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कथा - गाथा : जयश्री रॉय (दौड़)

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जयश्री रॉय की यह नई कहानी ‘दौड़’ एक बेरोजगार युवक की कहानी है जो हवलदार की नौकरी के लिए तय ५ किलोमीटर की दौड़ तो पूरी कर लेता है पर ... इस कहानी में वह  मुख्यालय में शारीरिक परिक्षण के लिए खड़ा है और कहानी का सबसे अहम हिस्सा यही है जिसमें उसकी प्रतीक्षा, आशंका, बेचैनी, भय आदि का वर्णन है.

क्या जयश्री रॉय को ऐसा अनुमान था कि उनके साथ भी ऐसी ही अनहोनी घटने वाली है. जयश्री राय को ब्रेन स्ट्रोक हुआ था और वह अभी भी हास्पिटल में है, उनमे जिजीविषा है और वह इससे बाहर आ रही है, उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ. 


कहानी
दौड़                      

जयश्री रॉय 



(एक)
आईको पुकारते हुये रघु जानता था,वह कहाँ मिलेगी- हमेशा की तरह पूरब वाले खेत की आल पर. समझा कर हार गया कि अब वह अपना खेत नहीं रहा मगर वह सुने तब ना. उस ज़मीन के हथेली भर टुकडे में उसकी ज़िंदगी के पच्चीस साल दफ्न हैँ- आषाढ के अनवरत झडते दिन,शीत की कनकनाती रातेँ,ग्रीष्म की सीझी हुईँ सुबह-शाम... यहीं दफ्न है उसकी आत्मा- जन्म भर के लिये. अब कहीँ जायेगी भी तो कहाँ. बाबा कहते थे,माटी का मोह अपने शरीर के मोह से ज्यादा प्रचंड होता है बेटा. देह छूट जाये मगर किसान की जमीन नहीं . बाबा की बात तब समझ में नहीं आई थी...

आई के कंधे पकड कर वह हिलाता है तो आई जागती है जैसे. झेंपती हुई-सी उठ खडी होती है- देख ना रघु . कनाल के पार वाले नीलम के नीचे कितनी कैरिया गिरी हैं. कोई उठानेवाला नही .

“गिरने दो,हमें क्या . जिनकी ज़मीन-बाडी है,वह सम्हाले... बडी भूख लगी है,तू घर चल.” रघु आई को खींचते हुये चल पडता है. सांझ की आखिरी रोशनी कनाल पर चमक रही है. हवा में तिर-तिर कांपता पानी स्याह लाल है. पश्चिम की ओर,जहाँ क्षितिज स्लेटी हो गया है,उडते हुये पंछी छोटे-छोटे बिंदुओँ की तरह दिख रहे थे. शिवाजी राव,राघोवा चव्हाण और महादेव गवंडी के खेत पार कर वे राष्ट्रीय राजमार्ग पर चढ आये थे. यहाँ से सडक दूर तक दिखती है,अंत में आकाश में समाती हुई-सी. सडक की दूसरी तरफ उनका गांव था. सत्तर-अस्सी लोगोँ का छोटा-सा गांव- नांदीपुरा . इस समय सुलगते हुये चूल्होँ के धुयेँ से लगभग अदृश्य. सामने राजमार्ग के आखिरी छोर से दौड कर आते हुये वाहनोँ की अनगिनत रोशनी के धब्बे चमक कर तेज़ी से फैलते हुये आंखेँ चौंधिया रहे थे. जब सामने से कोई वाहन गुज़रता,एक तेज़ सनसनाहट के साथ दोनोँ के कपडे अस्त-व्यस्त हो जाते. किसी तरह माथे का पल्लू सम्हाले अपने बेटे का हाथ पकड कर सडक पार करते हुये आई ने जाने कैसी आवाज़ में कहा था- खेती के मौसम में ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहा जाता रघुआ . बचपन की आदत है... उनके बाकी के शब्द बगल से गुजरती किसी ट्रक के शोर में खो गये थे. “जिस जमीन में हाड़ गलाये,प्राण रोपे...” आई फिर शुरु होने लगी थी मगर रघु ने सुन कर भी नहीं सुना था. अब वह इन सब बातोँ से आगे निकल जाना चाहता था. क्या रखा है इनमें?कुछ भी तो नहीं. गुज़ार लिये साल-महीने,ज़िंदगी का एक बहुत बडा हिस्सा. सब फिजूल गया. कभी कुछ लौट कर नहीं आयेगा...

गांव की कच्ची सडक धूल से अंटी पडी है. मवेशी अब भी घर लौटते हुये सोसियाते हुये आसपास से गुज़र रहे हैँ. हवा में ताज़े गोबर और सूखी कूटी की गन्ध है. दूर तुकाराम के कुयेँ के पास दो बैल दोपहर से लड़ रहे हैँ. अब भी एक-दूसरे से सिंग भिड़ाये खड़े हैँ. उन्हेँ अलग करने की कोशिश करके गांव वाले हार गये. “पूरी दुनिया का यही हाल है... जिसे देखो बस लड़े जा रहे हैँ...” आई धीरे-धीरे बड़बड़ाती है. उनकी आवाज़ में खंडहर गूँजता है. जाने उनके भीतर का भराव कहाँ गया. बाबा के बाद इस तरह खोखली हो गई... जाने वाला कभी अकेला कहाँ जाता है.

घर लौट कर आई ने हाथ-पैर धो कर तुलसी चौरे पर दीया जलाया था. तुलसी के सामने झुकी आई का दीये की लौ में चमकता सूना माथा रघु को दहशत से भर देता है. वह उसकी ओर देखने से बचता है. बचपन से जिस माथे पर हमेशा सिक्के भर का टीका देखा है,मांग भर सिंदूर देखा है,वहाँ बंजर खेत-सी वीरानी... अब आई आई नहीं लगती,कोई और लगती है . चूना,रंग झडा हुआ कोई भुतैला घर. जाने सारा लावण्य कहाँ निचुड़ गया.

मंदा और भाग्या आंगन के एक कोने में चटाई बिछा कर लालटेन की रोशनी में पढ रही थीं. नीलांगी गाय के लिये नाद में पानी भर रही थी. बगल की झोंपड़ी में विनायक धोंड एकतारा बजा कर संत ज्ञानेश्वर के भजन गा रहा था. हर रोज़ दिन भर खेत में काम करने के बाद रात को वह इसी तरह अपने आंगन में बैठ कर भजन गाता था. रघु महसूस करता है,उसकी आवाज़ में कितना सुकून और यकीन है. जाने वह यह सुकून अपने भीतर कहाँ से लाता है. उसे भी इस यकीन की बहुत ज़रुरत है. कई बार उसके भजन सुनते हुये रघु को नींद आ जाती थी.

आई ने गरम पानी में नाशनी गूंथ कर बड़ी परात जैसे तवे पर भाखरी बनायी थी. लहसन,नारियल की सूखी चटनी और प्याज के साथ भाखरी खाते हुये रघु चुप रहा था. आई भी. आज कल वह बात करते हुये कतराता है,आई समझती है. मगर वह क्या करे . इतना सारा कुछ इकट्ठा हो गया है भीतर- राख से भरे हुये चूल्हे की तरह. कुंद हो कर रह गई है. सांस नहीं ली जाती. ये निरंतर कहना खुद को हल्का करना है. वह खुद भी कहाँ समझती है. सबकी तरह उसे भी लगता है,वह सठिया रही है. गरीबी में रोग का प्रकोप उम्र गिन कर नहीं आता. 

उसे जो उम्मीदेँ हैँ अपने इकलौते बेटे से ही है. बेटियाँ समझदार हैँ मगर अभी छोटी हैं. बड़ी बेटी नीलांगी तेरह बरस की है,दूसरी मंदा नौ और छोटी वाली छ्ह बरस की. नीलांगी पांचवी तक पढ़ कर घर में उसका हाथ बंटाती है और मंदा,भाग्या सरकारी बालबाड़ी में जाती है. बालबाड़ी की बहन जी कहती हैं बेटी को पढ़ाओ,तो पढ़ा रही है. ना पढ़े तो करे भी क्या . तीन साल हो गये पाँव के नीचे जमीन नहीं रही. होती तो ये छोटे-छोटे हाथ भी कुछ काम आ जाते. बेकार बैठने से अच्छा है पट्टी पर खल्ली घीसे. दिमाग में दो शब्द के साथ पेट में अन्न के दो दाने भी पड़े. वहाँ दोपहर का खाना मिलता है. सड़ा-गला खा कर महीने-दो महीने में बच्चे कई बार बीमार पड़ते हैँ,फिर भी,यह बहुत बड़ा आसरा है

आई रघु से एक और भाखरी के लिये पूछती है मगर वह मना कर देता है. हमेशा की तरह कहता है कि दोस्त के घर से शीरा खा कर आया है. आई जानती है,रघु झूठ बोल रहा है. उसके लिये आखिरी बची हुई भाखरी के वह दो टुकडे नहीं करना चाहता... बचपन में रघु के कई बार झूठ बोलने पर उसने उसे पीटा था,आज बस छिप कर अपने आँसू पोंछती है- कितना समझदार हो गया है वह . भीगी आंखोँ से वह अपने बेटे को एक साथ दो गिलास पानी पीते हुये देखती है. मंदा अपनी भाखरी से एक टुकड़ा कल सुबह के लिये बचा कर रखती है. शाला जाते हुये कुट्टी चाय के साथ खायेगी. भाग्या अपनी पूरी भाखरी खा जाती है. आधी भाखरी पर वह पूरी रात गुज़ार नहीं पाती.

रात की हवा भी अब गर्म होने लगी है. पलास के फूलोँ से जंगल सुलग उठा है. घाटियोँ से उतर कर पानी पीने के लिये मोर छोटे बांध तक आने लगे हैँ. सुबह-शाम उनके केंका से वन-प्रांतर गूंज रहा है. कल खेत की मेड़ पर दो साही अपने कांटे तान कर घूमते फिर रहे थे. ढेला मारा तो झम्मक-झम्मक भागे. आज कल हाईवे पर कछुआ और खरगोश भी सड़क पार करते हुये मारे जा रहे हैं. मंदा,भाग्या बेली या चमेली के गजरे ले कर अक्सर वहाँ बेचने के लिये खड़ी रहती हैँ. उस दिन एक घायल गिलहरी उठा लाई थीँ घर में रघु ने अपनी चटाई आंगन में सहजन के पेड के नीचे लगा लिया था. तीनोँ बहने और आई रसोई के बरामदे में एक साथ सोई थी. रसोई की दीवार पर कतार से सूखते कंडे काले टीके-से चमक रहे थे. गर्मी में कोई समस्या नहीं मगर बारिश में बहुत तकलीफ होती है. छत हर जगह से रिसती है,आंगन,गली कीचड़ से भर जाता है. सामने वाली सदर दरवाज़े की दीवार अगली बारिश झेल नहीं पायेगी. रघु सोचता है और सोचता है. उसके पास किसी बात का हल नहीं. बस ज़रुरतोँ का पुलिंदा है और सर दर्द है. आई उससे कभी कुछ कहती नहीं मगर जाने किन नज़रोँ से देखती है. उसे वे आंखेँ सहती नहीं. कहीँ से बहुत छोटा कर देती हैँ. वह उनसे दूर रहने की कोशिश करता है. सारा-सारा दिन घर से बाहर रहता है,इधर-उधर बेमकसद फिरता है,मगर वे आंखेँ उसके पीछे लगी रहती हैँ.

कभी-कभी उसे चिढ होती है. क्योँ आई उससे इतनी उम्मीद करती है?किस काबिल है वह . उन्नीस साल उमर है उसकी. बी. ए. पहले साल  में पढ़ता है. बाबा की आक्समिक मौत ने उसे रातोँ रात बदल दिया है. दुनिया के साथ-साथ आई भी उसकी ओर देखने लगी है. उसकी कातर आंखेँ,दयनीय हाव-भाव... बाबा के बाद वह अपना सारा आत्मविश्वास खो चुकी है. काश कि वह समझ पाती,उसका बेटा अब भी इतना बड़ा नही हुआ है कि इस दुनिया का सामना कर सके. उसे भी डर लगता है,अब भी संकट में उसे आई की ज़रुरत महसूस होती है... सोचते हुये रघु चुपचाप रोता रहा था. आज कल वह अक्सर रोता है. खास कर रातोँ को. रोने के लिये उसे रात होने का इंतज़ार करना पड़ता है. दिन को वह औरोँ को चुप कराता है. वह घर का अकेला मर्द है. उसे रोना शोभा नहीं देता. कर्ज के बोझ से घबरा कर बाबा ने इस तरह से आत्महत्या कर उसे और पूरे परिवार को किस मुसीबत में डाल दिया.   
     
दो साल पहले आया सूखा उनकी ज़मीन ही नहीं,ज़िंदगी को भी हमेशा के लिये बंजर कर गया था. बाबा ने सूरजमुखी की खेती के लिये बैंक से कर्ज़ लिया था. पूरे परिवार ने मिला कर खूब मेहनत की थी. उस साल अच्छी बारिश होने की बात थी. खेत तैयार करके सब आसमान की तरफ देखते रहे थे मगर अचानक जाने क्या हुआ था- जब फूल के पौधोँ को सबसे ज़्यादा पानी की ज़रुरत थी,सारे बादल आसमान से गायब हो गये थे. सुनहरे फूलोँ से लदने वाली डालियाँ धीरे-धीरे सूख कर काली हो गई थीं, झड़ कर विदर्भ की काली मिट्टी में मिल गई थीँ... उन दिनों बाबा सुबह से शाम तक क्षितिज की ओर टकटकी लगाये खेत की मेड़ पर बैठे रहते थे. बड़ी मुश्किल से उन्हेँ रात गिरते-गिरते घर लाया जाता था. कभी-कभी बीच रात को उठ कर आंगन में निकल कर आसमान की ओर देखने लगते थे या कान पर हाथ रख कर पूछने लगते- सुना क्या रघु की आई,बादल गरज रहे हैँ... आज पानी बरसेगा...

ज़मीन फट कर टुकड़े-टुकड़े हो गई,औँधे पड़े चूल्हे की तरह से आकाश से गर्म राख झड़ता रहा,हरियाली सूख कर पेड़ों के कंकाल निकल आये. बाबा ने अब रात दिन बड़बड़ना शुरु कर दिया- अब क्या होगा रघु की आई?हम तो बर्बाद हो जायेंगे... आई बिना कुछ बोले अपने खाँसते हुये पति की पीठ सहलाती रहती. रघु सर झुकाये दालान के एक कोने में बैठा रहता. तीनोँ बहने एक-दूसरे से लगी दूसरे कोने में. बीच में पकती भूख,शंका,विवशता... उन दिनों रात-दिन खूब लम्बे हो गये थे.
जिस दिन बैंक से ज़मीन,घर जब्त कर लिये जाने का नोटिस आया,बाबा रघु से नोटिस पढ़वा कर देर तक बिना कुछ बोले बैठे रहे थे. उस रात बाबा जाने कब घर से निकल कर खेत पर चले गये थे. सुबह उनकी लाश खेत के बीचो-बीच पडी मिली थी- ज़हर से नीली. उन्होँने खेत में इस्तेमाल की जाने वाली पेस्टीसाइट खा ली थी शायद. उस दिन खूब पानी बरसा था. अचानक काले-काले बादलोँ से आकाश भर गया था और तेज़ हवा और गरज के साथ झमाझम पानी बरसा था. जब तक पुलिस पंचनामा करके ना ले गई थी,उस दिन काली मिट्टी के कीचड़ से लिथड़ी बाबा की लाश शाम तक खेत में पड़ी रही थी. उस समय भी उनकी आंखेँ आकाश को ही तक रही थीं...
      
आई चाहती थी,आकाश को नोंच कर उतार ले,बादलोँ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले,मगर कुछ नहीं कर पाई थी. अपनी छाती मसलती बैठी रह गई थी. रो भी नहीं पाई थी. उसकी आंख के आंसू भी सूख गये थे. आज भी कभी-कभी कहती है- मेरा तेरे बाबा के लिये रोना रह गया है रघुआ. ऊपर जाऊंगी तो वो पूछेंगे,रघु की आई . तेरे पास भी मेरे लिये दो बूँद पानी नहीं था.





(दो)
बाबा के मरने के बाद दो दिन खूब हो-हल्ला हुआ था. स्थानीय टी वी चैनल वाले,अखबार वाले आये थे. आई और पूरे परिवार को आंगन में बाबा के फोटो के साथ बैठा कर तस्वीर खींची थी. आई के रोने पर टी वी के एक संवाददाता ने अपने कैमरा मैन को एक विशिष्ट एंगल से आई की तस्वीर लेने के लिये कहा था. स्थानीय विधायक और नेता,विपक्ष भी आये थे. चारोँ तरफ से सहानुभूति,दया,करुणा की बारिश-सी होने लगी थी. थोड़े समय के लिये तो रघु को यह सब अच्छा लगने लगा था. लगा था वे अचानक विशिष्ट हो गये हैं. इंटरव्यु आदि देने के चक्कर में बाबा के लिये शोक मनाना भी भूल गया था. अब वह साफ-धुले कपड़े में मीडिया वालोँ के लिये तैयार रहता. बाबा की एक तस्वीर को अच्छे फ्रेम में बंधवा लिया था. कुछ दिन गांव में उत्सव का-सा माहौल हो गया था. अखबार-टीवी वाले आते,उनकी बडी-बडी गाड़ियाँ,कैमरे,फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलते पत्रकार,महिला पत्रकारोँ की काजल लिसरी आँखेँ,फेडेड जींस,खादी की कुर्ती...एक बार उसके कपडे,बने हुये बाल देख कर एक पत्रकार ने इंटरव्यु से पहले कहा था- नहीं . यह नहीं चलेगा. अपना हुलिया बिगाडो,अपने बाबा के कपड़े पहनो... यु डोंट रीप्रेजेंट द पोवर्टी स्ट्रिकेन फेस आफ रूरल इंडिया... वह सकपका गया था. इतने सारे लोग,लाईट के सामने वह इतना इमोशनकहाँ से लाता जिसके लिये टीवी एंकर बार-बार चिल्ला रही थी . आज जब कोई भीड़ नहीं,कैमरा नहीं,वह अकेला रह गया है अपने दुख के साथ,खूब रोना आता है. दुख को उसका अंधेरा कोना चाहिये,मरघट का एकांत चाहिये... अब ये सब कुछ है और उसका दुख भी है.

उसका पढाई में मन नहीं लगता मगर पढ़ता है. अब जो ज़मीन नहीं,पढाई का ही आसरा है. रोज पांच किलोमीटर साइकिल चला कर कालेज जाता-आता है,मोटी किताबोँ में सर खपाता है. मास्टरजी ठीक ही कहते थे,अगर कुछ बेहतर ना कर सको तो खाली पास क्लास में बी. ए.,एम. ए. करके कोई फायदा नहीं. ये थर्ड क्लास की डिग्रियां तुम्हारे गले का ढोल बन जायेंगी. इसलिये वह मन लगा कर पढ़ता है. उसे अपने ही भविष्य के बारे में नहीं,अपने पूरे परिवार के बारे में सोचना है- आई,तीनोँ बहने... कितनी जल्दी बड़ी हो रही हैँ . नीलांगी की तो शादी की उम्र भी हो चली... अगले तीन महीने में 14 की हो जायेगी. आई हर दूसरे दिन उसे याद दिलाती है. वह सुना कर आतंकित होता रहता है. जिस घर की हर कोठरी सूनी हो और रसोई के डिब्बे-बर्तन खाली,वहाँ शादी-उत्सव के प्रसंग भी शोक की बातेँ लगते हैँ.

बाबा के बाद उसके जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ एक-एक कर चली गयी हैं. बैशाख का मेला,गणेश चतुर्थी... उनके रहते कुछ था ना था,निश्चिंतता थी. तब खुला आकाश भी छत लगता था. अब तो छत भी आश्रय नहीं देती... नहर में नहाने में,मछली पकड़ने में,खेत में बिना बैट-बॉल के क्रिकेट खेलने में... उन दिनों लगता था,हर चाहे को पाया जा सकता है. उर्मि को भी. उर्मि भोंसले.- गांव के सरपंच की एकलौती बेटी. पूनम के चाँद-सी गोरी,सुंदर. दोस्त मज़ाक करते थे- सरपंच की बेटी,ऊपर से जात की मराठा. और तू... मगर वह उनकी बातोँ से निराश नहीं होता- आजकल जात-पात कोई मायने नहीं रखता. फिर उर्मि ने मुझे खुद कहा था,वह इन बातोँ में यकीन नहीं करती.

दोनोँ गांव के दूसरे बच्चोँ के साथ सालोँ एक साथ स्कूल जाते रहे थे. उन धूल भरी पगडंडियोँ की बहुत सारी खूबसूरत यादेँ इकट्ठी हैँ उसके पास- बाँध के पानी से खेलना,ईमली-कैरी तोडना,खेतोँ से भुट्टे चुराना... उन दिनों वह कई बार चोरी-चोरी उर्मि को निहारता था. उर्मि जानती थी मगर अनजान बनी रहती थी. एक दिन उसने किसी बात पर उर्मि से कहा था- मैँ छोटी जात का हूँ,तू जानती है ना?जवाब में उर्मि ने आँखोँ में आँसू भरकर कहा था- मुझे इससे कोई मतलब नहीं. मेरे लिये तू सिर्फ रघु है... उर्मि की उसी बात की पूंजी लिये वह आज भी बैठा है. जाने उसने उसमें कैसा आश्वासन महसूस किया था...

अब रघु के बहुत सारे दोस्त नहीं. दो-चार ही रह गये हैँ. बबलू उनमँ से एक है. कभी-कभी वह उसके घर चला जाता है. उसकी माली हालत ठीक है. बाप सरकारी नौकरी करता है. एक दिन उसके मामा ने रघु से कहा था वह महाराष्ट्र पुलिस में हवलदार पद के लिये आवेदन पत्र दे दे. वैकेंसी निकली है. वे खुद पुलिस में थे. बबलू ने उसे नेट पर महाराष्ट्र पुलिस में नौकरी का विज्ञापन दिखाया था- नागपुर, चन्द्रपुर, पुने में हज़ार पद, धुले में एक सौ बीस, अमरावती, जालना - सब मिला कर छह हज़ार वैकेंसियां. पच्चीस मई तक आवेदन देना था. उम्र सीमा अट्ठारह से पच्चीस वर्ष तक थी. रघु अभी उन्नीस का ही था. मामाजी ने कहा था रघु को बड़े आराम से नौकरी मिल सकती है. फिर ओ बी सी होने का भी उसे फायदा मिलेगा.

आन लाईन आवेदन पत्र उपलब्ध था. बबलू ने पच्चीस रुपये महाराष्ट्र ई सेवा सेंटर या शायद इन्टरनेट बैंकिंग के ज़रिये चुका कर उससे आवेदन पत्र भरवाया था. आवेदन पत्र जमा करके ही रघु को लगा था जैसे उसे नौकरी मिल गई है. उस दिन वह उड़ते हुये अपने घर पहुंचा था. आई से दुनिया जहान की बातें की थी और सारी रात दालान पर लेट कर ढेर सारे सपने देखे थे. सपनों को उम्मीदों के पंख लगते ही वह सातों आसमान छू आये थे. नौकरी लगते ही वह बहन की शादी कर पायेगा, घर की मरम्मत और आई का ईलाज भी. हवलदार बनने पर उसे रोबीला दिखना चाहिये. आज ही से वह अपनी मूंछे बढ़ानी शुरु कर देगा. हवलदारहवलदार साहब. सोचते हुये उसके मन में अजीब-सी गुदगुदी होती है. कभी अपनी वर्दी में वह उर्मि से मिलने जायेगा. सोचते हुये वह कल्पना करने की कोशिश करता है कि उसे वर्दी में देख कर उर्मि के चेहरे पर कैसे भाव आयेंगे. एकदम सकते में आ जायेगी वह तो. उस रात नींद में भी वह मुस्कराता रहा था.
कुछ ही दिनों में उसके आवेदन पत्र स्वीकृत होने की सूचना आई थी. साथ ही उसे एक क्रमांक संख्या भेजा गया था. पुलिस विभाग लिखित परीक्षा और इंटरव्यु के दिन की घोषणा प्रमुख समाचार पत्रों में जल्द ही करने वाला था. वह रोज़ बबलू के मामा के पास जा कर इस नौकरी के बाबद पूछताछ कर आता था. उन्होंने बताया था लिखित परीक्षा राज्य के विभिन्न सेंटरों में ली जायेगी. ७५ अंक के पेपर होंगे. पहला रीज़निंग और लॉजिक, दूसरा सामान्य विज्ञान तथा करेंट अफेयर्स, तीसरा इतिहास, भूगोल, संस्कृति और कला. ओ बी सी उम्मीदवारों के लिये परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये ४० प्रतिशत अंक प्राप्त करना पर्याप्त था.

यह थोड़े-से दिन उससे काटे नहीं कट रहे थे. मामाजी ने कहा था, शारीरिक परीक्षायें बहुत कठिन होती हैं. उसे व्यायाम बगैरह करना चाहिये. पौष्टिक आहार लेना चाहिये. सुन कर आई ने घर की अकेली बकरी का सारा दूध उसे पिलाना शुरु कर दिया था. साथ में नाशनी का दूध भी. अब वह सुबह उठते ही मैदानों में दौड़ लगाता. मामाजी ने ही बताया था, पांच किलोमीटर की दौड़ लगानी है वहां. सूरज के गर्म होते-होते वह घर लौट आता और नाशनी की रोटी, मूंगफली की चटनी या लहसून की चटनी के साथ एक गिलास बकरी का गर्म दूध पी जाता. सारा दिन किताबों में भी डूबा रहता. जाने इंटरव्यु में क्या-क्या पूछते हैं. तैयारी पूरी होनी चाहिये. उसका सामान्य ज्ञान बहुत कमज़ोर है. उन्नीस साल तक तो इस इलाके के ५-६ किलोमीटर की परिधि में ही चक्कर लगाता रहा है. इसके बाहर की दुनिया उसके लिये किस्से-कहानियां जैसी ही है. फ़िल्मों और टी वी में दिखायी जाने वाली ज़िन्दगियां जाने किस ग्रह-नक्षत्र की होती हैं

वह हर समय या तो आने वाले अच्छे दिनों के दिवा स्वप्न में डूबा रहता या किताबों में सर डाले बैठा रहता. आई के बहुत बोलने पर किसी तरह उठ कर नहा-खा लेता. जब लिखित परीक्ष की तिथि की घोषणा हुई, वह अपने पास के सेंटर में जा कर परीक्षा दे आया था. मामाजी भी उसके साथ गये थे. उसके सारे पेपर बहुत अच्छे गये थे और उसे पूरा विश्वास था कि वह अच्छे अंकों से पास होगा. इसके बाद के दिन बहुत बेचैनी में कटे थे. उसे इंटरव्यु के लिये बुलावे का इंतज़ार था जो आखिर एक दिन आ ही गया. १५ दिन बाद इंटरव्यु और शारीरिक परीक्षण के लिये उसे मुम्बई जाना था. कॉल लेटर ले कर वह यूं नाचता फिरा था जैसे उसे नौकरी ही मिल गई हो. जाने कितनी बार पढ़ा था उसे. आई तो चिट्ठी आने की खुशी में मुहल्ले वालों को गुड़ बांट आई थी. रात को चिट्ठी सरहाने ले कर सोते हुये वह फिर सपने देखता रहा था. उम्मीद में जीना निराशा में जीने से भी ज़्यादा कठिन होता है.

मगर दूसरे दिन मामाजी से खर्चे की बात सुन कर उसका हौसला पस्त होने लगा था. मुम्बई आना-जाना, वहां दो-चार दिन रुकना, खाना-पीना, बस, रिक्शे का भाड़ाकम से कम हज़ार रुपये की ज़रुरत. सुन कर आई का भी चेहरा उतर गया था. सारी रात बिस्तर पर पड़ी-पड़ी इतने पैसों की जुगाड़ कैसे की जाय, यही सोचती रही थी. अब घर में बेचने लायक कुछ भी नहीं था एक नथ के सिवा. यह उसके सुहाग की आखिरी निशानी थी. शादी में उसकी सास ने पहनाई थी उसे- लाल पत्थर और सफ़ेद मोतियों वाली, ठोड़ी तक झूलती हुई. बड़ी बेटी की शादी के लिये सहेज रखी थी इसे. अब इस अकेले बचे गहने का मोह क्या करना. बेटे को नौकरी लगी तो इससे भी बड़ी नथ अपनी बहन को बनवा कर देगा. वैसे भी रघु की नौकरी की बात चलते ही उसने गांव के पाटिल से पांच हज़ार रुपये उधार ले कर बड़ी बेटी की सगाई कर दी थी. एक बार रघु की नौकरी लग जाय, फिर इन बातों के बारे में सोचने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी

सुबह उठ कर वह नथ और बकरी बेच आई थी. दो दिन बाद तो रघु मुम्बई चला जायेगा. फिर बकरी के दूध की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. आगे दूसरी बकरी आ ही जायेगी. आई ने रघु के हाथ में हज़ार रुपये रखे तो वह चुप रह गया. कहता भी क्या. ये पैसे काफी नहीं थे मगर आई ने बहुत मुश्किल से ये पैसे जुटाये थे वह जानता था. बुरे समय का फायदा लोग भी उठाने से बाज नहीं आते. आज के ज़माने में सोने की नथ की कीमत बस इतनी.  

रघु के साथ मामाजी भी मुम्बई आने के लिये तैयार थे पर ऐन चलते वक्त बीमार पड़ गये. मजबूरन रघु को अकेले ही जाना पड़ा. इससे पहले वह कभी मुम्बई नहीं गया था. दूसरे बहुत सारे गांव वालों की तरह उसके लिये भी मुम्बई सीमेंट-कंक्रीट का एक जंगल था जिसमें जा कर अक्सर लोग खो जाते हैं. आई ने रोटी चटनी का डब्बा थमाते हुये उसका हौसला बढ़ाया था. साई बाबा का लॉकेट गले में डाल कर बताया था जब भी कोई परेशानी आये बाबा का स्मरण करे. उसे बस स्टैंड तक छोड़ने उसकी तीनों बहने आई थी. बस चलने लगी तो छोटी ने शरमाते हुये कहा- दादा एताना मुम्बई सुन मला साठी नील रंगा चा रीबन आना. जवाब में जाने क्यों रघु की आंखें भर आई थीं. थोड़े-से सामान के साथ कितनों के सपने गठरी बांध कर वह अपने साथ मुम्बई ले जा रहा है. गणपति बाप्पा. तुम्हीं लाज रखना. उसने हाथ हिलाते हुये मन ही मन प्रार्थना की थी

रात भर की यात्रा में वह एक पल भी सो नहीं पाया था. एक तो आने वाले कल की उत्तेजना, ऊपर से एस टी बस का सफर और घाट का उबड़-खाबड़ रास्ता. गहरी घाटियों में भरे स्याह सन्नाटों और झिंगुरों की तेज़ आवाज़ को सुनते हुये वह अपनी सोच में डूबा चुपचाप बैठा रहा था. देर रात बस हाईवे के किसी होटल पर रुकी तो उसने चाय के साथ आई की दी हुई रोटी-चटनी खाई. अच्छा हुआ आई ने घर से खाना बांध दिया था. यहां सब कुछ कितना महंगा है. रुपये सोच-समझ कर खर्चना है उसे. शहर में तीन-चार दिन निकालना आसान नहीं होगा.

दूसरे दिन सुबह-सुबह बस मुम्बई पहुंची थी. नवी मुम्बई पुलिस ने उम्मीदवारों के लिये कालाम्बोली पुलिस ट्रैनिंग सेंटर में शारीरिक परीक्षण की व्यवस्था की थी और दौड़ इनखारघर में. मामाजी ने कहा था कालाम्बोली पुलिस ट्रैनिंग सेंटर बस अड्डे से कुछ ही दूरी पर पड़ता है मगर रिक्शा वाले ने जाने कहां-कहां घुमा कर सौ रुपये ऐंठ लिये. बस लेने की हिम्मत वह कर नहीं पाया था. पहला दिन है. देर से पहुंचना नहीं चाहता था. मगर सौ रुपये का एक झटके में निकल जाना उसे बुरी तरह चुभ रहा था. उसने तय किया था, आगे से वह कभी रिक्शा नहीं लेगा.




(तीन)
मुख्यालय में उम्मीदवारों की भीड़ देख कर उसका दिल बैठ गया था. देवा. इतने लोग. चीटियों की कतार-सी लम्बी लाईन थी. मुख्यालय के गेट से बाहर तक. हज़ारों लोग होंगे. बुझे मन से वह भी कतार में लग गया था. सुबह के सात बजे थे मगर अभी से दिन गरम होने लगा था. हवा एकदम बंद. ऊमस भी बहुत. लाईन में खड़े-खड़े वह सबकी बातें सुन रहा था. सब हाथों में फाईल लिये एक-दूसरे से पूछ्ताछ कर रहे थे. कतार घोंघे की चाल से आगे सरक रही थी. एक कदम बढ़ती फिर जैसे सदियों के लिये ठहर जाती. मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सबकी बातें सुनाई पड़ रही थीं. देखते ही देखते दो घंटे गुज़र गये थे और वे अब तक मुख्यालय के गेट तक भी नहीं पहुंच पाये थे. आसमान का रंग एकदम फीका लग रहा था. धूप सफ़ेद आग़ की नदी बनी हुई थी. खाल पर फफोले से पड़ने लगे थे. रघु को तेज़ प्यास लग रही थी. जीभ तालू से चिपक गयी थी. मुंह में जैसे गोंद भरा हो. एक पैर से शरीर का बोझ दूसरे पैर में डालता हुआ वह बेचैन हो रहा था. सर से पसीना बहते हुये आंखों में उतर रहा था. सिंथेटिक शर्ट भीग कर पीठ से चिपक गई थी.

सब आपस में परीक्षा के तरीके की बात कर रहे थे. पहले काग़ज़ों को देखते हैं, जांच करते हैं, क़द, वजन और छाती की चौड़ाई नापते हैं. क़द कम से कम १६५ सेंटी मीटर और छाती की चौड़ाई ७९ सेंटी मीटर होनी चाहिये. इन बातों के लिये रघु परेशान नहीं था. वह एक लम्बा-चौड़ा और स्वस्थ युवक था. पिछले एक महीने से रोज़ दौड़ने की प्रैक्टिस कर रहा है.

तनख्वाह ५२००-२०२०० सुन कर उसके भीतर पहले दिन से कुछ अजीब-आ घटा था. इतने रुपये उसने एक साथ कभी अपने आज तक के जीवन में नहीं देखे थे. इतने रुपये से तो वह अपनी सारी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा लेगा. उसने धीरे से साई बाबा का लॉकेट निकाल कर सबकी नज़र बचा कर चूमा था- सब ठीक से निबटा देना बाबा. कितने युवक हैं यहां. पूरे महाराष्ट्र और जाने कहां-कहां से- बुलढाना, गोन्डिया, सांगली, सतारा, औरंगाबाद, लातूर, नांदेड़, अकोला, नागपुरसबकी आंखों में सपने, ढेर सारी उम्मीदें. ६ हज़ार पदों के लिये ४० हज़ार आवेदन पत्रसब प्रार्थना में हैं. गणपति बाप्पा किसकी सुनेंगे, किसकी नहीं. वह और मन लगा कर प्रार्थना करता है. इसमें भी एक रेस है. जो अपनी प्रार्थना जितनी जल्दी भगवान तक पहुंचा सके. रघु को यहां हर कोई अपना प्रतिद्वंद्वी प्रतीत होता है. सबके प्रति वह एक अस्पष्ट-सी ईर्ष्या अनुभव कर रहा है. इनमें से ना जाने वह कौन है जो उससे उसकी नौकरी झपट कर ले जायेगा

पानी पीने के लिये वह कतार से बाहर निकल कर कहीं जा नहीं सकता. इससे उसकी जगह छिन जायेगी. मगर उसकी बेचैनी बढती जा ब्रही है. प्यास से जैसे गला अंदर से चिपक गया है. जीभ सूज कर मोटी हो गई है. पानी का बंदोबस्त तो होना चाहिये कहीं. उसके आगे खड़े युवक ने कहा था शायद अंदर हो. अंदर पहुंचने में भी अभी घंटा भर तो लग ही जायेगा. बहुत देर से कतार एक ही जगह थम गई है. शायद अंदर लंच ब्रेक हुआ होगा. रघु पस्त हो कर ज़मीन पर बैठ जाता है. लोगों की बातें उसे मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सुनाई पड़ रही है. माथे से बहते पसीने से आंखों में जलन है. हर तरफ धूप में लाल-पीले सितारे-से तैर रहे हैं. कुछ लोगों ने तौलिये से अपना माथा, चेहरा ढंक रखा है. रघु के पास कुछ नहीं. जेब टटोल कर वह एक छोटा रुमाल निकालता है. नीलांगी ने दिया था. लाल धागों सेमाय स्वीट ब्रदरलिख कर. उससे अपना चेहरा ढांपते हुये रघु की आंखें और जल उठती हैं. जीवन में पहली बार इस तरह घर से बाहर निकला था. जी चाहा था, अभी उठ कर घर चला जाय. यहां से कितनी दूर है उसका घर. बीच में कई घंटों का सफर और कितने सारे पहाड़, नदियांअपने बैग से निकाल कर वह एक सूखी रोटी खाता है. नारियल की चटनी खट्टी हो गई है. अपने आगे वाले लड़के को जगह रखने के लिये बोल कर वह गली के मोड़ पर लगे सरकारी नल से पानी पीता है. दोपहर की धूप में पानी उबल गया है. पी कर जैसे और प्यास बढ़ जाती है. फिर भी वह कोशिश करके और थोड़ा पानी पीता है. पेशाब करने के लिये किसी एकांत जगह की तलाश में उसे दूर तक चलना पड़ता है. लौट कर देखता है उसकी जगह छिन गई है. उसके आगे कम से कम दस लोग खड़े हो गये हैं. दस लोग यानी एक और घंटे का इंतज़ार.

उसकी बारी आते-आते शाम हो गई थी. अधिकारियों ने उसके कागज़ों की जांच-पड़ताल की थी, उसका कद नापा गया था. छाती की चौड़ाई और वजन भी देखा गया था. जाने कितनी देर तक यह सब चला था. उसे बताया गया था, दूसरे दिन सुबह ६ बजे से पी. . टी. यानी फिज़ीकल एफिसियंसी टेस्ट लिया जायेगा.

शाम घिरते-घिरते मुख्यालय के अहाते से भीड़ छंट गई थी. कुछ और उम्मीदवारों के साथ वह बातें करते हुये खड़ा रह गया था. रात कहां बितायी जाये इसकी समस्या थी. अधिकतर उम्मीदवार गरीब परिवारों से थे. किसी तरह इंटरव्यु के लिये मुम्बई तक आये थे. किसी होटल में रहना उनके लिये संभव नहीं था. सबने मिल कर तय किया था मुख्यालय के सामने की सड़क के फुटपाथ पर सोयेंगे. वह जगह निहायत गंदी थी. चारों तरफ खुले हुये नाले और भरी हुई कचरा पेटियां. आवारा कुत्ते और बैल भी घूम रहे थे. एक ठेले से दो बड़ा-पाव खा कर और नल से पानी पी कर वह एक संकरी-सी पट्टी पर चादर बिछा कर लेट गया था. बहुत थकान हो रही थी. कल भी पूरी रात सो नहीं पाया था. लम्बी यात्रा, सारे दिन की दौड़-धूप और तेज़ गर्मीरघु को लग रहा था किसी ने उसे अंदर तक निचोड़ लिया है. वह सोना चाहता था मगर किसी भी तरह सो नहीं पा रहा था. बहुत ऊमस हो रही थी. ज़मीन से जैसे भाप उठ रहा था. खुली नालियों से तेज़ बदबू के भभाके. मच्छड़ भी फनल की शक्ल में भिनभिनाते हुये सर के ऊपर गोल-गोल उड रहे थे.

आसपास कुछ लोग बैठ कर सिगरेट पी रहे थे. एक शराबी इधर-उधर घूम-घूम कर जाने किसे गालियां देता फिर रहा था. सोने की कोशिश करता हुआ रघु आकाश को तक रहा था. धुआं-धुआं, टिमटिमाते सितारों से भरा हुआ. उसके गांव का आसमान कितना खुला हुआ होता है. सर्दियों में कांच की तरह. सितारे भी खूब उजले. यहां कितनी धूल है. नथुनों में काली मिट्टी-सी भर गई है. गला भी जैसे बैठ रहा है. बार-बार खंखार कर साफ करना पड़ता है. करवट बदलते हुये उसे घर की याद आती है. एक छोटी-सी झोंपड़ी, मिट्टी गोबर से लीपा आंगन. बारिश में जुगनू और सड़ती हुई कूटी की गंध से भरी हुई. इतनी दूर से सोचते हुये सब सपने की तरह मोहमयी लग रहा है. जितनी दूर घर से जाओ घर उतनी क़रीब आता जाता है. तीन दिन बाद वह घर लौटेगा, आई के पाससांसों में पकती भाखरी की सोंधी गंध लिये सुबह होने से थोड़ी देर पहले रघु को नींद आ गई थी.




(चार)
दूसरे दिन कचरा गाड़ियों की घरघराहट और सफाई कर्मचारियों के बोलने की आवाज़ से रघु की नींद टूटी थी. हरी साड़ी पहनी महिला सफाई कर्मचारी उसके आसपास झांड़ू लगा रही थीं. हर तरफ धूल का बवंडर उड़ रहा था. आवारा कुत्ते और गाय कूड़े की ढेर पर मुंह मारते फिर रहे थे. ‍एक अधमरी-सी गाय प्लास्टिक की थैली समेत सड़ी सब्जियां चबाते हुये उसे निर्लिप्त भाव से घूर रही थी. ६ बजे शारीरिक परीक्षण के लिये ट्रैनिंग सेंटर पहुंचना था. साथ के लड़के उठ कर जाने कब के जा चुके थे. रघु अगली गली के मोड़ पर लगे म्यूनिस्पैलिटी के नल से मुंह धो कर सुलभ शौचालय हो आया था. ठेले पर चाय और एक बड़ा-पाव खा कर वह लगभग दौड़ते हुये मुख्यालय के गेट पर पहुंचा था. गेट पर उम्मीदवारों की लम्बी कतार तब तक लग चुकी थी. वह भी जा कर खड़ा हो गया था. आज गर्मी कल से भी बहुत ज़्यादा थी. इतनी सुबह भी लग रहा था ज़मीन से गर्म भाप उठ रहा है. कपड़े पसीने से भीग उठे थे. कतार में खड़े-खड़े रघु ने साई बाबा का लॉकेट निकाल कर माथे से लगाया था और गणपति बप्पा का स्मरण किया था- आज सारी परीक्षायें अच्छे से निबट जाये देवा. कल शाम एस टी डी बुथ से उसने गांव के पाटिल के घर आई के लिये संदेश छोड़ा था कि वह कुशल है और आज उसका शारीरिक परीक्षण होने वाला है. आई ज़रुर गांव के रामदास मंदिर में जा कर उसके नाम से पूजा चढ़ायेगी. सोच कर वह कहीं से आश्वस्त हुआ था. आई की प्रार्थनाओं पर उसे भरोसा है.

शारीरिक परिक्षण में ५ किलोमीटर की दौड़, शॉट पुट तथा हाई जम्प सम्मिलित था. रघु को विश्वास है वह यह परीक्षायें आसानी से पास कर जायेगा. धैर्य से वह अपनी बारी का इंतज़ार करता है. कतार आधे घंटे से टस से मस नहीं हो रही है. जाने कहां जा कर अटक गई है. इधर माथे पर सूरज का गोला तमतमाते हुये चढ़ आया है. धूप का रंग एकदम सफ़ेद है. तरल आग़ की तरह चारों तरफ झड़ रही है. हवा धुआं रही है धीरे-धीरे

बीतते समय के साथ पंक्ति में खड़े युवकों में बेचैनी बढ़ रही है. सब रह-रह कर अपनी जगह में कसमसा रहे हैं, शरीर का बोझ एक पैर से दूसरे पैर पर डाल रहे हैं. हर दूसरे मिनट कोई अपनी घड़ी में समय देख रहा है या किसी से समय पूछ रहा है. घड़ी की सुई भी जैसे अटक गयी है. समय आगे ही नहीं बढ़ रहा. कितनी देरओह. रघु अपने छोटे-से रुमाल से चेहरा पोंछता है. पसीना बह कर आंखों में जलन पैदा कर रही है. साथ ही पीठ भी जल रही है. शायद घमौड़ियां निकल आई है. पूरा माहौल जैसे दम साधे पड़ा है. कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिल रहा. इतने उम्मीदवारसबकी परीक्षा, कितना समय लगेगा? सुबह ६ ३० से लाईन लगी है. अब तो एक बजने को आये. धूप का रंग अब पीला पड़ रहा है. कभी-कभार चलती हवा लपटों की तरह लग रही है. सूखे पत्ते गर्म हवा के लट्टू में गोल-गोल घूमते हुये उड़ रहे हैं.

रघु को महसूस हो रहा है वह भीतर तक सूख गया है. एक धीमी आंच में उपले की तरह उसका शरीर तप रहा है. उसे पानी चाहियेरह-रह कर पूरी देह में एक ऐंठ-सी पैदा हो रही है. जीभ तालू से जा चिपकी है. जैसे काठ की हो. आंखों के आगे लाल, नीली आकृतियां नाच रही हैं. वह इधर-उधर नज़रें दौड़ाता है. आज भी कहीं पानी का बंदोबस्त नहीं दिख रहा. जल्दबाजी में वह भी पानी साथ लाना भूल गया. आगे की पंक्ति में एक उम्मीदवार के हाथ में पानी का बोतल है. वह उसे खोल कर गटागट पी रहा हैरघु उसे चुपचाप देखता है. चिल्ला कर कहना चाहता है, उसे भी पानी चाहिये मगर कह नहीं पाता. तभी सामने सड़क से एक पानी का टैंकर गुज़रता है, पानी छलकाते हुये. कितना पानी बह रहा हैरास्ते पर पानी की एक लम्बी लकीर बन गई है. एक कौआ चोंच उठा-उठा कर पानी पी रहा है. दो कुत्ते एक गड्ढे में जमा गंदला पानी चाट रहे हैं. रघु अपनी पलकें झपकाता है. दूर दोपहर का क्षितिज एक पनीली दीवार की तरह तिर-तिर कर रहा हैपीछे अभी-अभी एक युवक त्योरा कर गिरा है. वह चौथा है. उससे पहले तीन और युवक अब तक गिर चुके हैं. जून की धूप सूखी आग़ की तरह सबके भीतर से ऊर्जा निचोड़ रही है.

अंदर पहुंच कर भी जाने कितनी देर इंतज़ार करना पड़ा. तपती ज़मीन पर बाड़े में ढूंसे भेड़-बकरियों की तरह उन्हें घंटे भर बैठाया गया. तरह-तरह की औपचारिकतायें पूरी की गई. सबके बनियान में उनके नम्बर चिपकाये गये. ब्लड प्रेशर और हृदय गति जांची गई. वहां डॉक्टर, नर्स और अन्य चिकित्सा कर्मचारी मौजूद थे. एम्बुलेंस भी. उन्हें बताया गया था कि पेट टेस्ट वे अपनी जिम्मेदारी पर दें. हर बात पर वे एक साथ सर हिलाते रहे थे.

जब ५ किलोमीटर की दौड़ में कई अन्य युवकों के साथ रघु की बारी आई, दोपहर का सूरज ठीक सर के ऊपर था, दहकती भट्टी की तरह. ट्रैक पर खड़ा रघु ने साई बाबा को याद करने की कोशिश की थी मगर जाने क्यों सब कुछ अंदर गडमड होता जा रहा था. वह ठीक से सोच  नहीं पा रहा. आंखों के आगे लाल, पीली आकृतियां निरंतर नाच रही हैं. लोगों की आवाज़ें दूर से आती हुई लग रही हैं. जैसे मक्खियां भिनभिना रही हों. वह अपना सर झटकता है, भींच-भींच कर आंखें खोलता है मगर उन नाचती आकृतियों से छुटकारा नहीं मिलता. थोड़ी देर पहले उन्हें केले और ग्लूकोज़ दिया गया था. उससे कुछ बेहतर महसूस हुआ था मगर उसके बाद देर तक फिर तेज़ धूप में खड़ा रहना पड़ गया था.

आखिरकार जब दौड़ शुरु हुई थी, रघु तीर की तरह सबसे आगे निकल गया था. उसकी आंखों के सामने उसके गांव का हरा मैदान पसरा था. उसे यह दौड़ किसी भी तरह नियत समय में पूरी करनी थी. उसे यह नौकरी हर हाल में चाहिये. कई परीक्षायें उसने पास कर ली थी. शेष बची भी करनी थी. करनी ही थी. वह बेतहासा दौड़ रहा था. दहकता सूरज, सुलगती हवा और धूल के काले बवंडर के बीच. उसके साथ जाने और भी कौन-कौन दौड़ रहे थे- कीट नाशक ज़हर से काले पड़े बाबा, झुर्रियों की गठरी बनी आई, तीनों बहनेह्रर तरफ शोर है. सब एक साथ चिल्ला रहे हैं, उससे बोल रहे हैं- बाबा, आई, नीलांगी, मंदा, छुटकी- अपनी ज़मीन वापस लानी है बेटाअपनी ज़मीन में किसान की जान होती हैमैं वहीं दबा पड़ा हूंमुझे मुक्ति चाहियेवह बाबा के हाथों से अपनी बांह छुड़ाता है- बाबा. दौड़ने दोसब आगे निकल रहे हैं. कहते ना कहते आई उसके आगे आ जाती है. वह गिरते-गिरते बचता है. आई को बस हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाना आता है- अगले अगहन तक नीलू की शादी करनी है, उधार के रुपये पर सूद चढ़ रहा हैरघुआदादा मला नील रंगाचे रीबनरघु सब के हाथ झटक कर और तेज़ी से भागता है. उसे अब कुछ नहीं दिख रहा. बस आंखों के आगे नाचता एक मटमैला बवंडर और कानों में गूजती सीटियां.

रघु के पीछे दौड़ते बाबा, आई, नीलांगी, मंदा, छुटकी को पता नहीं, रघु के भीतर अब एक बूंद पानी नहीं बचा है. दोपहर के सुलगते हुये तंदूर की सूखी आग़ ने उसके भीतर की सारी नमी निचोड़ ली है. वह जली लकड़ी की तरह चटक रहा है. उसकी जीभ, गला, सीने में दरारें पड़ रही हैं. अकाल की बंजर ज़मीन की तरह उसका कलेजा फट रहा है. उसके खून में अब ऑक्सीजन नहीं, बस कार्बन डाईऑक्साइड भरा हुआ है. पेशियां, रग-रेशे नीला पड़ने लगे हैं. चेहरा राख हो रहा हैतीसरे किलोमीटर पर वह मुंह खोल कर मछली की तरह सांस लेने के लिये तड़फड़ाता है. उसके पैर अब महसूस नहीं होते. पूरी देह एक काले शून्य में तब्दील हो गई है. मगर वह हौसलों के पांव दौड़ता रहता है. उसे यह नौकरी चाहिये. उर्मि ने कहा था, वह उसका इंतज़ार करेगी. वह उसे हवलदार की वर्दी में देखना चाहती है. वह उर्मि की यह इच्छा ज़रुर पूरी करेगा. रघु को परवाह नहीं कि .उसकी धमनियों में नमक, पानी का संतुलन बिगड़ गया है. १०/१५ के खतरनाक अनुपात पर पहुंच गया है. रक्त चाप नीचे, और नीचे उतर रहा हैअब उन्हें नापा नहीं जा सकता.

रघु ने जाने चौथा किलोमीटर कब पूरा कर लिया है और कोई चिल्ला कर कह रहा है पांचवा किलोमीटर पूरा होने ही वाला है. वह उलटती हुई पुतलियों से देखता है, सूरज पिघल कर पूरे आकाश में फैल गया है. पारे के चमकते सैलाब की तरह. अब आकाश कहीं नहीं है. कान में तेज़ सनसनाहटपसलियों से टकराता दिल. वह अपनी बची-खुची आखिरी ताकत समेटता है. अब आँखों के सामने बाबा की काली लाश सुर्ख हो रही है, आई की सैंकड़ों झुर्रियां झिलमिला रही हैं, नीलांगी की नाक की नथ में हज़ारों सितारें हैंसब ताली बजा रहे हैं. कोई लगातार चिल्ला रहा हैरघु-रघुतू करु शकणार, तुला होणार…’ ’होय, मी करणार, मी करु सकतो…’ रघु बुदबुदाता है. उसकी चमड़ी विवर्ण पड़ गई है, इतनी गर्मी में भी ठंडी और ढीली. सीने में धड़कता हुआ दिल अब पसलियां तोड़ कर निकल आना चाहता है, सामने क्षितिज पर पानी ही पानी है, ऊंची, मटमैली लहरें आकाश को छू रही है. ठंडा पानी. मीठा पानी. आह. पानी दुनिया की सबसे सुंदर चीज़ है, अमृत है. वह सारा पानी पी जायेगा- नदी, झील, समंदरसब. अब रघु उड़ रहा है, उसने पानी तक पहुंचने के लिये अपनी जान लगा दी है. अब उसके आसपास कोई नहींबाबा, आई, बहनेउर्मि भी नहीं. पूरी दुनिया पिघल कर पानी बन गई है. आकाश में काले, घने बादल घिर आये हैं. इस बार पानी बरसेगाखूब पानी बरसेगा

अचानक दोपहर का दहकता सूरज एक भयंकर विस्फोट के साथ टूट कर रघु के ऊपर आ गिरा था. इसके साथ ही रघु के भीतर आखिरी हद तक तनी जीवन की मसृन रेखा बिजली की तरह औचक चमक कर एकदम से तड़की थी.

रघु ने पांच किलो मीटर की दौड़ पूरी कर ली थी. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कोई ज़ोर से सीटी बजा रहा था. चारों तरफ अफरा-तफरी थी. लोग रघु को घेर कर उस पर झुके हुये थे मगर रघु इन बातों से बेखबर सबके बीच गर्म बालू पर निश्चल पड़ा था. उसकी आंखें फटी हुई थी, होंठों पर दरारें थीं और मुंह खुला हुआ था. डॉक्टर ने उसकी नब्ज टटोल कर निर्लिप्त भाव से कहा था- ही इज़ डेड. पानी की कमी की वजह से हाईपोवोलेमिक शॉक या हाईपोटेनशन, हाईपोक्शिया- हिट स्ट्रोक. सायरन बजाती हुई एम्बुलेंस रघु की लाश अस्पताल ले जाने के लिये आ खड़ी हुई थी. आसपास इकट्ठी भीड़ तितर-बितर हो गई थी.

ऊपर आकाश में इसी बीच जाने कब एक टुकड़ा बादल के पीछे सूरज छिप गया था और तेज़ हवायें चलने लगी थीं. मुम्बई से बहुत दूर नांदीपुरा गांव में रघु की आई अपने छिन गये खेत की मेड़ पर बैठी बदलाये आकाश की तरफ देखती हुई बुदबुदा रही थी- इस साल बारिश ज़रुर बहुत अच्छी होगी रघु के बाबाइस बात से बेखबर कि रोती हुई छुटकी उसे ढूंढ़ती हुयी इसी ओर भागी आ रही थी- पाटिल के घर मुम्बई से फोन आया था- रघु
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09822581137

विष्णु खरे : सत्ता-एक्टर-मीडिया भगवान, बाक़ी सब भुनगों समान

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'यदि उसे (सोनम) भी हेमा मालिनी के साथ अस्पताल ले जाया जाता, तो उसकी जान बच जाती'
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मशहूर अभिनेत्री और सांसद हेमामालिनी की कार दुर्घटना की खबरे सबने पढ़ी और तस्वीरें देखीं, पर यह सिर्फ इतना भर नहीं था. इस में एक बच्ची की जान भी गयी. ताकत, सत्ता, पहुंच और लोकप्रियता के आगे एक बेनाम बच्ची की क्या हैसियत ?
विष्णु खरे ने जो नैतिक और कानूनी सवाल उठाये हैं, उनके उत्तर नहीं हैं, अब हम सिर्फ देखते हैं, सिर्फ.    


सत्ता-एक्टर-मीडियाभगवान,बाक़ी सब भुनगों समान 
विष्णु खरे 


कोई चालीस बरस पहले वह एक मस्नूई गाँव रामगढ़ में अपना खड़खड़िया ताँगा चलाती थी जिसमें धन्नो नामक एक कुपोषित और बहु-प्रताड़ित गंगा-जमुनी घोड़ी जुती रहती थी,सवारी के नाम पर दो मुस्तंडे हमेशा बैठे दीखते थे,जिनमें से एक के साथ बाद में उसने दो बार शादी की.बसन्ती अब मथुरा-वृन्दावन से भाजपा एम पी है – उसका बादाख़ार ख़ाविन्द वीरू भी भुजिया-भूमि बीकानेर से रहा – ताँगा-घोड़ी रामगढ़ में ही छूट गए और अब वह शोफ़र-ड्रिवन मर्सेडीस में चलती है.

एक मंदिर-दर्शन से जयपुर जाती  हुई सांसदा हेमा मालिनी की विश्व  में एक सबसे महँगी इस लिमेजीं  और एक खंडेलवाल परिवार की निस्बतन ‘’मामूली’’ गाड़ी मारुति आल्टो के बीच राजस्थान के दौसा के पास 2 जुलाई रात नौ बजे हुई भयानक टक्कर में परिवार की प्यारी छोटी बेटी सोनम की मृत्यु हो गई और अन्य सभी सदस्य,मुखिया हनुमान (हर्ष?) खंडेलवाल,दो महिलाएँ और सोनम का 4 वर्षीय बड़ा भाई सौमिल, जिसकी हालत गंभीर बताई जा रही है,घायल हुए.हम नहीं जानते कि खंडेलवाल परिवार का पेशा या सामाजिक दर्ज़ा क्या है,लेकिन मध्यवर्गीय से कम क्या होगा.

चित्रों में हेमा मालिनी के चेहरे से साफ़ है कि उन्हें दाहिनी आँख के ऊपर इतनी चोट तो आई है कि उससे खून बहा है.उन्हें भाजपा का शायद एक स्थानीय विधायक,जो पता नहीं कहाँ से नुमूदार हो गया,उनके साथ यात्रा कर रहा एक सहायक,और उनकी मर्सेडीस का ड्राइवर तुरंत जयपुर के सबसे बड़े निजी अस्पताल फ़ोर्टिस ले गए जहां उन्हें चोट पर टाँके लगाए गए और नाक का छोटा ऑपरेशन किया गया.उन्हें कुछ और भी चोटें आई हैं लेकिन वह सामान्य बताई जा रही हैं जिनसे उनकी जान को कोई ख़तरा नहीं है.राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे वहाँ तत्काल पहुँच ही गई थीं.

शायद मेरे सपनों में कोई खोट हो,लेकिन हेमा मालिनी मुझे कभी इतनी सुन्दर नहीं लगीं कि उन्हें ‘ड्रीम गर्ल’ कहने की हिम्मत जुटा सकूँ और उनका भयावह,हास्यास्पद ‘हिंदी-उर्दू’ उच्चारण उनकी खराब एक्टिंग को बद से बदतर बना देता था इसलिए उनकी फिल्मों ने भी मुझे दूर ही रखा.धर्मेन्द्र के साथ उनके निकाह ने भी मेरी कोई मदद न की.उन्होंने यह भी कहा था कि वृन्दावन में विधवाओं के आने पर नियंत्रण होना चाहिए.और मेरे लिए अब तो वह ‘नाइटमेअर नानी’ भी हो चुकी हैं.लेकिन इस पब्लिक,और ख़ास तौर पर इस मुद्रित और दृश्य-श्रव्य मीडिया,का कोई क्या करे ?

क्या यह राष्ट्रीय शर्म की बात नहीं कि इस हादसे को महत्व इसीलिए दिया गया कि इसमें हेमा मालिनी मुश्तमिल थीं और उसमें भी सर्वाधिक प्रचार उन्हीं का किया गया और हो रहा है ? उस परिवार का,जिसकी एक नन्हीं बच्ची मारी गई,ज़िक्र अव्वल तो हुआ ही नहीं,फिर कुछ इस तरह हुआ कि ऐसी दुर्घटनाओं में इस तरह का ‘’कोलैटरल डैमैज’’ तो हुआ ही करता है.अभिनेत्री-सांसदा की भौंह से उनके चेहरे और कपड़ों तक बहता खून एक बच्ची की मृत्यु से कहीं ज़्यादा संवादोचित,प्रसारणीय, और 66 वर्ष की उम्र के बावजूद, एक रुग्ण प्रकार से उत्तेजक और चक्षु-रत्यात्मक (voyeuristic) था,कुछ-कुछ द्यूत-सत्र में द्रौपदी के लाए जाने जैसा.करोड़ों आँखों ने वाक़ई इतनी बड़ी ऐक्ट्रेस को रक्त-रंजित देखा,बार-बार देखा और देखते रहेंगे.

बेशक़ वह खून था और खून का मेक-अप नहीं, बेशक़ उन्हें कोई अंदरूनी गंभीर चोट भी हो सकती थी.माथे का इस तरह टकराना,नाक से खून बहना, कभी-कभी संगीन भी हो उठता है.यूँ भी ऐसे हादसों के फ़ौरन बाद आदमी आपादमस्तक हिल जाता है. उनकी हैसियत को देखते हुए तो फोर्टिस भी बहुत बड़ा अस्पताल नहीं है.लेकिन कुछ सवाल हैं जो हमेशा पूछे ही जाना चाहिए,भले ही मामला प्रधानमंत्री का ही क्यों न रहा होता.अभिनेत्री-सांसदा की कार में उनकी मौजूदगी क़ानूनी रूप से केन्द्रीय महत्व की है. उनसे गवाही ली ही जाएगी. क्या उन्हें अस्पताल ले जाए जाने से पहले पुलिस घटनास्थल पर पहुँच चुकी थी ? उन्हें प्राथमिक उपचार वहीं किस कारण नहीं दिया गया ? उन्हें अस्पताल ले जाए जाने की मंज़ूरी किसने दी ? उनके साथ कोई पुलिसकर्मी अस्पताल क्यों नहीं जा सका और वहाँ तैनात क्यों नहीं किया गया ? उनके ड्राइवर को,जिसे बाद में संगीन इल्ज़ामों में गिरफ्तार कर लिया गया, मौक़ा-ए-वारदात छोड़कर उनके साथ अस्पताल जाने की ज़रूरत क्या थी और उसकी इजाज़त उसे किसने दी ? क्या उसकी औपचारिक अल्कोहल जाँच हुई ? पीछे बैठी सांसदा लहूलुहान हुईं,स्टीअरिंग पर बैठे ड्राइवर को कोई भी चोट क्यों नहीं आई ? 150 किलोमीटर रफ़्तार पर टकराई मर्सेडीस की सुरक्षा हवा-थैलियाँ क्यों नहीं खुलीं ? अभिनेत्री-सांसदा का निजी सहायक,जो कार में उनके साथ बताया गया था और इस तरह एक ‘मैटेरियल विटनैस’ है,कौन है और अब कहाँ है ? दूसरे चालक खंडेलवाल के साथ पुलिस ने क्या बर्ताव किया ?

यह भी पूछा जा रहा है कि यदि अभिनेत्री-सांसदा बिना स्ट्रेचर या दूसरे सहारे के ‘फोर्टिस’ पहुँच सकीं तो वह शोक प्रकट करने कम-से-कम खंडेलवाल परिवार की दोनों घायल महिलाओं के पास क्यों नहीं गईं ? उन महिलाओं में से एक ने यह भावुकतापूर्ण दावा किया है कि यदि एक्ट्रेस-एम.पी. अपने साथ घायल बच्ची को फोर्टिस ले जातीं तो वह बच जाती.लेकिन  क्या उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को  कम-से-कम यह निर्देश ही दिए कि खंडेलवाल परिवार की हर मुमकिन मदद की जाय ? वसुंधरा राजे से अनुरोध किया कि जाते-जाते खंडेलवाल-परिवार को भी देखती जाएँ और उन्हें हर जायज़ मदद का आश्वासन दें ?

इस दुर्घटना के लिए सांसदा के ड्राइवर और आल्टो के मालिक-चालक के बीच कौन कुसूरवार है यह तो सलमान खान के मामले की तरह स्थायी-अस्थायी तौर पर अदालत के फैसले की आमद पर ही जब तय होगा तब तय होगा.  मर्सेडीस-चालक को इसलिए गिरफ्तार किया गया है कि पुलिस ने फ़िलहाल उसे अन्य आरोपों के अलावा सोनम की मौत के लिए ज़िम्मेदार माना है.लेकिन इस बिना पर हम उसे (और मालकिन हेमा मालिनी को) मुजरिम नहीं मान सकते.उसे ज़मानत पर छूटना ही था.गाड़ियों की टक्कर विचित्र ढंग से हुई लगती है – मर्सेडीस के बोनेट का बायाँ हिस्सा गया है तो आल्टो के बोनेट का दायाँ. हो सकता है पुलिस बाद में मुकर जाय लेकिन वह कह चुकी है कि मर्सेडीज़ बहुत तेज़ रफ़्तार में थी. न हो तो  उसे रखने का फ़ायदा ही क्या है ? लेकिन यह सच है,भले ही अजब इत्तेफ़ाक़ हो, कि सरकार कोंग्रेस की हो या भाजपा की,जिनके पास सत्ता,पैसा,अधिकार और रसूख़ हैं,भले ही वह ग्राम पंचायत के नव-करोड़पति सरपंच ही क्यों न हों जिन्हें अब प्रेमचंद भी पहचानने से डरेंगे, उनकी गाड़ियों से होने वाली मौतों के आँकड़े बढ़ते जा रहे हैं.अभी चंद रोज़ पहले मध्यप्रदेश के एक मंत्री की गाड़ी ने सोनम से कुछ बड़ी एक बदकिस्मत बच्ची को रौंद दिया था.मुम्बई में भी हाल ही में एक एक्टर की गाड़ी से मानव-मृत्यु की मिलती-जुलती घटना हुई थी.किस किस को याद कीजिए,किस किस को रोइए.

संभव है अभी मीडिया दर्ज करे कि किस तरह धरमिन्दर पापाजी अपनी दूसरी जनानी को अपने पहले बेटों और दूसरी बेटियों के साथ देखने फ़ोर्टिस आएँ,जहाँ ‘एडमिट’ होना अब और लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हो सकता है.अगर अभिनेत्री-सांसदा जल्दी ‘डिस्चार्ज’ नहीं हुईं,जिसमें अस्पताल का फ़ायदा-ही-फ़ायदा है,तो मुम्बई की इंडस्ट्री से मिज़ाजपुर्सिंदों का ताँता लगा रहेगा. हम सहज ही समझ सकते हैं कि हमारा मीडिया इस ऑडियो-विज़ुअल-प्रिंट लोंटरी से कितना कृतकृत्य,कितना धन्य होगा.खूब ‘स्पिन’ दिया जा सकता है इसे. कुछ बदल कर गा भी सकते हैं  :‘’कोई मर्सेडीज़वाली जब टकराती है तो और मुफ़ीद हो जाती है’’.
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(विष्णु खरे का कालम, नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.) यह टिप्पणी ''समालोचन''में ही अविकल प्रकाशित हुई है. प्रिंट-मीडियम ''नभाटा''में शायद स्थानाभाव या पेज-मेक-अप की तकनीकी समस्याओं के कारण मूल का अंतिम पैरा काट लिया गया.
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9833256060

कथा-गाथा : प्रभात रंजन (किस्से)

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कथाकार, अनुवादक, संपादक प्रभात रंजन इधर अपनी कृति, ‘कोठागोई’ के लिए चर्चा में हैं. किस्सों की श्रृंखला ‘देश की बात देस का किस्सा’ का एक किस्सा आपके लिए. इस श्रृंखला के प्रकाशन की  शुरुआत समालोचन से हो रही है.  



देश की बात देस का किस्सा        

प्रभात रंजन 


बात बहुत पुरानी नहीं है. लेकिन अब किस्सा बन गया है.
मतलब साफ़ है कि मेरे गाँव या कहें मेरे देस में अब इसे वे भी सुनाते हैं जो इसके किरदारों के बारे में नहीं जानते.

बीतती सदी के आखिरी दशक वह दौर था जब राजनीति, रोजगार-कारोबार के हिसाब इतने तेजी से बदले, बदलने लगे कि सब अपना बेगाना लगने लगा था.

उन्हीं दिनों की यह बात मशहूर है जब जिले में ऊँची जाति के एक नेता थे. जिले के सबसे बड़े नेता थे. उनके यहाँ जब उनकी जात के, चाहे ऊँची जात के विद्यार्थी लोग, नया-नया खादी पहन कर कभी प्रिंस पान भण्डारतो कभी फ्रेश पान सेंटरमें उल्टे पत्ते का पान खाकर रिक्शे पर बैठकर शहर भर में थूकते फिरने वाले नव नेता पहुँचते तो उनको वे परसौनी बाजार के पश्चिमी कोने पर बनी अपनी विशाल हवेली के ड्राइंग रूम में बिठाते, टी सेट में चाय पिलाते, बर्फी खिलाते और विदा करते. जब दूसरी जात के नवयुवक संघ वाले आते तो उनको बाहर बैठकी में बिठाते चिउड़ा का भूजा खिलाते, साधारण कप में उनके लिए बिना प्लेट वाली चाय आती.

लोग कहते कि उनका वश चलता तो इस तरह के लोगों से वे मिलते भी नहीं लेकिन चुनाव, वोट... राजनीति में सबका ख़याल रखना पड़ता है न.

कहते हैं न हवा बदलती है तो कुछ भी काम नहीं आता. पुराने लोग सुनाते थे कि 77 के चुनाव में बड़ों बड़ों की हवा ऐसी खिसकी कि बस मत पूछिए. कभी वापसी हवा चली ही नहीं.
जिस दशक की बात है उस दशक में हवा कुछ ऐसी ही चली, कुछ की वैसी ही खराब हुई. हर हाल में जीत का साथ बनाए रखने वाले नेता जी को उनके ही गाँव के दक्खिन के टोले के गुमानी राय ने उनको पटखनी दे दी.छोट जात...

ऐसी पटखनी कि देखते देखते शहर में उनकी हवेली वीरान लगने लगी और उनका खुद का वहां आना जाना भी कम होता गया. ड्राइंग रूम और बैठकी की महफ़िलों की बात ही कौन करे.देश की राजधानी से उतर गए थे लेकिन राज्य की राजधानी में अपने बनवाये घर में रहने लगे.सबसे दुःख की बात थी. हार उस गुमानी के हाथों हुई जो उनके यहाँ आता था, बाहर बैठकी में भूजा फांकता था.

इस किस्से से जुड़ा किस्सा यह है कि अपनी खिसकती राजनीति को भांपकर वे एक बार दिल्ली में गुमानी से मिलने गए. यह सोचकर कि जाने से शायद उसको अच्छा लगे और कभी-कभार उससे छोटे-मोटे काम करवाए जा सकें. गुमानी ने उनका स्वागत किया, पैर छूकर प्रणाम किया लेकिन नाश्ते के लिए अंदर से चिउड़ा का भूजा मँगवा दिया. नेता जी समझ गए और उसके बाद कभी उसके आसपास भी नहीं फटके.

कई साल बाद दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में मरे नेताजी तो अखबारों में भी कई दिन बाद खबर छप पाई. सो भी भीतर के पन्ने पर. किसी का ध्यान गया नहीं गया. वैसे भी इलाके-जिले में लग उनको भूल चुके थे.

भूजा का जवाब भूजा से- कहावत ही बन गई!

इसी किस्से से इस असली किस्से का सम्बन्ध है. गुमानी बाजार में सिनेमा वाले सेठ के पिता के नाम पर बने कॉलेज में पढता था तो डीलक्स हेयर कटिंग सैलून में बाल कटवाने जाता था. वहीं नंदन ठाकुर के कटिंग की बड़ी मांग थी. सब कहते कि शाहरुख़ खान, संजय दत्त सबकी कटिंग की ट्रू कॉपी बाल काटता था. वह भी पलक झपकते. जैसे जड़ो हो उसकी उँगलियों में. कहीं बाहर गया होता तो...

वैसे नंदन को भी बाहर जाने की ख़ास परवाह नहीं थी. कहता- सब का बाल काट काट कर बाहर वाला बना देंगे लेकिन बाहर नहीं जायेंगे.

वह उँगलियों का जादूगर था इधर गुमानी बातों का. उसकी बातों ने नन्दन ठाकुर को ऐसा प्रभावित किया कि उसने उससे कभी कटिंग के पैसे भी नहीं लिए, हद तो यह कि बीच बीच में वह उससे दाढ़ी भी बनवा जाता था. रामपुर परोरी गाँव के नंदन को सब समझाते कि गाँव से यहाँ दो पैसा कमाने ही आया हैं. अब वह भी नहीं लेगा तो क्या खायेगा, क्या बचाएगा.

उसका एक ही जवाब होता, ‘ई बोलता ऐसे है जैसे किशोरी मैदान में हेलिकॉप्टर से उतरने वाले नेताजी लोग भाषण में बोलता है. ई भी कुछ बनेगा. तब एक दिन सब मांग लूँगा. इसकी एक बात मुझे बड़ी अच्छी लगती है. कहता है जिन कुछ लोगों ने देश को कब्जे में कर रखा है उनसे देश आजाद करवाएगा. ई जो हेलीकाप्टर वाले नेता लोग आता है ऊ लोग भी यही बात करता है. देश को आजाद करवाएंगे.’
उसकी बात सुनकर सब हँसते थे. ‘रामपुर परोरी का नाम ऐसे ही थोड़े नामी हुआ’, कह कर सब उसका मजाक उड़ाते.

बात इसलिए भी मशहूर हुई कि जब गुमानी सांसद बन गया तो एक दिन माननीय संसदलिखी अपनी गाड़ी में बैठकर डीलक्स हेयर कटिंग सैलून गया. नंदन से बोला- बोल का चहिये!
नंदन बोला, ‘ज्यादा कुछ नहीं. बाकी बात ये है कि बचपन में स्कूल हम भी गए. ज्यादा पढ़े नहीं. लेकिन जो पढ़े सब समझ गए मगर एक बात नहीं समझे.’
ऊ का है रे?’

विश्राम मास्साब पढाये थे कि हम भारत देश के वासी हैं जिसकी राजधानी दिल्ली है. ई बात हम कभी न समझ पाए. कोई जाने वाला दिल्ली गए न रहे कि इ बात पूछ पाते, कुछ मन के कह पाते. अब आपसे यही प्रार्थना है कि आप दिल्ली में पहुँच गए, देश के संसद में. तो हमें ऊ देश से मिलवा दीजिए, दिखा दीजिए, जिसके संसद में बैठने के लिए इतना महाभारत होता है. हमें दिल्ली लिया चलिए.आप भी तो बोले थे कि देश आजाद करवाएंगे. आपकी अब वहां खास इंट्री हो गई है तो हमें देश देखा दीजिए.’ 

गुमानी नेता ने उसको बहुत समझाया कि देश और कुछ नहीं हम सब से बना है, हमारे गाँव, सड़कों से मिलकर बना है, ई जो झंडा 15 अगस्त, 26 जनवरी को फहराते हैं, जिसे देखकर स्कूल में गाते थे- झंडा ऊँचा रहे हमारा... सब देश है..

लेकिन नंदन नहीं माना. बोला- सब देश है तो राजधानी इतना दूर क्यों है? वहां हम लोग कभी जा काहे नहीं पाते हैं?

गुमानी समझ गया कि नंदन को दिल्ली ले जाए बिना कोई गुजारा नहीं.

खुद जाकर पूछे थे इसलिए और कोई चारा नहीं था. वापसी के सफ़र में उसे भी साथ लेकर चले.
नंदन को दिल्ली ले गया. देश के राष्ट्रपति का निवास दिखाया, बाहर से ही सही, देश का सर्वोच्च न्यायालय दिखाया, देश की संसद दिखाई और कहा कि अभी संसद की कार्यवाही नहीं चल रही है नहीं तो मैं तुम्हें इसके अंदर भी ले जाता. ये सभी देश को चलाने जगहें हैं.

बस समझ लो यही देश है. जो इनको चलाता है वही देश बन जाता है. वह किसी को दिखाई नहीं देता लेकिन सबसे ऊपर वही होता है. ‘और सुन लो, हम इसी में बैठने लगे हैंअंत में उसने धीरे से उसके कान की तरफ झुकते हुए कहा.

अब समझे कि देश क्या होता है?’ गुमानी सांसद ने पूछा.
उसने कुछ नहीं कहा.बस सर हिला दिया.

सांसद महोदय ने सांसद कोटे से नन्दन की वापसी का टिकट कटवा दिया. साथ में, यह आश्वासन भी दिया कि कोई काम पड़े उसको जब चाहे याद कर ले. उसको अपना ख़ास फोन नंबर भी दिया. कहा किसी और को मत देना.

नंदन वापस आया. सैलून में, गाँव में, बाजार में सबने पूछा- क्या देखा, कहाँ घूमे, राजधानी देश कैसा होता है....देख लिए?’

सब देख लिए.अपने आँख से देख लिए.बाकी एक बात है, ई जो देश है न वह है बड़ा ताकतवर तभी उसको बड़े बड़े दीवार बनवाकर छिपा रखे हैं सब. दीवारें इतनी मोटी कि यहाँ सौ कोस में किसी के यहाँ नहीं देखे. बाहर उतने पुलिस, ताक देने  पर भी डंडा दिखाने वाले पुलिस.

देख के बड़ा तकलीफ हुआ कि इतने मजबूत देश को कुछ लोगों ने कैद कर रखा है.उ के कौनो छोड़ाने वाला नहीं है.

पहले बात बात में गुमानी कहता था कि दिल्ली जाकर देश को कुछ लोगों के चंगुल से आजाद करवाना है. दुःख तो ई बात का है भैया कि अपना गुमानी भी वहीं जाकर बैठने लगा है. का पता का करे...’
बात देश की चली किस्सा देस का बन गया !
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प्रभात की कहानी पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की और अनुवाद की गलती यहाँ  पढ़े तथा आलेख  प्रभात रंजन और सीतामढ़ी   (गिरिराज किराडू) .

परख : गाँव भीतर गाँव (सत्यनारायण पटेल) : शशिभूषण मिश्र

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समीक्षा                          
हाशिए के समाज का संकट               
शशिभूषण मिश्र



भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी  ईमान, लाल छीट वाली लूगड़ी का सपना, काफ़िर बिजूका उर्फ़  इब्लीस  जैसे चर्चित कहानी–संग्रहों के सर्जक सत्यनारायण पटेल हमारे  संक्रमित समय के ऐसे युवा कथाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन जीवन के गत्यात्मक यथार्थ को पूरी  विश्वसनीयता के साथ रेखांकित किया है. हाशिए के समाज के संकटमय जीवन का साक्षात्कार कराने वाला उनका हाल ही में आया पहला  उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’उल्लेखनीय हस्तक्षेप दर्ज कराता है. 320पृष्ठों में विन्यस्त इस रचना में हमारे समय के अंतर्विरोधों में उलझे विवश ग्रामीण यथार्थ की गहन पड़ताल की गई है. अनूठी कथा-भाषा में यह रचना हमसे बोलती-बतियाती अपने सुख-दुःख साझा करती हमें अपना हिस्सा बना लेती है. और तब स्वयं हम रचना का हिस्सा बनकर उन असंख्य चेहरों  पर पड़े जख्मों और आँखों में अटकी निरुपायता की निशानदेही  कर पाते हैं जो व्यवस्था के महाप्रभुओं ने दिए हैं. समय  के अनगिनत उतार-चढ़ावों से जूझ रहे समाज  के स्वप्नों का चित्रण लेखक ने जिस अचूक और मर्मभेदनी  दृष्टि से  किया है उसके चलते  उपन्यास शुरुआत से अंत तक बेहद पठनीय बना रहता है. पिछले दो दशकों के समूचे कालखंड को समेटते हुए उपन्यास के डिटेल्स अप-टू-डेट हैं.  अपने समकाल पर समग्र दृष्टि से विचार करते हुए सत्यनारायण पटेल  ने सत्ता-व्यवस्था और इन्हें चलाने वाली प्रतिगामी शक्तियों की पहचान की है.  उपन्यास हमारे विपर्यस्त समय की विपर्यस्त दास्तान है.

उपन्यास मृत्यु से शुरू हो होकर समय की हकीकतों से मुठभेड़ करता आगे  बढ़ता है और जीवन-संघर्षों की अनथक यात्रा का  स्पर्श कर  मृत्यु पर समाप्त होता है. उपन्यास की शुरुआत गाँव  के युवा हम्माल  कैलाश की मृत्यु के प्रशमित वातावरण में  होती है.  कैलास के  जीवन के अंत के साथ उसकी पत्नी झब्बू के जीवन में अन्धकार छा जाता है. इक्कीस –बाईस साल की उसकी उमर थी और आगे का पूरा जीवन –“जब झब्बू राड़ी-रांड हुई ,तब उसकी गोद में तीन –चार बरस की रोशनी थी. आँखों में सपनों की किरिच और सामने पसरी अमावस की रात सरीखी जिन्दगी जो अकेले अपने पैरों पर ढोनी. कैलास की मौत  से झब्बू ही नहीं  झोपड़े के सामने वाले नीम के पेड़ में रहने-पलने वाले पक्षी और जीव भी स्तब्ध थे...मानो आज वो सब बे-आवाज हो गए हों –

“ नीम की डगालों पर मोर,होला,कबूतर,चिकी आदि पक्षी बैठे थे . सभी शांत !चुप !गिलहरी भी एक कोचर में से टुकुर -टुकुर देखती रही . शायद उन सबके मन में चल रहा – हमारे लिए ज्वार ,बाजरा,और मक्का के दाने बिखेरने वाला आज खामोश  क्यों है ?...लेकिन वे किससे पूछें...! कौन उनकी भाषा समझे...! कौन उन्हें जवाब दे ...! जैसे उनके बीच का कोई अपना–सा गिलहरी ,कबूतर, चिकी,कौआ या फिर मोर शांत हो गया .”लेखक ने अपनी बेजोड़ सृजनकला से मानवेतर जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं को इतनी  बारीकी से उकेरा  है मानो उनके बीच कोई अनकहा सा  रिश्ता है  जिसे भावनाओं की अभिन्नता से ही  महसूस किया जा सकता है. इस घनीभूत पीड़ा में वो सब झब्बू के साथ परिवार के हिस्से की तरह खड़े हैं.

उपन्यास  कैलास की  मृत्यु के कारणों की पड़ताल करता  हमें विकास के खोखले दावों की हकीक़त से रू-ब-रू कराता है. दरअसल गाँव और महानगर को जोड़ने  वाला रास्ता मौत को आमंत्रित करता छोटी-छोटी खाइयों में तब्दील हो गया है. उसी रास्ते  से लौट रहे  ट्रैक्टर की ट्राली में लदी  खाद की बोरियों के माध्यम से लेखन ने व्यवस्था की नीतियों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है -“बोरियां भी मानो बोरियां नहीं, बल्कि जीती-जागती आम –आवाम हों, जिसे व्यवस्था की काली नीतियों की रस्सियों से बाँध ,ट्राली में भर ,किसी अंधी गहरी विकास की खाई में डालने ले जाया जा रहा हो और रस्सियों में बंधी बोरियां भीतर ही भीतर कसमसातीं, छटपटातीं शायद ट्राली के बाड़े से मुक्ति की जुगत तलाश रहीं हों .”  कहन का बिलकुल भिन्न  अंदाज और  भाषा का बेधक तेवर पूरे औपन्यासिक विधान को ताजगी से भर देता है. व्यंग्य का गहरा बोध समूची रचना की अर्थ-लय में अंतर्भुक्त  है.

कैलाश के न रहने के बाद झब्बू ने  अपने डोकरा-डोकरी (माँ-पिता) के प्रस्ताव को (मायके में रहने) ठुकराते हुए   गाँव के  झोपड़े में रहने का निर्णय किया. झब्बू के सामने गाँव में  हजारों प्रलोभन थे पर उनको नकारती वह  सिलाई सीखती है और आत्मनिर्भर बनती है. गाँव  में उन झोपड़ियों के पास कलाली (देशी शराब) खुलने के साथ एक नए संकट की शुरुआत होती है. कलाली के कारण उन औरतों की जिन्दगी में जहर घुलने लगा. घर से निकलना तक दूभर हो गया. एक दिन जब बात इज्जत आबरू तक पहुँच गई तब श्यामू झब्बू से कहती है – “भीतर चलने से क्या होगा झब्बू ! ये कुत्तरे हर आती –जाती को सूंघते . मैं कहती हूँ कि कुछ टाणी कर नी तो दाल रोटी से छेटी पड़ जाएगी.” औरतें ऐसा  निर्णय लेती हैं जिसकी  किसी को भनक तक नहीं लगी  –
रात तक चंदा, फूंदा, रामरति,  माँगी और पच्चीस-तीस औरतों ने हामी भर ली ....औरतें रोज के कामों से जल्दी फारिग हो गईं. कलाली खुलने से पहले नीम के नीचे जमा हो गयीं . सब की सब जाकर कलाली के किवाड़ के सामने बैठ गयीं .”साहसिक और सामूहिक संघर्ष का नतीजा झोपड़े की औरतों के जीवन में नए सबेरे की तरह था क्योंकि कलेक्टर के आदेश से जाम सिंह को कलाली वहाँ से हटानी पड़ी.

कलाली हटवाने की कीमत झब्बू को सामूहिक दुष्कर्म की यातना भुगतकर  चुकानी पड़ी .  इस घटना के साथ  जीवन, समाज और व्यवस्था के क्रूर, अमानुषिक और क्षरणशील  हिस्से परत-दर-परत उघड़ते जाते हैं. झब्बू  अपने साथ हुई बर्बरता के खिलाफ थाने, कचहरी ,कोर्ट सब जगह का चक्कर काट कर थक जाती है. उसका डोकरा उसे समझाता हुआ कहता है – “बेटी, थाना-कोर्ट-कचहरी में लड़ना ग़रीबों के बस का नहीं. पूरे कुएं में ही  भांग  घुली है.”उपन्यास अन्याय से उपजी उन मूक विवशताओं को दर्ज कराता चलता है  जिनके कारण न्याय के पक्ष में कोई आवाज तक नहीं उठाता. जब ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा तंत्र ही नाभि-नालबद्ध हो, ऐसे में न्याय की उम्मीद करना बेमानी है. जाम सिंह जैसों के हाथ इतने लम्बे हैं कि मंत्री, विधायक, नेता और वकील सब  उसकी मुट्ठी में हैं. उपन्यास का एक और  प्रसंग उल्लेखनीय है  जब -सामूहिक हत्या के जुर्म में जाम सिंह के बेटे  अर्जुन सिंह की जमानत याचिका ख़ारिज हो जाती है तब जाम सिंह नया दांव खेलता है और सफल होता है -“उसके वकील ने बताया कि मैंने हाईकोर्ट में एक जज से गोट बैठा ली है पाँचेक लाख रुपए खर्च करने पड़ेंगे . जमानत हो जाएगी .” झब्बू के साथ हुए अन्याय को इस प्रसंग से बावस्ता करके देखें  तो हम समझ पाएंगे कि लेखक ने न्याय के लिए लड़ रही झब्बू की विवशता को कितने गहरे आशय के साथ  व्यक्त किया है. मनुष्यता को ख़ारिज करने वाली ऐसी असह्य  स्थितियां विचलित करने वाली हैं. अंत में रस्मपूर्ति के रूप में न्यायालय का जो ‘फैसला’ आता है उससे न्याय कि समूची अवधारणा  निचुड़ चुकी होती है. उपन्यास यह प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ जाता है कि आज की न्याय व्यवस्था से आखिरकार मानवीय चेहरा क्यों गायब हो गया है ?   

पुलिस की कार्यप्रणाली और  रुतबे से जिसका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है वह भी इस वर्दी के दुस्साहसी कारनामों से भलीभांति परिचित होता है. अपने साथ हुए  अन्याय-अत्याचार- के खिलाफ आपदग्रस्त आम आदमी  के सामने न्याय का पहला दरवाजा पुलिस स्टेशन ही होता  है किन्तु क्या मजाल कि  किसी ताकतवर व्यक्ति के दबाव, जोर-जुगाड़ के  बिना यहाँ एफ.आई.आर. दर्ज हो जाए. कानूनी,संवैधानिक या खुद के लिए लिए आफत बन जाने वाले प्रकरणों  को छोड़ कर यह खाखी वर्दी भी गरीब-गुरबों से जाम सिंह की ही तरह ही पेश आती है. जाम सिंह जैसी दबंगई का जज्बा यहाँ भी है पर नौकरी का  सवाल है ! इसलिए सूंघकर,बहुत चालाकी के साथ अपना हाथ बचाते हुए सेवा-पानी का रास्ता निकालकर  कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाया जाता है. कुल मिलाकर यहाँ  की दुनिया सीधे-सरल-कमजोर नागरिक के लिए जाम सिंह जैसों की दुनिया से बहुत अलग नहीं है. मगर यही पुलिस माल-पानी की समुचित व्यवस्था करने वालों की सेवा में कभी देरी नहीं करती . कलाली हटाने  के लिए  धरने पर बैठी औरतों के खिलाफ जाम सिंह के एक फोन से ही यह पुलिस तत्काल वहाँ पहुँच जाती है -

 “रमेश जाटव थाने पर ही था . जाम सिंह के मामले में लेत-लाली कैसे करता ? कभी सरकारी तनख्वाह में देर हो जाती, पर जाम सिंह ने जब से दारू का धंधा शुरू किया, कभी बंदी देर से न भेजी . रमेश जाटव ने थाना हाजिरी में बैठे पुलिस वालों को जीप में बैठाला और धरना स्थल पर आ धमका .” दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाने थाने पहुँचने वाली  जायली जैसी कितनी ही औरते हैं जो वर्दी की हवस का शिकार बनती हैं.  मातादीन पंचम जैसे खानदानी पुलिसवालों की तो बात ही कुछ और  है. एक तो थानेदारी का  रौब तिस पर मंत्री जी तक पहुँच.  मातादीन पंचम का बहुत साफ़ मानना था कि –

“खदान माफिया हो,दारू माफिया हो या जो कोई माफिया हो ,ये दुधारू गाय होते हैं. जब चाहो दुहो . कभी मना  नहीं करते.”पाँच भाइयों में मातादीन सहित सभी पुलिस में थे और सभी एक से बढ़ कर एक  कारनामों को अंजाम देने वाले. ऊपर से लेकर नीचे तक घुन लग चुके  इस तंत्र के घालमेल की एक्स-रे रिपोर्ट प्रस्तुत की है  –“खैर देश में अच्छे काम करने वालों की सदा क़द्र होती है . मातादीन द्वितीय की बहादुरी से देश का मुखिया अत्यंत प्रसन्न हुआ .  पंद्रह अगस्त को उसे राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया.”‘पंचम भाई’ हमारी पुलिस व्यवस्था के  प्रतिनिधि चरित्र हैं.

देश-दुनिया की  संस्थाओं से सहायता के नाम पर तिकड़म भिड़ाकर अधिक से अधिक फण्ड का जुगाड़ करने वाले गैर सरकारी संगठन हमारे देश में  कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं . ऐसे संगठनों के कारण ईमानदारी  से काम  करने  वाले संगठनों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है. लेखक ने इन संगठनों के  नकारात्मक पक्ष को अतिरेकी ढंग से  उभारा है जबकि हकीकत यह है कि इन स्वयं सेवी संगठनों ने जमीनी स्तर पर  शिक्षा, भोजन, पर्यावरण, आदि क्षेत्रों में अपना सराहनीय योगदान दिया है. रफ़ीक भाई के रूप में हम आज के एन.जी.ओ. की सोच, सरोकार और कार्य प्रणाली को व्यावसायिकता के सन्दर्भ में भलीभांति समझ सकते  हैं. व्यावसायिकता ने जीवन के हरेक हिस्से की  मूल्य चेतना का क्षरण किया है. समकालीनता की जटिल  और बहुस्तरीय  स्थितियों को  अनावृत्त करने का लेखकीय उपक्रम यहाँ सफल होता हुआ दिखाई देता है.  

उपन्यास गाँव के स्कूल के माध्यम से सरकारी शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामियों को सचेत ढंग से उद्घाटित करता है.  शिक्षक का चरित्र, पद की नैतिकता, विद्यार्थी-शिक्षक सम्बन्ध जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं की नोटिस लेते हुए चिंताजनक स्थितियों की ओर हमारा ध्यान खींचा गया  है. स्कूल के  दुबे मास्टर का चरित्र किसी शिक्षक के लिए तो शर्मनाक है ही वरन किसी भी नागरिक से भी इस तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती. राधली को पीटने और मैदान में धूप में खड़े करने के बाद उसके  बेहोश होने की घटना का उदाहरण यहाँ प्रासंगिक है – राधली अपने आंसू पोंछती  कहने लगी – 

दुबे सर ज्यादा जोर से कीमची मारते मारते बोले कि स्कूल से नाम काट दूंगा .... राधली ने सुबकते हुए अपनी सलवार ऊपर घुटनों तक खींची. देखने वालों की आँखें फटी की फटी रह गयीं. कलेजा मुंह को आने लगा . कई जोड़ी आँखें चूने लगीं .” फिर तो दुबे की करतूतों का एक-के-बाद एक खुलासा होने लगा – “मेरे छोरे से दुबे मास्टर अपनी गाय का चारा सानी करवाता. रामरति की बगल में बैठी एक औरत ने कहा . मेरे छोरे से खेत पर काम करवाता . एक आदमी ने कहा. दो साल पहले मेरी छोरी के साथ जाने क्या छिनाली हरकत करी, छोरी ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया. एक दूसरी औरत बोली .”आज जिस तरह सरकारी स्कूलों से लोगों का विश्वास घटता  जा रहा है उसके पीछे दुबे जैसे शिक्षकों का काफी हद तक हाथ है . शिक्षा प्रणाली की इससे दुखद परिणति कौर क्या हो सकती है जहाँ राधली जैसी गरीब लड़कियों को पढ़ाई छोडनी पड़ती हो ! मिड-डे-मील योजना भी यहाँ हाँफती नजर आ रही है - 

जब मिड –डे-मील शुरू हुया था ,तब सभी बच्चे मिड-डे-मील खा लिया करते . लेकिन जब एक बार बेंगन की सब्जी के साथ चूहा भी रंधा गया और माणक पटेल के लड़के की थाली में चूहा परोसा गया. तब गाँव में हल्ला मच गया ....दुबे मास्टर ने सब संभाल लिया . किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ लेकिन फिर ठाकुर ,पटेल और ब्राह्मण घरों के बच्चों में से मिड-डे-मील कुछ खाते ,कुछ नहीं खाते.” तिवारी मैडम के रूप में  नई पीढ़ी के जागरूक,जिम्मेदार और संवेदनशील शिक्षक की छवि देख कर हम इस बात से आश्वस्त तो हो ही सकते हैं कि शिक्षा-व्यवस्था  में अगर दुबे जैसे शिक्षक हैं तो उनका प्रतिपक्ष रचने वाली तिवारी मैडम जैसी शिक्षिका  भी हैं.

उपन्यासकार ने समाज के गंदले-उजले प्रवाह में तह तक  धंस कर उन मूल कारणों को पहचाना है जिनके चलते मानवीय अस्मिता  क्षत-विक्षत हुई है. कुरीतियाँ तब पैदा होतीं हैं जब  मनुष्यता को अपदस्थ कर दिया जाता है.   रामरति के माध्यम से लेखक ने समाज की दुखती  नब्ज टटोली है. कितना हैरान करने वाला विधान सदियों से हम मानते आए हैं,  कि जो हमारे समाज की गंदगी साफ़ कर हमारे परिवेश को रहने लायक बनाता आया है, उसे हम मानवीय गरिमा के साथ जीने तक नहीं देते- “रोज सुबह टोपला,खपच्ची और झाड़ू उठाती. टपले में नीचे राख डालती. पंद्रह कच्चे टट्टीघरों  का मैला सोरकर भरती ....जब शुरू-शुरू में साग रोटी लेती. हाथ आगे बढ़ा देती. आगे बढ़ा हाथ देख कोई पटेलन डांट देती . कोई ठकुराइन झिड़क देती . तब उसे समझ नहीं थी कि हाथ बढ़ाकर हक़ लेते. दया और भीख तो लूगड़ी का खोला फैला कर माँगी जाती ....जग्या व रामरति ने अपने मन में गाँठ बाँध ली . हम आत्मा के माथे पर जो ढो रहे वो हमारी औलाद को न ढोना पड़े .”जग्या और रामरति की संकल्प शक्ति उनके  मुक्ति के  स्वप्न को  संभावनाशील परिणति की ओर ले जाती  है.

‘गाँव भीतर गाँव’ में उठाए गए सवाल पाठक के अंतर्मन को झकझोरते ही नहीं हैं वरन उसकी भयावहता से दो-चार कराकर उन स्थितियों और इनके लिए जिम्मेदार लोंगों के खिलाफ खड़े होने की जरूरतों से रू-ब-रू कराते हैं. ग्राम स्वराज की परिकल्पना से उपजी  पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. झब्बू और  सरपंच संतोष पटेल के वार्तालाप में यह तस्वीर बहुत साफ़ देखी जा  सकती है. गाँव के विकास और गरीबों के हित का सवाल जब झब्बू उठाती है तो तिलमिलाते  हुए सरपंच के जवाब में पंचायतों में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खुलने लगती हैं -“मेरी जगह गनपत या और कोई होता, ऐसा ही करता ....मैं हरि नाम की खेती के भरोसे सरपंची नहीं कर सकता ....आज के मंहगाई के जमाने में सरपंच का चुनाव लड़ना कितना खर्चीला हो गया है ! चुनाव में खर्चा किया ,उसे कवर भी करना है कि नहीं ! भाई रुपया लगाओ और अठन्नी कमाओ तो यह घाटे का सौदा हो गया . फिर अगला चुनाव भी तो लड़ना है.”

पूरा तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है –“तू अगर ये सोच रही ,पट्टे से नदी ,खदान ,टेकड़ी के पत्थर मुरम आदि  से होने वाली आय मेरे अकेले के घर में जाती है तो ऐसा नहीं ....भले मैं सरपंच हूँ , नदी की रेत,खदान ,टेकड़ी के पत्थर और मुरम का ठेका तो जाम सिंह व शुक्ला  का है ....कुछ कहने जाओ तो लाठी-तमंचे  निकाल लेते हैं.  प्रदेश में सरकार उनकी पार्टी की , कोई रोके तो कैसे ?”  केंद्र-राज्य के सत्ता -शिखरों से जिला,जनपद और ग्राम पंचायतों  तक बहता भ्रष्टाचार और उसमें ऊबता-डूबता  विकास का गुब्बारा. अंतर्राष्ट्रीय संगठनो ,केन्द्र और राज्य की योजनाओं के धन कलश मानो विकास के गंगा जल में उतरा रहे हैं और सब गोते लगा रहे हैं मुक्ति की कामना लिए  -“जो लोग मर गए हैं उनके नाम पर भी  वृद्धावस्था या बिधवा पेंशन आ रही है ....अचानक से गाँव में हांथी सूंड खूब नजर आने लगी ....मर चुके लोगों के नाम पर भी मस्टर रोल बन रहा है.” 
झब्बू जब गाँव की सरपंच बनती है, गाँव के लिए कुछ न कुछ करती रहती है. किन्तु बहुत कम समय में ही वह अपने लक्ष्य से विचलित हो जाती है उपन्यास झब्बू का पक्ष रखते हुए यहाँ पाठक को कन्विन्स करने की कोशिश करता है कि झब्बू जैसे सीधे सादे और बलहीन लोगों को सत्ता में काबिज धूर्त और ताकतवर लोग  किस तरह अपने मकड़जाल में फंसाते हैं. भला कैसे कोई सरपंच समझौता करने से मना कर दे जब पूरी योजना ही गायक मंत्री जैसे लोग तय कर रहे हों – “गायक मंत्री की मौजूदगी में यह तय हुआ कि रेती और गिट्टी की खदानों का ठेका नए सिरे से नीलाम होगा . ठेका संतोष पटेल लेगा. मुनाफे में झब्बू भी पच्चीस प्रतिशत की भागीदार होगी .”

गायक मंत्री ने झब्बू को समझाते हुए कहा – “ अब छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठो . गाँव और पंचायत से ऊपर उठो. राजनीति  में आई हो तो राजनीति करो. राजनीति में जिस घाट पर सुस्ताना पड़े सुस्ताओ. पानी पीना पड़े पियो. यहाँ कोई घाट अछूत नहीं,कोई स्थाई दुश्मन नहीं ....अगर किसी से दुश्मनी भी  है तो उसे बाहर मत दिखाओ. भीतर मन में पालकर रखो. जब मौका मिले शिकार  करो. जड़ से ख़त्म करो. सबूत मत छोड़ो . प्रदर्शन मत करो. सार्वजनिक रूप से दुःख जाहिर करो और आगे बढ़ो.”

मंत्री ने अपने जीवन में अर्जित जिस ज्ञान  और अनुभव से झब्बू का  पथ प्रदर्शित किया,  लोकतंत्र के लिए इससे भयावह ज्ञान और क्या होगा ! गायक मंत्री ने अपनी लम्बी राजनीतिक साधना से प्राप्त ‘ज्ञान चक्षुओं’  से संभाव्य स्थितियाँ  थाह ली थीं . अपनी रणनीति के मुताबिक उसने भविष्य में  घट सकने वाली समस्या  का  खात्मा अपने पुराने अंदाज में किया – एक और हत्या.  झब्बू को हमेशा के लिए शांत करा दिया गया. इस प्रसंग का अंत जिस तरह से होता है वह विषयवस्तु का सही ट्रीटमेंट नहीं है. लेखक यहाँ ‘ठस यथार्थ’ का अतिक्रमण नहीं कर पाता जिससे आगे होने या हो सकने वाले सम्भवनशील यथार्थ का संकेत यहाँ  मिल पाता. झब्बू की मृत्यु से उपन्यास क्या सन्देश देना चाहता है ? बात केवल झब्बू की मृत्यु की ही नहीं है वरन सरपंच बनने के बाद उसके  अन्दर गाँव के लिए बहुत कुछ करने की जो लालसा थी, जो स्वप्न थे उनका  विस्तार किया जा सकता था  बजाए जाम सिंह और माखन शुक्ला की लम्बी चर्चाओं के. जग्या द्वारा अर्जुन सिंह की हत्या के साथ जिस तरह उपन्यास अपनी इति ग्रहण करता है वह प्रतिरोध का संकेत अवश्य  है पर हत्या किसी सकारात्मक और अग्रगामी विजन का विकल्प कभी नहीं बन सकती. 
      
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी के इन डेढ़ दशको में नई पीढ़ी के  युवा कथाकारों के जो उपन्यास आए हैं उनमें इतनी परिपक्व और संश्लिष्ट राजनीतिक चेतना बहुत कम दिखाई देती है.   उपन्यास के शिल्प पर बहुत विस्तार से चर्चा की गुंजाइश है क्योंकि कथा का टटकापन उसकी वस्तु से ज्यादा  उसके शिल्प में अन्तर्निहित होता है. ‘गाँव भीतर गाँव’ साझीदार जीवन–संस्कृति के महीन धागों के  छिन्न-भिन्न होने के परिणामस्वरूप गाँव के भीतर जन्म ले चुके गाँवों के बनने-विकसित होने के कारणों की पहचान गहरे कंसर्न के साथ करने वाली  जरूरी रचना है जिससे गुजरते हुए हमारे अनुभव में बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है.
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शशिभूषण मिश्र
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बाँदा,उ.प्र.
मोबा. 9457815024
ई-मेल- sbmishradu@gmail.com                                            

सबद भेद : आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका अभिनंदन : मैनेजर पाण्डेय

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महान संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को १९३३ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक अभिनंदन ग्रन्थ भेंट किया गया जिसमें देश – विदेश के साहित्यकारों – मनीषियों के लेख संकलित थे. उसकी भूमिका श्याम सुन्दर दासऔर कृष्ण दास के नाम से प्रकाशित थी. पर यह वास्तव में नंददुलारे वाजपेयी ने लिखी थी.
आचार्य द्विवेदी के अवदान, स्त्री सम्बन्धी उनके दृष्टिकोण और इस अभिनंदन की महत्ता पर वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय का यह लेख अपनी  विवेचना, विश्लेषण, वस्तुनिष्ठता और वैचारिकता से उस पूरे युग को आलोकित करता है. आचार्य द्विवेदी की नवजागरण सम्बन्धी समझ और सक्रियता पर एक जरूरी आलेख.


आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका अभिनंदन     
मैनेजर पाण्डेय



चार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य के युगद्रष्टाऔर युगस्रष्टा लेखक थे. ज्ञान और सृजन के क्षेत्रों में युगद्रष्टावह व्यक्ति होता है जो अपने कर्मक्षेत्र के वर्तमान की वास्तविक स्थिति को देखता है और उसके भविष्य की संभावनाओं को पहचानता है. यह गंभीर दायित्व वही व्यक्ति पूरा कर सकता है जिसकी समझ और सोच का दायरा व्यापक हो और समग्रतापरक भी. युगस्रष्टावह व्यक्ति होता है जो ज्ञान या सृजन के क्षेत्र में नई दृष्टियों और प्रवृतियों का निर्माता, प्रेरक और मार्गदर्शक हो. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने समय के हिंदी समाज, हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थितियों को देख रहे थे और उसकी समस्याओं और संभावनाओं को पहचान भी रहे थे, इसीलिए वे उसकी प्रगति के प्रेरक और मार्गदर्शक बन सके. वे युगस्रष्टा भी थे क्योंकि उन्होंने एक ओर खड़ीबोली हिंदी का नया सुव्यवस्थित स्वरूप निर्मित किया, खड़ीबोली को गद्य और काव्य की भाषा बनाने का अथक प्रयत्न किया, हिंदी कविता को नई दिशा और नई राह दिखाने का मार्गदर्शन किया और हिंदी साहित्य के पाठकों को साहित्य की सीमित दुनिया से निकालकर व्यापक हिंदी समाज में दिलचस्पी लेने, उसके बारे में सोचने, उसकी दशा पर विचार करने के लिए समाज-विज्ञानों के ज्ञान से जुड़ने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित किया.

इस प्रक्रिया को मूर्तरूप देने के लिए उन्होंने स्वयं समाज-विज्ञान के विभिन्न विषयों पर निबंध और पुस्तकें लिखने के साथ ही अनेक मानक ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद भी किया. द्विवेदी जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वतीमें प्रकाशित प्रत्येक निबंध और कविता की भाषा को सुधारने और परिष्कृत करने का कठिन काम उन्होंने पूरे मनोयोग और परिश्रम से किया. ऐसे युगद्रष्टा और युगस्रष्टा के नाम से उनका युग जाना जाता है, इसीलिए द्विवेदी-अभिनंदन ग्रंथ की प्रस्तावना में नन्ददुलारे वाजपेयीने द्विवेदी जी के समय के हिंदी साहित्य को द्विवेदी युग का साहित्य कहा है.

द्विवेदी जी की साहित्य की धारणा अत्यंत व्यापक थी. वे केवल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और आलोचना को ही साहित्य नहीं मानते थे. उनके अनुसार किसी भाषा में मौजूद संपूर्ण ज्ञानराशि साहित्य है. साहित्य का यही अर्थ वांगमय शब्द से व्यक्त होता है. अपनी इसी धारणा को ध्यान में रखकर उन्होंने कविता, कहानी और आलोचना के साथ अर्थशास्त्र, भाषाशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, जीवनी, दर्शन, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि के ग्रन्थों और निबंधों का लेखन किया. उनके साहित्य निर्माण की प्रक्रिया जितनी व्यापक है उतनी ही विविधतामयी भी. साहित्य के लेखन की ऐसी व्यापक प्रक्रिया वाले लेखक हिंदी में बहुत कम हैं.

डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण  नामक अपनी पुस्तक में ठीक ही लिखा है कि ‘‘द्विवेदी जी का गद्य-साहित्य आधुनिक हिंदी साहित्य का ज्ञान-कांड है. जो साहित्यकार स्वतः स्फूर्त भावोद्गारों से संतुष्ट नहीं हो जाते, उनके लिए यह ज्ञान-कांड सदा महत्वपूर्ण रहेगा. द्विवेदी जी सबसे पहले राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री हैं. इसका प्रमाण यह हे कि उनकी जो एक मात्र बड़ी पुस्तक है, वह राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तक सम्पतिशास्त्रहै. भारत के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वैसी आलोचना उस समय तक अंग्रेजी में भी प्रकाशित नहीं हुई थी. हिंदी में अब भी उसके टक्कर की दूसरी पुस्तक नहीं है.’’(पृ.सं. 381)

रामविलास शर्माने द्विवेदी जी के ज्ञान संबंधी लेखन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘द्विवेदी जी ने समाजशास्त्र और इतिहास के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे समाज विज्ञान और इतिहास लेखन के विज्ञान की नवीन रूप रेखाएँ निश्चित होती हैं. इसी दृष्टिकोण से उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का नवीन मूल्यांकन किया. एक ओर उन्होंने इस देश के प्राचीन दर्शन, विज्ञान, साहितय तथा संस्कृति के अन्य अंगों पर हमें गर्व करना सिखाया, एशिया के सांस्कृतिक मानचित्र में भारत के गौरवपूर्ण स्थान पर ध्यान कंेद्रित किया, दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढि़यों का तीव्र खंडन किया, और उस विवेक-परंपरा का उल्लेख सहानुभूतिपूर्वक किया जिसका संबंध चार्वाक और वृहस्पति से जोड़ा जाता है. आध्यात्मवादी मान्यताओं, धर्मशास्त्रों की स्थापनाओं को उन्होंने नई विवेक दृष्टि से परखना सिखाया.(वही, पृ.सं. 381-382)

द्विवेदी जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वतीज्ञान की पत्रिका थी. डॉ. रामविलास शर्मा ने सरस्वती के बारे में स्वामी सत्यदेव परिव्राजककी यह राय उद्धृत की है, ‘‘जनता को आवश्यकता थी नवीन ज्ञान की, स्वाधीनता की पहचान की और आधुनिक ज्ञान-स्नान की. सरस्वती द्वारा वे उस पुनीत कार्य को भले प्रकार कर सकते थे. वे थे कुशल संपादक और कर्तव्य-परायण. उन्हें पता था कि मासिक पत्रिका ज्ञान-प्रचार के लिए अत्यंत उपयोगी अध्यापिका बन सकती है और वे उसके द्वारा दूर ग्रामों में बैठे हुए देहातियों तक ज्ञान का दीपक जला सकते हैं. उन्होंने सरस्वती को ऊँचे दर्ज की ज्ञान-पत्रिका बनाने का दृढ़ संकल्प किया और वे थे धुन के पूरे.’ (वही, पृ.सं. 373) इसी संकल्प और साधना के माध्यम से द्विवेदी जी ने सरस्वती को हिंदी नवजागरण की प्रतिनिधि पत्रिक बनाया. उन्होंने हिंदी समाज और संपूर्ण भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य की समस्याओं और संभावनाओं के बारे में सोचने और लिखने के लिए लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया.

द्विवेदी जी ने सरस्वती को नए ज्ञान के साथ-साथ नए सृजन की पत्रिका के रूप में भी विकसित किया. द्विवेदी युग का शायद ही कोई कवि या कहानीकार हो जिसकी रचनाएँ सरस्वतीमें न छपी हों. इस तथ्य के बारे में डॉ. शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘उस समय का कोई ऐसा लेखक नहीं जो बाद में प्रसिद्ध हुआ हो और पहले उसकी रचनाएँ सरस्वती में न छपी हों. प्रसिद्ध हो, चाहे अज्ञात नाम, द्विवेदी जी अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित करते थे कि वह लिखता क्या है. इसलिए सरस्वती में रचना छपने का मतजब यह था कि वह एक निश्चित स्तर की है. बहुत से लोग अपने या दूसरों के बारे में प्रशंसात्मक लेख आदि छपवाना चाहते थे, उनका विरोध करने में द्विवेदी जी ने दृढ़ता का परिचय दिया. साथ ही सरस्वती का उपयोग उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत ख्याति के लिए नहीं किया.(वही, पृ.सं. 365)

हिंदी कविता के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त, द्विवेदी जी की प्रेरणा, प्रभाव और मार्गदर्शन की उपलब्धि हैं. रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि ‘‘द्विवेदी जी ने अतुकांत छंद रचना के लिए जो आंदोलन चलाया, उसकी पूर्ण सिद्धि निराला का मुक्त छंद है.’’(वही, पृ.सं. 386)

हिंदी नवजागरण को जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बंगाल नवजागरण से जोड़ा था, वैसे ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी नवजागरण को महाराष्ट्र के नवजागरण से जोड़ा.द्विवेदी जी ने सरस्वती में मराठी के प्रसिद्ध लेखक विष्णु शास्त्री चिपलूनकर, संस्कृतज्ञ वामन शिवराम आपटे, प्रसिद्ध मूर्तिकार म्हातरे, गायनाचार्य विष्णु दिगम्बर, रायबहादुर रंगनाथ नृसिंह मुधोलकर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और इतिहासवेत्ता विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़ेआदि के साथ ताराबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुमारी गोदावरी बाई, सौभाग्यवती रखमाबाईजैसी स्त्रियों पर लेख लिखकर उनके विचार, व्यवहार, कला-साधना और संघर्ष से हिंदी पाठकों को परिचित कराया. इन प्रक्रिया में उन्होंने हिंदी नवजागरण को अधिक व्यापक और समावेशी बनाया.

पिछले कुछ दशकों से हिंदी में स्त्री-विमर्श का विकास हो रहा है. स्त्री-विमर्श पर विचार के प्रसंग में हिंदी के पुराने लेखकों-आलोचकों के स्त्री संबंधी दृष्टिकोणों की भी छानबीन हो रही है लेकिन आज तक किसी ने स्त्री-विमर्श में महावीर प्रसाद द्विवेदीके स्त्री संबंधी लेखक और दृष्टिकोण की चर्चा नहीं की है. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सामाजिक चिंतन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है उनकी स्त्री संबंधी दृष्टि. आर्चाय द्विवेदी स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे. वे समाज और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों की उपस्थिति और सक्रियता के हिमायती थे. उन्होंने मराठी नवजागरण के निर्माताओं पर लिखते हुए उस नवजागरण के प्रमाण के रूप में अनेक प्रबुद्ध मराठी स्त्रियो पर भी लेख लिखे हैं. द्विवेदी जी ने ताराबाई, रखमाबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और पंडिता गोदावरी बाईकी साधना और संघर्षों का विवेचन किया है.

महावीरप्रसाद द्विवेदी भारतीय स्त्रियों की शिक्षा के पक्षधर थे. सन् 1914ईस्वी में स्त्री शिक्षा के समर्थन में उनका एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक था स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन. यह लेख उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित स्त्री-शिक्षा विरोधी लेखकों का जवाब था. इस लेख का आरंभ इस तरह होता है, ‘‘बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं. और, लोग भी ऐसे वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग - ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बडे स्कूलों और शायद कालेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धम्र्मशास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को शिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधाम्र्मिकों को धम्र्मतत्व समझाना है.’’(महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-7, पृ.सं. 153)

इसी लेख में द्विवेदी जी पुरातन-पंथियों को ललकारते हुए कहते हैं, ‘‘मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी लिखी न थी. न सही. उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत न समझी गई होगी. पर अब तो है. अतएव पढ़ाना चाहिए. हमनें सैंकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं ? तो, चलिए, स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें. हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री-शिक्षा के विपक्षियों को क्षण भर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी. जो लोग पुराणों में पढ़ी-लिखी स्त्रियों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशम स्कंध, के उत्तरार्ध का त्रेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए. उसमें रुक्मिणी-हरण की कथा है. रुक्मिणी ने जो एक लंबा-चैड़ा प्रेम-पत्र एकांत में लिखकर, एक ब्राह्मण के हाथ, श्रीकृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में न था.’’(वही, पृ.सं. 155)

पुरातन-पंथी कह रहे थे कि स्त्रियाँ पढ़कर अनर्थ करती हैं. द्विवेदी जी उनसे कहते हैं, ‘‘स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए. बम के गोले फेंकना, नरहत्या करना, डाके डालना, चोरियाँ करना, घूस लेना, व्यभिचार करना - यह सब पढ़ने-लिखने ही का परिणाम हो तो ये सारे कालेज, स्कूल और पाठशालायें बंद हो जानी चाहिए.’’ (वही, पृ.सं. 155)द्विवेदी जी की स्पष्ट राय है कि ‘‘पढने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके. अनर्थ का बीज उसमें हरगिज़ नहीं. अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं. - अपढों और पढ़े-लिखों, दोनों से. अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति-विशेष का चाल चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं. अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहएि. जो लोग यह कहते हैं कि पुराने जमाने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान बूझ कर लोगों को धोखा देते हैं. समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं. क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है - समाज की उन्नति में बाधा डालना है.’’(वही, पृ.सं. 156)

द्विवेदी जी का 1903ईस्वी का एक लेख है गुजरातियों में स्त्री-शिक्षा. इस लेख में द्विवेदी जी ने गुजरात में स्त्री-शिक्षा के प्रचार का ब्यौरा देते हुए अंत में लिखा है कि ‘‘पुरुषों के समान इस देश की स्त्रियाँ भी सब प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हैं. उनके लिए केवल अवकाश, अवसर और सुभीते की आवश्यकता है.’’ (वही, पृ.सं. 161) 

द्विवेदी जी का 1905ईस्वी का एक लेख है जापान की स्त्रियाँ. इस लेख में उन्होंने लिखा है, ‘‘जापानी लोग स्त्रियों को उच्च शिक्षा देने के बड़े पक्षपाती हैं. स्त्री-शिक्षा का वहाँ बहुत प्रचार है. इस देश में यदि 100में 1लड़की मदरसे पढ़ने जाती है तो जापान में 100में 20लड़कियाँ मदरसे जाती हैं. स्त्रियों में वहाँ अनेक कवि, चित्रकार, अध्यापिकायें और संपादक हैं. हज़ारों पुस्तकें स्त्रियों ने बनाई हैं. जापान में पुरुष जैसे समाज का सुधार करने में संकोच नहीं करते वैसे स्त्रियाँ भी संकोच नहीं करती. जो पुरानी रीतियाँ हानिकारिणी अथवा निरर्थक हैं उनको वे छोड़ देती हैं और नई नई अनुकूल रीतियों को स्वीकार कर लेती हैं. जापान के बड़े बड़े प्रतिष्ठित पुरुष और अधिकारी अपनी अपनी स्त्रियों के साथ बाहर निकलते हैं, सभाओं में जाते हैं, और योरप तथा अमेरिका वालों से भी सस्त्रीक मिलते हैं.’’(वही, पृ.सं. 162-163)

द्विवेदी जी जहाँ कहीं स्त्री की पराधीनता देखते थे, तो वे उसकी कड़ी आलोचना करते थे. जापान की स्त्रियाँलेख में उन्होंने लिखा है, ‘‘जापान यद्यपि योरप वालों की सभ्यता की नक़ल प्रतिदिन करता जाता है तथापि वहाँ की स्त्रियाँ स्वतंत्र नहीं है. वे अपने पति के कुटुम्बियों का बड़ा आदर करती हैं. पति को तो वे स्वामी क्या देवता समझती हैं. हमारे देश के समान जापान में भी स्त्रियों को हर अवस्था में दूसरों के प्रति अधीन रहने की शास्त्राज्ञा है. लड़कपन में वे अपने माता-पिता की आज्ञा में रहती हैं. विवाह हो जाने पर वे पति की आज्ञा में रहती हैं. और विधवा जो जाने पर वे पुत्र की आज्ञा में रहती हैं. वे अपनी पति की हृदय से सेवा करती हैं. पति जब घर से कहीं बाहर जाता है, तब मस्तक झुकाकर उसको वे प्रणाम करती हैं और भोजन के समय सदा उसके पास वे उपस्थित रहती हैं.’’(वही, पृ.सं. 163)

द्विवेदी जी का एक और लेख है, जापान में स्त्री-शिक्षा. इस लेख में उन्होंने लिखा है कि ‘‘आजकल तो जापन में स्त्री-शिक्षा ने बहुत ही ज़ोर पकड़ा है. बौद्ध धम्र्म के प्रचार के पहले स्त्रियों की जो स्थिति वहाँ थी उससे भी उनकी आजकल की स्थिति ऊँची हो गई है. जापानियों का अब यह ख़्याल है कि जिसकी स्त्री शिक्षित नहीं उसे पूरा पूरा सुख कदापि नहीं मिल सकता; उसका जीवन आनंद से नहीं व्यतीत हो सकता; उसे गृहस्थाश्रम का मज़ा हरगिज़ नहीं प्राप्त हो सकता. वहाँ के राजा ने क़ानून जारी कर दिया है कि सात वर्ष की उम्र होने पर लड़कियों को मदरसे भेजना ही चाहिए. न भेजने से माँ-बाप को दण्ड दिया जाता है.’’ (वही, पृ.सं. 165)

द्विवेदी जी कला के क्षेत्र में, विशेष रूप से संगीत में भारतीय स्त्रियों की प्रगति के पोषक थे. उनका 1903ईस्वी का एक लेख है, स्त्रियाँ और संगीत. उस लेख में द्विवेदी जी ने दुख व्यक्त किया है कि आजकल संगीत के क्षेत्र में स्त्रियों की प्रवीणता और भागीदारी पर आपत्ति की जाती है. उन्होंने लिखा है ‘‘इस समय इस देश में गाने-बजाने की कला स्त्रियों के लिए प्रायः अनुचित समझी जाती है और नाचने की तो महा ही निन्द्य मानी जाती है. इन कलाओं को लोग वार-वनिताओं का व्यवसाय समझते हैं और यदि किसी कुलीन कामिनी के बिना ताल स्वर के ढोलक पीटने के सिवा गायन और वादन में कुछ भी अधिक उत्साह दिखाया, तो लोग उसके और उसके आत्मीयों की ओर बुरी दृष्टि से देखने लगते हैं.’’(वही, पृ.सं. 158)

स्त्री-पुरुष समानता के बारे में द्विवेदी जी का द्वंद्वरहित दृष्टिकोण उनके एक लेख स्त्रियों का सामाजिक जीवन(1913ईस्वी) में इस रूप में व्यक्त हुआ है, ‘‘कितने ही सभ्य और शिक्षित देशों में स्त्रियाँ ऐसे सैकड़ों काम करने लगी हैं जिन्हें पुरुष अब तक अपनी ही मिलकियत समझते थे. कचहरियों में, कारख़ानों में, दुकानों में लाखों स्त्रियाँ तरह-तरह के पेशे करती हैं. कितनी ही स्त्रियाँ तो अपने काम से पुरुषों के भी कान काटती हैं. विद्या, विज्ञान, आविष्कार और पुस्तक-रचना में भी स्त्रियों ने नामवरी पाई है.’’ (वही, पृ.सं. 150-151)

द्विवेदी जी के समाज संबंधी चिंतन के प्रत्येक पक्ष का एक अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ होता था. उनके स्त्री संबंधी चिंतन और लेखन में भी यह संदर्भ मौजूद है. जापान की स्त्रियों के बारे में उनके दृष्टिकोण का उल्लेख हो चुका है. उसके साथ ही उन्होंने स्त्री जीवन के कुछ और अंतराष्ट्रीय संदर्भों पर लिखा है. उनका 1907का एक लेख है, ‘एक तरुणी का नीलाम. इस लेख में द्विवेदी जी ने अमेरिका की एक युवती की नीलामी का ब्यौरा दिया. जुलाई 1903ईस्वी का द्विवेदी जी का एक लेख कुमारी एफ. पी. कावके बारे में है, जो आयरलैण्ड की थी. द्विवेदी जी ने उनके संघर्षशील जीवन के बारे में लिखा है. उन्होंने लंबे समय तक स्त्रियों के मताधिकार के लिए राजनीतिक संघर्ष किया था. द्विवेदी जी ने कुमारी काव के एक और स्त्री संघर्ष के बारे में यह लिखा है, ‘‘विलायत में जो लोग अपनी स्त्रियों को निर्दयता से मारते-पीटते थे और उन्हें नाना प्रकार के दुःख देते थे उनसे विवाह-संबंध तोड़ने का अधिकार स्त्रियों को पहले न था. इससे उन स्त्रियों की बड़ी दुर्दशा होती थी. परंतु कुमार काव के उद्योग से पारलियामेंट ने अब यह नियम कर दिया है कि ऐसी स्त्रियाँ अपने पतियों से अलग हो सकती हैं. अतएव हर साल सैकड़ों सुशील स्त्रियाँ अपने मद्यप, दुव्र्यसनी और दुट पतियों के हाथ से छूट कर नीति-मार्ग का अवलम्बन करते हुए समय बिताती हैं.’’(महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-4, पृ.सं. 203) आचार्य द्विवेदी ने 1904ईस्वी के एक लेख में लेडी जेन ग्रेके दुखद अंत की करुण-कहानी लिखी है, जिससे आचार्य की सहृदयता का पता लगता है.



(दो)
सन् 1933ईस्वी में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीको काशी नागरी प्रचारणी सभा की ओर से यह अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया था. यह एक विशाल ग्रन्थ है. इस ग्रंथ के बारे में कुछ भी कहने से पहले इससे जुड़ी दो विडंबनाओं की बात करना जरूरी है. पहली विडंबना यह है कि अभिनंदन ग्रंथ में जो प्रस्तावना प्रकाशित है, उसके अंत में श्याम सुन्दर दासऔर कृष्ण दासके नाम हैं, जिससे लगता है कि प्रस्तावना इन्हीं दोनों व्यक्तियों की लिखी हुई है. लेकिन सच्चाई यह नहीं है. इस प्रस्तावना के लेखक श्याम सुन्दर दास और कृष्ण दास नहीं हैं. इसके वास्तविक लेखक नन्ददुलारे वाजपेयी हैं. नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी में यह प्रस्तावना श्री महावीर प्रसाद द्विवेदीशीर्षक से शामिल है. अपनी पुस्तक में वाजपेयी जी ने निबंध के आरंभ में यह टिप्पणी दी है, ‘‘लेखक का यह निबंध सन् 33के आरंभ में लिखा गया था, जब द्विवेदी जी जीवित थे. यह लेख सर्वप्रथम द्विवेदी-अभिनंदन ग्रन्थकी प्रस्तावना के रूप में प्रकाशित हुआ था, किंतु कारणवश वहाँ लेखक का नाम न दिया जाकर उसके स्थान पर ग्रंथ के संपादकों का नाम दे दिया गया था. यहाँ यह पहली बार लेखक के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है.’’(पृ.सं. 37)  अभिनंदन ग्रंथ में शामिल प्रस्तावना और वाजपेयी जी के निबंध में अंतर केवल इतना है कि प्रस्तावना के अंत में चार-पाँच वाक्य ऐसे जोड़े गए हैं जो मूल लेख में नहीं हैं.

दूसरी विडंबना का संबंध प्रस्तावना के इस कथन से है, ‘‘साहित्य और कला की स्थायी प्रदर्शनी में उनकी कौन-सी कृतियाँ रखी जायँगी ? क्या उनके अनुवाद ? ‘कुमारसंभव-सार’, ‘रघुवंश’, ‘हिंदी-महाभारत’; अथवा बेकन-विचार-रत्नावली’, ‘स्पेंसर की ज्ञेय और अज्ञेय मीमांसाएँ’, ‘स्वाधीनताऔर संपत्तिशास्त्र ? किंतु ये सब तो अनुवाद ही हैं, इनमें द्विवेदी जी की भाषा-शैली स्वयं ही परिष्कृत हो रही थी - क्रमशः विकसित हो रही थी - और आज-कल की दृष्टि से उसमें और भी परिवर्तन किए जा सकते हैं. इन सबमें भाषा-संस्कार के इतिहास की प्रचुर सामग्री मिलेगी; किंतु इनमें द्विवेदी जी का वह व्यक्तित्व बहुत कुछ ढूँढ़ने पर ही मिलेगा जो इस समय हम लोगों के सामने विशद रूप में आया है.’’ (पृ.सं. 1) 

आश्चर्य की बात यह है कि द्विवेदी जी के विख्यात अनुवादों के साथ उनकी मौलिक पुस्तक संपत्तिशास्त्र को भी रखा गया है और उसको भी अनुवाद ही कहा गया है. अगर वह अनुवाद है तो किस भाषा की किस पुस्तक का ? द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में संपत्तिशास्त्र शास्त्र के लेखन की जरूरत, तैयारी और प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखा है. फिर भी प्रस्तावना लेखक उसे अनुवाद कह रहे थे. इससे यह साबित होता है कि प्रस्तावना लेखक ने न संपत्तिशास्त्र शास्त्र की भूमिका पढ़ी है न मूल पुस्तक. इसी बात को ध्यान में रखकर डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण में व्यंग्य और आक्रोश के साथ लिखा है,‘‘ इसे (संपत्तिशास्त्र को) लिखने में द्विवेदी जी ने घोर परिश्रम किया था. उनकी सबसे मौलिक और महत्वपूर्ण कृति यही है. इसके बारे में उन्होंने आत्मकथा वाले निबंध में लिखा था. ‘‘समय की कमी के कारण मैं विशेष अध्ययन न कर सका. इसी से संपत्ति शास्त्र नामक पुसतक को छोड़कर और किसी अच्छे विषय पर मैं कोई नई पुस्तक न लिख सका.’’ इस संपत्ति शास्त्र को अपने अभिनंदन वाले ग्रन्थ में अनुवाद बताया देखकर द्विवेदी जी के मन की क्या दशा हुई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है.’’(पृ.सं. 378)

प्रस्तावना के आरंभ में यद्यपि द्विवेदी जी के स्थाई साहित्य या उनके साहित्य के स्थायित्व के बारे में असमंजस ही अधिक हे, फिर सरस्वती के माध्यम से उनके युगद्रष्टा और युगस्रष्टा रूपों और कार्यों का महत्वपूर्ण मूल्यांकन है. प्रस्तावना में लिखा गया है कि ‘‘वे ऐसे-वैसे संपादक नहीं थे, सिद्धांतवादी और सिद्धांतपालक संपादक थे. जान पड़ता हे कि वे निश्चित नियम बना कर उनके अनुसार अपनी रुचि के लेख मँगाते और वही छापते थे. संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान; खड़ी बोल कविता का उन्नयन, नवीन पश्चिमीय शैली की सहायता से भावाभिव्यंजन; संसार की वर्तमान प्रगति का परिचय; साथ ही प्राचीन भारत के गौरव की रक्षा - जो कुछ उनके लक्ष्य थे, उनकी प्राप्ति अपनी निश्चित धारणा के अनुसार सरस्वतीके द्वारा करना उनका सिद्धांत था; अतः द्विवेदी-काल की सरस्वतीमें केवल द्विवेदी जी की भाषा की प्रतिमा ही गठित नहीं है, उनके विचारों का भी उसमें प्रतिबिंब पड़ा है. उन्होंने किसी संस्था की स्थापना नहीं की, परंतु सरस्वती की सहायता से उन्होंने भाषा के शिल्पी, विचारों के प्रचारक और साहित्य के शिक्षक - तीन तीन संस्थाओं के संचालक - का काम उठाया और पूरी सफलता के साथ उसका निर्वाह किया.’’(पृ.सं. 2)

प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि द्विवेदी जी ने खड़ीबोली के गद्य और पद्य में जो लेखनी चलाई वह इतिहास में द्विवेदी-कलमके नाम से प्रचलित होगी. प्रस्तावना की निम्नलिखित मान्यताएँ मननीय हैं और माननीय भी:

(क)    गद्य और पद्य की भाषा एक करके जनता तक नवीन युग का संदेश पहुँचना उनका उद्देश्य था.
(ख)   उन्होंने उदात और लोक-हितैषी विचारों के पक्ष में शक्तिशाली प्रेरणा उत्पन्न की थी. 
(ग)     स्वभाव भी रुखाई, कपास की भांति निरस होती हुई भी गुणमय फल देती है. द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कपास की खेती की - निरस विशद गुणमय फल जासू.
(घ)     द्विवेदी जी अपने युग के उस साहित्यिक आदर्शवाद के जनक हैं जो समय पाकर प्रेमचंद जी आदि के उपन्यास-साहित्य में फूला-फला.
(ङ)     द्विवेदी युग को साहित्य के कर्म-योग का युग कहना चाहिए.
(च)    द्विवेदी जी की साहित्य-शैली का भविष्य अब तक यथोचित प्रकाश में नहीं आया है. हिंदी प्रदेश की जनता ने उसे अपने समाचारपत्रों की भाषा में अच्छी मात्रा में अपना लिया है और हिंदी के प्लेटफार्म पर भी उसकी तूती बोलने लगी है.
(छ)    व्यावहारिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक विवेचन और देशव्यापी विचार-विनिमय जब खड़ी बोली का आधार लेकर चलने लगेंगे, तब द्विवेदी जी की भाषा को भली भाँति फूलने-फलने का मौका मिलेगा.

इस अभिनंदन ग्रन्थ में भूमिका और प्रस्तावना के बाद मुख्य भाग में निबंध, कविताएँ, श्रद्धांजलियाँ, विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश के साथ एक चित्रावली भी है. निबंधों के विषयों और श्रद्धांजलियों  की विविधता चकित करने वाली है. इसमें अंग्रेजी में रेव. एडविन ग्रीब्स, पी. शेषाद्रि, प्रो. ए. बेरिन्निकोव और संत निहाल सिंह के लेख हैं. श्रद्धांजलि के अंतर्गत एक ओर महात्मा गाँधी के साथ भाई परमानन्दहैं तो दूसरी ओर अनेक विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश हैं. उस युग के अधिकांश कवियों की कविताएँ इस अभिनंदन ग्रंथ में हैं.

इस ग्रंथ में जो चित्रावली है उसका एक विशेष महत्व यह है कि अभिनंदन ग्रंथ के आज के पाठक आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे लेखकों-कवियों का रूप-दर्शन कर सकेंगे, जिनका वे केवल नाम जानते हैं.

विभिन्न भाषाओं, समाजों, साहित्यों और परंपराओं के बारे में महावीर प्रसाद द्विवेदी के दृष्टिकोण में जैसी व्यापकता और उदारता थी, वैसी ही व्यापकता और उदारता इस ग्रंथ के निबंधों में है. इसके निबंध-लेखक उत्तर भारत के लगभग सभी क्षेत्रों के हैं और कुछ यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान भी हैं. इन निबंधों में संस्कृत, हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का प्रतिनिधित्व है. इसके निबंध-लेखक दार्शनिक, संस्कृतज्ञ, इतिहासकार, हिंदी के आलोचक, पुरातत्ववेत्ता, पत्रकार, भाषा-वैज्ञानिक, काव्यशास्त्री, चित्रकला के पारखी, वास्तुकलाविद्, समाज-वैज्ञानिक, वैज्ञानिक और अरबी-फारसी-उर्दू के विद्वान हैं.
इस ग्रंथ के कुछ निबंध आज भी पठनीय हैं और वे अन्यत्र शायद ही मिले. ऐसे दो निबंध विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. उनमें एक निबंध मुंशी महेश प्रसाद मौलवी-आलिम-फाजिल का है. निबंध का शीर्षक है प्राचीन अरबी कविता.इस निबंध में जिस अरबी कविता का विवेचन है वह अरब में इस्लाम के पैदा होने के पहले की कविता है. इस निबंध से यह भी जाहिर होता है कि प्राचीन अरबी में पुरुषों के समानांतर स्त्रियाँ भी कविता करती थीं. निबंधकार ने लिखा है, ‘‘स्त्री-मंडल के कविता-क्षेत्र में सबसे अधिक प्रसिद्धि तुमाजिरनामक स्त्री की है, जो प्रायः खन्साके नाम से विख्यात है. यह प्राचीन काल की कवयित्रियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. इसकी कविताओं का एक संग्रह छप चुका है. अनेक लोगों ने इसकी कवित्व-शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है.’’(पृ.सं. 214) 
निबंधकार ने बाद में यह भी लिखा है, ‘‘यब बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि प्राचीन-कालीन अरब में शिक्षा-प्रसार नहीं था. फिर भी वहाँ के लोगों में दैवी कवित्व-शक्ति थी. इसी कारण पुरुषों के सिवा अनेक स्त्रियाँ भी कवि हुई है. उन स्त्री-कवियों की कविताएँ केवल करुण-रसात्मक ही नहीं, बल्कि अन्य काव्य-रसों से भी युक्त हैं. इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि अरबी भाषा के कवि-सम्राट, ‘इमरूल कैसऔर अन्य कवियों के बीच में एक कविता-संबंधी वाद-विवाद हुआ था, जिसे एक स्त्री ने ही बड़ी योग्यता के साथ निपटाया था.’’(पृ.सं. 215)

दूसरा निबंध मौलाना सैयद हुसैन शिबली नदवीका है, जिसका शीषर्क है उर्दू क्योंकर पैदा हुई.इस निबंध के आरंभ में शिबली साहब ने लिखा है कि हिंदुस्तान में हमेशा भाषाओं की बहुलता रही है. उन्होंने यह भी लिखा है कि अमीर खुसरो हर ज़गह अपनी जबान को हिन्दवी कहते हैं. इस निबंध के अंत में शिबली साहब ने हिंदी-उर्दू की बुनियादी एकता पर ध्यान दिया है. उन्होंने लिखा है, ‘‘देहलवी हिंदी तो अपनी जगह पर रह गई; लेकिन इस हिंदी में उस वक्त के नए ज़रूरियात के बहुत-से अरबी, फारसी और तुर्की के वह अलफाज आकर मिले जिनके मानी और मुसम्मा उन मुल्कों से आए थे. दूसरा फर्क यह पैदा हुआ कि वह हिंदी अपने खत में और यह उर्दू फारसी खत में लिखी जाने लगी. रफ्तः-रफ्तः एक और फर्क भी पैदा हुआ कि पुरानी हिंदी के बहुत-से लफ्जों में, जो जबान पर भारी और सकील थे, जमानः और जबान की फितरी तरक्की के असूल के मुताबिक, हल्कापन और खूबसूरती और खुशआवाजी पैदा करने की कोशिश की गई. इसी तरह अरबी और फारसी और तुर्की के लफ्जों में भी अपनी तबीयत के मुताबिक इसने तब्दीलियाँ पैदा की.’’

इस ग्रंथ का केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं है. इसके निबंध ज्ञानराशि के संचित कोशहोने कारण आज भी पठनीय और मननीय हैं. 
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मैनेजर पाण्डेय
बी-डी/8 ए
डी.डी.ए. फ्लैट्समुनिरका/नई दिल्ली-110067/मो॰ 9868511770

परख : प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता (लवली गोस्वामी) : संजय जोठे

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मिथकों और पुराशिल्पों के अध्ययन और विश्लेषण पर दामोदर धर्मानंद कोसंबी (१९०७-१९६६) ने बेहतरीन कार्य किया है. उनके लिखे शोध निबन्धों की संख्या १०० से भी अधिक हैं. अंग्रेजी में लिखे इन निबन्धों में से कुछ का हिंदी में अनुवाद भी हुआ है


लवली गोस्वमी की यह किताब वर्तमान सन्दर्भों से पुरा-काव्य-शिल्प को देखती परखती है और इसमें एक नारीवादी नजरिया हमेशा सक्रिय रहता है. संजय जोठे की समीक्षा. 




समीक्षा
पुरुष सत्ता व पित्रसत्ता का अस्तित्वगत प्रतिपक्ष: मातृसत्ता                
संजय जोठे 


ह किताब बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है, जिस विषय पर लिखी गयी है और जिस समय में लिखी गयी है उन दोनों बातों से इसका महत्व बढ़ जाता है. हालाँकि यह विषय एकदम नया है, नया इस अर्थ में नहीं कि इससे जुड़ा मनोविज्ञान या प्रक्रियाएं हमारे लिए विजातीय हैं, बल्कि इसलिए कि इस मनोविज्ञान और इन प्रक्रियाओं को ऐतिहासिक रूप में एवं समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय ढंग से देखना हमें ठीक से सिखाया नहीं गया है. हमारी शिक्षा और संस्कृति दोनों ने ही हमारी सामूहिक चेतना के विकास क्रम में जिन आवश्यक चीजों से हमें वंचित किया है उनमे से मिथकों का मनोविज्ञान और उस मनोविज्ञान का समाजशास्त्रीय व मानवशास्त्रीय अर्थ में उसकी डीकोडिंग करने की क्षमता प्रमुख चीजें हैं. आजकल के संस्कृति-रक्षक इतिहास को मटियामेट करने का जो आरोप विदेशी आक्रान्ताओं पर लगा रहे हैं वह आरोप गहराई से उन्ही की संस्कृति और धर्म पर लगता है. इस बात को समझना कठिन है, खासकर आज की इन्टरनेट पीढी के लिए जबकि अधिकाँश लोग विज्ञान विषयों को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं और समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, दर्शन, इतिहास या अन्य विषयों से परिचित नहीं हो पाते, वे लोग न केवल इन बातों से वंचित हैं बल्कि वे चाहकर भी इन्हें समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए इस समय इन विषयों पर लिखना अपने आप में एक चुनौती है.
लवली गोस्वामी

अपने केन्द्रीय विषय मातृसत्ता और यौनिकता के आपसी संबंधों का गहराई से विश्लेषण करने वाली यह किताब बहुत वैज्ञानिक ढंग से और जीव वैज्ञानिक तथ्यों से भरी भूमिका से शुरू होती है और एक तार्किक क्रम में विषय प्रवेश करवाती है. स्त्री और यौनिकता से जुड़े हुए सामाजिक धार्मिक नियमों नियंत्रणों के पीछे असल समाजशास्त्रीय, मानवशास्त्रीय और धार्मिक प्रतिबन्ध या पुरस्कार क्या रहे हैं और उन्होंने समाज के एतिहासिक उद्विकास की यात्रा में कैसे विभिन्न असुरक्षाओं को आकार देते हुए और उन असुरक्षाओं का निवारण करते हुए स्वयं स्त्री को ही असुरक्षित बना दिया है - इस बात को इस किताब के पूरे विस्तार में देखा और समझा जा सकता है, यह एक गहन और जटिल विषय है जिसमे धर्म और रहस्यवाद के कई उल्लेखों में फिसल जाने का भय रहता है लेकिन मार्क्सवादी दृष्टि में रची बसी लेखिका ने इस भय और प्रलोभन दोनों से स्वयं को बखूबी बचाया है.

एक अन्य बहुत सुंदर बात जो इस किताब की रचना के मनोविज्ञान में झलकती है वो है इसके विमर्श की दिशा. इस किताब का विमर्श आदिम मानवीय समाज से कबीलाई समाज और कृषिप्रधान समाज से लेकर नगरों व राज्यों में रहने वाले समाज के मनोविज्ञान को उसकी समग्रता में छूता है. क्रम विकास की इन अवस्थाओं में इन समाजों में स्त्री के शरीर और उसकी यौन सम्भावनाओं से उपजी असुरक्षाओं के मद्देनजर परिवार और संपत्ति को किस प्रकार सुरक्षित रखा जाए, यह एक बड़ा प्रश्न रहा है. इस चिंता का उत्तर ढूँढने की तडप में ही विभिन्न मिथकों और धर्माज्ञाओ का निर्माण करते हुए इन समाजों की मौलिक प्रेरणाओं ने आकार लिया है. इस प्रक्रिया में जहां आदिम कबीलाई समाज एक मात्रसत्तात्मक और बाद में पितृसत्तात्मक और पूंजीवादी समाज में विकसित होता है वहीं परिवार का स्वरुप भी बदलता जाता है. समाज, परिवार और स्त्री पुरुष के यौन व्यवहार सहित स्वयं यौन ऊर्जा और मानव शरीर व मन से उसके संबंध से जुड़े हुए मिथक खुद भी समय के साथ विकसित होते जाते हैं. इस विकास यात्रा में ये मिथक खुद एक तरह से झरोखा बन जाते हैं जिसके जरिये इंसानी समाज के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक उद्विकास को समझना संभव है. इसी संभावना को विस्तार देता हुआ एक विमर्श है जो अपने केंद्र में स्त्री, मातृसत्ता और स्त्री के यौन को एकसाथ स्थान देता है. भारत में तन्त्र की लंबी और समृद्ध परम्परा इसे सदियों सदियों तक सुरक्षित रखती आई है. साथ ही नगरीय, ग्रामीण और वनवासी समाज ने भी अपने धार्मिक कर्मकांडों और रीति रिवाजों सहित लोक कताओं व गीतों में इन तत्वों को न केवल सुरक्षित रखा है, बल्कि उन्हें समय के साथ विकसित भी किया है. यह एक अलिखित दस्तावेज है जो समय के विस्तार में फैला हुआ है और इस देश व संस्कृति के प्रचलित पक्ष का लुप्त हो चुका प्रतिपक्ष उपलब्ध कराता है. हर अध्याय में यह किताब इस प्रतिपक्ष को उघाडती चलती है, यही इस किताब का वास्तविक सौंदर्य है.

सामाजिक उद्विकास की इस प्रक्रिया को स्त्री की यौनिकता के चश्मे से देखना इस किताब को और अधिक महत्वपूर्ण और सुंदर बनाता है, क्योंकि असल में स्त्री पक्ष स्वयं ही पुरुषप्रधान समाज का तार्किक और अस्तित्वगत प्रतिपक्ष है जो अब तक ठीक से देखा ही नहीं गया है. स्त्री - जो एक कृषिप्रधान दौर में केन्द्रीय भूमिका में थी और स्वयं कृषि कर्म की जननी भी मानी गयी है - उसकी भूमिका का परिवार और कबीले में घटते जाना एक बड़ा प्रश्न है. यह किस भाँती हुआ और स्त्री सहित मानव मात्र की यौनिकता के विभिन्न आयामों से भयों और प्रलोभनों ने इसमें क्या भूमिका निभाई है, इस बात की पड़ताल करते हुए पुरुष सत्तात्मक परिवार और समाज कैसे आकार लेता है यह इस किताब का केन्द्रीय विषय बन जाता है. 

किताब के पहले अध्याय में टोटेम को समझाने का प्रयास किया गया है. टोटेम एक खालिस समाजशास्त्रीय पारिभाषिक शब्द है, विभिन्न समाजों और संस्कृतियों में टोटेम जीव जो पशु पक्षी या पेड़ भी हो सकता है, के जरिये प्रकृति की अदृश्य शक्ति या जीवन के असुरक्षित आयाम के प्रति समाजों के भय और समर्पण को उसके पूरे विस्तार में उकेरा गया है. टोटेम से जुड़ा आचारशास्त्र, भय और मनोविज्ञान ही कालान्तर में धर्म बन जाता है, इस बात को रेखांकित करती हुयी यह किताब अगले अध्यायों में टोटेम को यौन और उससे जुडी वर्जनाओं के स्त्रोत के रूप में देखती है. इस तरह यह किताब टोटेम के एकसार्वभौमिक चश्मे से दुनिया भर के सभी समाजों के सांस्कृतिक और समाज मनोवैज्ञानिक विकास के प्रस्थान बिन्दुओं को इकठ्ठा ही पकड़ लेती है और आगे चलकर मानवीय यौनिकता के अध्याय में टोटेम से जुडी वर्जनाओं को परिवार और रक्त सम्बन्धियों में आपस में यौन व्यवहार से जुड़े निषेधों या नियंत्रणों के विकास की प्रेरणा के रूप में निरूपित करती है. एक समाजशास्त्रीय एवं समाज मनोवैज्ञानिक अर्थ में यह क्रम और यह दिशा आसानी से समझ में आती है, यहाँ कहीं भी न तो क्रमटूटता है न ही विवरणों का विस्तार अपने विषय से बाहर जाता है.

दूसरा अध्याय स्वयं भी पहले अध्याय की तरह आगे आने वाले केन्द्रीय विमर्श की भूमिका बनाता चलता है. समाज की सामूहिक चेतना का यौन से क्या सम्बन्ध है और एक विकसित होता हुआ समाज मनुष्य के और खासकर स्त्री के यौन को किस अर्थ में नियंत्रित करना चाहता है, यह इस अध्याय में जाहिर होता है. बहुत द्रढता और स्पष्टता से लेखिका यह बतलाती हैं कि सभी वर्चस्ववादी समाज अपने नागरिकों के यौन को कुंठित बनाने का काम बड़े ही योजनापूर्वक करते हैं ताकि उनकी जीवन ऊर्जा और चेतना की त्वरा मंद हो जाए और जीवन के सृजनात्मक आयामों में गति करते हुए वे समाज के ठेकेदारों के लिए चुनौती पैदा न करे. यह बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है, आज के जेंडर विमर्श में इसे स्त्री के पंख कतरने की प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है. स्त्री की काम ऊर्जा और उसकी यौन स्वतंत्रता की ह्त्या करके उसे एक अनुत्पादक और कुंठित मन में कैद रखा जाता है ताकि वह पित्रसत्तात्मक समाज में संतान पैदा करने और सम्पत्ति सहित समाज की व्यवस्था को पिता से पुत्र तक ट्रांसफर करने की एक मशीन बनकर जीवित रहे, और अपने जीवन में यौन के आनंद के साथ साथ अपनी स्वतन्त्रता के संभावित पुरस्कारों की संभावना के प्रति पीढी दर पीढी मूर्च्छित बनी रहे.

अगले अध्याय में भारतीय मिथक साहित्य में प्रचलित उर्वशी और पुरुरवाके आख्यान को आधार बनाते हुए जो विश्लेषण और विवरण दिया गया है वह प्राचीन भारत में स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण करने की प्रक्रिया और उसके पीछे छुपे पुरुषवादी मनोविज्ञान को उजागर करता है. पुरुरवा के प्रेम में डूबी उर्वशी नाम की अप्सरा क्यों धरती पर आकर उसे वरण नहीं कर सकती और क्यों ऐसा करने की आंशिक स्वतंत्रता के बावजूद उसे पुत्र/ संतान होने पर वापस अपने प्रेम को त्याग देना होगा – इस आख्यान की अपनी बुनाई में ही बहुत सारे सूत्र बिखरे हुए हैं जिन्हें लेखिका ने बहुत सावधानी से आज की ज़िंदा बहस के साथ खडा करने की कोशिश की है. हालाँकि जितने विस्तार में इस बहस और विश्लेषण को ले जाना आवश्यक है उतना विस्तार यहाँ संभव न हो सका है. स्थान और विस्तार सहित सरल भाषा में प्रस्तुति का अभाव इस पूरी किताब की कमजोरी बनाकर उभरता है.

मनोविज्ञान के परम नियम –“निषेध ही आमन्त्रण है” को एक सूत्र की तरह स्वीकार करते हुए लेखिका यहाँ बहुत दुस्साहसी और गहन अंतरदृष्टि से भरी हुई बात कहती हैं. यह बात भारतीय मिथक साहित्य की छुपी हुई प्रेरणाओं को उघाड़ने के लिए आधार बनती है. मिथक कथा में जहां जहां कोई निषेध दिखाया गया है उसी बिंदु पर गहरी खुदाई करनी चाहिए – ऐसा लेखिका का मत है. एक मिथकीय धुंध में खो चुके समाज के धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया को समाजशास्त्रीय व मानवशास्त्रीय उपकरणों से समझने के लिए यह समझ एक गहरा सूत्र देती है.

यह सूत्र एक बहुत महत्वपूर्ण और सार्वभौमिक संक्रमण को उजागर करने में भी सफल होता है जब अगले अध्याय में मातृसत्ता से पितृ-सत्ता की ओर संक्रमण करते हुए मानव समाज की विवशता या कुटिलता का विश्लेषण आरंभ होता है. ग्रीक मिथक में ओरेस्टास और भारतीय मिथक में उद्दालकके पुत्र श्वेतकेतु से जुड़े आख्यान यह बतलाते हैं कि किस तरह मातृसत्ता से पितृ-सत्ता की ओर संक्रमण की इस पूरी प्रक्रिया को एक नैतिक व धार्मिक निषेध की चादर से अदृश्य बना दिया गया है. भारतीय अर्थ में यह अब अकल्पनीय लगता है लेकिन ब्राह्मण ऋषि उद्दालक के घर आये एक अतिथि द्वारा जब रात्रि भर के लिए उद्दालक की पत्नी की मांग की जाती है तो उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु विद्रोह करता है. तब उद्दालक उसे कहता है कि यह अनादी काल से चली आ रही परम्परा है जिसका विरोध करना उचित नहीं है. लेकिन श्वेतकेतु इसे अस्वीकार करता है और बाद में स्त्री की इस स्वतंत्रता को “व्यभिचार” घोषित करके इसपर विराम लगाया जाता है. इसी मार्ग से बाद की शताब्दियों में स्त्री और विशेष रूप से माता की यौन शुचिता और सतीत्व जिस अर्थ में पुरुष-सत्ता या पितृ-सत्ता की सेवा में एक भयानक उपकरण बन जाती है - यह देखना बहुत मजेदार है.इस अर्थ में स्त्री के बहुगामी होने का निषेध असल में उसकी चुनाव की स्वतंत्रता और उसकी स्वतंत्र सत्ता का ही निषेध है.यह तथ्य तब और अधिक गहराई से उभरता है जब स्त्री के बजाय पुरुष को बहुगामी होने की स्वतंत्रता धीरे धीरे बढ़ती जाती है और स्त्री के लिए एक पति का आग्रह पत्थर की लकीर बन जाता है.

अगले अध्याय में इसी क्रम में महाविद्याओं की विशेषताओं में और सामान्य नैतिकता में प्रचलित देवियों की धारणा के बीच पसरे हुए विरोधाभास को आधार बनाकर और ये किताब और अधिक गहराई मेंले जाती है. भारतीय समाज के वर्तमान मुख्य चिन्तन में स्त्री जहां कोमल, रक्षा के योग्य, पतिव्रता और लज्जाशील है वहीं प्राचीन महाविद्याओ में वर्णित स्त्री चरित्र स्वच्छंद, युद्ध को आतुर, महावीभत्स और पतिहंता हैं. तांत्रिक दर्शन में उल्लेखित काली इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं. यह अध्याय बहुत सफलता से निरुपित करता है कि किस प्रकार मात्र-सत्ता से पितृसत्ता की ओर बलात संक्रमण में न केवल स्त्री बल्कि श्रमजीवी और वनवासी समाज का भी पतन होता जाता है. वर्तमान में जिन दलित व मूलनिवासी जातियों को हम देखते हैं वे उसी मात्र-सत्तात्मक अतीत के अवशेष हैं जिनमे आज भी स्त्री चरित्र प्रधान तांत्रिक प्रतीक पूजे जाते हैं.आज के आदिवासी और दलित समाज मुख्य रूप से प्रकृतिपूजक हैं और उनके लिए प्रकृति का सबसे निकटतम प्रतीक माँ ही होती है और उनके सभी रीति रिवाज पित्रसत्तात्मक धर्म की बजाय मात्रसत्तात्मक धर्म के सौंदर्यशास्त्र व प्रतीकशास्त्र से अधिक समानता दिखाते है. 

इस अर्थ में यह किताब न केवल स्त्री-सत्ता के पतन का राज खोलती है बल्कि दलित व मूल निवासी विमर्श के एक गहन धार्मिक-दार्शनिक पक्ष को भी सामने लाती है. काली के पूजक संप्रदाय स्त्री के उन्मत्त और स्वच्छंद स्वरुप को पूजते हैं और उसे एक दयामयी माता के रूप में एक आंशिक स्त्री की  बजाय एक काम में उत्सुक व मदमत्त पूर्ण स्त्री की तरह देखते हैं, महाकाली की यह छवि इतनी पूर्णता तक जाती है कि अपनी दार्शनिक पराकाष्ठा पर पहुँचते हुए वह अपने पति शिव को भी पैरों तले रौंद डालती है. यह तांत्रिक प्रतीक स्त्री की अस्मिता की परम अभिव्यक्ति बन जाता है. लेकिन कालान्तर में पुरुषवादी भारतीय धर्म में स्त्री को ममतामयी और पतिव्रता बनाकर उसकी यौन स्वतंत्रता को पूरी तरह नष्ट कर दिया जाता है.भारतीय देवियों में महाविद्याओं के विपरीत जिस शुचिता और सतीत्व का अति आरोपण किया गया है उससे ये साफ़ जाहिर होता है कि यात्रा किस दिशा में और किस कारण से हो रही है. इस विराट अर्थ भारत में स्त्रीयों, शूद्रों और वनवासी समाजों का पतन और दलन एक साथ चलता है. यहाँ आकर ज्योतिबा फूले की उस महान स्थापना का मूल्य समझ में आता है जब उन्होंने स्त्रीयों और दलितों को एक ही पलड़े में रखकर अपने आन्दोलन की बुनाई की थी.

संजय जोठे
अंत में कहना होगा कि इस पूरी किताब से गुजरते हुए मिथकों के दस्तावेजीकरण और उसके अर्थ बतलाने की आवश्यकता बहुत गहराई से उभरती है, यह आवश्यकता एक अर्थ में विवशता सी बन जाती है जो विषय और सामग्री दोनों के सरलीकरण की संभावना को भी कुंद करती जाती है. लेखिका के हार्दिक प्रयास के बावजूद इस एक अस्तित्वगत विवशता के कारण यह किताब एक जटिल विषय पर जटिल किताबबनी रहती है.परस्पर सम्बंधित और निर्भर आयामों की जटिल अन्योन्य क्रियाओं को एकसाथ समेटने के क्रम में न केवल यह विषय बल्कि इसका प्रस्तुतीकरण भी जटिल होने को अभिशप्त नजर आता है.वैसे यह जटिलता भी स्वाभाविक नजर आती है, ऐसे विषय पर इस समय में लिखना स्वयं में एक भयानक निर्णय है जिसके साथ निभा पाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं. किताब के पूरे विस्तार से गुजरने पर लगता है कि जिस विषय पर जिस आकार की यह किताब है उससे लगभग तिगुने आकार की किताब इसे होना चाहिए था. एक केप्सूल की तरह यह किताब गहन और जटिल बन पडी है. थाल भर-भर कर भूसा खाने वाली नयी पीढी के लिए बहुत सारे विटामिनों को बड़ी मात्रा में समेटे हुए यह केप्सूल बहुत गरिष्ठ है. कुछ अधिक विस्तार में और अधिक सरल भाषा का प्रयोग करके इसे और अधिक पठनीय बनाया जा सकता था.
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 संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं . संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
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पुस्तक : प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता
लेखिका : लवली गोस्वामी
प्रकाशक : दखल प्रकाशन,  संस्करण: प्रथम 2015/मूल्य 150,प्रष्ठ:128

मंगलाचार : सुदीप सोहनी की कविताएँ

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हर नया स्वर, हर नई कविता और कवि उम्मीद होते हैं, न सिर्फ भाषा के लिए, जहाँ भाषाएँ बोली जाती हैं उस दुनिया के लिए भी. सुदीप, कवि के रूप में अपनी पहचान की यात्रा शुरू कर रहे हैं. रचनात्मक तो वह हैं हीं. संवेदना और शिल्प को सहेजने और बरतने का उनका तरीका भी आश्वस्त करता है.





सुदीप सोहनी की कविताएँ                      





1)
कितना अजीब है मेरे लिए
एक कस्बे से महानगर की त्वचा में घुस जाना.

ये कोई बहस का मुद्दा नहीं
पर अक्सर चाय के अकेले गिलासों और बसों ट्रेनों की उदास खिड़कियो पर
पीठ टिकाये चलती रहती है ये कश्मकश
कि शामों को अक्सर हो ही जाती है तुलना उन शहरों की
जहां चप्पल घिसटने और निकर खिसकने से लेकर
ब्रांडेड जूतों कपड़ों और सूट टाई का सफर चंद सालों में तय किया मैंने.

पर बात सिर्फ चमक-दमक की नहीं 
बात उन जगहों की है जो मेरे दिमाग में गंदी जगहेंनाम से बैठी थी.

वो सिनेमाघर या दारू के अड्डे
हाँ यही तो कहा जाता था उन्हें
            लंपटों के आरामगाह,जूएँ-सट्टे के घर
            दारुकुट्टे जाते हैं वहाँ,पीना-खाना होता है यहाँ
कहकर जिन्हें बड़ी उम्र के दोस्त,भाई अक्सर साथ चलते दिखाते हुए आगे ले जाते थे
और रेशमा की जवानीवाले सिनेमाघर केवल यह बताते थे
कि किस दिशा में जाकर किस गली मुड़ना है फलां के यहाँ जाने के लिए यहाँ से.
आज वो ही जगहें मेरी पहुँच में हैं
बेधड़क आया जाया जा सकता है.

कॉलेज के दिनों में गया था टॉकीज में
और रेस्टो-बार तो मिलने बैठने की ही जगह है अब
वो ही बियर-बार जिनके बारे में
घुट्टी की तरह पिलाया गया था ओढ़ाया हुआ सच.

तब मन होता था एक बार अंदर घुसने का
पर अब वो थ्रिल नदारद है इन जगहों की
मेरे लिए न डर बड़े भाई का
न रिश्तेदार माँ-बाप चाचा ताऊ का 
इन शहरों में मेरा कोई नहीं जहां आने जाने पर लगी हो कोई रोक.

जिंदगी कितनी बदल जाती है,
जब बदल जाती है पहचान.

महानगर डर को बदल देते हैं आदतों में.



2)
छोटे शहर – तीन दृश्य
ट्रेन में से शहर
पहले बहुत से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और मस्जिदों की मीनारें शहर-गाँव के आसपास होने की ताकीद करती थी. आज उनकी जगह मोबाइल टावरों ने ले ली है. दूर से ही समझ आ जाता है बस्ती आने को है.
दोपहरें
अलसाई-सी धूप में घर की छत पर बाल बनातीं और पापड़ सुखाती स्त्रियों को देख कर लगता है दोपहरें छोटे शहरों में अब भी आती हैं.
शामें
शामें अंधेरे के साथ उदासी साथ लाती हैं. इसलिए शायद झुंड बनाकर गप्पें हांकना कभी लोगों का शगल हुआ करता था. आज न वो लोग हैं,न ही झुंड और न ही गप्पें.
कभी-कभी उदास होना कितना सुखद होता है न !



3)
अकेलापन कुछ कुछ वैसा ही होता है
जैसे किसी अकेली चींटी का दीवार पर सरकना.

अकेलापन रात भर में
चुपचाप किसी कली पर फूल के खिलने जैसा है.

हम मृत्यु हो जाने के बाद अकेले नहीं होते
होते हैं हम अकेले सांस लेते लेते ही.

किसी बर्तन में निष्क्रिय पड़े पानी जितनी लंबी उदासी वाला अकेलापन
घड़ी की घंटे वाली सुई जितना सुस्त होता है.

अकेलेपन को भोगना ही होता है
वैसे ही जैसे भोगना पड़ता है
मिट्टी को बारिश की बूंदों के स्वाद के पहले
भीषण गर्मी का एक लंबा अंतराल.

(
शाम का अकेलापन खिड़की से दिखते और धीरे-धीरे डूबते सूरज के साथ क्षितिज पर बनी लंबी रेखा जैसा ही तो होता है....देर तक रहता है)




4)
ग़ुस्सा एक ज़रूरी शर्त है  प्रेम की.

जब हिसाब करेंगे अंत मेंहम,
तय होंगेग़ुस्से से ही प्रेम के प्रतिमान.
रुठने,  मनाने,  मान जाने की हरकतों में ही
छिपे होंगे प्रार्थनाओं के अधूरे फल.

कड़वाहटों, शिकवों-शिकायतों की धमनियों में
रिस रहा होगा प्रेम धीरे-धीरे,
जब बिखरी होगी ज़िन्दगी
किताब से फटपड़े पन्ने की तरह.

छन से टपक पड़ेगी ओस इक,
जब गुज़रा मुंह चिढ़ा रहा होगा.

आँखों में जब नहीं होगी तात दूर तक देखने की,
आवाज़ में भी जब पड़ने लगेंगे छाले,
देखना तुम,
यही ग़ुस्सा साबित होगा निर्णायक
अंत में.



5)
याद को याद लिख देना जितना आसान है
उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है
उस क्षण को जीना और उसका बीतना.

जैसे हो पानी में तैरती नाव
आधी गीली और आधी सूखी.

जिये हुए और कहे हुए के बीच
झूलता हुआ पुल है एक
याद.


6)
रेल जादू का एक खिलौना है
पल में खेल
और
जगह, आदमी
सब ग़ायब.
हिलते हाथ केवल यह बताते रह जाते
कि आदत साथ की गई नहीं.
बेचारगी में रह जाते कुछ वहीं प्लेटफ़ार्म पर
ये सोच कर कि शायद लौट आये इंजन दूसरी दिशा में.
यूं तो यात्रा का नियम यही,
जो गया वो पलटा नहीं.
जादू का सिद्धांत भी है चौंकाना.
रेल खेलती है खेल.
साथ के साथ ही ले जाती है याद भी
और उल्टा कर देती है न्यूटन का सिद्धांत भी
कि किसी क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है.
रेल में आने और जाने के होते हैं अलग-अलग असर.
(याद – वाद यात्रा की इक) 



7)
वही बेसब्री
वही इंतज़ार
वही तड़प.
अकेलापन प्रेम पत्र की तरह होता है
जिसे पढ़ा, समझा और जिया जा सकता है
चुप्पेपन में ही
कई कई बार.


8)
मैं प्रार्थना की तरह बुदबुदाना चाहता हूँ
प्रेम को
पर चाहता हूँ सुने कोई नहीं इसे
मेरे अलावा.
तकना चाहता हूँ आसमान को बेहिसाब
और मौन रहकर देखना चाहता हूँ
करवट लेते समय को.
शाम का रात होना चुप्पियों का आलाप है.


मैं कविता के एकांत में रोना चाहता हूँ
और वहीं बहाना चाहता हूँ
अधूरी इच्छाओं के आँसू
और छू मंतर हो जाना चाहता हूँ खुद से
कुलांचे मारते हिरण की तरह जंगल में
अचानक से.

________
सुदीप सोहनी (29 दिसंबर 1984, खंडवा)
भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान पुणे से स्क्रीनप्ले राइटिंग में डिप्लोमा

भोपाल स्थित कला संस्थान 'विहान'के संस्थापक, फीचर फिल्म लेखन तथा डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माण में सक्रिय,विभिन्न कला संबंधी पत्रिकाओं में नाटक, फिल्म समीक्षा, साक्षात्कार,आलेख लेखन

LIG ब्लॉक 1, E-8, जगमोहन दास मिडिल स्कूल के सामने,
मायाराम स्मृति भवन के पास,
पी एंड टी चौराहा, भोपाल (म.प्र.)

0996764782
sudeepsohni@gmail.com

विष्णु खरे : यह बाहु कुबेर, इंद्रजाल और कैमरे के बली हैं

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एस॰एस॰ राजामौली के निर्देशन में तेलगु भाषा में बनी 'बाहुबली'फिल्म को देश की अब तक की सबसे महंगी फिल्म बताया जा रहा है जिसमें दो भाइयों के बीच साम्राज्य पर शासन के लिए युद्ध की गाथा दिखायी गयी है. इसे हिन्दी, मलयाली, अंग्रेजी और फ्रेंच में डब किया गया है. अपार धन और तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद क्या यह फ़िल्म वास्तव में ‘एपिक’ है ?

प्रख्यात आलोचक-कवि  विष्णु खरे का आलेख. 


यह बाहु कुबेर, इंद्रजाल और कैमरे के बली हैं             
विष्णु खरे 


र्वे गुणाः कांचनं आश्रयन्ते. अम्बानी की अट्टालिका कितनी भी भद्दी और हास्यास्पद क्यों न हो, उसकी तुलना ताजमहल से की जाएगी. अमीर ज़ादे-ज़ादियाँ भले ही बदशक्ल और कौआ-कंठ हों,उन्हें थर्ड पेज पर कामदेव और लता दीदी का अवतार सिद्ध किया जाएगा, फिल्मों में चांस मिलेगा. पैसे देकर कविता-गल्प,प्रकाशक,पत्रिकाएँ और आलोचक खरीदे जाएँगे. प्रोफ़ेसर,गाइड,एक्सपर्ट के बाज़ार-भाव चुकाओ, हिंदी में फ़स्क्लास एम.ए.पीएच.डी हो जाओ. किसी फिल्म में कुछ सौ करोड़ लगाओ, पहले तो सबकी घिग्घी बंद कर दो, फिर उनसे मुसाहिबी और गुलामी करवा लो. चर्चाधीन दिवंगत कवि मलयज के शब्दों को कुछ बदलें तो ‘’सब गिड़गिड़ा कर ताली बजा देते हैं’’.

राजमौलि की फिल्म मूलतः धनबली है यद्यपि हम हर शुक्रवार को देखते हैं कि कितने ही धनपिशाचों की फ़िल्में फ्लॉप होती हैं. दक्षिण भारतीय सिने-दर्शक तो अपने आराध्यों को लेकर आत्महत्या तक कर लेते हैं लेकिन ’बाहुबली’जैसी दक्षिणी-तेलुगु फिल्म ने शायद ए.वी.एम. की ‘चंद्रलेखा’ के बाद पहली बार आंध्र के उत्तर में इतनी उत्कंठा, दीवानगी, रोब, आतंक और भयादोहन पैदा किए होंगे. आज माहौल ऐसा कर दिया गया है कि जिस तरह वर्तमान असली बाहुबलियों के बारे में कुछ-भी बोलना जोखिम-भरा है, वैसे ही इस सिनेमाई बाहुबली को लेकर है. इधर कुछ घटनाएँ भी ऐसी हुई हैं कि फिल्म-समीक्षक अपनी बात कहने से डरने लगे हैं हालांकि यह सच है कि कुछ अलग और बहादुर दिखने के लिए ज़बरदस्ती किसी भी चीज़ या व्यक्ति की निंदा भी नहीं करना चाहिए.

‘बाहुबली’में ‘रामायण’, ’महाभारत’, ’भागवत’, ’प्राचीन बाइबिल’, यूनानी पुराकथाओं, ’टार्ज़न’, ’दि टैन कमान्डमैंट्स’, अंग्रेज़ी ’अवतार’ और अनेक ऐसी मिथकों और नई-पुरानी फिल्मों की प्रेरणाएँ सक्रिय हैं. जिस तरह पश्चिमी पॉप-संगीत में कई गानों से एक-एक पंक्ति लेकर medley नामक  चीज़ बनाई जाती है, ’बाहुबली’ भी एक पंचमेल नेत्रसुख बिरयानी है. यह सिर्फ देखने के लिए बनाई गई है. जिस तरह लोक कथा में मगर की पीठ पर बैठा संकटग्रस्त बन्दर कहता है कि वह अपना कलेजा घर में ही भूल आया है, वैसे ही इस फिल्म को देखते हुए आपको बार-बार कहते रहना पड़ता है कि हाँ, राजमौलि गारु, हम आपकी इस इतनी महँगी फिल्म के लिए अपना दिमाग़ डेरे पर ही छोड़ कर आए हैं.

जैसा कि आजकल अधिकांश ऐसी देसी-फ़िरंगी फिल्मों के साथ है, दस-बीस मिनट के बाद, जब यह साफ़ हो जाता है कि हीरो, उसके सहयोगी और मुरीद और उसकी माशूकाएं कौन हैं, और खलनायकों के पक्ष के भी, तो यह बिलकुल ज़रूरी नहीं रह जाता कि आप कहानी के ब्यौरों और विकास को याद रखने की ज़हमत उठाएँ. फिल्म को सिर्फ दो खेमों में बँटना चाहिए. ज़हन में सिर्फ यह रखें कि नामुमकिन-से-नामुमकिन चीज़ हो सकती है और आपको ढाई घंटे तक उन्हें ध्रुव-सत्य मानना है. कोई भी सवाल उठाया तो समझिए कि आप गए. जैसा सलमान खानकी कला के साथ है, यहाँ भी आपको बालिश – मेंटली रिटार्डेड – होना होता है. (लेकिन यह न भूलें कि हाल में सलमान खान ने देश और सिने-जगत के अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों का साथ देते हुए पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में सर्वोच्च पद पर एक नितांत अयोग्य और संदिग्ध हिन्दुत्ववादी अभिनेता की नियुक्ति की सही निंदा की है और मुझे हर्षित, चकित और क़ायल किया है.)

बहरहाल, ‘बाहुबली’ को लेकर  आप यह नहीं पूछ सकते कि यह किस युग की कहानी है जिसमें इक्का-दुक्का रथ हैं, उम्दा से उम्दा तलवारें, भाले, बरछे हैं, वास्तु-कला चार्ल्स कोरिआ, लचिंस (जिसे कुछ जाहिल ‘लुटियंस’ लिखते हैं) और ल कार्बूज़िए से अधिक विकसित है, ढलवाँ सोने की पचास फ़ुट ऊँची मूर्तियाँ बनती हैं, निहत्था साँड-युद्ध है, दो-तीन हाथियों को लोहे के पग-कवच पहनाए जाते हैं, घोड़ों का अकाल है, नावों का नाम नहीं है, पक्षी और जलपाखी नहीं है, नगरों में आम जनता नहीं दीखती, एक रानी है जो मुर्गों के लायक एक दड़बे में अहर्निश क़ैद है, निआग्रा से ऊँचे जलप्रपात के पास खड़े पात्र बूँदों और फुहारों से भीगते नहीं, पत्थर के गोलों से बंधी छोलदारी को फेक कर दुश्मन की फ़ौज को जलाया जाता है, गोलन हाइट्स से अरबी हथियार-व्यापारी एक तलवार बेचने आते हैं, हिन्दू देवी-देवताओं के नाम पर केवल शिव-लिंग और चंडी-काली की पूजा होती है, और नायक का दुस्साहस इतना है कि वह अपनी एवज़ी माँ की सुविधा के लिए उस करीब एक टन वज़न के इकलौते  शिव-लिंग को उखाड़ कर कहीं और स्थापित कर देता है. फिल्म की पार्श्वभूमि में शुद्ध संस्कृत श्लोकों और मूल शिव- तथा दुर्गा-स्तोत्रों का वाचन-गायन भी है.

जिस तरह ‘भाँग की पकौड़ी’सरीखी  पोर्नोग्राफ़िक नंगी पुस्तकों में होता है कि हर उपलब्ध छिद्र एवं शिश्नाकार  से हर व्यक्ति हर तरह का अजाचारी सम्भोग करता है वैसे ही ऐसी फिल्मों की एक अलग पोर्नोग्राफी होती है – इनमें कभी-भी, किसी के भी साथ कुछ भी संभव-असंभव घट सकता है. इस पट-पोर्नोग्राफी को मदालसा स्त्रियों के मादक, अध उघरे सुख देत शरीर, ऐद्रिक फ़ोटोग्राफ़ी, स्पेशल इफ़ेक्ट्स का इंद्रजाल मिलकर बहुत सुन्दर बना डालते हैं.पोर्नोग्राफी में कोई इमोशन, कोई भावना नहीं होती. उसका लक्ष्य केवल आपके शरीर का यौनोपयोग है. ’’बाहुबली’’ भी आपमें कोई भी मानवीय भावनाएँ नही जगाती. उसका ध्येय और तक़ाज़ा एक ही है – आप उसे ‘’एन्जॉय’’ कर रहें हैं या नहीं. अन्यथा यह एक निरुद्देश्य,self-indulgent फिल्म है.

‘’बाहुबली’’ के उत्तरार्ध में एक लंबा, उलझाऊ फ़्लैशबैक भी है – फिल्म इतिहास का शायद अपने ढंग का पहला, जिसमें एक लम्बे, ऊटपटाँग, ’’सम्पूर्ण’’ युद्ध का अंकन है. उसमें लाखों सैनिक लड़-मर रहे हैं लेकिन पता नहीं कहाँ खड़े हुए राज-परिवार का हर सदस्य सारे ब्यौरे इस तरह देख रहा है जैसे वह संजय है और धृतराष्ट्र सिर्फ़ दर्शक है. राजमौलि को इसमें हर तरह की हिंसा दिखने का औचित्यपूर्ण T20 अवसर मिल सका है. चिअर-गर्ल्स की कमी अखरती है.

इसे लोग ‘महागाथात्मक’, ’महाकाव्यात्मक’ यानी अंग्रेजी में epic फिल्म कह रहे हैं. इंद्रजाल के इस सिने-युग में किसी भी ऐसी महँगी, किन्तु एस.एफ़. लैबोरेटरी में गढ़ी गई फिल्म को आप ‘ईपिक’ फिल्म कह सकते हैं. लेकिन महाकाव्य ‘महाभारत’ में मय दानव ने द्रौपदी के मनोरंजन हेतु दुर्योधन का मखौल उड़ाने के लिए मात्र एक उप-पर्व में आभासी भवन रचा था. मय संसार का पहला काल्पनिक स्पेशल इफेक्ट्स रचयिता और पंडित है. उसकी उस ‘’ऐतिहासिक’’ निर्मिति को भी ‘ईपिक’ नहीं कहा जा सकता. ’’बाहुबली’’ अभी ‘’को वाडिस’’ ’’दि टैन कमान्डमेंट्स’, ’’बिन हूर’’ ‘’दि ईजिप्शियन’’ और ‘’एंटनी एंड क्लेओपेट्रा’’के स्तर का एपिक नहीं है और ‘’ईवान ह्रोज़्नी’’से तो  बहुत दूर है.

लेकिन मैं इसकी सख्त सिफारिश करूँगा कि इस फिल्म को एक दफ़ा ज़रूर देखा जाए. एक स्तर तक यह मनोरंजक है. सिनेमा के विद्यार्थी को यह बताती है कि ऐसी फिल्मों के लिए अब इंद्रजाल की तकनीक कितने केन्द्रीय महत्व की हो चुकी है और बंगलूरु,पुणे,चेन्नै तथा हैदराबाद के समसामयिक युवा भारतीय ‘’मय दानव’’ अपने आदिपुरुष से देखते-ही-देखते कितना आगे निकल गए हैं. एम.एम.कीरवाणी के गीत तथा पार्श्वसंगीत बेहतरीन हैं. सेन्तिल है. अवढरदानी शिवजी नायक द्वारा अपने विस्थापित निरादर के बावजूद इससे अरबों का बिज़नेस करवाएँ. यह संसार में झंडे गाड़े. दक्षिणी फिल्मों में एक्टिंग जैसी और जितनी अच्छी होती है, उतनी है, हालाँकि ऐसी फिल्मों में एक्टिंग की पर्वाह कौन करता है और यूँ भी ‘डब्ड’फिल्मों में अभिनय को अच्छा अभिनय नहीं माना जाता – उसे ऑस्कर नहीं मिलता.

‘’बाहुबली’’ के कुमार की फोटोग्राफी भी विश्व-स्तर की है. पीटर हाइन की मार-धाड़ अच्छी है लेकिन भारतीय नहीं लगती, ’किल बिल’वगैरह की याद दिलाती एक दृश्य पर मुझे गहरी आपत्ति है, हर भारतीय को होना चाहिए और विदेशियों को तो होगी ही. जब कथित निम्न कुल और वर्ग का बताया गया वफ़ादार बुज़ुर्ग दास-योद्धा कट्टप्पा, जिसे इस फिल्म के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता सत्यराज ने जीवंत कर दिया है, बाहुबली को पहचान कर उसका ’चरण’ अपने सर पर कई क्षणों तक रखे रहता है तो यह मुझे हज़ारों वर्षों के अमानवीय मनुवादी दलित-शोषण,  और आत्म-सम्मानहीन भारतीय बहुमत  द्वारा आक्रामक इस्लाम तथा ईसाइयत के बाद आज तक के देशी शासक वर्ग की सैकड़ों वर्षों की गुलामी, को ‘पावन,विशाल-ह्रदय स्वामिभक्ति’ में बदलने जैसा लगा. राजमौलि को इस शर्मनाक सीन को पहली फ़ुर्सत में निकाल देना चाहिए
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(विष्णु खरे का कालम, नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com 
9833256060

कथा - गाथा : उत्तर प्रदेश की खिड़की

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कहानी
उत्तर प्रदेश की खिड़की                           
(प्रिय मित्र सीमा आज़ाद के लिए)

विमल चन्द्र पाण्डेय




प्रश्न-मेरे घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं है और मेरे पिताजी की नौकरी छूट गयी है. वो चाहते हैं कि मैं घर का खर्च चलाने के लिये कुछ काम करूं लेकिन मैं अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता हूं. मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ उनकी मदद भी करना चाहता हूं और चाहता हूं कि कोई ऐसा काम कर सकूं कि पढ़ाई भी हो सके और कुछ कमाई भी, मैं क्या करूं ? - मनोज कनौजिया, वाराणसी

उत्तर-आपका पहला फ़र्ज़ है अपने पिताजी की मदद करना लेकिन यह भी सच है कि बिना उचित ज्ञान और डिग्री के कोई अच्छा काम मिलना मुश्किल है. दिक्कत यह भी है कि ऐसा कोई काम कहीं नहीं है जो करके आप पैसे भी कमाएं और साथ में पढ़ाई भी कर सकें. काम चाहे जैसा भी हो, अगर वह आप पैसे कमाने के लिये कर रहे हैं तो वह आपको पूरी तरह चूस लेता है और किसी लायक नहीं छोड़ता.

प्रश्न- मेरी मेरे माता-पिता से नहीं बनती. वे लोग चाहते हैं कि मैं आर्मी में जाने के रोज सुबह दौड़ने का अभ्यास करूं जबकि मैं संगीत सीखना चाहता हूं. मेरा गिटार भी उन लोगों ने तोड़ दिया है. मेरे पिताजी और चाचाजी वगैरह ऐसे लोग हैं जो हर समय पैसे, धंधे और नौकरी की बातें करते रहते हैं, मेरा यहां दम घुटता है. मैं क्या करूं ? -राज मल्होत्रा, मुंबई

उत्तर-माता-पिता को समझाना दुनिया का सबसे टेढ़ा काम है. उन्हें समझाने की कोशिश कीजिये कि न तो दौड़ने का अभ्यास करने से आजकल आर्मी में नौकरी मिलती है और न तैरने का अभ्यास करने से नेवी में. आप अपने मन का काम करना जारी रखिये. जाहिल लोगों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है चुपचाप अपना काम करना और उन्हें इग्नोर करना.

प्रश्न-मेरे पति अक्सर टूर पर बाहर रहते हैं. हमारी शादी को अभी सिर्फ दो साल हुये हैं और मुझे रात को उनकी बहुत कमी महसूस होती है. मेरा पड़ोसी कुंआरा है और हमेशा मेरी मदद को तैयार रहता है. मैं आजकल उसकी तरफ आकर्षित महसूस कर रही हूं. मैं खुद को बहकने से बचाना चाहती हूं, क्या करूं ? -क ख ग, दिल्ली

उत्तर-आप अपने पति को समझाइये कि वह अपने टूर की संख्या थोड़ी कम करें और आप अकेले में पूजा-पाठ और गायत्री मंत्र का जाप किया करें. अपने आप को संभालें वरना आपका सुखी परिवार देखते-देखते ही उजड़ जायेगा.


प्रश्न
- मेरी उम्र 26 साल है और मेरे दो बच्चे हैं. मेरा मन अब सेक्स में नहीं लगता पर मेरे पति हर रात जिद करते हैं. मेरे स्तनों का आकार भी छोटा है जिसके कारण मेरे पति अक्सर मुझ पर झल्लाते रहते हैं. मैं क्या करूं ?  -एक्सवाईजे़ड, अहमदाबाद


उत्तर-पति को प्यार से समझा कर कहिये कि शारीरिक कमी ईश्वर की देन है इसलिये उसके साथ सामंजस्य बनाएं. रात को बिस्तर पर पति को सहयोग करें, अगर सेक्स में मन नहीं लगता तो कुछ रोमांटिक फिल्में देखें और उपन्यास पढ़ें. इस उम्र में शारीरिक संबंधों से विरक्ति अच्छी नहीं.

प्रश्न.....प्रश्न....प्रश्न

उत्तर...उत्तर...उत्तर

चिंता की कोई बात नहीं. इन समस्याओं में से कितनी ठीक हुईं और कितनी नहीं, इसका मुझे कोई हिसाब नहीं रखना पड़ता. जी हां, मैं ही इन सवालों के जवाब देता हूं. मेरा नाम अनहदहै, मेरा कद पांच फीट चार इंच है और महिलाओं की इस घरेलू पत्रिका में यह मेरा दूसरा साल शुरू हो रहा है. मेरी शादी अभी नहीं हुई है और अगर आप मेरे बारे में और जानना चाहेंगे तो आपको मेरे साथ सुबह पांच बजे उठ कर पानी भरना होगा और मेरे पिताजी का चिल्लाना सुनना होगा. ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ मुझ पर चिल्लाते हैं. चिल्लाना दरअसल उनके लिये रोज़ की सैर की तरह है और वह इस मामले में मेरी मां और मेरे भाई में कोई फर्क नहीं करते. वह एक चीनी मिल में काम करते हैं, `हैं´ क्या थे लेकिन वे अपने लिये `थे´ शब्द का प्रयोग नहीं सुनना चाहते. उनका काम सुपरवाइज़र का है. मैं सुपरवाइज़र का मतलब नहीं जानता था तो यह सोचता था कि मिल पिताजी की है और हम बहुत अमीर हैं. वह बातें भी ऐसे करते थे कि आज उन्होंने दो मजदूरों की आधी तनख़्वाह काट ली हैआज उन्होंने एक कामचोर मजदूर को दो दिन के लिये काम से निकाल दिया या आज उनका मिल देर से जाने का मन है और वह देर से ही जाएंगे. जिस दिन वह देर से जाने के लिये कहते और देर से जागते तो मां कहती कि अंसारी खा जायेगा तुमको. वह मां को अपनी बांहों में खींच लेते थे और उनके गालों पर अपने गाल रगड़ने लगते थे. मां इस तरह शरमा कर उनकी बांहों से धीरे से छूटने की कोशिश करती कि वह कहीं सच में उन्हें छोड़ न दें. इस समय मां मेरा नाम लेकर पिताजी से धीरे से कुछ ऐसा कहतीं कि मुझे लगता कि मुझे वहां से चले जाना चाहिये. मैं वहां से निकलने लगता तो मुझे पिताजी की आवाज़ सुनायी देती, ``मैं राजा हूं वहां का, कोई अंसारी पंसारी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता.´´  मैं समझता कि मेरे पिताजी दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी हैं. मुझे बहुत अच्छा लगता. पिताजी वाकई किसी से नहीं डरते थे बस बाबा जब हमारे घर आते तभी मुझे पिताजी का सिर थोड़ा विनम्रता से झुका दिखायी देता. बाबा पिताजी के चाचाजी थे जो बकौल पिताजी पूरे खानदान में सबसे ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान थे. बाबा पिताजी से बहुत बड़े थे और दुनिया के हर सवाल का जवाब जानते थे. वे हमेशा कहते थे कि हमारा वक़्त आने वाला है और हम दोनों भाई इस बात का मतलब न समझते हुये भी खुश हो जाते थे.


बचपन सबसे तेज़ उड़ने वाली चिड़िया का नाम है
मैं या उदभ्रांत पिताजी को किसी दिन फैक्ट्री देर से जाने के लिये इसरार करते तो वह हमें गोद में उठातेहमारे बालों को सहलाते और फिर नीचे उतार कर तेजी से अपनी सायकिल की ओर भागते. जिस दिन पिताजी फैक्ट्री नहीं जाते उस दिन मौसम बहुत अच्छा होता था और लगता था कि बारिश हो जायेगी लेकिन होती नहीं थी. हम चारों लोग कभी-कभी अगले मुहल्ले में पार्क में घूमने जाते और वहां बैठ कर पिताजी देर तक बताते रहते कि वह जल्दी ही शहर के बाहर आधा बिस्सा ज़मीन लेंगे और वहां हमारा घर बनेगा. फिर वह देर तक ज़मीन पर घर का नक्शा बनाते और मां से उसे पास कराने की कोशिश करते. मां कहती कि चार कमरे होंगे और पिताजी का कहना था कि कमरे तीन ही हों लेकिन बड़े होने चाहिए. वह तीन और चार कमरों वाले दो नक्शे बना देते और हमसे हमारी राय पूछते. हम दोनों भाई चार कमरे वाले नक्शे को पसंद करते क्योंकि उसमें हमारे लिये अलग-अलग एक-एक कमरा था. मां ख़ुश हो जाती और पिताजी हार मान कर हंसने लगते. पिताजी कहते कि वह हमें किसी दिन फिल्म दिखाने ले जाएंगे जब कोई फिल्म टैक्स फ्री हो जायेगी. मां बतातीं कि वह पिताजी के साथ एक बार फिल्म देखने गयी थी, उस फिल्म का नाम 'क्रांति'था और उसमें 'जिंदगी की ना टूटे लड़ी'गाना था. पिताजी यह सुनते ही मस्त हो जाते और 'आज से अपना वादा रहा हम मिलेंगे हर मोड़ पर...'गाना गाने लगते. उदभ्रांत मुझसे पूछता कि टैक्स फ्री फिल्म कौन सी होती है तो मैं अपने कॉलर पर हाथ रख कर बताता कि जिस फिल्म में बहुत बढ़िया गाने होते हैं उन्हें टैक्स फ्री कहते हैं. हम इंतज़ार करते कि कोई ऐसी फिल्म रिलीज हो जिसमें ख़ूब सारे अच्छे गाने हों. 

पिताजी हमें हमेशा सपनों में ले जाते थे और हमें सपनों में इतना मज़ा आता कि हम वहां से बाहर ही नहीं निकल पाते. हम सपने में ही स्कूल चले जाते और हमारे दोस्त हमारी नयी कमीज़ें और मेरी नयी सायकिल को देखकर हैरान होते. मेरे दोस्त कहते कि मैं उन्हें अपनी सायकिल पर थोड़ी देर बैठने दूं लेकिन मैं सिर्फ नीलू को ही अपनी सायकिल पर बैठने देता. नीलू बहुत सुंदर थी. दुनिया की किसी भी भाषा में उसकी आंखों का रंग नहीं बताया जा सकता था और दुनिया का कोई भी कवि उसकी चाल पर कविता नहीं लिख सकता था. मैंने लिखने की कोशिश की थी और नाकाम रहा था. इस कोशिश में मैंने कुछ न कुछ लिखना सीख लिया था. इसी गलत आदत ने मुझे गलत दिशा दे दी और बीए करने के बाद मैंने पिताजी की सलाह मान कर बी'एड. नहीं किया और रात-दिन कागज़ काले करने लगा. लिखने का भूत मुझे पकड़ चुका था. नीलू मेरे देखते ही देखते दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो गयी थी,  मेरा मुहल्ला दुनिया का सबसे खूबसूरत मुहल्ला और मैं दुनिया का सबसे डरपोक प्रेमी. मैंने उन रुमानी दिनों में हर तरह की कविताएं पढ़ी जिनमें एक तरफ तो शमशेर और पंत थे तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध और धूमिल. हर तरह की कविता मुझे कुछ दे कर जाती थी और मैंने भी कविताई करते हुए ढेरों डायरियां भर डालीं.

मेरा लिखा कई जगह छप चुका था और मेरा भ्रम टूटने में थोड़ी ही देर बाकी थी कि मुझे लिखने की वजह से भी कोई नौकरी मिल सकती है. पत्रकारिता करने के लिये किसी पढ़ाई की ज़रूरत होने लगी थी. पत्रकारिता सिखाने के ढेर सारे संस्थान खुल चुके थे और जितने ज़्यादा ये संस्थान बढ़ते जा रहे थे पत्रकारिता ही हालत उतनी ही खराब होती जा रही थी. पता नहीं वहां क्या पढ़ाया जाता था और क्यों पढ़ाया जाता था. पिताजी की मिल (अब हमें उसे पिताजी की ही मिल कहने की आदत पड़ गयी है) के आस-पास की कई मिलें बंद हो चुकी थीं और इस मिल के भी बंद होने के आसार थे. कर्मचारियों को तनख़्वाहें कई महीनों से नहीं दी जा रही थीं और पिताजी ने मुझसे सिर्फ इतना कहा था कि मैं घर की सब्ज़ी और राशन का खर्चा संभाल लूं, वे उदभ्रांत की पढ़ाई के खर्चे का जुगाड़ कैसे भी करके कर लेंगे.

ये उन दिनों के कुछ आगे की बात है जब मैं और उदभ्रांत ज़मीन पर एक लकड़ी के टुकड़े से या पत्थर से एक घर का नक्शा बनाते जिसमें चार कमरे होते. बाबा ने उस मकान का नक्शा हमारे बहुत इसरार करने पर एक कागज़ पर बना कर हमें दे दिया था. हम ज़मीन पर बने नक्शे में अपने-अपने कमरों में जाकर खेलते. उदभ्रांत अक्सर अपने कमरे से मेहमानों वाले कमरे में चला जाता और मैं उसे पिताजी के कमरे में खोज रहा होता. एक बार तो ऐसा हुआ कि खेलते-खेलते मैं मेहमानों वाले कमरे में उदभ्रांत को पुकारता हुआ चला गया और वहां पिताजी अपने एक मित्र के साथ बातें कर रहे थे और उन्होंने मुझे उछल-कूद मचाने के लिये डांटा. उन्होंने मुझे डांटते हुये कहा कि घर में इतना बड़ा बरामदा है और तुम दोनों के अलग-अलग कमरे हैंतुम दोनों को वहीं खेलना चाहिए, घर में आये मेहमानों को परेशान नहीं करना चाहिए. तभी बाबा ने आकर हमारे बड़े से नीले गेट का कुंडा खटकाया और मैंने उदभ्रांत ने कहा कि हमें पिताजी से कह कर अपने घर के गेट पर एक घंटी लगवानी चाहिए जिसका बटन दबाने पर अंदर `ओम जय जगदीश हरे´ की आवाज़ आये. बाबा अक्सर हमारे ही कमरे में बैठते थे और हमें दुनिया भर की बातें बताते थे. वे बाहर की दुनिया को देखने की हमारी आंख थे और हमें इस बात पर बहुत फख्र महसूस होता था कि हम दोनों भाइयों के नाम उनके कहने पर ही रखे गये थे वरना मैं `रामप्रवेश सरोज´ होता और मेरा छोटा भाई `रामआधार सरोज´. उनसे और लोग कम ही बात करते थे क्योंकि वे जिस तरह की बातें करते थे वे कोई समझ नहीं पाता. समझ तो हम भी नहीं पाते लेकिन हमें उनकी बातें अच्छी लगती थीं. हम जब छोटे थे तो हमारा काफ़ी वक़्त उनके साथ बीता था. 


वह कहते थे कि जल्दी ही वो समय आयेगा जब हम सब गाड़ी में पीछे लटकने की बजाय ड्राइविंग सीट पर बैठेंगे. हर जु़ल्म का हिसाब लिया जायेगा और हमारे हक हमें वापस मिलेंगे. हमें उनकी बातें सुन कर बहुत मज़ा आता. मुझे बाद में भी उतना समझ नहीं आता था लेकिन उदभ्रांत धीरे-धीरे बाबा के इतने करीब हो गया था कि उनसे कई बातों पर खूब बहस करता. पिछले चुनाव के बाद जब बाबा भंग की तरंग में नाचते-गाते पूरे मुहल्ले में मिठाई बांट रहे थे तो उदभ्रांत का उनसे इसी बात पर झगड़ा हो गया था कि उसने कह दिया था कि वह कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पाल रहे हैं. बाबा ने बहस कर ली थी कि संविधान बनने के बरसों बाद हम गु़लामों को आज़ादी मिली है और उस पर नज़र नहीं लगानी चाहिये. बाबा जब बहस में उदभ्रांत से जीत नहीं पाते तो उसे थोड़ा इंतज़ार करने की नसीहत देते. ये बहसें अचानक नहीं थीं. जब वह छोटा था तो बाबा से हर मुद्दे पर इतने तर्कों के साथ बहस करता कि मैं उसे देख कर मुग्ध हो जाता. मैं उसकी बड़ी-बड़ी बातों वाली बहसों को देख कर सोचता कि ये ज़रूर अपनी पढ़ाई में नाम रोशन कर हमारे घर के दिन वापस लायेगा. मुझे पिताजी की बात याद आ जाती कि मुझे घर के कुछ खर्चे संभालने हैं ताकि उदभ्रांत अपनी पढ़ाई निर्विघ्न पूरी कर सके और हमारी उम्मीदों को पतंग बना सके.

तो घर के कुछ छोटे खर्चों को संभालने के लिये मैंने अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी थी और कैसी भी एक नौकरी चाहता था.


नीला रंग भगवान का रंग होता है
ऐसे में `घर की रौनक´ नाम की उस पत्रिका में नौकरी लग जाना मेरे लिये मेरी ज़िंदगी में रौनक का लौट आना था. मैं शाम को मिठाई का डिब्बा लेकर नीलू के घर गया था तो वह देर तक हंसती रही थी. आंटी ने कह कि मैं छत पर जाकर नीलू को मिठाई दे आऊं. नीलू शाम को अक्सर छत पर डूबते सूरज को देखा करती थी. उसे आसमान बहुत पसंद था. उसे डूबते सूरज को देखना बहुत पसंद था. मेरे लिये यह बहुत अच्छी बात थी. मैं भी कभी उगा नहीं. मैं हमेशा से डूबता हुआ सूरज था.

``किस बात की मिठाई है साहब..?´´ वह पांचवीं क्लास से ही मुझे साहब कहती थी जब मैंने स्कूल के वार्षिकोत्सव में `साला मैं तो साहब बन गया´ गाने पर हाथ में पेप्सी की बोतल ले कर डांस किया था.

मैंने उसे सकुचाते हुए बताया कि मेरी नौकरी लग गयी है और यह नौकरी ऐसी ही है जैसे किसी नये शहर में पहुंचा कोई आदमी एक सस्ते होटल में कोई कमरा ले कर अपने मन लायक कमरा खोजता है. उसने पत्रिका का नाम पूछा. मैंने नाम छिपाते हुए कहा कि यह महिलाओं की पत्रिका है जिसमें स्वेटर वगैरह के डिजाइनों के साथ अच्छी कहानियां और लेख भी छपते हैं. उसके बार-बार पूछने पर मुझे बताना ही पड़ा. उसकी हंसी शुरू हुई तो लगा कि आसमान छत के करीब आ गया. मैं बहुत खुश हुआ कि मेरी नौकरी देश की किसी अच्छी और बड़ी पत्रिका में नहीं लगी. मुझे नौकरी से ज़्यादा उसकी हंसी की ज़रूरत थी. नौकरी की भी मुझे बहुत ज़रूरत थी. नौकरी देने वाले ये नहीं जानते थे कि नौकरी की मुझे हवा से भी ज़्यादा ज़रूरत थी और नीलू इस बात से अंजान थी कि उसकी हंसी की मुझे नौकरी से भी ज़्यादा ज़रूरत थी.

प्रश्न- मैं अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की से बचपन से प्यार करता हूं. हम दोनों दोस्त हैं लेकिन उसे नहीं पता कि मैं उसे प्यार करता हूं. वह दुनिया की सबसे खूबसूरत हंसी हंसती है. उसकी हंसी सुनने के लिये मैं अक्सर जोकरों जैसी हरकतें करता रहता हूं और उसकी हंसी को पीता रहता हूं. मैं चाहता हूं कि मैं ज़िंदगी भर उसके लिये जोकरों जैसी हरकतें करता रहूं और वह हंसती रहे. लेकिन मैं उससे अपने प्यार का इज़हार करने में डरता हूं, कहीं ऐसा न हो कि मैं उसकी दोस्ती भी खो दूं और ज़िंदगी उसकी हंसी सुने बिना बितानी पड़े. मैं क्या करूं ?


मैं अक्सर कई सवालों के जवाब नहीं दे पाता. पत्रिका में छापने लायक जवाब तो कतई नहीं. मैं ऐसे पाठकों को व्यक्तिगत रूप से उत्तर देता हूं और उनसे सुहानुभूति जताता हूं कि मेरे पास हर प्रश्न का कोई न कोई उत्तर ज़रूर है और मैं उनके लिये दुआ करुंगा. मैं यह भी सोचता हूं कि जिन सवालों के जवाब मुझे न समझ में आयें उन्हें लोगों के बीच रख दूं और कोई ऐसा विकल्प सोचूं कि अनुत्तरित सवालों को समाज के सामने उत्तर के लिये रखा जा सके. लेकिन मेरी पत्रिका में ऐसी कोई व्यवस्था सोचनी भी मुश्किल है, मैं जब अपनी पत्रिका निकालूंगा तो ज़रूर एक ऐसा कॉलम शुरू करुंगा.

ऑफिस में मुझे उप-सम्पादक की कुर्सी पर बिठाया गया था और मैं वहां सबसे कम उम्र का कर्मचारी था. पत्रिका के ऑफिस जा कर मुझे पता चला कि जिन लोगों के बाल सफ़ेद होते हैं उनकी हमेशा इज़्ज़त करनी चाहिये क्योंकि वे कभी गलत नहीं होते. कि सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठने वाला आदमी सबसे बुद्धिमान होता है और उससे कभी बहस नहीं की जानी चाहिये. कि नौकरी चाहे किसी पत्रिका में की जाये या किसी किराने की दुकान मेंअंतत: दोनों को करने के लिये नौकर ही होना पड़ता है. पत्रिका में लगभग सारे लोग पुराने थे जिनमें संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोगों यानि दीन जी,  दादा,  गोपीचंद जीमिस सरीन आदि को मुख्य माना जाता था. मुख्य संपादक कहा जाने वाला आदमी वैसे तो दीन और दादा से कम उम्र का था लेकिन इन दोनों की चमचागिरी उसे बहुत भाती थी और दो लगभग बुज़ुर्गों से मक्खनबाज़ी करवाने में उसे खुद में बड़ा-बड़ा सा महसूस होता था.

कुछ ही समय में मैं इस नौकरी से बहुत तंग आ गया. घर के राशन और सब्ज़ी के ख़र्च वाली बात पिताजी ने मुझसे तब कही थी जब मैं इंटर की पढ़ाई कर रहा था और मेरे लिये नौकरी बहुत दूर की बात थी. इस बात को सात साल हो चुके हैं और अब जा कर पिछले कुछ समय से ही मैं अपना फ़र्ज़ पूरा कर पा रहा हूं और इस बात को लेकर मैं इतना शर्मिंदा हूं कि इस नौकरी को छोड़ कर दूसरी नौकरी खोजने का खतरा नहीं उठा सकता, और ये नौकरी इतना समय कभी नहीं देती कि मैं दूसरी जगह इंटरव्यू देने की सोच भी सकूं.

पत्रिका ने मुझे वैसे तो सब-एडिटर का ओहदा दिया था लेकिन करना मुझे बहुत कुछ पड़ता था. सबसे बुरा और उबाऊ काम था कवि दीनदयाल तिवारी `दीन´ के लिखे लेखों की प्रूफ रीडिंग करना. तिवारी जी ऑफिस में सबसे सीनियर थे और हमेशा 'आशीर्वाद'को 'आर्शीवाद'और 'परिस्थिति'को 'परिस्थिती'लिखते थे. 'दीन'उनका उपनाम था जिससे वह कविता लिखकर उसे सुनाने की रणनीतियां बनाया करते थे. गो वह मुझसे अपने लेखों की चेकिंग करवाते समय यह कहते थे कि इससे मेरा ज्ञान बढ़ेगा और जो एकाध मिस्प्रिन्तिंग हो गयी है वह ठीक हो जायेगी. जब मैं उनके लेखों को चेक करता रहता तो वह अपनी बेटी के मेधावीपने और उसके पढ़ाई में पाये पुरस्कारों के बखान करते रहते. बातों-बातों में वह मुझसे मेरी शादी के बारे में पूछने लग जाते और मैं अक्सर ऑफिस के बाहर की दीवारों को घूरने लगता. दीवारें नीली थीं. नीलू अक्सर नीले रंग के कपड़े पहनती थी. नीला मेरा पसंदीदा रंग था.

``नीला रंग भगवान का रंग होता है.´´ वह छोटी थी तो अक्सर कहती. उस समय वह नीली फ्रॉक पहने होती थी. मैं उससे पूछता कि उसे यह कैसे पता तो वह अपनी उंगली ऊपर उठा कर आसमान की ओर दिखाती थी.

आसमान नीला होता है और समन्दर भी. जो अनंत और सबसे ताक़तवर चीज़ें हैं वह नीली ही हो सकती हैं.´´ मैं उस समय भी उसकी फ्रॉक को देखता रहता था. वह बोलती थी तो उसकी आंखें खूब झपका करती थीं और इसके लिये उसकी मम्मी उसे बहुत डांटती थीं. उनका कहना था कि यह बहुत गंदी आदत है और उसे तुरंत इस आदत को बदल लेना चाहिये.

शुक्र है उसकी यह आदत अब भी थोड़ी बहुत बरक़रार है. और मुझसे बात करते हुये उसकी आंखें आज भी उसी तरह मटकती और झपकती हैं. मैं अक्सर उसकी ओर देखता रहता हूं और उसकी बातें कई बार नहीं सुन पाता. जब वह टोकती है और मैं जैसे नींद से जागता हूं तो वह कहती है, ``अच्छा तो साहब का टॉवर चला गया था ?´´ मैं झेंप जाता हूं. वह खिलखिलाती हुई पूछती है, ``अब नेटवर्क में हो?  अब पूरी करूं अपनी बात?´´ मैं थोड़ा शरमा कर थोड़ा मुस्करा कर फिर से उसकी बात सुनने लगता हूं लेकिन दुबारा उसकी आवाज़ और आंखों में खोने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता. उसका कहना है कि मैं ऐसे रहता हूं कि मेरा कुछ बहुत क़ीमती खो गया है और किसी भी वक़्त मेरा टॉवर जा सकता है. एक बार जब वह पांचवी क्लास में थी, वह अपनी टीचर के घर से एक खरगोश का बच्चा लायी थी जो पूरी देखभाल के बावजूद सिर्फ चार दिनों में मर गया. नीलू की आंखें रो कर भारी हो गयी थीं. उसके बाद उसके बहुत रोने पर भी उसकी मां ने दुबारा कोई जानवर नहीं पालाखरगोश के बारे में तो बात भी करना उसके लिये मना हो गया. खरगोश सफ़ेद था और उस दिन नीले आसमान का एक छोटा सा हिस्सा सफ़ेद हो गया था. नीलू उसे ही देर तक देखती रही थी. नीले रंग का हमारी ज़िंदगी में बहुत महत्व था. मेरी और नीलू की पहली मुलाक़ात मुझे आज भी वैसी की वैसी याद है. मैं तीसरी क्लास में था और नीलू का एडमिशन इसी स्कूल में तीसरी क्लास में हुआ. उसके पिताजी का ट्रांसफर इस शहर में होने के कारण यह परिवार इस शहर में एक किराये के कमरे में आया था जिसे छोड़ कर बाद में वो लोग अपने नये खरीदे मकान में कुछ सालों बाद शिफ्ट हुए.

तो नीलू ने स्कूल ड्रेस की नीली फ्रॉक पहनी थी और अपनी मम्मी की उंगली पकड़े स्कूल की तरफ आ रही थी. स्कूल में प्रार्थना शुरू हो चुकी थी. मैं अकेला स्कूल जाता था क्योंकि पिताजी सुबह-सुबह फैक्ट्री चले जाते थे. मुझे उस दिन स्कूल को देर हो गयी थी और मैं तेज़ कदमों से जैसे ही स्कूल के गेट पर पहुंचा था मैंने किसी के रोने की आवाज़ सुनी. पीछे पलट कर देखा तो नीलू बार्बी डॉल जैसी नीले ड्रेस में रोती हुयी स्कूल की तरफ आ रही थी. उसकी मम्मी उसे कई बातें कह कर बहला रही थीं जैसे वह उसके साथ अपना भी नाम तीसरी क्लास में लिखा लेंगी और रोने का गंदा काम के.जी. के बच्चे करते हैं और तीसरी क्लास के बच्चों को समझदार होना चाहिये. मैं भूल गया कि मुझे देर हो रही है और मेरे कदम गेट पर ही रुक गये. जब नीलू मम्मी का हाथ पकड़े गेट पर पहुंची तो गेट में घुसने से पहले उसकी नज़र मुझ पर पड़ी जो उसे एकटक देखे जा रहा था. वह अचानक रुक गयी और उसने आगे बढ़ी जा रही अपनी मम्मी को हाथ खींच कर रोका.

``क्या है नीलू ?´´ आंटी ने झल्लाहट भरी आवाज़ में पूछा था.
``उसका ब्लू देखो, मुझे वैसा ब्लू चाहिये. मैं ये वाली फ्रॉक कल से नहीं पहनूंगी.´´ उसने मेरी पैण्ट की और इशारा कर कहा था और फिर से सुबकने लगी थी. उसकी मम्मी ने उससे वादा किया कि वह उसे मेरे वाले नीले रंग की फ्रॉक कल ही बनवा देंगी.

घर आ कर मैंने पहली बार अपनी पैण्ट को इतने ध्यान से देखा और मुझे उस पर बहुत प्यार आया. मैंने उस दिन मम्मी को अपनी पैण्ट नहीं धोने दी और पहली बार अपनी कपड़े ख़ुद धोये. बाद में पता चला कि जब वह छोटी थी और बोलना भी नहीं सीखा था तब से उसे सिर्फ़ नीले रंग से ही फुसलाया जा सकता था. उसे गोद में ले कर बाहर घुमाने जाने वाले को नीली कमीज पहननी पड़ती थी और उसके इस स्वभाव के कारण उसका नाम नीलू रखा गया. बाद में घर वालों ने स्कूल में उसका नाम अर्पिता रखा था लेकिन उसने बिना घर वालों को बताये हाईस्कूल के फॉर्म में नीलू भर दिया था. वो कमाल थी.




जब `घर की रौनक´ बढ़ानी हो
दीन जी के हिस्से का काम भी मुझे सिर्फ़ इसलिये करना पड़ता है कि मेरी उम्र सबसे कम है. उनका काम करने के एवज़ में वह मुझ पर दोहरा अत्याचार करते हुये मुझे अपनी ताज़ा बनायी हुई कुछ कविताएं भी सुना डालते हैं. उनकी कविताओं में भूख, भूमंडलीकरण, बाज़ार और किसान शब्द बार-बार आते हैं और इस बिनाह पर वह मुझसे उम्मीद रखते हैं कि मैं उनकी कविताओं को सरोकार वाली कविताएं कहूं. उनकी कविताएं हमारी ही पत्रिका में छपती हैं जिसके बारे में उनका कहना है कि अगर अपने पास पत्रिका है तो फिर दूसरों को क्यों ओब्लाइज किया जाये. उनके पास अपनी कविताओं पर मिले कुछ प्रशंसा पत्र भी हैं जिनकी प्रतिक्रियास्वरूप अब वह एक कहानी लिखने का मन बना रहे हैं जिसका नाम वह ज़रूर `भूखे किसान´ या `भूखा बाज़ार´ रखेंगे.

मुझसे पहले प्रश्न उत्तर वाला कॉलम सम्पादक दिनेश क्रांतिकारी खुद देखता था और उत्तरों को बहुत चलताऊ ढंग से निपटाया जाता था. जब उसने मुझे यह ज़िम्मेदारी दी तो ऑफिस में सब पता नहीं क्यों मंद-मंद मुस्करा रहे थे. मैंने इसे एक बड़ी ज़िम्मेदारी समझ कर लिया था और लोगों की समस्याएं पढ़ते हुये मुझे वाकई उनसे सुहानुभूति होती थी. जल्दी ही मुझे लगने लगा कि मेरा यह मानसिक उलझनें सुलझाने वाला `मैं क्या करूं´ नाम का कॉलम और लोगों के लिये मज़ाक का सबब है. मैंने हर प्रश्न का उत्तर देने में अपनी पूरी ईमानदारी बरती है और कई बार ऐसा हुआ है कि प्रश्न का उत्तर न समझ में आने पर मैंने अपने फोन से किसी सेक्सोलॉजिस्ट या किसी मनोवैज्ञानिक से बात की है और उनके मार्गदर्शन से पाठक की समस्या का समाधान करने की कोशिश की है.

लेकिन अब चीज़ें बहुत हल्की हो गयी हैं. दीन जी के साथ चौहान साहब और दासगुप्ता जी यानि डिजाईनर दादा भी मुझसे मज़े लेने की फि़राक में रहते हैं. अभी कल ही मैं ऑफिस से निकल रहा था कि दादा ने मुझे अपने पास बुला लिया और बोले, ``मेरी पत्नी जब भी मायके जाती है, मेरा मन सामने वाली अंजुला बनर्जी की तरफ़ भागता है. दिन तो कट जाता है मगर रात नहीं कटती. मुझे लगता है वो भी मुझे पसंद करती है. मैं क्या करूं ?´´

मुझे झल्लाहट तो बहुत हुई और मन आया कि कह दूं कि बुड्ढे अपनी उमर देख लेकिन वह बॉस के सबसे करीबी लोगों में माने जाते हैं इसलिये मैंने मन मार कर कहा कि दादा आप भाभीजी को मायके मत जाने दिया करें. मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसे लोग अपने घरों में अपने बच्चों के सामने कैसे सहज रहते होंगे. दादा के साथ दीन जी भी हंसने लगे और अपनी नयी कविता के लिये एकदम उपयुक्त माहौल देख कर दे मारी.

उनके बिना रात काटना वैसा ही है
जैसे रोटी के बिना पेट भरने की कल्पना
जैसे चांद के बिना रात और जैसे सचिन के बिना क्रिकेट
वह आयें तो बहार आये और वह जायें तो बहार चली जाये
मगर हम हार नहीं मानेंगे
कहीं और बहार को खोजेंगे
गर उनके आने में देर हुयी
तो बाहर किसी और को .......

बाद के शब्द और लाइनें सुनाने लायक नहीं थीं. दादा ने कहा कि कुछ शब्द अश्लील हैं तो उनका कहना था कि ज़िंदगी में बहुत कुछ अश्लील है और अगर हम जिस भाषा में बात करते हैं उस भाषा में कविता न लिखें तो वह कविता झूठी है. कविता को नयी और विद्रोही भाषा की ज़रूरत है. मैंने यह कहने की सोची की इस भाषा में सिर्फ़ आप ही बात करते हैं लेकिन कह नहीं पाया. उनके बाल सफे़द थे और उनका अनुभव मुझसे ज़्यादा था जिससे दुनिया में यह मानने का प्रचलन था कि उनमें और मुझमें कोई तुलना होगी तो मैं ही हमेशा गलत होउंगा. सफेद बालों वाले लोग किसी भी बहस में हारने पर अपने सफेद बालों का वास्ता दिया करते थे और यह उम्मीद करते थे कि अब इस अकाट्य तर्क के बाद बहस उनके पक्ष में मुड़कर ख़त्म हो जानी चाहिए.

मैं जब नीलू के घर पहुंचा तो वहां काफ़ी चहल-पहल थी. मुझे देखते ही आंटी ने मुझसे दौड़ कर थोड़ी और मिठाई लेकर आने को कहा. उन्होंने कहा कि एक ही तरह की मिठाई आई है और उन्हें काजू वाली बर्फी चाहिये. मैं बर्फी लेकर पहुंचा तो पता चला कुछ मेहमान आये थे और सब उनकी खातिरदारी में लगे थे. मैं मिठाई देकर थोड़ी देर खड़ा रहा कि कोई अपने आप मुझे नीलू का पता बता दे. हॉल में टीवी चालू था और उसे कोई नहीं देख रहा था. उस पर एक विज्ञापन आ रहा था जिसे देख कर मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गयी. `जब घर की रौनक बढ़ानी हो, दीवारों का जब सजाना हो, नेरोलक नेरोलक....´. मुझे यह भी याद आया कि हमारे घर में चूना होने का काम पिछले तीन दीवालियों से टलता आ रहा है. शायद अगली दीवाली में मैं और उद्भ्रांत अपने हाथ में कमान लेकर चूना पोतने का काम करें और अपने छोटे से कमरे को सफ़ेद रंग में नील डालकर रंग डालें.

आंटी मेरे पास आकर खड़ी हुईं और इस नज़र से देखा जैसे मिठाई देकर वापस चले जाना ही मेरा फ़र्ज़ था. मैंने नीलू के बारे में पूछा तो उन्होंने छत की ओर इशारा किया और मुझे हिदायत दी कि मैं जल्दी उसे लेकर नीचे आ जाऊं. मैं छत पर पहुंचा तो नीलू अपना पसंदीदा काम कर रही थी. उसका आसमान देखना ऐसा था कि वह किसी से बात कर रही थी.

``आओ साहब. कैसे हो ?´´ उसने सूनी आंखों से पूछा.

``नीचे भीड़ कैसी है ?´´ मैंने उसके बराबर बैठते हुये पूछा.

``कुछ नहीं, मां के मायके से कुछ लोग आये हैं मुझे देखने......´´ मेरा दिल धक से बैठ गया. मेरे मन में एक पाठक का सवाल कौंध गया, ``मैं जिस लड़की से प्यार करता हूं वह मुझे बचपन से जानती है. मुझे वह अपना सबसे अच्छा दोस्त कहती है लेकिन मैं उसे बचपन से चाहता हूं. मैं उसे इस डर से प्रपोज नहीं करता कि कहीं मैं उसकी दोस्ती खो न दूं. मैं क्या करूं ?´´ मैंने ऐसे कई जवाबों के व्यक्तिगत रूप से देने के बाद कल ही पत्रिका में एक जवाब दिया था. मैंने उसके जवाब में लिखा था कि उसे इतना रिस्क तो लेना ही पडे़गा. लेकिन मैं जानता हूं किसी को कुछ करने के लिये कह देना और खुद उस पर अमल करना दो अलग-अलग बातें हैं. हम दोनों एक दूसरे के हमेशा से सबसे क़रीब रहे हैं और अपन सारी बातें एक दूसरे से बांटते रहे हैं. लेकिन कभी शादी और एक दूसरे के प्रति चाहत का इज़हार...कम से कम मेरे हिम्मत से बाहर की चीज़ है.

``कौन है लड़का..?´´   मेरे गले से मरी सी आवाज़ निकली. उसने बताया कि उसकी मम्मी की बहन की ननद का लड़का है और इंजीनियर है. मुझे अपने उन सभी पाठकों के पत्र याद आ गये जिनकी प्रेम कहानियों के खलनायक इंजीनियर हैं. कितने इंजीनियर होने लगे हैं आजकल ?   सब लोग आ गये हैं और वह कल आयेगा.

``मीनू बता रही थी बहुत लम्बा है लड़का.´´ उसने मेरी ओर देखते हुये कहा. उसकी आंखें बराबर मटक रही थीं और पलकें खूब झपक रही थीं.
``लम्बे लड़कों में ऐसी क्या ख़ास बात होती है ?`` मैंने अपने सवाल की बेवकूफ़ी को काफ़ी नज़दीक से महसूस किया.

``होती है ना, वे जब चाहें हाथ बढ़ा कर आसमान से तारे तोड़ सकते हैं.´´ उसने फिर से नज़रें आसमान की ओर उठा दीं.

``तारे तोड़ने के लिये तो मैं तुम्हें गोद में उठा लूं तो भी तोड़े ही जा सकते हैं. आखिर कितनी हाइट चाहिये इसके लिये....´´ मैंने कुछ पल थम कर धीरे से कहा. यह वाक्य मेरे आत्मविश्वास को अधिकतम पर ला कर खींचने का नतीजा था.

``तो कब उठाओगे साहब जब आसमान के सारे तारे टूट जायेंगे तब...?´´ उसने पलकें मटकायीं. मुझे न तो अपने कहे पर विश्वास हुआ था और न उसकी बात पर जो मेरे कानों तक ऐसे पहुंची थी मानों मैं किसी सपने में हूं और बहुत दूर निकल चुका हूं. उसकी आवाज़ रेशम सी हो गयी थी और आसमान का रंग काले से नीला हो गया था. मैंने हिम्मत करके उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी.

``आसमान का रंग बदल रहा है न ?´´ मैंने उससे पूछा.

``हां साहबआसमान का रंग फिर से नीला हो रहा है. पता है नीले रंग की चीज़ें जीवन देती हैं.´´ उसने मेरी हथेली पर अपनी दूसरी हथेली रखते हुये कहा. मेरे सामने बहुत सारे दृश्य चल रहे थे. मेरी नयी सायकिल जो कभी खरीदी नहीं गयी और उस पर बैठी हुयी नीलू. नीलू के फ्रॉक में जड़े ढेर सारे सितारे जो धीरे-धीरे बिखर कर आसमान में उड़ रहे हैं. मैं उन्हें फिर से पकड़ कर नीलू की फ्रॉक में टांक देना चाहता हूं. मैं जैसे एक सपने में दूसरा सपना देखने लगा हूं.
``तुम्हारे पास नीली साड़ी है ?´´ मैंने अपनी आवाज़ इतने प्यार से उसे दी कि कहीं टूट न जाये. उसकी आवाज़ भी शीशे जैसी थी जिस पर `हैंडल विद केयर´ लिखा था.
``बी. एड. वाली है न....लेकिन वह बहुत भारी है साहब. तुम मेरे लिये एक सपनों से भी हल्की साड़ी ले आना.´´

``तुम सिर्फ़ नीला रंग पहना करो नीलू.´´
``मैं सिर्फ़ शाम को नीले रंग पहनना चाहती हूं साहब क्योंकि दिन में तुम आते ही नहीं.´´
``मैं कहीं जाउंगा ही नहीं कि मुझे वापस आना पड़े. मुझे कहीं जाने में डर लगता है क्योंकि मुझे लौट कर तुम्हारे पास आना होता है.`` मैंनें उसकी हथेलियां महसूस कीं. मुझे डर लगा कि उसके घर का कोई छत पर आ न जाय.

``मुझे कुछ कहना है तुमसे साहब.`` उसने रेशम सी धीमी आवाज़ में कहा

``क्या...?´´
``उसके लिये मुझे अपनी आंखें बंद करनी होंगी. मैं आंखें बंद करती हूं, तुम मेरी ओर देखते रहना. मेरी आंखों में देखोगे तो तुम्हारा टॉवर चला न जाये इसलिये....´´ उसने मुस्करा कर अपनी आंखें बंद कीं और मैंने उसकी हथेलियां थाम लीं. उसका नर्म हाथ थामते हुये मैंने सोचा कि मेरी ज़िंदगी को उसकी हाथ की तरह की कोमल और नर्म होना चाहिये. मैं उसकी हथेलियां थामे बैठा रहा और वह कहती रही. नया साल मेरे लिये दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी लेकर आया था. मैंने मन में सेाचा कि कल ही वह प्यारा सा कार्ड इसे दे दूंगा जो मैं इस साल उसे देने और अपने दिल की बात कहने के लिये लाया था...साथ ही पिछले सालों के भी अनगिनत कार्ड.
``तुम अगर कभी कोई सायकिल खरीदना तो मुझे उस पर बिठाना और हम दोनों जंगल में खरगोश देखने चलेंगे. जब तुम्हें कुछ लिखने का मन करेगा तो मैं तुम्हारे सामने बैठ जाउंगी और अपनी आंखें बंद कर लूंगी ताकि तुम मुझे देखते हुये टॉवर में रहकर कुछ ऐसा लिखो कि उसके बाद जीने की कमी भी पड़ जाये तो कोई ग़म न हो. तुम जब कोई कविता लिखना तो ऐसा लिखना कि उसे छुआ जा सके और उसे छूने पर या तो बहुत जीने का मन करे या फिर दुनिया को छोड़ देने का....तुम हमेशा नीले रंग में लिखना.....´´

वह बोलती जा रही थी और मुझे पहली बार पता चला कि मैं उसकी आंखों में ही नहीं खोता था. उसके चेहरे से जो नीली मुकद्दस रोशनी मेरी हथेलियों पर गिर रही थी मैं उसमें भी ऐसा खो गया था कि मुझे उसकी आवाज़ किसी सपने से आती लग रही थी. अब मुझे कोई डर नहीं था कि उसके घर से कोई छत पर आ जायेगा. उसके घर में कोई नहीं था. मुहल्ले में कोई नहीं था. पूरी दुनिया में कोई नहीं था.

हम एक नीले सपने में थे और आसमान का रंग रात में भी नीला था.


उत्तर प्रदेश
मुझे बैठने के लिये एक क्यूबिकल जैसा कुछ मिला था जिसे तीन बाई तीन का कमरा भी कहा जा सकता था क्योंकि उसकी बाक़ायदा एक छत थी और एक बड़ी सी खिड़की भी. उसे देख कर लगता था कि इसे बाथरुम बनवाने के लिये बनाया गया होगा और बाद में किसी वास्तुशास्त्री के कहने पर स्टोर रूम में रूप में डेवलप कर दिया गया होगा. कमाल यह था कि बाहर से देखने पर यह सिर्फ़ एक खिड़की दिखायी देती थी और अंदाज़ा भी नहीं हो पाता था कि इस खिड़की के पीछे एक कमरे जैसी भी चीज़ है. इसका दरवा़जा पिछली गली में खुलता था और हमेशा बंद रहता था. ऑफि़स में घुसने के बाद खिड़की ही इसमें घुसने का एक ज़रिया थी और जब मैं उछल कर खिड़की के रास्ते अपने केबिन में दाखिल होता था तो चोर जैसा दिखायी देता था. जब सुबह मैं ऑफिस पहुंचा तो गेट पर ही दीन जी मिले और सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुये उन्होंने मेरी चुटकी ली.

``सर, मेरी उम 56 साल है. मुझे अपने ऑफिस की एक लड़की से इश्क हो गया है जो सिर्फ़ 22-23 साल की है. मैं उसका दीवाना हो रहा हूं और उससे अपने दिल की बात कहना चाहता हूं लेकिन वह मुझे अंकल कहती है. मैं उसे कैसे अपना बनाऊं ?´´ मैंने देखा दीन के चेहरे पर शर्म संकोच के कहीं नामोनिशान तक नहीं थे. क्या इस उम्र के सारे बुड्ढे ऐसे ही होते हैं ? क्या घर पर ये अपनी बेटी को भी इसी नज़र से देखता होगा ? आखिरकार इसने पूरी उम्र किया क्या है जो इसकी उम्र इतनी तेज़ी से निकल गयी है कि इसे अंदाज़ा भी नहीं हुआ. इसी समय इत्तेफ़ाक हुआ कि मिस सरिता सरीन ऑफिस में दाखिल हुईं और दरवाज़े पर हमारा अभिनंदन करके अंदर चली गयीं.

``हैलो अनहद, हैलो अंकल.´´

दीन जी का मेरा मज़ाक उड़ाने का पूरा बना-बनाया मूड चौपट हो गया और वह दूसरी ओर देख कर दूसरी सिगरेट जलाने लगे.

मैं अंदर पहुंचा तो एक और आश्चर्य मेरे इंतज़ार में था. मेरे केबिन कम दड़बे की खिड़की पर पता नहीं कोयले से या किसी मार्कर से मोटे-मोटे हर्फों में लिखा था ``उत्तर प्रदेश´´. मैंने उसे मिटाने का कोई उपक्रम नहीं किया और कूद कर अंदर चला गया. मेरी मेज़ पर ढेर सारे प्रश्न पडे़ थे जिनके उत्तर मुझे देने थे. उस दिन के बाद से मेरे केबिन को `उत्तर प्रदेश´ के नाम से जाना जाने लगा बल्कि कहा जाये तो उस खिड़की का नाम `उत्तर प्रदेश´ रख दिया गया था. मुझे सर्कुलेशन और सबक्रिप्शन विभाग से पता चला कि मेरे कॉलम की खूब तारीफ़ें हो रही हैं और इसकी वजह से पत्रिका की बिक्री भी बढ़ रही है लेकिन इस खबर का अपने हक में कैसे उपयोग करना है, मुझे समझ में नहीं आया. हां, यह ज़रूर हुआ कि दीन जी और दादा के अलावा मिस सरीन, गोपीचंद, और एकाध बार तो मेरे संपादक भी (पीने के बाद जोश में आ कर) एकाधिक बार मेरे केबिन में आये और अपने-अपने प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे. मिस सरीन ने एक बार पूछा- ``सर मेरी समस्या यह है कि मेरे घर वाले मेरी शादी करना चाहते हैं और मैं अभी शादी नहीं करना चाहती. मुझे अपना कैरियर बनाना है और जीवन में बहुत आगे जाना है. मैं शादी जैसी चीज़ में विश्वास नहीं करती. मैं क्या करूं ?´´ मैं थोड़ी देर तक उनकी मुस्कराहट को पढ़ने की कोशिश करता रहा और जब मुझे लगा कि मज़ाक में ही सही, वह इस प्रश्न का उत्तर चाहती हैं तो मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि शादी कोई रुकावट नहीं होती, सारी रुकावटें दिमाग में होती हैं और इन्हें अगर जीत लिया जाये...... मेरी बात खत्म होने से पहले ही दीन जी और दादा दरवाज़े पर आकर खड़े हो गये और चिल्ला-चिल्ला कर हंसने लगे. मैं झेंप गया और सरीन अपनी कुर्सी पर चली गयीं.

एक रात जब मुझे निकलने में थोड़ी देर हो गयी थी और सम्पादक महोदय के केबिन में तरल-गरल का दौर शुरू हो चुका था कि मेरी खिड़की पर खटखट हुयी. मैंने देखा तो मेरे सम्पादक लड़खड़ाते हुये मेरी खिड़की पर खड़े थे. मैं तुरंत एक फौजी की तरह उठा और मैंने सैल्यूट भर नहीं मारा.

``यार अनहद, मेरी बीवी अक्सर मुझे बिस्तर पर नाकाम होने के लिये ताने मारती है यार. मैंने कई दवाइयां करके देख लीं, मुझे लगता है इसका कोई मनोवैज्ञानिक कारण है, तुम कुछ बता सकते हो ?´´ मैं अभी कुछ सोच ही रहा था कि मेरे आदरणीय सम्पादक महोदय ने अपनी पैण्ट की जिप खोल ली और एक घिनौनी हरकते करते हुये बोले, ``देखो तो कोई कमी तो नहीं दिख रही ना, शायद कोई मनोवैज्ञानिक कारण होगा.....´´ मैंने नज़रें चुराते हुये कहा, ``हो सकता है सर.´´ वे पूरी रौ में थे, ``यार इसको टेस्ट कर लेते हैं, ज़रा कूद के बाहर आओ और मिस सरीन को फोन करके कहो न कि सर ने बुलाया है ज़रूरी काम है....आज इसकी टेस्टिंग उस पर ही कर लेते हैं. साला मेरी बूढ़ी बीवी से सामने सर ही नहीं उठाता और सरीन का नाम लेते ही देखो फन उठाये खड़ा है.´´ अपनी कही गयी इस मनमोहक बात पर उन्हें खुद इतना मज़ा आया कि वह हंसते-हंसते ज़मीन पर ही बैठ गये. उस समय दीन जी मेरे लिये तारणहार बन कर आये और दादा के साथ आ कर उनको उठाया और सीट पर बिठाया. मैं अगले पांच मिनटों में अपना काम समेट कर वहां से निकल गया.


पिताजी का रूटीन हो गया था कि सुबह नहा-धो कर खा-पी कर बंद फैक्ट्री के लिये ऐसे निकलते थे जैसे काम पर ही जा रहे हों. भले ही जा कर फैक्ट्री के बंद फाटक पर धरना ही देना हो, उन्हें देर कतई मंजूर नहीं थी. फैक्ट्री के सभी मज़दूर फाटकों पर धरने पर बैठते और शाम तक किसी चमत्कार का इंतज़ार करते. यह चीनी मिल 90 साल पुरानी थी जिसे नूरी मियां की मिल कहा जाता था. मिल के शुरू होने के कुछ दिन बाद नूरी मियां का इंतकाल हो गया और इसे कुछ दशकों बाद तत्कालीन सरकार ने नूरी मियां के परिवार की रज़ामंदी से अधिगृहित कर लिया था. अच्छी-खासी चलती मिल को पिछली प्रदेश सरकार ने बीमार मिल बता कर इस पर ताला डाल दिया था. सरकारें हर जगह ताला डाल रही थीं और पता नहीं इतने ताले कहां से लाये जाते थे क्योंकि अलीगढ़ में तो तालों का कारोबार कम होता जा रहा था, वहां और कारोबार बढ़ने लगे थे. पिताजी और सभी मज़दूर पिछले सात साल से इस उम्मीद में धरने पर बैठे थे कि कभी तो मिल चालू होगी और कभी तो वे फिर से अपने पुराने दिनों की झलक पा सकेंगे. लेकिन इस सरकार के फरमान से उनकी रही-सही हिम्मत डोलने लगी थी.

एक दिन धरने वाली जगह पर अंसारी पहुंच गया और सभी मज़दूरों ने उसे घेर लिया. सबने उससे अपने दुखड़े रोने शुरू किये तो वह खुद वहीं धम से बैठ गया और रोने लगा. उसने पिताजी के कंधे पर हाथ रखा और सुबकने लगा. पिताजी सहित सभी मज़दूरों ने अपने मालिक का यह रूप पहली बार देखा था. उन्हें नया-नया लगा और वे और क़रीब खिसक आये. अंसारी ने रोते-रोते टूटे-फूटे शब्दों में जो कुछ बताया वह मज़दूरों की समझ में पूरी तरह से नहीं आ सकता था लेकिन पिताजी सुपरवाइज़र थे और उन्हें लगता था कि सुपरवाइज़र होना दुनिया का सबसे बड़ा ज़िम्मेदारी का काम है. उनका मानना था कि सुपरवाइज़र को सब कुछ पता होना चाहिये. पता नहीं वह अंसारी की बातों के कितने टुकड़े समेट पाये थे और हम तक जो टुकड़े उन्होंने पहुंचाये उनमें कितनी सच्चाई थी और कितना उनका अंदाज़ा. मैं उनकी किसी भी बात की सत्यता का दावा नहीं पेश कर रहा लेकिन उनकी बातें बताना इसलिये ज़रूरी है कि उस दिन पिता को पहली बार इतना टूटा हुआ देखा था. अंसारी के टूट जाने ने सभी मज़दूरों की उन झूठी उम्मीदों को तोड़ दिया था जिसकी डोर से बंधे वे रोज़ पिछले सात सालों से बिला नागा मिल की ज़मीन पर मत्था टेकते थे.

``अंसारी साहब की मिल 52 बीघे में फैली है और उसकी कीमत एक अरब रुपये से ऊपर है. सरकार ने पिछले सात सालों से उनकी मिल बंद करा दी है और अब बताओ एक उद्योगपति को यह मिल सिर्फ पांच करोड़ रुपये में बेची जा रही है. दस करोड़ का तो अंसारी साहब पर कर्जा हो गया है. क्या होगा उनका और क्या होगा मज़दूरों का....उनके परिवारों का....´´ पिताजी बहुत परेशान थे. वे बहुत भोले थे, उन्हें अपने परिवार से ज़्यादा मज़दूरों की चिंता थी. वे इस बात को मान ही नहीं सकते थे कि वे भी एक अदने से मज़दूर हैं. मैंने सोचा कि अगर किसी अच्छे अखबार में नौकरी मिल जाती तो हमारी बहुत सी समस्याएं हल हो सकती थीं लेकिन अच्छे अखबार में नौकरी के लिये किसी अच्छे आदमी से परिचय होना ज़रूरी था और सभी अच्छे आदमी राजनीति में चले गये थे.

उदभ्रांत के लिये देखे गये हमारे सपने भी टूटते दिखायी दे रहे थे. उसने बी.एस सी. करने के बाद हमारी मर्ज़ी के खिलाफ एम.एस सी छोड़कर समाजशास्त्र से एम.ए. करने का विकल्प चुना था और अब जो रास्ते थे मुझसे ही होकर जाते थे. अपना अधिकतर समय वह बाबा के साथ बिताया करता था और बाबा की सोहबत की वजह से उसे अजीब-अजीब किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था. मैंने अपनी कविताई के शुरुआती दिनों में जो किताबें बटोरी थीं उनमें मुक्तिबोध और धूमिल जैसे कवियों की भी किताबें थीं. वह पता नहीं कब मेरी सारी लाइब्रेरी चाट चुका था और आजकल अजीब मोटी-मोटी किताबें पढ़ता था जिनमें से ज़्यादातर को पढ़ने की कोशिश करने पर पिताजी को सिर्फ प्रगति प्रकाशन, मास्को ही समझ में आता था. मैंने कभी उसकी किताबें पढ़ने की कोशिश नहीं की थी. अव्वल तो मेरे पास समय नहीं था और दूसरे मैं पिताजी जितना चिंतित भी नहीं था. आखिर घिसट कर ही सही, घर का ख़र्च जैसे-तैसे चल ही रहा है और फिर जो भी हो, उदभ्रांत का मन आखिर पढ़ाई में ही तो लग रहा है, साइंस न सही आर्ट्स ही सही. एक बार तो उसने मुझे भी कहा कि मैं एम. ए. की पढ़ाई के लिये प्राइवेट ही सही फॉर्म भर दूं. मैंने मुस्करा कर मना कर दिया और उससे कहा कि मेरे जो सपने हैं उससे ही होकर गुज़रते हैं.



नीला रंग बहुत ख़तरनाक है
हमारे पूरे शहर को नीली झंडियों, नीली झालरों और नीले बैनरों से पाटा जा रहा था. हम जिधर जाते उधर मुस्कराता हुआ नीला रंग दिखायी देता. पोस्टरों में नीले रंग की उपलब्धियां गिनायी गयी थीं कि नीले रंग की वजह से कितने लोगों की ज़िंदगियां बन गयीं, नीले रंग की वजह से कितने घरों के चूल्हे जलते हैं और इस महान नीले रंग ने कितने बेघरों को घर और बेसहारों को सहारा दिया है. इस नीले रंग का जन्मदिन आने वाला था और यह एक बहुत शान का मौका था, हालांकि कुछ अच्छे लोगों ने कहा कि यह पैसे की बर्बादी और झूठा दिखावा है.

पिताजी के साथ सात साल से बराबर धरने पर बैठने वाले मज़दूरों को धरने की आदत पड़ गयी थी. उनमें से कुछ जो चतुर थे उन्होंने अपने लिये दूसरी नौकरियां खोज ली थीं लेकिन ज़्यादातर मज़दूर आशावादी थे और उन्हें लगता था कि वे जब किसी सुबह सो कर उठेंगे तो मिल खुल चुकी होगी और उनका पिछले सालों का वेतन जोड़ कर दिया जायेगा. उनके पास एक साथ ढेर सारे पैसे हो जाएंगे और जिं़दगी बहुत आराम से चलने लगेगी. उनका सोचना ऐसा ही था जैसा मैं और उदभ्रांत ज़मीन पर नक्शा बना कर अपने-अपने कमरों की कल्पना करते थे जिसे न बनना था न बना. जिस दौरान पूरा शहर दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था, पिताजी और उनके साथ के मज़दूरों ने एक योजना बनायी. उनका मानना था कि राज्य का जो सबसे बड़ा हाकिम है उसके पास अपना दुखड़ा लेकर जायेंगे और उनसे सवाल पूछेंगे कि आखिर उनके परिवार वालों की भुखमरी का ज़िम्मेदार कौन है. हाकिम को हाथी की सवारी बहुत पसंद थी. उसका हाथी बहुत शांत था और कभी किसी पर सूंढ़ नहीं उठाता था. हाथी के बारे में कोई भी बात जानने से पहले संक्षेप में उसका यह इतिहास जानना ज़रूरी है कि उसे लम्बे समय तक राजाओं ने अपने पंडित पुरोहितों की मदद से ज़बरदस्ती पालतू बना कर रखा था और उस पर खूब सितम ढाये थे. बाद में एक ऐतिहासिक आंदोलन के ज़रिये हाथी को अपने वजूद का एहसास हुआ. उम्मीदें जगीं कि अब इस आंदोलन से जिन्हें पीछे धकेल दिया गया है, उन्हें आगे आने में मदद मिलेगी. सबने हाथी की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखा. जब हाथी को अपनी ताकत का एहसास होना शुरू हुआ और इसने अपने लूट लिये गये वजूद को वापस पाने की कोशिशें शुरू की ही थीं कि हाकिम जैसे लोग इस पर सवार होने लगे और अब हाथी की सारी सजावट और हरकतें हाकिम की कोशिशों का नतीजा थीं. हाथी अब अपनी सजावट के बाहर आने के लिये तड़फड़ाता रहता था और हाकिम की कोशिश यही थी कि हाथी अपने फालतू अतीत को सिर्फ़ तभी याद करे जब उसे लोगों की संवेदनाएं जगा कर उनसे कहीं मुहर लगवानी हो या कोई बटन दबवाना हो. पिताजी जैसे लोगों की सारी उम्मीदें हाथी से जुड़ी थीं लेकिन हाकिमों की वजह से लगता था कि सब बेमानी होता जा रहा है. हाथी के दो दांत बाहर थे और वे काफी ख़ूबसूरत थे. वे पत्थर के दांत थे और किसी जौहरी से पूछा जाता तो वह शर्तिया बताता कि ये इतने महंगे पत्थर थे कि इतने में कई अस्पताल या स्कूल बनवाये जा सकते थे या फिर कई गांवों को कई दिनों तक खाना खिलाया जा सकता था. 


अंदर के दांतों का प्रयोग खाने के लिये किया जाता था और हाथी को खाने में हर वह चीज़ पसंद थी जो रुपयों से ख़रीदी जा सकती थी. हाथी को उन चीज़ों से कोई मतलब नहीं था जो सीधे-सीधे दिखायी नहीं देती थीं जैसे संवेदनाएं, भावनाएं, मजबूरियां, टूटना और ख़त्म होना आदि आदि. हाथी बहुत ताक़तवर था और उसे यह बात पता थी इसीलिये वह कभी किसी के सामने सूंढ़ नहीं उठाता था. वह विनम्र कहलाया जाना पसंद करता था और उसे अपनी अनुशासनप्रिय छवि की बहुत परवाह थी. हाथी की पीठ पर विकास का हौदा रखा रहता था जो हमेशा ख़ाली रहता था लेकिन हाथी उसके बोझ तले ख़ुद को हमेशा दबा हुआ दिखाना पसंद करता था. हाथी कभी-कभी मज़ाक के मूड में भी रहता था. जब वह अच्छे मूड में होता तो उस दिन महावत को यह चिंता नहीं हुआ करती थी कि हाथी कभी भी उसे नीचे पटक सकता है. हाथी के महावत बदलते रहते थे और महावतों की जान हमेशा पत्ते पर रहती थी क्योंकि वह जानते थे कि हाथी उन्हें सिर्फ़ अच्छे मूड में ही पीठ पर बिठाता है वरना उनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि वह हाथी की पूंछ भी छू सकें. हाथी को जनता के पैसे से लाया गया था और उसका भोजन और ज़रूरत की अन्य चीज़ें भी जनता के धन से आती थीं लेकिन यह बात हाथी को पता नहीं थी. उसे शायद यह बताया गया था कि इस धन पर उसका और सिर्फ़ उसका ही हक़ है. वह अपने भविष्य के लिये अच्छी बचत कर रहा था और इसके दौरान वह अपनी ख्याति को लेकर भी बहुत चिंतित रहता था. इसके लिये वह कुछ भी करता रहता था और इस दौरान कई बार मज़ाकिया मूड में होने पर वह न्याय के लिये बनायी गयी संस्थाओं का भी उपहास करने से नहीं चूकता था.

मैंने एक अख़बार में चुपके से बात की थी और एक अच्छे अख़बार से मुझे आश्वासन भी मिला था. मैं जब नीलू के घर पहुंचा तो आंटी ने मेरी ओर बहुत टेढ़ी नज़रों से देखा. मैं चुपचाप थके कदमों से ऊपर पहुंचा तो नीलू आसमान की ओर नहीं देख रही थी. उसकी आंखों में ख़ालीपन था और उसकी शलवार कमीज़ नीली थी. मैंने आसमान की ओर नहीं देखा. मैं पता नहीं क्यों कुछ सहमा और ख़ाली सा महसूस कर रहा था, बिल्कुल नीलू की आंखों की तरह. वह ख़ामोशी वहां मौजूद हवा में घुल रही थी और हवा भी उदास हो रही थी. वह छत पर लगे सेट टॉप बॉक्स की ओर एकटक देखे जा रही थी और मुझे याद आया कि मेरे घर में सेट टॉप बॉक्स नहीं है. मेरे घर में न ही फ्रिज है, न ही वाशिंग मशीन और मैं किराये के घर में रहता हूं. मैं जानता हूं इन बातों का इस समय कोई मतलब नहीं है और मुझे तुरंत जाकर नीलू की उदासी का कारण जानने की कोशिश करनी चाहिये लेकिन मेरी हर उदास तुलना तभी होती है जब कोई उदास लम्हा मेरी ज़िंदगी में आ कर इसे और दुश्वार बनाने वाला होता है. मुझे पता नहीं क्यों ये लग रहा है कि जो सवाल मेरे मन में नीलू के घर को देख कर उठ रहे हैं, वे कुछ देर में मेरे सामने आने वाले हैं. नीलू ने मुझे तब तक नहीं देखा जब तक मैं उसके एकदम क़रीब जाकर खड़ा नहीं हो गया.

``अरे साहब....कब आये ?´´ उसकी आवाज़ में जो टूटन थी वह मैंने पिछले कुछ समय में पिताजी की आवाज़ में छोड़ कर दुनिया में और किसी की आवाज़ में नहीं महसूस की थी. उसका साहब कहना मेरे लिये ऐसा था कि मैंने ताजमहल बनाया है और मुझे सबके सामने उसके निर्माता के रूप में पुकारा जा रहा है. मगर उसकी आवाज़ टूटी और बिखरी हुयी थी और उसके टुकड़े इतने नुकीले रूप में बाहर आ रहे थे कि मुझे चुभ रहे थे. एक टुकड़ा तो मेरी आंखों में आ कर ऐसा चुभा कि मेरी आंखों में पानी तक आ गया. मेरी धड़कन धीरे-धीरे डूबती जा रही थी और लग रहा था मैं देर तक खड़ा नहीं रह पाउंगा. उसने मेरी तनख़्वाह पूछी और उदास हो गयी. मैंने आसमान का रंग देखा और उदास हो गया. चांद ने हम दोनों के चेहरे देखे और उदास हो गया.

लड़के ने नीलू को देखकर हां कह दी थी और दो परिवारों के महान मिलन की तैयारियां होने लगी थीं. नीलू ने मेरी तनख़्वाह पूछी थी और भरे गले से मुझसे कहा था कि तुम 2010 में 1990 की तनख्वाह पर कब तक काम करते रहोगे और अपनी उंगलियां बजाने लगी थी. मैंने उससे कहा कि बजाने से उंगलियों की गांठें मोटी हो जाती हैं. उसने कहा कि मैं कुछ भी कोशिश नहीं कर रहा हूं और एक भाग्यवादी इंसान हूं. मैंने उसे बताया कि एक बड़े अखबार में मेरी नौकरी की बात चल रही है और जल्दी ही मुझे पत्रिका के उन अनपढ़ अधेड़ों से छुटकारा मिल जायेगा. में नीलू के बगल में बैठा था और उसने धीरे से मेरी हथेली थाम ली.

``यह सच है ना साहब कि हमारे आने से पहले भी दुनिया इसी तरह चल रही थी.´´ उसकी आवाज़ की अजनबियत को पहचानने की कोशिश में मैंने सहमति में उसकी हथेलियां दबायीं.

``और हमारे जाने के बाद भी सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा ना ?´´ उसने पूछते हुये पहली बार आसमान को देखा. बादल थे या धुंए की चादर कि आसमान का रंग काला दिखायी दे रहा था और लगता था किसी भी पल कहीं भी भूकम्प आ सकता है.

``हां, शायद.´´
``मेरा दिल नहीं मानता साहब.´´
``क्या ?´´
``कि हमने अपने आसपास की दुनिया को इतना ख़ूबसूरत बनाया है, अपने हिस्से के आसमान को, ज़मीन को, हवा को, अपनी छोटी सी दुनिया को और हमारे सब कुछ ऐसे ही छोड़ कर चले जाने पर किसी को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा. कितनी स्वार्थी हवा है न हमारे आसपास ?´´

प्रश्न- मैं एक लड़की से प्यार करता हूं, वह लड़की भी मुझसे प्यार करती है लेकिन हमारी हैसियत में बहुत फर्क है. मैं बहुत गरीब घर से हूं और वह अमीर है. मैं उसके बिना नहीं जी सकता लेकिन उसके घर वाले हमारी शादी को कभी राज़ी नहीं होंगे. मैं क्या करुं ?

उत्तर-आप दोनों भले ही एक दूसरे से प्यार करते हों, शादी एक बहुत बड़ा निर्णय होता है. आपको अपने संसाधन देखने होंगे कि क्या आप शादी के बाद अपनी पत्नी के सारे खर्चे आसानी से उठा सकेंगे. आप उसको दुखी नहीं कर सकते जिससे प्रेम करते हों. आपको अपने परिवार के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है, सिर्फ़ अपनी खुशी के बारे में सोच कर स्वार्थी नहीं बना जा सकता.

मैं चुप रहा. मेरे पास नीलू से कहने के लिये कुछ नहीं था, कुछ बची हुयी मज़बूत कविताएं और एक बची हुयी कमज़ोर उम्र थी मेरे पास जो उसे मैं नहीं देना चाहता था. वह निश्चित रूप से इससे ज़्यादा की हक़दार थी, बहुत ज़्यादा की. मेरी बांहें बहुत छोटी थीं और तक़दीर बहुत ख़राब, मैं उन्हें जितना भी फैलाऊं, बहुत कम समेट पाता था.

मैंने पूछा कि क्या शादी की तारीख पक्की कर ली गयी है तो उसने कहा कि अगर दुनिया के सारे लोग एक के ऊपर एक खड़े कर दिये जायें तो भी चांद पर नहीं पहुंच सकते. चांद बहुत दूर है. मैंने उससे उसकी तबीयत के बारे में पूछा और उसने मेरे परिवार के बारे में. हमने चार बातें कीं, तीन बार एक दूसरे की हथेलियां सहलायीं, दो बार रोये और एक बार हंसे. उसके थरथराते होंठ मैंने एक बार भी नहीं चूमे, शायद यही वह पाप था जिसके कारण नीचे उतरते ही मेरा बुरा समय शुरू हो गया. मैं चाहता था कि सबकी नज़रें बचा कर निकल जाऊं. अंकल हॉल में अखबार पढ़ रहे थे और आंटी बैठ कर स्वेटर बुन रही थीं. दोनों ही ऐसे काम कर रहे थे जो आमतौर पर रात में नहीं किये जाते और मैं समझ गया था कि आज मुझे नीलू की आंखों के साथ उसके होंठ भी चूमने चाहिये थे. उसके होंठों के आमंत्रण और और आंखों के निमंत्रण को मैंने जान-बूझ कर नज़रअंदाज़ किया था क्योंकि उस वक़्त मैं नीलू को इसके अलावा कोई और नुकसान नहीं पहुंचा सकता था. उसकी उपेक्षा करने का मेरे पास यही तरीका था. मेरे मन में कहीं किसी मतलबी और नीच जानवर ने धीमे से कहा था कि नीलू ने शादी से मना क्यों नहीं किया...गेंद तुम्हारे पाले में क्यों..? क्या तुम्हारी सामाजिक स्थिति उसके लिये भी....?

``हद्दी यहां आना.´´ अंकल के बुलाने के अंदाज़ से ही लग गया कि आवाज़ उनकी थी लेकिन वह जो बात कहने जा रहे थे उसकी भाषा और रणनीति आंटी की थी. मेरे नाम को अंकल और उन जैसे मुहल्ले के कई लोगों ने ख़राब कर दिया था और वे कभी मुझे मेरे असली नाम से नहीं पुकारते थे. क्या फ़ायदा ऐसे नाम रखने का कि हम उस पर दावा भी न दिखा पाएं. मैं तो चुपचाप सुन लेता था लेकिन उदभ्रांत अपना नाम बिगाड़ने वालों से उलझ जाता था.

``देखो बेटा, नीलू की सगाई तय हो गयी है. तुम उसके सबसे क़रीबी दोस्त हो, उसे समझाओ कि शादी के लिये मना न करे, मन बनाये. अरे शादी कोई कैरियर बनाने में बाधा थोड़े ही है. तुम्हारी बात वह समझेगी, उसे समझाओ. उसे तैयार करने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है और हां बाजार से कुछ चीज़ें भी लानी होंगी. तुम तो ऑफिस में रहते हो, कल दिन में उद्दी को भेज देना तुम्हारी आंटी की थोड़ी मदद कर देगा....तुम तो जानते ही हो कि मुझे ऑफिस से छुट्टी मिलना कितना......´´ अंकल काफ़ी देर तक बोलते रहे और मैं खड़ा टीवी को देखता रहा. टीवी में बताया जा रहा था कि शहर की सजावट में कितने करोड़ रुपये खर्च हुये हैं और नीला रंग शहर के लिये कितना ज़रुरी है. अंकल की बातें बहुत चुभ रही थीं इसलिये मैंने टीवी की ओर नज़रें कर ली थीं. टीवी पर जो बताया जा रहा था वह भी इतना चुभ रहा था कि मैं उनकी बातें अधूरी छोड़ कर निकल आया.

प्रश्न- मैं एक पिछड़े परिवार से संबंध रखता हूं. मेरे पिताजी एक जगह चपरासी का काम करते हैं और मां घरों के बरतन मांजती है. मेरी पढ़ाई का खर्च वे बड़ी मुश्किल से उठा पा रहे हैं लेकिन आजकल मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता. मेरे मुहल्ले के लोग मेरी उपलब्धियों को भी मेरी जाति से जोड़ कर देखते हैं और कुछ भी करने का मेरा उत्साह एकदम ख़त्म होता जा रहा है. मेरे मुहल्ले के लोग मेरा नाम तक बिगाड़ कर बुलाते हैं. मैं सोचता हूं कोई संगठन ज्वाइन कर लूं. मेरे सामने ही मेरे पिता की बेइज़्ज़ती की जाती है और मैं कुछ नहीं कर पाता, मैं क्या करूं ?

उत्तर- आप चाहें तो किसी संगठन में शामिल हो सकते हैं लेकिन ये आपकी परेशानियों को कम नहीं करेगा. आपके पिताजी का अपमान करने वाले लोग संख्या में बहुत ज़्यादा हैं और किसी संगठन से उनका जवाब देने की आपकी उम्र भी नहीं है. आपके पास एकमात्र हथियार आपकी पढ़ाई है. खूब पढ़िये और किसी अच्छी जगह पर पहुंचिये फिर आपका मज़ाक उड़ाने वाले लोग ही आपसे दोस्ती करने को बेकरार दिखायी देंगे. अपने गुस्से को पालिये और उसे गला कर उसे एक नुकीले हथियार के रूप में ढाल दीजिये.

उदभ्रांत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नीलू को पसंद नहीं करता. मैंने कहा कि नीलू मेरी अच्छी दोस्त है तो वह बहुत ज़ोर से हंसा. उसने मुझसे ऐसी भाषा में बात की जैसे पहले कभी नहीं की थी. उसने मुझसे पूछा कि क्या उसका हाथ मुझे अपने हाथ में लेते हुये कभी लगा कि दुनिया को उसके हाथ की तरह गरम और सुंदर होना चाहिये. मैंने उसे बताया कि ऐसा मुझे हर बार लगा है जब मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया है और फिर उसे समझाया कि नीलू मेरी सिर्फ़ और सिर्फ़ और अच्छी दोस्त है और मेरी दिली इच्छा है कि उसकी शादी किसी अच्छे लड़के से हो. उसने कहा कि मुझे फिर से कविताएं लिखना शुरू कर देना चाहिये क्योंकि अगर मरना ही है तो कविताएं लिखते हुये मरने से अच्छा काम कोई नहीं हो सकता. मैंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई पेट है और उसने कहा कि कुछ सोच कर पेट को दिमाग और दिल के नीचे जगह ही गयी है. मैंने निराश आवाज़ में उससे कहा कि इस दुनिया में हमारे जीने के लिये कुछ नहीं है तो उसने कहा कि हमारे पास धार है तलवार भले ही न हो. मैंने उससे पूछा कि क्या उसे कॉलेज जाने के लिये सायकिल चाहिये. उसने कहा कि न तो उसे कॉलेज जाने के लिये सायकिल की ज़रूरत है और न ही नौकरी पाने के लिये हाथी की. मुझे यह अजीबोग़रीब तुलना समझ में बिल्कुल नहीं आयी और मुझे भी पिताजी की बात पर विश्वास होने लगा कि उदभ्रांत आजकल कोई नशा करने लगा है. मैंने कहा कि सायकिल से हाथी की क्या तुलना, यह तुलना बेकार है. 


उसने लॉर्ड एक्टन नाम के अपने किसी टीचर का नाम लेते हुये कुछ बातें कीं और कहा कि मैं भोला हूं जो सामने दिखायी दे रही चीज़ पर तात्कालिक फैसला दे रहा हूं जबकि न तो सायकिल और हाथी में कोई फर्क होता है और न ही दुनिया के किसी भी फूल और शरीर के किसी भी अंग में. मुख्य बात तो वह सड़क होती है जिधर से वह सायकिल या हाथी निकलते हैं. सड़क मजेदार हो तो जितना खतरनाक झूमता हुआ हाथी होता है, सायकिल उससे रत्ती भर कम ख़तरनारक नहीं. मैंने उससे कहा कि तुम हाथी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हो तुम्हें पता नहीं इसका परिणाम क्या हो सकता है, हो सकता है हाथी इधर ही कहीं टहल रहा हो. वह मुस्कराने लगा. उसने बांयीं आंख दबा कर बताया कि हाथी आजकल शहर में नहीं है, वह खेतों की तरफ निकल गया है. मैंने आश्चर्य व्यक्त किया, ``क्यों खेतों की ओर क्यों ?´´

``दरअसल हमें एक ऐसी चीज़ किताबों में पढ़ाई जाती रही है जिसे पढ़ना एकदम अच्छा नहीं लगता. `भारत गांवों का देश है´ या `भारत एक कृषिप्रधान देश है´  जैसी पंक्तियां पढ़ने से हमारे देश की गरीबी और बदहाली का पता चलता है. खेत और किसान बहुत बेकार की चीज़ें हैं और ये हमेशा बहुत गंदे भी रहते हैं जिससे सौंदर्यबोध को धक्का लगता है. इसलिये कुछ ऐसे लोगों ने, जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं और जो देश को ऊंची-ऊंची इमारतों और चमचमाते बाज़ारों से भर कर इसे एकदम चकाचक बना देना चाहते हैं, हाथी से अपने देश की गरीबी दूर करने की प्रार्थना की है. हाथी सजधज कर, अपने दांतों को हीरे पन्नों से सजा कर और इन दयालु लोगों का दिया हुआ मोतियों जड़ा जाजिम पहन कर खेतों की ओर निकल गया है. वह जिन-जिन खेतों से होकर गुज़रेगा, उन खेतों की किस्मत बदल जायेगी. वहां खेती जैसा पिछड़ा हुआ काम रोक कर बड़ी-बड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनायी जायेंगीं. जिस पर से होकर बड़े-बड़े दयालु लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियां गुज़रेंगीं.´´

मैं समझ गया कि उदभ्रांत का दिमाग, जैसा कि पिताजी पिछले काफी समय से कह रहे थे, ज़्यादा किताबें पढ़ने से और ख़राब संगत में रह कर नशा करने से सनक गया है.

``तुम आजकल रहते कहां हो और रात-रात भर गायब रहते हो....किन लोगों के साथ हो और क्या कर रहे हो पढ़ने लिखने की उम्र में ?´´ मैंने उसे ताना देकर उसे वापस सामान्य करना चाहा. वह ज़ोर से हंसने लगा और एक कविता पढ़ने लगा जिसमें किसी की आंखों को वह दर्द का समंदर बता रहा था.

मैंने उससे धीरे से कहा कि उसे इस उम्र में कविताएं नहीं पढ़नी चाहियें, उसने कहा कि इस उम्र में कविताओं का जो नशा है उसके सामने दुनिया को कोई नशा ठहर नहीं सकता. उसने उठते हुये मुझसे कहा कि मुझे नीलू को कोर्ट में ले जाकर शादी कर लेनी चाहिये क्योंकि आसमान तक सीढ़ी लगाने के लिये एक मर्दाना और एक जनाना हाथ की ज़रूरत होती है.

पिताजी बड़े अरमानों से अपने साथ कुछ पढ़े-लिखे और समझदार माने जाने वाले मज़दूरों को लेकर निकले थे और अधिकतर मज़दूरों का मानना था कि राज्य के सबसे बड़े हाकिम के पास जाने से उनकी समस्या तुरंत हल हो जायेगी क्योंकि शायद उनको पता ही न हो कि उनके अपने लोग कितनी मुसीबतों में घिरे हैं. वे लोग अपने हाथों में निवेदन करती हुयी कुछ तख्तियां लिये हुये थे जिसमें चीत्कार करती हुयी पंक्तियां लिखी थीं जो वहां के पढ़े-लिखे मज़दूरों ने बनायी थीं और कुछ तिख्तयों पर तो उदभ्रांत ने कुछ कविताएं भी लिखी थीं. पिताजी लम्बे समय के अंतराल के बाद उदभ्रांत के किसी काम पर ख़ुश हुये थे.

वे लोग जब एक गली से होते हुये मुख्य सड़क पर पहुंचे तो वहां पहले से एक राजनीतिक पार्टी के कुछ लोग तख्तियां लिये हुये नारे लगाते हुये जा रहे थे. उन लोगों ने लाल टोपियां पहन रखी थीं और उन लोगों को रिकॉर्ड करते हुये कुछ टीवी वाले लोग भी थे. जिधर वे टीवी वाले लोग अपना कैमरा घुमाते उधर के लोगों में जोश आ जाता और वे चिल्ला-चिल्ला कर नारे लगाने लगते. पिताजी ने उन लोगों से दूरी बनाये रखी. जब वे लोग मुख्य सड़क पर आये तो वहां पुलिस की तगड़ी व्यवस्था थी. कई मज़दूरों के हाथ-पांव फूल गये और कई मज़दूर जोश में आ गये. पिताजी ने सभी मज़दूरों को समझाया कि कोई अशोभनीय बात और हिंसात्मक हरकत उनकी तरफ से नहीं होनी चाहिये लेकिन एकाध मज़दूरों का कहना था कि आज वे अपने सवाल पूछ कर जायेंगे और किसी से नहीं दबेंगे. पुलिस का एक बड़ा अफ़सर पिताजी के पास आया और उसने बड़ी शराफ़त से पिताजी से पूछा कि उनकी समस्या क्या है. पिताजी ने कहा कि उन्हें कुछ सवाल पूछने हैं. फिर वह अफसर उस पार्टी के प्रमुख के पास गया, उसने भी कहा कि हमें भी कुछ सवाल पूछने हैं. दोनों लोगों से बात करने के बाद अफ़सर थोड़ा पीछे हटा और भाषण देने वाली मुद्रा में हाथ उठा कर दोनों तरफ के लोगों को शांति से अपने-अपने ठिकानों पर लौट जाने की सलाह दी. उसका कहना था कि उनके सवालों के जवाब एक-दो दिन में कूरियर से उनके घर भिजवा दिये जाएंगे या फिर किसी अख़बार में अगले हफ्ते उनके उत्तर छपवा दिये जायेंगे. दोनों तरफ के लोग खड़े रहे. अफ़सर ने फिर अपील की कि सभी लोग यहीं से लौट जायें और उसे लाठीचार्ज करने पर मजबूर न करें. उसके एक मातहत ने आकर उसके कान में धीरे से कहा कि लाठीचार्ज और गोली चलाने जैसी घटना से उन्हें बचाना चाहिये क्योंकि इससे बहुत पैसे खर्च कर साफ करवायी हुयी सड़क पर खू़न के धब्बे लग सकते हैं जो हाथी को कतई पसंद नहीं आयेंगे. अफ़सर मुस्कराया और बोला कि बेवकूफ तू इसीलिये मातहत है और मैं अफ़सर, अगर ये लोग नहीं भागे तो इन पर ऐसी लाठियां बरसायी जायेंगी कि एक बूंद ख़ून भी नहीं गिरेगा और ये कभी उठ नहीं पायेंगे, उसने आगे यह भी जोड़ा कि राजनीतिक पार्टी के इन लोगों पर लाठियां बरसाने से उसे अपनी छवि चमकाने का भी मौका मिलेगा और पदोन्नति की संभावनाएं बढ़ जायेंगीं. पिताजी और उनके साथ के मज़दूर वहीं ज़मीन पर बैठ गये. पिताजी का कहना था कि वे शांतिपूर्ण ढंग से वहां तब तक बैठे रहेंगे जब तक उनके सवालों के जवाब नहीं मिल जाते. 

इधर उस पार्टी के लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि पुलिस लाठी चलाना शुरू क्यों नहीं कर रही है. आखिरकार एक युवा कार्यकर्ता, जो खासतौर पर लाठी खाने अपने एक फोटोग्राफर दोस्त को लेकर आया था, ने चिंताग्रस्त होकर पुलिस टीम की तरफ एक बड़ा पत्थर उछाल दिया. पत्थर एक हवलदार की आंख पर लगा और उसकी आंख फूट गयी. उसने एक आंख से पार्टी के लोगों की तरफ देखा और उसे अहसास हुआ कि `लाठीचार्ज´ या `फायर´ बोल पाने की ताकत रखना कितनी बड़ी बात होती है. तब तक दूसरा पत्थर आया. ये किसी और चिंतित कार्यकर्ता ने फेंका था. पुलिस टीम के ऊपर एक के बाद चार-पांच पत्थर पड़े तो अफ़सर को लाठीचार्ज का आदेश देना पड़ा.


भगदड़ मच गयी और भागते हुये लोग पिताजी और उनके लोगों के ऊपर गिरने लगे क्योंकि ये लोग बैठे हुये थे. ये जब भी उठने की कोशिश करते, कोई इन्हें धक्का देकर भाग जाता. पुलिस टीम राजनीतिक पार्टी के लोगों को दौड़ाती हुयी पिताजी के पास आयी और जो मिला उस पर लाठियों के करारे प्रहार करने शुरू कर दिये. सड़क पर वाकई एक बूंद भी खून नहीं गिरा और पूरी सजावट ज्यों की त्यों चमकदार बनी रही. पत्रकारों और कैमरा वालों ने हड्डी टूटे हुये लोगों की कुछ तस्वीरें खींचीं और फिर सड़क पर लगी तेज़ नियॉन लाइटों वाली ग्लोसाइन के चित्र लेने लगे जिसमें जल्दी ही एक ख़ास अवसर पर गरीबों के लिये ढेर सारी योजनाओं की घोषणा किये जाने की घोषणा की गयी थी.


पिताजी भी उन तीन गंभीर रूप से घायल लोगों में से थे जिनकी हडि्डयां टूटी थीं और उन्हें तब तक चैन नहीं आया जब तक कि डॉक्टर ने यह कह कर उन्हें निश्चिन्त नहीं कर दिया कि उनके दो साथियों की तरह उनकी भी दो-तीन हडि्डयां टूटी हैं. वह निश्चिन्त हुये कि उन्होंने अपने साथियों से धोखा नहीं किया. पिताजी के कई मित्र अस्पताल में उनका हाल-चाल पूछने आये और अंसारी साहब भी आकर उनका पुरसाहाल कर गये. एक दिन एक पुलिस इंस्पेक्टर भी आया और देर तक पिताजी के पास बैठा कुछ लिखता रहा. उसने पिताजी से उनका अगला-पिछला पूरा रिकॉर्ड पूछा, घर-परिवार, बीवी-बच्चे, खान-पान सबके बारे में पूछा और जाते वक़्त सलाह दी कि उन्हें सरकार का विरोध करने जैसा देशद्रोह वाला काम नहीं करना चाहिये. पिताजी ने नज़रें दूसरी ओर फेर लीं जिस पर उसने कहा कि अगर कुछ गलत हुआ तो ज़िम्मेदार आप होंगे.


`उत्तर प्रदेश´ में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते
पिताजी बारह दिनों बाद अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आ गये थे और प्लास्टर लगवा कर पूरी तरह से बेडरेस्ट में थे. किसी सुबह वह बहुत मूड में दिखायी देते और हम दोनों भाइयों को बुला कर मिल से संबंधित पुरानी कहानियां सुनाते. जब मां खाना बना लेती तो खाना परोसे जाने से पहले मां को भी अपने पास बुलाते और अपनी शादी के दिनों का कोई किस्सा छेड़ देते जिससे हम हंसने लगते और मां थोड़ी शरमा जाती. ऐसे ही एक अच्छे दिन उन्होंने अख़बार पढ़ते हुये हम लोगों को सुनाते हुये कहा कि अगले हफ्ते एक बहुत अच्छी फिल्म आने वाली है उसे दिखाने ले चलेंगे और उसके टैक्स फ्री होने का इंतज़ार नहीं करेंगे. मां ने पूछा कि कैसे मालूम कि फि़ल्म अच्छी है तो उन्होंने कहा कि जिस फिल्म का नाम ही `डांस पे चांस´ हो वो तो अच्छी होगी ही. मां ने कहा कि वे नये अभिनेताओं-अभिनेत्रियों को नहीं पहचानतीं इसलिये उन्हें मज़ा नहीं आयेगा. पिताजी ने कहा कि अगर वे नखरे करेंगी तो वे उन्हें उठा कर ले जायेंगे. ये कहने के बाद पिताजी बेतरह निराश हो गये और अखबार में कोई सरकारी विज्ञापन पढ़ने लगे. जिस दिन वह उदास रहते दिन भर किसी से सीधे मुंह बात नहीं करते. मिल और मज़दूरों को लेकर कुछ बड़बड़ाते रहते और चिंता करते रहते. ऐसे ही एक उदास दिन उन्होंने कहा कि उनके न रहने पर भी इस घर पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि उनके दो जवान बेटे सब कुछ अच्छे से संभाल सकते हैं. मां साड़ी का पल्लू मुंह में डाल कर रोने लगीं तो उन्होंने कहा कि मैंने दो शेर पैदा किये हैं और इनके रहते तुम्हें कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, मेरे दोनों बेटे मेरे जैसे ही बहादुर हैं. ये कहने के बाद वह बुरी तरह अवसाद में चले गये और अख़बार में साप्ताहिक राशिफल पढ़ने लगे. मैं अक्सर घर के माहौल से तंग आ जाता था और छुट्टी वाले दिन भी ऑफिस पहुंच जाता था मगर वहां और भी ज़्यादा घुटन थी.


मैं ऑफिस के लोगों की बद्तमीज़ियों से बहुत तंग आ गया था. बॉस के आकर उजड्डई करने के बाद मैं अब शिकायत भी किससे करता. मैं जब उस दिन ऑफिस में घुसा तो एक साथ दादा और दीन जी दोनों ने अपनी बद्तमीज़ियां शुरू कर दीं. दीन जी का सवाल बहुत ही घिनौना था तो दादा का सवाल यह था कि उन्होंने अपनी रिश्ते की एक बहन से सेक्स करने की अपनी इच्छा के बारे में मुझसे सलाह मांगी थी. मेरा दिमाग भन्ना गया. वे मेरे बिना पूछे ही बताने लगे कि दुनिया में इस तरह के संबंधों का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है और लोग अपनी कुंठाएं बिना झिझक बाहर निकाल रहे हैं. उन्होंने मुझे और दादा को इस तरह के संबंधों पर आश्चर्य व्यक्त करने पर लताड़ा और इस तरह के संबंधों का नाम इनसेस्ट सेक्स बताया और यह भी बताया कि अब यह बहुत तेज़ी से हर जगह फैल रहा है और सहज स्वीकार्य है. दादा इस पर सहमत नहीं हुये और कहा कि परिवार में ऐसे संबंध उचित नहीं हैं, हां आपस में दो परिवार बदल कर ये करें तो चल सकता है. पिताजी के पांव और कोहनी का फ्रैक्चर मुझे अपने ऑफिस में भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग अंगों में दिखायी दे रहा था. उस दिन मैं लंच करने नहीं गया और दादा मुझे दो बार पूछने के बाद हंसते हुये चले गये. जब सभी लोग लंच करने चले गये तो मैंने दादा की दराज से एक मोटा स्केच पेन निकाला.


वापस आने के बाद मेरी उम्मीदों के विपरीत वे लोग हंसने लगे. मुझे सीरियस लेना उन्हें अपमान की तरह लग रहा होगा, इस बात से मैं वाकिफ़ था. दादा अंदर बॉस के केबिन में गये और थोड़ी ही देर में मुझे क्रांतिकारी की तरफ से बुलावा आ गया.

``जी...सर.´´ मैं अंदर जा कर चपरासी वाले भाव से खड़ा हो गया.
``क्या हुआ भई, कोई दिक्कत..?´´ उसने हंसते हुये पूछा. उसके एक तरफ दादा और दूसरी तरह `दीन´ खड़े थे.
``जी....कोई ख़ास नहीं.´´ मैंने बात को समेटने की कोशिश की.
``सुना है तुमने अपनी खिड़की पर लिख दिया है कि `उत्तर प्रदेश में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते´ ?´´ उनकी मुस्कराहट बदस्तूर जारी थी.
``जी नहीं...मैंने सिर्फ़ यह लिखा है कि `जवाब नहीं दिये जाते´, उत्तर प्रदेश तो पहले से मौजूद था.´´


इस पर वे तीनों लोग हंसने लगे. उनकी सामूहिक हंसी मेरा सामूहिक मानसिक बलात्कार कर रही थी पर वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे क्योंकि वे मुझे तनख्वाह देते थे और इस लिहाज़ से मुझे ज़िंदा रखने के बायस थे.
``भई उत्तर प्रदेश में मत देना सवालों के जवाब, हम तुम्हें यहां बुला लिया करेंगे जब भी हमें उत्तर चाहिये होंगे....क्यों दादा ठीक है न ?´´ दादा ने भी हंसते हुये सहमति जतायी और देखते ही देखते प्रस्ताव 100 प्रतिशत वोटिंग के साथ पारित हो गया.

मैं मन मार कर कूद कर आया और अपनी कुर्सी पर आ कर बैठ गया. मेरा मन काम में कतई नहीं लग रहा था. तभी चपरासी ने खिड़की पर आकर सूचना दी कि कोई लड़की मुझसे मिलने आयी है. मैंने बिना कुछ सोचे समझे बाहर जाने का विकल्प चुना क्योंकि मुझसे किसी लड़की का मिलने आना इस घिनौने ऑफि़स के लिये एक और मसाला होता. मैं यह सोचता हुआ आया कि किसी कंपनी से कोई विज्ञापन वाली लड़की होगी लेकिन बाहर नीलू मिली.

``मेरे साथ थोड़ी देर के लिये बाहर चलोगे साहब ?´´ उसके प्रश्न में आदेश अधिक था सवाल कम. मैंने चपरासी को समझाया कि कोई मेरे बारे में पूछे तो वह कह दे कि खाना खाने गये हैं. पूरे ऑफि़स में चपरासी भग्गू ही मेरा विश्वासी था और ऑफि़स की जोकर पार्टी को कतई नहीं पसंद करता था.

नीलू मुझे ले कर शहर के एक प्रसिद्ध पार्क में पहुंची और वहां पहुंचते ही घास पर लेट गयी. शहर में पार्क और मूर्तियां बहुत थे लेकिन काम और रोटियां बहुत कम. उसने लाल रंग की शलवार कमीज़ पहन रखी थी.

``आजकल घर नहीं आते साहब तुम ?´´ उसने मेरी ओर देखते हुये पूछा.

``तुम्हारी मम्मी ने मना किया है नीलू.´´ मैंने न चाहते हुये भी उसे सच बताया.

``अच्छा...बड़ा कहना मानते हो मेरी मम्मी का.´´ वह मुस्करायी तो मैं दूसरी ओर देखने लगा जहां एक जोड़ा एक दूसरे के साथ अठखेलियां रहा था.

``वह तुम्हारी भलाई चाहती हैं नीलू.´´ मैंने मरे हुये स्वर में कहा.

``मगर मैं अपनी बुराई चाहती हूं.´´ उसने नटखट आवाज़ में कहा. ``मुझे ज़िंदगी गणित की तरह नहीं जीनी साहब. मुझे जीना है अपने तरीके से जो बाद में अगर गलत साबित हुआ तो देखा जायेगा. उन्होंने मुझसे भी कहा कि प्यार से पेट नहीं भरता और मैं तुम्हें भूल जाऊं लेकिन आज मुझे लग रहा है कि प्यार से ज़रूर पेट भरता होगा तो लग रहा है बस्स.´´ मैं अपलक उसे देख रहा था. आज वह बहुत बदली सी लग रही थी.

``लाल में तुम थोड़ी ज़्यादा शोख़ लग रही हो....´´ मैंने उस पर भरपूर नज़र डाल कर कहा.
``तुम्हें क्या लगता है ?´´ उसने पूछा.
``किस बारे में....? लाल रंग भी तुम पर जंचता है लेकिन.....´´
``लाल रंग नहीं, प्यार के बारे में ?  क्या प्यार से पेट भरता होगा ?´´ उसकी आवाज़ में सौ चिड़ियों की चहचहाहट थी और आंखों में हज़ार जुगनुओं की रोशनी.
``पता नहीं, मुझे नहीं लगता नीलू कि प्यार से.....´´ मेरी बात अधूरी रह गयी क्योंकि तब तक नीलू उठ कर मेरे सीने पर आ चुकी थी और उसका चेहरा मेरे चेहरे के बिल्कुल पास था. उसकी सांसे मेरे चेहरे पर टकरायीं और मैं आगे की बात भूल गया.


``पागल हमने अभी प्यार चखा ही कहां है....क्या पता भरता ही हो....दूसरों की बात मानें या ख़ुद कर के देखें साहब जी....´´ उसकी सांसें मेरे चेहरे पर गर्म नशे की तरह निकल रही थीं और उसकी आंखों में जो था वो मैंने पहली बार देखा था. मेरे मुंह से निकलने वाला था कि ख़ुद करके तब तक उसे होंठ मेरे होंठों से जुड़ चुके थे. पार्क से किसी भी तरह की आवाज़ें आनी बंद हो गयी थीं और मेरे कान में पता नहीं कैसे ट्रेन के इंजन की सीटी सी बजने लगी थी. नीलू ने अपने सीने को मेरे सीने पर दबाया हुआ था और मेरी सांस मेरे भीतर ही कहीं खो गयी थी. जिस ट्रेन की सीटी मेरे कान में बज रही थी मैं उसी की छत पर लेटा हुआ था और हम तेज़ी से कहीं निकलते जा रहे थे. नीलू ने मेरी बांह पकड़ कर अपनी कमर के इर्द-गिर्द लपेट ली. मैंने पहली बार उसकी देह को इतने पास से महसूस किया. मुझे पहली बार ही अहसास हुआ कि मैं उसके बिना नहीं रह सकता. पहली बार ही मुझे अनुभव हुआ कि अगर मेरे सामने वह किसी और की हुयी तो मैं मर जाउंगा. उसने मेरी एक बांह अपनी कमर पर लपेटी थी. मैंने दोनों बांहों से उसे भींच लिया. दूर अठखेलियां करता वह जोड़ा हमें गौर से देख रहा था और कह रहा था कि वो देखो वहां एक जोड़ा अठखेलियां कर रहा है.

थोड़ी देर बाद जब हम नीलू की एक पसंदीदा जगह पर एक नदी के किनारे बैठे थे तो वह मेरी उंगलियां बजाने लगी. मुझे बहुत अच्छा लग रहा था.

``मगर मुझे नये शहर में नौकरी खोजने में कुछ वक़्त लग सकता है.´´ मेरे मन में अब भी संशय थे और उसके होंठों पर अब भी मुस्कराहट थी.

``एक बात बताओ साहब, तुम्हें बीवी की कमाई खाने में कोई प्रॉब्लम तो नहीं है.´´ उसकी आवाज़ की शोखी ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं भी सारे संशय उतार फेंकूं और उसके रंग में रंग जाऊं. वह जो मुझे नया जन्म दे रही थी, वह जो मुझे जीना सिखा रही थी, वह जो मेरे सारे आवरणों से अलग कर रही थी.

मैंने उसे झटके से दबोचा और उसी के अंदाज़ में बोला, ``बीवी की कमाई खाने में मुझे बहुत ख़ुशी होगी.´´ मैंने जब उसके होंठों पर होंठ रखे तो नदी का पानी, जो अपने साथ ढेर सारे नये पत्ते बहा कर ले जा रहा था, थम गया और हमें देखने लगा. नदी के होंठों पर मुस्कराहट थी.

हम यह शहर दो दिन के बाद छोड़ देने वाले थे. मुझे पता नहीं था कि मैं इतना बड़ा बेवकूफ़ हूं और उदभ्रांत इतनी कम उम्र में इतना समझदार. मैंने हिचकते हुये उसे योजना बतायी तो उसने मुझे बाहों में उठा लिया और कहा, ``तुम जानते नहीं हो भाई कि आज तुमने ज़िंदगी में पहला सही काम किया है. इसके एवज में जो तुम अपने ऊपर उन जाहिलों को बर्दाश्त करने का अपराध करते हो वह भी माफ़ हो जाना चाहिये. उसने मुझे पूरी तरह आश्वस्त किया कि वह यहां सब कुछ संभाल लेगा. उसने बताया कि उसे एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाने का काम मिल रहा है और कुछ खर्चा वह अपनी उन चार-पांच ट्यूशन्स से निकाल लेगा जिनकी संख्या जल्दी ही और भी बढ़ने का अनुमान है. मैंने बताया कि नीलू वहां जा कर किसी कॉलेज में पढ़ाने की नौकरी खोजेगी और मैं किसी अख़बार में कोशिश करुंगा. उसने कहा कि उस शहर में उसका एक परिचित दोस्त है जो पेशे से वकील है और सारी औपचारिकताएं पूरी कर देगा. मैंने बहुत लम्बे समय बाद उदभ्रांत से इतनी बातचीत की थी. मैंने उससे कहा कि हम एक दिन अपना घर ज़रूर बनाएंगे. उसने कहा कि उसे ऐसे सपनों में कोई विश्वास नहीं बचा. मैंने कहा कि सपने देखना ही जीना होता है. उसने कहा कि वह किसानों और उनकी ज़मीनों के लिये सपने देख रहा है. पहली बार मुझे उसके सेमिनारों और पोस्टर प्रदर्शनियों की कुछ बातें समझ में आयीं. उसने कहा कि कल वह मेरे ऑफिस आयेगा.

अगली सुबह जब मैं ऑफिस में पहुंचा तो पहुंचते ही `दीन´ जी ने एक गंदा सवाल पूछा, ``मैंने आज तक कभी एक साथ दो महिलाओं के साथ सेक्स नहीं किया. मेरी एक महिला मित्र जिससे मैं सेक्स करता हूं वह दो महिलाओं के साथ प्रयोग करने को तैयार है लेकिन मेरी पत्नी तैयार नहीं हो रही. मैं अपनी पत्नी पर सारे तरीके आज़मा कर देख चुका हूं. मै क्या करूं ?´´ सवाल पूछते हुये वे मेरे काफ़ी करीब तक आ गये थे और अपनेपन से मेरा हाथ पकड़ चुके थे. मैंने उनका हाथ झटकते हुये उन्हें परे धकेला और ऊंची आवाज़ में चिल्लाया, ``आप अपनी पत्नी को पहले दो मर्दों का आनंद दिलाइये. एक बार उन्हें यह नुस्खा पसंद आ गया तो वह अपने आप मान जाएंगी. फिर आप लोग एक साथ चार, पांच, छह जितने चाहे.....´´ दीन जी मेरी टोन और आवाज़ की ऊंचाई से घबरा से गये और चुपचाप जा कर अपनी सीट पर बैठ गये. वे बेसब्री से बार-बार घड़ी की ओर देख रहे थे. दादा के बिना वे अकेले सिपाही की तरह लग रहे थे. मुझे लगा अभी वह थोड़ी देर में क्रांतिकारी के कमरे में जाकर मेरी चुगली करेंगे लेकिन वह चुपचाप बैठे रहे और कभी घड़ी तो कभी अपनी कंप्यूटर स्क्रीन की ओर देखते रहे. मैं जानता था कि उनका सवाल चाहे जैसा भी हो, मैंने उसका जवाब पूरी ईमानदारी के साथ दिया था लेकिन उन्हें जवाब नहीं चाहिये था.


यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम
दादा के आने के बाद भी `दीन´ जी की भाव-भंगिमा में कोई परिवर्तन नहीं आया हालांकि दादा अपने साथ एक खुशी ले कर आये थे. हमारी पत्रिका को नीले रंग का एक विज्ञापन मिला था और साथ ही यह वादा कि यह विज्ञापन अगले साल के मार्च तक हमारी पत्रिका को मिलता रहेगा. दादा ने थोड़ी देर तक दीन से कुछ बातें कीं फिर सिगरेट पीने बाहर निकल गये. क्रांतिकारी जब तक नहीं आया होता था तब तक ये लोग अंदर-बाहर होते रहते थे. दादा और `दीन´ जी ने उस दिन शाम तक मुझसे कोई बात नहीं की थी हालांकि ऑफि़स में मिठाइयां लाकर बांटने का काम भग्गू ने क्रांतिकारी के फोन के बाद कर दिया था.


शाम के करीब साढ़े सात बजे, जब दादा और `दीन´ को क्रांतिकारी के कमरे में घुसे एक घंटा हो चुका था, मेरा बुलावा आया. भग्गू ने बताया कि साहब ने बुलाया है और दूसरी ख़बर उसने यह दी कि कोई हट्टा-कट्टा लड़का मुझसे मिलने आया है. मैंने उदभ्रांत को खिड़की से भीतर बुलवा लिया. वह मुस्कराता हुआ मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही मुझे अंदर बुलवा लिया गया था. मैं भारी मन से उठा, मैं चाहता था कि आज क्रांतिकारी मुझे न बुलाये और मेरे हाथों बेइज़्ज़त होने से बच जाये.

``तुमने दीन की बेइज़्ज़ती की ?´´ क्रांतिकारी और उसके दोनों चमचों पर तीसरे पैग की लाली तैर रही थी.

``नहीं. मैंने इनके सवाल का जवाब दिया है बस्स, आप पूछ लीजिये इनसे.´´ मैंने सामान्य रहने की कोशिश की.

``साले मेरे सवाल का जवाब दिया कि मेरा हाथ उमेठ दिया, अब तक दर्द कर रहा है.´´ `दीन´ जी चेहरे पर दर्द की पीड़ा ला कर बोले जिसमें से अपमान की परछाईं दिख रही थी. इतने में क्रांतिकारी उठ कर मेरे पास आ चुका था.

``चल तू इतने सवालों के जवाब देता है तो इसका जवाब भी बता. आज तुझे पता चले कि तू अपनी बाप की सगी औलाद नहीं है और तेरा असली बाप मैं हूं जो तेरी मां से मुंह काला करके चला गया था. मैं अचानक तेरे सामने आकर खड़ा हो गया हूं और अब तुझे अपने साथ ले चलना चाहता हूं तो तू क्या करेगा ?´´ क्रन्तिकारी ने अपने हिसाब से काफ़ी रचनात्मक सवाल पूछा था और अब वह एक इससे भी ज़्यादा रचनात्मक उत्तर चाहता था. आज उसके तेवर एकदम बदले हुये थे और आमतौर पर हर बात का मज़ा लेने का उसका लहज़ा बदला लेने पर उतारू मालिक सा लग रहा था. भग्गू आकर दरवाज़े पर खड़ा हो चुका था और इसी पल उदभ्रांत भीतर घुसा.

``बोल क्या करेगा साले बता मेरे.....´´ क्रांतिकारी की बाकी बात उसके मुंह में ही रह गयी क्योंकि उदभ्रांत की लात उसकी जांघों के बीच लगी थी. ``मैं आपके साथ नहीं जाउंगा सर, ऐन वक़्त पर जब आप मेरे काम नहीं आये तो अब क्यों आये हैं. बल्कि मैं तो आपको इस ग़लती की सज़ा दूंगा....´´ मैंने भी उसके पिछवाड़े पर एक लात मारी और वह मेज़ के पास गिर गया. दादा और `दीन´ के चेहरों से तीन पैग की लाली उतर चुकी थी और वे बाहर जाने का रास्ता खोज रहे थे. उदभ्रांत तब तक क्रांतिकारी को तीन-चार करारे जमा चुका था. उसने उसे मारने के लिये तीसरी बार लात उठाया ही था कि वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा. मैंने उदभ्रांत को रोक कर क्रांतिकारी की जांघों के बीच में एक लात और मारी, ``सर एक और लात मार देता हूं क्या पता आपकी जांघों के बीच में जो शिकायत है वह दूर हो जाये हमेशा के लिये....´´ उसकी डकारने की आवाज़ हलाल होते सूअर जैसी थी.

रात को मैं घर देर से पहुंचा. रास्ते भर मैं और उदभ्रांत हंसते रहे थे और उदभ्रांत ने पहली बार कहा कि अगर कुछ सालों बाद सब ठीक हो गया तो वह एक छोटा सा घर ज़रूर बनायेगा. सब कुछ ठीक होने का मतलब मैं पूरी तरह नहीं समझा था और इसके बाद हम ख़ामोशी से घर पहुंचे थे.

मौसम बहुत अच्छा था और नीलू के साथ ठंडी हवा में उसका हाथ पकड़ कर कुछ दूर चुपचाप
चलने का मन कर रहा था. मैं ख़ुद को भीतर से हीरो जैसा और अद्भुत आत्मविश्वास से भरा हुआ अनुभव कर रहा था. नीलू का इतनी रात बाहर निकलना संभव नहीं था इसलिये मैं अकेला ही घूमने लगा यह सोचता हुआ कि आज के सिर्फ़ दो दिन बाद मुझे नीलू का हाथ पकड़ कर घूमने के लिये किसी से कोई इजाज़त नहीं लेनी पड़ेगी. यह सोचना अपने आप में इतना सुखद था कि घर पहुंचने के बाद भी मैं इसके बारे में ही पता नहीं कब तक सोचता रहा. बहुत देर से सोने के कारण सुबह आंख काफ़ी देर से खुली. वह भी मां के चिल्लाने और पिताजी के रोने से. मैं झपट कर बिस्तर से उतरा तो सब कुछ लुट चुका था. तीन जीपों में भर कर पुलिस आयी थी और उदभ्रांत को पकड़ कर ले गयी थी. मैं कुछ न समझ पाने की स्थिति में हक्का-बक्का खड़ा था. मैंने हड़बड़ी में उद्भ्रांत के वकील दोस्त को फोन लगाया तो उसने मुझसे कहा कि मैं जल्दी जा कर केस फाइल होने से रोकूं क्योंकि अगर एक बार केस फाइल हो गया तो उसे बचाने में दिक्कतें हो सकती हैं. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसा कौन सा जुर्म उसने कर दिया कि उसे पकड़ने के लिये पुलिस को तीन जीपें लानी पड़ीं. मैं बदहवासी में पुलिस थाने की ओर भागा. वहां जाकर मुझे पता चला कि उसे पुलिस ने नहीं बल्कि एसटीएफ ने पकड़ा है और उससे मिलने के लिये मुझे किसी फलां की इजाज़त लेनी पड़ेगी. मुझे ही पता है कि उस दस मिनट में मैंने किसके और किस तरह पांव जोड़े कि मुझे वहां ले जाया गया जहां उद्भ्रांत को फिलहाल रखा गया था.

``ये इसका भाई है.´´ मुझे ले जाने वाले हवलदार ने बताया. जींस-टीशर्ट पहने एक आदमी कुर्सी पर रोब से पैर फैलाये बैठा था.

``अच्छा तू ही है अनहद.´´ उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मुझे किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी.

``जी....´´ मैं सूखते हलक से इतना ही कह पाया.
``इसे भी अंदर डालो, किताब पर इसका भी नाम लिखा है. थोड़ी देर में कोर्ट ले जाना है, तब तक चाय समोसा बोल दो.´´ उसका इतना कहना था कि मुझे सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया.

मुझे एक किताब दिखायी गयी जिसमें नयी कविता के कुछ कवियों की कविताएं संकलित थीं. मैं कुछ समझ पाता उसके पहले उसमें से धूमिल की कविता `नक्सलबाड़ी´ वाला पृष्ठ खोल दिया गया और किताब मेरे सामने कर दी गयी.

``ये तुम्हारी किताब है न ?´´ सवाल आया.
``हां मगर ये तो कविता है. हिंदी के कोर्स में.....´´ मेरा कमज़ोर सा जवाब गया.
``जितना पूछा जाये उतना बोलो. तुम्हारे और तुम्हारे भाई में से हिंदी किसका सबजेक्ट रहा है या है ?´´ सवाल.
``किसी का नहीं. मगर मुझे कविताएं.....´´ मेरी बात काट दी गयी. ``तुम्हारा भाई सरकार विरोधी गतिविधियों में लिप्त है. हमारे पास पुख्ता सबूत हैं. बाकी सबूत जुटाए जा रहे हैं. तुम ऐसी कविताएं पढ़ते हो इसलिये तुम्हें आगाह कर रहा हूं....संभल जाओ. तुम्हारी बाप की उमर का हूं इसलिये प्यार से समझा रहा हूं वरना और कोई होता तो अब तक तुम्हारी गांड़ में डंडा.....´´

मैं समझ नहीं पाया कि मुझे क्यों छोड़ दिया गया. मैं वाकई उद्भ्रांत के कामों के बारे में अच्छी तरह से नहीं जानता कि वह क्या करता था और वह और उसके साथी रात-रात भर क्या पोस्टर बनाते थे और किन चीज़ों का विरोध करते थे, लेकिन मैं यह ज़रूर जानता था कि मेरा भाई एक ऐसी कैद में था जहां से निकलने के सारे रास्ते बंद थे. अगले दिन अख़बारों ने उसकी बड़ी तस्वीरें लगा कर हेडिंग लगायीं थीं `नक्सली गिरफ्तार`, `युवा माओवादी को एसटीएफ ने पकड़ा`, `नक्सल साहित्य के साथ नक्सली धर दबोचा गया´ आदि आदि.

प्रश्न- मैं एक 28 वर्षीय अच्छे घर का युवक हूं. मेरी नौकरी पक्की है और मेरा परिवार भी मुझे बहुत मानता है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे अक्सर दुनिया से विरक्ति सी होने लगती है. मुझे सब कुछ छोड़ देने का मन करता है, सारे रिश्ते-नाते खोखले लगने लगते हैं और लगता है जैसे सबसे बड़ा सच है कि मैं दुनिया का सबसे कमज़ोर इंसान हूं. मैं बहुत परेशान हूं क्योंकि यह स्थिति बढ़ती जा रही है, मैं क्या करूं ?

उत्तर- छोड़ दो. मत छोड़ो.



इस कदर कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं
मैंने उद्भ्रांत के वकील दोस्त की मदद से एक अच्छा वकील पाया जिसने पहली सुनवाई पर ही कुछ अच्छी दलीलें पेश कीं लेकिन पुलिस ने अपने दमदार सबूतों से उसे पंद्रह दिन के पुलिस रिमांड पर ले ही लिया. अगली सुनवाई की तारीख पर रिमांड की अवधि बढ़ा दी गयी. अब यह हर बार होता है. उद्भ्रांत ने मुझसे पहली बार मिलने पर ही कहा था, ``भाई मुझे जो अच्छा लगता था, मैंने वही किया. जीने का यही तरीका मुझे ठीक लगा लेकिन घर पर बता देना कि मैं कोई गलत काम नहीं करता था.´´ मैंने सहमते हुये पुलिस की मौजूदगी में उससे धीरे से पूछा था, ``क्या तुम वाकई नक्सली हो ?´´ ``नहीं, मैं नक्सली नहीं बन पाया हूं अभी.´´ वह मुस्कराने लगा और उसने कहा कि मैं घर और मां पिताजी का ध्यान दूं. मैं हमेशा यही सोचता रहता हूं कि उद्भ्रांत को किसने गिरफ्तार करवाया होगा. इसका ज़िम्मेदार मैं खुद को मानता हूं. शायद दिनेश क्रांतिकारी ने उस रात की घटना के बाद मेरे भाई को फंसवा दिया होगा. फिर लगता है कहीं नीलू के पापा ने तो अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे नहीं पकड़वा दिया ताकि मुझसे बदला ले सकें.

हां, नीलू की शादी की बात तो अधूरी ही छूट गयी. जिस दिन उसकी सगाई होने वाली थी, उस दिन अचानक ऐसी घटना हो गयी कि पूरा मुहल्ला सन्न रह गया. उसके घर में काम करने वाली महरी ने बताया कि रोशनदान से सिर्फ़ पंखे में बंधी रस्सी दिख रही थी और पूरे घर में मातम और हंगामा होने लगा कि नीलू ने आत्महत्या कर ली है. जब पुलिस आयी और उसने दरवाज़ा तोड़ा तो पता चला कि पंखे से एक रस्सी लटक रही है जिसमें एक बड़ी बोरी बंधी है. पुलिस ने बोरी खोली तो उसमें से ढेर सारी नीली शलवार कमीज़ें और एक भारी नीली साड़ी निकली जिसे पहन कर नीलू बी.एड. की क्लास करने जाती थी. मैंने महरी से टोह लेने की बहुत कोशिशें कीं कि वह नीलू के बारे में कुछ और बताये लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं था. मैं उस दिन कई बार सोच कर भी उसके घर नहीं जा पाया क्योंकि उस दिन उद्भ्रांत के केस की तारीख थी. पिताजी कहते हैं कि मैं उन्हें भी सुनवाई में ले चलूं. वह अब लकड़ी के सहारे चलने लगे हैं और मैंने उन्हें अगली सुनवाई पर अदालत ले जाने का वादा किया है. वह अजीब-अजीब बातें करते हैं. कभी वह अचानक किसी पुरानी टैक्स फ्री फिल्म का गाना गाने लगते हैं तो कभी अचानक अखबार उठा कर कुछ पढ़ते हुये उसके चीथड़े करने लगते हैं. वह या तो एकदम चुप रहते हैं या फिर बहुत बड़बड़-बड़बड़ बोलते रहते हैं. वह केस की हर तारीख़ पर अदालत जाने की ज़िद करते हैं और मैं हर बार उन्हें अगली बार पर टालता रहता हूं. मां हर तारीख के दिन भगवान को प्रसाद चढ़ाती है और हम लोग जब तक अदालत से लौट नहीं आते, अन्न का एक दाना मुंह में नहीं डालती.

मेरी ज़िंदगी का मकसद सा हो गया है उद्भ्रांत को आज़ाद कराना लेकिन देखता हूं कि मैं तारीख़ पर जाने के सिवा और कुछ कर ही नहीं पा रहा हूं. उद्भ्रांत का केस देख रहा उसका दोस्त मुझे हर बार आशा देता है और मैं धीरे-धीरे जीतने तो क्या जीने की भी उम्मीद खोता जा रहा हूं. मेरे एक दोस्त ने, जो कल ही दिल्ली से लौटा है, बताया कि उसने राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बिल्कुल नीलू जैसी एक लड़की को देखा है. मैं उससे पूछता हूं कि उसने किस रंग के कपड़े पहने थे तो वह ठीक से याद नहीं कर पा रहा है. बाबा की मौत की ख़बर आयी है और मैंने यह कहलवा दिया है कि अगर उस दिन केस की तारीख नहीं रही तो मैं उनकी तेरहवीं में जाने की कोशिश करुंगा.

मुझे अब नीले रंग से बहुत डर लगता है. मेरे घर से नीले रंग की सारी चीज़ें हटा दी गयीं हैं. मैं बाहर निकलते समय हमेशा काला चश्मा डाल कर निकलता हूं और कभी आसमान की ओर नहीं देखता.

(विमल चन्द्र पाण्डेय)
प्रश्न-मुझे आजकल एक सपना बहुत परेशान कर रहा है. इस सपने से जागने के बाद मेरे पूरे शरीर से पसीना निकलता है और मेरी धड़कन बहुत तेज़ चल रही होती है. मैं देखता हूं कि मेरा एक बहुत बड़ा और खूबसूरत सा बगीचा है जिसमें दरख़्तों की डालें सोने की हैं. उन दरख्तों में से एक पर मुझे उल्लू बैठा दिखायी देता है और मैं अपना बगीचा बरबाद होने के डर से उल्लू पर पत्थर मारने और रोने लगता हूं. तभी मुझे सभी डालियों से अजीब आवाज़ें आने लगती हैं और मैं जैसे ही आगे बढ़ता हूं, पाता हूं कि हर डाली पर उल्लू बैठे हुये हैं. इसके बाद भयानक ख़ौफ़ से मेरी नींद खुल जाती है. मैं क्या करूं ?


उत्तर-

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विमल चन्द्र पाण्डेय : vimalpandey1981@gmail.com
इस कहानी पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख यहाँ पढ़िए- 
प्रेम, राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं के बीच

भूमंडलोत्तर कहानी (७) : उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय) : राकेश बिहारी

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भूमंडलोत्तर कहानियों के चयन और चर्चा के क्रम में इस बार विमल चंद्र पाण्डेय की चर्चित कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’ पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख- ‘प्रे, राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं के बीचआपके लिए प्रस्तुत है. कहानी की पात्र नीलू कथाकार को पत्र लिखती है. इस पत्र में कुछ नरम –गरम बातें हैं. कहानी के कथ्य ही नहीं शिल्प पर भी इस पात्रा की दृष्टि है. शैली रचनात्मक तो है ही दिलचस्प भी लगेगी.

इससे पहले आप लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले)शिफ्ट+कंट्रोल+आल्ट=डिलीट (आकांक्षा पारे)नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल),अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज)पानी (मनोज कुमार पांडेय), कायान्तर (जयश्री रॉय) पर राकेश बिहारी के आलोचनात्मक आलेख पढ़ चुके हैं.


प्रेम,राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं के बीच
(संदर्भ: विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’)

राकेश बिहारी  



आदरणीय विमल जी,

मैं नीलू! आपकी रचना! वह लड़की,जो आपकी कहानी उत्तर प्रदेश की खिड़कीकी नायिका बनते-बनते रह गई,आपको प्रणाम करती हूँ.

आपने मुझे अपनी इतनी महत्वपूर्ण कहानी का किरदार बनाया इससे मैं अभिभूत हूँ,आपकी आभारी भी. सच कहूँ तो बहुत पहले ही यह पत्र आपको लिखना चाहती थी. पर इस कहानी और इसमें उपस्थित अपने किरदार से कुछ इस तरह मोहाविष्ट रही कि तुरंत आपसे मुखातिब होना उचित नहीं लगा. और फिर कुछ वक्त तो यूं ही आदतन अपनी छत से डूबते सूरज को देखने में बीत गया. हाँ,आपने ठीक समझा,मुझे डूबते सूरज को देखना बहुत पसंद है. लेकिन मेरे सर्जक! सूर्यास्त के बाद नए सूरज की प्रतीक्षा में इंतज़ार से भरी मेरी आँखों में भी तो कभी आपने झाँका होता! मेरी आँखों में पलता सूर्योदय का वह सपना आपकी कलम की नीली स्याही से दूर रह गया,यह बात मुझे सच में कचोटती है. आपको नहीं लगता कि आप अपने कथानायक- अनहद,उसकी मन:स्थितियों और उसके व्यवहार में कुछ इस तरह उलझे रहे कि मैं इस कहानी के सैंतीस पृष्ठों में फैले होने के बावजूद अपेक्षित विस्तार नहीं प्राप्त कर सकी?आप ऐसा मत सोचिएगा कि मैंने आपको पत्र क्या लिखा कोई शिकायतनामा ही ले कर बैठ गई,मैं तो आपसे इस कहानी के उन पक्षों पर भी बात करना चाहती हूँ जिनके कारण यह अपने समय की एक जरूरी कहानी बन पाई है,लेकिन क्या करूँ कि आपसे मुखातिब होते ही सबसे पहले अपना ही गम छलका पड़ रहा है.

उस शाम मैं बहुत खुश थी जब आपने मेरे और अनहदके सपनों को एक ही नीलिमा में रंगा पाया था. लेकिन उत्तर प्रदेशके अहाते में प्रवेश करते ही जैसे मेरा व्यक्तित्व स्वप्न और संवेदना के उस साझेपन से मुक्त होता चला गया. उस दिन मुझे सच में बहुत दुख हुआ जब अनहद ने मेरे द्वारा उसकी तनख्वाह पूछे जाने का गलत अर्थ निकाला. मेरी चिंता यह नहीं थी कि उसकी आमदनी कम है बल्कि मैं तो इस बात के लिए चिंतित थी कि हम अपने सपनों की तरफ साझे कदमों से क्यों नहीं बढ़ सकते?तभी तो उस दिन उसे दफ्तर से पार्क के शांत माहौल में ले गई ताकि उसे आश्वस्त कर सकूँ कि हम दोनों मिल कर भी अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच सकते हैं. आप तो मेरी इस सोच को जानते थे न! लेकिन मैं अब तक नहीं समझ पाई कि आप उस दिन पार्क के अहाते में हमारे साथ कदम रखते ही उस कदर रूमानी क्यों हो गए?काश आप यह समझ पाते कि उस दिन मुझे मेरी देह ने नहीं बल्कि साझेपन के उस अहसास ने मुझे उससे घर से बाहर मिलने को विवश किया था, जिसे मैं उसके भीतर भी एक आश्वस्ति की तरह उतार देना चाहती थी. आपने इसे समझने में तनिक देर कर दी. यदि उस दिन आपने थोड़ी सी और संजीदगी दिखाई होती तो उद्भ्रांतकी गिरफ्तारी के बाद अनहदमुझे इस तरह नहीं भूल जाता. ठीक अपनी सगाई के दिन अपनी पसंद के सभी नीले परिधानों को बोरी मे भर कर पंखे से लटकाकर आत्महत्या का भ्रम रच घर छोड कर मैं सिर्फ अनहद की देह हासिल करने के लिए नहीं निकली थी कि दूसरे शहर पहुँच कर मैंने उसके बारे में पलट कर सोचा तक नहीं. आपकी यह कहानी हाथ न लगती तो मुझे यह भी पता नहीं चलता कि उद्भ्रांत नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार हो चुका है और उसे आज़ाद कराना ही अब अनहद की ज़िंदगी का मकसद है. उसे किसी भी तरह मुझे इस स्थिति से अवगत कराना चाहिए था. वह मुझे हर कदम पर अपने साथ पाता. एक उद्भ्रांत ही तो है,जिसे हमारे सपनों के पूरा होने की चिंता थी. काश आप अनहद तक मेरे मन की यह टीस पहुंचा पाते जिसे कभी कनुप्रिया ने कहा था

सुनो मेरे प्यार !
प्रगाढ़ केलि-क्षणों में अपनी अंतरंग सखी को
तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु ?”

मैं तो पूर्व योजना के अनुरूप शहर छोड चुकी थी. पर आपको तो मेरे और अनहद के बीच सेतु की तरह रहना चाहिए था न, मेरे सर्जक! यह बात सचमुछ मुझे बहुत तकलीफ देती है कि पत्रिका के स्तंभ में हर महीने पूरी संजीदगी के साथ अनगिनत महिलाओं के प्रश्नों के उत्तर देने वाला अनहद अपनी नीलू का ही मन नहीं समझ सका. अपना सारा दुख,अपनी सारी पीड़ा अनहद के सिर डाल मैं सपने सभी आरोपों से आपको मुक्त कर देना चाहती हूँ पर यह बात चाह कर भी नहीं भूल पाती कि हम दोनों के सर्जक तो आप ही है न!

जबसे यह कहानी पढ़ी थी मन बहुत बेचैन था,आज आपसे यह सब कह कर खुद को बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ. अब शायद इस कहानी के दूसरे पक्षों पर भी कुछ कह पाऊँ. जानते हैं,सबसे पहले इस कहानी के शिल्प ने मेरा ध्यान खींचा. महिलाओं की पत्रिका में व्यक्तिगत प्रश्नों के समाधान का स्तम्भ स्थाई होता है. पत्रिका के नाम और रूप भले  बदल जाएं लेकिन इस तरह के स्तम्भ उनमें कमोबेश एक-से ही होते हैं. यह स्तम्भ स्त्री और पुरुष दोनों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करता है. घर में सबकी नज़रें छुपा कर अपने पिता और भाई को उन स्तंभों को पढ़ते कई बार देखा है. लेकिन इस स्तम्भ के प्रारूप का इतना रचनात्मक इस्तेमाल भी हो सकता है,वह भी कहानी के शिल्प में,पहले कभी नहीं सोचा था. अनहद के दफ्तर में उसके सहकर्मियों की चुटकी,उनके जरूरी-गैरज़रूरी प्रश्न और उन प्रश्नों के संजीदे उत्तर के बीच अनहद की झुंझलाहट, छटपटाहट और बौखलाहट से मिल कर मानव मन और व्यवहार का एक ऐसा विश्वसनीय रूपक तैयार तैयार होता है जिसमें हम सब अपने-अपने भीतर के सच का कोई न कोई टुकड़ा सहज ही देख सकते हैं.

आपके परिचय से पता चला आप पेशे से पत्रकार रहे हैं. पत्रकारिता का आपका अनुभव पूरी प्रामाणिकता के साथ कहानी में बोलता है. खुली अर्थव्यवस्था की सरकारी प्रस्तावना के बाद शिक्षा और ज्ञान के विभिन्न अनुशासन जिस तरह अलग अलग विभागों के लिएप्रोफेशनल्सतैयार करने के कारखाने में तब्दील हो गए हैं,उससे पत्रकारिता जगत भी अछूता नहीं है. लेकिन बाहरी चमक-दमक के पीछे की दुनिया का अंधेरा कितना सघन और स्याह हो सकता है,इसे मैंने इस कहानी में पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया.

प्रेम,राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं को एक ही धरातल पर जिस समान पक्षधरता के साथ आपने उठाया है, उससे मैं प्रभावित हूँ. मेरे और अनहद के संबंधों के समानान्तर बंद पड़े चीनी मिल और अनहद के पिता तथा उनके सहकर्मियों का संघर्ष जहां पहले निगमीकरण और उसके बाद के कृत्रिम विनिवेश की भयावह और सुनियोजित सरकारी साज़िशों का खुलासा करता हैं, वहीं नीला रंग,हाथी और साइकिल के मुखर प्रतीक प्रत्यक्षतः उत्तर प्रदेश की राजनीति को और सूक्ष्म रूप में पूरे देश में व्याप्त राजनैतिक विकल्पहीनता की स्थिति को सरेआम करते हैं. इस विकल्पहीन राजनैतिक विडम्बना को उद्भ्रांत के ये शब्द कितनी अच्छी तरह विश्लेषित करते हैं न -  

न तो सायकिल और हाथी में कोई फर्क होता है और न ही दुनिया के किसी भी फूल और शरीर के किसी भी अंग में. मुख्य बात तो वह सड़क होती है जिधर से वह सायकिल या हाथी निकलते हैं. सड़क मजेदार हो तो जितना खतरनाक झूमता हुआ हाथी होता है, सायकिल उससे रत्ती भर कम ख़तरनारक नहीं.

आह! कितना क्रूर लेकिन सच है यह प्रतीक जिसमें हाथी और सायकिल मनुष्य और मनुष्यता को मजेदार सड़क की तरह रौंदते चलें. दलीय पक्षधरता से ऊपर उठकर समय-सत्य को इस निष्पक्षता से रेखांकित किए जाने में भी मैंने आपकी पत्रकारीय तटस्थता को सहज ही महसूस किया. काश! यह तटस्थता टेलीविज़न पर होने वाली परिचर्चाओं के दौरान वहाँ उपस्थित पत्रकारों में भी हम देख पाते.

कहानी में उपस्थित दृश्य और परिस्थितियों के समानान्तर प्रश्न और उत्तर का सिलसिला कहानी को रोचक तो बनाता ही है अपनी प्रसंगानुकूल मौजूदगी के कारण कहानी को संवेदना के उच्चतम धरातल पर अभिव्यंजित भी करता है. मैंने गौर किया है कि इधर कहानियों को उपशीर्षकों में बांट कर लिखने का फैशन-सा बन गया है. कई बार ये उपशीर्षक इतने निरर्थक और पाठ-अवरोधक होते हैं कि पूछिये मत. इसलिए इस कहानी में उपशीर्षकों को देख कर एकबारगी तो मैं डर गई थी, लेकिन ज्यों-ज्यों कहानी में उतरती गई मेरा वह डर हवा होता गया.  बचपन सबसे तेज उड़ने वाली चिड़िया का नाम है’,नीला रंग भगवान का रंग होता है’,जब घर की रौनक बढ़ानी हो’,नीला रंग बहुत खतरनाक है’,उत्तर प्रदेश में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते’,यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहाँ है कमऔर इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँजैसे उपशीर्षक अपने भीतर निहित मारक ध्वन्यार्थों के कारण कहानी में बहुत कुछ जोड़ते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में समकालीन राजनैतिक व्यवस्था कब और कैसे खुद एक जीवंत पात्र की तरह हमारे बीच खड़ी हो जाती है,हमें पता ही नहीं चलता.

कहना न होगा कि व्यवस्था और समकालीनता को एक पात्र की तरह खड़ा कर देना जहां इस कहानी को विशिष्ट बनाता है वहीं चीनी मिल से संबन्धित प्रसंग कुछ तकनीकी त्रुटियों के कारण अपेक्षित प्रभाव नहीं छोडते. आपको याद हो कि कहानी में संदर्भित चीनी मिल जो 90 वर्ष पुराना है और जिसमें अनहद के पिता सुपरवाइज़र की नौकरी करते हैं,को आपने मूलत: नूरी मियां का बताया है जिसे उनके इंतकाल के कुछ दशक बाद तत्कालीन सरकार ने उनके परिवार की रज़ामंदी से अधिगृहित कर लिया था. यहाँ बहुत विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि किसी मिल या फैक्ट्री का अधिग्रहण एक जटिल कानूनी प्रक्रिया है. सरकार किसी मिल का अधिग्रहण सामान्यतया दो ही स्थितियों में कर सकती है - मालिक की मृत्यु के पश्चात वारिस के अभाव में या फिर राष्ट्रहित में.  और एक बार किसी मिल का अधिग्रहण हो गया फिर उसका मालिक सरकार हो जाती है, कोई व्यक्ति नहीं. गौरतलब है कि कहानी के बाद के दृश्य में किसी अंसारी साहब को मालिक बताते हुये उन पर दस हजार करोड़ के कर्जे की बात भी कही गई है. माफ कीजिएगा, अपेक्षित शोध के अभाव में यह पूरा प्रकरण राजनैतिक प्रतिरोध की चालू समझ के आधार पर गढ़ा गया मालूम होता है.

मेरी यह बात अधूरी होगी यदि उद्भ्रांत के लिए कुछ अलग से न कहूँ. वह है तो अनहद का छोटा भाई और मुझसे उसका कोई सीधा सबंध भी नहीं रहा लेकिन जिस आत्मीय तन्मयता के साथ उसने अनहद को मेरे साथ जीवन साझा करने केलिए प्रेरित किया था उस कारण उससे एक अनकहा-सा लगाव महसूस करती हूँ. किसानों और उनकी जमीन के लिए उसकी आँखों मे पलते सपने आज के समय की बहुत बड़ी जरूरत हैं. पूँजीपतियों के फायदे के लिए संवेदनशील और प्रतिबद्ध सरकारें जाने कब उधर की रुख करेंगी. फिलहाल सरकारी प्रतिबद्धताओं के जिस स्वरूप का उदघाटन यह कहानी करती है वह विकास की विकलांग अवधारणाओं का ही नतीजा है -  “हाथी सजधज कर, अपने दांतों को हीरे पन्नों से सजा कर और इन दयालु लोगों का दिया हुआ मोतियों जड़ा जाजिम पहन कर खेतों की ओर निकल गया है. वह जिन-जिन खेतों से होकर गुज़रेगा, उन खेतों की किस्मत बदल जायेगी. वहां खेती जैसा पिछड़ा हुआ काम रोक कर बड़ी-बड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनायी जायेंगीं. जिस पर से होकर बड़े-बड़े दयालु लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियां गुज़रेंगीं.”

अधिग्रहण और विनिवेश की वर्तमान अर्थनीति का एक सिरा ऐसे दृश्यों से भी जुड़ता है. कहने की जरूरत नहीं कि आज हमें एक नहीं कई-कई उद्भ्रांतों की जरूरत है.

कुल मिलाकर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद देश में हो रहे आर्थिक बदलावों के बीच फैली भयावह राजनैतिक विकल्पहीनता और आम आदमी के सपनों के संघर्ष को जिस अपनेपन के साथ यह कहानी रेखांकित करती है वह इसे इधर की कहानियों में महत्वपूर्ण बनाता है. लेकिन आम आदमी के सपनों का यह संघर्ष किसी कारगर नतीजे पर पहुंचे उसके लिए मुझ जैसी नीलुओं को भी इतिहास में गूँथने की जरूरत है. उम्मीद है आपकी अगली कहानियों में इतिहास में गूँथा जाता अपना वह चेहरा जल्दी ही देख पाउंगी. आपने छोटा मुंह बड़ी बात वाले मेरे इस खत को अपना कीमती वक्त दिया इसके लिए आपका बहुत आभार!

आदर और शुभकामनाओं सहित

आपकी अपनी ही 
नीलू
___________ 
कहानी यहाँ पढ़ें : उत्तर प्रदेश की खिड़की
विवेचना क्रम यहाँ पढ़ें : भूमंडलोत्तर कहानी

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चतुर्वेदी

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पेंटिग :  Abir Karmakar (Room)
प्रारम्भ से ही पहचाने और रेखांकित किये गए पंकज चतुर्वेदी, हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में अपनी कविता के औदात्य के साथ पिछले एक दशक से उपस्थित हैं, हाल ही में उनका तीसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है. उनकी कविताओं की मार्मिकता विमोहित करती है और मन्तव्य बेचैन. अक्सर कविताएँ किसी सहज से लगने वाले प्रकरण से शुरू होती हैं और सामाजिक  विद्रूपताओं पर चोट करती संवेदना तक पहुंच जाती हैं, उनमें (कई कविताओं में) एक व्यंग्यात्मक भंगिमा रहती है और वे नाटकीय ढंग से कई बार अर्थ को प्राप्त होती हैं.

इस संग्रह से शीर्षक कविता और साथ में कुछ कवितायेँ.

पंकज चतुर्वेदी की कवितायेँ            



उम्मीद

जिसकी आँख में आँसू है
उससे मुझे हमेशा
उम्मीद है.



आते हैं

जाते हुए उसने कहा
कि आते हैं

तभी मुझे दिखा
सुबह के आसमान में
हँसिये के आकार का चन्द्रमा

जैसे वह जाते हुए कह रहा हो
कि आते हैं.



प्रिय कहना

प्रिय कहना कितना कठिन था

तुम्हें चाह सकूँ
चाहने में कोई अड़चन न हो
और तुम भी उसे समझ सको
शब्द का
तभी कोई मतलब था

प्रिय कहना
कितना कठिन था.



यह एक बात है

लेटे हुए आदमी से
बैठा हुआ आदमी
बेहतर है

बैठे हुए आदमी से
खड़ा हुआ

खड़े हुए आदमी से
चलता हुआ

किताब में डूबे हुए
ख़ुदबीन से
संवाद में शामिल मनुष्य
बेहतर है

संवाद में शामिल इंसान से
संवाद के साथ-साथ
कुछ और भी करता हुआ
इंसान बेहतर है

यह एक बात है
जो मैंने अपने बच्चे से
उसके जन्म के
पहले साल में सीखी.



मैं तुम्हें इस तरह चाहूँ

तुम आयीं
थकान और अवसाद से चूर
एक हार का निशान था
तुम्हारे चेहरे पर

वह तुम्हारी करुणा
उसका क्या उपचार है
मेरे पास ?

और वह आक्रोश
जो मुझपर सिर्फ़ इसलिए है
क्योंकि मैं हूँ

कोई बुहार दे इन रास्तों को
तुम्हारे लिए
अगर तुम्हारी ख़ुशी में
मेरे होने का
कोई दाग़ भी है

मैं तुम्हें इस तरह चाहूँ
कि तुम्हारी चाहतों को भी
चाह सकूँ.


जाति के लिए

ईश्वर सिंह के उपन्यास पर
राजधानी में गोष्ठी हुई
कहते हैं कि बोलनेवालों में
उपन्यास के समर्थक सब सिंह थे
और विरोधी ब्राह्मण

सुबह उठा तो
अख़बार के मुखपृष्ठ पर
विज्ञापन था:
अमर सिंह को बचायें
और यह अपील करनेवाले
सांसद और विधायक क्षत्रिय थे

मैं समझ नहीं पाया
अमर सिंह एक मनुष्य हैं
तो उन्हें क्षत्रिय ही क्यों बचायेंगे ?

दोपहर में
एक पत्रिका ख़रीद लाया
उसमें कायस्थ महासभा के
भव्य सम्मेलन की ख़बर थी
देश के विकास में
कायस्थों के योगदान का ब्योरा
और आरक्षण की माँग

मुझे लगा
योगदान करनेवालों की
जाति मालूम करो
और फिर लड़ो
उनके लिए नहीं
जाति के लिए

शाम को मैं मशहूर कथाकार
गिरिराज किशोर के घर गया
मैंने पूछा: देश का क्या होगा ?
उन्होंने कहा: देश का अब
कुछ नहीं हो सकता

फिर वे बोले: अभी
वैश्य महासभा वाले आये थे
कह रहे थे - आप हमारे
सम्मेलन में चलिए.



रक्तचाप

रक्तचाप जीवित रहने का दबाव है
या जीवन के विशृंखलित होने का ?

वह ख़ून जो बहता है
दिमाग़ की नसों में
एक प्रगाढ़ द्रव की तरह
किसी मुश्किल घड़ी में उतरता है
सीने और बाँहों को
भारी करता हुआ

यह एक अदृश्य हमला है
तुम्हारे स्नायु-तंत्र पर

जैसे कोई दिल को भींचता है
और तुम अचरज से देखते हो
अपनी क़मीज़ को सही-सलामत

रक्तचाप बंद संरचना वाली जगहों में--
चाहे वे वातानुकूलित ही क्यों न हों--
साँस लेने की छटपटाहट है

वह इस बात की ताकीद है
कि आदमी को जब कहीं राहत न मिल रही हो
तब उसे बहुत सारी आक्सीजन चाहिए

अब तुम चाहो तो
डाक्टर की बतायी गोली से
फ़ौरी तसल्ली पा सकते हो
नहीं तो चलती गाड़ी से कूद सकते हो
पागल हो सकते हो
या दिल के दौरे के शिकार
या कुछ नहीं तो यह तो सोचोगे ही
कि अभी-अभी जो दोस्त तुम्हें विदा करके गया है
उससे पता नहीं फिर मुलाक़ात होगी या नहीं

रक्तचाप के नतीजे में
तुम्हारे साथ क्या होगा
यह इस पर निर्भर है
कि तुम्हारे वजूद का कौन-सा हिस्सा
सबसे कमज़ोर है

तुम कितना सह सकते हो
इससे तय होती है
तुम्हारे जीवन की मियाद

सोनभद्र के एक सज्जन ने बताया--
(जो वहाँ की नगरपालिका के पहले चेयरमैन थे
और हर साल निराला का काव्यपाठ कराते रहे
जब तक निराला जीवित रहे)--
रक्तचाप अपने में कोई रोग नहीं है
बल्कि वह है
कई बीमारियों का प्लेटफ़ाॅर्म
और मैंने सोचा
कि इस प्लेटफ़ाॅर्म के
कितने ही प्लेटफ़ाॅर्म हैं

मसलन संजय दत्त के
बढ़े हुए रक्तचाप की वजह
वह बेचैनी और तनाव थे
जिनकी उन्होंने जेल में शिकायत की
तेरानबे के मुम्बई बम कांड के
कितने सज़ायाफ़्ता क़ैदियों ने
की वह शिकायत ?

अपराध-बोध, पछतावा या ग्लानि
कितनी कम रह गयी है
हमारे समाज में

इसकी तस्दीक़ होती है
एक दिवंगत प्रधानमन्त्री के
इस बयान से
कि भ्रष्टाचार हमारी जि़न्दगी में
इस क़दर शामिल है
कि अब उस पर
कोई भी बहस बेमानी है

इसलिए वे रक्त कैंसर से मरे
रक्तचाप से नहीं

हिन्दी के एक आलोचक ने
उनकी जेल डायरी की तुलना
काफ़्का की डायरी से की थी
हालाँकि काफ़्का ने कहा था
कि उम्मीद है
उम्मीद क्यों नहीं है
बहुत ज़्यादा उम्मीद है
मगर वह हम जैसों के लिए नहीं है

जैसे भारत के किसानों को नहीं है
न कामगारों-बेरोज़गारों को
न पी. साईंनाथ को
और न ही वरवर राव को है उम्मीद
लेकिन प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री
और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को
बाबा रामदेव को
और मुकेश अम्बानी को उम्मीद है
जो कहते हैं
कि देश की बढ़ती हुई आबादी
कोई समस्या नहीं
बल्कि उनके लिए वरदान है

मेरे एक मित्र ने कहा:
रक्तचाप का गिरना बुरी बात है
लेकिन उसके बढ़ जाने में कोई हरज नहीं
क्योंकि सारे बड़े फ़ैसले
उच्च रक्तचाप के
दौरान ही लिये जाते हैं

इसलिए यह खोज का विषय है
कि अठारह सौ सत्तावन की
डेढ़ सौवीं सालगिरह मना रहे
देश के प्रधानमन्त्री का
विगत ब्रिटिश हुकूमत के लिए
इंग्लैण्ड के प्रति आभार-प्रदर्शन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए
वित्त मन्त्री का निमंत्रण--
कि आइये हमारे मुल्क में
और इस बार
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से
कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा कमाइये
और नन्दीग्राम और सिंगूर के
हत्याकांडों के बाद भी
उन पाँच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
कुछ संशोधनों के साथ
क़ायम करने की योजना--
जिनमें भारतीय संविधान
सामान्यतः लागू नहीं होगा--
क्या इन सभी फ़ैसलों
या कामों के दरमियान
हमारे हुक्मरान
उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे ?

या वे असंख्य भारतीय
जो अठारह सौ सत्तावन की लड़ाई में
अकल्पनीय बर्बरता से मारे गये
क़जऱ् में डूबे वे अनगिनत किसान
जिन्होंने पिछले बीस बरसों में
आत्महत्याएँ कीं
और वे जो नन्दीग्राम में
पुलिस की गोली खाकर मरे--
अपना रक्तचाप
सामान्य नहीं रख पाये ?

यों तुम भी जब मरोगे
तो कौन कहेगा
कि तुम उत्तर आधुनिक सभ्यता के
औज़ारों की चकाचैंध में मरे
लगातार अपमान
और विश्वासघात से

कौन कहता है
कि इराक़ में जिसने
लोगों को मौत की सज़ा दी
वह किसी इराक़ी न्यायाधीश की नहीं
अमेरिकी निज़ाम की अदालत है

सब उस बीमारी का नाम लेते हैं
जिससे तुम मरते हो
उस विडम्बना का नहीं
जिससे वह बीमारी पैदा हुई थी
___________________________

पंकज चतुर्वेदी 
जन्म: 24अगस्त, 1971,  इटावा (उत्तर-प्रदेश)
जे. एन. यू से उच्च शिक्षा
कविता के लिए वर्ष 1994के भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, आलोचना के लिए 2003के देवीशंकर अवस्थी सम्मान  एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कारसे सम्मानित.
एक संपूर्णता के लिए(1998), एक ही चेहरा (2006), क्तचाप और अन्य कविताएँ  (2015) (कविता संग्रह)
आत्मकथा की संस्कृति (2003), घुवीर सहाय (2014,साहित्य अकादेमी,नयी दिल्ली के लिए विनिबंध), जीने का उदात्त आशय (2015)  (आलोचना)आदि  प्रकाशित

सम्पर्क : सी-95, डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर (म.प्र.)-470003
मोबाइल: 09425614005/ cidrpankaj@gmail.com

मीमांसा : जुरगेन हेबरमास : अच्युतानंद मिश्र

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विश्व के प्रमुख बुद्धिजीवियों में शुमार, जर्मन समाजशास्त्री और दार्शनिक जुरगेन हेबरमास (Jürgen Habermas, 8 June 1929), लोकवृत्त (Public sphere) की अपनी अवधारणा के कारण जाने और माने जाते हैं, इसके साथ ही आधुनिकता और तार्किकता की समझ के विस्तार में भी उनका मौलिक योगदान है.अध्येता अच्युतानंद मिश्र का यह आलेख हेबरमास के साथ ही तमाम समाज – वैज्ञानिकों की मीमांसा को देखता है, और वर्तमान में उनकी उपादेयता को भी परखता है.
              



आधुनिकता का विकल्प विकल्पों की आधुनिकता                      
अच्युतानंद मिश्र 



अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर ‘आधुनिकता और उसकी विसंगतियां’विषय पर भाषण कररहे थे. मुझे भी वहां सुनने के लिए आमंत्रित किया गया था. जब वे जाँन बाज़, टी एस एलियट, गिन्सबर्ग, एन्दिवारोल, तमाम पर अपनी आपत्तियां व्यक्त कर चुके सबको अपनी कल्पना में धराशायी कर चुके और उसके बाद उन्होंने पूछा –‘एनी क्वेश्चंस’! तो सारी (सभी) तरफ सन्नाटा था. सिर्फ एक अजनबी, एक हिन्दुस्तानी, एक छोटा सा आदमी, मैं उठा और मैंने उनसे पूछा कि “जेंटलमैन ! व्हाट इज द अल्टरनेटिव टू मॉडर्निज़्म ? और तब सन्नाटा था. उक्त प्रोफेसर इमानदार थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी सीट पर बैठ गए.(पूर्वाग्रह अंक 63-64 1984 में प्रकाशित)

ह भारत भवन में हिंदी के कवि श्रीकांत वर्माद्वारा दिए गये वक्तव्य का एक अंश है. हालाँकि यहाँ श्रीकांतवर्मा का मंतव्य आधुनिकता से ही है ,जिसे मॉडर्निटी की जगह मॉडर्निज़्म कह रहे हैं,लेकिन जो भी हो यहाँ यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है कि आधुनिकता का विकल्प क्या है? श्रीकांत वर्मा जब यह प्रश्न उठाते हैं तो यह स्पष्ट है कि न सिर्फ उक्त मार्क्सवादी प्रोफेसर से वे सवाल पूछ रहे होते हैं बल्कि समूचे मार्क्सवाद पर  सवाल उठा रहे होते हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवाद और आधुनिकता के सम्बन्धों पर श्रीकांत वर्माने शायद ही गंभीरता से विचार किया हो. और उनका सवाल बीसवीं सदी में फैशन का रूप ले चुके इस सवाल से भिन्न कोई और उद्देश्य रखता हो.  बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यह सवाल अनेक बार अनेक सभाओं गोष्ठियों और सेमिनारों में उठाया गया.  सवाल पूछने की गरज से कम मार्क्सवाद को अपमानित,लांछित और धता बताने के उद्देश्य से अधिक.  

हालाँकि हम यह न भूलें कि मार्क्स और मार्क्सवाद प्रबोधन काल की सबसे बड़ी परिघटना है. चूँकि यह प्रश्न एक गुजर चुके दौर का हिस्सा है इसलिए यह स्वीकार तो किया ही जाना चाहिए कि यह एक  वाजिब प्रश्न है. एक ऐसा प्रश्न जिसे बीसवीं सदी के आरंभिक पचास वर्षों में लुकाच, बेंजामिन से लेकर एडोर्नो तक के सभी दार्शनिकों ने समझने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया. 50 के दशक के बाद अचानक बहसें आधुनिकता की बजाय उत्तराधुनिकता पर केन्द्रित होती चली गयी. फूको को हम अगर इस कड़ी से बाहर कर दें, तो पाते हैं कि आधुनिकता की बहस पचास के दशक के बाद उतनी महत्वपूर्ण नही रह गयी. फूको ने जरूर अपने अंतिम दौर में आधुनिकता की परिकल्पना पर विचार किया, हालाँकि फूको के सम्पूर्ण चिंतन में आधुनिकता की आलोचना मौजूद है. अपने लेख व्हाट इज एनलाइटेनमेंटमें वे कांट की अवधारणाओं के प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार करते हुए सभ्यता समीक्षा के कार्य को अंजाम देते हैं.  आरंभ में ही वे लिखते हैं“इन दिनों जब कोई पत्रिका अपने पाठको से किसी विषय पर सवाल पूछती है तो वह किसी ऐसे विषय पर रायशुमारी करना चाहती है जिस पर पहले ही लोगों ने राय कायम कर रखी है; इसलिए इसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जिससे नई बात सीखी जा सके. अठारहवीं सदी में संपादक उन प्रश्नों को पूछते थे जिनके जवाब सामने नहीं थे, मैं नहीं जानता हूँ कि वह प्रक्रिया बेहतर थी या नही. लेकिन इतना जरुर है कि वह दिलचस्प थी. 

फूको इस प्रक्रिया को महज़ दिलचस्प मानते हैं तार्किक या लोकतान्त्रिक नहीं. ऐसा मानने के पीछे उनके अपने तर्क है लेकिन अगर अठारहवीं सदी की कोई तार्किक प्रक्रिया बीसवीं सदी में महज़ एक रस्म-अदायगी बनकर रह गयी तो इस पर विचार करना कि ऐसा क्यों हुआ, आधुनिकता की  परम्परा के मूल्याङ्कन की कोशिश ही है.  इस पूरी कोशिश में फूको, हेबरमास और एडोर्नो एक त्रिकोण बनाते हैं. बीसवीं सदी के आरम्भ में अधिकांश दार्शनिकों ने तीन विषयों पर हर बार नये सिरे से बात करने की कोशिश की. ये तीन विषय हैं (1) प्लेटो (2) हीगेल (3) आधुनिकता.  लुकाच से शुरू करते हुए सूजेन सोंटैग तक के चिंतकों के यहाँ हम इस बात की तस्दीक कर सकते हैं. बहस की परम्परा में इन तीनो विषयों के सन्दर्भों को बार-बार आता हुआ देख सकते हैं. लेकिन पचास के दशक के आते आधुनिकता से खिसकती हुयी सारी बहस आधुनिकतावाद पर और आधुनिकतावाद से उत्तराधुनिकता पर केन्द्रित होती गयी. यह भी दिलचस्प है कि आधुनिकता को समस्याग्रस्त बताने के लिए आधुनिकतावाद का दामन थामा गया और अंततः उस पूरे युग की मृत्यु की घोषणा कर दी गयी. ऐसे में आधुनिकता पर कोई बहस शुरू तभी हो सकती थी जब कोई सारी बहसों को नये सन्दर्भों में परम्परा के मूल्याङ्कन के साथ प्रस्तुत करे.  

उत्तराधुनिकता के दौर में गड़े मुर्दे खूब उखाड़े  गए, लेकिन आधुनिकता से आधुनिकतावाद तक की यात्रा के विषय में या तो खामोश रहा गया या फिर उसे समाप्त मान लिया गया. इन तमाम परिवर्तनों और आधुनिकता की समाप्ति की घोषणा  के बावजूद आधुनिकता को अनिवार्य और संभव बताने का उपक्रम पिछले पचास वर्षों में जिस जर्मन दार्शनिक ने किया है उसका नाम है जुरगेन हेबरमास. हेबरमास 1956 में एडोर्नोके सहायक बनकर फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े. यह वह दौर था जब फ्रैंकफर्ट स्कूल की दूसरी पीढ़ी तैयार हो रही थी. एडोर्नो, होर्खिमायर अब भी फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े हुए थे, लेकिन उनके कार्यों के आलोचनात्मक मूल्याङ्कन का वातावरण निर्मित हो रहा था. क्रिटिकल थ्योरी की आलोचना की परिपाटी विकसित हो रही थी.

हेबरमास ने स्वीकार किया है कि जब वे फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े तो उनके ऊपर एडोर्नो और होर्खिमायर द्वारा संयुक्त रूप में लिखी पुस्तक डायलेक्टिक्स ऑफ एनलाइटेनमेंट(प्रबोधन की द्वंद्वात्‍मकता) का असर था. हालाँकि हेबरमास इस असर से शायद ही कभी मुक्त हो पाते हैं लेकिन आधुनिकता की पूरी बहस को हेबरमास डायलेक्टिक्स ऑफ एनलाइटेनमेंटसे शुरू करते हुए एक नई दिशा की और ले जाते हैं, जहाँ न तो आधुनिकता का अंत होता है और न ही आधुनिकता असंभव जान पड़ती है. हेबरमास आधुनिकता की पूरी बहस को नए सिरे से उठाते हैं और यह सवाल पूछते हैं कि उत्तराधुनिकता का गैराधुनिकता से क्या रिश्ता है? तात्पर्य यह कि तकनीक के इस उत्कर्ष के दौर में,सामंती मूल्यों को पुनर्जीवित करना अगर उत्तराधुनिकता है तो निश्चित रूप से उसके मूल्य गैराधुनिक ही होंगे. हमारे यहाँ भी टी. वी. चैनलों पर आये दिन जो धारावाहिक दिखाए जाते हैं, उनमे अधिकांश सामंती मूल्यों का ही पोषण करते हैं ऐसे में हेबरमास का यह सवाल वाजिब हो उठता है कि उच्च तकनीक के इस आदर्श दौर के मूल्य, इतने गैरआधुनिक क्यों है. कहीं आधुनिकता के विरोध के लिए तो उत्तराधुनिकता की अवधारणा नहीं विकसित की जा रही है?

हेबरमास के अनुसार आधुनिकता महज़ एक निश्चित समय काल नहीं है.  एडोर्नो होर्खिमायर से लेकर देरिदा और फूको तक अधिकांश दार्शनिक उसे महज़ प्रबोधन में लोकेट करने की कोशिश करते हैं. हेबरमास कहते हैं आधुनिकता सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक सांस्थानिक (सामूहिक) एवं मनोवैज्ञानिक स्थिति भी है जो ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत विकसित हुयी है. वह परिदृश्य में सर्वत्र मौजूद रहती है. आधुनिकता विभिन्न सौन्दर्यात्मक पहलुओं से जुड़ते हुए भी अलग है. इस अर्थ में ही वह आधुनिकतावाद से अलग राह बनाती है. एक कलाकार के पास यह स्वतंत्रता होती है कि वह आधुनिकतावाद को चुने या नकारे लेकिन आधुनिकता के साथ यह संभव नहीं.  हम आधुनिकतावाद की तरफ जा सकते हैं लेकिन आधुनिकता हमारी ओर रुख करती है. एक तरह से यह भी स्वीकार करें कि हेबरमास के लिए आधुनिकता महज़ दृष्टि नहीं है बल्कि समय की गतिशीलता भी आधुनिकता है. अपने बहुचर्चित लेख “आधुनिकता एक असमाप्त परियोजना” (modernity an unfinished project) में वे बताते हैं कि-आधुनिक शब्द का सर्वप्रथम इस्तेमालपांचवी सदी के आखिर में किया गया. जब वर्तमान यानि अबके आधिकारिक इसाई को तबके पैगन और रोमन से अलगाने का प्रयत्न किया गया. हर दौर में एक नई विषयवस्तु के साथ आधुनिकता की अभिव्यक्ति,एक ऐसे युग चेतना से स्वयं को अलगाती है जो किसी अतीत की शास्त्रीय चेतना होती है.इस तरह आधुनिकता पुराने से नये की ओर प्रस्थान का बोध रचती है.  ऐसा सिर्फ रेनेसां के दौर में ही नहीं हुआ जिससे हम सबके लिए आधुनिक युग का आरम्भ होता है. लोगों ने स्वयं को बारहवीं सदी में चार्लमैग्ने के दौर में भी आधुनिक माना था और प्रबोधन के युग में भी – संक्षेप में जब भी युरोप में एक नई युग चेतना का विकास होता है और वह शास्त्रीय युग के साथ नये संदर्भ विकसित करता है आधुनिकता का जन्म होता है”

स्पष्ट है कि जहाँ आधुनिकता को तमाम दार्शनिक प्रबोधन की परिणति के रूप में देखते हैं, उसे एक निश्चित अवधारणा में तब्दील करते हैं, वहीँ हेबरमास आधुनिकता को युग विशेष से जोड़ते हुए भी उसमे मौजूद गतिशीलता पर अधिक जोदेते हैं. यही वजह है कि हेबरमास के लिए आधुनिकता का अर्थ दुहराव नहीं बल्कि नूतन की ओर प्रस्थान है. और इस प्रक्रिया में वे चेतना के पुराने से कटकर नये की ओर मुड़ने के संक्रमण को, मनुष्य की स्वाभाविकता के रूप में देखते हैं. इसलिए अगर हम यह कहें कि हेबरमास के लिए मनुष्य स्वभावतः आधुनिक होता है तो यह गलत न होगा.

बीसवीं सदी के मनुष्य के संकट को एडोर्नो और होर्खिमायर ने यांत्रिक तार्किकता ( instrumental modernity )के बढ़ते प्रभाव के रूप में चिन्हित किया है.  उनके अनुसार बीसवीं सदी का सामाजिक जीवन एक विशेष तरह की तार्किकता की गिरफ्त में आ चुका है. हर चीज़ का वस्तुकरण हो रहा है. चीज़ों का भविष्य गणित के तर्कों  द्वारा निर्धारित किया जा रहा है. मनुष्य के सोचने की प्रक्रिया को गणित में बदलने की कोशिशें हो रहीं हैं, लेकिन मनुष्य महज़ तर्क का पुतला बनकर नहीं रह सकता. उसे आध्यात्मिकता, संस्कृति, सामाजिकता एवं सामूहिकता की आवश्यकता पड़ती है. यांत्रिक तार्किकता उसे इनसे अलग करती है. एडोर्नो के अनुसार इसमें विज्ञान और तकनीक की बड़ी भूमिका है. इनके हवाले से जीवन की गतिविधियों को सांस्थानिक कर दिया गया है. यहाँ तक की मनुष्य की सामाजिक वृतियों को भी सांस्थानिक व्यवहार कुशलता में बदल दिया गया है. यह एक अभूतपूर्व परिवर्तन है. ऐसे में तर्क के इस पुतले ने वर्चस्व के बोध को रचा.

होर्खिमायर और एडोर्नो का कहना है वर्चस्व और विशेषज्ञता दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं. विज्ञान के साथ तार्किकता ने वर्चस्व को बढाया. पुराने समय में जादू की समूची परिकल्पना ही मनुष्य द्वारा प्रकृति पर वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश थी. प्रबोधन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप मनुष्य को अधिक स्वतंत्र और उन्मुक्त होना था लेकिन जैसे ही औद्योगीकरण का विकास हुआ मनुष्य अधिक नियंत्रित होता चला गया. मनुष्य को प्रकृति से आज़ाद कराने की जगह प्रबोधन ने मनुष्य को नये तरह की गुलामी में जकड़ दिया. मनुष्य पर वर्चस्व का अर्थ था प्रकृति पर वर्चस्व क्योंकि मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है. इस तरह उसे प्रकृति की चेतना से काटा गया. प्रकृति की चेतना से कटने की वजह से वह अपने स्वाभाविक प्रतिरोध की चेतना से भी कटा. मार्क्स इसे ही एलिनिएशन कहते हैं.  इस सबके परिणामस्वरुप एक तरफ भयानक गरीबी भूखमरी और बेकारी का प्रसार होने लगा. मनुष्य अपनी ही आधुनिकता की फांस में फंस गया. नैतिक विकास के स्थान पर क्रूरता का स्थानापन्‍न आधुनिकता की परिणति है. एडोर्नो और होर्खिमायर के अनुसार यही प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता है. डायलेक्टिक्स ऑफ़ एनलाइटेनमेंट की भूमिका में वे इस निष्कर्ष को सामने लाते हैं- प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता में प्रबोधन जरुरी भी है और असंभव भी : जरुरी इसलिए कि मनुष्यता उसके बगैर आत्महंता और परतंत्र होती रहेगी और असंभव इसलिए कि उसे सिर्फ तार्किक मानवीय प्रक्रियाओं के द्वारा ही अर्जित किया जा सकता है और तार्किकता का उद्भव ही समस्याओं के मूल में हैं”

एडोर्नो और होर्खिमायर इस द्वान्धात्मकता से मुक्ति किसी रूप में नहीं पाते. एडोर्नो और होर्खिमायर जिस निराशा और विकल्पहीनता की और मुड़ते हैं वहीँ से एक रास्ता उत्तराधुनिकता की ओर भी जाता है.  हालाँकि हेबरमास का यह मानना है कि स्वयं एडोर्नो और होर्खिमायर इस ओर रुख नहीं करते. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि कहीं न कहीं एडोर्नो , होर्खिमायर और यहाँ तक की वाल्टर बेंजामिन तक के लेखन में जो निराशा नज़र आती है उसके मूल में फासीवाद की  बड़ी भूमिका रही है.  हालाँकि हेबरमास के लिए यह मूलतः विश्लेषण की समस्या से जुड़ा प्रश्न है.

अपनी पहली पुस्तक Structural transformation of the public sphere : An inquiry into a category of Bourgeois society  के माध्यम से हेबरमास एडोर्नो और होर्खिमायर द्वारा विकसित क्रिटिकल थ्योरीकी अवधारणा का क्रिटिक रचते हैं. इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 1991 में प्रकाशित हुआ, मूल जर्मन संस्करण के तक़रीबन तीन दशक बाद. इस पुस्तक के माध्यम से हेबरमास क्रिटिकल थ्योरी की परम्परा का मूल्याङ्कन भी करते हैं और उसकी अपूर्णता की चर्चा भी करते हैं. एक बातचीत के दौरान हेबरमास ने कहा कि वे यह नहीं मानते कि क्रिटिकल थ्योरी कोई पूर्णतः ऐसी  अवधारणा थी जिसे फ्रैंकफर्ट स्कूल ने खोजा हो. उनके अनुसार इसकी सुदृढ़ परम्परा थी. फ्रैंकफर्ट स्कूल के परिदृश्य में आने से पूर्व क्रिटिकल थ्योरी के कुछ अंशों को  लुकाच के लेखन में 20 के दशक में देखा जा सकता है, जहाँ वे मार्क्स के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं. हेबरमास के अनुसार जिस सतत आलोचना की परम्परा हीगेल, मार्क्स और कांट ने विकसित किया, लुकाच उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हैं और उसी का विस्तार हमें एडोर्नो और होर्खिमायर के चिंतन में दीखता है. हेबरमास बताते हैं कि  पचास के दशक में एडोर्नो के भाषणों में अकसर हीगेल दुर्खाइमऔर फ्रायड का जिक्र होता था.  एडोर्नो मार्क्स और फ्रायड के लेखन को क्लासिक का दर्जा देते थे.

हेबरमास फ्रैंकफर्ट स्कूल के अंतर-अनुशासनीय चरित्र को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी पुस्तक में इस चरित्र को विस्तार देते हैं. एक तरफ जहाँ वे इसमें, समाजशास्त्र, साहित्य और दर्शन का समावेश करते हैं वहीँ दूसरी तरफ वे समाज के प्रगतिशील दायरे में मौजूद तार्किकता को समाज के दूसरे दायरे में मौजूद अतार्किकता से अलगाते हैं.  यहीं वे एडोर्नो से अलग रास्ता अपनाते हैं.  एडोर्नो के समस्त लेखन पर अगर हम देखें तो मार्क्स की वर्गीय विश्लेषण की पद्धति हावी है.  और इसीलिए वे सामाजिक संरचना में मौजूद आतंरिक विभाजन को उतना महत्व नहीं देते. वे मास कल्चर जैसी पदावली का इस्तेमाल करते हैं जिसमें मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में मौजूद अंतर्विरोधों को नकार दिया गया है.  हेबरमास ऐसा नहीं करते हैं वे सामाजिक अंतर्विरोध को अभिव्यक्त करने के लिए सामाजिक आलोचना के दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण मानते हैं. वे सतत आलोचना की प्रक्रिया को अपनाते हैं.  मार्क्स भी कहते हैं सब पर संदेह करो.यानि आलोचनात्मक रुख का बने रहना लगातार प्रगतिशील बने रहने की शर्त है.  हेबरमास इस अर्थ में आत्मालोचना को भी महत्व देते हैं. इस तरह वे आलोचनात्मक द्वंद्वको सामने लाते हैं.  

इस प्रक्रिया का मूर्त रूप वे लोकवृत (पब्लिक स्फीयर ) की अवधारणा के रूप में प्रस्तुत करते  हैं. लोकवृत की अवधारणा में प्रबोधन की मूल चेतना की शिनाख्त की जा सकती है. प्रबोधन के मूल में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना मौजूद थी.  अठारहवीं सदी के आरम्भ में नागरिक अधिकारों की स्थापना के परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वातंत्र्य की बूर्जुआ परिकल्पना एवं स्वतंत्र प्रेस की अवधारणा विकसित हुयी. इसने मध्यवर्ग की विशिष्ट परिकल्पना को रचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.  परिणामस्वरूप मध्यवर्ग ने अपने अधिकारों की अभिव्यक्ति के लिए नये स्थलों की तलाश की, मसलन कॉफ़ी हाउस, सैलून, साहित्यिक पत्रिकाएंइत्यादि.  इन स्थलों पर हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधि स्वतंत्रता पूर्वक अपने मतों को प्रकट कर सकते थे. ये स्थल प्रकट रूप में राज्य के नियंत्रण में होते हुए भी उनके दायरे से बाहर आकर अपनी भूमिका निभाते थे.  ये इलाके दो अर्थों में स्वतंत्र थे. प्रथम यह कि उनमे सहभागिता का प्रश्न व्यक्ति का अपना निर्णय था, दूसरे यह कि वे आर्थिक और राजनीतिक बन्धनों से एक हद तक मुक्त थे. यह स्पष्ट है कि वे बुर्जुआ चेतना के वर्गीय दायरे में ही महदूद थे लेकिन हेबरमास का मानना था कि वे वर्गीय दायरे के भीतर मौजूद अन्तर्विरोधों को गहरा कर सकने में सक्षम थे और यही उनकी उपलब्धि थी. कहना न होगा कि अठारहवीं सदी की यह परम्परा आज भी मौजूद है.  आज भी देश के छोटे बड़े शहरो में कोआपरेटिव-कॉफ़ी हाउस जैसी संस्थाएं नज़र आती हैं.  इन जगहों पर जिस तरह शहर के हर आयु के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का जमावड़ा नज़र आता है उससे अठारहवीं सदी में विकसित इस परम्परा की सार्थकता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ऐसा भी नहीं है कि यहाँ पर हो रही तमाम गतिविधियों के प्रति राज्य का नज़रिया आंखमूंद लेने का ही होता है बल्कि इसके विपरीत हम पाते हैं कि अधिकांश कॉफ़ी हाउस बंद होने के कगार पर नज़र आते हैं. जहाँ एक तरफ इन्हें बंद करने की कोशिशे हो रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ इस तरह की संस्थाओं की पैरोडी बनाने की भी कोशिश होती रही है.  मसलन कैफ़े कॉफ़ी डेसरीखे पूर्णतः व्यावसायिक संस्‍थान. लोकवृत की अवधारणा इस तरह की कोशिशों को अठारहवीं सदी में अर्जित स्वतंत्रता समानता और न्याय की परिकल्पना के विरोध में देखती है. इस अर्थ में हेबरमास लोकतंत्र की स्थापना को बहुत सकारात्मकता और उम्मीद के साथ देखते हैं और उसके मूल्यों को पुनर्जीवित करने में लोकवृत के दायरे के विस्तार की बात कहते हैं. यहाँ यह भी स्पष्ट है कि उत्तरपूंजीवाद के मूल्य किस हद तक बूर्जुआ चेतना को भी नकार देते हैं.

हेबरमास बताते हैं कि इन अड्डों पर होनेवाली बहसों,परस्पर आरोप प्रत्यारोप, दृष्टि की भिन्नता बूर्जुआ चेतना में नये सुराख़ पैदा करती थी. लोकवृत की अवधारणा बूर्जुआ जीवन में मौजूद द्वंद्ध को गहरा करती थी और इस तरह पूंजीवाद के सामाजिक विरोध का वातावरण निर्मित होता था. हेबरमास के अनुसार इसे सिर्फ वर्गीय अवधारणा के सामान्यीकरणों के तहत नहीं समझा जा सकता है. एक तरह से यहाँ स्पष्ट है कि हेबरमास मार्क्सवाद का क्रिटिक प्रस्तुत करते हैं लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए भी हेबरमास सकारात्मकता को नहीं छोड़ते और न ही आलोचना को एकांगी बनाते हैं. वे कहते हैं बूर्जुआ जीवन के सकारात्मक पक्षों की प्रशंसा स्वयं मार्क्स ने की थी लेकिन उनके मूल्याङ्कन में कहीं न कहीं उनका राजनीतिक चिंतन हावी हो जाता है. उनके समर्थकों ने बूर्जुआ की अवधारणा को मूलतः राजनीतिक सन्दर्भों में ही देखने का प्रयत्न किया. आज भी कम्युनिस्ट दायरे में मध्यवर्ग की भूमिका को लेकर एक खास तरह की दुविधा नज़र आती है साथ ही यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि बीसवीं सदी में मार्क्स के अनुयायियों ने मार्क्स के समूचे अवदान को उनकी राजनीतिक आर्थिक व्याख्या तक रिड्यूस करने का प्रयत्न किया. हेबरमास लोकवृत की अवधारणा के माध्यम से यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि बूर्जुआ समाज का एक तबका अपनी वर्गीय सीमाओं के प्रति सचेत भी रहा और उसने समय समय पर पर उसे चुनौती भी दी. हम जानते हैं कि दुनिया के बड़े दायरे में बीसवीं सदी के आरम्भ में मार्क्सवाद का विस्तार इसके बगैर संभव नहीं था. एक तरह से इसी प्रक्रिया को हेबरमास सतत आलोचना की प्रक्रिया मानते हैं और वे इसे समाज के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरुरी मानते हैं.  लोकतंत्र की अवधारणा को मात्र संख्या बल तक सीमित नहीं किया जा सकता . लोकवृत का आकलन मात्र संख्या के आधार पर नहीं किया जा सकता. हेबरमास के अनुसार ये राज्य के साथ एक तनाव को रचते थे. समाज में इनकी भूमिका एक प्रेशर ग्रुप की थी. प्रबोधन की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करते हुए हेबरमास आधुनिकता और लोकवृत्त की अवधारणा को सामने लाते हैं. उनके अनुसार आधुनिकता का अर्थ है स्थापित की आलोचना.  

फूको ज्ञान- ताकत के अनुशासनात्मक विकास के माध्यम से एक अभेद्य वृत्त को रचते है.  हेबरमास के लोकवृत्त की अवधारणा उसमें सुराख़ कर देती है. आधुनिकता की जिस आलोचना से फूको ज्ञान और ताकत के अन्तर्सम्बन्धों के ऐतिहासिक विकास तक आते हैं. हेबरमास उसे अपर्याप्त मानते हैं.  मार्क्स की वर्गीय अवधारणा की सीमाओं का उल्लेख करते हुए फूको सत्ता के चरित्र को पूर्णतः राजनीतिक और आर्थिक मानने से इनकार करते हैं. फूको सत्ता के चरित्र में ज्ञान- ताकत के वर्चस्व को एक नई प्रवृत्ति के इजाद के रूप मेंव्याख्‍यायित करते हैं, परन्तु ऐसा करते हुए फूको अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के चरित्र में आए परिवर्तन को नज़रंदाज़ कर देते हैं और एक तरह से संस्थाओं के विकास क्रम में ताकत के अभ्युदय को एकांगी विकास के तौर पर लक्षित करते हैं. हेबरमास के अनुसार अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के प्रबोधन में एक मूल अंतर है. जहाँ अठारहवीं सदी का प्रबोधन ज्ञान का अंतर –अनुशासनीय चरित्र विकसित करता हैं- स्वतंत्रता समानता और न्याय की अवधारणा जिसके मूल में मौजूद होती है- वहीँ उन्नीसवीं सदी में ज्ञान पर विज्ञान और तकनीक का वर्चस्व हावी होने लगता है. और इस तरह प्रबोधन की चेतना एक वर्चस्वादी चेतना के रूप में विकसित होने लगती है.

अठारहवीं सदी के आखिर में बूर्जुआ क्रांति ने नये समाज की नींव रखी.  बूर्जुआ क्रांति ने जहाँ एक ओर पुराने सामंती मूल्यों को नकार दिया वहीँ मनुष्यता और समाज की नई परिकल्पना भी प्रस्तुत की. ऐसा नहीं था कि यह कोई पूर्णतया नई अवधारणा थी या यह अंतर्विरोधों से मुक्त परिकल्पना थी.  दरअसल बूर्जुआ समाज ही अंतर्विरोधों से भरा था ,लेकिन इन अंतर्विरोधों का महत्व इसलिए था कि ये एक गतिशीलता को रचते थे. इस गतिशीलता ने नवोदित सत्ता वर्ग के प्रति अंतर्विरोधों से भरा समबन्ध विकसित किया. यही से सत्ता और समाज के बीच एक नया तनाव विकसित हुआ.  समाज का सम्पूर्ण नियंत्रण अब किसी एक वर्ग के हाथ में नहीं रह गया था. वर्गीय अंतर्विरोधों द्वारा निर्मित तनाव राज्यसत्ता के वर्चस्व को चुनौती देते थे.  इसी अर्थ में अठारहवीं सदी की राज्यक्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसने सत्ता और समाज के नये संबंधो को विकसित होने दिया. इस संबन्ध में कोई एक पक्ष सर्वत्र बलशाली हो ऐसा संभव नहीं था. समाज की परिकल्पना एक नया संदर्भ विकसित करने लगी. समाज का बदलता रूप नये प्रतिमानों की मांग करने लगा. स्वतंत्रता,समानता और न्याय की अवधारणा किसी एक वर्ग के ही पक्ष में आरम्भ में रही हो,ऐसा नहीं था. अगर मार्क्स, मार्क्सवाद के विकास में ऐतिहासिक परिस्थितियों को महतवपूर्ण बताते हैं तो उन ऐतिहासिक परिस्थितियों के निर्माण में समाज के इस नये रूप की महत्वपूर्ण भूमिका थी.  

कल्याणकारी राज्य की अवधारणा इसी तनाव का सकारात्मक परिणाम थी. सत्ता पर दबाव निर्मित करने वाले प्रेशर ग्रुप समाज के भीतर से विकसित हुए.  हेबरमास लोकवृत्त की समूची अवधारणा का विकास इसी अंतर्विरोध को ध्यान में रखते हुए करते हैं और यह बताते हैं कि इन अंतर्विरोधों में मौजूद गतिकी समाज को प्रगतिशील बनाये रखती थी. इसी को वे आधुनिकता के रूप में पहचानते हैं. लेकिन धीरे धीरे समाज और सत्ता के अंतर्विरोधों की दिशा बदलने लगी. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते आते सत्ता का स्वरुप एक नये वर्चस्व में तब्दील होने लगा. ऐसा क्यों हुआ? हेबरमास के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन्नीसवीं सदी विज्ञान और तकनीक की सदी साबित हुयी.  तार्किकता (rationalism )को वैज्ञानिक ज्ञान (logic)का पर्याय बना दिया गया.  नई तार्किकता के इस संकीर्ण दायरे से लोकचेतना बाहर होती चली गयी और समाज के वर्चस्वशाली वर्ग ही समाज के प्रतिनिधि बनकर उभरने लगे. अगर ऐसे में यह प्रतिनिधि चेहरा साम्राज्यवादी लूट की तरफ मुड़ गया तो हैरानी की बात नहीं. हेबरमास के अनुसार अठारहवीं सदी में विकसित तार्किकता नैतिक बोध को प्रश्रय देती थी. उन्नीसवीं सदी में ज्ञान के दायरे से नैतिकता को बाहर कर दिया गया है.

रोजा लक्जमबर्गके इस प्रश्न का जवाब यहाँ ढूंढा जा सकता है, जहाँ वे पूछती हैं कि क्या साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अनिवार्य परिणति है. अगर हम हेबरमास की और रुख करें तो उनका स्पष्ट मानना है कि अगर अठारहवीं सदी में मौजूद लोकवृत्तउत्तरोतर कमजोर नहीं होता, राज्य और समाज के बीच तनाव कायम रहता तो राजसत्ता वर्चस्व का रूप नहीं इख्तियार करती.

डायलेक्टिक्स ऑफ़ एनलाइटेनमेंटके हवाले से देखें तो ऐसा लगता है कि एडोर्नो प्रबोधन की प्रक्रिया में जिस द्वंद्ध को देख रहे थे उसे ही हेबरमास समाज और सत्ता के बीच मौजूद द्वंद्ध के रूप में चिह्नित करते हैं. एडोर्नो के लिए उन्नीसवीं सदी का वर्चस्व प्रबोधन की द्वन्द्वात्मकता की अनिवार्य परिणति है और इसलिए वे इस द्वन्धात्मकता को एक नकारात्मक द्वंद्ध में बदलता हुआ पाते हैं. हालाँकि हेबरमास प्रबोधन में मौजूद द्वंद्वात्मकता की पहचान के लिए एडोर्नो के महत्व को स्वीकारते हैं लेकिन एडोर्नो जिस नकारात्मकता के बिंदु पर पहुँचते हैं हेबरमास वहां से स्वयं को एडोर्नो की व्याख्या से अलग करते हैं. हेबरमास का स्पष्ट मानना है कि बीसवीं सदी के आखिर में भी यह तनाव (सत्ता और समाज के बीच) समाप्त नहीं हुआ है कमजोर जरुर हुआ है. ऐसे में जरुरत इस बात की है कि इस तनाव को पुनर्सृजित किया जाये. अठारहवीं सदी की अधूरी रह गयी परियोजना को पूरा करने का कार्य वर्तमान में किया जाना चाहिए. फूको वास्तव में एडोर्नो की नकारात्मक द्वन्धात्मकता की ही अवधारणा से आगे बढ़ाते हुए एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ वे इस तरह के किसी द्वंद्ध से ही इंकार कर देते हैं. यह एक तरह का उत्तर-संरचनावादी रुझान है, जहाँ हेबरमास के अनुसार एडोर्नो कभी भी जाना पसंद नहीं करते. हेबरमास कहते हैं एडोर्नो के लिए  ऐसा करना क्रिटिकल थ्योरीकी विरासत से दगाबाजी करना होता.  

हेबरमास के लिए बीसवीं सदी अगर उत्तर सदी साबित होती है तो इसके मूल में उन्नीसवीं सदी की वर्चस्वादी अवधारणा रही है. इसे आधुनिकता के संकट के रूप में देखना आधुनिकता की मूल चेतना को ही नकारना है हालाँकि अधिकांश उत्तराधुनिकतावादी आधुनिकता के संकट को इसी रूप में देखते हैं. तो क्या यह  नहीं मानना चाहिए कि हेबरमास यूरोपीय औपनिवेशिक चेतना का ही विस्तार उत्तरपूंजीवादी वर्चस्व में पाते हैं. वे बताते हैं कि पूंजी का वर्चस्व समाज के भीतर लालसा,लिप्सा एवं घृणा को पैदा कर रहा है और इससे लड़ने का रास्ता आधुनिकता की पगडंडी से होकर गुजरता है.  

हेबरमास तर्क की परम्परा को पुनर्जीवित करने की मांग रखते हैं.  वे कहते हैं संवाद की कोई भी स्थिति तर्कहीन होकर संभव नहीं है. तार्किक होकर ही सम्वाद को सुनिश्चित किया जा सकेगा. संवाद के लिए समान जमीन की तलाश तार्किकता ही है. वायवीयता सम्वाद को कमजोर बनाती है. उनके अनुसार आधुनिक होने की कड़ी में संवाद कायम किया जा सकता है.  समाज के भीतर संवाद की स्थिति बनी रहे इसके लिए जरुरी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का बचाव किया जाये. बीसवीं सदी में समाज में मौजूद द्वंद्वात्मकता को विनष्ट किया जा रहा है.  द्वंद्धहीन समाज कभी भी न तो आधुनिक हो सकता है और न ही उसमे संवाद की कोई स्थिति बनती है. एक बातचीत के दौरान हेबरमास कहते हैं तर्क की भूमिका यह नही है कि वह महज़ सत्य के प्रति जिम्मेदार रहे, बल्कि तर्क की भूमिका यह भी होनी चाहिए की वह तार्किक क्षणों की एकता कायम करें जिसे तीन रूपों में कांट ने बिलगाया  है –सैद्धांतिक तर्क की एकता के साथ-साथ व्यव्हारिक नैतिक अंतर्दृष्टि और सौंदर्यबोध”(Autonomy and Solidarity  pg 101 ) 

हेबरमास इस बात को स्पष्ट करते हैं कि तर्क की भूमिका समाज के लिए रचनात्मक तभी हो सकती है जब हम उसे संकीर्ण सन्दर्भों में इस्तेमाल न करें.  वास्तव में तर्क की भूमिका सत्य की बहुस्तरीयता, नैतिक,व्यावहारिक एवं सौन्दर्यबोध इन तीनों की एकता कायम करने में हैं.  सामाजिक तार्किकता को वे वास्तविक तर्क के रूप में रखते हुए बताते हैं कि जब हम विज्ञान के दायरे में सच को रखते हैं तो उसका संकुचित सन्दर्भ ही निर्मित होता है, सत्य का जुड़ाव उस सिद्धांत से है जहाँ अब तक नैतिकता एवं सौंदर्य बोध को अलग नहीं किया जा सका, इसलिए सत्य की बहुस्तरीयता की परिकल्पना ही मनुष्य के बोध को तार्किक बना सकती है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया जिसका वास्तविक प्रतिफल है. वे लोकतंत्र के प्रश्न को तर्क के विकासवादी स्वरुप से जुड़ा प्रश्न मानते हैं. उनके अनुसार “बूर्जुआ व्यवस्था की न्याय और संवैधानिक व्यवस्था एवं राजनीतिक संस्थाओं का स्वरुप एक नैतिक व्यव्हारिक चिंतन को सुनिश्चित करता है, इसे नैतिक न्यायिक-राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण में प्रभावी मानना चाहिए.” (Autonomy and Solidairity  pg 102)  इसमें आगे जोड़ते हुए वे कहते हैं अगर कोई मार्क्स को सही ढंग से पढ़े तो पायेगा कि बूर्जुआ राज्य व्यवस्था में अंतर्गुम्फित कुछ विचारों को ही सामाजिक व्यवस्था में तब्दील किया जा सका है.

मार्क्स की इतिहास की अवधारणा को भी हेबरमास एक तरह के सरलीकरण के तौर पर देखते हैं. उनके अनुसार मार्क्स वर्गीय दृष्टिकोण को विकसित और मूर्त करने के लिए क्रमिक इतिहास की अवधारणा को सामने लाते हैं. ऐसे में वे जिन सामान्यीकरणों का सहारा लेते हैं उसके परिणामस्वरूप बहुत से ऐसे ऐतिहासिक विचार- बिंदु हैं जिसे वे महत्व नहीं देते ,लेकिन लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया में वे प्रभावी हो जाते हैं. दूसरी तरफ वे उस इतिहास दृष्टि को भी नकारते हैं जो इतिहासबोध को ही ख़ारिज करती है, मसलन वाल्टर बेंजामिन और ब्लोक की अराजकतावादी इतिहास दृष्टि. हेबरमास की इतिहास दृष्टि न तो पूर्णतया किसी निरंतरता को स्वीकारती है और न ही किसी किस्म की सम्पूर्ण अराजकता को ही इंगित करती है. उनके अनुसार इतिहासबोध दोनों अतिवादी दृष्टियों के मध्य मौजूद होता है. स्पष्ट है कि हेबरमास इतिहास की अवधारणा को भी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं और इतिहास की परिकल्पना को एक जटिलता में बदल देते हैं .

इतिहास की इस जटिलता की शिनाख्त करते हुए वे सामाजिक परिवर्तन की बेहद महत्वपूर्ण व्याख्या हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं.  वे कहते हैं आधुनिकता को अगर हम ऐतिहासिकता के परिप्रेक्ष्य से देखें तो राज्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. कार्यपद्धति को दो हिस्सों में विभक्त कर दिया गया. प्रशासनिक शक्तियां और विनिमय मूल्य. इन दो हिस्सों को एक जटिल संरचना में तब्दील कर दिया गया. जीवन जगत को संवादहीनता की स्थिति तक ले जाया गया. इस प्रकार राज्य और अर्थव्यवस्था अनिवार्य रूप से उत्तरोत्तर विकास के साथ एक जटिल संरचना अख्तियार करते चले गये.यही वह बिंदु है जिसे नव-रूढ़िवादी नहीं देख पाते हैं.  इसी से जुड़ा दूसरा पहलू है जो कि रोजमर्रा के जीवन का सामाजिक - तार्किक – मनोवैज्ञानिक स्वरुप है. आन्तरिक औपनिवेशीकरण के नाम पर जीवन पद्धत्ति की वकालत .......... एक पक्ष ऐसा उत्तराधुनिकता के नाम पर करता है तो दूसरा पुनरुत्थानवादी मूल्यों को आत्मसात करते हुए प्रबोधन के मूल्यों को नकारता है ........ मेरा संकट यह है कि दोनों प्रक्रियाएं उन सबको नष्ट कर रही हैं जिसे बचाना चाहिए, क्योंकि यही पश्चिम की मूल्यवान आधुनिक परम्परा है और उसकी मूल्यवान विरासत” (Autonomy and Solidairity  pg 107)

हेबरमास वर्तमान में मौजूद उन दो तत्वों की पहचान करते हैं जो आधुनिकता को अप्रासंगिक बनाते हैं एवं उसके मूल्यों को नकारते हैं. वे इतिहास में मौजूद द्वंद्ध को इतिहास के विकासक्रम के रूप में देखते हैं. उन्हें लगता है जब जब द्वंद्ध को नकारा जाता है और बाहरी तौर पर समन्वय की स्थिति प्रस्तुत की जाती है,एक विकृत इतिहासबोध पैदा होता है. उत्तराधुनिकता  को वे इसी तरह की ऐतिहासिक स्थिति में पाते हैं. वे सवाल उठते हैं कि उत्तर आधुनिकतावादियों की मंशा क्या है ? समाज के आर्थिक राजनीतिक प्रश्नों से उनका रिश्ता क्या है? कहीं उत्तराधुनिकता और गैर आधुनिकता के छोर मिलते तो नहीं ? यही वह बिंदु जहाँ हेबरमास समाज में मौजूद तर्क की चेतना एवं लोकवृत्त की अवधारणा को पूंजीवादी वर्चस्व के नकार के लिए अनिवार्य मानते हैं. वे सतत आलोचना की परम्परा और संवाद की बहुस्तरीयता को पूंजीवादी वर्चस्व के घेरे से बाहर निकलने के अग्रिम दस्ते के रूप में देखते हैं. हेबरमास आधुनिकता को विकल्प के रूप में ही नहीं बल्कि किसी भी विकल्प की चेतना के आरंभ के रूप में भी देखते हैं.  इस ठन्डे बेजान और द्वंद्धहीनता के दौर में हेबरमास मार्क्स हीगेल और कांट की बहुस्तरीय तार्किकता को मनुष्य की मुक्ति के अनिवार्य उपक्रम के रूप में देखते हैं.  ठीक भी है, आखिर आधुनिकता का विकल्प भी क्या है !

सहायक ग्रन्थ :
1 Main currents of Marxism, Leszek kolakowski, vol 2 , Oxford university press,1978
2 The politics of historical vision, Steven Best, The guilford press ,1995
3 Structural transformation of the public sphere :  An inquiry into a category of Bourgeois society , Jurgen Habermas, Mit press ,1991
4 Dialectics of enlightenment, Adorno , Horkhimier, Stanford university press ,2002
5 Autonomy and Solidairity, interviews with Jurgen Habermas, edited by Peter dews, Verso,1992
6 The philosophical discourse of modernity , Jurgen Habermas, Polity press ,1998

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अच्युतानंद मिश्र का आलेख - फूको :  (ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास) भी पढ़ें.        

सहजि सहजि गुन रमैं : नूतन डिमरी गैरोला

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नूतन डिमरी गैरोला  की इन कविताओं में उनकी काव्य – यात्रा का विकास दीखता है. संवेदना  और शिल्प  दोनों ही स्तरों पर वह परिमार्जित हुई हैं. कविताएँ अनुभवों की सघनता और सच्चाई से आश्वस्त करती हैं. लगभग सभी कविताओं में उनका ‘लोकल’ है. इस स्थानीयता के खुरदरेपन से वे अपना एक संदर्भ पाती हैं और हस्तक्षेप करती हैं. 
उनकी पांच कविताएँ.

नूतन डिमरी गैरोला की कवितायेँ               


सोच
संघर्षों की कथा जीने की कथा है
कि नहीं की जाती है हर कथा हर बार दर्ज
नहीं होता है उनका कोई दस्तावेज़ कोई लेखाजोखा


गर्म हुए लोहे पर चलते हथौड़े की तरह
शीत युद्ध में व्याकुल विचारों की तरह
दिमागों में रिश्तों के, जातियों के, नीतियों के, समाजो के, भाषा के, राष्ट्रों के, स्त्री पुरुष के
जुगुप्सा भरते हुए दृश्य.
नहीं मिलेगा इनका कोई निशान
किसी सफे पर या किसी संगणक में.

दर्ज किये गए आख्यान और मुद्रालेख
किसी तिरोहित कुंजी के लिए अभिशापित हैं
जिनको डीकोड करना यूँ आसान नहीं कि कह दो खुल जा सिम सिम
और दस्तावेज चाबी के बाद हाज़िर हो जाएँ.

ये खुलेंगे जैसे खुलने पर भीतर टिमटिमाता हो एक विचार.

वह जितना विरोध करते हो उतना ही शक्तिशाली हुए जाता हूँ मैं
विरोध के इन संघर्षों ने मुझे कन्धों पर टिका नहीं दिया है कि लिए जा रहे हो मेरी लाश ......
सहस्त्र हाथ ऊपर से मैं जा टिका हूँ उनके मस्तिष्क पर
इसे नफरत कह लो या मेरे लिए प्यार
कभी जब सहलाता हूँ मैं उनका माथा
उनकी धमनियों में उबलता हूं मैं और किसी के विचारों में किरकिराता हूँ
कभी गुद्दियों में खुजलाता हूँ मैं
मुझे मालूम है मैं स्वीकार्य नहीं
कि उनके लिए ज्यादा अनिवार्य है
विरोध और संघर्ष की छद्म आग को हवा देना कि उनका सूत्रपात वहीँ से होता है
नजरअंदाज कर दिया जाता हूँ या
गुमनाम रख दिया जाता हूँ मैं
कि जैसे अनाम रख दिया जाता है कोई नाम और उसका लेख
और वहीँ कहीं अंधेरों में दफ़न कर दिए जाते हैं विचार
कुण्डियों वाले कपाटों के तहखानों में.

मैंने देखा है अक्सर हुंवा हुंवा करता सियारों का सरदार
कि सारे सियार जिसके पीछे पीछे मुंह फाड़ कर हुंवा हुंवा कर शोर मचाते हैं
अर्थ जो भी हो उन विकट स्वरों का
एक अकेला कुत्ता गली का दुम दबा कर छुप जाता है
चिंचियाता-सा
सियार जब चले जाते हैं कुत्ता सौ बार सोचता है भौकने से पहले
अबकी बार उसे भी शामिल होना होगा
सड़क पर गिरोह बना कर चलने वाले लेंडी कुत्तों में|




स्त्रियाँ
 गुजर जाती हैं अजनबी जंगलों से
अंधेरों में भी
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वह जानती हैं

सड़क के किनारे तख्ती पर लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है
और वह पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा


फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों के बीच से 
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं

यह कि
सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है





 पहाड़ की वह दुकान
लाल नाक को ऊँगली के पोरों से गरम करते हुए
जैसे पूरी एवरेस्ट की ठंडी चोटी भींच ली हो हथेली में
कि पिघलनी हो बरफ बाकी
और उंगलियाँ ठण्ड से थरथराती हों
फिर भी पहाड़ की चोटियों में उतरते चढ़ते हुए
गरमी का अहसास भरते लोग,
कि याद आते हैं
चाय के गिलास
जिन्हें हाथों में थाम पहाड़ी सड़कों के किनारे चाय का सुढका मारते दिन  ,
एक सौंधी खुशबू, मिट्टी लिपी केतली की
और चीड़ से उठते धुंवे की,
छोटा सा वह कमरा
जिसमे आधा उकड़ू आदमी भर खड़ा हो सकता है

कि मिट्टी के फर्श से थोड़े ही ऊपर होती है लकड़ी की छत
गुनगुने को सिमटा के रख लेती थी जो खोखे के आलिंगन में .....
एक अदद लकड़ी के चौड़े फ्रेम की संकरी लम्बानुवत खिड़की
धूप के साए रेशा रेशा हो आते हो भीतर पर ठंडी हवाओं की नो एंट्री

फिर वहीँ पर गर्म गर्म पकोड़े जलेबी छोले हलुवा
अदरक मिली चाय के साथ
लकड़ी की बेंच और खपची पर अटकी मेज जिसकी टांगें हिलती हुई
छिड़ती थी वहीँ बात मनसुख की बाँझ गाय की और नरबक्षी बाघ की
बाघ को शिकार बनाया गया था, जहाँ जरिया गाय की मृत देह थी जहर से भरी हुई
बाँझ थी किसी काम की न थी
और उस रीछ के  आतंक के किस्से  जिसने
परसों खेत में निवृत होने जाती सोणीदेवी के
चेहरे पर एक पंजे का वार किया था
और निकाल डाली दी थी आँख उसकी

शहर अस्पताल ले जाने के लिए गाँव वालों को कोई आँख न मिली थी
कोई बस वहां खड़ी नहीं थी, न ही कोई सड़क थी वहां
और वहीँ चाय के खोखे में कोई ट्रेकिंग  के लिए
चाय के ग्लास के साथ पहाड़ का नक्शा उतार लेता था
कि कौन सा रास्ता कम खतरनाक और छोटा हो
गाँव और खेतों से कई पहाड़ ऊपर
उसे देखने हैं बुग्याल, करने है पार ग्लेशियर और पहुंचना है स्वर्गारोहिणी
स्वर्ग की सीढ़ी

और उधर कहीं पहाड़ पर बच्चे
तेरी भाप ज्यादा की मेरी भाप ज्यादा
पहाड़ी कोहरे पर  भी भाप भाप खेलते
चाय के सिप के साथ उत्तेजित हो
जीत और पराजय का आनंद लेते
मुंह से भाप उड़ाते हुए

.और वहीँ. सेवा सौली लगाते लोग


मीलों लम्बी छुईं बातें करते अघाते नहीं
पर  हाँ  बात बात पर कानों तक हँस आते थे वो लोग...

वह जो एक चोटी से
गाँव के बीच अपनी बात पहुंचाते
कि बेतार के तार सदियों से झूल रहे थे वहां 
और दौड़ लगा कर देते थे जवाब
और जिरह छिड़ती एक चोटी से दूसरी चोटी तक  
उन तीखे पहाड़ों के बीच ठीक ऊपर छोटा सा एक टुकडा आसमान का होता
ठीक नीचे धरती पर जिंदगी खूब हरी हरी भरी भरी


उधर एक मेट्रोपोलीटटन सिटी के
होटल हौलीडे फन में
एसप्रेसो के शोर में

चाहते हुए भी कपाचीनो के फेने को सुढक लेना आसान नहीं
कि तहजीब इजाज़त नहीं देती
जरूरत के हिसाब से मुस्कान भी नाप तोल कर आती हैं वहां
आदमी आदमी बने रहने के लिए 
आदमीपन को छोड़ देता है 
आवाज दबा कर धीमे बोलना
मुंह बंद कर खाना खाना सीख लेता है

मिल्क पावडर, टी बेग, बॉयल्ड वाटर
मिक्स इट ( मिलाओ इसे ) एंड देन हेव इट
ओह ! चाय की प्यास बुझती नहीं
एक ग्लास चाय रेडीमेड टी की तलब में
याद आता है
किस्से कहानियों बहस वार्तालापों का स्थल
पगडण्डी के किनारे ही
तिम्ला के डाल के नीचे
गाँव में रहने वाले
रामलसिंह का टी स्टाल

तिम्ला का पेड़ काट लिया गया था चार साल पहले
क्योंकि वह सड़क के नक़्शे के भीतर था
और रामसिंह का टी स्टाल तीन साल पहले
जोरजबरन
गाँव को आने वाली सड़क की भेंट चढा गया
और रामसिंह

सुना है कि दो साल पहले
उसी सड़क के रास्ते
गाँव छोड़ कर नौकरी की तलाश में चला गया वह
अब एक मेट्रोपोलिटीन सिटी के बहुत बड़े होटल में
बर्तन  धो रहा है.






अफवाहों के किस्से

तुम उस रोज मत्स्य कन्या पर बात कर रहे थे
तुम्हें मत्स्य कन्या बरबस खिंच लेती थी अपनी ओर
सो तुमने गढ़ी थी कितनी कहानियां
अफवाहों का बाजार गर्म था
नौचंदी की झील पर रोज मत्स्यकन्या आती थी मिलने तुमसे
पूरी चाँद की रात में
सिर्फ तुमसे ही मिलती
तुमको ही दिखती
ऐसा लोग मानते थे

एक रात अमावस के अन्धेरे में तुम्हारी आँखों में शोले भभके थे
तुम जिस रोज हमारे घर आये नए एक्वेरियम पर नजरे गढ़ायें बैठे थे घंटो
मैंने देखा था उस रात हमारे खाने की प्लेट में भी मछली थी
बस तुम चुप हो गए थे
फिर कभी नहीं सुनी मत्स्यकन्या की कहानी
तुम्हारी जुबानी
तुम गुम गए थे


लोगो ने बताया था
वटकेशर का फकीर
जो रात झील किनारे बिताता था
दिन में किस्से सुनाता था
उस अमावश की रात को वह
नौचंदी की झील में डूब गया

कोई कहता था उसे तैरना नहीं आता था
और उसने जलसमाधि ली थी
कोई कहता था
उतर गया था वह झील में
मत्स्यकन्या उसे लेने वहां आई थी
कोई कहता था वह मछुआरा था
पूरनमासी को जाल डालता था
एक दो कहते थे
वह चीन के लिए मुखबिरी करता था.


खालीपन 


डब्बे में लबालब भरी थी हवा, फिर भी डब्बा खाली था
याद आयीं मुझे वे खाली बोतले जो रख ली जाती थी फ्रीज में
बेहद गर्मी में बुझाती थी प्यास
और फिर से हो जाती थी खाली
और अंत में उनका होना, घर के किसी कोने में खालीपन लिए
एक अदद कबाड़ी का इन्तजार भर हो जाता था.

याद आया घर का खाली कोना
जो गवाह था
आते जाते उन लोगो का जो भीतर से खाली थे
जो मुस्कुराते थे हाथ हिलाते मिलाते थे
और मिलते थे गले भी
जो घर में
फ्रीज में रखी बोतलों से उन दिनों प्यास बुझाते थे और चले जाते थे
घर अक्सर खाली था
उनके साथ भी उनके बाद भी ...
ऐसे में याद आई वह स्त्री
जो
ढूंढ ढूंढ के बोतलों में भरती थी पानी, रखती थी फ्रीज में
जिसे तलाश रहती किसी चमत्कार की
जैसे वह भर देना चाहती थी मन को
वह घर का कोना कोना भर  देना चाहती थी
रंगों से खुश्बू से पानी से जीवन से
बहा देना चाहती थी हवाओं में प्रेम भरा एक राग
वह चाहती थी आँगन हो भरा भरा हरा हरा.

पर वह टूट चुकी थी
खाली बोतल सी वह  
वह भीतर से खाली थी.



___________________________________
डॉ नूतन गैरोला,  चिकित्सक (स्त्री रोग विशेषज्ञ)समाजसेवी और लेखिका हैं. गायन और नृत्य से भी लगाव.  पति के साथ मिल कर पहाड़ों में दूरस्थ क्षेत्रों में निशुल्क स्वास्थ शिविर लगाती रही व अब सामाजिक संस्था धाद के साथ जुड़ कर पहाड़ ( उत्तराखंड ) से जुड़े कई मुद्दों पर परोक्ष अपरोक्ष रूप से काम करती हैंपत्र पत्रिकाओं में कुछ रचनाओं का प्रकाशन.

nutan.dimri@gmail.com

विष्णु खरे : जो आत्मकथा साहित्यिक-फ़िल्मी इतिहास बनाएगी

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क्या आप ने किशोर साहू का नाम सुना है? क्या आपको पता है २२ अक्तूबर २०१५ को उनके जन्म के १०० साल पूरे हो रहे हैं? शायद आपको यह भी ज्ञात न हो कि उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो अब तक विलुप्त थी (अप्रकाशित तो थी ही). इस आत्मकथा में हिंदी सिनेमा का एक पूरा युग है. इस आत्मकथा की तलाश के इस उद्यम के सिलसिले को पढ़ते हुए आप उसी उत्तेजना को महसूस करते हैं जो किसी ऐतहासिक वस्तु के पाने पर होती है.
विष्णु खरे के ‘शब्द और कर्म’ की जितनी भी सराहना की जाये कम है.



जो आत्मकथा साहित्यिक-फ़िल्मी इतिहास बनाएगी           
विष्णु खरे 



भाषा हिंदी हो, उर्दू या अंग्रेज़ी, मुंबई की फ़िल्मी दुनिया को ज़्यादातर अनपढ़-गँवारों की जन्नत ही कहा जा सकता है. एक्टरों को जो स्क्रिप्ट और डायलॉग रोमन-हिंदी में दिए जाते हैं वह भी उनसे ठीक से पढ़े नहीं जाते. वह यह भी नहीं जानते कि ‘रोमन’ उस इबारत का नाम है जिसमें अंग्रेज़ी लिखी जाती है. साहित्य और किताबों का हाल तो बदतर है. जहाँ चेतन भगतजैसे ग़ैर-अदबी थर्ड रेट क़लमघिस्सू पुजते हों वहाँ इम्रै केर्तेसया ओर्हान पामुककी बात तो कई प्रकाश-वर्ष दूर है, कोई अब्राहम वर्गीज़और अमित चौधुरीको ही नहीं जानता. आज कोई अभिनेता-निदेशक लेखक भी हो, यह कल्पनातीत है. अधिकतर से हिन्दुस्तानी या अंग्रेज़ी में एक सही पैराग्राफ़ लिखवा लेना नामुमकिन है.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि आज ‘इंडस्ट्री’ में किसी को खबर या पर्वाह नहीं कि 22 अक्टूबर 2015 को उस किशोर साहू की जन्मशती आ रही है जिसने न सिर्फ़ 1937-80 के दौरान 25 फिल्मों में, अधिकतर बतौर हीरो, अभिनय किया, 20 फ़िल्में डायरेक्ट कीं, 8 फ़िल्में लिखीं, बल्कि चार उपन्यासों, तीन नाटकों और कई कहानियों को भी सिरजा, जो उनके जीवन-काल में ही पुस्तकाकार प्रकाशित हो गए थे. उनकी कई फिल्मों को ‘’साहित्यिक’’ कहा जा सकता है और उन्होंने आज से साठ वर्ष पहले शेक्सपिअरके सर्वाधिक विख्यात और कठिन नाटक ‘’हैम्लैट’’पर इसी शीर्षक से फिल्म बनाने और उसमें स्वयं नायक का किरदार निभाने  का लगभग आत्महंता जोखिम उठाया. उनकी प्रतिभा में फिल्म-निर्माण,निदेशन,अभिनय और साहित्य-सृजन के इस अद्वितीय संगम को देखकर ही उन्हें ‘’आचार्य’’ की अनौपचारिक, लोक-उपाधि दी गई थी.

लेकिन पिछले दिनों एक ऐसी घटना घटी है जिससे विश्वास होता है कि किशोर साहूकी ख्याति और ‘’आचार्यत्व’’पर उनकी असामयिक मृत्यु के पैंतीस बरस बाद  काल अपनी अंतिम, निर्णयात्मक मुहर लगा कर ही रहेगा. रायपुर के छतीसगढ़ लोक संस्कृति अनुसंधान संस्थान तथा ‘क्रिएटिव क्रिएशन’ से जुड़े हुए रमेश अनुपम, संजीव बख्शी तथा आकांक्षा दुबेआदि लगातार इस प्रयास में हैं कि प्रदेश में किशोर साहू की जन्मशती के उपलक्ष्य में  राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोजन हो जिसमें उनके निजी और सिनेमाई परिवार के सदस्य आमंत्रित हों, उनकी चुनिन्दा फ़िल्में दिखाई जाएँ, संगोष्ठियाँ हों और अन्य बातों के अलावा किशोर साहू की पुस्तकों का, जो अप्राप्य हैं, पुनर्प्रकाशन हो और हिंदी साहित्य में उन्हें वह स्थान मिले जिसके योग्य वह समझी जाएँ.

राजेन्द्र यादवके एक संस्मरण से यह तो मालूम था कि किशोर साहू ने अपने देहावसान से पहले अपनी आत्मकथा न केवल पूरी लिख ली थी बल्कि वह प्रेस-कॉपी के रूप में छपने के लिए तैयार भी थी – किशोर साहू के अध्येता इक़बाल रिज़वी,आकांक्षा दुबे,संजू साहू,शिप्रा बेगआदि इससे आगाह थे - लेकिन इतने वर्षों के बाद यदि वह है तो किसके पास है और किस हालत में है इस पर सस्पैन्स बना हुआ था. इतना अंदाज़ तो था कि यदि वह पाण्डुलिपि होगी तो किशोर साहू के जीवित और शो-बिज़नेस में सक्रिय दूसरे बेटे विक्रम साहूके पास ही मिलेगी लेकिन उन्हें खोजे और उनसे चर्चा करने की हिम्मत कौन करे. मैं चूँकि वर्षों से किशोरजी के बारे में सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में और उससे बाहर भी  चर्चा कर रहा हूँ और रायपुर का उपरोक्त  ‘साहू’-सम्प्रदाय या ‘किशोर-कल्ट’मुझे ‘’अवर मैन इन मुम्बई’’समझता है लिहाज़ा यह जोखिम मुझ पर ही डाला गया.

आख़िरकार ‘नवभारत टाइम्स’ मुंबई के सम्पादक सुंदरचंद ठाकुर, मीडिया सम्वाददात्री रेखा खान तथा कवि-सिने-पत्रकार हरि मृदुल के अथक प्रयासों से विक्रमजी से संपर्क हो सका जो चाहते तो मुझ अपरिचित से लद्दाख की ऊँचाई से पेश आ सकते थे, जहाँ तब उनकी शूटिंग चल रही थी, लेकिन उन्होंने बाद में कार्टर रोड के समुद्री धरातल से, जहाँ वह सपरिवार रहते हैं, मुझसे और रमेश अनुपम से लम्बी बात की. किशोर साहू की आत्मकथा का ज़िक्र तो आना ही था. कुछ लम्हे अपने पिता जैसी पैनी निगाह से देख कर, मानो हमें तौल रहे हों,वह फुर्ती से उठे और एक ड्रॉअर से निकालकर सेलोफेन में करीने से लपेटी हुई चार फ़ाइलें हमारे सामने टेबिल पर रख दीं.

वह क्षण ऐतिहासिक और रोमांचक था. फिर वह खुद ही उन फाइलों को खोल कर हमें दिखाने  और अतीत तथा वर्तमान की यात्राएँ करने लगे. वह अब करीब पचास बरस पुरानी शैली की  हैं, धूसर गत्ते और टीन के क्लिपों वाली, और मुझ जैसे देखनेवाले को कॉलेज और शुरूआती सर्टिफ़िकेटों, अर्ज़ियों और पहली मुलाज़िमतों के दिनों में ले जाती हैं. वह एहतियात और ख़ूबसूरती से सहेजी गई थीं. हरेक पर ख़ुद किशोर साहू ने अपनी नफ़ीस लिखावट में दो रंगों की स्याहियों से ‘पहली’ ‘दूसरी’ वगैरह का सिलसिला दिया था. अन्दर मराठी शैली के देवनागरी की-बोर्ड वाली मशीन पर दादर में कहीं टाइप करवाए गए फ़ूल्सकैप साइज़ के कोई चार सौ सफ़े नत्थी थे. कहीं-कहीं किशोर साहू के हाथ की तरमीमें भी थीं. उन्होंने इसे तत्कालीन ‘धर्मयुग’ सम्पादक धर्मवीर भारती और ‘सारिका’सम्पादक कमलेश्वर को भी पढ़वाया था और कमलेश्वर ने तो अपनी हस्तलिपि में उस पर एक टिप्पणी भी लिखी थी जिसे किशोर साहू ने पाण्डुलिपि के साथ ही रख लिया था और वह अब भी वहीं  है. सभी कुछ ओरिजिनल. वह फ़ाइलें नहीं थीं, उनमें एक अज़ीम शख्सियत की ज़ाती ज़िन्दगी तो थी ही, हिंदी सिनेमा के तीन चरण भी महफ़ूज़ थे.

याद रहे कि किशोर साहू, जो 14 मार्च 1931 को रिलीज़ हुई पहली सवाक् हिन्दुस्तानी फिल्म ‘’आलम आरा’’को एक ‘टीन-एजर’ छोकरे की आम हैसियत से पर्दे के सामने देखकर सिनेमा के दीवाने हुए थे, सिर्फ छः साल बाद खुद फिल्मों का इतिहास बनाने और उसमें अमर होने के लिए एक बाईस बरस के मुहज्जब,पढ़े लिखे, नागपुर जैसी मशहूर यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट नौजवान के रूप में कैमरे के सामने थे और लाखों-करोड़ों दर्शकों के चहेते एक्टर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर होने जा रहे थे. अपनी सिनेमाई ज़िंदगी के 43 बरसों में उन्होंने भारतीय फिल्मों की ‘संस्कृति’ के तीन युगों को देखा, जिया और निर्मित किया था. सबसे महत्वपूर्ण तो यह था कि वह कोरे फ़िल्मी जंतु नहीं थे, एक प्रबुद्ध,जागरूक,सम्वेदंनशील,अंतर्दृष्टि-संपन्न अध्येता,कवि-कथाकार-नाट्यलेखक भी थे. दूसरी ओर उनका अपना जीवन शायद नाटकों-फिल्मों से भी अधिक उतार-चढ़ाव,जय-पराजय,ट्रेजडी-कॉमेडी की द्वंद्वात्मकता से ओत-प्रोत था.

मैं विक्रम साहूऔर रमेश अनुपमके साथ बैठे-बैठे सरसरी तौर पर जहाँ तक जितना तेज़ उस पांडुलिपि को देख-पढ़ सका उसके ब्यौरे देकर उसके जायके को बदमज़ा नहीं करना चाहता लेकिन यकबारगी शुरू करने के बाद उसे छोड़ पाना  मुश्किल है. अंग्रेज़ी लफ़्ज़ में वह ‘अनपुटडाउनेबिल’ है. देविका रानी, अशोक कुमार, शशधर मुकर्जी, दिलीप कुमार, कामिनी कौशल, नादिरा, देवानंद, राज कपूर, राज कुमार, मीना कुमारी, माला सिन्हा, आशा माथुर, बीना राय, परवीन बाबी, ओडेट फर्ग्युसन, संजय खान, मनोज कुमार, सी.रामचंद्र, शंकर-जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल,ख़ुद अपनी और दूसरों की फिल्मों के अनुभव और संस्मरण, साथ में छत्तीसगढ़, रायगढ़, राजनांदगांव, मध्यप्रदेश, नागपुर, महाराष्ट्र, मुंबई, फ्रांस, ब्रिटेन आदि के सैकड़ों हवाले और किस्से इस आत्मकथा में बिखरे पड़े हैं. यह एक सूचीपत्र भी हो सकती थी लेकिन किशोर साहू का साहित्यकार और शैलीकार इसकी पठनीयता पर अपनी गिरफ्त को कभी ढील नहीं देता. वह अपने जीवन,मित्रों-परिचितों और अपने कुटुंब और परिवार को भी नहीं भूलता. कई अन्तरंग प्रसंग भी इसके प्राण हैं.

जब यह सुदीर्घ आत्मकथा प्रकाशित होगी, हिंदी सिनेमा का इतिहास तो बदलेगा ही, इसे बच्चनजी के ‘’क्या भूलूँ क्या याद करूँ’’आपबीती-खंड की कालजयी श्रेणी में रखा जाएगा.यह हिंदी का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि प्रकाशक इसे भी छापने के लिए साहू-परिवार से सब्सिडी की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के कोई भी आत्म-सम्मानी बेटा-बेटी  ऐसा क्यों करेंगे, विशेषतः तब जब कि इसका हाथोंहाथ बिक जाना सुनिश्चित है. यदि इसका अंग्रेजी अनुवाद हो सके तो वह विश्व-सिने-लेखन को एक विलक्षण योगदान होगा.
(बाएँ से दाएँ विष्णु खरे,विक्रम साहू और
रमेश अनुपम )

भारत के फिल्म-अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए तो यह अनिवार्य पाठ्य-पुस्तक सिद्ध होगी. लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि छत्तीसगढ़ की जनता, लेखक-बुद्धिजीवी, सिनेमा-कलाप्रेमी, फिल्म-निर्माता, मीडियाकर्मी और, सर्वोपरि, रमण सिंह सरकार अपने इस राष्ट्रीय गौरव की जन्मशती उपयुक्त गरिमा और कल्पनाशीलता के साथ मनाना चाहते भी हैं या नहीं. पिछले वर्ष एक मंत्री किशोर साहू की स्मृति से चंद्राकार विश्वासघात कर चुका है. कुछ भ्रष्ट तत्व इससे भी कमाई करना चाहते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ के लिए यह एक सबसे बड़ा सांस्कृतिक कलंक होगा कि एक महान छत्तीसगढ़ी प्रतिभा की कालजयी संभावनाओं वालीयह आत्मकथा उसके इस जन्मशती-वर्ष में प्रकाशित न हो पाए.
_________________________________________
(विष्णु खरे का कॉलम, नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

सहजि सहजि गुन रमैं : मोनिका कुमार

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मोनिका कुमार की कविताएँ आप 'समालोचन'पर इससे पहले भी पढ़ चुके हैं. प्रस्तुत है उनकी छह नयी कविताएँ. टिप्पणी दे रहे हैं अविनाश मिश्र   







मोनिका कुमार की कवितायेँ                                       




(एक)
बेवजहअनानासखरीदलेतीहूंमैं 
मुलायमफलोंकेबीचइसकीकांटेदारकलगी 
मुझेशहरकेबीचजंगलकीयाददिलातीहै
दोस्तोंकोखिलाएहैंमैंनेअनानासकेकईनमकीनऔरमीठेव्यंजन 
बाकायदाउन्हेंबतातीहूंयहस्वास्थ्यकेलिएकितनागुणकारीहै 
कायदेसेमैंनेइसकेगुणोंपरकोईलेखनहींपढ़ाहै
ज्ञानकीमौखिकपरंपराठेलतेहुएमैंसमाजकेभीतरसुरक्षितरहतीहूं  

अनानासकीजंगलीसुगंधसपाटबयानीकरतीहै 
किअवसादकोपालतूहुएअबअर्साहुआ 
इसेबाहरआनेकेलिएदीवान--गालिबकेअलावा 
जुबानकोउकसातीहुईकुछचुभनचाहिए 
चुभतीहुईजुबानसेऔरअनानासकेसहारे 
क्यूंदोस्तोंसेआजयहकहदियाजाए 
सीनेमेंइतनेसमंदरउफनतेहैंदोस्तो 
हमारीदोस्तियोंकेअनुबंधइन्हेंसोखनहींपाते 
गालिबकेनामलेवाओं केबीच 
घरकेबाहरफुदकतीगिलहरियोंकीयादआतीहै 
यहअनानासकाकोईअद्वितीयगुणहै 
जरूरीचीजोंकीलिस्टबनातेहुएकभीयादनहींआता 
घरइसकेबगैरऐसेचलताहैजैसेजीवनकीखुशीमेंइसकाकोईस्थाननहीं 
घरप्रेमकेबगैरभीचलनेलगताहैजैसेजीवनकीखुशीमेंइसकाकोईस्थाननहीं 
फिरभीइन्हेंदेखतेहुएमैंइनकीओरऐसेलपकतीहूं
जैसेमैंकेवलप्रेमकरने
और
अनानसखानेहीदुनियामेंआईथी. 





(दो)
मैंऔरमेरेविद्यार्थी
सप्ताहमेंछहदिन 
ठीक 9 बजे 
35 नंबरकमरेमेंपहुंचजातेहैं 
वेमेरास्वागतकरतेहैं 
मैंउन्हेंधन्यवाददेतीहूं  

उन्हेंलगताहैजीवनबसजीवनहै 
कोईकलानहीं 
उन्हेंशायदऐसाकोईदुःखनहीं 
जिसकाउपचारविचारोंकेपासहो 
दोएकविद्यार्थीहोतेहैंमेरेजैसेहरकक्षामें 
जिन्हेंअध्यापककहतेहैंखुशरहाकरो’ 
विचारोंमेंवेइतनेमगनहोतेहैं 
कि जिसेसीखसमझनाचाहिए 
उसेआशीषसमझतेहुए 
कृतज्ञतासेथोड़ाऔरदबजातेहैं 

खैर ! अगलेपचपनमिनटहमेंसाथरहनाहै 
मैंशुरूकरतीहूंकविता-पाठ 
सरलार्थऔरसप्रसंगव्याख्याएं 
बहुतमुश्किलसेसमझापातीहूं
सड़कोंपरऔंधीपड़ीपरछाइयों केबीचगुजरनेवाले
राहगीरकीव्यथा 

विद्यार्थीचुपचापसबसुनतेहैं 
असहमतिकेअवसरोंमें 
हमइसबातपरबातबिठादेतेहैं 
किकविताओंकेमामलेमेंसभीकीनिजीरायहोसकतीहै 
हमारीअसहमतियांविनम्रताऔरआदरकीहदोंमेंरहतीहैं

कविताकेसारांशपरबातकरते-करते 
मैंकिताबबंदकरदेतीहूं
औरधीरेधीरे
हमबिछुड़नेलगतेहैं 
वेघुसजातेहैंसफहोंकेहाशियोंमें 
नीलीस्याहीसेबनातेहैं 
पतंग, फूल, झोंपड़ी, सूर्यास्त, पंछी 
औरअखबारीजिल्दपरछपीअभिनेत्रियों कीमूंछबनातेहैं 
मैंसोचतीहूं  
क्यासारांशपाठकीनैतिकजरूरतहै

घंटीकीआवाज
हमेंहाशिएसेवापसखींचलेतीहै 
परिचितहड़बड़ाहटसेहमदुनियासेवापसजुड़जातेहैं. 





(तीन)
महोदय, समझनेकीकोशिशकीजिए 
जबमेराजन्महुआथा 
मेरेदादाकीपहलेसेपांचपोतियां थीं
नानीकीबेशकमैंपहलीदोहतीथी 
परउनकीअपनीपहलेसेपांचबेटियांथीं  
कुलमिलाकरजन्मकाप्रभावऐसेहुआ 
जैसेगणितकेसमीकरणमें 
जमाकीसारीरकमेंकटजातीहैंमन्फियोंसे 
औरबकायारहजाताहैनिहत्थाअंकएक 

मैंनेजहां-तहांअपनीशक्लशीशेमेंदेखनीशुरूकी 
घरमें, दूकानोंकेकालेकांचकेदरवाजोंमें 
दूसरोंकीमोटरसाइकिलपरलहलहातेगोलशीशोंमें 
कोईनैन-नक्शढूंढ़तीजोमेराहो 
फिरअलां-फलांतरीकेसेहंसना, उठना, बैठनाऔरचलना 
यकीनकीजिएप्रभु
किसीसाजिशकीतरहमुझेयहां-वहांकोईअपनेजैसादिखजाताहै 
मांकेबात-बातपरडांटनेपर 
मेराप्रश्नयहीरहताकिमुझेठीकठीकबताओ 
आखिरमुझेकरनाक्याहै 
ठीक-ठीकलगनाहैअपनीबहनोंजैसा 
याफिरकुछअलगकरनाहै 
साफ-साफमेरीमांकपड़ेधोतीथी
खानारीझसेखिलाती 
जैसेहमकोईदेवताहो  
हरबातसाफ-साफकरनेकीमेरीजिदपरउसेगुस्साआताथा 

जिससेमुझेप्रेमहुआ 
मुझसेपहलेउसेकिसीऔरसेभीप्रेमहुआथा 
मेरेलिएयहठीक-ठीकसमझनामुश्किलथा 
किमुझेदिखनाहैकुछ-कुछउसीकेजैसा 
याफिरठीक-ठीकक्याकरनाहै 

विज्ञप्तिसेलेकर 
नियुक्तिपत्रतक 
सभीदफ्तरीपत्रोंमेंमेरेलिएगुप्तसंदेशथा 
किबेशकयहनौकरीमुझेदेदीगईहै 
लेकिनउनकेपासमौजूदहैसैकड़ोंउम्मीदवार
जोनहींहैंमुझसेकमकिसीलिहाजसे 

महोदय, आपकीबातउचितहै 
मुझेअपनेजैसाहोनाचाहिए 
औरयहकामजल्दीहोजानाचाहिए 
परइतनातोआपभीसमझतेहोंगे
इतनेऔरजरूरीमसलोंकेबीच 
ऐसेकामोंमेंदेर-सवेरहोजातीहै. 






(चार)
शिखरवार्ताचलरहीहैदोप्रेमियोंमें 
प्रेमक्यूंकरसफलनहींहोता 
औरसब्जीवालाफटीआवाजमें 
गलीमेंचीखरहाहै 
टमाटरलेलो,भिंडीलेलो 
अरबीलेलो,कद्दूलेलो 

गलीकीऔरतोंकोलगताहै 
यहरेहड़ीवालाबहुतमहंगीसब्जीदेताहै 
प्रेमिकाकोलगताहै 
उसनेकियाबहुतप्रेम 
पतानहींक्याहैजोपूरानहींपड़ता 
गृहिणीफिरभीकरतीहैमोल-भाव 
उसीसेतुलवातीहैआधाकिलोभिंडी  
दोकिलोप्याजऔरपावभरटमाटर 
प्रेमीझल्लारहाहै 
क्यूंटूटताहैउसीकादिल 
वहनहींकरेगाअबकिसीसेप्यार 

गृहिणीकीटोकरीमेंउचकरहीहै 
मुट्ठीभरहरीमिर्चऔरधनिएकीचारटहनियां   
जोशायदसब्जीवालेकीकरुणाहै 
सब्जियोंकेबढ़तेदामकीसांत्वना 
जरूरीमनुष्यता 
यासफलकारोबारकीयुक्ति 
इधरप्रेमीचूमरहाहैप्रेमिकाको 
प्रेमिकाकाविदायगीआलिंगन 
जोशायदइनकीकरुणाहै 
बिछोहकीपीड़ाकाबांटना 
याअसफलप्रेमकोसहनेकीयुक्ति. 





(पांच)
कविनहींदिखतेसबसेसुंदर
मग्नमुद्राओंमें
लिखतेहुएसेल्फपोट्रेटपरकविताएं
स्टडीटेबलोंपर
बतियातेहुएप्रेमिकासे
गातेहुएशौर्यगीत
करतेहुएतानाशाहोंपरतंज
सोचतेहुएफूलोंपरकविताएं

वेसबसेसुंदरदिखतेहैं
जबवेबातकरतेहैं
अपनेप्रियकवियोंकेबारेमें
प्रियकवियोंकीबातकरतेहुए
उनकेबारेमेंलिखतेहुए
दमकजाताहैंउनकाचेहरा
फूटताहैचश्माआंखोंमें
हथेलियांघूमतीहुईं
उंगलियोंकोउम्मीदकीतरहउठाए
वहीक्षणहै
जबलगताहै
कविअनाथनहींहै.






(छह)
यहबातसचहै
जीवनमेंखुशीकेलिएकमहीचाहिएहोताहै
वहकमकईबारबसइतनाहोताहै
कि हमेंजबबसों, गाड़ियोंऔरजहाजोंमेंयात्राकरनीहो
तोहमइतनेभाग्यशालीहों
किहमेंखिड़कीवालीसीटमिलजाए
हमटिकटलेकर  
बगैरसहयात्रियोंसेउलझे
सामानसुरक्षितरखने केबाद
आसानीसेअपनीखोहमेंजासकें

घरसेनिर्जनकेबीचऐसीजगहेंबमुश्किलहोतीहैं
जहांहमफूलजैसीहल्कीनींदलेसकें
सैकड़ोंपेड़झुलाएनींदको
याबादलोंकीसफेदीलेजारहीहोनिर्वातकीओर
इसछोटी-सीनींदसेजगनाचमत्कारजैसाहै
यहनींदहमारेछीजेहुएमनकोसिलदेतीहै
जैसेहमइसहैसियतमेंलौटआएं
औरखुदसेएकबारफिरपूछें
किहमकौनहैं
भलेइसप्रश्नकेउत्तरमें

हमफूट-फूटकररोपडें.
__________________________________


अर्थ-व्याप्ति के प्रति आसक्ति                                
अविनाश मिश्र

हां मोनिका कुमार की छह कविताएं हैं. मोनिका शीर्षकवंचित कविताएं लिखती हैं. उनके संपादक अपनी सुविधा के लिए प्राय: उनकी कविताओं के शीर्षक गढ़ते आए हैं. कवयित्री ने स्वयं ऐसा अब तक नहीं किया है. विनोद कुमार शुक्ल या भवानी प्रसाद मिश्र आदि की तरह कविता की पहली पंक्ति को भी मोनिका ने कविता के शीर्षक के रूप में नहीं स्वीकारा है. इस तरह देखें तो मोनिका की कविता-यात्रा किसी सही शीर्षक की खोज में है. कुछ यात्राओं की सार्थकता खोज की अपूर्णता में निहित होती है. मोनिका की कविता-यात्रा कुछ ऐसी ही है.

ये कविताएं अपने आलोचकों/आस्वादकों को इतनी छूट देती हैं कि वे उनकी कविताओं की शीर्षकहीनता पर कुछ वाक्य, कुछ अनुच्छेद कह सकें. कविताओं की शीर्षकहीनता कवियों के लिए कोई समस्या या विषय नहीं होती, औरों को यह एकबारगी चौंका सकती है लेकिन कवियों के लिए यह अक्सर अनायास और सहज होती है.

विनोद कुमार शुक्ल ने एक साक्षात्कार में कविता-शीर्षकों के विषय में कहा था,‘‘शीर्षक, कविता से मुझे कुछ ऊपर, अलग से रखा हुआ दिखता है. यह कविता में कविता के नाम की तरह अधिक है. शीर्षक, कविता के अर्थ को सीमित करता है. कविता को बांधता है. बंद करता है. वह ढक्कन की तरह है. इससे अर्थ की स्वतंत्रता बाधित होती है. शीर्षक, अपने से कविता को ढांक देता है. उसी के अनुसार अर्थ को लगाने की कोशिश हो जाती है. यह कटे हुए सिर की तरह अधिक है. बिना शीर्षक की कविता में हलचल अधिक है. बिना शीर्षक की कविता मुझे जीवित लगती है, जागी हुई. अन्यथा चादर ढांककर सोई हुई. या चेहरा ढंके बाहर निकली हुई.’’

प्रस्तुत उद्धरण के प्रकाश में कहें तो कह सकते हैं कि मोनिका की कविताएं स्वतंत्र, जीवित और जागी हुई हैं. इनमें अर्थ-व्याप्ति के प्रति आसक्ति और आकर्षण इतना सघन है कि ये शीर्षकवंचित होना पसंद करती हैं. शीर्षकों के अतिरिक्त ये सपाटबयानी और सारांशों से भी सायास बचती नजर आती हैं. यह काव्य-स्वर बहुत ध्यान, अभ्यास और अध्यवसाय से बुना गया काव्य-स्वर है. प्रस्तुति से पूर्व इसमें जो पूर्वाभ्यास है, वह इसे हिंदी युवा कविता का सबसे परिपक्व और सबसे संयत स्वर बनाता है. प्रथम प्रभाव में यह स्वर कुछ मुश्किल, कुछ वैभवपूर्ण, कुछ व्यवस्थित, कुछ अनुशासित और कुछ कम या नहीं खुलने वाला स्वर है. अपने अर्थशील आकर्षण में यह अपने आस्वादक से कुछ मुश्किल, कुछ वैभवपूर्ण, कुछ व्यवस्थित, कुछ अनुशासित और कुछ धैर्यशील होने की जायज मांग करता है. इसमें पूर्णत्व— जो एकदम नहीं, आते-आते आया है, चाहता है कि आस्वादक अपने अंदर से कुछ बाहर और बाहर से कुछ अंदर आए. इस तय स्पेस में मोनिका की कविताएं नजदीक के दृश्यबोध को एक दृष्टि-वैभिन्न्य देते हुए संश्लिष्ट बनाती हैं. इनकी मुखरता शब्दों और पंक्तियों के बीच केअंतराल में वास करती है. ये स्वर हिंदी कविता में कैसे एक अलग राह का स्वर है, यह सिद्ध करने के लिए यह कहना होगा कि भाषा में उपलब्ध स्त्री-विमर्श बहुत जाहिर ढंग से इसके कतई काम नहीं आया है. इसने प्रकटत: उसे अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए वर्जित मान लिया है. वह इसमें निहां हो सकता है, गालिबन है ही. यह इस अर्थ में भी अलग है कि यह उन अनुभवों के अभावों को भरता है जिससे अब तक हिंदी कविता वंचित थी. यह विस्तार देती हुई गति है, इसे अपनी दिशाएं ज्ञात हैं और उनके अर्थ और लक्ष्य भी. यह उस काव्य-बोध के लिए चेतावनी है जो मानता है कि दिशाओं पर चलना और उन्हें समझना एक ही बात है. काव्यानुशीलन में व्यापक परिवर्तन की मांग वाले एक कविता-समय में मोनिका कुमार की कविताओं का अनुशासन और संगीतात्मक सौंदर्य भी इन्हें मौजूदा हिंदी कविता में कुछ भिन्न बनाता है.

परख : अपनों में नहीं रह पाने का गीत (प्रभात) : प्रमोद कुमार तिवारी

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समकालीन हिंदी आलोचना में प्रभात की कविताओं को लेकर उत्साह है, हालाँकि अभी उनका एक ही काव्य-संग्रह ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ प्रकाशित है. कविताओं के अतरिक्त आदिवासी लोक साहित्य पर भी  उनका कार्य है और बच्चों की रचनात्मक दुनिया में भी उनकी उपस्थिति है. प्रमोद कुमार तिवारी ने  कवि प्रभात की ‘निजता’ और ‘विशिष्टता’ को विस्तार से देखा-परखा है.   
  

दु:ख! क्‍या सच में मुक्ति देता है?              
प्रमोद कुमार तिवारी



क ऐसे दौर में जब साहित्‍य के नाम पर सबसे ज्‍यादा कविताएं मौजूद हों,जब पुराने-नये सभी जन माध्‍यमों में कविताओं की लगभग बाढ़ सी आयी हो और ज्‍यादातर लोगों के पास समय का अभाव हो तो सामान्‍य सा सवाल उठता है कि कोई कविता क्‍यों पढ़े? और शीघ्र ही यह सवाल इस रूप में सामने आ जाता है कि कविता की जरूरत ही क्‍या है? कथा,उपन्‍यास,सिनेमा आदि से साहित्‍य का काम पूरा हो रहा है अलग से कविता को क्‍यों महत्‍व दिया जाय?

कविताओं से लगभग ऊब के इस समय में प्रभात की कविताएं अचानक फूटे शोक के किसी सोते की तरह लगती हैं. ऐसा लगता ही नहीं कि ये कविताएं छपाने,सुनाने या किसी को बताने के लिए लिखी गई हैं बल्कि ये लगभग आत्‍मालाप की तरह हैं जिसमें कवि अपने दुख को खुद से ही कह - कह कर अपना मन हल्‍का कर रहा है. ये कविताएं अनायास ही पाठक को जीवन के उस धरातल पर पहुंचा देती हैं जहां आत्‍म और पर के बीच का,होने और न होने के बीच का फर्क मिटता सा नजर आता है. लेकिन इन बातों से यह अर्थ बिलकुल न निकाला जाय कि ये कविताएं आध्‍यात्मिक या पराभौतिक हैं. इनमें बिलकुल सामने का ठेठ जीवन है. घनघोर सांसारिकता से भरा पूरा. इसके बावजूद ये कविताएं वर्तमान समय की विमर्श केंद्रित कविताओं से बिलकुल अलग खड़ी हैं.

जब साहित्‍य अकादेमीसे प्रकाशित प्रभातका कविता संग्रह हाथ में आया तो इसका नाम अपनों में नहीं रह पाने का गीतकुछ अटपटा सा लगा. खास तौर से तब जब कि इस संग्रह में अपनों केनहीं रह पानेके ढेर सारे गीत मौजूद हैं,परंतु यहीं से प्रभात का प्रभातपनखुलना शुरू होता है. प्रभात का अनुभव संसार,निरीक्षण शैली,यूं कहें कि प्रभात की नजर कुछ भिन्‍न प्रकार की है,बातों को ये प्रचलित ढंग से नहीं उठाते. न सुख को सुखकी तरह देखते हैं और न दुख को दुखकी तरह. इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुख के भीतर दुख पैठा है और दुख भी खालिश दुख नहीं,उसमें सुख की छुवन है.

शबे हिज्र थी यूं तो मगर पिछली रात को
वो दर्द उठा फिराक़ कि मैं मुस्‍कुरा दिया

काव्‍यशास्‍त्रीय व्‍याख्‍याओं के अनुसार जब सामाजिक के चित्‍त में विकास और विस्‍तार होता है तो उसे सुख मिलता है और क्षोभ और विक्षेप होता है तो दुख. परंतु क्‍या दुख विस्‍तार नहीं करता है? साहित्‍य से उत्‍पन्‍न होनेवाले क्षोभ क्‍या लौकिक या सांसारिक क्षोभ जैसे ही होते हैं? या फिर,क्‍या दुख आनंददायक भी हो सकता है? बहुत पहले रस के स्‍वरूप की व्‍याख्‍या करते समय रामचंद्र गुणचंद्रने सुख दुखात्‍मो रस:कहा था. यानी जीवन की तरह कविता भी इन दोनों के बीच खड़ी है बल्कि दुख की ओर थोड़ा ज्‍यादा झुकी हुई. बुद्ध ने भी जीवन को दुखों का सागर कहा था और दुनिया के ज्‍यादातर (और भारत के भी रामायण और महाभारत दोनों) महाकाव्‍य दुखांत हैं. एको रस: करूण: कहकर भवभूति ने भी दुख की निरंतरता को स्‍थापित किया है. प्रभात के संग्रह से गुजरते समय ये सारे संदर्भ अनायास ही दिमाग में चले आते हैं क्‍योंकि यह संग्रह दुख की ओर झुका हुआ है और लगभग एक शोकगीत की तरह है. परंतु यह दुख वेदना या पीड़ा नहीं है,ठीक वैसे ही जैसे कि सुख आनंद नहीं है.


प्रभात एक संक्रांति का निर्माण करते हैं- सुख और दुख की संक्रांति,रोने और हंसने की संक्रांति,संलिप्‍तता और निर्लिप्‍तता की संक्रांति,संबंधों में प्रगाढ़ता और मुक्ति की संक्रांति या यूं कहें कि वे जीवन जैसा जीवनकविता में रचने की कोशिश करते हैं. इस प्रयास में कई बार सार्थकता और निरर्थकता की सीमाओं को तोड़ कर एक तरह का एब्‍स्‍ट्रेक्‍ट रचते हैं,लगभग पेंटिंग की तरह. बस कुछ है,एक स्‍पेस है,उसमें अर्थ की खोज करना एक खास तरह की निर्ममता जैसी लगती है. जैसे किसी बच्‍चे के नॉनसेंस को तर्क की कसौटी पर कसना नॉनसेंस से कई गुना बड़ा नॉनसेंस,लगभग सेंसलेस,लगता है. क्‍या कविता से पेंटिंग या खयाल गायकी के उस स्‍तर तक पहुंचा जा सकता है जहां शब्‍द नहीं बस रंगों या स्‍वरों की अनुगूंज शेष रह जाए. कुछ महसूस हो,ऐसा जो आपकी मानसिक भावभूमि को एक ऊंचाई प्रदान करे,जहां अच्‍छा है या बुरा है यह बेमानी हो जाए बस होना शेष रहे. लेकिन स्‍वरों के इस उठान के लिए बड़ी साधना की दरकार होती है.

कब सपाटबयानी का विवादी स्‍वर पूरी लय को बिगाड़ देगा,कब आत्‍मकेंद्रिकता का वर्जित स्‍वर सुर के पूरे महल को धराशायी कर देगा कहना मुश्किल है. प्रभात की विशिष्‍टता इसी बात में है कि ढेर सारी सुर लहरियों के बावजूद कहीं बेसुरापन नहीं आने देते. इन्‍हें पढ़ते हुए लगता है मानो आप एक विशालकाय लहर पर सवार हों जो कभी भीतर डुबोती है,कभी सतह पर फेंकती है,कभी हिचकोले लगाती है तो कभी तली में बैठा देती है,ऐसी तली जहां अपनी ही धड़कन कानों में बजने लगे. ऐसी तली जहां शोक,श्‍लोक और आनंद एक ही धरातल पर उतर आएं. जहां सत्‍ता के दुष्‍चक्र हास्‍यास्‍पद से लगने लगें. जहां हजारों बार की देखी-सुनी,जानी-पहचानी झाड़ू अचानक मनुष्‍यता और सभ्‍यता के प्रतीक चिह्न में तब्‍दील हो जाए.       

जहां झाड़ू के बुहारने,सफाई करने,स्‍वच्‍छ बनाने आदि का ऐसा अपूर्व उदात्‍तीकरण हो जाए कि निराला के कुकुरमुत्‍ता की तरह झाड़ू झाड़ूमात्र न रहकर कुछ और बन जाए. सामान्‍य सी झाड़ू इतनी अभौतिक,इतनी अशरीरी हो जाए कि उसे आत्‍मा से लेकर सपनों तक पर फेरा जा सके,जिस पर सवार होकर दुनिया के किसी भी विषय की यात्रा की जा सके. जिसका होना मनुष्‍यता के होने,जिंदा होने यहां तक कि न होने के होनेकी भी पहचान बन जाए. न होने का होनाक्‍या है इसे छोटी सी कविता श्‍मशानमें देखा जा सकता है-

यह निवास है उन प्राणियों का
जिनकी सांस की लय टूट गई
जिनके स्‍वरूप का कोई स्‍वरूप नहीं रह गया
जो होने से विहीन हो गए.......
अस्थियों की राख की बस्‍ती
डेरा है नश्‍वरों का
इसमें जाया जाएगा
लेकिन जाया नहीं जा सकता   

प्रभात की कविताएं पिछले 10-15 वर्षों के दौरान लिखी गई कविताएं हैं सो उनमें वर्तमान समय की स्‍पष्‍ट आहट महसूस की जा सकती है,स्‍त्री,पर्यावरण,उपेक्षित आदि के विमर्श और प्रतिरोध को भी देखा जा सकता है. परंतु प्रतिरोध इतना शांत,इतना थिराया हुआ और इतना निर्लिप्‍त भी हो सकता है ये प्रभात बताते हैं. विमर्शों के राजनीतिक शोर से बहुत दूर एक प्रकार का हाहाकार इन पंक्तियों में बंद है. उदाहरण के लिए 85 कविताओं के इस संग्रह में स्‍त्री से संबंधित,स्‍त्री को संबोधित अनेक कविताएं हैं- मृत फूफा के साथ पूरे गांव में अकेली बुआ,फांसी लगा फंदे से झूल गयी बहन,तीन बच्‍चों को श्‍मशान पहुंचाने के बाद खुद वहां पहुंचनेवाली मां,कभी नहीं मरनेवाली बुढिया सईदन चाची,सती बनाई जाती शकुंतला आदि आदि. और इनके अलावे लोकगीत गाती स्त्रियां,ऊंटगाड़ी में बैठी स्त्रियां,समारोह में मिलीं स्त्रियां,पानी ढोती स्त्रियां. यानी स्त्रियों के अनेक चित्र है पर अपारंपरिक से,कुछ अनूठापन लिए हुए. यहां स्‍त्री की पीड़ा है,तंत्र द्वारा निर्मित कुचक्र हैं,स्‍पष्‍ट पक्षधरता है,स्‍त्री के साथ हो रहे अन्‍याय पर चित्‍कार कर रहा संवेदनशील पुरुष भी है परंतु विमर्श का एकांगी या कहें लगभग पुरुषविरोधी शोर नहीं है. लगभग मरणासन्‍न स्‍त्री और पुरुष एक दूसरे से लिपट कर जीवन के चरम संघर्ष को अपने प्रेम से जीतते हैं-

कैसे टला आत्‍महत्‍या का संगीन प्रसंग
कैसे एक भूखा आदमी/ एक भूखी औरत से लिपटा
अन्‍न जल जैसी असंभाव्‍य वस्‍तुएं पाता रहा
उसकी आश्रय-भरी बातों से.

हालांकि कवि जानता है कि घनघोर श्रम के बावजूद स्त्रियों के लिए सुख का ठौर नहीं है. सुख के शहर तक पहुंचने के लिए वह रेल में बैठती है,नये नये स्‍थान का सफर करती है और हर बार पहले से घना दुख पाती है. ऐसा क्‍यों है कि संग्रह में जब स्त्रियां आती हैं तो अक्‍सर उनके साथ मृत्‍यु और रूदन के प्रसंग खींचे चले आते हैं? क्‍या इसे पलट कर देखने की जरूरत है,कि मनुष्‍य के संदर्भ में स्‍त्री के  प्रसंग सबसे ज्‍यादा जीवन के प्रसंग हैं और कवि इस जीवन को मरण से जोड़कर स्त्रियों से जुड़ी सामाजिक विडंबना को चित्रित कर रहा है. स्‍त्री जीवन के दुर्भिक्ष के गिद्धोंको बेनकाब करने का कहीं यह सायास प्रयास तो नहीं है. जबरन सती बनाई जाती शकुंतलाकविता में ऐतिहासिक नाम और सदियों पुरानी परंपरा की दुहाई देता कवि स्‍पष्‍ट कहता है -

राजपुताने में तुझ अकेली का नहीं फूटा है भाग....
तू यहां नहीं/ किसी खपरैल में जन्‍मी होती
कालबेलियों में नहीं नगर में जन्‍मी होती...
समुद्र के इस पार नहीं/ उस पार जन्‍मी होती
ब्राह्मण से ब्राह्मण/ दलित से दलित / सभी वर्णों में होती
तू भाइयों की मां जायी दासी
घर को खा जाने वाली बैरन ननद. 

किसी कवि की महत्‍ता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि वह जीवन तत्‍त्‍व को कितना पकड़ पाया है. जिस प्रकार मनुष्‍य के संदर्भ में स्‍त्री का प्रसंग जीवन से जुड़ता है उसी प्रकार जैविक संदर्भ में यह जीवन सबसे ज्‍यादा पानी से जुड़ता है. जीवन तत्‍त्‍व को जल तत्‍त्‍व भी कहा जा सकता है. प्रभात के यहां जल के बिंब बार बार आते हैं,बिलकुल भिन्‍न संदर्भों में. पानी की तरह कम तुम,जोहड़,पानी की बस्‍ती,पानी की इच्‍छाएं,पानी की बेल,तालाब,नदीजैसी पानी को नये आयाम देती हुई ढेर सारी कविताएं हैं और मजे की बात यह कि पानी की शिकायत खुद पानी से ही करता हुआ पानीदार कवि भी है-

मैं तुम्‍हें मेरे लिए पानी की तरह कम होते देख रहा हूं
मेरे गेहूं की जड़ों के लिए तुम्‍हारा कम पड़ जाना
मेरी चिडि़यों के नहाने के लिए तुम्‍हारा कम पड़ जाना...
मेरी आटा गूंदती स्‍त्री के घड़े में तुम्‍हारा नीचे सरक जाना
तुम्‍हारे व्‍यवहार में मैं यह सब होते देख रहा हूं 

और जिन कविताओं में पानी सीधे-सीधे नहीं आ रहा है वहां भी वह आ जाता है मसलन एक दुर्लभ कविता है धरोहरजिसमें पानी के संकट पर अखबार में लिखे जाने पर खुद्दारी से भरा वृद्ध किसान अफसोस से भर जाता है और कहता है कि कोई पढ़ेगा तो क्‍या कहेगा/ कैसा अभागा गांव है वह जिसमें पानी नहीं है.

इस अफसोस का,खराब से खराब परिस्थिति में भी अपने गांव,अपने घर,अपने लोगों की खराब छवि न बर्दाश्‍त कर पाने की आदत का गहरा रिश्‍ता उस संपृक्ति  बोध से जुड़ता है जिसे लंबे अनुभव के बाद लोक ने अर्जित किया था. संभव है,आज के तेज भागते,उपलब्धियां बटोरते महानगरीय परिवेश में ऐसे पात्रों का रचा जाना ही नहीं कुछ समय बाद समझा जाना भी मुश्किल हो जाए. अपनों में नहीं रह पाने का गीतजैसी रचनाएं सिर्फ वैज्ञानिक विकास से सफलता मापती दुनिया में संभव नहीं हो सकती हैं. यह अनायास नहीं है कि इस संग्रह में किसानों के अनेक चित्र आते हैं  – किसानगायब होते किसान... हार मानते किसानमजदूर बनते किसानढहते-गिरते पस्‍त होते,गायब होते किसान... और इन किसानों के पक्ष में खड़ा कवि. ध्‍यान दें किसानों के इन चित्रों में हुलास नहीं है,लगातार पलायन करते,आत्‍महत्‍या करते किसानों की छवि इन पस्‍त चित्रों में देखी जा सकती है. तमाम चीजों की तरह किसान शब्‍द भी लगातार सीमित होता गया है,किसान खेतों में काम करनेवाला मात्र एक श्रमिक नहीं है. किसान का मामला केवल अन्‍न उत्‍पादन और आर्थिक समृद्धि से जुड़ा मामला नहीं है. किसानी केवल इसलिए महत्‍वपूर्ण नहीं है कि वह भारत की लगभग 65.7 फीसदी आ‍बादी का पेट पालती है. किसानी एक संस्‍कृति है. इस संस्‍कृति का संबंध प्रकृति,भाषा,त्‍योहार,जीवन संगीत,आत्‍मनिर्भरता आदि विविध जीवन-पक्षों से जुड़ता है.

इन सब के बीच एक लय बिठाता है किसान. यह यूं ही नहीं है,कि नकदी फसलों और लाभ के गणित से संचालित तुलनात्‍मक रूप से सक्षम किसान बिहार के गरीब किसानों की तुलना में ज्‍यादा हताशा (कई बार आत्‍महत्‍या की सीमा तक) महसूस करते हैं क्‍योकि पूंजी के दबाव में जीवन संगीत से उनकी लय टूट रही होती है. कवि अन्‍न उत्‍पादक किसानों तक सीमित नहीं है,उसकी बड़ी चिंता टूटते संबंध,बिखरते गांव और किसानी से जुड़ी मनुष्‍यता के लगातार क्षरित होने की है. ये कविताएं नास्‍ट्रेल्जिया से कोसों दूर हैं और गांवों के भीतर की कुरूपता,वहां के घात-प्रतिघात को भी बयां करती हैं -

जिस गांव की सुखद स्‍मृतियां सपनों में आती हैं
उसी गांव में जाते अब डर लगता है 

शहर या दूर के लोगों से कैसी शिकायत,जो अपने थे उनकी भयावह दूरी असहनीय हो जाती है. सवाल शहर-गांव,उद्योग या किसानी का है ही नहीं,सवाल मनुष्‍य,प्रकृति और जमीन से उस रिश्‍ते का है जो लगातार छीजता जा रहा है-  

अभी-अभी तक जो सहचर थे सुख-दुख के
पढ़-लिखकर दूर के हो गए वे
हुजूर और गुलाम का रिश्‍ता हो गया उनसे...
भरी पंचायत में ललकार सकते थे जिन्‍हें
कंधा पकड़कर नीचे बैठा सकते थे अनीति करने पर
प्राण हलक को आ जाते हैं थाने अस्‍पताल कोर्ट कचहरी में
भूल से कहीं उनसे टकरा जाने पर

इस संग्रह में जो एक दुख की टेक है उसके मूल में प्रकृति सहचर किसानों की दुर्दशा भी है. और इस दुर्दशा की करूण गाथा कहते कवि की स्‍पष्‍ट पक्षधरता भी है. निश्चित रूप से प्रभात इस करुणा और विडंबना से गहरे व्‍यंग्‍य का सृजन करने में सफल होते हैं. यह व्‍यंग्‍य अखबारों और मंचीय कविताओं में दिखनेवाला व्‍यंग्‍य नहीं है,बहुत ही खामोश और नीरव व्‍यंग्‍य,समाज की चूलों को हिलाता हुआ . एक उदाहरण देखा जा सकता है

जब-जब भी मैं हारता हूं
मुझे स्त्रियों की याद आती है
और ताकत मिलती है
वे सदा हारी हुई परिस्थितियों में ही / काम करती हैं...
वे काम के बदले नाम से/ गहराई तक मुक्‍त दिखलाई पड़ती हैं
असल में वे निचुड़ने की हद तक/ थक जाने के बाद भी
इसी कारण से हँस पाती हैं/ कि वे हारी हुई हैं
विजय-सरीखी तुच्‍छ लालसाओं पर उन्‍हें/ ऐतिहासिक विजय हासिल है.

असल में वह किसान पर हो या स्‍त्री पर,इस संग्रह की ज्‍यादातर कविताएं व्‍यंग्‍य कविताएं हैं. वह व्‍यंग्‍य नहीं जो सपाट सा विपक्ष रचता है,जो किसी को हास्‍य और किसी को क्षोभ या गुस्‍सा देता है. यहां ऐसा व्‍यंग्‍य है जो इन दोनों से दूर उस त्रासदी तक ले जाता है जहां आप अपने भीतर कुछ चिनकता सा,कुछ टूटता सा महसूस करते हैं. एक शोक की भावभूमि जहां एक ही बात शेष रह जाती है कि ऐसा नहीं होता तो कितना अच्‍छा होता. कुछ ऐसा जैसा प्रेमचंद होरीकी मृत्‍यु से निर्मित करते हैं. ऐसी स्थिति जहां सारी भौतिक उपलब्धियां पाया हुआ अहं से भरा,गांव से निकल बड़ा अधिकारी बन चुका व्‍यक्ति अपने निरर्थकता बोध से इस सीमा तक संतप्‍त हो जाता है कि खुद को मृत्‍यु का छोड़ा हुआमहसूस करने लगता है –

उसे लगा मैं घर में घरवालों का
बाहर,बाहर वालों का छोड़ा हुआ हूं
अच्‍छा और बुरा लगने का छोड़ा हुआ हूं
सार्थकताओं और निरर्थकताओं का छोड़ा हुआ हूं
उसे लगा जीवन नहीं हूं मैं एक
मृत्‍यु का छोड़ा हुआ हूं महज

यहां नकार या आक्रामकता नहीं है,बल्कि इनके होने से व्‍यंग्‍य कमजोर होता है. सामनवाले के मारने पर वह चोट कभी नहीं लगती जो आपके भीतरवाले के मारने से लगती है.

एक साधारण सा सवाल मन में आता है कि प्रभात में इतना मृत्‍यु बोध क्‍यों है,बार बार कविताओं में मृत्‍यु क्‍यों आती है? इसका एक खिलंदड़ा सा उत्‍तर हो सकता है कि जिन परिस्थितियों में गांवों में किसान,स्त्रियां,बेरोजगार रह रहे हैं उनमें भला और कौन-सा बोध आएगा. परंतु प्रभात इतने सरल कवि नहीं हैं,अपनी तमाम सहजताओं के बावजूद वे किसी भी विषय का सरलीकरण नहीं करते. वह चाहे कैसा भी विषय हो लाउडनेस नहीं आने देते. असल में हर बड़ी कविता मृत्‍यु से टकराती है. ट्रीटमेंट का अंतर हो सकता है परंतु इस कठोर सच्‍चाई का सामना तो करना ही पड़ता है खास तौर से तब,जब आप विज्ञान और पूंजी के बनाए सुद्दोधन महलमें सिद्धार्थ की तरह न रहकर बुद्धकी तरह रहना चाहते हों. तब मृत्‍यु से टकराए बगैर आपका काम नहीं चल सकता. प्रभात की कविताओं में मृत्‍यु के अनेक शेड्स हैं,सुख दुख से परे किसी और भूमि पर टिके हुए. मृत्‍यु के दिन क्‍या होगा/ कुछ खास न होगा/ और दिनों-सा गुजर जाएगा/ और यह रात गर्भ-सी होगी/ दिन का चूज़ा कुनमुनाएगा. 

मृत्‍यु भी कैसी?केवल इंसानों की नहीं,परिंदे,कीड़े,कुर्ते,धोती,अंगोछे,पेड़ जाने किस-किस की. और सबके शोक में कवि शामिल है. शामिल होना भी चाहिए वरना कवि क्‍या हुआ फिर.  क्‍या कविता शोक के भारी वजन को उठाने के लिए अड़ी हुई कंधे की तरह है. जहां कोई दुखी दिखा वहां पहुंच जाती है उसके कंधे पर हाथ रखने. हाथ रखने के अलावे भला वह और कर भी क्‍या सकती है? परंतु क्‍या यह हाथ रखना मामूली काम है?   

इसमें दो राय नहीं कि प्रभात कवि परंपरा के नैसर्गिक वारिस हैं,इसके कई प्रमाण इस संग्रह में मिलते हैं. एक रचनाकार सबसे पहले और सबसे ज्‍यादा सौंदर्य प्रेमी होता है या कहें जिस अनुपात में सौंदर्यप्रेमी होता है उसी अनुपात में कुरूपता विरोधी भी होता है.

विशाल हवा का झाड़ू चाहिए ही
पृथ्‍वी पर फैली असुंदरताओं को बुहारने के लिए  

प्रभात का सौंदर्यबोध थोड़े भिन्‍न किस्‍म का है जो उनके विषयों के चयन में भी नजर आता है. विषयों का यह अलहदापन कहां से आता है,इतने नवीन विषय कहां से लाते हैं प्रभात? असल में यह विषयों का नयापन नहीं दृष्टि का नयापन है,बोध का नयापन है. विषय तो वही हैं,देखने का और प्रस्‍तुतिकरण का ढंग नया है. प्रभात ने साधारण के भीतर की असाधारणता को उकेरने का ढंग निकाल लिया है. विचारों को बहुत ही सरल ढंग से दैनिक जीवन के नामालूम से प्रसंगों से जोड़ देने का सलीका निकाल लिया है. प्रभात ढेर सारे ऐसे संदर्भ   रचते हैं जहां एक बड़ी बात इतनी सादगी से कह दी जाती है कि सहसा यकीन ही नहीं होता कि इसे इतनी सरलता से भी कहा जा सकता है. तीन पंक्तियों की एक कविता है सुख-दुख

उनकी अपनी किस्‍म की अराजकता है मेरे भीतर
सिर्फ दुखों की नहीं है
सुखों की भी है

या फिर धाड़ैती पर भी कविता लिखी जा सकती है और इस विषय को इतना तरल बनाया जा सकता है. या विरक्ति को अकेले आदमी की बस्‍तीके रूप में भी देखा जा सकता है. किसी बस्‍ती में अकेला आदमी हो तो वह कैसी बस्‍ती होगी,उसके भीतर कितनी असहायता और घुटन होगी? विरक्‍त व्‍यक्ति किन मजबूरियों में ऐसा होने का निर्णय करता होगा? इन सब के बावजूद उम्‍मीद है,कवि निराश नहीं है,एक कवि निराश होता भी नहीं है. आधी से अधिक रात के बीत जाने पर भी अपराध जगत के गलियारों  और षड्यंत्रों में बेचैन राजनेताओं के बंगलों से बहुत दूर,दुनिया पर हावी होना चाहने वाले जगत से दूर एक कमरे की लाइट का जलना,विचारमग्‍न युवक का होना एक बड़ी उम्‍मीद है. सारी साजिशों,सारी कुरुपताओं के बरक्‍स किसी का खड़ा होना आशा का संचार करता है. इसी संग्रह में कोई भी चीज लंबी नहीं चलतीजैसी कविता भी है.

कोई भी चीज इतनी लंबी नहीं चलती
न खामोशी लंबी चलती है/ न आंसुओं की झड़ी
न अट्टहास/ न हँसी/ न उम्‍मीद न बेबसी...
और-और तरीकों से
पूँजी के बिना भी जीते हैं लोग
गाते हुए गीत और लोरियाँ .

प्रतिरोध का ऐसा सरल रूप... दिमाग में फैज का हम देखेंगेऔर ब्रेख्‍त का जनरल तुम्‍हारा टैंक बहुत मजबूत हैजैसी कविताएं अनायास चली आती हैं.  सारी साजिशों के विपक्ष में लोरियों का खड़ा होना कितने लंबी और बड़ी उम्‍मीद की ओर संकेत करता है,इसे सहज ही समझा जा सकता है. बिना किसी तेवर के अत्‍यंत महीन संकेत में, नंगे पांव कच्‍ची पगडंडियों से पक्‍की सड़क की ओर जाते बच्‍चों के बहाने,कवि कहता है-

इनके फूल से तलुवों को
ठंड की आंच में सिंकते देखते हुए
मैं इतना ही कह रहा था
गांव में फूल नहीं खिलते
आग खिलती है

प्रभात सहज कवि हैं परंतु बहुत सचेत कवि भी हैं. बिना ऐसी सचेतनता के झाड़ू जैसी कविता संभव ही नहीं हो सकती. 16 पृष्‍ठों में विभाजित झाड़ूको हिन्‍दी कविता की उपलब्धि कहने का मन होता है. सूचना क्रांति द्वारा निर्मित कृत्रिम विराटता के भीतर से झांकती एक खास तरह की लघुता के इस दौर में,जहां हर चीज का सामान्‍यीकरण किया जा रहा हो,जब केवल दूरी और समय को ही नहीं हर चीज को रिड्यूस करने को,उसे एकरूप-एकांगी बना देने को एक उपलब्धि मान लिया जा रहा हो,जिसमें संबंध,प्रकृति,राजनीति,विमर्श सब कुछ धीरे-धीरे शामिल होता जा रहा हो,ऐसे समय में एक नामालूम सी वस्‍तु झाड़ूको विराट बना देना उल्‍लेखनीय लगता है. किसी भी चीज को प्रतीक बनाया जा सकता है,महत्‍वपूर्ण यह है कि वह प्रतीक हमारी चेतना को कितना विस्‍तार देता है. झाड़ू नाम लेते ही तमाम राजनेता,दल,सफाई आदि की छवि मानस में तैर जाती है,लेकिन यह छवि एकांगी है लगभग एक रूढि़ की तरह,प्रभात अपने झाड़ू से इस रूढि को तोड़ देते हैं. उसे विस्‍तार देते हैं,उसे सभ्‍यता और श्रम का अभिन्‍न अंग बना देते हैं.  21 खंडों में विभाजित यह कविता एक ही अंत:सूत्र में गुंथी हुई है. इतनी गझिन,इतनी गठी हुई कि इसके बीच से होकर निकलने में पाठक को अच्‍छा खासा समय लग सकता है. जाने कितने प्रकार की झाड़ू,सिंक की,खजूर की,दूब की,शब्‍द की,लोहे की,बारिश की,जीभ की,हवा की,रोशनी की झाड़ू. एक महाकाव्‍यात्‍मक औदात्‍य की कविता रचने में सफल हुए हैं प्रभात.

दुनिया के सभी झाड़ू
दुनिया के हाथों के छोटे भाई हैं
जब झाड़ू नहीं थे
हाथ झाड़ू का काम करते थे
इकलौते नहीं कहे जा सकते अब हाथ
इंसान के हाथ में झाड़ू आ जाने के बाद.

झाड़ू को प्रभात ने भी प्रतीक बनाया है पर एक की जगह अनेक का प्रतीक बनाकर उसे किसी खास घेरे में बंधने से बचा लिया है. पर निराकार भी नहीं होने दिया है,आकार और पक्ष स्‍पष्‍ट है-

झाड़ू की तरह पड़े रहते हैं लोग
दुनिया के ओनों-कोनों में
लेकिन सुबह होते ही
दुनिया को उनकी जरूरत पड़ती है...
जैसे ही पुल बन जाते हैं
जैसे ही बांध बन जाते हैं
उन्‍हीं ओनों-कोनों में फेंक दिया जाता है लोगों को
जहां से खदेड़कर लाया गया था...
एक दिन ऊब जाते हैं लोग इन क्रूरताओं से
इंकार कर देते हैं इनमें रहने-सहने से
इन लोगों की सांसे इकट्ठी होकर
धरती पर एक विशाल हवा को खड़ा करती हैं

और फिर उस विशाल हवा के झाड़ू से बुहार दिए जाते हैं बड़े से बड़े मठ,बड़ी से बड़ी सत्‍ताएं,यह कहने से कवि खुद को बचा लेता है.यह सचेतनता महत्‍वपूर्ण है. एक बिंदु पर कितनी देर टिका जा सकता है,इसके लिए कितनी एकाग्रता जरूरी होती है,झाड़ू कितने दिनों तक कवि मन में चली होगी,यह टिकाव बहुत महत्‍वपूर्ण है.

प्रभात के यहां शब्‍द और भाषा का खिलवाड़ जबरदस्‍त है परंतु सिर्फ खेल के लिए नहीं,इस खिलंदड़ेपन में सार्थकता का छोर कभी छूटने नहीं पाता. वाक्‍यों का क्रम भंग,अपरंपरागत ढंग से उनका टूटना,परसर्गों का बेहतरीन इस्‍तेमाल. विरोधाभास (उनके लहंगों का वजन/ उनकी सूखी जंघाओं से कहीं अधिक था/ उनकी पीली ओढ़नियां भड़कीली थीं/ मगर उनसे ढंके उनके झुर्री पड़े चेहरे/ बुझी राख थे)  के माध्‍यम से ढेर सारी बातें कम शब्‍दों में समेट लेने की अदा. ऐसी अनेक कविताएं हैं जिन्‍हें पढ़ के कवि के उर्दू शायरी की परंपरा से जुड़े होने का पता चलता है. मृत्‍यु के बाद जाने कहांचले जाने पर एक छोटी सी टिप्‍पणी-

जाना भी कहां वह गया जहां
वह कुछ भी कहां कि जाया जा सके वहां

बिलकुल नये बिंब,नयी वाक्‍य संरचनाओं से लबरेज इन कविताओं की सबसे खास बात यह है कि इनमें टुकड़ों में चमकती पंक्तियां नहीं हैं,कविता अपने पूरे वितान में मौजूद है.

यह संग्रह इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि कवि जी-जान से लगा हुआ है सुंदरता की तलाश में,अथाह प्रेम भरा हुआ है इसमें. ढेर सारी कविताओं में यह प्रेम बाहर छलक पड़ता है और जिनमें सतह पर नहीं दिखता उनमें भी थोड़ा कुरेदने पर उसे महसूसा जा सकता है. इतने विकट समय में वह प्रेम ही है जो उर्जा दे रहा है. जो पेड़ तक को प्रेमिका बनाए दे रहा है.

प्रभात का प्रभातपन इस बात में निहित है कि यह कवि अपनी उम्र और ज्ञान को खुद से परे

रख पाने में सफलता हासिल कर लेता है. करुणा की जिस भाव भूमि पर ये कविताएं स्थित हैं वह बिना मैंको छोड़े तैयार ही नहीं हो सकती. चमकदार,चर्चित साहित्यिक दुनिया में प्रभात के अल्‍पज्ञात होने में भी इस मैंके विलोप की भूमिका हो सकती है. यह कवि सार्थकता की बौद्धिक मांगों की निरर्थकताको समझता हैऔर एक बड़े समूह द्वारा निरर्थक मान लिए गए प्रसंगों की मनुष्‍य और मनुष्‍यतर संबंधों में सार्थकता को न केवल समझता है बल्कि उसे बेहतर ढंग से प्रस्‍तुत करने की क्षमता भी रखता है.

प्रभात में लगभग शिशु की तरह चीजों को पहली-पहली बार अपनी तरह से देखने की क्षमता है. इसीलिए वे प्रचलित मुहावरों और रूढ़ भाषा से मुक्‍त रह पाते हैं. इस संग्रह की सार्थकता इस बात में है कि यहां कवि नहीं है,कवि की जगह एक कैमरा है जिसे बहुत ही उपयुक्‍त जगहों पर फिट कर दिया गया है. वह कैमरा कभी पूरे गांव में अकेली बची स्‍त्री को दिखा रहा होता है,कभी दिमाग में चल रहे उथल-पुथल को पकड़ रहा होता है, कभी मुआवजा के बदले आंसू गैस देते,बुलडोजर चलाते तंत्र को पकड़ रहा होता है तो कभी अंतिम सांसे गिन रहे बबूल के पेड़ पर फोकस हो जाता है. कैमरा जैसा निर्लिप्‍त होता है,जैसा होना चाहिए वह इन कविताओं में है. पर कैमरे को कहां रखना है,उससे क्‍या और किसे दिखाना है,इसे लेकर कोई दुविधा नहीं है. कवि की वैचारिकता,उसकी पक्षधरता एकदम स्‍पष्‍ट है. शायद इन कविताओं के अलहदेपन के मूल में यही सपक्ष निर्लिप्‍तताहै. कवि की निगाह कहां है इसका पता एक छोटी सी कविता देती है जिसमें गांव से दो घर (एक घर प्रेम के कारण और दूसरा गरीबी के कारण) उजड़ जाते हैं परंतु कवि उनके उजड़ने की बात से उदास नहीं होता जितनी इस बात से कि

क्‍यों उजड़ गए गांव से दो घर
किसी ने नहीं पूछा किसी से

समाज से पूछा गया पृथ्‍वी सा भारी यह क्‍योंमहत्‍वपूर्ण है और प्रभातपन की पहचान भी. इस संग्रह की सीमाएं मुझे नजर नहीं आयीं इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सीमाएं नहीं हैं, जितना मैंने प्रभात को समझा है,दावा कर सकता हूं कि उन्‍हें अपनी सीमाओं का भरपूर अहसास है. लबों पे ये दुआ आ रही है कि आगे भी रहे. उन्‍होंने ही कहा है कि

बरते जाने से घिसती हैं झाड़ू की सीकें
समय की रगड़ से टूटती हैं कविताएं


इन कविताओं के द्वारा उन्‍होंने कविता की जमीन तोड़ी है, उम्‍मीद करता हूं कि अपने अगले संग्रह में इस जमीन को भी तोड़ेंगे.
___________
(राकेश बिहारी द्वरा संपादित अकार  के अंक में प्रकाशित आलेख का संवर्धित रूप)

प्रमोद कुमार तिवारी
गुजरात केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालय
गांधीनगर- 382030
pramodktiwari@gmail.com/मो. 09228213554


सहजि सहजि गुन रमैं : महेश वर्मा

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युवा कथाकार चन्दन पाण्डेय ने महेश वर्मा की कविताओं पर समालोचन में ही एक जगह लिखा है – “एक घटना याद पड़ती है. मान्देल्स्ताम को पढ़ते हुए अन्ना अख्मातोवा ने अभिभूत और परेशान, दोनों, होकर लिखा था कि इस कवि की जीवनी लिखी जानी चाहिए. वजह कि सभी बड़े कवियों (जिनमें पुश्किन और ब्लॉक भी शामिल थे) की प्रेरणा या शिल्प का स्रोत मालूम पड़ जाता है पर मान्देल्स्ताम का नहीं. उस स्रोत को जानने समझने के लिए मान्देल्स्ताम का सम्पूर्ण जीवन जानना जरूरी लगा होगा. यही ख्याल महेश वर्मा की कविताओं को पढ़ते हुए आता है.”


इन कविताओं को पढ़ते हुए आपको क्या लगता है?


महेश वर्मा की कुछ नयी कविताएँ                   



ऐसे ही रुकी रहो वर्षा

ऐसे ही रुकी रहो वर्षा
इन्द्रधनुष और मटमैले पानी की बातचीत
होने तक


कुछ स्थगित मुलाकातों के बारे में सोचो
कुछ उदासियों के बीच धूप खिलने दो


तुम्हारे अनवरत को कहीं दर्ज करने के लिए भी
थोड़ी सांस चाहिए होगी,
रुको वर्षा


रुको कि हरेपन का एक संक्षिप्त तोता
कुछ चीखता गुज़र पाए

तोते के हरेपन
और उसकी लाल चोंच भर रुको ना वर्षा


एक सबसे बेचैन इंतज़ार भर रुको
रुको अंतिम कमीज़ के सूखने भर
गीले अखबार में गीले हो गए
लगातार बारिश के समाचार पर
हंसने के लिए रुको वर्षा

ऐसे ही रुकी रहो.



मुझे एक नज़्म


मुझे एक नज़्म
उन लमहों की याद में
लिख रखना चाहिए
जब मेरी रगों ने महसूस किया
कि तुम्हारे हाथ
किसी गैरदोस्ताना शै में बदल गए हैं

वो कोई और उंगलियाँ,
कुछ दूसरी लकीरें हथेली पर
और कोई नाखून

मैं उस जगह को घूर घूर कर देखता हूँ
वो एक मुकम्मल ग़ज़ल की जगह थी
जहां मेरे नाम की लकीर हुआ करती थी.


(दो)
मैंने आंसुओं
चुम्बनों और
शिद्दतों को
बुझते देखा उन हाथों की पुश्त पर
हथेली पर, उँगलियों पर
एक सूर्यास्त होता देखा
एक दिल डूबता हुआ

मैंने एक नाउम्मीद रुत का चेहरा देखा देर रात

मुझे वो आखिरी लम्हे ठीक से याद नहीं मौला
कि उन्हें तुमने छुड़ाया था हौले से
या मैंने ही छोड़ दिया था धीरे से.


(तीन)
उसमें मौसमों का तवील अफसाना गूंजना चाहिए
अगर वाकई वो नज़्म लिखी जाए
ताकि बाद के किसी बरस
मुझे मौसमों से अपना रिश्ता याद रहे.
जब धूप, बारिश और हवा की छुवन
भूल जाए रूह
तो एक कोई जगह हो
जहाँ पुरानी रुत धड़कती मिले.

(चार)
मुझे याद नहीं
कि धूप की बात चलने पर
तुमने क्या कहा था
याद नहीं कि बारिश का
कोई मायने तुमने बताया हो

एक बार तो मैं अपना नाम ही भूल गया था


मुझे दिक्कत आ रही है
तुम्हारे हाथों का अक्स
ज़ेहन में बनाने में

मुझे ऐसे भी लिख रखनी चाहियें
छोटी से छोटी तफसीलें

कोई नज़्म उनसे बने ना बने .





दूसरी बातें


छूने और अनछुआ रह जाने,
चूमने और पता न लगने देने के
सबसे पुराने खेल में चक्करदार घूमते
हमने ढेर सी दूसरी बातें कहीं

विवाह में कंघी करने की रस्म से लेकर
मां से शिकायत करने की

मैं अपने अकेले होने के विवरण में डूब ही जाता
अगर न तुम्हारी करवट उबार लेती,
फिर अपने सपने कहने लगा
और थोड़ा सा उदास अतीत,
तुमने सादादिली के यादगार किस्से सुनाये


अनछुआ रहने और छू जाने की इच्छा में
तपते
कमरे की टीन छत,जैसे दहकती आँख धूप की.

पसीने , पानी और हवा करने के उपक्रमों समेत
ढेर से दूसरे काम हम करते रहे
दूसरे वाक्य कहते रहे.

हमने दूसरों की वासनाएं एक दूसरे के सामने रक्खीं
दूसरों के सपनों की प्यास में
तड़पते रहे रेत पर

दूसरी ढेर सी तड़पों की ओर ध्यान बंटाते
कभी शाम उतर आती कभी उतर आता खून

ढेर सी दूसरी यातनाओं में डूबते उबरते
हमने दूसरे कई वाक्य कहे. 



अधूरा चुम्बन

एक टुकड़ा चाँद की तरह अटका था
याद के दरख्त पर, चाँद ही की तरह
कभी उदासी, कभी तंज से देखना :मूं फेर लेना

एक उम्र वहीं रुक गई थी
टूटकर
वहीं रुकी थी सांस
इच्छा और अधखुली आँखें वहीं रुकी थीं
बीच से बहता जाता था काल

उसने धूपदार दोपहर को भी चुंधिया दिया हो
आवाजों को सोख लिया हो आकाश की स्तब्धता ने

आती जाती रही ऋतुएं
हवाएं, बारिश और दूसरे क्षरण

कभी लगता कि आधे चाँद और अधूरी दोपहर में निस्बत है


कभी लगता कि टूट गिरी वह टहनी
जिसपर कि चाँद अटका था.

(दोपहर याद आती है तो
कठफोड़वे की आवाज़ याद आती है)
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महेश वर्मा को यहाँ भी पढ़ें

मैं कहता आँखिन देखी : सच्चिदानंद सिन्हा

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मुजफ्फरपुर (बिहार) के एक छोटे-से गांव मणिका (मुसहरी प्रखंड) के सवेराकुटी में वर्षों से रहते हुए  ८५ वर्षीय प्रख्यात समाजवादी चिंतक और विचारक सच्चिदानंद सिन्हा आज भी सक्रिय हैं, भारत की समकालीन राजनीति के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर उनसे बातचीत की है नवल किशोर कुमार ने.


स्वाधीनता दिवस की शुभकमानाओं के साथ यह संवाद आपके लिए.  


डेमोक्रेसी नहीं डेमोगागी                  
सच्चिदानंद सिन्हा से  नवल किशोर कुमार की बातचीत 






जमीन का सवाल तो आजादी के पहले भी बड़ा सवाल था? स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को गोलबंद किया था. उनके आंदोलन का जमीन के सवाल से कितना जुड़ाव था?

हां, यह बात सही है कि आजादी के पहले जमीन एक बड़ा सवाल बन गया था, लेकिन उसकी कोई दशा-दिशा नहीं थी. असल में उस समय देश में एक साथ कई तरह के आंदोलन चल रहे थे. मसलन आजादी का आंदोलन तो दूसरी ओर वंचितों के द्वारा समाज में अपनी हिस्सेदारी लेने का आंदोलन. वंचितों के आंदोलन के दो प्रमुख सवाल थे. पहली सामाजिक भागीदारी के लिये आंदोलन तो दूसरा जमीन के लिये आंदोलन. वामपंथी विचारधारा ने जमीन के आंदोलन को आगे बढाने का प्रयास किया. लेकिन उसी दौर में स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन का व्यापक असर हुआ. पहली बार खेती करने वाले सभी वर्गों के किसान एक साथ हुए. इसमें छोटी जोत वाले किसान और खेतिहर मजदूरों के सवालों को शामिल किया गया था. परंतु इस आंदोलन में जाति के आधार पर भूमिहीनता को देखने की कोशिश नहीं की गयी थी. बाद में जब आजादी मिली तब यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित होकर रह गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वामी सहजानंद सरस्वती धीरे-धीरे पूरे परिदृश्य से गायब हो गये और उनका आंदोलन बिना कोई व्यापक असर छोड़े अतीत में खो गया.


देश में जाति की राजनीति महत्वपूर्ण हो गयी है. इसके क्या कारण और परिणाम क्या हो सकते हैं?

मेरा स्पष्ट मानना है कि वर्ग और वर्ण आधारित व्यवस्था में अनेक मौलिक अंतर हैं. खासकर भारतीय सामाजिक व्यवस्था में. कोई भी व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में स्थानांतरित हो सकता है. मतलब आज जो गरीब है, कल अमीर हो सकता है. जो आज अमीर है, वह कल गरीब हो सकता है. इसलिये वर्ग के आधार समाज की एक स्पष्ट तस्वीर नहीं बन सकती है. जबकि वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज की स्पष्ट तस्वीर सामने आती है. यह सामाजिक विभेदन वर्ग व्यवस्था से कहीं अधिक सख्त है. कहने का मतलब यह है कि यदि किसी ने राजपूत परिवार में जन्म लिया तब वह हमेशा राजपूत ही रहेगा. यही बात अन्य जातियों के लिये भी लागू होता है.

भारतीय राजनीति में यही हुआ है. जाति के आधार पर गोलबंदी बड़ी तेजी से हुई है और यह गोलबंदी दीर्घायु होती है. इसका एक सकारात्मक पक्ष यह है कि समाज के वंचित समुदाय के लोगों की हिस्सेदारी बढी है. उनके अंदर राजनीतिक अवचेतना का विकास हुआ है. लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष भी है. जाति आधारित गोलबंदी के कारण लोगों में अधिनायकत्व की स्थिति बन जाती है. मसलन लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव औरमायावती जैसे राजनेता आज अपने-अपने सामाजिक ध्रुवीकरण के कारण लंबे समय से राजनीति में बने हुए हैं.



आज के लोकतंत्र को आप किस निगाह से देखते हैं? खासकर तब जबकि आज देश की राजनीति दो दलों के बीच सिमटती नजर आ रही है.

मेरे हिसाब से आप जिस परिस्थिति की बात कर रहे हैं, वह महज वहम है. असल में आज पूरे देश में भाजपा और कांग्रेस दोनों अपनी जमीन खोते जा रहे हैं. आप पूरे हिन्दुस्तान पर नजर दौड़ायें. बिहार में कांग्रेस और भाजपा की स्थिति परजीवी से अधिक नहीं है. वहीं उत्तरप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत हैं. पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा तृणमूल कांग्रेस का वर्चस्व है. दक्षिण के राज्यों में भी न तो भाजपा की स्थिति बेहतर कही जा सकती है और न ही कांग्रेस की. असलियत यह है कि आज देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका निर्णायक हो चुकी है. बिना इन दलों के आज एक राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती है.

वैसे मेरा मानना है कि देश में डेमोक्रेसीनहीं डेमोगागीहै. जैसा कि एक यूरोपियन ने अपने आलेख में कहा था. डेमोक्रेसी के जैसे ही डेमोगागी ग्रीक शब्द है. डेमोगागी का मतलब है केवल बातों का पूल बनाना. आज देश की राजनीति में ऐसे लोगों की भरमार है जो केवल बातों का पूल बनाते हैं, जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है.डेमोक्रेसी शब्द एथेंस से आया है जिसकी आबादी बमुशिल एक लाख रही होगी. अब यह बात सोचने की है कि पचास हजार या फ़िर एक लाख की आबादी के लिये जो व्यवस्था बनी, वह सवा अरब की आबादी वाले देश के लिये भी परफ़ेक्ट कैसे होगी. जाहिर तौर पर इसमें बदलाव की आवश्यकता है. डेमोक्रेसी को फ़िर से परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है. वह भी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से. यहां के विविधता के हिसाब से.



मंडल आंदोलन के बाद की राजनीति और वर्तमान में जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को लेकर हो रही राजनीति पर क्या कहेंगे?

मेरा मानना है कि मंडल कमीशन के लागू होने पर समाज में एक जड़ता टूटी थी. बड़ी संख्या में लोगों के अंदर राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास हुआ था. आज इसी चेतना का परिणाम है कि आज यदि कोई उच्च जाति का व्यक्ति किसी दलित या पिछड़े समाज के व्यक्ति को एक तमाचा जड़ दे तो बदले में उसे एक के स्थान पर अधिक तमाचे खाने को तैयार रहना पड़ेगा. यह समाज के मजबूत होने का प्रमाण है. इसके अलावा वंचित समाज में शिक्षा और अर्थ का विस्तार हुआ है, जिसके बेहतर प्रमाण सामने आये हैं. असल में मंडल कमीशन को लागू ही इसलिये किया गया था ताकि उपर के पदों पर वंचित समाज के लोग भी आसीन हों. ऐसी स्थिति में निचले पायदान पर रहने वाले लोगों को प्रेरणा मिलेगी. यह सब हुआ है. इसलिये मंडल कमीशन की अनुशंसाओं से मैं पूरी तरह सहमत हूं.

आपने जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को लेकर सवाल पूछा है. मेरा स्पष्ट मान्यता है कि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद समाज में विखंडन की प्रक्रिया शुरु होगी. खास बात यह है कि यह नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक होगी. रिपोर्ट के आने के बाद समाज के विभिन्न जातियों के बारे में नये आंकड़े आयेंगे. नये आंकड़ों के कारण आरक्षण को लेकर सवाल उठेंगे और हिस्सेदारी बढाने की मांग भी उठेगी. संभव है कि नये आंकड़े आने के बाद इसे लेकर समाज में विखंडन का नया दौर शुरु होगा. परंतु हमें यह ख्याल रखना चाहिए कि केवल आरक्षण दलितों और पिछड़ों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिये पर्याप्त नहीं है. सरकारी नौकरियों की संख्या बहुत कम है. इसलिये केवल सरकारी नौकरियों के जरिए वंचित समाज को आगे नहीं लाया जा सकता है. अब जबकि जातिगत के नये आंकड़े सामने आयेंगे तो संभव है कि देश की राजनीति में आयी जड़ता टूटेगी. एक बार फ़िर से भूमि सुधार और उत्पादन के संसाधनों पर समुचित हिस्सेदारी को लेकर सवाल उठेंगे, जो आने वाले समय में न केवल देश के लिये बल्कि समाज के बहुसंख्यकों के लिये बहुत महत्वपूर्ण होंगे. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के लागू होने से देश में उस समय जड़ता समाप्त हुई थी और इसके सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं. हालांकि अभी भी कई कमियां हैं. वंचित समाज के जिस हिस्सेदारी बात डा राम मनोहर लोहिया ने कही थी, वह पूरी नहीं हो पायी है. 

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सच्चिदानंद सिन्हा :प्रकाशन 
समाजवाद के बढ़ते चरण, जिंदगी सभ्यता के हाशिए पर, भारतीय राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता, भारत में तानाशाही, मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य, उपभोक्तावादी संस्कृति का जाल, संस्कृति और समाजवाद, नक्सली आंदोलन का वैचारिक संकट, भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, संस्कृति-विमर्श, पूँजीवाद का पतझड़, जाति व्यवस्था : मिथक, वास्तविकता और  चुनौतियाँ, लोकतंत्र की चुनौतियाँ, पूंजी का अंतिम अध्याय, वर्तमान विकास की सीमाएँ, गुलाम मानसिकता की अफीम
The Internal Colony, Socialism and Power, Emergency in Perspective, The Permanent Crisis in India, Choas and Creation, The Caste System, Adventures of Liberty,  The Bitter Harvest, Coalition in Politics, Army Action in Punjab, The Unarmed Prophet, Socialism : A Manifesto for Surviaval

अनुवाद : न्यायी हत्यारे (लेस जस्टेस : अल्बेयर कामू)
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नवल किशोर कुमार :
नवल किशोर कुमार वर्तमान में पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दी समाचार पत्र तरुणमित्र के समन्वय संपादक और बिहार के चर्चित न्यूज वेब पोर्टल अपना बिहार डाट ओआरजी के संपादक हैं.
nawal.buildindia@gmail.com

विष्णु खरे : भीषम साहनी हाज़िर हो

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भीष्म साहनी की जन्मशतवार्षिकी पर यह मुनासिब है कि उनकी अदबी, इल्मी, ड्रामाई और फिल्मी दुनियाओं को न सिर्फ फिर से देखा-पढ़ा जाए बल्कि उनके आपसी रिश्तों की बारीकियों को समझ कर उनकी खुसूसियत से रूबरू भी हुआ जाए, जिससे उनकी मुकम्मल शख्सियत सामने आये और उनके असर का ठीक –ठीक पता चल सके.

कवि-आलोचक और फ़िल्म मीमांसक विष्णु खरे का यह आत्मीय आलेख जो ‘भीषम साहनी’ के इसी पूरेपन को दृष्टि में रखकर लिखा गया है, आज खास आपके लिए.




भीषम साहनी हाज़िर हो                                         
विष्णु खरे 


भी को मालूम है कि उस महानाम के सही हिज्जे ‘भीष्म’ हैं लेकिन जब स्वयं उसका धारक  उसे ‘भीषम’ कहे,लिखे,पुकारे जाने पर क़तई एतराज़ न करे तो कोई क्या कर सकता है!उस पर तुर्रा यह था कि उनके नाती-पोतों की उम्र के छोकरे भी उन्हें ‘भीषम भाई’कहकर संबोधित करते थे.महाभारत के भीष्म में जितनी अग्नि धधकती रही होगी, भीष्म साहनी (8 अगस्त 1915 – 11 जुलाई 2003) उतने ही ग़मखोर थे.मार्क्स और साम्यवाद  में उनकी गहरी आस्था थी,पार्टी के कार्ड-होल्डर तो थे ही,लेकिन इसे किसी नुमाइशी कड़े-कलावे की तरह पहनते न थे.उन्हें देखकर ही विश्वास होता था कि एक सच्चा कम्यूनिस्ट एक सुषुप्त ज्वालामुखी होता है.

फ़िलहाल यह जगह उनके निजी या साहित्यिक संस्मरणों की नहीं, हालाँकि मैं उन्हें 1968-69 से जानता था और दिल्ली के ईस्ट पटेल नगर में उनका पैदल-दूरी का पड़ोसी भी था, बल्कि ‘’तमस’’धारावाहिक के रूप में सारे दक्षिण एशिया में उनके लावे के फूट निकलने की तपिश को फिर महसूस करने की है.हमें नहीं मालूम कि 1974 में प्रकाशन और फिर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के बाद कितने पाठक किन भाषाओं में भीषम भाई  के मूल उपन्यास को पढ़ चुके हैं और 1987 में ‘’दूरदर्शन’’ पर 6 क़िस्तों, और बहुत बाद में एक दूसरी चैनल पर 8 क़िस्तों, में दिखाए गए इस कुल चार घंटे के सीरियल को कितने लाख या करोड़ दर्शक देख चुके हैं और अब चार डीवीडी-वाले उसके ताज़ा,सर्वसुलभ संस्करण को दुनिया में कहाँ-कहाँ चलाया जा रहा होगा.हम यही कह सकते हैं कि ‘’तमस’’ असाहित्यिक दर्शकों के बीच भी इतना जीवंत और लोकप्रिय साबित हुआ कि एक कालजयी,’कल्ट स्टैटस’ हासिल कर चुका है.सफल या कला-धारावाहिकों को एक कल्पनाशील निदेशक काट-छाँटकर एक सुसाध्य,भले ही कुछ लम्बी,फ़ीचर-फिल्म का रूप दे सकता है.हम यहाँ ‘’तमस’’ के इस डीवीडी सैट को एक फिल्म मानकर ही चलेगे.

जो कि एक अद्भुत फ़िनॉमेनन है.आप इस पर गोधूलि-वेला तक बहस कर सकते हैं कि जब ‘तमस’ एक ‘बड़ा’ उपन्यास था ही तो गोविन्द निहालाणीने कौन-सा हाथी के मर्मस्थल पर तीर मार दिया कि उस पर कामयाब सीरियल बना डाला.लेकिन संसार में हर हफ़्ते एक ऐसी फिल्म रिलीज़ होती है जो किसी क्लासिक पर बनी बताई जाती है और घटोत्कच की तरह उसे ही लिए-दिए धराशायी हो जाती है.शायद खुद निहालाणी कभी ऐसा कारनामा अंजाम दे चुके हों.हर विधा के सर्जक के साथ कभी-न-कभी ऐसा हो जाता है.मणि कौलने मुक्तिबोधकी कालजयी रचना ‘अँधेरे में’ पर एक विनाशक फिल्म बनाई,जिसमें प्रोड्यूसर से लेकर भोपाल के अन्य विविध मीडियाकरों तक का योगदान था, लेकिन उन्हींने विनोदकुमार शुक्लके कठिनतर उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’पर गुणग्राही दर्शकों को सत्यजित राय की टक्कर का सिनेमा दे दिया.

बहरहाल,स्वयं भारत-विभाजन के सपरिवार भुक्तभोगी होने के कारण निहालाणी को,जो तब तक एक सार्थक निदेशक के रूप में स्थापित हो चुके थे, पार्टीशन पर फिल्म बनाने के लिए एक उपयुक्त कृति की तलाश थी लेकिन जब उन्होंने यशपाल का जटिल,सुदीर्घ,लिहाज़ा लगभग अपाठ्य, उपन्यास ‘’झूठा सच’’देखा तो उनके छक्के छूट गए.यह भीषम भाई,हिंदी साहित्य,भारतीय टेली-सिनेमा और स्वयं निहालाणी का सौभाग्य था कि उसके बाद उन्हें ‘तमस’ पढ़ने को मिला.वह उनका ‘यूरेका’ क्षण था.यहाँ यह सूचना अनिवार्य है कि करीब साठ वर्ष पहले अपने ‘’आरज़ू’’ और ‘’रामायण’’वाले रामानंद सागर,जो शायद तब वामपंथी रुझान के थे, बँटवारे पर एक भावनापूर्ण उपन्यास ‘’और इंसान मर गया’’लिख चुके थे,जो क्या पता अब उपलब्ध है भी या नहीं,लेकिन खण्डवा के मुझ तत्कालीन 16-वर्षीय मैट्रिक छात्र को बहुत विचलित कर गया था - अब पढूँ तो पता नहीं कैसा लगे.

भीषम भाईख़ुशक़िस्मत थे कि उनके बड़े भाई का नाम बलराज साहनीथा,उनकी तरह वह भी अंग्रेज़ी के अच्छे एम.ए.थे,शुरूआत में गाँधी-नेहरूवादी कांग्रेसी ज़रूर  थे लेकिन बड़े भाई की देखा-सीखी सुविख्यात वामपंथी नाट्यमंडली ‘’इप्टा’’ में काम करते-करते जो कम्यूनिस्ट हुए तो ताज़िंदगी वही रहे.क्या यह मात्र संयोग है कि हिंदी में तक़सीम पर बड़ा काम प्रगतिकामी,प्रबुद्ध प्रतिभाओं ने ही किया है ? बहरहाल,बीच में भीषम भाई कुछ बरस तत्कालीन सोवियत रूस जाकर मूल रूसी में महारत हासिल करने के बाद  वहाँ प्रगतिशील साहित्य के सर्वश्रेष्ठ अनुवाद भी कर आए.इस तरह फ़ौलाद को सान चढ़ी.

एक अद्वितीय मणिकांचनसंयोग में भीषम-‘तमस’-गोविन्द साथ हुए.यदि सर्वाधिक बेहतरीन हिन्दीभाषी अभिनेताओं को किसी फिल्म में लेने का कीर्तिमान  ‘गिनेस (जिसे जाहिल ‘गिनीज़’ लिखते हैं) बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स’ में दर्ज़ किया जाता हो तो वह ‘तमस’ के खाते में ही जाएगा: ओम पुरी,दीपा साही,अमरीश पुरी,ए.के.हंगल,मनोहर सिंह,सईद जाफ़री,सुरेखा  सीकरी,उत्तरा बावकर,वीरेन्द्र सक्सेना,इफ़्तिख़ार,दीना पाठक,पंकज कपूर,के.के.रैना,बैरी जॉन.दुबारा ऐसी कास्टिंग यूँ भी नामुमकिन है क्योंकि अव्वल तो  यह सब गोविन्द निहालाणी की प्रतिष्ठा और मैत्री के कारण ही ‘तमस’ से जुड़े और दूसरे यह  कि शौक़िया लेकिन उम्दा अदाकार भीषम भाई के साथ-साथ अमरीश पुरी,हंगल,मनोहर सिंह,इफ़्तिख़ार औरदीना पाठकअब हमें कभी हासिल हो नहीं सकते.ऐसाभूतो न भविष्यति‘आँसाँब्ल’ पाने के लिये तो कोई अपना जननपिंड-दान तक कर सकता है.

लेकिन यहाँ एक ग़ुस्ताख़ नाइत्तिफ़ाक़ी लाज़िमी लगती है.भारत के बँटवारे में लाखों हिन्दू-मुसलमान  क़त्ल हुए हैं और वह एक ऐसा नासूर है जो 1947 के बाद भी अलग-अलग भेसों में दोतरफ़ा मल्कुल्मौत बना हुआ है.तक़सीम ने सारी दुनिया के हिन्दू-मुस्लिम डायस्पोरा को भी तक़सीम कर रखा है.भावुक आदर्शवाद से बात बन नहीं पा रही है.पार्टीशन पर जितना और जैसा लिखा जाना चाहिए था,उसका जैसा असर होना चाहिए था, वैसा दोनों तरफ हो नहीं पाया.इसे हम दक्षिण एशिया का ‘होलोकास्ट’ कह सकते हैं हैं लेकिन मूल होलोकास्ट पर यहूदियों और ग़ैर-यहूदियों ने जिस स्तर का और जितना संस्मरण,गल्प,शोध और चिंतन-साहित्य  लिखा है हम उसकी खुरचन तक नहीं दे  पाए हैं. विभाजन-साहित्य का एक साँचा,ढर्रा,’क्लिशे’ बन गया है (चाहे-अनचाहे ’तमस’ भी उसका शिकार है) जो सर्कस में रस्सी पर साइकिल चलाने का संतुलित तराज़ूई कमाल दिखाने की राहत के साथ तम्बू के पीछे अगली नुमाइश के लिए दौड़ जाता है.

हमारे हर ऐसे इंडो-पाक अफ़साने,नावेल या फ़िल्म में तक़रीबन यही होता है.यह नहीं कि उनका कुछ असर नहीं होता होगा,उन्होंने शायद कुछ आशंकित हिंसा को रोका भी  हो,लेकिन सिर्फ हिन्दुस्तान को लें तो क्या ‘तमस’ के बाद बाबरी मस्जिद,मेरठ,गुजरात नहीं हुए और आगे नहीं होंगे ? गुजरात के सूबेदार  तो अब तख़्त-ए-सल्तनत-ए-देहली पर अक्सरीयत से जलवाफ़रोश हैं. दूसरी तरफ़ 26/11,तालिबान,बोको हराम,दवला-ए-इस्लाम दैश के बाद कौन-सी वबा नाजिल होगी ? हम दयनीय,जाहिल, कायर और चालाक़ गर्व के साथ कहते हैं कि प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी सब हर दिन अधिक प्रासंगिक होते जाते हैं, लेकिन ऐसी  प्रासंगिकता के  बासी   अचार से गँधाती रोटी कब तक खाएँ  जो अपने ही  भयावह जन्मदाता  कारणों को हमेशा के लिए अप्रासंगिक न बना सके ? ‘’प्रासंगिकता’’ की विडंबना पर विश्व-साहित्यालोचन में कोई विचार नहीं हुआ दीखता है.भारत  में हालात बदलने के लिए राजनीति को जो नरसिंह या छिन्नमस्ता का अवतार लेना पड़ेगा, क्या उसके लिए हमारे सारे सर्जक-बुद्धिजीवी  तैयार हैं?

भीषम साहनी इस विडंबना से आगाह थे और इसीलिए कम-से-कम वह अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहे.उनके चैक पार्श्वभूमि वाले नाटक ‘’हानुश’’ में यह देखा जा सकता है.विचित्र किन्तु  सुखद संयोग है कि हिंदी के दो परस्पर छोटे-बड़े लेखक-अभिनेताकिशोर साहूऔर भीषम भाई  की जन्मशतियाँ इसी वर्ष दो महीनों के भीतर पड़ रही हैं.  ’तमस’ से दो वर्ष पहले भीषम भाई में एक जिद्दी,धुनी मृदुभाषी सक्रियतावादी तथा अभिनेता को पहचानते हुए सईद मिर्ज़ा ने अपनी फीचर-फिल्म ‘’मोहन जोशी हाज़िर हो’’में उन्हें बुज़ुर्ग समनाम नायक की भूमिका  दी थी जो उनका सिनेमाई अरंगेत्रं था.उसमें वह ‘सारांश’के अनुपम खेरकी तरह सराहे गए.’तमस’ के बाद 1993 में विश्वविख्यात इतालवी निदेशक बेर्नार्दो बेर्तोलुच्चीकी फिल्म ‘दि लिटिल बुद्ध’ में उन्होंने असित नामक पात्र का बहुत छोटा रोल किया.उन्हें फिल्मों में आख़िरी बार ‘मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर’में रूढ़िवादी मुस्लिम बुज़ुर्ग इक़बाल अहमद खान के कामयाब किरदार में 2002 में  देखा गया.

सत्तावन बरस पहले जब वह मुम्बई ‘इप्टा’ में थे तब तैंतीस बरस के हो चुके थे और बलराज साहनी का ख़ूबरू छोटा भाई होने के बावजूद उन्हें अगर मिलते भी तो दूसरी कतार के रोल ही मिलते.ख़ुद बलराज को फ़िल्मी जंगल में दिलीप-राज-देवजैसे धाकड़ आदमखोरों के बीच अस्तित्व के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था.भीषम भाई एक्टर बनने के पीछे भागे नहीं, लेकिन भले ही अपने अंतिम वर्षों में, उन्होंने   बड़े भाई बलराज की ग़ैर-मौजूदगी में सिनेमा के इजलास में भी एक कौतुक की तरह अपनी ‘’देर आयद दुरुस्त आयद’’हाज़िरी दर्ज कर दी.अदबी दुनिया में तो वह कभी के ‘’छोटे मियाँ सुब्हानअल्लाह’’हो चुके थे.भारतीय समाज पर घिरा हुआ तमस जल्दी छँटने वाला नहीं,’तमस’ का महत्व जल्दी घटने वाला नहीं.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

भूमंडलोत्तर कहानी (८) : नीला घर (अपर्णा मनोज) : राकेश बिहारी

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भूमंडलोत्तर कहानियों के चयन और आलोचना के क्रम में इस बार अपर्णा मनोजकी कहानी नीला घरपर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख- नीला घर के बहानेसमालोचन प्रस्तुत कर रहा है. अपर्णा मनोज की कहानियाँ समालोचन के साथ-साथ कई प्रतिष्ठा प्राप्त पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. उनकी कहानियों का संवेदनशील वितान उन्हें अलग ही कथा-कोटि में रखता है.
राकेश बिहारी की विशेषता यह है कि वह कहानी की विवेचना के तयशुदा ढांचें में तोड़-फोड़ करते रहते हैं. यहाँ निरी अकादमिक चर्चा नहीं है, यह आलेख खुद कहानी के समानांतर लगभग उसी शैली में कथा से संवाद करता चलता है.
समालोचन का यह ‘कथा –आलोचना’ स्तम्भ अब तक लापता त्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), शिफ्ट+कंट्रोल+आल्ट=डिलीट (आकांक्षा पारे), नाकोहस(पुरुषोत्तम अग्रवाल),अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज), पानी (मनोज कुमार पांडेय), कायान्तर(जयश्री रॉय), उत्तर प्रदेश की खिड़की(विमल चन्द्र पाण्डेय) पर राकेश बिहारी के आलोचनात्मक आलेख प्रस्तुत कर चुका है.

 


नीला घरके बहाने                                                     
(संदर्भ: अपर्णा मनोज की कहानी नीला घर)
राकेश बिहारी




चाँद की बुढ़िया जैसी शक्ल वाली बप्पा के ज़मीनदोज़ होते ही नीला घर पीर की दरगाह हो गया.

इससे पहले कि बर्छियाँ चलीं,बल्लम उठे बप्पा ने जाने किन-किन गुनाहों के लिए माफी मांगते हुये फातेहा पढ़ा था,ठीक वैसे ही जैसे शब-ए-बरात के दिन रोटियाँ बदलते हुये उन सबके लिए दुआ पढ़ती थीं जो अल्लाह को प्यारे हो चुके थे. बप्पा नीले घर से कुछ कहना चाहती थीं,शायद साँवली और वीर के लिए कोई संदेश यदि कभी वे मुड़ कर यहाँ आए तो... नीला घर भी कुछ कहना चाहता था उनसे... दोनों की फुसफुसाहटें आपस में कुछ बतिया ही रही थीं कि उन वहशी आवाज़ों ने उन्हे दबोच लिया था... कितनी करुण थीं उस वक्त बप्पा की निगाहें नीले घर की तरफ देखते हुये... अथाह दर्द के बावजूद उनकी पुतलियों में ज़िंदगी से भरी चमक थी,साँवली,बन्नो और वीर को बचा लेने का संतोष भी...

नीला घर के ठीक बीचोबीच स्थित बप्पा की मजार के सामने घुटनों पर बैठा हुआ हूँ मैं... मदहोश कर देनेवाली खुशबू से भरे वे सफ़ेद जंगली फूल जिनका नाम भी मैं नहीं जानता,जो नीला घर से कुछ ही फ़र्लांग की दूरी पर खिले हैं और जिन्हें मैंने अपनी दोनों हथेलियों के दोने में भर लाया था,बप्पा की मजार पर चढ़ा चुका हूँ.

करुणा और दुख से भीगी बप्पा की आवाज़ मेरीनसों में उतर रही है
आह! कैसी सुंदर थी मेरी लाडो ..ऐसी जोड़ी किसी की न थी. बिना नज़र उतारे मैं इसे बाहर पग न धरने देती थी. पर क्या जानती थी कि जिस नज़र को मैं उतार रही थी उसकी बदी को मेरे घर ही  पलना था. मेरे ही आँगन में  निगोड़ा गीध मेरी लाडो को नोंच खायेगा कौन जानता था .. जिस पर मैं बलिहारी गई ..जिसके मैं कसीदे पढ़ती रही ..ताउम्र जिस पर मरी .. नाशुक्रा,मेरा शौहर वो ही कसाई निकला...  

इस मासूम का रोना केवल इसलिए नहीं कि उसका सब कुछ लुट चुका था.इसलिए कि घर की इज्जत बचाने के लिए इसका निकाह मेरे शौहर से होना तय हुआ...
गर्म इस्पात सी पिघलती बप्पा की आवाज़ की रोशनी में दीवार पर लगा कैलेंडर तेजी से फड़फड़ाता है और मैं कोई दसेक साल पीछे मुजफ्फरनगरके चरथावल कस्बे में दाखिल हो जाता हूँ... अली मोहम्मद जेल में है. उसके घर के आसपास सन्नाटे का शोर पसरा हुआ है. नूर एलाही अल्लसुबह  रिक्शा लेकर शहर जा चुका है. नूर एलाही! यानी अली मोहम्मद का बेटा! वही बेटा,जिसकी बीवी का नाम इमरानाहै!  इमराना! आपने ठीक समझा... वही इमराना जो दिनों तक सुर्खियों में थी.  क्या उलेमा,क्या नेता,क्या वकील क्या पत्रकार उन दिनों जैसे सबको अपनी दुकान चमकाने का एक सुनहरा अवसर मिल गया था... तमाम सवालों और प्रतिरोधों के बावजूद शरिया अदालत के झंडाबरदार अपनी दलीलों पर कायम थे... महिला आयोग हरकत में था,समांजसेवी संगठन के कार्यकर्ता धरना-प्रदर्शन कर रहे थे... और देश के एक मात्र नेताजी को मजहबी पंचायत का वह फैसला काफी सोच-विचार कर लिया हुआ लग रहा था जिसके अनुसार इमराना और नूर एलाही का निकाह हराम ठहराया जा चुका था. इमराना को अपने पति को बेटे जैसा मानने का हुक्म था कारण कि उसके ससुर ने उसके साथ जिस्मानी ताल्लुकात बनाया था.

खैर... इमराना,माफ कीजिएगा उसके पति के घर के आगे खड़ा मैं जरीफ़ से मिलना चाहता हूँ. क्या कहा आपने... यह जरीफ़ कौन है?अरे,जरीफ़ बेगम को नहीं जानते आप?जरीफ़ बेगम नूर एलाही की माँ हैं,अली मोहम्मद की बीवी! पता चला कुछ दिन हुये बुखार से उसकी मौत हो गई. अली मोहम्मद चार घण्टों के पे रोल पर उसके जनाजे में शामिल होने आया था. मैं सोचता हूँ क्या अपनी मौत से पहले उसने भी बप्पा की तरह अपने गुनाहों की माफी मांगी होगी?शायद हाँ... शायद नहीं... मुझे वहाँ की उदास हवाओं में जरीफ के सिसकने की आवाज़ सुनाई देती है,दबी हुई सिसकियों के बीच  कुछ अस्फुट से शब्द भी... मैं इमराना के साथ खड़ा होना चाहती थी...पर सबने मुझे मेरे ही घर में कैद कर दिया था... काश मैं उसका साथ दे पाती... लेकिन मैं मजबूर थी... जरीफ़ की आवाज़ धीरे-धीरे सख्त हो रही है,जैसे वह अपने आंसू पोंछने लगी हो... और उसकी आवाज़ कब बप्पा की आवाज़ में बदल गई मुझे पता ही नहीं चला...

कौन होते थे वे लोग ये सब तय करने वालेकिसकी इज्जत को वे बचाने में तुले थेहम दो औरतें किसी को न दिखींवो जो इसका अपना शौहर था...मेरा बेटा और इसका आशिक ..जान छिडकता था इस पर.. न बोल पाया सह पाया.. कातरता में छत से कूद पड़ा. कुछ न बचा. सब ख़त्म...एक झटके में. 
सच! निकट अतीत के किसी असली पात्र का यह मानीखेज़विस्तार मुझे एक हैरतअंगेज खुशी से भर रहा है. सोचता हूँ,यथार्थ की पुनर्रचना का कितना खूबसूरत और जिंदा उदाहरण है यह... मैं सरककर मजार के कुछ और करीब चला आयाहूँ... बप्पा! आप से कुछ सवाल पूछ सकता हूँ?

सफ़ेद जंगली फूलों में जैसे जुंबिश-सी हुई है... मैं बप्पा के शब्दों का इंतज़ार किए बिना शुरू हो जाता हूँ... आपने अच्छा किया उस दिन सारे माल असवाब के साथ साँवली और बन्नो को ले कर यहाँ भाग आईं. लेकिन सच बताइये बप्पा! अपने शौहर और गाँव की पंचायत से दूर भाग कर भी आप सुरक्षितहो पाईं क्या?यहाँ से तो उन तीनों को आपने अपनी जान की कीमत दे कर भी सुरक्षित निकल जाने दिया,पर इस बात की क्या गारंटी है कि इस ढाणी से दूर  जहां उन्होंने अपना नया आशियाना बसाया होगा वहाँ सबकुछ निरापद ही होगा?यहाँ आने के बाद आपने भी सोचा था क्या कभी कि जिस ढाणी को आपकी सबसे ज्यादा जरूरत थी,वही आपका यह नीला घर आपके मकबरे में तब्दील हो जाएगा?  भागने का यह सिलसिला आखिर कबतक चलेगा बप्पा?खाप-खाप की आवाज़ से डर कर साँवली कबतक भागती रहेगी?आपको नहीं लगता कि साँवली का सुरक्षा कवच बन हमेशा उसे अपने आँचल में दुबकाए रखने की बजाए आपको उसके साथ खड़ी होकर उसे संघर्ष करने देना चाहिए था?
अपर्णा मनोज

जंगली फूलों से उठ रही खुशबू जैसे बप्पा की आवाजों को ही मुझ तक लिए आ रही है... मैंने तो वही किया जो एक माँ अपनी बेटी के लिए कर सकती थी.. साँवली मेरी बहू थी,अगर मेरी कोई बेटी होती तो उसी की उम्र की होती... और फिर मेरा बेटा,जो अपने नाशुक्रे बाप की करतूत को न सह पाया न रह पाया,उसकी आत्मा का दुख भी तो मुझसे नहीं सहा जाता... मैं जब चुनरी में धागा लगाती हूँसितारा टाँकती हूँ तो सूई की नोक मेरी रूह में छेद करती है और हर बार मेरे बेटे की सूरत सितारों में आग लगाती है ..कि वो जिन्न बनकर इस घर के हर कोने से हमें देख रहा है. कह रहा है कि मेरी दुल्हनिया को दुलार से भर देना अम्मी.."बप्पा की आवाज़ का वात्सल्य जैसे घने बादलों की तरह लरज़ कर पिघलने सा लगा है.... बप्पा और साँवली के रिश्ते में सास-बहू के रिश्ते की लेश भर भी छाया नहीं... वे तो जैसे माँ-बेटी सी हो गई हैं... कई बार उससे भी ज्यादा दो सखियां जिनके दुख आपसे में कब एक हो गए पता ही नहीं चला.  दुनिया की सारी औरतों के दुख कब एक दूसरे में घुल मिल जाते हैं कब पता चलता है?बप्पा ने ग्लोबल सिस्टरहुड की कोई किताब नहीं पढ़ी,उसका नाम तक नहीं सुना... लेकिन ग्लोबल सिस्टरहुड का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि पीढ़ियों से जन्मजात दुश्मन की-सी रहती आईं सास-बहू माँ-बेटी से भी दो कदम आगे एक दूसरे की सखियाँ हुई जा रही हैं.

बप्पा और साँवली के बहनापे के बहाव के साथ बहते अपने वजूद को किसी तरह नियंत्रण में करना चाहता हूँ मैं... पर बप्पा!क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह आपने साँवली को कहीं कमजोर भी कर दिया?उसके हिस्से की लड़ाई भी आप खुद ही लड़ने लगीं...?कुछ और नहीं तो कम से कम जरदोज़ी का वह काम ही उसे सिखाया होता जिसमें आपके नाम की तूती सारे इलाके में बोलती थीवह तो रब की मेहर थी कि वीर आ गया. यदि वह नहीं आता तो?क्या फिर ताउम्र आप इसी तरह उसके दुखों को सहलाती रहतीं?यदि हाँ तो फिर आपके बाद उसका क्या होता?

बप्पा की आवाज़ कुछ देर को रुकी है... जैसे उनकी आँखों में खाप-खाप की आवाज़ का भयानक डर एक बार फिर से घर कर गया हो. सुदूर पश्चिम की तरफ उंगली से इशारा करते हुये उनकी सांसों का हाँफना साफ-साफ सुन सकता हूँ मैं... सारे सवाल के जवाब मुझसे ही पूछ लोगे?आखिर मैंने भी तो वही किया न जैसा मुझसे मेरी मानस माँ ने करवाया...

खाप-खाप की वह आवाज जिसका भय अभी-अभी मैंने बप्पा की आँखों में देखा था,को क्षण भर के लिए रोक कर  नीले घर ने वीर के कान में फुसफुसाते हुये कहा है... जाओ,भाग जाओ... दूर किसी और टेकरी पर...चाँद की बुढ़िया जैसी शक्ल वाली बप्पा ने सोने की कंठी,चांदी की पाजेब,चूड़ियों और कुछ गिन्नियों से भरी पोटली साँवली के हाथों में थमायी है... खाप-खाप की आवाजों ने अचानक से गाँव पर हमला बोल दिया है और बप्पा की आवाज़ अचानक कहीं गुम हो गई है.

गहरे सन्नाटे से बिंधा मैं नीले घर की उस आखिरी फुसफुसाहट की उँगलियाँ थामे बहुत दूर निकल गया हूँ... क्या यह आवाज़ कभी पहले भी सुनी थी?हाँ... लेकिन तब वह फुसफुसाहट नहीं थी... उसमें एक दृढ़ता थी. अपनी स्मृतियों पर बल देता हूँ... याद आया,वह आवाज़ गदल की थी... बरसों का वह फासला क्षण भर में दूर हो गया हो जैसे... उस रात का वह दृश्य हू-ब-हू मेरी आँखों के आगे उपस्थित हो जाता है
जब सब चले गए, गदल ऊपर चढी. निहाल से कहा - ''बेटा!''
उसके स्वर की अखंड ममता सुनकर निहाल के रोंगटे उस हलचल में भी खडे हो गए. इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा - ''तुझे मेरी कोख की सौगंध है. नरायन को और बहू-बच्चों को लेकर निकल जापीछे से.''
''और तू?''
''मेरी फिकर छोड! मैं देख रही हूँ, तेरा काका मुझे बुला रहा है.''(गदल : रांगेय राघव)

गदल के हाथ की लालटेन छूट कर बुझ गई है. नीले घर के बीचोंबीच स्थितबुढ़िया की मजार पर वही दीप रौशन है,जिसकी रोशनी में बप्पा की आँखें कभी घाघरे,चोली और दुपट्टे में सितारे टाँकती थीं. उन्हें इस दीप का इतना भरोसा था कि उसे दिन में भी अपनी बगल में बाले रहतीं. मैं मजार के थोड़ा और समीप आ जाता हूँ... नन्हें दीपक की रौशनी में बप्पा और गदल आमने-सामने बैठे हैं... दोनों ने अपने जान की बाजी लगा कर अपने अपनों को सुरक्षित निकल जाने दिया था. गदल ने अपने देवर के प्रेम और बिरादरी की नाक के लिए अपने प्राण की परवाह नहीं की तो बप्पा ने अपनी जान गवां कर अपनी बहू के प्रेम को बचाया. दीपक की रौशनी में मेरे भीतर-बाहर का अंधेरा भी छांट रहा है... समय की बेदी पर गदल का उत्सर्ग बहुत बड़ा था... लेकिन इतने सालों बाद मैं देख सकता हूँ की गदल का प्रतिरोध परंपरा,समाज और बिरादरी के अहाते के भीतर ही थी... कहीं न कहीं उसे पुष्ट भी करता हुआ... लेकिन बप्पा ने समाज और बिरादरी के उस घेरे को तोड़ा है...

गदल की आँखों से आँसू की धारा बह रही है... वह कुछ आगे बढ़ कर बप्पा की हथेलियाँ थाम लेती है,उन्हें गले से लगाती है... मैं बहुत खुश हूँ बप्पा! जो मैं नहीं कर सकी उसे तुमने कर दिखाया... देखते ही देखते बप्पा और गदल की आकृतियां एक हो कर उस दीपक की लौ में गुम हो गई है...

मैं बप्पा को आवाज़ देता हूँ... मुझे आपसे कुछ और बातें करनी है... बप्पा भले गुम हो गई हों पर जैसे दीपक की रौशनी और उन सफ़ेद जंगली फूलों की मीठी गंध के बीच उन्हीं की आवाज़ों की प्रतिध्वनियाँ गूंज रही है... सारे सवाल के जवाब मुझसे ही पूछ लोगे?


मेरी आँखें कब से बप्पा की मानस माँ को ढूंढ रही हैं. मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि राजस्थान के लोक रंग की खुशबू और जटिलताओं के बीच उन्होंने एक स्त्री के  प्रतिरोध की आवाज़ को बहुत पुख्तगी और संवेदनशीलता के साथ बप्पा की हर सांस में दर्ज किया है...  मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि कैसे बप्पा को देख के मुझे जरीफ़ और गदल दोनों की याद आई... लेकिन इन सबके बीच मुझे उनसे यह भी पूछना है कि साँवली कब तक चुप रहेगी...आखिर उसे कबतक भागना पड़ेगाएक टेकरी से दूसरी टेकरी तक...?उन्हें उनके कई पतों पर ढूंढा लेकिन आजकल वे कहीं दिखती नहीं... शायद वे ऐसे ही सवालों का जवाब देनेवाले तथा कुछ और सवाल करने वाले नए पात्रों की तलाश में कहीं दूर गई हों... मुझे उन पात्रों का इंतज़ार है... 
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