Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

मैं कहता आँखिन देखी : कविता

$
0
0
















हिंदी अफसानानिगारों में कविता जानी–पहचानी जाती हैं. तीन कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं. उनकी एक कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेजी में तथा कुछ और कहानियों का भारतीय भाषाओँ में अनुवाद  हुआ है. इस युवा लेखिका का यह साक्षात्कार जहाँ उनकी कहानियों को देखता–समझता-प्रश्नांकित करता है वहीं मन की गिरह भी खोलता है. इस लेखिका को समझने का एक रास्ता यहाँ सेभी जाता है.


     भाषा और शिल्प की जुगलबंदी से परे                
कविता से सौरभ शेखर की बातचीत

कविता की कहानियाँ एक जागरूक,स्वाभिमानी और आधुनिक भारतीय स्त्री-चेतना की बहुआयामी छवियाँप्रस्तुत करने के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. मातृत्व,वैधव्य,लिव इन रिलेशन,करियर, इत्यादि को एक विचारवान स्त्री के नजरिये से देखने की सहूलियत उनकी कहानियाँ हमेंप्रदान करती हैं. कविता का शुमार अपने दौर के सबसे अधिक सम्प्रेषणीय कथाकारों मेंकिया जाना चाहिए क्योंकि उनकी कथा शैली उल्लेखनीय रूप से  स्वतःस्फूर्त है.शिल्प केतमाम प्रयोगों को दरकिनार कर वे अपना फोकस कथावस्तु पर रखती हैं. मगर,उनके कथाकारके साथ एक समस्या यह है कि वह निहायत आत्म-केन्द्रित और आत्म-लीन है.उनकी कहानियाँएक तरह से हमें उस आदर्श लोक में ले जा कर छोड़ती हैं जहाँ संघर्ष समाप्त हो जाताहै,दुःख चुक जाते हैं और जीवन मनोहर लगता है.इस साक्षात्कार में उनके भीतर केकथाकार के मन की टोह लेने की कोशिश की गई है.


ऐसा समझा जाता है कि आजहम एक बड़े उथले दौर में जी रहे हैं. जीवनयापन की कश्मकश और सततबदलती अभिरुचियों के बीच चीजोंको गहराई में जा कर जानने का नतो अवकाश है और न ही इच्छा.दूसरीओर सोशल मीडिया अपनी त्वरितऔर ताकतवर प्रकृति की बदौलतअभिव्यक्ति के तमाम अन्य माध्यमोंके लिए एक तगड़ी चुनौती बन कर उभराहै.ऐसे आपा-धापी के माहौल मेंआज आम इंसान को आपकी नज़र में साहित्यकी कितनी ज़रूरत है और उसके पाससाहित्य के लिए कितना समय है?
सच कह रहे हैं आप,यह समय भारी बदलावों और उथल–पुथल का समय है. सोशल मीडिया के कारण जिन
त्वरित प्रतिक्रियाओं और सतही  रचनाओं के आगमन  को लेकर चिंतित है आप वैसी चिंताएँ तो हर नई तकनीक के आगमन के साथ उपजती है. फोन आ गया तो साहित्य नहीं बचेगा,टी. वी के आने से साहित्य को खतरा है,इसी तरह सुविधाओं के हर आगमन के साथ यह चिल्लाहट मची कि साहित्य खतरे में है. पर सोचिए तो सचमुच ऐसा है क्या?क्या इनके आने से साहित्य सचमुच खत्म हो गया ?

माध्यम भले ही बदलता रहे साहित्य जीवित रहेगा हमेशा. शालपत्र,ताम्रपत्र से लेकर कागज तक की यात्रा और अब कागज से स्क्रीन तक का सफर... हाँ माध्यम चाहे कोई भी हो बचेगा वही कुछ जिसमें कि दम हो,जो लोगों तक पहुंचे,संप्रेषित हो सके. आप देखें,इन माध्यमों ने भी चाहे जैसी भी हो रचनाओं की बाढ़ तो जरूर लाई है.  सबको अभिव्यक्ति का,संप्रेषित होने का मौका मिला है और वह भी बिना किसी भेदभाव के. अब रचनाएँअच्छी हैं कि बुरी, कमजोर या कि मजबूत मैं इस मुद्दे पर बात नहीं कर रही,वह तो झाग के बैठने के बाद का समय ही बताएगा.

और अगर  मुख्यधारा के साहित्य की भी बात करेंतो आप देखेंगे कि जितने लेखक आज सक्रिय हैं उतने तो कभी नहीं रहे. हर समूह,वर्ग और तबके से,हर उम्र और हर पीढ़ी के,युवा तो और भी ज्यादा संख्या में.  ऐसे में साहित्य के समाप्त होने या कि उसके लिए समय नहीं मिलने की आशंका मुझे बहुत तार्किक नहीं लगती.  
किसी कवि ने कहा  है – क्या अंधेरे वक़्त में गीत गाये जाएंगे / हाँ अंधेरे वक़्त में अंधेरे की  मुखालफत  के गीत गाए जाएंगे ‘…. मैं भी ठीक इसी तर्ज पर कहती हूँ कि अच्छा  साहित्य हमेशा बचा रहेगा, चाहे कैसा भी दुरूहवक़्त क्यों न आए; वैसा साहित्य तो खासकर के जो समय को,उसकी दुरभिसंधियों को,उससे पनपने वाले खतरों को चीन्हे,उसके लिए हमें सचेत,सतर्क और तैयार करे.



आपको क्या लगता है क्यासाहित्य वाकई समाज को कोई दिशादे सकता है या उसे सोचने के लिएप्रेरित कर सकता है? क्यों आपकीकुछ कहानियाँ जैसे 'उलटबांसी'और 'फिर आयेंगे कबूतर'सशक्त सामजिकसंदेशों वाली कहानियाँ है?
सिर्फ उलटबांसीऔर फिर आएंगे कबूतरही नहीं मेरी अधिकतम कहानियाँ सामाजिक संदेश वाली कहानियाँ है. मैं यह मानती हूँ कि मनुष्य के अंदर सहज रूप से मनुष्यता और समाजिकता के बीज होते हैंऔर हरमनुष्य अपने ई (अपवादों की बात छोड़ दे तो) इसके लिए अलग–अलग तरीके से संघर्ष करता है. साहित्य मेरे लिए एक औज़ार है इस लड़ाई का. मैं साहित्य को समाजिकता से अलग करके नहीं देख सकती. हो सकता है साहित्य  के माध्यम से हमारे यहाँ कोई बदलाव या बड़ी क्रांति न आए पर आप गौर करें तो पाएंगे कि जब  भी कोई बड़ा बदलाव हुआ या की वैचारिक रूप से कोई बड़ा परिवर्तन आया साहित्य उसके पीछे जरूर होता है.

जबतक मनुष्य है,दुनिया मेंसंवेदनाएं भी रहेंगी और जबतक संवेदनाएं बची हैं साहित्य भी रहेगा. कोई विचारशून्य लेखन चाहे वह कितना भी खूबसूरत,कितना भी सुगठित क्यों न हो  मेरी नज़र में रचना नहीं हो सकती. हालांकि मैं जानती हूँ कि आज ऐसा लेखन भी बहुतायत में हो रहा है और लोग उसे सराह भी रहे हैं.

मेरे लिए साहित्य महज आनद और उपभोग की वस्तु नहीं है. यह जानते हुए भी कि दुनिया मेंचमकने वाली वस्तुओं कि पूछ है,मेरी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं-  समाज,साहित्य और मनुष्यता के लिए- खासकर आधी आबादी और उनके बहिर्मुखी विकास के लिए ताकि मनुष्यता को उसका सही अरे संतुलित अर्थ मिल सके.  



मुज़फ्फ़रपुर जैसे एकसाहित्यिक रूप से सुप्तप्रायऔर गुमनाम जगह से कोई लड़की लिखनाशुरू करती है और समकालीन कथाजगत में अपना एक मुकाम बनातीहै. आसान नहीं रहा होगा ये सब.अपनी कथा यात्रा को मुड़ कर देखनेसे कैसा लगता है?
सचमुचपीछे मुड़कर देखती हूँ तो यह सबकुछ अविश्वसनीय-सा ही जान पड़ता है. भरोसा नहीं होता कि यह मैं
ही हूँ. जब मुजफ्फरपुर में थी तो मूलतः कवितायें ही लिखा करती थी. एक बार हिंदुस्तान कहानी प्रतियोगिता के लिए एक कहानी भी लिखी थी- एक और सच’, जो प्रतियोगिता में पुरस्कृत तो नहीं हुई,पर लगभग पाँच सौ कहानियों  में चुनी गई दस कहानियों में से एक थी. बाद में कुछ और कहानियाँ भी लिखी जो कि दिल्ली आने के भी बहुत बाद या यूं कहूँ कि विधिवत पहली कहानी कि तरह हंसमें प्रकाशित हुये सुखके भी बहुत बाद प्रकाशित हुईं. तब उन्हें छ्पने भेजने से डरती थी. सच कहूँ तो उनके वापस लौटने का भय इतना बड़ा था कि उन्हें कहीं भेजने का साहस ही नहीं जुटा पाती थी. शुरुआती कवितायें तक भी खुद कहीं नहीं भेज सकी. अगर आज कुछ भी हूँ तो इसमें दो लोगों का योगदान बहुत है – राकेश का  और राजेंद्रजी का. मुजफ्फरपुर में रहते हुए भी अगर कुछ छपा तो उसका श्रेय राकेशको ही जाता है. मेरे डर को बूझते हुए उसने हमेशा मेरी रचनाओं को मुझे बताए बगैर पोस्ट किया;मैं  जान पाई तो उनके  छ्पने पर ही.

मेरे दिल्ली होने तक मेरी लगभग सारी कहानियों के पहले  पाठक यही दोनों रहे हैं. घर मेंहोने के कारण पहले राकेश,फिर राजेंद्र जी ...और मानूँ कि न मानूँ उनके बेहतरी के सुझाव भी इन्हीं दोनों के दिये हुए. हंस में काम करने के कारण अपनी कहानियाँ उन्हें पढ़ने देते हुए हिचकती थी. यह हिचक भी उन्होनेखुद पहल करके तोड़ी. मेरी कहानियों कि प्रतीक्षा भी सबसे पहले मुझे इन्हीं आँखों मे नजर आती थी. अलग बात है कि जब ये खारिज करने पर जुट जायेंतो... जितनी ज्यादा मीमांसा मेरी कहानियों कीहंस के दफ्तर में हुई है शायद ही कहीं और हुई हो. पर मैं मानती हूँ कि इस सबने  मेरे रचनाकारको विकास  मिला,उसे एक तराश मिली. वरना  अभी तक मेरे हाथ लिखते वक़्त वैसे ही थरथराते हैंजैसे पहली बार कलमथामा है और जो लिखती–लुखती रही है वो मैं नहीं,कोई और ही है ....

हाँ,मैं मुजफ्फरपुर के लिए प्रयुक्त किए गए आपके गुमनामऔर सुप्तप्रायजैसे विशेषणों से सहमत नहीं हूँ या यूं कहूँ कि इसे इंकार करती हूँ. चाहे छोटी-सी जगह हो मुजफ्फरपुर पर प्रतिभों की कोई कमी नहीं थी वहाँ. हाँ यह अलग बात है कि वहाँ के लेखकों को उनका प्राप्य उस तरह नहीं मिला. आप उदाहरण देख सकते हैं– जानकी वल्लभ शास्त्री,राजेंद्र प्रसाद सिंहऔर भी कई लोग.  वहाँ की कवि- गोष्ठियों मे मैं लगातार जाती थी.  देर रात लौटने के कारण पैदा होने वाला वह डर,जो कुछ हद तक सुनसान रस्तों से गुजरने का था और उससे भी ज्यादा घर पहुँच कर होनेवाले सवालोंका,मेरी स्मृति से अभी तक गए नहीं हैं. इस शहर ने मुझे एक  माहौल दिया था,एक गढ़न दी थी मेरे इस रूप को. इसलिए उसे नकारना यद खुद के अस्तित्व को नकारने जैसा होगा. जड़ों के बिना म कुछ नहीं होते,हम होते हैंकि कहीं हममें  वह होता है. मुजफ्फरपुर साहित्यिक रूप से गुमनाम कभी भी नहीं था. हाँ,वह जमीन कवियों के लिए,कविताओं के लिए ज्यादा जानी पहचानी जाती रही है. इतिहास उठाकर देख लीजिये,रामधारी सिंह दिनकर,जानकी वल्लभ शास्त्री,राजेंद्र प्रसाद सिंह से लेकर रेवती रमन,नन्द किशोर नन्दन और समकालीन साहित्य में पूनम सिंह ,रश्मि रेखा,मनोज मेहता,रमेश ऋतंभरजैसे कवियों के नाम से पाठक अपरिचित नहीं  है. पंकज सिंह,अनामिका ,मदन कश्यपजैसे बड़े कवि उसी शहर से निकाल कर आए हैं.

हिन्दी कहानी का इतिहास भी मुजफ्फरपुर  और रामबृक्ष बेनीपुरी के बिना अधूरा ही रहेगा.    अग्रज कथाकारों में चंद्र मोहन प्रधान और समकालीनों मे पंखुरी सिन्हा,गीताश्री और मैं,सब उसी शहर से तो निकाल कर आए हैं.   दोनों विधाओं मेंसमान रूप सेलिखने वाले भी कई नाम हैं.  कई लोग ऐसे भी है जिनका नाम अभी मेरी स्मृति मेंनहीं है... और एक ग़ज़लकार के रूप में मुझे आपमें भी बहुत संभावनाएं और गहराई दिखती है,अगर आपने भविष्य मेंअपनी विधा नहीं बदली तो.


अब हम एक बहुत ज़रूरीसवाल पर आते हैं.भारतीय उपमहाद्वीपमें आज भी एक बहुत बोलती हुई स्त्रीपसंद नहीं की जाती.ऐसे में जबकोई स्त्री अपनी रचनाओं मेंसमाज के पाखंडों पर चोट करतीहै,वर्जनाओं पे सवाल करती है तो वह स्वतः Fundamental Forces के निशानेपर आ जाती है. आपका निजी अनुभवकैसा रहा है इस मामले में?
वैसा कोई बहुत बुराअनुभव भी नहीं रहा मेरा,या यूं कहिए की जानती थी कि मैं जो कुछ भी कर रही हूँ , उसके परिणाम क्या होंगे या कि हो सकते हैं.,सो मानसिक रूप से तैयार थी.  इसलिए  मुश्किलें उतनी मुश्किल भी न जान पड़ीं. इसे आप इस तरह  भी कह और समझ सकते हैं की जो किया या की लिखा वह  शायद उतना विध्वंसकारी भी न रहा हो समाज की नजर मे,जाहिराना तौर पर जिसके कुछ वैसे परिणाम मुझे दिख पड़ते. जो छोटे-छोटे नुकसान थे या फिर अनुभव वो ये किमुझेलिव–इनकी कहानीकार कहा जाने लगा.  मेरी मैं शैली के कारण लोग मेरी कहानियों मे मुझे ढूंढते हैं,आजतक.  स्त्रीवादी कहानियाँ कहकर मेरी कहानियों को कमतर करके भी आँका गया. पर इस बात का मुझे उतना मलाल नहीं,मैं एक उद्देश्य लेकर आई थी और मेरा दायित्व पहले उसे पूरा करना था,कि....


इस कारण न जाने कैसे-कैसे सवाल मुझसे पूछे गए है- देहदंशकहानी को पढ़कर और उसकीमैं शैली के
कारण किसी पाठिका ने मुझे लिखा था  – आपके घरों मे होता होगा यह सब,हमारे लिए ये रिश्ते बहुत पवित्र और पूजनीय हैं;हमारे घर की बहू-बेटियों को तो  आप बख्श ही दें. देहदंश पिता द्वारा बलात्कृत एक लड़की की कहानी है. कई अन्य लेखकोंऔर लोगों की राय भी इस कहानी के बारे मे ठीक नहीं थी, वह भी सिर्फ उसके विषय –वस्तु के कारण. इसी तरह उलटबांसीभी बहुत लोगों और लेखकों के लिए अपचनीय और असहनीय रही. भला बूढ़ी माँ  कैसे शादी कर सकती है?वो तो पुरुष कर सकता है किसी भी उम्र मे... पर मैं इसके लिए किसी को भी दोषी नहीं मानती. लेखक भी उसी समाज से आते हैं जहां से आमलोग ,फिर उन्हें अलग क्यों माने?यह एकाएक पचने वाली बात भी तो नहीं है! चीज़ें धीरे –धीरे बदलती हैं,हमारी दृष्टि और सोच भी. जरूरी नहीं की आज जो हमें अटपटा लग रहा है कल भी लगे. बस जो घटित हो वह तर्कसंगत हो,न्यायपूर्ण हो....संवेदनशील हो ...

लेखन और व्यवहार की बात छोड़ दें तो बहुत बोलनेवाली स्त्री मैं कभी नहीं रही और इसके लिए थोड़ी परेशानी तो झेलने ही पड़ी. मैं स्वभाव से बहुत अंतर्मुखी रही हूँ,सो मेरे  बोलने से किसी को कोई परेशानी नहीं हुई कभी. मैं बोलूँ,अपनी बात कह सकूँ इसके लिए कितनी सीख,कितनी सुविधाएं मुझे दी जाती रही हैं  ... सच कहूँ अगर यह इंटरव्यू आप मुझसे बात करके लेते तो शायद अभी भी मेरे लिए बहुत  मुश्किल होती.  मैं गडमड होती रहती या फिर एक-दो लाइनों के संक्षिप्त से उत्तर के  बाद बिलकुल चुप हो जाती;या फिर हो सकता था कि चूंकि मैं आपको जानती हूँ कहीं आपसे थोड़ा बहुत कुछ बोल जाती... हाँ मैं विचार से आधुनिक थी ….हूँ ....अपने को अपने मनोभावों को व्यक्त करने का सबसे आसान तरीका मेरे लिए लिखना ही रहा है,वहाँ मैं बिलकुल साफ और दो टूक होती हूँ.


कहानी मूलतः एक विचारहै. जिसे कथाकार वास्तविकता,कल्पनाऔर गल्प के सहारे मूर्त करता  है. आपकी कहानियों में ये तत्व  किस अनुपात में मौजूद हैं?
मैं ये मानती हूँ कि  मेरी कहानियों के सर्व प्रमुख तत्व है– विचार और अंतर्वस्तु,फिर कल्पना और गल्प आते हैं  अगर विचार ही न हो तो खूबसूरत-से खूबसूरत कहानी महज एक सजावटी और नकली फूलों कि तरह होकर रह जाएगी. रंग सारे होंगे पर गंध और जीवंतता से शून्य...  विचार हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में पथ प्रदर्शक का काम करते  हैं.  हमारे भीतर परिस्थिति की जटिलताओं को समझने की दृष्टि और सलाहियत पैदा करते है. लेकिन कहानी लिखने के लिये इसकी उतनी ही जरूरत है जितनी दाल में नमक की. वर्ना किसी खास मत या धारा का आग्रह हावी होते ही कहानी कहानी नहीं रह जाती. कहानी में सब कुछ पहले से तय नहीं होता जबकि विचारधारा का बोझ कथाकार को तयशुदा अंत की तरफ ढकेलता है. एक अच्छी कहानी किसी विचारधारा का पंचलाइन होने के बजाय मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में दिल से निकली हुई एक ऐसी आवाज़ होती है जिसके  साथ खड़ा होने के लिये हम सहज ही अपने आग्रहों की हदें भी पार कर जायें... इश्क को दिल में जगह दे अकबर, इल्म से शायरी नहीं आती.

जहां तक अन्तर्वस्तु का प्रश्न है तो मेरी राय में इसका सीधा संबंध दृष्टि से होता है. यही कारण है कि दृष्टि की आधुनिकता जहां कई बार सामान्य से दिखते विषय संदर्भों में भी नये अर्थ भर देती है वहीं आधुनिक और प्रगतिशील दृष्टि का अभाव अच्छी से अच्छी अन्तर्वस्तु का भी सत्यानाश कर देता है. उदाहरण के लिये नीलाक्षी सिंहकी शुरुआती कहानियां माना मान जाओ नतथा धुआं कहां हैऔर मनीषा कुलश्रेष्ठकी बहुचर्चित-बहुपठित कहानी कठपुतलियांका जिक्र किया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि नीलाक्षी सिंह की ये कहानियां बहुत बड़े अन्तर्वस्तु की न होने के बावजूद क्रमश: वयस्क होती स्त्री (लड़की) के जीवन के अंतरंग और ऊहापोहों को बहुत बारीकी और सलीके से व्यक्त कर जाती है,वहीं कठपुतलियांअपनी जादूई और सम्मोहक पठनीयता के बावजूद स्त्री की रूढ़ छवि को ही पोषित करती है. लेखकीय दृष्टि की इन्हीं भिन्नताओं के कारण एक से विषयों पर दो लेखक नितांत अलग-अलग तरह की कहानियां लिख जाते हैं. किसी की निगाहें फूल-पत्ते में उलझ कर रह जाती हैं तो कोई उन्हीं पत्तियों के सहारे पौधे की जड़ तक उतर जाता है. हमारे समय के दो चर्चित कथाकार मो. आरिफऔर प्रत्यक्षा की कहानियों के माध्यम से भी लेखकीय दृष्टि के इस फर्क को आसानी से समझा जा सकता है. इन दोनों लेखकों की कहानियां पढ़ चुके पाठक जानते हैं कि प्रत्यक्षा जहां अपनी कहानियों में भाषा और शिल्प की बारीक करीगरी करती हैं वहीं मो. आरिफ की कहानियों की सादगी ही उनका सौंदर्य है. एक की कहानियों में रंग बिरंगी मीनाकारी तो दूसरे की कहानियों में सहजता का ठाट. लेकिन प्रभावोत्पादकता में दोनों में आसमान जमीन का अंतर. प्रत्यक्षा अपनी अधिकांश कहानियों में भाषा और शिल्प का ऐसा तंबू तानती हैं जिसके भीतर जीवन की गति मौजूद नहीं होती, जैसे आत्मा के अभाव में खूबसूरत शरीर. जबकि ठीक इसके उलट मो. आरिफ बिना किसी तामझाम या पच्चीकारी के सीधे-सीधे पात्रों और परिस्थितियों की विडंबना को हमारे आगे कर देते हैं. पर हां, स्त्री-संदर्भों को उठाने की कोशिश में उनकी कहानियां भी पुरुष दृष्टि का शिकार हो जाती है. फूलों का बाड़ाउनकी एक ऐसी ही कहानी है.


कहानी की विधा में आजकलशिल्प को ले कर बहुत सारे प्रयोगदेखने को मिल रहे हैं.लेकिन कहींऐसी भी लगता है कि जादुई भाषाऔर चमत्कारी शिल्प के फेर मेंमूल कथावस्तु पृष्ठभूमि मेंचले जाते हैं. आपकी कथाशैली मेंकिसी  तौर पर शिल्प का आडम्बरदिखाई नहीं पड़ता.शिल्प  के अहम्सवाल पर पाठक आपका दृष्टिकोणजानना चाहेंगे?
यह मानते हुये भी कि कहानी एक कला है, मैं कहानी को भाषा और शिल्प की जुगलबंदी भर नहीं मानती. बिना किसी ठोस अंतर्वस्तु के किसी कहानी की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती. भाषा और शिल्प कथ्य या कि अन्तर्वस्तु को संप्रेषित करने का माध्यम होते हैं. और एक अच्छी कहानी इन तीनों के संतुलित संयोजन से ही उत्पन्न होती है. मजबूत से मजबूत अन्तर्वस्तु की कहानी अपने पाठकों के भीतर कोई गहरा प्रभाव नहीं पैदा कर सकती यदि उसे अनुकूल भाषा-शैली में संप्रेषित न किया गया हो. इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि लेखक या कहानी की  सफलता अन्तर्वस्तु के साथ ही उसके अनुकूल भाषा शिल्प के चयन पर भी निर्भर करती है. मैंने निजी तौर पर एक लेखिका के रूप में कई बार यह महसूस किया है कि कुछ कहानियों का लिखा जाना बहुत दिनों तक इस लिये स्थगित रहा कि मुझे उन्हें कागज तक उतार लाने लायक उपयुक्त शिल्प नहीं सूझ रहा था. लेकिन दिक्कतें तब पैदा होती हैं जब आपका उद्देश्य कहानी नहीं शिल्प और शैली संप्रेषित करना ही हो जाता है. इसीलिये मेरा मानना है कि भाषा-शैली मजबूत या कमजोर या फिर विशिष्ट या सामान्य से ज्यादा अपने कथ्य या वस्तु के उपयुक्त या अनुपयुक्त होती हैं.


मैं स्त्री विमर्श कीबजाय यह कहना चाहूँगा किआपकी कहानियों में स्त्री काएक समग्र संसार मौजूद है. लेकिनजो बात खटकती है वो ये कि आपकीचिंता की परिधि में सामन्यतयामध्यवर्गीय स्त्रियाँ ही हैं. समाज के निचले तबके की स्त्रियोंको आपने अपने कथा संसार से लगभगनिष्कासित कर रखा है.ऐसा क्यों?
जी,मैं भी इसे मानती हूँ. कारण बस यह कि मेरी कहानियाँ आत्मकथात्मक शैली  की कहानियाँ हैं. मैं गाँव में
कभी नहीं रही. मैंने निचले तबके का जीवन भी कभी बहुत पास से नहीं देखा,सो एक डर तो होता ही होगा कि ऐसे चरित्रों को कहीं अपेक्षित  प्रामाणिकता नहीं दे पाई तो...या कि उनके  साथ न्याय नहीं कर पाई  तो... पर अब इतने दिनों तक लिखने के बाद यह दुविधा कुछ कमी है...शायद भविष्य में और जल्द ही मैं भी कोई ऐसी कहानी लिख पाऊँ.  


आपकी तमाम कहानियोंकी नायिकाएं सतत आत्मसंवाद,आत्मालापमें रत होती है. वे किसी नियमकी तरह अंतर्मुखी है. इसके पीछेक्या सोच है?
मैं  इसे इस तरह कहना चाहूंगी कि मेरी  कहानियों की नायिकाएँ अगर सतत आत्मसंवाद में लीन हैंतो सिर्फ इसलिए कि वे विचारवान हैं,उनके अंदर संवेदना है,बेचैनी है. एक जीवित व्यक्ति के भीतर ये सारी चीजे होती हैं या कि होनी भी चाहिए.

हाँ मेरी कहानियाँ भीतरी द्वन्द्वों की कहानियाँ हैं,परिवेश कीकहानियाँ हैं,पर इस कारण वे जड़ता,शैथिल्य और निरपेक्ष तटस्थता कि कहानियाँ नहीं हैं . ठहराव और अनिश्चितता की कहानियाँ  भी नहीं.

हर लेखक कि एक शैली होती है,कहका एक तरीका भी. मेरी शैली मैंशैली है और मैं खुदअंतर्मुखी हूँ,इसलिए शायद मेरी कहानी की नायिकाएँ भी.  मेरी कहानियाँ मेरी विचार–प्रक्रिया का हिस्सा हैं,तनाव और उसके विघटन का भी. अगर परेशानियाँ हैं वहाँ  तो उससे निजात की राहें भी . मैं रघुबीर सहाय के शब्दों मेंकहना चाहती हूँ- प्रिय पाठक ये मेरे बच्चे  हैं / प्रतीक नहीं .... और इस कविता मे मैं हूँ मैं / एक पूरा का पूरा आदमी .और इसे मैं अपनी शक्ति समझती हूँ ,कमजोरी नहीं .  


स्त्री विमर्श की सामान्यअतिरंजनाओं के उलट आप अपनी कहानियोंमें पुरुषों को As a Rule बुरा चित्रित नहीं करतीं. वे बुरे हो भी सकतेहैं और नहीं भी. पुरुष के स्टीरियोटाइपचित्रण से बचना आपके लिए सायासहै या सहज?
जिस तरह मेरी शिकायत पुरुष लेखकों की एकांगी कहानियों से है, उसी तरह की शिकायत एक खास ढांचे में मढ़ी अपने समय या कि अपने से कुछ पहले की उन तथाकथित स्त्रीवादी कहानियों से भी है जिनके पुरुष पात्र अनिवार्यत: और सुनियोजित रूप से खल ही होते हैं. हम जिस समाज में जी रहे हैं वहां धीरे-धीरे ही सही बदलाव तो आ ही रहा है. ये बदलाव स्त्री-पुरुष संबंधों में भी देखे जा सकते हैं,फिर उनके चरित्रांकन से परहेज कैसा? जिस तरह स्त्री जीवन में आये सार्थक बदलावों को नजरअंदाज कर के सिर्फ नकारात्मक स्त्री चरित्रों को कहानियां में लाना एक तरह का पुरुषवाद ही कहा जायेगा उसी तरह स्त्री कथाकारों की कहानियों में पुरुष को हमेशा खल पात्र की तरह चित्रित किया जाना भी एक तरह का अतिवादहै. मेरी राय में खल पुरुषों की शिनाख्त के समानान्तर मित्रवत पुरुषों को चीन्हना और उन्हें सामने लाना भी स्त्रीवाद के लिये उतना ही जरूरी है. मेरे पात्र चाहे वे स्त्री हों या पुरुष अपने समय-समाज का एक महत्वपूर्ण अंग बन कर उसके बदलावों को चिह्नित करते हुये मनुष्य और मनुष्यता के हक में खड़े हो सकें यही मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता रही है. मैं नहीं जानती मेरी कहानियां मेरी लेखकीय प्रतिबद्धताओं को हासिल करने में कितनी सफल होती हैं



मातृत्व और उस से जुड़ेकोमल एहसासात आपकी कहानियोंमें निहायत ख़ूबसूरती से उभरकर सामने आते हैं. ज़ाहिर है,एक  कथाकार होने के साथ-साथ आप एक  माँ भी हैं,तो एक माँ की मनोदशाका चित्रण आपके यहाँ ज़ियादाविश्वसनीय होगा,मगर 'नदी जो बहतीहै'कहानी में मातृत्व के एक नितांतअनछुए पहलू को जिस संजीदगी और  संवेदना के साथ ट्रीट किया गयाहै, वह विस्मित करता है. मैं ये जानना चाहूँगा कि एक शारीरिकरूप से विद्रूप बच्चे के माँ-बाप होने के दर्द और दुविधा को आप इस गहनता के साथ कैसे महसूस और बयान कर सकीं?
एक माँ हूँ और माँ होने के नाते बच्चे के लिए माँ की तड़प को समझ सकती हूँ,महसूस सकती हूँ. बच्चों से बहुत प्यार किया मैंने हमेशा से  और बच्चे भी उतना ही लगाव महसूसते हैं मुझसे. जब तक सोनसी पैदा नहीं हुई थी,एक माँ के लिए एक बच्चे का महत्व वह समय मुझे सिखागया था. और उसके बाद के हर वक़्त मेंयह अहसास और ज्यादा गहराता ही गया...

अब उस कहानी पर आती हूँ. सच पूछो तो यह कहानी मेरी नहीं थी. इसे मुझे लिखना भी नहीं था. इस कहानी को राकेश (राकेश बिहारी) लिखने वाले थे. यह कहानी हमारे एक परिचित दंपत्ति के अनुभवों पर आधारित है पति ने अपने थोड़े बहुत अनुभव और दर्द को राकेश से शेयर किया था ...राकेश ने हमेशा की तरह पूरी गर्मजोशी से यह कहा था– मैं इस घटना पर एक कहानी लिखूंगा. पर हमेशा की तरह यह कहानी बसउसके विचारों मेंहीं भटकती रही,कागज पर नहीं उतरी. मेरे मानस में  भी उस मित्र दंपत्ति की वह  पीड़ा जलती–पिघती रही. सोच-सोचकर एकाकार होती गई मैं उस दर्द से. एक रात मैंने राकेश से पूछा था तुम इस कहानी  को कब लिखनेवाले हो?जबाब अनमयस्कताभरा - पता नहीं ... मैंने थोड़ी हिचक के साथ पूछा था,मेरा मन है कि यह कहानी मैं लिखूँ... तुम कहो तो... उसने इजाजत दे दी थी और इस तरह उसी रात 12.30 के आस पास शुरू करके  के 4या 4.30 बजे सुबह तक वह कहानी पूरी की थी मैंने.  कहूँ तो यह कहानी मेरी कहानी नहीं थी,न ही मेरे हिस्से की.  बस मैंने इसे उधार   मांगा था और दे देने के लिए आभरी भी हूँ उसकी. आज मुझे भी यह मेरी पसंदीदा कहानियों में  से एक लगती ही.  जिनकी कहानी है उन्होने भी इसे पढ़ा और वे आश्चर्यचकित थे कि बिना मिले बात किए कौई कैसे लिख सकता है,इस कहानी को इस तरह ...


और अंतिम सवाल. आपकीकहानियाँ आम तौर पर दुखांत नहींहोतीं. अपने समय पर यह आपकी टिप्पणीहै या आपका नज़रिया?
मुझे लगता है किसी रूप में मैं ऊपर भी इस विषय पर बात कर  चुकी हूँ. फिर भी... मेरी कहानियों का दुखांत न होना मेरे तरफ से समय पर कोई टिप्पणी तो बिलकुल भी नहीं बसएक नजरिया है मेरा. एक कविता मुझे हमेशा याद आती है,कवि का नाम अभी याद नहीं आ रहा - -दुखांत यह नहीं होता कि हमलहूलुहान हों,और आगे हो एक लंबा रास्ता / दुखांत यह होता है कि हम एक ऐसी जगह आकार रूक जायेँ,जहां से आगे कोई रास्ता न हो    

सो मेरा उद्देश्य कहानी को एक सकारात्मक रूख देना होता है,बदलावोंको चीन्हना- पहचानना. क्योंकि मैं जानती हूँ कहानी चाहे जितने भी कम लोग पढ़ें,अच्छी कहानी लोगों के भीतर चलती बहुत लंबे दौर तक है;और यह भी कि एक जिंदगी से न जाने कितनी दूसरी जिंदगियाँ जुड़ी होती हैं और न जाने कितने लोगों को प्रभावित करती है वह.

कई बार सकारात्मक मोड़ पर खत्म हुई कहानियां पाठक के भीतर कोई दुख,उद्विग्नता या कि बेचैनी नहीं छोडती.  फिर भी मैं ऐसा कर जाती हूँ. हो सकता है यह मेरी बेबकूफी हो .पर इसे मैं अपने लिखने के उद्देश्यों से जोड़कर देखती हूँ ,स्व-हित के बदले उसे बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में साहित्य के स-हित के व्यापक अर्थों से जोड़कर .
_______________
सौरभ शेखर
युवा समीक्षक और कवि/ saurabhshekhar7@gmai
____________
कुछ और संवाद : प्रत्यक्षा / जयश्री राय 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>