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हरजीत के यार (१) : नवीन कुमार नैथानी और तेजी ग्रोवर

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ये हरे पेड़ हैं
हरजीत सिंह की आठ ग़ज़लें
 


1

कश्तियों से क्या पूछें सब्ज़ झील की बातें

बत्तखों से पूछेंगे     झील की सभी बातें

 

कांच की हैं दीवारें जिनमें अब वो रहता है

कांच की तरह नाज़ुक उसके प्यार की बातें

 

शख्सियत है उसकी अब उसके दस्तखत यारों

उससे क्या सुनेंगे हम    उसकी कागज़ी बातें

 

जाने कब जवां हो कर शहर-भर के लब छू लें

मेरे घर के    आँगन में     खेलती हुई बातें

 

हँस रहे हैं छुप छुप के कुछ ढके ढके चेहरे

चल रही हैं महफ़िल में कुछ खुली-खुली बातें

 

सुब्ह होश पा लेना शाम होश खो देना

सुब्ह दूसरी बातें     शाम दूसरी बातें

 

मैंने अपने बचपन को गेंद की तरह खोया

वक़्त ले गया मुझसे    मेरी तोतली बातें

 

बर्फ़ के पिघलते ही भर के आयेंगी नदियाँ

सर उठाएंगी अपना     बर्फ़ में दबी बातें

 

2.

 

एक शोशा वो यहाँ रोज़ छोड़ देते हैं

मुल्क को जंग के ख़तरे से जोड़ देते हैं

 

जब ग़लतियों पे कोई उनकी उठाये उंगली  

अपनी बातें     वो ग़रीबों पे मोड़ देते हैं

 

अब तो वो अपने बयानों को घरोंदों की तरह

खु़द  बनाते हैं     उन्हें खु़द ही तोड़ देते हैं

 

ध्यान बारूद की बातों से बांटने के लिए

कुछ कबूतर भी हवा में वो छोड़ देते हैं

 

हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त

हम तो आवाज़ से   शीशे को तोड़ देते है

 

3.

 

और कब तक कोई पाबन्द यहाँ रहता है

देखिये कितने बरस दौरे-ख़िज़ाँ रहता है

 

कोई दीवार किसी राह में आती ही नहीं

खू़न जब खू़न की मानिंद रवां रहता है

 

अपने दिल में कभी हम खु़द भी नहीं आ पाते

अपने ही दिल में कभी सारा जहाँ    रहता है

 

कश्तियाँ डूब भी जायें तो मरने वालों में

होश जब तक रहे साहिल का गुमाँ रहता है

 

ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगो

इनके जलने से हर रोज़ धुआँ रहता है

 

 

 

4.

 

अफवाह है उस आग में कुछ भी बचा नहीं

लेकिन ख़बर ये है कि वहां कुछ हुआ नहीं

 

खु़शबू नहीं रही ये शिकायत तो आम है

क्यों खिल सके न फूल कोई सोचता नहीं

 

कुछ ऐसे ज़लज़ले भी ज़मीं पर गुज़र गये

अपनी जगह से एक भी पत्ता हिला नहीं

 

वो लफ़्ज़ जिसकी धार से पत्थर भी कट सके

अब तक      किसी किताब में मैंने पढ़ा नहीं

 

तुमको हवा लगी है सियासत के शहर की

अब तुम जो कर रहे हो तुम्हारी ख़ता नहीं

 

इक वो थे जिनके खू़न से तारीख़ बन गयी

इक ये हैं जिनका खू़न कभी खौलता नहीं

 

5.

 

घुटन के साथ तू जाएगा इन घरों में कहां

खुली फिज़ा में जो राहत है बस्तियों में कहां

 

उतर चुकी है जो काग़ज़ पे अपने रंगों में

छुपी हुई थी वो तस्वीर उंगलियों में कहां

 

घने दरख़्त हैं इस राह से तू दिन में गुज़र

हुई जो रात तो भटकेगा जंगलों में कहां

 

सफ़ेद   पेड़ बहुत       जल्द हो गए  ऊँचे

जो कल मिले थे वो मंज़र भी रास्तों में कहाँ

 

हरी   ज़मीन  पे    तूने इमारतें बो दीं

मिलेगी ताज़ा हवा तुझको पत्थरों में कहां

 

ये रतजगे ये इबादत तो   उनका पेशा है

भटक रहा है नगर उनके रतजगों में कहां

 

उसे निज़ाम ने अपना बना     लिया यारो

अब उसका नाम अदालत के काग़ज़ों में कहां

 

6.

 

उसके लहजे में इत्मीनान भी था

और वो शख्स बदगुमान भी था

 

फिर मुझे  दोस्त    कह रहा था वो

पिछली बातों का उसको ध्यान भी था

 

सब अचानक    नहीं हुआ यारो

ऐसा होने का कुछ गुमान भी था

 

देख सकते थे  छू न सकते थे

कांच का पर्दा दरमियान भी था

 

रात भर उसके साथ रहना था

रतजगा भी था इम्तिहान भी था

 

आईं चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना

मेरे कमरे में आस्मान भी था

 


7.

 

दर्द कितना भी दिलनशीं होगा

हम बिखर जायें ये नहीं होगा

 

तूने    सदमों की धूप देखी है

कोई तुझसे भी क्या हसीं होगा

 

इस तरफ़ रात है उधर दिन है

अब वो सूरज उधर कहीं होगा

 

घर ख़लाओं में हम बनायेंगे

आस्मां इक नई ज़मीं होगा

 

हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ

हम न होंगे तो क्या नहीं होगा


 

8.

 

मछलियाँ सोई हैं साहिल पे कश्तियों की जगह

कश्तियाँ होंगी समन्दर में मछलियों की जगह

 

घर समन्दर से    बहुत दूर इक पहाड़ी पर

दिल समन्दर कहीं गुम है सीपियों की जगह

 

बर्फ़ थी जैसे कि     खरगोश हों पहाड़ों पर

धूप में हो गये ओझल जो वादियों की जगह

 

शाम पेड़ों में हवा कितनी चीख कर रोई

टहनियां टूट गईं ख़ुश्क पत्तियों की जगह

 

इन मुहर बंद लिफ़ाफ़ों में तक़ल्लुफ़ है बहुत

कैसे रक्खूं मैं इन्हें सादा चिट्ठियों की जगह

 

ख़ुद से बाहर वो कहीं कुछ भी नहीं देख सका

आईने उसने लगाये हैं खिड़कियों की जगह

 

साहिल करीब देख कर मुसाफ़िर तो खुश हुए

मल्लाह चुप था उसके  लिए आम बात थी


हरजीत, देहरादून और टिप-टाप
नवीन कुमार नैथानी


देहरादून का कोई भी साहित्यिक-सांस्कृतिक उल्लेख डिलाइट और टिप-टाप के जिक्र से बचकर संभव नहीं. डिलाइट का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी वह अपनी उसी त्वरा के साथ गतिशील है-- एक साथ कई पीढ़ियों के बीच जीवन्त बहसों, अफवाहों, सूचनाओं और निखालिस गप्पबाजी का ठेठ अनौपचारिक ठीहा! आज की बढ़ती समृद्धि और घटती संवेदनशीलता के इस बेहद तेज समय में शहर के बीचो-बीच अपनी सादगी भरी धज में डटा डिलाइट प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचता दिखायी पडता है. टिप-टाप का जिक्र भी जरूरी है जो अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के पूरे दशक भर अपने उफान पर रहा और अब बस नाम भर बचा हुआ है-चकराता रोड की भीड़ भरी भागम-भाग के बीचो-बीच एक साइन बोर्ड!

इस शहर में भीड़ का ये आलम है
घर से गेंद भी निकले तो गली के पार न हो

हरजीत ने शायद कुछ ऐसा टिप-टाप मे बैठकर ही कहा था. उन दिनों टिप-टाप पूर्णतः साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था. टिप-टाप का इतिहास कुछ यूं रहा कि डिलाइट के किंचित अगंभीर से दिखलायी पड़ते  माहौल से हटने के लिये एक वैकल्पिक स्थल के रूप में पहले यहां पत्रकारों ने अड्डा जमाया- फिर रंगकर्मी काबिज हुए और अन्ततः साहित्यिकों की विशिष्ट मुफलिसी को टिप-टाप मालिक प्रदीप गुप्ता के दिल की रईसी और काव्य-प्रेम इस कदर रास आये कि टिप-टाप, २० चकराता रोड शहर के साहित्यिकों का पता ही बन गया.

जब कथाकार योगेंद्र आहुजा नौकरी के सिलसिले में स्थानान्तरित होकर देहरादून आये तो उन्हें दिल्ली में बताया गया कि देहरादून में किसी साहित्यकार का पता पूछने की जरूरत नहीं- सीधे टिप-टाप चले जाइये! तो टिप-टाप में ही मेरी योगेन्द्र आहूजा से पहली मुलाकात हुई-- वह शायद शाम का वक्त था--लगभग साढ़े सात बज चुके थे. वे अपनी पत्नी के साथ आये थे. टिप-टाप के माहौल में किसी का सपरिवार आगमन आश्चर्य ही हुआ करता था.

"अच्छा! सिनेमा-सिनेमा वाले योगेन्द्र आहूजा!"लगभग की यही प्रतिक्रिया थी. बाद में योगेन्द्र ने गलत, अंधेरे में हंसी और मर्सिया जैसी कहानियां दीं.

खैर, यह एक अलग और विस्तृत कथा है, फिलहाल बात टंटा शब्द पर की जाये जो एक तरह से टिप-टापियों का सामूहिक नामकरण हो गया. इस शब्द के साथ थोडा सा विरोध, हलका सा प्रतिरोध और दुनिया के प्रति किंचित उपहास को मिलाकर एक खिलन्दडाना बिम्ब कालान्तर में जुड़ गया जिससे संबद्ध हर शख्स को टंटा कहा जाने लगा. बहुवचन टंटे और सामूहिकता के लिये टंटा समिति का संबोधन चल निकला. यहां बेहद गंभीर मुद्दों को गैर जिम्मेदारी की हद तक पहुंचने की दुस्साहसिक चेष्टाओं के सामूहिक आयोजन में कई गैर-टंटों ने निहायत अगंभीर (non-serious) वार्तालाप की शक्ल में बदलते देखने के बाद टंटा समिति को वक्त-बरबादी का जरिया माना और घोषणा की कि यह दो चार दिनों का शगूफा है. मजे की बात यह कि टंटों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं- गम्भीरता का उपहास वैसे भी टंटेपन का मूल भाव है! लेकिन टंटा समिति चल निकली और खूब चली. आज भी हम सबके WhatsApp समूह हरजीत के दोस्त  में इसकी महिमा जस की तस बरक़रार है.        

इस टंटा शब्द की भी एक कहानी है. एक शाम शहर में घूमते हुए कवि वीरेन डंगवाल टिप-टाप में आ पहुंचे. शायद राजेश सकलानी के साथ. चूंकि अवधेश और हरजीत के लिये शाम होने के बाद सूरज ढलने का इन्तजार वक्त-बरबादी के सिवा और कुछ नहीं था, सो वे चाहते थे कि वीरेनजी जरा जल्द ही टिप-टाप से निकल कर कहीं और चलें जहां हरजीत अपना ताजा शे’र पढ़ सके:

ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह, शेख, वाहिद, जाहिद हैं हमप्याला

लेकिन वीरेनजी को शायद ६.३० की ट्रेन पकड़नी थी. तो शाम कुछ फीकी से हुई जा रही थी तो हरजीत ने कहा:

"चलो ! टंटा खत्म!"फिर अगला ही जुमला कस दिया,"स्वागत एवं टंटा समिति का काम खत्म."

अगले दिन इस बात का इतनी बार मज़ाक बनाया गया कि टंटा शब्द सबकी जबान में चढ़  गया. कालान्तर में इसमें साथ कुछ अर्थ जोड़ ने की कोशिशें हुईं. एक प्रसिद्ध नामकरण यूं रहा टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे. व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था. शायद सार्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है. अवधेश की एक कविता है -- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं:

माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रहते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है 

इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त की सीमा से बाहर जाती नजर आने लगती है. टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे- लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बड़ा  अहसान कर रहे हैं. कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!

बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढ़ी - उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदा अपने हाथ से दुरुस्त कर चिपका दिया! अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी- पैरोडी. कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार! उन्हीं दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ. ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबीयत के मालिक थे- यह बात दीगर है कि शायराना तबीयत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नहीं. और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा. आहिस्ता-आहिस्ता अपना चश्मा दुरुस्त किया और बोला, "दर्द साहब! यूं ही कहते जाइये. सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं. और रही बात दुरुस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद-ब-खुद शेर हो जायेगा."

दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि हरजीत कभी उर्दू की नशिस्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा. प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है-अतुल शर्मा के साथ. गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में (वह ज्यादा नहीं चल सका). वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी- अच्छा शेर वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानी उसका अन्वय न करना पड़े- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शेर उद्धृत किये थे. एक मुझे याद आ रहा है:

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

खैर एक रोज दर्द साहब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सुर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं. थोडा सकुचाते, कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया- मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया. दर्द साहब सुर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे. तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ. उसने मंजर देखा, प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर-स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शेर चस्पां कर दिया

शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए

इसे पढ़कर दर्द भोगपुरी ने, ज़ाहिर है, राहत की सांस ली.

 


हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ
हरजीत की देहरादुनिया और मैं
तेजी ग्रोवर  

 

प्रिय हरजीत, तुम्हें और तुम्हारी बेटियों सोनू और गोलू, तुम्हारे परिवार के सभी सदस्यों, तुम्हारे सभी दोस्तों और उन सब लोगों को भी तुम्हारी इकसठवीं सालगिरह मुबारक, जिन्होंने किसी शाम तुम्हें सलाद (यह नाम हम दोस्तों ने उस शै को दिया है जिसका सेवन तुम सलाद के साथ करते थे) खिलाकर तुम्हारी उस दिलफ़रेब आवाज़ में तुम्हारे कलाम को सुना है, या तुम्हारी ही तरह फक्कड़ दिखने वाली तुम्हारी स्वप्रकाशित किताबों को बार-बार पढ़ा है. तुम्हारे उन दोस्तों को भी मुबारक हो तुम्हारी सालगिरह जिन्हें तुम्हारी अनेक ग़ज़लें और फुटकर अशआर को याद रखने कोई काग़ज़ नहीं देखना पड़ता. बस मन ही मन तुम्हारी आवाज़ को सुनते हुए हर महफ़िल में याद रही आयी ग़ज़लों को पेश कर सबको अचम्भे में डालने के लत लग चुकी है तुम्हारे कुछ अज़ीज़ों को. तुम्हारे तमाम दोस्त जिनमें से कईयों को आपस में तुमने मिलवाया तक नहीं था, इस वक़्त एक दूसरे से कुछ इस तरह आ जुड़े हैं मानो उनके बीचों-बीच तुम अपने चश्मे की भाप को पोंछते और उनकी शामों को गुलज़ार करने एक बार फिर से आ बैठे हो.

तुम्हें कैसे पता होता कि तुम्हारे जाने के मात्र पाँच साल बाद की दुनिया में तुम्हारे बहुत से दोस्तों को एक-दूसरे को खोज लेने के टोटके उन्हें कुछ ऐसे माध्यमों से मिल जाने वाले हैं, जिन्हें तुम खुद शायद पसंद न भी कर पाते. या फिर इतना पसंद कर लेते कि उनकी शान में तुम्हारे यहाँ गज़लें हो जातीं, कई अशआर फूट पड़ते. तुमने धागों, सीढ़ियों, कपड़ों तक के तो रदीफ़ बना दिए, फिर तीन बार समालोचन की महफ़िल में आकर, कभी ग़ज़लों, कभी तेजस को लिखे खतों, और कभी तुम्हारे दोस्त प्रेम साहिल के लिखे संस्मरणों को देखकर तुम्हे क्या महसूस होता इसे मैं जानती हूँ, हरजीत. जीवन भर तुम्हारे किसी हुनर ने तुम्हें कोई दुनियावी शै से नहीं नवाज़ा, अभाव में ही तुमने अपने फ़न को साधा, गुना, और अपने कहन में ऐसी तराश पैदा की कि तुम्हें खुद ही कहना पड़ा :

हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त
हम तो आवाज़ से   शीशे को तोड़ देते हैं

फिर भी इन नए मंचों और माध्यमों के वुजूद में आने के सोलह साल बाद ही यह सम्भव हो पाया कि हम में से कई लोग जो तुम्हारे देहरादूनी ठीहों से अनभिज्ञ थे, एक दूसरे से मिले बिना भी एक दूसरे से बहुत गहरा जुड़ाव महसूस करने लगे हैं. तुम्हारी आँखों की चमक अब और भी स्निग्ध हमारी आँखों में उतर आयी है और अभी तक हमें ज़िन्दा रहे आने के नित ने गुर सिखाती हमें यह भी बतला रही है कि अब तुम एक बार फिर ख़ुद को भी ठीक से देख सुन पा रहे हो. कुछ लोगों का जाना हमें उनके इतना क़रीब ले आता है, यह तुम्हें खोकर ही कालांतर में हम जान पाए, और फिर तुम्हें इस तरह दोबारा पाकर, हरजीत! दोस्तों के शामें एक बार फिर तुम्हारी ग़ज़लों और तुम्हारे हाथ के बने रेखांकनों, आवरणों, कोलाजों और खिलौनों से गुलज़ार होने लगी हैं. 

हर-मन प्यारे हरजीत, तुम जान ही रहे हो, कि तुम्हारी गिलहरी तेजस यानिख़ाकसार ने पिछले साल किसी वक़्त इक्कीस बरस में पहली बार इतना ज़ोर से उच्चारातुम्हारा नाम कि एक ने प्रत्युत्तर में ऐसा हुंकारा भरा कि उसने और हुंकारों को अंक में समेट लिया. वह पहले भी कई बार पुकारती आयी है तुम्हारा नाम, कई बार, और कहीं-कहीं से हुंकारे भी आये हैं. लेकिन इस बार तुम्हारे नाम को उच्चारते ही राजेंद्र शर्मा जैसा छोटा भाई और सूत्रधार भी मिल गया मुझे जिसने तुम्हारे अधूरे रह गए दीवान के बारे में मेरा सन्देश देखते ही मुझसे तुरन्त सम्पर्क किया और उनके संकल्प और प्रेम की बदौलत देखते ही देखते पचास से ऊपर कर्णप्रिय हुंकारे स्वर-संगति में आने की उम्मीद में एक दूसरे में पिरोये गए. लेकिन अभी कुछ ही दिन पहले तुम्हारे एक देहरादूनिया अज़ीज़ ने बताया कि तुम तो किसी से किसी का परिचय तक नहीं करवाते थे. बहुत बरस बाद वे (मसलन) एक दूसरे को बता रहे हैं कि मोहतरमा हम लोग हरजीत के साथ दिल्ली में दिव्या और डॉ विनय के घर की छत पर मिल चुके हैं, लेकिन हरजीत ने नहीं बताया कि कौन-कौन है. वे मित्र फ़ोन पर बोले कि उन्हें बाद में पता चला कि उस छत पर चंडीगढ़ निवासी वे तीन लोग कौन थे. उन तीन में से एक तो अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से गया है. तुम इस मरहूम अज़ीज़ के कोलाजों के किस क़दर मुरीद थे न, और इस विधा में उसे अपना गुरु मानते थे! उसका नाम यहाँ दर्ज करना ज़रूरी लग रहा है मुझे हालाँकि उसका नाम तक लिख पाना मेरे लिए कठिन है. 

चलो लिखती हूँ भारी मन से: अर्नेस्ट ऐल्बर्ट. वह भी तो अतुलवीर के साथ देहरादून में तुम्हारी शादी अटेंड करने मेरे साथ आया था न? तभी तुम्हारे कुछ टंटों और देहरादूनिया टिपटॉप टुल्लर से मुलाक़ात भी हुई होगी, लेकिन वेद भाई साहब, दीपक और रानू को छोड़ मुझे किसी की याद नहीं है. अवधेश तो तुम्हारे ही साथ मिला था हम लोगों को और उसका गीत “जितने सूरज उतनी ही छायाएँ” मैं उतनी ही शिद्दत से महफिलों में अपनी मामूली सी आवाज़ में गा देती हूँ जितने प्रेम से मैं तुम्हारी ग़ज़लों की खास शामें आयोजित करती हूँ. (और अब तो देहरादून के कलाप्रेमी दम्पति खुराना जी और कृष्णा भाभी की दरियादिल मेहमाननवाज़ी की भी याद हो आयी है मुझे!)

सुनो, मुझे अर्नेस्ट के बारे में भी यहीं बात कर लेने दो. और बताने भी किसे जाऊंगी अब? तुम्हें तो बताना ही था यूं भी क्योंकि मुझे मालूम है तुम ज़रूर जानना चाहोगे वह किस हाल में अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से रुखसत हुआ है. मरने से पहले उसने हमारे उन दोस्तों को सन्देश भेजे, जिन्हें तुम भी अच्छे से जानते हो. लेकिन (मुझ और उसके बेटे अस्सू सहित) कोई उससे बात नहीं करना चाहता रहा होगा, ऐसा कयास मैं लगा रही हूँ. तुम होते तो उससे मिलने ज़रूर पहुँच जाते क्योंकि तुम बहुत सी चीज़ों से अल्पायु में ही ऊपर उठ चुके थे (अपनी सांसों की माला से भी तो तुम चालीस की उम्र में ही उठ नहीं गए थे?). तुम अर्नेस्ट से अपने  कोलाज लायक कतरनें बटोरने कभी-कभी देहरादून से ख़ास आते थे उस घर में जहाँ पहली बार तुमसे और अवधेश से इतनी अविस्मरणीय मुलाक़ात हमारी हुई. अर्नेस्ट की फिंकी हुई कतरनों में भी तुम्हें अपने काम का कुछ दिख जाता था, है न? Span में छपे उसके कोलाजों को लेकर जितना खुश तुम हुए, उतना तो शायद वह खुद भी कहाँ हुआ होगा, क्योंकि उसका मन कला से अधिक धारधार-रोमांचक चीज़ों में था, कला उसे कैसे रमाए रख पाती भला? हालाँकि तुम्हें इतना बता दूं अर्नेस्ट ने हम में से किसी को भी नहीं बताया था कि वह किस हाल में है. माँ के घर जहाँ रुस्तम और मैं अमृतसर में उस वक़्त थे, उससे कुछ ही दूरी पर उसके बेहद कठिन अंतिम दिन बीत रहे थे, और हम लोग इस बात को नहीं जानते थे. वह मेरी माँ से भी क्षमा भी मांगना चाहता था, यह सन्देश भी मुझे सात समन्दर पार से उसके जाने के बाद मिला. 

प्रेम अनुग्रह नाम की एक स्विस महिला ज़्युरिक में बैठे बैठे उसे अद्भुत ढंग से अपने संदेशों से विदा कर रही थी, क्योंकि उसे भारत आने की अनुमति मिल नहीं पा रहा था. मैंने करुणा के बुद्ध सरीखे निर्वाह को पहली बार ख़ुद प्रेम अनुग्रह की कृपा से ही अनुभव किया है, हरजीत! अनुग्रह और मेरे बीच की कहानी बहुत विस्तार पा चुकी है, कई हज़ार शब्द और जज़्बात हमारे बीच धड़क रहे हैं, लेकिन फ़िलवक्त तुम्हें यही बताना चाहती हूँ कि अगर अर्नेस्ट को अनुग्रह की भावपूर्ण विदाई नसीब हो सकी तो तुम्हारे कोलाज उस्ताद का बेहद जटिल और गुह्य जीवन अकारथ नहीं गया होगा, ऐसा मान लेना चाहती हूँ, ताकि खुद अपनी अंतिम घड़ियों में भी मैं उसी के रहस्य को गुनती न रह जाऊं. यह लिखना भी उसी मनस्थिति में हो रहा है जो अर्नेस्ट के जाने के बाद ही मुझपर तारी हो सकती थी, और किसी के जाने से नहीं.

यह जो तुम्हारे मित्रों का चौपाल यहाँ बन आया है, ऐसा नहीं है कि इसपर कुछ कहा-सुनी या असहमतियाँ हुई ही न हों.एक दूसरे के मिज़ाज को समझने में कुछ वक़्त तो लगा ही.रूठने-मनाने के झीने-झीने कर्मकांड भीहुए.एक ही रसोई में रहने वाले दो बर्तन भी आपस में टंकार पैदा कर लेते हैं, तो फिर हरजीत के स्मृति-कक्ष में तो कितने ही संजीदा और टंटा सुर एक साथ छिड़ गए, और ज़रूरी नहीं कि वे तुम्हारी नज़र से गुज़रे ऐसे सूरज हों जो “अपनी ही रौशनी मेंपरीशां” रहे आये हों. इन सबमें मुझे तुम्हारे ही दर्शन होते हैं, हरजीत, इन खुदा के बन्दों ने कई शामों की ग़मे-हस्ती को तुम्हारे साथ बैठकर कहकहों और सलादों में उड़ाया है. और मेरे लिए इनमें कई स्वर इतने आत्मीय हो गए हैं जैसे उन्हें मैं बचपन से जान रही होऊं. मेरे लिए इनका गिला-शिकवा भी सर माथे पर, हालाँकि मुझे जो दानिशमंदी यहाँ देखने को मिल रही है, जो ग़ैर दुनियावी तत्व, वह मुझे फिर तुमसे ही रूबरू करवाता जान पड़ता है. 

इनमें कई तो बड़े नामवर कलाकार भी हैं, और कई भाई वीर सिंहकी तरह छिपे रहने की चाहलिए इस दुनिया से “छिप टुर” जाने की रूहानियत को बहुत गहरा जी रहे हैं, अपने लिखे-बनाए को सहेज भी नहीं पाते. कोलाज का एक और उस्ताद तो इसी whatsapp चौकड़ी में बैठा है हुआ है, किसी एक कोलाज से वह हमें हर सुबह आवाज़ देकर जगा देता है और कौन नहीं समझता होगा उसके बनाए हुए अक़ीदत के फूल और परिन्दे किससे मुखातिब हैं. हम में से कुछ तो तो एक दूसरे का नाम भी पहली बार सुन रहे थे.और यह अकारण नहीं था कि तुम हमारे दरमियान इन फ़ासलों को पूरना नहीं चाहते थे. मुझे तो सिर्फ़ टिपटॉप और डीलाईट सरीखे कुछ ठीहों की खबर थी देहरादून नाम के शहर में,  और अवधेश, दीपक और रानू की. तुम्हारी संगिनी मट्टो, बेटियों गोलू और सोनू, तुम्हारे छोटे भाई के परिवार और तुम्हारी माँ की.

तुमसे मुखातिब रहे आने का यह सिलसिला अभी और चलेगा, हरजीत, लेकिन फ़िलहाल दो ही शख्सियतों के ज़िक्र से अभी की बात ख़त्म करती हूँ. एक तो तुम्हारे दार्शनिक मार्गदर्शक वेद भाई साहब जिनकी ग़ैर दुनियावी झलक अब  तुम्हारे उस्ताद जगजीत निशात साहब में भी मिलती है. क्या था कि मध्य प्रदेश में एक्टिविज्म के पांच साल गुज़ारने के बाद, मुझे चंडीगढ़ अपनी नौकरी पर लौटना था. भोपाल गैस काण्ड में मिले जुझारू कार्यकर्ताओं और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के साथियों के संग-साथ के अलावा अब ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में भी एक बड़ा अनुभव मुझे 1985 और 1990 के दौरान  जिला होशंगाबाद के देहाती इलाक़ों में रहते हुए हो चुका था. दोबारा लौट कर शेक्सपियर कैसे पढ़ा पाऊँगी इसी की चिंता थी. एक बार तुम जब पलिया पिपरिया गाँव में मुझसे मिलने आये तो उस इलाके में तुम्हारी शायरी और ख्याति दावानल की तरह फैल गयी थी, और तुम मध्य प्रदेश के उस ग्रामीण और कस्बाती समाज के पाठकों के साथ हिलमिल कर कितने खुश थे जिसकी महिमा आज के शहरी अदीब शायद ही समझते हों. मैंने तुमसे कहा, हरजीत, अब चंडीगढ़ की दुनिया मेरे लिए अजनबी हो चुकी है. वहां लौटना थूक कर चाटने जैसा होगा. देहरादून लौट कर तुमने वेद भाई साब से हँसते हुए इस बात का ज़िक्र किया होगा. वे शायद  चिंतित थे कि मेरी भावनात्मक ज़िन्दगी नाज़ुक ज़मीन पर है और वे सोचते थे कि मुझे अपने इलाके में लौट आना चाहिए. फिर तुमने मुझे लिखा कि वेद भाई साब मुझे क्या सलाह दे रहे हैं: तेजी से कहना अपना ही थूक है. कोई हर्ज नहीं.

इस बात के नौ साल बाद एक बार फिर देहरादून में तुम्हारे हाथी बड़कला वाले घर में तुम्हारी माँ से मिलना हुआ, हरजीत. उस माँ से जो तब तक तुम्हें खो चुकी थी. वे अकेली एक अँधेरे से कमरे में दीवार से पिठ्ठा लगाए बैठी थीं. मट्टो ने जाकर उनसे कहा, तेजी आयी है, मिल लीजिए. मैं उनकी चारपाई पर जाकर बैठ तो गयी लेकिन उनसे क्या कहती? उनकी हालत देख मैं खुद ही फूट-फूट के रोने लगी. फिर हम दोनों कुछ देर आँसुओं के उस कक्ष में बिना कुछ कहे बैठी रहीं. तब तक मट्टो शायद बहुत छोटे से कपों में चाय लेकर आ गयी. उसी साल की फ़रवरी में तुम्हारी चंडीगढ़ यात्रा को लेकर माँ ने सिर्फ़ इतना भर कहा मुझसे: ‘कहता था, तेजी का कुछ काम है. जाना है. मैंने कहा जाओ, जाकर कर आओ तेजी का काम”. तुम्हें याद है न वह क्या काम था, हरजीत? तुम मेरे उपन्यास नीलाका आवरण बनाकर लाये थे. नीले काग़ज़ पर तुम्हारी अतुलनीय कैलीग्राफी में बारीक सफ़ेद रेखाओं से सिर्फ़ नीलालिखा था और उसी लिखावट में मेरा नाम. बस और कुछ भी नहीं. याद है उस आवरण को देखते ही मैंने क्या कहा था? “हरजीत अगर मैं नीला इस तरह लिख सकती जैसे तुमने इस किताब के कवर पर लिखा है तो मुझे उपन्यास लिखने की ज़रूरत न रहती.” और उसी रात की बात है सलाद पीकर लुढ़क जाने के बाद की तुम्हारी हालत से परेशां होकर मैंने तुमसे कहा था: Harjeet, if you die, I’m going to kill you!” रुस्तम और मैंने तुम्हारी पगड़ी उतार, जूते निकाल, तुम्हें लेटाकर रजाई ओढा दी थी.

1999 के देहरादून में मैं जीवन में पहली बार ऐसी माँ से मिल रही थी. जिसने अपने जवान और लाडले बेटे को खो दिया हो. मुझे नहीं पता तुम्हारी शायरी का तुम्हारे या मेरे जीवन से क्या रिश्ता है. लेकिन तुम्हारी माँ को देखकर क्या कोई भी यह शेर कह सकता था भला:


तूने सदमों की धूप देखी है
कोई तुझसे भी क्या हसीं होगा

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अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी: अम्बर पाण्डेय

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अम्बर पाण्डेय की कहानियों ने अपनी पहचान अर्जित की है और उनके अपने पाठक भी तैयार हुए हैं. उष्म भाषा, नवाचारी शिल्प और विचारों की उत्तेजना के बीच उनकी कहानियां हर बार कुछ अप्रत्याशित घटित करती हैं.

अम्बर की इस नयी कहानी का शीर्षक ‘अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी’ पता तो है पर यह पता भी बहुत कुछ कहता है. कहानी विश्वविद्यालय की अकादमिक दुनिया में घटित होती है तथा अपने समय के साक्ष्य प्रस्तुत करती है और निर्णय पाठकों पर छोड़ देती है.

कहानी पढ़ें. 

 

 

अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी
अम्बर पाण्डेय  

 

"It is not Being that oppresses me, or Nothingness, or God, or the Absence of God, only society. For it and only it caused the disturbance in my existential balance, which I am trying to oppose with an upright gait. It and only it robbed me of my trust in the world.”

(Jean Améry: At the Mind’s Limits: Contemplations by a Survivor on Auschwitz and Its Realities (New York: Schocken, 1986), p. 100.)

 

९६४ में स्थापित राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू की अंतिम महान परिकल्पना थी. संसारभर की छोटी बड़ी भाषाओं की पढ़ाई, वैश्विक साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन और अनुवाद के अध्ययन के लिए यह विश्वविद्यालय विश्वभर में जाना जाता है. अफ्रीकी भाषाओं और क्रीओल का अफ़्रीका से बाहर यह सबसे बड़ा केन्द्र है. लिपिहीन भाषाओं को रिकॉर्ड करके उनकी संग्रहण और रक्षा की विधि इसी विश्वविद्यालय में पहली बार विकसित हुई और आज यहाँ उसका सबसे बड़ा आर्काइव है और इसके साथ ही संस्कृत, पालि, तमिल और फ़ारसी इन चार शास्त्रीय भाषाओं का दुनियाभर में सबसे बड़ा पुरालेख भी इसी विश्वविद्यालय के परिसर में है. केवल भाषा और साहित्य को समर्पित विश्व में सम्भवतः यह एकमात्र विश्वविद्यालय है. 

उस दिसम्बर के दिन दिल्ली का न्यूनतम तापमान ३.३ डिग्री सेल्सियस था और दोपहर चार बजने को आए थे मगर पारा ७.८ डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं चढ़ पा रहा था. डेढ़ सौ वर्षों में यह दिल्ली की सबसे ठंडी सर्दियाँ थी. प्रो. नवनीतचन्द्र प्रसाद पोलिश व्याकरण की कक्षा लेने के पश्चात विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस की व्यवस्था देख रहे थे. उन्हें पूरे दिन लगता रहा था कि कोई उनके तलवों में गुदगुदी कर रहा है. वे बार-बार चलते हुए कूदना चाहते थे और किसी को आलिंगन में भरकर दबा देना चाहते थे. कारण था रात ढाई बजे २०१८ की साहित्य में नोबेल विजेता पोलिश लेखिका ओल्गा तोकारज़ुक का विश्वविद्यालय में समकालीन उपन्यास पर कक्षा लेने आना. जैसा कि विद्वान पाठकों को ज्ञात है २०१८ की साहित्य नोबेल की घोषणा २०१९ में हुई थी. इस कक्षा के लिए ओल्गा तोकारज़ुक की स्वीकृति नोबेल की घोषणा से पूर्व आ गई थी. प्रो. नवनीतचन्द्र प्रसाद को भय था कि नोबेलप्राप्ति के बाद की व्यस्तताओं के कारण शायद तोकारज़ुक आने में आनाकानी करें या सीधे मना कर दें किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. स्टॉक्होम से वे सीधे दिल्ली आ रही थी. 

व्यवस्था समुचित थी. त्वरित कॉफ़ी अवश्य ही एक यूरोपीय व्यक्ति के लिए कष्टकारक सिद्ध होगी यह सोचकर उन्होंने गेस्ट हाउस के रसोइये से कहा कि वह उनके घर से फ़िल्टर कॉफ़ी पाउडर का पैकेट ले आए. यह कहकर जब वे वॉल्टर बेन्यामिन भवन से बाहर आए तो डॉक्टर विवेक ठिठुरते हुए सिगरेट फूँक रहे थे. “तोकारज़ुक का इंतज़ाम देखने?” डॉक्टर विवेक ने पूछा. “प्रो. प्रसाद ने सिगरेट निकाली और डॉक्टर विवेक ने अपनी सिगरेट आग के लिए आगे कर दी. “कार्यक्रम रद्द नहीं किया बुढ़िया ने” डॉक्टर विवेक ने कहा.

धूम्रपान के समय प्रो. प्रसाद बात करना पसंद नहीं करते थे जबकि देखा जाता है तम्बाकू लोगों को कुछ देर के लिए वाचाल बना देता है. इस बार डॉक्टर विवेक की बात का उत्तर देना ही पड़ा, “तेरा रेटायरमेंट कब है?”

डॉक्टर विवेक समझे नहीं इसलिए सीधा जवाब दिया, “तीन साल बाद”.

सिगरेट पेड़ के तने से रगड़कर बुझाते हुए प्रो प्रसाद ने कहा, “तुझसे एक साल छोटी है तोकारज़ुक, बुड्ढे!”

यंग नोबेल लारेटी” डॉक्टर विवेक ने कन्धे उचकाए तब तक प्रो. प्रसाद सड़क तक पहुँच चुके थे. डॉक्टर विवेक चीनी भाषा पढ़ाते थे और राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय के पहले दलित प्राध्यापक थे. उनकी दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा अंग्रेज़ी की पहली दलित आत्मकथाओं में से थी. वे जानते थे तोकारज़ुक की वय अट्ठावन वर्ष है. उन्होंने तोकारज़ुक का उपन्यास Primeval and Other Times भी बहुत वर्ष बीते पढ़ा था. प्रो. प्रसाद को चिढ़ाने का वह एक भी अवसर नहीं छोड़ते थे इसलिए ही उन्होंने तोकारज़ुक को जानबूझकर बुढ़िया कहा था. प्रो प्रसाद ने उत्तर दिया, “पोलिश में लिखना कठिन काम है, उसका व्याकरण जटिल है और चीनी भाषा की तरह पोलिश व्याकरण विहीन भाषा नहीं है”, दोनों खी-खी देर तक हँसते रहे. 

दूसरे में प्रातःकाल नौ बजे अत्यन्त शीतल कमरे में तोकारज़ुक का व्याख्यान आरम्भ हुआ जो कि पोलंड की दक्षिणपन्थी, राष्ट्रवादी सरकार की आलोचना और उसके पोलिश के समकालीन साहित्य से सम्बंधित था और चूँकि कक्षा पोलिश भाषा विभाग में थी व्याख्यान पोलिश भाषा में था जिसे बाहरी लोग समझ नहीं पाए. प्रो. विवेक पोलिश न जानने के बावजूद पूरे समय व्याख्यान कक्ष में बैठे रहे.

 क्या जर्मन अब भी नाज़ियों की भाषा है?” प्रो. प्रसाद ने प्रोफ़ेसर श्यामला अय्यर जो जर्मन विद्वान थीं और जर्मन भाषा की विभागाध्यक्ष थी, उनसे पूछा. यह तोकारज़ुक के सम्मान में दिए रात्रिभोज का प्रसंग है. श्यामला अय्यर बहुत सुन्दर थीं, वे साँवली थीं और उनके लम्बे-मोटे बाल थे जिसमें वे कोई भी फूल लगाकर आती थी जैसे उन दिन कचनार का गुच्छा उन्होंने अपने पेन्सिल से लपेटकर बनाए जूड़े में लगाया था, उनकी आँखें मोटे काजल से घिरी रहती थी और नाक में बड़ा हीरा पहनने के कारण उनकी नाक चपटी है इस पर ध्यान नहीं जाता था और यदि किसी कमजोर नजरवाले की आँख हीरे की दीप्ति पर न टिके तो उनके गहरे गले के और साड़ी से नितान्त भिन्न रंग के ब्लाउस से बचना तो मुश्किल ही था. प्रो श्यामला हँसी और उन्होंने प्रतिप्रश्न किया, “क्या संस्कृत जातिवादी भाषा है?” इस पर लगभग सभी की सहमति थी कि हाँ संस्कृत जातिवादी भाषा है किन्तु बीच में ही प्रो विवेक ने कहा, “यदि संस्कृत जातिवादी भाषा है तो उर्दू क्या मुसलमानों की भाषा है?” प्रो. श्यामला तुरंत ने कहा और कहते हुए जिस प्रकार उनकी पुतलियाँ थिरकी उससे वहाँ खड़े पुरुषों का ध्यान उनकी बात पर शायद ही गया,

जातिवादी होना एक दोष है मगर जाति विशेष की भाषा होना दोष नहीं इसलिए आपकी उर्दू और संस्कृत की तुलना अकारण है”.

तोकारज़ुक इस भोज के समय निरन्तर विद्यार्थियों और प्रशंसकों से घिरी रही और उनसे किसी भी प्रकार की लम्बी और उद्वेलित करनेवाली बात नहीं हो सकी. 

दूसरे दिन का व्याख्यान दोपहर भोजन के बाद था और इस बार तोकारज़ुक प्रो श्यामला के संग आईं, तोकारज़ुक सादी, सफेद टीशर्ट के ऊपर के काली सूती साड़ी पहने हुए थी जो सहज था कि उन्हें प्रो. श्यामला ने पहनाई है. उस व्याख्यान में अपेक्षाकृत अधिक भीड़ थी क्योंकि यह व्याख्यान अंग्रेज़ी में होना था और यह भारतीय साहित्य के विषय में था और सभी इस जिज्ञासा में आए थे कि तोकारज़ुक भारतीय साहित्य के विषय में क्या कहेंगी. तोकारज़ुक का व्याख्यान टेगोर के उपन्यासों पर मंडराता रहा और उन्होंने लुकाच के टेगोर के उपन्यास में महात्मा गाँधी के भावी आगमन की लगभग मसीहावाली भविष्यवाणी के विषय में बात की, साथ में जो महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने की वह थी कि भारत के बुद्धिजीवियों को निश्चय ही भारतीय राजनीति और उनके मतदाता अत्यंत निम्न कोटि का समझते है, किसी को बुद्धिजीवी कहना भारत में पोलंड की तरह ही एक प्रकार की गाली है फिर भी भारत के बुद्धिजीवी इस दक्षिणपन्थी, राष्ट्रवादी सरकार का विरोध क्यों नहीं करते और फिर भारतीय संविधान की अत्यन्त सूक्ष्म समझ का परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि आम्बेडकर जैसा मेधावी व्यक्ति ही यह व्यवस्था कर सकता था कि किसी भी नागरिक को गिरफ़्तार करने का अधिकार संविधान किसी एक व्यक्ति को न दे इसलिए भारतीय संविधान में पुलिस प्रत्येक राज्य की अलग है और गिरफ़्तारी का अधिकार केंद्रीय सरकार को राज्य की अनुमति के पश्चात ही मिल सकता है जैसे कि सीबीआई, फिर उन्होंने बताया कि भारत की केंद्र सरकारों ने इसकी अवहेलना करते हुए ऐसे क़ानून बनाए है जिसमें उसके पास भारत के किसी भी नागरिक को सीधे गिरफ़्तार करने का अधिकार आ गया है और इसके लिए राज्य से अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं और भारतीय न्यायालयों में भी ऐसे नियमों को लेकर कोई जागृति नहीं दिखती. केंद्रीय और पूर्वी यूरोप में पुलिस की अति सक्रियता ही नागरिकों के शोषण और मौलिक अधिकारों के क्षरण का कारण बनी है. 

तोकारज़ुक ने कहा कि क्या यह भारतीय बुद्धिजीवियों का दायित्व नहीं कि वे इसका विरोध करें और भारत के साहित्य की उस उज्ज्वल परम्परा को ध्यान में रखे जब अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध लेखक खुलकर लिखते थे और क्या ग़ुलाम केवल बाहरी लोग ही बनाते है और क्या यह सम्भव नहीं कि देश का एक नागरिक या एक संगठन ही कुछ लोगों को या देश के प्रत्येक नागरिकों को ग़ुलाम बनाकर रखे और उन्होंने कहा कि भारतीय समाज को अतीत के मोह से छूट जाना चाहिए जैसे उनके टेगोर पर व्याख्यान देने पर जो इस कक्ष में बैठे श्रोता गौरवान्वित हो रहे है, यथार्थ में यह एक लज्जा का विषय है क्योंकि टेगोर की मृत्यु के बाद में क्या ऐसा कोई साहित्यकार भारत में नहीं हुआ जिसे पोलंड के सुदूर किसी गाँव में बैठी कोई पाठिका चाव से पढ़ती हो. प्राध्यापक रामलक्षण मिश्र जी, जो मैथिली के विद्वान थे, उन्हें यह बात अनुचित लगी कि भारत में टेगोर के पश्चात् कोई ऐसा साहित्यकार नहीं हुआ और उन्होंने कहा कि भारतीय समाज की क्षुद्र राजनीति के कारण साहित्यकार विश्वस्तर पर नहीं पहुँच पाते इसपर अधैर्य से मुँह हिलाकर तोकारज़ुक ने कहा कि क्या यह राजनीति भी इसी भाषा के लेखक और लोग नहीं करते और क्या लेखक केवल व्यक्तिगत क्षमताओं के कारण बनते है और समाज का इसमें कोई हाथ नहीं और यदि हाथ नहीं तो किसी भी व्यक्ति को न टेगोर पर गर्व होना चाहिए न टेगोर के बाद कोई महान साहित्यकार नहीं हुआ इसपर लज्जा. जब प्राध्यापक रामलक्षण जी ने सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की बात की तो किसी सेवानिवृत्त प्रोफेसर, लेखक और कई पुरस्कार समितियों के अध्यक्ष एक बुज़ुर्ग ने निराला को “regional lyricist” कहकर प्राध्यापक रामलक्षण को बैठा दिया. “आप मुक्तिबोध को भी मत भूलिए” कहकर प्राध्यापक रामलक्षण बैठ गए किन्तु एक युवा विद्यार्थी ने तुरन्त ताना कसा, “उस संघ का सदस्य बोल रहा है जिसने वर्षों पहले मुक्तिबोध की किताब पर प्रतिबंध लगाया था”.  

रात एक बजे तोकारज़ुक का हवाई जहाज़ उड़ान भरनेवाला था इसलिए वे व्याख्यान के तुरंत बाद चली गई. 

यदि मैं मुक्तिबोध को आज अपना बताना चाहता हूँ तो आप भी मत भूलिए कि जिस सत्ता के ख़िलाफ़ वे लिख रहे थे, जिस नेहरू के सपने के बुरी तरह असफल हो जाने की वह बात करते है उसी तत्कालीन सत्ता को आज आप गुलाबी चश्मे से देखते है”

प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा, शराब पीने के बाद वे बहुत संयत ढंग से बात करते थे, उनके तर्कों में एक विशेष धार आ जाती थी. डॉक्टर विवेक ने कहा,

अब तुलना करने पर वह दिन अच्छे लगे तो आप समझ सकते है कि यह दिन कितने बुरे होंगे”,

शांत स्वर में प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा कि यदि ऐसा है तो प्रतीक्षा कीजिए कि कोई इससे भी बुरा प्रधानमंत्री आए तो आपको यह दिन भी अच्छे लगेंगे” और हँसने लगे. प्रो प्रसाद अब भी तोकारज़ुक की यादों में खोए हुए थे,

कितनी सुंदर है, कैसा जटामुकुट मस्तक पर धारण करती है और हाथों में वे ढेरों पत्थरों के दस्तबंद; I mean beads on her well-rounded wrists, my god”.

 

(Courtesy : Najmun Nahar Keya Kintsugi Dhaka) 

प्रो. श्यामला ने दस रुपए के बॉलपॉंइँट से लपेटा जूड़ा बॉलपॉंइँट कलम खींचकर खोला और उनके बालों में लगा मुरझाया कमल ज़मीन पर गिर पड़ा जिसे काणे जी उठाने दौड़े. काणे जी के साथ प्रो. श्यामला रहती थी और काणे जी काव्यशास्त्र के विद्वान थे और वर्तमान शासन से पद्मश्री भी पा चुके थे हालाँकि वे वर्तमान शासन को पसंद नहीं करते थे. काणे जी विचित्र व्यक्ति थे, उन्हें वामपन्थी साहित्यकार बहुत पसंद थे और उनकी लगभग क्लासिक का दर्जा पा चुकी किताब का नाम ही था, ‘Marxist Reading of Sanskrit Poetics’ किन्तु राजनीति में वे वर्तमान सरकार को पसंद न करते हुए भी दक्षिणपन्थी थे, उनका मानना था कि वर्तमान सरकार प्रत्येक क्षेत्र में अति कर रही है किन्तु आवश्यकता हमें ऐसी सरकार की है जो मुसलमानों से यदि घृणा न करे तो कम से कम उन्हें वश में तो रखे. प्रो. श्यामला ने जर्मन में एक कविता पढ़ी जिसमें नायिका कहती है कि उसे अपने प्रेमी की दाढ़ी के पहले-पहले सफेद बाल कितने पसंद हैं और जब सबने उनसे कवि का नाम पूछा तो उन्होंने उसे चलताऊ गीत कहा और बताया कि चलते फिरते सर्कस का गीत है. काणे जी शब्दकोशों में प्रो. श्यामला के बालों में लगाए प्रत्येक पुष्प को इकट्ठा करते थे. 

प्रो. श्यामला ने उसके बाद उनके घर बैठे सभी लोगों से स्पष्ट शब्दों में कहा कि काणे जी के राजनीतिक विचारों को कोई उनकी राजनीति न समझे और बताया कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं है और मुस्लिम विरोधियों की विरोधी हैं जैसे नीत्शे यहूदियों के विरोधियों का विरोधी था. प्रो. प्रसाद की पत्नी अतिप्रिया जो किसी प्रायवेट और महँगे स्कूल में फ़्रांसीसी पढ़ाती थी उसने पूछा, “इसका क्या अर्थ हुआ?” प्रो. श्यामला की अपेक्षा अतिप्रिया निश्चय ही युवा थी किन्तु प्रो. श्यामला की कांजीवरम की साड़ियों, चाँदी के आदिवासी शैली के मोटे गहनों और सिन्दूर और काजल के कारण अतिप्रिया हमेशा प्रो. श्यामला की उपस्थिति में हतप्रभ लगती थीं और इसे जानती भी थीं जिसके कारण वह दिनोंदिन प्रो. श्यामला के प्रति कटु हो जा रही थी. प्रो. श्यामला ने अपनी अंगुलियों से अपने घने बालों को कंघा करते हुए, फिर अपना कपाल मसलते हुए कहा, “अर्थात् मैं मुस्लिमों की समर्थक नहीं मगर मैं उनकी विरोधी भी नहीं, बस उनके विरोधियों का विरोध करती हूँ, खुलकर कहूँ तो जैसे दूसरे लोग है वैसे ही मेरे लिए वे भी है”.  डॉक्टर विवेक ने पूछा, “तो हमारी यूनिवर्सिटी का एकमात्र मुसलमान प्रोफ़ेसर हुसेन बंकवाला यहाँ क्यों नहीं है?” 

प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा, “अव्वल तो वह बोहरा है न कि मुसलमान” और बोहरे मुसलमानों के पूर्व में गुजरात के नागर ब्राह्मण होने का लम्बा विवरण देने लगे. हुसेन बंकवाला कच्छी भाषा जो कि सिन्धी भाषा विभाग के अंतर्गत थी वहाँ असिस्टेंट प्रोफ़ेसर थे. फ़ारसी का विभाग उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों और उर्दू पर कश्मीरी पंडितों का क़ब्ज़ा था: “मुझे मुस्लिमों में न गिना जाए मैं बोहरी हूँ” हुसेन बंकवाला हमेशा कहता था, बोहरों की धर्मसभा से तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना चुनाव प्रचार आरम्भ किया था.

“हम गुजराती में लिखे धर्मग्रंथ पढ़ते है और खुले हुए, जहाँदीदा लोग है”,

बंकवाला कहता था.  उस दिन इसलिए नहीं आ सका क्योंकि सैफी अस्पताल में रक्तदान करने गया. 

दूसरे दिन सुबह लगभग छह बजे डॉक्टर विवेक को पुलिस पकड़कर ले गई, उनपर चीनी दूतावास के लिए ऐसे दस्तावेज़ों का चीनी में अनुवाद करने का संदेह था जो सरकार के गोपनीय दस्तावेज हो सकते थे. उनके घर की गहन जाँच हुई और उनकी दो बेटियों के स्कूल के बस्ते और पिछले साल की कॉपियाँ तक ज़ब्त हो गई. राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय का प्रत्येक कर्मचारी और प्राध्यापक भयभीत थे, इसे लोगों ने तोकारज़ुक के उस व्याख्यान से जोड़कर देखना आरम्भ कर दिया जिसमें उन्होंने भारत के बुद्धिजीवियों से सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने की बात कही थी. डॉक्टर विवेक के चीनी भाषा सीखने को माओवाद से जोड़कर देखा जाने लगा और बिना व्याकरण की भाषा को हिंसा और तानाशाही और स्वदेश से शत्रुता की भाषा कहा गया. कुमारजीव की चीनी भाषा की पांडुलिपि की फ़ोटोकॉपियाँ देशद्रोही योजना के लेखों में रूप में प्रसारित किए गए. कुछ लोगों का कहना था कि डॉक्टर विवेक सच में इस प्रकार के कार्यों में लिप्त थे और ऐसा वे पैसों के लिए न करके विचारों के लिए कर रहे थे. 

प्रो. श्यामला के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल गृहमंत्री से मिला और डॉक्टर विवेक को जल्दी से जल्दी मुक्त करने की माँग की जो जाहिर है गृहमंत्री ने यह कहकर बात टाल दी यह निर्णय तो अदालतों को लेना है. इस बीच राजधानी में विरोध और जुलूसों और चक्काजामों की बाढ़ आ गई और इसका डॉक्टर विवेक से कोई सम्बंध नहीं था. बात इस प्रकार थी कि अंग्रेजों के जमाने के बनाए ट्रेज़री हाउस की अत्यधिक सुंदर इमारत को गिराकर वहाँ संसार की सबसे सुंदर जेल बनाई जाए ऐसा प्रस्ताव संसद ने कुछ दिनों पूर्व पास किया था. ट्रेज़री हाउस की इमारत का राजधानी से स्थापत्य से गहरा सम्बंध था और राजधानी को लोग उसी इमारत से याद करते थे. प्रस्ताव प्रस्तुत करनेवाली जन निर्माण कार्य मंत्री श्रीमती आशा भंवरे ने कहा कि ट्रेज़री हाउस की इमारत देश की परतंत्रता की प्रतीक है और उसे तोड़कर हमें अस्मिता भवन नामक नवीन भवन का निर्माण करना चाहिए और ट्रेज़री हाउस चूकि पहले ही चकोरी चौक पर स्थान्तरित हो चुका है तथा राजधानी की जेल में जहाँ तीन हज़ार लोग रहना चाहिए वहाँ अभी पन्द्रह हज़ार लोग है इसलिए जेल उस अस्मिता भवन में स्थान्तरित कर दी जाना चाहिए और उन्होंने यह बताया कि कैसे क़ैदियों के भी मानवाधिकार है और देश की अस्मिता के यह सर्वथा विरुद्ध है कि हमारा देश किसी के भी साथ अमानवीय व्यवहार करें. क़ैदियों की स्थिति में सुधार हो, उन्हें मानवीय गरिमा मिले इसका सम्भवतया किसी भी सभ्य देश में विरोध नहीं हो सकता किन्तु इस देश में इतिहास में एक विलक्षण घटना घटी. 

 

(courtesy : Mohsin Shafi )

राजधानी का अधिकांश स्थापत्य देश की परतन्त्रता की याद दिलानेवाला था, वहाँ तुर्की, मुग़ल और ब्रितानी इमारतें थी, इस देश का सर्वोत्कृष्ट स्थापत्य सुदूर दक्षिण या जंगलों में मंदिरों के रूप में था ऐसा तत्कालीन सरकार मानती थी इसलिए यह जेल इस देश की स्थापत्य कला का एक प्रमाण और चरमोत्कर्ष होना चाहिए. इसके लिए बालकृष्ण जोशी के बाद प्रिट्जकर प्राइज़ जीतनेवाले आर्किटेक्ट श्रीनिवास सुंदर की फ़र्म को संसार की सबसे बड़ी और सबसे सुंदर अस्मिता भवन नामक जेल बनाने का ठेका दिया गया. 

अष्टधातु की विभिन्न मूर्तियों से प्रो. श्यामला का घर भरा हुआ था और चूंकि अब डॉक्टर विवेक को जेल गए दस महीने से अधिक बीत चुके थे, सभी को इस सतत दुर्घटना की जैसे आदत हो गई थी, इसलिए उस दिन दीवाली के दो दिन पहले विश्वविद्यालय कैम्पस स्थित इस घर को गेंदे के फूलों और दीपकों से सजाया गया था. डॉक्टर विवेक की पत्नी आनंदी गृहिणी थीं और उत्सवों में पति के बिना शायद ही कभी भाग लेती थी और अब पति के जेल जाने के बाद न केवल वह बहुत दुबली हो गई थी बल्कि उन्हें कई बार ऐसा लगता था जैसे वे कुछ समझ नहीं पा रहीं. अतिप्रिया (प्रो. प्रसाद की पत्नी) कई बार उन्हें मानसिक रोगों के चिकित्सक के पास भी ले गई किन्तु डॉक्टर का यह कहना था कि वे ऐसा चाहती है कि उन्हें कुछ समझ न आए हालाँकि उनकी समझ में कोई दोष है ऐसा नहीं है. दोनों बेटियाँ स्कूल का गृहकार्य कर रही थीं और उनकी माँ आनंदी कुछ सोचती हुई उनके पास बैठी थी. दस महीने पहले पड़े छापे का भय आनंदी पर इतना अधिक था कि प्रो. प्रसाद के घर के पीछे बनी एक अजीब सी कॉटेज में रहने लगी और अल्पतम सामान अपने घर से लाई थीं. यदि बस चलता तो आनंदी दूर जंगल में जाकर रहने लगतीं. उन्हें लगता था कि यदि उनके पति ने कोई ग़लत काम किया था तो क्या उसका दंड इस प्रकार उन्हें और उनकी दो बेटियों को दिया जाना चाहिए? 

यही बात काणे जी और प्रो. प्रसाद भी कर रहे थे, प्रो. श्यामला ने मद्रासी चकलियों की थाली प्रो. प्रसाद की ओर बढ़ाते हुए कहा, “इसे guilt by association कहते है, सम्बन्धों के कारण दोषयुक्त मानना और यह स्तालिन की अद्वितीय खोज थी. यदि पति अपराध करता है तो पत्नी को भी पति के अपराध को छिपाने का दोषी मानना या बेटे के अपराध के लिए माँ को, भाई के अपराध के लिए उसके सभी भाई बहनों को”. काणे जी ने कहा, “तो अपराध छिपाना अपराध ही तो है”. प्रो. श्यामला हँसी, उनके प्रेमी संस्कृत साहित्य के अध्येता होने के कारण इतने भोले थे या आज तक जिए अपने साधारण जीवन के कारण या आनुवंशिक कारणों से, उन्होंने कमरे के टेबुललैम्प जलाते हुए कहा,

इसका अर्थ है आप मानते है कि मनुष्य का प्रथम दायित्व राष्ट्र के प्रति है न कि परिवार के प्रति”.

काणे जी इतने भोले भी नहीं थे, वे कई बार यूरोप यात्रा कर आए थे, जर्मनी के फ़्रांक्फ़ुर्ट विश्वविद्यालय में अस्थायी प्राध्यापक रहे थे,

परिवार के प्रति दायित्व और राष्ट्र के प्रति दायित्व में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है. अपराधी को घर में रखना परिवार को भी उतना ही नष्ट करता है जितना राष्ट्र को”.

प्रो श्यामला जर्मन विद्वान होने के नाते शासकीय अत्याचारों में खुद को विशेषज्ञ समझती थी,

ऐसा राष्ट्र समझता है कि अपराध परिवार को भी उतना ही नष्ट करते है जितना राष्ट्र को, ऐसा हो ज़रूरी नहीं. कोई भी सभ्य समाज किसी माँ से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह अपने अपराधी बेटे को पुलिस को देगी या अपने बेटे के विरुद्ध अदालत में गवाही देगी. यदि कोई राष्ट्र ऐसी अपेक्षा करता है तो निश्चय ही जाहिलों का देश है”,

उन्होंने जानबूझकर काणे जी को अपमानित करने के लिए जाहिल शब्द का उपयोग किया और इसके बाद इस शब्द को दोबारा चिह्नित करने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ी में कहा, “nation of imbeciles”. 

अतिप्रिया वही बैठी हुई बीयर पी रही थी और उसे हमेशा ऐसा लगता रहा था कि उसके पति प्रो. प्रसाद के सहकर्मी और मित्र व्यर्थ की बौद्धिक बहसें करते थे, उनकी इन बहसों से देश में कुछ नहीं बदल रहा था किन्तु यह बहसें हर कहीं होती रहती थी, क्या वे इन बहसों से डॉक्टर विवेक को जमानत दिलवा पाए थे? उसे अब डॉक्टर विवेक की पत्नी आनंदी से अधिक मित्रताभाव अनुभव होता था, वे छोटे शहर से गृहविज्ञान में बीए थी किन्तु जिस प्रकार इतनी बड़ी विपत्ति टूटने पर भी वह खुद को बचाए रखने का प्रयास कर रही थी उससे अतिप्रिया को आनंदी में अटूट आस्था होती थी और यह बात एक बार अपने पति प्रो. प्रसाद को जब उसने बताई तो प्रो. प्रसाद हँसे और कहा,

कम पढ़ा लिखा होने के अगर कुछ नुक़सान है तो कुछ फ़ायदे भी है” और आगे उन्होंने बताया कि फ़ायदा यह है कि ऐसा व्यक्ति खुद पर पड़ी इतनी बड़ी त्रासदी को पूरी तरह ग्रहण ही नहीं कर पाता, उस त्रासदी की महानता, उसकी भीषणता का उसे अनुमान ही नहीं होता और नुक़सान यह है कि ऐसी त्रासदियाँ उन सरकारों के कारण घटती है जिसे ऐसे कम पढ़े लिखे लोग चुनते है, “

“अर्थात् लोकतंत्र की आलोचना” व्यंग्य में अतिप्रिया मुस्कुरायी और कहा. 

स्तालिन के इस दुष्ट नीति को अद्वितीय कहने का कोई खास कारण?” काणे जी को पता था कि स्तालिन की नीतियों से घृणा करने के बावजूद प्रो. श्यामला स्तालिन की मर्दानगी, उसके व्यक्तित्व पर मोहित थी और संस्कृत पण्डित काणे जी में ऐसी कोई बात नहीं थी. वह जैसी आधुनिक मनुष्य नहीं बन पाए थे और अब भी रस, भारतीयता और अध्यात्म जैसी बातें करते थे किन्तु इसे जानते हुए यह करना उनकी मजबूरी थी, यही हमारे देश की अस्मिता है, यही हम है और इससे हम मुँह कैसे चुरा सकते है. इसी को बार-बार परिभाषित करना हमारा धर्म है.

“भारतीयता को चूंकि परिभाषित करने का कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं इसलिए यह अनन्त प्रक्रिया है”

इस वाक्य ने काणे जी को जीवनभर व्यस्त रखा और भारतीयों के चरित्र को सदैव अस्थिर क्योंकि यदि अनिवार्य तत्त्व नहीं है तो हम है क्या? अनिवार्य तत्त्व का अभाव होना ही भारतीयता है? स्थिरता पौरुष का प्रतीक है और उस तरह रूसी चरित्र, चीनी चरित्र या कोरियाई चरित्र में तो उस पौरुष को चिह्नित किया जा सकता था किन्तु भारतीय चरित्र में नहीं और फिर स्त्रियों के इस उदयकाल में इसके लाभ हो सकते थे, पुरुषों के आधिपत्य काल में यह एक निर्बलता थी, संसार दो ही प्राणियों में विभाजित है पुरुष और नपुंसकों में. स्तालिन को इतना दुष्ट मानते हुए भी प्रो. श्यामला को काणे जी स्तालिन के प्रति आकर्षित पाते थे. प्रो. श्यामला बोले जा रही थीं,

क्या राष्ट्र अपराध नहीं करते? यदि करते है तो उसके विरुद्ध नागरिकों को क्या करना चाहिए? परिजन का अपराध छिपाना अपराध किन्तु राष्ट्र का अपराध छिपाना देशभक्ति है”.

 

(Courtesy : Mohsin Shafi Every Rose as Its Thorn)

श्रीनिवास सुंदर जिसे संसार की सबसे बड़ी सबसे भव्य जेल बनाने के लिए नियुक्त किया गया था, वह प्रो. श्यामला का साँवला, बावन वर्ष का कज़िन था. यह समाचार सबसे पहले सरकार विरोधी एक वेबसाइट HugeNews पर छपा जो कि असल में श्रीनिवास सुंदर की प्रोफ़ाइल के रूप में छापा गया था क्योंकि साढ़े बाईस हज़ार करोड़ रुपए की जेल उन दिनों हमारे देश का सबसे बड़ा समाचार था. श्रीनिवास सुंदर ने सात प्रमुख इमारतें बनाई थीं और सातों विभिन्न आपदा या अन्य कारणों से गिर चुकी थीं. आश्चर्य का विषय था कि वामपन्थी विचार के हामी श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने का कार्य दिया गया था. फिर भी कम्युनिस्ट पूर्वी यूरोपीय देशों की तरह हमारे देश में गिरफ़्तारी अब भी एक कला नहीं बनी थी, हमारे अफ़सर अब भी वह सूक्ष्म क्रूरता विकसित नहीं कर पाए थे जिसकी रूसी या पूर्वी जर्मन उपन्यासकार प्रशंसा करते हैं जैसे जूते पहनते समय किसी को गिरफ़्तार करना जब वह एक जूता पहन चुका हो और दूसरा पहननेवाला हो; या गिरफ़्तार करने से पूर्व अनेक घंटे गिरफ़्तार किए जानेवाले व्यक्ति के घर बिताना और हिंसा की सूक्ष्मतम और कलात्मक प्रविधियों का उपयोग करना, गिरफ़्तारी की वह कला कितने अर्थों में अंग्रेजों द्वारा वर्षों में विकसित की गई शिकार की कला की याद दिलाती है. उपनिवेशों की जनता क्या सचमुच इतनी गँवार थी कि उसका सरकारी तंत्र इतने मूर्खता पूर्ण ढंग से अपने नागरिकों पर अत्याचार करे, बिना बारीक क़ानूनी पेंच निकाले उसके न्यायालय मनमाने ढंग से चाहे जिसको दंड दे चाहे जिसको छोड़े या वे सभी को दंड तो दे किन्तु कारण इतने कलात्मक ढंग से न लिख पाए कि दंड पानेवाला भी उनकी लेखन शैली का सुख लेने को बाध्य हो और अन्याय में सौंदर्य खोज ले. दुखद था कि हमारे देश में शासकीय हिंसा तक में अक्षमता थी और उसकी भरपाई करने के लिए इतनी बड़ी जेल बनाई जा रही थी. देश में जेल जाने जैसी जीवन को आमूलचूल परिवर्तित करनेवाली घटना को सामान्य बनाया जा रहा था और प्रत्येक नागरिक किसी दूसरे नागरिक को जेल भेजना चाहता था. तो क्या वाम विचार होने के कारण श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने के लिए नियुक्त किया गया था क्योंकि हमारे दक्षिणपन्थी विचारक कारावास विज्ञान (देश के कई केंद्रीय विश्वविद्यालय अब इस नवीनतम विषय में ph.d. तक करवा रहे थे) में अब भी वामपन्थ का लोहा मानते थे.

तुम राजधानी आ गए और अब तक मेरे घर नहीं आए” प्रो. श्यामला ने जब अपने कज़िन श्रीनिवास को फ़ोन किया तब वह किसी क्लब के रेस्तराँ में एक गद्देदार कुर्सी में धँसा पास्ता खा रहा था, उसने उत्तर दिया,

तुम्हें परेशानी न हो इसलिए तुम्हारे घर इस बार नहीं रुक रहा. मेरे आने जाने का समय निश्चित नहीं”.

प्रो. श्यामला ने अधीर होते हुए कहा,

कल शाम कमानी ऑडिटॉरीयम में पॉर्चुगल एम्बसी कार्यक्रम करवा रही है जहाँ काणे जी को बंकिमचन्द्र चटर्जी व्याख्यान देना है. वहीं मिलते है, साढ़े चार बजे आना पाँच बजे से व्याख्यान फिर कहीं डिनर के लिए चलेंगे”

कहकर प्रो श्यामला ने फ़ोन रख दिया और शॉवर का हत्था घुमाया, “आह heißes bad” उन्होंने उष्ण जल का स्पर्श पाते ही कहा.

 

पोचमपल्ली साड़ी और ढीले-ढीले जूड़े में अमलतास का गुच्छा, फ़्रांसीसी फ़ोटोग्राफर और इत्रसाज़ सर्ज लुटंस का अंबरी सुल्तान नामक पर्फ़्यूम लगाकर जब प्रो. श्यामला अपनी खटारा मारुति अल्टो से उतरी तो उन्हें पूर्ण विश्वास था कि श्रीनिवास सुंदर आसपास ही कहीं होगा और उन्हें वह तुरंत दिख भी गया. दोनों देर तक आलिंगन में रहे, श्रीनिवास सुंदर के कोपेनहेगन जाने के बाद अब चार वर्ष बाद वे मिल रहे थे,

तो तुमने मॉरीस ग़ूसे’ल (Maurice Roucel, फ़्रांस का प्रसिद्ध इत्र निर्माता) को छोड़ ही दिया”

श्रीनिवास ने कहा. इससे पहले प्रो. श्यामला कुछ कहती, काणे जी ने एक श्लोक कहा जिसका अंग्रेज़ी में उन्होंने अर्थ इस प्रकार बताया,

तुमसे रुष्ट होने पर भी तुम्हारे कण्ठ मैं लगना चाहती थी किन्तु तुम्हें कोई सुख न मिले इसलिए मेरे स्तन पीछे की ओर भागे”

उनका संकेत प्रो श्यामला के विशाल नितम्बों की ओर था; मज़ाक़ उतना अच्छा नहीं था जितना अच्छा श्लोक था, “how erotic” प्रो श्यामला ने कहा.

 

काणेजी के व्याख्यान के दौरान प्रो. श्यामला और श्रीनिवास दोनों एक दूसरे के कानों में देर तक प्रेमियों की तरह कुछ फुसफुसाते रहे और बीच-बीच खिलखिलाते भी रहे. काणे जी का वह व्याख्यान भारतीयता की उनकी अवधारणा में मील का पत्थर साबित हुआ, यह व्याख्यान उनकी पूर्व की समस्त स्थापनाओं का सर्वोत्तम खंडन था. उन्होंने अंग्रेज़ी में अपने व्याख्यान का आरम्भ इन विस्फोटक शब्दों से किया,

मैं नहीं मानता कि हमारे देश अर्थात् पूर्व और पश्चिम में कोई विशेष अंतर है. मेरा मानना है कि हम अब भी उसी वन्य, मिथकीय संसार में जी रहे है जिसमें मूसा पूर्व पश्चिमी समाज जी रहा था”

यह सुनते ही सभा में हलचल मच है,

हमारे पास ऐसा मानने का क्या कारण है कि हम पश्चिम से अलग है और पश्चिम का अविकसित रूप नहीं क्योंकि पश्चिमी मिथक हमारे उन मिथक जैसे ही है जिन्हें हम महान, संसारभर में सर्वोत्तम बतलाते है. कोई सभ्यता यदि किसी दूसरी सभ्यता से स्वयं को महान या श्रेष्ठ बताती है तो वह असभ्यों का घोष मात्र है सभ्यता नहीं. होमर को हम कैसे कृष्ण द्वैपायन व्यास से कमतर आँकते है या पश्चिम की महान दार्शनिक परम्परा को हमारे दर्शन की अपेक्षा किस प्रकार छोटा बता सकते है! और मैं आज इस मंच से यह घोषणा करना चाहता हूँ कि अपने उपनिवेशवादी विजेताओं ने और उससे पूर्व मुस्लिम शासन और आक्रमणों ने ऐसा नहीं बनाया उससे कहीं पहले इसकी पूर्वपीठिका तैयार हो चुकी थी.”

 

कहते-कहते उन्होंने देखा अतिप्रिया आनंदी और डॉक्टर विवेक की बड़ी बेटी यशोधरा के साथ सभागृह के सबसे अंत में आगे आकर बैठी हुई, प्रो. प्रसाद वहाँ उन्हें नहीं दिखे, उन्होंने आगे कहा,

यदि हम स्वयं को निरन्तर पश्चिमी सभ्यता से भिन्न बतलाते भी है तो क्यों हमारी आधुनिकता, उसका विचार, उसका स्वरूप पश्चिम की ओर स्वाभाविक रूप से झुकता है? यथार्थ में भारतवर्ष को भक्तिकाल ने नष्ट कर दिया, इससे पहले यदि हम अपनी परम्परा को देखे तो पाएँगे कि कृषि और पशुपालन करनेवाले वेदों से आगे वेदान्त या दर्शन आता है, उसका खण्डन करनेवाले बुद्ध और महावीर स्वामी आते है फिर आदिशंकराचार्य किन्तु उसके बाद हम भक्तिकाल का उदय होता देखते है, जहाँ स्वर बाहुल्य तो है किन्तु दार्शनिक दृष्टि से देखे तो विनय और करुणा जैसे मूल्यों की प्रतिस्थापना है. यह हमारी शास्त्रीय परम्परा को उसी प्रकार नष्ट करता है जैसे महान रोमन साम्राज्य को ईसाई मूल्यों ने नीत्शे के अनुसार नष्ट किया था और ग्रीक सभ्यता को हाइडेगर के अनुसार रोमनों ने नष्ट किया था.”

 

प्रो. श्यामला और श्रीनिवास सुंदर, काणे जी ने देखा कि सहसा बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे है, प्रो. श्यामला ने कानों में दक्षिण शैली के मंदिर के आकार के जो माणिक्य के कुंडल पहने थे उसके ही मोती धीमे-धीमे लचक रहे है. काणे जी ने आगे कहा,

भारतीय परम्परा किसी भी महान परम्परा की भाँति अपने से पूर्व आई परम्परा का विरोध करते हुए आगे बढ़ी, यह गुरुद्रोहियों की भूमि थी, मत भूलिए याज्ञवल्क्य ने गुरु से किसी बात पर झगड़ा होने पर गुरु प्रदत्त ज्ञान का वमन कर दिया था जिसे उनके गुरु के दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर खा लिया और याज्ञवल्क्य ने नवीन, उज्ज्वल शुक्ल यजुर्वेद का दर्शन दिया. तब क्यों गुरु के तलवे चाटने को, हमेशा माथा झुकाने को भारतीय संस्कृति का पर्याय मान लिया गया! दुर्भाग्य से भारतीय संस्कृति को उसका नीत्शे नहीं मिला सका जो उन्हें बताता कि करुणा एक निर्बलता है, यह अवगुण है न कि गुण”.

 

भले कुर्सियाँ आरामदायक नहीं थी किन्तु बुखारा रेस्तराँ की सिकंदरी रान रसीली थी और उससे भी अच्छी थी दाल बुखारा, “कोई दाल जैसी चीज़ भी ऐसी बना सकता है!” श्रीनिवास सुंदर ने कहा, विदेशों में रह रहकर श्रीनिवास उल्टे शाकाहारी हो गया था, प्रो. श्यामला ने सिकन्दरी रान चूसते हुए कहा, “आज काणे जी नीरद सी चौधरी जैसी बातें कर रहे थे”, तो क्या काणे जी पश्चिम की ओर प्रेरणा के लिए देखते हुए भी अधिक से अधिक चार फुट और पैंतालीस किलो के १०२ वर्षों तक जीनेवाले नीरद सी चौधरी ही बन सकते थे- The Autobiography of an Unknown Indian जैसा आज के समय लगभग अज्ञात प्रायः ग्रंथ लिखनेवाला एक बांग्ला क्लर्क!

“तुम इस रेशमी वेष्टि में बिलकुल संगीतकार टीएम कृष्णा दिखते हो मगर लम्बे और कसरत करनेवाले टीएम कृष्णा”

प्रो. श्यामला ने श्रीनिवास की बायीं जाँघ की ओर संकेत करते हुए कहा और काणे जी ने देखा कि श्रीनिवास दक्षिण भारतीय वेश में आया है. वह प्रो. श्यामला के भाई जैसा दिखता था- श्याम, बलिष्ठ और सुंदर और काणे जी सोचा, ‘स्वतन्त्र मनुष्य से सुंदर कौन हो सकता है, अकुंठ, तेजस्वी जैसे वे दोनों थे.

 

चालीस हज़ार मनुष्यों की भीड़ श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने के कार्य दिए जाने के विरुद्ध राजधानी में लगभग पन्द्रह दिनों तक टिकी रही, उन दिनों सुशिक्षित परिवारों का कम से कम एक सदस्य तो जेलों में बंद था ही, निम्न वर्गीय लोगों से भरे जेल अचानक मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय लोगों से भर गए थे. सभी को डर था कि केंद्रीय शासन श्रीनिवास सुंदर के नक़्शे पर जेल बनवाकर एक तीर से दो निशाने साधने चाहती है- एक तो जेल गिरने पर वह इन राजनीतिक विरोधियों से मुक्ति पाएगी और दूसरा नागरिकों के समक्ष यह वामपन्थ ढहने का एक मूर्त, सुंदर रूपक होगा. श्रीनिवास सुंदर अपने वामपंथी विचारों के कारण जाने जाते थे और एमनेस्टी इंटर्नैशनल के अत्यंत सक्रिय सदस्य थे.

 

पापा के ऊपर बिल्डिंग गिर जाएगी” डॉक्टर विवेक की छोटी बेटी उत्पला ने बड़ी बहन यशोधरा से कहा, आनंदी वहाँ बैठी तकिए की किनारों की तुरपाई कर रही थी, बार-बार रुई निकल जाती थी. यशोधरा ने इसका जो भी उत्तर दिया हो हम नहीं जानते किन्तु इतना ज्ञात है  कि जेल इमारत अस्मिता भवन के गिरने से पहले डॉक्टर विवेक घर आ गए थे. यह विवाद सम्भवतः कभी नहीं सुलझेगा कि डॉक्टर विवेक जीवित घर लौटे थे या मृत. उत्पला का कहना है कि पापा जीवित आए थे और उसने पापा से बात भी की थी और जब तक वह अंदर मम्मी और यशोधरा को बुलाने गई वह बेहोश हो चुके थे. प्रो. प्रसाद और आनंदी डॉक्टर विवेक को तुरंत अस्पताल ले गए और वहाँ उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. यह भी आश्चर्य का विषय था कि जमानत की सुनवाई की तारीख़ जब १७ अक्तूबर थी तो उसे सात दिन पूर्व दस सितम्बर कैसे कर दिया गया और आनंदी और प्रो. प्रसाद ने जो वकील नियुक्त किया था वह उन्हें बिना बताए तारीख़ पर क्यों पहुँच गया? मृत्यु पश्चात जाँच में पता चला कि न्यायमूर्ति मेघवर्णो चट्टोपाध्याय को १७ सितम्बर को कामाख्या पीठ असम में रजस्वला देवी की आराधना के लिए जाना था. 

श्रीनिवास सुंदर की इमारतें क्यों गिरती थी इसका उत्तर किसी के पास नहीं है, प्रो. श्यामला ने अवश्य अपने कज़िन पर अंग्रेज़ी में एक पुस्तक लिखी, “A Building To Die For”. चूँकि डॉक्टर विवेक का आरोप सिद्ध होने से पूर्व ही देहांत हो गया था इसलिए उनकी फ़ैमिली पेंशन आनंदी को मिलने लगी. आनंदी को उसके ससुर अपने साथ सासाराम ले गए क्योंकि डॉक्टर विवेक के दो भाई और एक बहन अभी पढ़ ही रहे थे और डॉक्टर विवेक की पेंशन उसमें बहुत काम आनेवाली थी. उनके छोटे भाई ने जेएनयू में हिंदी में शोध करने का निश्चय किया था. वे चीनी दूतावास के लिए जासूसी करते थे या नहीं, या उन्होंने देश के संवेदनशील दस्तावेज़ों का चीनी में अनुवाद किया इसका उत्तर कभी नहीं मिला. जहाँ तक मुझे लगता है कि चीनी खुद भी अंग्रेज़ी दस्तावेज का चीनी में अनुवाद करने में तब समर्थ थे.

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अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार
‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला थाप’ सम्मान. 
ammberpandey@gmail.com


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हरजीत के यार (१) : नवीन कुमार नैथानी और तेजी ग्रोवर

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आज हरजीत (१९५९-१९९९)होते तो अपना ६२ वां जन्म दिन अपने यारों के साथ मना रहे होते. इस मकबूल शायर और बेहतरीन कलाकार को जाने की जल्दी थी.

हरजीत की कुछ ग़ज़लें और तेजी ग्रोवर के संस्मरण २०१८ में समालोचन पर छपे थे. तेजी ग्रोवर ने उनसे संबंधित बिखरी सामग्री को एकत्र करने की कोशिश शुरू की, फिर राजेन्द्र शर्मा जुड़े और हरजीत के यार-दोस्त मिलते गये. सामग्री का संचयन शुरू हुआ. जल्दी ही हरजीत का समग्र और उनपर एकाग्र शीतल वाणी का अंक प्रकाशित होने वाले हैं.

हरजीत को याद करते हुए उनकी कुछ ग़ज़लें, हस्तलिखित सामग्री, कुछ रेखांकन  तथा नवीन नैथानी और तेजी ग्रोवर के संस्मरण समालोचन प्रकाशित कर रहा है.   



ये हरे पेड़ हैं
हरजीत सिंह की आठ ग़ज़लें



 


1

कश्तियों से क्या पूछें सब्ज़ झील की बातें

बत्तखों से पूछेंगे     झील की सभी बातें

 

कांच की हैं दीवारें जिनमें अब वो रहता है

कांच की तरह नाज़ुक उसके प्यार की बातें

 

शख्सियत है उसकी अब उसके दस्तखत यारों

उससे क्या सुनेंगे हम    उसकी कागज़ी बातें

 

जाने कब जवां हो कर शहर-भर के लब छू लें

मेरे घर के    आँगन में     खेलती हुई बातें

 

हँस रहे हैं छुप छुप के कुछ ढके ढके चेहरे

चल रही हैं महफ़िल में कुछ खुली-खुली बातें

 

सुब्ह होश पा लेना शाम होश खो देना

सुब्ह दूसरी बातें     शाम दूसरी बातें

 

मैंने अपने बचपन को गेंद की तरह खोया

वक़्त ले गया मुझसे    मेरी तोतली बातें

 

बर्फ़ के पिघलते ही भर के आयेंगी नदियाँ

सर उठाएंगी अपना     बर्फ़ में दबी बातें

 

2.

 

एक शोशा वो यहाँ रोज़ छोड़ देते हैं

मुल्क को जंग के ख़तरे से जोड़ देते हैं

 

जब ग़लतियों पे कोई उनकी उठाये उंगली  

अपनी बातें     वो ग़रीबों पे मोड़ देते हैं

 

अब तो वो अपने बयानों को घरोंदों की तरह

खु़द  बनाते हैं     उन्हें खु़द ही तोड़ देते हैं

 

ध्यान बारूद की बातों से बांटने के लिए

कुछ कबूतर भी हवा में वो छोड़ देते हैं

 

हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त

हम तो आवाज़ से   शीशे को तोड़ देते है

 

3.

 

और कब तक कोई पाबन्द यहाँ रहता है

देखिये कितने बरस दौरे-ख़िज़ाँ रहता है

 

कोई दीवार किसी राह में आती ही नहीं

खू़न जब खू़न की मानिंद रवां रहता है

 

अपने दिल में कभी हम खु़द भी नहीं आ पाते

अपने ही दिल में कभी सारा जहाँ    रहता है

 

कश्तियाँ डूब भी जायें तो मरने वालों में

होश जब तक रहे साहिल का गुमाँ रहता है

 

ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगो

इनके जलने से हर रोज़ धुआँ रहता है

 

 

 

4.

 

अफवाह है उस आग में कुछ भी बचा नहीं

लेकिन ख़बर ये है कि वहां कुछ हुआ नहीं

 

खु़शबू नहीं रही ये शिकायत तो आम है

क्यों खिल सके न फूल कोई सोचता नहीं

 

कुछ ऐसे ज़लज़ले भी ज़मीं पर गुज़र गये

अपनी जगह से एक भी पत्ता हिला नहीं

 

वो लफ़्ज़ जिसकी धार से पत्थर भी कट सके

अब तक      किसी किताब में मैंने पढ़ा नहीं

 

तुमको हवा लगी है सियासत के शहर की

अब तुम जो कर रहे हो तुम्हारी ख़ता नहीं

 

इक वो थे जिनके खू़न से तारीख़ बन गयी

इक ये हैं जिनका खू़न कभी खौलता नहीं


 

5.

 

घुटन के साथ तू जाएगा इन घरों में कहां

खुली फिज़ा में जो राहत है बस्तियों में कहां

 

उतर चुकी है जो काग़ज़ पे अपने रंगों में

छुपी हुई थी वो तस्वीर उंगलियों में कहां

 

घने दरख़्त हैं इस राह से तू दिन में गुज़र

हुई जो रात तो भटकेगा जंगलों में कहां

 

सफ़ेद   पेड़ बहुत       जल्द हो गए  ऊँचे

जो कल मिले थे वो मंज़र भी रास्तों में कहाँ

 

हरी   ज़मीन  पे    तूने इमारतें बो दीं

मिलेगी ताज़ा हवा तुझको पत्थरों में कहां

 

ये रतजगे ये इबादत तो   उनका पेशा है

भटक रहा है नगर उनके रतजगों में कहां

 

उसे निज़ाम ने अपना बना     लिया यारो

अब उसका नाम अदालत के काग़ज़ों में कहां

 

6.

 

उसके लहजे में इत्मीनान भी था

और वो शख्स बदगुमान भी था

 

फिर मुझे  दोस्त    कह रहा था वो

पिछली बातों का उसको ध्यान भी था

 

सब अचानक    नहीं हुआ यारो

ऐसा होने का कुछ गुमान भी था

 

देख सकते थे  छू न सकते थे

कांच का पर्दा दरमियान भी था

 

रात भर उसके साथ रहना था

रतजगा भी था इम्तिहान भी था

 

आईं चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना

मेरे कमरे में आस्मान भी था

 


7.

 

दर्द कितना भी दिलनशीं होगा

हम बिखर जायें ये नहीं होगा

 

तूने    सदमों की धूप देखी है

कोई तुझसे भी क्या हसीं होगा

 

इस तरफ़ रात है उधर दिन है

अब वो सूरज उधर कहीं होगा

 

घर ख़लाओं में हम बनायेंगे

आस्मां इक नई ज़मीं होगा

 

हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ

हम न होंगे तो क्या नहीं होगा


 

8.

 

मछलियाँ सोई हैं साहिल पे कश्तियों की जगह

कश्तियाँ होंगी समन्दर में मछलियों की जगह

 

घर समन्दर से    बहुत दूर इक पहाड़ी पर

दिल समन्दर कहीं गुम है सीपियों की जगह

 

बर्फ़ थी जैसे कि     खरगोश हों पहाड़ों पर

धूप में हो गये ओझल जो वादियों की जगह

 

शाम पेड़ों में हवा कितनी चीख कर रोई

टहनियां टूट गईं ख़ुश्क पत्तियों की जगह

 

इन मुहर बंद लिफ़ाफ़ों में तक़ल्लुफ़ है बहुत

कैसे रक्खूं मैं इन्हें सादा चिट्ठियों की जगह

 

ख़ुद से बाहर वो कहीं कुछ भी नहीं देख सका

आईने उसने लगाये हैं खिड़कियों की जगह

 

साहिल करीब देख कर मुसाफ़िर तो खुश हुए

मल्लाह चुप था उसके  लिए आम बात थी





हरजीत, देहरादून और टिप-टाप
नवीन कुमार नैथानी



देहरादून का कोई भी साहित्यिक-सांस्कृतिक उल्लेख डिलाइट और टिप-टाप के जिक्र से बचकर संभव नहीं. डिलाइट का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी वह अपनी उसी त्वरा के साथ गतिशील है-- एक साथ कई पीढ़ियों के बीच जीवन्त बहसों, अफवाहों, सूचनाओं और निखालिस गप्पबाजी का ठेठ अनौपचारिक ठीहा! आज की बढ़ती समृद्धि और घटती संवेदनशीलता के इस बेहद तेज समय में शहर के बीचो-बीच अपनी सादगी भरी धज में डटा डिलाइट प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचता दिखायी पडता है. टिप-टाप का जिक्र भी जरूरी है जो अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के पूरे दशक भर अपने उफान पर रहा और अब बस नाम भर बचा हुआ है-चकराता रोड की भीड़ भरी भागम-भाग के बीचो-बीच एक साइन बोर्ड!

इस शहर में भीड़ का ये आलम है
घर से गेंद भी निकले तो गली के पार न हो

हरजीत ने शायद कुछ ऐसा टिप-टाप मे बैठकर ही कहा था. उन दिनों टिप-टाप पूर्णतः साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था. टिप-टाप का इतिहास कुछ यूं रहा कि डिलाइट के किंचित अगंभीर से दिखलायी पड़ते  माहौल से हटने के लिये एक वैकल्पिक स्थल के रूप में पहले यहां पत्रकारों ने अड्डा जमाया- फिर रंगकर्मी काबिज हुए और अन्ततः साहित्यिकों की विशिष्ट मुफलिसी को टिप-टाप मालिक प्रदीप गुप्ता के दिल की रईसी और काव्य-प्रेम इस कदर रास आये कि टिप-टाप, २० चकराता रोड शहर के साहित्यिकों का पता ही बन गया.

जब कथाकार योगेंद्र आहुजा नौकरी के सिलसिले में स्थानान्तरित होकर देहरादून आये तो उन्हें दिल्ली में बताया गया कि देहरादून में किसी साहित्यकार का पता पूछने की जरूरत नहीं- सीधे टिप-टाप चले जाइये! तो टिप-टाप में ही मेरी योगेन्द्र आहूजा से पहली मुलाकात हुई-- वह शायद शाम का वक्त था--लगभग साढ़े सात बज चुके थे. वे अपनी पत्नी के साथ आये थे. टिप-टाप के माहौल में किसी का सपरिवार आगमन आश्चर्य ही हुआ करता था.

"अच्छा! सिनेमा-सिनेमा वाले योगेन्द्र आहूजा!"लगभग की यही प्रतिक्रिया थी. बाद में योगेन्द्र ने गलत, अंधेरे में हंसी और मर्सिया जैसी कहानियां दीं.

खैर, यह एक अलग और विस्तृत कथा है, फिलहाल बात टंटा शब्द पर की जाये जो एक तरह से टिप-टापियों का सामूहिक नामकरण हो गया. इस शब्द के साथ थोडा सा विरोध, हलका सा प्रतिरोध और दुनिया के प्रति किंचित उपहास को मिलाकर एक खिलन्दडाना बिम्ब कालान्तर में जुड़ गया जिससे संबद्ध हर शख्स को टंटा कहा जाने लगा. बहुवचन टंटे और सामूहिकता के लिये टंटा समिति का संबोधन चल निकला. यहां बेहद गंभीर मुद्दों को गैर जिम्मेदारी की हद तक पहुंचने की दुस्साहसिक चेष्टाओं के सामूहिक आयोजन में कई गैर-टंटों ने निहायत अगंभीर (non-serious) वार्तालाप की शक्ल में बदलते देखने के बाद टंटा समिति को वक्त-बरबादी का जरिया माना और घोषणा की कि यह दो चार दिनों का शगूफा है. मजे की बात यह कि टंटों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं- गम्भीरता का उपहास वैसे भी टंटेपन का मूल भाव है! लेकिन टंटा समिति चल निकली और खूब चली. आज भी हम सबके WhatsApp समूह हरजीत के दोस्त  में इसकी महिमा जस की तस बरक़रार है.        

इस टंटा शब्द की भी एक कहानी है. एक शाम शहर में घूमते हुए कवि वीरेन डंगवाल टिप-टाप में आ पहुंचे. शायद राजेश सकलानी के साथ. चूंकि अवधेश और हरजीत के लिये शाम होने के बाद सूरज ढलने का इन्तजार वक्त-बरबादी के सिवा और कुछ नहीं था, सो वे चाहते थे कि वीरेनजी जरा जल्द ही टिप-टाप से निकल कर कहीं और चलें जहां हरजीत अपना ताजा शे’र पढ़ सके:

ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह, शेख, वाहिद, जाहिद हैं हमप्याला

लेकिन वीरेनजी को शायद ६.३० की ट्रेन पकड़नी थी. तो शाम कुछ फीकी से हुई जा रही थी तो हरजीत ने कहा:

"चलो ! टंटा खत्म!"फिर अगला ही जुमला कस दिया,"स्वागत एवं टंटा समिति का काम खत्म."

अगले दिन इस बात का इतनी बार मज़ाक बनाया गया कि टंटा शब्द सबकी जबान में चढ़  गया. कालान्तर में इसमें साथ कुछ अर्थ जोड़ ने की कोशिशें हुईं. एक प्रसिद्ध नामकरण यूं रहा टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे. व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था. शायद सार्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है. अवधेश की एक कविता है -- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं:

माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रहते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है 

इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त की सीमा से बाहर जाती नजर आने लगती है. टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे- लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बड़ा  अहसान कर रहे हैं. कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!

बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढ़ी - उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदा अपने हाथ से दुरुस्त कर चिपका दिया! अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी- पैरोडी. कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार! उन्हीं दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ. ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबीयत के मालिक थे- यह बात दीगर है कि शायराना तबीयत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नहीं. और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा. आहिस्ता-आहिस्ता अपना चश्मा दुरुस्त किया और बोला, "दर्द साहब! यूं ही कहते जाइये. सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं. और रही बात दुरुस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद-ब-खुद शेर हो जायेगा."

दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि हरजीत कभी उर्दू की नशिस्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा. प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है-अतुल शर्मा के साथ. गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में (वह ज्यादा नहीं चल सका). वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी- अच्छा शेर वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानी उसका अन्वय न करना पड़े- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शेर उद्धृत किये थे. एक मुझे याद आ रहा है:

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

खैर एक रोज दर्द साहब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सुर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं. थोडा सकुचाते, कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया- मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया. दर्द साहब सुर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे. तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ. उसने मंजर देखा, प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर-स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शेर चस्पां कर दिया

शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए

इसे पढ़कर दर्द भोगपुरी ने, ज़ाहिर है, राहत की सांस ली.

 



हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ
हरजीत की देहरादुनिया और मैं
तेजी ग्रोवर  

 

प्रिय हरजीत, तुम्हें और तुम्हारी बेटियों सोनू और गोलू, तुम्हारे परिवार के सभी सदस्यों, तुम्हारे सभी दोस्तों और उन सब लोगों को भी तुम्हारी इकसठवीं सालगिरह मुबारक, जिन्होंने किसी शाम तुम्हें सलाद (यह नाम हम दोस्तों ने उस शै को दिया है जिसका सेवन तुम सलाद के साथ करते थे) खिलाकर तुम्हारी उस दिलफ़रेब आवाज़ में तुम्हारे कलाम को सुना है, या तुम्हारी ही तरह फक्कड़ दिखने वाली तुम्हारी स्वप्रकाशित किताबों को बार-बार पढ़ा है. तुम्हारे उन दोस्तों को भी मुबारक हो तुम्हारी सालगिरह जिन्हें तुम्हारी अनेक ग़ज़लें और फुटकर अशआर को याद रखने कोई काग़ज़ नहीं देखना पड़ता. बस मन ही मन तुम्हारी आवाज़ को सुनते हुए हर महफ़िल में याद रही आयी ग़ज़लों को पेश कर सबको अचम्भे में डालने के लत लग चुकी है तुम्हारे कुछ अज़ीज़ों को. तुम्हारे तमाम दोस्त जिनमें से कईयों को आपस में तुमने मिलवाया तक नहीं था, इस वक़्त एक दूसरे से कुछ इस तरह आ जुड़े हैं मानो उनके बीचों-बीच तुम अपने चश्मे की भाप को पोंछते और उनकी शामों को गुलज़ार करने एक बार फिर से आ बैठे हो.

तुम्हें कैसे पता होता कि तुम्हारे जाने के मात्र पाँच साल बाद की दुनिया में तुम्हारे बहुत से दोस्तों को एक-दूसरे को खोज लेने के टोटके उन्हें कुछ ऐसे माध्यमों से मिल जाने वाले हैं, जिन्हें तुम खुद शायद पसंद न भी कर पाते. या फिर इतना पसंद कर लेते कि उनकी शान में तुम्हारे यहाँ गज़लें हो जातीं, कई अशआर फूट पड़ते. तुमने धागों, सीढ़ियों, कपड़ों तक के तो रदीफ़ बना दिए, फिर तीन बार समालोचन की महफ़िल में आकर, कभी ग़ज़लों, कभी तेजस को लिखे खतों, और कभी तुम्हारे दोस्त प्रेम साहिल के लिखे संस्मरणों को देखकर तुम्हे क्या महसूस होता इसे मैं जानती हूँ, हरजीत. जीवन भर तुम्हारे किसी हुनर ने तुम्हें कोई दुनियावी शै से नहीं नवाज़ा, अभाव में ही तुमने अपने फ़न को साधा, गुना, और अपने कहन में ऐसी तराश पैदा की कि तुम्हें खुद ही कहना पड़ा :

हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त
हम तो आवाज़ से   शीशे को तोड़ देते हैं

फिर भी इन नए मंचों और माध्यमों के वुजूद में आने के सोलह साल बाद ही यह सम्भव हो पाया कि हम में से कई लोग जो तुम्हारे देहरादूनी ठीहों से अनभिज्ञ थे, एक दूसरे से मिले बिना भी एक दूसरे से बहुत गहरा जुड़ाव महसूस करने लगे हैं. तुम्हारी आँखों की चमक अब और भी स्निग्ध हमारी आँखों में उतर आयी है और अभी तक हमें ज़िन्दा रहे आने के नित ने गुर सिखाती हमें यह भी बतला रही है कि अब तुम एक बार फिर ख़ुद को भी ठीक से देख सुन पा रहे हो. कुछ लोगों का जाना हमें उनके इतना क़रीब ले आता है, यह तुम्हें खोकर ही कालांतर में हम जान पाए, और फिर तुम्हें इस तरह दोबारा पाकर, हरजीत! दोस्तों के शामें एक बार फिर तुम्हारी ग़ज़लों और तुम्हारे हाथ के बने रेखांकनों, आवरणों, कोलाजों और खिलौनों से गुलज़ार होने लगी हैं. 

हर-मन प्यारे हरजीत, तुम जान ही रहे हो, कि तुम्हारी गिलहरी तेजस यानिख़ाकसार ने पिछले साल किसी वक़्त इक्कीस बरस में पहली बार इतना ज़ोर से उच्चारातुम्हारा नाम कि एक ने प्रत्युत्तर में ऐसा हुंकारा भरा कि उसने और हुंकारों को अंक में समेट लिया. वह पहले भी कई बार पुकारती आयी है तुम्हारा नाम, कई बार, और कहीं-कहीं से हुंकारे भी आये हैं. लेकिन इस बार तुम्हारे नाम को उच्चारते ही राजेंद्र शर्मा जैसा छोटा भाई और सूत्रधार भी मिल गया मुझे जिसने तुम्हारे अधूरे रह गए दीवान के बारे में मेरा सन्देश देखते ही मुझसे तुरन्त सम्पर्क किया और उनके संकल्प और प्रेम की बदौलत देखते ही देखते पचास से ऊपर कर्णप्रिय हुंकारे स्वर-संगति में आने की उम्मीद में एक दूसरे में पिरोये गए. लेकिन अभी कुछ ही दिन पहले तुम्हारे एक देहरादूनिया अज़ीज़ ने बताया कि तुम तो किसी से किसी का परिचय तक नहीं करवाते थे. बहुत बरस बाद वे (मसलन) एक दूसरे को बता रहे हैं कि मोहतरमा हम लोग हरजीत के साथ दिल्ली में दिव्या और डॉ विनय के घर की छत पर मिल चुके हैं, लेकिन हरजीत ने नहीं बताया कि कौन-कौन है. वे मित्र फ़ोन पर बोले कि उन्हें बाद में पता चला कि उस छत पर चंडीगढ़ निवासी वे तीन लोग कौन थे. उन तीन में से एक तो अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से गया है. तुम इस मरहूम अज़ीज़ के कोलाजों के किस क़दर मुरीद थे न, और इस विधा में उसे अपना गुरु मानते थे! उसका नाम यहाँ दर्ज करना ज़रूरी लग रहा है मुझे हालाँकि उसका नाम तक लिख पाना मेरे लिए कठिन है. 

चलो लिखती हूँ भारी मन से: अर्नेस्ट ऐल्बर्ट. वह भी तो अतुलवीर के साथ देहरादून में तुम्हारी शादी अटेंड करने मेरे साथ आया था न? तभी तुम्हारे कुछ टंटों और देहरादूनिया टिपटॉप टुल्लर से मुलाक़ात भी हुई होगी, लेकिन वेद भाई साहब, दीपक और रानू को छोड़ मुझे किसी की याद नहीं है. अवधेश तो तुम्हारे ही साथ मिला था हम लोगों को और उसका गीत “जितने सूरज उतनी ही छायाएँ” मैं उतनी ही शिद्दत से महफिलों में अपनी मामूली सी आवाज़ में गा देती हूँ जितने प्रेम से मैं तुम्हारी ग़ज़लों की खास शामें आयोजित करती हूँ. (और अब तो देहरादून के कलाप्रेमी दम्पति खुराना जी और कृष्णा भाभी की दरियादिल मेहमाननवाज़ी की भी याद हो आयी है मुझे!)

सुनो, मुझे अर्नेस्ट के बारे में भी यहीं बात कर लेने दो. और बताने भी किसे जाऊंगी अब? तुम्हें तो बताना ही था यूं भी क्योंकि मुझे मालूम है तुम ज़रूर जानना चाहोगे वह किस हाल में अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से रुखसत हुआ है. मरने से पहले उसने हमारे उन दोस्तों को सन्देश भेजे, जिन्हें तुम भी अच्छे से जानते हो. लेकिन (मुझ और उसके बेटे अस्सू सहित) कोई उससे बात नहीं करना चाहता रहा होगा, ऐसा कयास मैं लगा रही हूँ. तुम होते तो उससे मिलने ज़रूर पहुँच जाते क्योंकि तुम बहुत सी चीज़ों से अल्पायु में ही ऊपर उठ चुके थे (अपनी सांसों की माला से भी तो तुम चालीस की उम्र में ही उठ नहीं गए थे?). तुम अर्नेस्ट से अपने  कोलाज लायक कतरनें बटोरने कभी-कभी देहरादून से ख़ास आते थे उस घर में जहाँ पहली बार तुमसे और अवधेश से इतनी अविस्मरणीय मुलाक़ात हमारी हुई. अर्नेस्ट की फिंकी हुई कतरनों में भी तुम्हें अपने काम का कुछ दिख जाता था, है न? Span में छपे उसके कोलाजों को लेकर जितना खुश तुम हुए, उतना तो शायद वह खुद भी कहाँ हुआ होगा, क्योंकि उसका मन कला से अधिक धारधार-रोमांचक चीज़ों में था, कला उसे कैसे रमाए रख पाती भला? हालाँकि तुम्हें इतना बता दूं अर्नेस्ट ने हम में से किसी को भी नहीं बताया था कि वह किस हाल में है. माँ के घर जहाँ रुस्तम और मैं अमृतसर में उस वक़्त थे, उससे कुछ ही दूरी पर उसके बेहद कठिन अंतिम दिन बीत रहे थे, और हम लोग इस बात को नहीं जानते थे. वह मेरी माँ से भी क्षमा भी मांगना चाहता था, यह सन्देश भी मुझे सात समन्दर पार से उसके जाने के बाद मिला. 

प्रेम अनुग्रह नाम की एक स्विस महिला ज़्युरिक में बैठे बैठे उसे अद्भुत ढंग से अपने संदेशों से विदा कर रही थी, क्योंकि उसे भारत आने की अनुमति मिल नहीं पा रहा था. मैंने करुणा के बुद्ध सरीखे निर्वाह को पहली बार ख़ुद प्रेम अनुग्रह की कृपा से ही अनुभव किया है, हरजीत! अनुग्रह और मेरे बीच की कहानी बहुत विस्तार पा चुकी है, कई हज़ार शब्द और जज़्बात हमारे बीच धड़क रहे हैं, लेकिन फ़िलवक्त तुम्हें यही बताना चाहती हूँ कि अगर अर्नेस्ट को अनुग्रह की भावपूर्ण विदाई नसीब हो सकी तो तुम्हारे कोलाज उस्ताद का बेहद जटिल और गुह्य जीवन अकारथ नहीं गया होगा, ऐसा मान लेना चाहती हूँ, ताकि खुद अपनी अंतिम घड़ियों में भी मैं उसी के रहस्य को गुनती न रह जाऊं. यह लिखना भी उसी मनस्थिति में हो रहा है जो अर्नेस्ट के जाने के बाद ही मुझपर तारी हो सकती थी, और किसी के जाने से नहीं.


यह जो तुम्हारे मित्रों का चौपाल यहाँ बन आया है, ऐसा नहीं है कि इसपर कुछ कहा-सुनी या असहमतियाँ हुई ही न हों.एक दूसरे के मिज़ाज को समझने में कुछ वक़्त तो लगा ही.रूठने-मनाने के झीने-झीने कर्मकांड भीहुए.एक ही रसोई में रहने वाले दो बर्तन भी आपस में टंकार पैदा कर लेते हैं, तो फिर हरजीत के स्मृति-कक्ष में तो कितने ही संजीदा और टंटा सुर एक साथ छिड़ गए, और ज़रूरी नहीं कि वे तुम्हारी नज़र से गुज़रे ऐसे सूरज हों जो “अपनी ही रौशनी मेंपरीशां” रहे आये हों. इन सबमें मुझे तुम्हारे ही दर्शन होते हैं, हरजीत, इन खुदा के बन्दों ने कई शामों की ग़मे-हस्ती को तुम्हारे साथ बैठकर कहकहों और सलादों में उड़ाया है. और मेरे लिए इनमें कई स्वर इतने आत्मीय हो गए हैं जैसे उन्हें मैं बचपन से जान रही होऊं. मेरे लिए इनका गिला-शिकवा भी सर माथे पर, हालाँकि मुझे जो दानिशमंदी यहाँ देखने को मिल रही है, जो ग़ैर दुनियावी तत्व, वह मुझे फिर तुमसे ही रूबरू करवाता जान पड़ता है. 

इनमें कई तो बड़े नामवर कलाकार भी हैं, और कई भाई वीर सिंहकी तरह छिपे रहने की चाहलिए इस दुनिया से “छिप टुर” जाने की रूहानियत को बहुत गहरा जी रहे हैं, अपने लिखे-बनाए को सहेज भी नहीं पाते. कोलाज का एक और उस्ताद तो इसी whatsapp चौकड़ी में बैठा है हुआ है, किसी एक कोलाज से वह हमें हर सुबह आवाज़ देकर जगा देता है और कौन नहीं समझता होगा उसके बनाए हुए अक़ीदत के फूल और परिन्दे किससे मुखातिब हैं. हम में से कुछ तो तो एक दूसरे का नाम भी पहली बार सुन रहे थे.और यह अकारण नहीं था कि तुम हमारे दरमियान इन फ़ासलों को पूरना नहीं चाहते थे. मुझे तो सिर्फ़ टिपटॉप और डीलाईट सरीखे कुछ ठीहों की खबर थी देहरादून नाम के शहर में,  और अवधेश, दीपक और रानू की. तुम्हारी संगिनी मट्टो, बेटियों गोलू और सोनू, तुम्हारे छोटे भाई के परिवार और तुम्हारी माँ की.

तुमसे मुखातिब रहे आने का यह सिलसिला अभी और चलेगा, हरजीत, लेकिन फ़िलहाल दो ही शख्सियतों के ज़िक्र से अभी की बात ख़त्म करती हूँ. एक तो तुम्हारे दार्शनिक मार्गदर्शक वेद भाई साहब जिनकी ग़ैर दुनियावी झलक अब  तुम्हारे उस्ताद जगजीत निशात साहब में भी मिलती है. क्या था कि मध्य प्रदेश में एक्टिविज्म के पांच साल गुज़ारने के बाद, मुझे चंडीगढ़ अपनी नौकरी पर लौटना था. भोपाल गैस काण्ड में मिले जुझारू कार्यकर्ताओं और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के साथियों के संग-साथ के अलावा अब ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में भी एक बड़ा अनुभव मुझे 1985 और 1990 के दौरान  जिला होशंगाबाद के देहाती इलाक़ों में रहते हुए हो चुका था. दोबारा लौट कर शेक्सपियर कैसे पढ़ा पाऊँगी इसी की चिंता थी. एक बार तुम जब पलिया पिपरिया गाँव में मुझसे मिलने आये तो उस इलाके में तुम्हारी शायरी और ख्याति दावानल की तरह फैल गयी थी, और तुम मध्य प्रदेश के उस ग्रामीण और कस्बाती समाज के पाठकों के साथ हिलमिल कर कितने खुश थे जिसकी महिमा आज के शहरी अदीब शायद ही समझते हों. मैंने तुमसे कहा, हरजीत, अब चंडीगढ़ की दुनिया मेरे लिए अजनबी हो चुकी है. वहां लौटना थूक कर चाटने जैसा होगा. देहरादून लौट कर तुमने वेद भाई साब से हँसते हुए इस बात का ज़िक्र किया होगा. वे शायद  चिंतित थे कि मेरी भावनात्मक ज़िन्दगी नाज़ुक ज़मीन पर है और वे सोचते थे कि मुझे अपने इलाके में लौट आना चाहिए. फिर तुमने मुझे लिखा कि वेद भाई साब मुझे क्या सलाह दे रहे हैं: तेजी से कहना अपना ही थूक है. कोई हर्ज नहीं.


इस बात के नौ साल बाद एक बार फिर देहरादून में तुम्हारे हाथी बड़कला वाले घर में तुम्हारी माँ से मिलना हुआ, हरजीत. उस माँ से जो तब तक तुम्हें खो चुकी थी. वे अकेली एक अँधेरे से कमरे में दीवार से पिठ्ठा लगाए बैठी थीं. मट्टो ने जाकर उनसे कहा, तेजी आयी है, मिल लीजिए. मैं उनकी चारपाई पर जाकर बैठ तो गयी लेकिन उनसे क्या कहती? उनकी हालत देख मैं खुद ही फूट-फूट के रोने लगी. फिर हम दोनों कुछ देर आँसुओं के उस कक्ष में बिना कुछ कहे बैठी रहीं. तब तक मट्टो शायद बहुत छोटे से कपों में चाय लेकर आ गयी. उसी साल की फ़रवरी में तुम्हारी चंडीगढ़ यात्रा को लेकर माँ ने सिर्फ़ इतना भर कहा मुझसे: ‘कहता था, तेजी का कुछ काम है. जाना है. मैंने कहा जाओ, जाकर कर आओ तेजी का काम”. तुम्हें याद है न वह क्या काम था, हरजीत? तुम मेरे उपन्यास नीलाका आवरण बनाकर लाये थे. नीले काग़ज़ पर तुम्हारी अतुलनीय कैलीग्राफी में बारीक सफ़ेद रेखाओं से सिर्फ़ नीलालिखा था और उसी लिखावट में मेरा नाम. बस और कुछ भी नहीं. याद है उस आवरण को देखते ही मैंने क्या कहा था? “हरजीत अगर मैं नीला इस तरह लिख सकती जैसे तुमने इस किताब के कवर पर लिखा है तो मुझे उपन्यास लिखने की ज़रूरत न रहती.” और उसी रात की बात है सलाद पीकर लुढ़क जाने के बाद की तुम्हारी हालत से परेशां होकर मैंने तुमसे कहा था:
Harjeet, if you die, I’m going to kill you!” रुस्तम और मैंने तुम्हारी पगड़ी उतार, जूते निकाल, तुम्हें लेटाकर रजाई ओढा दी थी.

1999 के देहरादून में मैं जीवन में पहली बार ऐसी माँ से मिल रही थी. जिसने अपने जवान और लाडले बेटे को खो दिया हो. मुझे नहीं पता तुम्हारी शायरी का तुम्हारे या मेरे जीवन से क्या रिश्ता है. लेकिन तुम्हारी माँ को देखकर क्या कोई भी यह शेर कह सकता था भला:


तूने सदमों की धूप देखी है
कोई तुझसा भी क्या हसीं होगा

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माणिक बंद्योपाध्याय: स्वामी - स्त्री : अनुवाद - शिव किशोर तिवारी

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माणिक बंद्योपाध्याय(9 May 1908 – 3 December 1956)की १९४४ में लिखी प्रसिद्ध कहानी ‘स्वामी-स्त्री’ का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने किया है.  माणिक दा ने ३६ उपन्यास और ढाई सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं हैं जिनपर आधारित कई यादगार फिल्में भी बनीं हैं. 

 

माणिक बंद्योपाध्याय
पति-पत्नी                                                          
शिव किशोर तिवारी

 

रात दस बजे मेनका कमरे में आई. इस घर में भात-पानी का झमेला जल्द ही निबट जाता है. छोटा-सा कमरा है. लम्बान चौड़ाई से दो हाथ ज्यादा होगी, इससे अधिक नहीं. उसका लगभग आधा मेनका-गोपाल की शादी में मिले पलंग ने घेर रखा है. उसके पास निकलने भर का रास्ता छोड़कर बड़े कौशल से गोपाल की कैम्प चेयर आड़ी-तिरछी बिठाई गई है. कुर्सी की चारों ओर निकलने भर की जगह है. उसके सामने एक स्टूल है जिस पर पांव रखकर गोपाल कुर्सी पर चित लेटा रहता है और सिगरेट-बीड़ी पीते हुए किताब पढ़ता है-लोकप्रिय साहित्य, जिसे पढ़कर समय कटता है, मन को आराम मिलता है. जो ऊँचे दर्जे वाले लेखक हैं उनकी भी ऐसी ही किताबें वह पढ़ता है. कमरे के एक कोने में बक्से और सूटकेस जमाये गये हैं– लोहे,टिन और चमड़े से बने. बड़ा बक्सा मेनका की शादी में मिला था; अब भी चमकीला है, बस एक कोना कहीं चोट खाकर जरा पिचक गया है. दीवाल पर कुछ बेकार के चित्र लटके हैं और मेनका-गोपाल की एक बड़ी-सी फोटो. साड़ी, साड़ी पहनने का सलीका, तमाम गहनों और केश-सज्जा को छोड़ दें तो तस्वीर की मेनका और अभी जो कमरे में आई है उस मेनका में खास कोई अंतर नहीं दिखता. बदन थोड़ा भर गया है ऐसा लगता है, पर पक्का नहीं कह सकते. लेकिन फोटो वाले गोपाल की तुलना में कैम्प चेयर वाला गोपाल काफी दुबला दिखता है. फोटोग्राफर के कौशल से नहीं बल्कि सचमुच फोटो का गोपाल अधिक तंदुरुस्त था. शादी के बाद से अब तक वह बहुत दुर्बल हुआ है. यह शादी की वजह से हुआ य़ा नौकरी करने के कारण, कहना मुश्किल है. शादी और नौकरी लगभग साथ-साथ हुई थीं. 

कमरे में आकर मेनका ने सिटकनी बंद की और नाइट गाउन उतार दिया. वह पलंग पर पैर लटकाकर बैठ गई और जोर-जोर से पंखा झलने लगी. “बाप रे !अब कल पड़ी!”, उसने कहा.

गोपाल ने किताब नीचे करके एक सहमति-सूचक मुसकान दी और वापस पढ़ने में मन लगाया.

“हाय! उबल गई पूरी.”

इस बार गोपाल ने किताब नीचे नहीं की, पढ़ते-पढ़ते बोला, “बुरी गर्मी है.”

“टेबुल फैन तो तुम खरीद नहीं रहे.”

“तुम साड़ी न लेतीं तो...”

“बिना कपड़ों के तो रहा नहीं जा सकता”.

हाथ के पंखे की हवा ठीक से पाने के लिए वह इस तरह बैठी है, मानो कमरे में एक जोड़ी आखें भी न हों, मानो वहाँ सम्पूर्ण एकांत हो. तीन महीने नैहर  में रहकर एक हफ्ता पहले वह वापस आई है. पहले दिन इस तरह हवा नहीं कर सकी. लाज लगती रही, “छी, कपड़ा कैसे उतारे कोई!”जो एक देह, एक मन, एक प्राण हो चुके उनके बीच भी तीन महीने की दूरी ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती है, दुबारा मिलते ही तत्काल सहज नहीं हुआ जाता. तीन महीने तक उन्होंने एक दूसरे की कल्पना की है, कामना की है, दुख और बेबसी की आहें भरी हैं, अवकाश और मुक्ति का आनंद भी किसी दंड की तरह भोगा है, रात भर जगे हैं, आवेग के बोझ से कभी-कभी कुछ देर को दम घुटता-सा लगा है. दोनों के मन में जाने कितने नये परिवर्तन हुए हैं एक-दूसरे को लेकर. दुबारा मिलने पर एक देह, एक मन, एक प्राण होने में बंद कमरे में पूरी, आधी या चौथाई रात का समय तो लगेगा ही. मशीन के पुर्जे खोलकर दुबारा लगाने में भी समय लगता है– स्वयं विधाता मिस्त्री हों तब भी.

बदन का पसीना सूखने के बाद मेनका पूरब की ओर खुलती दो परदा-लगी खिड़कियों में एक के सामने खड़ी हुई. पास के इकतल्ले घर की छत पर ग्रीष्म की चाँदनी छिटकी हुई है. उसके पीछे तिमंजिले घर की सात खिड़कियों से घर की रोशनी बाहर आ रही है. आजकल सभी खिड़कियों की रोशनियाँ पता नहीं कब बुझती हैं. शादी के बाद कुछ दिनों तक यह बात उसे पता होती थी. चार खिड़कियों पर करीब ग्यारह बजे अँधेरा होता था, दो में बारह के आसपास, और तिमंजिले की कोने वाली खिड़की पर डेढ़-दो बजे. उस कोने वाले कमरे में कौन रहता है या रहते हैं इस बात को लेकर न जाने कितनी ही कल्पनाएँ उसने की हैं. अन्य कल्पनाएँ– जैसे कोई परीक्षार्थी देर तक पढ़ता होगा– उसके मन में टिकती ही नहीं थीं, बल्कि उनकी सम्भावना को ही वह अस्वीकार कर देती थी. उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि उस कोने वाले कमरे में उन-दोनों जैसा ही एक जोड़ा रहता होगा– जिनकी शादी भी नई-नई हुई होगी. मेनका-गोपाल की तरह उन्हें भी ध्यान न रहता होगा कि प्रेम करते-करते कब रात के दो बज गये. वे अपनी रोशनी जल्दी ही बंद कर लेते थे लेकिन. घर के भीतर खुलने वाली उनकी खिड़की केवल फ्रॉस्टेड ग्लास की थी जिससे आर-पार तो नहीं दिखता था पर यह पता चलता था कि रोशनी जल रही है. तिमंजिले वाले सबसे ऊपर रहते थे और उनका कमरा भी कोने का था, इसलिए रोशनी जलाये रखने में कोई बाधा नहीं थी शायद.

मायके से लौटने के दिन वे करीब तीन बजे तक जगते रहे थे, लेकिन उस दिन तिमंजिले मकान की खिड़कियों की ओर देखने का ख्याल तक न आया.


मेनका के मुंह से पछतावे की एक क्षीण ध्वनि स्वगत भाव से निकली. उस दिन कुछ ज्यादा ही हो गया था. एक रात में ही एकरसता-सी आने लगी थी, जैसी मायके जाने के पहले लगातार छह महीने एक दूसरे के साथ रहते हुए आने लगी थी.

नींद आ रही थी. पछतावे वाली बात ने मेनका की नींद तो भगाई ही, और भी कुछ दे गई मानो– अधमुँदी आँखों में एक चमक और पीठ के ठीक बीचोबीच एक मीठी सिहरन. गोपाल मनोयोग के साथ किताब पढ़ रहा है. पढ़ने में विघ्न पड़ने से उसे बड़ी झुंझलाहट होती है. कहता कुछ नहीं पर झुंझलाहट होती है.

बिस्तर पर आकर मेनका कुछ देर इधर-उधर करती रही. फिर उसे याद आया कि देर रात तक जगकर पढ़ते रहने से गोपाल का दिमाग गरम हो जाता है. तब नींद से जगाकर उसे बहुत तंग करता है वह. ऐसा लगता है जैसे शांत, समझदार गोपाल कोई और ही आदमी हो गया हो या उसने शराब पी ली हो. मेनका को इतना विरूप लगता है सब कुछ, गुस्सा आता है!वह क्या कहीं भागी जा रही है? अगले दिन वह कमरे में नहीं आयेगी?बार-बार नींद से उठाकर किसी को कष्ट क्यों देना– जब उसका जी अच्छा न हो तब भी?ऊपर से, वह यदि कोई जरूरी बात कहने के लिए गोपाल को वह खुद आधी रात सोते से जगाये– किसी अज्ञात कारण से उसे नींद न आये, या हठात नींद टूट जाये और जी कैसा-कैसा करे और सारे बदन में बेचैनी के साथ छटपटाहट-सी मालूम हो– तब गोपाल केवल कहेगा, “कल बात करेंगे, कल सुबह”.

तब भी वह गोपाल के सीने में समाने की चेष्टा करती-सी भीगे स्वर में कहे, “सुनते हो?छाती में अजीब जलन हो रही है”, तो “थोड़ा सोडा ले लो” कहकर वह करवट बदलकर सो जायेगा. तब मेनका के सीने में सचमुच जलन होने लगती है. महीने दो महीने में कभी इस तरह नींद नहीं आती या बीच में टूट जाती है– चलो मान लो एसिडिटी के कारण ही– तो क्या बात करने को उसे कोई नहीं मिलेगा? ऐसी जबरदस्त जरूरत के वक्त उसका प्राप्य प्रेम और दुलार उसे नहीं मिलना चाहिए?

कुछ देर इधर-उधर करने के बाद नींद आने लगी. एक जम्हाई लेकर मेनका बोली, “सोओगे नहीं?इतनी देर पढ़ने से कल आँख जो दुखेगी.”

गोपाल बोला, “चैप्टर खतम करके सो जाऊँगा, बस पाँच मिनट और.”

मेनका ने लेटकर आँखें बंद कर लीं. नींद से निढाल होकर पूरी तरह शरीर को ढीला छोड़ देने की क्षमता अब चुक-सी गई है, सो गोपाल जब किताब रखकर, स्टूल को ठेलकर कुर्सी खिसकाकर उठने लगा तो मेनका को आहट लग गई. एक बार आँख खोलकर डरते-डरते गोपाल के चेहरे की ओर देखकर फिर निश्चिंत होकर आँखे बंद कर लीं. आज दिमाग गरम नहीं हुआ है, नींद आ रही है. एक नजर में ही मेनका को अब वह सब पता चल जाता है. गोपाल के चेहरे और आँखों के सारे भाव उसे मन:स्थ हो गये हैं.

बत्ती बंद करके गोपाल अपनी जगह पर लेट गया. एक पाँव मेनका के पावों पर फैला लिया. मेनका ने अस्फुट स्वर में पूछा, “कल छुट्टी है न?” गोपाल ने जवाब में “हूँ” कहा.

दोनों कोई दस मिनट सोये होंगे कि टैक्सी से घर में अतिथि का आगमन हुआ. एकदम अनजाना कोई नहीं, गोपाल के साढ़ू का छोटा भाई रसिक और उसकी पत्नी. गये अगहन में रसिक का विवाह हुआ था. पत्नी को मायके छोड़ने जा रहा है. दिन बारह बजे की रेलगाड़ी पकड़कर साढ़े छह बजे शाम कलकत्ता, वहाँ से फिर नौ बजे की गाड़ी पकड़नी थी. रास्ते में दुर्घटना होने की वजह से लाइन बंद हो गई तो उनकी गाड़ी दस बजे कलकत्ता पहुँची है. इतनी रात कहाँ जायें, यहीं आ गये. वरना इस तरह बिना कोई खबर दिये....

“हमें याद किया और आये यही हमारा सौभाग्य है”.

स्टोव जलाकर मेनका पूड़ियाँ तलने बैठी. गोपाल का भाई साइकिल लेकर खाने-पीने की दुकानों की ओर चला. कम से कम चार किस्म के छेने के पकवान और रबड़ी लाना होगा. और कोने के पंजाबी होटल से पका माँस. अंडे घर में पड़े हैं, मेनका आमलेट बना लेगी. घर में रिश्तेदार आये हैं नई बहू को लेकर. खाने-पीने का जरा कायदे का बन्दोबस्त भी न हो पाया !धत्...

फिर भी उनकी गाड़ी कल शाम को है. दोपहर के भोजन का कुछ ठीक-ठाक इंतजाम कर लेंगे. महीने के अंत में पैसे खतम होने को आये, लेकिन घर में रिश्तेदार हों तो पैसे की फिक्र करने से कैसे काम चलेगा?

मेनका ने बुआ जी से फुसफुसाकर पूछा, “कनिया को एक कपड़ा तो देना पड़ेगा, क्यों?”

“देना तो चाहिये”.

घर में अप्रत्याशित अतिथि के आने की उत्तेजना को दबाकर मेनका के मन में गोपाल के लिए अब एक ममता जागी. फिर इस महीने बेचारे को कर्ज लेना पड़ेगा. अकेला आदमी खटकर जान दे रहा है, भाई, बहन, फूफी, मौसी उसकी कमाई खसोटकर खा रहे हैं. ऊपर से रिश्तेदारों को मेहमानी करनी है!एक टेबुल फैन तक खरीदने की बेचारे की साध पूरी न हुई. वह खुद भी कैसी है!पसीने से लथपथ ऑफिस से जब लौटता है तो इतना भी नहीं होता कि दस मिनट उसे पंखा झल दे. आज रात पंखा झलकर उसे सुलाकर तब सोयेगी. एक हाथ से पंखा झलना, दूसरे हाथ की उँगलियाँ उसके बालों में...

बरामदे को घेरकर बनाई जगह पर रसिक खाने बैठा, बहू के लिए खाना अंदर कमरे में गया. रसिक के पास बुआ जी बैठीं, बहू के दायें-बायें सटकर बैठीं मेनका की दो ननदें. खाना परोसते हुए मेनका ने लक्ष्य किया कि इधर-उधर डोलता, चक्कर काटता गोपाल बार-बार रसिक की बहू को देख रहा है, बल्कि उत्कंठा के साथ देख रहा है. पहली बार बहू को देखकर गोपाल को मानो अचरज हुआ था. बातचीत की कोशिश करने पर बहू लज्जावश चुप रही तो उसे शायद बुरा भी लगा. छोटी किसी मजाक की बात पर फिक्-से हँसकर उसने जवाब दिया तो गोपाल के आनंद की सीमा न रही जैसे. पूड़ियाँ तलते-तलते मेनका ने यह सब लक्ष्य किया था. इस वक्त दोनों को खिलाने-पिलाने पर नजर रखने के बहाने अंदर-बाहर कर रहा है. इसी दौरान वह रसिक की बहू का सर्वांग आँखों से सहला जाता है. और किसी की नजर में पड़े ऐसा कुछ नहीं कर रहा है. और किसी के बस का नहीं है कि गोपाल के हाव-भाव और सायास सम्भाषण में कुछ और पकड़ सके. दूसरों के पास मेनका की नजर जो नहीं है. परंतु गोपाल ऐसा कर क्यों रहा है?रसिक की बहू सुंदर है इसलिए?लड़की रूपवती है, किंचित उग्र प्रकार का रूप. जो रूप कपड़े-लत्ते खास कुछ ढक नहीं पाते, उलटे उसे और भी उत्कट, और भी ऐन्द्रिय बना देते हैं. बाट के लोग मुंह बाये ताकते रह जाते हैं, घर के लोग सदा सशंक रहते हैं. और रूप के अहंकार में रूपसी के पाँव धरती पर नहीं पड़ते.

गोपाल शांत, भद्र और मधुर रूप का प्रेमी है– जैसा मेनका का रूप है. रसिक की बहू को देखकर विचलित होने वाला तो वह नहीं है.

कमरे में जाकर एक कोंचा देना पड़ेगा– समझना होगा मामला क्या है.

अतिथियों का भोजन समाप्त होते ही शयन की समस्या पर बुआ, मेनका और गोपाल की बैठक हुई. बुआ ने सुझाया कि भोपाल और कन्हाई एक बिस्तर पर सो जाये, रसिक की बहू को अनु-बीनू के साथ कर दिया जाये. एक रात की तो बात है.

गोपाल बोला, “ऐसा भी होता है कहीं?उनकी नई शादी हुई है. उन्हें एक कमरा देना ठीक होगा. हमारा कमरा दे दो”.

“तो वही करो” – बुआ ने हिचकिचाते हुए कहा.

उसके बाद रात एक बजे तक घर की सारी बत्तियाँ बुझ गईं. गोपाल भोपाल की छोटी चौकी पर सोया, मेनका सोयी अनु-बीनू दोनो ननदों के बीच. रात को संयोग से भाभी को बगल में पाकर अनु-बीनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. सारी रात जागकर गप करने का इरादा जाहिर करने के बाद पहले दस मिनट फव्वारे की तरह शब्द निकालती तथा दस मिनट और अधनींदी आवाजें निकालती, दोनों आधे घंटे में सो गईं. मेनका जगी रही. गोपाल को कितनी बातें बतानी थीं, लेकिन बात ही न हो पाई. आज की रात-लम्बी, खतम न होने वाली रात–बीतेगी, फिर कल का सारा काटे न कटने वाला दिन, तब कहीं जाकर कल रात 10 बजे बात हो पायेगी. तब तक तो बातें सारी बासी हो जायेंगी. कहने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा. इसके अलावा, बुआ ने उन दोनों को कल भी रुकने के लिए कहा है– कल का दिन बड़ा खराब है, यात्रा के लिए शुभ नहीं है. रसिक लोग शायद कल भी रुक जाये. उसका कमरा उन्हीं के दखल में रहे. तब तो परसों रात के पहले गोपाल से अकेले मिलना न होगा. कैसा अभागा घर लिया है गोपाल ने, एक फाजिल कमरा तक नहीं है. और हो भी कैसे? भाई, बहनें, मौसी, फूफी से घर अटा पड़ा है. गोपाल की गलती नहीं है– इस घर के लिए भी हर महीने पैंतीस रुपये गिन देना होता है. सबके आराम के लिए खटते हुए तमाम हो गया आदमी! आजकल कुछ बीमार-जैसा भी दिखने लगा है.

कमजोर तो हो ही गया है. परसों जब उसको बाँहों में जकड़ा था; कहाँ, पहले की तरह का जोर तो नहीं था बाँहों में! पास होता तो अभी जाँच लेती कितना कमजोर हुआ है. कल सुबह ध्यान से देखना होगा कि गोपाल का चेहरा कैसा दिख रहा है. कल से थोड़ा ज्यादा दूध और मछली खिलाना ठीक होगा.

इसी वक्त जाकर एक बार देख ले अगर? भोपाल-कन्हाई तो सो ही चुके होंगे. लेकिन बत्ती जलाने से कहीं उनकी नींद टूट गई तो? अँधेरे में बदन को हाथ से सहलाते समय गोपाल ही अगर जग जाये?

आज रात कुछ नहीं होता, आज वह फँसी हुई है. अभी हार्ट फेल होकर मर भी जाये तो गोपाल का जरा-सा स्नेह-स्पर्श तक नहीं मिल पायेगा. कोई उपाय नहीं, कुछ नहीं किया जा सकता. एक अतिरिक्त कमरा इस घर में होता तो...रात की निस्तब्धता मेनका के कानों में झांय-झांय बजती है. बहाने या कैफियत को दरकिनार कर, तर्क और औचित्य को धता बताकर, इस समय उसकी कल्पना सीधे-सीधे, साक्षात् गोपाल की कामना कर रही है- पुराने अभ्यस्त मिलन की पुनरावृत्ति! उसके बाद चाहे मौत आ जाये.

“सुनो!”

एक साथ गरमी और ठंड का अनुभव हुआ मेनका को. वह सिहर उठी.

जंगले की छड़ पर मुंह टिकाकर गोपाल ने आवाज कुछ ऊँची की –“सो गईं क्या? मुझे एक ऐस्पिरिन दे जाओ न”.

मेनका के जवाब देने के पहले ही कमरे के एक कोने से बुआ बोल पड़ीं, “कौन? गोपाल? तबीयत ठीक नहीं लग रही?”

ना, गर्मी से सरदर्द हो रहा है. ऐस्पिरिन चाहिये. तुम न उठो बुआ, तुम्हें उठने की जरूरत नहीं है”.

मेनका दरवाजा खोलकर बाहर आई.

“ऐस्पिरिन तो हमारे कमरे में रखी है”.

“ रहने दो फिर. छत पर जाकर थोड़ी देर वहीं सोता हूँ. भूपाल लोगों के कमरे में बड़ी गरमी है”.

“खुली छत पर सोओगे? तबीयत खराब नहीं होगी?”

“कुछ नहीं होगा. एक पाटी (एक प्रकार की चटाई) बिछा देना”.

मेनका पाटी और एक तकिया लेकर आई. बरामदा पार करके सीढ़ियों की ओर जाते हुए उन दोनों के कमरे की काँच की खिड़की के पास मेनका को रोककर गोपाल दबे गले से बोला, “इत्ती देर में सो भी गये!”

खिड़की पर रोशनी नहीं है. रसिक के खर्राटे बाहर तक सुनाई दे रहे हैं. मेनका बोली, सोयेंगे नहीं?रात कितनी हो गई है!”

मेनका ने छत पर पाटी बिछाकर तकिया लगा दिया. गोपाल ने पूछा, “अपना तकिया नहीं लाईं?”

“मुझे भी सोना है यहाँ?”

गोपाल के हाथ पकड़ते ही वह पाटी पर बैठ गई.- घर के लोग क्या सोचेंगे!

गोपाल ने उसे आलिंगन में कस लिया तो कुछ देर के लिए मेनका की साँस बन्द हो गई जैसे.

अब और सीढ़ी उतर-चढ़ नहीं सकती. एक तकिये से काम चल जायेगा.

तिमंजिले का कोने वाला कमरा रेलिंग के ऊपर से दिख रहा है. इस समय भी उसमें रोशनी जल रही है.

________________




शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और आलोचनात्मक लेखन.
tewarisk@yahoocom

राहुल राजेश की कविताएँ

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राहुल राजेश की कविताएँ

१.

बाजार

पोठिया माछ की तरह चाँदी का वर्क है
चंचल चितवन से चपल है मुस्कान
टोकरी में बस चार अमरूद बचे हैं
बाकी सब बिक गये  

सिलेट पर आखर अभ्यास का समय नहीं
दुपहरिया बैठकर दुहरा लेगी छूटा अध्याय
अभी तो जीवन का पाठ करना है

बाजार में फल बेचते जान लिया है
मेहनत का फल मीठा होता है

थोड़ी और बड़ी होगी तो क्या पता
उसे पता चले, देह भी एक फल है

किसी को उसकी निश्चल हँसी मोहती है
तो किसी को चाँदी का वर्क...

 

२.

हूक

लो,
और एक कविता लिखने की हूक लगी है !

कितनी बार तो समझाया
सब माया है, केंचुल भर है

महुआ जैसे चूता है टप टप टप
वैसे ही धप धप धप करती रहती है
दरवाजे पर

साँकल बजाती रहती है खड़ खड़ खड़
खिड़की से फेंकती रहती है कंकरी रह रह कर

अभी अभी नहा कर आई है वह
केश से चू रही है विह्वल बूँदें

उसे पोरों से चूमूँ कि तुम्हें ?

ओह, इतनी भी सुभीता नहीं जीवन में
कि जरा ठहर कर जीवन ही भोग लूँ...

 

3.

मानुष

इच्छाओं का क्या है
वेश्याओं की तरह लिपटी रहती हैं

मैं कोई चंदन तो नहीं
कि विष न उतरे देह में

हिमालय की कंदराओं में छोड़ आता
अपना वीर्यकोश तो शायद कोई बात होती

इतना लावण्य, इतना पानी आँखों में
इतनी रात, इतना काजल केशों में

मैं बेदाग निकल भी जाऊँ
तो दुनिया मानेगी नहीं

कहेगी- नंपुसक होगा, मानुष नहीं !


4.

असुखकर

साँझ का सूरज ढल चुका है
मुंबई के पच्छिम में
फिल्म सिटी की सीमा से लगी पहाड़ी
और मेरी बालकनी से दिखती हरियाली भी
ओझल हो गई है दृष्टि से

नीचे सूने पार्क की बत्तियाँ जल गई हैं और
जमीन पर रौशनी के चकत्ते उभर आए हैं
मेरे मन में भी विषाद उभर आया है
इस विपल्वी विषाणु से जन्मी विपदा में
आत्मरक्षार्थ वरण की गई इस गृह-कारा से...

आकाश में तारे अब कुछ अधिक
नजदीक से उगने लगे हैं लेकिन
मन के तारे एक एक कर डूबने लगे हैं

कुछ दूर साथ चलकर अब
किताबें भी थकने लगी हैं और कविताएँ भी
चिरप्रतीक्षित एकांत की
यह औचक आमद अब खलने लगी है
अवकाश का यह सश्रम कारावास
अब असह्य, असुखकर हो गया है

कि अब आकुल हुआ जा रहा जी
सुनने को वही कोलाहल, वही शोर...

किसी दिन सूरज न उगे पूरे दिन
तो रात कितनी लंबी हो जाएगी ?
जहाँ कई दिनों से नहीं सुलगा चूल्हा
वहाँ कितने दिनों से नहीं भई भोर ??
 

 

5.

प्रेम

मेह इस कदर बरसा मूसलाधार
कि गल गया देह का कागज

बह गई दुःख की स्याही

गीले पत्तों में अब आवाज बाकी नहीं,
नीचे पानी ने घर बना लिया है

हाँ, अब मैं चल सकता हूँ
प्रेम की पगडंडी पर

मेरी आत्मा को भी अब
नहीं सुनाई देगी मेरी पदचाप.


 

६.

पिता

सब
कुछ न कुछ हुए
पिता कुछ न हुए

सब सफल हुए
पिता असफल हुए

पिता
बस पिता हुए

हम सब
बहुत खुश हुए.

७.

मैं चिरप्रेमी हूँ

खुद से भी उतना ही प्रेम करता
जितना कि तुमसे करता हूँ

अपनी आँखें तो जरा खोलो
कि मैं उनमें खुद को देख सकूँ
चिरयुवा

तुम्हारी पलकों पर यह लज्जा का भार
असह्य है!

8.

उन दिनों

सुविधाएँ नहीं थीं
सुख बहुत था

दुःख बहुत थे
दूरियाँ नहीं थीं

अभाव था पर
सुभाव से पूरे थे

कष्ट बहुत थे
लेकिन हम खुश थे

बाकियों से
बहुत अलग नहीं थे

इसलिए बहुत
अकेले नहीं थे

उन दिनों.

 

9.

शून्य

अभी-अभी
एक शून्य घटित हुआ है
भीतर

विराट शून्य.

विचारों को बुहार कर
देहरी के पार
छोड़ आया हूँ

इस शून्य की आभा
इस शून्य का नाद
अद्भुत है
अनन्य है

मुक्त होने की
भूमिका है यह-

अप्प दीपो भव
होना दीर्घशेष है अभी.

 

१०.

मिथ्या

इतना चकित क्यों हो सौदागर ?

यह सब भाषा का कौतुक है
कवि की क्रीड़ा

सच कहूँ तो
बासी चित्र हैं सारे

पृथ्वी पर ऐसी अंगुल भर जगह नहीं
जहाँ आकाश ने पाँव नहीं धरे

बादलों ने बरजोरी नहीं की
कालीदास ने बाट नहीं जोही

सब कविता की प्रतीति है, मिथ्या है
सच्ची कविता लिखा जाना बाकी है-

फिलहाल अपनी आत्मा की कमीज में
ईमान के बटन तो टाँक लो कवि !

 

११.

खाली कोना

अब मैं इतना दरिद्र हुआ
कि मुझ पर अब किसी के
प्रेम का कर्ज भी नहीं

जीवन
अब एक खाली कोना है
जहाँ अब दुःख भी
अपनी पीठ टिकाकर नहीं बैठता...

 

१२.

आदिम इच्छा

पारे की चमकीली सतह पर
नीली रौशनी में नहायी कविताओं को
एक्वेरियम में रखी मछलियों की तरह
बिछलते देखना अच्छा लगता है

पर कागज की दूधिया देह पर
काले काले अच्छरों में
अपनी कविताओं को छपा देखने
और उन्हें हौले हौले छूने का

अलग सुख है!

 

१३.

अस्वीकार

विचित्र लीला है!

वक्रता के व्यामोह में औंधे मुँह पड़ी है कहन
मानो सरलता से विदग्ध है उसका मन

या फिर उसे न सरलता पर भरोसा है
न खुद पर!

और यह भी तो सच है कि
सरल होना सबसे कठिन है

ज्यामिति में असंभव माना गया है
एक ही सरल रेखा दुबारा खींचना !

और यह जो अलापते रहते हो, ये
भाषा में बह आईं फूल-मालाएँ हैं
वगैरह-वगैरह

फेन हैं, झाग हैं दम तोड़ चुकी लहरों की !

पिता कहते हैं, सारी कविताएँ एक तरफ कर
ऐसा क्या है जो अब तक लिखा नहीं गया ?

कल रात ही मैंने वाग्देवी का आह्वान किया
और लिख डाली एक पर एक दस कविताएँ

लेकिन यह मेरे शिल्प का विपथन है
और मेरे स्वभाव का भी

यह कोई कलात्मक चौर्यकर्म नहीं,
तुम्हारी चुनौती का प्रत्युत्तर है भंते !

वक्रता का कौतुक करना मेरा ध्येय नहीं
मैं सत्य का लिपिक हूँ

और जिसे तुम सपाट कहते फिरते हो
वह सत्य का सरल-सहज पाठ है

इसे तुम स्वीकार कर पाओगे भला ?
____________
 




राहुल राजेश
जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, 
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063  
मो. 9429608159. 

 

 



मंगलेश डबराल : दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट : धीरेन्द्र कुमार

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इधर की कविता में सक्रिय युवा पीढ़ी को मंगलेश डबराल ने बहुत प्रभावित किया है. देखने में शांत, संयमित, बोलने में संकोच के साथ हिचक का सादापन लिए मंगलेश खुलने पर उतने ही गम्भीर, सतर्क और सख्त मिलते थे. राजनीति और धर्म के खतरनाक गठजोड़ की शातिर चालाकियों पर वह लगभग रोज ही गद्य में भी लिखते थे. उनकी कविता में तो समय का क्षण-क्षण विद्रूप और बनैला होना दिखता ही था. निराश और असहाय होने की धुंध सी छाई रहती थी. अभी वह लिख ही रहे थे.

हिन्दी का साहित्य वंचित और फक्कड़ लोगों द्वारा लिखा गया अधिकतर है. इसकी गहरी नींव भारतेन्दु ने घर फूँककर डाल दी थी. इसमें लेखक खुद को धीरे-धीरे जलाता रहता है. खड़ी बोली को भाषा में बदलने की असल कीमत इसके लेखक चुका रहें हैं.

अब जब वह नहीं हैं, उनकी ही कविता की एक पंक्ति के सहारे कहूँ कि ‘दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्टतब कविताएं अस्तित्व में रहेंगी, उनपर सोच विचार का सिलसिला इस तरह से  मंगलेश डबराल को भी जिंदा रखेगा.

समालोचन की तरफ से श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए युवा लेखक  धीरेन्द्र कुमार को पढ़ते हैं कि  युवा कैसे कवि मंगलेश डबराल को देखते हैं. 

 

 

मंगलेश डबराल
वह जो कवि है, पहाड़ से मैदान में आया था                           
धीरेन्द्र कुमार

 


हाड़ हो या मैदान, कविता में मनुष्य विरोधी वातावरण के विभिन्न अनुभव संसार को बिना चीखे, चिल्लाये सधी जबान में दर्ज करने का नाम है, मंगलेश डबराल. समकालीन कविता का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, जिसके बगैर समकालीन कविता पर की गयी हर बहस अधूरी होगी! मंगलेश डबराल की कविता सत्तर के दशक के बाद के भारतीय समाज का एक अनिवार्य पाठ है.

अपने लम्बे कवि-कर्म के दरम्यान इनकी निगाह हर उस परिघटना पर रही, जिसने हमारे जीवन को, समाज को परोक्ष-अपरोक्ष प्रभावित किया. वह नक्सलवादी आन्दोलन के बाद बदला सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश हो या इमरजेंसी के दौरान बंधक बने जुम्हूरियत की कराह. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संप्रदाय विशेष का कत्लेआम हो या बाबरी विध्वंश की घटना, जिसने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फासले बढ़ा दिए. भारत में भूमंडलीकरण की संसदीय स्वीकृति हो या आत्मनिर्भर किन्तु अकेली और डरी पीढ़ी का अभिशप्त जीवन. पीछे छूट गये गांव-घर और अपने परिचितों की स्मृति की दुखती रग हो या समाज में हर तरफ फैला विश्वास का संकट. मंगलेश डबराल की कविताओं में इन सब की गूँज सुनी जा सकती है.

पहाड़ से उतरा यह कवि अपनी कविताओं के माध्यम से मानवता की आखिरी सीढ़ी चढ़ना चाहता है. पहाड़ से कई रचनाकार हुए हैं लेकिन उनकी रचनाओं में आया पहाड़ अलग-अलग है. सुमित्रानंदन पन्त का पहाड़पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेशहै. उनके लिए पहाड़ का मतलब प्रकृति है, वहां का जनजीवन नहीं. जनजीवन अगर आया भी तोअहा! ग्राम्य-जीवनके रूप में. ऐसी रूमानियत के मारे अन्य रचनाकार भी हुए हैं, जिन्होंने पहाड़ की खूबसूरती को ही देखा, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, जीविका का अभाव, विस्थापन, शोषण आदि पैबंद के रूप में पहाड़ के जीवन से जो चिपके हुए हैं, वो उनकी निगाहों से ओझल रहा. पहाड़ के इस कुरूप चेहरे को सामने लाने का काम मंगलेश डबराल ने किया. पहाड़ में बेपनाह सौन्दर्य है लेकिन सिर्फ उस सौन्दर्य की बात करना अधूरे पहाड़ को समझना है. अपने पहले के रचनाकारों से मंगलेश डबराल इस अर्थ में अलहदा हो जाते है कि उन्होंने पहाड़ को आधा-अधूरा नहीं, पूरा उभारा है. पहाड़ का वह स्वरुप उनकी कविताओं में यूं दर्ज हुआ है-

“पहाड़ पर चढ़ते हुए
तुम्हारी साँस फूल जाती है
आवाज़ भर्राने लगती है
तुम्हारा कद भी घिसने लगता है
पहाड़ तब भी है जब तुम नहीं हो.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ .42)


विस्थापन जबरदस्ती ही नहीं होता. जीविका की मजबूरी में यह चुना भी जाता है. मंगलेश डबराल का शहर आकर अपना ठिकाना खोजना एक ऐसा ही विस्थापन है. शहर जगह नहीं एक मूल्य है, एक संस्कृति है, एक नजरिया है. मंगलेश अपनी पुस्तकलेखक की रोटीमें लिखते हैं कि  

“1970के आसपास जब मैं अपने जैसे कई लोगो की तरह लगभग भागा हुआ, लगभग विस्थापित दिल्ली शहर में रोजी-रोटी और एक ज्यादा बड़ी दुनियाँ की तलाश में आया तो वह पहाड़ की यातनाओं का पीछे छूटना और मैदानों की यातनाओं का शुरू होना था.”(पृ.144)

आठवें दसक में हिंदी कविता के कथ्य और शिल्प के स्तर पर एक बड़ा बदलाव देखा गया. घर,परिवार, चिड़िया, पेड़, फूल,आदि विषयों पर कविताएँ लिखी जाने लगीं. व्यक्ति के दुःख-सुख को कविता के केंद्र में लाया गया. दरअसल अस्सी के दशक में अन्य कवियों के भावबोध में भी बदलाव देखा गया. इन कवियों की कविता में रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जुड़े सवाल गूंजने लगे. ये मानवीय संवेदना को बचाने के लिए घर-परिवार, स्त्री-बच्चे, पास-पड़ोस, पर्यावरण सुरक्षा एवं संघर्ष आदि का राग अलापने लगे. अब कविता में असीम के प्रति जिज्ञासा का भाव और ईश्वरीय तत्व बिल्कुल गायब था और इसकी जगह मेहनतकश व्यक्ति ने ले ली. मंगलेश ने निम्नवर्ग प्रति सहानुभूति ही नहीं अपितु मनुष्य और मनुष्य के बीच के जीवंत रिश्तों की तलाश की. 

मंगलेश की कविता साधारण वाक्यों में असाधारण अर्थ भरने की एक विनम्र कोशिश है. उनकी कविता पहाड़,नदी,नाले,वृक्षों की हरियाली,बादल,बरसात आदि के प्राकृतिक सौंदर्य की वकालत नहीं बल्कि पहाड़ की गरीबी,लोगों की ख़स्ता हालत,भयावह सुनसान,अंधकारमय जीवन, परछाइयों की विभिन्न सूरत,आँखों में तैरते सपने, व्यर्थ जाती श्रमशील देह में भी अपना सौंदर्य ढूंढ लेती है. इनकी कविताओं में जंगल से लकड़ी के गट्ठर लाती, मगर उन गट्ठर के नीचे बेहोश पड़ी औरतें हैं,जंगलों में हर रोज चलती हुई कुल्हाड़ियाँ हैं, जहाँ शांति नहीं रक्त सोया हुआ है, हजारों चिड़ियों की चहचहाहट से बनी स्मृतियाँ हैं, पत्थरों पर जंगली पशुओं के डरावने चेहरे हैं, पत्थरों के पीछे सिसकती हुई जवान औरतें हैं, प्रेम करती लड़कियां हैं, अपना अस्तित्व खोती हुई नदियाँ हैं, धरती और आकाश के बीच स्थित छायादार पेड़ हैं, झुर्रियों से भरी धीरे-धीरे सिकुड़ती आत्माएं हैं, असमय दफनाये गए बच्चे हैं,दोस्तों के पते ठिकाने एवं पुरानी चिट्ठियां हैं, दीमक लगे घर के दरवाजे हैं, आंधी में कांपते हुए मिट्टी के जर्जर कच्चे घर हैं, परदेश गए बेटे के लौट आने की अंधेरे में मदद मांगते पिता हैं, उदासी में डूबी माँ है, जीवन के संघर्ष में साथ न छोड़ने वाली पत्नी है, पाठशाला जाते हुए छोटे-छोटे बच्चे हैं आदि ऐसे न जाने कितने दृश्य एंव बिम्ब देखने को मिलते हैं, जिनसे मिलकर पहाड़ी जीवन हमारे सामने साकार होने लगता है. 

पहाड़ पर लालटेनशीर्षक एक ऐसी कविता है जो अपने अंदर पहाड़ के लोगों के दुख-दर्द को न केवल बयां करती है बल्कि पाठक का उससे सीधे साक्षात्कार कराती है. पहाड़ को देखने और वहां कुछ दिन लोगों की रहने की चाहत के विरूद्ध यह कविता वहां के यथार्थ से हमें अवगत कराती है. कविता पाठक की चेतना को झकझोर देती है. पहाड़ के विषय में व्यक्ति के अंदर जो सुन्दर स्वप्नों का भंडार है, यह कविता उस भ्रम से भी हमें मुक्त करती है. वहां के लोगों के जीवन में झाँकने का अवसर प्रदान करती है. मंगलेश लिखते हैं-

“दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आँख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएँ दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर.”

 (पहाड़ पर लालटेन पृ.65)


मंगलेश के यहाँ पहाड़, पहाड़ भर नहीं है. वह पहाड़ में भी व्यक्ति केअक्सको खोजते हैं. पहले वह इच्छाओं के दांत पैने किये हुए था, पेड़ों, झरनों, चट्टानों,नदियों तथा पशु-पक्षियों से भरा हुआ था. जहाँ भूख थी, कंकड़-पत्थर थे मगर अब उस पहाड़ी जीवन का यथार्थ बदल रहा है. वहां की जमीन दिन-प्रतिदिन कठिन होती जा रही है-

“यह ज़मीन हर साल
और कठोर होती जाती है
पेड़ हर साल कुछ कम फल देते हैं
बच्चे दिखते हैं और भी दुबले
उनके माँ-बाप कुछ और कातर
मौसम बदल रहा है
रात किसी जानवर की तरह
गाँव को दबोचे हुए है
और नंगे पहाड़ पर चाँद चमक रहा है
अंधेरे में पिता मांगते हैं थोड़ी-सी मदद
अपने बुढ़ापे की शुरुआत में.”

(घर का रास्ता पृ.37)

 

मंगलेश के कविकर्म के सम्बन्ध में अरविन्द त्रिपाठी ने उचित ही लिखा है,

मंगलेश के कविकर्म के साथ यह एक सुखद स्थिति है कि वे दिल्ली में रहते हुए भी दिल्ली से बाहर हैं. उनका कवि पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी से अभी तक जुड़ा है, इसीलिए उनकी कविता एक कवि के अपने परिवेश से सीधे जुड़े रहने का आस्वाद देती है. उनकी कविता एक ओर अपने परिवेश का समग्र साक्षात्कार कराती है तो दूसरी ओर वहां के लोगों की संघर्षशील ज़िन्दगी,व्यवस्था के भयावह शोषण, प्रकृति के साथ वहां के जनजीवन की कठिन मुठभेड़ उनकी कविता को गहरी ऊर्जा देती है.(अरविन्द त्रिपाठी- कवियों की पृथ्वी पृ.176-77)

दरअसल मंगलेश के प्रथम दो काव्य-संग्रहों में पहाड़ी जीवन के चित्र अधिक हैं लेकिन साथ ही साथ उनमें पहाड़ से शहर की ओर जो विस्थापन हुआ है, उसकी आहट भी सुनाई पड़ती है. सन 1969 में कवि शहर में रोजगार की तलाश में आता है. कवि के मन में शहर की जहालत भरी ज़िन्दगी को देखकर जो भाव उभरता है, उसी का चित्र शहर-1कविता में दृष्टिगोचर होता है. यह कविता कवि के पूरी तरह नगरवासी हो जाने और पहाड़ अर्थात् गाँव वापस न लौट पाने की विवश स्वीकारोक्ति है-

“मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
वहां कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ.43)

 

मंगलेश के प्रत्येक काव्य-संग्रह में शहर की गंध महसूस होती है लेकिन पहाड़ की गंध पहाड़ पर लालटेनऔर घर का रास्ताकाव्य-संग्रहों को छोड़ दें तो बाद के संग्रहों में न के बराबर है. त्रिलोचन शास्त्री ने एक बार मंगलेश से कहा था कि

तुम पहाड़ के अनुभव लेकर आये थे, लेकिन उन पर लिखना तुमने बंद कर दिया है. लगता है कि तुमने कोई अपना पहाड़ बना लिया है, एक बाधा की तरह.(उपकथन पृ.69)

हम जो देखते हैंकाव्य-संग्रह में पहाड़ न के बराबर है. यह पूरी तरह शहर को समर्पित है. लगता है यहाँ से कवि की पुरानी जमीन छूट रही है और नागर जीवन की कविता उसके कवि-कर्म के केंद्र में पहली बार दिखाई पड़ती है. इस संग्रह में पहाड़ कम और शहर की समस्याएँ अधिक हैं. 

मंगलेश की कविता शहरी जीवन के चकाचौंध में नहीं फंसती अपितु शहर के दुःख-दर्द और लोगों की सामाजिक दशा का यथार्थ चित्रण करती हैं. शहर में ऊब है, थकान है, अकेलापन है, औरतों के मुंह छिपाये हुए चेहरे हैं,सनसनीखेज़ ख़बरें हैं, टूटते रिश्ते हैं,अश्लीलता से भरी रातें हैं, चिल्लाते पागल हैं, गुमशुदा बच्चे हैं, खामोश किताबें हैं, मनचाही शक्लों में ढलते हुए लोग हैं. यही कारण है कि मंगलेश अपने पहाड़ और अपने लोक को बार-बार याद करते हैं-

“अच्छे-खासे तुम क्यों चले आये इस शहर
तुम जैसों के रहने की नहीं है यह जगह.”

(घर का रास्ता पृ.13)     


समकालीन हिन्दी कविता में मंगलेश का स्वर एकदम अलग है. उनका स्वभाव शांत, शालीन लेकिन अंदर से उतना ही बेचैन है. उनकी कविता शहर और उसकी प्रकृति को आसान शब्दों में व्यक्त करती है. वह शहर की प्रकृति, संस्कृति और ख़त्म होते मानवीय रिश्तों की आवाज को धीमे स्वर से उठाती है-

“तमाम संबंधों को विदा कर देने के बाद
मैं यहां उगा हूँ
जहाँ सारी ऋतुएँ समाप्त हो गयी हैं
धूप और समुद्र समाप्त हो गये हैं
थोड़ी देर के लिए मैं उगा हूँ यहां
जहाँ उजाला जाले की तरह चिपटता है
और समस्याएँ मेरी भूख के आगे
डाल देती हैं मेरा ही शरीर.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ.28)


यह शहर की भयानक सच्चाई की कविता है. जहाँ मानवीय रिश्तों से लेकर प्रकृति को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. उजाला और भूख अपने स्वाभाविक अंदाज में न आकर शहर की गिरफ्त में जकड़े हैं. शहर सीटी बजाता है, लोगों को मनचाही शक्लों में ढालता है. वह व्यक्ति को अकेलेपन में रहने को बाध्य करता है. यहाँ हर रोज न जाने कितनी मनुष्यताओं का कत्ल किया जाता है. कवि हत्यारों से कड़े शब्दों में कहता है- 

“हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्यता का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है.”

 (नये युग में शत्रु पृ.29) 


मंगलेश की कविता पहाड़ और मैदान(खासकर शहर) के जीवन संघर्ष की अद्भुत गाथा है. वह पहाड़ी जीवन का सशक्त दस्तावेज़ है. पहाड़ से शहर आए व्यक्ति के जीवन की विकट अकुलाहट का आख्यान है. वह मानवीय सरोकार और मूल्य रहित व्यवस्था का काव्य है और साथ ही स्वप्न, स्मृति, संगीत और मानवीयता की महीन आवाज़ के विभिन्न स्वरों का भण्डार है.

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धीरेन्द्र कुमार की उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली से पूर्ण हुई है.  

संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर/अमिटी विश्वविद्यालय, नॉएडा

मोबाइल नं : 7053817725

राहुल राजेश की कविताएँ

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‘अब मैं इतना दरिद्र हुआ
कि मुझ पर अब किसी के
प्रेम का कर्ज़ भी नहीं.’
 
कवि राहुल राजेश आज उस मोड़ पर हैं जहाँ वह अपनी कविताओं में तोड़-फोड़ कर सकते हैं. एक समय के बाद हर कवि को ऐसा लगता है और वह करता भी है. सबसे पहले तो वह अब तक की अपनी अर्जित भाषा से असंतुष्ट होता है, फिर शिल्प को बदलता है और पहुंच से बाहर रहे अनुभवों तक पहुंचता है.
इन कविताओं में राहुल राजेश के काव्य-व्यक्तित्व के परिष्कार को देखा जा सकता है.   



राहुल राजेश की कविताएँ                                                      

१.

बाज़ार 

पोठिया माछ की तरह चाँदी का वर्क है
चंचल चितवन से चपल है मुस्कान
टोकरी में बस चार अमरूद बचे हैं
बाकी सब बिक गये  

सिलेट पर आखर अभ्यास का समय नहीं
दुपहरिया बैठकर दुहरा लेगी छूटा अध्याय
अभी तो जीवन का पाठ करना है

बाजार में फल बेचते जान लिया है
मेहनत का फल मीठा होता है

थोड़ी और बड़ी होगी तो क्या पता
उसे पता चले, देह भी एक फल है

किसी को उसकी निश्चल हँसी मोहती है
तो किसी को चाँदी का वर्क.

 

२.

हूक

लो,
और एक कविता लिखने की हूक लगी है !

कितनी बार तो समझाया
सब माया है, केंचुल भर है

महुआ जैसे चूता है टप टप टप
वैसे ही धप धप धप करती रहती है
दरवाजे पर

साँकल बजाती रहती है खड़ खड़ खड़
खिड़की से फेंकती रहती है कंकरी रह रह कर

अभी अभी नहा कर आई है वह
केश से चू रही है विह्वल बूँदें

उसे पोरों से चूमूँ कि तुम्हें ?

ओह, इतनी भी सुभीता नहीं जीवन में
कि जरा ठहर कर जीवन ही भोग लूँ.

 

3.

मानुष

इच्छाओं का क्या है
वेश्याओं की तरह लिपटी रहती हैं

मैं कोई चंदन तो नहीं
कि विष न उतरे देह में

हिमालय की कंदराओं में छोड़ आता
अपना वीर्यकोश तो शायद कोई बात होती

इतना लावण्य, इतना पानी आँखों में
इतनी रात, इतना काजल केशों में

मैं बेदाग निकल भी जाऊँ
तो दुनिया मानेगी नहीं

कहेगी- नंपुसक होगा, मानुष नहीं !

(Painting: NATVAR BHAVSAR:  SUBLIME LIGHT



4.

असुखकर

साँझ का सूरज ढल चुका है
मुंबई के पच्छिम में
फिल्म सिटी की सीमा से लगी पहाड़ी
और मेरी बालकनी से दिखती हरियाली भी
ओझल हो गई है दृष्टि से

नीचे सूने पार्क की बत्तियाँ जल गई हैं और
जमीन पर रौशनी के चकत्ते उभर आए हैं
मेरे मन में भी विषाद उभर आया है
इस विपल्वी विषाणु से जन्मी विपदा में
आत्मरक्षार्थ वरण की गई इस गृह-कारा से...

आकाश में तारे अब कुछ अधिक
नजदीक से उगने लगे हैं लेकिन
मन के तारे एक एक कर डूबने लगे हैं

कुछ दूर साथ चलकर अब
किताबें भी थकने लगी हैं और कविताएँ भी
चिरप्रतीक्षित एकांत की
यह औचक आमद अब खलने लगी है
अवकाश का यह सश्रम कारावास
अब असह्य, असुखकर हो गया है

कि अब आकुल हुआ जा रहा जी
सुनने को वही कोलाहल, वही शोर...

किसी दिन सूरज न उगे पूरे दिन
तो रात कितनी लंबी हो जाएगी ?
जहाँ कई दिनों से नहीं सुलगा चूल्हा
वहाँ कितने दिनों से नहीं भई भोर ??
 

 

5.

प्रेम

मेह इस कदर बरसा मूसलाधार
कि गल गया देह का कागज

बह गई दुःख की स्याही

गीले पत्तों में अब आवाज बाकी नहीं,
नीचे पानी ने घर बना लिया है

हाँ, अब मैं चल सकता हूँ
प्रेम की पगडंडी पर

मेरी आत्मा को भी अब
नहीं सुनाई देगी मेरी पदचाप.

 

६.

पिता

सब
कुछ न कुछ हुए
पिता कुछ न हुए

सब सफल हुए
पिता असफल हुए

पिता
बस पिता हुए

हम सब
बहुत खुश हुए.

७.

मैं चिरप्रेमी हूँ

खुद से भी उतना ही प्रेम करता
जितना कि तुमसे करता हूँ

अपनी आँखें तो जरा खोलो
कि मैं उनमें खुद को देख सकूँ
चिरयुवा

तुम्हारी पलकों पर यह लज्जा का भार
असह्य है!

(Painting: NATVAR BHAVSAR:  SUBLIME LIGHT



8.

उन दिनों

सुविधाएँ नहीं थीं
सुख बहुत था

दुःख बहुत थे
दूरियाँ नहीं थीं

अभाव था पर
सुभाव से पूरे थे

कष्ट बहुत थे
लेकिन हम खुश थे

बाकियों से
बहुत अलग नहीं थे

इसलिए बहुत
अकेले नहीं थे

उन दिनों.

 

9.

शून्य

अभी-अभी
एक शून्य घटित हुआ है
भीतर

विराट शून्य.

विचारों को बुहार कर
देहरी के पार
छोड़ आया हूँ

इस शून्य की आभा
इस शून्य का नाद
अद्भुत है
अनन्य है

मुक्त होने की
भूमिका है यह-

अप्प दीपो भव
होना दीर्घशेष है अभी.

 

१०.

मिथ्या

इतना चकित क्यों हो सौदागर ?

यह सब भाषा का कौतुक है
कवि की क्रीड़ा

सच कहूँ तो
बासी चित्र हैं सारे

पृथ्वी पर ऐसी अंगुल भर जगह नहीं
जहाँ आकाश ने पाँव नहीं धरे

बादलों ने बरजोरी नहीं की
कालीदास ने बाट नहीं जोही

सब कविता की प्रतीति है, मिथ्या है
सच्ची कविता लिखा जाना बाकी है-

फिलहाल अपनी आत्मा की कमीज में
ईमान के बटन तो टाँक लो कवि !

 

११.

खाली कोना

अब मैं इतना दरिद्र हुआ
कि मुझ पर अब किसी के
प्रेम का कर्ज भी नहीं

जीवन
अब एक खाली कोना है
जहाँ अब दुःख भी
अपनी पीठ टिकाकर नहीं बैठता...

 

(Painting: NATVAR BHAVSAR:  SUBLIME LIGHT



१२.

आदिम इच्छा

पारे की चमकीली सतह पर
नीली रौशनी में नहायी कविताओं को
एक्वेरियम में रखी मछलियों की तरह
बिछलते देखना अच्छा लगता है

पर कागज की दूधिया देह पर
काले काले अच्छरों में
अपनी कविताओं को छपा देखने
और उन्हें हौले हौले छूने का

अलग सुख है!

 

१३.

अस्वीकार

विचित्र लीला है!

वक्रता के व्यामोह में औंधे मुँह पड़ी है कहन
मानो सरलता से विदग्ध है उसका मन

या फिर उसे न सरलता पर भरोसा है
न खुद पर!

और यह भी तो सच है कि
सरल होना सबसे कठिन है

ज्यामिति में असंभव माना गया है
एक ही सरल रेखा दुबारा खींचना !

और यह जो अलापते रहते हो, ये
भाषा में बह आईं फूल-मालाएँ हैं
वगैरह-वगैरह

फेन हैं, झाग हैं दम तोड़ चुकी लहरों की !

पिता कहते हैं, सारी कविताएँ एक तरफ कर
ऐसा क्या है जो अब तक लिखा नहीं गया ?

कल रात ही मैंने वाग्देवी का आह्वान किया
और लिख डाली एक पर एक दस कविताएँ

लेकिन यह मेरे शिल्प का विपथन है
और मेरे स्वभाव का भी

यह कोई कलात्मक चौर्यकर्म नहीं,
तुम्हारी चुनौती का प्रत्युत्तर है भंते !

वक्रता का कौतुक करना मेरा ध्येय नहीं
मैं सत्य का लिपिक हूँ

और जिसे तुम सपाट कहते फिरते हो
वह सत्य का सरल-सहज पाठ है

इसे तुम स्वीकार कर पाओगे भला ?
____________
 

राहुल राजेश
(जन्म : ९ दिसंबर, 1976  दुमकाझारखंड)
सम्पर्क: जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063 
मो. 9429608159. 

फर्नांडो सोरेंटिनो : जीवनशैली : कैफ़ी हाशमी

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फर्नांडो सोरेंटिनो
जीवनशैली
अनुवाद : कैफ़ी हाशमी

 

 

अपनी जवानी के दिनों में, एक किसान और पशुपालक बनने से पहले मैं एक बैंक का कर्मचारी था. यह सब कुछ इस प्रकार घटित हुआ.

उस वक्त मैं चौबीस साल का था और कहने को मेरा कोई भी करीबी रिश्तेदार नहीं था. मैं कैनिंग और आरोज़ के मध्य, सांता फे अवेन्यु  पर स्थित  इस छोटे से अपार्टमेंट में रहता था.

अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि दुर्घटनाएं कहीं भी हो सकती हैं किसी छोटी सी जगह में भी. मेरे मामले में, यह एक छोटी सी दुर्घटना ही थी. जब मैंने काम पर जाने के लिए दरवाजे को खोलने की कोशिश की, चाबी लॉक के अंदर ही टूट गई.

स्क्रूड्राइवर और प्लायर की मदद से बेकार कोशिशें करने के बाद, मैंने एक तालासाज की दुकान पर फ़ोन करने का फैसला किया. तालासाज का इंतज़ार करने के दौरान मैंने बैंक वालों को बता दिया कि मुझे आने में थोड़ी देरी होगी.

सौभाग्य से, ताला बनाने वाला बहुत जल्दी आ गया. उस आदमी का ध्यान करते हुए, मुझे बस इतना याद है कि भले ही वह जवान दिख रहा था लेकिन उसके बाल बिलकुल सफ़ेद थे. दरवाजे में लगे कांच के झरोखे से मैंने उससे कहा, “ मेरी चाभी लॉक के अंदर ही टूट गई है.”

वह झुंझलाहट के अंदाज़ में तुरंत बोला, “अंदर टूट गई ? अगर ऐसा है, तो बहुत मुश्किल खड़ी हो गई है. इसमें मुझे कम से कम तीन घंटे लग जाएंगे और मुझे इसकी कीमत लेनी होगी तक़रीबन  …”

उसने बहुत ज़्यादा कीमत बताई.

“मेरे पास अभी घर में इतने पैसे नहीं है” मैंने जवाब दिया. “लेकिन जैसे ही मैं बाहर निकलता हूँ, मैं बैंक जाऊँगा और फिर तुम्हें पैसे दूंगा.”

उसने तिरस्कार की भावना से भरी आँखों से मुझे देखा, जैसे मैंने उसे कुछ अनैतिक कह दिया हो, “मुझे माफ़ कीजिएगा, श्रीमान.” उसने उपदेशात्मक शिष्टता से कहा, “मैं सिर्फ ‘अर्जेंटीना तालासाज संघ’ का विशिष्ट सदस्य ही नहीं हूँ बल्कि हमारे संघ के आधारभूत सिद्धांत के निर्माताओं में से एक हूँ. इसके अनुसार रियायत देने की कोई गुंजाइश ही नहीं है. अगर आप इस प्रेरणात्मक दस्तावेज़ को पढ़ने का कष्ट करेंगे तो आपको पता चलेगा कि ‘आधारभूत नियमावली’ अध्याय के अनुसार, एक अच्छे ताला बनाने वाले के लिए काम के बाद मेहनताना लेना निषिद्ध है.”

 

2

मैं संदेह के साथ मुसकुराया, “तुम ज़रूर मज़ाक कर रहे हो.”

“मेरे प्यारे श्रीमान, ‘अर्जेंटीना ताला मज़दूर संघ’  के आधारभूत सिद्धांत कोई मज़ाक की चीज़ नहीं है. हमारे संघ के सिद्धांत,जिसमें किसी छोटी बात को भी अनदेखा नहीं किया गया है और जिसके विभिन्न पाठ बुनियादी नैतिक सिद्धांतों से चालित हैं, इसे हमने बरसों के कड़े अध्ययन के बाद तैयार किया है. ज़ाहिर है, हर कोई इसे नहीं समझ सकता, जैसा कि हम अधिकांशतः प्रतीकात्मक अथवा गूढ़ भाषा का प्रयोग करते हैं. फिर भी, मुझे विश्वास है कि हमारे दस्तावेज़ के परिचय में वर्णित अनुच्छेद 7 को आप समझेंगे, “ दौलत से दरवाज़े खुलते हैं और दरवाज़े उनका स्वागत करते हैं.”

मैंने इस पागलपन को स्वीकार न करते हुए उसे मनाने की कोशिश की, “सुनो” मैंने उससे कहा, “थोड़ी तो वाजिब बात करो. एक बार यह दरवाज़ा खुलने दो, उसके बाद मैं तुम्हारा मेहनताना ज़रूर दूँगा.”

“मुझे माफ़ कीजिएगा श्रीमान, लेकिन हर व्यवसाय के कुछ उसूल होते हैं और हमारे व्यवसाय में ये उसूल अपरिवर्तनीय है. आपका दिन शुभ हो, श्रीमान.”

और इसके साथ ही, वह चला गया.

मैं कुछ क्षण के लिए बेसुध सा वहीं खड़ा रहा. इसके बाद मैंने बैंक में दोबारा फ़ोन किया और उन्हें बताया कि शायद आज मैं न आ पाऊँ. बाद में मैंने उस सफ़ेद बालों वाले तालासाज के बारे में सोचा और खुद से कहा, “वह आदमी पागल है. मैं तालासाज की किसी दूसरी दुकान को फ़ोन करने जा रहा हूँ और किसी भी हाल में, मैं नहीं बताऊंगा कि मेरे पास पैसे नहीं है जब तक वे दरवाज़ा खोल नहीं देते.

मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी में नंबर ढूँढा और फ़ोन मिलाया.

 “किस पते पर ?“ एक औपचारिक जनाना आवाज़ ने मुझसे पूछा.

 “3653 सांता फे, अपार्टमेंट 10-ए.”

वह क्षणभर के लिए हिचकिचाई, मुझसे पता दोहरवाया और कहने लगी, “नामुमकिन, श्रीमान. ‘अर्जेंटीना तालासाज संघ’ की नियमावली हमें इस पते पर किसी भी प्रकार का कार्य करने की इजाज़त नहीं देती.

मैं क्रोध की ज्वाला में जल उठा, “ सुनो तुम, पागलपन म…”

मेरे शब्द के पूरा होने से पहले ही उसने फ़ोन रख दिया.

 

3

फिर मैंने दोबारा टेलीफोन डायरेक्टरी उठा ली और तालासाजी के तक़रीबन बीस दुकानों पर फ़ोन किया. जैसे ही वे पता सुनते, वे काम करने से साफ़ तौर पर मना कर देते.

 “हाँ-हाँ, ठीक है” मैंने खुद से कहा, “ मैं कहीं और से इसका हल निकाल लूँगा.”

मैंने बिल्डिंग के चौकीदार को फ़ोन किया और उसे समस्या बताई.

“दो बातें हैं.” उसने जवाब दिया, “पहली यह कि मुझे नहीं पता कि लॉक कैसे खोलते हैं और दूसरी बात यह कि अगर मुझे आता भी तो मैं नहीं खोलता. जैसा कि आप जानते हैं कि मेरा कार्य इस स्थान की सफाई करना है न कि संदिग्ध पंछियों को पिंजड़े से उड़ जाने देना है. और हाँ, आपने मुझे खुलेदिल से बख्शीश देने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई है.”

इसके बाद मैं बहुत परेशान हो गया और एक के बाद एक कई सारे बेकार और अजीबोगरीब काम करने लगा. मैंने एक कप कॉफ़ी खत्म की, सिगरेट पी, बैठा, खड़ा हुआ, कुछ कदम चला, अपने हाथ धोये, एक गिलास पानी पिया.

इसके बाद मुझे मोनिका दीशियावे का ख्याल आया, मैंने उसका नंबर मिलाया, इंतज़ार किया और उसकी आवाज़ सुनी, “मोनिका” दिखावटी मिठास और स्थिरता के साथ मैंने कहा, “ कैसी हो, प्रिये ? कैसा चल रहा है सब? ”

उसके जवाब ने मुझे कंपकंपा दिया, “तो तुम्हें आखिरकार फ़ोन करने की याद आ गई ? मैं बता सकती हूँ, तुम सच में मुझसे बहुत प्यार करते हो. लगभग दो हफ्तों से तुम्हारा कुछ अता-पता जो नहीं है.”

महिलाओं से तर्क-वितर्क करना मेरी क्षमता से परे की चीज़ है, खासकर इस मनोवैज्ञानिक हीनता की स्थिति में, जिसमें मैं फंसा हुआ था. फिर भी, मैंने उसे जल्दी से समझाने की कोशिश की कि मेरे साथ क्या हो रहा  है. मुझे नहीं पता कि वह मुझे समझ नहीं पायी या मुझे सुनने से इनकार कर दिया. जो आखिरी चीज़ उसने फ़ोन रखने से पहले कही, वह थी, “ मैं किसी का खिलौना नहीं हूँ.”    

अब मुझे बेकार और अजीबोगरीब काम करने की दूसरी श्रृंखला को पूरा करना था.

फिर मैंने बैंक में फ़ोन किया, इस आशा में कि कोई सहकर्मी आए और दरवाज़ा खोल दे. किस्मत ख़राब; मेरे हिस्से एंज़ो पेरेदेस से बात करना आया, एक मंदबुद्धि जोकर जिससे मुझे नफरत थी, “तो तुम अपने घर से बाहर नहीं निकल सकते ?” वह वाहियात तरीके से चिल्लाया, “तुम्हारे काम पर न आने के बहाने कभी खत्म नहीं होते.”

 

4

उसकी बातें सुन कर मुझे मानव हत्या जैसे विचारों ने गिरफ़्तार कर लिया था. मैंने फ़ोन काट दिया, फिर से मिलाया और माइकलएंजेलो लपोर्ता से बात करनी चाही, जो थोड़ा होशियार था. निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह समाधान निकालने का इच्छुक था, “बताओ मुझे, चाभी टूटी है या लॉक ?”

“चाभी.”

“और क्या वह अंदर रह गई है ?”

“इसका आधा हिस्सा अंदर रह गया है.”  पहले ही इस पूछताछ से हताश होकर मैंने उत्तर दिया , “और बाकी का बाहर.”

“क्या तुमने अंदर फँसे हुए उस छोटे हिस्से को स्क्रूड्राइवर से बाहर निकालने की कोशिश नहीं की ?”

“हाँ, बिलकुल मैंने कोशिश की है, लेकिन उसे निकाल पाना असंभव है.”

“ओह! अच्छा फिर तो तुम्हें ताला बनाने वाले को बुलाना पड़ेगा ?”

“मैं पहले ही कॉल कर चुका हूँ.” मैंने प्रतिवाद किया, उस गुस्से को दबाते हुए जो मेरा दम घोट रहा था, “लेकिन वे एडवांस में पैसे चाहते हैं.”

“तो एडवांस दे दो और परेशानी खत्म.”

“तुम्हे अब तक समझ नहीं आया कि मेरे पास पैसे नहीं हैं.”

फिर वह ऊब गया, “ मेरे पनौती मित्र, सच में तुम्हारी समस्याएँ बहुत विकट होती हैं.”

मैं तुरंत उसका कोई उत्तर नहीं दे पाया. मुझे उससे कुछ पैसे माँगने चाहिए थे. लेकिन उसकी टिप्पणी ने मुझे चकरा दिया और मैं कुछ भी सोच नहीं पाया.

और इस तरह दिन खत्म हुआ.

अगले दिन मैं जल्दी उठ गया ताकि सहायता के लिए ज़्यादा फ़ोन कर सकूं. लेकिन हर बार का वही रोना- आदतन टेलीफोन ने काम करना बंद कर दिया. एक और हल न हो पाने वाली समस्या: बिना फ़ोन कॉल के रिपेयर सर्विस को फ़ोन ठीक करने के लिए आखिर कैसे कहता ?

मैं बाहर बालकनी में आ गया और लोगों को देखकर चिल्लाने लगा जो सांता फे अवेन्यु पर चल रहे थे. सड़क का शोर कान फोड़ने वाला था, दसवीं मंजिल से चिल्लाने वाले शख्स को कौन सुन पाता ? ज़्यादा से ज़्यादा एक अनजान आदमी अपना सिर ऊपर उठा देता और फिर वापस चलने लगता .

 

5

इसके बाद मैंने टाइपराइटर में पाँच कागज़ और चार कार्बन लगाए और यह संदेश टाइप किया: “श्रीमान अथवा श्रीमती, मेरी चाभी लॉक के अंदर टूट गई है. मैं दो दिन से घर में बंद हूँ कृपया मुझे यहाँ से बाहर निकालने के लिए कुछ कीजिए. 3653 सांता फे, अपार्टमेंट 10-ए.”

मैंने रेलिंग से पाँचों कागज़ गिरा दिए. इतनी ऊँचाई से, सीधा नीचे गिरने की संभावना बहुत कम थी. विकराल हवा के झोंके में, वे लम्बे समय तक इधर-उधर तैरते रहे. तीन सड़क पर गिरे और लगातार आवाजाही करते वाहनों से कुचले जाने के बाद काले पड़ गए. चौथा वाला एक दुकान के पंडाल के ऊपर गिरा. लेकिन सबसे आखिरी वाला पाँचवां कागज़ फुटपाथ पर गिरा. तभी एक नाटे व्यक्ति ने उसे उठाया और पढ़ने लगा. फिर उसने अपने उलटे हाथ से आँखों पर छाया करते हुए ऊपर ताका. मैंने दोस्ताना लहज़े से उसकी और देखा. उस सज्जन पुरुष ने कागज़ को कई सारे छोटे टुकड़ों में फाड़ा और चिढ़ चिढ़ाते हुए गटर में फेंक दिया

कम शब्दों में कहूँ तो, कई और हफ़्तों तक मैंने हर तरह के प्रयास जारी रखें. मैंने बालकनी से सैकड़ों संदेश फेंकें; या तो उन्हें पढ़ा नहीं गया और अगर पढ़ा गया तो गंभीरता से नहीं लिया गया.

एक दिन मैंने एक लिफाफा देखा जिसे मेरे अपार्टमेंट के दरवाज़े से नीचे खिसकाया गया था; टेलीफ़ोन कंपनी बिल न भरने के कारण अपनी सेवाएँ बंद कर रही थी और फिर आगे बढ़ते हुए उन्होंने मेरा गैस, बिजली और पानी का कनेक्शन काट दिया.

शुरुआत में, मैंने अपने राशन को बेढंगे तरीके से खत्म किया लेकिन समय रहते मुझे एहसास हुआ कि ऐसे नहीं चल सकता. मैंने बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए बालकनी में भगोने रखे. मैंने फूल के पोधों को नोच डाला और उन गमलों में टमाटर, दालें और दूसरी सब्जियाँ उगानी शुरू की, जिनकी देखभाल मैं प्रेम और मेहनत से किया करता था. लेकिन मुझे प्रोटीन के लिए मांस की ज़रूरत भी थी, इसलिए मैंने कीड़े, मकड़ियों और चूहों का प्रजनन करना सीखा खासकर उन्हें कैद करके प्रजनन कैसे कराया जाए; कभी-कभी मैं मौसमी गौरेया या कबूतर भी पकड़ लिया करता था.

जब धूप होती थी तब मैग्नीफाइंग ग्लास और कागज़ की मदद से आग जला लेता था. ईंधन के लिए, मैं धीरे-धीरे किताबें, फर्नीचर और फ्लोरबोर्ड जला रहा हूँ. मुझे लगता है घर में हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा ही सामान रहता है.

 

6        

मैं बड़े आराम से रहता हूँ हालाँकि कुछ चीज़ों की कमी खलती है उदाहरण के लिए मुझे नहीं पता कि बाहर क्या चल रहा है; मैं अखबार नहीं पढ़ता और मैं टीवी और रेडियो को काम करने लायक नहीं बना सकता.

बालकनी से मैं बाहर की दुनिया को देखता हूँ और मैंने कुछ बदलाव महसूस किए हैं. किसी एक ख़ास बिंदु पर ट्रॉली ने चलना बंद कर दिया था, लेकिन मुझे नहीं पता ऐसा कब हुआ. मैंने समय को याद रखने की क्षमता खो दी है, लेकिन आईना, मेरा गंजापन, मेरी लंबी सफ़ेद दाढ़ी और मेरे जोड़ों का दर्द मुझे बताता है कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ.

मनोरंजन के लिए मैं अपने विचारों को कल्पना के संसार में खुला छोड़ देता हूँ. मुझे कोई भय नहीं है न ही कोई महत्वाकांक्षा है.

एक शब्द में कहूँ तो अपेक्षाकृत सुखी हूँ.

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विष्णुचंद्र शर्मा : वह एक अकेला कर्मशील : प्रमोद कुमार तिवारी

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हिंदी साहित्य का अधिकांश ऐसे लेखकों द्वारा सृजित है जो स्वभाव से दरवेश थे/हैं- सांसारिक अर्थों में निपट अव्यावहारिक पर साहित्य और विचार को लेकर सतर्क और सन्नद्ध. भारतेंदु से शुरू करके आप विष्णुचंद्र शर्मा आदि तक इसकी पूरी अटूट परम्परा देख सकते हैं. कोरोना ने जो कहर ढाया है उसके शिकार बड़ी संख्या में कला-साहित्य-संस्कृति के मूर्धन्य हुए हैं. दिल्ली के सादतपुर में किसी ऋषि की तरह रहते ८७ वर्षीय कवि,संपादक,आलोचक, अनुवादक और जीवनी-लेखक विष्णुचंद्र शर्मा भी इसकी चपेट में आ गये और २ नवम्बर २०२० को उनका देहावसान हो गया.

प्रमोद कुमार तिवारी ने विष्णुचंद्र शर्मा को याद करते हुए बड़ी ही ऊष्मा और आत्मीयता के साथ यह स्मरण-आलेख लिखा है, उनकी महत्ता का अचूक आकलन किया गया है.

प्रस्तुत है. 

 

विष्णुचंद्र शर्मा 
वह एक अकेला कर्मशील                                                           
प्रमोद कुमार तिवारी

 


र विष्णु जी चले गए, उसी ठसक के साथ, जिसमें उनका होना निहित था; उसी सादगी और नामालूमपन के साथ जो आखिरी जन की पहचान हुआ करती है; उन्हीं शर्तों के साथ जिसके बगैर उनकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. 2 नवंबर की दोपहर में उनके पड़ोसी और बेहतरीन कथाकार महेश दर्पण जी का संदेश मिला कि विष्‍णुजी को दिल्‍ली के सेंट स्‍टीफेन अस्‍पताल लेकर जा रहे हैं, शायद वे कोविड संक्रमित हैं और फिर थोड़ी ही देर बाद ही दूसरा संदेश मिला कि ‘नहीं रहे’.

हिन्‍दी के युवा अध्येताओं की तरह बहुत लोग पूछेंगे कौन विष्णु जी? वही विष्णु जी, जिन्होंने अपने जीवन के घनघोर मेहनत भरे 80 वर्ष हिन्दी भाषा और साहित्य को दिये थे. वही विष्णु जी जिन्होंने मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन और काजी नजरूल इस्लाम की जीवनी लिखने के लिए, उनसे जुड़े इलाकों से सामग्री पाने और उनके भावबोध के बनने की प्रक्रिया को समझने  के लिए अपने ढेर सारे खूबसूरत वर्ष खपा दिए थे. वही विष्णु जी जिनके नाना रामनारायण मिश्र नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से थे, और जिनके पिता कांग्रेस के इतने बड़े नेताओं में से थे कि जवाहरलाल नेहरू अपने भतीजे विष्णु के कहने पर कॉलेज के कार्यक्रमों में न केवल पहुंच जाते थे बल्कि अव्यवस्था होने पर खुद ही भीड़ को संभालते भी थे. वही विष्णु जी जिन्होंने विरासत के नाम पर एक जिद पायी थी और साहित्य के लिए अलग ही तरह का समर्पण पाया था जिन्होंने नौकरी से लेकर दूसरी तमाम सुविधाओं को लेने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मेरे पिता ने आजादी की लड़ाई किसी प्रतिदान या बदले के लिए नहीं लड़ी थी. कि उन सुविधाओं को स्वीकार करना पिता की परंपरा को शर्मिंदा करना होगा. वही विष्णु जी जो दिल्ली पहुंचने वाले हिंदी के बहुत शुरुआती साहित्यकारों में से थे परंतु जो दिल्ली के कभी ना हो सके. भारत के केंद्र दिल्ली में रहकर भी वे सादतपुर नामक हाशिये के नागरिक रहे जिनसे दिल्ली मुहावरे वाले अर्थ में हमेशा दूर ही रही.

कोई चाहे तो पूछ सकता है कि जो जीवन उन्होंने जिया वह उनका चयन था, इस बात पर इतनी शिकायत क्‍यों? सराहना से ज्यादा नाराजगी मोल लेने वाले विष्णु जी पर लोगों ने स्याही नहीं खर्च की तो क्या हो गया? पूरा जीवन सिर्फ साहित्य को समर्पित करने वाले विष्णु जी प्रकाशकों, साहित्यकारों आदि से खुद ही उलझते रहे तो यह होना स्वाभाविक ही था. आप ही बताइए भला ऐसा भी कोई होता है कि अपने ही सम्मान समारोह में, सम्मानित करने वाले लोगों को जम के सुना दे (लहक सम्मान), व्यावहारिकता भी कोई चीज होती है कि नहीं?

सच में दिनों दिन हम उस ओर बढ़ रहे हैं जब हमें साहित्यकारों और सच्चे लोगों की बजाय कुछ मैनेजरों की जरूरत रह जाएगी. जो सब को खुश करना जानते होंगे, जो लोगों को साधना जानते होंगे और अनेक स्तरों पर विपरीत ध्रुवों में भी जैसे तैसे संतुलन बिठाना जानते होंगे. विष्णु जी ऐसे बिल्कुल नहीं थे किसी भी बात को गलत महसूस करने पर तड़ाक से वहीं हिसाब बराबर कर देने वाले और फिर अपनी धुन में रम जाने वाले विष्णु जी बहुत व्यस्त आदमी थे. एक साथ अनेक परियोजनाओं पर काम करने वाले, पूश्किन को पढ़ने के लिए रूसी सीखने वाले, नजरूल पर ढंग का काम करने के लिए बांग्‍ला सीखनेवाले और बुढ़ापे में स्पेनिश सीख कर लैटिन अमेरिकी साहित्यकारों को पढ़ते हुए उनका देश घूमने का स्वप्न देखने वाले विष्‍णु जी के पास लोगों को सहला कर खुश करने के लिए सच में समय नहीं था.

कुछ दिन पहले एक अनौपचारिक बातचीत में विष्णु जी का संदर्भ आने पर कथाकार ज्ञान रंजन जी ने जब कहा कि 'हिंदी समाज एक कृतघ्न समाज है'तो 60 करोड़ जनसंख्या वाले हिंदी समाज की सांस्कृतिक बनावट पर फिर से विचार करने का मन हुआ. 


यह तो हम सब मानेंगे ही कि हिन्दी साहित्य की दुनिया में अनेक प्रकार के झोल हैं. कुछ चमकती हुई प्रतिभाओं के बावजूद हिंदी साहित्य की अकादमिक एवं बाहरी दुनिया काफी हद तक साहित्य और जन केंद्रित होने की बजाय संबंध केंद्रित है. ऐसी स्थिति में अगर कोई व्यक्ति सिर्फ साहित्य को ही ओढ़ता बिछाता है तो उसका उपेक्षित होते जाना स्वाभाविक ही कहा जाएगा. निश्चित रूप से इस मामले में विष्‍णु जी अकेले नहीं थे बल्कि हिंदी में विष्‍णुओं की बड़ी संख्या रही है.

विष्‍णु जी कई मामलों में अनूठे थे. खुशामद पसंद लोगों को बनारसी अंदाज में ठेंगा दिखाने वाले और प्रकाशकों से दुश्मनी मोल लेने वाले तथा युवा रचनाकारों को रात के 12:00 बजे खुद रोटी बनाकर खिलाने वाले विष्‍णु जी से मिलने करीब 20 साल पहले जब पहली बार सादतपुर जा रहा था तो प्रो. मैनेजर पांडेय ने सावधान करते हुए कहा था थोड़ा संभल के जाना वे ऋषि दुर्वासा हैं. जब मुलाकात हुई तो लगा कि ये तो हमारे गांव के निश्छल पुरनिया हैं नेह से भरे, बातों में एकदम बेलाग; जिनके पास लोक की अद्भुत पकड़ के साथ ही शास्त्र की मौलिक जानकारी थी, जिनके पास पिछले 100 वर्षों का धड़कता इतिहास था.

वे देश के उन गिने-चुने लोगों में से थे जिनके पास रहकर आप तथाकथित मुख्यधारा के इतिहास के चमकते पन्नों के अंधेरेपन को और अंधेरे में गुम हो चुके पन्नों की ठोस और संग्रहणीय चमक को साफ महसूस कर सकते थे. पहली ही मुलाकात में उन्होंने भोजपुरी की एक काव्य पंक्ति ‘‘सगरी देहिया बलम के जागीरदारी हs’’ उद्धृत करते हुए हिंदी के बड़े कवियों की तरफ एक सवाल उछाल दिया ‘जरा बताओ इसके टक्कर की पंक्तियां कितने कवियों ने लिखी हैं?’

विष्णुजी का घर भी बहुत हद तक उन्हीं के जैसा लगा. दशकों से दिनों दिन हो रहे सादतपुर के भौतिक विकास के उत्थान के कारण गड्ढा हो चुके उनके घर में हाथ रखने से घिस चुकी लकड़ी की कुर्सी पर बैठते हुए मैं हिंदी के एक बड़े लेखक की उपलब्धियों के बारे में सोच रहा था, किताबों को हटाकर बनाई गई जगह में खाना खाते हुए और उनके दुर्लभ संगी कुत्ते यानी शेरू के साथ उनकी बातें सुनते हुए उनकी गरबीली अमीरी का भरपूर एहसास होता था. हर ओर किताबें थीं, टेलीफोन भी जर्द हो चुके पन्ने वाली किसी पुरानी किताब सा दिख रहा था. पूरे घर में अगर नया कुछ था तो वे थे स्वयं ‘विचंश’ यानी विष्‍णुचंद्र शर्मा, उत्‍साहित, ऊर्जावान बालसुलभ गति से भरे हुए.

ज्यादातर नामचीन लोगों को उनसे घबराते देखा था परंतु युवाओं को उनसे उतना ही जुड़ते पाया था. युवाओं के लिए वे इतने सहज और सुलभ थे कि कुछ कवि नयी कविता लिखते ही विष्णुजी को पढ़ाने की कोशिश में लग जाते. उनसे मिलने के बाद हर बार यह भाव मन में आता था कि सुख सुविधाएं जिंदगी में इतनी भी महत्वपूर्ण नहीं होतीं हैं कि उनके लिए हर कदम पर रीढ़ झुकाई जाए, कि अभी भी ऐसे लोग हैं जो नहीं जानते कि समझौता किस चिड़िया का नाम है.

तीक्ष्ण स्मृति वाले विष्णुचंद्र शर्मा चलते-फिरते इतिहास थे. उनका इतिहास बोध केवल किताबों से नहीं जीवन से उपजा था. उन्होंने जबरदस्त यात्राएं कीं थीं, किसिम-किसिम के अनुभवों और घनघोर संघर्ष से खुद को खूब मांजा था. 1940 से 2020 तक के सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक घटनाओं के जीवंत दस्तावेज थे विष्णु जी. जो हर बात को एक साथ स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय परिवेश में रखकर देखते थे. जो किसी गांव की बहुरिया के गीत को जितनी तन्मयता से बताते उतनी ही ऊर्जा के साथ इस बात की भी चर्चा करते कि फलाना मुद्दे पर अमेरिका और चीन का रुख क्या है. 

करीब चार साल पहले ‘जनपथ’ पत्रिका का विशेषांक निकालने के संदर्भ में जब उनके घर गया और बातचीत शुरू हुई तो 50-60 साल पहले की तमाम घटनाएं सजीव होकर सामने आने लगीं. किस साहित्यकार या राजनेता ने कब क्या कहा था, समय और समाज की समझ किस नेता की कैसी थीउनकी किस किताब, किस कहानी या कविता पर किस लेखक ने क्या प्रतिक्रिया दी थी, उन्हें सबकुछ पंक्ति दर पंक्ति याद था.

निश्चित रूप से विष्णु जी करीने से सजी-संवरी फुलवारी नहीं, तरह-तरह के जीवों-वनस्पतियों से भरा वन रचते थे. उनकी रचनाओं में झाड़-झंखाड़ भी मिलेंगे और रसदार फल भी, कठोर गर्म चट्टानें भी मिलेंगी और खूबसूरत अनोखे फूल भी, कह सकते हैं कि वे ‘जीवन जैसा जीवन’ रचते हैं. बड़ी-बड़ी बातों को रखते हुए साहित्य रचना फिर भी सरल है, पर उन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप जीवन जीना और व्यक्तित्व बनाना शायद उतना ही मुश्किल. विष्णुजी ने अपना व्यक्तित्व गढ़ा- धारा के विपरीत, समय प्रवाह के प्रतिकूल खड़े रहकर, तथाकथित असामाजिक कहलाने की सीमा तक जाकर. परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि विष्णुजी के मित्रों की और उन्हें चाहनेवाले लोगों की भरपूर संख्या थी. एक जमाने में महाकवि निराला, मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह जैसे लोगों से उनकी भरपूर निकटता थी. जब मैं उन पर अंक निकाल रहा था तो विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, भगवान सिंह, शेखर जोशी, रमेश उपाध्याय, रामनिहाल गुंजन, आनंद प्रकाश, राजेश जोशी इब्‍बार रब्बी आदि ने उन्‍हें जिस तरह से याद किया, वह मेरे लिए एक नया अनुभव था. 

विष्णुचंद्र शर्मा,जो शर्मा नहीं मूलतः अमृतसर के बग्‍गा (पिता कृष्‍णचंद्र बग्‍गा) थे,ने बचपन में ही भरपूर अध्ययन किया, जिस उम्र में बच्चे खेलने-कूदने में रमे रहते हैं उस उम्र में आचार्य नरेन्द्र देव (छठी कक्षा में) और जवाहरलाल नेहरू के व्याख्यान आयोजित करते रहे. बनारस से ‘तरुण भारत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला जिसका लोकार्पण जवाहर लाल नेहरू ने किया था. आज यह चर्चा हो रही है कि दलित और मुस्लिम नेताओं को उनकी जाति या समुदाय तक सीमित कर दिया जाता है जबकि सवर्ण नेता अखिल भारतीय माने जाते हैं. विष्णु जी के पिता श्री कृष्णचंद्र शर्मा के बुलावे पर अबुल कलाम आजाद बनारस आए थे और दुख के साथ कहा था कि ‘‘जवाहर ने मुझे सीमित दायरे का नेता बना दिया.’’ (विष्णु जी के साथ 18-06-2017 की बातचीत के अनुसार) और इस बात को विष्णुजी ने ढंग से दर्ज कर लिया था. विष्‍णुजी ने बाद में केवल कांग्रेस का ही विरोध नहीं किया जब उनके नाना रामनारायण मिश्र माधव सदाशिव गोलवलकर का स्‍वागत कर रहे थे तो विष्‍णु जी उस पूरे कार्यक्रम का विरोध कर रहे थे. जिसके कारण रात भर उन्हें जेल में रहना पड़ा था. जिस आनंदस्‍वरूप वर्मा ने उनकी किताब प्रकाशित की थी, उनके खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए. परंतु मैंने जब पूछा कि विशेषांक में किस-किस का लेख लिया जाये तो शुरुआत में ही बड़े ही प्रेम से आनंदस्‍वरूप वर्मा का नाम लिया. 

विष्णुचंद्र शर्मा कबीर-तुलसी, मीर-गालिब, निराला से लेकर भारतीय और विश्व साहित्य तक को खंगालते रहे. निजी संसाधनों से संचालित अपनी पत्रिकाओं में दुनिया के श्रेष्ठतम लेखकों को प्रकाशित करते रहे. शुरू से ही व्यष्टि की बजाय समष्टि बनने की कोशिश उन्होंने जिद की सीमा तक की. व्यवस्था को लेकर एक गुस्सा शुरू से ही दिखता है पर उस गुस्सा की सबसे बड़ी ताकत यह रही कि उसके साथ एक स्वप्न भी रहा, बेहतर की संकल्पना भी रही जो आरंभिक रचनाओं में ही पुष्ट रूप में नजर आती है. 

विष्णुचंद्र शर्मा के संदर्भ में मेरी जिनसे भी बात हुई लगभग सभी ने उनकी तारीफ की, बहुत लोगों ने उनके स्पष्टवादी होने, पारदर्शी होने, समझौता न करने, जिद्दी होने, अप्रिय सच बोल देने, बाहर-भीतर एक होने आदि की प्रशंसात्मक चर्चा कुछ इस तरह की, मानो यह उनकी सीमा है. यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि दुर्लभ जीवट के धनी और घनघोर पढ़ाकू विष्णु जी का अपने काम में इस तरह लगे रहना कि संपर्क हेतु या लोगों को कृतार्थ करने हेतु समय नहीं निकाल पाना कमी क्यों मान ली जाती है? नाना राम नारायण मिश्र और पिता कृष्णचंद्र शर्मा की समृद्ध विरासत का लाभ न उठाना, ऊँचे संपर्कों का निजी हितों हेतु उपयोग न करना अवगुण क्यों हो जाता हैॽ

अगर व्यक्तित्व में कुछ ज्यादा ही खरापन है भी तो उनकी लेखकीय ईमानदारी और वृहत तथा विविधता पूर्ण रचना संसार की बात क्यों नहीं की जाती? उन्होंने जिस तरह और जिस उम्र में ‘कवि’ जैसी पत्रिका निकाली और आगे भी कहानी, जनयुग, सर्वनाम जैसी पत्रिकाओं के द्वारा जैसा योगदान दिया उस दूरदर्शी संपादकीय दृष्टि की चर्चा क्यों नहीं होती? युवा संपादक के रूप में विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि पत्रिका से तहलका मचा दी थी. 10 कवियों को विशिष्ट कवि बताते हुए उनपर जो अंक विष्‍णु जी ने निकाले वे उनकी दूर दृष्टि के परिचायक रहे. इन कवियों के रूप में उन्होंने त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ अग्रवाल गजानन माधव मुक्तिबोध, नलिन विलोचन शर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, नामवर सिंह केदारनाथ सिंह, कीर्ति चौधरी, रामदरश मिश्र एवं दुष्यंत कुमारकी कविताओं को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया और इन्हें ‘जातीय चेतना का कवि’ बताते हुए इन्हें नई कविता की प्रगतिशील धारा के कवि के रूप व्याख्यायित किया.

इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन कवियों पर टिप्पणियां लिखने वाले लोग कौन थे. विष्‍णुजी के कहने पर हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, चंद्रबली सिंह, रामअवध द्विवेदी, केदारनाथ सिंह जैसे लोगों ने विशिष्ट कवियों पर टिप्पणियां लिखी थी. खुद विष्णुचंद्र शर्मा ने तो लिखा ही था. यही नहीं कवि पत्रिका की बड़ी खासियत यह थी कि उस दौर में और शायद आज भी वह अकेली ऐसी पत्रिका थी जिसमें जनपदीय भाषाओं की कविताएं प्रकाशित होती थीं. विष्‍णुजी ने कविमें भोजपुरी के रूपनारायण त्रिपाठी, श्रीमती शीला गुप्‍ता, भगवान सिंह, परमहंस पाठक; अवधी के चंद्रभूषण त्रिवेदी, रमई काका; मगही के रामनगीना सिंह, गढ़वाली के गोविन्‍द चातक आदि को प्रकाशित किया था. 

(केदारनाथ अग्रवाल का पत्र विष्णुचंद्र शर्मा के लिए : सौजन्य प्रमोद कुमार तिवारी)  

यह सही है कि विष्‍णुजी विद्रोही स्वभाव के थे. ज्ञानपीठ के समारोह में किसी बात पर सरेआम वक्ता को घेर लेनेवाले या जार्ज फर्नांडीज से सरेआम भिड़ जाने वाले,बड़े से बड़े व्यक्ति के मुंह पर खरा सच बोलकर अप्रिय बन जाने वाले विष्णुचंद्र शर्मा ने काजी नजरूल इस्लाम, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन आदि की जीवनी के लिए कितनी मेहनत की, कितना समय दिया इस पर बात नहीं होती? मुक्तिबोध की आत्‍मकथा लिखने के लिए पांच साल मेहनत की. रमेश मुक्तिबोध के साथ तीन महीने रहे. काजी नजरूल इस्‍लाम की जीवन लिखने के लिए बांग्‍ला सीखी और उन जगहों को जा जाकर देखा जिनसे नजरूल का संबंध था. खुद नजरूल ने यह कहा कि इस तरह से तो किसी बांग्‍ला लेखक ने भी मेरे बारे में काम नहीं किया, तुम कहां से आ गए. क्या मुक्तिबोध और नजरूल विष्णुजी की निजी संपत्ति हैं, क्या इनसे साहित्यिक दुनिया का कोई लेना देना नहीं है? कहीं हिन्दी जगत का एक वर्ग विष्णु जी से इसलिए तो दूर नहीं भागता रहा कि वे एक ऐसे आईने की तरह सामने आ जाते थे जिसके भीतर उसे अपनी कुरूपताएं नजर आने लगती थीं.

निजी बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘पुरस्कारों की राजनीति को करीब से देखा है, इसलिए पुरस्कारों में रुचि नहीं रही.’ लगभग 85 साल की उम्र में हिन्दी को समर्पित लेखक जब यह कहता है कि ‘जितनी ईर्ष्या और द्वेष मैंने यहां देखा उतना और कहीं नहीं. इसमें आ गया हूं, क्या करूं?’ तो क्या यह हिन्दी की दुनिया के लिए आत्ममंथन का विषय नहीं होना चाहिए?

अंततः सवाल यह उठता है कि हम अपने समाज में कैसे लोग पसंद करते हैं, क्या हिन्दी पाठक भी एक बने-बनाए कृत्रिम पब्लिक स्फीयर  रचना-इतर कार्यों से अर्जित महानता से संचालित हो रहा हैॽ विष्णुचंद्र शर्मा ने जनता को ही जनाधार माना, क्या यह पूछा जा सकता है कि जनता ने या हिन्दी के साहित्यकार समाज ने ऐसे लोगों को कितना अपना मानाॽ जो व्यक्ति जीवन भर ‘संज्ञा’ होने की मानसिकता के खिलाफ लड़ता रहा और ‘सर्वनाम’ बनने की कोशिश करता रहा, उसे हिन्दी समाज ने कितना मान दिया.

इस बात में कोई संदेह नहीं कि विष्‍णु जी आजीवन हिंदी साहित्य की बेहतरी चाहते रहे. उनका पूरा जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित था. श्रेष्ठतम विदेशी रचनाओं का अनुवाद करना, देश की दूसरी भाषाओं के साहित्य को हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध कराना, युवतम लोगों को हिंदी साहित्‍य से जोड़ना उनका दिन रात का काम था. सन 2000 में जब से विष्णुचंद्र शर्मा से मुलाकात हुई, उन्हें जब भी देखा हमेशा व्यस्त दिखे, रत दिखे, जब भी मिले चार योजनाओं के साथ दिखे, साहित्य अकादेमी में या मंडी हाउस पर चलते हुए भी मिले तो हमेशा ऐसी हड़बड़ी में नजर आए मानो वह काम अगर उसी दिन पूरा न हुआ तो कोई बड़ा नुकसान हो जाएगा. ये योजनाएं उनकी व्यक्तिगत न थीं, जब 2001 में सादतपुर के घर में वे बोले कि जेएनयू से ऐसे लड़के को लेकर आओ जो मुझे स्पेनिश सिखाए तो उसके पीछे यह मंतव्य था कि सीधे स्पेनिश साहित्य को पढ़ना समझना चाहता हूं ताकि हमारी हिन्दी में उसका बेहतर रूप आए. ‘कवि’, ‘सर्वनाम’ जैसी पत्रिकाओं और अन्य माध्यमों के द्वारा विष्णु जी ने विश्वनाथ त्रिपाठी, भगवान सिंह, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी जैसे अनेक लोगों को साहित्यिक पहचान दी, यह छोटा काम नहीं था. और यह सब मुझे स्वयं इन रचनाकारों ने बताया. विष्‍णु जी ने खुद अपना बखान कभी नहीं किया. जब भी मिला शास्त्र और लोक में पगे, नेह और ऊर्जा से भरे एक ‘युवा’ दोस्त से मुलाकात हुई जो हर पल समाज की चिंता करता और साहित्य को ओढ़ता-बिछाता नजर आया.

यह गहरी आश्‍वस्ति का विषय है कि विष्‍णुजी को महेश दर्पण जैसा संवेदनशील रचनाकार साथी मिला. कुछ साल पहले महेश जी ने उनका लंबा साक्षात्कार लिया था. वर्षों साथ रहकर महेश जी ने और उनके पूरे परिवार ने जिस तरह से विष्‍णुजी जैसे व्‍यक्ति को संभाला है उसके लिए हिंदी जगत को उनका ऋणी होना चाहिए.

विष्णुचंद्र शर्मा लगभग 60 पुस्तकों का भरा-पूरा रचना संसार छोड़ कर गए हैं. ये पुस्तकें एक व्यक्ति के साथ-साथ हिन्दी भाषा एवं साहित्य की समृद्धि की भी सूचक हैं. विष्णु जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं पर बात करना व्यक्ति से ज्यादा प्रवृत्ति पर बात करना है. उन पर बात करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि विष्‍णु जी ने ही मुझे सबसे पहले छापा था, वे मेरे साहित्यिक अभिभावक हैं. करीब तीन साल पहले जब एक बार मेरे सामने इन दोनों वरिष्‍ठों की मुलाकात हुई तो वह एक अद्भुत मुलाकात थी. एक व्यक्ति के सहारे और छड़ी से खुद को संभालते हुए त्रिपाठी जी जब विष्णु जी से मिले तो पहले उनके पांव छुए यह कहते हुए की उम्र में आप से बड़ा हूं और उसके बाद इतनी दुलार से उनकी ठुड्डी पकड़कर हिलायी कि वह दृश्य आंखों में फ्रीज हो गया. शायद इब्बार रब्बी जी ने घुसते ही विष्णु जी से पूछा था "कैसे हो नवजात?"विष्णु जी और विश्वनाथ जी का मिलन दो "नवजातों"का मिलन था. उसी विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा था कि मुझे विष्‍णुजी से डर लगता है, मैंने उनकी डांट सुनी है. फिर यह भी कहा कि विष्‍णुजी जिस पर नाराज न हों वह उनका आत्मीय नहीं है. 

हिंदी साहित्य से टूट कर प्यार करने वाला और इतने आत्मीय ढंग से नाराज होनेवाला हमसे बहुत दूर चला गया.

(प्रमोद कुमार तिवारी. विष्णुचंद्र शर्मा के साथ)

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प्रमोद कुमार तिवारी
कवि-आलोचक
गुजरात केंद्रीय विश्‍वविद्यालय
9868097199

फर्नांडो सोरेंटिनो : जीवनशैली : कैफ़ी हाशमी

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अर्जेंटीना के लेखक फर्नांडो सोर्रेंटिनो (जन्म: 8 नवंबर, 1942) स्पेनिश भाषा में लिखते हैं. अब तक उनके छह कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनका पन्द्रह से अधिक  भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.

फर्नांडो आम जीवन से कथानक उठाते हैं और कल्पना, फैंटसी, गहरी विडंबना के सहारे उसे विस्मित कर देने वाले अंत तक पहुंचा देते हैं.

इस कहानी का ‘A Lifestyle’ शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद ‘Thomas C. Meehan’ ने किया है. कैफ़ी हाशमी का यह अनुवाद इसी पर आधारित है.  इस अनुवाद को बेहतर बनाने में आलोचक-अनुवादक शिव किशोर तिवारी से  मदद ली गई है.  

किसी महानगर में किसी अपार्टमेंट की दसवीं मंजिल पर आप अकेले रह रहें हों और किसी दिन अंदर से दरवाज़ा खोलने की कोशिश में लॉक के अंदर ही चाभी टूट जाए तो आपके साथ अधिकतम क्या हो सकता है?

इसका जवाब यह कहानी देगी. 

 


फर्नांडो सोरेंटिनो
जीवनशैली                                      
अनुवाद : कैफ़ी हाशमी

 

 

पनी जवानी के दिनों में, एक किसान और पशुपालक बनने से पहले मैं एक बैंक का कर्मचारी था और यह सब कुछ इस प्रकार घटित हुआ.

उस वक्त मैं चौबीस साल का था और कहने को मेरा कोई भी करीबी रिश्तेदार नहीं था. मैं कैनिंग और आरोज़ के मध्य, सांता फे अवेन्यु  पर स्थित  इस छोटे से अपार्टमेंट में रहता था.

अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि दुर्घटनाएं कहीं भी हो सकती हैं किसी छोटी सी जगह में भी. मेरे मामले में, यह एक छोटी सी दुर्घटना ही थी. जब मैंने काम पर जाने के लिए दरवाजे को खोलने की कोशिश की, चाबी लॉक के अंदर ही टूट गई.

स्क्रूड्राइवर और प्लायर की मदद से बेकार कोशिशें करने के बाद, मैंने एक तालासाज की दुकान पर फ़ोन करने का फैसला किया. तालासाज का इंतज़ार करने के दौरान मैंने बैंक वालों को बता दिया कि मुझे आने में थोड़ी देरी होगी.

सौभाग्य से, ताला बनाने वाला बहुत जल्दी आ गया. उस आदमी का ध्यान करते हुए, मुझे बस इतना याद है कि भले ही वह जवान दिख रहा था लेकिन उसके बाल बिलकुल सफ़ेद थे. दरवाजे में लगे कांच के झरोखे से मैंने उससे कहा, “ मेरी चाभी लॉक के अंदर ही टूट गई है.”

वह झुंझलाहट के अंदाज़ में तुरंत बोला, “अंदर टूट गई ? अगर ऐसा है, तो बहुत मुश्किल खड़ी हो गई है. इसमें मुझे कम से कम तीन घंटे लग जाएंगे और मुझे इसकी कीमत लेनी होगी तक़रीबन  …”

उसने बहुत ज़्यादा कीमत बताई.

“मेरे पास अभी घर में इतने पैसे नहीं है” मैंने जवाब दिया. “लेकिन जैसे ही मैं बाहर निकलता हूँ, मैं बैंक जाऊँगा और फिर तुम्हें पैसे दूंगा.”

उसने तिरस्कार की भावना से भरी आँखों से मुझे देखा, जैसे मैंने उसे कुछ अनैतिक कह दिया हो, “मुझे माफ़ कीजिएगा, श्रीमान.” उसने उपदेशात्मक शिष्टता से कहा, “मैं सिर्फ ‘अर्जेंटीना तालासाज संघ’ का विशिष्ट सदस्य ही नहीं हूँ बल्कि हमारे संघ के आधारभूत सिद्धांत के निर्माताओं में से एक हूँ. इसके अनुसार रियायत देने की कोई गुंजाइश ही नहीं है. अगर आप इस प्रेरणात्मक दस्तावेज़ को पढ़ने का कष्ट करेंगे तो आपको पता चलेगा कि ‘आधारभूत नियमावली’ अध्याय के अनुसार, एक अच्छे ताला बनाने वाले के लिए काम के बाद मेहनताना लेना निषिद्ध है.”

 

2

मैं संदेह के साथ मुसकुराया, “तुम ज़रूर मज़ाक कर रहे हो.”

“मेरे प्यारे श्रीमान, ‘अर्जेंटीना ताला मज़दूर संघ’  के आधारभूत सिद्धांत कोई मज़ाक की चीज़ नहीं है. हमारे संघ के सिद्धांत,जिसमें किसी छोटी बात को भी अनदेखा नहीं किया गया है और जिसके विभिन्न पाठ बुनियादी नैतिक सिद्धांतों से चालित हैं, इसे हमने बरसों के कड़े अध्ययन के बाद तैयार किया है. ज़ाहिर है, हर कोई इसे नहीं समझ सकता, जैसा कि हम अधिकांशतः प्रतीकात्मक अथवा गूढ़ भाषा का प्रयोग करते हैं. फिर भी, मुझे विश्वास है कि हमारे दस्तावेज़ के परिचय में वर्णित अनुच्छेद 7 को आप समझेंगे, “ दौलत से दरवाज़े खुलते हैं और दरवाज़े उनका स्वागत करते हैं.”

मैंने इस पागलपन को स्वीकार न करते हुए उसे मनाने की कोशिश की, “सुनो” मैंने उससे कहा, “थोड़ी तो वाजिब बात करो. एक बार यह दरवाज़ा खुलने दो, उसके बाद मैं तुम्हारा मेहनताना ज़रूर दूँगा.”

“मुझे माफ़ कीजिएगा श्रीमान, लेकिन हर व्यवसाय के कुछ उसूल होते हैं और हमारे व्यवसाय में ये उसूल अपरिवर्तनीय है. आपका दिन शुभ हो, श्रीमान.”

और इसके साथ ही, वह चला गया.

मैं कुछ क्षण के लिए बेसुध सा वहीं खड़ा रहा. इसके बाद मैंने बैंक में दोबारा फ़ोन किया और उन्हें बताया कि शायद आज मैं न आ पाऊँ. बाद में मैंने उस सफ़ेद बालों वाले तालासाज के बारे में सोचा और खुद से कहा, “वह आदमी पागल है. मैं तालासाज की किसी दूसरी दुकान को फ़ोन करने जा रहा हूँ और किसी भी हाल में, मैं नहीं बताऊंगा कि मेरे पास पैसे नहीं है जब तक वे दरवाज़ा खोल नहीं देते.

मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी में नंबर ढूँढा और फ़ोन मिलाया.

 “किस पते पर ?“ एक औपचारिक जनाना आवाज़ ने मुझसे पूछा.

 “3653 सांता फे, अपार्टमेंट 10-ए.”

वह क्षणभर के लिए हिचकिचाई, मुझसे पता दोहरवाया और कहने लगी, “नामुमकिन, श्रीमान. ‘अर्जेंटीना तालासाज संघ’ की नियमावली हमें इस पते पर किसी भी प्रकार का कार्य करने की इजाज़त नहीं देती.

मैं क्रोध की ज्वाला में जल उठा, “ सुनो तुम, पागलपन म…”

मेरे शब्द के पूरा होने से पहले ही उसने फ़ोन रख दिया.

 

3

फिर मैंने दोबारा टेलीफोन डायरेक्टरी उठा ली और तालासाजी के तक़रीबन बीस दुकानों पर फ़ोन किया. जैसे ही वे पता सुनते, वे काम करने से साफ़ तौर पर मना कर देते.

 “हाँ-हाँ, ठीक है” मैंने खुद से कहा, “ मैं कहीं और से इसका हल निकाल लूँगा.”

मैंने बिल्डिंग के चौकीदार को फ़ोन किया और उसे समस्या बताई.

“दो बातें हैं.” उसने जवाब दिया, “पहली यह कि मुझे नहीं पता कि लॉक कैसे खोलते हैं और दूसरी बात यह कि अगर मुझे आता भी तो मैं नहीं खोलता. जैसा कि आप जानते हैं कि मेरा कार्य इस स्थान की सफाई करना है न कि संदिग्ध पंछियों को पिंजड़े से उड़ जाने देना है. और हाँ, आपने मुझे खुलेदिल से बख्शीश देने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई है.”

इसके बाद मैं बहुत परेशान हो गया और एक के बाद एक कई सारे बेकार और अजीबोगरीब काम करने लगा. मैंने एक कप कॉफ़ी खत्म की, सिगरेट पी, बैठा, खड़ा हुआ, कुछ कदम चला, अपने हाथ धोये, एक गिलास पानी पिया.

इसके बाद मुझे मोनिका दीशियावे का ख्याल आया, मैंने उसका नंबर मिलाया, इंतज़ार किया और उसकी आवाज़ सुनी, “मोनिका” दिखावटी मिठास और स्थिरता के साथ मैंने कहा, “ कैसी हो, प्रिये ? कैसा चल रहा है सब? ”

उसके जवाब ने मुझे कंपकंपा दिया, “तो तुम्हें आखिरकार फ़ोन करने की याद आ गई ? मैं बता सकती हूँ, तुम सच में मुझसे बहुत प्यार करते हो. लगभग दो हफ्तों से तुम्हारा कुछ अता-पता जो नहीं है.”

महिलाओं से तर्क-वितर्क करना मेरी क्षमता से परे की चीज़ है, खासकर इस मनोवैज्ञानिक हीनता की स्थिति में, जिसमें मैं फंसा हुआ था. फिर भी, मैंने उसे जल्दी से समझाने की कोशिश की कि मेरे साथ क्या हो रहा  है. मुझे नहीं पता कि वह मुझे समझ नहीं पायी या मुझे सुनने से इनकार कर दिया. जो आखिरी चीज़ उसने फ़ोन रखने से पहले कही, वह थी, “ मैं किसी का खिलौना नहीं हूँ.”    

अब मुझे बेकार और अजीबोगरीब काम करने की दूसरी श्रृंखला को पूरा करना था.

फिर मैंने बैंक में फ़ोन किया, इस आशा में कि कोई सहकर्मी आए और दरवाज़ा खोल दे. किस्मत ख़राब; मेरे हिस्से एंज़ो पेरेदेस से बात करना आया, एक मंदबुद्धि जोकर जिससे मुझे नफरत थी, “तो तुम अपने घर से बाहर नहीं निकल सकते ?” वह वाहियात तरीके से चिल्लाया, “तुम्हारे काम पर न आने के बहाने कभी खत्म नहीं होते.”

 

4

उसकी बातें सुन कर मुझे मानव हत्या जैसे विचारों ने गिरफ़्तार कर लिया था. मैंने फ़ोन काट दिया, फिर से मिलाया और माइकलएंजेलो लपोर्ता से बात करनी चाही, जो थोड़ा होशियार था. निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह समाधान निकालने का इच्छुक था, “बताओ मुझे, चाभी टूटी है या लॉक ?”

“चाभी.”

“और क्या वह अंदर रह गई है ?”

“इसका आधा हिस्सा अंदर रह गया है.”  पहले ही इस पूछताछ से हताश होकर मैंने उत्तर दिया , “और बाकी का बाहर.”

“क्या तुमने अंदर फँसे हुए उस छोटे हिस्से को स्क्रूड्राइवर से बाहर निकालने की कोशिश नहीं की ?”

“हाँ, बिलकुल मैंने कोशिश की है, लेकिन उसे निकाल पाना असंभव है.”

“ओह! अच्छा फिर तो तुम्हें ताला बनाने वाले को बुलाना पड़ेगा ?”

“मैं पहले ही कॉल कर चुका हूँ.” मैंने प्रतिवाद किया, उस गुस्से को दबाते हुए जो मेरा दम घोट रहा था, “लेकिन वे एडवांस में पैसे चाहते हैं.”

“तो एडवांस दे दो और परेशानी खत्म.”

“तुम्हे अब तक समझ नहीं आया कि मेरे पास पैसे नहीं हैं.”

फिर वह ऊब गया, “ मेरे पनौती मित्र, सच में तुम्हारी समस्याएँ बहुत विकट होती हैं.”

मैं तुरंत उसका कोई उत्तर नहीं दे पाया. मुझे उससे कुछ पैसे माँगने चाहिए थे. लेकिन उसकी टिप्पणी ने मुझे चकरा दिया और मैं कुछ भी सोच नहीं पाया.

और इस तरह दिन खत्म हुआ.

अगले दिन मैं जल्दी उठ गया ताकि सहायता के लिए ज़्यादा फ़ोन कर सकूं. लेकिन हर बार का वही रोना- आदतन टेलीफोन ने काम करना बंद कर दिया. एक और हल न हो पाने वाली समस्या: बिना फ़ोन कॉल के रिपेयर सर्विस को फ़ोन ठीक करने के लिए आखिर कैसे कहता ?

मैं बाहर बालकनी में आ गया और लोगों को देखकर चिल्लाने लगा जो सांता फे अवेन्यु पर चल रहे थे. सड़क का शोर कान फोड़ने वाला था, दसवीं मंजिल से चिल्लाने वाले शख्स को कौन सुन पाता ? ज़्यादा से ज़्यादा एक अनजान आदमी अपना सिर ऊपर उठा देता और फिर वापस चलने लगता .


 

5

इसके बाद मैंने टाइपराइटर में पाँच कागज़ और चार कार्बन लगाए और यह संदेश टाइप किया: “श्रीमान अथवा श्रीमती, मेरी चाभी लॉक के अंदर टूट गई है. मैं दो दिन से घर में बंद हूँ कृपया मुझे यहाँ से बाहर निकालने के लिए कुछ कीजिए. 3653 सांता फे, अपार्टमेंट 10-ए.”

मैंने रेलिंग से पाँचों कागज़ गिरा दिए. इतनी ऊँचाई से, सीधा नीचे गिरने की संभावना बहुत कम थी. विकराल हवा के झोंके में, वे लम्बे समय तक इधर-उधर तैरते रहे. तीन सड़क पर गिरे और लगातार आवाजाही करते वाहनों से कुचले जाने के बाद काले पड़ गए. चौथा वाला एक दुकान के पंडाल के ऊपर गिरा. लेकिन सबसे आखिरी वाला पाँचवां कागज़ फुटपाथ पर गिरा. तभी एक नाटे व्यक्ति ने उसे उठाया और पढ़ने लगा. फिर उसने अपने उलटे हाथ से आँखों पर छाया करते हुए ऊपर ताका. मैंने दोस्ताना लहज़े से उसकी और देखा. उस सज्जन पुरुष ने कागज़ को कई सारे छोटे टुकड़ों में फाड़ा और चिढ़ चिढ़ाते हुए गटर में फेंक दिया

कम शब्दों में कहूँ तो, कई और हफ़्तों तक मैंने हर तरह के प्रयास जारी रखें. मैंने बालकनी से सैकड़ों संदेश फेंकें; या तो उन्हें पढ़ा नहीं गया और अगर पढ़ा गया तो गंभीरता से नहीं लिया गया.

एक दिन मैंने एक लिफाफा देखा जिसे मेरे अपार्टमेंट के दरवाज़े से नीचे खिसकाया गया था; टेलीफ़ोन कंपनी बिल न भरने के कारण अपनी सेवाएँ बंद कर रही थी और फिर आगे बढ़ते हुए उन्होंने मेरा गैस, बिजली और पानी का कनेक्शन काट दिया.

शुरुआत में, मैंने अपने राशन को बेढंगे तरीके से खत्म किया लेकिन समय रहते मुझे एहसास हुआ कि ऐसे नहीं चल सकता. मैंने बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए बालकनी में भगोने रखे. मैंने फूल के पोधों को नोच डाला और उन गमलों में टमाटर, दालें और दूसरी सब्जियाँ उगानी शुरू की, जिनकी देखभाल मैं प्रेम और मेहनत से किया करता था. लेकिन मुझे प्रोटीन के लिए मांस की ज़रूरत भी थी, इसलिए मैंने कीड़े, मकड़ियों और चूहों का प्रजनन करना सीखा खासकर उन्हें कैद करके प्रजनन कैसे कराया जाए; कभी-कभी मैं मौसमी गौरेया या कबूतर भी पकड़ लिया करता था.

जब धूप होती थी तब मैग्नीफाइंग ग्लास और कागज़ की मदद से आग जला लेता था. ईंधन के लिए, मैं धीरे-धीरे किताबें, फर्नीचर और फ्लोरबोर्ड जला रहा हूँ. मुझे लगता है घर में हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा ही सामान रहता है.

 

6        

मैं बड़े आराम से रहता हूँ हालाँकि कुछ चीज़ों की कमी खलती है उदाहरण के लिए मुझे नहीं पता कि बाहर क्या चल रहा है; मैं अखबार नहीं पढ़ता और मैं टीवी और रेडियो को काम करने लायक नहीं बना सकता.

बालकनी से मैं बाहर की दुनिया को देखता हूँ और मैंने कुछ बदलाव महसूस किए हैं. किसी एक ख़ास बिंदु पर ट्रॉली ने चलना बंद कर दिया था, लेकिन मुझे नहीं पता ऐसा कब हुआ. मैंने समय को याद रखने की क्षमता खो दी है, लेकिन आईना, मेरा गंजापन, मेरी लंबी सफ़ेद दाढ़ी और मेरे जोड़ों का दर्द मुझे बताता है कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ.

मनोरंजन के लिए मैं अपने विचारों को कल्पना के संसार में खुला छोड़ देता हूँ. मुझे कोई भय नहीं है न ही कोई महत्वाकांक्षा है.

एक शब्द में कहूँ तो अपेक्षाकृत सुखी हूँ.

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कैफ़ी हाशमी

(जन्म 29 अक्टूबर 1994)


कहानी  'टमाटर होता है फल'के लिए लल्लनटॉप का एक  लाख का पुरस्कार मिला है. कुछ कहानियाँ प्रकाशनाधीन


सांस्कृतिक हिंसा के रुप (राजाराम भादू) : हरियश राय

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सांस्कृतिक हिंसा के रुप : राजाराम भादू 
प्राकृत भारती अकादमी
, जयपुर

प्रथम संस्करण : 2020

मूल्‍य रु 320/-





 

 

 

 

सांस्कृतिक हिंसा के रुप :  संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा

हरियश राय

 

केवल हथियारों के उपयोग से किसी को मारना ही हिंसा नहीं है,बल्कि किसी को साफ हवा और पीने के साफ पानी, भोजन से वंचित रखना, आवाजाही पर रोक लगाना और दिमाग को नियंत्रित करना भी हिंसा है. हिंसा के ऐसे कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप हैं और हिंसा के इन रुपों का समर्थन करने के लिए हमारे परम्‍परागत और सामंती युगीन विश्वास प्रणाली हमारी अन्‍तश्‍चेतना में  लगातार सक्रिय रहती हैं. राजाराम भादूने अपनी किताब सांस्कृतिक हिंसा के रुपमें उस विचार प्रणाली को सामने रखा है जो इस सांस्कृतिक हिंसा को वैध मानती है. उन्‍होंने सांस्कृतिक हिंसा को भारतीय संदर्भों में देखा और परखा है और उन अहिंसक विकल्पों की ओर इशारा किया है जिनकी आज सबसे ज्‍यादा जरूरत है.

 

नार्वे के शांति चिंतक समाजशास्त्री जोहन गाल्‍तुंग ने हिंसा की प्रकृति और इसकी परिणति का विश्‍लेषण कर एक नयी दृष्टि दी है. जोहन गाल्‍तुंग का मानना है कि , ‘’ सांस्कृतिक हिंसा का अध्‍ययन उस प्रक्रिया को प्रकाश में लाता है जिससे प्रत्यक्ष हिंसा के कर्म और संरचनागत हिंसा के तथ्‍य का वैधीकरण होता है और इस प्रकार वह समाज में स्वीकरणीय हो जाती है.’’ राजाराम भादू ने उनकी इस अवधारणा तथा संरचनागत हिंसाऔर सांस्कृतिक हिंसाकी अवधारणा को भारतीय चिंतन के संदर्भ में लागू करते हुए सांस्कृतिक हिंसा के दुश्‍चक्र की ओर संकेत किया है और उनकी अवधारणाओं को एक नया आयाम दिया है.

 

हिंसा की प्रकृति और हिंसा के इतिहास का उल्लेख करते हुए राजाराम भादू की मान्यता है कि मनोरंजन के रुपों में क्रूरता, अंधविश्वास,दास प्रथा,लगातार होने वाले युद्ध ,दंड के रुप में भयानक यातनाएं,असहमति और विरोध के लिए मृत्यु दंड ,राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए हत्‍याएं, युद्ध में स्त्रियों के साथ बलात्कार, जाति संहार, मनुष्य इतिहास के जीवन के सामान्य लक्षण रहें है और यह कहना धूर्ततापूर्ण और खतरनाक है कि मानव सभ्यता प्रगति करके जंगली और बर्बर युग से बाहर आयी है. उनका मानना है कि ‘’ये उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की विस्‍तारवादी हिंसा को खुली छूट देते हैं और अपने ही लोगों के पापों को छुपा लेते है. (पेज 18)

 

यह किताब संरचनागत हिंसा के जोहन गाल्‍तुंग के तीन सिद्धांतों को भारतीय संदर्भ में रूपायित करती है. पहला, शांति शब्‍द का प्रयोग सामाजिक लक्ष्य के लिए होगा और इस पर अधिकांश लोगों की मौखिक सहमति होगी. दूसरा,इस सामाजिक लक्ष्य को हासिल करना जटिल और मुश्किल है पर असंभव नहीं और तीसरा, शांति को हिंसा की अनुपस्थिति के रुप में माना जाता है. इन तीन सिद्धांतों पर विचार विमर्श करने के लिए किताब में  हिंसा के छ: आयामों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और ये छ: आयाम हैं , पहला, शारीरिक हिंसा (किसी व्यक्ति को मारने के इरादे से दैहिक क्षति पहुंचाना) और मानसिक हिंसा (झूठ,धोखा,सभी प्रकार के मतारोपण और भय) में फर्क, दूसरा,हिंसा के नकारात्मक  और सकारात्मक तरीके (अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करने पर दंडित करना और अपनी इच्छा के अनुरूप काम करने पर पुरस्कृत करना), तीसरा, हिंसा का भोक्ता से संबद्ध होना  व्यक्ति,समूह या राष्ट्र की ओर से हिंसा के लिए पथराव करना या मानसिक भय के लिए  परमाणु बम का परीक्षण करना),चौथा  संरचना में हिंसा का शामिल होना (पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को अज्ञान के अंधेरे में रखना,  लोगों के जीवन में एक समान अवसरों का न होना व संसाधनों का असमान  वितरण होना) पाँचवा इरादतन और गैर इरादतन हिंसा और छठा, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा.
हिंसा के इन छह: आयामों के साथ- साथ हिंसा के दुश्‍चक्र का भी विस्तार से वर्णन करते हुए दैहिक हिंसा के रुपों के बारे में यह बताया गया है कि दैहिक हिंसा में कुचलना (घूँसे मारना
, पत्थर मारना), उग्र आक्रमण करना (फंदे पर लटकाना,चीरना,काटना ),भेदना (चाकू घोंपना,बरछी,भाला मारना,गोली मारना ),जलाना ( आगजनी,जलती आग में झोंकना,जला देना ),जहर देना ( पानी या खाने में जहर देना,विषैली गैस से मार  देना) , व वाष्पित करना ( जैसा परमाणु आक्रमण के बाद हुआ )  तथा शारीरिक हिंसा में स्वच्छ हवा से वंचित करना ( घुटन,दम घुटना ) , पीने के पानी से वंचित करना ( निर्जलीकरण , प्यास से मारना),भोजन से वंचित करना ( भुखमरी से मौत ,खाद्य पदार्थों पर रोक – अवरोध लगाना), आवाजाही पर रोक लगाना ,शारीरिक बंधन द्वारा, स्थान का रोकना व दिमाग को नियंत्रित करना  (जंजीर से बांधना, बेहोश करना,जेल,नजरबंदी या निर्वासन ,गैसों से स्‍नायुओं को कुंद करना,मतारोपण करना) का समावेश है.

 

किताब में राजा राम भादू ने यह बताने की कोशिश की है कि सांस्कृतिक हिंसा संरचनागत हिंसा को एक आधारभूत औचित्य प्रदान करती है और प्रतीक विधान भी सांस्कृतिक हिंसा की आधार भूमि तैयार करते हैं. इन प्रतीक विधानों में चिन्ह- सितारे, क्रॉस, अर्धचंद्र,झंडे,पताकाएं ,प्रार्थनाएं व पवित्र पुस्तकें, सैन्य परेड,नायकों की मूर्तियां व तस्‍वीरें,भड़काऊ भाषण और पोस्‍टर शामिल हैं. वे बताते हैं कि सांस्कृतिक हिंसा प्रत्यक्ष और संरचनागत,दोनों तरह से व्यक्त होती है. प्रत्यक्ष हिंसा में हत्या, अशक्त बना देना,खाद्यान्न जब्त कर लेना, दमन,नजरबंदी, निष्कासित करना,दोयम दर्जे का नागरिक बना देना,  शामिल हैं ओर संरचनागत हिंसा में शोषण,दूसरों में मिला देना,अलग - थलग कर देना,समूह को खंडित कर देना का समावेश है .

 

हिंसा को फैलाने में सत्‍ता पक्ष की विचारधारा केन्‍द्रीय भूमिका अदा करती है. अपनी विचारधारा के अनुरूप अल्‍पसंख्‍यकों  के खिलाफ दुष्‍प्रचार किया जाता है और हर अपराध के स्‍त्रोत अल्‍पसंख्‍यकों  में तलाश किए जाते हैं. उन्‍हें अपराधी मानने की सामूहिक सोच का खूब प्रचार किया जाता है और उसको सामूहिक  स्वीकृति दिलाई जाती है. यह विचारधारा किस तरह काम करती है, इस बारे में राजाराम भादू लिखते है, ‘‘ अब धर्म की जगह राजनैतिक विचारधारा और ईश्वर के स्थान पर आधुनिक राष्ट्र आ गये हैं. आधुनिकता ने भले ही ईश्वर और शैतान को अहमियत नहीं दी हो,लेकिन चाहे और अनचाहे की दीवार यहां भी निर्मित कर दी गयी है. आधुनिकता ने हमकों एक खास तरह से गढ़ा है,दूसरों को, ‘अन्‍य को आधारहीन किया है. और यहीं से संरचनागत हिंसा की शुरुआत होती है. अन्‍य लोग शोषण के जरिए आधारहीन कर दिए जाते हैं और उनका अमानवीकरण कर दिया जाता है,और वे इस कदर अमानवीयताकृत  हो जाते है कि हर तरह की हिंसा में वे ही दोषी ठहराएं जाते है.’’ (पेज 53)    

 

किताब में अंतोनियो ग्रामशी का यह सूत्र अंत: सलिला की तरह मौजूद है कि ‘’पूंजीवादी प्रणाली दंड – विधान से ही नहीं,संस्कृति और विचारधारा से भी शासन करती है.विकास बनाम दरिद्रता का दुश्‍चक्र अध्याय में राजाराम भादू ने एडम स्मिथ ,जेम्‍स मिल,डेविड रिकार्डो  जैसे मुक्त व्यापार की अवधारणाओं के समर्थक  अर्थशास्त्रियों के हवाले से यह बताने का प्रयास किया है कि अब  राजनीतिक व आर्थिक रुप से कमजोर देशों पर सीधे राजनीतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं रह गई है.  विश्व बैंक और  अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं के ज़रिये यह नियंत्रण आसानी से किया जा रहा है. बड़ी राष्‍ट्रीय शक्तियां विशाल बहुराष्ट्रीय कम्‍पनियों के मार्फत अन्‍य देशों के प्राकृतिक व अन्‍य संसाधनों का दोहन करती हैं. किताब भूमंडलीकरण के प्रपंच को गहराई से सामने लाती है और यह रेखाकिंत करती है‍ कि भूमंडलीकरण प्रपंच के घटाटोप में पूंजीवाद आत्मिक रुप से कंगाल है और अपनी कंगाली पर पर्दा डालने के लिए विश्व संस्कृति और ज्ञान का ढोल पीट रहा है,पर इस ज्ञान के मुक्त द्वारों से जो ज्ञान छन कर हमें परोसा जा रहा है उसमें अतार्किक अंध,विश्वासी और रुग्ण व्‍यक्तिवादी बनाने वाली फिल्में ,पूजा केन्द्रित खोखली जीवन शैली को स्थापित करने वाली टेलि-धारावाहिक, और जन आंदोलनों को कलंकित करने वाले कार्यक्रम शामिल हैं. राजाराम भादू अर्थशास्‍त्री अमर्त्य सेन की इस मान्यता को आत्मसात करते हुए स्वीकार करते है कि विकास की कसौटी सब तरह की पराधीनता  या बंधनों से मुक्ति होनी चाहिए. वे क्‍योटो की दोनिशा यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नागरिकों हामा की इस मान्यता का उल्लेख करते है कि दुनिया में अधिक तालमेल व एक दूसरे के लिए सहारे की भावना होनी चाहिए .जंगल का राजा शेर है लेकिन उसके लालच व प्रभुत्व की भी एक सीमा है.

 जंगल जानवरों,पक्षियों,सरीसृपों, कीटों व पेड़ पौधों के एक जटिल इको सिस्‍टम को सहारा देता है,जिसमें  परस्पर सहयोग भी प्रतिद्वंद्विता जितना महत्वपूर्ण है.

 

साम्‍प्रदायिक हिंसा पर विचार विमर्श करते हुए राजा राम भादू ने दार्शनिक हन्‍ना हारेंट के इस कथन को उद्धत किया है किसभी दूसरे कार्यों की तरह हिंसक कारर्वाईया भी दुनिया को बदलती हैं लेकिन इन बदलावों में अधिक संभावना यह है कि दुनिया और अधिक हिंसक हो जाती है. वे बताते हैं कि धर्म में राजनीति के समावेश से साम्‍प्रदायिकता का जन्‍म माना जाता है और जब साम्‍प्रदायिकता को सत्‍ता का संरक्षण मिल जाता है तो वह और भी विद्रुप                             हो जाती है.(पेज 81)

 साम्‍प्रदायिकता के सामाजिक आर्थिक कारणों का विवेचन करते हुए वे यह भी बताते हैं कि समूहों के बीच लंबे समय से चला आ रहा वैर –भाव,विद्वेष और आक्रोश,समुदाय के अंदर अपने कार्य को सही मानने की सर्वमान्यता  के कारण भी साम्‍प्रदायिक हिंसा जन्‍म लेती है. साम्‍प्रदायिकता के विलोम के रुप में शांतिपूर्ण सह – अस्तित्व की अवधारणा की चर्चा करते हुए वे यह संकेत करते हैं कि भारत और पाकिस्तान में चुनावों के समय घृणा से घुली शब्दावली के कारण शांति  पहले ही पृष्ठभूमि में चली जाती है और इसलिए शांति की पहल में न्याय का समावेश होना बेहद जरूरी है. इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे समाज  में लोकतंत्र की कल्‍पना नहीं की जा सकती , जो सामूहिक हिंसा को मानदंड के रूप में स्वीकार करता है. समाज में हिंसा की सामूहिक स्वीकृति से फासीवाद जन्‍म लेता है, तो इसकी सफलता हिंसा को वैध बनाती है. हम अपने देश के संदर्भ में देखते हैं कि केंद्र की मौजूदा सरकार की राजनीतिक सफलताओं के बाद से देश में न केवल लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रतिष्ठा में गिरावट आयी है, बल्कि लोगों की नैतिकता में भी गिरावट दिखाई दे रही है जिससे  लोग दूसरों के प्रति बहुत जल्द असंवेदनशील हो रहे हैं और फिर वे लिचिंग के मौक़े पर निर्दयी बन रहे हैं. वे यह भी रेखाकिंत करते हैं कि सक्रिय शांति का आशय हिंसा की अनुपस्थिति ही नहीं,बल्कि विरोधियों के बीच एक तार्किक संवाद का होना भी जरूरी है. 

 

राजाराम राम भादू ने हिंसा के अन्‍य क्षेत्रों का उल्‍ल्‍ेख करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि हिन्‍दू धर्म प्रणाली  में दलितों की तरह,स्त्रियां भी संरचनागत दमन और हिंसा की शिकार रही हैं और इस्लाम व ईसाई धर्मों में भी पितृसत्‍ता को वैधता प्रदान कर स्त्रियों को अपने अधीन बनाए रखने की हिमायत की गई है. उनका यह भी मानना है कि गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित रखना या उन्‍हें दोयम दर्जे की शिक्षा प्रदान करना संरचनागत हिंसा का सबसे सूक्ष्‍म और सर्वनाशी रुप है,और शिक्षा का यह सर्वनाशी रुप सरकारी तंत्र में रचा बसा है. वे लिखते हैं कि’’  पितृसत्‍ता स्‍त्री के समक्ष सिर्फ भौतिक बाधा ही नहीं खड़ी करती बल्कि वह स्‍त्री मन का भी अनुकूलन करती है. पितृसत्‍ता ऐसी परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न करती है,जिससे स्‍त्री पितृसत्‍ता के मूल्यों को आत्मसात कर ले.’’ (पेज 115)

 

किताब में हमारे आज के समय के सबसे ज्वलंत विषय  उग्र राष्ट्रवादपर विचार करते हुए रेखाकिंत किया गया है कि राष्ट्र और राज्य परस्पर एक होते हुए भी एक नहीं हैं क्‍योंकि राज्य एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसकी सीमाएं होती हैं जो अपनी जनता पर शासन करता है व अपने भूभाग में संप्रभुता का दावा करता है जबकि राष्ट्र ऐसे लोगों का समूह है जो यह दावा करता है कि वे भाषा,संस्कृति ओर ऐतिहासिक पहचान के साझेपन से आपस में बंधे हुए हैं. उनका मानना है कि ‘’ राष्ट्र का उल्लेख राज्य के संदर्भ में न होकर,प्राय: पूरी संस्कृति,परम्‍पराओं, मूल्यों और भाषाओं  के साथ होता है .’’पेज 125 ‍   

 

राजाराम भादू तमाम शोधों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि मनुष्य मूलत: हिंसक नहीं है और अहिंसा जीवन की एक स्वाभाविक शैली हो सकती है. इसके लिए सांस्कृतिक हिंसा के स्थान पर सांस्कृतिक शांति को तवज्जो देते हुए जोहन गाल्‍तुंग को उद्धत करते है कि,’’ संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा का सच्चा प्रतिकार करना है तो हमें विकल्प में संरचनागत और सांस्कृतिक शांति की स्थापना करनी होगी (पेज 150 ) .इस संदर्भ में किताब में गांधी ओर नेल्‍सन मंडेला और गौतम बुद्ध  के कई प्रसंग दिए गए हैं जहां उन्‍होंने शांति की स्थापना की पुरज़ोर वकालत की. गौतम बुद्ध के मन,वचन और कर्म में शुद्धता की के अनुकरण पर जोर देते है.   वे नेल्‍सन मंडेला के इस कथन पर मोहर लगाते हैं कि ‘’मेरे लिए अहिंसा एक नैतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक रणनीति थी,’ इसी तरह वे गांधी की अहिंसा को एक पद्धति के रुप में स्वीकार करते हुए गांधी की केन्‍द्रीय अवधारणा,प्रेम को महत्व देते हैं. इस हिंसा के विकल्प के रुप में गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को रखा जा सकता है. गांधी ने 1931 में लंदन में भारतीय छात्रों को संबोधित करते हुए यह कहा था कि ‘’ मुझे अपने देशवासियों की पीड़ाओं के निवारण से भी अधिक चिंता मानव प्रकृति के बर्बरीकरण की है. जब गांधी बर्बरीकरण की बात करते हैं तो वे केवल स्थूल हिंसा की बात नहीं करते,उसमें हिंसा के वे सभी रुप और आयाम शामिल हैं जिन्हें संरचनागत हिंसा,’ ‘सांस्कृतिक हिंसाऔर पीडि़तोन्‍मुख प्रत्यक्ष हिंसाके रुप में परिभाषित किया गया है. यकीनन युद्ध एक प्रत्यक्ष हिंसा है,लेकिन प्रकृति का विनाश,बेरोजगारी, मानव प्रकृति का एक आयामी होते चले जाना, मानवीय अकेलापन,विभिन्न प्रकार के सामाजिक  व राजनैतिक तनाव,संरचनागत हिंसा और उसे वैध ठहराने वाली विश्वास प्रणाली अर्थात सांस्कृतिक हिंसा की ही अभिव्‍यक्तियां है.    

किताब में अहिंसा एक पद्धति’, ‘नैतिकता’ ‘बहु संस्‍कृतिवाद’, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जीवन मूल्‍य मानते हुए संयुक्त‍ राष्ट्र महासभा द्वारा मानव अधिकारों से संबंधित घोषणा पत्र का उल्‍ल्‍ेख करने के साथ-  साथ यह सवाल उठाया है कि क्‍या  मानवाधिकारों की संकल्पना एक नयी अहिंसक संस्कृति की आधारभूमि हो सकती है ?  और क्‍या मानवाधिकारों का सम्‍मान और उनके लिए सत्याग्रह नैतिक आचरण की एक बुनियादी कसौटी नहीं है ?                          

 

किताब में हिंसा के इतिहास को खँगालते हुए उन्‍होंने  यह संकेत किया है कि सांस्कृतिक हिंसा का विकल्पसांस्कृतिक शांति है इसलिए ऐसे सांस्कृतिक पक्षों को खोजना जरूरी है जो प्रत्यक्ष और संरचनागत शांति को औचित्य और वैधता प्रदान कर सकें. इसीलिए वे गांधी केजीवन की एकतासाध्य व साधन की एकतासिद्धांतों को महत्वपूर्ण मानते हैं. उनका मानना है कि राष्ट्रवाद का कोई भी मॉडल जो बहुलतावाद को कमजोर करता है,उसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.

 

सांस्कृतिक हिंसा के रुपकिताब में सबसे पहले जोहान गोल्टुंग के विचारों को उनकी समकालीन धारणाओं से जोड़कर देखा गया है और हिंसा के मूल स्‍त्रोतों की पड़ताल की गई है. हमारे भारतीय समाज में मौजूद दलित , स्‍त्री पुरुष भिन्नता व सम्प्रदाय को केन्‍द्र में रखकर की गई हिंसा को क्रमशः संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा के रुप में विश्लेषित किया गया है. इसके साथ ही आर्थिक व शैक्षणिक क्षेत्र में भी हिंसा के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुपों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है. जोहान गोल्टुंग अपने चिंतन में शांति का प्रस्ताव करते है  संरचनागत और सांस्कृतिक शांति की रणनीतियों का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि ये सिर्फ रक्षात्मक और निष्क्रिय ही नही बल्कि सृजनात्मक और अग्रगामी भी हैं. अपनी इस किताब में राजाराम भादू ने हिंसा के अहिंसक प्रतिकार के रुप में भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान सहिष्णुता,सहयोग ,सत्य व न्याय के साथ गांधी- दर्शन को आत्मसात किया है. यह किताब संवेदनात्‍मक स्‍तर किताब गरिमापूर्ण मानवीय समाज बनाने के आकांक्षा के रुप में किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध करती हुई शांति के पक्ष में खड़ी होती है जो इस किताब की बहुत बड़ी खूबी है और ऐसी किताबों की आज के समय में सबसे ज्‍यादा जरूरत है.

 

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हरियश राय
मो : 9873225505
ई मेल :
hariyashrai@gmail.com

 


सांस्कृतिक हिंसा के रुप : राजाराम भादू
प्राकृत भारती अकादमी
,जयपुर

प्रथम संस्करण : 2020

मूल्‍य रु 320/-

 

     

 

 


शशि कपूर, लता मंगेशकर और कपिल शर्मा: हरि मृदुल

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हरि मृदुल ने ‘अमर उजाला’ के मुंबई ब्यूरो में विशेष संवाददाता रहते हुए चमकती फिल्मी दुनिया के अँधेरे और टूटन को भी करीब से देखा है, उनकी ये तीनों कहानियाँ यहीं से पैदा हुईं हैं.    


तीन कहानियाँ                                                                                            
हरि मृदुल 




१.

पृथ्वी में शशि 

इंटरवल हुआ, तो हॉल में रोशनी हुई. मद्धिम रोशनी. उसी रोशनी में किसी ने शशि कपूर को देख लिया. अरे देखो- शशि कपूऽऽऽर.... इसके बाद तो उनसे मिलनेवालों का तांता लग गया. लोग आते, उन्हें नमस्कार करते. घेर कर खड़े हो जाते. उनमें से कई लोगों ने उनसे उन फिल्मों के बारे में बातें करनी शुरू कर दीं, जो उन्होंने पता नहीं किस-किस उम्र में, किन-किन शहरों के किन-किन सिनेमाघरों में देखी थीं. वह सबकी बातें चुपचाप सुन रहे थे. उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी. हालांकि इस बीच कुछ लोगों ने मोबाइल से उनकी ह्वील चेयर के बाजू में खड़े होकर फोटो भी खिंचवानी शुरू कर दी थीं....

जी हां, शशि कपूर ह्वील चेयर में थे. काफी अस्वस्थ चल रहे थे वह. लेकिन उनका पृथ्वी थिएटर आना थमा नहीं था. जब भी मन करता, अपने नौकर से ह्वील चेयर मंगवा लेते और आ जाते. थिएटर में प्रवेश करते ही उनकी आंखों में चमक आ जाती. उनके चेहरे की भंगिमा बदल जाती. वह खुद भी थिएटर के प्रांगण में मौजूद तमाम चेहरों को बड़े गौर से देखने लगते. मानो वह इन चेहरों में कुछ खोज रहे हों.  उनकी यह खोज पूरी होती भी हो कि नहीं, कह नहीं सकते. लेकिन पृथ्वी थिएटर आकर उन्हें थोड़ी राहत तो अवश्य ही महसूस होती. ‘यहां आकर मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैं अपने पिता पृथ्वीराज कपूर की गोद में बैठा हुआ हूं’, एक बार एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था.  

पता नहीं क्यों, बाद के दिनों में उन्होंने पृथ्वी थिएटर आने का अपना वक्त बदल दिया था. वह ज्यादातर तभी आते, जब कोई नाटक बस शुरू ही हुआ हो. हॉल में अंधेरा हो जाता, तब उनका नौकर ह्वील चेयर से उन्हें ले आता और वह चुपचाप नाटक देखने लगते. कई बार उन्हें कोई नाटक नहीं रुचता, तो वह इंटरवल में ही खामोशी से निकल जाते. लेकिन वह न किसी को अपने आने का पता चलने देते और न ही जाने का. हालांकि ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उनके आने और जाने का पता किसी को न चला हो. 

तो उस दिन भी जैसे ही नाटक शुरू हुआ और हॉल में अंधेरा हुआ, उनका नौकर ह्वील चेयर में उन्हें ले आया था. वह हमारे साथ नाटक देख रहे हैं, जिसका पता हमें इंटरवल में ही चलना था. हॉल में मद्धिम रोशनी हुई कि लोगों की नजर शशि कपूर पर पड़ गई....

उस दिन शशि बहुत असहज हो गए थे. हुआ यह कि जैसे ही पता चला कि वह दर्शकों के बीच बैठे हुए हैं, तो एक अधेड़ महिला उनसे मिलने के लिए बेहद उतावली हो गई. वह अपने बूढ़े हो रहे पति के साथ नाटक देखने आई थी, परंतु वह शशि को देखते ही मानो सुध-बुध ही खो बैठी. वह अपनी सीट से इतनी तेजी से उठी कि पति भौंचक देखता रह गया. हमेशा घुटनों में दर्द की शिकायत करनेवाली और पति का हाथ पकड़ चलनेवाली उस महिला में पता नहीं कहां से इतनी स्फूर्ति आ गई थी.

दरअसल वह अपने युवावस्था के सपनों के राजकुमार से हर हालत में मिलना चाहती थी. वह शशि कपूर की जबर्दस्त फैन थी. उसने एक-एक फिल्म देखी थी उनकी. हमेशा ही ख्वाबों में देखा था उन्हें. खयालों में सोचा था. परदे पर उन्हें देखकर कितनी तो आहें भरी थीं. उनके कितने ही पोस्टर अपने कमरे में चिपकाए थे. यहां तक कि अब भी जब कभी दोपहर के समय टीवी पर किसी ओल्ड इज गोल्ड टाइप चैनल पर उनकी कोई फिल्म दिख जाती, तो सास-बहू वाले सीरियल छोड़कर उसे ही एकटक देखने लगती....  

अधेड़ महिला जब लोगों को धकियाते हुए आगे पहुंची और उसने ह्वील चेयर पर बैठे शशि कपूर को देखा, तो उसे यकीन ही नहीं हुआ कि वह सचमुच शशि कपूर हैं. वह अवाक् थी. वह जीवन में पहली बार शशि कपूर से मिल रही थी, लेकिन उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अब तक उसका हीरो इस हालत तक पहुंच चुका होगा. उसके मन में जो छबि थी, वह गोरे-छरहरे शशि की थी. उस शशि की थी, जो हंसता था तो डिंपल पड़ते थे गालों में. उनके दांत पर चढ़े दांत में भी वह अनुपम सौंदर्य खोज लेती थी. लेकिन यहां तो वह शशि नदारद था. उस शशि की जगह एक असहाय, बूढ़ा और बेबस शख्स बैठा हुआ था!!

अब तक उस महिला का पति भी पीछे से आ चुका था. उसे बीवी की इस तरह की हरकत पर कोई हैरत नहीं हुई. उसे अच्छी तरह पता था कि वह शशि कपूर को कितना ज्यादा चाहती है. इस अधेड़ अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते हजारों बार अपने पति को बता चुकी थी कि वह शशि कपूर की बहुत बड़ी दीवानी है और हमेशा दीवानी रहेगी.... यह भी महज इत्तफाक ही था कि खुद उसका पति भी शशि कपूर का बहुत बड़ा फैन था. बीवी को जब पति ने बुत सा खड़ा देखा, तो उसे लगा कि अपने प्रिय हीरो से मिलने में वह संकोच कर रही है. उसने फौरन अपनी बीवी का हाथ पकड़ा और शशि कपूर से मिलवाने के लिए उनके ठीक सामने पहुंच गया. लेकिन बीवी के पांव आगे नहीं बढ़ रहे थे. उसकी मुखमुद्रा एकदम अलग थी. ठिठकी खड़ी उस अधेड़ महिला पर तब तक शशि की नजर पड़ चुकी थी और वह उस महिला के मन की थाह ले चुके थे. शशि ने यकायक अपनी आंखें बंद कर ली थीं....

शशि की आंखें बंद ही थीं कि उनके कानों में महिला का अधेड़ स्वर सुनाई दिया, जिसमें वह अपने पति से कह रही थी, ‘शशि कपूर नहीं है यह. शशि कपूर ऐसा हो ही नहीं सकता....’

तब तक इंटरवल खत्म हो चुका था. वह अधेड़ महिला नाटक अधूरा छोड़ अपने पति का हाथ पकड़ कर बाहर निकल चुकी थी. इधर शशि कपूर ने जब आंखें खोलीं, तो इंटरवल के बाद का नाटक शुरू हो चुका था. थिएटर में अंधेरा होते ही शशि कपूर की ह्वील चेयर भी बाहर निकलती देखी गई.

अब तो शशि कपूर नहीं रहे. उन्हें गुजरे हुए कई वर्ष बीत चुके हैं. लेकिन मालूम पड़ा है कि पृथ्वी थिएटर में घटी इस घटना के बाद शशि फिर दोबारा कोई नाटक देखने नहीं आए. ह्वील चेयर में ही एकाध बार आए भी, तो थिएटर के भीतर नहीं गए. लोगों से बचते रहे. लोग उनके इस बदले व्यवहार पर कयास लगाते रहे. हालांकि यह छोटी सी घटना पांच ही लोगों को पता थी पूरी तरह- एक तो उस अधेड़ महिला को, जो शशि कपूर की सबसे बड़ी फैन थी और उनसे जीवन में पहली बार मिली थी, फिर भी बिना उनसे कोई बात किए चली गई थी. दूसरे उस महिला के पति को, जो अपनी पत्नी के चक्कर में खुद भी शशि कपूर से अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाया था. तीसरे शख्स स्वयं शशि थे, जो उस अधेड़ महिला का मन तत्काल पढ़ गए थे और जिन्होंने नाटकीय अंदाज में हुए एक सत्य के साक्षात्कार को बहुत गंभीरता से ले लिया था. चौथा व्यक्ति था ह्वील चेयर चलाकर शशि कपूर को नाटक दिखाने लाने वाला विनम्र नौकर और पांचवां मैं, जो कि इस दौरान खुद पृथ्वी थिएटर में मौजूद था और जिसने उसी क्षण अपने आपसे वादा किया था कि कभी न कभी तो वह इस घटना को जस का तस अवश्य ही दर्ज करेगा.  

  

(पृथ्वी थिएटर – मुंबई के जुहू स्थित इस थिएटर की स्थापना अपने रंगकर्मी पिता पृथ्वीराज कपूर की स्मृति में खुद शशि कपूर ने की थी. इस थिएटर में आज भी नियमित रूप से नाटक होते हैं. इसका संचालन अब शशि कपूर की बेटी संजना कपूर करती हैं.)  

 

  

२.

लता मंगेशकर की चोटी 

लता मंगेशकर गा रही थीं और क्या खूब गा रही थीं....

मेरा उनके गाने पर कोई ध्यान नहीं था, उनकी चोटी पर था. चोटी लंबी थी. बड़े जतन से गुंथी हुई. लेकिन यह किसी हीरोइन की लाल परांदेवाली चोटी नहीं थी. परंपरा का अनुसरण करती कैसी तो शालीन छबि सामने रख रही थी यह चोटी. लता मंगेशकर जब कभी गाते-गाते अचानक मुड़कर संगीतकारों की तरफ देखने लगतीं, तो उनकी यह चोटी भी उनका अनुसरण करती.

लता मंगेशकर अपने पुराने गाने गा रही थीं और पुरानी यादों में खो जा रही थीं. उन्हें अपने गीतों के मुखड़े और अंतरे के बीच के अवकाश में पता नहीं क्या-क्या याद आ रहा था. कई बार लगता था कि वह गाते हुए अभिनय भी कर रही हैं. जिस हीरोइन पर उस गाने को फिल्माया गया था, वह बारंबार सामने आ जा रही थी. वह दृश्य सामने आ रहा था, जिस पर हीरोइन को लता जी की आवाज उधार लेने की जरूरत पड़ी थी. कई बार अंतरा गाने से पहले वह युवा साजिंदों को देखने लगतीं और याद करतीं उन साजिंदों को, जिन्होंने आधी शताब्दी पहले इन गानों की रिकॉर्डिंग के समय अपनी जान लगा दी थी और अनोखा परिणाम दिया था. कई बार ऐसा भी महसूस होता कि वह उन गीतकारों को याद कर रही हैं, जिन्होंने इन्हें लिखा. जिनके बोल अपनी धुन खुद-ब-खुद बनाते चले गए और संगीत का साथ मिलते ही मानो मूर्तिमान ही हो गए. वे बहुत विनम्र गीतकार थे और तुलनात्मक रूप से गरीब भी थे. गाते समय लता जी की मुखाकृति देखकर लगता कि संभवत: वह उन गीतकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रही हैं.  

वह एक बड़ा चैरिटी कार्यक्रम था, जिसमें फिल्म इंडस्ट्री के तमाम बड़े गायकों और गायिकाओं के साथ विशेष रूप से लता मंगेशकर को भी आमंत्रित किया गया था. मुझे लगता है कि मीडिया का इतना बड़ा जमावड़ा इसलिए लगा हुआ था कि लता जी भी इस कार्यक्रम में गानेवाली थीं. मीडिया ही क्या, आम संगीतप्रेमियों की भी बड़ी उत्साहजनक उपस्थिति थी. भारी भीड़ थी. जहां हम पत्रकारों को बैठाया गया था, वहां से स्टेज ज्यादा दूर नहीं था. लेकिन गायक या गायिका एक अलग ही कोण से दिखाई दे रहे थे वहां से. मीडियाकर्मियों को थोड़ी दिक्कत महसूस हो रहा थी, लेकिन मुझे तो अपनी यह सीट अपूर्व आनंद दे रही थी.

शुरुआत में बॉलिवुड के नए गायक आए और फिर कई सुपरिचित गायक. सभी ने समां बांधा. लेकिन जब लता मंगेशकर आईं, तो लोग अपनी जगह खड़े हो गए. तालियों की गड़गड़ाहट थी कि थमने का नाम नहीं ले रही थी. इसके बाद शुरू हुआ लता जी का गायन. सब बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे, लेकिन मैं कहीं और ही था. अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं तो उनके गाने सुन ही नहीं रहा हूं. पता नहीं क्यों, मेरा ध्यान तो लता जी की चोटी पर है....

लता जी गा रही थीं. बीच-बीच में वह बड़े कृतज्ञता भाव से साजिंदों की ओर देखती थीं. साजिंदे उन्हें खुद को देखते देख अतिरिक्त उत्साह में आ जाते. वे धन्य महसूस करते कि उन्हें बजाते हुए लता मंगेशकर देख रही हैं- महानतम गायिका लता मंगेशकर. वाकई यह दिन उन साजिंदों के लिए ऐतिहासिक था और मरते दम तक उन्हें याद रहनेवाला था. लता जी को गाते देख नहीं लगता था कि वह पिचहत्तर पार हो चुकी हैं. उनकी आवाज में वही लोच थी और वही खनक महसूस हो रही थी, जो पैंतीस की उम्र में थी. लेकिन मेरा ध्यान तो उनकी चोटी पर था....

मुझे बार-बार लग रहा था कि वह पिचहत्तर पार की उम्रदराज महिला नहीं हैं, बल्कि पंद्रह साल की किशोरी हैं. वह किशोरी, जिसकी मां ने अभी कुछ देर पहले ही उसकी चोटी बनाई है और फिर स्टेज पर भेज दिया है. स्टेज पर वह पूरे आत्मविश्वास से खड़ी है और अपनी लहराती चोटी को महसूस कर रही है. उसे लग रहा है कि लोग गायकी के साथ-साथ उसकी चोटी को भी देख रहे हैं. चोटी खूबसूरत है, इसलिए गायकी भी खूबसूरत है. यही वजह है कि वह गायकी से ज्यादा अपनी चोटी को देखकर मुदित है. वह गजब की प्रस्तुति दे रही है. हौसला बढ़ाती मां भी सामने ही बैठी है....

तभी मुझे लगा कि अब लता जी मां पर अपना कोई प्रसिद्ध गाना सुनाएंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दरअसल उन्हें गिने-चुने गाने ही सुनाने थे और वह अपनी प्रस्तुति दे चुकी थीं. जब फिर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनी, तो मानो मेरी तंद्रा टूटी. मुझे याद आया कि मैं इस आयोजन के लिए खास तौर पर कैमरा लेकर आया था, जो मैंने अभी बैग से निकाला ही नहीं. जब मैंने बैग में कैमरा रखा था, तभी सोचा था कि मैं लता जी की गाते हुए दसियों फोटो निकालूंगा. यह मेरे लिए एक ऐतिहासिक धरोहर होगी. लेकिन मैं भूल गया. मैंने देखा कि स्टेज पर अब भी लता जी मौजूद थीं, लेकिन वह माइक के सामने से हट चुकी थीं. वह विदा लेते हुए बस मुड़ने ही जा रही थीं कि मैंने फौरन अपने बैग से कैमरा निकाला और तेजी से चलाना शुरू कर दिया. क्लिक... क्लिक... क्लिक....

मेरी पहली क्लिक के समय तक लता जी पूरी तरह मुड़ चुकी थीं, यही वजह है कि जो स्नैप मुझे मिला, उसमें लौटती हुई लता जी थीं. उनका चेहरा आंशिक ही दिख रहा था, लेकिन बड़े जतन से गुंथी हुई चोटी अवश्य दिखाई दे रही थी. उस कैमरे से खींचे हुए लता जी के कितने ही फोटो मेरे पास हैं, हर फोटो में उनकी चोटी ही प्रमुखता से दिख रही है. हालांकि यह मेरा नसीब था कि कुल पल बाद ही उनका चेहरा मेरे कैमरे के सामने था. बस थोड़ी देर के लिए. दरअसल वह पोडियम में गीतों की अपनी डायरी भूल गई थीं, उसे लेने ही पलटी थीं. इसी का फायदा उठाते हुए मैंने कुछ और स्नैप ले लिए थे. तो उस दिन के दसियों फोटो मेरे पास हैं, जिन्हें मैं फुर्सत मिलने पर जब-तब देखता रहता हूं. लेकिन आप आश्चर्य करेंगे कि इन तस्वीरों को बारंबार देखने के बावजूद अब मुझे कुछ और याद नहीं आता. सिर्फ लता जी के गाने ही याद आते हैं. एक से एक नायाब गाने. वे गाने, जो लता जी ने उस ढलती शाम उस चैरिटी शो के लिए गाए थे.

 

३.

कपिल शर्मा की हंसी 

कपिल शर्मा के बारे में आपको बताने की जरूरत नहीं. जी हां, वही कपिल शर्मा जिन्होंने कभी स्टैंडअप कॉमेडी करते हुए लोगों का दिल जीता. एक से बढ़कर एक शोज में अपना टेलेंट दिखाया. काफी नाम-दाम कमाया और फिर जल्द ही अपना शो शुरू कर दिया – ‘द कपिल शर्मा शो’. आप सबको पता ही है कि यह शो आज भी बेहद पॉपुलर है. अपने देश में ही नहीं, विदेश में भी इसके खूब दर्शक हैं. हर पीढ़ी के लोग इसे पसंद करते हैं. साथ बैठकर देखते हैं. बॉलीवुड के लोग अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए हर हालत में इस शो में आना चाहते हैं. हीरो हो या हीरोइन, गायक हो या गायिका, प्रोड्यूसर हो या डायरेक्टर, क्रिकेटर हो या फुटबॉलर, सबका प्रिय शो है यह. बौद्धिक लोगों को भले ही यह शो स्तरीय न लगता हो, लेकिन सामान्य दर्शक वर्ग इस शो को मिस नहीं करता है. आप मानें या न मानें, इस शो के जरिए कपिल करोड़ों लोगों का तनाव दूर करते हैं. करोड़ों लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट लाते हैं. उन्हें गुदगुदाते हैं. हंसाते हैं. खुशियां देते हैं. लोगों का तो यहां तक कहना है कि इस शो के एवज में उन्हें मोटी कमाई के अलावा खूब पुण्य भी हासिल होता है.... 

तो इन्हीं कपिल शर्मा के साथ पिछले दिनों एक भीषण दुर्घटना घट गई. इसे भीषण दुर्घटना ही तो कहेंगे कि अचानक ही गायब हो गई थी उनकी नैसर्गिक हंसी. हद है, करोड़ों को हंसाने वाले कपिल शर्मा की खुद की हंसी गायब हो गई!

हुआ यह कि एक दिन कपिल शर्मा अपने शो की शूटिंग करने जा रहे थे. सेट पर हमेशा की तरह हंसी-मजाक का माहौल था. शूटिंग से पहले कई घंटे रिहर्सल हुई, तो उसमें भी सभी कलाकारों ने आपस में खूब ठिठोली की. खूब हंसे. एक से बढ़कर एक पंचलाइनें बोली जा रही थीं. इन लाइनों को लिखनेवाले राइटर्स की टीम भी साथ ही थी, जो कि खुद अपनी लिखी लाइनों का लुत्फ उठा रही थी. कलाकारों की डायलॉग डिलीवरी की टाइमिंग का अपना अलग कमाल था. उन कलाकारों का तो कहना ही क्या था, जो आदमी होते हुए भी औरतों की ड्रेस और भेष में थे. हालांकि बीच-बीच में कुछ अश्लील चुटकुले भी सामने आ जा रहे थे. चूंकि सेट पर कई महिला कलाकार भी मौजूद थीं, इसलिए ये चुटकुले दबी जुबान ही थे. कई बातें सिर्फ इशारों में की जा रही थीं, लेकिन हंसने जैसी क्रिया क्या इशारों में संभव हो सकती है? कुल मिलाकर यही कि सभी खुलकर मस्ती-मजाक कर रहे थे. इन कलाकारों और लेखकों के साथ कपिल शर्मा का रिश्ता काफी करीबी है, इसलिए वह भी खूब हंस रहे थे−हंसा रहे थे. बस, थोड़ी ही देर में शूटिंग शुरू होने को थी. सभी गेस्ट कलाकार भी आ चुके थे. सब ठीक चल रहा था. लेकिन इसी बीच पता नहीं क्या हुआ कि कपिल शर्मा की हंसी गायब हो गई. हंसने को तो वह लगातार हंस रहे थे, परंतु उन्हें लग रहा था कि वह हंसी की सिर्फ मिमिक्री कर रहे हैं. उनकी यह हंसी किसी मंजे हुए अभिनेता वाली है. वह जिस तरह हंस रहे थे, वह दूसरों को हंसी लग सकती थी, लेकिन असल बात उन्हें पता थी कि वह हंसी थी ही नहीं.

क्यों नहीं थी वह हंसी! कहां चली गई थी उनकी हंसी!! कैसे लौटे अब पहले जैसी हंसी!!!

इतना नाम और दाम कमाने के बाद ऐसा पहली बार हो रहा था उनके साथ. ऐसा क्यों हो रहा था, वह समझ नहीं पा रहे थे. लगातार मंथन कर रहे थे. उन्होंने अपने बॉय को बुलाया और उसे अपना बेहद महंगा फोन देते हुए कहा कि वह दस-बारह मिनट अकेले रिहर्सल करेंगे और तब वह उनका विडियो बना ले. बॉय ने ऐसा ही किया. कपिल शर्मा ने बॉय के बनाए इस वीडियो को दसियों बार देखा, लेकिन उन्हें हर बार निराशा ही हाथ लगी. उनकी वह उत्फुल्ल हंसी पूरी तरह मिसिंग थी.

कपिल शर्मा को कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसे में वह क्या करें. कुछ देर वह सिर पकड़कर बैठ गए. उसके बाद अचानक ही उन्होंने मेकअप रूम की ओर दौड़ लगा दी और दीवार में लगे आदमकद शीशे में अपना चेहरा देखने लगे कि कहीं कुछ सुराग तो मिले! आखिर क्यों ऐसी गड़बड़ हो रही है!! वह पसीने-पसीने थे. उन्होंने शीशे के सामने खड़े होकर कितने ही तरह के चेहरे बनाए. गाल फुलाए. नाक टेढ़ी की. होंठ फैलाए. आंख मारी. कई भद्दे और अश्लील इशारे किए. और कुछ नहीं सूझा, तो अंत में खुद अपने ही पेट में गुदगुदी करने लगे. लेकिन उनकी खनकदार हंसी तो जैसे गायब ही हो गई थी.

क्या किया जाए? वह अपनी वेनिटी वेन में चले गए. तेजी से सांस लेने और उतनी तेजी से सांस छोड़ने के बाद वह शवासन में लेट गए. थोड़ी देर के बाद फिर अनुलोम-विलोम, कपालभाति और भ्रामरी आदि पता नहीं क्या-क्या करने लगे. तभी शो का डायरेक्टर उनकी वेन में आ गया. डायरेक्टर की हंसी फूट पड़ी. वह बिंदास हंसने लगा. दरअसल उसने सोचा कि कपिल शर्मा की रिहर्सल चल रही है. लेकिन यह क्या कि कपिल शर्मा बुरी तरह भड़क पड़े- ‘मेरी हंसी गायब हो गई है और तुझे हंसी आ रही है. आउट....’

बेचारे डायरेक्टर को समझ में नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है. ऐसा तो कपिल ने कभी नहीं किया. डायरेक्टर को क्या, किसी की समझ में नहीं आ रहा था. मेहमान कलाकारों के साथ शो की दर्शक दीर्घा में बैठे सैकड़ों जन भी शूटिंग में हो रही देरी से ऊब चुके थे. सब एक-दूसरे से पूछने लगे थे कि आखिर शूटिंग क्यों शुरू नहीं हो रही है? सबके पास सवाल ही थे, जवाब किसी के पास नहीं था. डायरेक्टर एक बार फिर कपिल से मिला. उस पर चैनल का दबाव था कि जल्द शूटिंग शुरू की जाए. इस बार उसने बड़ी संजीदगी से तबियत के बारे में पूछा, तो कपिल ने अपना वह वीडियो चालू कर दिया, जो बॉय ने मोबाइल फोन से बनाया था.

‘सर जी, शानदार. यही तो हमें चाहिए. परफेक्ट.’ डायरेक्टर हैरान था कि रिहर्सल में इतनी अच्छी परफॉरमेंस है, फिर भी कपिल को दिक्कत हो रही है. आखिर उन्हें हो क्या गया है?

डायरेक्टर ने कपिल के जवाब का इंतजार किया. कुछ देर बाद कपिल ने बहुत ठंडे स्वर में कहा, ‘तुम बहुत अच्छे डायरेक्टर हो दोस्त. हमारे शो की लोकप्रियता में तुम्हारा कम योगदान नहीं है. तुम मेरे मन को आसानी से पढ़ भी लेते हो. लेकिन आज बड़ा बारीक मामला है. मेरी बात तुम्हारे सर के ऊपर से जा रही है....’

तो उस दिन शो की शूटिंग नहीं हो सकी. उसके अगले दिन भी नहीं हुई. कई दिन तक नहीं हुई. कुछ हफ्ते बाद ही हुई और बिना किसी रुकावट के हो गई. और आज तक इस शो की शूटिंग बिना किसी टेंशन के चल रही है. आप सब कपिल को हंसते-हंसाते देख रहे हैं. आपको कपिल का अंदाज फिर से लुभा रहा है.... लोग भूल चुके हैं कि कपिल शर्मा के साथ कुछ समय पहले एक बड़ी दिक्कत हो गई थी. वह अपनी हंसी भूल गए थे.... चूंकि तब से लेकर अब तक यह शो अनवरत चल रहा है, तो सबके मन में इस जिज्ञासा का होना लाजिमी है कि आखिर कपिल की वह नैसर्गिक हंसी वापस कैसे लौटी, जिसे खोजने के लिए बहुत ज्यादा बेचैन हो गए थे और शो बंद करने की सोचने लगे थे!

आपको आश्चर्य होगा कि इस भीषण परेशानी का हल उस दिन चुटकियों में निकल आया था. अचानक शूटिंग कैंसिल करने का निर्णय लिया गया, तो सेट पर मौजूद सैकड़ों जनों के साथ ही एक बुजुर्ग मेकअप दादा भी हैरत में पड़ गए थे. उन्होंने डायरेक्टर से सारी बातें ध्यान से सुनी थी और हंस दिए थे. यहां तक कि लोगों की टेंशन की परवाह किए बिना थोड़ी देर तक हंसते रहे थे.

बात यह है कि वह कपिल को लंबे समय से जानते थे. थोड़ी देर हंस लेने के बाद फिर वह वेन में जाकर कपिल से मिले और उन्होंने बड़े स्नेह से कपिल के दोनों गालों पर हाथ फेरा. उन्होंने बड़ी धीर-गंभीर आवाज में जो सलाह दी, कपिल की आंखों में चमक आ गई. इसके बाद यह चमक उनके चेहरे तक पहुंची. कपिल पहले मुस्कराए और फिर हंसने लगे. देर तक हंसे. यह बड़ी मासूम सी हंसी थी- नैसर्गिक हंसी. इसके बाद वह रोने लगे. देर तक रोते रहे और फिर उन्होंने मेकअप दादा को गले लगा लिया.

निश्चित रूप से आपके मन में इस बात की जिज्ञासा होगी कि मेकअप दादा ने आखिर ऐसी क्या सलाह दी थी कि कपिल की हंसी न केवल लौट आई, बल्कि तब से उनके लाफ्टर शो की शूटिंग निर्बाध गति से चल रही है. शो भी सुपरहिट जा रहा है. शानदार टीआरपी है. तो बता दें कि मेकअप दादा ने इतनी सी बात कपिल से कही थी, ‘तुमने अपनी चार महीने की बिटिया को हंसते हुए देखा है? अगर देखा है, तो कितनी बार देखा है? सच-सच बताओ कि कितनी बार हंसते देखा है बिटिया को. तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है ना. तो अब कुछ दिन काम छोड़ो और सिर्फ नन्हीं बिटिया की हंसी का आनंद लो. देखना, तुम्हें अपनी वह हंसी वापस मिल जाएगी, जिसे तुम खोज रहे हो.’

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कवि–पत्रकार हरि मृदुल कहानियां भी लिखते हैं. 2012 में उनकी लिखी कहानी ‘हंगल साहब, जरा हंस दीजिए’ को ‘वर्तमान साहित्य’ की ओर से दिया जानेवाला ‘कमलेश्वर कहानी पुरस्कार’ मिल चुका है.  

 

संप्रति:

‘नवभारत टाइम्स’, मुंबई में सहायक संपादक.

harimridul@gmail.com

ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण : भारत के विस्मृत नगर(१) : तरुण भटनागर

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प्राचीन भारतीय नगरों के बनने, मिटने और खोजने की गाथा ‘भारत के विस्मृत नगर’ की पहली कड़ी ऐरण अर्थात ऐरिकिण पर आधारित है. ‘ऐरण’ मध्य प्रदेश के सागर से लगभग ९० किलोमीटर दूरी पर है. यह भारत के प्राचीनतम और समृद्ध नगरों में से एक था जिसकी खोज़ ब्रिटिश काल में कनिंघम ने की थी.

कथाकार-लेखक तरुण भटनागर ने इस इतिहासपरक आख्यान में बड़े ही रोचक ढंग से इस नगर का वृत्त लिखा है, तथ्य निपुणता से कथा की शैली में बुन दिए गये हैं. जो इतिहास से छूट जाता है उसे साहित्य देख लेता है.

इस स्मृतिहीन समय में यह श्रृंखला अतीत को देखते हुए खुली दृष्टि भी विकसित करती है, और अपने प्राचीनतम धरोहरों के रखरखाव और उसके प्रति लगाव की जरूरत को भी रेखांकित करती है.

प्रस्तुत है.


ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण                             

विस्मृत अवशेषों का देश काल                 
तरुण भटनागर                             

 

पनेनामकरणकेतमाम तथ्योंकेबीच, हमारी दुनिया मेंयहअनसुनासानामही रहा है- ऐरण. यूँयह तमामजगहोंपरलिखाहुआमिलता हैप्राचीनहिन्दूऔरबौद्धग्रंथोंमें, पुरातनसिक्कोंऔरअभिलेखोंमें और इस तरह सेकईजगह, सैकड़ों, हज़ारोंबार उल्लिखित है. विद्वानकनिंघमनेइसशहरकेतीनअलग-अलगनामोंकाहवालादियाथा. होसकताहैऔरभीऐसेहवालेहों, कहींकिसीप्राचीनकिताबमेंयाअबतकढूंढेजासकेकिसीशिलालेखयापुरातनसिक्केमें. भलेआजवक्तकेसाथयहजगहअपरिचितसीहोगयीहो, पर इससे क्या होता है,इसकेहवालेमिलतेहैं, खूबमिलतेहैं. यह बात कि लोगअगरप्राचीनशहरोंकोभूलजाएँ, तबभीउसकेवेहवालेयथावतरहतेहीहैं कुछ इस तरह कि इन हवालों से गुजरो तो ऐरण का एक किस्सा ही बन जाता है.

एकहवालाहैऐरकैणयाइरिकिणनामसेऔरजैसाकिकनिंघमनेअपनीएकरिपोर्टमेंदर्जकियाहैकिऐरणकेवराहअभिलेखमेंइसशहरकायहीनामउसनेपढ़ाथा. इसतरहएकशख़्सजिसकीमातृ भाषाअंग्रेजीहै, पत्थरपरसंस्कृतमेंउकेरेगएनामकोगौरसेपढ़ताहै, हर्फ़दरहर्फ़औरलिखताहै- यहीपढ़ाथा, यही, एकदमयही. दूसरानाम वहबताताहैजो यहाँसेउसे मिला,जो कईकिस्मकेसिक्कोंपरउल्लिखितहै- ऐराकणययाएरकणय. यहनामकईसिक्कोंपरउकेराहुआहै.कहतेहैंइसप्राचीनशहरमेंएकटकसालथीजिसनेभारतमेंसिक्कोंकोढालनेकेतरीकोंमेंनयेपरिवर्तनकियेथे. जोसिक्केढालेजातेउनमेंइसशहरकानामलिखाहोता-ऐराकणययाएरकणय.

तीसराजोनामप्रचलितहै, आजभीऔरजबआपइसजगहजातेहैंतोइसीनामकोपूछतेहुएयहाँतकपहुँचसकतेहैं यानीऐरण. ऐरणकाअर्थजैसाकिकनिंघमलिखतेहैं, नर्मऔरनाज़ुककिस्मकीघासहैजोइसइलाकेमेंबहुतायतमेंरहीहोगी.जिससेइसेइसकानाममिला.एरकायाइरकानामकीमुलायमऔरनर्मघासकेइलाकेमेंफैलाएकशहरयानीऐरण. इसतरह किसीघासकेनामपरएकशहरकानामहोताहैऔरफिलहालऐसाकोईशहरयादनहींआताकिउसकानामघासकेकिसीप्रकारपररखागयाहो. यहनामहज़ारोंसालतकचलतारहा. होसकताहैउनप्राचीनदिनोंमें कोईश्रेष्ठी, कोईकृषक, कोईकर्मकार, कोईपुक्कस,कोईसार्थवाह, कोईनर्तक, कोईस्नातक, कोईसारथीयाकोईभीरोजमर्राकाकामकाजीइसशहरसेजाताहोकाशी, कौशाम्बी, त्रिपुरीयापाटलिपुत्रहीऔरकिसीकेपूछनेपरकिकहाँसेआयेहो,गर्वसेबताताहो- ऐरण.

एकखूबसूरतबातयहभीहैकिदोजगहइसकेदोनामलिखेहैं. येनामएककेबादएककईसालोंकेबादलिखेगएऔरजोरोचकरूपसेएकजैसेहैं. गुप्तशासकसमुद्रगुप्तकेएकअभिलेखमेंऐरिकिणऔरऐसाहीएकनामइरिकिणजोहूणराजातोरमाणके 510 AD केअभिलेखमेंदर्ज़है. बदलते नामों की तमाम पहचानों के बीच भी एक सी ध्वनि सुनाई देती है जो इस शहर के नामकरण का आधार रही होगी और आज जो एक गाँव है इस बात पर अचरज का बायस है कि यह एक ऐसा विशाल और महत्वपूर्ण शहर रहा होगा कभी खासकर दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर पाँचवीं सदी तक.


अठारहवींसदीकेअंतमेंकिसीसमययहाँसेमिलेसिक्कोंमेंसेएकसिक्केपरकनिंघमकेसाथकेलोगोंकोएकनदीकिआकृतिदिखीथी. आजसेडेढ़हज़ारसालसेभीपहलेकेइससिक्केपरउकेरीगयीयहनदीबीनानदीहैजोआजभीइसइलाकेमेंबहतीहै. ऐरणकेभग्नावशेषइसीनदीसेथोड़ी  दूरबिखरेपड़ेहैं. यहाँकेटकसालकेकारीगरोंनेइन  सिक्कोंकोढालतेवक्तइसपरइसनदीकोउकेराथा. पतानहींक्याथाकिइससिक्केपरराजाकेचित्र, कीजगहबीनानदीकाचित्रबना, किसीराजकीयप्रतीककीजगहबहतीनदीकीलकीरेंउकेरीगयींऔरकिसीवैभवशालीनामयाप्रशस्तिकीजगहनदीकीलहरोंकोबनादियागया. 

ऐरणकानामइतिहासकीपरीक्षाओंऔरखासकरनौकरीकेलिएदीजानेवालीप्रतियोगितापरीक्षाओंकेवक्तसे  इसतरहसेयादरहाकिएकदोस्तअक्सरपूछताथाकिवहकौनसीजगहहैजहाँसेकिसीकेस्त्रीकेसतीहोनेकासबसेपुरानासाक्ष्यमिलताहै.हूणराजातोरमाणका ऐरणसेमिलावहीअभिलेखजो 510 AD काहैसतीप्रथाकासबसेपुरानासाक्ष्यमानाजाताहै. उसकेइसप्रश्नपरजोवहदोस्तअक्सरपूछताथा, यहभीलगताहीथा, किकोईजगहइतिहासकीपढ़ाईमेंइसवजहसेजानीजातीहैकिवहाँसेसतीकापहलासाक्ष्यमिलताहै. परयहज्यादतीभीहै, इतिहासकेअध्ययनमेंप्रचलिततथ्योंकीज़्यादती. यद्यपियहसाक्ष्यइसबातकोस्थापितकरतारहाहैकिसतीकीकुप्रथाहमारेयहाँराजपूतोंकेकालसेभीपहलेसेथीऔरइसलिहाज़सेसतीकायहसाक्ष्यमहत्वपूर्णमानाजाताहै.परवेतथ्यजोऐतिहासिकसचहोतेहैं, उनतथ्योंकीभीज्यादतीहोतीहीहै, किएकशहरजोकभीसपनोंकाशहरभीरहाहोगा, होगाहीक्योंकिआमआदमीकेसपनेहीकिसीशहरकोशहरबनातेहैं, अपनीएकबेहदछोटीयाअपमानजनकपहचानमेंसिमटजाताहैऔरउसपरतुर्रायहकिइतिहासबदनामकरनेयाग्लोरिफ़ाईकरनेकेलिएतोनहींहै.

यहकहनेमेंसंकोचनहींकिउसपुरानेदोस्तकेबादएकऔरदोस्तमिलाथापूरेपच्चीससालबादऔरइसतरहऐरणक्याहैमैंजानपायाथा. वहऐरणजोसतीकेसबसेपुरानेसाक्ष्यवालाशहरहोतेहुएभी, किसीदौरकेसपनोंकाशहरथा हीजहाँकेबारेमेंइसीदोस्तसेपच्चीससालबादजानाकिजबपहलीबारइसशहरकाउत्खननहुआथातबइसकेभग्नावशेषोंकेआसपाससे 3000 सेज्यादाप्राचीनसिक्केमिलेथे, सैकड़ोंसालपुरानेसिक्केखासकर 300 BC सेलेकर 500 AD तककेजो इस तरह एक ही जगह से मिले सिक्कों के सबसे बड़े जखीरे में से एक है औरयहभीकि  बादमेंकनिंघमकीरिपोर्ट‘ऑनटूर्सइनबुंदेलखंडएंडमालवा’मेंलिखेएकचैप्टरमेंइसकाविस्तृत अध्ययनअचरजसेभरदेनेवालालगताहै. फ्लीटकेन्यूमैसमैटिक्सकेअध्ययनमेंखासकर 300 BC से 100 AD तककेइनसिक्कोंकाविश्लेषणहैजोइसशहरका, इससतीवालेप्रचलितइकहरेतथ्यसेकहीं ज्यादा विस्तृतएकमुख्तलिफकिस्साबताताहै.

यहसबउससमयकीबातहैजबहूणोंकेहमलेशुरूहुएथे. ऐरणउसवक्तएकबड़ा शहरथा. पर्याप्तसाक्ष्यहैंकियहएकसमृद्धशहररहाहोगा. 18 वींसदीमेंजबकनिंघमऔरउसकेलोगोंनेयहाँकामकियाथाउसवक्तकैमरेनहींहोतेथे. इसतरहइसजगहकेस्कैचतैयारकियेगएथे. उसदोस्तनेमुझेयेसबदिखायाथा. वहकनिंघमकीकिताबऔरउनस्कैचेकेचित्रों को  लेकरआयाथा. मैंउसकेतरतीबसेकढ़ेबालोंऔरसुनहरेनाज़ुकफ्रेमकेचश्मेकोदेखतारहगयाथाऔरवहउनपुरानेसकैचों कोमेरेसामनेरखताजाताथा, जिनकेनीचेकिसीअनामसेचित्रकारकानामलिखाहोता-

'येवहस्तम्भहैजोबुद्धगुप्तकेवक्तमेंमैत्रीगुप्तऔरधन्यविष्णुनेबनायाथा, देखोतबभीइसपरयेदोनोंगरुड़ बनेथेजिनकीपीठजुडीहैऔरजिनकेसिरकेपीछेयहचक्राकारआकृतिबनीहै'.

वहइतनीतल्लीनतासेबताताथा, किखुदहीकिताबऔरचित्रदेखताथाऔरबोलताजाताथा-

'येवोस्तम्भहैजिसपरलिखेअभिलेखसेऔरतोरमाणवालेअभिलेखसेलोगकन्फ्यूजहोजातेहैंक्योंकिदोनोंकावक्तएकहीहै.परजोस्तम्भपरलिखाहैवहभानुगुप्तकाअभिलेखहैजोकिएकबादकागुप्तराजाथाऔरदूसराजोवराहपरहैवहभी 510 AD काहैऔरहूणराजातोरमाणकाअभिलेखहै.'

वहअपनेसाथबौद्धधर्मकीएककिताब'मंजूश्रीमूलकल्प'औरराधाकुमुदमुख़र्जीकी'गुप्तकालीनभारत'लायाथा. मेरीउससेबहसहुईथीकिवहइतनाश्योरकैसेहैकि 510 AD तकतोरमाणनेयहाँकेगुप्तशासकभानुगुप्तकोपरास्तकरदियाथा, शायदयहबातसहीनहींजोवहबतातारहताहै.अपनीइसबातकेसबूतकेरूपमेंउसकेपासयेचारचीजेंथीं- 1888 कातोरमाणऔरभानुगुप्तकेअभिलेखोंकाट्रांसक्रिप्ट, कनिंघमकीकिताब'रिपोर्टऑफ़टूर्सइनबुंदेलखंडएंडमालवाइन 1874-75'केकुछहिस्से, राधाकुमुदमुखर्जीकीकिताब'गुप्तकालीनभारत'औरबौद्धधर्मग्रन्थ'मंजूश्रीमूलकल्प'.

मैंनेउसेबड़ेतरतीबसेमंजुश्रीमूलकल्पकेपन्नोंकोपलटतेदेखाथा.इतनीनफ़ासतसेमानोजराजोरसेपलटेतोपन्नामुड़करटूटजाएजैसाकिबहुतपुरानेपन्नोंकेसाथहोताहै. यद्यपिउसकिताबकेपन्नेइतनेनाजुकथे, शायदइसलिएवहइतनीनफ़ासतसेउसकेपन्नेपलटताथाताकिवेसलामतरहेंऔरपुरानेहोकरभी बरसोंतकउसकेपासटिकेरहें. मंजूश्रीमूलकल्पकीउसकिताबपरउसकेअनुवादककानामलिखाथा- राहुलसांकृत्यायन.यहनामदेखनेकेबादमैंअपनीकुर्सीसेउठकरउसकेपासचलाआयाथाऔरकिताबकेएकदमपासअपनाचेहरालाकरउसेटकटकातासादेखनेलगा.मेरीयहहरकतउसेठीकलगी- 'तुमबैठो. मैंतुम्हेंबतातोरहाहूँ.’- उसनेमेरीआँखोंकीओरदेखकरकहा.

'येराहुलसांकृत्यायनकाअनुवादहै.'-मैंनेथोड़ाअचरजसेपूछा.'तुमतोऐसाप्रदर्शितकररहेहोमानोइसलेखककोजानतेहो.मैंनेकहामैंबतातोरहाहूँ.'- उसनेथोड़ातल्ख़ीसेकहाथा. मैंनेदेखाकिकनिंघमकेदौरकेनक्शोंऔरकुछट्रांस्क्रिप्टसकोउसनेएकपन्नीमेंसंभालकररखाहुआथा. शायद इसलिए के उसके बिखरते पन्ने सलामत रहें, मंजुश्रीमूलकल्पकाएकपृष्ठउसनेबड़ीहिफाज़तसेखोललियाथा. मुझेपहलीबारलगाकिभलेआपने  राहुल  सांकृत्यायनकोपढ़ाहोऔरउनकीकिसीअनुदितकिताबकोदेखअचरजमेंपडभीजाएंतबभीऐसेदोस्तकीबातगौरसेसुनलेनीचाहिएजोकिसीपुरानीकिताबकेपन्नोंकोबड़ीहिफाज़तसेपलटताहै, उसकेकिसीहिस्सेकेबारेमेंइसतरहसेबतानेकोआतुरहोताहै  मानोबतारहाहो  खुदसेहीबातकररहाहो.

तोइसतरहमैंनेऐरणकोपहलीबारजानाथा.


फ्लीटऔरकनिंघम केप्राम्भिकअध्ययनयेबतातेहैंकियहाँसेमिलेसिक्केजिन्हें कनिंघमनेपंचमार्क, ड्राईस्ट्रककास्टऔरइन्स्क्राइब्डकीश्रेणीमेंबाँटाहै, यहाँस्थितकिसीविशालमिंटयानेसिक्केगढ़नेकेकारखानेमेंबनेहोंगे. इनसिक्कोंपरजे.सी. ब्राउनकेइसनिष्कर्षमेंकाफीतर्कहैकिभारतमेंपुरानेपंचमार्कसिक्कोंकीजगहडाईस्ट्रकसिक्केबनानेकाकामऐरणमेंहीशुरूहुआथा. डाईस्ट्रकसिक्केधातुकी  दोपरतोंकोएकदूसरेपरपीटकरतैयारकियेजातेथेऔरपुरानेपंचमार्कसिक्कोंसेआगेकीतकनीककेथे. ईसापूर्वसातवींसदीसेलेकरकमसेकम 300 ईस्वीतककेजोसिक्केइसस्थानसेमिलेहैंउनकाप्रसारउज्जैन, मालवाऔरत्रिपुरीतकथा. यानीसिक्कोंकीसप्लाईकेकेंद्रकेरूपमेंयहशहरथाहीजहाँयेसिक्केढालेजातेथेऔरइनकीआपूर्तिकीजातीथी. तमिलनाडुकेसुलूरजैसेदूरस्थइलाकेकेउत्खनन मेंऐरणकेयेसिक्केमिलेहैं. कनिंघमकायहमाननारहा हैकिऐरण सेमिलेप्राचीनताम्बेकेसिक्केभारतमेंमिलेसबसेउत्तमगुणवत्ताकेसिक्केहैं. उनकेअनुसारप्राचीनभारतकेसबसेबड़ेऔरसबसेछोटेआकारकेसिक्केभीयहींसेमिलेहैं. कुछसिक्कोंमेंचंद्राकारआकृतिबनीहै. कनिंघमके अनुसारयहचंद्राकारआकृतिऐरणशहरकाप्रतीकहै. यहआकृतिऐरणशहरकेविन्यासकोदिखातीहै. ऐरणशहरचंद्राकारआकारकाथाऔरइसकेइसीआकारकोदर्शाते चंद्राकारआकृतिसिक्कोंमेंअंकितकीगयी. यह बात हमेशा रोचक लगी कि एक शहर का नाम दूर–दूर तक फैली घास के नाम पर होता है और जो चंद्राकार आकृति का है और जिसके सिक्कों में उस इलाके की नदी को उकेरा जाता है.

हूणोंमेंसबसेपहलेहमलाकरनेवालेहूणकिराडाइटहूणबतायेजातेहैं. किडाराइटहूणवेहूणथेजिन्होंनेसबसेपहलेउत्तरपश्चिमभारतकेइलाकोंपरकब्ज़ाकियाथाऔरबादमेंगुप्तसाम्राज्यकेपश्चिमीइलाकोंपर.स्कंदगुप्तकेवक्तकाभितारीअभिलेखइनकेसाथएकभयानकयुद्धकाहवालादेताहै.बादमेंइन्हींहूणोंकीएकशाखाजिसेएलकॉनहूणोंकेनामसेजानाजाताहैउनकेहमलेहुएजिसमेंपुरानेहमलावरकिडाराइटहूणोंकीशिकस्तहुई.इन्हीं एलकॉनहूणोंमेंएकराजाहुआतोरमाण. ऐरणकेदोनोंअभिलेखोंयानेभानुगुप्तऔरवराहवालेअभिलेखबौद्धग्रन्थ'मंजूश्रीमूलकल्प'तथा राधाकुमुदमुख़र्जीऔरअन्यइतिहासकारोंकेनिष्कर्षोंकेआधारपरमानाजासकताहैकिऐरणकाराजाभानुगुप्तइसीतोरमाणसेजंगमेंहारागयाथाऔरइसतरहपश्चिमीगुप्तसाम्राज्यकायहहिस्साजिसमेंआजकामालवाका क्षेत्र शामिलहै, हूणोंकेकब्जेमेंचलागया. परयहाँएकदिक्कतयहहैकिइनदोनोंअभिलेखोंकीदोव्याख्याएंहैं. एक 1888 कीजोकनिंघमकीटीमनेकीथीऔरदूसरी 1981 मेंआर्किओलॉजिकलसर्वेऑफ़इंडियाकीऔरदोनोंमेंअंतरहै.इसकीवजहयहहैकिप्राचीनकालमेंअभिलेखप्रशस्तियाअन्यजानकारीकोकाव्यात्मकऔरप्रतीकात्मकरूपमेंदर्शितकरतेथेजिसकीअलग-अलगव्याख्याएंनिकालीजासकतीथीं.मैंउसदोस्तकोसुनताथाजोमंजुश्रीमूलकल्पकेआधारपरयहबातकहताथाकितोरमाणनेभानुगुप्तकोपरास्तकियाथाऔरऐरणपरकब्ज़ाकरलियाथा.राधाकुमुदमुखर्जीकीकिताबउसपरथीही.

(एरण का विष्णु मंदिर मण्डप)


विष्णुऔरनरसिंहकेखूबसूरतमंदिरोंकेभग्नावशेषयहाँहैंऔरजैसाकिकनिंघमकाएकआकलनबताताहैएकविशिष्टनक्षत्रकीवजहसेइन्हेंसामान्यसेअलगकोणपरनिर्मितकियागयाथा. एकमंदिरजिसकेभग्नावशेषयहाँपरहैंहनुमानमंदिरकेनामसेजानाजाताहै.इसकाकालसातवींसदीकाबतायाजाताहै, परकनिंघमकीकिताबमेंइसकेबारेमेंज्यादाजानकारीनहींमिली.यहाँकाएकशानदारस्थलएकस्तम्भहैजो 484 या 485 AD काबतायागयाहैऔरबहुतऊंचाहैपत्थरकायहविशालस्तम्भसंभवतःबुद्ध गुप्तकाहै.इसकेऊपरगरुड़कीदोमूर्तियाँहैंजोएकदूसरेकीओरपीठकीहुईहैंऔरजिनकेहाथोंमेंसाँपहैं.येआदमकदमूर्तियाँजोस्तम्भकेशीर्षपरहैं 5 फ़ीटतकऊँचीहैं.यहपूराक्षेत्रबेहदखूबसूरतऔरहमारेदौरकेप्राचीनतमवैष्णवमंदिरोंकाक्षेत्रहैजोआजभीकमालकादिखताहै. यहाँकाभव्यतममंदिरवराहमंदिरहैजोइन्हींमंदिरोंकेसमूहोंमेंसेएकहै.येमंदिर  चौकोरआयोजनवालेहैंऔरइनमेंसेकईजैसाकिकनिंघमबतातेहैंचौरसछतवालेभीहैंजैसाकीसबसेप्राचीनगुप्तकालकेमंदिरोंमेंदेखनेकोमिलताहै.

(एरण स्थित वराह की विशालकाय प्रतिमा) 


वराहमंदिरकेस्तम्भोंकाअलंकरणबेहदशानदारहै. संभवतःराजाधन्यविष्णुकेबनायेइसमंदिरकेइनस्तम्भोंमेंसभीओरअलंकरणहैं हीजोपत्थरमेंकाफीगहराईलिएहुएहैऔरचक्र, कमल, सिंहघण्टीआदिकेआकारोंसेबनायेगएबेलबूटोंऔरकंगूरोंसेभरेहुए हैं.स्तम्भपरअलंकरणोंमेंबेहदसटीकज्यामितीयसममितताऔरसाम्यहैतथाइनकेसजावटीनमूनेएकदमअलगहैंजोउसदौरमेंविकसितस्थापत्यसेहमेंरूबरूकरातेहैं.कनिंघमनेइनस्तम्भोंकाएकरेखाचित्रभीतैयारकरवायाथा, जोउसकीरिपोर्टकाहिस्साहै. वराहकीशानदारमूर्तीपरकैथरीनबेकरकाएकआलेखहै'नॉटयोरएवरेजबोअर : कोलोसलवराहएटऐरण,एनआईकॉनोग्राफिकइनोवेशन'जोइसवराहकीशानदारमूर्ति केबारेमेंहै.

उन्होंनेइसेमूर्ति विद्याकानवाचारकहाहै. वेइसकेऊपरकियेगए जटिलअलंकरणोंइसकेदाएँटस्कसेलटकतीदेवीकीमूर्ति, इसपरलिखेअभिलेखऔरअन्यबारीकियोंकीवजहसेइसेप्रतीकात्मकआख्यानकीमूर्तिभीकहतीहैं. उन्होंनेयहतर्कभीकियाहैकिइसकेचारोंओरबनामंदिरजैसाकिस्तम्भोंऔरमंडपकेअवशेषोंसेपताचलताहैठीकवैसाहीरहाहोगाजैसाकिखजुराहोकेवराहमंदिरमेंदेखनेकोमिलताहै.तमामअनुसंधानकर्ताओंद्वाराप्रस्तुतइसमंदिरकेसंभावितवास्तुऔररेखांकनोंकेबीचइसमंदिरकाएकविस्तृतविन्यासउन्होंनेप्रस्तुतकियाहैजोपूर्वमेंऔरखासकरकनिंघमद्वाराप्रस्तावितचौकोरविन्याससेकाफीअलगहै. इसकेपक्षमेंकुछअत्यंतरोचकऔरमहत्वपूर्णसाक्ष्यभीउन्होंनेप्रस्तुतकियेहैं.

कैथरीनबेकरकायहआलेखइसपुरातनतमवराहकीइस मूर्तिकीव्याख्याप्रस्तुतकरताहै. वराहकेदाहिनेदन्तसेधरतीमाताकोदिखायागयाहैजिनकाकेशविन्यासऔररत्नजड़ितपगड़ीबेहदखूबसूरतहै.वराहकेकानोंकेपासदैवीयवाद्ययन्त्रवादकोंकाअंकनहै.पीठपरएकतरफसाधुओंकाएकसमूहउत्कीर्णितहैजोएकहाथमेंकमंडललिएहैंऔरदूसरेमेंयोग मुद्राकाप्रदर्शनकर रहे हैं. नीचेकाएकहिस्साजिसपरसेपत्थरकीचिप्पीउखड़गयीहैबहुतसंभवहैउसपरविष्णुकाकोईअंकनरहाहोविशेषतःउनकेउनअवतारोंमेंसेकोईजिसमेंउन्हेंमनुष्यकीदेहसेअलगकिसीदैवीयजीवके रूपमेंदिखायागयाहो. बेकरनेयहनिष्कर्षकुछअन्यवराहकीमूर्तियोंसेइसकीतुलनाकरनिकालाहै. इसतरहइनचारदैवीयमानवीयआकृतियोंकेअलावाएकआकृतिवराहकीजीभपरअंकितहै. इसवराहकीजीभजरासीबाहरकोनिकलीहैऔरइसपरबनीआकृतिकोबेकरकेइसलेखमेंसरस्वतीबतायागयाहै,जीव्हापरसरस्वतीकावासहोनेकीहिन्दूमान्यताकेआधारपर.

बेकरकामाननाहैकिवाराहकेगलेमेंउत्कीर्णितमालाजिसमेंअट्ठाईसफूलनुमाज्यामितीयआकृतियाँउत्कीर्णितहैंवे अट्ठाईसनक्षत्रोंकोदर्शातीहैं.यद्यपिइसकाकोईसुस्पष्टआधारउनकेइसलेखमेंनहींदिखताहैपरप्रत्येकनक्षत्रकीखगोलीयस्थितिऔरउसमेंपुरुषऔरस्त्रीतत्वोंकेसमावेशनपरउन्होंनेविस्तारसेलिखाहै.

वराहकीछातीपरअंकितहूणराजातोरमाणके 510 AD केअभिलेखकीबेकरकीव्याख्याइसपरप्रचलितऔरमान्यऐतिहासिकतथ्योंजैसीहीहै.मालवाकेपूर्वीक्षेत्रोंपरहूणोंकेकब्जेऔरगुप्तराजाकेपराजयकोइसअभिलेखकेमाध्यमसेउन्होंने भी बतायाहै.सतीकेबारेमेंभीवहीहैजोपहलेउल्लिखितकियागया.यद्यपिवराहकेशिल्पऔरऐतिहासिकताकीकई-कईजगहभावुकऔरअलंकृतभाषामेंव्याख्याकीगयीहै, परफिरभीइसअद्भुतमूर्तिकोजाननेसमझनेकेलिएयहएकअहमलेखहै

हूणोंकेहमलोंकोलेकरउसदोस्तकेपासबहुतकुछथा, जैसेकौशाम्बीकोनष्टकियेजानेकेप्रमाणजिनमेंकौशाम्बीमेंआर्किओलॉजीकलसर्वेऑफ़इंडियाकीएकपुरातात्विकखोजकाज़िक्रभीथाजिसमेंलगभगपाँचसेंटीमीटरकीराखकेअवशेषोंकेनीचेदबाएकविशालप्रसादमिलताहै.एकबेहदअविश्वसनीयरिपोर्टपरउसकाएकमजबूततर्कपाटलिपुत्रकोलेकरभीथा, किहूणोंकेहमलेकेबादमगधकावहसबसेआलीशानशहरएकगाँवमेंतबदीलहोगयाथा.कुछसाक्ष्यइसबातकेभीथेकिअंततःउज्जयिनी, विदिशाऔरमथुराजैसेशहरोंकाविनाशभीइनहमलोंमेंहुआही.ऐरणपरऐसाकुछभीकहींनहींदीखताइसमजबूतप्रमाणकेबादभीकिहूणोंनेयहाँकेगुप्तराजाकोपरास्तकिया. सिक्कोंकेविशालजख़ीरेकेअलावा ऐरण इसजगहसेमिले  सिद्धवरमन, समुद्रगुप्त, बुद्धगुप्त, तोरमाणऔरभानुगुप्तकेअभिलेखोंकेलिएभीइतिहासमेंअपनीजगहरखताहै, यद्यपिअपनीअस्पष्टताऔरइसवजहसेबार-बारइनअभिलेखोंकेट्रांसक्रिप्टकेकारणआजभीइनपरकाफीकामकियाजानाहै. 1881 केकनिंघमकेट्रांसक्रिप्शनऔर 1988 का ASI केट्रांसक्रिप्शनकेबादएकलम्बावक्तबीताहैऔरइसकालकोसमझनेकीऐतिहासिकचेतनाका काफीविकासभीहुआहै.कनिंघमनेउसवक्तकिसीस्थानीयव्यक्तिकेघरपरविष्णुसेजुडीएकप्राचीनमूर्तिदेखीथी, जिसकाजिक्रकियाहै. होसकताहैवहअबभीवहाँहो.संरक्षणऔरखोजकुछऔरचीजोंकोसामनेलातीहीहै.

एकअद्भुतबातयहभीहैकिउत्खनननेयहबतायाकियहजगहकहींज्यादापुरानीरहीहै.यहाँसेचैलियोलिथिककालकेऔजारमिलेहैं. जोइसकीपुरातनताकोकमसेकमएकहज़ारआठसौसाल ईसा पूर्व तक लेजातेहैं. मध्यप्रदेशकेसागरजिलेमेंबीनाकेनिकटयहस्थानआजभीहैही. नरसिंह मंदिर, गरुड़ स्तम्भ, वराह मंदिर, विष्णु मंदिर आदि के साथ-साथ तमाम प्राचीन इमारतों के भग्नावशेष यहाँ हैं ही और एक शहर की प्राचीर जिसे कनिंघम ने तसदीक किया उसके बाहर भी हैं.

लगता है किसी दौर में इस शहर के चर्चे रहे होंगे ही, खासकर इसलिए भी कि जिस तरह से इसका उल्लेख आता है और ईसा से एक हज़ार साल से भी पहले से इसका एक विकास क्रम मिलता है. हो सकता है इसके पतन का भी कोई वाकया हो जो अब भी अस्पष्ट है. एक बेहद जानकार शहर का नाम अगर सुना जाना बंद हो जाए तो इसके कुछ मायने हैं. नर्म मुलायम घास के समंदर यहाँ अब भी दिखते हैं, बारिश के बाद और बहती है बीना नदी भी, मानो इतने प्राचीन समय के बाद भी कुछ है जो यथावत है, बहुत कम जाने सुने गए किसी किस्से कि तरह से. मानो इस बात से कोई ख़ास फर्क न पड़ता हो कि कोई अब इस तरफ नहीं आता. खुले आकाश के नीचे पुराने वक्त के ऐरण के टुकड़े सांस लेते रहते हैं. जैसे कोई मणिक होता है, जो अपनी दुनिया में होता है, बेशकीमती, भले अभी उसे ठीक तरह से कोई जान न पाया हो और उसे बिना निहारे आगे चला जाता हो.

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तरुण भटनागर का जन्म 24सितम्बर को रामपुर, छतीसगढ़ में हुआ. अब तक उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं- ‘गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’,‘भूगोल के दरवाज़े पर'तथा ‘जंगल में दर्पण’. पहला उपन्यास 'लौटती नहीं जो हँसी'वर्ष 2014में प्रकाशित. दूसरा उपन्यास ‘राजा,जंगल और काला चाँद’ वर्ष २०१९ में प्रकाशित. ‘बेदावा'तीसरा उपन्यास है. कुछ रचनाएँ मराठी, उड़िया, अंग्रेजी और तेलगू में अनूदित हो चुकी हैं. कई कहानियों व कविताओं का हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद.

कहानी-संग्रह "गुलमेंहदी की झाड़ियों'को युवा रचनाशीलता का 'वागीश्वरी पुरस्कार' 2009; कहानी 'मैंगोलाइट'जो बाद में कुछ संशोधन के साथ ‘भूगोल के दरवाजे पर'शीर्षक से आई थी, ‘शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार'से पुरस्कृत. उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी'को 2014का 'स्पंदन कृति सम्मान’ ‘वनमाली युवा कथा सम्मान' 2019मध्य भारतीय हिन्दी साहित्य सभा का हिन्दी सेवा सम्मान 2015आदि.

वर्तमान में भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत. 

tarun.bhatnagar1996@gmail.com    

हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई का हिंदी कथा रूपांतर: माधव हाड़ा

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(18th-century painting of Padmini.)


महाकवि जायसी कृत ‘पदमावत’ के ४८ वर्ष बाद 1588 ईस्वी में हेमरतन ने ‘गोरा बादल पदमिणी चउपई’की रचना राजस्थानी भाषा में की थी. लगभग ६१६ छंदों और दस खंडों की इस कृति का हिंदी रूपान्तर मध्यकालीन साहित्य के गहरे अध्येता और इधर मीरा पर हिंदी और उसके अंग्रेजी अनुवाद (Meera vs Meera) से चर्चा में रहे प्रो. माधव माधव हाड़ा  ने किया है.

इसका महत्व निर्विवाद है, और यह महत्वपूर्ण कार्य है. माधव हाड़ा ने प्रभावशाली और प्रामाणिक अनुवाद किया है.

जायसी की पदमावत और हेमरतन की इस कृति को सामने रखकर जहाँ हम दोनों की विशेषताओं को समझ सकते हैं वहीं उस समय की शासकीय मनोवृत्ति में स्त्री और शौर्य की केन्द्रीय उपस्थिति के विभिन्न आयामों पर भी रौशनी पड़ती दिखती है.

जायसी की पदमावत में जो महाकाव्यात्मक सौन्दर्य, दार्शनिक गहराई और ट्रेजिक अंत है वह उन्हें महाकवि बनाता है, और अपने समय में विशिष्ट भी. हेमरतन के इस ‘केळवस्यू साची कथा’ को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है.  

‘गोरा बादल पदमिणी चउपई’ की अपनी कुछ अलग विशेषताएं हैं. अध्ययन और विवेचन का यह अब एक नया क्षेत्र खुल रहा है.


 

केळवस्यू साची कथा
(हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपईका हिंदी कथा रूपांतर
माधव हाड़ा  


(पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर एकाग्र मलिक मुहम्मद जायसीकृत सूफ़ी प्रेमाख्यान पद्मावतकी चर्चा तो अकसर होती है, लेकिन इस प्रकरण पर निर्भर देशज एतिहासिक कथा-काव्यों की ओर अभी कम लोगों का ध्यान गया है. जैन यति हेमरतन की गोरा बादल पदमिणी चउपईपद्मिनी विषयक देशज रचनाओं में सबसे प्राचीन है. इसकी रचना जायसी की पद्मावतकी (1540 ई.) के 48वर्ष बाद 1588 ई. (वि.सं.1645) में हुई, लेकिन यह पद्मावतसे संबंधित या उससे प्रभावित बिल्कुल नहीं है. हेमरतन की इस रचना के कई परिवर्धित और परिवर्तित संस्करण और प्रतियाँ मिलती हैं. चउपईकी राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर में सबसे प्राचीन प्रति है, जिसमें रचनाकाल 1588ई. (वि.सं.1645) और लिपिकाल 1589ई. (वि.सं.1646) दिया गया है. कीर्तिशेष मुनि जिनविजय के संकलन में इसकी 1604ई. और 1672ई. की दो प्रतियाँ हैं. 1728ई. में ढाका में लिपिबद्ध इसकी एक प्रति वर्धमान ज्ञान मंदिर, उदयपुर में है. इसी तरह गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद, भंडारकर इंस्टीट्यूट पूना, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी औरमाणिक्य ग्रंथ भंडार, भींडर (उदयपुर) में भी इसकी प्रतियाँ हैं. सभी प्रतियों को देखकर लगता है कि इसके मूल छंदों की संख्या 616होनी चाहिए. सभी प्रतियों में क्षेपकों के अलावा सुभाषित, उक्तियाँऔरअन्य कवियों की रचनाएँ भी शामिल हैं, लेकिन प्रतिष्ठान की प्रति में ये सबसे कम हैं. इसी तरह अन्य प्रतियों की तुलना में पाठांतर भी इसी प्रति में सबसे कम है. इसकी भाषा पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी की मध्यकालीन राजस्थानी है, जिस पर राजस्थान के गोड़वाड़ क्षेत्र की स्थानीय बोली की कुछ प्रवृत्तियों का प्रभाव है. यह रचना दस खंडों में विभक्त है.) 

(चित्तौड़ का क़िला) 
 

1.

चारों ओर फैला हुआ चित्रकूट पर्वत पृथ्वी के नेत्र की तरह विशालकाय था. उस पर देवता, मनुष्य और किन्नर निवास करते थे. राम ने वहाँ अपना वनवास किया था. पर्वत के ऊपर ऊँचा और अत्यंत कठिन दुर्ग था. दुर्ग में अत्यंत सुंदर अनेक महल थे, जिनमें लोग विवेक पूर्वक निवास करते थे. त्याग और भोग सहित सभी लाभ उनको सुलभ थे. देवता भी चाहते थे कि वे इस दुर्ग में रहें. ऐसे दुर्ग में गहलोत राजा रत्नसेन शासन करता था. वह पराक्रमी और प्रतापी था. उसकी पटरानी प्रभावती रूप में रंभा और शील में सती थी. इंद्र की इंद्राणी भी रत्नसेन की पटरानी के समान नहीं थी. 

अप्सरा रंभा की तरह उसकी अन्य कई स्त्रियाँ भी थीं.पटरानी ने अपने पति को अपने गुणों पर मोहित कर लिया था. वह पाक कला में निपुण थी और राजा उस पर मुग्ध था. दोनों का एक-दूसरे से पर बहुत प्रेम था. दोनों एक-दूसरे से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते थे. प्रभावती के वीरभाण नाम का प्रतापी और वीर पुत्र था. राजा रत्नसेन अपनी संपूर्ण सेना के साथ राज्य करता था और उसने अपने शत्रुओं का नाश कर दिया था. योद्धा उससे स्नेह करते थे और कोई उसके साथ छल नहीं करता था. देवराज इंद्र जिनकी साख भरे,उसके यहाँ ऐसे एक लाख योद्धा थे.

एक दिन भोजन के समय दासी ने आकर राजा से प्रार्थना की कि-

“स्वामी! भोजन करें.बहुत विलंब हो गया और भोजन तैयार है.”

राजा आकर आसन पर बैठा. सोने के थाल और कटोरों में,सोने के पाट पर पटरानी ने राजा को भोजन परोसा. राजा भोजन करता जाता और बीच-बीच में बातें भी करता जाता था. रानी केले के पत्ते से उसको हवा कर रही थी. भोजन करते हुए राजा ने प्रभावती से कहा कि-

“आज भोजन अच्छा नहीं लग रहा है. यह हमेशा की तरह स्वादिष्ट नहीं है. सभी पकवान हैं, लेकिन स्वादहीन हैं. भोजन स्वादिष्ट हो, इसके लिए कोई युक्ति करो.”

रानी को बुरा लगा. उसने अभिमान पूर्वक कहा कि

“मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता है, तो आप कोई नयी स्त्री ले आइए. किसी पद्मिनी से विवाह करिए,जो आपको अच्छा भोजन कराएगी. मुझे तो भोजन कराना आता नहीं है.

मान में रानी विनय भूल गई. राजा भोजन छोड़कर तत्काल उठ खड़ा हुआ. उसने कहा कि-

“अब मैं पद्मिनी स्त्री लाकर उसके हाथ से ही भोजन करूँगा.”

उसने खड़े होकर मूँछ मरोड़ी और घर से बाहर निकल गया. उसने खवास (निजी सेवक) को साथ लिया और ख़जाना साथ लेकर दोनों चुपचाप चल पड़े. किसी को इसका पता नहीं लगा. राजा ने प्रण किया कि-

पद्मिनी के बिना घर नहीं आऊँगा, भले ही पहाड़ और गुफाओं में रहना पड़े. पद्मिनी के बिना शय्या पर नहीं सोऊँगा और न ही प्रेम करूँगा.

यह प्रण करके दोनों बीस-तीस योजन चले और फिर विचार किया कि जैसे ऊसर खेत में बीज नहीं लगता, बिना झगड़े के शांति नहीं होतीऔर बिना बादल के बरसात नहीं होती वैसे ही सिंघल जाने के लिए वहाँ का मार्ग तो पता होना चाहिए. राजा ने सेवक से कहा कि-

“पद्मिनी के लिए मैं पृथ्वी भी लाँघूँगा. पद्मिनी जहाँ होगी,मैं वहाँ जाऊँगा. वह प्रसिद्ध जगह मुझे बताओ.”

सेवक ने कहा कि-

“हमारे पास ख़र्चा वगैरह सब है, लेकिन जब तक मार्ग का पता नहीं लगे, तब तक उलझन है.”

राजा एक वृक्ष के नीचे बैठ गया, तभी वहाँ एक पथिक आया. वह भूखा, प्यासा और बहुत थका हुआ था. राजा ने उसका उपचार किया. उसे पानी पिलाया और खाना खिलाया. उसने सचेत होकर राजा से कहा कि-

“आपने मुझ पर उपकार कर मुझे दूसरा जन्म दिया है. मेरे योग्य कोई काम हो, तो बताना. मैं सेवक और आप स्वामी हैं.”

राजा ने उससे पूछा कि-

“तुमने बहुत देश-विदेश देखे हैं. पृथ्वी भ्रमण करते हुए क्या तुमने किसी पद्मिनी के संबंध में सुना है?” 

तब उसने उत्तर दिया कि-

मेरे स्वामी!सिंघल द्वीप में बहुत पद्मिनी स्त्रियाँ हैं. सिंघल द्वीप दक्षिण में है और बीच में समुद्र की बाधा के कारण कोई वहाँ जा नहीं पाता है.”

यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और सिंघल द्वीप की दिशा में चल पड़ा. कई नगरों और गाँवों का लाँघता हुआ वह समुद्र के समीप आ गया. सामने समुद्र लहरा रहा था. मनुष्य तो क्या, हवा भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकती थी. रत्नसेन ने सोचा कि-

“भगवान जगदीश ने मेरे साथ कैसा किया?

राजा के चित्त में पद्मिनी थी, लेकिन समुद्र की लहरें बहुत भयावह थीं. समुद्र के पास घूमते हुए राजा की भेंट एक उदास योगी से हुई. राजा ने उस सिद्ध योगी का प्रणाम किया और कहा कि-

“मुझे पद्मिनी किस तरह मिलेगी. मुझे दुःख देखते हुए बहुत दिन हो गए हैं. आप मुझ पर दया कीजिए.”

योगी ने राजा रत्नसेन को पहचान लिया. उसने कहा कि-

“तुम मेरे पास आ गए हो, तुम्हारा भला होगा.”

योगी ने आकाश में उड़ने की अपनी विद्या का स्मरण किया और दोनों को अपनी बाँहों में भरकर सिंघल द्वीप पहुँचा दिया. नगर के समीप पहुँचकर योगी अदृश्य हो गया. राजा प्रसन्न होकर द्वीप देखने लगा. नगर में बहुत कोलाहल था. राजा को यहीं एक व्यापारी से ज्ञात हुआ कि सिंघल द्वीप के राजा की महिमा और गुण बहुत है. उसकी बहिन प्रत्यक्ष पद्मिनी है, और उसकी तीनों लोक में कोई उपमा नहीं है. वह कहती है कि-

“जो कोई मेरे भाई पर जीत हासिल करेगा,मैं उसी के कंठ में वरमाला डालूँगी.”

सिंघल द्वीप के राजा का प्रण है कि जो कोई उसे युद्ध या बात या शतरंज में पराजित करेगा उसे वह आधा राज्य और ख़जाना देगा और उसका परिणय अपनी पद्मिनी बहिन से करवाएगा. राजा रत्नसेन को शतरंज का खेल जँचा. यह बात सिंघल द्वीप के राजा के पास पहुँची, तो वह मन में प्रसन्न हुआ और रत्नसेन को बुलाकर आसन दिया. उसने रत्नसेन का बहुत स्वागत-सत्कार किया. दोनों खेलने के लिए बैठे हुए ऐसे लगते थे,जैसे सूर्य और चंद्रमा हों. उनके पास में कोमल और कमलमुखी कामिनी पद्मिनी बैठी. 

रत्नसेन के शतरंज खेलने के दौरान ही पद्मिनी का मन उस पर आने लगा. वह कामना करने लगी कि रत्नसेन जीत जाए. सिंघलपति को आशंका हुई कि कामदेव के रूप-सौंदर्य और सुंदर वेषवाला यह व्यक्ति ज़रूर कोई शक्तिशाली राजा है. खेलते हुए सिंघलपति हार गया. पद्मिनी ने वरमाला रत्नसेन के कंठ में डाल दी. सिंघलपति ने रत्नसेन को अपना आधा राज्य और भंडार दे दिया. पद्मिनी के पास रूप की भंडार एक हज़ार दासियों के रहने का विधान था. 

पद्मिनी पर भ्रमर गुंजार करते थे. वे पद्मिनी की सुगंध पर मुग्ध थे. पद्मिनी रूप-सौंदर्य में इंद्राणी से भी अधिक थी. रत्नसेन ने पद्मिनी से विवाह किया, उसकी इच्छा पूरी हुई. दस-पाँच दिन वहाँ रहने के बाद रत्नसेन ने विदा की आज्ञा माँगी. सिंघलपति सेना सहित रत्नसेन के साथ हुआ और उसने उसको समुद्र पार करवाया. समुद्र के पार पहुँचाने के बाद सिंघलनाथ ने लौटने की आज्ञा माँगी. प्रीति-रीति का पालन करते हुए दोनों एक दूसरे से विदा हुए.

 

2.

राजा रत्नसेन चुपके चला गया था- इसका रहस्य किसी को ज्ञात नहीं था. संध्या हुई और जब राजा का पता नहीं चला, तो बाहर-भीतर सब चिंतित हुए. रानी प्रभावती ने बताया तो पता चला कि राजा क्रोधित होकर पद्मिनी से विवाह करने के लिए निकला है. रत्नसेन के योद्धा पुत्र वीरभाण ने राज्यसभा में कपट पूर्वक यह प्रचारित किया कि राजा अंदर जाप में है और इससे उसके प्रताप में वृद्धि होगी. 

ऐसा करते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गए. योद्धाओं के मन में आशंकाएँ जन्म लेने लगीं. कुछ लोग सोचते थे कि राजा कुशल है, जब कि कुछ लोगों के मन में था कि बेटे ने राजा को मार दिया. ऐसी बातें हो रही थीं कि रत्नसेन आ गया. उसके साथ चार हज़ार घोड़े, दो हज़ार हाथी और दो हज़ार ऐसी पालकियाँ थीं, जिनमें पद्मिनी की सखियाँ बैठी हुई थीं. बीच की पालकी में पद्मिनी थी, जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे. 

योद्धा इतने थे कि उनकी गिनती ही नहीं थी. इस तरह सेना और हाथी-घोड़ों के साथ राजा दुर्ग की तलहटी में पहुँचा. इससे धूल उड़ी और कोलाहल हुआ. वीरभाण के मन में आशंका हुई कि शत्रुदल आ गया है. चारों तरफ़ अफरातफरी मच गई. तभी राजा का दूत पत्र लेकर वहाँ आ गया. वीरभाण कपट छोड़कर योद्धाओं के साथ उसके स्वागत के लिए गया. रत्नसेन हाथी पर चढ़कर दुर्ग में आया. महोत्सव हुआ. पद्मिनी को दुर्ग में महल दिया गया- उसके पास चंचल, चपल और सुंदरी एक हज़ार दासियों रहती थीं. रत्नसेन रानी प्रभावती के पास गया और कहा कि-

“पद्मिनी ले आया हूँ. मुझे शाबासी दो. तुमने बड़ा बोल बोला था. अब मैं स्वादिष्ट भोजन करूँगा.”

सुनकर रानी व्यथित हुई. उसने कहा कि

“मेरी जिह्वामेरी दुश्मन हो गई. मेरे कृत्य से मेरा रत्नसेन गया. अब पश्चाताप करने से क्या लाभ?”

राजा रत्नसेन पद्मिनी के साथ विलासमग्न रहने लगा. चंदन के वृक्ष पर चढ़कर नागर बैल जैसे उससे लिपट जाती है, वैसे ही सुंदरी पद्मिनी अपने पति से संयुक्त थी. राजा को रमण करते हुए कितने ही दिन बीत गए. उस नगर में राघवचेतन व्यास रहता था, जो विद्वान् था और राजा उससे प्रभावित था. वह राजमहल में निर्विघ्न विचरण करता था और राजलोक में उसका उठना-बैठना था. एक दिन राजा पद्मिनी के साथ विलासमग्न था. वह उसको आलिंगन में लेकर चुंबन कर रहा था. उसी समय राघव व्यास पद्मिनी के महल में पहुँचा- उसने राजा और पद्मिनी को विलासमग्न देख लिया. राजा नाराज़ हुआ. उसने राघव पर कोप किया और कहा कि-

“राघव ने मुझे और पद्मिनी को देखा है- मैं इसकी आँखें निकलवा लेता हूँ.“

राघव भयभीत हो गया- वह वहाँ से निकलकर बहुत मुश्किल से अपने घर पहुँचा. कवि कहता है कि राजा कभी किसी का मित्र नहीं होता. चतुर व्यक्ति को यह चतुराई नहीं है कि वह बिना बुलाए बार-बार आए, गोष्ठी में अरुचिकर बात कहे और निकालने पर भी नहीं निकले.

 

3.

राजा की नाराज़गी अच्छी नहीं होती, यह सोचकर राघव व्यास ने अपना घर और चित्तौड़ छोड़ दिया और वह दिल्ली पहुँच गया. वह दिल्ली में ज्योतिष से प्रसिद्ध हो गया. वह वहाँ शास्त्र पठन-पाठन औरविवेकपूर्ण वार्ताएँ करता. दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन ख़लजी था, जिसका संपूर्ण पृथ्वी पर शासन था और जिसे सभी राजा सलाम करते थे. उसने ब्राह्मण राघव व्यास की ख्याति सुनी. बादशाह ने उसको बुलवाया. व्यास ने बादशाह को कई कवित्त सुनाए, जिन पर सभी मुग्ध हो गए. बादशाह ने कहा कि ब्राह्मण गुणी है. उसने उसको उपहार, वस्त्र और गाँव दिए. 

इस तरह राघव व्यास बादशाह के पास रहने लगा. एक दिन राघव व्यास के मन में आया कि रत्नसेन ने मुझे अपमानित किया है. मैं उससे किसी तरह बदला लूँगा. मैं उससे पद्मिनी छीनकर बादशाह को प्रस्तुत कर दूँगा. उसने इस निमित्त एक भाट और खोजा से मित्रता कर ली. उसने दोनों को मान, महत्व और धन दिया. उसने बादशाह के सामने पद्मिनी की बात चलाने के लिए दोनों से आग्रह किया. एक दिन बादशाह दरबार में बैठा था, तो भाट हंस का कोमल और रोएँदार पंख लेकर दरबार में आया. बादशाह ने उससे पूछा कि

इससे कोमल वस्तु के संबंध में क्या तुमने सुना है?, तो भाट ने कहा कि

इससे कोमल और पतली पद्मिनी स्त्री है.”

बादशाह ने कहा कि पद्मिनी कहाँ है?”, तो भाट ने कहा कि

आपके हरम में हज़ारो स्त्रियाँ हैं,तो उनमें कुछ पद्मिनी भी होंगी.

खोजे ने बात काटकर कहा कि 

“आपके यहाँ तो सब सांखिनी स्त्रियाँ हैं.” 

बादशाह ने कहा कि तुम विश्वास दिलाओ”, तो खोजा ने कहा कि 

राघव व्यास को शास्त्र का ज्ञान है. पद्मिनी स्त्री की पहचान आप उससे पूछिए.” 

बादशाह के पूछने पर राघव व्यास ने चारों प्रकार की स्त्रियों के भेद और पद्मिनी स्त्री के लक्षण विस्तार से बताए. पद्मिनी स्त्री की पहचान सुनकर बादशाह ने राघव व्यास से कहा कि- 

“मेरे हरम की परीक्षा करो और उसमें से पद्मिनी बताओ.” 

राघव व्यास ने उत्तर दिया कि- “मैं आपके हरम की परीक्षा नहीं कर सकता”, तो बादशाह ने कहा कि- 

मैं मणिमय आवास बनवाता हूँ. तुम उसमें प्रतिबिंब देखकर परीक्षा करना.” 

राघव व्यास ने परीक्षण किया और बताया कि हरम में हस्तिनी, चित्रिणी और शंखिनी तो हैं, लेकिन पद्मिनी कोई नहीं दिखती. बादशाह ने जब यह सुना तो कहा कि-

“पद्मिनी के बिना मेरे जीवन में उत्साह नहीं है. उसके बिना रति,रंग, सुख आदि व्यर्थ हैं.

उसने राघव व्यास पूछा कि- “पद्मिनी कहाँ मिलेगी?”, तो उसने बताया कि- “पद्मिनी दक्षिण दिशा में सिंघल द्वीप में हैं और बीच में अथाह समुद्र है.” बादशाह ने कहा कि- “मेरे आगे सिंघल द्वीप क्या है? मैं स्वर्ग-पाताल खोदकर पद्मिनी स्त्री खोज निकालूँगा.” हाथी-घोड़ों पर सत्ताईस लाख लशकर के साथ बादशाह ने सिंघलद्वीप पर चढ़ाई की. हाथी-घोड़ों के चलने से उड़ी धूल में सूर्य और चंद्रमा छिप गए. शेषनाग के लिए पृथ्वी का भार असहनीय हो गया.

 

4.

अलाउद्दीन ने अपने सभी योद्धाओं को साथ लेकर यलगार किया. तीव्र गति से पृथ्वी लाँघकर वह समुद्र के समीप पहुँचा. वह युद्ध वीर और पराक्रमी था. उसने कहा कि-

“मैं समुद्र को भरकर जमीन कर दूँगा और सिंघल द्वीप के सात टुकड़े कर सिंघलपति को जीवित पकड़कर पद्मिनी लाऊँगा.”

यह कहकर उसने लशकर पानी में उतार दिया, लेकिन यह पानी में डूब गया. बादशाह को क्रोध आया. उसने नयी नावें बनवाकर फिर योद्धाओं को उन पर आरूढ़ किया, लेकिन ये सभी भँवर में फँसकर खंड-खंड हो गईं. इस तरह बड़े-बड़े योद्धा पानी में ही रह गए. बादशाह हठी था- उसने कहा कि-

“योद्धा मर गए, तो बला टली. दूसरे बहुत नए ले आऊँगा. एक हज़ार वर्ष तक यहाँ रहूँगा,लेकिन बिना पद्मिनी के बिना वापस नहीं जाऊँगा.”

योद्धाओं ने राघव व्यास से कहा कि

“हे पापी! तूने बादशाह को क्या कुमति दी है कि कई योद्धाओं का नाश हो गया है. अब कोई उपाय बताओ, जिससे बादशाह अपने घर लौट जाए.

राघव व्यास ने कहा कि

“एक नई युक्ति करते हैं. एक हज़ार घोड़े और 500हाथी, एक करोड़ दीनार और कई उपहार नावों में भरकर बादशाह से कहते हैं कि ये सिंघलपति ने दंड स्वरूप भेजे हैं.”

और कोई उपाय नहीं देखकर सभी योद्धाओं ने यही किया. रातों-रात प्रपंच किया गया. बादशाह को इसका पता नहीं था. सुबह जब उसने समुद्र में वाहन देखें, तो पूछा कि

ये किसके हैं?” तब व्यास ने प्रेम पूर्वक बताया कि ये सिंघलपति की तरफ़ से हैं. नावों से उतरकर लोग बादशाह के पाँवों में पड़े और कहा कि- “आप दिल्ली के बड़े बादशाह हैं. सिंघलपति तो आपके पाँवों की धूल है. उसने यह सब आपके आतिथ्य के लिए भेजा है. यह आपके पान पर चूने की तरह है. आप दया कीजिए.” बादशाह इन विनयपूर्ण वचनों से प्रसन्न हुआ. उसने सिंघलपति के लिए सिरोपाव दिया. सिंघलपति के भेजे उपहार उसने अपने योद्धाओं में बाँट दिए और सेना सहित वहाँ से कूच कर दिल्ली आ गया.

 

5.

बादशाह अपने नगर आ गया, लेकिन जगह-जगह लोग बात करते थे कि बादशाह पद्मिनी के लिए गया था, लेकिन बिना विवाह किए क्यों आया. जगह-जगह स्त्रियाँ बात करती थीं कि बादशाह यों तो तेज़ है, लेकिन पद्मिनी के मामले में इतना सीधा क्यों हुआ.बादशाह अपने घर आया. सेवक जब उसके शस्त्र लेकर भीतर गया, तो बड़ी बीबी ने कहा कि-

“बादशाह ने जिस पद्मिनी से विवाह किया है, उसको मुझे दिखाओ. मैं उसको एक बार अपनी नज़र में निकालना चाहती हूँ. जिसके घर में चार पद्मिनियाँ नहीं है, उसके लिए तो सारा संसार सूना है. सुल्तान की सुल्तानी व्यर्थ है, जो यदि उसने पद्मिनी से रमण नहीं किया.”

बीबी जब सेवक से बात कर रही थी,तभी बादशाह आ गया. उसने बीबी से कहा कि- तुमने सही कहा है.उसने तत्क्षण राघव व्यास को बुलवाया और कहा कि “सिंघल द्वीप के अलावा पद्मिनी कहाँ है?, मुझे बताओ.” राघव व्यास ने कहा कि-

“एक पद्मिनी चारों दिशाओं में विख्यात चित्तौड़ में है. युद्धवीर और पराक्रमी राजा रत्नसेन के घर में पद्मिनी उसी तरह है, जैसे शेषनाग के पास मणि है. उसको कोई ले नहीं सकता.”

बादशाह ने कहा कि- “हे ब्राह्मण! मैं दुर्गपति को जीवित पकड़कर खड़े-खड़े पद्मिनी ले लूँगा.” बादशाह ने शक्तिशाली सेना के साथ चित्तौड़ पर चढ़ाई की, जिससे धरती काँपने लगी और शेष नाग विचलित हो गया.

 

6.

हठी बादशाह सत्ताईस लाख लशकर और हथियारों के साथ दुर्ग की तलहटी में आ गया. योद्धा हाथियों की तरह उन्मत्त होकर युद्ध करने लगे. आतिशबाजी होने लगी. चारों दिशाओं में नगाड़े और ढोल बजने लगे. बादशाह को ससैन्य आया हुआ देखकर रत्नसेन भी क्रोधित हुआ. उसने अपने योद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की. उसने कहा कि-

“बादशाह! तू आ भले हो गया हो, लेकिन अब यहाँ ख़त्म होकर ही रहेगा. अब मैं तुझे अपने हाथ दिखाऊँगा. दिल्लीपति! अब ढीले मत रहना, तुम कितने योद्धा हो पहले बता देना.”

रत्नसेन ने दुर्ग के कोट को दुरुस्त करवाया और दुर्ग के द्वार बंद करवाकर सब अंदर प्रविष्ट हो गए. भीषण युद्ध हुआ. बादशाह ने अपने योद्धाओं से एकत्र होकर गढ़ को ध्वस्त करने के लिए कहा. संध्या तक संग्राम हुआ, लेकिन सफलता नहीं मिली. कई मुसलमान योद्धा मारे गए. बादशाह मन में चिंतित हुआ. राघव व्यास ने कहा कि-

“दुर्ग इस तरह से जीतना बहुत मुश्किल काम है. कपट करके ही काम हो सकता है. रत्नसेन को वचन दो और कहो कि हम उससे विचलित नहीं होंगे. किसी प्रधान (प्रतिनिधि) को भेजो और उससे कहलवाओ कि बादशाह पद्मिनी के हाथ से भोजन करके किले के मुख्य स्थान देखना चाहता है. उसकी और कोई माँग नहीं है. थोड़ी-सी सेना के साथ वह दुर्ग में आएगा और भोजन करके वह दिल्ली लौट जाएगा.”

प्रतिनिधि ने यह प्रस्ताव रत्नसेन के सामने रखा और कहा कि यदि आप बात मान लेते हैं, तो बादशाह इसके बाद दिल्ली लौट जाएगा. उसने कहा कि-

“बादशाह को पद्मिनी स्त्री देखने की बड़ी इच्छा है. उसका वचन सत्य है. वह आपका जन्मांतर का भाई है. उसने कुकृत्य के कारण असुर शत्रु के यहाँ जन्म लिया है, जब कि सद्कर्मों के कारण आप चित्तौड़गढ़ के स्वामी हैं.”

रत्नसेन ने कहा कि- “यदि बादशाह यह बात करता है, तो मुझे भी उससे मिलने का उत्साह है.” रत्नसेन ने सोचा कि बादशाह अपने वचनों का पक्का है. वह थोड़ी-सी सेना के साथ भीतर आएगा. मेरे घर का अन्न ग्रहण करेगा और इससे हमारे बीच परस्पर सम्मान बढ़ेगा.

 


7.

प्रतिनिधि जब लौटकर आया, तो बादशाह ने उससे पूछा कि- “क्या बात बन गई?” बादशाह के लिए शपथ झूठी थी. वह मुँह से मीठा और मन में दुष्ट था. राघव व्यास ने रत्नसेन को पकड़ने के लिए बादशाह से मंत्रणा की. राजा के मन में कोई छल-भेद नहीं था, लेकिन बादशाह के मन में द्वेष था. रत्नसेन ने दुर्ग का द्वार खोल दिया. बादशाह तीस हज़ार सवारों के साथ दुर्ग में प्रवेश कर गया. रत्नसेन ने सरल मन से मंत्री को उसका स्वागत करने भेजा. राघव व्यास सहित बादशाह तत्काल आ गया. किले में सब ने इस कला से प्रवेश किया कि कोई दिखाई नहीं पड़ा, लेकिन वे सब एकत्र हुए, तो बहुत अधिक थे. रत्नसेन मन में नाराज़ हुआ. उसने भी अपनी सेना लगा दी. बादशाह ने कहा कि-

“सेना क्यों लगा रहे हैं, हम युद्ध करने नहीं आए हैं, दुर्ग देखकर चले जाएँगे. हमारे मन में कोई खोट, छल-भेद नहीं है.”

राजा ने कहा कि आपने थोड़ी-सी सेना लाने का निश्चय किया था, लेकिन आप तीस हज़ार सैनिक लाए हैं. फिर मैं क्या करता. आपके मन में क्या है, लेकिन यह धूर्तता है. बादशाह ने कहा कि- 

“अतिथियों का सम्मान करना चाहिए. अभी सुकाल हैऔरअन्न बहुत है. हे राजा! बहुत-बहुत क्या करते हो. भोजन कराने में संकोचहै औरख़र्च करते हुए ज़ोर आता है, तो इनको वापस भेज देते हैं.”

राजा ने कहा कि-

“हे बादशाह! सुनो, तुम और सैनिक बुला लो, लेकिन छोटी बात मत करो. पानी और अन्न बहुत हैं, पकवान भी बहुत हैं. जो अच्छा लगे, वह भोजन करो, लेकिन छोटी बात मत करो.”

बातचीत करके दोनों प्रसन्न हुए. दोनों एक दूसरे के हाथ पर ताली दी. दोनों में परस्पर विश्वास कायम हुआ और उनके मन की आशंकाएँ ख़त्म हुईं.

रत्नसेन भोजन का प्रबंध करने लगा. वह भीतर गया और पद्मिनी से कहा कि-

“अब तुम बादशाह को भोजन करा दो, जिससे वह प्रसन्न हो जाए.”

पद्मिनी ने उत्तर दिया कि-

“बादशाह को षटरस भोजन दासी परोसेगी.” दो हज़ार सुंदर दासियों के पद्मिनी के पास रहने का विधान था. सभी प्रबंध करके दिल्लीपति को भोजन के लिए भीतर बुलाया गया. महल की साज-सज्जा ऐसी थी, जैसे देवताओं का विमान हो. रत्नजड़ित आवास थे और उनमें चित्र बने हुए थे. बादशाह वहाँ आकर बैठ गया. उसके मन पद्मिनी को लेकर उत्साह था. दासियाँ आती थीं और अपना रूप दिखाती थीं- एक आकर बैठने के लिए आसन देती, दूसरी आती और थाल सजाती, तीसरी आकर हाथ धुलवाती और चौथी आती और चँवर ढुलाती थी. दासियाँ बार-बार आती-जाती थीं और इस तरह बादशाह की बुद्धि विचलित होती जाती थी. वह कहता,यही पद्मिनी है- यह उसके जैसी सुंदर दिखाई पड़ती है. राघव व्यास ने बादशाह को समझाया कि- “आप सँभलिए, ये सभी पद्मिनी की दासियाँ हैं. आप बार-बार मत चौंकिए. पद्मिनी यहाँ क्यों आएगी.”

रंभा के समान दासियों को देखकर बादशाह ने विचार किया कि जब दासियाँ इतनी सुंदर हैं, तो पद्मिनी कितनी सुंदर होगी. राघव व्यास ने कहा कि-

“हे बादशाह! सँभलिए. पद्मिनी स्त्री की यह पहचान है कि वह बिजली के समान झलकती है, कुंदन की कांति की तरह उजली है, अंधेरे में उजाला कर देती है, देखते ही मन को हरती है और वह कमल के समान है, जिसका भूलकर भी भ्रमर साथ नहीं छोड़ते. इसलिए जब वह आएगी,तो कैसे छिपेगी.”

बादशाह ने कहा कि-

“ये दासियाँ धन्य हैं, जो अपनी नजरों से पद्मिनी की देह निहारती हैं.”

राघव व्यास ने कहा कि-

“ये ऊँचा दिखाई देने वाला आवास है, वहाँ पद्मिनी का निवास हैं, राजा रत्नसेन यहीं रहता है और पद्मिनी से एक क्षण का विरह भी उसको सहन नहीं होता. पद्मिनी को और कोई नहीं देखता, जो देखता है,वह पागल हो जाता है.”

सुल्तान और राघव व्यास बात कर रहे थे कि उसी समय पद्मिनी ने उधर देखा और कहा कि- “देखूँ, असुर अलाउद्दीन कैसा है.” दासी ने बताया कि वह झरोखे के नीचे बैठा है. पद्मिनी गज गति से चलती हुई झरोखे में आकर बैठ गई. व्यास ने उधर देखा, तो उसे पद्मिनी बैठी दिखाई दी. उसने तत्क्षण बादशाह से कहा कि-

“स्वामी!पद्मिनी देखो. बादशाह ने ऊँचे देखा, तो उसे प्रत्यक्ष पद्मिनी दिखाई पड़ी. उसने कहा कि-

“अहो! पद्मिनी के सामने रंभा, रुक्मिणी, नागकुमारी, किन्नरीऔर इंद्राणी क्या हैं? ऐसा अनुपम रूप-सौंदर्य इसका है कि दूसरी कोई स्त्री इसके अँगूठे के बराबर भी नहीं है.”

पद्मिनी उसके हृदय में बस गई. बादशाह मूर्च्छित होकर धरती पर गिरने लगा. व्यास ने कहा कि-

“हे नरराज! संभलिए. व्यर्थ में अपनी लज्जा क्यों खो रहे हैं. धैर्य धारण कीजिए, साहस रखिए, कोई दूसरा उपाय करना पड़ेगा. जब तक रत्नसेन हाथ में नहीं आता, तब तक पद्मिनी हाथ नहीं आएगी.

चुप रहकर सब ने भोजन किया. राजा ने बादशाह को खूब अच्छी तरह से भोजन करवाया. दोनों ने एक-दूसरे को उपहार- हाथी, घोड़े, वस्त्र आदि दिए. सभी अतिथि संतुष्ट हुए. बादशाह ने कहा कि–

“अब क़िला दिखाओ. हमें यहाँ आए हुए बहुत समय हो गया है.”

रत्नसेन बादशाह को क़िला दिखाने ले गया. जो-जो प्रसिद्ध स्थान थे, सब उसको दिखाए. बादशाह ने कहा कि- 

“ऐसा क़िला मैंने नहीं देखा.” 

दोनों एक-दूसरे के प्रति उत्साहित थे. बादशाह ने कहा कि‌- 

“आपने हमारा बहुत आतिथ्य किया. कोई काम-काजहो, तो बताना. अब हमें विदा दो.” 

राजा ने कहा कि- “आगे चलिए मुझे अच्छा लग रहा है.” यह कहकर वह किले से बाहर निकल गया. राजा के मन में कोई जटिलता नहीं थी, लेकिन बादशाह के मन में द्वेष था. व्यास ने बादशाह से कहा कि- “यह अवसर अच्छा है. बाद में मत कहना कि मैंने नहीं कहा था.” बादशाह ने अपने सैनिकों को बुलाया. उन्होंने तत्काल रत्नसेन की पकड़ लिया. बात बिगड़ गई. साथ में जो योद्धा थे वे हतप्रभ रह गए. बेड़ी डालकर राजा को बिठा दिया गया. बादशाह ने उस पर जुल्म और अन्याय किए. राजा शक्तिशाली था, लेकिन पकड़े जाने से बलहीन हो गया.

 

8.

बादशाह ने राजा का पकड़ लिया है और बात बिगड़ गई है, दुर्ग में जब सभी ने यह सुना, तो हलचल मच गई. योद्धा एकत्र हुए और दुर्ग के द्वार बंद कर दिए गए. वीरभाण योद्धाओं के बीच आकर बैठा. सभी एक-दूसरे की आलोचना करने लगे और दुर्ग में चिंता हो गई. एक ने कहा कि हमें रात में धावा करना चाहिए, तो एक ने कहा कि हम गढ़ में जूझेंगे, तो एक ने कहा कि हम मौका देखकर संघर्ष करेंगे, तो एक न कहा कि हमारा कोई नायक नहीं है और उसके बिना युद्ध व्यर्थ है. इस तरह सभी विचार कर रहे थे और सभी के मन में भय था. इसी समय बादशाह एक प्रतिनिधि आया और उसने कहा कि-

“बादशाह कहता है कि हमको पद्मिनी स्त्री दे दो, तो दुर्गपति को छोड़ देंगे. यदि तुम पद्मिनी नहीं दोगे, तो हम उसके प्राण ले लेंगे. पद्मिनी नहीं दोगे,तो कई योद्धा मरेंगे.”

सब ने सम्मानपूर्वक प्रधान से कहा हम विचार करेंगे और फिर बतायेंगे. योद्धा विचार करने लगे कि यदि हम पद्मिनी देंगे, तो हमारा थोड़ा भी मान नहीं रहेगा और यदि नहीं देंगे, तो सारी बात बिगड़ जाएगी. वीरभाण पद्मिनी देने में प्रसन्न था, क्योंकि उसकी माता का सुहाग पद्मिनी ने लेकर उसको दुःख दिया था. वीरभाण ने सभी को समझाया कि पद्मिनी देने से सब बच जाएगा. सभी योद्धाओं ने तय किया कि सुबह हम पद्मिनी दे देंगे. यह विचार कर वे उठे थे कि पद्मिनी को सब पता लग गया. पद्मिनी के हृदय में खलबली मच गई. उसने कहा कि–

मैं अपने को चिता में जला दूँगी,लेकिन राक्षस के घर नहीं जाऊँगी. मेरे पर यह कैसा समय आया है. मुझे शरण देने वाला कोई नहीं है. हे भगवान जगदीश ! अब मैं क्या करूँ. रामचंद्र ने सीता को बाहर निकला, पांडवों ने द्रोपदी को दे दिया, मैं भी क्या राक्षसों से छूट पाऊँगी ? हे जीव ! मृत्यु ही सही है.” 

उस नगर में क्षत्रियत्व का निर्वाह करने वाला गोरा रावत रहता था. उसका भतीजा बादल भी योद्धा था. ये दोनों शक्ति के स्वामी और गुणी थे. दोनों राजा से नाराज़ थे और उसकी कृपा नहीं लेते थे. दोनों चाकरी नहीं करते थे और घर पर ही रहते थे. रत्नसेन ने उनको छोड़ रखा था. वे दोनों जा रहे थे, लेकिन दुर्ग पर घेरे के कारण नहीं जा पाए. दोनों क्षत्रिय थे- क्षत्रियत्व धारण करते थे, अपयश से डरते और स्वामिधर्म का निर्वाह करते थे. पद्मिनी ने मन में विचार किया कि–

गोरा और बादल,दोनों गुणी हैं, मैं उनसे जाकर प्रार्थना करूँ, दूसरों में तो रत्ती भर भी गुण नहीं हैं.

यह विचार कर पद्मिनी पालकी में बैठकर सखियों सहित गोरा के दरबार में आई. गोरा ने पद्मिनी को देखा, तो सामने दौड़कर आया और कहा कि–

माता! आपने बहुत दया की. आप किस काम के लिए आई हैं. यह ऐसे हुआ जैसे आलसी के घर पर चलकर गंगा आई हो.”

पद्मिनी ने कहा कि–

मैं तुमसे मिलने आई हूँ. दया-धर्म की दीक्षा लेनेवाले योद्धाओं ने मुझे विदा दे दी है. अब तुम भी मुझे विदा दे दो, तो मैं राक्षसों के घर चली जाऊँ. योद्धा शक्तिहीन हैं, पृथ्वी से क्षत्रियत्व उठ गया है. योद्धाओं ने तय किया है कि पद्मिनी देकर राजा को लेंगे.

गोरा ने कहा कि–

मैं तो दुर्ग में कहने मात्र के लिए हूँ. राजा का खर्च नहीं खाता, न मुझ से कोई परामर्श करता है. पर आप दुःखी मत होइए. सब अच्छा होगा. आप मेरे घर आ गई हैं, तो राक्षसों के घर नहीं जाएँगी. योद्धा मर जाएँ, पर स्त्री देकर राजा को लेना ठीक नहीं है.

गोरा ने आगे कहा कि मेरे बड़े भाई गाजण का पुत्र बादल बड़ा शक्तिशाली है. हमें उससे भी परामर्श करना चाहिए.दोनों बादल के यहाँ आए. बादल सामने दौड़कर आया. उसने प्रणाम किया और काम पूछा. गोरा ने उससे कहा कि–

सभी योद्धाओं यह मंत्रणा की है कि पद्मिनी देकर राजा लेंगे. इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है. पद्मिनी अपने पास आई है. जैसा तुम कहोगे, वैसा करेंगे. योद्धा बहुत बैठे हैं, लेकिन जूझने के लिए कोई तैयार नहीं है. हमारे पास कोई गाँव-ग्रास भी नहीं है. हम दो ही शरीर हैं और बादशाह के पास लशकर बहुत हैं. हम उससे कैसे जीतेंगे?‘‘

पद्मिनी ने कहा कि–

तुम्हारी शरण में आई हूँ. तुम रखो तो ठीक है, नहीं तो वापस जाती हूँ. मैं चिता में जल जाऊँगी.

यह सुनकर बादल ने कहाकि-

“हे बाबा! योद्धा हैं तो उनको रहने दो. उनसे क्या काम है. मैं अकेला ही सब करूँगा. पद्मिनी ने आँगन में पाँव रखकर मेरा घर पवित्र किया है. उसने पद्मिनी से कहा कि– “आप महल पधारेंऔर मन में दुःख मत करें. मैं बादशाह को अकेला ख़त्म करूँगा. शत्रु को ख़त्म करके राजा की विपत्ति दूर करूँगा और उसको घर लाऊँगा. बादल के बोल झूठे नहीं होंगे.

 

9.

पद्मिनी जैसे ही घर गई, बादल की माता आ गई. उसने सब सुन लिया था. वह उदास थी- उसकी आँखों से आँसू बहते थे और वह निश्वास छोड़ रही थी. माँ की यह दशा देखकर बादल ने पूछा कि– किस कारण से तुम इस तरह हो. तुम्हारे चित्त में क्या कष्ट है और तुम क्यों विचलित हो?” माता ने कहा कि–

मेरे तुम्हारे बिना कोई नहीं है. तुम जबरदस्ती इस जंजाल में क्यों पड़ रहे हो. बहुत योद्धा हैं, जिनको जागीरें मिली हुई हैं, हम तो अपना ख़र्च करते हैं. तुमने कभी कोई संग्राम नहीं किया,इसलिए तुम्हें युद्ध नहीं आता. अभी तुम बालक हो. अभी तो तुम्हारा विवाह हुआ है. पहले अपनी पत्नी को तो साध लो,उसके बाद ऐसा कोई निश्चय करना.

बादल ने जवाब दिया कि-

‘‘हे माता! तुमने ऐसा क्यों कहा? पहले तुम मुझे समझाओ कि मैं बालक किस तरह से हूँ. मैं पालने में नहीं सोता. तुम मुझे बालक कहती हो, लेकिन देखो,में किस तरह उत्पात करता हूँ और राजाओं को उखाड़कर स्थापित करता हूँ. शत्रुओं सिर उड़ा दूँ, तो ही मैं तुम्हारा पुत्र हूँ. क्षत्रियत्व और संग्राम में मैं पीछे हटता हूँ, तो ही तुम्हें ऐसा कहना चाहिए.

अपने योद्धा पुत्र की बातें सुनकर माता के मन में खलबली मच गई. यह सोचकर कि बादल माता की बात नहीं मानेगा, वह बिलखती हुई चली गई. उसने सारी बात बताकर अपनी बहू से कहा कि–

वह मेरी सीख नहीं मारता. तुम्हारे प्रेम से रह जाएगा.”

सभी शृंगार करके और शोभाकारी वस्त्र पहनकर बादल की पत्नी आई. वह रूप में रंभा के समान थी और लज्जा सहित ललित वचन बोलती थी. उसने कहा कि–

स्वामी! मेरी बात सुनो. बादशाह बहुत दुष्ट और प्रबल है. तुम उससे कैसे जूझोगे. वे बहुत हैं और तुम अकेले हो, फिर तुमने यह निश्चय क्यों किया.”

बादल ने कहा कि-

‘‘हे सुंदरी! हाथी बहुत और सिंह एक होता है, तो भी उसके मन में कोई भय नहीं होता. हाथी के मद बहुत झरता है, लेकिन फिर भी वह सिंह के सामने भागता फिरता है. सिंह हमेशा सामने धँसता है वह रोकने से पीछे नहीं हटता.”

बादल की पत्नी ने कहा कि ‘‘स्वामी! मेरी बात का बुरा मत मानो. मैं अच्छी बात करती, लेकिन समय बहुत विकट है.‘‘ बादल ने कहा कि– 

मुझे युद्ध का बहुत भय मत दिखाओ. कायर हँस-हँसकर बातें करता है, लेकिन मौका आने पर खिसक जाता है.” 

बादल की पत्नी ने कहा कि- 

“भीषण युद्ध होगा और गोले चलेंगे. उस सब में तुम अकेले कैसे प्रवेश करोगे.”

 बादल ने उत्तर दिया कि–

तुमने यह कैसी बात कही, मैं घोड़े और हाथियों पर आरूढ़ और पैदल सैनिकों एक बार में ही चकनाचूर कर दूँगा. सत्ताईस लाख लशकर लूटकर बहुत माल घर लाऊँगा.” 

बादल को स्त्री ने कहा कि-

“हे स्वामी! रहने दो. अभी तो तुमने सेज भी नहीं सजाई. अपनी स्त्री के साथ प्रेम भी नहीं किया. अभी तुम बालक की तरह निष्कलंक हो. तुमको तो होंठों पर चुंबन देना भी नहीं आता. तुम क्या जूझोगे.”

बादल ने कुछ नहीं कहा. स्त्री ने फिर कहा कि–

“अभी तो तुमने मुझे भी हाथ नहीं लगाया, तो तुम शत्रुदल का नाश किस तरह करोगे?” बादल ने उलटकर जवाब दिया कि-

‘‘हे सुंदरी! अब मैं तुम्हारी सेज पर उस दिन आऊँगा,जिस दिन शत्रु को जीत लूँगा. जब तक बादशाह को नष्ट कर धूल नहीं कर देता,तब तक कोई सेज, प्रेम और स्नेह नहीं हैं.

यह सुनकर स्त्री को गर्व हुआ. उसने कहा कि–

शाबाश! यह बहुत अच्छा है. मैं जन्म-जन्म से तुम्हारी दासी हूँ. जो तुमने बोला है, उसका निर्वाह करना. किसी बात से विचलित मत होना. अब मैं युद्ध में तुम्हारे हाथ देखूँगी- योद्धा तलवार और भाले चलाते हैं और उनके प्रहार अपने शरीर पर खूब झेलते हैं. वे युद्ध में पाँव पीछे नहीं रखते और मरने का भय नहीं मानते. मेरा जीना-मरना आपके साथ है. मैं आपको नहीं छोड़ूँगी.”

बादल ने कहा कि-

‘‘तूम मेरे हृदय में समा गई हो. तूमने बहुत अच्छी बातें कहीं. तुमने कुल की मर्यादा रखी.

पत्नी ने हथियार लाकर दिए, जिनसे योद्धा बादल ने शृंगार किया. फिर वह घोड़े पर चढ़ा और गोरा के यहाँ आया. उसने गोरा से कहा कि– 

तुम यहीं रहना. मैं एक बार बादशाह को देखकर आता हूँ.” 

गोरा ने कहा कि तुम और मैं एक हैं. तुम जाते हो, तो मुझे कष्ट होता है. बादल ने कहा कि- 

‘‘काका तुमने कच्ची बात की है. अभी मैं केवल भेद लेने जा रहा हूँ. युद्ध मैं और तुम साथ होंगे. मैं तुम्हारा दायाँ हाथ रहूँगा.” 

गोरा रावत से पूछकरवह चला. आगे उसकी भेंट सभी योद्धाओं से हुई. उसने योद्धाओं की पूछा कि– 

आपने क्या विचार किया?” योद्धाओं ने उत्तर दिया कि– 

“हम सभी ने एक मत से निश्चय किया है कि हठी बादशाह ने राजा को ले लिया है और वह यहाँ आएगा, तो क़िला भी ले लेगा. पद्मिनी देकर छूट सकते हैं. नहीं तो दुर्ग की भी कोई आस नहीं है. दुर्ग जाने पर कुछ नहीं रहेगा. फिर तुम जैसा कहो करें.

बादल ने कहा कि–

“आपने अच्छा विचार किया कि आप पद्मिनी देंगे. सही है, लेकिन एक बात मेरी भी सुनो. आप यह तय कर लें कि इसका समस्त देश में प्रचार होगा, किसी के भी सिर पर सम्मान नहीं रहेगा और इससे क्षत्रियत्व का लोप होगा. मान के बिना मनुष्य वैसा ही है जैसे कण के बिना व्यर्थ भूसा है. काया-माया, दोनों व्यर्थ हैं– यह एक घड़ी टेढ़ी और दूसरी घड़ी समान हो जाती है. कायर हो या योद्धा, मृत्यु किसी की नहीं टलती,इसलिए पशु होकर जुगाली करने से अच्छा तो युद्ध में घायल होकर मरना है.

यह सुनकर वीरभाण बोला कि–

तुमने अच्छी बात कही, लेकिन तुम तिल मात्र भी नहीं समझते. बादशाह ईश्वर का अवतार है. उसके साथ सत्ताईस लाख लशकर है. उसमें यवन योद्धा बड़े जुझारू हैं.”

बादल ने कहा कि-

‘‘कुँवर, यह सोच अपनी नहीं है. सिंह विचार नहीं करता, वह हाथी को मार देता है. ऐसा करते हुए जो मरता है, उसकी कीर्ति निर्मल होती है. काया के बदले यदि कीर्ति मिले,तो यह खरीदने में महँगी नहीं है. काया तो चमड़े की थैली है- यह एक क्षण उजली और अगले क्षण मैली हो जाती है. यदि इसके बदले कीर्ति मिलती है, तो इसे लेते हुए पीछे कौन हटेगा?

वीरभाण ने अब कहा कि-

‘‘बादल,तुम्हारी बुद्धि बहुत निर्मल है. अर्जुन की तरह तुम श्रेष्ठ हो. जो तुम्हें अच्छा लगे, करो. राजा छूट जाए, पद्मिनी भी रह जाए, इस बात से कौन प्रसन्न नहीं होगा.

बादल ने कहा कि– अभी बहुत काम शेष हैं, मैं लशकर में जाता हूँ और सारी बात की थाह लेकर आता हूँ. सब को अभिवादन कर वह घोड़े कर चढ़ा तो जैसे देवराज इंद्र का साहस संकट में पड़ गया.

 

10.

बादल दुर्ग के द्वार से नीचे उतरा. वह बुद्धिमान और साहस से परिपूर्ण था. उसका भाल चमक रहा था और उसका हृदय प्रताप और तेज से युक्त था. उसने नए शोभायमान वस्त्र पहन रखे थे और वह सभी शस्त्रों से सुसज्जित था. बादशाह ने उसे आते हुए देखा, तो यह पता करने के लिए दूत भेजा कि वह कौन है और उसके आने का प्रयोजन क्या है. दूत ने जब उससे पूछा तो उसने जवाब दिया कि– 

मैं बात करने आया हूँ और सुबह पद्मिनी ले आऊँगा. बादशाह मेरी राय मानेगा, तो मैं उसका बहुत काम करूँगा.” 

दूत ने जब अपने स्वामी को जाकर यह बताया तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बादल को अंदर बुलवाया और बहुत सम्मान दिया. बादशाह ने उससे उसका परिचय पूछा और कहा कि– तुम यहाँ क्यों आए हो?” बादल अवसरानुकूल बात करने में निपुण था. उसने सम्मानपूर्वक कहा कि–

पद्मिनी ने मुझे अपना प्रधान बनाकर भेजा है. उसने जब से आपको झरोखे के नीचे भोजन करते हुए देखा है, तब से वह काम दग्ध है. वह सोचती है कि वह स्त्री धन्य हैं, जिसको आप जैसा पति मिला. वह विरह में व्याकुल बैठी रहती है और रात-दिन आपका सपना देखती है. वह उदास रहती है- उसकी आँखों में आँसू है और बड़ी-बड़ी साँसे लेती है. पद्मिनी को आपसे बहुत प्रेम है, लेकिन मेरे मुँह से यह कहा नहीं जाता. वह आलिम, आलिम करती रहती है. उसने मुझे यह सब कहा है. आपका प्रधान आया था, उसको सम्मान भी दिया, लेकिन योद्धा कहते हैं कि मर जाएँगे, पर पद्मिनी नहीं देंगे. मैंने सभी योद्धाओं को समझाया, तब जाकर आज बात बनी है. आप मुझे विदा कीजिए. मैं पद्मिनी की पास जाता हूँ. वह बेचैन होकर आपके संदेश की प्रतीक्षा करती होगी. विरहिणी से विरह की व्यथा नहीं सही जाती. काम की पीड़ा उसके हृदय में चलती है. आपका संदेश अमृत रस जैसा है, आप से संदेश लेकर मैं पद्मिनी को दूँगा.

पद्मिनी के अपने प्रति प्रेम की बात सुनकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ. इस तरह बादल ने पद्मिनी रूपी गारुड़ी मंत्र से बादशाह रूपी सर्प को कीलित कर दिया.

बादशाह ने बादल से कहा कि–

तुम मेरे घर आज अतिथि हो. मैं तुम्हारी क्या सेवा और सत्कार करूँ. तुम्हें देखकर मेरे मन को शांति मिली है. मैं पद्मिनी से प्रेम करता हूँ. तुम अपने योद्धाओं का समझाकर मुझे पद्मिनी दिलवा दो.

यह कहकर बादशाह ने बादल को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ और हाथी-घोड़े दिए. उनको लेकर बादल आया, तो उसकी माता और पत्नी बहुत प्रसन्न हुई. गोरा भी मन में प्रसन्न हुआ कि अब बादल अपने काम में सफल होगा. पद्मिनी भी हर्षित हुई कि बादल मेरे स्वामी का मुझ तक पहुँचा देगा. सभी योद्धाओं की बादल की शक्ति पर भरोसा हुआ. आग दबी हुई हो,तो भी जला देती है.बादल ने योद्धाओं के साथ बैठकर मंत्रणा की और कहा कि–

दो हज़ार पालकियाँ सजाओ और यह बात किसी को भी पता नहीं लगना चाहिए. पालकियों में दो-दो योद्धा रखना,जिनके पास शस्त्र हों और जो साहसी हों. पालकियों को एक-दूसरे के पीछे रखना और कहना कि इनमें पद्मिनी की सखियाँ हैं. बीच की पद्मिनी की पालकी की शोभा-शृंगार ख़ास हो. उसके ऊपर गुंजार करते हुए भ्रमर रखना. इस पालकी में गोरा रावत रहेगा. पालकियों के बीच दूरी नहीं हो और ये इस तरह रहे कि दुर्ग के द्वार से शुरू होकर सेना तक फैल जाएँ. ऐसा करके तुम आना और उचित समय की प्रतीक्षा करना. मैं बीच-बीच में जाकर बात करूँगा और सारी बात बताता रहूँगा. मैं जाकर राजा को लाऊँगा. उसको क़िले में पहुँचाकर हम सब आक्रमण करेंगे.

यह विचार अच्छा है, सब योद्धाओं ने निश्चय किया तब तक सुबह हो गई. सबको अच्छी तरह समझाकर बादल ने वहाँ से प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचा जहाँ लसकर में बादशाह बैठा हुआ था. बादल ने जाकर सलाम किया, तो बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ. बादशाह ने कहा कि– 

बादल, समाचार दो, मैं तुम्हें बहुत देश दूँगा.

बादल ने कहा कि– 

स्वामी! बात सिरे तक पहुँच गई है. मैंने सभी योद्धाओं को बहुत मुश्किल से समझाया है और पद्मिनी को क़िले के पीछे ले आया हूँ. सभी योद्धाओं का आग्रह है कि आप पहले विश्वास दिलाएँ, तो मैं पद्मिनी ले आऊँ.

बादशाह ने कहा कि– तुम्हें विश्वास कैसे होगा”, तो बादल ने कहा कि- 

आप अपने लशकर को भेज दीजिए और यदि भय हो, तो उसमें से दो-चार हज़ार रख लीजिए.” 

दूसरा सभी लशकर प्रस्थान कर देगा, तो विश्वास हो जाएगा.यह सुनकर उतावले और पगलाए बादशाह ने कहा कि– मुझे किसका भय है. तुमने भी बादल क्या बात की !बादशाह ने लशकर को कूच करने की आज्ञा दे दी. अच्छे दो-चार हज़ार योद्धा उसने पास रख लिए. बादशाह ने बादल से कहा कि- 

“मैंने जैसा तुमसे कहा था कर दिया,अब तुम जल्दी पद्मिनी लाओ और अपने वचन का पालन करो.

बादशाह ने फिर बादल को सिरोपाव और लाख स्वर्ण मुद्राएँ दीं. बादल उनको लेकर घर आया, जिससे उसकी माता प्रसन्न हुई. उसने योद्धाओं का संकेत किया और कहा कि–

पालकियों के लेकर आना और उनको एक-दूसरे के पीछे रखना. किसी बात में शीघ्रता मत करना और क्षत्रियत्व की कोई नुकसान मत करना.” 

यह कहकर वह पालकियों के आगे चलने लगा. उसने बादशाह को आते हुए देखा, तो कहा कि आपके हरम में कई स्त्रियाँ हैं, लेकिन सौभाग्यवती आप पद्मिनी को करना.” बादशाह ने कहा कि- 

हरम की दूसरी स्त्रियाँ पद्मिनी के नख के बराबर भी नहीं हैं. वे सब पद्मिनी को सेवा करेंगी.” 

बादशाह ने बादल को फिर सिरोपाव दिया. उसने आकर योद्धाओं से कहा कि–

“तुम यहीं ठहरना. मैं घात करूँगा. बात बाहर नहीं जानी चाहिए.

बादल गढ़कर बातें करने लगा और इसमें समय ज़ाया करने लगा. बादशाह जैसे-जैसे जल्दी करता, बादल उतना ही ठहरकर आगे बढ़ रहा था. उसने पालकी लाकर बादशाह के सामने प्रत्यक्ष रख दी. बादल पालकी और बादशाह के बीच में बातचीत के बहाने से चक्कर लगाने लगा. जब एक दिन प्रहर शेष रह गया, लशकर बहुत दूर निकल गया और आक्रमण का समय हो गया, तब बादल ने बादशाह ने जाकर कहा कि-

‘‘स्वामी! पद्मिनी इस प्रकार कहती है कि उसे खड़े हुए बहुत समय हो गया है. उसकी एक प्रार्थना आप सुनें. उसकी इच्छा है कि आपके घर आने से पहले वह एक बार रत्नसेन से मिल ले और उससे दो चार बातें कर लें. आप रत्नसेन को दरबार में ले आएँ, तो इससे मुझे सुविधा होगी.

बादशाह ने कहा कि-

हे बादल! पद्मिनी ठीक कहती है. उसकी इस बात से मैं ख़ुश हूँ.

उसने तत्काल आदेश दिया कि राजा रत्नसेन को छोड़ दो.बादल भीतर रत्नसेन को छुड़वाने गया,तो उसने पीठ फेर ली उसने कहा कि–

बादल! तुम्हें धिक्कार है. मुझे मुँह मत दिखाओ. तुमने मुझे गाली लगाई है. पद्मिनी के बदले मुझे लेकर तुमने मुझसे वैर लिया है. क्षत्रियत्व के माथे पर तुमने धूल डाल दी. वीरता ख़त्म हो गई.”

बादल ने उत्तर दिया कि–

“यह कुछ और बात है. आप मौन रहकर आगे चलिए. सब अच्छा होगा.”

बादशाह ने रत्नसेन से कहा कि–

पद्मिनी से मिल आओ, जिससे मैं सद्भावनापूर्वक तुमको विदा दे दूँ.” 

राजा पास-पास रखी हुई पालकियों की तरफ़ पद्मिनी से मिलने चला. वह जब पालकी के भीतर प्रविष्ट हुआ, तो उसे सच्ची बात पता लगी. बादल ने कहा कि–

“एक से दूसरी पालकी में होते हुए आप गढ़ तक पहुँच जाओ और जब वहाँ जाकर सचेत हो जाओ, तो ढोल बजाकर संकेत करना.”

यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ. वह सकुशल दुर्ग में पहुँच गया, जैसे सूर्य को राहु ने मुक्त कर दिया हो. जैसे ही कुशल-क्षेम के बाजे बजे, वैसे ही योद्धाओं ने गर्जना की और वे निकल पड़े. एक से एक पराक्रमी चार हज़ार योद्धा बाहर निकले. आगे गोरा-बादल थे. योद्धा युद्ध करने लगे- वे तलवारें लेकर शत्रु पर टूटे पड़े. उन्होंने बादशाह को ललकारते हुए कहा कि-

‘‘हे बादशाह! खड़ा रह. भाग मत जाना. हम तुझे पद्मिनी दिखाने के लिए लाए हैं. तुझे उसका बड़ा चाव है. तू खड़ा रह, हम तुझे पद्मिनी देते हैं.”

यह कहकर वे जैसे ही आगे बढ़े,तो उनको बादशाह दिखाई पड़ा. युद्धवीर बादशाह ने बात बिगड़ जाने पर कहा कि-

“बादल ने धोखा किया है. सभी योद्धा एकत्र होकर आक्रमण करो.”

योद्धाओं में परस्पर युद्ध शुरू हो गया. बादल ने कहा कि–

हे बादशाह, यदि तू युद्धवीर है, तो पाँव पीछे मत रखना. तू योद्धा है, तो संग्राम करना, नहीं तो तेरी इज़्ज़त नहीं रहेगी.

बादशाह के जुझारू योद्धा यम दल की तरह भिड़ गए. धूल उड़कर आकाश में छा गई, जिसमें सूर्य छिप गया. दोनों दिशाओं से बाण छूटने लगे.

तलवारें चलने लगीं और उनके टकराने से चिनगारियाँ उड़ने लगीं. ऐसा लगता था जैसे अंधकार में अग्नि ज्वालाएँ हों. रुधिर प्रवाह चलने लगे,जैसे वर्षा ऋतु में नाले बहते हैं. योगिनियाँ खून से अपने खप्पर भर रही थी और शिव मुंड माल लेकर घूम रहे थे. धूल से प्रकाश अवरूद्ध था और गिद्ध मांस नोचकर टुकड़े ले जा रहे थे. सूर्य का रथ ठहर गया था और इसकी रक्ताभा निष्प्रभ हो गई थी. इसी समय गोरा दौड़कर वहाँ गया, जहाँ बादशाह था. उसने बादशाह पर तलवार से प्रहार किया, जिससे वह वहाँ से भाग छूटा. बादल ने कहा कि- 

‘‘भागते हुए को मारना दोष है.‘‘ 

राजा रत्नसेन दुर्ग के ऊपर से संग्राम देख रहा था. पद्मिनी भी गोरा-बादल को शत्रुओं का संहार करते हुए देख रही थी. पद्मिनी खड़ी हुई बादल को आशीर्वाद दे रही थी कि-

बादल, तुम्हारी बलिहारी है. तुमने मेरा सौभाग्य रख लिया. योद्धा तो बहुत हैं, लेकिन वे सभी व्यर्थ निकले. शक्तिशाली बादल एक ही योद्धा था, जो सत्य से नहीं चूका.

बादल ने स्वामी धर्म और युद्ध की मर्यादा रखी. गोरा युद्ध में बादशाह की सेना को नष्ट करके खेत रहा. बादशाह का लशकर को लूट लिया गया. बहुत से मर गए या भाग गए. बादल अकेला था, लेकिन वह जीत गया. उसने बादशाह को छोड़कर यश लिया. बादशाह ने बादल से कहाकि-

तुमने अच्छा युद्ध किया. तुमने मुझे जीवनदान दिया. मैं तुम्हारी कीर्ति का वर्णन कैसे करूँ.‘‘

बादशाह अकेला चला गया. गोरा-बादल ने युद्ध जीत लिया. गढ़ के दरवाज़े खोल दिए. राजा रत्नसेन बादल को लेने सामने आया और दोनों एक-दूसरे के गले लगे. उत्सव के साथ बादल को अंदर लिया गया और राजा ने आधा देश बादल को दे दिया. पद्मिनी गर्व पूर्वक बोली कि-

बादल के समान दूसरा कोई नहीं है. उसने मुझे सौभाग्य देकर प्रसन्न किया.

उसने कहा कि

“बादल! तुम्हारी माँ धन्य है, जिसने तुम्हें जन्म दिया. तुम्हारी पत्नी भी धन्य है, जिसके बादल जैसा पति है.

पद्मिनी ने मोतियों का थाल भरकर बादल के माथे पर तिलक दिया और उसको बधाई दी. उसने उसको अपना भाई बनाकर उसके घर पहुँचाया. वहाँ बादल का स्वागत हुआ. मोती उछाले गए. सभी सगे-संबंधी उससे आकर मिले. शत्रुओं का संहार करके वह महल के बीच में आया. उसकी स्त्री ने नए परिधान धारण करके उसको लंबा तिलक निकाला. तलवार का आभूषण लेकर वह सामने आई. कुशलक्षेम के साथ घर आ जाने पर उसको बधाइयाँ दी गईं. अब गोरा की स्त्री ने बादल से कहा कि

तुम्हारे काका युद्ध में कैसे काम आए. उन्होंने कैसे प्रहार किए और शत्रुओं को कैसे नष्ट किया?” गोरा ने कहा कि-

‘‘हे माता सुनो! मैं कैसे वर्णन करूँ! उन्होंने बहुत से हाथियों को मार दिया. योद्धाओं का तो पार ही नहीं है. उन्होंने बादशाह को अकेला करके उस पर आक्रमण किया. उन्होंने अपने शरीर को तिल-तिल छिदवा दिया और फिर स्वर्ग में पहुँच गए. उन्होंने योद्धाओं को लाज रखकर कुल को उज्ज्वल कर दिया.

यह सुनकर गोरा की स्त्री के मुख पर प्रसन्नता छा गई. उसे रोमांच हो आया. वह प्रसन्न होकर बोली कि- 

“हे बादल! सुन, ठाकुर स्वर्ग में अकेले है. मेरे और उनके बीच में दूरी बहुत हो गई. वे मुझ पर गुस्सा करेंगे. अब देर मत करो. काकी को भी उनके स्थान पर पहुँचा दो.” 

बादल यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ. उसने कहा कि- माता,तुम धन्य हो.गोरा की स्त्री शृंगार करके घोड़े पर चढ़ी. राम-राम करती हुई उसने प्रस्थान किया और अग्नि स्नान कर लिया. वह स्वर्ग में अपने पति पास पहुँच गई. इंद्र ने उसे आसन दिया. स्वर्ग में पहुँचने पर उसकी जय-जयकार हुई. बादल के स्वामी धर्म का यश बखाना जाने लगा. उसके जैसा कोई योद्धा नहीं हुआ, जिसका तीनों लोकों में यश हो. उसने पद्मिनी की रक्षा की, राजा को वापस लाया, दुर्ग का दायित्व निभाया और युद्ध में मर्यादा रखी. ऐसा बादल धन्य है.

________


माधव हाड़ा 
(जन्म: मई 9, 1958)

प्रकाशित पुस्तकें: 
सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध.

संपर्क: 
अध्येता,भारतीय उच्च अध्यान संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला-171005,  
मो. 9414325302
 ईमेल: madhavhada@gmail.com  

 


जिस सुबह पिता गुजरे: सुभाष गाताडे

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(दो)
सुभाष गाताडे 

जिस सुबह पिता गुजरे !                                                        

 

ऐसा नहीं हुआ कि
पृथ्वी का चलना अचानक थम गया,
न चिड़ियों की वह आवाज़ें
जो कभी कभी बगल के पेड़ से
सुनायी पड़ती थीं
बिल्कुल विलुप्त हो गयीं,
जिन्दगी हमेशा की तरह
वैसी ही चलती रही
बदस्तूर
घर से निकलना काम पर
काम से घर लौटने की तर्ज पर
सुदूर तालीम के लिए गयी बेटी की आवाज़
सुनने के लिए
दिल की बेचौनियां वैसी ही रहीं
फरक महज इतना पड़ा
कि
उस अलसुबह
यह बात शीशे की तरह साफ हुई कि
अब
जमाने की सारी धूप
अपनी ही पीठ पर पड़ा करेगी
बिल्कुल सीधे
और यह एहसास गहरा गया कि
यकायक यतीम हो जाना
हर बच्चे की
नियति में शुमार होता है
शायद.

(पिता के न रहने का एक साल - 17 नवम्बर 2017)

 

कुछ दिन ऐसे बीतते हैं गोया उस दिन-रात का हर लमहा, हर पल आप को याद रह जाता है.

जैसे 27 साल के लम्बे वक्फे़ के बाद भी मैं बता सकता हूं कि जिस सुबह मेरी बेटी जन्मी उसकी पहले की रात मैंने किस उत्कंठा, बेचैनी और अदृश्य से डर के साये में बीतायी.

या चंद माह पहले, जुलाई 2020 में गुजरी अम्माजी (अंजलि की मां) का अंतिम दिन किस तरह बीता था, शाम के वक्त़ कैसे उनकी सांस तेज हो चली थी और वह अशुभ संकेत मिल गया था, किस तरह रात के ठीक 12 बज कर 25 मिनट और कुछ सेकेण्ड पर अपनी संतानों और अन्य आत्मीयों के बीच उन्होंने अंतिम सांस ली थी, जब हम सभी उन्हें घेरे खड़े थे. 

मेरे पिता- जिन्हें हम ‘बाबाकह कर पुकारते थे - जिस दिन गुजरे वह दिन मेरे लिए आज भी ऐसा ही दिन है.

मैं आप को बता सकता हूं कि सुबह किस समय इम्तियाज़ जो इंजिनीयरिंग की तालीम ले रहा था और साथ-साथ किसी होम हेल्थकेयर सर्विसेस में नौकरी करता था, और बाबा की देखभाल के लिए आता था,  ने मुझे आवाज़ दी- भैयाजी! और दूसरे कमरे में बिस्तर पर अर्द्धनिद्रा में पड़े मैंने अंदाज़ लगाया था कि वह क्यों बुला रहा है?

उस नौजवान इम्तियाज़ का मैं ताउम्र शुक्रगुजार रहूंगा क्योंकि मेरे पिता के अंतिम दिनों को बेहतर बनाने में वह जुटा रहता था.

सितम्बर माह के 2016 के अन्त में रात में किसी समय वह गिर गए थे और फिर कभी सामान्य जिन्दगी में लौट नहीं सके थे. गिरने में उनके कुल्हे की हड्डी टूट गयी थी और इस सदमे ने उनकी मानसिक स्थितियों पर भी असर पड़ा था. अस्पताल के बिस्तर पर उन्हें मिथ्याभास होता रहता था. उन्हें लगता रहता था कि वह किसी मंदिर में है या जिस कस्बे में उनका बचपन एवं किशोरावस्था बीता था , वहां के घर में है.

ऑपरेशन हुआ. सफल भी हुआ!

घर लौटे, लेकिन आखरी लगभग दो सप्ताह वह ‘अपनी दुनियामें ही रहते थे, जब उन्हें अपने बड़े भाई- जिनका नाम अण्णा था और जिनका लगभग 25 साल पहले ही इन्तक़ाल हो गया था- याद करते रहे. उन्हीं का नाम लेते थे.

कभी-कभी ही ठीक बात करने की स्थिति में होते.

ऐसा इत्तेफ़ाक था कि शाम के वक्त़ पिता थोड़े नॉर्मल हो जाते थे और इम्तियाज़ के साथ बात करते रहते थे.

इंजिनीयरिंग के उस छात्र के लिए- जो अभी अपनी पढ़ाई में मुब्तिला था- वह पूछते रहते थे कि- ‘तुम्हारी शादी कब होगी?’ वह बेचारा कुछ कहने से सकुचाता रहता था.

कभी-कभी मन का पारंपारिक कोना विद्रोह कर देता है कि  तुम कितने नाकारा थे कि अपने पिता की सेवा अकेले नहीं कर सके, किसी एजेंसी का सहारा लेना पड़ा.

ईमानदारी की बात कहता हूं कि वे मेरे ही पिता थे जिनके साथ साठ साल में कुछ माह कम का सान्निध्य, साथ, स्नेह मुझे मिला था; और इसके बावजूद उनकी सेवा में शारीरिक और मानसिक थकान इस कदर तारी रहती थी कि एक सीमा के बाद चाह कर भी कुछ अधिक कर पाने में हम असमर्थ थे. और न केवल हम दोनों बल्कि वे तमाम आत्मीय- जिनमें से कइयों से खून का रिश्ता भी था. कइयों से खून का रिश्नता नहीं था लेकिन खून से कई बार अधिक गाढ़ी दोस्ती का, कामरेडशिप का रिश्ता था, वे पिता की सेवा में जुटे रहते थे.  

कई बार प्रोफेशनल सेवाओं का भी  सहारा लेना पड़ा था.  इम्तियाज़ की हमारे घर में एंटरी इसी तरह हुई थी.


2

पिताअचानकनहींचलेगएथे.

उनके जाने का आभास हमें हो गया था.

वर्ष 2016 की शुरू में ही लगने लगा था कि साल पूरा करना उनके लिए मुश्किल साबित होगा.

ऐसा कोई प्रमाण नहीं पेश कर पाउंगा जो बता सके कि ऐसा क्यों लग रहा था, फिर भी जब जब उन्हें देखता तब यही बात लगने लगती.

वह अधिक भूलने लगे थे.

कभी-कभी अपने में खो जाते थे.

टीवी का रिमोट कन्टोल हाथ में रख कर वह पहले आराम से चैनल बदलते रहते थे और अपने मनमुआफिक आगे पीछे करते रहते थे, लेकिन अब वह छोटीसी गतिविधि में भी वह गड़बड़ाने लगे थे.

हाथ में रखी चाय कई बार उनके हाथ से कप के साथ गिर जाती थी. और ऐसी घटना होने पर उनके चेहरे का भाव अलग किस्म का रहता था. जिसमें वह ऐसा ‘लुकदेते कि जो कुछ हुआ है, उसमें उनका कोई दोष नहीं है.

कई बार ऐसा होता था कि वे बेहद बेतरतीब बातें बोलते, जिसका न कोई ओर हो ना छोर हो.

एक सुबह जब मैं चाय लेकर उनके बिस्तर के पास गया तब उन्होंने मुझे पूछा ‘मेरी शादी कब हो रही है’! मुझे लगा कि शब्दों के चयन में कुछ गड़बड़ी हो गयी है फिर मैंने पूछा कि ‘किसकी शादी', बोले- 'मेरी शादी.'

मैंने बात टाल दी और कोई दूसरा किस्सा शुरू किया.

लगता है कि मौत महज कोई घटना नहीं होती, वह एक सिलसिला होता है, जब रफता-रफता एक एक अंग आप का साथ छोड़ देता है. पिताजी का एक एक अवयव गोया अपने काम बन्द कर रहा था या धीमा हो चला था.

उसी साल अप्रैल माह में उन्होंने उम्र के नब्बे वसंत पार किए थे और इस ‘बर्थडे ब्वॉयको फोन करके या मिल कर मेरे तमाम आत्मीयों ने उनके उस दिन की रौनक बढ़ा दी थी. 

वह एक भरी पूरी जिन्दगी जिए थे.

तीन भाइयों के बीच मझले भाई के तौर पर वह थे, बड़े भाई अण्णा उर्फ नारायण थे तो उनसे छोटे थे मधुकर.

हमारे दादाजी क्या व्यवसाय, पेशा करते थे, इसका अन्दाज़ा नहीं है, शायद अपने भाई के साथ संपत्ति विवाद में उन्होंने काफी समय बीताया था और इसी के चलते या कुछ अन्य वजहों से वह कानूनी विवादों में उलझे रहते थे. पिताजी ही बताते थे कि घर में लगे म्युनिसिपालिटी के पानी के नल को लेकर उनका सरकारी मुलाजिमों से विवाद हुआ था, हो सकता है कि बातें महज बातों की सीमा से आगे बढ़ गयी थीं और मामला अदालत चला गया था और दादाजी को कुछ माह की जेल की सज़ा हुई थी. पिता की मां अर्थात मेरी दादी बहुत पहले ही गुजर गयी थी. 

नियमित आय नहीं होने के चलते उनके बेहद मेधावी सबसे बड़े बेटे - जिन्हें हम अण्णा काका कहते थे - को फौज में भरती होना पड़ा था, अंदाज़ा यही है कि वह पूरे बीस साल के भी नहीं हुए थो. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वह बर्मा की तरफ पहुंचे थे. उनकी तनखा आने लगी और घर की आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक हो गयी.

स्कूल के बाद की पढ़ाई के लिए पिता पुणे के एस पी कॉलेज पहुंचे थे. पढ़ने लिखने का शौक पहले से ही था, जो अब और बढ़ा था. पुणे में पढ़ाई के दौरान भी अपने आप को आर्थिक तौर पर मजबूती दिलाने के लिए प्रेस में या किसी अख़बार में वह काम भी करते थे.

डिग्री हासिल करने के बाद सेन्टल एक्साइज डिपार्टमेंट में इन्स्पेक्टर के तौर पर भर्ती हुए, मगर पढ़ने का शौक बना रहा था. वह लिखते भी थे, कहानियां लिखते थे, जो मराठी की अग्रणी पत्रिकाओं में ही नहीं बल्कि अंग्रेजी के ‘कैरवानआदि में छपती थी और राष्टभाषा समिति आदि द्वारा संचालित हिंदी पत्रिकाओं में कभी कभी छपती थीं.

मेरे बचपन में ही हम पुणे आ गए थे. मां जिन्हें हम आई नाम से पुकारते थे, हम तीन भाई बहन- रेखा, सुनिल और मैं सबसे छोटा- और बाबा, पांच लोगां का परिवार था, दो कमरे के मकान का किराया 35 रूपए था.

हम स्कूल में ही थे तब बाबा का तबादला मुंबई हुआ, मुंबई पूरी गृहस्थी को ले जाना - न केवल महंगा था बल्कि साथ ही साथ हमारी पढ़ाई को ही प्रभावित करता - इसलिए उन्होंने एक अनोखा फैसला लिया, रोज सुबह की ट्रेन से मुंबई जाने का और शाम तक पुणे लौटने का. ठीक बारह साल उन्होंने इसे निभाया था.

घर लौटते कभी 9 बज जाते थे तो कभी दस, लेकिन हमारे सवालों के लिए हमेशा ही तत्पर रहते थे.

चौंतीस पैंतीस साल बाद नौकरी करके वह उसी विभाग में डिप्टी कलेक्टर के तौर पर रिटायर हुए थे.

रिटायरमेंट के बाद पेंशन लेते हुए लगभग उन्हें तीन दशक बीत गए थे.

कभी कभी वह पूछते थे कि उन्हें कितनी पेंशन मिल रही है, और जब हम उन्हें राशि बताते तो कहते कि आखिर कितनी ज्यादा है मेरे लिए, मैं जब रिटायर हुआ था उस वक्त़ जितनी तनखा मिलती थी उससे भी यह कई गुना ज्यादा है.

2016 के आगमन के साथ अब लगने लगा था कि अलविदा का समय आ गया है.


जिन्दगीकेबारेमेंबेहदसकारात्मकनज़रियारखनेवालेउनकेजैसेलोगमैंनेबहुतकमदेखेहैं, जोहरस्थितिमेंसुकूनरखनाजानतेहैं, वेउम्रकेजिसभीपड़ावपररहें, हरलमहेउसकालुत्फउठातेरहतेहैं, इसबातसेउज्रहोताहैकिअबवहबूढेहोगएहैं, स्वास्थ्यकीकिसीपरेशानीसेबहुतअधिकपरेशानी.

बाबा अक्सर एक फिल्म की कहानी सुनाते थे जो गोया जिन्दगी के बारे में उनके फलसफे को बयान करती थी.

अंग्रेजी में बनी कोई वॉर फिल्म थी, जिसमें युद्धभूमि पर- जहां रोज सैकड़ों की तादाद में लोग मर रहे हैं- सक्रिय एक अफसर है, जो रोज सुबह उठता है तो बाकायदा अपनी दाढी बनाता है, जिसे यह भी मालूम नहीं कि वह अगले पल जिएगा या नहीं. तमाम चिन्ताओं मे डूबे सहयोगी अफसर उसकी इस आदत का गोया मज़ाक भी उड़ाते हैं. लेकिन वह अपने रूटिन में कोई तब्दीली नहीं करता और किसी अलसुबह दुश्मन की गोलियों का शिकार हो जाता है.

और ऐसे लोग तो और गिनेचुने ही मिले हैं जो खुद एक तरह से अपनी ही मौत की ‘तैयारीमें जुटे रहते हैं अर्थात वह किस तरह मरना चाहते हैं या मरने के बाद उनके शरीर के साथ क्या सिलसिला चले!

हमारी पड़ोसी साबिरा आपा ऐसी ही थीं, जो बाबा के गुजरने के दो तीन साल पहले गुजरी थीं.

उनकी उम्र अधिक नहीं थी. पैंसठ भी पार नहीं किया होगा.

उन्हें दिल की कोई समस्या थी, जो बिल्कुल ठीक हो सकती थी. अधिक से अधिक बाईपास करना पड़ता.

लेकिन जब किसी बीमारी के चलते उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ता तो डॉक्टरों को सख्त हिदायत देती थी कि वह हार्ट की समस्या पर गौर न करें, अधिक से अधिक कुछ सिम्प्टोमेटिक ट्रीटमेंट दें.

उन्होंने तय किया था कि जिस आत्मसम्मान के साथ अब तक उन्होंने एकल महिला की जिन्दगी बीतायी है, उसी गरिमा के साथ वह मौत के आगोश में चली जाएं.

एग्रिकल्चरल साइंटिस्ट के तौर पर अच्छा कैरियर था उनका. देश विदेश के दौरे भी किए थे.

ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलतीं कि अपुन जैसा कोई अपनी देसी छाप अंग्रेजी को याद करके लड़बड़ाने लग जाए.

हर ईद पर पूरे अपार्टमेण्ट के लोग उनके यहां ईदी खाने और उनका आशीर्वाद लेने पहुंचते.

उनका जिस साल इन्तक़ाल हुआ उस ईद को जब हम उनके यहां पहुंचे तो उन्होंने हम तीनों को- जीवनसंगिनी अंजलि और बेटी उर्मि को बिठाये रखा, काफी देर तक. जब बाकी लोग रूखसत हुए तो अपने बेडरूम में जाकर उन्होंने कुछ नायाब चीज़ निकाली और उर्मि को ईदी के तौर पर दी.

मेरे खयाल से तीन दशक से अधिक वक्त़ से एकल महिला की जीवन बीता रही थीं.

उनके निजी जीवन का संघर्ष काफी प्रेरणादायी था.

शादी के कुछ समय बाद किसी कान्फेरेन्स के सिलसिले में वह विदेश गयी थीं. विदेश से लौटीं तो इस दौरान उनके अपने पति ने दूसरी शादी कर ली थी. घर के अन्दर सूटकेस रखते ही उन्हें अपने पति के इस नए रिश्ते का पता चला था. पति ने उनसे कहा कि मैं तो धर्म के हिसाब से ही चल रहा हूं, तुम्हारा इस घर में स्थान बना रहेगा. वह वहां अधिक देर रूकी भी नहीं, वहीं से अपने माता पिता के घर पहुंची थीं

पिता पर जोर डाल कर उन्होंने अपने पति को तलाक दिया था, जिसे शायद खुला कहते हैं.

साबिरा आपा ने पता नहीं कि ‘लिविंग विलकी बातें पढ़ी थी या नहीं, जिसके तहत व्यक्ति खुद तय करता है कि स्वास्थ्य की गंभीर स्थितियों में महज जिन्दा रखने के लिए उसके शरीर पर किस तरह का इलाज न किया जाए, मगर  मौखिक तौर पर वे उसे अमल में लाती रहीं थीं.

वे जब गुजरी उस वक्त़ हम लोग दिल्ली के बाहर थे, लौटे तो यह दुखद ख़बर मिली.

यह भी जानकारी मिली कि दिल्ली के किस कब्रगाह में उन्हें सूपूर्द खाक किया गया था.

हमारे अपार्टमेण्ट के गेट पर एक छोटासा नोटबोर्ड लगा है, जिसमें सभी जरूरी सूचनाएं लिखी जाती हैं या चिपका दी जाती हैं.

साबिरा आपा के न रहने की ख़बर भी एक नोट में वहां दर्ज की गयी थी. कुछ ही घंटों बाद उनके ही पुराने पड़ोसी ने उस कागज़ को उतार कर फाड दिया था.

यह वही पड़ोसी था जो ‘विधर्मियों'को सबक सीखाने के प्रशिक्षण लेने के संगठित प्रयास में मुब्तिला था और अलसुबह गणवेश पहन कर निकलता था.


अगरसाबिराआपानेकिसतरहमरनाहैयहतयकियाथातोबाबातयकरनाचाहतेथेकिमरनेकेबादकैसाबीते?

क्या उनके शरीर को उसी तरह आग के हवाले कर दिया जाए, जैसे कि अब होता आया है या कुछ अन्य किया जाए जो समाजोपयोगी भी हो.

बाबा दरअसल देहदान करना चाहते थे.

और अस्सी साल पार करने के बाद जब उन्हें एहसास हुआ कि अब आखरी घड़ी कभी भी आ सकती है तो वह ‘सक्रियहो उठे थे.

और एक तरह से वह तीस साल से अधिक वक्फा़ पहले गुजरी अपनी जीवनसंगिनी अर्थात मेरी मां की आखरी ख्वाहिश को पूरा कर रहे थे, जिनकी वह इच्छा उस वक्त़ पूरी नहीं हो सकी थी.

बस नेत्रदान करके ही संतुष्ट होना पड़ा था.

आज से ठीक पैंतीस साल पहले मेरी मां ने अपनी मृत्यु के पहले अपने देहदान की घोषणा की थी.

ऐसा नहीं था कि उन्होंने देहदान की वैज्ञानिक अहमियत के बारे में जाना था.

न उन्हें यह पता था कि सांस रूकने के बाद भी शरीर के कई हिस्सों को निकाल कर दूसरों के शरीर पर प्रत्यारोपित किया जा सकता है- नेत्रादान के अलावा आंख पर का पारदर्शी परदा (कार्निया), हड्डियां, त्वचा, कुछ मुलायम उतक, किडनी, लीवर, हृदय, स्वादुपिण्ड जैसे महत्वपूर्ण अवयवों को आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है.

न उन्हें इस बात की जानकारी थी कि ऐसा करने का इरादा रखनेवाले लोग बहुत कम मिलते हैं, जिसका नतीजा यही होता है कि जरूरतमंद मरीजों की लाइन बढ़ती जाती है, सालों बीत जाते हैं, ऐसे मरीजों के इंद्रियों के प्रतिस्थापन के लिए.

पीछे मुड़ कर देखता हूं तो थोड़ा चकित रह जाता हूं कि मूलतः एक होममेकर रही मां, जो बीस के दशक के उत्तरार्द्ध या तीस के दशक की शुरूआत में जन्मी थीं और अस्सी के दशक में हमसे बिदा हुई थी, जिन्होंने हम तीनों बच्चों को- रेखा, सुनिल और अपुन- को पाल-पोंस कर बड़ा करने में जिन्दगी बीतायी थी, उन्होंने आज भी रैडिकल लगने वाला यह कदम कैसे उठाया था?

सच यह है कि हाल के दिनों में देहदान, अंगदान को लेकर निश्चित ही प्रचार बढ़ा है, कई नामवरों के उदाहरण सामने आए हैं, लेकिन इसे लेकर तमाम संभ्रम मौजूद हैं, धार्मिक विचारों के लोगों के लिए अक्सर ऐसी बात किसी कुफ्र से कम नहीं लगती; इस पृष्ठभूमि में मां का यह निर्णय बहुत दूरंदेशी दिखता है.

ऐसा भी नहीं था कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में राजनीतिक सामाजिक हलचलों में सक्रियता शामिल थी, जिसने उनके वैचारिक विकास को प्रभावित किया हो. हां, एक किस्सा वह जरूर बतातीं थीं 1942 के दिनों में उनके छोटेसे कस्बे-तहसील बार्शी में (जिला सोलापुर) में निकलनेवाली प्रभातफेरियों में वह कभी शामिल हुई थीं.

प्रभातफेरी के गाने की शुरूआती पंक्तियां जो उन दिनों गायी जाती थीं मुझे आज भी याद हैं : ‘सागरासंगे नदी बिघडली, नदी बिघडली, सागरची झाली ; आमीबी घडलो, तुमीबी घडा ना ( सागर के साथ नदी एक तरह से ‘बिगड़ गयीअर्थात अपने रास्ते से हट गयी और खुद सागर बन गयी ; हम भी रचे हैं, तुम भी रचो)

लेकिन इससे अधिक राजनीतिक एक्स्पोजर नहीं था.

हां, हम लोग स्कूल में थे तो वहां महिला मंडल में शामिल होती थी, जिसका संचालन संभवतः ऐसी महिलाएं कर रही थीं जो भारतीय जनसंघ के करीब थीं. अपनी इन सहेलियों का दबाव हो या उनकी अपनी निजी रूचियां हो, जनसंघ के जो प्रत्याशी हमारे इलाके से खड़े होते थे, उन्हें वह शायद वोट करती थी.

पांच सदस्यों का हमारा घर राजनीतिक विविधता की दिलचस्प तस्वीर पेश करता था.

पिता ताउम्र कांग्रेस के साथ विचारधारात्मक तौर पर सम्बद्ध रहे थे. 77 के दिनों में जब जनता पार्टी की लहर थी तब भी उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में वोट डालने से तौबा नहीं किया था. नेहरू के प्रति उनके विचारों के प्रति और स्वाधीन भारत के निर्माण में उनके ऐतिहासिक योगदान के प्रति उनकी यह जबरदस्त वैचारिक प्रतिबद्धता थी कि हम तीनों भाई बहन अपने अपने स्कूल के प्रतिकूल वातावरण के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर बने रहे. और हम जब बड़े हुए तो वामपंथ की ओर झुके.

मैं महसूस करता हूं कि मां ने कभी यह खुल कर नहीं कहा कि लेकिन अपने इस निजी अनुभवों से- जब वह लगभग बारह साल बिस्तर पर रही - ईश्वर पर उनका विश्वास लगातार कम होता गया था. एक सच्चे आस्तिक के तौर पर उन्हें लगता था कि उन्होंने ईश्वर की पूजा में कभी कोई कमी नहीं की, उन्होंने किसी का बुरा नहीं चाहा, सभी को सहयोग देती रही, इसके बावजूद उन्हें यह क्यों भुगतना पड़ रहा है.

दरअसल 12 साल तक गठिया से परेशान मां ने कहीं देहदान के बारेमें सुना था और मरने के काफी पहले मेरे पिताजी को भी बताया था कि वह  चाहती हैं कि उनका शरीर अगर किसी के काम आ सके तो अच्छा रहेगा.

यह कहना गलत नहीं होगा कि अपने देहदान की बात एक तरह से उनकी अपनी ओढ़ी आस्तिकता के प्रति उनके मन में प्रस्फुटित विरोध, विद्रोह का ही ऐलान था.

बड़ी बहन रेखा मां के अंतिम दिनों के बारे में बताया करती है, 87 के जनवरी के अंत में उन्होंने अंतिम सांस ली थी.

उन दिनों प्रस्तुत कलमघिस्सु काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मेकॅनिकल इंजिनीयरिंग में पीएचडी में दाखिला लिया था, लेकिन मूलतः वामपंथी आन्दोलन के कार्यकर्ता की तरह सक्रिय था.

एक-एक करके रिश्तेदार पहुंचने लगे थे. सभी शोकाकुल थे.

उनके अन्तिम संस्कार की बात चल पड़ी तो पिताजी ने मां की इस अंतिम इच्छा के बारे में बताया तो कुछ अन्य आत्मीय बेहद दुखी हुए.

उन्हें मैं दोष नहीं देता, हो सकता है उनको एक तरह से लगा हो कि ऐसा करेंगे तो मां को मोक्ष नहीं मिलेगा या उन्हें यह भी लगा हो कि यह उसके पार्थिव शरीर की तौहीनी हो. बात जो भी हो.

ऐसे भावुक क्षणों में- जब लगभग चार दशक की उनकी जीवनसंगिनी बिदा हो चुकी थी- बाबा के लिए भी आई की अंतिम इच्छा पूरा करना  संभव नहीं रहा. तय हुआ कि मां की आंखें दान दी जायें.

नेत्राबैंक वाले पहुंच गए थे. और सभी औपचारिकताएं पूरी कर वह जल्द ही घर से निकल गए थे.

उनके मृत शरीर को अग्नि के हवाले कर सभी आत्मीय कुछ घंटों में घर लौट आए. शाम को नेत्राबैंक वालों ने सन्देश दिया कि मेरी मां ने दो लोगों को ‘दृष्टिप्रदान की है. मालूम हो कि नेत्राबैंक वालों का नियम है कि वह यह नहीं बताते कि इन नेत्रों से कौन लाभान्वित हुआ है, उसकी निजता बनाए रखते हैं.

कितना साल हो गया मां को गुजरे अलबत्ता अभी भी अपने बचपन-किशोरावस्था के नगर पुणे जाता हूं तो सड़कों पर चलते हुए यही सोचता हूं कि क्या पता सामने से गुजरनेवाला वही व्यक्ति हो, जिसे मेरी आई ने दृष्टि प्रदान की थी.

क्या पता आई की ‘आंखेंमुझे आज भी चुपचाप निहार रही हों.


5

उस दिन का किस्सा नहीं भूलता जब बाबा सुबह के वक्त़ टहलने के लिए निकले तो देर तक लौटे नहीं थे.

हमारी चिन्ता बढ़ती जा रही थी. उनके कुछ गिनेचुने दोस्तों, परिचितों को हम लोग फोन कर चुके थे, वह कहीं नहीं थे.

हम लोगों ने उन्हें एक मोबाइल भी खरीद कर दिया था, लेकिन वह कॉल रिसीव नहीं कर पाते थे. घंटी बजती रहती थी.

शायद खाने का वक्त़ हो रहा था जब हम पुलिस में सूचना देने जाने की सोच रहे थे, तब अपार्टमेण्ट के गेट पर दिखाई दिए थे और हम लोगों ने चैन की सांस ली थी.

कहां गए थे, बाबा?

घर पहुंचते ही अंजलि ने पूछा था. बगल में खड़ी बेटी उर्मि दरअसल अपनी मां का हाथ थामे उसे सहला रही थी गोया यह कहते हुए कि अब जब ‘आजी- वह उन्हें इसी नाम से पुकारती थी- लौट गए हैं, तो यह सवाल बाद में पूछ लेंगे.

खाना खाते वक्त़ उन्होंने अपनी सुबह की यात्रा का वृतांत पेश किया- यह पूरी तरह भांपते हुए कि हम लोग काफी चिंतित रहे हैं. वह दरअसल हमारे घर के पास स्थित अंबेडकर अस्पताल पहुंचे थे- जो एक बड़ा सरकारी अस्पताल है- यह पता करने के लिए कि देहदान कैसे किया जाता है?

उन्होंने यह भी बताया कि वहीं किसी से मुलाक़ात कर उन्होंने यह भी जानना चाहा था कि क्या वह जीते जी अपनी किडनी या फेफडे़ को दान कर सकते हैं.

पता नहीं उनकी वहां किस किस से मुलाक़ात हुई थी, लेकिन वहां खड़े किसी गार्ड ने उन्हें समझा बुझा कर रिक्शा में बिठा कर घर रवाना कर दिया था, शायद यह सोचते हुए कि बूढे की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है.

फिर एक दिन हम लोग अपने फैमिली डॉक्टर शर्मा के पास गए थे, उन्हीं के बुखार के लिए दवाई लेने के लिए.

डॉक्टर शर्मा ने उन्हें देखा, हमें दवाई भी दी, यह सिलसिला पूरा हो गया तो उन्होंने हम दोनों को नज़रों से इशारा किया कि हम उनकी केबिन के बाहर चले जाएं. और उन्होंने डॉक्टर शर्मा से कुछ बात की.

थोड़ी देर में ही वह बाहर निकले थे. चेहरे पर प्रसन्नता का भाव था.

अगली मुलाक़ात में डॉक्टर शर्मा ने बताया कि  वह दरअसल अंगदान, देहदान के बारे में ही जानना चाह रहे थे.


हम लोग उनके न रहने की सूचना आत्मीयजनों को दे रहे थे. और फिर रोते रोते ही बड़ी बहन रेखा का फोन आया था.

सुभाष, अंतिम संस्कार के बारे में क्या सोचा है?’

अब सबकुछ इतनी तेजी से हमारे सामने घटित हुआ था कि उनकी इच्छा के बावजूद हम देहदान की आवश्यक औपचारिकताएं पूरी नहीं कर सके थे, एक झिझक भी रही थी कि कैसे अपने पिता को लेकर यह बात कहीं छेड़ी जाए.

विद्युत शवदाहग्रह ले जाने की योजना है.

बहरहाल, शोक के उस क्षण में भी उसने याद दिलाया कि मुझे याद है ना कि वह देहदान करना चाहते थे. कहने का तात्पर्य था कि उन्होंने रेखा से भी पहले बात की थी.

फिर कुछ मित्रों-परिचितों के जरिए देहदान के लिए संस्थागत संपर्क हुआ.

उधर से बताया गया कि जब आप कहेंगे तब अस्पताल की गाड़ी पहुंच जाएगी. हम लोगों ने उन्हें बताया कि बाकी आत्मीय जन शाम तक जुटेंगे तो वह उसी हिसाब से आएं.

वैसे एकाध घंटे के अंदर आई बैंक के डॉक्टर पहुंचे, उन्होंने बताया कि आंखें शरीर का वह हिस्सा होती हैं, जिनके डिजनरेशन की प्रक्रिया तेजी से शुरू होती है और यह बेहतर होता है कि मृतक  से उन्हें निकाला जाए तथा जरूरतमंदों की आंखों में स्थापित किया जाए.

कुछ मिनटों में ही युवा डॉक्टरों की वह टीम रवाना हो चुकी थी.

दिन में दोस्तां-मित्रों-रिश्तेदारों का आने का सिलसिला चलता रहा.

शीशे की अलमारी में पिता की बॉडी रखी गयी थी. उनके चेहरे पर एक शांति का एक भाव पसरा हुआ था, ऐसा लगता था कि अब अचानक जग जाएंगे और आवाज़ देंगे ‘अरे सुभाष चहा टाक  (सुभाष चाय बनाना.)

शाम के वक्त़ एम्स की तरफ से एम्बुलन्स पहुंची. बड़े भाई सुनिल, क्षमाभाभी, भतीजी राधिका- जो मुंबई से पहुंची थी-  और रिश्तेदार तथा अन्य कई आत्मीयजन एकत्रित हुए थे.

पिता की अर्थी को एम्बुलेन्स के साथ आए कर्मचारियों ने पूरे आदर के साथ उठाया और अपार्टमेट के गेट पर खड़ी एम्बुलेन्स में रखा.

अपार्टमेण्ट के तमाम लोग गेट पर ही इकटठा थे.

पिता और मां सदृश्य कइयों ने मेरे बालों में हाथ घुमाया और सांत्वना दी, कुछ हमउम्र ने महज हाथ दबा कर अपनी संवेदनाएं संप्रेषित की, कुछ की निगाहें ही दुख की हमारी इस घड़ी में एक नया संबल दे रही थी.

एम्बुलेन्स आंखों से ओझल होने तक मैं उसे निहारता रह गया.

मेरे जीवन का एक अध्याय समाप्त हो चुका था.

मैं जानता हूं कि मैं तमाम दुनिया के उन गिनेचुने भाग्यशाली लोगों में से एक हूं जो खुद बुडढे हो जाते हैं लेकिन जो अपने माता-पिताओं की स्नेह की चादर में लिपटे रहते हुए किसी न किसी रूप में बच्चे बने रह सकते हैं.

इंजिनीयरिंग में पोस्टग्रेजुएट डिग्री हासिल करने के बाद जब मैंने एक अलग ढंग से जिन्दगी जीने तय किया था, जब आई, बाबा को बताया कि मैं वामपंथी धारा के एक अदद कार्यकर्ता के तौर पर सामाजिक कामों से ही जुड़ा रहना चाहता हूं, नौकरी नहीं करना चाहता हूं तो भी दोनों में से किसी ने भी मुझे भी यह नहीं कहा था कि मैं इस रास्ते पर क्यों चल रहा हूं. बस उन्होंने ऐसी जिन्दगी के जोखिमों के बारे में आगाह करने की कोशिश की और सेहत का ध्यान रखने के लिए कहा था.

वैचारिक तौर पर भले ही हम लोगों में थोड़ी मतभिन्नताएं रही हों, लेकिन एक उदार पिता के तौर पर उन्होंने अपने विचारों का लादने की कभी कोशिश नहीं की थी.

बचपन से ही उनके साथ एक मित्रा का रिश्ता कायम हुआ था. पूरी जिन्दगी में महज एक बार उन्होंने मेरे व्यवहार के प्रति नाराजगी प्रगट की थी, डांटा नहीं था. कुछ समय तक उन्होंने मुझसे न बोलने का नाटक किया था. बस मेरे लिए उतनीही सज़ा काफी थी.

मेरी बेटी ने अपने एक ख़त में कभी एक उद्वरण भेजा था :

“Never be afraid to reach for the stars, because even if you fall, you’ll always be wearing a 'parent-chute’ "

मेरे लिए यह ‘पेरेन्ट चूटताउम्र उपलब्ध रहा था.

अब वह 'parent-chuteकाल के गाल में समा गया था.


दूसरे दिन सुबह हम भाई बहन जीजा एम्स पहुंचे.

दरअसल बहन और जीजा को पिता के अंतिम दर्शन करने थे, वह देर में दिल्ली पहुंचे थे.

वॉर्ड के गेट पर डा. नसीम से मुलाक़ात हुई थी.

उन्होंने कहा की कि दुख की ऐसी घड़ी में आम तौर पर लोग अपने अज़ीज़ों के संकल्पों को पूरा करने पर कायम नहीं रह पाते हैं और हम सभी इस मसले पर साथ है, यह सकारात्मक है. उन्होंने हमें समझाया कि देहदान की गयी बॉडीज का प्रयोग मेडिकल स्टुडेंटस के अध्ययन के दौरान भी किया जाता है. और इस बाबा के इस पार्थिव पर कमसे कम दो दर्जन बच्चे अध्ययन करेंगे.

आईस बॉक्स में रखी बाबा के पार्थिव को देख कर मन फिर एक बार विचलित हुआ था.

सुकून यही था कि मृत्युके  बाद भी वह किसी न किसी रूप में समाज के काम आ रह हैं.

मन ही मन मैंने सोचा हर धर्म मरने के बाद जीने की बात कह कर अनुयायियों को भरमाते रहते हैं, लेकिन मरने के बाद ‘जीने काइससे शानदार तरीका आखिर क्या हो सकता था भला, जो पिता ने अपनाया था.

शोक की उस घड़ी में भी इस खयाल ने ही मन की व्यथा को थोड़ा कम किया था.

बड़े भाई सुनिल - जो मराठी में बेहद उम्दा कविताएं करते रहे हैं - ने उन्हें याद करते हुए एक कविता लिखी थी:

हममें ही छिपे बैठे हैं बाबा
मुझे अब कभी-कभी अपने में ही दिखते हैं बाबा
टीवी लगातार देखते रहता हूं तो पत्नी कहती है ‘आ गए बाबा’’
अकेले ही विचार करते हुए मैं खुद ही दांत से अपना नीचला होंठ दबा देता हूं
और मुझे लगता है कि मैं हुआ बाबा
 
बच्चे जब मुझ पर जोर से चिल्लाते हैं खूब गुस्से में
तब मुझे लगता है कि मैं हुआ बाबा.
आई की याद आयी तो अपने आप आगे आते हैं बाबा
मुझे तो सपने में भी दिखाई दिए थे बाबा
 
अपने में होकर भी बेचैन करते हैं बाबा
कितने नजदीक होते हुए भी दूर गए बाबा

______________________________

सुभाष गाताडे
पता : एच 4, पुसा अपार्टमेंट्स
सेक्टर 15, रोहिणी, दिल्ली 110089
मोबाइल : 9711894180/subhash.gatade@gmail.com



 


विशेष आयोजन: कला के व्योम में शब्द और कर्म

रज़ा : जैसा मैंने देखा (८) : अखिलेश

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कलाओं के आपसी रिश्ते घनिष्ठ रहें हैं. संगीत से कविता का नाता आदि से अबतक अनवरत है. चित्र से कविता की यारी भी पुरानी है, भारतीय चित्रकला में इसकी पुष्ट परम्परा मध्यकाल तक चली आई थी. आधुनिक चित्रकला में इसका पुनरागमन विश्व के कुछ महत्वपूर्ण चित्रकारों में से एक माने जाने वाले सैयद हैदर रज़ा की देन है. उनके साठ से अधिक चित्रों में देवनागरी लिपि में हिंदी,उर्दू संस्कृत की कविताएँ/शब्द अंकित हैं.  

‘रज़ा: जैसा मैंने देखा’ की यह आठवीं क़िस्त विशेष है, इसमें रज़ा के सम्पूर्ण चित्रकला कर्म में शब्दों की उपस्थिति और महत्व की पड़ताल प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश ने की है. चित्रों की दुनिया में रज़ा भारतीय मनीषा के सच्चे वैश्विक पहचान थे.

अखिलेश का यह पेंटिंग के क्षेत्र में एक शोध जैसा कार्य है ज़ाहिर है इसका महत्व है और रहेगा.

प्रस्तुत है. 

 

रज़ा : जैसा मैंने देखा (८) 
कब किसने प्रिय, तेरा रहस्य पहचाना                              
अखिलेश


गैलरी लारा विंची से रज़ा का अनुबंध चल ही रहा था और सभी गैलरियों की तरह वह भी रज़ा के चित्रों पर अपनी लग़ाम कसे हुए थी. इसी बीच बर्कले विश्वविद्यालय, कैलिफोर्निया, अमेरिका से न्योता मिला तीन वर्ष पढ़ाने का और रज़ा ने उसे स्वीकार कर लिया. वे तीन वर्षों के लिए वहाँ चले गए और पीछे-पीछे गैलरी वाली वह महिला भी आ गयी. वहाँ जो हुआ उसका परिणाम यह था कि पेरिस लौटकर वर्ष सड़सठ में रज़ा ने अनुबंध समाप्त कर लिया और अब वे एक स्वतन्त्र चित्रकार थे. उन दिनों पेरिस में लगभग पाँच हज़ार चित्रकार अपना काम कर रहे होंगे.  जिसमें पिकासो, मातिस, डाली, शागालआदि सभी शामिल हैं.  

सत्तर के दशक में अजित मुखर्जी की पुस्तक'तंत्र'छपी जिसके विमोचन में रज़ा भी शामिल थे. यह पुस्तक उन्हें विशेष रूप से पसंद आयी और रज़ा का झुकाव तंत्र की तरफ़ बढ़ने लगा. उन्हें तंत्र के यंत्रों की ज्यामिति बुनावट ने आकर्षित किया. तंत्र के कई प्रतीकों की तरफ उनका ध्यान गया- जिसमें बिंदू भी शामिल था, जो बचपन से उनका पीछा कर रहा था. रज़ा और तंत्र अब साथ साथ थे. वे उसके अध्ययन में डूब गए. रज़ा ने पेरिस में रहकर चित्रकला की वैश्विक समझ, कलाकारों के दृष्टान्त, आलेख, कविताएँ, अन्य लेखकों के विचार आदि से ही खुद को समृद्ध ही नहीं किया बल्कि उन्होंने अपने ऊपर भी काम किया. जिसमें खुद के लिए लाभकारी विषयों का अध्ययन भी शामिल था. यही वो समय है जब रज़ा दृश्यचित्रण से निकल कर शुद्ध चित्रकला के बिम्बों की तरफ़ मुड़ रहे थे, रास्ता आसान न था और राह परिचित न थी. रज़ा का ध्यान भारतीय मिनिएचर चित्रों की तरफ भी गया और उन्हें मालवा मिनिएचर भी याद आयें जो पढ़ाई के दौरान प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम (अब महाराजा छत्रपति शिवाजी संग्रहालय) में देखे थे. रज़ा ने अपनी भारत यात्रा में इन्हें एक बार फिर ध्यान से देखा.

रज़ा के चित्रों से दृश्य-चित्रण हट रहा था और ज्यामितिक आकारों से, स्पेस विभाजन से चित्र निर्माण की धीमी और प्रभावी प्रक्रिया इन चित्रों का आधार बन रहे थे. रंग की प्रमुखता मालवा मिनिएचर से, ज्यामितिक अमूर्तन का विश्वास तंत्र से और रज़ा की एकाग्र लगन इन चित्रों में प्राण फूँकने लगी.  

मिनिएचर से प्रभावित रज़ा ने चित्रों में लिखना भी शुरू किया. अपनी पसन्द की काव्य पँक्ति, या कोई शब्द या श्लोक और कभी-कभी पूरा एक पैराग्राफ. सबसे पहला चित्र उन्नीस सौ तिरेसठमें बनता है, जिस पर रज़ा लिखते हैं "आनो भद्राः ऋतवो यन्तु विश्वतः"फिर लम्बे समय तक कोई उकेरन नहीं, सड़सठमें 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता'यहाँ से शुरुआत होती है, रज़ा के नए दृश्य की, जिसमें कविता, कोई उक्ति, संस्कृत की एक पंक्ति या अंग्रेजी का कोई कोटेशन भी चित्र में लिखा रहता. ऐसा भी नहीं कि रज़ा सभी चित्रों में शब्द उकरने लगे या इन उक्तियों के सहारे उनके चित्र जाने जाने लगे. रज़ा ने अपने जीवन में मात्र साठ-पैंसठ चित्रों में शब्द उकेरे हैं, जिनमें ज्यादातर उस चित्र के विषय ही हैं जैसे पञ्च-तत्त्व, अंकुरण, चमत्कार, सूर्य नमस्कार, प्रकृति, मानवाधिकार, सप्त रस, सत्यमेव जयते, एकता-बन्धन, उपशान्तो यमात्मा, जागृति, रस, स्वस्ति, अमर-कन्टक, अमर-जीव, नाद-बिंदू, शांति, प्रकृति-पुरुष, महाभारत, सत्यम- शिवम् सुंदरम, हे राम, भारतीय समारोह, विस्तार, पुनरागमन आदि आदि.  


ये वे विषय हैं जो चित्र का शीर्षक भी रहे. कई कविताओं पर उर्दू शायरी के किसी शेर को भी उन्होंने चित्र में लिखा किन्तु शीर्षक कुछ और था.  'Immanence', १९९० नामक चित्र पर उन्होंने यह शेर उद्धृत किया:    

चंद कलियाँ निशात की चुनकर मुद्दतों महबे-आस रहता हूँ

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ.

'प्रेम', २००६ शीर्षक के चित्र पर:

यार से छेड़ चली जाये असद 

गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

 

'sans titre' (untitled) १९७५ : 

रात से जाग रहा हूँ नासिर

चाँद किस शहर में डूबेगा



 

आँचल शीर्षक से जो चित्र बना २०११ में उस पर: 

सिर्फ़ लहरा के रह गया आँचल

रंग बनकर बिखर गया कोई

 

ग़र्दिशे खूँ रगों में पैदा हुई

दिल को छूकर गुजर गया कोई

 

फूल सा खिल उठा तसव्वुर में

दामने शौक भर गया कोई

 

Terre Rouge १९६८ में लिखते हैं:

बुझ रहे हैं चिरागों दहरो हरम

दिल जलाओ के रोशनी कम है

 

रज़ा के दो हज़ार ग्यारह के एक रेखांकन पर यह शेर मिलता है जो भविष्य के चित्र की संकल्पना थी.  यह चित्र बना या नहीं पर शेर ये है : 

कुछ नहीं तो कम से कम, ख्वाबे सहर देखा तो है

जिस तरफ देखा न था अब उस तरफ़ देखा तो है.  

 

यदि एक तरफ़ उर्दू शायरी के कुछ शेर हैं तो दूसरी तरफ़ सूफ़ी-सन्त के दोहे भी लिखे गए हैं जैसे : 'सत्य-असत्य', १९९९ शीर्षक के चित्र पर लिखा:

रहिमन या संसार से गाढ़े हैं दो काम 

साचे से जग न मिले झूठे मिले न राम

 

'जो कछु है सो तोर', २००५ के चित्र पर लिखा:

मेरा मुझमें कुछ नहीं

जो कुछ है सो तोर

तेरा तुझको सौंपते

का लागत है मोर

 

'Sans Titre' (untitled) चित्र २००४:

हद को ताके औलिया बेहद ताके पीर

हद बेहद दोनों ताके ताको कहे कबीर

 

'माला'नामक २००० चित्र में:

इस अपूर्ण जगत में कब किसने प्रिय तेरा रहस्य पहचाना

 

श्याम-दो, १९९८ में :

ज्यों ज्यों डूबत श्याम में

त्यों त्यों उज्जवल होय

 

'Adho man nahi dus bees'१९६५ पर:

अधो मन नाहीं दस बीस 

फिर न हाथ क्यों मेरा काँपे, ले माला का अन्तिम दाना

 

इसके अलावा संस्कृत के श्लोक की पंक्तियाँ भी कुछ रज़ा का ध्यान खींचते रहे कुछ ही यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ -

'il ne pas blanck', १९६७ के चित्र पर:

न शुक्लं, न कृष्णं, न रक्तं, न पीतं

न कुब्जं, न पीनं, न हस्वं, ने दीर्घं

अरूपं तथा ज्योतिराकार तत्वा

 ताड़े कोवशिष्टं शिवः कवलोहं.  

 

'jour de lisse', १९६३ में:

आनो भद्रा: ऋतवो यन्तु विश्वतः

 

या १९६९ में 'Permanence'चित्र पर लिखते हैं :

स एव अद्य स उश्व:

 

सूर्य नमस्कार रज़ा का प्रिय विषय रहा है जिस पर वे कई बार लौटे हैं इस पँक्ति के साथ :

सूर्य आत्मा जगतस तस्थुषष्च

 

एक चित्र पर सिर्फ यह प्रार्थना है :

असतो मा सद्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मा अमृतंगमय

 

रज़ा का एक चित्र है प्रकृति. २००० में बने इस चित्र पर :

प्रकृति स्वामवषृम्य

विष्टजामि पुनः पुनः

 

उनका चित्र है 'नाद बिंदु'१९९४ पर लिखते हैं:

कृचिदस्योति बिन्दूनाम

 

एक अन्य प्रकृति १९९२ पर उन्होंने क्षिति,जल,पावक,गगन, समीराउकेरा. प्रकृति शीर्षक से कई चित्र बनाये और अक्सर प्रकृति ही लिखा. यही दो उदाहरण हैं जिसमें कुछ अलग था.   

रज़ा का भाषाओँ पर सहज अधिकार था, फ्रेंच, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू सभी पर समान अधिकार होने से उनको यह सुविधा मिली हुई थी कि वे इन भाषाओं में लिखे गए से सीधा सम्बन्ध बना सकते थे. इसके लिए उन्हें ज्यादा मेहनत नहीं करती पड़ी और वे सहज ही इन भाषाओं में लिखी कविताओं को अपने चित्रों में ले आये. उर्दू के शायरी का एक हिस्सा आप देख पढ़ चुके हैं हिन्दी कविताओं पर रज़ा का विशेष जोर रहा. यहाँ मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूँ :

'l'inconny', १९६८ और १९७२ में:

पंथ होने दो अपरिचित

प्राण रहने दो अकेला

 

'शून्य', १९८७ में:

इस तम शून्य में तैरती है जगत समीक्षा

 

'तनाव'शीर्षक के चित्र जो २००१ में बनाया उस पर लिखा:

संसार में जो कुछ भी है उसका कारण तनाव है

 

'sans titre'१९९२ में:

छोतहि ते उपजा सब संसारा

 

या 'सारा जग जलता रहा'२००५ में :

सारा जग जलता रहा अपनी-अपनी आग 

 


रज़ा का बचपन हमेशा उनके साथ रहा.  जंगल की स्मृति हो या पाठशाला की वे कभी न भूले और पेरिस के एकान्त में ये स्मृतियाँ ही उनका सहारा बनी. वे अपने बचपन में भटकते हुए अनेक ऐसी जगह चले जाते जो आज के समय का विस्मय है. एक ऐसा ही चित्र है उनका 'प्रार्थना'दो हज़ार पाँच में बना यह चित्र पाठशाला की प्रार्थना है, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'की यह कविता पाठशालाओं में सुबह की प्रार्थना में शामिल थी कविता इस तरह है :

वर दे, वीणावादिनी वर दे.  

प्रिय स्वतंत्र-राव-अमृत-मन्त्र नव

भारत में भर दे.  

 

काट अन्ध-उर के बन्धन-स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे.  

 

नव-गति, नव-लय, ताल-छन्द नव

नवल-कण्ठ, नव जलद-मन्द्ररव,

नव नभ के नव-विहग वृन्द को

नव पर, नव स्वर दे. 

वर्ष १९७८ में पहली मुलाक़ात के बाद रज़ा और अशोक वाजपेयी की मित्रता अपने किस्म की अद्वितीय मित्रता का उदाहरण है. यह मित्रता यहाँ से शुरू होकर अन्त तक रही और जब रज़ा ने फॉउण्डेशन की शुरुआत की तो उसका अध्यक्ष जिद-जोर से अशोक वाजपेयी को बनाया. रज़ा को उनकी कवितायेँ बेहद पसन्द थीं और सांस्कृतिक सक्रियता भी. रज़ा ने उनकी दो कविताओं को अपने चित्रों में उद्धृत किया एक 'रोशनी'१९९७ के चित्र में "आओ जैसे अँधेरा आता है अँधेरे के पास, जैसे जल मिलता है, जल में, जैसे रोशनी घुलती है रोशनी से. " 

दूसरा चित्र रज़ा के श्रेष्ठ चित्रों में गिना जाता है. जिस तरह 

हुसैन का प्रसिद्ध चित्र "Between Spider and the Lamp"है या 

अकबर पदमसी को 'Metascape'के लिए जाना जायेगा

अम्बादास का रूपभेद

स्वामीनाथन का चित्र flightमाना जाता है या 

पिकासो का गुएर्निका

दा विन्ची की मोनालिसा 

रेने माग्रेट का the Kiss,उसी तरह

रज़ा का चित्र 'माँ'जिस पर यह कविता पंक्ति लिखी है "माँ जब लौटकर आऊँगा, क्या लाऊँगा"है.  

यह चित्र इस कविता के साथ घुल-मिल नहीं गया है बल्कि कविता के बरक्स यह चित्र अपनी अनुगूँज लिए है और यह कविता-चित्र जुगल-बंदी का अद्भुत उदाहरण है. अशोक वाजपेयी की यह कविता उनके पहले कविता संग्रह   'शहर अब भी सम्भावना है'की चौथी कविता है. उन्नीस सौ चौंसठ में छपा यह संग्रह एक युवा कवि की पहली दस्तक थी. उस वक़्त अशोक जी की उम्र चौबीस वर्ष रही होगी. इस संग्रह की शुरुआत की चारों कविताएँ माँ के लिए ही हैं ;

पहली: अपनी आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत, दूसरी: साँझ : शिशुजन्म, तीसरी: माँ के बाद.

चौथी कविता 'लौटकर जब आऊँगा'.  यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा:

 

माँ लौटकर जब आऊँगा

क्या लाऊँगा ?

यात्रा के बाद की थकान  

सूटकेस में घर-भर के लिए कपड़े,

मिठाइयाँ, खिलौने, बड़ी होती बहनों के लिए

अन्दाज़ से नयी फैशन की चप्पलें ?

या रक्त की एक नयी सिद्धि

और गढ़ी हुई वीरगाथाएँ ?

 

क्या मैं आकर कहूँगा

मैंने दिन काटे हैं- एक समृद्ध आदमी की तरह

अपने परदे-ढँके कमरे की खिड़की से

मकानों की काई रची दीवारों पर

निर्विकार आती सुबह देखते हुए ?

 

या क्षुद्रताओं की रक्षा में

निर्जन द्वीप-समूहों में

समुद्र से अकेले लड़ते हुए ?

 

क्या मैं बताऊँगा

कि मैं आया हूँ

अँधेरी गुफाओं में से

जहाँ भूखी क़तारें

रह-रहकर चिल्लाती हैं

गिद्धों और चीलों की चीत्कार के बीच

माँ, तुम्हारा प्रिय शोकगीत

'रघुपति राघव राजाराम...' ?

 

क्या मैं तुमसे कहूँगा

ख़ुश हो माँ, अन्त आ गया है

-जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा थी

क्योंकि मैंने देखा है

नीले अश्व पर आरूढ़

भव्य अवतारी पुरुष को ?

 

या मैं सिर्फ एक किस्सा सुना पाऊँगा

नीले घोड़े पर सवार एक पिचके निर्वीर्य चेहरे वाले

आदमी की मौत का

एक छोटे से गांव में ?

या तुम्हारी तीखी नज़र को बचाते हुए

दूसरे खिलौनों के साथ

अपने छोटे भाई को दूँगा

एक काठ का नीला घुड़सवार ?

 

-क्या मैं लौटूँगा

अपनी निर्जल आँखों में अपमान भरे

जो अब हर रास्ते पर छाया है

आकाश की तरह

और तब

क्या तब तुम पहली बार पहचानोगी

मेरे चेहरे में छुपा

अपना ही ईश्वर दूषित चेहरा ?

 

माँ

लौटकर जब आऊँगा

क्या लाऊँगा ?

 

यह कविता मनुष्य की बेचारगी और अकेलेपन के अहसास से भरी हुई है. इस कविता में आत्म-निरीक्षण के साथ-साथ संसार की विद्रूपताओं, क्षुद्रताओं और मनुष्य के स्वभाव की कमजोरियों को केन्द्र में रखते हुए उससे उपजे स्वार्थ और उसका व्यर्थता बोध सब कुछ समेटा हुआ है. परिवार के होने का अर्थ और उसके न होने का अहसास, अकेलेपन से जुझते हुए अपनी उपलब्धियों का सूनापन उस अकारण अस्तित्व की तरफ़ इशारा है जिसके होने और न होने से संसार को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. इस कविता में, मृत्यु की अमर उपस्थिति और उसके बरक्स सभी जीवनदायी अस्थायी दुनियावी क्रिया-कलाप जिसमें बहनों के लिए नए फैशन की चप्पलें, काठ का घोड़ा, घर-भर के लिए कपड़े, उपलब्धियों की वीरगाथाएँ और माँ को तसल्ली देने वाला झूठ कि समृद्ध आदमी आया है, शामिल है. या उस अकेलेपन के एकान्त में अपने कमरे में गिद्धों और चीलों के चीत्कार में महसूस की गयी मौत की उपस्थिति जिसे अब हर तरफ़ देखने की आदत हो गयी है.  जिसे रघुपति राघव राजाराम की धुन में बुन लिया गया है. या माँ के लिए पिता के मौत की ख़बर में छिपी माँ की मौत जिसे लेने नीले घोड़े पर पिचके मुँह वाला निर्वीर्य सवार आता दिखाई दे रहा है. और यही नीला घोड़ा छोटे भाई के खिलौने के रूप में भी लाया गया है जिसे नज़र बचाकर दिया जा रहा है. जिसमें उस देने की निरर्थकता का बोध ग्लानि से भरे दे रहा है. 

और इन सब उपलब्धियों के पीछे छुपे अपमान-बोध का ज़िक्र करते हुए माँ से उम्मीद है कि वह ख़ुद का ईश्वर दूषित चेहरा पहचान लेगी.  इस पूरी कविता में बस एक यही जगह है जहाँ माँ से यह उम्मीद है कि वह यह सब पहचान लेगी. वह समझ सकती है लाचारी, बेचारी, व्यर्थता, निरर्थक और इस संसार में सिर्फ यात्री की तरह गुजर जाने का सुख.  यह कविता मनुष्य के असहाय होने की कविता है. यह कविता अकेले होने की बेचारगी और सब कुछ पा लेने के बाद भी उसके व्यर्थ होने की कविता है. इस कविता को लिख लेने और उसके बाद भी इसके अनर्थ होने की कविता है. चौबीस बरस के युवा मन की दुनिया में साक्षात्कार और उससे उपजी निराशा, हताशा, व्यर्थता बोध, उन्नति की आकांक्षा और उसका निरर्थकता बोध, तथाकथित आधुनिक मनुष्य की उपलब्धियाँ और उसके बरक्स मनुष्य होने की मजबूरी और अपनी माँ के सामने इन सब और इस सब संसार का व्यर्थ होने का अहसास जिसमें कवि सब पा रहा है और कुछ देना भी चाह रहा है किन्तु माँ के लिए सिर्फ उसका होना ही महत्वपूर्ण है.  जिसे वह जानता है और माँ की छोटी सी ख्वाईश को पूरा न कर पाने की मजबूरी में अपने मनुष्य को खोते जाने की पीड़ा इस कविता का जीस्त है.  

रज़ा ने जब यह पढ़ी होगी तब निश्चित ही उनका अंतर्मन हिल गया होगा. फ्रांस में इतने बरस रहना और विदेशी होने के सबब से सधे हुए पक्षपात को सहना रज़ा के लिए आसान न था.  इस कविता ने उन्हें अपने अकेले होने और उसके कारण निस्सहाय रहकर भी अपने कर्म पर विश्वासपूर्वक डटे रहने का भरोसा दिलाया होगा. रज़ा के लिए माँ उनका देश था और उनके पास देने को कुछ न था.  या देने की निरर्थकता का बोध ही उनकी उपलब्धि है इसे रेखांकित करती हुई कविता ने उन्हें झकझोर कर रख दिया. रज़ा को यह कविता पानी सी लगी. 

श्रीकान्त वर्मा की कविता'अवन्ति में अनाम'भी उन्हें बहुत पसन्द रही. जिसकी इन पंक्तियों से उन्हें प्रेम था कि 'मगध के माने नहीं जाओगे, अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे'.  

 


रज़ा के लिए फ्रांस और भारत दोनों ही प्रिय थे एक जगह जन्म हुआ दूसरी जगह ख़ुद को जाना. उनके मन की दुविधाओं को दूर कर रही थी यह कविता. उन्होंने चित्र बनाया 'माँ लौटकर जब आऊँगा क्या लाऊँगा', उन्नीस सौ इक्यासी में बना यह चित्र रज़ा की मनोदशा को व्यक्त करता सबसे उज्ज्वल चित्र है. इस चित्र में अहसास बेचारगी का नहीं है बल्कि बेचारगी का वैभव चित्रित है.  जिस तरह से कविता उस व्यर्थता के अहसास की अटूट वैभवशाली उपस्थिति का वर्णन करती है, उसी तरह यह चित्र उसका मनोहर चित्रण है. यह जुगलबंदी अद्वितीय है. उन्नीस सौ इक्यासी में रज़ा ने इसे रचा, जब उनकी उम्र लगभग साठ साल की थी. एक अच्छा ख़ासा अनुभव उनके साथ था, जीवन और चित्रकला के संसार में रहने का. यह चित्र उनके तंत्र और मालवा मिनिएचर से समृद्ध हो चुके समय का श्रेष्ठ चित्र है.               

इसके साथ उन्होंने अनेक चित्र बनाये 'forms of darkness,''बिन्दु', 'Green landscape', 'राजस्थान', 'white flower', 'Earth', 'Water'आदि अनेक और सभी में ज्यामिति और मालवा के रंग का अनुभव चढ़ कर बोल रहा है.  इस चित्र में भी बिंदु है और उसके इर्दगिर्द व्यूह-रचना है जिसमें कविता के बिम्ब नहीं दिखाई देते हैं किन्तु चित्रकार की व्यथा को तूलिका घात में लक्ष्य किया जा सकता है. पिछले तीस सालों का अकेलापन और उसकी बेकरारी चित्र में नहीं दिखती किन्तु यह चित्र रज़ा के अन्य चित्रों से इतर अपनी उज्ज्वल उपस्थिति दर्ज कराता है. रज़ा कविता का चित्रण नहीं कर रहे हैं न उसकी कोई परिपाटी रज़ा के यहाँ दिखाई देती है.  रज़ा दृश्य-चित्रण में भी हू-ब-हू चित्रण कभी नहीं करते थे.  न ही उनका लक्ष्य उस समय को दर्ज करना होता था, जिसके लिए अधिकांश दृश्य-चित्रण किया जाता है. रज़ा के लिए दृश्य-चित्रण अभ्यास भी नहीं दिखता. वे दृश्य चित्रण करते हैं और उस दृश्य से बाहर चले जाते हैं जिसे देखकर वे बना रहे हैं. उनके दृश्य चित्रण में कोई 'जगह'चित्रित नहीं है वे उस जगह के अनुभव को भी चित्रित नहीं करते हैं किन्तु जो चित्रित करते हैं उसकी सार्वभौमिकता पर किसी को शक नहीं हो सकता. यह दृश्य किसी दूसरी जगह का अनुभव भी हो सकता है. कहीं का भी हो सकता है. वे दृश्य में से 'जगह'बाहर निकाल कर रख देते हैं. उसका स्थानीय स्वरूप चित्रित करने के बजाय उसके सार्वभौमिक दृश्य को देख पाते थे. 

उनके कश्मीर के दृश्य-चित्र में बम्बई की उपस्थिति को दर्शक देख सकता है. 'माँ लौटकर जब आऊँगा'चित्र कविता का चित्रण नहीं है कविता की प्रेरणा से बना चित्र है. यह प्रेरणा उन्हें पेरिस के अनुभव से बाहर खींच लाती है और अपने देश की उस माटी-महक के बीच ले जाती है जहाँ मण्डला के घने जंगल हैं, मालवा के रंग हैं, बनारस का तंत्र है, देश की स्मृति है.  बचपन का भय है. रज़ा के बचपन का भय जीवन भर उनका पीछा करता है और उससे निजात उन्हें अपने चित्रों में ही मिलती है. रज़ा के लिए पेरिस भी एक जंगल था, जिसमें वो भटक रहे थे.  यह कविता उनके मगध और अवन्ती में होने और न होने के बीच के अहसास की कविता है.  वे भारत में रहते नहीं थे और फ्रांस की नागरिकता नहीं ली थी.  जिस देश के नागरिक थे वहाँ उनकी उपस्थिति नहीं थी और जहाँ रहते थे वहाँ के नागरिक नहीं थे.  हर बरस रज़ा का लौटना अपने देश की याद का पहलू न था, बल्कि वे उसे महसूस करना चाहते थे, उसकी मिट्टी की महक से रिश्ता बनाये रखना चाहते थे. मगर वे जानते थे कि 'लौटकर आऊँगा तो क्या लाऊँगा'एक शाश्वत अवस्था है और उनका लौटना व्यर्थ है. इतने बरस में माँ उसके बिना जीना सीख चुकी है.

देश से प्रेम और अपने गृह नगर की माटी की महक उन्हें इन कविताओं में मिली और पेरिस के एकान्त में इन कविताओं में वर्णित देश और उसकी स्मृति को उन्होंने अपने चित्रों में जगह देना शुरू किया और इस रास्ते देश से नाता बनाये रखना चाहा. रज़ा ने हिन्दी कविता के अलावा मराठी कविता को भी उकेरा इसी कविता को उन्होंने एकाधिक बार चित्रित किया: 

आधी बीज एकले

बीज अंकुरले

रोप वाटले     

एका बीजा पोटी

तरु कोटी-कोटी

जनम घेती

सुमने फळे 

राजस्थान भी रज़ा के चित्रों का विषय रहा जिसमें राजस्थान शीर्षक से उन्होंने कई चित्र बनाये और दो हज़ार चार का चित्र 'शेखावटी'पर उद्धृत ये शब्द :

शेखावटी

तीर्थ स्थल

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजाकारे रूपिणी 

इसी के साथ नर्मदा नामक चित्र में रज़ा नर्मदा की यात्रा के कुछ पड़ाव उकेरते हैं.  नर्मदा नदी से उनका बचपन समृद्ध हुआ था और वहाँ के लोग कभी नर्मदा को नर्मदा नहीं कहते.  रज़ा भी हमेशा नर्मदा जी ही कहते रहे.  इस चित्र में रज़ा ने लिखा: नर्मदा. अमरकन्टक, मण्डला, सप्तधारा, नरसिंघपुर, ओंकारेश्वर, भरुच. 

रज़ा पर कविता पंक्ति, उक्तियाँ और इस तरह शेर या दोहे को इस्तेमाल करते देख बहुत आरोप लगे कि ये भारत को बेच रहे हैं. इस तरह से कि यूरोप में भारतीय संस्कृति या सभ्यता के प्रति जो जिज्ञासा है या उसे जानने की इच्छा को रज़ा भुना रहे हैं. इस तरह के आरोप लगाने वाले निश्चित ही अज्ञानी थे और उन्होंने रज़ा के चित्र नहीं देखे थे. यह भी सही है कि रज़ा इससे विचलित हुए बिना अपना काम करते रहे. जैसा कि ऊपर मैंने बतलाया ही है कि इस तरह के कवितामय चित्र मात्र पैंसठ हैं और सिर्फ एक चित्र है जिस पर अंग्रेजी में महात्मा गाँधी का विचार लिखा है.  शेष सभी हिन्दी, उर्दू, और संस्कृत में हैं. यह हम सभी जानते हैं हिन्दी या किसी भी अन्य भाषा के प्रति फ्रांसीसी समाज उदासीन ही रहा है.  उन्हें अपनी भाषा के समक्ष अन्य सभी भाषाएँ पढ़ने योग्य नहीं लगती रही हैं. ऐसे में किसी भी फ्रांसीसी के लिए चित्र पर उकेरे गए ये शब्द मात्र टेक्सचर हैं. वह उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं करेगा.  

दूसरा एक वाक्य की वजह से किसी सभ्यता से कोई प्रभावित नहीं हो सकता.  इस तरह ऐसे किसी आरोप का कारण ईर्ष्या ही हो सकता है और न देखना भी. प्रख्यात चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन का जीवन भर का अनुभव है, जिसके आधार पर वे बता रहे थे कि हमारे यहाँ कोई चित्र देखता नहीं.  भारत भवन में काम करते हुए मैंने इस बात को व्यावहारिक रूप से जाँचा कि क्या लोग दीर्घाओं में चित्र देखते हैं ? वे देखने का नाटक करते हैं. उनकी कोई रुचि नहीं होती और उन्हें यह संसार एलियन लगता है. जहाँ वे 'बेचारे'कारणवश फँस गए हैं. दूसरे इस तरह की पंक्ति लिखे रज़ा के चित्र इतने कम हैं और फ्रांसीसी भाषा में लिखा एक भी नहीं है, कि शायद ही किसी फ्रेंच का ध्यान इस तरफ़ गया हो. अलबत्ता रज़ा के रंग जरूर सबको आकर्षित करते रहे हैं और मेरे देखे हुए चित्रकला के संसार में मुझे ऐसा कोई दूसरा चित्रकार नज़र नहीं आया जो रंग की इतनी गहरी समझ और उसे एक 'तत्त्व'की तरह बरतता हो.  


मृणाल पाण्डेय ने इस और ध्यान दिया है वे लिखती हैं :

"अपने सर्वाधिक उत्तेजक और मनोहारी रूपों में रज़ा के रंगाकार न सिर्फ भारतीय हैं , न फ़्रांसीसी; न केवल मध्यप्रदेश के हैं और न ही मात्र गोर्बियो के. वे ऐसे रंग हैं, जिनके पास परम्परा की पूरी अर्थमय गरिमा के साथ-साथ वैयक्तिक प्रतिभा की बेजोड़ लपकभरी कौंध भी है. और इसलिए वे बहुत कुछ और हो सकते हैं- पेड़, धरातल, शून्य, हवा, रेत, धूल के बगूले, प्रागैतिहासिक अवशेष, बीहड़ वन, तपते मकान. वे चित्र भी जिनको कोई विशेष नाम दिए गए हैं, मसलन 'ग्रीष्म आवास'या 'राजस्थान'- सिर्फ उस नाम के पर्याय ही नहीं, बल्कि उन बहुत सी नामहीन चीजों का सघन पुंज हैं, जिन्हें हम निरन्तर महसूस करते रहते हैं अपनी संवेदना के सहारे, भले ही वे हमारी ज्ञानात्मक तर्क-शक्ति के दायरे में न आते हों." 

मृणाल पाण्डेय ने कुशल कला समीक्षक की तरह उन बातों का खूबसूरती से बखान किया, जिनका सम्बन्ध रज़ा के चित्रों से हैं.  वे यदि कला-समीक्षक होती तो आज के समकालीन कला का साफ़-सुथरा पक्ष दर्शकों के सामने होता.  

रज़ा ने आठ वर्ष की उम्र में गाँधी जी को देखा था.  उस बाल मन पर पड़ी छाप जीवन भर उनके साथ रही और बाद में रज़ा ने जाना भी बापू के त्याग, आत्मबल और सत्याग्रह की ताकत को.  एक पूरी प्रदर्शनी रज़ा ने बापू को समर्पित की जिसके सारे चित्र बापू के सार को समेटने की सदिच्छा से बने थे.  एक चित्र "Thoughts of Gandhi ji"में बापू के विचार ही लिखे थे :

सत्य हर इनसान के हृदय में निवास करता है. उसे वहीं खोजना चाहिए.

सत्य जैसा किसी को नज़र आता, वैसे उससे संचालित होना चाहिए.

यह किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरे को मजबूर करे कि वे उसे जैसा सत्य दिखायी देता है उसके मुताबिक चलें.

सन्तोष कोशिश करने में है पाने में नहीं. पूरी कोशिश पूरी जीत होती है.

रास्ता जानता हूँ. वह सीधा और सँकरा है. वह तलवार की धार सरीखा है. मुझे उस पर चलने में मजा आता है. जब फिसलता हूँ तो रोता हूँ.

क्यों आसान है नीचे गिरना या नीचे फिसलना.  

ऊपर उठने से, सीढ़ी दर सीढ़ी ?

वही बचेगा जो मैंने किया, वह नहीं जो मैंने कहा या लिखा.  

जहाँ प्यार है, वहाँ ईश्वर है.  

(महात्मा गांधी)

 

इसी प्रदर्शनी के दूसरे चित्र हैं: 

'हे राम', 'सत्य', 'शान्ति', 'पीड़ पराई', 'सन्मति', 'स्वधर्म'.  

स्वधर्म रज़ा के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहा और विदेश में रहते हुए उन्होंने 'धर्म'और 'रिलिजन'के फ़र्क़ को महसूस किया.  धर्म की व्यापक परिभाषा ने उन्हें मोह लिया.  एक चित्रकार का 'धर्म'चित्र बनाना है जो रिलिजन के अर्थ से ज्यादा बड़ा और व्यापक है.  धर्म का अर्थ सिर्फ धर्म तक सिमटा नहीं है इस विचार ने उन्हें हमेशा उत्तेजित रखा और स्वधर्म उन्हें बहुत अपना सा लगा जिसमें इसे समझने के लिए उन्होंने चित्र पर गीता-प्रवचन का वह अंश भी उकेरा जो  विनोबा भावे ने अपनी गीता-भाष्य में लिखा :

रजोगुण के प्रभाव से मनुष्य विविध धंधों कार्यों में टाँग अड़ाता रहता है.  

उसे स्वधर्म नहीं रहता.  वास्तविक स्वधर्माचरण का अर्थ है अन्य बहुतेरे कार्यों का त्याग.  

गीता का कर्मयोग रजोगुण का रामबाण उपाय है. रजोगुण में सब चञ्चल है. पर्वत के शिखर पर से गिरने वाला पानी यदि विविध दिशाओं में बहने लगे तो वह कहीं का नहीं रहता.  

सारा का सारा बिखरकर बेकार हो जाता है. परन्तु वही यदि एक दिशा बहेगा तो आगे चलकर उसकी एक नदी बन जाएगी. उसमें से शक्ति उत्पन्न होगी.  

देश को उससे लाभ पहुँचेगा. इसी तरह मनुष्य यदि अपनी शक्ति विविध उद्योगों में न लगाकर उसे एकत्र करके एक ही कार्य में सुव्यवस्थित रूप से लगाये

तो उसके हाथ से कुछ कार्य हो सकेगा. इसलिए स्वधर्म का महत्व है.  

(गीता प्रवचन : विनोबा भावे)  


यह प्रदर्शनी रज़ा के लिए महत्वपूर्ण थी और सभी चित्र विचित्र किस्म की शान्ति और ठहराव लिए हुए थे.  यह समय रज़ा के जीवन का वह समय था जिसमें सब कुछ तय और स्थिर हो चुका था.  इन चित्रों में गाँधी को याद करते हुए रज़ा कृतज्ञ महसूस कर रहे थे.  रज़ा जो फ़्रांसिसी कविता प्रेमी भी थे, उन्होंने रेने मरिया रिल्के की कविता भी कैटलॉग में उद्धृत की :

.... But listen

to the voice of the wind,

and the ceaseless message

That forms itself out of silence.



ऐसा नहीं है कि इसके पहले गाँधी रज़ा के चित्रों में नहीं थे. रज़ा पर गाँधी का प्रभाव गहरा था और वे उनके विश्वासों पर अटल भरोसा भी करते रहे उनका एक और चित्र है Immanence, 1990 जिसमें रज़ा ने लिखा :

In the midst of death life persists

in the midst of untruth truth persists

in the midst of darkness light persists

: Mahatma Gandhi

रज़ा का गाँधी प्रेम ऊपरी या किताबी नहीं था बल्कि जीवन में उन्होंने अपनी आवश्यकताएँ कम कर दी थी. सुरुचि,सादगी और किफ़ायत से कैसे काम चल सकता है इसका उदाहरण रज़ा ख़ुद थे. उनके व्यवहार में सच्चाई और साफ़गोई थी. वे दूसरों की फ़िक्र में परेशान हो सकते थे.  उन

उनसे कुछ 'नकली'कलाकार झूठ बोलकर बरसों पैसा लेते रहे हैं. यह जानते हुए भी रज़ा ने कभी अपना हाथ नहीं खींचा.  अनजान बन उनकी लालच को पूरा करते रहे.  इस विश्वास से कि शायद शर्म करें. वे गाँधी की तरह ही आत्मज्ञान, आत्मबल, आत्म शुद्धि पर बल देते रहे और अपने समय को देखते-परखते रहे.  रज़ा ने जब जीवन शुरू किया, तब इतना आत्म-अँधेरा नहीं था. लोग आत्मसम्मानी थे. रज़ा के भीतर वही भावनाएँ भरी थी. उनकी दुनिया का सच छोटा लेकिन सुन्दर था.    

उनका एक चित्र है नारी-शक्ति २००६ का, जिस पर उन्होंने कीर्ति, श्री, वाणी, अमृत, धृति, क्षमा लिखा है. यह चित्रित संसार रज़ा का उनसे देश से नाता जोड़े रखने का, सीधा सम्वाद करने का और पेरिस के अकेलेपन को भुलाकर एकाग्र सृजनात्मक अकेलेपन को भोगने का जतन था, ऐसा मुझे लगता है. किसी दूसरे चित्रकार का उदाहरण नहीं मिलता जिसने इस क़दर कविता, सूक्तियों को अपने चित्रों में जगह दी होगी. रज़ा अकेले हैं इस अकेलेपन का अहसास कराते हुए.  अपनी यात्रा की दुविधाओं, मुश्किलों, परेशानियों को वे एक चित्र 'पनघट'में यह लिख कर बतलाते हैं ; "बड़ी कठिन है डगर पनघट की" 

इस तरह की उक्तियाँ, पँक्तियाँ, शेर, दोहे आदि रज़ा के मन की पड़ताल के लिए ठीक हों सकते हैं. ये सब उस परिस्थिति का भी वर्णन कर रहे हैं जब रज़ा को देश की या किसी संवेदना विशेष की याद या अनुभव हो रहा है. ये सब रज़ा के जीवन के वे पड़ाव हैं जो उनके चित्र में रहते हुए उनकी भावना को सम्बोधित हैं. वे उस पंक्ति के प्रभाव में कई दिन गुजार देते हैं.  रज़ा कहते हैं :

"चाहे वो भगवत गीता का श्लोक हो या ॐ, या कलमा- मेरे लिए दिन भर सोचने और गुनने के लिए एक ही चीज़ काफी है."


ऐ ज़ौके नज़र शौके

नज़र खूब है लेकिन,

जो शह की हकीकत को

न समझे वह नज़र क्या.

यह रज़ा का देखना ही है जो इन पंक्तियों से भी प्रेरणा लेकर रचता है.  रज़ा के लिए दृश्य इन चित्रों में शब्द हैं जो भाव-दृश्य भी हैं.       

__________

(अखिलेश और अशोक वाजपेयी)




क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

विशेष आयोजन: कला के व्योम में शब्द और कर्म

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पेंटिंग देखकर कवियों ने कविताएँ लिखीं हैं, कविताएँ पढ़कर भी चित्र बनाये जाते हैं. कभी-कभी दोनों साथ-साथ भी रहते हैं.

पतंगे वैसे तो उड़ती रहती हैं पर मकर संक्रांति के दिन वे ख़ास तौर से उड़ती है. इस बार कवियों और चित्रकारों ने आपके लिए इसे उड़ाया है.

राकेश श्रीमाल की कविताएँ पढ़कर देश के मशहूर चित्रकारों ने ये आठ बहुमूल्य चित्र बनायें हैं. जो समालोचन के लिए भी दुर्लभ अनुभव है, ये पतंगें अपने आप में भी स्वतंत्र हैं. कला के व्योम में उड़ती हुई.

एक तरह से यह प्रदर्शनी ही है. आठ चित्रों,कविताओं और उनपर दो समुचित टिप्पणियों के साथ.

आपका स्वागत है. पढ़े ही नहीं देखें भी. और इन चित्रों पर भी लिखें.

यह दिन शुभ हो.




विशेष प्रस्तुति
कला के व्योम में शब्द और कर्म                                                     




कला के आकाश में पतंग
प्रयाग शुक्‍ल

भारतीय आकाश में पतंग एक उत्सवी और समारोही भाव से उड़ायी  जाती रही है. और आज के दिन तो पतंग की डोर को वे भी छू देना चाहते हैं, जो पतंग कभी विधिवत उड़ाते  नहीं रहे हैं.  हमारे जयपुर, अहमदाबाद आदि तो ऐसे शहर हैं जो प्रायः पतंगों से भरे रहते हैं. मकर संक्रांति में इन शहरों का आकाश देखने वाला होता है. समकालीन कलाकारों और कवियों ने भी समय-समय पर पतंग को अपनी रचना का विषय बनाया है. एक पतंग इंटेंट.  उससे पैदा होने वाला उडान-बोधउनके मन में सहज ही अपनी जगह बना लेता है.  अशोक वाजपेयी के एक संग्रह का नाम ही है, ‘एक पतंग अनंत में.

समालोचन का यह पतंग आयोजननिश्चय ही सुखद है. इन कठिन दिनों में एक हर्ष और उल्लास भरने वाला भी. पतंग तो यों भी रंगों से जुड़ी हुई है, और कलाकारों के हाथ मेंया से’, पतंग-रचना को देखना तो स्वयं पतंग उड़ा लेने से कम नहीं है. इस पतंग आयोजनने मुझे कलकत्‍ता (अब कोलकाता) के किशोर दिनों की जो स्मृति जगा दी है- उसके लिए तो मैं इन सभी कलाकारों और समालोचन का विशेष रूप से आभारी हूँ. ये सभी कलाकार, मेरे प्रियजन भी हैं, सबसे व्यक्तिगत रूप से जुड़ा रहा हूँ- जुड़ा हुआ हूँ आज भी. और इनकी यह पतंग प्रदर्शनी जो एक ऑनलाइन प्रदर्शनी से कम नहीं हैं- इसलिए भी प्रफुल्लित करने वाली है कि इसमें रेखा और रंग दोनों हैं. पतंग की डोर से सीधी या लहरिया गति की जो रेखाएँ बनती हैं, उन्हें यहाँ, कुछ कलाकारों के काम में एक नयी तरह से देखा जा सकता है.

किसी देखे-जाने हुए विषय को, कलाकारों की नजर से देखे जाने का बड़ा लाभ तो यही है कि स्वयं वह विषय कुछ नयाहो उठता है. जाहिर है कि कलाकारों ने ये काम अपनी-अपनी तरह से, अलग-अलग जगहों में, बैठकर किये हैं. पतंग को अलग-अलग तरह से देखा-सोचा है- अपने-अपने स्‍तर पर- अपने बोध, अपनी स्मृतियों, और अपनी कल्पनाओं, को संजोया है. और अब उनका संयोजन एक समूह में मानों और खिल उठा है.

इस अवसर पर उन हुनरमंद हाथों की, उन पतंगियों की, उन बेजोड क्राफ्ट्समेनकी याद भी हो आनी स्वाभाविक है, जो न जाने कितने शहरों-कस्‍बों में, सचमुच की पतंगें बनाते रहे हैं. और जिन्होंने पतंग को कई रूप-आकार दिये हैं. यहाँ प्रस्तुत कलाकारों के साथ, उनकी याद इसलिए भी आयी कि दोनों को साथ रखकर या मिलाकर देखने की जरूरत भले न हो- और ये दोनों दुनियाएँ अलग हों, और दोनों ही महत्वपूर्ण हो, पर कहना यही है कि यहाँ प्रस्तुत कलाकारों को उनके हुनर और उनकी कला दोनों के साथ देखिये तो आनंद दुगुना हो जाएगा.

और अंत में: कुंवर नारायण की कविता आधे मिनट का एक सपनाकी ये पंक्तियाँ भी देखिये जो कवि को एक बुरा सपनादेखने के बाद सूझती हैं:

अरगनी पर सूखते कपडे हवा में

सफेद झंडों की तरह लहरा रहे थे

पत्नी खाने पर बुला रही थी.

बाहर किसी गली में

शोर करते बच्‍चे

पतंग उड़ा रहे थे...’’ 

हाँ, पतंग प्रसंग कैसा भी हो, वह आनंददायक होता है.बुरे सपनेतक से मुक्ति देने वाला. सो, इन सभी कलाकारों को बधाई और शुभकामनाएँ, आज के दिन, जिन्होंने यह पतंग-प्रसंग हम सब के कला आस्वादमें कुछ जोड़ने के लिए रचा है. जुटाया है. 

__

(प्रयाग शुक्ल : कवि, कथाकार,कला-समीक्षक,अनुवादक और संपादक हैं. 
ललित कला अकादमी की पत्रिका 'समकालीन कला'के अतिथि संपादक, 
एनएसडी की पत्रिका 'रंग प्रसंग'तथा संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका 'संगना'के संपादक रह चुके हैं. 
५० पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं. दिल्ली में रहते हैं.)


१.




अखिलेश: देश के वरिष्ठ चित्रकारों में से एक. अमूर्त चित्र बनाते हैं और हर नए शो में विस्मित करते हैं. विश्व स्तर पर कई बड़ी प्रदर्शनियां. लिखने-पढ़ने वाले चुनिंदा कलाकारों में हैं. भोपाल में रहते हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

ऐसे ही उड़ती है

खुले आकाश में

 

उसे पता ही नहीं

कौन लड़ा रहा है उसे

अपने मांझे में

कांच का कितना चूरन लगाये

 

किसने

कितनी बार

किया है अभ्यास

दूसरे की पतंग को काटने का

 

कोई नहीं सोचता यह

दूसरी पतंग को काटकर

जीत सकती है कैसे भला

उसकी अपनी पतंग.

 

 

२.




चरन शर्मा: अपनी तरह के विरले चित्रकार. देश विदेश में कई महत्वपूर्ण गैलरियों में नुमाइश. लंबे अरसे तक सूजा के मित्र रहे. फिलहाल मुंबई में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग तो पतंग है

बिना यह जाने

कौन बना रहा है उसे

उड़ा कौन रहा है

 

कितने चक्कर में

कैसे फंसती है दूसरी पतंग

यह जानती ही नहीं

पहली पतंग

 

किसने किसे गिराया

किसने किसे लूटा

कौन लोग हैं

जो यह सब देखकर ही खुश हैं

 

पतंग तो पतंग है

पतले कागज़ से बनी

किसी कविता की तरह उड़ती

उड़ाने वालों के

अपरिचित व्योम में.

 

 

३.






सीरज सक्सेना: चित्र और मिट्टी के जितने भी माध्यम हो सकते हैं, सभी में काम करते हैं. लकड़ी, कपड़ा, लोहा, पत्थर इत्यादि. विदेशों में कई कार्यशालाओं में जाते रहे हैं. साइकिल चलाने और कविताएं लिखने में रुचि रखते हैं. दिल्ली में रहते हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग के रूप में उड़ते हैं

गुलाबी, हरे, पीले, सफ़ेद और जामुनी रंग

 

जैसे पृथ्वी ने

थोड़ी देर के लिए

छोड़ दिए हैं अपने ही अंश

 

हरे को कतई नहीं पता

कि उसे उड़कर

मारकाट करना है पीले से

 

गुलाबी यह जानता ही नहीं

कि वह उड़ते और काटते हुए

किन हाथों की असल डोर बन गया है

 

सब कुछ तय होता है

आकाश में भी

इसी पृथ्वी से.

 

 

४.




देवीलाल पाटीदार: मूलतः सिरेमिक में काम करते हैं, लेकिन चित्र बनाने से कोई परहेज नहीं. उनके काम में देह-सौंदर्य अद्भुत होता है. इरोटिक में शिल्प बनाने वाले विश्व के कुछ कलाकारों में शामिल हैं. भोपाल में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

मंजा डोर और हुचका

बनाते हैं अलग-अलग लोग

केवल पतंग के लिए

 

बेचते हैं फिर

अपनी ही शर्तों पर

कौन कितना काट सकता है

उड़ती हुई पतंगों को

विपरीत दिशा में जारी

हवा में भी

 

पता नहीं होता

पतंग को भी

किसके हाथ लगती है वह

काटने के बाद फिर से

थोड़ी देर

उड़ने का रियाज़ करने के लिए.

 

 

५.






कुसुमलता शर्मा: ग्वालियर आर्ट्स कॉलेज से आती हैं. वे अपने चित्रों में रंग और रेखाओं का अनोखा और सुखद सामंजस्य रचती हैं. भोपाल में रहती हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग कभी नहीं कटती

उसकी डोर कट जाती है

 

कटने के बाद

थोड़ी देर हवा में बेतरतीब गिरते हुए

किसी पेड़ की डालियों

किसी घर की छत या मुंडेर पर

जमीन पर

या लोगों के हाथों में लूटकर पकड़ ली जाती हैं

 

यह पतंग ही है

जो उड़ते हुए भी अच्छी लगती है

कटकर गिरते हुए भी भोली

 

एक पतंग हमेशा रहती है

सबकी आँखों में

उड़ते या कटते हुए

जो प्रायः पतंग की तरह देखी नहीं जाती

 

 

 ६.





वांछा दीक्षित: लखनऊ आर्ट्स कॉलेज से तालीम के बाद लगातार चित्र बनाने में सक्रिय हैं. उनके चित्रों की वक्राकार रेखाएं विशिष्ट सौंदर्य दृष्टि रखती हैं. फिलहाल होशंगाबाद में रहते हुए कला-अध्यापन करती हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

जमीन पर यथार्थ में बनी पतंग

कल्पना बन जाती है

आकाश में उड़ते हुए

 

वह कटकर यथार्थ में ही गिरती है

लूट ली जाती है

वह अपना असल जीवन

उड़ते हुए ही बिताती है

 

ऐसी अनगिनत पतंगे होती हैं

जो कभी उड़ नहीं पाती

उड़ना पतंग का एकमात्र सपना है

 

पतंग उड़ते हुए दूसरी पतंग होती है

नहीं उड़ते हुए निरर्थक

 

 

 ७.






अवधेश वाजपेयी: शांति निकेतन से प्रशिक्षण पाया है. वे भिन्न शैलियों में हाथ आजमाते रहे हैं. खास बात यह कि प्रतिदिन कम से कम दो चित्र जरूर बनाते हैं. जबलपुर में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

कोई नहीं जानता

कि उड़ते हुए

कितनी पतंगे आकाश में प्रेम करने लगती होंगी

 

कितनी-कितनी पतंगे

कटते या काटते हुए के बाद

कैसे रखती होंगी स्मृति अपने प्रेम की

 

यह आकाश का प्रेम है

आकाश में ही खत्म हो जाने के लिए

 

यह वहीं जन्मता है

अपनी पूरी देह में निर्वसन प्रेम लिए

वहीं विदा भी ले लेता है

 

कौन है जो लिखेगा उन पर कहानियाँ

उनके प्रेम की कविताएं

या थोड़े से वैसे ही कुछ शब्द

जो यहाँ लिखे जा रहे हैं.

 

8.



भारती दीक्षित: माटी और धागे में खूबसूरत काम करने के लिए पहचानी जाती हैं. देश-विदेश में कई शो हुए हैं. किस्सागोई का अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाती हैं. इंदौर में रहती हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

इसी ज़मीन पर

बनती हैं पतंगें

इसी ज़मीन से

उड़ जाने के लिए


_____________




राकेश श्रीमाल: कवि, कथाकार, कला समीक्षक. 

दो कविता संग्रह - 'अन्य'और 'कोई आया है शायद'प्रकाशित.  कलावार्ता, पुस्तक वार्ता, और ताना-बाना जैसी पत्रिकाओं का संपादन. इधर कला के विभिन्न पक्षों पर नियमित लेखन. कोलकाता में रहते हैं.





सब कुछ तय होता है आकाश में भी इसी पृथ्वी से
पंकज पराशर


भी गद्य तो कभी किसी विधा विशेष को समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र या परिधि में होने को घोषित/तय करने वाले साहित्य के शास्ता साहित्यिक राजनीति के हर काम को आसां तो कर लेते हैं, बारहा इस बात से बेख़बर कि आदमी को ही मयस्सर नहीं इंसां होना. सच्ची और अच्छी कविता को लक्षित करने के लिए जैसी आँख चाहिए, भाषा की जैसी समझ और धैर्य चाहिए, उसके अभाव में प्रायः अच्छे कवि अलक्षित रहते आए हैं. हिंदी कविता के इतिहास में ऐसा अनेक कवियों के साथ हुआ है, जिनकी फाइल प्रायः मौत के बाद ही खुली है-वह चाहे नज़ीर अकबराबादी हों या मुक्तिबोध. इसके उलट परिदृश्य के तमाम योग-क्षेम, नाम और नामा पर उन कवियों का आधिपत्य रहा है, जो घोर आत्महीन, भाषाहीन और रीढ़विहीन रहे!दिलचस्प यह कि अक्सर लोकप्रियता और कविप्रियता के मारे आलोचकों को ऐसे ही कवि अच्छे और रुचिकर लगते हैं, जिनकी कविता उनकी सीमित आलोचकीय शब्दावली और समझ के दायरे में आराम से आ जाती हैं.


राकेश श्रीमाल हिंदी के उन अल्प चर्चित कवियों में हैं, जिनकी बेहद सघन और सांद्र काव्य-भाषा उन काव्य-प्रतिमानों से बाहर रह जाने को बज़िद नज़र आती हैं, जिन कथित प्रतिमानों पर कविप्रियता के मारे आलोचक प्रायः हर कवि की कविता को आलोचतेहैं! अपने समय के जीवन की लहरों को देखने-गुनने का राकेश का तरीक़ा चूकि समकालीन काव्य-मुहावरों से सर्वथा अलग है, इसलिए यह अकारण नहीं कि उनका महत्वपूर्ण काव्य-संग्रह अन्यबाकी संग्रहों की चर्चा के शोर में अलक्षित रह गया.


राकेश अपनी कविता के लिए उन्हीं शाश्वत विषयों को चुनते हैं, जिन पर पहले भी अनेक लोगों ने अनेक तरह से लिखा है. बावज़ूद इसके राकेश उन्हीं विषयों पर जिस शैली और जिस दृष्टिकोण से कविता संभव करते हैं, उसकी मिसाल देख लें,


हरे को कतई नहीं पता

कि उसे उड़कर

मारकाट करना है पीले से

गुलाबी यह जानता ही नहीं

कि वह उड़ते और काटते हुए

किन हाथों की असल डोर बन गया है

सब कुछ तय होता है

आकाश में भी

इसी पृथ्वी से.


पतंग के रूप में जो अलग-अलग रंग आकाश में उड़ते हैं, उसे देखकर कवि को लगता है-जैसे पृथ्वी ने थोड़ी देर के लिए छोड़ दिये हैं अपने ही अंश. अपने ही रंग, जिनकी राजनीति करने वाले रँगरेज़ों की पर्दादारियों को बहुत शाइस्तगी से हटाते हुए राकेश लक्षित करते हैं कि आसमान में उड़ रहे इन रंगों को पृथ्वी पर रहने वाले हाथ किस कदर नियंत्रित करते हैं! पतंगें जो खुले आकाश में ऐसे ही उड़ती हैं, बकौल कवि उसे नहीं मालूम कि कौन है जो उसे लड़ा रहा है! पहले जो पतंगें परंपरा को अग्रसारित करने और आनंद को प्रसारित करने के लिए मकर संक्रातियों में उड़ाए जाते थे, अब राजनीतिक विचारों, बोटबटोरू विज्ञापनों और बाज़ारू उत्पादों के प्रसारों का माध्यम भी बन रही हैं. पर निश्छल, निस्संग पतंग है कि जो बिना यह जाने कि कौन उसे बना रहा है, कौन उड़ा रहा है, कौन उसे गिरा रहा है और कौन लूट रहा है, वह वह कविता की तरह उड़ती रहती हैं उड़ाने वालों के अपरिचित व्योम में.    


राकेश श्रीमाल की कविताओं में भाषिक मितव्ययिता इतनी होती है कि एक अतिरिक्त विराम चिह्न तक नहीं होता! प्रचलित काव्य-मुहावरों और घिस चुके शब्दावलियों में अपनी संवेदना को प्रकट करने से वे बारहा बचते हुए दिखाई देते हैं. उसके स्थान पर वे कई बार चित्र-भाषा, रंग-भाषा और ध्वनि-सौंदर्य से काम लेने का प्रयास करते हैं.


प्रेम में वैसे भी शब्दों की बहुत अधिक आवश्यकता नहीं होती, जिसकी नैसर्गिक अभिव्यक्ति के लिए कई दफ़ा राकेश वाचिक की जगह भाषा की कायिक चेष्टाओं को बरतने की कोशिशों में मुब्तिला दिखाई देते हैं. उन्होंने एकांत और प्रेम को लेकर कुछ अनूठी कविताएँ संभव की है, जिनमें एकांत की विभिन्न दिशाओं से आती रोशनियों से बनी कई परछाइयाँ अपने सघनतम रूपों में अभिव्यक्त हुई हैं.


इसी विषय को लेकर आलोकधन्वा ने भी पतंगशीर्षक से एक कविता लिखी है, जिसमें बच्चों की कोमलता को स्पर्श करने के लिए पृथ्वी भी लालायित दिखाई गई है. बच्चे जब छतों को अपने कोमल पावों से कोमल बनाते हुए बेसुध होकर दौड़ते हैं, तो पृथ्वी भी उनके बेचैन पांव के पास उनका स्पर्श करने हेतु घूमती हुई आती है और बच्चे अपनी किलकारियों के द्वारा सभी दिशाओं को नगाड़ों की तरह बजाते प्रतीत होते हैं. जबकि इसके बरक्स राकेश श्रीमालबिल्कुल अलहदा तरीके से आठ छोटे-छोटे खंडों में पतंगके चिर-परिचित बिंब को और सघन और सांद्र रूप में चित्रांकित करते हैं.


इस विषय पर राकेश से पहले  पतंगको लेकर आलोकधन्वा, मनोज श्रीवास्तव और ममता पंडित की कविताएँ मुझे याद आईं और याद आए उर्दू के शायर ज़फ़र इक़बाल और ग़ुलाम मुसहफ़ी हमदानी के चंद अशआर, लेकिन इन तमाम रचनाओं के बीच जब आप राकेश की कविताओं को पढ़ते हैं, तो पाते हैं कि जो बातें, जो चीज़ें हमेशा हमारे आसपास मौज़ूद होती हैं, उनके बारे में कोई कवि किस तरह और किन चीज़ों के साथ जोड़कर अपनी बातें कह सकता है! राकेश श्रीमाल की पतंगसीरीज की कविताएँ इसकी किस कदर ताईद करती हुई-सी संभव हुई हैं, इसे कोई आलोचक शायद तसल्लीबख़्शढंग से नहीं समझा सकता. तो साहिबो, इसे पढ़कर-गुनकर ही समझा सकता है.  
__

(पंकज पराशर: हिंदी के साथ मैथिली में भी लिखते हैं. कविता,आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय हैं. इधर संगीत और नृत्य आदि विषयों पर उनके शोधाधारित लेखों ने ध्यान खींचा है. अलीगढ़ में रहते हैं.)


अशोक वाजपेयी से अरुण देव की बातचीत

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जन्म दिन पर ख़ास
अशोक वाजपेयी से अरुण देव की बातचीत



१.

‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता’(ग़ालिब) 

आपका कवि कर्म सुदीर्घ है. लगभग छह दशको में पसरा हुआ. तीस के आस-पास कविता संग्रह. कवि को अभी भी कविता का इंतज़ार रहता है क्या?  क्या है ऐसा कि कभी आस टूटती ही नहीं इस दर से ? कभी ऐसा नहीं लगा कि हो गया यार बहुत अब. या ऐसा कि अब क्या कहा जाए, और कैसे कहा जाए?

कविता पर उम्र का क्या कुछ असर होता है कि ‘कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक’.



           मूल संग्रह तो कुल सत्रह हैं और किसी को भी लग सकता है कि काफ़ी हो गये हैं. बाक़ी संचयन हैं, कुछ मेरे किये, कुछ दूसरों के किये जिनमें नन्द किशोर नवल, राजेन्द्र मिश्र, मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, यतीन्द्र मिश्र आदि शामिल हैं. इतनी ढेर सारी कविताएँ लिखना लगातार नहीं रहा है: बीच-बीच में बहुत बरस कुछ नहीं लिखी गयीं, पहले और दूसरे संग्रह के बीच 18वर्ष का अन्तराल रहा. मुझे ससंकोच यह कहना पड़ेगा कि मेरे लिए कविता का समापन कभी नहीं होगा: कविता का अन्त आया जो जीवन का भी अन्त होगा. क्या-कैसे कहा जाये इस गुत्थी को सुलझाना हमेशा कठिन रहा है. यह भी कि कई बार जो पहले कहा जा चुका है उसे किसी और से कहने की विवशता लगती है. शायद हर कवि, कुल मिलाकर, कम ही कह पाता है: इस कम का वितान भी इतना फैल जाता है कि अधिक होने का भ्रम पैदा होता है. आयु और काल दोनों की छाया गहराती जाती है पर उससे काव्य-जिजीविषा के शिथिल पड़ने का मुझे कोई अहसास नहीं है. यह कहने का मन अभी नहीं है कि आओ खुसरो, लौट चलें अब, इस नगरी में रात हुई.मेरी रात नगरी को तो कविता से जगमगाता ही छोड़ेगी. --ऐसी उम्मीद करता हूँ.



 

२.

‘एक युवा जंगल मुझे,

अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है.   

कवि की स्थानीयता उसकी कविता में रक्त की तरह प्रवाहित होती है. युवा अशोक मध्य-प्रदेश से, उसकी भाषा, बोली परिवेश से अपनी कविता का युवा रंग लेते हैं, उन्हें विन्यस्त करते हैं. इस संभावनाशील कवि को किस तरह समकालीन कवियों और आलोचकों ने लिया. क्या ख़ास चीजें रेखांकित की गयीं.




            मेरे पहले कविता संग्रह का अधिकांश अपने घरू शहर सागर में रहते लिखा गया था: उसमें जितना प्रगट था मेरा एक युवा कवि होना (17से 25बरस होने के बीच) उतना ही प्रगट था एक छोटे शहर का होना. हमारी आलोचना जिन सामान्यीकृत औज़ारों से कविता नापती रही है उनके रहते इस स्थानीयता का दुर्लक्ष्‍य तो नहीं हुआ पर उसका विश्लेषण बहुत थोड़ा हुआ. अलबत्ता सामान्य पाठकों में ऐसे कई थे जो खुद छोटे शहरों या कस्बों के थे और उन्हें यह स्थानीयता शायद कुछ अपनी लगी थी. उस स्थानीयता से उसी संग्रह में थोड़ा मुक्त होने की जो बेचैनी थी वह तो अलक्षित ही चली गयी. संग्रह छपने के समय मैं दिल्ली में 5साल बिता चुका था और वहाँ उस दौरान लिखी कुछ कविताएँ भी उसमें थीं. जिस कविता पंक्ति पर संग्रह का नाम, नामवर सिंह के सुझाव पर, रखा गया था शहर अब भी सम्भावना हैवह दिल्ली में ही लिखी गयी थी. संग्रह में प्रगट कई सरोकार लगभग जीवन भर मेरे सरोकार रहे आये हैं. यह बात भी उस समय नोट की गयी थी कि उल्लास-उछाह के बावजूद अवसाद की छाया भी थी: वह अवसाद बना रहा है और इधर अधिक गहरा होकर विफलता और पराजय के अहसास में बदल गया है. वैसे मैं तब तो ध्यान देने योग्य युवा नहीं था और अब तक, कुल मिलाकर,विचारणीय नहीं रहा हूँ.



 

३.
 

‘हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं !’   

हिंदी कविता की परम्परा क्षुब्ध कर देने की हद तक अपनी संस्कृत परम्परा से टूट चुकी है. इसका बड़ा कारण उसकी भाषा है जिसमें तत्सम के लिए जगह कम होती चली गयी है, वह भाषा में ही नहीं संस्कृति में भी अधिकतम तद्भव हो चली है. अशोक वाजपेयी की कविता में सु-संस्कृत स्मृतिओं की बहुलता है वह भाषिकता में भी सांस्कृतिक है. मुक्तिबोध और अज्ञेय के बीच रहते हुए उनके भाषिक प्रभाव से लड़ना तब मुश्किल रहा होगा?




            संस्कृत से हिन्दी कविता की बढ़ती दूरी की ओर ध्यान खींचनेवाला शायद मैं पहला आलोचक था. उसकी ओर ध्यान ख़ास गया नहीं क्योंकि कविता की भाषा पर विचार एक कलावादी हरकत मानी जाती थी और अब भी मानी जाती है: हिन्दी कविता अख़बारीपन से काम लेना काफ़ी मानने लगी थी. तत्सम की विरलता, एक तरह से, स्मृति की भी विरलता होती है. निजी स्मृतियाँ तो कविता में सक्रिय रहीं पर सांस्कृतिक स्मृतियाँ ग़ायब होने लगीं: रघुवीर सहाय जैसे महत्वपूर्ण कवि तक उसका उदाहरण हैं.           

मैंने नवमी कक्षा में, बिना किसी के कहे या चाहे, अपने आप हिन्दी के बजाय संस्कृत पढ़ने का विकल्प चुना था और फिर बी.ए. में अंग्रेज़ी और इतिहास के साथ उसे ही चुना था. मुझे लगा था कि संस्कृत में हमारी विशाल और विपुल परम्परा का बहुत मूल्यवान् हिस्सा है और उससे हमें, किसी भी कारण, वंचित नहीं होना चाहिये. आरंभिक प्रयत्न पर अज्ञेय का प्रभाव था, जो आधुनिक हिन्दी कविता के अन्तिम संस्कृत कवि हैं: उनके यहाँ तत्सम और तद्भव को एक साथ साधने का अद्भुत काव्यकौशल था- मुक्तिबोध के यहाँ बहुत तत्सम है पर वैसी तद्भव की समान विपुलता नहीं है जैसी कि अज्ञेय के यहाँ. उस समय जब मेरी काव्यभाषा आकार ले रही थी, अधिक आकर्षण अज्ञेय का था. यह न भूलें कि मुक्तिबोध ने कविता को सांस्कृतिक प्रक्रिया बताया था. एक बात और: जैसे-जैसे हिन्दी का सांस्कृतिक क्षरण होता गया, वैसे-वैसे उसमें से संस्कृत की स्मृति और सुगन्ध भी कम होती गयी. दुर्भाग्य से, आज अधिकांश अच्छी-बुरी हिन्दी कविता स्मृतिहीन कविता है. विडम्बना यह है कि हिन्दी के तद्भव लोकरूपों में अब भी रामायण, महाभारत आदि आख्यानों के रूप में तत्सम बचा हुआ है- रामलीला, पण्डवानी, पण्डून के कड़े, भरथरी, माच आदि को याद किया जा सकता है.

यह जोड़ना ज़रूरी है कि मेरी काव्यस्मृति में कालिदास, भवभूति, प्राकृत के अलावा कबीर, सूरदास, ग़ालिब आदि भी शामिल हैं और मैंने कविता की काया में उनकी उक्तियों, बिम्बों आदि को जगह दी है: इसका अधिक क्या ज़रा भी नोटिस नहीं लिया गया है श्रीराम वर्मा,मदन सोनी को छोड़कर. राजेन्द्र मिश्र ने मेरी कविताओं के अपने संचयन का नाम मेरी एक कविता के शीर्षक से कबीर की उक्ति ताते अनचिन्हार में चीन्हादिया है. यों तत्पुरुषऔर बहुरि अकेलादो कविता संग्रहों के शीर्षक पहले से हैं. मैंने स्वयं अपनी कविताओं के संचयन का नाम दिया था विवक्षा. एक बार मैंने यह गर्वोक्ति की थी कि अगर मुझे कोई नवशास्त्रीय कवि क़रार दे तो मुझे आपत्ति न होगी. मेरे द्वारा स्थापित और संपादित पत्रिकाओं के नाम समवेत’, ‘पूर्वग्रह’, ‘बहुवचन’, ‘कविता एशिया’, ‘समास’, ‘अरूप’, ‘स्वरमुद्राआदि सभी तत्सम हैं.रज़ा की कई एकल प्रदर्शनियों के नाम भी मैंने दिये थे: आवर्तन’, ‘अविराम’, ‘निरन्तर’, ‘विस्तार’, ‘पुनरागमन’, ‘आरम्भ’, ‘उत्तर रागआदि.

रूसी कवि जोसेफ़ ब्राडस्की का एक कथन याद आता है: हमें अपने समकालीनों को प्रसन्न करने के लिए नहीं, अपने पूर्ववर्तियों को प्रसन्न करने के लिए लिखना चाहिये.ससंकोच कहता हूँ कि कुछ ऐसी कोशिश शायद मैंने की, अलबत्ता शायद प्रसन्न न पूर्ववर्ती हुए, न समवर्ती!

 

 

 

४.

‘तू अपना यौवन, अपनी हंसी

मेरे पास छोड़ गई

और तुझे ले गई

कोयले और पानी से चलती

एक रेलगाड़ी.’ 

कविता ने आपके प्रेम को भी भरा होगा, इन दोनों को स-मुख रखकर कुछ कविताएँ, कुछ प्रसंग कृपया रेखांकित करें.



(अनुत्तरित)

 

५.

‘उसके अनुरक्त नेत्र

उसके उदग्र- उत्सुग कुचाग्र

उसकी देह की चकित धूप

उसके आर्द्र अधर

कहेंगे- हाँ

वह कैसे कहेगी हाँ ?’ 

देह का वस्तुकरण अकादमिक अपराध जैसा माना गया है. कम से कम यह आरोप तो ही ही. जिस संस्कृति में ‘काम’ पुरुषार्थ हो,कामसूत्र से पहचाना जाता हो,खजुराहो आदि जगहों पर अकुंठ यौन क्रियाएं उकेरी गईं हों,कालिदास शंकर और पार्वती के संभोग का वर्णन करते हों, जहाँ काम-आख्या एक तीर्थ हो,वहां समकालीन कवि के लिए केलि और काम लिखना दुविधाग्रस्त हो गया है. संशय ने क्या हाथ रोके और कहाँ तक ? कि बिलकुल नहीं.



               आपको याद होगा कि दशकों मेरी निन्दा, मेरे समाज-विमुख या विरोधी होने का आधार मेरी प्रेम-कविताएँ कही जाती थीं. जो हो, मैं शुरू से ही प्रेम का नीचट कवि रहा हूँ. उसमें भी आप मेरी तत्समता स्पष्ट और प्रायः हर बार देख सकते हैं. भारत की श्रृंगार परम्परा संसार की ऐसी महान् परम्पराओं में गिनी जाती है जबकि विक्टोरियन मूल्यों में लिपटी हमारी शिक्षा व्यवस्था और उससे उपजी मध्यवर्गीय मानसिकता ने श्रृंगार और रति को हाशिये पर डाल दिया. उसका यथासंभव यथायोग्य पुनर्वास करना मेरा एक सरोकार ही बन गया. उसमें भदेसपन भी आ सकता है इसलिए तत्समता वहाँ सहायक हुई: एक स्तर पर यह आप ही के शब्दों में कहूँ तो सुसंस्कृत स्मृतियों की बहुलता को थोड़ा-बहुत उनकी ऐन्द्रियता में सहेजने की चेष्टा है. 

प्रेम के अनेक पक्ष होते हैं जिनमें काम भी है. प्राचीनों में लेकर भक्त और रीति कवियों ने उसे जगह दी: छायावादियों में भी, विशेषतः प्रसाद और निराला में, ऐन्द्रियता का मोहक तत्व मौजूद है. इसलिए उस परम्परा में लिखने की चेष्टा स्वाभाविक होना चाहिये थी. पर अज्ञेय-शमशेर आदि की ऐन्द्रियता के बावजूद, खेद है कि वह अपवाद बनगयी. हाथ रूका तो नहीं पर सावधान रहा: विचित्र था कि जो लोक या बोलियों में सीधे कहा जा सकता था वह हिन्दी में कहना लगभग असम्भव हो गया. तद्भवताऔर समकालीनता से सर्वथा मुक्त एक तरह का अनन्त रचकर ही बाधा पार हो पायी, जितनी हुई. मेरी कविता की एक पोलिश विशेषज्ञ ने कहा था कि तुम्हारी प्रेम-कविताएँ हिन्दी में लिखी संस्कृत कविताएँ हैं’!

प्रेम-कविताएँ अकसर प्रसंगबद्ध हैं: किसी सम्बन्ध के कारण ही उपजी हैं. पर प्रसंग प्रायः उनमें से ओझल रहे हैं: प्रेम को लेकर जो गोपनीयता हमारे समाज में है उसने और कई बार स्वयं किसी सम्बन्ध की सार्वजनिक रक्षा ने विवश किया. जो अब तक प्रसंगहीन रहा आया, उसके प्रसंग को अब स्पष्ट करना शायद नैतिक न होगा, अनावश्यक तो है ही. यहाँ यह जोड़ना अप्रासंगिक नहीं है कि सारी कविता किसी न किसी अर्थ में और स्तर पर, संसार से अगाध प्रेम से ही उपजती है: वह उसका गुणगान होती है. भाषा जब संसार से निस्संकोच केलि करती है तभी कविता बनती है.

एक और सन्दर्भ याद किया जा सकता है मैंने प्रेमकविताएँ जब लिखीं तब कविता में निजता को लगभग देशनिकाला देकर सामाजिकता, सामाजिक यथार्थ का भयानक आग्रह हो रहा था. इन कविताओं को चालू सोचने और मुहावरे के प्रतिरोध में नहीं देखा-समझा गया जो कि वे थीं. प्रतिरोध की सूक्ष्मताओं और बहुलता को समझने की जो आलोचनात्मक विधियाँ हमारे यहाँ हैं वे निजता में कई बार अन्तनिर्हित प्रतिरोध को समझने का धीरज-जतन नहीं रखतीं-करतीं. 

 

 

६.

‘तुम चले जाओगे

पर थोड़ा सा यहाँ भी रह जाओगे’  

नश्वरता को स्वीकार करते हुए भी उपस्थित का औदात्त. ऐसा लगता है कि आपकी कविता के कुछ रेशे कबीर के करघे से उठाये गयें हैं. आपके प्रिय चित्रकार रज़ा के वृत्त की शून्यता में तिरोहित. कबीर आपके कितने निकट हैं. निर्गुण शून्यता का एहसास होता है कभी-कभी. ख़ासकर रचने के समय.

आपकी एक कविता भी है ‘कोई कबीर नहींजिसमें आप ‘अपनी मैली-कुचैली चादर के बारे में’ सोचते तो हैं. कुमार गन्धर्व के बहाने भी कबीर आयें हैं.



                एक तरह का अस्तिमूलक अवसाद जो शुरू से ही है उसके मूल में नश्वरता-बोध ही रहा है. अनुपस्थिति और मृत्यु को लेकर मेरी कविताओं का एक संचयन ही है, ‘जो नहीं है. इसे प्रायः लक्ष्य नहीं किया गया है कि मैंने जितनी कविताएँ प्रेम-श्रृंगार-रति पर लिखीं लगभग उतनी ही मृत्यु पर भी. प्रेम और मृत्यु मानवीयता के दो परम अनुभव हैं: एक में चरम उपस्थिति, दूसरे में परम अनुपस्थिति. किसी हद तक मैंने इन दोनों को संबोधित करने की चेष्टा की. कई बार प्रेम से अनुपस्थिति और मृत्यु से उपस्थिति को अलगाना सम्भव नहीं होता. जैसे कई कविताएँ प्रेम की, प्रसंगवश लिखी गयी हैं वैसे ही कई शोक-कविताएँ भी: माँ और पिता पर, कुमार गन्धर्व पर 21कविताओं की एक श्रृंखला के रूप में शोकगीत बहुरि अकेला’, कमलेश-फ़ज़ल ताबिश जैसे कविमित्रों पर, अपने एक ड्राइवर सरनाम सिंह पर. कई अन्तर्विरोधी भावों जैसे अन्त के बाद कुछ नहींऔर अन्त के बाद भी कुछ बचेगाआदि भावों को सहेजने की कोशिश की. मेरी कठिनाई यह है कि विषय जो भी हो मैं रागसिवत कविता ही लिख सकता हूँ: मेरी, कम से कम अब तक याने अस्सी बरस का हो जाने के बाद भी, जिजीविषा और अनुराग से मुक्ति नहीं हुई है. चाही भी नहीं है.

उदात्त, मुझे लगता है, मानवीयता का एक मूल्यवान् तत्व है जिसका अगर लोप नहीं हुआ तो वह शिथिल ज़रूर पड़ गया है. मुझे कबीर, तुलसी, सूर से लेकर निराला, अज्ञेय, शमशेर,मुक्तिबोध आदि में उदात्त सक्रिय लगता रहा है. इस उत्तराधिकार को उसकी उज्ज्वलता में सहजेने की कुछ कोशिश की. फिर कुमार गन्धर्व और मल्लिकार्जुन मंसूर के गायन में उसी उदात्त का स्वरित-मुखरित होना महसूस किया.

कबीर की ओर साहित्य से कम, संगीत से अधिक आया, कुमार जी के कबीर-गायन से. यह भी सीखा कि वे निर्गुण को भी अन्ततः भाषा और कविता की सगुणता में ही चरितार्थ करते हैं: जीवन में मृत्यु, मृत्यु में जीवन, ‘खलक चबेना काल का, कुछ मुँह में कुछ गोद’, साधारण, रोज़मर्रा में ब्रह्माण्ड की अनुगूँज, चादर-घट-किवाड़, कागज़ की पुड़िया आदि. कबीर ने सिखाया कविता के लिए साधारण जीवन, अपनी तत्समता और तद्भवता में काफ़ी है. मैंने कबीर की कई पंक्तियों को शीर्षक बनाकर कुछ कविताएँ फ्रान्स के नान्त शहर में लिखी थीं: जोत शब्द उजियारा हो’, ‘खुले नैन में हँस हँस देखूँ’, ‘जागे अरू रोवै’, ‘खुल गये गगन-किवाड़’, ‘अधर मड़ैया छावे’, ‘ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा.

रज़ा को अपना बिन्दु, तम शून्य चित्रित करते कई बार देर तक देखने का सुयोग हुआ: हर बार लगता था कि वे, कबीर की ही तरह से, रंगों से नीरंग को, उपस्थिति से अनुपस्थिति को,भराव से शून्य को रच रहे हैं. लिखते समय निर्गुण शून्यता तो नहीं सगुण शून्यहीनता अलबता महसूस होती है: एक अपार समुद्र है जिसमें से कुछ लहरें भर आप चुन पायेंगे. कई बार तो लगता है कि कुछ घोंघे-सोपियाँ ही हाथ लगी हैं, लहर तक नहीं- आप बालू के घरोंदे बना रहे हैं. पकड़ में शब्दों के बहुत कम आता है, बहुत सारा तो छूटता रहता है.

 

 

७.

‘वे एक जलप्रपात की तरह

गिरते रहते हैं-  

आपकी कविता में देवता,गन्धर्व आते हैं, राक्षस भी आते हैं. यहाँ तक कि चंद्रमा कंचुकी उतार लेता है और सूर्य अधोवस्त्र हर लेता है. सभ्यतागत इतनी लम्बी यात्रा के बाद भी इनमें ख़ासकर देवताओं में बहुत बदलाव नहीं है,क्या कहीं कोई ‘अहिल्या’ भी है पार्श्व में. 



                  हम व्यक्ति, समाज आदि के बोधों से इस क़दर आक्रान्त रहे हैं कि अकसर भूल जाते हैं कि मनुष्य वह एकमात्र प्राणी है जिसमें ब्रह्मण्ड बोध भी होता है: हम ही हैं प्राणिजगत् में जिन्हें इसका बोध है कि हम एक विराट् सचाई का अंग हैं. इस विराट्ता के वितान में सूर्य-चन्द्र, आकाश और ग्रह-नक्षत्र, आकाशगंगाएँ, देवता आदि सब शामिल हैं. हम सिर्फ़ घर-मुहल्ले, परिवार-पड़ोस, शहर-प्रदेश, देश-विदेश, संसार भर में नहीं रहते हम ब्रह्माण्ड में भी रहते हैं. यों तो सारे संसार में, पर विशेषतः भारत में, वेदों से लेकर प्रसाद-निराला-अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर में यह ब्रह्माण्ड बोध सक्रिय रहा है. 

मेरा बचपन एक धार्मिक मध्यवर्गीय परिवार में बीता जिसमें तरह-तरह के देवता, पर्व, त्योहार आदि प्रचलित थे. ये सभी साधारण जीवन की कविता जैसे थे और शायद 16-17बरस की उमर में मुझे उनके लोप का अहसास होने लगा था. बाद में मुझे लगा कि यह लोप दुखद है तो मैंने कविता में फिर उन्हें पुकारने की चेष्टा की, उन्हें कोसा-गरियाया भी. पर उनके होने का एहतराम भी किया. कई मायनों में मेरी कविता ईश्वर के न होने पर एक लम्बा विलाप भी है. वह पूरी तरह से लुप्त भी नहीं हुआ है लेकिन उसकी उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं बचा है: कोई मेरी कविता के एक हिस्से को इस गोधूलि पर विलाप की तरह पढ़ सकता है.  

देवहीन संसार और घर में मेरी कविता, कभी-कभार, उनसे लौटने की, फिर बसने की प्रार्थना और पुकार है. देवता तो उसे अनसुनी करते हैं पर शायद रसिक जन भी.

 

८.

‘भूलने से शुरुआत होती है नष्ट

होने की –‘  

स्मृति,स्मृति-भंग, स्मृतिहीनता वैश्विक साहित्य-बोध के केंद्र में हैं. सत्ताएं कहती हैं इसकी जरूरत नहीं,और यंत्र कहते हैं कि यह ज़िम्मेदारी हम लेते हैं. नई सदी के मनुष्य के पास शब्द ही नहीं स्मृतियाँ भी सीमित हैं. कवि तो स्मृतियों से ही कविता का सृजन करता है. कविता कहाँ रहेगी ?



                 हमारा समय, अभूपूर्व ढंग से, विस्मृति का समय है- राजनीति, सत्ताएँ, बाज़ार, आर्थिक, मीडिया आदि सब एक विचित्र दुरभिसंधि कर हमें स्मृति-वंचित करने के अभियान में लगे हैं. हर दिन हमसे तरह-तरह से कहा जा रहा है कि हम भूल जायें या किसी विकृत अवास्तविक रूप में याद करें. इतिहास, संस्कृति, धर्म आदि की दुर्व्याख्या और बलपूर्वक उस पर आग्रह हमारे समय का स्वभाव ही बन गये हैं. स्मृतिलोप या उसमें कटौती के साथ-साथ हमारे पास शब्द भी कम हो रहे हैं: शब्द हमारी मानवीयता की सबसे बड़ी पूँजी और स्मृति-संग्रह रहे हैं. उनका घटना हमारी मानवीयता में कटौती है. कविता ही नहीं सारा साहित्य स्मृति का ही विविधवर्णी रूपायन होता है. इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि तथाकथित इतिहास और पुरातत्व से कहीं अधिक हमारी स्मृति साहित्य में सुरक्षित रहती है. कविता का एक ज़रूरी काम याद करना और दिलाना है: वह स्मृति को सजीव रखती है. उसकी जो तथाकथित निरन्तरता है वह स्मृति की ही निरन्तरता होती है. कविता जो हुआ, जो हो रहा है और अकसर हमसे छूट जाता है उसको याद करती है. आक्तावियो पाज़ ने कविता को दूसरा इतिहासकहा है. जैसे सपने देखने, कल्पना करने का काम कविता किसी और के ज़िम्मे नहीं कर सकती वैसे ही स्मृति भी उसकी ज़िम्मेदारी, उसका स्वभाव है: उसके लिए कोई और याद नहीं कर सकता. कई बार लगता है कि आज की कविता में हम स्मृति से लगभग अकारण विपन्न हुए जा रहे हैं. अगर स्मृति होगी तो कृतज्ञता भी होगी: क्या हमारी बहुत सी कविता से कृतज्ञता के भाव का लोप नहीं हो गया है?

 

 

९.

विराम का घर

विलय का घर

विलोप का घर   

आपका कलावंत,चित्रकार,शास्त्रीयता, गान  आदि से गझिन साथ रहा है. आपकी कविता में कभी कुमार गन्धर्व आते हैं कभी मल्लिकार्जुन मंसूर. स्वामीनाथन,रज़ा, कारन्त आदि आपके लिखे में नजर आते हैं. यह जो कलाओं का घर है उसमें कविता का इनसे जो रिश्ता बनता है वह अनूठा भी है. कभी लगा कि कविता इनसे स्पर्धा में हैं.



                 मेरे लिए दूसरी कलाएँ कविता और साहित्य का अनिवार्य और समृद्ध सहायक पड़ोस शुरू से ही रही हैं. कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अपने समय के कई कलामूर्धन्यों के नज़दीक आने का अवसर मिलता रहा. उनमें से कइयों की कला के बारे में लिखने का उपक्रम भी किया. उन पर कविताओं का एक पूरा संचयन भी बन गया. साहित्य और कलाओं के बीच बढ़ती गयी दूरी को किसी हद तक पाटने की चेष्टा अपने साहित्य, सम्पादन, संस्था-निर्माण और संचालन आदि में की. दो बातें: कोई भी कला पूरी तरह से स्वायत्त नहीं होती, उस पर दूसरी किसी कला की छाया या उपस्थिति पड़ती ही है. दूसरे, हर कला की अपनी भाषा और अपना सच होता है. संगीत का सच, ललित कला का सच, नृत्य का सच, रंगमंच का सच और कविता का सच सब अद्वितीय होते हैं. जो चित्र कर सकता है वह कविता नहीं, जो कविता कर सकती है वह संगीत नहीं आदि. उनमें सहकार और संवाद, तनाव आदि हो सकते हैं: हमारी परम्परा में तो अन्तनिर्भरता उन्नीसवीं शताब्दी तक थी पर उसे आधुनिकता ने, लगता है, हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया. कभी मैंने एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र की रूपरेखा प्रस्तावित करने का विचार किया था जिसकी अवधारणाएँ सभी कलाओं और साहित्य पर लगभग समान रूप से लागू हो सकें. यह आलोचनात्मक काम करने से रह ही गया. 

स्पर्धा तो नहीं कविता की, अपनी कविता की अपर्याप्तता का बोध ख़ासकर चित्रकला और संगीत के सिलसिले में होता है: दोनों में अमूर्तन इतना सहज और ग्राह्य होता है जबकि कविता में, अगर हो, तो अबूझ माना जाता है. अलबत्ता, कविता में मैंने कलाकारों और कलाओं की स्तुति ही की है: कुछ और कविमित्रों की तरह उनका रूपक की तरह इस्तेमाल नहीं किया है. यों शास्त्रीय संगीत और चित्रकला का मेरी कविता पर गहरा प्रभाव पड़ा है जिसे अकसर ठीक से देखा-पहचाना नहीं गया है. संगीत का समय में रहकर समयातीत को छू लेने का जो विस्मय और रहस्य से भरा कर्म होता है वह मेरी कविता के लिए हमेशा ईष्या का विषय रहा है.

 

 

१०. 

‘देर हो जाएगी पहचाने में

देर हो जाएगी स्वीकारने में

देर हो जाएगी अवसान में’   

साहित्य धीरे-धीर पसरने वाली चीज है. पहचान और स्वीकार में समय लगता है. कविता में अ-शोक का अवसान नहीं होगा. ‘अभी न होगा मेरा अन्त/अभी-अभी ही तो आया है/मेरे वन में मृदुल वसन्त’ (निराला)

साहित्य में खेमे गुट और (कु) नीतियाँ भी हैं. कलावादी होना लांछन था. क्या कोई सिर्फ कलावादी हो सकता है?



           ऐसे समय में जब सभी कुछ द्रुतगति में हो गया है, पहचान और स्वीकार विलम्बित में रहें यह उचित ही है. मैंने अपने पहले संग्रह में टीएस ईलियट की उक्ति आरंभ में ही उद्धृत की थी: मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है.एक अधसदी बीत गयी. अब भी लिखते रहने में कुछ बेशरमी ज़रूर है सो है. निर्लज्ज हूँ पर निर्भय भी हूँ. जो भी किया है उसे लेकर कोई पछतावा या संकोच नहीं होता. वही किया जो कर सकता था. गिला-शिकवा भी नहीं. संसार सुन्दर और भव्य है पर क्रूर और असह्य भी. हर भाषा का साहित्य-संसार भी ऐसा ही होता है. शमशेर का पहला कवितासंग्रह जब छपा वे 50के होनेवाले थे और मुक्तिबोध तो अपने जीते जी अपना पहला संग्रह भी प्रकाशित होते नहीं देख पाये. इधर पहचान और मान्यता जल्दी-जल्दी मिलने लगी हैं और अकसर टिकाऊ नहीं होतीं. आप जानते ही हैं कि अनन्त मेरा प्रिय शब्द है: होड़ काल से नहीं, अनन्त से है. फिर कबीर ने कहा था: हम न मरैं मरिहै संसारा, हमका मिला जियावनहारा.मुझे तो साहित्य ही जियावनहारा मिला है: वह जितने समय उचित और उपयुक्त समझेगा रखेगा. अन्यथा इतिहास के कूड़ेदान में, असंख्यों के वहाँ होने के बावजूद, जगह फिर भी हम जैसों के लिए बची होगी. 

कई बार यह कहते तंग आ चुका हूँ कि हिन्दी में जीवन से असम्पृक्त या समाज-निरपेक्ष कलावाद कभी हुआ ही नहीं. सारे साहित्य को कथ्य में घटा देने और भाषा तथा शिल्प को अवमूल्यित करने के बरक़्स इन पर ध्यान देने की कोशिश को कलावाद कहकर लांछित किया गया. यह भी याद रखें कि हिन्दी में जनवाद और कलावाद दो ध्रुवान्त मान लिये गये हैं. हमने खुले ख़तरनाक बीच का आग्रह किया. हमने धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादी दुराग्रहों वाले लेखकों-कलाकारों से परहेज किया पर बाक़ी मध्यममार्गी, वाममार्गी, वामविरोधी, तटस्थ सभी तरह के लेखकों-आलोचकों को जगह दी, अपने आयोजनों, सम्पादन, आकलन-विश्लेषण, सम्मान-पुरस्कारों में. मेरी चालीस साल से ज़िद पर अड़ी वृहत्त्रयी अज्ञेय-शमशेर-मुक्तिबोध उसी दृष्टि और व्यवहार का प्रतिफल है. भूल-चूक हुई होगी पर बदनीयती कभी नहीं. इस अकाट्य सचाई की अवहेलना कर अगर कोई आकलन होता रहा तो उसका दोष मुझ पर नहीं. जो मिला उससे असन्तोष नहीं, जो नहीं मिला, शायद पात्रता के बावजूद, उसका मलाल नहीं. तथाकथित कलावादी के यहाँ जीवन के अभाव का दर्शन अन्धे ही कर सकते हैं जिनकी समझ से यह बाहर है कि शुद्ध कला भी जीवन से ही उपजती और जीवन को भी सत्यापित करती है: कला, भाषा, कविता जीवन के बिना सम्भव नहीं हैं और इन तीनों से ही जीवन हमेशा बड़ा है. यह ज़िक्र करना भी शायद असमीचीन नहीं है कि बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद से, 2002के गुजरात नरसंहार, 2015में अवार्ड वापसी द्वारा बढ़ती असहष्णिुता के विरोध और इस समय सत्तारूढ़ धर्मान्ध-साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रतिकार करने में कलावादी अग्रिम पंक्ति में रहे हैं. 

 

 

११.

‘हमारे पास लाचारी के सिवाय

अब कौन सी भाषा बची है ?’

कभी आप कहा करते थे कि कविता कवि की सम्पूर्ण नागरिकता है,कवि से किसी अतिरिक्त की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. आज ‘कविता से दुनिया को समझने, सहने, उसमें शिरकत करने, उसे थोड़ा सही,बदलने की कोशिश की कुल मिलाकर, नाकामी सामने है’


यह कविता की नाकामी है कि समाज का निकम्मापन. समाज तो अंतत: मनुष्यों का समुच्चय है.




                  जब यह धारणा बनी थी कि कविता पर्याप्त नागरिकता है तब माहौल कुछ ऐसा था कि जैसे कविता और नागरिकता दो अलग चीज़ें हैं और उनमें कोई संबंध नहीं. कविता की स्वायत्तता पर इसरार करने का यह एक तरीका था कि उसे नागरिकता और पर्याप्त नागरिकता माना जाये. अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कवि को कविता से अलग कुछ और आन्दोलन में भाग लेना, प्रदर्शन करना आदि ज़रूरी नहीं होना चाहिये. उसके पीछे यह भोला विश्वास भी था कि नागरिकता में कविता के लिए जगह है. बाद में, धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि आधुनिक भारतीय नागरिकता, कम से कम हिन्दी अंचल में, ऐसे विकसित हुई है कि उसमें कविता की आवाज़ सुनने का अवकाश नहीं है. नागरिकता ने कविता को चाँप सा लिया और कविता नागरिकता को प्रभावित करने में विफल सिद्ध हुई. नागरिकता की जो भी कमियाँ रही हों एक कवि इस दुखद अहसास से आँखें नहीं मोड़ सकता कि हम नागरिकता को प्रभावित करने में नाकाम हुए, उसे बदलने की बात तो दूर. तथाकथित जनधर्मी और बहुनिन्दित कलावादी इस विफलता में समान रूप से शामिल हैं. कितनी ही अप्रिय और अवांछनीय हो,हम अपनी लाचारी को स्वीकार करने से भाग नहीं सकते. हमने कविता से बहुत अधिक उम्मीद लगायी जो यथार्थ से बहुत दूर थी: इस अतिशयता के कारण शायद हमने कविता और नागरिकता दोनों के सहज कर्तव्य नहीं निभाये. जो अध्यात्मशून्य धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादग्रस्त नागरिकता आकार ले रही और राजनैतिक रूप से सशक्त-सक्रिय हो रही थी उसकी शायद हमने अनदेखी की, कविता में नहीं तो नागरिकता में. उसमें कविता के लिए जगह हो ही नहीं सकती थी, न है. कविता का अरण्यरोदन बनकर रहना लगभग अनिवार्य हुआ. दूसरों को दोष देने से क्या हासिल! हमें अपने ग़रेबाँ में झाँककर देर तक देखना चाहिये.

 

 

१२.

‘बातचीत करने का समय बीत चुका है’ 

आपके नया संग्रह ‘कम से कम’ में दो शब्दों ने मेरा ध्यान खींचा. ‘भेड़ियाधसान’ और ‘छुटभैयों’. पूर्व–अशोक में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. यह कविता में समय के हस्तक्षेप की ताकत है. ये दोनों शब्द समय हमारे समय के दो आक्रामक प्रतीक बन कर उभरे हैं. 




                इसमें सन्देह नहीं कि हमारा समय बहुत हस्तक्षेपकारी समय है- ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है जिसमें इस समय किसी न किसी शक्ति का हस्तक्षेप न हो और इस हस्तक्षेप का एक बड़ा हिस्सा आपको नियंत्रित करने का खुला लक्ष्य रखता है. ऐसे समय में संवाद सम्भव ही नहीं है: ताक़तवर आदेश देते हैं, फ़तवा जारी करते हैं, गाली-गलौज-झगड़ा करते हैं, आपको बोलने का मौक़ा ही नहीं देते, फ़ैसला करते हैं, राय देते हैं, धड़ल्ले से झूठ बोलते-फैलाते हैं, बन्दनयन भक्त पैदा करते हैं खुली आँखोंवाले शिष्य नहीं, जब अवसर आये ज्ञान का अपमान करते हैं और अज्ञान में जमकर रमते-रमाते हैं. असभ्य, अभद्र, हिंसक होने में उन्हें कोई संकोच नहीं.

आरंभिक दशकों में कविता और जीवन दोनों में स्वप्नशील था: जब दुस्स्वप्‍नों से आक्रान्त हूँ. मैंने नहीं सोचा था स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सत्तर वर्ष बाद ऐसा भेडियाधसान होगा, ऐसे छुटभैये बड़ी संख्या में मसीहा माने जाने लगेंगे. समय ने अपनी सचाई रचने में हमारे सपने नष्ट कर दिये हैं. कई बार लगता है जिसे मैं कविता की रंगभूमि और रणभूमि समझता था वह अब कविता का श्मशान है.

 

 

 

 

 

१३.

‘लिखो

ताकि अपनी मृत्यु के कई सदियों बाद

तुम्हारे वंशज यह पहचान पायें

कि भयावह रौरव के समय

उनके एक पुरखे ने याद रखने

दर्ज़ करने,बोलने की कोशिश की थी.’ 

जिस कवि की राजनीति और सामाजिकता दशकों तक संदिग्ध रही. जिसे परिवर्तन का विरोधी और साहित्य का यथास्थिति-वाद कहा गया. आज वह आततायी, हिंसक, सर्वशक्तिमान सत्ता के सामने सबसे आगे खड़ा है. मुखर है. साहित्य के सत्ता विरोधी उत्तरदायित्व का प्रतीक है. ऐसा कैसे हो गया ?



               राजनीति, सामाजिकता, परिवर्तन और यथास्थितिवाद चारों पद हिन्दी आलोचना और विमर्श में ख़ासे गोलमाल और अस्पष्ट ढंग से समझे-बरते जाते रहे हैं. राजनीति का अर्थ एक ओर तो रहा दलगत राजनीति याने सत्ताकामी प्रयत्न और दूसरी ओर रहा वामपंथी राजनीति जिसके बरक़्स हर तरह की अलग राजनीति प्रतिक्रियावाद क़रार दी जाती रही. लेकिन अगर आप स्वतन्त्रता-समता-न्याय के मूल्यों पर इसरार करें और किसी हद तक उनको अपने काम में चरितार्थ भी करने की चेष्टा करें तो उसे राजनीति की तरह नहीं देखा जाता या समझा गया. मैं सिविल सेवा में 1965से 2001तक रहा और ज़ाहिर है कि उसमें रहकर सीधी राजनीति में भाग लेना संभव नहीं था, न मेरी ऐसी प्रवृत्ति रही. पर मैं उस मूल्य त्रयी का भरसक, कुछ भूल-चूक को छोड़कर, हमेशा साहित्य और प्रशासन में पालन करने की कोशिश करता रहा. जिस व्यक्ति ने दर्जनों पत्रिकाएँ निकालीं, दो हज़ार से अधिक आयोजन किये जिनमें हज़ारों लेखकों-कलाकारों ने शिरकत की, जिसने प्रशासक रहते अनेक नवाचारी संस्थाएँ साहित्य, संगीत, नृत्य, रंगमंच, आदिवासी लोककलाओं, शास्त्रीय अध्ययन अनुसंधान आदि के लिए स्थापित कीं, एक दर्जन से अधिक पत्रिकाएँ निकालीं उससे सामाजिकता का और क्या प्रमाण और किसको चाहिये? संस्कृतिकर्म एक सामाजिक कर्म है और वह टिकाऊ गहरी सामाजिकता को पोसता-बढ़ाता है: उस कर्म में अपने जीवन के सात दशक झोंकने वाले की सामाजिकता किस हिसाब से संदिग्ध हो सकती है यह मेरी तुच्छ बुद्धि को कभी समझ में नहीं आया. परिवर्तन को पढ़ने-समझने की हमारे यहाँ जो भोंथरी विधियाँ रूढ़ और लोकप्रिय हैं, क्या उन्हें कभी यह सचाई दीख पड़ी कि इन प्रयत्नों ने रसिकता, सृजनात्मकता, आलोचना, आयोजन, संपादन आदि में कितने व्यापक परिवर्तन किये? सामाजिकता के नाम पर हिन्दी साहित्य में जो यथास्थितिवाद सत्तारूढ़ था उसे चुनौती देना और उससे अलग अपनी लीक बनाना, भले यह अल्पसंख्यकों की लीक थी और है, क्या एक विकल्प में रूप में नहीं पहचानी जा सकती

मैंने एक लेखक, संपादक और आयोजक के रूप में कभी किसी प्रतिक्रियावाद का समर्थन या पोषण नहीं किया. धर्मान्धता-साम्प्रदायिकता-जाति विद्वेष आदि के अतिचार का उतना ही विरोध किया जितना वाम-अतिचार का. अपने विरोधी को कभी अपना शत्रु नहीं माना: प्रतिभा को हमेशा सम्मान दिया, फिर उससे कितनी ही वैचारिक असहमति क्यों न हो.

हत्यारी राजनीति और सत्ता का खुलकर विरोध मैंने 2002के गुजरात नरसंहार से शुरू किया और अब उन्हीं शक्तियों के अधिक व्यापक, मान्य, लोकतांत्रिक पद्धति से वैध हो जाने पर उनके विरुद्ध सक्रिय और मुखर हूँ. जैसा तब था वैसा अब भी, बुनियादी संघर्ष स्वतंत्रता-समता-न्याय की मूल्य त्रयी के पक्ष में ही है. सौभाग्य से इसमें बहुत सारे बल्कि बहुसंख्यक लेखक-कलाकार अपने आप एकजुट हैं.

मैं राजनीति, समाज और संस्कृति पर पिछले लगभग 20वर्षों से लिखता रहा हूँ उसका एक संचयन तीन खण्डों में समय के सामने’, ‘अपने समय मेंऔर समय के इर्दगिर्दनाम से लगभग 600पृष्ठों में वाग्देवी प्रकाशन से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है. तथाकथित समाज और राजनीति को लेकर सैकड़ों कविताएँ हैं जिनका, अगर कविमित्र मंगलेश डबराल की सलाह मानूँ तो एक बड़ा संग्रह बन सकता है. 

जहाँ तक हिन्दी साहित्य की अपनी राजनीति का मामला है उसमें मैंने उदार बहुलतावादी स्वायत्तता पर आग्रह करनेवाली पर निजीपन और सामाजिकता के बीच यथोचित सन्तुलन की आकांक्षा करनेवाली भूमिका यति्कंचित निभायी है. इस भूमिका को पूरी तरह अकारथ गया नहीं माना जा सकता, भले उसे निभानेवाले कई लेखकों को अवहलेना और अवमूल्यन का सामना करना पड़ा है. हमारी ज़्यादातर आलोचना अटारी पर बैठकर लिखी गयी आलोचना है, वह रचना और लेखकों के तहख़ानों में जाने का जोखिम उठाने से बचती रही है.

 

 

१४.

‘समय है सारे बेईमान और अभद्र शोरगुल के बीच

एक खरी आवाज़ बनकर उभरने का

यह समय इंकार का है.’ 

‘असहमति’ और ‘अनभै’ ये दोनों शब्द आज आपकी कविता और आपके होने की सार्थकता में हैं. कबीर भी यही तो लिखते थे.



                           सहमति और निर्भयता, मुझे यह गर्वोक्ति करने की इजाज़त दीजिये, मुझमें शुरू से थी हालाँकि अपनी सूक्ष्मता के कारण उन्हें पहचाना नहीं जा सका. मैं साहित्य की स्थापित व्यवस्था से असहमत था फिर वह अकादेमिक व्यवस्था हो या कि वाम की. लगातार इतने प्रहारों, विवादों, कुपाठों आदि को झेलता रहा हूँ लेकिन इनसे डर कर मैंने अपनी राह या दृष्टि बदली नहीं. दोनों में बदलाव आया पर उसका कारण ये दबाव नहीं, स्वयं सचाई और समय के दबाव रहे हैं. कम से कम मेरी यही समझ है.

 

 

१५.

‘हम कवि हैं और कोई बाद में यह तो नहीं कह पायेगा कि

जब अँधेरा तेज़ी से बढ़ और रौशनी तेज़ी से घट रही थी तो

हम हाथ पर हाथ धरे बैठे  रहे लाचार और हारे-थके.’ 

आप को क्यूँ लगता है कि ‘आज कविता और नागरिकता के संघर्ष लगभग समान हो गये हैं.’



               कविता और नागरिकता का सम्बन्ध खा़सा जटिल है. इनका सम्बन्ध सर्जनात्मक हो सकता है, तनाव भरा भी. ऐसे अवसर आते हैं जब दोनों समान लक्ष्यों के प्रयत्न में सहचर हो जाते हैं और ऐसे भी जब कविता सिविल नफ़रमानी, सविनय अवज्ञा हो उठती है- हमारे लोकतंत्र के बुनियाद में प्रश्नवाचकता है: कविता जब-तब नागरिकता पर प्रश्न उठाती है. नागरिकता तभी तक वैध और काम्य है जब वह अपने नागरिकों को स्वतंत्र रखे, असहमति के लिए जगह और आदर बनाये, सभी को न्याय देने की चेष्टा करे और सभी नागरिकों को समानता दिलाने की ओर अग्रसर हो. कविता इन मूल्यों की चरितार्थता में नागरिकता की सहचर होती है पर उस पर चौकसी भी रखती है जैसे कि नागरिकता भी कविता पर इन्हीं मूल्यों के सन्दर्भ में, चौकसी करती है.

दुर्भाग्य से हमारी लोकतांत्रिक नागरिकता का एक बड़ा हिस्सा इस समय धर्मान्ध, साम्प्रदायिक, जातिद्वेषग्रस्त होने के साथ-साथ हमारी बुनियादी बहुलता के प्रति असहिष्णु, असहमति और वैचारिक बहस को रोकनेवाला, ‘दूसरोंके प्रति हिंसक और आक्रामक हो गया है और उसे एक आतयायी सत्ता का पूरा समर्थन प्राप्त है. नागरिकता मुक्ति के रूप में नहीं, बन्दिशों और निषेध के रूप में परिभाषित की जा रही है. कविता, आज की कविता का महत्वपूर्ण अंश, इन विकृतियों-विचलनों को हिसाब में ले रहा है (जिसमें मेरी कविता शामिल है). आज स्वतंत्रता-समता-न्याय, अहिंसा और संवाद, सहकार और सद्भाव के लिए व्यापक नागरिकता जो संघर्ष कर रही है, वही कविता का भी संघर्ष है. इस अर्थ में आज भी कविता नागरिकता है.

 

 

१६. 

क्षमा करो स्वच्छ लोकतंत्र के निर्मल नागरिकों

तुम्हारे स्वच्छता अभियान में तुम्हारे साथ नहीं हूँ 

इधर आपकी कविताओं की भंगिमा कुछ राजनीतिक हुई है. हिंदी में राजनीतिक कविताएँ रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा ने भी लिखीं हैं. अगर मुक्तिबोध को भी शामिल करें तो जहाँ मुक्तिबोध सत्ता-राजनीति के विरोधी हैं, सहाय के कविताओं में हम लोकतंत्र के तीखे अन्तर विरोध पाते हैं वहीं श्रीकांत वर्मा तक आते-आते इस तन्त्र की विक्षिप्तता दिखने लगती है आपके यहाँ यह अवसाद में  बदल गया है.

 

विरोध, अन्तरविरोध,विक्षिप्तता और अवसाद यह हिंदी राजनीतिक कविताओं के मेरे ख्याल से  सोपान हैं. मुक्तिबोध के पास हालाँकि विकल्प का स्वप्न है आप तक तो आते-आते विकल्प हीनता को स्वीकार कर लिया गया है. असहायता का यह बोध क्या वैश्विक नहीं है.



               दोबातें. एक तो भंगिमा कुछ मुखर रूप से राजनैतिक हुई है, पर अन्तःसलिल तो पहले रही है. दूसरे, अब सिर्फ़ अवसाद भर नहीं है- गहरा विफलता बोध है. कुछ इस तरह का कि निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की विफलता तदात्म तदाकार हो गयी हैं. श्रीकान्त वर्मा ने दशकों पहले कहा था ‘‘मैंने अपनी विफलताओं का प्रणेता हूँ’’. इस बोध में गहरा आत्मालोचन भी है- आखि़र मुक्तिबोध और श्रीकान्त हिन्दी कविता में आत्माभियोग के अप्रतिम कवि रहे हैं. जो कुछ हुआ, सपने राख हुए; अपराधीकरण-हिंसा-हत्या को सामाजिक आचरण की वैध शैली की मान्यता मिली, व्यक्ति और समाज दोनों का लगातार अवमूल्यन होता गया, उदात्त और उदार घूरे पर फेंक दिये गये, न अतीत-बोध बचा, न भविष्य-दृष्टि और एक अनन्त वर्तमान थोप दिया गया; स्वतंत्रता-न्याय-समता में कटौती दैनंदिन की घटना बन गयी! भाषा से मानवीयता, गरमाहट, परस्परता तेज़ी से ग़ायब होने लगीं: टुच्चापन-ओछापन-सनसनियाँ-अफ़वाहों-झूठों का नया राज क़ायम हो गया. विचार, ज्ञान, सत्य सभी अपदस्थ किये जाने लगे; दुर्व्याख्याओं का घटाटोप छा गया. इस भयानक परिणति में हमारी भी भूमिका, दुर्भाग्य से, रही है- वैश्विक विफलता में हमारी निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की शिरकत है. मेरी कविता, किसी हद तक, इस अप्रत्याशित विडम्बना को कुछ हिसाब में लेने की कोशिश करती है. कम से कमहम कवि हैं तो इतना तो कर सकते हैं.


मुक्तिबोध के जीवित रहते अरुण स्वप्न, कम से कम उनके नज़दीक, खण्डित नहीं हुआ था. श्रीकान्त वर्मा सत्ता की अन्ततः विफलता को देख पाये थे. उन्हें, फिर भी, ‘तीसरा रास्तादीखता था. रघुवीर सहाय लोकतंत्र के अन्तर्विरोधों को उजागर करते थे पर लोकतंत्र की संभावना पर उम्मीद लगा सकते थे. हम जो लोकतंत्र का भयावह बहुसंख्यकतावादी क्रूर-हिंसक विद्रूप देख रहे हैं कहाँ उम्मीद लगायें? कविता कुछ कर नहीं सकती पर इस ध्रुवान्त पर मानवीयता की स्थिति, दशा-दुर्दशा, निरुपायता, विकल्पहीनता को दर्ज तो कर सकती है. हम रास्ता नहीं दिखा सकते, गवाही दे सकते हैं!

 

१७. 

'मुसहफ़ी'शायर नहीं पूरब में हुआ मैं

दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था. (मुसहफ़ी)

  

दिल्ली में बहुत दिनों से आप हैं. महानगर की ‘निर्मम प्रखरता’ कवि की स्वाभाविक कोमलता और करुणा सोख लेती है. इसका कभी एहसास होता होगा आपको.


 

                   दिल्ली भयावह रूप से बड़ी है, जनाक्रान्त है, सत्ता का केन्द्र है, अपराध-बलात्कार-हिंसा की राजधानी है. इस सबके बावजूद वह, बिना चाहे भी, हिन्दी साहित्य की भी राजधानी है. हिन्दी के सबसे अधिक लेखक, प्रकाशक, पत्रकार, अध्यापक, संपादक आदि दिल्ली में ही बसते हैं. दिल्ली के लेखक-संपादक दूसरे शहरों के लेखकों आदि का शोषण भी जब-तब करते रहते हैं. लेकिन गरमाहट, मदद, सहानुभूति, समझ, साहचर्य के द्वीप और अवसर भी दिल्ली में कम नहीं हैं. मैं (अगर 1960-65की अवधि को हिसाब में न लूँ) 1992के मध्य से दिल्ली में हूँ. जब आया तब उमर 50पार कर चुकी थी. ज़िन्दगी, प्रशासन, शत्रु-मित्र तब तक जितनी कोमलता, करुणा सोख सकते थे, सोख चुके थे. मैंने भरसक दिल्ली की संस्कृति में कुछ सार्थक करने की कोशिश की, सहायता-समर्थन भी मिले. इसलिए दिल्ली को पूरी तरह से निर्मम मानने का कोई कारण नहीं देखता. अगर साहस हो, जोखिम उठा सकते हों, कुछ कल्पनाशीलता हो और सृजनात्मकता बचाये रख और पोस सकते हैं तो दिल्‍ली में जगह में बन सकती है! कर्महीन नर पावत नहीं!
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अरुण देव 
 तीन कविता संग्रह प्रकाशित.
एक दशक से समालोचन का संपादन. नजीबाबाद में रहते हैं.
devarun72@gmail.com

गोरख पाण्डेय : शिवमंगल सिद्धांतकर

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गोरख पाण्डेय के लेखन की शुरुआत १९६९ के किसान आंदोलन में उनके जुड़ाव से हुई और वे भोजपुरी में गीत लिखने लगे बाद में वे जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और प्रथम महासचिव बने. उनकी कविताओं का संग्रह ‘स्वर्ग से विदाई’ का प्रकाशन शिवमंगल सिद्धांतकर और अवधेश प्रधान के संयोजकीय में १९८९ में हुआ था.

शिवमंगल सिद्धांतकर इधर कथाकार ज्ञानचंद बागड़ी के सहयोग से संस्मरण की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं जो क्रम से समालोचन पर प्रकाशित हो रहे हैं. अब तक इसके अंतर्गत आपने नलिन विलोचन शर्माऔर राजकमल चौधरी के विषय में पढ़ा है. आज गोरख पाण्डेय पर उनका यह स्मृति आलेख प्रस्तुत है.

लेखकों के विषय में उनके सहयोगी और मित्रों के संस्मरण एक तो जहाँ उनके व्यक्तित्व के नये आयामों से परिचित कराकर उन्हें पुनर्नवा करते हैं वहीं उनकी बनी छवि से अलग अगर कोई बात निकलती है तो उसपर तीव्र प्रतिक्रियाएं भी होती हैं.

आज फिर किसान अपने हकों और लोकतंत्र के लिए आंदोलन पर बैठे हैं आज फिर गोरख की याद आ रही है.   


ऐसे थे गोरख पाण्डेय                           

शिवमंगल सिद्धांतकर

 

‘वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे’


कुछ लोगों को कभी-कभी याद करना पड़ता है और कुछ लोग याद से बाहर कभी होते ही नहीं हैं. गोरख पाण्डेय  से मेरा संबंध ऐसा था जिनकी याद कभी बाहर होती ही नहीं है. इन दोनों पक्षों के विस्तार में जाऊंगा तब भी वे ओझल नहीं होगें. फिर भी विस्तार में जाने की बजाय मैं गोरख पर ही अपने आपको केंद्रित करूंगा. कारण यह है कि पिछले दिनों नवफासीवादी मोदी,अमित शाह सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किए हैं. इन तीनों कानूनों के आधार पर सचेतन आम किसान भी कहता हुआ पाया जा रहा है कि यह कानून हमारे लिए 'डेथ वारंट'है. कारण यह है कि आम किसान जब इसे डेथ वारंट कहता है तो ऐसा लगता है इस बात को नहीं मानने वाले किसानों के नेता तर्कजाल तो बिछा सकते हैं, बुद्धि विलास भी करते होते हैं. किसी-किसी किसान द्वारा यहां तक कहना होता है कि इन कानूनों का मसौदा भारत सरकार ने नहीं बल्कि अंबानी और अडानी के टेक्निकल मैनेजरियल साइबरतारियन्स और न्यूप्रोलेतेरियन के मस्तिष्क के उस हिस्से से तैयार किया गया है जो घोर प्रतिक्रियावादी है.

यही वजह है कि इन कानूनों के बारे में सरकार के आला अधिकारी समेत कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री तक किसानों को समझाने या बरगलाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं. जबकि किसानों ने सत्ता केंद्र राष्ट्रीय राजधानी को लगभग चारों ओर से पिछले 26 नवम्बर 2020 से घेर रखा है. किसान नेताओं और सरकार में कई दौर की बातचीत हो चुकी है और कोशिश यह चल रही है कि उस डेथ सेंटेंस को सरकार की ओर से  वापस ना करना पड़े और क्यूँ ना आजीवन कारावास की सजा में इसे तबदील कर दिया जाए. 

राजधानी को घेरने के तीन पड़ाव अभी तक भूमिका में उतर गए हैं. पहला है सिंधु बॉर्डर, दूसरा टिकरी बॉर्डर और तीसरा गाजीपुर बॉर्डर. इन तीनों ही पड़ाव को तोड़ने के लिए सरकार की तरफ से कोरोना का डर, सत्ता के दमन का डर और आतंकवादी डर फैलाया जा रहा है. सिंधु बॉर्डर पर पत्रकार रवीश कुमार का साक्षात्कार लेते हुए एक पंजाबी युवक ने गोरख पाण्डेय की उस कविता की ओर इशारा किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लोग डरना छोड़ दें तो सत्ता की क्या बिसात रह जाएगी. कविता इस प्रकार है :



वे  डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद  पुलिस-फौज के बावजूद?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उन से डरना

बंद कर देंगे. 

(1979,स्वर्ग से बिदाई संग्रह में प्रकाशित) 


यहाँ  मैं यह बदला देना चाहता हूं कि पिछली सदी में जो दो महाकाव्यात्मक क्रांतियां हुई उनमें सर्वहारा और किसान की भूमिका प्रमुख रही थी. रूस में 7 नवम्बर 1917 को जो सर्वहारा क्रांति हुई उसमें सर्वहारा ने जारशाही के शक्ति केंद्र को शहरों के अंदर से ही घेरा था और चीन में जो क्रांति हुई उसमें किसानों ने शहर में स्थित शक्ति केंद्र को गांवों से घेरा था. मौजूदा समय में किसानों ने अपने डेथ वारंट के खिलाफ मौजूदा सत्ता शक्ति केंद्र को गांवों से घेर रखा है इसमें सर्वहारा के शामिल हो जाने की जरूरत है. फिर दोनों क्रांतियों के फ्यूजन  से 21वीं शदी की नई सर्वहारा क्रांति संभव है. जिसके आसार बनते होते हैं. यदि साइबरटारियन्स और न्यूप्रोलेतेरियन्स अपने पक्ष में यानी किसान-मजदूर के पक्ष में सक्रिय हो जाते हैं फिर साईबर साम्राज्यवाद के इस युग में मौजूदा भारत की राज्य सत्ता मिनटों में उलट जायेगी. आज और आज ही कृषि कानूनों के साथ ही श्रम कानूनों में संशोधन की वापसी को जोड़कर मौजूदा प्रतिक्रियावादी सत्ता को उलट सकते हैं. यदि कोरोना के हउवा से बेपरवाह होकर अपनी-अपनी जगह पर अपने पक्ष में नई सत्ता के लिए आंदोलित हो जाते हैं. 

केवल पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि सारे देश के किसान संगठन इस आंदोलन में शामिल हैं और गैर वातानुकूलित रेल चलती होती तो पूरे देश का किसान शक्ति केंद्र के चारों ओर एकत्र हो चुका होता. किसान कहते  हैं कि मरता क्या न करता. यह बात भी सत्ता केंद्र की ओर से फैलाई जा रही है कि दूसरे देशों के शासक और किसान संस्थाएं भारत के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप कर रही हैं. विडंबना आप समझ सकते हैं सरकार तो सारी दुनिया के देशों के सामने हाथ फैलाती है लेकिन किसान जब संकट में है तो उसके सहयोग को हस्तक्षेप कहना बुद्धि के पैदल चलने के बराबर है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि मौजूदा प्रधानमंत्री यह कहकर सत्ता में आये हैं कि मैं देश नहीं बिकने दूंगा. लेकिन जब से वे आये हैं देशी और विदेशी  बुर्जआ घरानों या दूसरे शब्दों में देशी और विदेशी साम्राज्यवादियों के हवाले सरकारी उपक्रमों की बिक्री करते जा रहे हैं और साइबर साम्राज्यवाद के वर्चस्व से देश को गुलाम बनाना चाहते हैं. किंतु वे प्राकृतिक द्वंदवाद में विपरीत के सिद्धांत को नजर अंदाज कर रहे हैं. शायद भुगतने पर ही वे होश में आयेंगे.

 मुझे याद आता है कि सिंघु बॉर्डर पर गोरख के गीत जब पंजाब के किसान गा रहे हैं तो गोरख न सही अन्यायी सत्ता विरोधी उनके गीत तो लड़ रहे हैं. किसान गा रहे हैं: 

 जनता के आवे पलटनिया 
हिलेले झकझोर दुनिया, 
हिलेला पहड़वा हिलेला नदी तलवा हिलेले झकझोर दुनिया, 
सगरे में उठेला हिलोरवा  
हिलेले झकझोर दुनिया,. 
(1978)

मुझे याद आता है कि जब अफगानिस्तान पर रूसी सैनिक उतर पड़े थे तो उसके विरोध में हम लोगों ने वोट क्लब पर एक प्रतिरोध प्रदर्शन किया था जिसमें गोरख की एक कविता पढ़ी गई थी. जाहिर सी बात है कि गोरख की कविताएँ वर्चस्व के खिलाफ लड़ती रहती हैं. 

इन्कलाब की बिक्री करते युद्धों के मैदान में,
रूसी सैनिक उतर पड़े हैं अब अफगानिस्तान में. 



मेरी स्मृति में आपातकाल के बाद जनकवि गोरख पाण्डेय जब दिल्ली आए तो उनके बारे में, उनके गीतों के बारे में, उनके रहन-सहन और जन्म स्थान के परिवेश के बारे में मुझे बहुत सी बातें बहुतेरे इंडियन पीपल फ्रंट और लिबरेशन के साथियों ने  बताई थी. जाहिर सी बात है कि मैंने उनसे मिलने के लिए उत्सुकता दिखलाई. लिबरेशन का कोई साथी उन्हें मुझसे मिलाने के लिए नहीं लेकर आया किंतु एक दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के अध्येता आनंद कुशवाहा उन्हें लेकर मालवीय नगर मेरे  आवास पर आए. फिर गोरख से बहुत सारी राजनीतिक और सांस्कृतिक बातें हुई. मैं अपने अंदर यह आशा पालने लगा कि गोरख पाण्डेय  को मैं मजदूरों के अपने कार्यक्षेत्र में ले जाऊंगा और देखने को मिलेगा कि उनके बीच इनके गीत कितने प्रभावकारी होते हैं. उस दिन अपने आवास पर मैं अकेला था. मेरी पत्नी अपने ऑफिस और बच्चे स्कूल गए हुए थे. मेरे लिए दोपहर का जो खाना रखा हुआ था उसे ही गोरख, आनंद कुशवाहा और मैंने आपस में बांटकर खाया. आपस में बांटकर खाया हुआ थोड़ा खाना भी कितना अधिक हो जाता है. मैं अपना चेहरा तो नहीं देख सकता था, महसूस जरूर कर रहा था और उनके चेहरे पर संतोष की खुशी के भाव मैंने पढ़े. थोड़ी देर की बातचीत के बाद गोरख को मैंने बताया कि मंगलेश और त्रिनेत्र वगैरह तो मुझे गीत का दुश्मन बताते हैं. किंतु मेरी पत्नी शीला सिद्धांतकर के गायन के सभी कायल हैं और प्रशंसा भी करते हैं. गोरख को मैंने कहा कि अगले रविवार को यदि आप आएं तो मेरी पत्नी जो सितार वादन और हिंदुस्तानी गायन में माहिर हैं तथा सितार की प्राध्यापक भी रह चुकी हैं, वह आपके भोजपुरी गीतों को सुनकर प्रसन्न होंगी और आप भी उनका गायन सुन सकते हैं यदि वे राजी हो गई तो. इसके बाद गोरख पाण्डेय ने रविवार को आने का वादा किया. 

अगले रविवार को गोरख पाण्डेय पहुंचे और कहा कि आनंद कुशवाहा को तो कहीं जाना था, इसलिए मैं पैदल ही आ गया, ना जाने कौनसी बस कहां पहुंचा दे. उनकी इस बात से मैं समझ गया कि गोरख इस दुनिया में कम ही रहते हैं. विचार,साहित्य और संगीत में खोए रहते हैं. मैंने उन्हें शीला और बच्चों से मिलवाया. गोरख स्त्रियों और बच्चों के प्रति कितना स्नेह और प्यार रखते हैं यह उनके दांतो की  मुस्कान से हमने समझा. शीला ने कहा कि अभी खाना तैयार हो रहा है, आप लोग तब तक बातचीत कीजिए. खाना खाने और गोरख को खिलाने के बाद हम लोग इनके गीत सुनेंगे. इस पर गोरख यह कहते हुए कि भोजन के बाद मैं अपने गीत जरूर सुनाऊंगा, पूरा मुंह खोलकर खिलखिलाए और बोले कि मैं शास्त्रीय संगीत के व्याकरण को तो नहीं जानता लेकिन लोकगीतों की लय की पहचान मैंने कर ली है. उसी को आधार बनाकर मैं नए गीत रचता हूं अथवा लोक प्रचलित पुराने संवेदनात्मक गीतों की पुन: रचना करता हूं. आशा करता हूं कि मेरे गीत आपको पसंद आएंगे. 

बाबा ने तो कभी मुझसे गीत सुनाने की फरमाइश नहीं की. यह कहते होते हैं कि आप अपने गीत लिख कर दो तो उन्हें मैं हिरावल में छापूंगा. यहां आने से पहले तो बाबा से मेरी मुलाकात चलते-फिरते कैंपस में ही होती थी और वहीं बातें होती हैं. भोजन के बाद जब हम लोग बैठे तो मैंने गोरख पाण्डेय से कहा कि अब आप भोजपुरी गीतों से शुरूआत करें. उनके दाँत मुसकुराए और अपनी दाढ़ी और बालों पर हाथ फेरते हुए अपनी "मैना"वाले गीत से उन्होंने शुरुआत की और कई भोजपुरी गीत गाए. गीत सुनने के बाद शीला ने अच्छा महसूस किया और कहा कि भोजपुरी गीतों की लय और धुन यदि आप पहचान लेते हैं और उसे अपने गीतों में पिरो लेते हैं तो इतना काफी है. शास्त्रीय व्याकरण के लिए खास परेशान होने की जरूरत नहीं है. वह सब तो पढ़ने-पढ़ाने के लिए जरूरी है. उनसे होकर तो कोई विरले ही कोई गीत अथवा गायन की रचना करता है. यह तो शास्त्रीय गीत और गायन के व्याकरण को जानने वालों के लिए होता है जिसका इस्तेमाल वे सहज लिखे हुए गीतों को मीटर में बांधते समय करते हैं. आपके गीतों में और गाने में भी संवेदनशीलता झलकती है और बड़ी बात यह है कि आपके गले में प्राकृतिक तौर पर लय मौजूद है. जिसके पास यह नहीं होता है वह कोशिश करके भी उम्दा कुछ हासिल नहीं कर पाता. यह बात मैं साधारण तौर पर कह रही हूं, अपवाद तो होते ही हैं. 

गोरख ने शीला से कहा कि यदि आपका मूड हो तो मैं सितार के साथ आपका गायन सुनना चाहूंगा. इस पर शीला ने कहा कि आज मैं अपने अतीत में चली गई हूं अगली बार जब मिलेंगे तो मैं अवश्य सितार तैयार रखूंगी और मूड को भी ठीक रखने की कोशिश करूंगी. उसके बाद थोड़ी देर तक गोरख मेरे तीनों बच्चों पर स्नेह लुटाते रहे. फिर मैं उनको साथ लेकर बाहर निकला. ख़ुद पान खाया, उनको भी खिलाया और कहा कि पैदल जाने में सहूलियत हो तो पैदल ही चले जाइएगा. फिर लाल सलाम करते हुए वे जेएनयू के लिए चल पड़े.

आपातकाल के बाद मैं हिरावल का दूसरा अंक निकालने की योजना बना रहा था और जनवादी लेखक संगठन हिरावल की ओर से जरूरी गतिविधियां चला रहा था तो उसमें गोरख पांडे ने खास दिलचस्पी नहीं ली. इसका कारण मैं समझता था क्योंकि वह लिबरेशन के नजदीक थे और मैं सी.ओ. सी. में सक्रिय था. लिबरेशन के कुछ लोग उन्हें समझाते रहते थे कि शिवमंगल जी आपसे कविताएं तो मांगते हैं लेकिन उन्हें हिरावल में प्रकाशित नहीं करेंगे. जनवादी लेखक संघटन  हिरावल में उनकी दिलचस्पी नहीं थी. फिर हिरावल पत्रिका के संयोजक मंडल में मैंने उन्हें रखना चाहा तो इसके लिए वे तैयार हो गए. मैंने  हिरावल पत्रिका के संयोजक मंडल में उन्हें स्थान दे दिया किंतु हिरावल में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही थी. उन्हें संयोजन मंडल में स्थान देने के बावजूद उनसे कोई सहयोग नहीं मिला. जब हिरावल का अंक 1978 में प्रकाशित हुआ तो उसमें गोरख पाण्डेय के सारे भोजपुरी गीत प्रकाशित थे. इन गीतों को सम्मिलित करते हुए एक छोटी पुस्तिका 'भोजपुरी के नौ गीत'नाम से अपने संयोजकीय वक्तव्य के साथ जब मैंने प्रकाशित की तो उदय प्रकाश वगैरा ने यह कहना शुरु किया कि गोरख के गीतों के बारे में बाबा का वक्तव्य गोरख को पागल कर देगा.

2018 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जब मैं छात्र नेता ज्योति और नवोदित अर्थशास्त्री आशुतोष के साथ किसी स्टॉल की तरफ जा रहा था तो दस-बारह साहित्यकारों के साथ प्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश टकरा गये और मेरा परिचय उन साहित्यकारों से कराते हुए कहा कि बाबा ने ही गोरख पाण्डेय का साहित्य में प्रवेश कराया था. जाहिर सी बात ही कि उर्मिलेश का इशारा उपर्युक्त संदर्भ की ओर था. इस तरह वर्षों पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो गई थीं.

हिरावल 1978 के प्रकाशन के बाद गोरख पाण्डेय से  मैंने एक दिन पूछा था कि आप की आगे क्या योजना है?  इस पर उन्होंने स्पष्ट किया कि पहले तो मैं जीवन चलाने के लिए थोड़ा बहुत धनार्जन करना चाहता हूं. इसके बाद ही कोई योजना  बना पाऊंगा. गोरख पांडेय और आनंद कुशवाहा के सामने मैंने एक सहकारी प्रेस चलाने का प्रस्ताव रखा. जिसका उद्देश्य उनके जीवन को चलाने के एक आधार से था. इसके लिए भी वे लोग वास्तव में तैयार नहीं हुए. फिर संयोजन मंडल के एक-दो सदस्यों के सहयोग से हिरावल के प्रकाशन और जनवादी लेखक संघ हिरावल की गतिविधियों को मैंने आगे बढ़ाया. यह महसूस करते हुए कि ये लोग अपने-अपने ग्रुप से निर्देशित होते होंगे फिर मैंने उन्हें किसी काम में लगाने का इरादा छोड़ दिया. 

उसी समय कुछ दिन बाद गोरख पाण्डेय ने बताया कि राधाकृष्ण प्रकाशन से संस्कृत पाठ का हिंदी पाठ तैयार करने का काम मुझे मिल गया है और इससे जो पैसे मिलेंगे उनसे शायद मेरा जीवन चलना संभव हो सके. इसी बीच एक दिन उन्होंने बताया कि मेरा प्रवेश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए हो गया है और मुझे छात्र वृत्ति भी मिलेगी. इसके बाद जहां तक मैं जानता हूं कि वे सार्त्र  से संबंधित किसी विषय पर पीएचडी का काम कर रहे थे और उन्हें छात्रवृत्ति भी मिल गई थी.


हॉस्टल में जगह भी मिल गई
, इसलिए जीवन चलने लगा था. गोरख और मेरे बीच उनके व्यक्तिगत जीवन की बातें नहीं होती थी लेकिन लोगों से पता चला था कि गांव में उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी शादी तो हुई थी लेकिन इस शादी को उन्होंने मान्यता नहीं दी. उनकी पत्नी घर में तो आ गई थी किंतु पत्नीवत संबंध रखने से उन्होंने इनकार कर दिया था. लोग बतलाते थे कि कुछ दिनों बाद किसी बीमारी से इनकी पत्नी की मृत्यु हो गई. उसके बाद इनके पिता ने दोबारा शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. गोरख पाण्डेय ने अपनी बुआ के लिए एक कविता लिखी है जिसे वे अकसर सुनाया करते थे. बताते थे कि उनका लालन-पालन उन्होंने ही किया था तथा जिनके प्रति वे आदर भाव और लगाव रखते थे. परिवार के बाकी लोगों से अलगाव महसूस करते थे.
 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी करते हुए गोरख पूरी निष्ठा से अपने काम को अंजाम दे रहे थे. पार्टी के लोग उनके यहां आश्रय भी लेते थे जिनके खाने-पीने और क्लास लगाने की व्यवस्था उनके कमरे में हो जाया करती थी. कामरेड लोग वहाँ ठहर भी लिया करते थे और पास में पैसा होने पर गोरख उन्हें कुछ दे भी दिया करते थे. अतिवादी एम. एल. ग्रुप के दूसरे लोग इस घटना को अपशब्दों से याद करते थे जिसके बारे में मैंने एक कविता भी लिखी थी. 

गोरख पाण्डेय के जेएनयू निवास पर लिबरेशन के नेता अकसर जमे रहते थे और अपनी राजनीति के साथ ही बिरादराना संगठनों की राजनीति से उन्हें अवगत कराते रहते थे. साथ ही मतभेद भी गिनाते होते थे. उसी आधार पर गोरख पाण्डेय दूसरे एम एल के साथियों के साथ व्यवहार करते थे. मैं लिबरेशन में नहीं था लेकिन उस समय के सबसे बड़े संगठन के रूप में सी.पी. रेड्डी वाले सीपीआई एम. एल. पीसीसी में था जिसका विस्तार चौदह राज्यों में था जबकि गोरख पाण्डेय  जिस विनोद मिश्र के लिबरेशन में थे उसका अस्तित्व केवल चार राज्यों में था. दोनों  संगठनों के मिलने की प्रक्रिया भी चल रही थी और विनोद मिश्र ने इंडियन पीपल फ्रंट की स्थापना के लिए एक सेमिनार का आयोजन पत्र आनंद स्वरूप वर्मा, गौतम नवलखा, जय सोम के नाम से लिखा और 35, फिरोजशाह रोड वाले हॉल में आयोजित  करवाया था जिसमें अन्य संगठनों के साथ ही लिबरेशन और सी पी रेड्डी पीसीसी के लोगों को विशेष तौर पर बुलाया गया था, क्योंकि दोनों ने मिलकर इंडियन पीपल फ्रंट का गठन करने की सोची थी.

इस सेमिनार को निरंकुशता विरोधी सेमिनार बतलाया गया था और गैर राजनीतिक संगठनों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था. पीसीसी का नाम लिए बिना मैंने करीब चालीस- पैंतालिस मिनट तक सेमिनार में अपना भाषण जारी रखा और गैर राजनीतिक अवधारणा को खारिज करते हुए अपने वक्तव्य का समापन किया. इस अवसर पर गोरख पाण्डेय को कुछ लोगों ने मेरे वक्तव्य के खिलाफ बोलने के लिए उकसाया और वे मंच के ऊपर पहुंच गए लेकिन अध्यक्ष मंडल के अध्यक्ष ने उन्हें सख्ती से नहीं बोलने के लिए हिदायत दी. फिर वे अपनी जगह पर जाकर बैठ गए. मेरे बोलने के बाद उपस्थित लोगों में से अधिकतर लोग मेरे पक्ष में हो गए थे, इसका अनुमान अध्यक्ष मंडल ने कर लिया था. जब भोजन अवकाश हुआ तो सी. पी. रेड्डी नेतृत्व के एक-दो आदमी जो इसमें पहुंचे हुए थे उनमें से एक कामरेड फणी बागची ने मुझे बताया कि वार्ता टूट गई है. सेमिनार चलता रहा और पीसीसी इंडियन पीपल फ्रंट में शामिल नहीं हुआ. इससे ज्यादा यहां बतलाने की जरूरत नहीं है. 

यहाँ जन संस्कृति मंच की स्थापना की बात करना बहुत जरूरी है. जिसकी स्थापना महासचिव गोरख पाण्डेय के नेतृत्व में 1985 में हुई थी. राष्ट्रीय अध्यक्ष नाटककार गुरशरण सिंह को बनाया गया था.

जन संस्कृति मंच की स्थापना जब हुई उस समय मैं लिबरेशन में शामिल नहीं हुआ था लेकिन मुझे याद है कि जन संस्कृति मंच स्थापना सम्मेलन के अध्यक्ष मंडल में मेरे शामिल होने के लिए गोरख पाण्डेय मेरे साक्षरा अपार्टमेंट आवास पर आए और मुझ से लिखित स्वीकृति  प्राप्त की और यथासमय, यथास्थान मैंने इस काम को पूरा किया. संक्षेप में यह  बतला देना चाहता हूं कि जसम की स्थापना में गोरख पाण्डेय की भूमिका लेने का निर्णय जिस लिबरेशन ने किया वह महत्वपूर्ण था. जिसे गोरख पाण्डेय ने अनेक राज्यों में घूम-घूम कर और पत्र लिखकर जसम में शामिल होने के लिए संभावित लेखकों को राजी किया. इसके साथ ही गुरशरण सिंह को जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आसीन कराने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी जिसके पीछे राजनीतिक व्यक्तित्वों का भी परोक्ष प्रभाव था.

जसम के संगठन में गोरख पाण्डेय ने पहली बार और निश्चित तौर पर अंतिम प्रयास किया और जब यह संगठन विवादों के घेरे में फंसने लगा तो वे बहुत दुखी हो गए थे और चाहते थे की दूसरा कोई महासचिव पद संभाले. स्थापना सम्मेलन से पहले आधार पत्र तैयार किए जाने के दौरान ही यह विवाद खड़ा हो गया था कि जन संस्कृति मंच इंडियन पीपल फ्रंट का घटक बने अथवा स्वायत्त रहे. 

जेएनयू में उच्चतर तबके से लेकर आर्थिक रूप से निम्नतर तबके के लोगों को भी प्रवेश मिल जाता था. उच्चतर तबके से आए हुए लड़के-लड़कियों की जीवन शैली और व्यवहार अलग होता था जो पिछड़े और निम्नतर तबकों से आए हुए लड़कों से मेल नहीं खाता था. पिछड़े और निम्नतर तबके से आए हुए लड़के और लड़कियां अपनी कुशाग्रता के बावजूद फैशनपरस्ती में धनी लड़के-लड़कियों से घुल- मिल नहीं बन पाते थे. लेकिन प्रेम और यौन संबंध अथवा आकर्षण तो नैसर्गिक होता है. इसलिए पिछड़े और निम्नतर तबके के छात्र यदि उच्चतर तबके की सुंदर लड़की से आकृष्ट हो जाता था, प्रेम करने लगता था, यौन भाव से आकृष्ट  हो जाता था अथवा अपना प्रेम भाव रखने लगता था तो अकसर मानसिक तौर पर बीमार हो जाया करता था.

पिछड़े इलाके से आये हुए गोरख पाण्डेय कुशाग्र बुद्धि तो थे किंतु उच्चतर तबके की किसी लड़की के प्रति आकृष्ट अथवा प्रेमिल हो गए तो उनका असहज हो जाना अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा. गोरख पाण्डेय के साथ भी यही हुआ कि वे एक उच्चतर आर्थिक तबके से आने वाली लड़की के प्रति आकृष्ट हो गए. उसे चलते-फिरते देख सकते थे. खिड़कियों से देखते थे लेकिन साथ बैठकर चाय पीना या विचार-विमर्श करना संभव नहीं था क्योंकि वे अपनी सीमा से बाहर जाकर अभद्र या छिछोरा व्यक्ति कहलाये जाने से डरते थे. दूसरे शब्दों में अंदर से भद्र होने की वजह से कोई प्रेमिल चेष्टा नहीं कर सकते थे. संभवतः इस लड़की के प्रति एक कविता भी उन्होंने लिखी थी लेकिन इनका मिलना कभी नहीं हुआ. यह उनके जीवन की गाँठ इतनी बड़ी थी कि वे सिजोफ्रेनिक हो गये.   

यह एक ऐसी त्रासदी थी जिसका इलाज किसी और के पास नहीं था. सिजोफ्रेनिया जब हद से बाहर जाने लगा तो उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के मनोचिकित्सा विभाग में भर्ती कराया गया. पार्टी की तरफ से उनकी देख-रेख में कार्यकर्ता भी लगाए गए लेकिन थोड़ा बहुत सुधार हो जाता,  फिर बीमारी बिगड़ जाती थी. पीएचडी का काम पूरा कर देने की वजह से छात्रवृत्ति मिलनी की बंद हो गई थी. पीडीएफ के लिए भी प्रयास करते रहे लेकिन बार-बार सिजोफ्रेनिया के शिकार हो जाते थे. अस्पताल से लौटने के बाद विश्वस्त महसूस कर रहे थे.


अस्पताल से वापस आने पर मैं जेएनयू में उनसे मिला था. मैंने उनसे कहा कि यह सिजोफ्रेनिया कुछ नहीं है. प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी को सिजोफ्रेनिया के दौर से गुजरना पड़ता है. आप चिंता नहीं करें और लिखना शुरू करें
, यह अपने आप दूर हो जाएगा. इस पर उन्होंने कहा कि बाबा दिमाग खाली हो गया है, कुछ उपजता ही नहीं है. जीवन का कोई अर्थ समझ नहीं आता. फिर मैंने वही बातें दोहराई जो पहले कह चुका था. उन्होंने कहा कि लिखना तो बिल्कुल नहीं हो रहा है. मैंने अपनी बात  दोहराई और कहा कि आप अस्वस्थ हैं, स्वास्थ्य लाभ कीजिए. हम सब लोग जो सोचते रहे हैं उसे ही व्यवहार में लाने के लिए सब लोग अपनी-अपनी जगह पर तैनात हैं. आप से मिलने का समय कोई निकाल पाता है या नहीं निकाल पाता लेकिन सभी लोग वही काम कर रहे हैं जो आप और हम सब लोग सोचते रहे हैं. कोई भी व्यक्ति आपके प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता. सब लोग आपकी सोच- समझ और गीतों और कविताओं का सम्मान करते हैं.
 

जन संस्कृति मंच ने अपनी इलाहाबाद की बैठक में यह फैसला भी लिया था कि हर महीने एक निश्चित धनराशि उन्हें दे दी जाए ताकि ढंग से खा-पी सकें और रह सकें. पार्टी के सहयोग से इसे पूरा किया जाना था. इलाहाबाद से लौटकर मैंने उन्हें इस फैसले से अवगत कराने की पहल तो की किंतु मेरी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई. 

बीमारी से तंग आकर उन्होंने अपने पैतृक गांव पंडित के मुड़ेरा, देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश वापस जाने का फैसला कर लिया था और टिकट भी बुक करा लिया था जिसकी जानकारी हम लोगों को नहीं थी. सादतपुर कार्यालय में 29 जनवरी 1989 के दिन जब स्थानीय पार्टी की मीटिंग चल रही थी तो पार्टी के एक कार्यकर्ता ने सूचना दी कि गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या कर ली है. हम सभी लोग अवाक रह गए और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे. उनके कमरे पर पुलिस पहुंच चुकी थी और उनका सुसाइड नोट पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया था. उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया गया था. सुसाइड नोट में गोरख पाण्डेय  ने लिखा था कि मैं बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर रहा हूं. इसका जिम्मेदार मैं खुद हूं, इसलिए किसी को तंग नहीं किया जाए. गोरख पाण्डेय ने हस्ताक्षर के साथ में तारीख भी लिख दी थी. मैंने सोचा कि उनके पिता को बुलाने के बाद ही दाह  संस्कार किया जाए. फिर पता चला कि उनके पिता को विश्वविद्यालय की तरफ से सूचना भेजी जा चुकी है. दाह संस्कार के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसरों से मिलकर दाह संस्कार की बात मैंने कही तो एम. एल. की विचारधारा से जुड़े एक प्रोफेसर ने तो बेरुखी दिखाते हुए यहां तक कह दिया कि "दाह संस्कार की चिंता क्यों कर रहे हैं शिवमंगल जी, बगल में ही श्मशान घाट है, ले जाकर जला दीजिए.”

यह सुनने के बाद मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं रह गया था. अपने साथियों को एकत्रित करके कैंपस में ही बैठा, फिर पार्टी को सूचना दी. पार्टी के साथ विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि कल जब उनके पिता आ जाएंगे तब शव यात्रा निकलेगी. तब तक उनके पिता की सूचना भी आ गई थी कि वह कल सुबह पहुंच रहे हैं. तय हुआ कि शव को जेएनयू सिटी सेंटर ले जाकर दर्शन के लिए रख दिया जाए. कल वहीं से शव यात्रा निकलेगी और उनके सभी दोस्त, मित्र और संगठनों को बुला दिया जाए. अगले दिन जेएनयू सिटी सेंटर के सामने शव को सम्मान पूर्वक रखा गया और तय हुआ कि यहां कुछ लोग बोलेंगे भी. उसके बाद में पैदल ही शव यात्रा निकलेगी और निगमबोध घाट पर अंतिम संस्कार किया जाएगा. उस दिन दिल्ली में कुछ ऐसा था दिल्ली में किसी पब्लिक कार्यक्रम की इजाजत नहीं थी. पुलिस ने कहा कि जुलूस तो नहीं जा सकता. गोरख के सहपाठी डीपी त्रिपाठी पहुंचे हुए थे, उन्होंने कहा कि मैं अभी उपराज्यपाल को फोन करता हूं, जुलूस जरूर निकलेगा. उन्होंने उपराज्यपाल को फोन किया तथा उधर से पुलिस को कहा गया. इस तरह पूरे सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार किया गया जिसमें सैकडों लोग उपस्थित थे.

दूसरे दिन जेएनयू कैंपस में अनौपचारिक तौर पर हम लोग आठ-दस आदमी बैठे हुए थे, जिनमें केदारनाथ सिंह भी शामिल थे. जहाँ गोरख पाण्डेय की कृतियों के प्रकाशन के विषय में बात चल रही थी तो प्रोफेसर केदारनाथ सिंह ने प्रस्ताव रखते हुए गोरख पाण्डेय के पिताजी को कहा की गोरख पाण्डेय की प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियों का कॉपीराइट शिवमंगल सिद्धांतकर  के नाम कर दीजिए. इस पर उनके पिता जी तैयार हो गए और एक पत्रक लिखा गया जिसमें मैंने सुझाव दिया शिवमंगल सिद्धांतकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जन संस्कृति मंच लिखते हुए अधिकार पत्र मुझे दिया जाए और इसी आशय का पत्र तैयार हुआ जिसे उनके पिताजी ने अपने हाथों से लिख कर मुझे सौंप दिया. 

इसके  एक-दो दिन बाद मैंने जेएनयू सिटी सेंटर में ही शोक सभा की सूचना जारी की. बिरदराना संगठनों और लेखकों की उपस्थिति से 35, फिरोजशाह रोड जेएनयू सिटी सेंटर का हॉल खचाखच भरा हुआ था. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष गुरशरण सिंह के आने की  थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद मैंने कार्यक्रम की शुरुआत कर दी. बीच में ही गुरुशरण सिंह आए और बिना किसी औपचारिकता के मंच पर पहुंचकर अपनी कुर्सी पर आसीन हो गए. बिना किसी व्यवधान के सभा चलती रही. बोलने वालों में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और अन्य बहुत से साहित्यकार मेरे द्वारा एक-एक कर बुलाए जाते रहे और सभी ने भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए गोरख पाण्डेय के जन कवित्व और लोक व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धांजलि देते रहे. सबसे पहले मैंने नामवर सिंह को बोलने के लिए आमंत्रित किया जो मंच पर ही आसीन थे. उन्होंने कहा कि- 

"गोरख जी के बिना जो संगठन और लोग अपने को विपन्न महसूस कर रहे हैं, उन्हीं में से एक मैं हूं. हिंदी के वे पहले कवि हैं, जिसने आत्महत्या की. इस घटना से हम स्तब्ध हैं. इस बात को कोई नहीं जान सका या नहीं जान सकता कि उन्होंने आत्महत्या क्यों की. आत्महत्या एक ऐसा रहस्य है, जो अपनी रहस्यात्मकता में भयावह हैं. इस बात से मुझे यह लगता है कि वे बहुत बहादुर आदमी थे. हमारी तरह कायर नहीं. जो लोग हत्या करते हैं यानी दूसरों का प्राण लेते हैं, वे कायर होते हैं. लेकिन उन्होंने अपने प्राण लिए यह एक असाधारण बात है.वैसे भी राजनीतिक कविता लिखना मुश्किल काम है, क्रांतिकारी कविता लिखना और भी मुश्किल काम है लेकिन राजनीतिक-क्रांतिकारी कविता लिखना असंभव काम है, जो गोरख जी ने कर दिखाया."

इसके बाद मैने कवि केदारनाथ सिंह को बुलाया जिन्होंने अपने संबोधन में कहा कि-

"गोरख पाण्डेय के अचानक उठ जाने से समकालीन साहित्यिक परिदृश्य और विशेषता: युवा  लेखन के बीच जो गहरी रिक्तता पैदा हुई है, वह लंबे समय तक अनुभव की जाएगी. वे एक युवा साहित्यकर्मी, जनचेतना से संपन्न कवि तथा समाज और संस्कृति के विभिन्न मोर्चों पर संघर्षरत योद्धा थे."

(नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के उपरोक्त दोनों वक्तव्य जन संस्कृति मंच द्वारा मरणोपरांत प्रकाशित गोरख पाण्डेय के कविता संग्रह "स्वर्ग से बिदाई"संकलन के कवर  पृष्ठ पर दिए गए हैं). 

बड़े लेखकों में केदारनाथ सिंह को मैंने सबसे अधिक दुखी पाया. इसके बाद मैंने एक नए स्वयं घोषित माओवादी लेखक को जब बुलाया तो उन्होंने समय और अवसर का असम्मान करते हुए गोरख पाण्डेय के राजनीतिक साथियों पर हमला बोलते हुए उन्हें चोर तक कह डाला. मैंने जानबूझकर हस्तक्षेप नहीं किया, किंतु कालांतर बाद मैंने एक कविता लिखी कि गोरख के दोस्तों को आपने चोर कहा वह सुनते रहे. चोर को चोर कह कर तो देखो....

गुरशरण सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गोरख पाण्डेय की आत्महत्या की स्थितियों के बारे में बीमारी का हवाला देते हुए गोरख पाण्डेय को एक विद्रोही जन कवि के रूप में विश्लेषित करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की और कहा कि जन संस्कृति मंच अपनी कार्यकारिणी की अगली बैठक में गोरख पाण्डेय की स्मृति पर अन्य  कार्यक्रमों को तय करेगा  जिसमें आप सभी लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी. इसके बाद  उपस्थित साहित्यकारों, कलाकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैंने कहा  कि जैसा जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा है कि हम लोग जसम की कार्यकारिणी की अगली बैठक में तय करेंगे कि गोरख पाण्डेय के रचना संसार से उपलब्ध धरोहर के विकास के लिए क्या कुछ करेंगे. इसके साथ ही गोरख पाण्डेय को लाल सलाम के नारे के साथ डेढ़-दो घंटे चली सभा समाप्त हुई.

मरणोपरांत जन संस्कृति मंच के निर्णय के अनुसार मैंने और अवधेश प्रधान ने संयुक्त रूप से उनकी एक कविता पुस्तक "स्वर्ग से बिदाई"का संपादन संयोजन किया. पुस्तक में प्रकाशित संयोजीकीय मैंने लिखा जिस पर अवधेश प्रधान ने सहमति जाहिर कर दी. इसलिए संयोजकीय वक्तव्य पर  मेरा और उनका नामोल्लेख है. जिसे मरणोत्तर स्मृति संस्मरण के दस्तावेज के रुप पढ़ा जा सकता है. 


गोरख के जवार के रहने वाले उनके एक मित्र जनार्दन प्रसाद शाही ने 2019 में मुझे बताया था कि गोरख पाण्डेय घर-द्वार
, जमीन-जायदाद के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे. ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बावजूद गांव की दबी कुचली जातियों के बीच जाते रहते थे और उन से अपनापन रखते हुए कहते थे कि अपने हिस्से की जमीन मैं आप लोगों में बांट दूंगा. इस तरह लगता है कि निजी संपत्ति के प्रति उनका लगाव लगभग नहीं के बराबर था. इसके पीछे मैं समझता हूं एंगेल्स के निजी संपत्ति, परिवार और राज्य की अवधारणा से निकलते हुए अथवा पार्टी क्लास के प्रभाव में उनका दिमागी सांचा वैसा बन गया होगा. जो उनके अंदर विशेष  मानवीयता और बराबरी की अवधारणा सृजित कर गया होगा.

जनार्दन प्रसाद शाही ने अपनी पढाई के दिनों के एक प्रसंग को याद करते हुए मुझे यह भी बतलाया कि जब इलाहाबाद में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'का सम्मान लेखकों द्वारा बड़ी तैयारी के साथ किया गया था. इस सम्मान समारोह में गोरख पाण्डेय के साथ मैं, कई नए लेखक और छात्र उस सभा में पहुंचे और तय किया गया कि गोरख पांडेय भी कुछ बोलें. इसकी सूचना सम्मान समारोह के अध्यक्ष मंडल को दे दी गई थी. गोरख पाण्डेय जब मंच पर बोलने के लिए गए तो अपने क्रांतिकारी तेवर में बोलना शुरू किया और यहां तक कह दिया कि मुक्तिबोध ने मरकर जितना किया है उतना अज्ञेय ने जीकर नहीं किया. उसके बाद अफरा-तफरी मच गई और गोरख पाण्डेय मंच से उतरकर अपनी जगह पर आकर बैठ गए. कहने का मतलब यह है कि गोरख पाण्डेय  किसी नामी-गिरामी बुर्जुवा हस्ती को चाहकर भी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे.

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शिवमंगल सिद्धांतकर  

शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी 
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : 'अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से अनुसंधान', निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
वैचारिक : 'विचार और व्यवहार का आरंभिक पाठ', परमाणु करार का सच, New Era Of Imperialism and New Proletarian Revolution, New Proletarian Thought, Few First Lessons in Practice इत्यादि 
संपादन :  गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं. 
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ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से  'आखिरी गाँव' उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४० 
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