रोहिणी अग्रवाल वरिष्ठ कथा-आलोचक हैं, इधर कविताओं पर भी लिख रहीं हैं. कुछ दिन पूर्व समालोचन पर ही आपने सदानन्द शाही की कविताओं पर उनका आलेख पढ़ा था.
प्रस्तुत आलेख कवि नरेंद्र पुण्डरीक पर है. नरेंद्र पुण्डरीक के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हैं- ‘नगें पाँव का रास्ता’ (१९९२), ‘सातों आकाशों की लाडली’ (२०००), ‘इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया’ (२०१४) ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ (२०१४) तथा ‘इन हाथों के बिना’ (२०१९).
सृजन संभव नहीं ‘इन हाथों के बिना'
रोहिणी अग्रवाल
अक्सर माना जाता है कविता भावोच्छ्वास है, स्मृतियों का पुन:स्फुरण; कि नॉस्टेल्जिया, कल्पना और तरल संवेदना कविता की चमकीली त्वचा को बुनने वाले अनिवार्य घटक हैं; कि मनोवेगों के घनीभूत दबाव का नैसर्गिक उद्गार है कविता. लेकिन क्या इतनी भर है कविता? विचार से छूंछी? विजन और मिशन से नितांत अपरिचित, सैलाब की तरह उमड़ कर बह जाने वाली? न्ना!! कविता के अछोर क्षितिज को दोनों बाँहों से थामता है महीन बुनाई की तरह भीतरी तहों में बुना गया विचार! इतना सूक्ष्म और इतना अपारदर्शी कि अपनी बुनियादी ठोस पहचान खो वह संवेदना की मिट्टी में नमी सा घुल जाता है और हृदयस्पर्शी अनुगूंजें पैदा कर हर रसिक पाठक के संवेदनात्मक बोध के अनुरूप कितने-कितने व्यंजनात्मक स्वरूप ग्रहण करता चलता है.
“अंत अंत तक बची रहती है माँ में
“माँ के ज़ेवर इस तरह बिना बाँटे बंट गए
या कि
“अब अच्छा होने के नहीं
“आदमी की कभी कितनी वक़त थी
अक्सर माना जाता है कविता भावोच्छ्वास है, स्मृतियों का पुन:स्फुरण; कि नॉस्टेल्जिया, कल्पना और तरल संवेदना कविता की चमकीली त्वचा को बुनने वाले अनिवार्य घटक हैं; कि मनोवेगों के घनीभूत दबाव का नैसर्गिक उद्गार है कविता. लेकिन क्या इतनी भर है कविता? विचार से छूंछी? विजन और मिशन से नितांत अपरिचित, सैलाब की तरह उमड़ कर बह जाने वाली? न्ना!! कविता के अछोर क्षितिज को दोनों बाँहों से थामता है महीन बुनाई की तरह भीतरी तहों में बुना गया विचार! इतना सूक्ष्म और इतना अपारदर्शी कि अपनी बुनियादी ठोस पहचान खो वह संवेदना की मिट्टी में नमी सा घुल जाता है और हृदयस्पर्शी अनुगूंजें पैदा कर हर रसिक पाठक के संवेदनात्मक बोध के अनुरूप कितने-कितने व्यंजनात्मक स्वरूप ग्रहण करता चलता है.
नरेंद्र पुण्डरीक का कविता संग्रह ‘इन हाथों के बिना’ पढ़ रही हूँ और सोच रही हूँ कि कविता में चुपचाप दबे पाँव कहानी घुस आए और दोनों तेल पानी की तरह अलग-अलग फैलकर तकरार करने की बजाए सगी सहेलियों सी गलबहियां डाल इठलाने लगें, तो?
सवाल पेचीदा है. इसलिए कि कोई एक सुनिश्चित जवाब मेरे पास नहीं. कहानी की उंगली थाम कुछ कविताएँ झूमती हुई आती हैं और अपनी लय में बाँध मुझ मंत्र मुग्धा को लिए जाने कहाँ-कहाँ उड़ी चली चलती हैं. मैं चकित भाव से अपने को उड़ते-तिरते भी देखती हूँ, और तितली की तरह वहीं बैठ हर पंखुड़ी का पराग-कण चूसते हुए भी देखती हूँ. न, आलोचक की भूमिका में उतर बिलकुल नहीं कहूंगी कि विषयवार पाँच खंडों में बंटी ये कविताएँ कवि की संवेदना के विस्तृत फ़लक, सरोकारों के अनंत क्षितिज और चिंता के विविध आयामों की साक्षी हैं.
कविता के क्राफ़्ट से पूरी तरह अनजान मैं बेसुध चमत्कृत पाठक बस यही जानती हूँ कि कविता के भीतर कुछ भाव-तरंगें होती हैं जो पाठक की संवेदनात्मक चेतना से टकराकर प्रभाव तरंगों में तब्दील हो जाती हैं. मैं इन प्रभाव तरंगों पर सवार हूं और संग्रह के पहले खंड ‘जहाँ जली थी माँ की फूल जैसी देह’ को पांचों इन्द्रियों समेत जी रही हूँ. देखती हूँ, कवि की माँ को हल्के से परे ठेल मेरी अपनी माँ कविता के भीतर धीरे-धीरे उतरने लगी है- अपनी उन्हीं शाश्वत चिंताओं और केयर के साथ कि स्वयं टूटते-छीजते हुए भी
“अंत अंत तक बची रहती है माँ में
बेटे को थामने की ताकत.”
संतान के लिए माँ अक्षय रक्षा कवच है, जन्म के साथ अनायास भाव से मिला. लेकिन अनायास मिला हर वरदान चूंकि अपनी क़ीमत का इश्तिहार साथ लेकर नहीं आता, इसलिए माँ के चले जाने के बाद निष्कवच होने की प्रतीति अमूमन हर इंसान के भीतर गहराती असुरक्षा बोध को नॉस्टेल्जिया में तब्दील कर देती है; और अपनी नालायकी से उपजे अपराध बोध को अश्रु विगलित श्रद्धांजलि में. कविता-कहानी में दिवंगत माँ-पिता का स्मरण और उस स्मरण में अपने आँसू /उद्गार मिलाकर पाठक का तादात्मीकरण दरअसल कहीं उन सच्चाइयों के संत्रास से स्वयं को मुक्त करने की सामूहिक कोशिश हैं कि
“माँ के ज़ेवर इस तरह बिना बाँटे बंट गए
अब रह गई है माँ जो बाँटे नहीं बंटती है
छुटही गाय सी कहीं नहीं अंटती है.”
या कि
“बार-बार हमें कंधे बदलते देख
हमारे कंधों से उतर गई माँ
और माँ के कंधों से उतरते ही
उतर गए हमारे कंधे.”
माँ को याद करना दरअसल अपने भीतर बचे संवेदनात्मक अवशेषों की आंच को कुरेदकर जिलाए रखना भी है क्योंकि माँ नि:स्वार्थ ममत्व, समर्पण, परवाह और धैर्य का पर्याय हैं- ऐसी नियामतें जो प्राणी को सही मायनों में ‘मनुष्य’ बनाती हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि कवि की तरह हर संवेदनशील प्राणी को माँ के जाने पर लगे
“बोली चली गयी
शब्द चले गये
आंगन में आने वाली चिड़ियाँ चली गई
उड़ गये पाहुन को बुलाने वाले कौवे.”
या शायद सच यह हैं कि माँ जाने के बाद भी अपने बच्चों के भीतर धड़कती ज़िंदगी से जाती नहीं. गड़ी रहती है वहीं नाभि-नाल संबंधों को पृथ्वी का एक मात्र सत्य बनाती. इसीलिए तो काल का ग्रास बन कर भी वह ज़िंदा रहती है स्मृतियों में, स्वप्न में, साँस में, धड़कन में, व्यक्त-अव्यक्त हर अभिव्यक्ति में-
“माँ की राख चौथे दिन भी गरम थी
दूध की तरह है
जिसे
महसूस कर रही थी हमारी उंगलियाँ.”
उफ़! न चाहते हुए भी मैं नॉस्टेल्जिया में बह गई हूँ. लेकिन विचार तत्व नॉस्टेल्जिया को किनारे की रेत पर सिर पटककर मर मिटने वाली लहर का रुख नहीं लेने देता; उसे आत्मविश्लेषण का कारगर सोपान बनाता है ताकि अपने समय को गढ़ सके इंसान. ज़ाहिर है इसलिए कवि भी अज्ञेय की तरह दुख की सत्ता को स्वीकार करते हैं जो सबको मांजता है और एकान्त में संवाद कर भीतर की ग्रंथियों और समय-व्यवस्था का निर्माण करने वाले पूर्वाग्रहों को प्रश्नांकित करना सिखाता है. इस पूरी प्रक्रिया में वर्ग, जाति, धर्म, लिंग के नाम पर विषमतामूलक एवं विभाजनपरक सिद्धांतों-शास्त्रों का निर्माण करने वाली वर्चस्ववादी ताकतों पर तो चोट है ही, हिन्दू के उग्र हिंदुत्व, राष्ट्र की उग्र राष्ट्रवाद में परिणत होते चले जाने की क्रमिक पतन-यात्रा का रेखांकन भी है.
“उनके बड़े होने की जो परिभाषा
हमें बताई गई
वह हमारे गले से कभी
नीचे नहीं उतरी
लेकिन हमें बिना किसी सीढ़ी के
आदमी होने के नीचे
और नीचे उतारा जाता रहा
और वे चढ़ते रहे
बिना किसी सीढ़ी के ऊपर और ऊपर.”
नरेंद्र पुंडरीक की कविताओं में दर्द आक्रोश का रूप लेता है और आक्रोश ठंडे तटस्थ चिंतन का जो व्यवस्था से पहले व्यक्ति के भीतर पलती घृणा, बर्बरता, उन्माद को निशाने पर लेता है, वरना कौन नहीं जानता कि अपनी-अपनी निजी विशिष्टताओं के बावजूद भारत के बहुलतावादी चरित्र में सहअस्तित्व और सहकारिता भाव भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाता आया है. धर्म और जाति की संकीर्ण राजनीतिक करने वाले चूंकि संख्या बल को ही हर सफलता और शीर्ष स्थिति का पैमाना मानते हैं, इसलिए कवि का नॉस्टैल्जिक होकर उन ‘अच्छे दिनों’ को याद करना बेहद स्वाभाविक लगता है जब
“हिन्दू इतना हिन्दू नहीं बना था
न मुसलमान इतना मुसलमान बना था
धर्म की हालत तो यह थी कि
उसे अपने को चिन्हित करने के लिए
कहीं अनुकृति ही नहीं मिल रही थी.”
नरेन्द्र पुंडरीक की कविताएँ उस सहृदय पाठक को संबोधित हैं जो ‘अपना सब कुछ देकर जीवन के लिए प्रेम ख़रीदता है’. लेकिन वे पाते हैं कि प्रेम तो हमारे दैनंदिन जीवन, व्यवहार और संबंध सब जगह से ग़ायब है. दाम्पत्य प्रेम के नाम पर औसत भारतीय अपने परिवार-समाज में जो देखता-पाता है, वह संबंध पर टिकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अनुशासन है जहाँ स्त्री पत्नी/ अनुकर्ता /अनुगूँज बंद कर पति की परिधि के चारों ओर घूमती है, और अपने ही दर्प में इठलाता पुरुष, कवि होने के बावजूद, पत्नी के मानवीय वजूद पर ध्यान नहीं दे पाता. स्त्री की संपूर्ण शख़्सियत का पुरुष की ज़रूरतों को पूरा करने वाले माध्यम के रूप में तब्दील किया जाना प्रेम ही नहीं मनुष्यता के क्षरण का बिंदु भी है. कवि में आत्म साक्षात्कार और आत्म प्रतारणा का भाव इतना अधिक है कि वह स्वीकार करता है
मैं अक्सर कविताएँ लिखता हूँ
मेरी कल्पना में दूर दूर तक
नहीं होती मेरी पत्नी
मेरी पत्नी मेरा
न बदलता हुआ यथार्थ है
मेरी चेतना का भोथरापन है
जो रात दिन रहती है
मेरे आस पास छाया की तरह
लेकिन वह छाया ही रहती है
जीवन नहीं बन पाती मेरा.”
लेकिन कन्फेशन तो ईमानदार, उदार और महान होने की ओढ़ी हुई भंगिमाएं ही होती हैं न! या कह लें, एक रुदाली जिसका समय पर होना ‘जश्न’ में चार चाँद लगा देता है. अन्यथा क्या वजह है कि स्त्री और माँ, प्रेम और समर्पण जैसी नियामतों की दुर्दशा पर आँसू बहाने वाला संवेदनशील समाज व्यवहार में विचार, संवेदना और आचरण को केंद्र में नहीं ला पाता?
‘लाल रंग से अच्छे ख़ां की फटती थी’ और ‘दुख से कम से कम इतना तो चाहूंगा कि- ये दो खंड विघटनशील समय की शिनाख्त करते हुए धर्म और राजनीति के अमानवीय होते जाने के बाद जिन दो घटकों की ओर संकेत करते हैं, वे हैं- उपभोक्तावाद का प्रसार और पर्यावरण असंतुलन. दरअसल ये चारों ताकतें मिलकर औसत मनुष्य की ज़िंदगी को न केवल कठिन किये जा रही हैं, बल्कि उसके बोध में ही स्वार्थ को रोप कर उसे अन्य मनुष्यों से ही काट भी रही है. इसलिए कवि की यह चिंता वाजिब लगती है कि
“हमने कभी धरती के लिए
प्रार्थना नहीं की कि
धरती बनी रहे हरी भरी
न प्रार्थना की कि
नदियों में बना रहे जल
पक्षियों के लिए भी हमने
प्रार्थना नहीं की कि
वे बने रहें हमेशा धरती में
गुंजाते रहें अपनी बोली बानी का संगीत
…….
अपने सपनों की ही चिंता करते हुए
हमने शब्दों में विश्वास के बने रहने की
चिंता नहीं की कि
उन में भी वह बना रहे
ताकि आवाज़ लगाने पर
वे आ खड़े हों.”
या कि
“अब अच्छा होने के नहीं
अच्छा दिखने के दाम हैं
सो अब हर कहीं
आत्मा की घिसाई ख़त्म हो रही है.”
या
“आदमी की कभी कितनी वक़त थी
आज आदमी से ज़्यादा चीज़ों की वक़त है
चीज़ें चौबीस घंटे बिकती हैं
आदमी बिना दिहाड़ी के घर वापस लौट आता है.”
कविताओं की दुनिया से उबर कर जब प्रकृतिस्थ होती हूँ तो सोचती हूँ आख़िर इन कविताओं में ऐसा क्या है जो इन पर बात की जाए? कविता का मितभाषी होकर भी एहसास के ज़रिये संप्रेष्य अर्थ पाठक के मन में रोप देना जितना अनिवार्य है, उतनी ही ज़रूरी है वाग्विदग्धता. शब्द नहीं, झंकार; सिर्फ़ गति नहीं, लय और ताल भी. इस संग्रह में कविता अपनी पूरी फ़ार्म में , या उत्कर्ष रूप में नहीं आ पाई है, लेकिन कवि की नागरिक चेतना और अपने समय को बचाने की चिंता ज़रूर इन कविताओं को ऊँचाई देती है. समय को रचने के लिए तमाम दमन-मर्दन के बीच बचे रहने का विश्वास और रक्तबीज की मानिन्द अपने को बार-बार नवा करने का संकल्प ही इस संग्रह है की विशेषता है:
“मैं दूब की जड़ की तरह
इन्तज़ार करूँगा धरती की कोख में
आषाढ़ के बादल का.
मैं आने वाली संतति के लिए छोड़ जाऊँगा
अपने पैरों से निर्मित पगडंडियां
जो अँधेरी रातों में चमकेंगी
उनके पैरों के आगे.”
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प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा
rohini1959@gamil.com