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रज़ा : जैसा मैंने देखा (१०) : अखिलेश

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सैयद हैदर रज़ा की कला और शख़्सियत पर आधारित अखिलेश का यह स्तम्भ ‘रज़ा: जैसा मैंने देखा’ धीरे-धीरे अपनी सम्पूर्णता की तरफ बढ़ रहा है. किसी मूर्धन्य चित्रकार को समझने का यह हिंदी में दुर्लभ उद्यम है.

अखिलेश जितने बड़े चित्रकार हैं उतने ही शानदार लेखक भी. इस दसवें भाग में फ़्रांस में अपने प्रवास और रज़ा और उनकी पत्नी जानीन के साथ अपने बिताये समय को उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती और आत्मीयता से उकेरा है.

फ्रांस की आबोहवा, रज़ा-जानीन की मेहमाननवाजी और फिर रज़ा के अकेलेपन को यहाँ पढ़ा जा सकता है. 


 

रज़ा : जैसा मैंने देखा (१०) 
सफेद वाइन की पारदर्शिता और जानीन का चले जाना                               
अखिलेश              


 

न्नीस सौ सत्तानवे को पहली बार मैं फ़्रांस गया. रज़ा साहेब के निमन्त्रण पर, बल्कि उनकी पत्नी जानीन के निमन्त्रण पर. मैं अमेरिका से लौट रहा था. टॉसन विश्वविद्यालय, मैरीलैंड ने मुझे तीन माह के लिए आमन्त्रित किया था. जिसमें भारतीय समकालीन कला पर मेरा व्याख्यान था और भारतीय चित्रकारों की एक प्रदर्शनी मैंने वहाँ के लिए संयोजित की थी. अमेरिका की ऊबा देने वाली नकली चमक से उखड़ा मन बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं था इस फ्रांस की यात्रा को लेकर. मैं जल्दी से जल्दी भारत पहुँचना चाहता था. यहाँ रज़ा साहेब के साथ दस दिन रहने का और उनके साथ बात करने का मौका मिलेगा, यही बस एक कारण था जो मुझे एयरपोर्ट पर उतरने के बाद टैक्सी में रज़ा साहेब के घर लिए जा रहा था. रिऊ द शारोन पर जब मैं टैक्सी से उतरा, तो उस प्राचीन इमारत की तरफ़ देखा,  उसकी खिड़की पर रज़ा साहेब का मुसकुराता, स्वागत करता चेहरा दिखाई दिया. मुझे आश्चर्य भी हुआ इतनी सुबह रज़ा साहेब उठकर तैयार थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे. रज़ा साहेब जिस ईमारत में रहते हैं वो पंद्रहवीं शताब्दी में ईसाई धर्म में दीक्षित नन के लिए सराय जैसी इमारत थी. जिसमें अलग-अलग कमरे हुआ करते थे. जिसमें नन रहा करती होंगी. रज़ा साहेब का घर पहली मंजिल पर ही था. पुरानी इमारत की समय-समय पर मरम्मत होती रही और बहुत ज्यादा फेर-बदल न करते हुए उसमें पुरानापन सीढ़ियों से लेकर दीवारों और उसकी खिड़कियों पर फैला हुआ था. सीढ़ियां चढ़ते हुए लकड़ी की सीढ़ियाँ आवाज़ करती थीं. 

पहली मंजिल के दरवाजे को खोलने के पहले ही रज़ा साहेब ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले लगा लिया. मैंने उन्हें प्रणाम किया और उनके घर में हम दाख़िल हुए. अन्दर जानीन थी. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. जब मैंने देखा, सामने दीवार पर मेरा चित्र टंगा था. मुझे याद है यह चित्र रज़ा साहेब ने दिल्ली की एक प्रदर्शनी से ख़रीदा था. इसके साथ दो चित्र और खरीदे थे जो कागज़ पर थे. औपचारिकता की जगह नहीं बची थी.  मेरे मन से अमेरिकी अवसाद हवा हो गया था. जानीन ने बतलाया कॉफ़ी तैयार है. हम लोग उनके शयन-कक्ष जिससे जुड़ा ही रसोईघर था, उसमें खिड़की किनारे रखी एक मेज की दोनों तरफ़ बैठे. जानीन ने कॉफ़ी लाकर मेज पर रख दी. वे सामने ही बिस्तर पर तकिये का सहारा लेकर बैठ गयीं. हम कॉफ़ी पी रहे थे और रज़ा ने संक्षेप में ही अमेरिका की यात्रा के बारे पूछा. इसके बाद वे मुझे पास के घर में ले गए, जहाँ मेरे ठहरने का प्रबन्ध था. रज़ा ने बताया कि पहले एक कमरा ख़रीदा था फिर दूसरा और फिर तीसरा जो उनका घर है. जिसमें एक शयनकक्ष और रसोईघर है. दूसरा बीच का कमरा है, जहाँ खाने की मेज है. मेहमानों के लिए है तीसरा कमरा जो रज़ा का स्टूडियो है. यह घर जो दो कमरों का है, जानीन के माता-पिता का था. अब उनकी मृत्यु के बाद जानीन  के स्टूडियो के उपयोग में आता है. घर में ही जानीन की एचिंग मशीन रखी थी. एक तरफ़ दीवार से टिके बहुत से चित्र रखे थे. जिनमें ज्यादातर रज़ा के ख़रीदे हुए चित्र थे, जो उन्होंने समय-समय पर भारतीय चित्रकारों से ख़रीदे थे. कुछ चित्र उनके भी थे और कुछ जानीन के. रज़ा बड़े उत्साह से दिखाने लगे. वहाँ राजेन्द्र धवन, प्रभाकर कोल्टे, लक्ष्मण श्रेष्ठा, सतीश पाञ्चाल, योगेन्द्र त्रिपाठी, सीमा, दो चित्र मेरे भी, जोगेन चौधरी, तैयब मेहता, जरीना, कृष्णा-रेड्डी और कुछ अनजान कलाकारों के भी काम थे. जिनका नाम रज़ा ख़ुद भूल चुके थे.

रज़ा ने पूरा घर दिखाया. मेरे लिए सोने की जगह दिखलाई. जिस पर बाघ प्रिन्ट की चादर डाली गई थी. रज़ा ने कहा जानीन ने खुद यह कमरा ख़ासतौर पर तुम्हारे लिए तैयार किया. यह कमरा उनके पिता का शयनकक्ष था. कमरे की एक खिड़की बाहर सड़क की तरफ़ खुलती थी. वहाँ रेक में बहुत सी फ़्रांसीसी भाषा की पुस्तकें रखी हुई थीं. इसके बाद उन्होंने रसोई घर और स्नानघर दिखलाया और तैयार होकर मुझे बारह बजे तक आने का समय दिया. मुझे छोड़कर रज़ा चले गए और मैं अपना सूटकेस खोलने फ़ैलाने में लग गया. 

दोपहर जब मैं पहुँचा रज़ा स्टूडियो में काम कर रहे थे और जानीन रसोईघर में थीं.  मैं बैठा उन्हें काम करते देखता रहा. उनके स्टूडियो का जायज़ा लेता रहा.  एक तरफ़ दो बड़े रैक थे, जिनमें किताबें भरी हुई थीं. उसी के नीचे खुले खाने में बहुत से प्रिन्ट रखे हुए हैं. सामने की तरफ़ एक अलमारी थी, जिसमें कोई पल्ले नहीं थे. उनके खानों में बहुत सी छोटी-मोटी अनेक मूर्तियाँ रखी हैं. मैंने ध्यान से देखा, उसमें   गणेश, बाल-गोपाल, कृष्ण, शिवलिंग, क्रास पर टंगे ईसा-मसीह, कलश, उनके गुरु मोहन कुलकर्णी का छायाचित्र, कई तरह की तावीज, मालाएँ, चूड़ियाँ, जीसस का फोटो, ताज़ा फूल, दो नारियल, कई तरह की जली हुई मोमबत्तियाँ, मरियम और शिशु जीसस की लकड़ी की नक्काशी की हुई एक छोटी सी मूर्ति, हिंदूइज़्म, ईसाईयत, इस्लाम, गीता-प्रवचन बाइबिल, कुरान, रामचरितमानस, तुलसीदास के दोहे की पुस्तक, कुछ और पुस्तकें, कुछ कागज़, कई कैटलॉग, एक छोटी सी फ्रेम में पुराना कोई चित्र, कुछ कलम आदि रखे हुए थे.



एक शीशी में मण्डला से लायी गई मिट्टी, माँ का फोटो, अपने शिक्षक का फोटो, नीचे तीन-चार बोतलों में वर्धा, दमोह, शान्तिनिकेतन से लायी गई मिट्टी, एक बड़ा सा शंख, हनुमान की मूर्ति, कुछ मूर्तियाँ, अल्मारी के खानों से लटकी अनेक मालाएँ, पूरी अल्मारी भरी हुई अनेक यादों से जो उनका बीता हुआ समय था, जिसे बाद में उन्होंने करीने से समेट रखा था. अलमारी के पास वाली दीवार पर एक लकड़ी की पुरानी मूर्ति टंगी थी. बायीं तरफ दरवाजे पर अमृता शेरगिल का फोटोग्राफ लगा था जो किसी भारतीय प्रदर्शनी का पोस्टर था. उसी के पास दीवार पर  मिनिएचर का एक पन्ना खूबसूरत ढंग से फ्रेम किया टंगा था. उसी के नीचे जानीन का एक कोलाज. रज़ा का छोटा सा चित्र. पूरे स्टूडियो का माहौल चित्रमय और उनकी सुरुचि से बिखरा हुआ सा जमा था और दीवार से टिका रज़ा का अभी-अभी पूरा किया हुआ एक बड़ा चित्र रखा था. रज़ा चित्र में डूबे थे. मैं उनके स्टूडियो में रखे चित्रों को देख रहा था. एक तरफ़ रैक में बहुत से कागज़, फाइल, फैक्स मशीन, फिल्मों के कैसेट्स, फिल्म रोल, कैमरा, ट्रायपॉड, लैम्प और कई तरह की चीज़ें थीं जो दिख भी रही थीं और जिसे उस वक्त देख पाना सम्भव नहीं था. रज़ा को जानीन ने आकर फ्रेंच में कुछ कहा और रज़ा ने अपने हाथ का ब्रश आहिस्ता से धोया फिर उसी बर्तन में छोड़ उठ खड़े हुए. वे बोले, चलिए ड्राइवर आ गया है.

हम लोग नीचे आये. वहाँ कार खड़ी थी. और रज़ा ने मुझे बैठने का इशारा किया. हम दोनों कार में बैठे- रज़ा ने उन्हें कुछ कहा और कार चल पड़ी. रज़ा ने कहा आप पहली बार पेरिस आये हैं मैं आपको थोड़ा पेरिस दिखा देता हूँ. थोड़ा देख लेते हैं. आप शहर को जान जायेंगे. उस दिन सबसे पहले हम लोग रज़ा जिस स्कूल एकोल द बोज़ार में पढ़ते थे, वहाँ गए फिर लूव्र, म्यूजे डोरसे, शांजे-लिज़े, मोमात्र, मैं पेरिस देख रहा था कार चल रही थी. रज़ा साहेब हर जगह के बारे में बताते जा रहे थे. आपको यहाँ आना है, यहाँ कल हम लोग आएंगे, ये देखिये रौदां का शिल्प. हम लोग लगातार कार में चल रहे थे. किसी भी जगह उतर कर नहीं गए और रज़ा लगातार कल या बाद में आने की बात कर रहे थे. वे चाहते थे पेरिस की एक झलक मुझे मिल जाए और मैं शहर में अजनबी सा न महसूस करूँ.

मोमात्र में एक रेस्तराँ में रुके और रज़ा साहेब ने कहा यहाँ कुछ खा लिया जाये. पहले मैं यहीं रहता था. पिकासो, शागाल और बहुत से कलाकारों के स्टूडियो यहीं थे. हम लोग रेस्तराँ के बाहर एक मेज पर बैठ गए. पेरिस के रेस्तराँ की यह बात मुझे अजीब लगी कि सभी लोग सड़क की तरफ़ मुंह करके बैठे थे. रज़ा साहेब ने पूछा अन्दर बैठना चाहेंगे या बाहर ? मुझे बाहर अच्छा लग रहा था, सो हम लोग बाहर बैठे. थोड़ी ही देर में बैरा हम दोनों के सामने बियर रख गया. वो इतना ज्यादा व्यस्त था कि उसके पास सुनने के लिए भी समय न था. किसी तरह उसे समय मिला. हमारा खाना आर्डर हुआ रज़ा साहेब ने सिगरेट निकाल कर मुझे ऑफर की और एक खुद जला ली. रज़ा साहेब लगातार बात कर रहे थे. मुझे बता रहे थे और मैं जो भी पूछ रहा था उससे बात बढ़ रही थी. ऐसा नहीं लग रहा था कि खाना खाने का काम ख़त्म करना है और घूमना शुरू करना है. इत्मीनान से बैठे हम दोनों सिगरेट बीयर पीते हुए समय को पी रहे थे. खाना आया. हम लोगों ने खाया और अब थोड़े सुरूर के साथ कार में बैठे थे. रज़ा ने ड्राइवर से कुछ पूछा, कुछ कहा और हम लोग फिर चल पड़े. दिन भर कार से पेरिस के सभी महत्वपूर्ण जगहों, नॉत्र-दोम, पोम्पेदू सेंटर, पाले द वसाई, पिकासो म्यूजियम, डाली म्यूजियम, पेरिस म्यूजियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, पाले द तोक्यो, ग्रैंड पैलेस, मोला-रुज़, रिउ द रिवोली, बस्ती ओपेरा दिखाया और शाम के लगभग सात बजे तक हम घर लौटे.

मैं अपने कमरे में चला गया. रज़ा साहेब ने नौ बजे आने का कहा. वहाँ मैंने रखी किताबें देखना शुरू की, जिसमें ज्यादातर फ्रेंच किताबें थीं. कुछ साहित्य, कुछ वास्तुशास्त्र, चित्रकला, कैटलॉग्स, इतिहास, अन्य देशों पर किताबें आदि अनेक पुस्तकें देखते हुए मुझे समय का ध्यान नहीं रहा और दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी. रज़ा साहेब का चिंतित स्वर सुना और घण्टी बजी. मैंने दरवाजा खोला. रज़ा साहेब चिन्तित से बोले आप सो गए थे क्या? दस बज रहे हैं आप नहीं आये तो मुझे चिन्ता हुई. मैं चकरा गया दस बजे हैं और मुझे पता न चला, आसमान में रोशनी शाम के छह बजे सी है. हम दोनों उनके घर गए. खाने की मेज पर जानीन ने स्वागत किया. रज़ा साहेब ने बढ़िया वाइन की बोतल निकाली और तीन गिलास भरे. जो टेबल पर रखे थे. मेज पर नया मेजपोश बिछा था. कई तरह की प्लेट, छुरी-काँटे रखे हैं. रज़ा साहेब ने बतलाया आज जानीन ने विशेष फ्रेंच ढंग का भोजन तैयार किया है. ख़ास तुम्हारे लिए.

फ्रेंच डिनर प्रसिद्द भी हैं घण्टों चलने के लिए. उसका अन्दाजा होने वाला था. जानीन ने कई तरह के पकवान बनाये हुए थे और वे एक के बाद एक रसोईघर से ला रही थीं. रज़ा साहेब और मैं बातों में लगे थे. वे भी बीच-बीच में इसमें हिस्सा लेती थीं और इस तरह वाइन और खाना और बातें चलती रही इस बीच रज़ा ने कहा मैं एक कविता सुनाना चाहता हूँ और उन्होंने जानीन को लक्ष्य करते हुए अज्ञेय की यह कविता सुनाई जो उन्हें कण्ठस्थ थी. बीच में वे जाकर स्टूडियो से अपनी डायरी 'ढाई आखर'ले आये, जिसमें यह कविता लिखी हुई थी मगर उन्होंने उसे खोलने की जरूरत नहीं समझी. जब वे सुना रहे थे उनकी आँखों में थोड़ी शरारत और थोड़ी सी हरारत चमक रही थी. उन्होंने जानीन को फ्रेंच में अनुवाद भी कर के सुनाया और शायद ये कविता कई बार सुना चुके थे कि जानीन बीच-बीच में कुछ शब्द ठीक भी करती रहीं. कविता है : 

जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे, इन
आँखों को
हँसते रहने देना.
 
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले,
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे पर आँखों ने
हार
दुःख
अवसान
मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

                   

शाम बहुत शालीन और स्वादिष्ट होती जा रही थी. रज़ा ने बतलाया कि अब जो पकवान आने वाला है उसके साथ वाइट वाइन ही पी जाती है अतः ये ग्लास खत्म कीजिये. फिर उन्होंने वे ग्लास ले जाकर अन्दर रख दिए. मेज पर रखे दूसरे ग्लास में सफ़ेद वाइन डाली गयी. खिड़की के बाहर का उजाला फैला हुआ था. रात के ग्यारह बज रहे होंगे और मुझे लग नहीं रहा था कि इतनी देर हो चुकी है. लज़ीज खाने के बाद जानीन चीज़ लेकर आयीं. वे कई तरह के थे. जानीन ने बतलाया ये फ़्रांसिसी खाने का सबसे महत्वपूर्ण भाग है और उन्होंने उन चीज़ के बारे में बतलाना शुरू किया, ये नॉरमैंडी का चीज़ है जो बहुत ही स्वादिष्ट होता है इसके लिए जो दूध इस्तेमाल किया जाता है उनकी गायें जमीन पर घास नहीं चरती वे पहाड़ों पर रहती हैं बारह सौ फिट ऊपर.

'कॉमते'पूर्वी फ्रांस में ही होता है. फ्रांस के अलग-अलग प्रान्त में बनने वाले चीज़ दिए गए, 'कमेमबेर''रुफोर''ब्री'और सबसे आख़िर में ब्लू चीज़ जो फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड की सीमा पर बनाया जाता है जिसे बाहर के ज्यादा लोग पसन्द नहीं करते हैं इसमें बैक्टीरिया होते हैं यह एक तरह का जिन्दा चीज़ है. मुझे सबसे स्वादिष्ट वही लगा और यह जानकर जानीन को ख़ुशी हुई. उन्होंने एक के बाद एक सभी चीज़ मुझे खिलाये और ब्लू चीज़ दोबारा दिया. यह मेरे लिए भी नया था. इसके पहले मैंने चीज़ खाये नहीं थे. हमारे यहाँ पनीर जो मिलता है वह अलग किस्म का ताज़ा पनीर होता है और उसका चलन वहाँ न था. ब्लू चीज़ वाकई बहुत स्वादिष्ट है यह मैंने उस रात जाना. 

शाम का समापन रज़ा ने कोन्याक से किया उसके लिए अलग छोटे ग्लास निकले गए. एक ही बार में उसे पीना था. यह भी मैंने पहली बार पिया. और दो बार पिया. कोन्याक वही है जिसे हम one for the road के नाम से जानते हैं. निर्मल जी की कहानियों में कोन्याक पढ़ने को मिला था इसके पहले वैन गॉग की जीवनी Lust for Life में उसे कॉगनेक ही पढ़ता रहा था उसकी स्पेलिंग Cognac के कारण.

उस शाम रज़ा ने एक बात और कही और यह भी कहा इसे याद रखियेगा. वे बोले आप पेरिस आयें हैं और यहाँ कई लोगों से मुलाक़ात भी होगी और वे लोग आपको रात खाने पर आमंत्रित भी करेंगे. आप ध्यान रखियेगा कि यदि उन्होंने शाम को आठ बजे बुलाया है तब आप कोशिश कर आठ बजे ही पहुँचिएगा और यदि देरी हो रही है तब उन्हें फ़ोन कर दीजिये कि आप सवा आठ बजे तक आएंगे. यदि साढ़े आठ बजे आप पहुँचे तो यह जरूर बताएँ कि ट्रैफिक के कारण देरी हुई और इससे ज्यादा देर हो रही है तब मत जाइये. दूसरे दिन फ़ोन कर माफ़ी माँग लीजिये. यहाँ हिंदुस्तान से लोग आते हैं और समय का ध्यान नहीं रखते. जैसे आज आप भूल गए थे नौ बजे आना. खुद के बोले शब्दों पर भरोसा कीजिये और उसका पालन कीजियेगा. यह मेरे लिए बड़ी सीख थी. इस बात पर कभी ध्यान नहीं गया था.  

दूसरे दिन मैं तैयार होकर आया. हम लोगों ने नाश्ता किया और रज़ा बोले आपको मैं मेट्रो में कैसे चलना है यह बतला देता हूँ. उन्होंने बताया यहाँ इस कटोरे में मेट्रो के सिक्के रखे हैं, वहाँ एक कटोरे में बहुत से प्लास्टिक के हरे रंग के सिक्के रखे थे, उन्होंने कहा आप जब बाहर जायें ये सिक्के साथ ले जाया करें और उन्होंने कुछ सिक्के ख़ुद लिए कुछ मैंने अपनी जेब में डाल लिए. रिउ द शारोन स्टेशन पास ही था, रज़ा साहेब ने बतलाया कैसे सिक्का रखकर अन्दर आना है. वहाँ लगे नक़्शे को पढ़कर किस प्लेटफार्म पर जाना है और इस तरह हम लोग मेट्रो में उनके कॉलेज गए. जिसमें एक स्टेशन पर कैसे मेट्रो बदलना है, दूसरे पर पहुँच कर सवार होना है, इस विस्तार के साथ बतलाया कि मैं कुछ ही दिनों में मेट्रो सवारी का विशेषज्ञ हो गया था. उस दिन हम लोग मेट्रो से कई जगह गए और हर बार रज़ा साहेब ने मेट्रो-मैप पढ़ने और दिशा जानने का तरीका बतलाया. इस तरह उनका कॉलेज, लूव्र, शांजे-लीज़े, गारे द नोर्द, और पूर्वी स्टेशन तक गए. रज़ा ने इन यात्राओं में मेट्रो बदलने, मेट्रो-मैप पढ़ने और प्लेटफार्म तक पहुँचने के संकेत पढ़ने में मुझे पारंगत कर दिया था. दिन भर का सफ़र किया और वापस आये. रज़ा थक भी चुके थे और मेरे मन में घूमने का उत्साह बचा हुआ था. 

पेरिस में आये मुझे तीन दिन हो चुके थे और मैं अब अपनी मर्जी से घूम रहा था. रात का खाना हम लोग साथ खाते थे और रज़ा दिन भर क्या किया सुनते-बतलाते रहते. जानीन तरह-तरह के फ़्रांसीसी भोजन तैयार करती थी और अमेरिका जहाँ का खान-पान मुझे बिलकुल ही पसन्द नहीं आया था और जो एक उदासीन मुल्क लगा मुझे, जिसमें सब एक दूसरे से उदासीन अपने न जाने कौन-कौन से काम में लगे रहते थे जिसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का महत्व था, निजत्व को कोई छू नहीं सकता था और सब कुछ एक जैसा दिखाई देता था. उसके बरक्स लज़ीज फ़्रांसीसी भोजन वाकई लुभा लेने वाला था. चीज़ के प्रति मेरी रुचि देख जानीन के चीज़ खजाने में कई और नए चीज़ आ चुके थे और खाने के बाद वो खाने से ज्यादा रुचि से जानीन मुझे परसती थीं. लूव्र में कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी इस कारण लूव्र बंद है और मैं देख न सका. जानकर जानीन रोज़ टेलीविजन पर खबरें लगा लेती थीं और ताज़ा जानकारी सुनाती रहती थीं. रज़ा भी मजाक किया करते थे. चौथे दिन सुबह नाश्ते के बाद जब मैं चलने लगा तब रज़ा ने कहा आज शाम जल्दी आ जाना हम लोग बाहर खाना खाने चलेंगे. उस दिन मैंने पोम्पेदू संग्रहालय देखा और शाम जल्दी ही वापस लौट आया. रज़ा अपने स्टूडियो में काम कर रहे थे मैंने उन्हें बताया कि मैं आ चुका हूँ. रज़ा ने कहा शाम आठ बजे तैयार हो जाना. हाँ आप शाम को क्या पहनेंगे ? मैंने पूछा कुर्ता और चूड़ीदार चलेगा ? वे बोले हाँ दिखा दीजियेगा. मैं अपने फ्लैट में आ गया और घड़ी देखते हुए वहाँ रखे दुर्लभ कैटलॉग देखता रहा. रज़ा साहेब के लिए कहीं भी जाने के लिए पहनने वाली पोशाक का चुनाव करना एक वैचारिक प्रक्रिया से गुजरना होता है. कुछ भी पहन कर नहीं जाया जा सकता या बिना सोचे समझे कपड़ों का चुनाव नहीं कर सकते. यह बाक़ायदा देख-समझ कर किया जाने वाला काम है. शाम को मैंने उनकी पसन्द का कुरता, जैकेट और चूड़ीदार पहनकर दरवाज़ा खटखटाया उम्मीद के विपरीत रज़ा साहेब अपने सूट-बूट में तैयार थे, उन्होंने दरवाजा खोला मुझे अन्दर आने दिया फिर देख कर बोले हाँ ये बढ़िया है.

यह सब तैयारी और उनका उत्साह देखकर मैंने पूछ लिया कि कहाँ जाना है ? इस बीच जानीन भी तैयार होकर आ गयीं थीं. उन्होंने जवाब दिया 'इन्दिरा.'इन्दिरा एक भारतीय रेस्तराँ हैं शांजे-लिज़े पर. यह वो रेस्तराँ है जो रज़ा को बहुत पसन्द है और अपने भारतीय मित्र के आने पर वे वहाँ ले जाना पसन्द करते हैं. मैंने अपने विदेशों के अकल्पनीय ढंग से बुरे भारतीय रेस्तराँ-अनुभव से कहा ये भारतीय नहीं होगा. रज़ा साहेब का चौंकना स्वाभाविक था वे पिछले चालीस साल से वहाँ जा रहे हैं और उसकी विश्वसनीयता पर संदेह उनके लिए नया था. वे बोले आप कभी गए हैं वहाँ, आपको कैसे पता ?  मैंने कहा मैं अपने अनुभव से बोल रहा हूँ ज्यादातर भारत के नाम पर चलने वाले रेस्तराँ पाकिस्तानी या श्रीलंका के चलते हैं जिनकी रेस्तराँ का नाम भारतीय होता है किन्तु उन्हें भारत के भोजन के बारे में कोई अन्दाजा नहीं होता. वे अक्सर भारतीय नामों वाले रेस्तराँ होते हैं और आप देखिएगा मैं दो चीज़ आर्डर करूँगा और वे दोनों ही नहीं होंगी. ये रज़ा साहेब के लिए नया उद्घाटन था. वे बच्चों से उत्साहित हो गए मानों कोई नयी पहेली हल करने को मिल गयी हो. हम-लोग रेस्तराँ पहुँचे वहाँ बोर्ड पर लिखा था 'इन्द्र'न जाने क्यों फ़्रांसीसी उसे इन्दिरा कहते थे. खूब बड़ा सा रेस्तराँ था जिसकी साज-सज्जा ये हिन्दुस्तानी हो सकता है मान कर उपलब्ध चीज़ों से किया गया था.

कुछ सिनेमा के पुराने पोस्टर भी थे. कुछ बेतरतीब सी राजा रवि वर्मा वाली शैली की निहायत ही दोयम दर्जे के चित्र थे. हमारे खाने का आर्डर लेने आये बैरा से मैंने अरहर की दाल लाने को कहा उसने मना कर दिया, ये हमारे पास नहीं है. मैंने रज़ा साहेब को देखकर कहा एक चीज़ हो गयी है अब दूसरी आर्डर करता हूँ दूसरा मैंने उसे कुछ हरी मिर्च देने को कहा उसके लिए भी उसने इंकार कर दिया. रज़ा साहेब का चेहरा बुझ सा गया. चूँकि रज़ा साहेब यहाँ अक्सर आते रहे हैं और वे भारत से आने वाले हर ख़ास मेहमान को शौक से यहाँ लाते रहे हैं इसलिए भी और रज़ा एक चित्रकार हैं इस कारण भी रेस्तराँ का मालिक उनका प्रशंसक था और वो हर बार उनके आने पर स्वागत करता रहा था. रज़ा उनके विशेष मेहमान होते थे. आज भी वो फूलों का गुच्छा लेकर रज़ा साहेब से मिलने आया और बड़े ख़ुलूस से मिला.

रज़ा साहेब ने मेरा परिचय करवाया और उसने तत्परता से हाथ मिलाकर ख़ुशी जाहिर की. मैंने पूछा आप हिन्दुस्तान में कहाँ से हैं ? उसने कहा मैं हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान के पेशावर से हूँ. यह सुनकर रज़ा साहेब का मन उखड़ गया. वे उसके बाद कभी वापस नहीं गए इस रेस्तराँ में. लौटते में उन्होंने कहा मुझे कभी अहसास नहीं हुआ.

रजा बहुत ही शाइस्ता शख़्स हैं. बेहद संकोची और अपनी बात के लिए  बेइन्तहा जिद्दी. उनके लिए पाकिस्तान न जाना एक मुश्किल फ़ैसला था मगर उन्होंने लिया. उनके बड़े भाई, जो दिल्ली में कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और जिन्हें रज़ा बहुत सम्मान दिया करते थे घर सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और संस्कृत के विद्वान, के कहने पर भी रज़ा ने पाकिस्तान न जाने का अपना फ़ैसला नहीं बदला. उन्हीं के कहने पर घर के सभी भाई-बहन हिन्दुस्तान छोड़ रहे थे. यहाँ तक की उनकी पत्नी ने भी पाकिस्तान जाने की जिद की तो जाने दिया मगर उसके बाद उन्होंने वर्षों अपने भाई-बहनों से कोई सम्पर्क नहीं किया न मिले. उन्हें दुःख था कि वे लोग क्यों चले गए और वर्षों बाद जब उनके छोटे भाई ने मिलने की कोशिश की तब वे उन्हें किसी रेस्तराँ में मिले सिर्फ़ आधे घण्टे के लिए. यही भाई बाद में अफ्रीका जाकर बस गए. उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जब रज़ा से मिलने आयीं तो उन्होंने गोर्बियो में अच्छे से स्वागत किया और दोपहर के खाने की मेज पर साफ़-साफ़ कह दिया वे उनसे विवाह नहीं कर सकते. रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था उनके सभी भाई-बहन सिर्फ़ वे नहीं गए. और उन्हें पाकिस्तान से ज्यादा मोह भी नहीं रहा.



दूसरे दिन में जब स्टूडियो में पहुँचा मैंने देखा रज़ा नया कैनवास शुरू कर रहे हैं. मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब मैंने देखा उन्होंने काले रंग से काम शुरू किया. अठहत्तर में उनकी प्रदर्शनी देखते हुए मैंने उनके चित्रों से ही यह जाना था कि रज़ा काले रंग से काम शुरू करते हैं, आज उसे होते देख रहा था, उत्तेजना में मैंने रज़ा साहेब से यह कहा. उन्होंने कहा यदि चित्र ध्यान से देखें तो वे अपने बारे में और कलाकार के बारे में भी बता सकते हैं. उन्हें ख़ुशी हुई कि मैंने इतने ध्यान से चित्र देखे थे. मैं पेरिस की यात्रा पर निकल पड़ा. लूव्र लगभग हर दिन जाता था मोनालिसा देखने की इच्छा थी किन्तु हड़ताल खींचती चली जा रही थी. दूसरे संग्रहालय देखना और बेकार सड़कों पर घूमना भी जारी रहा साथ ही रिउ द रिवोली पर विंडो शॉपिंग भी.

रज़ा से शाम को रोज़ खाने पर दिन भर की बात हुआ करती थी. जानीन भी सुझाया करती थीं क्या करना चाहिए दूसरे दिन और टेलीविज़न पर खबरें सुनकर बताया करती कि हड़ताल कब ख़त्म हो सकती है. वे लोग अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए हड़ताल किये हुए थे और इसमें कोई कम्युनिस्ट शामिल नहीं था. एक दिन रज़ा साहेब ने मजाक भी किया कि वे लोग कह रहे हैं कि अखिलेश को मोनालिसा नहीं देखने देना है इसलिए हमने हड़ताल की है जब वो चला जायेगा तब लूव्र खुल जायेगा. इसका जवाब जो मैंने दिया उसे सुनकर जानीन को बहुत मजा आया, मैंने कहा रज़ा साहेब वो ये कह रहे हैं कि अखिलेश ने यदि मोनालिसा देख ली वो दोबारा फ्रांस नहीं आएगा, हम चाहते हैं दूसरी बार में वो मोनालिसा देखे. इस तरह के हँसी-मजाक और स्नेह के दिन जल्दी ही गुजर गए और मेरे लौटने का दिन आ गया. रज़ा साहेब मुझे आर्ट मटेरियल की दूकान लेकर गए जहाँ से वे अपने लिए सामग्री खरीदते थे और कहा आपको जो भी पसन्द आये लीजियेगा. लौटने पर जानीन मुझे बाज़ार लेकर गयीं और अपनी पसन्द के दो इत्र खरीदे, एक मेरे लिए दूसरा अनु के लिए. फिर कुछ शर्ट खरीदीं. मेरे मना करने के बावजूद. और शाम का भोजन उनके घर के पास वाली एक फ्रेंच रेस्तराँ में करने गए.

दो हज़ार दो रज़ा के लिए मुश्किल साल था. उनकी पत्नी जानीन को कैंसर हुआ था जिसका इलाज लम्बे समय से चल रहा था और आखिर में बढ़ते दर्द के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. रज़ा साहेब को सिर्फ एक घण्टे के लिए शाम को मिलने की सुविधा थी. जिसमें भी जानीन दवाइयों के असर से लगभग बेसुध रहती थीं. उनकी याददाश्त कमजोर हो चुकी थी और रज़ा रोज़ एक घण्टे उनके पास नियमित रूप से जाकर बैठा करते थे. उम्मीद की जगह न थी. दुआओं का सहारा भी एक दिन पूरा हुआ. उनका फ़ोन आया. मैं उन दिनों हैदराबाद में था. अनु से बात हुई. उसने बताया कि मैं बाहर गया हुआ हूँ. रज़ा ने अनु से ही बात की. उन्होंने बतलाया जानीन के गुजर जाने की ख़बर के बारे में. मैं अकेला घर में अपनी कुर्सी पर बैठा हूँ और अभी-अभी जानीन के देहान्त की ख़बर अस्पताल ने मुझे दी. मैं अकेला हूँ और समझ नहीं पा रहा हूँ,मैंने सबसे पहले अशोक (अशोक वाजपेयी) को फ़ोन किया था, वे शायद व्यस्त हैं बात नहीं हो पायी. अखिलेश से बात करना चाहता था वो भी नहीं है. अजीब इत्तेफ़ाक़ है मेरे प्रिय पास नहीं हैं. अनु ने मुझे हैदराबाद फ़ोन कर सूचना दी रज़ा साहेब तुमसे बात करना चाहते हैं. मैंने तत्काल फ़ोन लगाया और उनसे बात की. उनकी आवाज़ में दर्द और अकेलापन था. बात करते-करते वे रो पड़े और थोड़ी देर रोते हुए ही कुछ फ्रेंच में बोल रहे थे, कुछ हिन्दी, कुछ अंग्रेजी में और धीरे-धीरे खुद को सम्हाला और कहा माफ़ी चाहता हूँ कुछ गला ख़राब है, कुछ मौसम ख़राब हुआ इधर पेरिस में. मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है. जानीन को लेकर गोर्बियो जाना है उसकी तैयारी करना है. मेरे पास सांत्वना के शब्द नहीं थे. दिमाग ने कुछ काम करना बंद कर दिया था. रज़ा को इस तरह देखा न था और जो भी सूझा, बोल सका था बोला. रज़ा ही बतला रहे थे.

जानीन से तिरालिस साल का सम्बन्ध समाप्त हुआ था और यह सिर्फ सम्बन्ध ही नहीं था रज़ा की रीढ़ भी थी जिसके बल पर रज़ा को बाकी चिन्ता कभी नहीं करनी पड़ी. जिसके कारण रज़ा को पेरिस का अपरिचित संसार भी अपना लगता था. इस घटना के कुछ महीने बाद रज़ा का फ़ोन आया और बहुत ही टूटी हुई आवाज़ में कहा मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ, अभी रामकुमार आये थे चार दिनों के लिए हम साथ थे वे कल चले गए. आप आ सकते हैं पेरिस कुछ दिन मेरे साथ रहने के लिए ? उसके बाद दो हज़ार दस तक हर वर्ष मैं गर्मियों के तीन-चार महीने रज़ा के साथ बिताने के लिए फ्रांस में होता था. 

जानीन की मृत्यु के बाद रज़ा पेरिस में गुम गए. वे उस बालक की तरह थे जो इस दुनिया से सम्बन्ध बैठाने में अपने को अक्षम पाता है. रज़ा पेरिस में अब अकेले की तरह महसूस करते थे. वे लगभग अपने को भूल कर कोशिश कर रहे थे चित्रों में ध्यान लगाने की और वे भटक भी रहे थे. उनके घर में खाना बनाने और साफ़-सफाई के लिए पोलिश महिला सप्ताह में तीन दिन आया करती थी. वो इक्कठा सारा काम कर दिया करती. 

यह वो समय था जब रज़ा बिंदु पर एकाग्र हुए अनेक चित्र सिर्फ बिंदु को लेकर ही बनाये. बल्कि यह कहना भी ठीक होगा कि इसके बाद के रज़ा बिंदू पर ही एकाग्र हुए 'बिंदू', 'जल-बिंदु', 'आवर्तन', 'तिर्यक', 'सत्यमेव जयते', 'नाद-बिंदु', 'नील-श्याम', 'बिंदु-पंचतत्व', आदि अनेक चित्र बनाये और इसमें से कई चित्रों को बार-बार बनाया. रज़ा के लिए अब सारा संसार इस एक बिंदु में सिमट आया था. वे कहते भी रहे कि बिंदु शून्य था, सूर्य बन गया, प्रकाश में अनेक रंग दिखे, नए जीवन का प्रारम्भ हुआ. रज़ा के लिए बिंदु अब प्राण-बिंदु बन गया.     




क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       



अशोक वाजपेयी से अरुण देव की बातचीत

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आज अशोक वाजपेयी जन्म के अस्सी वर्ष पूरे कर रहें हैं. लेखन, प्रकाशन, संपादन, संस्था-निर्माण और बहुविध आयोजनों की परिकल्पना और संचालन में वह पिछले छह दशकों से सक्रिय हैं. साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम, भव्य और महत्वपूर्ण है. साहस और सुरुचि के साथ लेखक की अपनी भूमिका का निभाव वह आज भी बखूबी कर रहें हैं. 

शतायु हों और सक्रिय-सार्थक बने रहें, यही कामना है. इस अवसर पर अरुण देव ने उनसे यह ख़ास बातचीत की है.

 

प्रस्तुत है.


जन्म दिन पर ख़ास

अस्सी के अ शोक 
अशोक वाजपेयी से अरुण देव की बातचीत                                 



१.

‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता’(ग़ालिब) 

आपका कवि कर्म सुदीर्घ है. लगभग छह दशको में पसरा हुआ. तीस के आस-पास कविता संग्रह. कवि को अभी भी कविता का इंतज़ार रहता है क्या?  क्या है ऐसा कि कभी आस टूटती ही नहीं इस दर से ? कभी ऐसा नहीं लगा कि हो गया यार बहुत अब. या ऐसा कि अब क्या कहा जाए, और कैसे कहा जाए?

कविता पर उम्र का क्या कुछ असर होता है कि ‘कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक’.



           मूल संग्रह तो कुल सत्रह हैं और किसी को भी लग सकता है कि काफ़ी हो गये हैं. बाक़ी संचयन हैं, कुछ मेरे किये, कुछ दूसरों के किये जिनमें नन्द किशोर नवल, राजेन्द्र मिश्र, मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, यतीन्द्र मिश्र आदि शामिल हैं. इतनी ढेर सारी कविताएँ लिखना लगातार नहीं रहा है: बीच-बीच में बहुत बरस कुछ नहीं लिखी गयीं, पहले और दूसरे संग्रह के बीच 18वर्ष का अन्तराल रहा. मुझे ससंकोच यह कहना पड़ेगा कि मेरे लिए कविता का समापन कभी नहीं होगा: कविता का अन्त आया जो जीवन का भी अन्त होगा. क्या-कैसे कहा जाये इस गुत्थी को सुलझाना हमेशा कठिन रहा है. यह भी कि कई बार जो पहले कहा जा चुका है उसे किसी और से कहने की विवशता लगती है. शायद हर कवि, कुल मिलाकर, कम ही कह पाता है: इस कम का वितान भी इतना फैल जाता है कि अधिक होने का भ्रम पैदा होता है. आयु और काल दोनों की छाया गहराती जाती है पर उससे काव्य-जिजीविषा के शिथिल पड़ने का मुझे कोई अहसास नहीं है. यह कहने का मन अभी नहीं है कि आओ खुसरो, लौट चलें अब, इस नगरी में रात हुई.मेरी रात नगरी को तो कविता से जगमगाता ही छोड़ेगी. --ऐसी उम्मीद करता हूँ.



 

२.

‘एक युवा जंगल मुझे,

अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है.'

कवि की स्थानीयता उसकी कविता में रक्त की तरह प्रवाहित होती है. युवा अशोक मध्य-प्रदेश से, उसकी भाषा, बोली परिवेश से अपनी कविता का युवा रंग लेते हैं, उन्हें विन्यस्त करते हैं. इस संभावनाशील कवि को किस तरह समकालीन कवियों और आलोचकों ने लिया. क्या ख़ास चीजें रेखांकित की गयीं.




            मेरे पहले कविता संग्रह का अधिकांश अपने घरू शहर सागर में रहते लिखा गया था: उसमें जितना प्रगट था मेरा एक युवा कवि होना (17से 25बरस होने के बीच) उतना ही प्रगट था एक छोटे शहर का होना. हमारी आलोचना जिन सामान्यीकृत औज़ारों से कविता नापती रही है उनके रहते इस स्थानीयता का दुर्लक्ष्‍य तो नहीं हुआ पर उसका विश्लेषण बहुत थोड़ा हुआ. अलबत्ता सामान्य पाठकों में ऐसे कई थे जो खुद छोटे शहरों या कस्बों के थे और उन्हें यह स्थानीयता शायद कुछ अपनी लगी थी. उस स्थानीयता से उसी संग्रह में थोड़ा मुक्त होने की जो बेचैनी थी वह तो अलक्षित ही चली गयी. संग्रह छपने के समय मैं दिल्ली में 5साल बिता चुका था और वहाँ उस दौरान लिखी कुछ कविताएँ भी उसमें थीं. जिस कविता पंक्ति पर संग्रह का नाम, नामवर सिंह के सुझाव पर, रखा गया था शहर अब भी सम्भावना हैवह दिल्ली में ही लिखी गयी थी. संग्रह में प्रगट कई सरोकार लगभग जीवन भर मेरे सरोकार रहे आये हैं. यह बात भी उस समय नोट की गयी थी कि उल्लास-उछाह के बावजूद अवसाद की छाया भी थी: वह अवसाद बना रहा है और इधर अधिक गहरा होकर विफलता और पराजय के अहसास में बदल गया है. वैसे मैं तब तो ध्यान देने योग्य युवा नहीं था और अब तक, कुल मिलाकर,विचारणीय नहीं रहा हूँ.



 

३.
 

‘हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं !

हिंदी कविता की परम्परा क्षुब्ध कर देने की हद तक अपनी संस्कृत परम्परा से टूट चुकी है. इसका बड़ा कारण उसकी भाषा है जिसमें तत्सम के लिए जगह कम होती चली गयी है, वह भाषा में ही नहीं संस्कृति में भी अधिकतम तद्भव हो चली है. अशोक वाजपेयी की कविता में सु-संस्कृत स्मृतिओं की बहुलता है वह भाषिकता में भी सांस्कृतिक है. मुक्तिबोध और अज्ञेय के बीच रहते हुए उनके भाषिक प्रभाव से लड़ना तब मुश्किल रहा होगा?




            संस्कृत से हिन्दी कविता की बढ़ती दूरी की ओर ध्यान खींचनेवाला शायद मैं पहला आलोचक था. उसकी ओर ध्यान ख़ास गया नहीं क्योंकि कविता की भाषा पर विचार एक कलावादी हरकत मानी जाती थी और अब भी मानी जाती है: हिन्दी कविता अख़बारीपन से काम लेना काफ़ी मानने लगी थी. तत्सम की विरलता, एक तरह से, स्मृति की भी विरलता होती है. निजी स्मृतियाँ तो कविता में सक्रिय रहीं पर सांस्कृतिक स्मृतियाँ ग़ायब होने लगीं: रघुवीर सहाय जैसे महत्वपूर्ण कवि तक उसका उदाहरण हैं.           

मैंने नवमी कक्षा में, बिना किसी के कहे या चाहे, अपने आप हिन्दी के बजाय संस्कृत पढ़ने का विकल्प चुना था और फिर बी.ए. में अंग्रेज़ी और इतिहास के साथ उसे ही चुना था. मुझे लगा था कि संस्कृत में हमारी विशाल और विपुल परम्परा का बहुत मूल्यवान् हिस्सा है और उससे हमें, किसी भी कारण, वंचित नहीं होना चाहिये. आरंभिक प्रयत्न पर अज्ञेय का प्रभाव था, जो आधुनिक हिन्दी कविता के अन्तिम संस्कृत कवि हैं: उनके यहाँ तत्सम और तद्भव को एक साथ साधने का अद्भुत काव्यकौशल था- मुक्तिबोध के यहाँ बहुत तत्सम है पर वैसी तद्भव की समान विपुलता नहीं है जैसी कि अज्ञेय के यहाँ. उस समय जब मेरी काव्यभाषा आकार ले रही थी, अधिक आकर्षण अज्ञेय का था. यह न भूलें कि मुक्तिबोध ने कविता को सांस्कृतिक प्रक्रिया बताया था. एक बात और: जैसे-जैसे हिन्दी का सांस्कृतिक क्षरण होता गया, वैसे-वैसे उसमें से संस्कृत की स्मृति और सुगन्ध भी कम होती गयी. दुर्भाग्य से, आज अधिकांश अच्छी-बुरी हिन्दी कविता स्मृतिहीन कविता है. विडम्बना यह है कि हिन्दी के तद्भव लोकरूपों में अब भी रामायण, महाभारत आदि आख्यानों के रूप में तत्सम बचा हुआ है- रामलीला, पण्डवानी, पण्डून के कड़े, भरथरी, माच आदि को याद किया जा सकता है.

यह जोड़ना ज़रूरी है कि मेरी काव्यस्मृति में कालिदास, भवभूति, प्राकृत के अलावा कबीर, सूरदास, ग़ालिब आदि भी शामिल हैं और मैंने कविता की काया में उनकी उक्तियों, बिम्बों आदि को जगह दी है: इसका अधिक क्या ज़रा भी नोटिस नहीं लिया गया है श्रीराम वर्मा,मदन सोनी को छोड़कर. राजेन्द्र मिश्र ने मेरी कविताओं के अपने संचयन का नाम मेरी एक कविता के शीर्षक से कबीर की उक्ति ताते अनचिन्हार में चीन्हादिया है. यों तत्पुरुषऔर बहुरि अकेलादो कविता संग्रहों के शीर्षक पहले से हैं. मैंने स्वयं अपनी कविताओं के संचयन का नाम दिया था विवक्षा. एक बार मैंने यह गर्वोक्ति की थी कि अगर मुझे कोई नवशास्त्रीय कवि क़रार दे तो मुझे आपत्ति न होगी. मेरे द्वारा स्थापित और संपादित पत्रिकाओं के नाम समवेत’, ‘पूर्वग्रह’, ‘बहुवचन’, ‘कविता एशिया’, ‘समास’, ‘अरूप’, ‘स्वरमुद्राआदि सभी तत्सम हैं.रज़ा की कई एकल प्रदर्शनियों के नाम भी मैंने दिये थे: आवर्तन’, ‘अविराम’, ‘निरन्तर’, ‘विस्तार’, ‘पुनरागमन’, ‘आरम्भ’, ‘उत्तर रागआदि.

रूसी कवि जोसेफ़ ब्राडस्की का एक कथन याद आता है: हमें अपने समकालीनों को प्रसन्न करने के लिए नहीं, अपने पूर्ववर्तियों को प्रसन्न करने के लिए लिखना चाहिये.ससंकोच कहता हूँ कि कुछ ऐसी कोशिश शायद मैंने की, अलबत्ता शायद प्रसन्न न पूर्ववर्ती हुए, न समवर्ती!

 

 

 

४.

‘तू अपना यौवन, अपनी हंसी

मेरे पास छोड़ गई

और तुझे ले गई

कोयले और पानी से चलती

एक रेलगाड़ी.’ 

कविता ने आपके प्रेम को भी भरा होगा, इन दोनों को स-मुख रखकर कुछ कविताएँ, कुछ प्रसंग कृपया रेखांकित करें.



(अनुत्तरित)

 

५.

‘उसके अनुरक्त नेत्र

उसके उदग्र- उत्सुग कुचाग्र

उसकी देह की चकित धूप

उसके आर्द्र अधर

कहेंगे- हाँ

वह कैसे कहेगी हाँ ?’ 

देह का वस्तुकरण अकादमिक अपराध जैसा माना गया है. कम से कम यह आरोप तो है ही. जिस संस्कृति में ‘काम’ पुरुषार्थ हो,कामसूत्र से पहचाना जाता हो,खजुराहो आदि जगहों पर अकुंठ यौन क्रियाएं उकेरी गईं हों,कालिदास शंकर और पार्वती के संभोग का वर्णन करते हों, जहाँ काम-आख्या एक तीर्थ हो,वहां समकालीन कवि के लिए केलि और काम लिखना दुविधाग्रस्त हो गया है. संशय ने क्या हाथ रोके और कहाँ तक ? कि बिलकुल नहीं.



               आपको याद होगा कि दशकों मेरी निन्दा, मेरे समाज-विमुख या विरोधी होने का आधार मेरी प्रेम-कविताएँ कही जाती थीं. जो हो, मैं शुरू से ही प्रेम का नीचट कवि रहा हूँ. उसमें भी आप मेरी तत्समता स्पष्ट और प्रायः हर बार देख सकते हैं. भारत की श्रृंगार परम्परा संसार की ऐसी महान् परम्पराओं में गिनी जाती है जबकि विक्टोरियन मूल्यों में लिपटी हमारी शिक्षा व्यवस्था और उससे उपजी मध्यवर्गीय मानसिकता ने श्रृंगार और रति को हाशिये पर डाल दिया. उसका यथासंभव यथायोग्य पुनर्वास करना मेरा एक सरोकार ही बन गया. उसमें भदेसपन भी आ सकता है इसलिए तत्समता वहाँ सहायक हुई: एक स्तर पर यह आप ही के शब्दों में कहूँ तो सुसंस्कृत स्मृतियों की बहुलता को थोड़ा-बहुत उनकी ऐन्द्रियता में सहेजने की चेष्टा है. 

प्रेम के अनेक पक्ष होते हैं जिनमें काम भी है. प्राचीनों में लेकर भक्त और रीति कवियों ने उसे जगह दी: छायावादियों में भी, विशेषतः प्रसाद और निराला में, ऐन्द्रियता का मोहक तत्व मौजूद है. इसलिए उस परम्परा में लिखने की चेष्टा स्वाभाविक होना चाहिये थी. पर अज्ञेय-शमशेर आदि की ऐन्द्रियता के बावजूद, खेद है कि वह अपवाद बनगयी. हाथ रूका तो नहीं पर सावधान रहा: विचित्र था कि जो लोक या बोलियों में सीधे कहा जा सकता था वह हिन्दी में कहना लगभग असम्भव हो गया. तद्भवताऔर समकालीनता से सर्वथा मुक्त एक तरह का अनन्त रचकर ही बाधा पार हो पायी, जितनी हुई. मेरी कविता की एक पोलिश विशेषज्ञ ने कहा था कि तुम्हारी प्रेम-कविताएँ हिन्दी में लिखी संस्कृत कविताएँ हैं’!

प्रेम-कविताएँ अकसर प्रसंगबद्ध हैं: किसी सम्बन्ध के कारण ही उपजी हैं. पर प्रसंग प्रायः उनमें से ओझल रहे हैं: प्रेम को लेकर जो गोपनीयता हमारे समाज में है उसने और कई बार स्वयं किसी सम्बन्ध की सार्वजनिक रक्षा ने विवश किया. जो अब तक प्रसंगहीन रहा आया, उसके प्रसंग को अब स्पष्ट करना शायद नैतिक न होगा, अनावश्यक तो है ही. यहाँ यह जोड़ना अप्रासंगिक नहीं है कि सारी कविता किसी न किसी अर्थ में और स्तर पर, संसार से अगाध प्रेम से ही उपजती है: वह उसका गुणगान होती है. भाषा जब संसार से निस्संकोच केलि करती है तभी कविता बनती है.

एक और सन्दर्भ याद किया जा सकता है मैंने प्रेमकविताएँ जब लिखीं तब कविता में निजता को लगभग देशनिकाला देकर सामाजिकता, सामाजिक यथार्थ का भयानक आग्रह हो रहा था. इन कविताओं को चालू सोचने और मुहावरे के प्रतिरोध में नहीं देखा-समझा गया जो कि वे थीं. प्रतिरोध की सूक्ष्मताओं और बहुलता को समझने की जो आलोचनात्मक विधियाँ हमारे यहाँ हैं वे निजता में कई बार अन्तनिर्हित प्रतिरोध को समझने का धीरज-जतन नहीं रखतीं-करतीं. 

 

 

६.

‘तुम चले जाओगे

पर थोड़ा सा यहाँ भी रह जाओगे’  

नश्वरता को स्वीकार करते हुए भी उपस्थित का औदात्त. ऐसा लगता है कि आपकी कविता के कुछ रेशे कबीर के करघे से उठाये गयें हैं. आपके प्रिय चित्रकार रज़ा के वृत्त की शून्यता में तिरोहित. कबीर आपके कितने निकट हैं. निर्गुण शून्यता का एहसास होता है कभी-कभी. ख़ासकर रचने के समय.

आपकी एक कविता भी है ‘कोई कबीर नहींजिसमें आप ‘अपनी मैली-कुचैली चादर के बारे में’ सोचते तो हैं. कुमार गन्धर्व के बहाने भी कबीर आयें हैं.



                एक तरह का अस्तिमूलक अवसाद जो शुरू से ही है उसके मूल में नश्वरता-बोध ही रहा है. अनुपस्थिति और मृत्यु को लेकर मेरी कविताओं का एक संचयन ही है, ‘जो नहीं है. इसे प्रायः लक्ष्य नहीं किया गया है कि मैंने जितनी कविताएँ प्रेम-श्रृंगार-रति पर लिखीं लगभग उतनी ही मृत्यु पर भी. प्रेम और मृत्यु मानवीयता के दो परम अनुभव हैं: एक में चरम उपस्थिति, दूसरे में परम अनुपस्थिति. किसी हद तक मैंने इन दोनों को संबोधित करने की चेष्टा की. कई बार प्रेम से अनुपस्थिति और मृत्यु से उपस्थिति को अलगाना सम्भव नहीं होता. जैसे कई कविताएँ प्रेम की, प्रसंगवश लिखी गयी हैं वैसे ही कई शोक-कविताएँ भी: माँ और पिता पर, कुमार गन्धर्व पर 21कविताओं की एक श्रृंखला के रूप में शोकगीत बहुरि अकेला’, कमलेश-फ़ज़ल ताबिश जैसे कविमित्रों पर, अपने एक ड्राइवर सरनाम सिंह पर. कई अन्तर्विरोधी भावों जैसे अन्त के बाद कुछ नहींऔर अन्त के बाद भी कुछ बचेगाआदि भावों को सहेजने की कोशिश की. मेरी कठिनाई यह है कि विषय जो भी हो मैं रागसिवत कविता ही लिख सकता हूँ: मेरी, कम से कम अब तक याने अस्सी बरस का हो जाने के बाद भी, जिजीविषा और अनुराग से मुक्ति नहीं हुई है. चाही भी नहीं है.

उदात्त, मुझे लगता है, मानवीयता का एक मूल्यवान् तत्व है जिसका अगर लोप नहीं हुआ तो वह शिथिल ज़रूर पड़ गया है. मुझे कबीर, तुलसी, सूर से लेकर निराला, अज्ञेय, शमशेर,मुक्तिबोध आदि में उदात्त सक्रिय लगता रहा है. इस उत्तराधिकार को उसकी उज्ज्वलता में सहजेने की कुछ कोशिश की. फिर कुमार गन्धर्व और मल्लिकार्जुन मंसूर के गायन में उसी उदात्त का स्वरित-मुखरित होना महसूस किया.

कबीर की ओर साहित्य से कम, संगीत से अधिक आया, कुमार जी के कबीर-गायन से. यह भी सीखा कि वे निर्गुण को भी अन्ततः भाषा और कविता की सगुणता में ही चरितार्थ करते हैं: जीवन में मृत्यु, मृत्यु में जीवन, ‘खलक चबेना काल का, कुछ मुँह में कुछ गोद’, साधारण, रोज़मर्रा में ब्रह्माण्ड की अनुगूँज, चादर-घट-किवाड़, कागज़ की पुड़िया आदि. कबीर ने सिखाया कविता के लिए साधारण जीवन, अपनी तत्समता और तद्भवता में काफ़ी है. मैंने कबीर की कई पंक्तियों को शीर्षक बनाकर कुछ कविताएँ फ्रान्स के नान्त शहर में लिखी थीं: जोत शब्द उजियारा हो’, ‘खुले नैन में हँस हँस देखूँ’, ‘जागे अरू रोवै’, ‘खुल गये गगन-किवाड़’, ‘अधर मड़ैया छावे’, ‘ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा.

रज़ा को अपना बिन्दु, तम शून्य चित्रित करते कई बार देर तक देखने का सुयोग हुआ: हर बार लगता था कि वे, कबीर की ही तरह से, रंगों से नीरंग को, उपस्थिति से अनुपस्थिति को,भराव से शून्य को रच रहे हैं. लिखते समय निर्गुण शून्यता तो नहीं सगुण शून्यहीनता अलबता महसूस होती है: एक अपार समुद्र है जिसमें से कुछ लहरें भर आप चुन पायेंगे. कई बार तो लगता है कि कुछ घोंघे-सोपियाँ ही हाथ लगी हैं, लहर तक नहीं- आप बालू के घरोंदे बना रहे हैं. पकड़ में शब्दों के बहुत कम आता है, बहुत सारा तो छूटता रहता है.

 

 

७.

‘वे एक जलप्रपात की तरह

गिरते रहते हैं-  

आपकी कविता में देवता,गन्धर्व आते हैं, राक्षस भी आते हैं. यहाँ तक कि चंद्रमा कंचुकी उतार लेता है और सूर्य अधोवस्त्र हर लेता है. सभ्यतागत इतनी लम्बी यात्रा के बाद भी इनमें ख़ासकर देवताओं में बहुत बदलाव नहीं है,क्या कहीं कोई ‘अहिल्या’ भी है पार्श्व में. 



                  हम व्यक्ति, समाज आदि के बोधों से इस क़दर आक्रान्त रहे हैं कि अकसर भूल जाते हैं कि मनुष्य वह एकमात्र प्राणी है जिसमें ब्रह्मण्ड बोध भी होता है: हम ही हैं प्राणिजगत् में जिन्हें इसका बोध है कि हम एक विराट् सचाई का अंग हैं. इस विराट्ता के वितान में सूर्य-चन्द्र, आकाश और ग्रह-नक्षत्र, आकाशगंगाएँ, देवता आदि सब शामिल हैं. हम सिर्फ़ घर-मुहल्ले, परिवार-पड़ोस, शहर-प्रदेश, देश-विदेश, संसार भर में नहीं रहते हम ब्रह्माण्ड में भी रहते हैं. यों तो सारे संसार में, पर विशेषतः भारत में, वेदों से लेकर प्रसाद-निराला-अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर में यह ब्रह्माण्ड बोध सक्रिय रहा है. 

मेरा बचपन एक धार्मिक मध्यवर्गीय परिवार में बीता जिसमें तरह-तरह के देवता, पर्व, त्योहार आदि प्रचलित थे. ये सभी साधारण जीवन की कविता जैसे थे और शायद 16-17बरस की उमर में मुझे उनके लोप का अहसास होने लगा था. बाद में मुझे लगा कि यह लोप दुखद है तो मैंने कविता में फिर उन्हें पुकारने की चेष्टा की, उन्हें कोसा-गरियाया भी. पर उनके होने का एहतराम भी किया. कई मायनों में मेरी कविता ईश्वर के न होने पर एक लम्बा विलाप भी है. वह पूरी तरह से लुप्त भी नहीं हुआ है लेकिन उसकी उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं बचा है: कोई मेरी कविता के एक हिस्से को इस गोधूलि पर विलाप की तरह पढ़ सकता है.  

देवहीन संसार और घर में मेरी कविता, कभी-कभार, उनसे लौटने की, फिर बसने की प्रार्थना और पुकार है. देवता तो उसे अनसुनी करते हैं पर शायद रसिक जन भी.

 

८.

‘भूलने से शुरुआत होती है नष्ट

होने की –‘  

स्मृति,स्मृति-भंग, स्मृतिहीनता वैश्विक साहित्य-बोध के केंद्र में हैं. सत्ताएं कहती हैं इसकी जरूरत नहीं,और यंत्र कहते हैं कि यह ज़िम्मेदारी हम लेते हैं. नई सदी के मनुष्य के पास शब्द ही नहीं स्मृतियाँ भी सीमित हैं. कवि तो स्मृतियों से ही कविता का सृजन करता है. कविता कहाँ रहेगी ?



                 हमारा समय, अभूपूर्व ढंग से, विस्मृति का समय है- राजनीति, सत्ताएँ, बाज़ार, आर्थिक, मीडिया आदि सब एक विचित्र दुरभिसंधि कर हमें स्मृति-वंचित करने के अभियान में लगे हैं. हर दिन हमसे तरह-तरह से कहा जा रहा है कि हम भूल जायें या किसी विकृत अवास्तविक रूप में याद करें. इतिहास, संस्कृति, धर्म आदि की दुर्व्याख्या और बलपूर्वक उस पर आग्रह हमारे समय का स्वभाव ही बन गये हैं. स्मृतिलोप या उसमें कटौती के साथ-साथ हमारे पास शब्द भी कम हो रहे हैं: शब्द हमारी मानवीयता की सबसे बड़ी पूँजी और स्मृति-संग्रह रहे हैं. उनका घटना हमारी मानवीयता में कटौती है. कविता ही नहीं सारा साहित्य स्मृति का ही विविधवर्णी रूपायन होता है. इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि तथाकथित इतिहास और पुरातत्व से कहीं अधिक हमारी स्मृति साहित्य में सुरक्षित रहती है. कविता का एक ज़रूरी काम याद करना और दिलाना है: वह स्मृति को सजीव रखती है. उसकी जो तथाकथित निरन्तरता है वह स्मृति की ही निरन्तरता होती है. कविता जो हुआ, जो हो रहा है और अकसर हमसे छूट जाता है उसको याद करती है. आक्तावियो पाज़ ने कविता को दूसरा इतिहासकहा है. जैसे सपने देखने, कल्पना करने का काम कविता किसी और के ज़िम्मे नहीं कर सकती वैसे ही स्मृति भी उसकी ज़िम्मेदारी, उसका स्वभाव है: उसके लिए कोई और याद नहीं कर सकता. कई बार लगता है कि आज की कविता में हम स्मृति से लगभग अकारण विपन्न हुए जा रहे हैं. अगर स्मृति होगी तो कृतज्ञता भी होगी: क्या हमारी बहुत सी कविता से कृतज्ञता के भाव का लोप नहीं हो गया है?

 

 

९.

विराम का घर

विलय का घर

विलोप का घर'

आपका कलावंत,चित्रकार,शास्त्रीयता, गान  आदि से गझिन साथ रहा है. आपकी कविता में कभी कुमार गन्धर्व आते हैं कभी मल्लिकार्जुन मंसूर. स्वामीनाथन,रज़ा, कारन्त आदि आपके लिखे में नजर आते हैं. यह जो कलाओं का घर है उसमें कविता का इनसे जो रिश्ता बनता है वह अनूठा भी है. कभी लगा कि कविता इनसे स्पर्धा में हैं.



                 मेरे लिए दूसरी कलाएँ कविता और साहित्य का अनिवार्य और समृद्ध सहायक पड़ोस शुरू से ही रही हैं. कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अपने समय के कई कलामूर्धन्यों के नज़दीक आने का अवसर मिलता रहा. उनमें से कइयों की कला के बारे में लिखने का उपक्रम भी किया. उन पर कविताओं का एक पूरा संचयन भी बन गया. साहित्य और कलाओं के बीच बढ़ती गयी दूरी को किसी हद तक पाटने की चेष्टा अपने साहित्य, सम्पादन, संस्था-निर्माण और संचालन आदि में की. दो बातें: कोई भी कला पूरी तरह से स्वायत्त नहीं होती, उस पर दूसरी किसी कला की छाया या उपस्थिति पड़ती ही है. दूसरे, हर कला की अपनी भाषा और अपना सच होता है. संगीत का सच, ललित कला का सच, नृत्य का सच, रंगमंच का सच और कविता का सच सब अद्वितीय होते हैं. जो चित्र कर सकता है वह कविता नहीं, जो कविता कर सकती है वह संगीत नहीं आदि. उनमें सहकार और संवाद, तनाव आदि हो सकते हैं: हमारी परम्परा में तो अन्तनिर्भरता उन्नीसवीं शताब्दी तक थी पर उसे आधुनिकता ने, लगता है, हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया. कभी मैंने एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र की रूपरेखा प्रस्तावित करने का विचार किया था जिसकी अवधारणाएँ सभी कलाओं और साहित्य पर लगभग समान रूप से लागू हो सकें. यह आलोचनात्मक काम करने से रह ही गया. 

स्पर्धा तो नहीं कविता की, अपनी कविता की अपर्याप्तता का बोध ख़ासकर चित्रकला और संगीत के सिलसिले में होता है: दोनों में अमूर्तन इतना सहज और ग्राह्य होता है जबकि कविता में, अगर हो, तो अबूझ माना जाता है. अलबत्ता, कविता में मैंने कलाकारों और कलाओं की स्तुति ही की है: कुछ और कविमित्रों की तरह उनका रूपक की तरह इस्तेमाल नहीं किया है. यों शास्त्रीय संगीत और चित्रकला का मेरी कविता पर गहरा प्रभाव पड़ा है जिसे अकसर ठीक से देखा-पहचाना नहीं गया है. संगीत का समय में रहकर समयातीत को छू लेने का जो विस्मय और रहस्य से भरा कर्म होता है वह मेरी कविता के लिए हमेशा ईष्या का विषय रहा है.

 

 

१०. 

‘देर हो जाएगी पहचाने में

देर हो जाएगी स्वीकारने में

देर हो जाएगी अवसान में’   

साहित्य धीरे-धीर पसरने वाली चीज है. पहचान और स्वीकार में समय लगता है. कविता में अ-शोक का अवसान नहीं होगा. ‘अभी न होगा मेरा अन्त/अभी-अभी ही तो आया है/मेरे वन में मृदुल वसन्त’ (निराला)

साहित्य में खेमे गुट और (कु) नीतियाँ भी हैं. कलावादी होना लांछन था. क्या कोई सिर्फ कलावादी हो सकता है?



           ऐसे समय में जब सभी कुछ द्रुतगति में हो गया है, पहचान और स्वीकार विलम्बित में रहें यह उचित ही है. मैंने अपने पहले संग्रह में टीएस ईलियट की उक्ति आरंभ में ही उद्धृत की थी: मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है.एक अधसदी बीत गयी. अब भी लिखते रहने में कुछ बेशरमी ज़रूर है सो है. निर्लज्ज हूँ पर निर्भय भी हूँ. जो भी किया है उसे लेकर कोई पछतावा या संकोच नहीं होता. वही किया जो कर सकता था. गिला-शिकवा भी नहीं. संसार सुन्दर और भव्य है पर क्रूर और असह्य भी. हर भाषा का साहित्य-संसार भी ऐसा ही होता है. शमशेर का पहला कवितासंग्रह जब छपा वे 50के होनेवाले थे और मुक्तिबोध तो अपने जीते जी अपना पहला संग्रह भी प्रकाशित होते नहीं देख पाये. इधर पहचान और मान्यता जल्दी-जल्दी मिलने लगी हैं और अकसर टिकाऊ नहीं होतीं. आप जानते ही हैं कि अनन्त मेरा प्रिय शब्द है: होड़ काल से नहीं, अनन्त से है. फिर कबीर ने कहा था: हम न मरैं मरिहै संसारा, हमका मिला जियावनहारा.मुझे तो साहित्य ही जियावनहारा मिला है: वह जितने समय उचित और उपयुक्त समझेगा रखेगा. अन्यथा इतिहास के कूड़ेदान में, असंख्यों के वहाँ होने के बावजूद, जगह फिर भी हम जैसों के लिए बची होगी. 

कई बार यह कहते तंग आ चुका हूँ कि हिन्दी में जीवन से असम्पृक्त या समाज-निरपेक्ष कलावाद कभी हुआ ही नहीं. सारे साहित्य को कथ्य में घटा देने और भाषा तथा शिल्प को अवमूल्यित करने के बरक़्स इन पर ध्यान देने की कोशिश को कलावाद कहकर लांछित किया गया. यह भी याद रखें कि हिन्दी में जनवाद और कलावाद दो ध्रुवान्त मान लिये गये हैं. हमने खुले ख़तरनाक बीच का आग्रह किया. हमने धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादी दुराग्रहों वाले लेखकों-कलाकारों से परहेज किया पर बाक़ी मध्यममार्गी, वाममार्गी, वामविरोधी, तटस्थ सभी तरह के लेखकों-आलोचकों को जगह दी, अपने आयोजनों, सम्पादन, आकलन-विश्लेषण, सम्मान-पुरस्कारों में. मेरी चालीस साल से ज़िद पर अड़ी वृहत्त्रयी अज्ञेय-शमशेर-मुक्तिबोध उसी दृष्टि और व्यवहार का प्रतिफल है. भूल-चूक हुई होगी पर बदनीयती कभी नहीं. इस अकाट्य सचाई की अवहेलना कर अगर कोई आकलन होता रहा तो उसका दोष मुझ पर नहीं. जो मिला उससे असन्तोष नहीं, जो नहीं मिला, शायद पात्रता के बावजूद, उसका मलाल नहीं. तथाकथित कलावादी के यहाँ जीवन के अभाव का दर्शन अन्धे ही कर सकते हैं जिनकी समझ से यह बाहर है कि शुद्ध कला भी जीवन से ही उपजती और जीवन को भी सत्यापित करती है: कला, भाषा, कविता जीवन के बिना सम्भव नहीं हैं और इन तीनों से ही जीवन हमेशा बड़ा है. यह ज़िक्र करना भी शायद असमीचीन नहीं है कि बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद से, 2002के गुजरात नरसंहार, 2015में अवार्ड वापसी द्वारा बढ़ती असहष्णिुता के विरोध और इस समय सत्तारूढ़ धर्मान्ध-साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रतिकार करने में कलावादी अग्रिम पंक्ति में रहे हैं. 

 

 

११.

‘हमारे पास लाचारी के सिवाय

अब कौन सी भाषा बची है ?’

कभी आप कहा करते थे कि कविता कवि की सम्पूर्ण नागरिकता है,कवि से किसी अतिरिक्त की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. आज ‘कविता से दुनिया को समझने, सहने, उसमें शिरकत करने, उसे थोड़ा सही,बदलने की कोशिश की कुल मिलाकर, नाकामी सामने है’

यह कविता की नाकामी है कि समाज का निकम्मापन. समाज तो अंतत: मनुष्यों का समुच्चय है.




                  जब यह धारणा बनी थी कि कविता पर्याप्त नागरिकता है तब माहौल कुछ ऐसा था कि जैसे कविता और नागरिकता दो अलग चीज़ें हैं और उनमें कोई संबंध नहीं. कविता की स्वायत्तता पर इसरार करने का यह एक तरीका था कि उसे नागरिकता और पर्याप्त नागरिकता माना जाये. अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कवि को कविता से अलग कुछ और आन्दोलन में भाग लेना, प्रदर्शन करना आदि ज़रूरी नहीं होना चाहिये. उसके पीछे यह भोला विश्वास भी था कि नागरिकता में कविता के लिए जगह है. बाद में, धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि आधुनिक भारतीय नागरिकता, कम से कम हिन्दी अंचल में, ऐसे विकसित हुई है कि उसमें कविता की आवाज़ सुनने का अवकाश नहीं है. नागरिकता ने कविता को चाँप सा लिया और कविता नागरिकता को प्रभावित करने में विफल सिद्ध हुई. नागरिकता की जो भी कमियाँ रही हों एक कवि इस दुखद अहसास से आँखें नहीं मोड़ सकता कि हम नागरिकता को प्रभावित करने में नाकाम हुए, उसे बदलने की बात तो दूर. तथाकथित जनधर्मी और बहुनिन्दित कलावादी इस विफलता में समान रूप से शामिल हैं. कितनी ही अप्रिय और अवांछनीय हो,हम अपनी लाचारी को स्वीकार करने से भाग नहीं सकते. हमने कविता से बहुत अधिक उम्मीद लगायी जो यथार्थ से बहुत दूर थी: इस अतिशयता के कारण शायद हमने कविता और नागरिकता दोनों के सहज कर्तव्य नहीं निभाये. जो अध्यात्मशून्य धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादग्रस्त नागरिकता आकार ले रही और राजनैतिक रूप से सशक्त-सक्रिय हो रही थी उसकी शायद हमने अनदेखी की, कविता में नहीं तो नागरिकता में. उसमें कविता के लिए जगह हो ही नहीं सकती थी, न है. कविता का अरण्यरोदन बनकर रहना लगभग अनिवार्य हुआ. दूसरों को दोष देने से क्या हासिल! हमें अपने ग़रेबाँ में झाँककर देर तक देखना चाहिये.

 

 

१२.

‘बातचीत करने का समय बीत चुका है’ 

आपके नये संग्रह ‘कम से कम’ में दो शब्दों ने मेरा ध्यान खींचा. ‘भेड़ियाधसान’ और ‘छुटभैयों’. पूर्व–अशोक में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. यह कविता में समय के हस्तक्षेप की ताकत है. ये दोनों शब्द  हमारे समय के दो आक्रामक प्रतीक बन कर उभरे हैं. 




                इसमें सन्देह नहीं कि हमारा समय बहुत हस्तक्षेपकारी समय है- ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है जिसमें इस समय किसी न किसी शक्ति का हस्तक्षेप न हो और इस हस्तक्षेप का एक बड़ा हिस्सा आपको नियंत्रित करने का खुला लक्ष्य रखता है. ऐसे समय में संवाद सम्भव ही नहीं है: ताक़तवर आदेश देते हैं, फ़तवा जारी करते हैं, गाली-गलौज-झगड़ा करते हैं, आपको बोलने का मौक़ा ही नहीं देते, फ़ैसला करते हैं, राय देते हैं, धड़ल्ले से झूठ बोलते-फैलाते हैं, बन्दनयन भक्त पैदा करते हैं खुली आँखोंवाले शिष्य नहीं, जब अवसर आये ज्ञान का अपमान करते हैं और अज्ञान में जमकर रमते-रमाते हैं. असभ्य, अभद्र, हिंसक होने में उन्हें कोई संकोच नहीं.

आरंभिक दशकों में कविता और जीवन दोनों में स्वप्नशील था: जब दुस्स्वप्‍नों से आक्रान्त हूँ. मैंने नहीं सोचा था स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सत्तर वर्ष बाद ऐसा भेडियाधसान होगा, ऐसे छुटभैये बड़ी संख्या में मसीहा माने जाने लगेंगे. समय ने अपनी सचाई रचने में हमारे सपने नष्ट कर दिये हैं. कई बार लगता है जिसे मैं कविता की रंगभूमि और रणभूमि समझता था वह अब कविता का श्मशान है.

 

 

 

 

 

१३.

‘लिखो

ताकि अपनी मृत्यु के कई सदियों बाद

तुम्हारे वंशज यह पहचान पायें

कि भयावह रौरव के समय

उनके एक पुरखे ने याद रखने

दर्ज़ करने,बोलने की कोशिश की थी.’ 

जिस कवि की राजनीति और सामाजिकता दशकों तक संदिग्ध रही. जिसे परिवर्तन का विरोधी और साहित्य का यथास्थिति-वाद कहा गया. आज वह आततायी, हिंसक, सर्वशक्तिमान सत्ता के सामने सबसे आगे खड़ा है. मुखर है. साहित्य के सत्ता विरोधी उत्तरदायित्व का प्रतीक है. ऐसा कैसे हो गया ?



               राजनीति, सामाजिकता, परिवर्तन और यथास्थितिवाद चारों पद हिन्दी आलोचना और विमर्श में ख़ासे गोलमाल और अस्पष्ट ढंग से समझे-बरते जाते रहे हैं. राजनीति का अर्थ एक ओर तो रहा दलगत राजनीति याने सत्ताकामी प्रयत्न और दूसरी ओर रहा वामपंथी राजनीति जिसके बरक़्स हर तरह की अलग राजनीति प्रतिक्रियावाद क़रार दी जाती रही. लेकिन अगर आप स्वतन्त्रता-समता-न्याय के मूल्यों पर इसरार करें और किसी हद तक उनको अपने काम में चरितार्थ भी करने की चेष्टा करें तो उसे राजनीति की तरह नहीं देखा जाता या समझा गया. मैं सिविल सेवा में 1965से 2001तक रहा और ज़ाहिर है कि उसमें रहकर सीधी राजनीति में भाग लेना संभव नहीं था, न मेरी ऐसी प्रवृत्ति रही. पर मैं उस मूल्य त्रयी का भरसक, कुछ भूल-चूक को छोड़कर, हमेशा साहित्य और प्रशासन में पालन करने की कोशिश करता रहा. जिस व्यक्ति ने दर्जनों पत्रिकाएँ निकालीं, दो हज़ार से अधिक आयोजन किये जिनमें हज़ारों लेखकों-कलाकारों ने शिरकत की, जिसने प्रशासक रहते अनेक नवाचारी संस्थाएँ साहित्य, संगीत, नृत्य, रंगमंच, आदिवासी लोककलाओं, शास्त्रीय अध्ययन अनुसंधान आदि के लिए स्थापित कीं, एक दर्जन से अधिक पत्रिकाएँ निकालीं उससे सामाजिकता का और क्या प्रमाण और किसको चाहिये? संस्कृतिकर्म एक सामाजिक कर्म है और वह टिकाऊ गहरी सामाजिकता को पोसता-बढ़ाता है: उस कर्म में अपने जीवन के सात दशक झोंकने वाले की सामाजिकता किस हिसाब से संदिग्ध हो सकती है यह मेरी तुच्छ बुद्धि को कभी समझ में नहीं आया. परिवर्तन को पढ़ने-समझने की हमारे यहाँ जो भोंथरी विधियाँ रूढ़ और लोकप्रिय हैं, क्या उन्हें कभी यह सचाई दीख पड़ी कि इन प्रयत्नों ने रसिकता, सृजनात्मकता, आलोचना, आयोजन, संपादन आदि में कितने व्यापक परिवर्तन किये? सामाजिकता के नाम पर हिन्दी साहित्य में जो यथास्थितिवाद सत्तारूढ़ था उसे चुनौती देना और उससे अलग अपनी लीक बनाना, भले यह अल्पसंख्यकों की लीक थी और है, क्या एक विकल्प में रूप में नहीं पहचानी जा सकती

मैंने एक लेखक, संपादक और आयोजक के रूप में कभी किसी प्रतिक्रियावाद का समर्थन या पोषण नहीं किया. धर्मान्धता-साम्प्रदायिकता-जाति विद्वेष आदि के अतिचार का उतना ही विरोध किया जितना वाम-अतिचार का. अपने विरोधी को कभी अपना शत्रु नहीं माना: प्रतिभा को हमेशा सम्मान दिया, फिर उससे कितनी ही वैचारिक असहमति क्यों न हो.

हत्यारी राजनीति और सत्ता का खुलकर विरोध मैंने 2002के गुजरात नरसंहार से शुरू किया और अब उन्हीं शक्तियों के अधिक व्यापक, मान्य, लोकतांत्रिक पद्धति से वैध हो जाने पर उनके विरुद्ध सक्रिय और मुखर हूँ. जैसा तब था वैसा अब भी, बुनियादी संघर्ष स्वतंत्रता-समता-न्याय की मूल्य त्रयी के पक्ष में ही है. सौभाग्य से इसमें बहुत सारे बल्कि बहुसंख्यक लेखक-कलाकार अपने आप एकजुट हैं.

मैं राजनीति, समाज और संस्कृति पर पिछले लगभग 20वर्षों से लिखता रहा हूँ उसका एक संचयन तीन खण्डों में समय के सामने’, ‘अपने समय मेंऔर समय के इर्दगिर्दनाम से लगभग 600पृष्ठों में वाग्देवी प्रकाशन से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है. तथाकथित समाज और राजनीति को लेकर सैकड़ों कविताएँ हैं जिनका, अगर कविमित्र मंगलेश डबराल की सलाह मानूँ तो एक बड़ा संग्रह बन सकता है. 

जहाँ तक हिन्दी साहित्य की अपनी राजनीति का मामला है उसमें मैंने उदार बहुलतावादी स्वायत्तता पर आग्रह करनेवाली पर निजीपन और सामाजिकता के बीच यथोचित सन्तुलन की आकांक्षा करनेवाली भूमिका यति्कंचित निभायी है. इस भूमिका को पूरी तरह अकारथ गया नहीं माना जा सकता, भले उसे निभानेवाले कई लेखकों को अवहलेना और अवमूल्यन का सामना करना पड़ा है. हमारी ज़्यादातर आलोचना अटारी पर बैठकर लिखी गयी आलोचना है, वह रचना और लेखकों के तहख़ानों में जाने का जोखिम उठाने से बचती रही है.

 

 

१४.

‘समय है सारे बेईमान और अभद्र शोरगुल के बीच

एक खरी आवाज़ बनकर उभरने का

यह समय इंकार का है.’ 

‘असहमति’ और ‘अनभै’ ये दोनों शब्द आज आपकी कविता और आपके होने की सार्थकता में हैं. कबीर भी यही तो लिखते थे.



                           सहमति और निर्भयता, मुझे यह गर्वोक्ति करने की इजाज़त दीजिये, मुझमें शुरू से थी हालाँकि अपनी सूक्ष्मता के कारण उन्हें पहचाना नहीं जा सका. मैं साहित्य की स्थापित व्यवस्था से असहमत था फिर वह अकादेमिक व्यवस्था हो या कि वाम की. लगातार इतने प्रहारों, विवादों, कुपाठों आदि को झेलता रहा हूँ लेकिन इनसे डर कर मैंने अपनी राह या दृष्टि बदली नहीं. दोनों में बदलाव आया पर उसका कारण ये दबाव नहीं, स्वयं सचाई और समय के दबाव रहे हैं. कम से कम मेरी यही समझ है.

 

 

१५.

‘हम कवि हैं और कोई बाद में यह तो नहीं कह पायेगा कि

जब अँधेरा तेज़ी से बढ़ और रौशनी तेज़ी से घट रही थी तो

हम हाथ पर हाथ धरे बैठे  रहे लाचार और हारे-थके.’ 

आप को क्यूँ लगता है कि ‘आज कविता और नागरिकता के संघर्ष लगभग समान हो गये हैं.’



               कविता और नागरिकता का सम्बन्ध खा़सा जटिल है. इनका सम्बन्ध सर्जनात्मक हो सकता है, तनाव भरा भी. ऐसे अवसर आते हैं जब दोनों समान लक्ष्यों के प्रयत्न में सहचर हो जाते हैं और ऐसे भी जब कविता सिविल नफ़रमानी, सविनय अवज्ञा हो उठती है- हमारे लोकतंत्र के बुनियाद में प्रश्नवाचकता है: कविता जब-तब नागरिकता पर प्रश्न उठाती है. नागरिकता तभी तक वैध और काम्य है जब वह अपने नागरिकों को स्वतंत्र रखे, असहमति के लिए जगह और आदर बनाये, सभी को न्याय देने की चेष्टा करे और सभी नागरिकों को समानता दिलाने की ओर अग्रसर हो. कविता इन मूल्यों की चरितार्थता में नागरिकता की सहचर होती है पर उस पर चौकसी भी रखती है जैसे कि नागरिकता भी कविता पर इन्हीं मूल्यों के सन्दर्भ में, चौकसी करती है.

दुर्भाग्य से हमारी लोकतांत्रिक नागरिकता का एक बड़ा हिस्सा इस समय धर्मान्ध, साम्प्रदायिक, जातिद्वेषग्रस्त होने के साथ-साथ हमारी बुनियादी बहुलता के प्रति असहिष्णु, असहमति और वैचारिक बहस को रोकनेवाला, ‘दूसरोंके प्रति हिंसक और आक्रामक हो गया है और उसे एक आतयायी सत्ता का पूरा समर्थन प्राप्त है. नागरिकता मुक्ति के रूप में नहीं, बन्दिशों और निषेध के रूप में परिभाषित की जा रही है. कविता, आज की कविता का महत्वपूर्ण अंश, इन विकृतियों-विचलनों को हिसाब में ले रहा है (जिसमें मेरी कविता शामिल है). आज स्वतंत्रता-समता-न्याय, अहिंसा और संवाद, सहकार और सद्भाव के लिए व्यापक नागरिकता जो संघर्ष कर रही है, वही कविता का भी संघर्ष है. इस अर्थ में आज भी कविता नागरिकता है.

 

 

१६. 

क्षमा करो स्वच्छ लोकतंत्र के निर्मल नागरिकों

तुम्हारे स्वच्छता अभियान में तुम्हारे साथ नहीं हूँ 

इधर आपकी कविताओं की भंगिमा कुछ राजनीतिक हुई है. हिंदी में राजनीतिक कविताएँ रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा ने लिखीं हैं. अगर मुक्तिबोध को भी शामिल करें तो जहाँ मुक्तिबोध सत्ता-राजनीति के विरोधी हैं, सहाय के कविताओं में हम लोकतंत्र के तीखे अन्तर- विरोध पाते हैं वहीं श्रीकांत वर्मा तक आते-आते इस तन्त्र की विक्षिप्तता दिखने लगती है आपके यहाँ यह भंगिमा अवसाद में  बदल गयी है .

 

विरोध, अन्तर-विरोध,विक्षिप्तता और अवसाद यह हिंदी राजनीतिक कविताओं के मेरे ख्याल से  सोपान हैं. मुक्तिबोध के पास हालाँकि विकल्प का स्वप्न है, आप तक तो आते-आते विकल्प हीनता को स्वीकार कर लिया गया है. असहायता का यह बोध क्या वैश्विक नहीं है.



               दोबातें. एक तो भंगिमा कुछ मुखर रूप से राजनैतिक हुई है, पर अन्तःसलिल तो पहले रही है. दूसरे, अब सिर्फ़ अवसाद भर नहीं है- गहरा विफलता बोध है. कुछ इस तरह का कि निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की विफलता तदात्म तदाकार हो गयी हैं. श्रीकान्त वर्मा ने दशकों पहले कहा था ‘‘मैंने अपनी विफलताओं का प्रणेता हूँ’’. इस बोध में गहरा आत्मालोचन भी है- आखि़र मुक्तिबोध और श्रीकान्त हिन्दी कविता में आत्माभियोग के अप्रतिम कवि रहे हैं. जो कुछ हुआ, सपने राख हुए; अपराधीकरण-हिंसा-हत्या को सामाजिक आचरण की वैध शैली की मान्यता मिली, व्यक्ति और समाज दोनों का लगातार अवमूल्यन होता गया, उदात्त और उदार घूरे पर फेंक दिये गये, न अतीत-बोध बचा, न भविष्य-दृष्टि और एक अनन्त वर्तमान थोप दिया गया; स्वतंत्रता-न्याय-समता में कटौती दैनंदिन की घटना बन गयी! भाषा से मानवीयता, गरमाहट, परस्परता तेज़ी से ग़ायब होने लगीं: टुच्चापन-ओछापन-सनसनियाँ-अफ़वाहों-झूठों का नया राज क़ायम हो गया. विचार, ज्ञान, सत्य सभी अपदस्थ किये जाने लगे; दुर्व्याख्याओं का घटाटोप छा गया. इस भयानक परिणति में हमारी भी भूमिका, दुर्भाग्य से, रही है- वैश्विक विफलता में हमारी निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की शिरकत है. मेरी कविता, किसी हद तक, इस अप्रत्याशित विडम्बना को कुछ हिसाब में लेने की कोशिश करती है. कम से कमहम कवि हैं तो इतना तो कर सकते हैं.


मुक्तिबोध के जीवित रहते अरुण स्वप्न, कम से कम उनके नज़दीक, खण्डित नहीं हुआ था. श्रीकान्त वर्मा सत्ता की अन्ततः विफलता को देख पाये थे. उन्हें, फिर भी, ‘तीसरा रास्तादीखता था. रघुवीर सहाय लोकतंत्र के अन्तर्विरोधों को उजागर करते थे पर लोकतंत्र की संभावना पर उम्मीद लगा सकते थे. हम जो लोकतंत्र का भयावह बहुसंख्यकतावादी क्रूर-हिंसक विद्रूप देख रहे हैं कहाँ उम्मीद लगायें? कविता कुछ कर नहीं सकती पर इस ध्रुवान्त पर मानवीयता की स्थिति, दशा-दुर्दशा, निरुपायता, विकल्पहीनता को दर्ज तो कर सकती है. हम रास्ता नहीं दिखा सकते, गवाही दे सकते हैं!

 

१७. 

'मुसहफ़ी'शायर नहीं पूरब में हुआ मैं

दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था. (मुसहफ़ी)  

दिल्ली में बहुत दिनों से आप हैं. महानगर की ‘निर्मम प्रखरता’ कवि की स्वाभाविक कोमलता और करुणा सोख लेती है. इसका कभी एहसास होता होगा आपको.


 

                   दिल्ली भयावह रूप से बड़ी है, जनाक्रान्त है, सत्ता का केन्द्र है, अपराध-बलात्कार-हिंसा की राजधानी है. इस सबके बावजूद वह, बिना चाहे भी, हिन्दी साहित्य की भी राजधानी है. हिन्दी के सबसे अधिक लेखक, प्रकाशक, पत्रकार, अध्यापक, संपादक आदि दिल्ली में ही बसते हैं. दिल्ली के लेखक-संपादक दूसरे शहरों के लेखकों आदि का शोषण भी जब-तब करते रहते हैं. लेकिन गरमाहट, मदद, सहानुभूति, समझ, साहचर्य के द्वीप और अवसर भी दिल्ली में कम नहीं हैं. मैं (अगर 1960-65की अवधि को हिसाब में न लूँ) 1992के मध्य से दिल्ली में हूँ. जब आया तब उमर 50पार कर चुकी थी. ज़िन्दगी, प्रशासन, शत्रु-मित्र तब तक जितनी कोमलता, करुणा सोख सकते थे, सोख चुके थे. मैंने भरसक दिल्ली की संस्कृति में कुछ सार्थक करने की कोशिश की, सहायता-समर्थन भी मिले. इसलिए दिल्ली को पूरी तरह से निर्मम मानने का कोई कारण नहीं देखता. अगर साहस हो, जोखिम उठा सकते हों, कुछ कल्पनाशीलता हो और सृजनात्मकता बचाये रख और पोस सकते हैं तो दिल्‍ली में जगह में बन सकती है! कर्महीन नर पावत नहीं!

(प्रश्नों में काव्य-पंक्तियाँ अशोक वाजपेयी के संग्रहों से ली गयी हैं. अ.दे. )
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अरुण देव 
 तीन कविता संग्रह प्रकाशित.
एक दशक से समालोचन का संपादन. नजीबाबाद में रहते हैं.
devarun72@gmail.com

नामवर सिंह : शिवमंगल सिद्धांतकर

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नलिन विलोचन शर्मा, राजकमल चौधरी, गोरख पाण्डेय पर शिवमंगल सिद्धांतकार के संस्मरण आप पढ़ चुके हैं. यह श्रृंखला कथाकार ज्ञानचंद बागड़ी के सहयोग से प्रस्तुत की जा रही है.  

शिवमंगल सिद्धांतकार ने नामवर सिंह को उनके प्रारम्भिक संघर्ष के दिनों से ही देखा है, वह उन्हें लगातार परखते रहें हैं. ये संस्मरण भक्ति भाव से नहीं लिखे गयें हैं. ख़ामियाँ और कमजोरियां आदमी में होती ही हैं. बड़े व्यक्तित्वों के अन्तर-विरोध भी बड़े होते हैं. 

प्रस्तुत है. 


ऐसे थे नामवर सिंह
अंतर्विरोधों का सामंजस्य
शिवमंगल सिद्धांतकर

 

ब मैं शिवचंद्र शर्मा के चीना कोठी वाले किराए के मकान में रहने लगा था तो एक दिन धोती-कुर्ताधारी एक लंबे कद का व्यक्ति वहां पहुंचा और शिवचंद्र शर्मा से मिलने की इच्छा जाहिर की.  मैंने कहा कि शर्मा जी तो एमएलए फ्लैट में चले गए हैं. आपको वहीं जाना पड़ेगा. मैं आपको पता दे देता हूं. इस पर उन्होंने कहा कि एमएलए  फ्लैट का पता मेरे पास है इसलिए पता देने की जरूरत नहीं है, मैं चला जाऊंगा. इसके बाद वे लौटने लगे तो मैंने कहा कि अपना नाम तो बताते जाइए. लेकिन मेरा नाम पूछना उनको शायद बुरा लगा होगा. इसलिए यह कहते हुए कि नाम जानकर क्या कीजिएगा और चलते बने.   

वे चले गए और मैं मकान के अंदर जाकर अपने काम में लग गया. शाम को जब मैं एमएलए फ्लैट  पहुंचा तो पाता हूं कि वही व्यक्ति लुंगी और बनियान में फ्लैट के अंदर बैठा हुआ है और शिवचंद्र जी से बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही मेरा परिचय कराते हुए शर्मा जी ने कहा कि आप नामवर सिंह हैं. मैंने उनको प्रणाम किया और बिना कुछ कैफियत दिए हुए कि यह व्यक्ति चीना कोठी आए थे, हॉल में ही बैठ गया. क्योंकि यदि मैं नामवर जी के चीना कोठी पहुंचने कि बात करता तो दोनों की बातचीत में हस्तक्षेप पड़ जाता. 

आधे घंटे के बाद जब दोनों की बातचीत चाय के हस्तक्षेप के साथ रुकी तो मैंने यह बतला देना उचित समझा कि नामवर सिंह पहले चीना कोठी आये थे. मैं यदि पहचानता होता तो इन्हें साथ ही लेकर आता. फिर नामवर सिंह ने कहा की खैर कोई बात नहीं, मैंने ही तो अपना परिचय नहीं दिया था. शर्मा जी के नौकर नंदू को मैंने कहा कि खाली चाय क्यों दे रहे हो, कुछ और भी ले आओ. नंदू ने बिस्किट और नमकीन कि एक तश्तरी हम लोगों के बीच रख दी. उसके बाद शर्मा जी की बड़ी पुत्री मंजूश्री ने एक खादी का कुर्ता और धोती नंदू को देते हुए कहा कि जाओ अभी आयरन करा कर लाओ. कपड़े छोड़ कर मत आना. अपने सामने ही करवाना क्योंकि अंकल से मिलने कितने ही लोग आने वाले हैं. नंदू चला गया और आयरन कर के कपड़े ले आया. फिर मैंने शर्मा जी को एकांत में ले जाकर पूछा कि नामवर जी यहीं रहेंगे या खाना खाने के बाद उन्हें कार्यालय ले जाऊं

उन्होंने कहा कि नहीं यहीं खाना खाएंगे और यहीं ठहरने की व्यवस्था हो जाएगी. अगर असुविधा महसूस करेंगे तो आउट हाउस में सुला दूंगा. मैं चीना कोठी चला गया.  मैं इसलिए भी जल्दी चला गया क्योंकि मेरे पहुंचने के बाद उन दोनों की बातचीत में नामवर जी की तरफ से कुछ असहजता दिख रही थी.

अगले दिन ग्यारह बजे के आसपास मैं दोबारा एमएलए फ्लैट आया तो पाया कि नामवर जी सहज हो चुके हैं और प्रणाम करते ही उन्होंने कहा कि मैंने भी आपको नहीं पहचाना था कि आप दृष्टिकोण में छपे रॉबर्ट फ्रास्ट वाले लेखक शिवमंगल जी हैं नहीं तो मैं वहीं रुक जाता और आपके साथ ही आ जाता. उसके बाद उन दोनों में खुलकर बातचीत हो रही थी और कुछ बातें दोहराई भी जा रही थी. अब बातचीत में मैं भी शामिल था. 

मैंने नामवर जी को शिवचंद्र जी से कहते सुना कि यदि नलिन जी होते तो मुझे पटना यूनिवर्सिटी में रख लेते. शिवचंद्र जी ने कहा कि अगर वे होते  तो कोई समस्या ही नहीं थी. फिर उन्होंने कहा कि मैं जल्द से जल्द प्राध्यापकी पा लेना चाहता हूं. उन्होंने शिवचंद्र जी से कहा कि आप कुछ कर सकते हैं तो बताइए. उन्होंने शिवचंद्र जी से यह भी कहा कि जो लोग आपको एमएलए बना सकते हैं, वह मुझे  प्राध्यापक क्यों नहीं बना सकते?  इसलिए मैं चाहता हूं कि आप प्रयास करें. आज मैं मुजफ्फरपुर चला जाऊंगा जब लौटूंगा तो फिर मिलूंगा. मुजफ्फरपुर  विश्वविद्यालय में या बाहर मेरा एक व्याख्यान रखा है, इससे कुछ पैसे तो मिलेंगे ही फिर मुझे दौड़- धूप करने में आसानी हो जाएगी. मुजफ्फरपुर में राजेंद्र प्रसाद सिंह के यहां मुझे ठहरने का निमंत्रण है. वे भी शायद कोई गोष्ठी आयोजित कर रहे होंगे. जानकी वल्लभ शास्त्री जी से भी मिलूंगा और उनके सामने भी अपनी समस्या रखूंगा. वे शायद कुछ कर सकें. 

यहाँ यह बतला देना जरूरी लगता है कि नामवर सिंह को सागर विश्वविद्यालय से इसलिए विदा लेना पड़ गया था कि वह किसी आपत्तिजनक अवस्था में पाए गए थे और फिर वहां के कुलपति ने इनका त्याग पत्र लेकर उन्हें विदा कर दिया था.  इस प्रसंग में नामवर सिंह जी के गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की उक्ति मैं बता देना चाहता हूं. उनकी राय में  "यौन विचलन को मैं क्षम्य मानता हूँ."

1967में पटना कॉमर्स कॉलेज की लेक्चरशिप को आगे बढ़ाने की बजाय दोस्तों के दबाव में और अपनी इच्छा से बिना किसी से राय मशवरा किए हुए मैंने दिल्ली प्रस्थान का इरादा बना लिया. दो-तीन बड़े ट्रंक में अपनी किताबें भर ली और होल्डॉल में पर्स वगैरह रखकर दिल्ली के लिए उस रात प्रस्थान किया जिस रात पटना का खादी भवन जल रहा था और पुलिस ने चप्पे-चप्पे पर तैनात होकर कर्फ़्यू की स्थिति बना दी थी. खुद को और सामान को दो रिक्शों पर रखकर पटना जंक्शन पहुंचा और दूसरे दिन दिल्ली स्टेशन बहुत बुरी परिस्थिति में पहुंचा. किसी तरह बिना बताए हुए मुरली प्रसाद सिंह के मॉडल टाउन वाले किराए के मकान पर चला आया. जब मैं स्टेशन पर इक्के पर सामान लदवा रहा था तो नामवर सिंह दिखलाई पड़े थे और यह कहते हुए आगे बढ़ गए थे कि मुझे ट्रेन पकड़नी है. 

मुरली जी के यहां जब मैं ठहरा तो मुझे मुरली जी से ही पता चला कि नामवर सिंह भी इसी मोहल्ले में रहते हैं. दिवंगत देवीशंकर अवस्थी की पत्नी बगल में रहती हैं. अजित कुमार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शमशेर बहादुर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी तथा रमेश गौड़ भी इसी मोहल्ले में रहते हैं जिनको आप जानते हैं तथा और भी बहुत से लोग हैं जिन्हें आप नहीं जानते. मुरली जी के यहां ठहर तो गया किंतु कुछ पैसे एकत्र कर स्वतंत्र किराए का मकान लेना चाहता था. इसलिए सोचा कि अपनी लिखी हुई सामग्री को प्रकाशकों और संपादकों को देना शुरू करूं. फिर इस योजना का मैंने स्थगित कर दिया. यह अनुमान करते हुए की कुछेक लेख छपने से आएगा ही क्या?

एक दिन की घटना याद आती है. होली का हुड़दंग चल रहा था. लगभग सारे छोटे-बड़े लेखक जो मॉडल टाउन में रहते थे झुंड बनाकर रंग-अबीर के साथ एक-दूसरे के घर हमला बोल रहे थे. इसी सिलसिले में हम सब लोग सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के घर पहुंचे. हमारी टीम के लीडर नामवर सिंह थे. जैसे ही नामवर सिंह  सर्वेश्वर जी  को अबीर लगाने को लपके वैसे ही सर्वेश्वर जी ने नामवर सिंह को उठाकर पटक दिया. हम सभी लोग सन्नाटे में आ गए. तब कुछ लोगों को लगा कि हम लोगों को वहां नहीं आना चाहिए था क्योंकि हाल ही में सर्वेश्वर दयाल जी की पत्नी का देहांत हुआ है. नामवर सिंह समेत हम लोग दूसरों के घर जाने से पहले चौराहे पर ठिठके रहे. इसके बाद अजित कुमार के घर सभी लोग गए. सर्वेश्वर जी से अजित कुमार के परिवार का विशेष संबंध था. वहां अफसोस जाहिर करने के बाद सभी लोग सामान्य हो गए तथा गुजिया वगैरा मिष्ठान खाकर अपने-अपने घर चले गए.

इसके बाद मैंने समाचार भारती में उप-संपादक का पद संभाला लेकिन जल्दी उसे छोड़कर लगभग तीन साल तक के लिए दिल्ली से बाहर रहा और दुबारा जब मैं अपने मित्र कामेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव के साथ काठमांडू की यात्रा करते हुए 1970के अप्रैल में दोबारा दिल्ली वापस आया तब हम मुरली जी की किराय के मकान मैं टैगोर पार्क में ठहरे. तब तक पटना से दिल्ली तक कानों कान खबर पहुंच गई थी कि मैं नक्सलबाड़ी आंदोलन अभियान से वापस लौटा हूं तो नामवर सिंह ने तंज कसने के स्वर में मेरे मित्रों से कहना शुरू किया कि सुना है क्रांति और उप क्रांति आए हुए हैं. जिस पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया और ना ही उनसे दूरी बनाने की कोशिश की.

यहीं यह बतलाना चाहता हूँ कि काठमांडू से लौटने के बाद पटना में मैं एक फैंसी कंबल ओढ़ कर चलता-फिरता होता था तो उस यात्रा के दौरान लोगों ने उड़ा दिया था कि मैं चीनी दूतावास से एक रिवाल्वर लेकर आया हूं और उसे अपने साथ रखता हूँ और उसे छिपाए रखने के लिए कंबल ओढ़े रहता हूं.

आलोचना की ओर से 1974में नामवर सिंह ने विष्णु खरे द्वारा प्रगतिशील आंदोलन पर लिखित परिसंवाद आयोजित करवाया जिसमें विचार रखने के लिए विष्णु खरे ने मुझे भी आमंत्रित किया था. इस परिसंवाद में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह को विषय प्रवर्तन करना था जिसका परिपत्र जारी किया गया था. उस परिपत्र को पढ़ने के बाद अपना विचार मैंने लिखित तौर पर तैयार किया और नई दिल्ली के जिस हॉल में आयोजन किया गया था उसमें औरों के साथ मैंने भी अपना आलेख पढ़ा. उस आलेख में मैंने काफी तीखे तेवर के साथ अपने विचार रखे और कई नामी-गिरामी प्रगतिशीलों को निशाना बनाया. अक्सर बुद्धिजीवियों के गंभीर परिसंवादों में तालियां नहीं बजतीं लेकिन मेरे विचार ने कई बार तालियां बटोरी. आलेख के अंत में कुछ ऐसे विचार मैंने रखें जिससे नामवर सिंह केजीबी के एजेंट साबित संकेतित होते थे. इस पंक्ति को पढ़ने के साथ लगभग पूरे हाल में तालियां बजीं और नामवर सिंह की तरफ इशारा करते हुए विष्णु खरे जैसे कई बुद्धिजीवियों ने कहा कि लीजिये आपको भी एक उपहार मिल गया.

नामवर जी ने कोई झुंझलाहट या तिलमिलाहट नहीं दिखाई किंतु 1974के आलोचना के अंक में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के आधार पत्र के साथ ही मेरा विचार आलेख भी प्रकाशित हुआ जिसमें वह अंश जो परोक्ष रूप से ही सही नामवर सिंह को केजीबी एजेंट साबित संकेतित करता था उसे हटा दिया गया था.

मैंने और कई लोगों ने भी जब नामवर सिंह से शिकायत कि मेरे आलेख की आखिरी पत्तियां क्यों हटा दी गईं तो उन्होंने जवाब दिया कि मैंने तो कुछ नहीं किया मोहन गुप्त ने प्रूफ देखते समय उसे हटा दिया होगा या हट गया होगा. मैंने इस बात को आगे तूल नहीं दिया.

संयोग ऐसा बैठा कि नामवर सिंह जोधपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी से त्यागपत्र देकर हिंदी संस्थान आगरा आये. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए बतौर विशेषज्ञ नामवर सिंह को बुलाया गया. पूर्व नियोजित योजना के तहत उन्होंने सावित्री चंद्रा की नियुक्ति कर दी जो यूजीसी के चेयरमैन सतीश चंद्रा की पत्नी थी. फिर सतीश चंद्रा ने निर्धारित प्रक्रिया अपनाते हुए नामवर सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर नियुक्त कर दिया. उस समय से आज तक भारतीय भाषा विभाग का जो पाठ्यक्रम मार्क्सवादी नजरिए से बना हुआ है वह नामवर सिंह की देन है. इसलिए नियुक्ति में कुछ लोगों की निगाह में आपत्तिजनक प्रक्रिया अपनाए जाने के बावजूद मेरी निगाह में यह जरूरी कदम था.

जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह की नियुक्ति के खिलाफ कुछ लोग अदालत चले गए थे. ऐसे हालत में नामवर सिंह का जोधपुर विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देना और आगरा हिंदी संस्थान का निदेशक पद पाना इसलिए भी जरूरी था कि नामवर सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आरंभिक वेतनमान में काम करना पड़ता जबकि संस्थान के निदेशक बन जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए नियमानुसार जरूरी हो गया था कि संस्थान में जितनी तनख्वाह मिलती थी उसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कम नहीं कर सकता था. इस तरह से जोधपुर से आगरा संस्थान होते हुए नामवर सिंह का सतीश चंद्रा के सहयोग से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनना मेरे लिए आलोच्य नहीं था.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद संभालने के बाद संयोग से नामवर जी ने सर्वोदय एनक्लेव में जो कोठी किराए पर ली उस मोहल्ले में बी-96मकान में मैं पहले से ही रह रहा था जिससे होकर ही नामवर सिंह जी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाना होता था. जब उन्हें पता चला कि मैं अमुक मकान में रहता हूं तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाते समय अपनी कोठी की चाबी मेरे यहां रख जाते थे. वह इसलिए कि उनके पुत्र विजय मास्को से इंजीनियरिंग पढ़कर आ चुका था और फरीदाबाद में किसी कारखाने में काम करने लगा था. जो अपने काम से लौटकर मेरे यहां से चाबी ले लेता था और नामवर जी की कोठी में चला जाता था क्योंकि दोनों बाप-बेटे एक साथ ही रहते थे. 

लोग बताते हैं कि नामवर सिंह जी बड़े कंजूस थे. यहां तक कि पान खाते समय भी जो लोग साथ होते थे वही पान का दाम भुगतान करते थे. डुप्लीकेट चाबी बनवा सकते थे,कंजूसी की  वजह से ही वे शायद ऐसा नहीं कर पाए होंगे. उनका बेटा विजय चाबी ले जाते हुए या रखते हुए मेरे घर आने लगा था और थोड़ा बहुत घुल-मिल गया था. मेरी पत्नी और कवि शीला  सिद्धांतकर को बतौर शिकायत उसने बताया था कि पिताजी मां को साथ में नहीं रखते. मेरे चाचा ही मेरी मां की देखभाल करते हैं. इस बात से स्त्री पक्षधरता की कवयित्री शीला सिद्धांतकर वैसे ही नाराज रहती थी, जैसे इस तरह की हरकत के लिए अपने अन्य बुजुर्गों पर नाराज रहती थी. शीला के अंदर नामवर जी के प्रति अव्यक्त आक्रोश इतना अधिक भर गया था कि उन्होंने नामवर सिंह जी को नमस्कार करना भी छोड़ दिया था.

एक दिन की घटना याद आती है कि मेरे यहां सर्वोदय वाले मकान के ड्राइंग रूम में बैठे हुए नीलाभ और पंकज सिंह  घर का बना आंवले का मुरब्बा खा रहे थे कि इसी बीच नामवर  सिंह जी चाबी के लिए पधारे. दरवाजा तो खुला ही था, अंदर आए तो उन्होंने कहा कि आप लोग सौभाग्यशाली हो मुझे तो कभी मुरब्बा मिला नहीं. ऐसी परिस्थिति में मेरी जगह कोई भी होता तो यही कहता है कि आप भी बैठिये और मुरब्बा खा लीजिए लेकिन मैंने बैठने के लिए कहे बिना ही चाबी थमा दी. कारण यह था कि शीला इस स्तर तक जा सकती थी कि अगर मैं उनसे आग्रह करता कि एक प्लेट नामवर सिंह जी को भी दे दो तो उन्हें इनकार करने में देर नहीं लगती. शीला सिद्धांतकर कविता में ही नहीं व्यवहार में भी इस बात की पक्षधर थी कि जो पति अपनी पत्नी और बच्चों को साथ रखकर उनका ख्याल नहीं करता वह कतई प्रगतिशील और मानवीय नहीं हो सकता.

इस तरह चाबी रखने अथवा वापस लेने के लिए लगभग रोजाना उनका आना होने लगा. बाहर से या दिल्ली का कोई बड़ा लेखक उनके पास आता तो अक्सर उसे लेकर मेरे पास आते और इस बात का जिक्र करते थे कि शिवमंगल जी ने "निराला और मुक्त छंद"नाम की पुस्तक लिखी है जिसे मैकमिलन ने छापा है. इसके अतिरिक्त नामवर जी ने कोशिश की कि मैं एकेडमिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका की तरफ ध्यान दूं. मैंने नामवर जी को साफ-साफ बता दिया कि मैं साहित्येतर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता हूं इसलिए क्लास लेने के अलावा कोई एकेडमिक काम नहीं करता. समय मिलने पर कुछ ना कुछ लिखने का काम जरूर करता हूं. कभी-कभी विश्वविद्यालय जाने के पहले नामवर जी मेरे यहां रुक कर निराला की कविताओं के विषय में विचार-विमर्श करते होते थे. 

एक दिन निराला के एक शब्द प्रयोग पर मेरी राय जानने की इच्छा जाहिर की तो मैंने कहा कि इस शब्द के बारे में आप मुझसे बेहतर समझ रखते होंगे. उन्होंने कहा कि मैं बनारस की परंपरा से आता हूं जहां विचार-विमर्श को महत्व दिया जाता है. इसलिए ही आपसे विचार-विमर्श  कर जान लेने में मैं संकोच नहीं करता. हमारे बीच इस तरह की बातें हुआ करती थी. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैंपस में कभी-कभी मैं जाया करता था जहां मेरे विचारों से जुड़े हुए बहुतेरे छात्र नामवर सिंह जी के शिष्य थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैंपस में बहुत से एक्टिविस्ट होते थे जिनसे मिलना-जुलना बनता था.

उस समय आलोचना के एक अंक के संपादकीय में नामवर सिंह जी ने रेखांकित किया था कि नक्सलबाड़ी आंदोलन और संविदा सरकारों का गठन हमारे साहित्य में एक प्रस्थान बिंदु की तरह देखा जा सकता है. इस बात से भी मेरा लगाव उनसे बढ़ता जा रहा था. नामवर सिंह जी लगातार आग्रह करते थे कि मैं आलोचना में लिखूं. हम दोनों के बीच तय हुआ कि मौजूदा प्रस्थान बिंदु को ध्यान में रखते हुए आज की कविता का चरित्र मैं आलोचना के कई अंकों में उद्घाटित करूं. किसी तरह से समय निकालकर मैंने आज की कविता का चरित्र की पहली किस्त उन्हें दी .

'आज की कविता का चरित्र'नामक मेरा लेख 1974के आलोचना के जिस अंक में छपा था और जिसमें मैंने आलोक धन्वा की एक कविता पर टिप्पणी की थी. उस को रेखांकित करते हुए नामवर सिंह ने उस अंक के अपने संपादकीय में लिखा था कि शिवमंगल सिद्धांतकर अपने पक्ष के कवियों पर भी टिप्पणी करते हुए नहीं चूकते जैसा कि मैं शिवमंगल सिद्धांतकर के लेख 'आज की कविता का चरित्र'का अवलोकन करते हुए पा रहा हूं.

किंतु इसके बाद कुछ ऐसी समस्या खड़ी हो गई कि उन्होंने अगली किस्त के लिए आग्रह करना छोड़ दिया. हुआ यह था कि 'हिरावल'के पहले अंक में मैंने एक संपादकीय टिप्पणी लिखी जिसका शीर्षक था 'नामवर सिंह का अंध कलावाद'[i].

इस छोटी  टिप्पणी में जो कुछ मैंने लिखा था उससे नामवर सिंह जी तिलमिला गए जबकि लोग कहा करते थे कि किसी भी आलोचना से नामवर जी तिलमिलाते नहीं है. उनकी तिलमिलाहट का पता मुझे तब चला जब किसी शाम के वक्त मैं सर्वोदय एनक्लेव से बाहर निकल रहा था और नामवर सिंह भी निकल रहे थे . हम दोनों संयोगवश अगल-बगल हो गए फिर उन्होंने कहा कि शिवमंगल जी हम लोग भी धारदार हुआ करते थे किंतु गुरुवर ने हमें कुंद कर दिया और इसे लंबी यात्रा के लिए जरूरी बता दिया.

मैं समझ तो गया लेकिन इस बात को आगे बढ़ाने की बजाय दूसरी बातें हम लोग करने लगे. बात करते-करते  कमलेश जी के आवास पर पहुंचे. मेरे पहुंचते ही  कमलेश जी ने कहा कि 'निराला और मुक्तछंद'आपकी पुस्तक मैंने पढ़ी. मैं तो चाहता हूं कि आंदोलनों को ज्यादा से ज्यादा समय देने के बजाय आप अपने लेखन को समय दें तो बड़ा काम हो सकता है. मैं खामोश रहा फिर और कई बातें होती रही जिनमें मैं लगभग  खामोश ही था. नामवर जी ने कहा कि शिवमंगल जी कुछ बोलेंगे नहीं बस लिख देंगे. इस बात पर भी मैं कुछ नहीं बोला. थोड़ी देर कुछ बातें चलती रही. मैंने कहा कि एक आवश्यक काम से मुझे घर वापस जाना जरूरी है इसलिए  मैं जाना चाहूंगा और नमस्कार करके चला गया.

इस तरह मेरी टिप्पणी पर नामवर जी की प्रतिक्रिया मुझे प्राप्त हो गई और आलोचना में लिखने का आग्रह भी समाप्त हो गया. लेकिन हम दोनों के संबंधों में कड़वाहट नहीं आई और हम जब भी कहीं मिलते थे तो असहजता के लक्षण नहीं दिखते थे. अकसर मैं अपने साहित्यिक आयोजनों में नामवर जी को बुलाता था और वे खुशी-खुशी आते भी थे. मुझे याद है कि गोरख पांडे की मृत्यु के बाद जेएनयू सिटी सेंटर में लगभग सभी छोटे बड़े लेखक गोरख पांडे की शोक सभा में आए थे उस सभा में नामवर सिंह ने कहा था की आत्महत्या बड़ी बहादुरी का काम है. गोरख पांडे एक बहादुर कवि थे इत्यादि इत्यादि.

नामवर सिंह ने जब राष्ट्रीय सहारा का पदभार संभाला तो मुझे बहुत बुरा लगा. इससे भी ज्यादा बुरा मुझे तब महसूस हुआ जब सुब्रत राय के पुत्र और उनकी बहू के राष्ट्रीय सहारा के  कार्यालय में पहुंचे और नामवर सिंह जी के मेज पर पहुंच कर उनके प्रति मुखातिब हुए तो उन्होंने कुर्सी से उठकर करबद्ध उन्हें प्रणाम किया. मैं इस बात से काफी आहत था कि नामवर सिंह जैसा व्यक्ति सेठों के पास सेवक भाव से नजर आए. इसी समय नामवर सिंह ने विश्व सामाजिक संगठन पर भी एक बयान दे दिया था. इनकी इन दोनों हरकतों से मैं इतना परेशान था कि कर्ण सिंह चौहान ने जब हाउस ऑफ कल्चर की तरफ से राजेंद्र भवन ऑडिटोरियम में एक बैठक बुलाई और मुझे भी वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया तो मैं विषय पर तो ज्यादा नहीं बोला लेकिन साहित्यकारों के सेठाश्रयी होने और विश्व सामाजिक संगठन की तरफदारी के लिए नामवर सिंह की कड़ी आलोचना की. 

नामवर सिंह की सांकेतिक हरकतों से मैं इतना परेशान हो गया था जितना मुझे नहीं होना चाहिए था. उस समय वह चित्र भी मेरे आंखों के सामने नाच रहा था जब अपनी पत्नी के दाह संस्कार के अवसर पर सुब्रत राय के पहुंचने की आशा में वे आवभगत की मुद्रा में खड़े थे. उनके पहुंचते ही उन्हें लेकर वे पुष्पांजलि देने के लिए एस्कॉर्ट करते हुए निश्चित स्थान पर ले गए. नामवर सिंह की अकसर मैं आलोचना किया करता था लेकिन इसका वे बुरा नहीं मानते थे. मिलने पर प्रेम भाव से ही मिलते थे. राजा राममोहन राय नेशनल लाइब्रेरी परचेज कमेटी के चेयरमैन की हैसियत से जो भूमिका वे अदा कर रहे थे वह भी आलोच्य थी. दुनिया का हर बड़ा लेखक किसी ना किसी सीमा तक सत्ता विरोधी,  व्यवस्था विरोधी, विचार रखता होता है किंतु नामवर सिंह इसके अपवाद लगते हैं जिसकी हम शिकायत करते होते हैं. इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए दो कविताएँ भी मैंने लिख दी थी जो 'काल नदी'[ii]कविता संग्रह में प्रकाशित है.


एक और बात  याद आती है इसका उल्लेख करना मैं इसलिए जरूरी समझता हूं कि राजेंद्र भवन में शिवपूजन सहाय समग्र का लोकार्पण समारोह उनके पुत्र मंगलमूर्ति ने आयोजित किया था जिसमें मेरी कोई खास भूमिका नहीं थी किंतु शिवपूजन जी के प्रति आदर भाव रखने की वजह से मैंने इसमें  पहुंचना जरूरी समझा. मैं जैसे ही हॉल में घुसा तो पहली पंक्ति में बैठे हुए मैनेजर पांडे और नामवर सिंह पर नजर दौड़ाई कि तपाक से मैनेजर पांडे ने कहा की लीजिए टॉलस्टॉय आ गए. इस पर उनके बगल में बैठे नामवर सिंह ने कहा कि टॉलस्टॉय तो लंबे थे. मैनेजर पांडे के मुझे टॉलस्टॉय कहने की वजह जरूर यह रही होगी कि मैं मास्को मेड ओवरकोट  पहने हुए था. इस तरह से व्यंगपूर्ण अथवा हास्यपूर्ण बातों के बाद मैं अपनी जगह पर बैठ गया. इस घटना का उल्लेख गैर जरूरी लगते हुए भी जरूरी है क्योंकि इससे नामवर सिंह जी की मानसिकता का पता चलता है क्योंकि नामवर सिंह ने शायद टॉलस्टॉय को लम्बा बताते हुए मुझे छोटा बताने की जरूरत समझी हो. यह अलग बात है कि इन टिप्पणियों को मैं हास- परिहास से ज्यादा महत्व नहीं देता हूँ.

दिल्ली पुस्तक मेले के समय राजकमल प्रकाशन के यहां नामवर सिंह जी का दरबार लगता था और दिल्ली के बहुत से छोटे-बड़े लेखक वहां विराजमान मिलते थे. मैं कभी इसमें नहीं गया. एक प्रतिष्ठित साहित्यकार को नामवर सिंह से मिलने जाना था तो मैंने उनका साथ देने के लिए जब आनाकानी की तो उन्होंने कहा कि चलिए नामवर सिंह जी तो आपका बहुत सम्मान करते हैं. उनके आग्रह पर बेमन से ही सही मुझे जाना पड़ा तो नामवर सिंह ने पहुंचते ही कहा आइये सिद्धांतकर जी बैठिये.  मैंने उनको नमस्कार करके बैठने के बजाए सेल्फ में तब तक किताबें देखता रहा जब तक कि जिन साहित्यकार के  साथ मैं आया था उन्होंने नामवर सिंह जी से अपनी बात पूरी नहीं कर ली. उस दिन मैंने देखा हिंदी के लेखक नामवर सिंह के सामने और राजकमल प्रकाशन के दरबार में कितने दयनीय लगते हैं. दरअसल मैं किसी भी लेखक को बड़े से बड़े प्रकाशक से बड़ा मानता हूं. इसलिए पुस्तक प्रकाशन के लोभ-लालच में प्रकाशक के सामने जब उन्हें अवनत देखता हूं तो मुझे ग्लानि का अनुभव होता है. निश्चित तौर पर लेखक के स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए एक समय में सहकारी प्रकाशन लेखकों द्वारा लेखकों के लिए और पाठकों के लिए गठित किए जाने का मित्रों के सामने प्रस्ताव मैंने रखा था. मुझे याद आता है कि एक बार हिरावल की एक संपादकीय टिप्पणी में मैंने लिखा था कि हमारे लेखक शराब पीने, बच्चों की शादी-विवाह और अन्य पारिवारिक उत्सवों में जमकर पैसे खर्च करते हैं किंतु अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के पास गिड़गिड़ाते हैं. 

नामवर सिंह हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर उत्तर आधुनिकता तक की गंभीर यात्रा  करते होते थे और कला वादियों, रसवादियों की बखिया उखड़ते हुए प्रगतिवादी मानववाद की स्थापना के लिए आजीवन काम करते रहे. यह अलग बात है कि मार्क्सवाद की गहरी जानकारी के अभाव के बावजूद गैर मार्क्सवादी समाज में कभी ऐसी तस्वीर नहीं पेश की कि सोवियत यूनियन के विघटन के बाद मार्क्सवाद से उनका मोह भंग हुआ क्योंकि वह जानते थे कि सत्तर साल के महा काव्यात्मक सोवियत यात्रा ने रूस और अन्य गणराज्यों को कमियों के बावजूद उतना अधिक  वर्चस्वशाली बना दिया था कि सोवियत यूनियन के विघटन के बाद दुनिया के लगभग सौ से ऊपर शिखर के वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, कलाविदों ने यह स्वीकार किया कि कम से कम न्यूक्लियर और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सोवियत यूनियन की ऊंचाइयों को अमेरिका भी नहीं छू पाया.

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका का विघटन भी 2001से अफगानिस्तान पर हमले के साथ ही शुरू हो गया था. जैसा कि सोवियत यूनियन का अफगानिस्तान पर हमला उसके विघटन के अनेक कारणों में से एक जरूर था. इसलिए नामवर सिंह जी की मृत्यु के बाद अपने शोक संदेश वाले बयान पर मैं अब भी कायम हूं कि नामवर सिंह की स्थापना से गुजरे बिना हिंदी की कोई महत्वपूर्ण आलोचना, अनुसंधान या विचार लेख समग्रता हासिल नहीं कर पाएगा.

आपातकाल लगने के बाद हम लोग मार्क्सवाद लेनिनवाद के सरकारी दृष्टि में आपत्तिजनक दस्तावेज और पुस्तकें अपने मित्रों के यहां पहुंचाते रहे थे. उस समय मैं सर्वोदय एनक्लेव वाली नामवर सिंह की कोठी पर गया और उनसे अनुरोध किया कि कुछ दस्तावेज और पुस्तकें मैं फिलहाल आपके घर में रख देना चाहता हूं. इस पर वे बहुत मायूस हो गए और बहुत घबराहट के स्वर में कहा कि शिव मंगल जी यदि रात में ठहरना हो तो मेरे यहां आ सकते हैं लेकिन सामग्री रखने के लिए मत कहिए. फिर मैंने ठहरने का प्रस्ताव भी बिना कुछ बोले हुए अपने मन में अस्वीकार कर लिया. प्रत्येक रात मैं कहीं ना कहीं आश्रय ले लेता था. अकसर मैं आई आईटी में अपने प्रोफेसर मित्रों के यहाँ सो जाया करता था. यहीं यह लिख देना भी जरूरी है कि नामवर सिंह की पार्टी के वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार रामशरण शर्मा ने खबर भिजवाई थी कि शिवमंगल जी कोई समस्या हो तो आप मेरे यहाँ ठहर सकते हैं. प्रोफेसर रणधीर सिंह ने भी ऐसा ही संदेश मेरे लिए भेजा था.

अपभ्रंश से शुरुआत कर कविता के नए प्रतिमान तक और दूसरी परंपरा की खोज से लेकर तमाम उनके साक्षात्कार और भाषण उनकी जानकारी की व्यापकता को तो बतलाते हैं किंतु मार्क्सवादी समग्रता और सामाजिक तथा राजनीतिक गहराई और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की समझ को परिलक्षित नहीं करती. इसलिए कभी-कभी उनकी आलोचना के विषय में चलते फिरते ही सही विपरीत टिप्पणियां करता रहा हूं जिससे जाहिर होता है कि नामवर सिंह जी और हमारे समय के जो मार्क्सवादी आलोचक कहे जाते हैं वे मार्क्सवादी आलोचक की परिभाषा पर खरे नहीं उतरते. इसलिए कि मार्क्सवादी अध्येता से आगे बढे हुए इन्हीं मैं नहीं पाता. मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह या अन्य लोगों को मैं तभी मानता यदि वे सिद्धांत और व्यवहार दोनों के उदाहरण पेश करते होते.

अपभ्रंश का हिंदी के विकास में योग, पृथ्वीराज रासो की भाषा, आज की कविता के नए प्रतिमान तथा अन्य उनके ग्रंथ और भाषण आदि से गुजरते हुए मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नामवर सिंह की आलोचना की यात्रा लंबी तो बनती है किंतु विशेषज्ञता दांव पर लग जाती है.

कविता के नए प्रतिमान उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है जो उनके लिए आधुनिक कविता की समझ के इतिहास में स्थान सुरक्षित करता होता है. इस पुस्तक की तमाम महत्वपूर्ण और महत्वहीन कतरनों की ओर आलोचना की तीसरी आंख की मुठभेड़ मैं पेश करना नहीं चाहता क्योंकि यहां इस आलेख को मैं मुख्यतः संस्मरण तक ही सीमित रखना चाहता हूं.

एक बात मैं और कह देना चाहता हूं कि मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में द्वारा मुक्तिबोध को प्रगतिशील कवि के रूप में स्थापित करने का उन्होंने ऐतिहासिक काम किया है और हर आलोचक से मैं अपेक्षा करता हूं की एक-दो आवश्यक कवियों और लेखकों को विशेष तौर पर स्थापित करें. जंगल तो बहुत लोग खड़ा करते ही हैं लेकिन जंगल के राजा की खोज के साथ ही जंगलराज बिखेरे बिना नहीं मानते. जिस खाते में लाखों आलोचनात्मक पुस्तकें अनछुई रह जाती हैं और अंततः दीमक को उन्हें निशाना बनाना पड़ता है.

सभी जानते हैं कि रामविलास शर्मा सर्वहारा तानाशाही को ध्यान में रखकर सर्वहारा जनवाद की समझ अभिव्यक्त करते रहते थे और अस्तित्ववाद को गैर मार्क्सवादी अथवा यूं कहें की मानव विरोधी मानते थे. मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में'को नामवर सिंह ने जिस तरह से स्थापित किया था उसके विपरीत इस कविता को अस्तित्ववादी बताते हुए रामविलास शर्मा ने एक लंबा लेख लिखा था जो आलोचना में ही छपा था. लोग बताते हैं कि अपने आसपास के लेखकों  से रामविलास शर्मा अक्सर कहा करते थे कि नामवर  सिंह कुछ पढ़ता-वढ़ता तो है नहीं जो कुछ मैं लिखता हूं उसे ही इधर-उधर करके अपना बना लेता है. 

नामवर सिंह से एक समय वे इतने नाराज थे कि उन्होंने नामवर सिंह से बातचीत बंद कर दी थी. फिर नामवर सिंह जी के गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने समझौता कराने का इस तरह प्रयास किया कि नामवर सिंह को लेकर आगरा रामविलास जी के आवास पर पहुंचे. दरवाजा खटखटाने पर रामविलास जी ने दरवाजा खोला तो गुरु-शिष्य खड़े मिले. नामवर सिंह को देखते ही वे इतने भड़क गए कि दरवाजा बंद करते हुए कहा कि इनको लेकर आये हैं. फिर दरवाजे के बाहर से ही गुरु- शिष्य वापस हो गए.

उल्लेखनीय है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जब वे प्राध्यापक बने थे तो उस समय उनकी क्लास में हिंदी ही नहीं बल्कि दूसरे विषयों के छात्र भी बड़ी संख्या में जा कर बैठते थे और जगह नहीं मिलने की स्थिति में खड़े भी रहते और उनका व्याख्यान सुनते होते थे.  यह योग्यता उनके अंदर अंत तक बनी रही. उनके बड़े से बड़े आलोचक भी उनकी व्याख्यान शैली की प्रशंसा जरूर करते थे.

जब मैं सत्यवती कॉलेज में पढाता था तो आरंभ में वह तिमारपुर के एक हाई स्कूल बिल्डिंग में चल रहा था. उस समय छात्रों की निगाहों में मैं ही एकमात्र प्रोफ़ेसर था, जिससे मज़ाक-मजाक में सहकर्मी कहते होते थे कि हम लोग पढ़ा-पढ़ा कर जान देते हैं और विद्यार्थी कहते होते हैं कि इस कॉलेज में तो एक ही प्रोफेसर है यानी शिवमंगल सिद्धांतकर. जब भी कॉलेज में वार्षिक उत्सव होता था तो उसकी जिम्मेदारी छात्र नेताओं की होती थी जो मुझ से आग्रह करते थे कि किसी नामी-गिरामी हस्ती को इस अवसर पर आमंत्रित कर दीजिए. एक बार नामवर सिंह को भी मैंने मुख्य अतिथि के रूप में वार्षिक उत्सव के अवसर पर बुलाया था. नामवर सिंह के नाम से बहुतेरे प्रगतिशील और कम्युनिस्ट कहे जाने वाले प्राध्यापक उनको सुनने के लिए पहुंचे हुए थे. नामवर सिंह ने प्रगतिशील चेतना और संस्कृति पर लगभग एक घंटे का भाषण किया और सब मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर एम.के. हालदार ने अपने स्वागत भाषण में वी वी जॉन  जैसों से जोड़कर नामवर सिंह की प्रशंसा की. डॉ .हालदार को यह पता नहीं था कि वह नामवर सिंह की निंदा कर रहे हैं क्योंकि वी. वी. जॉन सी आई ए के एजेंट माने जाते थे जैसे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'जैसे लेखक इत्यादि.

2012 में नवसर्वहारा सांस्कृतिक मंच का जब मैंने पुनर्गठन किया तो उसने नीलाभ को अध्यक्ष और शिव शंकर मिश्र को उपाध्यक्ष का पद दिया था. महासचिव की खोज थी जिसके लिए लोग आगे आना नहीं चाहते थे लेकिन आनंद स्वरूप वर्मा ने बिना किसी पद के साथ-साथ  काम करने की सहमति यह कहते हुए दे दी थी कि पता नहीं यहां कब तक टिक पाता हूं क्योंकि जहां-जाता हूं विवाद और विवाद के बाद विदाई ले लेता हूं. मुकेश मानस और अन्य उनके दोस्त स्वयं सेवा तो दे रहे थे किंतु पद लेने के लिए मैं उनसे आग्रह नहीं कर सकता था क्योंकि अनचाहे यदि वे पद ले लेते तो कालांतर में मेरा साथ उनके खिलाफ जा सकता था.

नीलाभ स्वतंत्र और प्रतिबद्ध साहित्यकार थे और जन संस्कृति मंच में मेरे साथ काम कर चुके थे. इसलिए मैंने अध्यक्ष पद के लिए उनसे अनुरोध किया और वे तैयार हो गए. ऐसे में मैंने सोचा की प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को नव सर्वहारा, नव सर्वहारा संस्कृति जैसी अवधारणाओं पर बातचीत के लिए एक सम्मेलन बुलाते हैं. जिसमें नामवर सिंह को मैंने मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित किया था. उन्हें आमंत्रित करने के लिए ओखला के अपने साथियों नरेंद्र और उदय को उनके आवास पर भेजा था. उन्हें नामवर सिंह ने तहे दिल से स्वागत दिया था. बताते हैं कि नामवर सिंह बहुत नजदीकी लोगों को भी चाय से ज्यादा कुछ नहीं खिलाते-पिलाते लेकिन हमारे साथियों को उन्होंने मिष्ठान खिलाया और मुख्य अतिथि के रूप में आने की स्वीकृति दे दी.

इस सम्मेलन में शिव शंकर मिश्र की पुस्तक 'बोलो कोयल बोलो'और बलदेव शर्मा की कविता पुस्तक 'घोड़े की आंखें'का लोकार्पण करना था. अध्यक्ष मंडल में नित्यानंद तिवारी, नीलाभ और बलदेव शर्मा की बड़ी बहन शामिल थी. मुकेश मानस ने कुछ कविताओं का पाठ किया अपने भाषण में आनंद स्वरूप वर्मा ने नव सर्वहारा की अवधारणा पर अपनी सहमति जताई और जन संस्कृति मंच की ओर से भाषा सिंह ने भी शिरकत की. प्रगतिशील लेखक संघ के सबसे बड़े स्तंभ नामवर सिंह तो मुख्य अतिथि थे ही. जनवादी लेखक संघ की ओर से भी कुछ लोगों ने भाग लिया था जिसमें भगवान सिंह, कांति मोहन इत्यादि उल्लेखनीय हैं.

हॉल खचाखच भरा था और बहुत से लोगों को खड़ा होना पड़ा था. उपस्थिति और व्याख्यान के लिहाज से सम्मेलन सफल रहा किंतु खाने-पीने का इंतजाम कैंटीन वालों ने जितने लोगों के लिए कर रखा था उससे दुगने-तिगुने लोग आ गए थे और खाना तैयार होने में थोड़ी देर भी हो गई थी.  नामवर सिंह को जब साथियों ने कहा कि खाना खाकर जाइए तो बोले थे कि हां सिद्धांत कर जी के साथ रोटी जरूर तोडूंगा लेकिन नीचे कैंटीन के पास पहुंचने पर उन्हें इरादा बदलना पड़ा और जिस व्यक्ति को उन्हें घर से लाने और वापस पहुंचाने की जिम्मेदारी थी उससे उन्होंने आग्रह किया कि मुझे घर छोड़ दो. वहां खाने वालों की संख्या देखते हुए शिव शंकर मिश्र जी के पुत्र सुशील मिश्र ने अपनी कार से उन्हें घर पहुंचा दिया. जीवित नामवर सिंह से यह मेरी अंतिम मुलाकात थी और उनकी मृत्यु के बाद लोधी रोड के श्मशान घाट पर उन्हें फूल चढ़ाने में जरूर गया था.

सन्दर्भ


[i]नामवर सिंह का अंध कलावाद
आलोचना के उनतीसवें अंक के संपादकीय में नामवर सिंह जब प्रत्येक विचारधारा के लोगों कि वाहवाही को उच्चस्तरीय  रचना का प्रतिमान घोषित करते हैं तो अंध लोकवाद की  प्रतिक्रिया में अंध कलावाद  के  इजहार बन जाते हैं. 
फिर मार्क्सवादी विश्व दृष्टि को अंध राजनीति में परिणति होने के खिलाफ जब वह खड़े होते हैं तो साहित्य दृष्टि को ही विश्व दृष्टि करार देने की सावधान भूल कर जाते हैं. 
तेलंगाना के जन संघर्ष के विरुद्ध जवाहरलाल नेहरू के अवतरण को त्रासदी और नक्सलबाड़ी के जन- उभार के विरुद्ध इंदिरा गांधी के अवतरण को जब वह प्रहसन बतलाने की राजनीतिक दृष्टि का परिचय देते हैं तो जाहिर है कि दूसरों की भूल से लाभ उठाना खुद अच्छी तरह जानते हैं किंतु अपनी भूल को सही नाम देना, उसका निदान ढूंढना और इलाज का उपक्रम करना कहीं से नहीं चाहते.
इसीलिए वह साहित्य और राजनीति में टकराव की स्थिति देखते और दिखलाते फिरने से चूकते नहीं, इसके लिए अंतोनियो  ग्राम्शी और प्रेमचंद तक जैसे सर्जनशील और निष्ठावान चिंतकों को अपनी निष्ठाहीन, दिशाभ्रांत और स्वयं कल्पित अंध कलावादी स्थापनाओं के लिए अनुकूलित कर ले जाते हैं. वास्तविकता तो यह है कि जिस तरह गलत और दिशाहीन साहित्य के खिलाफ सही और दिशा पूर्ण साहित्य संघर्ष और टकराव की स्थिति में होता है ठीक उसी तरह राजनीति भी गलत साहित्य के खिलाफ हस्तक्षेप के रूप में उपस्थित होती है. सही राजनीति और सही साहित्य में टकराहट और संघर्ष का सवाल ही नहीं बनता. सही साहित्य की मशाल यदि सही राजनीति के आगे चले तो इसमें सही राजनीति को एतराज नहीं हो सकता है, क्योंकि दोनों की अंतर्वस्तु एक होगी, शैली का फर्क हो सकता है. साहित्य और राजनीति को आगे और पीछे दिखलाने के पीछे पिछलग्गूपन का विरोध प्रधान नहीं है, सामाजिक व्यक्तित्व की हीनता का बोध प्रधान है. सामाजिक व्यक्तित्व से पूर्ण साहित्यकार न तो राजनीति के आगे होता है न ही पीछे, वह वहां- वहां होता है, जहां-जहां जनता और जनता की राजनीति उसे ले जाती है, क्योंकि उसका साहित्य जनता की कोख से पैदा  होता है और जनता की सेवा उसका लक्ष्य होता है, ठीक वैसे ही जैसे जब नेतृत्वकारी व्यक्तित्व भी जनता की कोख से पैदा होता है और उसी की सेवा को अपना लक्ष्य बनाता है. साहित्यकार के द्वारा राजनीतिक का पिछलग्गूपन राजनीतिज्ञ के द्वारा साहित्यकार का निर्देशन दिखलाना स्वयं कल्पित  फसाद है जिसे सामंती संस्कार में शुमार किया जाना चाहिए, नासमझ साहित्य और नासमझ राजनीति में शुमार किया जाना चाहिए .
ऐसी स्थिति में यह बतलाना शायद बेअसर ही होगा कि संपादक ने परिसंवाद को भीजिस पर आलोचना का संपादकीय आधारित है, अनुकूलित करने का यथासंभव प्रयास किया है, अन्यथा सुरेश सलिल और योगेंद्र शर्मा आदि वक्ताओं की टेपित टिप्पणियों को दृश्य तर निर्देशित संपादकों की तरह हज़म कर जाने का कोई तुक नहीं था. विष्णु खरे की टिप्पणी भी अनुपस्थित है. विष्णु खरे का मामला आलोचना परिवार कलह का मामला हो सकता है.
आलोचना संपादक यदि आज के 'अग्निवर्षी, लेखकों की अग्निवर्षा से बचने के लिए इस दौर की एक दर्जन पत्रिकाओं और उनसे जुड़े हुए तीस-चालीसेक लेखकों की परिवर्तनकारी गुणात्मक उपस्थिति के 'आभास'की ओर अमूर्त तरीके से इशारा कर जाते हैं तो उन्हें तारांकित कर देना चाहिए कि आज का क्रांतिकारी लेखक किसी आलोचक के अंक प्राप्त करने के लिए नहीं लिख रहा है, उत्पीड़न  और अशिक्षित जनता का मखौल उड़ाने के लिए नहीं लिख रहा है, शब्दों की बहादुरी बिखेरने के लिए नहीं लिख रहा है, वह जनता के प्रति निष्ठावान है और उसके गुण तथा अवगुण के बयान और स्थितियों की पहचान उसी से पाकर नए साहित्यिक रूपों में डालकर उसी को पहुंचाने और उसी से दिशा-संकेत पाने और देने के लिए लिख रहा है. आलोचक संपादक कहना चाहे तो कह लें कि कमबख्त ने यथार्थ देखा जरूर है, दिशा भी ठीक- बे ठीक दे ही डाली है किंतु उबड़-खाबड़ उसकी कलात्मकता हमारे महीन मिज़ाज़ को चुभती रहती है. वास्तविकता तो यह है कि आज का लेखक फैशनफरोश नहीं, मौजूदा क्रांतिकारी परिस्थितियों के दबाव की उपज है न कि राजनीति वाद का शिकार है. वह ऐसे ढुलमुल- यकीन  बुद्धिजीवियों में शुमार होना नहीं चाहता जो जीत के आगे और हार के पीछे भागते हुए नजर आते हैं.
एक बात और कि यह आलोच्य संपादकीय उपदेश तो संयुक्त मोर्चा और एकता का देता है किंतु अपनी सेहत से गौरव-मंडित वह मार्क्स का नाम लेकर गलत पते पर यानी बेरोजगार और फटेहाल रचनाकारों में टुटपूँजिया मध्यवर्गीय जलन ढूंढता फिरता है और मजदूर-किसानों के स्वयं कल्पित गौरव मंडित स्वरूप को न जाने क्यों चिढाता होता है.
प्रहसनकारी चकाचौंध में पड़े हुए आलोचना संपादक व्यवस्था में रहकर व्यवस्था के विरोध का स्वप्न देखा करें और खुद जो कहना चाहें, कहें, मार्क्स,ग्राम्शी और प्रेमचंद जैसे सामाजिक व्यक्ति, व्यक्तित्वों को बदनाम न करें अन्यथा मार्क्सवादी आलोचना के इतिहास को माफ करने में शायद मुश्किल पड़े.
 
 
बथानी टोला और साहित्यकार: 1
आज अखबार की जब दस्तक हुई देखता हूं :
जनता के आदमी के केंद्र में आ गए हैं कुछ साहित्यकार
कुछ हाशिये पर चक्र की ओर चले गए हैं
कि शब्दों का चकलाघर चलाते रहे स्वार्थ और इस्तेमाल का पानी बदल लेते हैं लोग
शब्द शिल्पी हैं
'जनता का आदमी'जब जनसंहार जैसे
सवाल के प्रचार को
ओछी हरकत कहता  होता है
पता है, उसे खूब पता है,
नक्सली मुखौटे को भुनाते-भुनाते हुए कि रणवीर सेना की ओर से यह
गोली दागो पोस्टर'हो जाता है
सरदिहि-दंतार  बन जाता है
प्रतिबद्धों की हरकत पर शर्म से झुका हुआ हूं
क्या कहूं
किस-किस को कम से कम जो
नग्न दावेदारी तो नहीं करते होते हैं नामवर और आलोक धन्वा इत्यादि की तरह
जो पाला पाले रखते हैं
सच को झूठ करार देते होते हैं
(14/8/96)
 
 
बथानी टोला और साहित्यकार 2 
नए बर्बर सामंती हाथों से
जब
चक्कर और कमल हाथ मिलाते होते हैं हाथ से भी ज्यादा बर्बर बन जाते हैं करेले पर नीम चढ़ा
लोकोक्ति तब
दम तोड़ती हुई नज़र आती है
कविता अपनी सीमाएं तोड़कर
ज्यादा कुछ कहने को
मजबूर हो जाती है
किंतु आलोकमंडित कवि और नामवर आलोचक लोग भी
बथानी नरसंहार और उपचार के सवाल पर
दो चार करने पर आमादा लगते हैं
राजा राममोहन राय को लाल सलाम कर
कैसे नामवर आलोचक नरसिंहावतार धारण कर लेते हैं
कैसे कुछ लोग
सुखराम को गले लगाकर
चारा घोटाले बाज
नए कृष्णावतार से
पुरस्कार पाकर
गदगद हो
दुंदुभि बजाते होते हैं
नए कंस के द्वार पर
शब्द शिल्पी हैं
स्वार्थ और इस्तेमाल का मानी बदल देते हैं
चक्र,कमल और हाथ को
बारी-बारी से सलाम करते हुए
शब्दों का चकला घर
चलाते होते हैं. 
(22/8/96)
_________________

शिवमंगल सिद्धांतकर  

शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी 
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : 'अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से अनुसंधान', निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
वैचारिक : 'विचार और व्यवहार का आरंभिक पाठ', परमाणु करार का सच, New Era Of Imperialism and New Proletarian Revolution, New Proletarian Thought, Few First Lessons in Practice इत्यादि 
संपादन :  गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं. 
___
ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से  'आखिरी गाँव' उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४० 

ज्ञान चंद बागड़ी की कहानी 'बातन के ठाठ'यहाँ पढ़ें. 


जे. एम. कोएट्जी: डिस्ग्रेस : (अनुवाद- यादवेन्द्र)

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कभी कंप्यूटर प्रोग्रामर रहे जे. एम. कोएट्जी (जन्म: 9 February 1940) आज अंग्रेजी भाषा और विश्व के बड़े उपन्यासकारों में एक हैं. उनका उपन्यास Disgrace १९९९ में प्रकाशित हुआ था, उसे बुकर मिला फिर नोबेल पुरस्कार भी. इस पर फ़िल्म भी बनी है. उपन्यास उच्च शिक्षण संस्थाओं में यौन शोषण और उसपर आरोप की कार्यवाही पर केंद्रित हैं. ख़ुद उपन्यासकार को इस मुद्दे पर उसकी प्रतिकूल सोच के लिए के लिए भारी आलोचना का सामना करना पड़ा.  इसके कुछ हिस्सों का अनुवाद लेखक और वरिष्ठ अनुवादक यादवेन्द्र ने किया है. 


जे. एम. कोएट्जी
डिस्ग्रेस                                                                                           
अनुवाद- यादवेन्द्र





2003 का साहित्य के लिए नोबेल प्राइज जीतने वाले  दक्षिण अफ्रीकी मूल के लेखक जे एम कोएट्जी ने दक्षिण अफ्रीका में गैरकानूनी और क्रूर रंगभेदी शासन की समाप्ति के दौर में "डिस्ग्रेस"नाम का अपना बेहद चर्चित और विवादास्पद उपन्यास लिखा था. इस उपन्यास का नायक अंग्रेजी साहित्य का एक गोरा प्रोफेसर है जिसे अपनी एक अश्वेत अफ्रीकी छात्रा की सेक्सुअल हरासमेंट की शिकायत पर युनिवर्सिटी से बर्खास्त कर दिया जाता है. वह कभी खुलकर यह नहीं कहता कि बाहर से आकर दशकों तक दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत बहुसंख्यकों पर राज करने वाले गोरों के रंगभेदी शासन की समाप्ति के बाद बदला लेने की नीयत से उसे नौकरी से निकाला जा रहा है पर शिकायत की जांच के दौरान उसका उद्धत और आक्रामक बर्ताव परोक्ष रूप से बार-बार यह संदेश देने की कोशिश करता है. वह किसी भी रुप में अपने किए का पछतावा नहीं करता बल्कि यह कहता है कि बेटी से भी कम उम्र की अश्वेत छात्रा के साथ सेक्स में लिप्त होना उसे समृद्ध करता है.

आगे भी उपन्यास में अनेक प्रसंग और प्रतीक ऐसे हैं जो दक्षिण अफ्रीका के मूल अश्वेत निवासियों को मूढ़, कमतर और कुत्ते जैसा बताते हैं.

जाहिर है बदली हुई परिस्थितियों में इस उपन्यास ने मूल अश्वेत अफ्रीकी बुद्धिजीवियों के बीच खासा विवाद पैदा किया, उस पर कई लंबे आलोचनात्मक लेख लिखे गए. यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाली नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका नादिन गोर्डिनर ने भी इस उपन्यास को रंगभेदी पूर्वाग्रह से ग्रस्त और अवांछित वक्तव्यों से भरा हुआ बताया. शासक पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांफ्रेंस ने मुखर होकर आधिकारिक तौर पर इसकी आलोचना की. सार्वजनिक कार्यक्रमों और इंटरव्यू देने से आमतौर पर दूर रहने वाले कोएट्जी ने इन आलोचनाओं पर सिर्फ इतना कहा कि उपन्यास में जो वक्तव्य हैं वह मेरे (लेखक) नहीं बल्कि किरदार डेविड लूरी के कहे हुए हैं.

उपन्यास की सबसे खास बात क्या है कि चाहे कितने भी महत्वपूर्ण अश्वेत किरदार हों उन्हें अपना पक्ष रखते हुए कभी सामने नहीं किया गया है बल्कि उनकी तरफ से जितने भी संभावित तर्क हो सकते हैं वह लेखक ने स्वयं दिए हैं. यहां तक कि सबसे निर्णायक भूमिका निभाने वाली अश्वेत छात्रा मेलानी इसाक्स जिसकी शिकायत पर डेविड लूरी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है, वह भी अपनी शिकायत अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए पूरे उपन्यास में कभी सामने नहीं लाई जाती- यहां तक कि उसकी लिखी शिकायत पर लंबी चौड़ी बहस होती है लेकिन उसने लिख कर क्या शिकायत की है, इसका खुलासा कहीं नहीं किया जाता. पाठक मेलानी इसाक्स को सिर्फ और सिर्फ लेखक के चश्मे से देखता है.

अपनी बारीक बुनावट और शिल्प के कारण मुझे यह उपन्यास बहुत पसंद है लेकिन वैचारिक तौर पर बेहद प्रतिगामी मूल्यों को पोषित करने वाला लगता है. मैं इसे सत्ता असंतुलन की तमाम विसंगतियों और विद्रूप के साथ भारतीय समाज के एक रूपक के तौर पर भी देखता हूं- चाहे वह भारतीय विश्वविद्यालयों में काम करने वाला स्त्री, अल्पसंख्यक और दलित विरोधी तंत्र हो या संख्या बल पर सत्ता पर काबिज हो गए सरकारी गैर सरकारी भीड़ तंत्र का संविधान की धज्जियां उड़ाता हुआ जंगलराज.

चेहरा रहित युवा अफ्रीकी स्त्री मेलानी इसाक्स पूरी तरह से गैरहाजिर रहते हुए भी पूरे उपन्यास में किस सघन ढंग से हाजिर रहती है इसकी मिसाल देने वाला "डिस्ग्रेस"उपन्यास के कुछ अंश यहाँ दिये जा रहें हैं.

यादवेन्द्र


 

१.

ह सारा मामला ऐसे शुरू हुआ. अगली सुबह वाइस रेक्टर (स्टूडेंट्स अफेयर्स) के ऑफिस से एक औपचारिक पत्र  उसके पास आया जिसमें लिखा था कि युनिवर्सिटी के कोड ऑफ कंडक्ट के आर्टिकल 3.1 के अंतर्गत उसके खिलाफ एक शिकायत दर्ज कराई गई है- उसके लिए यह बिलकुल सकते में डालने वाली बात थी. उस चिट्ठी में यह लिखा था कि जितनी जल्दी हो वह वाइस  रेक्टर के दफ़्तर  में संपर्क करें.

जिस लिफाफे में यह चिट्ठी आई थी उस पर गोपनीय (कॉन्फिडेंशियल) लिखा हुआ था और उसके साथ कोड ऑफ कंडक्ट की एक प्रति भी नत्थी थी. आर्टिकल 3 में नस्ल(रेस), जातीय समूह(एथनिक ग्रुप), मजहब,लिंग, लैंगिक झुकाव(सेक्सुअल प्रेफरेंस) या शारीरिक विकलांगता  के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करना या प्रताड़ित करना शामिल  है. आर्टिकल 3.1 में अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों को प्रताड़ित करना और निशाना बनाना शामिल है.

साथ में नत्थी दूसरा दस्तावेज जाँच कमेटी के गठन, उसके कामकाज और अधिकार क्षेत्र के बारे में था. वह एक साँस  में दस्तावेज़ पढ़ गया हालाँकि पढ़ते हुए बड़े अप्रिय और खतरनाक  ढंग से उसका दिल धड़क रहा था- ऐसा लगता था जैसे कोई उस पर हथौड़े चला रहा है. पढ़ते-पढ़ते बीच में उसका ध्यान भंग हो गयाएकाग्रता टूट गई. वह अपनी कुर्सी से उठा, अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया  और फिर बैठकर कयास लगाने लगा कि यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ और क्या हुआ.

यह मामला इतना सरल नहीं है बल्कि दूसरे लोगों ने मेलानी को भड़काया होगा और दबाव डालकर प्रशासनिक दफ़्तर (एडमिनिस्ट्रेशन ऑफिस) में शिकायत दर्ज कराने के लिए लेकर गए होंगे.

"हमें शिकायत दर्ज करानी है", पहुँच कर मेलानी ने नहीं उन्होंने ही यह कहा होगा.

"शिकायत? कैसी शिकायत?"

"उत्पीड़न की शिकायत, एक प्रोफ़ेसर के खिलाफ", पॉलिन ही आगे बढ़ कर बोली होगी, मेलानी घबरायी हुई चुपचाप उसके पास खड़ी होगी.

"इसके लिए उधर साथ के कमरे में जाओ"

बताए गए कमरे में जाकर वह, इसाक्स (मेलानी का  पिता) ज्यादा बोल्ड हो गया होगाआवाज़ ऊँची  कर बोला होगा :

"हमें तुम्हारे एक प्रोफेसर के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी है."

"क्या इस बारे में अच्छी तरह से तुम लोगों ने सोच समझ लिया है? क्या तुम सचमुच यह शिकायत दर्ज कराना चाहते हो?", दफ्तर में बैठे बाबुओं ने नियमों का हवाला देते हुए जवाब दिया होगा.

"हाँ,हमें अच्छी तरह मालूम है हम क्या करना चाहते हैं"उसी बेढंगे सूट वाले आदमी ने पलट कर अपनी बेटी की ओर देखते हुए जवाब दिया होगा, उसे पक्के तौर पर भरोसा  होगा वह उसकी कही बातों को इनकार करने का दुस्साहस नहीं करेगी.

उन्हें एक फॉर्म भरने के लिए दिया गया होगा और एक कलम भी साथ में. एक हाथ ने शिकायत लिखने के लिए कलम थामी होगी, यह वही हाथ होगा  जिसको उसने एक नहीं कई बार चूमा था, इस हाथ को वह कितनी अंतरंगता से जानता पहचानता था.

सबसे पहले शिकायतकर्ता का नाम : बहुत सावधानी से कैपिटल लेटर में लिखा गया मेलानी इसाक्स, उसके नीचे की लाइनों में बने हुए किस बॉक्स में टिक करना है काँपती  हुई उँगलियाँ  उसे  ढूँढती  हैं. पिता निकोटिन लगी हुई उँगलियों  से सही बॉक्स की ओर इशारा करते हैं. मेलानी की उँगलियों  में पकड़ी हुई कलम धीरे-धीरे वहाँ  पहुँच  कर सही बॉक्स पर निशान लगाती है.

मैं सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाती हूँ.  इसके बाद आरोपी का नाम लिखने के लिए जगह छोड़ी हुई थी. डेविड लूरी- वह हाथ उस खाली जगह को इन अक्षरों से भर देता है- प्रोफ़ेसर. अंत में फॉर्म के निचले हिस्से में तारीख और  उसके खुद के दस्तखत. 

कलात्मक ढंग का बेलबूटेदार M, ऊपरी घुमाव पर दबाव डाल कर लिखा हुआ  जिसका पिछवाड़ा दूर तक चला गया था, और चमकता हुआ अंतिम अक्षर s

काम पूरा कर दिया गया. एक पन्ने पर दो नाम- उसका खुद का और उसका भी, आस-पास. वह खुद और वह एक ही बिस्तर में साथ-साथ- प्रेमी जो थे पर अब नहीं हैं, दुश्मन अब.

उसने वाइस रेक्टर के ऑफिस में फोन किया तो मिलने के लिए शाम  5:00 बजे का समय मिला, ऑफिस का दैनिक कामकाज निपटाने के बाद. वह शाम 5:00 बजे कॉरिडोर में अपनी बारी का इंतजार कर रहा है. छरहरी और युवा दिखने वाले आराम हकीम दफ्तर से बाहर आते हैं और डेविड को साथ लेकर अंदर जाते हैं. अंदर पहले से दो लोग मौजूद थे- इलेन विंटर ,उसके डिपार्टमेंट की अध्यक्ष और सोशल साइंसेज डिपार्टमेंट की फरोदिया रसूल जो यूनिवर्सिटी की भेदभाव के मामलों की देखने वाली कमेटी की प्रमुख हैं.

"थोड़ी देर हो गई है डेविड. हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि यहां ऑफिस में इस समय क्यों इकट्ठे हुए हैं", हाकिम ने कहा: "इसलिए सीधे मुद्दे पर आते हैं. हमें  यह तय करना है कि इस मसले को बेहतर ढंग से, सबसे अच्छे ढंग से कैसे निबटाएं."

"मुझे मेरे खिलाफ शिकायत के बारे में कुछ बता सकते हों तो पहले बता दें."

"बिल्कुल सही. हम यहां अभी मिस मेलानी इसाक्स द्वारा दर्ज कराई गई एक शिकायत के बारे में बात करने बैठे हैं.", आराम हाकिम यह कहते हुए इलेन की तरफ देखते हैं: "इलेन, इसाक्स के बारे में पहले से भी किसी तरह की किसी गड़बड़ी की शिकायत है क्या?"

इलेन अपने डिपार्टमेंट के डेविड को शुरू से नापसंद करती हैं, वह उसे अतीत में डूबता उतराता हुआ इंसान लगता था जिससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जा सके उतना बेहतर.

"डेविड, इसाक्स की हाजिरी को लेकर एक सवाल है. मैंने कल फोन पर उससे बात की थी, उसने मुझे बताया कि  पिछले महीने उसने सिर्फ दो क्लास की. यदि उसकी बताई बात सही है तो डिपार्टमेंट को इसकी सूचना दी जानी चाहिए थी. उसने मुझे यह भी बताया कि मिड टर्म टेस्ट भी उसने नहीं दिए. फिर भी", मेज़ पर सामने रखी हुई फाइल पलटते हुए इलेन बोलीं.

"आपके रिकॉर्ड के मुताबिक पूरे महीने उसकी हाजिरी लगी हुई है और मिड टर्म में उसे 70 नंबर मिले हैं.",थोड़ा तंज कसते हुए इलेन ने कहा: "ऐसा तो तभी हो सकता है जब एक नहीं बल्कि दो-दो मेलानी इसाक्स हों."

"मेलानी इसाक्स सिर्फ एक है", डेविड ने शांत भाव से जवाब दिया: "मेरे पास अपने बचाव में कहने के लिए कुछ नहीं है."

हाँ किम बीच में बोले : 

"दोस्तों, इस तरह के मामलों की तह में जाने के लिए न तो यह समय और न यह जगह उपयुक्त है, मुझे लगता है अभी हमें करना यह चाहिए कि जांच की कार्यप्रणाली के बारे में अच्छी तरह से समझ लें, सभी तरह की अस्पष्टता को दूर कर लें, मैं यहां यह बात आप सबके सामने बिल्कुल साफ कर देना चाहता हूं कि यहां इस कमरे में जो कुछ भी होगा उसमें पूरी-पूरी गोपनीयता बरती जाएगी. मैं इस बारे में आपको भरोसा दिलाता हूं, आपका नाम कहीं भी जाहिर नहीं किया जाएगा. उसी तरह मिस इसाक्स का नाम भी गोपनीय रहेगा. पूरे मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी जिसका काम यह  होगा कि सारे तथ्यों को देखकर यह राय दे कि किसी तरह कि अनुशासनात्मक कार्यवाही का आधार बनता है या नहीं. डेविड, आप चाहें तो आप स्वयं या आपका वकील कमेटी के गठन से असहमत होने पर उसे चुनौती दे सकते हैं. इस कमेटी की सारी कार्यवाही बंद कमरे में होगी और कैमरे से रिकार्ड की जाएगी. जब तक कमेटी अपना काम करके रेक्टर को रिपोर्ट नहीं सौंप देती और रेक्टर उस पर कोई फैसला नहीं करते, सब कुछ पहले की तरह यथावत चलता रहेगा. मिस इसाक्स औपचारिक तौर पर उस कोर्स से बाहर आ गई हैं जो आप पढ़ाते हैं, और आपसे यह उम्मीद की जाती है कि आप अब उनसे किसी तरह का संपर्क नहीं रखेंगे. फरोदिया, इलेन, इसके अतिरिक्त और कुछ और तो ऐसा नहीं है जो मुझ से छूट रहा है?"

अब तक पूरी तरह चुप्पी साधे डॉ. रसूल अपना सिर हिलाती रही हैं.

"इस तरह  के सेक्सुअल उत्पीड़न के मामले बड़े पेचीदा होते हैं डेविड,पेचीदा ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण भी होते हैं लेकिन हमें भरोसा है कि हमारी कार्यप्रणाली पारदर्शी और निष्पक्ष है. इसलिए इस मामले में हम पूरी तरह देखभाल कर सोच समझ कर एक-एक कदम बढ़ाएंगे और इस बात का पूरा ध्यान रखेंगे कि नियमों की किताब से बाहर दाएं-बाएं बिल्कुल न जाएं. मेरा एक सुझाव है कि आप नियम कानून अच्छी तरह से पढ़ लें, समझ लें और बेहतर हो कि किसी जानकार से कानूनी सलाह भी ले लें."

वह कुछ बोलने को हुआ लेकिन हाकिम ने अपनी आवाज ऊंची करते हुए उसे आश्वस्त किया: "फ़िक्र नहीं करें, डेविड."

सारी बात चीत उस पर बहुत भारी पड़ी थी. डेविड ने जवाब दिया: "मुझे यह मत बताइए कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, मैं ऐसा कोई नादान बच्चा नहीं हूं."

वह एक झटके में उठा और कमरे से बाहर चला गया लेकिन बाहर निकलने का दरवाजा बंद था और चौकीदार अपने घर जा चुका था. बाहर निकलने के लिए पीछे का दरवाजा भी बंद था. हाकिम ने उसे बाहर निकलने में मदद की. वह बगैर कुछ बोले ऑफिस से बाहर आ गया.

बाहर बरसात हो रही थी. हाकिम भी साथ ही बाहर निकले और डेविड से अपनी छतरी के अंदर आ जाने को कहा. गेट खोलकर उन्होंने डेविड को अपनी गाड़ी में बिठा लिया.

"डेविड, निजी तौर पर कहूं तो मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि मेरी आपके साथ पूरी हमदर्दी है. मेरी बात का यकीन करें. मैं जानता हूं कि ऐसे मामले नरक में धकेले जाने जैसे यातनादायी होते हैं."

वह हाकिम को सालों से जानता था.

जवानी के दिनों में वे साथ-साथ टेनिस खेला करते थे. पर इस समय वह उनका किसी तरह का एहसान नहीं चाहता था. उसने जवाब कुछ नहीं दिया, इनकार में अपना कंधा झटक दिया और हाकिम की कार में बैठ गया.

घर पहुंच कर उसने अपने पुराने वकील से संपर्क किया जिसने उसे तलाक दिलाया था.

"एक बात पहले ही साफ हो जानी चाहिए", वकील ने पूछा: "तुम्हारे ऊपर जो आरोप लगे हैं उनमें कितना सच है और कितना झूठ? मुझे साफ-साफ बता दो."

"बात सही है, उस लड़की के साथ मेरा अफेयर था."

"यह अफेयर (गंभीर) सीरियस था?"

"क्या किसी बात की गंभीरता (सीरियसनेस) उसे बेहतर या और खराब बना देती है? एक उम्र के बाद कोई अफेयर ऐसा नहीं होता जो सीरियस न हो, वैसे ही जैसे हार्ट अटैक होता है."

"मेरी इस मामले में सलाह यह है कि मामला जीतने को ध्यान में रख कर तुम्हें किसी महिला वकील को ढूंढना चाहिए.", यह कहते हुए उसने दो महिला वकीलों के नाम सुझा भी दिए.

"कोशिश करो कि आपसी सुलह समझौते या लेनदेन से यह मामला सुलझ जाये. जरूरत पड़े तो किसी तरह की अंडरटेकिंग दे दो- जैसे कोई लंबी छुट्टी ले लो और इस बीच में युनिवर्सिटी प्रशासन उस लड़की और उसके परिवार को समझा-बुझाकर शिकायत वापस लेने के लिए राजी कर ले. उम्मीद मत छोड़ो, ऐसे मामलों में हौसला रखना तो जरूरी होता है. ऐसे उपाय के ‌बारे में सोचो जिसमें तुम्हारा नुकसान कम से कम हो. कुछ दिनों में यह मामला शांत हो जाएगा, लोग सब भूल भाल जाएंगे."

"अंडरटेकिंग? किस तरह की अंडरटेकिंग की बात कर रहे हैं आप?"

"सेंसिटिविटी ट्रेनिंग, कम्युनिटी सर्विस, काउंसिलिंग- इनमें से जो भी आप जुगाड़ कर पाएं."

"काउंसिलिंग?क्या मुझे काउंसिलिंग की दरकार है?"

"मुझे गलत मत समझना डेविड. मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि सारी जांच के बाद जो विकल्प तुम्हारे सामने रखे जा सकते हैं उनमें काउंसिलिंग भी एक विकल्प हो सकता है."

"मुझे सजा देने के लिए? मुझे सही राह पर ले आने के लिए? मेरी अनुचित इच्छाओं ‌ को सुधारने के लिए, या दबाने के लिए?"

"जो समझना चाहो समझ लो.",वकील ने शांत भाव से जवाब दिया.

 

२.



युनिवर्सिटी के कैंपस में बलात्कार जागरूकता सप्ताह मनाया जा रहा है. वार (विमेन अगेंस्ट रेप) नामक छात्र संगठन हालिया दिनों में बलात्कार का शिकार हुई पीड़िताओं के समर्थन में 24 घंटे का एक चौकसी अभियान चला रहा है. उसके कमरे में दरवाजे के नीचे से एक पंफलेट डाला गया है जिसका शीर्षक है: औरतें बोल रही हैं (विमेन  स्पीक आउट), इसके नीचे पेंसिल से किसी ने लिख दिया है:

"अब तुम्हारे दिन लद गए कैसेनोवा"

हाकिम के ऑफिस से जुड़े हुए कमेटी रूम में कमेटी की कार्यवाही चल रही थी. उसे अंदर बुलाया क्या और डिपार्टमेंट ऑफ रिलिजियस स्टडीज के प्रोफेसर मानस माथाबाने के सामने की कुर्सी पर बैठने को कहा गया, जो इस जांच कमेटी के प्रमुख हैं. उसकी बाईं ओर हाकिम, उनका सेक्रेटरी और एक युवा स्त्री बैठी है जो देखने से कोई छात्र प्रतिनिधि लगती थी. और दाहिनी ओर कमेटी के तीन अन्य सदस्य बैठे हैं.

जब वह बुलाने पर अंदर आकर  बैठा तो उसके मन में घबराहट कतई नहीं थी बल्कि इससे पलट उसे अपने आप पर खासा भरोसा था. रात को वह अच्छी नींद सोया था और उसका दिल सामान्य ढंग से धड़क रहा था. वह अकड़ कर वहां बैठा था जैसे रंगे हाथ  पकड़े जाने पर पेशेवर जुआरी एक खतरनाक किस्म का गुरूर और अपने सही होने का भाव ओढ़े बैठते हैं. वहां उस तरह से अकड़ कर बैठने का कोई मतलब नहीं था बल्कि परिस्थितियां ऐसी थीं कि यह सरासर गलत था पर उसे किसी चीज की परवाह नहीं थी, भाड़ में जाएं सब.

वह एक-एक कर कमेटी के सदस्यों को निहारता है, उनमें से वह दो लोगों को पहले से जानता था- फरोदिया रसूल और डेसमंड स्वॉर्ट्स  जो इंजीनियरिंग फैकल्टी  के डीन हैं. उसके सामने जो कागज रखे थे उन्हें पढ़कर उसे मालूम हुआ कि दाईं तरफ बैठा तीसरा व्यक्ति बिजनेस स्कूल में पढ़ाने वाली कोई प्रोफेसर हैं.

कार्यवाही की शुरुआत करते हुए माथाबाने ने उसकी तरफ देखते हुए कहा:

"प्रो डेविड लूरी, यह कमेटी जो यहां बैठी हुई है इस कमेटी के पास कार्रवाई करने की कोई अधिकार नहीं है,यह जांच पूरी कर अपनी सिफारिश दे सकती है बस. मैं यह स्पष्ट कर दूं कि आप चाहें तो कमेटी के गठन को लेकर सवाल उठा सकते हैं, उसे चुनौती दे सकते हैं. इसलिए आगे बढ़ने से पहले मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि कमेटी के किसी सदस्य को लेकर आपके मन में किसी तरह का एतराज तो नहीं है या आपको कहीं ऐसा तो लगता कि किसी की राय निष्पक्ष न होकर पक्षपातपूर्ण हो सकती है?"

"मेरी कानूनी तौर पर कोई आपत्ति नहीं है पर हांतार्किक आधार पर मेरी असहमति जरूर है, लेकिन मुझे लगता है कि यह इस कमेटी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है."

उसकी बात सुनकर कमेटी के सभी सदस्यों में थोड़ी असहजता आई, वे एक दूसरे को अर्थपूर्ण ढंग से देखने लगे . माथाबाने बोले:

"बेहतर होगा कि हम कानूनी पक्षों पर ही चर्चा करें, उससे बाहर न जाएं,तो हम यह मानकर चलते हैं कि कमेटी के गठन को आप स्वीकार करते हैं. यहां कमेटी में हमने एक छात्र पर्यवेक्षक को रखा है जो कोएलिशन अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन संगठन की प्रतिनिधि है. उसकी मौजूदगी से आपको कोई एतराज तो नहीं?"

"मैं न तो कमेटी से डरता हूं और न ही मुझे छात्र पर्यवेक्षक से कोई डर लगता है."

"यह तो अच्छी बात हुई. अब हम काम आगे बढ़ाते हैं. पहली शिकायतकर्ता मिस मेलानी इसाक्स ड्रामा प्रोग्राम की एक छात्र हैं जिन्होंने लिखित शिकायत की है आप के खिलाफ, जिस की प्रतियां सभी सदस्यों को और आपको उपलब्ध कराई गयीं हैं. मुझे उम्मीद है कि आप ने उसे पढ़ लिया होगा, फिर भी यदि जरूरत हो तो मैं संक्षेप में उन शिकायतों के बारे में आपको बताऊं? आप क्या कहते हैं प्रो. लूरी?"

"मिस्टर चेयरमैन, तो क्या मैं यह मान कर चलूं कि शिकायत करने वाली मिस इसाक्स व्यक्तिगत रूप में कमिटी में उपस्थित नहीं रहेंगी?"

"मिस इसाक्स कमेटी के सामने कल उपस्थित हुई थीं. मैं एक बार और स्पष्ट कर दूं कि यह किसी तरह का कानूनी मुकद्दमा नहीं है बल्कि ऑफिस को दी गई शिकायत की  जांच करने  वाली कमेटी है. जैसे कोर्ट कचहरी में काम होता है हमें बिल्कुल उनका अनुसरण करते हुए काम नहीं करना है. आपको किसी तरह का कोई एतराज तो नहीं?"

"जी बिल्कुल नहीं"

"रजिस्ट्रार ने ऑफिस और स्टूडेंट रिकॉर्ड्स के हवाले से दूसरा अभियोग यह लगाया है कि मिस इसाक्स के मामले में गड़बड़ी की गई है. आरोप यह है कि जब मिस इसाक्स सभी क्लास में उपस्थित नहीं हुईं और इम्तिहान में शामिल नहीं हुईं तो उन्हें आपने पूरी हाजिरी और इम्तिहान  के नंबर कैसे दे दिए?"

"तो मेरे ऊपर यही दो अभियोग लगाए गए हैं... या कुछ और भी?"

"बस यही दो"

वह गहरी सांस लेता है.

"मुझे लगता है कि कमेटी के सदस्यों के पास अपने उपलब्ध समय में ऐसे मुद्दों पर सिर खपाने से बेहतर बहुत कुछ करने को है, जिस पर किसी तरह का विवाद नहीं होगा. मैं अपने ऊपर लगाए दोनों आरोपों को स्वीकार करता हूं. मेरी कही बात को रिकार्ड करिए और बेहतर हो कि हम सब यहां से बाहर निकल कर अपने-अपने कामों में वापस जुट जाएं." 

डेविड की ऐसी टके की बात सुनकर हाकिम माथाबाने की तरफ थोड़ा झुके और उनके कान के पास जाकर फुसफुसा कर कुछ बात की. 

हाकिम ने स्पष्ट किया:

"प्रोफेसर लूरी, मैं एक बार फिर से दोहरा देना चाहता हूं कि यह कमेटी जांच के लिए बनी है, सजा देने के लिए नहीं. इसे शिकायत कर्ता और आरोपी दोनों पक्षों की बात सुननी है और उसके आधार पर आगे के लिए सुझाव देना है. इस कमेटी के पास किसी तरह का कोई फैसला लेने का अधिकार नहीं है. मैं एक बार फिर से कहना चाहूंगा, क्या यह अच्छा नहीं होगा कि आप हमारी कार्यप्रणाली और नियम कानून को जानने वाले किसी कानूनी प्रतिनिधि को अपना पक्ष रखने के लिए कमेटी में अपने साथ ले आएं ?"

"मुझे अपनी बात कहने के लिए किसी प्रतिनिधि की दरकार नहीं,  मैं अपना पक्ष बिल्कुल ठीक तरीके से प्रस्तुत कर सकता हूं. तो क्या मैं यह‌ मानूं कि मामला यहीं समाप्त करने की मेरी गुजारिश के बाद भी यह कमेटी आगे सुनवाई जारी रखने पर आमादा है?"

"हम आपको अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक और अवसर देना चाहते हैं."

"मैंने तो अपना पक्ष प्रस्तुत कर दिया... मैंने अपने ऊपर लगाए अभियोग स्वीकार कर लिए. हां, मैं गुनहगार हूं."

"गुनहगार?  पर किस गुनाह के?"

"उन्हीं बातों के जो मेरे खिलाफ शिकायत में कही गई हैं."

"प्रो. लूरी, आप हमें गोलमोल जवाब दे रहे हैं, हमें यहां वहां घुमा रहे हैं."

"यानी मिस इसाक्स जो कुछ भी सड़क पर चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हैं, उनका, और हाजिरी और परीक्षा के रिकॉर्ड्स में हेराफेरी करने का."

अब फरोदिया रसूल ने हस्तक्षेप किया : "आप कह रहे हैं कि मिस इसाक्स ने जो शिकायत की है आप उसे स्वीकार करते हैं. पर आप ने क्या उनकी लिखित शिकायत को एक बार पढ़ा भी है प्रो. लूरी?"

"मैं मिस इसाक्स की शिकायत को पढ़ना भी नहीं चाहता. मुझे उनके लगाये आरोप स्वीकार हैं, और मुझे कोई ऐसी वजह भी नहीं लगती कि मिस इसाक्स जिसके लिए झूठी शिकायत करें."

"क्या यह समझदारी नहीं होगी कि उस शिकायत को एक बार पूरा पढ़ लिया जाए जिसे आप एकबारगी स्वीकार कर रहे हैं?"

"बिल्कुल नहीं. जीवन में समझदार होने से ज्यादा महत्वपूर्ण कई और बातें हैं."

डेविड का ऐसा लट्ठमार जवाब सुनकर फरोदिया रसूल चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गईं.

“यह भले ही खयाली और अव्यावहारिक लगता हो प्रो. लूरी पर जो आप बोल रहे हैं वह निभा पाएंगे? मुझे लगता है यह कमेटी के हम सभी सदस्यों का कर्तव्य है कि हम आपको आपकी जिद और अड़ियलपने से बचाएं.", डेविड से‌ मुखातिब होकर रसूल मुस्कुराते हुए बोलीं :

"आपने अभी कहा कि आपको किसी कानूनी सलाह की जरूरत नहीं है. तो फिर क्या आपने किसी और से इस बारे में कोई सलाह मशविरा किया है- जैसे किसी पादरी से या किसी काउंसिलर से? यदि कहा जाए तो आप किसी काउंसिलिंग के लिए तैयार हैं?", बिजनेस स्कूल से आई युवा स्त्री ने डेविड से सवाल किया.

यह सवाल सुनकर उसे मन ही मन गुस्सा आया:

"नहीं, न मैंने किसी की काउंसिलिंग ली है और न ही मैं भविष्य में इसके लिए तैयार हूं. मैं कोई कम उम्र का नादान नहीं हूं, बड़ा और समझदार हूं, कोई मुझे बैठा कर समझाए और काउंसिलिंग करे यह मुझे कतई पसंद नहीं. मैं उस उम्र को पार कर चुका हूं जिसमें इसकी जरूरत हो सकती है.", जवाब देते-देते डेविड माथाबाने की तरफ देखने लगा,बोला:

"मुझे जो कहना था मैंने साफ़-साफ़ कह दिया. अब आप बताएं कि इस बातचीत को और खींचते रहने का कोई औचित्य है क्या?"

'माफ कीजिएगा, मैं ऐसा नहीं कर सकता."

"डेविड, मैं भी थक गया हूं, आपको आप से ही बचाना अब मेरे बस की बात नहीं. कोशिश मैंने बहुत की, मैंने ही नहीं बल्कि पूरी कमेटी ने की. अब एक बात आप बता दीजिए, आपको अपनी बातों पर इस पूरे मामले पर पुनर्विचार करने के लिए कुछ और समय चाहिए?"

"नहीं"

"ठीक है, तब तो मैं केवल यही कह सकता हूं कि जल्दी ही रेक्टर आपको अपना फैसला बता देंगे."

घर पर उसके पास माथाबाने का फोन आया, बोले: "जांच कमेटी ने अपनी सिफारिशें तैयार कर ली हैं डेविड, और रेक्टर ने मुझसे यह कहा है कि आगे कोई कदम उठाने से पहले एक बार और आपसे बात कर लूं. वे कोई  कठोर और नुकसान पहुंचाने वाला फैसला न करने की बात मान गए हैं, और उन्होंने मुझसे कहा है कि यदि आप अपनी तरफ से  एक वक्तव्य जारी कर दें जो जांच कमेटी को भी संतोषजनक लगे तो बात बन सकती है."

"इस विषय में हम इतनी सारी बातें पहले भी कर चुके हैं... फिर..."

"थोड़ा सब्र करो, मुझे अपनी बात पूरी कर लेने दो. मैंने एक वक्तव्य का मसौदा बना लिया है और वह अभी मेरे सामने ही रखा है- इसमें जो बातें लिखी हैं वह कमेटी को संतुष्ट करने वाली हैं. वह छोटा सा वक्तव्य है, आप कहे तो मैं पढ़ के सुना दूं."

"पढ़ दीजिए"

माथाबाने पढ़ने लगे :

"मैं शिकायतकर्ता के मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन की शिकायत को बगैर शर्त स्वीकार करता हूं, इसके साथ यह भी स्वीकार करता हूं कि युनिवर्सिटी ने मुझे जो  अधिकार प्रदान किए उनका मैंने दुरुपयोग किया. इस गलती के लिए मैं शिकायतकर्ता और युनिवर्सिटी दोनों पक्षों से माफी मांगता हूं और इसके लिए युनिवर्सिटी प्रशासन जो भी उचित समझे वैसा दंड मुझे दे, मैं उसे भी स्वीकार करता हूं."

 "जो भी उचित समझे वैसा दंड? इसका मतलब क्या हुआ?"

"इन शब्दों के बारे में मेरी समझ यह है कि आपको बरखास्त नहीं किया जाएगा. ज्यादा संभावना इस बात की है कि आपसे लंबी छुट्टी लेने के लिए कहा जाएगा. उसके बाद आप फिर से पढ़ाने के लिए युनिवर्सिटी में वापस लौटते हैं या नहीं यह आप पर, आपके डीन पर और डिपार्टमेंट के प्रमुख के ऊपर निर्भर करता है."

"अच्छा, तो यह बात है, यह पैकेज है?"

"मेरी समझ यही कहती है. यदि आप इस वक्तव्य पर अपनी हामी भरते हैं तो इससे अपनी गलती को सुधारने का प्रायश्चित का संदेश  जाएगा और इसी भावना से रेक्टर इसे स्वीकार करने को तैयार होंगे."

"किस भावना से?"

"प्रायश्चित की भावना से"

"कल भी हमने भूल सुधार और प्रायश्चित वाली बात पर बहुत देर तक चर्चा की थी. इस बारे में मेरे क्या विचार हैं, मैंने खुल कर आपको बता दिया था. मुझे यह स्वीकार नहीं है. आधिकारिक रूप से बनाई गई कमेटी के सामने- जो न्यायालय के एक अंग के रूप में काम कर रही है- कल मैं उपस्थित हुआ था. इस निष्पक्ष कमेटी के सामने मैंने अपने दोनों अभियोग  स्वीकार कर लिए थे- बगैर किसी लाग लपेट के सीधे-सीधे. मेरे स्वीकार को कमेटी को पर्याप्त मान कर आगे का कदम उठाना चाहिए. भूल सुधार या प्रायश्चित जैसी बात न कल थी न आज है. प्रायश्चित जैसा शब्द किसी दूसरी दुनिया का होगा, मेरी दुनिया का नहीं, मेरे लिए यह निहायत अपरिचित विमर्श है."

"डेविडआप कई बातों को एक साथ मिलाकर गड़बड़ कर रहे हैं, भ्रम पैदा कर रहे हैं. आपसे यह कौन कह रहा है कि आप अपने किए का पछतावा करें? आपके अंतर्मन में क्या चल रहा है हमें यह कैसे दिखाई पड़ेगा- हमारे लिए तो वह अतल गहराई में डूबा हुआ है. यहां मैं सिर्फ अपनी बात नहीं कर रहा, जिस कमेटी को आप निष्पक्ष कह रहे हैं उस कमेटी के सभी सदस्यों पर यह बात लागू होती है. आपसे बस यही तो कहा जा रहा है कि इस प्रकरण में एक लिखित वक्तव्य दे दीजिए."

"नहीं, बात इतनी सीधी सरल नहीं है. मुझसे यह कहा जा रहा है कि मैं एक ऐसा माफीनामा जारी करूं जिसके प्रति मैं निष्ठावान रहूंगा या नहीं मुझे खुद नहीं मालूम."

"आपकी निष्ठा के बारे में तो कोई सवाल ही नहीं कर रहा है और न ही उस पर इस मामले का फैसला निर्भर करता है. इस बारे में आपकी अंतरात्मा को तय करना है कमेटी को नहीं. सीधे सीधे मुद्दे पर आएं तो सारी बात यह है कि क्या आप अपनी गलती को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करते  हैं,और करते हैं तो उसके सुधार के लिए राजी हैं?"

"अब आप बाल की खाल निकालने पर आमादा हो गए हैं. आपने हमारे ऊपर एक अभियोग लगाया और मैंने बगैर किसी ना नुकुर के अपना दोष स्वीकार कर लिया. इसके सिवाय आप मुझसे और चाहते क्या हैं?"

"नहीं, आप जो बातें कह रहे हैं हम उससे कुछ ज्यादा चाहते हैं. और यह ज्यादा कोई बहुत ज्यादा नहीं है पर उससे जरूर ज्यादा है जो आप कह रहे हैं. मुझे लगता है कि आप को यह जरूर समझ आ रहा होगा कि आगे की राह का रोड़ा हट जाए इसके लिए हम दरअसल आप से चाहते क्या हैं."


(Disgrace, a film based on the J. M. Coetzee novel and directed by Steve Jacobs)


३.

माथाबाने और हाकिम ने धीमी आवाज में फुसफुसा कर एक दूसरे से कुछ बात की, फिर माथाबाने बोले:

"मेरा प्रस्ताव है कि कमेटी थोड़ी देर का विराम ले जिससे हम प्रो. लूरी की बातों पर आपस में बातचीत कर सकें, डेविड, क्या  आप थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाएंगे जिससे हम आपस में कुछ बातचीत कर लें? मिस वानवाइक,आप भी."

कमरे से निकलकर वह और छात्र प्रतिनिधि हाकिम के ऑफिस में आकर बैठ गए. उनके बीच आपस में कोई बातचीत नहीं हुई पर उसे महसूस हो रहा था कि वह लड़की उसके बगल में बैठते हुए असहज महसूस कर रही है.

"तुम्हारे दिन लद गए कैसेनोवा,  जाने यह लड़की क्या महसूस कर रही होगी जब आमने-सामने से कैसेनोवा से मुलाकात हो रही है?"

कुछ मिनटों बाद उन दोनों को अंदर बुला लिया गया. कमरे में घुसते ही उसे महसूस हुआ कि वहां का वातावरण सहज नहीं है, उनकी अनुपस्थिति में कमेटी के सदस्यों के बीच तीखी नोकझोंक होने की गवाही उन के चेहरे के हाव भाव दे रहे हैं.

"तो प्रो लूरी, आप कह रहे हैं कि आप के खिलाफ जो भी अभियोग लगाए गए हैं उन्हें आप स्वीकार करते हैं.", माथाबाने ने फिर से बातचीत शुरू करते हुए कहा.

"जी हां, मिस इसाक्स ने जो कुछ भी आरोप लगाए हैं,  उन्हें मैं मंजूर करता हूं."

"डॉ. रसूल, आप इस विषय में कुछ कहना चाहेंगी?"

"जी, प्रो. लूरी के जवाब पर मुझे आपत्ति है और मुझे लगता है कि बुनियादी तौर पर यह जवाब सीधा-सीधा नहीं बल्कि लीपा पोती करने वाला चालाक जवाब है. प्रो. लूरी कहते हैं कि उन्हें अभियोग स्वीकार है पर जब हम उनसे साफ तौर पर यह जानना चाहते हैं कि वह किन बातों को स्वीकार करते हैं तो चालाकी और उपहास भरा टाल मटोल वाला जवाब मिलता है. मेरा मानना है कि ऐसा करके वे हमें साफ-साफ संदेश दे रहे हैं कि अभियोग को मौखिक तौर पर स्वीकार करने का वह सिर्फ नाटक कर रहे हैं, उस स्वीकारोक्ति में उनके निष्ठा कतई नहीं है. वे न सिर्फ इस कमेटी के दो चार सदस्यों को यह संदेश दे रहे हैं बल्कि व्यापक समुदाय को उसमें लपेटने की चालाकी भी कर रहे हैं."

 वह रसूल की इस टिप्पणी से तिलमिला गया, बोला: "इस मामले में कोई संदेश देने जैसी कोई बात ही नहीं है."

"हम तो चाहते ही हैं लेकिन व्यापक समुदाय को भी यह जानने का हक है कि प्रो. लूरी आखिर किस खास बात को स्वीकार कर रहे हैं? उन्होंने क्या गलत किया है? और उनकी किस बात से समाज को नुकसान पहुंच रहा है और उसे रोकने की क्या कोशिश की जा रही है ?"

"रोकने की कोशिश, इस मामले का यह दूसरा चरण होगा.",माथाबाने ने हस्तक्षेप किया.

"यदि हमने इसे रोकने की कोशिश नहीं की तो हम अपने सामाजिक दायित्व से विमुख हो रहे हैं, इसके लिए हमारे दिलो-दिमाग में भी सब कुछ बिल्कुल स्पष्ट और पारदर्शी होना चाहिए. मैं मानती हूं कि यदि अपनी सिफारिशों में हम मामले से जुड़े अपराधों को साफ-साफ नहीं लिखेंगे तो प्रो. लूरी पर अभियोग चलाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता, आखिर किस लिए हम यह सब कर रहे हैं?"

"जहां तक इस कमेटी का सवाल है हमारे दिलो दिमाग में सब कुछ बिल्कुल साफ है डॉक्टर रसूल. यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारी तरह क्या प्रो. लूरी के दिमाग में भी सब कुछ स्पष्ट है?"

"जी बिल्कुल सही, मैं जो कहना चाह रही थी आपने उसे अपने शब्दों में पूरी तरह स्पष्ट कर दिया."

बातचीत के ऐसे क्रम में चुप रहना बेहतर होता लेकिन वह कहां चुप रहने वाला था,बोला :

"मेरे दिमाग में क्या चल रहा है यह मेरा निजी मामला है आप सबका नहीं, फरोदिया.", तैश में आ कर वह बोल पड़ा :

"मुझे यह साफ साफ दिख रहा है कि आप लोग मुझसे किसी तरह का जवाब नहीं मांग रहे बल्कि कबूलनामा मांग रहे हैं. लेकिन कान खोल कर सुन लें, मैं किसी तरह का कबूलनामा नहीं देने जा रहा हूं, मैंने अपनी बात आपके सामने रख दी वही मेरा वक्तव्य है. एक दलील मैंने दी, ऐसा करना मेरा अधिकार है जिसमें मैंने कहा कि मेरे ऊपर जो अभियोग लगाए गए हैं मैं उनका दोष स्वीकार करता हूं. यही मेरा पक्ष है और मैं इससे आगे एक कदम भी बढने को तैयार नहीं हूं."

"मिस्टर चेयर, मैं जांच कमेटी की सारी कार्रवाई पर अपना विरोध दर्ज कराती हूं. मेरे हिसाब से इस जांच के नियमों की जो तकनीकी परिभाषा और सीमाएं हैं, सारा मामला उससे बाहर जा रहा है. प्रो. लूरी अपना जुर्म स्वीकार तो कर रहे हैं लेकिन यह सवाल मैं अपने आप से पूछती हूं कि क्या उनकी स्वीकारोक्ति में अपने किए गए अपराधों के प्रति किसी तरह का अपराध बोध है?. या वह अपने शब्दजाल में हम सबको फंसा कर  इस मामले के कुछ दिन बाद भुला दिए जाने की उम्मीद कर रहे हैं? मेरा अंदेशा है, उन्हें लगता है तमाम कागजों के नीचे शिकायत की यह अर्जी भी जल्दी ही दब कर गुम हो जाएगी. यदि वे सचमुच ऐसा ही सोच रहे हैं तो हमें उन्हें कड़े से कड़ा दंड देना चाहिए."

"ध्यान रखिए डॉक्टर रसूल, यह कमेटी सिर्फ जांच के लिए है दंड देने के लिए नहीं."

"दंड दे नहीं सकते तो हमें कठोरतम दंड की सिफारिश जरूर करनी चाहिए- प्रो. लूरी को तत्काल प्रभाव से नौकरी से बर्खास्त किया जाना चाहिए और उन्हें देय सभी प्रकार के विशेषाधिकार और राशि युनिवर्सिटी को जब्त कर लेनी चाहिए."

पूरे विमर्श में अबतक खामोश बने रहे डेस्मंड स्वार्ट्स बोले:

"डेविड, आप क्या समझते हैं कि पूरे मामले को आप जैसे हैंडल कर रहे हैं वह इसका सबसे सही और  उपयुक्त ढंग है?", इसके बाद वे माथाबाने की तरफ मुखातिब हुए:

"मिस्टर चेयर, जब प्रोफेसर लूरी कमरे से बाहर गए थे तब भी मैंने कहा था, यही बात युनिवर्सिटी समुदाय का एक सदस्य होने के नाते मैं अब फिर से दुहराना चाहता हूं कि हमें अपने एक साथी के खिलाफ एकदम ठंडे और किताबों में लिखे नियमों की आड़ लेते हुए औपचारिक ढंग से कोई कदम नहीं उठाना चाहिए. डेविड, आप अपने दिल पर हाथ रख कर बोलो कि क्या सचमुच आप हमारी सिफारिशों को अंतिम रुप देने की कार्रवाई  को कुछ समय‌ के लिए टालने के पक्ष में नहीं हैं जिससे आपको आत्म निरीक्षण और किसी कानूनी जानकार से राय लेने के लिए कुछ और समय मिल जाए?"

"मैं भला ऐसा क्यों चाहूंगा? और मुझे किस चीज का आत्म निरीक्षण करना है?"

"आप जिस तरह की स्थिति में घिर गए हैं, उसकी गंभीरता का,  हालांकि मुझे मालूम है कि आप मेरी बात को पसंद नहीं करेंगे. मुंहफट होकर कहूं तो आपको मालूम होना चाहिए कि यह मामला इतना संगीन है कि आपकी नौकरी ली जा सकती है. पहले हो सकता है ऐसा न होता रहा हो पर आजकल के समय में यह कोई मजाक नहीं है."

"तो आप मुझे क्या करने की सलाह देते हैं? जैसा डॉ. रसूल कहती हैं ,मैं अपने वक्तव्य से चालाकी और उपहास भरा टालमटोल वाला टोन हटा दूं? पूरी कमेटी के सामने अपने किए पर पछतावे में बड़े-बड़े आंसू टपकाऊँ? आपके हिसाब से मैं ऐसा क्या करूं जिससे मेरी जान बच जाए?"

"मुझे यह मालूम है कि आप को शायद यकीन नहीं होगा कि यहां टेबल के इर्द गिर्द जो लोग बैठे हैं आपके दुश्मन नहीं हैं. हम सब के जीवन में दुर्बल क्षण आते हैं, कभी न कभी,  हम सब इंसान ही तो हैं. ऐसा नहीं है कि आपके साथ कुछ ऐसा हुआ है जो किसी और के साथ कभी न हुआ हो, एकदम अजूबा. हम सब दरअसल ऐसा रास्ता ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं जिससे आपके करियर पर आंच न आए."

बातचीत में माथाबाने शामिल हो गए: "डेविड, हम सब आपकी मदद करना चाहते हैं जिससे आप इस दु:स्वप्न(नाइट मेयर) से निकल पाएं."

ये बातें कहने वाले सभी उसके दोस्त हैं, जाहिरा तौर पर उसकी मदद करना चाहते हैं उसके दुर्बल पलों और दु:स्वप्न से उसे निकालना चाहते हैं. उनमें से किसी की मंशा यह नहीं है कि नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद वह सड़क पर कटोरा लेकर भीख मांगे.

ये सभी चाहते हैं कि डेविड क्लास रूम में जाकर विद्यार्थियों को पढ़ाएं.

"सदाशयता के इस सामूहिक बयान में मुझे एक भी स्त्री स्वर नहीं सुनाई पड़ रहा है.", डेविड ने तल्ख  टिप्पणी की लेकिन जवाब में कोई आवाज सामने नहीं आई.

"ठीक है, मुझे पूरे घटनाक्रम मैं अपनी भूमिका के बारे में कबूल करने दीजिए. इस कहानी की शुरुआत एक शाम हुई, मुझे तारीख तो याद नहीं लेकिन बहुत पुरानी बात नहीं  है. कॉलेज का जो पुराना गार्डन है मैं वहां से गुजर रहा था और सामने से मिस इसाक्स, वह युवा स्त्री जिसको लेकर सारा बवाल मचा है वह आती हुई दिखाई दी. बिल्कुल पास से हमारा आमना सामना हुआ, हमारे बीच अभिवादन के कुछ शब्दों का आदान-प्रदान भी हुआ और उसी क्षण कुछ ऐसा हुआ जिसको बयान करने की मैं कोशिश नहीं करूंगा, मैं कोई कवि नहीं हूं. मेरा यही कहना पर्याप्त होगा कि एरोस (आकर्षण और काम के ग्रीक देवता) ने एकदम से  मुझे अपने वश में कर लिया, मैं स्वीकार करता हूं कि उसके बाद से मैं वह नहीं रहा जो पहले था."

"आप जैसे पहले थे उसके बाद वैसे नहीं रहे, इसका मतलब?", बिजनेस फैकल्टी से आई प्रोफेसर ने अचरज से पूछा.

"मेरा अपने ऊपर कोई वश नहीं रहा. मैं पचास साल का तलाक शुदा और लुटा पिता बेबस इंसान भी नहीं रहा. मैंने एरोस के आगे घुटने टेक दिए और उस क्षण के बाद से मैं उसका दास बन गया."

"क्या यह सारी बातें आप अपने बचाव में कमेटी के सामने रख रहे हैं? जिस पर हर तरह का नियंत्रण छिन्न-भिन्न हो जाए, वैसा बेलगाम आवेग?"

"किसने कहा कि मैं अपने बचाव में यह बातें कह रहा हूं? आपने मुझसे अपना गुनाह कबूल करने के लिए कहा, मैं अपना कबूलनामा आपको सौंप रहा हूं. और जहां तक आवेग की बात है, यह बेलगाम हो जाने से भी आगे की स्थिति थी. आप सबके सामने बताने में मुझे संकोच हो रहा है लेकिन मैं यह कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं पहले भी एक से ज्यादा मौके आए हैं जब ऐसे ही आवेगों ने मुझपर  काबू करने के तीर चलाए हैं पर मैं उनके चंगुल में नहीं फंसा,निकल आया."

"क्या आपको नहीं लगता डेविड कि हम जिस तरह के एकेडमिक माहौल में रहते हैं काम करते हैं उस में हमारे लिए कुछ त्याग करने की दरकार है? अपने आसपास रहने वाले तमाम लोगों का हित देखते हुए हमें निजी तौर पर बहुत सारे प्रलोभनों और सुखों से खुद को दूर रखना जरूरी है?"

"क्या आप अलग-अलग पीढ़ियों के लोगों के बीच अंतरंगता पर पाबंदी लगाने की बात कर रहे हैं?"

"नहीं मैं इस बारे में कोई फैसला नहीं सुना रहा हूं. लेकिन जहां तक हम शिक्षकों का सवाल है हमारे काम के साथ अधिकार और प्रभाव भी जुड़े हुए हैं. मुझे शिक्षक और छात्र के बीच अधिकार और प्रभाव के संबंध और इन व्यक्तियों के बीच के अंतरंग  शारीरिक संबंधों के घालमेल पर एतराज है,  और मैं उन पर पाबंदी के पक्ष में हूं. सारे मामले को समझने के बाद मुझे लगता है कि आप के मामले में यही हो गया था. यदि हम पाबंदी तक न भी जाएं तो बहुत ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है."

बात को लंबा खिंचते देख फरोदिया रसूल ने हस्तक्षेप किया :

"फिर हम चकरघिन्नी में गोल गोल घूमने लगे, मिस्टर चेयर. डेविड का कहना है कि वे दोषी हैं लेकिन जब हम मामले की तह में जाते हैं और खास घटनाओं पर चर्चा करना चाहते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके कबूलनामे में एक युवा स्त्री का दैहिक उत्पीड़न कहीं दिखाई नहीं देता, वह बस एक स्त्री के आकर्षण के आगे अवश हो जाने का बहाना बनाते हैं जिस पर उनका कोई काबू नहीं रहा. अपने बयान में वह कहीं भी एक स्त्री को परेशानी में डालने या आहत करने की बात कबूल नहीं करते, यह उत्पीड़न सिर्फ एक घटना तक सीमित नहीं है बल्कि इसका एक लंबा इतिहास है और मिस इसाक्स के साथ किया गया उनका यह बर्ताव उसी मानसिकता से किया गया जुर्म है. इसीलिए सारे मामले पर गौर करने के बाद मेरा मानना है कि प्रो. लूरी के साथ बहस करके हम सिर्फ अपना समय खराब कर रहे हैं,इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है. हमें उनके बयान को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए और जो उन्होंने कहा उसे अपनी कार्यवाही में शामिल करके अपनी सिफारिशें युनिवर्सिटी को सौंप देनी चाहिए."

उत्पीड़न- उसे इसी शब्द का इंतजार था. रसूल जब बोल रही थीं तो उनकी आवाज में न्याय की कितनी झंकार थी. वे जब उसकी ओर देख भी रही थीं तो उसके बारे में क्या-क्या सोचती रहीं कि बोलते-बोलते उनकी आवाज में इतना तीखापन और गुस्सा भर गया? क्या वे नन्ही मछलियों के बीच मुझे कोई शिकारी शार्क समझ रही थीं? या किसी बच्ची को अपने पंजे में समेट लेने वाला विशालकाय दैत्य जो उसकी चीखों को मुंह पर हाथ रख कर बंद कर देना चाहता है? 

__________________


यादवेन्द्र का जन्म 1957 आरा, बिहार में हुआ, बनारस, आरा और भागलपुर में बचपन और युवावस्था बीती और बाद में नौकरी के लगभग चालीस साल रुड़की में बीते. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले 1974 के छात्र आंदोलन में सक्रिय भागीदारी. नुक्कड़ नाटकों और पत्रकारिता से सामाजिक सक्रियता की शुरुआत. 1980 से लेकर जून 2017 तक रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक से निदेशक तक का सफर पूरा किया.

कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन. विदेशी समाजों की कविता, कहानियों और फिल्मों में विशेष रुचि-अंग्रेजी से कई महत्वपूर्ण अनुवाद. २०१९ में संभावना से ‘स्याही की गमक’(अनुवाद) प्रकाशित.

साहित्य के अलावा यायावरी, सिनेमा और फोटोग्राफी का शौक.

yapandey@gmail.com

ज्योति शोभा की अठारह नई कविताएँ

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ज्योति शोभा की इन कविताओं को पढ़ते हुए पहला असर तो यही होता है कि कुछ दिनों तक सिर्फ़ इनके साथ रहा जाए. बांग्ला संस्कृति की कोमलता और प्रेम की मुखर उपस्थिति के बीच ये कविताएँ अलग ही संसार रच रहीं हैं, मृत्यु-बोध से इनमें गहराई आ गयी है.  इन कविताओं ने हिंदी के साथ-साथ कविता की दूसरी परम्पराओं से भी अपने को जोड़कर समृद्ध किया है.
प्रस्तुत है. 


ज्योति शोभा
क वि ता एँ

1)   

क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध


अपराध के बाद दी गयी क्षमा में कितना रस आया

यह वही बताता है

जिसके केशों पर पखवाड़े की धूल है

जिसकी देह पर गिरी रहती है पूस की शीत

जो फुलिया में रहता है कृत्तिबास ओझा की तरह और

निराकार हो कर बुनता है सूत की धोती

जैसे संत कवि ओझा बुना करते थे बांग्ला के निरुद्वेग छंद

 

पन्द्रहवीं सदी में जब सुलभ थे राम मनुजों में

कुसुम कोमल राम की कल्पना में दिन निकाल दिए कृत्तिबास ओझा ने

कहते हैं इनके राम

फूल का धनुष लिए गए बन में

विलाप भी इतना सुमधुर किया- कि मेघ झुक आये मुख पर

"हाय! उद्धार प्रिया का हो ना सका".

 

देव किस देव को मनाते भला

तब जांबवंत ही सुझाते

‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’

बाण लग गया हृदय में

तब शक्ति की आराधना में डूब गए ओझा के राम

तब ढाक बजे स्वप्न में

तब शंखनाद हुआ चतुर्दिक

और बंगाल में अवतरित हुई दुर्गा की छवि

 

छवि भी ऐसी कि सोलह कलाओं जैसी नित बढ़ती थी

क्वार के जलमय नौ दिन में प्रत्यक्ष रहकर

वर्ष भर नासापुटों में भरी रहती थी

योजनतक गमकती

 

प्रेमी जैसे रहता है काल्पनिक प्रणय में

स्वप्न में कृत्तिबास समाधिलीन रहते

गौड़ेश्वर के दरबार में क्षण भर को जाते

सत्कार होता, पुरस्कार पाते किन्तु मन

फुलिया में टिका रहता

मानों प्रिया से बिछड़े प्राण न पाते थे

जिस रोज़ शाक्त सम्प्रदाय के यहाँ भोजन करते उसी रोज़ सोते वैष्णवों के घर

 

वाल्मीकि के राम जानकी के सिरहाने रहने लगे

गौरी का क्लेश मिट गया शिव से

वैष्णवों का शाक्तों से

क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध

यह कौन कहता जो कृत्तिबास न कहते

जो मुझे न कहता मेरा प्रेम

 

चाहे बांग्ला न आती हो मुझे

किन्तु यह निश्चित है

धूम्र की गठरी जो ओझा गए खोल कर

उसी से जलती हैं पुतलियाँ.

 

 

2)   

आलोकधन्वा के लिए


तुम जरूर आये हो कलकत्ता

देखा है इस शहर को रात के जीर्ण आलोक में

पहने हुए सिर्फ नीली चादर

 

लाल दीवारों और हरी खिड़कियों के पीछे का असीम अबोला पाट    

दादूरों का हठ

और तुम्हारे सफ़ेद कुरते पर बारिश का कशीदा

 

शायद ही किसी ने ऐसे देखा हो

सुपारी के गाछों पर लिपटे ग्रीष्म के निर्दोष नभ को

जैसे तुमने देखा है

 

पटना में छूटे हाथ का लालित्य

क्या नहीं मिलता डाल पर भीगी जवा से

 

तुम जानते हो आलोकधन्वा

यहीं आयी तुम्हारी कविता की भागी हुई लड़कियां

उड़ती मेघमालाओं जैसे

सोई हैं बालों में कुमुदिनी लगाए

उनकी त्वचा के नीचे चमकता है पारे जैसा जल

 

खुद तुम्हारे शहर का शरद् आया था साथ

झीनी ठण्ड लिए

यहीं छूट गया तुम्हारे पीछे

 

तुम जल्दी में गए थे शायद

कुछ निष्कम्प शब्द बांधे कुछ बिखेरे इस पुराने शहर की हवा में

अब भी सरसराते हैं वे दौड़ती रेल के संग

धान के खेतों में उतर कर

 

कुछ छोटे महीनों के पीछे कुछ और लम्बे महीने आते हैं

जैसे तुम आये थे आलोकधन्वा

और यहीं रह गए

कि फिर आने से अच्छा है रुक जाना कलकत्ते में.

 

 

3)   

कि यह सतयुग की कथा है

 

कृष्ण पक्ष की अर्ध रात्रि गंगा किनारे

तुम्हारी कथा सुनती हूँ

चिबुक मेरा तुम्हारे घुटनों पर है

और दृष्टि अंतरिक्ष के एक मेघ पर

 

हृदय प्रेत सामान परिक्रमा करता है तुम्हारी देह की

केश उड़ते हैं शीतल हो के

एक एक कर खोलती हूँ

गेंदे के आभूषण

तुम्हारी कथा के नायक राजा राम चुनते हैं उन्हें

कि कलयुग में कौन पहनेगा इन्हें

 

धृष्ट हैं झींगुर

आते हैं मेरी तुम्हारी कथा के बीच

कौन पूछे मंत्रमुग्ध अवस्था में

जैसे यक्ष, गंधर्व देव सब की गृहस्थी है

क्या इनकी नहीं है

 

जरा हाथ उठाती हूँ तो नौका डोलती है

तुम्हारी कथा के नीचे प्रगाढ़ जल है

मैं झुकती हूँ किन्तु

एक साक्षात अस्पृश्य स्त्री उसे छू कर देखती है

 

तुम्हारी कथा में मृत मृग का रक्त चमकता है पलाश जैसे

उठती हूँ कि नखों पर मल लूँ

तुम खींचते हो मेरा मणिबंध

कि यह सतजुगकी कथा है

बैठो, जानकी की हँसुली का मूंगा भी रक्तिम चमकता है

 

अदृश्य वार्तालाप में चूमती हूँ तुम्हारे अधर

तिमिर और गाढ़ हो गया है

कलियुग और भीषण

उठा नहीं जाता

कथा में कथा चलती है संसार में.

 

 

4)   

अपनी कविताओं के विपरीत

 

चेहरे पर इतना शरद् है उसके

जिससे गर्म नहीं होता हृदय

बस सिंकता रहता है

रात्रि आलोक में सिंकते

बनफूल की तरह

 

मेरा कवि छत्तीसगढ़ से चला है

पहर भर रुकेगा गंगासागर में, रात काटेगा

तब उतरेगा कलकत्ता में

उसके बक्से, पेटी और किताबें भी उतरेंगी

जैसे सूरज उतरता है

मेरे कमरे के दर्पण में

 

उसके कान इतने ठंडे हैं दोपहर में

जितने झरनों के नीचे होते हैं कंकर

अचानक ही छू गए

पहले मुझे भी पता नहीं था

दूर से छुए जा सकते हैं तारे

 

मेरे जन्म से मीलों दूर उसका जन्म है

आंधी मिला दे तो मिला दे

बाढ़ मिला दे तो मिला दे

और कोई सूरत नहीं

दुर्घटना के अतिरिक्त

 

किसी दूसरे से बातें करता वह कितना औपचारिक

क्या इतना ही होगा

इतना ही कम

अपनी कविताओं के विपरीत

जो मृत्यु की लपट जैसी सिहरा देती है मुझे.

 


 

5)   

मन एक पुरुष का अहम था

 

जितना बाँधा गया

उतना खुला

मन एक पुरुष का अहम था

कुछ और न था

 

अभिसार की बेला

तुम्हारे मुख से आयी मेरे मुख में

भाषा ऐसी थी

जैसे मिसरी की ढेली

 

उत्तर की और मुख कर सोती

दक्षिण की ओर पगतल

ऐसे ही रहती कविता

कवि के समानांतर

जैसे रहती है उसकी स्त्री

 

तुम रजत माला की तरह फेरते

वह चाहती तुलसी माला की तरह फेरी जाए

भाव की तरह खोने न पाए

कठोर पाषाण सी जगहों पर

शब्द की तरह सूख कर गिरने की जगह मिले

 

कर्णफूल न था वह

संवाद था मेरा अपनी अपूर्णता से

जिसमें उलझ जाते तुम

उलझ जाता मेरा शिल्प

 

मेरी वेणी की बेली थी

जो जितनी नष्ट हुई

उतनी ही तीव्र हुई उसकी गंध

तुम्हारी देह में आयी

तुम्हारी निद्रा में आयी

आयी तुम्हारे चरित्र में

जैसे आती है मध्य मार्गी समीक्षा

एक पुराने अपदस्थ कवि द्वारा

एक नए कवि की.

 

 

६)   

तुम आओ तो दिखाऊँ तुम्हें कलकत्ता 

 

तुम आओ तो दिखाऊँ तुम्हें कलकत्ता

क्या पता कल तक मैं न बचूं

न मेरी कवितायेँ बचे

 

क्या पता तुम फूल लाओ या फिर विमल मित्र की किताब

एक घाट पर मिलो या एक ट्राम में

 

तुम आओ तो कहूँ 

 

मेरे बाद लोग पढ़ेंगे मेरी कविताएँ

सम्पादक छापेंगे मेरे एकालाप

उत्तम कुमार जैसी सुन्दर दिखूँगी पत्रिका की श्वेत श्याम छवि में

मेरे बाद मेरे घर का पता पूछने लगेगा कोई अखबार बेचने वाला

कि उसे जानना है ठाकुरबाड़ी का पता

मेरे बाद बंसी बनाने की एक पुरानी कला सीखाने आएगा कोई कारीगर

कब से बुलाती थी उसे

 

मेरे बाद तुम भी आ जाओगे कलकत्ता

देखना, नए गुड़ की ऋतु होगी

सौंधी गंध आएगी चाय दुकान की आंच से

पूस की रात रस चुआती होगी

जैसे जल बहता है शोभा बाज़ार की एक शास्त्रीय नर्तकी के पैरों से

 

मेरे बाद ठीक मेरी तरह देखना

कलकत्ता ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर है

सब स्टीमर गोल वलय में घूमते हैं

 

तुम कहीं से भी शुरू करोगे भ्रमण

तुम्हारी दृष्टि में तिरता रहेगा बेलूर मठ

फिर भी तुम पूछते रहोगे चालक से-

और कितना समय शेष रहा इस जल में

और कितना इस जग में.

 

 

७)   

इसी बहाने कुछ नया होगा

 

क्योंकि और किसी से नहीं कह सकती

तुमसे कहती हूँ

पड़ोस में कपड़ों की अलसायी गंध

और कमरे में फैली है किसी बंदरगाह की बासी छुअन

छूटूँगी इनसे तो आऊँगी

चौरंगी की उसी दूकान में

जहाँ दर्पण ही दर्पण हैं, बिम्ब ही बिम्ब

संसार मात्र प्रतिबिम्ब

संकलित रचनाओं के पीछे खड़ा पुस्तकालय बूढ़ा होता जाता है

पुरानी हो चुकी महामारी में नयी पीड़ाओं जैसे उठती है

घर लौटने की, केश गूंथने की, चिलम भरने की हुक

घृणा फीकी होती है मैले पड़े पलंग से

और अपराध होते भी हैं तो इतने छोटे जिनसे अंतर नहीं पड़ता साँसों की लय में

पानी गिरता है तो कीच हो जाता है

गल्प गिरती है तो चरित्रहीन

सब जंजाल के साधन जुटाए हैं जीवन ने

छूटूँगी तो आऊँगी

शीत में ठिठुरते मायापुर के भोग में

दो गज़ कपड़ा फाड़ कर झंडा बनाने वाले

और तिरपाल से साहित्य का मंच बनाने वाले संसार से छूट कर आऊँगी

इसी बहाने कुछ नया होगा नगर की गोष्ठी में

युद्ध टाला जाएगा अगले सत्र के लिए.

 

 

 

8)   

तुमने टाल दी विपदा

 

म्लान आकाश पर टाल दिया था आमंत्रण

आषाढ़ के गदराये गाछों पर टाल दिया था

तुम्हारे टाले से टल गया दुर्भिक्ष

बच गयी चीलें

बच गए उजले झुटपुटे और

उनमें घुटने भर पानी

कि कलकत्ता डूबा सके अपनी डोंगियां

किन्तु निर्दोष रह जाए मन से

अचानक के पश्चाताप में रह गया मेरा दर्पण

जैसे दृष्टि में रह गया दृश्य

अपराध टल गया

जिस साल पत्र पर जीवन ऋण लिखा है वह घूमता है रेलों में

कल्पना में अल्प वय की कल्पना करता है

हठ नहीं करता

कि डूबना है बंगाल की गंगा में

तुमने टाल दी विपदा

बच गयी विभूति भूषण की किताब

बच गयी जंघाएँ जिन पर सब सरस पोथियाँ जीवन की बही जैसे पड़ी थी

भीषण बाढ़ में भी फिर अनुराग पाने की

मनुष्य की कामना बच गयी।

 

 

९)   

दुःख से कैसा छल

 

मूरख है कालीघाट का पंडित

सोचता है

मंत्रोचार से और लाल पुष्पों से ढक लेगा पाप

नहीं फलेगा कुल गोत्र के बहाने कृशकाय देह का दुःख

 

मूरख है ममता बन्दोपाध्याय का रसोइया

दुःख को सुन्दर माछ की तरह रांधने का

प्रयास करता है

 

मूरख है धर्मतल्ला का व्यापारी

गरम चादर की तरह

नित ही

दुःख बेचकर खरीदता है दुःख

 

मूरख है विक्टोरिया का बुढ़ा कोचवान

हिनहिनाते हैं दूर दूर खड़े पशु तो

मात्र चारा पानी देता है उन्हें

 

कामदेव के बाण की तरह मूरख है संसार

द्वार पर आम पत्र बांधता है

नहीं जानता

उसी के सुसज्जित कुटुंब से निकला है दुःख जुलूस बन के

 

और सबसे मूरख हैं ये कवि

संसार के दुःख को भाषा से छलते हैं।

 

(by Ishita Adhikary)


१०)  

जितने दिन कलकत्ते रहूँगी

 

जितने दिन कलकत्ते रहूँगी

निर्भय उतरूँगी सुंदरबन के अकेले स्टेशन पर

 

प्रेम सार्वजनिक करूँगी

गालियाँ सार्वजनिक दूँगी

नारों की तरह निमंत्रण भी सार्वजनिक दूँगी प्रेमी को

 

अभी कलकत्ता इतना भी गया गुज़रा नहीं हुआ है

कि भूल जाए पुराने दिन

हाथ गाड़ियों में दौड़ते पौष के चन्द्रमा को

भूल जाए शिराओं की कलप को

भूल जाए 'हे राम'में छुपे हिंसा के विलोम को

 

मुट्ठी भर चिनियाबादाम फाँक कर

चौराहे पर पढूँगी सरकार के खिलाफ लिखी कविता

 

जितने दिन कलकत्ता रहूँगी

मेरी देह से आती रहेगी पोखर की कमलिनी की गंध

 

इतना व्यर्थ भी नहीं कलकत्ता

कि पुकारूँ और पलट कर न देखे

 

बरसों पहले की मिष्टी दुकान के सन्देश आज भी सरस हैं

बदले नहीं कतई

वरना तो रोज़ नयी सरकार आती है देश में

मोना ठाकुर की नयी साड़ियों जैसी.

 

 

११)  

मृत्यु के बाद और भी सुन्दर हो गए हो तुम

 

मृत्यु के बाद और भी सुन्दर हो गए हो तुम

 

भोर की निराशा से परे

रात की मलिनता से अछूते

 

मैं आना चाहती हूँ तुम्हारे पास

शिशिर के पार

फिर एक जीवन की खोज की तरह

 

किन्तु रहते हैं वे शब्द

बीच सिहरन

बीच श्वास

बीच स्पर्श

निर्वात के ऊपर या फिर

मेरी ही देह के अतल अंधकार में

 

मुझे आने नहीं देते हैं.

 

 

1२)  

वर्ष के अंत तक

 

वर्ष के अंत तक बचा लिए हैं

खोजबीन वाले औजार

अब उतर सकूँगी निर्मम पहरों में और खोज लाऊँगी

फैज़ की नज़्म

मेरे कानों पर झुक कर गा रहा है वह

जब अज़ान हो रही है पास के मस्जिद में

जब होड़ कर रहे हैं मेघ कबूतरों की पाँत से

जब कर्फ्यू लग रहा है पूस की कालिमा में

 

क्यों जाओगे तुम आदिम कथा में

लोहे की खुरपी लाने

कथाओं से संदर्भ नहीं निकले जाते

बचा लिए हैं मैंने अपने नख

अपने दाँत

तुम्हें नहीं पता

गीली माटी पर

बहुत सुन्दर कला उकेरते हैं प्रेमी

 

वेद ग्रन्थ तो गल गए

बीच अरण्य के कांस भी मुरझा गए

मूक हो गए विख्यात घरों के शास्त्रीय गायक

क्यों मांगते हो रोजगार

क्यों चाहते हो स्वाधीनता

क्यों नष्ट होते हो प्रेम में

 

इस असम्भव दृश्य के अंदर ही

बचा लिए मैंने स्वेद के धब्बे बालों में छुपा कर

किसी भी धरने में

किसी भी प्रणय में

किसी भी जैविक समीकरण में इसकी जरूरत रहेगी

 

वय के तीसरे पहर तक

बचा लिए हैं संताप

अब खुल कर मिलूँगी सरस गद्य लिखते काका दीपांकर दास से

ताड़ी फेंटती प्रभाबाला से ठिठोली करुँगी

पंडित उमा चौधरी के ठाकुर के समक्ष कपूर की तरह धुआँ होती रहूँगी

पछाड़ खाती गंगा में बैठूँगी

झरूँगी तुम्हारे कन्धों पर

जैसे इस समय रात्रि की ठंडक झरती है

हलके हलके.

 


1३)  

किन्तु मैं नहीं मरी

 

किन्तु मैं नहीं मरी

 

नाम भानु गुप्ता था

एक छोटी दुकान थी चाय की

दूध की मीठी गंध से चौक गंधाता रहता

और टपरी पर धुंए के मेघ डोलते

देखते ही पूछ लेता-

केमोन आछो बाउदी !

मारा गया कोरोना में

मैं अब भी अच्छी हूँ

 

नदी पार गाँव में कुम्हार आता था

पूजा के कच्चे दीपक ले कर

इस बार कराहता था खाट में

और दीपक जलता जाता था मेरी देह के निकट

जैसे सब आलोक से पूरित ही है संसार में

 

जिस रिक्शे में हाट जाने का नियम था

वह झोली भर निम्बू लिए हाँक लगाता था गली में

बोला- गाड़ी छीन ली मालिक ने

भाड़ा नहीं दे पाया कई मास हुए

फिर कई बार देखा उसे

मेरे म्लान चित्त की तरह

पैर ऐसे चलते थे उसके जैसे अदृश्य पहिये पर चलते हैं

 

जरा दूर के अस्पताल में

देश दिशावर से आते परिचित मारे गए

जिनके नाम तक अज्ञात थे

नीचे तक गिरा हुआ आँचल इसलिए भीगा

क्योंकि पड़ोस में स्नान करते शव का जल ढलक गया इस तरफ

 

नदी पर बैठी नाव मारी गयी

दो शहरों के बीच की ज़मीन मारी गयी

बाबा मारे गए

कविता मारी गयी

 

किन्तु मैं नहीं मरी

 

जैसे कभी नहीं मरती है उदासी

श्वेत श्याम से रंगीन हो जाती है बस।

 


1४)  

बेलुर की श्यामल सांझ में

 

बेलुर की श्यामल सांझ में

एक सराय ही है हमारी नींद

तुम भी ठहरते हो

मैं भी ठहरती हूँ

बिलकुल पास पास वाले कमरों में

जैसे कविता लिखते एक हाथ के पास ठहरता है एक दूसरा संकोची हाथ

 

नींद में ही बनते हैं घर

नींद में गिरते हैं छप्पर

नींद में आते हैं मेघ

ढक लेते हैं पतझड़ से नग्न कलकत्ता को

 

छज्जे के नीचे बजता रविंद्र गान फीका पड़ जाता है

चले जाते हैं ढाकी अपने देस

जैसे चली गयी देवी के पीछे उग आता है

एक भूला क्लेश

 

नींद में आये कठोर शीत का जल

म्लान मुख पर लपलपाता है

फूले काठ की तरह

अधिकतर संकेत से भरी भाषा नहीं खुलती नींद में

 

तुम कहते हो

इस जगत में सराय ही सबसे उपयुक्त जगह है संवाद के लिए

 

नींद में उठकर ही मैं आती हूँ अपने हृदय के पीछे

अपनी देह लिए.

(by Satyam Roy Chowdhury)

 


1५)  

इसी तरह आएगी आग

 

इसी तरह आएगी आग

देवताओं के सूखे मुखों से

और निगल लेगी हमें

इसी तरह एक बरजते दिवस

रंग उड़ जाएगा खिले सिमुल का

और पानी हो जाएगा वह

 

इसी तरह गुप्त रह गया सरकारी खज़ाना

संवाद में आये गुप्त संकेतों जैसे

देह पर नमक लेकर लौटे बंधुआ

और प्रेयसी की पीठ बियाबान हो ग‌ई

 

इसी तरह द्वार पर डोलते रहे भूखे बछड़े

और दुशाला हाथ आ‌ई एक प्रसिद्ध कवि के

 

इसी तरह सुन्न हो गई थी मेरी उंगलियाँ

एक घने अंधकार को छूते

और सच मान लिया

स्त्रियों के दर्शन में निम्न स्तर पर हैं स्त्री का वैभव

जबकि सिन्धु लाँघ गये तरूण ऐश्वर्य पाने

नष्ट कर आये यौवन

 

इसी तरह चीख कर चुप हो गई सभ्यता

गगनचुम्बी हो गये नगर

राजाओं, प्रेमियों को मिली काष्ठ की सुंदर प्रतिमाएँ

नौकाएँ झंझावात के साथ डुब ग‌ई

और देखते रहे सागवान के ऊँचे दरख्त

 

इसी तरह हम सबने

दुःख को देखा है दुःख से ढकते हुए

 

 

1६)  

वैसा नहीं होगा सम्मोहन का अंत

 

वैसा नहीं होगा सम्मोहन का अंत

जैसा मैं सोचती हूँ

 

वैसा भी नहीं जैसा तुम सोचते हो

 

लौटती रहेंगी चींटियां

लौटते रहेंगे व्यापारी

जैसे हम लौटते हैं अपनी देह में

और घटने लगता है कौतुक

 

सम्मोहन झड़ने लगता है किनारों पर

माटी की बांबियों से.

 


१७)  

इतनी उम्मीद मत करो मुझसे

 

इतनी उम्मीद मत करो मुझसे

जितनी सूने रास्तों पर इस समय खाली ट्रामें करती हैं

और बहुत धीमे चलती हैं

भीगती रहती हैं

अनिश्चित कोलाहल की तड़प में

 

इतनी उम्मीद में रुँध जाता है नभ

जितनी गेंदे की सुगंध करती है

संत गवैयों के आह्वान में मत्त

वेणी से झूलती हुई

 

मैं शरबिद्ध हूँ

अंतर नहीं जानती

औषध और तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श में

हो सकता है मूर्छा में

ताज को विक्टोरिया कह दूँ

मंदिर की पताका को मस्जिद का गुम्बद

इतनी उम्मीद मत करो मुझसे

कि भूल जाऊँ

भीगी है मेरी पीठ

मैं मेघों के देश में हूँ

 

हटा दो मेरी देह पर से

सुंदर फूलों का वैभव

नक्काशीदार संग्रहालयों की छाया

घासफूल पर लेट जाओ मेरे पास

और लौटा दो उन दूतों को

 

जो स्वर्ग की उम्मीद देने आये हैं

इस ठण्ड में गर्माती देह को

थक जाएंगे तो पशु हो जाएंगे हम

किसी भी दिशा में मुख कर के रो लेंगे

किसी भी झाड़ी से अंधकार मांग लेंगे

किसी भी गुफा से उष्णता

जितने दिवस युद्ध होगा

उतने दिवस सोते रहेंगे

 

इतनी उम्मीद मत करो

कि मृत हिलसा से भारी हृदय लिए

नापते रहोगे हुगली का पाट

जी पाओगे सिर्फ मनुष्य हो कर. 

 

 

१८)  

मरीचिका है यह शहर

 

मरीचिका है यह शहर

नींद में टटोलती हूँ तो हाथ नहीं आता है

 

बदल लूँगी एक दिन इसे जन्मस्थान में

किसी ढह चुके सरकारी अस्पताल का नाम दे दूँगी आवेदन पत्र में

किसी सहमे मृग की तरह चुप रहूँगी श्वास रोके

जहाँ एक भी आखेटक दिखेगा कवि की मुद्रा बनाये

 

मनोरथ की तरह बताते हैं रसिक इसे

पूंजीपति कहते हैं तमाशबीनों और सस्ते बहरूपियों का तीरथ है

नेता इसे धर्म की तरह बरतते हैं

जितनी भी भीड़ हो फतवों के हक़ में हो

 

बदल लूँगी इसे

अपने बिस्तर से

सुनूँगी जुलूस में हिंदी भाषियों के विरुद्ध होता धरना

और निश्चिन्त

देर तक सोऊँगी मेघों से घिरे दिवस में

 

पड़ोस में रहते असमिया भद्रजन से कहूँगी

विस्थापित नहीं आते यहाँ

प्रेमी आते हैं

रूपक की तरह आते है जैसे नीलकंठ एक संस्कृत के दोहे में

 

भगाता है मुझे यह अपने पीछे सारी रात

स्वप्न में घाम से भर जाती है मेरी पृथ्वी

बदल लूँगी इसे

सजा पाए अपने लाख के आभूषण से

 

उत्तप्त करेगा मेरी आत्मा तो

दुःख में पिघलेगी इसकी देह

छाती में गड़ा रहेगा

कांस जैसे गड़ती है शरद की हवा के तलवे में.

___________

 



ज्योति शोभा के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. कोलकाता में रहती हैं.

jyotimodi1977@gmail.com



भगवानदास मोरवाल से राकेश श्रीमाल की बातचीत और ख़ा न ज़ा दा

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काला पहाड़(१९९९), बाबल तेरा देस में(२००४) तथा रेत(2008) से चर्चित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल (जन्म: २३ जनवरी,१९६०) इधर २०१४ से लगभग हर साल उपन्यास आदि लिख रहें हैं- नरक मसीहा(२०१४), हलाला(२०१६), पकी जेठ का गुलमोहर (२०१७), सुर बंजारन(२०१८), वंचना(२०१९), शकुंतिका(२०२०) तथा २०२१ के आरम्भ में ख़ानज़ादा. यह उपन्यास चौदहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी के बीच मेवातियों के उत्पीड़न और संघर्ष  की कथा कहता है.

भगवानदास मोरवाल को जन्म दिन की बधाई. इस अवसर पर उनसे राकेश श्रीमाल की बातचीत और ख़ानज़ादा. का एक अंश आप यहाँ पढ़ेंगे.    




भगवानदास मोरवाल से राकेश श्रीमाल की बातचीत  

 

राकेश श्रीमाल


१.

राकेश श्रीमाल 

बचपन में ऐसा कब लगा कि कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है ?

 

भगवानदास मोरवाल

अगर मैं अपने बचपन के बारे में बात करूँ तो मेरा बचपन इस देश के उन असंख्य वंचित, उपेक्षित और अभावों में पले-पढ़े बच्चों की तरह रहा है, जिनके लिए लिखना तो दूर की बात रही, सलीक़े से पढ़ना भी एक बीहड़ चुनौती रही है. पढ़ने से मेरा यहाँ तात्पर्य शिक्षा से और वह भी एक व्यवस्थित शिक्षा से रहा है. इस शिक्षा में सबसे बड़ी भूमिका हमारे सामाजिक और पारिवारिक परिवेश की होती है. शिक्षा के प्रति जो चेतना हमारे समाज में होनी चाहिए, उस तरह की चेतना उस दौर अर्थात सत्तर और अस्सी के दशक में कम-से-कम मेरे मेवात में नहीं थी. यह सुनकर भले ही आपको कुछ अटपटा लगे लेकिन यह सही है. इस चेतना के मूल में सबसे बड़ा कारक था आर्थिक पक्ष. इसलिए हमारे भारतीय समाज, विशेषकर गाँव-देहातों के आर्थिक रूप से विपिन्नपरिवारों में व्यक्ति को एक अर्जक के रूप में देखा जाता है. उसे मात्र कमाई करने वाली एक इकाई के रूप में देखा जाता है. इसीलिए उसे सबसे पहले ‘कमेरे’ के विशेषण से नवाज़ा गया है. उसकी पढ़ाई-लिखाई को भी इसी रूप में देखा जाता है. इसलिए हमारे यहाँ अक्षर-ज्ञान यानि साक्षरता को ही शिक्षित होने का पर्याय मान लिया गया है. स्त्री के लिए तो यह और भी विचित्र है. उनके लिए शिक्षित होने का अर्थ है केवल अपनी कुछ धार्मिक या मज़हबी पुस्तकों का पढ़ना या फिर ज़्यादा हुआ तो घरेलू कार्य में दक्ष होना.

 

ऐसे में आज के एक मुख्यधारा के उस लेखक से यह सवाल करना वाकई दिलचस्प है कि बचपन में ऐसा कब लगा कि कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है. जहाँ तक मुझे याद है मैंने पहली बार किसी अख़बार को तेरह-चौदह बरस की उम्र में पढ़ा. पढ़ते हुए मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि आख़िर लोग अख़बारों को क्यों पढ़ते हैं. यह पहला अवसर था जब लगा कि हम एक छात्र के रूप में अपनी पाठ्य-पुस्तकों में जो पढ़ते हैं, उस पठन-पाठन की दुनिया कितनी व्यापक है. मुझे याद पड़ता है कि मैंने किसी बड़े लेखक की जो रचना पहली बार पढ़ी, वह अपने बचपन में शायद सातवीं कक्षा में पढ़ी और वह रचना प्रेमचंद की ‘बड़े घर की बेटी’.लेकिन इसी दौरान मैंने जिस बड़ी रचना को पढ़ा, वह था विलियम शेक्सपीयर के मशहूर नाटक ‘मैकबेथ’ का बालोपयोगी संस्करण. इसे पढ़ने की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है और वो यह कि एक बार मैं अपने पड़ोस के ओमप्रकाश मेहता अर्थात ओमी मास्टर, जो पास के एक गाँव में प्राथमिक अध्यापक थे, गर्मियों में उनके साथ उनकी पाठशाला चला गया. आपको सुनकर हैरानी होगी कि उस समय यह पाठशाला किसी विधिवत् सरकारी भवन में नहीं, बल्कि एक पुराने मकबरे में चलती थी. इसी मकबरे के नीचे ख़ाली जगह में जहाँ एक तरफ़ इस गाँव के एक स्थानीय ग्वाले की भेड़-बकरियों का रेवड़ आराम करता था, वहीं पास में एक साफ़-सुथरी जगह में पाठशाला की कुछ बड़ी-बड़ी संदूकें रखी होतीं. इनमें से कुछ में पाठशाला का ज़रूरी सामान रखा होता, तो एक बड़े संदूक में बच्चों की किताबें रखी होती थीं. अगर इसे मैं यह कहूँ कि यह संदूक पाठशाला का पुस्तकालय था, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

 

ओमी मास्टर ने मेरे सामने अपने पाठशाला के उस पुस्तकालय को खोल दिया. इस पुस्तकालय से जो मैंने पहली किताब ऐसे ही छाँटी, वह ‘मैकबेथ’ थी. मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया तो यह मुझे इतनी रुचिकर लगी कि इसके बाद मैंने यहाँ से ‘हेमलेट’ और‘ऑथेलो’ ली. मगर जो मज़ा ‘मैकबेथ’ में आया इनमें नहीं. इसके बाद मुझे ऐसी पुस्तकों को पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि मैंने फिर अपने स्कूल राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के पुस्तकालय से ‘रॉबिन्सनक्रूसो’ औ र‘पोंड ऑफ़ फ्लेश’ का संक्षिप्त संस्करण ’वेनिस का सौदागर’ पढ़ा. इसी तरह मुझे याद आता है कि मैंने दूसरी बड़ी रचना, जब मैं ग्यारहवीं में था तब पढ़ी थी और वह थी जैनेंद्र की कहानी‘पाजेब’.इसके अलावा जो मुझे याद पड़ते हैं उनमें एक निबंध था ‘गूलर के फूल’,यशपाल की ‘परदा’और मोहन राकेश का एक एकांकी ‘अंडे के छिलके’. इनके आलावा मुझे याद नहीं कि मैंने अपने बचपन या छात्र जीवन में किसी रचना को पढ़ा है.


शायद इन सबसे प्रेरित होकर ग्यारहवीं कक्षा के अंतिम दिनों जनवरी 1977 में मैंने पहली बार कुछ लिखने का प्रयास किया और वह थी एक कविता, जिसका शीर्षक था ‘मेरा स्वप्न’. इसलिए मैं आज कह सकता हूँ कि बचपन में मुझे पहली बार ऐसा लगा थाकिबचपन में कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है.

 

2. 

राकेश श्रीमाल 

सबसे पहला आपने ऐसा क्या पढ़ा, जिसको पढ़कर लगा कि ऐसी चीज़ें पढ़नी चाहिए ?


भगवानदास मोरवाल

मुझे लगता है कि आपकी यह समझ कि किसी को पढ़कर यह तय कर पाना कि आपको क्या पढना चाहिए, इतनी ज़ल्दी नहीं बनती है. यह सही है कि संयोग से बचपन में जो पढ़ा वह आज की दृष्टि में साहित्यिक रचनाएँ ही हैं. लेकिन इन्हें इसलिए नहीं पढ़ा गया था कि इन्हें पढ़कर मैं यह तय कर पाता कि कि मुझे कैसी चीज़ें पढ़नी चाहिए. एक बात बताऊँ अपने शुरूआती दिनों में पढ़ने से ज़्यादा मैं लिखने लगा था. क्या लिखने लगा था यह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ. यह इसलिए कि मैंने क्या नहीं लिखा. कविताओं के नाम पर जहाँ तथा कथित हास्य और गंभीर-सी तुकबंदियाँ कीं तो ग़ज़ल, जिन्हें मैं अक्सर गजल कहता हूँ उन्हें भी लिखने का प्रयास किया. कहानी के नाम पर ख़ुद को अभिव्यक्त किया, तो कुछ व्यंग्य भी लिखे. कहने का आशय यह है कि जिसमें लगा कि इससे नाम और शोहरत मिल सकती है, उसी में हाथ आजमाना शुरू कर दिया. इसका एक कारण था और वह यह कि मुझे शुरू में कभी कोई ऐसा साहित्यिक गुरू नहीं मिला, जो यह बताता कि लिखने से पहले पढ़ना क्यों ज़रूरी है. दरअसल, यह समझ समय के साथ-साथ अपने आप बनती चली गई कि कैसी चीज़ें पढ़नी चाहिए. वरना जब पढ़ने में रूचि जागने लगी, तब लोकप्रिय साहित्य से लेकर मनोहर कहानियाँ और इकबाल-राजन सीरीज़ को खूब पढ़ा.


ईमानदारी से कहूँ तो मुझे प्रेमचंद कौन है, इसके बारे में दिल्ली में ही आकर पता चला. और जब यह एहसास हुआ कि वास्तव में मुझे किस तरह का साहित्य पढ़ना चाहिए, तब भी मैंने प्रेमचंद को बहुत बाद में पढ़ा. इससे पहले मैंने फणीश्वरनाथ रेणु, राही मासूम रज़ा, शानी, अब्दुल बिस्मिल्लाह, श्रीलाल शुक्लको पहले पढ़ लिया. मेरा अपना यह मानना है कि एक गल्पकार विशेषकर मुझ जैसे एक लेखकको साहित्येत्तर चीज़ें अधिकपढ़नी चाहिए. इसीलिए मेरी कोशिश रहती है कि मैं अधिक से अधिक समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक, धर्म और संस्कृति संबंधी चीज़ें पढूँ. इनको पढ़ने से मेरी समझ और दृष्टि न केवल व्यापक बनती है बल्कि अपने आपको भी इनसे समझने में आसानी रहती है. उदाहरण के लिए मैंने जब क़ुरान, मनुस्मृति और अन्य ऐसी पुस्तकों को पढ़ा, तब मुझे लगा कि एक लेखक को अपने समकालीन साहित्य को तो पढ़ना चाहिए ही बल्कि ऐसे साहित्य को भी पढ़ना चाहिए जिनसे हमारे लेखन के बहुत से महीन और बारीक  रेशे तैयार होते हैं. शायद यही कारण है कि अपने आसपास को देखने का नज़रिया मेरा बहुत स्पष्ट है. कभी-कभी यह नज़रिया पुस्तकों की अपेक्षा आपके उस वातारवरण से साफ़ होता है कि आप जिस दुनिया में रहते हैं, वह क्या है.

 

३.  

राकेश श्रीमाल 

कब उस पढ़े हुए पर ध्यान गया जब काला पानी कहे जानेवाले मेवात जैसे बेहद पिछड़े हुए इलाक़े के एक गाँव से, आए हुए एक युवा को एहसास हुआ कि लेखन भी जीवन में महत्वपूर्ण हो सकता है ?


भगवानदास मोरवाल 

यह बात नब्बे के दशक के एकदम शुरू की है. बीए करते ही रोज़गार की तलाश में मैं दिल्ली आ गया. दूसरे शब्दों में आप इसे पलायन भी कह सकते हैं. हालाँकि इस पलायन की मुख्य वजह शहर आकर किसी तरह का कैरियर बनाने की नहीं मेरी एक पारिवारिक वजह थी. जिस उम्र मैं आज के दौर में एक बीस-इक्कीस साला युवा अपने सपनो और आकांक्षाओं के खुले आकाश में कुलाँचें भरता है, उस उम्र में नब्बे के दशक में मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ दूसरी तरह की थीं. इस उम्र तक आते-आते मैं एक बच्चे का पिता बन चुका था. जैसाकि मैंने कहा था कि मेरा बचपन इस देश के उन असंख्य वंचित, उपेक्षित और अभावों में पले-पढ़े बच्चों की तरह रहा है, उसके साथ आप यह भी जोड़ सकते हैं कि आर्थिक विपन्नता ने युवावस्था में मुझे भी इस देश के उन असंख्य युवाओं की तरह पलायन पर विवश कर दिया. नब्बे के दशक के मध्य में जब मैंने दिल्ली के दिल कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस में जाना शुरू किया और यहाँ जब आने वाले लेखकों के बीच बहस-मुबाहिसों को सुनता, तब मुझे लगा कि पिछले कुछ वर्षों में मैंने जैसा भी कच्चा-पक्का लिखा और पढ़ा है, उसे विस्तार देना चाहिए. 


धीरे-धीरे अपनी ही कविताओं में परिपक्वता और सुघड़ता आने लगी. शुरूआती जो कहानियाँ कहानियों की मूल शर्तों को पूरा करने में असफल थीं, आने वाली कहानियों के सरोकार और व्यापक होने लगे. इन दिनों पहली बार इस पर ध्यान गया कि मैंने अपने स्कूली दिनों में अपने पड़ोसी ओमी मास्टर की पाठशाला और अपने क़स्बे के राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के पुस्तकालय से लेकर जो किताबें पढ़ीं, उनका महत्व अब समझ में आने लगा था किलेखन भी जीवन में महत्वपूर्ण हो सकता है.

 


4.  

राकेश श्रीमाल 

इस नब्बे के शुरूआती दशक में आप दिल्ली आए, और इन शुरूआती दिनों में जब धीरे-धीरे यहाँ के साहित्यिक परिवेश में घुलने-मिलने लगे, तो इस परिवेश में आप अपने आपको किस तरह महसूस करते थे ? कैसा लगता था उन दिनों ?


भगवानदास मोरवाल 

राकेश जी, दिल्ली का साहित्यिक परिवेश दरअसल हमेशा से कई परतों या कहिए कई रूपों में बंटा रहा है. ये परतें आज भी दिखाई दे जाएँगी. इसे उदहारण के रूप में इस तरह समझा जा  सकता है. आज की तरह इसका एक रूप तो वह था जो वैचारिक रूप से वामपंथी होने के कारण एक बड़ा लेखक वर्ग इसमें शामिल था. हमारे लेखक संघ जैसे जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ भी उन दिनों बेहद सक्रिय थे. 


दूसरा रूप वह था जो किसी लेखक संघ में नहीं थे या जिनका आज की तरह यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि उनकी विचारधारा क्या है. इसके बावजूद ये दोनों तरह के लेखक आपस में खूब विचार-विमर्श करते. इनके अलावा दिल्ली के विभिन्न दिशाओं में कवि, कथाकारों के छोटे-छोटे समूह थे. यहाँ एक बात और बता दूँ लेखक संघों से जुड़े होने के बाद भी लेखकों के ऐसे कुनबे भी थे जो संगठित तरीके से काम करते. मसलन एक संगठन हुआ करता था राइटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया. इस संगठन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसका कोई व्यक्ति भले ही वह लेखक ना हो, इसका सदस्य हो सकता था. इस संगठन के सर्वेसर्वा सालों तक हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका ‘कादम्बिनी’के संपादक राजेंद्र अवस्थी हुआ करते थे. 


बल्कि नब्बे के दशक में एक ऐसा ही एक और स्कूल था जिसकी चर्चा मैं यहाँ विशेष रूप से करना चाहूँगा, और यह स्कूल था डॉ. जीवन प्रकाश जोशी स्कूल. डॉ. जीवन प्रकाश जोशी ‘सन्धान’ नाम की एक संस्था के संस्थापक थे और त्रिशंकु प्रकाशन के अंतर्गत युवा कवियों को प्रोत्साहित करते थे. ‘सन्धान’ भी समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किया करता था. इसी तरह एक और कुनबा था हमारे कवि-कथाकारों का जिससे जुड़े लेखकों को आईटीओ पुल कवि कहा जाता था. इस कुनबे के ज़्यादातर लेखक टाइम्स ऑफ़ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस समूहों की पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े लेखक-पत्रकार हुआ करते थे. संयोग से मेरा थोड़ा-बहुत वास्ता इन सारे तरह के लेखकों से रहा है.


1981 के लगभग अंत में दिल्ली आने के बाद मेरा सबसे पहले वास्ता एकदम शौकिया लेखकों से पड़ा. उन दिनों छोटी-छोटी पत्रिकाओं को निकालने का बड़ा शौक था. चूँकि मैं दिल्ली लेखक बनने नहीं अपितु रोज़गार की तलाश में आया था इसलिए मैंने कभी न तो किसी लेखक की विचारधारा पर ध्यान दिया, न कभी इस पर कि वह कैसा लिखता है. मेरी नज़र में हर वह व्यक्ति लेखक था जो कुछ-न-कुछ लिख रहा है. मैं 1981 में मेवात से दिल्ली के नारायणा में अपने ही गाँव के लाला की जिस लोहे की चादर तपाने वाली फेक्ट्री में काम करता था, एक दिन पता चला यहाँ पास की एक प्रिंटिंग प्रेस में एक पत्रिका मुद्रित होती है. चूँकि मैं अपने गाँव से आए युवा मज़दूरों के साथ फेक्ट्री में रहता था इसलिए पत्रिका के कार्यालय को खोजने में दिक्कत नहीं हुई और इस तरह इस मासिक पत्रिका ‘मंजुली दर्पण’से मैं जुड़ गया. धीरे-धीरे मैं लेखकों से जुड़ता चला गया. इसी क्रम में 1986 या शायद 1987 में मैं हिंदी के एक कथाकार और सालों तक एक लघु पत्रिका निकालने वाले धर्मेंद्र गुप्त के साथ पहली बार दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस गया.


एक तरह से कॉफ़ी हाउस जाना मेरे लिए इस रूप में वरदान साबित हुआ कि मैं अब उन लेखकों से मिलने लगा, जिन्हें तब और आज भी ‘लेखक’ माना जाता है. भीष्म साहनी, विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, पंकज बिष्टऔर दूसरे ने लेखकों से मेरा यहीं परिचय हुआ. आपका सवाल है कि इन शुरूआती दिनों में जब धीरे-धीरे यहाँ के साहित्यिक परिवेश में घुलने-मिलने लगे, तो इस परिवेश में आप अपने आपको किस तरह महसूस करते थे ? कैसा लगता था उन दिनों ? सच कहूँ दिल्ली के जिस साहित्यिक परिवेश की हम कल्पना करते हैं, उस परिवेश से पहली बार मेरा सामना इसी कॉफ़ी हाउस में हुआ. मैं यहाँ बिना नागा हर शनिवार को आता और लेखकों के बीच होने वाली बहसों को चुपचाप सुनता रहता. हर शनिवार किसी-न-किसी नए विषय पर जम कर बहस होती और रात दस बजे ये बहसें तब खत्म होतीं, जब कॉफ़ी हाउस का बंद होने का समय होता. हर तरह के नए-पुराने लेखकों से यहाँ मिलना होता.  इनके बीच होनेवाली बहसों को सुनते एहसास हुआ कि मुझे क्या पढ़ना चाहिए. जब-जब मैं यहाँ भीष्म साहनी और विष्णु प्रभाकर को देखता, तोयही सोचत्ते हुए एक रोमांच से भर जाता कि मैंने हिंदी के इन बड़े लेखकों को बेहद करीब से देखा है. इसके बाद मेरे लेखन की जो दिशा बदली उसका सारा श्रेय मैं इसी कॉफ़ी हाउस को देता हूँ.


5.  

राकेश श्रीमाल 

अच्छा एक बात बताइए आपने जैसा कहा कि शुरूआत में आपने कविताएँ लिखीं. फिर कहानियों पर आए और अंतत: आपने उपन्यास की शरण में जाकर दम लिया. ऐसा क्या हुआ कि एक अच्छा-ख़ासा लेखक जिसमें कवि होने की भरपूर संभावनाएँ थीं वह कविता से विमुख हो गया अथवा उसका कविता से मोहभंग हो गया ?


भगवानदास मोरवाल

यह सही है कि मेरी भी अपने लेखन की शुरूआत बहुत से लेखकों की तरह ‘कविता’ के नाम पर लिखी गई कविताओं से हुई.  नब्बे के दशक में मेरी कविताएँ न केवल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई, बल्कि 1990 में मेरा ‘दोपहरी चुप है’शीर्षक से एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है. इसी दशक में एक समय ऐसा था जब कादम्बिनी जैसी पत्रिका के दिसंबर 1986 के अंक में ‘प्रवेश’ स्तंभ के तहत मेरी चार कविताएँ प्रकाशित हुईं. मैं इस पत्रिका और इसके इस स्तंभ का इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ कि इसके अंतर्गत संभावनाशील युवा कवियों की कविताएँ प्रकाशित होती थीं और उन दिनों मेरी एक पहचान ठीकठाक युवा कवि के रूप में बन चुकी थी. ये कविताएँ संपादक की इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुईं – उनकी कविताएँ एक रहस्यात्मकता का आवरण लेकर चलते हुए विसंगतियों को पहचान कर उकेरने की कोशिश करती प्रतीत होती हैं.’

 


इसी तरह ‘दोपहरी चुप है’ जोकि मेरा एकमात्र कविता संग्रह है, आमुख में गीतकार और कवि विजय किशोर मानव लिखते हैं कि ‘भगवानदास मोरवाल जैसे युवा कवि से, जिनका पहला कविता संग्रह आपके हाथों में है, सारी उम्मीदें नहीं की जा सकतीं. पर इस नए कवि में एक बात आमतौर पर मिलाती है और वह है अनगढ़ता के बावजूद ऊर्जा का अत्यंत व्यापक और तेजस्वी संसार. पुराना होने के साथ-साथ कवि शिल्पगत चालाकियों से जुड़कर अपनी धार और अभिव्यक्ति की तीव्रता खोटा जाता है और विषय वस्तु का क्षेत्र सिमटता जाता है.’


यह छोटी-सी भूमिका मैंने इसलिए बनाई है कि मेरे लेखन की जो शुरूआत कविता के नाम पर तुकबंदियों से हुई थी, उसमें एक संभावनाशील कवि की पूरी गुंजाईश थी. अपनी अनगढ़ताओं के बावजूद इनमें ऊर्जा का व्यापक और तेजस्वी संसार मौजूद था. लेकिन धीरे-धीरे मैं क्यों कविता से विमुख होता गया उस पर आता हूँ. दरसअल, हर लेखक के लेखकीय जीवन में एक लंबा समय ऐसा होता है जब उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लेखन से होता है. एक तरह से उसे अपने प्रकाशन से इतना मोह और इसके प्रति वह इतना आग्रही होता है कि जो भी उसके मन में विचार आते हैं उसे वह अभिव्यक्त करता जाता है. उसकी विधागत रूचि और रुझान थोड़े-थोड़े समय पर बदलते रहते हैं. ऐसे में वह तय नहीं कर पाता है कि वास्तव में उसकी मेधा किसके अनुरूप है ? उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम किस विधा को बनाना चाहिए ? कभी वह अपने आप को पद्य के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है, तो कभी गद्य के माध्यम से. दरअसल, मैं इसे लेखक की एक तरह से लेखकीय अभ्यास मानता हूँ जो आगे चलकर उसकी दिशा तय करता है कि वह अपने आपको साहित्य की सीमाओं और शर्तों की परिधि में रहते हुए किस में सहज पाता है.


हालाँकि इस कविता संग्रह के बाद भी मैंने कविताएँ लिखीं लेकिन जैसे-जैसे मेरा हाथ गद्य अर्थात कथा-लेखन में सधता गया, कविता मुझसे छूटती चली गई. एक बात और मैं बताऊँ कि बहुत ज़ल्दी मुझे यह एहसास हो गया कि मेरा जिस तरह का जीवन और समाज रहा है, उसके लिए कविता में मेरे लिए कोई विशेष स्पेस नहीं है. अपने अनुभवों को शब्द देने के लिए मुझे बाद में कहानी विधा में अपार संभावनाएँ नज़र आईं लेकिन कविता की तरह उसने भी मेरा या कहिए मैंने उसका साथ छोड़ दिया, औरबकौल आप अंतत: उपन्यासकी शरण में आ गया. शीघ्र ही मेरी यह समझ में आ गया कविता के लिए जो शिल्पगत मुलामियत और बारीकियाँ होनी चाहिए, वे मेरे पास नहीं हैं. अपने अनुभवों, प्राप्त तथ्यों को किस तरह कल्पना के सहारे उसे उपन्यास के माध्यम से विश्वसनीय और प्रामाणिक बनाया जाना चाहिए, शायद वह कला मुझसे सध गई है. इसलिए मैं अपने आपको सबसे ज़्यादा सहज उपन्यास में पाता हूँ. मुझसे कविता और कहानी छूटने का एक कारण यही हो सकता है.   

 


6. 

राकेश श्रीमाल

हिंदी साहित्य का गद्य लेखन इन दिनों किस तरफ़ जा रहा है ? क्या उसमें आपको गंभीरता दिखाई देती है ?


भगवानदास मोरवाल 

आपका यह सवाल थोड़ा असहज करने और एक हद तक चौंकाने वाला है कि हिंदी साहित्य का गद्य लेखन इन दिनों किस तरफ़ जा रहा है ? क्या उसमें आपको गंभीरता दिखाई देती है ? हिंदी गद्य की जब बात होती है तो मैं इसे दो हिस्सों में बाँट कर देखता हूँ. एक वह लेखन जिसे पत्रकारिता का गद्य कहा जाता है और दूसरा सर्जनात्मक लेखन, विशेषकर कथा साहित्य और कथेतर साहित्य का गद्य. पता नहीं क्यों इन दिनों जितनी बातें हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की होने लगी हैं, उतनी कविता की नहीं होती है. मुझे इसका सबसे बड़ा कारण यह लगता है कि कविता से अधिक एक पाठक को गद्य लेखन से कई तरह की अपेक्षाएं रहती हैं. इधर एक बात और देखने में मिली है कि जिस तरह प्रकाशन की असीम संभावनाएँ और पुस्तक प्रकाशन के अवसर मिलने लगे उससे भी इस तरफ़ हमारा ध्यान गया.


जिस तरफ़ आपका इशारा है मैं समझता हूँ वह यह है कि आख़िर गद्य की भाषा कैसी होनी चाहिए. इधर हिंदी साहित्य के छोटे-बड़े पंडित बड़ी निराशा के साथ अक्सर यह कहते हुए पाए जाएँगे कि हिंदी के लेखक को अपने पाठक के अनुरूप भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. मेरा इनसे पलट कर यह सवाल है कि क्या भाषा सिर्फ़ एक पाठक की होती है, लेखक की अपनी कोई भाषा नहीं होती ? 


यह सवाल पिछले एकाध साल से और ज़्यादा उठने लगा है. कई पंडित तो यहाँ तक कहते-सुनते देखे जा सकते हैं कि गंभीर साहित्य का पाठक कम होता जा रहा है. मेरा मानना है कि पानी की तरह भाषा का भी अपना कोई रंग या रूप नहीं होता. भाषा की अपनी कोई जाति नहीं होती. हम जो अपने अनुभवों, भाषायी और लोक-संस्कारों से जो मुहावरा गढ़ते हैं, वही भाषा के स्वरूप को निखारती है. दुर्भाग्य से सबसे ज़्यादा हमारे पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का शिकार हमारी भाषा ही रही है. 


कई बार हम सिनेमाई भाषा या साहित्य के नाम पर उस भाषा को भी उसी भाषा का पर्याय मान बैठते, जिनसे समाज को देखने की हमारी समझ विकसित होती है. भाषा का असल काम विचारों का निर्माण करना होता है. यह बात निर्मल वर्मा बहत पहले कह चुके थे. रही बात हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की, सो उसमें भी एक रूप नागरीय गद्य का है, तो दूसरा रूप वह जो जीवन की जीवटता और उसके व्यावहारिक क्रिया-कलापों से निर्मित होती है. दूसरी बात यह कि भाषा, भाषा होती है. कोई नई या पुरानी नहीं. जिसे जो भाषा आती है, या जिसने जो भाषा सीखी है वह उसमें अपनी बात कहती है. हमें यह तो स्वीकारना पड़ेगा कि मनुष्य के दूसरे व्यावहारिक अनुशासनों की तरह भाषा का भी अपना एक एक अनुशासन होता है. यह अनुशासन हर लेखक का अपना होता है. नई या पुरानी भाषा के नाम परभाषायी अराजकता से, विशेषकर गद्य लेखन को कुछ हासिल होने वाला नहीं है. मुझे जो भाषा आती है मैं उसी में अपना गद्य रचूँगा. अब यह पाठक और उसकी भाषायी समझ और क्षमता पर निर्भर करता है कि वह इसे कैसे ग्रहण करता है.


जहाँ तक मौजूदा हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की गंभीरता का प्रश्न है, इसे हमें इसके लेखकों पर ही छोड़ देना चाहिए. पाठक के नाम पर हमें निजी फतवों से बचना चाहिए. यह तो समय तय करेगा कि पाठक किस गद्य को स्वीकार करेगा. लेखक को अपने भाषायी संस्कारों से विमुख नहीं होना चाहिए. मज़े की बात यह है कि ऐसी फ़तवेबाज़ी सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में संभव हैं. किसी को आपने अंग्रेज़ी के बारे ऐसा कहते-सुनते नहीं देखा होगा. सच तो यह कि लेखक भाषा का पहेरुआ भी होता है. उसकी कुछ ज़िम्मेदारियाँ तय होती हैं. अब यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपनी इन जिम्मेदारियों का कैसे और किस हद तक निर्वाह करता है. मैं अगर अपनी बात कहूँ तो मुझे हिंदी साहित्य में पूरी तरह गंभीरता नज़र आती है. मैं इसके प्रति पूरी तरह आश्वस्त हूँ.         

 


7.

राकेश श्रीमाल 

क्या कोई लेखक व्यक्तिगत जीवन से बाहर निकल कर वर्तमान दौर में लिख सकता है ?


भगवानदास मोरवाल 

राकेश जी, अगर मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहूँ तो मेरा मानना है कि वर्तमान दौर लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के लिए सबसे चुनौतीभरा दौर है. यह एक ऐसा दौर है कि बड़ी तेज़ी से हमारे प्रगतिशील वर्ग को हाशिए पर धकेलने की कोशिश हो रही है. कभी इसे पिछले सत्तर सालों के नाम पर धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, तो कभी इसे विचारधारा के नाम पर. बहुसंख्यकवाद का जितना विकृत रूप आज हमें देखने को मिल रहा है शायद इससे पहले कभी नहीं था. विचारों की जिस तरह हत्या करने की कोशिश की जा रही है, ऐसी कोशिश कभी नहीं हुई. हमारी उदारता ने जिस निर्ममता के साथ हिंसात्मक रूप ले लिया है, वह अकल्पनीय है. सच तो यह यह समय हमारे सरोकारों की परीक्षा का है. वंचित, उपेक्षितों और हाशिए पर लाकर खड़े कर दिए वर्गों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने का है.


अब सवाल यह उठता है कि ऐसे दौर या कहिए निर्मम समय में कोई लेखक अपने व्यक्तिगत जीवन से बाहर निकल कर अपने सरोकारों और प्रतिबद्धता को प्रदर्शित कर सकता है. प्रदर्शित करना तो दूर रहा, क्या वह लिख कर अपनी बात इन वंचितों, उपेक्षितों और हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों के पक्ष में कह सकता है ? लगभग यही स्थिति संस्कृतिकर्मियों और सिनेमा से जुड़े कलाकारों की है. यह स्थिति तब और भयावह रूप ले लेती है, जब एक धर्म विशेष के लोग सेलेक्टिव तरीक़े से दूसरे समाज के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों को अपनी संकीर्णता का निशाना बनतेहै. धर्म की आड़ में जिस तरह अराजकता, लंपटता और फूहड़ता के साथ समाज को बाँटने की कोशिश हो रही है, एकप्रगतिशीलसोच के व्यक्ति का चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय संबंध रखता है, उसका दायित्व है वह इसका रचनात्मक तरीके से अपनी आवाज़ बुलंद करे. मगर दुर्भाग्य से बड़े ही सुनोयोजित तरीक़े से ऐसा नेरेटिव गढ़ने का प्रयास किया जा रहा, जैसे हमारे समाज को आज लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों की ज़रूरत ही नहीं है. एक तरह से आज असहमति के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मानो पहरा बैठा दिया गया है. एक लेखक को क्या कहना या लिखना है, उसकी अब ऐसे अराजक तत्वों से इजाज़त लेने के लिए कहा जा रहा है, जिनका ज्ञान से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रह गया है. 


राजनीति का तो इस समय सबसे बुरा हाल है. प्रेमचंद का यह कथन कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है तो पूरी तरह भारतीय राजनीति से ग़ायब हो चुका है. सच तो यह है कि अब समाज सिर्फ़ दो ही चीज़ों से संचालित हो रहा है.ये हैं एक धर्म और दूसरा राजनीति. राजनीति में धर्म जिस तरह एक निर्णायक की भूमिका निभाने लगा है,उसने एक लेखक के सामने कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी करती हैं. अभी तक लेखक अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद और अन्य सामाजिक व्याधियों के प्रति अपने नागरिक को जागृत करने का काम करता था, अब उसे धर्म में लिथड़ी उस राजनीति से भी जूझना पड़ रहा है जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.


मेरा मानना है कि भारत जैसे सांस्कृतिक बहुलतावादी देश के लिए यह स्थिति कम ख़तरनाक नहीं है. सच तो यह है कि ग़लत को ग़लत न कहने के लिए जिस तरह लेखक पर दबाव बढ़ता जा रहा है, वह चिंतनीय है. लेकिन लेखक को ऐसेख़तरे तो उठाने पड़ेंगेही. बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहने की भावना से अपने आपको बाहर लाना होगा.     

 


8. 

राकेश श्रीमाल

आपके जीवन में मानवीयता और प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या है ?


भगवानदास मोरवाल 

आपका यह सवाल इतनी दार्शनिकता लिए हुए है कि इसका उस तरह जवाब देना कम-से-कम मुझ जैसे व्यक्ति के बस की बात नहीं है, जैसी आपकी अपेक्षा है. क्योंकि ये दोनों शब्द अपने आप में इतनी व्यापकता लिए हुए हैं कि इनकी परिभाषाकी व्याख्या करना आसान नहीं है. सच तो यह है कि मानवीयता और प्रेम की इतनी बारीक और महीन वटें व परतें हैं कि इन्हें चाहे जितना खोलते जाओ, इनका अंत नहीं होने वाला. मानवता के बारे में मेरी राय अगर पूछें तो मेरी नज़र में मोटा-मोटा मानवता का अर्थ है बिना किसी भेदभाव के, बिना ग़रीबी-अमीरी के, बिना किसी धर्म-मज़ह्ब  के आधार पर, बिना किसी लोभ-लालच अथवा स्वार्थ के नि:सहाय, निर्बल, वंचित, बेबस, लाचार, उपेक्षित और हाशिए के लोगों की मदद करना.मनुष्य होने के नाते एक-दूसरे के काम आना ही प्रत्येक व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है.  


अपने परिवार, समाज, धर्म ही नहीं अपितु समस्त मानव प्राणी के हित में कर्म करना ही मानवता है. इस धरती पर इंसान तो बहुत हैं,  मगर सही मायने में इंसान वही है जिसमें इंसानियत यानि मानवता है.  सच्चा इंसान वही है जो अपने स्वार्थ से परे होकर दूसरों के दु:खों को साझा करने का प्रयत्न करे.  दूसरे शब्दों में कहूँ तो मानवता एक ऐसा सद्गुण है जो मूल रूप से दूसरों के हित आधारित, अर्थात परहितवादी नैतिकता से संबंधित है। इसकी उत्पत्ति मानव अस्तित्व की मूलभूत दशाओं की समझ से होती है और इसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य के प्रति करुणा और प्रेम की भावनाएँ निहित हैं. 


जबकि प्रेम जिसे हम कई नामों जैसे प्रणय, स्नेह, अनुरक्ति, अनुराग, प्यार आदिकई नामों से संबोधित करते हैं, वास्तव में एक एहसास है, एक अनुभूति है, एक भाव है ;जो दिमाग से नहीं दिल से होता है. यह एक मज़बूत आकर्षण और निजी संबंधों का आधार होता है जिसमें हवस या वासना की कोई जगह नहीं होती.  वास्तविक सच्चा प्रेम वह होता है जो सभी हालातों  में आपके सुख-दु:ख में काम आए.यह प्रेम ही है जो हमारे अंदर जीने की जिजीविषा पैदा करता है.

 

राकेश श्रीमाल 

यह समय आपको किस तरफ़ ले जा रहा है और आप किस तरफ़ जाना चाह रहे हैं ?


भगवानदास मोरवाल 

सच कहूँ तो यह बेहद अनिश्चितताओं से भरा समय है. इसकी अतलता कान तो किसी को कोईगुमान है, न अनुमान. किसी को नहीं पता कि वह जाना किस तरफ़ चाहता है और वह जा किस तरफ़ रहा है. इसका एक बड़ा कारण शायद यह है कि आज समय की नकेल निरंकुश, अराजक औरसत्ता के आवारा अश्वों के हाथों में आ गई है. हम जिस तरफ़ जाना चाह रहे हैं, उस तरफ़ जाने से हमें रोका जा रहा है. यह समय वास्तव में अराजक दुरभिसंधियों का चाकर बन कर रह गया है. भय और अदृश्य आशंकाओं के बीच हमारी ज़्यादातर कल्याणकारी और मानवतावादी सोच एक ऐसे घटाटोप में भटक कर गई है, जहाँ से लौटने में लंबा वक़्त लग जाए. मुझे तो लगता है कि इसमें बेचारे इस समय का कोई दोष नहीं हैं. सच तो यह है कि समय किसी को किसी तरफ़ नहीं ले जा रहा है. बल्कि हम समय को अपनी सुविधा और इच्छा से हाँकने का प्रयास कर रहे हैं. शायद हम ऐसे ही अराजक समय के लायक हैं और हम ख़ुद ही उस तरफ़ जाना चाहते हैं, जहाँ हमें नहीं जाना चाहिए. नियति और समय के मानो हमने विवेक को गिरवी रख दिया है. बावजूद इसके मैंअपनी बात कहूँ तो जाना मुझे उसी तरफ़ है जिस तरफ़ मैंने तय किया हुआ है. भले ही समय की सान से उठती चिंगारियाँ कितनी ही मेरी आँखों में घुसें. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने शायद ही ऐसे समय के लिए कहा था कि-

 

            हम देखेंगे
            लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
            वो दिन
            कि जिसका वादा है
            जो लौहे-अज़ल में लिखा है
            जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे गरां
            रुई की तरह उड़ जाएँगे. 
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(सहयोग डॉ. आलोक कुमार सिंह )




ख़ा न ज़ा दा
भगवानदास मोरवाल 


सुल्तान सिकंदर शाह लोदी की 21 नवंबर, 1517 ईस्वी में मृत्यु हो गई.  उसकी मौत के बाद सुल्तान सिकंदर शाह लोदी के अमीर-उमरा और ओहदेदारों ने मिल कर उसके पुत्र इब्राहीम खाँ को उसके भाइयों जलाल खाँ, इस्माइल खाँ, महमूद खाँ, हुसैन खाँ और आज़म खाँ की मौजूदगी में देहली का सुल्तान बना दिया.  हालाँकि इब्राहीम खाँ और जलाल खाँ दोनों माँजाए थे, मगर इब्राहीम खाँ अपनी बहादुरी, साहस और क़ाबिलियत के चलते, जलाल खाँ और दूसरे भाइयों पर भारी पड़ा.  क्योंकि वह अपने वालिद सुल्तान सिकंदर शाह लोदी की अनुपस्थिति और समय-समय पर उसके मददग़ार के रूप में शासन की ज़िम्मेदारियों सँभाल चुका था.  हालाँकि अफ़ग़ानों के एक दल ने जलाल खाँ का पक्ष लिया.  इसलिए इससे पहले कि दोनों भाइयों के बीच सत्ता-संघर्ष की नौबत आती, यह फ़ैसला किया गया कि इब्राहीम खाँ देहली की गद्दी सँभाल कर जौनपुर की सीमाओं तक हुकूमत करेगा, और छोटा भाई जलाल खाँ कालपी और चंदेरी से लेकर जौनपुर पर शासन करेगा.  देहली की तरह जौनपुर उसकी राजधानी होगी.  यूँ तो इब्राहीम खाँ इस बँटवारे से ख़ुश नहीं था, क्योंकि सल्तनत का बँटवारा होने के कारण उसकी हुकूमत का इलाक़ा कम हो गया, जिसके चलते आमदनी भी कम हो गई.  मगर इसके अलावा उसके सामने कोई रास्ता भी नहीं बचा.  अमीर-उमरा भी आपस में बँट गए, इसीलिए उसकी ताक़त और अधिकार कम हो गए.  इस बँटवारे से इब्राहीम खाँ और जलाल खाँ के बीच पैदा हुए मन-मुटाव का नतीजा यह हुआ कि अमीर-उमरा को अपनी ताक़त बढ़ाने का मौक़ा मिल गया. 

सल्तनत के बँटवारे के बाद जलाल खाँ जौनपुर चला गया.  जलाल खाँ के जाने के बाद इब्राहिम खाँ ने अपना राज्याभिषेक करवा लिया.  इस बँटवारे की ख़बर जैसे ही रापड़ी के अमीर ख़ान जहान को मिली, वह तुरंत आगरा आया.  आते ही उसने उन अमीरों को बहुत फटकारा जिन्होंने इस बँटवारे का सुझाव दिया था.

“ऐ ख़ुदावंद अमीरों ! अब भी वक़्त है कि इस बँटवारे को रद्द कर हम सबको वली अहद इब्राहिम खाँ की मदद करनी चाहिए और हमें उनका साथ देना चाहिए !”

“जनाब ख़ान जहान, आप दुरुस्त फ़रमा रहे हैं.  हमें वली अहद इब्राहिम खाँ का ही साथ देना चाहिए. ” एक अमीर ख़ान जहान से सहमत होते हुए बोला. 

“हाँ-हाँ हमें उन्हीं का साथ देना चाहिए. ” अमीर के इतना कहते ही एक स्वर में दूसरे अमीर बोले.

इधर जैसे ही आगरा के अमीरों ने इब्राहिम खाँ का साथ देने का ऐलान किया, उसने अपने एक अमीर हैबत खाँ गुर्ग अंदाज़ को अपने भाई जलाल खाँ के पास इस फ़रमान के साथ भेज दिया कि वह तुरंत आगरा आ जाए, ताकि सल्तनत के बँटवारे पर सारे अमीर एक बार फिर से विचार कर लें.  मगर इब्राहिम खाँ का भाई जलाल खाँ इसके लिए तैयार नहीं हुआ.  उसे कुछ संदेह हुआ इसलिए उसने आगरा आने से मना कर दिया.  जलाल खाँ के मना करने के बावजूद इब्राहिम खाँ ने हार नहीं मानी.  बिहार, ग़ाज़ीपुर, अवध और लखनऊ के अमीरों को घोड़े, ख़िलअत, जड़ाऊ करौली और दूसरे उपहारों का लालच देकर, वह उन्हें अपने अधीन करने में कामयाब हो गया.  ये सब अब जलाल खाँ के ख़िलाफ़ हो गए.  इब्राहिम खाँ ने अपने छोटे भाइयों इस्माइल खाँ, महमूद खाँ और हुसैन खाँ को गिरफ़्तार करवा कर क़ैदख़ाने में डलवा दिया.  कालपी को छोड़ कर इब्राहिम खाँ के हाथों में अब पूरा उत्तर भारत आ गया.  अपने उमरा और हिंदुस्तान की आवाम को यह दिखाने के लिए कि वही उनका एकमात्र शासक है, उसने एक महीने बाद अपना दूसरा राज्याभिषेक करवाया.

उधर, इब्राहिम खाँ के छोटे भाई जलाल खाँ ने अपने आपको सुल्तान घोषित कर कालपी में जलालुद्दीन की पदवी धारण कर, अपने नाम का ख़ुतबा पढ़वाया और फ़तह खाँ शेरवानी को अपना वज़ीर नियुक्त कर दिया.  साथ ही अपने बड़े भाई इब्राहिम खाँ लोदी के पक्के इरादों को देखते हुए जलाल खाँ अर्थात जलालुद्दीन ने कालपी और आसपास के ज़मींदारों और राजाओं को अपनी तरफ़ मिला लिया.  इसके बावजूद जलालुदीन शाही सेनाओं के सामने ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया और हार कर उसे मालवा में जाकर शरण लेनी पड़ी.  इस तरह इब्राहीम लोदी न सिर्फ़ अपने ही भाई के विद्रोह को कुचलने में कामयाब हो गया बल्कि ग्वालियर क़िले को जीत कर लोदी सल्तनत का विस्तार भी कर लिया.

 

सुल्तान इब्राहिम शाह लोदी ने एक दिन ख़ानज़ादा हसन खाँ मेवाती को दरबार में बुलवाया.

“सुल्तान, आपने याद फ़रमाया ?”

“हाँ हसन.  आइए, इधर बैठिए हमारे पास !”

“कोई ख़ास बात सुल्तान जो...”

“आप बैठिए तो सही.” इब्राहिम लोदी मुस्कराते हुए हसन खाँ मेवाती के वाक्य को बीच में काटते हुए बोला. 

हसन खाँ मेवाती ने इसके बाद कोई प्रश्न नहीं किया और चुपचाप इब्राहिम लोदी के बग़ल में बैठ गया.

“हसन, यह तो हमें एक-दूसरे को बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमारी और आपकी वालिदा दोनों सगी बहनें हैं.  इसलिए हम दोनों मौसेरे भाई हुए. ”

“जी सुल्तान. ”

“इसलिए एक भाई होने के नाते मेरा यह फ़र्ज़ बनता है कि हमारे दादा जान से जाने-अनजाने जो एक छोटी-सी गफ़लत हो गई थी, उसे मैं सुधार लूँ. ”

“मैं कुछ समझा नहीं सुल्तान ? आपके दादा जान जनाब सुल्तान बहलोल लोदी से ऐसी कौन-सी गफ़लत हो गई थी, जिसे आप आज इतने सालों के बाद अब सुधारना चाहते हैं ?” हसन खाँ मेवाती ने हैरान होते हुए पूछा.

“हुई थी, और वह यह थी कि हमारे दादा जान ने आपके पड़दादा गुल गोरख यानि अहमद खाँ की जागीर के सात परगने उनसे छीन कर अलग कर दिए थे.”

“यह सब आपको आज भी याद है सुल्तान ?”

“हसन, जंग में हुई शिकस्त और अपने दुश्मन से लूटी या छीनी गई जागीर कोई भी सुल्तान या बादशाह कभी नहीं भूलता है.”

“सुल्तान, फिर अब आप क्या करना चाहते हैं ?”

“हम चाहते हैं कि उन परगनों को आपको वापिस लौटा दिया जाए.  अपने पुरखे के गुनाह के बोझ को मैं अपने सर से उतार देना चाहता हूँ हसन.”

“यह तो आपकी दरियादिली और बड़प्पन है सुल्तान.”

“और एक बात, चूँकि ख़ानज़ादों ने कभी बादशाह देहली की ग़ुलामी क़बूल नहीं की, इसलिए हम आपको शाहे-मेवात के ख़िताब से भी नवाज़ते हैं.  इसलिए आज से आप हमारी तरफ़ से शाहे-मेवात के रूप में आज़ाद हुक्मरान की तरह मेवात पर हुकूमत करने के लिए आज़ाद हैं.”

“सुल्तान, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.  आपके इस एहसान का मैं ता-उम्र फ़रामोश रहूँगा सुल्तान इब्राहिम शाह. ” अपनी जगह से खड़े होकर हसन खाँ मेवाती ने पूरी विनम्रता के साथ कोर्निश करते हुए कहा.      

शाहे-मेवात ख़ानज़ादा हसन खाँ मेवाती के पड़दादा गुल गोरख यानि अहमद खाँ की जागीर से सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी के दादा सुल्तान बहलोल लोदी ने, जो सात परगने अलग कर दिए थे, उन्हें इब्राहिम खाँ लोदी ने अलावल खाँ के पुत्र अर्थात अपने मौसेरे भाई हसन खाँ मेवाती को वापिस कर दिए.

इब्राहिम लोदी के इस ऐलान के बाद शाहे-मेवात हसन खाँ मेवाती अलवर लौट आया.  अलवर आने के बाद हसन खाँ के पिता ख़ानज़ादा अलावल खाँ ने अरावली पर स्थित जिस क़िले को निकुम्भों से पुन: मुक्त कराया था, हसन खाँ ने इसकी फिर से नींव डाली.  तीन मील लंबे और एक मील चौड़े क़िले के चारों तरफ़ अट्ठारह हाथ ऊँची अभेद्य दीवार के साथ; इसके भीतर एक शाही महल, चार कुंड, एक तालाब, बावड़ी और कई कुएँ बनवाए.  क़िले के अंदर पश्चिमी दिशा के ढलान में पूरब की तरफ़ दुश्मन से बचने के लिए अँधेरी दरवाज़ा बनवाया.  पथरीली सतह पर बनने वाले इस क़िले के चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी खाइयाँ खोदी गईं, ताकि ख़तरे के वक़्त ये दुश्मन को आने से रोक सकें.  क़िला बनने के बाद नीचे ज़मीन से सात सौ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद जब चार विशाल दरवाज़ों, पच्चीस बुर्जों और लगभग साढ़े तीन हज़ार मोखियों वाले इस बाला क़िले को जब-जब हसन खाँ निरखता, तो शिराओं में ठिठका लहू तेज़ी से दौड़ने लगता. 

कहते हैं कि ताक़त बढ़ने के साथ-साथ आदमी के भीतर असुरक्षाभाव और शक भी बढ़ता जाता है.  इसी असुरक्षाभाव और शक के चलते इब्राहिम लोदी ने मियाँ बुहा को यह सोच कर क़ैदख़ाने में डाल दिया कि इसकी पंजाब के वज़ीर दौलत खाँ से मिली-भगत है.  इतना ही नहीं इब्राहिम लोदी ने दूसरे अमीरों को भी क़ैदख़ाने में डलवा दिया.  इससे इब्राहिम लोदी और उसके अमीरों में ठन गई.

इससे पहले कि इब्राहिम लोदी अपने विरोधियों का दमन कर पाता, उसके विरुद्ध दूसरी क्षेत्रीय ताक़तों ने सर उठाना शुरू कर दिया.  इसका नतीजा यह हुआ कि उसे खटौली के युद्ध में राणा संग्राम सिंह से हार का सामना करना पड़ा.  मगर इब्राहिम लोदी ने हिम्मत नहीं हारी और अगले साल मालवा को जीतने के चक्कर में शाही फ़ौजें उस तरफ़ भेज दीं परंतु उसकी सेना को राजपूत सेनाओं ने बुरी तरह हरा दिया.  इस जीत से राजस्थान में राणा संग्राम सिंह की ताक़त और ख्याति बढ़ती चली गई और इब्राहिम लोदी की ताक़त कम हो गई.

 

क़ासिद मुल्ला मुर्शिद ने आगरा जाकर बाबर का पैग़ाम जैसे ही इब्राहिम लोदी के शाही दरबार में पहुँचाया, और उसे जैसे ही उसे पढ़ कर सुनाया गया, सुनते ही इब्राहिम लोदी की आँखों में जैसे ख़ून उतर आया.  बादलगढ़ क़िले के बारादरी महल के दीवान ख़ाने में अपने अमीरों की मौजूदगी में इब्राहिम लोदी ने बाबर के राजदूत मुल्ला मुर्शिद को जिस तरह ऊपर से नीचे तक देखा, मारे भय के मुल्ला मुर्शिद का रोआँ-रोआँ काँप उठा.  पलभर के लिए उसे लगा जैसे उसका सर अब क़लम  हुआ, तब क़लम  हुआ.  इससे पहले कि मुल्ला मुर्शिद आगे की कल्पना करता, रत्न जड़ित तख़्त के सोने के हत्थे पर इब्राहिम लोदी की पकड़ मज़बूत होती चली गई और आवाज़ दीवान महल की दीवारों से टकराते हुए गूँजी-

“ऐ मेरे अमीरों देखा ! एक चंगेज़ी के जाए बाबर ने पैग़ाम भेजा है कि उसके पुरखे अमीर तैमूर लंग के क़ब्ज़े में कभी जो इलाक़े थे, उन्हें वह हमसे यानि एक अफ़ग़ान हुक्मराँ और लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम खाँ से वापिस देने को कह रहा है. ”

“मगर सुल्तान यह कैसे मुमकिन है ?” एक सरदार ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा.

“यही तो हैरानी कि बात है कि यहाँ से कोसों दूर भेरा में बैठा वह शख़्स, हमसे सैंकड़ों साल पहले अपने पुरखे के इलाक़ों को माँग रहा है.  उसे क्या लग रहा है कि वह कह देगा और हिंदुस्तान का यह अज़ीम सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी उन्हें वापिस कर देगा. ” कहते-कहते इब्राहिम लोदी के होंठ वक्र होते चले गए.  

अपने सुल्तान के मज़बूत इरादों को देख किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की.

बाबर द्वारा क़ासिद मुल्ला मुर्शीद के हाथों भेजे गए पैग़ाम के बाद, इब्राहिम लोदी ने अपने मौसेरे भाई और शाहे-मेवात हसन खाँ मेवाती को अलवर से तुरंत आगरा बुलवाया.  ख़बर मिलते ही हसन खाँ मेवाती बिना देरी किए आगरा के लिए रवाना हो गया.

“सुल्तान, ऐसी क्या बात हो गई जो तुरंत हाज़िर होने का पैग़ाम भेजना पड़ गया ?” आगरा पहुँचने पर हसन खाँ मेवाती ने अपने मौसेरे भाई इब्राहिम लोदी से पूछा.

इब्राहिम लोदी ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि हसन खाँ मेवाती के सामने बाबर का भेजा गया पैग़ाम रख दिया.  हसन खाँ ने उसे ध्यान से पढ़ा, और कुछ पल सोचने के बाद बोला,” सुल्तान, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि भेरा में बैठे बाबर की आख़िर मंशा क्या है ?”

“हसन, इसकी तो हमारे पास बराबर ख़बरें आ रही हैं कि उज़बेगों के खदेड़ने के बाद बाबर काबुल की तरफ़ बढ़ा आ रहा है.  मगर अचानक अमीर तैमूर के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को वापिस माँगने का राज़ हमारी भी समझ में नहीं आ रहा है ?” इब्राहिम लोदी की पेशानी के धोरे गहरे होते चले गए.

“सुल्तान, हमें अपने इस नए बैरी से सावधान रहने की ज़रूरत है.  अगर इसने हिंदुस्तान की तरफ़ रुख़ किया, तो यह अमीर तैमूर के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को ज़रूर माँगेगा.  वैसे आपको बता दूँ कि अमीर तैमूर हमारे ख़ानदान के ख़ानज़ादा मल्लू खाँ उर्फ़ इक़बाल खाँ के वक़्त हिंदुस्तान आया था.  कहते हैं कि अमीर तैमूर ने देहली में उस वक़्त बड़ी लूटपाट मचाई थी.

“आप सही कह रहे हैं हसन.  हमें सावधान रहने की ज़रूरत है. ” हसन खाँ मेवाती की सलाह के बाद इब्राहिम लोदी का मन जैसे हल्का हो गया.

“सुल्तान, मुझे इजाज़त दीजिए.  जाते-जाते ख़ाला जान से भी मिल लेता हूँ.  ख़ुदा हाफ़िज़ !” हसन खाँ मेवाती का ख़ाला से आशय इब्राहिम लोदी की माँ अर्थात अपनी मौसी सुल्ताना बैदा से था.

 

भेरा में बैठ कर बाबर अपने दूत मुल्ला मुर्शिद का बेसब्री से इंतज़ार करता रहा.  कई महीनों बाद मुल्ला मुर्शिद काबुल लौटा.

“क्या जवाब लाए हो मुल्ला मुर्शिद ?” अपने क़ासिद के आते ही बाबर ने उत्सुकतावश पूछा.

“सुल्तान, जनाब दौलत खाँ ने जवाब देना तो दूर रहा, उसने मुझसे मिलना तक मुनासिब नहीं समझा. ” मुल्ला मुर्शिद ने सर झुकाते हुए जवाब दिया.

“मिलना तक मुनासिब नहीं समझा...मतलब ?” कहते हुए बाबर के जबड़े खिंच आए.

“जी सुल्तान.  बल्कि उसने मुझे सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी के पास भी नहीं जाने दिया.  बोला कि मुझे दे जाओ अपना पैग़ाम.  मैं सुल्तान को पहुँचा दूँगा.  वो तो मैंने उसकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया और आगरा चला गया.” 

“आपके कहने का मतलब है कि न तो इब्राहीम लोदी ने कोई जवाब दिया और न ही दौलत खाँ लोदी ने ?” इब्राहिम लोदी और दौलत खाँ की उपेक्षा से तिलमिलाते हुए बाबर बोला.

“जी सुल्तान बल्कि...” इसके बाद क़ासिद मुल्ला मुर्शिद ने इब्राहिम लोदी के दरबार का पूरा वाक़या दोहरा दिया. 

”देखा ख़ुदावंद बेगों, ये अफ़ग़ान कितने कम-अक़्ल और दिमाग़ से ख़ाली होते हैं, जो नेक सलाह को भी क़बूल नहीं कर पाते हैं.  न तो इनमें आगे बढ़ कर दुश्मन से सामना करने की हिम्मत होती है, और न ही ये दोस्ती के क़ायदे-क़ानून जानते हैं. ”

दरअसल, बाबर को पूरी उम्मीद थी कि इब्राहीम लोदी और दौलत खाँ लोदी के पास उसके पूर्वज अमीर तैमूर के जो इलाक़े हैं, वे उसे लौटाने के लिए मान जाएँगे.  मगर यहाँ लौटाना तो दूर रहा, इन दोनों ने पूरे पाँच महीने गुज़रने के बाद भी कोई जवाब नहीं दिया.  इन दोनों की यह ना-फ़रमानी बाबर के सीने में एक ज़ंग लगी कील की तरह धँस कर रह गई.  इसी कसक के साथ उसने भेरा से काबुल की ओर प्रस्थान किया.  इस बीच रास्ते में उसे बेटे हिंदाल के पैदा होने की ख़बर मिली.  बेटे की ख़ुशी में वह उस कसक को थोड़े दिनों के लिए भूल गया और कई दिनों तक शराब की महफ़िलें जमती रहीं. 

उसने एक बार फिर से अपना सफ़र शुरू किया और 30 मार्च, 1519 ईस्वी को वह काबुल पहुँच गया.

काबुल आने के बाद बाबर ने मध्य एशिया की राजनीति को समझने की कोशिश की, तो उसने पाया कि यहाँ ईरानी और उज़बेग आपस में ही उलझ रहे हैं.  इसी का फ़ायदा उठाते हुए उसने कमान अपने हाथों में ले ली और तेज़ी से लाहौर की तरफ़ बढ़ने लगा.  मगर तभी उसे ख़बर मिली कि काबुल पर हमला हो गया है.  बाबर लाहौर से वापिस काबुल लौट गया.  पिछले कई सालों की तरह यहाँ से भी बीच-बीच में वह अपने गुप्तचर हिंदुस्तान भेजता रहा.  इन गुप्तचरों ने हिंदुस्तान में बहुत से सरदारों और राजाओं के बीच अपनी अच्छी-ख़ासी पैठ बना ली और इनकी बड़ी संख्या तैयार कर ली.  काबुल में बाबर के पास आकर कई मुसलमान शासकों और हिंदू राजाओं के दूत उससे सम्पर्क स्थापित कर चुके हैं.  इनमें सबसे ज़्यादा वे थे जो देहली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की ज़्यादतियों और उसकी बढ़ती ताक़त से परेशान थे. 

सबसे ज़्यादा हैरानी बाबर को उस दिन हुई जब राजस्थान के एक हिंदू राजा का दूत उसके पास आया.  दूत ने जैसे ही अपने राजा का पैग़ाम बाबर को सौंपा, पढ़ने के बाद उसकी आँखें मारे ख़ुशी के फैलने-सिकुड़ने लगीं.  मारे ख़ुशी के वह चहकते हुए बोला,ख़ुदावंद हिंदू बेग इंदर, अब वह दिन दूर नहीं जब इस जहीरुद्दीन मोहम्मद मिर्ज़ा बाबर को आप देहली की गद्दी पर बैठा हुआ देखेंगे. ”

“हुज़ूरे आली, मैंने तो पहले ही कहा था कि हिंदुस्तान की आवाम आपके इस्तक़बाल के लिए पलक-पाँवड़े बिछाए बैठी है.  पहले दौलत ख़ान द्वारा अपने बेटे दिलावर ख़ान को आपकी पनाह में भेजना.  इसके बाद ख़ुद सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़ास अमीरों द्वारा आलम खाँ लोदी के हाथों हमारे फ़तहयाब के पास यह गुज़ारिश भिजवाना, कि आप सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ुल्मो-सितम से हिंदुस्तान को आज़ाद कराएँ; यह सब इसी की तरफ़ इशारा करते हैं कि हिंदुस्तान की राह आपके लिए कितनी आसान होने जा रही है. ”

“हिंदू बेग, दौलत ख़ान और आलम खाँ लोदी की बात तो समझ में आती है, मगर मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस गुज़ारिश भरी पेशकश का माजरा समझ से परे है ?”

“हुज़ूर, इस पेशकश में साफ़ लिखा है कि आप लाहौर की तरफ़ से, और राजा राणा संग्राम सिंह आगरा की तरफ़ से हमला कर, लोदी हुकूमत को नेस्तनाबूद कर सकते हैं.  फ़तह के बाद राणा संग्राम सिंह के हिस्से में आगरा और उसके पूरब के इलाक़ों पर हक़ होगा.  कहने का मतलब यह है कि राजा राणा संग्राम सिंह के हिस्से वाली हुकूमत की हद आगरा के मग़रिबी इलाक़ों तक होगी, और उसके बाद देहली और उससे आगे के इलाक़ों पर मुग़लों का क़ब्ज़ा होगा.” हिंदू बेग इंदर ने बाबर को बड़े विस्तार से राणा संग्राम सिंह के दूत द्वारा लाए गए पैग़ाम में की गई पेशकश को बेहद सरल भाषा में समझाया.

बाबर ने राणा संग्राम सिंह अर्थात राणा सांगा द्वारा भेजे गए इस प्रस्ताव पर एक बार से फिर शांत चित्त के साथ मनन किया.  देर तक वह इस प्रस्ताव के मंज़ूर करने के बाद, उसके सेना पर पड़ने वाले असर और भविष्य में इससे होने वाले नफ़ा-नुक़सान के बारे में सोचता रहा.

“हुज़ूरे आली, किस सोच में पड़ गए ?” हिंदू बेग इंदर ने चिंतामग्न बाबर को दुविधाओं और द्वंद्वों में उलझा देख पूछा.

“हिंदू बेग, आपकी क्या राय है ? क्या हमें मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस पेशकश को मंज़ूर कर लेना चाहिए ?” बाबर ने उलटा हिंदू बेग इंदर से पूछा.        

“मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है हुज़ूरे आली. ”

“आप सही फ़रमा रहे हैं हिंदू बेग.  लगता है अल्लाहताला ने ख़ुद हमारे पास हमारी कामयाबी की चाबी भेजी है.  सबसे बड़ी बात तो यह है बेग कि इससे पहले हिंदुस्तान के किसी राजा-महाराजा ने हमारे सामने ऐसी तजवीज़ पेश नहीं की.  अगर हम मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस पेशकश को क़बूल कर लेते हैं, तो मेरी नज़र में हमें इसके दो फ़ायदे होंगे.  पहला यह कि हमें एक ताक़तवर हिंदुस्तानी राजा की मदद मिल जाएगी, और दूसरा यह कि वह हमें हिंदुस्तानी आवाम की तरफ़ से मिलने वाली मदद में हमारी मदद करेगा.  ...और, सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा हिंदू बेग कि हमारे हुकूमत का रक़बा भी बढ़ जाएगा.  हमारे क़ब्ज़े में पंजाब के वे इलाक़े भी आ जाएँगे, जिनमें अच्छी पैदावार होती है.  अगर यह तरतीब कामयाब हो जाती है, तो हमारी माली हालत और दूसरी मुश्किलात दूर हो जाएँगी. ”

“आपका अंदाज़ा एकदम सही है हुज़ूरे आली. ”

“और क्या पता यह भी हो जाए है कि राणा सांगा के साथ मिलने से, अफ़ग़ानियों के साथ बिना जंग किए पूरा हिंदुस्तान हमारे क़ब्ज़े में आ जाए.  हिंदू बेग, मुझे भी आपकी तरह इस पेशकश को क़बूल करने में कोई हर्ज़ नहीं दीखता है.  मेवाड़ के राजा की यह पेशकश हर तरह से हमारे माकूल है. ”

“आप दुरुस्त फ़रमा रहे हैं हुज़ूरे आली. ”

“तो फिर ठीक है मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह के सफ़ीर को हमारी तरफ़ से जवाब लिखवा दीजिए कि हमें उनकी यह पेशकश मंज़ूर है. ”

“जी हुज़ूरे आली. ” इतना कह हिंदू बेग इंदर जवाब लिखवाने के लिए चल पड़ा.

“और हाँ, राजा राणा संग्राम सिंह के सफ़ीर को अच्छे से विदा करना !” पीछे से बाबर ने हिंदू बेग इंदर को टोकते हुए कहा.

“आप बे-फ़िक्र रहें हुज़ूर.  मुझे इसका पूरा ख़याल है. ” 

 

सुनहरी मस्त लहरों पर हिलौरें खाती आठ डाँड़ों व चंदवेवाली शाही नाव पर, बाबर अपने दरबारियों के साथ प्यालों से छलकती अपनी मनपसंद शराब का लुत्फ़ उठा रहा है.  मग़रिब की नमाज़ से कुछ देर पहले शाही नाव से उतर कर वह महल में आ गया.  न जाने क्यों आज बाबर को रह-रह कर अपने मावराउन्नहर की याद आ रही है.  जब-जब मावराउन्नहर की सुनहरी यादें उसकी पलकों पर आकर बैठतीं, तब-तब वह और उदास हो जाता.  महल में आने के बाद उसने ताली बजा कर ख़िदमतगार को बुलाया और उससे मैनाब लाने का हुक्म दिया. 

माहम बेगम ने देखा, तो उसने पति को उलाहना भरे स्वर में रोकने की कोशिश की,“मेरे हुज़ूर, आज आप सुबह से शराब पीए जा रहे हैं.  अब बस भी करिए !”

बाबर ने भारी होती पलकों को उठा कर माहम की तरफ़ देखा.  फिर मुस्कराते हुए बोला,”बेगम, हम देख रहे हैं कि इससे पहले आपने कभी हमें शराब पीने से नहीं रोका.  आज आपको यह क्या हो गया है ?”

“बीवी हूँ आपकी...और फिर आप यह ग़ज़नी की अंगूरी शराब के साथ, कुंदूज़ की मैनाब को मत पीया करें.  जब-जब आप इन दोनों को एकसाथ पीते हैं, रातभर न जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहते हैं. ”

“बेगम, अगर ख़ाली यह वजह है तो आप मुझे पीने से मत रोकिए और अगsssर...” बाबर जान-बूझ कर जैसे कहते-कहते रुक गया.  

“कैसे बताऊँ मेरे हुज़ूर.  माँ हूँ बताए बिना रुका भी तो नहीं जाता है. ”

“समझ गया आप क्या कहना चाहती हैं.  कहींsss आप अपने बेटे हुमायूँ को लेकर तो परेशान नहीं हैं ?” बाबर ने जैसे पत्नी माहम बेगम के मन की बात बाँच ली. 

“परेशान ना होऊँ तो क्या करूँ.  एक हमारी देवरानी गुलरुख़ बेगम है जिसकी आँखों के सामने हर वक़्त उसके दोनों बेटों रहते हैं...और एक बदनसीब माँ मैं हूँ कि पिछले सालभर से अपने बेटे हुमायूँ का मुँह  तक नहीं देखा.  मुझे तो रात-दिन यही फ़िक्र खाए रहती है, कि कहीं वह ज़ालिम शैबानी खाँ मेरे बेटे पर हमला न कर दे. ”

“आप बे-वजह घबराती हैं.  उसे कुछ नहीं होने वाला.  वह अपनी तीन हज़ार चुनिंदा फ़ौज के साथ पूरी तरह महफ़ूज है...और फिर आपको क्या लगता है मैं हिंदुस्तान बिना किसी तैयारी के जा रहा हूँ.  पिछले दस सालों से मैं एक के बाद एक अपने भेदिए वहाँ भेजता आ रहा हूँ.  इतना ही नहीं हिंदुस्तान के मुसलमान हुक्मरानों और हिंदू राजाओं के एलची मेरे पास एक बार नहीं पूरे छह बार आ चुके हैं.  वे बताते हैं कि वहाँ के हुक्मरानों और राजाओं की आपसी लड़ाई ने हिंदुस्तान को तबाह कर दिया है.  वहाँ से आए इन लोगों का कहना है कि उस मुल्क को एक ऐसी ताक़त और नाम की ज़रूरत है, जिसके लिए पूरा मुल्क एक होकर उठ सके.  आप जानती हैं कि उनकी नज़र में वह शख़्स  कौन है ? वह शख़्स  है यह जहीरुद्दीन मोहम्मद मिर्ज़ा बाबर.  आपको क्या बताऊँ, मेवाड़ का एक ताक़तवर राजा तक सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ मेरे पास अपना एलची भेज चुका है. ”

माहम बेगम कुछ नहीं बोली. 

“आप यक़ीन करें बेगम, मैं हिंदुस्तान दौलत लूटने के इरादे से नहीं जा रहा हूँ.  बल्कि हमेशा से मेरी एक ख़्वाहिश रही है कि हिंदुस्तान में एक ताक़तवर बादशाही क़ायम कर सकूँ.  मेरा जो ख़्वाब मावराउन्नहर में पूरा नहीं हो पाया था, मैं चाहता हूँ कि वह हिंदुस्तान में पूरा हो जाए.  इसीलिए मेवाड़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह और पंजाब के हाकिम दौलत खाँ के साथ मिल कर, सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ हम तीनों में मुहिम चलाने की सुलह हुई है. ”बाबर ने माहम बेगम को समझाने की कोशिश की.

इस बीच सोने के ख़ाली हो चुके प्याले को बाबर ने तर्जनी से जैसे ही बजाया, परदे की ओट से ख़िदमतगार लपक कर बाहर आया.  माहम बेगम ने हाथ के इशारे से ख़िदमतगार को वहीं रोक दिया.

 “मगर मेरे हुज़ूर ! फ़न, इल्म और जंग के बीच बहुत बड़ा फ़ासला होता है.” इस बार ख़िदमतगार की जगह माहम बेगम ख़ुद पतली गर्दन वाली चाँदी की काशग़री सुराही से, ख़ाली प्याले में सुनहली शराब डालते हुए बोली.

“बेगम, जंग में फ़ासलों के कोई मायने नहीं होते.”

“ऐसा आपको लगता है क्योंकि आप एक मर्द हैं.  जंग के जख़्म क्या होते हैं, यह उन हज़ारों माँओं, बेवाओं और यतीमों से पूछो जिनके ख़्वाब इन जंगों में उनके ख़ाविंद, भाई, वालिद और बेटों के शहीद होने पर दफ़न हो जाते हैं.  जो ता-उम्र इनकी सुनहरी यादों के अकेलेपन से लिपट-लिपट कर सिसकती हैं. ” माहम बेगम  ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा,”लीजिए, मेरे हुज़ूर ! आपकी उम्र दराज़ हो !” शराब के प्याले को बाबर की तरफ़ बढ़ा दिया. 

बाबर ने माहम से प्याला लिया और यह कहते हुए अपनी जगह से खड़ा हो गया,”और क़िस्मत की कटार से मैंने जो घाव झेले हैं, उनका क्या ?” फिर एक पल सोचने के बाद गहरा और लंबा सांस लेते हुए बोला,”लगता है बेगम लंबी पुरसुकून ज़िंदगी मेरे नसीब में है ही नहीं.”

“ऐसा न सोचें मेरे हुज़ूर.  एक दिन आपका यह ख़्वाब ज़रूर पूरा होगा.”

“कब पूरा होगा बेगम ?

मैं रोज़-रोज़ होने वाली इन जंगों से तंग आ चुका हूँ. ” इतना कह बाबर ने एक लंबा घूँट भरा और प्याले को एक तरफ़ रख दिया.  फिर कुछ पल सोचने के बाद उसने माहम बेगम की तरफ़ देखा,”मगर यह भी सच है कि हुकूमत का नशा, ऐसा नशा है कि अगर वह एक बार चढ़ जाए, तो आदमी को वह उसकी सर्दमिज़ाज़ी से दूर कर देता है.  बेरहमी और दूसरों की मुसीबतों में उसे मज़ा आने लगता है.  शायद इसीलिए मैं इस नशे को चाह कर भी नहीं छोड़ सकता, क्योंकि मैं हुकूमत का आदी हो चुका हूँ.  हुकूमत में मुझे मज़ा आने लगा है. ” इतना कह बाबर ने शराब का प्याला उठाया और एक झटके में उसे हलक़ से नीचे उतार गया. 

नशे ने बाबर को अब पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया.  कमरे में जलते चिराग़ों की रोशनी से कभी वह दीवार पर बनी अपनी परछाइयों से अठखेलियाँ करने लगता, तो कभी अपने पास बैठी पत्नी माहम बेगम को एकटक देखने लगता.  इस बीच वह कब बिस्तर पर लुढ़क गया, उसे पता ही नहीं चला.  माहम बेगम  ने बाबर के कपड़े और बिस्तर ठीक किए और चिराग़ों की रोशनी को धीमा कर अपने कमरे में आ गई.

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'ख़ानज़ादा'राजकमल प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. 

मैं और मेरी कविताएँ (बारह): विनोद दास

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“A poem is never finished, only abandoned.”

Paul Valery 

 

समकालीन कविता पर केंद्रित ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.-आशुतोष दुबे/ अनिरुद्ध उमटरुस्तमकृष्ण कल्पितअम्बर पाण्डेयसंजय कुंदनतेजी ग्रोवरलवली गोस्वामी / अनुराधा सिंह/ बाबुषा कोहली/सविता सिंहअब इस श्रृंखला में पढ़ते हैं विनोद दास को.

विनोद दास हिन्दी के सुपरिचित कवि-संपादक हैं, उनकी कविताएँ समय के विरूप और विडम्बनाओं से भरे दृश्यों से अपना आकार लेती हैं, एक तरह से वे वृतांत के कवि हैं, कविताएँ संकेत नहीं करतीं- शिनाख्त करती हैं. वे सगुण विषयों को तलाशते हैं और उन्हें साकार करते हैं. उनकी ‘सिपाही’ कविता देखी जा सकती है जो विषय और बर्ताव दोनों में अप्रतिम है.

उनकी दस प्रतिनिधि कविताएँ प्रस्तुत हैं.  

  



मैं कविता क्यों लिखता  हूँ ?
विनोद दास  



विता से मेरे पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब मैं अक्षरों को जोड़कर शब्द पढ़ने लगा था. मुझे याद है कि मेरे जीवन की पहली पतली सी मोटे हरफों में गुटका सी किताब हनुमान चालीसा थी जिसे मेरे पिताजी ने मेरी पढ़ने की बढ़ती प्यास को बुझाने के लिए मुझे एक दिन थमा दी थी. हनुमान चालीसा की लय और पानी की तरह उसके भाषा प्रवाह का जादू था कि उसे मैंने जल्दी पढ़ ही नहीं लिया बल्कि उसे पूरी तरह कंठस्थ भी कर लिया. अपने आराध्य के लिए तुलसी दास की इस स्तुति को कविता की श्रेणी में रखा जाएगा या नहीं, मैं नहीं कह सकता. प्राथमिक विद्यालय में आने पर जो कविता कंठ में बस गयी, वह एक जागरण गीत था. ”उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लायी हूँ मुंह धो लो.”

 

जब माध्यमिक में आया तो दो कविताएँ गुनगुनाता था. जिस कविता को गाते हुए जोश से भर जाता था, वह थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी और दूसरी कविता थी “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा.” कुछ बड़ा हुआ तो घर की लाइब्रेरी में जयशंकर प्रसाद की एक पतली सी किताब “आंसू “हाथ में आ गयी. तत्सम शब्दों की मीठी ध्वनि और निर्झर की तरह बहती भाषा के मोह में मैं उसकी विरह वेदना में ऐसा डूबता-उतराता जैसे मैं ही उसका भुक्तभोगी हूँ. दिलचस्प यह था कि न तो मैं उन पंक्तियों का अर्थ समझता था और न ही प्रेम या विरह नामक किसी चिड़िया से मेरा परिचय था. जब किशोरावस्था में निराला की “वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर” पढ़ी तो पहली बार लगा कि इसमें जो चित्र खींचा गया है, उसे मैंने देखा. लेकिन कभी इसके पहले इस तरह नहीं देखा था. निराला जी ने पहली बार जीवन में देखी हुई चीज़ को देखना और पहचानना सिखाया. कविता में सौन्दर्य, जिजीविषा और संघर्ष को नये सिरे से देखने का यह मेरे लिए एक पहला झरोखा था.

 

उसके बाद कविताओं को पढ़ने लगा लेकिन कविता सृजन का दरवाज़ा अभी तक मेरे लिए नहीं खुला था. मैं कथा प्रेम में गिरफ्तार था. बांग्ला कथा की तर्ज़ पर आसपास के चरित्रों पर केन्द्रित दो-तीन कहानियाँ लिख ली थीं लेकिन उन्हें प्रकाशित नहीं कराया था. सारिका पत्रिका की कहानियों के यथार्थ बोध ने बांग्ला कहानियों के रोमान और किस्सागोई को पृष्ठ भूमि में डाल दिया,. आपात काल का मन पर गहरा असर पड़ा और पहली कहानी “सौदा” उसी यंत्रणा पर लिखी और प्रकाशित हुई. लेकिन अभी तक कविता सृजन का कोई अंकुर नहीं उगा था.

 

दरअसल मैंने कविता लिखना उस उम्र में शुरू किया जब कवियों के एक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो जाते हैं. जहाँ तक कविता लिखने की बात है, शायद 1980-81 से छिटपुट कवितानुमा कुछ लिखने लगा था जिसमें भावावेग की ज्यादा भूमिका होती. कुछ छपीं भी लेकिन अपूर्णता की कील भीतर चुभती रहती. दरअसल मुझे अपनी हर कविता अक्सर अपूर्ण लगती है. पूरी तरह से तैयार उत्पाद जैसी कविता मुझे आकर्षित नहीं करती. यह अकारण नहीं है कि अपनी कविताओं को लिखने के बाद मैं उसे पढ़ने से बचता हूँ. जब भी मैं दुबारा पढ़ ता हूँ, उसमें जीवन की तरह कुछ नया जोड़-घटाव करने की विकलता से ग्रस्त हो जाता हूँ. यही  कारण है कि मैं कविता लिखते ही किसी संपादक को कविताएँ भेजकर भूल जाता हूँ ताकि कविता में बदलाव के लिए कम से कम अवसर रहे. जहाँ तक अपनी कविता के स्रोतों की बात है, अपने आसपास की वस्तुएं, जीवन दृश्य या कोई चरित्र या कोई आख्यान मुझे कविता की और जाने के लिए जाने संकेत देते रहते हैं लेकिन अक्सर मैं अपने कुछ स्वभाव या कुछ आलस्य से उनसे संवाद करना मुल्तवी करता रहता हूँ.

 

अगर वह कुछ समय की दूरी को लांघकर रच पककर मुझे परेशान करती रही तो मैं उसे कागज पर उतार लेता हूँ. मुझे वह एक ऐसी सृष्टि लगती है जो इस संसार से जुड़ी होकर भी इससे अलग होती है. जब मैं कविता रचने की प्रक्रिया में होता हूँ तो मेरे परिजन समझ जाते है कि मैं इस दुनिया में नहीं, किसी और दुनिया में विचरण कर रहा हूँ. इस हालत में मुझे कुछ सुनायी नहीं देता. मैं किसी से बात नहीं करता. उस समय कविता मुझे एक ऐसा लोकतंत्र लगता है जहाँ में निर्भय होकर बोल सकता हूँ. तानाशाह को ललकार सकता हूँ, उत्पीड़ित के साथ रो सकता हूँ. किसी प्रिय के कान में कुछ फुसफुसा सकता हूँ. किसी भी निर्जीव वस्तु से गप्प मार सकता हूँ. बस कविता का यही गुण मुझे अपनी तरफ़ बुलाता है. इसके लिए मुझे कोई बड़े तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती.

 

कलम क़ागज काफी है. विश्व के अनेक कवियों के पास तो क़ागज भी नहीं था तो उन्होंने जेल में सिगरेट की डिब्बियों पर कविताएँ लिखी हैं. कई बार ऐसे वक्फे आते हैं जब कुछ भी लिखते नहीं बनता. कविता मेरे लिए मांग और आपूर्ति की तरह नहीं है जो बाज़ार  की जरूरत के अनुरूप रची जा सकती है. तमाम पेशेवर लोग करते हैं और कविता खो देते हैं. मेरी कविता की कमी यही है कि वह योजनाबद्ध तरीके से नहीं लिखी जाती. शायद कई दौर में अनुभव रचना में बदलने में कुछ समय लेते हैं. हालांकि उस दौर में भी कुछ रचने की प्रक्रिया में होता हूँ. रचना एक सतत कार्रवाई हैं. रचना करना जितना बड़ा सुख है उतना ही त्रास दायक भी. फिर भी उसी में रत रहता हूँ. चाहे कविता बने या न बने.




क वि ता एँ

 

१.

अनकही कथा

 

सब्ज़ी की दुकान पर

चिकने सुंदर बैंगन देखकर

उसके मन में उठती है भाप की तरह

माँ की थाली की याद

जहाँ से आने के बाद धुंधला हो गया है

उसकी वापसी का रास्ता 

 

वह उस घर की एक भूली हुई संतान है 

सिर्फ़ सावन में जिसकी आती है याद 

जैसे पितृपक्ष में याद आते हैं

विस्मृत पूर्वज साल में एक बार

 

वह एक सुंदर बैगन उठाती है 

प्यार से छूती-सहलाती है

फिर बुदबुदाती है “बैंगन सस्ते हैं”

लेकिन उन्हें नापसंद हैं

फिर गिरा देती है चुपके से टोकरी में वापस

जैसे गिरा देती है उसकी इच्छा पर 

अपना नवजात गर्भ 

 

उसका हृदय

उसकी ध्वस्त इच्छाओं का मलबा है

आँखें सूनी खामोश गुफाएं हैं   

 

पुत्री जनने के लिए

वह उसके झूठे कलंक का सामाजिक उपहास है

 

वह उसकी उपेक्षा का खिलौना है 

उसकी झिड़की का है गुप्तकोष  

 

नशे में धुत आदमी की 

वह हिंसा का करुण स्मारक है

 

रति क्रिया की अपनी अतृप्ति में 

वह उसकी दुर्बलता का 

खुफिया राज़ है

 

यह उसकी अनकही कथा है

जिसकी अनुपस्थिति में भी

उसके मन पर चढ़ी रहती है उसकी सांकल

 

वह उससे डरती है

जैसे तिल चट्टे से डरती है

जैसे छिपकली से डरती है

जैसे सांप से डरती है

 

वह उसकी उपस्थिति में डरती है

वह उसकी अनुपस्थिति में भी डरती है

 

शौच में भी मंडराता रहता है उसका भय

जल्दी- जल्दी निबटती है 

कहीं वह भड़क न जाएँ  

खाने में देर होने पर

 

कभी वह एक प्रेत लगता है

जो हर क्षण उसका पीछा करता रहता है

 

कभी लगता है कोई ख़ुफ़िया जासूस

जो खंगालता रहता है निजी सामानों के बीच 

उसका अतीत

उसका कोई पुराना प्रेम पत्र

किसी पुरुष मित्र के साथ उसकी तस्वीर

 

अपने अपराधों के लिए

वह खुद बन जाता है न्यायाधीश  

उसके शब्दकोश में क्षमा शब्द रहता है हमेशा गूंगा

और प्रशंसा खर्च होती रहती है बेहिसाब

दूसरी स्त्रियों के लिए

 

फिर भी उसकी दीर्घायु के लिए

वह रखती है भूखी प्यासी रहकर निर्जल व्रत 

जो उसके रोमांचित शरीर के संगीत से बेखबर

हर रात सोता है उसके निकट

खर्राटे भरती एक लाश की तरह.

 



 

(2)

यातना गृह

 

स्मृतियों की राख के साथ

वे अभी भी वहां रहते हैं 

एक नाजायज़ संतान की तरह

जहां चिनार की पत्तियों से हरी हवा नहीं

बहती है बारूद की गंध

 

रस्ते में हिलते मुस्कराते हाथ नहीं,

रेत की बोरियों के पीछे से स्वागत करती हैं

बन्दूक की नलियां

 

भारी बूट खटखटाते हैं दरवाज़ा

और घर से ग़ायब हो जाता है

एक बिस्तर

हमेशा के लिए

 

यह वह ठिकाना नहीं है

जहाँ ग़ायब हुई चीज़ें मिल ही जाती हैं

कहीं न कहीं देर सबेर  

 

यहां मिलता है

उनका टूटा हुआ चश्मा

खून से सना ऊनी स्वेटर

सिगरेट के जलते दाग़ों से सजी लाश

उसके उखड़े नाखून

फटी हुई गुदा

 

यातनाएं कभी चटपटे किस्सों की तरह

हुंकारी भरकर नहीं सुनी जा सकती

उसे खून के आंसुओं के साथ रोया जाता है

 

इश्क़

यहाँ नाज़नीन

मर्द से नहीं, कफ़न से करती हैं

जब वह आशिक़ से मिलती हैं गले

तो उन्हें लगता है कि कब्र पर

सिर रखकर रो रहीं हैं

 

वे अपनी खिड़कियों से देखती हैं

अपने दरवाज़े से गुज़रता हुआ जनाज़ा

जो जनाज़ा कम

इन्कलाबी जुलूस लगता है ज़्यादा

ईंट भट्ठे से उठते हुए धुएं की तरह

वहां रुंधे हुए गले से निकलते हैं नारे

आज़ादी आज़ादी आज़ादी

जो बुलेट प्रूफ दिलों तक नहीं पहुंचते

 

आज़ादी

उनके लिए महज़ एक लफ्ज़ नहीं है

न ही कोई रूमानी ज़ज़्बा

 

यह बारूद के बिछे तारों के नीचे

छिपा एक स्वप्न है

जिस पर पांव रखते ही उड़ जाते हैं

उनके परखच्चे

 

आपको बताने से क्या फर्क पड़ेगा

इस समय आप देख रहे होंगे

टीवी पर देश को तोड़नेवाली तक़रीर

फिर भी बताना मेरा धर्म है

 

यहाँ लोग काले कहवे में डुबोकर खाते है

हर सुबह दुःख की डबलरोटी

 

खाली कटोरे के साथ

मस्जिद के सामने हिजाब पहने बैठी एक खातून

ऊपरवाले से मांग रही है

रहमो करम की दुआ  

 

झील के झिलमिल पानी में

सजे-धजे शिकारे

नवागत वधू की उतराई हुई लाश की तरह

खड़े हैं ख़ामोश

 

भूखे टट्टुओं की करुण हिनहिनाहट से

विलखती रहती है हरी -भरी घाटी

एक विधवा की तरह

 

मोबाइल की कॉलर ट्यून सुनने के लिए

तरस रहे हैं टैक्सी ड्राईवरों के कान

ये वादियां ये फिजाएं

बुला रहीं हैं हमें

 

आपके पास पुरानी तस्वीर है न वहां की

जिसमें आपकी फुंदेवाली लाल टोपी पर चमक रही थी

बर्फ़ के नन्हें नन्हें कण

जगमग करते सितारों की तरह

 

और वह दूसरी फोटो

जो आपके बटुए में रहती है हमेशा मौजूद

जिसमें मुस्कराती हुई आपकी मोहतरमा की गोद में

दुबका दिखता है

उसी ज़न्नत का एक मासूम छौना

 

वही जन्नत जहां आप तफ़रीह  के लिए गए  थे

आज कोमा के मूर्छित मरीज़ सी कराहती है

सांस लेती है

खाती है

धडकता है रहता उसका दिल

सिर्फ मौत का इंतज़ार करते हुए

 

जीना एक जिंदा लाश की तरह

खाना सोना हगना भर नहीं है

यह दस्तरखान पर चुहल करते हुए

एक दूसरे को रकाबी देकर खाने के लिए मनुहार करना भी है

 

वहां से आती रहती है

आतंकियों के मारे जाने की ख़बर

ट्रकों से भर कर आते रहते हैं सुंदर सेब

 

हम कुतरते हैं

वाह ! कितने लज़ीज़ हैं

अरे! रसीले और मीठे भी हैं

सिर्फ़ उसके गूदे में

कुछ खून सा चमकता है.  

 

 

(3)

बलात्कृत का हलफ़नामा

 

नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं

इस समय मैं कतई नहीं रोऊँगी

आंसू बहाकर मैं भीगी माचिस नहीं बनना चाहती

 

अपनी बेतरतीबवार ज़िन्दगी की तरह

मैं कुछ बेतरतीबवार बताना चाहती हूँ

 

प्यार से नहीं भूल से पैदा हुई संतान के लिए

खतरा अधिकतर आसपास होता है

और इसकी शुरुआत

बहुत पहले मेरे घर से ही हो चुकी थी

अक्षर ज्ञान के पहले से ही

मैं पढ़ने लगी थी नेत्रहीनों की तरह कामातुर स्पर्श

जब मामा चाचा सौतले भाई

रिश्तों की आड़ में बन जाते थे मर्द

 

जलेबी, लेमनचूस या अँधेरे के खेलों के खतरों का

मुझे तो क्या

मेरी मां को भी तब तक पता न चलता

जब तक उल्टियां नहीं होतीं

या खून से लथपथ नहीं मिलता मेरा अंतर्वस्त्र

 

क्या यह वासना थी

 

वासना क्या होती है

इतनी अल्पायु में

भला मैं क्या जानती

जैसे नहीं जानती थी वह पागल स्त्री

जो उभरे बड़े पेट के साथ देश के हर शहर में

किसी चौराहे के पास जूठे पत्तल चाटती हुई मिल ही जाती है

 

बस ! जब वे छूते

तो लगता कि कोई छिपकली

मेरे अंगों पर रेंग रही है

नितंबों पर चिकोटियां काट रही हैं चींटियाँ

 

बस-ट्रेन की भीड़ में

मेले-बाज़ार की धक्का मुक्की में

वे बिलबिलाते तिल चट्टे की तरह मुझे छूते

छूते सरसराते केंचुएं की तरह

 

बलात्कार

सिर्फ़ लिंग से ही नहीं होते

आँखों से भी होते

सृष्टि में सबसे अधिक बलात्कार

कल्पना में होते

 

इनके अनंत चेहरे थे

 

कोई गणित ट्यूटर के वेश में आता

अकवार के बहाने नोचने लगता वक्ष 

तो कोई संगीत गुरु तबले की तरह

बजाने लगता मेरी देह

कोई तरक्की का झांसा देकर

केबिन में चबा लेता होंठ

कोई अभिनेत्री बनाने की लालच देकर

खेलता देह-प्रेम का खेल 

बाबा-फ़कीरों की बात ही अलग थी

संतान सुख देने के बहाने

उतार देता था अंग से पूरे वस्त्र

 

शौहर के बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगी

अवमानना का मुकदमा चल जाएगा मुझ पर

न्यायालय भी देता है शौहर को बलात्कार की छूट

जलती सिगरेट के दाग की तरह 

मेरी आत्मा पर हैं इनके दंश के इतने पक्के निशान

जो अंतिम समय मेरी अस्थियों के साथ जायेंगे

 

गरीब-दलित सखियों के बारे में क्या कहूँ

काँपता है कलेजा

ये सखियाँ ऊँची जातियों के लिए नाबदान हैं

फिर भी आम की मुफ़्त चटनी से भी ज्यादा

उन्हें लगती हैं इनकी देह चटपटी   

होती है खेत-खलिहान में रौंदने के लिए केलि बिस्तर  

ना-नुकुर या चूं-चरा करने पर   

बन जाती है उनके प्रतिशोध का सामान

 

आपके किताबी लफ्ज़ों में कहूं

तो इनकी खामोश चीखों से 

लिखा जाता है उनके वर्चस्व और पौरुष का इतिहास

 

गाय से भी कम है  

इनका महत्व

वह चाहे घर में झाड़ू-पोछा करती छमिया हो

या फसल काटती धनिया हो

 

इनकी शिकायत

अक्सर थाने के बाहर छटपटाकर तोड़ देती दम

हुज्जत करने पर

लॉकअप में पिटते है नाते रिश्तेदार

 

मंद-मंद घिनौनी मुस्कान के साथ

कचहरी में पूछते वकील-जज ऐसे घृणित सवाल

गोया भरी सभा में आईने के सामने

फिर से किया जा रहा हो

शाब्दिक बलात्कार

 

कोई इन कुलिच्छनों के साथ नहीं आता

ना पंचायत ना राजनीतिक दल

 

इनके लिए राजधानी की सड़कों पर

कोई मोमबत्ती मार्च भी नहीं निकालता

टीवी अखबार के संवाददाता

महामहिम या अभिनेता के फ़ोटो शूट में रहते व्यस्त

वे सांसद भी रहतीं चुप

जो संसद में छाती पीटती थी

एक गर्भवती हथिनी के मरने पर

 

मैं आपको कुछ-कुछ समझने लगी हूँ

आप केवल देखना चाहते हैं

मेरी आँखों में 

डर का काँपता पानी

 

मेरी आजादी

आपके डर के भीतर कैद है 

चाहे मेरी पोशाक हो या नौकरी

या हो स्कूल का बस्ता

 

मन से शादी

या प्रेम का जिक्र करना

तो मेरे लिए कुफ़्र है 

इसके लिए आपकी पंचायतें बांटती ही रहती हैं

चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र 

 

मैं जानती हूँ

शौचालय में मेरी गंदी-गंदी तस्वीर बनाकर

गंदी-गंदी गालियाँ नवाज़कर 

तोड़ना चाहते हैं आप

मेरा मनोबल

 

अब मैं इस डर के पार चली गयी हूँ

वैसे भी आपकी नज़रों में हो गयी हूँ अशुद्ध

 

हालांकि ऐसी पवित्रता पर मैं थूकती हूँ 

 

दरअसल मेरी योनि 

मेरी देह का सबसे पवित्र अंग है

हर माह रक्तस्नान से होता रहता है पवित्र

जहाँ से हुआ है

इस पृथ्वी पर तुम्हारा जन्म

 

मेरी मौत की प्रतीक्षा करना बेकार है

जीवन बहुत सुंदर है

 

मोबाइल के अश्लील विडिओ से बनी

आपकी घटिया सोच के लिए

गले में दुपट्टा बांधकर नहीं दूँगी अपनी जान

 

हाँ ! आपके लिए एक और आखिरी बात

मेरा मन एक किले जैसा दुर्भेद्य है 

जो किसी भी आक्रमण से नहीं जीता जा सकता

लेकिन मासूम है इतना

कि एक सुन्दर फूल पेश करने पर भी हार देता है

अपना सर्वस्व. 

 

 


(4)

देश

 

वह इसके बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानता

 

कील पर घूमते हुए ग्लोब पर तो क्या

उसने इसे कभी कागज़ के नक़्शे पर भी नहीं देखा

 

देश के बारे में इसकी समझ

सिर्फ़ आठ किलोमीटर है

जहाँ से आयी एक स्त्री

गीली लकड़ियाँ फूंक-फूंक कर

उसे आलू चोखा और गर्म भात खिलाती है

 

बताने की जरूरत नहीं

कि देश उसके लिए सिर्फ़ बेदखली है

सिर छिपाने के लिए

चाहे रेल पटरी के किनारे नीले मोमजामे की छत हों 

या हों शहर में आवारा बिखरे सीमेंट पाइप

 

घर के लिए

इस महादेश में कोई ऐसी जगह नहीं 

जिसके पक्के कागज़ उसके पास हों 

 

वह कभी नहीं करता देशप्रेम की चर्चा

यह उसके लिए शोक की घड़ी है

बस हो जाता है वह

गुमसुम और ख़ामोश

 

उसके डबडबाते आंसुओं में झिलमिलाने लगता है

वह शांत निस्तेज चेहरा

जो राष्ट्रीय ध्वज में लिपटा

सरहद से उसके घर लौटा था

 

देशप्रेम उसके लिए खेल भी नहीं है  

वह कई दफ़े उनसे करता है ईर्ष्या 

जो क्रिकेट मैच में

चेहरे पर राष्ट्रीय ध्वज बनाकर

जयघोष से भर देते हैं आकाश

 

टीवी एंकरों की बहसों में

इन दिनों बेतरह आता है यह शब्द

सबका बढ़ जाता है रक्तचाप

खौलने लगता है खून 

आँखों के सामने तैरने लगते हैं

काल्पनिक दुश्मनों के कटे हुए सिर

 

इसे बुरा सपना समझने की भूल मत करें

यह एंकर विषैले वायरस से भी अधिक खतरनाक है

यह दुष्ट आपके पड़ोसी से बोलचाल बंद करा सकता है

घर में दीवाल खडी करा सकता है

शहर में दंगा करा सकता है

फ़िज़ूल की लंतरानियों की ओट में 

आपकी तकलीफ और अन्याय छिपा सकता है.

 

इससे बचना होगा उसे महामारी की तरह

टमाटर की अपनी फसल सड़कों पर भी फेंककर

उसे जीना होगा

 

अगले बरस कपास के सुंदर फूल देखने की लालच में

पोटाश खाने से उसे बचना होगा

 

“देश खतरे में है” सुनकर

उसे समझना होगा

यह और कुछ नहीं 

सिर्फ़ उसकी गरीब ज़ेब काटकर

विदेशों से महंगे हथियार खरीदने की तैयारी है 

 

उसके लिए कहना मुश्किल है

विकास एक सुंदर फंतासी है

या है एक ऐसी सड़क 

जिसके रास्ते में कभी नहीं आता है उसका घर

 

इसके नेपथ्य में बिकता है

हमारा पानी-खनिज

रेल या हवाई अड्डा

चंद अमीरों को

 

यह क्यों होता है

यह सवाल पूछना यहाँ ज़ुर्म है

इस पर फ़िलहाल मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ

अगर आपको मुझ पर शक है  

मेरे साथ उन कैदखानों में आइए

जहाँ सवाल पूछनेवाले बंद हैं 

 

साधो ! आपको ग़लत लग सकता है

लेकिन सच तो यही है

नकली देश प्रेम अफीम सा नशा है  

दिमाग़ बन जाता है इसका गुलाम 

 

क्या उसे पता है  

जब तक उतरेगा यह सम्मोहक नशा

अंधे न्याय की कलम से

तब तक उसका कच्चा घर ढह चुका होगा

पूरी तरह से.

 

 

 

(5)

कुजात

 

आप हमें झट पहचान लेते हैं

अपने ब्रहमभोज में

पूड़ी-बूंदी के इंतज़ार में जमीन पर बिछे हम पत्तल हैं

परदेस में काम खोजते छूछे हाथ हैं

 

ईंटों का तकिया लगाये हुए

सदियों से चली आ रहीं आपकी हम दुत्कार हैं

 

हम प्रेम की शाश्वत भूख हैं

और आप

घृणा के आदि वंशज हैं

 

आपकी घृणा

हमारी रुलाई में नमक की तरह छिपी रहती है

और हमारे रक्त में घुलती रहती है धीरे-धीरे

 

आपके महादेश में

हमारी नागरिकता संविधान के बाहर है

मंदिर के बाहर पड़े जूतों की तरह

 

अपनी पीठ पर चावल की बोरी लादे

मैं भूखा चलता वह शख्स हूँ

जिसका नाम विकृत करके हँसना

आपका निःशुल्क मनोरंजन है

 

हमारा जन्म ही निर्वासन है

गाँव के किसी संकरे-गंधाते कोने में

और मृत्यु एक अदृश्य हत्या

जिसकी कभी कोई रपट थाने में नहीं लिखी जाती

 

हमारी टूटी छत से

होती रहती है दिन-रात घिन की बारिश

उठती रहती है उजड़े घर से

दुख के कीचड़ में गूंथी हुई सिसकियाँ

 

कौन लिखता है

हमारी नृशंस इबारत

एक जर्जर संस्कृत की किताब या वह पाखंड़ी सूत की डोरी

फ़ारिग होने के समय

जिसे कान पर चढ़ाने से हो जाता है पवित्र

 

आपकी आखेटक आँखें

हमारे बॉस मारते घरों में खिले फूलों की ताक़ में रहती हैं

और आपका बेगार न करने पर

खेतों में पड़ी उनकी लाशों के नाखूनों में

आपकी देह से नोची त्वचा मिलती है

 

ओह आपको मितली आती है

जब घूरे पर हमारे नंग धड़ंग बच्चे

सूअरों से लड़ झगड़ कर हगते हैं

और टूटी खात की आड़ में घर के सामने

हमारी औरतें पेटीकोट उठाकर लघु शंका करती है.

 

अच्छा आप नजर फेर लेते हैं

जब गंदगी के ढेर से मक्खियाँ उड़ाकर

उठा लेते हैं हम खाने का कोई फेंका हुआ टुकड़ा

और आपको कोटिशः धन्यवाद देते हैं 

 

आशा की मैली लालटेन की रोशनी में

कबीर रैदास के साथ जब हम रोते गाते हैं

सहसा गुर्राने लगते हैं महाकवि तुलसीदास

पूजहू विप्र सकल गुण हीना शुद्र न पूजहू वेद प्रवीना

तब आती है प्रेमचंद की कलम

उनके फटे जूतों के साथ

 

आप नाराज़ हो गये न

हमारे सरकारी आरक्षण से आपका मुंह वैसे ही सूजा रहता है

गोया किसी जहरीले ततैये ने आपको काट लिया हो

हमारे लिए तमाम गालियाँ

आपकी ज़बान से गू की तरह बरसती रहती ही हैं

जबकि हमारी नौकरी की अर्जियां

अक्सर आपकी फाइल में दबी रहती हैं

फिर रद्द कर दी जाती हैं

योग्य पात्र न मिलने का बहाना बनाकर

 

इतिहास के नए व्याकरण में

हम हाशियाँ हैं

फिर भी हमारे गरीबखाने पर आते हैं जन प्रभु

अपने लाव लश्कर के साथ

खुले जख्म पर भिनभिनाती मक्खियों की तरह

 

धोते हैं साबुन से धुले हमारे पांव

खाते हैं हमारी रसोई में बैठकर खाना

अनगिनत कैमरे खींचते हैं हमारी तस्वीर

एक क्रूर प्रहसन की तरह

 

सांस लेना ही ज़िन्दगी नहीं है

यह बोलते समय भर्रा जाती है हमारी आवाज़

फटे तबले की तरह

 

गहरी नींद से जगी आँखें देख रही हैं

छल बल का साज़

हमारा वोट अमीरों का राज़

हमारे दुखों की बढ़ती जा रही हैं झुर्रियां

हमारी नसों में भरता जा रहा है क्रोध का बारूद

 

सावधान यह कभी भी फट सकता है

मानव बम की तरह 

 


(6)

ख़ुदकुशी

 

यह पंखों से लटकी हुई पतली गर्दन

ट्रेन पटरियों पर बिखरी क्षत-विक्षत देह

ऊँची इमारत से गिरकर तरबूज़ सा फटा सिर

कीटनाशक पीकर नीली हुई लाश

या ब्लेड से कटी हुई हाथ की कोमल कलाइयां

पुलिस अपनी प्राथमिकी में चाहे जो कुछ भी लिख ले

मैं इन्हें ख़ुदकुशी मानने को हर्गिज़ तैयार नहीं हूँ.

 

आप बिलकुल सही समझ रहे हैं

यह सौ फीसदी हत्या है

हालांकि यह अपनी तरह से मृतक का प्रतिरोध है

इस बर्बर दुनिया की यातना के खिलाफ़

सफ़ेद कफ़न पहनकर

 

वे कायर थे

या दिमागी तौर से बीमार

यह कहना उनका अपमान होगा

जिंदगी विकल्पहीन है  

हर कोई जिंदगी जीना चाहता है भरपूर

वह आदमी हो

मछली हो या तिल चट्टा

 

जीने के लिए आदमी भीख मांगता है

मंदिर मस्जिद में प्रार्थनाएं करता है 

ढ़ोंगी बाबा फ़कीरों के चरण चूमता है

गुलाम बनकर अपने आतताइयों की जी हजूरी करता है

इलाज़ के लिए घरबार बेचकर

डॉक्टर से जिंदगी के लिए गिड़गिड़ाता है

गुंडे के कट्टे की डर की छाया में जी लेता है

अपना एक गुर्दा बेच देता है

 

अपनी जान बचाने के लिए 

दूसरे आदमी की हत्या तक कर देता है

   

एक अरब से ज़्यादा की आबादी में

दरअसल उनके लिए न कोई कंधा था

न ही आगे बढ़ा कोई हाथ

आशा भी छोड़ चुकी थी साथ

वे अपने दुःख में इतने अकेले, पराजित और कातर थे

कि जिंदगी की अंतिम गली में

सिर्फ़ उनके पास बचने के लिए मृत्यु की बस थी

 

वे बच सकते थे

जैसे बच जाती है प्रदूषित हवा में थोड़ी सी ऑक्सीजन

जैसे बच जाता है दवा के बिना सरकारी अस्पताल में मरीज़

जैसे पेट पर लात मारने पर भी बच जाती है

गर्भ में लड़की

जैसे दुःख के अंतरिक्ष में बच जाता है गर्म आंसू

 

फर्श की पतली दरारों में चीटियों की तरह

वे इस बेरहम दुनिया में गुज़र बसर कर लेते

अगर उनके काम मांगते हाथ दुरदुराये नहीं जाते

गोत्र के चाक़ू से उनके प्रणय की कलाइयां चीरी नहीं जातीं

कर्ज़ से लदे किसानों से बैंक यदि उसी भाषा में करता बात

जो उन्हें समझ में आती

बहू लक्ष्मी होती और मोटर साइकिल की फरमाइश पूरी न होने पर

उसकी पीठ जलते चिमटे से दागी न जाती

 

हाँ ! स्थानीय अख़बार के किसी कोने में छपी इस खबर पर

कुछ दिन कोहराम होगा

कुछ दिन उनकी छोड़ी हुई दुनिया याद आयेगी

याद आयेगी कुछ दिन उनकी खुरपी, कंघी, सुरती की डिबिया

याद आएगा उनका चारखाने वाला लाल गमछा-घिसे तल्लेवाला जूता

याद आयेगा छींटों वाला उसका दुपट्टा

गत्ते के डिब्बे में रखी गुलाबी चूड़ियाँ

संदूक में तहायी हुई सुहाग की साड़ी

कॉपी में रखे गुलाब के सूखे फूल

कुछ दिन धुंधले समूह फोटो में पहचाना जाता रहेगा

जबरन मुस्कराता उनका उदास चेहरा

 

फिर सब उसी तरह चलने लगेगा

एक किशोरी रच रही होगी

गदोलियों में बेलबूटों वाली मेंहदी

एक युवक भर रहा होगा नौकरी का आवेदन पत्र

किसान ला रहा होगा मंडी से नए बीटी बीज

अभिसार की तैयारी के लिए

एक नव विवाहिता काढ रही होगी अपने लंबे उलझे केश  

 

नही होगा तो बस ! किसी के अंत:करण में

थोड़ी सी ग्लानि  न ही कोई अपराध बोध 

न ही होगा कोई क्षोभ

न कोई प्रायश्चित 

न ही संताप 

दुनिया बदलने की बात तो एकदम न होगी

 

इसी तरह

खुदकुशी के नाम पर

हर दिन हम मारे जाते रहेंगे धीरे-धीरे

और हमें पता तक नहीं चलेगा 

 

क्या सोचा होगा

उसने अपने अंतिम क्षण में

मैं नहीं जानता

 

लेकिन मैं सोचता हूँ 

कब तक इसी तरह जिंदगी बनी रहेगी प्रतीक्षालय

हमारी स्थगित हत्या के लिए.    

 


(7)

दूसरीदुनिया

 

क्या बजा है

उसने हमसफर से पूछा

और हल्की पुष्टि के बाद

चलती ट्रेन में

फर्श पर गमछा बिछाकर

हाथ जोड़कर घुटनों के बल

झुक गया

 

अब उसे कुछ भी नहीं सुनायी दे रहा था

न ट्रेन की खटरपटर

न मुसाफिरों की चिल्ल पों

न ही इस दुनिया की कोई खबर

 

अपनी भीतर की घाटी में लीं

पपोटे बंद किये हुए

वह सुदूर अनंत में

किसी से कर रहा था बात

धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए

अदृश्य मोबाइल पर

परिजन की तरह

 

मुसाफिरों की लिए

वह सिर्फ प्रार्थना थी

 

कुछ के लिए आने जाने की बाधा

कुछ के लिए और कुछ

 

लेकिन इस क्रूर दुनिया में

चलती ट्रेन के भीतर

दरअसल उसके लिए

यह एक अपनी सृष्टि थी

 

एक ऐसी सृष्टि

जहाँ इस दुनिया का कोई क़ानून लागू न था

 

वहां अन्याय की चाबुकों के न तो हरे घाव थे

न ही था सत्ता के सच झूठ का शाश्वत खेल

इस दुनिया की तरह

 

वहां फिलवक्त न तो भूख की परछाईं थी

और न ही युद्ध या दंगे का डर

विस्मय की बात यह थी

कि इस बाज़ारमय समय में

उस दुनिया में प्रवेश के लिए कोई शुल्क भी न था

 

इस संसार का वह विधायक था

 

इसकी रचना के लिए

उसे नहीं चाहिए था ईंट-गारा

मिस्त्री या दलाल

और न ही उसे लगाने पड़ते थे

 

नक्शा पास कराने के लिए

किसी सरकारी दफ़्तर के चक्कर

 

चलती ट्रेन में

इस दुनिया से परे

इस क्षण वह भूल गया था

कि वह क्या है 

कहां का है नागरिक

उसे दिखाना है अपने होने का सबूत

 

फिलहाल

उसे यह भी याद न था

कि उसकी एक दाढ़ी है

 

उसे यह तक भी पता न था

कि ट्रेन की रफ़्तार के साथ

उसकी दाढ़ी काँप रही है

और उस पर एक पीली ततैये की छाया मंडरा रही है 

 



(8)

सिपाही 

 

शायद ही कोई इनसे ख़ुश हो

ख़ुद इनकी अपनी आत्मा भी नहीं

 

घर में पत्नी नाख़ुश

और बाहर पंसारी

जो उनकी बीवी को उधार देते देते

आ गया है आजिज़

 

सबको इनसे शिकायत है

किसी को कम

किसी को ज़्यादा

 

इन्हें देखकर

वे भी बना लेते हैं अपना विकृत चेहरा

जिनका कभी इनसे साबका नहीं पड़ा

और वे भी

जिनकी संतानों को इन्होंने फिरौतीबाज़ों से बचाया

 

संसार की कोई भी राजसत्ता

इनकी भुजाओं के बिना नहीं चलती

चाहे बीते समय की राजशाही हो

या आज का कथित लोकतंत्र

 

इनका इतिहास

दासता का आख्यान है

और वर्तमान भी कहाँ कुछ बदला है

 

ये हिंसा के मज़दूर हैं

 

महंगाई के विरोध में शांतिपूर्ण रैली हो

जंगल-ज़मीन बचाने की मुहिम हो

या रोज़ी-रोटी के लिए धरना

अफसर को मुआवज़े की अर्जी देनी हो

या अपने हक़ के लिए सड़क पर निकलना हो जुलूस

आँखों पर बांधे हुए अनुशासन की पट्टी

वे दीवार की तरह हर ज़गह रहते हैं मौजूद

 

इनके पास इतना भी नहीं होता अवकाश 

कि धो सकें बू मारती अपनी पीली बनियाइन

सूराखों भरी जुर्राबें

 

हुक्म पाते ही हड़बड़ी में

पहन लेते हैं चारखाने वाली गीली जांघिया 

कसते हैं चमड़े की बेल्ट

पहुंच जाते हैं वहां

दुर्भाग्य से जिसे वे कहते हैं

अपनी ड्यूटी

 

ड्यूटी की हथकड़ियों में बंधे 

वे चलाते हैं गोली-डंडा

मारते हैं पानी की बौछार

छोड़ते है आंसू गैस 

 

वह ड्यूटी पर थके हुए जाते हैं

और थके हुए लौटते हैं घर

 

जी हाँ ! आप सही सोच रहे हैं

यह अंग्रेज़ों की नहीं, हमारी अपनी पुलिस है

अपने भाई-भतीजे हैं

क़ानून व्यवस्था के नाम पर

पीटते हैं हमें दुश्मन की तरह

जैसे लूटते हैं बेईमान व्यापारी

राष्ट्रवाद के नाम पर

 

जरा इनकी बचपन की फ़ोटो देखिये

कितनी निर्मल और प्यार से भरी आँखें हैं इनकी

 

तब कटी पतंगों को लूटने के लिए

वे अदृश्य पक्षी बनकर उड़ते थे

लट्टू पर घुमाते थे सारा संसार

पाठशाला में इब्राहीम की बिरयानी बेहिचक बांटकर खाते थे

मकई के लंबे सफ़ेद बाल लगाकर

बनते थे सांताक्लॉज़ 

 

यह अब कोई रहस्य नहीं है

कि किस तरह बनाया जाता है इन्हें धीरे-धीरे क्रूर

बनाया जाता है धीरे-धीरे भ्रष्ट 

थोड़ा हिंदू-थोड़ा मुसलमान 

धीरे-धीरे बनाया जाता है

बांभन ठाकुर यादव लोध पासी बाल्मीकि 

 

धीरे-धीरे वे रह जाते हैं कम पुलिस 

मनुष्य तो और भी कम

 

फ़िलहाल कथित मुजरिमों के

वे वैधानिक संहारक हैं   

 

इनसे ईमानदारी का आग्रह करना

इनके प्रति हिंसा होगी

इतनी कम मिलती है पगार

बेईमानी इनके लिए सबसे बड़ी नैतिकता है

 

वे अक्सर मुफ़्त चाय पीते हैं 

और बदले में

होटल में बालश्रम करते बच्चे को देखकर

आँखें मूद लेते हैं 

 

वे अक्सर ऑटों में मुफ़्त बैठते हैं 

और ऑटो चालक को

ज़्यादा सवारी बैठाने की छूट देते हैं 

 

असमय बूढ़ी हो गयी इनकी बेटी से

कोई जल्दी शादी नहीं करना चाहता

कोई जल्दी अपना मकान इनको किराये पर नहीं देना चाहता

 

कॉलेज में उसकी मीठी फब्तियों पर 

जो लड़की बिंदास उसे कभी झिड़क देती थी

कभी फिस्स से हँस देती थी उसकी शेरो-शायरी पर 

अब सड़क पर अचानक उसे वर्दी में देखकर

थर्रा कर रुँध जाती है उसकी आवाज़

 

समाज में ताक़तवर दिखते

ये हिंदी फिल्मों के लिए मसखरे हैं

 

इनके लिए प्रणय एक बुरा सपना है

जैसे कर्फ्यू में नमक

स्त्रियों के सपनों में वे आते हैं

डर की तरह

 

जीभ की तरह

पैंट से निकली बाहर कमीज़

और बढ़ी तोंद से कमीज़ के खुले बटनों के लिए

इनके परिष्कार की चर्चा कागजों पर खूब होती है

हालांकि सत्ता के लिए यह बारहा स्थगित काम है

 

शासकों की सामंती दुनिया में  

झूठा आश्वासन ही उनका कथ्य है

और भाषा से खेलना शिल्प

 

उनके लिए वह जाले भरी किसी गंदी बैरक में

खूंटी पर टंगी एक पुरानी खाकी वर्दी है

जिस पर जमी धूल दंगों के बाद

कचहरी में संविधान की किताब की तरह 

कभी-कभी झाड ली जाती है

 

अपनी पीड़ा के लॉकअप में बंद

आपकी शरीफ़ ज़बान में 

वह टुल्ला

नशे की घूँट में घुलाता है हर चिपचिपी शाम

अपनी आत्मा पर लदा अपराधबोध

सौगात में मिली

दिन भर की घृणा और बेहिसाब डंक

 

लड़खड़ाते हुए

बेसुरी आवाज़ में गुनगुनाता है

पुरानी फिल्म का कोई उदास गाना

और घुर्र-घुर्र करते पंखें के नीचे सो जाता है बेसुध

कमर झुकी बीवी के बगल में 

मुर्दे की तरह

 

अपने बेरोजगार बेटे के लिए

गालियां ही उसका प्यार है 

अगर्चे रोजगार के रेगिस्तान में 

जब उसका बेटा भरता है सिपाही भर्ती का फॉर्म

वह चिंदी-चिंदी कर उसे उड़ा देता है 

खिड़की के बाहर

खुली हवा में. 

 

 

(9)

कोख

 

वह न तो सिर्फ खट्टी मितली है 

न सिर्फ़ सूजे पांव

न ही स्वाद की नई-नई फरमाइश है 

 

वह सृष्टि की पहली खुशी है

और इतनी बड़ी

कि ओढ़नी या पल्लू के पीछे भी

छिप नहीं पाती

 

उसका उभरा बड़ा पेट

इस कायनात का सबसे सुन्दर दृश्य है

 

शर्म से झुक जाती हैं मेरी आँखें

इस बड़े पेट के साथ वह फ़र्श पर पोंछा लगा रही है

बाल्टी पर झुकी कपड़े पछीट रही है

चिलचिलाती धूप में

सड़क पर गिट्टियां कूट रही है

 

मेरी ग्लानि की कोई सीमा नहीं है

जीवन रचने के क्षण में

वह निराहार तारे गिन रही है 

 

सौरी से बाहर छनकर आती

वह दरअसल पृथ्वी की सबसे करुण कराह है

 

संतान की भूख मिटाने के लिए 

अपनी भूख मारने का वह अभ्यास है

 

बिस्तर पर टट्टी-पेशाब में लथपथ

वह ऐसा रतजगा है

जिसका मूल्य विश्व का कोई बैंक नहीं चुका सकता

 

जिंदगी के तीसरे दौर में

कीड़े की तरह चेहरे की कुलबुलाती झुर्रियों के बीच

अब जब वह एक हिलती हुई ठोढी भर रह गयी है

उसकी औलाद ने उस दंतहीन पोपली को तज दिया है

केंचुल की तरह

 

वह उसके खत का जवाब नहीं देता

वह उसे मेले या स्टेशन पर अकेले भटकने के लिए छोड़ देता है

वह उसका मोबाइल नहीं उठाता

ईद दीवाली घर नहीं आता

अपने घर में उसे रखने की जगह

वह बिल्ली या कुत्ते पालता है

  

वह हवा में गुम उस शब्द सा है

जो बोलने के बाद वापस नहीं लौटता

 

पानी का इंतजार करती

वह रेगिस्तान की खाली बाल्टी है

मौत के लिए

मांगती भीख है

 

उसके पास मीठी लोरी की धुन है

पुरानी पेटी में उसके बचपन की कुछ लंगोटियां हैं 

उन नन्हें-नन्हें पांवों की धुंधली याद है

जो कोख में उसको धीरे-धीरे मारते थे.

और उसे अनिर्वचनीय खुशी से भर देते थे   

 

छूछे बादल सरीखी पगली सी भटकती

वह एक ऐसी अभागिन है

डॉक्टर ने निकाल दी हो जिसकी कोख

कैंसर के मरीज़ की तरह 

 

वह अक्सर रात के तीसरे प्रहर नींद से उठती है

और अपनी बगल की खाली जगह टटोलने के बाद

रसोईं में रोटी बनाने लगती है

उसे भूखे बेटे के लिए

जिसने अभी सपने में दरवाज़ा खटखटाया था

बस अभी कुछ देर पहले.

 

 

 


(10)

झूठ 

 

यह धूप की तरह चमकीला

और इतनी जल्दी रंग बदलता है

कि पहचान में नहीं आता है

 

झूठ और कुछ नहीं

दरअसल सच के साथ दग़ा है 

 

झूठ का कोई पक्का साँचा नहीं होता 

हर झूठ का होता है अपना अलग रंग

अपना ढब

गढ़ना पड़ता है हर बार 

उसे अपना एकदम नया शिल्प

 

झूठ को सच का लिबास इतना पसंद है

कि न्यायमूर्ति के सामने हमेशा हलफ़ लेकर कहता है

जो कहूँगा सच -सच कहूँगा

 

उसकी आत्मा मिथक में बसती है

और वह धीरे-धीरे

कई बार आदमी की आस्था बन जाती है

 

कुछ झूठ बच्चों की तरह निर्मल होते हैं

और औचक पकड़ लिए जाते हैं

कुछ झूठ पेशेवर शातिर

अफीम की तरह इतने खतरनाक  

कि राजमुकुट पहनकर देश को नींद में सुला देते हैं

 

प्रेमिकाएं अक्सर फूल से अधिक झूठ पर लहलोट होती हैं

धोखा खाने के बाद भी

अपने दुःख की अंधेरी कोठरी में

प्यार की तरह उसे छिपाये रखती हैं

 

अमरता भी एक झूठ हैं

यह बात झूठे कवि नहीं जानते

और झूठी प्रशंसा की तकिये पर सोते हुए 

अमरता का सपना देखते रहते हैं  

 

उद्दाम प्रेमियों की तरह

झूठ को प्रिय होता है आंकड़ों का सहवास

और उनकी नाजायज़ संततियां

देश के विकास का इतिहास लिखती हैं

 

सरकारी झूठ

श्लोक की तरह होते हैं पवित्र

अफ़वाह की तरह उसके होते हैं हज़ारहा मुंह

बादल की तरह हज़ारहा अदृश्य पांव

अशरीरी छायाओं की तरह चलते हुए  

बहुमत की डरावनी आवाज़ बन गूँजते रहते हैं

 

इन दिनों

झूठ की डिजीटल पाठशालाएं खुली हुई हैं 

जहाँ उड़ाया जाता है ज्ञान का मज़ाक

दी जाती है तथ्य के कब्र पर

झूठ के फूल चढ़ाने की तालीम

 

कहना न होगा

आकाश में तारों की तरह बढ़ रहा है

झूठ का परिवार 

फिर भी वह अक्सर असुरक्षित और डरा रहता है

कोई वीर बालक जब कहता है उसे नंगा

भेज दिया जाता है उसे फ़ौरन कारागार 

 

यह दिलचस्प है

एक कथाकार लिखित रूप में घोषणा करता है

कि उसकी कृति सिर्फ़ झूठ है

और विस्मित पाठक कई बार कहता है

नहीं, नहीं, लेखक भरमा रहा है

यह तो है जिंदगी के सच का इतिहास 

 

किले की प्राचीर से

अपने संबोधन में कोई कितनी भी लंतरानी हांके 

निष्कर्ष यही है

झूठ की अकाल मृत्यु तय है 

जबकि सच बचा रहता है

गल्प में भी

अल्पमत में रहने के बावजूद.

____


 

विनोद दास

उत्तर प्रदेश स्थित बाराबंकी जिले के कमोली गाँव में 10 अक्टूबर १९५५ को जन्म, लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. किया. शुरू में कहानियाँ लिखीं.


पहला कविता संग्रह “खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए” 1986 में प्रकाशित तथा नई पीढ़ी युवा पुरस्कार के अंतर्गत भारतीय ज्ञान पीठ से पुरस्कृत. ”वर्णमाला से बाहर“ दूसरा कविता संग्रह श्रीकान्त वर्मा सम्मान और केदार नाथ अग्रवाल सम्मान से विभूषित. भारतीय सिनेमा पर पुस्तक भारतीय सिनेमा का अंतःकरण पर शमशेर सम्मान. अंग्रेज़ी में अनूदित इनकी कविताओं का एक संग्रह The World on a Handcart प्रकाशित.


काव्य आलोचना पर “कविता का वैभव” और गद्य आलोचना पर ”सृजन का आलोक” पुस्तक साहित्यकारों चित्रकारों और फिल्म कारों से लिए गये इंटरव्यूज की पुस्तक; “बतरस” साक्षरता से जुड़े सवालों पर केन्द्रित पुस्तक: साक्षरता और समाज. राधू करमाकर की आत्मकथा का अनुवाद: “कैमरा मेरी तीसरी आँख“ अंग्रेज़ी से हिंदी में विदेशी कहानियों और विदेशी कविताओं का विपुल अनुवाद. 


संपादन: कविता की पत्रिका “अंतर्दृष्टि” और भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका “वागर्थ” का संपादन, राजस्थान के शिक्षक कवियों की कविताओं का संकलन “काव्य बिंब” का संपादन 

पाकीज़ा के प्रतीक: जितेन्द्र विसारिया

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पाकीज़ा के प्रतीक                                                               
जितेन्द्र विसारिया



 

1972में आई फिल्म पाकीज़ा में ऐसा क्या है कि इसे बार-बार देखा जाता है. यह कमाल अमरोही की संकल्पना, पटकथा, निर्देशन और निर्माण तो था ही, इसमें एक से बढ़कर एक दिग्गज जुड़े हुए थे- जोसेफ़ विस्र्चिंग की अद्भुत सिनेमेटोग्राफ़ी, गौरी शंकर और लच्छू महाराज की कोरियोग्राफ़ी, मज़रूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, कैफ़ भोपाली के गीत गुलाम मुहम्मद और नौसाद साहब का संगीत, लता, रफ़ी, वाणी जयराम, परवीन सुल्ताना, शोभा गुर्टू, राजकुमारी और नसीम बानो के गाए गीत. इस फ़िल्म की गज़लेऔर ठुमरियों जैसे अब भी सदाएँ देती हैं.

पर्दे पर त्रासदी को जीने वाली मीना कुमारी, अशोक कुमार, नटा सार्वभौम उर्फ़ अभिनय सम्राट राजकुमार, अपने ज़माने की कद्दावर चरित्र अभिनेत्री वीना उर्फ़ तज़ौर सुल्ताना, नादिरा, कमल कपूर और डी.के सप्रू का जीवंत अभिनय,मीनाजी की ड्रेस डिजाइनिंग, लखनवी तहज़ीब और संवादों की काव्यात्मकता. कुल मिलाकर इस मूवी को एक क्लासिक फ़िल्म का दर्ज़ा देते हैं. पर अफ़सोस कि जिस फ़िल्म के लिए मीना कुमारी को सदियों याद रखा जाएगा, उसकी रिलीज के वक़्त वे बेहद बीमार पड़ी और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा.

कहानी बहुत हटकर नहीं है. इस फिल्म का यूँ तो देश-काल पता नहीं है, लेकिन दिल्ली-लखनऊ का उजड़ता नवाबी दौर था वह. संभवतः गदर के बाद-जब देश में ट्रेन चल चुकी थी, पर बिजली नहीं आई थी. इसी दौर में एक रूपजीवा साहिबजान की दर्द भरी किन्तु सुखांत प्रेमकथा है पाकीज़ा. कोठे और घर में से किसी एक को भी अपनी मर्ज़ी से न चुन पाने की शाश्वत मज़बूरी. तवायफ़ से दुल्हन बनने के दुस्साहस स्वरूप उसकी पिछली पीढ़ी अपना जीवन गर्क़ कर चुकी है. संयोग से साहिबजान भी उसी रास्ते पर है. प्रेम उसे अपनाना चाहता है, पर उसके वेश्या होने की बदनामी हर जगह उसके पैर में बेड़ी डाले खड़ी है. विद्रोह, पलायन, संयोग, फ़िर पलायन और फ़िर विद्रोह की कड़ी में कोठेवाली साहिबजान की डोली आश्वस्ति के साथ कोठे से घर की ओर उठ जाती है कि भले ही वो एक वेश्या पुत्री है. भले ही उसका लालन-पालन कब्रिस्तान और कोठे पर हुआ. पर सबसे बड़ी बात यह कि वह अपना ही खून है!

फिल्म यदि यहीं आकर समाप्त हो जाती तो यह एक सामान्य बात होती. किन्तु फिल्म जहाँ समाप्त होती है, वहाँ वह अपने पीछे एक अमिट प्रश्न छोड़ जाती है, कि चलो ठीक है वह आपका रक्त-संबंध था, सो अंततः आप उसे कोठे से भी ब्याहकर ले गए? पर हमारा क्या? हम जो कोठे पर ही पैदा हुईं, वहीं पली-बढ़ीं. नहीं पता हमारी रंगों में किस का लहू दौड़ रहा है. हर ढलती शाम के बाद उनकी माँ के पास आने वाला नामालूम वो कौन शख़्स था, जो उसका पिता है. क्या कभी साहिबज़ान की तरह कोई उसे भी कोठे से ब्याहकर अपने घर की जीनत बनाएगा? या हम जैसी नर्गिसें हमेशा ही अपनी बेनूरी पर रोती रहेंगी?

जिन्होंने फिल्म ‘पाकीज़ा’ देखी है और उसके अंत में साहिबज़ान की डोली उठने के ठीक बाद, कोठे की छत पर खंभे को पकड़कर बड़ी हसरत भरी निगाह से डोली को जाते हुए निहारती ‘एक लड़की’ को नहीं देखा, तो सच जानिए आपने पाकीज़ा का कुछ नहीं देखा. पूरी फिल्म का असली मर्म वहीं है. फिल्मी इतिहासकार बताते हैं कि जब फिल्म पाकीज़ा की शूटिंग समाप्त हुई और एडिटिंग के लिए गई, तो एडीटर डी.एन पाई ने उस दृश्य को अनावश्यक और फिल्म को बेवज़ह लम्बा करता हिस्सा मान कट कर दिया था. जब यह बात कमाल अमरोही को पता चली, तो उन दोनों में काफी बहस हुई. बाद में वह दृश्य फिल्म में फिर जोड़ा गया. कमाल साहब का दावा था कि असली पाकीज़ा तो यही है. डी.एन पाई ने वह सीन जोड़ते हुए कमाल साहब से पूछा था- ‘आपको लगता है कि कोई ये समझ पाएगा कि छज्जे वाली लड़की ही असल पाक़ीजा है?’ इसके ज़वाब में कमाल साहब ने कहा था- ‘अगर एक आदमी भी ये समझने में कामयाब रहा, तो उनका फिल्म बनाना सफल हो जाएगा.’

इसके आगे का किस्सा यह भी है कि किस तरह इस घटना के एक साल बाद एक आदमी ने कमाल अमरोही साहब को ख़त लिखकर बताया कि उसे छत पर खड़ी लड़की की तस्वीर चाहिए, जिसे देखकर महसूस हुआ कि वही असली पाक़ीजा है. कमाल साहब इस बात से बेहद खुश हुए और उन्होंने डी.एन पाई को बुलवाया और कहा कि ये पढ़ो. यह वही आदमी है, जिसने मेरी फिल्म देखी है. इसके बाद कमाल साहब ने उस इंसान को एक ख़त लिखा और कहा कि अगर वह देश में कहीं भी इस फिल्म को देखना चाहे, तो वह मुफ़्त में देख सकता है!

क्या ‘पाक़ीजा’ सामाजिक बंदिशों में जकड़ी तवायफ़ों की अधूरी हसरतों की दास्तान भर है? क्या यह मनुष्य की आदिम अभिलाषाओं, स्वतंत्रता, समानता और निश्चल प्रेम पाने को फिर-फिर की जाने वाली कोशिशों का नाम नहीं है?

नर्गिस को पता है कि वह एक तवायफ़ है, वह तब भी शहाबुद्दीन के घर में एक आबरूपसंद औरत बनकर रहना चाहती हैं. नर्गिस; नवाबजान की छोटी बहन. जिसकी दिलरुबा आवाज़ और जिसके घुँघरुओं की झंकार ने धूम मचा रखी है. कितने दिल हैं जो इसकी ठोकरों में तड़पते रहते हैं, और यह उन पर लापरवाही से नाचती रहती है. हाँ, मग़र ये कौन है? जिसके आते ही नर्गिस अपने इस नापाक़ माहौल में मुरझाकर रह जाती है. इसकी रूह फ़रियाद करने लगती है.

नर्गिस : 'सहाब! मुझे यहाँ से ले जाओ?'और सहाब! की आँखों में तड़पता हुआ इश्क उसे यक़ीन दिलाने लगता है.

शहाबुद्दीन: ‘

हाँ नर्गिस! इन बदनाम महफ़िलों में पिघलती हुई शमा को मैं यहाँ पिघलने नहीं दूँगा? एक रात मैं आऊँगा और तुझे इस दोज़ख से निकाल ले जाऊँगा.’

 

साहिबजान जो कि नर्गिस की बेटी है और उसके सामने उसकी माँ का मुहब्बत में चोट खाया दर्दनाक असफलताओं से भरा अतीत है. समझाने वालों ने उसे समझा भी दिया है कि तेरे ख़ूबसूरत पैर देखकर उन्हें जिसने धरती पर न उतारने की सलाह दी है, उसने तेरे पैरों में उस वक़्त बँधे हुए घुँघरू और उन घुँघरुओं से लिपटी बदनामी नहीं देखी.

बिब्बन: 

‘साहिबजान! यह पैग़ाम तेरे लिए नहीं है...’

साहिबजान: 

‘क्या? नहीं-नहीं यह मेरे लिए ही है, इसे मैंने अपने पाँव में रखा हुआ पाया था.’

बिब्बन: 

‘हां , लेकिन उस वक़्त तेरे पांव में घुँघरू बँधे नहीं होंगे... अगर घुँघरू बँधे होते तो कोई कैसे कहता कि इन्हें ज़मीन पर मत रखना, मैले हो जाएंगें...! यह पैग़ाम तो है लेकिन भटक गया है.’

बावज़ूद इसके साहिबजान हर रात तीन बजे अपने घर के पास से गुज़रने वाली उस ट्रेन की सीटी की आवाज़ सुन अपने को रोक नहीं पाती और दौड़ पड़ती है उसे देखने. उसी प्रकार फिल्म का नायक सलीम यह जानता है कि उसके इज़्ज़तदार नवाब खानदान की हवेली के प्रत्येक सदस्य को हर एक साँस के बाद दूसरी सांस लेने के लिए, उसके दादा जानी की इजाज़त लेनी पड़ती है. वह तब भी एक अनजान लड़की को घर ले आता है.

सलीम अहमद खान: ‘मैं भूल ही गया था कि इस घर के इंसानों को हर एक साँस के बाद, दूसरी साँस लेने के लिए आपकी इजा़जत लेनी पड़ती है. आपकी औलाद ख़ुदा की बनाई ज़मीन पर नहींआपकी हथेली पर रेंगती है.’

इतना ही नहीं, उस उजड़ती नवाबी के बीच उठ खड़ा हुआ एक नया पूँजी-सम्पन्न वर्ग जो, अभी नया-नया अमीर बना है. सामाजिक हैसियत भी उसकी ज़मीदार और नवाबों जैसी नहीं है. न उसमें नवाबों जैसा उठने-बैठने का सलीका व तमीज़.

गौहर जान: ‘अरे! ठेकेदार साहब! वहाँ कहाँ बैठ रहे हैं. इधर तशरीफ़ लाइये?’

ठेकेदार: ‘हें-हें बस जी! बंदे औक़ात में ही ठीक हैं.

वह भी अपनी सीमा लाँघकर भरे मुज़रे बड़ी बेशऊरी के साथ मुहरों से भरी थैली रक्स करती साहिबजान के आगे फेंकता है, यह बात अलग है कि ठेकेदर अपनी इस बेअदबी पर पुराने किब्र-ओ-गुरूर से भरे नवाब द्वारा चलाई गई पिस्टल से अपने हाथ पर गोली खाता है.

पाकीज़ा पर बहुत लिखा गया पर इस दृष्टि से शायद ही लिखा गया हो कि उजड़ती नवाबी और पनपते नवपूँजीवाद के बीच तवायफ़ों के कोठे किस तरह तबाह हुए. पाक़ीजा में एक ज़िक्र नवाब हशमतशाह की प्रेयसी तवायफ़ गौहरज़ान का भी है. नवाब गुज़र चुके हैं और गौहरज़ान गले-गले तक कर्ज़ के अंबार में डूबी हुई है. नवाब शाहाबुद्दीन कहीं साहिबजान को अपने साथ न ले जाएँ, इसलिए उसकी खाला नवाबजान उसे रातों-रात वहाँ से अपनी एक अन्य बहन के पास लखनऊ ले जाती है. जहाँ वह नवाब हशमत शाह द्वारा कभी गौहरज़ान को बख्शीश में दिया गुलाबी महल ख़रीद लेती हैं.

इतना ही नहीं जब तक शाहाबुद्दीन का ख़तरा टल नहीं जाता, साहिबज़ान उस महल में गौहर जान की भानजी बनकर रहती है. ठेकेदार के दर्शन भी हम उसी महल में करते हैं, जब साहिबज़ान वहाँ पहली बार राजस्थान की मांड गायन शैली में, ‘ठाड़े रहियो ओ! बाँके यार रे’ मुज़रा करने के लिए उपस्थित होती है. ठेकेदार के हाथों में मोहरों की थैली है, पर वह मुज़रे में आए नवाबों और ज़मींदारों के बराबर कालीन और मसनद पर न बैठ, अपने तौलिए या गमछे अंतिम छोर पर दरवाजे के पास ज़मीन झाड़कर बैठ जाता है.

आगे हम देखते हैं कि एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद नवाब परिदृश्य से बाहर हो जाते हैं. शेष बचता है नवपूँजीवाद का प्रतिनिधित्व करता ठेकेदार. फिल्मकार ने अपने कुलीन मुस्लिम संस्कारों के प्रभाव के चलते, यह बात भरपूर तरीके से दिखाने की कोशिश की है कि बढ़ी हुई आमदनी के साथ तमीज़ और तहज़ीब भी आ जाए, यह जरूरी तो नहीं? कुछ एक घटनाक्रम के बाद जब एकमुश्त रक़म चुकाकर ठेकेदार एक रात साहिबजान के कक्ष में दाखि़ल होता है. हालांकि उस वक़्त ठेकेदार की बोली में मुलायमियत तो है पर हुलिया रईसी न होकर बिल्कुल गँवारों जैसा है. अब भला नज़ाकत और नफासत पसन्द साहिबजान भला उसे पसन्द करे भी तो कैसे? वैसे यह फिल्म में बतौर सीधे-सीधे तो नहीं कहा गया, पर ठीक फिल्मकार भी तो यही कहना चाह रहा है.

पाक़ीजा में साहिबजान और ठेकेदार के बीच की उस जोराजोरी को कमाल अमरोही ने बड़े ही रहस्य-रोमांच के साथ बुना है. यदि आपको प्रतीकों की ज़रा भी समझ नहीं और प्रेम की गूढ़ता पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं, तो वह दृश्य एक हॉरर मूवी के सीन से कम नहीं लगेगा.

कोई पहर रात का समय. साहिबजान का कक्ष. कक्ष में स्वर्ण तीलियों से निर्मित एक पिंजरा और उसमें कैद मैना. मैना की रखवाली करता एक सर्प. बाद उसके किसी शिकारी की भाँति दबे पाँव ठेकेदार का साहिबजान के कक्ष में प्रवेश. साहिबजान का घबड़ाकर जागना. उठना, भागना. उस भागने और पकड़ने के बीच ठेकेदार के सिर की चोट से आंगन के पेड़ की टहनी पर लटके पिंजरे का गिरना. पिंजरे के गिरने के साथ ही पिंजरे से लिपटे सर्प का भी गिरना और ठेकेदार के सामने फन काढ़कर खड़ा हो जाना. सर्प के भय से ठेकेदार का भागना. भागने की हड़बड़ाहट में साहिबजान के कमरे में रखे क्रॉकरी के एक खूबसूरत टब का टूटना. टब के टूटते फ़र्श पर फैले पानी के साथ दो रंगीन मछलियों का गिरकर तड़पना. अंत में संभवतः सर्प के डसने से बदहवास ठेकेदार का साहिबजान के बाथटब में गिरजाना. साहिबजान के वहाँ से निकल भागने के साथ यह अद्भुत दृश्य समाप्त हो जाता है. पाक़ीजा इसलिए भी श्रेष्ठ फिल्म है कि इसमें गज़ब की प्रतीक योजना है. 

जिन्होंने पाक़ीजा थोड़े गौर से देखी होगी, तो देखा होगा कि जब कब्रिस्तान में नर्गिस की मौत हो जाती है और उसे खोजती उसकी बहन नवाबजान जब तक क़ब्रिस्तान पहुँचती हैं, तब तक वहाँ नर्गिस का इंतकाल हो जाता है. नबावजान क़ब्रिस्तान के एक मजदूर के सहयोग से नर्गिस को वहीं दफ़ना देती हैं. नवाबजान जब क़ब्रिस्तान में नर्गिस को सुपुर्द-ए-ख़ाक कर रही होती है, तब वहीं क़ब्र के पीछे धुँए के मानिंद एक पीली आँधी या बवंडर उठता दिखाई देता है. ठीक उसके बाद जब नवाबजान अपनी बहन नर्गिस को दफ़नाकर और उसकी नवजात बेटी साहिबजान को लेकर तांगे में बैठकर क़ब्रिस्तान का दरवाज़ा पार कर रही होतीं हैं, तब वह बवंडर आंधी का सा रूप ले पीछा करता तांगे के साथ हो लेता है. ऐसा लगता है कि वह बवंडर नहीं मुहब्बत का तूफ़ान था, जो नर्गिस के मरने के साथ मरा नहीं. वह उसकी बेटी साहिबजान के रूप में जिंदा है और आगे अपने और भी रंग दिखाने वाला है.

अब आते हैं साँप पर. साँप किंवदंतियों में ही नहीं, साहित्यिक रचनाओं यथा- रवीन्द्र नाथ टैगौर की कहानी ‘द ट्रस्ट प्रॉपर्टी’; मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘खजाना’ हो या इस नाचीज़ की कहानी ‘अन्तर-द्वंद्व’ में लोक विश्वास में गहरे तक पैठे, सर्प के धन संरक्षक का मिथक उपस्थित है. इस्लामिक मिथ में तो यहां तक माना गया है कि हजरत इब्राहिम द्वारा काबे के समीप चढ़ावे के लिए खोदे गए एक गड्डे में रहने वाले अल्लाह के भेजे एक सर्प ने उनके बाद काबे की पाँच सौ साल तक रक्षा की थी! ख़ैर जो भी हो, पाक़ीजा में पूरे समय उस स्वर्ण तीलियों से निर्मित पिंजरे में बंद मैना के आसपास, बतौर संरक्षक एक सर्प लगातार दिखाई पड़ता रहता है. पानीपत का नवाब जब तोहफ़े में साहिबजान के लिए मैना सहित यह पिंजरा भेजता है, तो साहिबजान की एक मौसेरी छोटी बहन बिब्बन उस समय चहकते हुए आकर बोलती भी है-

अजी यह चिड़िया नहीं, हमारी बड़ी आपा हैं?’

बड़ी आपा यानी साहिबजान. इस रूप में मैना का प्रतीक तो साहिबजान में पर्यवसित हो जाता है, पर साँप के रूप में मैना का संरक्षक कौन है. यदि हम मानकर चलें कि जैसा पुराने किस्से-कहानियों में रूप को भी ख़जाना माना गया है, तो रूप का संरक्षक प्रेम हुआ. इस रूप में पाक़ीजा में जो सर्प का प्रतीक है वह प्रेम है, जो मैना जैसी मासूम और रूपवान साहिबजान की आठों पहर रक्षा करता है.

फिल्म अर्धांश के बाद हम देखते भी हैं कि जैसे ही ठेकेदार मीना के कक्ष में प्रवेश करता है और घबराई मीना बाहर की ओर दौड़ती है, तो सबसे पहली प्रक्रिया जो होती है, उस साँप का साहिबजान की रक्षा में पिंजरे से गिरकर ठेकेदार के आड़े आ जाना! और भयभीत व बदहवास ठेकेदार का आगे अपनी मौत मारा जाना! इसके अतिरिक्त जब साहिबजान अपने तवायफ़ होने के चलते और अपने प्रेमी सलीम को जमानेभर की रुसवाई से बचाने की ख़ातिर, उससे ऐन वक़्त पर निक़ाह करने से इनकार कर वापस कोठे पर लौट आती है. साहिबजान उस वक़्त जब कोठे के बाहर बैठी होती हैं, उसी के साथ एक कटी-फटी पतंग भी अपनी डोर से टूटकर पास के पेड़ पर आ अटकती है. उस पतंग और साहिबजान में भी ग़ज़ब की समानता है, जिसे फिल्म में स्वयं साहिबजान ही बयान कर देती है :

साहिबजान: ‘हां, फिर मेरी आवारा लाश अपने इस गुलाबी मक़बरे में दफ़न होने के लिए लौट आई है!’

बिब्बन : ‘कैसी लाश?’

सहिब जान: 

‘हाँ बिब्बन! हर तवायफ़ एक लाश है. मैं भी एक लाश हूँ और तू भी. हमारा यह बाजार एक क़ब्रिस्तान है. ऐसी औरतों का, जिनकी रूहें मर जाती हैं और ज़िस्म जिंदा रहते हैं. यह हमारे बाला खाने, कोठे हमारे मक़बरे है, जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा ज़नाजे सजाकर रख दिए जाते हैं. हमारी क़ब्रें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं, ताकि...’

बिब्बन : (मुँह पर हाथ रखते हुए) ‘चुप... चुप हो जा...’

साहिबजान: ‘मैं ऐसी ही खुली हुई क़ब्र की एक बेसब्र लाश हूँ, जिसे बार-बार जिंदगी बरग़ला कर भगा ले जाती है, लेकिन अब मैं अपनी इस आवारग़ी और ज़िदगी की इस धोख़ेबाज़ी से बेज़ार हो गई हूँ, थक गई हूँ.’

बिब्बन : ‘साहिबा! यह हुआ क्या? क्या उसने तुझे ठुकरा दिया?’

साहिबजान : ‘नहीं, मैं उन्हें छोड़ आई. मैं उन्हें एक घिनौना घाव देकर उनके दिल की ज़न्नत से निकल आई.’

बिब्बन:‘क्यूँ?’

साहिबजान : 

‘मैं डर गई. उसकी ज़मीन न जाने कैसी थी? जहाँ-जहाँ मैं पाँव रखती थी, वो वहीं-वहीं से धँस जाती थी. देख न बिब्बन! वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे! मेरी ही तरह कटी हुई!! ना मुराद कमबख़्त!’

पाकीज़ा ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी की मुख्य भूमिका के साथ एक बड़ी स्त्री प्रधान फ़िल्म है इस फ़िल्म के मुख्य दो चरित्र नर्गिस और साहिबजान हैं. पर्दे पर दोनों ही क़िरदार मीना जी ने ही अदाकिए हैं और वे निश्चय ही मीना कुमारी की पारम्परिक दुःखी और असहाय स्त्री की छवि के अनुकूल बैठते हैं.

किन्तु उसी में साहिबजान की मौसी ‘नवाबजान’ (वीना) और उनकी बहन की छोटी लड़की ‘जद्दन’ का चरित्र भी है, जो तवायफ़ संस्कृति में स्त्री की मजबूत और विद्रोही छवि की व्याख्या करते हैं. नवाबजान अकेली हैं और अकेले ही बड़ी दमदारी से सफलतापूर्वक अपने कोठे का संचालन करती हैं कि कोई बदमाश पहलवान भी उनकी मर्ज़ी के बग़ैर उस पर क़दम नहीं रख सकता :

नवाब जान : “उत्तर जा इस कोठे से…ये धौंस किसी और पर जमाना, मुझे नहीं जानता, मेरा भी नाम नव्वाब जान है, अगर फिर कभी इस कोठे पर क़दम रक्खा तो टाँगे तुड़वा दूँगी.”

नवाबजान खुदमुख्तार तो हैं ही वे विद्रोही भी हैं. उनका यह विद्रोह किसी को शारीरिक चोट तो नहीं पर कटु व्यंग्य और तानों के साथ है कि वह किसी भी अपराधबोध से भरे व्यक्ति का सीना छलनी कर दे:

नवाबजान : ‘अच्छा! तो आप शहाबुद्दीन हैं? हमारे बहनोई...(व्यंग्य के साथ हँसते हुए) कहिए फ़िर कैसे आना हुआ? अब किस गुनहगार की तलाश है आपको?…अब किस तवायफ़ को दोज़ख की आग से बचाने परहेज़गारी का कफ़न लेकर आए हैं आप?

शाहबुद्दीन : ‘नर्गिस ने मरते वक़्त मुझे एक ख़त लिखा था, जो मुझे आज सत्रह साल बाद मिला, उसमें मेरी बेटी का ज़िक्र है…मुझे मालूम हुआ है है वो यहाँ है…’

नवाबजान : ‘तो आप उसे देखने आए हैं?’

शाहबुद्दीन : ‘नहीं मैं उसे ले जाने आया हूँ.’

नवाबजान : ‘अच्छा तो उसे लेने आए हैं आप? …किसी क़ब्रिस्तान ने अब इसके जनाज़े की फ़रमाइश की होगी आपसे…अच्छी बात है…आपकी बेटी है, मैं कैसे मना कर सकती हूँ…लेकिन इस वक़्त तो वो मुज़रे के लिए बैठ चुकी है…और फ़िर खुलेआम इस बदनाम बाज़ार से बेटी को ले जाना यूँ भी आपकी ग़ैरत के ख़िलाफ़ है…कल सुबह आइयेगा.’इन संवादों में चरित्र अभिनेत्री वीना जी ने जैसे जान ही डाल दी हो, उनका कुछ ख़ास शब्दों पर लाघव देकर बोलना अपूर्व है. …वहीं उनकी बहन की बेटी बिब्बन नई-नई तवायफ़ बनी है, पर वह भी अपने किसी प्रेमी की हर चाही-अनचाही ज़्यादती सहने को बिल्कुल तैयार नहीं है:

जद्दन : “मैंने भी कहलवा दिया कि मैं कोई घरवाली नहीं, जो कोने में मुँह दे-देकर रोऊँगी…बाबा! मैं क्यों अपनी जान को रोग लगाने लगी…भाई दस दफ़ा इस दहलीज़ पर नाक रगड़नी हो, तो आओ; वरना बैठो अपनी जुड़वा के पास...’

पाकीज़ा पर कितना कुछ कहा गया है और कितना कुछ कहा जा सकता है. उसके एक-एक फ्रेम पर एक-एक सीन पर कितना ही कुछ लिखा और कहा जाए, कम ही जान पड़ेगा. कितने ही किस्से और किंवदंतियां बाद में पाकीज़ा और मीना जी को लेकर लिखी और कही गईं कि उन सबको जोड़ने बैठूँ तो एक थीसिस की सामग्री इकट्ठी हो जाए. पाक़ीजा की शूटिंग और मीनाजी से जुड़ा एक वाक़या चंबल क्षेत्र से भी जुड़ा हुआ है.

पाक़ीजा में जो जंगल वाला हिस्सा है, उसका एक बड़ा हिस्सा तो बालमुरी वाटर फॉल्स, शिवना समुद्रा वाटर फाल्स और रंगाथिट्टू बर्ड सेंचुरी कर्नाटक में फिल्माया गया था, किन्तु इसका कुछ हिस्सा मध्यप्रदेश में ग्वालियर से सटे शिवपुरी जिले में स्थित, माधव नैशनल पार्क वाले जंगल में भी कहीं फिल्माया गया था. मुंम्बई-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर ग्वालियर और शिवपुरी के बीच पड़ने वाला यह बेहड़ीला इलाका,कभी शेर-चीतों से भरा रहता था. इतिहास में दर्ज़ है कि आगरा से मालवा आधमखान का विद्रोह दबाने जाते समय, अकबर ने इस इलाके में ही एक खूँख़्वार चीतनी का शिकार किया था. अकबर के ही नवरत्नों में से एक अबुल फ़जल की हत्या करने के बाद चंबल के पहले बाग़ी कहलाने वाले सलीम जहांगीर के मित्र, राजा वीरसिंह बुन्देला को भी बहुत दिनों तक शिवपुरी की इसी डांग में भटकना पड़ा था.

1970-72के बहुत बाद तक भी इस इलाके से अधिकांश स्थानीय सवारी वाहन दिन में ही गुज़रते थे. बकौल विनोद मेहता- ‘आउटडोर शूटिंग पर कमाल अमरोही अक़्सर दो कारों पर जाया करते थे. एक बार कोटा से दिल्ली जाते समय मध्यप्रदेश में शिवपुरी के आगे उनकी कारों का पैट्रोल ख़त्म हो गया. किसी से पता चला कि सुबह-सुबह इसी रास्ते से एक बस गुजरती है और उसी बस से पेट्रोल मंगवाया जा सकता है. कोई रास्ता नहीं था. कमाल अमरोही ने तय किया कि वहीं बीच रास्ते सड़क पर रात गुजारी जाएगी और सबसे कह दिया कि आप अपनी गाड़ी के शीशे चढ़ा लें. अमरोही जी को शायद ये नहीं पता था कि वे देश के गिने-चुने बीहड़-जंगलों में से एक में कहीं हैं. अभी कुछ ही घंटे गुजरे होंगे कि रात दो बजे के आसपास कोई दस-बारह लोगों ने दोनों गाड़ियों को घेर लिया. सभी हथियारों से लैस थे. गाड़ी के अंदर सवार सभी लोगों के हाथ-पाँव फूल गए. ये गाड़ियाँ एक गेट के अंदर ले जाई गईं. वहाँ सभी को उतरने के लिए कहा गया. अमरोही जी ने मना कर दिया कि वे लोग गाड़ी से नहीं उतरेंगे. जिसको मिलना है, वहीं उनसे मिलने आए. डकैतों ने उनसे कहा कि ये गाड़ियाँ अब थाने जाएंगी. पर अमरोही सहाब नहीं माने. उनको मालूम था उतरने का मतलब क्या हो सकता है. चारों ओर घनघोर जंगल और गाड़ी में बला की खूबसूरत मीना जी. अमरोही साहब को उनकी चिंता हो रही थी.

नए शिकार के बारे में इन डाकुओं ने अपने सरगना को खबर की. इनके सरदार को बुलाया गया. थोड़ी देर बाद झक सफेद सिल्क का पायजामा और कमीज़ पहने हुए एक शख़्स उनके पास आया. उसने पूछा,आप कौन हैं? अमरोही साहब ने ज़वाब दिया, ‘मैं कमाल हूं और इस इलाके में शूटिंग कर रहा हूँ. हमारी कार का पेट्रोल ख़त्म हो गया है. उसको लगा कि वो रायफ़ल शूटिंग की बात कर रहे हैं. लेकिन जब उसे बताया गया कि ये फिल्म शूटिंग है और दूसरी कार में मीना कुमारी भी बैठी हैं. इधर यह कड़ी पूछताछ हो ही रही थी कि तभी उधर किसी ने दूसरी गाड़ी में झाँका और दूसरे साथी के कान में आकर बोला कि इसमें मीना जी ही हैं. वे अँधेरे की वजह से दूर से दिख नहीं रही थीं. जब दोनों ओर से इस बात की पुष्टि हुई, तो उस शख़्स के हाव-भाव बदल गए. वह इससे पहले कमाल अमरोही की ‘महल’ और मीना जी की अब तक रिलीज़ हुई अधिकांश लोकप्रिय फिल्में देख चुका था और मीना जी का बड़ा प्रशंसक था.

फिर क्या था उस गिरोह के सरदार ने आदेश दिया कि इस काफिले को लूटा तो नहीं जाएगा, पर आज यह काफिला आगे भी नहीं जाएगा. ऐसा सुनकर डरी-सहमी मीना कुमारी को गुस्सा आ गया. वह गुस्से में काँप रही थीं, पर इन डाकुओं को खुली चुनौती भी दे रही थीं. बाकी के लोगों की स्थिति का भी अंदाजा लगाया ही जा सकता है. पर डाकुओं के सरदार ने स्पष्ट कर दिया कि आज किसी हालत में इन्हें जाने नहीं दिया जाएगा. कुछ देर में लोगों की तेज चलती साँसें थमने लगीं, जब उन्हें एहसास हुआ कि वह सरगना उन्हें धमकी नहीं दे रहा है. डरा नहीं रहा है. उसने इस पूरी टीम से कहा कि आप सबको हमारी अड्डे पर चलना होगा और हमें खातिरदारी का मौका देना होगा. ‘आज आप लोग हमारे मेहमान होंगे और कल आप लोगों की गाड़ी में पेट्रोल भरवा दिया जाएगा.’

उस रात सारे मेहमानों के लिए कई व्यंजन बनवाए गए. खूब आवभगत की गई. मीना कुमारी गाड़ी में ही बैठी रहीं और वहीं उनको खाने-पीने का सामान भेजा जाता रहा. उनके सोने की व्यवस्था की गई. अगली सुबह विदाई के वक्त, डकैतों का वह उस्ताद हाथ में खंजर लिए हुए उस गाड़ी के पास गया, जिसमें मीना जी बैठी हुई थीं. सभी लोग डर गए कि क्या पता डाकुओं का सरदार क्या करने जा रहा है. कुछ देर के लिए तो जैसे सबकी साँसें ही थम गईं. उसने खिड़की से वह खंजर मीना कुमार को दिया और बोला कि आपको मेरी बाँह पर अपना नाम लिखना होगा. मीना कुमारी के लिए ऑटोग्राफ देना कोई बड़ी बात नहीं थी. पर ऐसा ऑटोग्राफ? उन्होंने इसका विरोध किया पर डाकुओं के सरगना ने इनकी बात नहीं मानी. हारकर मीना कुमारी को खंजर से भी ऑटोग्राफ देना पड़ा. ऐसा करते हुए मीना जी लगभग बेहोश सी हो गईं, लेकिन उस डाकू ने उफ्फ तक नहीं की! इसके बाद बड़ी शान-ओ-शौकत से सबकी विदाई की गई.

वहाँ से निकलने के बाद जब यह टीम ग्वालियर पहुँची तो पता चला कि जिसकी बाँह पर मीना कुमारी ने ऑटोग्राफ दिया, वह उस क्षेत्र का खूँखार डाकू अमृतलाल 'किरार'

था. बागी और विद्रोह की ज़मीन चम्बल में अपहरण और फिरौती का घृणित सिलसिला शुरू करने का श्रेय तब का क्लेवर फ़ॉक्स कहे जाने वाले अमृतलाल को जाता है.

कमाल अमरोही जो मीना कुमारी के पति भी थे, ने बाद में एक साक्षात्कार में बताया था कि बहुत दिनों बाद जब अमृतलाल के मारे जाने की खबर अखबारों में प्रकाशित हुई थी, तब उसमें यह भी दर्ज़ था कि डाकू की बाँह पर ‘मीना’ उकेरा हुआ है.

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जितेन्द्र विसारिया

मोबाइल : 9893375309

ई-मेल : jitendra.visariya@gmail.com


युद्ध और हिंदी कहानी: गरिमा श्रीवास्तव

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युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी कहानियों के संदर्भ में अक्सर ‘उसने कहा था’ की ही चर्चा होती है. प्रेमचंद युग से लेकर आजतक युद्ध केंद्रित कहानियां लिखने का सिलसिला थमा नहीं है. आलोचक प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने शोध आधारित इस आलेख में युद्ध आधारित  ऐसी ही कहानियों का अन्वेषण और विवेचन किया हैं, प्रेमचंद द्वारा छद्म नाम से १९०९ में प्रकाशित ‘जोन ऑफ आर्क’की ओर उन्होंने ध्यान खींचा है जो उनके अनुसार ‘कहानी के रूप में देखने पर यह युद्ध पर लिखी हिन्दी की पहली कहानी मानी जा सकती है.’

आलेख प्रस्तुत है. 


युद्ध और हिंदी कहानी                                                                
गरिमा श्रीवास्तव

 


 


जून 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा, जिसका समर्थन बालगंगाधर तिलक और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं ने किया. उनको यह विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार कृतज्ञता का परिचय देगी और भारतीयों को स्व-शासन प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़ेगी. ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ़ कामन्स’ में सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ने आश्वासन दिया था कि, ‘भारत में ब्रिटिश नीति का लक्ष्य उत्तरदायी सरकार की स्थापना है’ लेकिन यह आश्वासन खोखला था. इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध के समानांतर स्वराज का आन्दोलन भी चलता रहा. पिछले वर्ष प्रथम विश्वयुद्ध को हुए 100 वर्ष बीत चुके हैं. प्रथम विश्वयुद्ध से सीधे-सीधे प्रभावित न होने के बावजूद हिंदी के आरंभिक दौर के कहानीकारों ने जबरन थोपे गए युद्ध और औपनिवेशिक दासता का प्रतिकार अपने-अपने ढंग से किया. हिंदी साहित्य में प्रथम विश्वयुद्ध को आधार बनाकर लिखे जाने वाले कथा-साहित्य की पड़ताल आज ज़रूरी है. औपनिवेशिक मानसिकता से देशी साहित्य को देखना वैसा ही है जैसे दूर के चश्मे से नज़दीक देखने की कोशिश.

विश्वयुद्ध की शतवार्षिकी पर तमाम विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में संगोष्ठियाँ आयोजित की गयीं,जिनमें  मेरी जानकारी में ऐसी कोई संगोष्ठी नहीं थी जो भारतीय भाषाओँ के साहित्य पर इस सन्दर्भ में कोई प्रामाणिक बात करे. अंग्रेजी के भारतीय विद्वानों ने तो हिन्दी साहित्य को ठस और अवरूद्ध घोषित करते हुए स्थापित कर  दिया कि चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अलावा हिन्दी का कोई रचनाकार  विश्वयुद्ध को जान–समझ और अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम था,पड़ताल ज़रूरी इसलिए भी कि ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी जो प्रेम और त्याग की कहानी के रूप में हिन्दी पाठक और आलोचना के जेहन में बैठी हुई है,आज  वह पाठ के विखंडन की मांग करती है.

 


(दो)

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय किसानों को फ़ौज में जबरन भरती करने की रणनीति पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया. इतिहासकार सुमित सरकार (आधुनिक भारत : 1885-1947, राजकमल प्रकाशन, 2009 अनु. सुशीला डोभाल) ने लिखा है कि-

“हजारों भारतीयों को नितांत अपरिचित भूमि पर मरने के लिए भेज दिया जाता था . ...सिद्धांत रूप में तो सैनिक-भर्ती स्वैच्छिक थी, किन्तु व्यवहार में यह लगभग ज़ोर-ज़बरदस्ती का रुप धारण कर लेती थी. पंजाब में 1919 के उपद्रवों के पश्चात कांग्रेस द्वारा की गयी जाँच-पड़ताल से ज्ञात होता है कि वहाँ के लेफ्टिनेंट  गवर्नर माइकेल ओ डायर के शासन काल में लंबरदारों के माध्यम से जवानों को सेना में भरती होने के लिए बाध्य किया जाता था.”

यह जानकारी, कहानी के पाठ के प्रति पाठक की दृष्टि बदल देती है- प्रेम, बलिदान और त्याग की कहानी औपनिवेशिक गुलामी के समीकरण का एक दूसरा आयाम हमारे सामने खोल देती है. युद्ध में जबरन भर्ती करना, फिर लाम पर भेजना जिसका अर्थ था मौत. उस देश और उस धरती के लिए लड़ना जिससे लड़ने वाले का कोई भावात्मक जुड़ाव ही नहीं है. दूसरी ओर भारतीय परम्परागत स्त्री जिसके लिए पति-पुत्र का अस्तित्व ही सब कुछ है,विधवा जीवन की कल्पना भी उसके लिए भयावह है- वे दोनों भी लाम पर भेजे जा रहे हैं- सूबेदारनी के सामने आशा की एक किरण कौंध जाती है- वह लहनासिंह से कह बैठती है-

“तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे. आप घोड़े की लातों में चले गए थे. और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ.”

और लहनासिंह प्रेम और कर्तव्य की बलिवेदी पर शहीद हो जाता है. लेकिन ठीक इसी बिंदु पर युद्ध की अमानवीयता अपनी पूरी त्रासदी के साथ उभरती है. पति-पुत्र की मृत्यु के बाद रोने के लिए स्त्रियाँ ही बच रहती हैं. इतिहास गवाह है कि युद्ध का कारण जो भी हो मारी तो स्त्रियाँ ही जाती हैं. सूबेदारनी का  यही डर उसे लहनासिंह के सामने कृपा की भीख मांगने पर विवश करता है,साथ ही भारतीय परिवेश में स्त्री की त्रासदी का एक खाका भी प्रस्तुत करता है,जहाँ विधवा या पुत्रहीन स्त्री की कोई वकत नहीं. धर्मवीर भारती ने इस कहानी का नाट्य रूपांतरण करते हुए युद्ध विरोधी संवेदना को रेखांकित किया था.बाद में इसपर फिल्म भी बनी थी-

“यह कहानी मानव हृदय की सबसे पुरानी और सबसे नवीन कहानी है जो सृष्टि के आदि में उलझ गयी थी और आज तक उलझी है. यह कहानी युद्ध के लथपथ मैदानों में, लाशों से पटी हुई खाइयों में, खूंखार श्मशानों में भी सहानुभूति, त्याग और करुणा की पवित्र रागिनी की तरह भटकती रहती है. वह प्रेम जो हिंसा और हत्या के पैशाचिक नग्न नृत्य में भी मनुष्य को पशु होने से रोक लेता है.” (रंग प्रसंग, अंक-35 राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली)

प्रथम विश्वयुद्ध के लिए ब्रिटिश अधिकारियों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिम भारत के सिख, मुसलमान और क्षत्रिय होते थे. ये वीर और रण-बाँकुरे होते थे. ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने विश्वयुद्ध में अपने-अपने उपनिवेशों के जितने भी सैनिक झोंके, उनमें ब्रिटेन के भारतीय सैनिकों की संख्या सबसे अधिक थी. भारतीय सैनिकों को आधुनिक हथियारों और बर्फीली ठण्ड में युद्ध  की पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं थी, इसलिए वे गाजर-मूली की तरह कट गए. फ्रांस में लड़े गए एक तिहाई मोर्चे भारतीयों ने ही संभाले.

हिंदी में युद्ध की पृष्ठभूमि या यों कह लें कि युद्ध के विकट समसामयिक यथार्थ पर रचनात्मक दृष्टिपात का यह पहला प्रयास है. मुकुटधर पाण्डेय ने इस कहानी पर अपनी टिप्पणी में याद किया है-

“लड़ाई यूरोप की भूमि पर लड़ी जा रही थी पर यहाँ भारत में पल-पल युद्ध वार्ता की प्रतीक्षा रहा करती थी. भारतीय सैनिक हज़ारों की संख्या में फ्रांस और बेल्जियम की भूमि पर लड़ रहे थे. हम लोग नक्शा निकाल कर युद्धस्थलों का पता लगाते थे.”

गुलेरी जी ने समसामयिक सरोकार और संबद्धता के इसी भाव के अनुगमन में रमकर इस युद्ध प्रसंग को रचा.

इसी समय जबकि विश्वयुद्ध के प्रभाव से संभवतः किसी भी संवदेनशील रचनाकार की संवेदना अछूती न रह सकी, देश-प्रेम के भाव का जोर पकड़ना और स्वाधीनता आंदोलन के बहुआयामी पक्ष प्रेमचंद जैसे कथाकार की रचनाओं का केन्द्रीय विषय बने.जमाना’ के अप्रैल 1909 के अंक में प्रेमचंद की लिखी हुई जीवनी ‘जोन ऑफ आर्क’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. इस जीवनी पर पत्रिका के अंक की अनुक्रमणिका में लेखकीय नामोल्लेख ‘दाल-रे अज अम्बाला’ तथा लेख के अन्त में ‘दाल-रे’ के रूप में प्रकाशित हुआ था. (ध्यातव्य है कि यह वह समय था जब ‘सोजे वतन’ से उद्भूत विभागीय प्रतिबन्धों के कारण प्रेमचंद छद्म नामों से लिखने के लिये विवश थे.)

इस जीवनी का अंश यहाँ प्रस्तुत करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि युद्ध की पृष्ठभूमि का सजीव चित्रण प्रेमचंद की लेखनी से तब उद्भूत हो रहा था जब प्रथम विश्वयुद्ध होना बाकी था- कहानी के रूप में देखने पर यह युद्ध पर लिखी हिन्दी की पहली कहानी मानी जा सकती है -

 

(तीन)



“जिस समय फ्रांस और इंगलिस्तान उस शतवर्षीय युद्ध में व्यस्त थे जो एडवर्ड तृतीय के युग में सन् 1328 में प्रारम्भ हुआ था और जो सन् 1453 में हेनरी षष्ठ के युग में समाप्त हुआ तो मित्रता, श्रेष्ठता और बड़ाई से चमकते अंग्रेज उस समय आए दिन शहर पर शहर जीतते जाते थे और बड़े-बड़े प्रान्तों और शहरों को अधिकृत कर चुके थे. समस्त बंदरगाह और किले उनके हाथ में आ गए थे. पोर्ट स्मिथ, क्रेसी, कैले, पोर्सट्रिज, पेरिस, रून, पास्टस सब अंग्रेजों के राज्य में सम्मिलित हो चुके थे. दूसरे शब्दों में मानो वे सभी इंग्लैण्ड के प्रान्त बन गए थे.

फ्रांसवासियों की दशा अकथनीय थी. वे आए दिन की पराजयों से दुखी थे. हर लड़ाई में हार ही हार हो रही थी. इंगलिस्तान का उत्कर्ष तथा प्रभुत्व प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गया था, दिलों पर उनका भय छा रहा था. उस समय समूचे योरुप की दृष्टि अंग्रेजों पर लगी हुई थी. लेकिन जय के साथ पराजय फूल में काँटे की भाँति सम्बद्ध होकर साथ-साथ चलती है क्योंकि प्रत्येक उत्थान के बाद पतन आवश्यक है. जब जीत पर जीत प्राप्त करते हुए उन्होंने पाँच वर्ष के अन्दर लगभग समूचा फ्रांस जीतकर अधीन कर लिया और जब ऑर्नलीज की घेराबंदी में सफल होने को ही थे कि अचानक वह आश्चर्यजनक घटना घटी जो विश्व-इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगी. जब फ्रांस की ऐसी गम्भीर दशा थी और समस्याओं तथा कष्टों का सामना करते-करते जनता अन्ततः निराश हो चुकी थी और विदेशी आक्रान्ताओं के निरन्तर आक्रमणों से देश नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, देश से सुख-शान्ति विदा हो चुकी थी, उस समय जॉन ऑफ आर्क एक देवदूत की भाँति अवतरित हुई जिसे ईश्वर ने फ्रांस की दुर्दशा पर दया करके उसके बचाव और सहायता के लिए भेजा था.

वह डोमरेमी में स्थित लोरीन के एक देहाती मजदूर की लड़की थी. उनके माता-पिता बहुत गरीब थे और झोपड़ी में रहकर मेहनत-मजूरी से अपना पेट पालते थे. अपने घरेलू कार्यों और सीने-पिरोने से निपटकर जॉन ऑफ आर्क खेतों में भेड़ तथा अन्य पशु चराया करती थी. उस समय घर-घर पर अंग्रेजों का आतंक जमा हुआ था. लोग अपने घर-संपदा की सुरक्षा कठिनाई से कर सकते थे. प्रत्येक व्यक्ति के मुंह पर पुरानी भविष्यवाणियाँ थीं. वह काल दुर्भाग्य का काल माना जाता है. ब्रंस नामक एक फ्रांसीसी कवि ने भविष्यवाणी की थी कि लोरीन के बालूत के जंगलों में एक लड़की पैदा होगी, और सौभाग्य से बालूत के जंगल डोमरेमी की पहाड़ियों में ही थे. प्रायः लोग कहा करते थे कि जिस फ्रांस को एक औरत (सम्राज्ञी इसाबेला से आशय है) ने अपने हाथों से खोया है वह एक लड़की के सहारे स्वाधीन होगा. और, यह भी प्रसिद्ध था कि लोरीन की एक उत्साही लड़की फ्रांस को स्वतंत्रता का प्रकाश प्रदान करेगी.

इन किवंदन्तियों ने उस तेरह वर्षीय लड़की के कोमल हृदय को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया. एक दिन उसने यह स्वप्न देखा कि महान् देवदूत जिबराइल उसे धर्मात्मा, आस्थावान, देश के लिये पूर्णतः समर्पित और पवित्र बनने का उपदेश दे रहे हैं. इसके बाद संत कैथेराइन और मार्गरेट प्रकट हुईं और उसे उपदेश देकर लुप्त हो गईं. आध्यात्मिकता अवतरित होने तथा अन्य आम चर्चाएँ होने पर भी जब उसने फ्रांस की ऐसी दुर्दशा देखी कि उसका प्यारा देश विजयी आक्रान्ताओं के आक्रमणों से बरबाद हो चुका है, लोगों का साहस टूट गया है और उत्साह ठंडा हो गया है, हर छोटा-बड़ा अपनी दुर्बलता और निर्धनता के हाथों रो-पीट रहा है, शत्रु के सामने आ डटना सरल कार्य नहीं रह गया है, तब देश के शासन और हानि व दुर्दशा से परिचित होकर वह शोक में डूबी हुई तथा अत्याचारों की तलवार से मारी हुई काँप उठी. और, दूसरी ओर जब उसने अपनी विपत्ति तथा निर्धनता का चिन्तन किया तो अनायास आँसू भरकर कहने लगी -

क्या हाथ उठाऊँ बहरे दुआ सूए आसमाँ

बर आए जो कभी वह मिरी आरजू नहीं 

लेकिन फिर उसने अपने शोकाकुल हृदय को ढाढ़स बँधाया और उसके शरीर में एक बिजली सी कौंध गई. राष्ट्रीय स्वतंत्रता का नाम सुनकर उसका खून उबलने लगा. उसने राष्ट्रीय पराधीनता की शर्म अनुभव की. उसका दिल भर आया और उस गुप्त रहस्य तथा आकाशवाणी की याद ने उसके घायल हृदय को चीर दिया. वह देशभक्ति में डूबी बैरागन एक सच्चे संन्यासी की भाँति एक वृक्ष के नीचे अपने परम पिता की गोद में बैठ गई. उसने अपना दायाँ हाथ आकाश की ओर उठाया और बाएँ हाथ में तलवार लेकर सम्पूर्ण समर्पण से प्रार्थनारत हो गई. उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें टप-टप टपक रही थीं, उसके मुंह से ये शब्द निकल रहे थे कि ऐ सृष्टि के रचयिता परमात्मा, ऐ दोनों लोकों के स्वामी और अन्तर्यामी, मेरे देश की दशा पर दया कर, मेरे प्यारे देशवासियों को इस बरबादी और विनाश से मुक्त कर, मुझे शक्ति दे कि मैं देश की सेवा कर सकूँ, मुझे देशभक्ति की क्षमता प्रदान कर, अपनी मातृभूमि से प्यार करने का साहस दे, मेरे भाइयों को विदेशी शासन से बचा, अन्याय-अत्याचार का सामना करने का साहस दे. मेरा शरीर इस देश के जान-माल पर अर्पित है.

ऐ परम पिता! मेरी इस विनम्र प्रार्थना और इच्छा को पूर्ण कर. उसकी प्रार्थना ईश्वर के दरबार में स्वीकार हुई और जब उसने वह आवाज सुनी तो उसका मुरझाया हृदय गुलाब के फूल जैसा खिल गया, उसका अस्तित्व उस चुम्बकीय क्षमता से भर गया जो बाद में उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण सिद्ध हुआ. कहते हैं कि उसकी वाणी में विचित्र प्रभाव था और उसकी उपस्थिति मनुष्य में नवीनता और स्फूर्ति का संचार करती थी. उसके चेहरे से वह शराफत और रौब टपकता था जो मनुष्यों के दिल को जीत लेता है. इस प्रार्थना से उसके हृदय को शक्ति प्राप्त हुई. उसने हाथ में तलवार संभाली, उसे चूमा और आकाश की ओर देखकर संकल्प लिया कि मैं आज से अपना तन-मन देश को समर्पित करती हूँ.

एक चित्रकार ने जॉन का ऐसा चित्र बनाया है जिसमें वह यह कहती हुई दिखाई देती है कि जब तलवार हाथ में है तो फ्रांस को छुड़ाना और स्वाधीन करना क्या बड़ी बात है. इसके बाद वह गाँव के पादरियों और लोगों के कहने के प्रतिकूल कप्तान के पास गई और उससे कहा कि मुझे कैंप में ले चलो. वह वैंकोलीवर में गई, फिर चिम्यान. वहाँ उसने अपने मिशन का वर्णन किया कि मैं एक मूर्ख लड़की हूँ लेकिन परमात्मा ने मुझे आदेश दिया है कि मैं ऑर्लनीज को अंग्रेजों के हाथों से बचाऊँ और फ्रांस के राजा को सिंहासन पर बैठाऊँ. मुझे न प्रशंसा की इच्छा है न पुरस्कार की चिन्ता, न शत्रु का भय न प्रतिद्वंद्वी का डर. मैं केवल ईश्वरीय इच्छा और ईश्वरीय आदेश पूरा करने को आई हूँ.

अलहमीस के बड़े पादरी ने उन ईश्वरीय प्रेरणाओं और खुलासों की चर्चाओं का वर्णन करके सम्राट चार्ल्स को प्रेरणा दी कि वे इस समय उसकी सहायता से लाभ उठाएँ. जिसकी निराशा आशा में बदल गई ऐसे फ्रांस के राजा ने इस अवसर को अच्छा समझकर उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति दे दी. फिर वह जान हथेली पर रखकर सेनापति बन, घोड़े पर सवार हो, जिरह-बख्तर पहन, सिर पर लोहे की टोपी रखकर, हाथ में फ्रांस का शाही झंडा लेकर मौत की हँसी उड़ाने के लिए लड़ाई के मैदान में कूद पड़ी. वह शत्रु-सेना के दस हजार सशस्त्र जवानों पर इस प्रकार टूट पड़ी जैसे कोई बाज अपने शिकार पर बुरी तरह टूटता है. यद्यपि इस लड़ाई में उसे गहरे जख्म लगे लेकिन उसने ऑर्लनीज का घेरा उठवा दिया.

अंग्रेज भयभीत हो गए और फ्रांसीसियों ने उसे दया का दूत माना. जो लड़ाई के अतिरिक्त कुछ भी पसंद नहीं करते थे, उन फ्रांसीसी जनरलों की कोई परवाह न करती हुई वह जीत के बाजे बजाती तथा बधाई और कुशलता की पुकार सुनती हुई 14 जुलाई 1429 को रेम्स में प्रविष्ट हुई और जो भी सामने आता गया, उसे जीतती गई. और, उसने वहाँ पहुँचकर दूसरे दिन 17 जुलाई को बड़े गिरिजाघर में फ्रांस के राजा चार्ल्स के राज्यारोहण की रस्म पूरी की.

उसके बाद पेरिस और कम्पेकिन की घेराबंदी होती रही जहाँ उसकी स्वामीभक्त और उत्साही सेना ने बड़े शानदार महान् कार्य किए. लेकिन अन्तिम शहर की सुरक्षा के समय वह ड्यूक ऑफ बरगंडी के हाथों गिरफ्तार हो गई जिसने उसे बंदी बना लिया और बाद में अंग्रेजों के हाथ बेच दिया. जब उसे युद्धक्षेत्र से बंदीगृह में ले गए, उस समय का दृश्य अत्यन्त हृदय द्रावक है. कड़ी परीक्षा का अवसर था और वह मृत्यु पाश में फँसी पुकार-पुकारकर कह रही थी कि देश के प्रेम में इस सिर पर जो कुछ भी बीते वह कम है.

फिर अहंकारी न्यायालय का द्वार खुला. 3 जनवरी 1431 को उसे न्यायालय के अधिकारियों को सौंप दिया गया जहाँ छह दिनों तक उसकी पेशी होती रही. 24 मार्च को उस पर शत्रु और जादूगरनी होने का आरोप लगाया गया और वह 30 मई 1431 को ‘ऊन’ स्थान में जादूगरनी मानकर जिन्दा ही दहकते अंगारों के हवाले कर दी गई. और, वह पवित्र आत्मा उन मुहब्बत का दम भरने वाले झूठे दोस्तों और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने वाले निर्दयी तथा कातिल शत्रुओं से सदा के लिए उड़कर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ मानव शरीर की बुराई और विश्वासघात कुछ काम नहीं आते और जहाँ थके-हारों को स्थायी सुख-चैन प्राप्त होता है.

जिन फ्रांसवासियों को बचाने के लिए उसने प्रसन्नता से शहादत का जाम पिया और जिन्होंने अपनी मुक्तिदाता को बचाने का तनिक भी प्रयास नहीं किया उनके लिए; और उसकी वीरता पर आश्चर्यचकित होकर उसकी शूर वीरता का लोहा मान चुके लेकिन जिन्होंने अपने शत्रु के सुगुणों का सम्मान न किया, ऐसे अंग्रेजों के लिए अन्ततः यह एक लज्जाजनक कहानी है.

लड़ाई फिर भी चलती रही लेकिन उसके बाद अंग्रेजों के पाँव ऐसे उखड़े कि फिर न जम सके. सफलता की आशा जाती रही क्योंकि ड्यूक ऑफ बरगंडी फ्रांस के राजा की ओर मिल गया. उसके बाद आपस में समझौता हो गया लेकिन चार्ल्स अष्टम ने फिर नोरमेंडी को जीत लिया और चार वर्ष के अन्दर ही वह गाईन और बोड़दो का स्वामी बन गया. और इस प्रकार सन् 1453 में शतवर्षीय युद्ध समाप्त हुआ लेकिन उस समय केवल एक शहर कैले अंग्रेजों के अधिकार में शेष रह गया था.

जॉन के व्यक्तित्व में बहादुरी, पुरुषत्व, साहस, अकूत शक्तिपवित्रता कूट-कूटकर भरी हुई थी. शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से वह अत्यन्त स्वस्थ और सुदृढ़ थी. उसके चेहरे-मोहरे से जैसा तेज बरसता था वैसा ही उसके शरीर से रौब-दाब टपकता था. एक चितेरे ने जॉन का इस प्रकार चित्र बनाया है जिससे उसकी आध्यात्मिकता, धर्मनिष्ठा, सौन्दर्य, सरलता और अन्य वे गुण स्पष्ट दिखाई देते हैं जो उसके जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग थे. जॉन के जीवन में शौर्य और सन्तों-जैसे गुण विद्यमान थे जो उसके बाल्यकाल से ही उजले दिन की भाँति प्रकट थे. उसमें महान् कार्य करने की असीम शक्ति थी. वह हर समय कठिनाइयों और कष्टों का सामना करने के लिए तैयार रहती थी. उसमें आदमियों में प्राण फूँकने की आश्चर्यजनक शक्ति थी. उसकी समस्त विजयों और वीरता और बलिदान के कामों को अपनी आँखों से देखने वाले एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है- जो समस्त घटनाएँ मैंने देखी, सुनी और मेरे समक्ष घटीं, उन सब में मैंने उसे ईश प्रिय, पवित्र और निस्पृह पाया

(प्रेमचंद रचनावली)

 

(चार)

हिंदी कथा साहित्य को मध्यवर्गीय मानस की अभिव्यक्ति बनाने वाले प्रेमचंद ने ‘नवाबराय’ के नाम से कहानियाँ लिखीं. सरकारी मुलाज़िम के रूप में उनका नाम धनपतराय थाजिस समय गाँधी जी ने भारतीय राजनीतिक  परिदृश्य पर अपनी पहचान बनाई, प्रेमचंद उससे काफी पहले भारतीय समाज और राजनीतिक समीकरण के यथार्थ को पहचान चुके थे और कथा साहित्य  के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर रहे थे. जहाँ औपनिवेशिक शक्तियों का प्रयास था कि जनता संगठित न हो, वहीं प्रेमचंद रचनात्मकता द्वारा ही औपनिवेशिक शासन और साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध कर रहे थे. यह गौरतलब है कि प्रेमचंद ने सीधे-सीधे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर कहानी नहीं लिखी लेकिन दमनकारी और आतंकी औपनिवेशिक शासन के माहौल में राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’(1907), ‘आहे बेकस’(1911 )जैसी कहानियां लिखीं जो ऊपर से परम्परागत नैतिक बोध की कहानी प्रतीत होती हैं पर सामंती वर्ग के आर्थिक, नैतिक और चारित्रिक खोखलेपन का बेहद व्यंग्यपूर्ण अंकन करती  हैं साथ ही साथ अत्याचारी के खिलाफ सत्याग्रह और सविनय-अवज्ञा का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं इसके अतिरिक्त उनकी ‘बाँका जमींदार’, ‘अनाथ लड़की’, ‘शिकारी राजकुमार’ आदि कहानियाँ प्रत्यक्षतः राजपूतों,बुंदेलों, सिखों आदि की वीरता, बलिदान, स्वाभिमान, स्वामीभक्ति, हठधर्मिता आदि का चित्रण करती हैं, लेकिन परोक्ष रूप से वे जन-मानस में उन भावनाओं को जागृत करना चाहती हैं, जो देश को औपनिवेशिक दासता से मुक्त करने के लिए ज़रूरी थीं.

जयशंकर प्रसाद के ‘छाया’ शीर्षक कहानी-संग्रह में ‘शरणागत’ कहानी संकलित है, जिसमें 1857 के विद्रोह को पृष्ठभूमि के तौर पर ग्रहण किया गया, इसमें उन्होंने भारत की महानता के लिए अतीत की रक्षा पर बल दिया. इसी तरह ‘सिकंदर की शपथ’ कहानी में भारतीय वीरों की बहादुरी और सिकंदर के विश्वासघात का चित्रण करने के बहाने उन्होंने  भारत के पराभव की करुण संवेदना व्यक्त किया. प्रसाद की कहानियों में राजनीतिक पराधीनता और भारतीयों की दैन्यता का चित्रण है. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की लिखी  तीन पूर्ण कहानियाँ मिलती हैं- ‘बुध्दू का काँटा’, ‘सुखमय जीवन’ और ‘उसने कहा था’- इनमें से तीसरी कहानी की प्रशंसा करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने कहा था-

“इसके पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है. घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है- केवल झाँक रहा है निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है. कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है. सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता. इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं.”

इसे हिंदी की पहली कहानी कहा गया जिसमें फ्रांस की ज़मीन पर लड़े जा रहे प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि को ग्रहण किया गया. युद्ध और प्रेम की संवेदना इस कहानी में साथ-साथ चलती है. इसकी केन्द्रीय संवेदना प्रेम होते हुए भी इसका एक पाठ युद्ध विरोधी संवेदना के रूप में भी किया जाना चाहिए. गुलेरी जी ने  ‘हीरे का हीरा’ शीर्षक एक अपूर्ण  कहानी भी लिखी थी जो अपने अधूरे रूप में ही  उपलब्ध हैइसकी पृष्ठभूमि भी युद्ध ही है. ‘उसने कहा था’ का केन्द्रीय पात्र लहनासिंह जो युद्ध में बच गया था, अपनी एक टांग गंवाकर गाँव लौट आया है,वही इस कहानी का केन्द्रीय पात्र प्रतीत होता है.प्रतीक्षारत माँ और पत्नी की भावनाओं का सूक्ष्म अंकन गुलेरी जी ने इसमें  किया है. गुलेरी जी की जिस कहानी से हिन्दी में युद्ध-आधारित कहानियों की शुरुआत मानी जाती है,उसी की अगली कड़ी में  अधूरी कहानी ‘हीरे का हीरा’ को फिर से  देखा जाना ज़रूरी है,ज़रूरी इसलिए कि कहानी के इतने साल बीतने के बाद भी इस कहानी को पूरा करने का काम 1990 ही में सुशीलकुमार फुल्ल ने किया जो दैनिक ट्रिब्यून के 1 अप्रैल के अंक में छपी.

सुदर्शन वसिष्ठ ने गुलेरी  जी की कहानियों का पुनर्मूल्यांकन करने के क्रम में इसकी विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा

“....उसने कहा था,अमृतसर की गलियों से प्रारंभ होकर युद्ध के वातावरण में समाप्त होती है.. हीरे का हीरा में लहनासिंह अपने परिवार में लौटता है,जो पाठकों के लिए अप्रत्याशित घटना है. आँगन में आते ही लहनासिंह मां से उस चिट्ठी का ज़िक्र करता है,जो उसने अम्बाला छावनी से लिखवाई थी. मां इस बात का उत्तर न देकर झटपट दिया जलाती है. लहनासिंह की वापसी की चमत्कारी घटना वास्तव में एक विचित्र संसार का निर्माण करती है ....तीन वर्ष से पति वियोग और दारिद्र्य को ढोती सास–बहु को ‘दो जाँघों वाले लहनासिंह की आदर्श मूर्ति’ देखने की लालसा में पीपल के नीचे नाग को पञ्च पकवान चढ़ाने की इच्छा का चित्रण अत्यंत मार्मिक है. मां देखती है ...और जिन टांगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास दफ़ा उघाड़ दिया था उनमें से एक की जगह चमड़े के तसमों से बंधा हुआ डंडा था. माता रूंधे गले से कुछ कह नहीं पाती और कुछ सोच समझ कर बाहर चली जाती है. उधर गुलाबदेई के सारे अंग में बिजली की धाराएँ दौड़ जाती हैं.

इस कहानी का अंत है–

“वह रोती गई और रोती गई और फिर रोती गई,क्या यह आश्चर्य की बात है?जहाँ कि स्त्रियाँ पत्र पढ़ना नहीं जानतीं और शुद्ध भाषा में अपने भाव प्रकाश नहीं कर सकतीं और जहाँ उन्हें पति से बात करने का समय भी चोरी से ही मिलता है वहां नित्य अविनाशी प्रेम का प्रवाह क्यों नहीं अश्रुओं की धारा की भाषा में...

यहीं कहानी रुक गयी है. यह कहा नहीं जा सकता कि यदि गुलेरी जी इसे पूरा कर पाते तो इसकी परिणति क्या होती,लेकिन अधूरी कहानी अपनी पूरी चेतना में पाठक को बार-बार ‘उसने कहा था ‘की याद दिलाती है, पाठक की स्मृति में टंकित ‘सूबेदारनी’ सूबेदार हजारा सिंह और बेटा बोधा सिंह उसे चुनौती देते प्रतीत होते हैं- अधूरी होकर भी यह कहानी पाठकीय संवेदना को प्रभावित किये बिना नहीं रह पाती,और पाठक के मन में कहीं दूर तक असंतोष,युद्ध विरोधी भाव और पात्रों के प्रति करुणा की सृष्टि कर डालती है.

भारत सीधे-सीधे विश्वयुद्ध में शामिल नहीं हुआ था इसके बावजूद प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति होते-होते यहाँ  की आम जनता में औपनिवेशिक शासन के प्रति गहरा असंतोष व्याप्त हो गया था. युद्ध के आर्थिक बोझ,कीमतों में वृद्धि,अनाज की कमी  ने आम भारतीय को परेशान कर दिया था.युद्ध के व्यापक आर्थिक परिणाम हुए,साथ ही  युद्ध में लाखों भारतीय सैनिक मारे गए. जर्मन, आस्ट्रिया और रूस में युद्ध के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन एवं जनक्रांतियों  ने भारतीय मानस  में  अपनी पहचान बनायी,जिसमें मुद्रण एवं संचार साधनों,विशेषकर अख़बारों  ने बड़ी भूमिका निभाई. अनुमान है कि लगभग दस लाख भारतीय सैनिकों ने यूरोपीय, भूमध्यसागरीय, और मध्यपूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपनी सेवाएँ दी थीं,जिनमें से कुल 62,000 सैनिक मारे गए और लगभग 67,000 सैनिक घायल हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक हताहत हुए थे.

इसी समय जबकि विश्वयुद्ध के प्रभाव से संभवतः किसी भी संवदेनशील रचनाकार की संवेदना अछूती न रह सकी, देश प्रेम के भाव का जोर पकड़ना और स्वाधीनता आंदोलन के बहुआयामी पक्ष को  प्रेमचंद  की रचनाओं में देखा जा सकता है.1917 में ‘वियोग और मिलाप’  शीर्षक  कहानी  में पहली बार भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का  प्रत्यक्ष  यथार्थ चित्रण मिलता है.प्रेमचंद कहानियों के शीर्षकों को लेकर चैतन्य थे,जैसे वे हिन्दी में धनपतराय नहीं प्रेमचंद नाम से लिखते थे वैसे ही कहानी के शीर्षक से औपनिवेशिक सत्ता के सामने पशेमां नहीं होना चाहते. इस कहानी में तिलक और ऐनी बेसेंट द्वारा समर्थित  ‘होमरूल’ और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का खुला पक्ष लिया गया  जो, प्रेमचंद की अपने समय और समाज के प्रति रचनात्मक प्रतिबद्धता को बताती है.होमरूल आन्दोलन’ के दौरान पिता-पुत्र के बदलते संबंध की पड़ताल करती है. 1921 के दशक में लिखी गई हिंदी कहानियों में समकालीन राजनीतिक घटनाओं जैसे ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’, ‘दांडी यात्रा’ की अभिव्यक्ति बड़े जोर-शोर से देखने को मिलती है, 1926 में प्रकाशित ‘प्रेम द्वादशी’ की भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा था-

“हम पराधीन हैं, लेकिन हमारी सभ्यता, पाश्चात्य सभ्यता से कहीं ऊँची है. यथार्थ पर निगाह रखने वाला यूरोप हम आदर्श वादियों से जीवन-संग्राम में बाजी भले ही ले जाये, पर हम अपने परम्परागत संस्कारों का आधार नहीं त्याग सकते. साहित्य में भी हमें अपनी आत्मा की रक्षा करनी ही होगी. हमने उपन्यास और गल्प का कलेवर यूरोप से लिया है, लेकिन हमें इसका प्रयत्न करना होगा कि उस कलेवर में भारतीय आत्मा सुरक्षित रहे.”

बौद्धिक साहस के जिन वैचारिक मूल्यों को बालमुकुंद गुप्त ने अपनी पत्रकारिता में  प्रतिपादित किया था,  उसे 1907 में उनके बाद प्रेमचंद ने पूरी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाया. राजभक्ति के प्रति जुड़ाव ख़त्म कर वे उन्होंने अपने लेखन द्वारा देश, समाज, अपनी जनता और विदेशी शासन से मुक्ति के लिए आम आदमी में चेतना जगाने का काम शुरू किया. प्रेमचंद ने अपने देश भक्तिपूर्ण लेखन के सवाल पर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे डाला.  उनकी कहानियों, उपन्यासों, हंस जैसी पत्रिका और निबंधों का केन्द्रीय सरोकार था औपनिवेशिक शासन की आलोचना और भारतीय किसान की पक्षधरता. वे राष्ट्रीय और समाजवादी विचारों के प्रबल पक्षधर थे. ‘हंस’ उनके विचारों का  वहन करने वाली पत्रिका थी. काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद प्रेमचंद ने अपने अखबार ‘जागरण’ और उसके कार्यालय को इस पार्टी को दे दिया था. राष्ट्रीय भावना के प्रचार- प्रसार में उनके पूरे लेखन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. प्रेमचंद ने सीधे-सीधे न युद्ध की कहानियाँ लिखीं न पत्रों में प्रकाशित विश्वयुद्ध की सूचनाओं का आधार ग्रहण किया, बल्कि 1921 में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि ग्रहण कर  ‘दुस्साहस’, ‘लाग-डाँट’, ‘विचित्र होली’, ‘आदर्श विरोध’ और ‘लाल फीता’ शीर्षक पाँच कहानियाँ लिखीं.

दुस्साहस’ में असहयोग के दौरान शराब की दुकानों पर पिकेटिंग, ‘लाग-डांट’ में स्वतंत्रता आन्दोलन को दो जमींदारों के आपसी संबंधों के माध्यम से व्यक्त किया गया,इसी तरह ‘आदर्श विरोध’ शीर्षक कहानी में वायसराय की कार्यकारिणी सभा में नियुक्त होने वाले भारतीय बुद्धिजीवियों की मानसिकता और अवसरवादिता का यथार्थ विश्लेषण मिलता है. इसी तरह ‘सुहाग की साड़ी’ में सत्याग्रह आन्दोलन और ‘चकमा’ में असहयोग आन्दोलन के उस चरण से पाठक परिचित होता है, जिसमें विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए व्यापारियों और दुकानदारों से शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये जाते थे,बहुत से धनाढ्य सेठों की पूंजी इस आन्दोलन के कारण बाधित  हुई थी और वे अपना सामान बेचने और पूँजी  निकालने का प्रयास करते थे. यहाँ गौरतलब यह है कि प्रेमचंद ऐसे चरित्रों को खल के रूप में प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि मर्ज़ पर उंगली रख यह बताते हैं,कि कैसे  स्वदेशी आन्दोलन के प्रति वास्तविक  सहानुभूति रखने  के पूंजीपतियों के वर्गहित औपनिवेशिक शासन के पक्ष में खड़ा रहने से ही सधते हैं. स्वयं गांधीजी भी पूरे स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध दीखते हैं,गाँधी: एक पुनर्मूल्यांकन’ शीर्षक लेख में कात्यायनी का तर्क है कि-

“गाँधी सामंती भूस्वामियों से बलात भू स्वामित्व छीनने के बजाय उन्हें समझा–बुझाकर कायल करने के पक्षधर थे. इसी कारण से,एक ओर तो काश्तकार किसानों की पिछड़ी चेतना वाली,धर्मभीरू और जमीनों की आकांक्षी भारी आबादी गाँधी के पीछे लामबंद हुई,दूसरी ओर किसान विद्रोहों की संभावना से भयभीत सामंतों को भी गांधी का यूटोपिया फिलहाली तौर पर अपने लिए मुफ़ीद जान पड़ा और गांधी उनके खुले विरोध को रोक पाने में काफी हद तक सफल रहे. देश के बहुतेरे सामंत कांग्रेस में शामिल हुए या कम से कम उसका विरोध नहीं किया,क्योंकि उन्हें भरोसा था कि स्वाधीनता यदि गांधीवादी नेतृत्व में हासिल होगी तो बलात उनकी भूसंपत्ति छीनी नहीं जाएगी और यदि भूमि सुधार किसी रूप में होंगे भी तो उनके हितों की हिफाज़त का पूरा ख्याल रखा जायेगा.’(‘आह्वान’ पत्रिका जनवरी 2015 ,पृष्ठ 21)

उस समय देश काल परिस्थिति की सामयिक मांग,जनता की ज़रूरत की समझ ,विभिन्न सामाजिक वर्गों की बुनावट और संघर्ष के मुद्दे  और तत्संबंधी वैचारिक-राजनीतिक समझ ही प्रेमचंद को ‘जनता का रचनाकार ‘बनाती है,यहाँ तक कि 1928 में ‘साइमन कमीशन’ के भारत आने पर प्रेमचंद जैसा संवेदनशील कथाकार ही इस ज़रूरत  को बहुत गहरे स्तर पर अनुभव करता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो न्यायप्रिय, परोपकारी और संवेदनशील हों–

‘बौड़म’,‘दीक्षा’,‘त्यागी का प्रेम’-इसी भावाभिव्यक्ति की कहानियाँ हैं. ‘परीक्षा’ कहानी में प्रेमचंद ने नादिरशाह के दिल्ली आगमन, कत्लेआम का हुक्म तथा लालकिले में प्रवेश की ऐतिहासिक घटना को आधार बनाया. जिसमें उन्होंने बताया कि किसी भी देश की आज़ादी के लिए उसके निवासियों में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास की जरूरत होती है. औपनिवेशिक शासन के मूल चरित्र का पर्दाफ़ाश करने के लिए प्रेमचंद ने ‘राज्य भक्त’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक कहानियाँ लिखीं.‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मिर्जा सज्जाद अली और मीर रोशनअली की कहानी है, जिसमें अपने समय का ऐतिहासिक यथार्थ साकार है–

“राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी कोई फरियाद सुनने वाला न था. देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाड़ों और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी. अंग्रेज कम्पनी का ॠण दिन-दिन बढ़ता जाता था. कमली दिन-दिन भींगकर भारी होती जाती थी ...इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी. कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं. शहर में हलचल मची हुई थी ....इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिए. वह गोरों की फ़ौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी. फिर ...चार का बज़र बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली. नवाब वाजिद अली पकड़ लिए गए थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी. शहर में कोई हलचल न थी, न मार-काट. एक बूंद भी खून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुयी होगी. यह वह अहिंसा न थी, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं. अवध के विशाल देश का नवाब बंदी चला जाता था., और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अधःपतन की सीमा थी.”

प्रेमचंद ने ऐतिहासिक यथार्थ का चित्रण अत्यंत कलात्मक ढंग से किया है, वे 1924 में औपनिवेशिक शासन के आरम्भ की कहानी लिख रहे थे, जो उससे 58 वर्ष पूर्व अंग्रेजों के छल- छंद और देश की विलासिता, राजनीतिक अधःपतन, गफलत, कर्तव्य-बोध के अभाव आदि के कारण संभव हुआ था. देश का सुविधाभोगी वर्ग जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है,उसका मनो-सामाजिक यथार्थ भी प्रेमचंद ने ही पकड़ा. यद्यपि प्रथम असहयोग आन्दोलन स्थगित हो गया था, पर प्रेमचंद की चेतना में वह लगातार जारी था. ‘सती’ शीर्षक कहानी इसी यथार्थ की अभिव्यक्ति करती है. इसमें एक ऐसी जांबाज लड़की का चित्रण किया गया है जो वीरता, त्याग और देश-प्रेम की प्रतीक है, वह इसे ही जीवन का चरम लक्ष्य मानती है और अपना सब कुछ न्यौछावर कर डालती है. ‘माता का हृदय’ में औपनिवेशिक शासन की कुटिल और हिंसक कार्रवाइयों का चित्रण किया गया है. ‘जुलूस’ (1930) कहानी में स्वतंत्रता- आन्दोलन को जन-आन्दोलन कहते हुए प्रेमचंद लिखते हैं-

“पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था. कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झंडियाँ और झण्डे लिए वंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले. दोनों तरफ़ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो उन्हें इस लक्ष्य से कोई सरोकार नहीं है, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है.”

प्रेमचंद आम आदमी की तटस्थता व नेतृत्व  के राजनीतिक अन्तर्विरोध को कहानी में उजागर करते हैं और बुर्जुआ वर्गहित को प्रमुखता देने वाले,फैशन के तौर पर स्वराज की बात करने वाले,कथनी –करनी के फर्क को तार–तार पकड़ते हैं.

1857 के राष्ट्रीय आन्दोलन या ग़दर (इसके सही विशेषण के सन्दर्भ में अभी भी विद्वानों में मतभेद है,और यह अलग से चर्चा का विषय है) को भी हिंदी कथाकारों ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने इस आन्दोलन को केंद्र में रखकर ‘रेन ऑफ़ टेरर’, ‘नादिरशाही- एक भीषण स्मृति ’‘कालकोठरी’ आदि कहानियाँ लिखी, जिनकी केन्द्रीय संवेदना का आधार है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को अच्छी तरह मालूम था कि यह उत्तर भारत के किसानों का दुर्बल किन्तु संगठित विद्रोह था; जिनके आमूल-चूल दमन के लिए कम्पनी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी,अन्यथा किसानों या सैनिकों के छोटे से असंगठित झुण्ड (जिसे उन्होंने डाकू कहा) को आतंकित करने के लिए अवध के ग्रामीण किसानों  का इतना बर्बर दमन करने की कोई ज़रूरत नहीं थी.

नादिरशाही’, ‘रेन ऑफ़ टेरर’ और ‘एक भीषण स्मृति’ में वाराणसी और इलाहाबाद में ब्रिटिश सेना द्वारा साधारण जनता के निर्मम दमन का यथार्थ वर्णन है,जिसके लिए कंपनी ने मान-मर्यादा,सभ्यता और बर्बरता  की सारी सीमायें तोड़ दी. निरीह जनता की धन –संपत्ति की लूट,रियासतों के शासकों की निष्क्रियता ‘रेन ऑफ़ टेरर’ में चित्रित हुई है साथ ही असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लेने वाले निहत्थे प्रदर्शनकारियों के दमन का चित्र भी प्रस्तुत किया है.

उग्र’ ने ‘देशद्रोह’, ‘पंजाब की महारानी’, ‘सिक्ख सरदार’ आदि कहानियों में महारानी जिन्दा के शासनकाल में अंग्रेजों की कूटनीति और मंत्री एवं सेनापति राजा लाल सिंह के अंग्रेजों से मिल जाने के कारण पंजाब के पतन का कथानक बुना है. ‘सिक्ख सरदार’ शीर्षक कहानी में अंतिम सिक्ख युद्ध में सिख सैनिकों की वीरता का अंकन किया गया तो ‘देशद्रोह’ शीर्षक कहानी में लाल सिंह की पोष्य पुत्री जय और लाल सिंह की वृद्धा दासी के पुत्र मोहन सिंह का देश-प्रेम और आत्म बलिदान चित्रित है. लाल सिंह युद्ध भूमि पर अपनी  अंतिम साँस लेती हुई पुत्री के पास पहुँचता तो है, लेकिन देश-प्रेम से ओत–प्रोत पुत्री  उसका तिरस्कार कर  मृत्यु का वरण करती है. यह देश-प्रेम और आत्मबलिदान की कहानी है.

निजी संबंधों से कहीं ऊपर है- देश और उसकी सुरक्षा– यह कहानी इस भाव का वहन करती हुई पाठक के मन को भावुक कर देती है. उग्र’ की ही दूसरी कहानी ‘दोज़ख! नरक!’ में 1922 में चौरीचौरा की घटना के बाद विषाक्त साम्प्रदायिक वातावरण में आदमी की परिवर्तित संवेदना को कहानी का केन्द्रीय विषय बनाया गया. इसी तरह ‘खुदाराम’ शीर्षक  कहानी  हिन्दू-मुस्लिम एकता का आदर्श प्रस्तुत करने वाली कहानी है. स्वतंत्रता-संग्राम  को हिन्दी कहानी का कथ्य और उसके विविध आर्थिक मनो-सामाजिक पहलुओं को कहानी का विषय बनाने वाले रचनाकारों में प्रेमचंद के साथ ‘उग्र’ का नाम इन कहानियों के कारण ही उल्लेखनीय  है, जिनके बारे में भवदेव पाण्डेय ने लिखा-

“उन्होंने अपनी रचनात्मक पूर्णता की तलाश कहानी-लेखन द्वारा शुरू की. वे एक कवि के रूप में नवजागरण के राजनीतिक बोध तक सीमित थे, परन्तु कहानियों की रचना द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जीवन की  हर धड़कन से जुड़ गये . ... हिन्दू-मुसलमान के झगड़े, वर्ण-वर्ग और जातिगत भेद-भाव, पंडे-पुरोहित, ईश्वर के नाम पर चलने वाले हथकंडे, वासना की बदशक्ल तस्वीरें, साम्राज्यवादी शासन की क्रूरताएँ, सामंती शोषण राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले संघर्ष जैसे हजार-हजार दृश्य उनकी आँखों के सामने से गुजरे थे और इन सबकी नाप-जोख उन्होंने अपनी कहानियों की तुला पर की. कहीं जरा भी पासंग नहीं छोड़ा. न कहीं हिचके, न ही डरे. बाहरी यथार्थ के साथ आंतरिक यथार्थ की खोज की और एक ऐसे कहानीकार के रूप में उभरे कि उनका कवि रूप इसके नीचे दब गया.

(भवदेव पाण्डेय, ‘पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’- साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, 2001, पृ. 65 )

 

(पांच)

1919-22 का समय भारत में सत्याग्रह आन्दोलन का समय था,और  जलियांवाला कांड ब्रिटिश सेना द्वारा निरीह जनता के  दमन का चरम अमानवीय रूप था, जिससे पूरे देश  का जनमानस क्षुब्ध था.कई कहानीकारों ने इस आहत–क्षुब्ध संवेदना को कहानी का केन्द्रीय विषय बनाया,मसलन सुदर्शन के कहानी-संग्रह ‘सुप्रभात’ की दस कहानियों में से छह - ‘सत्यमार्ग’ ‘ऐसा भी हुआ था’, ‘अँधेरे में निवास’, ‘प्रकाश की खोज’, ‘कैदी’ ‘कौन जीता: कौन हारा?’और ‘अंतिम साधन’,  सत्याग्रह आन्दोलन से सम्बद्ध कहानियाँ हैं.

ऐसा भी हुआ था ’में ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ से जुड़े एक मार्मिक प्रसंग का अंकन किया गया है. आचार्य चतुरसेन शास्त्री की ‘सफेद कौआ’, ‘लम्बग्रीव’, ‘मुखबिर’ शीर्षक कहानियाँ अंग्रेजों के आगमन देश के औपनिवेशीकरण, आर्थिक शोषण, भारतीय जीवन में पश्चिमी संस्कृति के प्रवेश और  स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गाँधी के नेतृत्व पर केन्द्रित हैं. जैनेन्द्र कुमार भी इस समय तक कहानी-लेखन के क्षेत्र में आ चुके थे किन्तु उनकी कहानियों में स्वाधीनता- आन्दोलन की कोई स्पष्ट झलक नहीं दीखती. ‘स्पर्द्धा’ शीर्षक कहानी ही उन्होंने क्रांति की पृष्ठभूमि पर लिखी, जो ‘फाँसी’ (1929) शीर्षक संग्रह में संकलित है. यह इटली की क्रांति की  पृष्ठभूमि में लिखी गई विदेशी पात्रों और परिवेश की कहानी है. जिस में मित्रता और कर्तव्य का द्वंद्व चित्रित है. ‘फाँसी’ कहानी के केन्द्रीय पात्र शमशेर को डाकू कहा गया है,क्योंकि औपनिवेशिक सरकार क्रांतिकारियों को डाकू कहकर ही दण्डित और बहिष्कृत करती थी.

यह कहानी क्रांतिकारियों के रूमानी पक्ष की अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट रूप से द्रष्टव्य है.इस सन्दर्भ में,सन् 1929 में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानी ‘फातिहा’ का उल्लेख किया जाना अनिवार्य है जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है. कहानी में ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए एक अफ्रिदी दंपत्ति का, माँ की पीठ पर बंधा, बच्चा लड़ाई के मैदान में छूट जाता है. युवा होने पर, सैनिक अस्पताल में पला बच्चा सेना में भरती हो जाता है और बहादुर सैनिक के रूप में नामवरी हासिल कर लेता है. वह अपने पिता को नहीं जानता और युद्ध में अपने ही पिता की हत्या कर डालता है, जिसका शव शहर के चौमुहाने पर रखा हुआ है. कुछ आकस्मिक घटनाओं के बाद कहानी विश्वसनीयता प्राप्त करने में सफल हो जाती है.गोपाल राय ने इसकी कथा  की प्रविधि को  ‘कादम्बरी’ पर आधारित माना है (हिन्दी कहानी का इतिहास,खंड-1).

यह कहानी युद्ध भूमि के यथार्थ एवं मानवीय संवेदनाओं के सशक्त अंकन के लिए स्मरणीय है.

सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ जो अक्टूबर 1945 तक जारी रहा . 1944 के मध्य तक द्वितीय विश्वयुद्ध यूरोप के पश्चिमी भाग में लड़ा जा रहा था और भारतीय जनता ब्रिटेन के  विरुद्ध हो गयी थी . 22 जून 1941 को हिटलर ने रूस और दिसम्बर 1941 में जापान ने दक्षिण-पूर्व एशिया पर आक्रमण कर दिया . इससे स्थिति  बिल्कुल बदल गई, अब भारत में ब्रिटेन के साम्राज्य को जापान से खतरा पैदा हो गया . 1944 में सुभाष चंद्र बोस की  ‘आज़ाद हिन्द सेना’ आसाम की सीमाओं पर पहुँच गई और भारतीय जनता दबी  हुई उत्सुकता के साथ उसके भारत में प्रवेश की प्रतीक्षा करने लगी , पर 1945 में मित्र राष्ट्रों के पक्ष में युद्ध समाप्त हो गया और उधर  सुभाषचंद्र बोस के रहस्यात्मक ढंग से गायब होने  और बाद में उनके  अवसान की सूचना  से भारतीय जनता निराश हो गई .

यद्यपि 1944 में कोहिमा-इम्फाल क्षेत्र के अलावा भारत की वास्तविक सैन्य बर्बादी नहीं हुई, परन्तु भारत पर युद्ध के व्यापक और परोक्ष प्रभाव पड़े, मसलन अनियंत्रित-मुद्रा-स्फीति, भ्रष्टाचार, कीमत-वृद्धि, कालाबाजारी, चोर-बाजारी और 1943 में बंगाल का विनाशकारी अकाल.दोनों विश्व युद्ध साम्राज्यवाद के ही घनी भूत होते अन्तरविरोधों के चरम पर पहुँच जाने की अभिव्यक्ति थे. लेनिन ने साम्राज्यवाद के सभी पहलुओं को विस्तार से समझाने के क्रम में कहा था कि–

“साम्राज्यवाद पूँजीवाद की एकविशेष अवस्था है. यह विशिष्ट प्रकृति तीन रूपों में प्रकट होती है: (1) साम्राज्यवाद एकाधिकारी पूँजीवाद है;

(2) साम्राज्यवाद हृासोन्मुख पूँजीवादहै; और

(3) साम्राज्यवाद मरणासन्न पूँजीवाद है.”

लेनिन ने साम्राज्यवाद की पाँच बुनियादी विशेषताएँ इस प्रकार गिनायी थीः

“(1) उत्पादन और पूँजी केसंकेन्द्रण का परिमाण इस हद तक विकसित हो जाता है कि आर्थिक जीवन परएकाधिकारी संगठनों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है;

(2) बैंकिंग पूँजी औरऔद्योगिक पूँजी एक दूसरे में मिल जाते हैं और इस वित्तीय पूँजी पर एकवित्तीय अल्पतन्त्र का उदय होता है.

(3) मालों के निर्यात से पूर्णतयाभिन्न, पूँजी का निर्यात एक विशेष महत्त्व ग्रहण कर लेता है; (4) अन्तरराष्ट्रीय एकाधिकार संघों का निर्माण होता है;

(5) सर्वाधिक शक्तिशालीपूँजीवादी शक्तियों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा पूरा हो जाताहै.”

इस आलोक में देखें तो युद्धोत्तर भारत में बेकारी, अन्नसंकट, महंगाई और भ्रष्टाचार की विषम समस्याएँ  जो उत्पन्न हो गयी थीं,उनके पीछे पूंजीवादी भूख थी.ऐसी परिस्थितियों में पूँजीवाद जनित  संकटों का पैदा होना अवश्यम्भावी था और 1929-30 मेंजिस महामन्दी ने पूँजीवाद के दरवाजे़ पर जो दस्तक दी थी वह  मन्दी इतिहास कीसबसे ख़तरनाक मन्दी साबित हुई. इससे निजात पाने के लिए साम्राज्यवादियों को एक और भीषण युद्ध की दरकार थी. जापान और जर्मनी का औद्योगिक विकास काफ़ी बड़े पैमाने पर हुआ था. जापान प्रथम विश्व युद्ध में विजयी खेमे के साथ था लेकिन उसे कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ था. द्वितीय विश्वयुद्ध ऐसी ही स्थितियों की उपज था,उधर 1942 के अंत तक ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन कुचल दिया था . इस पृष्ठभूमि में हिंदी के  बहुत से कहानीकार अपने ढंग से समकालीन समाज और युद्धोत्तर परिस्थितियों को व्यक्त कर रहे थे. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने ‘अवतार’ शीर्षक कहानी लिखी, जो किसी परतंत्र देश(भारत) के स्वाधीनता - संघर्ष को व्यंजित करती है-इसमें एक चरित्र कहता है-

“जिस देश के अवतार की यह कथा है, उस देश पर उन दिनों विदेशी विजेताओं का शासन था. वे विदेशी नर नहीं नराधम थे- नरपशु थे.”

उग्र के साथ ही विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ ने भी द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में कई  कहानियाँ लिखीं जिनमें विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थितियों का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है. ‘पेरिस की नर्तकी’ शीर्षक कहानी फ्रांस और जर्मनी के युद्ध की कहानी है. जिसमें नर्तकी ऐंड्री जर्मनी से मिलकर फ्रांस की जनता को अपनी नृत्यकला और प्रभावशाली मृदु व्यक्तित्व  से मोहित कर युद्ध- विमुख करने के प्रयास में लगी हुई है. कुछ देश- भक्त साम्यवादी उसे एक जर्मन अधिकारी के घर से निकलते समय पकड़ लेते हैं और अपने शिविर में लाकर आत्महत्या के लिए बाध्य कर देते हैं. कहानी देशप्रेम पर आधारित है.यह कहानी एक स्त्री के स्वयं को होम कर देने की कहानी है जिसकी दृष्टि में देशभक्ति से बड़ा कुछ नहीं,स्वत्व भी नहीं. इसी तरह ‘प्रतिशोधोन्माद’ और ‘प्रति हिंसा’ (1945) शीर्षक कहानियाँ भी देशभक्त फ्रांसीसी युवकों और लड़कियों के साहस तथा बलिदान की कहानियाँ हैं.

कौशिक’ जी का फ्रांस की राजनीति और युद्ध विषयक विवरणों का ज्ञान आश्चर्य पैदा करने वाला है.उनके चित्रण स्वानुभूत लगते हैं,जो हिन्दी साहित्यकारों की व्यापक अनुभव सम्पन्नता और उनके विश्वबोध को बताने के लिए पर्याप्त हैं,साथ ही यह भी कि द्वितीय विश्वयुद्ध आते–आते रेडियो जैसे माध्यमों  और समाचारपत्रों में प्रकाशित  पूरे विश्व की सूचनाएँ भारतीय आम जन को न सिर्फ वैचारिक दृष्टि से  समृद्ध और प्रबुद्ध बना रही थीं,बल्कि वैश्विक घटनाओं की साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए प्रेरणा भी दे रही थीं. कौशिक की ‘पूरी कीमत’ शीर्षक कहानी में बर्मा पर जापानियों का अधिकार हो जाने के बाद वहाँ की जनता से जापानी सेनाओं के दुर्व्यवहार और दमन का वर्णन किया गया है. इसी तरह ‘मनुष्य’ कहानी में जापानियों के बर्मा पर आक्रमण के बाद वहाँ से भारतीयों के पलायन का वर्णन किया गया है.संभवतः जो लोग वहां से जान बचाकर भारत आ पाए,ये रचनाकार उनको अपनी पैनी नज़र से देख पा रहे थे,क्योंकि  इस  कहानी में, बर्मी लड़की, जापानी बलात्कारी के  प्राण ले लेती है,पर स्वत्व और आत्मसम्मान की रक्षा में अपने प्राण गंवा देती है.

मनुष्यता का दंड’ कौशिक द्वारा लिखित एक उत्कृष्ट कहानी है. युद्ध का मूल स्वभाव  हमेशा  मानवता  विरोधी ही होता है,लेकिन युद्ध की  विभीषिका के मध्य भी  बच रही मानवीय संवेदना ही मनुष्यता के पुनर्निर्माण की प्रेरणा भी देती है. यह कहानी युद्धोत्तर यूरोपीय कहानियों के अवसाद पूर्ण अंत से अलग निराशा की जगह आशा की राह दिखाने का प्रयास करती है.

स्त्री के स्वत्व से राष्ट्र सम्मान को जोड़ने का विचार पूरे भारतीय नवजागरण के चिंतन का केंद्र बिंदु था. विदेशी पृष्ठभूमि की कहानी कहते हुए भी भारतीय पितृसत्तात्मक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास इन रचनाकारों को मौलिक बनाता है. इनमें  स्वाभिमान की रक्षा करने के साहस का रोमांचक और मार्मिक वर्णन किया गया है.अधिकांश कहानियों में स्त्रियाँ ममता,देश प्रेम के लिए बलिदान हेतु तत्पर,हँसते–हँसते अपने प्राण न्योछावर करने वाली पात्र हैं.

कमी केवल यही है कि जहाँ प्रेमचंद स्त्री पात्रों के मनो-जगत का विश्लेषण उसी संवेदनशीलता और गहराई से करने का प्रयास करते हैं जैसे पुरुष पात्रों का,वहीं कौशिक और ‘उग्र’ जैसे रचनाकारों के स्त्री पात्र लेखकीय सम्मोहन से परिचालित दिखते हैं. ये कहानीकार निहायत पितृसत्तात्मक दृष्टि से युद्ध जैसी विभीषिका की पृष्ठभूमि में भी स्त्री का देवी रूप चित्रित करते हैं क्योंकि उनकी कथा संवेदना को स्त्री का साधारण मानवी रूप अनुकूल नहीं जान पाता. जहाँ भी उन्हें स्त्री के मोहक रूप की कल्पना करने की ज़रूरत होती है,वे कहानी की पृष्ठभूमि विदेशी बना देते हैं. हँसते–हँसते प्राण दे देना,देशभक्त के रूप में सतीत्व के नाश की जगह मृत्यु का वरण कर लेना- थोपी हुई संवेदनाएं प्रतीत होती हैं,जो इनकी कहानियों को यथार्थ से कुछ दूर खड़ा कर देती हैं. ये भी देखने योग्य है कि ये रचनाकार भारतीय स्त्रियों की एक आदर्श छवि स्थापित करने की इच्छा से परिचालित हैं,जो पार्थ चटर्जी की ‘नई स्त्री छवि’ से भी एक कदम आगे है,जो घर से बाहर काम-कर्ता स्त्री है,लेकिन यौन शुचिता और सतीत्व की रक्षा अपनी जान देकर भी करती है.

विश्वयुद्ध ने भारत की आम जनता  को आर्थिक तौर  पर संकट ग्रस्त कर दिया था. ‘भोला शिकार’ शीर्षक कहानी में आवश्यकता की चीज़ों की अनुपलब्धता का वर्णन किया गया है. जमाखोरी, रिश्वतखोरी के बारे में ‘चौबे से दुबे’ कहानी में व्यंग्य और विनोद की शैली में चुटीली टिप्पणियाँ की गई हैं. विश्वयुद्ध के समय बाज़ार में, कंट्रोल की दुकानों में भी, गेहूँ की अनुपलब्धता पर आधारित यथार्थ और मार्मिक कहानी है ‘पशु वृत्ति’. बीमारी से उठे बच्चे के पथ्य के लिए एक सेर गेहूँ का न मिल पाना,कहानी को कारुणिक बनाता है और लेखक अपने पाठक के हृदय में युद्ध विरोधी संवेदना को उभरने में सक्षम हो जाता है. समय के यथार्थ को निर्ममता पूर्वक उद्घाटित करने वाली इस कहानी का निष्कर्ष है कि ‘पशुओं में फिर भी कुछ मर्यादा है, परन्तु मनुष्य तो पशुओं से भी गया-बीता है.’

आर्त’ कहानी में भी युद्ध काल में गरीबों की दुरवस्था वर्णित है,युद्ध की स्थिति में अमीर तो किसी भी तरह जी लेते हैं,लेकिन गरीब लोग-जिनकी नियति है रोज़ कुआँ खोदना और पानी पीना –उनके लिए युद्ध के बाद की स्थितियां भी मारक होती हैं. बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वाले  बच जाते हैं और गरीब आदमी जो विवशता में छोटी- मोटी चोरी  कर लेता है,व्यवस्था उसे कड़ा दंड देती है. लाखों की चोरी करने वाले आराम की जिंदगी  बसर करते हैं. निर्धन आदमी की विवशता के यथार्थ और कारुणिक वर्णन में लेखक का मन खूब रमा है.

 

(छह)

1942 में प्रकाशित उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ की कहानी ‘खटक’ द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण बाज़ार में अनाज की कमी और कालाबाजारी  के सच का अंकन करने  वाली कहानी है. कहानी का  मुख्य पात्र शिवप्रसाद बुद्धिजीवी है और घर में उसकी  पत्नी  अनाज की जमाखोरी करती है.वह आमसभाओं,बैठकों में जमाखोरी का विरोध करता है लेकिन निजी जीवन में भविष्य की चिंता से आक्रांत पत्नी का विरोध नहीं कर पाता. कथनी और करनी का यह अंतर कहानी में लेखक, बुद्धिजीवी पात्र के माध्यम से उभारने में पूरी तरह सक्षम हुआ है. कैप्टन रशीद’ शीर्षक कहानी युद्ध के माहौल में फ़ौजी तंत्र के भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने वाली है. इसमें सरकारी कार्यालयों और फ़ौजी संगठनों में उच्च पदस्थ अधिकारियों के भ्रष्टाचार को, जो थोड़े लाभ के लिए जान –माल के साथ समझौता करने को  तैयार  हैं,दिखाया गया है. व्यवस्था की आलोचना इस कहानी का मूल स्वर  है.

सन् 1945-46 में रामप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ ने युद्ध की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की.उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत 1927 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘सरोज’ पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी के साथ की. लगभग 50 वर्ष तक चली इस साहित्य यात्रा में उनके 19 कहानी संग्रह तथा 3 उपन्यास प्रकाशित हुए. जीवन का कठोर यथार्थ उनके कथा साहित्य की भावभूमि रहा. उनकी प्रगतिशील कहानियों की प्रेमचंद तक ने सराहना की थी. बंगाल के अकाल के जीवन्त वर्णन एवं युद्ध एवं पर्वतीय जीवन की विडम्बनाओं के चित्रण में उनका कोई सानी नहीं रहा,उनकी कहानी  ‘चीन के आँचल’ में युद्ध विरोधी संवेदना की कहानी है. युद्ध  मानवीय संवेदना को कितने गहरे तक प्रभावित कर डालता है,मनुष्य की मनुष्यता पर से कैसे  विश्वास उठ जाता है, कहानी का यही अभिप्रेत है.

चीनी लड़की सोया युद्ध में बंदी बनाये गये जापानी जनरल की रक्षा करती है और उसके साथ बतौर प्रेमिका जापानी खेमे में जा पहुँचती है पर वहाँ  ‘जापान के प्रति घृणा फ़ैलाने  का आरोप लगाया जाता है और मिलता है मृत्यु दंड. जो ‘ट्रिब्यूनल’ उसे सजा सुनाता है,उसमें वह जनरल भी है, जिसकी रक्षा सोया ने की थी. पर उसी रात जनरल भी गायब हो जाता है, फिर लौटता नहीं संभवतः वह आत्महत्या कर लेता है. यह कहानी प्रेम की संवेदना से परिपूर्ण कहानी है, जो युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है.जनरल सबके सामने कह नहीं पाता कि सोया उसकी प्रेमिका है और वह जापानी खेमे में अपने प्रेम के लिए आई है. प्रेम करना और प्रेम की रक्षा का साहस दोनों दो बातें हैं. सोया को मृत्यु दंड सुनाना,कहीं स्वयं को मृत्यु दंड सुनाना ही है.

जनरल ग्लानि से आत्महत्या को प्रवृत्त होता है या प्रेमिका से एकमेव होने के लिए,कहानी यह  स्पष्ट नहीं कर पाती. कहानीकार कहीं यह सन्देश देना चाहता है कि दूसरे की रक्षा करके ही खुद की भी रक्षा की जा सकती है,जो दूसरे के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता उसका अपने पक्ष में भी खड़ा होना संभव नहीं.

‘नया रास्ता’ (1946) शीर्षक कहानी-संग्रह में ‘पहाड़ी’ की  द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक–आर्थिक प्रभावों का यथार्थ चित्रण करने वाली कई कहानियाँ संकलित हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध में 61 देशों ने हिस्सा लिया,इनमें से भारत समेत अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा. भारत में 1946 तक इन्जीनीयरिंग उद्योग ठीक से विकसित नहीं थे,युद्ध के बाद उत्पादन में निरंतर कमी देखी गयी क्योंकि निवेश के लिए पूंजी का अभाव था. अँगरेज़ सरकार एक टूटी और विभाजित अर्थव्यवस्था अपने पीछे छोड़ कर जाने को तैयार थी. सांप्रदायिक विभेद,राजनीतिक अस्थिरता ने उत्पादन में गिरावट को प्रोत्साहन दिया. ब्रिटिश सरकार ने अपने जाने के पहले हिन्दू–मुसलमान विभेद को चरम सीमा पर पहुंचा दिया,उनके जाने तक पश्चिम बंगाल की जूट-मिलों को पूर्वी बंगाल से कच्चा माल मिलना बंद हो गया,पंजाब और सिंध प्रान्तों की अच्छी उपज के लाभ से  देश के  अन्य भाग वंचित हो गए,अलग-अलग रियासतें अपनी–अपनी जोड़-तोड़ में लग गयीं. मंडियों की हानि भी भारतीय उद्योगों के लिए गंभीर धक्का साबित हुई. आम जनता की  आर्थिक तंगी से चरमराती ज़िन्दगी, दैनिक उपयोग की वस्तुओं की  कालाबाजारी, बंगाल का अकाल आदि  ऐसी घटनाएँ थीं जो युद्ध के परिणाम के रूप में सामने आयीं और जिन्होंने संवेदनशील मानस को क्षुब्ध किया.

अतिथि’ शीर्षक से ‘पहाड़ी’ की 9000 शब्दों की लम्बी कहानी को इस दृष्टि से देखा जा सकता है, जिसमें इन स्थितियों का विश्वसनीय चित्रण किया गया है. ‘क्यू’ शीर्षक कहानी में भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय आवश्यक वस्तुओं की कमी और उनकी प्राप्ति में होने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया गया है. ‘तूफान’ कहानी में उन्होंने पर्वतीय-जीवन में युद्ध-जनित संकट का आँखों –देखा चित्रण किया है. नौजवानों के युद्ध में चले जाने के बाद उनकी पत्नियों तथा बेसहारा विधवाओं की दशा का अत्यंत मार्मिक अंकन है.दरअसल ‘पहाड़ी’ पर्वतीय जीवन की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध थे,स्वानुभूति को कथा में ढाल देने में उन्हें महारत हासिल थी. नागफाँस’ भी द्वितीय विश्वयुद्ध से सम्बंधित कहानी है, परन्तु लेखक की राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट न होने के कारण कहानी पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाती. संक्रांति’ शीर्षक कहानी में द्वितीय विश्वयुद्ध के स्वरूप और राजनीतिक क्रांति के लिए तत्पर एवं सक्रिय युवकों पर सरकार के अत्याचार का वर्णन है.

 


(सात)

साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित होकर  रचना करने वालों में यशपाल प्रमुख थे. यशपाल मार्क्सवादी विचार से प्रभावित थे और उनकी  रचनाओं  की मूल विषय-वस्तु ही मार्क्सवादी राजनीति और समाज है. यशपाल ने बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक में युद्ध का परिणाम दिखाने वाली कई कहानियाँ लिखीं. ‘रोटी का मोल’ शीर्षक कहानी में कालाबाजारी की समस्या को केन्द्र में रखा गया है, जो युद्ध के बाद बुरी तरह बढ़ गई थी, ‘महादान’ शीर्षक कहानी, जो बंगाल के अकाल पर केन्द्रित व्यंग्य-प्रधान कहानी है, इसमें सेठ मुनाफे के लिए अन्न को गोदामों में छिपाकर जमा करता है और दूसरी ओर अकाल पीड़ितों को अपनी हवेली में एक-एक मुट्ठी चना देने की व्यवस्था करता है. युद्धोत्तर भारत में सामान्य आदमी की कथनी और करनी के भेद को यह कहानी बताती है.

हिंदी में ‘नयी कहानी’ आन्दोलन में अनुभूति की प्रामाणिकता पर बहुत बल दिया गया. यशपाल की कहानी ‘वान हिंडनवर्ग’ वात्सल्य सम्वेदना की बहुत अच्छी कहानी है, जिसका परिवेश द्वितीय विश्वयुद्ध है, जब कलकत्ता पर जापानियों ने बम गिराए थे- यह कहानी स्वानुभूत न होते हुए भी गहरी संवेदना पर आधारित थी,जिसे ‘नई कहानी’ आन्दोलन  में ‘प्रामाणिकता’ के प्रश्न पर आलोचना का शिकार बनना पड़ा. ‘साग’ शीर्षक कहानी क्रांतिकारी जीवन पर आधारित उत्कृष्ट कहानी है, जिसमें विद्रोहियों की कब्र पर उगा साग अंग्रेज साहबों के भोजन के लिए भेजा जाता है, तो कोई भी हिन्दुस्तानी उसका विरोध नहीं कर पाता. कहानीकार के अनुसार,

आह सबके दिल में थी परन्तु आहें सबकी अलग-अलग बिखरी हुई: निर्जीव श्वासों की भांति उनके ह्रदय से निकल हवा में समाप्त हो रही थीं. एक साथ मिलकर वे आधी भी शक्ति न पा सकती थीं, क्योंकि उन्हें परस्पर का भय था. भय- अपनों से भय, शत्रु से भय, सब ओर भय!”

शासक और दमन से भय और स्वयं की रक्षा की चिंता कैसे अपने देशवासियों की कब्र पर उगे साग की वास्तविकता  को बताने का साहस छीन लेती है. कहानी  मध्यवर्गीय नपुंसक व्यवहार को बहुत अच्छे ढंग से विवेचित करती है. यहाँ साग ‘क्रान्ति’ का प्रतीक है,जो दमित करने के बाद भी बार-बार उग आता है.जिम्मेवारी’ शीर्षक कहानी में यशपाल ऐसी स्त्री-पात्र को केन्द्रीय चरित्र के रूप में सामने लाते हैं जो परम्परागत रूढ़ियों को तोड़कर सेना में भर्ती होती है और परिश्रम से अपना जीवन मार्ग स्वयं बनाती है.

स्त्री किस तरह पितृसत्ता के  मानसिक अनुकूलन का शिकार हो जाती है कि वह नौकरी तो कर लेती है पर  लेकिन मुक्त साहचर्य,या सहजीवन की अवधारणा  को स्वीकार नहीं कर पाती. माँ बनने का उसका सपना भंग हो जाता है, क्योंकि वह अवैध मातृत्व स्वीकार करने में असमर्थ है.समाज ने उसे यह सिखाया है कि वैवाहिक सम्बन्ध के बिना संतानोत्पत्ति अवैध है. वह एकाकी रह जाती है,क्योंकि विवाह नहीं करती और विवाह-विहीन संतानोत्पत्ति करने का साहस और अनुमति उसके संस्कार नहीं देते. इस कहानी में स्त्री की आंतरिक  संवेदना और मानसिक द्वंद्व  की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है.

देश विभाजन की पृष्ठभूमि में विष्णु प्रभाकर ने कुछ बहुत ही अच्छी कहानियाँ लिखीं -‘एक पिता की संतान’, ‘रहमान का बेटा’, ‘अधूरी कहानी’, ‘माँ-बाप’, ‘तांगेवाला ‘आखिर क्यों’, ‘उस दिन’, ‘देशद्रोही’, ‘मैं जिन्दा रहूँगा’ जैसी कहानियाँ तत्कालीन सांप्रदायिक स्थितियों और मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली कहानियाँ हैं. इनमें कुछ तो साम्प्रदायिक उन्माद और कुछ साम्प्रदायिक माहौल का यथार्थ चित्रण करती हैं. ‘तांगेवाला’ शीर्षक कहानी सन् 1947 के आसपास दिल्ली की सांप्रदायिक स्थिति पर सचेत टिप्पणी करने वाली कहानी है, जिसका केन्द्रीय पात्र एक गरीब मुसलमान है जो तांगा लेकर दिन भर भटकता है लेकिन बदली परिस्थितियों में हिन्दू मुसलमानों में उपजी पारस्परिक घृणा के माहौल में मरणासन्न बच्चे के लिए वह दवा जुटा नहीं पाता.कल तक जो लोग उसके लिए सवारियां थे और वह उनके लिए तांगेवाला,अब अचानक ही साम्प्रदायिकता के ज़हर ने उसे मुसलमान बना दिया है,जिसके तांगे पर सवारी करने के लिए कोई हिन्दू तैयार नहीं.मेरा वतन’ में देश के बंटवारे के बाद दंगों और विस्थापितों की मानसिकता का वर्णन है. धार्मिक उन्माद किस तरह मनुष्य को पशु में रूपांतरित कर देता है,वह मनुष्य न रहकर हिन्दू –मुसलमान हो जाता है. मौकापरस्त नेता सांप्रदायिक उन्माद का ज़हर आम आदमी के भीतर डाल देते हैं. अपने वतन और खेतों से विस्थापित होकर दूसरी जगह जाकर भी उसकी स्मृति में अपना वतन,अपना देश ही रहता है,उसकी मनोदशा हमेशा जमीन से उखड़े हुए शरणार्थी की ही रहती है, इसका बहुत सजीव अंकन इस कहानी में मिलता है .

स्वतंत्रता के बाद भी युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखने वाले कहानीकारों में रामप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ ही प्रमुख हैं उनकी कहानियों में युद्ध विरोधी स्वर की प्रमुखता है. कहानी संग्रह ‘तूफान के बाद’ की शीर्षकहीन  भूमिका में पहाड़ी ने लिखा-

“युद्धों ने किस भाँति हमारे जीवन की गति में  रूकावट डालकर हमें मानव से हैवान बनाया, इसे कौन नहीं जानता है?फिर उसी युद्ध की आग को पूर्व में अमरीका ने अपने घर से हजारों मील की दूरी पर कोरिया में सुलगाया है. वह आगे नहीं बढ़ी उसका कारण यह है कि दुनिया के अधिक नागरिक शांति चाहते हैं.”

तूफान के बाद’ शीर्षक कहानी-संग्रह में पहाड़ी ने राजनीतिक दृष्टि से युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी कहानियाँ रखीं. ‘इतिहास की गति’, ‘समानांतर रेखाएँ’और ‘भेड़िए की माँद’ में युद्ध- जनित महँगाई जमाखोरी, कालाबाजारी,आवश्यक वस्तुओं की अनुपलब्धता आदि का चित्रण किया गया है. युद्ध किस प्रकार पर्वतीय जीवनचर्या को तितर-बितर कर डालता है ,कई पर्वतीय ग्रामों के प्रत्येक परिवार का कोई न कोई सदस्य सेना का अंग है  जिसकी कमाई से घर खर्च चलता है ,उसके लौट के न आने या छुट्टी न मिलने से पारिवारिक अर्थ-तंत्र ही प्रभावित नहीं होता,बल्कि खेती-बाड़ी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है और इस में सबसे ज्यादा त्रासद स्थिति का सामना करते हैं – पशु ,बच्चे और औरतें.

ऊपर से देखने पर यह कहानी-संग्रह सरल दिखने वाली कहानियां समेटे हुए है पर इसका पुनर्पाठ समाज का जटिल और संश्लिष्ट रूप सामने लाता है. इनमें व्यक्तिगत,राजनैतिक और सामाजिक जीवन स्थितियां एक गहरे तनाव की तरह घुली मिली हैं– कोई भी जीवन स्थिति अपने में स्वायत्त नहीं है,इनमें आपसी  टकराहटों से नई स्थितियों के बनने के साक्ष्य हैं. राजनैतिक और वैश्विक परिदृश्य निजी जीवन को प्रभावित करता है,आपसी सम्बन्ध टूटते हैं– चरित्र नई भूमिकाएं निभाने लगते हैं,और ग्राम की राजनीति बदलने लगती है,स्त्री–पुरुष सम्बन्ध बदलने लगते हैं. लाम पर जाने वाला पुरुष हमेशा पृष्ठभूमि में रहता है,और स्त्री की प्रतीक्षा की परीक्षा चलती रहती है. अर्थ किस तरह मानवीय संबंधों को नए ढंग से परिभाषित करता है,पत्नी सिर्फ विरहिणी रहना ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकती– उसकी प्राथमिकतायें भूख और अभाव बदल डालते हैं.

जंगलात में पत्ते इकट्ठे करने का काम,ठेकेदारों द्वारा देह–शोषण,  और घर चलाने का उत्तरदायित्व स्त्री के व्यक्तिगत संबंधों को बदलते हैं,उसकी अस्मिता पर प्रहार के नए हथकंडे पर्वतीय ग्रामों  में पितृसत्तात्मक छल–छद्म  का  आईना दिखाते हैं,जिनसे मैदानी इलाके के पाठक अक्सर अपरिचित ही रह जाते हैं.इनका चित्रण पहाड़ी की कहानियों का वैशिष्ट्य है. तूफ़ान के बाद’, ‘कुछ पुरानी सी बात’, ‘नयी कहानी का प्लाट’, ‘नारी की आकांक्षा’ आदि कहानियों को कथ्य के वैशिष्ट्य की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. ‘पहाड़ी’ ने ‘उसका सुहाग’, ‘देश की बात’, ‘मुरीला’ आदि कहानियाँ क्रांतिकारी जीवन पर भी लिखीं हैं- जो लेखक के अनुभव क्षेत्र से दूर होने के कारण पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पातीं. ‘मुरीला’ कहानी व्यक्तिगत और राष्ट्रप्रेम के द्वंद्व की कहानी है, जिसमें जापान द्वारा चीन पर आक्रमण के समय चीनी क्रांतिकारी दल की गतिविधियों का चित्रण है. चीन की युवती मुरीला देश-प्रेम में अपने जापानी पति और बच्चों की हत्या करने से भी नहीं चूकती. जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है,इन लेखकों के लिए स्त्री-चरित्र कठपुतली जैसे हैं,जिसकी आंतरिक संवेदना को उभारने में पहाड़ी जैसे लेखकों की रचनात्मक और अनुभवात्मक संवेदना की सीमायें दीख जाती हैं. सम्वेदनाओं के द्वंद्व को प्रभावी ढंग से उकेर न पाने के कारण यह कहानी पाठक पर कोई विशिष्ट प्रभाव नहीं छोड़ती .

 


(आठ)

युद्ध की पृष्ठभूमि पर कहानी लिखने वाले स्वातंत्र्योत्तर रचनाकारों में सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ प्रमुख हैं.स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी के जिन रचनाकारों  ने कहानी को लेकर बहुत अधिक वैविध्यपूर्ण ठोस चिन्तन किया है,उनमें वे प्रमुख हैं. अंग्रेजी में एम्.ए. करने के दौरान क्रांतिकारी आन्दोलन में सक्रिय हुए. क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होकर चंद्रशेखर आजाद तथा यशपाल,प्रकाशवती के साथ भूमिगत रूप से कार्य किया. 1930 में इन्हें ब्रिटिश-शासन ने गिरफ्तार कर लिया. चार वर्ष के बंदी जीवन तथा दो वर्ष की नज़रबंदी ने उनकी रचनाओं को स्वानुभूति की प्रखरता प्रदान की.

अज्ञेय ने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया – मेरठ के किसान आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और 1943-1946  में फासीवादी विचारधारा के विरोध में ब्रिटिश-सेना में भरती होकर सैनिक जीवन जिया. सन 1955 में यूरोप, जापान और पूर्वी  एशिया घूमे. युद्धोत्तर यूरोप और एशिया को उन्होंने अपनी आँखों से देखा और घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण किसी एक जगह टिके नहीं,जिस से इनकी रचनाओं में वैविद्ध्य आया.  कुछ समय तक उन्होंने 1946 में सेना की नौकरी छोड़ दी थी और 1947 में, इलाहाबाद प्रवास के दौरान एक साल के भीतर ‘हीली-बोन् की बत्तखें’, ‘मेजर चौधरी की वापसी,‘लेटर बाक्स’, ‘शरणदाता’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ ‘रमन्ते तत्र देवता’, ‘बदला’ शीर्षक सात कहानियाँ लिखीं थीं, जिनमें से पहली दो सैनिक जीवन से और अंतिम पाँच भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम दंगों की विभिन्न मनोदशाओं से सम्बद्ध हैं. अपनी कथा दृष्टि के सन्दर्भ में उनकी टिप्पणी है –

‘थोड़ी और स्पष्ट बात यह होगी कि मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी आदर्शपरक रचना से बढ़ती हुई क्रमशः यथार्थोन्मुख होती गयी. और भी स्पष्ट यह कि जिस यथार्थ की ओर मैं अधिकाधिक बढ़ा, वह ‘बाह्य’ या ‘भौतिक’ या सामाजिक’ यथार्थ से पहले आभ्यन्तर, मानस अथवा मनोवैज्ञानिक यथार्थ था.’  ‘मेजर चौधरी की वापसी’, ‘जयदोल’, ‘नगा पर्वत की एक घटना’ इन तीन कहानियों की पृष्ठभूमि इतिहास और युद्ध से प्रेरित है.अज्ञेय’ का क्रान्तिकारी मानस आरम्भ की कहानियों की प्रेरणा बना और क्रान्तिकारी जीवन का आत्मकथ्य उनमें जब्त होता गया. ‘अज्ञेय’ का क्रान्तिकारी और विद्रोही रचना-मानस और मनोवैज्ञानिक यथार्थ के प्रति रुझान ने उनसे इन कहानियों की रचना करवाई. मेजर चौधरी की वापसी’ युद्ध समाप्ति के बाद सैनिकों की मन स्थिति की कहानी है. इसमें युद्ध में घायल युवक जो संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया है- उसकी मनोदशा का चित्रण हुआ है, ‘अज्ञेय’ ने इस कहानी के सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए लिखा है–

“यौन सम्भोग के सन्दर्भ में नामर्दी की कहानियाँ मिल जाएंगी. वैसी स्थिति में पुरुष की यन्त्रणा और ‘सन्त्रास’ का चित्र भी मिल जाएगा, (यह तो आज का सामाजिक यथार्थ है!) पर युद्ध में आहत होकर सन्तानोत्पत्ति के लिए असमर्थ हो गये युवा पति की मनोव्यथा का चित्र कहाँ है? (और मनोव्यथा केवल ‘अपना’ दर्द नहीं होती, अपने कारण दूसरे को मिलने वाले दर्द की पहचान भी होती है, प्रेमी की संवेदना का यह विस्तार भी एक मूल्य है!) और कौन-सा दूसरा तर्ज़े-बयां उसके लिए अधिक उपयुक्त होता?”(अज्ञेय-रचनावली की भूमिका,संपादन कृष्णदत्त पालीवाल)

‘नगा पर्वत की एक घटना’ में युद्ध संहिता की नैतिकता पर बौद्धिक विमर्श है.हीली-बोन् की बत्तखें’ शीर्षक कहानी की पृष्ठभूमि में सैनिक जीवन है और उसमें अंकित संवेदना स्त्री की संतानहीनता की मनोवैज्ञानिक स्थिति से सम्बद्ध है. 1947 में अज्ञेय ने भारत-विभाजन की  त्रासदी पर पाँच कहानियाँ -‘लेटर बाक्स’, ‘शरणदाता’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ ‘रमन्ते तत्र देवता’, ‘बदला ’शीर्षक से लिखीं. सन्1947 में देश विभाजन की त्रासदी पर आधारित एक और कहानी ‘नारंगियाँ’ की रचना की, जिनके बारे में स्वयं ‘अज्ञेय’ का कहना है-

“मैं युद्ध का समर्थक न था, न हूँ; पर यह तर्क मुझे ग्राह्य नहीं लगता था कि भारत क्योंकि पराधीन है इसलिए शत्रु से उसकी रक्षा हमारा काम नहीं है. नहीं मनोवृत्ति मैं किसी भी काम के बारे में अपना सका हूँ कि ‘यह बुरा अथवा गन्दा काम है, इसलिए मैं नहीं करूँगा- पर आवश्यक है इसलिए तुम मेरे लिए कर दो!’ आज भी मैं नहीं मानता कि विगत महायुद्ध में यदि जापान की विजय हुई होती और भारत उनके हाथ चला गया होता तो हमारे लिए अच्छा हुआ होता या हमें इससे जल्दी या इससे अच्छी आज़ादी मिली होती इसके बावजूद कि जो आज़ादी मिली वह अभी तक वैसी सम्पूर्णता नहीं पा सकी जैसी मैं चाहता हूँ. इसके बाद कहानियों का एक और समूह है जिसे चौथी खेप भी कहा जा सकता है: ये कहानियाँ भारत-विभाजन के विभ्राट और उससे जुड़ी हुई मनः स्थितियों की कहानियाँ हैं. एक बार फिर ये कहानियाँ आहत मानवीय संवेदन की और मानव-मूल्यों के आग्रह की कहानियाँ हैं और मैं अभी तक आश्वस्त हूँ कि जिन  मूल्यों पर मैंने बल दिया था, जिनके घर्षण के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करना चाहा था, वे सही मूल्य थे और उनकी प्रतिष्ठा आज भी हमें उन्नततर बना सकती है. निःसन्देह मेरा यह मानवतावाद फिर एक प्रकार का आदर्शवाद है, जिसके लिए मैं लज्जित नहीं हूँ न दीन होने का कोई कारण देखता हूँ. आज का फ़ैशन मूल्यों का अस्तित्व भी मानने का नहीं है; पर मेरी समझ में यह कहना कि आज हम एक सम्पूर्णतः मूल्य-विरहित समाज में जीते हैं, उतना ही बड़ा पा खण्ड है, जितना यह मानना कि हमारे समाज में सब शाश्वत मूल्य प्रतिष्ठित हैं. उतना ही बड़ा पाखण्ड; अगर प्रतिकूल दिशा का तो कह लीजिए प्रति-पाखण्ड. मैं नहीं मानता कि मानव-समाज मूल्यों के बिना जी सकता है, अस्तित्व रख सकता है. जिस समाज में मूल्य नहीं हैं वह समाज नहीं है; मानव-समाज होना दूर की बात. मूल्य मानव की रचना हैं और मूल्य-रचना ही उसका मानवत्व है. मूल्य बदलते अवश्य हैं; एक मूल्य-समूह निर्जीव हो जाता है और उसके बदले एक-दूसरे समूह की प्राण-प्रतिष्ठा होती है-कभी ऐसा भी होता है कि कोई समाज जड़ मूल्यों से चिपटना चाहता है और नये मूल्यों के समर्थकों को कुछ उखाड़-पछाड़ भी करनी पड़ती है. पर मूल्य-संक्रमण के युग भी मूल्य-हीनता के युग नहीं होते. कभी-कभी अल्प अवधि की मूल्य-हीनता दिख सकती है. उदाहरण के लिए युद्धान्त के काल में (देश-विभाजन का काल भी एक उदाहरण था) पर ऐसा काल फिर पशुत्व की विजय का भी काल होता है, उसके दौरान मानवता कलुष के एक बोझ के नीचे दबी हुई होती है- एक तरह से ‘स्थगित’ होती है...”(अज्ञेय रचनावली )

 

(नौ)

भैरव प्रसाद गुप्त स्वातंत्र्य के लिए आतुर  भारत के ऐसे कहानीकार के रूप में सामने आए, जिन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान बलिया में ब्रिटिश सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर किए गए दमन की घटना से संवेदित  होकर तीन कहानियाँ -‘बिगड़े हुए दिमाग’, ‘कोड़ों की बौछार में’ और  ‘स्मारक’ लिखीं . ये तीनों कहानियाँ ‘बिगड़े हुए दिमाग’ शीर्षक संग्रह  में संकलित हैं. इस घटना के वे प्रत्यक्ष भोक्ता थे, अत: उनकी इन कहानियों में स्वानुभूति की प्रामाणिकता दीखती है. उन्होंने ‘इन्सान’(1950) ‘सितार के तार’(1951)‘महफ़िल’ और ‘सपने का अंत’(1961) शीर्षक कहानियाँ भी लिखीं जो युद्ध और किसान मजदूर-संघर्ष पर आधारित हैं .इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं–  ‘मुहब्बत की राहें, ‘फरिश्ता’, ‘बिगड़े हुए दिमाग’, ‘इंसान’, ‘सितार का तार’, ‘बलिदान कीकहानियाँ’, ‘मंज़िल’, ‘आँखों का सवाल’, ‘महफिल, ‘सपने का अन्त’, ‘मंगली की टिकुली’, ‘आप क्या कर रहे हैं’.

सन् 1954 में प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘वापसी’ में चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की  सांप्रदायिक उन्माद के यथार्थ को चित्रित करने वाली कुछ कहानियाँ संकलित हैं. मास्टर साहब’, ‘पतझड़’ ‘खन्ने का कुआँ’- शीर्षक कहानियाँ सांप्रदायिक उन्माद के विरोध में लिखित कहानियाँ हैं.सन 1947 में देश की  आज़ादी और विभाजन के फलस्वरूप मनुष्यता को कठघरे में खड़ा करने वाले साम्प्रदायिक उन्माद का जो माहौल पैदा हुआ उसने लेखक की संवेदना को झकझोर दिया. ‘पतझड़’ कहानी में पंजाब से दिल्ली आए वृद्ध-शरणार्थियों की मानसिकता का अंकन किया गया है. इसी तरह ‘खन्ने का कुआँ’ में अंग्रेजों के आने के पहले हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की मधुरता का चित्रण है. ‘वापसी’ शीर्षक कहानी में द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी पर रुसी फौज़ों की विजय पर आधारित एक प्रसंग का चित्रण है. युद्ध किस प्रकार मानवीय संवेदनाओं का ह्रास कर देता है यह कई कहानियों में बार–बार दोहराया जाने वाला कथ्य है ,इस कहानी में यही बात यूरोपीय परिवेश में चित्रित की गयी है.

भारत-विभाजन की त्रासदी पर आधारित ‘टोबा टेकसिंह’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘नंगी आवाजें’, ‘गुरमुख सिंह की वसीयत’,  ‘यजीद’, ‘खोल दो’ जैसी कई कहानियां मंटो ने लिखीं. ‘टिटवाल का कुत्ता’ की पृष्ठभूमि में भी युद्ध है जहाँ कुत्ता गहरे प्रतीकार्थ से युक्त है. कहानी में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सेनाएँ आमने-सामने मोर्चा संभाले खड़ी हैं.युद्ध से पहले के दृश्य को कलम से आंकते हुए मंटो लिखते हैं–

“जब गोलियाँ चलने पर पहाडिय़ों में आवाज़ गूँजती और चहचहाती हुई चिडिय़ाँ चौंककर उडऩे लगतीं, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुँची हो. सितम्बर का अन्त अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था. ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है. नीले-नीले आसमान पर धुनी हुई रुई जैसे, पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे, जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं.

पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई निर्णयात्मक बात क्यों नहीं होती. ऊबकर उनका जी चाहता कि मौका-बे-मौका एक-दूसरे को शेर सुनाएँ. कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें. वे पथरीली ज़मीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते.”

कहानी में मंटो ने लिखा है कि एक कुत्ता हिंदुस्तान–पाकिस्तान की सीमा पर आ जाता है. हिन्दुस्तानी  सैनिकों  को शक है कि कुत्ता पाकिस्तानी है जबकि उधर के लोगों को शक है कि कुत्ता हिन्दुस्तानी है. इसी दौरान दोनों तरफ़ की गोलियों से छलनी होकर कुत्ता दम तोड़ देता है. एक जवान बूट की एड़ी से जमीन खोदते हुए कहता है-

“अब कुत्तों को भी या तो हिन्दुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी.”

इस कहानी में भटका हुआ कुत्ता आम आदमी का प्रतीक है.

श्रीमती चन्द्रकिरण सौनरेक्सा ने 1946 से 1950 से बीच युद्ध और साम्प्रदायिकता को आधार बनाकर कई कहानियाँ लिखीं. ‘देश की मौत’ शीर्षक कहानी में उन हिन्दू स्त्रियों की त्रासदी की अभिव्यक्ति है जो दंगों में मुसलमानों के बलात्कार का शिकार बनीं पुलिस द्वारा उद्धार किए जाने पर भी उनके जीवन की विडम्बना यह थी कि उनके अपने परिवारों ने उन्हें स्वीकारने से इनकार कर दिया. इसी तरह ‘धर्म मरा, राष्ट्र जिया’ शीर्षक कहानी में भी ऐसी स्त्री का चित्रण किया गया है, जिसके परिवार के सदस्य अपहरण के बाद उसे अपनाने को तैयार नहीं हैं, लेकिन पति माता-पिता से विद्रोह करके अपना लेता है और कहता है-

“जो धर्म निर्बल को सताने का हामी है, उसे मैं दूर से सलाम करता हूँ.”

इसी तरह सांप्रदायिक प्रतिशोध से उत्पन्न वहशीपन के दौर में भी मानवीय संवेदना की थरथराहट का चित्रण ‘दो राष्ट्र और एक इन्सान’ शीर्षक कहानी में हुआ है. देश-विभाजन की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह एक महत्वपूर्ण कहानी है. चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानी ‘सबोटाज़’ भारत को आज़ादी मिलने के ठीक पहले की  कहानी है. इसमें निम्न वर्ग की दयनीय आर्थिक स्थिति के साथ युद्ध काल में खाद्य वस्तुओं की कमी और सर्वहारा के आक्रोश और हिंसक प्रतिशोध का मार्मिक चित्रण है. ‘दहकते कोयले’ आज़ादी के तुरंत बाद की कहानी है, जिसमें एक दलित पात्र की आर्थिक और मानसिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो युद्ध और आज़ाद भारत की पहली सरकार की नाकामी का परिणाम है. कहानी की एक स्त्री पात्र, सुखदेई कहती है-

“एक लाला हो तो उसके हाथ-पाँव तोड़ दें. यहाँ तो जितने हैं, सभी गरीबों को चूसने को हैं. अकेले कोयले का रोना तो नहीं है, गेहूँ, चीनी, चावल, कपड़ा, क्या चीज सस्ती है?काहे पर ब्लैक नहीं देना पड़ता?लड़ाई खतम होते तीन बरस होने आ गये और महँगाई सुरसा की तरह मुंह फैलाये जा रही है. कहते हैं, आज़ादी मिल ग . क्या जाने बाबा, मैं तो जानूं, गरीबों को भूखे मरने की आज़ादी मिल गई और अमीरों को दिन-दिन मोटे होने की.”

इसका समर्थन करते हुए दूसरा पात्र कहता है-

“मासी बात तो तैने पते की कही . .............काहे का सुराज और काहे की आज़ादी. जब सुराज में भी पेट से भूखे और तन से नंगे रहें, तो उसे लेकर ओढ़ें कि बिछावें.”

 


(दस)

भारत को जो आज़ादी मिली थी वह ऐतिहासिक होने पर भी अधूरी थी- विभाजन पर आधारित ये कहानियाँ औपनिवेशिक शासन के बाद के भारतीय परिवेश पर सार्थक टिप्पणी करती दिखती हैं,जिस परम्परा में आगे चलकर राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और कृष्णा सोबती (सिक्का बदल गया) जैसे कहानीकारों की लम्बी सूची है.

पहला विश्वयुद्ध 28 जुलाई, 1914 को हुआ था और भारत-चीन के बीच तिब्बत सीमा-विवाद 3 जुलाई,1914 को अस्तित्व में आया. इन सौ वर्षों में कई त्रासदियाँ गुजरी जिनमें विभाजन, निर्वासन, नरसंहार और यातना-शिविरों में क्रूर और हिंसक वारदातों में मनुष्यता तार-तार हुई, मनुष्य का मनुष्य पर से भरोसा टूटा. प्रथम विश्वयुद्ध से मनुष्य ने यदि कोई सीख ली होती तो द्वितीय विश्वयुद्ध नहीं होता. विश्वबंधुत्व और विश्व शांति के प्रश्न आज भी यथावत हैं. बीसवीं शताब्दी के इन युद्धों ने पूरे विश्व पर अपना प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य डाला लेकिन आज भी शीतयुद्ध की तमाम आशंकाएँ अपनी जगह हैं. शक्तिशाली देश अपनी सरहदों की सीमा बढ़ाने की फ़िराक में हैं, और शांति के प्रश्न क्रमशः गौण होते जा रहे हैं. यह सर्वमान्य तथ्य है कि युद्ध की चेतना युद्ध को, और हिंसा की चेतना हिंसा को आकृष्ट करती है.इसे परिवर्तन के मार्ग पर ज़िम्मेदार नागरिक और बौद्धिक समाज ही मोड़ सकता है. साहित्य और कलाओं के अन्य रूप चेतना-निर्माण का काम ही कर सकते हैं. हिंदी कहानी ने युद्ध और शांति के प्रश्न पर अपना सार्थक हस्तक्षेप समय-समय पर किया है. लक्ष्मीचंद्र जैन ने 1965 में ‘ज्ञानोदय’ के सम्पादकीय में लिखा था

“राष्ट्र युद्ध करते हैं,एक दूसरे को विनष्ट करते हैं,युद्ध से त्रस्त होते हैं,भयग्रस्त होकर शांतिवार्ता की ओर बढ़ते हैं,शांति होने भी नहीं पाती कि शक्ति के लिए होड़ शुरू हो जाती है,होड़ में हार–जीत की बाज़ी लगती है,हार –जीत के निर्णय के लिए युद्ध होते हैं,युद्ध होने पर विनाश,त्रास,शांति के लिए विकलता,शांति होने पर शक्ति की परीक्षा ..फिर वही क्रम प्रारंभ हो जाता है. मानव–जाति की नियति ही ऐसी है.”  

साहित्य और अन्य कला–विधाएं मनुष्य चेतना और संवेदना का निर्माण एवं पुनर्सृजन करने की क्षमता रखती हैं. हिन्दी कथा-साहित्य अपनी पूरी सीमाओं और संभावनाओं के साथ युद्ध और शांति के सरोकारों को समय–समय पर व्यक्त करता रहा है. उसने कहा था’,हीरे का हीरा ‘(गुलेरी) से लेकर ‘पाली’,सरदारनी’,ज़हूरबक्श’,अमृतसर आ गया है’ (भीष्म साहनी) ’शेरजिगर औरतें’(वंदनाशुक्ला),जन्मभूमि’(देवेन्द्र सत्यार्थी),सरहद के इस पार (नासिरा शर्मा),अर्धांगिनी (शैलेश मटियानी),शहादत (वंदना राग), पुतला (संजय खाती),लाडली’ (रमेश बत्रा),उस शहर में चार लोग रहते थे’ (नीलाक्षी सिंह), ‘छावनी में बेघर’(अल्पना मिश्र) जैसी अधुनातन कहानियों को देखा जा सकता है.)

छावनी में बेघर’ कारगिल युद्ध में गए फौजी अफसरों की अनुपस्थिति में तंत्र का फौज़ियो के परिवारों के साथ ट्रीटमेंट का खुलासा करने वाली उल्लेखनीय कहानी है. फौजी जीवन से सम्बद्ध होने के कारण अल्पना मिश्र के चित्रण में,स्वानुभूति की गहराई के साथ पीछे छूटे परिवार की जीवन स्थितियों का यथार्थ अंकन है. जिसमें पति की उपस्थिति तक तो स्थितियां नियंत्रण में रहती हैं,सीमा पर भेजे जाते ही परिवार के लिए फौजी परिसर में ठहरने की व्यवस्था का अभाव और साथ ही सारी जिम्मेदारियां पत्नी पर आ जाती हैं-

“फौज में पति के बाद औरतों को नौकरी नहीं दी जाती. यही. यही कि उन्हें पति के बदले कुछ पैसे दिए जाते हैं. अफसरों को कुछ ज्यादा, जवानों को कम. वह भी किसे मिलते हैं? जिनके घरवाले दौड़-भाग कर ले जाते हैं. उन्हें ही न. जब हमारा ये हाल है तो जवानों के परिवारों का क्या हाल होगा? किसके लिए हैं ये युद्ध? किसके लिए लड़ रहे हैं ये लोग? किसके लाभ के लिए? किसकी शांति के लिए? क्या निकल रहा है इनका परिणाम? क्या हो रहा है पीछे छूट गए परिवारों का?

पता नहीं कितने घरों में सिर्फ एक लड़के को नौकरी मिल पाई थी, अब वह भी गया.

इससे पहले तक कभी इतनी विचलित नहीं हुई मैं. इससे पहले तक युद्ध से जुड़े अपने भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा था. सोचती थी, युद्ध की जब कभी आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन यहाँ तो रोज युद्ध हैं, रोज युद्धबंदी हैं, रोज हताहत हैं, रोज शहीद हैं.”

‘उसने कहा था’ से लेकर ‘छावनी में बेघर’ तक की हिन्दी कहानियां युद्ध के विविध पक्षों को अपने-अपने ढंग से चित्रित करती हैं. ये कहानियां कथ्य में वैविध्य लिए हुए हैं और युद्ध की विभीषिका,युद्धोत्तर परिस्थितियों का बारीक विश्लेषण और युद्ध की निंदा करती हैं. अपने कथ्य में प्रेम,रोमांस,मनुष्यता,राजनीतिक एवं नैतिक पतन,भ्रष्टाचार,निर्धनता,विस्थापन,एकाकीपन आदि समस्याओं और जीवन के विविध- आयामी पक्षों को उभारती दीखती हैं. इन कहानियों के अतिरिक्त हिन्दी में युद्ध आधारित उपन्यासों की रचना भी हुई,जिनमें ‘धूप-छाहीं रंग’ (1970-गिरीश अस्थाना) प्रमुख है,दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखे इस उपन्यास के अलावा जगदीश चन्द्र के  युद्ध–आधारित तीन उपन्यासों- ‘आधा पुल(1973)’,टुंडा लाट,(1978)’और ‘लाट की वापसी (2000),विवेकी राय के  1962 में भारत पर हुए  चीन- आक्रमण और 1965 में भारत –पाकिस्तान युद्ध को आधार बनाकर लिखे  ‘मंगल भवन’ तथा 1971 में बांग्लादेश में मुक्तिसेनाओं के दमन पर केन्द्रित महुआ माज़ी के ‘मैं बोरिशाइल्ला’ को देखा जाना चाहिए.

इतिहास के अति-संवेदनशील दौर को अभिव्यक्त करने का रचनात्मक प्रयास हिन्दी की कहानियों और उपन्यासों में दिखाई देता है- युद्ध कहीं प्रेम, कहीं संबंधों की जटिलता, कहीं अकेलेपन,कहीं भ्रष्टाचार और गरीबी और कहीं विस्थापन का पर्याय बनकर इन रचनाओं में आया है- लेकिन  मूलस्वर अशांति की जगह शांति, अमानवीयता की जगह मानवीयता को स्थापित करने का ही है-

“इस निवेदन पर ग़ौर करें

कि आपके देश की सरहद

माँगती है दुनिया के लिए

आपका साथ

शांति के पक्ष में

आपका हस्तक्षेप

आपका शब्द-निवेश”

(कविता-लीलाधर मंडलोई)
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 गरिमा श्रीवास्तव

प्रोफ़ेसर,भारतीय भाषा केंद्र

जे एन यू, नई दिल्ली.

भूरीबाई: रूपकथा की आत्मकथा: अखिलेश

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भूरीबाई को इस वर्ष के पद्मश्री सम्मान दिए जाने की घोषणा के साथ ही उन्हें लेकर जिज्ञासा प्रकट की जाने लगी कि वे कौन हैं और उनका कार्यक्षेत्र क्या है ?

भूरीबाई विश्व की पहली आदिवासी(भील) चित्रकार हैं जिन्होंने अपनी आत्मकथा चित्रित की है. प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक अखिलेश ने उनके चित्रकला की यात्रा को बड़े लगाव से यहाँ लिखा है,उनकी कला की बारीक विशेषताओं पर भी उनकी दृष्टि है, और जगदीश स्वामीनाथन भी यहाँ हैं जिन्होंने यह सब संभव किया.

यह ख़ास आलेख भूरीबाई की कृतियों के साथ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है.    


भूरीबाई
रूपकथा की आत्मकथा
अखिलेश

     


ह अनहोनी ही है. एक आदिवासी कलाकार ने अपनी आत्मकथा लिखी. मनुष्य के आत्मकथा लिखने के पीछे क्या मकसद हो सकता है, इस सन्दर्भ में यदि देखें, तो ‘आत्मकथा’ की शुरूआत चौथी शताब्दी से होती हैं, जहाँ एक चर्च के पादरी ने अपना गुनाह कबूल करने के लिए आत्मकथा लिखी. ये पादरी थे- आग्स्टीन. उन्होंने चालीस वर्ष की उम्र में अपनी आत्मकथा, जो एक Confessionके रूप में लिखी, जिसमें उन्होंने पूरी आत्मग्लानि के साथ यह कबूल किया कि ईसाई धर्म अपनाने के बाद उन्हें यह साहस मिल सका कि वो अभी तक के जीवन में किये गये कर्मों को धिक्कार सकें. तेरह खण्डों में लिखी गयी इस पहली उपलब्ध आत्मकथा से शुरूआत होती है अपने जीवन के बारे में लिखने की और एक लम्बे समय तक आत्मकथाएँ इसी से प्रभावित होकर लिखी जाती रहीं. उसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी में अब्दुल्लाह इब्न बुलुजिन और पन्द्रहवीं शताब्दी में जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर की ‘बाबरनामा’ उल्लेखनीय है.

इन आत्मकथाओं में अब उस वक्त के महत्त्वपूर्ण लोगों का अपने जीवन में रुचि लेने लगना और यह मानना भी शामिल हो गया कि दूसरे उनके जीवन से प्रेरणा लेंगे. आत्मकथाओं के इस तरह के आत्म-केन्द्रित भ्रमजाल में बहुत से लोग फँस सकते हैं और अनेक प्रसिद्ध लोगों ने इसे लगभग नज़रअन्दाज़ भी किया. पोल क्ले और स्वामीनाथन ने आत्मकथा न लिख सिर्फ ऑटो-बायो-नोट भर लिखा है, जिसमें कुछ ही पन्नों में समग्र समा गया. ये वो लोग थे, जो चाहते तो लिख सकते थे.

फिर यह अनहोनी. भूरीबाई ने अपनी आत्मकथा चित्रित की. यहाँ यह दिलचस्प है कि एक आदिवासी समझ, जो समय की ऐतिहासिकता से, समय की एकरेखीय धारणा से सर्वथा मुक्त है, अपनी आत्मकथा लिख रहा है. भूरीबाई ने इसे दो स्तरों पर किया है. पहली बार उन्होंने जनजातीय संग्रहालय की एक दीवार पर और बाद में लगभग बावन चित्रों की शृंखला में. ‘आदि अनादि’ नाम की यह प्रदर्शनी रूपंकर, भारत भवन में चल रही है. क्या ये चित्र उन्हीं अर्थों में आत्मग्लानि से उपजे हैं?


क्या ये चित्र भूरीबाई का Confessionहै? क्या एक आदिवासी दिमाग जो कि ‘भील’ है, इस तरह की ‘दोष-स्वीकृति’ के लिए मन से तैयार होगा? क्या ये भूरीबाई का समर्पण है ईश्वर के समक्ष? यह सब विचारणीय है.

जब हम भूरीबाई से मिलते हैं और बात करते हैं तो यह सब नहीं पाते हैं. वे बेहद संकोची, किन्तु स्वतंत्र व्यक्तित्व की मालकिन हैं. उनमें भील जनजातीय ठसक भरपूर है. वे जब बात करती हैं तब आत्म-सम्मान की आभा की चमक उसमें झिलमिलाती रहती हैं. उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि कोई ऐतिहासिक समय होता है, किन्तु ‘भगोरिया’ अब वैसे नहीं मनाया जाता, जैसे उन्होंने मनाया था, इसका दुख ज़रूर बयान करती हैं. वे आत्मग्लानि में नहीं रहती हैं और उन्हें जीवन में किसी बात का खेद नहीं हैं. वे नहीं सोचतीं कि ये हुआ होता या ये किया होता तो ज़्यादा बेहतर होता. उन्होंने अपनी आत्मकथा कुछ सोचकर नहीं चित्रित की और इस तरह दुनिया में पहली आत्मकथा चित्रित हुई, जो आत्मग्लानि से नहीं संचारित है, जो दोष-स्वीकृति नहीं है, जो समर्पण नहीं है, जो इस भाव से नहीं चित्रित की कि कल कोई मेरे जीवन से प्रेरणा ले सके और उसमें कोई उम्मीद हो.

भूरीबाई ने इसे महज अपनी चित्रित करने की इच्छा, सृजनशीलता और कल्पना से चित्रित किया है. इन बावन चित्रों में हम देख सकते हैं कि ये समय के वो बावन पल हैं, जो भूरीबाई के मन-मस्तिष्क में जा बसे. शायद और भी होंगे. कई होंगे, किन्तु उन्होंने सिर्फ़ बावन चुने. ये चित्र भूरीबाई के सृजनात्मक कौशल और बौद्धिक कल्पनाशीलता का प्रमाण है. भूरीबाई शुरू से ही ईश्वर प्रदत्त इस प्रतिभा से परिचित थीं. उन्हें पता था और वे बचपन में माँ के साथ कई तरह के चित्रों की रचना में शामिल हुआ करती थीं.

भूरीबाई अब एक प्रख्यात चित्रकार हैं और शायद भीलों में उनके पहले किसी महिला चित्रकार ने इतनी ख्याति नहीं पायी. भीलों में यूँ भी पिठौरा आनुष्ठानिक चित्र बनाने वाले पुरुष ही होते हैं. पेमा फत्या इस वक्त के सबसे प्रमुख ‘लिखेन्द्रा’ हैं. याने चित्र लिखने वाला. भूरीबाई के साथ ऐसा क्या हुआ जो उन्हें आज इस मुकाम पर ले आया, इसकी पड़ताल करने पर एक घटना जो अब किस्सा हो गयी है, बतलाना ज़रूरी है.


भारत भवन बन रहा था तत्कालीन प्रधानमंत्री ने तेरह फरवरी की तारीख उद्घाटन के लिए मुकर्रर कर दी थी और निर्माण का काम जो अब तक सरकारी सुस्ती से चल रहा था, उसमें व्यावसायिक तेजी आ गयी. अनेक इंजीनियर, नेता, अफसर, सभी जायजा लेने के लिए आने लगे. काम को तेजी से बढ़ाने के लिए सभी स्तर पर कारीगर, मजदूर, इंजीनियर, ठेकेदार आदि की बढ़ोतरी की जाने लगी. इन्हीं में झाबुआ से आये मजदूरों से कहा गया अपने और साथियों को बुला लेने के लिए. और वहाँ पहले से काम कर रहे मजदूरों में भूरी की बड़ी बहन ने भूरी को भी काम पर लगा लिया. एक नवयुवती अपने सर पर बोझा लाने-ले जाने का काम करने लगी. तराशे पत्थरों को लाना, तगारी में सीमेंट, रेती भर कर लाना और मजदूरी के छोटे-मोटे काम करते हुए भूरी के दिन गुज़रने लगे. उसे दिन भर की मजदूरी के लिए रोजाना छह रुपये मिलते थे.

इसी बीच रूपंकर संग्रहालय के लिए आदिवासी इलाकों से भेजे गये युवा छात्रों के दल लौटने लगे. भारत भवन की आदिवासी कला दीर्घा के बन चुके हिस्सों में ये कलाकृतियाँ रखी जाने लगीं. बस्तर, मण्डला, बैतूल, झाबुआ, रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ आदि अनेक जगहों से लौटे दल अपने साथ अनूठा अजूबा बटोर लाये थे और यह सब उन जगहों पर सुरक्षित रखा जा रहा था, जहाँ किसी तरह का निर्माण न चल रहा हो. इन्हीं कलाकृतियों में झाबुआ जिले से आई कलाकृतियों को देखने भूरी कभी किसी एक दोपहर रुक गईं. उसे इन कलाकृतियों को अनजाने परिवेश में देख अच्छा भी लग रहा था और कुछ अजीब भी.

स्वामीनाथन, जो रूपंकर के निदेशक के रूप में इस संग्रह अभियान को अपनी देखरेख और कल्पना से चला रहे थे, ने देखा कि एक आदिवासी नवयुवती इन कलाकृतियों को बड़े ध्यान से देख रही है. उन्होंने उससे पूछा कि क्या देख रही हो?

भूरी:         ये मेरे गाँव की हैं.

स्वामी: तुम भी करती हो?

भूरी:         नहीं.    

स्वामी: यदि करना चाहो तो रंग और काग़ज़ हम देंगे.

भूरी:         तो मैं कमाऊँगी क्या? यदि काम नहीं करूँगी. 

स्वामी: कितना कमाती हो?

भूरी:         छह रुपया रोज.

स्वामी:हम दस रुपये रोज देंगे. तुम हमारे लिए कुछ चित्र बनाओगी.

भूरी:         नहीं.

स्वामी:       क्यों?

भूरी:         हम सिर्फ़ छह रुपया लेंगे. दस नहीं.

 

उसके बाद सब कुछ बदल गया. भूरीबाई ने जो रेखांकन किये, वो रूपंकर, आदिवासी कला संग्रह की अद्वितीय सम्पदा है. सरल, सहज अभिव्यक्ति जिसमें एक युवती के मन की कल्पनाओं का संसार जीवित हो उठा. भीलों का संसार, जो अब तक किसी ‘लिखेन्द्रा’ ने नहीं लिखा था. यह उस भीली जगत की सुदृढ़, सुगठित उपस्थिति थी, जो इस नवयुवती की साँसों से महक उठी थी. काले, सफेद रंग से ब्राउन बिटुमिन पेपर पर भूरी का ‘कल्पना लोक’ उड़ान ले रहा था. इन रेखांकनों का स्वामी जी पर इतना प्रभाव पड़ा कि इन्दिरा गांधी से भूरीबाई को मिलवाया गया. भूरीबाई अपनी वेषभूषा में इन्दिरा जी से इत्मीनान से मिली.

 


उसके बाद भूरी यहीं, भोपाल में बस गई. भगोरिया और अन्य त्यौहार, शादी-ब्याह के मौकों पर ही झाबुआ जाना होता. इतने बरसों में भूरीबाई का सम्बन्ध शहरी दुनिया से और प्रगाढ़ हुआ. भूरीबाई के काम करने के तौर-तरीके बदले. सामग्री बदली. देश-विदेश की यात्राएँ की, ढेरों मान-सम्मान मिले, किन्तु कथ्य न बदला. वही मुस्तैदी, वही कल्पनाशीलता और उसी अनघड़ परिष्कार में कलाकृतियाँ रचते-बसते भूरी अब भूरीबाई हो चुकी थी. अपने बच्चों को पालती-पढ़ाती अपनी गृहस्थी को शान से चलाती-सम्हालती भूरीबाई ने किसी एक दिन यह तय किया कि वो अपनी जीवनी को चित्रित करेगी.

भूरीबाई भील जनजाति की है. भील पश्चिमी मध्यप्रदेश के एक बड़े हिस्से में रहते हैं. इनका रहन-सहन बहुत ही आकर्षक है और मध्यप्रदेश में पाये जाने वाले आदिवासी समुदायों में भील अकेली जनजाति है जो हिंसक, बेरहम है. भीलों की उत्पत्ति के विषय में रोचक जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार है:

भील’ नाम द्रविड़ भाषा-परिवार के अन्तर्गत कन्नड़ के ‘बील’ शब्द से आया है, जिसका अर्थ ‘धनुष’ है. आदिम विश्वासों के साथ जीने वाली इस सरल स्वभाव जाति के लोग धनुष चलाने में सिद्धहस्त होते हैं. इनका नाम इनके गुण से मेल खाता है. इन्हें वन-पुत्र भी कहा जाता है. एक दन्तकथा के अनुसार ‘महादेव’ किसी शरीर व्याधि के कारण घने जंगल, पहाड़ी क्षेत्र में घूम रहे थे. वहाँ उन्होंने किसी जंगली जाति की अपूर्व सुन्दरी को देखा. वे उस पर मोहित हो गये और उनकी शरीर व्याधि भी दूर हो गई. उन्होंने उस सुन्दरी से ब्याह रचाया. कालान्तर में इनकी कई संतानें हुईं, उनमें से एक बालक कुरूप था. इस बालक ने एक दिन शंकर के नाँदिया का वध कर दिया. महादेव ने क्रोधित होकर उसे वन-प्रान्तर में छुड़वा दिया. वह जंगल में रहने लगा और उसके वंशज ‘भील’ कहलाये.

इन्हीं भीलों में से एक भूरीबाई ने तय किया कि वह अपनी आत्मकथा चित्रित करेगी. इस काम को अंजाम देने में हरचन्दन सिंह भट्टी का महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसने भूरीबाई को वो समय, अवकाश और ज़रूरी संसाधन मुहैया करवाया, जो उन दिनों इस समय के सबसे अविश्वसनीय और अनूठे संग्रहालय की रचना, कल्पना और व्यावहारिकता में गहरी आस्था और दुर्लभ रचनात्मकता से लगे हुए थे. भूरीबाई ने इस अद्वितीय ‘आत्मकथा’ को जनजातीय संग्रहालय की दीवार पर लिखा. भीलों में पहली बार और सम्भवतः दुनिया भर के आदिवासियों में पहली बार किसी आदिवासी ने अपनी आत्मकथा लिखी.

इस आत्मकथा का विस्तार भी होना ही था. बाद में भूरीबाई ने पचास चित्रों की शृंखला बनायी. यहाँ मैं इन्हीं चित्रों के बारे में बात करूँगा. जनजातीय संग्रहालय की दीवार पर लिखी आत्मकथा में एक दिलचस्प चित्रकारीय भूल भी है, जिसका जिक्र वहीं करूँगा. गाँव के वातावरण से शुरू होती है यह कथा, जहाँ भूरीबाई ने जन्म लिया है और उनके माता-पिता अपनी खेती-किसानी से जीवन-यापन कर रहे हैं. यहीं भूरी अपने माता-पिता के साथ खेत में काम कर रही है. अपनी बहन के साथ काम कर रही है. जंगल से लकड़ियाँ बीन कर ला रही है. गट्ठर लेकर ट्रेन में बैठकर जा रही है. यह रेलगाड़ी भी अपनी तरह की अकेली है, जिसमें इंजन में कोयला भी झोंका जा रहा है. यह एक चित्रात्मक रेलगाड़ी है, जो चित्रित अवकाश में एक सुकून की यात्रा कर रही है. इसी रेल की छत पर भगोरिया उत्सव की शुरूआत हो चुकी है, जहाँ एक भील ढोल लिये खड़ा है. भूरीबाई इसी भगोरिया में अपने लिए दूल्हा ढूँढ़ती है और ब्याह करती है.

इसी जगह उन्हें स्वामीनाथन मिलते हैं,और चित्रकारीय भूल में भूरीबाई ने उन्हें अपने चिर-परिचित परिधान लुंगी और कुरता पहने तो चित्रित किया है, किन्तु उनकी दाढ़ी बनाना भूल गयी. स्वामीनाथन उसे प्रेरित कर रहे हैं चित्र बनाने को और वो मन्दिर के बाहर बैठ चित्र बना रही हैं, फिर अगले दृश्य में इन्दिरा गांधी से मिल रही हैं, जिसमें इन्दिरा गांधी के साथ उनका बन्दूकधारी भी है. अशोक वाजपेयी हैं, जिन्होंने इन्दिरा गांधी को कोई काग़ज़ देने को बोला था, जिस काग़ज़ को वो देना भूल गयीं. और उसमें अनेक घटनाएँ हैं जिसका अन्त एक हवाई जहाज में बैठकर अमरीका जाने से होता है. यहीं पर शिखर सम्मान, अहिल्या सम्मान, दुर्गावती सम्मान के प्रतीक भी हैं, जो अब तक भूरीबाई को मिल चुके हैं.

भूरीबाई भील जनजाति में पहली महिला चित्रकार हैं, जिन्हें इतना यश और मान-सम्मान मिला. भूरीबाई ने एक नई पहल की. अब अनगिनत युवा स्त्रियाँ मजदूरी नहीं करतीं, वे चित्र बनाकर अपना जीवन-यापन करती हैं. भूरीबाई के पहले यह सम्भव नहीं था, बल्कि भीलों में पिठौरा जैसा आनुष्ठानिक चित्र परम्परा में मौजूद ही था जिसे पुरुष बनाते हैं और विरासत में किसी पुरुष को चुनते हैं. भीलों में बहुत थोड़े-से इलाकों में कुछ-कुछ या कहीं-कहीं और कभी-कभार ही कोई स्त्री साज-सज्जा के स्तर पर चित्र बनाती हो, तो उसका भी कोई अता-पता नहीं है. भीली संसार का चित्रकारीय सम्बन्ध सिर्फ़ पिठौरा और पुरुषों से रहा है. पहली बार किसी स्त्री ने भील चित्रात्मकता को गहरी कल्पना और विलक्षण प्रतिभा के साथ उजागर किया. भूरीबाई सिद्धहस्त कलाकार हैं. वे चित्रावकाश में अपनी कल्पना से कुछ इस तरह दृश्य रचती हैं कि देखने वाला अचम्भित रह जाता है. उनके पास ध्यान और धैर्य तो है ही, साथ ही वे कुछ इस तरह रूपाकारों को बनाती हैं कि आधुनिक, उत्तर-आधुनिक होने के साथ-साथ समकालीनता को भी समेट लेते हैं.


भूरीबाई के चित्रों में यह सब एक साथ मौजूद रहता है. वे अपने कथ्य में बहुत ही सादे और सीधे रूपाकारों का प्रयोग करती हैं. वृक्ष, जानवर, पेड़-पौधे, मनुष्य और क्रियाकलाप आदि सभी कुछ साफ-साफ और एक सपाट रंग प्रयोग के साथ सामने हैं, जिस पर बाद में बिन्दियों से अलंकरण हैं. भूरीबाई के पहले के चित्रों में रेखाओं का स्पष्ट और प्रभावशाली उपयोग दिखाई देता है. एक लम्बे समय तक भूरीबाई के चित्रों में सिर्फ़ रेखाएँ ही प्रमुख हुआ करती थीं. उसी से सारा जगत बन-बिगड़ रहा है. ये अलंकरण में इस्तेमाल की जा रही बिन्दिया जनगण के चित्रों से निकल भीली, मूड़िया, माड़िया, कोरकू और खुद गोंड चित्रकारों तक जा पहुँची. सभी ने उसे अपनी तरह बरता. भूरीबाई बिन्दियों का उपयोग अलंकारिक दोहराव की तरह करती हैं. इन बिन्दियों का प्रयोग पिठौरा में भी दिखाई देता है.

पिठौरा बना लेने के बाद जब भोपा व गाँव के बड़े-बुजुर्ग आकर पिठौरा देखते हैं और पाते हैं कि उसमें अभी भी कई देवी-देवताओं का नहीं बताया गया है, तब वे एक-एक कर चित्रकार- ‘लिखेन्द्रा’- को डाँटते हैं कि तू इसको भूल गया है. वह माफी माँगते हुए उस देवी या देवता के नाम की बिन्दी लगा देता है. इस तरह धीरे-धीरे पिठौरा कई रंग-बिरंगी बिन्दियों से भर जाता है. भूरीबाई इस तरह बिन्दियों का उपयोग नहीं करती. वे चित्रावकाश में बिन्दियाँ नहीं रखतीं. वे रूपाकार में बिन्दियाँ बनाती हैं. वे बिखरी हुई बिन्दियाँ भी नहीं लगातीं. वे बस बिन्दियों को एक के बाद एक चित्रित रूपाकार में छींट की तरह पहने हुए कपड़े की तरह लगाती हैं. इन बिन्दियों में उनके कथ्य में कोई फ़र्क पैदा नहीं होता. वह तो पहले ही सशक्त और सीधा है. बिन्दिया सिर्फ़ एक तरह का अलंकरण प्रस्तुत करते हैं.

भूरीबाई के मन में अपनी आत्मकथा चित्रित करने का विचार आया होगा, ये सोचना भी गलत होगा. भूरीबाई ने इसके पहले भी अपने को चित्रों में कभी-कभी रखा है. वे किसी समय समझ के लिए इन चित्रों की रचना नहीं करतीं. वह अपने को विषय के रूप में देखती हैं. इन अलग-अलग परिस्थितियों में वे एक छोटी लड़की से जीवन के इतने उतार-चढ़ाव में खुद को लगातार कठिन परिस्थितियों में पाती रहीं और उनसे निकलती रहीं.

अपने समय की अनूठी चित्रकार भूरीबाई के लिए चित्र समय सापेक्ष नहीं हैं. वे दर्शाते हैं उन जगहों को जो भूरीबाई ने कभी देखी थीं, जहाँ वे कभी रहीं, कभी कुछ काम किया, यह सब अनुभव की तरह भूरीबाई के मन में अंकित है. इसमें अवकाश है. इसमें अनुभव है. इसमें वो सब है जो समय में नहीं है. इन चित्रों को रचना भूरीबाई के मन की इच्छा का रूप है. इसमें आत्मग्लानि, दोष-स्वीकृति नहीं है. यहाँ भरा-पूरा जीवन है जिसे भूरीबाई ने ठाट से, सम्मान से, पूरी शिद्दत से जिया है. भूरीबाई के चित्रों में यही ठाट बसा हुआ है. इसी ठाट का अलंकरण है. इसी सम्मान का सम्मोहन है. यह आत्मकथा हमें बतलाती है कि एक नये ढंग से भी जीवन को देखा जा सकता है, जिसमें समय बीता हुआ नहीं, बल्कि अभी घट रहा है, जब हम उसे देख रहे हैं. वह आपका अनुभव बनता जाता है. वह दर्शक को आत्मकथा के खोल से बाहर लाकर रूपकथा में ले जाता है.

(24 फरवरी, 20२१)


 



अखिलेश
प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक
56akhilesh@gmail.com



जयशंकर प्रसाद की जीवनी: सत्यदेव त्रिपाठी

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जयशंकर प्रसाद
‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’
सत्यदेव त्रिपाठी

 


‘आँसू’ के प्रणयन के साथ ही उसमें व्यक्त कशिश को लेकर पाठकों के मन में यह जिज्ञासा जागी थी कि वह कौन है, जिसकी याद में यह आवेग फूट पड़ा है. फिर वह जिज्ञासा धीरे-धीरे सवाल बनती गयी और साहित्य के क्षेत्र में विमर्श बन ही रही थी कि ‘हंस’ के आत्मकथा विशेषांक के लिए प्रेमचंदजी के दुर्निवार आग्रह पर प्रसादजी ने प्रायः निरुपाय होकर एक षोडश पंक्तीय काव्यमय आत्मकथा लिखी, जिसमें पंक्ति आती है– ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’. तो इस प्रकार स्वयं कवि के श्रीमुख से ही सवाल मुखर हो गया और सीधा भी- ‘उसकी’ यानी किसकी? या फिर किसकी-किसकी भी?

इस सवाल को लेकर साहित्य की चर्चाओं-समालोचनाओं में तब से अब तक तरह-तरह की कथा-वार्ताएं उठ-उठ कर गिर चुकी हैं. ढेरों चर्चाएं गरम होकर ठण्डी हो चुकी हैं, फिर भी सवाल बरकरार है. चूंकि वह स्मृति कवि के जीवन से ही बावस्ता हो सकती है और वही जीवन इस कार्य की मूल स्वरूप-प्रतिज्ञा है, अत: यहाँ इसकी समूची तो क्या कहें, यथासम्भव विस्तृत चर्चा अपेक्षित ही नहीं, अपरिहार्य है. यहाँ कोताही की भी कोई ज़रूरत, बल्कि गुंजाइश नहीं, क्योंकि इसी बहाने कवि के जीवन का एक अध्याय खुलेगा, जो किंचित पर्देदारी में भी है. लेकिन इसके बावजूद इस सवाल का हल हो जाना इस चर्चा का दावा क़तई नहीं है, वरन् हल न होना ही इसकी क़ुदरत है और बार-बार उत्तरित होकर भी अनुत्तरित रह जाना ही कदाचित् इन चर्चाओं की फ़ितरत होती है. सो, चर्चाएं आगे भी होती-जाती रहेंगी.

‘स्मृति’ की बावत कहना होगा कि स्मृति का होना बुनियादी बात है. हर साहित्य व कला के मूल में होती है, क्योंकि सारे अनुभव व अध्ययन स्मृति में ही बनते-बसते हैं और उसी में रच-पच कर सामान्य बातचीत से लेकर समस्त ज्ञान-कलादि रूपों में व्यक्त होते हैं. प्रसादजी का समस्त रचना-संसार भी इस प्रक्रिया से अलग नहीं. लेकिन ‘आँसू’ में आयी स्मृति बहुत ख़ास है. कृति के तमाम उल्लेखों में ख़ासियत बनकर आयी भी है. पाँचवें छंद में साफ कहा गया है- ‘बस गयी एक बस्ती है, स्मृतियों की इसी हृदय में’. और शुरू के चार बन्धों में इसी स्मृति या याद का नाम लिये बिना इसके स्थानापन्न प्रतीकों ‘विकल रागिनी बजना’, ‘चेतना तरंगिनि की हिलोरें’ ‘विस्मृत बीती बातों का कहना’ और ‘टकराती-बलखाती सी फेरी देना’ आदि के माध्यम से मानस में चल रही विविध हलचलों के लिए ‘क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती’?...जैसे विस्मय ही विस्मय या सवाल ही सवाल शामिल हैं, और जैसा कि ‘आँसू’ नाम से ही जाहिर है, इसमें समायी स्मृति का स्थायी भाव पीड़ा है. काव्य-कृति की शुरुआत में ही आमुख की तरह भी लिखे छ्न्द में स्मृति और पीड़ा दोनो के पुष्ट प्रमाण आते हैं–

‘जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छायी, दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी’.

यह बरसने की सहजता वर्ड्सवर्थ के ‘स्पॉण्टेनियस ओवरफ्लो’ से नहीं सधती, वरन् माखनलालजी चतुर्वेदी द्वारा विवेचित (अंतरंग-82) मानव-शरीरशास्त्र (ऐंथ्रोपॉलोजी) से पोषित उस प्रक्रिया से ही सही सधती है, जिसमें पलकों का झपकना, जमुहाई आ जाना...आदि शारीरिक क्रियाएं अपने आप हो जाती हैं, जिन्हें न आप ला सकते, न रोक सकते. वैसे ही करुणार्द्र होने पर आँसुओं के ढुलक पड़ने जैसी प्रक्रिया है प्रसाद का ‘आँसू’ काव्य, जिसमें कवि के भी अनुसार ‘चेतना तरंगिनी मेरी लेती हैं मृदुल हिलोरें’

‘घनीभूत पीड़ा..’ वाले इस छंद को लेकर एक छोटा सा क्षेपक यह कि राय कृष्णदासजी के उल्लेख के चलते कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया कि आँसू का पाठ सुनकर बाबू मैथिलीशरण गुप्त इतने अभिभूत हुए कि उसी आवेग में यह छंद उनके मुख से फूट पड़ा और उनके आग्रह पर इसे प्रसादजी ने कृति में शामिल कर लिया और पहले पन्ने पर स्थापित भी कर दिया. लेकिन बात ऐसी नहीं है. इसे साफ़ करने के लिए यहाँ रायजी का पूरा कथन ही उद्धृत कर देना समीचीन होगा–

‘यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उनके (प्रसादजी के) आँसू पोंछने के लिए भाई मैथिलीशरण ने कुछ गुनगुनाकर यह बना दिया..... और उनसे इसी राह पर चलने की स्वीकृति उपलब्ध कर ली. इस सम्बन्ध में यह तथ्य है कि मैथिलीशरण की पद-योजना सर्वथा भिन्न थी. उक्त शैली वाला उनका एक भी छंद खोजे न मिलेगा. (वाङमय -183). इति क्षेपक.

अब प्रस्तुत छंद के मुताबिक कहना इतना ही है कि स्मृति यूँ दुखदायी है कि घनीभूत पीड़ा ही स्मृति-सी है– स्मृति की पीड़ा नहीं, पीड़ा की स्मृति है या पीड़ा ही स्मृति है...!!   

‘आँसू’ के प्रकाशन के साथ उठे इस सवाल को साहित्य-शास्त्र की शब्दावली में कहें, तो ‘स्मृति एवं ‘इस विकल वेदना को ले किसने सुख को ललकारा’ वाली उसकी वेदना’ का आश्रय यदि कवि ‘हृदय’ और ‘मस्तक’ है, तो इसका आलम्बन कौन है, जिसके विविधरूपी एवं बहव: अनुभाव इसमें बिखरे पड़े हैं और उन्हीं सबसे उद्दीप्त संचारी भावों का काव्य है समूचा ‘आँसू’ – ‘ये सब स्फुलिंग हैं मेरी, उस मायामयी जलन के’, जो वायवी भी नहीं, पर्याप्त ठोस निशानात लिये हुए हैं- ‘कुछ शेष चिह्न हैं केवल मेरे उस महामिलन के’.... फिर ‘आँसू’ लिखे जाने के दशक भर बाद जब काव्यात्मक आत्मकथा में ‘उसकी स्मृति’ का शब्द-युग्म आया, तो उस आलम्बन को सर्वनाम मिला और तलाश शुरू हुई संज्ञा की– ‘उसकी’ है कौन? तब यह मात्र स्मृति न होकर ‘उसकी स्मृति’ हो गयी और स्मृति से अधिक ख़ास ‘उसकी’ हो गया– ‘उसकी’ यानी किसकी? 

(प्रसाद जी के घर पर लेखक और छात्र)

 

(दो)

‘आँसू’ का कवि उस आलम्बन को इरादतन छिपाता है, बल्कि इसकी रचना-प्रक्रिया में छिपाने का इरादा अंतर्भुक्त हो गया है. फिर भी रमेशचन्द्र शाहजी के मन में जाने क्यों ऐसी प्रतीति होती है कि कवि को उपयुक्त आलम्बन मिल नहीं रहा है, क्योंकि आलम्बन मिला न होता, तो खोज होती, आँसू नहीं. और यहाँ तो आँसूकार उस आलम्बन के प्रति अपनी आसक्ति को खुलकर बताता है. बताने के लिए ही लिखी गयी है ‘आँसू’, बल्कि यह कि आसक्ति दुर्निवार होकर आँसू के रूप में फूट पड़ी है– ‘बह निकली कविता सरिता सी’. लेकिन कवि आसक्ति के स्वरूप को इतना साफ-साफ भी नहीं बताता कि आलम्बन जहिराने लगे, उसकी शिनाख़्त होने लगे और पहचान खुलने लगे, यानी मौन रहता भी नहीं, मुखर होता भी नहीं..., जो पुन: उत्तम कविताई की क़ुदरत है- ‘हॉफ कंसील्ड, हॉफ रिवील्ड’ का कला-मानक. सो, कुल मिलाकर ‘आँसू’ की रचना एवं तब से हो रही इसकी चर्चा में कवि की नीयत से उपजी कविता-कला ही गोया यूँ साकार हुई है, कि आलम्बन ‘साफ छिपता भी नहीं, सामने आता भी नहीं’.  

यह स्थिति ‘आँसू’ के लिखे जाते से ही बन गयी. जुलाई 1922 में प्रसादजी के ही प्रस्ताव पर केशवजी के ख़ुशनुमा बगीचे में पहला पूर्ण पाठ हुआ. उनके साथ राय कृष्णदासजी भी मौजूद थे, जिनके अनुसार ‘प्रसादजी ने दो-चार शब्दों में परिचय देते हुए समग्र ‘आँसू’ तन्मयता के साथ सस्वर सुनाया. यही दोनो पूरी कृति के प्रथम श्रोता हुए. रायजी के शब्दों में ‘सुनकर हम लोग झूमने लगे.... यद्यपि इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि ‘आँसू’ की ‘वस्तु’ ऐहिक है या आध्यात्मिक, तथापि खेद के साथ कहना पड़ता है कि उसमें का अधिकांश आत्मनिष्ठ है, न कि वस्तुनिष्ठ’. इसी प्रकार ज्ञानचन्द जैन जब व्यवस्था देते हैं कि ‘प्रसादजी की कविताओं में उनके अंतरंग जीवन की कहानी छिपी हुई है. कितनी ही पंक्तियां आत्मकथात्मक हैं’, तो उदाहरण में आँसू’ ही उद्धृत करते हैं (अंतरंग -124)- सुख आहत शांति उमंगें बेगार साँस ढोने में, यह हृदय समाधि बना है, रोती करुणा कोने में

रायकृष्णजी आगे लिखते हैं –

‘प्रसादजी के विशेष वात्सल्य-भाजन रहे डॉ. राजेन्द्र नारायण शर्मा. वे कवि की रचनाओं में भी गहरी पैठ रखते. उन्होंने थोड़े शब्दों में ‘आँसू’ के बारे में जो कुछ कहा है, उसके मुकाबले में किसी की कोई उपज या तर्क ठहर नहीं सकते- ‘प्रेम लिंगभेद से परे है– भगवान की भाँति, क्योंकि वह अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप कहे गये हैं– वाच्य-वाचक भेदेन भवानेव जगन्मय:’. इसी के समानांतर ही स्वयं प्रसादजी का भी कथन है. जब उनके जीवन-काल में ही ‘शशिमुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाये, जीवन की गोधूलि में कौतूहल से तुम आये’, के हवाले से पूछा गया कि आप अपने रहस्यमय घूँघट और अंचल वाले प्रियतम का नाम बतलाइए, तो प्रसादजी बोले–

‘आँसू’ प्रेम के देवता की अर्चना है. प्रेम अपनी माया के विग्रह से अनंत रमणीय रूप धरता है. उसे न स्त्री कहा जा सकता, न पुरुष. न कोमल कहा जा सकता है, न परुष’ (वाङमय-182). और उन्होंने पास में ही रखी हुई राजेन्द्र नारायण शर्मा वाली प्रति पर ये पंक्तियां अपने हाथ से लिख दीं–

ओ मेरे प्रेम बता दे, तू स्त्री है या कि पुरुष है, दोनों ही पूछ रहे हैं, तू कोमल है या कि परुष है?’

उनको कैसे समझा दूँ, तेरे रहस्य की बातें, जो तुमको समझ चुके हैं, अपने विलास की घातें.’ 

फिर ‘आँसू’ के छपकर आते ही विनयमोहन शर्मा एवं उनकी मित्रमण्डली का निश्चित मत बना कि ‘आँसू’ का ‘आलम्बन (यानी ‘उसकी’ की संज्ञा) प्रसादजी की कोई प्रेयसी ही हो सकती है’ (वाङमय -261). ऐसा इसलिए भी, क्योंकि इतनी गहन आसक्ति अपने किसी चहेते प्रिय के बिछोह की ही वेदना, बेचैनी व तड़प से हो सकती है, तभी तो इन सबकी गहराई में बड़ी निजता है. निजता का वास्ता प्रेम से है– ‘आँसू’ प्रेम काव्य है– बिरह का प्रेम काव्य.

नन्ददुलारे वाजपेयीजी ने लिखा है–

‘उद्दाम शृंगारिक स्मृतियों के साथ सम्पूर्ण समाधानकारक दार्शनिकता ‘आँसू’ की विशेषता है’ (वाङ्मय-22). निश्चय ही ‘आँसू’ का प्रेमी हारा हुआ है. असफल प्रेमी यदि पागल नहीं हो जाता, तो दार्शनिक होकर ही सामान्य जीवन जी सकता है. इसलिए इसके दर्शन पर तत्त्वचिंतक समीक्षक व दार्शनिक सोचते रहे हैं– और भी सोचें.... लेकिन जीवन के पन्ने उलटने-खोलने वाले इस उपक्रम में उसके विवेचन के लिए बिल्कुल जगह (स्पैस) नहीं है और मूल बात यह भी कि जीवन है, तो दर्शन है, जबकि प्रेम है, तो जीवन है– भले जीवन के कारण ही प्रेम हो. और आँसू में उद्दाम शृंगारिक स्मृतियां हैं, तो उतना ही उद्दाम प्रेम भी रहा होगा.... फिर तत्कालीन दैनिक ‘आज’ के समीक्षक को यह सामान्य प्रेम-काव्य क्योंकर लगा होगा, वही जानें – हाँ, रहस्य का आभास तो ठीक है? (261-62 वाङमय). बहरहाल, 

 

(तीन)

उद्दाम प्रेम है तो बहुत अच्छी बात, लेकिन भारतीय समाज में विवाह के अलावा किसी प्रेयसी का होना अच्छा तो आज भी नहीं माना जाता, तब तो बहुत बुरा माना जाता था. बड़ी बेइज्जती का सबब होता था– प्रसादजी जैसे सम्भ्रांत समाज में तो और भी ज्यादा. अत: तब उदार व उदात्तवादियों ने किसी निजी पीड़ा को ख़ारिज़ करते हुए बड़ा सटीक व सरल तर्क दिया है कि ‘आँसू’ के सृजन के वक्त कवि के निजी जीवन में कोई दुख न था. कमलाजी से हुई तीसरी शादी के बाद अंतिम रूप से जीवन में व्यवस्थित होकर कवि प्रसन्न थे.  

तो इन प्रमाणों से तर्क यह दिया गया कि इस परम सुख के बीच ग्लानि-पीड़ा-तड़प...आदि, जो उस कालावधि में कवि के जीवन में थे ही नहीं, रचना में कैसे आ सकते हैं!! यानी यह सब उनके निजी जीवन से बावस्ता नहीं, आम जीवन की अभिव्यक्ति है. वह पीड़ा सबकी है. इसका निष्कर्ष यूँ कि ‘आँसू’ की पीड़ा ‘ग़मे जानां’ से नहीं, ‘गमे दौरां’ से उपजी है. कवि के निजी जीवन से उसका कोई वास्ता नहीं, वह तो रचना की पीड़ा है- रचना मात्र है.

लेकिन यह तर्क व व्याख्या सृजन के ककहरे (क ख ग) से भी अनभिज्ञ सिद्ध होती है या उसे नज़रन्दाज़ करके लिखी गयी है. दूर न जाकर ‘आँसू’ के उक्तोद्धृत उसी मशहूर छंद –

‘जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छायी.दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी’

पर ही ध्यान दे दिया जाता, जो कृति में प्रवेश करने के पूर्व लिखा मिल भी जाता है, तो ऐसा तर्क त्रिकाल में न दिया जाता.... अभी तो ऐसा भी लग रहा है कि इस छंद को प्रमुखता से कृति के पहले लिखने में कदाचित् कवि की मंशा भी रही हो, कि इसे फौरी सन्दर्भों से न जोड़ा जाये. फिर ‘आँसू’ में आकर तो ये पंक्तियां बहव: उदाहरणीय बन गयी हैं, प्राय: उद्धृत होती भी हैं; लेकिन इसमें न भी होता यह छंद, तो भी सृजन-प्रक्रिया का यह विश्रुत सच है कि साहित्य कोई रिपोर्ट नहीं, जो आज की घटना को कल अख़बार में दर्ज़ कर दे. अस्तु, यह कदापि जरूरी नहीं कि उसी वक्त जीया जाता जीवन ही रचना में आता है. घनीभूत पीड़ा कभी की भी हो सकती है, जिसका सिद्ध सन्धान या जिसे सिद्ध करता सन्धान ही यहाँ अभिप्रेत है कि कवि के जीवन में आख़िर वह थी कौन..., जो स्मृति बनकर और स्मृतियों में अनगिन रूप धर-धर कर आती-जाती रही और पाठक के मन में भी आती रहती है. 

लेकिन उसके पहले गमे दौरां का एक और ख़ास सन्दर्भ, जो प्रत्यक्ष भी है और अपनी कलात्मकता में रोचक भी. जीवन-सन्दर्भों के सिलसिले में क्रान्तिकारी प्रदर्शनकारियों की घटना पीछे विवेचित है, जिसमें सत्ता-विरोधी नारे वाले गीत गाते हुए पर्चे बाँटते बच्चों को पुलिस पीटे जा रही थी, पर बच्चे चिल्ला-चिला कर गीत गाये जा रहे थे, दो दिन ऐसा होने का जिक्र मिलता है और दोनों दिन इस दृश्य पर प्रसादजी की आँखों से आँसू बह निकले थे. सारे दृश्य के प्रत्यक्ष-द्रष्टा दुर्गादत्त त्रिपाठी अगले दिन प्रसादजी से मिले, तो उन्हें कुछ लिखते पाया. सुनने की इच्छा जतायी, तो प्रसादजी ने उन बच्चों के जुनून व जीवट की कुछ बातें कीं और वही क्रांति-व्यंग्य गीत गुनगुनाया भी. इसके कुछ ही दिनों बाद प्रसादजी ने त्रिपाठी-दम्पति को पहली बार ‘आँसू’ के शुरुआती तीन छंद गाके सुनाये थे. त्रिपाठीजी को लगा कि पता नहीं सर्वोत्तम पंक्तियां देने के निखार-सुधार के अधीन ‘आँसू’ की पहली चार पंक्तियां ही कितने संस्कारों के बाद अवतरित हुई होंगी!! (वांग्मय -116)

लेकिन तीनो छंद सुनके सहसा उन्हें वह क्रांति-गीत याद आ गया– वही छंद, वही धुन. त्रिपाठीजी निश्चय पूर्वक कुछ कह सकने की हालत में नहीं कि ‘आँसू’ का पहला छंद पहले लिखा गया था या पहले उस लड़के के मुंह से वह गीत सुना गया था’, लेकिन यह संकेत बिल्कुल साफ है कि ये आँसू किसी ‘इसकी-उसकी’ स्मृति के नहीं, राष्ट्रीय चेतना के आँसू’ हैं. इसका बेहद रचनात्मक प्रमाण यह भी कि लिखने-पढ़ने-गाने, सबमें दोनो प्राय: समान हैं– एक-एक चरण (अर्धविरामों में बँधे) बारी-बारी से साथ गाके देखें–

‘अंगरेजी रंगरेजवन के, दल-बादल आयल बाटैं, रँगने को धरा रुधिर से, बदरा गदरायल बाटैं’.

इस करुणा कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती, क्यों हाहाकार स्वरों में, वेदना असीम गरजती.  

तीनों छंद सुनकर श्रीमती कुसुम दुर्गादत्त त्रिपाठी ने अपने बाला-सुलभ स्वभाव से कविता की पृष्ठभूमि पूछ ली. और प्रसादजी ने अपने चिर गोपन अन्दाज़ में कहा– ‘ऊपर वाला जाने’!

पूरे विवरण का लक्ष्यार्थ, बल्कि वाच्यार्थ यह कि ‘आँसू’ का उद्भव ही इतनी ज़हीन राष्ट्रीय चेतना से हुआ है कि वह निजी जीवन के प्रेम-बिरह की कविता नहीं हो सकती. अत: इन सबसे कहीं अधिक यह सामाजिक जीवन की कविता है. और इस बात को दुर्गादत्त जी दूसरी तरह कहते हैं और कहीं ज्यादा शिद्दत से कहते हैं–

‘ऐसी स्थिति में केवल कल्पना क्या काम दे सकती है. वास्तव में बाबू साहब अपने रूप पर आप ही इतने मुग्ध थे कि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उन्हें कभी किसी रूपवती से आसक्ति और उसके वियोग से कभी कोई पीड़ा हो सकती थी या नहीं. बाह्य आसक्ति उनके काव्य की विषय-वस्तु बन भी सकती थी या नहीं, इसमें सन्देह है. वे अत्यंत पवित्र व आत्मस्थ विचारों के स्वामी थे. दासता तो वे कदाचित् अपने प्राणों की भी स्वीकार नहीं कर सकते थे’ (वाङमय-120).

इस कथन में रूपवती से आसक्ति न होने की बात निरी भावुकता या प्रसादजी के व्यक्तित्व के प्रति प्रगाढ़ अनुरक्ति (ऑब्सेशन) है– बल्कि त्रिपाठीजी के ही शब्द लूँ, तो ‘दासता’ ही है, वरना प्रेम का मादन भाव प्राकृतिक है, इससे परे कोई नहीं– न ऋषि-मुनि, न त्रिदेव ही. लेकिन क्रांति गीत व उससे जुड़ी घटना के प्रत्यक्ष प्रमाण को न ख़ारिज कर सकते, न ऐसा करना उचित ही होगा. लेकिन पिटते हुए देशभक्त बच्चे के प्रति शोक-संतप्त उत्तेजना (स्पिरिट) को मान भी लिया जाये, तो यह सिर्फ़ उद्भव के साथ किंचित जुड़ पायेगी. माना कि देशभक्ति का जज़्बा बहुत भावावेग वाला है. लेकिन ‘आँसू’ की प्रकृति नितांत शृंगारी है. अत: इसमें उस बालक की याद के दो-एक बूँद आँसू कहीं एकाध छंद में हो सकते हैं, पर ऐसा कहने वाले त्रिपाठीजी प्रभृति लोगों की कवि व देश के प्रति सारी भावात्मकता की पूरी क़द्र के साथ कहना चाहूँगा कि ‘आँसू’ की `समग्र रचनात्मकता के साथ इसे नहीं जोड़ा जा सकता. पूरे काव्य में व्याप्त आलम्बन से बनते अनगिन उद्दीपनों, आश्रय के अनंत अनुभावों व असंख्य संचारियों की संगति इतने-से सन्दर्भ के साथ कैसे बैठेगी? फिर उनमें निहित रूमानियत के मसृण आवेग और उनसे फूटती आकुलता की अतल-अतुल मार्दवता के रूपकों का परिपाक कैसे होगा? राष्ट्रीयता के साथ यह अदद शोकांतिका कैसे सधेगी? कुल मिलाकर यह सच या उद्भावना ‘आँसू’ के उद्भव का एक पूरक स्रोत तो बन सकती है, सृजन-यात्रा में थोड़ी भी दूर चल नहीं सकती, पाथेय बन नहीं सकती. 

और संगति न बन सकने वाली इस बात का पता भी दुर्गादत्तजी को था. सो, उन्होंने असंगति की सम्भावना का भी एक तोड़ दिया है– ‘वादों और प्रदर्शन से सर्वथा विमुख एकांत स्वाध्यायी और स्थितप्रज्ञ चिंतक बाबू साहब के ‘आँसू’ से यदि फिर भी उनका (तत्कालीन स्थितियों का) सीधा सम्बन्ध न जुडता हो, तो कोई आश्चर्य नहीं. क्योंकि ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा और सत्य मौलिक है. इसलिए वातावरण ऐसी आत्मनिर्भर कृति पर अपना आरोपित नहीं कर पाता (वांग्मय-117).

यानी प्रकारान्तर से यही कहा जा रहा कि ‘आँसू’ अपने समकालीन वातावरण से परे भी है, जिसका मतलब साफ है कि वह रूमानियत प्रसादजी के मन की बात है. और सिद्ध सत्य है कि बिना कुछ हुए सिर्फ हवा में तो मन में भी कुछ बनता-पकता नहीं. सो, इसके आधार व प्रमाण भी हैं, जो अभी आगे आकलित होंगे. 

अभी यह कि दुर्गादत्त जैसे तिसरइते की इस राष्ट्रीय चेतना के बाद ‘उसकी’ की तलाश में दो ऐसे परिणाम मिलते हैं, जिन्हें पारिवारिक कहा जा सकता है. जो घर व सगे-सम्बन्धियों की तरफ से बड़े सु-मन व सलीके से आये हैं. अपने प्रयोजन में तो इन्हें बालमत, लोकमत कहा जाना चाहिए, पर उद्भव व प्रवृत्ति में ये बालमन और लोकमन ठहरते हैं.

 

(प्रसाद परिसर में उनका शिव मंदिर)

(चार)

घटित के कालक्रम के अनुसार बालमन को पहले लिया जाये, तो यह प्रकरण सिर्फ कवि के मौसेरे भाई मुकुन्दीलाल गुप्त के यहाँ मिलता है, जो इस कार्य के एक महत्त्वपूर्ण सामग्री-स्रोत भी सिद्ध हुए हैं. उनका यह प्रकरण प्रसादजी की शुरुआती रचना ‘प्रेमपथिक’ से बावस्ता है. उसे कई बार पढ़ने के बाद एक मुँहलगे अनुज की तरह उन्होंने प्रसादजी से पूछा था– ‘भइया मैं ‘प्रेमपथिक का रहस्य जानना चाहता हूँ. उसे पढ़कर मुझे शंका होती है’.

प्रसादजी का उत्तर था– ‘कुछ शंकाएं ऐसी होती हैं, जिनका समाधान किया नहीं जाता, हो जाता है. ‘प्रेमपथिक’ को पढ़ना ही उसका समाधान है’. ऐसे उत्तर देकर बहला देना प्रसादजी को आता था. यह बहलाना सामने वाले की औकात व स्तर का होता था. कभी विनोद व्यासजी ने पूछा, तो कह दिया– ‘जब लिखना, तो बताना – फोटो दे दूँगा’.

जब कलकत्ते में छात्रों ने ‘शशिमुख पर घूँघट डाले...’ वाले छंद का आशय पूछा, तो यह कहकर टाल गये कि जिस मानसिक दशा में लिखा था, उस दशा में पहुँचूँगा, तभी उत्तर दे सकूँगा. इस पर बच्चों ने कह दिया– आप तो शेक्सपीयर जैसी बातें कर रहे हैं, तो प्रसादजी का प्रति उत्तर पुन: रोचक रहा– ‘मैं क्या जानूँ शेक्सपीयर वग़ैरह मुझे तो अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं आती’. (वाङमय – 246). ख़ैर,

कहना होगा कि प्रसादजी की एक रचना-प्रवृत्ति है आँसू, जो उनकी तमाम कविताओं में वापी-कूप-तड़ागादि के किसी न किसी रूप में मिलती है. परंतु वही प्रवृत्ति ‘आँसू’ में आके नदी बन जाती है. और इसी रूपक को आगे बढ़ायें, तो फिर ऐसे उमगती है कि ‘नदी उमगि अम्बुधि महँ जाई’ को गोया सार्थक करती हुई ‘कामायनी’ में अगाध समुद्र बन जाती है. इस प्रवाह के उत्तरोत्तर क्रम में तीन प्रमुख पड़ाव पड़ते हैं – प्रेमपथिक, आँसू और कामायनी. वही प्रवृत्ति व भाव ‘प्रेमपथिक’ में कथात्मक रूप-शैली में अन्य पुरुष में व्यक्त होकर सामान्य (जनरल) बनकर रह गया है. फिर भी अनुज मुकुन्दी का प्रश्न बना है, जिसका अहसास हर पाठक को भी हो सकता है. और वही भाव ‘कामायनी’ में पात्रमय-कथामय रूप धरकर, महाकाव्य के विधान में ढलकर दर्शन की विराटता में पर्यवसित होकर अति विशिष्ट हो गया है.

यही विशिष्टता न होती, तो वहाँ भी यही प्रश्न बनता, तात्पर्य यह कि ‘आँसू’ ही वह पड़ाव है, जहाँ सीधी समक्षता हुई है. मध्यम पुरुष (‘तुम सुमन नोचते-फिरते’...आदि) के सम्बोधन में ‘उसकी’ के सामने होने का अहसास भी साकार होता है. यहाँ माध्यम व रूपबन्ध का कोई अवगुण्ठन नहीं है. अवगुण्ठन तोड़ा-फाड़ा नहीं गया है– हटा दिया गया है, बल्कि हट गया है– गोकि इतना नहीं हटा कि उतना खुल जाये, जितना कि कला-समक्षता के लिए ग़ालिबन दरकार है-

‘वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्दे-नक़ाबे हुस्न, ग़ैर अज़ निग़ाह अब कोई हाइल नहीं रहा’–

यानी आवरण रह ही न जाये. यहाँ आवरण है– भले सघन न होकर झीना ही सही, जिसमें से उस प्रिय के प्रति हृदय की असीम वेदना कवि की एकालापी गीतमयता में उमड़ पड़ी है– ‘वेदना असीम गरजती’. अत: सारे सवालों-चर्चाओं का केन्द्र ‘आँसू’ बन गया है.

इस शृंखला में मुकुन्दी के सवाल में ‘उसकी’ की तलाश का एक मामला ख़ूब बनता है. हालाँकि वह सवाल ‘प्रेमपथिक’ से है, किंतु काफी दूर तक जा सकता है. और प्रसादजी के न बताने के बावजूद मुकुन्दी ने ‘उसकी’ का एक रहस्य या एक ‘उसकी’ का राज़ जान लिया, बचपन में एक सजातीय परिवार से प्रसादजी का घरेलू सम्पर्क रहा. वे उस सगोत्रीय परिवार से बहुत घुलमिल गये. उस परिवार में एक प्राय: हमउम्र बालिका थी. दोनो साथ खेला करते थे. किशोरावस्था में आते-आते यह खेल उस सुन्दर किशोरी के प्रति घनिष्ठता में बदलता गया, जो युवावस्था में प्रवेश करते-करते ‘हृदयग्राही प्रेम’ में परिणत हो गया– यानी ‘लरिकइंअवा के परेम’ बन गया- बालमन. समय पाकर उन्होंने अपनी आदरणीया भाभी से परामर्श किया. इस तरह रहस्य जान पाने का सूत्र मुकुन्दी ने कहके बतलाया नहीं है, लेकिन वह प्रकट हो जा रहा है और पुख़्ता भी ठहरता है. भाभी का उत्तर था– ‘तुम दोनों विवाह-सूत्र में नहीं बँध सकते, क्योंकि रक्तगत अंतर अभी सात पुरुषों का नहीं हुआ है’. यानी उस परिवार को इस जाति में आके अभी सात पुश्तें नहीं बीती हैं कि पूर्ण जातीय शुद्धता बने. सो, इस सम्बन्ध की परिणति दुखांत ही रही (वाङमय-223). यह उद्घाटन मुकुन्दी ने प्रसादजी को बता भी दिया और उनसे ‘जिद्दी’ की उपाधि भी पा ली. इस व्रण को व्यक्त करती ‘प्रेमपथिक’ की दो पंक्तियां–

‘रूखा शीशा जो टूटे तो हर कोई सुन पाता है, कुचला जाना हृदय-कुसुम का किसे सुनायी पडता है? 

कालांतर में उस युवती का अन्यत्र विवाह हुआ, जिसमें कवि निस्संग भाव से सम्मिलित भी रहे. इसे मुकुन्दीजी ने प्रसादजी के ‘अनुपम चारित्र्य’ का प्रमाण माना है. लेकिन ऐसे प्रेमांत और शादी में ऐसी मौजूदगियां उस समय की एक विवश प्रेमी-प्रवृत्ति रही कि जब प्रेमिका का सिन्दूर-दान हो रहा है, मुहल्ले या पड़ोस का प्रेमी बारातियों को भाजी परसते हुए उसकी तिखास के बहाने अपने ‘आँसू’ पोछ रहा होता है– ‘कुचला जाना हृदय-कुसुम का किसे सुनायी पड़ता है’?

उसके बाद से मुकुन्दी जब भी ‘प्रेमपथिक’ पढ़ते, कवि के भग्न हृदय की भावना उनके समक्ष मूर्त्त हो जाती. मुकुन्दी ने ‘आँसू’ का नाम लिया नहीं, पर क्या ‘प्रेमपथिक’ के भग्न हृदय की वही ‘घनीभूत पीड़ा’ ही यहाँ ‘आँसू’ बनकर तो नहीं बरस रही है? उसी किशोरी प्रेयसी की स्मृति ही ‘प्रेमपथिक’ के बाद ‘आँसू’ का भी पाथेय तो नहीं बनी है? स्रोत सही है और घनीभूत पीड़ा की स्मृति का कालांतर में बरसने की पूरी प्रक्रिया व सारे परिणामों की कसौटी पर ख़रा उतरता है. स्मृति में छायी ‘उसकी’ का सटीक तोड़ देता है,  लेकिन अभी और आगे चलें.. 

और लोकमन पर आयें, जिस तरह सुखमय जीवन-काल में ‘आँसू’ के लिखे जाने में किसी प्रिय के अनहोने (न होने) या किसी दुखद भाव के अभाव को व्याख्यायित किया गया, उसी तरह अपने ख़ासों एवं शुद्धतावादियों की तरफ से इसमें औरों के साथ कुछ ऐसा भी आना ही था या उन्हें ऐसा लाना ही था, जो लोक-अनुमोदित हो, और लोक में दाम्पत्य प्रेम ही काम्य है. वही चिरकाल में आदर-सम्मान पाता है – सराहनीय-आदरणीय बनता है.

और इधर प्रसादजी की पहली पत्नी बिन्ध्यवासिनी देवी की सुन्दरता व शालीनता की धनक प्रसाद-विषयक अध्ययन-मनन एवं परिवार-जनों से संवाद के दौरान बराबर सुनी जा सकती है. उनके प्रति प्रसादजी की अनुरक्ति का अहसास निरन्तर होता है. उनके दिये नाम ‘प्रसाद’ का कवि द्वारा अंतरिम स्वीकार और गृह-त्याग की अवधि में उनके नाम वाले स्थल ‘विन्ध्य’ पर वास, आदि सन्दर्भ पीछे आये भी हैं. लेकिन यहाँ इस सन्दर्भ को विवेचित करने के आधार हैं- रत्नशंकरजी के उल्लेख... उन्होंने ‘कानन कुसुम’ की अवतरणिका में बड़ी स्पष्ट चर्चा की है और ‘उसकी’ को लेकर तमाम वाह्य अनुमानों का खुला प्रतिवाद भी किया है. रत्नजी ने इस स्मृति और पीड़ा को विशेषत: कवि की प्रथम पत्नी से जोड़ते हुए धारणा बनायी कि ‘उसकी’ यानी बिन्ध्यवासिनी देवी की, जो कवि को बहुत प्रिय थीं.

रत्नजी अपनी बात का सिरा कवि की भाभी लखरानी देवी से जोड़ते हुए लिखते हैं- ‘बिन्ध्यवासिनी देवी को लखरानी देवी लावण्य की देवोपम एक ज्योतिमती मूर्त्ति मानती थीं. वे बताती थीं कि बहू के गले से उतरती पान की पीक झलकती थी. यह मूर्त्त पहचान अप्रतिम सौन्दर्य के मानक रूप में प्रतिष्ठित है– एलिज़ाबेथ के साथ चस्पा है. और यहीं से अपनी बात मिलाते हुए रत्नजी लिखते हैं–

‘सौन्दर्य लावण्य के द्वारा ही अनुप्राणित रहता है अथवा उत्क्रांत लावण्य अपनी घनीभूत अवस्था में जहाँ उद्योतित होता है, वहाँ सौन्दर्य की प्रतिष्ठा पद-ग्रहण करती है. सुतरां सौन्दर्य का आंतरहेतु लावण्य है. ‘आँसू’’ की ये पंक्तियां इस प्रसंग से आसूत्रित हैं, जिसके प्रियतम को लेकर प्राय: अनर्गल अनुमान लगाने का साहस करना कवि पर कुछ लिखने वालों का स्वभाव-सा हो गया है– ‘लावण्य शैल राई सा, जिस पर वारी बलिहारी, उस कमनीयता कला की सुषमा थी प्यारी-प्यारी’.

फिर बिन्ध्यवासिनीजी की जानिब से रत्नजी अपनी बात शुरू करते हैं– प्राचीन लिच्छवी वंश के प्रत्यंत पर जन्म लेने वाली देवि बिन्ध्यवासिनी का शरीर जिन परमाणुओं से रचित रहा, कदाचित् वे उन अंतर्जात व लिच्छवी संस्कारों से संवलित रहे’. इसका प्रमाण देते हुए वे उद्धृत करते हैं ‘काव्य कला एवं अन्य निबन्ध’ से प्रसादजी का कथन–

“(लिच्छवियों की) अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आंतर-स्पर्श करके भाव-समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति-छाया कांतिमती होती है”. और फिर इसका सूत्र जोड़ते हुए कहते हैं–
‘कवि के अंतर्जगत पर वह छाया ‘आँसू’ में जाकर कुछ इस प्रकार घनीभूत हुई
, जिसका परिणाम-बिम्ब ‘कामायनी’ के ‘स्वप्न सर्ग’ की इन पंक्तियों में उस स्वप्नभूत जगत का एक इतिवृत्तपरक चित्र सँजोये है –

‘मानस का स्मृति-शतदल खिलता, झरते बिन्दु मरन्द घने,

मोती कठिन पारदर्शी ये इनमें कितने चित्र बने I

आँसू सरल तरल विद्युत्कण नयनालोक बिरहतम में,

प्राणपथिक यह सम्बल लेकर लगा कल्पना-जग रचने॥ 

‘कामायनी’ के इस ‘स्मृति-शतदल’ के साथ रत्नजी ‘स्कन्दगुप्त’ से मातृगुप्त का वाक्य भी उद्धृत करते हैं– ‘वह स्मृति दूसरे प्रकार की होगी. उसमें ज्वाला न होगी, धुआँ उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुँधली होकर सामने आयेगी’ (चतुर्थ अंक, तृतीय दृश्य). यही स्मृति ‘कानन कुसुम’ के ‘समर्पण’ में भी बड़ी गहनता से प्रकट हुई है, जिसका भी उल्लेख रचना-क्रम के अंतर्गत ‘कानन कुसुम’ के सन्दर्भ में हुआ है. इस सारी क़वायद का मंतव्य यही रहा कि ‘आँसू’ की ‘उसकी स्मृति’ किसी अन्या की नहीं, वरन परिणीता पत्नी की है- स्वकीया प्रेम की है. और वह इतनी विशद है कि पूरे प्रसाद-साहित्य में यत्र-तत्र व्याप्त है.

किंतु इस तर्क-प्रमाण के पूरे विधान के समक्ष पहला और सबसे बड़ा सवाल यही है कि यदि बात इतनी शिष्ट थी, तो स्पष्ट कहने में क्या हर्ज़ था? बल्कि ज्यादा गौरव की बात होती– अधिक सम्मान्य व सबके लिए सराहनीय. फिर ‘उसकी स्मृति’ भी क्यों कहते, ‘प्रिया की स्मृति’ न कहते– निराला के राम की तरह ‘उद्धार प्रिया का कर न सका’! आँसू को स्वर्गीया विन्ध्यवासिनी के नाम समर्पित कर सकते थे, जिसके लिए उनके जैसी प्रतिभा के शब्दकोश में एक से एक मसृण-अनुरागमय सम्बोधन होते, फिर इसे अवगुण्ठन-आवरण में क्यों रखा गया?

दूसरी बात यह कि पत्नी पर ऐसे पूरा काव्य लिखने का कोई सीधा-सधा प्रमाण भी नहीं है. क्योंकि पत्नियां तो मिल जाती हैं– और प्राय: बिना तरद्दुत के. फिर क्या मज़ा? मज़ा तो ‘पाने में नहीं, पाने के अरमानों में’ होता है –‘पा जाता, तो हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला’. फिर वह अरमान अप्राप्त रहकर टूटे, तो काव्य बने, चित्र-मूर्त्ति बने, लेकिन यह पत्नी की नियति से उलट है. हाँ, इस सन्दर्भ में ‘निशा निमंत्रण’ व ‘एकांत संगीत’ के नाम लिये जाते हैं, जहाँ प्रेयसी-पत्नी से असमय चिर-विछोह हुआ था. लेकिन इन कृतियों का भी अंतरिम सच यह है कि ये दोनों काव्य लिखे जरूर गये हैं पहली पत्नी श्यामा की मृत्यु के बाद, पर वे पत्नी-वियोग की पीड़ा के नहीं, मूलत: कवि की पीड़ा के गान बनकर रह गये हैं. इनमें पत्नी श्यामा की स्मृति उस तरह नहीं आती. उनकी याद में फुटकर कवितायें अन्यत्र हैं, जो काफी स्पष्ट भी हैं. उनमें कोई अवगुण्ठन नहीं है. 

बच्चनजी के अलावा केदारनाथजी ने पत्नी की 28वीं जयंती पर इसी नाम से कविता लिखी है. और भी कवियों ने कुछ-कुछ कविताएं लिखी हैं, तो बिल्कुल स्पष्ट ही लिखी हैं– कह-बता के. कोई अवगुण्ठन नहीं रखा है. और इन कविताओं में मेरे देखे-लेखे न वह दर्द आया है, न ‘आँसू’ जैसा उच्च स्तरीय काव्यत्व, जो प्रसादजी के समक्ष अपनी-अपनी औकात का भी मामला है. पत्नी के प्रति तुलसीदास के भीषण प्रेम की कथा है, जिसमें पत्नी की फटकार से उनके महाकवि बन जाने की बात आती है, लेकिन फिर काव्य में रत्नावली कहीं नहीं आतीं. हाँ, सीता-हरण के बाद पत्नी-वियोग में राम रोते हैं, ‘रघुवंश’ में पत्नी-मृत्यु पर ‘अज-विलाप’ विख्यात है. इनमें परित्यक्त तुलसी व विधुर कालिदास के अपने भाव आ गये हों, तो आश्चर्य नहीं, पर इनके भी उस तरह संज्ञान तक नहीं लिये गये हैं. उदाहरण देने की रौ में नागार्जुनजी के ‘अज रोया या तुम रोये थे’ के सिवा किसी ने शायद ही राम व अज के विलापों को तुलसी व कालिदास से जोड़कर देखा हो...! इस प्रकार इन संक्षिप्त उल्लेखों के विवेचनों से सिद्ध है कि दाम्पत्य व इतर प्रेम को लेकर सामाजिक चलनों से बनी मनोवैज्ञानिकता के तहत ही सही, किंतु पत्नी-वियोग अब तक अमूमन सीधे-सीधे किसी बड़े काव्य की प्रेरणा न बन सका, प्रतिफलित न हो सका..., जिसका अपवाद शायद प्रसादजी भी न हों.... अस्तु,

श्यामा धुन सरल रसीली- अब ‘उसकी स्मृति’ को लेकर उस कुतूहल की तरफ चलें, जो इस प्रसंग की अति ख्याति का सबब है. इसमें ‘उसकी’ के लिए अन्या रूप में प्रेमिका का प्रमाण भी सामने है यानी ‘कौन थी वह’ में परकीया के भी ऐसे-ऐसे जीवंत व पुष्ट उल्लेख हैं, जो क़तई नज़रन्दाज़ नहीं किये जा सकते.

इस सन्दर्भ में जो नाम चर्चा के केन्द्र में है, वह श्यामा गौनहारिन का है. इसकी बावत सबसे पहले सीताराम चतुर्वेदीजी का उल्लेख देखें, जिन्होंने ‘उसकी स्मृति’ का सन्धान करते हुए बिना किसी संकोच-सन्देह के निछद्दम भाव से सीधे-सीधे यूँ लिखा है, जैसे कोई प्रत्यक्ष देखी-सुनी कथा हो-

‘प्रसादजी का ‘आँसू’ लघु काव्य उनकी व्यक्तिगत भावना का उद्गार है. काशी में श्यामा नाम की विवाहिता गौनहारिन कबीरचौरा मुहल्ले में रहती थी. वह ठुमरी, टप्पा, कजरी और चैती गाने में दूर-दूर तक विख्यात थी. यों तो काशी में बड़े रामदास, छोटे रामदास, सिद्धेश्वरी बाई ...आदि ठुमरी के प्रसिद्ध संगीतकार थे, लेकिन चैती और कजरी में श्यामा की जोड़ का कोई न था’ (अंतरंग-94).

रात-रात भर होने वाले कजरी के तमाम दंगलों में ‘जिस हाव-भाव के साथ श्यामा सुनाती थी, वहाँ तक कोई न पहुँच सका. प्रसादजी को उसकी ठुमरी, चैती, कजरी सुनने का बड़ा चाव था. वे अपने घर पर न सुनकर अन्य स्थानों पर उसके गायन की योजना कराते थे, जिसका पूरा प्रबन्ध वे और विनोदशंकर व्यास ही करते. संयोग से अकस्मात थोड़ी अवस्था में श्यामा का निधन हो गया, जिससे प्रसादजी को बड़ा धक्का लगा. यद्यपि उन्होंने उस समय तो कोई रचना नहीं की, किंतु बहुत वर्षों के पश्चात ‘आँसू’ की रचना कर डाली, जिसके आरम्भ में ही कहा–

‘जो घनीभूत पीड़ा थी...’.

इस छंद से ही ज्ञात होता है कि बरसों पहले जिसका निधन हुआ था, उसकी स्मृति उनके मन में निरंतर घूमती रही और अंत में कविता के रूप में प्रकट हुई. यों तो काशी में श्यामा की गायन-शैली के प्रशंसक बहुत थे, तथापि एक प्रसादजी ही ऐसे थे, जिनकी कल्पना में ‘शशिमुख पर घूँघट डाले, आँचल में दीप छिपाये’ वह निरंतर आती रहती थी, जिसे उन्होंने काव्य-समाधि देकर ‘आँसू’ में चिरस्मरणीय कर दिया है (वही- 95).

चतुर्वेदीजी ने कला-आयोजन के रूप में वाह्य जीवन की जानिब से प्रसादजी के अंतस् में बसी श्यामा की चर्चा की है, लेकिन प्रसादजी के घर में श्यामा के प्रवेश का मुख़्तसर-सा जिक्र संकोच के साथ सन्दिग्ध ढंग से किया है मैत्रेयी सिंह ने, जो बचपन से ही पारिवारिक रूप से प्रसादजी के घर के भीतर तक नियमित आने-जाने वाले लोगों में थीं. वह भी प्रसाद-मन्दिर में किसी मांगलिक आयोजन का ही अवसर था. प्रसादजी की भावज के साथ मैत्रेयी की माँ की ‘खुसुर-फुसुर’ चल रही थी. प्रसादजी किसी काम से आँगन का दरवाज़ा पार करके जैसे ही अन्दर घुसे, वैसे ही गोरी-सी एक लम्बी महिला उठी. उसके दाँत अति पान खाने से काले पड़ चुके थे. उसने एक हाथ फैलाकर प्रसादजी की तरफ गाने के लहजे में कुछ ऐसा गाया कि वे फिर उलटे पाँव वापस लौट गये, महिलाएं गाना रोककर एक दूसरे से इशारे-इशारे में कुछ कहने लगीं. उस इशारे का अर्थ कुछ ऐसा था, जिसे क्या कहूँ, समझ में नहीं आता. उस महिला का नाम श्यामा था. वह गौनहारिन थी’ (अंतरंग-102-3).

प्रसादजी के काफी घनिष्ठ विनोदशंकर व्यास ने श्यामा की बावत कुछ प्रच्छन्न यानी ‘छिपाते-छिपाते बयां’ करने के बदले बयां करने के बाद छिपाने के अन्दाज़ में लिखा है–

‘बनारस के धनी परिवारों में संगीत व मनोरंजन के लिए गौनहारिनें आया करती थीं. उनका ‘घरेलू संगीत विला’ महीने में दो-एक बार हर घर में चलता. प्रसादजी के भाई के समय में रजवंती नाम की विख्यात गौनहारिन आती. उसके साथ श्यामा नाम की एक कथकिन भी होती. वह दुबली-पतली, सँवलिया रंग की थी. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं व लम्बा क़द था. प्रसाद बड़े हंसमुख और दिल्लगी पसन्द थे. मजाक में ही यह सम्बन्ध बढ़ता गया, श्यामा हारमोनियम बजाकर गाती थी, उसकी आवाज ज़ोरों से लड़ती थी. उसमें कोई सौन्दर्य तो न था, पर हाव-भाव-प्रदर्शन करने में कुशल थी. प्रसादजी के पड़ोस में मेरे एक सम्बन्धी रहते थे, उनसे भी उसका संबन्ध था. प्रसादजी के मकान के सामने एक दूसरा मकान था. उसमें भगवती नाम की वेश्या प्राय: आती थी. उसके सम्बन्ध में दिल खोलकर एक दिन सब वृत्तांत उन्होंने मुझसे कहा था. प्रसादजी के शब्दों में वह उन पर रीझ उठी थी. एक दिन 10-15 हजार के आभूषण लेकर वह आयी. कहा ‘यह सब मेरी सम्पत्ति है. मेरी कोई व्यवस्था कर दीजिए. अब मैं बाज़ार में बैठकर व्यवसाय नहीं करना चाहती. प्रसादजी चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे. वे इस स्थायी झंझट में नहीं फँसना चाहते थे. इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रसादजी का आकर्षण उसके प्रति था. वह सुन्दरी थी और सरल भी. स्पष्ट शब्दों में कुछ न कहकर दूसरे प्रयत्नों से प्रसादजी उससे अलग हुए. (भगवती के इस तथ्य पर सम्पादक रत्न शंकर प्रसाद की टिप्पणी है कि वह प्रसादजी के बड़े भाई शम्भू प्रसादजी के समय में रहती थी. उनके निधन के बाद विरक्त होकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया. प्रसादजी ने आभूषण नहीं लिये, पर उसकी व्यवस्था कर दी (139). 

 

(प्रसाद जी के पौत्र किरण शंकर प्रसाद के साथ लेखक) 

(पांच)

प्रसादजी युवावस्था से ही दृढ़ प्रकृति के पुरुष थे. वे भावावेश में किसी के कब्जे में फँसना नहीं चाहते थे.  

व्यासजी के पूछने पर भी ‘आँसू’ की प्रेरणा के ‘रहस्य को उन्होंने नहीं खोला’ (वही-145). इस प्रसंग का पटाक्षेप व्यासजी यूँ करते हैं– ‘जिन दिनों प्रसादजी वासना की दुर्बल रेखाओं पर भटक रहे थे, जन्मे पुत्र के मरने का विशेष प्रभाव पडा. फिर कभी उस ओर उनका ध्यान न गया’

श्यामा की बावत सबसे विस्तार से उसी राय कृष्णदास ने लिखा है, जिन्होंने ‘आँसू’ की रचना के दौरान कवि के सुखमय जीवन की हामी भरते किसी दुखद जीवन-प्रसंग से इनकार किया है.  उन्होंने प्रसाद कालीन समय के समाज में नाचने गाने वाली स्त्रियों, जो अधिकतर वेश्याएं हुआ करती थीं, को अपने यहाँ रखैल की तरह रखने की अमीराना (सामंती) प्रवृत्तियों के चलनों का करीने से विश्लेषण भी किया गया है. ऐसा करते हुए उन्होंने पहले इस प्रसंग पर लिखने की अपनी अधिकृत स्थिति स्पष्ट की है–

“1909 ईस्वी से प्रसादजी के अवसान तक मैंने उन्हें निकट से निकट तक निरखा है. उनके अंतस् में पैठा हूँ. उनकी समूची गतिविधि से अवगत रहा हूँ. उनके हृदय का कोना-कोना मेरे लिए उन्मुक्त रहा है. इसी बूते पर लगभग 1910 से 14 तक का जो समय उनके विलासी जीवन का अथ से इतिश्री है, उसका यथार्थ चित्र उरेहना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ”.

फिर मूल बात पर आते हैं –

“बनारस की एक बिरादरी का पेशा है– ‘संगीत–गीतं-वाद्यं तथा नृत्यं त्रीभि: संगीतमुच्यते’. उन परिवारों में कुछ ऐसी युवतियां भी होती थीं, जो संगीत-प्रवीण होकर केवल भले घरों में अपनी कला प्रस्तुत करती थीं. जब किसी बड़े घर में कोई शुभ कार्य या उत्सव होता, तब उस मांगलिक वातावरण को अंत:पुर में मुखरित होने के लिए वे बुलायी जातीं. कभी-कभी तो ऐसे अवसरों पर प्रमुदित महिला-मण्डली सारी रात जागी रहती., उसे ‘रतजगा’ (‘आज तेरी महफ़िल में रतजगा है’) कहा जाता.

इसी प्रकार के किसी समारोह में प्रसादजी के घर में एक रूपसी युवती का प्रवेश हुआ. उसकी कला एवं अदा ऐसी लुभावनी थी कि वह अक्सर बुलायी जाने लगी. उसका नाम था श्यामा.  ऐसे अवसर भी आये, जब प्रसादजी की निग़ाह उस पर पड़ी और उसकी रसभरी आयत आँखों ने उन्हें आकृष्ट कर लिया. भगवान ने उसे सूरत के साथ सीरत भी दी थी. वह निस्सन्देह प्रेम-परायणा थी, अर्थपरायणा नाम मात्र ही. प्रसादजी के भवन के सामने ही एक विस्तीर्ण कच्चा चबूतरा था, उसके बीच में ही एक छोटी-सी सुबुक बँगलिया. रंग-बिरंगे सुन्दर-सुन्दर फूलपत्तियों वाले गमलों से वहाँ बहुत रमणीयता रहती. उसी में उसे वास मिला. उन दिनों अधिकांश कुलांगनाओं की मनोवृत्ति यह थी कि यदि उन्हें पति का पूर्ण प्रेम प्राप्त होता, तो उनमें पति की रक्षिता के प्रति सौतिया डाह नहीं होता. उनके पति-प्रेम में आराध्य भाव भी होता. ऐसे सम्बन्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण यह होता कि यदि हमारे प्रति आराध्य का अनुराग अक्षुण्ण है, तो उनकी मौज में हमें सुख है. यही अनुकूल परिस्थिति प्रसादजी के अंत:पुर में थी. उनकी प्रेमिका के लिए उनकी जनानी ड्योढ़ी का द्वार सदैव उन्मुक्त रहा. प्रसादजी जब हवा खाने गाड़ी पर निकलते, तब कभी-कभी मर्दानी पोशाक में उसे भी संग लिये रहते. एक दिन मेरे यहाँ फाटक तक आकर न जाने क्यों सकुच गये– उलटे पाँव लौट गये. कई दिन बाद खुले. प्रसादजी का जीवन एक खुली किताब थी.

इस जीवन में वे ढाई-तीन वर्ष रमे रहे. उभय पक्ष से कभी कोई बेवफाई नहीं हुई. प्रसादजी स्वयमेव एक दिन निवृत्त-वर्ष हो गये. जब उपरत हुए, तब सदा के लिए उपरत हुए. कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, न ही मन में कोई वासना या पछतावा रहा. उनके जीवन की यही विशेषता थी. ‘जीवन-समुद्र थिर हो’ गया, तो सदा के लिए हो गया. श्यामा अपने सारे आभूषण उन्हें सौंपने लगी, तो उन्होंने बिना किसी रुखाई के दृढ़तापूर्वक ना कर दिया. झंझटों से वे दूर रहा करते. इसके बाद एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उसका कुछ पता-ठिकाना है? उन्होंने तटस्थ भाव से कहा – ‘सुना, मर गयी’. किंतु कई बरस बीत जाने पर वह अकस्मात प्रकट हुई. ‘अरे तुम’...?- प्रसादजी ने उसे देखकर निस्संग भाव से साश्चर्य पूछा. बरसों से जिसको वे मृत  समझते थे, उसे अचानक देखकर उनका चकित होना स्वाभाविक था. फिर वह अन्दर चली गयी. (वाङमय-174-75).

इसके बाद उसका क्या हुआ, का पता कृष्णदासजी की कहानी नहीं देती. यानी दासजी का सरोकार श्यामा से नहीं, सिर्फ प्रसादजी के साथ उसके लस्तगे तक था.  

 

(प्रसाद जी के पौत्र आनंद शंकर प्रसाद के साथ लेखक और छात्र) 


(छह)

उक्त तीनों जन के उल्लेखों के आधार पर कहें, तो पहली बात यह कि प्रसादजी के जीवन में  श्यामा का होना निर्विवाद है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि विनोदजी व रायजी के लेख प्रसादजी के पुत्र रत्नशंकरजी के ही सम्पादकत्व में छपे हैं, लेकिन उन्होंने कोई पादटिप्पणी नहीं दी है, जैसा कि उन तमाम तथ्यों पर देते रहे हैं, जो उन्हें सही नहीं लगे हैं. दूसरी बात कि उक्त तीनो-चारो मतों से स्पष्ट हो रहा है कि प्रसादजी के परिवार, आदि प्रकरणों की तरह श्यामा के साथ उनके सम्बन्ध की नियति भी पुराण बन गयी है. 

जितने लोगों ने लिखे, सबके अलग-अलग संस्करण इसके प्रमाण हैं. लेकिन उसका गौनहारिन होना तय है, क्योंकि सभी इस तथ्य पर एकमत हैं. बाकी तो मैत्रेयी सिंह का उल्लेख बरायनाम भर है, जिसमें श्यामा के प्रसाद-मन्दिर के भीतर धड़ल्ले से आने-जाने व उन्हें सबके सामने भी छेड़ने भर का वास्ता बना है. उनके कहे में श्यामा का रंग गोरा था, लेकिन बाकी दोनों मित्रों ने साँवला ही बताया है. छूटते हुए श्यामा द्वारा गहने वापस करने या उसी थाती के भरोसे गृही होकर शेष जीवन बिताने की बात भी सबकी अलग-अलग है. विनोदजी उसे सुरूपा भी नहीं मानते– बस नाज़-ओ-अदा भर की हामी भरते हैं. ‘आवाज लड़ती थी’ में गायन को भी दाद नहीं ही मिलती. बड़ा चलता-सा विवरण उसके वेश्यापने का भी देते हैं कि प्रसाद के साथ वाले काल में ही उसका किसी और के यहाँ भी आना-जाना था. लेकिन रायजी उसकी सूरत-सीरत दोनो की तारीफ करते हैं. जाते हुए वह सारे गहने लौटाने को उद्यत थी, के प्रमाण के साथ उसे अर्थपरायणा न होकर प्रेमपरायणा बताते हुए उसके वफ़ादार प्रेमिका रूप को भी सामने लाते हैं. बस, अंत का पता कोई नहीं देता. 

मैत्रेयी का तो अज्ञान है, लेकिन दोनो मित्रों को तो पता रहा होगा. सो, इसमें श्यामा के प्रति उपेक्षाभाव ही जाहिर होता है, जो विवाहेतर सम्बन्ध व फिर गौनहारिन जैसे तबके से होने के कारण ही हुआ होगा. और मूल बात यह कि ‘आँसू’ की प्रेरणा या उस कृति की अनाम वास्तविक नायिका अथवा ‘उसकी स्मृति’ में श्यामा के पाथेय होने, न होने की चर्चा तक दोनों में से कोई नहीं करता. इन मित्रों के लिए प्रसादजी के जीवन में श्यामा का होना एक घटनामात्र है. 

इस दृष्टि से सिर्फ़ सीताराम चतुर्वेदी के यहाँ ही प्रसाद-श्यामा-प्रसंग की सही और आँसू-श्यामा की एक पूरी इकाई (यूनिट) बनती है, जिसमें कवि की प्रेयसी के रूप में ‘आँसू’ की प्रेरणा व नायिका के पद पर चौचक आसीन है श्यामा. वे अकस्मात मृत्यु में उसका अंत भी बताते हैं, जिससे वियोग का ठोस मामला भी बनता है. और इस तरह शायद पीठ पीछे चलती चर्चाओं का इसमें मुकम्मल नेतृत्व भी हुआ है. चतुर्वेदीजी ने ‘शशिमुख पर घूँघट डाले...’ में श्यामा की छबि का सन्धान किया है और ‘जो घनीभूत पीड़ा थी’...का परथोक दिया है. और ‘आँसू’ की काव्य-समाधि देकर श्यामा की स्मृति को अमर कर देने के रूप में सुन्दर समापन किया है. यह एक सम्पूर्ण एवं स्पष्ट विवेचन है, जिसे किसी और तर्क-प्रमाण की दरकार नहीं....

किंतु ‘आँसू’ में कुछ और संकेत मौजूद है, जिनके साक्ष्य में कृति के माध्यम से थोड़ी और चर्चा की जा सकती है.... ‘उसकी स्मृति’ के सर्वनाम को ‘श्यामा’ की संज्ञा से जोड़ने के प्रमाण स्वरूप बड़ी बारीक काव्यात्मकता लिये हुए एक छंद बड़े खाँटी रूप में श्यामा को साकार करता है– चातक की चकित पुकारें, श्यामा-धुन सरल रसीली ; उसकी करुणार्द्र कथा की टुकड़ी आँसू से गीली.

इसके अतिरिक्त खींच-तानकर प्रयुक्त हुए श्यामा नाम के कुछ और संकेत भी मिलते हैं, जिनके लाक्षणिक अर्थ भी उस भाव को ध्वनित करते देखे जा सकते हैं –

सुख तृप्त हृदय कोने को ढँकती तम-श्यामल छाया, मधु स्वप्निल ताराओं की, जब चलती अभिनय माया

घन में सुन्दर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी, आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक-सी

श्यामल अंचल धरणी का भर मुक्ता आँसू कन से, छूँछा बादल बन आया मैं प्रेम प्रभात गगन से

तुम स्पर्शहीन अनुभव-सी, नन्दन तमाल के तल से, जग छा दो श्याम-लता सी, तन्द्रा पल्लव विह्वल से

और इन सबको मिलाकर ‘आँसू’ की ‘स्मृति’ में श्यामा की स्मृति का संधान असम्भव नहीं.  

लेकिन फिर भी इसकी व्यावहारिक प्रामाणिकता सन्दिग्ध नहीं, तो विचारणीय अवश्य है. जैसे कि रायकृष्णदास तो प्रसादजी के बेहद घनिष्ठ थे. प्रसादजी भी उनके प्रेम-प्रकरण, आदि में राज़दार रहे (वाङमय 172-73 के आधार पर). यानी यह मैत्री कृष्णार्जुन के ‘विक्रांतानि-रतानि च’ जैसी थी. विनोदजी की भी मित्रता कुछेक मनभेदों के बावजूद काफी गहरी थी. इन लोगों का ऐसा न कहना चतुर्वेदीजी के कहने के मुकाबले काफी मायने रखता है. गो कि यही मित्रता इस बात की भी संकेतक हो सकती है कि मित्रों ने असलियत को इरादतन बदलकर (ट्विस्ट करके) ‘आँसू’ के कवित्व व प्रसादजी के व्यक्तित्व को एक गरिमा देने का उपक्रम भी किया हो.

इस उपक्रम के तहत विनोदजी का मामला जरा उघड़ा हुआ है. जीवनी-लेखन को लेकर उनकी   कुछ प्राथमिक मान्यताएं रहीं, जिसमें वे पाश्चात्य देशों में लेखक के जीवन की साधारण से साधारण बातों की छान-बीन और उनके सम्पूर्ण जीवन का विवरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति के  ख़ासे पक्ष में लगते हैं. कुछ का उन्होंने मुख़्तसर ही सही, खुला विवेचन किया भी है. वहाँ जीवनी-लेखन में कितने जीवनीकारों का अपना जीवन लग जाता है, जिसके लिए उन्हें पर्याप्त सम्मान व महत्त्व मिलता है. इस परिपाटी से मुतासिर होकर इसी प्रभाव में जब व्यासजी ने ‘देशदूत’ साप्ताहिक में गौनहारिन के साथ प्रसादजी के सम्बन्ध की बात लिख दी, तो लोगों की नाग़वार प्रतिक्रियाएं आने लगीं. इससे आहत व उद्वेलित होकर उन्होंने आँधी, घण्टी, चूड़ीवाली... आदि निराश्रित भटकती प्रसादीय पात्राओं के जरिए प्रसादजी के अनुभूत सत्य की तस्दीक भी की (‘दिन-रात’ - पृष्ठ 3-4 के आधार पर).

लेकिन फिर शायद लोगों के नाग़वार लगने के असर में आकर वाङमय वाले लेख में आगे चलकर यह भी लिख दिया कि ‘आँसू’ व ‘कामायनी’ के रचयिता को केवल एक गौनहारिन और एक वेश्या से प्रेरणा मिली हो, यह सम्भव-सा नहीं दीखता’ (पृष्ठ 145). इस स्वतोव्याघात से उनकी बात साफ न होके उलझ जाती है.

फिर व्यासजी व रायजी दोनो के विवेचनों में एक ऐसी बात है, जो बेहद सालने वाली है. दोनों में बिल्कुल साफ है कि श्यामा के जाने के बाद प्रसादजी के मन में उसके लिए कुछ बचा न था– यहाँ तक कि उसका क्या हुआ, की भी उन्हें परवाह न थी.  

 

(सात)

जैसे ‘प्रेमपथिक’ के लिए प्रसादजी ने कहा था मुकुन्दीलाल से कि ‘प्रेम पथिक’ को पढ़ना ही उसकी समस्या का समाधान है, उसी तरह ‘आँसू’ को पढ़ना ही ‘उसकी स्मृति के पाथेय’ को समझना है. और यह सच ‘प्रेम पथिक’ व ‘आँसू’ का ही नहीं है, पूरे प्रसाद-साहित्य का है. दिनकरजी ने ‘उर्वशी’ की भूमिका में लिखा है कि समस्याओं के समाधान व प्रश्नों के उत्तर देना नेताओं का काम है. कवि तो बस पीड़ा को जानता-समझता है. और यह बात अपनी-अपनी तरह से बहुतों ने कही है – ‘पीड़ा मे आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला’ या ‘पीड़ा में तुमको ढूँढ़ा, तुममें ढूँढूँगी पीड़ा’...आदि. प्रसादीय वृत्ति भी यही है कि पीड़ा के लिए काव्य को ढूँढा और फिर काव्य को पीड़ा का रहस्य या रहस्य की पीड़ा बनाकर सिरजा. सिरजना चाहे सधे उस पड़ोसी बालिका मित्र के साथ, जिसे चाहकर भी अपना न सके, चाहे सधे श्यामा के साथ, जिसे चाहा और अपनाया, पर अपनाये रह न सके...चाहे और-और भी कुछ-कुछ या अधिक-अधिक हो. पर यह सच है कि जीवन भर पीड़ा सिरजते-निभाते यानी बीनते-बुनते रहे.... ऐसा बीना-बुना कि उसे उधड़ने-उघड़ने न दिया.... उधड़-उघड़ गया होता, तो आज यह अध्याय न होता. और पूरा प्रसाद-काव्य ही कहीं न कहीं उधड़ जाता.... 

प्रसाद-काव्य का यह अवगुण्ठन अपने जीवन से ज्यादा कविता का अवगुण्ठन है. कविता-कामिनी ही वह प्रेमिका है, जिससे मिलन-वियोग की आँखमिचौली ही रहा कवि का जीवन. और इस सत्य से अनुपम कोई तथ्य न होगा. यहाँ जो तथ्य दिये गये, जो व्याख्यायें हुईं, वे अवगुण्ठनों को खोलने के लिए नहीं, उसके साथ खेलने के लिए हुईं. यह खेल भी कवि का ही बनाया हुआ है, जिसे तभी से सारे पाठक-समीक्षक खेल रहे हैं कवि के इशारे पर. तब से कवि ही खेला भी रहा है.... बाबा तुलसी के प्रतीक में कहें, तो हम नाच रहे हैं - कवि नचा रहा है, ताल दे-दे के नचा रहा –

‘अनुहरि ताल गतिहिं नट नाचा’.

सो, प्रसादजी के ताल पर हम सब नट हैं.... और नट होने का भी अपना मज़ा है – बल्कि असली मज़ा तो यही है. और प्रसादजी के लिए तो दुनिया के होने का सच ही यही है –

‘‘यह नीड़ मनोहर कृतियों का यह विश्वकर्म रंगस्थल है,

है परम्परा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है”.
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सत्यदेव त्रिपाठी
satyadevtripathi@gmail.com

रज़ा : जैसा मैंने देखा (११) : अखिलेश

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इधर कुछ दशकों में हिन्दुस्तानी होने की गरिमा और संभावना दोनों को नष्ट कर दिया गया है,हजारो सालों से विकसित हुई सभ्यता को एकरेखीय बनाने का खलकर्म इतने बड़े पैमाने पर और हिंसक ढंग से हो रहा है कि आज यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कोई चित्रकार जिसका नाम रज़ा है वह सहज ढंग से मंदिर भी जाता था,चित्रों को प्रणाम करके उनपर काम शुरू करता था,महाभारत की कथाएं सुनता था. और अपने चित्रों पर देवनागरी में मंत्र तक लिखता था. और उसने अपना अब तक का अर्जित सबकुछ साहित्य और कला के लिए समर्पित कर दिया.

कहाँ आ गए हैं हम ?

विश्व प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के जीवन और चित्रकारी पर आधारित स्तम्भ, ‘रज़ा जैसा मैंने देखा’ की यह ग्यारहवीं क़िस्त है. हमेशा की तरह मार्मिक और समृद्ध करने वाला.

प्रस्तुत है. 

 


रज़ा : जैसा मैंने देखा (१1) 

जानीन के बिना रज़ा का एकांत और गोरबियो की सुंदरता 
अखिलेश 


जानीन की मृत्यु के बाद रज़ा बिलकुल बदल गए. सिर्फ़ एक बात नहीं बदली. वह था उनका चित्र बनाना. रज़ा को पता था कि मैं आज आ रहा हूँ. हालाँकि मेरी फ्लाइट जल्दी आ गयी थी और मैं रज़ा के घर कुछ जल्दी ही पहुँच गया था. अपना सूटकेस दरवाजे पर छोड़ सामने की रेस्तरॉं में कॉफ़ी पीकर समय काटने चला गया था. सात बजे जब लौटा, रज़ा खिड़की में खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे. उन्होंने हाथ हिलाकर स्वागत किया. चेहरे पर एक मुस्कान दिखी. ऊपर पहुँचा, वे दरवाजा खोल कर खड़े हुए मिले. मुझे देख उनके चेहरे पर ख़ुशी की चमक साफ दिख रही थी. मैंने प्रणाम किया. रज़ा ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया और पकड़े रहे. रज़ा संकोच में कई बातें नहीं करते हैं और उनके हाथ वे सब मुझसे कह रहे थे. जानीन के जाने का दुःख उनके हाथों से बहकर मुझे गीला कर रहा था. रज़ा भावुक व्यक्ति नहीं हैं. वे अपने को बाहर से भी देख सकने की क्षमता रखते हैं. मेरा हाथ पकड़े हुए ही वे मुझे भीतर ले गए. उनकी मेज पर दो कप चाय बनी रखी थी. हम दोनों ने निःशब्द चाय पी और रज़ा कुछ बिखरे-सिमटे से लगे. रज़ा उदास थे जानीन के बगैर घर शान्त था. बिस्तर के ऊपर जानीन को भेंट में दिया रज़ा का चित्र लगा था. यह चित्र भी फीका.

घर में मौजूद इस गहरी चुप्पी में मैंने महसूस किया कि जानीन का होना उनके बहुत से कामों में नज़र आता था. वे लगातार काम करती रहती थीं, बात करती रहती थीं. वे किसी भी कमरे में हों वहाँ से भी उनकी बात जारी रहती थी. वे इस कमरे से उस कमरे में आती-जाती रहती और घर-भर में सक्रियता बनी रहती. उनकी उपस्थिति में घर का केन्द्र लगातार बदलता रहता था. जानीन का काम कभी ख़त्म न होने वाला काम था. इस बीच कब नाश्ता तैयार किया, कब वे सबके साथ बैठ चाय पी रही हैं यह सब अब इस घर में नहीं हो रहा था. एक गहरी उदास ख़ामोशी की परत में से रज़ा की आवाज़ भी कभी-कभी अनजानी लगती शायद रज़ा को भी. वे भी इस अनजान आवाज़ से घबरा कर चुप रहा करते. इस घर में आलोकित कमरा सिर्फ़ रज़ा का स्टूडियो था. घर की बाकी जगहें स्थगित सी चुप हैं. जानीन अपने साथ घर भी ले गयीं.



रज़ा ने पिछली बार की तरह मुझे हर बात-जगह बताई मानों मैं पहली बार उनके घर आ रहा हूँ. उनके संग्रह के सारे चित्र भी दिखाये और मेरी रुकने की जगह भी. वह कमरा भी और पलंग भी जिस पर इस बार दूसरी चादर बिछी थी. कोई गुजरात की रबारी जनजाति द्वारा बनाई हुई. रज़ा की चाल में फ़र्क़ आ गया था. ये चाल विश्वास भरी न थी. उनके भटके क़दम मुझे छोड़ कर चले गए. बारह बजे मिलना तय हुआ. बारह बजे मैं पहुँचा. वे काम कर रहे थे. एक बड़ा सा कैनवास लगा हुआ था. शान्ति-बिंदू बन रहा था. (रज़ा ने यह शीर्षक बाद में दिया) इन दिनों रज़ा की रंग-पैलेट पर सफ़ेद रंग का आधिक्य था. वे एक प्रदर्शनी भी कर चुके थे, जिसमें लगभग सभी चित्र उनकी रंग-प्रसिद्धि के ख़िलाफ़ सिर्फ सफ़ेद रंगों के थे. यह कहना गलत होगा कि रज़ा के जीवन में अध्यात्म का अधिकार हो चुका है. वे इन सफ़ेद रंगों के प्रति आकर्षित पहले से थे और बीच-बीच में इसका प्रमाण उनके चित्र देते भी रहे. रज़ा के साथ सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि वे रंगों के प्रति अतिरिक्त चौकन्ने हैं. उनके अनेक चित्रों में हम देखते हैं सफ़ेद रंग की बुनियादी उपस्थिति. वे सफ़ेद रंग को रंग की तरह बरतते हैं. यह समझ बहुत कम चित्रकारों में दिखाई देती है. जयश्री चक्रवर्ती दूसरी चित्रकार हैं जो सफ़ेद रंग को रंग की तरह लगाने की क्षमता रखती हैं. उनके लगाए हुए सफ़ेद रंग में उसका भाव भी दिखाई देता है. अक्सर लगाया हुआ सफ़ेद रंग की तरह नहीं दिखता. बल्कि छूटे हुए कागज़ या कैनवास की तरह दिखता है. रज़ा के लिए सभी रंग सावधान हैं और उनका उपयोग उन्हें जीवन्त कर देता है. बहुत पहले रज़ा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"मैं चाहता हूँ कि मैं सफ़ेद रंग में कुछ चित्रित करूँ, जिसमें हीरे जैसी चमक, चन्द्रमा की पवित्रता हो, जो कि प्रकृति में एक रसिक के जीवन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करे, और इस सीमा तक चले जाये कि उसकी आख़िरी सबसे बड़ी अभिलाषा अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक हो, जो कि मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी मानवीय महत्वाकांक्षा हो सकती है." 

रज़ा अपनी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा चित्रित कर रहे हैं? उनके सफ़ेद रंगों के चित्र भी अन्य रंगों की आभा लिए होते हैं. रज़ा की सोच ही ऐसी है जिसमें रंग समाये हैं. वे सफ़ेद भी लगाए और लाल की प्रतिभा का अहसास न हो यह सम्भव नहीं है और इसी तरह लाल लगायें और सफ़ेद की शान्त उपस्थिति न महसूस हो यह भी नहीं हो सकता. मैं रज़ा को काम करते हुए देख रहा था. रज़ा तल्लीन थे चित्र बनाने में. उनका ध्यान गहरा था उनकी क्रियाएँ लयबद्ध हैं. वे मानों कोई संगीत रचना के कंडक्टर हों. जिनके इशारे पर बाकी सब रच रहे हैं. रज़ा को काम करते देखना भी अनुभव है. मैंने हुसैन, स्वामीनाथन, अम्बादास, हिम्मत शाह, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, मंजीत बावा, अमिताव दास आदि कलाकारों को काम के एकान्त में देखा है. जिसमें रज़ा का अनुभव उनमें बेहद अलग है. हुसैन का लापरवाह रहते हुए एकाग्र होना किसी को भी प्रभावित कर सकता है.

रज़ा अपने ब्रश चुनने को लेकर भी सजग हैं हुसैन के लिए कोई भी ब्रश काम आ सकता है. रज़ा को वही ब्रश चाहिए. रज़ा की एकाग्रता में गम्भीरता है और हुसैन कभी कहीं भी एकाग्र हो सकते हैं. एक बात जो मुझे इन दोनों के काम-व्यवहार से समझ आयी कि इनके लिए चित्रकार होना उनकी आत्म-छवि है. आज-कल के चित्रकार बड़े गर्व से यह कहते हैं कि पिछले छह महीनों से पेंट करने का मूड नहीं बन रहा इसलिए चित्र नहीं बना रहा हूँ. उसका मूड सिनेमा जाने, पिकनिक मनाने, पार्टी करने का चौबीसों घण्टे रहता. बस चित्र बनाने का काम उसे नहीं करना होता है. बहुत से चित्रकारों की आत्म-छवि चित्रकार  की न होकर किसी की भी होती है और यही उनके मूड को संचालित करती है. इसमें अवसाद इसलिए भी जल्दी घेर लेता है कि वे चित्र नहीं बना रहे होते हैं और यश चित्रकार का चाहने लगते हैं. रूडी वान लेडन ने रज़ा के रंगों को बारीकी से देखा है वे लिखते हैं : 

"रंग की सीमित समझ और रंग द्वारा सर्जित स्पेस के परिसीमित दायरों को तोड़कर सम्पूर्ण अनुभूति के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश कर गया. इस रूपांतरण ने ऐसे प्रबल भावावेग की रचना की कि उसकी सबसे अच्छी व्याख्या करते हुए रज़ा के सृजन-विकास के इस काल-खण्ड को प्रेमी का काल-खण्ड कहा जा सकता है.  रंगों को बरतने का यह उल्लसित रंग-व्यवहार, यह रंग-लेप भी जीना, प्रेम के मात्र एक विधान के रूप में ही समझा जा सकता है. उनके रंग समग्र रूप से अर्थ छटा की नितान्त नयी रंगत ले लेते हैं. काले और भूरे, पर्शियन ब्लू के वृहदाकार धूमिल आवेगों के बरक्स चटकीले लाल, पीले वर्ण अलग से दिखाई देते हैं.  रंगों के समुद्र में, पिघलती, घुलती-मिलती आकृतियाँ जो किसी तरह भी अव्यवस्थित और द्रवीकृत नहीं है अपितु चित्र के स्पेस के भीतर गतिमान और विकसित होने के आभास देती है."

जब रूडी रंग की सीमित समझ की बात कर रहे हैं तब उनका इशारा रज़ा के पहले के चित्रों की तरफ़ है. रज़ा का फ्रांस पहुँचना और यूरोपीय चित्रकला से साबका होना उनके ऊपर गहरे प्रभाव छोड़ता है. कुछ समय के लिए उनकी रंग-पैलेट पर धूसर और भूरे रंग की भरमार दिखाई देती है. इसे हम उनकी रंग-समझ के इजाफ़े का समय कह सकते हैं. रज़ा हिन्दुस्तान से गए थे. यूरोप जहाँ ज्यादातर समय सूरज की रोशनी नहीं होती है. सर पर बादलों का रंग अवसाद लिए खड़ा रहता है दृश्य में कोई चमक या सफ़ाई नहीं दिखाई देती है. अक्सर सब कुछ धुँधला दृश्य में घुला होता है ऐसे में कलाकार की रंग-पसन्द ख़ास तरह के ग्रे और धूसर भूरे से भरी होती है. रज़ा ने भी इन रंगों से सम्बन्ध बनाये और उस दौरान के अनेक दृश्य चित्र में हमें यही रंग देखने को मिलते हैं.



रूडी इसी दौर की कलाकृतियों की बात कर रहे हैं. यही रंग-समझ को बढ़ाने वाली एक प्रक्रिया हो सकती है शायद. रज़ा ने कुछ बरस इन्हीं रंगों में काम किया और उनके फ़्रेंच-दृश्य चित्र इसी रंगों में बने हैं. बीच-बीच में रज़ा का रंग-संस्कार जोर मारता भी मिलता है जहाँ रज़ा अपनी पुरानी रंग-पैलेट का इस्तेमाल करते दिखते हैं. वैन गॉग के शुरूआती चित्रों में भी इन्ही डल ग्रे, धूसर भूरे रंग का बोलबाला दिखाई देता है. वह भी चमकदार नीले और उल्लसित पीले की तरफ बाद में ही आता है. यह कोई आम प्रक्रिया नहीं है जिसका पालन कर कोई भी रंग-प्रयोग सीख सकता है यह संयोग है जो दो चित्रकारों के जीवन में घटा. सभी चित्रकार के लिए रंग-समझ नितान्त व्यक्तिगत मामला है. कई चित्रकार मरने तक रंग नहीं लगा पाते. और कई रंग से डरते हुए सुरक्षित रंग-प्रयोग से चित्र बनाते रहते हैं. उनकी पैलेट के रंग जीवन भर वही रहते हैं जिसे वे अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर चढ़ाये रखते हैं.

रज़ा के लिए सफ़ेद रंग भारतीय रंग-विधान से आता है. उसमें सफ़ेद रंग सात्विक रंग है. जो सम्भवतः ऑफ-वाइट (off-White) की तरह होगा. यह मनुष्य की सात्विक प्रवृत्ति का द्योतक है. सफ़ेद रंग का कोई वर्ण नहीं होता. यह अकेला रंग है जिसकी रंगते पाने के लिए दूसरा रंग मिलाना होता है. रज़ा के ये चित्र सफ़ेद के साथ मिलाये गए काले,नीले, भूरे की रंगत लिए हुए हैं. इनमें सफ़ेद ढूँढना ग़लती होगी. सफ़ेद कहीं नहीं दिखेगा किन्तु उसका अहसास सात्विक है. रज़ा का आधिपत्य सभी रंगो पर समान है. उनके रंग उजास लिए हुए दर्शक से बात करते हैं, वे अपने उजाले से आलोकित हैं. उस आलोक में सभी रंग आलोकित हो जाते हैं. रज़ा के रंग उदास नहीं होते, न करते हैं. वे प्रफुल्लित हैं उनसे निकली आभा दर्शक को चकित करती है अपने आगोश में ले लेती है.

रज़ा ने काम ख़त्म किया. वे पलटे मुझे सोफ़ा पर बैठे देखा और हल्के से पूछा कैसा है ? मैंने बतलाया सफ़ेद की सात्विकता का आभास. रज़ा मुस्कराये और बोले-

"कोशिश है कि रंग समझ कर लगाऊँ. उनका सम्वाद होना चाहिए. रंग एक दूसरे के पूरक हैं. उनका सम्वाद उस बालक की तरह है जो दुनिया में पैदा हो गया है और चलना सीखे, बोलना, देखना सीखे और आश्चर्य से इस दुनिया को देखे. वह बात करता है समझने के लिए, वह दूसरे को जानना चाहता है. दूसरा उसे बतलाना चाहता है यहाँ सम्वाद होता है, बच्चा अपना स्वभाव पाता है, पसंद, ना-पसन्द करता है. चलो कुछ खाना हो जाये."

हम दोनों रसोई घर में आये. उनकी काम  करने वाली महिला तीन दिन का खाना बना कर फ्रिज़ में रख गई थी. आज दूसरा दिन है. रज़ा के लिए खाना खाना एक उबाऊ प्रक्रिया है ऐसा लगा. उन्होंने दो प्लेट में कुछ खाना निकाला और हम दोनों खाने की मेज पर बैठे. खाना जितना बे स्वाद सोचा था उससे ज्यादा ख़राब और ठण्डा था. रज़ा खाने से निरपेक्ष खाना खा रहे थे. मेरे लिए मुश्किल था. रज़ा भाँप गए यह मुश्किल और बोले शाम को रेस्तराँ चलेंगे. खाना खाकर रज़ा थोड़ा आराम करते हैं. मैं पेरिस घूमने चला गया. लूव्र खुल गया था. एक लम्बी कतार लगी थी. मैं भी उस कतार में शामिल हो गया और टिकिट लेकर अन्दर जब पहुँचा उसकी विशालता देख मुझे लगा कि शायद ही मोनालिसा देखने को मिले.  किन्तु वहाँ संकेत लगे हुए थे मोनालिसा किस तरफ़ है. ज्यादातर लोग उसी तरफ जा रहे थे. मैं विशाल मूर्त्ति-शिल्प देखते हुए उसी तरफ बढ़ रहा था.

कुछ ही समय बाद मैं मोनालिसा के सामने था. यह अद्वितीय कला कृति सामने थी जिसे पिछली यात्रा में नहीं देख सका था और उसका वैभव उन दर्शकों  में फैला हुआ था जो उसे घेरे खड़े थे. दुनिया भर के दर्शक वहाँ थे. देखना मुश्किल था. पास जाना और मुश्किल. मैंने वहीँ से देखा और दोबारा आने का संकल्प कर उस पर ध्यान हटा कर अच्छा-खासा समय लूव्र में बिताया. शाम को मैं जब घर पहुँचा रज़ा साहब ने दो कप चाय बनाई हुई थी. वे अपनी चाय पी रहे थे और मेरा कप भरा रखा हुआ था. मैंने सोचा आप लौटकर आयेंगे और चाय पीना चाहेंगे तो मैंने बना ली है. मोनालिसा देखी ? उन्हें पता था मैं लूव्र जाऊँगा. मैंने बताया क्या क्या हुआ और चाय पीकर हमलोग स्टूडियो में पहुँचे. रज़ा का चित्र वहीँ रुका हुआ था. रज़ा ने चित्र को देख हाथ जोड़ प्रणाम किया और जा पहुँचे अपनी जगह पर. मैं सोफ़ा पर बैठ उन्हें देखते हुए कुछ और भी देखता रहा. वहाँ कई पुस्तकें रखी थी. कविता हिन्दी और फ्रेंच. कुछ कैटलॉग कुछ ब्रोशर. धीरे धीरे चित्र का विस्तार हो रहा था. रज़ा लगन और एकाग्रता से चित्र बनाने में मशगूल थे. मुझे अशोक जी का लिखा रज़ा स्टूडियो का वर्णन ध्यान आया :

"रज़ा के स्टूडियो का वर्णन करना कठिन है. फर्श के एक हिस्से पर रंग के ट्यूबों, ब्रशों, कपों, कई तरह के औजारों के अलावा ईज़ल पर कई आकार के सफ़ेद कैनवास, फिर पुस्तकों के रैक्स-कला, हिन्दी और फ्रेंच कविता की पुस्तकें, कैटलॉग, पत्रिकाओं का ढेर, चिट्ठियाँ, पाम्पेदू सेन्टर, मैक्ट फ़ाउंडेशन आदि के निमन्त्रण-पत्र, एक कामकाजी मेज़ जिस पर कई घड़ियाँ हैं जिनमें से एक हमेशा  भारत का समय दिखाती है. एक शिवलिंग, कुछ जैन लघु चित्र, एक शंख, महात्मा गाँधी का एक चित्र, एक शालिग्राम, काँसे के कई गणेश, किसी देवी की काष्ठ मूर्त्ति (सदियों पुरानी दीवार पर), पाब्लो पिकासो का एक स्केच, कोने में एक छोटा-सा मन्दिर, दीवारों पे कुछ पोस्टर, कबीर, तुकाराम, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, मुक्ति बोध, ग़ालिब, इक़बाल, सूरदास, महादेवी, मजाज, रिल्के, रेम्बों आदि के कविता संग्रह आदि. मेज पर एक फ़ोन, बगल की छोटी मेज पर एक फैक्स मशीन."

वर्षों तक यह स्टूडियो ऐसा ही रहा. सिर्फ बदलने वाली बात ईज़ल पर लगे चित्र होते थे. बन जाने पर कुछ दिन वे पीछे की दीवार से टिके रखे रहते और एक दिन चले जाते. रज़ा का लगातार चित्र बनाना उन्हें प्रेरित करता रहता था. वे जानीन का ग़म भी इन्हीं रंगों में घोलने की कोशिश करते और लगातार असफल हो रहे थे. शाम को उन्होंने अपना काम ख़त्म किया और उन्होंने बढ़िया स्कॉच निकाली. उसके साथ के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान से लाया हुआ नमकीन भी प्लेट में निकाला. यह उनके लिए कोई मित्र लेकर आया था. मैंने देखा इन दिनों उनकी शाम रसरंजन के अतिरेक में बीतने लगी है. उन्हें डॉक्टर ने भी मना किया हुआ था. और वे वर्टिगो की दवाई भी लम्बे समय से ले रहे थे. किन्तु उन्हें समझाना मुश्किल था. उन्हें याद था शाम को खाना खाने बाहर जाने का. और उस शाम हम उनके घर के नीचे वाली फ़्रेंच रेस्तराँ में गए. खाना लजीज था साथ में रेड वाइन. 



अगले कुछ दिनों में हम दक्षिणी फ्रांस में रज़ा के गर्मियों वाले घर जाने की तैयारियों में व्यस्त रहे. पेरिस में सुजाता बजाज, युवा चित्रकार अपने पति रुने और बिटिया हेलेना के साथ रज़ा के घर आया करती थीं. उन्होंने बड़ी मदद की रज़ा को ट्रैन के टिकिट बुक कराने और यात्रा की तैयारियों को पूरी करने में. उनसे ही पेरिस की कई जगहों के बारे में मालूमात भी हुआ, जहाँ जरूरत की चीज़े मिलती हैं जिसकी सख़्त जरूरत अचानक रज़ा को महसूस होती थी और उसे लेने उन्हें जाना होता था. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा रज़ा पेरिस में नितान्त अकेले हैं. वे घबरा जाते थे जब कोई टैक्स का नोटिस आ जाता या पानी-बिजली का बिल, इनकम-टैक्स भरने के वक़्त उन्हें उसकी सामान्य प्रक्रियाएँ कठिन और न समझने वाली लगती. वे झुँझला जाते, खीजने लगते. कभी-कभी टैक्स लॉयर पर चिल्ला उठते. उन्हें समझाना मुश्किल हो जाता. वे सब काम छोड़कर बिस्तर पर जा लेटते और जानीन को याद करने लगते. अभी तक यह सारा काम जानीन करती आयीं थी और रज़ा को पता भी न था पेरिस में जीने के लिए अन्य सरकारी नियम, कायदे-कानून, जो सख़्त भी थे और समय पर पूरे किये जाने होते थे. ऐसे समय में सुजाता ही काम आती और आगे बढ़कर सुविधानुसार रज़ा को समझाती. तब जाकर एक दिन का काम कई दिन में पूरा होता. जानीन रज़ा की दूसरी पत्नी थीं. उनकी पहली पत्नी से निकाह दमोह में ही हुआ था और विभाजन के वक़्त वे रज़ा के साथ बम्बई में रहा करती थीं. कल्याण में रज़ा के पास किराये का एक बड़ा सा घर था जिसमें रज़ा, उनकी पत्नी और माँ साथ रहा करते थे. रज़ा हफ़्ते में दो बार बम्बई जाया करते. बाकी समय वे यहीं रहकर चित्र बनाया करते थे. उनकी पत्नी अक्सर बीमार रहती थीं और विभाजन के वक़्त उनके पिता और परिवार के अन्य सदस्य पाकिस्तान चले गए. यह भी उनके लिए कष्टप्रद था. उनकी पत्नी भी दो साल बाद, सम्भवतः रज़ा की माँ की मृत्यु के बाद, अपने पिता के पास पाकिस्तान चली गयीं. उसके अगले वर्ष ही रज़ा पेरिस आ गए और तलाक लेने तक लगातार अपनी पत्नी के सम्पर्क में रहे.

रज़ा के लिए स्टूडियो का एकान्त एकमात्र जगह थी जहाँ वे सुरक्षित महसूस करते. रंगों के बीच. कैनवास की सतह पर.

जानीन से रज़ा की मुलाक़ात इकोल द'बोज़ार में ही हुई थी और वे उन दिनों प्रिंट मेकिंग की पढ़ाई कर रही थीं. यहीं उनकी दोस्ती गहरी हुई और इन छात्र-छात्राओं का समूह छुट्टियों में फ्रांस के सुदूर अँचलों में घूमने जाया करता था. रज़ा को दृश्यचित्रण के लिए अनेक नयी- नयी जगह जाने को मिलता था और इस तरह फ्रांस को जानने का भी. इन्हीं यात्राओं में पहली बार गोर्बियो जाना भी हुआ और वहाँ जानीन के माता-पिता से मिलना भी. गोर्बियो में जानीन के परिवार की पुश्तैनी क़ब्र भी है यह रज़ा को उसी यात्रा में मालूम हुआ. जानीन खुद बहुत मेहनती और प्रतिभाशाली कलाकार थीं. उन्होंने बरसों प्रिंट बनाये फिर उनका झुकाव मूर्तिशिल्प की तरफ़ हुआ उन्होंने कई शिल्प बनाये जिसे बनाने के लिए पारम्परिक सामग्री का इस्तेमाल नहीं करती थी. अनेक शिल्प फॉउन्ड-ऑब्जेक्ट्स के थे और कई बार वे त्रिआयामी न होते हुए चित्र की तरह दोआयामी हुआ करते थे. बाद के दिनों में वे कोलाज करती थीं जिसमें वे चाय की थैलियों (Sachet) का इस्तेमाल करती थी. उनकी इन कलाकृतियों को बहुत पसन्द किया जाता था. उनके इस कोलाज से प्रभावित होकर रज़ा के अनन्य मित्र बाल छाबड़ा की पत्नी जीत छाबड़ा ने भी कोलाज करना शुरू किया और कुछ बहुत ही सुन्दर कोलाज बनाये. इन कलाकृतियों की कई प्रदर्शनी जानीन ने की और वे पेरिस के कलाकारों के बीच चर्चित कलाकार रहीं. जानीन एक ऐसी कलाकार हैं जो अपनी धुन की पक्की और आसानी से समझौता न करने वाली थीं. वे किसी भी हद तक जा सकती थी अपनी जिद में और अंत में उन्हीं को सफलता मिलती थी. उन्हें चित्रकला के नए माध्यम आकर्षित करते रहे और उनमें यह क्षमता थी कि वे इन माध्यमों से जल्दी ही अपना सम्बन्ध बना लेती. उन्हें भारतीय खाने और पहनावे से बहुत प्रेम था. वे खुद कई तरह का खाना बनाना जानती थी और ऐसा भी न था कि उनकी मर्जी के बग़ैर घर में कोई काम हो जाये. रज़ा उनका बहुत ख्याल रखते रहे और अक्सर उन दोनों के बीच जिद और मनाने के दिलचस्प वाकये हुआ करते थे. रज़ा के लिए जानीन ही सब कुछ थीं. और जानीन रज़ा से अज्ञेय की वह कविता 'हँसती रहना'समय-समय पर'सुना करतीं.

रज़ा का पेरिस जानीन तक था और जानीन इस बात को जानती थीं. रज़ा की रुचि भी नहीं थी स्टूडियो से बाहर की दुनिया में. शायद ही कभी वे फिल्म देखने की इच्छा रखे हों. शायद ही कभी उन्हें बाहर के किसी कार्यक्रम में रुचि हुई हो. वे करते थे ये सब किन्तु उनकी मर्जी से नहीं. जानीन के लिए. जानीन बेहद संवेदनशील कलाकार थीं उनकी कलाकृतियों में वे हमेशा नए माध्यम के सहारे अपनी अभिव्यक्ति को पाने का प्रयास करती और वे अपनी कलाकृतियों से निरपेक्ष भी रहा करती. उन्हें काम करते देखना भी अपने में अनुभव है. वे तल्लीनता से अपने काम में मग्न अनेक तरह की चीजों से घिरी रहती थीं. उनका यह 'कबाड़', रज़ा मजाक में उस सामग्री को कबाड़ कहा करते थे, चारों तरफ़ बिखरा होता था और कब कौनसी चीज कहाँ लगेगी इसका अनुमान लगाना कठिन होता था.

जानीन को काम करते वक़्त तेज संगीत सुनना पसन्द था. संगीत लहरियों में डूबी उस कबाड़ से करिश्मा ढूँढ निकालने का काम वे सहज ही कर लिया करती और उनकी कलाकृति आखिर तक पूरी नहीं होती थी वे प्रदर्शनी में लगी कलाकृति में भी कभी कुछ जोड़ सकती हैं इसकी सम्भावना खुली रहती. उनके लिए चित्र बनाना और एक दुर्लभ खाने की नयी रेसेपी को आजमाना समान चुनौती और आनन्द का विषय था. वे खुद रुचि का पर्याय थीं. उनके घर में कोई ऐसी वस्तु नहीं दिख सकती जिसे लेने के पहले उन्होंने सोच-विचार न किया हो. सादगी और सुरुचि जानीन को प्रिय थे. अब जानीन नहीं थीं रज़ा के लिए हर बात एक मुश्किल थी. घर में रज़ा ने अपने सोने के बिस्तर के ठीक ऊपर वह छोटा सा चित्र टाँग रखा था जो उन्होंने जानीन को उन दिनों भेंट किया था जब वे दोनों प्रेम में थे. इसका महत्व दोनों के लिए बराबर था. यह खूबसूरत चित्र था और रज़ा के पेरिस में आने और भारतीय स्मृतियाँ न छूटने की याद दिलाता चित्र था. रज़ा और जानीन दोनों को यह चित्र पसन्द था. रज़ा रोज जब सोने जाते उस चित्र को देखते और जानीन की स्मृति को प्रणाम करते थे. यह वो चित्र था बाद में जिसे एक कला संग्राहक चुरा ले गया. रज़ा की जगह कोई और होता तो इस बात का बतंगड़ बना देता मगर रज़ा ने मुझसे सिर्फ इतना कहा कि क्या कोई पेंटिंग चुरा सकता है?   

गोर्बियो एक बहुत ही सुन्दर छोटा सा गांव है दक्षिणी फ्रांस की पहाड़ियों पर बसा. इस गांव में एक गिरिजा घर, एक रेस्तराँ, कुछ दुकानें और बहुत ही कम लोग रहते हैं. यहाँ रज़ा ने पहले शातो (किले) का एक हिस्सा ख़रीदा हुआ था जहाँ उनका स्टूडियो और छोटा सा घर था. उसका दूसरा हिस्सा खरीद कर उसे बढाने के विचार उन्होंने उम्र के तकाजे के कारण त्याग दिया. रज़ा और जानीन जब यहाँ चार महीनों के लिए आते थे तब ऊपर तक सामान के साथ चढ़कर जाना सम्भव था. धीरे-धीरे यह मुश्किल काम होने लगा. सो रज़ा ने गोर्बियों की सीमा के बाहर अपना नया स्टूडियो बनाया. जो सड़क से लगा हुआ है. उनका यह स्टूडियो-घर उन्होंने बहुत प्रेम और सावधानी से बनाया, जिसमें जरूरत की सभी चीजे मौजूद थी. ऊपर स्टूडियो था जिसके सामने बड़ा सा बरामदा और कुछ सीढ़ियाँ उतर कर एक बड़ा बगीचा, नीचे उनका घर जो एक कमरे और बड़े से आँगन का था. घर से लगी एक ढलान है जो नीचे बह रही जलधारा तक जाती है. यह कोई नदी न थी. बस पहाड़ों से आता पानी था. जो एक छोटी सी जलधारा में बदल गया था. रज़ा के लिए यह जगह उनके मण्डला के एकान्त के नजदीक थी. एक तरफ से उनका घर जंगलों के बीच नज़र आता है दूसरे वह सड़क से लगा हुआ था.

रज़ा पेरिस से मांतों तक रेल से आते और यहाँ कार से. रज़ा के लिए यहाँ आना कुछ-कुछ भारी भरकम सामान के साथ आना है जिसे चार सूटकेस में भर कर लाया जाता रहा. बाद में कुछ किफ़ायत बरतना शुरू हुआ किन्तु रज़ा के लिए यह समझ पाना मुश्किल होता था कि यहाँ वह सब मिल सकता है जो पेरिस में मिलता है. वे अपनी जरूरत का हर सामान जो कि ज्यादातर चित्र बनाने के लिए ही होता था साथ ले जाते थे और ख़त्म होने पर मांतों में एक दुकान से ख़रीदा करते. यहाँ के लोगों के लिए रज़ा महत्वपूर्ण व्यक्ति थे और जानीन की सबसे दोस्ती थी. जब मौसम ज्यादा ख़राब होता जिसमें बर्फ गिरना भी शामिल है तब रज़ा और जानीन मांतों के अपने दो कमरों के फ्लैट में चले जाते थे. यह दो कमरों का फ्लैट एक दस मंजिला इमारत में था. सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त. जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था सेंट्रल हीटिंग सिस्टम का होना.

रज़ा के साथ जब हम लोग यहाँ पहुँचे तब कुछ दिन घर में ठीक-ठाक होने में लगे और जैसे ही सब कुछ सामान्य हुआ हम लोग मांतों से लगी सीमा पार इटली के पौधे की नर्सरी में गए और रज़ा ने वहाँ से तुलसी का पौधा ख़रीदा, कुछ फूलों के पौधे जिन्हें उनका माली आकर दूसरे दिन बगीचे में लगा गया. रज़ा ने बतलाया हर साल तुलसी का पौधा लाना पड़ता है यहाँ की ठण्ड में सारा बगीचा बर्बाद हो जाता है. उनके घर के बगीचे में वह तुलसी का पौधा कुछ ही दिनों में अपनी जड़े पकड़ चुका था. दूसरे फूलों के पौधे भी  थे. 



रज़ा सुबह से चित्र बनाना शुरू करते और दोपहर के खाने तक वे काम करते. दिनचर्या  ही थी. रविवार को सुबह चर्च जाते. लौटते में जानीन की कब्र पर ताजे फूल रखने जाते. नियमित होने में रज़ा की तुलना किसी कलाकार से नहीं की जा सकती. शाम को जानीन की याद और अवसाद भी नियमित था. रज़ा का संघर्ष खुद से था. वे खुद को सम्हालने की चेष्टा लगातार कर रहे थे और उनका ध्यान सिर्फ चित्र बनाते वक़्त ही एकाग्र होता. बाकी समय भटका रहता. उसी दौरान शाम के रसरंजन में मैंने उन्हें महाभारत और रामायण की क्षेपक कथायें सुनाना शुरू किया और यह वो जगह थी जहाँ रज़ा की रुचि मुझे दिखाई दी. उन्हें इसमें आनन्द आने लगा और वे कथा में से कथा निकलती देख और देवताओं का मानवीय स्वभाव सुन कर चकित होते और उसकी प्रशंसा भी करते. कार्तिकेय और गणेश के जन्म की कथाओं में, दुर्योधन के बदला लेने के संकल्प में, भस्मासुर, हिरण्यकश्यप ऐसी अनेक कथाओं के लिए वे उत्सुक रहने लगे. शाम होते ही वे अपना काम बन्द करते और मैं जहाँ काम करता था (उन्होंने जिद करके एक जगह जो बगीचे से जुड़ी और समर किचन हो सकती थी वहाँ मेरा स्टूडियो बना लिया था, वे अपना काम करते और मैं अपना) वहाँ आकर पूछते आज कौन सी कथा सुनाओगे. उनका ध्यान जानीन से हटने लगा था और कई बार कथाएँ इतनी लम्बी हो जाती कि हम अपना खाना ख़त्म कर लेते. रज़ा बिस्तर पर लेट जाते और कथा सुनते-सुनते सो जाते. इससे एक फ़ायदा और हो रहा था उनका ध्यान रसरंजन के अतिरेक से अधिक इन कथाओं में रहने लगा. वे ख़ुश रहने लगे. थोड़ा ध्यान दूसरी तरफ़ भी लगने लगा. उनका हास्य-बोध जाग्रत होने लगा. सुबह-सुबह वो पूछ सकते थे कीचक वध के बारे में या कि युधिष्ठिर से पूछे गए सात सवाल.

रज़ा के साथ इन दिनों मैं चित्र बनाने के अलावा आस-पास के संग्रहालय देखने जाया करता. मातीस का घर या फॉउण्डेशन मैक्ट. नीस का MAMAC, आधुनिक कला संग्रहालय, मोनाको और एक्स ऑ'प्रोवांस का संग्रहालय, शागाल का घर जो अब संग्रहालय है. और ऐसी अनेक जगह जहाँ सप्ताहांत के लिए जाया करते. इन्हीं दिनों मोनाको में एक प्रदर्शनी देखी जो पुरावशेष प्रदर्शनी थी. जिसमें कई देश शामिल थे. उसमें सिर्फ दो देश भारत और चीन ऐसे थे जहाँ की कुछ वस्तुएँ और मूर्तियाँ छठी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी की थीं. इसमें सबसे दिलचस्प अमेरिकन पण्डाल था जहाँ सत्तर के दशक का टेलीफोन, टेबल, तौलिया, तमंचा, आईना, स्कार्फ़ आदि उत्तर-आधुनिक वस्तुएँ पुरावशेष की तरह प्रदर्शित थीं. जो अभी ठीक से पुराने भी नहीं हुए थे. उनकी चमक ऐसी थी मानो फैक्ट्री से बन कर आ रहे हों.

आंतीब में पिकासो का संग्रहालय रज़ा बहुत उत्साह और स्नेह से ले गए. यह संग्रहालय अब पिकासो के नाम कर दिया गया है. इसके पीछे की कहानी यह है कि यह किला बिकने की घोषणा हुई तब सिर्फ दो लोगों ने खरीदने की इच्छा दिखलाई. एक पिकासो दूसरा आंतीब का नगर-निगम और जाहिर है यह किला उन्हें मिल गया. जब मेयर को पता लगा दूसरा खरीददार पिकासो है तो उन्होनें पिकासो के लिए यह सुविधा रखी कि वे जब चाहे यहाँ आकर रह सकते हैं. पिकासो ने तीन बार इस निमन्त्रण का लाभ उठाया और पहली बार में कुछ म्यूरल तीसरे माले की दीवारों पर बनाये, दूसरी बार बाहर के बगीचे के लिए कई मूर्तिशिल्प बनाये तीसरी बार लगभग चालीस छापे बनाये और ये सब संग्रहालय में प्रदर्शित है. जब नगर-निगम ने इसे पिकासो संग्रहालय बनाने की घोषणा की तब पिकासो की अमेरिकन पत्नी ने अनेक चित्र संग्रहालय को भेंट किये.

इस तरह यह एक अनोखा पिकासो संग्रहालय बना जहाँ पहले माले पर अन्य कलाकारों के काम प्रदर्शित हैं जो नगर-निगम समय- समय पर खरीदता रहा है और शेष जगह सिर्फ पिकासो के काम. रज़ा के लिए ये यात्राएँ थका देने वाली होती थीं किन्तु उनका उत्साह बच्चों जैसा था. वो मुझे सब कुछ दिखा देना चाहते थे. ये यात्राएँ हर बार मेरे गोर्बियो में होने के सबब से की जाती रहीं. इन जगहों को इतनी बार देखा और हर बार नया पाया.

रज़ा का काम भी तेजी से चल रहा था वे सुबह से शाम तक दोपहर के खाने और आराम को छोड़कर लगातार काम कर रहे थे. उनकी लगन प्रेरित करने योग्य थी. उन्होंने अगले वर्ष मेरी प्रदर्शनी की तैयारी शुरू कर दी. गोर्बियो का मेयर मिशेल थे जो स्वयं चित्रकार थे. उन्हीं से पता चला कि रज़ा के साथ मिलकर उन्होनें एक ग्रुप बनाया था जिसमें कोते दा'ज़ूर के छह-सात कलाकार थे और इस ग्रुप को बनाने की प्रेरणा रज़ा की दी हुई थी जो स्वयं भी एक संस्थापक सदस्य थे. इस ग्रुप का नाम था 'आग'  (Asosiation of Artists of Gorbio) इस ग्रुप ने भी बहुत ज्यादा प्रदर्शनी नहीं की हैं और इस इलाके में काफ़ी सक्रिय रहा है. इसमें रज़ा के अलावा सभी कलाकार यहीं दक्षिण फ्रांस के थे. रज़ा हर वर्ष चार या पाँच महीने के लिए आते हैं. इस ग्रुप को भी रज़ा ने एक-दो साल बाद छोड़ दिया था. यहीं रज़ा ने नीस की एक कलाकार से परिचय कराया. 'गारिबो'वे अद्भुत काम करती हैं. उनके चित्र सभी काले रंग के हुआ करते हैं और बहुत ही सफ़ाई, सघनता और सुधड़ता से उनके द्वारा ज्यामिति का इस्तेमाल कर काले रंग के अनेक टोन के बीच बहुत बारीक से चमकते लाल या पीले या सिर्फ़ सफ़ेद रंग के चौकोर. वे किसी भी दर्शक को अचम्भित करने में सक्षम थे. रज़ा ने उनके कई काम भी ख़रीदे हैं. जब कुछ करने का मन ना हो तब रज़ा नीस में गारिबो से मिलने कार्यक्रम बना डालते और हम लोग एक बेहतरीन शाम गुजारते. 

पहले साल जानीन की प्रदर्शनी हुई गोर्बियो के चर्च से लगे प्रेस्बितेयर में. 'प्रेस्बितेयर'हर चर्च से लगी एक तरह की सराय हुआ करती थी जहाँ आने-जाने वाले पादरी रुका करते थे. यहाँ के मेयर मिशेल ने इस बंद पड़ी जगह को एक गैलरी में तबदील कर दिया था. हर गर्मियों में यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए यह एक नयी शुरुआत थी. इसके निर्माण और सुधार-कार्य के लिए रज़ा ने भी थोड़ा बहुत पैसा दिया था. रज़ा की उदारता के किस्से यहाँ मशहूर थे और रज़ा भी इसे अपने गांव की तरह ही प्रेम करते थे. इसके बाद रज़ा ने रुचि लेकर कई प्रदर्शनियों के लिए प्रस्ताव दिया और वे सब हुई. इस प्रदर्शनी के बाद मेरी और उसके बाद एक ग्रुप शो जिसमें सीमा, योगेन्द्र त्रिपाठी, सुजाता बजाज, मनीष, रज़ा और मैं शामिल थे. इसके बाद रज़ा ने मेयर के महत्वाकांक्षी योजना में रुचि लेना शुरू कर दिया. जिसमें वहाँ के शातो (किले) को एक संग्रहालय में बदला जा सके. यह संग्रहालय अगले तीस वर्षों तक रज़ा-मोंजीला संग्रहालय के नाम से जाना जायेगा. शातो के निर्माण-सुधार कार्य, बिजली और ठण्ड में गर्म रखने की व्यवस्था, अलार्म सिस्टम के लिए रज़ा ने दिल खोल कर खर्च किया. साल दो साल में यह संग्रहालय बन कर तैयार हुआ और उसका उद्घाटन रज़ा और जानीन मोंजीला और रज़ा के संग्रह की भारतीय और फ़्रांसिसी कलाकारों की कलाकृतियों से हुआ. ये सभी कलाकृतियाँ रज़ा ने इस संग्रहालय को दान कर दी हैं. यदि आप भी कभी दक्षिणी फ्रांस जा रहे हैं तो जरूर यह संग्रहालय देखने जाएँ और दोपहर वहाँ के एक मात्र रेस्तराँ बों-से-जूर में लज़ीज खाना खाएँ. अब गोर्बियो में दो जगह हो गयीं जहाँ कलाकृतियाँ प्रदर्शित होती हैं.

यह रज़ा का सरोकार ही था जिसमें यह सम्भव हो सका. कला के प्रति उनकी सजगता और निरन्तरता का विचार उन्हें हमेशा नए कार्यों की ओर ले जाता रहा है. उन्हें युवा कलाकारों से मिलने, उनका काम देखने और उनसे जीवन्त सम्बन्ध रखने की ऊर्जा देता था. 
(इसी शीर्षक से प्रकाशित होने जा रही किताब का यह अंश है)  


क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

रणेन्द्र से मनोज मोहन की बातचीत

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‘ग्लोबल गाँव के देवता’, ‘गायब होता देश’ और ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ जैसे  उपन्यासों के लेखक रणेन्द्र को इस वर्ष श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान से सम्मानित किया गया है. इस अवसर पर लेखक-पत्रकार मनोज मोहन ने उनसे उनकी शब्द-यात्रा,आदिवासी जीवन और दर्शन पर यह गम्भीर बातचीत की है, भारत में आदिवासियों की दशा-दिशा के सन्दर्भ में यह संवाद सबल और अचूक ढंग से अपनी बात रखता है, इस समाज को लेकर जो धारणाएं निर्मित की गयीं हैं उसका यह प्रभावशाली प्रतिपक्ष भी निर्मित करता है.

प्रस्तुत है.   


रणेन्द्र से मनोज मोहन की बातचीत                                                         

 


1.

श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान मिलने पर आपकी प्रतिक्रिया


2011 से जो सम्मानित साहित्यकारों की सूची है वो बहुत ही वरिष्ठ लोगों की सूची है. कई लोग ऐसे हैं, जिनको पढ़कर हम सब बड़े हुए हैं. उस सूची में संजीव जी जैसे मेरे आदर्श उपन्यासकार हैं, जिनकी रचनाओं से हम सब वैचारिक आँच को महसूस करते रहे हैं. थोड़ी देर के लिए विश्वास ही नहीं हुआ पहली बार की कि मैं भी उस सूची में हूँ. फिर एक अजब सी खुशी हुई कि यह सम्मान मेरे हिस्से कैसे आया जबकि हमारे समय में मेरे साथ ही कई पीढ़ियाँ लिख रही हैं, और भी कई वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं. चयनकर्ताओं के प्रति मन में आभार महसूस हुआ. और फिर यह भी लगा कि जिस समुदाय की वंचना और वेदना की बात मैं करता रहा हूँ, एक तरह से इस माध्यम से उस वेदना को महसूस किया गया. रूमझुम असुर, लालदेव असुर योगेश्वर असुर, अनिल असुर आदि मित्रों एवं बाबा स्व. रामदयाल मुण्डा, बहन दयामनी बारला आदि के प्रति भी कृतज्ञता बोध जगा. जिनके कारण इस संसार से सुपरिचित हो सका. जिन्होंने अपने हृदय को खोलकर मुझे अपने अन्तर्जगत में आवाजाही की अनुमति दी.

 

2. 

कुछ अपनी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बारे में बताइये -


पिताजी शत्रुघ्न प्रसाद, सोहसराय (नालन्दा) के डिग्री कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष थे. प्रारम्भिक पढ़ाई-लिखाई वहीं उसी छोटे से कस्बे में हुई. मैंने विज्ञान से स्नातक किया था. पिताजी का दबाव था इंजीनियर बनने का. इंजीनियर मैं नहीं बना, फिर प्रशासनिक सेवा में आया.

 

3.

आपने भी कविताएँ लिखी हैं. मैं उतना नहीं पढ़ा, लेकिन जितना पढ़ पाया उसमें आदिवासी नहीं हैं. खासतौर पर प्रारंभिक दौर में.


मेरे जीवन का प्रारम्भिक दौर तो बिहार में ही बीता. मेरे जन्म और पढ़ाई का क्षेत्र तो मध्य बिहार का था. सत्तर के दशक में वहाँ निजी सेनाओं के नरसंहारों के रक्तिम पद-चिह्न छाये हुए थे. उनके प्रतिकार में मेरी कविताएँ अपनी पगडंडी तलाश रहीं थीं. फिर रामजन्म भूमि आन्दोलन परिदृश्य पर उभरने  लगा था. उसके प्रतिकार में भी मेरी कविताएँ खड़ी हो रहीं थीं. इस इलाके झारखंड में आया तो यहाँ की कविताएँ आने लगीं. मेरी कविताओं का जो संग्रह है- थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँउसमें आदिवासी जीवन-वंचन-प्रतिकार और सांस्कृतिक-सौन्दर्य की तो कई कविताएँ हैं.

 

4.

यह महज संयोग है कि इस सम्मान से नवाजे गये सभी साहित्यकारों का लिखना-पढ़ना इक्कीसवीं शताब्दी से पहले से है. जबकि आपका अधिकांश लेखन इक्कीसवीं शताब्दी का है. इफको ने इस बार गाँव के घेरे में आदिवासियों को भी रखकर एक सुखद बदलाव किया है, आप क्या कहना चाहेंगे.


किसानशब्दावली की परिधि में आदिवासी समाज को सम्मिलित न करने की जो दृष्टि रही है, वह दोषपूर्ण थी. अगर आप अपने को कथित मुख्यधारा या वर्चस्ववादी समाज के प्रतिनिधि मानते हैं, और आदिवासी समुदायों को एक अन्यता (अदरनेस) के भाव से देखते हैं तो यह दृष्टि-दोष है जो सुनियोजित ढ़ंग से आदिवासी समाज के इतिहास, दर्शन, चिन्तन और संस्कृति की नितान्त उपेक्षा से पैदा हुई है. अगर इस पुरस्कार के चयनकर्ताओं द्वारा आदिवासी समाज को पूरे देश के किसान समाज से जोड़कर देखा गया तो माना जाए कि उस ऐतिहासिक उपेक्षा के अध्याय के अन्त की शुरूआत हो रही है. इसे हम जैसे लोगों के लेखन की थोड़ी-सी सफलता भी मानी जा सकती है.

1765 में दीवानी के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे बंगाल को मालगुजारी वसूली का प्रयोगशाला बनाकर छोड़ दिया. रॉबर्ट क्लाइव कुछ और प्रयोग कर रहे थे, वारेन हेस्टिंग्स कुछ और कर रहे थे. वारेन हेस्टिंग्स के बाद भी कई प्रयोग हुए- दसवर्षीय प्रयोग, इजारेदारी के प्रयोग. फिर कार्नवालिस आते हैं और फिर उन्होंने स्थायी बंदोबस्ती दी. पूरा इलाका उससे तबाह और उद्वेलित हुआ था, लेकिन सबसे पहले जिन्होंने आवाज उठायी थी 1767 में, वे हमारे यहाँ के जंगलमहल के आदिवासी थे. वे किसान ही तो थे. अतः आदिवासियों को किसानों से अलग देखने का जो नजरिया दोषपूर्ण रहा है.

 

5.  

आदिवासियों को लेकर बांग्ला में महाश्वेता देवी ने काफी लिखा है, हिंदी में आदिवासियों को लेकर राजेंद्र अवस्थी ने भी साहित्यिक रचनायें दी हैं,आप इन सबसे अपने को कहाँ अलग रखते हैं या जोड़ते हैं?


राजेंद्र अवस्थी से लेकर श्रीप्रकाश मिश्र तक हिंदी के उपन्यासकारों की एक धारा रही है. हमारे यहाँ योगेंद्र सिन्हा भी रहे हैं जो वन विभाग के पदाधिकारी थे, उन्होंने भी आदिवासियों को लेकर कई उपन्यास लिखें हैं. लेकिन यह वही धारा है जो अन्यके भाव से, एक द्रष्टा भाव से आदिवासी समाज को देख रही है. मानो आदिवासी समाज हम भारत के लोगमें शामिल नहीं हो. हमका हिस्सा ही नहीं है. मैं उस धारा के साथ अपना जुड़ाव महसूस नहीं करता हूँ.

महाश्वेता देवी इस मामले में भिन्न हैं हिंदी के साहित्यकारों से. एक तो वे केवल लिख नहीं रही थीं. हमारे बगल में ही पुरुलिया है. पुरुलिया में जो शबर आजकल पीवीटीजी कहे जाते हैं जो अत्यंत कमजोर जनजाति है जो 1871 से 1952 ई. तक अपराधी जनजाति के तौर पर दर्ज थीं. अभी मैंने कहा कि आंतरिक उपनिवेशवाद है, तो औपनिवेशिक नीतियों की छाया कितनी लंबी होती है, उस परंपरा (लिगेसी) को हमारा शासकवर्ग कितना लंबा खिंचता है या उससे अलग हटने की कोशिश ही नहीं कर रहा है कि सन् साठ के दशक में अब एक हैबिट्यूअल ऑफेन्डर्स ऐक्ट’ (आदतन अपराधी कानून) आ गया और शबर, लोधा, बंजारा, साँसी, जैसी घुमन्तू और अत्यन्त कमजोर जनजातियों के लिए आजादी आने के बाद भी कुछ नहीं बदला. जब कोई भी अपराध होता है तो उठाकर ले आइये शबर लोगों को और उसे मारिये और मारकर कबूल करवाइये. यही बात अल्मा कबूतरी में कह रही हैं मैत्रेयी पुष्पा.

कबूतरा जनजाति की भी दिक्कत वही थी. लेकिन महाश्वेता लेखन तक रुकती नहीं है बज़फ्ता सड़क पर उतरती हैं, आंदोलन करती हैं और अंततः खड़िया शबर, लोधा आदि के प्रति परिवेश को धारणाओं को बदलने को मजबूर करती है. सरकार की भी और समाज की भी. वे हर साल जबतक वह जीवित थीं पुरूलिया में एक मेला लगता था, केवल मेला नहीं होता था बल्कि एक त्यौहार-उत्सव जैसा था.

कृपाशंकर चौबे ने बड़ा चित्रात्मक संस्मरण लिखा है कि कपड़ों का, अनाज का कई स्तरों पर कलकत्ता में संग्रहण होकर ट्रकों में लदकर आता था. तो यह जुड़ाव था उनका. और जंगल के दावेदारने न केवल महाश्वेता देवी को बल्कि बिरसा भगवान की अखिल भारतीय लोकप्रियता में बड़ी भूमिका निभाई. ठीक है कुमार सुरेश सिंह का जो इतिहास लेखन का काम है, वह काफी महत्वपूर्ण है. लेकिन उस लोकप्रियता को बढ़ाने में जंगल के दावेदारने भी भूमिका निभाई है. और उसने भगवान बिरसा मुण्डा के ऐतिहासिक महत्व को स्थापित करने में मील के पत्थर जैसी भूमिका निभाई. महाश्वेता की जो कहानियाँ हैं जिनमें द्रौपदी, बीज, स्तनदायिनी जैसी चिरस्मरणीय कहानियाँ जो हर टिप्पणी से परे हैं.

हजार चौरासी की माँमें बसन्त के ब्रजनाद की एक-एक नाद-गर्जन-विलाप-विषाद हम महसूस कर सकते हैं. स्तनदायिनीपर गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक की सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य में लिखी विस्तृत समीक्षा कितनी चर्चित हुई थी, इस तथ्य से हम सुपरिचित है. इस प्रकार महाश्वेता देवी जो हैं पुरुलिया के शबर से लेकर और यूरोपीय बौद्धिक जगत में गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक तक उनका फैलाव है. इस विस्तार की कल्पना कीजिए.

हमारे यहाँ का सबसे ज्यादा सामंती या सबसे ज्यादा उत्पीड़क क्षेत्र पलामू का था. उनका 1963 से 1975 तक पलामू में हर साल नियमित आना, ठहरना और देखना और बंधुआ मजदूरीके खिलाफ संघर्ष करना. उनके यहाँ एक्टिविज्म और राइटिंग का अद्भुत फ्युजन था, एक सम्मिश्रण था, उससे जो व्यक्तित्व बना था, उसका नाम महाश्वेता है. महाश्वेता देवी ने अकेले इतना लिख दिया है, लगभग सौ पुस्तकें.

मुझे नहीं लगता कि हिंदी के किसी उपन्यासकार ने आदिवासी समाज पर इतना लिखा है. उनकी जितनी भी सराहना की जाए, प्रेरित हुआ जाए कम ही होगा. महाश्वेता देवी की धारा को मैं अपना मानता हूँ. अल्मा कबूतरी में जो मैत्रेयी पुष्पा हैं वहाँ से भी जुड़ाव महसूस करता हूँ. मनमोहन पाठक की गगन घटा घहरानीहै, उससे भी मैं जुड़ाव महसूस करता हूँ. संजीव जी की धार’, ‘पाँव तले की दूब’, ‘सावधान! नीचे आग है’, जंगल जहाँ से शुरू होता हैमुझे अभिप्रेरित करने वाली रचनाएँ हैं.

 

6.

लोग कहते हैं कि आजादी के आंदोलन में आदिवासियों की समस्या को तरजीह नहीं दी गयी है, आपके लिखे दोनों प्रारंभिक उपन्यास में सदियों से प्रताड़ित आदिवासियों की जगह इधर के दौर में तीव्र औद्योगिकीकरण की गति के शिकार आदिवासी हैं.


जो उपनिवेशवादी या आन्तरिक उपनिवेशवादी जो वर्चस्वशाली ताकतें होती हैं, उनका कब्जा जो होता है केवल भौतिक संसाधनों पर नहीं होता है. संस्कृति के क्षेत्र में भी उनका कब्जा होता है. अफ्रीकी मुक्ति योद्धा, दार्शनिक, लेखक न्गुगी वान थ्योंगो हैं या फ्रैंज फैनन हैं, इन लोगों ने इन तथ्यों पर गौर किया है. और आदिवासी समाज के साथ जो कथित मुख्यधारा का समाज है, उसका जो व्यवहार है, वो यही है. वह उसकी इतिहास की अनदेखी करता है, वह इनकी संस्कृति की अनदेखी करता है. वह आदिवासी समाज को मात्र एंथ्रोपोलॅजी के नजरिये से देखने की लगातार कोशिश करता है. और दिक्कत यह है कि एंथ्रोपोलॅजी जो है, ठीक है कि वो मानविकी कि एक बड़ा हिस्सा है. लेकिन लगता है कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ एक हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल कर रही थीं. उसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि जिस नस्ल के सिद्धान्त पर नृशास्त्र खड़ा है वह सिद्धान्त ही अवैज्ञानिक है. छद्म विज्ञान है एक फेक साइंस. जब वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सारे मानव सामान्यता होमोसैपियन्स हैं जिनका मूल स्थान अफ्रीका हैं, सत्तर हजार साल पहले वहाँ से चले थे. दस हजार, पंद्रह हजार और बारह हजार साल में हमारी बसावटें और हमारी भाषा अलग-अलग हुई हैं.

उस छद्म विज्ञान के नस्लीय सिद्धांत के आधार पर भाषा-परिवार भी गढ़ा गया है. फिर समाज विज्ञान की बहुत सारी शाखाएं उसी नस्लवाद के सिद्धांत पर चलती है. यह जो दृष्टि है कि विज्ञान होमोसेपियंस मानता रहे, विज्ञान सबका रूट अफ्रीका कहता रहे, लेकिन लोगों को आर्य, द्रविड़ और निग्रोयाड में बाँटकर देखने का जो नजरिया विकसित हो गया है उसे नहीं बदलेंगे. इस छद्म अवधारणा को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने आगे बढ़ाया. आन्तरिक उपनिवेशवादी भी उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं. नस्ल के इस छद्म विज्ञान ने किस तरह हमारा मनोविज्ञान बनाया कि हम अपने ही समाज के लोगों को, अपने देश के लोगों को अन्यमानने लगे.

लेसर देन ह्यूमनएक किताब है डेविड लिविंगस्टन स्मिथ की, उनका कहना यह है कि हम सब लोग इथोसेंट्रिक होते हैं. अपने ही समुदाय के लोगों को पूर्ण मानव मानते हैं अन्य लोगों को सब-ह्यूमन या अवमानव या कमतर इन्सान मानते हैं. ताकि उनके विरूद्ध हिंसा के क्रम में कोई ग्लानि या अपराध-बोध नहीं हो, जैसे दास-व्यापार के अबाध संचालन के लिए छद्म वैज्ञानिक सिद्धान्त गढ़ा गया कि जो अफ्रीका के जो लोग हैं वो डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत में मनुष्य और चिम्पैंजी के बीच की कड़ी है. वे अभी पूर्ण मानव है ही नहीं है. अतः वे प्राकृतिक रूप से दास बनाने योग्य है.

हमारे वरिष्ठ मित्रों ने बताया कि वे जब सत्तर के दशक में मेडिकल कॉलेज में गए थे तो बज़फ्ता पुराने जर्नल में यह आलेख हुआ करते थे कि कैसे अफ्रीका के लोगों के जबड़े का बनावट, खोपड़ी की बनावट आदि चिंपैंजी से मिलती-जुलती है. जब वह इंसान ही नहीं है तो व्यापार में क्या दिक्कत है. और उसी ढंग से उन्होंने नस्लका छद्म सिद्धांत दिया. साम्राज्यवादी यूरोप तो यह मानता था कि पूरे एशिया और अफ्रीका, अमेरिका और लैटिन अमेरिका के लोग जिन पर हम शासन कर रहे हैं, ये व्हाइट मैन बर्डन हैं, जंगली और असभ्य (uncivilized) हैं. तो औपनिवेशिक शोषण के अपराध को ढ़कने के लिए उन्होंने मनवा लिया कि उपनिवेशों की पूरी आबादी निम्नतर नस्ल के लोग हैं, जिनको सभ्य करने की जिम्मेदारी गोरे लोगों पर हैं और वो आंतरिक उपनिवेशवाद या उस परंपरा (लिगैसी) को आगे बढ़ाने वाले लोग, उस नस्ल के सिद्धांत से आगे जाने के लिए तैयार ही नहीं हैं.

आदिवासियों को एक अलग नस्ल का, एक अन्य मानकर देखने का नजरिया जिसको एंथ्रोपोलॅजी ने बढ़ावा दिया- यह इतना घातक और कितना गलत है. आप उनके इतिहास की अनदेखी करते रहे. उनकी संस्कृति को संस्कृति मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं. क्या है यह? और क्यों है?

चूँकि वर्ण व्यवस्था वाले समाज से वह समतावादी, श्रम रस में डूबा समाज इतना भिन्न है कि आप उन्हें स्वीकार करने को ही तैयार नहीं है. संस्कृति चूँकि इतिहास की पैदाइश होती है, जैसे पौधे से फूल निकलता है, उसी तरह इतिहास से संस्कृति निकलती है. तो आप उसके इतिहास को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं. आपके इतिहास की किसी किताब में उनके राजवंशों का उल्लेख नहीं है. उन्होंने आपके यहाँ लंबे समय तक शासन किया.

पूरे बिहार में पालवंश के पतन के बाद सोननदी के किनारे खैरवार समुदाय का और लगभग पूरे बिहार में चेरों समुदाय का शासन रहा है. कुमार सुरेश सिंह ने इस पर बड़ा लेख लिखा है कि कैसे चंपारण में भी, सारण में भी, मुज़फ़्फ़रपुर में भी उनके किले पाए गए. चार राजवंश चेरों का एक साथ शासन कर रहा था. और सबसे बड़ा राजवंश भोजपुर में था. उज्जैनिया राजपूत जब आए चौदहवीं शताब्दी में तो चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी में दो सौ साल लगा चेरों को वहाँ से पीछे हटाने में. वे सफल तब हुए जब मुगल सेना उनके पीछे खड़ी हो गई. और यहाँ तो पलामू में 1857 तक चेरो राजवंश का शासन रहा. लेकिन इतिहास की किताब में चेरो राजवंश का जिक्र क्यों नहीं है, खैरवारों का जिक्र क्यों नहीं है? छोड़ दीजिए गुप्तकाल से लेकर ब्रिटिश काल तक राजगोंड लोगों ने आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से से लेकर पूरे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के हिस्से पर शासन किया.

इलाहाबाद का जो समुद्रगुप्त का जो शिलालेख है उसमें आटविक राज्य के तौर पर आदिवासी राजाओं का आप उल्लेख कर रहे हैं. और इतना लंबा शासन काल गुप्तकाल से लेकर ब्रिटिश काल तक, और इतना संपन्न. सोचिए कि वहाँ गढ़ा के जो राजा हैं, संग्राम शाह, उनके पुत्र दलपत शाह से चन्देल क्षत्रिय वंश की राजकुमारी दुर्गावती की शादी होती है. संग्रामशाह का जो शासन काल है सोने, चाँदी और तांबे की तीन तरह के सिक्के उनके यहाँ चल रहे हैं. और उस समय जो दिल्ली का सल्तनत है, उसकी भी औकात नहीं है कि सोने का सिक्का चला सके. चूंकि व्यापार की बहुलता उनकी सम्पन्नता का कारण है. उसी ढंग से उड़ीसा का जो इलाका है- उड़ीसा से लेकर आंध्रप्रदेश तक फैला हुआ वहाँ नल, तुंग और भंज- तीन जनजातियों के राजवंशों ने शासन किया. मयूरभंज- उन्हीं भंज लोगों के नाम पर है. और जो नल-दमयंती वाले नल है जो महाभारत में दिखाए जाते हैं, निषादराज हैं, दमयन्ती क्षत्रिय कन्या है, यह कथा, एक मिथक के रूप में वहाँ आती है. किन्तु यथार्थ में नल शासकों की संपन्नता के कारण गंगा-यमुना दोआब क्षेत्रों के क्षत्रिय राजकुमारियों की उनके वहाँ शादी हुई. वहाँ हो सकता है कि मिथक के तौर पर दूसरी बात को कहने की कोशिश कर रहे हों, यहाँ लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है लेकिन महाभारत में इस यथार्थ का मिथकीकरण है.

यथार्थ में इतिहास में कहीं पन्ने पर न नल है, न तुंग है, न असम के अहोम हैं, न वहाँ महाराष्ट्र के लोग जो आदिवासी शासक हैं वो हैं. ये आप इतिहास की अनदेखी जानबूझकर कर रहे हैं तो क्या मानकर चल रहे हैं कि इनके संसाधनों की लूट मुझे करनी है तो उनको पूरा इंसान ही नहीं मानना है.

 

7.

आप प्रशासनिक सेवा से जुड़े रहे हैं, तब भी आपने आदिवासियों को लेकर इतना काम किया है, कहा जा सकता है कि आपने आदिवासियों को लेकर चल रहे सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों को अपने ढंग से समर्थन ही दिया है.


मेरा पहला जो पद-स्थापन हुआ उस दौरान मैंने गाँव में रहने का अभ्यास डाला. जिसकी परिणति के तौर पर यह किताब ‘ग्लोबल गाँव का देवता’है. पंद्रह-पंद्रह दिन तक असुर लोगों के यहाँ जाकर ठहरता था. ऐसा कुछ नहीं था, वहाँ कठिनाई हुई हो. उस नब्बे के दशक में भी असुर समुदाय में संस्कृत में ऑनर्स मित्र थे, हाईस्कूल के हेडमास्टर थे, इंटर पास लोग थे, तो आत्मीयता विकसित होने में कोई कठिनाई नहीं हुई. एक रूढ़ छवि गढ़ कर रखी गई है कि आदिवासी ऐसे हैं, वैसे हैं. लेकिन वहाँ एक छोटा-मोटा पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग है.

अब ब्रिटिश पीरियड में जयपाल सिंह मुण्डा का ही उदाहरण ले लें- मरंङ गोमके जयपाल सिंह मुण्डा, खूँटी के एक छोटे से गाँव के थे, वहाँ उनके प्रतिभा से फादर प्रभावित होते हैं, उनको ब्रिटेन पढ़ने के लिए भेजते हैं और ऑक्सफार्ड विश्वविद्यालय से वे पीएचडी तक की डिग्री लेते हैं, आईसीएस करते हैं. ट्रेनिंग इसलिए छोड़ते हैं कि ओलंपिक में उनको हॉकी की कप्तानी करनी है. फिर वहाँ से लौटकर आते हैं तो बीकानेर प्रिंसली स्टेट के विदेश सचिव बने, घाना अफ्रीका के प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज में प्रोफेसर बनते हैं. राजकुमार कॉलेज, रायपुर के प्रिंसिपल बनते हैं. वह आदिवासी महासभा और संविधान सभा के भी सदस्य बनाए जाते हैं. उसी ढंग से बाबा कार्तिक उराँव हैं ब्रिटेन में न्युक्लियर फिजिक्स में काम कर रहे थे. वहाँ नेहरू जी की उनसे भेंट होती है तो उनके आग्रह पर वे भारत लौटकर आते हैं.

डॉ॰ रामदयाल मुंडा, मिनिसोटा युनिवर्सिटी, अमेरिका में एंथ्रोपोलॅजी पढ़ा रहे हैं. यह जो देखने का नजरिया है दिल्ली और पटना को लोगों का कि ये लोग अनपढ़ और पिछड़े हुए लोग हैं यह पूर्वाग्रह कैसे टूटेगा? यहाँ आदिवासी समुदाय के बहुत से विद्वान बहुश्रुत है. एक ही व्यक्ति राजनीतिज्ञ भी है, एंथ्रोपोलॅजिस्ट भी है, कविता-कहानी भी लिख रहा है. वहीं डॉ॰ रामदयाल मुंडा आदिवासी दर्शन आदि धर्म की बात कर रहे हैं. किन्तु दिल्ली-पटना-इलाहाबाद-बनारस इनको स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है. अभी भी वह आदिवासी समाज को मानवशास्त्रीय नजर से ही देख रहा है. दिक्कत तो यही है.

हाँ! तो मैं कह रहा था कि उसने मुझे सुअवसर प्रदान किया. खास कर के प्रखंड में जब मेरी पोस्टिंग हुई, उसने अवसर प्रदान किया. किताबों के माध्यम से मैं उनके पास नहीं गया. मैंने एक मित्र की तरह समाज के हिस्से से ही आत्मीयता के साथ जुड़ने की कोशिश की है. तो वह जो संबंध स्थापित हुआ वह आजतक कायम है. उसने मेरी रचनाओं को जन्म दिया. और लिखने का वह काम इसलिए हुआ कि दस-दस साल तक मेरी पोस्टिंग एटीआई में थी, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान में 2005 से 2015 तक मेरी पोस्टिंग वहीं थी और वहाँ केवल पढ़ना और पढ़ाना था. कोई और काम तो था नहीं तो वहाँ लिखने का काम हुआ. फिर 2018 से मैं जनजातीय शोध संस्थान में हूँ. डॉ. वी. एस. गुहा, डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद, डॉ. सच्चिदानंद, डॉ. एस.पी. गुप्ता, श्री के.बी. सक्सेना जैसे उसके निदेशक रहे हैं. मेरा सौभाग्य है कि ऐसे संस्थानों में मेरी पोस्टिंग होती रही है, जहाँ पढ़ने-सीखने का और आदिवासी समाज को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने का अवसर मुझे मिलता रहा है. इस कारण से भी लेखन संभव हो सका.

 

8.

प्रतीकात्मकता की बात करें तो ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ 2009 में है, वह किताब जिस समय आई थी, उस समय लोग आदिवासियों को ग्लोबल फ्रेम मे रखकर नहीं देख रहे थे.


कथित मुख्यधारा की असुर समुदाय के प्रति विकृत पौराणिक दृष्टि रही है. आदिवासियों के बारे में जो अन्य वाला बोध था और वही बोध काम कर रहा था. और, उनके भीतर से कोई आवाज आ रही है, वो भारतीय (हिंदी) समाज नहीं महसूस कर रहा था. दूसरी बात जो मैंने महसूस किया कि रेड इंडियन के संबंध में जो अमेरिका में हुआ, 14 करोड़ से 14 हजार पर ले आए. अगर वैदिक ऋचाएँ ये कहती हैं कि सुर और असुर एक ही हैं और केवल भौतिक संसाधनों के उपयोग के कारण अलग-अलग हुए. और, जिस अंगिरा ऋषि के बारे में जिन्होंने अग्नि का आविष्कार किया और जिन्होंने धातुओं की खोज की और समाज दो धाराओं में बँट गया अग्नि-धातु का आविष्कार करने वाले शत्रु मान लिये गए उसके कारण से असुर कहलाये. मुझे लगा कि वैदिक काल से ही यह देशज वैज्ञानिक-तकनीकी समाज पीछे ठेला जाता रहा. आज एकदम पृथ्वी के अंतिम छोर पर मतलब पहाड़-पठार के ऊपर पाट क्षेत्र पर पहुँच गए, जहाँ बॉक्साइट के खनन परिसर हैं. और पिछले चार दशकों से जिस तरह से लूट है बॉक्साइट की, वहाँ से वे उजड़ेंगे. तो जो युद्ध इंद्र ने प्रारंभ किया था उस जन विनाश वाले युद्ध का अंत कॉरपोरेट ग्लोबल देवताकरने वाले हैं. व्यक्ति के तौर पर बचेंगे वो, लेकिन वे समुदाय के तौर पर खत्म हो जायेंगे. यह सब होता दिख रहा है. यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है और न अतिभावुकतापूर्ण है.

जब यह पहली बार ‘नया ज्ञानोदय’ में आया था, लालचंद असुर और ग्लोबल गाँव के देवता उसका शीर्षक था. उपन्यास के तौर पर आया तो आदरणीय मैनेजर पांडेय ने कहा कि इतना बड़ा नाम अपने आप में ठीक नहीं होगा. फिर सारी कहानी खुल जाती है उस नाम से. ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ही रखो फिर मैंने वही नाम रखा.

 

9.

उसके बाद 2014 में गायब होता देशआया. उपन्यास के शीर्षक और सोना देकन दिसुमका प्रयोग उसे तत्कालीन समय के प्रतीकात्मक ध्वनि के करीब कर देता है !


यह उपन्यास रियल एस्टेट पर केंद्रित है. 2008 के महामंदी का भी अपने देश में देखिए कि रियल एस्टेट पर कोई असर नहीं पड़ा. चाहे नोयडा हो या एनसीआर में हो या हमारे यहाँ झारखंड में ही रियल एस्टेट पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा. हमारे यहाँ खासियत है कि राँची, ईस्ट इंडिया कम्पनी के कैप्टन विल्किन्सन के नाम पर किशुनपुर कहलाता था. उस समय से ही आदिवासी गाँव की लूट शुरू हो गई थी. वो आदिवासी गाँव और टोले की शहर के अंदर लूट आज भी बदस्तूर जारी है. रात ही रात में आदिवासी टोले गायब हो जा रहे हैं. ये देखा है मैंने अपनी आँखों से. उसका पूरा एक सिस्टम है, तंत्र है. सबलोग उससे जुड़े हुए हैं.

ग़ायब होता देशमें मैंने इस बात पर खुलकर चर्चा की है कि सबलोग मिले हुए हैं उसमें. जमीन वापसी के लिए अलग कोर्ट होगा- स्पेशल रेगुलेशन ऐक्ट तबतक नहीं आया था, तब भी सिविल कोर्ट वही काम कर रहा था. आदिवासियों को क्षतिपूर्ति (कंपनसेशन) दे दिया जाये लेकिन चूंकि किसी अग्रवाल साहब ने इस पर भवन बना लिया है तो उसे कैसे हटाया जाएगा? या तो फिर इतना लाख रुपया ये सोमरा मुंडा जी उनकी चुका दें. सोमरा मुंडा जी वह रुपया चुकाने में सक्षम नहीं हैं. वह जान रहा था कि चुका नहीं पाएंगे फिर कंपनसेशन दे दिया जाय.

ठीक है कि छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट की धाराओं का उल्लंघन करते हुए मकान-अपार्टमेन्ट्स बन गये हैं. अब बन गये हैं तो एक ही रास्ता है कि या तो उस भवन को मुंडा जी खरीद लें या वे कंपनसेशन ले लें. यह काम सिविल कोर्ट कर रहा था. बाद में स्पेशल रेगुलेशन ऐक्ट यानि एसआरए कोर्ट आया उसने भी वही काम किया. तो बाहुबलियों, पूँजीपतियों और राजस्व के अधिकारियों, पुलिस पदाधिकारियों और राजनीतिज्ञों का एक पूरा तंत्र मानकर चल रहा है कि ये छोटे-गरीब लोग हैं, इनको यहाँ राजधानी शहर में रहने की क्या जरूरत है. ये तो सब-ह्यूमन हैं, इनको तो यहाँ से जाना चाहिए. इनको राजधानी में रहने का हक ही नहीं है.

माफिया जो हमारे यहाँ आदिवासियों की जमीन-लूट रहा है वही सच्चाई, वही माफियागिरी हरियाणा और दूसरे इलाके में छोटे किसानों के विरूद्ध सक्रिय है. वहाँ बड़े किसान रियल एस्टेट के दलाल बनकर छोटे किसानों की जमीनें लुटवा रहे हैं. हमारे यहाँ भी आदिवासियों के जमीन की सुरक्षा के लिए जो ऐक्ट बना हुआ था और हमारे यहाँ जो भी राजस्व के अलग कानून है वो एक तरह से स्याही से लिखे हुए हैं नहीं.

1908 में छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट आता है तो उसके पहले बज़फ्ता 1900 में ही बिरसा और उनके मित्रों की शहादत हो चुकी होती है. और, उसके अपराध बोध को दूर करने के लिए जो ब्रिटिश हुकूमत ने वो ऐक्ट बनाया. जिस लड़ाई को सरदारी आंदोलन ने शुरू किया था 1858 में, उसमें सरदारी आंदोलन आता है, आदिवासियों को देखने का नजरिया जो है वो सबार्ल्टन हिस्ट्री वाले हों या अन्य हिस्ट्री वाले केवल उनको विद्रोही के तौर पर देखने का है.

लेकिन 1858 से लेकर बिरसा के आने तक (1894)- चालीस-पैंतालीस साल तक शांतिपूर्ण ढंग से मुंडा सरदारों ने जो आंदोलन चलाया, आवेदन दिए, कचहरियों में गए. पहले तो ईसाई बने वो. ईसाई बनने से हो सकता है कि जमीन की वापसी हमारी हो जाये, वह नहीं हो सकी. फिर कचहरी गए, आवेदन दिया महारानी विक्टोरिया तक. और केस लड़ा हाईकोर्ट  कलकत्ता तक. नया गाँव बसाने के प्रमाण के रूप में गाँव के सीमाने पर पत्थलगड़ी’ करते थे. पत्थरों को अपना स्वामित्व प्रमाणित करने ढोकर कलकत्ता लेकर गए वो भी पैदल. यह सारा वर्णन ‘गायब होता देश’उपन्यास में आया है. सोचिए! और गजेटियर कह रहा है उस समय का कि एक लाख रुपया वहाँ से बाबुओं और वकीलों ने वसूला उनसे. थोड़ा-थोड़ा करके, तब भी केस हारे ये लोग. अगर शांतिपूर्ण आंदोलन सफल हो गया होता तो फिर बिरसा की शहादत नहीं होती. उन सारे आंदोलन और शहादत से ये छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट निकला, जिसका भू-माफिया प्रतिदिन मजाक उड़ा रहे हैं, खिल्ली उड़ा रहे हैं, धज्जियाँ उड़ा रहे हैं.

संथाल परगना टीनेंसी ऐक्ट जो है वो संताल हूल (1855-56) की लड़ाई-युद्ध शहादतों के बाद फिर वहाँ मार्शल लॉ लागू किया गया, उसके बाद जंगल और गाँव जलाए गए. उसके अपराध बोध को दबाने के लिए संथाल परगना टीनेंसी ऐक्ट लाया गया. कोल्हान के लिए विल्किंसन रूल आया. जो यहाँ जमीन को सुरक्षित रखने का कानून हैं. वो हमारे पूर्वजों के खून से लिखे गए हैं. लेकिन जो लोग आते हैं बाबू और साहब बनकर के, वो चूंकि आप इतिहास में जाना नहीं चाहते, आप उनकी संस्कृति को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उनकी उपलब्धि को मानने के लिए तैयार नहीं हैं तो उनके लिए सबकुछ बिकाऊ है.

 

10.

इस उपन्यास का नायक किशन विद्रोही है.


नायक तो नहीं है, उसके नज़रिये से देखने की कोशिश की गई है. यह उपन्यास जब लिखा गया था, उस समय या अभी भी राँची में जो जमीन के दलाल हैं बिचौलिए हैं, उनके बीच में प्रतिस्पर्धा में भी हत्याएँ हुआ करती हैं. हत्याओं का बड़ा प्रतिशत इस तरह की हत्याओं का होता है. उस समय (2007-2008 में) एक पत्रकार की हत्या हुई थी और कई तरह की बातें अफवाह के रूप में सुनी गईं थीं उसके संदर्भ में. वास्तव में भू-माफ़िया ने ही यह हत्या की थी. उस समय बहुत छाया रहा था यह मुद्दा. कहीं से मुझे भी भूमि लूट की अपनी बात शुरू करनी थी तो मैंने उसी के चरित्र से बात शुरू की. वैसे डॉ० रामदयाल मुंडा भी वहाँ हैं, दयामणि बारला भी है उसमें चरित्रों के रूप में. उस वक्त आदिवासी समाज के जो लोग हैं जो लड़ाई लड़ रहे थे, अलग-अलग ढंग से- वो सबलोग हैं वहाँ.

 

11.

आपने कहानियां भी लिखी हैं, ‘छप्पन छुरी बहत्तर पेंच’ संग्रह का नाम है. यह नाम कुछ अलग-सा है. कहानियों पर थोड़ा प्रकाश डालें.


 एक कहानी है उस संग्रह में, वह कहानी उस कस्बे की है जहाँ छोटे से गाँव से कस्बा बनने की प्रक्रिया में है. और सामंती जो ताकतें हैं वो किस ढंग से गरीब घर की महिलाओं का, या लोगों का शोषण करती है और उसका प्रतिकार कैसे होता है, तो वहाँ से वो चीजें आती हैं. रामलीला में बीच-बीच में जो मंच पर नाचता है, तो उसमें वे किसी-किसी के बारे में नाचनेवाले या नाचनेवालियों के बारे में फिकरा कसा जाता है- छप्पन छुरी बहत्तर पेंच. वही फिकरा है, जो एक सुंदर-सी गरीब महिला के ऊपर कसा जाता है, जिसके शोषण की कथा है. लेकिन इस संग्रह में भी अधिकांश कहानियाँ हैं- वो आदिवासी जीवन से जुड़ी हुई हैं. जो आसपास घटनाएँ घट रही हैं और आम लोग जो महसूस कर रहे हैं वे ही कहानियाँ हैं. मुझे लगता है कि कहीं किसी शहर का मध्यवर्ग हो, उस ढंग के अत्याचार को, बर्दाश्त नहीं कर सकता जैसे- अब आदिवासी गाँव में एक बस में बैठी बारात को रात में गोलियों से भून दिया जाता है. जिसमें छह-सात साल के बच्चे भी शामिल हैं. लेकिन एफआईआर होता है कि सबलोग नक्सली थे. और, यह नैरेशन चलता है और अखबार में भी सारी मीडिया यही झूठ दुहराती है. और, जब इस एफ.आई.आर. के समय वाले डीजीपी सेवानिवृत्त होते हैं, नये डीजीपी आते हैं तो मालूम होता है कि वह घटना अब सीबीआई से जाँच कराई जायेगी. वे नक्सली नहीं थे, निर्दोष आदिवासी ग्रामीण थे. सिर्फ उसमें एक पूर्व नक्सली था. अगर इस ढंग का जनसंहार दिल्ली में, इलाहाबाद में, बनारस में, पटना में कहीं घटित हो जाता किसी भी मिडिल क्लास के साथ घटित होता तो पूरी दुनिया में मानवाधिकार का प्रश्न बनता. लेकिन यह सब सुदूर गाँव के गरीब आदिवासियों के साथ होता है तो सारी घटनाएँ खामोशी से फाइलों में गुम होकर रह जाता है. तो इस संग्रह में उसी आदिवासी समाज की वंचना, पीड़ा, दुःख-संघर्ष की कहानियाँ हैं जिनसे हिंदुस्तान का मध्यवर्ग अभी तक जुड़ाव महसूस नहीं कर रहा है.

वह ज्यादा व्यक्तिवादी, ज्यादा उपभोक्तावादी, ज्यादा से ज्यादा कमाई और भोग में डूबा हुआ है दूसरी ओर धर्म-संस्कृति की झंडेबरदारी भी कर रहा है. आपको उपभोक्तावाद भी पसंद आ रहा है और आप भारतीय संस्कृति का झंडा भी उठा रहे हैं. अजब तरह का अन्तर-विरोध है. अगर आप संस्कृति को ठीक से समझेंगे तो आपको मालूम होगा कि आपकी संस्कृति के जो मूल तत्त्व है वो सिर्फ अभी आदिवासी संस्कृति में ही बचे हुए हैं. तब आप हो सकता है थोड़ा जुड़ाव आदिवासी समाज से महसूस कर सके. यथार्थ यह है कि आप आधा तीतर आधा बटेर हैं. आप तो केवल वोट की राजनीति के लिए संस्कृति शब्द का जुमला की तरह इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अर्थनीति वही है जो आजादी के पहले थी, आजादी के बाद थी. जैसे-जैसे पूंजीवाद का रूप बदलता जा रहा है वैसे-वैसे ही आप उसी पूंजीवाद को स्वीकार करते जा रहे हैं.

जो आदिवासी समाज है अगर आप नजदीक से देखिएगा तो जो बातें आपके वाङमयों में कही गयी हैं भारतीयता के वह मूल तत्वों को आदिवासी समाज में बचाकर रखा है. आप आर्थिकी या दार्शनिक दृष्टि से इनकी जीवन-दृष्टि को देखें तो न्यूनतम में अधिकतम संतुष्टि का भाव यहाँ दिखेगा. जो भी है कम ही है, लेकिन वो उसमें संतुष्ट हैं, परम् संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं. एक साधारण आदिवासी जिस तरह का जीवन जीता है न! उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता है उपभोक्तावादी समाज में धँसा हुआ मध्यवर्ग.

तीन-चार बातें बताता हूँ उनकी जीवन दृष्टि की-   एक तो मैंने कहा कि न्यूनतम में अधिकतम और उसमें संतुष्टि की कल्पना. दूसरा उनका प्रकृति से जो लगाव है- फैशनवाला नहीं- केवल तुलसी में रोज-रोज पानी डालने का और उसके प्रतीक को न समझने वाला नहीं है. प्रकृति और आदिवासी समाज का जो संबंध है उसको दार्शनिक स्तर पर समझने की कृपा कीजिए आप.

जितने संस्थागत धर्म हैं- ईसाईयत हो, इस्लाम हो हिंदू हो-उसमें पदानुक्रम बना हुआ है. वनस्पति जगत है, जीवजगत है. जीवजगत में भी छोटे से जीवों से लेकर बड़े जीव तक, फिर इंसान है-इंसान के बाद देवदूत है- देवदूत के बाद ईश्वर-अल्लाह-गॉड है. एक पदानुक्रम है उनमें. आपके यहाँ हिन्दू धर्म में चौरासी लाख योनि है. चौरासी लाख योनि के बाद इंसान. फिर वर्ण का निर्धारण पूर्व जन्म के कृत्यों के आधार पर ब्राह्मणों की आपने सेवा की है कि नहीं, गौ की सेवा की है कि नहीं, तब आपको उच्च वर्णों में यहाँ स्थान मिलेगा. लेकिन कहीं-न-कहीं इस पदानुक्रम में श्रेष्ठता बोध और दूसरों को कमतर-निम्नतर समझने का बोध है. इस दर्शन के पदानुक्रम को जीवन में भी लागू करते हैं हर जगह. अब श्रेष्ठता बोध के लिए माना जाता है कि मानव में चूंकि चिन्तन प्रणाली है, वह सोच सकता है इसलिए वह श्रेष्ठतम प्राणी है. ईश्वर की सबसे श्रेष्ठतम रचना है. यहाँ दर्शन के स्तर पर आदिवासी समाज मानता है कि सृष्टि में जो जीवजगत है, जो वनस्पति जगत है- उसी तरह एक इकाई के तौर पर इंसान है. इंसान कोई बेहतर या श्रेष्ठतर, कोई वर्चस्वशाली प्राणी नहीं है. अब कैसे नहीं है- उसकी वैज्ञानिकता देखिए.

जगदीशचंद्र बसु ने बताया था कि वनस्पतियों में संवेदनशीलता होती है लेकिन अभी एक किताब आई हैहिडेन लाइफ ऑफ ट्रीज, वो कह रहा है वैज्ञानिकता के साथ कि जो इंटरनेट हम प्रयोग कर रहे हैं- डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू- वर्ल्ड वाइड वेव(www) का- ये 1969 से शुरू होती है, 89-90 से हमलोगों ने उपयोग करना शुरू किया है. सूचनाओं का आदान-प्रदान हम इंटरनेट के माध्यम से कर रहे हैं. उस पुस्तक में बताया जा रहा है कि जंगलों में पेड़ों के बीच में वुड वाइड वेव है. वहाँ भी डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू है. जड़ों से फंगस का केबल है जो मिट्टी के अन्दर पूरे जंगल के जड़ों को जोड़कर रखता है. और पेड़ सिर्फ सूचनाओं के संप्रेषण नहीं करते हैं. अगर कोई पेड़ सूख रहा है, पौष्टिकता भी न्युट्रेंट्स भी भेजते हैं उसको वो. कम्युनिकेशन के अन्य तरीके के बारे में यह पुस्तक बताता है. हमारा इंटरनेट अभी भी सिर्फ सूचनाओं का संप्रेषण कर रहा है. खाद्यान्न आप नहीं भेज सकते हैं, किन्तु वृक्ष सूचनाओं के सम्प्रेषण के साथ-साथ पोषक तत्व भी भेज रहा है. पशुओं के कम्युनिकेशन पर कई किताबें आ गई हैं.

प्रकृति के साथ, आदिवासी समाज का जुड़ाव इतना गहरा है कि वे अपने गोत्र को किसी काल्पनिक ऋषियों से नहीं जोड़ते हैं, वो समूचे जीव जगत-वनस्पति जगत से अपने को जोड़ते हैं. वहाँ अगर लकड़ा टाइटल है तो बाघ से अपने गोत्र को जोड़े हुए है, धान टाइटल है तो गोत्र को धान से जोड़े हुए हैं. तो ये उनका लगाव है प्रकृति के साथ. आपके यहाँ दीपावली मनाई जाती है- वे सोहराई मनाते हैं. आपके यहाँ वो धान आ रहा है, धान को धन और धन से आपने उसका रूप बना दिया लक्ष्मी का, और लक्ष्मी की पूजा करने लगे. भूल गये कि लक्ष्मी क्यों है, लक्ष्मी प्रतीक किस चीज की है.

सोहराई जो मनाते हैं- तो वो देखिए कितनी बड़ी हृदय के आयतन की विशालता है कि वे कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं घर के उन पशुओं के प्रति जिनके परिश्रम से धान घर आया है. वहाँ बैलों को, सारे गायों को और सारे पशुओं को सजाया जाता है, नहलाया जाता है. घर की गृहिणियाँ उनको पैर छूकर प्रणाम करती हैं जो प्रसाद बनता है उनके लिए वही घर के लोग भी ग्रहण करते हैं. पूरी दुनिया के किसी भी संस्कृति में पशु जगत को अपने परिवार का हिस्सा मानने वालों का उदाहरण नहीं मिलता, और आप उस समुदाय को पिछड़ा मान रहे हैं.

तीसरी, उनकी कोशिश यह है कि हम प्रकृति से, जंगलों से उतना ही लें जितना कि इससे बेहतर हम अगली पीढ़ी को दे सकें. और हम लोगों ने क्या किया-हमलोग जिन नदियों में नहा रहे थे वो बच्चों को नदियों में नहाने को नहीं दे सकते. तो पानी हमलोगों ने प्रदूषित कर दिया. अब हमलोग हवा को प्रदूषित कर रहे हैं. मोबाइल साइज के ऑक्सीजन-सिलिण्डर की परिकल्पना गायब होता देशमें है, वह पारदर्शी पाइप नाक से जुड़ा हुआ होगा. जिसको पॉकेट में रखेंगे और नाक में पारदर्शी पाइप लगाकर रखेंगे और उसी पर हम गर्व महसूस करेंगे.

चौथी उनकी खासियत है सांस्कृतिक जीवन की कोई भी पूजा- सरहुल हो, करमा हो, उनके यहाँ जो मंत्र है या गीत हैं वे समस्त गाँव, समस्त पशुजगत, समस्त प्रकृति की खुशी-प्रसन्नता-सुख-स्वास्थ्य की बात करते हैं. ये बड़ा अद्भुत है. कोई भी प्रार्थना व्यक्तिवादी है नहीं, ‘मैं’ वहाँ है ही नहीं. जब भी बात करेंगे वे हम की बात करेंगे और हममें उनका पशुधन भी शामिल रहता है, वनस्पतियाँ भी उस हममें शामिल रहती हैं. ऐसी उच्च कोटि की संस्कृति है. उसको हिंदू बनाने, ईसाई बनाने का क्या मतलब है.

यानी उसके दर्शन को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. चूंकि जनगणना में 1952 के बाद आपने कॉलम ही देना छोड़ दिया आदिवासियों के लिए. हमलोगों ने फरवरी में आदिवासी दर्शन पर एक राष्ट्रीय सेमिनार किया और दुनिया भर से आए लोग उसमें. और ट्राइबल फिलोसोफी पर पहली बार बात हुई. आदिवासी दर्शन के मूलतत्त्व तो एक ही है- प्रकृति है और परम सत्ता है. नाम कुछ भी रखिए उसका. सिङ्बोगा कहिए, धरमे, ठाकुर जऊ कहिए, नॉर्थ ईस्ट में कुछ और कहेंगे. गोंड बड़ा देवकहेंगे लेकिन है वही प्रकृति और परम सत्ता.

जहाँ से आपका सांख्य दर्शन निकल रहा है. जिस पर आपको गर्व है. लेकिन जो जी रहा है उस दर्शन को, उससे आपको दिक्कत है. आप उसको अपने समाज का हिस्सा मानने के लिए तैयार नहीं है. तो वो जो तीन दिन का हमारा अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार था. ये सरना धर्म कोड या आदि धर्म का कोड शामिल हो जनगणना के कॉलम में- उसकी सैद्धांतिकी या आधार तैयार कर रहे थे हम उस सेमिनार से.

 

12.

झारखंड एनसाइक्लोपीडियाके चार खंड का आपने संपादन किया है, उसके बारे में भी बतायें..


वास्तव में उस समय जब मैं 1999 से 2004 तक मैं झारखंड राज्य खादी ग्रामोद्योग आयोग के क्षेत्रीय कार्यालय था, जिसका मैं पूरे राज्य का प्रभारी था. पूरे राज्य को देखने की जिम्मेदारी थी. घूमता था जहाँ-जहाँ उनके उत्पादन क्षेत्र थे. उनके उत्पादन केंद्र एकदम साहेबगंज से लेकर उधर गढ़वा तक था. हर व्यक्ति की अपनी-अपनी रुचियाँ होती है. मैं जिस शहर में जाता था वहाँ के जो पढ़ने-लिखने वाले विद्वतजन होते थे, उनके पास जाकर बैठता था. उम्र में बड़े हों, अपने विषय के विशेषज्ञ हों चाहे वासुदेव बेसरा हों, श्यामाचरण तुबिद हों- ऐसे अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग विद्वान लोग थे. हर विषय के विशेषज्ञ लोग थे. रामदयाल मुंडा अगर मानवशास्त्र, मुंडा भाषा, संस्कृत आदि विषयों के विशेषज्ञ थे तो श्यामचरण तुबिद हो’ भाषा एवं संस्कृति के.

वासुदेव बेसरा, दुमका में अधिवक्ता हुआ करते थे और वे संथाली भाषा और संथाल समाज के बड़े विद्वान थे और चूँकि वामपंथी थे तो चीजों के देखने का नजरिया भिन्न था उनका. डॉ. डोमन साहू समीर देवघर में, संथाली भाषा के सबसे बड़े विद्वान- इनलोगों के पास बैठा करता था. जहाँ भी गया तो ऑफिस का काम निपटा कर शाम या सवेरे बुजुर्गों के पास बैठकर कुछ सीखने का, कुछ समझने की कोशिश करता था. वहाँ से फिर मन में यह आया इन लोगों की बातों को संग्रहित किया जाये. और, यह व्यक्तिगत उपक्रम था. यह चार खंडों में हमलोगों ने संयोजित किया. शोधकर्ताओं के लिए या झारखंड को समझने के लिए सारे तथ्य एक जगह उपलब्ध हो गये. हमलोग इसके आँकड़ों को अद्यतन करने में लगे हैं, तो यह बड़ा काम हुआ जो शोधकर्ताओं  के लिए बड़ा उपयोगी है.

 

13.

आपका तीसरा उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ लॉकडाउन की वजह से सहज उपलब्ध नहीं है. उस उपन्यास के बारे में कुछ कहें.


क्षितिज पर छाई जो वर्चस्वशाली सत्ता है वह दसो दिशाओं में सक्रिय है. सांस्कृतिक मोर्चे पर यह सत्ता ब्राह्मणवादी संरचना को बनाए रखने के लिए अपनी प्रच्छन्न-प्रकट नीतियों को लागू करने के लिए अपनी पूरी क्षमता, अपने पूरे सामर्थ्य का उपयोग करती रहती है. हर बार हर युग में. जैसे प्राचीन काल में कभी आदिवासी गणराज्यों को बिखेरने के, उजाड़ने की. फिर उसी ढंग से ये संस्कृति को, इतिहास का उत्पाद नहीं मानते हुए उसको रिड्यूस करना चाहती है धर्म में. धर्म में भी एक खास धर्म में. वो धर्म के बाहर के लोग को बहिष्कृत करना चाहती है. उसके लिए तरह-तरह के प्रपंच, तरह-तरह के जुमलेबाजी, तरह-तरह की योजनाएँ संचालित की जा रही हैं. जिनके कारण हमारा समय रक्तपिपासु उन्मादी-सा हो गया है. मैंने इस उपन्यास की अवधारणा संस्कृति, के व्यापक स्वरूप से ग्रहण की है. हमारे पूर्वजों की जो सम्यक कृतियाँ जिन्होंने सभ्यता को आगे बढाने में भूमिका निभाई, वो सारा कुछ संस्कृति का हिस्सा है. और हिंदुस्तान के बाहर हिंदुस्तान की संस्कृति की पहचान अगर पुख्ता मुकम्मल होती है वह शास्त्रीय संगीत से होती है. और शास्त्रीय संगीत का जो विकास का इतिहास है वहाँ से आप मुसलमानों को बाहर कर ही नहीं सकते. अगर अलाउद्दीन खिलजी के समय देवगिरी से गोपाल नायक आ रहे हैं जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस समय के सबसे बड़े गुरु हैं. दस हजार शिष्य जिनके पालकी ढोते हैं. उनकी भेंट जब होती है अमीर खुसरो  से तो यह हिंदुस्तान की पवित्र नदियों में ईरान के इत्र का मिलना होता है. वहाँ से जो शुरू होती है शास्त्रीय संगीत की धारा- वो मुगलों के यहाँ अकबर के दरबार में तानसेन के पास जवान होती है ध्रुपद और फिर वह जाती है वहाँ मोहम्मद साहब रंगीले के दरबार में. नियामत खाँ के साथ वो आती है ख़्याल गायकी. ख़्याल गायकी सिर्फ आती नहीं है उसका दस्तावेजीकरण भी मोहम्मद साहब रंगीले के दरबार में होता है.

मुगलों के सत्ता के पराभव के बाद अवध बनता है केंद्र, और वहाँ ठुमरी-वाजिद अली शाह और केवल ठुमरी नहीं, वो कत्थक में भी कृष्ण सब कुछ आते हैं. ठुमरी पूरी जवान होती है वहाँ. फिर जैसे ही ये सारे बादशाहत जमींदारी खत्म होती है, घरानें आते हैं. जो ध्रुपद जो मुख्य रूप से मन्दिरों का गायन था वो दो-तीन सौ सालों तक गायब हो गया था, उस ध्रुपद को पुनर्जन्म कौन दे रहा है- डागर बंधु दे रहे हैं. केवल पुनर्जीवन ही नहीं दे रहे हैं जाके बज़फ्ता पेरिस में ध्रुपद एकेडमी की स्थापना करते हैं. पूरे दुनिया में ध्रुपद का डंका बजता है. वीणा को फिर से पुनर्जीवन डागर बंधु देते हैं. बड़े गुलाम अली खाँ साहब जब गाते थे हरि ओम तत्सत’ - तो लोग रोने लग जाते थे. तो यही हिंदुस्तानी संगीत की परम्परा जहाँ न आप हिंदू है और न मुसलमान हैं, सब भूल कर केवल संगीत को ही इबादत के तौर पर देख रहें हमारे ये पूर्वज. जो राग-रागिनियाँ विकसित हुईं, आप पाकिस्तान चले जाएँ, बांग्लादेश चले जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ रहा है सीमाओं का. अगर वो राग गाया जाएगा तो उसी तरह गाया जाएगा जो हिंदुस्तान में गाया जा रहा है या बांगलादेश में गाया जा रहा है तो ऐसी है इस हिन्दुस्तानी मौसीकी की पाक दुनिया जिसे सीमाओं से अलगाया नहीं जा सकता.

हमारे यहाँ मैहर में बड़ो बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ- जिनकी बेटी अन्नपूर्णा, दामाद रविशंकर थे. उसी ढंग का एक परिवार मेरे इस नए उपन्यास में. बड़ो नानू महताबुद्दीन खाँ साहब, उनके बेटे हैं नानू अय्यूब खाँ, उनकी बेटी हैं अम्मू रागेश्वरी देवी और उनकी भी बेटी हैं- शबनम खान जैसे उनके दामाद भी कई घरानों से. कनफट्टा योगी के परिवार से एक दामाद अब्बू खुर्शीद जोगी आए हैं. तो इस उपन्यास का नायक कमल कबीर बाउल समाज से आया है. और अब कनफट्टा योगी के इतिहास को जानिए कि गोरखनाथ के यहाँ जो दलित समाज के लोग हों, मुसलमान समाज के लोग हों- कोई भी हो योगी होते थे और गेरुआ वस्त्र पहन एकतारा बजाते हुए भर्तृहरि गाते थे, भिक्षा माँगते थे.

लेकिन पिछले तीस-चालीस सालों में, बीस सालों में जो चीज मुगलों के  समय नहीं खत्म हुई ब्रिटिश काल में खत्म नहीं हुई. वो इधर आकर खत्म हो गई. कि तुम क्यों पहनते हो गेरुआ तुम अगर मुसलमान हो. और मुसलमान मस्जिद में कह रहा है कि तुम नमाज पढ़ने आए हो तो गेरुआ क्यों पहन रहे हो. लेकिन बाउल अभी तक बचे हुए हैं. लालन फकीर से लेकर अभी तक वो जाति और धर्म के बंधन से लगभग आजाद हैं और कृष्ण भक्ति के वैष्णव गीत भी गा सकते हैं. सहजिया बौद्ध वैष्णव और सूफी की त्रिवेणी हम बाउलों में देख सकते हैं. यह जो समावेशीकरण है दरअसल यही हिन्दुस्तानियत है, भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.

लेकिन इस मॉब लिंचिंग के इस उम्मादी-रक्तपिपासु समय में यह बड़ा नानू का परिवार फँस गया है. और एक-एक करके सब मारे जा रहे हैं. पहले नानू, अय्यूब खाँ की हत्या होती है. फिर अब्बू खुर्शीद शाह योगी साहब. फिर कमल के पिता मदन बाउल और अन्त में कमल भी. तो यहाँ रुलाई है और कई लोगों की रुलाई है इसलिए कोरस है. लेकिन जो समय है वो इस अथाह दुःख-विषाद को प्रकट होने से भी रोक रहा है इसलिए यह गूँगी रुलाई का कोरस है.

 

14.

इसके बाद आप क्या लिखने को सोच रहे हैं ?


यह बात तो नहीं बतानी चाहिए (हँसते हुए). ग्लोबल गाँव के देवताकी समीक्षा के क्रम में समुदाय के दानवीकरण की बात करते है, मैनेजर पांडेय सर. 9/11 के बाद समुदायों के दानवीकरण की प्रक्रिया बहुत ही गतिशील हो गयी है इस्लामीफोबिया उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है. एडवर्ड सईद इस बात को बहुत पहले से कह रहे हैं कि युरोप जो है वो इस्लाम का एक स्टिरियोटाइपिंग कर रहा है. एक अन्य’ (अदर) के तौर पर उसको ढाल रहा है. तो आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच वो जो अब्बासी खलीफाओं का समय है वो विज्ञान के अद्भुत विकास का समय है. अगर वह पुनर्जागरण के बाद दार्शनिक देआर्त यह स्वीकार करते हैं कि हमारा जो अतीत है अंधकारपूर्ण है, अतीत से कुछ लेना-देना ही नहीं है. इसलिए अतीत को अस्वीकार करते हैं कि अगर वो अतीत को स्वीकार करेंगे तो यूनान की जो उपलब्धियाँ हैं, रोम की जो उपलब्धियाँ हैं, वह सीधे नहीं आती हैं उनके पास. वो पहले जाती हैं अब्बासी खलीफाओं के समय में अरबी में अनूदित होती हैं, उसके बाद जो विज्ञान वहाँ विकसित होता है वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हासिल होती हैं. तब वह लैटिन में अनूदित होती है. अगर आप स्वीकार करते कि  अतीत से भी हमने ग्रहण किया है- ग्रीस से और रोमन से तो आपको अरबों की भी उपलब्धियों को स्वीकार करनी पड़ेगी. और वह जो अब्बासी खलीफाओं का जो समय था जो अनुवाद का आंदोलन था और पुस्तकालयों का आंदोलन था. वहाँ जो राजधानी में आपकी हैसियत आपकी लाइब्रेरी से बनती थी. आपके घर में कितनी बड़ी लाइब्रेरी है वो दरबार में आपका हैसियत तय करता था. फिर अनुवाद के आन्दोलन के क्रम में हिंदुस्तान की भी उपलब्धियों के अनुवाद और चीन के भी विज्ञान के किताबों के अनुवाद अरबी होते हैं. वो सारे अनुवाद हुए और अनुवादों के आधार पर अरब जगत ने वैज्ञानिक गणतीय उपलब्धियों को काफी आगे बढ़ाया गया. ले

किन स्टीरियो-टाइपिंग की जड़ें इतनी गहरी हैं, पूर्वाग्रह इतना गहरा है कि हमारे दिमाग में जैसे ही मुसलमान की बात आती है तो एक अनपढ़, अधपढ़ या दाढ़ी बढाए कट्टर व्यक्ति उभरता है. तो जैसे इस बार संगीत थीम था मेरे उपन्यास का चित्र संगीत में जो योगदान है मुस्लिम समुदाय का. उनका जो बड़प्पन है- बिस्मिल्ला खाँ साहब को अमेरिका में कहा गया कि बस जाइए तो वे बोले हमारी गंगा को ले आइए, हमारे विश्वनाथ जी को ले आइए. पक्का महाल और वो माहौल को ले आइए तब हम यहाँ बसते हैं. ये दुलार है उनका हिन्दुस्तानी तहजीब से जिसको भूल जाते हैं मुसलमानों के संदर्भ में. पुनर्जागरण-ज्ञानोदय के बाद विज्ञान का जो विकसित रूप दिख रहा है उसमें अरब साम्राज्य के वैज्ञानिकों, विद्धानों-बहुश्रुतों की बड़ी भूमिका रही है. जिसे अब यूरोप का वैज्ञानिक-जगत भी धीरे-धीरे स्वीकारने लगा है. एक छुपाई गई सच्चाई, दबाये गए तथ्य इस्लामीफोबिया की स्टीरियोटाइपिंग के प्रतिकार में नई रचना में लाने का इरादा है.

manojmohan2828@gmail.com

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हमको डिक्टेटर मांगता ! : सुभाष गाताडे

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(मुंबई के एक रेस्तरां का दृश्य, फोटो आभार REUTERS)

 

अक्सर लोग बातचीत में यह कहते पाये जाते हैं कि इस देश में सैनिक शासन लागू कर देना चाहिए. ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते हैं कि उनके पड़ोसी देशों में यह सब होता रहा है और इसने उन देशों का जहाँ पीछे किया है वहीं लोगों के जीवन को भी संकट में जब-तब डाल दिया है. जिस देश ने अपने इतिहास का सबसे महान और बड़ा संघर्ष अहिंसा, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे विराट मानवीय मूल्यों से जीता हो. वहां हिटलर की बढ़ती लोकप्रियता चिंतित करती है.

क्यों हम हिटलर को पसंद करने लग गयें हैं, क्यों हम किसी तानाशाह की प्रतीक्षा कर रहें हैं ? जबकि यह भारत और मानवजाति के लिए किसी विभीषिका से कम नहीं होगा.

प्रसिद्ध लेखक और विचारक सुभाष गाताडे का यह लेख शोध के साथ गम्भीरतापूर्वक और गहराई से इस सवाल का उत्तर तलाशता है.  

यह वैचारिक आलेख प्रस्तुत है.


हमको डिक्टेटर मांगता!                               
सुभाष गाताडे

 


“History teaches, but it has no pupils.”

Antonio Gramsci, (१)

 

क भारतीय प्रकाशक को इस मसले पर वर्ष 2018में आलोचना का शिकार होना पड़ा जब बच्चों के लिए तैयार की गयी एक किताब जिसका फोकस विश्व के नेताओं पर था ‘जिन्होंने अपने मुल्क और अपनी जनता की बेहतरी के लिए जिंदगी दी’ उसमें हिटलर को भी उसने शामिल किया.

जानकार लोग बता सकते हैं कि ऐसी घटनाएँ- कम-से-कम यहां अपवाद नहीं हैं.अपनी मौत के लगभग 75साल बाद हिटलर भारत में बार-बार ‘नमूदार’ होता रहता है.

एक स्पैनिश फिल्म निर्माता अल्फ्रेडो डे ब्रागान्जा- जो एक स्वतंत्र फिल्म निर्माता रहे हैं- और जिन्होंने कुछ साल पहले भारत में रह कर काम किया था, उन्होंने भारत में हिटलर की अलग किस्म की ‘मौजूदगी’ को लेकर एक फोटो निबंध तैयार किया था जिसमें बहुत कम लिखित सामग्री थी. वह हिटलर की उपस्थिति को लेकर इस कदर विचलित थे कि अपने इस निबंध की शुरूआत में उन्होंने पूछ ही डाला:

भारत हिटलर-प्रेम के गिरफ्त में है. हालांकि आबादी का बड़ा हिस्सा यह नहीं जानता कि आखिर ऐसा क्यों हैं, वे अपने निजी एवं पेशागत चिन्ताओं से परे सोचना भी नहीं चाहते कि क्यों भारत हिटलर से प्रेम करता है? क्या किसी लॉबी का हित इसके पीछे है.’ (2)

आज भारत में आलम यह है कि  यहूदी विरोधी हिटलर की चर्चित रचना ‘माईन काम्फ’ (मेरा संघर्ष) को आप किसी किताब की दुकान में ‘डायरी ऑफ़ एन फ्रांक- जो उस यहूदी लड़की की आत्मकथा है जो खुद हिटलर की यहूदी विरोध की नीतियों का शिकार हुई थी, के बगल में देख सकते हैं.

हिटलर ने भारतीयों के बारे में काफी अपमानजनक टिप्पणियां की थीं और उसने भारत की आज़ादी के संग्राम का कतई समर्थन नहीं किया था. ‘डिअर हिटलर’ इस फिल्म पर- जिसमें यह दावा किया गया था कि ‘हिटलर भारत का दोस्त रहा है’ अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक लेखक ने हिटलर के चित्रांकन पर आश्चर्य प्रकट करते हुए तथा निराशा जताते हुए लिखा था :

"हिटलर ने कभी भी भारतीय स्वशासन की हिमायत नहीं की. उसने ब्रिटिश राजनेताओं को सलाह दी कि गांधी और आज़ादी के आन्दोलन के सैकड़ों नेताओं को वह गोली से उड़ा दे. बार-बार उसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति अपना समर्थन दोहराया. वह यही सोचता था कि वह (ब्रिटिश शासन) उतना सख्त नहीं रहा है. ‘अगर हम भारत पर कब्जा जमा लेते हैं’ उसने कभी धमकाया था, तब भारतीय लोग ‘अंग्रेजी शासन के अच्छे दिनों को याद करते फिरेंगे.’ (3)

लोकप्रिय रहा सीरियल हिटलर दीदी- जो बिना किसी बाधा के दो साल तक चलता रहा- वह तब मुद्दा बना, जब उसने ‘एंटी डिफेमेशन लीग’ नाम से अमेरिका में बसे एक अंतर-राष्ट्रीय यहूदी गैरसरकारी संगठन को उकसाया. दरअसल हुआ यह कि बढ़ती शोहरत के चलते निर्माताओं ने इस सीरियल को अरेबिक भाषा में डब किया और अरब दुनिया में उसे दिखाया जाने लगा.

 


 

2

मैं फलां की प्रशंसा इसलिए करता हूं’ 

कभी-कभी मासूम से दिखने वाले सवाल भी विचलित करने वाले जवाबों को जन्म देते हैं.

मुंबई के एक प्राइवेट स्कूल में फ्रेंच के अध्यापक को इस बात का कतई अहसास नहीं रहा होगा जब उसने अपने छात्रों को एक अभ्यास दिया कि वह बताएं कि वह किसे महान ऐतिहासिक शख्सियत या नायक मानते हैं और उसकी हिमायत में कुछ लिखें, तो बच्चे क्या जवाब देंगे.   

लेखक और पत्रकार दिलीप डिसोजा, जिन्होंने कई किताबें लिखी हैं और जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर भी लिखते हैं, उन्होंने उनकी पत्नी का यह अनुभव किसी चर्चा के दौरान साझा किया. उनके मुताबिक उनकी पत्नी को यह उम्मीद थी कि लोग गांधी या भगत सिंह या आज़ादी के आन्दोलन के किसी अन्य कर्णधार का नामोल्लख करेंगे, मगर उनका एक भी अनुमान सही साबित नहीं हुआ. वहां सिर्फ एक छात्रा थी जिसने महात्मा गांधी को चुना था, लेकिन पचीस में से नौ छात्रों ने हिटलर को हीरो के तौर पर या एक बड़ी शख्सियत के तौर पर पेश किया था.

अपनी इस पसंदगी पर बात करते हुए दसवीं कक्षा के एक छात्र ने हिटलर की ‘जबरदस्त भाषणशैली’ की तारीफ की, उसने बताया कि किस तरह वह अपने मुल्क से प्रेम करता था, किस तरह वह एक ‘बड़ा देशभक्त’ था और किस तरह उसने प्रथम विश्वयुद्ध में अपने मुल्क की हार के बाद उसे ‘अपना स्वाभिमान’ लौटा दिया. जिन लाखों लोगों को हिटलर ने मरवाया, उसके बारे में उसकी कोई सहानुभूति नहीं थी; उसने बस इन मौतों को यह कहते हुए वाजिब ठहराने की कोशिश की कि ‘उनमें से कुछ देशद्रोही थे.’ (4)

पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने लिखा था कि किस तरह हिटलर के प्रशंसक आधुनिक शहरी प्रबुद्ध-वर्ग में भी मिलते हैं तथा ऐसे लोगों में भी मिलते हैं जो कार्पोरेट जॉब करते हैं, कहीं प्रशासन में काम करते हैं या अच्छी तनखावाले पेशों में हैं. फिर उन्होंने हिटलर के बारे में युवकों की जिस राय को साझा किया उसे पूरी तरह उद्धृत करना ही बेहतर है :

‘मिसाल के तौर पर, देश के अग्रणी कालेज, दिल्ली के सेन्ट स्टीफन्स कॉलेज में, आखिरी साक्षात्कार में जब प्रत्याशियों से पूछा जाता है कि उनका हीरो या रोल मॉडल कौन है तो ‘‘लगभग 60फीसदी प्रत्याशी हिटलर का नाम लेते हैं’’, प्रिन्सिपल ने आईपीएस को बताया था.

यह आंकड़ा निश्चित ही विचलित करने वाला है. अधिकतर छात्र उनके इस चयन के पीछे यही कारण बताते हैं कि हिटलर उग्र राष्ट्रवादी था: उसने जर्मनी को ‘‘आत्माभिमान’’ दिया, वर्साय संधि के बाद देश पर लादे गए अपमानजनक समझौतों से उसे उबारा; उसके द्वारा साठ लाख यहूदियों का मारा जाना ‘‘आनुषंगिक क्षति’’ भर  (collateral damage) है.’ (5)  

अपने आलेख ‘hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise’ के लेखक जो डिजिटल उद्यमी हैं, भारत के आज़ादी के आन्दोलन में स्थापित अहिंसा के सिद्धांत के बरअक्स मौजूदा भारत में हिटलर ब्राण्ड फासीवाद के भारतीय स्वरूप ग्रहण करते जाने, जिसमें नस्लीय नफरत और हिन्दू राष्ट्रवाद का घोल मिला हो, की चर्चा करते हैं.(6)

सोशल मीडिया की पड़ताल करते हुए वे इस बात को उद्घाटित करते हैं कि किस तरह- ‘‘भारतीय हिंदू नात्सियों का एक बड़ा और विकासमान समुदाय वजूद में आया है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों में सक्रिय नव-नात्सी समूहों से जुड़ा हुआ हैं.”

न्यूजएक्स- जो भारत का एक 24घंटे चलनेवाला टेलीविजन चैनल है- उसके द्वारा संचालित यूटयूब चैनल पर कोई लिखता है.

"मैंने यह भी पाया कि भारत में आधारित कई वॉटसअप समूह हिटलर के ‘‘सकारात्मक योगदानों’’ की चर्चा कर रहे हैं. उन्होंने जर्मनी के महान नेता, एक ‘‘देशभक्त राष्ट्रवादी’’ जिसने ‘‘देशद्रोहियों’’ को दंडित किया, इस अन्दाज में उसका चित्रण करते हैं." (वही)

यह दावा किया जा सकता है कि दुनिया में भारतीय लोग एकमात्र नहीं हैं जो हिटलर की तारीफ करते हैं. किसी एक भाषण में फिलिपीन्स के राष्ट्रपति डुटेर्टे ने अपनी तुलना हिटलर से की थी और दावा किया था कि वह नशीली दवा लेने वाले और उसके व्यापार में लगे तीस लाख लोगों का सफाया करके ‘‘बहुत खुश होंगे.’’

महज दो साल पहले जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री त्शिंत्जो अबे की अगुआई में चल रही सरकार के कैबिनेट ने यह तय किया कि हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ’ अर्थात मेरा संघर्ष बहुत शैक्षिक मूल्यों वाली किताब है और उसे देश की कक्षाओं में इस्तेमाल किया जा सकता है. (7)



संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित जर्नल ‘‘फॉरेन पॉलिसी’ ने एक स्टोरी प्रकाशित की थी जिसका फोकस था गैर-पश्चिमी दुनिया में हिटलर को लेकर ‘सकारात्मक परिप्रेक्ष्य’. इसमें  बताया गया था कि पश्चिमी दुनिया में हिटलर की जो इमेज व्याप्त है, जिसके तहत जहां वह हत्यारा और नस्लीय धर्मांध हैं- जो दुनिया पर वर्चस्व कायम करना चाहता था- वहीं गैर पश्चिमी देशों में उसे ‘‘Anglo-French-American-Zionist domination.” के खिलाफ’ उसके राष्ट्रवादी संघर्ष के चलते ‘‘साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोही के तौर पर भी देखा जाता है.(8)

वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि हिटलर के प्रति हिन्दोस्तानियों के प्रेम का  दुनिया में कोई सानी नहीं है. इसकी ओर लंदन से प्रकाशित ‘डेली टेलीग्राफ’ ने एक आलेख में पश्चिमी जगत का ध्यान आकर्षित करवाया था: ‘इंडियन बिजनेस स्टुडेंटस स्नैप अप कॉपीज आफ माईन काम्फ’

सवाल उठता है कि आखिर भारत में हिटलर इतना ‘लोकप्रिय’ क्यों हैं- खासकर मध्य और उच्च मध्यवर्गीय युवाओं में और पेशेवरों में ?

इजरायल से निकलने वाले एक अख़बार जेरूसलेम पोस्ट में प्रकाशित आलेख ‘व्हाय एडॉल्फ हिटलर इज पॉप्युलर इन इंडिया’ में लेखक ने भारतीयों के इस हिटलर प्रेम को एक अलग कोण से इसे देखने की कोशिश की है.(9) 

‘‘भारत में हिटलर की विरासत पश्चिम से बिल्कुल अलग दिखती है. दूसरे विश्वयुद्ध की महा-तबाही से बिल्कुल दूर खड़े और नस्लीय जनसंहार की हक़ीकत के प्रति भी लगभग अपरिचित, भारत के लोगों का हिटलर-प्रेम ऐसे समाजों में मुमकिन ही नहीं है जहां जंग लड़े सैनिक हों या जनसंहार से बचे लोग हों या जहां युद्ध एवं उसकी विरासत में बारे में शिक्षा के जरिए या अन्य साधनों से लगातार बताया जाता रहता हो.’

आलेख इस बात की भी चर्चा करता है है कि-

ऐतिहासिक वैश्विक घटनाओं और भारतीयों के बीच भावनात्मक दूरी को लेकर ऊपरी तौर पर एक अन्तर-विरोध दिखता है. भारतीय शिक्षा ऐसी वैश्विक घटनाओं को लेकर बहुत कम ध्यान देती है, जिनका फोकस राष्ट्रवाद या स्वतंत्रता संघर्षों पर न हो. दूसरे विश्वयुद्ध की स्कूलों के पाठ्यक्रमों में बहुत सतही चर्चा की जाती है. वे आडम्बर और हिटलर की सेलेब्रिटी छवि पर सम्मोहित होते हैं.’’

एक ऐसे मुल्क में जहां तमाम भारतीय इस बात पर यकीन करते हैं कि एक मजबूत नेता समाज को बेहतर ढंग से रूपांतरित कर सकता है, वहां जब वह इस बात को देखते हैं कि हजारों हजार जर्मन हिटलर के समक्ष सावधान मुद्रा में खड़े हैं, वह छवि उन्हें आकर्षित करती है, भले ही ऐसी रैलियों ने तमाम तबाही को जन्म दिया हो.’’

हम लोग चाहें तो कुछ साल पहले दिवंगत हुए पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई द्वारा लिखे उस आलेख की तरफ फिर से लौट सकते हैं. जानेमाने राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव को उद्धृत करते हुए उन्होंने बताया था कि हिटलर के प्रति प्रशंसा का यह भाव ‘‘दरअसल भारतीय अभिजात्य में मौजूद अधिनायकवादी चिन्तन की गवाही देता है, या कम-से-कम शासन की गैर जनतांत्रिक पद्धतियों के प्रति उनके सम्मोहन या प्रशंसा को ही उजागर करता है.’’

उसमें उन्होंने यह भी जोड़ा था कि

‘‘कई ऊंचे तबके के भारतीय मानते हैं कि भारत के सामने खड़ी बहुविध समस्याओं का समाधान एक तानाशाह ही कर सकता है.’’

भारत में अधिनायकवादी चिन्तन के इस रुझान को लेकर समाज-विज्ञानी मानते हैं कि-

‘‘इसका ताल्लुक भारत के अभिजात-वर्ग की अत्यधिक सोपानक्रम पर टिकी जाति व्यवस्था में दिखता है. तमाम ऊंची जाति, ऊंचे तबके के भारतीय अभी भी जनतंत्र के साथ अपना पूरा सामंजस्य कायम नहीं कर पाए हैं, जिसमें यह विचार भी शामिल है कि ड्राइवर और बावर्ची को भी उन्हीं की तरह समान वोट का अधिकार होना चाहिए.’’

इस विश्लेषण में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का प्रश्न भी जुड़ता है जहां वह प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि किस तरह यह ‘‘किसी भी सूरत में पैसा कमाने की’’ की यह प्रवृत्ति इन नीतियों के तहत बढ़ रही है और इसका मतलब है ‘‘सार्वजनिक हित के मामले में फासीवादी किस्म की बेरुखी का विस्तार’’



 

3

होलोकॉस्ट (Holocaust) को हम दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नात्सी जर्मनी और उसके सहयोगियों द्वारा सुनियोजित तरीके से राज्य द्वारा प्रायोजित यहूदी पुरुष, स्त्रियों और बच्चों और कई लाखों अन्य के कत्लेआम के तौर पर समझते हैं. आधिकारिक तौर पर उसमें 60लाख से अधिक यूरोपीय यहूदियों की हत्या कर दी गयी जिसका मतलब था यूरोप से लगभग दो तिहाई यहूदी इस दौरान मार दिए गए. मालूम हो कि जर्मनों ने इस जन संहार को यहूदी प्रश्न का ‘अंतिम समाधान’ (final solution) के तौर पर संबोधित किया था.

विगत कुछ सालों में एक मिश्रित धारा वजूद में आयी है- जिन्हें होलोकॉस्ट को न माननेवाले कहा जा सकता है, जो यूरोप में तथा चन्द मुस्लिम बहुल देशों में फैले हैं, जो इस बात से भी इनकार करते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों की नस्लीय सफाये का अभियान चला था और यह कि यहूदियों को समाप्त करने की नात्सी जर्मनी की कोई योजना थी या वास्तविक तौर पर जितने यहूदी मारे गए उनकी संख्या काफी कम थी. इस समझदारी का ‘आधार’ इतिहास की नस्लीय समझदारी में है या उस चिन्तन में है जहां यहूदियों को दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर या मनुष्य से कमतर पेश किया जाता है.

क्या भारतीयों को ‘होलोकॉस्ट’ से इनकार करने वाली बिरादरी में शामिल किया जा सकता है?

निश्चित ही नहीं.

अगर उनसे साफ-साफ पूछा जाए कि क्या यहूदियों के नस्लीय सफाये का अभियान चला या नहीं, उन्हें इस बात का स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं होगा न ही इसकी भर्त्सना करने में वह संकोच करेंगे.

यहां यह बात भी थोड़ी आश्चर्यजनक लग सकती है कि यहूदियों को यहां किसी भेदभाव का सामना करना नहीं पड़ा, दुनिया के दूसरे हिस्से में उनका नस्लीय सफाया यहां कोई मुद्दा नहीं बन सका. सवाल उठता है कि क्या यह मौन अपवाद स्वरूप था या वह भारतीयों के आम व्यवहार का ही हिस्सा था?

अगर हम ठंडे दिमाग से सोचने की शुरूआत करें तो हम देख सकते हैं कि दुनिया के ऐसे प्रसंगों पर भारतीयों ने अक्सर एक उदासीनता का परिचय दिया है- यहां तक कि अपने अतीत को लेकर भी वे इसी तरह बेरुखी का परिचय देते हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि हमारे समाज में हिंसा इस कदर रचीबसी है कि लगभग सामान्यीकृत हो गयी है. प्राचीन भारत पर केन्द्रित साहित्य का अध्ययन करें आप तो इस हिंसा की व्याप्ति और व्यापकता को खुद देख सकते हैं. डॉ. अम्बेडकर जैसों ने इस हिंसा पर विस्तार से लिखा है और इस बात को भी बेपर्द किया है कि किस तरह समूचा समाज या उसके मुखर लोगों ने उसे दृश्य से गायब करने में कितना जतन किया है. हम चाहें तो उनकी किताब ‘द अनटचेबल्स एंड द पॅक्स ब्रिटानिका’ को पलट सकते हैं ताकि यह जान सकें कि उस दौर में किस-किस किस्म की बर्बर प्रथाएं मौजूद थीं.(10)

प्रोफेसर उपींदर सिंह, जानीमानी इतिहासकार, अपनी किताब ‘पोलिटिकल वायोलन्स इन एन्शन्ट इंडिया’ में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में हिंसा के विवरण पेश करती हैं. वह बताती हैं कि किस तरह-

“प्राचीन भारतीय ग्रंथों में विभिन्न किस्म की हिंसा के विवरण भरे पड़े हैं. मुझे कुछ उदाहरण प्रस्तुत करने दें. ऋग्वेद में युद्ध की काफी चर्चा है. अश्वमेध जैसे यज्ञ-  वह पुरुषों और जानवरों के खिलाफ हिंसा से भरे हैं. महाभारत में 18दिन के ऐसे युद्ध का वर्णन है जिसमें हर रोज दोनों तरफ से हजारों सैनिक मारे गए थे और अंत में पांडवों के तरफ महज सात लोग बचे थे और कौरवों की तरफ महज तीन लोग बचे थे. कुरुक्षेत्र पर हुए युद्ध का विवरण हम बिल्कुल शब्दशः नहीं लेना चाहिए लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि प्राचीन भारत के राजा निरंतर हिंसक, खूनी युद्धों में उलझे रहते थे. जंगल की जनजातियों के साथ संघर्ष बहुत आम था. (11) 

अपने हालिया इतिहास का एक उदाहरण यहां लेना अधिक समीचीन होगा.

अगर दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान माने गए यहूदियों की तादाद 60लाख के करीब थी तो मुल्क के बंटवारे के वक्त भी जितने निरपराध लोग मारे गए थे उनकी संख्या भी उसी दायरे में थी. अनुमान यह लगाया जाता है कि इस दौरान दो लाख से बीस लाख लोग मारे गए.(12)

आखिर इन हत्याओं के बाद क्या हुआ? क्या इन घटनाओं की कोई जांच-पड़ताल हुई, क्या किसी को सज़ा दिलायी जा सकी. कुछ भी नहीं हुआ. हक़ीकत यही है कि यह हत्याएं हमारी याददाश्त से भी पूरी तरह निकल गयीं.

और न केवल बंटवारे के वक्त हुए दंगे, स्वाधीन भारत में हम लोग यहां हुए सांप्रदायिक दंगों में, दलितों-आदिवासियों के खिलाफ चली संगठित हिंसा में, या अन्य शोषित-पीड़ितों के खिलाफ जारी हिंसाचार में इसी तरह हजारों लोगों की जिन्दगियों को स्वाहा होते देखे हैं; लेकिन हम बार-बार यही पाते हैं कि भारतीय लोग चुनिन्दा स्मृति लोप के अपने कोश तक ही संतुष्ट बने रहते हैं. न केवल समाज संगठित हत्याओं की इन घटनाओं पर मौन रहता है बल्कि राज्य के विभिन्न अंग भी अक्सर- चुप्पी के इस षड्यंत्र में शामिल दिखते  हैं.

भारत में ‘यहूदियों के सफाये’ को लेकर यह उदासीनता दरअसल इसी स्थिति का विस्तार जान पड़ती है कि इनसानियत के खिलाफ चले अपराधों को लेकर यहां दक्षिण एशिया में इसी किस्म का रूख अपनाया जाता रहता है, इसी तरह इन अपराधों को ‘अदृश्य'कर दिया जाता है या सुनियोजित तरीके से भुला दिया जाता है और इस तरह पीड़ित समुदायों, संगठनों, हिंसा-बरबादी का शिकार हुए व्यक्तियों के लिए न्याय का सवाल दफना दिया जाता है.

 



4

इस पृष्ठभूमि में क्या यह कहा जा सकता है कि एक रोल मॉडल के तौर पर हिटलर की दस्तक या उसकी छवि के मानवीकरण की जड़ें, इस बात में छिपी हैं कि हमें किस तरह इतिहास सिखाया जाता है, किस तरह समाज विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें छात्रों के बीच एक विश्लेषणात्मक नज़रिया विकसित कर पाने में असफल होती हैं.

हम अपने-अपने बचपन के दिनों या किशोरावस्था के दिनों को याद करके बता सकते हैं कि पाठय-पुस्तकें किस तरह चेतन या अचेतन तौर पर हमारे मन में जाति, जेण्डर, नस्लीय यहां तक कि साम्प्रदायिक रूढ़िबद्ध धारणाओं ठूंस देती थी, हमारे मानस को गढ़ती थी. और न केवल पाठय-पुस्तकें, बल्कि जिसे हम ‘बाल-साहित्य’ कहते हैं, वह भी ऐसे ही पूर्वाग्रहों से लैस रहता था. मिसाल के तौर पर ‘अमर चित्रकथा’ के नाम से जो बहुचर्चित कॉमिक सीरीज प्रकाशित होती रही है, जिसने कम से दो पीढ़ी के बच्चों को प्रभावित किया, उसकी चालीस साला यात्रा पर निगाह डालते हुए लेखिका ने जो निष्कर्ष निकालें हैं, वह बेहद चिन्तनीय हैं. अनुसंधानकर्ता के मुताबिक इस श्रृंखला ने:

‘‘रफ्ता-रफ्ता राष्ट्र के विचार के तौर पर धर्म को इस तरह स्थापित किया कि राष्ट्र दरअसल इलाका, स्थान, वर्ग, जेण्डर, जाति, सम्प्रदाय या धार्मिक समूह जैसी कोई विशिष्ट पहचान को लांघ गया और उसने सर्वसमावेशी राष्ट्रीय धर्म के विचार की स्थापना में योगदान दिया. इसके बावजूद धर्म के कथित तौर पर रूढ़िवादी और जडसूत्रावादी पहलुओं का प्रयोग भी साथ-साथ चलता रहा. एक पूरक कदम यह भी था कि, हिंदू धर्म- जो बहुसंख्यकों का धर्म था, उसे भी राष्ट्र के साथ पहचानना जरूरी था.’’(13)

महज पाठय-पुस्तकों के पन्नों को पलट कर एक बात स्पष्ट हो सकती है कि विद्यार्थियों के लिए आखिर इसके बारे में कुछ ठोस राय रखना क्यों मुश्किल जान पड़ता है मसलन जब उन्हें तानाशाही या जाति व्यवस्था के गुण दोषों की चर्चा करने के लिए कहा जाता है. अगर उन्हें मानवता के खिलाफ पहले हुए अपराधों के बारे में और उसके अंजाम कर्ताओं के बारे में न बताया जाए, अगर पाठयपुस्तकें ऐसे तमाम असुविधाजनक तथ्यों को छिपा दें या उनका साफ-सुथराकरण करके उन्हें पेश कर दें तो वे कैसे समझेंगे कि इतिहास महज तथ्यों का संकलन नहीं जिन्हें काल क्रमानुसार सूचीबद्ध किया गया है बल्कि और भी बहुत कुछ है.

अगर हम दूसरे विश्वयुद्ध के विवरणों की ओर मुड़ें तो हम ऐसे किताबों से शायद ही रूबरू होते हैं जहां इस जंग में मारे गए तमाम निरपराधों के बारे में विस्तृत बातें हों, हम उन यातना शिविरों के बारे में जान सकें, जिनका निर्माण हिटलर और उसके नात्सी सेनाओं ने किया था. आखिर कितने विद्यार्थी आशवित्ज के कान्स्टनेटेशन कैम्प के बारे में जानते हैं, जिसे मानवीय इतिहास में एक ही स्थान पर हुई अधिकतम जन-हत्याओं के लिए आज भी याद किया जाता है, जहां अधिकतर पीड़ितों को ऐसे गैस चैम्बरों में ढकेला जाता था जिसमें साइनाइड जैसी जहरीली गैस छोड़ी जाती थी और जिसमें वह तुरंत मर जाते थे.

इतिहास में वह क्रूर किस्म के ‘वैज्ञानिक’ प्रयोग भी दर्ज हैं जब डॉ. जोसेफ मेंगले जैसे नात्सी डॉक्टर गर्भनिरोधकों की नयी श्रृंखला का परीक्षण करने के लिए महिलाओं के शरीर में कॉस्टिक रसायनों का इंजेक्शन लगाते थे.

अगर हम इन विवरणों को भूल भी जाएं तब भी हम नहीं भूल सकते हैं कि यहां की पाठय-पुस्तकों में हिटलर की तारीफ पढ़ सकते हैं और गांधीजी की कमी निकालने वाले अध्याय भी देख सकते हैं.

देश के अलग-अलग राज्यों के कई बोर्ड आफ एजुकेशन में भी हम कभी-कभी हिटलर से मिलते हैं और नात्सीवाद की आंतरिक उपलब्धियों की बातें सुन सकते हैं. इन किताबों में फासीवाद और नात्सीवाद के बारे में ‘‘बेहद डरावने अलबत्ता अस्पष्ट तस्वीर’ मिल सकती है. हालांकि इन किताबों में इन दोनों परिघटनाओं द्वारा निर्मित मजबूत राष्ट्रीय भावना की बात होती थी, प्रशासन और नौकरशाही तंत्र में इससे निर्मित कार्य क्षमता की बात होती थी, लेकिन इसमें यहूदियों के कत्लेआम के बारे में या प्रवासी लोगों पर या टेड यूनियन कार्यकर्ताओं पर बरपा किए गए अत्याचारों का कोई जिक्र नहीं मिल सकता है. और यह परिघटना महज किसी खास सूबे तक या प्रांत तक सीमित नहीं दिखेगी. (14)

चीज़ों की पूर्वाग्रहों से पूर्ण तथा एक तरफा प्रस्तुति आज भी अबाधित जारी है जो महज हिटलर की छवि के साफसुथराकरण तक सीमित नहीं है.

 


 

5

पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्य लोकप्रिय या अभ्यास पूर्ण अध्ययन से जुड़ी इन बहसों का सबसे कम चर्चित पहलू रहा है अपने अतीत की तरफ आलोचनात्मक अंदाज़ में देखने की कमी, खासकर अतीत के उस हिस्से की तरफ जब लोगों को एक हिस्से ने- खासकर दक्षिणपंथी नेताओं द्वारा- मुसोलिनी एवं हिटलर के प्रति औपनिवेशकालीन दौर में प्रकट किया गया सम्मोहन.

इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली के अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में मार्जिया कसोलारी बताती हैं :(15)

"उनके लिए फासीवाद एक किस्म की रूढ़िवादी क्रांति का उदाहरण था. इतालवी हुकूमत के शुरुआती चरण से ही मराठी पत्र-पत्रिकाओं में इसके बारे में 1924से 1935लगातार लिखा जाता रहा.

दक्षिणपंथ के एक अहम नेता ने इटली की यात्रा की थी, मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी और युवाओं में  राष्ट्रवाद  तथा अनुशासन की भावना को विकसित करने के लिए फासीवादी हुकूमत द्वारा स्थापित तमाम संस्थाओं से मुलाक़ात की थी और वह उनसे प्रभावित हुए थे और उन्होंने ऐसी संस्थाओं को भारत में भी बनाने की बात की थी- इनमें सबसे अग्रणी थी बलील्ला (Balilla) संस्था जिसका निर्माण मुसोलिनी ने ‘इटली के सैन्य पुनर्निर्माण के लिए किया था." 

दक्षिणपंथ के एक अन्य अग्रणी नेता ने नात्सियों के बारे में यह कहा था:

‘‘राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने सामीवादी नस्ल को, यहुदियों को, निष्कासित करके दुनिया को चौंका दिया. वहां राष्ट्रीय  अभिमान अपने चरम रूप में प्रगट हुआ है.”

क्या हिटलर की लोकप्रियता की जड़ें ‘भारतीय और जर्मन लोगों के बीच साझी आर्य कड़ियों में’ मिलती हैं जैसा कि 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सर विलियम जोन्स ने कहा था, जो बंगाल में सक्रिय एक ब्रिटिश न्यायाधीश थे और एक विद्वान भी थे. उनकी विद्वता को देखते हुए उन्हें दुभाषियों की मदद से हिन्दुओं और मुसलमानों के ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए कहा गया था, लेकिन ‘मूल स्रोतों की तलाश’ में उन्होंने खुद ही उनका अध्ययन किया.

आर्य नस्ल लम्बी और पतली होती है. यह नस्ल संकरे चेहरे और संकरे कपाल की होती है,उनकी चमडी गौर वर्णीय होती है, उनके बाल मुलायम रहते हैं. (16)

या इसे हिटलर द्वारा प्रस्तुत आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के सिद्धांत के प्रति भारतीयों के अनुराग में देखा जा सकता है, जिसे हिटलर ने पेश किया था. हिटलर का यह मानना था कि ‘आर्य नस्ल’ जिसके पास सबसे ‘शुद्ध रक्त’ है उसका ही यह कर्तव्य है कि दुनिया के लोगों पर नियंत्रण रखे. उसकी समग्र योजना में गैर-आर्यो को अशुद्ध और  शैतानी कहा जाता था. आर्यों की ‘श्रेष्ठता’ को- यहूदियों, जिप्सियां और अश्वेत जैसे ‘कनिष्ठ’ लोगों से ख़तरा है,ऐसा कहा गया. हमें बताया जाता है कि अल्फ्रेड रोजेनबर्ग (1893-1946) जो एक अग्रणी नात्सी विचारक था- जिसे न्यूरेम्बर्ग मुकदमों के बाद फांसी दी गयी थी, जिसने नात्सी विचारधारा को निरूपित करते हुए एक चर्चित किताब लिखी थी, ‘द मिथ आफ टेवन्टीएथ सेन्चुरी’ (1930) - वह भारत को आर्यों के पैतृक मूल स्थान के तौर पर देखता था.

अंत में क्या हिटलर की यह चाहत- जिसे हम एक मजबूत नेता के सम्मोहन के तौर पर देख सकते हैं- इस वजह से भी उभरी है कि हम एक बेहद अनिश्चित समय में जी रहे हैं और एक स्थापित गलत धारणा है कि ऐसे नेता ही ‘सबसे कामयाब और प्रशंसनीय होते हैं.’

 



6

शक्तिशाली नेता और अनिश्चित समय ?

मैं इस केन्द्रीय अवधारणा को बेपरदा करना चाहता हूं, वह यह कि नेताओं के पारंपरिक अन्दाज़ में जिन्हें शक्तिशाली नेता समझा जाता है, जो अपने सहयोगियों पर वर्चस्व कायम करने की स्थिति में होते हैं और समूची निर्णय-प्रक्रिया को अपने हाथ में केन्द्रित करते हैं, वही सबसे सफल और प्रशंसनीय होते हैं. हालांकि इस श्रेणी में शामिल कुछ नेता नकारात्मक की तुलना में अधिक सकारात्मक दिखते हैं, किसी भी नेता के हाथ में संकेंद्रित प्रचंड सत्ता भारी गलतियों और प्रचंड तबाही और खूनखराबे का सबब बन सकती है.’(17)’

लोग शक्तिशाली नेता को क्यों पसंद करते हैं? 

दुनिया भर में अधिनायकवादी या शक्तिशाली नेताओं के उभार की परिघटना को हम देख सकते हैं. इस अनिश्चित दौर ने ऐसे नेताओं को सामने ला खड़ा किया है जो अनिश्चितता एवं नियंत्रण की कमी की मतदाताओं की चिन्ताओं को दूर करते हैं. हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू में प्रकाशित एक पेपर में हेमन्त कक्कर और नीरो सिवानाथन ने इसी उदीयमान परिघटना का विश्लेषण करने की कोशिश की. (18)

इवोल्यूशनरी एण्ड सोशल साइकॉलोजी’ पर केन्द्रित अपने अनुसंधान के आधार पर, जो नेतृत्व के लिए वर्चस्व और प्रतिष्ठा जैसे दो वैकल्पिक रास्तों की बात करता है. पहले वह दोनों किस्म के नेतृत्व में फर्क करने की कोशिश करते हैं, जैसे, किस तरह ‘वर्चस्व’ पर आधारित नेतृत्व’ ज्यादा दावेदारी पेश करनेवाला होता है, आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है, नियंत्रित करनेवाला होता है, निर्णायक होता है तथा भयभीत करने वाला होता है’ जबकि प्रतिष्ठा के रास्ते’ पर चलनेवाला नेतृत्व ऐसे व्यक्तियों से सम्बधित होता है जो आदर के पात्र होते हैं, प्रशंसनीय होते हैं और बाकियों द्वारा तारीफ के काबिल होते हैं. उनके मुताबिक ‘एक वर्चस्वशाली नेता की अपील प्रतिष्ठा पर आधारित नेता से अधिक होती है ख़ासकर जब सामाजिक-आर्थिक वातावरण अनिश्चितता से भरा हो. जब यह अस्पष्ट हो कि भविष्य में क्या छिपा है, लोग व्यक्तिगत नियंत्रण नहीं रख पाते और उनमें यह बोध व्याप्त होता है कि वह नतीजों को प्रभावित नहीं कर सकते.’’ उनके मुताबिक

“अनिश्चित काल में वर्चस्वशाली नेता की हिमायत करना एक तरह से अपने निजी नियंत्रण के बोध को बहाल करने का जरिया है, कि वह सरकारों, खुदा और सोपानक्रमों पर भरोसा करें, जिनके पास कथित तौर पर अधिक कर्ता-शक्ति प्रतीत होती है.’

हालांकि, वह इस चेतावनी को रेखांकित करना नहीं भूले कि आर्थिक नियमनों और राजनीतिक नीतियों को लागू करने का प्राधिकार होने के बावजूद यह संभावना बनी रहती है कि उनके शासन में अधिक अराजकता और अनिश्चितता बढ़ेगी जो एक तरह से उनकी अपील को तथा सत्ता पर उनकी पकड़ की मजबूत ही करेगी.

अध्येताओं ने जो बात रखी है उसमें निश्चित ही दम है लेकिन हम देख सकते हैं कि एक मजबूत नेता के प्रति यह सम्मोहन एक तरह से मध्ययुगीन बंधनों से आधुनिक व्यक्ति की आज़ादी से जुड़ा है जहां उसके लिए यह आसान है कि वह बड़े नेता के आगे शीश झुका दे. एरिक फा्रॅम अपनी किताब में बताते हैं :

अपनी किताब ‘फियर आफ फ्रीडम’ में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि सर्वसत्तावादी आन्दोलन एक तरह से आधुनिक जगत में मनुष्य ने जो आज़ादी हासिल की है उससे मुक्ति की गहरी तड़प को अपील करते हैं; एक तरह से आधुनिक मनुष्य, जो मध्ययुगीन बंधनों से मुक्त हो, वह तर्कशीलता और प्यार पर आधारित सार्थक जीवन की शुरूआत करने के लिए आज़ाद नहीं है, इसलिए वह किसी नेता, नस्ल या राज्य के सामने शरणागत होकर नयी सुरक्षा हासिल करना चाहता है.(19)

एक मजबूत नेता की तलाश को एक तरह से व्यक्ति द्वारा जो ऐसी ताकतों की दया पर निर्भर है जो उसके अपने नियंत्रण के बाहर हैं, जो उसे शक्तिहीन और तुच्छ बनाते हैं. एक नयी शरणगाह ढूंढने की कोशिशों के प्रतिबिम्बन के तौर पर भी देखा जा सकता है, जो उसे प्रणाली द्वारा बढ़ावा दिया गये पार्थक्य और साथ ही साथ समुदाय या सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से दूरी उसे इस बात की तरफ ढकेलती है कि वह किसी मजबूत नेता की ओर मुड़े जो काम को अंजाम दे सके.

अगर भारत की बात करें तो मजबूत नेता के प्रति, एक डिक्टेटर के प्रति यह सम्मोहन हमेशा ही रहा है, खासकर ऊपरी तबके में, उन दिनों में भी जब समय उतना अनिश्चित नहीं था, उन दिनों में भी जब नव स्वाधीन मुल्क आत्मनिर्भरता और सभी के लिए प्रगति की दिशा में शुरूआत डग भर रहा था. ऐसे लोग जो ‘निर्णायक’, ‘मजबूत’ और ‘देशभक्त’ प्रतीत होना चाहते हैं उनके लिए हिटलर की ऐसी छवि मुफीद जान पड़ती है जिसकी भविष्य की रूपरेखा ‘मालिक प्रजाति’ और ‘‘अन्य’’ के सरल बायनरी पर आधारित थी.

सवाल यह उठता है कि डिक्टेटर की यह चाहत भारत में लोकतंत्र के भविष्य के बारे में क्या चेतावनी देती है?

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सुभाष गाताडे
पता : एच 4, पुसा अपार्टमेंट्स 
सेक्टर 15 , रोहिणी 
दिल्ली 110089 
मोबाइल : 9711894180/subhash.gatade@gmail.com


Notes and references:

 

1. Letter from Prison (21June 1919), translated by Hamish Henderson, Edinburgh University Student Publications

 2. http://blogs.timesofisrael.com/india-loves-hitler/

 3. https://www.theguardian.com/film/filmblog/2010/jun/11/bollywood-film-hitler

 4. https://www.thedailybeast.com/hitlers-strange-afterlife-in-india

 5. http://www.ipsnews.net/2006/08/culture-hitlers-cafe-serves-up-indias-ugly-side

 6. https://www.haaretz.com/opinion/hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise-1.5628532

 7. https://www.theglobalist.com/japan-loves-hitler-education-shinzo-abe-hitler/This also keeps open the possibility.

 8. https://foreignpolicy.com/2016/10/05/the-developing-world-thinks-hitler-is-underrated-duterte-world-war-ii-nazi-politics/

 9. https://www.jpost.com/Opinion/Why-is-Adolf-Hitler-popular-in-India-376622

 10. https://www.scribd.com/document/90554070/The-Untouchables-and-the-Pax-Britannica-Dr-B-R-ambedkar

 11. https://www.firstpost.com/living/ancient-indias-political-history-is-based-on-violence-historian-upinder-singh-on-new-book-4181671.html

 12. scholars like Paul R Brass discount the possibility that these killings were spontaneous which took place during the frenzy of partition, rather he emphasizes that they were also an example of existence of institutionalized riot systems in operation then as well

 13. Page vii, Chandra Nandini, ‘The Classic Popular, Amar Chitra Katha, 1967-2007, Yoda Press, 2008

 14. https://www.haaretz.com/opinion/hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise-1.5628532

 15 http://www.epw.in/journal/2000/04/special-articles/hindutvas-foreign-tie-1930s.html

 16. Leaflet from Nazi Propaganda, 1929

 17 . Brown, The Myth of a Strong Leader (2014

 18. https://hbr.org/2017/08/why-we-prefer-dominant-leaders-in-uncertain-times

 19. Page X, The Sane Society, Erich Fromm


भाष्य : मुक्तिबोध (लकड़ी का रावण): सदाशिव श्रोत्रिय

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गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर,१९१७ – ११ सितम्बर,१९६४) की लम्बी कविताओं में ‘ अँधेरे में’, ‘ब्रह्मराक्षस’ आदि की चर्चा होती है, पर ‘लकड़ी का रावण’ कविता पर ध्यान कम गया है. नाटकीयता और आंतरिक लय में यह कविता बेजोड़ है. इसे कवि के आत्मसंघर्ष के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है.

इस कविता का पाठ कर रहें हैं सदाशिव श्रोत्रिय, जिन्हें आप लगातार समालोचन पर ही महत्वपूर्ण कविताओं पर पढ़ रहें हैं.

यह कविता भी दी जा रही है.    



कविता 


लकड़ी का रावण
गजानन माधव मुक्तिबोध


 

दीखता

त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से

अनाम, अरूप और अनाकार

असीम एक कुहरा,

भस्मीला अंधकार

फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर;

लटकती हैं मटमैली

ऊँची-ऊँची लहरें

मैदानों पर सभी ओर

 

लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर

ऊपर उठ

पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक

मुक्त और समुत्तुंग!!

 

उस शैल-शिखर पर

खड़ा हुआ दीखता है एक द्यौ: पिता भव्य

निःसंग

ध्यान-मग्न ब्रह्म...

मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ

सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित्!

मेरे इन अनाकार कंधों पर विराजमान

खड़ा है सुनील

शून्य

रवि-चंद्र-तारा-द्युति-मंडलों के परे तक.

 

दोनों हम

अर्थात्

मैं व शून्य

देख रहे...दूर...दूर...दूर तक

फैला हुआ

मटमैली जड़ीभूत परतों का

लहरीला कंबल ओर-छोर-हीन

रहा ढाँक

कंदरा-गुहाओं को, तालों को

वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को

अकस्मात्

दोनों हम

मैं वह शून्य

देखते कि कंबल की कुहरीली लहरें

हिल रही, मुड़ रही!!

क्या यह सच,

कंबल के भीतर है कोई जो

करवट बदलता-सा लग रहा?

आंदोलन?

नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है

फिर भी उस आर-पार फैले हुए

कुहरे में लहरीला असंयम!!

हाय! हाय!

 

क्या है यह!! मेरी ही गहरी उसाँस में

कौन-सा है नया भाव?

क्रमशः

कुहरे की लहरीली सलवटें

मुड़ रही, जुड़ रही,

आपस में गुँथ रही!!

क्या है यह!!

यह क्या मज़ाक़ है,

अरूप अनाम इस

कुहरे की लहरों से अगनित

कइ आकृति-रूप

बन रहे, बनते-से दीखते!!

कुहरीले भाफ-भरे चेहरे

अशंक, असंख्य व उग्र...

अजीब है,

अजीबोग़रीब है

 

घटना का मोड़ यह.

 

अचानक

भीतर के अपने से गिरा कुछ,

खसा कुछ,

नसें ढीली पड़ रही

कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा

आतंकित हम सब

अभी तक

समुत्तुंग शिखरों पर रहकर

सुरक्षित हम थे

जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे,

अहं-हुंकृति के ही... यम-नियम थे,

अब क्या हुआ यह

दुःसह!!

सामने हमारे

घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख

लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे

लगते हैं घोरतर.

 

जी नहीं,

वे सिर्फ़ कुहरा ही नहीं हैं,

काले-काले पत्थर

व काले-काले लोहे के लगते हैं वे लोग.

 

हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या

भरमाया मेरा मन,

उनके वे स्थूल हाथ

मनमाने बलशाली

लगते हैं ख़तरनाक;

जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे.

 

डरता हूँ,

उनमें से कोई, हाय

सहसा न चढ़ जाए

उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर,

पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा!

 

बढ़ न जाएँ

छा न जाएँ

मेरी इस अद्वितीय

सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ,

हमला न कर बैठे ख़तरनाक

कुहरे के जनतंत्री

वानर ये, नर ये!!

समुदाय, भीड़

डार्क मासेज़ ये मॉब हैं,

हलचलें गड़बड़,

नीचे थे तब तक

फ़ासलों में खोए हुए कहीं दूर, पार थे;

कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे.

अब ये लंगूर हैं

हाय हाय

शिखरस्थ मुझको ये छू न जाएँ!!

 

आसमानी शमशीरो, बिजलियो,

मेरी इन भुजाओं में बन जाओ

ब्रह्म-शक्ति!

पुच्छल ताराओं,

टूट पड़ो बरसो

कुहरे के रंग वाले वानरों के चेहरे

विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं...

प्रहार करो उन पर,

कर डालो संहार!!

 

अरे, अरे !

नभचुंबी शिखरों पर हमारे

बढ़ते ही जा रहे

जा रहे चढ़ते

हाय, हाय,

सब ओर से घिरा हूँ.

 

सब तरफ़ अकेला,

शिखर पर खड़ा हूँ.

लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव-सा.

परंतु, यह क्या

आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही!!

स्वयं को ही लगता हूँ

बाँस के व काग़ज़ के पुट्ठे के बने हुए

महाकाय रावण-सा हास्यप्रद

भयंकर!!

 

हाय, हाय,

उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय

और कि भाग नहीं पाता मैं

हिल नहीं पाता हूँ

मैं मन्त्र-कीलित-सा, भूमि में गड़ा-सा,

जड़ खड़ा हूँ

अब गिरा, तब गिरा

इसी पल कि उस पल...

(संभावित रचनाकाल १९५७ से १९६३ के बीच)

 

 

भाष्य



मुक्तिबोध : लकड़ी का रावण
सदाशिव श्रोत्रिय

 


कोई भी कविता एक संवेदनशील मानव के द्वारा किसी काव्यात्मक भाव को अभिव्यक्ति देने का प्रयास ही तो होती है. इसीलिए मेरी मान्यता है कि उसे सबसे पहले हमें एक विशिष्ट मानवीय अनुभव की अभिव्यक्ति के रूप में देखने की कोशिश करनी चाहिए. इस दृष्टि से मुक्तिबोध की कविता “लकड़ी का रावण”को भी प्रमुखत: अपने परम्परागत विश्वासों से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे एक मार्क्सिस्ट कवि की रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिए. इस सन्दर्भ में चन्द्रकांत देवताले द्वारा उद्धृत क.प. सारथि का यह कथन महत्वपूर्ण है :

"मुक्तिबोध के कवि और मुक्तिबोध के आदमी के बीच मैं कोई नाटकीय दूरी नहीं पाता. मेरे लिए तो मुक्तिबोध की कविता साफ़-साफ़ मुक्तिबोध की ज़िन्दगी को प्रतिबिम्बित करने वाली है और इसे एक आत्मकथात्मक वृत्त के रूप में जिसका कवि नायक स्वयं मुक्तिबोध है, देखना ज़्यादा संगत लगता है. इस सिलसिले में यह कहने के ख़तरे को टाल नहीं पाऊंगा कि मुक्तिबोध ही अपनी कविता की हर पंक्ति, हर उस बिम्ब में जिसकी उन्होंने रचना की है, बोलते प्रतीत होते हैं."                                                                           

(मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक , पृष्ठ 28)

स्वयं मुक्तिबोध ने नेमिजी को एक बार लिखा  था :

“याद है, आपकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है. आपने एक व्यक्ति के साथ नाज़ुक खेल खेला है. उसे कम्युनिस्ट बनाया, दुर्धर्ष घृणा के उत्ताप से पीड़ित..........यह काम बड़ा ही नहीं , नाज़ुक भी है.”

देवताले कहते हैं कि यह आदमी और कोई नहीं स्वयं मुक्तिबोध थे.

(मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक , पृष्ठ 23-24)

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध एक आस्थावान ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और जो धार्मिक संस्कार उन्हें अपने परिवार से मिले होंगे उनसे मुक्त होकर पूरी तरह मार्क्सिस्ट नास्तिकता को अपनाना उनके लिए बहुत  आसान नहीं था. दिवाकार मुक्तिबोध के एक संस्मरणात्मक लेख का निम्नांकित अंश इस बात की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है कि साम्यवादी विचारों से सहानुभूति रखते हुए भी वे कोई कट्टर नास्तिक नहीं बन पाए थे:

"पिताजी धार्मिक कर्मकान्ड पर कितना विश्वास रखते थे मुझे नहीं मालूम. उन्हें मन्दिर जाते न मैंने देखा न सुना. अलबत्ता दादाजी की गैरहाजिरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा ज़रूर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ. होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी करते थे, बाकायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहन कर. इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वे थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है. ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे."

(अक्षर पर्व , 15 जून ,2017 अंक , पृष्ठ 18)

 

यह सच है कि ईश्वर में  मुक्तिबोध की आस्था का स्वरूप कभी बहुत सीधा और सरल नहीं रहा होगा. उनकी माता का ज़िक्र करते हुए उनके मित्र शांताराम क्षीरसागर कहते हैं:

"माता जी, वात्सल्य की मूर्ति, उनकी सभी सुविधाओं का ख़याल रखती थीं. उनके सामने वे निस्संकोच हो जाते थे. वे भगवान को भोग लगातीं तो मुक्तिबोध विनोद में कहते: मां, क्यों पत्थर के लिए परेशान हो रही हो, मुझे खिलाओ तो कुछ गुण भी पहुंचे. वे मीठी झिड़कियां सुनातीं : शांताराम, इस मूर्ख को समझाओ, यह तो नास्तिक होता जा रहा है."                                                                             

(मोतीराम वर्मा, लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 154)

मुक्तिबोध के पारिवारिक धार्मिक वातावरण के बारे में कुछ और भी जानकारी हमें क्षीरसागर से मिलती है. उनके पिता माधवराज मुक्तिबोध के बारे में कहते हैं :

"(उनका) व्यक्तित्व पुलिस विभाग में अपवाद की सीमा तक विशिष्ट था. कीचड़ में कमल की तरह विकसित. एक ओर वे पूजापाठी, धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे; उनके व्यक्तिगत जीवन में आध्यात्मिक अनुशासन की अद्भुत गरिमा लक्षित की जा सकती थी. दूसरी ओर वे एक निर्भीक और न्यायनिष्ठ पुलिस ऑफिसर थे, अपनी ड्यूटी के पाबंद और क़ानून व्यवस्था की रक्षा में कठोरता से तत्पर! उस ज़माने के प्राय: सभी गम्भीर मामलों की छानबीन के दौरान मैं भी उनके साथ रहा था, इसलिए जानता हूं कि कैसे-कैसे प्रलोभन उन्हें नहीं दिए गए, मगर उनकी दृढ़ता सदैव कायम रही, विचलित वे हो ही नहीं सकते थे. उनके व्यक्तित्व का प्रभाव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व एवं संस्कारों के निर्माण में सामाजिक रूप से रहा है."

(लक्षित मुक्तिबोध , पृष्ठ 152)

मोतीराम वर्मा द्वारा उद्धृत शरच्चन्द्र माधव मुक्तिबोध के कुछ बयानों से भी उस धार्मिक वातावरण का कुछ अंदाज़ लगाया जा सकता है जिसमें मुक्तिबोध पले-बढ़े थे. वे कहते हैं:

"हमारे परदादा वासुदेव जी मुद्दत पहले जलगांव से ग्वालियर रियासत में आये थे. मैंने उन्हें देखा नहीं, बड़ों से उनके बारे में सुना है कि वे अपने साथ जो शिवलिंग लाए थे, वह उन्हें नर्मदा से स्वप्नदर्शन के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था. यह धार्मिक श्रद्धा है कि उस शिवलिंग का रंग बदलता रहता है. छोटा भाई चंद्रकांत हममें कुछ ज़्यादा पूजा-पाठी है. शिवलिंग आजकल उसी के पास है. उसकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए."

(लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 124)

अपने पिता के अंतिम समय का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं (उनकी मृत्यु मुक्तिबोध की मृत्यु से एक दिन पहले ही हुई थी)  :

"पिता जी, में आध्यात्मिक किस्म की दृढ़ता थी, कहिए उनकी दृढ़ता को आध्यात्मिक संबल प्राप्त था. भाई साहब की बीमारी  का उन्हें पता था, में उदास देख कर, अपनी रुग्णावस्था में ही  वे धैर्यपूर्वक पूछते थे: अरे वह चला गया क्या? अंतिम रात को हम सब उनके पास बैठे थे. कहा : जाओ, अब आराम करो. वे कहा करते थे, वेदांत विधि से मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्राणों का त्याग किया जा सकता है. और रात ढलते-ढलते हमने देखा, वे चले गए थे."

(लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 125)

किसी ब्राह्मण परिवार के ऐसे धार्मिक वतावरण में पले मुक्तिबोध के मन में ईश्वर की कल्पना अपने माता-पिता जैसे  मूर्तिपूजक और साधारण भक्ति-भाव-पूर्ण व्यक्ति की तो नहीं रही होगी किंतु उसके अधिक जटिल और अमूर्त स्वरूप की कल्पना से वे पूरी तरह मुक्त रहे होंगे इस बात की सम्भावना भी बहुत कम है. वस्तुतः “एक अरूप शून्य के प्रतिया “ लकड़ी का रावण” जैसी कविताओं में उनके आस्तिकता को नकारने वाले मार्क्सिस्ट कवि-विचारक का संघर्ष अधिक स्पष्टता से दिखाई देता है. मेरा मानना है कि अपने समय के तमाम विरोधी राजनीतिक, पारिवारिक और सामाजिक  तत्वों से संघर्ष के दौरान भी किसी अमूर्त एवं अज्ञात नियंता-शक्ति में आस्था के फलस्वरूप यह विश्वास उनके मन में निरंतर बना रहा होगा कि इस संघर्ष में  अंतत: वे ही विजयी होंगे क्योंकि वे एक सचाई और ईमानदारी के  मार्ग का अनुसरण कर रहे  थे. कठिन पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों में भी जब वे अनिल कुमार और शरद कोठारी जैसे अपने मित्रों के सामने यह कहते थे कि उनकी कविताएं एक दिन “म्यूज़ियम में रखी जाएंगी”  या कि “थोड़ा ठहरो दोस्त, सन 1980 तो आने दो” (मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक, पृष्ठ 30) तब अच्छाई का साथ देने वाली किसी अज्ञात शक्ति में एक तरह का आस्था पूर्ण विश्वास भी  कहीं न कहीं उनके विचारों को प्रभावित करता रहा होगा.

मुझे लगता है कि मूर्तिपूजा या कर्म-कांड के संबंध में एक पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक सोच वाले आदमी की अनास्था के बावजूद ब्रह्म जैसी किसी अमूर्त धारणा से पूरी तरह मुक्त हो पाना मुक्तिबोध जैसे ब्राह्मण संस्कारों वाले व्यक्ति के लिए आसान नहीं रहा होगा. ब्रह्मांड की उत्पत्ति, समय और अवकाश के यथार्थ स्वरूप और विचारों की सापेक्षता जैसे जटिल बौद्धिक प्रश्नों से जूझते हुए इस निराकार ब्रह्म की अवधारणा को पूरी तरह नकारना शायद उनके लिए मार्क्सिज़्म के प्रति आकर्षण के बावजूद असम्भव था. विभिन्न कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी यह विश्वास उनके मन को संबल देता रहा होगा कि चाहे सारी दुनिया उनके खिलाफ़ हो जाए, चाहे असफलताएं एक के बाद एक उनका पीछा करती रहें पर इन तमाम कठोर परीक्षाओं के अंत में वे  सफ़ल घोषित किए जाएंगे. जिसकी कल्पना बुद्धि से परे है किंतु फिर भी जो इस समूची सृष्टि को नियंत्रित करता है ऐसे किसी निराकार ब्रह्म के अस्तित्व को नकारना मुक्तिबोध के लिए उस आलम्बन को खोने का पर्याय रहा होगा जो हर आस्थावान व्यक्ति को टूटने से बचाए रखता है.

गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को कहे गए निम्नलिखित शब्दों का बल मुक्तिबोध के मन को भी किसी न किसी रूप में आश्वस्त करता  रहा  होगा :

अनन्याश्चिंतयंतो  मां ये जना पर्युपासते

तेषां नित्याभियुक्तानाम योगक्षेम: वहाम्यहम

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 9, श्लोक 22)

 

इसीलिए एक मार्क्सवादी/समाजवादी सत्य के कमल को हासिल करने की कल्पना मुक्तिबोध के लिए पूरी तरह उल्लासपूर्ण न होकर कीचड़ में लिपटने, जलती हुई आग को हाथ में लेने या किसी सर्प (सरी-सृप)को माला (स्रक)की तरह कंठ में धारण करने जैसी कुछ-कुछ मलिन, ख़तरनाक और भयावह भी रही होगी.  

“एक अरूप शून्य के प्रति” की निम्नांकित पंक्तियों को समझने के लिए हमें मुक्तिबोध के इस आस्था संबंधी इस आत्मसंघर्ष पर सहानुभूति पूर्ण ढंग से विचार करना होगा :

              

अन्धा हूं

खुदा के बंदों का बंदा हूं बावला

परंतु कभी-कभी अनंत सौन्दर्य संध्या में शंका के

काले-काले मेघ-सा,

काटे हुए गणित की तिर्यक् रेखा सा

             सरी-सृप – स्रक–सा.

मेरे इस सांवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,

                  दाग हैं,

और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है

                  अग्नि-विवेक की.

नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज !!

ज़िन्दगी के दलदल–कीचड़ में धंसकर

              वक्ष तक पानी में फंस कर

मैं वह कमल तोड़ लाया हूं-

भीतर से, इसीलिए, गीला हूं

पंक से आवृत,

स्वयं में घनीभूत

मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है.

 

इस कविता की अंतिम पंक्ति अपने आप में बहुत कुछ कहती हुई लगती है. मुझे यह हमेशा किसी ऐसे कष्ट पाते हुए किंतु अहंकारी  बेटे द्वारा अपने पिता को संबोधित प्रतीत होती है जिसे कहीं न कहीं यह भी विश्वास हो  कि उसे अधिक समय तक कष्ट पाते हुए देखना उसके पिता के लिए संभव नहीं होगा.


(दो)

”लकड़ी का रावण” में कवि निश्चय ही मिथकीय चरित्रों का उपयोग कर रहा है जिनमें एक तो स्वयं रावण है और दूसरा “एक द्यौ: पिता भव्य/ नि:संग/ध्यान-मग्न ब्रह्म ..” है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी मिथकीय चरित्र का उपयोग करते समय कोई कवि पूरी तरह स्वतंत्र  नहीं हो सकता क्योंकि जनमानस में उस चरित्र की जो सामान्य रूप से प्रतिष्ठित छवि है उसका अतिक्रमण न करते हुए ही वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ सकता है. जनमानस में प्रतिष्ठित रावण की यह छवि एक ऐसे तपस्वी की रही है जिसे अपने  कठोर तप के फलस्वरूप अतुलित बल और अनेक सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी. अपने मिथकीय स्वरूप में रावण भगवान शंकर का परम भक्त रहा है और इस तरह उस ब्रह्म के साथ उसका एक परोक्ष  रिश्ता भी रहा है जो इस ब्रह्मांड की समस्त गतिविधियों का संचालन करता है. आज भी जब उसे वानरों–लंगूरों से (यहां रामायण के मिथक को भुलाया नहीं जा सकता) चुनौती का भय सताने लगता है तब वह इसी ब्रह्म से सहायता की याचना करता है:

आसमानी शमशीरों, बिजलियों,

मेरी इन भुजाओं में बन जाओ

ब्रह्म-शक्ति  !

पुच्छल  ताराओ ,

टूट पड़ो बरसो

कुहरे के रंग वाले वानरों के चेहरे

विकृत ,असभ्य और भ्रष्ट हैं ....

प्रहार करो उन पर ,

कर डालो संहार  !!                                               

(मुक्तिबोध रचनावली : 2,पृष्ठ 371)

 

देवताले के अनुसार

'रावण आत्म-केंद्रित सत्ता का रूप है और कुहरे के जनतंत्री वानर लोक-सता के प्रतीक बिम्ब हैं.'   (पृष्ठ 219)

पर मेरी मान्यता है कि इस कविता में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक  और सर्व नियंता ब्रह्म के अस्तित्व में आस्था और उसके नकार को लेकर भी है. जिस विशिष्ट तथ्य की ओर कवि इस कविता के माध्यम से हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहता है वह शायद यह है कि आत्म-केंद्रित सत्ता को उचित मानने वाले शासक जहां ब्रह्म की शक्ति को अपने पक्ष में मान कर चलते हैं वहीं वे उनके द्वारा शासित जनता को एक आकारहीन और उपेक्षणीय इकाई के रूप में देखते हैं. अपने आपको जहां वे ब्रह्म की ही भांति किसी उत्तुंग शिखर पर स्थित इकाई और उसी के एक अंश  के रूप में देखते हैं वहां शासित जनता उन्हें अपनी इस ऊंचाई से नीचे बिछे हुए एक मटमैले विस्तृत बेजान कंबल सी लगती है जो  केवल नीचे की दृश्यावली को ढके हुए है:


दोनों हम

अर्थात्

मैं व शून्य

देख रहे ....दूर ...दूर ...दूर तक

फैला हुआ

मटमैली जड़ीभूत परतों का

लहरीला कंबल ओर-छोर-हीन

रहा ढांक

कंदरा –गुहाओं को , तालों को

वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को 

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 368)

 

कवि के रूप में मुक्तिबोध का इशारा शायद इस तथ्य की ओर है कि समय–समय पर विभिन्न शासकों ने अपने आपको विभिन्न प्रकार से अपने आप को ईश्वर का प्रतिनिधि माना है और अपना संबंध उसके साथ जोड़कर स्वयं को मालिक और सामान्य जन को उनके ग़ुलाम मान कर व्यवहार किया है. यह  केवल साम्यवादी/समाजवादी और जनतांत्रिक सोच ही है जिसने पहली बार जहां शासितों को अपने आपको शासकों से भिन्न न होने का बोध करवाया है वहीं शासकों को भी उनकी सामूहिक शक्ति के मुक़ाबले के लिए विवश किया है. 

इस समाजवादी विचार ने ही पहली बार मुक्तिबोध की इस कविता में रावण के अपनी श्रेष्ठता के पुराने विश्वास को डगमगाया है. उसके आत्मविश्वास की इस डगमगाहट को मुक्तिबोध यूं व्यक्त करते हैं  :


अचानक

भीतर के अपने से गिरा कुछ ,

खसा कुछ ;

नसें ढीली पड़ रहीं

कमज़ोरी बढ़ रही ; सहसा

आतंकित हम सब

अभी तक

समुत्तुंग शिखरों पर रह कर

सुरक्षित हम थे

जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे ,

अहं- हुंकृति के ही ..... यम-नियम थे ,

अब क्या हुआ यह

दु:सह  !!

सामने हमारे

घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख

लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप , अरे

लगते हैं घोरतर.

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 369-70)

 

बीस हाथों वाले दशमुख रावण की तुलना में ये लक्ष-मुख, लक्ष-वक्ष ,शत-लक्ष-बाहु रूप कविता के पर्सोना (रावण) को अब यकायक घोरतर लगने लगे हैं. वह पहली बार उनके ठोस अस्तित्व, उनकी शक्ति और उसके कारण पैदा हो सकने वाले ख़तरे के बारे सोचने को विवश होता है:

वे सिर्फ़ कुहरा ही नहीं हैं ,

काले-काले पत्थर

व काले-काले लोहे के लगते हैं वे लोग.

हाय,हाय ,कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या

भरमाया मेरा मन ,

उनके वे स्थूल हाथ

मनमाने बलशाली

लगते हैं ख़तरनाक ;

जाने-पहचाने –से लगते हैं मुख वे.

अपने आप को ब्रह्म का अंश समझने वाला रावण को अब इन वानरों से डर लगने लगा है:

डरता हूँ,

उनमें से कोई ,हाय

सहसा न चढ़ जाय

उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर ,

पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा  !

अगली कुछ पंक्तियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि इस कविता में इन वानरों को जनतंत्र-समर्थक ‘नरों’ के साथ मिलाकर देख रहा है जिनके ठोस अस्तित्व को “समुदाय, भीड़, डार्क मासेज़, मॉब या श्यामवर्ण मूढ़” कह देने मात्र से नकारा नहीं जा सकता. वह पाता है कि जिन्हें वह अब तक “कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार” समझता रहा है वे उस शिखरस्थ को छूने में समर्थ सचमुच के लंगूर हैं:

बढ़ न जायँ

छा न जायँ

मेरी इस अद्वितीय

सता के शिखरों पर  स्वर्णाभ ,

हमला न कर बैठें ख़तरनाक

कुहरे के जनतंत्री

वानर ये , नर ये !!

समुदाय , भीड़

डार्क मासेज़ ये मॉब हैं

श्यामवर्ण मूढों के दिमाग ख़राब हैं ,

हलचलें गड़बड़ ,

नीचे थे जब तक

फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर , पार थे ;

कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे 

अब ये लंगूर हैं

हाय हाय

शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ  !!

 

कहना न होगा कि ये पंक्तियां लिखते समय साम्यवादी क्रांतियों और छुआछूत संबंधी विचार भी कहीं न कहीं कवि के मन में रहे होंगे.  

 

(तीन)

मुक्तिबोध के जीवन पर जब हम नज़र डालते हैं तो हमें लगता है कि उनके साहित्यकार मित्रों में अकेले वे ही थे जिन्होंने मार्क्सवाद का आदर्शवादी अनुकरण करते हुए सच्चे अर्थों में वर्ग-च्युत (डेक्लासे) होने का ख़तरा उठाया था. अपने पिता की  सामाजिक रूप से सम्मानजनक मध्यवर्गीय नौकरी और उसकी बदौलत हासिल अपने परिवार के आदरपूर्ण सामाजिक स्तर में गिरावट  की परवाह न करते हुए उन्होंने सरकारी नौकरियों से मुंह मोड़ लिया था और अपनी बुआ के यहां खाना बनाने वाली मनु बाई की उस साधारण लड़की से विवाह का निश्चय कर लिया था जिससे उन्हें प्रेम हो गया था.

नागपुर में नई शुक्रवारी वाले जिस क्षेत्र में वे रहते थे उसे भी उस समय के लोग किसी स्लम-क्षेत्र के रूप में ही देखते होंगे. उनके भाई ने जबलपुर में उनसे मुलाक़ात का वर्णन करते हुए  कहा है कि जब जबलपुर में प्लेग फैल रहा था तब वे उन्हें किस तरह एक रिक्शे में “संकरी..,पेचीदा,चक्करदार ,घिनौनी” गलियों से होते हुए उनके “घर” ले गए थे जो केवल एक  “अटाला रखने का ...ऊपरी छप्पर” था जहां “एक पीला बीमार बल्ब पहले ही से जल रहा था”

“पूरी दोस्तोव्हस्कियन रूम है आपकी –“ मैंने इधर-उधर देखते हुए कहा. भाई साहब गुड़ की कोको बनाने में व्यस्त हो गए. वे इस समय बहुत प्रसन्न थे, और कोको के कंटर (ग्लास) सामने रखने के बाद कुछ कविताओं का पाठ हम लोगों ने किया. एक से एक अन्धेरी घुप्प कविताएं थीं उनकी. कुछ देर बाद मानो मेरी तसल्ली के लिए उन्होंने बता दिया कि ‘चिंता की कोई बात नहीं है. और घर भी जल्दी मिल जायेगा. राइट टाउन में. फिर सब ठीक हो जाएगा’.. बस. फिर सिर्फ़ उनकी कविताओं को लेकर चर्चा चलती रही." 

पैसे के संबंध में उनकी असावधानी का अनुमान भी हम हरिशंकर परसाई के उनसे संबंधित संस्मरणों से लगा सकते हैं:

"मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी. उन्हें और तरह के क्लेश भी थे. भयंकर तनाव में वे जीते थे. पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे. उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे. पैसे-पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था. वे पैसा देनेवाली पत्रिकाओं में लिख कर आमदनी बढ़ा सकते थे, पर लिखते नहीं थे. कहते– अपनी पत्रिका में लिखेंगे. बस मुझे तो कागज़ आप दे दीजिए."

इसी संस्मरण में अन्यत्र वे कहते हैं:

"मुक्तिबोध विचारों में आधुनिक-वैज्ञानिक, लेकिन इसके साथ ही व्यवहार में कई बातों में बिल्कुल सामंती. किसी को अपने घर में साग्रह ख़ाना खिलाना, अपनी हैसियत से बाहर खातिर करना उनकी ख़ास प्रकृति थी. लगता था, कोई पुराने ठाकुर साहब हैं, जिन्हें मूंछें मुंडाना पड़ेगा, अगर मेहमाननवाज़ी कमी आयी. एक बार नागपुर में जब वे तीव्र ज्वर में ‘नया खून‘ के टीन के नीचे काम कर रहे थे, मैं वहां पहुंच गया. भरी दोपहर में पास की दूकान पर मुझे मिठाई खिला लाए तब चैन पड़ी. मैंने बहुत मना किया, पर वे कहते– नहीं साहब, आप आये हैं तो कुछ खाना तो पड़ेगा. पक्षाघात से जब वे पीड़ित थे, तब हम उन्हें भोपाल के लिए लेने पहुंचे. उस हालत में भी हड़बड़ा रहे थे कि इनके लिए क्या कर दिया जाए. कहने लगे आप मेरे मेहमान हैं. आप मेरे यहां क्यों नहीं ठहरेंगे, कोठारी के यहां क्यों? कोठारी से भी शिकायत की– क्यों साहब, यह क्या हरकत है ? इन्हें आपने रास्ते में क्यों रोक लिया? इसमें बनावट नहीं थी. उनकी सच्ची ममता थी, उनके आंतरिक संस्कार थे. वे नयी-से-नयी वैज्ञानिक उपलब्धि से मुग्ध होते थे, पर परिवार–नियोजन के खिलाफ थे. परिवार-नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे. विचारों के मामले में जितने सधे हुए, ज़िन्दगी की व्यवस्था में उतने ही लापरवाह. स्वास्थ्य के प्रति अत्यंत असावधान थे .....। ...विद्रोही थे. किसी भी चीज़ से समझौता नहीं करते थे - स्वास्थ्य के नियमों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से भी नहीं."

अपने समय के किसी सर्वहारा की यथार्थ स्थिति का अनुकरण करते हुए उन्होंने अपनी गृहस्थी को ईमानदारी से अपने लेखन और अध्यापन के बौद्धिक कर्म द्वारा ही चलाने की कोशिश की थी. पर मुक्तिबोध का जीवन अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इस प्रकार का आदर्श जीवन जीना चाहने वाले एक अत्यंत प्रतिभावान, मेहनती और आत्मविश्वासी बुद्धिजीवी के लिए  भी हमारे देश में सामान्य मध्यवर्गीय जीवन की सुविधाएं हासिल कर पाना कितना कठिन हो सकता है.

बहरहाल “लकड़ी का रावण” के संदर्भ में “एक अरूप शून्य के प्रति” का ध्यान आना इसलिए स्वाभाविक है कि  ‘अरूप’ और ‘शून्य’ शब्दों का प्रयोग मुक्तिबोध ने ब्रह्म की अवधारणा के लिए इन दोनों ही कविताओं में किया है और अलग-अलग तरीकों से इन दोनों में ही उसे नकारने का प्रयास भी किया है. इस संदर्भ में “एक अरूप शून्य के प्रति” की निम्नांकित पंक्तियां दृष्टव्य हैं:

मात्र अनस्तित्व का इतना बड़ा अस्तित्व

ऐसे घुप्प अँधेरे का इतना तेज उजाला ,

लोग-बाग

अनाकार ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के

बुलबुले में यात्रा करते हुए गोल-गोल

गोल-गोल

खोजते हैं जाने क्या  ?

बेछोर सिफ़र के अँधेरे में  बिला-बत्ती सफ़र

                      भी ख़ूब है.

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 189)

                                                                    

मुक्तिबोध का एक व्यापक और मज़बूत तर्क यह है कि इस अरूप ब्रह्म को अपने पक्ष में कर सकने का दावा अच्छे–बुरे सभी करते रहे हैं:

और तुम भी खूब हो ,

दोनों ओर पैर फँसा रक्खे  हैं ,

राम और रावण को ख़ूब खुश  

      ख़ूब  हँसा रक्खा है.

सृजन के घर में तुम

मनोहर शक्तिशाली

विश्वात्मक फैंटेसी

दुर्जनों के भवन में

 

प्रचंड शौर्यवान्  अंट-संट वरदान !!

                     खूब रंगदारी है ,

तुम्हारी नीति बड़ी प्यारी है.

विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर

            स्वर्ग के पुल पर

          चुंगी के नाकेदार

भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट , रिश्वतखोर थानेदार  !!

 

“लकड़ी का रावण” का अंत जिस नाटकीय तरीके से होता है वह मेरे ख़याल से इस कविता की सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है. यह रावण, जो अपना संबंध अब तक ब्रह्म से जोड़े था, और जो इसी कारण अपने आपको एक अलौकिक और चमत्कारी सत्ता के रूप में देख रहा था, अचानक महसूस करता है कि वह दशहरा मैदान में खड़े हुए रावण से अधिक कुछ नहीं है. उसकी आत्म-प्रतीति ही अचानक उसे धोखा देने लगती है और वह अपने आप को बांस और पुट्ठों से निर्मित एक पुतला मात्र पाता है जो भाग पाने में भी असमर्थ है और जिसका अवश्यंभावी हश्र उसका पतन है :

परंतु ,यह क्या

आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !!

स्वयं  को ही लगता हूँ

बाँ स के व काग़ज़ के पुट्ठे के बने हुए

महाकाय रावण - सा हास्यास्पद

भयंकर  !!

 

हाय, हाय,

उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय

और कि भाग नहीं पाता मैं

हिल नहीं पाता हूँ

मैं मंत्र –कीलित -सा ,भूमि में गड़ा –सा,

जड़ खड़ा हूँ

अब गिरा , तब गिरा

इसी पल कि उस पल ....

_____________________

सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,उदयपुर -313001, राजस्थान.

मोबाइल -8290479063

फणीश्वरनाथ रेणु और आंचलिकता: संदीप नाईक

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फणीश्वरनाथ रेणु (४ मार्च, १९२१ - ११ अप्रैल, १९७७) का यह जन्मशती वर्ष है. उनपर एकाग्र पत्रिकाओं के अंक प्रकाशित हो रहें हैं और कुछ प्रकाशित होने वाले हैं. ‘बनास जन’ पत्रिका के रेणु केंद्रित अंक के बहाने संदीप नाईक हिंदी कथा साहित्य में आंचलिकता की यहाँ चर्चा कर रहें हैं. 


फणीश्वरनाथ रेणु और आंचलिकता                     
संदीप नाईक


 


रल भाषा में आंचलिकता का अर्थ है अपने परिवेश को स्थानीय भाषा और मुहावरों में लिखना, इस शब्द या विधा का सबसे पहले प्रयोग सर वाल्टर स्कॉट ने किया था जब उन्होंने अपने आसपास की जन जातियों और परिवेश के बारे में उन्हीं की भाषा में कहानी किस्से आलेख लिखें थे,इन किस्सों कहानियों में स्थानीय देशज शब्दों का प्रयोग जमकर किया था. भारत के संदर्भ में उडीसा राज्य के तीन उपन्यासकारों का नाम सामने आता है जिन्होंने आंचलिकता का प्रयोग किया – फ़कीरचन्द सेनापति, कालिन्द्रिचरण पाणिनी और गोपीनाथ मटंगी बाद में बंगाली भाषा में विभुतिचरण बंदोपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी का नाम सामने आता है. प्रेमचंद से पहले 1923 में आये बाबू शिव पूजन सहाय का उपन्यास “देहाती दुनिया” भी हमारे सामने है जिसमे स्थानीयता, शब्द, मुहावरें, लोकोक्तियों और देशज शब्दों का प्रयोग करके पूरे उपन्यास को रचा गया है. कालान्तर में हम देखते है कि फणीश्वरनाथ रेणु को आंचलिकता का पर्याय मान लिया गया. मुझे लगता है कि यह शायद बिहारी अस्मिता, भोजपुरी भाषा को हिंदी में स्थापित करने की एक बड़ी कोशिश थी जो अंतत सफल हुई. स्व. राजेन्द्र यादव जी ने कहा था कि -“रेणु के पहले भी आंचलिकता पर बहुत काम हुआ है, बंगाल में जो बंगाली भाषा के प्रयोग हुए है और जो तरलता वहां दिखाती है वह बहुत बाद में हिन्दी में आई और इसमें रेणु का लेखन सफल हुआ है”. 

भाषा आंचलिकताकी पहचान है और रेणु का मेरीगंज ही बिहार हो सकता है, हम जानते है कि रेणु का सम्पूर्ण लेखन बिहार के एक क्षेत्र विशेष में रहा है, और ओरहम पामुक जैसे नोबेल पुरस्कार प्राप्त विजेता ने लेखक ने भी एक जगह बैठ कर ही अपना संपूर्ण लेखन पूरा किया और इस्ताम्बूल को आधार बनाया. यह कहना कि आंचलिकताका अर्थ व्यापक है- गलत है, आंचलिकतामें क्षेत्र विशेष की भाषा समस्या और समाज को लेखक सामने लाते हैं तो उसे ही आंचलिकताकहते हैं. आंचलिकताप्रेमचंद के शब्दों और लेखन में भी थी और रेणु के भी परंतु प्रेमचंद का किसान अलग है और रेणु का किसान अलग है, दोनों लेखकों की अपनी-अपनी पार्टी लाइन है, दोनों की अपनी विचारधारा है. गांधी का प्रभाव रेणु और प्रेमचंद दोनों पर समानांतर रूप से दिखता है परंतु रेणु के यहां गांधी के मरने पर एक गांव में पूरा गांव जाकर नदी किनारे मुंडन करवाता है जिसका जिक्र “परती परिकथा” में आया है, वह संभावना प्रेमचंद के किरदारों में नजर नहीं आएगी.

रेणु ने 1942 से आजादी के आंदोलन को देखा, भागीदारी की और अपना पहला उपन्यास “मैला आंचल” 1954 में लेकर आए, जो 69 परिच्छेदों से बना है और जिस में 275 पात्र हैं. प्रथम उपन्यास ही इतना विशालकाय और प्रभावी है कि साहित्यिक गलियारों में इसकी धमक आज तक सुनाई देती है और देती रहेगी. यह रेणु के नाम का पर्याय बन गया है. कहानी मेरीगंज के गांव की है, जहां एक डॉक्टर प्रशांत है जो आदर्शवाद में होकर प्रैक्टिस करने आते हैं और वहां की बदहाली को देखते हैं, परंतु अच्छी बात यह है कि यहां पर डॉ. प्रशांत मैला आंचल के हीरो नहीं है बल्कि हीरो पूरा गांव है. इस उपन्यास के बाद अपनी मृत्यु तक यानी 1977 तक आते-आते रेणु ने चुनाव भी लड़ा, बहुत बारीकी से ग्रामीण जनजीवन को देखा समझा और उसे अपने 6 उपन्यासों और चार कहानी संग्रह में व्यक्त भी किया. कुछ कविताएं भी उन्होंने लिखी. अपनी मौत तक उन्होंने नेहरू के सपनों के भारत को बनता देखा और बिगड़ते जा रहें हालातों से लेकर जेपी आंदोलन और विनोबा के भूदान आंदोलन को भी बहुत बारीकी से देखा, परंतु उनके पात्र आजादी का जश्न मनाते नजर नहीं आते- क्योंकि जमींदारी और सामंतवाद लगातार समाज में बना हुआ था. स्वास्थ्य और शिक्षा की बदहाली चरम पर थी और ऐसे में निश्चित रूप से उन्होंने बिहार के मिथिलांचल को आधार बनाकर वहां के लोगों की बेबसी और पीड़ा को व्यक्त किया. यही शायद बाद में आंचलिकता के रूप में उभर कर आया.

असल में हिंदी में यह एक रिवाज है कि हमें टैग करने की आदत है, हम उपन्यासों या कहानी या कविता को नया, पुराना, समकालीन, समानांतर, दलित, वामपंथी, दक्षिणपंथी या स्त्री विमर्श के रूप में खांचे करके देखते हैं. चूंकि रेणु बिहार के क्षेत्र विशेष में रहके वहां के जनजीवन को आधार बनाकर लिख रहें थे, इसलिए उसे तुरंत अंचल का साहित्य कहकर परिभाषित कर दिया गया और रेणु को आंचलिकता का नायक बना दिया. यह शायद इसलिए भी था कि वे लगातार उसी क्षेत्र में रह रहे थे, लोगों के संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे, जेल गए और किसानों से लेकर युवाओं के साथ अनेक जमीनी लड़ाईयों में वे लडे. वहीं पर उन्होंने काम किया, वही उनकी कर्मभूमि थी उन्होंने चुनाव भी लड़ा- परंतु बुरी तरह से हारे. साहित्य के लिए उन्हें पद्मश्री भी मिला था, जो उन्होंने लौटा दी. बिहार सरकार ने उन्हें वजीफा भी दिया था आजीवन, परंतु वह भी उन्होंने किसानों की बदहाली और पीड़ा को देखते हुए लौटा दिया. आज जो पुरस्कार वापसी की बात करते हैं उन्हें यह बात समझना चाहिए कि लेखक की प्रतिबद्धता किस हद तक और कितनी होती है.

बहरहाल भारत जब आजाद हुआ तो हमारे सामने मात्र 30 करोड़ की जनसंख्या थी. गांधी जब कहते हैं कि “भारत की आत्मा गांव में निवास करती है” तो वह इसलिए कहते हैं- क्योंकि उस समय में चार ही शहर बड़े शहर थे, क्योंकि वहां पर वॉइसराय जनरल की अदालतें लगा करती थी. बाकी लगभग 70% हिस्सा ग्रामीण था. जाहिर है ऐसे में जो भी साहित्य रचा गया रेणु  के द्वारा रेणु के समकालीनों  द्वारा वह आंचलिकता के समानांतर ही था, परंतुआंचलिकताका पर्याय सिर्फ रेणु को ही माना गया. याद करें कि देश की परिस्थितियाँ किस तरह की थी. निहायत ही अशिक्षित देश, बदहाल व्यवस्थाएं, स्वास्थ्य की दुर्गति, विकास का अवरुद्ध पहिया, जमींदारी, सामंतवाद और प्रचंड जातिवाद चरम पर था. आजादी के लगभग 20 वर्षों बाद सरदार पटेल ने देश में प्रिवीपर्स की व्यवस्था खत्म की थी, पर तब तक जनता बेहाल थी. भूमि सुधार लागू नहीं हुए थे और दलित, वंचित समुदाय बुरी तरह से पीट रहे थे और पंचलेट में देश का अन्धेरा सघन हो रहा था.  जाहिर है आजादी के बाद जो अपेक्षाएं लोगों की थी, वह पूरी नहीं हो रही थी. नेहरू ने जरूर एक बड़ा विजन देकर भारत को एक सपना दिया था जो समाजवाद से सिंचित था पर साम्प्रदायिक ताकतें फिर भी बढ़ ही रही थी. वह सपना कहीं भी फलीभूत होता नहीं दिख रहा था. जहां रेणु एक और लिख रहे थे वही फिल्मों में “साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना” जैसे गीत जनमानस को प्रेरित करने के लिए लिखे जा रहे थे. हिंदी बेल्ट में जो स्थानीय नेतृत्व था वह लगातार गैर जिम्मेदार और भ्रष्ट होते जा रहा था, और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव ग्रामीणों को भुगतना पड़ रहा था. जमीन और चकबंदी के मामले बहुत तेजी से सामने आ रहे थे. विनोबा के भूदान आंदोलन के बाद भी जमीन का बंटवारा सही से नहीं हो पाया था.

कालांतर में हम देखते हैं कि ब्रह्मेश्वर मुखिया और तमाम तरह की सेनाएं बिहार में सबसे ज्यादा उभर कर आई है. जेपी आंदोलन के आते-आते चंद्रशेखर, लालू यादव, रामविलास पासवान एवं अजित यादव जैसे युवा नेताओं की एक लंबी फौज थी- जो बदलाव करना चाह रही थी. इसी समय में रेणु भी बुन रहें थे, और रेणु के साथ-साथ नागार्जुन जैसे लोग भी इसी बिहार की पृष्ठभूमि और बदहाल जनता के बारे में लिख रहे थे. “रतिनाथ की चाची, बाबा बटेश्वरनाथ, बलचनमा” जैसे उपन्यास नागार्जुन ने लिखें और इसी के साथ भिखारी ठाकुर का काम भी बहुत बड़ा काम है.

आज के संदर्भ में देखें तो अभी हम सब ने कोविड देखा है और यह भी देखा है कि सबसे ज्यादा पलायन मजदूरों का जिस राज्य में हुआ है वह बिहार ही था और ठीक कोविड के बाद बिहार में चुनाव जिस तरह से हुए और जो राजनीति हमने सामने देखी वह बताती है कि हालात बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं, और जमीन, रोटी की लड़ाइयां, मजदूरी की लड़ाइयां अभी भी जमीन पर लड़ी जा रही हैं. साहित्य के फलक पर देखें तो गौरी नाथ के उपन्यास या पुष्यमित्र की पुस्तकों में जो बिहार हम देखते हैं- वह कोई बहुत खास बदला नहीं है. मिथिलेश कुमार राय जैसे कवि जब खेत-खलिहान या मिट्टी और सुपौल के आसपास की बात करते हैं अपने कविताओं के माध्यम से तो वहां पर हमें आंचलिकता की सौंधी खुशबू दिखाई देती है. इस सब के बावजूद भी बहुत कुछ बदला नहीं है. मुझे लगता है कि कहानी कहानी है, उपन्यास उपन्यास है और कविता कविता है- उसे आप एक फ्रेम में बंद करके रखेंगे तो हम उसकी पहुंच को बहुत सीमित कर देंगे. “चीफ की दावत” – भीष्म साहनी जैसी कहानी को नई कहानी का आगाज कहा जाता है,  “कौवे और काला पानी” निर्मल वर्मा, “हासिल” राजेंद्र यादव, “उस चिड़िया का नाम” पंकज बिष्ट जैसे उपन्यास को क्या हम आंचलिकतानहीं कहेंगे. असल में यह उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच एक खाई खड़ी करने की कोशिश है. प्रेमचंद और रेणु के साहित्य की तुलना करके हम हिंदी को खाँचो में देखने की कोशिश कर रहे हैं जो कि गलत है. क्या हम महेश कटारे की कहानी में चंबलता ढूंढ लेंगे, राजनारायण बोहरे की कहानी और उपन्यासों में बुंदेलखंडता ढूंढ लेंगे, मनीष वैद्य और सत्यनारायण पटेल की कहानी और उपन्यास में मालविकता ढूंढ लेंगे.

इस समय में रेणु की जन्म शताब्दी को लेकर पत्रिकाओं में विशेषांक निकालने की होड़ है और बाढ़ आई हुई है. आंचलिकता को हर कोई परिभाषित कर रहा है पर यह भी सोचे जाने की जरूरत है कि क्या संजीव, शिवमूर्ति, संजीव ठाकुर, अखिलेश प्रियंवद, पंकज बिष्ट, उदयप्रकाश, कैलाश वनवासी, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, पुन्नी सिंह, प्रकाशकांत, एसआर हरनौट, अजय नावरिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि मैत्रेई पुष्पा, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, सत्यनारायण पटेल, तरुण भटनागर, गोविंद सेन, रणेंद्र, रुचि भल्ला या अमिता नीरव से लेकर मलयालम और मराठी और तमाम भारतीय भाषाओं लोग अपने भदेस और देशज शब्दों के साथ में अपने अपने अंचल को लगातार लिखकर परिभाषित कर रहे हैं. उदयप्रकाश जब दिल्ली में अपने पिता के प्रोस्टेट के इलाज के लिए ऑपरेशन के बाद लंगोट ढूंढते हैं तो उन्हें अंचल याद आता है. “क्षमा करो हे वत्स” जैसी कहानी में लखीमपुर खीरी मुझे नजर आता है कि कैलाश वनवासी और तरुण भटनागर की कहानियों में आपको पूरा छत्तीसगढ़ नजर आता है, वही संजीव ठाकुर जब “झौवा बिहार” की बात करते हैं, तब आपको बिहार का एक अलग परिदृश्य नजर आता है जो भागलपुर के आसपास का है.

पुन्नी सिंह ने जितना काम सहरिया आदिवासियों को लेकर किया है- उतना काम न सरकार कर पाई है और न कोई स्वैच्छिक संगठन, प्रकाशकान्त जब मालवा की बात करते हैं, सत्यनारायण पटेल के उपन्यासों में जब गांव भीतर गांव किस तरह से बदल रहा है- का जिक्र आता है तो वहां भी आंचलिक ताकत जबरदस्त है. मनीष वैद्य की कहानी “मामेरा या गो गो गो” पूरी आंचलिक भाषा और परंपरा की बात करती है, वही एसआर हरनौट हिमाचल प्रदेश से पहाड़ी संस्कृति को लेकर आते हैं, हमने तो पहाड़ को पंकज बिष्ट के उपन्यास “उस चिड़िया के नाम” से ही जाना है तो यह कहना गलत होगा कि रेणु ही आंचलिकता के पर्याय हैं.

फणीश्वर नाथ रेणु के जन्म शताब्दी वर्ष में पत्रिकाओं की भीड़ में “बनास जन” का नया अंक फणीश्वरनाथ नाथ रेणु पर केंद्रित है जिसमें व्यापक शोध और आंचलिकता के संदर्भ में काफी पठनीय और प्रामाणिक सामग्री है. 366 पृष्ठों में फैला यह शोधपरक अंक काफी विस्तृत और रेणु के बारे में प्रामाणिक जानकारियों के संग आया है. 14 उपखंडों में इस अंक को बांटा गया है जिसमे उपन्यासकार रेणु के बहाने उनके उपन्यासों पर, कहानियों पर, कविताओं पर कथेतर लेखन साइन प्रसंग और रेणु के जीवन की कहानियों पर विस्तृत चर्चा है. पल्लव को इस बात के लिए श्रेय दिया जाना चाहिए कि बहुत लम्बे समय तक कड़ी मेहनत करके और बड़े लेखकों से संयोजन करके यह अंक निकाला है. अंक न मात्र पठनीय है बल्कि संग्रहणीय है. भारत यायावर, रामधारी सिंह दिनकर, संजय जायसवाल से लेकर रेणु व्यास, नवनीत आचार्य, प्रमोद मीणा, नवल किशोर, श्रुति कुमद, नीलाभ कुमार, मृत्युंजय प्रभाकर, रेखा कस्तवार, शम्भू गुप्त,  शिरीष कुमार मौर्य, रचना सिंह, पीयूष राज रवि भूषण आदि के पठनीय आलेख और विचारोत्तेजक विश्लेषण है. अंक बहुत सुन्दर छपा है जो कि बनास जन की परम्परा भी है.

संदीप नाईक
सी – 55, कालानी बाग़
देवास, मप्र 455001
मोबाइल 9425919221
फणीश्वरनाथ रेणु पर यहाँ और पढ़ें

रज़ा : जैसा मैंने देखा (१२): अखिलेश

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अखिलेश द्वारा लिखी यह श्रृंखला ‘रज़ा जैसे मैंने देखा’ इस कड़ी के साथ अब यहाँ सम्पूर्ण हुई, समालोचन में यह पिछले छह महीने से माह के पहले और तीसरे शनिवार को प्रकाशित होती रही है. इसकी बारह कड़ियाँ यहाँ प्रकाशित हुईं हैं. जल्दी ही यह क़िताब के रूप में छपेगी.

यह एक चित्रकार द्वारा विश्व के बड़े चित्रकार पर लिखी श्रृंखला है, इसमें रज़ा का जीवन और उनकी चित्रकारी की बुनावट का चित्रण है. यह कार्य ऐसा चित्रकार ही कर सकता था जो उनके निकट हो और लेखक भी हो. ज़ाहिर है वह अखिलेश ही हो सकते थे.

चूँकि यह रज़ा जैसे चित्रकार पर एक सम्पूर्ण लेखन है, इसलिए यह वाजिब था कि उनके चित्रों के साथ पेंटिंग भी प्रकाशित किये जाएँ. इस पूरी श्रृंखला में रज़ा के २२ फोटो और उनके २६ पेंटिंग प्रकाशित किये गये हैं. यह सब कवि,संपादक,और कला-समीक्षक राकेश श्रीमाल के सहयोग से संभव हुआ है. 

इस समापन किश्त में रज़ा के अंदर का कलाकार मन और उनकी कला बड़े ही आत्मीय ढंग से सामने आती हैं.  फ़्रांस के कुछ प्रसंग बहुत रोचक हैं.      



रज़ा : जैसा मैंने देखा (समापन)

चित्र के समक्ष झुके हुए रज़ा   
अखिलेश 



 


ज़ा बड़ी मुश्किल से अपनी दिनचर्या में लौट रहे थे. उन्हें भी अंदाज़ा हो गया था कि इन चित्रों में ही शरण है. वे जानीन को भुला देने के लिए नहीं, उसकी याद में चित्र बनाने लगे. उनकी मुश्किल यह नहीं थी कि उन्हें टैक्स-पेपरों और अन्य नियम कानून नहीं पता हैं. उन्हें यह पता चलने लगा कि जानीन ने इस तरह उनके जीवन का कितना समय बचाया. ये नीरस दुनियावी कामकाज उनका बहुत समय ले रहे हैं. इस बात से वे खीज जाते. इस तरह के काम शुरू हों तो एक दिन का समय नहीं, वे हफ़्तों तक चलते रहते. रज़ा स्टूडियो में जाना चाहते हैं और यह काम ख़त्म होने का नाम नहीं लेता. रज़ा जिन्हें यह अंदाज़ाभी नहीं था कि पेरिस में सुबह सात बजे अंडे मिल सकते हैं. या कि दुकाने खुल जाती हैं. या बेकरी के अलावा किसी दूसरी दुकान से भी ब्रेड मिल सकती है.

उनका संसार सिमट गया था. स्टूडियो और बैंक, दवाईवाला, चश्में की दुकान, चर्च, चर्च के रस्ते में पड़ने वाली बेकरी, नीचे वाली फ्रेंच रेस्तराँ, ज्यादा मित्र होने पर पास की लेबनीज़ रेस्तराँ, और अब वे लूव्र नहीं जाते या कि दूसरे किसी भी संग्रहालय किन्तु आपको जाने के लिए हमेशा बोलेंगे. उनका ध्यान अपने चित्रों में रहता और स्टूडियो में ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहते रहे. वे खूब काम कर रहे थे और उनके चित्रों पर अभी भी उनका नियन्त्रण था. वे फ्रांस में रहते थे और उन्होंने यहाँ रहकर बहुत कुछ सीखा. इसके लिए वे हमेशा ऋणी महसूस करते थे. फ्रांस उनके लिए आधुनिक देश था, तरक्की और नए विचारों से भरा. विज्ञान और देकार्त की स्पष्टतावादी सोच से प्रभावित. अंधविश्वासों से दूर. अपने एक साक्षात्कार में रज़ा कहते हैं:

"मैं इसे यों कहूँगा कि कला की बुनियादी समस्याओं और विशेषतः अपने काम के सन्दर्भ में मेरी जो समझ बनी है उसमें पेरिस की बड़ी भूमिका है. फ्रांस में मेरे प्रवास ने मुझे बहुत कुछ दिया है और अगर मैं अमरीका या लन्दन में रहा होता तो कहानी दूसरी होती. मुझे पेरिस में रहना था, यह काफी सोच-विचार कर तय हुआ था. यहाँ बहुत ऊँचे दर्जे के उदाहरण थे, जिन्होंने यह महत्वाकांक्षा दी कि हम ऐसे प्रतिमानों पर पहुँच सकते हैं जो दुनिया में कहीं भी सबसे ऊँचे हों. पर यह सिर्फ सोचने भर से नहीं हो सकता, आपको क्षमता के एक स्तर पर पहुँचना होगा. भरतनाट्यम नाचना या हिन्दी कविता लिखना, आसान नहीं है जब तक कि आपको उनकी भाषा बहुत अच्छी तरह से न आती हो. फ्रांस ने मेरे रहने में मदद की, न सिर्फ यह देखने में मदद की कि निकोला द स्टाल, मोन्द्रियन या सूलाज के चित्रों में श्रेष्ठ क्या है बल्कि अपनी सम्भावनाएँ विकसित करने, अपने तकनीकी कौशल का विकास करने और उस भाषा पर अधिकार करने में भी, जो मेरी चित्र भाषा है. मैं अपना बचपन और जवानी नहीं भूलता और न ही उन सबको जो मैंने यहाँ पायें- रंग, रेखा, आकृति, स्पेस आदि की प्रारम्भिक समस्याओं को लेकर.

फ्रांस एक ऐसा देश है जिसमें अनुपात का बोध असाधारण है: इमारतों में, कला में, साहित्य में, और जिन्दगी में. वह कला और चित्रकला में बहुत महत्वपूर्ण है. अगर मैं इस सुयोग तक नहीं आता तो मैंने 'तमशून्य'या 'बिंदुनाद'जैसे चित्र न बनाये होते, विकीर्ण होते काले रंग में. मुझे काले के महत्व का अहसास हुआ. मैं उसे भारतीय चिन्तन से जोड़ता हूँ. मुझे लगता है कि काला रंग मातृ-रंग है, वह रंगो की जननी है.  वह विकिरण है और यह सम्भव है, मैं यहाँ चित्र बनाऊँ या भारत में, इस बोध का उद्गम फ्रांस में है जिसे मैं नहीं भूलता."


रज़ा में कृतज्ञता का गहरा भाव हमेशा मौजूद रहा. वे अपने गुरु के प्रति और उन सब कलाकारों, प्रसंगों, घटनाओं के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे हैं जिनसे उन्हें कुछ सीखने को मिला. फ्रांस को लेकर रज़ा हमेशा कृतज्ञ रहे हैं. इस कृतज्ञता में वह कई चीजें नज़र अंदाज़ कर देते हैं.

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह सभी प्रपञ्चों को जीवन में घसीट लाता है. रज़ा के जीवन में यह सम्भव नहीं था कि अपनी चित्रकला सम्बन्धी मुश्किलों से बाहर इस तरह के लोकाचार, अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, टोना-टोटका पर ध्यान दें. फ्रांस रज़ा के लिए आधुनिक देश था, विज्ञान और तार्किकता पर टिका. यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन कसौटी पर खरा न उतरता हो. इसलिए जब मैंने पेरिस में मौजूद एक ऐसे ही अन्धविश्वास के बारे में उन्हें बतलाया तो वे विश्वास न कर सके. उनके लिए फ्रांस वैज्ञानिक चेतना वाला देश है जिसमें इस तरह के अन्धविश्वास और अतार्किक बातों की कोई जगह नहीं है. फिर मैंने एक दिन लूव्र के सामने वाले पैदल पार-पुल पर लगे हज़ारों ताले वाला फोटो दिखाया और बतलाया कि फ्रांस के युवा शादी-शुदा जोड़े अपनी शादी के बाद यहाँ आकर इस पुल पर अपने नाम का ताला लगाकर उसकी चाबी सेन नदी में डाल देते हैं जिसके पीछे उनका अन्धविश्वास यह है कि जब तक ताला लगा रहेगा उनकी शादी टूटेगी नहीं (उन्होंने हँसते हुए कहा यहाँ वैसे ही शादी दो महीने से ज्यादा नहीं टिकती) रज़ा को विश्वास नहीं हुआ.

खुद को भरोसा दिलाने के लिए वे बहुत दिनों बाद घर से बाहर निकले और उस पुल को देखने आये. वहाँ मैंने बताया कि ऐसा ही एक पुल और है जो नॉत्र-दोम चर्च के पास है. और यहाँ का मेयर इन चाबियों को नदी से निकालने पर काफी पैसा खर्च करता है और वे चाह कर भी इस अन्धविश्वास को बंद नहीं करा पा रहे हैं. उनके लिए यह बड़ा झटका था. उन्हें इस पर भरोसा करने में समय लगा. वे कुछ दिन सुबह नाश्ते की मेज पर यही बातें करते रहे. उनका इतने सालों का भरोसा टूट रहा था. वे कोशिश करते रहे अपने देखे हुए को आत्मसात करने की. ऐसा नहीं कि फ्रांस में सभी कुछ उतना ही उजला और साफ-सुथरा होता है जिसका भरोसा किया था उन्होंने. उनका अनुभव कुछ विचित्र रहा और जब मैंने ध्यान दिलाया तभी इस पर ध्यान गया. एक दूसरा उदाहरण है.


रज़ा के साथ एक घटना वर्ष चौहत्तर में हुई, उन्हें सड़क पर कहीं चक्कर आ गए और वे चार घण्टे के लिए बेहोश रहे. सामान्य देख-रेख के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गयी. डॉक्टर ने उन्हें दोपहर और रात के खाने के बाद की दवाई एक महीने लेने के लिए बताया और वे नियमित रूप से उसे आज तक लेते रहे. लगभग चालीस सालों से. मेरा ध्यान इस तरफ गया, जब गोर्बियों में बहुत बार ऐसा हुआ कि हमलोग किसी के घर रात के खाने पर आमंत्रित हैं और रज़ा अपनी दवाई ले जाना भूल गए हैं. खाने के बाद जब उन्हें दवाई की याद आती और नहीं रहने पर वे परेशान हो जाते और उनकी बैचेनी बढ़ती जाती. मेजबान के लिए यह स्थिति असुविधाजनक हो जाती. मैंने उनसे पूछा आप ये दवा किस बात की लेते हैं तब उन्होंने यह सब बतलाया.

मुझे आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर ने भी दोबारा जाँच नहीं की और न ही कभी उन्हें दूसरी बार चक्कर आया. वे बिला-वजह ये दवाई बरसों से नियमित खा रहे थे. मेरे कहने पर एक हफ्ते के लिए दवाई लेना बंद कर दी. छह दिनों तक उसका कोई गलत असर नहीं दिखाई दिया, आख़िरी दिन वे बोले मुझे थोड़ा चक्कर सा आ रहा है. किन्तु यह चक्कर उन्हें आँख के चश्मे का नम्बर बढ़ने से आ रहा था उस दिन आँख की जाँच कराने पर पता चला. इसका सीधा अर्थ यही था कि उन दवाइयों को खाने की कोई जरूरत नहीं थी. किन्तु रज़ा वो दवाई लेते रहे और जब फ्रांस छोड़कर भारत आये तब उन्होंने हमेशा के लिए दवाई लेना बंद कर दी.

इसी तरह उनके साथ आँखों को लेकर भी हुआ. उनकी बायीं आँख में मोतिया-बिन्द का आपरेशन फ्रांस में हुआ और सफल नहीं रहा. उनकी दूसरी आँख का आपरेशन भारत में हुआ जो सफल रहा और वे आखिर तक उसी एक आँख के भरोसे रहे. और सबसे विचित्र बात यह थी कि फ्रांस के किसी डॉक्टर ने उन्हें सलाह दे दी कि आप जो खाना खाओ, उसे चबाकर निगलना मत. रज़ा ने खाना चबाकर उसे निगलना बंद कर दिया. मैंने उस डॉक्टर का नाम रज़ा से बहुत बार पूछा कि कौन बेवकूफ़ डॉक्टर है जो खाने को लेकर इतनी गलत सलाह दे रहा है. मेरी नाराजगी देख उन्होंने उसका नाम कभी बतलाया नहीं. किन्तु इस कारण उन्हें बहुत कष्ट बाद में झेलना पड़ा. यह सब मैं रज़ा से कहता रहता और फ्रांस का मजाक भी उड़ाता, किन्तु वे टस से मस न होते. हालाँकि मैं यह सब मजाक के रूप में कह रहा हूँ ये बात वो भी जानते थे. किन्तु बात में तर्क होता था. वे समझते थे मगर जिद्दी होने से किसी की सुनते न थे. उनके लिए जानीन ही थी जो बतला सकती थी या बदल सकती थी, जिनकी बात वह मान सकते थे. उन्होंने दवाई लेनी भारत में आने के बाद एकदम बन्द कर दी और उन्हें कुछ नहीं हुआ.


रज़ा के लिए उनका स्टूडियो ही मक्का-मदीना था जहाँ सभी प्रार्थनाएँ की जा सकती थी. वे डूबकर काम कर रहे थे और उनकी दिनचर्या सिकुड़ रही थी. वे स्टूडियो में ही समय बिताना पसन्द करने लगे. उनका बस चलता तो वे खाना भी वही खाने लगते किन्तु उनकी मेड यह करने न देती. वह साफ़-सफ़ाई के बाद खाना बना कर मेज पर रख जाती बाकी दिनों का फ्रिज में. रज़ा के लिए उनका कैनवास, रंग और स्टूडियो ही पूरा संसार था. रज़ा की ख़ासियत यह थी कि वे खुद पर भी काम करते. यदि उन्हें कोई धुन सवार हो गयी तब वे उसके अनुसार अपने को  ढालने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे. उनका कहना कि आपको अपनी क्षमता के एक स्तर पर पहुँचना होता है. यह क्षमता पाने और बढ़ाने के लिए काम करना होता है. यह बात रुडी ने बहुत सुन्दर ढँग से कही है :

"पेरिस में प्रारम्भिक वर्ष कठिन लेकिन अत्यधिक उत्तेजना से परिपूर्ण थे. रज़ा ने कठोर परिश्रम किया, अर्थाभावग्रस्त थे और अक्सर बहुत अकेले लेकिन उन्होंने स्वयं को नए जीवन के प्रति पूरी तरह से उत्सर्ग कर दिया और उन नए प्रभावों के प्रति भी जो कि उनके ऊपर उत्तरोत्तर ऊँचे स्वर में प्रबल आरोह की तरह, हर बार नयी शक्ति के साथ लगातार टूटे. जीवन में पहली बार वे एक ऐसी दुनिया के सम्पर्क में आये जहाँ कला को पूरी तौर पर गम्भीरता से लिया जाता था और निश्चित रूप से जीवन का एक हिस्सा था, जो उसे चारों ओर से घेरे हुए थी. पहली बार उन्होंने यह अनुभव किया कि यूरोप में कलाकार के लिए अध्ययन करने, सीखने, देखने और खुद को सँवारने के हज़ारों सुविधाजनक अवसर उसकी पहुँच के दायरे में हैं." 

रज़ा जानीन के बाद वापस उसी हालत में थे नितान्त अकेले और उन्होंने इस बार अपने को काम में झोंक दिया. उनकी एकाग्रता के लिए पुनर्जागरण काल की कलाकृतियाँ थीं, मिनिएचर चित्र थे, यक्ष-यक्षिणी थे, बाइजेंटाइन चित्रकला, रोमन शिल्प और इतावली कलाकृतियां, खजुराहो और कोणार्क के मन्दिर, प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम के मालवा मिनिएचर और जैन लघु चित्रों की सीख, तंत्र और गुप्त कालीन शिल्पाकृतियाँ मौजूद थी और इतनी लम्बी यात्रा का अनुभव उन्हें सम्भाले था. वे आगे लिखते हैं :

"रज़ा कहाँ जा रहे हैं? प्रशनगोई करना निरर्थक है अथवा कलाकार से यह कहना कि उसे किस लक्ष्य का सन्धान करना चाहिए. मुझे यह बोध है कि वर्तमान काम एक नवीन रूपान्तरण की प्रक्षेप-गति या कलात्मक-उच्छलन की प्रक्रिया में है. उनके चित्रांकन अब अनिवार्य रूप से अमूर्त्त हो गए हैं. मैं यह आशय सम्प्रेषित करना चाहता हूँ कि उनके बिम्बों की उर्जास्वित शक्ति, बहुत अल्प मात्रा में, दृष्टव्य जगत के तत्वों पर अवलम्बित है जो एक अलग सुस्पष्ट भाषा बोलते हैं, उनके लिए जो सुनने में सक्षम हैं अथवा सुनने की इच्छा रखते हैं." 

रज़ा इन दिनों एक के बाद एक ख़ूबसूरत कैनवास रच रहे थे. अभी उनकी उम्र का असर आना बाकी था. इन चित्रों में मुख्यरूप से बिंदू ही केन्द्र में था किन्तु वे यदा-कदा बिंदू-विहीन चित्र भी रच रहे थे. उनकी रंग-पैलेट अब और परिपक्व हो गयी थी. रंग मानों साँचे में ढाल कर सुघड़ और संयोजित, अनुपात में अद्वितीय लगाए जा रहे थे. इस दौर के कुछ चित्र अकल्पनीय हैं. 'जागृति', 'बिंदू', 'प्रेम-कुण्ड', 'रस', 'पञ्च-तत्त्व', 'ध्यान', 'सूर्य-नमस्कार', 'गर्भ-गृह', आदि अनेक चित्र देखने योग्य हैं. रज़ा की सोच-समझ बहुत ही साफ़ थी और सीधा सोचना उनकी ख़ासियत रही है. वे कहते है :

"मनुष्य और ब्रह्माण्ड का आन्तरिक सम्बन्ध होता है और बहुत बड़ी बात है इसको चित्रकला में लाना. तो मेरा प्रयत्न  है कि इस आईडिया को बहुत ज्यादा बढ़ाया जाये. मैं चाहता हूँ चित्र बनें, काले रंग से शुरू होकर सारे रंगों की ओर जाएं, फिर सफ़ेद कैनवास की तरफ़. मेरी ख्वाहिश है अब मैं कुछ ऐसे चित्र बना सकूँ जो फंडामेन्टल हों. दूसरी बात मैं यह कहूँगा जो पहले कहनी चाहिए थी. आपको अपने दिल की बात बता रहा हूँ. मेरी चित्रकला की कोशिश बहुत धीमे-धीमे हुई है. कुछ तमीज नहीं थी. बस हमारे सामने दो ही चीज़ें थीं- एक हमारी मूर्त्तियाँ थीं और दूसरी ओर ये बेनाम बाज़ार के प्रिंट थे, जो बिलकुल वल्गर थे. इनमें न तो कला है न धार्मिक फीलिंग. जहाँ तक मेरा ख्याल है ये हिंदू धर्म में भी नहीं है, न इस्लाम में है. क्रिश्चियनिटी में ऐसी तसवीरें थीं जिनमें खूबसूरत-सी औरत बना देते हैं. क्राइस्ट को खूबसूरत 'यंग-मेन'बना देते हैं. मण्डला, दमोह में इसी तरह के चित्र और मूर्त्तियाँ देखी थीं. मैं सच कहता हूँ उस समय मेरी धार्मिक प्रेरणाएँ उतनी ही विकसित थीं जितनी हिंदूओं की डिग्निटी. इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कह सकता. अब वृहत्ताकार से बीज तक जाऊँ. मैंने उस आईडिया को विकसित करने की कोशिश की है. एक बिलकुल आसान तरीके से मैं काम शुरू करूँ जिसको एनलार्ज करें तो एक वृत्त बन जाता है. अब दैहिक और आत्मिक तत्त्वों के मिलाने से एक किस्म की ऊर्जा पैदा होती है. उस ऊर्जा से रंग दिखाई देते हैं. ये रंग पाँच होते हैं. हमारे यहाँ इनको पञ्च-तत्त्व कहा गया है. हो सकता है कि हिंदू धर्म में ये पञ्च-तत्त्व दूसरे हों, जो 'क्षिति जल, पावक, गगन, समीरा'से मिलते हों या रंगों में उनके समकक्ष हैं जो पाँच रंगो के नाम हैं. अब इन पञ्च-तत्त्वों को केंद्रीकृत, संगठित किया जाये तो वही बात होती है जो पञ्चभूत शैली में होती है."  

रज़ा के साथ ज्यामिति, रंग और ये सब विश्वास थे जिनसे रचा जा रहा था. रज़ा के चित्र अब और मुखर हो गए थे. उनमें वैसी गम्भीरता देखना अब मुश्किल था, जो रज़ा का सुनहरा समय था, जिसका जिक्र ऊपर कर आया हूँ. अब रज़ा दोहराव और सुरक्षित संसार रच रहे थे. इनमें से ज्यादातर वही विषय थे जिनका सर्वश्रेष्ठ वे पहले चित्रित कर चुके थे. ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ दोहरा ही रहे थे उनमें यह भीतरी प्रतिभा थी जिससे खुद को ख़ारिज करने का जोख़िम वे अक्सर उठाया करते थे. अब रज़ा अपनी प्रसिद्धि से निरपेक्ष किन्तु आश्चर्य भी करते रहे कि लोगों को क्या हो गया है. एक दिन जब मैं बाहर से लौटा तो देखा उनके स्टूडियो में कुछ अमरीकी मेहमान बैठे हैं. रज़ा ने परिचय कराया और वे सब रज़ा के चित्र खरीदने आये थे जो उनके पास नहीं थे. रज़ा के चेहरे पर विचित्र सा भाव था. वे संकोच और संशय से बात कर रहे थे. उनकी परिचित बात करने की शैली नदारद थी. उनका हास्य-बोध भी इस्तेमाल नहीं हो रहा था. वे लोग जब चले गए, रज़ा ने मुझसे कहा आप भरोसा करेंगे वे लोग ये कालीन भी माँग रहे थे. रज़ा ने कालीन की तरफ़ इशारा किया, बरसों से यह कालीन उनके स्टूडियो में बिछा हुआ था काम करते करते उस पर अनेक रंग के धब्बे गिरे और पानी ढुला दाग पड़े हुए थे. रज़ा को विश्वास न था और वे कहने लगे कल कोई ये कुर्सी या इस स्टूल को माँगेगा. वो कुर्सी और स्टूल रज़ा के स्टूडियो में बहुत समय से होंगे और रज़ा अक्सर अपना ब्रश इन पर पोंछा करते थे वे अपने-आप में रंगीन कलाकृति सी दिखने लगी है इस पर ध्यान मेरा पहली बार गया.  मगर रज़ा चकराए से लगातार यही कहते रहे कि ये क्या हो रहा है ? क्या पैसा खोटा हो रहा है ?



मुझे उनकी उस प्रदर्शनी का ख़्याल हो आया. रज़ा, हुसैन, गायतोण्डे और बहुत से अन्य कलाकारों के अभिन्न मित्र बाल छाबड़ा ने वर्ष उन्नीस सौ उनसठ में मुंबई में 'गैलरी 59'खोली. इसके पहले बाल छाबड़ा के चित्रकार होने की घटना सुनाना जरुरी होगा.

बाल छाबड़ा फिल्म-मेकिंग की पढ़ाई कर अमेरिका से लौटे और अपनी पहली फिल्म बनाई जो बुरी तरह पिट गई. इस फिल्म के कला निर्देशक गायतोण्डे थे. जो बाल के अच्छे मित्र थे. गायतोण्डे के मित्रों में हुसैन थे और जब बाल और हुसैन का परिचय हुआ तो बाल दूसरी फिल्म की तैयारी कर रहे थे. बातचीत में बाल ने हुसैन से अगली फिल्म के कला निर्देशक बनने की पेशकश की हुसैन इस शर्त पर तैयार हुए कि बाल छाबड़ा पेंटिंग करना शुरू करें. जो बाल ने शुरू कर दी.  इसी दौरान जापान में किसी द्विवार्षिक प्रदर्शनी के संयोजक भारत आये कुछ भारतीय कलाकारों के चयन के लिए. उन्होंने रज़ा, रामकुमार, तैयब, सूजा आदि अनेक कलाकारों का चयन किया और हुसैन के पास जा पहुँचे. हुसैन के आग्रह पर उन्होंने बाल छाबड़ा के चित्र भी देखे और उन्हें भी निमंत्रण मिला. इस प्रदर्शनी में बाल छाबड़ा के चित्र 'devil's workshop'को गोल्ड-मेडल मिला. और इस तरह बाल ने फिल्म बनाना छोड़ा और चित्र बनाना शुरू किया. कलाकारों की मुसीबतों से परिचित बाल ने गैलरी खोली जिसमें इन सभी कलाकारों के चित्रों से उसका उद्घाटन हुआ. उस पहली प्रदर्शनी में लगभग सभी चित्र बिक गए जिसकी ख़ुशी में दी गयी शाम की पार्टी में सभी उल्लसित और हैरान से थे.

रज़ा ने कहा 'आज ये क्या हो गया'

बाल चीखा 'लोटा उलटा हो गया'

हुसैन ने कहा 'पैसा खोटा हो गया, आज ये क्या हो गया '

 

कुछ दिनों के बाद मैंने देखा वो अमेरिकन पीछे पड़कर कालीन और स्टूल खरीद ले गया. अब रज़ा के स्टूडियो में नया कालीन बिछा था और एक नया स्टूल आ गया था. ये सब वही लेकर आया था जो पुराने वालों से ज्यादा महँगा था. रज़ा उस नए माहौल में अपनी जुगत बिठा रहे थे. रज़ा रंगों को उनकी रूढ़ स्मृति से मुक्त कर रहे थे. वे अब इस जगह आ पहुँचे थे जहाँ रंग उनके लिए अपरिचित नहीं रह गए थे. वर्षों की साधना और ध्यान से रंग और रज़ा अब एक ही हो चुके थे. मैंने देखा रज़ा को चित्रित करने में यानी इसे अंग्रेजी में कहूँ तो ज्यादा आसान होगा, Act of painting में मज़ा आता था. वे कैनवास का एक बड़ा सा हिस्सा, या शान्ति बिंदू का बड़ा सा बिंदू घण्टों एक छोटे ब्रश से चित्रित करते रहेंगे, शायद उन्हें दो या तीन दिन लग जाए तब भी वे उसी ब्रश से करते रहेंगे और ऐसा नहीं है कि रज़ा के स्टूडियो में बड़े ब्रश नहीं थे या रोलर नहीं रखा था. वे शान्ति से शान्ति बिंदू चित्रित करते हुए कई दिन निकाल सकते हैं और मैंने देखा कि उनके इस धीरे-धीरे छोटे ब्रश से रंग भरने में अनेक तरह के टेक्सचर पैदा होते रहते थे जो चित्र की सम्वेदना को बढ़ाते हैं. इन टेक्सचर में रज़ा अपना समय और अपने विचार भी चित्रित करते जाते हैं. इन टेक्सचर में उस रंग की रंगतें भी उभरती जाती हैं. कई बार हम दोनों इस पर बात भी करते थे और रज़ा एकाध-बार बड़े ब्रश को भी मौका दे देते किन्तु जल्दी ही वापस उस छूटे ब्रश को उठा लेते. यह उनके काम करने का मुफ़ीद ढंग था जिसमें उनकी बात रंग और कैनवास से भी होती रहती और वे अब काम बन्द करने के बाद कैनवास को हाथ जोड़कर, सर झुकाकर प्रणाम करना नहीं भूलते.

उनके शान्ति-बिंदु का काला रंग या कि सूर्य-नमस्कार का काला सूरज सिर्फ काला बिंदु मात्र नहीं है. सिर्फ काला रंग यदि आप देख रहे हैं तो मैं चाहूँगा आप एक बार फिर देखें. उसमें रज़ा के द्वन्द्व भी चित्रित हैं. रज़ा का समय ही नहीं रज़ा का देखना भी छुपा है जिस तरह उन्होंने काले रंग को देखा है. उसमें मण्डला के जंगल का अँधेरा और रज़ा के मन का भय भी छिपा है. रज़ा का डर उस काले को आलोकित करता है. रज़ा ने रंगों को उनकी रूढ़ि से मुक्त कर नयी पहचान भी दी है. काला सिर्फ उदास काला नहीं है या कि लाल उच्छृंखल लाल नहीं है सफ़ेद शान्त भर नहीं रहा या कि नीला आकाश भर में नहीं सिमटा है. चित्र को देखना होगा, तब वह आपसे बात कर अपने रहस्य खोलेगा. रज़ा के चित्र उकसाते हैं. आपके देखने को खींच लेते हैं.



आश्चर्य लोक के इसी अचम्भे को रज़ा ने साधा है, अपनी कड़ी मेहनत और एकाग्रता से. प्रतिभा और जिद से. जुनून और प्यार से. रज़ा के चित्रों का सच उन रंगों में नहीं है. उन स्थापनाओं में नहीं है. रज़ा के उन विश्वासों में नहीं है. उन धारणाओं में नहीं है जिस पर रज़ा का भरोसा है. रज़ा के चित्रों का सच उस भय में है जो रज़ा के भीतर बचपन में समाया उन भटकनों के बीच, जो जंगल की लुका-छिपी वाली स्थिति के भीतर था. जहाँ एक बालक अपनी जिज्ञासा लिए उस जंगल के नीरव एकान्‍त में सुकून के कुछ क्षण खोजता है. कुछ चमकता सा पाता है. वह पाता है कि जंगल से भयानक जंगल की कहानियाँ हैं. जिनमें हर अनजान से ख़तरा है. जीवन की सुरक्षा ही इन कहानियों का केन्द्र है. मगर उसका जंगल भय के साथ रोमांच का अनुभव भी देता है. ढूँढने के साथ पाना भी जुड़ा है. अन्धकार में उजाला है. उजाले का स्रोत अँधेरा है. यह अँधेरा इतना डरावना नहीं है और इसमें छिपे अनजान का भय है. यह बात जाहिर है रज़ा ने उस वक़्त न समझी हो और शायद कभी इस तरफ ध्यान भी न गया हो, किन्तु उनके रंगों की उजास में उनके द्वारा लगाए गए काले रंग की गहराई में वह सब दिखता है. उनका काला रंग वैसा काला रंग नहीं है जो वैषम्य दिखाता हो, यह काला उस चित्र के दूसरे रंगों की तरह ही उसका हिस्सा है. कोई यह कह सकता है कि यह भी कोई बात है, सभी काले रंग चित्र में इसी तरह का स्थान रखते हैं. मगर रज़ा के सन्दर्भ में यह बात नहीं कही जा सकती, उनका रंग प्रयोग संवाद तो करता ही है और साथ ही सभी रंग की उपस्थिति उसी तरह है मानों वे एक परिवार के सदस्य हों, जिनका स्वभाव भिन्न है. वे आपस में मिलजुल कर रहने वाले सदस्य हैं जो अपनी विशेषताओं के कारण अपना महत्व भी दर्शाते हैं. रज़ा के चित्र आकर्षित तो करते ही हैं उस आकर्षण में हम देखना भूल जाते हैं. उन्हें ध्यान से देखना उनका प्रकटन है. इस प्रकटन में वे उद्घाटित होते हैं. इस उद्घाटन में वह बात करते हैं और तब आप जान पाते हैं उनका होना. रज़ा खुद कहते हैं इन रंगो के बारे में कि भारतीय कला में रंग एक तरह भाव-समाधि का, आनन्द का पर्याय है. रज़ा जिसे भाव-समाधि कह रहे हैं वह जिज्ञासा में खोजा गया सच है. यह समाधि उस अँधेरे में लगी है जहाँ कुछ दिखाई देना मुश्किल है और एक लौ लगी है कुछ पाने की. यह समाधि की अवस्था है जब हम अँधेरे में कुछ पाने के लिए हाथ-पाँव मार रहे होते हैं.

यदि हम रज़ा के चित्रों को उनके शुरुआती दौर से देखें तो पायेंगे कि रज़ा की रंग-पहुँच उसी भय से संचालित है. उसमें पाने-खोजने का खेल लगातार चल रहा है. रज़ा के रंग-प्रयोग को ध्यान से देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि रज़ा की रंग-पैलेट सीमित है उन्हें बहुत से रंग नहीं चाहिए. उनके पास लाल रंग की एक रेंज है. दूसरे नीले और हरे की. तीसरे उन्होंने सफ़ेद रंग से कुछ चित्र बनाये हैं जो उनके बाद के समय के चित्र हैं. उसमें बहुत ज्यादा चित्र संसार नहीं दिखता. किन्तु जो भी चित्र बने हैं उनमें रंग- संवेदना गहरी है. वे अक्सर कल्पना करते थे एक संग्रहालय की, जिसके एक कक्ष में उनके सिर्फ तीन चित्र सफ़ेद रंग-योजना वाले टाँगे जाएँ. इन तीन चित्रों का प्रभाव यही सोच थी. उससे उत्पन्न पवित्र भाव उन्हें आह्लादित करता था. कल्पना में ही हो रहा था. कभी ऐसा न हो सका कि उनके तीन चित्र एक कक्ष में प्रदर्शित हुए हों. किन्तु इस विचार से वे हमेशा उत्तेजित रहे.

रज़ा की ख़ासियत यह रही कि वे किसी परिस्थिति को सुलझाने में समय लेते रहे हैं. वे उससे घबरा कर नाता नहीं तोड़ेंगे न ही उसका विकल्प खोजेंगे. वे बस कुछ समय लेंगे. उस पर विचार करने के लिए सोचेंगे और उसका हल निकाल लेंगे. वे धैर्य और विचार की जगह हमेशा खुली रखते रहे हैं. जो परेशानी मिजाज है, उससे सम्बन्ध बनाने में समय लगता है यह रज़ा जानते हैं. धीरे-धीरे वे मसरुफ होने लगे अपनी प्रदर्शनी और चित्रों के संसार में. उन्हें मिथकों की कथाएँ सुनना अच्छा लगता था और वे मानवीय गुण-अवगुण से भरे देवताओं के किस्से सुनकर चकित रहते. उनके पास करने को बहुत कम था. सिर्फ चित्र बनाना ही एक कर्म बचा जिस पर वे अडिग रहे. उन्हें याद भी सताने लगी. वे पिछले पचास से ज्यादा वर्षों से पेरिस रह रहे थे और उन्होंने भारतीय नागरिकता नहीं छोड़ी थी. उनका पासपोर्ट आज भी भारतीय था और उस पर घर का पता उनके प्रिय मित्र बाल छाबड़ा का ही रहा. वे उसके नवीनीकरण के लिए मुम्बई आते और अपना वीसा भी ठीक कराते रहे. रज़ा का मन अब फ़्रांस में नहीं लग रहा था. वे रहते जरूर थे पेरिस में किन्तु उनका मन भारत लौटने का बन रहा था. उन्हें चिन्ता थी बहुत सी बातों की और वे बेफ़िक्र थे कई मामलों में. रज़ा के शब्दों में :

"मैं भीतर से ख़ाली हो गया था. कुछ समय के लिए मैंने चित्र बनाना बन्द दिया. मैं अपने भीतर देखने की कोशिश कर रहा था बजाय बाहरी दुनिया के. यह बहुत मुश्किल समय था जब सब कुछ गहरे अन्धकार में था. एकदम खाली. किन्तु मैं रुका नहीं मैंने अपनी प्रज्ञा को जगाये रखा. और धीरे-धीरे ख़ाली जगह में एक बिंदु उभरा. बढ़ते-बढ़ते इसने वृत्त का रूप ले लिया. एक बिजली सी कौंधी, मेरी ऊर्जा जागृत हो गयी. रास्ता सूझने लगा, धीरे-धीरे रंग दिखाई देने लगे. सफ़ेद, पीला, नीला, लाल. यह स्वाभाविक था कि काला रंग इन्द्रधनुष में बदलेगा."

वे चित्रों में ख़ुद को महफ़ूज पाते थे. वाल्डेमॉर जार्ज का लिखा सच हो रहा था :

"रज़ा जिन्होंने कई प्रदर्शनियाँ फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, भारत, संयुक्त राज्य अमरीका में की हैं, अपना समय पेरिस के सिक्रेतां एवेन्यू स्थित अपने स्टूडियो में, जहाँ वे भारतीय ढंग से पालथी मारकर बैठ काम करते हैं, व्यतीत करते हैं और शेष समय इले-दि-फ़्रांस की एक देहाती कॉटेज और मांतों के निकट पहाड़ियों के हृदय में बेस किले से घिरे गांव में एक अड्डे पर बिताते हैं. चट्टानों के मध्य सीढ़ियों के नीचे एक विशाल तलघर है. वहां प्रकाश सिर्फ आकाश किरणों और एक छोटे से दरवाजे से दाखिल होता है.

सफ़ेद दीवारों की यह गुफा ध्यानस्थ होने में मदद करती है. वहाँ रज़ा अकेले रहते हैं या अपनी पत्नी जानीन मोंजीला के संग, जो अपनी ही शैली की चित्रकार है और अपने बिरले गुणों के लिए जिन्हें बहुत प्रशंसा मिली है. उनके माल-असबाब में नानबाई की एक विशाल मेज, बेडौल ढँग से निर्मित कुछ कुर्सियाँ, विवाह की एक संदूक और प्रसाधन की मेज है. दूसरी चीजों में गुलाबी संगमरमर की एक टॉप, एक फव्वारा, जस्ते की तश्तरियाँ,हाथों से निर्मित रसोई के बर्तन, एक तेल की कुप्पी और कुछ ढलवाँ लोहा. किसी को फिलिप डी शैम्पेन, लि नैन या जुरबारान के अंतःपुर याद आ सकती है. क्या रज़ा, पाब्लो पिकासो की तरह कहेंगे : 'मैं खोजता नहीं हूँ ?'वे आंतरिक प्रेरणा के अनुसार चलते हैं. 'पाता हूँ'का आशय है 'मुझ पर रहस्योद्घाटन हुआ है.'और फिर भी युवा भारतीय कलाकार का पहला मौलिक काम एक ज्यामितिकार का सुव्यवस्थित चेतना को प्रतिश्रुत है, सम्वेदनशील लेकिन कठोरता को समर्पित. रज़ा उस नियम के पक्ष में हैं जो संवेगों को ठीक करता है, सेजां और ब्रॉक का अनुसरण करते हुए वे सतह को विभाजित करते हैं, सशक्त रेखाएं खोजते हैं और एक-दूसरे को काटते धरातलों पर उन्हें लेते हैं."

'यह रहस्योद्घाटन हुआ मुझ पर'यह कुछ वैसा ही है, जो बचपन में जंगल में घूमते-खोजते हुआ करता था. उस वक़्त भी जंगल के अँधेरों में अचानक किसी का उजागर होना, वह एक जानवर हो सकता था, या सरकता साँप, या कोई एक रंग का फूल, यह सब रज़ा के लिए एक अचम्भा था जिस पर उनकी कोई पकड़-पहुँच नहीं थी और अब भी अपने चित्रों के इस रहस्योद्घाटन पर रज़ा की कोई कोशिश कारगर नहीं है. वे चित्र बन जाते हैं. बनाये नहीं जाते. उनका अचम्भा अकेला उनका है जिससे रज़ा भी उपकृत होते हैं. और दीर्घा में दर्शक भी. इस चित्र-उजागर के करिश्मे ने रज़ा को प्रेरित किया जानीन का ग़म भुलाने को. दो हज़ार दो के बाद पिछले चौदह सालों में रज़ा ने लगभग तीस एकल प्रदर्शनियाँ की जो उनकी आंतरिक सक्रियता,उनके एकाग्र होने और अपने को रंगो के संसार में डूबा देने का प्रमाण है. 

(समाप्त) 


(अखिलेश, देवयानी, अनुराधा और राकेश श्रीमाल)

 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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शिरीष मौर्य की आत्मकथा शृंखला की कविताएं

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शिरीष मौर्य इधर थीम केंद्रित कविता- शृंखलाओं पर काम कर रहें हैं.  'रितुरैण', ‘चर्यापद’ और ‘राग पूरबी’ के बाद ‘आत्मकथा’ शीर्षक के अंतर्गत उनकी अठारह कविताएं यहाँ प्रस्तुत हैं जिसपर सारगर्भित टिप्पणी अग्रज कवि कुमार अंबुज ने लिखी है. कुमार अंबुज ने ठीक ही रेखांकित किया है कि यह ‘सार्वजनिक आत्मकथा’ है.

इसमें हम सबकी पीड़ा और संघर्ष है, वंचना और व्यर्थताबोध है.  यह चुके जीवन की कोई गाथा नहीं, यह आत्म और पर दोनों की दारुण कथा है जिसे कविता के शिल्प में ही कहा जा सकता था. ये कविताएं टिकने वाली हैं. शिरीष अपनी रचनात्मकता के उर्वर दौर से गुजर रहें हैं. उनसे अभी और बहुत कुछ की उम्मीद है. 

 

कुमार अम्बुज
एक सार्वजनिक आत्मकथा


 

शिरीष कुमार मौर्य ने इधर कुछ अलग तरह से लंबे काव्‍यात्‍मक आलाप लिए हैं.'रितुरैण'और 'चर्यापद'इसके प्रकाशित और चर्चित उदाहरण हैं. अब ये आत्‍मकथात्‍मक कविताएँ. इन सबमें  महत्‍वपूर्ण और लक्षित की जा सकने वाली एक समानता है कि ये कविताएँ दीर्घ कविताएँ न होकर, एक ही आलंब की नोक पर खिली हुईं अनेक कविताएँ हैं. इनका सहोदरपन इन्‍हें एक सूत्र में बाँधता है और पाठक को उस मुख्य शीर्षक की भावना और व्‍यथात्‍मक व्‍यंजना से अलग नहीं होने देता. ये अपनी विषयगत सामूहिक सामाजिकता से संचालित हैं. लेकिन इनमें से प्रत्‍येक कविता अपने आप में स्वतंत्र भी है, और उसका अपनी कहन और व्यक्तित्व है.

 

मैं आलोचक नहीं हूँ और मेरे पास उस तरह से कविता को बाँचने, देख सकने का सामर्थ्य भी नहीं है. और वैसी भाषा और अकादमिक क्षमता भी नहीं. इसलिए एक पाठक के तौर पर इन्होंने जो मुझे दीप्ति, प्रभाव और उत्सुकताएँ दी हैं, उनका संक्षिप्त विवरण ही दे सकता हूँ. शायद यह किसी काम आए.

 

यह आत्मकथा सार्वजनिक मन की कथा है. इसमें छूटे हुए धागे हैं, किस्‍से हैं. कही-अनकही है और संबद्ध असंबद्धता है. विलोम हैं. और इनसे बुना हुआ पूरा ताना-बाना है. इसकी ताकत यह है कि यह मजबूत नहीं है. यहाँ अधूरी इच्छाओं को भी निराश्रित होना है.  खुद का निर्वात है, जो बाहरी निर्वात से टकराता है. स्‍थानीयता के भूगोल में मौसम हैं, ऋतुएँ हैं. पहाड़ी वनस्‍पतियाँ और विन्‍यस्‍त कठिन जीवन है. अपने कहे पर प्रश्‍नांकन हैं. कहीं पुकार है और कहीं पुकार नहीं होने का दुख है.

 

कुछ मुश्किलें और असहमतियाँ भी पेश हो सकती हैं. जैसे, कविता में प्रसंग मर जाते हैं या जीवन पाते हैं. इस तरह कुछ संशय और द्वैत हैं लेकिन शिरीष की यह आत्‍मकथात्‍कता किसी 'निश्चित'की दुनिया नहीं है. 'लगभग'की दुनिया है. शायद की संभाव्‍यताओं को लेकर चलने वाली दुनिया है. एक ही घटना, एक विचार, एक मनोविचार, प्रसंगवश अलग तरह से ध्वनित हो सकता है.

 

आत्‍म-अन्‍वेषण और बाह्य जगत से क्रिया-प्रतिक्रया के मनोवैज्ञानिक चिह्न पंक्तियों में बिखरे हुए हैं. ताले का रूपक और खो गईं चाबियों को इस तरह देखा जा सकता है. जिसमें गुम चाबियों के बावजूद ताले खोल लिए जाने की हमेशा और एक अपराजेय प्रतीक्षा है. यह आशा से कुछ अधिक है.

 

यह अपने समय के पीछे और आगे जाने की जितनी कोशिश है, उतनी ही अपने समय में रहने की आकांक्षी भी. इसलिए इस समकाल में विवश विस्थापन में घर लौटने के करुण दृश्य भी समाहित हैं. गरीब की असहायता और मनुष्य के हिंसक होते चले जाने की विडंबनाएँ हैं. भूख-प्‍यास और घर की तलाश है. एक रात है जो इस समाज के आसमान में फैली है. जिसमें कविता की परंपरा में पुष्प की अभिलाषा ध्वस्त है या असंभव है. यह पूर्वज कविता को अजीब विस्मय से देखने के लिए अभिशप्त है. मिथक और पुराकथाओं के पास जाने की युक्तियाँ हैं. दरअसल, इन कविताओं में जैसे एक बार फिर आत्‍म-अभिव्‍यक्ति की खोज है.

 

फिर एक शरीर है जो अपना ही नहीं रह गया है. शिराएँ और धमनियाँ किसका आवागमन हैं. लेकिन एक आवाज़ है जो बहुवचनीय है. शिरीष ठीक कहते हैं कि यह आत्‍मकथा है या इमला है. लेकिन उम्‍मीद कुछ ऐसी है कि पस्‍ती से निकलकर आती है और हरी है, उज्ज्वल भी. इन्हीं मंतव्‍यों और व्‍यग्रताओं के बीच इन कविताओं को उस समुच्‍चय में पढ़ा जा सकता है, जिससे यह मुख्य शीर्षक बना है.

kumarambujbpl@gmail.com

 

 

(कृति: Ernest Mancoba)



 
कविताएँ
आत्‍म क था                                                 
शिरीष मौर्य

 

 


1.   

कुएँ में हूक की तरह मैं

बोलता रहा

 

मेरे भीतर एक कुआँ था

और बाहर एक कुआँ था

 

लोग सब जा चुके थे

मेरे जीवन में

पुराने वक़्तों के किसी बल्ब का

फिलामेंट जल रहा था

 

कमरे में

मेरी ही ख़ाली कुर्सी मुझे सुन रही थी

हूक की तरह

मैं बोल रहा था

 

और चाहता था

जहाँ भी हो न्याय की कुर्सी

सुने

मैंने जो बोला

अपनी ही ख़ाली कुर्सी से.

 

 

2.   

मैंने उन संदेशों का

इंतज़ार किया

जो मेरे नाम कभी लिखे ही

नहीं गए

 

उन लोगों को चाहा कि आएँ मुझ तक

जिनमें ख़ुद तक पहुँचने की भी

कोई इच्छा नहीं बची थी

 

जो आईना तक नहीं देखते थे

मेरा मुख कैसे देखते?

 

विराट एक जमावड़ा था

रास्तों पर

हर गाड़ी अपनी जगह थमी हुई थी

वर्षों से

 

सब कुछ छोड़ कर मैं आया

महादेवी !

मीरा कुटीर तक

 

तुम्हारी मेज़ पर लिखा था

महादेवी की टेबिल

वहीं थी

महादेवी के लेखन कार्य की चौकी

पानी गर्म करने का

एक पुराना उपकरण महादेवी के नाम का

एक तौलिया स्टैंड भी तुम्हारा

 

सब चौंकते थे

देखते थे

बहुत भीड़ थी कविता में

कहीं तो मिल जाती

महादेवी की संतति

 

वेदना उमड़ती थी

उठती थी हूक

सब खोजते थे कवयित्री

महादेवी जैसी

 

क्या उस माँ का

मुझ कवि जैसा

बेटा न हो सकता था ?

कि रहता एक लगभग संसार में

लिखता लगभग कविताएँ

 

और खो जाता देवीधार के जंगल में कहीं

सदा के लिए.

 

 

3

मेरी सब पुकारें खो गईं

पूस की सर्द हवाओं में

 

वे कुछ दूर भी नहीं चल पायीं

कुहरे में उनकी छाया

कभी-कभी दिखाई पड़ती हैं

सुनाई कुछ भी नहीं पड़ता

 

मैं नहीं कहता

कि लोग बहुत क्रूर हैं या वक़्त ही बुरा है

 

बाहर पुकारते-पुकारते

अपने भीतर ही पुकारना मैं भूल गया था

 

मुझे अपनी

आवाज़ नहीं आयी थी

महीनों से

 

आज सुनता हूँ ख़ुद को

 

बहुत गहराई में

मेरी बुनियाद के आसपास

उन चींटियों के

चलने की आवाज़ आती है

जो रोज़ थोड़ा-थोड़ा सा

मुझको

मुझमें से लाती रहती हैं

बाहर

 

और मैं रोज़

 

थोड़ा-थोड़ा गिरता रहता हूँ

अन्दर

 

जबकि

मेरे अंदर नहीं

मुझसे बाहर जो चींटियों की लायी

थोड़ी-थोड़ी कथाएँ हैं

उन्हीं में

थोड़ा-थोड़ा आत्म है मेरा

 

बाहर तो मैं निपट सार्वजनिक

रहता हूँ

और चाहता हूँ

कि सदैव प्रश्नांकित रहे मेरी कविता

 

जो दरअसल

इकलौता नागरिकता होगी मेरी

जान से प्यारे

मेरे देश में

अपनी बुनियाद में पूरा गिर जाने से पहले

 

गिर जाने के बाद

जब चींटियाँ ढोएंगी उसे

तब किसी

प्रमाण की आवश्यकता भी

उसे नहीं होगी.

 

(कृति: Ernest Mancoba)


 

4

कविता में मर गए

कुछ प्रसंग उनकी स्मृति भी

अब नहीं बच रही है

 

बस

बेहद ठोस सा एक व्यवधान

शिल्प में

जो बताता है यहाँ कुछ था

अब नहीं है

 

एक पेड़ पर

थोड़ी सी अटकी चुपचाप मर गई

टहनी की आवाज़

कुछ बाद में आती है

 

एक कुत्ता जो गली में

रोज़ दीखता था

अचानक कहाँ चला जाता है

कोई नहीं जानता

 

एक चिड़िया का आखिरी गान

पत्तियों और

हवा की सरसराहट में

बदल जाता है

 

हवा भी खा जाती है

पानी भी पी जाता है

चीज़ों को

गुज़रे बरस खेत में छूटी खुरपी का

कंकाल भर मिलता है

 

 

जीवन अपने आख्यान में ही

अनश्वर रहता है

देह में वह मर जाता है

 

बहुत कुछ जो मर गया

कभी वापस नहीं लौटेगा जीवन में

एक अरसे से सोचता हूँ

तेरे मन में

कहीं वो मैं तो नहीं

 

इस

अकेली कथा में आत्म मरा है

या आत्म में ही मर गई है

समूची कथा

 

चौंककर देखता

मैं हूँ.

 

 

5.

मैं एक ताला हूँ

कई बरस पुराना जंग लगा

किसी ने छुपा दी थी

मेरी चाबी

उसी को अब वो मिल नहीं रही है

 

कुछ और बरस

फिर मैं

चाबी से खुल भी न सकूँगा

मुझे तोड़ना पड़ेगा

 

अपनी नींद में गिरा

कोई फूल मारना मुझे

या एक फूँक

पुरानी हवाओं की याद से

भरी

 

मेरा टूटना लोहे के टूटने की

तरह नहीं

दिल के टूटने की तरह होगा

 

जैसे महबूब की गली

वैसे ही दिल भी

एक ख़ामख़याली है

 

जब दिल के लिए

कोई जगह न रह जाएगी कथा में

तुम्हें तुम्हारी ही

छुपाई हुई एक चाबी मिलेगी

 

याद दिलाती हुई

कि ताले जैसे लोग गुज़रे

ज़माने में थे

 

तुम्हारी नींद

और तुम्हारी साँस तक में

उन्होंने

अपने खोले जाने का

इंतज़ार किया.

 

 

6.

गोद में

कंधे पर

ठेले पर

बच्चों को लादे

यह देश घर आ रहा है

 

बैलगाड़ी में

जुए के नीचे एक आदमी ने

अपना कंधा रख दिया है

बैलगाड़ी पर

उसकी गर्भवती पत्नी और

एक बच्चा है

 

एक माँ

थक जाने के कारण

चौपाये की तरह चल रही है

उसकी पीठ पर दो बच्चे हैं

 

एक बेटी रोती हुई जा रही थी

थकान

पीड़ा

और भूख से

अब मर गई है

 

समूचा एक वक़्त कराहते हुए

घर आ रहा है

 

एक देश

अपने नागरिकों के

हृदय का

 

रहवासी होता है

 

कोई पूछे

उस हृदय में पीड़ा और पछतावे

के बाद

अब कितनी जगह

बच रही है

 

इस विदारक दृश्य में

एक कवि

अपने देश का हाथ थामे

अपने घर

आना चाहता है

 

उसकी गठरी में

गौरव गाथाएँ नहीं

समूची उम्र की

एक पीड़ा है विकट

 

और हर तरफ़ पैदल चल रहे

देश की

एक विकलता

समूची. 

 

 

7

वे किसी बदलाव के लिए

सड़क पर नहीं हैं

उनकी यात्रा घर जाने की है

 

जबकि

उनमें से कुछ के तो परिवार

उन्हें घर में घुसने भी नहीं देंगे

इस यात्रा के तुरत बाद

 

वे महामारी के मारे जन

कुछ दिन

सिवानों पर रहेंगे

 

गाँव के लिए उनकी शुभेच्छाएँ

दरअसल

किसी पछतावे की तरह होंगी

 

यह क्रांति नहीं है लकड़बग्घो

बंद करो हँसना

 

यह बहुत बड़ी एक

विवशता है

एक ऐतिहासिक पीड़ा

 

तुम

उनकी यात्रा में शामिल नहीं हो

 

तुम जहाँ शामिल हो

वहाँ से हर रात

इन सिवानों तक भयानक

 

एक

आवाज़ आती है

सियारों के रोने की

 

और मेरी नींद में एक आदमी

धीरे से

सड़क पर ही निढाल हो

गिर जाता है.

 

 

(कृति: Ernest Mancoba)


8

[दीघोरत्ति (दीर्घरात्रि)]

 

मेरा रक्त

किसी पतली पहाड़ी नदी की स्मृति है

जिसमें जल

कम भले हो जाए

कभी सूखता नहीं है

 

मेरी अस्थियाँ

बाँज के बहुत बड़े कुछ पेड़ों का स्वप्न है

नमी और ठंड से भरा

आज भी

अनदेखी सी एक काई जमती है मुझ पर

 

पिरूल से भरा तेज़ ढलान है

मेरा यथार्थ

जिस पर फिसलते कई साल गुज़रे

लेकिन

मैं अब तक तलहटी तक

नहीं पहुँच सका

 

मेरा भविष्य

दोगुनी दिहाड़ी पर मिली हुई मजूरी है

महामारी काल की

तक़लीफ़ और पछतावे से भरी

 

मुझे अब बस

इस पराजय की उदात्तता को लिखना है

और खो जाना है

अपने सुदूर पहाड़ी गाँव में

 

जहाँ से

मेरी समकालीन इन रातों में

तेंदुओं के विकल गुर्राने

रीछों के विकट चीख़ने की आवाज़ें

आती हैं मुझे

 

और मेरी उचाट नींद पर

चौंककर

भयभीत गिर जाती है मेरी ही

देह

 

आप चाहें तो इसे मेरी आत्मकथा

समझ सकते हैं.

 

 

9

(दीघोरत्ति न मुच्यते)

 

जानता हूँ

इन सुदीर्घ रातों में दूर कहीं

कोई मुझे पुकारता है

 

घृणा पुकारती है बाआवाज़

बेआवाज़ पुकारता है प्रेम या शायद इससे उलट

 

मैं पुकार की परिभाषा नहीं करूँगा

 

समूचे समाज के अवचेतन में

जैसे पुकारते हैं मिथक कोई पुकारता है मुझे

 

मेरे अवचेतन में

जहाँ रहता है पुकारता हुआ समूचा समाज

वहाँ अलग सी एक पुकार

किसी मिथक के क़दमों में डाल सकती है मुझे

 

इस तरह जो आत्म बनेगा मेरा

ज़्यादा गाढ़ा होगा

हर ओर लुटते और लौटते मेरे जनों की

गाढ़ी कमाई की तरह

 

देखना

कि कोई चुनाव न खा जाए उसे

 

महामारी और बुख़ार से बचा हुआ आदमी

अकसर चुनाव में पिघलता है

अजब होती है आदमी की विलेयता

 

इसीलिए

यह जो लोकतंत्र का विलयन है

सप्ताधिक दशकों से चहुँओर

मैं इसमें विलेय नहीं

विलायक की खोज में हूँ

 

विकट इस कथा में

विकल यह खोज आत्म की है.

 

 

 

10

मेरे लिए खिलते हुए फूल

जब झड़े तो उनकी उदात्तता मेरी स्मृति का

हिस्सा हुई

 

गाँव में पानी का अकेला स्थान

एक नौला था क्षीणधार उसने जीवन में

धैर्य सिखाया

और दूसरे की प्यास का सम्मान भी

 

मेरी बाट

अपने ही जनों की बनाई

कुछ पगडंडियाँ

खाई में गिर जाने के भय से भरीं

कभी पाँव नहीं फिसले उन पर

वे धमनियों की तरह ले

आती थीं मुझे

शिराओं की तरह ले

जाती थीं

 

अब मैं नहीं

मेरी एक कथा है वहाँ

बुराँश के फूलों की तरह उसका भी

एक मौसम है

 

और एक अन्तर्कथा

किनगोड़े के छोटे जादुई बैंगनी फल सी

मेरे रक्त जैसे रस से भरी

 

ठीक इन्हीं दिनों

लोग पूछ रहे हैं रह रहकर

 

मेरी आवाज़ आ रही है?

मैं दिख रहा हूँ आपको?

लगता है कोई किवाड़ पीट रहा है बिना रुके

बिना सुने बोल रहा है

 

भले लोगो

इतना भी शोर मत करो

 

मैं सुन रहा हूँ पराध्वनियाँ

मुझे फूलों के झड़ने तक की आवाज़ आ

रही है

उन फूलों की स्मृति में एक अकेली

फूलसुँघनी चिड़िया कुछ गा रही है

मुझे उसे देखना है

 

उसकी चोंच में दबा हुआ अकेला साहसी

वह गान मेरा है

गाँव के पंदेरे पर भूल आया था उसे

 

सुना

वो पंदेरा भी कुछ बरस पहले

सूख गया.

 

 

 

11

भूख से ग़रीबी से

बीमारी-महामारी से

विस्थापन पलायन से मर गए लोग

हारे नहीं

पिटते और पछताते

जब तक बना जीते रहे ख़ुद से

 

दंगों में मरे दबंगों ने मारा

जात ने मारा रंगों ने मारा

 

मरे नहीं मारे गए लोग

 

दिल या स्वप्न टूटने के कारण

आत्महत्या कर चला गया

आदमी

इस तरह लड़ कर

और दम घोंट कर और जला कर

और गाड़ियों से दबाकर

और दूसरे हज़ार तरीक़ों से

मार दिए जाने वालों से

मिलेगा

तो शर्मिंदगी में लौट आने के लिए

पीछे कोई दुनिया ही नहीं बची होगी

उसके लिए

 

किसान लौटेंगे

तो सहेजेंगे बची हुई पृथ्वी

धरे हुए बीज

 

बचे हुए जंगलों में

सूखी लकड़ी लेने चले जाएंगे

लकड़हारे

 

नदियों में

स्वर्ग से बुनकर लाया हुआ जाल

बिछाएंगे मछुआरे

 

अपने बच्चों को

कंधे पर बैठा कर फिर चल देंगे

मेरे लोग

इस बार मृत्यु से जीवन की ओर

 

मारे हुए लोग हारे हुए लोगों से अधिक जीयेंगे

जाएँगे अधिक दूर तक

अधिक बार वापस आएँगे

 

फरिश्तों के झरे हुए पंखों से

वे अपनी तप्त दुपहरियों को पंखा झलेंगे

 

हारे हुए

उतनी देर हार जाने के कारणों पर

विमर्श करेंगे

 

अपने ईश्वर की उपस्थिति में वे शायद

फिर हार जाएँ

जीवन ही नहीं

इस बार अपनी मृत्यु भी

 

और

अपनी मृत्यु हार जाना ही सबसे बड़ा

त्रास है संसार में

 

ठीक वैसा ही

जैसे कथा का हार जाना

किसी के आत्म में.

 

 

(कृति: Ernest Mancoba)


 

12

किसी और की कथा में

देहरी पर बैठा

रोटी और एक गिलास पानी

माँग रहा था मेरा आत्म

 

मैं उसे

हाथ पकड़ कर उस कथा से

बाहर लाया हूँ

 

हाँफता सा

अब वह मेरे साथ चलता है

कि एक दिन

अपने गाँव पहुँच जाएगा

और अपने खंडहर हो रहे घर को

दुबारा बसाएगा

 

उस कथा में उसने जो खाया

धोखा था

पिया जो अपमान था

और थोड़ा क्रोध भी

 

अब शायद उसे पता है

किसी और की कथा में वह

बहुत बड़ी एक सत्ता के हाथों

मरते-मरते बचा है

 

इससे तो बेहतर है गाँव पहुँचने की कोशिश में

भूख से और दर्द से मर जाना

 

इस तरह जो दृश्य बनेगा आत्म का

उसमें हीनता नहीं

जीवन और मृत्यु के लिए बहुत ज़रूरी

एक सम्मान होगा. 

 

 

13 

द्वार पर देवशुनी

साथ में श्याम और शवल

 

उज्ज्वल

यह स्मृति ऋग्वेद की

यास्क का निरुक्त

 

और आगे

पतित एक प्रसंग पुराणों-महाकाव्यों का

 

मिलते हैं मुझको हर ओर खड़े

चार पाँवों पर

जन-जन के मित्र अभिन्न

पुकारते अकसर कातर-से स्वर में

 

बिछुड़कर गिरा सुदूर अतीत में

यह

मेरी ही आत्मकथा का

कोई पन्ना है

 

मार डाले गए सारमेय

यज्ञ वेदियों के निकट

पर सरमा के स्तनों का दूध नहीं सूखा

और न रक्त

उसके उन निरपराध पुत्रों का

 

उससे ही धोता हूँ

पाप अतीत के

भविष्य की पराजय सब

शर्मिंदा भी होता हूँ

 

टकराती है मुझसे जो

हर बार

यज्ञ के धुएँ से हारी मनुष्यता की ही

दुर्गंधित साँस है

 

तब एक पशु मुख

मेरे दुखते जीवन में

अपनी गर्म खुरदुरी जीभ डाल

चाटता है मुझको

 

मैल की परतों में दबे

इस संसार में

मुझे

अब तक

सरमा के बेटों ने ही साफ़ रखा है

 

अपने इस बचे-खुचे आत्म के लिए

मैं ईश्वर से भी अधिक सरमा का ऋणी हूँ

 

एक प्रागैतिहासिक श्वान परिवार की

आत्मकथा में

धरती पर गिरती हुई बूँद-सी थरथराती है

मेरी कथा.

 

 

(कृति: Ernest Mancoba)

14

हवा पर सवार बरसातें

रास्तों पर कीचड़ और रिश्तों में उमस कर गईं

 

आत्मकथाओं में

मेघ और मनुष्य की समकालीनता

कहीं साबित नहीं थी

 

नरम गुनगुनी गुलाबी सर्दियों के फ़रेब

बहुत थे

 

मैंने अपनी कथा के सबसे गर्म मौसम से देखा

अपना निकटतम अतीत

 

कि चिड़ियों की चोंच में आए सब वसन्त

घोंसलों में लग गये

 

कि अब वहाँ उड़ चुके बच्चों की सूखी हुई बीट

झरे हुए रोयें  

और छोड़ देने की एक दुर्गंध भर बची है

 

कि महान से महान पुष्प की भी अब कोई अभिलाषा नहीं

स्मृति भर शेष है

 

इस तरह

जो कुछ भी अब दिख रहा है

वह समाज में चिंघाड़ रही

एक वीरता

और आत्म में विलीन हो चुकी

 

एक पराजय है

 

और जो अभी नहीं दिख रहा है

दरअसल यह है

कि बच गए जीवन को अब मुझे जीना होगा

बरसात में

रास्ता पार करने की कोशिश की तरह.

 

 

15

प्रशस्ति वाचन के बीच में

मैं अचानक कुर्सी से उठ गया हड़बड़ा कर

मुझे कोई कील चुभी

 

नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी चौंके

विष्णु खरे के चेहरे पर मुस्कान थी

बोले बधाई हो

चंद्रकांत देवताले ने बगल से

हँस कर उनका साथ दिया

 

संचालक देवी प्रसाद त्रिपाठी ने कान में बताया 

धातु की इस कुर्सी के शिल्प में

कील कहीं शामिल ही नहीं है मुझे कैसे चुभ सकती है

 

मैंने कहा

शायद वह कुर्सी के विचार में शामिल है

 

शायद उसी विचार का विरोध करते कुर्सियों से भरे

उस सभागार में

सबसे आगे नीचे ज़मीन पर बैठे थे मंगलेश डबराल

वह शाम उन्हीं की तो अनुशंसा थी

 

और उनके ठीक पीछे वीरेन डंगवाल

जिनके पास कुर्सियों से लेकर प्रशस्तियों तक में छुपी हुई

सब कीलों का मर्म था तीखा और तपा हुआ

 

पुरस्कार बस ऐसी ही एक कथा रहे

जीवन में

या तो कीलों से बिंधी हुई कोई व्यथा रहे

पा लिया जिसे कवियों ने

 

तो भी कभी कह नहीं सके निस्संकोच

निर्भार.

 

 

16

यह देश आत्मकथा लिखना चाहता था

और इसके कर्णधार इससे इमला लिखवाते थे

 

यह चाहता था आत्म की अभिव्यक्ति

लोग पूछते थे किस गाँव के हो तुम्हारी भाषा पर

आंचलिक दबाव बहुत हैं

 

रहवास का मुकाबला नागरिकता से था

और जीवन की द्वाभा का भर दुपहरी के प्रकाश से

 

आत्मकथा में थी ग़लती की गुंजाइश

इमला में विशुद्ध हो जाना था

 

जबकि

इतना विशुद्ध कोई समाज होता नहीं

शामिल रह जाता है

पुरातीत का सब मैला तब भी देश

महान हो जाता है

 

अपनी ही द्वाभा में

जीवन की अशुद्धियों का रहवासी एक कवि

भाषा और समाज का थोड़ा भी उजास

यदि कह पाता है

 

तो उसे समूचे देश की ही

आत्मदशा

या तो आत्मकथा

मैं मानता हूँ. 

 

 

17

कवियों की आत्मकथाओं में

शामिल होती हैं

उनकी कविताएँ

विकल चरित्र-अभिनेत्रियों सरीखी

 

नायक-नायिका के

समकालीन एक संसार को

बचाती हुई

वे कब विदा हो जाती हैं

कोई नहीं जानता

 

उनके नाम प्रेमिकाओं के नाम नहीं होते

पर वे प्रेम में होती हैं

 

उनके कवि भी

ख़ुद चरित्र-अभिनेताओं की तरह

रहते हैं

समकालीन एक समाज में

 

पोस्टर में कहीं नहीं दिखते

पर फ़िल्म में होते हैं

 

दर्शकों के उद्धत-से आत्म में

वे बार-बार

सामूहिक पीड़ाओं के बीज बोते हैं.

 

 

18

और फिर एक अंत अनंत-सा

 

और फिर अब

मैं भरूँगा

मोर की तरह

एक उड़ान

भारी और सुंदर

 

एक ऊँची मुंडेर से उड़कर

एक निर्जन अहाते में उतरूँगा

 

मानो किसी कथा से उड़कर

उतरना आत्मकथा में

 

किसी के सिरहाने धरी कविता की किताब में

दबा हुआ

एक मोरपंख

अब मेरी याद होगा तो होगा.

______________________
सम्पर्क:
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)
244 715

मैनेजर पाण्डेय: भक्तिकाल की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता: विनोद शाही

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हिंदी आलोचना के केंद्र में इसकी शुरुआत से ही भक्त-कवि रहें हैं. ग्रियर्सन, मिश्र बन्धुओं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से होते हुए रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही,मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी और पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि तक यह परम्परा विस्तृत होती गयी है. इधर बजरंग बिहारी तिवारी ने इस दिशा में रेखांकित करने योग्य कार्य किया है. समालोचन पर ही प्रकाशित उनके आलेख ‘भक्ति-कविता, किसानी और किसान आंदोलन’ ने इस क्षेत्र में शोध और व्याख्या के नये क्षेत्र का दरवाज़ा खोल दिया है.

जिन्हें हम भक्तिकाल के कवि कहते हैं उनकी व्याख्या इस तरह होती रही है कि उनकी सामाजिकता और क्रांतिधर्मिता को प्रत्यक्ष किया जा सके जिससे कि वह समाज और साहित्य को प्रेरणा और दिशा प्रदान कर सकें. ज़ाहिर है इसकी भी अपनी सीमा है.

आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय की भक्तिकाल की आलोचना दृष्टि पर यह आलेख प्रसिद्ध आलोचक विनोद शाही का है. उन्होंने गम्भीर सवाल खड़े किये हैं जो कि बड़े बहस को आमंत्रित करते हैं.

प्रस्तुत है. 

 

मैनेजर पाण्डेय: भक्तिकाल की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता
विनोद शाही



 

साहित्य की समुचित व्याख्या के संदर्भ में समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति की अपर्याप्तता को महसूस करने के बावजूद मैनेजर पाण्डेय यदि उसे ही ग्राह्य मानते हैं, तो कोई तो वजह होनी चाहिये, वह एक हद तक साहित्येतर हो सकती है.

हम जानते हैं कि सूरदास का काव्य मुख्यतः प्रगीत शैली में लिखा गया है. प्रगीत में वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति सर्वाधिक होती है. वहां लय की प्रधानता के कारण निजता का समावेश स्वतः होने लगता है. लय प्रगीत को बार-बार दौहराने या गुनगुनाने लायक बना देती है, इसलिये वहां बुद्धि व्यापार थोड़ा स्थगित हुआ सा रहता है. वहां 'सामाजिकता'व्यंजित रूप में अधिक रहती है, अतः 'सामाजिक आलोचना'के लिये अवकाश कम हो जाता है.

सामाजिकता और सामाजिक आलोचना के दरम्यान कोई विरोध नहीं होता. तथापि फर्क यह होता है कि सामाजिक आलोचना में बुद्धि पक्ष अधिक मुखर होता है, जबकि प्रगीत उस सामाजिकता को सहज रूप में आत्मसात करता है, जिसका संबंध समाज में बद्धमूल भाव संरचना से होता है. इसलिये वह प्रगीत, जो हमारे मध्यकाल में निर्गुण ज्ञानधारा के भीतर से सामने आया, वहां हमें ऐसी सामाजिकता दिखाई देती है, जो सामाजिक आलोचना के गर्भ से जन्म लेती है. इसकी तुलना में वह प्रगीत, जो सूरदास जैसे कवियों की सगुण भक्ति का आधार है, वहां सामाजिकता, समाज के रागात्मक संबंधों और वर्ण व्यवसाय मूलक संस्थाओं की भाव संरचनाओं की ज़मीन से अनिवार्यता बंधी रहती है.

इससे स्पष्ट होता है कि सगुण भक्तिकाव्य की सामाजिकता, यथास्थितिवादी अधिक होती है. यथार्थ के अंतर-विरोधों के पार जाने के लिये ऐसी सामाजिकता, अतीत के समरसता मूलक यथार्थ का उद्बोधन करती है. अतः वह अपनी मूल चेतना में खुद को पुनरुत्थानवादी होने से बचा पाने में बहुत समर्थ नहीं होती.

दूसरी ओर वह सामाजिकता, जो निर्गुण ज्ञानधारा के काव्य में बरास्ते सामाजिक आलोचना  आत्मसात करने लायक बनती है, वहां अतीत की जगह भविष्य एक संभावना की तरह खुलता है. वहां सामाजिक अंतरविरोधों से उबरने के लिये यथार्थ का भविष्योन्मुख रूपांतर ग्राह्य होता है.

इसलिये निर्गुण और सगुण धारा दोनों में, जिस यूटोपिये की बात यकसां नज़र आती है, वह अपनी प्रकृति में एक दूसरे से बहुत अलग होता है.

मैनेजर पाण्डेय ने पूरे भक्ति काव्य को इस यूटोपिये की मौजूदगी की वजह से एक ही तरह का माना है, जबकि वस्तुस्थिति इन दोनों धारणाओं को एक दूसरे से बहुत अलग साबित करती है.

मैनेजर पाण्डेय ने अपने भक्तिकाल संबंधी अध्ययनों में अपना ध्यान मुख्य रूप में सूरदास पर केंद्रित किया है. पर इस संदर्भ में वे जब समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति को आधार बनाते हैं, तो उसे लेकर वे खुद दिक्कत का अनुभव करते हैं. वे कहते हैं:

"कविता सचमुच समाजशास्त्रीय आलोचना के लिए टेढ़ी खीर है,... ख़ास तौर से जब प्रगीत की सामाजिकता की व्याख्या के नाम पर उसे कवि की सामाजिक दृष्टि का दृष्टांत मान  लिया जाता है या आलोचक की सामाजिक मान्यताओं को सिद्ध करने का साधन बना दिया जाता है, तब कविता के साथ अन्याय होता है.”

इस मत को ध्यानपूर्वक देखें. यहां तीन तरह की सामाजिकता की बात हुई है. पहली, 'प्रगीत की सामाजिकता'. दूसरी, 'कवि की सामाजिक दृष्टि'. और तीसरी, आलोचक की सामाजिक मान्यताएं'. मैनेजर पाण्डेय यहां आलोचना का लक्ष्य यह मानते हैं कि सामाजिकता की बात कुछ इस तरह की होनी चाहिये कि 'कविता के साथ अन्याय न हो.'यह सवाल सैद्धांतिक है, इसलिये गंभीर विवेचन की मांग करता है.

जब हम प्रगीत की सामाजिकता का सवाल उठाते हैं, तो हमारे लिये ज़रूरी हो जाता है कि हम सामाजिकता के स्वरूप पर विचार करें.

प्रगीत में अंतरंगता, निजता, वैयक्तिकता, लयबद्धता और भाव संकुलता के प्राधान्य की वजह से, सामाजिकता वहीं संभव है, जहां वह, 'निजात्म के सर्व से संबंध'की बजाय, 'आराध्य या प्रिय के प्रति निज के आत्म निवेदन'की तरह उपलब्ध हो सके.

इस लिहाज से कबीर जैसे निर्गुण संत बेहतर स्थिति में नज़र आते हैं. वे 'समुंद समाना बुंद में', की तर्ज़ पर, सामाजिक संबंधों की विराटता के साथ रिश्ता बना पाते हैं. 'हम घर आव राजा राम भरतार'जैसी पंक्तियां अपनी व्यंजना में, सत्ता तंत्र, ब्रह्म भाव और सामान्य दांपत्य संबंधों तक फैल जाती हैं. परंतु इस तरह की 'सामाजिक निजता'को सगुण भक्त कभी आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकता.

सगुण भक्त की दुनिया का निजी क्षेत्र, विनय, दास्य या प्रेम का क्षेत्र बना रहता है. सामाजिकता पृष्ठभूमि से झांकती हुई, माधव या राम के प्रसाद या करुणा का लीला क्षेत्र भर बनी रहती है. सामाजिक क्षेत्र के अंतर-विरोधों से उपजने वाली पीड़ा, वहां विनय भक्ति या माधव की कृपा को पाने की पुकार में बदल जाती है. भक्त के अपने कर्मठ हस्तक्षेप के लिये वहां कोई खास गुंजाइश पैदा नहीं होती.

इसलिये ऐसी निजता में सामाजिकता की खोज, जैसा मैनेजर पाण्डेय ने स्वीकार किया, सिवाय 'काव्य से अन्याय'करने के और कही नहीं पहुंचाती.

इसे उनकी आलोचना की उलटबासी ही कहा जा सकता है कि वे एक असंभव क्षेत्र में प्रवेश करते हुए, एक तरफ सूरदास के काव्य में सामाजिकता को खोज निकालते हैं और दूसरी तरफ ऐसी आलोचना दृष्टि को अपना आदर्श मानते हैं, जो साहित्य का लक्ष्य, 'रूपांतरकारी सामाजिकता'में देखती है. 

आलोचना में समाजशास्त्रीय पद्धति का सूत्रपात करने का श्रेय कैनेथ बर्क को दिया जाता है, हालांकि इस संदर्भ में सम्यक भूमिका बनाने का काम, बर्क से बहुत पहले से ही मार्क्सवादी आलोचना पद्धति ने करना आरंभ कर दिया था.

इन दोनों पद्धतियों में पर्याप्त समानता है. तथापि फर्क यह है कि मार्क्सवादी आलोचना पद्धति केंद्र में समाज की व्याख्या का आधार वर्ग विभाजन होता है और 'सामाजिकता'की व्याख्या उत्पादन पद्धतियों के अंतर-विकास के आधार पर प्रकट होने वाली सभ्यता-मूलक तबदीलियों की तरह की जाती है. समाजशास्त्रीय पद्धति उसे सामाजिकता की व्याख्या का एक खास रूप भर मानती है और अन्य प्रकार की व्याख्याओं के लिये खुली रहती है. इसलिये बर्क, हैरिंगटन और मौरेती जैसे समाजशास्त्रीय आलोचक, मार्क्सवाद से संबंधित फ्रैंकफर्ट स्कूल के आलोचकों से कुछ भिन्न नतीजों तक पहुंचते हैं.

इस कड़ी में अब जो स्त्राीवादी और दलित वादी आलोचना सामने आ रही है, वह भी मुख्यतः साहित्य की सामाजिक अंतर्वस्तु की बात करती है.

तब सवाल उठता है कि इनमें से वह कौन सी पद्धति है, जिसे 'कविता के साथ अन्याय करने', या न करने का ज़िम्मेवार माना जा सकता है?

यहां इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी लगता है कि जब हम इस पद्धति का इस्तेमाल करते हुए, साहित्य, की सामाजिकता का उद्घाटन कर रहे होते हैं, तो हमें साहित्य की व्याख्या समाज के 'वैकल्पिक यथार्थ और इतिहास'की अभिव्यक्ति करने वाली रचनाशीलता की तरह आरती पड़ती है. जो लोग साहित्य को 'समाज के आईने'की तरह देखने के आदी हैं, उनके सामने दिक्कत यह होती है कि वे साहित्य और समाजशास्त्र के बीच फर्क करने के लिये कोई अर्थपूर्ण दलील नहीं दे पाते. पर जब हम साहित्य  में 'समाज और इतिहास के विकल्प'को देखने की बात की ओर रुख करते हैं, तो हम उस रचनाशीलता की मौजूदगी के लिये जगह बना पाते हैं, जो साहित्य को साहित्य बनाती है.

जहां तक मैनेजर पाण्डेय का सवाल है, वे स्वयं को जिस तरह की समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति के अधिक करीब पाते हैं, वह मार्क्सवादी पद्धति है. इस संदर्भ में वे अपने लिये जो आलोचनात्मक प्रतिमान बनाते हैं, यहां उन पर भी एक नज़र डाल लेना सम्यक होगा,

"बुनियादी तौर पर वह (मार्क्सवाद) समाज को समझने का एक सिद्धांत है. दूसरे स्तर पर वह समाज को बदलने का सिद्धांत है. और तीसरे स्तर पर वह केवल समाज ही नहीं, बल्कि संपूर्ण संसार को बदलने का दृष्टिकोण है...जिन रचनाकारों के यहाँ मार्क्सवाद सजग और सचेत दृष्टि के रूप में सक्रिय है, उनकी प्रगतिशीलता अधिक सुनिश्चित और सुविकसित हो सकती है."

(मेरे साक्षात्कार, 92)

मार्क्सवाद को 'सजग रूप में'अपनाने की जो सलाह उन्होंने रचनाकारों को दी है, वह स्पष्टतः समकालीन रचना परिदृश्य पर ही लागू हो सकती है. भक्तिकाल, और उसमें उनके प्रिय कवि सूरदास की व्याख्या के लिये हमें, मार्क्सवाद को एक 'आलोचना दृष्टि'की आधार भूमि तक सीमित रखना होगा और उसका वह जो लक्ष्य है, समाज और संसार को बदलने का, उसके बारे में पुनर्विचार करना होगा.

ऐसा नहीं है कि भक्ति काव्य और उसके तहत सूरदास के प्रगीत, समाज और संसार को बदलते नहीं हैं. वे समाज और संसार के नवनिर्माण के अपनी तरह के प्रारूप हमारे सामने रखते हैं. परंतु हमें उनकी सामाजिक अंतर्वस्तु की व्याख्या भिन्न तरीके से करने की ज़रूरत पड़ती है. भिन्न तरीके से, यानी वहां हमें 'वास्तविक सामाजिक यथार्थ'की अभिव्यक्ति पर केंद्रित न होकर, उस विकल्प बोध पर ध्यान देना पड़ता है, जो रूपांतर की वजह हो सकता हो.

कोई भी काव्य, जो अपने समय की सीमाओं को लांघ कर परवर्ती कालों के लिये विवेचनीय बना रहता है, उसे तत्कालीन सामाजिक अंतर्वस्तु से संबद्ध ऐसे जीवनानुभवों की उपज माना जाना चाहिये, जो किसी भिन्न अर्थ बोध के कारण भिन्न हालात में भी पाठक को संवेदित कर पाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि किसी काव्य की तत्कालीन सामाजिक अंतर्वस्तु का अध्ययन हमें किस नज़रिये से करना चाहिये?

अगर हम मैनेजर पाण्डेय की स्थापनाओं से सहमत हैं, तो हमें भक्ति काव्य और उसमें सूरदास जैसे कवियों की सामाजिक अंतर्वस्तु का अध्ययन इस नुक्ते-निगाह से करना चाहिये कि वह काव्य तत्कालीन समाज और संसार को 'बदलने'में क्या भूमिका निभा रहा था? और क्या उस तरह का बदलाव हमें समकालीन समाज और संसार को बदलने के लिये कोई प्रासंगिक ज़मीन प्रदान करता है या नहीं ? इन सवालों के जवाब खोजते हुए जब हम मैनेजर पाण्डेय के पास जाते हैं, तो पाते हैं कि वहां एक खास तरह की परिवर्तनकारी दृष्टि के साथ भक्त कवि अपनी-अपनी तरह का यूटोपिया रचते हैं. वह उनकी परिवर्तनकामिता के सार की तरह उनके काव्य का मुख्य प्रयोजन हो जाता है. इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय की कतिपय मान्यताएं इस प्रकार हैं,

"सूरसागर में लोक-चिंता काव्यानुभूति के प्रवाह में अंतर्धारा की तरह है."

"सूरदास की कविता ऐसे समाज की रचना करती है जिसमें लोक और शास्त्र के बंधनों से स्वतंत्र मानवीय भावों और मानवीय संबंधों का सहज स्वाभाविक विकास संभव हुआ है."

"जायसी का 'सिंहलद्वीप'और तुलसी का 'रामराज्य'कल्पना लोक ही है. सूर का वृंदावन जायसी के सिंहलद्वीप और तुलसी के रामराज्य की तुलना में उस काल के सामंती समाज की सीमाओं से अधिक स्वतंत्र है."

हालांकि इस दृष्टि से विचार करेंगे, तो पायेंगे कि कबीर जब इस दुनिया को ससुराल और उस दुनियां को 'बाबुल का देस'कहते हैं या रैदास जिसे इस दुनियां की ऊंच नीच, भेदभाव और अन्यायपूर्ण स्थितियों से मुक्त 'बेगमपुरा'कहते हैं, तो वे जिस तरह के यूटोपिये का निर्माण करते हैं, वह आमूलचूल परिवर्तन लाने वाला प्रतीत होने की वजह से कहीं अधिक क्रांतिकारी और प्रगतिशील मालूम होता है.

इस फर्क को नजरंदाज करते हुए मैनेजर पाण्डेय निर्गुनियों, प्रेमाख्यानकार सूफियों और सगुण भक्तों  को एक ही लाठी से हांकते हैं और सभी के 'वैकल्पिक समाज के यूटोपिये'को मूलतः एक ही तरह का मानते दिखाई देते हैं. हालांकि इन सभी का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए वे इन कवियों के बीच मौजूद फर्क की सम्यक शिनाख्त भी करते हैं, जो इस प्रकार है,

"सूरदास न कबीर की तरह समाज-सुधारक हैं और न तुलसी की तरह उपदेशक. उनके काव्य में कबीर के समान उस समय के समाज की कड़ी आलोचना नहीं है और न , तुलसी के समान समाज की व्यवस्था तथा मर्यादा की रक्षा का आग्रह. वे प्रेम और सौंदर्य के अनंत अनुभवों के अनुपम शब्द-शिल्पी हैं."

यहां सवाल पैदा होता है कि वैकल्पिक समाज की कल्पना पर आश्रित पुनर्रचना, क्या समाज की गहन सघन 'आलोचना के अभाव में मुमकिन है?

मार्क्सवाद, 'समाज आलोचना दृष्टि'को इतना अधिक महत्व देता है कि उसके द्वारा विकसित एक साहित्यालोचन पद्धति 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' (क्रिटिकल रियलिज़्म) कहलाती है. तो, समाज की आलोचना करते हुए भक्तिकालीन साहित्य, समाज के वर्ण-जातिगत विभेदों के पार जता है; और जब वह, वर्गहीन-जातिहीन समाज की परिकल्पना तक पहुंचता है, तब ही उसमें ऐसा यूटोपिये को देखा जा सकता है, जिसे मानवजाति के साम्यवादी भविष्य के रूप में रेखांकित किया जा सकता हो. अन्यथा वह काव्यगत 'कल्पनालोक'मात्र होकर रह जाने वाली वस्तु भर होता है, जिसकी प्रासंगिकता पर परवर्ती समाज की स्थितियां प्रश्न चिह्न लगा देती हैं.

इस लिहाज से देखा जाये, तो आज हम तुलसी के रामराज्य की जिस हकीकत को बेपरदा होता देख रहे हैं, वह इस बात को साबित करने के लिये पर्याप्त है, कि भक्तिकाल के एक लंबे कालखंड की रचनाशीलता के बदलते रूपों को एक ही लाठी से हांकना कितना भ्रामक हो सकता है?

और जो सवाल आज तुलसी के रामराज्य की बाबत पूछने लायक हो गये हैं, उनकी छाया से सूरदास का वृंदावन सर्वथा मुक्त हो, ऐसा कतई नहीं है.

मैनेजर पाण्डेय के मुताबिक सूरदास के काव्य में 'सामाजिकता', एक तरह की 'लोकचिंता'है, जो उनके यहां 'प्रेम और सौंदर्य के अनंत अनुभवों'के प्रवाह की 'अंतर्धारा'की शक्ल ले लेती है. अब यहां खोज करने लायक बात यह है कि क्या ये प्रेम और सौंदर्य के अनुभव, तत्कालीन समाज की किन्हीं असंगतियों की आलोचना से उपजी लोकचिंता के अनुभव हैं या कुछ और?

मैनेजर पाण्डेय इस सवाल से बचते नहीं. वे बड़े मनोयोग से खोज करते हुए 'सूरसागर से उन पदों तक पहुंच जाते हैं, जहां गोपियां का तत्कालीन समाज उन विभाजनकारी रूपों पर व्यंग्य करती हैं, जिनकी आलोचना करके वे अपने 'सच'की रक्षा करती हैं. 'भ्रमरगीत'प्रसंग, इस लिहाज से अधिक अर्थपूर्ण दिखायी देता है. गोपियों का 'वृंदावन', यहां उद्धव की 'मथुरा'के विरोध में प्रस्तुत है. इसे मैनेजर पाण्डेय गांव और नगर के अंतर्विरोध की तरह देखते हैं. नागर सभ्यता का संबंध सत्ता पक्ष है, इसलिये मथुरा गोपियों को 'काजर की कोठरी जैसी लगती है, जिस में घुसकर सभी काले हो जाते हैं. कुछ पद अर्थतंत्र से भी ताल्लुक रखते हैं, जहां सूदखोर मूल से अधिक ब्याज बटोरना,चाहते हैं. जब कि वे अपने माधव रूपी मूलधन को बचाना चाहती हैं. सत्ता और अर्थतंत्र  के अलावा गोपियां. सांस्कृतिक पक्ष से भी नगर की आलोचना करती हैं, जहां वे उद्धव को योग का दर्शन बेचने वाले प्रचारक की तरह देखती हैं, और वृंदावन को भक्ति को निर्मल धारा बहाने वाले गांव की तरह बचाना चाहती हैं. इस भक्तिधारा वाले गोपियों के प्रतिपक्ष का जो सामाजिक सार है, वह 'गोचारण'की तरह सामने आता है.

मैनेजर पाण्डेय ने गोचारण के महत्व की सविस्तार चर्चा की है. इसे वे 'चरवाहा संस्कृति के अवशेष'की तरह देखते हैं. पश्चिम में भी 'पैस्टोरल'परंपरा के साहित्य को बहुत महत्व मिला है. हालांकि इन दोनों में काफी अंतर है. यूरोप के अनेक देशों में आज भी बहुत बड़े भूभाग पर वन बचे हुए हैं, जिस वजह से कुछ देशों के आर्थिक विकास की रीढ़ डेयरी उत्पाद हैं. वहां पशुपालन, साहस और कर्मठता के मूल्यों से जुड़ रोमांस की आधारभूमि को, नागर विकास के बरक्स रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है. वह शहरी जीवन की कृत्रिमता और औपचारिकता के विरोध में जीवन को उन्मुक्त व निर्कुंठ भाव से जीने की संभावनाओं को खोलने की वजह से अलग तरह की विद्रोही भंगिमा से युक्त साहित्य है. इसलिये सूरदास के काव्य में गोचारण का जो मिथकीय व भावात्मक रूप सामने आता है, उसे भारतीय परिवेश से जन्म लेने वाली अलग तरह की प्रवृत्ति की तरह देखना उचित होगा.

मैनेजर पाण्डेय सूरदास के काव्य में मौजूद गोचारण को जब, उस दौर की सामाजिकता के सार की तरह देखते हैं और उसे एक यूटोपिये की तरह व्याख्यायित करते हैं, तो उनका मत कुछ इस रूप में हमारे सामने आता है.

"कृषि और व्यापार की व्यवस्थाओं से उपजी जटिलताओं से निकलकर प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में विचरने की मानवीय आकांक्षा की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है गोचारण-काव्य."

कहने की ज़रूरत नहीं है कि मैनेजर पाण्डेय की यह धारणा, पश्चिम के पेस्टोरल साहित्य की मूल प्रवृत्ति को सूरदास के काव्य में खोजने का प्रयास अधिक है, बनिस्बत इसके कि वे यह देखते दिखाते कि हमारा काव्य गोचारण को इस रूप में प्रस्तुत करता है, जैसे कि वह 'गोलोक का 'भूलोक में अवतरण'हो.

इस सच्चाई को दरकिनार करने के लिये उनके पास अपने तर्क हैं. वे इस गोलोकवादी व्याख्या को सूरदास के काव्य पर, परवर्ती आलोचकों के द्वारा किया गया, वल्लभ के पुष्टि मार्ग का आरोपण मानते है. उनका कहना है कि इसे एक ओर हटा कर ही हम उसके वास्तविक सामाजिक सार तक पहुंच सकते हैं.

"उनकी कविता पर वल्लभ संप्रदाय की छाप लगाने और सूरसागर को भागवत का अनुवर्ती बनाने का काम बाद में संप्रदाय के सेवकों ने किया है."

अपनी इस धारणा के कारण मैनेजर पाण्डेय हमें सूरदास में पुष्टि मार्ग से ताल्लुक रखने वाले दर्शन की मौजूदगी को न देख कर, उस 'प्रकृति को सीधे देखने के लिये कहते हैं, जिसमें "स्वच्छंद भाव से घूमने के लिये गोप जीवन में सर्वाधिक अवकाश है."

इसकी तुलना में, उनके मुताबिक, "कृषि, व्यापार और हस्त शिल्प जैसे व्यवसायों की जटिल प्रकृति के कारण"वह स्वच्छंदता बाधित रहती है. निर्गुण धारा का संबंध, चूकि मुख्यतः इन व्यवसायों से है, इसलिये वे वहां उतने उन्मुक्त भाव वाले विकल्प के प्रकट होने की संभावना के प्रकट होने के लिये अवकाश नहीं देखते हैं. इन धारणाओं पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करना ज़रूरी है. 

मार्क्सवादी दृष्टि से भी विचार करें, तो जिसे हम यूटोपिया या 'विकास की समन्वयात्मक मंज़िल'कहते हैं, वह तब प्रकट होती है, जब सामाजिक अंतर्विरोध अपने चरम पर पहुंच कर विकल्प की खोज को ज़रूरी बनाते हैं. वर्ग संघर्ष का तीखा होना, पक्ष और प्रतिपक्ष को नव समन्वय की तलाश की ओर धकेलता है. दूसरी बात, वहां अतीत की वर्गविहीन स्थितियों की उन्मुक्तता के लौटने की संभावना तो प्रकट होती है, परंतु वह अतीत की तुलना में अधिक परिष्कृत और जटिल अर्थबोध से युक्त उन्मुक्तता होती है. दूसरे लफ़्ज़ों में वह जटिलता का नयी तरह की सरलता और सहजता को उपलब्ध करना होता है.

इस कसौटी पर कस कर देखेंगे, तो इस बात को समझने में दिक्कत नहीं होगी कि निर्गुण साहित्य नागर जीवन की जटिलताओं के बरक्स अधिक गहन सामाजिक आलोचना की ओर प्रवृत्त हुआ था, जब कि सूर और तुलसी जैसे सगुण भक्त उतनी व्यापक और निर्मम सामाजिक आलोचना करने में असमर्थ होने की वजह से, जिस वृंदावन और रामराज्य की पुनर्रचना करते हैं, वह तत्कालीन सामाजिक अंतर्विरोधों का समन्वय करने वाला यूटोपिया न हो कर, अतीत का पुनरुत्थान हो जाता है.

इसलिये गोचारण, भविष्योन्मुख अतीत में लौटना न होकर, गोलोक के मनोलोक में लौट कर रास रचाने के रूपक गढ़ता है. और रामराज्य तो और भी अधिक अतीतग्रस्त होकर, 'वेद निरत निज वर्ण धर्म'पालन को ही तत्कालीन समाज के समन्वय की संभावना बताने लगता है. इन दोनों के काव्य का मूल स्वर 'भक्ति है, जिस बात की कोई भी अनदेखी नहीं कर सकता.

आप भक्ति की मनमानी व्याख्या के लिये गुंजाइश तभी पैदा कर सकते हैं, जब हम यह कह सकें कि सूरदास पर पुष्टिमार्ग का और तुलसीदास पर रामानंदी संप्रदाय का प्रभाव, उनके काव्य का मूल स्वर न होकर, उस पर एक आरोप की तरह है.

अब देखें, सूरदास क्या करते हैं? वे कृष्ण के भेजे हुए उद्धव को गोपियों की आड़ में अपशब्द कहते हैं, पर कृष्ण को बचाये रखते हैं. क्या कृष्ण का उस सत्ता तंत्र, अर्थ तंत्र और ज्ञान-संस्कृति मूलक वर्चस्वी रूपों की मौजूदगी में कोई हाथ नहीं, जिसका प्रतिनिधित्व उद्धव करते हैं? कृष्ण को बचा लेने के पीछे मूल तर्क क्या है? यही न कि वे तो स्वयं ब्रह्म हैं. इसलिये वे सामाजिक अंतर्विरोधों से संबद्ध किसी तरह की पतनशीलता का हिस्सा नहीं हैं, कि वे सब तरह का कूटनीतिक व्यवहार करते हुए, अपने तमाम कर्मों से बंधे हुए नहीं हैं. इसलिये उनकी कूटनीति में न छल है, न कोई महत्वाकांक्षा. आप जब तक इस भक्ति मूलक पक्ष को अपने सामने नहीं रखेंगे, सूरदास और तुलसीदास के काव्य की एक पंक्ति के अर्थ में भी आपका प्रवेश संभव नहीं.

सवाल ये है कि मैनेजर पाण्डेय राम और कृष्ण को ब्रह्म का अवतार बनाने और मानने की अनदेखी करके, वहां जिस तरह की 'ब्रह्म-निरपेक्ष सामाजिकता'को खोजना चाहते हैं, क्या वह वहां है भी या नहीं?

यहां जो बात सर्वाधिक हैरान करने वाली है, वह यह है कि सूरदास और तुलसीदास की इस तरह की भक्तिवादी दृष्टि की अनदेखी करके हमारे आलोचक वहां सामाजिकता के विविध रूपों को खोजा करते हैं और निर्गुण संतों में, जहां इस तरह के भक्तिवाद का सिरे से विरोध दिखाई देता है, उनकी सामाजिकता का सहारा लेकर पूरे भक्ति साहित्य को प्रगतिशील सिद्ध करने का प्रयास जोशो-खरोश से किया करते हैं. जहां अतीत का पुनरुत्थान है, वहां सामाजिकता के अधिक मुखर और विश्वसनीय होने की बात की जाती है और जहां वास्तव में सामाजिकता है, उसे वायवीय, अमूर्त, सुधारवादी (यानी गैर-क्रांतिकारी) और सांप्रदायिक तक मान लिया जाता है.

कबीर और तुलसी से सूरदास की तुलना करते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं,

"सूरदास न कबीर की तरह समाज-सुधारक हैं और न तुलसी की तरह उपदेशक. उनके काव्य में कबीर के समान उस समय के समाज की कड़ी आलोचना नहीं है और न , तुलसी के समान समाज की व्यवस्था तथा मर्यादा की रक्षा का आग्रह."

समाज की कड़ी आलोचना करने वाले व्यक्ति को सुधारवादी कह कर खारिज करने की बात, सूरदास को क्रांतिकारी सिद्ध करने के लिहाज से एक खाली कारतूस से ज़्यादा क्या अहमियत रखती है, इसे समझना कठिन नहीं है.

ये बातें यहां इसलिये कही गयी हैं, ताकि प्रेम और सौंदर्य के गीत गाने वाले सूरदास को ऐसा कवि सिद्ध किया जा सके, जो सामाजिकता की व्यंजना करता है. वे सूरदास की तारीफ करते हुए कहते हैं कि वे समाज की लोकचिंता को अपने काव्य की अंतर्धारा की तरह परोक्ष रूप में अभिव्यक्त करते हैं. और चूंकि रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा की आलोचना तुलसीदास को, लोकमंगल की अभिव्यक्ति के लिहाज से, भक्ति काव्य के शिखर पर आसीन करती है, इसलिये वे सूरदास को महत्वपूर्ण बनाने के आग्रह से तुलसीदास की बाबत इस सच पर उंगली रख देते हैं कि वे उपदेशक कवि हैं.

उपदेशक, यानी वह जो अतीत का पुनरुत्थान करता है. उपदेशक होने का संबंध तत्कालीन सांस्कृतिक राजनीति से होता है. वह गहरे में यथास्थितिवादी होने की वजह से, सत्ता को मानवीय रूप में प्रस्तुत करके बचाया करता है.

तथापि यहां मैनेजर पाण्डेय जो सच तुलसीदास के बारे में बोल गये हैं, ठीक वही सच उन के अपने प्रिय कवि को भी कटघरे में खड़ा करने के लिये पर्याप्त है, इसे वे क्यों देख नहीं पाते?

सगुण भक्ति के अवतारवाद से ताल्लुक रखने वाली विचारधारा ही गहरे में सूरदास और तुलसीदास दोनों के काव्य को उपदेशक और प्रचारक की भूमिका में ले जा कर खड़ा कर देने के लिये पर्याप्त है. उपदेशात्मक पुनरुत्थान के भाव बोध से युक्त कवि, अपने इस पक्ष को छिपाने के लिये जब, सौंदर्य, प्रबंध कौशल और कलात्मक भाषा संसार जैसे काव्योचित उपकरणों का  सहारा लेता है, तो मार्क्सवादी नुक्ते-निगाह से उसे 'कलाकारी'कहा जाता है. दूसरी तरफ समाज की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर को अगर अपनी भाषा तक के अनगढ़ रह जाने की चिन्ता नहीं है, तो वहां हम उस सामाजिकता की तलाश अवश्य कर सकते है, जो वास्तविक अर्थ में रूपांतरकारी या क्रांतिकारी हो.

सूरदास और तुलसीदास का काव्य हमारे सामने जिस समाज या 'संसार को लाता है, वह वास्तविक न होकर, अवतरित ब्रह्म की 'लीलामात्र होता है. लीला भाव, सूरदास और तुलसीदास दास के काव्य की असल 'विश्व दृष्टि'है. इसलिये संसार की सारी पीड़ा, सारे अंतर्विरोध, वहां केवल इस प्रयोजन से चित्रित होते हैं, ताकि हम, यानी सामान्य जन समाज, भक्ति भाव से युक्त हो कर 'विनय'कर सकें और अवतारी ब्रह्म हम पर कृपा कर के हमारा उद्धार कर सके.

भक्ति का यह जो बुनियादी दर्शन है, उस पर पर्दा डाल कर अगर कोई किसी अन्य बात का, जो अपने तईं महत्वपूर्ण हो सकती है, महिमामंडन करता है, तो वह साहित्य के मूल भाव और प्रयोजन से 'आलोचनात्मक छल'करता है. इसके परिणाम समाज-सांस्कृतिक रूपांतर के लिये घातक होते हैं. इसका भाजन समाज ही नहीं, साहित्य भी होता है. इससे हमारे सामने अपने साहित्य के शक्ति स्रोतों से अजनबी होने का खतरा पैदा होता है. ऐसा समाज परवर्ती कालों में धीरे-धीरे महान साहित्य की रचना करने में असमर्थ होता जाता है.

भक्ति काल की साहित्य की भ्रामक व्याख्याओं ने आधुनिक काल की रचनाशीलता के अंतर-विकास में बड़ी रुकावटें पैदा की हैं. उनका प्रत्याख्यान ज़रूरी हो गया है.

इस भ्रम को जन्म देने वाली बुनियादी बात का संबंध नाथ, सिद्ध और निर्गुण धारा के साहित्य को भक्ति साहित्य कहने से संबंध रखता है. मैनेजर पाण्डेय भक्ति की प्रवृत्तियों की शिनाख्त करते हुए पीछे दसवीं शती तक चले जाते है. जब कि सिद्ध, नाथ और निर्गुण संत जिस तरह के साहित्य की रचना करते हैं, वह किसी ब्रह्म की 'भक्ति करने के उलट, मनुष्य के भीतर मौजूद ब्रह्म को 'खोजने'की दिशा में आगे बढ़ता है. वहां अगर खींच खांच कर भक्ति को देखने की ज़िद ही पकड़ ली जाये, तो कह सकते हैं कि वह 'आत्म भक्ति'जैसी कोई प्रवृत्ति है. वह भीतर मौजूद प्रेम और आनंद के स्रोत में छलांग लगाने के लिए, 'जगत की कड़ी आलोचना'करने की बात है, ताकि जगत के मोह से मुक्त हो कर, उसके प्रति निर्मम वस्तु निष्ठता वाली उच्चतर चेतना को पाया जा सके और स्वयं को सत्य की खोज में प्रवृत्त किया जा सके. ऐसे साहित्य को जो लोग केवल इसलिये भक्ति काव्य कहते हैं कि वहां भी ब्रह्म की चर्चा दिखाई देती है, वे ब्रह्म के अर्थ को ग्रहण न करते हुए, उस शब्द का वैसा इस्तेमाल करते हैं, जैसा कर्मकांडी तोतारामों के यहां प्रचलित दिखाई देता है. इनकी बाबत कबीर कहते हैं‘मनुआ तो दस दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं'. इसके विपरीत सूर और तुलसी नाम लेने भर को पर्याप्त बनाने वाली भक्ति के प्रचारक हैं. उनके यहां ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं, जहां कोई व्यक्ति मरते हुए भूल से ही राम या माधव कह भर देता है तो गोलोक का अधिकारी मान लिया जाता है.

सगुण भक्ति का महत्व अकबर के शासनकाल से बढ़ना आरंभ होता है. इस काल में केंद्रीय राजसत्ता और देशी राजाओं के आपसी गठजोड़ वाले हालात सामने आते हैं. भक्ति का संस्थानीकरण इस काल की देन है. निर्गुण संतों को भक्त कवियों में शुमार करने का काम, इसी दौर में पहली दफा नाभादास के द्वारा किया जाता है. जबकि इससे पहले खुद सूरदास और तुलसी अपने काव्य में कबीर और रैदास जैसे लोगों का विरोध ही नहीं, उनकी निंदा करते हुए उन्हें अपशब्द तक कहते हैं. उद्धव के बहाने से गोपियां जिन योगियों की खबर लेते हुए उन्हें शालीन गलियां तक देती है, वे और कोई नहीं निर्गुण संत ही हैं. तुलसी उन्हें 'नीच'कहकर उन पर 'राम नाम का मरम है आना’ जैसे संगीन आरोप लगाते हैं. पर लोगों में संतों की मकबूलियत को देखते हुए बाद में ज़रूरी हो गया कि उन्हें भी लोगों के बीच भक्तों की तरह प्रचारित करके, भक्तिवाद को स्थापित किया जाता.

भक्ति का यह जो कुलीन संस्कृति के द्वारा किया गया इस्तेमाल है, वह  दो संगीन अपराध करता है. एक यह कि जो भक्त नहीं हैं, उन्हें भक्त बना कर उनके साहित्य में मौजूद उस समाज रूपांतर की संभावनाओं को कुंद करता है. और दूसरा यह कि अपने भीतर मौजूद पुनरुत्थानवादी प्रचारक  की असलियत को छिपा कर, अपनी छद्म सामाजिकता के बारे में भ्रम फैलाता है.

इस बात को समझने की के लिये हम अडोर्नो के प्रगीत संबंधी उन विवेचनों को देख सकते हैं, जहां वह संगीत के बाज़ार को मुख्यधारा की संस्कृति के क्रांति विरोधी रूप को समझने के लिये आधार बनाता है. वह कहता है कि संस्कृति का बाज़ार, संगीत की मदद से प्रगीतों के प्रगतिशील तत्वों को भी बाज़ार के द्वारा आत्मसात किये जाने लायक बना कर शक्तिहीन कर देता है. इसे वह नकारात्मक द्वंद्वात्मकता (नेगेटिव डायलेक्टिक्स) कहता है. उच्च या कुलीन संस्कृति, लोगों में अधिक प्रचलित साहित्य को अपने 'उत्पाद'में बदलने के लिये विविध कलाओं से उसका संयोजन करती है. यही वजह है कि सूरदास और तुलसीदास के भक्तिवादी साहित्य का इस्तेमाल, कुलीन ब्राह्मणों के द्वारा धर्म प्रचार के लिये होने लगता है और उसमें संगीत मंडलियों का भजन गायन और नृत्य मंडलियों के रास उत्सव, सहयोगी की भूमिका निभाने लगते है. मंदिरों में जिन कवियों का प्रवेश सहज रूप में होता है, वे सूरदास और तुलसीदास हैं.

कबीर रैदास आदि के पद गाने वाले लोग निचले तबकों के पंथों में गठित होने वाले लोग होते हैं. उन्हें भक्त बना कर अपने साथ मिलाने का काम नाभादास के बाद के दौर में व्यापारी तबकों के द्वारा होता है. वह तत्कालीन श्रम संपदा को भक्तिवादी बना कर उनका अधिकाधिक लाभ उठाने के उद्देश्य से होता है. इसे समझने के लिये हमें रीतिकालीन हालात पर निगाह डालनी होगी.

रीतिकाल में दो तरह का साहित्य है. एक तो दरबारी साहित्य है. वह सूरदास के 'प्रेम और  सौंदर्य के अनंत अनुभवों से निकली भक्ति की अंतर्धारा'के दरबारीकरण से प्रकट हुआ काव्य है. वहां राधा कृष्ण की भक्ति के बहाने शृंगारिकता की खुल कर अभिव्यक्ति होती है. सवाल यह है कि क्या उसकी भूमिका उस कृष्णभक्ति काव्य के द्वारा निर्मित नहीं होती, जिस की प्रशंसा मैनेजर पाण्डेय ने 'सूर की गोचारण संस्कृति की उन्मुक्त उड़ान'की तरह की है. उसे वह सामंतीय संस्कारों से और सभ्यता की कृत्रिमता के बंधनों से मुक्ति की तरह देखते हैं. और देखिये, उनके ये दरबारी रीतिकालीन वारिस, उसी काव्य को सामंतीय विलासिता और कामुकता की उन्मुक्त अभिव्यक्ति बना डालते हैं.  क्या यहां कार्य कारण संबंध के लिये कोई आधार खोजना गलत होगा? क्या बीज से ही वृक्ष अंकुरित होकर नहीं फलते-फूलते?

और सूर के काव्य का वह जो भक्ति वाला पक्ष है, उसका क्या होता है? वह मंदिरों के प्रांगण में रास रचाने वालों के हाथ का खिलौना हो जाता है.

अब तुलसीदास पर आइये. उन्होंने जो लिखा, वह धर्म की वस्तु हो गया. दरबारीकरण उसका भी हुआ. जिन्हें हम उस दौर के राष्ट्रीय चेतना वाले कवि कहते है, वे घुमा फिरा कर अपने आश्रयदाताओं को राम का अवतार सिद्ध करते दिखाई देते हैं. सब को मर्यादा और धर्म के रक्षकों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.

इसकी तुलना में निर्गुण संतों का जो भक्तिकरण होता है, वह निचले तबकों को शासक के प्रति स्वामीभक्त बनाये रखने में परोक्ष रूप में सहयोगी होता है. फिर भी उस काव्य में जो प्रगतिशील और रूपांतरकारी तत्व है, वे पूरी तरह नष्ट नहीं होते. यही वजह है कि अपने भक्तिकरण के बावजूद और बावजूद इसके कि कबीर के नाम से अनेकानेक भक्तिवादी पद प्रक्षिप्त रूप में वहां दाखिल करा दिये गये हैं, तथापि वे ऐसे कवि हैं, जो आज भी सर्वाधिक आधुनिक चेतना वाले कवि प्रतीत होते हैं.

क्या अब ज़रूरी नहीं हो गया है कि हम कबीर आदि निर्गुण संतों को मुख्यधारा के संस्कृति उत्पाद होने की स्थिति से उबारें और उन्हें भक्ति के मुलम्मे से निजात दिलाएं, ताकि उन्हें ज्ञानधारा के कवियों की तरह देखना आरंभ हो सके? सूरदास और तुलसीदास के काव्य की महानता से मुग्ध हुए रहने की स्थिति को छोड़े बिना यह संभव नहीं है कि हम भक्तिकाल की सम्यक पुनर्व्याख्या कर सकें. जब तक हम यही तय नहीं कर पाते कि हमारी रचनाशीलता की जड़ें किस मिट्टी पानी में है, हमारा सम्यक पल्लवन मुमकिन नहीं.

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संपर्क:
विनोद शाही 
ए 563 पालम विहार, गुरूग्राम-122017 
मो. 9814658098

बंसी कौल: रंग ‘विदूषक’ यायावर निकल गया अपनी अंतिम यात्रा पर: सत्यदेव त्रिपाठी

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थियेटर के लिए पद्मश्री से सम्मानित वंशी कौल (23 August 1949 – 6 February 2021)की संस्था ‘रंग विदूषक’ (भोपाल) नाटकों में अपने नवाचार के लिए विश्व विख्यात थी. कैंसर से  लड़ते हुए ७२ वर्ष की उम्र में ६ फरवरी को दिल्ली में वंशी दा का निधन हो गया. कला जगत में उनके न रहने से जो जगह खाली हुई उसे भरा नहीं जा सकता.

रंग-समीक्षक और लेखक सत्यदेव त्रिपाठी से बंसी कौल का लम्बा संग साथ रहा है. उन्हें याद करते हुए यह स्मृति-आलेख प्रस्तुत है. 



स्मरण: बंसी कौल  
रंग ‘विदूषक’ यायावर निकल गया अपनी अंतिम यात्रा पर
सत्यदेव त्रिपाठी

 

ह फरवरी को 9 बजते-बजते सुबह बेहद मनहूस साबित हो गयी, जब समाज माध्यम पर फैलती हुई खबर पहुँची कि बंसी कौल नहीं रहे. फिर तो जैसे शाम होते ही हर घर, कॉलोनी, सड़क आदि पर एक-एक करके बिजली के ट्यूब-बल्व जलने लगते हैं और देखते-देखते पूरा परिवेश चौंधिआया-सा उठता है, उसी तरह चमकने लगे मोबाइल...उभरने लगीं तरह-तरह की ढेरों इबारतें, जिन्हें देख-देख के मन इतना अवसाद से भरता रहा कि सोशल मीडिया की असंख्य संवेदनाएं जैसे काटने दौड़ती रहीं और मोबाइल की हर आह में एक ही स्वर सुनायी पड़ता रहा– ‘क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी क्या करूँ’....!       

 

पिछले छह महीने से हम सब (लगभग पूरे थियेटर जगत) को उनकी गम्भीर बीमारी का पता था. ऐसे जिन्दादिल व पुख़्ता जीवट वाले शख़्स को ही वह असाध्य रोग होना था– मस्तिष्क और लीवर में कैंसर!! अच्छा इलाज़ मिला और लाखों की दुआएं भी....  बंसी भाई मौत से भी भिड़े वैसे ही, जैसे जीवन भर अपनी रूपांकन-कला (डिज़ाइनिंग) और अपने ढंग के विदूषकत्व वाले थियेटर कर्म के जरिए दुनिया और समाज से दो-दो हाथ करते रहे...! लेकिन इससे होनी को कुछ दिन टाला भर जा सकता था– रोका नहीं जा सकता था,  और वही हुआ- आख़िर वह घड़ी आयी, जब किसी की परवाह न करने वाला व दुनिया के हर विषय पर अपनी निश्चित राय रखने वाला, जगत् और जिन्दगी को हस्तामलक की भाँति देखने-समझने वाला वह यायावर रंग-विदूषक संसार से अलविदा करके अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ा.


बंसी भाई के ऐसे ही निश्चित विचार से पड़ा था- मेरा पहला साबका, वह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का कोई शुरुआती वर्ष रहा होगा, जब ‘पृथ्वी थियेटर’ में हो रहे किसी नाट्योत्सव में शामिल होने शायद मैं गोवा से आया था. दिन में सभागार के मंच पर कोई गोष्ठी चल रही थी.  वह जमाना बहस-मुबाहिसों का था. आमने-सामने के बेबाक संवादों का था. तब आज जैसा सोशल मीडिया का इकतरफा हवाई फायर न था कि घर बैठे कुछ का कुछ लिख मारा और मिले, तो बगल से निकल गये या दिखावे के गले मिल लिये. और पाँच कदम का फासला हुआ नहीं कि लग गये जड़ खोदने में...!

 

एकबार मैंने मुम्बई-थियेटर पर व्यावसायिकता के प्रकोप की तोहमत लगायी थी और मुसकुराते हुए बंसी भाई का फिक़रा आया था– 

गर ऐसा है, तो त्रिपाठीजी इसमें आप का भी बराबर का योगदान है, क्योंकि नाट्य-समीक्षा भी नाट्य-कर्म है. इसलिए किसी भी नाट्य-प्रवृत्ति के चलने या रुकने में उसकी भी जिम्मेदारी उतनी ही है!


और मैं हतप्रभ रह गया था, क्योंकि तब तक मैं नाटक वालों के बीच बाहरी और बाहर वालों के बीच नाटक वाला ही बनकर  रहने का द्वैत जीता था.  

 

और उस एक क्षण में वह द्वैत व गुरूर तार-तार हो गया. रत्नावली की फटकार ‘अस्थि चर्ममय देह मम तामे ऐसी प्रीति’ पर जैसे तुलसी को परम ज्ञान हुआ था और लोकगीत के शब्दों में ‘तू माता मोरी ग्यान की माता, अच्छा ग्यान दियो री’ कहके वे आसक्त गृही से संत हो गये थे; उसी तरह मैं अपनी साहित्य-संहिता के मुताबिक वाले ‘अनासक्त समीक्षक’ से ‘आसक्त थियेटर विवेचक’ हो गया था– इश्क़ तो थिएटर से था ही, तभी मुझे पता चला था कि वे मुझे नाम-काम दोनो से जानते हैं, फिर तो चाय के दौरान शुरू हुई गुफ्तगू कभी रुकी नहीं, बल्कि अपनी व्यापकता में सघन से सघनतर  होती गयी, और मीडिया में दर्ज़ है, पिछले दिनों बनारस से हुए ऑन लाइन आयोजन के अपने समापन भाषण के बाद प्रश्नोत्तर के दौरान मेरे दूसरे सवाल के जवाब के बाद कहा हुआ उनका वाक्य– ‘त्रिपाठीजी के साथ बहस करना अच्छा लगता है– यह बहस चलती रहेगी’. तब किसे पता था कि चर्चा के तहत मुझसे मुखातिब यह उनका आख़िरी वाक्य होगा– इसके बाद तो सिर्फ फोन पर दो-एक बार हालचाल हुए.

 

उस सत्र के बाद उस नाट्योत्सव के शेष नाटक हमने अगल-बगल बैठ के ही देखे थे और नाटक शुरू होने के पहले और बाद में भी खूब घुट-घुट के मिले थे. उन्हें पीछे की पंक्ति के बायें कोने में बैठना भाता था और मुझे मध्य खण्ड में आगे से दूसरी पंक्ति में बाये किनारे पर बैठना सुहाता था. वह लगभग मेरी स्थायी जगह थी, जिसे छोड़कर मैं तब हमेशा उनके साथ पीछे बैठने लगा, जब भी कभी-कभार वे मुम्बई में होते और नाटक देखने का कार्यक्रम बनता. नाटक देखते वे गिद्ध दृष्टि से और इसीलिए वे वह देख लेते थे, जो मैं क्या कोई न देख सकता था– ‘मैं देखउं तुम नाहीं गीधहिं दृष्टि अपार’. और इसका लाभ व मज़ा शो के बाद की चाय या सुरा-पान की बैठक में मिलता, क्योंकि नाटक के दौरान वे एक शब्द न बोलते– नाट्य-संहिता को यूँ निभाते गोया– ‘मैंने जज़बात निभाये हैं उसूलों की जगह’...!!

 

क्या विचित्र संयोग है कि उस यायावर से पहली भेंट यदि मेरे कर्म-स्थल मुम्बई में हुई थी, तो जिन्दगी की आखिरी भेंट मेरे गृह नगर आज़मगढ में ही हुई, जब प्रिय अभिषेक पण्डित के बुलावे पर वे ‘सूत्रधार’ के नाट्योत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में भी आये थे और अपने नाटक ‘सौदागर’ का मंचन भी कराया था, जो बंसी कौल की पहचान कायम करने वाले नाटकों (सिग्नेचर वर्क्स) में से एक है.  मैंने शायद उसका शो वहाँ तीसरी बार देखा था.  मुख्य मकसद तो आसपास पहुँचने पर हमारे मिलने के अनकहे कौल का था, जिसे मुम्बई-बनारस के अलावा जब भी जहाँ आते, मिलने आकर वही निभाते, उनके संसाधन भी होते और सामर्थ्य भी होती.  लेकिन अपने गाँव-शहर के नाते यहाँ साधन मेरे भी थे और अपने नगर के उत्सव में तो मैं स्थायी आगत हूँ ही– जब भी बनारस या घर रहूँ.  इस बार जाने की स्थिति न थी, पर बंसी भाई के मोह में शाम को नाटक देखने और मिलकर चले आने भर के लिए गया. लेकिन नाटक के बाद जब खाने-पीने पर बातें शुरू हुईं, तो समाँ कुछ ऐसा बँधा और रंग कुछ ऐसा जमा कि कब रात का एक बज गया, पता ही न चला.  हाँ, यह पता जरूर चला कि आज़मगढ शहर मेरा भले हो, उसके इतिहास-भूगोल के बारे में तो मुझे बंसी भाई से ही सीखना पड़ेगा– ऐसी थी उनकी यायावरी और जीवन-जगत में उनकी व्यापक पैठ, फिर तो उसी होटल में रात बिताके सुबह की चाय और नाश्ता उनके कमरे में करके ही आ सका. उसके बाद कोरोना आयेगा, तालेबन्दी होगी, मिलना और आयोजन आदि आभासी हो जायेंगे तथा बातें दूरभाषी ही रह जायेंगी..., यह सब भला कौन जानता था...!!

 

इन दोनों मुलाकातों के बीच हुई भेटें उंगलियों पर गिने जाने जितनी ही हैं. भौतिक दूरियां इसका कारण थीं, कुछेक बार भोपाल-जबलपुर, आदि जगहों पर भी नाट्य-आयोजनों एवं सरकरी समितियों की बैठकों में मिल पाने के अवसर बने. लेकिन उन्हीं के साथ के सम्बन्ध इस बात के प्रमाण भी बने कि आपसी सलूक व साझेदारियां मिलन की मात्रा या बारम्बारता से न तय होतीं, न उसकी मोहताज होतीं.  इसके प्रमाण में आज मैं वो नहीं कहूँगा, जो हमेशा कहता हूँ– ‘तेरी इक नज़र बस, काफी है उम्र भर के लिए’. आज तो वो कहूँगा कि दुकान पर चन्द बार के सवाल ‘तेरी कुड़माई हो गयी’? के जवाब ‘धत’ में ऐसा क्या बन-बस गया था कि लहना ने उस अनाम सरदारिन के कहे को निभाने में अपनी जान दे दी और मरते हुए यह सन्देश - ‘उससे कहना कि मैंने वो किया, जो ‘उसने कहा था’ भेज के इतने सुकून से प्राण त्यागे थे कि ‘अचल भये जिमि जिव हरि पाई’ हो गया!!

 

लेकिन जितनी मुलाकातें हो पायीं, उनकी तासीर अकूत हैं और उनका श्रेय जाता है– बंसी दा की यायावरी को, जिसके चलते वे ‘नार-नदी-नद डाँकत कै बनि के हिरना बिरना चलि अइहैं’ की तरह आ जाते थे मुम्बई-पूना-बनारस-आज़मगढ, आदि शहरों में, जहाँ मैं रहता, और फोन करके बुला लेते थे– मुम्बई में हुए, तो मैं लेके घर भी आ जाता था.

 

इसी क्रम में पृथ्वी वाली भेंट के बाद दूसरी मुलाकात पूना में हुई– तब मैं रीडर होकर पूना चला गया था.  उनके बताने की जरूरत न थी.  वहाँ के बड़े ख़ास रंगोत्सव में आ रहे थे और शहर में रहते हुए ‘जनसत्ता’ के लिए मुझे वहाँ होना ही था. ‘तुक्के पे तुक्का’ लेकर आये थे, जिसे वहाँ पहली बार देखना यादगार अनुभव था और मराठी के अफाट नाट्यप्रेमी दर्शकों का कहना ही क्या!  

 

वहाँ की परम्परा में रात को मंचित नाटक के निर्देशक से दूसरे दिन खुली बातचीत होती थी, जिसमें दो-ढाई सौ लोग तो जुटते रहे होंगे और एक से एक सवाल होते थे.  मुझे ठीक से याद है कि दो दिग्गजों- बंसी कौल और हबीब तनवीर- से बात एक साथ हुई थी. संयोजन कर रहे थे मराठी के प्रसिद्ध नाटककार महेश एलकुंचवार.  दोनो ने बड़ी सादगी व संजीदगी से जवाब दिये थे. जनता गदगद थी और गाने की फ़रमाइश हो गयी थी.  बंसी दा ने सौ इसरार के बाद भी खुद न गाके अपने समूह के किसी बच्चे से गवा दिया, जिसे आयोजकों ने उत्तर प्रांतों की सभ्यता समझ लिया. तो हबीब साहब से फरमाइश के साथ समूह के किसी से भी गवाने का विकल्प दिया जाने लगा, और हबीब साहब तो हबीब साहब थे- ज़ोर देकर कहा– तक़ाज़ा तो मुझसे हुआ है, मैं ही गाऊँगा. वे अपना ‘लाला शोहरत राय’ लेकर आये थे. उस बार कार्यक्रमों की गहमागहमी में अपनी निजी बैठक न हो पायी- यहाँ-वहाँ खड़े-खड़े कुछ  औपचारिक बातें ही हुईं, लेकिन मन में कुछ रसाया अलबत्ता, उस मजमे में बंसी दा की नाट्य-यात्रा की झलक मिली, जिसमें पूर्व की अपनी जानकारी को मिलाकर कहूँ तो.


 

23 अप्रैल, 1949 को श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) के कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे बंसी कौल ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से स्नातक होकर वहीं पढ़ाने से जिन्दगी की शुरुआत की.   1973 में रानावि, रंगमंडल के और 1981-82 में ‘श्रीराम सेंटर’ के निदेशक बने.  लेकिन इन सबको छोड़कर 1984 में भोपाल में ‘रंग विदूषक’ नाम से अपना रंगमण्डल बनाया और घर भी.  वहाँ के ‘भारत भवन’ के, अभ्यागत निदेशक (विजिटिंग डिरेक्टर) रहे, रंगमण्डल की चयन समिति में रहे और देश की बहुतेरी चयन समितियों में रहे, लेकिन टिक कर रहे नहीं वहाँ भी- कहीं भी, घर तो दिल्ली में भी बनाया– ‘सतीसर’ अपार्टमेण्ट, द्वारका, जहाँ से उनकी शवयात्रा निकली और जहाँ रह रही हैं उनकी चिर संगिनी अंजना पुरी– अपनी भींगी आँखों, काँपते हाथों से उन्हें विदा करके,  यानी कोई शहर, कोई संस्थान, कोई पद– यहाँ तक कि उनकी ख़ूबसूरत जन्म स्थली भी, उन्हें बाँधकर रख न पायी, वे बँधकर रहने वाले थे ही नहीं. तभी तो स्व. ओमपुरी उन्हें ‘विश्व नागरिक’ कह गये.   

 

जीवन ही नहीं, कला में भी बंसी दा किसी ख़ास शैली, बने-बनाये ढाँचे या कलारूप से बँधकर नहीं चले. रानावि के प्रशिक्षण को भी सीधे नहीं अपनाया.  देश-विदेश का बहुत कुछ देखा-पढ़ा-समझा, पर उन सबके परे जाते रहे. बुनियादी और अंतिम रूप से भारतीय लोक उनकी नाट्य व रूपायन, दोनों ही प्रमुख कलाओं का अजस्र स्रोत रहा. पिछले दिनों बनारस से आयोजित एक आभासी आयोजन ‘कलाओं में लोक’ में हम ‘दश रूपक’ के अपने सुमित...आदि बच्चों के साथ रहे.... इसकी तैयारी के दौरान बंसी दा के इस स्रोत की प्रक्रिया को देखने-सुनने-जानने का प्रत्यक्ष अवसर मिला.  उन्होंने भारतीय लोक में चलते अखाड़े, खेले जाते तरह-तरह के ग्रामीण खेल, भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचलित कथा वाचन-गायन की ढेरों लोक शैलियों, अनेक नृत्यरूपों... नटों के करतबों...आदि सबकुछ को मिलाकर एक नयी रंग शैली रची, जिसे उन्हीं के दिये नाम से ‘विदूषक शैली’ ही कह सकते हैं, जिसे समीक्षक ‘थियेटर ऑफ लॉफ्टर’ भी कहते हैं.  


और आज ‘कहानी के रंगमंच’ एवं आपसी संयोजकत्व (कोऑर्डिनेशन) के अभाव युग में जब थियेटर एकपात्री-दोपात्री के पीछे भाग रहा है, बंसीजी का सार ज़ोर सामूहिकता पर होता है. शैली के साथ ही वे किसी ख़ास तरह के सभागार, आदि की आलीशानी सुविधाओं से भी बँधे नहीं रहे– उसके मोहताज़ नहीं रहे. बल्कि झोपडों-टीलों, बरामदों-चौबारों, बगीचों-मैदानों, आदि गैर पारम्परिक स्थलों पर भी मंच खड़ा करके एक से एक प्रयोग करते रहे, कुल मिलाकर उनका कला कर्म नित-नूतन प्रयोगों की खान रहा है.  

 

लेकिन कहना होगा कि वे बँधे नहीं किसी से, तो टूटे भी नहीं किसी से, कहीं से, जोड़े रहे सबको और जुड़े रहे सारी दुनिया से– ‘विदूषक’ के माध्यम से अपने अलग तरह के इकले रंगकर्म के जरिए, अपनी अनुपम रूपांकन कला (डिज़ाइन आर्ट) के ज़रिए और अपने विचारों-व्याख्यानों के जरिए. पूरे देश में हजारों की तादाद में फैले हैं उनके शिष्य-सहकर्मी-रंग मित्र, कलासाथी. उनकी साँसों में बसता था रंगकर्म, संवादों से बरसता था साहित्य और पेंसिल-कूँची से सिरज उठती थी एक नयी दुनिया. जैसे कामदेव के हाथों में रहता है हमेशा उनका अस्त्र– एक फूल, बंसीदा के हाथों में रहते कागज़-पेंसिल– उनके अहर्निश के चिर संगी, जो उतार लेते थे मन में उठते संवादों को, रेखाओं में उकेर लेते थे दिमाग में उभरते दृश्यों और संरचनाओं को.

 

इस सब सोचों-प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप वे छोड़ गये हैं हिन्दी, पंजाबी, तमिल, सिंहली, उर्दू, बुन्देलखण्डी, बघेली आदि भाषाओं में लगभग सौ नाटक, जिनमें कुछ प्रतिनिधि नाम लिये जा सकते है– आला अफसर, अग्निलीक, दशकुमार चरितम्, शर्विलक, मृच्छ्कटिकम्, पंचरात्रम्, अरण्याधिपति टण्टयामामा, अन्धायुग, तुक्के पर तुक्का, वतन का राग, कहन कबीर, सौदागर, वेणी संहार, जिन्दगी और जोंक...आदि.  

 

अब इस यात्रा को यहीं विराम देकर पुन: मुम्बई चलें, क्योंकि हुआ यूँ कि चार सालों बाद पूना से मेरा तबादला मुम्बई हो गया. इसके लिए हमारे रंगमित्रों ने बहुत सदिच्छाएँ की थीं– ख़ासकर दिनेश ठाकुर और केके रैना-इला अरुण आदि ने. आने पर उनकी प्रसन्नताएं स्वागतादि के रूपों में भी सामने आयीं. मैं भी बहुत उत्साह में था और एक जमावड़ा (गैदरिंग) करने के लिहाज से अपनी युनिवर्सिटी (एसएनडीटी) में ‘नाटक और रंगमंच’ पर एक द्विदिवसीय परिसंवाद आयोजित कर दिया, जिससे विभाग का नाम भी अलग तरह से रोशन होता, क्योंकि हमारे विश्वविद्यालयों में प्राय: ऐसा कुछ नहीं होता. देवेन्द्रराज अंकुर, भारत रत्न भार्गव, असग़र वजाहत, राजेन्द्र गुप्त, दिनेश ठाकुर, वामन केन्द्रे, केके रैना, नीना गुप्ता, कुलदीप सिंह, विजय कुमार...आदि का आना तय हो गया था.  बंसी दा से फोन पर लगातार बात चल रही थी. वे हरचन्द आना चाह रहे थे, पर जम्मू वगैरह में कहीं बड़े आयोजन (इवेण्ट) के मंच-रूपायन (सेट डिज़ाइन) में व्यस्त थे.  बता दूँ कि इस क्षेत्र में भी बंसी दा एक बड़ा नाम है.  इसका अन्दाज़ा देश-विदेश में हुए बड़े-बड़े नामचीन आयोजनों (इवेण्ट्स) के मंच अभिकल्पक के रूप में किये उनके चन्द कामों की फेहरिस्त से हो जायेगा, ‘कॉमन वेल्थ गेम्स’ एवं ‘आईपीएल’ के उद्घाटन समारोह के मंच; ‘अपना-अपना उत्सव’ (1086-87), खजुराहो नृत्य महोत्सव (1980), अंतरराष्ट्रीय कठपुतली महोत्सव (1990), नेशनल गेम्स एवं युवा महोत्सव (2001), गणतंत्र दिवस समारोह, दिल्ली (2002), प्रशांत एशियाई पर्यटक असोसिएशन (2002), महाभारत उत्सव, हरियाणा (2000)... आदि.  इसी प्रकार विदेशों में हुए भारत महोत्सवों में तैयार किये गये उनके शानदार मंच-  फ्रांस (1984), स्विट्जरलैण्ड (1985), रूस (1988 एवं 2012), चीन (1994), थाइलैण्ड (1916), एवं एडिनबर्ग मेला (2000-2001), पुस्तक मेला, जर्मनी (2008)...आदि.

 

बहरहाल, वहाँ काम पूरा होने की स्थिति साफ नहीं हो रही थी. यूजीसी के बजट में मेरे पास बहुत पैसे भी न थे, जिसके चलते आर्थिक पक्ष पर मैं खुलके कुछ कह न पा रहा था.  लेकिन संगोष्ठी शुरू होने के एक सप्ताह पहले एक रात उनका फोन आया– मैंने टिकिट करा लिया है, पहुंच रहा हूँ, और हमारी खुशी का ठिकाना न रहा.  आने पर पता चला कि मुम्बई से लगभग दस सालों बाहर रहके जिस तरह मैं परेशान था और यह आयोजन विश्वविद्यालय के लिए बेहद उपयोगी होने के साथ ही मित्रों को जुटाकर जश्न करने का निहित माध्यम बन रहा था, उसी तरह काफी दिनों से नाक तक काम में डूबे बंसी दा को भी राहत की तलाश थी, जो उनके चेहरे पर ‘हर इक बेज़ा तकल्लुफ से बगावत का इरादा है’ बन कर मूर्तिमान हो रही थी.

 

बंसीजी और असगरजी के ठहरने की उत्तम व्यवस्था अपने आईएएस मित्र सतीश त्रिपाठी के माध्यम से चर्चगेट स्टेशन के ठीक पास हमारे विश्वविद्यालय से चलके पहुँच जाने जितनी दूरी पर स्थित सरकारी विश्रामालय में ही हो गयी थी.  अंकुरजी और भार्गवजी तो एनएसडी रंगमंडल के नाट्योत्सव के लिए मुम्बई पधारे थे, जहाँ से हमने उन्हें लोक लिया था.  शेष लोग मुम्बई के ही थे. सो, उनके आने-जाने–रहने की व्यवस्था व खर्च से हम मुक्त थे. असगरजी का व्याख्यान पहले सत्र में ही था– अंकुरजी के उद्घाटन-भाषण के बाद. दोपहर का भोजन करके उन्होंने दिल्ली के लिए राजधानी पकड़ ली थी. इस प्रकार कुल मिलाकर पहले दिन की शाम बंसी दा विश्रामालय में रहने वाले अकेले प्राणी रहे गये, तो दिन का सेमिनार पूरा करके उनके दोहाँस के बहाने हम सब चहलकदमी करते हुए बंसी दा को पहुँचाने विश्रामगृह तक चले गये. नीचे स्थित मशहूर होटल ‘सत्कार’ में चाय, आदि के लिए बैठने से जो बातें शुरू हुईं, वे खत्म होने का नाम न ले रही थीं. इसी बीच दूसरे दिन सेमिनार पूरा होने के बाद उनके एक लम्बे अनौपचारिक साक्षात्कार की बात भी तय हो गयी.  फिर हम कमरे में गये और उन्हें खिलाके निकले, तो रात के 12 बज रहे थे..., पर यह मुम्बई के लिए आम बात होती है.  

 

दूसरे दिन के आखिरी सत्र में बंसी दा का अध्यक्षीय भाषण था, लेकिन हर सत्र में वे गोया ‘फुल टाइम’ श्रोता बनकर अपनी आदत के मुताबिक एकदम पीछे ऐसे दत्तचित्त होकर बैठे रहते कि एम.ए. का कोई छात्र भी क्या बैठता! उनके सत्र का विषय नाटकों की मंचीय प्रस्तुति के आयाम पर था, जिसमें उन्हें अपनी थियेटर-शैली के सन्दर्भ में बोलना था. इन 25 सालों में उन्हें मंच से बोलते हुए मैंने बहुत बार सुना है. उनका बोलना बहुत समृद्धिशाली होता. इतनी विविध जानकारियों से भरा होता, जिनका इकट्ठे कहीं और मिलना असम्भव.  और वे जानकारियाँ शुष्क सूचनाएं बनकर नहीं, विषय के ऐतिहासिक क्रम में उदाहरण के रूप में आतीं. उनके अपनी आँखों देखे अहवाल से जीवंत व निजी अनुभवों में पगी होतीं. उनके मौलिक विश्लेषणों से प्रासंगिक व रोचक होकर व्यक्त होते हुए सहजता से हृदयंगम होती रहतीं.  नाटक वाले होकर और उनमें देह की गति व संचालन पर आधारित अभिनय की घोषित-पोषित प्रमुखता के बावजूद मंचों से बोलते हुए भावानुसार हस्त-मुद्राओं के अलावा अंग-संचालन की कोई क्रिया बिल्कुल नहीं होती. आपसी बातों में अवश्य वे अपनी थाप रखने की विविध अदाएं अपनाते, लेकिन समुदाय को सम्बोधित करते हुए नितांत शांत-स्थिर रहना उनके समृद्ध विचारों के साथ खूब फ़बता, यह उस मुकाम के परिणाम में भी बना होगा, जब बंसी कौल ने 1974 में रानावि के प्रशिक्षण से निकलने के बाद उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में अपने कामकाजी जीवन (कैरियर) की शुरुआत की थी. उसे तो उन्होंने जल्दी ही छोड़ भी दिया था, लेकिन उससे बनी-निखरी वक्तृता का सुपरिणाम यह भी रहा कि व्याख्याता के रूप में भी उन्होंने देश के अलावा कई विदेश-यात्राएं कीं, जिनमें संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर लन्दन, फ्रांस, इटली, ग्रीस, चेकोस्लावाकिया, हालैण्ड-पोलैण्ड व श्रीलंका-सिंगापुर आदि प्रमुख हैं.      

 

उनके भाषण के साथ आयोजन पूरा हुआ और अब वह ख़ास बात यात्रा-व्यय व मानदेय की, जिसने मुझे बहुत मुतासिर किया, धन-राशि बताने में आज भी शर्म आ रही है– तब तो पानी-पानी ही हो गया था, जब उनकी विमान-यात्रा का खर्च ही हमारे प्रति विशेषज्ञ के लिए नियत बजट के तीन गुना से ज्यादा था. वहाँ पूरी मण्डली जुटी थी. टिकिट देखते ही मेरे चेहरे पर उड़ती हवाइयों से उन्होंने जान लिया और बाहर निकलकर टहलने लगे. दो-चार मिनट बाद ऐसे बाहर बुलाया– जैसे कोई ख़ास बात याद आ गयी हो, पास जाने पर कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले– यार, चिंता मत करो, विश्वविद्यालयों के बजट का पता है मुझे. तुम्हारा जो भी बजट है, दे दो. मैं पैसे के लिए थोड़े आया हूँ. काम से ऊब चुका था, तुम मित्रों के साथ तफरीह करने आ गया और सचमुच बहुत मजा आ रहा है, और सिगरेट निकालते हुए गेट से बाहर हो गये.  लौट के कमरे में आये और मैंने बन्द लिफाफा पकड़ाया, पर हाय रे कार्यालयीन मजबूरी कि ऐसे व्यकित के सामने भी प्राप्ति रसीद रखनी पड़ी- दस्तख़त के लिए, पता नहीं उस पर लिखी राशि उन्होंने देखी या नहीं, पर बिना खोले लिफाफे को जेब के हवाले कर लिया.  मन में सवाल के साथ हूक उठी– क्या कोई प्रोफेसर ऐसा कभी करता...!

 

मण्डली बाहर निकली. ‘सत्कार’ की चाय-वाय के बाद उन्होंने जो कहा, उसमें जिस बंसी कौल के दर्शन हुए, उसका कोई सानी नहीं. विश्रामालय छोड़कर कहीं मालाड-कान्दीवली से दूर किसी डोंगरी पर रहने वाले अपने शिष्यों के पास जाने की मंशा उन्होंने बतायी और कहा कि साक्षात्कार अभी यहीं कर लो.  हम हतप्रभ भी और उनके संवेदनात्मक सरोकार पर नतमस्तक भी.  मैंने प्रस्ताव रखा कि मेरे घर के लिए उसी दिशा में चलना है. वहाँ चलकर ये लोग बात करेंगे, तब तक खाना बन जायेगा और खा-खिला के आपको हम डोंगरी पहुँचा आयेंगे. लेकिन उनका मन और गहरे था. वे खाना उन बच्चों के साथ खाना चाह रहे थे, जो अपनी कला के बल स्थापित होने के लिए संघर्षरत (स्ट्रगलर) थे. उनके साथ रात बिताकर उन्हें समझना, उन्हें ढाढस देना और शायद उनका वैचारिक-आर्थिक मार्गदर्शन करना चाह रहे थे. सो, वही हुआ. वही पहली बार उनका मेरे घर आना हुआ, जिसके बाद भी ‘पृथ्वी’ से करीब होने के चलते एकाध बार आने की याद है.  चाय-पान के साथ लगभग दो घण्टे बातचीत चली. और दस बज रहे थे, जब उन्हें लेकर हम निकले.  किसी तरह सूचना पहुँच गयी थी. डोंगरी के नीचे सडक पर 5-6 बच्चे मिले और उन्हें पाकर बंसी दा की खुशी के क्या कहने, विदा करके आते हुए हम तय नहीं कर पा रहे थे कि बच्चों के भाग्य को बखानें या बंसी दा के उच्छल भाव को– साहू को सराहौं कि सरहौं छ्त्रसाल कौ...गुरु: प्रदेयाधिकनीsस्पृहोर्थी, नृपोर्थिकामादधिकप्रदश्च...! 

 

अब चलें बनारस, क्योंकि सेवामुक्ति के बाद मैं ज्यादा बनारस रहने लगा हूँ.  और इस दौरान भी उनका बनारस आना एक बार ही हुआ– एनएसडी की बनारस शाखा में व्याख्यान के लिए.  दिल्ली से चलने के पहले ही फोन आ गया और पहली ही शाम मैं पहुँच भी गया.  थोड़ी ही देर में शहर के बुद्धिजीवियों-कलाकारों की अग्रणी पंक्ति में शुमार व्योमेशजी शुक्लआ पहुँचे– सदल-बल और गंगाजल-राम(दाल)दाना के साथ- बंसी दा के दीवानों की कमी नहीं– इस शहर में हम जैसे दीवाने हजारों हैं...! शुक्लजी की हेला से कबीरचौरा मठ की परिक्रमा व महंतजी का चायातिथ्य भी ग्रहण करने का संयोग बना.  बंसी दा ने महंतजी से पूरे उत्साह-उत्कण्ठा के साथ बातें कीं और कमरे में आने के बाद बिल्कुल निर्लिप्त-से लगे.  उनका यह ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’ रूप पहली बार देखा.  दूसरे दिन के अपने व्याख्यान में भी साग्रह बुला लिया और मैं आ भी गया– उनके ज्ञानमय-कलात्मक भाषण का मोह तो था ही, जो बख़ूबी फलीभूत हुआ.  लेकिन क्या कहें बंसी दा के मूड को– मुझे भी बोलने के लिए अचानक उकसवा दिया.  ना-ना करते जब मैंने बोलना शुरू किया, तो अपनी आदतन कुछ लम्बा भी होने लगा, जो वहाँ के संयोजक रतिशंकर त्रिपाठी को अनकुसा भी गया और उनके धन्यवाद-ज्ञापन में टुपुक भी आया. आयोजन के बाद बनारस के एक प्रियतर स्थल ‘बैंक्वेट उर्फ़ दालबाटी’ में सुस्वादु भोजन हुआ, जो व्योमेशजी एवं संतति व उनके नाट्यसमूह के साथ बेहद गुलज़ार रहा.  आतिथेय फिर बंसी दा बने.  

 

विदा लेते हुए मैंने गुज़ारिश की थी कि अगली बार थोड़ा पहले बतायें, ताकि हम ‘रंगशीर्ष’ के लिए कोई उपक्रम कर पायें– उसे आपके सानिध्य की कृतार्थता मिले. उन्होंने गर्मजोशी से कहा था– आना हो, का क्या मतलब? इसी के लिए आयेंगे और हमसे पूछिए मत– जब चाहे, रखके मुझे फोन कर दीजिए,  इसके आगे की कथा सर्व विदित कोरोना-कथा है..., जिसमें फोन तो बहुत हुए, घण्टों-घण्टों बातें हुईं, जिनके परिणामस्वरूप उनके मार्गदर्शन व सांस्थानिक सहयोग से तीन-तीन आभासी आयोजन हुए, और उसी दौरान इस असाध्य रोग का पता भी चला..., जिसके आगे किसी की कुछ न चली, लेकिन बंसी दा की बावत उल्लेख्य यह नहीं कि ‘किसी की कुछ न चली’, वरन यह है कि आखिरी दम तक वे वही बने रहे– ‘न दैन्यं, न पलायनम्’, जिस पर बिल्कुल खरा उतरता है फिराक़ साहब का यह शेर –

उनके बज़्मे तरब में हयात बिकती थी, उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आयी !

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सत्यदेव त्रिपाठी
satyadevtripathi@gmail.com

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