी में (ज़ाहिर है शादी से पहले)
तब तो यह दंडनीय अपराध है.
जिसकी कोई सुनवाई कभी नहीं हो सकती
न समाज की अदालत में, न ससुराल में
और न ही माँ-बाप की अदालत में.
असफल प्रेम की दबी हुई अनभिव्यक्त आग से
धीरे-धीरे भीतर ही भीतर झुलसता है उसका होना
परत दर परत.
बहुत सारी खूबसूरत   
झुलसी हुई औरतों के हँसी खोए चेहरे
इन्हीं झरोखों से झांकते मैंने देखें हैं.



५.
इन औरतों को परफॉर्म करना होता है.
ये किसी कॉरपोरेट कंपनी में काम नहीं करतीं
पर परफॉर्मेंस कार्ड इन्हें हर रोज़ तैयार रखना पड़ता है.
इन्हें एक ऐसे मंच पर अपने को मुसकुराते हुए प्रस्तुत करना है
जहाँ दृश्य-अदृश्य दर्शक उसे लगातार देख रहे होते हैं.
वह किसी को नहीं देख सकती
क्योंकि गुम हो गई है.
लेकिन जिस तरह कोई दृष्टिहीन
सांसों की आहटों से, देह की बू से और आवाज़ों से
दृश्य को देख लेते हैं
उसी तरह देखती हैं ये अपने दर्शकों को
जो ज़रूरी नहीं सहृदय हों.
इसीलिए यहाँ किसी तरह की रस निष्पत्ति नहीं होती.
उन्हें अपने कर्तव्यों का परफॉर्मेंस  दिखाना पड़ता है.
परफॉर्मेंस के पहले ग्रीन रूम में
क्रोध, विरोध और दुखों पर वे सफाई से
पाउडर और लालिमा की ऐसी परतें लगाती हैं
कि देखने वाला कहे कि- मान गए भाई!
सच्चा कलाकार तो वही है
जो मंच की दुविधाओं को सुविधाओं में बदल देता है
अपने और दूसरों के भूले हुए संवादों को
तत्क्षण बदल कर या नया गढ़ कर
नाटक को सफल बनाना है,
पर उसे स्क्रिप्ट बदलने की छूट नहीं होती.
इम्प्रोवाइज़ेशन करने की तो बिल्कुल ही नहीं.
उसे तो निश्चित अंकों वाला विज्ञापित नाटक खेलना होता  है.
उसे कोई कथा बिंदु या विचार नहीं दिया गया
जिसके आधार पर उसे नाटक बनाना है.
वह भी इंतज़ार करती है
उस स्क्रिप्ट का
जिसमें उसे मर जाने का श्रेष्ठ अभिनय करना होता है.
जनाब !वही अभिनय की अंतिम कसौटी जो होती है!





खंड- दो



१.
कैद में रही औरतें सपने देखती हैं.
जैसे उड़ने का
ऊँचाई से गिरने का
गाड़ी छूटने का सपना हर कोई देखता है
उसी तरह
पढ़ लिख कर
एक अच्छी नौकरी
और समझदार पति का सपना हर लड़की देखती है.
अच्छे दो बच्चे
एक लड़का और एक लड़की का सपना
वह भी न देखे तो क्या देखे.
सब ठीक-ठाक हो अगर
तो एक अपना घर और एक छोटी-सी गाड़ी….
चलो गाड़ी नहीं, पर अपना घर?
अच्छा चलो वह भी नहीं
पर अच्छा सा किराए का घर जिसमें एक कमरा बेटी-दामाद का भी हो…
भाई, यह तो मिनिमम बेसिक रिक्व्यारमेंट है
जिसका ध्यान माँ-बाप भी रखते हैं.
एक पढ़ी-लिखी लड़की के लिए इतना तो सोच ही सकते हैं माँ-बाप.
पर लड़कियाँ जब औरतें बन जाती हैं
तो माँ-बाप उनके स्वप्न निर्माण प्रक्रिया से अलग हो जाते हैं.
पति अपने सपनों में इतना व्यस्त कि
उम्मीदें रखता है कैसे नथ बड़ी और बड़ी और बड़ी होती चली जाए पत्नी की.
उसके सपने की निर्माण प्रक्रिया में शामिल होती है उसकी माँ भी.

औरतों के अपने कोई
अलहदा सपने नहीं हो सकते.
हक़-हुक़ूक का तो सवाल ही नहीं.



२.
लेकिन औरतों के भी सपने होते हैं.
उनके अंदर दबे हुए
जो कथा-किस्से बन पन्नों पर उतर आते हैं
और वहीं से जा पहुँचते हैं औरतों के दिल-दिमाग में
जब वे लड़कियां होती हैं.
बहुत छोटे और मामूली से और असंभव-से भी.


                             


२.१
सपना-१

उसे
बार-बार समझाया गया
कि अभी नहीं, शादी के बाद  ससुराल से मिलता है चंद्रहार.
अनगिनत बिसाती बरसों बरस उसके गाँव आए और चले गए.
उसकी उम्मीदों को चंद्रहार की चमक से रौशन करते हुए.
फिर असली बिसाती आया
और उसकी चमकदार उम्मीदों को
उधार की खूंटी पर टांग कर चला गया.
उसके लिए छोड़ गया साफ़ करने के लिए
झूठ और दंभ का कीचड़.
जब वह उठी तो बहुत थक गई थी.




२.२

सपना-२.
एक दिन बड़ा ग़ज़ब हो गया था
बीच नाटक में
एक औरत ने स्क्रिप्ट बदल डाली.
उसे अपने पति को बचाने की कोशिशों की सफाई पति को ही देनी थी.
उसे अपना गुनाह कबूल करना था.
शर्मिंदा होना था.     
कि वह अचानक तेज़ क़दमों से चलते हुए
मंच के बाहर चली गई
बंद दरवाज़ों को खोल कर. धड़ाम से.
जब सुबह आँख खुली
बहुत उत्तेजना से भरी थी उसकी देह.



२..३

सपना-३
वह अपने दब्बू शर्मीले किस्म के पति को छोड़
मायके चली आती है
और एक छबीले, रौबदार, वसूख़दार  मर्द के पहलू में
अपनी अनंत उद्दाम इच्छाओं को बिछाती है.
उसके साथ
अपनी इच्छाओं को बाँटती है.
तभी उसकी माँ आ जाती है
जिस पर उस की सास का मुखौटा है.
उसने पलट कर उस जवाँमर्द को नहीं देखा
उसे डर था कहीं उसपर उसके पति का मुखौटा न लगा हो.
वह जब उठी तो पसीने से तरबतर थी.
पर एक शर्मीली-सी, कुछ विजयी मुस्कान भी थी उसके चेहरे पर.
उसने अंगड़ाई ली देर तलक.



२.४
सपना -४
उसने जीवन भर
एक तवा तपा कर रखा था.
वह उसकी आँच मंदी-तेज़ करते हुए अपने पति को रोटी खिलाती रहती रही.
पर यह तवा उसने उस दिन के लिए तपाया था
जब कभी वह लौट कर आएगा
वह उसे करारे पराँठे की तरह सेंकेगी
जिसने अपने खुद के भविष्य के लिए
उसके वर्तमान को नंगा कर दिया था.
वह खुश और आश्वस्त है
एक दिन ऐसा अवश्य आएगा.
उसने जब आँखें खोली
तो जैसे बीते हुए समय के दर्पण में वह अपने को देख रही थी.
उसकी बेटी घबराहट भरी, बेतहाशा उसे जगा रही थी.




२..५
सपना ५-६-७-८-९ …. और कई-कई सपने….

बेलों से छितराई छत पर किसी ग़ज़ल की तरह प्रेमी से मिलने का सपना,
अपने प्रेम को पा लेने का सपना
अपने गर्भ में अपने प्रेम-शिशु को गढ़ने का सपना
बादल राग गाने का सपना
नीले आकाश में उड़ने का, समता का सपना….
टकराते हैं…. टूट कर चिरमिराते हैं
दूब बिछी कठोर चट्टानी सतहों पर.
लहूलुहान सपने
गठरियों में बँधे
पहुँच जाते हैं औरतों के सिरहाने, तकिए के नीचे
इस संभावना  में
कि समय के मरहम से ठीक होंगी चोटें
फिर आ सकेंगे औरतों की नींदो में.




खंड तीन



१.
काली पीली लाल भूरी हरी नीली चट्टानों के बीच से बहती है नदी.
अभयारण्य है गहन विस्तार वाला.
किसिम-किसिम के
ऊँचे-नाटे मध्यम पेड़ों वाला
घना छितराया जंगल.
(कवि भवानी प्रसाद की याद दिलाता जंगल)
घूमते हैं जंगली जानवर
पालतू से लगने वाले,   फालतू?
खूंखार और कुछ कम खूंखार.
अमावस की अँधेरी रात में भी
चमकता है वह भुतहा पेड़.
फैली डालियों और पीले तनों, पीली पत्तियों वाला वह भुतहा पेड़.
जंगल में सबसे अलग और सबसे ख़ूबसूरत.
भयभीतक.
उसकी अपनी चमक है.
डरता है अकेला मानुष
अकेले नहीं जाता काली अँधेरी रातों को जंगल में.
रहवासी हो या प्रवासी.
आदिवासियों के पास भुतहा पेड़ की अपनी कहानियाँ हैं.
समझ में यही आता है-
जो अलग होते हैं,
उनसे डरते हैं लोग.
इसीलिए  भुतहा हो जाती हैं.
अलग दिखती लड़कियाँ
डराती हैं रहवासियों को घरवासियों को.
वे सोच सकती हैं.
वे देख भी सकती हैं.
   कहीं बोल न दे भुतहा लड़कियाँ 
         यह संभावना डराती है.


.
हर लड़की रचती है एक केलिडोस्कोप
उनके केलिडोस्कोप में होते हैं
बहुत खूबसूरत चित्र
नृत्यांगनाओं, गायिकाओं, लेखिकाओं, अध्यापिकाओं के
हिम-चोटियाँ चढ़ने के, ब्रह्मांड नापने के
आ-समुद्र लहरों पर दौड़ने की चाह के ख़ूबसूरत चित्र
सपाट मैदानों पर हवा से बात करते पैरों के चित्र
जो ज़मीन पर नहीं पड़ते ऐसे बेहतरीन पैरों के चित्र
झिलमिलाते हैं उनके केलिडोस्कोप में.
जिसे बदल दिया जाता है
बाईस्कोप में,
जब वे औरत बनती हैं.
अगर है हिम्मत
तो ढूँढ़े फिर भी
वे गुम हुए दरवाज़े
रोकता कौन है?
पर याद रखें  हमेशा,
हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ
अब भी मज़बूत हैं
दरवाज़े चाक-चौबंद.
और भाई, क्यों रचती हो
लो ये रहा हमारा बना-बनाया बाईस्कोप, लो थामो.
कुछ चित्र चाहे तो बदल लो.
आखिर तुम्हारी समस्या क्या है?

तब भी जो
छोड़ती नहीं हैं अपना केलिडोस्कोप
और अगर हो गईं सफल, फिर भी
तो भाषणों और निबंधों और कविताओं
और न जाने किस-किस का विषय बनती हैं.
कुछ फूलमालाओं, कुछ ताज-इनाम – इकराम की
साथ में कुछ फब्तियों की, बदनामियों की  हकदार बनती हैं.
पर घर की बच्चियों के लिए वास्तविक आदर्श कभी नहीं.

द्वार-हीन दीवारों से टकराती हैं सूर्य किरणें
लहूलुहान फैलती हैं जगती भर
जिन्हें कोई नहीं देखता.
क्योंकि यह उन
बंद आँखों में दफन सपनों वाली
औरत बनीं लड़कियों का
लहूलुहान अँधेरा है,

जो
गुम हो गईं हैं
और किसी को दिखाई नहीं देती.
और उनकी गुमशुदगी भी
कहीं दर्ज़ नहीं हुई है.

(समर्पित है मेरी उन तमाम प्यारी बच्चियों को जिन्होंने मुझे एक संवेदनशील अध्यापक बनाया और प्रकारांतर से एक बेहतर मनुष्य बनने में मेरी सहायता की.
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argade_51@yahoo.co.in

लाल्टू की कविताएँ

वांग पिंग की कविताएँ : अनुवाद लीलाधर मंडलोई

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वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई इधर आप्रवासी कविताओं पर कार्य कर रहें हैं. उन्होंने विश्व के कई कवियों का हिंदी में अनुवाद किया है. चीन की अमेरिका में रहने वाली कवयित्री ‘वांग पिंग’ की ये कविताएँ लेखक अनुवादक यादवेन्द्र की टिप्पणी के साथ यहाँ प्रस्तुत हैं. 

इन कविताओं में अपने मूल से कट कर बिखर जाने वालों की वेदना और विडम्बना की मार्मिकता साहित्य के अपने आस्वाद के साथ देर तक विचलित करती रहती है.  

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'हम अपने साथ अपनी मातृ भाषा लिए जा रहे हैं

मैं वहाँ से आया  हूँ
मैं यही का हूँ
मैं न वहाँ हूँ, न यहाँ हूँ
मेरे दो नाम हैं
जो कभी आपस में मिल जाते हैं
कभी जुदा हो जाते हैं
मैं बोलता भी दो भाषाओं में हूँ
पर यह नहीं याद
कि सपना किस भाषा में देखता हूँ ..... 

महमूद दरवेश की ये पंक्तियाँ  भले ही तकनीकी रूप से वांग पिंग जैसे आप्रवासी कवि पर लागू न होती हों लेकिन एक संस्कृति से उखड़कर दूसरी संस्कृति में समान स्तर पर अपनी जड़े जमाना कभी आसान नहीं रहा-  इसकी प्राथमिक शर्त अनिवार्य रूप से पुरानी स्मृतियों को पूरी तरह से धो पोंछ देना होगा....पर मानव प्रवृत्ति ऐसी है नहीं कि सहज रूप में इसे  साधने  दे.

इन दिनों लॉक डाउन के चलते घर परिवार की सीमाओं में कैद संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में न लौटें यह मुमकिन नहीं...खास तौर पर लीलाधर मंडलोई जैसा स्वयं अपने जंगल, पहाड़ और भूमि से विस्थापित स्मृतियों की गट्ठर खुशी-खुशी साथ लेकर चलने वाला कवि अपनी मिट्टी पानी हवा और जनों को याद करते आप्रवासी कवियों के सान्निध्य में आत्मीयता महसूस करें तो कोई अचरज नहीं. मंडलोई जी को निकट से जानने वालों को मालूम है कि दिल्ली में इतने सालों से रहने के बावजूद न उनसे सतपुड़ा के जंगल पहाड़  छूटे और न ही स्मृतियाँ .... और इसको लेकर वे किसी तरह का अभिजात्य भी नहीं पालते.

957में चीन में जन्मी वांग पिंग 26वर्ष की उम्र में अमेरिका जाकर बस गईं और वहीँ सृजनात्मक लेखन के प्रति उनका रुझान हुआ. वे कविताएँ, कहानी, उपन्यास और कथेतर गद्य  लिखती हैं. उनकी कई किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित हैं जिनमें से कुछ को पुरस्कार भी मिले. अमेरिकी और चीनी संस्कृतियों के अतः संबंधों पर उनका मुख्य लेखन केंद्रित है. साहित्य के अलावा चीन का पर्यावरण संरक्षण भी उनकी चिंता में शामिल है.

वांग पिंग  की कुछ कविताएँ, अनुवाद किये हैं हिंदी के अनूठे कवि, गद्यकार, फिल्मकार और छायाकार  लीलाधर मंडलोई ने.'

यादवेन्द्र





आप्रवासी कविता : वांग पिंग          
अनुवाद लीलाधर मंडलोई




हम जिन चीजों को समुद्र पार ले जाने चाहते हैं

हम आँसू भरी आँखों से विदा होकर जा रहे हैं
अलविदा पिता, अलविदा माँ
हम अपने छोटे से झोले में यहाँ की मिट्टी ले जा रहे हैं
ताकि हमारे घर हमारे हृदय से धूमिल न हों
हम अपने साथ
गाँव के नाम,कथाएंस्मृतियाँखेतनाव ले जा रहे हैं
हम लोभ के लिए छेड़े गए छद्म युद्धों के
घाव साथ लेकर जा रहे हैं
हम खनन, अकाल, बाढ़, नर संहारों की
दुखद स्मृतियाँ साथ ले जा रहे हैं
हम अपने परिवारों और पड़ोसियों की 
उस राख को भी साथ ले जा रहे हैं
जो कुकुरमुत्ता मेघों के बीच स्वाहा हो गए थे
हम समुद्र में डूबते अपने द्वीपों को ले जा रहे हैं
हम नयी ज़िंदगियों के लिये हाथ,पाँवहड्डियाँ और
सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क ले जा रहे हैं
हम मेडिसिन, इंजीनियरिंग, नर्सिंग, शिक्षा, गणित व
कविता के डिप्लोमा साथ ले जा रहे हैं
भले ही दूसरे तट पर उनका कोई अर्थ न हो
तब भी
हमारे पुरखों की पीठों पर निर्मित 
रेलमार्ग, बाग बगीचे, कपडा धुलाई के तामझाम,भंडारा,मालवाहक ट्रक,
खेत,कारखाने,नर्सिंगहोम,अस्पताल, स्कूलमंदिर
सब के सब लेकर जा रहे हैं
हम अपने पुराने घरों को उनकी रीढ़ सहित
अपने सीनों में नये सपनों के साथ चिपकाए लिए ले जा रहे हैं
हम कलआज और कल को साथ-साथ ले जा रहे हैं
हम जबरन थोपे गए युद्ध की
अनाथ संतानें हैं
हम औद्योगिक कचरों से छिछले होते जा रहे
समुद्र के शरणार्थी हैं
और हम अपने साथ अपनी मातृ भाषा लिए जा रहे हैं
प्यार प्यार प्यार
अमन अमन अमन
उम्मीद उम्मीद उम्मीद
(चीनी भाषा में लिखे अक्षर)
हम अपनी रबर की नाव से चले
इस तट से ...अगले तट....
अगले तट.....
अगले तट.....




आप्रवासी कविता नहीं लिख सकते

'ओह ना,तुम्हारी वाक्य संरचना में यह नहीं है संभव'
एच.व्ही. ने अपनी चीनी पुत्रवधु से कहा
जो अंग्रेज़ी में कविता लिख रही थी
      
वह मेज़ की ओर चलती है
वह एक मेज़ की ओर चलती है

वह अब मेज़ की ओर चलती है
वह अब एक मेज़ की ओर चल रही है

इससे क्या फ़र्क पड़ता है
आख़िरकार इससे क्या फ़र्क पड़ता है
        
प्रकृति में कुछ भी संपूर्ण नहीं
कैसे भी वाक्य में नहीं व्यक्त हो सकता संपूर्ण विचार

भाषा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है
और अभिशाप भी, साथ में
आप्रवासी वाक्य संरचना को इतना भाव देने की जरूरत नहीं
कविता एक पशु की तरह जन्म लेती है
सर्वश्रेष्ठ तब होती है
जब वह आज़ाद और नग्न होती है.





सच, झूठ और शेक्सपियर के खटमल



1
खटमलों ने मुझे
पेरिस, सेनफ्रांसिस्को और ओकलाहोमा शहर में काटा
काव्य उत्सवों के दौरान 
वे सभ्य,सुसंस्कृत, रक्त पिपासु और खूंखार थे
    
ख़ून,कविता और सेक्स के लिये
वे आज़ाद होकर कहाँ-कहाँ  तक 
यात्रा कर लेते थे


2      
खटमल-
सुगंध में तर और गरमागरम रक्त
से भरी औरतों से प्यार करते हैं

वे थके-मांदे, अवसादग्रस्त और खब्तियों  को
स्पर्श नहीं करते
भूल कर भी
     


3
हम कहते हैं, हम सत्य को प्यार करते हैं
हमारा दावा सत्य के रंगीन चेहरों के लिये
रहता  है हरदम
हमें गुमान है कि सत्य पर सिर्फ़ हमारा हक़  है
लेकिन सत्य है कि
मुट्ठी में कसकर भींचने के बाद भी
रेत की मानिंद फिसलता जाता है


4
अरस्तु विश्वास करते थे
खटमल से 
सर्पदंश का इलाज हो सकता है
कान के संक्रमण
अथवा उन्माद का भी



5
देखना ही विश्वास करना है
अथवा हम देखते सिर्फ़  वही हैं
जिसका विश्वास करते हैं

आँखों को चुंधियाते प्रकाश में
झालर और गोटे ही
बन जाते हैं पहचान

                         
6       
खटमल पसंद की कद काठी चुनते हैं      
सेक्स के लिये 
सहवास के लिये उन्हें मानसिक आघात चाहिये होता हैं
ईर्ष्या की हदों को पार करते
नर और मादा
पेट के अंदर पेट घुसेड़ डालने को होते हैं उन्मत्त

                          
7
तीन चक्र के बाद
अरबचीनी, अफ्रीकी और मेक्सिकन
प्रतियोगिता से बाहर हो गये
केवल पाँच ही डटे हैं अब
ईनाम के लिए
जिस से बन सकता है घर
रामल्ला के एक कवि का 
जिसे न अपना जन्मदिन मालूम है
न ही अपना जन्मस्थान
अथवा वह चीनी लेखिका
जो अपने गठिया से सिकुड़ते हाथों
और बुदबुदाते हृदय से
अवाँ गार्द  उपन्यास रचती है

                        
8
ओकलाहोमा शहर में
अभी तापमान ८० डिग्री फॉरेनहाइट है
फिर भी मैं  केंपस संग्रहालय के अंदर
बुरी तरह काँप रही हूँ
पिकासो,मानेट,रेम्बरां की कलाकृतियों
कांसे के पंख ..... प्रार्थना
और रक्त के बीच रहते हुए भी
            
     
9
"वे तुम्हें नहीं काट रहे हैं
यह भला कैसा न्याय  हुआ ?",
मैं अपनी देह से १८ पीढ़ियों के
खटमलों को झाड़ते हुए चीखी
जार्ज के बिस्तर पर लेटे लेते लुइस ठहाका लगा कर हँसा
उसे एक भी खटमल ने नहीं काटा था
वह कटाक्ष करते हुए बोला:
"सुनो, अब यह न कहना
कि खटमल भी नस्ली होते हैं"


10
लाल चकत्तों भरे चेहरे पर आग सी जलन लिए
मैं पेरिस से मुसकुराते हुए लौटी
यदि ज्वायस,पाउंड,स्टीन और गिंसबर्ग को
इन्हीं खटमलों ने काटा है
तो इसका अर्थ यही हुआ न
कि अब मैं उनके ख़ून, डी.एन.ए.सच, झूठ
और सृजनात्मक प्रतिभा की वाहक बन गयी हूँ?
_________



लीलाधर मंडलोई
"वैसे अपना छिंदवाड़ा 1970में छोड़ कर पढ़ने के लिए बाहर निकला और दुनिया जहान घूमता हुआ 1997से दिल्ली में रह रहा हूं पर क्या सचमुच मुझसे अपना छिंदवाड़ा और सतपुड़ा कभी छूट पाया? 
अनुवाद के माध्यम से दुनियाओं को जाना. अनुवाद किये भी- अनातोली पारपराऔर ताहा ख़लील के, शकेब जलाली की शायरी का लिप्यंतरण किया. विस्थापन की कविताओं के कुछ अनुवाद अंग्रेजी से किये. अब यह नयी पारी है."
leeladharmandloi@gmail.com

लाल्टू की कविताएँ

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कथ्य अपना शिल्प तलाश लेता है,जैसा समय है और जिन नुकीले संकटों से हम जूझ रहें हैं, उन्हें व्यक्त करने के लिए कविता-कथा की प्रदत्त शैली में बड़े तोड़-फोड़ की जरूरत हर जेन्यून लेखक महसूस करता है, और वह कोशिश भी कर रहा है. नवाचार कोई प्रयोग का शौक नहीं है,यह विवशता है. आधुनिक युग ने अपने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उपन्यास खोजा, और कविता ने छंद के घुंघरू तोड़ दिए. विश्व कविता में भाषा से परे जाकर चित्र, गतिशील-चित्र, ध्वनि आदि का इस्तेमाल हो रहा है.

हिंदी के वरिष्ठ कवि  लाल्टू (हरजिंदर सिंह)आईआईआईटी, हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान के प्रोफेसर हैं, उनके पांच कविता संग्रह आदि प्रकाशित हैं.

लाल्टू की इन कविताओं के पार्श्व में कोरोना है,पर उससे अधिक वह डर है जो धीरे-धीरे हर जगह से रिस रहा है. ऐसा लगता है अस्तित्व और अनिश्चित हुआ है, हिंसा और हिंसक.
कविताएँ प्रस्तुत हैं.



लाल्टू की कविताएँ                        




1
इंसानियत एक ऑनलाइन खेल है, जिसमें बहस और हवस की स्पर्धा है. सारी रात कोई सपने में चीखता है कि चाकू तेज़ करवा लो.

औरत घर बैठे मर्द को देख कर खुश होना चाहती है. घर बैठा मर्द औरत को पीटता है. सपनों के तेज़ चाकू हवा में उछलते हैं. उनकी चमक में कभी प्यार बसता था.

सड़कों पर कुत्ते भूखे घूम रहे हैं. कुत्तों से प्यार करने वाले इंटरनेट पर चीख रहे हैं. इंसान कुत्ता नहीं है. कानूनन इंसान सड़क पर भूखा घूम नहीं सकता. इंसान ने तय किया है कि वह कुत्ता है. अपनी टोली बनाकर पूँछ हिलाते हुए लोग घूम रहे हैं. औरत और मर्द भूल चुके हैं कि वे औरत और मर्द हैं. कोई हिलाने के लिए पूँछ और कोई दिखाने के लिए दाँत ढूँढ रहा है. इंसानियत एक ऑनलाइन खेल है, इंसान इस बात से नावाकिफ है कि वह महज खिलाड़ी है. खेल में पूँछ हिलाता कुत्ता खूंखार हो सकता है.

चाकू की चौंध कब रंग दिखाएगी, यह इतिहास की किताबों में लिखा है. 



2
सारा रोना आसमान रो लेता है.

जो बरस रहा है वह अवसाद है. जो बरसने से पहले था वह अवसाद था. बारिश रुक जाती है. नदियाँ अभी भरी नहीं है. पहली बारिश में नदियाँ बह रही हैं. नदियों में यादें बहती हैं. जिनकी यादें हैं वे एक-एक कर बह जाते हैं. बहती हुई यादें बह कर भी रह जाती हैं. जो बह जाते हैं, उनके लिए सही लफ़्ज ढूंढते हैं, जैसे- दोस्त, प्रेमी, यार.... बचपन की यादें बहती हैं. बापू का सीना बह जाता है. उछल कर उसके सीने पर बैठना चाहो तो बैठ नहीं सकते. रोना चाहो तो रो नहीं सकते.

सारा रोना आसमान रो लेता है. हम सारी धरती पर अपने आंसू टपकते देखते हैं. कोई कहता है- थोड़ी देर और. पंछी आएगा. पंख फरफराता बादलों के छींटे बिखेर जाएगा.  थोड़ी देर और.


3
मैं सोया हुआ हूँ कि जगा हूँ
कि इक साए की गिरफ्त में हूँ
कि खुद ही साया हूँ
हवा बहती है कि मैं बहता हूँ
सुबहो-शाम किसी से कुछ कहता हूँ
कि कायनात के हर कण में इक कहानी है
हर वह कहानी इक दर्द है और हर दर्द कोई शख्स है

कहीं कोई पनचक्की चल रही है
वातायन में लगातार एक आवाज़ गूंजती है
तुम किस बीमारी के खौफ़ में हो. वह आएगी
वह खड़ग-धारिणी, वह अपरुपा, वह हर किसी पर आएगी
एक दिन हर किसी की कायनात गायब हो जाएगी
मैं देखता रहूँगा सोया या कि जगा हुआ
कोई झटके दे-देकर मुझे जगाता रहेगा
कि सुबह हो गई है, सुबह हो गई है
मैं जागूँ तो क्यों जागूँ
बीमारी हर साए में घुली हुई है
हर मुस्कान में एक अँधेरा है
जो मुझसे शुरू होता है
मुझमें विलीन होता है.




4
वह मुंबई से चेन्नई जाते हुए करीमनगर में मर गया. वह लखनऊ में मरा कि उसे जीवाणु नाशक दवा पिला दी गई. वह मरा तीन में से एक कि वह बाकी दो को गाड़ी में बैठाकर ले जा रहा था. इन सबके हाथों में इक्कीसवीं सदी थी. किसी की आवाज़ बज रही थी. क्या हुआ! कैसे हो! जवाब क्यों नहीं देते? नहीं, वे हवाई जहाज से नहीं जा सकते थे.

उनमें से जिनके लिए ग़रीब लफ्ज़ लागू नहीं होता, वे किस्मत के मारे थे. जो बिस्किट खरीदने गया था, उसे मरना ही था कि वह पुलिस के हाथ आ गया मुसलमान था. पी एम को यह कहते हुए तकलीफ हुई कि बीमारी हिन्दू-मुसलमान नहीं देखती, जैसे किसी समीक्षक को आपत्ति थी कि कविता में हिन्दू-मुसलमान नहीं घुसना चाहिए. बहुत सारे लोग ढोल-नगाड़ों के साथ प्रेम बाँटते हैं जब नौजवान प्रेमियों की हत्याएं होती हैं. समांतर सच.  सच के समांतर.

हर सुबह एक कबूतर और मुझमें गुफ्तगू होती है. मैं इतना खतरनाक नहीं हूँ कि गिरफ्तार हो जाऊं. कबूतर खतरनाक है, इसलिए रोज उसे बतलाता हूँ कि कुछ दिनों तक अपने घोसले में बंद रहो. धर-पकड़ चल रही है. मैं रंगीन पर्दे पर ख़बरें पढ़ता हूँ. 12% और बीमार. सवा सौ मर गए. अभी आँकड़ा चलेगा. हर छ: दिन में दुगुना. कबूतर खिड़की पर बैठा बोर होता रहता है. थोड़ी देर में उड़ जाता है. मुझे नीचे दूध लेने जाना है. मास्क ढूंढता हूँ.  




5
कोई भजन-कीर्तन नहीं हो सकता. घर में भगवान बुलाओ. घर में नमाज़ पढो. बैंक डूबेंगे. नाश्ता करते हुए सोचो. हाथ में झाड़ू लेते हुए सोचो. जब अम्मा एकदिन आएगी उसे पैसे दे दोगे. वह नहीं जानेगी कि म्युचुअल फण्ड डूब गया है. सब डूब रहे हैं. राहत कोष को राहत पहुँचाने एक और कोष. चीन बैंकों को खरीद रहा है. कोई सब कुछ बेच रहा है. बार-बार पेशाब आता है. बाथरूम जाते रहने से सचमुच कुछ भी खो गया वापस नहीं आता. हिसाब लगाते रहो.

जी रहे हो. आईने के सामने खड़े होकर देखो, सचमुच जी रहे हो. जीवन की महक है. ख़ौफ़ में जीवन है. क्या ख़ौफ़नाक है- जीना या मरना?

जो ऊपरी मंजिलों से कूदकर मर रहे हैं, उन्हें किसका ख़ौफ़ था?
जिनके लाखों डूब जाएंगे, वे भी कूदेंगे; जो सैकड़ों मील चलकर घर नहीं पहुंचेंगे, वे बिना कूदे मर जाएंगे. कोई पुलिस की लाठी से मरेगा, कोई भूख से मरेगा. गर्मी से मरने वालों की गिनती अभी शुरू होनी है.   



6
ऐसे वक्त में जब खुद को बचाए रखना ही सुबह है, और शाम है, खयालों में वह एक स्वार्थी इनसान सा आती है. पोथियों, संस्कारों और डांट-डपट से हमें बतलाया गया कि वह स्वर्ग से भी ऊपर है, पर सचमुच उसके सपने कभी डरावने होते हैं! हमारे अपने डरों के धागे उस तक पहुँचते हैं. सोचने लगें तो जलेबी की तरह चकराते खयाल ज़हन में फूलते हैं; अकसर वे बेस्वाद होते हैं. यादों में उसका रोना सबसे ज्यादा दिखता है और एहसास होता है कि कोई अंतड़ियों में रो रहा है. किसी ठंडी सुबह बासी रोटी गर्म कर दही के साथ खिलाते हुए उसकी आँखें मेरे सीने पर टिक गई थीं और वह जल्दी से मफलर ले आई थी कि हवाएं मेरे आर-पार न हो पाएं. किसी कहानी में जिक्र किया है कि उसने कभी गर्भ गिराया था. वह महानायक तो नहीं पर किसी गुमनाम कथा की नायक तो है, जिसने ताज़िंदगी अपने सपनों को भूलने की कोशिश की, कि हम सपने देख सकें.  




7
कुछ दिन पहले अमलतास और पलाश के रंग मेरी नज़र में थे. इंसान हर मौसम में उदास खिलता है, पौधे और पंछी बसंत और वर्षा में रोते हैं. पंखुड़ियां एक-एक कर पुरजोर जय-जयंती गाते हुए जमीं पर बिखर जाती हैं. धरती पर मिट्टी, घास और रंग बेतरतीब गश्त लगाते हैं. कभी कोई दौड़ता दिखता है. जिस किसी को हवा छू लेती है, वह उन्मत्त नाचता है. दूर मटमैली सड़कें दिखती हैं, नशीली, बिछी हुईं जिन पर लोटने का मन करता है. धूप-छांव, हर सपने में बार-बार लौटते हैं. देखते-देखते जिंदगी गुजर जाती है.

इस स्टेशन पर हमेशा के लिए रुक गया हूँ. खुली या बंद आँखें मैं देखता हूँ कि गाड़ियाँ आ-जा रही हैं. हर कोई दूसरे से अलग है, पर उनकी आत्माओं को छूता हूँ तो हर कोई एक जैसा रोता है. मैं गाड़ी पर चढ़कर इस या उस ओर जाना चाहता हूँ; पहुँच कर देखता हूँ कि उसी स्टेशन पर खड़ा हूँ. यहाँ खड़े होकर लोगों को बिछड़ता देखता हूँ. नकाब पहने लोग आपस में गले मिलना चाहते हैं, पर मेरी नज़र उन पर पड़ते ही वे सिमट जाते हैं और एक दूसरे से दूर हो जाते हैं. उनके बीच दुःख की तरंगें आर-पार होती हैं.

अचानक दूर होते हुए किसी को कुछ याद आता है. गाड़ी वापस आती है और अपने साथी को ढूँढती है. मैं धीरे से दोनों गाड़ियों को पास ले आता हूँ. 
 
हमेशा यहीं रुके रहकर आंसुओं के सैलाब में बहता रहता हूँ.  



8
सुबह गिनती से शुरू होती है कि रसोई की गैस का सिलिंडर देने वाला हफ्ते पहले आया था. सब्जियां चार दिन पहले ली थीं. अभी तक सिर्फ गले की हमेशा वाली खराश है. किस्मत पर भरोसा जैसा झूठ को सच मानकर जी रहे हैं. पुलिस की मार से जिसकी कमर दुःख रही है, उसका भी सच है कि वह थोड़ी दूर और निकल आया है. गठिए से सूजा बाएं पैर का अंगूठा अपने सच में जीता है कि यह बस आज भर की कहानी है. खिड़की से जो बवंडर दिखता है, वह उड़ जाएगा, हर कोई यह सच जीना चाहता है. आखिर में हर कोई क़ैदखाने में होगा. तानाशाह शैतान के पैरों को छूकर शपथ ले रहा होगा कि हर किसी से झूठ को सच मनवा कर रहेगा. लोग तानाशाह की वंदना गाते हुए कतारों में खड़े रहेंगे. अदृश्य बंद दरवाजों को पार करने के लिए खड़े हुए लोग सड़क पर लेट जाएंगे.

सड़क जिस्मों से ढंक जाएंगी. मुर्दाघरों से निकलता अशरीरी शोर हर ओर गूँजेगा. हर सुबह गिनती करते रहेंगे कि शांत सुखी आत्माएं स्वप्न लोक का सफर कर रही हैं.  



9
दीवारों पर सीलन बढ़ती चली है
नम हवा में शाम जगमगाती है
कुछ खींचता-सा है. कोई है
कोई जो पुकारता है. कोई मेरे सभी
सच जान चुका है. मेरे डर, अकेलेपन
का कायर सुख, मेरे दुखों के रंग,
मेरी सूखी त्वचा, सब उजागर है.
हमेशा इंतजार रहा कि कुछ होने वाला है,
अब
क़ैदखाने की आवाज़ों का इंतजार है
जहाँ एक-एक कर सभी फूल दराजों में बंद हो चुके हैं.

मुझे कोई देख ले तो पूछेगा कि जब सारे दोस्त छीन लिए गए कैसे जी रहे हो
कैसे इस श्रृंखला में उत्श्रृंखल होने के सपने देख रहे हो. यही है, गति के नियम,
भौतिकी का गणितशास्त्र. प्रलय को अब ज्यादा देर नहीं;
भले सिपाही आग बुझाने को दौड़ रहे हैं. वक्त
वैसा ही है, जैसा हमेशा था, मैं अपने खेल
खेलता देखता रहा कि कुछ बदल रहा है. यही है,
जीवन. गुलामी और ईशान कोण से आता बवंडर. 




10
सबको यह इल्म था कि एक दिन हर कोई तूफान में बह जाएगा. हर रात हम पूछते रहे कि सुबह किसकी बारी है. करीब आती साइरेन की आवाज़ से बचने के लिए हम कानों को चादर से ढँक लेते. सपनों में प्रार्थना करते कि जब उड़ना हो तो एक साँस में निडर उछल सकें. हम कब सो जाते और कब नींद से वापस जागरण में आते यह लम्बी कहानी बन सकती है. नींद और जागने के बीच हम खुद से बतियाते कि गर्मी आ रही है और दुश्मन थक गया होगा.   प्रियजन तैयार हो रहे थे कि हम सब आखिर में नींद में ही उड़ चलेंगे.

कानों को चादर से ढंकने पर पसीना सीने से कानों तक चढ़ आता. पंखा तेज चलता तो शैतान जैसी आवाज़ें निकालता और हमें लगता कि गिरफ्तारी का फरमान लेकर वे आ पहुँचे हैं. हम अदालत में खड़े होकर गाना गाने का सपना देखते और वे एक-एक कर हमारे दाँत उखाड़ते रहते कि गाना गाते हुए हम दांतों के बीच में से हवा निकालें और बाँसुरी जैसी आवाज़ में हमें रोते हुए सुना जा सके. हम चादर के अन्दर से चाँद को पुकारते कि गर्म रात किसी तरह चाँदनी सरीखी शीतल हो. कहीं से किसी रुदाली का स्यापा सुनाई पड़ता और हम जान लेते कि कोई और क़ैदखाने में दाखिल हो गया है.


इस तरह वह संक्रमण काल बीतता रहा, जब हमारे बाल एक-एक कर झड़ते रहे और नाक की चमड़ी झुर्रियों से भरती रही. बच्चे हमें देख कर डर जाते कि कहीं भूत तो नहीं.   



11
खुद एक कहानी हूँ.

जब से सफर पर  निकला हूँ, जहाँ जिन पड़ावों पर पहुँचा हूँ, वे दर्ज़ हो रहे हैं.

गुजर चुके मौसम कहानी में आते हैं. जो प्यार मिला, जो दिया और जो बह जाने दिया, अपनी और किसी और की ज़िंदगी में आना और जाना. दर्ज़ हुई कहानी हमेशा वह नहीं होती जो सचमुच घटित हुई होती है.  जिन रंगों को पहना, जिन्हें आँखों में उतरकर जलने दिया, जो सुबहें थीं, जो रातें.

हर कुछ फिर से जनमता है, हलक से निकलती हुई चीख रुक जाती है. रंग कभी वह नहीं होते जो गुजरी ज़िंदगी के गर्भाशय में क़ैद हैं. कहानी लिखना खुद से दगाबाज़ी है. खुद को प्रयोगशाला की बेंच पर लिटा कर जिस्म की चीरफाड़  करनी है जब रुह पास खड़ी होकर सब कुछ देखती है. जो मैं था, मैं नहीं हूँ.  



12
हर कोई किसी का इंतज़ार कर रहा है.

कोई है, जो आएगा.  कौन है, जिसका इंतज़ार हर कोई कर रहा है.

क्या वह एक आदमी है, गोदो, या कि हर किसी के लिए अलग लोग आएँगे?

कोई नहीं जानता कि कौन आएगा. क्या तुम जानते हो कि तुम्हें किसका इंतज़ार है? यह बचकाना सवाल है, यह तो बहुत पहले बहुत सारे लोग पूछ चुके हैं. तो जवाब क्या है?
कोई जानता है, कि जवाब क्या है?  



13
बिस्तर, छत, दीवार-खिड़कियों के बीच
हैं खबरें. जीने की लड़ाई.
हमें विराम चिह्नों के बीच पर्याप्त जगह मिल गई है.
खिड़की से धूप आती है तो कभी बंद कर लेते हैं.
बारिश के छींटों के साथ खुशी बदन गीला कर जाती है.
ज्यादा भीगने पर खिड़की बंद कर लेते हैं. एक दूसरे की ओर देखकर
फिल्मी गीत गा लेते हैं. दूसरों की मौत-बीमारी सुनकर ख़ौफ़ में न आने की आदत है.
 मौत से डर नहीं, मौत के इंतज़ार का डर है. 



14
शाम देर से आती है
कभी बादल धूप से बच निकलने में मदद करते हैं
तो शाम से मिलने वक्त से पहले निकल पड़ता हूँ
सड़क पर कोई नहीं होता
कुत्ते दुम हिलाकर खबर लेते हैं
अचानक जूते का फीता बाँधने रुकता हूँ
तो भौंककर कहते हैं कि मत रुको
इस तरह मेरे और उनके पल बीत जाते हैं.
________________________________________


लाल्टू ( हरजिंदर सिंह)
१० दिसंबर १९५७, कोलकाता


हरजिंदर सिंह हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान (computational natural sciences) के प्रोफेसर हैं. उन्होंने उच्च शिक्षा आई आई टी (कानपुर) तथा प्रिंसटन (अमरीका) विश्वविद्यालय से प्राप्त की है.

एक झील थी बर्फ़ की,डायरी में २३ अक्तूबर, लोग ही चुनेंगे रंग,सुंदर लोग और अन्य कविताएँ,नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध,कोई लकीर सच नहीं होतीआदि कविता संग्रहों के साथ कहानी संग्रह, नाटक और बाल साहित्य आदि प्रकाशित.

हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'A People's History of the United States'के बारह अध्यायों का हिंदी में अनुवाद. जोसेफ कोनरॉड के उपन्यास 'Heart of Darkness'का 'अंधकूप'नाम से अनुवाद, अगड़म-बगड़म (आबोल-ताबोल), ह य व र ल, गोपी गवैया बाघा बजैया (बांग्ला से अनूदित), लोग उड़ेंगे, नकलू नडलु बुरे फँसे (अँग्रेजी से) आदि. बांग्ला, पंजाबी,अंग्रेज़ी से हिंदी कहानियाँ, कविताएँ भी अनूदित.

सैद्धांतिक रसायन (आणविक भौतिकी) में 60 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित.
laltu10@gmail.com                                                                   

हरि मृदुल की कविताएं

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कविता सृजन के साथ स्मृतियों को सहेजती है वह शब्दों को संरक्षित भी करती है. शब्द जिनसे होकर हम संस्कृति तक पहुंचते हैं. कविता के लिए हल केवल हल नहीं है वह उस पूरी प्रक्रिया तक ले जाने का रास्ता है जिनसे होकर गाँव की सभ्यता निर्मित हुई थी.

कविता में लोक की मार्मिकता तभी प्रकट होती है जब आपका उससे लगाव हो. हरि मृदुल अपने चंपावत को जीते हैं. जिन सीढ़ियों से होकर वे यहाँ पहुंचे हैं,उतरकर फिर वहां पहुंचना मुश्किल है और यहीं से हरि मृदुल की कविताएँ अंकुरित होती है.

हरि मृदुल की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.  




हरि मृदुल की कविताएं      


चादर


विज्ञापन में दिखी झक सफेद चादर
वाशिंग मशीन से अभी-अभी धुली हुई
थोड़़ी देर तक को समझ में न आया
प्रचार किसका
चादर का- वाशिंग मशीन का- डिटरजेंट पावडर का
कि उस अठारह साल की लड़की का
जो वस्तुओं की फेहरिस्त में अघोषित तौर पर
पूरी तरह थी शामिल

चमक रही थी चादर
बातें कर रही थी वाशिंग मशीन
आधा चम्मच डिटरजेंट पावडर के झाग से
भर गया था पूरा टब
किसी जादूगरनी की तरह हंस रही थी
अठारह साल की वह लड़़की

दिन में दस बार चमकाई जा रही थी चादर
दस बार ठूंसी जा रही थी आंखों में
वाशिंग मशीन
झाग टीवी के परदे से कमरे के फर्श पर जैसे
अब फैला- तब फैला
वह लड़़की तो आठ साल की मेरी भतीजी के तन में आकर
बस ही गई

मायावी चादर
मायावी मशीन
मायावी लड़़की

एक दिन आम हो जाएगी वाशिंग मशीन
कोई बात नहीं करेगा डिटरजेंट पावडर की
लड़की बूढी हो जाएगी
मर जाएगा विज्ञापन
चर्चा में रहेगी फिर भी चादर
चादर वही कबीर की
साढ़़े पांच सौ साल पुरानी झीनी झीनी बीनी.





दिल्ली में पहाड़


कब आए पहाड़़ से हो दाज्यू
और कुशल-बात भली
कैसे हैं गांव-घर के हाल-चाल
ठीक है बाल-गोपाल?
फिर काफी देर तक यूं ही पहाड़़ की बातें चलीं-
'है घर में धिनाली-पानी
भैंस है कि गाई
सड़क और बिजली की भी कुछ हो रही है सुनवाई
कौन-कौन आए थे घर
छुट्टी में इस बार
किस-किस के घर बढऩ़े वाली है आबादी
किस-किस का बनने वाला है परिवार
कितने हुए हाईस्कूल में पास
उनके आगे पढऩ़े की भी है क्या आस
धरती फाड़़ रहे होंगे सुंगर
बौली गया होगा बाघ
अभी तो आने शेष हैं
मंगसिर-पूस-माघ             
काकड़़-गदू के बेलों में
फूल खिले कि नहीं
पांच सौ रुपए भेजे थे बौज्यू के नाम
मिले कि नहीं

हर सवाल का था एक लंबा जवाब
हर जवाब में मैं उतना ही शामिल था
जितना शामिल था वह हर सवाल में
उसकी आंखों में सीढ़़ीदार खेत लहलहाने लगे
हुड़किया बौल के बोल कानों में गूंजने लगे
एक-एक कर कई चित्र उभरे स्मृति पटल पर
घर... इजा... बौज्यू... गोपुली...
मडुवा गोड़़ रही गोपुली...
वह बोला-
दाज्यू आज तो काम पर नहीं जा पाऊंगा
रहूंगा पूरे दिन छुट्टी में
इस समय हम दिल्ली में थोड़े ही हैं
बैठे अपने गांव बगोटी में.




सीढ़ियों  पर खेत


सात साल के बेटे का सवाल सुनकर
सोच में पड़ गया मैं
कोई जवाब नहीं दे पाया

पुश्तैनी घर दिखाने के लिए
एक पुराना एलबम निकाला था
एलबम क्या था
यादों का पिटारा था

पहाडी पर बसा गांव और
सीढिय़ों जैसे खेत!!

सीढिय़ों जैसे खेतों ने तो
बेटे को खूब आकर्षित किया
लेकिन उसके लिए एक मटमैले धब्बे जैसे दिखते
पुश्तैनी घर का कोई आकर्षण नहीं था

बेटे ने एक अनूठी बात पूछी-
पापा, किसने किया यह जादू कि सैकड़ों सीढिय़ों को
हरे-भरे खेतों में बदल दिया?

'तुम्हारे दादा के दादा के दादा के भी दादा ने किया था
यह जादू
उन्होंने ही पहाड़ों को सीढिय़ों में बदला
और सीढिय़ों को खेतों में
इन खेतों को वह बाघों के कंधों पर जुआ रखकर
जोतते थे
परियां-आचरियां आती थीं बीज बोने
तुम्हारी दादी की दादी की दादी की भी दादी का
हाथ बंटाने’

मेरी अजब-गजब बातों से वह
खासा रोमांचित हो गया था
बावजूद इसके बड़ी गंभीरता से उसने सवाल किया-
'पापा, आप भी कमाल करते हैं
मेरा उत्तराखंड
मेरा चंपावत
मेरा बगोटी
बोलते रहते हैं...

जिन खेतों की सीढिय़ों को चढ़ते हुए
इस बड़े शहर पहुंचे थे
उन्हीं सीढिय़ों से उतरते हुए
वापस गांव भी तो जा सकते हैं आप.





मधुली की दातुली *


चट्टान पर घिस-घिस कर
तेज कर रही हूं दातुली की धार

पहले दुख-क्लेश काटूंगी
बाद में घास
हाथ में जो ज्योड़़ी है
पहले हिम्मत बांधूंगी
फिर घास का गठ्ठर

जैसे गाय रस ले लेकर चबाती है घास
ऐसे ही चबाती हूं मैं पल-छिन दिवस-मास

और कुछ नहीं मेरे पास
चट्टï, दातुली, ज्योड़़ी और घास

बस इन्हीं की आस
इन्हीं से मिलते दो घास.

(*दातुली – हंसिया)






न्यौली*


दुनिया की सबसे सुरीली आवाज
जो तुम्हें सुनाई दे रही है
उस औरत की है
जो चट्टान के ठीक बगल में
एक हाथ और एक पैर पर खड़़ी
हरी घास को हंसिये से काट रही है
बड़़े ही जतन से

इस समय वह गा नहीं रही है
सिर्फ गुनगुना रही है

हां, घंटेभर बाद घास का गठ्ठर चट्टान पर रख
जब वह गाएगी
न्यौली-
'काटते-काटते उग आता है चौमास का वन
बहता पानी थम जाता है नहीं थमता मन’
सारा जंगल उदासी से भर जाएगा

दुनिया की सबसे सुरीली आवाज
आंसुओं में ढल जाएगी

(॰न्यौली - कुमाऊंनी लोकगीतों की एक विधा)




घुघुति *

(नेहा के लिए)

कहां है मेरे हिस्से का आसमान
अब भरनी है मुझे ऊंची उड़़ान
क्या यही कहती हो
जब फुलाती हो कभी गरदन
घुमाती हुई चहुं ओर
एकाएक बंद कर लेती हो आंखें
और उड़़ जाती हो सैकड़़ों किलोमीटर दूर
फिर कब लौट आती हो
पता ही नहीं चलता
तुम अक्सर इतनी ऊपर उठ जाती हो
बौनी नजर आने लगती है समूची सृष्टि
तभी पुकारने लगता हूं मैं
कहां हो घुघुति
मेरी ओ घुघुति

(घुघुति - उत्तराखंड में पाया जानेवाला कबूतर की नस्ल का एक पंछी)
_________________________________________________
हरि मृदुल
उत्तराखंड के चंपावत जिले के ग्राम बगोटी में ४ अक्टूबर १९६९ को जन्म.

दो कविता संग्रह- ‘सफेदी में छुपा काला’और ‘जैसे फूल हजारी’ प्रकाशित. कुछ कविताओं और कहानियों के अंग्रेजी, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, उर्दू, असमिया, बांग्ला और नेपाली में अनुवाद प्रकाशित. लोक साहित्य में रुचि और गति.

संप्रति:
 ‘नवभारत टाइम्स’, मुंबई में सहायक संपादक.
harimridul@gmail.com

परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ

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कोरोना समय में मजदूरों को यह जो जगह-जगह से खदेड़ा गया जिसे पलायन जैसे नरम शब्द से ढँक दिया गया है, मनुष्य इतिहास की बड़ी त्रासदी है. दुनिया वैसी ही है. २१ वीं सदी पर पुरानी सदियों का वैसा ही अमानवीय बोझ है. न जाने कब इस महादेश में मजदूरों को ‘नागरिक’ होने का सम्मान मिलेगा.

एक कवि जो रेलवे में ओहदेदार है और जो शहर राजकोट में इस प्रपंच के बीच उनका खदेड़ा जाना देख रहा है. बंदिशों के बीच संभव मदद भी कर रहा है और लिख रहा है. ये कविताएँ इस चीख, पुकार, प्रार्थना के बीच लिखीं गईं हैं. इसमें भोक्ता और सृजक के बीच अपेक्षित सम्मानजनक दूरी नहीं है. कविताएँ किसी सिद्धांत को मोहताज नहीं रहतीं.
परमेश्वर फुंकवाल की ये कविताएँ प्रस्तुत हैं.









परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ 


प्रस्तावना

इसमें न जीवन
न कोई ऊर्जा
न खुद बढ़ सकने की हैसियत

न जीवित न मृत
न दृश्य न अदृश्य
किसी देवासुर कथा के 
तिलिस्म जैसा

आसुरी चाह लिए
यह निर्जीव कण
जीवन की कोशिकाओं पर
तानाशाह बनकर हो गया है क़ाबिज़

किसके दुखों से
किन यातनाओं के
प्रतिशोध में
जन्मा
यह रसायन
यह सूक्ष्म
आरएनए का कण
प्रोटीन की परत में लिपटा
अपने काँटों से
छलनी करता पूरी पृथ्वी को?




पलायन

वे श्रमिक थे
वे पैदल ही पार कर सकते थे
प्रतीक्षाओं के पुल
वे प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे

वे अँधेरे में चल रहे थे
पर उन्हें भरोसा था उजाले पर
इस समय चलना ही ज़रूरी था
बात करना भी

जिसके कंधे पर गठरी थी
उसने बिटिया को गोद में उठाये राह चर से प्रश्न किया
कहाँ जाओगे
उसे पता न था
वह बस चल रहा था
हज़ार मील की दूरी पर जो घर वह छोड़कर आया था
पता नहीं वह अब हो कि न हो
अब वहां पहुँच भी सकेगा कि नहीं
कौन जाने उसके दरवाजे खुले भी होंगे उसके लिए
उसके गले में उत्तर में प्रश्न पूछने की भी
आर्द्रता शेष नहीं थी

सब कह रहे थे
यह लड़ाई हम जीतेंगे
यह लड़ाई समय मांगती है
दुनिया लड़ रही है शोध चल रहे हैं
उसे बस चलते रहना है यही पता था

जिन उजालों की आस में वे चल रहे थे
उसी की दस्तक पर
वह बच्ची अपने पिता को जगाने की जद्दोजहद में थी
वह अपनी लड़ाई लड़ चुका था
अपनी दूरी चल चुका था
पिछली रात इतना थक चुका था
वह अब बस सोना चाहता था
उसे चिंता का बुखार था
वह आवाज़ देना चाहता था
उसकी बंद साँसों में सूखी खांसी थी
उसे कोरोना नहीं था.





वापसी (1)

वे जा रहे थे
किसी ने कहा था अब लौट चलो
अपने वतन में जीना मरना जो भी होगा ठीक ही होगा
राजकोट के प्लेटफोर्म पर दूर बने गोलों पर कतारों में खड़े
वे क्या सोच रहे थे?

दो बच्चे प्लेटफोर्म पर लेटे आकाश को घूर रहे थे
केतन भाई ने उनके माता पिता को खाने के पैकेट दिए
उनके लिए खिलौने भी
कुछ टोफीयों के साथ
झाबुआ की बस्ती में
या फिर काम पर
कहीं नहीं हुआ था उनका इस सब से सामना
उलट पुलट कर उसे बार बार देख
कोशिश में थे कि पहचानें क्या है
और डर में कि कहीं कोई छीन न ले

चेहरे को कपड़े से ढँक कर वे लौट रहे थे
पर उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया था
क्या वे फिर लौटेंगे?
केतन भाई कहते हैं हाँ
उनकी आंखें कहती हैं नहीं

पर स्टेशन पर यह बिदाई
उनसे भुलाई नहीं जाएगी
वे शायद फिर कभी सौराष्ट्र न आयें
उनकी यादों में सौराष्ट्र अवश्य आएगा.

केतन भाई शायद इसे ही उनकी वापसी मानते हैं.





वापसी (2)

मैं जब वतन ले जाने वाली पहली गाडी पर गया
केतन भाई उत्साह से मिले
उनका एक एन जी ओ है
कानुडा यहाँ कान्हा को कहते हैं 
उन्ही के नाम से

कहने लगे
इन बारह सौ मजूरों का
खाना पानी सबकी व्यवस्था कर दी है
फिर पूछने लगे अगली गाड़ी कब जाएगी?

मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि पर
कहने लगे जितनी गाड़ियाँ जाएगी
हम संभालेंगे

वे स्टेशन पर उन्हें विदा जरूर कर रहे थे
पर असल में वे
उनकी वापसी पक्की करने आये थे.



वापसी (3)

उनके घर थे, चाल थी
भरी पूरी गली थी
तम्बू थे
ये धरती उनकी थी
आसमान उनका था

कुछ बिहार था
कुछ यूपी
थोड़ा बंगाल थोड़ा उडीसा
थोड़ा थोड़ा मिलकर इन सबसे भी
गुजरात बनता था

बच्चे जब घुल मिलकर खेलते थे
एक ऐसा रसायन बनता था
जिसकी महक से
सौराष्ट्र की मिट्टी सौंधी हो उठती थी

अब वीराने में कुत्ते भोंक रहे हैं
बस्ती में अचानक
एक रात आये अकेलेपन पर

उनके पास खाने को कुछ नहीं

सूनी दीवारे
खाली आले
खुले दरवाजों से समय की गिलहरी
कर रही है अन्दर बाहर आवाजाही
पीपल के पत्ते उस मीठे गीत की तलाश में
जो मुंह अँधेरे चल पड़ा है
अनमने अमलतास और गुलमोहर
बस्ती की धूल से अपनी उदासी
कहने के लिए झर रहे हैं

वे ऐसे गए हैं
जैसे अब कभी नहीं लौटेंगे
कौन जानता था
इन बस्तियों में इतने सूबे रहते थे
रंगीले राजकोट के कितने ही रंग
अचानक फीके हो गए हैं

यह जो ट्रेन उन्हें लेकर जा रही है
खुश है उनके वतन लौटने की खुशी से
उधर से खाली लौटेगी
और अपनी उदासी किसी से न कह सकेगी.




वापसी (4)

रात में किसी ने आवाज़ दी
जाना चाहते हो?
तम्बू के बाहर कोई पुलिस था
मेघ नगर की ट्रेन कल सुबह लगेगी

अपना पूरा सामान बांध कर
वे ट्रेन में बैठे थे
मेघ नगर
यही स्टेशन था
जहां से कभी चले थे
उसे वे भूल बैठे थे
अब वह उन्हें याद कर रहा था

वे क्यों लौट रहे थे उन्हें नहीं पता
और सच पूछें तो
उन्हें आज लग रहा था
वे अपना वतन छोड़कर चल पड़े हैं
वे लौट रहे थे
पर वे फिर लौटना चाहते थे




वापसी (5)

ऐसा भी नहीं था कि इतने दिनों यहाँ
कोई ख़ास मुश्किल थी
रहने को जगह
खाने को दो टाइम भोजन
अब भी दुगुनी मजदूरी देने की बात थी
पर अब उन्हें अपनी मिट्टी की गंध याद आ गई थी
धरती और आकाश का खुलापन
उनकी स्मृतियों में तैर रहा था
अम्मा की फोन पर भरभराती आवाज़
उनके कानों में पसरे शोर को चीर रही थी
अब उन्हें कोई नहीं रोक सकता था

गंगा के कछार
हूगली के तट
उन्हें याद कर रहे थे
वहां की हवा अब उनकी देह को भिगो रही थी

एक-एक कर गिर रहे थे
पेड़ों के पत्ते
पर उनकी जड़ें
अभी भी जीवित थीं
वनों की हरियाली उनकी जड़ों में लौट रही थी

साठ दिनों की बंदी में
पहली बार
रोटी के अलावा
उन्होंने कुछ सोचा था
पहली बार जेहन में आया कि
भूख और प्यास के सिवा भी
उनके पास कितना कुछ था
जो उनका अपना था
जिसके पास किसी भी समय लौटा जा सकता था




वापसी (6)

वह एक सौ सड़सठ वर्षों से चल रही थी
वह रुकी तो इसलिए
हम बचे रह सकें
उसके रुकने से
जैसे यह धरती ही निश्वास हो उठी

इसका चलना
धमनियों में खून का चलना है
पटरियों का लोहा
पहियों की गति से प्रेम करता है

इस संक्रमण काल में
कितने ही हैं
चाबीवाले, कांटेवाले
कोई अनाम फिटर
सिग्नल मेंटेनर
स्टेशन मास्टर गार्ड
लोको पायलट
सुरक्षा प्रहरी
टिकट परीक्षक
सब लौट रहे हैं 
ये रुके हुए हैं अपने काम पर
इनके रुकने से
चल पड़ी है
यह दुनिया

स्टेशन से रवाना होने वाली
ट्रेन पर
ये करतल ध्वनि से विदा कर रहे हैं
अपने जैसे कइयों को
कि अपनों को
प्लेटफोर्म को सूना छोड़ जाती ट्रेन
इनकी आँखों की नमी में
धुंधली होती जाती है
ट्रेन से एक अबोध बालक इनकी ओर देख हाथ हिलाता है
इनके नाम मैं हजारों सलाम लिखता हूँ.




उपसंहार

जाना
ऐसे जैसे
मिट्टी के ही पास
अंततः चले जाते हैं
साँसों के कण
अग्नि के पास चली जाती है
देह में घुली सारी राख
आकाश में चला जाता है
प्रकाश
नदी में चला जाता है
बारिश का सारा जल
जाना
एक नए जन्म के लिए

पर लौट कर आना
और तब देह के स्पर्श से नहीं
करुणा और प्रेम से तर
आत्मा से छूना
कोई आस की दवा
कोई बाकी रह गया आसीस 
ले आना

यही रहे हैं हमेशा भारी
हर आततायी पर
इस बार भी पड़ेंगे
जीवन के इन करोड़ों प्रतिकणों पर

एक सौ पच्चीस नेनोमीटर के
इस विषाणु के पहले और बाद की
दुनियाओं के बीच
यह विशाल फांक
जो लील रही
कितने ही अपनों को
हमसे ही पाटी जाएगी
हमारी ही आँखों में होगी
वह रोशनी
जो इस अंधी सुरंग के पार है.

_______________________________
pfunkwal@hotmail.com

अनामिका अनु की कविताएँ

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समालोचन में प्रकाशित इधर पांच कवियों में- लाल्टू पंजाब के हैं,हैदराबाद में रहते हैं. रंजना अरगडे मराठी हैं,गुजरात में वर्षों रहने के बाद अब भोपाल में रह रहीं हैं. हरि मृदुल उत्तराखंड के हैं, मुंबई में रह रहें हैं. परमेश्वर फुंकवाल राजस्थान के रहने वाले हैं अब राजकोट में रहते हैं. अनामिका अनु मुज्जफरपुर की हैं केरल में रहती हैं.

ये सभी हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. यह हिंदी कविता का हिन्दुस्तानी चेहरा है और आकाश गंगा की तरह यह दुनिया विस्तृत हो रही है. माफ़ कीजियेगा यह किसी ब्लेक होल में नहीं गिर रही है.

अनामिका अनू की कविताओं के साथ पंचनद यही सम्पूर्ण हुआ.

कविताएँ प्रस्तुत हैं.



अनामिका अनु की कविताएँ


दो रिक्शे क्या देखते हैं?

दो रिक्शे एक दूसरे की तरफ़ पीठ किये खड़े हैं
सड़क सुनसान है
वीरान धड़क रहा है
दुकानों के शटर नीचे गिरे हैं
सड़क के साफ़ गाल पर मंदी लिपी है.

शाम को एक जत्था मज़दूरों का आया
कुछ थकी औरतों ने अपने बच्चों को गोदी से उतार
रिक्शे पर बिठाया
और पसर गईं
रोड के सीने पर रेत सी.

घंटे डेढ़ घंटे बाद
सब चले गये

एक बिल्ली आकर हरे पर्दे वाले रिक्शे पर लेट गयी है
दो बिल्लियाँ दाँतों में  दबा एक-एक रोटी का टुकड़ा
आस पास घूम रही हैं
भूखे कुत्तों का एक उदास झुंड टूटी झोंपड़ी सा पड़ा है सड़क की दूसरी तरफ़
पोल पर फतिंगे फड़फड़ा रहे हैं
टिप-टिप बारिश
शहर के 'हाथ-पाँव'गाँव  जा रहे हैं.



प्रेम पर चर्चा

जब भी मेरे प्रेम पर चर्चा हो
तुम मेरे नाम के बग़ल में अपना नाम लिख देना
मेरे पापों की गणना हो
मेरे नाम के आगे अपना नाम लिख देना

तुम तो शून्य हो न
बग़ल में रहे तो दहाई कर दोगे
आगे लग गए तो इकाई कर दोगे
गुणा भी कर दिया किसी ने तो क्या मसला है
तुम सब शून्य कर दोगे



मेरे सपने में एक मज़दूर आता है

मेरे सपने में एक मज़दूर आता है
उसके कड़े रूखे हाथों को छूते ही
मेरे भीतर का प्रस्तर क्षेत्र गुंधा मुलायम आटा हो जाता है
हाँ मेरे स्वप्न में एक मज़दूर आता है

मैं जब पढ़ रही थी मेडिकल
वह अस्पताल की दीवारों पर सीमेंट-रेत का गारा लगाता था
मैं और मेरे दोस्त जब भी गुज़रते थे उस तरफ़ से
तो वह हाथ रोक लेता था
ताकि एक भी छींटा न लगे हमारे सफ़ेद कपड़ों पर
कभी भी आँख भर कर नहीं देखा उसने
धूप से भरी वे आँखें आती रही मेरे ख़्वाब में

उसके देह से नमकीन गंध आती है
कपड़े मुचड़े होते हैं
जो प्रकृति से लड़कर हर दिन पेट भरता है
मैंने उसी कम पढ़े मज़दूर से प्यार किया है

हाँ मेरे सपने में  एक मज़दूर आता था
मैंने आने नहीं दिया सपनों में राजकुमारों को


मैं  पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर और भीतर बाहर से बेहद ख़ूबसूरत
मैं  अंदर बाहर से एक थी,
वास्तविक नायक पर मेरी नज़र थी
देखा कई अभिनेताओं को
प्रशंसक भी बनी
पर उनसे आटोग्राफ़ नहीं मांगा
न उनको देख कर कभी चिल्लायी
मुझे अभिनेता और नायक में  फ़र्क़ पता था
मेरे सपने में एक नायक आता था

जिससे मैंने कहा करने को मेरे जीवन पर हस्ताक्षर
उसने थरथराते हाथों से अपना नाम लिखा
और समर्पित आँखों से मुझे देखा

रोज़ सुबह वह चला जाता है करनी लेकर काम पर
मैं आला लेकर अस्पताल में

हाँ इस डाक्टर ने एक मज़दूर से प्यार कर ब्याह रचाया है
ये सच है
मेरे मेरे सपने में एक  मज़दूर आया है.

(Peju Alatise)


लापता

मेरी दुनिया दर्द से बनी थी
बड़े-बड़े टोले मुहल्लों से शुरू  होकर
अब तो भरी पड़ी हैं अट्टालिकाओं से.

एक आध कच्ची प्यार वाली गलियाँ थीं
मेरी सख़्त दुनिया की छाती पर
मैं उन गलियों में  नंगे पाँव चली थी.
सड़क कच्ची थीं
तलवे में एक झुनझुनाती ठंडक
दौड़ी थी

आज उन गलियों को तलाशने निकली
छोड़ कर दुनिया की  सबसे सख़्त छोर.
पर आँखें पत्थर, कलेजा मोम
देखकर गलियों में बिछी कोलतार
और लगी बिजली की पोल

मैं लौटना चाहती हूँ पैदल
उस सख़्त टुकड़े पर
और पटकना चाहती हूँ
अपना सिर उन निर्जीव दीवारों पर जो
सूचना और इश्तिहार से भरी पड़ी हैं
लिखा है-
मैं  लापता हूँ



सिस्टर शेरा

एक थी सिस्टर शेरा
उसे याद था
हजारीबाग का  पहाड़ी इलाक़ा
और पलामू के बीहड़ जंगल
वह भूखे पेट जंगल में ढूंढती आयी थी वे हरे पत्ते
जो बिना धोएं कच्चे खाये जाते थें
और जिसे चबाने से खाली पेट का गुड़गुड़ाना बंद हो जाता था
उसे याद है छोटी बहन के मृत शरीर पर उंगली फेरते
ही उसकी उंगलियां बर्फ हो गयी थीं
जबकि तब भी गर्म था उसकी बहन का मृत देह

उसे याद है
वह कैरोल गान
वह गले में  लटका क्रूस
वह पहली बार अंडा,दूध और भात झक कर खाना
पहला नया कपड़ा
पहली नयी किताब

एक आदमी कैसे जीता है
या उसे कैसे जीना चाहिए का सलीका

वह बढ़ते-बढ़ते एक दिन रूकी
और भाग गयी अपने एक साथी के साथ
जो अब भी कोयले की खदान में
घुसता है
जिसका फेफड़ा बेहद काला
और मन बेर सा निर्मल है

सब उसे धर्म च्युत कहते हैं
पर सिस्टर शेरा जानती है
प्रकृति का आदेश नहीं ठुकराया जाता
उसका ज्ञान उसे बंधनमुक्त करता है
प्रेम बंधन नहीं प्रवाह है
स्वतंत्रता की पहली उड़ान

वह भागी नहीं
चलकर आयी है
अपनी दुनिया में वापस
और लड़कर लेगी अपने अधिकार

जंगल के  इंकलाब से धर्म
और सत्ता दोनों थरथराती है

जंगल की क्रांति से डरता है
हर आदमी के भीतर का जंगल
सत्ता के मद में पागल हर मानव के मन में एक माद होता है
जिससे निकलता है खूंखार शेर

जिसके सामने डटकर खड़ी है
कलम और मशाल के साथ
सिस्टर शेरा…


वर्कला की है अम्मा - दो

वह चंदन का पेड़ कितना धीरे-धीरे बढ़ रहा है?
अम्मा कितनी जल्दी-जल्दी बूढ़ी हो रही है!

सूर्य को अर्घ्य देने जाती है
तो दरवाजे और तुलसी चौरा के बीच खड़ा मिलता है
वह दुबला पेड़
तुलसी चौरा तक जाने के क्रम में
उसे पकड़ कर लेती है तीन छोटे डेग.

अम्मा की हाथ से हल्का मोटा तना
लगता है लाठी हो
बुढ़ापे की
अम्मा सा ही ढीला-ढीला

अम्मा आज तिरानवे की हो गयी है
उसे जन्मदिन मनाना अच्छा लगता है
वह मंदिर जाना चाहती है
लाक डाउन है
करोना के डर से सब मंदिर बंद हैं
पर परिप पायसम बनना तय है

अम्मा  कल ही सब बच्चों, नाती-नतिनियों, पोते-परपोतों, परनतनियों, रिश्तेदार, पड़ोसी सब को बता चुकी है
कि कल उसका जन्मदिन है
सुबह से फोन टुनटुना रहा है
अम्मा मुस्कुरा रही है.



निष्काषित

मैं  निर्वासित कवि हूँ
एक सुंदर देश का
कल मुझ से मिलने मेरे अतीत का सहचर आया था
वह केतली सा भरा था गर्म स्मृतियों से
खौलती स्मृतियों को वह मेरे भीतर उड़ेल रहा था
मैं  कमजोर प्लास्टिक के कप सा पिघल कर विकृत हो गया था
स्मृतियाँ फैल गयी थी इधर-उधर
और मैंने एक ताप और उदास भाप
बहुत भीतरबहुत दिनों
बाद महसूस की.

बाहर बर्फबारी हो रही है
शीशे को पोंछती प्रेमिका कह रही है-
मेरे मुँह से भाप निकल रहा है
इंजन रुक गयी है
छुक छुक बंद है
पटरी गाँव से होकर गुजरती है
मगर  भाप वाले इंजन नहीं चलते अब वहाँ.
___________________________________

अनामिका अनु
पी. एचडी.- लिमनोलोजी (इंस्पायर अवार्ड,DST)
यत्र तत्र कविताएँ प्रकाशित

Anamika villa, SNRA House number - 31
Sreenagar, Kavu lane, Vallakadavu
Trivandrum, KeralaPIN: 695008                               


बटरोही : हम तीन थोकदार (चार )

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वरिष्ठ कथाकार बटरोही के आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ की यह चौथी किश्त थोकदारों के पुरखों की प्रचलित किम्वदंतियों, लोक-विश्वासों, इतिहास तथा गाथाओं में प्रवेश कर गयी है. बटरोही की कथा शैली की यह विशेषता ही है कि इसकी जड़े भूत में फैली रहती हैं. वे केवल किस्सागो मात्र नहीं हैं,अपने स्थान और समुदाय के पुरातत्ववेत्ता भी बन जाते हैं. एक तरह से स्थानीयता के स्मारक में वर्तमान और वैश्विकता को गूंथते चलते हैं.
प्रस्तुत है.


हम तीन थोकदार (चार)
तुम्हें किस नाम से पुकारूँ मेरे पुरखों                    
(मैं कौन हूँ: खस, पैक, पैका या थोकदार)







सा तो मैंने बिलकुल नहीं चाहा था. सुदूर अतीत की गहराइयों से उठाकर अपने प्रतिरूप इन तीन थोकदारों को क्या सोचकर तो मैं उठाकर लाया था; मगर जब तीन किस्तों में हाजिरी देने के बाद ये मेरी आँखों के ठीक सामने गर्दन झुकाए प्रश्न चिह्न की मुद्रा में खड़े हो गए, मेरी समझ में नहीं आया कि इन थोकदारों का मैं करूँ तो क्या करूँ?

इन्हें किस नाम से पुकारूँ? अब न तो ये मेरी भाषा समझते और न मैं इनकी. लगता यही है कि इनके साथ मुलाकात हुए जाने कितने तो प्रकाश-वर्ष बीत चुके हैं. इनका रूपाकार, भाषा, लहज़ा, खड़ा होने का तरीका सैकड़ों प्रकाशवर्ष पुराना है. नहीं, ये लोग गोल-गोल माथे-नुमा चेहरे पर उभरी हुई एंटीना-जैसी आँखों वाले अनजान ग्रह के प्रवासी एलियन नहीं हैं... थे तो ये मेरे ही बिरादर थोकदार लोग, मगर हमारी इस नई दुनिया में इनको आज कोई क्यों नहीं पहचान पा रहा है!

तुम हमको यहाँ लाये ही क्यों ठैरे, हो?... क्या तुम पहचानते भी हो कि हम लोग कौन ठैरे बल?’ वे तीनों एक स्वर में बोले.

मेरे अन्दर के किसी नाजुक कोने से आवाज आई, ‘क्या यार, आखिर ठैरे तो तुम लोग वही, हाँ, वही तो!...’

इतना सोचकर मैंने अपने भीतर बसे सारे ओने-कोनों के चक्कर लगाए, मगर पूरे ब्रह्माण्ड में मुझे वह संबोधन नहीं मिला, जिसका मैं उनके लिए इस्तेमाल कर सकता.
निराश होकर मैंने कहा, ‘मजबूरी है मितुरो, नाम तो चाहिए ही न! बिना नाम के हम लोग एक-दूसरे के साथ कैसे रिश्ते जोड़ सकते हैं?...’

वो तीनों मेरी ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगे. मुझे उन पर दया आई, अपनी नई दुनिया के सदाबहार उपहार, तनाव की गठरी, के बगल में खड़े होकर खीझते हुए मैं बोला, ‘अगर तुम लोग मेरे बूबू-पड़बूबू के ज़माने के होते तो मैं इन्हीं नामों से काम चला लेता, लेकिन सैकड़ों प्रकाश-वर्ष पहले के तुम लोग मेरे क्या लगते होगे, मुझे क्या मालूम?’

फिर से वे लोग अपनी झप-झप एंटीना-आँखों से मुझे घूरने लगे. सैकड़ों साल पुरानी अपनी जंक लगी थोकदारी भाषा में बोले, ‘तुमने ही तो हमारा इतना बड़ा-बड़ा नाम रख दिया ठैरा बल हो! क्या कहते हैं वो, लेखक-हेखक, सीएम-फीएम, सुधारक-हुधारक. हम क्या जानने वाले हुए इनके मतलब. हम तो हुए वही पुराने ज़माने के थोकदार, तुम्हीं बताओ, हमारी कौन-सी पुश्त के थोकदार हुए तुम? सच्ची बताओ, तुमको याद है थोकदारों की? ’

मैं सोचता ही रह गया... उनसे मुलाक़ात की मुझे कोई तारीख याद नहीं आई...

एक फ्लैश की तरह मुझे याद आया, कैस्पियन सागर के किनारे सुदूर आल्प्स पहाड़ियों की गोद में बसे हूणों, मगरों, खसों और अवारों के बीच तो मैं कई बरस रह कर आया हूँ. वो लोग मुझे थोकदारों के जैसे ही भोले और मेहनतकश लोग लगे थे. उनके कितने ही बिरादरों के बारे में मैंने वहां के साहित्यकारों की कहानियों में पढ़ा... दागिस्तान का वह अवार-भाषी रसूल हमज़ातोव, उसके पड़ौसी आर्मीनिया, ज्योर्जिया, अज़र्बेजान, चेचन्या आदि देशों के पहाड़ी कथाकारों के अनगिनत भोले चेहरे क्या मैं कभी भूल सकता हूँ!...

‘सात संसार, एक मुनस्यार’ के हमशक्ल रूमानियाँ के पहाड़ी शहर चिकसेरदा की यात्रा के बाद, जहाँ मैंने दो रातें बिताईं थीं, मुझे लगा, मानो मैं बुदापैश्त से त्रांसिलवानियाँ की ओर न जाकर मुनस्यारी के खलिया टॉप की चढ़ाई चढ़ रहा हूँ...

मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि मैं उन्हीं का अंश हूँ. उनके हमशक्ल थोकदारों को मैंने एक कथा-चरित्र के रूप में ही चुना था, इसी रूप में उनके साथ मैं आज भी जुड़ा हुआ हूँ. जरूर, आज सब कुछ बदल चुका है, वहां भी, यहाँ भी; मगर यकीन मानो, मैं नहीं बदला हूँ. दुनिया भर में प्रेम और दोस्ती का सन्देश फ़ैलाने के लिए मशहूर हमज़ातोव के देश को कितनी क्रूरता के साथ चेचन्या के रूप में दो-फाड़ कर दिया गया था, ठीक उसी तरह जैसे मेरे छोटे-से प्यारे राज्य उत्तराखंड में लॉकडाउन के कुछ ही दिनों के बाद कितने तो ‘बनभूलपुरा’ उगा दिए गए. मानो ‘चेचन्या’ और ‘बनभूलपुरा’ बन जाना हमारी नई सभ्यता की अनिवार्य नियति हो.

यकीन मानो, पाकिस्तान, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान... ये शब्द जो आज लौट-लौट कर आ रहे हैं, मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं गढ़े थे. अगर मेरा कथा-नायक तुम्हारी दुर्गत के लिए जिम्मेदार है तो उन सवालों के जवाब पूछने के लिए मुझे उसी के पास ही तो जाना पड़ेगा... तुम लाख लॉक-अनलॉक का खेल खेलते रहो, मैं तो आज की दुनिया का आदमी हूँ, यही मेरा रहवास है. इसे छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? इस नई दुनिया में घुसने के लिए किससे इजाजत लूँ?... मुझे हर हाल में वहां जाना है. ताला तोड़ो या दूसरी चाबी बनवाओ... प्लीज, मेरे चेहरे की पहचान मत बिगाड़ो.


इस धारावाहिक आख्यान के छपते-छपते भी कुछ पाठकों ने गंभीर आपत्तियां दर्ज की हैं. पहली इसके कथा-संगठन को लेकर है कि अराजक ढंग से एक साथ कई कथाएं एक-दूसरे को ओवरटेक करती हुई मनमाने ढंग से आगे बढ़ती हैं, जिससे कथा का आस्वाद बार-बार भंग होता है. मेरी एक पुरानी मित्र और सहकर्मी ने लॉक-डाउन डायरी को कथा-प्रवाह के बीच में सिल दिये गए बेमेल रंग के टल्ले का नाम दे दिया: ‘पहाड़ी समाज और जीवन के रोचक वर्णन के बीच में कोरोना काल की टल्ली क्यों लगानी ठैरी?’

करीब पचास साल बाद मिले बचपन के एक दोस्त ने लिखा, ‘तीन कथाओं का बेतरतीब ढंग से बुनाव शिल्पगत प्रयोग के रूप में मान रहा हूँ... योगी आदित्यनाथ कैसे इस त्रिसूत्री यज्ञोपवीत में फ़िट होंगे, अभी ठीक अनुमान नहीं लग रहा है.’

अपने लेखकीय परिचय क्षेत्र में जिसे मैं सबसे विश्वसनीय आवाज मानता हूँ, उस युवा दोस्त ने शुरू में ही मुझे हतोत्साहित किया, ‘छोडिये गुरूजी, कहाँ चक्कर में पड़े हैं! आप उस आदमी का इतिहास जानते ही हैं. लोग आप पर सीधे अंगुली उठाएंगे, किस-किस को जवाब देते फिरेंगे!..’ यही शंका एक दिन अपने ढंग से इस आख्यान के मेरे संपादक दोस्त ने भी उठा डाली, ‘देख लीजिये सर, लेखक के रूप में आपको और संपादक के रूप में मुझे सवालों के घेरे में खड़ा तो किया ही जाएगा.’

(पैकों का खंडहर हो चुका घर)

चलिए किस्सा आगे बढ़ाते हैं, किस्से को मुझे हर हाल में अपने पचहत्तरवें साल में ख़त्म करना है. कौन जाने, उसके बाद आपके साथ मुलाक़ात हो, न हो.

हम तीन थोकदार’ का चौथा किस्सा है मधिया पैक का, यानी मेरे गाँव की पड़ौसी पट्टी रंगोड़ के पैक माधो सिंह सौन का. आपको उसके साथ मिलाने से पहले बता दूँ कि ये ‘पैक’ कौन लोग थे? आप सोच रहे होंगे, ये भी कहीं थोकदारों की तरह का मिथकीय पात्र तो नहीं!... जी नहीं, पहले ही मैं बता चुका हूँ कि मेरे ये तीनों थोकदार मिथक नहीं, वास्तविक चरित्र हैं, तीन में से एक चरित्र आभासी और दूसरा अर्ध-आभासी जरूर है, मगर तीनों लोग आज के ही हैं. पुराने कुमाउनी समाज में इन वीर-मल्लों को ‘पैक’ कहा जाता था, जैसे उड़ीसा में इन्हें आज भी ‘पैका योद्धा’ कहा जाता है. मेरे कह देने-भर से तो आप लोग विश्वास नहीं करेंगे, इसलिए आपको भरोसा दिलाने के लिए मैं अपने इलाके के लोक-विश्वासों और गूगल पर उपलब्ध जानकारी को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.



अपराजेय योद्धाओं की धरती : काली कुमाऊँ
(कुमाऊँ की ‘पैक’ जाति की 200ई.पू. से 50ई. तक की महापाषाण संस्कृति)

लोहाघाट, हल्द्वानी, नैनीताल और अल्मोड़ा को जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग में पश्चिम दिशा की ओर लोहाघाट से 45किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊँ की अत्यंत प्रतिष्ठित और सुप्रसिद्ध बाराही देवी की शक्तिपीठ देवीधुरा नाम से प्रसिद्ध है. देवदार और बांज के घने पेड़ों से ढकी हुई यह पर्वत-शृंखला सीधे पश्चिम की ओर आगे की ओर चली गयी है. समुद्र सतह से 7000फीट की ऊंचाई पर धरातलीय उभार पर स्थित देवीधुरा कुमाऊँ का सबसे आकर्षक और मनोरम स्थान है. खास बात यह है कि कुमाऊँ के ज्यादातर शाक्त पीठ इसी शिखर-मार्ग में हैं.

इसी राजमार्ग में देवीधुरा से कुछ पहले 7500फीट की ऊँचाई पर मेरे गाँव का एक और गझिन वन-प्रांतर मोरनौला है, जहाँ से उत्तर-पूर्व के ढलान पर एक मार्ग जेंती (तल्ला सालम) की ओर चला गया है, जिसका जिक्र मैं दूसरी क़िस्त में कर चुका हूँ.

देवीधुरा की उत्तलवेदिका में सर्वत्र हलकी सफ़ेदी के बीच-बीच में काले टिप्पों वाले छींट की चादर ओढ़े हुए से विशाल बालुज शिलाखंड यत्र-तत्र कहीं समूह में तो कहीं एक-दो संख्या में बिखरे पड़े हैं. यद्यपि आस-पास की सभी पहाड़ियों, उपत्यकाओं, घाटियों में इनकी भरमार है, लेकिन यहाँ पर ये अधिक वृहदाकार और ठोस हैं, जो करोड़ों वर्षों से पूर्व के धरातलीय अपरदन या महान हिमयुगीन ग्लेशियरों की मोटी चादर के भीतर ढके अवसाद के रूप में अब तक विद्यमान हैं. इनकी आड़ में अटकी मिट्टी की सुलभता से वनस्पतियों के उगने लायक पर्याप्त जगह है. यह सारा क्षेत्र अतीत में विस्तृत चरागाहों का रहा होगा जिसमें भैंस पालकों के ग्रीष्म एवं वर्षाकालीन अस्थाई निवास भी होंगे. इन्हीं पशुपालक चरवाहों की आवाजाही से इस स्थान को दैवी स्वरूप दिया गया होगा. यहाँ पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों से सभ्यता के विभिन्न चरणों के विकास की एक धुंधली तस्वीर देखी जा सकती है: (साभार: ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ : डॉ. राम सिंह)

आज भी देवीधुरा के कतिपय स्थानों में खेत बनाते या नए मकान की नींव खोदते समय मनुष्य की हड्डियों या कंकालों के अवशेष मिलते हैं. निश्चय ही पश्चिमी रामगंगा, गगास नदी की घाटियों में मिलने वाले शवाधानों की शृंखला यहाँ तक विस्तृत थी.’ (इतिहासकार डॉ. राम सिंह: ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’, पृष्ठ 170) एक अन्य पुरावेत्ता केपी नौटियाल ने भी इस बात की पुष्टि की है : ‘उत्तराखंड से महापाषाणीय शवागार संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं. हेनवुड ने 1858ईस्वी में अल्मोड़ा के निकट देवीधुरा में इन शवागारों के होने का उल्लेख किया था. ह्वीलर ने भी इसका उल्लेख करते हुए इन्हें अल्मोड़ा से लेह तक विस्तृत बताया था...’

इस बात की ओर अनेक शोधकारों ने इशारा किया है कि वर्तमान वाराही देवी के प्रांगण तथा उसके परिसर में प्राचीन मंदिरों या भवनों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री का कुछ भाग अब भी खोदने पर मिलता है. इससे साफ है कि इस स्थान पर अतीत में कभी एक संपन्न बसासत रही होगी. मशहूर पुरावेत्ता डीडी कोसाम्बी ने अपनी किताब ‘मिथक और यथार्थ’ में इस प्रकार के स्थानों के बारे में लिखा, ‘तनिक अन्वेषण से ठहराव के अनेक स्थानों में उत्तर पाषाणकालीन उपकरणों के जमाव स्पष्ट परिलक्षित हो जाते हैं और साफ जाहिर होता है कि यह मार्ग प्रागैतिहासिक है.’


देवीधुरा का देवीपीठ एक ऐसे स्थान पर स्थित है, जहाँ पर चारों ओर से मार्गों का संगम होता है. यह लोहाघाट से अल्मोड़ा-नैनीताल, हल्द्वानी तथा इसी तरह के महत्वपूर्ण स्थानों को जोड़ता है. इसके अतिरिक्त इसका संपर्क चाल्सी-पनार होकर अन्य समीपस्थ स्थानों से है. दूसरी ओर रौ, चौभैंसी व अन्य पट्टियों को निकलने वाले मार्ग भी यहीं से आरम्भ होते हैं. यही एक ऐसा स्थान है जहाँ से किसी भी दिशा को निकलने के लिए मार्ग सुगम और बस्तियों से होकर निकलते हैं. इसी से स्पष्ट है कि विस्तृत चरागाहों की उपलब्धता के कारण यह स्थान प्रागैतिहासिक काल से ही मानव आकर्षण का केंद्र रहा होगा.

देवीधुरा में देवी की बाराही अर्थात पृथ्वी स्वरूपा मानकर उपासना की जाती है. उसे देवसेनानी माना जाता है. मंदिर में देवी की प्रतिमा न होकर दो विशाल शिलाओं के आपस में एक-दूसरे से प्राकृतिक रूप से सटे होने के कारण उनके मिलन स्थल पर स्वतः बने एक त्रिभुजाकार द्वार को देवी की योनि का प्रतीक मानकर पूजा जाता है. इन दोनों शिलाओं के बीच के खुले संकरे मार्ग के एक ओर उन्हीं के आच्छादन में बैठकर पुजारी लोग भक्तों से देवी के लिए भेंट, उपहार आदि प्राप्त करते हैं. यह माना जाता है कि जिस प्रकार शिशु माँ के गर्भ से निकलकर योनिद्वार से बाहर प्रकट होता है, उसी का यह प्रतीकात्मक स्वरूप है. इसे बहुत पवित्र माना जाता है. इसी प्रकार की अभिव्यक्ति असम में कामरूप कामाक्षा मंदिर में की गयी है. इन ग्रेनाईट की शिलाओं की बनावट श्रीलंका केंडी के पार्क में उपलब्ध शिलाओं से पूरी तरह मिलती है. आदिम मानव प्रजनन से सम्बंधित अंगों के प्रतीकों की पूजा किया करता था. इस रूप में इस स्थल की प्राकृतिक बनावट में देवी के स्वरूप की संकल्पना से देवीधुरा के आदिम युगीन मातृदेवी के मूल स्थल होने में कोई संदेह नहीं रह जाता.

(ग्वाल्दे कोट (ग्वल्ल देवता का किला) : पैकों की बसाहट ऐसे ही 'किलों'की जड़ पर होती थी)


कुमाऊँ के पैक बनाम उड़ीसा के पैका

हिमालय की गोद में बसे कुमाऊँ की पुरानी राजधानी चम्पावत के इर्द-गिर्द राजा के विश्वस्त और स्वामिभक्त क्षत्रिय वीरों का घेरा मौजूद रहता था, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘पैक’ कहा जाता था. इन योद्धाओं का काम राजा की सुरक्षा के साथ-साथ युद्ध की स्थिति में उसको हर हाल में विजयी बनाना होता था. कुमाऊँ के वर्तमान अल्मोड़ा, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों में नेपाल-भारत के बीच बहने वाली काली नदी के किनारे बसे हुए इन लोगों का सदियों से सामरिक महत्व रहा है. कुमाऊँ के लोक जीवन में इन वीर पैकों की कथाएं आज भी लोक मानस में मौजूद हैं.

इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हिमालय के ‘पैक’ और उड़ीसा के ‘पैका’ योद्धाओं के बीच अनेक समानताएं मिलती हैं. नाम से लेकर इनकी चारित्रिक विशेषताओं तक. कुमाऊँ के इतिहास में इन्हें लेकर अभी कोई अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन उड़ीसा के लोगों ने इस पर खूब काम किया है. इनके युद्ध-कौशल को न केवल उड़ीसा में, पूरे देश में शारीरिक दक्षता के लिए अपनाया जा रहा है. उड़ीसा शासन ने तो इसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया है.

खास बात यह है कि औपनिवेशिक शासन काल में अंग्रेजों ने इन दोनों जातियों (कुमाऊँ के ‘पैक’ और उड़ीसा के ‘पैका’) को जुझारू और युद्धप्रिय जातियों (मार्शल रेस) की मान्यता प्रदान की. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से चालीस साल पहले एक बड़े आदिवासी संघर्ष ‘पैका विद्रोह’ के बारे में जानना खासा रोचक होगा.
पैका विद्रोह https://roar.media/hindi/main/history/paika-rebel-first-war-of-independence/

पैका विद्रोह’ (1817ई.) उड़ीसा में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था. पैका लोगों ने भगवान जगन्नाथ को उड़िया एकता का प्रतीक मानकर बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में 1817ई. में यह विद्रोह शुरू किया था. शीघ्र ही यह आन्दोलन पूरे उड़ीसा में फैल गया किन्तु अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक इस आन्दोलन को दबा दिया. बहुत से वीरों को पकड़ कर दूसरे द्वीपों पर भेज कर कारावास का दंड दे दिया गया. बहुत दिनों तक जंगल में छिपकर बख्शी जगबंधु ने संघर्ष किया किन्तु बाद में आत्मसमर्पण कर दिया.

कुछ इतिहासकार इसे 'भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम'की संज्ञा देते हैं. 1817में उड़ीसा में हुए पैका विद्रोह ने पूर्वी भारत में कुछ समय के लिए ब्रिटिश राज की जड़ें हिला दी थीं. मूल रूप से पैका उड़ीसा के उन गजपति शासकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल था, जो युद्ध के समय राजा को सैन्य सेवाएं मुहैया कराते थे और शांतिकाल में खेती करते थे. इन लोगों ने 1817में बक्शी जगबंधु बिद्याधर के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत का झंडा उठा लिया.

खुर्दा के शासक परंपरागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक थे और धरती पर उनके प्रतिनिधि के तौर पर शासन करते थे. वो उड़ीसा के लोगों की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का प्रतीक थे. ब्रिटिश राज ने उड़ीसा के उत्तर में स्थित बंगाल प्रांत और दक्षिण में स्थित मद्रास प्रांत पर अधिकार करने के बाद 1803में उड़ीसा को भी अपने अधिकार में ले लिया था. उस समय उड़ीसा के गजपति राजा मुकुंददेव द्वितीय अवयस्क थे और उनके संरक्षक जय राजगुरु द्वारा किए गए शुरुआती प्रतिरोध का क्रूरता पूर्वक दमन किया गया और जयगुरु के शरीर के जिंदा रहते हुए ही टुकड़े कर दिए गए.

कुछ सालों के बाद गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबंधु के नेतृत्व में पैका विद्रोहियों ने आदिवासियों और समाज के अन्य वर्गों का सहयोग लेकर बगावत कर दी. यह विद्रोह 1817में आरंभ हुआ और बहुत ही तेजी से फैल गया. हालांकि ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह में पैका लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन किसी भी मायने में यह विद्रोह एक वर्ग विशेष के लोगों के छोटे समूह का विद्रोह भर नहीं था.

घुमसुर जो कि वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले (उड़ीसा) का हिस्सा है, वहां के आदिवासियों और अन्य वर्गों ने इस विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई. पैका विद्रोह के विस्तार का सही अवसर तब आया, जब घुमसुर के 400आदिवासियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए खुर्दा में प्रवेश किया. खुर्दा, जहां से अंग्रेज भाग गए थे, वहां की तरफ कूच करते हुए पैका विद्रोहियों ने ब्रिटिश राज के प्रतीकों पर हमला करते हुए पुलिस थानों, प्रशासकीय कार्यालयों और राजकोष में आग लगा दी.

पैका विद्रोहियों को कनिका, कुजंग, नयागढ़ और घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था. यह विद्रोह बहुत तेजी से प्रांत के अन्य इलाकों जैसे पुर्ल, पीपली और कटक में फैल गया. विद्रोह से पहले तो अंग्रेज चकित रह गए, लेकिन बाद में उन्होंने आधिपत्य बनाए रखने की कोशिश की जिसमें उन्हें पैका विद्रोहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. बाद में हुई कई लड़ाइयों में विद्रोहियों को विजय मिली, लेकिन तीन महीनों के अंदर ही अंग्रेज अंतत: उन्हें पराजित करने में सफल रहे.

इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला जिसमें कई लोगों को जेल में डाला गया और अपनी जान भी गंवानी पड़ी. बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अत्याचारों का सामना करना पड़ा. कई विद्रोहियों ने 1819तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अंत में उन्हें पकड़ कर मार दिया गया. बक्शी जगबंधु को अंतत: 1825में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829में उनकी मृत्यु हो गई.

हालांकि पैका विद्रोह को उड़ीसा में बहुत उच्च दर्जा प्राप्त है और बच्चे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में वीरता की कहानियां पढ़ते हुए बड़े होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्तर पर वैसा महत्व नहीं मिला जैसा कि मिलना चाहिए था. ऐसी महत्वपूर्ण घटना को इतना कम महत्व दिये जाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन यह संतोष की बात है कि भारत सरकार ने इस विद्रोह को समुचित पहचान देने के लिये इस घटना की 200वीं वर्षगांठ को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय लिया है.

पैका अखाड़े आज भी, उड़ीसा के प्रसिद्ध अखाड़े हैं जो प्राचीन काल में किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देने का काम करते थे. आजकल इन अखाड़ों में परम्परागत व्यायाम और पैका नृत्य आदि किये जाते हैं.




उड़िया योद्धाओँ की जाति पैका

(यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं. विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें) लेखक का इन स्थापनाओं से सहमत होना जरूरी नहीं है.

पैका उड़ीसा की एक जाति है जो वर्तमान समय मेँ मुख्य रूप से तीन अलग-अलग उपजातियों मेँ बँट गए हैं.

1.खंडायत
2.बेणायत
3.पहरी - काळिँजि

इसके अलावा वाणुआ और ढेंकिया भी ‘पैक’ कहलाते हैं. ये है:
1. युद्धक्षेत्र मेँ तलवार चलानेवाले सैनिक,
2. बेणायत: घोड़े व हाथी पर लड़नेवाले,
3. कोतवाल और पहरा देनेवाले प्रहरी,
4. युद्धक्षेत्रों में तीरंदाजी करनेवाले ‘बाणुआ’ और 
5. ढाल-बर्छे से हमला करने वाले ढेंकिया.

पैका/Paika शब्द मूलतः संस्कृत से आया है जिसका अर्थ है पदातिक/Padatika meaning [the infantry, and hence the name of the dance is battle (paika) dance (nrutya)] .

उड़ीसा मेँ गंग साम्राज्य और गजपति राजत्व काल को वहां का स्वर्णयुग कहा जाता है. तब उड़ीसा का विस्तार गंगा से गोदावरी तक था. साम्राज्य को बचाने की जिम्मेदारी पैका वीरोँ की होती थी. पैका नियमित योद्धा नहीँ थे परंतु वे नियमित अभ्यास करते थे. आज भी गाँव के पैका अखाड़ों मेँ युद्धाभ्यास होता है परंतु आज यह केवल कुछ एक क्षेत्रोँ मेँ देखने को मिलता है खासकर उन गाँवों मेँ जहाँ क्षत्रिय कुल बहुतायत मेँ पाए जाते हैं. ये पैका शान्तिकाल मेँ राजा द्वारा प्राप्त भूमि पर खेती करते थे और युद्ध की घोषणा होने पर युद्धभूमि मेँ जाकर लड़ते थे. पैकों ने लम्बे समय तक मुगलों, तुर्क तथा मराठों से लोहा लिया परंतु 16वीँ सदी के बाद

महाप्रभु चैतन्य आदि द्वारा भक्तिवाद के प्रचार की वजह से लोग आलसी व अंधभक्त बन गए.

पुरी, खोर्दा, कटक, ढेकानाल, गंजाम पारलाखेमुंडी, अनगुल आदि क्षेत्र के राजघरानों मेँ आपसी कलह भी पैकों मेँ आपसी मतभेद का कारण बना.

अठारहवीं सदी तक पैकों का पूरा-का-पूरा संगठन अलग-अलग उपजातियों में बँट चुका था परंतु 1803में अंग्रेजों की उड़ीसा पर चढ़ाई से स्वाभिमानी उड़िया जाति, खासकर पैकों में पुनः एकता आने लगी. 1803से 1819तक उड़िया जाति अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती रही. 1857से 40साल पूर्व हुए इस विद्रोह को ‘पैक’ या ‘पैका’ विद्रोह कहा जाता है.

(भारत-नैपाल सीमा पर बसे खस)

आर्यों की पहली खेप में पहुंचे थे पैकों के पुरखे ‘खस’

इतिहासकार डीडी कोसंबी खसों को भारत में आई आर्यों की पहली खेप मानते हैं. ‘ईसा-पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में मध्य एशिया से आर्यों की दो लहरें आयीं– पहली लहर इस सहस्राब्दी की शुरुआत में आई और दूसरी अंत समय में. इन दोनों ने भारत को प्रभावित किया और संभवतः यूरोप को भी. उनकी अपनी मातृभूमि (मोटे तौर पर आधुनिक उजबेकिस्तान) के चारागाह, संभवतः लम्बे सूखे के कारण, मवेशियों और उनके मालिकों के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थे. भारत में पहुंचे लोगों में से कुछ या तो खदेड़ दिए जाने के कारण अथवा नए प्रदेश की परिस्थितियां संतोषजनक न होने के कारण वापस लौट गए. यह बात ईसा-पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के उत्तरार्ध की कुछ हित्ती मुहरों पर उत्कीर्ण कूबड़ वाले विशिष्ट भारतीय बैल को देखने से स्पष्ट हो जाती है. हित्ती भाषा का मूल भी आर्य भाषा में है. ‘खत्ती’ शब्द, जो हित्ती का ही पर्याय है, संस्कृत के ‘क्षत्रिय’ और पालि के ‘खत्तिय’ शब्द से सम्बंधित जान पड़ता है... परन्तु जो संपर्क था, चाहे वह कितना ही खंडित और अल्पकालीन क्यों न रहा हो, वह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण था कि लोहे का ज्ञान, जिससे हम हित्तियों को पहली बार परिचित देखते हैं (फिर उन्होंने यह रहस्य चाहे किसी भी पुराने जन-समुदाय से प्राप्त किया हो), आर्यों की दूसरी लहर के साथ भारत पहुँच सका. (प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता, पृष्ठ १०३)


समुद्र सतह से तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित देवीधुरा पर्वत शृंखला पर मौजूद महा-पाषाण युग की ‘रणशिला’ के शिखर पर खड़ा हूँ. मेरे माथे पर उल्टे कटोरे के आकार में अनंत तक गहरा आकाश और उसकी मुंडेर के रूप में विशालकाय देवदार-वृक्षों से भरी अर्ध-चंद्राकार पर्वत-शृंखलाओं की झालर पर्त-दर-पर्त दूर तक फैली हुई है.

हमारी धरती के रूप में बचपन से पोषित एक-के-बाद-एक बिछी हुई अर्ध-चंद्राकार पर्वत-शृंखलाएं. पश्चिमोत्तर हिस्से की पहाड़ी पट्टी में अपेक्षाकृत कम घने वनांचल के बीच मेरे बचपन का गाँव ‘छानगों’ और पहला स्कूल ‘द्यौवमें’ यहाँ से साफ दिखाई दे रहा है.

होश सम्भालने के बाद से ही अपने घर की खिड़की से मैं इन ऊँची-नीची रहस्यमय शृंखलाओं को देखता आ रहा हूँ और उन्हीं के बीच मेरी कल्पनाओं के घरोंदे आकार ग्रहण करते रहे. इन काल्पनिक घरोंदों का आधार बुजुर्गों के द्वारा सुनाई गयी वो  मायावी कथाएँ और किस्से होते थे, जिनके सहारे मेरी सारी उम्र कटी थी.

ऊंचे-नीचे शिखरों और तलहटी की घाटियों के बीच बसे थे हमारे परिजनों के गाँव, जिनका सम्मिलित नाम था, ‘पैकों’ यानी मल्लों का देश. नहीं मालूम कि हम लोग कब से इन पर्वत-घाटियों में रहते चले आ रहे थे... लाख कल्पना करते रहने के बावजूद समय का कोई छोर पकड़ में नहीं आता. आकाश, उसकी मुंडेर के रूप में सजे हुए देवदार के विशाल वृक्ष, उनके पांवों को चूमती भीमकाय शिलाएं और यहाँ से वहां तक कभी लरजते, कभी गरजते बादलों के झुण्ड...

यही हमारी कल्पनाओं का सागर था, काली कुमाऊँ के रहस्यमय गुमदेश के बीच तैरता हमारा अपना मल्ल-देश. यहाँ के निवासियों से लेकर वनस्पतियों, नदी-झरनों और हवा-पत्थरों तक सभी कुछ मल्लों की तरह भीमकाय था. युवा लोग ‘पैक’ कहलाते थे जो अपराजेय योद्धा के रूप में पूरे इलाके में मशहूर थे.

लोक जीवन में फैले हुए इन मल्लों के असंख्य किस्से थे, जिन्हें एक-दूसरे के अनुभवों के साथ जोड़ते हुए हम लोग बड़े हुए थे. पुरखों की दिनचर्या के बारे में हमें बताया गया था कि सुदूर अतीत में उनके दिन की शुरुआत घाटी में फैले अलग-अलग आकार के पत्थरों के गोले लाकर ऊपर पहाड़ी पर बसे गाँव तक पहुँचाने से होती थी. शिलाओं को पीठ या कंधे में लादकर खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए बाराही देवी के मंदिर तक लाना और फिर उन्हें वहां मौजूद शिल्पियों को सौंपना... हमारे पुरखे शिल्पी उन पत्थरों को तराशकर आकार प्रदान करते... बीरखम्ब का आकार! वे बताते कि ये विजय-स्तंभ थे, जिन्हें विजय-पताका के रूप में थोकदार लोग अपने इलाके में गाड़ते थे. हमें यह तो नहीं बताया जाता था कि इन शिखरों के विजेता कौन थे और विजित कौन, फिर भी उन दोनों में हमें अपनी ही छवि दिखाई देती थी. इन अविश्वसनीय लगने वाली बातों में कितनी सच्चाई है, इसे लेकर हमने कभी सवाल खड़े नहीं किये क्योंकि जब से हमने होश सम्हाला, दैवी प्रतिमाओं के रूप में तराशी गयी ये शिलाएं हमारे गाँवों से जुड़े हर कोट (किले) में मौजूद थीं.

...शिलाओं का आकार युवाओं की उम्र के साथ बढ़ता चला जाता. जो जितने बड़े पत्थर ढो कर लाता, उतनी ही प्रशंसा का भागीदार बनता; इसलिए जीवन की पहली साँस लेने के क्षण से ही जिंदगी का एकमात्र उद्देश्य वीरता के अपराजेय सोपानों को छूना और शरीर के एक-एक पोर में शक्ति का संचार करना होता. घाटी से शिलाओं को लाना और शिखर तक पहुँचाना, यही जीवन की एकमात्र इच्छा और सार्थकता लगती थी.

देवीधुरा की देवी ‘बाराही’ हमारी कुलदेवी थी. वह सिर्फ एक देवी नहीं, हमारी जीती-जागती सांस्कृतिक परंपरा की संभ्रांत पुरखिन थी. संकट और असमंजस के क्षणों में हमारे बड़े-बूढ़े अपनी इस पुरखिन का आह्वान करते थे और ढोल-नगाड़ों, दाबुक-हुड़कों की आकाश-भेदी ध्वनियों के बीच वह पुरखिन तत्काल हमारे बीच आकर हमारा सारा मानसिक ऊहापोह ख़त्म कर जाती. सैकड़ों सालों से यह परंपरा चली आ रही थी, जिसे लेकर किसी के मन में कभी कोई संशय नहीं था. कुलदेवी और उसकी शक्ति को लेकर मन में कभी सवाल नहीं उठे. शायद उसी ने हमारे पुरखों के शरीर को अतिमानवीय व्यक्तित्व प्रदान किया था. यह जानते हुए कि इतने विशाल पाषाणों को कोई एक आदमी नहीं उठा सकता, अनंत में फैली देवी-शक्ति के प्रताप और उनके द्वारा हमें प्रदान किये वरदान को लेकर हमारे मन में अविश्वास की भावना नहीं पनपी. जीवन का बड़ा हिस्सा उसी अतार्किक और भोले विश्वासों के सहारे बीत गया, संभव और असंभव की सीमारेखा की परवाह किये बिना.

अपने अग्रजों के द्वारा दिए गए ज्ञान को आत्मसात करने के बाद लगा, दुनिया बदलने लगी है; रहस्य अब पहले जैसे अबूझ नहीं रहे और दुनिया सिमटकर हमारा ही हिस्सा बनती चली गयी है. ज्ञान और जानकारी ने हमारी सूचनाओं और कल्पनाओं का परिदृश्य ही मानो उलट कर रख दिया. बचपन में आकाश का क्षितिज बनाती पर्वत-शृंखलाओं में छिपे जो गाँव पूरी जिंदगी रहस्यमय बने रहे, आज पड़ौसी की तरह बतियाने लगते हैं.

उन्हीं दिनों पढ़ी थी मशहूर पुरावेत्ता दामोदर धर्मानंद कोसंबी की किताब ‘मिथक और यथार्थ’ और इतिहासकार डॉ. राम सिंह की किताब ‘राग-भाग काली-कुमाऊँ’. इनमें लिखी बातों ने गाँव-इलाके के बारे में हमारा कौतूहल बढ़ा दिया था:

देवीधुरा का स्थल प्रागैतिहासिक काल से ही मानव सभ्यता के विकास के कई महत्वपूर्ण सोपानों के बीच से गुजरा है. यहाँ यत्र-तत्र बिखरे विशाल शिलाखण्डों (बोल्डरों) में आदिम मानव द्वारा बनाए गए ऊखल मौजूद हैं. पुरातत्वविद इस प्रकार के अभिप्रायों को ‘चषक’ या ‘कपमार्क्स’ कहते हैं.’

कोसंबी ने महाराष्ट्र के अपने गृह-क्षेत्र – पुणे-शोलापुर के बीच पड़ने वाले कार्ले की चैत्य गुफाओं से जुड़े यात्रा पथ और वहां मौजूद मातृदेवियों का व्यापक अध्ययन किया है. इन देवियों में उन्होंने देवीधुरा की बाराही देवी के साथ उसके साथ नाम-साम्य वाली एक देवी का जिक्र किया है, ‘बोल्हाई देवी’ का. ‘सबसे दिलचस्प देवी वार्डे-घोडें स्थित ‘बोल्हाई’ है जिसकी जीवंत पूजा-परंपरा सीधे प्रागैतिहास से सम्बन्ध जोड़ती प्रतीत होती है और प्रागैतिहासिक गतिविधियों का जटिल स्वरूप निर्देशित करती है.’  

इतिहासकार ने लिखा है, ‘देवी के मंदिर से कुछ हटकर पश्चिमी पार्श्व में हिमयुग के अवशेष के रूप में विद्यमान कुछ विशाल शिलाखंडों (बोल्डरों) का एक समूह है. इन शिलाखंडों के परिसर के मध्य एक लम्बी शिला उससे कुछ बड़ी शिला के ऊपर स्थित है, इसको ‘रणशिला’ कहा जाता है. मंदिर से इस स्थल की दूरी लगभग सौ मीटर है. रणशिला की आधारभूत महाशिला दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्वाभिमुख है. रणशिला समानांतर लम्बवत उसके ऊपर स्थित है. इसकी लम्बाई आठ मीटर और चौड़ाई छह मीटर तथा चार मीटर ऊँचाई है. दोनों शिलाएं लगभग एक ही माप की हैं...

लोक-मानस में रणशिला नाम से प्रसिद्ध इस महापाषण की सबसे बड़ी विशेषता लम्बाई में बनी या पड़ी दरार है. यह दरार रणशिला की लम्बाई में वार-पार तो है ही, आरपार भी है. दरार की चौड़ाई लगभग चार अंगुल तक है. इस दरार का कारण कुछ लोग भौगोलिक हलचलों को मानते हैं. उनका कहना है कि जब पहली बार धरती ने सिकुड़ना प्रारंभ किया, ये ग्रेनाईट के शिलाखंड भी तभी से विद्यमान हैं. जब फूले हुए ग्रेनाईट के पिंडों की ऊपरी सतह धरती के सिकुड़ने से धरातल के बाहर प्रकट हुई तो उन पर सहज रूप से दरारें पड़ गईं...’ 
  
खस देश


पैकों (खसों) की पुरखिन हिडिम्बा

खसों का समाज हिमालय के तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाला, स्त्री-पुरुष की सहभागिता से निर्मित, कृषि और पशुपालक समाज था, शायद इसलिए भी उनका टकराव दूसरी जातियों के साथ नहीं हुआ. कृषि कर्म भौतिक उत्पादन से सीधे जुड़ा होने के कारण भी आर्यों की पहली जरूरत थी, इसलिए अपनी ही दुनिया तक सीमित रहना आर्यों की मजबूरी थी. एक और कारण यह भी था कि आर्य ज्यादातर गंगा के तटवर्ती मैदानी क्षेत्रों में बसे जिस कारण भी उनकी पहाड़ों में रहने वाले खसों से सीधे टकराव की स्थिति नहीं बनी.

मगर आर्यों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनीं खस स्त्रियाँ. खस एक स्त्री प्रधान समाज था जिन्होंने कृषि और सामाजिक संगठन के आधार पर एक मजबूत तंत्र बुना था. यही कारण था कि आर्यों ने जब देखा कि उन्हें वश में कर सकना मुश्किल है, उन्होंने स्त्रियों का दैवीकरण करना शुरू कर दिया. प्रकृति के बीच अंकुरित समाज होने के कारण प्रकृति को स्त्री तत्व के साथ जोड़ना आसान था. यहीं से प्रकृति और पुरुष तत्वों की परिकल्पना सामने आई, जिनके सहभाव के बिना सृष्टि का विस्तार संभव नहीं था.

आर्यों-खसों का ज्ञात इतिहास देखें तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में आई हिडिम्बा. आर्य जब उसे पराजित नहीं कर पाए तो कभी उसे पिशाचिनी कहा गया, कभी राक्षसी और कभी दैत्य. आर्यों के सबसे ताकतवर पुरुष भीमसेन को हिडिम्बा ने जब पराजित किया तो उसे अपने साथ विवाह करने के लिए विवश किया. हिडिम्बा के इस विराट रूप को अपदस्त करने के लिए आर्यों ने देवी दुर्गा का मिथक रचा और उससे तमाम ‘असुरों’ का वध करवाया. लेकिन अनेक कोशिशों के बावजूद पर्वत-पुत्री हिडिम्बा की छवि को आर्य अधिक नुकसान नहीं पहुँचा पाए. वह आज भी प्रमुख पहाड़ी स्थानों पर घने जंगलों के बीच अपने वीर पुत्र घटोत्कच के साथ पूजी जाती है. इसके बावजूद इतना तो आर्यों ने कहलवा ही दिया कि अगर भीमसेन का अंश उसके अन्दर नहीं होता तो वह ‘राक्षसी’ आज तक पूजी जाने योग्य कैसे होती. शायद यही कारण है कि उत्तर भारत की अखिल भारतीय छवि वाली तमाम देवियों के बीच हिडिम्बा एकमात्र ‘देवी’ है जिसने खुद को पुजवाने के लिए आर्यों को विवश किया.


चम्पावत से करीब तीन-चार किलोमीटर दूर उत्तरवाहिनी नदी गंडक के किनारे एक गाँव है ‘फुंगर’. फुंगर से गंडक नदी की ओर जाते हुए दक्षिणी छोर पर पहाड़ी के मध्य में घटोत्कच का मंदिर पड़ता है जो चारों ओर से लोहे के गंडासों, बघनखों और घंटियों से घिरा हुआ है. मंदिर के अन्दर कोई मूर्ति नहीं है मगर चारों ओर लटके लोहे के उपकरणों को देखते ही वीरता और भीषणता का सहज अहसास हो जाता है. मंदिर के अन्दर मध्य में धूनी का भ्रम देता एक आयताकार कुंड है जिसके तल पर घटोत्कच का निवास माना जाता है. संभवतः यह एक लम्बी सुरंग है. सदियों से मान्यता है कि कुंड में कितना ही जल या दूध चढ़ाया जाये, वह भरता नहीं है. ऐसी मान्यता है कि अकाल और अनावृष्टि के वक़्त इलाके के लोग कुंड में दूध चढ़ाते हैं. कुंड जब दूध से भर जाता है, घटोत्कच की प्यास बुझ जाती है और आकाश में वृष्टि तथा धरती पर फसलें लहलहाने लगती हैं. घटोत्कच के मंदिर से लगभग एक किलोमीटर नीचे नदी तट पर हिडिंबा का मंदिर है जो एक गुफा की शक्ल में है. माना जाता है कि गहरी गुफा में निवास करने वाली अदृश्य हिडिम्बा इलाके के लोगों की रात-दिन रक्षा करती है.

यहाँ नमूने के तौर पर ऐसी ही खस (पैक) औरतों से जुड़े कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं :



पैकों की संतान धौनी और मौनी भाइयों की कथा

काली कुमाऊँ के पश्चिम में खिलपित्ती पट्टी, उत्तर में रेगडूबान, उत्तर के पूर्व की ओर प्रवाहित सरयू नदी, दक्षिण में तल्ला देश और एकदम पूर्व में काली नदी के बीच का क्षेत्र गुमदेश पट्टी का है. चंद राजाओं के समय इस इलाके का अत्यधिक सैनिक महत्व था. प्रत्येक चंद राजा के लिए अपनी शक्ति और सामर्थ्य के प्रदर्शन के लिए डोटी (नेपाल) पर आक्रमण ही प्राथमिकता होती थी. इसलिए इस पूरे क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों का बड़ा महत्व था. जनसंख्या और प्रभाव दोनों दृष्टियों से यहाँ धौनी सबसे आगे थे. इन लोगों में प्रचलित ‘भाग’ (किम्वदंती) के अनुसार ये लोग उत्तर भारत के किसी ऐतिहासिक नगर से आकर पहले पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर ‘धौन’ नामक स्थान पर रुके. इनके पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुण्ड उड़ रहा था. बड़े भाई ने राजा से कहा, ये मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ. उसने पूछा ये कैसे संभव है. बड़े भाई ने एक मौन के पैर में धागा बांध दिया. सायंकाल वह मौन उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने के कारण ‘धौनी’ और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहलाने लगा. धौनियों के पूर्वज काली-कुमाऊँ के सबसे विश्वस्त क्षत्रियों के गाँव ‘सिलंग’ में बसे. चंद राजाओं ने उन्हें पूर्वी सीमा की देखरेख करने का दायित्व सौंपा और वे वहीँ अपनी गढ़ी बनाकर रहने लगे. मौनी को कुमाऊँ के पश्चिमी क्षेत्र का महत्वपूर्ण गढ़पति बनाया गया जिन्हें दयित्व सौंपकर राजा निश्चिन्त रहता था. कहावत ही है, ‘पूर्वो को धौनी, पश्चिमो को मौनी’ अर्थात चंद राज्य के पूर्व का खंभा धौनी और पश्चिम का मौनी है.


भागा धौन्यानि : खसों की पुरखिन

धौनी लोगों की एक पुरखिन ‘भागा धौन्यानि’ के नाम से कुमाऊँ की कुछ लोक कथाओं में चर्चित है. उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से सम्बंधित गाथाओं को धान इत्यादि की गुड़ाई के समय ‘गुड़ोल’ गीतों में लोगों को उत्साहित करने के लिए गया जाता था. धौन के वर्तमान बस अड्डे के पास चार-पांच कुंतल भारी ग्रेनाईट की चपटी और एक आयताकार शिला पत्थरों के चबूतरे पर स्थापित है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिसकर उनकी धार तेज किया करती थीं. इसे ‘भागा धोन्यानिको उध्युनो’ (भागा धोन्यानी का दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को, जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा मात्र था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेटकर घास काटने जाया करती थी.


एक धौनी ने अपनी बेटी फुंगर के बोरा से ब्याह दी. फुंगर का बोरा अपनी ससुराल सिलंग में प्रायः आया करता था और जब भी ससुराल आता, अपनी पत्नी को ताने देता रहता, ‘गरखा जै ऊनो, करड़ा-चूंल खै ऊनो, पुरानो करकिल्लो खै ऊनो’. (अर्थात ‘गरखा’ (मामूली भरण-पोषण वाली जमीन) हो आऊंगा, लाल चावल का भात और पुराने करबिल्ले का साग खा आऊंगा). ऐसा कहकर वह अपनी पत्नी को जतलाना चाहता था कि तुम्हारे मायके वालों का खाना-पीना बहुत घटिया किस्म का है. रोज-रोज के इन तानों से उसकी पत्नी तंग आ चुकी थी. उसने अपने मायके वालों को सन्देश भिजवाया कि ‘अगर ‘आप लोगों’ ने मेरे पति को उसकी हरकतों के लिए मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया तो मैं चमलदेव के झूले से लटककर आत्महत्या कर दूँगी.’ इस पर दोनों कुलों में शत्रुता हो गयी. फुंगर के बोरा को जब पता चला कि धौनी लोग उसकी हरकतों से चिढ़े हुए हैं, वह अपने दल-बल के साथ धौनियों की ‘धाड़’ (लूटपाट) करने के इरादे से चढ़ आया. धौनियों के चारों धड़े बोरा का सामना करने के लिए तैयार हुए. सबसे आगे सिलंग के धौनी, उसके बाद बसकूनी, नौढुंगा और चौपता के धौनी लोग एकत्र होकर ओल्का फरस्यां नामक स्थान पर आ गए. इनकी सहायता के लिए किमसौन का दांग (दल) भी आ पहुँचा. यहाँ पर बोरा को पराजित कर उसके सिर के बाल मूंड दिये गए और उसे बंदी बना लिया गया. छह माह तक वह बंदी रहा. उसके बाद उसकी पत्नी ने सन्देश भिजवाया कि ‘यह धाड़ तो साले-भिना का मजाक था, अब सिर के बाल उग आए होंगे, वापस चले आओ.’ बोरा वापस तो चला आया पर वह अपमान का बदला लेना नहीं भूला. उसने धौनियों के लिए माल (तराई-भाबर) से आने वाला नमक रोक दिया. नमक न मिलने से धौनी लोग परेशान हो गए. धौनियों ने पुनः अपने योद्धा तैयार किये और बेलखेत (लध्यों और क्वेराला गाड़ का संगम-स्थल) में बोरा के योद्धाओं को पुनः पराजित कर दिया.

गुमदेश का धौनी पहुंचा तल्ला सालम होते हुए दुनिया भर के लोगों के दिल में तल्ला सालम में जेंती से तीन किलोमीटर ढलान पर पनार नदी के किनारे एक सूखा-सा गाँव है ल्वाली, जहाँ भारतीय क्रिकेट के मिथक बन चुके कप्तान महेंद्र सिंह धौनी के पूर्वज गुमदेश के शिलंग से आकर बसे. ल्वाली को देखकर कतई नहीं लगता कि इस सूखी आबोहवा के बीच किसी पैक के मन में यहाँ बसने और भरण-पोषण का लालच पैदा हो सकता है.

लेकिन यह हालत तो पैकों के इस गाँव की आज है. चंद राजा के ज़माने में ल्वाली का धौनी और निरई का बोरा राजा के सबसे विश्वस्त थोकदार माने जाते थे. ल्वाली के पड़ौसी गाँव डोल के सबसे निचले छोर पर एक छोटे-से स्रोत के रूप में फूटने वाली पनार नदी जो आगे चलकर अल्मोड़ा, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों के बीच बहने वाली सबसे बड़ी नदी बन जाती है, के ठीक स्रोत पर बसे इस गाँव के आसपास पैदा होने वाली बासमती की चर्चा पुराने ज़माने से ही राजा की खास रसोई में सुनाई देती थी. नदी किनारे पुराने थोकदारों की भैंसों के रेवड़ रहते थे; सारा इलाका दूध-घी और मास (उड़द)-गडेरी के ताकतवर खाद्यान्नों से भरा रहता. इस इलाके में पैदा होने वाली मास की दाल इतनी सख्त और पौष्टिक होती थी कि पैक लोग अपने घरों के लिए पत्थरों की चिनाई में इसके पेस्ट का इस्तेमाल सीमेंट की तरह किया करते थे. सैकड़ों बरस पहले निर्मित पैकों के घरों के खंडहर आज भी इलाके में मौजूद हैं, इन विशालकाय घरों में चिने गए पत्थरों के कोने वक्त की मार की वजह से भले कहीं-कहीं टूट गए हों, मास की दाल से जोड़ी गयी भारी-भरकम शिलाओं की चिनाई आज भी ज्यों-की-त्यों अपनी जगह खड़ी है. (इस पोस्ट में मैंने तीन सदी से पहले के बने अपने पुरखे पैकों के घर ‘पारै कुड़ि’ (दूर का पुराना घर) का जो चित्र दिया है, वह पैकों के अकल्पनीय स्थापत्य का गवाह है. यह फोटो मेरे बचपन के दिनों का है.)

क्रिकेट की दुनिया में प्रवेश करते ही जब महेंद्र सिंह धौनी 2005 में श्रीलंका के खिलाफ 183 और पाकिस्तान के खिलाफ 148 रन बनाने के बाद दुनिया भर के खेल-प्रेमियों के दिल में बस गया था, उसी क्षण ल्वाली गाँव के लोगों को इस बात का भरोसा हो गया था कि यह चमत्कार कोई पैक-पुत्र ही कर सकता है. बाद में जब उसने एक-दिवसीय सिरीज में 7 पायदान पर बल्लेबाजी करते हुए कई शतक लगाये और कप्तान के रूप में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में सबसे अधिक 6 शतक बनाये, लोगों का यह विश्वास गहरा होता चला गया. यही नहीं, यह विश्वास ल्वाली गाँव के साथ पूरे देश और दुनिया के मन में बसता चला गया... धौनी के चमत्कार का सबसे बड़ा नमूना था, सातवें पायदान पर बल्लेबाजी करते हुए अंतर्राष्ट्रीय एक-दिवसीय मैच में शतक लगाना. दुनिया भर के खेल प्रेमी उस वक़्त दंग रह गए जब उसने अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैचों में 4,000 रन बनाये और किसी भारतीय कप्तान द्वारा अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच में 224 रन का उच्चतम स्कोर प्राप्त किया.

कहानी कहाँ से शुरू हुई थी, कहाँ पहुँच गई! बड़े भाई ने सुबह के बिछुड़े मौन (मधुमक्खी) को शाम को अपने पास बुलाकर राजा के द्वारा प्रदान की गयी ‘मौनी’ उपाधि पाई तो छोटे भाई को धौन में रहने के कारण धौनी की. इस सारे प्रकरण से हटकर ल्वाली के पैक महेंद्र सिंह ने जो चमत्कार कर दिखाया, उसे सुनकर तो सिर्फ हतप्रभ हुआ जा सकता है. सच यह भी है कि इस तरह का चमत्कार एक पैक ही कर सकता है.      
(क्रमश:) 
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कथा-गाथा : सिद्ध पुरुष : प्रवीण कुमार

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'छबीला रंगबाज़ का शहर'प्रवीण कुमार का चर्चित उपन्यास है. प्रस्तुत कहानी ‘सिद्ध-पुरुष’ का नायक अवकाश प्राप्त शिक्षक है जिसे कैमरों में दर्ज़ होने और समय में वापस लौटने का ख़ब्त सवार हो जाता है. हत्या का निमित्त और दोषी भी बनता है. लेखक के शब्दों में– ‘निर्दोष मरना इतना आसान होता है क्या?

कहानी दिलचस्प है. कथा बुनने में नई प्रविधियों का प्रयोग किया गया है. यथार्थ और आभास के एक दूसरे में मिल जाने का यह जो समय है उसकी यह मार्मिक कथा है.  



कहानी                                                         
सिद्ध पुरुष                          
प्रवीण कुमार



क दिन उनकी पत्नी ने देखा कि वे गली में अपनी खिड़की के पास खड़े होकर अपना ही कमरा चोर नज़र से झाँक रहे हैं. जैसे कोई ऐसी चीज हो वहाँ जिसका मुआयना अब बहुत ज़रूरी हो गया था. पत्नी कमरे में दाख़िल हुईं और उनको टोक दिया. उन्होंने गली वाली खिड़की से खड़े-खड़े ही जवाब दिया,

"अरे कुछ भी तो नहीं...मैं तो बस देख रहा हूँ कि जब मैं पलंग पर तुम्हारे साथ सोता होऊँगा तो यहाँ से कैसा दिखता होगा?"

बात तो उन्होंने मुसकुरा कर कही, पर पत्नी के कान खड़े हो गए,
"क्या बकवास है ये? चुपचाप भीतर आइए."

वे सचमुच चुपचाप भीतर आ गए. भीतर आते ही उन्होंने सबसे पहले घड़ी देखी, फिर कलेंडर देखा और किसी तारीख़ को लाल स्याही से गोल घेर कर चुपचाप बैठ गए. देर तक बैठे रहे. फिर कुछ सोचकर अपने लैंड-लाइन से कोई नंबर घुमाने लगे. वे कोशिश करते कि लोगों से अब लैंड-लाइन पर ही बात करें. जब पूरी दुनिया स्मार्टफोन की दीवानी हो रही थी, तब वे बी.एस.एन.एल के ऑफिस से झगड़ कर इसे ले आये थे.

वे इधर पहले से बहुत बदल गए थे और चाहने लगे थे कि लोग उनके बदलाव की नोटिस लें. पर नयेपन के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे गुण के रूप में जो उनमें पहले से मौजूद तो था पर लोग ही नोटिस नहीं ले रहे थे. लापरवाही लोगों की थी, उनकी नहीं. इसीलिए अब उन्होंने ख़ुद को नोटिस कराते रहने के उपक्रम को अपनी दिनचर्या में गुपचुप मिला लिया था. इससे उनका जीवन शहर के सामने अब ज्यादा प्रत्यक्ष हो चला था.

वे अक्सर अपने बरामदे में अखबार पढ़ते तो अखबारी सूचनाओं पर बुलंद आवाज में टिप्पणी करते ताकि यह बात पड़ोसी और पूरे मोहल्ले को पता चल जाए कि मास्टर साहब अख़बार पढ़ रहे हैं. इसके ठीक उलट जब वे किसी पड़ोसी से प्रत्यक्ष बतियाते तो उनकी आवाज बेहद धीमी हो जाती. कभी-कभी वे इतना धीमे बतियाते कि सामने वाला चिढ़ जाता,

"अरे गोगिया साहब क्या फुसफुसा रहे हैं? बिलकुल सुनाई नहीं दे रहा है! थोड़ा साफ़ और ऊँचा बोलिए."

ऐसे में गोगिया जी बहुत नाप कर आवाज को थोड़ा ज्यादा  स्पष्ट और ऊँचा करते. पर उनका ध्यान अब हमेशा इस बात पर रहता कि जब वे मैन टू मैन बात करें तो कोई तीसरा किसी भी हाल में ना सुन पाए. बदलाव तो यह भी आया कि उन्होंने अजनबियों को टोकना और बात करना अब एकदम ही छोड़ दिया था.
       
छोटा शहर है, इसलिए वे अब हर जगह पाए जाते हैं. उनका हर प्रत्यक्ष शहर के चौराहे पर दर्ज होने लगा है. वे राह चलते, बतियाते या नुक्कड़ पर चाय पीते तो समय, स्थान और तारीख को लेकर चौकन्ने रहते और कोशिश करते कि सामने वाले के मन पर यह बात ठोस ढंग से दर्ज हो जाए कि जब वे सामनेवाले से बात कर रहे हैं तो वह तारीख कौन-सी है और घड़ी की सुई ठीक-ठीक कहाँ पर है. यह आदत अब इतनी सघन हो चुकी थी कि दुआ-सलाम करते हुए आगे बढ़ रहे जाने-पहचाने लोगों से वे घड़ी की सुई और कैलेंडर की तारीख़ की शक्ल में  बात करते; मगर फुसफुसाकर –

"भई भार्गव साहब!! अब ये देखिए कि आज अट्ठारह सितम्बर है और चार बज गए और मैं अभी तक पत्नी के लिए फल लेकर घर नहीं पहुँचा, बेचारी ने  व्रत रखा है उन्नीस को. एकादशी जो है. लाख मना करने पर भी नहीं मानती."

सामने वाला थोड़ा अचरज में पड़ता, फिर मुसकुराकर जवाब देता,

"अरे तो रोकते ही क्यों हैं मास्टर जी आप? अब देर मत कीजिये, चार बज गए हैं, झटपट घर निकलिए!"

ऐसा सुनने के बाद वे कुछ सुकून पाते, 'चलो एक ठोस काम तो हुआ.'     

जब उन्हें कोई नहीं मिलता तो वे ख़ुद को दर्ज करने के लिए रेलवे स्टेशन हो आते. रेलवे स्टेशन के पूछताछ गृह में बैठा कर्मचारी उनसे धीरे-धीरे चिढ़ने लगा था शायद. गोगिया जी अब दिन में तीन-तीन चार-चार दफ़ा आने लगे थे और अलग अलग रेलों की टाइमिंग का पता करके चलते बनते. उस कर्मचारी ने आज तक गोगिया साहब को कोई ट्रेन पकड़ते नहीं देखा. उसने नोटिस किया कि जब भी गोगिया साहब उसके केबिन के सामने आते तो उनकी कोशिश रहती है कि सी.सी.टी.वी में उनका चेहरा सशरीर दर्ज हो जाए. कर्मचारी उनको नज़रअंदाज़ करने की भूल भी नहीं कर सकता था. गोगिया जी इधर इस बात से ज्यादा ख़ुश रहने लगे हैं कि क्राईम के ग्राफ़ को कम करने के लिए शहर के हर चौराहे पर सी.सी.टी.वी लगाने की सरकारी घोषणा हो चुकी है. अब शहर के लिए ज्यादा प्रत्यक्ष रहा जा सकता है. प्रामाणिक प्रत्यक्ष!

वैसे गोगिया साहब कोई सनकी आदमी नहीं हैं. वे साइंस के विद्यार्थी रहे थे और स्वभाव से विद्रोही. तर्क की कसौटी पर हर चीज को परखते. पिता संस्कृत के आचार्य थे और माँ प्यारी-सी गृहणी थीं. गोगिया जी अपने जन्मदाताओं को बाबा और अम्मा कहकर पुकारते थे. अम्मा एकादशी के व्रत के दौरान मर गईं तो बालक गोगिया धर्म-द्रोही हो गए. उनका मानना  था कि उपवास और व्रत की आदत ने, जो कि धर्म के खौफ़ से किया जाने वाला तथाकथित पुण्य-कर्म था, उसी ने माँ की हत्या की. अम्मा मरी नहीं थी बल्कि हत्या हुई थी. एक धीमी धार्मिक हत्या. गोगिया प्रतिक्रिया में रसायन-शास्त्र के विद्यार्थी हो गए. पर पिता वेद-पुराण और उपनिषद् से ताउम्र बाहर नहीं आए. उसी को पढ़ते-पढ़ाते और अपनी दिवंगत अर्धांगिनी के लिए संस्कृत में गीत लिखते हुए बाबा ने अपना बाक़ी का सारा जीवन बिता दिया. परिवार मुफ़लिसी की रेखा के ऊपर-नीचे डोलता चलता रहा. जब भी किसी त्यौहार में अखंड ग़रीबी दस्तक देती तो पिता विचलित होने की जगह मुसकुराकर कहते,

त्याग के साथ भोग करना चाहिए! समझे, चीकू?”
चीकू बालक गोगिया के  पुकार का नाम था.

तमाम असहमतियों के बावजूद अनजाने ही बाबा की कई आदतें उनमें घर कर गई थीं. चीकू हेड-मास्टर होकर रिटायर हुए थे और उनकी दो संततियां बैंगलोर और भोपाल में बेहतरीन जीवन जी रही थीं. पर वे ख़ुद शहर का पैतृक घर छोड़कर कहीं नहीं गए. उनका परिवार तीन पीढ़ियों से इसी शहर में रह रहा था. वे भी यही मरेंगे, अम्मा-बाबा के पास. गोगिया जी ने घर को चालीस साल से वैसा ही रखा है जैसा बाबा देह छोड़ते हुए छोड़ गए थे. उन्हें लगता रहा कि परेशानी के समय में इस घर में-- अम्मा-बाबा को फिर से देखने के लिए जब भी वे मचल उठते हैं तो दो जोड़ी अदृश्य आँखें उनको झाँक कर सहारा देती हैं.

उस घटना के बाद तो उन्हें बार-बार अम्मा-बाबा की याद आने लगी थी. वे कई बार अपने बेडरूम से रसोई की ओर झाँकते तो लगता कि माँ उधर से झाँक कर बुला रही है,
"रे चीकू... रोटियाँ तैयार हैं...चल खा ले बेटे."

वे हड़बड़ी में उठकर रसोई की ओर भागते, पर वहाँ कोई न होता. उनकी आँखों में पानी उतर आता. कोई देखेगा तो क्या कहेगा कि एक रिटायर बुड्ढा अपनी माँ को याद करके रो रहा है? वे झट आंसू पोंछ लेते. एक दिन तो हद ही हो गई. झुलसा देने वाली जेठ की दुपहरी में अचानक बाबा ने छत से आवाज दी,

"अरे चीकू!! मेरी किताबों पर इतनी धूल कैसे?"

वे जानते थे कि वे दौड़कर छत के कमरे में जायेंगे और वहां बाबा नहीं होंगे. फिर भी उस रोज वे छत पर गए और धीरे से बाबा के बंद कमरे को खोलकर किताबों से धूल निकालने लगे. बाबा की नोटबुक झाड़ते हुए उन्होंने उसे उलटा-पलटा. कहीं-कहीं सुन्दर अक्षरों में कुछ-कुछ लिखा हुआ था. नोटबुक के ऊपर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था,

"उस समय न सत् था न असत् था, न अंतरिक्ष न उसके परे व्योम. तब न मृत्यु थी और न अमरता मौजूद थी, रात और दिन में वहाँ भेद न था."

बकवास! उन्होंने नोटबुक बंद की, अलमीरा में उसे विन्यस्त किया  और ताला मारकर नीचे उतर आए.

गोगिया जी को पूरा जानने के बाद यह मानना थोड़ा मुश्किल होगा कि जगत-जीवन और दर्शन के बीच कोई गहरा और ऐसा परस्पर संबंध होता है जिसके असंतुलन से सब कुछ नष्ट हो जाता है. जीवन क्या है और जगत कैसे है और दर्शन क्या होता है, यह न तो गोगिया जी जानते थे और न ही उनकी पत्नी. गोगिया जी की पत्नी बस इतना जानती हैं कि उस घटना के बाद गोगिया जी बहुत बदल गए हैं. जबकि हाल-फ़िलहाल तक वे शरारती थे और रिटायरमेंट के समय तक रोमांटिक आदमी रहे. तब वे अक्सर कहते,

"देखो बिन्दू जी, तुम चाहे मुझसे छुटकारा पाने के लिए जितनी मर्जी पूजा कर लो, पर मेरे जैसा पति अगले छह जन्मों में नहीं मिलेगा."

फिर फुक्के मार कर हँसते. गोगिया जी जब हँसते तब उनकी कंचे जैसी नीली गोल आँखे मुंद जातीं. यही नहीं, जब वे ठट्ठा मारकर हँसने की जगह भीतर ही भीतर हँसते तो उनकी तोंद हरकत करती और दोनों लाल गाल ऐसे फूल जाते मानो किसी बच्चे ने अपने दोनों गालों के भीतर टॉफियाँ ठूँस ली हों. बिन्दू जी प्यार से उन्हें लाफ़िंग बुड्ढा कहकर अपना माथा ठोक लेतीं.

वैसे भी जीवन को पटरी पर लाने के लिए इस दम्पति ने मामूली संघर्ष नहीं किए थे. बिन्दू जी की निगाह में गोगिया जी का सारा संघर्ष  किसी सिकंदर से कम न था. विरासत में इस घर के अलावा मिला ही क्या था. जीवन में पसरी इंच-इंच की गरीबी को बड़े साहस और धीरज के साथ मुक्त कराया था. ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई पूरी की और शहर के सबसे कम उम्र के मास्टर बने. वे अपने बूढ़े बाबा के इलाज में आधी तनख्वाह ख़ुशी-ख़ुशी झोंकते. बदले में बाबा फुसफुसाते, "चरैवेति...चरैवेति.. चरैवेति."

पता नहीं क्यों उन्हें इससे जोश मिलता. बाक़ी के खर्चे की भरपाई वे साईकिल से ट्यूशन पढ़ाकर पूरी करते. सुबह से साँझ तक इसी चक्कर में पूरा शहर नाप देते. सदियाँ गुजार दीं उन्होंने ट्यूशन पढ़ाकर. इससे मुफ़लिसी कुछ कम हुई. बाबा एक भरापूरा परिवार देख कर मरे थे. जब छोटे गोगिया के  ख़ुद के बच्चे योग्य हुए तो उन्होंने उनका ट्यूशन छुड़वा दिया. अब गोगिया जी नौकरी और ट्यूशन दोनों से रिटायर्ड होकर एकदम फ़ुर्सत में थे. अपने पिता की तरह सुबह चार बजे उठकर पार्क चले जाते और फिर दिन भर सुबह की ताज़ा हवा की तरह सनसनाते फिरते.

पर यह उस घटना से पहले की बात है. अब पार्क से लौटते तो अपने पिता की तरह प्रसन्नचित्त नहीं बल्कि थके हुए, पसीने से लथपथ और बेहद उदास. बिन्दू जी अपनी डबडबाई आँखों से उन्हें  गुनगुना पानी देतीं और रसोई में चुपचाप लौट भी जातीं.

गोगिया जी के पास से एक-एक करके सब लौट रहे हैं. बिंदू जी रसोई में लौटतीं, संततियाँ ढाँढस देकर भोपाल और बैंगलोर लौटतीं, और अम्मा-बाबा आँख खुलते ही स्मृतियों के बहुत पीछे लौट जाते. अब बचते केवल गोगिया साहब. निपट अकेले. कहाँ जाएँ, क्या करें? वे आने वाली तारीख का इंतजार करें या जो बीते दिनों में घटा था वहाँ लौट जाएँ? वे पीछे लौटना चाहते हैं पर लौट नहीं सकते. काश कि वे लौट पाते! अगर लौटते तो सबसे पहले अपनी निश्छल हँसी ले आते. हँसते तो वे अब भी थे, ठट्ठा मारकर पर उन्हें लगता कि यह हँसी प्रमाणिक नहीं. हँसी ही क्या, वह हर चीज जो दर्ज नहीं की जा सकती, जो दिखाया-सुनाया और समझाया नहीं जा सकता,  वह प्रमाणिक नहीं. प्रमाणिक माने दर्ज की जाने वाली चीजें.

दोपहर को लैंड-लाइन फोन की घंटी बजी तो वे कुछ मुस्कुराए. उनको शायद इसी फोन का इंतजार था. डिलेवरी बॉय कब से दरवाज़ा पीट रहा था, पर किसी ने नहीं खोला. जब उसने फोन किया और झल्लाकर कर कहा कि 'मैं हूँ'तो गोगिया जी उसे पहचान गए. वे इसीलिए मुसकुराए थे. उस लड़के ने अंदर आते ही पूछा, "कहाँ कहाँ फिट करना है?"इधर वे पूरा नक़्शा बनाकर बैठे थे. उन्होंने नक़्शा दिखाया तो लड़के को सारा कुछ समझ में आ गया.

कुल सात फिट करने थे, सात जगहों पर. दो तो छत पर फिट होंगे ताकि छत पर सीढ़ियों से चढ़ते और बाबा के कमरे में जाते हुए सब कुछ कवर हो जाए. तुलसी का वह संगमरी चौरा भी जो छत की पूर्वोत्तर दिशा में था और लाख समझाने पर भी पुजारिन हो चुकी बिन्दू जी जिस पर जल चढ़ाती थीं-- सुबह आठ बजे. पहले अम्मा यहाँ जल चढ़ाती थीं, एकदम उसी समय जब सूरज असमान को अपनी पहली चाप से सिंदूरी करता था. खैर, बाकी के दो उन्होंने दरवाजे के बाहर फिट करवा दिए. एक को कुछ इस तरह फिट करवाया कि गली का मुहाना दिख जाए और आते-जाते सब पता चले. एक को उन्होंने बरामदे में फिट करवाया. कुछ इस तरह से कि गेस्ट रूम भी कवर हो जाए. जब छठा आँगन में फिट होने लगा तो बिन्दू जी ने आपत्ति दर्ज की, "अब यहाँ इसकी क्या ज़रूरत है?"

गोगिया साहब ने उन्हें कटी नज़रों से देखा और लड़के को नक़्शे के हिसाब से फिट करने का निर्देश दिया. बिन्दू जी ने तब मिन्नत की, पर सख्ती से, "अब बाथरूम को तो बख्श दें मास्टर साहब!"लड़के ने छठे की फिटिंग के दौरान उसे थोड़ा झुका दिया. आँगन पूरा कवर हो रहा था पर बाथरूम नहीं. फिर लड़के ने पूछा, "सातवें के लिए तो नक़्शे में कुछ है ही नहीं जी. इसका क्या करूँ?"बिन्दू जी का मन हुआ कि चीख़ कर कहें, "इसे इस बूढ़े गोगिया के माथे के भीतर फिट करता जा. पता तो चले कि इनके दिमाग में क्या चल रहा है?"पर कुछ कह न सकीं.

गोगिया साहब ने ही जवाब दिया, "इसे फिलहाल मेरे पास रहने दो. सोचकर बताऊँगा कि कहाँ फिट करना है."

फिटिंग में पूरा दिन निकल गया. उसे स्क्रीन पर सेट करने और कवरेज के साथ कदमताल मिलाने में साँझ हो गई. आठ बजे गया वह लड़का. गोगिया साहब कुछ संतुष्ट-से दिखे. आज उनमें कोई ख़ास विचलन न था. खाना खाकर एक बार स्क्रीन का मुआयना किया और सब कुछ दुरुस्त पाकर पहले बरामदे में गए
, फिर सीढ़ियों से होते हुए छत पर. नीचे उतर कर गुसलखाने में झाँका और फिर स्क्रीन के सामने खड़े हो गए. लड़के ने जैसे हैंडल करने को कहा था, उन्होंने वही किया. रिवाइंड का बटन दबाया तो उनकी पिछले एक मिनट की सारी गतिविधि फिर से दिखी. वे ख़ुश हुए, "हाँ !दर्ज हो रहा है.'फिर उन्होंने उसे घड़ी की सुई से मिलाकर वर्तमान में छोड़ दिया. स्क्रीन पर अब का सारा दिख रहा था. उन्होंने  देखा कि गली के मुहाने से एक बाइक आई. उसे एक नौजवान चला रहा था. नौजवान ने हेलमेट पहन रखी थी. बाइक बेआवाज रुकी तो उसकी पिछली सीट से चमोली साहब की बेटी उतरी. वह  हौले से और बेआवाज अपने घर में गुम हो गई. घर घुसने से पहले उसने नौजवान को फ्लाइंग किस दिया.

"ओ! आई सी! ओ! तो  चमोली-पुत्री आजकल बॉय-फ्रेंड के साथ व्यस्त है. खैर! मुझे क्या?"वे चैन की नींद सोने चले गए .

बिस्तर पर लेटते हुए वे थोड़े मुसकुराए. कमाल की चीजें आ गई हैं दुनिया में. सबकुछ दर्ज हो जाता है. पर नहीं! यह भी कोई कमाल है? कमाल तो तब हो जब पिछली हरकतों के साथ-साथ भविष्य में होने वाली हर हरकत भी दिख जाए. ऐसी कोई चीज बने तो मजा आ जाए. पता नहीं क्यों, जब भी भविष्य शब्द से उनका सामना होता है तो वे अपने परदादा के बारे में सोचने लगते हैं. अम्मा कहती थीं कि परदादा सात जन्म आगे और सात जन्म पीछे देख सकते थे. उनमें कोई दिव्य-शक्ति थी. आज अगर वे जिन्दा होते या किसी दिव्य-शक्ति से वे ख़ुद अपने परदादा के पास जा सकते तो जाकर पूछते कि बताओ ना दादा, मेरा भविष्य क्या है? यदि पाप जैसी कोई चीज होती है तो मैंने पिछले जन्म में ऐसा कौन-सा पाप किया है कि मुझे यह सजा मिल रही है? मेरा अपराध क्या था दादा, मुझे बताओ ना. मैं कैसे सिद्ध करूँ कि मैं निर्दोष हूँ? पूरी ज़िंदगी स्कूल और ट्यूशन में बच्चों के बीच गुजार दी मैंने. ना किसी के सामने गिड़गिड़ाया, ना किसी का धेला चुराया. पूरी ज़िंदगी घिसटता रहा, तब जाकर बुढ़ापे में मुफ़लिसी ख़त्म हुई. फिर भी ईमानदारी को कभी छाती पर ढोलक की तरह रख कर नहीं बजाया. अपनी सादगी का कभी प्रचार नहीं किया. तब भी... तब भी... यह सब हो क्यों रहा है, क्यों? आख़िर मेरे ही साथ क्यों? बता सकते हो तो बता दो, प्यारे दादा.

पर गोगिया जी जानते थे कि उन्हें ख़ुद इन काल्पनिक बातों में भरोसा नहीं. ऐसी बेसिर-पैर की बातें विज्ञान की समझ की अनुपस्थिति का नतीजा है. हालाँकि इधर वे महसूस करने लगे थे कि इन फ़ालतू की कथा-कल्पनाओं में एक ज़बरदस्त आकर्षण है. वे भले ही विज्ञान के सारे नियमों को ताख पर रख कर बुनी जाती हैं, पर किसी और अनजाने नियम से हमें गिरफ़्त में तो ले ही लेती हैं! गोगिया साहब को अब नींद ने घेर लिया. फिर उन्हें लगा कि वे सुबह थोड़ी जल्दी उठकर पार्क चले गए हैं. पार्क लगभग ख़ाली है और ठीक वहाँ जहाँ बीच में घास का वृताकार मैदान है, वह आज कुछ अजीब-सा दिख रहा है. कुछ उठा हुआ और घूमता हुआ. उन्होंने सोचा कि शायद नींद पूरी नहीं हुई है, इसलिए ऐसा आभास हो रहा है. रोज की तरह उन्होंने अपने हाथ-पाँव खींचे और उस मैदान पर तेज-तेज चलना शुरू किया. वृताकार चलते-चलते उनकी पुरानी शरारती-वृत्ति ने यकायक करंट दिया तो वे सोचने लगे जिस तरह उस स्क्रीन पर पिछला सारा दर्ज होता है, उसी तरह यदि कोई ऐसी चीज हाथ लगे कि मैं उल्टे पैर चलूँ और उल्टे चलते-चलते पिछली दिनों की सारी हरकतें और घटनाएँ प्रत्यक्ष हो जाएँ,  तो कैसा रहेगा ? तब तो सब कुछ दुरुस्त कर सकता हूँ.




(दो)
पार्क में अब भी कोई था नहीं. शरारतन उन्होंने उल्टे पैर चलना शुरू किया. करीब पाँच  मिनट चलने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उनके जैसा ही कोई उनकी बगल से गुजरा है. वह आगे की ओर सीधे पैर चल रहा है जबकि वे ख़ुद उल्टे पैर. वृत्त पर चलते हुए उन दोनों ने एक बार फिर एक दूसरे को एक बिंदु पर काटा और  दोनों फिर दूर हो गए. गोगिया जी ने पक्का माना लिया कि यह भ्रम है कि उनके जैसा ही कोई है वह. वे उसी तरह शांत भाव से उल्टे पैर चलने लगे. उन्हें मजा आने लगा था. उल्टे पैर चलते हुए उन्होंने मैदान का एक वृत्त पूरा किया तो पाया कि हूबहू उनके जैसा वह आदमी ठीक उन्हीं की तरह व्यायाम कर रहा है. वे उसके पास पहुँचे तो पाया कि ये तो वे ख़ुद ही हैं जो ठीक दस मिनट पहले दाख़िल हुए थे इस पार्क में. यह तो हद ही हो गई. एक ही पार्क में दो-दो गोगिया थे. दोनों में दस मिनट का अंतर था बस. उन्होंने उसे टोका, "कौन?"पर दूसरे ने कोई जवाब नहीं दिया. 

उन्होंने दो-तीन बार पूछा, पर कोई उत्तर न आया. तो क्या उल्टे पैर चलने से पिछले समय में पहुँच  गए हैं वे?  यह सोचते हुए वे फिर उलटे पैर तेज-तेज चलने लगे. वह आदमी छूटता चला गया. वे लगातार महसूस कर रहे थे कि पृथ्वी की घूर्णन की दिशा एकदम पलट गई है. उनकी चाल और तेज हो गई. अब पार्क में भीड़ घट-बढ़ रही थी, लोग आ-जा रहे थे पर कोई उन्हें नोटिस नहीं कर रहा था. वे लगातार बीते समयों में गोते लगा रहे थे. थोड़ी देर में वे समझ गए कि वे पिछली दुनिया में दाख़िल हो चुके हैं जहाँ वे सबको देख सकते हैं, पर उन्हें कोई नहीं देख रहा है शायद. उन्होंने सबसे पहले अपनी घड़ी देखी. अरे!! पंद्रह मई बता रही है ये तो? क्या घड़ी भी पीछे की ओर चल रही है. उन्होंने घड़ी को ध्यान से देखा तो उसकी सुई सच में पीछे की ओर भाग रही थी. उन्होंने टाइमिंग सेट करनी चाही जब वे पार्क में घुसे थे- नौ अक्टूबर, सुबह चार बजकर सत्रह मिनट. पर घड़ी की सुइयां झर्र करती हुई उलटी दिशा में घूम जातीं और पंद्रह मई, सुबह छः बजकर पैंतीस मिनट बताने लगतीं.

गोगिया जी समझ गए कि घड़ी उन्हें उसी पुराने समय में आ चुकने का संकेत दे रही है जिस दिन वह वारदात हुई थी. मतलब वे अब सच में साढ़े तीन महीने पीछे की दुनिया में दाख़िल हो चुके हैं. उनका कलेजा धक् कर गया. कुछ देर ठहर कर उन्होंने मन ही मन सोचा, "क्या करें वे इस समय का अब?"फिर उन्हें लगा कि उनको चुपचाप विगत समय के घटनाक्रमों को ठीक से देखने और दुरुस्त करने का अवसर मिल गया है.


वे घुसपैठिये की तरह तत्काल अपने घर की ओर लपके. वही दुनिया वही घर. बस, मौसम गर्मी का था--बहुत उमस थी. उन्होंने पाया कि उनके घर पर साढ़े तीन महीने पहले वाला और उन्हीं के जैसा गोलमटोल टकले सर वाला हंसमुख गोगिया बड़े मजे से बरामदे में दातुन कर रहा है. यह सब देखते ही घुसपैठिये गोगिया सब समझ गए-  
"हाँ, यह वही समय है--वारदात वाली सुबह का समय." 

यह वही क्षण था जब घुसपैठिया गोगिया हंसमुख गोगिया को सावधान कर सकते थे. गोगिया जी ने दम साधकर उस हंसमुख गोगिया को सावधान किया, “सुनो... अरे सुनो तो... अभी चंद मिनटों में दो लड़के आएंगे बाइक से. वे शर्मा जी के बारे में पूछेंगे. उनके घर का पता भी. प्लीज, कुछ भी ना कहना. बिलकुल भी बात नहीं करनी है उनसे. समझ गए न?” पर हंसमुख गोगिया गंभीर और घुसपैठिये  गोगिया को नोटिस करे तब न? हंसमुख गंभीर को ऐसे ख़ारिज कर रहा था जैसे गंभीर का कोई अस्तित्व ही ना हो. हँसमुख दातुन करते हुए उठा और ज़ोर से गली में थूक दिया, "आक् थू."थूक दूर तक गई तो हँसमुख ख़ुश होकर सोचने लगा, "अभी भी दम है मुझमें...रिटायर होने के बाद भी वहाँ तक थूक सकता हूँ जहाँ तक जवानी में थूकता था... हाँ, दम है."इधर गंभीर गोगिया हंसमुख गोगिया की हरकत और सोच को देख-समझ रहा था. उसका पारा चढ़ता गया. वह बिफ़र गया, "अबे!! सुन क्यों नहीं रहा है तू ? दो लौंडे आएंगे और तेरा सारा थूकना पिछवाड़े में चला जाएगा. मैं कह रहा हूँ कि वे शर्मा जी के बारे में पूछेंगे, पर कुछ कहना नहीं है. समझा?"

तभी दो लड़के बाइक से गली में दाख़िल हुए. उन्होंने बाइक रोकी और इधर-उधर देख कर हंसमुख गोगिया की ओर लपके, "अंकल जी, नमस्ते!” उन्होंने बड़े ही संस्कारी भाव से नमस्कार किया हंसमुख गोगिया को. इधर घुसपैठिया गोगिया छटपटाने लगा. हंसमुख ने लड़कों से हँसकर पूछा, "कौन हो भई तुमलोग? मोहल्ले के तो नहीं लगते? पर कहे देता हूँ, अगर मेरे पुराने छात्र हो तो दूधवाला अभी दूध नहीं दे गया है तो चाय नहीं पिला पाऊँगा."कहकर हंसमुख ज़ोर से हँसा. दोनों लड़के भी हँसने लगे. एक लड़के ने जवाब दिया, "अरे नहीं अंकल जी, हम आपके छात्र नहीं हैं और हम चाय नहीं बल्कि शर्मा जी को ढूँढ रहे हैं."हंसमुख व्यंग्य में हँसा, "अबे कौन शर्मा? मास्टर दीन दयाल शर्मा या इंजीनियर सी पी शर्मा?"घुसपैठिये गोगिया का हलक सूखने लगा था. लड़कों ने एक साथ कहा, "इंजीनियर साहब."घुसपैठिये से रहा नहीं गया, वह चीखने लगा, "अबे गोगिया,अबे ओ... मत बता शर्मा के बारे में... मत बता साले... ये लड़के नहीं, हत्यारे हैं."पर हंसमुख गोगिया ने लड़कों को बताया, "वे तो अभी घर पर नहीं होंगे."लड़कों ने पूछा, "कहीं गए हैं अंकल जी वे ?"हंसमुख गोगिया का मन हुआ कि कह दे कि वह साला घुसखोर शर्मा खा-खाकर सांड हो गया है और कालेधन ने उसका स्तन इतना बढ़ा दिया है कि उसके लटके हुए स्तन से चीनी चूने लगा है अब. उसको शुगर हो गया है और वह नए लौंडों के  साथ आजकल ज़िम करने लगा है. पर हंसमुख गोगिया मास्टर ठहरे, बोले, "शायद ज़िम गए हों... आजकल शरीर पर ध्यान देने लगे हैं." 

ऐसा कहते हुए हंसमुख के भीतर यह विचार कौंधा कि शर्मा आत्मा का नाश तो कर ही चुका है, बस, शरीर बचा ले, इसी जुगत में लगा हुआ है आजकल. पर लड़कों ने हंसमुख के  विचार में ख़लल डाला, "अरे अंकल जी, हम ज़िम से ही आ रहे हैं... वहाँ तो नहीं हैं."इधर घुसपैठिया गोगिया आपे से बाहर हो गया, "अबे, गोगिया के बच्चे... सुनता नहीं क्या? मत बता... मत बता... तू फँसेगा, साले."घुसपैठिया इस बार इतनी तेजी से चीखा कि उसका गला रुंध गया. उसने तुरत हंसमुख के पास रखे मग्गे से पानी पिया. उसे लगा कि उसने पानी ना पिया होता तो मर ही जाता. उधर हँसमुख गोगिया ने गंभीर गोगिया के लाख मन करने के बावजूद कुछ सोच कर लड़कों से कहा, "ऐसा है...कि...तब शर्मा जी ज़रूर नए वाले पार्क में गए होंगे. आरामबाग़ में नगर-निगम ने अभी-अभी बनवाया है...एक छोटा-सा ज़िम भी दे दिया है...वहाँ तो पक्के ही मिलेंगे."दोनों लड़के मुसकुराए और एक-एक करके उनके पैर छू लिए. इधर घुसपैठिया गोगिया बदहवास हो चुका था, "अरे रे!! ये क्या कर दिया गोगिया तूने...हे भगवन...ओ मेरे मालिक...फँसा तू साले अब...मुझे भी ले डूबा."

हंसमुख गोगिया इधर लड़कों को तौलने लगा, "अरे भई...सुबह-सुबह शर्मा जी से क्या काम आन पड़ा?"एक ने उत्तर दिया, "अंकल जी, इंजीनियरिंग की परीक्षा देने जा रहे हैं हम लोग. सोचा कि कुछ टिप्स ले लें उनसे."हंसमुख गोगिया को गुस्सा आ गया, पर कुछ बोला नहीं. लड़के चले गए तो हंसमुख गोगिया ने फिर वैसे ही थूका और सोचना ज़ारी रखा -- शर्मा साला क्या टिप्स देगा बे बेवकूफ़ो ? उसके बाप ने झोला भरकर नोट फेंका था तब यह इंजीनियर बना. साला मुझसे पाँच साल जूनियर था स्कूल में. मैं उसे ट्यूशन देता था. क्या मैं ही नहीं जानता उस गोबर-बुद्धि को!! क्या जमाना आ गया है...साले चोर-उचक्के और घुसखोर टिप्स दे रहे हैं...यहाँ इस मास्टर के पास आते तो सारे फ़ॉर्मूले देखते-देखते रटवा देता...पता नहीं कितने इंजीनियर-डाक्टर पैदा कर दिए हैं इस गोगिया ने...पर नहीं वह सिविल-इंजीनियर ही टिप्स देगा...हंह! घुसपैठिया गोगिया के लाख मन करने के बावजूद हंसमुख गोगिया उन हत्यारों को सब कुछ सटीक बता चुका था. पता नहीं, वह लात लगी कि नहीं, पर घुसपैठिये गोगिया ने हंसमुख गोगिया को एक लात जमाई और आरामबाग के पार्क की ओर बदहवास भागने लगा. शार्टकट लेकर .

आरामबाग पार्क के किनारे खुले असमान के नीचे छोटा-सा जिम था जिसमें शर्मा पैडलिंग कर रहा था. घुसपैठिये ने आते ही उसे झकझोरा, "शर्मा भाग...भाग शर्मा."शर्मा की पैडलिंग कुछ धीमी हुई तो घुसपैठिया फिर चीखा, "वे इधर ही आ रहे हैं...भाग...भाग जा शर्मा. जल्दी भाग."शर्मा ने जब पैडलिंग करनी छोड़ी तो घुसपैठिये को लगा कि बात बन गई. शर्मा जिम से निकल कर हरी घास पर भूरी भैंस की तरह लोटने लगा. फिर वह शव-आसन की मुद्रा में लेट कर धीरे-धीरे साँस अन्दर-बाहर करने लगा. घुसपैठिये के होश उड़ गए. रोनी सूरत बना कर वह कभी मिन्नतें करता तो कभी शर्मा पर लात जमाता. पर शर्मा ने गोगिया की न तब सुनी थी, न आज सुन रहा था. गोगिया साहब बिलख कर रोने लगे, "देख भाई...मैं हाथ जोड़ रहा हूँ...तेरे पैर पड़ रहा हूँ, भाग यहाँ से जल्दी. पूरी ज़िंदगी तुझसे जलता रहा...पूरी ज़िंदगी...पर तेरी हत्या होते हुए नहीं देख सकता, शर्मा...भाग जा, मेरे भाई."उधर हत्यारे आ धमके. शवासन की मुद्रा धरे शर्मा जी की आँखें बंद थीं. हत्यारे बिलकुल पास आ गए तो घुसपैठिये ने  हरकत की. वह हत्यारों और शर्मा के बीच में आकर  हिचकियाँ लेने लगा, "नहीं नहीं, मेरे बच्चो...नहीं नहीं. मत मारो, ठहर जाओ."हत्यारों ने अपनी अपनी पिस्टलें निकालीं तो गोगिया जी रो पड़े, "नहीं नहीं...देखो इसके बेटे की शादी है अगले महीने...रहम करो भाई...नहीं नहीं."पर पूरे पार्क में ताबड़तोड़ फ़ायरिंग की आवाज गूँज गई. शर्मा जी की देह हरी घास पर खून से सन गई. घुसपैठिया सिर धुनता हुआ वही बैठ गया, "अब नहीं बचूँगा मैं...फँस गया...बिलकुल फँस गया, बुरी तरह."

थोड़ी देर में अपनी साँसे  सँभालते हुए घुसपैठिया उठा. उसे याद आया कि उन हत्यारों से जब हंसमुख गोगिया बात कर रहा था, तब किसी ने उन तीनों को बतियाते नहीं देखा था. इससे पहले कि हंसमुख आदतन पाँच लोगों को कहे कि शर्मा जी को ढूंढ़ने दो लड़के आये थे, उसे रोक देना होगा. वह पागलों की तरह हंसमुख के घर भागा. हंसमुख दातुन से निवृत होकर अपने बरामदे में चाय और पोहे उड़ा रहा था. यह उसकी रोज की आदत थी. आते-जाते राहगीरों को टोकता, बतियाता और जान-पहचान वालों को पोहा चखने के लिए आमंत्रित भी करता. तभी सक्सेना जी उधर से गुजरने लगे. वे इंजीनियर शर्मा के पक्के चेले थे और इतवार के इतवार उसके घर मयकशी करते थे. हंसमुख ने उन्हें भी टोका, "क्या महाराज...पोहा तो चखते जाओ!"सक्सेना ने मना किया तो हंसमुख बुरा मान गए, "अरे शर्मा की जी-हुजूरी में कुछ और खा लेना...यह शुद्ध पसीने की कमाई है."सक्सेना जी झेंप गए, इसलिए ठहर भी गए, "अरे मास्टर जी...आप भी...पर मैं शर्मा जी के यहाँ नहीं जा रहा हूँ."

"अच्छा? तो?"
"तो क्या? मान लें कि आपसे ही मिलने आया हूँ."सक्सेना जी ने सफाई दी.

तभी वहाँ  घुसपैठिया भी आ धमका. सक्सेना को वहाँ पाकर उसकी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं. उसे लगा वह छाती फोड़कर बाहर आ जाएंगी अभी. उधर हँसमुख ने पोहा देते  हुए सक्सेना से ठीक वही कहा जो उसे बिलकुल नहीं कहना चाहिए था, "अभी दो लौंडे आये थे...शर्मा को खोज रहे थे. पर ये बताओ सक्सेना, शर्मा क्या इतना जानता है कि इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए टिप्स दे सके?"सक्सेना जी हँस पड़े, "आप भी ना मास्टर साहब...."घुसपैठिया हंसमुख को लगातार रोकता रहा और  हंसमुख ने सुबह का सारा वृतांत सक्सेना को धीरे-धीरे बता डाला.

घुसपैठिया अब लगातार  हंसमुख पर लात और घूँसे बरसा रहा था, "अरे साले...अबे कुत्ते, तूने ये क्या किया? यही सक्सेना एक दिन गवाही देगा और हम दोनों फँस जाएंगे, हरामजादे."घुसपैठिया लगातार रो रहा था और लात-घूँसे जमा रहा था. छत से तुलसी-पूजन करके लौटी पत्नी ने देखा कि पलंग पर लेटे-लेटे गोगिया साहब के शरीर में अजीब-सी मरोड़ है और वे लगातार अपने पैर हवा में उछाल रहे हैं. सुबह चार बजे उठने वाले गोगिया आठ बजे तक सो रहे हैं. पत्नी ने तत्काल तुलसी-जल उनके ऊपर उछाल दिया. गोगिया साहब हड़बड़ाकर उठ गए. उनकी आँखें लाल थीं और कनपट्टी से पसीना चू रहा था. बिन्दू जी ने टोका, "जी तो ठीक है ना आपका...आज पार्क भी नहीं गए?"गोगिया जी अभी भी साबुत नहीं हुए थे. उन्होंने हड़बड़ाकर घड़ी देखी तो सच में आठ बज रहे थे. वे एक उछाल के साथ उठे और गेस्टरूम में कल ही लगे स्क्रीन के सामने खड़े हो गए. सारे कैमरे चालू थे. 'ओ! तो फिर वही सपना!'वे मन को शांत करते हुए बरामदे में बैठ गए. कुछ साबुत हुए तो अपने काल-बोध को पुनः दुरुस्त किया.    
                                          


(तीन)
समय लौटता है. हू-ब-हू. और बीतता तो कुछ भी नहीं है. परिस्थितियाँ भी एक जैसी ही आती रहती हैं और चुनौतियाँ भी. फैसला करने वाली. पर असली चीज है, आए हुए समय को अपनी रगों में घुला लेना. उससे ऐसे निपटना कि जब वह  दुबारा आए तो किसी हारे हुए पहलवान की तरह थोड़े संकोच से आए. जो अपने समय से जूझ लेता है, वही इतिहास की नाक में नकेल डाल कर इतिहास को ऊँट की तरह पीछे-पीछे घुमाता है.
       
यह सब उनकी जवानी के समय की डायरी में लिखा हुआ था. ग़रीबी से संघर्ष के समय की बातें. वे जब भी अपने बाबा से बहस करते तो ऐसी सैकड़ों पंक्तियाँ बहस के लिए अपनी डायरी में लिखकर तैयार रखते. ये पंक्तियाँ छोटे गोगिया की अपनी समझ का चेहरा थीं. हर तीसरे या चौथे दिन वे अपने बाबा से उलझ जाते. बाबा कहते शब्द तो गोगिया जी कर्म. बाबा से वे तब तक उलझते रहे जब तक बाबा बहुत बूढ़े और बीमार नहीं हुए. आज गोगिया जी उस डायरी को हाथ में लिए दिनभर घूमते रहे. उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था कि यह सब उनका लिखा हुआ है. इस उम्र में तो वे इस बात पर भी भरोसा नहीं करना चाहते कि वे बाबा से बहस करते थे. बिन्दू जी के आने के बाद तक, बल्कि पहली संतान के आने के बाद तक बाबा से बहस की. डायरी उनके हाथ में थी और बाबा उन्हें बार-बार याद आ रहे थे. एक दफा उनका मन रोने को भी हुआ, पर चूक गए .

पूरी जवानी उन पर जीवन-बोध हावी रहा. हावी तो तब तक रहा जब तक वह घटना ना घटी थी पर उसके बाद उन पर मृत्यु-बोध धीरे-धीरे हावी हो रहा था. क्या सच में? वे मरने से नहीं डरते. उनके बाबा ने उनको बहुत पहले मृत्यु से निर्भीक कर दिया था. बस वे चाहते हैं कि मौत से पहले निश्चिंत हो लें. कम से कम उस समय से जो हाथ में कालिख लिए उनका इंतजार कर रहा है. वे अपनी मान्यताओं के सामने उस समय को ध्वस्त होते देखना चाहते थे. वे पहले जैसा होकर मरना चाहते हैं. हँसते हुए और अभय मुद्रा में-- समाज के सामने पूरी धवलता के साथ. पर कैसे? यह चीज उन्हें शायद डरा जाती. हत्यारों का भी तो अब तक पता नहीं चला. अदालत के संज्ञान के बाद जब दूसरी बार इजलास में खड़े हुए थे, तब भी नहीं डरे थे मास्टर गोगिया. शर्मा जी का बेटा तो उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे खून पी जाएगा उनका. पर गोगिया खौफ़जदा नहीं हुए. बिलकुल भी नहीं. इधर अदालत को उनकी निर्दोषता का प्रमाण चाहिये था. पर हुआ उल्टा. गोगिया जी ने अपने बच्चों और वकील के लाख मना करने पर भी वारदात वाले  दिन का वृतांत अदालत को हु-ब-हू बता दिया. सरकारी वकील ने आरोप भी लगाया कि 


"पूरा मोहल्ला जानता है कि सी पी शर्मा से मास्टर गोगिया नफ़रत करते थे. इसलिए उन्होंने उन हत्यारों को ठीक वही लोकेशन बताई जहाँ शर्मा जी व्यायाम कर रहे थे." 

मास्टर गोगिया अदालत में ही टूट पड़े


"जी वकील साहब, आप कुछ-कुछ ठीक कह रहे हैं. मैं उनसे नफ़रत करता था. जलता था. कभी-कभी उन पर सरेआम फ़ब्तियाँ भी कसता था. कमअक्ल शर्मा जी एक घूसखोर व्यक्ति थे. वे अपने पिता के पैसे के दम से इंजीनियर बने थे. मैं सारा क़िस्सा जानता हूँ कि उन्होंने पैसे से पैसा किस तरह बनाया. पर यह जलन, यह नफ़रत उनकी हत्या की हद तक नहीं थी वकील साहब. जज साहब, मैं सच कह रहा हूँ, यकीन करें."

अदालत सन्न रह गई. यह सिद्ध करना अभी बाक़ी था कि मास्टर गोगिया गुनाहगार हैं या नहीं. बहुत संभव था कि बेनीफिट ऑफ़ डाउट मिल जाता अदालत से. पर अब तो संदेह गहरा दिया था गोगिया जी ने. सक्सेना की गवाही और मास्टर गोगिया की आत्म-स्वीकृति ने अदालत के सामने यह साफ़ कर दिया था कि जो हत्यारे भ्रमित थे शर्मा जी की लोकेशन को लेकर, उनको गोगिया जी ने ही सही-सही  पता बताया था. अदालत ने सुनवाई की अगली तारीख दी थी पर गोगिया जी के बेल की अर्जी ख़ारिज भी कर दी थी. तीन दिन जेल में रहे गोगिया जी. चौथे रोज बड़ा बेटा हाईकोर्ट से उनका बेल लेकर आया .

जेल में उन्हें कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई, पर उनकी खुशमिज़ाजी और बातूनीपन पर असर पड़ गया. वे पद-प्रतिष्ठा,जीवन-मरण, ख़ुशी-गम इन सब पर कुछ ज्यादा ही सोचने लगे. पूरा शहर सदमे में था. घर आते ही बिन्दू जी ने रोते हुए जानना चाहा कि लाख मना करने पर भी उन्होंने सब कुछ क्यों बता दिया अदालत को.

इसी सवाल का जवाब ढूँढते हुए गोगिया जी बदलना शुरू हुए .

जैसे इस सवाल ने उनके व्यक्तित्व में एक ठहराव पैदा कर दिया. घंटों चुप रहने के बाद उन्होंने बिन्दू जी को जवाब दिया "नफ़रत बहुत ज़रूरी चीज है बिन्दू. तुम शायद ही समझो!"उस दिन के बाद गोगिया जी गुमसुम रहने लगे. यह बदलाव किसी दार्शनिक दृष्टि की वजह से आया  या किसी ज़िद की वजह से, यह कोई नहीं जानता, पर यह तो तय था कि इसका वहन करना अब गोगिया जी के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा था. उनकी बढ़ती उम्र हर साँझ उनको थोड़ा-सा खुरच कर कम कर देती . वे इस नफ़रत का क्या करें अब?

फिर भी पार्क जाना उन्होंने बंद नहीं किया. बस वे अँधेरेवाली सुबह की जगह थोड़े उजालेवाली सुबह जाने लगे ताकि कुछ लोग तो हों ही वहाँ. वे उस वृताकार घास के मैदान पर टहलते ज़रूर, पर आड़े-तिरछे. पता नहीं क्यों? उन्हें दिन के उजाले में रात के सपनों पर सच में शर्मिंदगी होती थी कि कैसे वे बीते समय में जाकर सब कुछ दुरुस्त करने लगते. खासकर अपने रोने और झगड़ने पर तो वे सख्त नाराज थे, "आदमी को इतना भी कमज़ोर नहीं  होना चाहिए...मर जाओ पर गिड़गिड़ाओ मत."वे आज तक नहीं गिड़गिड़ाए थे. सपने में कैसे ऐसा कर रहे थे,  समझ में नहीं आ रहा था उन्हें. पर सपने थे कि अक्सर...!

पार्क से लौट कर आते तो पढ़ते. पढ़ते कम और सोचते ज्यादा. उनकी दिक्क़त यह थी कि बाबा के किताबों से वे बीस साल से ज्यादा समय तक बहस कर चुके थे, इसलिए उन्हें पढ़ते नहीं, और साइंस-मैथ्स की किताबें अब बोर करतीं. अखबार और पत्रिकाएँ  पलटते. कहानियों पर तो उन्हें हँसी ही आती. कहानियाँ अक्सर तर्कातीत और अति-भावुक होतीं. कुछ कविताएँ उन्हें अच्छी लगतीं. उसमें वे समझने और गुनने का स्पेस देखते. पर ये  सारी चीजें अपर्याप्त पड़ जातीं. एक अजीब-सी सोच उन्हें बेचैन करती. इस बेचैनी में वे टहलते. स्टेशन जाते. लोगों को लगता कि यह किसी डरे हुए आदमी की बेचैनी है. मोहल्ले ही नहीं बल्कि शहर की नज़रों तक में वे आज भी निर्दोष और धवल चरित्र के थे. लोग तरस भी खाते, पर कोई कुछ कहता नहीं.

एक दिन उनके मोहल्ले के मित्र श्रीवास्तव जी ने टोक ही दिया, "अरे भई गोगिया...क्यों बेचैन है? गीता पढ़."गोगिया तुनुकमिजाज हो चुके थे, खीजकर कर पूछा, "आखिर क्यों पढूँ?"मित्र उसी अबोधपने में बोला, "स्थितप्रज्ञ हो जाएगा."गोगिया बरस पड़े, "देख श्रीवास्तव...भालू को अपने बाल नहीं दिखाते...समझे? मैं डरा हुआ आदमी नहीं...संघर्ष ही मेरी कथा है."मित्र की तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. चीखने से गोगिया की भी साँस फूल गई, पर श्रीवास्तव के बहाने पूरे मोहल्ले को मैसेज  देना ज़रूरी था कि गोगिया किसी से नहीं डरता. जेल जाने और फाँसी चढ़ने से तो कतई नहीं. और हुआ भी वही. मित्र ने इस झिड़क को कीर्तन की तरह फैला दिया. अब मोहल्ले में कोई नहीं टोकता मास्टर गोगिया को. इसका परिणाम यह हुआ कि गोगिया और अकेले पड़ते गए. गोगिया इस चीज को महसूस कर रहे थे. उनको लगा कि ऐसे झगड़कर वे एक तरह का आत्मघात कर रहे हैं. फिर सोचते कि यह आत्मघात नहीं है, बाबा  कहते थे कि जो आत्मा का नाश या घात करता है वह आत्मघाती है. गोगिया ने कभी आत्मा को घात नहीं पहुँचाया. उसी को बचाने के लिए यह सारा उपक्रम है. आत्मघात तो शर्मा करता रहा उम्रभर.

पर यह बदलाव क्यों हो रहा है उनमें ? इस तरह से और इतना सख्त ! बहुत सहज और ख़ुशहाल होकर भी तो लड़ा जा सकता है. उसी सहज भाव से नफरत भी की जा सकती  है. गोगिया जी ने मन को फिर समझाया, 'नफ़रत ज़रूरी चीज है. बस, वह डर से बाहर निकल आये तभी'. पर मन? मन है कि पानी! मन ने उनका इतिहास-भूगोल गड़बड़ा दिया था.

जब उनके पास कुछ भी करने या सोचने को नहीं होता तो सी सी टी वी के पुराने फुटेज देखने लगते. वे देखते कि चमोली साहब की बेटी का इश्क़ अब गहरा गया है. मामला फ्लाइंग किस से और ऊपर चला गया है. गहरी रात में आने लगी है अब वह. उन्होंने नोटिस किया कि सक्सेना जब भी इधर से गुजरता है तो गोगिया साहब के घर को चोर नज़र से देखता है. गली में घर के सामने से गुजरते हुए राहगीर इधर नहीं देखते पर जानने वाले इधर देखते हुए जाते .कुछ तो साथ चल रहे राहगीर को घर की ओर इशारा करते , मानो कह रहे हों, "यही है बेचारे गोगिया का घर...झूठमूठ की जेल हो गई थी." 

गोगिया जी का कलेजा कट जाता. फिर भी वे देखते रहते सब कुछ. कभी रिवाइंड तो कभी फ़ास्ट फॉरवर्ड. बिलकुल कुछ सेकेण्ड पहले लाकर छोड़ते रिकोर्डिंग को. एकाध बार तो शर्मा का बेटा भी दिखा पर उसने इधर आँख उठा कर भी नहीं देखा. देखेगा भी कैसे. उसकी आत्मा जानती है कि मास्टर साहब ऐसा हरगिज नहीं कर सकते हैं. उसका गुस्सा भी अब तक कपूर हो गया होगा. पर संभल कर रहना होगा. कब कहाँ घात हो जाए? क्या पता किसी दिन यहीं ताबड़तोड़ कर दें-- पार्क में जैसा किया था. यह सोचकर गोगिया जी का दिल धक् करके बैठने लगता. खैर! जो भी हो. झेलना है और लड़ना है. अदालत में अपने ईमान पर खड़े रहना है, भले कोई फाँसी दे दे. तभी गोगिया जी को स्क्रीन पर शर्मा जैसा एक आदमी दिख गया.  गोगिया जी उछाल मार कर खड़े हो गए, "ये क्या है?" 

वह बिलकुल शर्मा जैसा ही था. बल्कि शर्मा ही था. कपड़े भी वही पहन रखे थे -- क़त्ल के दिन वाले . उसने बाहर के कैमरे में दो बार झाँका था और चलता बना . वे दौड़कर बरामदे में गए और वहाँ  से फिर गली में. कहीं कोई नहीं था. वे भागते हुए वापस आए और रिवाइंड का बटन दबाया. बार-बार हर बार वही निकला  -- "हाँ ,यह तो शर्मा ही है!"पर कैसे हो सकता है भला? मरा हुआ आदमी ऐसे कैसे लौट सकता है? गोगिया जी ने बार-बार उसी दृश्य को देखा. एकदम वही. उन्होंने घड़ी देखी. बिलकुल ठीक थी.

अब सच में उनकी परेशानी बढ़ती जा रही है. अगर बिन्दू जी को बताया तो पक्का है कि बच्चों को बुलाकर उन्हें मनो-चिकित्सक को दिखाया जाएगा. वह भी जबरन. जिस जादू-टोना, भूत-प्रेत और क़िस्से-कहानियों से वे जिंदगी भर नफ़रत करते, रहे वही अब हक़ीकत होती दिख रही थी. हद है भई, यह तो हद ही है! वे पागल नहीं हुए हैं, यह भी तय था. आज भी बल्कि अभी भी रसायन-शास्त्र ही नहीं, भौतिकी और बीज-गणित के ढेरों फ़ॉर्मूले याद हैं उन्हें. उन्होंने एक बार फिर खुद को जाँचने के लिए  बुक-सेल्फ से प्रश्न-पत्र से भरी एक जर्जर किताब उठा ली. किताब बीज-गणित की थी. वे मैथ्स सॉल्व करने बैठ ही गए. तक़रीबन एक घंटे में बत्तीस मुश्किल सवाल हल किये उन्होंने. एकदम सही-सही. अब कोई कह सकता है कि मैं पागल हो रहा हूँ! तभी बिन्दू जी चाय लेकर आ गईं. गोगिया जी सब कुछ भूल-भालकर अपनी इस सफलता में फूले नहीं समा रहे थे, मुसकुरा कर गर्व से बोले


"बिन्दू जी! कभी यह ना समझना कि बढ़ती उम्र ने मेरी बुद्धि कुंद कर दी है. ये देख लो. एक घंटे में बत्तीस मुश्किल सवाल हल किये हैं मैंने -- एकदम सही-सही." 

उन्होंने रजिस्टर बिन्दू जी की ओर बढ़ा दिया. बिन्दू जी ने चाय टेबल पर रखी और प्यार से उनके माथे को सहलाना शुरू किया. उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं. फिर सब शांत हो गया. सब कुछ. गोगिया जी का सारा गर्व आँसुओं के साथ देर तक ढुलकता रहा.


(चार)
लोगों का कहना था कि गोगिया जी के परदादा एक प्रकांड विद्वान थे. बहुत पहले जब मोहल्ले के पास के खेतों पर यह पार्क बना था तो नामकरण को लेकर विवाद पैदा हो गया. जिला कलक्टर ने तब गोगिया जी के परदादा को बुलाया और उनकी राय जाननी चाही. भरी सभा में उन्होंने कुछ नहीं बोला. बस सभा से जाने लगे तो तीन बार एक ही शब्द दुहरा गए, "चरैवेति...चरैवेति...चरैवेति."इसका असर पड़ा. तत्काल कलक्टर के निर्देश पर उस पार्क के प्रवेश-द्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों में उस शब्द को तीन बार ढलवाया गया. तभी से उसका नाम चरैवेति पार्क हो गया. गोगिया के बाबा भी इसी शब्द को दुहराते-तिहराते रहे. पर गोगिया जी उन शब्दों को केवल पढ़ते. वह भी जब पार्क जाते समय उसे देख लेते तब. वे उसे पढ़ते और अंत में जोड़ते, "चरैवेति...पर किधर ?" 

हालिया दिनों में उनका दिशा-बोध गायब हो रहा था. वे अब कमरे में भी चलते तो लगता कि पिछले समय में चले जा रहे हैं. इससे बचने के लिए वे स्क्रीन को फिर से देखने लगते. कुछ साबुत होते और सोचने बैठ जाते. आजकल बीज-गणित और स्क्रीन ही उनका सहारा था. लेकिन जो स्क्रीन उनके वर्तमान को सहारा देने का ठीहा था, अब उसी ठीहे पर शर्मा प्रत्यक्ष हो गया था. शर्मा आये दिन उनके स्क्रीन पर झाँककर लापता हो जाता था. एक दिन तो वह गली के मुहाने पर प्रत्यक्ष दिख गया . गोगिया जी ने उससे कोई बात नहीं की, बल्कि इस सोच में पड़ गए कि कहीं वे पिछले समय में तो नहीं चले आए. भागकर फिर घर पर आए. ऊपर-नीचे आँगन में एक चक्कर काटा और फिर रिवाइंड का बटन दबाकर पिछली हरकते  देखने लगे. सब ठीक था. पर यह सब हो क्या रहा है ?

इसी सोच में पड़े-पड़े वे पहले रेलवे स्टेशन गए और फिर पार्क में चले आये थे . सब ठीक था. बच्चे हँसी-ख़ुशी क्रिकेट खेल रहे थे और कुछ फुटबॉल. फुटबॉल खेल रहे बच्चों की क्रिकेट खेल रहे बच्चों के साथ कहासुनी हो गई थी. गोगिया जी तुरंत  बीच-बचाव में उतर पड़े, "क्या बेवकूफी है, भई? यहाँ रोज खेलना है तुम लोगो को. ऐसे लड़ोगे तो कैसे चलेगा?"समझा-बुझाकर गोगिया जी ने दोनों समूहों को अलग किया और टहलने लगे. फिर ख़ुद को तसल्ली दी, 'सब ठीक ही तो है!'  पर अचानक उन्हें याद आया कि जब वे बच्चों से बात कर रहे थे तो शर्मा जैसा ही कोई उनकी बगल से गुजरा था पर तब वे ध्यान नहीं दे पाए. उन्होंने तय किया कि इस रोज-रोज के नाटक को वे ख़त्म करके मानेंगे. उन्होंने उड़ती नज़रों से पूरे पार्क का मुआयना किया. बहुत दूर पार्क के कोने में कोई चरवाहा अपनी भैंस लेकर घुस गया था. उस चरवाहे से शर्मा जैसा कोई आदमी बात कर रहा था. गोगिया तीर की गति से वहाँ पहुँचे. बिलकुल शर्मा ही वहाँ मौजूद था. सी पी शर्मा. शर्मा मास्टर गोगिया से बिलकुल अनजान उस चरवाहे से भैंस के लिए मोलभाव कर रहा था

"देख लो भैया ...मैं तो रेट सही लगा रहा हूँ...बेच दो मुझे. इससे ज्यादा कीमत तुम्हें इस भैंस का कोई नहीं देगा इस शहर में."

उधर चरवाहा बार-बार अपनी मुंडी ना में हिला रहा था, "नहीं बाबूजी...चालीस हजार  से कम में बिलकुल नहीं दूँगा."साला शर्मा मिला भी तो मोलभाव करते हुए. मरने के बाद भी नोटों की गर्मी शांत नहीं हुई है इसकी! कुछ ऐसे ही सोचते हुए  गोगिया जी ने शर्मा की  कलाई पकड़ ली, "सी पी शर्मा ?"शर्मा ने बेहद कटी नजरों से गोगिया जी को देखा पर जवाब चरवाहे को दिया, "देख लेना भाई...कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती तो है नहीं. मैं भी कहीं जा नहीं रहा. कल फिर मिलूँगा."चरवाहा अपनी भैंस लेकर आगे बढ़ गया. गोगिया साहब शर्मा की कलाई उसी मजबूती से पकड़े रहे. वे डरे हुए थे कि शर्मा भाग ना जाए. इस बार  शर्मा पलटा, "मेरा हाथ छोड़ो मास्टर."उसकी आवाज में बहुत तल्खी थी. जैसे वह गोगिया जी को चबा जाएगा. गोगिया जी ने उसकी कलाई छोड़ दी. फिर कुछ सोचकर बोले, "देखो शर्मा...तीन ही बाते हैं. या तो मैं पागल हो चुका हूँ  या तो पिछले समय में आ गया हूँ या फिर तुम मेरे समय में घुसपैठ कर चुके हो. "यह बोलते हुए गोगिया जी बिलकुल शांत थे और सारी तर्क-शक्ति जुटाकर शर्मा का सामना कर रहे थे.

शर्मा ने आदतन अपने सिर को अपने दोनों कन्धों पर बारी-बारी से पटककर चटकाया. पर बोला कुछ भी नहीं. बस गोगिया जी को घूरता रहा. गोगिया जी ने हलक साफ़ करते हुए सवाल दागा, "घूरकर क्या देख रहे हो शर्मा?"शर्मा ने आदत के विपरीत गंभीर होकर जवाब दिया

"देख रहा हूँ कि आपकी अंतरात्मा अभी तक ज़िन्दा है कि नहीं."

"मतलब?"
"मतलब कि आप पागल नहीं हुए हैं अभी तक."
"तो पागल करने पर तुले हो?"
"जो करना था वह आपने कर ही दिया, मास्टर जी. अब मैं कर ही क्या सकता हूँ?"
गोगिया जी पूरी ताक़त से चीखे, "तो मरा हुआ आदमी वापस कैसे आ सकता है?"

"वैसे ही जैसे ज़िन्दा आदमी सपने में वर्तमान को चीरकर पिछले समय में चला जाता है और मुझे बचाने के लिए रोता-छटपटाता है."इस जवाब की उम्मीद नहीं थी गोगिया जी को. शर्मा ने बहुत शांत होकर जवाब दिया था.

पल-दो पल के लिए दोनों चुप हो गए. फिर कुछ सोचकर शर्मा को छुआ गोगिया जी ने. शर्मा एकदम बिफ़र पड़ा, "क्यों? क्यों? मेरी हत्या कराकर चैन नहीं मिला अब तक आपको?"गोगिया पहले तो सन्न हुए, पर ऐसे काम नहीं चलने वाला था. वे भी उखड़ी हुई साँस में एक बार फिर चीख़ पड़े


"तुझ जैसों की हत्या कोई कराता नहीं है, शर्मा...तेरी हत्या तेरी काली करतूतों ने कराई थी...समझा...समझा तू?" 

चीखते हुए गोगिया जी की पूरी देह कांप रही थी. इधर धूप भी तेज हो गई थी. पसीने में दोनों नहा रहे थे. शर्मा ने बस इतना ही कहा, "समझ तो बहुत कुछ रहा हूँ, मास्टर जी...पर धूप तेज है. आपके घर चलकर अब बात करेंगे."

घर लौटते हुए गोगिया जी ख़ुश थे कि आज इस रहस्य का भंडाफोड़ कर दूंगा. बिन्दू को बुलाकर दिखाऊँगा कि देखो यह आठवां आश्चर्य. उन्हें तो यह भी लग रहा था कि शर्मा मरा ही नहीं था. अपने नाटक में पूरे शहर को फँसा रखा है उसने. दोनों ड्राइंग-रूम में आकर बैठ गए. स्क्रीन चल रही थी. सारे फुटेज साफ़-साफ़ दिख रहे थे. बैठते ही गोगिया जी ने पूछा, "जब आना ही था तो आ ही जाते. ऐसे झाँक-झाँककर क्यों भाग जाते जाते थे?"
"देखना चाहता था कि आपकी अंतरात्मा मेरे लिए कितना कलपती है?"

गोगिया एकदम होश में थे, "तुम्हारे मरने का दुःख है मुझे."यह कहते हुए उनकी आँखें डबडबा गईं. पर शर्मा एकदम भावहीन था, बोला  "आप समझे नहीं लगता है!"
गला साफ करके गोगिया जी ने कहा, "चलो समझाओ."

इस बार शर्मा उनको हिक़ारत से देखकर मुसकुराया, "हुंह. इकतालीस साल! इकतालीस साल आप मास्टर रहे. आप कहते थे कि किसी बच्चे को देखकर ही पहचान जाते हैं कि वह पढ़ने वाला है  कि नहीं. आप हत्यारे और विद्यार्थी में फ़र्क करते हुए चूक कैसे गए मास्टर जी?"
"वो मानवीय भूल थी."

"बिलकुल मास्टर जी...मैं भी वही कह रहा हूँ कि वह मानवीय भूल थी. भूल नहीं बल्कि मानवीय नफ़रत. पर इस हद तक मास्टर जी? मैं जो भी था, जैसे भी था, पर इतनी नफ़रत? इस हद तक कि मेरी हत्या करवा दी आपने?"यह कहते हुए शर्मा की आँखें किसी पिशाच की तरह लाल हो गईं. उसकी साँस तेजी से चढ़ने-उतरने लगी. गोगिया साहब सकपका गये. उन्होंने तत्काल चीख़ कर बिन्दू जी को आवाज देनी चाही पर वह हलक से बाहर नहीं निकल रही थी. मज़बूरी में इस भाव को उन्होंने शर्मा के आगे जाहिर भी नहीं किया. उल्टे अपने हाथ मलकर कभी फ़र्श देखते तो कभी चोर नज़र से शर्मा को. फिर उन्होंने साहस करके कहा, "देखो शर्मा...मैं तुमसे नफ़रत करता था पर इस हद तक नहीं...चाहे तुम जो सोचो."

शर्मा ने अपनी मुंडी ना में हिलाई "नहीं नहीं, मास्टर जी...आप आधा सच कह रहे हैं. आप मुझसे नफ़रत करते थे पर अपनी सादगी और ईमानदारी को मेरे किये पर और पूरे समाज पर सिद्ध करना चाहते थे. आपके मन के कोने में यह विचार आया था उस वक्त कि वो हत्यारे कहीं से छात्र नहीं दिख रहे हैं, पर आपकी नफ़रत ने विवेक को निगल लिया था."

गोगिया अपनी सफाई में उतर आये. भावुक होकर कहा "नहीं शर्मा, नहीं...तुम वही कह रहे हो जो तुम्हारा वकील कोर्ट में कह रहा था."

शर्मा का मूड एकदम उखड़ गया था अब. किसी दैत्य की तरह दाँत पीसते हुए बोला, "वकील-अदालत की ऐसी की तैसी...अब क्या मतलब रहता है कोर्ट-कचहरी का मेरे लिए? बोलिए...?"
सन्नाटा पसर गया.

शर्मा बोलता रहा "पूरा मोहल्ला जानता था कि मेरे बढ़ते धन पर कईयों की नज़र थी. आये दिन मुझे धमकियाँ भी आती थीं. मैं पार्क बदलता रहता था. ऐसे में सब जानते हुए कैसे चूक हो सकती है आपसे?" 

गोगिया इस बार फुसफुसाए, "अगर ऐसा होता तो मैं सक्सेना को क्यों बताता सब कुछ?"

"सिद्धि, मास्टर जी, सिद्धि...अपने भोलेपन और ईमानदारी की सिद्धि. आप मेरी लोकेशन बताकर डर गए थे. फिर उसे अपनी मासूमियत में छुपा ले गए."

गोगिया जी की लगभग रुलाई छूट गई, "मैं निर्दोष हूँ शर्मा...बिलकुल निर्दोष."

अब शर्मा की देह गुस्से से काँपने लगी. वह झटके के साथ खड़ा हो गया और बहुत ऊँची-ऊँची आवाज में चीखने लगा,  "मास्टर जी...ओ मास्टर जी...आपने अपनी सादगी और ईमानदारी की सिद्धि के लिए मेरी बलि ले ली..."

मास्टर जी सदमे में चले गए. एकदम चुप.पर शर्मा का चीखना चालू रहा, "मैं आपको आवाज मारता रहा. उसे अनसुना कर आप घर-आँगन में मशीने लगवाते रहे. मैं पूछता हूँ कि मुझे सजा दिलाने वाले आप होते कौन हैं?  किस चीज ने आपको यह अधिकार दिया?"

गोगिया जी एकदम टूट गए. बिलखकर कहा, "मैं निर्दोष हूँ...मैं निर्दोष हूँ."उनकी आवाज धीरे-धीरे उनके गले में रुंधती चली गई.

शर्मा का मुँह घृणा से भर गया. वह और ऊँचा चीखा

"निर्दोष मरना इतना आसान होता है क्या?"

यह कहते हुए शर्मा ने ड्राइंग-रूम के दरवाजे को ज़ोर से पटका और तमतमाते हुए बरामदा नापता  चला गया. दरवाजे की पटकने की आवाज इतनी ऊँची थी कि बिन्दू जी भागती हुए ड्राइंग रूम में आईं, "किसने दरवाज़ा पटका? इतनी ज़ोर से?"गोगिया जी का चेहरा स्याह हो गया था. उन्होंने सिसकते हुए जवाब दिया, "शर्मा ने... अभी आया था वह."उनका हाथ दरवाजे को थामे हुए था और उनकी सिसकी अब धीरे-धीरे रुलाई में बदल रही थी. 
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देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (सदन झा) : शुभनीत कौशिक

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समीक्षा कृति से संवाद करती है, और उसके प्रति रुचि पैदा करती है, वह न तो पुस्तक-परिचय है न उसका प्रचार. संवाद के लिए विषय-वस्तु और पृष्ठभूमि से परिचय आवश्यक है और जहां जरूरत हो वहाँ असहमति की ज़िम्मेदारी का एहसास भी. ऐसी समीक्षाएं कृति को आलोकित करती हैं. 

शुभनीत कौशिक इतिहास के अध्येता हैं और साहित्य में रुचि रखते हैं. उनकी लिखी समीक्षाओं में ये दुर्लभ गुण मिलते हैं. इतिहासकार सदन झा की किताब 'देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति' की यह समीक्षा आप पढ़ें और देखें.




देखने की संस्कृति और राजनीति का इतिहास                         
शुभनीत कौशिक






तिहासकार सदन झा उन गिने-चुने समाज-वैज्ञानिकों में से हैं,जो अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी में भी गंभीर और शोधपरक लेखन का कार्य लगातार कर रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में उनके द्वारा लिखे गए विचारोत्तेजक निबंधों का संकलन है,उनकी किताब देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (राजकमल प्रकाशन,2018). अलग-अलग ऐतिहासिक संदर्भों पर लिखे गए इन निबंधों में जो बात साझा है, वह है दृश्य संस्कृति के इतिहास से उनका गहरा जुड़ाव. इन निबंधों में सदन झा जन-संस्कृति या आम फ़हम संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं. जन-संस्कृतिसे उनका तात्पर्य दैनिक जीवन में रची-बसी कभी शोर-शराबे के साथ कभी चुपचाप सँवरती उन अनेक प्रक्रियाओं से है,जिन्हें किसी एक ठौर पर रखकर व्याख्यायित करना मुश्किल होता है.अकारण नहीं कि इस पुस्तक में भाषा,साहित्य,इतिहास के साथ-साथ गाँव और शहरों के अनुभव भी शामिल हैं.

दृश्य संस्कृति की पड़ताल करते ये निबंध जहाँ एक ओर भाषा व साहित्य के अनदेखे-अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करते हैं,वहीं दूसरी ओर ये शहरी अनुभवों,रोज़मर्रा की प्रौद्योगिकी (जैसे रेडियो),राष्ट्रीय प्रतीकों से जुड़ी राजनीति के इतिहास की ओर भी हमारा ध्यान खींचते हैं. इस संकलन की भूमिकामें सदन झा ने दृश्य संस्कृति को समझने,उसकी व्याख्या व ऐतिहासिक विश्लेषण में पेश आने वाली चुनौतियों पर भी गहराई से विचार किया है. दृश्य संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर हुए लेखन की सीमा बताते हुए सदन झा कहते हैं कि इनमें दृश्य जगत को साहित्य,लिखित थाती और शब्दों की दुनिया से असंपृक्त कर देखने का रुझान रहा है. 

देखने के समाज-विज्ञान की वकालत करते हुए वे देखने की संस्कृति और राजनीति का इतिहास लिखते हैं. इस क्रम में, वे आधुनिकता के विमर्श में अनुभव की अनुपस्थिति को रेखांकित तो करते ही हैं. साथ ही, ज्ञान उत्पादन की अंदरूनी राजनीति की ओर भी इशारा करते हैं. दार्शनिक जॉर्जियो अगंबेन की कृति इन्फैन्सी एण्ड हिस्ट्रीके हवाले से वे बताते हैं कि कैसे आधुनिक काल में ज्ञान ने अनुभव को न सिर्फ विस्थापित कर दिया,बल्कि अनुभव के स्वतंत्र वजूद को ही ख़त्म कर दिया. नतीजा ये कि अनुभव साक्ष्य में तब्दील हो गया और इस तरह ज्ञान का एक और स्रोत भर होकर रह गया. उल्लेखनीय है कि इस दृष्टिकोण से समाज-विज्ञान भी अछूता न रहा और वह भी विज्ञान की प्रयोगशाला का ही एक विस्तार बन गया.   


रोज़मर्रा का इतिहास और शहर
शहरों के दैनंदिन जीवन के इतिहास को समझने के क्रम में सदन झा हमें दरभंगा समेत समूचे मिथिलांचल में बीसवीं सदी के आखिरी दशकों की उपभोक्ता संस्कृति से वाकिफ़ कराते हैं. इसमें जहाँ एक ओर खान-पान की संस्कृति में आती तब्दीलियों की बानगी देती जॉन नज़ारथ की बेकरी रीगलऔर उनके उत्पादों की लोकप्रियता है. वहीं दूसरी ओर है संतोष रेडियो’,जो समय के साथ विशिष्ट सामाजिक मूल्य अख़्तियार कर लेती है. संतोष रेडियोके बहाने सदन झा उपभोक्ता संस्कृति में आते बदलावों को रेखांकित करते हैं. सामाजिक सोपानों पर आधारित मूल्यबोध और निजी या पारिवारिक संपत्ति से जुड़ी धारणाएँ इस बदलाव का अहम हिस्सा हैं. एक दृष्टांत के जरिये वे यह भी समझाते हैं कि कैसे रेडियो जैसी मीडिया से जुड़ी कोई वस्तु सामाजिक मूल्य अख़्तियार कर लेती है. अकारण नहीं कि इतिहासकार डेविड आर्नाल्ड ने रेडियो जैसे वस्तुओं को लघु प्रौद्योगिकीकी संज्ञा देते हुए उनका सामाजिक इतिहास लिखे जाने पर ज़ोर दिया है. ख़ुद अपनी किताब एवरीडे टेक्नोलॉजीमें आर्नाल्ड भारतीय संदर्भ में टाईपराइटर,सिलाई मशीन,साइकिल और चावल मिल का दिलचस्प सामाजिक इतिहास लिखा भी है.   

सदन झा द्वारा शहरों पर लिखे हुए लेखों के केंद्र में राजधानी दिल्ली और उसके रोज़मर्रा के जीवन के विविध आयाम हैं. मामूली राम की दिल्लीमें जहाँ ख़बरों के मामूलीपन की विस्तृत पड़ताल की गई हैं,वहीं एक अन्य लेख के केंद्र में है,दिल्ली की गलियों,दीवारों और बसों पर लिखी हुई इबारतें और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ. सदन झा चित्र,अक्षर और शहर के उस त्रिकोणीय संबंध की पड़ताल करते हैं,जिसमें सड़क की आँखों के जरिये शहर की कहानी कही जाती है.

शहर की देह पर अक्षराघातशीर्षक वाले इसी लेख में सदन झा लोक-वृत्त (पब्लिक स्फ़ियर) और जन-स्थान को अलग-अलग करके देखते हैं. उनके अनुसार यह पब्लिक स्फ़ियर की बात नहीं,यह तो जन-स्थान की बात है.(पृ. 58) लेकिन इसके उलट,सदन झा इसी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि मेरा मानना है कि जिन शर्तों पर अधिकांश विद्वान जनऔर लोकसंस्कृति में फ़र्क करते हैं,वह आज के समय में अपने आप में भ्रामक और आरोपित होगा. लोक और जन आज के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे से घुले-मिले हैं.(पृ. 12) यदि सदन झा के अनुसार,लोक और जन घुले-मिले हैं तो फिर लोक-वृत्त (पब्लिक स्फ़ियर) और जन-स्थान को अलग-अलग कर देखना कैसे संभव है?इस अंतर्विरोध को सदन झा ने स्पष्ट नहीं किया है.     
(सदन झा )

शहर और उसके विभिन्न आयामों से जुड़े ये दिलचस्प निबंध फ्रेंच दार्शनिक और इतिहासकार मिशेल दे शेर्तु (1925-1986) की भी याद दिलाते हैं,जिन्होंने रोज़मर्रा के जीवन-व्यवहार का विश्लेषण अपनी चर्चित किताब द प्रैक्टिसेज ऑफ एवरीडे लाइफमें किया है. शेर्तु ने इस किताब को आम आदमी को समर्पित करते हुए लिखा था कि आम लोग ही समाज की अनसुनी आवाज़ होते हैं. वे अपने प्रतिनिधित्व की अपेक्षा किए हुए बिना इतिहास-चक्र को गति देते हैं.इतिहासलेखन और समाजविज्ञान में आते बदलावों को लक्षित करते हुए शेर्तु ने लिखा था कि अब इतिहास की दूधिया रोशनी (फ़्लडलाइट) अतीत की दर्शक-दीर्घा के उस हिस्से पर पड़ रही है,जहाँ आम लोग बैठे हुए हैं.उल्लेखनीय है कि शेर्तु ने वॉकिंग इन द सिटीशीर्षक वाले अपने विचारोत्तेजक लेख में शहर के भूगोल,उसकी संरचना,उसके स्थापत्य से जुड़े प्रश्नों पर गहराई से विचार किया था. शेर्तु का मानना था कि 


किसी शहर में पैदल चलते हुए आम लोग ही उस शहर को,उससे जुड़े अनुभवों को बुनियादी रूप से रचते हैं. पसीने से लथपथ अपनी देह से आम लोग वह नगरीय टेक्स्ट लिखते हैं,जिसे वे भले ही न पढ़ पाएँ,लेकिन जिसके बगैर शहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती.  


देखने की राजनीति और राष्ट्रीय ध्वज     
राष्ट्रीय झंडे पर लिखे हुए निबंध में सदन झा झंडे को देखने से जुड़े भिन्न-भिन्न दावों की प्रकृति और उनकी राजनीति को समझने का प्रयास करते हैं. वे झंडे को राष्ट्र के प्रतीक के रूप में देखते हैं,जिसका नियमन राज्य अक्सर एक पवित्र वस्तु के रूप में करता है. जोकि सीधे तौर पर राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में धार्मिकता की उपस्थिति के सवाल से भी जुड़ा हुआ है. जनता द्वारा किसी प्रतीक या वस्तु के देखने के विभिन्न तरीक़ों को समझाते हुए वे इसमें अंतर्निहित संस्कृति,पवित्रता और धार्मिकता के तत्त्वों को भी विश्लेषित करते हैं.

सदन झा न्यायिक विमर्श और प्रशासनिक व्यवहार के बीच फर्क की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं. न्यायिक विमर्श और प्रशासनिक व्यवहार के बीच के इस अंतर के बारे में इतिहासकार ज्ञान प्रकाश और रोहित दे ने क्रमशः आपातकाल और आम हिंदुस्तानियों के नजरिए से संविधान पर लिखी गई अपनी हालिया पुस्तकों में विस्तारपूर्वक लिखा है. उल्लेखनीय है कि सदन झा ने भी राष्ट्रीय झंडे से जुड़ी राजनीति पर ही केन्द्रित अपनी एक अन्य किताब रिवरेंस,रेसिस्टेंस एंड पॉलिटिक्स ऑफ सीइंग द इंडियन नैशनल फ़्लैग(2016) में भारत के राष्ट्रीय ध्वज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि,राजनीतिक प्रतीक के रूप में उसके इस्तेमाल,राष्ट्रीय आंदोलन और राजनीतिक सत्ता से झंडे के जुड़ाव से लेकर तिरंगे के उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय राज्य के प्रतीक बनने की यात्रा पर सविस्तार लिखा है.

प्रशासनिक व्यवहार से ही जुड़ा हुआ मसला है राज्य द्वारा जनसमुदाय पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कामना. जोकि सीधे तौर पर शासन और नियंत्रण से जुड़ी हुई है. मिशेल फूको के हवाले से कहें तो राज्य द्वारा नियंत्रण के ऐसे प्रयासों के फलस्वरूप लोग शासन की इकाइयों में तब्दील हो जाते हैं. राज्य के ऐसी नियंत्रणकारी नीतियाँ भीड़ की उन्मादी प्रवृत्ति और उसके सत्ताविरोधी राजनीतिक चरित्र के नियमन का प्रयास करते हैं. स्पष्ट है कि भीड़ की इस राजनीतिक प्रकृति में लोकवाद और राजनैतिकता के तत्त्व भी समाहित होते हैं.    


देवनागरी जगत और रेणु की आंचलिकता      
एक नयी भाषा का उदयशीर्षक वाले लेख में सदन झा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित हुई हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं,पुस्तकों के जरिए देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति और उसके सांस्कृतिक व प्रतीकात्मक मूल्यों की गहरी पड़ताल करते हैं. इस क्रम में,वे हमें देखने के इतिहास से जुड़ी पेचीदगी से रूबरू कराते हैं. बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित पत्रिका हिन्दी प्रदीपमें जुलाई 1883 में छपे देखना-दिखानाशीर्षक वाले लेख के जरिये वे नैतिक-राजनीतिक भाषा के उपयोग के बारे में बताते हैं. देखने-दिखाने के महत्त्व के बारे में हिन्दी प्रदीपके इसी लेख में लिखा गया था कि देखने और दिखाने की इच्छा निकाल दी जाय तो जनाकीर्ण जगत और जीर्ण अरण्य बराबर हो जाय.देखने की संस्कृति को समझते हुए सदन झा चित्र,चित्र और देखने से जुड़े हुए साहित्य के विश्लेषण के साथ-साथ देखने के विमर्श का मूल्यांकन भी करते हैं.

उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक आधुनिकता का विश्लेषण करते हुए वे रेणु के अनोखे लहजे,कोसी अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और कहन के अनूठेपन को व्याख्यायित करते हैं. रेणु के उपन्यासों में चित्रित गाँव के बारे में सदन झा रेखांकित करते हैं कि यह कोसी नदी के पूरब का गाँव है,जिसमें भाषा,जाति के अलावा वैचारिक दावेदारियाँ भी सक्रिय हैं. रेणु के कथा-साहित्य में,जिसे सदन झा एक समृद्ध भाषाई आर्काइवका दर्जा देते हैं,इतिहास अतीत के चिह्नों के रूप में बिखरा हुआ है. यह सांस्कृतिक अतीत बहुलता का भी परिचायक है.

उल्लेखनीय है कि रेणु ने ख़ुद ही अपनी कालजयी कृति मैला आँचलको एक आंचलिक उपन्यासकहा था. यहाँ तक कि आंचलिकता के मुद्दे पर जब बहस उठी तो रेणु ने उसमें सार्थक हस्तक्षेप भी किया था. यहाँ यह उल्लेख कर देना प्रासंगिक होगा कि हिंदी की पत्रिका सारिकाने आंचलिकता के प्रश्न पर एक परिचर्चा भी आयोजित की थी. परिचर्चा में रेणु ने भी भाग लिया और अपना वक्तव्य भी दिया,जाहिर है आंचलिकता के पक्ष में ही. फणीश्वरनाथ रेणु की विश्व-दृष्टि और उनकी विशद जानकारी का परिचय पाना हो तो जनवरी 1962 में सारिकामें छपा वह लेख पढ़ना चाहिए. लेख का शीर्षक ख़ालिस रेणु के अंदाज़ में है : पतिआते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है.अपने इस लेख में रेणु आंचलिकता की बात करते हुए उसी सहजता के साथ मिखाइल शोलोखोव,विलियम फाकनर,इर्वा आन्द्रिच,नाज़िम हिकमत,स्वात दरवेश की कृतियों का उल्लेख करते हैं,उनसे जिरह करते हैं,जिस सहजता से वे अपने प्रिय रचनाकार शरत चंद्र और सतीनाथ भादुड़ी की कृतियों का ज़िक्र करते हैं.  

हालांकि,रेणु की आंचलिकता पर आधारित इस विचारोत्तेजक लेख में सदन झा ने प्रेमचंद के उपन्यासों के संदर्भ में जो सरलीकृत टिप्पणियाँ/धारणाएँ दी हैं, उनसे मैं सर्वथा असहमत हूँ. गोदानके संदर्भ में सदन झा लिखते हैं कि 

गोदान में ग्रामीणों के मध्य राजनीतिक चेतना नदारद है.(पृ. 182) इस संदर्भ में कहना चाहूँगा कि अगर गोदान के ग्रामीणों में राजनीतिक चेतनामौजूद नहीं है, तब शायद हमें राजनीतिक चेतनाको ही फिर से पारिभाषित करना होगा. इसी संदर्भ में, डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि गोदान का कथानक किसान-महाजन संघर्ष को लेकर रचा गया है. यहाँ होरी पूरे महाजन वर्ग और उसके सहायक जमींदार वर्ग के कारिंदों से युद्ध करता हुआ परास्त होता है. किसान-महाजन संघर्ष का होरी ही एक महान प्रतीक बन जाता है. 

अगर होरी का संघर्ष और प्रतिरोध निष्क्रिय और नाकाफ़ी जान पड़ता हो, उसमें राजनीतिक चेतना की झलक न मिलती हो तो एक निगाह होरी की पत्नी धनिया और बेटे गोबर के प्रतिरोध और चेतना पर भी डालनी चाहिए. कुछ लेखकों ने प्रेमचंद को भारतीय निष्क्रियता का विश्वासीबतलाया था. उन्हीं लेखकों को जवाब देते हुए नामवर सिंह ने अपने लेख प्रेमचंद और भारतीय कथा साहित्य में भारतीयता की समस्यामें लिखा कि क्या होरी की यह निष्क्रियता ही गोदान का कथ्य है,पत्नी धनिया और पुत्र गोबर के बार-बार फूट पड़ने वाले विद्रोह के बीच भी होरी की समझौतापरस्ती क्या अंततः पाठक-हृदय में विस्फोट पैदा नहीं करती?प्रेमचंद की इस यथार्थवादी कला में होरी भारतीय किसान की एक प्रतिमा ही नहीं,बल्कि दर्पण भी है जो भारतीय किसान को उसकी निष्क्रियता की त्रासदी का अभाव प्रतिबिम्बित दिखाकर विद्रोह के लिए ललकारता है.

दूसरी बात,जो सदन झा ने गोदानके संदर्भ में लिखी है,जिससे मैं असहमत हूँ. वह है गोदानकी भाषा और उसमें दर्शाए गए गाँव की सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में. सदन झा लिखते हैं खड़ी बोली में लिखा उत्तर प्रदेश का यह गाँव अवधी,भोजपुरी या ब्रज नहीं के बराबर इस्तेमाल करता है. अंचल यहाँ अपनी भाषायी विविधता से महरूम है और यह गाँव जातियों से खाली है.मैं यहाँ भी सदन झा से असहमत हूँ. क्योंकि गोदान के गाँव में जाति का सामाजिक यथार्थ तो उपस्थित है ही. जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध दलितों का प्रतिरोध भी गोदानमें अपने मुखर स्वर में मौजूद है. जहाँ तक प्रेमचंद की भाषा और भाषाई विविधता का सवाल है. रामविलास शर्मा ने इसी संदर्भ में अपने लेख प्रेमचंद की कलामें जो लिखा है,उस पर भी ध्यान देना चाहिए. रामविलास शर्मा के अनुसार :

'प्रेमचंद के पात्रों की भाषा एक अध्ययन करने की वस्तु है;देहाती,हिंदी,उर्दू,अंग्रेज़ी और इनके मिश्रण से बनी अनेक प्रकार की भाषा शैलियाँ एक युग के सांस्कृतिक आदान-प्रदान का इतिहास हैं...प्रेमचंद का गद्य देहाती भाषा की दृढ़ भूमि पर निर्मित हुआ है;कहावतें,मुहावरे,उपमाएँ उन्होंने वहीं से सीखी हैं;भाषा की सरलता के लिए भी उन्हें वहीं से प्रेरणा मिली है. प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन है;ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर वे उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं.'   


विभाजन,विस्थापन और सिनेमा       
कहना न होगा कि निज/आत्म की तलाश की बानगी देती फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में लोक में संचित अतीत भी प्रतिबिम्बित होता है. आत्म की यही खोज सदन झा विभाजन पर बनी फ़िल्मों में भी देखते हैं,जिसे वे खोये हुए और बरामद आत्म के रूप में देखते हैं. विभाजन की सिनेमाई जमीन की पड़ताल करते हुए वे तमस,छलिया,लाहौर,अमर रहे यह प्यार,ग़दर,अर्थ 1947 सरीखी फ़िल्मों में प्रकट होने वाले पश्चाताप के बोझ और जेंडर की राजनीति की ओर भी इशारा करते हैं.

गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित धारावाहिक तमसऔर एमएस सथ्यु की गरम हवाजैसी विभाजन केन्द्रित फ़िल्मों में प्रकट होने वाली विभाजन और विस्थापन की त्रासदी और उसके निहितार्थों पर फ़िल्म अध्येताओं,समाजवैज्ञानिकों ने काफी लिखा है. लेकिन सदन झा यहाँ छलिया’, ‘लाहौरऔर अमर रहे यह प्यारजैसी फ़िल्मों के हवाले से बँटवारे और विस्थापन की ऐतिहासिक त्रासदी का मूल्यांकन करते हैं. राजेन्द्र कुमार,नंदा और नलिनी जयवंतकी फ़िल्म अमर रहे यह प्यारकी कहानी में पिता की गैर-मौजूदगी को विश्लेषित करते हुए सदन झा एक अहम सवाल उठाते हैं कि क्या यह कास्ट्रेटेड और अनुपस्थित पिता के द्वारा एक प्रकार के ओईडिपल कॉम्प्लेक्स की तरफ ले जाता है?’लेकिन इस महत्त्वपूर्ण सवाल पर ठहरने और इसकी संभावित व्याख्या तलाशने की बजाय सदन झाग़दरऔरअर्थ 1947जैसी दूसरी विभाजन केन्द्रित फ़िल्मों की ओर बढ़ जाते हैं.

विभाजन और उससे उपजे विस्थापन पर केन्द्रित इन फ़िल्मों का अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण करते हुए सदन झा ध्यान दिलाते हैं कि यह सिनेमाई देह जेंडर की राजनीति के परफ़ार्मेंस की,उसके उत्पादन की देह है और पश्चाताप का अध्ययन इन जेंडर इबारतों के बिना नहीं हो सकता.सदन झा अपनी इस पुस्तक में दृश्य संस्कृति के अनछुए पहलुओं को महानगरीय सीमाओं और अंग्रेज़ी भाषी अभिजात्यता की परिधि से बाहर निकालने के अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी यह किताब हिंदी में दृश्य-संस्कृति के अध्ययन में दिलचस्पी जगाने और संवाद की प्रक्रिया को आगे ले जाने का काम करेगी.


आख़िर में सदन झा के शब्दों में ही कहूँ तो यह किताब उस हक़ीक़त से बेजा नहीं जिसे हम बोल-चाल में गाहे-बगाहे उत्तर भारतीयविशेषण के साथ प्रयोग करते हैं.कहना न होगा कि यह विचारोत्तेजक किताब इतिहास के साथ-साथ राजनीति, साहित्य,सिनेमा और दृश्यकला आदि विधाओं में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए बेहद उपयोगी और दिलचस्प साबित होगी.
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शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और फ़िलहाल बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.
kaushikshubhneet@gmail.com 

रेणु की राजनीति : प्रेमकुमार मणि

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यह फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म शताब्दी वर्ष है, रेणु के लेखन के विविध आयामों को समझने के प्रयास हो रहें हैं. उनकी राजनीतिक चेतना क्या थी, किस तरह से इसने अपना रूप लिया और फिर वह क्योंकर सक्रिय राजनीति से विमुख हुए, उनके साहित्य में इसकी क्या भूमिका रही आदि प्रश्नों से यह आलेख संवाद करता है.
वरिष्ठ लेखक प्रेमकुमार मणि के लेखन की स्पष्टता और गहराई ने इस लेख को इस विषय पर महत्वपूर्ण बना दिया है.      


रेणु की राजनीति              
प्रेमकुमार  मणि






णीश्वरनाथ रेणु (1921 -1977) बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे.  लेखक के साथ वह स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे. बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता पहले थे, लेखक बाद में बने. उनके  इन  दोनों  रूपों  में एक गहरा अंतर-संबंध  है, जिसे जाने बिना हम रेणु-साहित्य का भी सम्यक विवेचन-अध्ययन नहीं कर सकते. अतएव रेणु-साहित्य के सम्यक अध्ययन हेतु ही उनकी राजनीति का अध्ययन आवश्यक है .

रेणु का जन्म, गांव औराही, हिंगना अब बिहार के अररिया जिले में स्थित है, जो एक समय संयुक्त पूर्णिया  जिले का हिस्सा था. यह कोई  अचानक से मैला -आँचल नहीं बना था, उसकी लम्बी और सतत चलने वाली प्रक्रिया थी, मजबूत कारण थे. रेणु के शब्दों में यह-


"पूर्णिया जिला  देशी-विदेशी जमीन्दारों का गढ़  था. अंग्रेज जमीन्दारों के नाम पर कई गांव और कस्बे बने हुए हैं. फ़ोर्ब्स साहब के नाम पर फ़ोर्ब्सगंज (फारबिसगंज ), एक साहब की मेम के नाम पर मेरीगंज. कई राजे, दर्जनों 'कुमार'और बहुत से नवाबों के गढ़ और हवेलियां आज भी मौजूद हैं. जिले में ऐसे भी बड़े-बड़े किसान हैं जिनके पास दो-दो हवाई जहाज हैं और दूसरी ओर वहीं पचहत्तर प्रतिशत भूमिहीन अभी भी बड़े, छोटे और मझोले किसानों के शोषण के लिए मौजूद हैं.
(एक सक्षात्कार में रेणु ; रचनावली -4, पृष्ठ 421) 

यह इलाका कई तरह के अन्य पिछड़ापन से ग्रस्त रहा है. हर वर्ष भयानक बाढ़ लाने वाली कोसी का यह इलाका ऐतिहासिक रूप से अभिशप्त और त्रस्त है. मलेरिया और कॉलरा जैसी बीमारियां इस इलाके के हजारों लोगों को हर साल सताती रही थीं. जाने कितने लोग हर साल असमय काल-कवलित होते रहे थे. इसकी पीड़ा और पिछड़ेपन को समझना आसान नहीं है. इसी पिछड़ेपन की कहानी रेणु ने कई रूपों में लिखी है. किसानों, भूमिहीनों  और मिहनतक़शों के  दैन्य व  पीड़ा को समझना राजनीतिक चेतना के अभाव में मुश्किल हो जाता है. इसलिए जिस लेखक के पास राजनीतिक समझ का अभाव होगा उनके लिए ऐसे इलाकों का साहित्यिक चित्रण भी निष्प्राण होगा.

रेणु का परिवार किसान था. जाति के हिसाब से उनका कुल-परिवार  ऐसे सामाजिक समूह से था, जिन्हे बिहार में अत्यंत पिछड़ा कहा जाता है. रेणु-परिवार के पास यदि जमीन-जायदाद नहीं होती, तो पारम्परिक रीति-नीति में  इनके परिवार के लोगों को दूसरे के घरों में चाकरी या बट-बेगारी करनी होती. लेकिन रेणु परिवार की आर्थिक स्थिति अन्य परिवारों से थोड़ी बेहतर थी. ग्रामीण पृष्ठभूमि में किसी परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होने का अर्थ है, उस परिवार के पास यथेष्ट भूमि का होना. रेणु का परिवार भूमिहीन नहीं, भूमिधर था. इनके पिता शिलानाथ मंडल जागरूक इंसान थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी दिलचस्पी थी और जिला स्तर पर उन्हें जाना जाता था. कई तरह की पत्रिकाएं उनके यहाँ आती थीं, जिनकी चर्चा रेणु ने अपने संस्मरणों में की है. जब वह पांचवीं जमात में ही थे कि उनके घर पंडित सुंदरलाल की प्रतिबंधित किताब 'भारत में अंग्रेजी राज'आयी. फिर चाँदपत्रिका का फांसीअंक भी उन्होंने घर में देखा. इन बगावती किताबों के लिए उनके घर की पुलिस द्वारा तलाशी भी ली गयी और कहा जाता है कि उन्हें बचाने में बालक रेणु ने भी कुछ 'करतब'  दिखलाये थे. यह सब उनका राजनीतिक प्रशिक्षण ही था.


उन्हें पढ़ने के लिए पहले तो फारबिसगंज के 'ली अकादेमी'  मे भेजा  गया,जो एक हाई स्कूल था,लेकिन 1936में वह विराटनगर स्थित आदर्श स्कूल में चले गए जिसका सञ्चालन  नेपाल का सुप्रसिद्ध कोइराला परिवार करता था. एक नाटकीय घटनाक्रम में रेणु का जुड़ाव कोइराला परिवार से हुआ और उसी परिवार में रह कर उनकी पढाई भी होने लगी. रेणु के व्यक्तित्व में जो एक आभिजात्य अंदाज़ है उसकी पृष्ठभूमि इसी कोइराला परिवार से हासिल हुई प्रतीत होती है. कोइराला परिवार राजनैतिक परिवार भी था,इसलिए स्वाभाविक है,  पिता से प्राप्त उनके राजनीतिक संस्कारों का परिष्कार इस परिवार में हुआ. 1937में रेणु ने हाई स्कूल किया और इसी वर्ष आगे की पढाई के लिए बनारस आ गए,जहाँ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में उन्होंने दाखिला लिया. इण्टर की पढाई यहीं से हुई. बनारस में वह 1940तक रहे.

विराट नगर और बनारस ने रेणु के मानस का किस रूप में निर्माण किया,इस पर अध्ययन आज भी अपेक्षित है. यह पूरा समय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत घटनापूर्ण है. कहा जाता रहा है,और बहुत हद तक यह सच भी है कि उन्नीस सौ तीस का दशक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अत्यंत महत्वपूर्ण दशक है. इसका आरम्भ ही युवा भागीदारी से होता है. दिसम्बर 1929में  मात्र चालीस साल के जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष हो जाते हैं. 1931में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी जाती है. 1934में युवा जयप्रकाश नारायण की पहल से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन होता है. 1936में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन होता है. उत्तरप्रदेश के अवध और बिहार के मगध  इलाके  में इन्ही दिनों  किसान आंदोलन होते हैं. 1935में व्यवस्थित रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन होता है 1938  में कांग्रेस के भीतर वाम और दक्षिण  (सुभाष बोस और पट्टाभि सितारमैय्या ) की टक्कर  होती है,जिसमें वामपक्ष की जीत होती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वयुद्ध का वातावरण बनता है. यूरोप में फासीवादी राजनीति का उभर होता है ; और अंततः सितम्बर 1939में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाता है.

जयप्रकाश नारायण
इस दरम्यान युवा रेणु ने किस तरह इस पूरे घटनाक्रम को आत्मसात किया,इसका अध्ययन दिलचस्प हो सकता है. 1938में जब वह बनारस में ही थे,उनके बिहार में समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने 'समर स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स'का आयोजन किया था. एक साक्षात्कार में रेणु ने इसकी विस्तार से चर्चा की है.


'उन दिनों मैं बनारस में पढता था. पटना से प्रकाशित होने वाली बिहार सोशलिस्ट पार्टी की (रामबृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित) साप्ताहिक पत्रिका 'जनता'में कार्रवाइयाँ विस्तार पूर्वक छपती रहती थीं. जयप्रकाशजी उस स्कूल के प्रिंसिपल थे. एक-डेढ़ महीने का वह प्रशिक्षण शिविर अपने ढंग का अकेला था. कमलादेवी चट्टोपाध्याय,मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्रदेव, मेहर अली, अशोक मेहता जैसे  लोगों ने क्लास लिए थे..और इसका मेरे जैसे लोगों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा था. यानी समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी के प्रति अधिक आस्थावान हो गया था.. मैं उसमें चाह कर भी सम्मिलित नहीं हो सका था. किन्तु बेनीपुरी के सम्पादन और लेखन की कृपा से दूर रह कर भी इसमें सम्मिलित होने जैसा लाभ हुआ."
(रेणु रचनावली -4 / 419)

1940में विश्वविद्यालय की पढाई से विरक्त हो वह घर आ जाते हैं और अपने इलाके में किसान राजनीति को बल देने की कोशिश करते हैं. स्पष्टतः वह समाजवादी सक्रियता से जुड़ते हैं,जिसका उनके प्रान्त बिहार में बोलबाला था और जिसकी चर्चा ऊपर में रेणु ने स्वयं की है. सोशलिस्टों ने राजनीतिक आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन से पृथक नहीं किया था. अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी से देश की आज़ादी के लिए उनका संघर्ष अहम थालेकिन उनका लक्ष्य समाजवादी उद्देश्यों की प्राप्ति थी,जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर सामाजिक मिल्कियत मुख्य स्वप्न था. रेणु की राजनीति यही थी. 1942में वह गिरफ्तार किये जाते हैं और लगभग डेढ़ वर्ष जेल में रहने के बाद बीमारी की हालत में रिहा किये जाते हैं. प्लूरुसि का इलाज पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में होता है,जहाँ लतिकाजी से उनका परिचय होता है. भारतीय राजनीति में यह कितना घटनापूर्ण समय है,कहने की जरुरत नहीं. लेकिन रेणु के जीवन का सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन हमें यह बतलाता है कि रेणु राजनीति और साहित्य के बीच तेजी से पेंडुलम की तरह डोल रहे हैं. उनकी कहानियां 1944से छपनी शुरू हो जाती हैं. लेकिन रेणु भारत और नेपाल की राजनीतिक लड़ाई में बराबर सक्रिय दिखते हैं. वह तेजी से इस पूरे संघर्ष,उसकी बुनावट,उसकी विशिष्टताओं और यहां तक कि मिथ्याचारों को भी आत्मसात करते हैं,समझते हैं.


(दो)
जैसा कि सब जानते हैं समाजवादियों ने देश की आज़ादी को झूठा माना था और इसके मनाये जा रहे जश्न में हिस्सा नहीं लिया था. 1948में इनलोगों ने कांग्रेस पार्टी से अपने को अलग कर लिया था. 1934से अलगाव तक ये लोग कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) बना कर काम कर रहे थे. लेकिन बदली हुई परिस्थियों में इन्हे कांग्रेस से बाहर आना आवश्यक लगा.  इन सब का मानना था कि कांग्रेस दक्षिणपंथी शक्तियों का जमावड़ा है और चूँकि राष्ट्रीय आज़ादी हासिल कर ली गयी है, उनके साथ होने का अब कोई मतलब नहीं है. समाजवादी  उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाजवादियों को अपने संघर्ष अब तेज करने होंगे. इसलिए आवश्यक है कि वे एक अलग राजनीतिक दल के रूप में संगठित हों. रेणु अपने इलाके पूर्णिया जिले में इसी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्त्ता बनते हैं. उस वक़्त के तमाम समाजवादी जवाहरलाल नेहरू के प्रति एक मोह और मैत्री भाव रखते थे. लेकिन अब जब कि नेहरू प्रधानमंत्री हो गए थे,तेजी से समाजवादियों का उन से मोहभंग हो रहा था. व्यक्तिगत रूप से रेणु में भी यह मोह और उसका भंग आप देख सकते  है. रेणु ने एक एकांकी लिखी है  'उत्तर नेहरू चरितम'.

इस में व्यंगपूर्ण लहजे में रेणु ने नेहरू के कई रूपों को एक साथ देखने की कोशिश की है. यहाँ 1930का  वीर जवाहर है, किसानों का सबसे बड़ा हितैषी नेहरू है, कामरेड नेहरू है, ब्लैक मार्केटियरों को फांसी पर चढाने की मन्सा रखने वाला नेहरू है,उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने वाला नेहरू है और अंततः प्रधानमंत्री नेहरू है. यह कटु व्यंग राजनीति की गहराइयों में पैठ रखने वाला ही लिख सकता है. रेणु इस रूप में दक्ष थे. यह एकांकी उनकी सुलझी राजनीतिक समझ को हमारे सामने रखता है. इसे नागार्जुन की एक कविता 'तुम रह जाते दस साल और,जो उन्होंने नेहरू के अवसान पर लिखी थी,के साथ रख कर देखेंगे,तब दो रचनाकारों की राजनीतिक समझदारियों का तुलनात्मक अर्थ-भेद  भी आपके सामने  होंगे.

रेणु 1952तक समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे. इसी वर्ष भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर पहला आमचुनाव हुआ था. यह वयस्क मताधिकार एक नयी और कुछ मायने में, बड़ी चीज थी,क्योंकि इसके पहले के अंग्रेजी ज़माने में 1937और 1946में जो चुनाव हुए थे,उसमें सभी बालिगों को वोट के अधिकार नहीं थे. लेकिन यह भी था कि नए संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को केवल  राजनीतिक समानता  ही मिली थी आर्थिक और सामाजिक समानता नहीं,जिसकी चर्चा जोर देकर डॉ आंबेडकर ने संविधान सभा के आखिरी महत्वपूर्ण वक्तव्य में की थी. नेहरू और दूसरे समाजवादी भी नए संविधान से संतुष्ट नहीं थे. लेकिन इसमें लगातार संशोधन की गुंजाइश थी और इस आधार पर लोगों का सोचना था कि धीरे-धीरे बहुजनों  की आकांक्षाएं इस पर  हावी होंगी और आर्थिक-सामाजिक बराबरी भी सुनिश्चित की जा सकेगी.

स्वयं समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण इस प्रथम आमचुनाव को लेकर काफी उम्मीद लगाए बैठे थे. अपने बिहार में उन्हें अपनी समाजवादी पार्टी द्वारा प्रांतीय सरकार बना लेने की पूरी  उम्मीद थी. देश में एक प्रबल समाजवादी प्रतिपक्ष के गठन का भी स्वप्न था. लेकिन तमाम उम्मीदें धराशायी हो गयीं. समाजवादियों को कहीं कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली. देश भर के समाजवादी अवसाद में डूब गए थे. इतने अवसाद में कि उसी वर्ष उनलोगों ने कुछ ही समय पूर्व कांग्रेस के आलाकमान रहे, दक्षिणपंथी नेता कृपलानी के नेतृत्व में काम कर रही किसान-मजदूर प्रजा पार्टी से विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया. सोशलिस्ट पार्टी अब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन गयी थी. कृपलानी ने विलय की शर्त यह रखी थी कि सोशलिस्टों को वर्ग-संघर्ष की नीति छोड़नी होगी. सोशलिस्टों ने छोड़ भी दी. दुखी नरेन्द्रदेव ने इसे समाजवाद का बधियाकरण माना और कहा वर्गसंघर्ष की नीति त्याग देने के पश्चात् समाजवादियों के पास रह ही क्या जाता है.

आचार्य नरेन्द्रदेव
नरेन्द्रदेव बड़े नेता थे,इसलिए उनकी प्रतिक्रिया हमें उपलब्ध है. रेणु के मन पर क्या गुजरी होगी,इसका अनुमान ही किया जा सकता है. सोशलिस्ट पार्टी के कृपलानी की पार्टी के साथ विलय का मुख्य कारण छुटभय्ये समाजवादी नेताओं का संसदीय ढांचों, यानी धारा-सभाओं में येनकेन आने का उतावलापन ही था. कांग्रेस की तरह ही समाजवादी पार्टी में भी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे के ऊपरी तबके से आये लोगों का बोलबाला था. उन्हें उम्मीद थी कि कृपलानी की मोहर लगने और वर्गसंघर्ष की नीति-त्याग देने से समाज के मलाईदार तबके में उनका विरोध थम जायेगा और चुनावों में उन्हें सफलता मिलने लगेगी. कुछ हद तक यह सफलता बाद में मिली भी,लेकिन बहुत अधिक नहीं. जयप्रकाश नारायण इन सब से बहुत खुश नहीं थे. शायद इसीलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया.

रेणु के राजनीतिक गुरू जेपी ही थे. दोनों की मानसिकता बहुत हद तक मिलती -जुलती थी. जेपी में एक छुपा लेखक था और रेणु में एक छुपा राजनीतिक कार्यकर्त्ता. थोड़ा आगे -पीछे जेपी और रेणु दोनों राजनीति से सन्यास ले चुके थे. रेणु पूर्णकालिक लेखक बन गए और जेपी पूरे तौर पर जीवनदानी भूदानी. रेणु का रास्ता निश्चित तौर पर जेपी से बेहतर था. जेपी ने भी रेणु का रास्ता अपनाया होता तो हिंदी को एक और बेहतर लेखक मिला होता.

रेणु के मन में एक उथल-पुथल चल रही थी. उनकी पार्टी स्वतंत्र समाजवादी उसूलों के साथ बस चार साल ( 1948 -1952 ) काम कर सकी थी. उनलोगों ने तात्कालिक सफलता के लिए सिद्धांतों का सौदा कर लिया था. इस सिद्धांतहीन पार्टी के साथ रहने का अब क्या अर्थ था ! इसी निराशा में उन्होंने स्वयं को साहित्य की तरफ शिफ्ट कर लिया. हालांकि उन्होंने  इस बात को स्वीकार किया है कि अपने लेखन में भी वह राजनीतिक सोच से विलग नहीं हुए. उनके उपन्यास 'मैला आँचल', 'परती-परिकथा'या 'जुलूस'में हम उनकी राजनीतिक समझ और सोच को देख सकते हैं. अपने दोनों प्रमुख उपन्यासों 'मैला आँचल'और 'परती-परिकथा'में वर्णित दो गांवों मेरीगंज और परानपुर में आज़ाद भारत के ग्रामीण ढांचे में उभरते राजनीतिक हलचल को उन्होंने जिस बारीकी के साथ देखा-समझा है,वह महत्वपूर्ण है. मेरा मानना है उसपर अबतक अपेक्षित कार्य नहीं हुआ है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में रेणु का महत्व वही है,जो फ्रांसीसी परिप्रेक्ष्य में अपने समय में बाल्ज़ाक का था. लेकिन यह एक अलग विषय  है. मैं अभी रेणु की राजनीति तक सीमित होना चाहूँगा.



(तीन)
यक्ष्मा व्याधि से दूसरी दफा ठीक होने और लतिका जी के साथ विवाह के बाद रेणु ने पटना में अपना निवास बनाया था. उन्होंने  कई बार कहा कि वह स्वयं को पटना का नागरिक होने योग्य नहीं समझते. उनका मन गांव में रमता था. लेकिन'मैला-आँचल'की प्रसिद्धि के बाद उनका गांव रहना संभव नहीं था. 'परती-परिकथा'के लिखते समय वह इलाहाबाद रहे. दिल्ली,मुंबई,कोलकाता और दूसरे शहरों में वह जाते रहते थे. भारत की साहित्यिक दुनिया के शीर्षस्थ लोगों में उनकी गिनती होने लगी थी. दूसरे उपन्यास 'परती-परिकथा''और प्रथम कथा-संकलन 'ठुमरी'के प्रकाशन के बाद हिंदी साहित्याकाश में उनकी स्थिति ध्रुवतारे की तरह की बन गयी थी. रेणु जैसा दूसरा कोई नहीं था. किसी अन्य से उनकी तुलना नहीं हो सकती थी. इस तरह 1955से 1965तक का उनका समय लगभग विशुद्ध रूप से लेखकीय रहा. उन्होंने इस बीच राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं ली.

लेकिन 1964में कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन ने उन्हें एक बार फिर उद्वेलित किया. वह विचलित भी हुए. नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और भारत की दक्षिणपंथी राजनीति अपने मौज में थी. समाजवादियों के इकट्ठे होने के दिन थे;लेकिन वे बिखर रहे थे. लेकिन इससे भी बड़ी बात जो भारतीय राजनीति में उभर रही थी,वह थी हर पार्टी में कुछ खास होशियार लोगों की बढ़ती तानाशाही. राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हैसियत तंग होती जा रही थी. 1965में उनकी कहानी आती है 'आत्मसाक्षी'. 1930के दशक से पार्टी के लिए खंजड़ी बजा-बजा कर प्रचार कार्य और चंदा उगाहने वाला एक ग्रामीण कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता गनपत अपनी ही पार्टी के अधिकारियों द्वारा बेइज्जत किया जा रहा है. पार्टी में उसकी कोई औकात नहीं रह गयी है. इस कहानी की तारीफ अज्ञेय जी खूब करते थे. जर्मन विद्वान लोठार लुटसे ने इसका अपनी जुबान में अनुवाद किया और इसे केंद्र में रखते हुए रेणु से एक साक्षात्कार भी किया. इस  कहानी को कई लोगों ने  केवल कम्युनिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्त्ता की दयनीयता और एक पार्टी विशेष के आंतरिक संकट के रूप में देखा.. लेकिन नहीं, रेणु सभी राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की बदहाली को देख चिंतित थे. उनका मानना था यदि राजनैतिक दलों में जनतंत्र सुरक्षित नहीं रहेगा तो देश में भी जनतंत्र सुरक्षित नहीं रह सकता.

अपनी सोशलिस्ट पार्टी में ही कालीचरण की स्थिति का बयान वह 'मैला आँचल'में कर चुके थे. गाँवों से आए साफ़-सुथरे और क्रांति-चेता युवकों की पार्टी में कोई औकात नहीं होती थी. कार्यकर्त्ता यदि पिछड़ी जातियों से आया हुआ है,तब तो और भी बुरी स्थिति होनी थी. रेणु पार्टी के भीतर कथनी और करनी के इस भेद को देख रहे थे.

1970में 'दिनमान'को दिए एक साक्षात्कार में,जिसे उसके संपादक रघुवीर सहाय ने स्वयं लिया था,रेणु ने विस्तार के साथ राजनीतिक स्थितियों पर चर्चा की है. ध्यातव्य है कि 1969के वसंत में कम्युनिस्ट पार्टी का एकबार फिर विभाजन हो गया था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से टूटकर युवा कम्युनिस्टों का एक धड़ा अलग हो गया था. बंगाल के नक्सलबाड़ी जिले में किसानों के संघर्ष को इस धड़े ने न केवल समर्थन दिया बल्कि उसे  अपना संघर्ष घोषित कर दिया, जब कि  बुजुर्ग कम्युनिस्ट इसे समर्थन देने से इंकार कर रहे थे. नक्सलबाड़ी की देखा-देखी देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के संघर्ष उभरने लगे. बिहार में समाजवादी से सर्वोदयी हुए जयप्रकाश नारायण  ने स्वयं को मुजफ्फरपुर के पास मुशहरी में खुद को केंद्रित किया और रेणु को भी एक भावुकतापूर्ण पत्र लिखा. जेपी और रेणु के जीवन में राजनीतिक सक्रियता का यह एक नया रूप था. जेपी सर्वोदय के लिबास में थे और रेणु एक लेखक के. दोनों के पास कोई पार्टी नहीं थी. दल-हीन  जनतंत्र का बिरवा संभवतः इसी रूप में पनपा.

कवि रघुवीर सहाय के साथ संपन्न उस महत्वपूर्ण बातचीत में,जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है,कई तरह की बातें उभर कर आई हैं. रघुवीर सहाय भी राजनीतिक चेतना संपन्न कवि थे. उन्होंने दिनमान में प्रकाशित इस वार्ता का शीर्षक रखा 'टूटता विश्वास'. इस पूरी बातचीत में रेणु ने अपने जिले की भूमि समस्या को केंद्र में रखा है. क्योंकि नक्सलवादी आंदोलन के केंद्र में भूमि समस्या थी. जमींदार और बड़े किसान अब हर तरह के भूमि आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन कहने लगे थे. रेणु कहते हैं 'पूर्णिया अंचल की कहानी भूमिहीनों की कहानी है.'उन्होंने अपने इलाके के महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, (जो कभी समाजवादी कार्यकर्त्ता थे) नक्षत्र मालाकार को बातचीत के केंद्र में रखा.

इस नक्षत्र मालाकार के तीन रूप थे. एक रूप नछत्तर माली का था,जो 1936से सोशलिस्ट पार्टी का कार्यकर्त्ता था.  जेपी ने उसका नाम पूछा तब,उसने बतलाया नछत्तर माली. जेपी ने प्यार भरी झिड़की दी. ये क्या नाम हुआ. आज से आप का नाम हुआ नक्षत्र मालाकार. नछत्तर माली नक्षत्र मालाकार बन गए. सामंतो-ज़मींदारों से मालाकार को काफी चिढ थी. शोषण को बर्दास्त करना उसने नहीं सीखा था. उसने अकाल के समय ज़मींदारों के अन्न भंडारों पर धावा बोल दिया और अनाज को  भूखों में बाँट दिया. उसे लुटेरा घोषित कर दिया गया. इसी पात्र को रेणु ने अपने उपन्यास 'मैला आँचल'में चलित्तर कर्मकार के रूप में रखा है. कालीचरण अंततः इसी कर्मकार की तरफ बढ़ता है. यही समाज की नियति थी. नक्सलवाद की पगध्वनि को रेणु ने पचास के दशक में ही सुन-समझ लिया था. कथाकार मधुकर सिंह को दिए एक साक्षात्कार में भी रेणु ने प्रसंगवश नक्षत्र मालाकार की विस्तृत चर्चा की है. उनके पूरे वक्तव्य को देखना ही ठीक होगा.

'कुछ वर्षों तक हम साथी रहे. जब-जब राजनीतिक लोगों ने उसे 'राजनीतिक'मानने से इंकार किया और उसको विशुद्ध क्रिमिनल करार दने की साजिश की- हम कई लोगों ने इसका विरोध किया- 1947से ही. हम कई लोग- जिसमे बंगला के प्रसिद्ध लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी थे-पहले पार्टी में उसके निष्कासन के विरुद्ध आवाजें उठाते रहे और जब वह पार्टी से निकाल दिया गया और परम स्वतंत्र होकर जब वह अपने जी का करने लगा,उसकी लूट,डकैती,हत्या आदि की कहानियां सुन कर हमने लिख कर उसकी निंदा की. किन्तु तब भी उसको 'राजनीतिक'मानता रहा.. जिस तरह आप,आज उसके बारे में जानना चाहते हैं,तत्कालीन जिला पुलिस के अधिकारी और गुप्तचर विभाग वाले भी अक्सर हम से मिल कर नक्षत्र के बारे में ऐसे ही सवाल करते थे. उन्हें जो जवाब देता था,आज भी दे रहा हूँ- 'नक्षत्र जनता का आदमी है'. वह गिरफ्तार हुआ,आजीवन कारावास की सजा झेल रहा था. अभी इतना ही कि नक्षत्र मालाकार का मतलब है जन-जीवन की एक जबरदस्त छटपटाहट.'
(रेणु रच.-4 /420)

इस छटपटाहट को रेणु जिस व्यग्रता से समझ रहे थे,दूसरे नहीं समझ रहे थे. 1970के आसपास रेणु ने कई बार अपने इलाके की भूमि समस्या को उठाया. दिनमान में जब रिपोर्टिंग करते थे,तब भी इस समस्या पर सांकेतिक रूप से लिखा. 1966के भीषण सूखे की उन्होंने रिपोर्टिंग की. उससे जनित अकाल को देखा-समझा था. उन्हें कुछ आभास हो रहा था. 22नवम्बर 1971को उनके पूर्णिया जिले के धमदाहा थानांतर्गत रूपसपुर चंदवा गाँव में जमीन्दारों ने इकठ्ठा हो कर एक साथ चौदह आदिवासियों की हत्या कर दी. यह बिहार का पहला नरसंहार था. कांग्रेस पार्टी के नेता और तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष, हिंदी लेखक लक्ष्मीनारायण सुधांशु के नेतृत्व में यह कुकृत्य हुआ था. समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर ने पूरे राज्य में इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. मजबूर होकर तत्कालीन भोला पासवान शास्त्री सरकार को  दिग्गज नेता लक्ष्मीनारायण सुधांशु की गिरफ़्तारी सुनिश्चित करनी पड़ी. जिस आशंका की ओर रेणु बार-बार संकेत कर रहे थे,वह प्रकट हो चुका था.

इन सब कारणों से रेणु की निराशा बढ़ने लगी थी. राजनीतिक दलों पर से उनका विश्वास उठने लगा था. ऐसा लगता है उनका समाजवादी बुखार भी कुछ समय के लिए  उतर गया था. लेकिन उनके मन में आमजन की पीड़ा घनी भूत होती जा रही थी. कोई बीस साल के अंतराल के बाद एक बार फिर वह सामने आते हैं. 1972में उन्होंने संसदीय राजनीति में स्वयं को सक्रिय किया. उन्होंने बिहार विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ा. उन्हें भी अपने नेता जेपी की तरह चुनाव जीतने  की उम्मीद थी. यह उनके पत्रों और साक्षात्कारों से पता चलता है. लेकिन वह बुरी तरह पराजित हुए. इस पराजय के बाद वर्तमान संसदीय ढांचे से वह नाउम्मीद हो चुके थे. इसी बीच गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुए और जेपी ने युथ  फॉर डेमोक्रेसी शीर्षक से गुजरात के युवकों के नाम खुला पत्र लिखा. कुछ ही महीनों बाद बिहार के छात्रों ने जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध और शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए आंदोलन शुरू किया,तो जेपी ने अपने  सन्यास का परित्याग किया और उसे समर्थन की घोषणा की. आंदोलन तेजी से बढ़ गया,क्योंकि देश-समाज की स्थिति विषम हो गयी थी. रेणु मानो  इंतजार ही कर रहे थे. वह एक बार फिर सक्रिय हुए. सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में उन्होंने भागीदारी की. जेल भी गए. जैसा कि सब जानते हैं किस तरह देश में आपातकाल घोषित किया गया और लोकतंत्र की चूलें क्यों हिल गयीं.

दुनिया के अनेक देशों में जनतंत्र के कुचले जाने के समाचार आ रहे थे. चिली में साल्वाडोर अलेंदे के खिलाफ सैनिक विद्रोह,या बगल के बंगला देश में ही शेख मुजीबुर्रहमान की सैनिक दस्ते द्वारा निर्मम हत्या से अनेक लोकतंत्र प्रेमियों को लगा कि क्या भारत में भी जनतंत्र के दिन गिने-चुने हैं ? समाजवादी स्वप्न और कार्यक्रम कुछ वक़्त के लिए नेपथ्य में चले गए. लोकतंत्र रहेगा या नहीं रहेगा का प्रश्न प्रमुख हो गया. कई अंतर्विरोधों और मलबे के ऊपर एक पार्टी का गठन होता है. दलहीनता की वकालत करने वाले जेपी इसके पुरोहित बनते हैं. 1977में जब लोकसभा के चुनाव हुए तब जेपी की राजनीति को सफलता हासिल हुई. चुनाव के नतीजे आते ही रेणु अपने ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती हुए और फिर नहीं लौटे. 11अप्रैल 1977को उन्होंने हमेशा के लिए विदा ले ली.

रेणु यदि कुछ समय और जीवित होते तो क्या करते,या जेपी के सपनों के एकबार फिर टूटने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती,इसकी कल्पना शायद बेमानी है. जेपी को निराशा हाथ लगी, रेणु भी निराश होते. इससे अधिक कुछ नहीं होता. इस से अधिक हो भी क्या सकता था.

रेणु की राजनीतिक चेतना के एक और वैशिष्ट्य पर बात किये बिना इस लेख को समाप्त करना ठीक नहीं होगा. इस बात पर कम लोगों की नजर गयी है कि रेणु ने लोहियावादी समाजवाद से एक दूरी बनाये रखी है. बिहार और उनके कोसी इलाके में 1960के दशक में राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी का प्रभाव बढ़ने लगा था. 1964में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक धड़े से जुट कर सोशलिस्ट पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बन गयी,जिसे संक्षेप में संसोपा कहा जाता था. इस समाजवादी धड़े ने एक नारा दिया 'संसोपा ने बाँधी गाँठ;पिछड़ा पावें सौ में साठ'.
(डॉ. राममनोहर लोहिया)

इसे राममनोहर लोहिया की जाति-नीति कहा गया. लोहिया विलक्षण नेता थे. प्रखर वक्ता और बेजोड़ संगठनकर्ता. उनकी खासियत यह थी कांग्रेस और नेहरू विरोध में समाजवादियों को  उन्होंने इस स्थिति में ला दिया कि वे जनसंघ के निकट आते चले गए. कांग्रेस के अर्द्ध-दक्षिणपंथ का विरोध करने वाले सोशलिस्ट पूर्ण- दक्षिणपंथियों की गोद में जा बैठे. जाति-नीति का दोयम दर्जे के सोशलिस्टों ने खूब प्रचार किया. रेणु इस प्रभाव में कभी नहीं आये. यह अकारण नहीं था. वैचारिक रूप से रेणु अधिक प्रौढ़ दीखते हैं. वर्ण और वर्ग के अंतर्विरोधों को जिस सूक्ष्मता से उन्होंने समझा है,उस से राजनेताओं को सीख लेने की जरूरत है. जाति और वर्ण की स्थिति को रेणु नकारते नहीं,स्वीकारते हैं ; लेकिन उसे वर्गीय नजरिये से ही देखते हैं. लोहिया वर्गीय नजरिये की उपेक्षा करने लगे थे और इससे चीजें काफी उलझ जा रही थीं. कृपलानी की पार्टी से समझौते और उनके द्वारा वर्ग संघर्ष की नीति के परित्याग पर लोहिया ने कोई नाराजगी प्रकट की हो,ऐसा प्रमाण नहीं उपलब्ध है. लोहिया की  मृत्यु के बाद संसोपा के लोगों ने कुलक किसान नेता चरण सिंह की राजनीति के साथ समझौता कर के भूमि सुधारों के कार्यक्रमों से अपनी दूरी बना ली. चरण सिंह ने समाजवादियों का दूसरी बार बधियाकरण कर दिया था,इस बार उनकी चेतना का बधियाकरण हुआ था.

रेणु की सोच अलग है. वह भूमि समस्या पर हमेशा जोर देते रहे. वर्ग और वर्ण के अंतर-संबंधों  को वह बखूबी समझते थे. 'मैला आँचल'में आपस में उलझते राजपूत और यादव टोले को भी उन्होंने देखा और संथाल आदिवासियों के खिलाफ एक साथ जुड़ते भी देखा. उनके उपन्यास 'परती परिकथा'में सवर्ण जाति से आने वाला सुवंस गांव के ही दलित परिवार की युवती मलारी से प्रेम करता है. लेकिन वे गांव में एक साथ नहीं रह सकते. उन्हें गांव छोड़ना पड़ता है. दूसरी तरफ जित्तन उसी गांव में ताजमनी के साथ रह सकता है. यह क्यों और कैसे संभव होता है? जित्तन और सुवंस  दोनों तथाकथित ऊँची जातियों से हैं.लेकिन अंतर यह है कि जित्तन ज़मींदार है,जब कि सुवंस  की कोई उल्लेखनीय आर्थिक हैसियत नहीं है. दोनों का वर्ण एक है,लेकिन वर्ग एक नहीं है. जित्तन गांव में ही रह कर ताजमनी से प्रेम कर सकता है,सुवंस नहीं कर सकता. वर्ग की ताकत वर्ण से अधिक है. यह रेणु की राजनीतिक समझ है,जिसे लोहिया समझने में विफल हो जाते हैं.

रेणु यह भी जानते हैं कि भारत औद्योगिक देश नहीं है,कृषि प्रधान  देश है. उत्पादन का सबसे बड़ा साधन यहां आज भी खेत है,  भूमि है. इसलिए भारत में वर्ग संघर्ष का पहला पाठ सिर के बल खड़े  भूमि -संबंधों को पैर के बल खड़ा करना है, भूमि को उनलोगों के अधिकार में लाना है जो उस पर मिहनत करते हैं.



(चार)
हिंदी साहित्य में अनेक लेखक हुए जिनके राजनीतिक सरोकार थे. राष्ट्रीय आंदोलन में तो कई ऐसे लेखक हुए,जिन्होंने जेल की सजा भी भुगती. जैनेन्द्र कुमार जेल गए, अज्ञेय गए,यशपाल,  माखनलाल चतुर्वेदी ने भी कैद की सजा पायी. इन सब की सूची बहुत लम्बी हो सकती है. आज़ादी के बाद भी अनेक ऐसे लेखक हुए जिनके खुले राजनीतिक सरोकार थे. मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जैसे लोग कुछ  समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे. राहुलजी तो कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले गए और फिर शामिल कर लिए गए. हाल तक अनेक प्रगतिवादी लेखक-कवि किसी न किसी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. इसमें कोई बुराई भी नहीं है.

लेकिन रेणु की राजनीतिक सक्रियता या सम्बद्धता और दूसरों की सक्रियता-सम्बद्धता में एक फर्क है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. अधिकतर कम्युनिस्ट लेखकों ने अपने दल या उसकी रीति-नीति पर अपने लेखन में कोई सवाल नहीं उठाये. अपनी पार्टी के अंतर्विरोधों और पाखंडों का पर्दा-फास नहीं किया. निर्मल वर्मा जैसे लेखक भी हुए,जो मार्क्सवाद से सीधे दक्षिणपंथी भगवा-अखाड़े में कूद गए. बहुत ऐसे लेखक हुए जिन्होंने पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार हासिल करने तक मार्क्सवादी खेमे का इस्तेमाल किया और जब उनका स्वार्थ पूरा हो गया तो अपने स्वाभाविक जमात में शामिल हो गए. कुछ ने इसे अभिनव ज्ञान की प्राप्ति के रूप में लिया.

रेणु ने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने के बाद भी समाजवादी सोच और आदर्शों को नहीं छोड़ा. उन्होंने अपने गुरु जेपी का भी अनुकरण नहीं किया. उन्होंने अपने गुरु के सही राह पर आने का इंतज़ार किया. अवसाद के क्षणों में या बंगला संस्कृति के प्रभाव में उन्होंने वाममार्गी औघड़पंथ में रूचि ली. लेकिन इसे छुपाने की जरुरत उन्हें महसूस नहीं हुई. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने वाममार्गियों (औघड़ी संस्कृति) के समतावादी चरित्र और वर्णवाद के प्रति उनके स्पष्ट विरोध को रेखांकित किया है. अपने लेखन में भी उन मूल्यों की हमेशा हिफाजत की जिन मूल्यों के लिए वह राजनीतिक संघर्ष कर रहे थे. भूमिहीन किसान, कारीगर-दस्तकार, स्त्रियां,आवारा बच्चे, हर तरह के सामाजिक पाखंड से जूझ रहे सामाजिक कार्यकर्त्ता,अपनी ही पार्टी के भीतर लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए लड़ रहे राजनीतिक कार्यकर्त्ता और लछमिन कोठारिन, वामनदास  और प्रशांत जैसे निष्कलुष-निर्जात (डिकास्ट) चरित्र हिंदी साहित्य में केवल रेणु के ही यहां क्यों हैं ? इस पर किसी ने सोचा है ?

रेणु का अनुकरण करने की कोशिश कुछ लोगों ने की है. लेकिन वे विफल हुए हैं. उनका अनुकरण करने के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक मिथ्याचार और सामाजिक अवगुंठन को कोई उस तरह समझे,जिस तरह रेणु ने समझा है. रेणु न अपनी आंचलिकता में हैं, न अपनी भाषा के राग-विराग में. यह सब उनका बाह्य है,उनका असली स्वरुप उनकी चेतना में है और इसे समझना मुश्किल इसलिए है कि यह थोड़ा जटिल है.

नागार्जुन की कविताओं में राजनीति है; और उनका एक उपन्यास 'बलचनमा'भूमि समस्या पर ही केंद्रित है. लेकिन नागार्जुन राजनीति के मिथ्याचार को उस  बारीकी से नहीं देख पातेजिस तरह रेणु देखते हैं. रेणु ने भी संथाल किसानों के साथ दूसरे लोगों के संघर्ष को चित्रित किया है. 'मैला आँचल'के मेरीगंज में सिपहिया टोला के राजपूत और गुअर टोले के यादव आपस में लड़ते रहते हैं. कायस्थ बिसनाथ प्रसाद भी इन्हीं के बीच डोलते रहते हैं; लेकिन जैसे ही आदिवासी संथालों से लड़ने का प्रश्न उठता है,राजपूत,यादव और कायस्थ इकठ्ठा हो जाते हैं. आदिवासियों के प्रति हमदर्दी रखने वाला केवल डॉ प्रशांत होता है. 

रेणु के इस सामाजिक विभाजन को समझना बहुत आसान नहीं है. नागार्जुन के यहाँ राजनीतिक ब्योरे हैं,परिदृश्य भी है,लेकिन वह समझ नहीं है,जो रेणु के यहाँ है. नागार्जुन और अन्य कई प्रगतिवादी लेखक राजनीति के केवल बाह्य को देख पाते हैं. उसके अंदरूनी परतों और अवगुंठनों को देखना हो तो रेणु के अलावे बहुत कम उदहारण मिलेंगे. 


यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि बहुत कम मार्क्सवादी लेखकों  ने यथार्थवादी स्तर पर गांवों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों की विवेचना की. यदि की भी प्रभावकारी अंदाज़ में नहीं. इसलिए रेणु की परंपरा को विकसित करना आज भी एक चुनौती है.
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प्रेमकुमार मणि
9431662211

शहरयार और क़ाज़ी अब्दुल सत्तार : सूरज पालीवाल

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उसने ये जाना कि गोया/ये भी मेरे दिल में था     
सूरज पालीवाल
     




क़ाज़ी  अब्दुल सत्तार और शहरयार दोनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से सेवा निवृत हुये थे. यह उनका अकादमिक परिचय है, जिसके लिये लोग आजीवन तरह-तरह की तिकड़में करते हुये उस पायदान पर पहुंच जाते हैं पर क़ाज़ी  साहब या शहरयार साहब का यह परिचय उनका मुकम्मल परिचय नहीं हो सकता. क़ाज़ी  साहब उर्दू अदब के तारीखी अफसानानिगार थे और शहरयार साहब अपने समय के बेहद मकबूल शायर. एक विभाग में अक्सर इतनी प्रतिभाएं एक साथ नहीं होतीं पर उर्दू विभाग को एक साथ दोनों को देखने और सुनने का सौभाग्य मिला था, जिसकी स्मृतियां लोगों के जेहन में अभी भी ताज़ा  हैं.

शहरयार साब और राही मासूम रज़ा  दोनों क़ाज़ी  साब के अध्यापन जीवन के पहले सत्र के विद्यार्थी थे. शहरयार साब अक्सर कहा करते थे कि क़ाज़ी  साहब ऐसे अध्यापक हैं, जिन्हें पहले ही दिन पढ़ाने के लिये एम.ए. की कक्षा मिली वरना ज्यादातर अध्यापक पीयूसी पढ़ाते हुये बहुत बाद में एम.ए. तक पहुंच पाते हैं. क़ाज़ी  साहब कहने में तो कहीं नहीं चूकते थे इसलिये शहरयार साब के जवाब में वे कहा करते थे कि हाई स्कूल से लेकर एम.ए. तक जिसने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया हो, यह सौभाग्य उन्हीं को मिलता है. जाहिर है कि क़ाज़ी  साब जितने पढ़ने में होशियार थे उतनी ही उनकी याददाश्त भी तेज थी. एक बार वे थोड़ा-सा समय दे दें और सुनने वाला मन से सुनने को तैयार हो तो क़ाज़ी  साब बताते हुये थकते नहीं थे.

उन्हें इतनी चीजें पता थीं कि शागिर्दों को छोड़ दीजिये अध्यापक भी कहीं अटकते थे तो क़ाज़ी  साब से पूछने जाते थे. जब उनका ‘दाराशिकोह’ उपन्यास प्रकाशित हुआ तब इरफान हबीब साब ने टिप्पणी की कि दाराशिकोह के खाने पर तो क़ाज़ी  साब ने कुछ लिखा नहीं.

क़ाज़ी  साब ने जवाब दिया कि ‘मुगलों का खाना शाही दरबार से न होकर निजी होता था इसलिये उसके बारे में कुछ लिखना फिजूल होता.’

उन्होंने यह भी कहा कि मैं दाराशिकोह की जीवनी नहीं वरन् उपन्यास लिख रहा था इसलिये उपन्यास में जितना बताना जरूरी था, उसे बताया गया है.’

शहरयार साहब इस मामले में चुप रहते थे, वे तुरंत जवाब देने या विवादों में पड़ने वाले इंसान नहीं थे. वे शायरों की तरह जिंदगी जीते थे और शायरों की तरह ही व्यवहार करते थे. उन्हें बहुत कुरेदिये तो छोटा-सा जवाब देकर चुप हो जाते थे. असल में यह अंतर विधाओं का अंतर है, कथाकार बगैर जीवनानुभवों के लिख ही नहीं सकता और शायर अपनी तरह से चीजों को देखता है, कभी चुप होकर तो कभी आंखें बंद कर. उसके अनुभव करने के तरीके कथाकार की तरह नहीं होते.

डॉ. प्रेम कुमार ने अच्छा काम यह किया कि अपने समय के दो अदीबों के लंबे साक्षात्कार लेकर पुस्तककार रूप में प्रकाशित करवाये. ‘बातों-मुलाकातों में शहरयार’ पुस्तक 2013में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई तो ‘बातों-मुलाकातों में क़ाज़ी अब्दुल सत्तार’ पुस्तक 2016में अमन प्रकाशन से प्रकाशित हुई.

प्रेम कुमार अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे और शुरू में कहानियां लिखा करते थे. जहां तक मेरी जानकारी है वे उर्दू नहीं जानते लेकिन इन पुस्तकों से ज्ञात होता है कि उर्दू अदब और उर्दू के अदीबों से बातें करना उन्हें अच्छा लगता था. अलीगढ़ के ही हमारे दोस्त सुरेश कुमार ने तो उर्दू सीखने के लिये उर्दू की विधिवत् पढ़ाई की थी. यह एक प्रकार का जुनून है, जो दोनों दोस्तों में अलग-अलग तरीके से देखा जा सकता है. एक लंबे समय तक अपने सारे काम छोड़कर साक्षात्कार लेने में व्यस्त है तो दूसरा उर्दू पढ़ने और जानने के लिये बेचैन हैं. दोनों पुस्तकें मेरे लिये कम से कम इसलिये महत्वपूर्ण हैं कि क़ाज़ी साब और शहरयार साब दोनों मेरे उस्ताद रहे हैं. हालांकि उन्होंने मुझे कक्षा में कभी नहीं पढ़ाया पर वह उस्ताद ही क्या जो केवल कक्षाओं तक ही सिमटकर रह जाये. इन पुस्तकों की खूबी यह है कि इनमें दोनों लेखकों को खुलकर अपनी बात कहने का अवसर दिया गया है. यह बात दूसरी है कि इन साक्षात्कारों को यदि कोई उर्दू वाला लेता तो उर्दू अदब की रवायतें और उसके खास  खास अदीबों के बारे में और ज्यादा जानकारी मिल सकती थी, इसलिये प्रेम कुमार की कुछ सीमाएं हैं जो दोनों पुस्तकों में बार-बार अलग-अलग तरीके से झलकती हैं.

क़ाज़ी  साहब अपने निजी जीवन के बारे में खुलकर बताते हैं पर शहरयार साहब ऐसा नहीं करते. क़ाज़ी  साहब के पास कहने को बहुत कुछ है, वे अफ़सानानिगार हैं उनके पास लाजवाब किस्सागोई है कि सुनने वाला भी झूम उठे पर शहरयार साब तो शायर हैं. शायरों को तो बहुत कम शब्दों में यानी एक शेर में अपनी बात कहनी होती है, उनके पास उपन्यास के पन्ने नहीं हैं जो भरते जाइये इसलिये वे अपने जीवन के बारे में बहुत कम बताते हैं. प्रेम कुमार बार-बार पूछते भी हैं पर शहरयार नहीं खुलते. जबकि क़ाज़ी  साब का जीवन तो खुली हुई किताब थी, जहां मौका मिलता वे अपने बारे में बताना शुरू कर देते. जब प्रेम कुमार उनके प्रेम संबंधों के बारे में पूछते हैं तो वे बताना शुरू करते हैं

‘गुलाबजान और मुनीरज़ा न तो हमारी फुआ थीं, नूरजहां, बेगम पारा ... नाम याद आ रहे और ... वगैरह के नाचने ने मेरी पसंद को बहुत मुतास्सिर किया. हमको इनसे इश्क हो गया. नूरजहां हमारे ही इलाके के बिरसवा की रहने वाली थी. एक शहजादी ने हमसे मोहब्बत की. उन पर हमने इस उम्र में नाविल लिखा है. वो मेरी पसंद थीं और नाविल में जैसे शहजादी ही मुजस्सिमा हो गई. मेरी हर कहानी, हर नाविल में, कहीं कम, कहीं ज्यादा, कहीं न कहीं से, किसी न किसी तरह उन्हीं की मोहब्बत झलकती है. नाविल में तो पूरी तस्वीर-सी झलकती है. मैं इनको पेश करने के बहाने ढूंढ़ता रहता हूं. मुझे लड़कियो ने कभी मुतास्सिर नहीं किया. मछरेटा, सीतापुर और लखनऊ या अलीगढ़ में भी, किसी ने मुझे हुस्न के आम तराजू पर उतरने वाली लड़कियों में दिलचस्पी लेते नहीं देखा. मेरी पाक़बाजी का मछरेटा में जो जिक्र होता है, उसका सबब यही है. खुदा गवाह है, मैंने आज तक किसी लड़की से, किसी औरत से यह नहीं कहा या यह नहीं लिखा कि मैं तुम्हें चाहता हूं. दुनिया की कोई लड़की मेरा एक खत  पेश नहीं कर सकती. हां, फली-फूली, भरी-भराई, पकी औरतें कल भी मुझे परेशान करती थीं और आज भी मुझे वे ही अच्छी लगती हैं.’

ये क़ाज़ी  साहब हैं, जिनके बहुत सारे किस्से इस पुस्तक में बिखरे पड़े हैं, जिनका आगे भी जिक्र किया जायेगा पर बात यह है कि क़ाज़ी साब अपने बारे में कुछ छुपाते नहीं है. लेकिन शहरयार ऐसा नहीं करते, वे बहुत नहीं खुलते. प्रेम कुमार यहां-वहां से घुमाकर कई बार उन्हें उस मुकाम पर लाये हैं जहां शायर भावुक हो जाया करते हैं पर शहरयार हमेशा चैकन्ने बने रहते हैं. प्रेम कुमार ने इसका जिक्र करते हुये लिखा है

‘खूबसूरती पर शुरू हुई बात की अंतिम तान यहां आकर टूटेगी-सोचा ही नहीं जा सकता था. उनकी आंखों की तरफ निगाह गई तो लगा कि जैसे वो उस समय किसी बेहद खूबसूरत चेहरे को देखने में मुब्तिला थीं. मन किया कि उन आंखों द्वारा खूबसूरती का खिताब पाने वाले के बारे में कैसे ही कुछ जानूं-कोई ऐसी यादगार तारीफ ? सुनकर कुछ और खिले-खुले से दिखे- एक शेर है हमारा ‘तुमसे मिलते न हम तो लगता है, जिंदगी में बड़ी कमी रहती....’

कुछ और कहलवाने के लिये जरा और कुरेदा तो रहस्यमयी-सी एक मुस्कान के साथ कहा-

ज़ाहिर है कि जिसको देखकर या जिससे मिलकर ये शेर कहा होगा, उसने मेरी जिंदगी में क्या-क्या न परिवर्तन किया होगा. मैंने नाम जानने के लिये बच्चे जैसी एक जिद की. उन्होंने बड़े गुनी अनुभवी के कौशल के साथ उसे फिर से एक शेर सुनाकर जैसे अनसुना कर दिया-
‘आगे बढ़े न किस्सए-इश्के बुतां से हम/सब कुछ कहा खुले न मगर राजदां से हम.’

मैं अपने इरादे को पराजित होने नहीं देना चाहता था. किसी सीखतर खिलाड़ी की तरह अपने इरादे की गेंद को साहस की हाकी से सटाए-चिपकाए मैं लगातार इधर-उधर घुमा रहा था. पर वो थे कि मुझे गेंद को हिटकर सकने तक का मौका नहीं दे रहे थे. गोल तक तो भला मैं उसे क्या पहुंचा पाता. मेरी कोशिश जारी रही-कभी उस रिश्ते का समय पूछा तो कभी उम्र और कभी वर्तमान ! मेरे प्रश्नों को सुन-सुनकर वो बताते-बताते ऐसे मुसकुराते रहे थे जैसे कोई श्रेष्ठ खिलाड़ी किसी किशोर के खेल में के बचपने को देख-देखकर मुसकुरा रहा हो- 

सब कहा-बुतों से इश्क का तरीका बताते रहे. ... नहीं मिले थे- तब नहीं- शेर तो बाद में-बहुत बाद में कहा गया. वो किस्सा सन् अट्ठावन वगैरह का है. उस रिश्ते की उम्र बहुत चली... अब भी वो रिश्ता ... इमोशनल रिश्ता-बाकी है. मन हार मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था-

अच्छा ऐसी कोई स्मृति जब आपने समर्पण किया ? मुस्कान हंसी में तब्दील हुई. जैसे उसे भी मेरे पूछने और उस आग्रह पर हंसी आ गई थी- वो तो म्यूचल ही था- अन्यथा दूसरा आदमी इतना दीवाना नहीं हो सकता था-दोनों तरफ थी आग बराबर लगी हुई....’ इन दोनों उद्धरणो   से एक कथाकार और एक शायर की जिंदगी के फर्क को भी समझा जा सकता और उनके खुलने-बताने की गहराई को भी.

क़ाज़ी  साहब के अनगिनत किस्से हैं पर शहरयार साब इस प्रकार के किस्सों से बचते हैं. क़ाज़ी  साब जिस माहौल में पले-बढ़े थे उससे वे आजीवन निकल नहीं पाये. देश आजाद हुआ, जमींदारी उन्मूलन में मछरेटा की जागीरदारी चली गई पर उनके मन से जमीदारी कभी नहीं निकली. वे आजीवन उसी ठसक से रहे और उसी ठसक से सामने वाले से बातें कीं. इस ठसक में सामंती भाव था तो  उदारता भी थी, जो उनमें हमेशा विद्यमान रही. क़ाज़ी  साब की विशेषता यह है कि वे किसी बात को छुपाते नहीं हैं. तवायफों के यहां जाना और मुजरे सुनना ताल्लुकदारों की अपनी खासियत है इसके लिये उन्हें किसी प्रकार की शर्मिंदगी न होकर गर्व है. क़ाज़ी  साब अपने बेहद संवेदनशील और मार्मिक प्रेम प्रसंग को सुनाते हुये कहते हैं -एम. ए. में पढ़ने के दौरान लखनऊ यूनिवर्सिटी के हास्टल से निकाल दिया गया तो क़ाज़ी साब रिश्ते के मामू के यहां चले गये. मामू रईस थे उनका बंगला क्या महल था, क़ाज़ी साब उसमें रहने लगे. वहीं शमीम से मुलाकात हुई, उस घटना के बारे में उन्होंने बताया

‘क्या तुमको यकीन आयेगा कि तीन महीने तक हम दोनों एक-दूसरे के हाथ चूमते रहे और पेशानियों पर बोसे लिखते रहे. न हम आगे बढ़े और वो तो लड़की थी- वो भी रईसजादी-उनके आगे बढ़ने का सवाल ही क्या था? हर तीसरे-चैथे दिन वो छुपकर मेरे पास आतीं या मुझको चोरी-चोरी बुलवा लेतीं. हम दोनों एक ही कोच पर हाथों में हाथ दिये बातें करते रहते.’

वे कट्टर शिया परिवार से थीं और क़ाज़ी साब कट्टर सुन्नी परिवार से इसलिये शादी नहीं हो सकती थी. इसलिये वे जहर खाकर मर गईं. क़ाज़ी साब ने स्वीकार किया कि ‘शमीम जैसी खरी-सच्ची माशूका नहीं मिली. उसने मेरा इंतजार तक नहीं किया.’

उनकी मौत के बाद की स्थितियों पर उन्होंने बताया 

‘काफी दिनों तक मैं आदमक़द आईने के सामने खड़ा अपने आपको देखता और सोचता रहा कि मेरा और शमीम का क्या मुकाबला ? न दौलत में, न जायदाद में, न सूरत में, न शक्ल में. वो अपने रईस बाप की इकलौती बेटी ... और इस तरह चली गई जैसे वो दस-बीस बेटियों में से एक बेटी हो. आज भी जब याद करता हूं तो सारी-सारी रात बैठा रहता हूं. इस उम्र में भी. हां, यह सच है.’

इस मार्मिक प्रेम प्रसंग का उन्होंने अपने उपन्यास ‘पहला और आखिरी खत’ में जिक्र किया है. यह प्रसंग कई पृष्ठों में समाहित है, इसके चित्रण से ही लग जाता है कि वे शमीम से कितना प्रेम करते रहे होंगे. क़ाज़ी साब बहुत सुंदर नहीं थे लेकिन जिस तरह रहते थे, उसमें उनकी नफासत साफ झलकती थी.

क़ाज़ी  साहब पाकिस्तान गये वहां फौजी तानाशाह सदर ने उन्हें डिनर पर बुलाया, खुद पोर्च में लेने और छोड़ने आये, लौटकर आये तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुलाया. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से उनकी बहनों के माध्यम से मिलते-जुलते रहते थे तथा किस-किस बड़े आदमी ने उन्हें और उनके लेखन को इज्जत बख्शी, इस बारे में वे अक्सर बताया करते थे. बताने में उन्हें आनंद आता था और देखते-देखते मछरेटा उन पर हावी होता जाता था. वे इस बात को स्वीकार भी करते थे कि मछरेटा के ताल्लेदार होने के नाते एक प्रकार का गुरूर हमेशा उनके अंदर रहा, जिसने उन्हें कभी किसी के सामने न झुकने दिया और न समझौता ही करने दिया. उनके विभाग में ऐसे कई अध्यापक थे जो इस कला में माहिर थे, पर क़ाज़ी  साहब उस रास्ते पर कभी नहीं गये, चाहे कितना भी नुकसान हो गया हो. खुद्दारी तो शहरयार साब और क़ाज़ी  साब दोनों में थी, शहरयार साब को किसी कुलपति ने कहा ‘आप आलोचना पर एक किताब लिख दो तो मैं प्रोफेसर बना दूंगा.’

उन्होंने मना कर दिया कि ‘जो इलाका अपना है ही नहीं उसमें जाने से क्या फायदा ?’ आज के समय में मुझे उर्दू का नहीं मालूम कि वहां अकादमिक जगत की क्या स्थिति है पर हिंदी के बारे में मैं जानता हूं कि अब सहायक प्रोफेसर बनने से लेकर आगे तक किसी का कोई इलाका नहीं है, एक आदमी भाषा विज्ञान पर भी लिख रहा है, काव्य शास्त्र पर भी लिख रहा है, कहानी और उपन्यासों पर भी लिख रहा है और शमशेर और मुक्तिबोध की कविता पर भी लिख रहा है. जहां जैसी संगोष्ठी होती है, वैसा लिख देता है, उसका अपना कोई विषय और विशेषज्ञता नहीं होती. इसलिये हिंदी विभागों में ऐसे अनाम व्यक्ति पदों पर बैठे हैं कि उनसे एक मिनट भी गंभीरता से किसी विषय पर बात नहीं की जा सकती. बस उन्हें जुगाड़ आता है, मोबाइल में सारे अध्यक्षों से लेकर कुल सचिवों तक के नंबर भरे हुये हैं, जिन्हें वे होली दीवाली ही नहीं बल्कि वैसे भी याद करते रहते हैं इसलिये लेन-देन का व्यापार शुरू हो गया है.

क़ाज़ी  साब और शहरयार साब इस प्रकार के लेन-देनों से कोसों दूर रहे उन्हें इसके नुकसान भी खूब हुये पर इस प्रकार के अनैतिक नुकसानों की उन्होंने कभी चिंता नहीं की. 

क़ाज़ी  साब के बहुत से ऐसे किस्से हैं जो इस पुस्तक में नहीं हैं. यह पुस्तक की भी सीमा हो सकती है और सुनाने की मनःस्थिति की भी.

कहते हैं कि एक बार किसी अध्यक्ष ने उनका टाइम टेबल सुबह आठ बजे से लगा दिया तो उन्होंने अध्यक्ष को कुछ नहीं कहा बल्कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास पहुंच गये और टाइम टेबल बदलवा दिया. ‘दाराशिकोह’ उपन्यास पर जब कुलपति ने कुछ ऐतराज किया तो उन्हें उनके चेंबर में ही डांटकर आ गये. प्रोफेसर पद के लिये साक्षात्कार की बात आई तो यह कहकर नहीं गये कि मेरे जैसे अफ़ सानानिगार से कौन क्या पूछ सकता है ? मैं किसी मीरासी या भांड को कुछ बताने से रीडर बने रहना अधिक पसंद करूंगा. 

अपने एम.ए. के दौरान हुई मौखिकी का जिक्र करते हुये उन्होंने बताया कि विभागाध्यक्ष ने उनसे पूछा ‘हजरत आप ग़ालिब  के बारे में क्या जानते हैं ? मैं घूम गया.  फिर संभला- सर, अगर आप यह पूछें कि ग़ालिब के बारे में क्या नहीं जानता तो मुझे आसानी होगी.’

कहना न होगा कि एम.ए. की मौखिकी एक औपचारिकता होती है, जिसमें नपे-तुले और रटे-रटाये उत्तर ही दिये जाते हैं. पर क़ाज़ी साब ने तो अपने परीक्षक को ही चुनौती दे डाली थी. परीक्षक थोड़ी देर में संभले और बगैर नाराज हुये पूछा-

‘तो चलिये, यही बताइये कि आप क्या नहीं जानते !’ क़ाज़ी  साब ने कहा-

‘सर, कहा जाता है कि ग़ालिब की माशूका डोमनी थी. मेरा नाचीज ख्याल है कि ग़ालिब मुगल एरिस्ट्रोक्रेसी की यादगार था. वो अगर डोमिनी पर आशिक भी होता तो उसका इजहार करना अपनी तौहीन समझता. आपके खादिम की राय है कि ग़ालिब की माशूका तुर्क बेगम थी.’
यह सहज सामान्य उत्तर नहीं था. किसी एम.ए. के विद्यार्थी से मौखिकी के दौरान इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा नहीं की जाती है. इस उत्तर ने सबको चौकाया ही नहीं बल्कि भयभीत भी किया. ग़ालिब की माशूका के बारे में उर्दू में अभी तक स्थायी राय थी कि उनकी माशूका डोमिनी थीं पर क़ाज़ी  साब ने तर्क के साथ उस स्थापना का खंडन कर दिया. सवाल यह नहीं है कि कौन कितने नंबर देगा बल्कि सवाल यह है कि क्या कोई विद्यार्थी इस प्रकार की नयी स्थापना से परीक्षक को चुनौती देकर उत्तीर्ण भी हो सकता है. आज कोई विद्यार्थी इस प्रकार की हरकत करके देख ले तो उसका उत्तीर्ण होना कठिन हो जायेगा.

सर्दी और बरसात की सुबह कोई विद्यार्थी पढ़ने आ गया, क़ाज़ी साब की क्लास थी और क़ाज़ी  साब विभाग के अपने कमरे में बैठकर सिगरेट पी रहे थे. विद्यार्थी की हिम्मत नहीं हुई कि वह क्लास के बारे में कुछ कह सके पर बार-बार उनके कमरे के चक्कर काटता रहा. क़ाज़ी  साब समझ गये और उसे बुलाकर पूछा-

‘क्या क्लास के लिये आये हो. उसने हां कहा तो क़ाज़ी  साब बिफर पड़े. नाराज होकर कहा- मियां मेरा हेड से झगड़ा है इसलिये आया हूं तुम्हारा किससे झगड़ा है. जाओ हास्टल में आराम करो.’
विद्यार्थी चुपचाप चला गया. ये छोटे-छोटे मगर अर्थपूर्ण किस्से हैं, जिनसे क़ाज़ी साब की एक तस्वीर बनती है. वे अपनी बात कहने में किसी से डरते नहीं थे. पाकिस्तान गये तो उनसे जोश के बारे में पूछा गया. जोश मलीहाबादी अपने बारे में बताते होंगे तो पाकिस्तान के लोग उनकी बातों पर यकीन नहीं करते थे. क़ाज़ी  साब ने उस झूठ का खंडन किया और बताया कि 

‘जोश के बाप मलीहाबाद के तालुकेदार थे. एक लाख सत्तर हजार की निकासी थी. दरवाजे पर तीन-तीन हाथी थे. घोड़ों से अस्तबल भरा था. घर में जवान औरतें भरी थीं- काली भी, गंदुमी भी और सफेद भी. नाश्ते में हलुवे, परांठे, मुर्गे, अंडे, बालाई, मक्खन, दूध. ये राज होता था. जोश बाहर निकलते तो नौकरानियां उनकी जेबों में मेवे भर देती थीं. जोश नौकरों के बच्चों को बांट-बांटकर खाते. कलमी आमों की गाड़ियां उतरती थीं. अमरूद, अंगूर, केले और संतरों के ढेर लग जाते थे. खुशामदें की जाती थीं- भैया तनी खाए लेओ. जोश गालियां बकते हुये भाग जाते थे. इलाके की लड़कियां इंतजार करती थी कि मझले भैया बस हमारी तरफ मुस्कराकर देख तो लें.’

क़ाज़ी साब यहीं नहीं रुके बल्कि अवध के खाने से लेकर सजावट और पोशाकों तक का जो ब्योरा पेश किया, उससे सुनने वाला भी शर्मिंदा होकर चुप हो गया. पाकिस्तान में जोश को लेकर जिस प्रकार अविश्वसनीय वातावरण बनाया गया था, क़ाज़ी साब उससे वाकिफ थे इसलिये उन्होंने तफसील से जोश और उनके खानदान के बारे में बताया. 

क़ाज़ी  साब और शहरयार साब की तुलना वैसे ही संभव नहीं है जैसे अफसानों और शायरी की तुलना नहीं की जा सकती. शहरयार साब की मकबूलियत का एक दौर था जो ‘उमराव जान’ फिल्म के आने के बाद तो और अधिक परवान चढ़ा था. उनकी गज़लों की धूम ने रातों-रात उन्हें अदबी दुनिया से बाहर भी शोहरत दिलाई थी. वे जहां भी जाते उनकी प्रसिद्धि उनसे पहले पहुंच जाती थी. वे मन ही मन खुश तो होते थे पर बाहर किसी प्रकार का प्रदर्शन करने की उनकी आदत नहीं थी. वे अपने बारे में कुछ कहते हुये पहले भी शरमाते थे और बाद में भी उनकी यह आदत छूटी नहीं. मुंबई अपने रंग में रंगने के लिये मशहूर है पर शहरयार उस रंग से बचकर निकल आये थे. वे कहते थे कि

‘मियां, मैं तो इल्मी दुनिया का शायर हूं फिल्मी दुनिया का नहीं. अलीगढ़ में होता हूं तो बहुत सारे हाथ सलाम को उठते हैं और मुंबई में खुद सलाम करना पड़ता है. इसलिये ऐसी अजनबी दुनिया में अपना क्या काम ?’

अलीगढ़ के ही उनके सहपाठी राही मासूम रज़ा मुंबई के रंग में रंग गये थे पर शहरयार को यह मंजूर नहीं था इसलिये वे अलीगढ़ लौट आये. उन्हें अपने जीवन से किसी प्रकार की कोई असंतुष्टि नहीं थी. वे कहा करते थे कि जो मिला है वह मेरी काबिलियत  से कुछ ज्यादा और समय से पहले मिला है. इसके लिये वे ऊपर वाले को शुक्रिया देते थे पर साथ ही वे स्वयं को मार्क्ससिस्ट  भी कहते थे और पूछने पर कहते थे कि

‘हां पक्का मार्क्ससिस्ट हूं लेकिन ऊपर वाली किसी ताकत पर यकीन भी करता हूं.’

वे इसमें किसी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं देखते थे. ग़ालिब के बाद फ़ैज़  के वे दीवाने थे और कहा करते थे कि ‘फ़ैज़  की शायरी में मुझे ग़ालिब जैसी बड़ाई नजर आती है.’ अपनी ही बात को आगे बढ़ाते हुये उन्होंने कहा था ‘फ़ैज़  और ग़ालिब दोनों की खूबी ये भी है कि इनके स्टाइल और रंग पर इनकी इतनी गहरी छाप है कि अगर उनके रंग में कोई लिखने की कोशिश करे तो फौरन पकड़ा जाता है और दूर से मालूम हो जाता है कि ये फ़ैज़  का या ये ग़ालिब का शेर है.’

फ़ैज़ की मकबूलियत के बारे में उनका ख्याल है 

‘जहां तक मकबूलियत का सवाल है- तो वो ख़ास -ओ-आम में जितने मकबूल हैं उसकी वजह ये भी है कि वो जेल गये और मार्क्ससिस्ट रहे. उनका जेल जाना या लंबे अरसे तक जेल में रहना और मार्क्ससिस्ट  होना उनके लिये बहुत फायदेमंद रहा. और जहां तक सियासी एलीमेंट की बात है तो वो उनके यहां बहुत रूमानी और इश्किया अंदाज में आया. कई जगह तो उनका इंकलाब गोश्त और पोस्त का इंसान या माशूक मालूम होता है. मसलन ये शेर देखिये-कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल कब रात बसर होगी/किस दिन तेरी सुनवाई, ऐ दीद-ए-तर होगी. या ‘आ गई फसले सुकूं चाक गरीबां वालो. सिल गये होठ कोई जख्म सिले या न सिले. दोस्तों बज्म सजाओ कि बहार आई है. खिल गये जख्म कोई फूल खिले या न खिले.’
ग़ालिब और फ़ैज़  के बारे में इस स्थापना का मतलब शहरयार जानते थे इसलिये वे उदाहरण देकर अपना पक्ष रख रहे थे. उर्दू में ग़ालिब का मकाम बहुत ऊंचा है, उर्दू वालों का मानना है कि उनकी तुलना किसी से नहीं हो सकती पर वे कोई अल्लामियां तो हैं नहीं शायर ही तो हैं इसलिये तुलना क्यों नहीं हो सकती ?

शहरयार खुले मन से फ़ैज़  को अपना प्रिय शायर मानते हैं जैसे वे ग़ालिब को मानते हैं. इसी प्रसंग में वे यह भी मानते हैं कि जिनकी मादरे जबान उर्दू नहीं थी उन्होंने उर्दू में बड़ा काम किया है ‘एक ओैर बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर जिनकी मादरी जबान उर्दू नहीं थी- उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं- उनकी जबान एक खास तरह की बोलचाल की जबान से थोड़ी दूर ही रहती है. जैसे एक्वायर्ड लैंगुएज होती है न ! फ़ैज़  की मादरी जबान पंजाबी थी. पंजाबी में ज्यादा नही मगर उन्होंने शयरी भी की है. फ़ैज़  के अलावा राशिद, यासिर काजमी, इब्ने इंशा, कृश्नचंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमें किसी की मादरी जबान उर्दू नहीं थी. इसलिये यू.पी., बिहार के राइटर्स के मुकाबले में इनकी जबान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज्यादा मेहनत की और ज्यादा पढ़ा. इसलिये इनके यहां निस्बतन यू.पी. वालों के डेप्थ ज्यादा हैं.’

शहरयार साब ने अपनी परंपरा को न केवल पढ़ा था बल्कि उससे बहुत सीखा भी था. इसलिये वे बहुत लंबे समय तक मुशायरों में नहीं गये. वे कहा करते थे कि मुशायरे सबसे ज्यादा हिंदुस्तान में ही होते हैं, हमारे बराबर का मुल्क है पाकिस्तान जहां बहुत कम मुशायरे होते हैं. ‘बंटवारे से पहले ही वहां यह ट्रेडिशन  रहा है कि वहां ओरल शायरी नहीं है. बहुत कम मुशायरे होते हैं वहां. वहां लिखित शायरी होती है. वहां के शायरों की मादरी जबान पंजाबी रही है. उर्दू उन्होंने एक्वायर की है और शुरू से ही ये कोशिश रही कि उर्दू जबान के इलाके वालों के बराबर वे कांपीटेंट हो जायें. उन्होंने सीखने-पढ़ने पर जोर दिया, जबकि हिंदुस्तान में रहने वाले शायरों ने पढ़ने-लिखने पर इतनी तवज्जोह नहीं दी. यहां के लोगों की उर्दू मादरी जबान थी. पाकिस्तानी शायरी को बेहतर समझा जाता है लेकिन यहां के भी सीरियस शायर पाकिस्तान के सीरियस शायरों से किसी तरह कम नहीं हैं. मुशायरे जब भी दुनिया में कहीं होते हैं तो पाकिस्तान से वे ही शायर बुलाये जाते हैं जिनकी लिटरेरी अहमियत होती है. 

दूसरी तरफ इंडिया से अस्सी प्रतिशत, कभी-कभी सौ प्रतिशत वे ही शायर बुलाये जाते हैं जो पक्की रोशनाई से न छपे हैं न छपने की ख्वाहिश है. अदब और जिंदगी से जिनका कुछ लेना-देना नहीं. जिनके पास कुछ शायरी ऐसी है जिसको वे कहीं तरन्नुम से और कहीं चीख-चिल्लाकर पढ़ते हैं. उन्हें वे दाद देते हैं जो मुशायरे को गाने-बजाने या तफरीह का जरिया समझते हैं. पाकिस्तान में साल में मुश्किल से दो-तीन मुशायरे होते हैं और उन्हें भी मुहाजिर आयोजित करते हैं. सवा सौ साल से ज्यादा के दौरान जो बड़ा अदब आया है वो पंजाब के लोगों ने लिखा है.’

शहरयार ये मानते हैं कि किसी शायर को गले और फेफड़ों के दम पर मकबूलियत नहीं मिलनी चाहिये पर हमारे यहां कवि सम्मेलन या मुशायरा सबमें वे ही कवि और शायर सबसे अधिक पसंद किये जाते हैं, जो न सिर्फ अच्छा गाते हैं बल्कि अदाओं की लटक-झटक भी दिखाते हैं. इसलिये लंबे समय तक शहरयार मुशायरों में नहीं जाते थे, बाद में जाने लगे तो कहा इस बहाने दुनिया घूम ली. लेकिन कभी तरन्नुम में नहीं गाया. अपनी तरह से शेर पढ़ते थे और उदाहरण दिया करते थे कि

एक बार फ़ैज़  से किसी ने कहा कि यदि आप तरन्नुम में गायें तो मंच लूट लेंगे. फ़ैज़ ने जवाब दिया कि हम अच्छा लिखें भी और अच्छा गायें भी फिर आप क्या करेंगे.

फ़ैज़ के बहाने शहरयार अपनी बात कहते थे. इसलिये उर्दू में मुहावरे के रूप में यह वाक्य प्रयुक्त किया जाता है कि जो गाकर पढ़ता है वह अच्छा शायर नहीं होता.

जिस तरह शहरयार साब को अपनी परंपरा का ज्ञान था उसी तरह क़ाज़ी  साब भी अपनी परंपरा से बखूबी परिचित थे. वे कहा करते थे ‘हमने टाल्सटाय के वार एंड पीस को इतनी बार पढ़ा कि यह याद नहीं कितनी बार पढ़ा है. अब भी कभी-कभी हम पढ़ते हैं. लेकिन मसला उर्दू का था. हमने मोहम्मद हुसेन आजाद को पढ़ा नहीं है, पिया है. हमने अनीस के मर्सियों को इस तरह पढ़ा है, समझा है जिस तरह लोग माशूकों के खत पढ़ते हैं. लेकिन जब उर्दू के पहले बड़े लिटरेरी तारीखी नाविलनिगार शरर को पढ़ा तो बहुत मायूसी हुई. अगर वो जिंदा होते तो मैं उनको निपिल लगाकर दूध की बोतल जरूर देता. हां, अजीज अहमद के दो नाविल-जब आंखें आहनपोश हुईं और खदंगे जस्ता‘ पढ़े तो अच्छे लगे. मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि उर्दू में किसी नाविलनिगार ने एक मैदाने जंग नहीं लिखा. कि लिखने की ताकत नहीं है. अजीज अहमद में भी नहीं. अल्लामा शिबली में भी नहीं. वरना वो ‘यरमूक’ पर जरूर लिखते. .. तब मैंने ‘सलाउद्दीन अयूबी’ लिखी और मैदाने जंग बयान की. एक नहीं कई. प्रो. कलीमुद्दीन ने कलम से और जबान से उसकी तारीफ की और जब वो छपी तो ग़ालिब अवार्ड मिला. जब मैंने ‘खालिद इब्ने वलीद’ लिखी और सैयद हामिद ने उसे अलीगढ़ से निकलने वाली मैग्जीन ‘तहजीबुल अखलाक’ में सीरियलाइज करने का मुझे हुक्म दिया तो इस्लामी तारीख के बड़े-बड़े आलिम उसका लफ्ज-लफ्ज पढ़ते थे, लेकिन कोई आज तक किसी एक लाइन का हवाला देकर ऐतराज न कर सका.

‘दाराशिकोह’ पर शम्सुर्ररहमान फारूकी ने तारीखी गलतियां निकालते हुये मजमून लिखा. सुरूर साहब जो उनके परस्तदार थे, ने मुझसे पूछा कि आपने जवाब क्यों नहीं दिया ? मैंने कहा, सर अगर कोई आपके सामने मुझसे यह कहने लगे कि ताजमहल उसके दादाजान ने बनाया है तो क्या मैं इसका जवाब दूंगा ?

मैं तो तब मुसकुराकर आगे बढ़ गया था, पर जवाब दिया प्रो. इक्तदार आलम खां ने, जिसके पढ़ने वालों ने मुझसे कहा कि फारूकी साहब के मजमून के चिथड़े उड़ा दिये है.’

यह क़ाज़ी साब ही कह सकते थे, उन्हें अपने लिखे पर यकीन था इसलिये वे अपनी बात चुनौती पूर्ण ढंग से कहते थे, जिसे लोग उनका गुरूर समझ बैठते थे. उन्होंने एक और घटना का जिक्र किया है, उसकी भी भाषा वैसी ही है, जैसा वे अक्सर बोलते थे

‘जब मुझे जफर अवार्ड मिला, तब एक साहब खड़े हुये और पूछा कि आपने ‘हजरत जान’ क्यों लिखी ? मैंने कहा कि इसी क्यों ने तो सारी तरक्कीपसंद तहरीक को दफन कर दिया. किसी तहरीक को कोई हक नहीं पहुंचता कि वो किसी राइटर से पूछे कि हमने  क्यों लिखा ? हमने यह इसलिये लिखी कि हम लिख सकते थे. तुमने इसलिये नहीं लिखी कि तुम नहीं लिख सकते थे.

किसी ने कुर्रतुल ऐन हैदर से पूछा कि क़ाज़ी  साहब को जफर अवार्ड क्यों दिया जा रहा है तो उन्होंने जवाब दिया कि क़ाज़ी  साहब जैसी प्रोज अगर कोई लिखता है तो उसका नाम बताइये और चुप हो गईं. मैं भी कहता हूं कि मैं तीन स्टाइल्स में  लिखता हूं. कल्लू-बुध्दू भी मेरे हीरो हैं, राजा-नवाब भी मेरे हीरो हैं, शहंशाह और फातेह भी मेरे हीरो हैं. कोई दूसरा हो ऐसा तो उसका नाम बताइये ? पैदल दस्त बांधकर उसकी जियारत करने जाऊंगा. अभी हाल में एक साहब चुपके से डरते-डरते बोले कि मुसलमानों पर ऐसी विपदा पड़ी है और आप ‘जानेजाना’ लिख रहे हैं ? मैंने जवाब दिया- मैं जर्नलिस्ट नहीं हूं कि कल जो हुआ उसे आज लिख डालूं और फिर ये विपदा- मेरे पास कलम है, हायड्रोजन बम नहीं कि फेंक दूं. चालीस बरस बाद मैं अपनी मोहब्बत बयान कर रहा हूं. उर्दू में कोई नाविल नहीं जिसमें किसी हुक्मरां रियासत का रहन-सहन बताया गया हो. मैंने इसलिये लिखा कि आपको किसी शहजादी ने एक प्याली चाय भी नहीं पिलाई. हमको तो जवाहरपोश हाथों ने सोने की प्लेटों में खाना ही नहीं खिलाया बल्कि एक-एक निवाला इस तरह खिलाया है जैसे मथुरा के चैबे को श्रद्धा से लड्डू खिलाया जाता है.
अगर किसी को खिलाया है तो लिखो.’

ये क़ाज़ी  साहब का अपना पक्ष रखने का तरीका है, जो चुनौतियों से भरा हुआ है. यकीनन उनके पास यादों का अकूल खजाना और इतिहास की गहरी समझ है इसलिये वे तारीख और जंगों पर लिख सके.

क़ाज़ी  साहब और शहरयार साहब अब अपने परिचितों के बीच एक मिथ की तरह जीवित हैं, उनके अनेक किस्से हैं जो बार-बार याद आते हैं. किसी ने क़ाज़ी  साहब से पूछा कि आप मुसलमान होकर शराब क्यों पीते हैं ? क़ाज़ी  साहब इस प्रश्न को सुनकर चौंके और संभलकर जवाब दिया 

‘कुरान पाक में एक सतर भी ऐसी नहीं है जो यह कहे कि शराब हराम है. हां, सुक्र का लफ्ज आया है. उसके मायने है नशा. तो नशा दौलत का भी होता है, हुकूमत का भी होता है, हुस्न का भी होता है, ताकत का भी होता है, अक्सरीयत का भी होता है. तो सबको हराम कर दीजिये, मैं भी शराब छोड़ दूंगा. पर पहले आप यह हराम कीजिये. दूसरी बात और आखिरी बात जब हमारे प्रोफिट आसमान पर गये तो खुदा ने दो प्याले भेजे. एक दूध का और दूसरा शराब का. हमारे हुजूर ने दूध का प्याला कुबूल किया. सच है लेकिन यह तो तय हो गया कि शराब की पहुंच कहां तक है. यह भी तय हो गया कि फरिश्ता लेकर आया और यह भी तय हो गया कि जन्नत में शराब की नहरें भी हैं. तो भाई हम जरा-सी पी लेते हैं. शराब हमारी जबां पर तलवार की धार रख देती है, शराब हमारी इमेजीनेशन को आसमानों पर झपटने का सबब देती है, शराब हमारे कलम को मोती लुटाने की तालीम देती है. शराब हाफिज पीते थे, शराब खैयाम पीते थे, शराब ग़ालिब पीते थे और डंके की चोट पर पीते थे. हमारी तरह चुराकर नहीं पीते थे. बोतलों की बोतलें चढ़ाते थे, हमारी तरह पैग नहीं पीते थे- दवा की खुराक की तरह. हमारी शराब का इल्म हमारे मां-बाप को था, हमारे मामू और चचा को था, हमारी बेगमों को था, हमारे उस्तादों को था, मगर किसी ने एक लफ्ज भी हमसे नहीं कहा. तो आप मुझसे शराब पर बात करने वाले कौन ? आप मेरे बाप हैं ?’ पूछने वाले के होश उड़ गये थे और सुनने और देखने वाले सांस रोककर चुप बैठे थे. क़ाज़ी  साहब को जानने वाले यह भी जानते थे कि क़ाज़ी  साहब से इस वक्त कुछ कहने का मतलब क्या है ? 

शहरयार साहब और क़ाज़ी  साहब की किसी हिसाब से तुलना नहीं की जा सकती. इसलिये इन दोनों को अलग-अलग करके ही समझा जा सकता है. दोनों की फितरत अलग थी और दोनों का जीने का ढंग अलग था. शहरयार साहब तो क़ाज़ी  साहब के शागिर्द रहे थे पर अदब की शागिर्दी दूसरी तरह की होती है इसलिये क़ाज़ी  साहब ने शहरयार साहब पर शागिर्द होने का हक कभी नहीं जमाया. दोनों एक दूसरे के लिखे को पढ़़ते थे और भरपूर अदब भी करते थे. शहरयार साहब मस्त होने के साथ दुनियादार आदमी थे, उनके संबंधों का दायरा बड़ा था और वे उन्हें निभाना भी अच्छी तरह जानते थे. लेकिन क़ाज़ी  साहब अलग प्रकृति के थे, उनसे विनम्रता से मिलिये तो उनकी विनम्र सहजता याद करने योग्य होती थी पर किसी ने छेड़ दिया तो उसको पनाह देने वाला कोई नहीं होता था. इस मामले में वे भावुक ताल्लुकदार थे. मुझे याद है कि होली दिवाली कभी फोन नहीं लगता था तो वे मेरे परिचितों से कहकर दुआएं देते थे और मिलने पर ऐसे मिलते थे जैसे अपने ही परिवार के किसी सदस्य से बहुत दिनों के बाद मिल रहे हों. मुझे इस बात पर फक्र है कि मैं दोनों के साथ रहा हूं, दोनों का मुझे खूब प्यार मिला है, खूब बातें की हैं और उन्हें खूब सुना है. उनकी अनगिनत यादें मेरे जहन में अब भी उसी तरह तरोताजा हैं, जैसे वे अभी मिलकर गये हैं.
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सूरज पालीवाल 
वी 3, प्रोफेसर्स आवास, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 442001
मो. 9421101128, 8668898600

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